क्या ख़ुदा इन्सानी क़ुर्बानी से ख़ुश है?

नाज़रीन ने पढ़ा होगा कि दर नेवला पूना में क्योंकर एक हिंदू ने अपने हमसाये की लड़की को देवता के आगे बलि (क़ुर्बानी) दे दिया। और अब वो अदालत में ज़ेर मुवाख़िज़ा (जवाबतल) है। बनारस में भी, जो अहले हनूद का मुक़द्दस व मुतबर्रिक शहर है। इसी तरह एक लड़के को चंद हिंदूओं ने बलि चढ़ा दिया था, जिसकी पादाश (सिला, बदला) में दो शख्सों को फांसी दी गई। हम चाहते हैं कि थोड़ी

Is the scrifice of Human being please God?

क्या ख़ुदा इन्सानी क़ुर्बानी से ख़ुश है?

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan June 22, 1894

नूर-अफ्शाँ मत्बूआ 22 जून 1894 ई॰

नाज़रीन ने पढ़ा होगा कि दर नेवला पूना में क्योंकर एक हिंदू ने अपने हमसाये की लड़की को देवता के आगे बलि (क़ुर्बानी) दे दिया। और अब वो अदालत में ज़ेर मुवाख़िज़ा (जवाबतल) है। बनारस में भी, जो अहले हनूद का मुक़द्दस व मुतबर्रिक शहर है। इसी तरह एक लड़के को चंद हिंदूओं ने बलि चढ़ा दिया था, जिसकी पादाश (सिला, बदला) में दो शख्सों को फांसी दी गई। हम चाहते हैं कि थोड़ी देर के लिए सवाल मुन्दरिजा उन्वान पर इस वक़्त मज़्हब और सरकारी नज़र से ग़ौर करें, कि इन्सान की क़ुर्बानी उन की रू से कैसी है। और उस के जवाज़ (क़ानूनी मंज़ूरी) अदम जवाज़ (ना मंज़ूरी) पर क्या अक़्ली व नक़्ली दलाईल पेश की जा सकती हैं। इस में शक नहीं, कि क़ुर्बानी गुज़रानना या बलि चढ़ाना मज़्हबी दस्तुरात में सबसे ज़्यादा क़दीम, और एक आलमगीर दस्तूर है। जो हर एक मज़्हब में किसी ना किसी तरीक़ पर अमलन माना जाता है।

मज़्हबी नज़र से ग़ौर करने में सिर्फ इन्सानी क़ुर्बानी ख़ुदा को मक़्बूल और पसंदीदा मालूम होती। और अगर क़ुर्बानी या बलि देने से गुनेहगार और ख़ताकार इन्सान के लिए अपना कोई कफ़्फ़ारा या बदला देना मक़्सूद है, तो इन्सान ही इन्सान का बदला हो सकता है। और अक़्ल भी इस को क़ुबूल करती है। क्योंकि ये अजीब बात होगी, कि इन्सान गुनाह करे, और अपने बदले हैवान (जानवर) को बलि देकर इलाही रजामंदी व माफ़ी हासिल करे। इस में शक नहीं कि “बदन की हयात लहू में है।” और इन्सान और हैवान दोनों का लहू सुर्ख़-रंग है। लेकिन हाँ हैवानी हयात और ज़ाहिरी रंग और सूरत से मुराद नहीं है। तमाम दुनिया के हैवानात और लहू इन्सानी रूह व जिस्म के हम-क़ीमत व हमक़द्र नहीं हो सकते। अलबत्ता इन्सानी रूह व जिस्म, इन्सानी रूह व जिस्म के साथ हम-क़ीमत व हमक़द्र हैं। पस ज़रूर है कि इन्सान के बदले इन्सानी क़ुर्बानी या बलि ही ख़ुदा की नज़र में मक़्बूल व पसंदीदा फ़िद्या, और ख़ताकार इन्सान के लिए ज़रीया इलाही रजामंदी और मूजिब हुसूल-ए-नजात अबदी हो। इब्राहिम से इज़्हाक़ को क़ुर्बानी के लिए तलब करना कोई फ़ुज़ूल और बेमाअनी अम्र ख़ुदा तआला की तरफ़ से ना था। बल्कि इस में यही इशारा था कि आदम ने इलाही हुक्म उदूली की, वो वाजिब-उल-क़त्ल है। उस का बदला इन्सानी लहू ही हो सकता है, और बस। सवाल हो सकता है, कि बिलफ़र्ज़ इज़्हाक़ का ज़बीहा फ़िलवाक़े गुज़रना गया होता, तो क्या वो बनी-आदम के गुनाहों का कफ़्फ़ारा और बदला हो सकता? हम ये जवाब कह सकते हैं, कि हरगिज़ नहीं। बल्कि उस हुक्म से ये ज़हन नशीन कराना कि “जान के बदले जान।” मक़्सूद था। और इस ताअलीम पर इब्राहिम के कामिल ईमान की आज़माईश थी, कि वो इन्सानी क़ुर्बानी की क़द्र व क़ीमत पहचान कर उस मुबारक नस्ल मौऊद पर अपना भरोसा और उम्मीद रखे, कि वो “इस लायक़ है।, कि उस किताब को ले। और उस की मोहरें तोड़े, क्योंकि वो ज़ब्ह हुआ। और अपने लहू से हमको हर एक फ़िर्क़े, और अहले ज़बान और मुल्क, और क़ौम से अपने ख़ुदा के वास्ते मोल लिया।

ताज्जुब नहीं, कि ये क़दीम ख़याल इन्सानी तबाईअ (तबइयत की जमा) में जागज़ीन (पसंदीदा) होने से बाअज़ अक़्वाम में इन्सानी क़ुर्बानी ज़्यादा अज़मत व इज़्ज़त के लायक़ मक़्सूद हो कर गुज़रानी गई हैं। और हिन्दुवों में अब भी वक़्तन-फ़-वक़्तन उस का ज़हूर कहीं ना कहीं हो जाता है। अब अगर कोई मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाला) हो, कि दर हाल ये कि इन्सानी क़ुर्बानी मज़्हबन जारी है, तो क्यों उस के आमिल (अमल करने वाले) मुजरिम-ए-सरकार और सज़ावार मौत ठहरते हैं?, तो जवाब यही है, कि वो बेऐब इन्सानी क़ुर्बानी जो ख़ताकार बनी-आदम के लिए मतलूब (तलब करना थी) गुज़र चुकी, और अब किसी गुनाह आलूदा इन्सानी क़ुर्बानी का गुज़राँना अपने हम-जिंस का ख़ून करना है, क्योंकि “सभों ने गुनाह किया, और ख़ुदा के जलाल से महरूम हैं।”