नसीम-ए-सहरी (सुबह की हवा) के ठंडे ठंडे झोंकों ने ख़फ़तगान ख़्वाब-ए-नाज़ को चौकन्ना (होशियार) किया। मूअज़्ज़न की अज़ान ने नमाज़ सुबह के वास्ते नमाज़ियों को मुतवज्जोह किया। अल-सलात ख़ैर मिनल-नौम की सदा सुनते ही नमाज़ी कुलबुला कर उठ बैठे।
Death
मौत
By
One Disciple
एक शागिर्द
Published in Nur-i-Afshan Dec 21, 1894
नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 21 दिसंबर 1894 ई॰
ज़िंदगी मौत के आने की खबर देती है
ये इक़ामत हमें पैग़ाम अस्फ़र देती है
नसीम-ए-सहरी (सुबह की हवा) के ठंडे ठंडे झोंकों ने ख़फ़तगान ख़्वाब-ए-नाज़ को चौकन्ना (होशियार) किया। मूअज़्ज़न की अज़ान ने नमाज़ सुबह के वास्ते नमाज़ियों को मुतवज्जोह किया। अल-सलात ख़ैर मिनल-नौम की सदा सुनते ही नमाज़ी कुलबुला कर उठ बैठे। ब्रहमन के नाक़ूस (संख जो हिंदू पूजा करते वक़्त बजाते हैं) की सदा (आवाज़) ने हिन्दुओं को पूजापाट के वास्ते बुलाया। गिरजे के घंटे की आवाज़ ने मसीहियों को निदा (आवाज़, पुकार) दी, कि आओ। सुबह का हद्या ख़ुदा ए अज़्ज़ व जल के रूबरू पेश करो। शब गुज़श्ता की ख़ैरीयत के वास्ते शुक्र अदा करो। दिन की ख़ैर व आफियत (सेहत, सलामती, अमन) व बरकत के लिए मिन्नत करो। तुलूअ आफ़्ताब ने आलम-ए-ख़ामोशी को आलमे कारोबार कर दिखाया। हर शख़्स अपने धंदे में मसरूफ़ हुआ। मगर अफ़्सोस ! आक़िबत (आख़िरत) से बेख़बर सोने वालों पर ज़माने ने कोई असर नहीं किया। ना हवादिस (हादिसे) ने कोई मोअस्सर ताज़ियाना (कोड़ा) लगाया। बहतेरा जगाया, गुद गुदाया, शाना हिलाया, टांगें पकड़ के खींचीं, मगर यहां कोई ख़बर ना हुई। ऐसी ग़फ़लत (लापरवाही) की नींद सो रहे हैं, कि साँप के सूंघ जाने का एहतिमाल (गुमान) होता है। या किसी डाक्टर ने क्लोरा फ़ार्म सुंघाकर, चित्त (नशे में बेहोश होना, मर जाना) कर दिया हो अल्लाह रे लापरवाई, इस्ति़ग़ना (बेफ़िक्री) बे-एअतिनाई (बेपर्वाई) जीते जागते मुर्दों से बदतर हो रहे हैं कोस-ए-रहलत (रवानगी की घंटी) की आवाज़ बारहा कानों में आई मगर इस कान से सुनी, और उस से उड़ा दी। मौत[1] अपना काम बराबर कर रही है। बक़ौल हज़रत दाग़। आबाद किस क़द्र ही इलाही अदम की राह। हर-दम मुसाफ़िरों का ही तनता (मजमा) लगा हुआ। मगर यहां इस से कभी कोई सबक़ नहीं सीखा। किसी अज़ीज़ के मर जाने पर तो दिखाने को दो-चार आँसू बहा दिए। बाक़ी अल्लाह अल्लाह खैर सलाह।
चश्म अहले फ़ना पे डाले हैं
ऐ अजल तूने पर्दे ग़फ़लत के
ज़िंदगी और मौत का साथ अगर देखा जाये, तो कुछ आज से नहीं है। बल्कि इस का सिलसिला दुनिया की पैदाइश से ही बराबर चला आ रहा है। बाबा आदम ने गुनाह किया। और मौत उस की सज़ा ठहरी मुतक़द्दिमीन (अगले ज़माने के लोग) में से कौन है। जो आज के दिन सफ़ा दुनिया पर नज़र आता है? इस का जवाब सिवाए नफ़ी के और कोई नहीं। बड़े बड़े नामवर बादशाह, फल्सफियों (आलिम) और दाना अश्ख़ास जो कि ज़माने गुज़श्ता में हो चुके हैं आज कहाँ हैं? अगर ढूंडते हो तो उनकी ख़ाक का भी पता ना लगे। बस नामवर बज़ीर ज़मीन दफ़न कर दह अंद। कर हस्तीश बरुए ज़मीन यकंशां नुमा नद। वो लोग क्या हुए और कहाँ गए? पहली बात का जवाब तो आसान है, कि वो इस दुनिया से कूच कर गए। दारा हाना जम ना सिकन्दर सा बादशाह। तख़्त ज़मीन पे सैंकड़ों आए चले गए। मगर दूसरी बात का जवाब अभी इन्सान को मालूम नहीं हो सकता जब तक कि असली मौक़ा न आ जाए।
