येसू की तम्सीलें

यानी

रोज़ाना यादे इलाही और शख़्सी ज़िक्र व फ़िक्र के लिए सबक़ों का मजमूआ

The Parables of Jesus

मुसन्निफ़

पादरी डब्लू॰ ऐम॰ राइबर्न एम॰ ए॰

पादरी जलाल-उद-दीन बी॰ ए॰

खरड़, ज़िला अम्बाला

1938 ई॰

तम्हीद

मसीह की तम्सीलें मसीह की तालीम का हिस्सा हैं। तम्सीलें या मिसालें मर्दों और औरतों को बहुत पसंद हैं। और उन पर असर करती हैं। येसू एक बहुत बड़ा उस्ताद था। और एक आला उस्ताद हमेशा कहानियां पसंद करता और कहता है। मसीह ने आम लोगोँ को ख़ुदा की सच्ची बातें सीखाने और समझाने के लिए ऐसी ऐसी बातें सुनाईं जो ज़िंदगी में हर रोज़ पेश आती हैं। इस तरह मसीह ने तालीम दी कि ख़ुदा के नेकी और पाकीज़गी के उसूल हर रोज़ हर एक की ज़िंदगी में इस्तिमाल हो सकते हैं।

मसीह इल्म-ए-इलाही के उसूलों का उस्ताद ना था, उसने अपने तजुर्बे में ख़ुदा की सच्चाईयां यानी नेकी व पाकज़गी के क़ाएदे देखे। और फिर लोगों को आस्मान और उनकी समझ के मुताबिक़ तरीक़ों में उनकी तालीम दी।

मसीह को लोगों की अमली ज़िंदगी का ज़्यादा फ़िक्र थी। वो चाहता था कि मर्द और औरतें ख़ुदा की तरफ़ ध्यान करें और मज़्हब को ज़बानी याद ना करें बल्कि हर रोज़ अपनी अपनी ज़िंदगी के कामों में इस्तिमाल करें वो चाहता था कि ख़ुदा को लोग वाक़ई जान लें। कि ख़ुदा हर एक के साथ मौजूद है। हर एक की सुनता है। हर एक को देखता और हर एक की मदद करता है। जब हम ये नुक्ता समझ लेंगे। तो बस तम्सीलों के भेद की चाबी हमारे हाथ में आ जाएगी।

येसू ख़ुदा को कोई ऐसा बादशाह नहीं मानता था जो इन्सानों से दूर और इस दुनिया से कहीं अलग-थलग हो। बल्कि उस का इल्म व तजुर्बा ये है कि ख़ुदा हर एक मर्द औरत और बच्चे का आस्मानी बाप है। जो हर एक से वास्ता रखता है। और चाहता है कि सब आला क़िस्म की ज़िंदगी बसर करें। सब उस के पास जा सकते हैं माँ बाप के पास जाना इतना आसान नहीं है जितना ख़ुदा बाप के पास जाना। येसू मसीह चाहता था कि लोग आस्मानी बाप की इज़्ज़त करें। दिलों में उसे जगह दें। उस पर ईमान रखें। उस के हर वक़्त नज़्दीक जाएं और उस की मर्ज़ी पर चलें। येसू ने इन्हीं बातों की तालीम अपनी तम्सीलों में दी है।

बाज़ औक़ात लोग तम्सीलों की तरह तरह की तावीलें (शरा, बयान, बातों को फेर देना) करते हैं। और उनसे मसीह दीन के उसूल साबित करते हैं। तम्सीलों को इस्तिआरे व इशारे समझते हैं। और तम्सील के हर एक हिस्से की तावील व इशारे समझते हैं और तम्सील के हर एक हिस्से की तावील व तश्रीह करते हैं। मगर इस तरह उन सच्चाइयों की जिनकी इन तम्सीलों में तालीम दी गई है समझ नहीं आ सकती। इनको समझने के वास्ते बच्चों की तरह ख़ुदा के सामने हाज़िर होना ज़रूरी है। ये सादा कहानियां हैं। चातर (तेज़, चालाक) लोग इनके मअनी नहीं समझ सकते। इनमें मसीह ने दीन के उसूलों की तालीम नहीं दी। इनमें मसीह ने सीधे और साडेड अल्फ़ाज़ में ख़ुदा के बारे में। ख़ुदा की मर्ज़ी के बारे में और ईमानदारों के बाहमी सुलूक के बारे में तालीम दी है। हर एक तम्सील में एक एक सच्चाई की तालीम दी गई है। हमें इन तम्सीलों के मुतालए में इसी की तलाश करना चाहिए। किसी तम्सील की तफ़्सील उस तालीम पर जो तम्सील में दी गई है असर नहीं डालती। ये भी याद रखना चाहिए कि किसी एक तम्सील में मसीह ने कुल सच्चाई की तालीम देने की कोशिश नहीं की। हर एक में जुदा-जुदा सबक़ हैं। उन्हीं सबक़ों से हम फ़ायदा उठा सकते, और ख़ुदा की बादशाहत क़ायम कर सकते हैं।

हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि तमाम तम्सीलें जुदा-जुदा मुक़ामों पर जुदा-जुदा जमाअतों के सामने और ख़ास-ख़ास हालात में कही गई थीं। तम्सीलों को समझने के लिए इन बातों का ख़याल रखना बहुत ज़रूरी है। अगर हम इन तरह इन तम्सीलों का मुतालआ करेंगे तो हम आसानी से समझ सकेंगे कि येसू ने ये तम्सीलें क्यों कहीं। नीज़ हम ज़िंदगी के उन मुआमलात को भी बख़ूबी समझ सकते हैं जिनके मुताल्लिक़ मसीह ने इन तम्सीलों में मिसाल दी है। और इनसे हमारी ज़िंदगी की राहनुमाई होगी।

ख़ुदा के बारे में तम्सीलें

(1)

मस्रफ बेटे की तम्सील

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत लूक़ा 15 बाब 11 ता 3

“फिर उसने कहा कि किसी शख़्स के दो बेटे थे। इनमें से छोटे ने बाप से कहा कि ऐ बाप माल का जो हिस्सा मुझको पहुंचता है मुझे दे। उसने अपना माल मता (साज़ व सामान, माल व दौलत) उन्हें बांट दिया। और बहुत दिन ना गुज़रे कि छोटा बेटा अपना सब कुछ जमा कर के दूर दराज़ मुल्क को रवाना हुआ। और वहां अपना माल बद चलनी में उड़ा दिया। और जब सब ख़र्च कर चुका तो इस मुल्क में सख़्त काल पड़ा। और वो मुहताज होने लगा। फिर उसे मुल्क के एक बाशिंदे के हाँ जाना पड़ा। उसने उस को अपने खेतों में सूअर चराने भेजा। और उसे आरज़ू थी कि जो फलियाँ सूअर खाते थे उन्ही से अपना पेट भरे। मगर कोई उसे ना देता था। फिर उस ने होश में आकर कहा कि मेरे बाप के कितने ही मज़दुरों को रोटी इफ़रात (ज़्यादती, कस्रत, बोहतात) से मिलती है। और मैं यहां भूका मर रहा हूँ। मैं उठ कर अपने बाप के पास जाऊँगा और उस से कहूंगा कि ऐ बाप मैं आस्मान का और तेरी नज़र का मैं गुनेहगार हुआ। अब इस लायक़ नहीं रहा कि फिर तेरा बेटा कहलाऊँ। मुझे अपने मज़दूरों जैसा कर ले। पस वो उठ कर अपने बाप के पास चला। वो अभी दूर ही था कि उसे देखकर उस के बाप को तरस आया और दौड़ कर उस को गले लगा लिया और बोसे (चूमा) लिए। बेटे ने उस से कहा कि ऐ बाप मैं आस्मान का और तेरी नज़र में गुनेहगार हुआ। अब इस लायक़ नहीं कि फिर तेरा बेटा कहलाऊँ। बाप ने अपने नौकरों से कहा कि अच्छे से अच्छा जामा (कपड़े) जल्द निकाल कर इसे पहनाओ। और इस के हाथ में अँगूठी और पांव में जूती पहनाओ। और पले हुए बछड़े को ला कर ज़ब्ह करो ताकि हम खा कर ख़ुशी मनाएं। क्योंकि मेरा ये बेटा मुर्दा था अब ज़िंदा हुआ। खोया हुआ था अब मिला है। पस वो ख़ुशी मनाने लगे। लेकिन उस का बड़ा बेटा खेत में था। जब वो आकर घर के नज़्दीक पहुंचा तो गाने बजाने और नाचने की आवाज़ सुनी। और एक नौकर को बुला कर दर्याफ़्त करने लगा कि ये क्या हो रहा है? उस ने कहा तेरा भाई आ गया है और तेरे बाप ने पला हुआ बछड़ा ज़ब्ह कराया है। इसलिए कि उसे भला-चंगा पाया। इस पर वो गुस्सा हुआ और अंदर जाना ना चाहा। मगर उस का बाप बाहर जा के उसे मनाने लगा। उस ने अपने बाप से जवाब में कहा कि देख इतने बरस से मैं तेरी ख़िदमत करता हूँ और कभी तेरी हुक्म-उदूली नहीं की। मगर मुझे तू ने कभी एक बक्री का बच्चा भी ना दिया कि अपने दोस्तों के साथ ख़ुशी मनाता। लेकिन जब तेरा ये बेटा आया जिसने तेरा माल मता (दौलत) कसबियों में उड़ा दिया। तो उस के लिए तू ने पला हुआ बछड़ा ज़ब्ह कराया। उस से कहा बेटा तू तो हमेशा मेरे पास है औरा जो कुछ मेरा है वो तेरा ही है। लेकिन ख़ुशी मनानी और शादमान होना मुनासिब था। क्योंकि तेरा ये भाई मुर्दा था। अब ज़िंदा हुआ। खोया हुआ था अब मिला है।”

इस तम्सील में मसीह ख़ुदा बाप के बारे में एक बड़ी सच्चाई की तालीम देता है। वो सच्चाई ये है कि ख़ुदा बाप को हमसे मुहब्बत है। और वो इस मुहब्बत के सबब उनको जिन्हों ने गुनाह किए हैं और गुनाह के सबब अपने ताल्लुक़ात जो ख़ुदा के साथ तोड़ लिए हैं तौबा की शर्त पर फिर क़ुबूल करता है। जब हम उस की तरफ़ रुजू करते हैं तो वो हमको बे-तकल्लुफ़ी से और ख़ुशी से माफ़ कर देता है। गुनेहगार के लिए जिसने ख़ुदा से और इलाही ख़ानदान से अपना ताल्लुक़ तोड़ लिया है यही काफ़ी है कि वो अपने गुनाह का इक़रार करे और ख़ुदा की तरफ़ फिरे। जब गुनेहगार साफ़ नीयत के साथ ऐसा करता है तो वो देख लेता है कि ख़ुदा बाप वाक़ई उस को क़ुबूल करने के लिए तैयार था। और उस का इंतिज़ार कर रहा था। ख़ुदा हर एक गुनेहगार की तौबा और रुजू का इंतिज़ार करता है।

मस्रफ (फ़िज़ूल खर्च वाले) बेटे का क़सूर ये था कि उस में एक लालची तबइयत क़ायम हो रही थी। ख़ानदान की तरफ़ से छोटा बेटा होने के सबब जो फ़र्ज़ और ज़िम्मेदारियाँ उस पर आ रही थीं। वो उनसे बचता था। उस में वो रूह या तबीयत जो लालच से ख़ाली मगर मुहब्बत से बसी हुई होती है नहीं थी। यही सबब है कि वो अपनी ज़िम्मेदारियों और फ़राइज़ से बचता था। यही वजह है कि उसने ख़ानदान से ताल्लुक़ तोड़ लिया। अलैहदगी की ज़िंदगी बसर करने लगा। और मिल-जुल कर ज़िंदगी गुज़ारने की क़ाबिलियत ज़ाए हो गई थी। तमाम बदियों का यही नतीजा होता है और हमेशा उन गुनाहों में ही ज़ाहिर नहीं होता जो इस नौजवान ने किए थे।

खुदगर्ज़ तबीयत जो ये कहती है कि “ला माल का मेरा हिस्सा मुझे दे” ख़ुदा के ख़ानदान को तबाह करती है। ख़ानदानी यगानगत मसीही मज़्हब की जान है। ख़ुदा से ताल्लुक़ तोड़ना और ईमानदारों की जमाअत या ख़ानदान से अलग हो जाना सबसे बड़ा गुनाह है। तमाम शख़्सी गुनाहों, जमाअती क़ुसूरों और क़ौमी बदलों की तह में यही ख़ुदगर्ज़ी की तबीयत है। ऐसी तबीयत वाला आदमी हमेशा मस्रफ (खर्चेलु) बेटे की तरह ज़िद और बग़ावत की ज़िंदगी बसर नहीं करता बल्कि जमाअत में रह कर भी अपनी तबीयत से नुक़्सान पहुँचाता रहता है। ख़ानदानी मेल मिलाप और यगानगत की तबइयत का ना होना इन्सान को मस्रफ (बिगड़ा) बनाता है।

दूर मुल्क में आख़िरकार मस्रफ जवान को मालूम हुआ कि ये अपने घर और ख़ानदानी यगानगत से अलैहदगी का नतीजा है कि दिल की शांति व ख़ुशी और इत्मीनान जाते रहे हैं।

इस को ये भी मालूम हो गया कि सिर्फ ख़ानदानी मुहब्बत से ही खोई हुई चीज़ मिलेगी। उस को पुख़्ता ख़याल हो गया, कि बाप के साथ फिर मेल करने के लिए अगर नौकरी और गु़लामी भी करनी पड़े तो इन्कार नहीं करना चाहिए। उसने ऐसा ही किया। और यूं बाप के घर की तरफ़ उस का रास्ता शुरू हुआ।

दूसरी तरफ़ हम बूढ़े बाप की उदासी और ग़म देखते हैं जो कई दिनों से लगातार बेटे की जुदाई में तड़प रहा और उस की वापसी का इंतिज़ार कर रहा था। जिन लोगों ने जान-बूझ कर ख़ुदा के ख़ानदान से अलैहदगी इख़्तियार कर रखी है ख़ुदा उनके वास्ते ग़म करता है।

जब बाप ने मस्रफ (बिगड़े खर्चेलु) जवान (बेटे) को अपने घर में वापिस लिया। तो बाप का दिल-ख़ुशी से भरा हुआ था और उछल रहा था। इसी तरह जब ख़ुदा देखता है कि कोई गुनेहगार वापिस आ रहा है और बाप बेटे का रिश्ता जो बिगड़ गया था अब फिर बन रहा है तो उस का दिल-ख़ुशी से भर जाता है। बेटे की वापसी का ये मतलब है कि बेटे को यक़ीन हो गया। कि अगर वो बाप के घर में ख़ानदान के साथ और ख़ानदान के लिए ज़िंदगी गुज़ारेगा तो हक़ीक़ी ज़िंदगी बसर करेगा। ऐसी हालत के लिए ही मसीह ने कहा है कि आस्मान पर ख़ुदा के फ़रिश्ते ख़ुशी मनाते हैं।

वापिस आकर मस्रफ (बिगड़े) जवान (बेटे) की बाप से तो सुलह हो गई। बड़े भाई के साथ ना हुई। बड़ा भाई ना तो बाप से जुदा होता था और ना उसने ख़ानदान से रिश्ता तोड़ा था। तो भी ख़ानदान के साथ उस की ज़िंदगी यगानगत और सुलह की ज़िंदगी ना थी। उस में बाप की तरह माफ़ करने की सिफ़त ना थी। उस में ख़ुदगर्ज़ी थी। उस में हसद था वो अपने हुक़ूक़ का बहुत ख़याल करता था। वो छोटे भाई की वापसी पर बाप की मुहब्बत हासिल करने और जायदाद पाने पर ख़ुश नहीं था। उस में बर्दाश्त की ताक़त ना थी ख़ानदान के साथ उस के ताल्लुक़ात ख़ुशगवार और पसंदीदा ना थे ये उसकी तबीयत का नतीजा था।

ग़ालिबान वो चाहता था कि छोटे भाई को सज़ा दी जाये उसने ना देखा कि वो तो पहले ही काफ़ी सज़ा भगत चुका है। वो अपने आपको रास्तबाज़ समझता था। उस का दिल सख़्त था यही सबब है कि तौबा करने और वापिस आने वाले जवान के बाप और बड़े भाई के सुलूक में ज़मीन आस्मान का फ़र्क़ है। बड़ा भाई ख़ानदान की अस्ल मुहब्बत से बिल्कुल ख़ाली था।

इस तम्सील में बहुत से लोगों के लिए सबक़ है। दूसरों के साथ सुलूक करने में हमें ख़बरदार रहना चाहिए कि कहीं उस बड़े भाई का सा सुलूक ना करें। ऐसी तबीयत ख़ुदा की बादशाहत के मुवाफ़िक़ नहीं।

अक्सर ऐसा होता है कि जिनसे कोई ख़ता या क़सूर हो जाता है हम उन्हें हिक़ारत की नज़र से देखते हैं और अपने आपको उनसे आला समझते हैं और ये चाहते हैं कि इन्साफ़ किया जाये। क़सूरवार को सज़ा दी जाये और हमें इनाम दिया जाये मगर ये ख़याल नहीं करते कि अगर ख़ुदा अदल करे तो हम इस लायक़ नहीं हैं कि उस के हुज़ूर ठहर सकें और नजात पा सकें।

बाज़ औक़ात हम ख़्वाह-मख़्वाह ये समझ बैठते हैं कि दूसरों से बेहतर सुलूक होता है और हमें कोई पूछता भी नहीं। और हमारी इतनी इज़्ज़त भी नहीं होती जो हमार हक़ है। यक़ीन जानो जब इस क़िस्म के ख़यालात हमारे दिल में आते हैं तो हम गोया अपने आपको बड़ा भाई बनाते हैं ऐसे मौक़े पर हम में ख़ानदानी यगानगत की रूह नहीं होती। हम कलीसिया के मैंबर होते हुए भी इस क़िस्म का रवैय्या इख़्तियार कर लेते हैं और याद रखना चाहिए कि मुक़द्दम बात कलीसिया की शराकत नहीं बल्कि वो रूह और तबीयत है जिससे हम काम करते हैं।

हम में बिल्कुल वो तबीयत होनी चाहिए जो मस्रफ (बिगड़े) जवान (बेटे) के बाप में थी जो रोज़मर्रा बेटे की वापसी का इंतिज़ार करता था। और जब एक दिन उसे वापिस आते देखा तो गो वो ख़स्ता हालत में था तो भी भाग कर उस का इस्तिक़बाल किया और उसे गले लगा लिया। और फिर से ख़ानदान में शामिल कर के सब ख़ुशियों, रिश्तों और जायदाद में हिस्सेदार बना लिया।

मुतालआ के लिए :

लूक़ा 5 बाब 29 ता 32 आयत : येसू मसीह ने खोए हुए बेटे की तम्सील ये साबित करने को इस्तिमाल की, कि अछूतों और रद्द किए हुओं के साथ उस का सुलूक जायज़ था। फ़क़ीही और फ़रीसी गिला शिकायत करते थे कि मसीह उनके साथ अच्छे और आला लोगों की तरह क्यों सुलूक करता है। इसी वास्ते मसीह ने ये तम्सील बयान की और दिखाया कि गुनेहगारों और महसूल लेने वालों के साथ ख़ुदा का क्या सुलूक है। उसने कहा कि वो बीमार हैं जिनको हकीम दरकार है। और अगर हकीम बीमार के पास उस के घर में ना जाये तो वो बीमार के किसी काम का नहीं।

यसायाह 55 बाब 6 ता 7 आयत : यहां नबी तालीम देता है, कि ख़ुदा रहीम और माफ़ करने वाला है। यहूदी कहते थे कि ख़ुदा ग़ज़ब और ग़ुस्से वाला है जिसको ख़ुश करने के लिए कुछ ना कुछ ज़रूर करना पड़ता है। मगर नबी बताता है कि ख़ुदा किस क़द्र बुलंद है। खोए हुए बेटे की तम्सील में मसीह ने ख़ुदा की निस्बत यही बात साबित की है। उसने दिखाया है कि हमारी बदियों की सज़ा तो हम को मिल ही जाती है। तो भी हम ख़ुदा के ख़ानदान में वापिस आ जाते हैं।

1 कुरिन्थियों 13 बाब 4 ता 8 आयत : जिस तरह मस्रफ (बिगड़े) बेटे की तम्सील में दिखाया गया है। सिर्फ वही ख़ुदा ऐसा सुलूक कर सकता है जो सबको प्यार करने वाला और सबको माफ़ करने वाला हो। इन आयतों में बहुत सफ़ाई के साथ दिखाया गया है, कि ख़ुदा हमारे साथ किस क़िस्म का सुलूक करता है। सातवीं आयत पर ग़ौर करो चूँकि ख़ुदा मुहब्बत है वो सब कुछ बर्दाश्त कर लेता है। जिस तरह तम्सील में बाप ने बड़े बेटे का ताना सह लिया। वो सबकी उम्मीद रखता है। जिस तरह बाप ने बेटे की वापसी की उम्मीद रखी। वो सब कुछ सह लेता है जिस तरह बाप ने ख़ानदान का टूटना और सब क़िस्म की बेइज़्ज़ती सह ली।

ज़बूर 13, 10 ता 14 आयत : यहां दाऊद ने वही ख़याल पेश किया है। ख़ुदा बाप है जो आज़माईशों में बेटों से हम्दर्दी रखता है। और रहम करता है वो हमें सज़ा देकर ख़ुश नहीं होता बल्कि माफ़ करने में उस की ख़ुशी है। वो गुनेहगार को अपने ख़ानदान में वापिस ले लेता है और उस की बदियों को बिल्कुल भूल जाता है।

मर्क़ुस 1 बाब 14 ता 15 आयत : मसीह ने तौबा पर ज़ोर दिया वो कहता है कि दिल की तब्दीली की ज़रूरत है। जब मस्रफ (बिगड़ा) बेटा होश में आया तो उसने महसूस किया होगा कि बाप प्यार करता है। वर्ना वो वापिस आने की जुर्आत और नौकर रहने की दरख़्वास्त हरगिज़ ना करता। ख़ुदा की मुहब्बत का यक़ीन हमको तौबा की तरफ़ लाता है।

याक़ूब 2 बाब 12 ता 13 आयत : जिस तरह फ़रीसी ने महसूल लेने वाले पर इल्ज़ाम दिया। उसी तरह बड़े बेटे पर इल्ज़ाम लगाया। उसने ये ख़याल ना किया कि वो हक़ीक़त में अपने आप पर इल्ज़ाम लगा रहा था। उसने अपने रवैय्ये से साबित किया कि उस को दिल की तब्दीली की उतनी ही ज़रूरत थी जितनी मस्रफ (बिगड़े बेटे) को। जब हम दूसरों पर इल्ज़ाम लगाऐं तो हमको ये बात याद रखने चाहिए।

ग़ौर और बह्स के लिए सवालात :
  • क्या हमें ख़ुदा के साथ रिफ़ाक़त की ज़रूरत है? अगर हाँ मेरी रिफ़ाक़त हो जाये तो हमारी ज़िंदगी में क्या तब्दीली होगी?
  • बड़े भाई में क्या क़सूर या नुक़्स था?
  • मस्रफ होने का क्या मतलब है?

