अगरचे इस की बाबत और कुछ लिखना ज़रूरी नहीं है। क्योंकि इस के क़ब्ल ही विलायत में राज़ सर बस्ता (छिपा हुआ) खुल गया है। और साथ ही इस के हज़रत नोटोविच की क़लई (हक़ीक़त ज़ाहिर होना) भी खुल गई, कि वो क्या हैं। और हिन्दुस्तान के मशहूर व मारूफ़ अंग्रेज़ी अख़बारों ने भी बड़े ज़ोर से नोटोविच की तर्दीद (रद्द करना)
Gospel of Issa
ईसा की इन्जील
By
Ahmad Shah Shiaq
अहमद शाह शावक
Published in Nur-i-Afshan Dec 28, 1894
नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 28 दिसंबर 1894 ई॰
अगरचे इस की बाबत और कुछ लिखना ज़रूरी नहीं है। क्योंकि इस के क़ब्ल ही विलायत में राज़ सर बस्ता (छिपा हुआ) खुल गया है। और साथ ही इस के हज़रत नोटोविच की क़लई (हक़ीक़त ज़ाहिर होना) भी खुल गई, कि वो क्या हैं। और हिन्दुस्तान के मशहूर व मारूफ़ अंग्रेज़ी अख़बारों ने भी बड़े ज़ोर से नोटोविच की तर्दीद (रद्द करना) कर दी। और उनका अगला पिछ्ला हाल भी अपने नाज़रीन को सुना दिया। जिन्हों ने मॉर्निंग पोस्ट और पायोनियर को बराबर पढ़ा होगा। वो इस हक़ीक़त से बख़ूबी आगाह होंगे। मगर फिर भी हमको अपना वो वाअदा पूरा करना ज़रूरी है, जो हम अपनी तहरीर में जो हम्स की ख़ानक़ाह से सरसरी (मामूली) तौर पर लिखी थी, किया था। और जो नूर-ए-अफ़्शां मत्बूआ 31 अगस्त 1894 ई॰ में शाएअ हो कर पब्लिक के मुलाहिज़ा से गुज़र चुकी है। उस के आख़िरी अल्फ़ाज़, कि “बाक़ी फिर लिखूँगा” हमको मज्बूर कर रहे हैं, कि ज़रूर कुछ लिखना चाहिए। और बाअज़ अहबाब की भी यही ख़्वाहिश है जो अक्सर अपने नवाज़िश नामों में इस की बाबत इसरार (ज़िद) करते हैं। लिहाज़ा ख़याल ख़ातिर अहबाब चाहिए हर दम। अनीस ठेस ना लग जाये आबगीनों को।
नाज़रीन का बेशक़ीमत वक़्त और नूर-अफ़्शां के क़ाइल क़द्र कालमों के वक़्फ़ होने लिए माफ़ किया जाऊं।
कप्तान ऐस॰ ऐच॰ गॉड फ़्री साहब ब्रिटिश जवाईंट कमिश्नर लद्दाख की तहक़ीक़ात का नतीजा।
साहब मौसूफ़ ने हमारी व नीज़ मूरीवीन मिशनरी साहिबान की दरख़्वास्त पर इस अम्र में ब हैसियत कमिशनरी तफ़्तीश (तहक़ीक़ात) शुरू की। उन्होंने कप्तान रामज़ी साहब को जो साबिक़ में यहां के ब्रिटिश जवाईंट कमिशनर थे एक ख़त बदीं मज़्मून लिखा, कि “क्या आपके ज़माने में कोई शख़्स निकोलस नोटोविच लद्दाख में आया था?” उन्होंने उस के जवाब में तहरीर किया “हाँ 1887 ई॰ माह-ए-अक्तूबर में एक शख़्स इस नाम का आया था। और वो दाँत के दर्द की शिकायत करता था जिसका मुआलिजा डाक्टर मार्क्स साहब ने जो उस वक़्त लद्दाख के मैडीकल ऑफीसर थे किया था। उस का दाँत उन्होंने उखाड़ा था। और ये शख़्स सिर्फ दो तीन दिन लद्दाख में रह कर चला गया था।” डाक्टर सूरज मल जो