ज़ात का बन्धन

हिंदू लोग इस क़द्र ज़ात परस्त हैं कि जिसका कुछ अंदाज़ा नहीं ज़ात का बंधन उन के लिए सबसे बड़ा बंधन है यहां तक कि अगर वो ग़ैर-ज़ात के आदमी के साथ लग जाएं तो फ़ौरन नापाक हो जाते हैं और जब तक कि वो स्नान (नहा) न कर लें नापाक रहते हैं अपने चौके में ग़ैर-ज़ात के आदमी को हर्गिज़ आने नहीं देते कुत्ता,

Bondage of Caste

ज़ात का बन्धन

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Mar 9, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9 मार्च 1894 ई॰

हिंदूओं में
 

हिंदू लोग इस क़द्र ज़ात परस्त हैं कि जिसका कुछ अंदाज़ा नहीं ज़ात का बंधन उन के लिए सबसे बड़ा बंधन है यहां तक कि अगर वो ग़ैर-ज़ात के आदमी के साथ लग जाएं तो फ़ौरन नापाक हो जाते हैं और जब तक कि वो स्नान (नहा) न कर लें नापाक रहते हैं अपने चौके में ग़ैर-ज़ात के आदमी को हर्गिज़ आने नहीं देते कुत्ता, बिल्ली और कोई दूसरा जानवर आ जाए तो कुछ मज़ाइक़ा (हर्ज) नहीं लेकिन अगर एक ग़ैर-ज़ात वाला आदमी चौके पर चढ़ गया तो वो नापाक हो गया और जब तक वो गौमाता के गोबर से लीपा न जाये उन के मतलब का नहीं रहता, उन की नापाकी गंगा जल (गंगा का पानी) के छिड़कने से भी दूर हो जाती है।

हिंदूओं में ज़ात के कई बड़े दर्जे हैं सबसे बड़ा दर्जा ब्राह्मणों का है, ज़ात के बानी ये ही लोग थे और इसलिए सबसे बड़ा दर्जा पसंद किया और बाक़ी दूसरों को अपना ग़ुलाम समझा क्योंकि सबसे बड़ी ख़राबी ज़ात की ख़ुदग़र्ज़ी है इसलिए इन लोगों ने अपने मतलब और ग़र्ज़ के लिए अपने ख़ानदान के अलावा सबको मद्धम और नख्द ज़ातों (निकम्मी ज़ातों) में मुनक़सिम (तक़्सीम) कर दिया और अपने आपको सबसे बड़ा और अफ़्ज़ल ठहरा कर अपनी पूजा करवाने लगे। हिंदू लोग ख़ुद कहते हैं कि उन की ज़ात कच्चा धागा है जो यूंही टूट जाता है अगर किसी ग़ैर-ज़ात वाले के साथ भूले से भी हुक़्क़ा या पानी पिया गया तो बस ज़ात टूट गई, गंगा जा कर और बड़ी-बड़ी रसूमात बजा लाकर फिर ज़ात में बहाल होना पड़ता है हिंदूओं की इज़्ज़त हुर्मत और बुजु़र्गी उन की ज़ात है।

एक बात जिसको उन की ज़ात रवा रखती है चाहे उनका ज़मीर और अक़्ल उस को ख़िलाफ़ और बुरा समझे लेकिन वो बात ज़रूर पूरी की जाएगी अगर बहुत सी बातों का जो हिंदूओं की ज़ात में मुरव्विज (रिवाज) हैं और वो ख़ुद भी उनके बुरे होने के क़ाइल हैं बयान किया जाये तो ये मज़्मून तवील हो जाएगा। ग़र्ज़ के ज़ात के बंधन में फंस कर हिंदू लोग अपने ज़मीर और अक़्ल के ख़िलाफ़ भी काम करते हैं और सिर्फ इसिलिए कि ज़ात का रिवाज उन को मज्बूर करता है अगर न करें तो ज़ात बिरादरी बुरा कहेगी। आर्य साहिबान ने अक्सर बातों को छोड़ने में बड़ी जवाँमर्दी की है लेकिन वो भी अक्सर ज़ात के बंधन में क़ैद हो कर आप नहीं तो मस्तूरात (औरतें) के सबब से बहुत सी ऐसी बातों में शरीक हो जाते हैं अगर्चे उन्होंने अक़्लमंद हो कर नाक़िस बातों की तर्दीद की मगर ज़ात की ज़ंजीर से निकलना उन के लिए अभी तक ज़रा मुश्किल नज़र आता है, ऐसा मालूम होता है कि वो चाहते हैं कि काबिले-नुक़्स बातों को भी छोड़ दें और साथ ही ज़ात में भी शामिल रहें चुनान्चे ऐसा ही अब तक वो करते हैं लेकिन ज़ात का बंधन उन को भी मज़बूती के साथ जकड़े रखता है।

