मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए हैं या नहीं?

अब हम इस बात पर कई एक सवाल करते हैं। सवाल अव़्वल क्या सब मुहम्मदी लोग हदीसों को मानते हैं? नहीं। हर शख़्स को मालूम है कि शीया सब हदीसों को नहीं मानते। सवाल दुवम किया सुन्नी तमाम हदीसों को क़ाबिल-ए-एतिबार समझते हैं कभी नहीं। ये बात साफ़ ज़ाहिर है कि सुन्नी हदीसों को दर्जा ब दर्जा मानते हैं। इस से वाज़ेह होता है कि उनके नज़्दीक

Whether Muhammad has done miracles or not?

मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए हैं या नहीं?

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan July 22, 1875

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 22 जुलाई 1875 ई॰

 तमाम अहले इस्लाम मुक़िर (राज़ी) हैं कि मुहम्मद साहब ने बहुत से मोअजिज़े दिखलाए हैं। अगर कोई उस के मोअजिज़े पर शक करे तो वो उन की नज़र में काफ़िर और मलऊन (जिस पर लानत की गई हो) है। मगर जो कोई तास्सुब (मज़्हब की बेजा हिमायत) और ज़िद को तर्क कर के हक़ का मुतलाशी (तलाश करने वाला) हो। उसे चाहिए कि इन बातों से हरगिज़ ना डरे। क्योंकि वो लोग जो अपने मज़्हब को बग़ैर सोचे और दर्याफ़्त किए सच्चा और दूसरों के मज़्हब को झूटा जानते हैं। वो अक्सर उस शख़्स को जो दीने हक़ की तहक़ीक़ात करना चाहता है तअन (ताने देना) और मलामत (बुरा भला) कहना करते हैं। और उस को मलऊन काफ़िर और तरह तरह का मुजरिम ठहराते हैं। मसलन अगर शाइस्ता आदमी उम्दा लिबास पहन कर नंगे वहशी आदमीयों में जा निकले। तो क्या वो उस के साथ नेक सुलूक से पेश आएँगे। हरगिज़ नहीं बल्कि पथराओ करेंगे इसलिए हमें मुनासिब है कि जिस क़द्र वो हमारे साथ सख़्ती और तअद्दी (नाइंसाफ़ी) करें। उस क़द्र हम हक़ के दर्याफ़्त करने में सई और कोशिश करें।

मुहम्मदियों को दाअवा है कि मुहम्मद साहब के बहुत से मोअजिज़ों का ज़िक्र हदीसों और क़ुरआन में मौजूद है। और मुहम्मद साहब की वफ़ात के बाद मुहम्मदियों ने भी बहुत से मोअजिज़े किए हैं। अब हम पर ये फ़र्ज़ है कि हत्तलमक़्दूर (जहां तक हो सके) इन चार बातों पर ख़ूब ग़ौर करें सब लोग जानते और इक़रार करते हैं, कि करामातों (मोअजिज़ों) को पुख़्ता शहादतों (गवाहों) से क़ुबूल करना चाहिए। और बग़ैर गवाही पुख़्ता के क़ुबूल करना मुनासिब नहीं। अव़्वल इनके हम इस दाअवे को तहक़ीक़ (छानबीन) करते हैं कि हदीसों में कैसी करामातों का ज़िक्र है। मसलन लिखा है कि एक रोज़ जब मुहम्मद साहब को हाजत हुई दरख़्त इकट्ठे हो कर उस के लिए जा-ए-ज़ुरूर (बैतूल-खला) बन गए।

