Rev William Goldsack

Australian Baptist Missionary and Apologist
1871–1957

इस्लाम में क़ुरआन

فَسْــَٔـلُوْٓا اَهْلَ الذِّكْرِ اِنْ كُنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْن

क़ुरआन कि सेहत व दुरुस्ती कि तहकी़क़

अज़

पादरी डब्ल्यू गोल्डसेक साहब

पंजाब रिलिजस बुक सोसायटी

अनारकली-लाहौर

1952 ईस्वी

इस्लाम में क़ुरआन

तमहीद

दीन-ए-इस्लाम की बुनियाद क़ुरआन शरीफ़ पर है । अहले इस्लाम इस किताब की बदरजा गायत ताज़ीम व तकरीम करते हैं और उन के दर्मियान क़ुरआन शरीफ़ बड़े बड़े आला अलक़ाब से मुलक्क़ब भी है। चुनांचे अज्जुम्ला ,फुर्क़ान, क़ुरआन-ए-मजीद, क़ुरआन शरीफ़ और अल-किताब बहुत बड़े बड़े अलक़ाब हैं । तमाम दुनिया के मुसलामानों का ये एतिक़ाद है कि "क़ुरआन ग़ैर-मख्लूक़ कलाम-ए-ख़ुदा है" जो उस ने जिब्राईल फ़रिश्ते की मार्फ़त अपने बंदे और रसूल हज़रत मुहम्मद पर नाज़िल फ़रमाया।बहुतों का ख़याल है कि क़ुरआन की अरबी बेनज़ीर और मुम्तना उल-मिसाल है। हज़रत मुहम्मद ने ख़ुद कुफ़्फ़ार से कहा कि अगर तुम क़ुरआन को कलाम-अल्लाह तस्लीम नहीं करते और इख्तरा-ए-इन्सानी जानते हो तो तुम भी इस की मानिंद बना कर दिखलाओ। चुनांचे सुरह बक़रा की 23 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

وَإِن كُنتُمْ فِي رَيْبٍ مِّمَّا نَزَّلْنَا عَلَى عَبْدِنَا فَأْتُواْ بِسُورَةٍ مِّن مِّثْلِهِ وَادْعُواْ شُهَدَاءكُم مِّن دُونِ اللّهِ إِنْ كُنْتُمْ صَادِقِينَ

यानी अगर तुम शक में हो उस कलाम से जो उतारा हमने अपने बंदे पर तो लाओ एक सूरत इस किस्म की और बुलाओ जिनको हाज़िर करते हो अल्लाह के सिवा अगर तुम सच्चे हो"।

बेशक इस में तो कलाम नहीं कि क़ुरआन के बाअज़ मुक़ामात की अरबी निहायत ही उम्दा और सुस्ताह है और तमाम जहान के मुसलमान उसे निहायत इश्तियाक़ से गा-गा कर पढ़ते हैं।

तमाम क़ुरआन को हिफ़्ज़ करना कार-ए-अज़ीम और कार-ए-सवाब ख़याल किया जाता है। अगर मतन क़ुरआन पर बग़ौर नज़र की जाये तो साफ़ मालूम हो जाता है कि मज़ामीन मुन्दरिजाह क़ुरआन बहुत ही मुख़्तलिफ़ व मुतशत्ततह हैं लेकिन उस में ज़्यादा तर यहूदी और मसीही अदयान का ज़िक्र है । इन अदयान के बारे में जो कसीर-उल-तादाद हवालेजात पाए जाते हैं इन से साफ़ अयाँ है कि हज़रत मुहम्मद ने अपने तेईं किसी नई मिल्लत का बानी इस क़दर क़रार नहीं दिया जिस क़दर कि पुराने इब्राहिमी दीन का फैलाने वाला। इलावा-बरें आँहज़रत ने दीन-ए-यहूद और दीन-ए-ईसवी के बारे में जो कुछ बयान किया है यहूद नसारा की किताबों के हक़ में जो शहादत दी है इस से बकमाल सराहत ये नतीजा निकलता है कि क़ुरआन, तौरेत व इंजील की तंसीख़ नहीं बल्कि ताईद व तस्दीक़ करता है। क़ुरआन में ऐसी आयात बकसरत मिलती हैं जिनमें तौरेत व इंजील की बड़ी तारीफ़ व तौसीफ़ की गई है और उन को ईमान व इंक़ीयाद की हक़दार क़रार दिया है। लेकिन बड़े ताज्जुब की बात है कि बा-अन्हुमा ज़माना-ए-हाल के मुसलमान बिलाइत्तिफाक़ इन किताबों को मुहर्रफ़ यानी तहरीफ़ शूदा और पाया एतबार से गिरी हुई ख़याल करते हैं । इस का सबब अज़हर-मिन-श्शम्स है क्योंकि अगर मसीही और मुहम्मदी कुतुब-ए-दीन का बग़ौर मुताला व मुक़ाबला किया जाये तो बख़ूबी ज़ाहिर हो जाएगा कि क़ुरआन बावजूद यक कतुब-ए-साबिक़ा का मुस्दक़ होने का मुद्दई है उन की तालीमात की बहुत मुख़ालिफ़त करता है । पस अहले इस्लाम ने मजबूरन मुनासिब जाना कि इस मुख़ालिफ़त का कोई माक़ूल सबब तराशें चुनांचे उन्हों ने ये कहना शुरू कर दिया कि तौरेत व इंजील तहरीफ़ शूदा हैं । अगरचे ज़माना-ए-हाल के मुसलामानों ने कभी इस अम्र पर ग़ौर नहीं किया कि जब रसूल अरबी ने अपनी फ़साहत-ओ-बलाग़त से अहले-अरब के दिलों को खींच लिया था उस वक़्त से अब तक क़ुरआन में कुछ तहरीफ़ व तख़रीब वाक़ेअ हुई या नहीं तो भी अगर अरबी इल्म-ए-अदब व तवारीख़ से थोड़ी सी वाक़फ़ीयत भी हासिल हो तो ये राज़ साफ़ मुनकशिफ़ हो जाता है और यह हक़ीक़त निहायत वाज़ेह तौर पर अयाँ हो जाती है कि मौजूदा क़ुरआन फ़िल-हक़ीक़त हरगिज़ हरगिज़ बिल्कुल वही और बे कम व कास्त नहीं है जो कि हज़रत मुहम्मद ने अपने मोमिनीन को सिखाया था । इस रिसाले में हम इस हक़ीक़त को बड़े-बड़े मुसन्निफ़ीन व मुफ़स्सरिन-ए-इस्लाम के अक़्वाल और उनकी तहरीरात से साबित करेंगे कि हज़रत मुहम्मद के वक़्त से लेकर क़ुरआन की इस क़दर तहरीफ़ व तख़रीब और कांट छांट होती चली आई है कि अब उस को बिल्कुल सही व सालीम और बिल्कुल आँहज़रत का तालिमकर्दाह क़ुरआन तस्लीम करना अम्रे मुहाल है ।

बाब अव़्वल

हफ़्त क़िरअत-ए-क़ुरआन

हज़रत मुहम्मद ने तमाम क़ुरआन एक वक़्त पर मजमूई सूरत में यक-बारगी पेश नहीं किया बल्कि हस्बे-मामूल और हस्बे-ज़रूरत थोड़ा थोड़ा करके सुनाया और इस तरह से इस की तब्लीग़ में क़रीबन तेईस 23 साल लगे फिर यह बात भी क़ाबिल लिहाज़ है कि आँहज़रत के पहले मोमिनीन ने सब का सब कलमबंद नहीं किया । बाअज़ हिस्से हिफ़्ज़ किए गए और बाअज़ खजूर के पत्तों, पत्थर की तख़्तीयों और चमड़े वग़ैरा पर लिखे गए । थोड़े ही अर्से में सख़्त इख्तलाफ़ात क़ायम हो गए और अहादीस से मालूम होता है कि क़िरअत-ए-क़ुरआन में बड़े बड़े तबाही ख़ेज़ इख्तिलाफ़ात पैदा हो गए । ये इख्तिलाफ़ (जैसा कि बाअज़ ख़ुश एतिक़ाद मुसलमान ख़याल करते हैं) महज़ तलफ़्फ़ुज़ ही के इख्तिलाफ़ नहीं थे । अहादीस की निहायत मशहूर किताब मिश्कात-अल-मसाबीह के एक बाब दरबाराह फ़ज़ाइल अल-क़ुरआन में यूं मर्क़ूम है :-

أَخْبَرَنَا أَبُو الْحَسَنِ الشِّيرَزِيُّ ، أَخْبَرَنَا زَاهِرُ بْنُ أَحْمَدَ ، أنا أَبُو إِسْحَاقَ الْهَاشِمِيُّ ، أَخْبَرَنَا أَبُو مُصْعَبٍ ، عَنْ مَالِكٍ ، عَنِ ابْنِ شِهَابٍ ، عَنْ عُرْوَةَ بْنِ الزُّبَيْرِ ، عَنْ عَبْدِ الرَّحْمَنِ بْنِ عَبْدٍ الْقَارِئِ ، أَنَّهُ قَالَ : سَمِعْتُ عُمَرَ بْنَ الْخَطَّابِ ، يَقُولُ : سَمِعْتُ هِشَامَ بْنَ حَكِيمِ بْنِ حِزَامٍ يَقْرَأُ سُورَةَ الْفُرْقَانِ عَلَى غَيْرِ مَا أَقْرَؤُهَا ، وَكَانَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَقْرَأَنِيهَا ، فَكِدْتُ أَنْ أَعْجَلَ عَلَيْهِ ، ثُمَّ أَمْهَلْتُ حَتَّى انْصَرَفَ ثُمَّ لَبَّبْتُهُ بِرِدَائِهِ ، فَجِئْتُ بِهِ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ ، فَقُلْتُ : إِنِّي سَمِعْتُ هَذَا يَقْرَأُ سُورَةَ الْفُرْقَانِ عَلَى غَيْرِ مَا أَقْرَأْتَنِيهَا ، فَقَالَ لَهُ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ : " اقْرَأْ " , فَقَرَأَ الْقِرَاءَةَ الَّتِي سَمِعْتُهُ يَقْرَأُ ، فَقَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ : " هَكَذَا أُنْزِلَتْ " ، ثُمَّ قَالَ لِي : " اقْرَأْ " فَقَرَأْتُ ، فَقَالَ : " هَكَذَا أُنْزِلَتْ ، إِنَّ هَذَا الْقُرْآنَ أُنْزِلَ عَلَى سَبْعَةِ أَحْرُفٍ ، فَاقْرَءُوا مَا تَيَسَّرَ مِنْهُ " . هَذَا حَدِيثٌ مُتَّفَقٌ عَلَى صِحَّتِهِ ، أَخْرَجَهُ مُسْلِمٌ

"यानी उमर इब्ने खत्ताब ने कहा कि मैंने हिशाम इब्न हकीम इब्न हिज़ाम को सुरह फुर्क़ान पढ़ते सुना । इस का पढ़ना इस से मुख़्तलिफ़ था जो मैं पढ़ता था और जो मुझे रसूलुल्लाह ने सीखाया था । पहले तो मैं ने चाहा कि उसे फ़ौरन रोक दूं फिर मैंने उसे आख़िर तक पढ़ने दिया। इस का दामन पकड़ कर उसे रसूलुल्लाह के पास ले आया और कहा कि या रसूलुल्लाह मैंने इस आदमी को एक और ही तौर पर सुरह फुर्क़ान पढ़ते सुना है । जो कुछ आपने मुझे सिखाया है इस का पढ़ना इस से मुख़्तलिफ़ है । तब रसूल ने मुझसे कहा उसे छोड़ दो । फिर उस से कहा पढ़ो । इस ने इसी तरह पढ़ा जिस तरह मैंने उसे पढ़ते सुना था। इस पर रसूलुल्लाह ने कहा ऐसा ही नाज़िल हुआ है । फिर मुझ से कहा तुम भी पढ़ो । फिर जब मैं पढ़ चुका तो आप ने फ़रमाया कि इस तरह भी नाज़िल हुआ है । क़ुरआन हफ़्त क़िरअत में नाज़िल हुआ था। जिस तरह तुमको आसान मालूम हो उसी तरह पढ़ो ।“

