पिछले आर्टीकल में हमने जोश का कुछ ज़िक्र किया था। अब हम नाज़रीन की ख़िदमत में एक और बात पेश करते हैं। जो इरादे को फ़ेअल में लाने के लिए हिम्मत और जोश की तरह लाज़िमी है। और वो
Love of Work
काम की मुहब्बत
By
Talib
तालिब
Published in Nur-i-Afshan Dec 17, 1891
ननूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 17 दिसंबर 1891 ई॰
सिलसिले के लिए देखो नूर अफ़्शां नम्बर 48
पिछले आर्टीकल में हमने जोश का कुछ ज़िक्र किया था। अब हम नाज़रीन की ख़िदमत में एक और बात पेश करते हैं। जो इरादे को फ़ेअल में लाने के लिए हिम्मत और जोश की तरह लाज़िमी है। और वो :-
3. इरादा कर्दा शूदा फ़ेअल की मुहब्बत है। जिस तरह हिम्मत और जोश की अदम (ग़ैर) मौजूदगी में किसी काम को अंजाम देना मुश्किल है। इस तरह इस सिफ़त की गैर-हाज़िरी में इस को पूरा करना ग़ैर-मुम्किन होगा। बचपन का ज़माना ग़ौर के लायक़ है। हम वो वक़्त याद दिलाना चाहते हैं, जब कि माँ बाप आपको स्कूल भेजते थे। मगर आप चोरी छिपे गली कूचों में गोलीयां खेलने, या पतंग उड़ाने, या आस्मान पर कबूतरों की क़लाबाज़ीयां देखने लग जाते थे। और घंटों वहीं गुज़ार देते थे। उस वक़्त स्कूल से गुरेज़ करने का सिवाए इस के कि पढ़ने से उल्फ़त ना थी, कोई और सबब ना था। अगर उन दिनों वालदैन की तरफ़ से गोशमाली (तम्बीह करना) और उस्ताद की सूरत मलक-उल-मौत (मौत का फ़रिश्ता) की तरह डराने वाली ना होती तो आप क़ाएदे किताब को तो बालाए ताक़ रखते, बल्कि उस की भी गोलीयां बना कर खेल में ऐसे मसरूफ़ होते कि सुबह से खेलते खेलते शाम कर देते, और फिर ना थकते। पढ़ने से उन्स (मुहब्बत) ना था। इसलिए इस से पहलूतिही (दामन बचाना) करते थे। खेलने से तबीअत को लुत्फ़ मिलता था। इस वास्ते इस में मशग़ूल रहते थे। लेकिन उस्ताद की सूरत मौसूफ़ (तारीफ़ के क़ाबिल) ने इतनी इनायत (मेहरबानी) की कि कुछ-कुछ पढ़ते भी रहे। इतने में वो वक़्त आ पहुंचा कि शायरों के जादू भरे ख़यालात और मुसन्निफ़ों की इश्क़ अंगेज़ तस्नीफ़ात समझने का (सलाहीयत) माद्दा पैदा हुआ। तबीअत कुछ शबाब (जवानी) के लिहाज़ से, कुछ समझ के ज़्यादा हो जाने के सबब से उधर राग़िब (माइल) हुई शौक़ पैदा हुआ, तो और भी क़िस्म क़िस्म की किताबें देखने लगे। फिर तो ऐसे मसरूफ़ हुए कि रात-दिन एक कर के दिखा दिया। और जिधर रुजू हुए, कमाल ही पैदा करके छोड़ा। अगर शायरी की तरफ़ झुके तो शायरों में नाम हासिल किया। अगर फ़ल्सफ़े की तरफ़ गए तो अफ़लातुन और अरस्तू से पानी भरवाया। अगर साईंस की तरफ़ मीलान (रुझान) हुआ। तो वहां भी अपना सिक्का जमा (रुअब जमाना) कर हटे। इस तरक़्क़ी और कमाल का बाइस माँ बाप की सरज़निश (तंबीया) या उस्ताद की धमकी ना थी। इस का बाइस वही मुहब्बत थी, जो तहसील-ए-इल्म (इल्म हासिल करना) के लिए आपके दिल में पैदा हुई माँ बाप की सख़्ती और उस्ताद का ग़ज़ब इस रुत्बे तक पहुंचाने में क़ासिर (लाचार) है। आपको ज़रूर किसी ऐसे लड़के का हाल याद होगा, जिसके माँ बाप ने हर तरह से कोशिश की कि वो इल्म हासिल करे। कभी उस को मिठाई ले दी। कभी उम्दा कपड़े बनवा दिए। कभी घड़ी ख़रीद