उस ज़माने में यहां दरबार कश्मीर की तरफ़ से गवर्नर लद्दाख थे। उन्होंने भी इस बात को तस्लीम किया, कि नोटोविच लद्दाख 1887 ई॰ में आया था। और दो तीन रोज़ रह कर चला गया था। इन दोनों तहरीरों से हमको इस क़द्र तो साबित हो गया, कि नोटोविच लद्दाख तक ज़रूर आए। मगर इस से ये हरगिज़ साबित ना होगा, कि वो इंजीली ईसा को हमस से ले गए। और अब तक उस के लिए बहुत कोशिश की गई, कि कोई सबूत इस अम्र का मिले। मगर कोई कामयाबी की सूरत नज़र नहीं आती।
हमस की ख़ानक़ाह के राहिब (ईसाई आबिद या ज़ाहिद) को भी ब्रिटिश जवाईंट कमिशनर साहब ने एक सर शता (महिकमा, कचहरी, शोबा) का ख़त लिखा, कि आया तुम्हारे यहां कोई शख़्स किसी वक़्त इस हालत में ख़ानक़ाह में रहा, कि “उस की टांग टूटी हो। और तुमने, या तुम्हारे और किसी साथी ने इस की ख़िदमत की हो। और अगर तुम्हारी ख़ानक़ाह में कोई ऐसी किताब हो जिसमें येसू मसीह की ज़िंदगी के हालात हों, या कोई दूसरी किताब जो मज़्हब ईस्वी से ताल्लुक़ रखती हो। इस बात की भी इत्तिला दो। और ये भी बतलाओ कि क्या किसी रूसी सय्याह, या और किसी शख़्स ने तुम्हारी ख़ानक़ाह में रह कर किसी किताब का जो “ईसा” से मन्सूब (मुताल्लिक़ किया हुआ) हो तर्जुमा किया?”
इस के जवाब में वहां के हैड लामा ने जवाब दिया, कि “ना तो कोई शख़्स हमारे यहां टूटी हुई टांग लेकर आया, कि हमने उस की ख़िदमत से फ़ख़्र हासिल किया हो। और ना कोई किताब हमारी ख़ानक़ाह में मज़्हब ईस्वी के मुताल्लिक़ है। और ना किसी शख़्स को हमने कभी कोई किताब दी कि वो तर्जुमा करता।” ये ख़ुलासा है कमिशनर साहब की तहक़ीक़ात का। हम गुज़श्ता हफ़्ता फिर ख़ानक़ाह हमस को गए थे। और वहां के कुल राहिबों से जो शुमार में क़रीब पाँच सौ के हैं बज़रीया मुतर्जिम दर्याफ़्त करते रहे। मगर किसी ने भी जवाब इस बात का ना दिया, कि उनको इस मुआमले से कुछ ख़बर है। उनका बयान है, कि “अव़्वल तो कोई ऐसा शख़्स यहां आया ही नहीं। और अगर अंग्रेज़ लोग ख़ानक़ाह देखने के लिए आते हैं तो ख़ानक़ाह के मकान के बाहर एक बाग़ है। उसी में अपना ख़ेमा लगा कर रहते हैं कोई अंग्रेज़, या रूसी कभी ख़ानक़ाह के अंदर नहीं रहा। ना ये हमारा दस्तूर (रिवाज) है, कि किसी को ख़ानक़ाह के अंदर आने की इजाज़त दें। और ना हम किसी को अपनी किताब छूने देते हैं। और ना किताब को ख़ानक़ाह के बाहर ले जाते हैं। और ना किसी को ऐसा करने की इजाज़त दे सकते हैं।”
रेवरेंड एफ़॰ बी॰ शाअ और मिस्टर नोटोविच