हफ़्त क़िरअत क़ुरआन के बारे में बहुत सी अहादीस हैं और उलमाए इस्लाम ने कई तरह से उन क़िरअत -ए-मुख़्तलिफ़ा का मतलब बयान करने की कोशिश की है लेकिन ताहाल किसी तरह की कामयाबी नसीब नहीं हुई । हफ़्त-ए-क़िरअत का बाहमी तख़ालुफ़ निहायत अज़ीम व ख़तरनाक था क्योंकि निसाई की मर्वी एक हदीस में यूं मर्क़ूम है :-

"उमर ने निहायत साफ़ तौर पर से हिशाम पर अफ़तर परदाज़ी का इल्ज़ाम लगाया और कहा कि तुमने क़ुरआन में बहुत से ऐसे अल्फाज़ दाख़िल कर लिए हैं जो कि रसूलुल्लाह ने हमको कभी नहीं सिखाए "।

फिर एक और हदीस है जिसका रावी मुस्लिम है । इस में मुंदरज है कि इब्न काब ने जो कि क़ुरआन के निहायत मशहूर क़ारीयों में से था दो आदमीयों को नमाज़ पढ़ते सुना जिनका क़ुरआन उस के पढ़ने से मुख़्तलिफ़ था । उस ने रसूलुल्लाह से अर्ज़ की और इस पर आँहज़रत ने फ़रमाया कि दोनों तरह दुरुस्त है। इब्न काब कहता है कि ये सुनकर मेरे दिल में ऐसी बग़ावत पैदा हुई जिसका ज़माना-ए-जाहिलीयत से ले कर कभी ख़याल भी ना हुआ था।

इन अहादीस से साफ़ अयाँ है कि आँहज़रत की हिन-ए-हयात ही में क़ुरआन कई बाहमी मुतखालिफ़ क़िरआतों में पढ़ा जा रहा था और या बाहमी तख़ालुफ़ ऐसा बड़ा था कि फ़ौरन झगड़े पैदा हो गए। बाशिंदगाने हिमस ने अलमक़दाद इब्न अलअसुद की क़िरअत की तक़्लीद की । अहले क़ुफ़ा ने इब्न मस्ऊद की और अहले बसरा ने अबू मुसा की और उन के इलावा और भी कई फ़रीक़ थे । इस के मुताल्लिक़ ये ख़याल करना दुरुस्त नहीं है । कि ये इख्तिलाफ़ अरबी मुहावरात के मुताबिक़ महज़ क़ुरआन पढ़ने ही में थे क्योंकि इस अम्र की काफ़ी शहादत मौजूद है कि ये इख्तिलाफ़ मुख़्तलिफ़ तौर से पढ़ने के इख्तिलाफ़ से बहुत बढ़कर थे । इत्तिक़ान से साफ़ मालूम होता है कि मज़कूरा बाला अस्हाब यानी उमर और हिशाम दोनों क़ुरैशी थे इस ही एक हक़ीक़त से ये नतीजा निकल सकता कि क़ुरआनी क़िरअत का इख्तिलाफ़ मुहावरात का मफ़रूज़ा इख्तिलाफ़ नहीं था । इस रिसाले के बाक़ी अबवाब में हम दिखाएँगे कि क़िरअतहाए क़ुरआन का बाहमी तख़ालुफ़ कैसा बड़ा था और उस के इख़फ़ा के लिए क्या-क्या वसाइल इस्तिमाल किए गए।

बाब दोवम

तस्दीक़ तरदीद-ए-अबू-बक्र व उस्मान

मिश्कात के तीसरे बाब से मालूम होता है कि हज़रत मुहम्मद की वफ़ात के बाद कुछ अर्से तक क़ुरआन अक्सर लोगों के ज़हन व हाफ़ज़े में था और उस की बाहम मुतखालिफ़ क़िरआतें मौजूद थीं लेकिन यमामा की मशहूर लड़ाई में बहुत से हाफ़ज़ान क़ुरआन मारे गए । इस पर उमर ने ख़याल किया कि कहीं ऐसा ना हो कि किसी और लड़ाई में कुछ और हाफ़िज़ क़त्ल किए जाए और क़ुरआन का बहुत सा हिस्सा गुम हो जाए । चुनांचे वो इस ख़याल व अन्देशे से अबू-बक्र के पास गया और उस से दरख्वास्त की कि क़ुरआन को एक किताब की सूरत में जमा करने का हुक्म जारी करे । पहले तो अबू-बक्र ने कुछ पसोपेश किया और कहा "जो काम रसूलुल्लाह ने नहीं किया मैं क्योंकर कर सकता हूँ लेकिन आख़िरकार उमर के अलहाह व इसरार के बाइस से जै़द बिन साबित कातिब-ए-रसूलुल्लाह को हुक्म दिया कि आयात-ए-क़ुरआन की जुस्तजू करके सब को जमा करे। चुनांचे जै़द इब्न साबित ने खजूर के पत्तों । सफ़ैद पत्थरों और लोगों के हाफ़िज़ों से जो कुछ मिल सका जमा किया । ये क़ुरआन ख़लीफ़ा अबुबक्र को दे दिया गया और उस की वफ़ात के बाद ख़लीफ़ा उमर के क़ब्ज़े में आया जिसने बियूगान-ए-हज़रत मुहम्मद साहिब से अपनी बेटी हफ़्सा के सुपुर्द किया ।

बुख़ारी की इस मुन्दरिजाह बाला हदीस से साफ़ अयाँ है कि पहले-पहल अबू-बक्र ने क़ुरआन को किताब की सूरत में जमा करवाया लेकिन इस ने इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत को रफ़ा करने की कोशिश नहीं की बल्कि बख़िलाफ़ उस के बुख़ारी से अयाँ है कि थोड़े ही अर्से में तखालूफ़ व तज़ाद-ए-क़िरअत बहुत बढ़ गया और आख़िरकार ख़लीफ़ा उस्मान ने लोगों के इन शुकुक को जो इस तखालिफ़त व तज़ाद के सबब से पैदा हो गए थे रफ़ाअ करने की कोशिश की जो वसाइल उस्मान ने इस्तिमाल किए वो बदर्जा गायत जाबिराना थे। चुनांचे उस ने हुक्म दिया कि क़ुरआन की एक पूरी नक़ल तहरीर करके बाक़ी तमाम नुस्खे़ जला दिये जावें । इस काम के लिए एक कमेटी मुक़र्रर की और यह क़ायदा ठहराया कि अगर शरकाए कमेटी किसी अम्र में मुख़्तलिफ़ अलराए हों तो जै़द जो मदीना का बाशिंदा था अपनी राय से दस्त-बरदार हो और आख़िरी फ़ैसला क़ुरैशी शुरकाए कमेटी या ख़ुद ख़लीफ़ा के हाथ में रहे। ख़लीफ़ा उस्मान की मुदाख़िलत का बयान अहादीस में साफ़ मुंदरज है। ख़लीफ़ा मज़कूरा की बड़ी आरज़ू थी कि क़ुरआन बिल्कुल क़ुरैश के मुहावरा यानी रसूलुल्लाह की ज़ुबान में कलमबंद किया जाये। चुनांचे मर्क़ूम है कि अली ने लफ़्ज़ ताबूत (تابوة) को मुदवर (त) (مُدور(ة)) से लिखना चाहा और दूसरों ने कशीदा (त) (کشیدہ (ت)) से ताबूत पसंद किया। इस पर ख़लीफ़ा उस्मान ने फ़ैसला किया कि मुहावरा क़ुरैश के मुताबिक़ कशीदा(त) से लिखा जाये। लेकिन तरफ़ा ये है कि लफ़्ज़ ताबूत हरगिज़ अरबी लफ़्ज़ नहीं है बल्कि उन अल्फाज़ में से एक है जो हज़रत मुहम्मद ने रब्बियों की इब्रानी ज़ुबान से लिए थे। ये लफ़्ज़ सुरह ताहा में हज़रत मूसा के क़िस्से में पाया जाता है । इस एक ही छोटे से वाक़िया से साफ़ मुतरश्शेह है कि जामआन क़ुरआन ने क़ुरआन की मक्की अरबी यानी हज़रत मुहम्मद और हज़रत जिब्राईल की ज़ुबान में कलमबंद करने में कहाँ तक कामयाबी हासिल की।

अब हम जे़ल में बुख़ारी की वो हदीस दर्ज करेंगे जिससे हज़रत उस्मान की तस्दीक़ व तरदीद की कैफ़ीयत किसी क़दर मालूम हो जाएगी । इस से नाज़रीन को बख़ूबी मालूम हो जाएगा कि इस ज़माने में मतन क़ुरआन की कैसी नाज़ुक हालत थी। इलावा-बरें इस अम्र का भी अंदाज़ा लग सकता है कि हज़रत उस्मान ने कैसे ग़ैर-मामूली और जाबिराना वसाइल और तरीक़े इख़तियार किए। चुनांचे बुख़ारी ने रिवायत की है :-

حَدَّثَنَا مُوسَی حَدَّثَنَا إِبْرَاهِيمُ حَدَّثَنَا ابْنُ شِهَابٍ أَنَّ أَنَسَ بْنَ مَالِکٍ حَدَّثَهُ أَنَّ حُذَيْفَةَ بْنَ الْيَمَانِ قَدِمَ عَلَی عُثْمَانَ وَکَانَ يُغَازِي أَهْلَ الشَّأْمِ فِي فَتْحِ إِرْمِينِيَةَ وَأَذْرَبِيجَانَ مَعَ أَهْلِ الْعِرَاقِ فَأَفْزَعَ حُذَيْفَةَ اخْتِلَافُهُمْ فِي الْقِرَائَةِ فَقَالَ حُذَيْفَةُ لِعُثْمَانَ يَا أَمِيرَ الْمُؤْمِنِينَ أَدْرِکْ هَذِهِ الْأُمَّةَ قَبْلَ أَنْ يَخْتَلِفُوا فِي الْکِتَابِ اخْتِلَافَ الْيَهُودِ وَالنَّصَارَی فَأَرْسَلَ عُثْمَانُ إِلَی حَفْصَةَ أَنْ أَرْسِلِي إِلَيْنَا بِالصُّحُفِ نَنْسَخُهَا فِي الْمَصَاحِفِ ثُمَّ نَرُدُّهَا إِلَيْکِ فَأَرْسَلَتْ بِهَا حَفْصَةُ إِلَی عُثْمَانَ فَأَمَرَ زَيْدَ بْنَ ثَابِتٍ وَعَبْدَ اللَّهِ بْنَ الزُّبَيْرِ وَسَعِيدَ بْنَ الْعَاصِ وَعَبْدَ الرَّحْمَنِ بْنَ الْحَارِثِ بْنِ هِشَامٍ فَنَسَخُوهَا فِي الْمَصَاحِفِ وَقَالَ عُثْمَانُ لِلرَّهْطِ الْقُرَشِيِّينَ الثَّلَاثَةِ إِذَا اخْتَلَفْتُمْ أَنْتُمْ وَزَيْدُ بْنُ ثَابِتٍ فِي شَيْئٍ مِنْ الْقُرْآنِ فَاکْتُبُوهُ بِلِسَانِ قُرَيْشٍ فَإِنَّمَا نَزَلَ بِلِسَانِهِمْ فَفَعَلُوا حَتَّی إِذَا نَسَخُوا الصُّحُفَ فِي الْمَصَاحِفِ رَدَّ عُثْمَانُ الصُّحُفَ إِلَی حَفْصَةَ وَأَرْسَلَ إِلَی کُلِّ أُفُقٍ بِمُصْحَفٍ مِمَّا نَسَخُوا وَأَمَرَ بِمَا سِوَاهُ مِنْ الْقُرْآنِ فِي کُلِّ صَحِيفَةٍ أَوْ مُصْحَفٍ أَنْ يُحْرَقَ قَالَ ابْنُ شِهَابٍ وَأَخْبَرَنِي خَارِجَةُ بْنُ زَيْدِ بْنِ ثَابِتٍ سَمِعَ زَيْدَ بْنَ ثَابِتٍ قَالَ فَقَدْتُ آيَةً مِنْ الْأَحْزَابِ حِينَ نَسَخْنَا الْمُصْحَفَ قَدْ کُنْتُ أَسْمَعُ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يَقْرَأُ بِهَا فَالْتَمَسْنَاهَا فَوَجَدْنَاهَا مَعَ خُزَيْمَةَ بْنِ ثَابِتٍ الْأَنْصَارِيِّ مِنْ الْمُؤْمِنِينَ رِجَالٌ صَدَقُوا مَا عَاهَدُوا اللَّهَ عَلَيْهِ فَأَلْحَقْنَاهَا فِي سُورَتِهَا فِي الْمُصْحَفِ

