मुझे कब मानते हो तुम

नाज़रीन हमारे ख़ुदावन्द येसू अल-मसीह ने इन्जील यूहन्ना 5:46 के मुताबिक़ यहूदीयों के रूबरू इस अम्र का दाअवा किया, कि मूसा ने मेरे हक़ में लिखा है और इसी की ताईद (हिमायत) में पतरस रसूल ने उन लोगों से जो निहायत हैरान हो के उस बर आमदा की तरफ़ जो सुलेमान का कहलाता है। उन के पास दौड़े आए मूसा की पैशन गोई को इस तरह दोहराया। मूसा

How will you believer me?

मूसा ने मेरे हक़ में लिखा जानते हो तुम उस को ना माना तो मुझे कब मानते हो तुम

By

Kedarnath
केदारनाथ

Published in Nur-i-Afshan August 2, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 2 अगस्त 1895 ई॰

नाज़रीन हमारे ख़ुदावन्द येसू अल-मसीह ने इन्जील यूहन्ना 5:46 के मुताबिक़ यहूदीयों के रूबरू इस अम्र का दाअवा किया, कि मूसा ने मेरे हक़ में लिखा है और इसी की ताईद (हिमायत) में पतरस रसूल ने उन लोगों से जो निहायत हैरान हो के उस बर आमदा की तरफ़ जो सुलेमान का कहलाता है। उन के पास दौड़े आए मूसा की पैशन गोई को इस तरह दोहराया। मूसा ने बाप दादों से कहा, कि ख़ुदावन्द जो तुम्हारा ख़ुदा है तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए एक नबी मेरी मानिंद उठाएगा। आमाल 3:22 इस की तस्दीक़ के लिए तौरेत शरीफ़ के हिस्से पंजुम मौसूमह इस्तिस्ना 18:15 को ज़ेल में नक़्ल करते हैं। ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी बरपा करेगा।

अगरचे बादियुन्नज़र (इब्तिदाई नज़र) में इन हर सह (तीन) हवालेजात के मज़ामीन का मतलब एक सा है और समझने वाले को चंदाँ दिक़्क़त (बिल्कुल मुश्किल) नहीं क्योंकि मज़्मून निहायत साफ़ है। पर तो भी हमारे इनायत (तवज्जोह, मेहरबानी) नहीं। अबू अल-मंसूर देहलवी की दिक़्क़त पसंद तबीयत ने इस आयत के समझने में मुहम्मदी माद्दा को जोश दे ही दिया। और कुछ ना बन पड़ा तो भी कह दिया, कि मूसा के कलाम में ये इबारत ज़्यादा है तेरे दर्मियान से। चूँकि मौलवी साहब को लफ़्ज़ी तकरार का मर्ज़ है। लिहाज़ा इस की ताईद (हिमायत) में 15 सतरें लिख मारें।

पर हक़ ये कि “तेरे दर्मियान” वाली से कोई बुनियादी पत्थर नहीं जिस पर मुहम्मदी मज़्हब की इमारत बन सके। अलबत्ता लफ़्ज़ “भाईयों” क़ाबिले ग़ौर है और इस पर मौलवी नूर-उद्दीन साहब भैरवी की भी राल टपकी है। लिहाज़ा ख़ुदा बाप से रूह-उल-क़ुद्स मुक़द्दस सालूस से मदद पा कर हम अपने ख़यालात का सिलसिला हिलाते हैं। और पहली जुंबिश (हरकत) में ये साबित करेंगे कि मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

तनक़ीह (तहक़ीक़, तफ़्तीश) लफ़्ज़ “मानिंद” का मफ़्हूम जो मूसा की नबुव्वत में वारिद है ऐसे मुक़ामात पर आता है। जहां दो मुतग़ाएर (अलग, जुदा) अश्या के दर्मियान किसी क़िस्म की यकसानियत का इज़्हार मकसूद-ए-ख़ातिर हुआ। और इस में सिर्फ 3 ही दर्जे मुतसव्वर हो सकते हैं। बड़ा या छोटा या बराबर यानी किसी क़िस्म की यकसानियत मालूमा जो बिल-मुक़ाबिल एक शेय में है वो दूसरी में या तो कम होगी या ज़्यादा या बराबर पर ज़ाहिर है। कि अगर कम है तो वो शैय जिसमें वो पाई गई बनिस्बत उस शैय के कि जिसमें वो मौजूद है मह्ज़ बेमाअनी है और अगर बराबर है तो तहसील हासिल से ज़्यादा वक़अत नहीं रखती। पस चाहिए कि मालूमा यकसानियत उस शैय में जो मानिंद ठहरती है ब-मुक़ाबिल उस शैय के जो मानिंद चाहत्ता है ज़्यादा हो तब ये मानिंद उस मानिंद की मानिंद होगी जिसका ज़िक्र मूसा ने अपनी नबुव्वत में किया है।

