Hidden Treasure

By

W.J.W RICHARDS. RUTLAM, C.I

In form of a debate between a Maulvi, a Christian preacher and a convert from Hinduism, questions such as Salvation, the Sonship of Christ, Paraclete etc., are discussed, but hardly adequately

छुपा हुआ ख़ज़ाना


पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी

अनारकली, लाहौर

1923 ई॰


छुपा हुआ ख़ज़ाना
मुहम्मद हुसैन के लड़कपन का ज़माना

मुहम्मद हुसैन एक आला घराने में पैदा हुआ। चूँकि अपने बाप का एक ही बेटा था। इसलिए बड़े नाज़ो नअम (लाड प्यार में) में इस की परवरिश हुई। जब ये आठ बरस का हुआ तो इस के बाप को इस की तालीम की फ़िक्र हुई। मुहम्मद हुसैन के वालदैन एक क़स्बे में रहते थे। और उन्हें मसीहियों से सख़्त नफ़रत थी। चुनान्चे कितने ही मसीही मुनादों को मुहम्मद हुसैन के बाप ने तरह तरह से तक्लीफ़ भी दी थी। पर चूँकि इस क़स्बे में सिवा मिशन स्कूल के और कोई मदरिसा ना था। इसलिऐ मुहम्मद हुसैन मजबूरन इसी स्कूल को भेजा गया।

इस स्कूल में एक होशियार मसीही उस्ताद था। और उस के पास क़रीब तीस एक लड़के हिंदू और मुसलमान और मसीहियों के पढ़ते थे। बड़े शहरों के अंग्रेज़ी स्कूलों की तरह यहां मेज़ कुर्सी या बेंच ना थीं। पर उस्ताद के बैठने को एक मोढ़ा (सरकण्डों और मूँज की बनी हुई कुर्सी) था। और लड़के सब नीचे फ़र्श पर बैठते थे। जैसे सब कसबाती मिशन स्कूलों का दस्तूर है। यहां भी पहले घंटे में बाइबल पढ़ाई जाती थी। और इस से मुहम्मद हुसैन और उस के वालदैन को सख़्त नफ़रत थी। इसी वजह से अक्सर मुहम्मद हुसैन को स्कूल में ज़रा देर से भेजते थे। और इसी कोशिश में रहते थे, कि वो बाइबल के इस घंटे से गैर-हाज़िर रहे। तो भी मिशन स्कुल वालों का तो मक़्सद ही ये है कि दुनियावी तालीम के साथ दीनी तालीम ज़रूरी दी जाये। सो तरह तरह से कुछ ना कुछ मसीही तालीम इस छोटे लड़के के कान में पड़ ही जाती थी। जब क़रीब एक साल मुहम्मद हुसैन को इस मदरिसे में पढ़ते हो गया। तो अगरचे सिलसिले-वार और लड़कों की मानिंद उसे बाइबल की बातें याद ना थीं। मगर बहुत सी सच्ची बातें उस के ज़हन नशीन हो चुकी थीं।

अल-ग़र्ज़ मुहम्मद हुसैन को इसी स्कूल में पढ़ते पढ़ते चार बरस हो गए और अब उस की उम्र बारह बरस की हुई। इस अर्से में इस क़स्बे में मिशन का काम यहां तक बढ़ गया कि छोटा सा गिरजाघर वहां बन गया और क़रीब बीस घराने मसीहियों के वहाँ आबाद हो गए। बड़े पादरी साहब भी वहां रहने लगे। और अब ये छोटा सा स्कूल मिडल तक बढ़ा


दिया गया। एक उस्ताद की जगह अब चार उस्ताद हो गए। और उस्तादों के लिए कुर्सियां और लड़कों के लिए बेंच भी मुहय्या हो गए। मुहम्मद हुसैन बड़ा तेज़ फ़हम (जल्दी समझने वाला) व होनहार लड़का था। जो बात एक दफ़ाअ उस के ज़हन नशीन हो जाती उस को वो कभी ना भूलता था। इस अर्से में उसने उर्दू की चार किताबें पढ़ लीं। और अंग्रेज़ी की दो। और कुछ हिसाब जुग़राफ़िया भी सीख लिया। बाप उस की नुमायां तरक़्क़ी को देखकर फूला ना समाता था। घर में पहनने को बहुत था। और कोई जल्दी ना थी, कि मुहम्मद हुसैन स्कूल छोड़कर नौकरी तलाश करे चुनान्चे उस के बाप का मुसम्मम (मज़्बूत, पक्का, पुख़्ता) इरादा था, कि जब ये यहां के स्कूल से मिडल पास कर लेगा। और इस लायक़ भी हो जाएगा कि अपने को सँभाल सके तो किसी इस्लामिया कॉलेज को भेजूँगा जहां तक मुम्किन हो वहां इल्म तहसील (हासिल करना, वसूल करना) कराउंगा।

जब मुहम्मद हुसैन क़रीबन 14 बरस का हो गया, और मिडल क्लास में पहुंचा। तो उस की जोशीली तबीयत अक्सर भड़क उठती थी। ये दूसरे लड़कों से इन्जील की जिल्दें छीन लेता और फाड़ के फेंक देता था और मसीही लड़कों को तरह-तरह से सताया करता था। क्योंकि जब ये स्कूल से घर वापिस जाता। और थोड़ी देर खेल कूद के बाद मौलवी साहब उसे क़ुर्आन पढ़ाने आते, तो वो उसे ये तालीम दिया करते थे, कि मसीही लोग बड़े दग़ाबाज़ हैं। उन्होंने असली इन्जील तो ग़ायब कर दी और नक़्ली इन्जील बना ली है। उनकी बात हरगिज़ नहीं मानना चाहिए। उधर माँ बाप ने भी इस के दिल में मसीहियों की तरफ़ से नफ़रत पैदा करने में कोई दक़ीक़ा (कोई बहुत छोटी चीज़, बात) बाक़ी ना छोड़ा था। इस सबब से जूँ जूँ मुहम्मद हुसैन बड़ा होता और क़दआवर जवान बनता गया तब तब वो मसीहियों का जानी दुश्मन होता गया। ख़ैर जो हो सो हो इन्जील की बातें भी मानिंद ख़मीर के उसके दिल में अपना असर कर रही थीं। और कभी-कभी उस के दिल में एक अजीब जंग हुआ करती थी।

पंद्रह बरस की उम्र में मुहम्मद हुसैन ने मिडल का इम्तिहान बा-आसानी पास कर लिया और अगरचे उस के बाप का इरादा ना था, तो भी माँ के ब-ज़िद होने से उस की शादी का इंतिज़ाम करना पड़ा। इधर उधर से ख़बरें तो आ ही रही थीं। सो एक शरीफ़ ज़ादी से उस का निकाह हो गया। उस की ज़िंदगी में इस बड़ी तब्दीली के होने से क़रीब एक साल उस का ज़ाए गया लेकिन उस के बाप ने जल्द लिखा पढ़ी कर के एक इस्लामिया स्कूल में उसे भेज दिया। जहां दुनियावी तालीम के साथ ही साथ बजाए मसीही तालीम के


उसे मुहम्मदी तालीम मिलने लगी। यहां भी मुहम्मद हुसैन ने नुमायां तरक़्क़ी की। और दो ही साल के अंदर एंटर का इम्तिहान पास कर लिया। इम्तिहान के बाद वो सीधा घर आया। और पुराने मौलवी साहब ने गर्मियों की छुट्टी भर मसीहियों के बर-ख़िलाफ़ ख़ूब ही मुहम्मद हुसैन के कान भरे। बाप का इरादा था कि वो कॉलेज में एफ़॰ ए॰ और बी॰ ए॰ की तालीम पूरी करे। पर चूँकि अब मुहम्मद हुसैन के बेड़ियाँ पड़ चुकी थीं। उसे घर छोड़ कॉलेज को जाना गवारा ना हुआ लिहाज़ा और आगे तहसील इल्म का ख़याल छोड़ दिया। और सोचने लगा कि क्या करना चाहिए। हम ऊपर लिख चुके हैं कि घर से वो आसूदा हाल (ख़ुश-हाल) था। और इसलिए हुसैन को तलाश-ए-मुआश (रोज़गार की तलाश) की चंदाँ ज़रूरत ना थी।

मुहम्मद हुसैन अक्सर मौलवियों और दीगर उलमा की सोहबत में रहता था। क़ुर्आन उसे अच्छी तरह याद था। और दीगर मज़ाहिब का भी कुछ इल्म उसने हासिल कर लिया था। फ़ारसी और अरबी की तरफ़ उस की तबइयत का रुझान हुआ और थोड़े ही अर्से में ख़ासी लियाक़त (क़ाबिलियत) इन उलूम में हासिल करली। अब तो वो तिफ़्ल (छोटा बच्चा, लड़का) मक्तब (दर्सगाह) ना रहा। जो चंद एक साल गुज़रे थे। बड़े-बड़े लायक़ और मोअतबर (क़ाबिल-ए-इज़्ज़त) लोगों में उस का शुमार होने लगा और सब लोग मौलवी साहब कह कर पुकारने लगे। इस का बूढ़ा बाप भी उस की इस क़द्र शोहरत सुनकर दिल ही दिल में ख़ुश होता था और अपनी सारी उम्मीदों का मर्कज़ उसी को समझता था।

मुहम्मद हुसैन अक्सर उन लोगों का अगुवा हुआ करता था, जो मसीही जमाअतों के मुख़ालिफ़ थे कभी-कभी मौक़ा पाके ये लोग बेचारे मसीही मुनादों को ज़िद व कूब (मारपीट) करते और अक्सर उनके काम में ख़लल (ख़राबी, तंगी या परेशानी) डाला करते थे। वो मुदल्लल गुफ़्तगु (ऐसी गुफ़्तगु जो दलाईल पर मबनी हो) करने में बड़ा होशियार था और लोग अपने इस मौलवी पर बड़ा फ़ख़्र करते थे। चुनान्चे जब कभी कोई मसीही उनको अपने काम में मशग़ूल मिलता तो वो दौड़ के मौलवी मुहम्मद हुसैन कर बुला लाते और इस से भिड़ा दिया करते थे। इस तरह गोया दो मेंढों की टक्करें होतीं और ये लोग तमाशा देखते थे। और जब किसी मुनाद से मुहम्मद हुसैन के सवालों का जवाब ना बन पड़ता तो ये सब ताली बजाते और हुहा (शोरो-गुल) मचाते थे। इस तरह ये काम कुछ अर्से तक होता रहा। पर एक दिन का ज़िक्र है, कि एक बड़े क़स्बे में बाज़ार में मुनादी हो रही थी। कई एक मसीही मुनाद वहां खड़े थे और एक कसीर (कस्रत वाली यानी तादाद में बहुत

ज़्यादा) जमाअत सुनने वालों की वहां उनके सामने मौजूद थी। मुहम्मद हुसैन और उसके साथी भी आ मौजूद हुए और मुनादी में गड़बड़ी डालनी शुरू की। जब ये मुनाद को बहुत ही दिक़ (एक बीमारी जो फेफड़ों के ख़राब होने से लग जाती है) करने लगे तो वो ख़ामोश हो गया। मुहम्मद हुसैन के साथियों ने फ़ौरन ये तज्वीज़ पेश की कि हम चाहते हैं कि आप सब मसीही साहिबान हमारे मौलवी साहब से बह्स करें और अगर उनके सवालों का जवाब आपसे ख़ातिर-ख़्वाह ना बन पड़े। या बह्स में हार जाएं तो आप सबको मुसलमान होना पड़ेगा। मुनादों ने ये देख के कहा इन से किसी तरह पीछा ना छुटेगा। कहा कि अच्छा हम आपके मौलवी से बह्स करने को तैयार हैं। पर चूँकि अब शाम हुई और वक़्त नहीं हम कल चार बजे शाम को यहां हाज़िर होंगे। आपको जो जो सवाल करने हैं लिख लाएं। इस पर मुहम्मद हुसैन और उस के साथी क़हक़हे मारते हुए इस शाम को घर गए और दूसरे रोज़ वक़्त मुक़र्ररा पर बाज़ार के बड़े चबूतरे (मुरब्बा या मुस्ततील बनाई हुई ऊंची जगह जहां पर लोग बैठते हैं) पर हाज़िर हुए एक कसीर जमाअत इस मुबाहिसे को सुनने के लिए वहां मौजूद थी। एक तरफ़ बाइबल रखी हुई थी दूसरी तरफ़ क़ुर्आन। एक तरफ़ मुहम्मद हुसैन और उसके साथी बैठे और दूसरी तरफ़ मसीही मुनाद। अब तक ऐसे भारी मुबाहिसे में कभी मुहम्मद हुसैन शरीक ना हुआ था। पर तो भी उसे और उस के साथियों को कामिल (मुकम्मल) उम्मीद थी कि मौलवी मुहम्मद हुसैन ही जीतेंगे और तब हम इन मसीहियों का ख़ूब ही तम्सख़र (मज़ाक़ उड़ाना) करेंगे। इंतिज़ाम माक़ूल मुनासिब किया गया। कितने सिपाही पुलिस के भी वहां हाज़िर थे।


रोज़ अव्वल की बह्स

ठीक चार बजे शाम को यूं बह्स शुरू हुई :-

मुनाद : जनाब मौलवी साहब आप जानते हैं कि !

मज़्हबी बातों पर गुफ़्तगु करना कोई हल्की बात नहीं। लिहाज़ा मैं शुरू करने से पहले चंद एक बातें पेश करता हूँ जिन पर अमल करना लाज़िमी होगा।

मौलवी :फ़रमाईये

मुनाद : अव्वलन तो आपसे मेरी अर्ज़ ये है कि जो कुछ आपको मसीही मज़्हब की बाबत दर्याफ़्त करना है। वो इस ग़र्ज़ से ना हो कि आप मसीही मुनादों की लियाक़त (क़ाबिलियत) जांचें मैंने देखा है, कि कितने लोग मसीहियों को ख़्वाह-मख़्वाह बिना किसी वजह के इस ग़र्ज़ से छेड़ते हैं कि अगर उनसे ठीक जवाब ना बन पड़े, तो लोगों के सामने उनकी हंसी हो।

मुनाद की इस बात ने मौलवी और उनके साथियों की दिली हालत को आश्कारा (साफ़, वाज़ेह) कर दिया। क्योंकि उनकी ग़र्ज़ बह्स मुबाहिसा से हमेशा यही हुआ करती थी, कि मसीही मुनादों की हंसी हो लेकिन कम अज़ कम मौलवी के दिल में तो ये बात चुभ गई। और उसने ग़ौर कर के कहा कि :-

मौलवी :ख़ुदा ना करे कि ऐसा ख़याल मेरे दिल में आए।

मुनाद :दुवम मैं आपसे ये अर्ज़ करता हूँ, कि आप सच-मुच रास्ती (सच्चाई) के मुतहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करने वला, किसी चीज़ का सही और दुरुस्त करने वाला) हो के हमसे सवाल कीजीए। और किसी तरह के तास्सुब (फ़र्क़) को अपने पास ना भटकने दीजिए।

मुनाद का ये दूसरा तीर भी मौलवी के गहरा लगा क्योंकि तास्सुब तो उस की रग-रग में कूट के भर दिया गया था। शुरू ही से वो मसीही मज़्हब की तरफ़ से मुतअस्सिब (तास्सुब यानी फ़र्क़ करने वाला, मज़्हब या क़ौम की पिच करने वाला) था। ख़ुदा के रूह ने उस के दिल में ऐसा काम किया, कि उसे मालूम होने लगा, कि मुनाद गोया उस के दिल की सारी हक़ीक़त से वाक़िफ़ है। बातचीत करने से पहले उसे इन दो शर्तों पर बड़ा ग़ौर करना पड़ा। बार-बार उस के दिल में ये ख़याल आया कि क्या इंजीली बातें सच्च हैं। और क्या मैं अब तक ग़फ़लत (भूल चुक, ग़लती) में रहा। उसने उसी वक़्त फ़ैसला किया कि मैं ख़ुदा को हाज़िर व नाज़िर जान के साफ़ दिली से इन लोगों से बातचीत करूंगा। सो उसने ज़रा ठहर के बग़ौर कहा :-


मौलवी :हाँ आपका कहना ठीक है। मैं दरअस्ल सच्चाई की तहक़ीक़ में हूँ। इलावा अज़ीं हम और आप तो एक ही हैं। हम भी हज़रत ईसा को एक बड़ा नबी मानते हैं। सिर्फ फ़र्क़ है तो ये कि चंद मसाइल आपके मज़्हब में ऐसे हैं जो कि हमारी समझ में नहीं आते और क़ुर्आन शरीफ़ उनकी ताईद करता।

मुनाद :जी नहीं। फ़क़त यही नहीं। पर आपके मज़्हब में और हमारे मज़्हब में बड़ा भारी इख़्तिलाफ़ राह़-ए-नजात में है।

मौलवी :फ़रमाईये वो क्या है।

मुनाद :देखिए आप मुहम्मद साहब को नबी मान के कहते हैं, कि सिर्फ उन्ही के ज़रीये से नजात हासिल हो सकती है। मेहरबानी कर के क़ुर्आन शरीफ़ की कोई आयत पढ़ेँ जिस में कि मुहम्मद साहब ने मुनज्जी होने का दावा किया हो।

मौलवी :याद नहीं फिर बताऊँगा। लेकिन हज़रत मुहम्मद साहब ﷺ के शाफ़ी (शिफ़ा देने वाला) होने में कोई शक नहीं है।

मुनाद :लेकिन हम मुहम्मद साहब को शाफ़ी तो क्या नबी भी नहीं मानते। वो तो मेरी और आपकी तरह इन्सान थे। शाफ़ी सिर्फ़ ख़ुदावंद येसू मसीह ही है। और सिवाए उस के दुनिया में कोई ऐसा नाम नहीं कि जिसके ज़रीये से इन्सान गुनाह और गुनाह की सज़ा से मख़लिसी पा सके।

मौलवी :ये तो ज़मीन और आस्मान का फ़र्क़ है लेकिन हम कैसे जानें, कि कौन इनमें से सच्चा है आया हमारे हज़रत या आपके ईसा मसीह?