अब हम इस बात पर कई एक सवाल करते हैं। सवाल अव़्वल क्या सब मुहम्मदी लोग हदीसों को मानते हैं? नहीं। हर शख़्स को मालूम है कि शीया सब हदीसों को नहीं मानते। सवाल दुवम किया सुन्नी तमाम हदीसों को क़ाबिल-ए-एतिबार समझते हैं कभी नहीं। ये बात साफ़ ज़ाहिर है कि सुन्नी हदीसों को दर्जा ब दर्जा मानते हैं। इस से वाज़ेह होता है कि उनके नज़्दीक भी हदीसें एतबार के लायक़ नहीं हैं। अब इनका ना-मोअतबर (नाक़ाबिल-ए-एतबार) होना चंद दलीलों से जो ज़ेल में मुन्दरज की जाती हैं, साबित है। मुहम्मद साहब की हयात (ज़िंदगी) में उनके पैरौ (मानने वाले) उन को बहुत ही अज़ीज़ जानते थे। लेकिन जब वो फ़ौत हो गए तो उन के पैरू (पीछे चलने वाले) कहने लगे, कि हज़रत ने हमसे ये बातें फ़रमाई थीं। ग़र्ज़ की हर एक उन में से यही कहता था, कि मुहम्मद साहब ने मुझे फ़ुलानी बात सुनाई। कुछ अर्से बाद मुहम्मद साहब की उन्होंने उन तमाम बातों को जमा करने का इरादा किया। और ये भी वाज़ेह हो कि सब लोग दाना (अक़्लमंद) नहीं होते। और ना सब लोग सच्चे होते हैं। जाहिल अपनी जहालत के सबब उन बातों को जो क़ाबिल-ए-एतबार नहीं लोगों को सुनाते थे। फ़िल-जुम्ला उन्होंने और और झूटों ने इज़्ज़त और हुर्मत (इज़्ज़त) पाने के लिए इन बातों का ज़िक्र लोगों के आगे किया। और इन तमाम बातों का ज़िक्र लोगों के आगे किया और इन तमाम बातों को जमा कर लिया। जब आलिमों ने इन बातों पर ग़ौर किया तब उन्होंने सोचा कि ये बातें बिल्कुल मानने के लायक़ नहीं हैं। मगर जो बातें उन को ज़रा भी अच्छी मालूम हुईं उन को अलेहदा (अलग) कर लिया। अब हमको क्योंकर मालूम हो कि वो बातें जिनको आलिमों ने तस्लीम किया रास्त (दुरुस्त) हैं। और जिनको उन्होंने रद्द किया ख़िलाफ़ हैं। क्योंकि अक़्लमंदों के नज़्दीक तहक़ीक़ करना इन उमूरात का मुहाल (दुशवार) है। ऐसी बातें क़ाबिल-ए-तस्लीम कभी नहीं हो सकतीं। सब लोग बख़ूबी जानते हैं कि जब कोई पेशवा या गुरु मर जाता है उस के पैरू या चेले उस के हक़ में अजीब अजीब बातें लोगों को सुनाते हैं। मगर कौन जानता है कि वो सब बातें सच्ची हैं। कोई दाना शख़्स ऐसी बातों पर बग़ैर सबूत यक़ीन नहीं कर सकता।

मैं अपने फायदे और नुक़्सान का कुछ भी इख्तियार नहीं रखता।

मसलन सिर्फ तीन चार सौ (400) बरस का अर्सा गुज़रा है कि बाबा नानक मर गया। उस के पैरू (मानने वाले) अब तक बहुत सी करामतों का ज़िक्र करते हैं। इन अजीब बातों में से एक तो ये है कि एक रोज़ बाबा नानक मक्का शरीफ़ गया और काअबा की तरफ़ पांव फैला कर सो गया। एक मुसलमान ने देखकर उसे गालियां दीं और कहा कि काअबा की तरफ़ तुमने क्यों पांव किया है। ये सुनकर बाबा नानक ने अपने पांव दूसरी तरफ़ कर लिए और सो रहा। इतने में काअबा भी फ़ील-फ़ौर उस के पांव की तरफ़ हो गया। क्या कोई मुहम्मदी इस करामत (ख़ूबी) को क़ाबिल-ए-एतिबार समझता है कोई नहीं।