दुआ : मेहरबान बाप अपने पाक रूह की खूबियों और बरकतों से मेरा दिल भर दे मुझे अपनी आवाज़ की पहचान और समझा अता कर मेरे दिल को अपनी पाक मुहब्बत और कशिश से भर दे। कि मैं तेरी तरफ़ फिरूँ मुझे तौबा की तौफ़ीक़ बख़्श। कि मैं तेरे ख़ानदान में आ सकूं।

ऐ बाप मुझे तालीम दे कि मैं उनसे प्यार करूँ जो मुझे हक़ीर जानते हैं। ख़ुदगर्ज़ी को मेरी ज़िंदगी से दूर कर ताकि मैं जान सकूँ कि किस तरह देना लेने से मुबारक है और ख़िदमत करना ख़िदमत कराने से बेहतर है। ताकि मैं तेरा जो कि अपना सूरज नेकों और बदों दोनों पर चमकाता है बेटा ठहरूं। तेरा जलाल हमेशा तक हो मसीह की ख़ातिर। आमीन।

(2)

खोई हुई भीड़

खोया हुआ दीनार

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ लूक़ा 15 बाब 3 ता 10 आयत

“उस ने उन से ये तम्सील कही कि, तुम में से कौन सा ऐसा आदमी है जिस के पास सौ भेड़ें हों और उन में से एक खो जाये तो निनान्वें को बियाबान में छोड़कर इस खोई हुई को जब तक मिल ना जाये ढूंढता ना रहे? फिर जब मिल जाती है तो वो ख़ूश हो कर उसे कंधे पर उठा लेता है। और घर पहुंच कर दोस्तों और पड़ोसियों को बुलाता है और कहता है मेरे साथ ख़ूशी करो क्योंकि मेरी खोई हुई भेड़ मिल गई। मैं तुम से कहता हूँ कि इसी तरह निनान्वें रास्तबाज़ों की निस्बत जो तौबा की हाजत नहीं रखते एक तौबा करने वाले गुनेहगार के बाइस आस्मान पर ज़्यादा ख़ूशी होगी।

या कौन ऐसी औरत है जिस के पास दस दिरहम हों और एक खो जाये तो वो चिराग़ जला कर घर में झाड़ू ना दे और जब तक मिल ना जाये कोशिश से ढूंढती ना रहे? और जब मिल जाये तो अपनी दोस्तों और पड़ोसनों को बुला कर ना कहे कि मेरे साथ ख़ूशी करो क्योंकि मेरा खोया हुइ दिरहम मिल गया। मैं तुम से कहता हूँ एक तौबा करने वाले गुनेहगार के बाइस ख़ुदा के फ़रिश्तों के सामने ख़ूशी होती है।”

इन दोनों तम्सीलों का भी वही मज़्मून है जो पहली तम्सील का था यानी ख़ुदा की बड़ी मुहब्बत। इन दोनों तम्सीलों की चाबी तीन लफ़्ज़ हैं। खोया हुआ, पाया हुआ और ख़ुशी।

भे’ड़ खो गई, दीनार गुम हो गया। मसीह तालीम दे रहा था कि जब हम में से कोई उस से अलग और दूर हो जाता है तो ख़ुदा इस को एक नुक़्सान समझता है। हम इस नुक़्सान को महसूस करें या ना करें ख़ुदा ज़रूर महसूस करता है। वो अपने ख़ानदान के एक एक शख़्स के लिए फ़िक्र करता है यहां तक कि वो खोए होने की तलाश करता है। वो जो इस से अलग हो जाते हैं ख़ुदा ख़ुद उनकी तलाश करता है। इन दोनों तम्सीलों में यही एक ख़याल पेश किया गया है। मस्रफ (बिगड़े) बेटे की तम्सील में मसीह ने इस पर बहुत ज़ोर नहीं दिया। उस में हमने अलबत्ता ये देखा कि बाप बेटे की वापसी के लिए बेचैन था। यहां मसीह हमको एक क़दम आगे ले जाता है। और गडरीए (चरवाहे) को भेड़ की तलाश में और औरत को दीनार ढूंडते हुए दिखाता है। ख़ुदा सिर्फ हमारे वापिस आने का इंतिज़ार ही नहीं करता बल्कि ख़ुद गुनेहगार की तलाश में निकलता है। मसीह की तालीम में ये एक बहुत ही बारीक और बेमिसाल नुक्ता है। वो पहल करता है मगर मज्बूर नहीं करता। वो कई तरह से अपनी मुहब्बत हम पर ज़ाहिर करता है। मसीह इसी लिए इन्सान बना। ख़ुदा अपने बंदों की मार्फ़त और किताबों के वसीले हमें ढूंढता है। वो दुखों और मुसीबतों के वसीले भी जो हम पर आते हैं हमारी तलाश करता है। नीज़ जो कुछ हम उस की बाबत सुनते हैं वो अभी उस की तलाश का एक ज़रीया होता है दुनिया में जो वाक़ियात गुज़रते हैं। उनके वसीले भी वो इन्सान की तलाश करता है। और जब तक वह तलाश ना करले दम नहीं लेता और ना ही बे उम्मीद होता है।

गुनेहगार वापिस आने से इन्कार कर सकता है। उनको इख़्तियार है वो उस की मुहब्बत को ठुकरा सकता है। गुनेहगार जितनी चाहे मुख़ालिफ़त करे ख़ुदा जब तक उस को ढूंढ ना ले तलाश जारी रखता है। और जब वो ढूंढ लेता है तो बहुत ख़ुश होता है। और आस्मान पर भी ख़ुशी होती है। ख़ुदा हर एक इन्सान की क़द्र करता है। इन्सान अपने आपको चाहे हक़ीर समझे और खुद उस की बेक़दरी करें मगर ख़ुदा क़द्र करता है। उस की नज़रों में कोई भी हक़ीर और बेक़द्र नहीं है। ख़ुदा के बारे में मसीह की तालीम बहुत ही हिम्मत बढ़ाती है हम कैसे ही कमज़ोर हों। हक़ीर हों। गुनेहगार हों। परवाह नहीं। ख़ुदा हमारे लिए सब कुछ सहने और करने को तैयार है। गडरिये (चरवाहे) ने निनान्वें (99) भेड़ों को छोड़ा एक की तलाश में निकला। और जब तक वो मिल ना गई घर ना आया। इसी तरह ख़ुदा एक एक गुनेहगार के लिए आता है। और जब गुनेहगार मिल जाता है और वापिस आ जाता है वो ख़ुशी मनाता है।

मुतालआ के लिए :

हिज़्क़ीएल 34 बाब 1 ता 16 आयत : नबी कहता है कि ख़ुदा एक गडरिया (चरवाहा) है जो अपने गल्ले की तलाश करता है। इस में मसीह वाली तालीम की झलक पाई जाती है। ख़ुदा अपनी मुहब्बत से खोए हुओं की तलाश करता है। उनके ज़ख़्मों को बाँधता है। सोलहवीं आयत में जिस लफ्ज़ का तर्जुमा “हलाक करना” किया गया है। वो ज़ख़्मों को बाँधता है। सोलहवीं आयत में जिस लफ़्ज़ का तर्जुमा हलाक करना किया गया है वो अस्ल में "हिफ़ाज़त” करना है।

यूहन्ना 4 बाब 23 आयत यहां रसूल बयान करता है कि ख़ुदा हमसे अपनी इबादत तलब करता है। वो चाहता है कि उस के साथ हमारी रिफ़ाक़त हो ख़ुदा के दिल में दोस्ती का उसूल है यही सबब है कि वो चाहता है कि इन्सान इबादत और रिफ़ाक़त के लिए उसके पास आए।

यूहन्ना 3 बाब 15 ता 16 आयत : यहां पर ज़िक्र है कि ख़ुदा ने अपने बेटे मसीह को दुनिया में खोए हुओं को ढ़ूढ़ने और बचाने के लिए भेजा। मसीह खोए हुओं को ढ़ूढ़ने का ख़ुदा का तरीक़ा है।

गौर व बह्स के लिए सवालात :
  • क्या ज़िंदगी में तुम्हें कोई ऐसा तजुर्बा हुआ जिससे मालूम हो कि ख़ुदा तुम्हारी तलाश करता है। वो किन मुख़्तलिफ़ तरीक़ों में हमारी तलाश करता है?
  • अगर कोई इन्सान कहे कि उसकी पिछली ज़िंदगी बहुत ख़राब और ख़स्ता थी और इस से बचने की कोई उम्मीद नहीं तो उसे तुम क्या जवाब दोगे?
  • तम्सीलों में गडरिये (चरवाहे) ने भेड़ तलाश कर ली और औरत ने दीनार पा लिया। क्या ख़ुदा भी हमेशा ही खोए हुए को पा लेता है। अगर वो इस ज़िंदगी में ना पाए तो क्या इस के बाद कभी पालेगा?

दुआ : ऐ ख़ुदा तू जिसने इस दुनिया के तारीक जंगल में खोए हुए गुनेहगार की तलाश के लिए येसू मसीह को भेजा तेरा शुक्र है कि उसने मुझे ढूंढ लिया और बचा लिया उसने मेरे ज़ख़्मों को बाँधा और मुहब्बत से मुझे कंधे पर उठा लिया और बाप के घर सलामती से ले आया। बख़्श दे कि मैं औरों को ढ़ूढ़ने और तेरे पास लाने का वसीला बनूँ। मसीह की ख़ातिर। आमीन।

(3)

दोस्त जो आधी रात को आया

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत लूक़ा 11 बाब 5 ता 8 आयत

बेइन्साफ़ क़ाज़ी

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत लूक़ा 18 बाब 1 ता 8 आयत

“लूक़ा 5 ता 8 आयत : फिर उस ने उनसे कहा, तुम में से कौन है जिसका एक दोस्त हो और वो आधी रात को उस उस के पास जाकर उस से कहे कि ऐ दोस्त मुझे तीन रोटियाँ दे। क्योंकि मेरा दोस्त सफ़र कर के मेरे पास आया है। और मेरे पास कुछ नहीं कि उस के आगे रखूं और वो अंदर से जवाब में कहे मुझे तक्लीफ़ ना दे। अब दरवाज़ा बंद है और मेरे लड़के मेरे पास बिछौने पर हैं। मैं उठकर तुझे नहीं दे सकता। मैं तुमसे कहता हूँ। अगरचे वो इस सबब से कि उस का दोस्त है उठकर उसे ना दे ताहम उस की बेजाई के सबब उठ कर जितनी दरकार हैं उसे देगा।

“लूक़ा 8 बाब 1 ता 8 आयत : फिर उस ने इस ग़र्ज़ से कि हर वक़्त दुआ करते रहना और हिम्मत ना हारना चाहिए उन से ये तम्सील कही कि, किसी शहर में एक क़ाज़ी था। ना वो ख़ुदा से डरता था ना आदमी की कुछ पर्वा करता था और इसी शहर में एक बेवा थी जो उस के पास आकर ये कहा करती थी कि मेरा इंसाफ़ कर के मुझे मुद्दई से बचा। उस ने कुछ अर्से तक तो ना चाहा लेकिन आखिर उस ने अपने जी में कहा कि गो में ना ख़ुदा से डरता और ना आदमियों की कुछ पर्वाह करता हूँ। तो भी इसलिए कि ये बेवा मुझे सताती है मैं उस का इंसाफ़ करूँगा। ऐसा ना हो कि ये बार-बार आकर आखिर को मेरी नाक में दम करे। ख़ुदावन्द ने कहा सुनो ये बे इंसाफ़ क़ाज़ी क्या कहता है पस क्या ख़ुदा अपने बरगुज़ीदों का इंसाफ़ ना करेगा जो रात दिन उस से फ़र्याद करते हैं? और क्या वो उन के बारे में देर करेगा? मैं तुम से कहता हूँ कि वो जल्द उनका इंसाफ़ करेगा। तो भी जब इब्ने-आदम आएगा तो क्या ज़मीन पर ईमान पाएगा?”

इन तम्सीलों में मसीह ने ये तालीम दी है कि दुआ में सब्र और मांगने में लगातार कोशिश की ज़रूरत है। लफ़्ज़ी और रस्मी तौर पर दुआ माँगना काफ़ी नहीं है। अगर हम चाहते हैं कि हमारी दुआ का जवाब मिले तो हमारी दुआ के पीछे कोई तेज़ ख़्वाहिश भी होनी चाहिए। बेपरवाह दोस्त रात के वक़्त उठने से इन्कार करता है और बे इन्साफ़ क़ाज़ी इन्साफ़ के ख़याल से नहीं बल्कि बेवा की मिन्नतों से तंग आकर इन्साफ़ करता है। मसीह इन दोनों की मिसाल से दिखाता है कि किस तरह सब्र और लगातार कोशिश से दोनों मज्बूर हो गए।

इस से ये मतलब नहीं कि ख़ुदा भी बेपरवाह दोस्त और बेइन्साफ़ क़ाज़ी की मानिंद है। बल्कि इस में सिर्फ मुक़ाबला कर के दिखाया गया है कि जब इस क़िस्म के सख़्त दिल और बेपरवाह लोग अच्छे कामों के लिए सब्र और लगातार कोशिश से मज्बूर हो जाते हैं। तो ख़ुदा जो मुहब्बत ही मुहब्बत है किस क़द्र ज़्यादा मांगने वालों की तरफ़ तवज्जोह करेगा और उनकी नेक जरूरतों को पूरा करेगा।

कभी-कभी ऐसा मालूम होता है कि गोया हालात हमारे ख़िलाफ़ ही ख़िलाफ़ हैं। हमें रुपये पैसे की तंगी हो जाती है। बीमारी तंग करती है। हम आगे चलना चाहते हैं मगर क़दम पीछे ही पड़ता है। चोट के ऊपर चोट आती है। दिल बैठ जाता है। मालूम होता है कि कुल जहां और क़ुद्रत भी हमारे ख़िलाफ़ है। हम दुआ करते हैं मगर कुछ नहीं बनता। मगर मसीह तालीम देता है कि हमें ईमान में ऐसा कमज़ोर नहीं होना चाहिए और हिम्मत नहीं हारना चाहिए। गो ख़ुदा जवाब नहीं देता। मगर वो हमारी सुनता ज़रूर है। वो जवाब तो कोई ना कोई देता है मगर हम उस का जवाब समझते नहीं। या चूँकि वो जवाब हमारी ख़्वाहिश के मुताबिक़ नहीं हम उसे जवाब ही नहीं समझते हमें इन्सानों की मुख़ालिफ़त और ना-मुवाफ़िक़ हालात से घबराना नहीं चाहिए। आख़िरकार ख़ुदा हमारी सुनेगा। ग़ालिबान वो ऐसी सूरत में जवाब देगा जिसका हमको ख़याल भी ना था। फिर हमको मालूम होगा कि उसने क्यों देरी की और किस तरह हमको सब्र का सबक़ सीखाया।

जो कोई आख़िर तक क़ायम रहेगा वही नजात पाएगा। ख़ुदा की बादशाहत में रहने वाले की सबसे बड़ी सिफ़त ये है कि तमाम हालात में ईमान को मज़्बूत और क़ायम रखे। 7:18 में जिन लफ़्ज़ों का तर्जुमा किया गया है क्या वो उन के बारे में देर करेगा “ये चाहिए” गो खुदा जवाब देने में देरी भी करे।”

दुआ में सब्र का मतलब है लगातार दुआ करना। पौलुस कहता है कि नित दुआ करो। इस से मुराद लगातार लफ़्ज़ कहते जाना नहीं बल्कि इस से मुराद दुआ की रूह में क़ायम रहना। ख़ुदा बाप की संगत में रहना। हर हालत में उस की हुज़ूरी में रहना। ताकि ख़्वाह जवाब मिले ख़्वाह ना मिले। ख़ुदा दाना है। और जवाब के ऐसे तरीक़े उस के पास हैं जिनका हमको ख्व़ाब व ख़याल भी नहीं होता। हमें इस रूह में दुआ करना चाहिए कि “मेरी मर्ज़ी नहीं बल्कि तेरी मर्ज़ी हो।”

मुतालआ :

ज़बूर 22, 1 ता 6 आयत : यहां एक शख़्स का बयान है जिसने रात-दिन लगातार दुआ की। मगर जवाब ना मिला। शायद हम में से कई एक का ये तजुर्बा है। बाअज़ दफ़ाअ हम ख़याल करते हैं कि मसीह की तालीम हमेशा दुरुस्त नहीं होती। इस का सबब शायद ये होगा, कि हमने बेसब्री की और ख़ुदा को जवाब का मौक़ा ही नहीं दिया। याक़ूब कहता है कि हमें अक़्ल और समझ के लिए दुआ करना चाहिए क्योंकि ख़ुदा कई दफ़ाअ हमारे लिए कुछ करने की बजाए हमारी मार्फ़त काम करता है। जवाब में देरी का ये सबब भी हो सकता है कि शायद हमने दुआ में ये नहीं कहा होगा कि “तेरी मर्ज़ी पूरी हो।”

लूक़ा 5 बाब 18 ता 26 आयत : ये आदमी जो अपने बीमार दोस्त को मसीह के पास लाए उनमें सब्र था। उन्होंने किसी रूकावट की परवाह ना की। उनको ईमान था कि मसीह उनके बीमार दोस्त को सेहत दे सकता है। मसीह इन दो तम्सीलों में इसी सब्र वाली तबीयत की तालीम देता है। इस सब्र से ईमान ज़ाहिर होता है।

मत्ती 9 बाब 30 ता 33 आयत : यहां एक औरत का बयान है जो एक ख़्वाहिश रखती थी और किसी रूकावट से ना घबराई। उस का पुख़्ता इरादा उस के ईमान का सबूत था। दुआ का भी यही तरीक़ा है। दुआ में हमारे सब्र से ये साबित होता है कि जो कुछ हमने मांगा है। हम उसे लेने के लिए तैयार हैं।

लूक़ा 18 बाब 35 ता 43 आयत : यहां सब्र और लगातार मेहनत की एक और मिसाल है। उस शख़्स की मसीह ने तारीफ़ की। भीड़ उस शख़्स को चुप ना करा सकी। उस के दिल में एक ख़्वाहिश थी और उसने यक़ीन किया कि अब मौक़ा है। इसी क़िस्म की तबीयत और ईमान ख़ुदा को भी पसंद है।

मत्ती 15 बाब 21 ता 28 आयत : यहां एक औरत की मिसाल है। बाअज़ दफ़ाअ हम ख़याल करते हैं कि ईमान इस में है कि बस एक ही बार खु़दा से दरख़्वास्त की जाये। बाअज़ हालतों में ये दुरुस्त है लेकिन जब हम कोई ख़्वाहिश दिल में रखकर अर्ज़ करते हैं तो फिर एक बार माँगना काफ़ी नहीं। इस औरत की तरह लगातार कोशिश करने से साबित होता है कि जो हम मांग रहे हैं हमें ज़रूर उस की ज़रूरत है। ख़ुदा चाहता है कि उस की बरकतों के लिए हमारे अंदर ज़बरदस्त ख़्वाहिश और चाहत हो।

याक़ूब 1 बाब 5 ता 8 आयत : रसूल यहां इसी बात पर ज़ोर दे रहा है। अगर बेवा औरत एक ही बार मुन्सिफ (जज) के पास आती और फिर ना आती तो उस का काम ना बनता। अगर हम सही तौर पर दुआ माँगना चाहते हैं तो उस की दिल में एक ख़ास ख़्वाहिश रखकर दुआ माँगना चाहिए। ख़्वाहिश से मुराद है ऐसी चीज़ या बरकत की ख़्वाहिश जिसके बग़ैर हम रह नहीं सकते।

इफ़िसियों 6 बाब 18 आयत : यहां रसूल तालीम देता है कि लगातार दुआ करना हमारा फ़र्ज़ है। एक जगह उस ने कहा भी है कि नित दुआ करो। क्या ये मुम्किन है? हाँ अगर हम हमेशा ख़ुदा की मर्ज़ी को सामने रखें तो ऐसा हो सकता है।

ग़ौर व बहस के लिए सवालात :

  • क्या ज़िद से दुआ करने से ख़ुदा की तज्वीज़ और ख़ुदा के इरादों में फ़र्क़ आ जाएगा?
  • क्या तुमने कभी दुआ की और देखा कि जवाब ऐसे तरीक़े पर आया जिसका तुमको ख़याल भी ना था?
  • क्या नित (रोज़ाना) दुआ करना मुम्किन है?

दुआ : ऐ रहीम और आदिल बाप मुझ ख़ाकसार की तरफ़ अपना कान लगा। मैं रात भर की हिफ़ाज़त और मीठी नींद के लिए सुबह की रोशनी और नाशते के लिए तेरा शुक्रगुज़ार हूँ। तू धनी है और मैं मुहताज हूँ। तू मांगने वालों को अच्छी चीज़ें कस्रत से देता है। मगर ऐ बाप जिस तरह कि माँगना चाहिए मुझे माँगना नहीं आता। मुझे सिखा कि मैं सब्र और इस्तिक़लाल से नित दुआ मांग सकूँ। मेरी ज़िंदगी में मेरी नहीं बल्कि तेरी मर्ज़ी पूरी हो। मसीह की ख़ातिर आमीन।

(4)

दो दुआएं

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ लूक़ा 18 बाब 9 ता 14 आयत

“फिर उस ने बाअज़ लोगों से जो अपने पर भरोसा रखते थे कि हम रास्तबाज़ हैं और बाक़ी आदमियों को नाचीज़ जानते थे ये तम्सील कही, कि दो शख़्स हैकल में दुआ करने गए। एक फ़रीसी, दूसरा महसूल लेने वाला। फ़रीसी खड़ा हो कर अपने जी में यूँ दुआ करने लगा कि ऐ ख़ुदा मैं तेरा शुक्र अदा करता हूँ कि बाक़ी आदमियों की तरह ज़ालिम बेइंसाफ़ ज़िनाकार या उस महसूल लेने वाले की मानिंद नहीं हूँ। मैं हफ्ते में दो बार रोज़ा रखता और अपनी सारी आमदनी पर दहयुकी (दसवा हिस्सा) देता हूँ। लेकिन महसूल लेने वाले ने दूर खड़े हो कर इतना भी ना चाहा कि आस्मान की तरफ़ आँख उठाए बल्कि छाती पीट-पीट कर कहा ऐ ख़ुदा मुझ गुनेहगार पर रहम कर। मैं तुम से सच कहता हूँ कि ये शख़्स दूसरे की निस्बत रास्तबाज़ ठहर कर अपने घर गया की क्योंकि जो कोई अपने आपको बड़ा बनाएगा वो छोटा किया जाएगा और जो अपने आपको छोटा बनाएगा वो बड़ा किया जाएगा।”

इस बयान में दो दुआओं का मुक़ाबला है। एक शख़्स इस वास्ते दुआ करता है कि उसे दुआ मांगने की ज़रूरत थी। मगर दूसरा सिर्फ रस्मी तौर पर दुआ करता है। क्या हम इसलिए दुआ किया करते हैं कि लोग हमको बेदीन ना समझें। या हम ख़ुदा की मुहब्बत और रिफ़ाक़त के लिए दुआ करते हैं। फ़रीसी दीन के हादी थे। लोग उनको अपना नमूना समझते थे। वो शराअ पर चलते थे। और ज़िंदगी पाक रखने की कोशिश करते थे।

महसूल लेने वालों से लोग नफ़रत करते थे। उनके दिलों में मुल्क की मुहब्बत नहीं थी। वो लोगों को तंग कर के उनसे रुपया बटोरते थे। यहां दो आदमियों का मुक़ाबला है। एक वो जो दीनदार है और पाक समझा जाता है। दूसरा एक हक़ीर आदमी है जो गुनेहगार और नापाक समझा जाता था। मसीह दोनों का मुक़ाबला कर के फ़र्क़ दिखाना चाहता है। इस मुक़ाबले और फ़र्क़ की तरफ़ ग़ौर करना चाहिए।

फ़रीसी मग़ुरूर था उस को अपने ऊपर भरोसा था। वो अपनी नेकियों को नाम बनाम गिन सकता था। उस को अपनी मज़्हबी ज़िंदगी पर बहुत फ़ख़्र था। मगर वो अपने गुनाहों को भूला हुआ था।

बेचारा महसूल लेने वाला अपने बारे में ऐसी कोई बात भी नहीँ जानता था ना कह सकता था। उस को किसी बात का फ़ख़्र ना था। वो अपनी दीनदारी नहीं जता सकता था। ना ही अपने मुक़ाबले में किसी दूसरे को क़सूरवार और हक़ीर कह सकता था। उस को अपने गुनाह साफ़-साफ़ नज़र आ रहे थे। वो गुनेहगार था और जानता था कि मैं गुनेहगार हूँ। फ़रीसी भी गुनेहगार था। मगर वो अपनी गुनेहगारी से वाक़िफ़ ना था। महसूल लेने वाले ने अपनी सबसे बड़ी ज़रूरत महसूस की। वो ज़रूरत ख़ुदा के सामने पेश की और पूरी भी करली। मगर फ़रीसी ने किसी चीज़ की ज़रूरत ना समझी ना ही ख़ुदा से कुछ हासिल किया।