हम तो ये जानते हैं कि हमारा ही मज़्हब सच्चा है। इस की ताअलीमात और मसाइल भी रास्त व दुरुस्त (सच्चे और सही) हैं। चुनान्चे जब हज़रत येसू इब्ने मर्यम आख़िरी वक़्त में आस्मान से उतरेंगे, तो उन सबको जो मुहम्मदी दीन के मुन्किर रहे हैं। वो मुसलमान करेंगे और तब मदीने में हज़रत येसू मसीह दफ़न किए जायेगे। आख़िर में दीन-ए-मोहम्मद ही क़ायम रहेगा।


मुनाद :ये जानना कि कौनसा मज़्हब सच्चा है और दुरुस्त। कोई मुश्किल बात नहीं इस की जांच हम आसानी से कर सकते हैं।

मौलवी :आप ज़रूर बताईए। हम ये जानना चाहते हैं।

मुनाद :जनाब मौलवी साहब आप जानते ही हैं, कि दुनिया में बहुत मज़्हब और मज़्हबी शाख़ें हैं और हर एक की तालीम और मसाइल जुदा-जुदा हैं। एक के उसूल दूसरे के ख़िलाफ़ हैं। हिंदू मज़्हब राह-ए-नजात कुछ और ही बताता है आपका कुछ और है। और मेरा और ही है। और इन सबकी ताअलीमात मुख़्तलिफ़ हैं।

मौलवी : जी हाँ मैं मानता हूँ, कि तरह तरह के मज़ाहिब इस दुनिया में हैं।

मुनाद :लेकिन अक़्ल-ए-सलीम ये साफ़ गवाही देती है, कि ये सब के सब ख़ुदा की तरफ़ से नहीं हो सकते। क्योंकि अगर उसी वाहिद ख़ुदा की तरफ़ से होते तो फिर ये एक दूसरे की मुख़ालिफ़त क्यों करते हैं? सबकी तालीम एक ही सी होनी चाहिए क्योंकि एक ही ख़ुदा है।

मौलवी :ये ठीक है। सच्चा मज़्हब तो एक ही है। और वो मुहम्मदी मज़्हब है। इसी के पैरौ होना हर एक शख़्स का फ़र्ज़ है। लिहाज़ा आप भी मुहम्मदी हो जाईए।

मौलवी मुहम्मद हुसैन की ये बात सुनके उनके साथियों और दीगर मुसलमानों ने जो उस वक़्त मौजूद थे। क़हक़हा मारा। और किसी ने भीड़ में से चिल्ला कर कहा “इन ईसाइयों को जल्द मुसलमान कर लो।”

मुनाद :(क़हक़हे का कुछ ख़याल ना करके) अच्छा जनाब मौलवी साहब तो फिर मेरे और आपके बीच यही फ़ैसला बाक़ी रहा, कि आप राह रास्त पर हैं या नहीं।

मौलवी :जी हाँ। आप यही साबित कर के दिखाइए?


मुनाद :उस के शमुल में ये भी समझना चाहिए कि, अगर इस तमाम गुफ़्तगु व जुस्तजू के बाद मुझ पर या आप पर ये आश्कारा (साफ़, वाज़ेह) हो जाये, कि दोनों में से एक ग़लती पर है। तो उस का फ़र्ज़ ये होगा, कि फ़ौरन अपनी ग़लती को महसूस करके राह-ए-रास्त पर आ जाए। और अपनी इस बड़ी ग़लती को सब सामईन के सामने क़ुबूल करके इस की माफ़ी ख़ुदावंद करीम से मांगे। कितने हैं जो अपनी ग़लती के क़ाइल हैं। लेकिन फिर भी वो इसी में मुब्तला रहते हैं।

मौलवी :इस में क्या शक है जब अपनी ग़लती को मालूम किया तो इस में से निकलना ज़रूरी अम्र है। ये तो शर्त हम पहले ही आपसे लगा चुके हैं, कि जब हम आपको दीन इस्लाम का क़ाइल कर देंगे तो आप सब साहिबान को कलमा पढ़ना पड़ेगा। देखिए हम आपको राह-ए-रास्त पर लाए।

इस के बाद मुसलमानों ने ख़ूब मन-माने क़हक़हे मारे। कोई कोई भीड़ में कहता हुआ सुनाई देता था, कि “जनाब मौलवी साहब हैं कि हंसी ठट्ठा मज़ाक़ है। उनके सामने इन ईसाइयों की क्या मजाल है।” क़रीब दो तीन मिनट तक भीड़ में ज़रा गड़बड़ी मची रही। और फिर गुफ़्तगु शुरू हुई। मुनादों ने मुसलमानों की बात का कुछ ख़याल ना किया। वो ख़ामोश बैठे सुनते रहे। वो अपने दिल में कहते थे कि उन्हें थोड़ी देर इसी तरह ख़ुश हो लेने दो। आख़िर ख़ुदावंद येसू मसीह के नाम को जलाल और बुजु़र्गी होगी। वो ऊंचा किया जाएगा। और लोगों को अपनी तरफ़ खींचेगा।

मुनाद :अच्छा जनाब मौलवी साहब। अब मैं आपको सच्चे मज़्हब की जांच बताता हूँ।

मौलवी :माफ़ कीजिए। पहले आप हमारे दो और सवालों को हल कर दीजिए तब हम आपकी इस बारे में सुनेगे, कि सच्चे मज़्हब की जांच क्या है।

मुनाद :हम बखु़शी आपके सवालों हल करने की कोशिश करेंगे। लेकिन चूँकि अब छः बज चुके हैं। क्या ये मुनासिब ना होगा कि आज अब हम सब रुख़्सत हों। और कल फिर चार बजे शाम इसी मुक़ाम पर हाज़िर होंगे। आप अपने सवालों को लिख लाइए। और हम यके बाद दीगरे (एक के बाद दूसरा) उनको हल करने को कोशिश करेगे। आप तमाम साहिबान कल फिर ज़रूर तशरीफ़ लाइए। आज की गुफ़्तगु निहायत दिलचस्प थी। और कल की गुफ़्तगु से हम सब ज़रूर महज़ूज़ (ख़ुश व खुर्रम नसीब) होंगे।


मौलवी :अच्छा। हाँ। अब नमाज़ का वक़्त भी है। और हम और आप दोनों थक गए हैं। कल शाम चार बजे हम यहां फिर हाज़िर होंगे। आदाब अर्ज़।

मुनाद :तस्लीमात अर्ज़।

इन हाज़िरीन का शुमार दो तीन सौ से कम ना होगा। जब ये लोग जाने लगे तो कोई शोर मचाता, कोई ललकारता (ऊंची आवाज़ में पुकारना) कोई कहता था कि मौलवी साहब ने इन पादरियों से अच्छी बह्स की। ये उनको ज़रूर हरा देंगे। एक आलिम शख़्स हैं। उनके सामने कौन खड़ा रह सकता है। कोई कहता अजी जनाब ऐसे कितने ही ईसाइयों को वो चुप करा चुके हैं। जो हो सो हो आज की बातचीत बड़ी दिलचस्प थी। इंशा अल्लाह मौलवी साहब कल ऐसे सवाल पेश करेंगे, कि जिनमें से एक का भी जवाब ईसाइयों से ना बन पड़ेगा। हिंदूओं का ख़याल ज़्यादातर ये था कि “मौलवी हार जाएगा। ये ईसाई बड़े होशियार हैं। ये क़ुर्आन से भी ख़ूब वाक़िफ़ हैं। कल ज़रूर आना। देखें कल क्या होता है।”

ऐसी ऐसी बातों और शोर व गुल के बीच मुनाद भी अपने मकान को गए। जहां पहुंच कर सबने मिलकर ख़ुदा बाप का शुक्र अदा किया। और आने वाले दिन के लिए ताक़त और फ़ज़्ल मांगा। मुनाद तो ये भरोसा रखते हुए कि कल ख़ुदा ज़रूर मदद कर के अपना जलाल और बुजु़र्गी ज़ाहिर करेगा, सो रहे। लेकिन मौलवी के दिल में एक अजीब बेचैनी थी जिसको ना तो उसने अपने साथियों पर ज़ाहिर किया। और ना ख़ुद ही उसे समझ सकता था। ये तो ख़ुदा की रूह थी जो उसे बेचैन कर रही थी। ख़ुदा ने उसे अपने काम के लिए चुन लिया था और वो उसे उस बड़ी तब्दीली के लिए तैयार कर रहा था। जो उस में वाक़ेअ होने वाली थी। मौलवी खाना वग़ैरह खा के ख़्वाबगाह को गया पर नींद ना आइ। उस की बीबी भी उस के चेहरे को देख के हैरान थी। रात को चापाई पर पड़े-पड़े बार-बार ये ख़याल उस के दिल में आता था, कि क्या हो सकता है कि मसीही मज़्हब ही सच्चा है। जिस की मैंने अब तक सख़्त मुख़ालिफ़त की है। क्या वो आयत जो मिशन स्कूल का मास्टर बार-बार लड़कों को सिखाता था सच्च होगी कि “ख़ुदा ने जहान को ऐसा प्यार किया, कि अपना इकलौता बेटा बख़्शा कि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए?” लेकिन ख़ुदा का बेटा होना कहाँ मुम्किन है। ये बात तो मैं मान नहीं सकता। ज़रूर कुछ तो रद्दो-बदल ईसाइयों ने इस में की है।

ऐसे ऐसे ख़यालों में मुहम्मद हुसैन ने रात काटी। दिन-भर भी यही बातें उस के दिमाग़ में गूँजती रहीं। अब चार बजे का वक़्त नज़्दीक आया है और हम रोज़ दुवम की बह्स को सुनेगे।

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रोज़ दुवम


वक़्त-ए-मुईन (मुक़र्ररा वक़्त) पर मौलवी हुसैन और उस के साथी चबूतरे (मुरब्बा या मुस्ततील बनाई हुई ऊंची जगह जहां पर लोग बैठते हैं) पर एक तरफ़ आ बैठे। और मसीही मुनाद भी अपने वाअदे के मुताबिक़ हाज़िर हो गए। आज तवक्कुल से भी ज़्यादा भीड़ चबूतरे (मुरब्बा या मुस्ततील बनाई हुई ऊंची जगह जहां पर लोग बैठते हैं) के आस-पास मौजूद थी। जिसमें हिंदू मुसलमान सब ही ज़ात के लोग थे। लोगों में एक बेचैनी सी मालूम होती थी। वो बेचैनी से राह देख रहे थे कि देखें आज मौलवी साहब क्या-क्या सवाल करते हैं और देखें इन पादरियों से कैसे-कैसे जवाब बन पढ़ें। ठीक चार बजे मसीही मुनादों में से फ़ज़्ल मसीह उठ के खड़ा हुआ। क्योंकि आज उस ही की बारी थी, कि मुहम्मद हुसैन से सवाल व जवाब करे। फ़ज़्ल मसीह के वालिद सफ़दर अली एक आलिम मौलवी थे। क़रीब आधी उम्र में उन्होंने मसीही मज़्हब की सदाक़त को देखा। और मुहम्मदी दीन को छोड़ के मसीह के पैरौ हो गए। फ़ज़्ल मसीह का मुसलमानी नाम फ़ज़्ल अल्लाह था। लेकिन बपतिस्मे के वक़्त फ़ज़्ल मसीह रखा गया। वो इस वक़्त क़रीब सोला बरस का था। और क़ुर्आन को ख़त्म कर चुका था। अरबी, फ़ारसी का इल्म भी अच्छा ख़ासा हासिल कर लिया था। और अंग्रेज़ी भी कुछ सीख ली थी। मसीही होने पर ये एक मिशन स्कूल में भेजा गया और कुछ अर्से वहां तालीम पाके मदरिसा इल्म इलाहिया का कोर्स ख़त्म किया। अब वो एक लायक़ मुनाद बन गया था। और मौलवी मुहम्मद हुसैन के मुक़ाबिल में ख़म ठोक के उस ज़बरदसस्त पहलवान की मानिंद जो अखाड़े (वो जगह जो कस्रत करने या कुश्ती करने के लिए हो) में रंग दिखाने को तैयार हो। खड़ा हो गया और बोला।

फ़ज़्ल मसीह : अच्छा जनाब मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब। अब वक़्त है कि हम आपके सवालों को सुनें। आपका पहला सवाल क्या है?

मौलवी : आप मेहरबानी से ये बताईये के आप लोग हज़रत ईसा को ख़ुदा का बेटा क्यों कहते हैं? क्या ख़ुदा भी बीवी और औलाद रखता है?

इस पर कितने लोग ज़रा मुस्कराए और मुनादों की तरफ़ देखने लगे। गोया कहते थे कि देखें क्या जवाब देते हो।

फ़ज़्ल मसीह :ख़ुदा का बेटा एक मुहावरा है। इब्रानी लोग किसी शख़्स को उस सिफ़त का बेटा कहते थे, जो उस की ज़िंदगी में खासतौर पर नुमायां होती थी। अला हाज़ा-उल-क़यास यहूदा हलाकत का बेटा कहलाता है। क्योंकि वो हलाकत से भरपूर था। बर्नबास तसल्ली का बेटा कहलाता है क्योंकि तसल्ली की सिफ़त उस में नुमायां थी। शेख़ सादी साहब मुसाफ़िर को राह का बेटा कहते हैं। लिहाज़ा मसीह ख़ुदा का बेटा इसलिए कहलाता था कि उलूहियत उसकी ज़िंदगी में खासतौर पर नुमायां थी। यानी मसीह इस सिफ़त का बेटा या ख़ुदा का बेटा हुआ। इसी तरह मसीह सलामती का शहज़ादा भी कहलाता है। इसी मुहावरे के मुताबिक़ दो भाई याक़ूब और यूहन्ना इब्ने रअद कहलाए। इलावा अज़ीं आप इन्जील को बरहक़ मानते हैं कि नहीं?

मौलवी :हाँ ! फ़रमाईये।

फ़ज़्ल मसीह :तो जब इन्जील ही में ये लिखा है कि मसीह ख़ुदा का बेटा है। तो इन्सान कौन कि चूँ व चरा (एतराज़) करे?

मौलवी :जी हाँ ये तो दुरुस्त है लेकिन इन्जील की बाबत भी तो एतराज़ है।

फ़ज़्ल मसीह : वो क्या?


मौलवी :हम लोग असली इन्जील को बरहक़ मानते हैं। बेशक लेकिन ये इन्जील जो आजकल राइज है। नक़्ली है और इसलिए हमको इस की शहादत से दिलजमई (तसल्ली, इत्मीनान) नहीं हो सकती।

फ़ज़्ल मसीह : बेशक नक़्ली तो है। ये कब मुम्किन है कि ये वही जिल्द हो जो उस के क़ातिबों (लिखने वाले) ने लिखी। वो तो सिर्फ एक ही जिल्द होगी। बल्कि सच्च तो ये है कि मुजल्लद जिल्द भी ना थी। अलग-अलग जुज़ (हिस्से) थे और बाद को एक जिल्द में की गई। और अब इस की करोड़ों, अरबों, खरबों जिल्दें छिप गई हैं। पहले ये किताबें यूनानी ज़बान में थीं। अब सैंकड़ों ज़बानों में इस के तर्जुमे हो गए हैं। और होते जाते हैं। इसी तरह आपका क़ुर्आन शरीफ़ भी तो नक़्ली है। क़ुर्आन की बाबत आप लोग कहते हैं कि वो शुरू ही से आस्मान में तख़्ती पर लिखा हुआ था। और वक़्तन-फ़-वक़्तन ख़ुदा ने जिब्राईल फ़रिश्ते के ज़रीये एक एक जुज़ कर के मुहम्मद साहब पर नाज़िल किया। इस के मुताबिक़ असली क़ुर्आन तो ख़ुदा के तख़्त पर रहा। और ये जो आप लोगों के पास है। उस की नक़्ल है। फिर छापे ख़ानों में बाइबल की तरह इस की भी नक़लें होती रहती हैं।

मौलवी :नक़्ली से मेरा मतलब ये है कि जो इन्जील हज़रत ईसा पर नाज़िल हुई थी वो ये नहीं है। जो आप लोगों के पास है। आप लोगों ने इस में रद्द बदल (तब्दीली) कर डाली। और अपने मतलब की बातें दर्ज कर लीं। लिहाज़ा जो इन्जील अब आपके पास है वो तहरीफ़ शूदा तब्दील शूदा है। ये बात आम तौर से हम लोग जानते हैं और एक ज़माने से चली आई है। ऐसी इन्जील की शहादत गवाही को, आप ही कहे कि हम क्योंकर मान सकते हैं।

हमें आप लोगों पर निहायत ही अफ़्सोस मालूम होता है कि अब आप लोग के पास कोई किताब नहीं है, कि जिसको हम इलाही कह सकें। आप लोग भी साहिबे किताब थे लेकिन सब कुछ आप ही बिगाड़ बैठे।

इलावा इस के एक और बात भी राइज है कि जो इन्जील हज़रत ईसा पर नाज़िल हुई थी वो तो उन्ही के साथ आस्मान को चली गई। अब इन्जील है कहाँ आपके पास जो है सो सब बनावटी बात है। ये दोनों एतराज़ माक़ूल हैं जो हमने किये है। क्या तमाम दुनिया के मुसलमान करते हैं और ज़रूर दोनों में से एक तो ठीक होगा। या तो ये कि इन्जील आपके पास है ही नहीं क्योंकि वो तो हज़रत ईसा के साथ ही गई। या ये कि जो है सो तहरीफ़ शूदा और बे-एतिबार है। लिहाज़ा इस किताब से हवाले देना फ़ुज़ूल है। इस को मानेगा कौन?


