सग दुनिया

आलमे सफ़ली (दुनिया, ज़मीन) में मौजूदात की तीन क़िस्में हैं। जमादात, नबातात और हैवानात। ये तीनों क़िस्में बजहत (वजह, सबब) हद माअनवी सब में शामिल हैं। और अज्साम-ए-तब्ई (पैदाइशी जिस्म) सबको हासिल हैं। सब यकसाँ हैं। लेकिन बाद अमतंराज अनासिरे

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सग दुनिया

By

Ahmad Shah Shaiq
अहमद शाह शाईक

Published in Nur-i-Afshan Nov 2, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 2 नवम्बर 1894 ई॰

शेफ़्ता दुनिया पे दुनिया दार है

ख़्वाहिश सग जानिब मुर्दार है

आलमे सफ़ली (दुनिया, ज़मीन) में मौजूदात की तीन क़िस्में हैं। जमादात, नबातात और हैवानात। ये तीनों क़िस्में बजहत (वजह, सबब) हद माअनवी सब में शामिल हैं। और अज्साम-ए-तब्ई (पैदाइशी जिस्म) सबको हासिल हैं। सब यकसाँ हैं। लेकिन बाद अमतंराज अनासिरे अर्बआ[1] (امتنراج عناصر اربعہ) के जैसी क़ाबिलीयत जिसमें पैदा हुई। उस के वास्ते वैसी ही फ़ज़ीलत (बरतरी) भी है। इस मुक़ाम पर हम सिर्फ हैवानात में से हैवान-ए-नातिक़ (बोलने वाला हैवान यानी इन्सान) की कुछ तारीफ़ कर के अपने उन्वान की तरफ़ रुजू होंगे।

इन्सान सिफ़त नतक़ (बोलने की ख़ूबी) से मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की गई हो) है। इसी वजह से इन्सान सब अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) अज्साम पर मुम्ताज़ (बरतर) है। मगर नतक़ से मुराद फ़क़त बोलना और बातें करना नहीं है, बल्कि इस से मुराद क़ुव्वते इदराक माक़ूलात है। ख़ैर को शर से जुदा करके पहचानना और अपने ख़ालिक़ के मक़्सूद को जान कर उसकी मर्ज़ी बजा लाना। इसी वजह से हक़ तआला ने इन्सान के जुम्ला हवाईज और ज़रियात का मदार राय व तदबीर पर रखा है। वर्ना बहाइम (जानवर) और परिंदों को ख़ुदा तआला ने किसी तदबीर व राय या सनअत का मुहताज नहीं रखा। बाअज़ उनकी ज़रूरीयात उन के बदन ही में मौजूद हैं। और बाअज़ क़ुदरती तौर पर मुहय्या कर रखी हैं अगर किसी को मुहताज-ए-सनअत किया तो उसको सनअत भी ताअलीम कर दी मसलन घोंसला झूंज बनाना खोदना वग़ैरह बख़िलाफ़ इस के इन्सान की ग़िज़ा, लिबास, नफ़ा, नुक़्सान, सब मुन्हसिर सनअत पर रखा और ज़रूरत को उसकी राय और तदबीर के हवाले किया। और यूँही नेकी और बदी को भी उसके फेअल मुख़तारी पर छोड़ दिया चाहे तो अपने अफ़आल (काम) नेक से हुस्न आख़िरत को इख़्तियार करे या तो अपने अफ़आल अबद से हलाकत-ए-अबदी का वारिस हो और वक़्तन-फ़-वक़्तन अपने पाक और बर्गुज़ीदा लोगों की मार्फ़त अपने इल्हाम से भी आगाह किया। और बार-बार सिखाया कि किस तरह माबूद-ए-हक़ीक़ी की इबादत करके अपनी रूह को एक हसीन और ख़ूबसूरत मलिका बनाए बहाइम (जानवर) को ख़ुदावन्द करीम ने अपनी बंदगी से आज़ाद किया। क्योंकि वो अपनी बुजु़र्गी और हश्मत सिर्फ़ इन्सान से चाहता है। हालाँकि बहाइम और दीगर मौजूदात के ख़ल्क़ करने से भी उस का जलाल उसी क़द्र ज़ाहिर होता है। जितना कि इन्सान अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात के वजूद में लाने से। नबातात और हैवानात मुतलक़ भी उसकी हम्दो सना में सर बसजूद (सर झुकाना) हैं। मगर उस क़ादिरे मुतलक़ ने अपनी ख़ास बंदगी और इताअत के लिए सिर्फ इन्सान को मुंतख़ब किया। पस इसलिए इन्सान पर फ़र्ज़ है। कि अपने ख़ालिक़ ख़ुदा-ए-वाहिद की बंदगी बुज़र्गी करे उसकी बुजु़र्गी और जलाल किसी दूसरे को ना दे क्योंकि सिवा उस के कोई दूसरा ख़ुदा नहीं। वो ख़ुद हुक्म करता है कि मेरे आगे तेरे लिए कोई दूसरा ख़ुदा ना हो। मगर बाअज़ बशर ऐसे हैं जो सूरत तो इन्सान की रखते हैं। मगर ख़साइल उनमें बहाईम (जानवर) के हैं। यानी सिर्फ खाना, पीना, पहनना।