हम भी जब अपने आप को बेकसूर समझते हैं तो फ़रीसी की तरह कहते और करते हैं। उसने ज़ाहिरदारी पर ज़्यादा ज़ोर दिया था, वो रोज़ा रखता था, ख़ैरात देता था, खुली जगहों में दुआ करता था, मगर ज़िंदगी की अंदरूनी बातों की तरफ़ उस ने कभी ख़याल नहीं किया था, उस ने अपनी ज़िंदगी में ख़ुदगर्ज़ी, बेसब्री, ख़ुद-बीनी और बड़ा बनने के गुनाहों की तरफ़ ध्यान ना किया, यानी उसने हक़ीक़त की तरफ़ कभी निगाह ना की, मगर दूसरे में इतनी जुर्आत थी कि उसने अपने दिल की हालत देखी। और अपनी रुहानी कमज़ोरी महसूस की।

क्या हमारी भी कभी यही हालत नहीं होती। किसी वक़्त हम सिर्फ गिरजे (जमात, कलीसिया) में हाज़िर होना, चंदा देना या लंबी दुआ करना ही काफ़ी समझते हैं। मगर ग़ुरूर और ख़ुदगर्ज़ी के गुनाहों को अपनी ज़िंदगी में देखते ही नहीं। अगर हम दिलेरी और जुर्आत से अपने दिलों का इम्तिहान नहीं करते तो हमारी हालत फ़रीसी की सी है। दूसरी ग़लती फ़रीसी ने ये की, कि अपने आप का महसूल लेने वाले के साथ मुक़ाबला किया।

उसने कहा शुक्र है कि मैं महसूल लेने वाले की मानिंद नहीं हूँ। अगर हम दूसरों से इस तरह अपना मुक़ाबला करें तो हमारी हक़ीक़त हम पर कभी नहीं खुलती। एक ही ज़िंदगी है जिसके साथ हमें अपनी ज़िंदगी का मुक़ाबला करना चाहिए। यानी येसू मसीह की ज़िंदगी। जब हम मसीह की तालीम और उस की ज़िंदगी की रोशनी में अपने आपको देखते हैं तो हमारी हक़ीक़त हम पर खुलती है। फिर हमारे दिल से यही दुआ निकलती है कि “ऐ ख़ुदा मुझ गुनेहगार पर रहम कर।”

फ़रीसी में सबसे बड़ी बात ये थी, कि वो महसूल लेने वाले को हक़ीर समझता था। मसीह के लोगों में दूसरों को हक़ीर समझने की आदत हरगिज़ नहीं होनी चाहिए। ये आदत उनमें पाई जाती है। जिन्हों ने अपना इम्तिहान नहीं किया और ना ही वो जानते हैं कि वो ख़ुदा की नज़रों में क्या हैं। दूसरों के ऐब देखना बहुत आसान है। मगर चाहिए ये कि हम अपनी ज़िंदगी के नुक़्स और दाग़ देखें।

बुरा ढूंडन मैं चली बुरा ना मिलिया को

जां ढूंडा मन अपना मुझसे बुरा ना को

अपने ऐब देखना दूसरों के ऐब देखने से बहुत ज़्यादा मुफ़ीद है। जब हम ख़ुदा के सामने आते हैं तो या तो फ़रीसी की या महसूल लेने वाले की तबीयत से आते हैं। मगर उस का फ़ज़्ल और रूह हमारी ज़िंदगी में तब ही काम करता है जब हम महसूल लेने वाले की तबीयत में हो कर उस के हुज़ूर में जाते हैं।

ना थी अपनी गुनाहों की जबकि ख़बर

रहे देखते औरों की ऐब व हुनर

पड़ी अपने गुनाहों पर जबकि नज़र

तो निगाह में कोई बुरा ना रहा

मुतालआ के लिए :

मत्ती 6 बाब 5 ता 8 आयत : यहां मसीह आदमियों को रस्मी दीनदारी के ख़िलाफ़ तालीम देता है। दुआ दिल की हालत है ना कि लफ़्ज़ ही लफ़्ज़ दुआ हमारे और ख़ुदा के दर्मियान होती है। दुआ दिखावे और ज़ाहिरदारी की चीज़ नहीं। फ़रीसी की सी दुआ में रिफ़ाक़त नहीं। ये तो सिर्फ अपनी तारीफ़ है। जिससे दिल को झूटी तसल्ली होती है। क्या दुआ में हम जो कुछ कहते हैं हमेशा हमारा वो मतलब भी होता या नहीं।

मत्ती 6 बाब 1 ता 5 आयत : ख़ैरात देना और दुआएं माँगना ज़रूरी है। अच्छा है। मगर काफ़ी नहीं। हमारी दुआ में रूह और रास्ती होनी चाहिए। हमारी दुआ रस्मी और बे-रस्मी और बेमाअनी नहीं होनी चाहिए।

रोमियों 12 बाब 3 ता 5 आयत : दुआ में ग़ुरूर की गुंजाइश नहीं। महसूल लेने वाले ने हलीमी से दुआ की हक़ीक़ी दुआ का ये मतलब है कि हम अपनी ज़िंदगी के मक़्सद और मतलब को पहचानें। फ़रीसी इस बात की बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि वो और महसूल लेने वाला एक ही किलीसा के मैंबर होते। वो उसे अपना भाई कहने को तैयार ना था। जब दिल में फ़िरोतनी और मुहब्बत ना हो दुआ नहीं हो सकती।

एज़्रा 9 बाब 5 ता 15 आयत : ये वो दुआ है जो दिल से निकली थी।

जो दिल से बात निकलेगी तो दिल में जाके ठहरेगी

दुआ वो है जो पर नहीं ताक़त परवाज़ मगर रखती है

इस दुआ में दुआ मांगने वाले की फ़िरोतनी और ख़ाकसारी साफ़ नज़र आती है। इस में दुआ वैसे ही ख़त्म होती है जिस तरह महसूल लेने वाले की दुआ ख़त्म हुई। लूक़ा 14 बाब 7 ता 11 आयत, मसीह ने सुनने वालों को ग़ुरूर और बे-जा फ़ख़्र के ख़िलाफ़ तालीम दी। और ख़बरदार किया। बार-बार उसने फ़िरोतनी की तालीम दी और कहा कि हमें छोटे बच्चों की मानिंद होना चाहिए। उस को मालूम था, कि ग़ुरूर इन्सान को ख़ुदा की रिफ़ाक़त से रोकता है। ग़ुरूर और मुहब्बत एक ही दिल में नहीं रह सकते।

बह्स और ग़ौर के लिए सवालात :

  • क्या फ़रीसी का दिल साफ़ था?
  • ख़ुदा ने क्यों उस की मदद ना की। ख़ुदा की मदद हासिल करने के लिए क्या ज़रूरी है?
  • क्या तुम्हें कोई ऐसे नुक़्स याद हैं जो तुमने दूसरों में देखे हों। और तुम में भी पाए जाते हों?

दुआ : ऐ ख़ुदा तू जो मेरी हक़ीक़त को जानता है मुझे तौफ़ीक़ अता कर कि तेरे चेहरे के नूर में अपनी ज़िंदगी को देख सकूँ। मुझे मेरे गुनाहों की रोया दिखा। मुझे हलीम और फ़रोतन बना कि मैं। कि मैं ऐब-जोई ना करूँ। ऐ बाप मुझ गुनेहगार पर रहम फ़र्मा। मसीह की ख़ातिर आमीन।

(5)

उज़्र

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ लूक़ा 14 बाब 15 ता 24 आयत

“जो उस के साथ खाना खाने बैठे थे उन में से एक ने ये बातें सुन कर उस से कहा मुबारक है वो जो ख़ुदा की बादशाही में खाना खाए। उस ने उस से कहा, एक शख़्स ने बड़ी ज़ियाफ़त की और बहुत से लोगों को बुलाया। और खाने के वक़्त अपने नौकर को भेजा कि बुलाए हुओं से कहे कि आओ, अब खाना तैय्यार है। इस पर सबने मिल कर उज़्र करना शुरू किया। पहले ने उस से कहा मैं ने खेत ख़रीदा है मुझे ज़रूर है कि जा कर उसे देखूं। मैं तेरी मिन्नत करता हूँ कि मुझे माज़ूर रख। दूसरे ने कहा मैं ने पाँच जोड़ी बैल ख़रीदे हैं और उन्हें आज़माने जाता हूँ। मैं तेरी मिन्नत करता हूँ मुझे माज़ूर रख। एक और ने कहा मैं ने ब्याह किया है। इस सबब से नहीं आ सकता। पस इस नौकर ने आकर अपने मालिक को इन बातों की खबर दी। इस पर घर के मालिक ने गुस्से हो कर अपने नौकर से कहा जल्द शहर के बाज़ारों और कूचों में जा कर गरीबों, लुंजों, अँधों और लंगड़ों को यहां ले आ। नौकर ने कहा ऐ ख़ुदावन्द जैसा तू ने फ़रमाया वैसा ही होए और अब भी जगह है। मालिक ने इस नौकर से कहा कि सड़कों और खेत की बाड़ों की तरफ़ जा और लोगों को मजबूर कर के ला ताकि मेरा घर भर जाये। क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ कि जो बुलाए गए थे उन में से कोई मेरा खाना चखने ना पाएगा।”

जिन लोगों को दावत दी गई वो पहले तो आने के वास्ते तैयार थे। उस वक़्त कोई अम्र उन्हें दावत से रोकने वाला ना था। बाद में उन्हें काम याद आए जो उसी वक़्त करने वाले थे। जब दावत हो रही थी। अब उन्होंने ये फ़ैसला करना था कि दावत में जाएं या अपना काम करें। सबने अपना अपना काम करने का फ़ैसला किया। उनकी जिस्मानी ज़रूरीयात उनके नज़्दीक उनकी रुहानी ज़रूरीयात से बढ़कर ज़रूरी थीं। उन्होंने दुनियावी मुआमलों को ख़ुदा की रिफ़ाक़त पर तर्जीह दी यानी उनको ज़्यादा ज़रूरी समझा। मसीह इस तम्सील में सीखाता है कि हमें ज़रूरी बातों को अव्वल जगह देनी चाहिए। अगर हम मसीह के असली शागिर्द बनना चाहते हैं तो हमें ज़रूरी बातों को अव्वल जगह देनी चाहिए। अगर हम मसीह के असली शागिर्द बनना चाहते हैं तो हमें तमाम बातों को सही तौर पर रखना चाहिए। उन लोगों का क़सूर ये था, कि उन्होंने ये समझा और फ़ैसला किया कि जो काम उन्हें दर पेश थे वो दावत से ज़्यादा ज़रूरी थे। बेशक जो काम वो कर रहे थे वो बुरे ना थे। उनका करना भी ज़रूरी था मगर वो दावत के बराबर ज़रूरी ना थे।

क्या हम सब में ये ऐब नहीं? हम जिस्मानी बातों में मसरूफ़ रहते हैं। ख़रीदो फ़रोख़्त में, कमाने, जमा करने, ख़ुशीयां मनाने, मौज करने, अपनी तजवीज़ों और दिल-चस्पियों में दिल और ध्यान लगाते हैं। चूँकि हमारा ध्यान ऐसी बातों में रहता है ख़ुदाई बातों का मौक़ा नहीं मिलता। जब ख़ुदा हमें कोई काम देता है हम कहते हैं फ़ुर्सत नहीं। हम इस क़द्र मसरूफ़ हो जाते हैं कि दुआ मांगने, कलाम पढ़ने और इबादत करने का मौक़ा ही नहीं मिलता। हम इस तम्सील के लोगों की तरह उज़्र बहाने करते हैं। सबब इस का ये है कि हम ग़लत-अंदाज़ी लगाते हैं। ज़रूरी और ग़ैर ज़रूरी में फ़र्क़ नहीं देख सकते। हम दुनिया की चीज़ों को ख़ुदा की चीज़ों से अफ़्ज़ल समझते हैं इस से ये मतलब नहीं कि जो काम हम करते हैं, वो ज़रूरी नहीं होते बल्कि ये कि हम मुआमलात की तर्तीब में ग़लती करते हैं। अव्वल मुआमलात को अव्वल जगह नहीं देते। नतीजा ये होता है कि असली बातें पड़ी रह जाती हैं।

जो लोग दावत में बुलाए गए थे और वो जो बाद में दावत में आए थे उनमें बहुत फ़र्क़ था। पहले मेहमानों ने आने की ज़रूरत ही महसूस ना की। उनकी भूक ना थी। उनको घर में आराम था। दावत में उनके वास्ते कोई कशिश या मज़ा ना था। मगर वो जो बाद में आए भूके थे। उन्होंने खाने की ज़रूरत महसूस की। उनके लिए कोई उज़्र ना था। उनके लिए मौक़ा अच्छा था। उनकी जरूरतों को पूरा करने का सामान हुआ था।

यही हाल हमारा होता है। हम इसलिए ख़ुदा के पास नहीं आते कि हम उस की ज़रूरत ही महसूस नहीं करते। हम रुहानी भूक और प्यास महसूस नहीं करते। और ना ही ये सोचते हैं कि हम कैसी नेअमत से महरूम हो रहे हैं। और चूँकि हमे अपनी असली जरूरतों को पूरा करने का सामान हुआ था।

यही हाल हमारा होता है। हम इस वास्ते ख़ुदा के पास नहीं आते कि हम उस की ज़रूरत ही महसूस नहीं करते। हम रुहानी भूक और प्यास महसूस नहीं करते। और ना ही ये सोचते हैं कि हम कैसी नेअमत से महरूम हो रहे हैं। और चूँकि हम अपनी असली जरूरतों को नहीं समझते और जानते हम ख़ुदा की रिफ़ाक़त और उस की नेअमतों का इन्कार करते हैं। दुनियावी काम, दिल-चस्पियाँ और ताल्लुक़ात हमें मसरूफ़ रखते हैं। यहां तक कि मसीह के लिए हमारी ज़िंदगी में गुंजाइश ही नहीं रहती। सिर्फ उज़्र और बहाने रह जाते हैं।

मुतालआ के लिए :

लूक़ा 8 बाब 14 आयत : यहां मसीह ने वो लोग दिखाए हैं जो दुनिया के कारोबार में इस क़द्र मसरूफ़ रहते हैं कि उन्हें ख़ुदा की बादशाहत के कामों की फ़ुर्सत ही नहीं मिलती। ये उन्हीं लोगों की हालत नहीं जो रुपया पैसा कमाते हैं या दुनियावी कारोबार चलाते हैं बल्कि वो जो किसी काम को बादशाहत के काम से बड़ा समझते हैं। ऐसे ही होते हैं। जब हम अपने काम को बादशाहत के काम से बड़ा बनाते हैं तो हम उस की तरक़्क़ी को रोकते हैं और दिल में कांटे उगने देते हैं जिस तरह माली को बाग़ में मिलाई (गोडी) करनी पड़ती है। इसी तरह हमको भी दिल के खेत से घास फूस और झाड़ियाँ निकालना ज़रूरी है।

मत्ती 22 बाब 2 ता 12 आयत : इन शख्सों में भी वही नुक़्स है कि वो ग़लत अंदाज़ा लगाते हैं और ख़ुदा की बातों को नहीं समझते उन्होंने बिल्कुल ख़याल ना किया कि वो कैसे बड़े हक़ और मौक़े को खो रहे हैं। वो ख़ुदा की बादशाहत में बुलाए गए। लेकिन उन्होंने इज़्ज़त की क़द्र ना की।

याक़ूब 4 बाब 4 ता 8 आयत : हम जिस्मानी चीज़ों को ख़ुदाई चीज़ों के मुक़ाबले में नहीं रख सकते। एक को ज़रूर दूसरी पर तर्जीह देनी पड़ेगी। मेहमानों ने बुलाने वाले से दोस्ती तोड़नी ना चाही लेकिन इस की दोस्ती का हक़ भी अदा करना ना चाहा। यही तमाशा हम ख़ुदा से करते हैं। मगर हम ख़ुदा को धोका नहीं दे सकते। क्या हम दो मालिकों की ख़िदमत की कोशिश तो नहीं कर रहे?

मत्ती 13 बाब 22 आयत : वो लोग जो दावत में ना आए बिल्कुल उन लोगों की मानिंद थे जो उस वक़्त मसीह के ख़याल में थे। जब उसने झाड़ीयों वाली ज़मीन का ज़िक्र किया। दुनिया की बातों और फ़िकरों ने उन्हें इस क़द्र दबा रखा था कि आस्मानी बातों के लिए उनके दिल में जगह ही ना थी। हालाँकि जो काम वो कर रहे थे मालिक की नज़रों में निकम्मे थे।

मत्ती 5 बाब 29 ता 30 आयत : बुलाए हुए लोगों ने निकम्मी बातों को ना छोड़ा यही सबब था कि दावत का मौक़ा जाता रहा। ख़ुदा की बादशाहत के बारे में भी यही हाल है। मसीह ने कहा कि अगर कोई चीज़ जो हाथ पांव या आँखों की तरह अज़ीज़ और क़ीमती हो हमें बादशाहत से रोके तो ज़रूर उस को अलग कर देना चाहिए।

ग़ौर व बह्स के लिए सवालात :

  • ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा ज़रूरी कौनसी चीज़ है? क्या वो बात जिस को तुम ज़रूरी समझते हो? जुर्आत करो और हक़ीक़त की पैरवी करो।
  • तुम किन बातों के उज़्र पर ख़ुदा की बादशाहत की ख़िदमत का इन्कार करते हो?
  • हम रोज़ाना ख़ुराक की ज़रूरत महसूस करते हैं। हम रुहानी ख़ुराक की भूक किस तरह पैदा करें?

दुआ : ऐ ख़ुदा तू जो मुझे प्यार करता है और मेरी जिस्मानी और रुहानी ज़रूरतें पूरी करता है। मैं तेरा शुक्र करता हूँ तेरी मुहब्बत के लिए और ऐ मेहरबान बाप में इक़रार करता हूँ कि मुझमें कमज़ोरी है। मैं देखी हुई चीज़ों को अनदेखी चीज़ों पर तर्जीह देता हूँ। फ़ना होने वाली चीज़ें ले लेता हूँ मगर हमेशा रहने वाली चीज़ों के लिए कोशिश नहीं करता बल्कि उज़्र (बहाना) करता हूँ। मुझे रुहानी भूक और हिम्मत अता कर ताकि तेरे दस्तर ख़्वान पर आ सकूं और सेरी हासिल करूँ। मसीह की ख़ातिर आमीन।

(6)

दो घर

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत मत्ती 7 बाब 24 ता 27 आयत

“पस जो कोई मेरी ये बातें सुनता और उन पर अमल करता है वो उस अक़्लमंद आदमी की मानिंद ठहरेगा जिस ने चट्टान पर अपना घर बनाया। और मीना (पानी) बरसा और पानी चढ़ा और आंधीयां चलीं और इस घर पर टक्करें लगीं लेकिन वो ना गिरा क्योंकि उस की बुनियाद चट्टान पर डाली गई थी। और जो कोई मेरी ये बातें सुनता और उन पर अमल नहीं करता वो उस बेवकूफ़ आदमी की मानिंद ठहरेगा जिस ने अपना घर रेत पर बनाया। और मीना (पानी) बरसा और पानी चढ़ा और आंधीयां चलीं और इस घर को सदमा पुहंचा और वो गिर गया और बिल्कुल बर्बाद हो गया।”

कहना आसान है करना मुश्किल है। यही सबब है कि हम बातें बहुत करते हैं मगर अमल कम करते हैं। इस का क्या सबब है कि हम बातें करने के शौक़ीन हैं। मगर काम से बचते हैं। इस बयान में मसीह ये तालीम देता है कि सच्ची तालीम को ग़ौर से सुने और ये कहने से कि हम इस को मानते हैं कुछ फ़ायदा नहीं ना ही ये काफ़ी है बल्कि इस पर अमल करना असली बात है। तालीम या अच्छी बातें सुनने और वाह वाह कहने से अख़्लाक़ नहीं बनता यानी आदमी इस तरीक़ से अच्छा नहीं बनता। बल्कि अच्छी तालीम और नसीहत पर अमल करने से। जो कुछ हम मानते हैं कि अच्छा है। अगर हम उस पर अमल करें तो हम मज़्बूत होंगे और ज़िंदगी की मुश्किलों और मुसीबतों पर फ़त्ह पाएँगे। अगर हमको सिर्फ सुनने, वाह-वाह कहने की आदत है तो जब मुसीबत का वक़्त आएगा हम खड़े नहीं रह सकेंगे बल्कि हार जाऐंगे।

मसीह ने अमल करने पर हमेशा ज़ोर दिया। हम अक्सर बह्स करते हैं, कि दुरुस्त तालीम कौनसी है और उसूलों पर झगड़ते हैं। लेकिन इन उसूलों और तालीम पर अमल करने पर कम ज़ोर देते हैं बेशक उसूलों की ज़रूरत है। मगर साथ ही अमल की भी अशद (बहुत) ज़रूरत है। हम तालीम और उसूलों पर फ़ख़्र करते हैं। ये असली और मज़्बूत मसीही ज़िंदगी नहीं है।

हम बच्चों को बहुत कुछ तालीम और अच्छी-अच्छी बातें ज़बानी याद करा देते हैं मगर उन पर अमल करने का मौक़ा नहीं नहीं देते। इसी तरह हम गोया उन्हें अपना अपना घर रेत पर बनाने देते हैं। बच्चों को ये तालीम देना कि ख़ुदगर्ज़ी अच्छी बात नहीं बहुत अच्छा है। मगर जब तक उन्हें तजुर्बे से सीखने का मौक़ा ना दिया जाये ये तालीम उनके लिए बेफ़ाइदा और बे-असर रहती है करने से बच्चे ज़्यादा सीखते हैं। बड़ी उम्र वालों का भी यही हाल है। मसीह की तालीम के सीखने का यही तरीक़ा है कि इन्सान इस पर अमल करे। अमल करने से वो तालीम हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाएगी।

तालीम पर अमल करने से यानी अच्छे-अच्छे काम करने से हम दूसरों की मदद और ख़िदमत भी कर सकते हैं। वो आदमी जिसके घर की न्यू (बुनियाद) चट्टान पर थी तूफ़ान के वक़्त दूसरों की मदद कर सकता था। लेकिन वो आदमी जिसके घर की न्यू रेत पर थी आप मदद का मुहताज था। जब हमारी ज़िंदगी की बुनियाद नेक तालीम मानने और उस पर अमल करने पर होती है तब हम उनकी मदद करने के लायक़ होते हैं। जिनको मदद की ज़रूरत होती है। और ख़ुदा की बादशाहत की भी ख़िदमत कर सकते हैं। जब तक मसीह के लोग मसीह की तालीम पर अमल नहीं करेंगे उस की बादशाहत इस दुनिया में नहीं आएगी। जिस क़द्र रोज़ाना ज़िंदगी में मसीह की तालीम पर अब अमल कर रहे हैं उस से बहुत ज़्यादा। कई गुना ज़्यादा हर रोज़ अमल करने की ज़रूरत है।

मुतालआ के लिए :

यूहन्ना 15 बाब 1 या 6 आयत : मसीह बताता है कि फल लाने का क्या भेद है। अगर हम उस में क़ायम ना रहें तो हम अपना घर चट्टान पर नहीं बना सकते। बल्कि हमारा सारा काम रेत पर होगा। हम जिस क़द्र मसीह के साथ बल्कि क़रीब रहेगे उसी क़द्र ज़्यादा बेहतर तौर पर ख़ुदा की मर्ज़ी पूरी कर सकेंगे। वो ज़ोर का सर चशमा है। और इस के बग़ैर हम कुछ भी नहीं कर सकते।

मत्ती 12 बाब 46 ता 50 आयत : मसीह का सबसे बड़ा शौक़ ये था कि वो अपने बाप की मर्ज़ी पूरी करे। हमें भी उस ने यही तालीम दी है मसीह की मर्ज़ी को जानने से नहीं बल्कि उस की मर्ज़ी पर अमल करने से हम ख़ुदा के बेटे बनते हैं। ख़ुदा की मर्ज़ी वो चट्टान है जिस पर हमको ज़िंदगी की न्यू (बुनियाद) रखनी चाहिए। अगर हम ऐसा करते हैं तो ख़ुदा हमें प्यार करता है और मसीह हमको अज़ीज़ रखता है।

याक़ूब 2 बाब 14 ता 18 आयत : हम अपना ईमान अमलों से ही दिखा सकते हैं। हमारा ईमान हमारे कामों से आज़माया जाता है। अगर हम जो कुछ मानते हैं उस पर अमल नहीं करते। यानी अगर हम चट्टान पर न्यू नहीं रखते। और जिनको हमारी मदद की ज़रूरत है उनकी मदद नहीं करते। दुखिया लोगों की ख़िदमत नहीं करते तो हम ज़बान से ख़्वाह कितना ही इक़रार करें। हमारा ईमान मुर्दा है और हम रेत पर घर बनाते हैं। कहते रहना और करना कुछ भी ना, बेफ़ाइदा है। लेकिन हम ज़्यादातर ऐसा ही करते हैं। तालीम हासिल करने के बाद अमल भी करना चाहिए वर्ना ज़िंदगी चट्टान पर नहीं बनेगी।

ग़ौर और बह्स के लिए सवालात :

  • क्या तुमको मसीह की कोई ऐसी तालीम याद है जो तुमने सुनी और सीखी हो मगर उस पर अमल ना किया हो। क्या सबब है क्यों उस की तालीम पर अमल ना किया जाये?
  • ज़्यादा ज़रूरी क्या है ईमान या अमल?
  • इस तम्सील को समझने से बच्चों को तालीम देने में क्या फ़र्क़ आएगा?