अख़्बार डेली न्यूज़ लंडन मत्बूआ 2 जुलाई 1894 ई॰ में पादरी एफ़॰ बी॰ शाअ मौर्योविन मिशनरी लद्दाख ने नोटोविच साहब की तर्दीद में एक ख़त लिखा, कि “हमस की ख़ानक़ाह में ना तो कोई नुस्ख़ा पाली ज़बान में है। और ना कोई पाली ज़बान से वाक़िफ़ है। हत्ता कि कोई शख़्स पाली हुरूफ़ को पहचान भी नहीं सकता। और ना कोई शख़्स नोटोविच नाम का हमस की ख़ानक़ाह में आया। और ना कोई शख़्स टांग टूटी हुई हालत में ख़ानक़ाह हमस के राहिबों से ईलाज किया गया। और ना कोई ऐसा शख़्स कभी ख़ानक़ाह में रहा। वग़ैरह।” इस के जवाब में नोटोविच साहब तहरीर फ़र्माते हैं, कि “ज़रूर इन्जील ईसा” का असली नुस्ख़ा हमस की ख़ानक़ाह में मौजूद है। बशर्ते के उस को वहां के पादरीयों ने वहां से अलेहदा (अलग) ना कर दिया हो।” और साथ ही इस के ये भी लिखा है, कि “मैं साल आइंदा फिर लद्दाख को जाऊँगा। और हमस की ख़ानक़ाह में इस नुस्खे को तलाश करूँगा। और अगर वहां ना मिला तो लासा की ख़ानक़ाह में जा कर तफ़्तीश करूँगा।” हम नोटोविच साहब की दाद देते हैं। क्योंकि उनको सूझी बड़ी दूर की आप फ़र्माते हैं, कि “अगर पादरीयों ने इस नुस्खे को वहां से अलग ना कर दिया हो।” ऐ हज़रत जब आप ख़ुद उस के ख़रीदने में कामयाब ना हुए और बक़ौल आपके, कि “टांग की क़ीमत देकर सिर्फ तर्जुमा ही नसीब हुआ।” तो फिर बेचारे पादरी कहाँ से और किस तरह उस के वहां से अलग करने में कामयाब हो सकते हैं? ये सिर्फ़ आपकी बद-गुमानी है। जो अपने झूट को लोगों से छिपाने के लिए पैदा की। नोटोविच साहब के इस की नक़्ल 6 जुलाई 1894 ई॰ के होम न्यूज़ में भी की गई है उस में भी इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि “नोटोविच साहब साल आइंदा में फिर लद्दाख को जाऐंगे।” ख़ैर वह आएं। हम भी उनका ख़ैर मुक़द्दम करने को यहां बैठे हैं। मगर हमको भी इस के लिए मुंतज़िर रहना चाहिए। कि जल्द हम इस ख़बर को किसी अंग्रेज़ी अख़्बार में पड़ेंगे, कि नोटोविच साहब सख़्त बीमार हो गए। या ख़ुदा-न-ख़्वास्ता जिस तरह हमस की ख़ानक़ाह में टांग टूट गई थी। उसी तरह और कोई उज़ू (जिस्म का हिस्सा) नाकारा हो गया। इसलिए वो अब लद्दाख को इस साल नहीं जा सकते। क्योंकि अगर वो यहां आएँगे तो बनाएँगे क्या, “इन्जील ईसा” जहां से पहले पैदा की वहीं जाएं। हमस और लासा को जाना फ़ुज़ूल है।
नोटोविच साहब का साफ़ इन्कार कि उनकी टांग नहीं टूटी और ना उन्होंने नुस्ख़ा पाली ज़बान में देखा। बल्कि तिब्बती ज़बान में देखा।
चूँकि पादरी साहब ने नोटोविच साहब की तर्दीद में लिखा था कि “कोई शख़्स हमस की ख़ानक़ाह में टांग टूटने की हालत में नहीं रहा। और ना कोई नुस्ख़ा वहां ज़बान पाली में है। और ना कोई पाली जानता है।” इस पर नोटोविच साहब ने एक आर्टीकल एक फ़्रैंच अख़्बार में जो पैरिस से निकलता है इस तर्ज़ से लिखा कि “मैंने कभी नहीं कहा, कि मेरी टांग टूटी थी। और हमस के मालिकों ने मेरी मदद