वाज़ेह तौर पर हम यूं कहते हैं कि वो नबी जो मूसा की मानिंद बरपा होगा। अगर मूसा जब कि आला से अदना की तरफ़ रुजू करना ना मौलवी साहब ही पसंद करेंगे और ना हम और अगर वो नबी मूसा के बराबर होगा। तो तहसील हासिल है क्योंकि मूसा तो ख़ुद उस नबी की मानिंद है इस के बरपा होने से बमुक़ाबला मूसा ख़ल्क़ ख़ुदा को क्या फ़ायदा होगा। लेकिन अगर वो नबी मूसा से से ज़्यादा हो तब अलबत्ता हम मूसा के साथ उस नबी की आमद का बसर व चश्म-ए-इन्तिज़ार करेंगे और उस की तरफ़ कान धरेंगे ऐसा ना हो कि ख़ुदावन्द ख़ुदा हमसे हिसाब ले। तश्रीह नबी उस को कहते हैं जो नजात की बाबत ख़ुदा की मर्ज़ी को इन्सान पर ज़ाहिर करे। और नबी उस को भी कहते हैं जो ताअलीम दे। इस तश्रीह के मुताबिक़ वो तमाम अम्बिया जो ज़माना बनी-आदम की हिदायत के वास्ते बरपा हुए इन दोनों में से किसी एक मअनी के लिहाज़ से नबी कहलाए तो भी मुनासिब है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद हो उस पर दोनों माअनों के लिहाज़ से नबी का इतलाक़ दुरुस्त आता हो। पस इन सारी बातों पर लिहाज़ करते हुए मुन्दरिजा ज़ैल अस्बाब से साबित होता है कि अरबी मुहम्मद वो नबी नहीं है जो मूसा की मानिंद है।

अव़्वल : इस सबब से कि ख़ुदावन्द ख़ुदा ने बाग़ अदन में आप ही बता दिया कि “औरत की नस्ल शैतान के सर को कुचलेगी।” पैदाइश 3:15 अब औरत का लफ़्ज़ जब कि हक़ीक़ी है तब इस का मतलब ये है कि शैतान का सर कुचलने वाला मर्द के सिलसिले से नहीं बल्कि मह्ज़ औरत के सिलसिले से नमूदार (पैदा) होगा। और अगर औरत का लफ़्ज़ मजाज़ी (ग़ैर-हक़ीक़ी, ग़ैर-असली) है तो ये मक़्सद है कि औरत की नस्ल से दीनदार लोग और शैतान से बेदीन लोग मुराद हैं। और अक़्ल चाहती है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद है ज़रूर औरत की नस्ल से ना सिर्फ मजाज़ी तौर पर दीनदार घराने से बल्कि हक़ीक़ी तौर पर सिर्फ औरत के सिलसिले से मुतवल्लिद (पैदा) हो। लिहाज़ा चूँकि मुहम्मद साहब ना मजाज़ न दीनदार ख़ानदान से पैदा हुए क्योंकि अरबी फ़र्ज़न्द मौऊद (वाअदा किया हुआ) बेटा इज़्हाक़ की नस्ल नहीं हैं। और ना मख़रोज पिसर (निकाला हुआ बेटा) हाजिरा मुसम्मा इस्माईल के नुत्फे से जब कि अदनान से आगे मिदाद तक नसब नामा नहीं मिलता और अगर मिलता भी (ये मुहाल है जब कि मुहम्मद साहब ने ख़ुद कहा कि जो मेरे नसब नामे को अदनान से आगे बढ़ाते हैं वो कज़्ज़ाब है) तो भी औरत की नस्ल ना होती। बल्कि बर-अक्स शैतान की नस्ल से शैतान का सर कुचलने वाला वो नबी मूसा की मानिंद ज़ाहिर होता जो बिल्कुल कलाम-ए-ख़ुदा और अक़्ल और तजुर्बे के ख़िलाफ़ है। और ना हक़ीक़तन मुहम्मद साहब सिर्फ औरत से बग़ैर बाप के पैदा हुए। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