"यानी अनस इब्न मालिक बयान करता है कि हुज़ैफ़ा इब्न अलीमान जो कि फ़तह आरमीनीया में अहले सीरया से और आज़रबाईजान में अहले इराक़ से जंग कर चुका था और लोगों के दर्मियान तख़ालुफ़ क़िरआतहाए क़ुरआन से अज़बस परेशान ख़ातिर था उस्मान के पास आया और कहने लगा ए उस्मान उन लोगों की मदद कर इस से पेशतर कि ये लोग ख़ुदा की किताब में इख्तिलाफ़ करें जैसे यहूदी और मसीही अपनी किताबों में इख्तिलाफ़ करते हैं । इस पर उस्मान ने हफ़्सा से क़ुरआन के वो हिस्से जो उसके पास थे मंगवा भेजे और कहला भेजा कि नक़ल करके वापिस लौटा दिए जाएंगे । चुनांचे हफ़्सा ने जो हिस्से उस के पास थे भेज दिए । तब उस्मान ने जै़द इब्न साबित, अबदुल्लाह इब्न जुबैर, सईद इब्न आस और अब्द इब्न हारिस को नक़ल करवाने का हुक्म दिया और कहा कि अगर क़ुरआन के किसी हिस्से की क़िरअत के बारे में तुम में और जै़द इब्न साबित में इख्तिलाफ़ हो तो क़ुरैशी मुहावरा के मुताबिक़ लिखो क्योंकि क़ुरैश की ज़ुबान में नाज़िल हुआ है । पस उन्होंने उस्मान के फ़रमान के मुवाफ़िक़ अमल किया और जब मुतअद्दिद नुक़ूल तैयार हो गईं तो असल को हफ़्सा के पास वापिस भेज दिया । उस्मान ने तमाम ममालिक-ए-इस्लामीया में एक एक नक़ल भेज दी और हुक्म दिया कि इस के सिवा जहां कहीं जिस सूरत में क़ुरआन पाया जाये जला दिया जाये।

इब्न-ए-शहाब बयान करता है कि उस से ख़ारिजा बिन जै़द बिन साबित ने कहा कि इस ने जै़द बिन साबित को यह कहते सुना कि जब हम क़ुरआन लिख रहे थे तो सुरह अहज़ाब की एक आयत जो मैं ने रसूलुल्लाह से सुनी थी गुम हो गई। हमने उस की तलाश की और उसे हुज़ेमा बिन साबित अल-अंसारी के पास पाया । पस हमने उसे सुरह अहज़ाब में दर्ज कर दिया"।

बुख़ारी की इस हदीस से चंद उमूर बख़ूबी वाज़ेह हो जाते हैं । चुनांचे साफ़ ज़ाहिर है कि जब उस्मान ने देखा कि तख़ालुफ़-ए-क़िरआतहाए क़ुरआन दिन-ब-दिन ज़्यादा और ख़तरनाक होता जाता है तो उस ने जै़द और तीन दीगर अस्हाब को हुक्म दिया कि क़ुरआन को अज़सर नौ तालीफ़ करें। फिर इन मोअल्लिफ़िन को कई मुख़्तलिफ़ नुस्ख़ों को पढ़ कर बाअज़ की तस्दीक़ और बाअज़ की तरदीद करना था और तमाम मुक़ामात मुतनाज़ा में मक्की व कुरैशी मुहावरा को तर्जीह देना था । इस से भी साफ़ साबित होता है कि मतन क़ुरआन में बहुत सी तख़रीब व तहरीफ़ वाक़ेअ हो चुकी थी । बादअज़ां जब उस्मान तस्दीक़ व तरदीद को काम में लाकर हस्बेख़ाहिश क़ुरआन को अज़सर-ए-नौ तालीफ़ करवा चुका तो उस ने पुराने नुस्खे़ जहां तक हो सका जमा करके जला दिए । फिर नई तालीफ़ की मुतअद्दिद नुक़ूल तैयार करवा के तमाम इस्लामी ममालिक में तक़्सीम की । इस बयान से अज़हर-मीन-श्शम्स है कि जो क़ुरआन उस्मान की हिदायत से तालीफ़ किया गया और अब तक राइज है इन नुस्ख़ों से जो उस्मान के ज़माना में अरब के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में राइज थे बहुत कुछ मुख़्तलिफ़ है क्योंकि अगर यह अम्र वाक़ई ना हो तो फिर बुख़ारी की मुन्दरिजाह हदीस के मुताबिक़ ख़लीफ़ा उस्मान को बाक़ी नुस्ख़ों को जमा करके जलाने की क्या ज़रूरत थी ? इस का नतीजा ये हुआ कि अब मुसलामानों के पास वही ख़लीफ़ा उस्मान का मन माना नुस्ख़ा बाक़ी है और किसी तरह की तहक़ीक़ की गुंजाइश बाक़ी नहीं रही जिससे दर्याफ्त हो सके कि जो क़ुरआन उस्मान ने तालीफ़ करवाया। इस में और अबू-बक्र की तालीफ़ में क्या फ़र्क़ था और जो नुस्खे़ उस वक़्त अरब के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में राइज थे और बाद में जलाए गए उन में और मौजूदा क़ुरआन में कहाँ तक मुख़ालिफ़त थी । शीया लोग अक्सर उस्मान पर ये इल्ज़ाम लगाते हैं कि इस ने क़ुरआन से बहुत सी आयात जिनमें हज़रत अली और उस के ख़ानदान की अज़मत मज़कूर थी ख़ारिज कर दीं और बहुत सी दीगर तब्दीलियाँ कीं । चुनांचे फ़नसक किताब दबिस्ताँ में मर्क़ूम है कि "उस्मान ने क़ुरआन को जला दिया और उस से वो तमाम इबारात ख़ारिज कर दीं जिनमें अली और उस के ख़ानदान की बुजु़र्गी व अज़मत का ज़िक्र था"।

शीया लोगों की किताबों में इस किस्म की इबारात बकसरत पाई जाती हैं लेकिन इस रिसाला में उन के इंदिराज की गुंजाइश नहीं है । अगर नाज़रीन उन इबारात को देखना चाहें तो तसानीफ़ अली इब्न इब्राहीम अलक़ोमी, मुहम्मद याक़ूब अल कुलेनी, शेख़ अहमद इब्न-ए-अली लालित अलतबरासी और शेख़ अबू अली अलबतरासी वग़ैरा को मुताला करें। अब बुख़ारी और शीया लोगों की शहादत से शक की मुतलक़ गुंजाइश नहीं रहती बल्कि साफ़ साबित होता है । कि मौजूदा क़ुरआन हरगिज़ हरगिज़ तख़रीब व तहरीफ़ और रद्दोबदल से महफ़ूज़ नहीं रहा।

इलावा-बरें चूँकि हज़रत उस्मान ने क़ुरआन का वो नुस्ख़ा जो ख़ुद तालीफ़ करवाया था राइज किया और दीगर नुस्खे़ जहां तक दस्तयाब हो सके जमा करके सब के सब फिन्नार किए इस लिए हम ये नतीजा निकाल सकते हैं कि हज़रत उस्मान ने हफ़्त-ए-क़िरअत क़ुरआन को मंज़ूर नहीं किया और रसूलुल्लाह के इस कलाम को कि हफ़्त क़िरआतहाए मुख़्तलिफ़ा क़ुरआन सब दरुस्त-ओ-सही हैं हरगिज़ नहीं माना । हक़ीक़त तो ये है कि अगर तास्सुब से ख़ाली हो कर बनज़र इन्साफ़ इस तमाम मज़मून पर ग़ौर किया जाये तो साफ़ मुनकशिफ़ हो जाता है कि ये बाहम मुख़ालिफ़ हफ़्त क़िरअत क़ुरआन की सेहत व दुरुस्ती का अफ़साना हज़रत मुहम्मद ने नहीं बल्कि उस के बाद के मोमिनीन ने वज़ा करके शाया किया ताकि मुसलमान इस अम्र से ठोकर ना खाएं कि क़ुरआन बावजूद कलाम-उलल्लाह होने के ऐसे तज़ाद व तख़ालूफ़ से क्यों मामूर है।

फिर अली की अहादीस से ये मुआमला और भी साफ़ हो जाता है । चुनांचे मर्क़ूम है कि जब अबू-बक्र ख़लीफ़ा बना तो एक रोज़ अली उस के घर में बैठा था। अली ने अबू-बक्र से कहा कि मैंने लोगों को कलाम-उलल्लाह में कुछ मिलाते देखा है और मैं ने मुसम्मम इरादा कर लिया है कि जब तक कलाम-उलल्लाह को जमा ना करलूं सिवाए नमाज़ के वक़्त के ऊपर के कपड़े नहीं पहनूँगा"। इन अहादीस मज़कूरा बाला से निहायत सफ़ाई और सराहत के साथ अयाँ है कि इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत क़ुरआन महज़ तलफ़्फ़ुज़ ही का इख्तिलाफ़ ना था बल्कि बाअज़ लोग क़ुरआन पढ़ते वक़्त अपनी तरफ़ से इस में व तफ़रीत किया करते थे । तवारीख़ इस्लाम से मालूम होता है कि अली ने अपने मुसम्मम इरादे के मुताबिक़ अमल किया और क़ुरआन जमा कर लिया लेकिन निहायत अफ़सोस की बात है कि अली का तालीफ़ कर्दा क़ुरआन मौजूद नहीं है । इस में तो ज़रा शक व शुबहा नहीं कि अगर वह क़ुरआन अब मौजूद होता तो हम उस में और इस मौजूदा क़ुरआन में बहुत बड़ा और हक़ीक़ी इख्तिलाफ़ पाते क्योंकि लिखा है कि जब उमर ने अली से दरख़ास्त की कि अपना तालीफ़ कर्दा क़ुरआन दे ताकि दीगर नुस्ख़ों का उस के साथ मुक़ाबला करके देखें तव उस ने देने से इन्कार किया और कहा कि जो क़ुरआन मेरे पास है वो बिल्कुल सही और कामिल है और उस में दीगर नुस्ख़ों की तरह किसी तरह की तब्दीली या कमी बेशी की गुंजाइश व ज़रूरत नहीं है । मैं ये क़ुरआन अपनी औलाद को दूंगा ताकि इमाम मह्दी की आमद तक बहिफ़ाज़त तमाम रखा जाये।

बाब सूओम

क़िरअत इब्न मस्ऊद

जो क़ुरआन हज़रत उस्मान ने तालीफ़ करवाया उस की तख़रीब व तहरीफ़ के दलायल में से चंद हक़ायक़ मुताल्लिक़ा तालीफ़ इब्न मस्ऊद भी काबिल-ए-ज़िक्र हैं । मिश्कात अलमसाबीह के चौबीसवें हिस्से के बीसवीं बाब में एक हदीस मुंदरज है जिसमें रसूलुल्लाह ने दस निहायत बुज़ुर्ग वफ़ादार सहाबा के नाम बताए हैं और फ़रमाया है कि वो यक़ीनन नजात याफताह हैं । चुनांचे ये दस बुज़ुर्ग तवारीख़ में "अशरह मुबश्शरा कहलाते हैं अबदुल्लाह इब्न मस्ऊद इन्हीं में से एक था । वो निहायत बड़ा आलिम फ़ाज़िल और रसूलुल्लाह का दोस्त बयान किया गया है। चुनांचे मिश्कात में आँहज़रत की एक हदीस यूं मुंदरज है :-

حَدَّثَنَا حَفْصُ بْنُ عُمَرَ حَدَّثَنَا شُعْبَةُ عَنْ عَمْرٍو عَنْ إِبْرَاهِيمَ عَنْ مَسْرُوقٍ ذَکَرَ عَبْدُ اللَّهِ بْنُ عَمْرٍو عَبْدَ اللَّهِ بْنَ مَسْعُودٍ فَقَالَ لَا أَزَالُ أُحِبُّهُ سَمِعْتُ النَّبِيَّ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يَقُولُ خُذُوا الْقُرْآنَ مِنْ أَرْبَعَةٍ مِنْ عَبْدِ اللَّهِ بْنِ مَسْعُودٍ وَسَالِمٍ وَمُعَاذِ بْنِ جَبَلٍ وَأُبَيِّ بْنِ کَعْبٍ