फ़ज़्ल मसीह :आपके दो एतराज़ हैं :-

अव्वल :तो हम इस का फ़ैसला करेंगे कि इन्जील ख़ुदावंद येसू के साथ गई या कि यहां है।

दोइम :ये कि अगर है तो क्या इसका तहरीफ़ (तब्दील) किया जाना मुम्किनात में से हो सकता है।

आपके पहले एतराज़ के जवाब में से बहुत सी बातों में से मैं इस वक़्त चंद एक पेश करता हूँ। साहिबान सुनिए। मौलवी साहब कहते हैं कि इन्जील यहां है ही नहीं क्योंकि वो येसू मसीह के साथ आस्मान को चली गई। क़ुर्आन या हदीस में ये बात कहीं पाई नहीं जाती। ये सिर्फ़ मुसलमानों का कहना है जिसका कोई सबूत उनके पास नहीं है।

2.इन्जील की वो बातें जो येसू मसीह ने सिखाईं और अपनी ज़िंदगी में अमली तौर से ज़ाहिर कीं मसीह के आस्मान को जाने के वक़्त तक मुकम्मल तौर पर लिखी ना गई थीं फिर ये कैसे मुम्किन था कि येसू मसीह इन्जील को अपने साथ ले जाता। अगर यही बात हम क़ुर्आन की बाबत कहें। तो आप यही दलील पेश करेंगे कि वाह ये कैसी हंसी की बात है। मुहम्मद साहब की मौत तक क़ुर्आन तो जमा किया ही ना गया था। उसे मुहम्मद साहब अपने साथ कैसे ले गए।

3.हमें ये सुनके ख़ुशी है कि मुसलमान कहते हैं कि इन्जील मसीह पर नाज़िल हुई और क़ुर्आन कहता है कि इन्जील ख़ुदा ने इन्सान की रोशनी और रहनुमाई के लिए दी। (देखिए सूरह 5 अल-मायदा 50 और 3 आले-इमरान 2) अब आप ही ख़याल फ़रमाईये कि जब इन्जील इन्सान की रोशनी और रहनुमाई के लिए दी गई। तो ख़ुदा जो आलम-उल-ग़ायब (ग़ैब का इल्म रखने वाला) है जानता है कि इन्सान तो ज़मीन पर हैं ना कि फ़िर्दोस में। लिहाज़ा हो नहीं सकता कि वो इन्जील को जो इन्सान के लिए है आस्मान पर भेज दे।

4.सब जानते हैं कि मुहम्मद साहब येसू मसीह से 600 बरस बाद आए और उन्होंने बार-बार इन्जील की बातों का बयान किया। और इन्जील के मानने वालों को अहले किताब कहा जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि इन्जील उस वक़्त यानी 600 ई॰ में मौजूद थी। अब हम आपके दूसरे एतराज़ की तरफ़ रुजू होते हैं, कि क्या इन्जील तहरीफ़ हो गई है।

देखिए जनाब मौलवी साहब ख़ुदा की किताब में रद्दो-बदल करना कोई हल्की बात नहीं। ये तो आप जानते ही हैं कि ये बड़ा भारी गुनाह है और इस की सज़ा बहुत भारी है।

मौलवी :बेशक। ये बहुत भारी बात और कबीराह गुनाह है जिसमें आप लोग पड़ गए हैं। (मुसलमान ये सुनके ख़ूब हँसे)

फ़ज़्ल मसीह : इलावा अज़ीं ये भी लाज़िमी बात है कि जब ये जुर्म इतना भारी है तो किसी के ऊपर इस को क़ायम करने के लिए सबूत भी बड़ा पुख़्ता होना चाहिए।

मौलवी :इस में क्या शक है। चारों तरफ़ सबूत ही सबूत मौजूद है।

फ़ज़्ल मसीह : एक बात और भी बताइए कि ज़्यादातर मसीही लोग रास्त-गो। ख़ुदा-परस्त और ख़ुदातरस हैं कि नहीं।

मौलवी :हाँ ये बात तो मानी हुई है।

फ़ज़्ल मसीह : तो फिर आप देखिए कि इतना भारी जुर्म आप ऐसे इज़्ज़तदार लोगों पर लगाते हैं। अब इस को क़ायम करने के लिए बड़ा ही ज़बरदस्त नबुव्वत आपको पेश करना है। अब आप साबित कीजिए। अगर ये नक़्ली है तो क्या आपके पास असली है जिससे आप इस का मुक़ाबला कर के कहते हैं।


मौलवी :क्या ये मुम्किन है कि सब मुसलमान ग़लती पर हों? सबूत यही है कि सब मुसलमान ये कहते हैं ये बात कोई हमने अपने दिल से तो बना ही नहीं ली। मुद्दतों से ये रिवायत चली आई है।

इलावा इस के एक बड़ा सबूत ये है कि बहुत सी बातें जो उस असली इन्जील में मुहम्मद ﷺ और क़ुर्आन शरीफ़ की बाबत थीं उनको आप लोगों ने उस में से निकाल डाला। क्योंकि इस इन्जील में हम उन्हें नहीं पाते।

फ़ज़्ल मसीह : ये कहना कि सब मुसलमान ग़लती पर हो सकते हैं कोई दलील नहीं इलावा अज़ीं ये कहना दुरुस्त भी नहीं है क्योंकि सब मुसलमानों का कहना ये नहीं है। क़दीम मुसलमान मुफ़स्सिरों में बहुत ऐसे हुए हैं जिनकी ये राय थी कि इन्जील तहरीफ़ नहीं हुई है। मसलन इमाम मुहम्मद इस्माईल बुख़ारी, इमाम फ़ख़्र उद्दीन राज़ी, शाह वली-उल्लाह वग़ैरह और आजकल भी हिन्दुस्तान के ज़ी इल्म मुसलमान यही कहते हैं कि इन्जील मुहर्रिफ़ (तहरीफ़ करने वाला, बदलने वाला) नहीं। लेकिन अगर सब मुसलमान इन्जील के ख़िलाफ़ इस मुआमले में एक राय भी होते। तो उनका मह्ज़ ऐसा होना कोई दलील नहीं हो सकता था। और आज तक किसी ने कोई सबूत दिया नहीं है।

मौलवी :क्या और कोई दलील आपके पास नहीं है? इस से हमें तसल्ली नहीं।

फ़ज़्ल मसीह :हम बहुत दलीलें पेश कर सकते हैं, कि भला यहूदीयों और मसीहियों का इन्जील में तब्दीली करने से क्या मक़्सद हो सकता था? मुकाशफ़ात की किताब के 22 बाब की 18, 19 आयत में एक सख़्त सज़ा इस की बाबत लिखी है। भला ख़्वाह-मख़्वाह कौन अपने ऊपर भारी सज़ा को दीदा व दानिस्ता (जान-बूझ कर) लेगा?

मौलवी :हम पहले ही कह चुके हैं कि ऐसा करने में उनका मक़्सद ये था कि हज़रत मुहम्मद ﷺ की बाबत जितनी नबुव्वतें उस में थीं उन्हें निकाल डालें ऐसा ही उन्होंने किया।


फ़ज़्ल मसीह :: ये क्यों? ऐसा करने से उन्हें क्या पाने की उम्मीद थी। अगर मुहम्मद साहब की बाबत नबुव्वतें बाइबल में थीं। तो उन्होंने उसे क़ुबूल क्यों नहीं किया?


मुसलमान हो जाने से तो उन्हें फ़ायदा होता। क्योंकि जब मुसलमानों ने सीरिया, फ़ारस, फ़िलिस्तीन, मिस्र और दीगर मुल्कों को फ़त्ह किया तो लूट का हिस्सा उन्हें भी मिलता। सच्च तो ये है कि इन नबुव्वतों को बाइबल में शरीक करना मुम्किन तो था पर निकालना नहीं। मुसलमान होने से वे इन तमाम मुसीबतों से बचते। जो उन पर मुहम्मद साहब और उनकी उम्मत के हाथ से आईं।

इलावा बरीं यहूदी और मसीही मुहम्मद साहब के वक़्त में या बाद को बाइबल में कुछ रद्दो बदल नहीं कर सकते थे। क्योंकि उस वक़्त तो बाइबल की जिल्दें दूर-दूर फैल गई थीं। और उस वक़्त यहूदी और मसीही भी यूरोप हिन्दुस्तान, फ़ारस, मीसोपातामियाह, आरमीनिया, एशयाए कोचक, सीरिया फ़िलिस्तीन, अरब, हब्श, मिस्र, अफ़्रीक़ा वग़ैरह में फैल गए थे। लिहाज़ा क्योंकर मुम्किन हो सकता था, कि वो सब के सब जमा हो के बाइबल की सब जिल्दों में तब्दीली करें और इस बारे में मुत्तफ़िक़-उल-राए होएं और अगर वो बग़ैर इत्तिफ़ाक़ राय के ऐसा करते तो दूसरे फ़ौरन उनकी साज़िश को फ़ाश कर देते।

हम दलील पर दलील इस बारे में दे सकते हैं। देखिए आजकल जो सबसे क़दीम बाइबल की जिल्दें हैं वो चार हैं और लंदन सेंट पीटर बर्ग, रुम और पैरिस में पाई जाती हैं। ये मुहम्मद साहब से क़रीब 2,3 सौ साल क़ब्ल की हैं। ये चारों एक दूसरे से मिलती हैं। और इनका मुक़ाबला दूसरी नक़लों और तर्जुमों से किया गया है। और कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है। और कितनी दलीलें हैं जिन सबसे यही साबित होता है कि इन्जील नक़्ली नहीं। पर बिला तहरीफ़ असली है।

मौलवी :ख़ैर ये बात तो अब यहां तक हुई। सभों ने हमारी और आपकी बातों को सुना। वो ख़ुद फ़ैसला कर सकते हैं और जो बात है सो सब के सामने ज़ाहिर ही है। अब रुख़्सत होने का वक़्त आया। अभी कई एक सवाल हमें और करने हैं। सो कल हम यहीं चार बजे शाम को ज़रूर होंगे।

फ़ज़्ल मसीह : ठीक है। हम कल फिर आएंगे। आप सब साहिबान भी तशरीफ़ लाइए और अपने दोस्तों को हमराह लेते आईए। आदाब अर्ज़।

मौलवी :तस्लीम :

रोज़ दुवम की बातें सुन के मौलवी अपने दिल ही दिल में क़ाइल और परेशान अपने घर को गया। और मुसलमान को छोड़ अक्सर लोगों का यही फ़ैसला था कि वाह, पादरियों ने अच्छे दंदाँ तोड़ जवाब मौलवी को दीए। देखिए कल क्या होगा। ये मसीही बड़े ज़बरदस्त हैं।

मुनाद भी ख़ुदा का शुक्र करते हुए घर गए। इस रात को घर-घर इस मौलवी और उस के साथियों के लिए दुआ की गई। अब हम कल रोज़ सोइम की बहार देखेंगे।

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रोज़ सोइम


तीसरे रोज़ हस्बे-मामूल तरफ़ैन। एक तरफ़ मौलवी मुहम्मद हुसैन और दूसरी तरफ़ मसीही मुनाद उसी चबूतरे (मुरब्बा या मुस्ततील बनाई हुई ऊंची जगह जहां पर लोग बैठतें हैं) पर ठीक चार बजे फ़राहम हुए। इस मुबाहिसे की शौहरत तमाम शहर में फैल गई थी। और लोगों के झुण्ड के झुण्ड चारों अतराफ़ से आ रहे थे। मसीही मुनादों का दिल उस के दिल को देख देख के उमंग मार रहा था। ख़ासकर के पादरी प्रेम मसीह का। क्योंकि आज के दिन ख़ुदावंद येसू मसीह की अज़मत व जलाल ज़ाहिर करने का बीड़ा उन्होंने उठाया था। हम थोड़ी देर के लिए नाज़रीन के सामने आज के मबाहिस की ज़िंदगी का मुख़्तसर अहवाल पेश करेंगे। प्रेम मसीह के वालिद जवाहर लाल एक शरीफ़ हिंदू घराने से थे। जवाहर लाल और उनकी बीबी दोनों हिंदू दूस्तूरों को बड़ी जाँ-फ़िशानी (जान देना) से मानते थे। खाने कपड़े से आसूदा हाल (ख़ुश-हाल) थे। किसी बात की कमी ना थी। लेकिन एक ही बात का रोना था, कि घर में कोई चिराग़ ना था कि जिससे उनका घर रोशन होता और ज़िंदगी में ख़ुशी और उम्मीद होती। बहुत दिन तक किसी लाल के पैदा होने का इंतिज़ार रहा लेकिन जब आधी एक उम्र गुज़र गई। तो दोनों मायूस हो गए। एक दिन बैठे उनके जी में आया कि अब इस तरह ज़िंदगी बसर करने से क्या फ़ायदा आओ जीते-जी तीर्थों के दर्शन तो कर लें। शायद इसी तरह हमें कोई बच्चा मिले। ये जी में ठान के उन्होंने अपना सब सामान मकान वग़ैरह बेच डाला और गैरवां (लाल रंग का) कपड़ा पहन के दोनों साधू


सा धनी बन के तीर्थ यात्रा को निकल पड़े। बदरी नाथ, केदारनाथ, पुश्कर, प्रयाग वग़ैरह सब तीर्थों का पांव पैदल सफ़र किया। कभी कभी निहायत दुख उठाना पड़ा। चलते-चलते पैरों में छाले पड़ गए। सेहत ख़राब हो गई और जब सब तीर्थ कर चुके। तो एक पैसा भी गाँठ में ना रहा। इन सब तीर्थों में उन्होंने बड़ी-बड़ी मिन्नतें मानीं जिनका मतलब यही था कि किसी तरह हमारे औलाद हो कई बरस इसी तरह भटकते फिरे। लेकिन कुछ उम्मीद ना हुई। ख़ैर आख़िर को लाचार थे मांदे, बे पैसा कोड़ी, अपने शहर को वापिस लौटे। और बड़े ग़रीबाना तौर से गुज़र करने लगे। इस के पाँच बरस बाद ऐसा हुआ, कि एक दिन जवाहर लाल ने बाज़ार में एक मसीही कुतुबफ़रोश (किताबें बेचने वाले) से दो पैसे में एक धर्म तुलमा ख़रीदी, जिसको कई रोज़ तक बग़ौर पढ़ा। इस का नतीजा ये हुआ कि उस के ना-उम्मीद रंजीदा, दिल में रोशनी की एक किरण चमकी जिसने उसके के दिल को उम्मीद और ख़ुशी से भर दिया। उसने अपनी बीबी को मसीही मज़्हब की बाबत बताया और धरम तिला पढ़ कर सुनाई और दोनों के दिल में ये बात जम गई, कि मसीही मज़्हब ही से हमें राहत व आराम हासिल होगा। वो एक पादरी के पास गए और थोड़े दिनों में और तालीम पाके मसीही हो गए। हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ से ऐसा हुआ कि इसी साल जवाहर लाल की बीबी को उम्मीद हुई। और वक़्त पर एक ख़ूबसूरत लाल पैदा हुआ। जिसका नाम प्रेम मसीह रखा गया। जूँ-जूँ प्रेम मसीह बड़ा होता था। जवाहर लाल और उस की बीबी का दिल फूले ना समाता था। उनकी ज़िंदगी उम्मीद और ख़ुशी से भर गई थी। और उनका एतिक़ाद यही था कि मसीही मज़्हब की ये बख़्शिश है। प्रेम मसीह एक मेहनती और होशियार लड़का बना और अपने बहन भाईयों से बड़ी उल्फ़त से पेश आता था। क्योंकि जवाहर लाल के घर अब चार बच्चे दस साल के अंदर हो गए थे। घराना बड़ा था और ग़रीब थे। तो भी ज़िंदगी बड़ी ख़ुशी से बसर करते थे। प्रेम मसीह रोज़ रोज़ स्कूल को जाता था और पढ़ने लिखने में बड़ी मेहनत करता था। पंद्रह बरस की उम्र में उसने मिडल पास किया। लेकिन चूँकि उस के माँ बाप ग़रीब थे। उसे स्कूल छोड़ के नौकरी करनी पड़ी। ये दिन-भर काम करता और रात को पढ़ा करता था। लेकिन बेचारे की इतनी आमदनी ना थी, कि एक अच्छा लैम्प जला के पड़ सकता। सो वो अपनी बग़ल में किताबें दबा के सड़क पर चौराहे की सरकारी गैस बत्ती के नीचे जा खड़ा होता था और कई घंटे वहां खड़ा खड़ा पढ़ता रहता था। ऐसी सख़्त मेहनत कर के प्रेम मसीह बहुत होशियार हो गया। पादरी साहब ने उसे होशियार, मेहनती और होनहार देख के मदरिसा इल्म इलाही में भेज दिया। और वहां का कोर्स ख़त्म कर के एक ज़बरदस्त मुनाद बन गया। आज हम इस शख़्स की तक़रीर को सुनेगे।


प्रेम मसीह : अच्छा कहीए जनाब मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब आज आपका सवाल क्या है?

सब हाज़िरीन ख़ामोशी से कान लगा कर सुनें।

मौलवी :कल हमारा सवाल इन्जील की तहरीफ़ के बारे में था। ख़ैर अब हम इसकी बाबत और कुछ ना कहेंगे। जो है सो है। लेकिन अब सवाल ये है कि आप जो बार-बार इन्जील से हवाले पेश करते हैं। इस से क्या फ़ायदा क्योंकि इन्जील तो मन्सूख़ (ख़त्म) हो चुकी है? शुरू में तौरेत की पाँच किताबें हज़रत मूसा पर नाज़िल हुईं और ये किताबें हज़रत दाऊद पर ज़बूर के नाज़िल होने से मन्सूख़ हो गईं और बाद को ज़बूर इन्जील के हज़रत ईसा पर नाज़िल होने से मन्सूख़ हुई। इसी तरह इन्जील क़ुर्आन के नाज़िल होने से मन्सूख़ हो गई। अब इस की शहादत बेसूद (बेफ़ाइदा) है। अब तो हमारे पास क़ुर्आन है। और इसी को मानना आपका फ़र्ज़ और हमारा फ़र्ज़ है।

प्रेम मसीह : साहिबान सुनिए मौलवी साहब का दावा आज ये है कि इन्जील मंसूख (ख़त्म) हो गई है। क्या ये मुम्किन है? जनाब मौलवी साहब। क्या जो आप कहते हैं वो क़ुर्आन के मुताबिक़ है?