ऐश व इशरत करना, और सो रहना। यही उनका ख़ास काम है। बाक़ी अपने ख़ालिक़ को याद करना, या उस की सताइश में अपनी ज़बान जो उसी की दी हुई है वा (खोलना) करना वो आर (शर्मिंदगी) समझते हैं। दीगर अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) के वो लोग हैं। जिसका फ़हम व इल्म व कमाल अपने ख़ालिक़ की बाबत बहुत ज़्यादा बढ़ा हुआ है। और वो लोग मआश (रोज़ी कमाना) की तरफ़ बक़द्र ज़रूरत तवज्जह करते हैं। और हमा-तन इस्लाह उमूर मुआद (आख़िरत पर तवज्जोह करना) में मुतवज्जोह रहते हैं। और इन का नफ़्स हर वक़्त तालिब कमाल रहता है। उनको तमाम नूअ बशर पर तर्जीह व फ़ज़ीलत है। इसी अज्सामे आलम में तवारीख़ हमको बतलाती है, कि चंद ऐसे लोग भी गुज़रे हैं, जिनके दिल कुल दुनिया की लज़्ज़तों से बिल्कुल तो पाक नहीं थे। मगर तो भी जुम्ला उमूर उनके जुज़्वी व कुल्ली आला दर्जे के कमाल के तालिब थे। (हालाँकि वो सब कामिल ना थे।) कलाम-उल्लाह सिवाए एक के और किसी को कामिल नहीं बताता। और वही एक जो बिल्कुल कामिल और बेऐब था। खुद अपने हक़ में दावा करता है, कि कौन तुम में से मुझ पर गुनाह साबित कर सकता है। ऐसे लोगों को ख़ुदावंद करीम ने वही व इल्हाम से ताईद फ़रमाई ये लोग सूरत इन्सान में हो कर सीरत फ़रिश्तों की रखते थे। और इस हालत में फ़रिश्तों से बढ़कर थे।

कलाम-उल्लाह के मुतालए से मालूम होता है कि इन्सान दो तरह पर तक़्सीम किए गए हैं एक तो वो, जिनको कलाम मुक़द्दस ख़ुदा-परस्त का ख़िताब देता है। दूसरे जिनको वो दुनिया परस्त कहता है हमारे मज़्मून का उन्वान सग-ए-दुनिया है जो बऔज़ दुनिया परस्त के इस्तिमाल किया गया है। ख़ुदा की लातादाद सिफ़तों में से दो सिफ़तें अदल व रहम हैं। जो ख़ास कर इन मज़्कूर बाला तफ़रीक़ों के होने पर मुन्हसिर हैं। अगर ये तफ़रीक़ ना होती तो दोनों सिफ़तों का होना भी ख़ुदा में लाज़िम ना होता। जैसा कि एक बुज़ुर्ग फ़ादर का क़ौल है कि ख़ुदा हमेशा से रहीम व आदिल ना था। मगर जब इन्सान ने गुनाह किया। तो उसने इन दोनों सिफ़तों को इख़्तियार किया। गो ये दोनों सिफ़तें इब्तिदा से उस की ज़ात में मौजूद थीं।

