क़ुरआन
तस्नीफ़
अल्लामा पादरी जी॰ एल॰ ठाकुर दास
अमरीकन यूनाईटेड प्रेस्बिटेरियन मिशन
पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी के लिए लूदयाना
मतबा मिशन लूदयाना में बअहतमाम पादरी सी॰ बी॰ न्यूटन
मतबूअ हुआ।
1886 ई॰
“जिस बात का मैं तुमको हुक्म देता हूँ इस में ना तो कुछ बढ़ाना और ना कुछ घटाना”
(तौरेत शरीफ़ किताब इस्तिसना 4:2)
“लेकिन अगर हम या आस्मान का कोई फ़रिश्ता भी इस ख़ूशख़बरी के सिवा जो हमने तुम्हें सुनाई कोई और खुशखबरी तुम्हें सुनाए तो मलऊन हो।”
(इंजील मुक़द्दस ख़त ग़लतीयों 1:8)
Do not add to what I command you and do not subtract from it,
Deuteronomy 4:2
But even if we or an angel from heaven should preach a gospel other than the one we preached to you, let them be under God’s curse!
Galatians 1:8
Adam-i-Zarurat-i-Quran
Absence of any need for the Quran
Rev Allama G.L.Thakur Das
Showing that what that book has added to divine revelation is incorrect, while its re-statement as a fresh revelation of truths already promulgateri was unnecessary, with appendices on the Paraclete and “that prophet” (John1:20)
अदमे ज़रुरते
Rev Allama G.L.Thakur Das
1852 - 1910F
अदमे ज़रूरते क़ुरआन
दीबाचा
शुक्र और तारीफ़ हक़ सुब्हानहु तआला, ख़ालिक़ ज़मीन-ओ-ज़मान, मालिक-कौन-ओ-मकान को हो जो अपने इंतज़ाम-ए-ख़ास से इन्सान के हालात-ए-पाकीज़ा और आलूदा का निगरान हाल रहता है और अपनी मुहब्बत से उस की हिदायत करता है और हिदायत के लिए वो हिदायतनामा बख़्शा है जो बाइबल कहलाता है और इसी आस्मानी हिदायत को इन्सान के लिए हर अमरो-नहु (हुक्म मुमानिअत) का कामिल मख़ज़न ठहराया, जो फ़रेबियों और झूटे पेशवाओं की आज़्माईश की कसौटी का भी काम देती है। इस बाइबल की ये हालत हर तजावुज़ और आमेज़िश की मानेअ (मना करने वाली) है। ऐसा करने वालों के हक़ में वो ख़ौफ़नाक कलिमे कहती है। लेकिन बाअज़ लोग अपने तेईं कुछ ज़ाहिर करने का मौक़ा पा के और ख़ुदा के कलाम का कुछ लिहाज़ ना कर के अपनी बातों और ख़यालों को मुक़द्दम ठहराने लगते हैं। वो जो अपनी अक़्ल के तरीक़ पर चलते हैं अगर उनमें गाहे-गाहे ऐसे पेशवा उठें तो कुछ अंधेर की बात नहीं है, जैसे ब्रहमो समाज, आर्या समाज और कूका समाज वग़ैरह इस मुल्क में और बुद्धा, कनफ़ीयुशीस और लामा वग़ैरह सल्तनत चीन में। लेकिन अगर दायरा मुशाहदात रब्बानी में हो कर ख़ुद-पसंदी की ग़रज़ से ऐसी गुस्ताख़ी और बेतमीज़ी ज़हूर में आए तो अफ़्सोस सद-अफ़्सोस है और ये इस हाल में जब इज़्हार रब्बानी की बातें चुरा के और नीज़ मान के और क़दरे अमल कर के इसी के बरख़िलाफ़ लात उठाई जाये या बराबरी का इद्दिआ (दाअवेदार होना, दावा करना) ज़हूर में आए। ऐसों की ये हरकत ख़ुद उन्हें शर्मिंदा और नालायक़ ठहराती है।