पोशीदा ना रहे कि जब कोई आदमी अपना बड़ा महल बनाना चाहता है तो उसे बड़ी पुख़्ता (मज़्बूत) बुनियाद दरकार होती है। ताकि उस का मकान देर तक क़ायम रहे। इस तरह हमारे ईमान के लिए पुख़्ता न्यू दरकार है ना सिर्फ लोगों की बेहूदा बातें बल्कि ख़ुदा तआला का पाक कलाम।

अब हमें ये भी दर्याफ़्त करना चाहिए कि आया क़ुरआन से मुहम्मद साहब की करामातें साबित होती हैं, कि नहीं। सूरह क़मर की पहली आयत में लिखा है कि :-

“اقتربت الساعت وانشق القمر” यानी पास आ लगी वो घड़ी और फट गया चांद लेकिन अक्सर मुहम्मदी कहते हैं कि इस आयत में रोज़-ए-हश्र (क़ियामत के दिन) का ज़िक्र है और हमको इबारत से साफ़ मालूम नहीं होता है, कि इस में मुहम्मद साहब का ज़िक्र है। क्योंकि किसी का नाम इस में मुन्दरज नहीं किया गया। फिर सूरह बनी-इस्राईल की पहली आयत में लिखा है। سبحان الذی اسرً ا بعبد ہ الخ ۔ जिसके ये मअनी हैं पाक ज़ात है जो ले गया अपने बंदे को राती रात अदब वाली मस्जिद से पर ली मस्जिद तक फ़क़त।”

लेकिन इस आयत में भी मुहम्मद साहब का ज़िक्र नहीं है और मसीह की वफ़ात के चालीस बरस बाद टाइटस ने जो रूमी सिपाहसालार था इस मस्जिद को गिरा दिया था। और मुहम्मद साहब के वक़्त तक किसी ने इस जगह मस्जिद ना बनाई थी। और मुहम्मद साहब के वक़्त पर ये मस्जिद मौजूद ना थी। फिर वो किस तरह इस मस्जिद में गए। और कोई ये भी नहीं कह सकता कि फ़ुलाने ने इस मोअजिज़े को देखा। यानी मुहम्मद साहब का बैत-उल-हराम से बैतुल-मुक़द्दस तक जाना। ये भी वाज़ेह हो कि तवारीख़ की बातें सिर्फ़ गवाहों से साबित हो सकती हैं। जब इस बात का कोई पुख़्ता गवाह नहीं है तो ये किस तरह क़ाबिल-ए-एतिबार हो सकता है। ये भी पोशीदा ना रहे कि अगर कोई शख़्स कहे कि मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए हैं, तो वो सरासर क़ुरआन के बरख़िलाफ़ कहता है क्योंकि इस में बार-बार लिखा है कि मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े हरगिज़ नहीं किए। अगर दर्याफ़्त करना हो तो सूरह अनआम की इन आयतों में मुलाहिज़ा करो :-

36 आयत “قا لو الو لا نزل علیہ آیتہ ولکن اکثر ھم لا یعلمون ” और कहते हैं क्यों नहीं उतरी इस पर निशानी उस के रब से तू कह कि अल्लाह की क़ुद्रत है कि उतारे कुछ निशानी लेकिन न बहुतों को समझ नहीं और फिर इसी सूरह की एक सौ नौवीं आयत,

واقمواباللہ جھد ایما نہم لئن جاوتھم آیتہ منن بھاقل نما الا یت عنداللہ وما یشع کر انھا ذا جایت لا یومنون