मौलवी :बेशक। क़ुर्आन इस का शाहिद (गवाह) है।

प्रेम मसीह : क्या आप क़ुर्आन में से एक भी आयत पेश कर सकते हैं, कि जिससे ये ज़ाहिर हो कि क़ुर्आन के आने से इन्जील मन्सूख़ हो गई है।

मौलवी :मुझे अफ़्सोस है कि इस वक़्त कोई ऐसी आयत याद नहीं आती।

प्रेम मसीह :कुछ अजब नहीं। क्योंकि कोई ऐसी आयत है ही नहीं। क़ुर्आन में “नस्ख़” हर्फ़ दो ही दफ़ाअ आया है। और दोनों मर्तबा इन्जील की बाबत नहीं लेकिन क़ुर्आन ही की आयत की निस्बत है। आपके उलमा की राय है, कि क़ुर्आन में 225 आयात मन्सूख़ की गई हैं। क़ुर्आन में कहीं ये शहादत नहीं मिलती कि इन्जील मन्सूख़ हो गई है। ये सिर्फ़ लोगों का ख़्याली पुलाव है।


मौलवी :जी नहीं जनाब ये ख़्याली पुलाव की बात नहीं है। अक़्लन हम ये जानते हैं कि जिस तरह ज़बूर के नाज़िल होने से तौरात और इन्जील के नाज़िल होने से ज़बूर मन्सूख़ हो गए। इसी तरह क़ुर्आन के आने से इन्जील मन्सूख़ हो गई है। हर कोई इसे समझ सकता है। और ज़्यादा सबूत की क्या ज़रूरत है?

प्रेम मसीह : मेरे हुज़ूर तेरे लिए दूसरा ख़ुदा ना हो। तू बुत-परस्ती मत कर। क्या ये मन्सूख़ हो गए हैं?

मौलवी :नहीं।

प्रेम मसीह :तू ख़ुदावंद अपने ख़ुदा का नाम बेफ़ाइदा ना ले। तू सबत का दिन पाक रखने के लिए याद रख।। क्या ये मन्सूख़ हैं?

मौलवी :नहीं।

प्रेम मसीह : ये दस अहकाम में से चार हैं। इनके इलावा और भी हैं। मसलन तू अपने माँ बापकी इज़्ज़त कर, ख़ून मत कर वग़ैरह-वग़ैरह। क्या ये दस अहकाम मन्सूख़ हो गए हैं?

मौलवी :नहीं ये तो अल्लाह तआला के अहकाम हैं। ये कैसे मन्सूख़ हो सकते हैं?

प्रेम मसीह :अगर नहीं तो आप कैसे कह सकते हैं कि तौरेत मन्सूख़ हो गई है क्योंकि ये तो तौरात में ही हैं।

क़ुर्आन से साफ़ ज़ाहिर है, कि मुहम्मद साहब के वक़्त में तौरात, ज़बूर और इन्जील की शहादत मानी जाती थी। (देखिए सूरह 2 अल-बक़रह, 130) मसीह ने साफ़ कहा कि “ये ना समझो कि मैं तौरेत या नबियों की किताबों को मन्सूख़ करने आया हूँ। मन्सूख़ करने नहीं बल्कि पूरा करने आया हूँ। (मत्ती 5:17) स्कूल को लड़का पढ़ने को जाता है। शुरू में वो पहली किताब शुरू करता है जब वो ख़त्म कर लेता है तो दूसरी किताब उस्ताद उसे देता है और यूं जूँ-जूँ वो इल्म में तरक़्क़ी करता जाता है तब तब उसे बड़ी और गहरी


किताबें मिलती जाती हैं। पर दूसरी किताब पहली को मन्सूख़ नहीं करती बल्कि दूसरी की बुनियाद उसी इल्म पर होती है जो लड़के ने पहली किताबों में हासिल किया था। इसी तरह ख़ुदा ने लोगों को रफ़्ता-रफ़्ता आहिस्ता-आहिस्ता तौरात, ज़बूर, नबियों के सहीफ़ों और इन्जील के ज़रीये तालीम दी। इन्जील के बाद और कोई इल्हामी किताब इस क़िस्म की है नहीं। वो सब ज़मानों के लिए है और आज भी है।

मौलवी :हाँ पर एक बात और गौरतलब है। बहुत से अम्बिया हुए हैं। रसूल भी बहुत हैं हर एक नबी और रसूल अपने अपने वक़्त के लोगों की तालीम के लिए भेजा गया। देखिए पहले हज़रत मूसा को अल्लाह तआला ने भेजा। उनके बाद हज़रत दाऊद आए। उनके बाद सुलेमान और सुलेमान के बाद याहया (यूहन्ना) बपतिस्मा देने वाला और फिर हज़रत ईसा और बाद में आखिरुज़्ज़मान (आख़िरी नबी) हज़रत मुहम्मद ﷺ इस तरह से साफ़ ज़ाहिर है कि एक के बाद दूसरे को मन्सूख़ करता आया। अब सब जानते हैं कि हमारे नबी के बाद और कोई हुआ नहीं। लिहाज़ा वही आख़िर-उल्ज़मान हैं और उन्हीं पर नबुव्वत ख़त्म है। वही सब नबियों पर गोया मुहर हैं। जब एक बादशाह गुज़र जाता है। तो दूसरा उस की जगह लेता है। और पहले का दौर दौरान जाता रहता है और दूसरे का आ जाता है। इसी तरह मुहम्मद ﷺ ही की बादशाहत है। उन्ही को मानना और उन्ही की ताज़ीम करना लाज़िम व वाजिब है।

प्रेम मसीह : ये आपका कहना सही है कि जब एक बादशाह गुज़र जाता है। तो उस की जगह दूसरा गद्दी पर बैठता है। लिहाज़ा जो मर गया उस का दौर दौरा जाता रहता है। लेकिन शाही क़ानून बदल नहीं जाते क़वानीन वही रहते हैं जो गुज़श्ता बादशाह के वक़्त में थे। इलावा अज़ीं ये मिसाल सिर्फ़ दुनियावी बादशाहों और बादशाहतों के बारे में है। और जो आप साबित करना चाहते हैं। उस पर आइद नहीं होती। येसू मसीह कोई दुनियावी बादशाह बन के नहीं आया। वो सिर्फ इसलिए मुजस्सम हुआ, कि गुनेहगारों को उनके गुनाह से बरकत बख़्शे। इलावा अज़ीं वो मौत के ऊपर ग़ालिब हो के आस्मान पर चढ़ गया और अब भी अज़ली अबदी (अव्वल व आख़िर) हो के ख़ुदा के दहने हाथ बैठा है। बल्कि आप लोगों का कहना तो ये है कि जब लोग येसू मसीह को पकड़ने आए तो अल्लाह तआला ने उसे तो आस्मान पर बुला लिया। और उस के दुश्मनों में से एक को उस की सूरत में बदल दिया। जिसे यहूदीयों ने पकड़ के मार डाला। लिहाज़ा आपके अक़ीदे के मुवाफ़िक़ भी येसू मसीह ज़िंदा है। और फिर आने वाला है। तो जब कि वो ज़िंदा है तो कौन उस की बादशाहत पर तसर्रुफ़ (ख़र्च करना, दखल देना) कर सकता है? इलावा बरीं फ़र्ज़ किया कि येसू मसीह की रुहानी बादशाहत बक़ौल आपके मुहम्मद साहब को मिली तो ये बताईए कि मुहम्मद साहब की मौत के बाद कौन गद्दी पर बैठा?


फिर आप ख़ुद कह चुके हैं कि आप मसीह को बरहक़ नबी मानते हैं। जब वो बरहक़ है तो उस की बातें कैसे टल सकती हैं? ये तो एक हक़ीक़त है और हक़ीक़त को कोई रद्दो-बदल नहीं कर सकता। दुनियावी क़वानीन की तर्मीम होती रहती है। लेकिन ख़ुदा के आईन कभी नहीं बदलते क्योंकि ख़ुदा ख़ुद बदल नहीं सकता।

मौलवी :अच्छा ख़ैर चलिए। ये बात यहां तक रही। अब बर्ख़ास्त होने का वक़्त आ गया। कल अगर आप फिर इसी वक़्त हाज़िर हों तो हम कुछ और गुफ़्तगु करेंगे। कई एक सवाल अभी बाक़ी हैं।

प्रेम मसीह : बहुत बेहतर कल फिर सब साहिबान यहां तशरीफ़ लाइए। आदाब।

मौलवी :तस्लीम।

इस गुफ़्तगु के बाद रोज़ सोइम की बह्स ख़त्म हुई। मसीहियों के ऐसे मुदल्लल (दलाईल) और सफ़ाई के जवाब सुनके लोगों में एक अजीब समां छाया हुआ था। इन तीन रोज़ की बातों ने लोगों के दिलों पर बहुत काम किया। बहुतों के दिल में और तलाश-ए-हक़ (सच्च की तलाश) की आरज़ू होने लगी। मुनादों ने सोचा कि कल मुबाहिसे के बाद इन्जील और हिस्सों की चंद जिल्दें लेते चलेगे। शायद कोई ख़रीद लेगा। मिशनरी साहब ने उनको चंद जिल्दें बाइबल और इन्जील की और चंद ट्रेक्ट वग़ैरह दे दीए और दुआ व ध्यान में मसरूफ़ हुए ताकि चौथे दिन के लिए तैयार हों। उनके पिछले तीन दिनों से उनकी बड़ी हौसला-अफ़ज़ाई हुई और कामिल यक़ीन हो गया कि हमारा ख़ुदावंद येसू मसीह अपने वाअदे के मुताबिक़ हमेशा हमारे साथ है। जब हम उस का काम करते हैं तो वो हमारी रहबरी करता है। और मज़ीद जोश के साथ वहां की तमाम कलीसिया के लोग दुआ करने लगे। और ये अय्याम (दिन) तमाम कलीसिया के लिए बड़े ताज़गी बख़्श मालूम होते थे। अब अगर आप कल चार बजे शाम फिर बाज़ार की सैर करते हुए चबूतरे (मुरब्बा या मुस्ततील बनाई हुई ऊंची जगह जहां पर लोग बैठते हैं) के पास जा खड़े हों। तो चौथे रोज़ की बहादुर की बातों से निहायत महज़ूज़ (ख़ुश व ख़ुर्रम, नसीब) होंगे। उसे मालूम है कि


कल मुझे ही अखाड़े में मसीह को दिखाना है। वो बड़ी ग़ौर व फ़िक्र से खाने के बाद चिराग़ जलाए बैठा है। एक तरफ़ क़ुर्आन खुला रखा है और दूसरी तरफ़ बाइबल है और वो ख़ास ख़ास बातें चुन चुन के अपनी नोट बुक में दर्ज कर रहा है। कभी घुटनों परगे के दुआ में मदद मांगता कभी फिर बैठ के पढ़ता लिखता और यूं कल की कुश्ती मारने के लिए ख़ूब तैयार है। उसे इत्मीनान है कि ख़ुदावंद ज़रूर ऊंचा उठाया जाएगा। और उसके नाम को जलाल व बुजु़र्गी इस ख़ाक के पुतले से होगी। हमारा दिल भी कल की बातें सुनने को फड़क रहा है कल ज़रूर सुनेगे।

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रोज़ चहारुम


मंगल के रोज़ ये बह्स शुरू हुई थी। और आज जुमा है। एक कसीर जमाअत चबूतरे (मुरब्बा या मुस्ततील बनाई हुई ऊंची जगह जहां पर लोग बैठते हैं) पर साढे़ तीन बजे से ही हाज़िर हो गई थी। लोगों की कोशिश थी कि आगे जगह मिले। ताकि वो मसीही मुनादों की बातें आसानी से सुन सकें। और कोई भी लफ़्ज़ रायगां (ज़ाए) जाने ना पाए। पिछले तीन रोज़ की बातों ने लोगों के दिल में बड़ी दिलचस्पी पैदा कर दी थी। आज मदरसे में तअतील थी लिहाज़ा कई एक मसीही जवान उस्ताद व तलबा भी मौजूद हुए जिन्हों ने लोगों को ब-तर्तीब बिठाया। शहर के कई एक शरिफा (शरीफ़) भी आज हाज़िर थे जिनके लिए हमारे जवान दौड़ के कुर्सियाँ और बेंचें ले आए। और यूं बड़े आराम व सहूलत के साथ सब ब-तर्तीब बैठे। एक तरफ़ से मौलवी मुहम्मद हुसैन और उनके साथी आए। और दूसरी तरफ़ से ठीक चार बजे मसीही मुनाद भी वारिद हुए। सबकी आँखें मुनादों की तरफ़ लगी हुई थीं। कि देखें आज कौन बोलता है।


आज का तक़रीर करने वाला एक क़ौमी हैकल फ़ीलतन छः फुट ऊंचा जवान है जिसको मसीही जमाअत इब्ने रअद कहती थी। क्योंकि जैसा ये क़द व क़ामत में बेमिसाल था वैसे ही बोलने वाला भी था। इस को तक़रीर करने में ख़ुदादाद लियाक़त (क़ाबिलियत) थी। उसने बहुत वक़्त कल और आज ग़ौर फ़िक्र और दुआ में सर्फ किया था। और उस के चेहरे से आज इस दिलजमई का इज़्हार हो रहा था। जो उसने अपने ख़ुदावंद की सोहबत में हासिल की थी। इस जवान की ज़िंदगी का मुख़्तसर अहवाल यूं है, कि बलवंत सिंह एक मालदार राजपूत घराने में पैदा हुआ और अपने बाप और चचा के दर्मियान एक ही लड़का था। चचा भी एक बड़ा ज़मीनदार था और इन दोनों भाईयों की उम्मीद बलवंत पर ही क़ायम थी। वो आठ बरस की उम्र में एक निहायत उम्दा स्कूल को भेजा गया और बीस बरस की उम्र तक उसे अच्छी ख़ातिर-ख़्वाह तालीम दी गई। राजपूत के इस ख़ास स्कूल में और स्कूलों की मानिंद बाक़ायदा एफ़॰ ए॰ बी॰ ए॰ वग़ैरह की ख़वांदगी ना थी। पर यहां उनको उर्दू, फ़ारसी, अरबी, हिन्दी और अंग्रेज़ी ज़बानें सिखाई जाती थीं। और हिसाब किताब, काश्तकारी, बंदूक़, तल्वार चलाना और रियासत के काम को चलाना। घोड़े पर चढ़ना वग़ैरह-वग़ैरह में माहिर करा देते थे। इन सब बातों को बलवंत ने ऐसा सीखा कि सब तरह से बलवंत था और देखने में गोया साँचे में ढला हुआ राजपूत था। जब बलवंत बीस बरस की उम्र में इस राजपूत स्कूल की सब तालीम हासिल कर के घर वापिस आया। तो बाप और चचा को बड़ी मसर्रत (ख़ुशी) हासिल हुई। और उस की तालीम का ज़माना ख़त्म करने की यादगार में बड़ी-बड़ी खुशियाँ मनाई गईं। अब दूसरी बात ये होने को थी कि उस की शादी की तारीख़ मुक़र्रर की जाये क्योंकि मंगनी तो पहले ही हो चुकी थी। बाप और चचा की उम्मीद थी कि शादी वग़ैरह से फ़ारिग़ हो के कुछ दिन में ज़मीन जायदाद सँभालने के लायक़ होगा और हम दोनों भाईयों को बुढ़ापे में बड़ा आराम मिलेगा। लेकिन एक और बात बलवंत की तालबालमी के ज़माने ही में उस के दिल पर नक़्श हो चुकी थी। जो बलवंत के बाप और चचा की सब उम्मीदों को ख़ाक में मिलाने का बाइस ठहरी। इसी राजपूत कॉलेज में एक और राजपूत जवान था जिसने अपनी इब्तिदाई तालीम एक विलायती मसीही ख़ातून से पाई थी। जो उस की तर्बीयत के छुटपन () में रखी गई थी। ये ख़ातून हक़ीक़ी मसीही थी और अदब क़ायदा अंग्रेज़ी वग़ैरह के साथ ही साथ उसने रघुबीर सिंह को मसीही तालीम देने में कोई दक़ीक़ा (मामूली बात) बाक़ी ना छोड़ा था। रघुबीर यूं इस लेडी की ज़ेर निगरानी 12 बरस की उम्र तक रहा और इस अर्से में बाइबल की ख़ास बातें और ख़ासकर राह-ए-नजात उस के ख़ूब ज़हन नशीन हो गई थीं। और ये बाइबल में यहां तक दिलचस्पी लेने


लगा कि जब उसने कॉलेज को जाना शुरू किया तो उसने अपनी इसी लेडी गवर्नस (इतालीका) से अंग्रेज़ी में एक छोटी सी बाइबल मांग ली जिसको मौक़ा पा के पढ़ता था। रघुबीर और बलवंत दोनों पोलो खेल के बड़े शावक थे और यूं वो दोनों आपस में गहरे दोस्त हो गए।

एक दिन का ज़िक्र है कि रघुबीर अकेला बैठा छुप के उसी बाइबल को पढ़ रहा था कि बलवंत भी घूमता फिरता इधर आ निकला। रघुबीर ने बलवंत की आहट पाके बाइबल को झट से जेब में रख लिया लेकिन बलवंत इस किताब को देख चुका था। और चूँकि देखने में वो कुछ ग़ैर-मामूली सी थी उस के दिल में फ़ौरन ख़याल आया कि ये कोई भेद की किताब है जो रघुबीर छुप कर पढ़ता है। होना हो ये जादू की किताब है। सो वो रघुबीर के पास आके बैठ गया। दोनों दोस्त तो थे ही। फ़ौरन बोल उठा। “क्यों यार छुप छुप के जादू सीखते हो?”