हक़ीक़तन हमें पोप पर इस क़द्र रंज नहीं जिस क़द्र हज़रत मुहम्मद साहब पर है। गो नीयत दोनों की यकसाँ ही हो। हमारे मसीही बिरादरान ने मुहम्मद साहब और उस के क़ुरआन का ख़ुदा की तरफ़ से ना होना साबित किया है और बहुत ज़ोर के साथ किया है। लेकिन तस्नीफ़ हाज़ा में इन बातों का ख़्याल नहीं किया गया है कि आया मुहम्मद साहब ने मोअजज़े किए या साफ़ इन्कार ही किया, नबुव्वत की या ना की, एक आशिक़ मिज़ाज आदमी था या ना था वग़ैरह। मगर इस बात का अंदाज़ा किया गया है कि अगर मुहम्मद साहब नबी हो और क़ुरआन कलाम-ए-ख़ुदा हो, ताहम क़ुरआन की ज़रूरत क्या है? आया जब क़ुरआन ना था तो क्या क़ुरआन वाली बातें लोगों को मालूम ना थीं? या वो बातें अगली किताबों में ना थीं? इस बात को हमने अपने मज़्मून का मर्कज़ ठहरा कर इस अम्र की तफ़्तीश मुनासिब समझी और बमूजब हमारी तहक़ीक़ात के क़ुरआन का कलाम-उल्लाह और मुहम्मद साहब का नबी होना तो बजा-ए-ख़ुद वो तो एक जाअल (धोका, झूट) साबित हुआ है और हमारे नज़्दीक जाअली किताब वो है जो नक़्ल हो कर अस्ल होने का दावा करे। अस्ल होने का दावा ये है कि ये या वो बात वहयी ही की मार्फ़त मालूम हुई। लेकिन क़ुरआन ने नक़्ल हो कर ऐसी अस्ल का दावा किया हालाँकि इस का उस वक़्त की मुरव्वजा बातों का नक़्ली मजमूआ होना साबित है, जिससे ज़ाहिर है कि क़ुरआन एक जालसाज़ी है और इसलिए इस सूरत में भी इस की ज़रूरत नहीं है यानी हर दो हालतों में फ़ुज़ूल है और ज़रूरत उसी किताब की है जिसकी क़ुरआन ख़ुद तस्दीक़ करता है यानी बाइबल की। बेशक मुहम्मद साहब को ये तौर (तरीक़ा) इख़्तियार करना मुनासिब ना था और वाजिब-ओ-लाज़िम था कि ख़ूब तरह दर्याफ़्त कर के बाइबल मुक़द्दस के मज़ामीन से वाक़फ़ीयत हासिल करते तो ये क़ुरआन मुरव्वजा लिखने की नौबत ना पहुँचती। इस बात से मुहम्मदियों की जदीद (नई) बनावट नस्ख़ और तहरीफ़ क़ुरआन से रद्द होती है, क्योंकि वाक़ई अम्र को मंसूख़ कहना तो बेमाअनी कलाम है और फिर उनको जिनकी क़ुरआन में तकरार आई है और वो बातें जो क़ुरआन में नए क़िस्से मालूम होते हैं और बाइबल में नहीं हैं तो वो दरअस्ल नए नहीं हैं। बात ये है कि उनका मब्दा (जड़) बाइबल नहीं, लेकिन और पुरानी किताबें या रिवायतें हैं। अलबत्ता उमूर अख़्लाक़िया मंसूख़ हो सकते हैं लेकिन वो उमूर जो मुक़र्ररी हैं। (वह मंसूख़ नहीं हो सकते) मगर क़ुरआन में तो वो भी दर्ज कर लिए हैं, मंसूख़ किस को किया और मुहर्रिफ़ (बदला हुआ) कौनसा ठहरा? इसलिए हमने कहा कि इस हाल में क़ुरआन की रु से ये वहम बिल्कुल रद्द होता है। और बाइबल मुक़द्दस में तो कोई ऐसी बात नहीं जो क़ुरआन से मंसूख़ हो सके वो तो असली ज़रूरी और पूरी किताब है। और नाज़रीन इस रिसाले में ये सब उमूर लोगों पर ख़ूब रोशन हो जाऐंगे। हक़शनासी और इन्साफ़ से ग़ौर करो, ख़ुदा हिदायत बख़्शेगा।
