काइफ़ा और मसीह मस्लूब

बाअज़ अश्ख़ास जाहिलाना मसीहीयों के साथ हुज्जत व बह्स करते और कहते हैं कि गुनाहों की माफ़ी हासिल करने के लिए कुफ़्फ़ारे की ज़रूरत नहीं है। और मसीह के गुनाहगारों के बदले में अपनी जान को क़ुर्बान करने और अपना पाक लहू बहाने पर एतराज़ करते हैं कि ये कहाँ की अदालत थी कि गुनाह तो करें और लोग और उन के एवज़ में बेगुनाह शख़्स को

Caiaphas and Resurrected Christ

काइफ़ा और मसीह मस्लूब

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sep 3, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 3सितंबर 1891 ई॰

ये वही काइफ़ा था जिसने यहूदीयों को सलाह दी कि उम्मत के बदले एक का मरना बेहतर है।” (यूहन्ना 18:14)

बाअज़ अश्ख़ास जाहिलाना मसीहीयों के साथ हुज्जत व बह्स करते और कहते हैं कि गुनाहों की माफ़ी हासिल करने के लिए कुफ़्फ़ारे की ज़रूरत नहीं है। और मसीह के गुनाहगारों के बदले में अपनी जान को क़ुर्बान करने और अपना पाक लहू बहाने पर एतराज़ करते हैं कि ये कहाँ की अदालत थी कि गुनाह तो करें और लोग और उन के एवज़ में बेगुनाह शख़्स को सज़ा दी जाये और फिर यह कि एक आदमी के सज़ा और दुख उठाने से दूसरों को क्योंकर फ़ायदा पहुंच सकता है। अक्सर मर्तबा ख्वान्दा मुहम्मदियों की ज़बान से भी ऐसी बातें सुनने में आई हैं। लिहाज़ा बेहतर होगा और कि हम उन के लिए मज़्हबी अक़ाइद का इस अम्र की निस्बत कुछ ज़िक्र करें। इमाम हुसैन के कर्बला में मारे जाने, और भुक व प्यास और तरह तरह की तक्लीफ़ात सहने का सबब मुहम्मदियों की किताबों से यही ज़ाहिर होता है कि उन पर ये तमाम मुसीबतें और तकलीफ़ें गुनाहगार उम्मत मुहम्मदिया की ख़ातिर गुज़रीं। शीया व सुन्नी हर दो फ़रीक़ की किताबों को हमने देखा। और वो इस पर मुत्तफ़िक़ हैं कि उन की शहादत रफ़ाह उम्मत का बाइस है। शीयों की एक किताब “ख़िलास-उल-मसाइब” में लिखा है कि :-

“एक रोज़ आँहज़रत ने अपनी बेटी फ़ातिमा को इमाम हुसैन के कर्बला में क़त्ल किए जाने की ख़बर दी, तो वो बहुत ग़मगीं हुईं। आपने फ़रमाया कि, ऐ फ़ातिमा क्या तुम राज़ी नहीं हो? ये कि शहादत हुसैन की एवज़ ताज शफ़ाअत उम्मत आसी (गुनाहगार) का ख़ुदा तुम्हारे बाप के सर पर रखे और तुम्हारा शौहर अपने दोस्तों को आबे कोसर पिलाए और दुश्मनों को दूर करे। मलाइका तुम्हारे मुंतज़िर हुक्म खड़े हों? इसी तरह जब हज़रत ने बहुत से कलिमे फ़रमाए तो उन्होंने ने अर्ज़ की कि ऐ बाबा जो ये सवाब है, हमारे दोस्त बरोज़ क़ियामत यूं बचेंगे तो मैं (राज़ी) हूँ।” अब ख़्वाह ऐसी पेशगोई हज़रत से हुई या नहीं। इस से कुछ बह्स नहीं। लेकिन सिर्फ ये मालूम कराना मंज़ूर है कि शफ़ाअत गुनाहगार उनके लिए मुहम्मदियों में भी कफ़्फ़ारे की ज़रूरत का ख़याल पाया जाता है। अक्सर क़ौमों में आदमीयों की क़ुर्बानी चढ़ने की बिना ज़रूर कुछ मअनी तो रखती है, मगर ग़लती सिर्फ ये वाक़ेअ हुई है कि लोगों ने इस बात के असली मतलब को ना समझा कि आदमी की क़ुर्बानी बामज्बूरी, या किसी मह्ज़ इन्सान का तमाम बनी-आदम के लिए क़ुर्बान होना, मूजिब नजात गुनाहगार और ख़ुशनुदी ख़ुदावंद तआला हो सकता है या नहीं। और ये कि क़ुर्बान होने वाला शख़्स पाक और मासूम, गुनाहगारों से जुदा और आसमानों में बुलंद हो। और कुल अम्बिया और उस की शहादत व क़ुर्बानी पर गवाह व शाहीद हूँ। फिर ये भी ज़रूर है कि वो बनी-आदम का ऊज़ी (क़ाइम मक़ाम, बदला) हमेशा के लिए क़ब्र के फाटक में बंद, और मौत के क़ब्ज़े में गिरफ़्तार ना रहे। बल्कि जब अपनी जान कफ़्फ़ार हमें गुज़रान चुके तो वो अपनी अज़मत व इख़्तयार शफ़ाअत का सबूत अपने फिर ज़िंदा हो जाने से बख़ूबी दे सके। अब ये सब शफ़ी व ज़बीज के लिए ज़रूरी बातें बजुज़ ख़ुदावंद यसूअ मसीह के और किसी में नहीं पाई जातीं। पस सिर्फ़ मसीह का लहू, जिसने बेऐब हो के अबदी रूह के वसीले (अपने) आपको ख़ुदा के हुज़ूर क़ुर्बानी गुज़राना। हमारे दिलों को मुर्दा कामों से पाक कर सकता है, ताकि हम ज़िंदा ख़ुदा की इबादत करें। और मुर्दों पर अपनी नजात का कुछ भरोसा ना रखें।