की। बल्कि मैंने ये कहा, कि मैं बीमार था। और इस बीमारी की हालत में हमस की ख़ानक़ाह में रहा। और वो नुस्ख़ा पाया। और तर्जुमा किया। और मैंने ये भी नहीं कहा कि वो नुस्ख़ा पाली ज़बान में मैंने देखा। बल्कि ये कि अस्ल नुस्ख़ा पाली ज़बान का लासा में मौजूद है। और इस का तर्जुमा तिब्बती ज़बान में हमस में मौजूद है।” नोटोविच साहब का ये बयान अख़्बार (Lintermedivere) जिल्द 30 नम्बर 662 मौरख़ा 10, अगस्त 1894 ई॰ में शाएअ हुआ है। और अपने बयान में इन्जील ईसा के 148 सफ़ा का हवाला देकर वही ज़िक्र शुरू किया है। जो अक्सर उर्दू व अंग्रेज़ी अख़बारों में ईसा की ज़िंदगी के मुताल्लिक़ शाएअ हो चुका है। इस का इआदा (दोहराना) इस जगह फ़ुज़ूल है।
अब मुक़ाम हैरत है, कि इब्तिदा इब्तिदा जब अख़बारों में ये ख़बर मशहूर हुई। तो उन्हें दो उन्वाने नू (नया) से हुई थी। और नोटोविच साहब ने ज़र्रा भर इस की मुख़ालिफ़त नहीं की। मगर जिस वक़्त पादरी शाअ साहब की तरफ़ से इस पर नोटिस लिया गया। तो नोटोविच साहब को ये सूझी, कि इन दोनों बातों से इन्कार कर जाओ तो बेहतर है। और हम यक़ीनी तौर पर ये कहते हैं, कि ज़रूर नोटोविच साहब भी ख़ुद इन मज़्कूर बाला ख़बरों के मुख़्बिर (ख़बर रखने वाला) होंगे। और बाद को जब देखा, कि झूट के पांव उखड़ गए। तो झट ये सूझ गई। अब या तो नोटोविच साहब इस बात की तस्दीक़ कराएं, कि क्योंकर अख़्बार नवीसों ने इस ख़बर को शाएअ किया। और या ये कहें, कि पहले मैंने अपनी बहादुरी दिखलाने को ये कह दिया था। अब मैंने देखा, कि उलटी आँतें गले में पढ़ीं। इसलिए मैं अपने झूट को मान लेता हूँ। सबसे अव़्वल विलायत के अख़बारों ने नोटोविच का साथ दिया। और वहीं से ये ख़बरें हिन्दुस्तान में पहुंचीं और हम आगे साबित कर देंगे, कि नोटोविच साहब की आदत झूट कहने की 1887 ई॰ से हिन्दुस्तान में साबित है।
आपका ये कहना, कि हमस में लासा वाले पाली नुस्खे का तर्जुमा है। आपकी लियाक़त क़ाबिलीयत का सबूत दे रहा है। कि आपने इस तर्जुमे को असली के साथ मुक़ाबला करने से पहले ही दुरुस्त व सही क़रार दे दिया। लासा आप गए नहीं। असली नुस्खे को देखा नहीं। और ये तो बतलाए, कि उस तर्जुमे का तर्जुमा किस की मदद से आपने किया? हमको हमस में एक भी शख़्स ऐसा नज़र नहीं आया। जो आपको अंग्रेज़ी या फ़्रैंच या और किसी ज़बान में इस का तर्जुमा समझा कर करा सकता। शायद आपने ख़ुद तिब्बती में इस क़द्र महारत पैदा की होगी। मगर ये भी मुहाल मालूम होता है। ख़ैर जो कुछ हो हम देखेंगे, कि किस तरह आप इस को यहां आकर साबित करते हैं।
प्रोफ़ैसर मेक्स मूलर साहब का मज़्मून नोटोविच साहब की “इन्जील ईसा” पर