ज़ात के ग़ुलामों पर इस बात में अफ़्सोस आता है कि वो ख़ुद मानते हैं कि आदमी सरिशत में उत्तम (आला फ़ित्रत) है बावजूद इस के वो आदमी की क़द्र कुत्ते और बिल्ली से भी कम करते हैं।

मुसलमानों में
 

अगर्चे ज़ात की इम्तियाज़ मुसलमानों में ऐसी सख़्ती के साथ नहीं पर तो भी मानी जाती है, उनमें भी ज़ात, ग़ैर-ज़ात वाले के साथ खाने पीने से टूट जाती है और फिर शामिल होने के लिए फिर कलिमा पढ़ना पड़ता है, उन में भी बानी ज़ात सबसे अफ़्ज़ल समझे जाते हैं वो सय्यद ख़ानदान है जिसकी ताज़ीम बाक़ी तमाम फ़िर्क़े बड़ी इज़्ज़त से करते हैं।

मुसलमानों में भी ज़ात के फ़िर्क़ों के इख़्तिलाफ़ के सबब से मुख़्तलिफ़ दस्तुरात व रसूमात मुरव्विज हैं और उन के पाबंद हो कर वो उन को बजा लाते हैं और आपस में छोटी बड़ी ज़ातें मानते हैं और इज़्ज़त और बेइज़्ज़ती ख़याल करते हैं। ये इस क़िस्म का ख़याल सिर्फ इस मुल्क के मुसलमानों का ज़्यादातर है शायद इसका सबब ये हो कि उनका मेल-जोल सदीयों से हिंदूओं के साथ रहा है और उन के देखा-देखी बहुत सी बातें उनमें भी रिवाज पकड़ गई हैं।

सिक्खों में

अगर्चे सिख लोग हक़ीक़त में हिंदू ही हैं लेकिन मज़्हबी अक़ीदे के लिहाज़ से उन में और हिंदूओं में बड़ा इख़्तिलाफ़ हो गया है बहुत बातों में वो हिंदूओं के साथ हिंदू हैं और बहुत बातों में वो उन से बिल्कुल अलग हैं, आम तौर से तो वो हिंदू हैं और दूसरे हिंदूओं में मिले जुले बर्ताव करते हैं लेकिन मज़्हबी एतबार से वो हिंदूओं से बिल्कुल अलैहदा हैं, उनमें आला ज़ात सोढियों की है और वो सिखों के बानीयों की औलाद हैं, इसलिए सिखों में इस की बड़ी ताज़ीम है और उन को पूजा चढ़ती है हिंदूओं में से लोग सिख हो जाते हैं और अमृत छक कर कैश (यानी बाल)

सर पर रख इस फ़िर्क़े में शामिल हो जाते हैं, अगर्चे इस मज़्हब के बानीयों ने ज़ात की इम्तियाज़ को तोड़ना चाहा था जैसा कि इन की किताब से पाया जाता है।

“न जात है न पात होती है, न जात पात होती है, न रंग है न रूप है, न रंग-रूप होता है।”

लेकिन ये इम्तियाज़ टूट न सका बल्कि जैसा हिंदूओं के फ़िर्क़े हैं वैसा सिखों के भी हैं और वो भी ज़ात के बंधन में क़ैद हैं।