रघुबीर :“कैसा जादू?”

बलवंत :“हाँ हमें चकमे देते हो। अभी वो छोटी सी क्या किताब पढ़ रहे थे। भला जेब तो दिखाओ।”

रघुबीर :“नहीं वो कोई जादू की किताब नहीं है। वो तो यूँही है।”

बलवंत ने जो देखा कि रघुबीर टाल मटोला करता है। उसे और भी शक हुआ और कुशतम कुशा (खींचा-तानी) करके रघुबीर की जेब से बाइबल निकाल ही ली। उसने कभी ना तो बाइबल पढ़ी थी ना देखी थी। हैरत में हो के पूछने लगा। “अच्छा दोस्त अब भेद तो खुल ही गया। बताओ ये है क्या जिसे तुम इस तरह पोशीदगी में पढ़ रहे थे। अगर ये कोई मामूली किताब है तो फिर छिपाने की क्या ज़रूरत?” रघुबीर ने दिल खोल कर अपने दोस्त को वो सब बातें शुरू से आख़िर तक कह सुनाईं। जो उसने अपनी इतालिका से सीखी थीं। ये बलवंत को भी बड़ी दिलचस्प मालूम हुईं। और आज से ये दोनों मौक़ा ब मौक़ा बाइबल को साथ-साथ पढ़ने लगे। बहुत सी बातों में रघुबीर बलवंत का उस्ताद था। वो पहले पढ़ता और फिर समझाता था। एक अर्से तक वो इसी तरह करते रहे और इस राज़ के सबब वो और भी गहरे दोस्त हो गए। सच्च है बलवंत के लिए ये किताब जादू ही ठहरी। क्योंकि कॉलेज से निकलने से पहले उसने मुसम्मम इरादा (पुख्ता इरादा) कर लिया


कि जो हो सो हो मैं तो इसी किताब को मानूंगा। और इसी मसीह का जिस का इस में ज़िक्र है। शागिर्द बनूँगा। रघुबीर का कॉलेज से निकल के क्या हाल हुआ। इस का ज़िक्र करने का मौक़ा नहीं पर पढ़ने वाले ख़ुद तसव्वुर कर सकते हैं, कि जो नख़ल (खजूर का दरख़्त, या आम दरख़्त) शुरू ही से इस तरह सींचा गया। उस के फल कैसे हुए होंगे।

बलवंत ने कहा। अगर मैं शादी से पेश्तर पहले मसीही ना हो जाऊं। तो पांव में बेड़ी पड़ जाने के बाद निहायत मुहाल होगा। पास ही शहर में पादरी साहब रहते थे। उसने उनसे मुलाक़ात की और अपना सारा हाल तफ़्सील वार कह सुनाया। पादरी साहब को इस जवान का हाल सुनके बड़ी ख़ुशी हुई। और आने वाले इतवार को बपतिस्मे का इंतिज़ाम किया। शाम की इबादत के वक़्त तमाम मसीही जमाअत के सामने बलवंत ने मसीह पर ईमान लाने का इज़्हार किया। और बपतिस्मा पाया। हाँ उस वक़्त बलवंत का कोई रिश्तेदार या ग़ैर-मसीही दोस्त यहां हाज़िर ना था। और उस के घर वालों को वहम व गुमान भी ना था, कि वो आज शाम उस को जिस पर उनकी उम्मीदें बनी हुई थीं। खो रहे थे। सच्च है। बलवंत दुनिया के लिए खोया गया। और मर गया पर मसीह के लिए ज़िंदा हुआ था।

बलवंत गिरजे से निकल के फ़ौरन अपने घर गया और उस दिलेरी से जिसके लिए राजपूत मशहूर हैं। और जिस पर वो फ़ख़्र करते हैं। उसने अपने बाप और चचा से कह दिया कि मैं तो मसीही हो गया हूँ। बाप ने सोचा कि ये यूंही कहता है। सो पहले कुछ ख़याल ना किया। मगर जब बलवंत निहायत संजीदगी से यक़ीन दिलाने लगा तब तो घर भर में हलचल मच गई। कोई कहता था कि क्या बलवंत दीवाना हो गया है। कोई कहता कि क्या मज़ाक़ करते हो। कहीं पुरखों का दीन ईमान बदला जाता है। ये बात अनहोनी है। ख़ैर शाम हुई सब खाना दाना खा के सो रहे लेकिन बलवंत के बाप और चचा का दिल निहायत बैचेन था। नहीं नींद कहाँ! उधर बलवंत भी बिस्तरे पर पड़ा पड़ा सोच रहा था, कि अब क्या करना चाहिए। वो वहीं अपनी चारपाई की पट्टी के पास घुटने टेक कर दुआ मांगने लगा और निहायत हलीमी के साथ ये कहा कि “ऐ मसीह मुझे ताक़त दे कि मैं मुश्किलात का मुक़ाबला कर सकूँ। मैं मौत तक तेरा वफ़ादार ख़ादिम बना रहूँगा।” उसी वक़्त अजीब तौर से उस के दिल में तसल्ली महसूस हुई। और एक धीमी आवाज़ कान में सुनाई दी कि “मेरा फ़ज़्ल तेरे लिए काफ़ी है।” बलवंत अभी घुटनों ही पर था कि किसी ने दरवाज़ा खटखटाया और दरवाज़ा खोलने पर क्या देखता है कि बाप और चचा दरवाज़े पर खड़े हैं। और उनकी आँखों में से आँसू बह रहे हैं। चचा ने फ़ौरन सीने से लगा लिया। और


रोते-रोते कहा, “बलवंत बलवंत ये तू ने क्या किया। हमें बेचैनी के मारे नींद नहीं आती। क्या तो सच-मुच मसीही हो गया?” बलवंत बोला। हाँ चचा जी। मैं आज ही शाम मसीही हो गया हूँ ये तो रोने की बात नहीं पर बड़ी ख़ुशी की बात है। क्योंकि मसीही मज़्हब में सच-मुच मुक्ती (नजात) है।” बाप। अरे भैया। आज तू हमें सिखाता है। क्या हमने तुझे पाल पोस के इस दिन के लिए इतना बड़ा किया? तू कहाँ ईसाइयों के बहकाने में आ गया। क्या तू हमारे कुल ख़ानदान का नाश (तबाह करना) क्या चाहता है? अब चुप रह अगर तू ईसाइयों के बहकाने में आके हो भी गया है तो हम तीर्थ ले चलेगे। और पंज (पंचायत) बैठा कर हर जा भर देंगे अभी कुछ बिगड़ा नहीं।” बलवंत “प्यारे पिता, और चचा जी मैं और सब बातों में आपकी मानने को तैयार हूँ मैं आपका वही बलवंत हूँ। जो अब तक था। पर जो आप ये कहें कि मसीही धरम में मत रह तो ये नहीं हो सकता। क्योंकि मैंने परमेश्वर (ख़ुदा) के आगे और बहुत से मसीहियों के आगे वाअदा कर दिया है, कि मैं येसू मसीह को जो जगत (दुनिया) का मुक्ती दाता (नजातदिहंदा) है। ना छोड़ूंगा। जो मैं क्षत्रिय का बेटा हूँ। तो बचन दे के कैसे पलटूँ?” देर तक बाप और चचा बलवंत से बहुत इसरार करते रहे। बलवंत... की तरह बे जुंबिश रहा। और आख़िरकार वो उसे उसी के कमरे में छोड़ के चले गए। बलवंत ने फिर दुआ मांगी और सो रहा। सुबह को एक अजीब नज़ारा पेश आया। सबकी आँख बलवंत ही पर थी। और सब के लबों पर बलवंत का ही नाम था। घर के लोगों के चेहरों पर उदासी छाई हुई थी। माँ एक तरफ़ छाती पीट रही थी। गोया ऐसा मालूम होता था कि बलवंत गुज़र गया।

जब दो रोज़ हो गए और बलवंत अपने ईमान व एतिक़ाद में बलवंत रहा। तो उसे मालूम होने लगा कि यहां रहने में ईमान का ख़तरा है। लिहाज़ा वो तीसरी रात को अपनी तेज़ घोड़ी पर सवार हो के दबे-पाँव वहां से निकला। और ठीक बारह बजे मिशनरी साहब का दरवाज़ा आ खटकटाया मिशनरी बलवंत की आवाज़ पहचान के फिरती (तेज़ी) से दरवाज़ा खोला और उस के कहने से पहले ही बलवंत के वहां आने का मक़्सद जान गया। उसे दफ़्तर में बिठा के उस के साथ दुआ की। और दिलासा (तसल्ली) दी। और फ़ौरन एक ख़त दूसरे शहर की मिशनरी के नाम लिख के उसे दिया और कहा कि वहां चले जाओ बलवंत एड़ी मारे रात ही रात वहाँ पहुंचा। यहां मिशनरी ने बढ़िया आओ-भगत से क़ुबूल किया और कुछ दिन आराम से वां रख के चुप-चाप दूर एक मदरिसा इल्मे इलाही को भेज दिया। अल-क़िस्सा बलवंत यहां ख़ुदावंद में बलवंत होता गया। इस अर्से में उसके घर के लोगों का ग़ुस्सा भी धीमा (आहिस्ता, कम) हुआ और वो आज इस चबूतरे (मुरब्बा या


मुस्ततील बनाई हुई ऊंची जगह जहां पर लोग बैठते हैं) पर हमारे सामने है। उस के हक़ में रफ़्ता-रफ़्ता मसीह की ये बात पूरी हुई, “जिस किसी ने घरों या भाईयों या बहनों या बाप या माँ या बच्चों या खेत को मेरे नाम की ख़ातिर छोड़ दिया है उस को सौ गुना मिलेगा। और हमेशा की ज़िंदगी का वारिस होगा।” (लूक़ा 19:29) आईये आज हम इस बलवंत की बलवंत दलीलें सुनें और लोगों को ये भी बताएं कि बलवंत आज हमारे सामने इस बात का ज़िंदा सबूत है कि लोग रोटी ही की ख़ातिर मसीही नहीं हो जाते।

बलवंत : फ़रमाईये जनाब मौलवी साहब। आज आपको क्या दर्याफ़्त करना है।

मौलवी : आज की बात ये है कि आप लोग ये कहते हैं कि इन्जील में मुहम्मद ﷺ का कोई ज़िक्र नहीं है। क्या आपका ये क़ौल नहीं है?

बलवंत :हाँ ये ठीक है। क़ुर्आन तो़ मसीह का शाहिद (गवाह) है मगर इन्जील में कोई ज़िक्र मुहम्मद साहब का नहीं कि जिससे ये साबित हो सके कि मुहम्मद साहब भी अम्बिया में से कोई एक थे।

मौलवी :पे ख़ुश आज हम आपको साबित कर देंगे कि अगरचे आप लोगों ने बहुत सी बातें इन्जील में से निकाल डालीं। जो मुहम्मद ﷺ के नबी होने की शहादत (गवाही) देती थीं। तो भी आज तक कई एक बातें मौजूद हैं। जिनसे साफ़ ज़ाहिर है कि हज़रत मुहम्मद नबी आख़िर उल्ज़मान हैं। और अल्लाह के नबी हैं। ज़रा इन्जील खोल के यूहन्ना के 14 बाब 16 आयत को देखें। वहां यूं मर्कूम (लिखा) है कि “मैं बाप से दरख़्वास्त करूंगा। तो वो तुम्हें दूसरा वकील बख़्शेगा। कि अबद तक तुम्हारे साथ रहे। देखिए। साहिबान ये इबारत कैसी है। इलावा अज़ीं अगर आप लोग इसी यूहन्ना की इन्जील के 14, 15, 16 अबवाब को बग़ौर पढ़ें तो आपको मालूम होगा कि हज़रत ईसा बार-बार अपने शागिर्दों से कहते हैं, कि उनके बाद एक आएगा जिसका नाम अरबी में अल-बारकलेत और फ़ारसी में फ़ारकलेत है। इस लफ़्ज़ के मअनी बिल्कुल वही हैं जो लफ़्ज़ मुहम्मद या अहमद के। इस से और क्या साफ़ हो सकता है कि यहां एक नबुव्वत है कि हज़रत ईसा के बाद मुहम्मद ﷺ आएगे। इस नबुव्वत के बारे में कोई शक हो नहीं सकता। क्योंकि हज़रत ईसा के बाद सिवाए हज़रत मुहम्मद के और कोई आया नहीं। उन्हीं पर नबुव्वत ख़त्म है। वही नबी आखिरुज़्ज़मान (आखिरी नबी) हैं। कहीए साहिबान। क्या ये दुरुस्त नहीं है?


बलवंत :सुनिए साहिबान मौलवी साहब ने अपने दावे के सबूत में यूहन्ना की इन्जील के 14 बाब की 16 आयत पेश की है। अगर आप 17 आयत पर नज़र करें। तो वहां 16 आयत की तश्रीह साफ़-साफ़ है जो येसू मसीह ही ने की है। वहां है, “यानी हक़ की रूह जिसे दुनिया हासिल नहीं कर सकती। क्योंकि ना उसे देखती और ना उसे जानती है। तुम उसे जानते हो क्योंकि वो तुम्हारे साथ रहती है। और तुम्हारे अंददर रहेगी।” इस तश्रीह से मसीह का मतलब यही था कि लोग इस की बाबत कुछ ग़लती ना करें।

1.मुहम्मद साहब कभी हक़ की रूह के नाम से नामज़द नहीं हुए।

2.अल्फ़ाज़ “तुम उसे जानते हो क्योंकि वो तुम्हारे साथ रहती है। और तुम्हारे अन्दर रहेगी।”

गौरतलब हैं। सब साहिबान जानते हैं कि मुहम्मद साहब मसीह से 600 साल बाद आए। लिहाज़ा अगर ये नबुव्वत मुहम्मद साहब की बाबत होती तो क्योंकर उनके बारे में ये कहा जाता कि “तुम उसे जानते हो।” 600 साल क़ब्ल किस को मुहम्मद साहब की आमद का इल्म था? “वो तुम्हारे साथ रहती है। और तुम्हारे अन्दर रहेगी।” मुहम्मद साहब ना तो मसीह के शागिर्दों के साथ थे और ना वो किसी तरीक़े से भी शागिर्दों के अंदर रह सकते थे। और ना रहे। फिर लफ़्ज़ “वकील” जो 14 आयत में आया है। इस की तश्रीह 26 आयत में साफ़-साफ़ कर दी गई है, कि “वकील” यानी रूह-उल-क़ुद्स जिसे बाप मेरे नाम से भेजेगा।” रूह-उल-क़ुद्स नाम मोहम्मद साहब का क़ुर्आन में कहीं नहीं है। और ना मुहम्मद साहब मसीह के नाम से आए।

अगर यूहन्ना के 16 बाब की 13 आयत से 15 आयत तक पढ़ें। तो मालूम करेंगे कि मसीह और रूह-उल-क़ुद्स में ऐसी यगानगत (इत्तिहाद, क़राबत इत्तिफ़ाक़) है, कि गोया वो दोनों ही हैं। लेकिन मसीह और मुहम्मद साहब में बड़ा भारी इख़्तिलाफ़ है। दोनों की तालीम में ज़मीन व आस्मान का फ़र्क़ है। और ख़याल फ़रमाईये कि यहां लिखा है कि मसीह का भेजा हुआ फ़ारकलेत आया। ज़रा ग़ौर करने की बात है, कि अगर मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब के कहने के मुताबिक़ फ़ार-कलेत से मुराद हज़रत मुहम्मद साहब से है। और कि वो नबी आख़िर अल्ज़मान (आखिरी नबी) हो के मसीह की बादशाहत पर क़ाबिज़ हैं तो ये दोनों बातें आपस में मुवाफ़िक़त नहीं रखतीं। क्योंकि क़ासिद भेजने वाले से बड़ा नहीं हो सकता और ना भेजने वाले पर अपने आपको तर्जीह दे सकता है।


हम कई एक और मज़्बूत दलीलें पेश करेंगे जिनसे साफ़ ज़ाहिर हो जाएगा कि इस नबुव्वत में हज़रत मुहम्मद साहब की तरफ़ मुतलक़ इशारा नहीं। सब साहिबान। मेहरबानी से ज़रा इन्जील खोल के इन दो आयतों का मुलाहिज़ा फ़रमाईये। और इनका मुक़ाबला कीजिए। देखिए रसूलों के आमाल की किताब जो इसी यूहन्ना की इन्जील के बाद है। इस के पहले बाब की चौथी आयत में लिखा है, “और उसने यानी मसीह ने बुला कर उनको (यानी अपने शागिर्दों को) हुक्म दिया कि यरूशलम से बाहर निकल न जाओ। बल्कि बाप के उस वाअदे के पूरा होने के मुंतज़िर रहो जिसका ज़िक्र तुम मुझसे सुन चुके हो।” अब देखिए इसी किताब का दूसरा बाब 1 ता 4 आयत, “जब ईद पंतीकोस्त का दिन हुआ तो वो सब एक जगह जमा हुए। यका-य़क आस्मान से ऐसी आवाज़ आई। जैसे ज़ोर की आंधी का सन्नाटा होता है। और इस से सारा घर जहां वो बैठे थे गूंज गया और उन्हें आग के शोले की से फटी हुई ज़बानें दिखाई दें। और उनमें से हर एक पर आ ठहरीँ। और सब। (ज़रा ग़ौर फ़रमाईये) रूह-उल-क़ुद्स से भर गए।” साहिबान अब आप सब यूहन्ना की इन्जील की इन बातों पर जिनका ज़िक्र हो चुका है। और आमाल की किताब के इन दो मुक़ामात की बातों पर एक साथ कीजिए। यूहन्ना की इन्जील में रूह-उल-क़ुद्स के भेजे जाने का वाअदा किया गया। आमाल के पहले बाब में मसीह ने आस्मान पर जाने से पेश्तर अपने शागिर्दों को जमा करके हुक्म दिया कि “वो यरूशलम में ठहरे रह के रूह-उल-क़ुद्स का इंतिज़ार करें।” और दूसरे बाब में ज़िक्र है कि ये “रूह-उल-क़ुद्स बड़े ज़ोर के साथ नाज़िल हुआ।” क्या कोई कह सकता है कि रूह-उल-क़ुद्स या फ़ार-कलेत के भेजे जाने के वाअदे और नुज़ूल के दर्मियान 600 साल का अर्सा हुआ? क्या मसीह के शागिर्द 600 साल तक यरूशलम में फ़ार-कलेत के इंतिज़ार में ठहरे? ऐसा ख़याल करना मह्ज़ जहालत होगी। वो 100 साल के अंदर-अंदर सब गुज़र चुके थे। रूह-उल-क़ुद्स के वाअदे के सिर्फ 10 दिन बाद ये नबुव्वत पूरी हुई। उन्ही लोगों की ज़िंदगी में कि जिनसे ये वाअदा किया गया था। लिहाज़ा इस में हज़रत मुहम्मद साहब की तरफ़ कुछ इशारा नहीं है।