दुवम : ख़ुरूज 7:1 से मालूम होता है कि मूसा ख़ुदा सा था तो चाहिए कि वो नबी जो मूसा की मानिंद है ना सिर्फ ख़ुदा सा बल्कि ख़ुद ख़ुदा भी हो पर ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब तो मह्ज़ इन्सान थे उन्होंने कभी ख़ुदाई का दावा नहीं किया। और ना कभी क़ुरआन में उन को ख़ुदा सा बयान किया गया लिहाज़ा ना वो मूसा से बढ़कर हैं। और ना बराबर पस मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

सोइम : उस नबी का जो मूसा की मानिंद है बनी-इस्राईल के पास आना ज़रूर था और वो मेरी क़ौम इस्राईल की रिआयत करेगा क्योंकि मूसा की नबुव्वत में ये भी साफ़ बताया गया है कि तुम उस की तरफ़ कान धरो यहां “तुम” से मुराद वही लोग हो सकते हैं जो उस वक़्त मूसा के सामने थे या उन की औलाद बनी-इस्राईल ना ग़ैर लेकिन मुहम्मद साहब “ख़ुदा के लोगों” “बनी-इस्राईल” के पास नहीं आए बल्कि अपनी हम क़ौम बुत-परस्त अरब के पास। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

चहारुम : मूसा बनी-इस्राईल को ज़मीन मिस्र और गु़लामी के घर से निकाल लाया। अगर कोई शख़्स उन मोअजज़ात और वाक़ियात फ़ौक़ुल आदत (आदत से बढ़कर) से जो मिस्र और दरिया-ए-क़ुलज़ुम के उबूर के वक़्त मूसा की मार्फ़त वाक़ेअ हुई क़त-ए-नज़र (नज़र-अंदाज) कर के इस तारीख़ी माजरे पर सरसरी नज़र डाले तो ज़मीन मिस्र और गु़लामी के घर से निकाल लाना कोई बड़ी बात नहीं। ताहम बागे अदन वाले वाक़िये को पेश-ए-नज़र रखकर कुल बाइबल पर ग़ौर करते हैं तो साफ़ मालूम होता है, कि ज़मीन-ए-मिस्र से शैतान की बादशाहत और गु़लामी के घर से गुनाह की गु़लामी मुराद है। चूँकि पहला काम जो अलामती है और बहुत भारी नहीं मूसा से हुआ तो लाज़िम है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद है दूसरे काम को जो हक़ीक़ी है और निहायत ही मुश्किल बल्कि इन्सान के नज़्दीक बिल्कुल मुश्किल और मुहाल (दुशवार) है अंजाम दे। लेकिन दोनों शक़ों पर लिहाज़ करते हुए मुहम्मद साहब ने ना बनी-इस्राईल को किसी दुनियावी ताक़त से रिहाई बख़्शी और ना शैतान और गुनाह से उन को मख़लिसी दी। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

पंजुम : मूसा की मार्फ़त एक ऐसी अख़्लाक़ी शरीअत दी गई जो तमाम बातों में कामिल और पाक और रास्त और रुहानी है। और जिसकी बाबत हुक्म हुआ “सारे हुक्मों पर जो आज के दिन मैं तुम्हें फ़रमाता हूँ ध्यान रखकर अमल करना ताकि तुम जीओ।” (इस्तिस्ना 8:1) लेकिन उस की बाबत कोई ऐसा इशारा नहीं हुआ कि अगर कोई किसी हुक्म के किसी हिस्से पर सहूवन (भूलचूक) या उम्दन (जानबूझ) या कमज़ोरी के सबब से अमल ना करेगा तो उस के एवज़ (कफ्फारे) में मूसा उस को कामिल कर देगा। इसलिए ये अम्र ज़रूरी मालूम होता है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद हो एसा हो कि अपनी ताबेदारी, इस हालत में दस्त-गीरी (मदद, हिमायत) करे और उनके नुक़्सान को रफ़ा कर के उन्हें कामिल बनाए। लेकिन मुहम्मद साहब ने कभी दावा ना किया और ना वाअदा, कि मैं उनके इस बोझ को हल्का करूँगा या बांट लूँगा। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