दुआ : ऐ आस्मानी बाप मैं तेरा शुक्र करता हूँ। कि तेरे प्यारे बेटे ख़ुदावंद येसू मसीह ने ऐसी आला तालीम दी। मैं वो तालीम बहुत सी जानता हूँ मगर उस पर अमल नहीं करता। मैं इक़रार करता हूँ। मुझे अमल की तौफ़ीक़ दे। ताकि तेरी मर्ज़ी पूरी करूँ और ईमान की बुनियाद चट्टान पर रखूं। मसीह की ख़ातिर आमीन।

(7)

अंगूरी बाग़ के मज़दूर

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत मत्ती 20 बाब 1 ता 16 आयत

“क्योंकि आस्मान की बादशाही उस घर के मालिक की मानिंद है जो सवेरे निकला ताकि अपने ताकिस्तान में मज़दूर लगाए। और उस ने मज़दूरों से एक दीनार रोज़ ठहरा कर उन्हें अपने ताकिस्तान में भेज दिया। फिर पहर दिन चढ़े के करीब निकल कर उस ने औरों को बाज़ार में बेकार खड़े देखा। और उन से कहा तुम भी ताकिस्तान में चले जाओ। जो वाजिब है तुम को दूंगा। पस वो चले गए। फिर उस ने दोपहर और तीसरे पहर के करीब निकल कर वैसा ही किया। और कोई एक घंटा दिन रहे फिर निकल कर औरों को खड़े पाया और उन से कहा तुम क्यों यहां तमाम दिन बेकार खड़े रहे? उन्हों ने उस से कहा इसलिए कि किसी ने हमको मज़दूरी पर नहीं लगाया। उस ने उन से कहा तुम भी ताकिस्तान में चले जाओ। जब शाम हुई तो ताकिस्तान के मालिक ने अपने कारिंदा (मुंशी) से कहा कि मज़दूरों को बुला और पिछलों से लेकर पहलों तक उन की मज़दूरी दे दे। जब वो आए जो घंटा भर दिन रहे लगाए गए थे तो उन को एक एक दीनार मिला जब पहले मज़दूर आए तो उन्हों ने ये समझा कि हमको ज़्यादा मिलेगा तो उन को भी एक ही एक दीनार मिला। जब मिला तो घर के मालिक से ये कह कर शिकायत करने लगे कि इन पिछलों ने एक ही घंटा काम किया है और तू ने इन को हमारे बराबर कर दिया जिन्हों ने दिन भर का बोझ उठाया और सख़्त धूप सही। उस ने जवाब देकर उन में से एक से कहा, मियाँ मैं तेरे साथ बे इंसाफ़ी नहीं करता। क्या तेरा मुझ से एक दीनार नहीं ठहरा था? जो तेरा है उठा ले और चला जा। मेरी मर्ज़ी ये है कि जितना तुझे देता हूँ इस पिछले को भी उतना ही दूँ। क्या मुझे रवा नहीं कि अपने माल से जो चाहूँ सो करूँ? या तू इसलिए कि मैं नेक हूँ बुरी नज़र से देखता है? इसी तरह आखिर अव़्वल हो जाएंगे और अव़्वल आखिर।”

पतरस ने मसीह से एक सवाल किया (मत्ती 19 बाब 27 आयत) जिसके जवाब में मसीह ने ये तम्सील कही। तम्सील का सही मतलब समझने के लिए ये सवाल ज़रूर याद रखना चाहिए। पतरस ने कहा कि चूँकि उसने और उस के साथियों ने मसीह की पैरवी के लिए बहुत कुछ छोड़ा था। उन्हें बहुत बड़ा अज्र मिलना चाहिए। सबब इस का ये था कि पतरस और उस के साथियों ने समझा था कि मसीह इस मुल्क का बादशाह बनेगा और शागिर्दों को अपनी बादशाहत में ओहदे और दर्जे देगा। मसीह ने उनके ग़लत ख़याल को दूर करने के लिए ये तम्सील सुनाई।

इस तम्सील में हम उन मज़दूरों के ख़याल पर जिन्होंने दिन-भर काम किया और उनके ख़याल पर जिन्हों ने आधा दिन या पहर दिन काम किया ग़ौर करेंगे। इसी में कहानी का कुल लब-ए-लबाब है। जो मज़दूर सुबह के वक़्त गए उन्होंने मज़दूरी के पैसों का पहले ही फ़ैसला कर लिया। वो सिर्फ़ पैसों की ग़र्ज़ से काम पर लग गए थे। उन्होंने पक्का बंदोबस्त और इत्मीनान कर लिया। कि उनको मज़दूरी ज़रूर मिलेगी। लेकिन जो मज़दूर बाद में आए। उन्होंने ऐसा कोई बंदोबस्त ना किया। मालिक के कहने पर चुप-चाप काम पर चले गए। उन्होंने एतबार किया। कि जो कुछ मुनासिब होगा मालिक उन्हें ज़रूर देगा। जब उन्हें करने को काम मिल गया तो वो इस क़द्र ख़ुश हुए कि उन्होंने उज्रत का ख़याल भी ना किया यही फ़र्क़ है जिसका मसीह सबक़ देना चाहता था।

पहले-पहल तो हमारे दिल में भी ख़याल आता है कि बात ठीक है जिन्हों ने पूरा दिन काम किया था उनको ज़्यादा मिलना चाहिए था। उनकी शिकायत दुरुस्त थी मगर पैसों के ख़याल और उज्रत के सवाल से एक बड़ी बात पेश करता है वो उन लोगों के ख़याल को पसंद करता है जो काम की ग़र्ज़ से आए थे मसीह नहीं चाहता कि हम बैठे हिसाब लगाते रहा करें या सोचते और बातचीत करते रहा करें कि हमारे काम और कोशिश के बदले में हमको क्या मिलेगा। पतरस एक ख़तरे में था। ख़तरा ये था, कि वो उज्रत और इनाम के ख़याल और शौक़ में पड़ गया था। मगर मसीह उस को ये तालीम देना चाहता है, कि उस को उज्रत और इनाम का ख़याल नहीं करना चाहिए। बल्कि सिर्फ मालिक की मुहब्बत और काम के शौक़ और मुहब्बत से ही काम करना चाहिए।

मसीह के ज़माने में बहुत यहूदी ये ख़याल करते थे। कि हम नेकी करेंगे और ज़िंदगी में हमको बहुत बदला मिलेगा। और ज़रूर मिलेगा हम दुआ करेंगे, ख़ैरात देंगे, रोज़ा रखेंगे और शरीअत के तमाम हुक्म मानेगे। उनको सिर्फ बदले का ख़याल था। वो नेकी इसलिए नहीं करते थे कि ये नेकी है बल्कि बदले के शौक़ से। इस तम्सील में येसू मसीह शागिर्दों के इस ग़लत ख़याल को उनके दिलों से निकालना चाहता है।

इस में कोई हर्ज नहीं कि हम कभी-कभी अपने आप से सवाल किया करें हम फलां काम क्यों करते हैं क्या हम इसलिए गिरजे (जमाअत) जाते हैं कि लोग हमको नेक समझें। क्या हम कलीसिया के कामों में इसलिए हिस्सा लेते हैं कि लोग हमको देखें। क्या हम इसलिए चंदा देते हैं कि लोग हमको सख़ी समझें। क्या हम बाअज़ दफ़ाअ इसलिए कलीसियाई ख़िदमत का इन्कार करते हैं कि इस में हमारा नफ़ा नहीं होता।

इस में कोई हर्ज नहीं कि हम कभी-कभी अपने आप से सवाल किया करें हम फलां काम क्यों करते हैं क्या हम इसलिए गिरजे (जमाअत) जाते हैं कि लोग हमको नेक समझें। क्या हम कलीसिया के कामों में इसलिए हिस्सा लेते हैं कि लोग हमको देखें। क्या हम इसलिए चंदा देते हैं कि लोग हमको सख़ी समझें। क्या हम बाअज़ दफ़ाअ इसलिए कलीसियाई ख़िदमत का इन्कार करते हैं कि इस में हमारा नफ़ा नहीं होता।

मुतालआ के लिए :

यूहन्ना 10 बाब 12 ता 13 आयत : जो आदमी सिर्फ मज़दूरी की ग़र्ज़ से ख़िदमत करता है। दियानतदारी से नहीं करेगा। मज़दूर जो मुहब्बत से नहीं बल्कि मज़दूरी की ख़ातिर भेड़ों की ख़िदमत करता है। जब वक़्त पड़ता है तो भेड़ों को छोड़कर भाग जाता है।

मत्ती 5 बाब 38 ता 42 आयत : यहां मसीह तालीम देता है कि हमको अपना हक़ नहीं जताना चाहिए। दुनिया में बहुत सी तकलीफ़ें और मुश्किलें इसी से पैदा होती हैं। क़ौमों और मुल्कों के बाहमी झगड़े और फ़साद इसी बात से पैदा होते हैं। मसीह कहता है कि जब अपना हक़ जताने से दूसरों का नुक़्सान हो और बादशाहत का हर्ज हो तो हमें हक़ जताने से बाज़ रहना चाहिए। अगर अपना हक़ छोड़ने से भाई का फ़ायदा हो, तो हमें दरेग़ नहीं करना चाहिए।

मत्ती 20 बाब 20 ता 23 आयत : यहां दो आदमियों का ज़िक्र है। जिनके ख़याल मसीह के ख़याल से बिल्कुल जुदा थे। वो काम तो करते थे। लेकिन सिर्फ मज़दूरी के ख़याल से करते थे। मसीह ने उनके ख़याल बदल दिए। और वो काम का ज़्यादा ख़याल करने लगे। तब मसीह ने वाअदा किया कि मैं तुमको काम दूंगा। किसी इनाम या उज्रत का वाअदा ना किया। उनको काम ही काफ़ी था। मसीह चाहता है कि हम मसीह की मुहब्बत से और काम के शौक़ से काम किया करें। क्या हम में मसीह के लिए काफ़ी मुहब्बत है। और इस पर काफ़ी भरोसा है, कि हम उस की ख़िदमत उज्रत के ख़याल से नहीं बल्कि ख़िदमत के शौक़ से करें।

मत्ती 20 बाब 20 ता 23 आयत : यहां दो आदमियों का ज़िक्र है। जिनके ख़याल मसीह के ख़याल से बिल्कुल जुदा थे। वो काम तो करते थे। लेकिन सिर्फ मज़दूरी के ख़याल से करते थे। मसीह ने उनके ख़याल बदल दिए। और वो काम का ज़्यादा ख़याल करने लगे। तब मसीह ने वाअदा किया कि मैं तुमको काम दूंगा। किसी इनाम या उज्रत का वाअदा ना किया। उनको काम ही काफ़ी था। मसीह चाहता है कि हम मसीह की मुहब्बत से और काम के शौक़ से काम किया करें। क्या हम में मसीह के लिए काफ़ी मुहब्बत है। और इस पर काफ़ी भरोसा है, कि हम उस की ख़िदमत उज्रत के ख़याल से नहीं बल्कि ख़िदमत के शौक़ से करें।

हम ख़िदमत कैसी नीयत से करते हैं।

1 कुरिन्थियों 13 बाब 4 ता 17 आयत : मुहब्बत की रूह से ऐसी ख़िदमत हो सकती है जब हम किसी से मुहब्बत रखते हैं तो इस के लिए बग़ैर एवज़ ने और बग़ैर शुक्राने के ख़याल से ख़िदमत करते हैं। जब हम में इस क़िस्म की मुहब्बत होती है जिसका यहां बयान है। तब हम ख़ुशी से ख़िदमत करते हैं और हमारी ख़िदमत फलदार होती है। अगर मसीह से हमारी इस क़िस्म की मुहब्बत हो तो हम उस की ख़िदमत तन-मन धन से करेंगे।

ग़ौर और बह्स के लिए सवालात :

  • जब तुम ख़ुदा की ख़िदमत करते हो। तो क्या तुम्हारे दिल में इनमें से कोई ख़याल होता है। यानी काम को मसीह की तरफ़ से क़र्ज़ समझ कर करना, नेक नमूने के ख़याल से करना, नेक-नामी हासिल करना। असर और रसूख़ पैदा करना तारीफ़ करना, ख़ुदा की मुहब्बत, हम-जिंसों की ख़िदमत।
  • क्या ये मुम्किन है कि हम उज्रत के ख़याल के बग़ैर काम करें।
  • क्या काम करने से पहले उज्रत का फ़ैसला कर लेना अच्छी बात है या नहीं?

क्यों?

दुआ : ऐ ख़ुदावंद तू जिसने मुहब्बत से हमारी ख़ातिर बेइज़्ज़ती मौत और सलीब क़ुबूल की मुझे अपनी मुहब्बत और रूह में से इस क़द्र दे की मैं ख़िदमत करूँ। मगर उज्रत का अंदाज़ा ना लगाऊँ। रुहानी जंग में लडूं और बैठ कर ज़ख़्मों को ना देखूं। दूसरों के लिए कुछ करूँ और उन शाबाश, तरीफ और औज़ाना की उम्मीद ना रखूं बल्कि मुहब्बत की रूह से सब कुछ करूँ। मसीह की ख़ातिर आमीन।

(8)

तोड़ों की तम्सील

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत मत्ती 25 बाब 14 ता 30 आयत

“क्योंकि ये उस आदमी का सा हाल है जिस ने परदेस जाते वक़्त अपने घर के नौकरों को बुला कर अपना माल उन के सुपुर्द किया। और एक को पाँच तोड़े दिए। दूसरे को दो और तीसरे को एक यानी हर एक को उस की लियाक़त के मुताबिक दिए और परदेस चला गया। जिस को पाँच तोड़े मिले थे उस ने फ़ौरन जा कर उन से लेन-देन किया और पाँच तोड़े और पैदा कर लिए। इसी तरह जिसे दो मिले थे उस ने भी दो और कमाए। मगर जिस को एक मिला था उस ने जा कर ज़मीन खोदी और अपने मालिक का रूपया छिपा दिया। बड़ी मुद्दत के बाद इन नौकरों का मालिक आया और उन से हिसाब लेने लगा। जिस को पाँच तोड़े मिले थे वो पाँच तोड़े और लेकर आया और कहा ऐ ख़ुदावन्द तू ने पाँच तोड़े मुझे सुपुर्द किए थे। देख मैंने पाँच तोड़े और कमाए। उस के मालिक ने उस से कहा ऐ अच्छे और दयानतदार नौकर शाबाश तू थोड़े में दियानतदार रहा। मैं तुझे बहुत चीज़ों का मुख़्तार बनाऊँगा। अपने मालिक की ख़ूशी में शरीक हो। और जिस को दो तोड़े मिले थे उस ने भी पास आकर कहा ऐ ख़ुदावन्द तू ने दो तोड़े मुझे सुपुर्द किए थे। देख मैंने दो तोड़े और कमाए। उस के मालिक ने उस से कहा ऐ अच्छे और दयानतदार नौकर शाबाश तू थोड़े में दयानतदार रहा। मैं तुझे बहुत चीज़ों का मुख़्तार बनाऊँगा। अपने मालिक की ख़ूशी में शरीक हो। और जिस को एक तोड़ा मिला था वो भी पास आकर कहने लगा ऐ ख़ुदावन्द मैं तुझे जानता था कि तू सख़्त आदमी है और जहां नहीं बोया वहां से काटता है और जहां नहीं बिखेरा वहां से जमा करता है। पस मैं डरा और जा कर तेरा तोड़ा ज़मीन में छिपा दिया। देख जो तेरा है वो मौजूद है। उस के मालिक ने जवाब में उस से कहा ऐ शरीर और सुस्त नौकर तू जानता था कि जहां मैंने नहीं बोया वहां से काटता हूँ और जहां मैंने नहीं बिखेरा वहां से जमा करता हूँ। पस तुझे लाज़िम था कि मेरा रुपया साहूकारों को देता तो मैं आकर अपना माल सूद समेत ले लेता। पस इस से वो तोड़ा ले लो और जिस के पास दस तोड़े हैं उसे दे दो। क्योंकि जिस किसी के पास है उसे दियाजाएगा और उस के पास ज़्यादा हो जाएगा मगर जिस के पास नहीं है उस से वो भी जो उस के पास है ले लिया जाएगा। और इस निकम्मे नौकर को बाहर अंधेरे में डाल दो। वहां रोना और दाँत पीसना होगा।”

यहां हम देखते हैं कि बाअज़ नौकरों ने ख़िदमत और काम के मौक़े को किस तरह इस्तिमाल किया। इस तम्सील में तैयारी की तालीम है देखिए दो नौकरों ने आने वाले काम के लिए किस तरह तैयारी की।

लेकिन तीसरे ने तैयारी ना की और बेकार रहा। ख़ुदा ने हर एक को कोई ना कोई लियाक़त दी है। और इस लियाक़त के मुताबिक़ वो हर एक को ख़िदमत और ख़िदमत का मौक़ा देता है। मसीह इस तम्सील में ये तालीम देता है, कि ऐसे मौक़ों से फ़ायदा उठाने और काम करने से रुहानी तरक़्क़ी होती है। जब हम काम नहीं करते हम वो भी खो बैठते हैं। जो हमारे पास होता है।

हम सिर्फ काम में कोशिश करने और ख़िदमत करने से ही बढ़ सकते हैं इस तरीक़े से हमारा जिस्म, हमारा दिमाग़ और हमारी रूह तरक़्क़ी करती है। वरज़िश से पट्ठे मज़्बूत होते हैं। अगर हम बैठ कर ख़्वाहिश करें कि हम मज़्बूत हो जाएं। या ताक़तवर होने के बारे में किताबें पढ़ें तो हम मज़्बूत और ताक़तवर नहीं हो सकते। हाथ पांव हिलाने से काम बनता है। अगर हम कोई ज़बान सीखना चाहें तो ज़रूर है, कि हम अपनी गुफ़्तगु उसी ज़बान में करें। अगर हम अपनी ज़बान इस्तिमाल ना करें तो ज़बान की ताक़त और क़ाबिलियत जाती रहेगी। अगर हम दिमाग़ और समझ इस्तिमाल ना करें तो ये बेकार हो जाएंगे। रूह के बारे में भी यही बात है। अगर हम ख़िदमत की ताक़तों को न बरतें तो वो जाती रहेगी। अगर इन्सान ज़मीर की आवाज़ को सुने मगर उस की ना माने तो होते-होते वो बे-ज़मीर बन जाएगा। और नेकी और बदी में तमीज़ नहीं कर सकेगा। एक तोड़े वाले से तोड़ा ले लेने का यही मक़्सद है। उसने अपना काम या फ़र्ज़ पूरा करने की कोशिश भी ना की।

इस के कई एक सबब हो सकते हैं। बाअज़ दफ़ाअ हम सोचते हैं कि करने के लिए कोई बड़ा काम हमारे सपुर्द होना चाहिए। फिर जब कोई छोटा काम हमें दिया जाना है हम उसे अदना समझ कर करते ही नहीं। और बेकार रहते हैं। इस आदमी में भी यही कसर थी। वर्ना उसने कोई क़सूर ना किया था ना उसने चोरी की थी। ना क़त्ल किया था। उसने कुछ भी ना किया था। और यही उस का क़सूर था। वो बेकार रहा था। और मसीह इस तम्सील में सीखाता है कि बेकार रहना ख़ुदा की नज़रों में एक भारी गुनाह है। ये बेकारी ख़्वाह दुश्मनी से हो। ग़ुरूर से हो। और ख़्वाह सुस्ती और ग़फ़लत से हो इस तरह हम चाहे कोई अमली गुनाह ना ही करें फ़क़त बेकार रहना ही गुनाह है।

हर एक को कोई ना कोई तोड़ा मिला है। बाअज़ के पास दूसरों की निस्बत ज़्यादा तोड़े हैं। बाअज़ के तोड़े छोटे हैं। बाअज़ के बड़े हैं अगर हमारे तोड़े हैं। बाअज़ के तोड़े छोटे हैं। बाअज़ के बड़े हैं। अगर हमारे तोड़े हमको अच्छे और फ़ाइदेमंद मालूम ना दें। तो भी वो हमारे पास होते हैं। और ख़ुदा ने ये तोड़े हमको इस्तिमाल के लिए दिए हैं। अगर हम उनको इस्तिमाल करने की नीयत रखें। तो ख़ुदा हमको मौक़ा ज़रूर देगा। मौक़े के साथ ख़ुदा हिम्मत भी ज़रूर देगा। ख़ुदा हमारी हिम्मत से बड़ा काम हमारे सुपुर्द नहीं करेगा। जिस तरह एक रक़म सूद से बढ़ती है उसी तरह हमारी क़ाबिलियत और क़ुव्वत इस्तिमाल से बढ़ती है। हमें अपनी ताक़तों और लियाक़तों से ख़ुदा की ख़िदमत के और ताज़ा मौक़ा अता होते हैं। ये हमारा सबसे अच्छा इनाम होता है। असली ख़िदमत का मतलब यही है कि सच्च की ख़िदमत में अपना सब कुछ लगा देना।

जब हम इस तरह करते हैं तो ख़ुदा अपनी बादशाहत की ख़िदमत के लिए हमको ज़्यादा क़ुव्वत और ज़्यादा शौक़ देता है।

अगर हम ख़ुदा की ख़िदमत में दयानतदार हैं। तो वो हमें इस क़िस्म के इनाम देता है। और बड़े बड़े काम हमारे सपुर्द कर के हमें आला मौक़ा भी अता करता है। जब हम ख़ुदा के लिए एक काम दियानतदारी से करते हैं तो गोया किसी दूसरे और बड़े काम के लिए तैयारी पाते हैं। इस ज़िंदगी के काम आइन्दा ज़िंदगी के कामों की तैयारी हैं।

मुतालआ के लिए :

1 कुरिन्थियों 12 बाब 4 ता 11 आयत : ख़ुदा नहीं चाहता कि हम सब अपने अपने तोड़े एक ही काम में या एक ही तरीक़े पर इस्तिमाल करें। ख़ुदा ने हर एक को अलग-अलग क़ाबिलियत दी है। मक़्सद सब का एक ही है। यानी ज़मीन पर ख़ुदा की बादशाहत क़ायम करना।

लूक़ा 19 बाब 11 ता 19 आयत : दियानतदारी का इनाम ख़िदमत के ज़्यादा मौक़े होता है। हम जो कुछ ख़ुदा के लिए करते हैं इसमें वो हमें बड़ी ख़िदमतों के लिए तैयार करता है। और वो ही हमारा इनाम होता है।

लूक़ा 19 बाब 11 ता 19 आयत दियानतदारी : *** का इनाम ख़िदमत के ज़्यादा मौके होता है। हम जो कुछ ख़ुदा की लिए करते हैं इस में वो हमें बड़ी ख़िदमतों के लिए तैयार करता है। और वो ही हमारा इनाम होता है।