मौलवी :अच्छा देखिए। इस यूहन्ना की इन्जील 14 बाब की 30 आयत में साफ़ मर्क़ूम है कि मसीह ने कहा कि “दुनिया का सरदार आता है।” क्या ये नबुव्वत साफ़ साफ़ हज़रत मुहम्मद ﷺ के बारे में नहीं है? ये हज़रत का एक मशहूर लक़ब है।

बलवंत :जनाब मौलवी साहब। अगर मैं साफ़-साफ़ खोल के बताऊं कि ये सरदार कौन है तो आपको बुरा लगेगा। अगर आप लूक़ा 10:18, यूहन्ना 12:31, 16:11, 2 कुरिन्थियों 4:4, इफ़िसियों 2:2 और 6 बाब 11,12 मुलाहिज़ा करें तो आप पर आश्कारा (वाज़ेह) हो जाएगा कि ये होलनाक शख़्स कौन है।


मौलवी : (घड़ी देखते हुए) ख़ैर अब कहना सुनना तो बहुत है। अब कल हम एक और बात पर गुफ़्तगु करेंगे। यानी मसअला तस्लीस। आप कल फिर 4 बजे तशरीफ़ लाइयेगा।

बलवंत :बहुत बेहतर कल का मज़्मून तस्लीस है। आदाब अर्ज़।

मौलवी :तस्लीमात अर्ज़।

मुनादों की इन पुर ज़ोर बातों ने कितनों के तो दाँत खट्टे किए लेकिन इस कसीर जमाअत में बहुत ऐसे भी थे जो बिला तास्सुब (बिना किसी फ़र्क़) के इन बातों को अपने दिल में तौल रहे थे। और किसी क़द्र मसीही मज़्हब की बाबत और इल्म हासिल करने की आरज़ू उन के दिल में पैदा हो गई थी। चुनान्चे जब मुनादों ने हाथ में बाइबल, इन्जील ट्रेक्ट वग़ैरह ले के ये ऐलान किया कि जो साहिबान चाहें हमसे ये किताबें और पर्चे खरीदें और मुफ़्त लें। कई सौ किताबें बेची और बाँटी गईं। स्कूल के उस्ताद और नीज़ तलबा ने इस में मुनादों की मदद की और बड़ी ख़ुशी के साथ इस शाम मुनाद अपने अपने घर गए। इस काम के लिए घरानों में दुआ बदस्तूर जारी है और इस में कुछ शक नहीं कि ख़ुदा का हाथ इस तमाम इंतिज़ाम में रहा है। उसने बंदों के ज़रीये कलाम किया और उस का कलाम उस तक ख़ाली ना लौटेगा। अब कल के तक़रीर कनिंदा और इस के दिलचस्प और पुर ज़ोर दलीलों पर कल ग़ौर करेंगे। इस की सवानिह उम्री निहायत दिलचस्प है।

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रोज़ पंजुम


पेश्तर इस के हम रोज़ पंजुम की बह्स शुरू करें। हम दीबाचे के तौर पर आज के तक़रीर कनिंदा की ज़िंदगी का मुख़्तसर अहवाल सुनाते हैं। क्योंकि जब आप साहिबान इस मुदल्लिल (दलाईल देना) और पुर-ज़ोर तक़रीर को सुनेंगे तो ज़रूर दर्याफ़्त करेंगे कि ये शख़्स कौन है।

गिरजाघर के पीछे एक छोटा सा मकान नज़र आता है। उस के एक कमरे में एक सफ़ैद रेश बुज़ुर्ग निहायत ग़ौर व फ़िक्र में महव (गुम) दिखाई देता है। क़द लंबा, सीना चौड़ा, चेहरा नूरानी चमक रहा है। अगरचे उम्र रसीदा है। ताहम मज़्बूत और तंदुरुस्त मालूम होता है। 70 साल से ऊपर निकल गया है। लेकिन ना तो चशमा उस की आँखों पर है और ना चलने फिरने में लाठी की मदद है। पुराने ज़माने के बुज़ुर्ग ऐसे ही हैं। आजकल के जवान उनके सामने शर्मिंदा हैं। इस बुज़ुर्ग का नाम-ए-नामी पादरी गंगा राम है। और इसी गिरजाघर का जो सामने दिखाई देता है पासबान है। कोई उसे दादा जी कह के पुकारता है कोई नाना जी और ज़्यादा उम्र वाले उसे पापा जी कह के उस की तरफ़ उल्फ़त (मुहब्बत) का इज़्हार करते हैं। क़रीब 25 बरस से वो यहां की कलीसिया की ख़िदमत कर रहा है। और लोग उसे निहायत जानते। उस का बर्ताव सब छोटे बड़ों के साथ ऐसा ही है जैसा अपने ख़ानदान के साथ बहुत से लोग अपने दिल के राज़ आके उस के आगे खोल देते हैं। क्योंकि उन्होंने उसे हक़ीक़ी मददगार व हमदर्द पाया है। जवान अपने मज़्हबी शुक़ूक़ व मुश्किलात इस से आके बयान करते और वो उनके शुक़ूक़ (शक की जमा) को दूर और मुश्किलात को सहल (आसान) करता है। अगर किसी घराने में मियां बीबी के दर्मियान ना इत्तिफ़ाक़ी पैदा हो जाती या ना समझ मियां बीबी आपस में लड़ते झगड़ते तो वो फ़र्दन फ़र्दन इसी बुज़ुर्ग के पास आके अपनी शिकायतें पेश करते और वो उन्हें ऐसे समझाता। जैसे अपने बेटे बेटीयों को। अल-ग़र्ज़ ये बुज़ुर्ग अपनी कलीसिया की पतवार को थामे हुए आंधी व तूफ़ान में हो के ब-सलामती खेलता चला जाता है। और लोगों को इत्मीनान हो गया है, कि जब तक ये हमारा पासबान है तब तक ये हमारे पास एक हक़ीक़ी हम्दर्द व मददगार मौजूद है।


आज हम इस को और रोज़ की बनिस्बत ज़्यादा ग़ौर व फ़िक्र में मसरूफ़ पाते हैं। कई एक किताबें उस के सामने खुली रखी हैं। हाँ एक तरफ़ क़ुर्आन भी रखा है। कभी वो अपनी पुरानी बाइबल जो निशानात से भरी है उलट-पलट करता है। कभी क़ुर्आन टटोलता है। कभी वो झट से एक कोने में हो जाता है। और जब हम एक तरफ़ से झाँकते हैं तो इस मर्द-ए-ख़ुदा को घुटने टेके पाते हैं। इस सारी तफ़्तीश और मेहनत का ख़ास सबब यह था कि रात एक जवान ने आके दरवाज़ा खटखटाया इस बुज़ुर्ग का ये दस्तूर है कि बिला यह पूछे कि “कौन है?” फ़ौरन यही लबों से निकलता है कि “आओ।” ये दरवाज़ा खटखटाने वाला तो बलवंत है। जिसे गंगाराम बहुत प्यार करता है। बलवंत इस बुज़ुर्ग के पास ऐसा बे-तकल्लुफ़ हो के बैठ जाता है गोया वो उस ही का घर था। बुज़ुर्ग पूछता है। “कहो बेटा बलवंत कैसे आए।” बलवंत आज की मुनादी का सब हाल तफ़्सील-वार कह सुनाता है। और बाद को कहता है कि “पापा जी कल का मज़्मून तस्लीस है। हम लोगों ने अब तक तो आपको तक्लीफ़ ना दी। और आप ही मार चलाई। लेकिन कल के लिए सबकी राय ये है कि आप चबूतरे (मुरब्बा या मुस्ततील बनाई हुई ऊंची जगह जहां पर लोग बैठते हैं) पर चल के ज़रा मुसलमानों के मुँह सीधे कर दीजिए। “यही सबब है कि आज हमारा बुज़ुर्ग इस क़द्र ग़ौर व फ़िक्र में है। चार बजे आज इस मर्द-ए-ख़ुदा के ज़रीये ख़ुदावंद येसू मसीह का जलाल ज़ाहिर किया जाएगा।”

अब ज़रा इस बुज़ुर्ग की गुज़श्ता ज़िंदगी का मुख़्तसर हाल सुन लीजिए। गंगा राम या गंगो क्योंकि बचपन में वो गंगोही कहलाता था। एक छोटे से गांव में एक गडरिए के घर में पैदा हुआ। लिहाज़ा तालीम के लिहाज़ से ये बिल्कुल अनपढ़ रहा। क्योंकि गांव के पण्डित ने बड़ी मुश्किल से दो किताबें हिन्दी की इस से ख़त्म कराईं। 9, 10 साल की उम्र में ये और गुडरियों के साथ भेड़ बकरीयां चराने जंगल में जाने लगा और जल्द इस क़ाबिल हो गया कि एक छोटा सा झुण्ड इस के सपुर्द कर दिया गया। ये ब-दस्तूर सुबह को रोटी खा के और कुछ साथ ले के अपने झुण्ड के साथ जंगल को निकलता और शाम को वापिस घर आता था। गांव के लोगों की ज़िंदगी के लिहाज़ से गंगाराम के माँ बाप आसूदा हाल (ख़ुश-हाल) थे। उनके पास मवेशियों का अच्छा ख़ासा शुमार था। ना सिर्फ भेड़ बकरियां ही बल्कि गाएँ, भैंसें और बेल भी थे। इलावा मवेशी रखने के जो गडरियों का ख़ास काम है। इन के कुछ खेती भी होती थी। और गांव के लोगों के बीच इज़्ज़त की नज़र से देखे जाते थे। गंगा राम के तीन छोटे भाई और एक बहन थी। और दो चचा भी इसी गांव में रहते थे। इसलिए घराना भी बड़ा था। गंगा राम शुरू ही से अच्छा होनहार लड़का मालूम होता था। और निहायत जसीम व क़द-आवर था। जब ये 18 साल का जवान हो गया तो ना तो ये किसी इन्सान से और ना जंगली जानवर से डरता था। अक्सर भेड़िये को देख के अकेला

इस से लड़ा करता था।.. बल्कि एक दफ़ाअ कुशतम कुश्ता भी हो गई। यहां तक कि कोई आधे घंटे तक भेड़िये से लड़ता रहा कि इतने ही में उस के साथी चरवाहे आ गए और सबने मिलकर भेड़िये को मार डाला। इस लिहाज़ से कुछ-कुछ वो बहादुर दाऊद की मानिंद था।


सब कुछ अच्छा था लेकिन एक बात ये थी, कि गंगा राम में आवारागर्दी की तबियत थी। लिहाज़ा जब कभी ये तबियत इस में जोश मारती थी वो इधर उधर गांव में अपने रिश्तेदारों के घर चल पड़ता था। उसे एक ही जगह रहना पसंद ना था। और अक्सर इस छोटी सी उम्र में उस के ख़याल दूर दराज़ सफ़र की तरफ़ राग़िब होते थे। हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ से उसे एक और जवान साथी भी एसा ही मिल गया था। और ये दोनों अक्सर जब जंगल में गल्लाबानी करते तो किसी ऊंची चट्टान पर बैठ कर दूर-दूर मुल्कों वग़ैरह की बाबत बहुत ख़्याली पुलाव पकाया करते थे। और ज़्यादातर साथ ही रहते थे। क्योंकि मिस्ल मशहूर है कि “कुंद हम-जिंस बाहम जिन्स परवाज़।”

एक दिन का ज़िक्र है कि गंगा राम का साथी दोस्त बसंता अपने एक रिश्तेदार की शादी में शहर बरेली को गया। और वहां कई रोज़ तक उस का रहना हुआ। चूँकि घूमने की तबीयत उस की भी थी। उसने तमाम शहर छान मारा। सुबह को निकलना और शाम को घर वापिस आना। यही उस का काम था। ये घूमते-घूमते ख़ूब ख़ुश हो हो के सोचता था, कि घर चल के गंगा राम को बहुत सी नई बातें बताऊँगा। इन दिनों बरेली में..... वग़ैरह जज़ीरों के लिए क़ुलियों और तरह तरह के मज़दूरी पेशा लोगों की भर्ती हुआ करती थी। कंपनियों के एजैंट इधर-उधर घूमते फिरते थे, कि ऐसे लोगों को जो टापूओं में जा के कम अज़ कम चार साल काम करने के लिए राज़ी हों। पा के भर्ती करें। ये लोग ज़्यादातर दिहात के लोगों की तलाश करते थे क्योंकि एक तो वो जफ़ाकश और मेहनत उठाने वाले होते हैं। और दूसरे इन एजैंटों के बहकाने में जल्दी आ जाते हैं। चुनान्चे कोई अजब नहीं कि बसंता को जो देहाती होने की वजह से छिपा ना रह सकता था। इस तौर पर आवारागर्दी करते हुए एक भर्ती करने वाले ने भांपा जूंही बसंता सड़क पर से इधर-उधर देखता हुआ एक उचक्का सा निकला चला जा रहा था। यूंही एक भर्ती वाला उस के साथ हो लिया। और मौक़ा पा के चलते चलते उस से पूछने लगा, कि कहो भाई जवान कहाँ के रहने वाले हो। बसंता ने अपना गांव थाओं बताया। और भर्ती वाले ने बात ही बात में ऐसी चालाकी से अपना मज़्मून छेड़ा कि बसंता बिल्कुल उस की बातों से ना बिदका बल्कि फ़रेफ़्ता हो


गया। उसने अपने दिल में कहा कि वाह भला इस से अच्छा मौक़ा मेरे और दोस्त गंगो के लिए क्या हो सकता है। यहां भर्ती हो के सात-समुंदर पार के टापूओं (जज़ीरा, ख़ुशकी का वो क़ता जो चारों तरफ़ से पानी से घिरा हो) को सैर करें। उसने फ़ौरन भर्ती वाले को अपना नाम पता लिखा दिया। और वाअदा किया कि मैं अपने एक दोस्त को हमराह लेकर जितना जल्द मुम्किन हो लौटूंगा।

इतने में इधर शादी वादी भी हो चुकी। और बरात वापिस लौटी। बसंता भी दिल ही में मगन अपने दोस्त गंगो के पास आया। और दूसरे दिन जब ये दोनों भेड़ बकरियां चराने जंगल को निकले उसने बरेली की सारी कैफ़ीयत कह सुनाई। इन दोनों ने मुसम्मम इरादा (पक्का इरादा) कर लिया कि ज़रूर बरेली चल के भर्ती होंगे। चुनान्चे उस दिन से वो दोनों सोचने लगे कि कब घर से निकलें। इधर सैर व स्याहत की तबीयत ज़ोर मारती थी। उधर घर वालों की उल्फ़त खींचती थी। क्योंकि इन दोनों की ना सिर्फ शादी ही हो चुकी थी। बल्कि एक एक बच्चा भी था। इसी सोच व फ़िक्र में कई दिन गुज़र गए और दोनों में से किसी की हिम्मत ना हुई कि इस क़द्र दूर व दराज़ सफ़र इख़्तियार करे। एक दिन जब ये जंगल में गल्लाबानी कर रहे थे। दोनों ने सलाह की कि यूं नहीं बनेगी। एक काम करो। आज शाम जब रोटी खाने बैठो। तो क़सम खाओ कि जो फिर इस चौके पर रोटी खाएं तो गाय खाएं। इस तरह इरादा कर के वो दोनों शाम को हस्बे-मामूल घर गए। और जैसा इरादा किया था वो दोनों दिल में क़सम खा के रात को अपने अपने घर से निकल पड़े और एक मुक़र्रर किए हुए अड्डे पर आ मिले। रात ही बरेली की राह ली। और भर्ती के मुक़ाम पर आ पहुंचे। भर्ती वाला दोनों मज़्बूत जवानों को देखकर बाग़-बाग़ (ख़ुश) हो गया। इसी हफ़्ते में एक जहाज़ कलकत्ता से छूटने वाला था। लिहाज़ा वो दोनों लिखा पढ़ी के बाद फ़ौरन कलकत्ते को रवाना हो गए। रेल के सफ़र में कई एक बड़े-बड़े स्टेशनों पर से उनका गुज़र हुआ और ये इस सैर से बहुत ख़ुश थे। अल-ग़र्ज़ भर्ती वाला उनको ले के कलकत्ता पहुंचा और इस के दूसरे ही रोज़ वो जहाज़ पर बैठ के और बहुत से मज़दूरों के साथ ट्रीनेडाड के लिए रवाना हुए जहाज़ पर बैठ के तो उनका दिल ख़ुश था। लेकिन जब उनको समुंद्र की बीमारी हुई। जो उन सबको जो समुंद्री सफ़र के आदी नहीं हैं, हुआ करती है। तो उन्हें घर याद आया। ख़ैर कुछ दिन में ये बहरी सफ़र के आदी हो गए। और बहुतों से जो जहाज़ पर उनके मुवाफ़िक़ देहाती थे। दोस्ती हो गई। तो फिर ये सैर का मज़ा लेने लगे उन दिनों के जहाज़ आजकल के जहाज़ों से बहुत मुतफ़र्रिक़ थे। ये आहिस्ता-आहिस्ता जैसे हवा हो। वैसे जाते थे। और रस्ता भी लंबा था। सो कई महीनों में ये मंज़िल-ए-मक़्सूद पर