शश्म : मूसा की मार्फ़त रस्मी शरीअत मर्हमत (इनायत, नवाज़िश) हुई जिसमें इलावा और बातों के ख़ासकर वो क़ुर्बानी है जो गुनाह का कफ़्फ़ारा मुक़र्रर हुई। और उस में बेऐब बर्रे की शर्त थी और जिसकी बाबत कामिल यक़ीन से कह सकते हैं, कि इस से शारेअ (शरीअत बताने वाले) की ये ग़र्ज़ थी कि वो उस हक़ीक़ी क़ुर्बानी की अलामत ठहरे जो आइंदा ज़माने में वक़्त मुअय्यना पर गुज़रने को थी। अब जो नबी मूसा की मानिंद हो लाज़िम है कि वो इस अलामत की हक़ीक़त ठहरे। मगर मुहम्मद साहब ने इस की बाबत कुछ इंतिज़ाम नहीं किया पर हम नहीं जानते कि ईद-उल-अज़हा की क़ुर्बानी से उन की क्या मुराद है अगर वही मुराद है जो मूसा की थी तो इस अदल बदल से क्या फ़ायदा निकला और अगर वो ग़र्ज़ नहीं है तो फिर बग़ैर इस के कि ईद फ़स्ह की तक्मील अमल में आई उस का मसदूद (रद्द किया, बंद) करता और ख़ुद उस अलामत की हक़ीक़त ना ठहरना मह्ज़ बेमाअनी है। पस इस सबब से मुहम्मद मूसा की मानिंद नहीं हैं।

हफ़्तुम : मूसा बावजूद ये के मह्ज़ इन्सान था तो भी ख़ुदा सा कहला कर उस में किसी क़द्र तीन बातें और भी नज़र आती हैं। (1) नबुव्वत (2) कहानत जब कि बारहा उस ने बनी-इस्राईल के वास्ते ख़ुदा के हुज़ूर में सिफ़ारिश की। वाज़ेह हो कि कहानत दर्जे में दो बातें शामिल हैं क़ुर्बानी दुवम सिफ़ारिश

(3) बादशाहत अगरचे उस वक़्त बनी-इस्राईल का बादशाह सिर्फ़ ख़ुदावन्द यहोवा था। पर तो भी नयाबती इंतिज़ाम में वो एक क़िस्म की हुकूमत करता है। लिहाज़ा मुनासिब है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद हो इन सब बातों में कामिल और पूरे तौर से हो यानी मूसा मह्ज़ इन्सान था वो कामिल इन्सान हो। मूसा सिर्फ़ ख़ुदा सा था वो कामिल ख़ुदा हो। फिर ये तीन बातें भी कामिल तौर पर उस में पाई जाएं। नबुव्वत, कहानत, बादशाहत लेकिन मुहम्मद साहब ना कामिल इन्सान थे ना कामिल ख़ुदा थे। और ना नबी थे। ना काहिन ना बादशाह अगरचे दुनियावी तर्ज़ पर बुद्वाना सूरत ग़ासिबाना (नाजायज़ क़ब्ज़ा) बादशाहत रखते थे। जिसके हासिल करने को अबू बक्र उमर व उस्मान से सिपाहसालार काफ़ी थे। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

हश्तम : इस्तिस्ना 34:5, 6 में यूं तहरीर है कि, सो ख़ुदावन्द का बन्दा मूसा ख़ुदावन्द के हुक्म के मुवाफ़िक़ मूआब की सर-ज़मीन में गिर गया। और उस ने उसे मूआब की एक वादी में बैत फ़ग़ोर के मुक़ाबिल गाढ़ा पर आज के दिन तक कोई उस की क़ब्र को नहीं जानता इसलिए ज़रूर है कि वो नबी जो मूसा से कुछ ज़्यादा हैरत-अंगेज़ वाक़ियात रखता हो लेकिन मुहम्मद साहब बा-रज़ा फीवर (बुख़ार में) मर गए और अपनी बीवी आईशा के हुज्रे में दफ़न हैं इस में अबू बक्र और उमर भी गाड़े गए उन की क़ब्र मदीना में सबको मालूम है। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