दी। कभी नसीहत से समझाया और जब यूं ना माना तो मुशकीं कस (बाज़ू बांध) कर धूप में डाल दिया। या कभी कोठरी में बंद कर दिया। कभी खाना ना दिया। कभी पीट डाला। ग़रज़-कि लाड दुलार (मुहब्बत) से ज़ोर जबर (सख़्ती, ज़बरदस्ती) से। जो कुछ कर सकते थे, उन्होंने सब कुछ किया। लेकिन उस पर कुछ असर ना हुआ। अगर हुआ तो ये कि और भी चिकना घड़ा (बेशर्म) बना दिया। अगर उस में पढ़ने लिखने की मुहब्बत होती, तो वो ख़ुद बख़ुद इल्म हासिल करने में लगा रहता। और ऐसी दुरुश्ती (सख़्ती) और नर्मी की चंदाँ हाजत (बिल्कुल ज़रूरत) ना होती। मगर चूँकि इल्म से उन्स (लगाओ) ना था। इस इनायत (मेहरबानी) और सख़्ती ने भी कुछ काम ना किया और वो ख़ाली रहा। सिर्फ इल्म ही में नहीं, बल्कि हर एक हुनर। हर एक हिर्फ़ा (पेशा) और हर एक काम में इस बात की तस्दीक़ (सबूत) होती है।
काम से लज़्ज़त उठाने का एक फ़ायदा ये होता है कि इन्सान इस में ज़्यादा तवज्जोह सर्फ़ करता है। हमें एक लतीफ़ा याद आता है, गो वो ज़र्राफ़त (मज़ाक़) से भरा हुआ है। ताहम इस मौक़े पर निहायत नसीहत आमेज़ मालूम होता है। कहते हैं कि एक नौजवान साहब कमरे में बैठे अपनी मंसूबा (मंगेतर) के मुहब्बतनामे की राह देख रहे थे। मगर इत्तिफ़ाक़ से नामा-बर (ख़त लाने वाला) को देर लग गई। एक एक पल सदीयों के बराबर गुज़रने लगा। कभी अंदर आते, कभी बाहर जाते। कभी आह सर्द भर कर कुर्सी पर गिर पड़ते थे। कभी फिर उठ कर दरीचे (खिड़की) से झांक लेते थे। इस तरह बहुत हाथ पांव मारे एड़ीयां रगड़ीं, लेकिन नामा बर (ख़त लाने वाला) की बू तक ना आई। आख़िर इस इज़तिराब (बेचैनी) में साहब को ये सूझी कि चिट्ठी रसां तो क्या जाने कब आए चलो हम ज़रा ख़त (हजामत बनाना) ही बना लें। आईना ढब (तरीक़ा) से रखकर साबुन मलना शुरू किया। जब रेश-ए-मुबारक (दाढ़ी) के बाल ख़ूब भीग गए, तो आपने उस्तरा उठाया, और सफ़ाई शुरू की। लेकिन ध्यान चिट्ठी रसां की तरफ़ अब भी लगा हुआ है। दरवाज़े की तरफ़ बार-बार देखते जाते हैं। मूंछों के नज़्दीक जब उस्तरा पहुंचा। तो किसी ने किवाड़ (दरवाज़ा) खटखटा कर कहा, हुज़ूर चिट्ठी। चिट्ठी का नाम सुनते ही बे-इख़्तियार मुँह फेरा। और ये भूल गए कि हाथ में उस्तरा भी है। मुँह फेरना था कि निस्फ़ नाक नदारद (आधी नाक कट गई) घबरा कर उठे। तो उस्तरा हाथ से निकल कर पांव पर बैठा। वहां अँगूठा क़लम (कट) कर दिया। अब फ़िक्र ये लगी कि चिट्ठी रसान के सामने हूँ तो क्योंकर हूँ। सोचते सोचते ये ठहरी, कि नाक का टुकड़ा उस की जगह, और अंगुठा उस की जगह लगा दूँ, और फिर चिट्ठी लेने जाऊं। झुक कर उठाने लगे मगर ये भी बे तू जुही (लापरवाही) से। जल्दी जो की तो नाक का टुकड़ा पांव में, और पांव का अँगूठा नाक में लग गया। अजीब अलख़लफ़त (अनोखी शक्ल) का बन गए। चाहे ये बात सच्च हो या ना हो। लेकिन इस अम्र का इन्कार कोई नहीं कर सकता, कि बेतवज्जुही के नतीजे इसी क़िस्म के होते हैं। अगर इस लतीफे का हीरो (बहादुर) एक काम तवज्जोह और रग़बत (दिलचस्पी) से करता। यानी अगर इंतिज़ारी करने लगा था, तो इंतिज़ारी ही करता या अगर ख़त बनाने लगा था, तो ख़त ही तवज्जोह से बनाता। तो नाक और पांव की खंडित (टुकड़े) ना होती।