प्रोफ़ैसर मेक्स मूलर साहब के क़ाबिल अक्दर क़लम से एक मज़्मून उन्नीसवीं सदी बाबत माह-ए-अक्तूबर 1894 ई॰ में शाएअ हुआ है। जिसमें उन्होंने नोटोविच साहब के दाअवों को हर पहलू से जाँचा है। हमको उम्मीद थी, कि ज़रूर नोटोविच साहब प्रोफ़ैसर मेक्स मूलर साहब की तर्दीद में कुछ ख़ामा-फ़रसाई (लिखना) करेंगे। मगर हनूज़ (अभी तक) इंतिज़ार ही इंतिज़ार है। और उम्मीद पड़ती है, कि हमेशा तक ये इंतिज़ार बाक़ी रहेगा।
प्रोफ़ैसर साहब ने बहुत वाज़ेह दलाईल से साबित किया है, कि “इन्जील ईसा” हरगिज़ हरगिज़ बूदा (कमज़ोर, कम हिम्मत) लोगों के दर्मियान ना कभी थी। और ना अब है। और ना नोटोविच साहब ने कभी हमस की ख़ानक़ाह में टांग टूटने की हालत में पनाह ली और ना इस मतलब के वास्ते उन्होंने कभी टांग तोड़ी कि “इन्जील ईसा” उन को दस्तयाब हो। और इस बयान की ताईद (हिमायत) में बहुत से सय्याहों और मिशनरियों के हवाले दिए हैं जो लद्दाख में रहते हैं और जो लोग सय्याहों में से हमस को गए। एक लेडी के ख़त का ख़ुलासा जो प्रोफ़ैसर साहब को 26 जून को उस लेडी ने लद्दाख से भेजा ज़ेल में नाज़रीन के लिए तर्जुमा करता हूँ। ताकि नाज़रीन को मालूम हो जाये। कि सिर्फ हम और मिशनरी ही ऐसा नहीं कहते। बल्कि और लोग भी जिनको इस से कुछ ताल्लुक़ नहीं इस बात की बाबत किस क़द्र तलाश करते हैं और क्या राय रखते हैं लेडी के ख़त का ख़ुलासा :-
“क्या आपने ये सुना कि एक रूसी जिसको ख़ानक़ाह के अंदर जाने की इजाज़त ना मिली थी। तब उस ने अपनी टांग ख़ानक़ाह के फाटक के बाहर तोड़ डाली। और यूं ख़ानक़ाह के अंदर उस को पनाह दे दी गई? और उस का मतलब इस से सिर्फ ये था, कि बुद्धा लोगों के दर्मियान जो येसू मसीह की सवानिह उम्री है उस को हासिल करे और वो इसी ख़ानक़ाह में थी। और उस का बयान है, कि उस ने उसे हासिल किया। और उस ने उस को फ़्रैंच ज़बान में शाएअ भी करा दिया। इस क़िस्से का हर एक लफ़्ज़ सच्चाई से ख़ाली है। कोई रूसी वहां नहीं गया। ना कोई शख़्स गुज़श्ता पचास बरस से टूटी हुई टांग की हालत में इस सेमिनरी में दाख़िल हुआ और ना मसीह की कोई सवानिह उम्री वहां मौजूद है।” इस राकमा को लद्दाख से कोई ताल्लुक़ नहीं। वो सिर्फ़ बतौर सैर के यहां आई थी। और इस हालत में उस ने अख़बारों में इस ख़बर को पढ़ कर प्रोफ़ैसर साहब को इस सफ़ैद झूट से मुत्ला`अ (बाख़बर) किया।
नेक नीयत प्रोफ़ैसर साहब अपने मज़्मून में लिखते हैं कि “मुम्किन है कि नोटोविच ने हमस और लद्दाख का सफ़र किया हो। और उन की सब बातें दुरुस्त हों। मगर इस का जवाब नोटोविच साहब दें, कि क्यों हमस के राहिब लद्दाख के मिशनरीयों व अंग्रेज़ी सय्याहों, और दूसरे लोगों को इस बात की शहादत नहीं देते। कौनसा अम्र उन को मानेअ (मना) करता है।” और हम भी प्रोफ़ैसर मेक्स मूलर के हम ज़बान हो कर यही कहते हैं। हमने बहुत से पोशीदा वसीले इस बात के दर्याफ़्त करने के लिए बरते। मगर कोई बात भी इस के मुताल्लिक़ मालूम ना हुई जिससे सिर्फ ये गुमान कर सकते कि नोटोविच ज़रूर हमस में आए। और “इन्जील ईसा” उन को वहां मिली।
