इस में शक नहीं, कि जब ख़ुदा-ए-ख़ालिक़ अर्ज़ व समा (आस्मान व ज़मीन को बनाने वाला) ने सब कुछ पैदा और मुहय्या कर के आदम को ख़ल्क़ किया। तो वो अपने ख़ालिक़ व मालिक के सिवा किसी को दोस्त ना रखता था। और सिर्फ उसी के साथ मुहब्बत सादिक़ रखकर उस की
Love in not in it
मुहब्बत इस में नहीं
By
One Disciple
एक शागिर्द
Published in Nur-i-Afshan Nov 2, 1894
नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 2 नवम्बर 1894 ई॰
मुहब्बत इस में नहीं, कि हमने ख़ुदा से मुहब्बत रखी। बल्कि इस में है कि उसने हम से मुहब्बत रखी। और अपने बेटे को भेजा। कि हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा होए। 1 यूहन्ना 4:10
इस में शक नहीं, कि जब ख़ुदा-ए-ख़ालिक़ अर्ज़ व समा (आस्मान व ज़मीन को बनाने वाला) ने सब कुछ पैदा और मुहय्या कर के आदम को ख़ल्क़ किया। तो वो अपने ख़ालिक़ व मालिक के सिवा किसी को दोस्त ना रखता था। और सिर्फ उसी के साथ मुहब्बत सादिक़ रखकर उस की इताअत व इबादत में मसरूर व मशग़ूल (ख़ुश व मसरुफ़) था। लेकिन अफ़्सोस वो इस मुबारक हालत में क़ायम ना रहा। और इम्तिहान में पड़ कर ख़ुदा से दूर व महजूर (जुदा) हो गया। उस को ख़ुदा की हुज़ूरी से ख़ौफ़ आया। और उस के हुज़ूर से भाग कर अपने को दरख़्तों में छुपाया। मुहब्बत के बदले उस के दिल में ख़ुदा से नफ़रत व दहश्त (ख़ौफ़) पैदा हो गई। और इताअत व इबादत की जगह ना-फ़र्मानी व बग़ावत (सरकशी) दाख़िल हुई। उस की अक़्ल यहां तक ज़ाइल (कम) हो गई, कि उसने अपने को बाग़ के दरख़्तों में इस हमा जा हाज़िर व नाज़िर (हर जगह मौजूद होने वाला) दानाए निहां आश्कारा से छुपाना चाहा। जिसका इर्फ़ान दाऊद के लिए निहायत अजूबा (अनोखा) था। और जिसकी निस्बत उसने यूं लिखा है, तेरी रूह से मैं किधर जाऊं। और तेरी हुज़ूरी से मैं कहाँ भागूं? अगर मैं आस्मान के ऊपर चढ़ जाऊं, तो तू वहां है। अगर मैं पाताल में अपना बिस्तर बिछाऊं, तू देखता तो वहां भी है। अगर सुबह के पंख लेकर मैं समुंद्र की इंतिहा में में जा रहूँ, तो वहां भी तेरा हाथ मुझे ले चलेगा। और तेरा दहना हाथ मुझे संभालेगा। अगर मैं कहूं, कि तारीकी तो मुझे छुपा लेगी। तब रात मेरे गरदर् वशनी हो जाएगी। यक़ीनन तारीकी तेरे सामने तीरगी (अंधेरा) नहीं पैदा करती। पर रात-दिन की मानिंद रोशन है तारीकी और रोशनी दोनों यकसाँ हैं। (ज़बूर 139:7 से 12 तक) लेकिन हक़ीक़त ये है, कि आदम जब गुनाह का मुर्तक़िब हो चुका उसने ख़ुदा की हुज़ूरी में अपने आपको खड़ा रखने के नाक़ाबिल समझा। और ना चाहा कि अपना शर्मसार चेहरा उस को दिखलाए। और वहशयाना तौर से जिस्म पर पत्ते लपेटे हुए अपनी बदहैती (जसामत) उस पर ज़ाहिर करे अगर यहोवा अपनी लाइंतिहा कुद्दूसी व अदालत के तक़ाज़े के मुवाफ़िक़ उसी बदबख्ती की