ये भी उस के साथ था

फ़िक़्रह मुन्दरिजा उन्वान लूक़ा की इन्जील के बाईस्वीं बाब की छप्पनवीं (22:56) आयत में मज़्कूर है। इस के मतलब पर थोड़ी देर के लिए ग़ौर और फ़िक्र करें। ताकि नाज़रीन नूर-अफ़्शां ख़्वाह हिंदू हों, ख़्वाह मुसलमान इस तारीकी से जो अभी तक ब्रिटिश इंडिया के बाअज़ मख़्फ़ी हिसस (छुपे हिस्सों) में छाई हुई है। निकल कर आफ़्ताब सदाक़त (सच्चाई का सूरज) के परतो जलाल (जलाली साया) से मुनव्वर जाएं।

He was also with Him

ये भी उस के साथ था

By

Kaidar Nath
केदार नाथ

Published in Nur-i-Afshan Dec 7, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 7 दिसंबर 1894 ई॰

फ़िक़्रह मुन्दरिजा उन्वान लूक़ा की इन्जील के बाईस्वीं बाब की छप्पनवीं (22:56) आयत में मज़्कूर है। इस के मतलब पर थोड़ी देर के लिए ग़ौर और फ़िक्र करें। ताकि नाज़रीन नूर-अफ़्शां ख़्वाह हिंदू हों, ख़्वाह मुसलमान इस तारीकी से जो अभी तक ब्रिटिश इंडिया के बाअज़ मख़्फ़ी हिसस (छुपे हिस्सों) में छाई हुई है। निकल कर आफ़्ताब सदाक़त (सच्चाई का सूरज) के परतो जलाल (जलाली साया) से मुनव्वर जाएं।

मिस्र के बादशाह फ़िरऔन ने बनी-इस्राईल को क्यों सताया? इसलिए कि याक़ूब के मिस्र में ख़ुश बाश होने के कुछ अर्से पेश्तर एक क़ौम से जो हिकसॉस कहलाती थी। और जो गल्लाबानी करती थी। शाहान-ए-मिस्र को सख़्त तक्लीफ़ पहुंची थी। मज़्कूर फ़िरऔन और उस की रियाया ने अपने वहम में ये ख़याल किया कि यक़ीनन ये भी वही हैं। ऐसा ना हो, कि उनकी तरक़्क़ी फिर हमारे ज़वाल (नाकामी, पस्ती) का बाइस ठहरे। पस उन्होंने बनी-इस्राईल को अज़ीयत पहुंचाने पर कमर बाँधी। उन की औलाद नरिना (लड़के) क़त्ल की गई उन से ख़िश्त पज़ी (ईंटें पकाना) की बेगार ली (बग़ैर मज़दूरी) और उज्रत कोड़ी ना दी। यहां तक, कि उन की हलाकत की ख़्वाहिश में आप ही दरिया-ए-क़ुलज़ुम में ग़र्क़-ए-आब (पानी में डूबे) हुए।

आज तक हमारे हिंदू भाई आलमगीर को बदी के

हमारे मुल्क हिन्दुस्तान में सुल्तान औरंगज़ेब मुहम्मद आलमगीर ने एक हिंदू फ़िर्क़ा सत नारायन से मुतवहि्ह्श (नफ़रत करने वाला) हो कर कुल हिंदूओं पर इस ख़ामख़याली से, कि ये भी वही हैं। इस क़द्र सख़्ती रवा रखी, कि आज तक हमारे हिंदू भाई आलमगीर को बदी के साथ याद करते हैं।

वालिया भोपाल के शौहर मुतवफ़्फ़ी (वफ़ात पाने वाला) अमीर-उल-मुल्क वाला जाह नवाब सिद्दीक़ अल-हसन ख़ान साहब भी इसी मर्ज़ लाइलाज में मुब्तला हो कर राहे मुल्क-ए-अदम (मरने के बाद की जगह) हुए।

1857 ई॰ में बाद कंपनी बहादुर कारतुस मुँह से काटे जाने के हुक्म पर अमरीकन पादरीयों और हिन्दुस्तानी मसीहियों का सताया जाना। जानों से मारा जाना। अभी तक हमारी आँखों के सामने होलनाक नज़ारा मौजूद है।

क़ैसर मलिका मुअज़्ज़मा दाम इक़बालहा के अहद-ए-मादिलत (अदल व इन्साफ़ का दौर) महद में बाद नफ़ा ज़ाएकट असलाह हिंदूस्तानियों के मसीह को क़ुबूल करने पर ये कहना कि अब तो ये साहब लोग हो गए। कोट पतलून पहनेंगे। छुरी कांटे से खाएँगे। फिर इस पर ये कहता, कि मस के इश्तियाक़ (शौक़) में ईसाई हो गए रोटियों का सहारा हो गया। बे-धरम हो गए। अब तो आबदस्त से भी छूटे। फिर मसीहियों से सख़्त नफ़रत और अदावत (दुश्मनी) हर वक़्त लान तअन (लानत) कुँओं से पानी भरने की मुमानिअत (मना करना)

अब मैं कहता हूँ, कि अगर मसीही भी वही हैं। और इसी लिए उन की हिक़ारत (ज़िल्लत, नफ़रत) करना और उनको तक्लीफ़ पहुंचाना हमारे हिंदू मुहम्मदियों के वहम में मुतमक्किन (क़रार पकड़ने वाला, जागज़ीन) है। तो मेहरबानी कर के ज़ेल की मुश्किल को हल कर दें। जो निहायत ख़तरनाक है। इस अक़्दह (गिरह, मुश्किल) के खोलने में यक़ीनन हमारे हम-अस्र नूर अला नूर तो ज़रूर है कुछ ना कुछ रोशनी इनायत (तवज्जोह) फ़रमाएँगे। क्योंकि :-

मैदान अख़्बार तंग नहीं, और पाए क़लम लंग नहीं

देखिए गुज़श्ता तवारीखे हिन्द पर नज़र डालने से साबित हो चुका है, कि ब्रिटिश गवर्नमेंट की मुसावी (बराबर, यकसाँ) कोई सरकार इस मुल्क-ए-हिंद को नसीब नहीं हुई रेल, तार, जहाज़, शिफ़ाख़ाना, मदरिसा, सड़क, पुल, मुख़्तलिफ़ कलें (मशीनें) अस्बाबे तिजारत। छापा वग़ैरह इस मुल्क को कब मिला था?

मज़्हबी आज़ादी, हिंदू संख (बड़ी कोड़ी जो मंदिरों में बजाई जाती है) बजाएँ। मुल्ला बाँग लगाऐं ब्रहमो समाज, देव समाज, आर्या समाज, सिंह सभा, धर्म सभा, अंजुमन हिमायत इस्लाम, इशाअत-उल-सुन्नत, तहज़ीब-उल-अख़लाक़ एक ऐसी शक्ल जिसके अज़ला मुख़्तलिफ़, और गोशा ग़ैर मुसावी। फिर भी चेन चान अमन अमान ख़ुश गुज़राँ। पस ईसाईयों से इनाद व अदावत (लड़ाई दुश्मनी) मह्ज़ इस ग़र्ज़ से कि ये भी वही हैं यानी उसी ख़ुदावंद येसू मसीह को मानते हैं, जिसे अंग्रेज़ भी अपना नजातदिहंदा जानते हैं। اولیٰ الام منکم की साफ़ तफ़्सीर (तश्रीह, वज़ाहत) है या नहीं और, الناس علے دین ملوکھم के ख़िलाफ़ तक़रीर है या नहीं?