यानी अबदुल्लाह इब्न उमर ने बयान किया कि रसूल सलअम ने फ़रमाया कि इन चार यानी अबदुल्लाह इब्न मस्ऊद, सालिम मौला इब्न हुज़ैफ़ा अबी इब्न काब और मुआज़ इब्न जबल से क़ुरआन सीखो"।

इस हदीस से और ऐसी ही और अहादीस से साबित होता है कि इब्न मस्ऊद आँहज़रत का वफ़ादार पैरु था और उस ने आँहज़रत से बड़ी होश्यारी से क़ुरआन सीखा था । एक और हदीस मुन्दरिजाह मुस्लिम में मर्क़ूम है कि एक दफ़ा इब्न मस्ऊद ने कहा "मुझे ख़ुदा के नाम की क़सम है कि ख़ुदा की किताब में कोई सूरत ऐसी नहीं जो में नहीं जानता और जिस के वही का मुझे इल्म नहीं। एक आयत भी ऐसी नहीं है जो मुझे याद ना हो"।

फिर एक और हदीस में इब्न मस्ऊद यूं कहता हुआ पेश किया गया है "रसूलुल्लाह के अस्हाब ख़ूब जानते हैं कि मैं इन सबसे बेहतर क़ुरआन जानता हूँ। इलावा-बरें एक हदीस हज़रत उमर से यूं मर्वी है:-

" رسول اللہ صلعمہ قال من احب ان یقراوالقران عضاً کماانزل فیلقرہ علی قراة بن ام عبد"

यानी रसूल सलअम ने फ़रमाया जो कोई क़ुरआन को वैसा ही पढ़ना चाहे जैसा नाज़िल हुआ था उसे चाहीए कि इब्न उम अब्द (अबदुल्लाह इब्न मस्ऊद) की तरह पढ़े"।

इन अहादीस मुख़्तलिफ़ा की शहादात-ए-मुतअद्दाह से साफ़ अयाँ है कि इब्न मस्ऊद की क़िरअत -ए-क़ुरआन सही क़िरअत थी और कम से कम उस वक़्त तख़रीब व तहरीफ़ और इफ़्रात व तफ़रीत से पाक थी। लेकिन बाअयहनमा एक निहायत हैरत-अफ़्ज़ा अम्र पेश आता है कि इब्न मस्ऊद हज़रत उस्मान की तस्दीक़ व तरदीद और नज़रसानी क़ुरआन का सख़्त मुख़ालिफ़ था। इस ने उस्मान के तालीफ़ कर्दा क़ुरआन को नामंज़ूर किया और अपना मक़बूज़ा क़ुरआन उसे देने से साफ़ इनकार किया । ना फ़क़त यही बल्कि जब हज़रत उस्मान ने अपने तालीफ़-कर्दा क़ुरआन को राइज करने और दीगर तमाम नुस्ख़ों को जमा करने और जलाने का हुक्म-जारी किया तो इब्न मस्ऊद ने अपने शागिर्दों यानी अहले इराक़ को फ़ौरन ये सलाह दी कि अपने क़ुरआन छुपा लेवें और जलाए जाने के लिए हरगिज़ ना दें"। चुनांचे इस ने कहा " یا اھل العراق اکتموا المصاحف التی عندکمہ وغلقھا"۔ यानी ए अहले इराक़ अपने क़ुरआन छुपालो और उन को मुक़फ़्फ़ल रखो"। लिखा है कि ख़लीफ़ा उस्मान ने इब्न मस्ऊद का क़ुरआन ज़बरदस्ती से छीन कर जला दिया और उस को ऐसी सख़्त ज़द्द-ओ-कूब की कि वो रसूलुल्लाह का सहाबी चंद ही रोज़ में मर गया । लेकिन ये हक़ीक़त हमेशा के लिए क़ायम है कि इब्न मस्ऊद ने फ़क़त उस्मान के हस्बे-ख़्वाहिश तालीफ़-कर्दा क़ुरआन को मंज़ूर करने और अपना क़ुरआन देने से इनकार किया बल्कि जो क़ुरआन इस ने रसूलुल्लाह से सीखा था उसी को पढ़ने की अपने तमाम पैरुवान को हिदायत की । ये तमाम क़ब्ज़ा इस अम्र की निहायत बय्यन दलील है कि हज़रत उस्मान का तालीफ़ कर्दा क़ुरआन इब्न मस्ऊद के क़ुरआन व क़िरअत से बहुत मुख़्तलिफ़ था क्योंकि सिवाए इस हक़ीक़त को हक़ तस्लीम करने के कोई और सबब नज़र नहीं आता कि हज़रत उस्मान ने इब्न मस्ऊद जैसे दीनदार आलिम मुतजह्हिर से ऐसी बदसुलूकी क्यों की इसी रिसाले में हम आगे चल कर दिखाएँगे कि उस्मान इब्न मस्ऊद के क़ुरआन कैसे बड़े बाहमी तख़ालुफ़ से पुर थे । इस वक़्त फ़क़त इतना कहना काफ़ी होगा कि इब्न मस्ऊद के क़ुरआन में सुरह फ़ातिहा, सुरह तलाक़ और सुरह नास तीनों नदारद थीं । ख़लीफ़ा उस्मान की ये ज़ुर्रात व बेबाकी हैरत-अफ़्ज़ा है कि इस ने रसूलुल्लाह का सिखाया हुआ क़ुरआन इस तरह से बर्बाद कर दिया और उस के एवज़ में इस से मुख़्तलिफ़ क़ुरआन तालीफ़ करके राइज किया । अगरचे हज़रत उस्मान ने अपने तालीफ़ कर्दा क़ुरआन के सिवा दीगर तमाम नुस्ख़ों को नेस्त व नाबूद करने के लिए बड़े जाबिराना वसाइल से काम लिया तो भी अहले इराक़ में सालहसाल तक इब्न मस्ऊद की क़िरअत राइज रही। चुनांचे 38 हिज्री में इब्न मस्ऊद के क़ुरआन की एक जिल्द बग़दाद में पाई गई। मुक़ाबला करने से इस में और हज़रत उम्मान वाले क़ुरआन में बहुत तख़ालुफ़ पाया गया और फ़रेब ख़ूर्दा लोगों ने बड़े जोश में आकर उसे फ़ौरन जला दिया ।

हज़रत उस्मान का क़ुरआन ना फ़क़त इब्न मस्ऊद के नुस्खे़ से मुतफ़ावत हुआ बल्कि हज़रत अबू-बक्र की तरदीद व तस्दीक़ कर्दा तालीफ़ के भी ख़िलाफ़ निकला अहादीस में मर्क़ूम है कि अबू-बक्र की वफ़ात के बाद अबू-बक्र का तालीफ़ कर्दा क़ुरआन हज़रत हफ़्सा की हिफ़ाज़त में रहा लेकिन जब वो भी वफ़ात पा गई तो मदीना के हाकिम मरवान ने इस के भाई इब्न उमर से वो क़ुरआन मंगवा कर फ़ौरन जला दिया और कहा कि :-

"अगर उस की इशाअत हो तो लोग दोनों नुस्ख़ों में बाहमी तख़ालुफ़ देखकर शक करने लगेंगे"। पस इन वाक़ियात से अज़हर-मिन-श्शम्स है कि जो क़ुरआन अब तमाम इस्लामी व ग़ैर इस्लामी ममालिक में राइज है वो हज़रत अबू-बक्र, इब्न मस्ऊद और हज़रत अली के जमा-कर्दा क़ुरआन तीनों में से एक के साथ भी मुताबिक़त नहीं रखता फ़िल-हक़ीक़त मौजूदा मुरव्वजा क़ुरआन में जैसा कि इस किताब में साबित किया जाएगा ऐसी काट छांट और तख़रीब व तहरीफ़ हो चुकी है कि अब उसे काबिल-ए-एतिमाद और काबिल क़बूल जानना और हज़रत मुहम्मद का सिखाया हुआ कामिल क़ुरआन मानना बिल्कुल नामुम्किन है।

बाब चहारुम

शहादत-ए-इमाम हुसैन बरक़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा क़ुरआन

हम पहले अबवाब में देख चुके हैं कि हज़रत उस्मान ने क़ुरआन के बाहमी तख़ालुफ़ से घबरा कर और इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत से तंग आकर निहायत जाबिराना तौर पर एक नुस्ख़ा तालीफ़ करवा के राइज किया और बाक़ी नुस्खे़ जिस क़दर दस्तयाब हो सके शोला-ए-आतिश की नज़र किए। लेकिन इस से भी मुराद बरना आई क्योंकि बावजूद इस सख़्ती व तशद्दुद के भी हफ़्त-ए- क़िरअत जारी हैं । क़ुरआन को इन क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा में पढ़ने वाले क़ारी कहलाते हैं । उनमें से बाअज़ मक्की, बाअज़ मदनी बाअज़ कूफ़ी और सीरिया के रहने वाले थे। हफ़्त-ए-क़िरअत उन्हीं के नाम से नामज़द हैं जिन्हों ने इन को राइज किया। चुनांचे जो क़िरअत क़ुरआन हिन्दुस्तान में मुरव्वज है वो आसिम या उस के शागिर्द हफ्स की क़िरअत कहलाती है। हालाँकि अरब में नाफ़ी नामी एक मदनी क़ारी की क़िरअत मुरव्वज है। जलाल उद्दीन ने अपनी मशहूर तफ़्सीर में क़ारी इमाम अबू उमर की क़िरअत की इक़्तदा की है बहुत से इख्तिलाफ़ तो महिज़ तलफ़्फ़ुज़ ही के हैं लेकिन बहुत से मुक़ामात पर बड़े बड़े इख्तिलाफात-ए-मआनी भी ताहाल मौजूद हैं। चुनांचे सुरह फ़ातिहा में याक़ूब ,आसिम, कसाई और खिलफ-ए-कूफ़ी वग़ैरा क़ारी तो मालीकी (مَالِکِ) पढ़ते हैं और बाक़ी सब के सब मलीकी (مَلِکِ) पढ़ते हैं।

अब हम साफ़ तौर से वो इख्तिलाफ़ पेश करेंगे जो मुरव्वजा मौजूदा क़ुरआन में मौजूद हैं। लेकिन मौजूदा क़ुरआन की तख़रीब व तहरीफ़ की मुफ़स्सिल मिसालें पेश करने से पेशतर हम इमाम हुसैन की मशहूर तफ़्सीर के दीबाचे से इस का एक क़ौल पेश करना चाहते हैं । चुनांचे ये बड़ा मशहूर मुफ़स्सिर लिखता है :-

"وچوں قراتِ جائز التلاوت بسیار است واختلافات قرات درحروف والفاظ بےشمار دریں اوراق ازقراة معتبر روایت بکراز امام عاصم رحمتہ اللہ علیہ دریں دیار بصفت اشتہار ورتبت اعتبار دار ثبت میگر دوبعض ازکلمات کہ حفص رابا اومخالفت است ومعنی قرآن بسبب آن اختلاف وتغر کلی مے یابدشارتے میردو"

यानी और चूँकि क़िरअतहाए जायज़ अल-तिलावत बहुत हैं और हुरूफ़ व अल्फाज़ में इख्तिलाफ़ क़िरअत बेशुमार हैं लिहाज़ा इन औराक़ में इस मुल्क की मुरव्वजा क़िरअत यानी मोअतबर क़िरअत बक्र मुसद्दिक़ा ए इमाम आसिम दर्ज की जाती है और चंद ऐसी इबारात की तरफ़ भी इशारा किया जाएगा जिनकी हफ़्ज़ मुख़ालिफ़त करता है और जिन के सबब से क़ुरआन के मआनी में एक कुल्ली तब्दीली पैदा हो जाती है"।

इस मशहूर मुफ़स्सिर कमाल-उद्दीन हुसैन के मज़कूरा बाला अल्फाज़ से साफ़ अयाँ है कि क़ुरआन में अब भी इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत मौजूद है और हुरूफ़ व अल्फाज़ में बेशुमार तब्दीलियाँ हो चुकी हैं और फ़क़त यही नहीं बल्कि वो साफ़ मानता है कि इस तब्दील व तगय्यूर व तख़रीब व तहरीफ़ से क़ुरआन के मआनी में भी तग़य्युर वाक़ेअ हुआ है। इलावा-बरें इमाम हुसैन ये भी बतलाता है कि मुख़्तलिफ़ ममालिक में क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा मुरव्वज हैं जिनमें से बाअज़ मोअतबर और बाक़ी ग़ैर-मोअतबर हैं। हिन्दुस्तान में हफ़्ज़ की क़िरअत राइज है और इमाम हुसैन दीगर क़िरअतें को इस की मुख़ालिफ़ बयान करता है । जो क़ुरआन हज़रत मुहम्मद ने सिखाया था वो तो दरकिनार हज़रत उस्मान के रिवाज क़ुरआन के बारे में भी इमाम हुसैन और दीगर उलमाए इस्लाम में से कोई भी ये नहीं बता सकता कि इन क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा में से कौनसी फ़िल-हक़ीक़त उस्मानी क़ुरआन को पेश करती है। लेकिन एक बात यक़ीनी और साफ़ तौर से नज़र आती है कि ये इख्तिलाफ़ मौजूद हैं और उन से साफ़ साबित होता है कि क़ुरआन के हक़ में ईलाही हिफ़ाज़त यानी " نحن لہ حافظون"का दावा बिल्कुल बे-बुनियाद और बे जा नाज़ है।