नह्म : मूसा बनी-इस्राईल को मुल्क-ए-मऊदा (वाअदा किया हुआ मुल्क) के किनारे तक लाया। मगर उस में उन्हें दाख़िल ना कर सका इसलिए वाजिबी मालूम होता है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद हो बनी-इस्राईल को हक़ीक़ी कनआन में दाख़िल करे लेकिन मुहम्मद साहब ने बनी-इस्राईल को मजाज़ी कनआन में दाख़िल नहीं किया और हक़ीक़ी कनआन से तो वो ख़ुद दूर हैं। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

दहुम : अगरचे मूसा नबुव्वत के ओहदे में पहला नबी ना था तो भी मालूम होता है कि उसी के इख़्तियार से जिसने बाग़-ए-अदन में सबसे पहले नबुव्वत का काम अंजाम दिया जब कहा कि “औरत की नस्ल साँप के सर को कुचलेगी” मूसा ने पीतल का एक साँप बना के एक नेज़े पर रखा और ऐसा हुआ कि साँप ने जो किसी को काटा तो जब उस ने पीतल के साँप पर निगाह की तो वो जीता रहा। गिनती 21:9 लिहाज़ा जिस तरह मूसा ने साँप को ब्याबान में बुलंदी पर रखा इसी तरह ज़रूर है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद हुआ उठाया जाये। ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए। लेकिन मुहम्मद साहब बाग़-ए-अदन वाले नबी नहीं हैं और ना ऊपर उठाए गए। पस मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

याज़ दहुम : वो नबी जिसने बाग-ए-अदन में नबुव्वत की उसी वक़्त उन से क़ाज़ी और मुंसिफ़ बन कर आदम और हव्वा पर और शैतान पर सज़ा और लानत का फ़त्वा सुनाया और उसी के इख़्तियार से मूसा भी क़ज़ा या फ़ैसल (फ़ैसला करना) करता था। लिहाज़ा वो नबी जो मूसा की मानिंद हो चाहिए कि यही बल्कि उस से बढ़ कर इख़्तियार पा कर आख़िरी फ़तवा सुनाए। लेकिन मुहम्मद साहब ने बाग़-ए-अदन में अदालत नहीं की और ना आख़िरी अदालत उन के सपुर्द हुई बल्कि क़ुरआन के सूरह क़लम वाली आयत से गवाही मिलती है कि मालिके रोज़े जज़ा साहिब-ए-जिस्मानी आज़ा है क्योंकि वो अपनी पिंडली खोल कर दिखाएगा। इसलिए मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

दवाज़दहुम : मूसा की नबुव्वत में ये भी दर्ज है, “और जो कुछ मैं उसे फ़र्माऊंगा वो सब उन से कहेगा और ऐसा होगा कि जो कोई मेरी बातों को जिन्हें वो मेरा नाम लेकर कहेगा ना सुनेगा तो मैं उस का हिसाब उस से लूंगा। इस्तिस्ना 18:18, 19 यहां अल्फ़ाज़ “जो कुछ” में ज़ोर पाया जाता है अगर “उन्हें जो कुछ” के तमाम मअनी लिए जाएं तो नतीजा ये होगा कि शायद और नबी और ख़ुद मूसा भी सब जो कुछ ख़ुदा से पैग़ाम पाते थे, लोगों को नहीं सुनाते थे। ऐसा गुमान अक़्ल और इल्हाम दोनों के ख़िलाफ़ है तो हमको दूसरे मअनी इख़्तियार करना पड़ेंगे। जिनकी ये ख़ासियत है कि अगले अहकाम से ना तो मुख़ालिफ़त साबित हो और ना तन्सीख़ (ख़त्म) तो भी क़ुदरत-ए-इख़्तियार का इज़्हार पाया जाये और ताकि इसलिए तरीक़ा ताअलीम को देखकर सुनने वाले कोई उज़्र (बहाना) ना पेश कर सकें और दर सूरत इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी, मुख़ालिफ़त) जो कुछ के हिसाब वो और जवाबदेह हों। तब ज़रूर है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद हुआ इख़्तियार के साथ ताअलीम दे। लेकिन मुहम्मदी ताअलीम जहां तक तौरेत व ज़बूर सहाइफ़ अम्बिया और इन्जील से मस्रूक़ (चोरी) की गई जैसा कि चंद हफ़्ते गुज़रे अख़्बार नूर-ए-अफ़्शां के वसीले दो मुख़्तलिफ़ पर्चों में साफ़ दिखलाया गया कि मुसन्निफ़ क़ुरआन व हदीस ने किस हिक्मत-ए-अमली से आधी आयत इधर से और पूरी आयत उधर से एक लफ़्ज़ यहां से और दो लफ़्ज़ वहां से उड़ा कर शरीअत-ए-मुहम्मदी और तरीक़त अहमदी नाम रख लिया वहां तक बनिस्बत मूसा की ताअलीम के कोई अजूबा बात नहीं लेकिन जो कुछ मुहम्मदी मज़्हब की ख़ुद अपनी तस्नीफ़ है इस की ये हालत है कि, ہ گندہ  بروز  ہ یا خشکہ  خوردن  گندہ  الا ایجاد  بندہ   और इस के इलावा ना सिर्फ यही कि मुहम्मदी ताअलीमात ख़ास से ख़ुदा की बेइज़्ज़ती होती बल्कि क़ुद्रत इख्तियारी भी ज़ाहिर नहीं होती पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