और क़समें खाते हैं अल्लाह की कि अगर उनको एक निशानी पहुंचे अलबत्ता उस को मानें तू कह निशानियाँ तो अल्लाह के पास हैं और तुम मुसलमान क्या ख़बर रखते हो कि जब वो आएँगे तो ये ना मानेंगे।” एक सौ ग्यारवीं, اننا نزلینا الہم الملئکتہ و کلہم للتی وحشر نا علیم کل شی قبلا ما کانو الیو منوالا ان بشا اللہ ولکن اکثر ہم لچھلون और अगर हम न पर उतारें फ़रिश्ते और उनसे बोलें मुर्दे और जिला दें हम हर चीज़ को उन के सामने हरगिज़ मानने वाले नहीं। मगर जो चाहे अल्लाह पर ये अक्सर नादान हैं।” और एक सौ चौबीसवीं, و اذا جا ء تھم آیہ قالوالن نو من حتی نوتی مثل ما اوتی رسول اللہ اللہ علم جنث یجعلوا और जब पहुंचे उन को एक आयत कहें हम हरगिज़ ना मानेंगे। जब तक हमको ना मिले जैसा कुछ पाते हैं अल्लाह के रसूल अल्लाह बेहतर जानता है जहां भेजे अपने पयाम।”

 

फिर सूरह आराफ़ की एक सौ अठाईसवीं, رقل لا املک لنفسی نفعاو لا ضراً ماشا اللہ و لو کنت اعلم الغیب لا سکثرت من الخبر و مامنسی السوء ان اناالا نذیر و بشیر لقوم یومنون۔

“तू कह मैं मालिक नहीं जान के भले और बुरे का। मगर जो अल्लाह चाहे और अगर मैं जान करता ग़ैब की बातों की बहुत खूबियां लेता और मुझको बुराई कभी ना पहुँचती। मैं तो ये हूँ डर और ख़ुशी सुनाने वाला मानने वाले लोगों को।” बाक़ी आइंदा

बक़ीया, मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए हैं या नहीं

और सूरह बनी-इस्राईल की बानवें आयत से पिचान्वीं आयत तक :-

وقا لو الن نو من لک حتی لفجر لنامن الارض یجبنوعا ً اوتکون لک جنتہ من فخیل و عنب ففجرا کا نھم خللھا تففیراً اوتسقط السما ء کی زعمت علینا کسفا اوتاتی باللہ ولمکیکتہ قبیلا اویکون لک بیت من ذخرف و ترقی فی السماء ولن نومن رقیک حتی تنزل علینا کتبا تقر و قل سبحان ربی ھل کنت الا بشر رسولا

“और बोले हम ना मानेंगे तेरा कहा जब तक तू ना बहा निकाले हमारे वास्ते ज़मीन से एक चश्मा या हो जाये तेरे वास्ते एक बाग़ खजूर और अंगूर का फिर बना ले तू उस के बीच नहरें चला कर या गिरा दे आस्मान हम पर जैसा कहा करता है टूकड़े टूकड़े या ले आओ फ़रिश्तों को और अल्लाह को ज़ामिन या हो जाये तुझको एक घर सुनहरी या चढ़ जाये तू आस्मान में और हम यक़ीन ना करेंगे। तेरा चढ़ना जब तक ना उतार लादे, हम पर एक लिखा जो हम पढ़ लें तू कह सुब्हान-अल्लाह मैं कौन हूँ मगर एक आदमी हूँ भेजा हुआ फ़क़त।”

और इक्सठवीं आयत :-

وماسعنا ان نرسل باالا یت الا ان کذب بھا الا ولون و اتینا ثمو د الناقہ مبصر ۃ فظلمو بھاو مانرسل باا لا یت الا تخو یفا

“और हमने इस से मौक़ूफ़ (ठहराया गया) कीं निशानियाँ भेजनी कि अगलों ने उनको झुठलाया। और हमने दी समूद को ऊंटनी समझा ने को फिर उस का हक़ ना माना और निशानीयां जो हम भेजते हैं सो डराने को फ़क़त।” और सूरह अम्बिया की पांचवीं आयत, بل قالو اضغات احروم بل فتوہ بل ھو شاعر فلیا تنا بایہ کما ارسل الا ولون