हम अपने इस मज़्मून में सिर्फ दुनिया परस्त, या सग-ए-दुनिया की ज़िंदगी के हालात पर ज़रा ग़ौर करने के लिए नाज़रीन की तवज्जोह तलब करते हैं। दुनिया परस्त पाकीज़गी और इलाही मुहब्बत में कोताही (लापरवाही) पहलू-तही (दामन बचाना) सस्ती व बेपर्वाई करता है। इस के ख़ुदा-परस्त हमदर्द उस की इस बदतरीन हालत को देखकर नालां (तंग) और शाकी (शिकायत करना) और रहते हैं। और आख़िर को थक कर वो भी इस से कनार कशी करना ही मुनासिब जानते हैं क्योंकि वो बख़ूबी वाक़िफ़ हैं, कि इस का सबब सिर्फ ये है कि उस शख़्स को मार्फ़त इलाही का इर्फ़ान हासिल नहीं हुआ। और ना वो हासिल करना चाहता है। वो ख़ैर व शर (अच्छाई, बुराई) में तमीज़ नहीं करता। रूह के नफ़ा व नुक़्सान की उस को चंदाँ (बिल्कुल) पर्वा नहीं। क़वाइद इल्म व हिक्मत से जाहिल, और ये आदत उस के क़ल्ब (दिल) में रासिख़ (मज़्बूत) हो गई है। ऐसे शख़्स को कोई नसीहत, या कलिमात-ए-हम्दर्दी हरगिज़ कुछ असर ना करेंगे। मगर ख़ुदा की रूह के आगे कोई काम नामुम्किन नहीं है। तारीख़ शाहिद (गवाह) है कि उसने बड़े-बड़े संगदिलों को मोम (नरम) कर दिया है।

दुनिया परस्त रात-दिन बद सोहबत (बुरी दोस्ती) की तलाश में रहता है। मार्फ़त इलाही से दूर दूर भागता है। ऐसे लोगों के हक़ में दाऊद नबी का कलाम यूं सादिक़ आता है, कि लानत है उस शख़्स पर जो शरीरों और ख़ताकारों की मज्लिस में बूदो बाश करता है। और ख़ुदावंद के कलाम से नफ़रत रखता है। दुनिया परस्त की तबीयत नेको कारों की तरफ़ से मुतनफ्फर (नफ़रत करना) है। अपने नफ़्स के वास्ते भी सिवाए इन बातों के जिनका आदी हो गया है किसी तरह की किताब की फ़ज़ीलत व कमाल को पसंद नहीं करता बल्कि अगर ऐसा मौक़ा व महल बहम पहुंचता है। तो उज्र (बहाना) करता है। पहलूतिही कर जाता है। ऐसे लोगों से जो अस्हाब फ़ज़ाएल व मुहब्बत होते हैं नफ़रत करता है। दूर दूर भागता है। जैसे कोई काटे खाता है हमेशा इसी फ़िक्र में रहता है, कि अपनी तन-परवरी (जिस्म को पालने वाला) व ख़्वाहिश पसंदी व इताअत नफ़्स अम्मारा (नफ़्स-परस्ती) रज़ा जोई तबीयत व माद्दा शहवानी दिल अज़ीज़ नफ़्सानी (ख़्वाहिशात के कहे पर चलना, जिस्मानी ख़्वाहिश बदी की तरफ़ तवज्जोह) का दरपे है। उस को इस से कुछ ग़र्ज़ नहीं, कि इस का अंजाम क्या होगा, क्या करता हूँ किस राह चलता हूँ। वो हमेशा लाल और मुहीन कपड़े पहनने का आदी है। इस दुनिया परस्ती में इन्सानी हम्दर्दी को भी उसने ख़ैर बाद कह रखा है। वो एक नज़र ज़ख़्मों भरी लाज़र को नहीं देखता, कि वो किस तरह अपनी इस तबाह हाली में उसकी मेज़ से गिरे हुए टुकड़ों को चुन चुन कर खा रहा है। अफ़्सोस सद-अफ़्सोस कि कुत्ते जो अज़ नौ बहाईम (कमतर, जानवर) हैं। उस की हम्दर्दी कर रहे हैं। उस के घाव (ज़ख़्म) को चाट कर साफ़ कर रहे हैं। मक्खीयों को उड़ा रहे हैं। मगर ये शख़्स जो उसी का हम-जिंस, उसी का भाई उसी की मानिंद जिस्म रखता है। ज़रा नज़र भर कर नहीं देखता, कि मेरे एक भाई पर क्या गुज़र रही है। वो अपनी नख़वत (ग़ुरूर, घमंड) के जाम में अल-मस्त है। मगर वक़्त आएगा, कि वो ख़ुद इस नासूरों भरे लाज़िर का मुहताज होगा। वो आरज़ू करेगा, कि काश नासूरों से भरा हुआ लाज़र अपनी उंगली का एक पूर भिगो कर मेरी जलती ज़बान को ठंडा करे। वो हसरत भरी निगाह से लाज़र के आराम और चेन को देखेगा, और इस की तमन्ना करेगा। मगर अब तो इस को एक पानी का क़तरा अपनी ज़बान की तपिश बुझाने को भी नसीब ना होगा।