पायोनियर का एक नामा निगार नोटोविच साहब की 87 ई॰ की जालसाज़ी को ज़ाहिर करता है
पायोनियर में किसी नामा निगार ने (नम्बर का पता मैं नहीं दे सकता। क्योंकि जिस पर्चे में मैंने उस को देखा उस में से सिर्फ उसी क़द्र हिस्से काट लिया। जो नोटोविच साहब से मुताल्लिक़ था। तारीख़ व नम्बर का ख़याल ना रहा। ग़ालिबन 8 अक्तूबर के बाद किसी पर्चा में ये दर्ज है) लिखा है, कि “आपके नाज़रीन में से बहुतेरे एक रूसी मुसम्मा निकोलस नोटोविच के नाम से मानूस होंगे जो 1887 ई॰ की मौसम-ए-बहार में शमला पर आया। और वहां उस की ज़रक़-बरक़ व तुमतराक़ (शानो-शौकत, दाब) की बाइस इस पर लोगों की ख़ास तवज्जोह मबज़ूल हुई। उसने बयान किया कि मैं रूसी अख़्बार (Navoe upence) (जो रूस में बड़ा मशहूर अख़्बार है) का ख़ास नामा निगार हूँ।
और रूसी फ़ौज में ओहदा कप्तानी पर मामूर हूँ। जिस वक़्त ये ख़बर अख़्बार मज़्कूर के कान तक पहुंची उस ने बड़ी सफ़ाई के साथ इस की तर्दीद (रद्द) अपने कालमों में की। और बयान किया कि ना वो उनका नामा निगार है। और ना किसी रूसी फ़ौज का अफ़्सर है। और ना किसी और काम से रूस से उस को ताल्लुक़ है। वो पैरिस को वापिस गया। और वहां एक किताब येसू मसीह की सवानिह उम्री के नाम से फ़्रैंच ज़बान में शाएअ की। जिसमें वो कुछ कामयाब हुआ। और बहुत से अख़्बार को धोका देकर अपने साथ उस की ताईद (हिमायत) कराई। नामा निगार मज़्कूर लिखता है, कि मुझको बड़े अफ़्सोस के साथ कहना पड़ता है, कि बाअज़ उन अख़बारों में से हिन्दुस्तान के थे। जिनको इस की बाबत ज़्यादा बा-ख़बर होना वाजिब (लाज़िमी) था। फिर नामा निगार मज़्कूर ने नोटोविच की मुतर्जमा सवानिह उम्र अलगुज़ींडर सोवेम मर्हूम पर भी एक मज़ेदार चुटकी ली है। मगर वो हमारी बह्स से ख़ारिज है इसलिए क़लम अंदाज़ किए देते हैं।
अब नाज़रीन ख़ुद नोटोविच की दियानतदारी को मीज़ान इन्साफ़ (इन्साफ़ के तराज़ू) में तौल लें। हम अपनी तरफ़ से कुछ ना कहेंगे।
शमला पर नोटोविच को पोलेटिकल मुख़्बिर होने के लिए शुब्हा किया जाना और उनका फ़रार होना