ये एक खुला हुआ मुआमला है, कि जिस चीज़ का आग़ाज़ है। उस का अंजाम भी ज़रूर है। ये अंजाम क्या है? मौत। आए दिन सुनते हैं, कि आज फ़ुलां शख़्स का जनाज़ा क़ब्रिस्तान में लिए जा रहे हैं आज फ़ुलां मरघट (शमशान, हिन्दू के मुर्दे जलाने की जगह) पर पहुंचाया गया। आलमे नबातात (सबज़ीयां, तरकारियां) में ज़िंदगी और मौत दोनों हैं। उनका सरसब्ज़ रहना उन की ज़िंदगी है। और उनका मुरझाना या सूख जाना काट डाला जाना उनका अंजाम या मौत है।
अतबा (हकीम, डाक्टर, दवा दारू करने वाले) दौरान ख़ून के बराबर जारी रहने को ज़िंदगी कहते हैं और इस के बरख़िलाफ़ जो है उस को मौत। जहां ये दौरा बंद हुआ, आदमी मअन (फ़ौरन, उसी वक़्त) दूसरे आलम में पहुंच गया। ख़्वाह ये दौरा दिमाग़ के फ़ुतूर (ख़राबी, नुक़्स) के बाइस। या फेफड़ों के काम में ख़लल (ख़राबी, बिगाड़) होने से बंद हो जाये। या दिल ख़ुद अपना काम ना कर सके। या किसी और वजह से ख़ून की गर्दिश मसुदूद (बंद, रुका हुआ) हो जाये। तिब्बी मसअला है, कि जब कि ख़ून मुस्फ़ा शरयानों में दौरा ना करेगा। या क़ल्ब (दिल) अपनी हरकत से बाज़ रहेगा। तो कोई जानदार शैय ज़िंदा ना रहेगी। गो कि जिस्म के बारीक ज़र्रात (अपी थेलीम) का ज़ाए होना। और उन की जगह दूसरे ज़र्रात का पैदा हो जाना ज़िंदगी व मौत की नज़ीरें (मिसालें) हैं। मगर ये जुज़वी मौत कहलाती है। इस से हमारी बह्स नहीं है।
मौत वो हालत है, कि जिसमें रूह और जिस्म का ताल्लुक़ मुनक़तेअ (इख़्तताम को पहुंचा हुआ) हो जाता है। हवास ज़ाहिरी व बातिनी अपने-अपने अफ़आल छोड़ बैठते हैं। जिस्म बे-हिस व हरकत हो जाता है। देखने में सब आज़ा थोड़ी देर तक ज़ाहिरन दुरुस्त रहते हैं। मगर बदन को हाथ लगाओ तो हरारत-ए-ग़रीज़ी (फ़ित्री, हक़ीक़ी) मफ़्क़ूद (ग़ायब) पाओगे। आँख, नाक, कान, मुँह, हाथ, पांव, ज़ाहिरन तो सब मौजूद रहते हैं। मगर अपने अपने काम से आजिज़। (बेबस) आज़ाए अंदरूनी में दिल मौजूद है। मगर अपनी हरकत नहीं करता। फेफड़े हैं, मगर उन में सांस लेने और निकालने की ताक़त है ना ख़ून साफ़ करने की। दिमाग़ है मगर वो ना निज़ाम आसाबी का बंदो बस्त कर सकता है, ना सोचने की ताक़त रखता है। अल-ग़र्ज़ आज़ा तो सब मौजूद रहते हैं। मगर कारहाए मफूज़ा उनसे नहीं हो सकते। ये कैफ़ीयत थोड़ी ही दिनों तक रहती है। बादह (इस के बाद) सड़न (बोसीदगी) दौड़ जाती है। जिसको तिब्बी इस्तिलाह में डीकंपोज़ीशन। DECOMPOSITION) कहते हैं।
और यहां से वो ज़माना शुरू होता है, कि इन्सान ख़ाक में ख़ाक होना शुरू होता है। बदबूदार हवाएं निकल कर कुर्राह जहां की हवा में तेरना शुरू होते हैं। हड्डियां कुछ दिनों तक तो सालिम (साबित, मुकम्मल, महफ़ूज़) रहती हैं। मगर आख़िर वो भी ज़मीन का हिस्सा हो जाती हैं। कीड़े पड़ जाते हैं और दरिंदे अगर मौक़ा मिले तो लाश को खा जाते हैं। ये ही है आदमी का अंजाम।