अहादीस के मुताला से यह मुआमला बहुत कुछ साफ़ और आसान हो जाता है और यह बात अयाँ हो जाती है कि किस क़दर इख्तिलाफ़ पैदा हुए और कितनी आयात और सूरतें बिल्कुल मफ़क़ूद हो गईं। चुनांचे हज़रत उमर ने एक हदीस यूं लिखी है :-

"ھشام یقراسورة الفرقان فقرا فیھا صروفاً لمہ یکن نبی اللہ صلعمہ اقرا فیھا۔ قلت من اقراک ھذا السورة قال رسول اللہ صلعمہ ،قلت کذبت ماکذاک اقراک رسول اللہ صلعم"

यानी हिशाम ने सुरह फुर्क़ान में चंद आयात ऐसी पढ़ें जो रसूलुल्लाह ने मुझे सिखाई थीं । मैंने कहा तुम को यह सुरह किस ने सिखाई है ? इस ने कहा रसूलुल्लाह ने। मैंने कहा तू झूट बोलता है। रसूलुल्लाह ने हरगिज़ तुझको ऐसा नहीं सिखाया। फ़िल-हक़ीक़त तवारीख़ इस्लाम में क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा क़ुरआन का बहुत ज़िक्र है। चुनांचे लिखा है कि एक मर्तबा सनाबद नामी एक क़ारी बग़दाद की जामा मस्जिद में क़ुरआन पढ़ रहा था लेकिन इस की क़िरअत वहां के क़ारीयों से मुख़्तलिफ़ थी। इस पर उसे बुरी सख़्ती से ज़िद-ओ-कूब करके क़ैदख़ाना में डाल दिया और जब वो अपनी क़िरअत से दस्त-बरदार हो गया तब उस की रिहाई हुई। इन क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा में महिज़ तलफ़्फ़ुज़ की तफ़ावुत ना थी बल्कि बाअज़ हालतों में इबारत-ए-क़ुरआनी के मआनी बिल्कुल बदल जाते थे। अब हम चंद ऐसी इबारात पेश करेंगे जो इमाम हुसैन, बैज़ावी और दीगर रासख़ीन उलमाए इस्लाम ने अपनी अपनी तसानीफ़ में ज़िक्र किया है।इमाम हुसैन कि मशहूर व माअरुफ़ तफसीर में मर्कुम है कि सुरह अम्बिया के पहले रुकूअ में हाल कि मुरवज्जह क़िरअत के मुताबिक लिखा है "قال ربی یعلمہ" यानी हज़रत मुहम्मद ने कहा मेरा रब जानता है” लेकिन बक्र कि क़िरअत के मुताबिक पढना चाहिए " قل ربی یعلمہ" यानी “ ए मुहम्मद कह मेरा रब जानता है” यह मिसाल मतन ए क़ुरआन में एसा तखालुफ़ पेश करती है जिस से मआनी बिल्कुल बदल जाते हैं I एक क़िरअत के मुताबिक खुदा हज़रत से फरमाता है कि “मेरा रब जानता है” दूसरी के मुताबिक हज़रत मुहम्मद कुफ्फार से यूँ कहते हुए पेश किये जाते हैं “मेरा रब जानता है” इस किस्म कि बहुत सी मिसालें हैं लेकिन इमाम हुसैन के बयान के मुताबिक हम एक मिसाल और पेश करते हैं सुरह अहज़ाब के पहले रुकूअ में मर्कुम है :-

"النَّبِيُّ أَوْلَى بِالْمُؤْمِنِينَ مِنْ أَنفُسِهِمْ وَأَزْوَاجُهُ أُمَّهَاتُهُمْ

“यानी नबी मोमिनीन के लिए उनकी जानो से अजीज़तर है और उस कि अज्वाज़ उनकी माँए हैं” लेकिन इमाम साहिब बतलाते हैं कि उबी के क़ुरआन और इब्न मसउद कि क़िरअत के मुताबिक इस इबारत के साथ और ज़ाएद अल्फाज़ मिलाने पढते हैं यानी “وھواب لھمہ “ मुहम्मद उनके बाप हैं” अब बखूबी समझ सकते हैं कि इब्न मसउद ने अपना क़ुरआन उस्मान को देने से क्यों इन्कार किया I उस के क़ुरआन कि हज़रत मुहम्मद ने खुद बहुत तारीफ़ कि थी लेकिन मौजूदा क़ुरआन में यह ज़ायेद अल्फाज़ नहीं हैं I पस जब अहले इस्लाम इन हक़ीकी और यकीनी इयुब को क़ुरआन में पा कर भी उसे पढते और एतेक़ाद और ईमान रखते हैं तो किस दलील से इंजील को पढने से मअयूब समझते हैं और क्योंकर ख्याल करते हैं कि उसकि बाज़ इबारत में तहरीफ़ और तब्दीलियाँ हो गई हैं I

बाब पंजुम

शहादत-ए-बैज़ावी बरक़रातहाए मुख़्तलिफ़ा क़ुरआन

जिन्हों ने मशहूर-ओ-मारूफ़ आलिम वफ़ा ज़ुल क़ाज़ी बैज़ावी की तफ़ासीर को पढ़ा है वो ख़ूब जानते हैं कि इस ने भी कई नुस्खाहाए क़ुरआन में बाहमी तख़ालुफ़ ज़ाहिर किया है। चुनांचे हम जे़ल में इस फ़ाज़िल मुफ़स्सिर की तसानीफ़ से चंद मिसालें पेश करेंगे।

ये अम्र अज़बस हैरत अफ़्ज़ा है कि क़ुरआन की पहली सुरह में जिसके मुहासिन व मनाक़ीब हर वक़्त उलमाए इस्लाम का विर्द ज़ुबान हैं और जिसे हर एक सच्चा मुसलमान अपनी तमाम रोज़ाना नमाज़ों में पढ़ता है। इख्तिलाफ़ क़िरअत मौजूद है और इस इख्तिलाफ़ ने उलमाए इस्लाम को सख़्त मुश्किल में डाल रखा है। चुनांचे क़ाज़ी बैज़ावी ने लिखा है कि पांचवीं आयत में बाअज़ नुस्ख़ों में "सिरात" (صراط) और बाअज़ में "सरात" (سراط) मुंदरज है। लेकिन हर दो क़िरअत को तो सही व दुरुस्त नहीं कह सकते।

फिर उसी सुरह की छठी आयत के बारे में बैज़ावी कहता है कि "सिरात अल्लज़ीना अनअमता अलैहिम" (صرا ط الذین انعمت علیھمہ) का जुमला बाअज़ नुस्ख़ों में "सिरात मन अनअमता अलैहिमा" (صراط من انعمت علیھمہ) मर्क़ूम है। पस उन हक़ीक़तों की मौजूदगी में क़ुरआन की मफ़रूज़ा सेहत व दुरुस्ती के बाब में क्या कहें ? कैसे तस्लीम कर लिया जाये कि क़ुरआन तख़रीब व तहरीफ़ से पाक है? ईलाही मुहाफ़िज़त-ए-क़ुरआन की लाफ़ वगज़ाफ़ की क्या बुनियाद है? क्या ये बात अज़हर-मिन-श्शम्स नहीं है कि क़ुरआन के बाअज़ नुस्ख़ों में"अल-लज़ीना" (الذین) के इवज़ में "मन"(من) लिखा गया है या बाअज़ में"मन" को बिगाड़ कर और बदल कर "अल-लज़ीना" बना लिया गया है। इलावा-बरें इसी सुरह की आख़िरी आयत के बाब में क़ाज़ी बैज़ावी ने तहरीर किया है कि मुरव्वजा “लाअलज़ालीन" (لاالضالین) बाअज़ नुस्ख़ों में “ग़ैर अल-ज़ालिन" (غیر الضالین) कर दिया गया है। बावजूद येके इन मिसालों में मआनी की तब्दीली नहीं हुई तो भी ये हक़ीक़त साफ़ है कि बाअज़ अल्फाज़ का दीगर अल्फाज़ से तबादला किया गया है लेकिन असल नुस्ख़ा में तो ये मुतखालिफ़ अल्फाज़ मौजूद ना थे। इस से तख़रीब व तहरीफ़ पर साफ़ दलालत होती है।

फिर बैज़ावी बतलाता है कि सुरह बक़रा की इक्कीसवीं आयत में भी तहरीफ़ हुई है ।मुरव्वजा क़िरअत के मुताबिक़ "अबदना" (عبدنا) लिखा है लेकिन बाअज़ नुस्ख़ों में ये लफ़्ज़ बसीग़ा जमा"इबादना" (عبادنا) पाया जाता है।"इबादना" के मुताबिक़ कुल आयत का मतलब ये है कि "अगर तुम शक में हो उस चीज़ (वही) के बारे में जो हम ने अपनेबंदों पर नाज़िल की" इस से हज़रत मुहम्मद के इलावा और भी वही क़ुरआनी के पाने वाले ठहरते हैं।

सुरह निसा की पांचवीं आयत में और बड़ी तहरीफ़ मतन क़ुरआन में मौजूद है। चुनांचे क़ाज़ी बैज़ावी लिखता है कि "फइन आनस्तुम" (فان انستمہ)बाअज़ नुस्ख़ों में"फइन अहसतूमा" (فان احستمہ) बना लिया गया है। इस किस्म की तहरीफ़ात मतन क़ुरआन में बेशुमार हैं और उन से साफ़ साबित होता है कि क़ुरआन हरगिज़ हरगिज़ कामिल व दुरुस्त सूरत में मौजूद नहीं है। फ़िउल-हक़ीक़त क़ुरआन में इस क़दर तग़य्युर व तबद्दुल वाक़ेअ हुआ है और इतनी काट छांट वक़ूअ में आई है कि मौजूदा क़ुरआन किसी तरह से काबिल-ए-एतिमाद और रसूल अरबी का अपने मोमिनीन को सिखाया हुआ तस्लीम नहीं किया जा सकता।

फिर बैज़ावी लिखता है कि सुरह निसा की पंद्रहवीं आयत में एक बड़ी तहरीफ़ है। क़ुरआन के मुख़्तलिफ़ नुस्ख़ों में बाहमी तख़ालुफ़ पाया जाता है और यह काबिल-ए-लिहाज़ है। चुनांचे लिखा है "व लहू अव-उख्तुन" (وَّلَہٗٓ اَخٌ اَوْ اُخْتٌ) यानी उस का एक भाई है या बहन" लेकिन क़ाज़ी बैज़ावी बतलाता है कि उबई और जै़द इब्न-ए-मालिक की क़िरअत के मुताबिक़ दो लफ़्ज़ और ज़रूरी हैं यानी "मन अलाम" (من الام) (एक माँ से) इस आयत की तफ़्सीर में क़ाज़ी साहिब ने यही मअनी क़बूल और बयान किए हैं। पस इन मिसालों से अयाँ है कि बाज़-औक़ात मतन क़ुरआन की तफ़हीम के लिए मुख़्तलिफ़ क़िरअतों के अल्फाज़ आयात-ए-क़ुरआन में दर्ज कर लिए जाते हैं और इस से क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा क़ुरआन फिर क़ायम हो जाती हैं।

मतन क़ुरआन की तहरीफ़ की एक और मिसाल सुरह माइदा की 91 वीं आयत में मिलती है। इस में लिखा है कि क़सम के कफ़्फ़ारा में दस ग़रीब आदमीयों को खाना खिलाना चाहिए लेकिन अगर कोई खाना खिलाने की तौफ़ीक़ ना रखता हो तो उस के इवज़ में तीन रोज़े रखे। चुनांचे हाल के मुरव्वजा क़ुरआन में मर्कुम है"फसियामु सलासही अय्याम" (فَصِيَامُ ثَلٰثَةِ اَيَّامٍ) यानी "तीन दिन का रोज़ा" लेकिन मशहूर-ओ-मारूफ़ इमाम अबूहनीफ़ा यूं पढ़ते हैं "फ़सीयाम सलासा अय्याम मत्तता-बआत (فصیام ثلثہ ایام متتابعات) यानी" पै दरपे तीन दिन का रोज़ा"। ये निहायत बड़ी तहरीफ़ है क्योंकि इस से इस्लाम की शरीयत में तब्दीली वाक़ेअ होती है। इमाम अबू-हनीफ़ा और उन के पैरु पै-दरपे तीन दिन के रोज़े की तालीम देते हैं और क़ाज़ी बैज़ावी और दीगर मुफ़स्सिरीन इस तालीम को ग़लत और मुख़ालिफ़ क़ुरआन समझते हैं। अब इस क़दर ज़माना गुज़र जाने के बाद कौन बता सकता है कि इन मुख़्तलिफ़ क़िरअतों में से कौनसी क़िरअत सही व असली है और कौन सी ग़लत ?