तम्हीद
नबी की ज़रूरत तज़्किरा
बाअज़ उलमाए जदीद का गुमान है कि जिस तरह पहले दुनिया तारीक और मुख़्तलिफ़ ख़यालों में ग़र्क़ थी अब भी इसी तरह ही है। इसलिए अगर ख़ुदा ने साबिक़ (पहले ज़माने में) में नबी भेजे थे तो अब भी उनकी ज़रूरत है, कम से कम एक एक तो हर बर्र-ए-आज़म में होना चाहीए। हमारी तरफ़ से इस का ये जवाब है कि नबी की ज़रूरत, ज़रूरत पर मौक़ूफ़ है। अगर कोई अम्र अम्बिया ए सलफ़ से रह गया जो इन्सान की हाजात मौजूदा और आइंदा के लिए निहायत ज़रूरी है या किसी अम्र में उनसे ख़ता हो गई जिसकी तसहीह सिवाए किसी मुर्सल के नहीं हो सकती तो किसी नबी के आने की ज़रूरत है। लेकिन अगर कुतुब इल्हामियाह मसीही में कमी नहीं और किसी अम्र में क़ासिर नहीं हैं, तो किसी और नबी का ज़िक्र करना भी अबस (फ़िज़ूल) है। अगर एक इल्हाम मुस्तनद और कामिल मौजूद है तो दूसरे की हाजत नहीं। इस अस्ना में हमें एक दोज़ख़ी और एक बहशी की गुफ़्तगु याद आती है (लूक़ा 16:19-31) दोज़ख़ी ने अपने क़ियास में मुनासिब समझ कर ये अर्ज़ की कि अगर कोई मुर्दों में से उनके (इस के रिश्तेदारों के पास) जाये तो वो तो वह तौबा करेंगे। बहिश्ती ने जवाब दिया कि जब वो मूसा और नबियों की नहीं सुनते तो अगर मुर्दों में से कोई उठे तो उस की भी ना मानेंगे। पस फ़र्ज़ करो कि अब कोई नबी भेजा जाये तो उसे क्या करना पड़ेगा, ये कि अपनी रिसालत साबित करे।
अव्वलन : वो मर्द-ए-ख़ुदा जो आज ज़हूर दिखाए अपनी रिसालत के कौन से ज़ाहिरी सबूत देगा और हम उस से कैसे सबूत तलब करेंगे? ज़ाहिरी, वो जिन्हें हमारे ज़ाहिरी हवास तस्लीम कर सकें और धोके की सूरत में ना हो। तो क्या वो अपने मुल्हम (इल्हामी) होने का सलफ़ से ज़्यादा-तर सरीह सबूत दे सकेगा। वो कौन सा अम्र ज़ाहिर करेगा जिसकी मिसाल हमने सुनी या देखी ना हो। क्या वो दरयाए चनाब को दो हिस्से कर देगा? मगर मूसा ने बहर-ए-कुल्जुम का ये हाल किया। क्या वो वबा वग़ैरह से हिन्दुस्तान को तहय्युर में डालेगा? ये भी मूसा ने कर दिखाया। क्या जन्म के अँधों को आँखें देगा? ये ख़ुदावंद यसूअ मसीह (ईसा) ने कर दिखाया। क्या मर्दों को ज़िंदा करेगा? ये भी ख़ुदा-ए-मुजस्सम ने चार दिन का मुर्दा ज़िंदा कर के दिखा दिया। पस उनसे बढ़कर कौन सा काम करेगा? तूफ़ान को धमकाएगा? पर इस को भी धमकी मिल चुकी है। हाँ शायद हम इस मर्द ख़ुदा नौ आमदा को कहेंगे कि आलम-ए-ग़ैब की ख़बर लाए। सो मसीह की मौत को याद करो। पस अगर ईसारकात फ़ौक़ुल आदत को अपने क़ाइल होने और ईमान लाने की शर्त पेश करेंगे तो ये तो पेशतर भी ज़ाहिर हो चुकी हैं। हम जानना चाहते हैं कि अहले हिंद इनको क्यों नहीं मानते, इसलिए अगर उनको नहीं मानते तो इस को भी ना मानेंगे।
