ज़रूर था मसीह दुख उठाए

मसीह का मस्लूब हो कर मारा जाना, और तीसरे दिन जी उठना कोई क़िस्सा कहानी की मस्नूई (खुदसाख्ता) या फ़र्ज़ी बात नहीं। बल्कि एक मोअतबर व मुस्तनद तवारीख़ी (माना हुआ, तस्दीक़ शूदा) माजरा है। फिर ये तवारीख़ी माजरा भी ऐसा है, कि जिसको किसी बुत-परस्त या मुल्हिद व उहद (काफ़िर) मूर्ख ने नहीं,

Christ must have Suffered

ज़रूर था मसीह दुख उठाए

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Nov 3, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 3 नवम्बर 1894 ई॰

और येसू ने उन से अमाऊस बस्ती में दो शागिर्दों से कहा, कि यूं लिखा, और यूँही ज़रूर था कि मसीह दुख उठाए, और तीसरे दिन मुर्दों से जी उठे। लूक़ा 24:46

मसीह का मस्लूब हो कर मारा जाना, और तीसरे दिन जी उठना कोई क़िस्सा कहानी की मस्नूई (खुदसाख्ता) या फ़र्ज़ी बात नहीं। बल्कि एक मोअतबर व मुस्तनद तवारीख़ी (माना हुआ, तस्दीक़ शूदा) माजरा है। फिर ये तवारीख़ी माजरा भी ऐसा है, कि जिसको किसी बुत-परस्त या मुल्हिद व उहद (काफ़िर) मूर्ख ने नहीं, बल्कि ख़ुदा परस्त क़ौम के मुतअद्दिद अश्ख़ास मुलहम (इल्हाम रखने वाले) ने कलमबंद किया है। जो ना सिर्फ इस माजरे की कैफ़ीयत को कानों से सुनने वाले, बल्कि आँखों से देखने वाले थे। क्योंकि ये माजरा कोने में नहीं हुआ, बल्कि एक पब्लिक मंज़र था। अगर इल्मे तवारीख इस उन्नीसवी सदी में कुछ क़ाबिले यक़ीन और इन्सान के लिए कार-आमद मुतसव्वर हो सकता तो हम कोई वजह नहीं पाते, कि एक ऐसे तवारीख़ी माजरे की सेहत व सदाक़त में जिसकी निहायत दकी़क़ व मूशिगाफ़ (गहरी, वाज़ेह) तहक़ीक़ात दोस्ताना और मुख़ालिफ़ाना हर एक पहलू से की गई है। किसी शक व शुब्हा को दख़ल दें। और मुवाफ़िक़ीन व मुख़ालिफ़ीन (मानने वाले व मुख़ालिफ़त करने वाले) की इन बकस्रत शहादतों को जो इस की निस्बत कलमबंद की गईं यक-क़लम नज़र-अंदाज कर दें इस अजीब माजरे की निस्बत डाक्टर अर्नलड साहब जो माक़ूल तहक़ीक़ात व तलाश के बाइस बड़े मशहूर व मारूफ़ आलिम हैं यूं बयान करते हैं कि, मैं बहुत बरसों से ज़माना हाय दीगर की तारीख़ के मुतालआ में मशग़ूल रहा, ताकि उन लोगों की शहादतों को जिन्हों ने इन ज़मानों की बाबत लिखा है आज़माऊं। और उनका मुवाज़ना करूँ और मैं इन्सान की तारीख़ में एक भी ऐसे माजरे को नहीं जानता जो इस बड़े निशान की बनिस्बत ख़ुदा ने हमें दिया है, कि मसीह मुर्दों में से जी उठा एक साफ़-दिल मुतलाशी हक़ के दिल में हर क़िस्म की कामिल तर और बेहतर शहादत से साबित किया गया है।