लूक़ा 19 बाब 20 ता 27 आयत : क़ायदा ये है कि जो कुछ हमारे पास है अगर हम उसे इस्तिमाल ना करें तो हम उसे खो बैठते हैं। इन तम्सीलों में मसीह यही सिखाता है, कि अगर हम अपनी क़ाबिलियत को इस्तिमाल ना करेंगे तो वो जाती रहेगी।

लूक़ा 21 बाब 1 ता 4 आयत : इस बेवा के पास बहुत थोड़ा। शायद उसने ख़याल किया होगा, कि मैं जो कुछ दे सकती हूँ उस से क्या बनेगा। तो भी उसने दे दिया। और देने से ख़ुद हाजत-मंद हो गई। सो हमें छोटी से छोटी ख़िदमत से भी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। अगर हमारा एक तोड़ा है तो ख़ुदा चाहता है कि हम उसी को इस्तिमाल कर दें।

यूहन्ना 6 बाब 5 ता 14 आयत : इस लड़के के पास एक ही तोड़ा था। जो उसने बहुत मुफ़ीद तरीक़े पर इस्तिमाल किया। उस को यक़ीन ना था, कि ख़ुराक जो उस के पास थी बहुत लोगों की भूक मिटाएगी। लेकिन जब मौक़ा आया। उस ने ख़ुशी-ख़ुशी जो कुछ था दे दिया। हम बाअज़ दफ़ाअ हैरान हो जाते हैं, कि जो कुछ हमारे पास है। अगर हम वो ख़ुदा के राह में खर्च कर डालें तो क्या होगा।

लूक़ा 18 बाब 18 ता 24 आयत : इस शख़्स के पास दस तोड़े थे मगर उसने इस्तिमाल करने से इन्कार किया। उस के लिए बहुत मौक़ा था। मगर उसने फ़ायदा ना उठाया। मालूम नहीं कि इस को बाद में कोई मौक़ा मिला या ना मिला शायद मिला हो। लेकिन अक्सर सिर्फ एक ही मौक़ा आता है।

क़ाज़ियों 6 बाब 11 ता 18 आयत : ये शख़्स समझता था कि मेरे पास बहुत कम तोड़े हैं। तो भी उसने ख़ुदा की आवाज़ सुनी। ताबेदारी की और अपना मुल्क बचा लिया। ख़िदमत और काम के मौक़े ख़ुदा की तरफ़ से आते हैं।

पैदाइश 39 बाब 20 ता 23 आयत : यूसुफ़ क़ैद में था। तो भी उसने अपना तोड़ा ज़मीन में ना दबाया। जो कुछ उस से हो सका उसने कोशिश से किया। हम बाअज़ दफ़ाअ बेदिल हो जाते हैं और कहते हैं कि हमको यहीं काम ख़त्म कर देना चाहिए।

मसीह ने सीखाया है कि अपना तोड़ा ज़मीन में नहीं गाड़ना चाहिए। मत्ती 5 बाब 13 ता 16 आयत : वो लैम्प जो कहीं छिपा दिया जाये बेफ़ाइदा है। वह नमक जिसका मज़ा जाता रहे बेकार है। जिस आदमी ने अपना तोड़ा छिपा दिया वो भी बेफ़ाइदा था। मसीह ने कहा ये सबसे बड़ा गुनाह है।

ग़ौर और बह्स के लिए सवाल :

  • ख़ुदा हमें कौन से मुख़्तलिफ़ तोड़े देता है। हमारे पास कौन से तोड़े हैं?
  • तीसरे आदमी के दिल में अपने आक़ा के बारे में क्या ग़लत ख़याल था। क्या ऐसा नहीं होता, कि जब हम ख़ुदा के बारे में ग़लत ख़याल और तसव्वुर रखते हैं तो हम उसकी ख़िदमत में कामयाब नहीं होते। क्या ये दुरुस्त नहीं। कि हम अपने आस्मानी बाप को जैसा समझेंगे वैसा ही हमारा अख़्लाक़ और हमारी सीरत बनेगी।
  • क्या ये कहना दुरुस्त है कि काम करो तो तुमको आप ही ताक़त मिलेगी।

दुआ :

मेरी ज़िंदगी तू ले

उस पर मुहर कर तो दे

ले तू दिन और वक़्त भी सब

सना तेरी हो ऐ रब

कर क़ुबूल इन हाथों को

इनसे तेरी ख़िदमत हो

पांव भी कर तू ताबेदार

होवें तेरा और ख़ुश-रफ़्तार

ये आवाज़ भी तेरी है

तेरी हम्द में सेरी है

मेरे दिल को भी तू ले

उस में आके रौनक दे

अक़्ल की कुल ताक़तें

काम में तेरे सर्फ़ होवें

मर्ज़ी अपनी देता हूँ

तेरी मर्ज़ी लेता हूँ

उल्फ़त का ख़ज़ाना भी

लाता हूँ मैं बाखुशी

मुझको ले सब सर-ता-पा

तेरा नित में रहूँगा

(9)

नादान कुंवारियां

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत मत्ती 25 बाब 1 ता 13 आयत

“उस वक़्त आस्मान की बादशाही उन दस कुंवारियों की मानिंद होगी जो अपनी मशअलें लेकर दुल्हे के इस्तिक़बाल को निकलीं। उन में पाँच बेवकूफ़ और पांच अक़्लमंद थीं। जो बेवकूफ थीं उन्हों ने अपनी मशअलें तो ले लीं मगर तेल अपने साथ ना लिया। मगर अक़्लमंदों ने अपनी मशालों के साथ अपनी कुप्पियों में तेल भी ले लिया। और जब दुल्हे ने देर लगाई तो सब उंघने लगीं और सो गईं। आधी रात को धूम मची कि देखो दुल्हा आ गया उस के इस्तिक़बाल को निकलो। उस वक़्त वो सब कुंवारियां उठ कर अपनी अपनी मशाल दुरुस्त करने लगीं। और बेवकूफों ने अक़्लमंदों से कहा कि अपने तेल में से कुछ हमको भी दे दो क्योंकि हमारी मशअलें भुजी जाती हैं। अक़्लमंदों ने जवाब दिया कि शायद हमारे तुम्हारे दोनों के लिए काफ़ी ना हो। बेहतर ये है कि बेचने वालों के पास जा कर अपने वास्ते मोल ले लो। जब वो मोल लेने जा रहीं थीं तो दुल्हा आ पहुंचा। और जो तैय्यार थीं वो उस के साथ शादी के जश्न में अंदर चली गईं और दरवाज़ा बंद हो गया। फिर वो बाक़ी कुंवारियां भी आईं और कहने लगीं ऐ ख़ुदावन्द ऐ ख़ुदावन्द हमारे लिए दरवाज़ा खोल दे। उस ने जवाब में कहा मैं तुम से सच कहता हूँ कि मैं तुम को नहीं जानता। पस जागते रहो क्योंकि तुम ना उस दिन को जानते हो ना उस घड़ी को।”

इस तम्सील में मसीह ने सुरयानी (मुल्क-ए-शाम की एक क़दीम ज़बान) में शादी की मिसाल से इस तैयारी का सबक़ सिखाया है। जो निहायत ख़बरादारी और दियानतदारी से की जाये। सुर्यानी लोग ब्याह शादियां रात ही को रचाते थे। ब्याह में सबसे ज़्यादा रौनक और धूम-धाम वाला हिस्सा दुल्हन का माँ बाप के घर से दूल्हे के घर में लाना होता था। उनके हाथों में रोशनी के लिए मशअलें होती थीं। और वो सब बरात के साथ रात को अंधेरा पड़े दुल्हन के मकान पर पहुंचते थे। उधर दुल्हन भी अपनी सहेलियों और पहेलियों के साथ हाथों में मशअलें लिए हुए दूल्हे का इस्तिक़बाल करती थीं। इस के बाद सारा मजमा दूल्हे के घर जाता था और वहां शादी की ज़ियाफ़त खाता था।

इस तम्सील में वो कुँवारी लड़कियां जिनके हाथों में मशअलें थीं और जो दूल्हे की आमद पर मशअलें लेकर दूल्हे को मिलने वाली थीं सो गईं। क्योंकि दूल्हे ने आने में देरी की। इस तम्सील की तालीम का अस्ल नुक्ता दोनों गिरोहों के फ़र्क़ में है।

जब दूल्हे ने देर की तो वो सबकी सब सो गईं। लेकिन उन में से पाँच ने अक़्लमंदी की और ऐसी तैयारी की, कि वक़्त पड़े पर उनको परेशान और शर्मिंदा ना होना पड़े। जो बाक़ी पाँच थीं उन्होंने ऐसा ना किया। पाँच होशियार और आगे को सोचने वाली थीं। लेकिन पाँच सुस्त और बेपरवाह थीं।

इस तम्सील में मसीह ने उस तैयारी की तालीम दी है, जो ख़बरदारी और अक़्लमंदी से की जाये। हमें हर एक आने वाली घड़ी के लिए हर वक़्त और हमेशा तैयार रहना चाहिए। क्योंकि हम नहीं जानते कि ख़ुदा कब और कौनसा काम हमसे तलब करेगा। हमें अपने दुनियावी कारोबार के लिए भी हमेशा तैयार रहना चाहिए। हमारी तैयारी ऐसी होनी चाहिए जो हर वक़्त होती रहे और हमेशा काम दे सके। एक ही बार तैयारी करना। इस तैयारी को काफ़ी समझना और फिर बेपरवाह रहना काफ़ी नहीं है। तम्सील की पाँच कुँवारियों ने अपनी-अपनी मशाल में तेल भरा। दुल्हन के घर गईं। क़दरे इंतिज़ार किया। फिर सो गईं। उनकी मशालों में दुल्हन के घर तक आने और उस के साथ दूल्हे के मकान तक जाने के लिए तेल था। मगर वहां तो इंतिज़ार करना पड़ गया। ये इत्तिफ़ाक़िया मुआमला था। वो इसलिए तैयार ना थीं। बावजूद इस के वो सो गईं। मगर बाक़ी पाँच कुँवारियों ने पूरी तैयारी की मशालों में तेल डाला और अक़्लमंदी की, कि कुप्पियों में तेल साथ भी ले लिया।

वो जो ख़ुदा की बादशाहत के लोग हैं उन्हें हर वक़्त और हमेशा तैयार रहना चाहिए रुहानी दुनिया में कोई छुट्टी नहीं होती। ना सताने की घड़ी होती है। हम कभी ये नहीं कह सकते, कि हम ने काफ़ी कर लिया है। अब और कुछ करने की ज़रूरत नहीं। जो हमने कल तैयारी की थी। वो कल के लिए काफ़ी थी। हर दिन अपनी मुश्किलात और आज़माईश साथ लेकर आता है। और हमको हर दिन के मुताबिक़ तैयारी करना ज़रूरी है। हमारी तैयारी एक लगातार काम है। अगर हम कलाम पढ़ने या दुआ मांगने में ग़फ़लत करें तो अचानक ही हमारी ज़रूरत पड़ सकती है। और मुम्किन है कि हमारी मशाल में तेल ना हो। रूह की मशाल हमेशा ठीक-ठाक और तैयार होनी चाहिए।

ख़याल पैदा हो सकता है कि जिनके पास कुप्पियों में तेल था। वो बहुत खुदगर्ज़ थीं। उन्होंने क्यों ना अपनी साथ वालियों को तेल दिया। उनकी ज़रूरत में क्यों ना मदद की। इस का जवाब ये है कि एक इन्सान अपनी ज़िंदगी की खूबियों और ख़सलतों में दूसरे को कुछ नहीं दे सकता। हाँ सलाह और नसीहत दे सकता है। इस से ज़्यादा कुछ नहीं कर सकता। जिन लोगों ने ज़िंदगी में तैयारी नहीं की वो दूसरों की तैयारी से फ़ायदा नहीं उठा सकते। यहां ख़ास ख़याल पेश किया गया है कि एक आदमी दूसरे की आला और ख़ूबसूरत ज़िंदगी से नहीं बल्कि अपनी ही ज़िंदगी से फ़ल हासिल कर सकता है। हमें अपनी ज़िंदगी ख़ुद ही बनानी पड़ती है। दूसरा आदमी हमारी ज़िंदगी नहीं बना सकता। अपनी ज़िंदगी हमें ख़ुद ही बनानी पड़ती है। जब मौक़े के लिए तैयार नहीं हैं। तो उस वक़्त दूसरे की सिफ़त और ख़ूबी काम नहीं देगी। मौक़े से पहले जो दिन गुज़र गए उनमें तैयारी का वक़्त था। मौक़े पर फ़ौरन ही इतने दिनों का काम यानी तैयारी का काम किस तरह हो सकता है।

इस में एक और ख़ास ख़याल और नुक्ता भी पेश किया गया है। वो ये कि ज़िंदगी में मौक़ा एक ही बार आता है। अगर वो वक़्त निकल जाये। तो सिवाए अफ़्सोस के कुछ भी बाक़ी नहीं रह जाता। ना ही फिर वो मौक़ा आता है किसी को ये इल्म नहीं होता, कि कौनसा मौक़ा आएगा और कब आएगा हमें चाहिए कि हम हमेशा तैयार रहें।

बाअज़ दफ़ाअ मौक़ा इसलिए निकल जाता है कि जो मुहब्बत हमने शुरू में मसीह के साथ रखी थी हम उस में क़ायम ना रहे। होते होते वो मुहब्बत ठंडी हो जाती है। ये काफ़ी नहीं कि हमारी मुहब्बत की आग थोड़ी देर तक चमके हमें सरगर्मी पैदा करे और फिर ठंडी हो जाए और वक़्त पड़ने पर हम कुछ नहीं कर सकेंगे। एक मसीही का ये मक़ूला होना चाहिए। “लगातार तैयारी।”

मुतालआ के लिए :

लूक़ा 18 बाब 35 ता 43 आयत : यहां एक शख़्स का ज़िक्र है जिसने अपनी आदत बना रखी थी कि हमेशा जब मौक़ा पड़े तो मौक़े को हाथ से जाने नहीं देता था। उस की ज़रूरत उस को मौक़े से फ़ायदा उठाने के लिए हर वक़्त तैयार और होशियार रखती थी। वो अपनी ज़रूरत को समझता था हम बाअज़ दफ़ाअ इसी लिए मौक़ा खो देते हैं, कि अपनी ज़रूरतों को नहीं समझते और ना उन्हें महसूस करते।

क्या हम मसीह की रिफ़ाक़त के लिए हर एक मौक़े से फ़ायदा उठाने के लिए तैयारी करते हैं।

मत्ती 24 बाब 42 ता 44 आयत : अगर हमें इल्म हो जाये। कि चोर फ़ुलां घड़ी आएगा तो हम उस के आने से पहले तैयार रह सकते हैं। हमें हर वक़्त और हमेशा तैयार रहना चाहिए अगर हम मसीह की आमद के लिए तैयार रहना चाहते हैं। तो हमको ख़बरदारी करनी चाहिए। जब हम अपनी या जमाअत की ज़िंदगी में मसीह की हुज़ूरी महसूस करते हैं तो वही मसीह की आमद होती है। वो क़ौम की या कुल मुल्क की ज़िंदगी में भी आ सकता है। उस का हर एक ज़हूर उस की आमद है। और अगर हम उस की आमद के लिए तैयार ना हों तो हो सकता है कि मौक़ा निकल जाये और हम हाथ मलते रह जाएं।

मत्ती 24 बाब 45 ता 51 आयत : आड़े वक़्त में फ़क़त दियानतदारी ही हमको बचा सकती है। दियानतदारी से काम करने और सब्र से इंतिज़ार करने से ही मसीह की हुज़ूरी से दिल में ईमानदारी और रुहानी जोश पैदा होगा।

मत्ती 26 बाब 36 ता 43 आयत : मसीह को मालूम था गो शागिर्दों को मालूम नहीं था कि इम्तिहान और आज़माईश की घड़ी आने वाली है इसलिए उसने कहा जागो और दुआ माँगो।

इन शागिर्दों ने तैयारी करने और लगातार जागने यानी होशियार रहने की ज़रूरत को महसूस किया। नतीजा ये हुआ कि जब वो घड़ी आई तो रह गए जब कोई हमारी आँखों के सामने ही डूब मर रहा हो। उस वक़्त तैरना सीखना शुरू करना बेकार है। इसी तरह किसी आज़माईश के आने पर उस के मुक़ाबले की तैयारी शुरू करना बेकार है।

मत्ती 26 आयत 69 ता 75 आयत : यहां तैयारी ना करने का नतीजा दिखाई देता है जब जागने और दुआ मांगने का वक़्त था। हज़रत पतरस उस वक़्त नींद के मज़े ले रहे थे। जब वक़्त पड़ा तो बजाए हौसले और दिलेरी के उसने बुज़दिली और कमज़ोरी दिखाई। जब तक हमने एक मज़्बूत और मुहक्कम अख़्लाक़ ना बनाया हो हम आज़माईश का मुक़ाबला नहीं कर सकते। तैयारी करना और सारी क़ुव्वत के सर चश्मे से ताल्लुक़ मज़्बूत करना बहुत ज़रूरी है।

याक़ूब 1 बाब 1 ता 4 आयत : इम्तिहान और आज़माईश बेशक ख़तरा पैदा करते हैं मगर साथ ही मज़बूती का मौक़ा भी उनमें होता है। आज़माईश में कामयाब हो कर इन्सान तरक़्क़ी करता है और आला दर्जा भी पाता है। इसी लिए याक़ूब रसूल कहता है कि जब जब आज़माईश हो। ज़रूर हमें ख़ुश होना चाहिए अगर हमारी आज़माईश ना हो तो हम तरक़्क़ी भी नहीं कर सकते।

गौर व बह्स के लिए सवालात :

  • अगर तुम मसीह के साथ यानी उस की रिफ़ाक़त में ज़िंदगी गुज़ारना चाहते हो तो हर रोज़ तैयारी के लिए कितना ख़र्च करना चाहिए?
  • हम मसीह ज़िंदगी के लिए किस तरह लगातार तैयारी कर सकते हैं?
  • क्या ये सच्च है कि सुस्ती एक बड़ा गुनाह है?

दुआ : ऐ ख़ुदा तू जो सोता नहीं और ना उंघता है और ना ग़ाफ़िल होता है बख़्श दे कि मैं जो तेरी सूरत पर बनाया गया हूँ तेरी ये सूरत और सिफ़त मुझमें पाई जाये।

ऐ मसीह तू जिसने फ़रमाया कि जागो और दुआ माँगो। तुम्हारी कमर कसी रहे और तुम्हारा दिया जलता रहे। बख़्श दे कि मैं तेरी तरह जागता और दुआ मांगता रहूं ताकि आज़माईश में गिर ना जाऊं।

ऐ पाक रूह तू जो हर-दम ईमानदारों को जगाता है और सीखाता है। मेरी ग़फ़लत और सुस्ती से मुझे जगा और होशियार कर। कि हर एक आज़माईश से मैं मज़्बूत हो जाऊं और जब तू आए मैं तैयार पाया जाऊं। मसीह मस्लूब की ख़ातिर। आमीन।

(10)

छिपा हुआ ख़ज़ाना

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत मत्ती 13 बाब 44 आयत

बेशक़ीमत मोती

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत मत्ती 13 बाब 45 ता 46 आयत

मत्ती 3 बाब44 आयत : “आस्मान की बादशाही खेत में छिपे ख़ज़ाने की मानिंद है जिसे किसी आदमी ने पाकर छिपा दिया और ख़ूशी के मारे जा कर जो कुछ उस का था बेच डाला और इस खेत को मोल ले लिया।”

मत्ती 3 बाब 45 ता 46 आयत “फिर आस्मान की बादशाही उस सौदागर की मानिंद है जो उम्दा मोतियों की तलाश में था। जब उसे एक बेश कीमत मोती मिला तो उस ने जा कर जो कुछ उस का था सब बेच डाला और उसे मोल ले लिया।”

इन तम्सीलों को समझने का भेद इन अल्फ़ाज़ में है कि “जो कुछ उस के पास था।” जिस आदमी ने खेत में ख़ज़ाना देखा। उसने जो कुछ उस के पास था। सब कुछ बेच दिया। ताकि किसी तरह खेत हासिल करे। वो इस खेत को बाक़ी चीज़ों से बढ़कर समझता था। उस के पास जितनी चीज़ें थी खेत उन सबसे ज़्यादा क़ीमत वाला और क़द्र वाला था। इसी लिए वो खेत के लिए अपनी हर एक चीज़ देने को तैयार था।

जिस शख़्स ने आला क़िस्म का मोती देखा उसने अपने छोटे मोटे सब मोती बेच दिए ताकि वो बड़ा मोती ख़रीदने को उस के पास रुपया हो। वो एक ही मोती हासिल करना चाहता था। और उस को ख़रीदने के लिए वो सब कुछ करने को तैयार था। ये उस की तमाम जायदाद से ज़्यादा क़ीमत का था। और उस को बहुत ही अज़ीज़ था। इसी लिए उसने जो कुछ उस के पास था बेच डाला।

इन दो तम्सीलों में से मसीह ने ये तालीम दी है कि कोई शैय है जो ज़िंदगी में बहुत ही बेशक़ीमत है। और उस को हासिल करने के लिए ज़रूर है, कि हम “अपना सब कुछ बेच दें।” एक ऐसा ख़ज़ाना है जो हमारे कुल सामान से बढ़कर क़ीमती है। जब ये ख़ज़ाना मिले तो जिस क़ीमत पर भी मिल सके उस को ज़रूर हासिल कर लेना चाहिए।

आम तौर पर भी ज़िंदगी में यही हाल है। अगर हम चाहते हैं कि ख़ूब गुज़रे और ख़ूब कटे तो ज़रूर है कि उन चीज़ों और बातों को जो मज़े से ज़िंदगी गुज़ारने में रूकावट पैदा करेगी क़ुर्बान किया जाये। अगर कोई आदमी तिजारत और सौदागरी में कामयाब होना चाहे तो उस को ज़रूरी है कि हम्दर्दी और पुन दान की तबइयत छोड़ दे और सख़्त दिल हो। ख़ुदाई और रुहानी बातों के बारे में भी यही बात है। अगर हम ख़ुदा का ख़ज़ाना यानी उस की सच्चाई और उस की मुहब्बत का ख़ज़ाना हासिल करना चाहें तो ज़रूर है कि हम उन तमाम बातों को जो हमें इस खज़ाने से रोक सकती हैं तर्क करें। अगर हम ख़ुदा का ज्ञान हासिल करना चाहते हैं तो सब रूकावटों को दूर कर के ही कर सकते हैं।

इन तम्सीलों में मसीह ने किस ख़ज़ाना की तरफ़ इशारा किया है? :

इन तम्सीलों में मसीह ने ख़ुदा की बादशाहत की तरफ़ इशारा किया है। जो हमारे दिल में और हमारे अंदर है। यानी इश्वरी ज्ञान और ख़ुदा की मुहब्बत जो सिर्फ ख़ुदा के साथ गहरी रिफ़ाक़त रखने से आते हैं अगर हम इस ख़ज़ाने को जो दुनिया के तमाम ख़ज़ानों से बढ़कर है हासिल करना चाहते हैं तो हमको सब कुछ जो हमारे पास है बेचना पड़ेगा। यानी ज़िंदगी की रूकावटों को दूर करना होगा। मसीह कहता है कि दुनिया की कोई चीज़ ऐसी अज़ीज़ और क़द्र वाली नहीं है कि उस को छोड़ा ना जाये।

मसीह के ईमानदार बंदों के लिए वो शैय जो सबसे आला है हासिल करने के लायक़ है। जिस तरह मोतियों के सौदागर ने वो मोती जो उस के पास थे हालाँकि अच्छे थे बेच डाले थे ताकि आला मोती हासिल करे। और जब तक उसे हासिल ना कर लिया दम ना लिया। इसी तरह वाजिब है कि जब तक हम वो ख़ज़ाना जो ख़ुदावंद करीम ने हमारे लिए रखा है हासिल ना कर लें दम ना लें।

हो सकता है कि जो कुछ हमारे पास है बहुत अच्छा है। मगर हमें उस की कोशिश करना चाहिए जो आला है।

क्या हम तैयार और रज़ामंद हैं कि जो कुछ हमारे पास है हम बेच दें? क्या अक्सर ऐसा नहीं होतो कि हम सबसे आला और बेश क़ीमत मोती हासिल करना चाहते हैं। और जो कुछ हमारे पास होता है उसे भी रखना चाहते हैं। हम अपना माल भी पास ही रखना चाहते हैं और खेत हासिल करने की आरज़ू भी रखते हैं। लेकिन तजुर्बे से मालूम हो गया कि ये नहीं हो सकता। ये ना-मुम्किन है कि जब तक हम ख़ुदा और उस की ख़िदमत के लिए अपने आपको और जो कुछ हमारे पास है उस को मख़्सूस ना करें हम उस के ख़ज़ाने को नहीं पा सकते। जब तक पूरी ज़िंदगी की ख़ुसूसियत ना हो हम उस ख़ज़ाने को बिल्कुल हासिल नहीं कर सकते।

हम अक्सर चाहते हैं कि हमारी मर्ज़ी पूरी हो और ख़ुदा की मर्ज़ी भी पूरी हो मगर ये किस तरह हो सकता है। ये ना-मुम्किन है।

देखो दोनों तरीक़े हैं जिनसे ख़ज़ाना हासिल हुआ। खेत वाला ख़ज़ाना इत्तिफ़ाक़िया मिला। वो आदमी ख़ज़ाने की तलाश में ना निकला था। काम करते-करते अचानक ख़ज़ाना उस को मिल गया। बाअज़ आदमियों को ख़ुदा का ख़ज़ाना इसी तरह मिलता है। वो अपना कारोबार करते हैं। और शायद ख़ुदा की बादशाहत के बारे में कभी सोचते भी नहीं ना फ़िक्र करते हैं कि अचानक ही ख़ुदा अपने आप को उन पर ज़ाहिर कर देता है। वो हैरान परेशान हो जाते हैं। और इस ख़ुशी में अपनी ज़िंदगी और अपना सब कुछ ख़ुदा के क़दमों में रख देते हैं।

दूसरा आदमी ख़ज़ाने की तलाश में था। और कोशिश से ढूंढ रहा था। उस को मालूम था कि किसी जगह एक बेशक़ीमत मोती है और वो रोज़-रोज़ उस की तलाश करता रहा। करते-करते आख़िर ये मोती उस को मिल गया। तब उसने कहा कि जिस मोती की ज़िंदगी-भर तलाश की थी वो मिल गया है। इसी तरह बाअज़ लोग ख़ुदा की तलाश करते हैं। वो सब्र से उस को ढूंडते हैं। और ढूंडते-ढूंडते ख़ुदा को पा ही लेते हैं। उनकी ज़िंदगी में ख़ुशी। सुरूर और लुत्फ़ आ जाता है। और वो अपना सब कुछ दे डालते हैं ताकि ख़ुदा के साथ-साथ रह सकें। खज़ाने को देख लेना एक आज़माईश है। जब हम ख़ुदा के खज़ाने को देख लेते हैं। तो हम गोया आज़माऐ और परखे जाते हैं कि हम कैसे हैं, कि आया हम उस की क़द्र करते और उस के हासिल करने की कोशिश करते हैं या अपने आम हालात में ही ख़ुश रहते हैं। ये आज़माईश हम में से हर एक पर आती है। जिन शख्सों का तम्सीलों में बयान है। उन्होंने ख़ज़ाना देखा। उस की क़द्र पहचानी। और उसे हासिल किया।

हमारी क्या हालत है?

