वोह अपने आपको दाना जता कर बेवक़ूफ़ बन गए। (रोमीयों 1 बाब 22 आयत) पौलुस रसूल ने शहर रोम के मसीहियों को ख़त लिखते वक़्त ये फिक़रा उस वक़्त के उलमा और फुज़ला और यूनानी उस्तादों के हक़ में लिखा। जो ख़ुदा के कलाम की निस्बत अपने इल्म व हिक्मत की रु से मुख़ालिफ़त ज़ाहिर करते थे।
Although they claimed to be wise, they became fools.
वोह अपने आपको दाना जता कर बेवक़ूफ़ बन गए
By
One Disciple
एक शागिर्द
Published in Nur-i-Afshan November 12, 1891
नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 12 नवम्बर 1891 ई॰
वोह अपने आपको दाना जता कर बेवक़ूफ़ बन गए। (रोमीयों 1 बाब 22 आयत) पौलुस रसूल ने शहर रोम के मसीहियों को ख़त लिखते वक़्त ये फिक़रा उस वक़्त के उलमा और फुज़ला और यूनानी उस्तादों के हक़ में लिखा। जो ख़ुदा के कलाम की निस्बत अपने इल्म व हिक्मत की रु से मुख़ालिफ़त ज़ाहिर करते थे। और ज़िद और तास्सुब (मज़्हब की बेजा हिमायत, तरफ़-दारी) से अंधे हो कर मसीहियों को सताते और तक्लीफ़ पर तक्लीफ़ देते थे। उनके दाना (अक़्लमंद) और हकीम (होशियार, तबीब) और साहिब-ए-इल्म होने पर रसूल ने कुछ एतराज़ नहीं किया। अगरचे पौलुस ख़ुद एक बड़ा आलिम व फ़ाज़िल (बहुत पढ़ा लिखा व दाना) था। और अगर कोई बात इल्म व अक़्ल की बाबत क़ाबिले गिरफ्त थी। (एतराज़ के लायक़) होती तो वह ज़रूर उस का नोटिस ले सकता था। उसने उनके दुनियावी इल्म की निस्बत उनको नादान (बेवक़ूफ़) नहीं कहा। बल्कि उस को इस “जहां की हिक्मत” कहा। (1 कुरिन्थियों 3 बाब 19 आयत) मगर दीनी इल्म व समझ की बाबत उनको साफ़ कहा कि वो नादान (नासमझ, बेवक़ूफ़) हो गए। गुनेहगार इंसान के बचाने और उस की नजात के बारे में कोई तज्वीज़ (राय, सलाह) किसी आलिम ने जो दुनियावी इल्म में कैसा ही माहिर (तजुर्बेकार) क्यों ना हो। और इल्म-ए-फ़ल्सफ़ा और दानाई से पुर हो अब तक नहीं निकाली। और कोई तदबीर (तज्वीज़, सोच बिचार) हिक्मत इंसान से बन ना पड़ी बल्कि वो सब दानाई सरासर (तमाम) बेवक़ूफ़ी ठहरी। क्योंकि इन्सान के गुनाह माफ़ कराने और दोज़ख़ की सज़ा से रिहाई दिलाने और पाक व साफ़ बनाने में आलिमों का तमाम इल्म व दानाई और कुल तदबीरें नाक़िस (ख़राब) और रद्दी बल्कि मह्ज़ बेवक़ूफ़ी ठहरीं। जिस तरह उस वक़्त के आलिम व फ़ाज़िल लोगों का ये हाल था।
इस तरह हर ज़माने में ऐसा ही रहा है। चुनान्चे आजकल भी ऐसा ही देखने में आता है। बड़े-बड़े आलिम व फ़ाज़िल लोग अपने इल्म व अक़्ल के दीवाने हो कर मसीह और मसीही दीन की मुख़ालिफ़त में ज़बान खोलते और बुरा भला कहते और लिखते हैं। वो अपनी अक़्ल पर तकिया (भरोसा) कर के ख़ुदा की क़ु्दरत के मुन्किर (इन्कार करने वाले) बन जाते। और रफ़्ता-रफ़्ता हक़ से दूर जा पड़ते हैं और दाना हो कर नादान बनते हैं। आजकल मुहम्मदी अख़बारात मुक़ाम लोर पोल में एक पादरी साहब के मुसलमान हो जाने का ज़िक्र बड़े फ़ख़्र के साथ दर्ज करते हैं। उस को दीने मुहम्मदी की सदाक़त (सच्चाई) तसव्वुर करते हैं। अगरचे इस ख़बर की सेहत में तो क़फ़ (देर, वक़्फ़ा) और कलाम (एतराज़) है। लेकिन ताज्जुब (हैरत) नहीं कि ये दुरुस्त ही हो। अगर किसी पादरी या बिशप साहब ने ऐसा किया भी हो तो उस ने बुरा किया। और हमको उस के हाल पर अफ़्सोस आता है कि वो रुहानी नेअमतों का मज़ा चख के गिर गया। उसने शायद इस दुनिया की हिक्मत को जिसको ख़ुदा बेवक़ूफ़ी ठहराता है पसंद किया या जिस्मानी और नफ़्सानी ख़यालात में मुब्तला हो कर उनका मग़्लूब (हारा हुआ, ज़ेर) हो गया। हम साफ़ कह सकते हैं कि उसने इस जहान की बेशक़ीमत और हमेशा तक रहने वाली बरकतों को इस दुनिया-ए-दून (दुनिया की ख़्वाहिश) के एवज़ (बदले) में बेच डाला जिसका अंजाम आख़िर को पछताना और अफ़्सोस करना होगा। और ज़्यादातर अफ़्सोस उन साहिबान पर आता है कि जो ऐसे लोगों पर नाज़ाँ (फ़ख़्र वाले) होते हैं।