ये छोड़कर कहते हैं उड़ती ख्व़ाब में नहीं झूट बांध दिया है नहीं शेअर कहता है फिर चाहे ले आए हमारे पास कोई निशानी जैसे पैग़ाम लाए हैं पहले।” अब इन आयतों पर ग़ौर करो और देखो इनमें साफ़ पाया जाता है कि मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े नहीं किए।

एक दफ़ाअ में ज्वालामुखी (एक इलाक़ा) को गया और उन लोगों से मुलाक़ात की जो मोअजिज़े करने का दावा करते थे। और हक़ीक़त में लोगों को फ़रेब देते थे। मैंने कहा कि मेहरबानी कर के मुझे भी कोई मोअजिज़ा दिखलाए। तब उन्होंने इन्कार किया क्योंकि उन्होंने जाना कि ये अच्छी तरह से तहक़ीक़ (तस्दीक़) करेगा। ऐसा ही जब मुहम्मद साहब इस दुनिया में थे तो बहुत लोग उनको भी कहते हैं कि हमें मेहरबानी कर के ऐसी चंद अलामतें जिनसे नबुव्वत साबित होती है दिखलाए। तो उन्होंने भी इन्कार किया और ये कहा कि ख़ुदा तआला ने ऐसी अलामतों का दिखलाना बंद कर दिया है क्योंकि अगलों ने झुठलाया। जब ये आयतें हम क़ुरआन से मुहम्मदियों को सुनाते हैं। तो वो जवाब देते हैं कि ईसा ने भी कहा कि बुरे लोग निशान ढूंडते हैं लेकिन उनको कभी दिखलाया ना जाएगा। बेशक जब लोगों ने मसीह को आज़माना चाहा उस ने मोअजिज़ा दिखलाने से इन्कार किया। लेकिन उस ने ये कभी नहीं कहा कि ख़ुदा तआला ने ऐसी अलामतों का दिखलाना बंद कर दिया है और ना ये कहा कि सुब्हान-अल्लाह मैं कौन हूँ मगर राह दिखाने वाला।

अब हम इस से ये मालूम करते हैं कि मुहम्मद साहब ने कोई मोअजिज़ा नहीं किया मगर ईसा को मोअजिज़ा करने का कुल इख़्तयार था और अगर वो चाहता तो उन लोगों को भी जो उसे आज़माना चाहते थे मोअजिज़े दिखलाता।