पहुंचे। जहाज़ से उतर के सब मज़दूर एक बड़े अहाते में जमा किए गए। और वहां जज़ीरे के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में तक़्सीम किए गए। यहां उस वक़्त गंगा राम और बसंत राम को सख़्त सदमा गुज़रा जब उनको मालूम हुआ कि वो दोनों दोस्त एक साथ ना रह सकेंगे क्योंकि ये दोनों जुदा-जुदा हिस्से के लिए चुने गए। ख़ैर वहां उनकी मर्ज़ी चल नहीं सकती थी। मजबूरन दोनों दोस्तों ने एक दूसरे को रो-रो के ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा और फिर ये कभी ना मिले। गंगा राम को चाय और क़हवा के बाग़ीचे में काम करने को मिला। और चार साल तक उसने बड़ी वफ़ादारी और मेहनत से काम किया। उस से बाग़ीचे का मालिक बहुत ख़ुश था। क्योंकि गंगा राम ने कभी उसे नाराज़ ना किया था। सिर्फ चार साल तक गंगा राम को वहां काम करना था और अब वो आज़ाद था कि अगर चाहे तो हिन्दुस्तान को बग़ैर जहाज़ का किराया भरे वापिस लौटे। लेकिन उसे इन टापूओं (जज़ीरा, ख़ुशकी का वो क़ता जो चारों तरफ़ से पानी से घिरा हो) मैं रहना यहां तक पसंद आया कि उसने वहीं रहने का इरादा कर लिया। अब वो आज़ाद था कि जहां चाहे वहां काम करे। सो उसने और अतराफ़ के जज़ीरों में जगह जगह सैर करते हुए तरह तरह की नौकरियां कीं। और आमदानी भी माक़ूल थी। इस अर्से में उसने कुछ मामूली बोल-चाल की अंग्रेज़ी भी सीख ली थी। क्योंकि वहां ज़्यादा अंग्रेज़ी ही बोली जाती थी। अब एक बड़ी तब्दीली गंगा राम की ज़िंदगी में होने वाली थी। जिससे उस की ज़िंदगी का रुख बिल्कुल पलट गया।

इन जज़ीरों में भी मिशनरी हैं और मिशन का काम होता है। गंगा राम के कई एक मसीही दोस्त थे जिनके साथ वो हर इतवार को गिरजे जाया करता था। ये ना समझना चाहिए कि अब कोई मज़्हबी भूक प्यास इस में पैदा हो गई थी। लेकिन सबब ये था कि 4,5 साल तक इन जज़ीरों में रहने के बाद अब गंगाराम वही गडरिया ना रहा था। इस के पहनने खाने, रहने सहने और बातचीत में कुछ और ही बात आ गई थी। अगर बरेली से रवाना होने के वक़्त उस की तस्वीर खींची जाती तो ऊंची गाड़े के धोती और गाड़े की अंगरखी बदन पर होती। सर पर सफ़ैद पगड़ी और पांव में नर्मी की मज़्बूत जूती। हाँ हाथ में लाठी थी। अब अगर उस के गांव के लोग बल्कि थोड़ी देर के लिए उस के घर वाले भी उसे देखते तो ना पहचानते। क्योंकि सर्द मुल्क की आब व हवा ने ना सिर्फ उस के रंग ही में कुछ फ़र्क़ कर दिया था। बल्कि अब वो गर्म काली बानात की पतलून और कोट पहने हुए है। सर पर विलायती टोपी है और पांव में मज़्बूत काले चमकते हुए बूट हैं। अब तो कुछ ठाठ ही और है। लिहाज़ा वो सिर्फ़ मसीहियों की सोहबत में रहने और विलायतियों में दम मारने (शेख़ी मारने, दावे करने) की वजह से शौक़िया तौर पर गिरजे जाया करता था।


रफ़्ता-रफ़्ता उस की जान पहचान एक मिशनरी साहब से हो गई जो वहाँ मिशन का काम करते थे। ये बुज़ुर्ग मिशनरी किसी वक़्त एक मुद्दत तक हिन्दुस्तान में कामयाबी के साथ काम करते रहे और हर दिल-अज़ीज़ (हर एक को पसंद आने वाले) थे। लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता सख़्त मेहनत करने और चंद दीगर वजूहात से उनकी सेहत यहां तक ख़राब हो गई कि आख़िरकार डाक्टरों ने उन्हें मज्बूर किया, कि वो अपने मुल्क को फ़ौरन लौटें। ये अमरीका में एक अर्से तक रहने के बाद फिर काम करने के क़ाबिल हो गए और वापिस हिन्दुस्तान आना चाहते थे। लेकिन डाक्टरों ने दूर अंदेशी कर के सलाह दी कि किसी गर्म मुल्क में काम ना करें। चूँकि उन्हें हिंदूस्तानियों से उल्फ़त (मुहब्बत) हो गई थी। उन्होंने ट्रेंड एड जज़ीरा के हिंदूस्तानियों के बीच काम करने का फ़ैसला कर लिया। और अब अर्से से यहां हैं यही विलायती बुज़ुर्ग है जिसने मेहनत करके गंगा राम को अंग्रेज़ी पढ़ाई। और हिन्दुस्तानी ज़बान के सही इस्तिमाल में भी कुछ मदद की। यहां तक कि रफ़्ता-रफ़्ता उन्ही की मेहनत और दुआ का नतीजा ये हुआ कि गंगा राम मसीह का सच्चा शागिर्द बन गया और अपने बुज़ुर्ग मिशनरी के काम में बड़ी इमदाद का ज़रीया ठहरा। यूं गंगा राम को वहां का काम करते सीखाते क़रीब दस साल हो गए। अब घर और वतन की उल्फ़त ने ज़ोर मारा और उसने हिंद को वापिस आने का क़सद (इरादा, नीयत) किया। थोड़े अर्से में एक जहाज़ हिंद के लिए रवाना होने वाला था। लिहाज़ा गंगा राम और उस का एक और हिन्दुस्तानी दोस्त दोनों ही रवाना हुए। गंगा राम और उस के दोस्त ने एक अच्छी ख़ासी रक़म कमाई थी जो कि वहां के बैंक में जमा थी। और जब बैंक वालों ने पूछा कि कहो अगर तुम सफ़र में हिन्दुस्तान पहुंचने से पहले मर जाओ तो तुम्हारा रुपया किस को दिया जाये। तो गंगा राम के दोस्त ने चूँकि उस का कोई आगे पीछे ना था लिखवा दिया कि अगर मैं गुज़र जाऊं तो मेरा सब रुपया मेरे दोस्त गंगाराम को मिले। और जब गंगा राम से यही सवाल किया गया तो अगरचे गंगाराम के घर वाले थे तो भी चूँकि उस के दोस्त ने इस का नाम लिखवाया था। गंगा राम ने भी यही मुनासिब समझा कि अपने दोस्त कृपा शंकर का नाम लिखाये। चुनान्चे ये सब लिखा पढ़ी करा के गंगा राम और कृपा शंकर दोनों बड़ी ख़ुशी से जहाज़ पर सवार हो के रवाना हुए। जब ये क़रीब आधे रास्ते में पहुंचे तो इत्तिफ़ाक़ से ऐसा हुआ, कि जहाज़ पर हैज़ा फैला और बावजूद डाक्टर की कोशिश और गंगा राम की तीमार-दारी के कृपा शंकर गुज़र गया। इस से गंगा राम को सख़्त सदमा हुआ। और कृपा शंकर के साथ ही गंगा राम के लिए इस जहाज़ की सारी रौनक और दिलचस्पी उठ गई। ख़ैर कई महीनों का मरहला कर के जहाज़ कलकत्ता की उस बंदरगाह में आ पहुंचा। जहां से


गंगाराम और बसंत राम दस साल हुए। दहक़ानी (दिहात या गांव का बाशिंदा या किसान) सूरत में बे पैसा कोड़ी रवाना हुए थे। गंगाराम ने अपना और अपने मर्हूम दोस्त कृपा शंकर का सामान जहाज़ से उतारा। और बैंक में जा के अपना रुपया मए उस रूपये के जो कृपा शंकर बज़रीया वसीयत गंगाराम के नाम छोड़ मरा था वसूल किया। और दूसरे दिन रेल में बैठ कर अपने गांव की राह ली।

तीन दिन व रात सफ़र करके गंगाराम अपने गांव को पहुंचा। और तमाम गांव में शोर हो गया कि “अरे काले पानी का आदमी आया। काले पानी का आदमी आया।” काले पानी का आदमी गांव वालों ने उसके काले कपड़े देखकर कहा। जो तब्दीलियां गंगाराम में हो गई थीं। उनका ज़िक्र हम ऊपर कर चुके हैं। लिहाज़ा कुछ अजब नहीं कि उस के घर वालों ने भी उसे ना पहचाना। वो बाहर चौपाल में बैठा और एक बड़ी भीड़ लोगों की उस के इर्दगिर्द जमा थी। पहले उस की बुढ़िया माँ निकल आई। और थोड़ी देर के बाद उसे पहचान के गले लग-लग के रोने लगी। इस पर उस के चचेरे भाई बाहर निकल आए। और सब मिलकर गंगा राम को अंदर ले गए। उस की बीबी भी यहां थी। लेकिन उसने हिंदू बेवाओं का लिबास इख़्तियार कर लिया था। क्योंकि गंगा राम के लिए सब रो बैठे थे। गंगा राम का जो लड़का दस साल हुए दूध पीता था। अब वो अच्छा बड़ा हो गया था अफ़्सोस कि गंगा राम का बाप और उस का चचा गुज़र चुके थे। जो चचेरे भाई उस के सामने छोटे लड़के थे। अब वो जवान हो गए थे। एक बड़ी तब्दीली गंगाराम ने घर पर पाई। उस वक़्त सख़्त काल हिन्दुस्तान में था। गंगा राम की बीबी और घर की सब औरतों का ज़ेवर जहाजन के यहां रहन (गिरवी) रख दिया गया था। घराना बड़ा था खाने वाले थोड़े थे। लिहाज़ा सब ही उस वक़्त बड़ी तंगी में थे। पूछपाछ और ख़ातिर-ख़्वाह तवाज़ो के बाद गंगाराम को घर का ये सब हाल माँ ने रो-रो के सुनाया। गंगाराम ने सबको दिलासा (तसल्ली) दिया और फ़ौरन बड़ा संदूक़ खोल के माँ के सामने रुपियों का ढेर लगा दिया। अब क्या था सब के दिल चांदी को देखकर बाग़-बाग़ (बहुत ज़्यादा ख़ुश) हो गए। फ़ौरन इकट्ठा अनाज ख़रीदा और ज़ेवर भी छुड़ा लिए गए। ख़ैर ये सब बड़ी ख़ुशी से रहने सहने लगे। और कुछ दिन तक गांव की चौपाओं, गली कूचों में लोगों की गुफ़्तगु का मज़्मून गंगा राम ही था। बल्कि वो एक नुमाईशी शैय बना रहा। चंद रोज़ इस तरह ख़ुशी-ख़ुशी में गुज़रे पर मुश्किल ये थी कि गंगा राम पर एक-एक दिन भारी गुज़र रहा था वो कम अज़ कम पाँच साल का सच्चा मसीही था उन लोगों की बुत-परस्ती वग़ैरह की बर्दाश्त ना कर सकता था। लिहाज़ा उसने एक दिन अपनी बीबी से राज़ खोला, कि मैं तो टरनेडाड टापू


(जज़ीरा, ख़ुशकी का वो क़ता जो चारों तरफ़ से पानी से घिरा हो) में मसीही हो गया हूँ। इतना कहना था कि गोया बारूद में बत्ती लगी। औरत बुदक के एक तरफ़ हुई और सब घर वाले थू थू करने लगे। सबने मिलकर सलाह दी कि जो परदेस में हुआ सो हुआ। रुपया हमारे पास है ही फिर बिरादरी में लेना कोई मुश्किल बात नहीं है। लेकिन गंगा राम को ये सब बातें क्योंकर गवारा हो सकती थीं? वो अब क्योंकर फिर इन बातों के सामने सर झुका सकता था? उसने इन तमाम बातों से ना सिर्फ नकार किया। बल्कि अपने घर के लोगों को सलाह दी कि तुम सब मसीही हो जाओ। तो हम सब बड़े मेल मीलाप और सुख चेन से रहेगे। और परलोक (बहिश्त यानी जन्नत) में सुख पाएंगे। तरफ़ैन अपनी अपनी जगह अड़े रहे। ना तो गंगा राम अब फिर हिंदू होगा। और ना उस के घर के लोग ही पुरखों के धरम मज़्हब को बदलेगे। अल-क़िस्सा नतीजा ये हुआ कि गंगा राम को अपनी जान की ख़ातिर घर से भाग के नज़्दीक शहर के मिशनरी के हाँ पनाहगीर होना पड़ा। अब उस के पास सिवाए कपड़ों के और कुछ ना रहा था। क्योंकि रुपया पैसा सब घर के लोगों में बांट चुका था।

पादरी साहब ने उसे ख़ुशी से क़ुबूल कर के काम दिया लेकिन जब पहली तारीख़ आई और तनख़्वाह का वक़्त हुआ। तो गंगा राम को पाँच रुपया पादरी साहब ने ये कह के दीए, कि भाई जान मैं आपको ज़्यादा देना चाहता हूँ लेकिन दर्मियान साल का वक़्त है इस वक़्त मेरे हिसाब में ज़्यादा ख़र्च की गुंजाइश नहीं। ख़ैर गंगा राम को ज़रा मायूसी हुई लेकिन ख़ुदा का शुक्र करके वही पाँच रूपये क़ुबूल किए। उसने बहुत कोशिश की कि बीबी और लड़का साथ आएं। लेकिन सब रायगां (जाए, फ़ुज़ूल) ठहरी। क्योंकि उसने मुसम्मम इरादा (पक्का इरादा) कर लिया था। कि मैं स्टानों के धरम में हरगिज़ हरगिज़ ना जाऊँगी। लिहाज़ा बज़रीया अदालत उसे तलाक़ देना पड़ा। और यूं घर-बार छूटा, ज़मीन जायदाद छूटी, पैसा गया और नौकरी मिली तो पाँच रूपये की लेकिन गंगाराम मसीह में साबित-क़दम रहा। और अगरचे बारहा ना-उम्मीदी के बादलों ने उसे घेरा ताहम उस के दिल ने कभी जुंबिश ना खाई।

गंगाराम एक साल के बाद मदरिसा इल्म इलाही को भेजा गया। और वहां से होशियार मुनाद हो कर निकला। थोड़े ही अर्से में एक अच्छी मसीही ख़ातून के साथ उस की शादी हो गई। और आज के दिन उस के पोते पोती हैं। और इस गडरिए को मसीह ने अपने पीछे बुला के अपने झुण्ड की गल्लाबानी दी है। हाँ गंगाराम ने मसीह की ख़ातिर


बहुत मुसीबत उठाई और सब कुछ खोया। लेकिन आज उस ही की गवाही है, कि उसने सौ गुना पाया। आज वो मसीह में ख़ुश व खुर्रम है। क्योंकि इस से मसीह की क़ुद्रत का तजुर्बा हासिल किया है। हमने अपने सामईन को गंगाराम की ज़िंदगी का अहवाल तफ़्सील-वार कह सुनाया, कि आप देखें कि मसीह कैसा क़ुद्रत वाला है और अगरचे वो फ़ज़्ल अल्लाह जैसे मौलवी को फ़ज़्ल मसीह बनाता। प्रेम मसीह जैसे ग़रीब को क़ुद्रत बख़्शता। बलवंत के बल को अपने लिए मख़्सूस करता वह गंगा राम जैसे दहक़ानी (दिहात या गांव का बाशिंदा या किसान) को भी अपनी तरफ़ खींच के लोगों को हैरान करता है। ये वो राई का दाना है जिसमें चारों तरफ़ से हवा के परिंदे आके आराम पाते हैं। आईए अब बुज़ुर्ग की गुफ़्तगु को तस्लीस जैसे अहम मज़्मून पर सुन के ख़त उठाएं।

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रोज़ शश्म

गुफ़्तगु दरबारा तस्लीस

गंगाराम :अच्छा मौलवी साहब। फ़रमाईये तस्लीस की बाबत आपका क्या एतराज़ है।

मौलवी :आपकी तस्लीस की तईन अजीब है। आप तीन ख़ुदा मानते हैं। आप ही ख़याल फ़रमाईये कि कौनसी बात ठीक मालूम होती है। तीन ख़ुदाओं को मानने वाले हिंदूओं और दीगर बुत-परस्तों से क्या बेहतर हो सकते हैं? आपका मसअला तस्लीस क़ुर्आन मजीद और अक़्ल दोनों के ख़िलाफ़ है।

गंगाराम : सुने साहिबान मसीही मसअला तस्लीस मुख़्तसरन ये है कि ख़ुदा एक ही है। लेकिन उसकी ख़ुदाई या उलुहियत (रब्बानियत) में तीन अक़ानीम हैं यानी ख़ुदा तआला, कलाम-ए-ख़ुदा और ख़ुदा की रूह कलाम ख़ुदा इन्सान बना। पाक रूह के ज़रीये कुँवारी मर्यम से पैदा हुआ। जो येसू मसीह के नाम से कहलाया ये तमाम राज़ इलाही अक़्ल इन्सान से बाहर है। लेकिन ख़िलाफ़ तो नहीं।