उस वक़्त दुनिया परस्त अपने अज़ीज़ों और रिश्तेदारों को याद करेगा। मगर कोई काम नहीं आएगा। वो उनकी शान व शौकत को हिक़ारत की निगाह से देखेगा। और अगर मुम्किन हो तो ज़ोर से उनको पुकार कर नसीहत करेगा, कि दुनिया परस्ती छोड़कर हक़-परस्ती को इख़्तियार करो। वो ज़रूर कहेगा, कि इस शान व शौकत को छोड़ो, ख़ुदा-ए-वाहिद लाशरीक की जुस्तजू (कोशिश) करो। ऐसा ना हो कि तुम भी मेरी तरह इस अज़ाब शदीद में पड़ो। मगर अब तो उस की ज़बान हमेशा के लिए उस के तालू से खींची जाएगी। वो क़ब्र की चार दीवारों के अंदर बंद किया जाएगा। क्योंकि जब तक वो दुनिया में था। उस को इस से कुछ ग़र्ज़ ना थी, कि उस की शानो-शौकत और ग़फ़लत (लापरवाई) का क्या अंजाम होगा। इस को अपनी रूह की कुछ फ़िक्र ना थी। वो अपने जिस्म को आरास्ता करना जानता था। वो फ़ानी ख़ुशी से नादीदनी और अबदी ख़ुशी का मज़हका (मज़ाक़ उड़ाना) किया करता था। जो लोग उस के बारे में कुछ ज़िक्र करते थे। उन को सिड़ी व सोदाई (दीवाना, पागल) के ख़िताब उस की सरकार से अता होते थे। ग़र्ज़ कि वो अपनी लज़्ज़त तलबी में ऐसा डूबा हुआ है, कि दरिया-ए-ग़फ़लत व मदहोशी से उभरता ही नहीं। ऐसी बे-होशी की नींद का माता (मदहोश) है, कि आँख नहीं खौलता। वो रात-दिन शराब ख़ुद-पसंदी (अपनी ख़ुदी का नशा) में अल-मस्त पड़ा रहता है। और उन्हीं चीज़ों को पसंद करता है। वैसे ही लहू लइब (ऐश व इशरत) को बेहतर समझता है। जो इस को चौंकने ना दें बल्कि नशा-ए-ग़फ़लत (लापरवाही का नशा) तह बह तह कर के दो आतिशा (डबल, दोहरा) कर दें। क्योंकि वो ख़ूब जानता है, कि अगर मैं ज़रा भी होश में आया, तो अक़्ल अपना काम करने लगेगी। और सबसे पहले अक़्ल इस बात का हुक्म देगी, कि वो अपने नफ़्स की इस्लाह (दुरुस्ती) पर आमादा हो। और ये अम्र उस की इंतिहा की अज़ीयत का बाइस होगा। पस वो क्यों होश में आकर अक़्ल की नसीहत से अज़ीयत का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हो? वो अक़्ल को बालाए ताक़ (ध्यान ना देना) रखकर ग़फ़लत के ख़र्राटे लेता है। ऐसा शख़्स उन्हीं लोगों को दोस्त रखेगा, जो उस को इसी हालत में पड़ा रहने दें। उस की इसी हालत को पसंद करें। लज़्ज़त ही उस को इस चीज़ में होगी। जो उस को बे-ख़ुद रखे। लिहाज़ा ऐसी हालते ज़श्त (बद-शक्ल, बुरी हालत) में अपनी अज़ीज़ रूह को ज़ाए करेगा। और अपने नज़्दीक वो इस को अपनी सआदत समझेगा।

इस के हाशियानशीन (पास बैठने वाले) है इस की इस हरकत से उस को ना रोकेंगे क्योंकि वो ख़ुद भी उसी की तरह हैं। और अपनी ख़ुदग़र्ज़ी से उस की आतिश हवा व हवस (भूक) को ज़्यादा भड़काते रहेंगे। तावक़्ते के ग़फ़लत का जाम पीते पीते वो मौत का जाम पी कर क़ब्र की चार-दीवारी में बंद हो ऐसा शख़्स तो ज़ाहिर में नफ़्स परवर हैं। पर हक़ीक़त में अपनी रूह और जिस्म दोनों का दुश्मन है। और अंजाम ऐसे शख़्स का सिवाए हसरत व अफ़्सोस और हलाकत के और कुछ नहीं है।