हालत में आदम को छोड़ देता, और चाहता, कि वो आप अपनी बर्गश्तगी का चारा (सरकशी का हल) करे। और अपने ही किसी अमल व कोशिश से अपनी गुम-शुदा सआदत व शराफ़त को फिर हासिल करे। तो आज के दिन तक उस को (अगर वो ज़िंदा रहता) सख़्त मायूसी व नाकामी के सिवा कुछ भी हासिल ना होता। और उस के साथ उस की नस्ल भी हमेशा के लिए इलाही क़ुर्बत (नज़दिकी) व हुज़ूरी से दूर व महजूर (जुदा) और मातूब व मक़हूर (ग़ज़ब व क़हर के नीचे) रहती। ऐसी ख़राब इन्सानी हालत का कौन अंदाज़ा कर सकता है? इलाही रजामंदी, और हुसूल-ए-नजात में इन्सान की बेमक़दूरी व लाचारी की निस्बत तजुर्बेकार मशहूर रोज़गार मुसन्निफ़ ज़बूर ने बहुत दुरुस्त लिखा है, कि उनमें से किसी का मक़्दूर (ताक़त, हैसियत) नहीं, कि अपने भाई को छुड़ाए। या उस का कफ़्फ़ारा ख़ुदा को दे, कि उनकी जान का फ़िद्या भारी है। (ये काम अबद तक मौक़ूफ़ रखना होगा) कि वो सदा जीता रहे। और हरगिज़ मौत को ना देखे। ज़बूर 49:7, 8, 9 पस इस परेशान हाली में जब कि इन्सानियत चिल्लाती थी, कि ख़ताओं ने मुझे मग़्लूब किया है। हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा तूही करेगा। तो ख़ुदा ने जो मुहब्बत है। जिसका ग़ुस्सा एक दम का है। और जिसके करम में ज़िंदगानी है। और जो ग़ुस्सा करने में धीमा और शफ़क़त में बढ़कर है। जिसका झुन्झलाना दाइमी (हमेशा) तक नहीं। और जो अपने ग़ुस्से को अबद तक नहीं रख छोड़ता। उस की हालत ज़ारो ख़ार (बद-हाल) पर रहम किया। और आप ही उस के बचाने की तदबीर निकाली। और गुम-शुदा व दिल-शिकस्ता आदम को एक ऐसे बचाने वाले और दर्मियानी की ख़ुशख़बरी से जो औरत की नस्ल से ज़ाहिर हो कर। अपनी एड़ी को कटवा कर उस के दुश्मन के सर को कुचले। हयात ताज़ा और मसर्रत बे-अंदाज़ा बख़्श कर अज सर-ए-नौ जादा (रास्ता, तरीक़ा) तस्लीम व रज़ा में क़दम रखने के लिए क़ाबिल कर दिया। बक़ौल शख़से जो दरवाज़ा अंदर से बंद किया गया। वो अंदर ही से खुल सकता है। सिर्फ इस निहायत मुख़्तसर ख़ुशख़बरी पर ईमान लाए। और वाअदा इलाही को यक़ीनी जानने के लिए आदम के कान में गोया इलाही आवाज़ ये कहती हुई सुनाई दी। कि मैंने तेरी ख़ताओं को बादल की मानिंद। और तेरे गुनाहों को घटा की मानिंद मिटा डाला। मेरी तरफ लौट आ, कि मैंने तेरा फ़िद्या दिया है।
बाअज़ लोग इस मुश्किल को पेश कर के ये सवाल किया करते हैं, कि आदम के वक़्त से मसीह के ज़ाहिर होने तक जो लोग गुनेहगार थे उनकी नजात किस ज़रीये से हुई होगी। क्योंकि मसीह ने इस अर्से में मुजस्सम हो कर गुनेहगारों के लिए अपने को कफ़्फ़ारे में नहीं गुज़राना था? ऐसे सवाल का साफ़ और सही जवाब यही है, कि इसी एक कामिल ख़ुशख़बरी पर जो आदम को दी गई। ईमान लाने से जुम्ला मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) व