मौलवी :तो अब आप ख़याल फ़रमाईये। कि जो बात हमारी समझ में नहीं आती। उस को मानने से क्या फ़ायदा। देखिए मुहम्मदी मज़्हब कैसा साफ़ और सीधा है। ख़ुदा एक ही है उस का भी जो सब नबियों पर मुहर है। वो मुहम्मद है। ये बात सब समझ सकते हैं।

गंगाराम :बहुत सी बातें ऐसी हैं कि हमारी समझ में नहीं आतीं। पर तो भी हम उनको मानते हैं। मसलन आप ख़ुद अपने आप ही को नहीं समझते। इन्सान में अक़्ल, रूह और नफ़्स माने गए हैं। आप नहीं समझते कि फ़ानी जिस्म में ग़ैर-फ़ानी रूह किस तरह रहती है। तो भी आप मानते हैं कि आप में रूह है। इलावा अज़ीं रूह अक़्ल और नफ़्स तीनों जुदा-जुदा हैं। और तो भी आपकी शख़्सियत एक ही है। इसी तरह उलूहियत में तीन अक़ानीम हैं। लेकिन तो भी ख़ुदा एक ही है।

मौलवी :رरूह-उल-क़ुद्स तो ख़ुदा नहीं क्योंकि ये तो जिब्राईल फ़रिश्ते का लक़ब है।

गंगाराम :हाँ मुहम्मदी इस नाम का इसी तरह इस्तिमाल करते हैं। लेकिन बाइबल में दोनों में बड़ा भारी फ़र्क़ है। जिब्राईल तो सिर्फ ख़ुदा की मख़्लूक़ है।

मौलवी : क़ुर्आन मजीद में इस मसअले तस्लीस की ताईद (हिमायत करने वाले) में कुछ नहीं मिलता। लिहाज़ा हम इस को नहीं मान सकते।

गंगाराम :: हम मसीही बाइबल ही की बुनियाद पर इसे मानते हैं। तो भी क़ुर्आन में एक दो बातें गौरतलब हैं। अव्वल तो ये कि ख़ुदा का नाम अल्लाह या अल-रब है। जो कि सीग़ा वाहिद है। और तो भी बारहा लफ़्ज़ का इस्तिमाल किया गया है। इस से सीग़ा जमा आइद होता है। क्या इस से तस्लीस नहीं होती।

मौलवी :हरगिज़ नहीं। लफ़्ज़, “हम” का वहां इस्तिमाल ऐसा ही है जैसा बादशाह अपने लिए हम का इस्तिमाल करते हैं।


गंगा राम : इस का आपके पास क्या सबूत है? अगर क़ुर्आन ख़ुदा का दिया हुआ है। तो इस में कोई भी लफ़्ज़ बेमाअनी नहीं हो सकता है।

मौलवी :कुछ भी हो ये बात अक़्ल में नहीं आ सकती, कि एक हो और फिर तीन।

गंगाराम :इस का अक़्ल में ना आना ही इस बात का सबूत है कि मसअला तस्लीस ख़ुदावंद है। क्योंकि जो बात इन्सान की अक़्ल में नहीं आती। तो वो इस को बना नहीं सकता।

ज़रा और ख़याल फ़रमाईये। क्या आप मानते हैं कि ख़ुदा के औसाफ़ में एक वस्फ़ (ख़ूबी, सिफ़त) ये भी है कि वो अल-वदूद यानी प्यार करने वाल है?

मौलवी :हाँ वो ये सिफ़त रखता है।

गंगाराम : तो फिर क्या इस का यही मतलब नहीं कि ख़ुदा में सिफ़त अल-वाहिद है। यानी उस की मुहब्बत ख़ालिस और बेरिया है। जैसे गोया वो बाप की अपने बच्चों की तरफ़ होती है।

मौलवी : हाँ फ़रमाईये।

गंगाराम :अच्छा तो मुहब्बत की सिफ़त ख़ुदा में हमेशा से है या किसी वक़्त बाद में उस में पैदा हो गई?

मौलवी :ज़रूर शुरू ही से होगी।

गंगाराम : तो फिर मुहब्बत के लिए कोई दूसरी शैय होने चाहिए। कि जिससे मुहब्बत की जाये। आप बताईए कि ख़ल्क़त के ख़ल्क़ किए जाने से पेश्तर ख़ुदा ने किस से मुहब्बत की?

मौलवी :वो अपने आपसे मुहब्बत रखता था।


गंगाराम :क्या सिर्फ अपने ही से मुहब्बत करना कोई अच्छी सिफ़त है। अगर कोई शख़्स सिर्फ अपने ही से मुहब्बत करे। उसे हम अच्छा आदमी कहेंगे या खुदगर्ज़।

मौलवी :हाँ तो वो फ़रिश्तों से मुहब्बत रखता था।

गंगा राम : : लेकिन फ़रिश्ते तो शुरू ही से थे नहीं। वो भी तो ख़ुदा की ख़ल्क़त हैं।

अगर मुहब्बत एक अच्छी सिफ़त है। और ख़ुदा की ज़ात में हमेशा से पाई जाती है। तो ये अक़ानीम के होने की दलील है और तस्लीस का मसअला ही इस मुअम्मे (गहरे राज़) को हल करता है।

इलावा अज़ीं आप ख़ुद मसीह को कलाम-उल्लाह और रूह-उल्लाह कहते हैं कि नहीं?

मौलवी :हाँ लक़ब उनके हैं। मगर ये मह्ज़ लक़ब हैं। इनमें और कुछ राज़ नहीं है।

गंगाराम : लक़ब दो तरह से दीए जाते हैं। या तो सही मअनी रखते हुए या ग़लत अगर कोई आपको सुल्तान टर्की का लक़ब (ख़िताब) दे। अब आप बताईए कि क़ुर्आन में येसू को कलाम-उल्लाह और रूह-उल्लाह का लक़ब किस ने दिया?

मौलवी :अल्लाह ने।

गंगाराम :आप ख़ुदा को अल-हक़ कहते हैं। और ठीक कहते हैं। क्या जब ख़ुदा येसू को अपना कलाम और रूह कहता है तो वो हक़ की बात कहता है।

मौलवी :बेशक। क्योंकि ख़ुदा में दरोग़ (झूट, कज़ब, बोहतान) नहीं है।


गंगा राम : तब इस से साबित हो गया कि येसू दर-हक़ीक़त कलाम-उल्लाह और रूह-उल्लाह है। अब ज़रा आप तो ये बताईए कि लफ़्ज़ “कलमा” के क्या मअनी हैं? ख़्वाह किसी का भी कलमा क्यों ना हो?

मौलवी :कलमा से मुराद वो बात है जो किसी के दिल की बात ज़ाहिर करे।

गंगाराम :दुरुस्त है कलमा दिल का इज़्हार है। और चूँकि मसीह कलाम-उल्लाह है वो ख़ुदा का इज़्हार है। जिस तरह कलाम कलाम कुनिंदा है जुदा नहीं इसी तरह मसीह ख़ुदा से जुदा नहीं लिहाज़ा वो ख़ुदा है। लक़ब रूह-उल्लाह से भी मसीह की उलूहियत (रब्बानियत) साबित है।

हम तस्लीस के सबूत में दलील पेश कर रहे हैं। और सुनीए। आफ़्ताब (सूरज) में गर्मी और रोशनी दो इसाफ (वस्फ़, ख़ूबी) हैं। इनके बग़ैर आफ़्ताब आफ़्ताब नहीं। ये तीनों एक तरह तो जुदा-जुदा हैं। तो भी एक हैं। जिस तरह आफ़्ताब अपने आपको अपनी रोशनी से ज़ाहिर करता है। इसी तरह ख़ुदा मसीह के ज़रीये अपने आपको ज़ाहिर करता है। चुनान्चे लिखा है कि “ख़ुदा को किसी ने कभी नहीं देखा। इकलौता बेटा जो बाप की गोद में है। उसी ने इज़हार किया।” (यूहन्ना 1:18)

अज़ीज़ नाज़रीन चूँकि आज इस गुफ़्तगु का आख़िरी रोज़ है। मुझ बुड्ढे को ये शर्फ़ (एज़ाज़) हासिल हुआ कि आपसे अहम मज़्मून पर गुफ़्तगु करूँ। अब थोड़ा वक़्त और है कि हम सब जुदा होंगे। आप अपने घर जाएंगे हम अपने। लेकिन सवाल ये है कि हम इस मसीह से जिसकी बाबत हमने इन दिनों में इतनी तफ़तीश (छानबीन) की है क्या करेंगे? क्या मसीह की नज़ीर (मिसाल) दुनिया की तारीख़ में कहीं मिलती है? क्या कोई शख़्स सिवाए मसीह के और भी ऐसा हुआ जिसने गुनेहगार इन्सान के लिए अपनी जान दी। और मुर्दों में जी उठा। मसीह आप के लिए मरा जी उठा और आज उन सबको जो बड़े बोझ से दबे और मेहनत उठाते हैं वो अपने पास बुलाता है कि आराम दे। मेरे भाईयों ये ज़िंदगी हमको बार-बार ना मिलेगी। फिर मौक़ा ना मिलेगा। मैं बुढा आज आपके सामने शख़्सी गवाही देता हूँ, कि मसीह से दूर हो के आराम नहीं है। उसने मुझे अजीब तौर से अपनी तरफ़ खींचा और अपना ख़ादिम बनाया। आप सुन चुके हैं कि मसीह ने फ़ज़्ल-अल्लाह पर कैसा फ़ज़्ल किया। प्रेम मसीह को अपने प्रेम के बंधनों से बाँधा। बलवंत जैसे जवान को


अपने नाम की ख़ातिर कैसी-कैसी मुसीबत बर्दाश्त करने को बल दिया। और मुझ ग़रीब नाख़्वान्दा (अनपढ़) दहक़ानी (दिहात या गांव का बाशिंदा या किसान) को भी अपनी बड़ी रहमत से अपना बनाया। जो उसने हम सब के और दीगर बेशुमार लोगों के लिए हर ज़माने में किया वो आज आप के लिए भी कर सकता है। मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब आप कुछ भी क्यों ना कहें आपकी नजात सिर्फ़ मसीह ही से है। अफ़्सोस सद-अफ़्सोस अगर आज आप उसे क़ुबूल ना करें। बह्स मुबाहिसे से चंदाँ फ़ायदा नहीं। हक़ (सच्च) की तलाश करना चाहिए। मसीह कहता है, “राह हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ।” वो मासूम बर्रा है जो जहान के गुनाह उठा ले जाता है। आज ही और अभी उसे क़ुबूल कीजिए।

इतना कह के हमारा बुज़ुर्ग बैठ गया। जो असर भीड़ पर हुआ इस का बयान नहीं हो सकता। मौलवी मुहम्मद हुसैन के दिल में वो इब्तिदाई मसीही तालीम ज़ोर मार रही थी जो उसने मिशन स्कूल में पाई थी। बार-बार दिल में ऐसा करता था कि बस उठ के मसीह का इक़रार करना चाहिए वो मसीही मज़्हब की सदाक़त का बिल्कुल क़ाइल ना था क्योंकि जहां ख़ुदा की रूह ज़ोर मारती है वहां शैतान भी अपना काम करता है। मुहम्मद हुसैन ने अपने जज़्बात को रोका। और सलाम कह के घर चला गया। उस में ताब (हिम्मत) ना थी कि और ज़्यादा गुफ़्तगु करे। उस के साथियों पर भी साफ़ ज़ाहिर हो गया था कि इन मसीहियों से बह्स छेड़ के हमने अपना ही नुक़्सान किया। एक अजीब संजीदगी लोगों पर छाई हुई थी। मसीही मुनादों ने अदब से सब सुनने वालों को सलाम किया और इस क़द्र तहम्मुल से सुनने के लिए उनका शुक्रिया अदा किया। और दावत दी कि अगर आप लोगों में से कोई भी मसीही मज़्हब की बात और रोशनी हासिल किया चाहे। तो मकान पर आए और हम बखु़शी मदद करेंगे। सब रुख़्सत हुए और मुनाद भी बमसर्रत ख़ुशी से घर गए। दूसरे रोज़ पादरी गंगा राम ने सबको गिरजाघर में जमा करके एक इबादत शुक्रगुज़ारी की और मौलवी मुहम्मद हुसैन और उन सब के लिए जिन्हों ने उन के कलाम को सुना था दुआएं की गईं।

अब हम अपने नाज़रीन को थोड़ी देर के लिऐ मुहम्मद हुसैन की तरफ़ फिर तवज्जोह दिलाते हैं। मुहम्मद हुसैन के दिल में बेचैनी ने बड़ा ज़ोर मारा। लेकिन वो बार-बार अपने दिल को दबाता और उनके ख़यालात को दूर करने की कोशिश करता था। एक अजीब तब्दीली उस की ज़िंदगी में हो गई थी। जो कि उस मुकम्मल तब्दीली का शुरू थी। जो उस में बाद को होने वाली थी। वो अगरचे अब रसीमा तौर पर रोज़ा नमाज़ करता रहा तो

भी उस का दिल इन बातों में मुतलक़ ना लगता था। अब दीगर मुसलमान मौलवियों वग़ैरह के दर्मियान उतनी आमद व रफ़्त (आना जाना) भी ना रही। और उस के जान पहचान के लोग ज़रा हैरत की नज़र से उसे देखने लगे। होते-होते इस बात को दो साल हो गए। उस वक़्त सारे गांव में ताऊन (एक मोहलिक और मुतअद्दी वबा जिसमें छाती, बग़ल या खीसे के नीचे गलटियां निकलती हैं और तेज़ बुख़ार होता है) की वबा फैली उस बेचारे मुहम्मद हुसैन पर सख़्त मुसीबत आई। वालिदा की मौत का दाग़ तो मुहम्मद हुसैन को एक साल गुज़रा लग ही चुका था, कि यका-य़क उस के वालिद ताऊन का शिकार बने। इस से उसे सख़्त सदमा पहुंचा। लेकिन मौत अभी उस पर और धावा (हमला) करने वाली थी। क्योंकि चंद ही रोज़ में उसकी अज़ीज़ बीबी को बुख़ार आया। गिलटी मालूम हुई और बहुत धोड़ धूप (भाग दौड़) करने पर भी वो उसे तीन दिन से ज़्यादा ना रोक सके। मुहम्मद हुसैन इन सदमों से दीवाना सा हो गया। और दरअस्ल उस की हालत निहायत दर्द-नाक थी। छोटे-छोटे दो बच्चे उस के पास थे। और उनकी सूरत देख-देख के उसे बहुत रोना आता था।

किसी ने क्या ख़ूब कहा है, कि जब इन्सान पस्त-हिम्मत (परेशान और बिना हिम्मत और हौसला के) और लाचार होता है तो ख़ुदा को उस मे काम करने का मौक़ा मिलता है। पादरी साहब से मुहम्मद हुसैन की मुलाक़ात तो थी ही। पस जब उन्होंने उस की मुसीबत की ख़बर सुनी। वो फ़ौरन उस के मकान पर आए। और इन्जील से पढ़ पढ़के निहायत तसल्ली की बातें उसे सुनाईं और मसीह को इस ख़ूबी से उस के आगे पेश किया कि मुहम्मद हुसैन से फिर रहा ना गया। और फ़ौरन बोल उठा कि बस अब देर ना कीजिए। मुझ और मेरे दोनों बच्चों को मसीही बना लीजिए। मैं चाहता हूँ कि मैं उन तमाम मुक़ामात में जहां मैंने मसीह की मुख़ालिफ़त की है जा के मसीह की शहादत दूं। इस पर पादरी साहब फ़ौरन उसे और उस के बच्चों को अपने घर ले आए। और मिशन अहाते के ख़ास-ख़ास मसीहियों से उस की मुलाक़ात कराई। उन सभों ने उसकी बड़ी आओ-भगत (मेज़बानी) की और उसे बड़ी तसल्ली दी। इसी हफ़्ते में मुहम्मद हुसैन के दोनों बच्चे मसीही जमाअत में शरीक किए गए। मुहम्मद हुसैन के बच्चे मिशन स्कूल में तालीम पाने लगे और वो ख़ुद इल्म इलाही की आला तालीम के मदरिसा इल्म इलाही को भेजा गया। जहां वो मसीह के लिए ज़बरदस्त आला बन गया। उस की शादी भी एक नेक मसीही ख़ातून के साथ हो गई। ये कहने की ज़रूरत नहीं कि जब बज़रीया तार बुज़ुर्ग पास्टर गंगाराम और उन मुनादों को जिनसे मुहम्मद हुसैन की बह्स इस चबूतरे (मुरब्बा या मुस्ततील बनाई हुई ऊंची जगह जहां पर लोग बैठते हैं) पर क़रीब दो साल के गुज़रे हुए थी ख़बर दी गई, कि मुहम्मद हुसैन और उस के दो बच्चे मसीही हो गए तो उन्हें बहुत ख़ुशी हासिल हुई। आज हम मौलवी मुहम्मद हुसैन को जगह ब जगह मसीह मस्लूब की गवाही देते हुए पाते और जानते हैं कि “आस्मान की बादशाहत और ख़मीर की मानिंद है। जिसे किसी औरत ने लेकर पैमाने आटे में मिला दिया और होते-होते सब ख़मीर हो गया।” (मत्ती 13:33) ये ख़मीर मुहम्मद हुसैन में एक छोटे से मिशन स्कूल के उस्ताद के ज़रीये गोया मिलाया गया। और आज तो मुहम्मद हुसैन सब ख़मीर है। ऐ मसीहा कार गुज़ार “अपनी रोटी पानियों पर डाल दे और बहुत दिन बाद तो उसे फिर पाएगा।” (वाइज़ 11:1)

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मसीही प्रैस लाहौर में मिस्टर ग़ुलाम क़ादिर मसीही प्रिंटर व मालिक मसीही प्रैस के एहतिमाम से छपा

और

मिस्टर एफ़॰ डी॰ वारिस सेकरेट्री पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी लाहौर ने शाएअ किया।

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