दुनिया परस्त अपनी नफ़्सानी ख़्वाहिशों के पूरा करने के लिए बड़ी-बड़ी तदबीरें काम में लाता है। गिले शिकवों के दफ़्तर के दफ़्तर लिख डालता है। ये किस वास्ते? सिर्फ अपनी शहवा-ए-नफ़्सानी (जिस्मानी ख़्वाहिश) के पूरा करने के लिए वो ख़ुदा की हम्द व सना में अपनी ज़बान को वा (खोलना) करना सबसे बड़ा गुनाह जानता है। हक़ीक़ी महबूब यानी अपने ख़ालिक़ को छोड़कर मजाज़ी हुस्न परस्ती का शेवा तरीक़ा इख़्तियार करता है।

अपने मतलब के हासिल करने के लिए उज्लत (जल्दबाजी) करता है और विसाल (मिलाप) के इश्तियाक़ (इंतिज़ार) में घड़ियाँ गिनता है। एक एक साअत (लम्हा) उस को एक एक साल के बराबर गुज़रती है। अपनी ख़्याली दुनिया में माशूक़ के मकान के बाहर ना चार बैठा हुआ दुखड़ा रो रहा है। शिकायतें कर रहा है। ठंडी ठंडी आहें भर रहा है।

दुनिया परस्त जिस तरह अपनी रूह व जिस्म को धोका देता है। चाहता है कि ख़ुदा को भी धोका दे। वो अपनी ज़बान से ख़ुदा-ए-अज्ज व जल (बुज़ुर्ग व बरतर) की मुहब्बत का दावा करता है। हालाँकि जो कुछ वो अपनी ज़बान से कहता है उस के मअनी व मफ़्हूम को बिल्कुल नहीं समझता। शायद पंज वक़्ता नमाज़ पढ़ता और तीस रोज़े भी रखता है। ज़कात भी देता है। मगर ये सब ज़ाहिरदारी है। बातिन का जाल उस का निहायत ख़राब है। और हक़ीक़ी इताअत व बंदगी जो ख़ुदा-ए-पाक ने अपने बंदों के लिए मुक़र्रर की उस पर कभी तवज्जोह भी नहीं करता। ख़ुदा से ऐसा शख़्स वाक़िफ़ नहीं है। और ये बात ज़ाहिर है, कि मुहब्बत किसी शख़्स की किसी शख़्स के वास्ते नहीं हो सकती। जब तक कि वो उस के हालात और कवाइफ़ से मार्फ़ते कामिल (मुकम्मल वाक़फ़ीयत) हासिल ना करे। और महबूब की सिफ़ात पर मुत्ला`अ (आगाह) ना हो। उस का असली ख़ुदा, उस की समझ में और महबूब तो दुनिया ही है। वो अपने ख़ालिक़ परवरदिगार को कब जानता, और किस तरह जान सकता है। क्योंकि लिखा है, कि तुम ख़ुदा और दुनिया दोनों की ख़िदमत नहीं कर सकते। पस जब दुनिया उस का ख़ुदा और महबूब हुई। तो ख़ुदा से उस को वास्ता ना रहा। जो भले से बुरे को तमीज़ नहीं कर सकता वो ख़ुदा से हरगिज़ हरगिज़ मुहब्बत नहीं रख सकता।

जिस वक़्त तक दुनिया की फ़ानी दौलत फ़ानी जिस्म के ख़ुश करने और बेशक़ीमत रूह को बर्बाद करने को उस के पास मौजूद है। दुनिया पर जान देने वाले उस के यार बने रहते हैं। किसी को ये जाम भर कर दे रहा है। कोई ख़ुशामद के अल्फ़ाज़ में इस आब स्याह (काला पानी) की तारीफ़ कर रहा है। कोई तबले की थाप पर दीवाना है। कोई जलसे की हर शैय व इंतिज़ाम को अपने मज़ाक़ के मुताबिक़ पा कर मिर्ज़ा ग़ालिब का ये शेअर जोश व ख़ुरोश से अलाप रहा है :-