मुताख्खिरीन (बाद में आने वाले) की नजात हो सकती है। फ़र्क़ सिर्फ इतना है कि वो ईमान रखते थे, कि मौऊद ह नजातदिहंदा आएगा। और ये ईमान रखते, कि वो मौऊदा नजातदिहंदा आ गया। और ये फ़र्क़ भी सिर्फ इन्सानी ख़याल से है वर्ना ख़ुदा तआला के नज़्दीक माज़ी व मुस्तक़बिल यकसाँ है। पस जब वक़्त पूरा हुआ खुदा ने अपने बेटे को भेजा। जो औरत से पैदा हो कर शरीअत के ताबे हुआ, ताकि वो उनको जो शरीअत के ताबे हैं मोल ले। और हम ले-पालक (लेकर पाले हुए) होने का दर्जा पाएं। दरहालिका (इस सूरत) में वो फ़रिश्तों का नहीं, बल्कि अब्रहाम की नस्ल का साथ देने वाला था। इस सबब से ज़रूर था, कि वो हर एक बात में अपने भाईयों की मानिंद बने। ताकि वो उन बातों में जो ख़ुदा से इलाक़ा (मुताल्लिक़) रखतीं लोगों के गुनाहों का कफ़्फ़ारा करने के वास्ते एक रहीम और दियानतदार सरदार काहिन ठहरे। इब्रानियों 2:17
ये बेनज़ीर ताअलीम मसीहिय्यत के इलावा दुनिया के किसी मज़्हब में नहीं पाई जाती। और ना किसी पेशवा-ए-मज़्हब ने सिखलाई कि “मुहब्बत इस में नहीं, कि हमने ख़ुदा से मुहब्बत रखी। बल्कि इस में है कि उस ने हमसे मुहब्बत रखी और अपने बेटे को भेजा कि हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा हो।” क्या ये अजीब व ख़ुद निसार (ख़ुद को क़ुर्बान करने वाली) मुहब्बत नहीं, कि वो जो मख़दूम व मस्जूद मलाइक (मालिक, क़ाबिल-ए-ताज़िमम जिसे फ़रिश्ते सज्दा करें) और माबूद ख़लाइक (दुनिया के लोगों का ख़ुदा) था। वो शक्ल इन्सानी में इन्सान के बचाने के लिए आए, और ख़ादिम की सूरत पकड़ के उनके लिए अपनी जान तक देने से दरेग़ ना करे? कौन इस बेमिस्ल मुहब्बत की वुसअत व अज़मत (गहराई, बड़ाई) का बयान कर सकता है?
बाअज़ लोग एतराज़न ये सवाल किया करते हैं, कि क्या ख़ुदा-ए-क़ादिर इन्सान को और किसी तदबीर से नजात नहीं दे सकता था, कि उस को ज़रूरत लाहक़ हुई कि अपने बेटे को दुनिया में दुख उठाने के लिए, और अपने को कफ़्फ़ारे में गुज़राँने के लिए भेजे? हम इस का माक़ूल व मन्क़ूल (लिखा गया) यही जवाब दे सकते हैं, कि अगर इस से बेहतर और कोई तदबीर होती, तो वो ज़रूर उस को इख़्तियार करता।
चूँकि बिगड़ी और गिरी हुई वाजिब-उल-ताज़ीर (सज़ा के लायक़) इन्सानियत के सुधारने। उठाने और ख़ुदा के हुज़ूर में इस को मग़फ़ूर व मंज़ूर (माफ़ी, क़बूलीयत) ठहराने के लिए एक कामिल इन्सानी नमूने और फ़िद्ये की ज़रूरत थी, लिहाज़ा कलिमतुल्लाह का बशक्ल इन्सान मुजस्सम हो कर दुनिया में आना रहमत व फ़ज़्ल इलाही की एक कामिल दलील है। जिसने सब कुछ दुरुस्त कर दिया, और इन्सान को अज़ सर-ए-नौ (नए सिरे से) ख़ुदा की सूरत पर बन जाने का इक़तिदार बख़्शा। और अब बक़ौल मसीही शायर :-
इन्सानियत को मख़र हे ज़ात मसीह से
इज़्ज़त थी ख़ाक की मगर उस की ज़राना थी