अब हम उन क़ियासात और तुहमात के जांचने की तरफ़ मुतवज्जोह होते हैं जो हकीम नूर उद्दीन भैरवी ने अपनी किताब फ़स्ल-उ-खिताब के सफ़ा 22 से 36 के शुरू तक दौड़ाए हैं।

अव़्वल : उस नबी की क़ौम को बताया कि वो बनी-इस्राईल के भाईयों से होगा। और इस के वहम फ़हम के वास्ते क़ुरआनी दलाईल को पेश किया है।

1. और डर सुना दे अपने नज़्दीक के नाते वालों को।

2. दीन तुम्हारे बाप अबराहाम का उसने नाम रखा तुम्हारा मुसलमान हुक्म-बरदार पहले से।

3. ऐ रब मैंने बसाई है एक औलाद अपनी मैदान में जहां खेती नहीं है। तेरे अदब वाले घर के पास।

हम इन बातों का जवाब यूं देते हैं। अव़्वल कि मौलवी साहब ने तौरेत के मुताबिक़ दावा किया कि मूसा ने उस नबी की क़ौम को बताया कि वो बनी-इस्राईल के भाईयों से होगा। और दलील उस की क़ुरआन से दी। लेकिन चाहिए यूं था कि तौरेत ही से साबित कर के दिखाते कि बनी-इस्राईल के भाई कौन हैं ख़ुद बनी-इस्राईल या बनी-इस्माईल अगर थोड़ी सी मेहनत करते तो ये अक़्दह (मुश्किल बात) हल हो जाता और बग़ल में लड़का होते हुए शहर में ढंढोरा ना पिटवाते। देखे ख़ुरूज 2:11 में यूं लिखा है, “और इन दिनों में यूं हुआ कि जब मूसा बड़ा हुआ तो अपने भाईयों के पास बाहर गया और उनकी मशक़्क़तों को देखा।” अब देखिए जनाब बनी-इस्राईल बनी-इस्राईल के भाई हैं। क्योंकि मूसा ने बनी-इस्माईल की मशक़्क़तों को नहीं देखा बल्कि अपने भाईयों बनी इस्राईल की। पस अगर मूसा बनी-इस्राईल का भाई है तो यूं ख़ुद बनी-इस्राईल बनी-इस्राईल के भाई ना होंगे इस में तो दलील की हाजत (ज़रूरत) भी नहीं कभी आपने सुना होगा कि गंगा मदार का साथ नहीं हो सकता।