अगर मैं गैब कि बातें जानता होता तो बहुत से फायदे जमा कर लेता।

फिर मुहम्मद इक़रार करते हैं कि क़ुरआन ख़ुद एक मोअजिज़ा है। क्योंकि इस की इबारत ऐसी उम्दा है कि कोई आदमी उस के मुवाफ़िक़ बना नहीं सकता। मैंने माना कि ये सच्च है। मगर संस्कृत की इबारत भी बहुत ही अच्छी है। बेशक कोई शख़्स बेद की संस्कृत इबारत की मानिंद नहीं बना सकता। और बड़े बड़े पण्डित भी कहते हैं कि बेद (हिन्दुवों की किताब) की संस्कृत इबारत की मानिंद कोई बशर नहीं बना सकता। फिर मुहम्मद किस तरह उस को मोअजिज़ा कहते हैं। अगर कोई आदमी ऐसा बड़ा दरख़्त देखे जिसके बराबर और कोई बड़ा दरख़्त ना हो तो वो मोअजिज़ा तसव्वुर नहीं किया जाता। सब लोग जानते हैं कि दाऊद के वक़्त एक पहवान मुसम्मा जोलियत था जिसे उस ने मार डाला था उस के क़द के मुवाफ़िक़ कोई दूसरा शख़्स ना था। मगर कोई शख़्स इतने बड़े क़द को मोअजिज़ा नहीं कहता था। कोई मुहम्मदी होमर की मानिंद यूनानी इबारत और गुल की मानिंद लातीनी इबारत और कालीदास की मानिंद संस्कृत इबारत हरगिज़ नहीं बना सकता है। फिर क्या ये भी मोअजिज़ा होगा? फिर अक्सर मुहम्मदी कहते हैं कि मुहम्मद साहब के वक़्त भी कोई शख़्स ऐसा ना था कि ऐसी इबारत बनाने की लियाक़त (क़ाबिलीयत) रखता। बल्कि तमाम लोग यही इक़रार करते थे, कि क़ुरआन की इबारत के मुवाफ़िक़ कोई बशर इबारत नहीं बना सकता। कौन जानता है कि मुहम्मद साहब के वक़्त सब लोग ऐसा ही कहते थे सब दाना आदमी जानते हैं कि आजकल फ़्रांस जर्मनी इंग्लिस्तान अस्ट्रिया अमरीका वग़ैरह मुल्कों में बहुत लोग इब्रानी योनानी संस्कृत और अरबी ज़बान को बख़ूबी पढ़ते हैं। और उन ज़बानों की किताबो को अच्छा कमा-हक़्क़ा (ठीक ठाक, बख़ूबी) समझते हैं। मगर किसी शख़्स ने कभी नहीं कहा कि क़ुरआन की इबारत दूसरी ज़बानों की इबारत से फ़ौक़ियत (सबक़त) रखती है। अगर मुहम्मदी इब्रानी योनानी संस्कृत और लातीनी ज़बान को तहसील (हासिल) करें तो बड़ा फ़ायदा उठाएं।

क्योंकि इन ज़बानों में निहायत उम्दा और क़दीमी किताबें लिखी गई हैं मसलन वो लोग जो दिल्ली में रहते हैं उन्होंने और कोई बड़ा आलीशान शहर नहीं देखा। वो तो ज़रूर यही कहेंगे कि दिल्ली की मानिंद और कोई शहर दुनिया की सतह पर नहीं है। अगर वो और मुल्कों की भी सैर करें और सेंट पीटरज़ बर्ग वायना मास्को, पार्स, न्यूयार्क, लीवर पोल, लंडन, वग़ैरह शहरों को देखकर फिर दिल्ली की तारीफ़ जैसी पहले करते थे हरगिज़ ना करेंगे और और शहरों पर उसे फ़ौक़ियत ना देंगे। इसी तरह अगर मुहम्मदी सेसरवीमा सतहर व रजल हारिस होमर मिल्टन वग़ैरह मुसन्निफ़ों की किताबें पढ़ें। और क़ुरआन से उनका मुक़ाबला करें तो वो भी ज़रूर कहेंगे कि इन किताबों की इबारत बेशक क़ुरआन की इबारत से उम्दा है।

ये भी वाज़ेह हो कि इबारत मज़्मून से ऐसी निस्बत रखती है जैसी पोशाक (लिबास) आदमी से, इस का मतलब ये है कि बुरे लोग भी अच्छी पोशाक पहन सकते हैं। अब बेहतर ये है कि हम इबारत की फ़िक्र हरगिज़ ना करें। लेकिन मतलब पर ख़ूब ग़ौर करें। अगर क़ुरआन की ताअलीम सब मज़्हबी किताबों की ताअलीम से अच्छी हो तो मैं इस को ज़रूर ख़ुदा का कलाम समझूंगा। और मानूँगा लेकिन इस का ज़िक्र आगे किया जाएगा। फिर मुहम्मदी कहते हैं कि मुहम्मद साहब के पैरओं ने बेशुमार मोअजिज़े किए हैं इस बात का ज़िक्र करना ला-हासिल है। क्योंकि जब मुहम्मद साहब के मोअजिज़े साबित ना हुए तो उन के पैरओं के मोअजिज़े किस तरह साबित हो सकते हैं। आइंदा