सानियन : वो मर्द-ए-ख़ुदा जो यूरोप में, ख़्वाह एशिया में ज़ाहिर हो कोई ग़ैब की ख़बर देगा या ना देगा? नस्ल आइंदा को भी इस की रिसालत का ज़ाहिरा सबूत चाहीए या ना चाहीए? पस अगर अख्बार-ए-ग़ैब भी इस्बात-ए-रिसालत की जुज़्व में दाख़िल हैं तो हम उस से लिखवा लेंगे और नस्ल आइंदा उनकी सेहत को बचश्म ख़ूद देख लेगी और यूं उस की रिसालत के सबूत में हमारे साथ मुत्तफ़िक़ होगी। पर क्या अम्बिया-ए-सलफ़ अख़्बार ग़ैब नहीं लिख गए? और क्या क़रीबन हर ज़माने ने उनकी तक्मील को नहीं देखा और क्या आजकल उनका फ़र्मूदा वक़ूअ में नहीं आता? तो क्या हमने उनकी मानी है? जब उनको नहीं माना तो उस को भी ना मानेंगे। देखते हुए ना देखना इसी को कहते हैं।
सालसन : क्या वो नबी उन हक़ायक़ से अफ़्ज़ल हक़ायक़ बयान करेगा जो कुतुब इल्हामियाह मुरव्वजा में मुंदरज हैं? तर्तीब की ख़ातिर हम हक़ायक़ को चार किस्मों में लिखते हैं। (अव्वल) ख़ुदा की बाबत, (दोम) इन्सान की बाबत, (सोम) गुज़श्ता और (चहारुम) आइन्दा की बाबत।
(अव्वल) ख़ुदा की बाबत : ख़ुदा की बाबत हम तस्लीम करते हैं कि बलिहाज़ बुत-परस्ती वग़ैरह के एक बादई (ज़ाहिर) ईलाही की ज़रूरत थी। मगर यहूद व ईसाईयों के पास अम्बिया-ए-सलफ़ की वो कुतुब इल्हामियाह मौजूद हैं (जो पढ़े सो देख ले) जिनमें बुत-परस्ती की निस्बत (ख़्वाह किसी क़िस्म की हो) सख़्त होलनाक उमूर मौज़ूअ हैं। और ख़ुदा की हस्ती और दीगर सिफ़ात ऐसे सरीह तौर से बयान हुई हैं कि तौज़ीह मज़ीद की हाजत नहीं रखतीं। ख़ुदा की ख़ुदाई और सिफ़तें जो देखने में नहीं आतीं लारेयब (बेशक) उस के कामों पर ग़ौर करने से मालूम हो सकती हैं। मगर जब इन्सान बावजूद उन कामों के अपनी अक़्लों की परागंदगी में आवारा हुए और ख़ालिक़ को मख़्लूक़ से बदल दिया तो बेशक इम्दाद ईलाही की अशद ज़रूरत हुई, चुनान्चे वो हाजत रफ़ाअ हो गई है। अब हम पूछते हैं कि वो नया नबी ख़ुदा की बाबत और क्या सिखाएगा? क्या सिफ़ात ईलाही को बाइबल से बढ़कर मकशूफ़ और मश्रूह करेगा? अगर ख़ुदा की हस्ती, हिक्मत, क़ुदरत, पाकीज़गी, अदल, मेहरबानी, सच्चाई, बे-इंतिहाई और हमादानी ख़ुदा के लायक़ बयान नहीं हुई तो बयान दीगर की हाजत है। मगर पेशतर उस से कि हम किसी बयान सानी की ज़रूरत के क़ाइल हों इन सिफ़ात की निस्बत बयान इल्हामियाह की कमी या क़सूर अहले मुल्हम (इल्हाम पाने वाले लोग) साबित कर दें तो बेहतर होगा। तावक़्ते कि ये ना हो कि किसी नए नबी का तज़्किरा फ़ुज़ूल होगा। फिर क्या वो रिश्ता जो ख़ुदा और इन्सान में है, वो नया नबी तोड़ेगा या मुहकम करेगा? अगर उस से इन्कार करे तो करे और बहोतेरे कर रहे हैं उस को भी मिस्ल औरों के समझ छोड़ेंगे और अगर कहो कि तक़्वियत देगा तो इल्हाम बाइबल को किसी नव ज़ाद नबी की तक़्वियत की हाजत नहीं। अगर उस की ना मानोगे तो इस की तक़्वियत को भी अबस (बेकार) समझोगे।