अगरचे ख़ुदावंद मसीह ने अपने मस्लूब होने, और फिर तीसरे रोज़ जी उठने की निस्बत चंद मर्तबा अपने शागिर्दों से पैशन गोई की थी। देखो मत्ती 20:18, मर्क़ुस 10:33, 34 लेकिन वो वो इस अम्र से, कि ये क्योंकर होगा बिल्कुल नावाक़िफ़ थे। और वो इस कलाम को आपस में रखकर चर्चा करते थे, कि मुर्दों में से जी उठने के क्या मअनी हैं। उन्होंने अह्दे-अतीक़ से मालूम किया था, कि इलीशा नबी ने एक दौलतमंद औरत बाशिंदा शून्यम् (शून्यम की रहने वाली) के मुर्दा बेटे को किस तरह ज़िंदा किया। कि उसने ख़ुदा से दुआ मांगी, और इस लड़के के मुँह पर अपना मुँह, और इस की आँखों पर अपनी आँखें, और इस के हाथों पर अपने हाथ रखे। और इस का बदन गर्म हुआ और वो जी उठा और मसीह का इबादतखाने के सरदार याइर की बेटी को उस का हाथ पकड़ कर तुल्यता क़ौमी (ऐ लड़की मैं तुझे कहता हूँ उठ) कह कर ज़िंदा कर देना। और नाइन शहर की बेवा के नौजवान बेटे के ताबूत को छू कर फ़रमाना, कि ऐ जवान मैं तुझसे कहता हूँ उठ, और उस का उठ बैठना। बैतइनियाह के क़ब्रिस्तान में चार दिन के मदफ़ून मुर्दा लाज़र की क़ब्र खुलवा कर बुलंद आवाज़ से मसीह का चिल्लाना, कि ऐ लाज़र बाहर निकल आ। और उस का कफ़न से हाथ पांव बंधे हुए क़ब्र से बाहर निकल आना। ये सब कुछ तो उन्हें बख़ूबी तमाम मालूम था। और इन सब क़ुद्रत के कामों को वो अपनी आँखों से देख चुके थे। लेकिन मसीह का ख़ुद बख़ुद मुर्दों में से जी उठना उन के लिए एक निहायत हल तलब मुअम्मा (पहेली, राज़) था। क्योंकि उनकी इन्सानी अक़्ल के नज़्दीक ये मुताल्लिक़ (बिल्कुल) ग़ैर-मुम्किन मालूम होता था, कि मसीह इस सूरत व हालत में जो उस पर वाक़ेअ हुई, कि उस के हाथ पांव छिदने से तमाम बदन का ख़ून निकल जाये। और पिसली के ज़ख़्म नेज़े से उस का दिल छिद जाये ताहम वो फिर सही व सालिम और ज़िंदा हो कर उस क़ब्र से ख़ुद बख़ुद निकल आए। जिसके मुँह पर एक भारी पत्थर रखा हुआ हो। और मुहर कर दी गई हो। और जिसकी निगहबानी के लिए मुसल्लह (असलाह रखने वाले) रूमी गार्ड मुतय्यन हो। वो अभी मसीह की इस क़ुदरत-ए-कामला से बख़ूबी आगाह ना हुए थे, कि उस को अपनी जान दे देने का इख़्तियार है। और इस को फिर लेने का इख़्तियार है। कि आलम-ए-अर्वाह और मौत की कुंजियाँ उस के पास हैं।

अब इधर तो मसीह के शागिर्दों का उस के मुर्दों में से जी उठने की निस्बत कम फ़ह्मी (कम इल्मी) का ये आलम था। और इधर उस का जी उठना उस की इलाही रिसालत, उलूहियत, इब्नियत (बेटा) और मसीहाई बल्कि उस की तमाम बातों पर एक ऐसी मुहर थी, कि जिसके बग़ैर ये सब कुछ ना-मुकम्मल व मशकूक रह जाता। उसने अपने मसीहाई इक़तिदार व इख़्तियार के सबूत में इब्तिदा ही में उन यहूदीयों को जो उस से एक इख्तियारी व क़ुदरती निशान के तालिब थे फ़रमाया था, कि इस हैकल को ढा दो, और मैं इसे तीन दिन में खड़ा करूँगा। जिससे उस की ये मुराद थी, कि तुम मस्लूब करो। और मैं तीसरे रोज़ फिर जी उठूँगा। पस अगर उस की ये पैशन गोई जो उसने बारहा अपने मुवाफ़िक़ीन व मुख़ालिफ़ीन के सामने की थी। पूरी ना होती तो उस के तमाम एजाज़ी काम। और उम्दा ताअलीमात वग़ैरह एक बड़े ख़ुदा रसीदा और मुसल्लेह व खेर ख़्वाह (इस्लाह करने वाला, बेहतरी चाहने वाला) इन्सान शख़्स के कामों और ताअलीमात की फ़हरिस्त में दर्ज होने के सिवा और ज़्यादा कुछ दर्जा ना रखते। मगर ये ग़ैर-मुम्किन था। कि इस सदक़-उल-सादिक़ीन (सच्चा व बरहक़) की ऐसी अहम और ज़रूरी पैशन गोई के पूरा होने में सर-ए-मू (राई बराबर) फ़र्क़ पड़े। आस्मान व ज़मीन टल जाएं। मगर जो कलाम उस के मुँह से निकला हरगिज़ नहीं टल सकता।

अगरचे मसीह के मुख़ालिफ़ यहूदीयों के सरदार काहिनों और फ़रीसियों ने जो इस पैशन गोई को सुन चुके थे। मगर उस में मसीह और उस के शागिर्दों की किसी साज़िश का गुमान करते थे। उस के रोकने के लिए मक़्दूर भर (जहां तक हो सके) कोशिश की जैसा लिखा है, कि उन्होंने पिलातूस के पास जमा हो कर कहा, ऐ ख़ुदावंद हमें याद है, कि वो दग़ाबाज़ अपने जीते-जी कहता था, कि मैं तीन दिन बाद जी उठूंगा। इसलिए हुक्म कर कि तीसरे दिन तक क़ब्र की निगहबानी करें। ना हो कि उस के शागिर्द रात को आकर उसे चुराले जाएं। और लोगों से कहें, कि वो मुर्दों में से जी उठा है। तो ये पिछ्ला फ़रेब पहले से बदतर होगा। पिलातूस ने उनसे कहा, तुम्हारे पास पहरे वाले हैं। जा कर मक़्दूर भर (जहां तक हो सके) उस की निगहबानी करो। उन्होंने जा कर उस पत्थर पर मुहर कर दी। और पहरे बिठा कर क़ब्र की निगहबानी की। (मत्ती 27:62 से 66 तक)