मुतालआ के लिए :

फिलिप्पियों 3 बाब 4 ता 7 आयत : पौलुस सच्चाई का मुतलाशी था। जिस तरह अच्छे मोतियों का मुतलाशी तलाश करता रहा। उसी तरह पौलुस तलाश करता रहा। आख़िर एक दिन सच्चाई उस पर ज़ाहिर हुई। तब पौलुस ने वो सब कुछ जो पहले उस की नज़रों में बेश-क़ीमत था छोड़ दिया ताकि वो इस सच्चाई की पैरवी अच्छी तरह कर सके। जो बातें पहले उस के लिए प्यारी और ज़रूरी थीं वो सब निकम्मी बन गईं।

मत्ती 9 बाब 9 आयत : ये उस शख़्स की मिसाल है जो सच्चाई की तलाश में ना था बल्कि खेत में छिपा हुआ ख़ज़ाना पाने वाले की तरह जब वो अपना कारोबार कर रहा था उस को सच्चाई मिल गई। मत्ती महसूल की चौकी पर बैठ अपना काम कर रहा था। जब उस को बुलाहट आई। उस ने फ़ौरन ये ख़ज़ाना पहचान लिया। और उस पर क़ब्ज़ा पाने की पूरी पूरी तवज्जोह की कोशिश करने लगा। उस को बेशक सच्चाई अचानक मिली लेकिन उसने सच्चाई को जाने ना दिया। क्या हम इसी तरह मौक़े से फ़ायदा उठाने के लिए हमेशा तैयार होते हैं।

लूक़ा 5 बाब 8 ता 11 आयत : ये लोग अपना तवज्जोह और कोशिश से अपना काम कर रहे थे जब हक़ीक़त उनको मिल गई। जब उन्होंने उस रोज़ सवेरे सवेरे काम शुरू किया तो उनको इल्म भी ना था कि आज ऐसी दौलत मिलेगी। लेकिन जब वो ख़ज़ाना मिला तो उन्होंने उस की क़द्र की। उन्होंने देखा कि ये दौलत ऐसी है जो पहले कभी ना देखी थी। उन्होंने फौरन उस को हासिल कर लिया। उन्होंने मसीह की बुलाहट को अपने पेशे से और घर व ख़ानदान से भी अफ़्ज़ल व बेहतर समझा और उस की पैरवी में निकल खड़े हुए।

लूक़ा 19 बाब 1 ता 10 आयत : ये उस शख़्स का बयान है जिसने ख़ज़ाने की तलाश तो की मगर कोशिश के साथ नहीं। उस ने सिर्फ ताज्जुब व तमाशे के तौर पर इस की तलाश की। इस क़िस्म की हैरत व अनोखी चीज़ को देखने और परखने की ख़्वाहिश सच्चाई की तलाश की बुनियाद होती है। ये उस का पहला क़दम था और उसने वो चीज़ पाई जो उस की उम्मीदों से कहीं बढ़-चढ़ कर थी इस की उसने क़द्र पहचानी और फ़ौरन उस को हासिल करने में लग गया क्या हम भी ज़की की तरह सरगर्मी और जोश रखते हैं। क्या हम जानते हैं कि वो सच्चाई जो मसीह में है और मसीह से हासिल होती है दुनिया में सबसे आला चीज़ है।

मत्ती 19 बाब 16 ता 22 आयत : हम उस आदमी को ज़रूर बेवकुफ कहेगे जो किसी अच्छी चीज़ की तलाश में हो और जब वो मिल जाये तो उस को हासिल करने या ख़रीदने की कोशिश ना करे। हालाँकि क़ीमत भी उस के पास हो। वो शख़्स जो उम्दा मोती की तलाश में था। जब मोती उस को मिल गया। अगर वो उस वक़्त इस मोती को ना ख़रीदता तो हम उस को बेवक़ूफ़ कहते।

यहां उस को सच्चाई मिल गई। मगर उसने सच्चाई को क़ुबूल ना किया। इसलिए कि रुपये पैसे को और दुनिया के माल को जो वो रुपये से हासिल कर सकता था। वो ज़्यादा प्यार करता था। वो सच्चाई को अव्वल दर्जे की चीज़ ना समझता था।

1 कुरिन्थियों 3 बाब 21 ता 23 आयत : ख़ुदा की बादशाहत और उस की सच्चाई एक ऐसा मोती है जो सबसे आला और अफ़्ज़ल है। इस मोती से हमको यहां और दूसरे जहान में कस्रत की ज़िंदगी मिलती है। और हम दुखों, आज़माईशों और तक़्लीफों को कोई शैय नहीं समझते। सच्चाई हमको आज़ाद करती है। और कामिल राह में हमारी राहनुमाई करती है।

क्या हमने इस कस्रत की ज़िंदगी का मुशाहिदा किया है? :

मत्ती 8 बाब 21 ता 22 आयत : मसीह उस शख़्स को कहता है कि अगर तुम ख़ुदा की बादशाहत और उसकी रास्तबाज़ी को हासिल करना चाहते हो तो किसी चीज़ का यहां तक कि ख़ानदान और बाल बच्चों का भी दरेग़ ना करो।

अगर हम ख़ुदा की बादशाहत को प्यार करते हैं तो हम किसी चीज़ को ख्वाह वो कितनी अज़ीज़ क्यों ना हो दरेग़ ना करेंगे।

मत्ती 10 बाब 37 ता 39 आयत : यहां भी मसीह वही तालीम देता है कि अगर हम नेक नीयत और इख्लास से ख़ुदा की बादशाहत के मोती की तलाश करें तो किसी दुनियावी चीज़ की परावह ना करेगी। जो चीज़ हमारी नज़रों में नफ़ीस और क़द्र वाली है उस के हासिल करने में हम हिम्मत नहीं हारेगे।

मत्ती 5 बाब 6 आयत : मसीह कहता है कि जो रास्तबाज़ी के भूके और प्यासे हैं जब तक उस रास्तबाज़ी को हासिल ना कर लें दम ना लेंगे। ऐसे लोगो को मसीह ने मुबारक लोग कहा है।

हमारे दिल में ख़ुदा की बादशाहत और उस की रास्तबाज़ी की भूक और प्यास होनी चाहिए। फिर हम बहुत कोशिश करेंगे और हमारी कोशिश ज़रूर कामयाब होगी।

लूक़ा 11 बाब 31 या 32 आयत : दुनिया में कामयाबी हासिल करने के लिए एक मुहक़्क़िक़ यानी चीज़ों की तहक़ीक़ात और तफ़तीश करने वाला दिमाग़ ज़रूरी है। ख़ुदा की बादशाहत में कामयाब होने के लिए भी ऐसे दिमाग़ की ज़रूरत है। जब तक हम सब्र और इस्तिक़लाल से तफ़तीश करने की तबीयत हासिल नहीं करते हम किसी चीज़ की तलाश में कामयाब नहीं हो सकते। मसीह मलिका सबा की मिसाल देकर कि किस तरह वो सुलेमान की हुकूमत मालूम करने के लिए दूर मुल्क से आई यहूदियों को शर्मिंदा करता है कि ख़ुदा की बादशाहत तो सुलेमान की हिक्मत से बढ़-चढ़ कर है तो भी हम मलिका सबा की तरह तफ़तीश व तलाश नहीं करते।

लूक़ा 11 बाब 9 ता 10 आयत : बाअज़ दफ़ाअ हमारे दिल में शक तो पैदा होता है। और हम कहते हैं कि तलाश करने की क्या ज़रूरत है हमें कुछ मिलेगा तो नहीं। क्या ज़रूर हमारी कोशिश कामयाब होगी? लेकिन मसीह ने यक़ीन दिलाया है कि अगर हम ढ़ूंढ़ेगे तो ज़रूर पाएंगे। पस शर्त यही है कि हम ढ़ूंडा करें और खटखटाया करें। दो दिली से या बे-उम्मीदी से नहीं बल्कि पूरी उम्मीद के साथ। हमारी सुस्ती और लापरवाही उमूमन हमें कामयाब नहीं होने देती ख़ुदा अपनी बादशाहत के भेद काहिल और सुस्त लोगों पर कभी ज़ाहिर नहीं करता।

गौर व बह्स के लिए सवालात :

  • तुम्हारे ख़याल में वह कौनसी बातें हैं जो इन्सान को ख़ुदा का ख़ज़ाना हासिल करने से रोके रखती हैं? क्या इनमें से कोई रुकावट तुम्हारी ज़िंदगी में भी है।
  • तुम्हारे ख़याल में ख़ज़ाना क्या है?
  • ज़िंदगी में कौन सी चीज़ बेहतरीन और आला है जिसको हासिल करने के लिए कोशिश करना चाहिए?
  • अगर कोई तलाश करे तो क्या वो ज़रूर ही हासिल करेगा?

दुआ : ऐ मेरे नजात देने वाले ख़ुदा मैं तेरा शुक्र करता हूँ कि तू ने अपनी बादशाहत के भेद हक़ीर और सादा-दिल लोगों पर ज़ाहिर किए हैं। ऐ बाप तुझे पसंद आया कि तू उन्हें आस्मान की बादशाहत का ख़ज़ाना अता करे।

ऐ मेरे मौला मुझ गुनेहगार पर रहम कर। मेरी आँखें खोल मेरे दिमाग़ को रोशन कर कि मैं सुस्ती और लापरवाही और कम हिम्मती को छोड़कर जुर्आत, मर्दानगी और इस्तिक़लाल के साथ तेरे बेश बहा खज़ाने की तलाश करूँ। और जब वो मुझे जहां भी मिले मैं अपना तन-मन धन देकर उसे हासिल कर लूं।

ऐ माफ़ करने वाले ख़ुदा मैंने ज़िंदगी में कितने ही मौक़े खो दिए मुझे माफ़ कर और बख़्श दे कि जब तेरी बादशाहत के बेश-क़ीमत मोती को हासिल करने का मौक़ा आए। तो मैं उसे जाने ना दूं। मसीह की ख़ातिर, जो बादशाहत का शहज़ादा है। आमीन।

(11)

नेक सामरी

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत लूक़ा 10 बाब 29 ता 37 आयत

“मगर उस ने अपने तेईं रास्तबाज़ ठहराने की ग़र्ज़ से येसू से पूछा फिर मेरा पड़ोसी कौन है? येसू ने जवाब में कहा कि एक आदमी यरूशलेम से यरीहो की तरफ़ जा रहा था कि डाकुओं में घिर गया। उन्हों ने उस के कपड़े उतार लिए और मारा भी और अधमुआ छोड़कर चले गए। इत्तिफ़ाक़न एक काहिन उस राह से जा रहा था और उसे देखकर कतरा कर चला गया। इसी तरह एक लावी उस जगह आया। वो भी उसे देखकर कतरा कर चला गया। लेकिन एक सामरी सफ़र करते-करते वहां आ निकला और उसे देखकर उस ने तरस खाया। और उस के पास आकर उस के ज़ख़्मों को तेल और मेय लगा कर बाँधा और अपने जानवर पर सवार कर के सराए में ले गया और उस की ख़बरगीरी की। दूसरे दिन दो दीनार निकाल कर भटियारे को दिए और कहा इस की ख़बरगीरी करना और जो कुछ इस से ज़्यादा ख़र्च होगा मैं फिर आकर तुझे अदा कर दूंगा गो उन तीनों में से इस शख़्स का जो डाकूओं में घिर गया था तेरी दानिस्त में कौन पड़ोसी ठहरा? उस ने कहा वो जिस ने उस पर रहम किया। येसू ने उस से कहा जा, तू भी ऐसा ही कर।”

मसीह ने एक आलिम शराअ के सवाल के जवाब में ये तम्सील कही थी। ये आलिम शराअ या फ़रीसी मसीह को जाल में फँसाना चाहता था। वो मसीह के पास आया और पूछा कि मैं हमेशा की ज़िंदगी का वारिस किस तरह बनूँ। ये फ़रीसी उन लोगों में से था, जो शरीअत की तफ़्सीर करते और उसका मतलब लोगों को समझाते हैं।

मसीह का जवाब मुकम्मल और लाजवाब था। जब इस फ़रीसी को कोई और बात ना सूझी तो उस ने मसीह से पूछा कि मेरा पड़ोसी कौन है फ़रीसी के ख़याल में उस के मज़्हब के मुताबिक़ पड़ोसी से मुराद सिर्फ यहूदी थे। इसलिए कि वो सामरियों और ग़ैर-यहूदियों को अपना पड़ोसी नहीं समझते थे।

इस तम्सील में मसीह फ़रीसी की तंग-नज़र को वसीअ और उस के तंगदिल को कुशादा करना चाहता है। ताकि वो देख सके कि वो ख़ुदा जो सबको प्यार करता है। किस नज़र से दुनिया के लोगों को देखता है।

इस तम्सील में मसीह यहूदी आलिमों और अछूतों में एक साफ़ मुक़ाबला दिखाता है। मज़्हबी रहनुमा आए और दामन समेट कर पास निकल गए। उन में वो हमदर्दी और रूह ना थी जो पड़ोसी में होनी चाहिए। उनको अगर फ़िक्र थी तो सिर्फ अपनी। लेकिन जब अछूत सामरी आया। उसने कोई हीला बहाना ना किया। बल्कि जो कुछ वो कर सका फ़ौरन ही उसने ज़ख़्मी मुसाफ़िर के लिए किया। उस ने मुसाफ़िर की ज़रूरत को देखा और अगरचे वो ज़ख़्मी मुसाफ़िर उस क़ौम से था। जिस क़ौम के लोग उस से नफ़रत करते थे और हो सकता था कि ये ज़ख़्मी मुसाफ़िर तंदुरुस्त हो कर बाद में किसी वक़्त उसे तक्लीफ़ पहुंचाए। तो भी इस रहम-दिल सामरी ने आओ देखा ना ताव फ़ौरन ख़तरे में पड़ कर अपना वक़्त और रुपया उस की जान पहचान के लिए ख़र्च कर दिया।

अब आलिम शराअ को मानना पड़ा कि ये सामरी उस ज़ख़्मी मुसाफ़िर का असली पड़ोसी था ना कि वो दो यहूदी जो कि शरीअत के मुताबिक़ तो पड़ोसी थे लेकिन अमल में पड़ोसी ना थे।

मसीह ने इस तम्सील में ये तालीम दी कि ज़रूरत इस बात का फ़ैसला करती है कि कौन हमारा पड़ोसी है। यानी जो शख़्स हमारी मदद की ज़रूरत रखता है। वही हमारा पड़ोसी है। अगर हम में मसीह का रूह है तो हम हर एक मुहताज को अपना पड़ोसी समझेगे ख़्वाह वो ग़ैर देस का हो, हमारा मुख़ालिफ़ हो, अछूत हो, हमसे अदना हो, उम्र में बड़ा हो या छोटा। देखने के लायक़ सिर्फ यही बात होती है कि आया हम उस हाजत-मंद की मदद कर सकते हैं कि नहीं।

जिस शख़्स में पड़ोसी होने की रूह और ख़्वाहिश है वो कभी ये सवाल नहीं पूछता कि मेरा पड़ोसी कौन है। बल्कि वो ये सवाल करता है कि मैं किस के साथ दोस्ताना और पड़ोसियाना सुलूक कर सकता हूँ। ऐसे शख़्स के दोस्तों और पड़ोसियों का हलक़ा तंग नहीं होता बल्कि बहुत वसीअ होता है। वो ये नहीं पूछता कि फ़ुलां शख़्स को क्या हक़ हासिल है कि मैं उस की मदद करूँ बल्कि वो ये कहता है कि मैं किस तरह हम-जिंस इन्सान की मुसीबत और ज़रूरत के वक़्त मदद करूँ।

चाहिए कि हमारी ज़िंदगियों में दोस्ताना पड़ोसियाना हमदर्दी और उल्फ़त हो।

मसीह की ज़िंदगी में ये एक उभरी हुई बात थी। चाहिए कि हमारी ज़िंदगी में भी हो

इस दुनिया में यही सिफ़त मसीहिय्यत की सबसे बड़ी निशानी और मसीह की गवाह है। हम इसी तरह ख़िदमत कर के ही मसीह की गवाही दे सकते हैं।

जिसको मेरी मदद की ज़रूरत है। वही मेरा पड़ोसी है। ये तम्सील बहुत ही मशहूर है। लेकिन इस तम्सील की तालीम पर बहुत ही कम अमल होता है जब हम किसी हाजतमंद को देखते हैं तो अपने दिल में अक्सर ये सवाल करते हैं कि हम क्यों उस की मदद करें। और हम अक्सर ये समझते हैं कि सबसे पहले अपनी क़ौम वालों की मदद करना हमारा फ़र्ज़ है। नीज़ हम अक्सर उन की मदद करते हैं जिनकी बाबत हमें यक़ीन होता है, कि वक़्त पड़ने पर वह हमारी मदद करेंगे। जिससे हमें कभी कोई तक्लीफ़ पहुंची हो या जिनसे हमें रंजिश होती है। हम उनकी मदद नहीं करते। हम बाअज़ दफ़ाअ ये भी सोचते हैं कि इस या उस की मदद करने से हमें क्या फ़ायदा होगा। इसी लिए जहां हमें कुछ फ़ायदा नज़र ना आए या कुछ ख़सारा मालूम दे हम मदद नहीं करते। ये मसीही तबइयत नहीं है। मसीह ने उनके लिए दुआ की जिन्हों ने उस को सलीब पर लटकाया। मसीह ने आदमियों के दर्जे क़ौमियत ख़ानदान और इल्मियत तबीयत नहीं है। मसीह ने उन के लिए दुआ की जिन्हों ने उस को सलीब पर लटकाया। मसीह ने आदमियों के दर्जे क़ौमियत ख़ानदान और इल्मियत का ख़याल ना किया उस ने सिर्फ उन की जरूरतों को देखा और उनकी हाजत रवाई की। हर ईमानदार में यही तबीयत होनी चाहिए वो इन्सान जिसको मेरी और मेरी मदद की ज़रूरत है। मेरा पड़ोसी है जिस तरह मसीह सारी दुनिया के लिए है। उसी तरह उस के शागिर्द भी कुल आलम के लिए है। मसीह सारी दुनिया के लिए है। उसी तरह उस के शागिर्द भी आलम के वास्ते है। मसीह के बंदे को बग़ैर चूँ व चरा के मुहताजों और बे-कसों की मदद और ख़िदमत करना चाहिए मसीह की आख़िरी नसीहत हमारे लिए ये है कि जा और तू भी ऐसा ही कर।”

मुतालआ के लिए :

यूहन्ना 4 बाब 1 ता 11 आयत यहां हम देखते हैं कि मसीह ने पड़ोसी को मुहब्बत करने की तालीम पर किस तरह अमल किया। जिस किसी को मसीह की मदद की ज़रूरत होती थी। मसीह कभी इन्कार नहीं करता था। ना दरेग़ करता था। कोई ख़्वाह किसी क़ौम मज़्हब मुल्क या फ़िर्क़े का हो मसीह हर एक की मदद और ख़िदमत कर देता था। मसीह यहूदी था। लेकिन ग़ैर-यहूदी भी उस को यहूदियों की तरह प्यारे थे।

लूक़ा 8 बाब 1 ता 10 आयत : ये एक वाक़िया है जहां ख़याल किया जा सकता था। कि पड़ोसियाना मुहब्बत दिखाने में कुछ उज़्र हो सकता है। ये सरदार उन लोगों में से था जो मुल्क को फ़त्ह कर के अब लोगों पर हुक्मरानी कर रहे थे। गोया शख़्स ख़ुद अच्छा था तो भी दुश्मनों में से था और अजनबी था। लेकिन मसीह ने इस बात की परवाह ना की। इस तम्सील में इसी क़िस्म की तबीयत रखने और दिखाने की तालीम दी गई है।

आमाल 10 बाब 9 ता 18 आयत : पतरस मसीह के पास रहा मसीह की तालीम सुनता और सीखता रहा लेकिन वो भी इस तम्सील के मअनी और मतलब को पूरे तौर पर ना समझा। पस ख़ुदा ने उस पर एक ख्व़ाब या रोया के वसीले से इस तम्सील की तालीम ज़ाहिर की। इस रोया में उसे वो काम करने को कहा गया जो इस मज़्हब के उसूलों और रस्मों के ख़िलाफ़ था। इस रोया से चंद रोज़ पेश्तर पतरस ऐसी तालीम पर अमल करने के लिए बिल्कुल तैयार ना था। ये उस के लिए आसान भी ना था लेकिन ये तालीम सीखने के बाद उस ने फ़ौरन इस पर अमल करना भी शुरू कर दिया।

आमाल 22 बाब 18 ता 22 आयत : यहां पौलुस बयान करता है कि वो किस तरह ग़ैर क़ौमों के पास भेजा गया। पौलुस एक कट्टर यहूदी था और ग़ैर क़ौमों की नजात के बारे में बे-उम्मीद और लापरवाह था। लेकिन जब पड़ोसी को मुहब्बत करने की तालीम उसे मिली तो उस में तब्दीली आ गई।

यूनाह 4 बाब 1 ता 11 आयत : यूनाह नबी का वाक़िया इस बात को ज़ाहिर करता है कि यहूदी फ़क़त अपनी क़ौम से हम्दर्दी रखते थे। जब ख़ुदा ने नैनवा के लोगों को माफ़ किया तो यूनाह को रंज हुआ। उस में इस नेक सामरी की तबीयत ना थी। उस के नज़्दीक पड़ोसी वही थे। जो उस की ज़ात बिरादरी, उस के शहर या उस की क़ौम के थे। लेकिन ख़ुदा ने उसे दिखाया कि उस का ख़याल ग़लत था।

मत्ती 5 बाब 43 ता 48 आयत : यहां मसीह साफ़ तौर पर दिखाता है कि हम जो ख़ुदा की बादशाहत के शहरी (लोग) हैं। ये हमारा फ़र्ज़ बल्कि हक़ और तबीयत है कि हम दुश्मनों को प्यार करें। और बुरा चाहने वालों का भला करें और उन के लिए दुआ करें।

क्या हमने कभी अपने आपसे सवाल किया है कि मुझमें और ग़ैर-मसीहियों में क्या फ़र्क़ है। नेक सामरी की तबीयत रखने से हम में फ़र्क़ पैदा होगा।

ग़ौर व बह्स के लिए सवालात :

  • क्या कोई मौक़ा ऐसा याद है जब तुम हाजत-मंद को छोड़कर निकल गए?
    तुमने क्यों ऐसा किया?
    लोग उमूमन क्यों ऐसा करते हैं?
  • हम अपने लिए यानी ख़ुदगर्ज़ी के लिए नहीं बल्कि अपने जिंसों और पड़ोसियों के लिए बनाए गए हैं।”
    क्या तुम इस से मुत्तफ़िक़ हो?
  • आज मसीही हिन्दुस्तान में नेक सामरी का सा काम किस तरह कर सकते हैं?