एक और फ़ायदा काम से लज़्ज़त उठाने का यह होता है कि जितना हिस्सा इस काम का दिल की ख़ुशी और रजामंदी से किया जाता है। वो नुक्ता-चीनी और ऐब गीरी (नुक़्स) से बरी (पाक) होता है। बल्कि आला दर्जे की ख़ूबसूरती और कमालियत ज़ाहिर करता है। एक मर्तबा एक दोस्त के हाँ जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। वो कुछ लिख रहे थे। क़लम आंधी की तरह चल रहा था। और रोशनाई (स्याही) किसी जगह तो इतनी गिर पड़ती थी कि सारी जगह काली हो जाती थी, और किसी जगह इतनी थोड़ी कि ऐनक लगा कर भी देखते तो हुरूफ़ मुश्किल से नज़र आते। उन से पूछा कि भाई इतनी जल्दी क्यों करते हो? कोई तल्वार तो लिए नहीं? जवाब दिया। अरे भई ख़ामोश ही रहो।
बला को सर से टलने दो। उधर वो ये जवाब देते थे। और इधर उनका दस्तख़त (हाथ से लिखा) ज़बान-ए-हाल से ये कह रहा था। मियां तुमने तो मुफ़्त में जवाब देने की तक्लीफ़ उठाई। ये तो सिर्फ सर बतरफ़ देखने से मालूम हो जाता कि आप ने बला ही टाली है। अगर ऐसे ख़त के मुक़ाबिल एक नस्तअलीक़ (फ़ारसी का रस्म-ए-ख़त जो साफ़ और सीधा होता है) खुशख़त रिसाला रख दिया जाये। तो उस का एक एक नुक़्ता और शोशा पुकार कर ये कहेगा। कि मुझको ये ख़ूबसूरती और ख़ुश-उस्लूबी, और मेरे लिखने वाले को तहसीन व आफ़रीं (तारीफ़ व मर्हबा) हरगिज़ नसीब ना होती। अगर वो सब कुछ छोड़ छाड़ कर मुझको मुहब्बत के साथ ना लिखता। और मेरी ख़ूबसूरती को बहम पहुंचाने में ज़र ज़ोर (पैसा, क़ुव्वत) और मग़ज़ (दिमाग़) ख़र्च ना करता। कैसी-कैसी तस्वीरें नज़र से गुज़रती हैं, जिनका दिलकश कमाल देखने वालों को हैरत आग का पुतला बना देता है। कैसी-कैसी इमारतें आँखों के सामने आती हैं, जिनकी बे मिस्ली और बेनज़ीरी पर लोग अश अश (बहुत ख़ुश हो कर तारीफ़ करना) करते थकते नहीं। कैसी कैसी अलवाल ग़र्मियां सुनने में आती हैं, जिनका फ़क़त तज़्किरा सामईन (सुनने वाले) के अंदर उमंगों के दरिया जारी कर देता है। कैसी-कैसी जान निसारियां वाक़ेअ होती हैं, जिनका मह्ज़ इल्म दिल में जोश की आग भड़का देता है। पर अगर इन तमाम इल्मी और जंगी और मज़्हबी कामों की तह में नज़र करें, तो इनकी बुनियाद उसी मुहब्बत पर पाएंगे, जिसका ज़िक्र हम कर रहे हैं।
सबसे बड़ा फ़ायदा काम की मुहब्बत से से ये होता है कि अपने काम को करने वाला पूरा करके छोड़ता है। वो निस्फ़ या तीन चौथाई पूरा करने से ख़ुश नहीं होता। उस की ख़ुशी उस वक़्त कामिल (पूरी) होती है, जब कि वो तमाम व कमाल उस काम को अंजाम दे चुकता है। ना वो कभी थकता और ना कभी शिकायत ही करता है। अब हम उन अहबाब की तरफ़ मुख़ातब होना चाहते हैं। जो मसीही मज़्हब के फ़ैज़ व फ़ज़्ल से, और उस की लज़्ज़त से वाक़िफ़ हो चुके हैं। मगर दुनियावी पाबंदीयों के सबब से अपने ईमान और नजात के काम को पूरा नहीं करते। ये याद रखना चाहिए कि इस लज़्ज़त का घटाना, और बढ़ाना बैरूनी अस्बाब पर बहुत मुन्हसिर है। अगर आप शहद खाते खाते हंज़ल (حنظل तमां, कड़वा फल) का लुक़मा भी ले लें, और फिर शहद की ख़ालिस शीरीनी चाहें। तो ये नामुम्किन है। अगर साफ़ और शीरीं लज़्ज़त दरकार हो, तो उसी अकेले को इस्तिमाल करना चाहिए। प्यारो मसीह का इक़रार करो। क्योंकि उस का इक़रार करना ईमान के काम को पूरा करना है। दिल में मानना और ज़ाहिर में इक़रार ना करना। गोया एक इमारत को निस्फ़ हिस्से तक तैयार करके छोड़ देना है। अगर मकान की दीवारें तैयार की जाएं, खिड़कियाँ और दरवाज़े अंदाज़ से लगा दिए जाएं। आईने मौक़ा बमौक़ा सलीक़े से जोड़ दिए जाएं। क़ालीनों के फ़र्श ठाठ से बिछाए जाएं। लेकिन अगर इस नीम तैयार सजे हुए मकान पर छत ना हो तो इस ज़ेबाइश से किया सूद (फ़ायदा)? अज़ीज़ो ईमान के मकान को ज़रूर पूरा करना चाहिए ताकि ख़ुदावंद के लिए हैकल तैयार हो। ताकि वो इस में बसे और उस की सल्तनत इस में क़ायम हो। और दुनिया जाने कि तुम इस में हज़ (लुत्फ़) उठाते हो और वह तुम में। डाक्टर पन्टिकास्त साहब ने एक और दिन अपने लेक्चर में ज़ेल का क़िस्सा बयान किया। और चूँकि इस जगह भी इस का बयान ज़ेबा (मुनासिब) मालूम होता है इसलिए हम पेश करते हैं। मुल्क स्कॉटलैंड में जब इस बात का चर्चा हुआ कि हिन्दुस्तान, चीन और जापान में मिशनरियों के भेजने का इंतिज़ाम करना चाहिए ताकि वहां जा कर इन्जील मुक़द्दस की बशारत (ख़ुश-ख़बरी) दें तो एक नौजवान लड़की के दिल में ये आरज़ू पैदा हुई कि मैं भी वहां जाऊं। और जा कर अपनी बहनों को मसीह के फ़ज़्ल और मुहब्बत की ख़बर दूँ। माँ को चुपके से कहा, प्यारी मामा इस मामा को दाई वाली ना समझें। अहले बर्तानिया माँ को कहते हैं मेरी प्यारी मामा मैं तो हिन्दुस्तान जाऊँगी। एक तो दिल की ममता कुछ हसब व नसब और माल व दौलत का ग़ुरूर। बुढ़िया निहायत मलूल (ग़म-ज़दा) हुईं। थोड़ी देर तक सकता (बे-होशी) के से आलम में रहीं। मगर जब बेटी को बार-बार यही कहते सुना तो झिड़क कर ये जवाब दिया, अरे लड़की! तू कहीं दीवानी हो गई है? ये क्या रट लगाई है? हिन्दुस्तान जाऊँगी, हिन्दुस्तान जाऊँगी। बावली (पागल) ! कहीं तेरी उम्र की लड़कीयां भी ऐसे-ऐसे काम कर सकती हैं? हाँ मैं मानती हूँ कि ये काम बहुत अच्छा है। पर बेटी तुम ऐसी नाज़ पर्वर्दों (लाड से पली हुई) से नहीं हो सकता। अगर चाहो तो रुपया से, पैसे से मदद दो। हम तुमको नहीं रोकेंगे। मगर जाने का नाम ना लो। बेटी ने रोते और माँ की बलाऐं (प्यार करना) लेते हुए कहा, प्यारी माँ मुझे जाना है, और मैं ज़रूर जाऊंगी। माँ ने बाप ने दोस्तों ने हर-चंद मना किया लेकिन वो कब मानती थी। उस के अन्दर यह सदा आ रही थी उठ और इस मुबारक काम को अंजाम दे। उसने इस आवाज़ को सुना। और इस के बमूजब अमल भी किया। इस तरह के और हज़ारों तारीख़ी क़िस्से मौजूद हैं। मसलन शोहदा के अहवाल जिनके मुतालआ से दिल उमड़ आता है। और आँखें आँसूओं से भर जाती हैं। उनका सूली दिया जाना। शिकंजों में खींचा जाना। पथराओ किया जाना। क़ैद में डाला जाना। और आरों से चीरा जाना। इस बात पर शहादत दे रहा है कि वो अपने ईमान से और इक़रार से लज़्ज़त उठाते थे और इस लज़्ज़त के मुक़ाबिल उन तमाम मुसीबतों को नाचीज़ समझते थे। अज़ीज़ो तुम भी मसीह का इक़रार करो। और इस मुबारक काम को अंजाम दो।
(बाक़ी फिर)
राक़िम
तालिब