मौत के पंजे से बचने की कोशिश करना एक बेहूदा ख़याल है। इस से आज तक कोई कहीं बचा है? सिवाए एक शख़्स हनोक के और ना आइंदा कोई बच सकता है।
बक़ौल दाग़, अजल के हाथ से ऐ दाग़ बचने का नहीं कोई। ना छोड़ा दोस्त को उसने ना छोड़ेगी ये दुश्मन को।
दुनिया का जाह हश्म शान व शौकत माल व दौलत इज़्ज़त व सर्वत, और हिक्मत व हुकूमत इस के सामने सब हीच (नाकारा, निकम्मा) हैं। जहां इस का पैग़ाम आ पहुंचा, सिवाए तामील के और कोई चारा नहीं। वो लोग जो इस शेअर पर भूले हुए हैं। आक़िबत (आख़िर) की ख़बर ख़ुदा जाने। अब तो आराम से गुज़रती है। ज़रा थोड़ी देर के वास्ते आख़िरत के नताइज का ख़याल अपने दिमाग़ों में आने दें। कहीं इस शेअर के मिस्दाक़ (तस्दीक़ करने वाले गवाह) ना हों।
आक़िबत में पढ़ेंगे जुते ख़ूब। ख़ाक आराम से गुज़रती है।
अमीर व ग़रीब यहां यकसाँ हैं, कोई फ़र्क़ नहीं है। क्या जाने मौत दौलत-ए-दुनिया की शान को। दर्जा यहां है एक अमीर व ग़रीब का। वही चार के कांधे पर आख़िरी मस्कन पर पहुंचा दिए गए। अमीर आदमी के साथ अगर भीड़भाड़ (शान व शौकत) हुई भी क्या हासिल? अंजाम तो एक ही है। इतना ख़याल ज़रूर है।
तू कल दो गज़ कफ़न को होएगा मुहताज ग़ैरों का। ना हो ख़ुश आज गो तू साहिबे शाल दो व शाला है।
मौत से बचना वाक़ई ना-मुम्किन है। हाँ जो बात क़ाबिले गौर है, वो ये है, कि इस के बाद क्या हाल होगा। हम तनासुख़ (एक सूरत से दूसरी सूरत इख़्तियार करना) के क़ाइल (तस्लीम करने वाले) नहीं हैं। इस का सबब यही है, कि ये ताअलीम हमारी समझ में नहीं आती। भला अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात को कीड़े मकोड़े मच्छर भेंगे की जून में डाल देना बे इंसाफ़ी नहीं है, तो क्या है? तब ये कहना होगा, “इन्सान बना के क्यों मेरी मिट्टी ख़राब की” हम क़ियामत के मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) हैं। जब कुल बनी-आदम का इन्साफ़ होगा। और इस के मुवाफ़िक़ सज़ा जज़ा मिलेगी। हम अपने नेक-आमाल पर भी भरोसा नहीं रखते क्योंकि “हमारी नेकियां गंदी धज्जी की मानिंद हैं।” हम सिर्फ उस की सलीबी मौत के तुफ़ैल (सबब) से बचने की उम्मीद रखते हैं। जिसने मौत और क़ब्र दोनों पर फ़त्ह पाई।
सलीबी मौत ने तेरी हमें वो दी जुर्आत। उठेंगे शान से महशर में इम्तिहान के लिए।
“ऐ मौत तेरा ढंग कहाँ? और ऐ कब्र तेरी फ़त्ह कहाँ?” और सिर्फ उसी के वसीले से हम हयात-ए-अबदी पा सकते हैं, जिसने कहा :-
“राह, और हक़, और ज़िंदगी मैं हूँ।”
दोस्तो ये ख़ुशख़बरी हम सिर्फ अपने तक महदूद रखना नहीं चाहते। क्योंकि हुक्म है। कि “तुमने मुफ़्त पाया है मुफ़्त दो” इसलिए हम उन लोगों को जो अभी तक फ़ज़्ल से महरूम हैं बरमला सुनाए देते हैं, कि ख़ुदावंद येसू मसीह पर जो शख़्स ईमान लाएगा हयात-ए-अबदी उसी की है। फिर कोई आख़िर को ये ना कहे :-
कौन तुझसे रह गया महरूम ऐ फ़ैज़ बहार हाँ मगर मैं रह गया मेरा ब्याबां रह गया।
राक़िम
वो अज़ाब जिसका कि खटका था। नहीं डर कुछ इस का हमें रहा
ऐ लतीफ़ चीज़ है मौत क्या। ये तो अपनी आँखों में ख्व़ाब है।
[1] नोट – तहक़ीक़ात से मालूम हुआ है कि दुनिया भर में फी सेकण्ड दो आदमी फौत होते हैं।