(दोम) इन्सान की बाबत : इन्सान के फ़राइज़ की बाबत जो जो मज़्कूर कुतुब इल्हामियाह में दर्ज हो चुके हैं, मअनी में इस से कोई और बयान फ़ज़ीलत ले जा सकता है। “ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा से अपने सारे दिल और अपनी सारी जान और अपनी सारी अक़्ल से मुहब्बत रख। बड़ा और पहला हुक्म यही है। और दूसरा इस की मानिंद ये है कि अपने पड़ोसी से अपने बराबर मुहब्बत रख।” (मत्ती 22:37-39) क्या इस में कुछ और बाक़ी रह गया है जो हमें फिर भी किसी और नबी का मुहताज रखे? इस से बढ़कर हम क्या कर सकते हैं, और ख़ुदा हम से किया तलब कर सकता है? हाँ अगर कहो कि नया नबी कुछ तख़फ़ीफ़ कर देगा तो हम कहते हैं कि बेजा करेगा और अगर उस की तक़वियत करेगा तो जब तुमने पहलों को ना माना तो पिछले की कब मानोगे। इस लिहाज़ से नबी की ज़रूरत नहीं है। फिर वो नबी ख़ुदा और इन्सान के मेल और सुलह का कौन सा तरीक़ा बढ़कर बताएगा? शायद हमारे नौजवान हम-अस्रों की ताईद करेगा कि नजात कुछ हक़ीक़त नहीं, बेहूदा ख़्याल है और कफ़्फ़ारा एक वस्वसा है और नेकी को सुलह का ज़रीया बयान करेगा। और या इन बातों के ख़िलाफ़ सिखाएगा यानी नेकी जिस क़द्र मतलूब है, हो नहीं सकती और इसलिए ख़ुदा से अदावत जारी रहेगी और सुलह कभी नसीब ना होगी। और इसलिए कफ़्फ़ारा ही नजात का काफ़ी-ओ-शाफ़ी वसीला है, मगर नेकी करना तो हमारी तबीयत ही गवाही देती है कि भला है, और इल्हाम साबिक़ा में भी इस की ताकीद मआ उमूर नेक के आ चुकी है। इसलिए अगर वो नबी फ़क़त इसी क़द्र मुज़्दा* (अहकाम) लेकर आए तो बेहतर है कि ना आए। ये तो हम ख़ातिर-ख़्वाह जान चुके हैं। और अगर वो ये पुकारता हुआ आए कि नजात एक ज़रूरी अम्र है और कि नजात का इन्हिसार कफ़्फ़ारे ही पर है तो इस अम्र में भी इल्हाम ने हमारी पूरी तसल्ली कर रखी है। और बिलफ़र्ज़ अगर कोई नबी ज़ाहिर हो भी जाये तो हमारे हम-अस्र सिर्फ ये कह देंगे कि तस्लीम इल्हाम की तो आदत ही नहीं, हमारा कुछ और ही मत (अक़्ल) है। पस ज़ाहिर है कि जब बाइबल को ना माना तो और को किस तरह मानेंगे। ना मानेंगे, ना मानेंगे, ना मानेंगे।
(सोम) गुज़श्ता की बाबत : गुज़श्ता की बाबत वो नया नबी कौन सी नई बात बताएगा या मज़हर शूदा में कौन सा नुक़्स बयान करेगा? कायनात का अदम से मौजूद होना क़ादिर-ए-मुतलक़ की क़ुदरत के कामिल ज़हूर पर दलालत करता है। अब क्या अगर वो इस बयान मज़हूर की ताईद करे तो ये लोग मानेंगे, अगर उस की मानेंगे तो इल्हाम मौजूदा ही को क्यों नहीं मानते? दुनिया में गुनाह के आने की कोई नई सूरत बयान करेगा या इल्हाम मौजूदा का मुअय्यिद (ताईद करने वाला) होगा? अगर हम उस की मानने पर तैयार हैं तो कुतुब इल्हामियाह अम्बिया-ए-सलफ़ से क्यों दिल डर डर के बग़ल में धुसा जाता है? जब ख़ुदा की तरफ़ से तवातर अम्बिया का होगा तो इख़्तिलाफ़ नहीं, उनके कलाम में यकसानी पाई जाएगी। चुनान्चे ये अम्र अम्बिया-ए-अह्दे अतीक़-ओ-जदीद की मुवाफ़िक़त से अयाँ है। और अगर उस के ख़िलाफ़ बताएगा तो मुख़ालिफ़त पेशतर भी मौजूद है और फिर ये लोग कहेंगे कि इल्हाम ईलाही में भी अंधेर पड़ रहा है और हर दो हालत में तस्लीम करने से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) रहेंगे।