लुत्फ़ ख़िराम साक़ी व ज़ौक़ सदाए चंग

ये जन्नत-ए-निगाह हवा फ़िरदौस-ए-गोश है

कोई दुनिया परस्त अपने बाप का माल बटवा कर किसी दूर दराज़ मुल्क का अज़म (इरादा) करता है। तो शैतान के एजैंट फ़ौरन उस के लिए ख़ैर-मक़्दम को बढ़ते हैं। और सदाए अह्सनत (शाबाश, वाह वाह) सुनाते हैं और दुनिया के बे फ़िक्रे उस के चौगिर्द जमा हो कर उस की रूह को क़ाबिले जहन्नम बना कर छोड़ते हैं। और ये सीधा-सादा आदमी इन शैतान के एजैंटों के फंदे में फंसकर। और उनकी चिकनी चुपड़ी बातों पर फ़रेफ़्ता (आशिक़) हो कर ऐश व इशरत के सामान उनसे तलब करता है। और अपने बाप का क़ुव्वत-ए-बाज़ू से कमाया हुआ सरमाया उनके हवाला करता है। मगर वाह-रे इन्क़िलाबे ज़माना आज वही शख़्स हमको एक जंगल में सूअर चराता हुआ नज़र आता है। वो तमाम यार जो उस के पसीने की जगह ख़ून बहाने का दावा करते थे। उस की नज़रों से ओझल (दूर) हैं। कोई इतना भी नहीं करता, कि एक टुकड़ा रोटी और दो घूँट पानी उस को दे लोगों ने उस के दस्तर ख़्वान से उम्दा उम्दा नेअमतें खा कर अपने को हद से ज़्यादा फ़र्बा (मोटा) किया होगा। मगर ये आज सूअर के पसख़ुर्दा (झूटे) छिलकों को खा कर अपना पेट भर ना ग़नीमत जानता है। इस शख़्स को हम फिर भी ग़नीमत समझते हैं। क्योंकि ये अपनी इस हालत पर मुत्ला`अ (बाख़बर) हो कर अपने अज़ीज़ व मेहरबान बाप के घर को याद करता है। और अपनी इशरत के ज़माने के यारों के हक़ में ये शेअर :-

नेअमत में यार-ए-ग़ार मुसबीयत में बरकिनार

दुनिया परस्त देखने वाले हवा के हैं

पढ़ कर ये कहता हुआ अपने बाप के घर जाता है, कि मैं उठ कर अपने बाप के पास जाऊँगा, और उस से कहूँगा, कि ऐ बाप मैंने तेरे हुज़ूर आस्मान का और तेरा गुनाह किया है। और अब मैं इस लायक़ नहीं कि फिर तेरा बेटा कहलाऊँ। मैं तेरी मिन्नत करता हूँ, कि मुझे अपने नौकरों में से एक की मानिंद बना। मगर बाअज़ दुनिया परस्त ऐसे अल-मस्त हैं, कि उनको ख़्वाह कितना ही चौंकाओ वो ज़रा ख़बर नहीं होते। और यूं उनका अंजाम हलाकत होता है। अब ऐ दुनिया के (आशिक़) लोगो ज़माने को हरगिज़ किसी बेवफ़ा से कम ना समझो। दुनिया में क्या है। इस का बयान करना एक तूलानी (लंबी) तारीख़ है। जिसके हर सफे पर ख़ूनीं कफ़नों की यादगार तस्वीरें मौजूद हैं। हर सतर ज़ंजीर पा है। ज़ुल्फ़ व काकुल की पेच दर पेच मज़ामीन ऐसा परेशान नहीं करते। जैसा ज़माने की तारीख़ी सतरें ख़याल में पेचीदगियां पैदा करती हैं। अदम व हसती (ना होना, वजूद) दो ऐसी तस्वीरें नहीं, कि जिनका मंत्र हर वक़्त सामने ना रहता हो। मगर दुनिया के जानदादा इनका ज़र्रा भर ख़याल ना कर के अपने वक़्त को यूंही ज़ाए करते जाते हैं। वो नहीं जानते, कि हमारी रूह जो निहायत बेशक़ीमत है। इस के बचाओ की सूरत का वक़्त गुज़रता जाता है। सुबह व शाम के इख़्तिलाफ़ात से एक अच्छा सबक़ दुनिया परस्तों को हासिल हो सकता है। मगर चश्म-ए-बीना (देखने वाली आँख) और गोश शुन्वा (सुनने वाले कान) चाहिए।