दुवम : क़ुरआन से भी साबित नहीं होता कि बनी-इस्माईल बनी-इस्राईल के भाई हैं कि आपकी पेश कर्दा आयत के नज़्दीक के नाते वाले फ़िक़्रह से अगर कुछ साबित हो तो सिर्फ इस क़द्र कि मुहम्मद के ख़ुद भाई भतीजे नज़्दीक नाते वाले हैं। और बाक़ी अरबी दौर के जैसा कि यहां हिन्दुस्तान में भी नाते वालों की दो क़िस्में होती हैं। एक ख़ानदानी। दुवम बर्दारी। पर ग़ैर-बिरादरी तो किसी तरह नज़्दीक नाते वाले नहीं हो सकते। चह जाये कि बनी-इस्राईल। पस इस से भी साबित हुआ कि अरबी इब्रानियों के नज़्दीक नाते वाले हैं। या बिरादरी। दूसरी आयत में वही दावा है जो मौलवी साहब का है लेकिन ना मौलवी साहब के दावे के लिए कोई दलील है और ना उनके ख़ुद के दावा के वास्ते कोई हुज्जत (बह्स) मालूम नहीं कि मुसन्निफ़ क़ुरआन ने किस मन्तिक़ (दलील) से अबराहाम को अरबों का बाप क़रार दिया जब कि किसी तवारीख़ से भी साबित नहीं। तीसरी आयत में जो कुछ मज़्मून है इस की बाबत भी साबित नहीं होता कि इस से क्या मुराद है ग़रज़ कि ये बाइबल से ना क़ुरआन से ना तवारीख़ से मौलवी साहब के दावा ला ताइल को तक़वियत पहुँचती है कि बनी-इस्राईल के भाई अरबी हैं।

सो : वो नबी मुझसा होगा तश्बीह महल ताम्मुल है कि किस अम्र में मूसा सा होगा यानी मौलवी साहब को मालूम नहीं कि लफ़्ज़ “सा” के क्या मअनी हैं तो भी   کس بشنودیا نشنود  من  گفتگو   ئے سیکنم   मुहम्मद साहब को मूसा सा साबित करने को कम से कम 3, आयतें क़ुरआनी लिख ही दीं ये अजीब जुर्आत है।

چہ  دلا درست   وزدے   کہ بکف  چراغ  دارد ۔

अब इन आयतों को सुनीए। पहली आयत, हमने भेजा तुम्हारी तरफ़ रसूल बताने वाला तुम्हारा जैसा भेजा फ़िरऔन के पास

दूसरी आयत, तू कह भला देखो तो अगर ये हुआ अल्लाह के यहां से और तुमने स को नहीं माना और गवाही दे चुका एक गवाह बनी-इस्राईल का एक ऐसी किताब की फिर वो यक़ीन लाया

तीसरी आयत, बोली  क़ौम हमारी हमने सुनी एक किताब जो उतरी है मूसा के पीछे सच्चा करती सब अगलियों को समझाती सच्चा दीन और राह सीधी

जवाब : जब ये तश्बीह महल ताम्मुल (सोचने का मौक़ा) है और अभी तक आप यक़ीनन नहीं कह सकते कि सा से क्या मुराद है तो फिर इतनी दर्द सिरी क्यों गवारा की, कि वो मुहम्मद साहब हैं ज़रा अब तकलीफ़ फ़र्मा के हमारे इस मज़्मून के सदर में तन्क़ीह (फ़ैसला) के मोटे लफ़्ज़ को जो आप ही की ख़ातिर से जली-क़लम (साफ़ क़लम) से लिखा है, मुलाहिज़ा शरीफ़ में लाए। तो यक़ीन है कि आइन्दा को बनाए फ़ासिद अला अल्फ़ासिद के फ़र्ज़ से आपको हमेशा रुस्तगारी (रिहाई, नजात) रहेगी। क्योंकि आपकी पेश कर्दा आयत अव़्वल से अगर कुछ आपको अपने दिल बहलाने के वास्ते हाथ आता है तो सिर्फ इस क़द्र कि पेश अज़ीं नेस्त। कि मुसन्निफ़ क़ुरआन मुहम्मद के अरब के पास आने को इस तरह क़रार देता है जिस तरह मूसा फ़िरऔन पास गया लेकिन अगर इस भेजे जाने की यकसानियत पर थोड़ा सा भी ताम्मुल (सोचना) किया जाये तो साफ़ ज़ाहिर होगा कि मूसा के फ़िरऔन के पास भेजे जाने और मुहम्मद साहब के अरब में मुद्दई नबुव्वत होने में इतना ही फ़र्क़ है। जितना मूसा और मुहम्मद साहब की ज़िंदगी में तौरेत ही से ज़ाहिर है कि पहले इस से कि मूसा फ़िरऔन के पास गया बनी-इस्राईल ने मूसा को रद्द किया था। देखो ख़ुरूज 2:14 वो बोला कि किस ने तुझे हम पर हाकिम या मुंसिफ़ मुक़र्रर किया आया तो चाहता है कि जिस तरह तू ने इस मिस्री को मार डाला मुझे भी मार डाले तब मूसा डरा और कहा कि यक़ीनन ये भेद फ़ाश (ज़ाहिर) हुआ। और फिर देखो आमाल 7:35 उसी को ख़ुदा ने उस फ़रिश्ते की मार्फ़त जो उसे झाड़ी में नज़र आया भेजा कि हाकिम और छुटकारा देने वाला हो। वही उन्हें निकाल लाया और ये बातें मुहम्मद में पाई नहीं जाती क्योंकि मूसा अपने भाईयों का रिहाई देने वाला था। और मुहम्मद अपने भाईयों में सिर्फ ऐसा था जैसा कि बंगाली हिन्दुओं में राजा राम मोहन राय या आजकल के हिन्दुओं में दयानंद सरस्वती जिसको अरबी में मुसलेह (इस्लाह करने वाला) और अंग्रेज़ी में रीफ़ारमर कहते हैं।