दुआ : ऐ ख़ुदा तू जो पाक है। तू जो सबको प्यार करता है और सबकी ख़ैर लेता है। मैं तेरा ख़ाकसार और ख़ताकार बंदा इक़रार करता हूँ कि मुझमें ख़ुदगर्ज़ी और तंग-नज़री है और ख़ैर ख़्वाही की बहुत कमी है। मैंने इन्सानों की मदद ख़िदमत और बेहतरी के कई मौक़े जान-बूझ कर खो दिए इसलिए कि उनकी मदद और ख़िदमत में मुझे कोई ज़ाती नफ़ा नज़र ना आया।

अब ऐ रहीम बाप मुझे अपना रूह दे। मुझे मसीह की तरह मुहब्बत करना सीखा कि मैं हम-जिंसों के लिए सलीब और बर्दाश्त का रास्ता इख़्तियार करूँ और उनकी ख़िदमत और बेहतरी के लिए जो ज़रूर हो करूँ।

मुझे मसीह की सी तबीयत दे जिसने कहा कि मैं ख़िदमत लेने नहीं बल्कि ख़िदमत करने आया हूँ। बख़्श दे कि ख़िदमत और ख़ैर ख़्वाही का काम मेरी ज़िंदगी में आज बल्कि अभी शुरू हो। उसी का मुबारक नाम लेकर में ये अर्ज़ करता हूँ क़ुबूल फ़र्मा। आमीन।

(12)

भेड़ों बकरियों की तम्सील

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत मत्ती 25 बाब 31 ता 46 आयत

“जब इब्ने-आदम अपने जलाल में आएगा और सब फ़रिश्ते उस के साथ आएँगे तब वो अपने जलाल के तख़्त पर बैठेगा। और सब कौमें उस के सामने जमा की जाएँगी और वो एक को दूसरे से जुदा करेगा जैसे चरवाहा भेड़ों को बकरियों से जुदा करता है। और भेड़ों को अपने दहने और बकरियों को बाएं खड़ा करेगा। उस वक़्त बादशाह अपने दाहिनी तरफ़ वालों से कहेगा आओ मेरे बाप के मुबारक लोगो जो बादशाही बना-ए-आलम से तुम्हारे लिए तैय्यार की गई है उसे मीरास में लो। क्योंकि में भूका था। तुम ने मुझे खाना खिलाया। मैं प्यासा था। तुम ने मुझे पानी पिलाया। मैं परदेसी था। तुम ने मुझे अपने घर में उतारा। नंगा था। तुम ने मुझे कपड़ा पहनाया। बीमार था। तुम ने मेरी खबर ली। कैद में था। तुम मेरे पास आए। तब रास्तबाज़ जवाब में उस से कहेंगे, ऐ ख़ुदावन्द हमने कब तुझे भूका देखकर खाना खिलाया या प्यासा देखकर पानी पिलाया? हमने कब तुझे परदेसी देखकर घर में उतारा? या नंगा देखकर कपड़ा पहनाया? हम कब तुझे बीमार या कैद में देखकर तेरे पास आए? बादशाह जवाब में उन से कहेगा मैं तुम से सच कहता हूँ चूँकि तुम ने मेरे इन सबसे छोटे भाइयों में से किसी एक के साथ ये सुलूक किया इसलिए मेरे ही साथ किया। फिर वो बाएँ तरफ़ वालों से कहेगा, ऐ मलऊनो मेरे सामने से उस हमेशा की आग में चले जाओ जो इब्लीस और उस के फ़रिश्तों के लिए तैय्यार की गई है। क्योंकि में भूका था। तुम ने मुझे खाना ना खिलाया। प्यासा था। तुम ने मुझे पानी ना पिलाया। परदेसी था। तुम ने मुझे घर में ना उतारा। नंगा था। तुम ने मुझे कपड़ा ना पहनाया। बीमार और कैद में था। तुम ने मेरी खबर ना ली। तब वो भी जवाब में कहेंगे, ऐ ख़ुदावन्द हमने कब तुझे भूका या प्यासा या परदेसी या नंगा या बीमार या कैद में देखकर तेरी ख़िदमत ना की? उस वक़्त वो उन से जवाब में कहेगा मैं तुम से सच कहता हूँ चूँकि तुम ने इन सबसे छोटों में से किसी एक के साथ ये सुलूक ना किया इसलिए मेरे साथ ना किया। और ये हमेशा की सज़ा पाएँगे मगर रास्तबाज़ हमेशा की ज़िंदगी।”

इस तम्सील में मसीह हमें एक तस्वीर दिखाता है। जिसमें ये बात वाज़ेह की गई है कि आदमी और औरतों का किस तरह इन्साफ़ होता है। और किस इंतिज़ाम से वो भेड़ों और बकरियों की तरह दो गिरोहों में बाँटे जाते हैं उनसे अक़ीदे या दीनी उसूलों की बाबत कोई बात नहीं पूछी जाती। उन से सवाल नहीं किया जाता कि तुम किस पर ईमान रखते हो। उन से ये भी नहीं पूछा जाता कि तुम किस कलीसिया के शरीक हो। तुम कितनी दफ़ाअ गिरजे (जमाअत) में गए और लोगों में तुम्हारी निस्बत क्या ख़याल था। उन की आज़माईश उनके कामों से होती है कि आया उन्होंने अपने अक़ीदे और ईमान के मुताबिक़ काम भी किए या ना किए क्योंकि हम जिस बात पर ईमान रखते हैं। वो हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाती है और हम बग़ैर सोचे समझे उस पर अमल करते हैं। जब हम उसूलों पर अमल नहीं करते तो इस से साफ़ मालूम हो जाता है कि हम उन पर ईमान भी नहीं रखते। अगर वाक़ई उन उसूलों पर हमारा ईमान हो तो हम ज़रूर-बिल-ज़रूर और ख़्वाह-मख़्वाह उन के मुताबिक़ अमल करेंगे।

मसीह ने अक्सर ये बात बड़े ज़ोर से कही कि उस के शागिर्द फलों से पहचाने जायेगे। हमारे दिल की हालत हमारे कामों से जानी जाती है। इस तम्सील में इन्सानों के दो गिरोह हैं। एक गिरोह ने कुछ ऐसे काम किए थे जो दूसरे गिरोह ने ना किए इसी से मालूम हो गया कि उनका ख़ुदा के साथ और बंदों के साथ क्या ताल्लुक़ और सुलूक था। जिनको भेड़ें कहा गया है उनका ताल्लुक़ इन्सानों के साथ सही था और उनके दिलों में ख़ुदा की बादशाहत थी।

लेकिन दूसरे गिरोह के लोग जो अपने कामों में मगन थे और जिन्हें दूसरों की परवाह ना थी। ख़्वाह वो मरें या जिएँ उनमें मुहब्बत और दोस्ती जो मसीहियों की ख़ास सिफ़त हैं नहीं थीं और इस से मालूम हो गया कि उनके दिलों में ख़ुदा की बादशाहत भी नहीं थी। जहां ख़ुदा की बादशाहत हो वहां ख़ुदगर्ज़ी की बजाए मुहब्बत मुरव्वत और ख़ैर-ख़्वाही ही होगी। जिस दिल में ख़ुदा की बादशाहत है वो कभी ख़िदमत के बड़े-बड़े मौक़ों की तलाश और इंतिज़ार नहीं करता। वो अपनी ज़िंदगी में छोटे से छोटे मौक़े पर भी हल्की से हल्की ख़िदमत करने को तैयार रहता है। और जब वक़्त पड़ता है तो वो रह नहीं सकता प्यासे को ठंडे पानी का एक पियाला देना कुछ मुश्किल नहीं लेकिन मसीह ने कहा कि अगर तुम मेरे नाम से किसी को ठंडे पानी का एक पियाला पिलाओगे तो इसी से पहचाने जाओगे कि तुम मेरे शागिर्द हो। जहां ख़ुदा की बादशाहत है वहां एक तबीयत है। जो हल्की से हल्की और हक़ीर से हक़ीर ख़िदमत को फ़ख़्र और ख़ुशी से बल्कि हंस कर क़ुबूल करती और अंजाम देती है। असली मुहब्बत बड़े-बड़े कामों में नहीं बल्कि तमाम मौकों और अदना ख़िदमतों में ज़ाहिर होती है।

ख़याल करो उस गिरोह ने जिसको भेड़ों का गिरोह कहा गया है। जो कुछ भी किया इनाम अज्र और शौहरत की ग़र्ज़ से नहीं किया। जब उन्हें बताया गया कि वो क्यों ख़ुदा की बादशाहत के लायक़ थे। तो हैरान हुए इसलिए कि उन्होंने नेकी के काम नेकी समझ कर किए थे। ना कि अज्र की ख़ातिर। उन्होंने बहिश्त की ख़ातिर ये काम नहीं किए थे। वो भूकों प्यासों बीमारों और मुहताजों पर मेहरबान थे। क्योंकि उन्होंने समझा कि ऐसा करना इन्सानी तबीयत का ख़ास्सा है। यूं उन्होंने ज़ाहिर किया कि उनमें दोस्ती नेकी और ख़ैर ख़्वाही की रूह थी जो उन्होंने ख़ुदा से हासिल की थी।

इस तम्सील से एक और नुक़्ता भी हासिल होता है। वो ये कि हमारी आज़माईश होती है। ये ज़रूरी नहीं कि हम आइन्दा अदालत का इंतिज़ार करें हमारी ज़िंदगी की अदालत मुहब्बत के क़ानून से हर रोज़ होती है। हम अपने फलों से पहचाने जाते हैं। अगर हम उनकी तरफ़ से जिनको हमारी ख़िदमत की ज़रूरत है ग़ाफ़िल रहें और अगर हम ख़िदमत और रिफ़ाक़त के अदना मौक़ों को हक़ीर जानें तो उन्ही से हम परखे जाते हैं।

इस तम्सील में बकरियों ने यानी जिस गिरोह को बकरियां कहा गया है उस ने ज़ाहिरन कोई क़सूर नहीं किया था। हाँ उनका यही क़सूर था कि उन्हों ने कुछ भी ना किया। उनकी हालत उस आदमी की सी थी जिसने एक तोड़ा लेकर ज़मीन में गाड़ दिया। अपने हम-जिंसों की ख़िदमत और मदद के बारे में वो बिल्कुल लापरवाह और बेकार थे। यही वजह है कि वो रद्द किए गए। मसीही ज़िंदगी बेकार नहीं बल्कि काम की ज़िंदगी होनी चाहिए। बदी ना करना काफ़ी नहीं। नेकी भी करना चाहे जिस तरह कि मसीह ने कहा कि जब आदमी में से बदरुह निकल जाती है तो उस का दिल ख़ाली नहीं रहना चाहिए। उस में पाक रूह आना चाहिए। अगर पाक रूह ना आए और दिल कुछ देर के लिए ख़ाली पड़ा रहे तो उस में एक की बजाए सात बद-रूहें आती हैं।

मुतालआ के लिए :

मत्ती 21 बाब 28 ता 31 आयत : यहां मसीह ने तालीम दी कि जो शख़्स मेहनती और ख़िदमतगुज़ार है वही ख़ुदा की बादशाहत के लायक़ है इन दो लड़कों में पहला लड़का नाफ़र्मान था। उस ने बाप का हुक्म मानने से इन्कार कर दिया। मगर बाद में तब्दील हो गया। और ताबेदारी की। दूसरा लड़का बातों से घर पूरा करता और चिकनी चुपड़ी बातों से बाप को ख़ुश करता था। ख़ुदा हमसे लफ़्ज़ नहीं बल्कि काम तलब करता है। चिकनी-चुपड़ी बातें करना और हाथ पांव से कुछ ना करना फ़ुज़ूल है।

मत्ती 10 बाब 40 ता 42 आयत : मसीह छोटी-छोटी ख़िदमतों की तरफ़ ध्यान देता है। ये कहना कि हमें ख़िदमत का मौक़ा नहीं मिलता दुरुस्त नहीं मसीह हमसे वही ख़िदमत तलब करता है जो हमारे बस में हो। इस से ज़्यादा नहीं। अगर हम छोटे-छोटे कामों में दयानतदार हैं तो बड़े मौक़ों पर भी ज़रूर दयानतदार साबित होंगे।

मत्ती 18 बाब 61 आयत : हर बात ग़ौर के लायक़ है कि मसीह बच्चों को किस क़द्र प्यार करता था। वो देखता है कि हम बच्चों को किस नज़र से देखते हैं यानी मुहताजों और ग़रीबों के साथ हमारा क्या सुलूक है। ऐसों के लिए छोटी से छोटी ख़िदमत भी मसीह की नज़रों में बड़ी क़द्र रखती है।

मत्ती 19 बाब 13 ता 15 आयत : ये इस बात की मिसाल है कि मसीह बच्चों से किस तरह मुहब्बत रखता था। वो हमेशा उन की तरफ़ तवज्जोह देने के लिए तैयार था। ख़ुदा की बादशाहत में वो लोग शामिल हैं जो छोटे बच्चों की तरह हैं। यानी जो सादा-दिल मुहब्बत वाले और भरोसे के लायक़ हैं मसीह चाहता है कि हम छोटे बच्चे की तरह हर एक शख़्स को मुहब्बत और इज़्ज़त की निगाह से देखें। ये सच्च है कि बाअज़ दफ़ाअ बड़ी ख़िदमत की निस्बत छोटी ख़िदमत करना होता है।

मत्ती 20 बाब 25 ता 29 आयत : मसीह दुनिया के लोगों की तरह बड़ाई की ख्वाहिश नहीं करता था। मसीह उस आदमी को बड़ा नहीं कहता था। जिसका रुत्बा बड़ा हो। जो मालदार हो ज़्यादा रसूख़ वाला हो। वो उस को बड़ा समझता था जो ख़ुशी से ज़्यादा ख़िदमत करे।

यूहन्ना 13 बाब 1 ता 15 आयत : यहां मसीह ने एक नमूना दिया है। शागिर्द समझते थे कि अदना ख़िदमत से हम दूसरों की नज़रों से गिर जाएंगे। मसीह ने ख़ुद अदना ख़िदमत कर के उनको शर्मिंदा किया। कोई काम जिसमें दूसरों का भला हो अदना नहीं। अगर मसीह छोटे-छोटे काम कर सकता था तो हम क्यों नहीं कर सकते? और अगर हम नहीं कर सकते तो हम मसीह के इम्तिहान में पास नहीं हो सकते।

मत्ती 23 बाब 1 ता 12 आयत : यहां मसीह ने कहा है कि ख़ुदा की बादशाहत में बड़ाई की पहचान ख़िदमत से होनी चाहिए। हम एक ही बाप की औलाद हैं। पस हम सब बराबर हैं।

ग़ौर व बह्स के लिए सवालात :

  • कहते हैं कि यागानगत का ना होना दुनिया की मुसीबतों का बाइस है क्या तुम्हारे ख़याल में ये बात दुरुस्त है?
  • वो कौनसी बात है जो हमें छोटी-छोटी ख़िदमतों से जो मसीह की नज़रों में क़द्र रखती हैं रोकती है? हम किस तरह इस का ईलाज कर सकते हैं?
  • मसीह ने अपने आपको मुहताजों में गिना है। क्या हम में हम्दर्दी की रूह है? हम किस तरह ये तबीयत पैदा कर सकते हैं?

दुआ : ऐ बुज़ुर्ग बाप तू जो अपनी मख़्लूक़ात की ख़िदमत करता और थकता नहीं। तू जिसने अपने बेटे से भी गुनेहगारों की ख़िदमत करवाई। मैं तेरे उसी बेटे का वास्ता देकर इल्तिमास करता हूँ कि मुझे ताक़त दे और बख़्श दे कि वो ताक़त मुहताजों, बेकस और बेसहारा लोगों की ख़िदमत में ख़र्च करूँ। ख़िदमतगुज़ारी में मुझे मसीह जैसा बना। मुझे बराबरी और बिरादरी की तबीयत दे कि मैं तेरी ख़िदमत करूँ और इन्सान का लायक़ ख़ादिम बनूँ।

मसीह की ख़ातिर। आमीन।

(13)

दौलतमंद और लाज़र

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत लूक़ा 16 बाब 19 ता 31 आयत

“एक दौलतमंद था जो अर्ग़वानी और महीन कपड़े पहनता और हर रोज़ ख़ूशी मनाता और शानो शौकत से रहता था। और लाज़र नाम एक गरीब नासूरों से भरा हुआ उस के दरवाज़े पर डाला गया था। उसे आरज़ू थी कि दौलतमंद की मेज़ से गिरे हुए टुकड़ों से अपना पेट भरे बल्कि कुत्ते भी आकर उस के नासूर चाटते थे। और ऐसा हुआ कि वो गरीब मर गया और फ़रिश्तों ने उसे लेजा कर अब्रहाम की गोद में पहुंचा दिया और दौलतमंद भी मरा और दफ़न हुआ। उस ने आलम-ए-अर्वाह के दरमियान अज़ाब में मुब्तला हो कर अपनी आँखें उठाईं और अब्रहाम को दूर से देखा और उस की गोद में लाज़र को। और उस ने पुकार कर कहा ऐ बाप अब्रहाम मुझ पर रहम कर के लाज़र को भेज कि अपनी उंगली का सिरा पानी में भिगो कर मेरी ज़बान तर करे क्योंकि मैं इस आग में तड़पता हूँ। अब्रहाम ने कहा बेटा याद कर कि तू अपनी ज़िंदगी में अपनी अच्छी चीज़ें ले चुका और इसी तरह लाज़र बुरी चीज़ें लेकिन अब वो यहां तसल्ली पाता है और तू तड़पता है। और इन सब बातों के सिवा हमारे तुम्हारे दरमियान एक बड़ा गढ़ा वाक़ेअ है। ऐसा कि जो यहां से तुम्हारी तरफ़ पार जाना चाहें ना जा सकें और ना कोई उधर से हमारी तरफ़ आ सके। उस ने कहा पस ऐ बाप मैं तेरी मिन्नत करता हूँ कि तू उसे मेरे बाप के घर भेज। क्योंकि मेरे पाँच भाई हैं ताकि वो उन के सामने इन बातों की गवाही दे। ऐसा ना हो कि वो भी इस अज़ाब की जगह में आएं। अब्रहाम ने उस से कहा उन के पास मूसा और अम्बिया (की किताबें) तो हैं। उन की सुनें। उस ने कहा नहीं ऐ बाप अब्रहाम। हाँ अगर कोई मुर्दों में से उन के पास जाये तो वो तौबा करेंगे। उस ने उस से कहा कि जब वो मूसा और नबियों ही की नहीं सुनते तो अगर मुर्दों में से कोई जी उठे तो उस की भी ना मानेंगे।”

इस तम्सील के दो हिस्से हैं। पहले हिस्से में दौलतमंद और उस के माल, नौकर चाकरों और एशो इशरत का ज़िक्र है। उस के दरवाज़े पर एक मुहताज पड़ा हुआ है। जिसके पास दुनिया का माल बिल्कुल नहीं। दौलतमंद ये नहीं समझते कि उस की दौलत उस को गरीबों की ख़िदमत का मौक़ा देती है वो हर रोज़ मुहताज लाज़र को अपने दरवाज़े पर देखता है। उस के पास से गुज़र जाता है। लेकिन अपनी दौलत से इस मुहताज की ज़रूरतें पूरी करने की कभी फ़िक्र नहीं करता।

मुम्किन है कि वो ज़ालिम नहीं था सिर्फ लापरवाह था। उसने कभी इस मुहताज का ख़याल ना किया और ना ये सोचा कि वो उस के लिए क्या कुछ कर सकता है। और इसी लापरवाही के सबब ख़िदमत का मौक़ा खो दिया।

यहां भी वही हालत है जो नेक सामरी की तम्सील में थी। दोनों में नतीजा एक ही है। जिस तरह लावी और काहिन लापरवाही से ज़ख़्मी मुसाफ़िर के पास से गुज़र गए। उसी तरह ये दौलतमंद उस मुहताज के पास से गुज़र जाता था। जो उस के दरवाज़े पर पड़ा था। सबब ये था कि उस का ताल्लुक़ हम-जिंस इन्सानों के साथ दुरुस्त ना था। उस में दोस्ती और रिफ़ाक़त का शौक़ नहीं था और ना ही हम्दर्दी थी। क्योंकि वो अपनी दौलत के नशे में था। उसे सिर्फ दुनियावी चीज़ों का शौक़ था। दौलत का यही ख़तरा है। दौलत एक अच्छा ख़ादिम है। लेकिन सख़्त और नालायक़ आक़ा भी है।

ऐसी आज़माईश सिर्फ़ दौलतमंद पर ही नहीं आती। हर एक पर आती है। हम सब दौलत के नशे में मस्त हो कर रुहानी बातों को भूल जाते हैं। जब ऐसी आज़माईश हम पर ग़ालिब आती है। तो हम दूसरों से हम्दर्दी और दोस्ती नहीं रख सकते। अगर हमारे पास दौलत ना हो तो कम अज़ कम हमारे पास वक़्त, लियाक़त और कई चीज़ें होती हैं। जिनको हम दूसरों की ख़िदमत के लिए इस्तिमाल कर सकते हैं जो कुछ हमारे पास है अगर हम उसे अपने ही शौक़ और फ़ायदे के लिए इस्तिमाल करने में मगन हैं तो हम इस अमीर आदमी की तरह हैं। हम दूसरों को भूल जाते हैं।

तम्सील के दूसरे हिस्से में दौलतमंद और लाज़र की हालत बिल्कुल बदली हुई है। हमारी आने वाली ज़िंदगी की हालत हमारी एसी ज़िंदगी से बनती है। दौलतमंद ने इसी ज़िंदगी के बीज की फ़स्ल दूसरी ज़िंदगी में काटी है।

इस तम्सील में दूसरी दुनिया की बाबत तालीम नहीं दी गई। बल्कि सिर्फ एक उसूल दिखाया गया है। और वो उसूल ये है जो कुछ हम इस दुनिया में करते हैं। उसी से हमारी आइन्दा ज़िंदगी की हालत बनेगी।

इस तम्सील में ये नहीं सीखाया गया कि तमाम अमीर लोग दोज़ख़ में जायेगे और ग़रीब बहिश्त में। बल्कि ये सीखाया गया है कि जो कुछ भी ख़ुदा ने दिया है। अगर हम उसे दूसरों की ख़िदमत के लिए इस्तिमाल नहीं करते तो आने वाली ज़िंदगी में हम ख़ुदा के साथ नहीं हो सकेंगे।