यहूदीयों में
 

यहूदी क़ौम में भी जो मुल़्क-ए-कनआन में थी एक क़िस्म की ज़ात की अलैहदगी थी और दीगर अक़्वाम में से वो लोग एक खासतौर से अलग किए गए थे और मुख़्तलिफ़ रीत व रसूम के पाबंद थे और अगर्चे इस क़िस्म के दस्तुरात (दस्तूर की जमा) जैसा कि मुन्दर्जा बाला ज़ातों में मुरव्विज हैं उनमें से न थे, ताहम वो एक ख़ास सबब से दूसरी क़ौमों से अलग किए गए थे इन का बर्ताव दूसरी ग़ैर-अक़्वाम के साथ न था और दूसरी कौमें इन की नज़रों में ज़लील और हक़ीर थीं और ये मह्ज़ इसलिए था कि वो दूसरी बुत-परस्त अक़्वाम में ख़लत-मलत (दरहम-बरहम) हो कर उनकी बुत-परस्ती में शामिल न हो जाएं वर्ना ऊंच और नीच के ख़याल से न था, लिहाज़ा ये एक ज़ाती फ़र्क़ नहीं था बल्कि क़ौम की अलैहदगी के लिए हिक्मत इलाही का काम है।

मसीहीयों में

मसीहीयों में ज़ात की कोई तमीज़ नहीं और ज़ात जैसी कोई इम्तियाज़ का जैसा कि और क़ौमों में है ईसाईयों में शुरू से ज़िक्र नहीं क्योंकि ज़ात हुक़ूक़ को एक महदूद लोगों के लिए हद बांधती है और इस से बाहर जा नहीं सकती, इसलिए ये अज़्-खु़द बड़ी नुक़्स वाली तफ़ावुत (दूरी, फ़र्क़) है और रुहानी हुक़ूक़ के लिए ऐसी इम्तियाज़ बईद-अज़ अक़्ल (समझ में न आने वाला) है क़ुदरती बातों में किसी शख़्स को कोई रुकावट किसी ज़ात के फ़र्क़ से नहीं है और न हो सकती है। मसलन किसी हिंदू को आला ज़ात होने के लिए क़ुदरती नेअमतों मसलन पानी, हवा और आग वग़ैरह के इस्तेमाल की ख़ास इजाज़त नहीं और किसी अदना ज़ात वाले हिंदू को इन क़ुदरती बरकतों की कोई किसी चीज़ के लिए ख़ास मुमानिअत नहीं बल्कि सबको यकसाँ हक़ हासिल है। इस तरह पर रुहानी बरकतों में बिला इम्तियाज़ ज़ात के हर फर्द-ए-बशर को यकसाँ समझ कर बराबर हक़ होना चाहिए, इसलिए ईसाईयों में कोई आला ज़ात या अदना ज़ात नहीं बल्कि सब एक ईमान और एक नजात के मुतक्किद हैं और हक़ीक़तन कोई छोटाई और बड़ाई नहीं।

इसलिए ये मज़्हब आम तौर से सबको बिला रोक-टोक खुल्लम खुल्ला बुलाहट आम्मा से दावत करता और जो अपने गुनाहों से तौबा कर के और ज़ात जैसे फ़ुज़ूल और रद्दी वस्वसों (बुरे ख़यालों) और मुख़म्मसों (झगड़ों) को छोड़ के सच्चे दिल से मसीह पर ईमान लाता है चाहे वो हिंदूओं की आला ज़ात में से हो या अदना ज़ात में से चाहे मुसलमानों या सिखों, चौहड़ों और चमारों में से हो मसीह में पैवंद हो कर मसीही कलीसिया के बड़े शजर की एक डाली बनता और इस को किसी ख़ास ज़ात के लिहाज़ से नहीं देखा जाता बल्कि मसीह का शागिर्द समझ कर मसीही जमाअत में शामिल कर लिया जाता है। इसी ख़ुसूसीयत से मसीही मज़्हब ब-मुक़ाबला दिगर (दूसरे) मज़ाहिब के अपने में मिंजानिब अल्लाह होने का एक सबूत रखता है।