सुरह अनआम की 154 वीं आयत में मर्क़ूम है "व अन्ना हाज़ा सिराती"(وَاَنَّ ھٰذَا صِرَاطِيْ)यानी तहक़ीक़ मेरी राह यही है" लेकिन क़ाज़ी बैज़ावी दो और क़िरअतें बतलाता है। अव्वल "हज़ा सिरात रब्बिकुमा" (ھذا صراط ربکمہ) यानी ये है कि तुम्हारे रब की राह" । दोम "हज़ा सिरात रब्बिका"(ھذا صراط ربک) यानी ये है तेरे रब की राह" । इन तीन किरातों पर नज़र करने से साफ़ मालूम होताहै कि। दूसरी और तीसरी क़िरअत से लफ़्ज़ "इन" (ان) मफ़क़ूद है और दो ज़ाइद अल्फाज़" रब्बिकुमा" (ربکمہ) और" रब्बिक" (ربک) मौजूद हैं। इन हक़ायक़ की मौजूदगी में कुछ ताज्जुब की बात ना थी कि ख़लीफ़ा उस्मान ने इस तरह के अज़ीम तख़ालुफ़ से परेशान व ख़ाइफ़ हो कर क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा के दूर करने और एक आम क़िरअत की तरवीज में कोशिश की अगरचे वो इस मक़सद के हिस्सों में निहायत बुरी तरह से बदनामी के साथ नाकामयाब रहा। मतन-ए-क़ुरआन के बहुत से तहरीफ़ शूदा फुक्रात से उन के तहरीफ़ करने वालों के बे ढंगे मुहावरात पर साफ़ दलालत होती है। मसलन सुरह ताहा में मर्क़ूम है "क़ाल या बनोइम" (قال یا بنوئم) यानी इस ने (हारून ने)कहा ए मेरी माँ के बेटे" लेकिन सुरह आराफ़ 149 वीं आयत में मर्क़ूम है "क़ाल इब्न उम्म" (قال ابن امہ) यानी इस ने कहा मेरी माँ का बेटा"। इन दोनों फ़िक़्रों को बग़ौर देखने से साफ़ अयाँ हो जाता है कि पहले फ़िक़रे में हस्बेक़ायदा निदा के साथ "या" (یا) हर्फ़-ए-निदा मौजूद है लेकिन दूसरे फ़िक़रे से मफ़क़ूद नज़र आता है। पस अज़हर मन अश्शम्स है कि क़ुरआन की फ़साहत व खूबसूरती को क़ायम रखने के लिए दूसरे फ़िक़रे के साथ भी "या" (یا) हर्फ़-ए-निदा का होना ज़रूर है। क़ाज़ी बैज़ावी लिखता है कि दूसरे फ़िक़रे में हर्फ़-ए-निदा ज़ाइद किया गया है क्योंकि बाअज़ अच्छे मुसलमान फ़साहत-ए-क़ुरआन को बे-ऐब रखने की ग़रज़ से हर्फ़-ए-नदा ज़ाइद करने से बाज़ ना रह सके। चुनांचे क़ाज़ी मज़कूरा का बयान है कि इब्न उमर व हमज़ा, किसाई और अबू-बक्र ने "या इब्न उम" (یا ابن ام) पढ़ा है। लफ़्ज़ "या" (یا) इन मज़कूरा बाला अस्हाब के नुस्ख़ों में पाया गया है लेकिन बहुत से दीगर अल्फाज़ की तरह मौजूदा मुरव्वजा क़ुरआन से मफ़क़ूद है। इस से निहायत सफ़ाई और सराहत के साथ साबित होता है कि मौजूदा मुरव्वजा क़ुरआन बहुत ही मशकूक और ना काबिल-ए-एतिमाद है।

फिर सुरह यूनुस में तहरीफ़-ए-लफ़्ज़ी की एक निहायत बय्यन मिसाल मिलती है। इस में लिखा है कि बहीरा क़ुलज़ुम मैं फ़िरऔन की मौत उस के बाद आने वालों के लिए पनदो नसीहत और इबरत का निशान है। चुनांचे मौजूदा मुरव्वजा क़ुरआन के मुताबिक़ 92 वीं आयत में यूं मर्क़ूम है "लिमन ख़लफ़क आयता" (لِمَنْ خَلْفَكَ اٰيَةً ) यानी तेरे बाद आने वालों के लिए एक निशान" लेकिन क़ाज़ी बैज़ावी बताता है कि बाअज़ नुस्ख़ों में"लिमन ख़लक़क आयता" (لمن خلقک آیتہ) मर्क़ूम है यानी "तेरे ख़ालिक़के लिए एक निशान"। इस मुक़ाम पर क़ुरआनी मआनी भी बिल्कुल बदल गए हैं और हर दो क़िरअत में से सही व असल क़िरअत को दर्याफ्त करना परेशान ख़ातिर मुसलमान के लिए नामुमकिन ठहरता है।

इलावा-बरें सुरह कहफ़ की 36 वीं आयत में एक निहायत अज़ीम इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत मौजूद है। चुनांचे मौजूदा मुरव्वजा क़ुरआन में मर्क़ूम है لَّكِنَّا هُوَ اللَّهُ رَبِّي وَلَا أُشْرِكُ بِرَبِّي أَحَدًا यानी" लेकिन अल्लाह मेरा रब है और मैं किसी को अपने रब का शरीक नहीं बनाता"। लेकिन क़ाज़ी बतलाता है कि बाअज़ नुस्ख़ों में यूं मुंदरज है "ولکن ھو اللہ ربی ولکن انالاالہ الاھوربی यानी लेकिन अल्लाह मेरा रब है, फिर हम ख़ुदा नहीं हैं, वही मेरा रब है"। इस तहरीफ़ के बारे में कुछ कहना फ़ुज़ूल है"। अयाँ राचा बयान"? ख़ुद नज़र-ए-इन्साफ़ से देख लीजिए।

फिर सुरह यासीन की 38 वीं आयत की तफ़ीसर करते हुए क़ाज़ी बैज़ावी एक और तबाही ख़ेज़ तहरीफ़-ए-क़ुरआनी दिखलाता है। चुनांचे मर्क़ूम है وَالشَّمْسُ تَجْرِي لِمُسْتَقَرٍّ لَّهَا” यानी आफ़ताब अपनी आराममगाह की तरफ़ जाता है"। कोई तालीम-ए-याफ़ता मुसलमान ये नहीं मान सकता कि आफ़ताब दिन को चलता है और रात को आराम करता है लेकिन इस का मतलब यही हो सकता है कि ये इबारत महिज़ आम मुहावरा के मुताबिक़ है इस से कोई इल्म नुजूम की हक़ीक़त की तालीम मक़सूद नहीं है। लेकिन रसूल-ए-अरबी के बाअज़ गैरतमंद पैरोंएन ने चाहा कि इस क़ुरआनी कमज़ोरी व नक़्स को दूर करें और उन्होंने निहायत जुरआत व जसारत से बक़ौल बैज़ावी बाअज़ नुस्खाहाए क़ुरआन में लफ़्ज़" ला" (لا) ज़ाइद कर दिया और इस से ये मअनी पैदा हो गए कि "आफ़ताब चलता है और इस के लिए कोई आरामगाह नहीं है"!

इस बाब को ख़त्म करने से पेशतर हम मतन-ए-क़ुरआन की तख़रीब व तहरीफ़ की एक मिसाल और क़ाज़ी बैज़ावी से नक़ल करेंगे। चुनांचे मौजूदा क़ुरआन के मुवाफ़िक़ सुरह क़मर की पहली आयत में यूं मर्क़ूम है اقْتَرَبَتِ السَّاعَةُ وَانشَقَّ الْقَمَرُ यानी वो घड़ी आ पहुंची और चांद फट गया"। इस आयत के मआनी के बाब में मुख़्तलिफ़ फिरकाहाए इस्लाम में बड़ी सख़्त बहस होती चली आई है। बाअज़ कहते हैं कि इस में हज़रत मुहम्मद के निहायत अज़ीमुश्शान मोजिज़ा "शक़्कुक़मर" का बयान है और बाअज़ उस के ख़िलाफ़ यूं कहते हैं कि इस में रोज़ क़ियामत का ज़िक्र है जबकि चांद फट जाएगा"। अगर इस से मोजिज़ा "शक़्कुक़मर" मुराद लेना चाहें तो किसी ऐसे लफ़्ज़ की ज़रूरत महसूस होती है जिससे मअनी ज़माना-ए-माज़ी से मख़सूस किए जाए पस बैज़ावी लिखता है कि "बाअज़ नुस्ख़ों में लफ़्ज़ "क़द" (قد) पाया जाता है और इस से ये मअनी हासिल होते हैं कि चांद टुकड़े कर दिया गया है" क्या ये अज़हर-मिन-श्शम्स नहीं है कि बाअज़ मुहम्मदी मुनाज़िरीन ने अपने ख़याल व दलाइल के क़ियाम और आँहज़रत की तरफ़ीअ शान की ग़रज़ से लफ़्ज़ "क़द" (قد) अपने नुस्खाहाए क़ुरआन में ज़ाइद कर दिया ? अगर ये वाजिबी नतीजा तस्लीम कर लिया जाये तो क्या इस से किसी हद तक बा सराहत मालूम नहीं हो जाता कि ज़माना-ए-माज़ी में इस्लाम की कुतुबु दीन और क़ुरआन से क्या सुलूक होता रहा है? क्या अहले इस्लाम के वो तमाम दआवे जो सेहत व दुरुस्ती क़ुरआन के बाब में किए जाते हैं इस तहरीफ़ से बे-बुनियाद साबित नहीं होते?