इस तम्सील में यही सबक़ है कि जो तोहफ़े और इनाम ख़ुदा ने हमें दिए हैं चाहे दौलत हो, वक़्त हो, लियाक़त हो, इज़्ज़त हो, जो कुछ भी हो, चाहिए कि हम उसे दियानतदारी और हम्दर्दी से दूसरों की ख़िदमत के लिए ख़र्च करें। ख़ुदा की बादशाहत दोस्ती और रिफ़ाक़त की बादशाहत है।

मुतालआ के लिए :

मत्ती 6 बाब 19 ता 23 आयत : यहां मसीह दिखाता है कि रुपया पैसा ख़ुदा की बादशाहत के मुक़ाबले में कुछ भी नहीं। ये हो नहीं सकता कि कोई आदमी दौलत का नशा रखते हुए इन्सानों की ख़िदमत कर सके।

मत्ती 16 बाब 24 ता 26 आयत : अगर मसीह के मतलब को समझलें तो रूकावटों को जो ख़िदमत से रोकती हैं आसानी से रोक सकते हैं।

क्या हम मसीह की तालीम को समझते और मानते हैं। शायद हम जवाब देंगे कि हाँ। अगर हम मानते हैं तो हम क्यों उस के मुताबिक़ ज़िंदगी नहीं गुज़ारते।

मत्ती 19 बाब 16 ता 22 आयत : ये उस आदमी का ज़िक्र है जो अपने माल में मगन था। लेकिन उस का माल किसी फ़ायदे का नहीं था। अपने माल को अपनी तरक़्क़ी के लिए इस्तिमाल करने के बजाए वो माल का ग़ुलाम बन गया। मालूम होता है कि उस में रुहानी बातों का शौक़ था। लेकिन माल और दौलत की मुहब्बत ने झाड़ियों की तरह इस शौक़ को दबा लिया।

क्या ये सच्च नहीं है कि हम मसीह की उतनी ही ख़िदमत करते हैं जो हमारे शौक़ और हमारी दिलचस्पियों में रूकावट पैदा ना करे।

ग़ौर व बह्स के लिए सवालात :

  • क्या दौलत की आज़माईश सिर्फ़ अमीर लोगों पर आती है या सब पर आती है? दौलत का असली ख़तरा क्या है?
  • हम किस तरह दौलतमंद आदमी की मानिंद हैं? इस का क्या ईलाज है?
  • इस तम्सील की तालीम का तोड़ों की तम्सील से मुक़ाबला करो।

दुआ : ऐ मेहरबान बाप तेरा शुक्र है कि तू ने ज़िंदगी और तंदरुस्ती दी है। और इस ज़िंदगी की ख़ुशी के लिए मेरी ज़रूरत के लिए इस ज़िंदगी में तू मौक़ा देता है।

ऐ ख़ुदा मैं इक़रार करता हूँ कि मैंने बहुत से मौक़े खो दिए हैं। दोस्तों, मुहताजों, जाहिलों, मसीहियों को ना जानने वालों की ख़िदमत के कई मौक़े आए मगर मैंने लापरवाही से खो दिए। ईमानदारों के साथ दोस्ती और रिफ़ाक़त के कई मौक़े आए वो भी मेरी ग़फ़लत से जाते रहे।

अब ऐ रहीम बाप मैं संजीदगी और ख़ाकसारी से दरख़्वास्त करता हूँ कि मुझे पाक रूह अता कर जिससे मैं तेरी बातों को समझूं। तेरे कलाम को जानूं और इस ज़िंदगी में ग़फ़लत से बच कर तेरी मर्ज़ी पूरी करूँ। मुझे ख़तरों से बचा और आज़माईशों में कामयाब बना। मसीह की खातिर। आमीन।

(14)

नादान दौलतमंद

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत लूक़ा 12 बाब 16 ता 21 आयत

“और उस ने उन से एक तम्सील कही कि किसी दौलतमंद की ज़मीन में बड़ी फ़स्ल हुई। पस वो अपने दिल में सोच कर कहने लगा मैं क्या करूँ क्योंकि मेरे हाँ जगह नहीं जहां अपनी पैदावार भर रखूं। उस ने कहा मैं यूँ करूँगा कि अपनी कोठियाँ ढा कर उन से बड़ी बनाऊँगा। और उन में अपना सारा अनाज और माल भर रखूँगा और अपनी जान से कहूँगा ऐ जान तेरे पास बहुत बरसों के लिए बहुत सा माल जमा है। चेन कर। खा पी। ख़ूश रह। मगर ख़ुदावन्द ने उस से कहा ऐ नादान इसी रात तेरी जान तुझ से तलब कर ली जाएगी। पस जो कुछ तू ने तैय्यार किया है वो किस का होगा? ऐसा ही वो शख़्स है जो अपने लिए ख़ज़ाना जमा करता है और ख़ुदा के नज़्दीक दौलतमंद नहीं।”

एक आदमी मसीह के पास गया और कहा कि मेरे और मेरे भाई के दर्मियान जायदाद का झगड़ा है। उस का फ़ैसला कर दे मसीह ने इन्कार किया और उस शख़्स को और तमाम सुनने वालों को कहा कि लालच से ख़बरदार रहो। तब उस ने उन्हें ये तम्सील सुनाई। ये तम्सील लालच से ख़बरादार करती है। मसीह ने एक दफा कहा था जहां तुम्हारा ख़ज़ाना है, वहां तुम्हारा दिल भी होगा। अब इस आदमी का दिल दुनिया के माल में था और इस के दिल में भाई के ख़िलाफ़ लालच भी था। इस शख़्स ने अपनी बातों में कई दफ़ाअ लफ़्ज़ “मेरा, मेरे और मैं” इस्तिमाल किया है। मसलन अपनी पैदावार, मेरा माल, मेरी जान, मेरी ख़ित्ते वग़ैरह।

ये शख़्स बहुत ही खुदगर्ज़ था। उसने दूसरों की बिल्कुल फ़िक्र ना करी। ख़ुदा की भी परवाह ना की। उस को अपना और अपनी दिलचस्पियों का ख़याल था। ग़रज़ कि इस शख़्स का ताल्लुक़ अपने हम-जिंसों के साथ बहुत कमज़ोर था। एक सूरत में इस का हम-जिंसों के साथ कोई ताल्लुक़ था ही नहीं किसी से दोस्ती ना थी। और ना वो किसी की मदद के लिए तैयार था। वो पहली तम्सील के दौलतमंद की तरह परवाह ना करता था। वो अपने ख़यालों में इस क़द्र महव था कि दूसरों के बारे में सोचने का मौक़ा तक ना मिला।

ये शख़्स अपनी कमज़ोरी से वाक़िफ़ ना था। वो समझता था कि उस की ज़िंदगी महफ़ूज़ है और उस को किसी की परवाह नहीं। उस का भरोसा ऐसी चीज़ पर था। जो मौक़े पर और हर मुआमले में उस को मदद नहीं दे सकती थी। अब उस को मालूम हो गया कि मुफ़ीद ज़िंदगी और ख़ुशी की ज़िंदगी का दारोमदार दुनियावी माल पर नहीं।

ये शख़्स अपनी कमज़ोरी से वाक़िफ़ ना था। वो समझता था कि उस की ज़िंदगी महफ़ूज़ है और उस को किसी की परवाह नहीं। उस का भरोसा ऐसी चीज़ पर था। जो मौक़े पर और हर मुआमले में उस को मदद नहीं दे सकती थी। अब उस को मालूम हो गया कि मुफ़ीद ज़िंदगी और ख़ुशी की ज़िंदगी का दारोमदार दुनियावी माल पर नहीं।

इस तम्सील से हम ये सीखते हैं कि हमारा माल हमारी हस्ती का हिस्सा नहीं बल्कि सिर्फ़ हमारी ज़िंदगी की तरक़्क़ी और ख़ुशी की चीज़ें है। असली चीज़ हमारी सीरत या हमारा चाल-चलन है और दुनिया का माल सिर्फ़ सीरत और चाल-चलन बनने और बनाने में मदद देता है। इस आदमी ने इस नुक्ते को नहीं समझा था। यही सबब है कि जब दुनिया का माल उसे छोड़ना पड़ा तो उस के पल्ले कुछ भी ना रहा। लालच का सबसे बड़ा ख़तरा यही है। ये हमारी सीरत या अख़्लाक़ की तरक़्क़ी को रोकता है। ये हमें असली चीज़ों से रोक कर नक़्ली चीज़ों की तरफ़ लगाता है।

मुतालआ के लिए :

लूक़ा 12 बाब 31 ता 34 आयत : अगर हमारे दिल में ख़ुदा की बादशाहत का ख़याल अव्वल जगह रखता है तो हम बाक़ी चीज़ों की सही क़द्र समझने में भी ग़लती ना करेंगे। मसीह ने दुरुस्त कहा है कि “जहां तुम्हारा माल है वहां तुम्हारा दिल भी लगा रहेगा।”

मत्ती 6 बाब 22 ता 30 आयत : इस नादान ने ख़ुदा का बिल्कुल ख़याल ना किया। मसीह कहता है कि वो जो बादशाहत में आ गए हैं। वो रूपये पैसे और माल को अव्वल जगह नहीं देते। ऐसी ज़िंदगी के लिए मज़्बूत और ज़िंदा ईमान की ज़रूरत है।

ज़बूर 39 बाब 6 आयत : एक साहब इस आयत का तर्जुमा यूं करते हैं आदमी सिर्फ एक वहम और ख़याल में चलता फिरता है। वो यूंही शोर करता है। वो जमा करता है। और जानता नहीं कि कौन उसे सँभालेगा क्या ये सच्च नहीं है कि हमारी बहुत सी कोशिश और शोर बेफ़ाइदा होते हैं। हमारी बहुत सी कोशिशों को ये नतीजा होत है कि ना हमें फ़ायदा होता है और ना ही किसी और को।

याक़ूब 5 बाब 1 ता 6 आयत : इस में दिखाया गया है कि दौलत का शौक़ इन्सान को किस तरह बर्बाद कर सकता है। ऐसे शख़्स बहुत ही बदनसीब होते हैं। दुनिया के माल का शौक़ उनसे बे इंसाफ़ी और जुर्म करवाता है। हमें दुनिया के माल के फ़िक्र में ज़िंदगी का असली मक़्सद भूलना नहीं चाहिए।

गौर व बह्स के लिए सवालात :

  • फ़र्ज़ करो कि तुम्हारा माल तुमसे ले लिए जाये जैसा कि एक रोज़ ज़रूर होगा तो क्या उस के बाद तुम्हारे पास असली और ज़रूरी चीज़ें होंगी या नहीं?
  • नादान दौलतमंद को फ़िक्र थी कि मैं अपना माल कहाँ जमा करूंगा। क्या तुम इस का सही जवाब दे सकते हो?
  • क्या तुम इन कहावतों से मुत्तफ़िक़ हो?
  • जो मैंने बचाया वो खोया। जो मैंने ख़र्च किया वो जमा किया और जो मैंने दिया वो पाया।
  • अपनी ज़िंदगी गुज़ारने के लिए अपने ही वजूद और हस्ती को काफ़ी समझना बद-बख़्ती है।

दुआ : ऐ ख़ुदा हमारे आस्मानी बाप तेरा शुक्र है, कि तू जो ज़मीन और आस्मान का मालिक और ज़िंदगी का सरचश्मा है तू ने मुझे ज़िंदगी दी है और ज़िंदगी की रोज़ाना जरूरतों के लिए मेरी हाजतों के मुताबिक़ दुनिया का माल भी अता किया है। बख़्श दे ऐ ख़ुदावंद कि मैं दुनियावी और रुहानी मुआमलात को समझ सकूँ और उनका फ़र्क़ पहचान सकूँ। मुझे बीनाई दे जो दुनिया की चीज़ों को नहीं बल्कि आलम-ए-बाला की चीज़ों को देख सके। मुझे वो दिल दे जो दुनिया के माल पर ना ललचाए। बल्कि रुहानी चीज़ों की ख़्वाहिश रखे। अज़ली हक़ीक़तों यानी सच्चाई और मुहब्बत की पैरवी करे। जिनके लिए तू ने अपना प्यारा बेटा क़ुर्बान किया। ये भी बख़्श दे कि मैं दुनिया का इत्मीनान नहीं बल्कि तेरा इत्मीनान हासिल करूँ और जो क़ैसर का है क़ैसर को और जो ख़ुदा का है ख़ुदा को अदा करूँ। मैं इस माल से जो तू ने मुझे अता किया है वो दोस्त पैदा करूँ जो मुझे अबदी मकानों में जगह देंगे। जहां हक़ीक़ी और अबदी इत्मीनान है।

मसीह की ख़ातिर। आमीन।

(15)

बेरहम नौकर

इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ मत्ती 18 बाब 23 ता 35 आयत

“पस आस्मान की बादशाही उस बादशाह की मानिंद है जिस ने अपने नौकरों से हिसाब लेना चाहा। और जब हिसाब लेने लगा तो उस के सामने एक कर्ज़दार हाज़िर किया गया जिस पर उस के दस हज़ार तोड़े आते थे। मगर चूँकि उस के पास अदा करने को कुछ ना था इसलिए उस के मालिक ने हुक्म दिया कि ये और इस की बीवी बच्चे और जो कुछ उस का है सब बेचा जाये और क़र्ज़ वसूल कर लिया जाये पस नौकर ने गिर कर उसे सज्दा किया और कहा ऐ ख़ुदावन्द मुझे मुहलत दे। मैं तेरा सारा क़र्ज़ अदा करूँगा। इस नौकर के मालिक ने तरस खा कर उसे छोड़ दिया और उस का क़र्ज़ बख़्श दिया। जब वो नौकर बाहर निकला तो उस के हम-ख़िदमतों में से एक उस को मिला जिस पर उस के सौ दीनार आते थे। उस ने उस को पकड़ कर उस का गला घोंटा और कहा जो मेरा आता है अदा कर दे। पस उस के हम-ख़िदमत ने उस के सामने गिर कर उस की मिन्नत की और कहा मुझे मुहलत दे। मैं तुझे अदा कर दूंगा। उस ने ना माना बल्कि जा कर उसे क़ैदख़ाना में डाल दिया कि जब तक क़र्ज़ अदा ना कर दे कैद रहे। पस उस के हम-ख़िदमत ये हाल देखकर बहुत ग़मगीन हुए और आकर अपने मालिक को सब कुछ जो हुआ था सुना दिया। इस पर उस के मालिक ने उस को पास बुला कर उस से कहा ऐ शरीर नौकर मैंने वो सारा क़र्ज़ इसलिए तुझे बख़्श दिया कि तू ने मेरी मिन्नत की थी। क्या तुझे लाज़िम ना था कि जैसा मैंने तुझ पर रहम किया तू भी अपने हम-ख़िदमत पर रहम करता? और उस के मालिक ने ख़फ़ा हो कर उस को जल्लादों के हवाले किया कि जब तक तमाम क़र्ज़ अदा ना कर दे कैद रहे। मेरा आस्मानी बाप भी तुम्हारे साथ इसी तरह करेगा अगर तुम में से हर एक अपने भाई को दिल से मुआफ़ ना करे।”

ये तम्सील कहने की ज़रूरत यूं पड़ी कि पतरस ने सवाल किया भाई को कितनी दफ़ाअ माफ़ करना चाहिए। पतरस का ख़याल था कि सात बार माफ़ करना काफ़ी होता है। मसीह का जवाब ये था कि माफ़ी की कोई हद नहीं। जवाब की तश्रीह के लिए मसीह ने ये तम्सील कही।

इस तम्सील में मसीह ने एक शख़्स का अपने हम-जिंस के साथ नाक़िस और ग़लत क़िस्म का ताल्लुक़ दिखाया है। एक आदमी जिसको बहुत सा क़र्ज़ माफ़ कर दिया गया था। उसने अपने ग़रीब भाई को एक अदना सी रक़म माफ़ करने से इन्कार कर दिया। उस में सही क़िस्म की दोस्ती की रूह ना थी। ना ही रिफ़ाक़त का जज़्बा था। मसीही ज़िंदगी में इस के बग़ैर गुज़ारा नहीं।

हक़ीक़त में पहले आदमी ने अपने मालिक की माफ़ी को मंज़ूर ना किया था। यही सबब है कि उस ने अपने मक़रूज़ के साथ ऐसा सुलूक किया। क्या हम भी अक्सर एसा ही करते हैं?

माफ़ी में दो फ़रीक़ होते हैं। माफ़ करने वाला और माफ़ी पाने वाला दोनों के बग़ैर माफ़ी हो ही नहीं सकती। ख़ुदा हमेशा हमें माफ़ करने के लिए तैयार है। लेकिन जब तक हम तैयार ना हों और उस की माफ़ी क़ुबूल ना करें वह हमें माफ़ नहीं कर सकता। माफ़ी से ये मतलब नहीं कि हमारे क़सूर माफ़ हो गए और हम फिर कुछ ख़याल ही ना करें कि गोया कुछ हुआ ही नहीं। ख़ुदा की माफ़ी हम में तहरीक पैदा करती है और हमें ताक़त अता करती है। अगर हम सच्चे दिल से ख़ुदा की माफ़ी क़ुबूल करें तो हम में तब्दीली आएगी। हम-जिंसों के साथ हमारे ताल्लुक़ात नए हो जायेगे और हम उन्हें सत्तर के सात बार माफ़ करने में दरेग़ नहीं करेंगे।

मसीह इस तम्सील में ये नहीं सीखाता कि हम-जिंसों को माफ़ करना ख़ुदा की माफ़ी की शर्त है। ख़ुदा इस क़िस्म के सौदे नहीं करता। मसीह ये सीखाता है कि अगर ख़ुदा ने हमें माफ़ किया है। यानी अगर हम ने उस की माफ़ी क़ुबूल करली है तो हम में ख़्वाह-मख़्वाह दूसरों को माफ़ करने की तबीयत पैदा होगी। हम माफ़ किए बग़ैर नहीं रह सकेंगे। हम में माफ़ी की आदत नहीं बल्कि तबीयत पैदा होगी। आदत और तबइयत में बहुत फ़र्क़ है। इन्सान हुक्का पीता है। ये उस की आदत है। मगर रोटी खाना और पीना इन्सान की आदत नहीं बल्कि तबीयत है। आदत बन सकती है और फिर भी छूट सकती है लेकिन तबीयत दाइमी है।

इस तम्सील के पहले शख़्स ने माफ़ी क़ुबूल ना की सिर्फ माफ़ी का माली फ़ायदा क़ुबूल किया उनने मालिक की तबीयत क़ुबूल ना की और जब उस ने अपने मक़रूज़ को माफ़ करने से इन्कार किया तो उस की तबीयत क़ुबूल ना की और जब उस ने अपने मक़रूज़ को माफ़ करने से इन्कार किया तो उस की तबीयत का साफ़-साफ़ पता लग गया। उस में तौबा की रूह नहीं थी। माफ़ी एक रुहानी अमल है और दूसरों को माफ़ ना करना इस अम्र का सबूत है कि हमने ख़ुदा की बेशक़ीमत बख़्शिश यानी माफ़ी क़ुबूल नहीं की। छोटे बड़े तमाम मुआमलात में माफ़ी का उसूल एक ही है। बाज़ औक़ात हम बड़े-बड़े जुर्म आसानी से माफ़ कर देते हैं। लेकिन छोटी-छोटी ग़लतियों और नुक़्सानों का बदला लेते हैं। इसी से हमारी रुहानी हालत जांची जाती है। अगर हम दूसरों को माफ़ ना करना चाहें। दिल में ग़ुस्सा और कुदूरत (नफ़रत) रखें। दूसरों के मुताल्लिक़ मन-घड़त क़िस्से और ग़लत बयानात मशहूर करें। छोटे-छोटे क़सूर और ऐब बढ़ा कर बयान करें तो हमें मान लेना चाहिए कि ख़ुदा की माफ़ी की रूह हम में काम नहीं कर रही। हमारी रुहानी हालत ख़तरे में है और हमने माफ़ी को मुतल्लक़ा नहीं समझा।

ख़ुदा की माफ़ी हमें माफ़ करने वाला बनाती है। हमारी माफ़ी दूसरों को माफ़ करने वाला बनाती है। ख़ुदा नेक सिफ़ात और इलाही आदात इसी तरह सीखाता और फैलाता है। वो जो ऐसा नहीं करते ना ख़ुद ख़ुदा की बादशाहत के आने और उस की पाक मर्ज़ी को ज़मीन पर पूरा होने से रोकते हैं। देखिए दोस्ती और रिफ़ाक़त और माफ़ी किस तरह चुपके-चुपके ख़मीर की तरह ख़ुदा की बादशाहत ज़मीन पर लाती है।

मुतालआ के लिए :

2 कुरिन्थियों 2 बाब 6 ता 8 आयत : पौलुस कुरंथियुस वालों को कहता है कि माफ़ी में सेहत और शिफ़ा का अख़्ज़ है। माफ़ी की तबीयत गलतियां और क़सूर करने वालों को सही राह पर लाती है। और ना-उम्मीदी का मुक़ाबला करती है। ख़ुदा की माफ़ी का हम पर और हमारी माफ़ी का दूसरों पर भी अख़्ज़ होता है।

मत्ती 6 बाब 15 आयत : दुआ-ए-रब्बानी में मसीह ने हमें सीखाया है कि हम ख़ुदा से माफ़ी की दरख़्वास्त करें और जब वो हमें माफ़ करे तो उस की माफ़ी क़ुबूल कर के दूसरों को इसी तरह माफ़ करें जिस तरह ख़ुदा ने हमें माफ़ किया। जब हम दुआ करते हैं तो क्या इसी ख़याल से करते हैं?

कुलस्सियों 3 बाब 12 ता 15 आयत : माफ़ करने के लिए हमेशा तैयार रहना इस अम्र का सबूत है कि हम में मसीह का रूह है और हम दूसरों के साथ वही मेहरबानी और रिफ़ाक़त बरत सकते हैं जो उस ने हमारे साथ बरती।

मर्क़ुस 11 बाब 24 ता 26 आयत : अगर हम में माफ़ी की तबीयत ना हो तो ख़ुदा हमें माफ़ नहीं कर सकता जब तक हम उस की माफ़ी क़ुबूल करने को तैयार ना हो वो हमें माफ़ नहीं कर सकता। दूसरों को माफ़ ना करना ज़ाहिर करता है कि हमने ख़ुदा की माफ़ी क़ुबूल नहीं की।

ग़ौर व बह्स के लिए सवालात :

  •  अगर हम दूसरों को माफ़ करने के लिए तैयार नहीं हैं तो क्या हम “ऐ हमारे बाप” कह कर दुआ कर सकते हैं?
  •  क्या औरों को छोटी-छोटी ख़ताओं के लिए माफ़ करना हमारे लिए मुश्किल है? क्यों? इस का क्या ईलाज है?
  •  क्या माफ़ी से मुराद सिर्फ सज़ा से बचना है?

दुआ : ऐ मेहरबान आस्मानी बाप मैं तेरा ख़ताकार बंदा तेरा शुक्रगुज़ार हूँ कि तू मेरी ख़ताएँ देखता है मगर अपनी रहमत और शफ़क़त को मुझ पर जारी रखता है। मैं तेरी हुक्म-उदूली करता हूँ, तेरी मख़्लूक़ात के साथ सही ताल्लुक़ात नहीं रखता और इन्सानों को हक़ीर जानता हूँ। मगर शुक्र है तू जो सब कुछ देखता है। चश्म-पोशी करता है माफ़ करता है। और मुझे ज़िंदगी की राहों को बेहतर बनाने का मौक़ा देता है।

ऐ ख़ुदा मुझे माफ़ी की तबइयत अता कर। माफ़ी के बारे में मुझे येसू मसीह जैसा बना। जिसने सलीब पर दुश्मनों की माफ़ी की दरख़्वास्त की और उस की दरख़्वास्त मंज़ूर हुई जिसने गुनेहगारों को माफ़ किया और ख़ताकारों से मुहब्बत रखी।

ऐ ख़ुदा बाहमी नफ़रत अदावत और हसद ने शख़्सी और जमाअती ज़िंदगी को नुक़्सान पहुंचाया है। तू दिल की सफ़ाई। अख़्लाक़ी सेहत और रूह की मामूरी अता कर। मुझे रिफ़ाक़त और यगानगत की रूह दे मुझ पर रहम कर। मसीह की ख़ातिर। आमीन।