अव़्वल

खाने और पीने के फ़र्क़ से चूँकि नजात का दरवाज़ा तमाम बनी-आदम के वास्ते खुला है और ख़ुदा की बख़्शिश आम है ख़ास नहीं, इसलिए हिंदू, मुसलमान, सिख, चोहड़ और चमार सब नजात के बराबर ख़्वाहिशमंद हैं, सिर्फ मसीही मज़्हब इस ख़्वाहिश को पूरा करता है और इन में से हर ज़माने में बेशुमार लोग मसीही होते हैं, लेकिन बाअ़्ज़ जो ज़ातों की पाबंदी की निस्बत बड़े थे, मसीही हो कर भी अपनी अगली बड़ाई को जताने लगते और उन लोगों के साथ जो अदना ज़ात में से मसीही हुए खाना खाना ऐब तो नहीं समझते पर परहेज़ करते हैं, और ज़ियाफ़तों के मौकों पर उन को पर्हेज़ के साथ अलग समझते और इस तरह से मसीहीयों की दिल-शिकनी करते और ख़ुदावन्द के हुक्म को भूल जाते हैं और हुक़्क़ा पानी में भी अदना ज़ात से ईसाई हुए भाईयों को शरीक नहीं करते, ये बड़ी कमज़ोरी का निशान है और मसीही जमाअत में ये हर्गिज़ नहीं होना चाहीए।

दोम

शादी ब्याह के फ़र्क़ से जो आला ज़ातों से ईसाई हुए कभी कभी उनमें से कोई-कोई अपने लड़के और लड़कीयों की शादी के लिए दिक़्क़त (मुश्किल) देखता है, वो अपने मुवाफ़िक़ किसी आला ज़ात से ईसाई हुए शख़्स की तलाश करता है और अगर नहीं मिलता तो शादी न करना तो मंज़ूर लेकिन किसी अदना ज़ात से ईसाई हुए शख़्स के साथ ऐसा बंदो बस्त नहीं करता, अगर कोई कहे कि नहीं ऐसा नहीं तो मैं कह सकता हूँ कि ऐसा मेरे देखने में आया है और मैं इस को ईसाईयों में बड़ी कमज़ोरी समझता हूँ।

सोम

ग़ैर-क़ौमों के ज़ाती लक़ब अपने नाम साथ लगाने से बाअ़्ज़ ईसाई जो आला ज़ातों में से ईसाई हुए, अक्सर अपने नामों के साथ अल्फ़ाज़ सय्यद, पण्डित, मौलाना, शेख़, बशिष्ट, तहापर वग़ैरह-वग़ैरह लगाए रखते हैं जो मेरी समझ में कुछ ज़रूरी नहीं। इन से सिवा इस के कि ये ज़ाहिर हो कि वो आला ज़ात में से ईसाई हुए और क्या मु’तसव्वर (तसव्वुर करने वाला) है और जिस हाल में कि हम इन ज़ातों को आला नहीं समझते तो हम क्यों उन पर फ़ख़्र करें? अगर हम फ़ख़्र करें तो सिर्फ मसीही होने पर करें क्योंकि मसीही होना एक बड़ी बात है न कि सय्यद, ब्राह्मण, खत्री और मुसलमान होना।

चहारुम

ग़ैर-क़ौमों के साथ गुफ़्तगु करते वक़्त चूँकि ज़ात का इस मुल्क में बहुत रिवाज है और अस्ना (वक़्फ़ा दर्मियान) गुफ़्तगु में सबसे पहले ये ज़िक्र आता है कि आपकी क्या ज़ात है? और जब कहो कि ईसाई तो पूछते हैं कि पहले क्या ज़ात थी? तो अक्सर अपनी ज़ात छुपा के आला ज़ात बताते हैं और गुनाह में गिरफ़्तार होते हैं, क्योंकि अगर नीच ज़ात का ज़िक्र करें तो गुफ़्तगु करने वाले की नज़र में बेइज़्ज़त हों, ये भी बड़ी भारी कमज़ोरी है।