इस किस्म की होलनाक और तबाही ख़ेज़ तख़रीब व तहरीफ़-ए-क़ुरआन की मिसालें पेश तो बहुत सी की जा सकती हैं लेकिन इस किताबचा में गुंजाइश ना होने के सबब से हम जो कुछ पेश कर चुके हैं इसी पर इकतिफ़ा करेंगे। बेतास्सुब और मुंसिफ़ मिज़ाज अस्हाब के लिए हम काफ़ी तौर से साबित कर चुके हैं कि क़ुरआन में बहुत सी तख़रीब व तहरीफ़ वाक़ेअ हो चुकी है। इलावा-बरें हम ये दिखा चुके हैं कि सुन्नी व शिया बिल-इत्तिफ़ाक़ मानते हैं कि मुख़्तलिफ़ नुस्ख़ाहाए क़ुरआन में बहुत से इख्तिलाफ़ात मौजूद हैं। बाअज़ उलमाए रासख़ीन ने ये भी तस्लीम कर लिया है कि बाअज़ कोताहअंदेश मुसलामानों ने जान-बूझ कर अम्दन क़ुरआन की तख़रीब व तहरीफ़ की है चुनांचे क़ाज़ी बैज़ावी,मुआलिम, और अबुल्फिदा बिल-इत्तफाक़ अबदुल्लाह इब्न जै़द को ऐसे फे़अल का फ़ाइल बयान करते हैं। वो कहते हैं कि ये अबदुल्लाह इब्न जै़द आँहज़रत का मुंशी था और बद नीयती से इबारात क़ुरआनी में तग़य्युर व तबद्दुल किया करता था। अब फ़क़त यही नहीं कि मौजूदा क़ुरआन की इबारात तहरीफ़ शूदा और मशकूक हैं बल्कि हम उलमाए इस्लाम और कतुब इस्लाम के बयानात से साबित करेंगे कि असली क़ुरआन के बहुत से हिस्से मफ़क़ूद हैं और मौजूदा क़ुरआन फ़िल-हक़ीक़त इस किताब का जो हज़रत मुहम्मद ने अपने अपने पैरुउन को सिखाई एक तहरीफ़ शूदा और ना काबिल-ए-एतिमाद हिस्सा है।

बाब शुशम

शहादत-ए-अहादीस दरबारा क़ुरआन

नाज़रीन को याद होगा कि हज़रत उस्मान ने एक नुस्खा-ए-क़ुरआन तालीफ़ करवा के राइज किया और दीगर नुस्खे़ जहां तक दस्तयाब हो सके जमा करके जला दिए । इस फे़अल के सबब से शीया लोग हमेशा उसे जाबिर समझते चले आए हैं और उस के इस फे़अल को बहुत बुरा जानते हैं। वो कहते हैं कि जिन इबारात-ए-क़ुरआनी में हज़रत अली और उस के ख़ानदान की अज़मत व बुज़ूर्गी का बयान था वो सब उस्मान ने क़ुरआन से ख़ारिज कर दी हैं। एक पूरी सुरह मौजूदा क़ुरआन से मफ़क़ूद है। इस सुरह में हज़रत अली की फ़ज़ीलत और बुजु़र्गी का बहुत ज़िक्र है। ये "सुरह अल-नुरैन" यानी दो नूर के नाम से मशहूर है और उस से हज़रत मुहम्मद और हज़रत अली मुराद हैं । चुनांचे ये सुरह "तहक़ीक़ अल-ईमान" के ग्यारवें से तेरहवें सफ़ा तक मुफ़स्सिल मुंदरज है। ग़ालिबन ये सुरह अली के तालीफ़ कर्दा क़ुरआन में से है लेकिन वो क़ुरआन ही मफ़क़ूद है ताहम शीया लोगों का एतिक़ाद है कि जब इमाम मह्दी यानी आख़िरी इमाम ज़ाहिर होगा तो फिर पूरा क़ुरआन दुनिया को दिया जाएगा।

अहादीस के मुताला से साफ़ अयाँ होता है कि हज़रत मुहम्मद के अय्याम का क़ुरआन इस मौजूदा मुरव्वजा क़ुरआन से बहुत बड़ा था। चुनांचे हिशाम ने अबी अब्दुल्लाह से एक हदीस की यूं रिवायत की है।"۔"ان القران الذی جا بہ جبریل الیٰ محمد صلی اللہ علیہ وسلمہ سبعتہ عشرالف ایات यानी" जो क़ुरआन जिब्रईल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास लाया इस में सत्तर हज़ार आयात थीं"। लेकिन बैज़ावी के बयान के मुताबिक़ मौजूदा क़ुरआन में फ़क़त छः हज़ार दो सौ चौंसठ (6264) आयात हैं। लिहाज़ा इस मुन्दरिजाह बाला हदीस से मालूम होता है कि मौजूदा क़ुरआन असली क़ुरआन के क़रीबन दो सलस के बराबर है। इस मज़मून पर और अहादीस भी हैं। चुनांचे एक हदीस में यूं मर्क़ूम है

محمد بن نصر عندانہ قال کان فی لمہ یکن اسمہ سبعین رجالامن قریش باسماء ھمہ واسماء آباھ

यानी मुहम्मद इब्न नस्र ने सुना कि अबी अबदुल्लाह ने कहा कि सुरह लम-यकुन (لمہ یکن) में क़ुरैश में से सत्तर आदमीयों के नाम उन के आबा के नामों के साथ मुंदरज थे"। लेकिन ये सत्तर नामों की फ़हरिस्त मौजूदा क़ुरआन से मफ़क़ूद है। इस से साफ़ अयाँ है कि ये फ़हरिस्त इस क़ुरआन में मौजूद थी जो अब नहीं मिलता और जिसकी तरफ़ मुन्दरिजाह बाला हदीस इशारा करती है। जलाल-उद्दीन की मशहूर किताब इत्तिक़ान में मर्क़ूम है कि "सुरह अहज़ाब में एक ऐसी आयत मौजूद थी जिसमें ज़िना की सज़ा मुंदरज थी। ये मशहूर आयत जो कि आयत अल-रज्म के नाम से नामज़द है अहादीस में इस का अक्सर ज़िक्र मिलता है और इस में ज़रा भी शक नहीं कि किसी वक़्त ये आयत क़ुरआन में दाख़िल थी। चुनांचे इत्तिक़ान में यूं मुंदरज है :-

"فیھا آیتہ الرجمہ قال وماالرجمہ قال اذارینا الشیخ والشیختہ فارجموھا "

यानी" इस में (सुरह अहज़ाब में) आयत रज्म थी। इस ने (इब्न-काब ने ) कहा और रज्म क्या है? इस ने (इब्न हब्श ने) कहा अगर कोई शादीशुदा मर्द या औरत ज़िना करे तो उन को संगसार करो"।

ये आयत मौजूदा क़ुरआन से मफ़क़ूद है लेकिन इस अम्र की काफ़ी से ज़्यादा शहादत मौजूद है कि ये आयत असली क़ुरआन में शामिल थी। मस्लन लिखा है कि उमर उसे फ़िल-हक़ीक़त क़ुरआन का हिस्सा जानता और मानता था लेकिन चूँकि किसी क़ारी-ए-क़ुरआन ने उसके ख़याल की ताईद व तस्दीक़ ना की इस लिए इस ने उसे क़ुरआन में दाख़िल करने से इन्कार किया। चुनांचे किताब फ़तह-अल-बारी में यूं मर्क़ूम है :-

بقول عمر ھذا انہ کانت عندہ شہادت فی آیتہ الرجم انھا من القرآن فلمہ یلقحھا بنض المصحف بشھادت وحدہ

"यानी उमर ने बयान किया कि इस के पास इस अम्र की शहादत थी कि आयत अलरज्म जुज़ुव क़ुरआन है लेकिन चूँकि किसी और ने इस की शहादत की ताईद ना की इस लिए वो उसे क़ुरआन में दाख़िल करने की जुरआत ना कर सका"। इन अहादीस से साबित होता है कि हज़रत मुहम्मद के ज़माना के हाफ़ज़ान क़ुरआन के हाफ़िज़ा की मुबालग़ा आमेज़ तारीफ़ से कुछ ख़ारिज करना चाहिए क्योंकि ये आयत फ़िल-हक़ीक़त जुज़्व क़ुरआन थी लेकिन इस हक़ीक़त की तस्दीक़ एक हाफ़िज़ ने भी ना की। आँहज़रत की निहायत अज़ीज़ बीवी हज़रत आईशा की शहादत आयत अल-रज्म के बारे में कई अहादीस में मुंदरज है चुनांचे एक हदीस में यूं मर्क़ूम है:-

قالت عائشتہ کانت الاحزاب نفرفی زمن رسول اللہ مایتی آیتہ فلما کتب عثمان المصاحف مایقدر الاعلیٰ مااثبت وکان فیھا آیتہ الرجمہ

यानी सुरह अहज़ाब जो मैं पढ़ती थी ना-मुकम्मल थी। रसूलुल्लाह के ज़माना में इस में दो सौ आयात थीं और जब उस्मान ने क़ुरआन लिखा तब उस ने कोई आयत क़बूल ना की जिसकी ताईद व तस्दीक़ शहादत से ना हुई हो और आयत अल-रज्म भी ऐसी ही थी"।

आँहज़रत की अज़ीज़ तरीन बीवी की इस शहादत से मौजूदा क़ुरआन के ना-मुकम्मल होने के बारे में मुन्दरिजाह बला बयानात की निहायत सफ़ाई व सराहत के साथ तस्दीक़ होती है क्योंकि हज़रत आईशा के बयान के मुताबिक़ हज़रत मुहम्मद के ज़माने में सुरह अहज़ाब में दो सौ आयात थीं दरहांलाकि मौजूदा क़ुरआन के मुताबिक़ फ़क़त तिहत्तर 73 आयात हैं। फिर हज़रत आईशा हज़रत उमर की शहादत से मुत्तफ़िक़ हो कर कहती हैं कि इस सुरह में आयत अल-रज्म थी लेकिन मौजूदा क़ुरआन में इस आयत का कहीं नामोनिशान तक नहीं मिलता। फिर किताब मुहाजिरात की मुन्दरिजाह एक हदीस से भी इस मशहूर आयत की गुम-गश्तगी का पता मिलता है। चुनांचे लिखा है:-

عن عائشتہ قالت لقد نزلت آیتہ الرجمہ ورضاعتہ الکبیر عشر القد کان صحیفتہ تحر سریری فلما مات رسول اللہ صلعمہ وتشا غلنا بموتہ دخل واجن فا کلھا

यानी आईशा ने बयान किया कि आयत अल-रज्म और आयत अल-रज़ाअत नाज़िल हुईं और लिखी गईं लेकिन काग़ज़ मेरे तख़्त के नीचे था और जब रसूलुल्लाह सलअम ने वफ़ात पाई और हम उन की तजहीज़ व तकीफ़न में मशग़ूल थे एक बकरी घर में आ घुसी और उसे खा गई!

अब इस आयत के बारे में कुछ और लिखने की ज़रूरत नहीं। अब भी अगर नाज़रीन इन तमाम हक़ीक़तों को पढ़ कर जिन को हम कलमबंद कर चुके हैं क़ुरआन की ईलाही हिफ़ाज़त के दआवे को बे-बुनियाद ना समझें तो ज़रूर या तो वो इल्मी पहलू से बिल्कुल बे-बहरा हैं या तास्सुब ने उन की चश्म-ए-बसीरत पर तारीकी का पर्दा डाल रखा है। मबादा कोई हमारे इस बयान को मुबालग़ा आमेज़ तसव्वुर करे हम चंद अहादीस मोतबरा और भी नक़ल करते हैं जिनसे साबित हो जाएगा कि हम निहायत साफ़ तौर से हक़ायक़ पेश कर रहे हैं। चुनांचे इब्न उमर की एक निहायत मशहूर-ओ-मारूफ़ हदीस में यूं मर्क़ूम है:-

عن ابن عمر قال لایقولو احد کمہ قداحذت القرآن کلمہ قدذھب منہ قرآن کثیر ولکن یقل قد اخذت ماظہر منہ

यानी इब्न उमर ने कहा तुम में से कोई ये ना कहे कि मैंने तमाम क़ुरआन पा लिया है क्योंकि जो क़ुरआन मालूम है वो तमाम व कामिल नहीं है और बहुत से हिस्से गुम हो गए हैं लेकिन यूं कहना चाहिए कि मेरे पास इतना क़ुरआन है जितना कि मालूम व महफूज़ है"।

फिर एक और हदीस में यूं मुंदरज है :-

بن جیش قال ابی بن کعب کاین تعد سورہ الاحزاب ؟ قلت اثنین وسبعین ایتہ اوثلاثاو سبعین ایتہ قال ان کانت لتعدل سورہ البقر

यानी इब्न जैश ने बयान किया कि इब्न काब ने कहा सुरह अहज़ाब में कितनी आयात हैं? मैंने कहा 72, या 73, इस ने कहा सुरह अहज़ाब सुरह बक़रा के बराबर थी"।

ये मशहूर हदीस जलाल-उद्दीन अलसीवती की मशहूर तसनीफ़ इत्तिक़ान में मुंदरज है। इस से मालूम होता है कि सुरह अहज़ाब जिसमें अब 72, या 73 आयात हैं किसी वक़्त में सुरह अल-बक़रा के बराबर थी जिसमें 286 आयात हैं। पस साफ़ ज़ाहिर है कि इस एक सुरह से 200 से ज़्यादा आयात गुम हो गई हैं। फिर इब्न अब्बास की एक निहायत मशहूर-ओ-मारूफ़ हदीस में यूं मर्क़ूम है:-

قال سالت علی بن ابی طالب لمہ لمہ یکتب قی براة بسم اللہ الرحمن الرحیمہ؟ قال انھا امان وبراةمنزلت بالسیف وعن مالک ان اولھا لما سقط مع ابسم اللہ فقد ثبت انھا کانت تعدل بقرة لطولھا