(चहारुम) आइंदा की बाबत : आइन्दह की निस्बत जिस क़द्र इन्सान अनदेखी चीज़ों को तारीफ़ सुख़न (कलाम, शेअर, बात) से समझ सकता है क्या बाइबल में बयान नहीं हुआ? अबदीयत, अबदी ख़ुशी और अबदी अज़ाब को इन्सान बग़ैर आज़माऐ किस क़द्र क़ियास में ला सकता है? क्या उस की क़ाबिलीयत के बमूजब आइंदा का सहीह बयान नहीं हुआ। पस वो नबी बढ़कर क्या बताएगा, जब पास वाली ख़बर को ना मानें तो इस नए हामी की क्योंकर मानेंगे।
(राबा) क्या उस नए नबी की ताअलीम और उस की तामील से ज़्यादा-तर फ़वाइद हासिल होंगे? बाइबल की ताअलीम ने तो दुनिया के वस्वसों को ज़ेर-ओ-ज़बर कर दिया है। इन्सान के जिस्मानी और रुहानी तक़ाज़े उस की तामील से पूरे हो रहे हैं। वो इन्सान जो पाया इन्सानियत से गिर गए थे उनको बहाल कर दिया है और कर रही है। क्या उस नबी की ताअलीम से इनसे बड़े फ़वाइद दुनिया को हासिल होंगे? मगर बाइबल मुक़द्दस अपने कामों से ज़ाहिर कर रही है कि वही इस काम के लिए मुक़र्रर हुई। पस जब ऐसी हिदायत ताहिर, माहिर और ज़ाहिर के शुन्वा* (मानने वाले) ना हुए तो दूसरे की भी ना सुनेंगे।
उमूर मज़्कूर बाला के सबब से हम क़ुरआन वग़ैरह को बेफ़ाइदा और फ़ुज़ूल जानते हैं, क्योंकि इल्हाम कुतुब मुक़द्दसा बाइबल कामिल है और लाज़िम है कि इसी की सुनें और बचें।
नबी की ज़रूरत पर एक जालंधरी मुसलमान की पहली तहरीर के जवाब में
वाज़ेह हो कि नबी की ज़रूरत के लिए मसीह को एक नबी और रूहुल-क़ुद्दुस को दूसरा नबी और मसीह की रुहानी बादशाही को तीसरा नबी समझ कर तसलसुल अम्बिया की ज़रूरत मुंतिज (नतीजा) कर लेना क्या उम्दा दक़ीक़ा (ख़फ़ीफ़) मुआमला है इन तीनों को तो हम एक ही सीग़ा के जुज़्व समझते थे और वाक़ई ऐसा ही है। और इस मज़्मून के लिखने से हमारी ग़रज़ उस नबी या नबियों से थी जो इस दायरा से बाहर हैं। बलिहाज़ मिसाल हम मुहम्मद साहब को नज़र नाज़रीन करते हैं। और ये जो किसी जालंधरी मुसलमान ने अक़्वाल मसीह तहरीर किए कि मैं ज़माने के आख़िर तक तुम्हारे साथ रहूँगा। (मत्ती 28:20) और कि जहां दो या तीन भी इकट्ठे हो के मेरे नाम से कुछ मांगें तो मैं उन्हें बख्शुन्गा। (मत्ती 18:20, युहन्ना 14:13-14) सो याद रहे कि ये वाअदे फ़क़त मसीहीयों से हैं और जब मसीही इन बातों को याद करते हैं तो उन्हें अपनी हालत ज़िंदगी में बड़ी तसल्ली पहुँचती है। मसीह का ये वाअदा तो किसी ग़ैर नबी की ज़रूरत को और भी बरतरफ़ करता है। फिर