वक़्त की अनमोल पूँजी जिसको इस अल-बज़ाअत (सरमाया, दौलत) कहते हैं मुफ़्त ख़्याल-ए-जानां (महबूब का ख़याल) और शहवाए नफ़्सानी (जिन्सी ख़्वाहिश) के पूरा करने और ऐश व इशरत में बर्बाद हो जाती है और इसी के साथ रूह भी बर्बाद होती है। कोई इनसे दर्याफ़्त करे कि मीठी नींद सोने वालो अब तो उठो। क्या तुमको अब तक इस मुसर्रिफ़ बेटे (ख़र्च करने वाला) के हाल से कुछ इबरत (सबक़) हासिल नहीं हुई? क्या तुमने अपनी ज़िंदगी को पेटैंट (रजिस्ट्री शूदा) करा लिया है। या समझ में इस को रजिस्ट्री करा रखा है कि जिस पर मौत का ज़ोर नहीं चलेगा? क्या तुम अपने सामने गुरू (क़ब्र) को शेर बब्बर की तरह मुँह खोले नहीं देख रहे हो। जो तुमको निगलने के लिए हर वक़्त ताक लगाए बैठी रहती है? क्या तुम ख़याल कर सकते हो, कि तुम्हारा ख़याल इसी तरह दुनिया के ऐश व इशरत के लिए जवान रहेगा? क्या तुम्हारी नाज़ुक ख़्याली ऐसी ही बारीकियां और मोशिगाफ़ीयाँ किया करेगी? क्या तुम्हारे मज़्बूत हाथ यूंही वर्जिश जवाँमर्दी का पट्टा लिए रहेंगे? ऐ ग़ारत गिरो अपनी रूह के लुटेरे ना बनो। दुज़-दीदा निगाहों (नज़र चुराना) से चोरी चोरी मता ख़ुर्दो दानिश (अक़्ल की दौलत) पर हत फेरी (चालाकी, फ़रेबी) ना करो। अपने शबाब (जवानी) के जोशीले ख़ून को जो रगों में पारे की तरह दौड़ रहा है सफ़ैद ना करो। बल्कि उस को अपनी ख़ालिक़ की याद में काम में लाओ। दुनिया की लज़्ज़तों को हासिल करने में माना तुम चाबुकदस्त (होशियार) सही। तुम्हारी निगाहों में मक़नातीसी कशिश सही। तुम्हारी आँखों की पुतलीयां गर्दिश का साथ देती हैं। आस्मान सही ज़माना सही। मगर कब तक? आख़िर एक रोज़ ये सब साक़ित (ख़त्म) हो जाऐंगे। और तुम गुरू (क़ब्र) के दहन (मुँह) का निवाला होगे। मसलन देखो कल तक जो फूलबाग आलम में अपनी महक से दिमाग़ पर क़ाबू किए थी। दिल में जोश पैदा कर रहे थे। ख़याल को पाकीज़गी दे रहे थे। वो आज मुरझाए कुमलाए हुए पड़े हैं। ना किसी हसीन के गले का हार हैं ना किसी मेज़ पर गुलदस्ता बन कर बहार दिखा रहे हैं। नसम सहर के वो नाज़ुक और मस्ताना झोंके जो सुबह को कलियाँ खिला रहे थे। मीठी नींद सोने वालों के सिरहाने पंखा झूल रहे थे। फिर दिन चढ़े कैसे ठंडे पड़ गए।

ऐ दुनिया पर जान देने वालो 94 ई॰ अब क़रीब इख़्तताम है। अगर तुमको इस के आख़िर तक गुर (क़ब्र) की चार दीवारी में बंद होना पड़े तो तुम अपने ख़ालिक़ को क्या जवाब दोगे? अभी उठो। बेदार हो अपनी रास-अल-ब्ज़ाइत (माल, सरमाया) को ग़नीमत जानो। और इस को क़ाबू में रखो। और ख़ुद इस के हर एक लम्हे को बे-बहा मोती समझो। और तौबा करो क़बूलीयत का दर खुला है। बेखटके चले आओ। गुज़श्ता उम्र में तुमको तुम्हारी इन्सानी बहकने वाली आँख ने धोका दिया। जहां इस में सात पर्दे थे वहां एक पर्दा ग़फ़लत का भी इस के आगे मौजूद रहा और इस आठवें पर्दे ने हाइल हो कर अस्ल हक़ीक़त को वस्ल मजाज़ी की हरी-भरी शाख़ों में छिपा दिया। मगर अब इस हालत में तुमको इबरत से सबक़ लेना वाजिब है। वो तुमको बेदार करती है। तुम्हारा फ़र्ज़ है। कि जागो। वो इशारों से बताती है तुम्हारा फ़र्ज़ है समझो। आवाज़ से जगाती है। बल्कि अपने हाथों से शानह (कंधा) हिला कर ख्व़ाब-ए-ग़फ़लत से जगाती है। अब ऐसा ना हो कि तुम उस वक़्त अपनी आँख से ग़फ़लत (लापरवाही) का पर्दा उठाओ। जब तुम मौत का जाम पीने पर तैयार हो मताए कामयाबी को ज़र्द हिना छीन ले साग़र लबरेज़ टूट जाये। और उस वक़्त तुमको ब-सद अफ़्सोस व हसरत ये कहना पड़े :-