यानी इब्न अब्बास ने कहा मैंने अली इब्न अबी तालिब से पूछा कि सुरह बरात क्यों बग़ैर बिस्मिल्लाह लिखी गई ? इस ने कहा इस लिए कि बिस्मिल्लाह ईमान के लिए और सुरह बरात जंग के लिए नाज़िल हुई है। और मालिक की एक हदीस से साबित होता है कि जब इस सुरह का पहला हिस्सा गुम हो गया तो बिस्मिल्लाह भी इस के साथ ही जाती रही लेकिन ये बात साबित शूदा है इस की लंबाई सुरह बक़रा के बराबर थी"।

इलावा-बरें मुस्लिम की जमा कर्दा अहादीस में से एक में मर्क़ूम है कि क़ारी क़ुरआन अबू मूसा नामी ने बसरा के क़ारियने क़ुरआन की एक जमात से मुख़ातब हो कर। यूं कहा :-

اناکنا نقداسورہ کنا نسشبھامافی الطول والشدہ ببراة فاینتھا غیرانی قد حفظت منھا وکنا نقرا سورہ کنا نشبھا باحد من السبحان فاینتھا غیرانی قد حفظت منھا

यानी" हम एक सुरह पढ़ा करते थे जो तुल और जज़ो-तोबीख़ में सुरह बरात के बराबर थी पर वो मेरी याद से जाती रही। सिर्फ एक आयत मुझे याद है...फिर हम एक और सुरह भी पढ़ा करते थे जो कि मसब्बहात में से एक के बराबर थी उस की मुझे एक ही आयत याद है कि बाक़ी सब भूल गईं। इस मुक़ाम पर ये कहना ज़रूरी नहीं मालूम होता कि इन सूरतों में से कोई भी हज़रत उस्मान के तालीफ़ कर्दा क़ुरआन में नज़र नहीं आती।

फिर निहायत मशहूर-ओ-मारूफ़ मुहद्दिस अलबुख़ारी की तवारीख़ में एक हदीस से साबित होता है कि सुरह अहज़ाब से बहुत सी आयात बिल्कुल ग़ायब व मफ़क़ोद हैं। चुनांचे यूं मर्क़ूम है :-

واخرج البخاری فی تاریخہ عن حذیفتہ قال قرات سورہ الحزاب علی النبی فلسیت منھا سبعین آیتہ ماوجد تھا"

यानी और बुख़ारी ने अपनी तवारीख़ में एक हदीस हुज़ैफ़ा से लिखी है कि इस ने कहा मैं नबी के सामने सुरह अहज़ाब पढ़ रहा था लेकिन इस की सत्तर(70) आयत भूल गईं और फिर कभी दस्तयाब ना हुईं।

इस किताबचा को ख़त्म करने से पहले एक और हदीस क़ाबिल इंदिराज है। इस में बजाय माज़ी के क़ुरआन की आइन्दा तवारीख़ का बयान है।

चुनांचे इब्न माजा यूं बयान करता है:-

عن حذیفہ بن الیمان قال رسول اللہ صلعمہ یدرس الا سلام کماید رس وشق الثوب حتی الایدرک ماصیام ولا صلواة لانسک ولا صدقتہ ولیسری علی کتاب اللہ عزوجل فی لیلتہ فلایبقی فی الارض منہ آیہ

यानी हुज़ैफ़ा इब्न यमान ने कहा रसूलुल्लाह सलअम ने फ़रमाया कि इस्लाम पोशाक के दामन की तरह कुहना व बोसीदा हो जाएगा यहां तक कि लोग नमाज़ व रोज़ा और सदक़ा व खैरात से बिल्कुल बे-ख़बर हो जाएंगे और एक रात को कलाम-उलल्लाह बिल्कुल ग़ायब हो जाएगा और उस की एक आयत भी रुए ज़मीन पर बाक़ी नहीं रहेगी"।

जो अहादीस हम नक़ल कर चुके हैं उन के बारे में हम कुछ और नहीं कहना चाहते। इन से निहायत सफ़ाई व सराहत के साथ और काफ़ी तौर से हर एक मुंसिफ़ मिज़ाज हक़ जोई पर रोशन हो जाएगा कि मतन क़ुरआन की मौजूदा हालत कैसी है। अहले इस्लाम को उमूमन ये तालीम दी जाती है कि क़ुरआन को ईलाही हिफ़ाज़त हर तरह के तग़य्युर व तबद्दल से महफ़ूज़ रखती है बल्कि क़ुरआन ख़ुद इस अज़ीम दावा का मुद्दई है चुनांचे लिखा है:-

"यक़ीनन हमने क़ुरआन को नाज़िल किया और हम ज़रूर उस को महफ़ूज़ रखेंगे"।

फिर एक और मुक़ाम पर मुंदरज है" ये किताब जिसकी आयात तख़रीब व तहरीफ़ से महफ़ूज़ हैं.... ख़ुदाए हकीम व अलीम की तरफ़ से बवसीला वही भेजी गई है"। अहादीस में भी इसी किस्म के लगू व लायानी दआवे मुंदरज हैं। चुनांचे किताब फ़ज़ाइल उल-क़ुरआन में मर्क़ूम है कि अगर क़ुरआन आग में डाल दिया जाये तो आग उस को हरगिज़ ना जलाईगी।

जो शवाहिद व दलाइल इस किताबचा में उलमाए इस्लाम और कतुब-ए-इस्लाम से पेश किए गए हैं उनकी रोशनी में नाज़रीन ख़ुद इन्साफ़ से देख लें कि क़ुरआन की सेहत व दुरुस्ती के मज़कूरा बाला दआवे की क्या हक़ीक़त है इस से साफ़ अयाँ हो जाएगा कि क़ुरआन ईलाही हिफ़ाज़त में महफ़ूज़ होने का मुद्दई बनने मैं ख़ुद अपनी बीख़-कनी करता है। और इन्सानी ईजाद व इख़तराअ साबित होता है। अगर नाज़रीन इस अहम मज़मून पर ज़ाइद आगही के ख्वाहिशमंद हों तो पंजाब ट्रेक्ट सोसाइटी लाहौर से उर्दू ज़ुबान में हिदायत-अलमुस्लिमीन, मीनार उल-हक़, मीज़ान उल-हक़, तहक़ीक़ अल-ईमान, तहरीफ़-ए-क़ुरआन और तावील उल-क़ुरआन मंगवाकर मुताला करें और इस मज़मून का निहायत सरगर्मी से पीछा करें क्योंकि जिनके ख़्यालात व तसानीफ़ का हमने ज़िक्र किया है वो दीन इस्लाम के अव्वल दर्जे के उल्मा में से हैं और जो कुछ उन्हों ने तहरीर किया है और शहादत दी है इस की तहक़ीर व तख़फ़ीफ़ करना हरगिज़ हरगिज़ मुनासिब नहीं है। हम देख चुके हैं कि क़ाज़ी बैज़ावी, इमाम हुसैन, मुस्लिम, बुख़ारी और जलाल-उद्दीन जैसे उलमा रासख़ीन इस्लाम ने क़ुरआन के बारे में क्या कहा है। हम ये भी देख चुके कि ख़ुद हज़रत मुहम्मद की हिन्-ए-हयात ही में क़ुरआन में इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत पैदा हो गया था। हम ये भी मालूम कर चुके हैं कि इख्तिलाफात-ए-क़िरअतहाए क़ुरआन को दूर कर के एक क़िरअत की तरवीज की कोशिश का नतीजा हमेशा नाकामयाबी ही हुआ। हमने ये भी दर्याफ्त किया है कि हज़रत उस्मान की तस्दीक़ व तरदीद और हज़रत अबू-बक्र की तजदीद व तसहीह इब्न मस्ऊद के क़ुरआन से कहाँ तक मुख़्तलिफ़ व मतफ़ावत थी। इलावा-बरें हमने बड़े बड़े मुफ़स्सिरीन-ए-इस्लाम की तफ़ासीर से मालूम कर लिया है कि मौजूदा क़ुरआन में इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत बकसरत मौजूद है जिससे अक्सर मुक़ामात पर आयात के मआनी बिल्कुल तबदील होजाते हैं और आख़िर में हमने ये भी देख लिया है कि अहादीस से ये मुत्तफ़िक़ा शहादत मिलती है कि क़ुरआन के बहुत से बड़े बड़े हिस्से बिल्कुल मफ़क़ूद हैं। इस हालत में अहले इस्लाम के लिए निहायती मुनासिब और बड़ी दानाई की बात है कि अहले-ए-किताब की इन कुतुब मुक़द्दसा की तरफ़ रुजू लावें जिन पर ईमान व अमल की ख़ुद हज़रत मुहम्मद साहिब ने ताकीद की है। लारयब ये किताबें हज़रत मुहम्मद के अय्याम में तख़रीब व तहरीफ़ से पाक थीं जैसा कि आँहज़रत के मुतवातिर हवालेजात से साफ़ ज़ाहिर होता है । इस में भी किसी तरह के शक व शुबह को जगह नहीं कि आँहज़रत के ज़माने से अब तक उनमें तहरीफ़ नहीं हुई क्योंकि यूरोप के बड़े बड़े अजाइब ख़ानों में वो नुस्खे़ अब तक मौजूद हैं जो हज़रत मुहम्मद के ज़माने से बहुत अरसा पेशतर के लिखे हुए हैं और उन में और ज़माना हाल की मुरव्वजा अनाजील में मुवाफ़िक़त व मताबक़त-ए-कुल्ली है।

इस किताबचा के पढ़ने वाले को चाहिए कि इस को पढ़ कर बंद करने से पेशतर उस के सर-ए-वर्क़ को ज़ीनत देने वाली आयत-ए-क़ुरआनी पर ख़ूब ग़ौर व फिक्र करे। वो आयत कहती है :-

अगर तुम नहीं जानते हो तो अहले ज़िक्र से पूछ लो"।

ए मुसलमान पढ़ने वाले क्या आपके लिए ये अव़्वल दर्जे की दानाई की बात नहीं है कि आप क़ुरआन की इस तालीम को मानें और अनाजील में राह-ए-हयात को तलाश करें? ना सिर्फ अहले इस्लाम को यह हिदायत होती है कि मसीही दीन की कतुब मुक़द्दसा से अपने शकूक रफ़ा करें बल्कि ख़ुद हज़रत मुहम्मद को भी क़ुरआन यही हिदायत देता है। चुनांचे सुरह यूनुस की 94 वीं आयत में यूं मर्क़ूम है :-

فَإِن كُنتَ فِي شَكٍّ مِّمَّا أَنزَلْنَا إِلَيْكَ فَاسْأَلِ الَّذِينَ يَقْرَؤُونَ الْكِتَابَ مِن قَبْلِكَ

यानी सो अगर तू हे शक में इस चीज़ से जो उतारी हमने तेरी तरफ़ तो पूछ उन से जो पढ़ते हैं किताब तुझसे आगे"।

हम बख़ूबी ये दलायल व बराहीन देख चुके हैं कि मौजूदा क़ुरआन काबिल-ए-एतिमाद व वसुक नहीं है। पस अहले-ए-इस्लाम को चाहिए कि दिलेरी व मुसम्मम इरादे के साथ अनाजील की तरफ़ मुतवज्जा हों और उन से ख़ुदा की इस अजीब मुहब्बत को दर्याफ्त करें जो इस ज़ूलजलाल ने सय्यदना मसीह में ज़ाहिर फ़रमाई है। सय्यदना मसीह ख़ुद फ़रमाते हैं कि :-

"ज़मीन वा समान टल जाएंगे लेकिन मेरी बातें हरगिज़ ना टलेंगी"।

ख़ुदा के अख़लाक़ और उस की मर्ज़ी का पूरा और कामिल इज़हार सिर्फ़ इंजील ही में नज़र आता है और सिर्फ इंजील ही में मर्क़ूम है कि ख़ुदा ने जहान से ऐसी मुहब्बत रखी कि इस ने सय्यदना ईसा मसीह को दे दिया ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए। ए पढ़ने वाले इस नजातदिहंदा के मुहब्बत भरे अल्फाज़ पर कान लगा और सुन कि वो ख़ुद फ़रमाता है कि "ए तुम सब लोगो जो थके और बड़े बोझ से दबे हुए हो मेरे पास आओ और मैं तुम्हें आराम दूंगा। मेरा जुआ उठालो । और मुझ से सीखो क्योंकि मैं दिल से ख़ाकसार हूँ और तुम अपने जुओ में आराम पाओगे क्योंकि मेरा जुआ मुलाइम और मेरा बोझ हल्का है"