अगर इन वादों ही पर ग़ौर करें तो क्या ख़ुदावंद का मसीहीयों के साथ रहना और उनकी दुआओं का सुनना मसीहीयों को मज़ामीं मुंदरिज-ए- बाइबल से कभी अफ़्ज़ल बयान इल्क़ा करने का मूजिब होता है? हरगिज़ नहीं। क्या कोई आरिफ़ कह सकता है कि मैं पौलुस से सबक़त ले गया हूँ हत्ता कि पौलुस की नहीं अब मेरी ज़रूरत है? मसीह का हमारे साथ रहना और दुआओं का सुनना बाइबल को बरतरफ़ नहीं कर देता, मगर बाइबल की सदाक़त का एक सबूत ठहरता है। तो क्या इन रुहानी नेअमतों को जो रसूल मक़्बूल बाइबल में दर्ज कर गए अगर हमें हासिल हों तो हम कहेंगे कि अब दूसरा नबी चाहीए और फिर तीसरा नबी चाहीए वग़ैरह। इन ही नेअमतों के सबब हम बार-बार कहते हैं कि किसी ग़ैर नबी की ज़रूरत नहीं।
क़ौलुहु قَولُہ‘۔)) (उस का क़ौल) अगर उन मुर्सलों (भेजने वाला) जैसे जो पिछले ज़मानों में ख़ुदा परस्तों की हिदायत के लिए भेजे जाते थे, अगर अब भी बदस्तूर इरसाल होते रहें तो फ़ायदे से ख़ाली ना होगा, और बाद इस के आप लिखते हैं कि हमारा ज़माना-ए-रवां किसी क़िस्म की करामात-ओ-मोअजज़ात देखने का चंदाँ मुहताज नहीं। तो कहीए साहब उन मुर्सलों (भेजे हुवों) की शनाख़्त की क्या सूरत होगी? मोअजज़ात वग़ैरह देखने के आप मुहताज ना होंगे मगर इन अय्याम रवां में हम क्या हमारे जैसे करोड़ों बिन देखे पास ना बैठने देंगे। अगर आप उनके बदस्तूर इरसाल के क़ाइल हो तो बदस्तूर करामात से क्यों मुँह फेरा। इसी लिए कि फ़रेबी भी मुर्सलों (भेजे हुवे रसूलों) में चल जाएं। दस्तूर साबिक़ा जारी रखना और ना रखना अल्लाह तआला के इख़्तियार में था और उस की अदम तरवीज से मालूम होता है कि ख़ुदा ने उस में ज़्यादा फ़ायदा ना देखा। अगर मुर्सल सलफ़ से शकूक-ओ-शुब्हे रफ़ा नहीं होते तो याद रहे कि उनसे ज़्यादा घोल के ना किसी ने पिलाया, ना कोई पिलाएगा। मसीह से अब तक क़रीब दो हज़ार बरस होते आते हैं। तो कौन सा बड़ा शारह पैदा हुआ जिसने मसीह को मात कर दिया। क्या मुहम्मद साहब, किया नानक, किया बाबू कश्यप चन्द्र सीन या सय्यद अहमद ख़ान बहादुर (हमा मुस्लिहीन बेकरामत) का वहां तक दस्त फ़हम पहुंचा है? और बा करामत तो कोई हुआ ही नहीं। इन सब के ज़ाहिर होने से सिवाए इख़्तिलाफ़ के क्या हासिल है। इसलिए हम कहते हैं कि ना किसी नबी बे करामत और ना नबी बा करामत की ज़रूरत है। बे करामत तो इख़्तिलाफ़ का बाप होगा और बाकरामात या इल्हामी बढ़कर कुछ ना कह सकेगा। और फिर बाइबल से फ़ायदा पहुंच रहा है तो उस का मुकतफ़ी (काफी) होना किसी ग़ैर नबी की ज़रूरत को अदम ज़रूरत में डालता है।
क़ौलुह (قَولُہ‘۔) (उसने कहा) फरमाइए कौन मसीही ऐसा दावा कर सकता है कि बाइबल में मुक़द्दमा नजात के सिवाए हाल और इस्तिक़बाल के जितने माहिय्यात हैं सब के सब बतशरीह बयान हो चुके हैं या किसी की समझ में पूरे तौर पर आ गए हैं?
