बाप किसी शख़्स की अदालत नहीं करता

मालूम नहीं कि उलूहियत व इब्नियत (शान-ए-ख़ुदावंदी और ख़ुदा का बेटा) मसीह के मुन्किरों (इन्कार करने वाले) ने इन्जील यूहन्ना की आयात मुन्दर्जा बाला के मअनी व मतलब पर कभी ग़ौर व फ़िक्र किया है या नहीं? जो लोग मसीह को एक उलुल-अज़्म (बुलंद इरादे वाले, साहिब-ए-अज़्म) नबी समझते हैं और बस या वो जो उस की इब्नियत (ख़ुदा का बेटा)

Father don’t Judge Anyone

बाप किसी शख़्स की अदालत नहीं करता

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Apr 13, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 13 अप्रैल 1894 ई॰

“बाप किसी शख़्स की अदालत नहीं करता बल्कि उस ने सारी अदालत बेटे को सौंप दी है ताकि सब बेटे की इज़्ज़त करें जिस तरह से कि बाप की इज़्ज़त करते हैं।” (यूहन्ना 22:23)

मालूम नहीं कि उलूहियत व इब्नियत (शान-ए-ख़ुदावंदी और ख़ुदा का बेटा) मसीह के मुन्किरों (इन्कार करने वाले) ने इन्जील यूहन्ना की आयात मुन्दर्जा बाला के मअनी व मतलब पर कभी ग़ौर व फ़िक्र किया है या नहीं? जो लोग मसीह को एक उलुल-अज़्म (बुलंद इरादे वाले, साहिब-ए-अज़्म) नबी समझते हैं और बस या वो जो उस की इब्नियत (ख़ुदा का बेटा) के तो एक मअनी से क़ाइल हैं और उस को अफ़्ज़ल-उल-अम्बीया (नबियों में बर्तर) और शफ़ी-उल-मुज़्नबीन (गुनाहगारों की शफ़ाअत करने वाला) वग़ैरह सब कुछ जानते और मानते हैं मगर उस की उलूहियत के क़ाइल व मुतअक़्क़िद (बोलने व एअ़्तकाद रखने वाला) नहीं उन के लिए आयात मज़्कूर अस्सदर का मज़्मून बड़ी हैरानी व परेशानी का बाइस होगा ख़्वाह वो इन आयतों की कुछ ही तफ़्सीरो तावील (बयान व तब्दीली करना) करें मगर जब तक कि ये अक़्दह (मुश्किल बात) हल न हो कि मह्ज़ इंसान क्यों-कर तमाम दुनिया की अदालत कर सकता है? और क्यों ख़ुदा के बराबर सभो से इज़्ज़त तलब करता है? कोई तफ़्सीर व तावील तालिब-ए-हक़ (सच्चाई का तालिब) के दिल में हर्गिज़ तस्कीन व तश्फ़ी (तसल्ली व इत्मिनान) पैदा नहीं कर सकेगी दुनिया की अदालत करना एक इलाही मन्सब (ख़ुदाई इख़्तियार) है जिसके लिए आलिमुल्गै़ब (ग़ैब का इल्म जानने वाला) और आरिफ़-उल-क़ुलूब (दिल की बात जानने वाला) होना निहायत ज़रूरी है, क्योंकि इन्सानों के दिलों और गुर्दों का जांचने वाला और उन के पोशीदा अम्लों से वाक़िफ़ व अ़लीम (इल्म रखने वाला) सिर्फ ख़ुदा है जैसा कि वो फ़रमाता है कि “मैं ख़ुदावन्द दिल को जानता हूँ, और गुर्दों को आज़माता कि मैं हर एक आदमी को उस की चाल के मुवाफ़िक़ और उस के कामों के फल के मुताबिक़ बदला दूं।” (यर्मियाह 17:10)

पस इस सूरत में क्यों-कर मुम्किन है कि कोई इंसान मह्ज़ दुनिया की अदालत कर सके? और हर एक फ़र्द-ए-बशर को उस के आमाल के मुताबिक़ जज़ा व सज़ा के लायक़ ठहराए? अगर ये कहा जाए कि ख़ुदा तआला अपनी तरफ से किसी को अगर चाहे तो ऐसी अदालत करने का मन्सब व इख़्तियार बख़्श सकता है लेकिन फिर भी अक़्ल-ए-सलीम (पूरी अक़्ल) ये हर्गिज़ क़ुबूल नहीं कर सकती कि वो अपनी सिफ़त आलिमुल्गै़बी व आरिफ़ुल़्कल्बी जो इन्सानों की आख़िरी अदालत के लिए अम्र लाज़िमी है किसी मख़्लूक़ को अता कर सकता है। मसीह ख़ुदावन्द इसी लिए दुनिया का आदिल व मुंसिफ़ होगा कि वो गॉड-मेन (ख़ुदा इन्सान) हो कर इन्सानी माहीयत (असलियत) का तजुर्बा और वाक़्फ़ियत रखना और आरिफ़-उल-क़ुलूब व हमा दान (हर-फ़न मौला) है। चुनान्चे लिखा है कि “वो सबको जानता था और मुह्ताज न था कि कोई इन्सान के हक़ में गवाही दे क्योंकि वो आप जो कुछ इन्सान में था जानता था।” (यूहन्ना 2:25)

फिर उस ने ख़ुद भी फ़रमाया है कि “मैं वही हूँ जो दिलों और गुर्दों का जांचने वाला हूँ और मैं तुम में से हर एक को उस के कामों के मुवाफ़िक़ बदला दूँगा।” (मुकाशफ़ा 2:23)