चुनान्चे ज़िंदा मिसाल सर सय्यद अहमद ख़ान साहब बाल-क़ाबह अलीगढ़ में मुहम्मदी कॉलेज के मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) मौजूद हैं अगर इस क़ुरआनी आयत के मुताबिक़ मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद हैं तो क्यों राजा राम मोहन राय और दया नंद सरस्वती और और सर सय्यद साहब बहादुर स्टार आफ़ इंडिया मूसा की मानिंद ना हों? ये अजीब बे इंसाफ़ी है फिर मूसा राज़ी ना था, कि वो उन के पास जिन्हों ने उसे एक-बार रद्द किया। फिर जाये मगर ख़ुदा ने उसे भेज दिया ना नबी सा बल्कि “ख़ुदा सा” और उस के भाई हारून को उसी का पैग़म्बर क़रार दिया। ख़ुरूज 4:16 वही तेरी ज़बान की जगह होगा और तू उस के लिए ख़ुदा की जगह होगा। फिर ख़ुरूज 7:1 में यूं है कि फिर ख़ुदावन्द ने मूसा से कहा, कि देख मैंने तुझे फ़िरऔन के लिए ख़ुदा सा बनाया और तेरा भाई हारून तेरा पैग़म्बर जनाब मौलवी साहब ज़रा संजीदगी के साथ इन मुक़ामात-ए-कलाम-ए-इलाही को पढ़ीए किसी जाहिल के कहने से यूं ना कह उठे कि ख़ुदा का कलाम मुहर्रिफ़ (तब्दील) हो गया तौबा तौबा अब तक बनी-इस्राईल में मूसा की मानिंद कोई नबी नहीं उठा जिससे ख़ुदावन्द आमने सामने आश्नाई (मुलाक़ात, मुहब्बत) करता। इस्तिस्ना 34:10 उन से सब निशानीयों और अजाइब ग़राईब की बाबत जिनके करने के लिए फ़िरऔन और उस के सब खादिमों और उस की सारी सर-ज़मीन के सामने ख़ुदावन्द ने उसे मिस्र की ज़मीन में भेजा था। इस्तिस्ना 34:11 और उस क़वी हाथ और बड़ी हैबत के सब कामों की बाबत जो मूसा ने तमाम बनी-इस्राईल के आगे कर दिखाए। इस्तिस्ना 34:12 जनाब ये वही मूसा है जिसने बनी-इस्राईल से कहा कि “ख़ुदावन्द जो तुम्हारा ख़ुदा है तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए मुझसा एक नबी ज़ाहिर करेगा उस की सुनो।” आमाल 7:37 जब मूसा ऐसा आला मुक़ाम शख़्स है तो हमको लाज़िम नहीं कि हर एक धनीए जुलाहे, कनजड़े क़साई, माली, धोबी, को इस मानिंद कह उठें। सच्चे दिल से तौबा कीजिए आपके यहां भी मूसा का कलिमा यूं पढ़ा जाता है, कि (ला इलाहा इल्लाह मूसा कलीम-उल-लाह) अब चूँकि पहला सिलसिला यहां पर ख़त्म होता है तो पेश्तर इस के कि हम दूसरा सिलसिला हिलादें इतना कह कर मज़्मून को ख़त्म करते हैं, कि आइन्दा से ये कलिमा पढ़े कि (ला इलाहा इल्लाह ईसा कलाम-उल्लाह)