जिस वक़्त हम श्री नगर से लद्दाख को ब्रिटिश जवाईंट कमिशनर साहब के हमराह आ रहे थे। तो रास्ते में हमको हमारे मेहरबान कर्नल वार्ड साहब मिले। उन से असनाए गुफ़्तगु (दौरान-ए-गुफ़्तगु) में नोटोविच, और उन की “इन्जील ईसा” का ज़िक्र हुआ। उन्हों ने नोटोविच का नाम सुनने पर ताज्जुब (हैरान होना) किया। और बयान किया, कि “जब मैं 1887 ई॰ में शिमला पर गर्वनमैंट आफ़ इंडिया की तरफ़ से वहां का सपरंटंडिंग इंजिनियर था। तो मैंने नोटोविच को देखा था। उस वक़्त वो एक रूसी अफ़्सर की वर्दी में था। और मैंने उस का फ़ोटो लिया था। और शिमला में उस पर शुब्हा किया गया था। कि वो कोई रूसी पोलिटिकल मुख़्बिर (सियासी ख़बर देने वाला) है। इसलिए पुलिस उस की निगरां रही। और उस को गिरफ़्तार करना चाहत्ता थी। मगर वो अय्यार (चालाक) पुलिस को झांसा देकर निकल गया।”
अब गुमान ग़ालिब है, कि ज़रूर नोटोविच साहब पुलिस के डर से शिमला से बख़्त रास्त लद्दाख आ गए हों। क्योंकि शिमला से लद्दाख को किलो के रास्ते बहुत आसानी होती है। और ख़ुसूसुन ऐसे पोलिटिकल मुख़बिरों के लिए उम्दा रास्ता है। क्योंकि सदहा मील तक आबादी का पता तक नहीं। और अक्सर ताजिरान शिमला इसी रास्ते से लद्दाख को बराए तिजारत आते हैं। हर जगह पर हमको नोटोविच साहब के चाल चलन का सबूत मिलता जाता है, कि वो क्या हैं। और इन सब बातों से की “इन्जील ईसा” की वक़अत (हैसियत) भी हमको मालूम हो गई।
नोटोविच साहब की तस्वीर फ़ौजी वर्दी में
पाल माल बजट जिल्द 26 नम्बर 1358 ई॰ मौरख़ा 14 अक्तूबर 1894 ई॰ में नोटोविच साहब की तस्वीर शाएअ हुई है। जिसकी बाबत ऐडीटर मुख़्बिर (ख़बर देने वाला) है। कि ये वो तस्वीर है जो नोटोविच साहब के हिंद में मौजूद होने के वक़्त ली गई। और ये भी कि सिर्फ दो साल हुए जब ये तस्वीर हिन्दुस्तान में उतारी गई थी। इस से नोटोविच साहब का अनक़रीब 1892 ई॰ तक हिन्दुस्तान ही में मौजूद होना साबित है। तस्वीर बिल्कुल फ़ौजी वर्दी में है। बड़े बड़े तमगे लगाए हुए हैं। तल्वार ज़ेब कमर है। तस्वीर देखने से बिल्कुल गबरू जवान मालूम होते हैं। मगर रूसी अख़्बार तर्दीद कर रहा है, कि वो रूस की किसी फ़ौज में कोई ओहदा नहीं रखता। पस साबित हुआ, कि सिर्फ अवाम को धोका दही की ग़र्ज़ से ये वज़ा तराशी (शक्ल, सूरत तराशना) थी। और यूँही “इन्जील ईसा” का ढोकोसला पैरिस में जा कर बघारा। इस तस्वीर से हमें अपने मेहरबान कर्नल वार्ड साहब का फ़रमाना याद आया, कि उन्होंने नोटोविच को शिमला पर फ़ौजी वर्दी में देखा था।
नोटोविच साहब की “इन्जील ईसा” की तबअ सोएम और अंग्रेज़ी तर्जुमा।