दिल में शौक़-ए-वस्ल, याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं

आग इस घर में लगी ऐसी कि जो था जल गया

 


[1] नोट अनासिरे अर्बअ आम मुहावरे के तौर पर लिखा गया है। वर्ना इस उस वक़्त तक 68 अंसर दर्याफ़्त हुए हैं, जो कुल कायनात की बनावट में शामिल हैं। और अर्बा अनासिर आब, आतिश, ख़ाक, बाद तो कोई ख़ास अंसर नहीं हैं। बाअज़ इनमें मुरक्कब हैं, और बाअज़ कुछ भी नहीं। मसलन आब मुरक्कब है, दो मुफ़रदों यानी अंसरों ऑक्सीजन, और हाइड्रोजन से। आतिश ये मुफ़रद है, ना मुरक्कब। बल्कि एक असर है। दो मुफ़रदों के आपस में मिलने के वक़्त जो हरारत पैदा होती है, उस को आतिश कहते हैं। आम तौर पर इस को जलना कहते हैं अगर कीमियावी इस्तिलाह में इस को मिलना कहते हैं। ख़ाक से भी कोई ख़ास माक़ूलात है। और नेक व बद में तमीज़ करना। ख़ैर को शर से जुदा करके पहचानना और अपने ख़ालिक़ के मक़्सूद को जान कर उस की मर्ज़ी बजा लाना। इसी वजह से हक़ तआला ने इन्सान के जुम्ला हवाईज और ज़रूरीयात का मदार राय व तदबीर और सनअत पर रखा। वर्ना बहाईम और परिंदों को ख़ुदा ए तआला ने किसी तदबीर व राए या सनअत का मुहताज नहीं रखा बाअज़ उनकी ज़रूरीयात उनके बदन में ही मौजूद हैं। और बाअज़ क़ुदरती तौर से उन के लिए मुहय्या कर रखी हैं ना अगर किसी को मुहताज सनअत का किया तो इस को सनअत भी ताअलीम कर दी। मसलन घोंसला झूंज बनाया। या मांद खोदना वग़ैरह बख़िलाफ़ इस के इन्सान की ग़िज़ा, लिबास, नफ़ा, नुक़्सान, सब मुन्हसिर सनअत पर रखा। और ज़रूरत को उस की राय और तदबीर के हवाले किया। और यूँही नेकी और बदी को भी उस की फ़ेअल मुख़तारी पर छोड़ दिया। चाहे तो अपने अफ़आल नेक से हुस्न आख़िरत को इख़्तियार करे, या चाहे तो अपने अफ़आल बद से हलाकत अबदी का वारिस हो और वक़्तन-फ़-वक़्तन अपने और बर्गुज़ीदा लोगों की मार्फ़त अपने इल्हाम से भी उसे आगाह किया। और बार-बार सिखलाया, कि किस तरह माबूद हक़ीक़ी की इबादत कर के अपनी रूह को एक हसीन और ख़ूबसूरत मलिका बनाए। भाईम को ख़ुदावंद करीम ने अपनी बंदगी से आज़ाद किया। क्योंकि वो अपनी बुजु़र्गी और हश्मत सिर्फ़ इन्सान से चाहता है। हालाँकि भाईम और दीगर मौजूदात के ख़ल्क़ करने से भी इस का जलाल उसी क़द्र ज़ाहिर होता है। जितना कि इन्सान अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात के वजूद में लाने से। नबातात और हैवानात मुतलक़ भी उस की हम्द व सना में सर-ए-सुजूद हैं। मगर उस क़ादिर-ए-मुतलक़ ने अपनी ख़ास बंदगी और इताअत के लिए सिर्फ इन्सान को मुंतख़ब किया। पस इसलिए इन्सान पर फ़र्ज़ है, कि अपने ख़ालिक़ ख़ुदा-ए-वाहिद की बंदगी व बुजु़र्गी करे। उस की बुजु़र्गी और जलाल।