किसी अख़्बार में हमने पढ़ा, कि नोटोविच साहब की “इन्जील ईसा” बार सोएम तबाअ हो चुकी यानी फ़्रैंच ज़बान में। और बहुत जल्द अंग्रेज़ी तर्जुमा पब्लिक को पेशकश किया जाएगा। इस से इस क़द्र तो हम भी समझ गए, कि नोटोविच साहब का मक़्सद ख़ातिर-ख़्वाह पूरा हो गया। और कुछ अजब नहीं, कि यही मतलब इनको मज्बूर करे कि हमस की ख़ानक़ाह से इस का बरामद होना हत्ता-उल-वसीअ (जहां तक हो सके) कर ही दिखाएं। और ऐसे बहरुपिए के नज़्दीक ये कोई मुश्किल अम्र नहीं है। मगर साथ इस के हमको यक़ीन-ए-कामिल है, कि हमस से तो उस का बरामद होना मुश्किल है। मगर नोटोविच ने इस की भी पेशबंदी कर ली है। वो होम न्यूज़, और डेली न्यूज़ में लिखते हैं, कि इलावा हमस के और भी ख़ानक़ाहों में उस की नक़्लें होंगी। ये सिर्फ़ इसी से मालूम होता है, कि अगर हमस से इस का बरामद करना नामुम्किन हो, तो और किसी जगह से किसी को कुछ ले देकर उस को बरामद दें।
हमको अफ़्सोस है, कि बावजूद इस क़द्र तर्दीद (रद्द करना, जवाब देना) के जो विलायत के अंग्रेज़ी अख़बारों में उनकी इन्जील की बाबत हो चुकी है। फिर भी इस जाली इन्जील की मांग बदस्तूर है। लोग ना मालूम क्यों इस के शैदा (फ़िदा, आशिक़) हैं। हमारे ख़याल में शैतान अपने एजैंटों की मार्फ़त लोगों को तर्ग़ीब (लालच) दे रहा है, कि वो ज़रूर उस को जो उन के लिए ज़हर हलाहिल का असर रखती है, ख़रीद कर अपनी रूहों को हलाक करें। हर एक नई शैय की क़द्र इंगलैंड में बड़े तपाक से की जाती है। और उन लोगों के लिए जो मज़्हब ईस्वी के मुख़ालिफ़ हैं मिस्टर नोटोविच और ऐम॰ पाल इस्टंडाफ़ जिनके मतबअ (छापने की जगह) में ये किताब शाएअ हुई है। अपने ख़याल में एक उम्दा औज़ार तैयार कर रहे हैं। मगर आख़िर को ये औज़ार नाकारा साबित हो चुका और हो जाएगा। गो इस वक़्त नोटोविच और उन के मतबाअ (छापाख़ाना) वालों की चांदी हो रही है। मगर ख़ुदा-ए-तआला को अपनी इन करतूतों का जवाब ज़रूर देना होगा। हमारे ख़याल में मिस्टर कोएलम, कर्नल इल्क़ाट, मिस्टर अलगज़ेन्डर देब, और एनी सैंट से नोटोविच ज़्यादा ही ले निकलेंगे। मगर उनको ख़याल करना चाहिए, कि “इन्सान अगर सारी दुनिया को कमाए और अपनी रूह को हलाक करे तो उस को क्या हासिल?”
अब हम इस का फ़ैसला नाज़रीन पर छोड़ते हैं, कि वो “इन्जील ईसा” की बाबत क्या ख़याल करें और उन उर्दू अख़बारात को अपनी तरफ़ से मोदबाना सलाह (मश्वरा) देते हैं। जिन्हों ने अपने अख़बारों में नोटोविच की इन्जील को असली ख़याल कर के उस पर लंबे चौड़े हाशिया चढ़ाए थे। कि अब अपने अख़बारों में सिर्फ इसी क़द्र लिख दें, कि नोटोविच की इन्जील अब तक ज़ेर-ए-बहस है। उस का असली होना अब तक साबित नहीं हुआ। और साल आइंदा में जब नोटोविच साहब यहां आकर इस को असली साबित कर दें। उस वक़्त जो चाहें सो लिखें। उस वक़्त हम भी उन की बड़ी अदब से सुनेंगे। अगर हक़ का पास होगा तो ज़रूर हमारी इस आख़िरी मुख़्तसर तहरीर को अपने अख़बारों में जगह देंगे। बाक़ी रहे अंग्रेज़ी अख़्बार, सो बाअज़ में तो तर्दीद हो चुकी। और जिनमें अब तक नहीं हुई उन में हम ख़ुद समझेंगे।