इस के जवाब में हम वो बयान जो आइंदा की निस्बत अज़ मिंजानिब मस्तूर (ऊपर गया) हुआ दुबारा लिखते हैं यानी आइंदा की निस्बत जिस क़द्र इन्सान उन-देखी चीज़ों को तारीफ़ या नज़ीर से समझ सकता है क्या बाइबल में बयान नहीं हुआ? अबदीयत, अबदी ख़ुशी और अबदी अज़ाब को इन्सान बग़ैर आज़माऐ किस क़द्र क़ियास में ला सकता है क्या उस की क़ाबिलीयत के बमूजब आइंदा का सहीह बयान नहीं हुआ? मगर आप कहते हैं कि मसलन रूह और उस के मोंज़यात क़ियामत और अदालत, दोज़ख़ और बहिश्त, बाद अज़ मर्ग रूहों की कैफ़ीयत वग़ैरह की किस ने ऐसी तसरीह (वाज़ेह करना) के साथ शरह (तफ़्सीर) दी है कि शक के लिए जगह ना छोड़ी हो।
अगर आप अक़्ली शरह के मुहताज हैं तो सेरी भी कभी ना होगी और अगर कहो कि ये उमूर बाइबल में भी बतरीक़ मुश्तबा बयान हुए हैं तो बाइबल को फिर पढ़ो। इज़्हार बाइबल रूह की निस्बत ये है कि वो जिस्म से अलाहिदा शैय है। (मत्ती 10:28, 1 थसलिनीकीयों 5:23) बकाए रूह की एक और वस्फ़ है और ये वस्फ़ इंजील के इन मुक़ामात से मुसर्रेह (सराहत करने वाला) है जहां हमेशा की ज़िंदगी और हमेशा के अज़ाब का ज़िक्र है। क़ियामत की बाबत मसीह और उस के रसूलों ने ना सिर्फ ताअलीम ही दी जैसा लूक़ा 14:14 और आमाल 24:15 से मुसर्रेह (वाज़ेह) है और ना सिर्फ सदुकियों को इन्कार क़ियामत की निस्बत मलामत ही की (मरक़ुस 12:18-25) बल्कि ख़ुद मुर्दों में से उठकर ऐसा वाज़ेह कर दिया कि शक-ओ-शुब्ह की ताब को बे-ताब कर दिया। अदालत की निस्बत भी बाइबल ऐसी तसरीह के साथ शरह देती है कि शक गुदाज़ होता है। (देखो मत्ती 25:31-32, आमाल 17:31, 2 कुरंथियो 5:10) बहिश्त और दोज़ख़ की बाबत भी अक्सर मुक़ामात से मुसर्रेह (वाज़ेह) है कि मुक़द्दम जाये आराम है और मोअख़र जाये अज़ाब। इन उमूर की बाबत बाइबल साफ़ साफ़ बयान करती है यानी जिस क़द्र इन्सान बग़ैर देखे इन उमूर को क़ियास में ला सकता है और जो जो कैफ़ीयत इनकी निस्बत आइंदा के मुताल्लिक़ है, वो इस ज़िंदगी में नहीं देखी जा सकती। और बाद अज़ मर्ग (मौत) रूहों का भी इसी क़द्र मज़्कूर हुआ है जिस क़द्र बग़ैर तजुर्बे के किसी चीज़ को मालूम कर सकें और जो कुछ हाल में उनकी निस्बत जानना ज़रूर है, वो तो मुसर्रेह (वाज़ेह) है। हमें ख़्याल गुज़रता है कि आप मुफ़स्सिरों की ला-इल्मी वग़ैरह पर एतराज़ करते हैं, मगर याद रहे कि मुफ़स्सिरों की ये हालत उस वक़्त होती है जब इन बातों की वो कैफ़ीयत मालूम करनी चाहते हैं जो बाइबल में मकशूफ़ नहीं हुईं। नबियों के इल्हाम में दख़ल बेजा देने से लाइल्मी क्या, गुमराही की नौबत पहुंच जाया करती है।
क़ौलुह (उसने कहा) मसीह का ख़ास फ़र्मूदा है कि तुम्हारे समझाने के लिए अभी बहुत बातें बाक़ी हैं, मगर इस वास्ते नहीं समझाई जातीं कि तुम में उनकी समाई नहीं। (इसलिए हर ज़माने में और अब भी नबी ज़रूर हैं)
साहब अगर उसी ज़माने में वो बहुत बातें हवारियों को समझाई गई हों तो ज़ाहिर है कि अब किसी समझाने वाले की हाजत नहीं जो कुछ समझना और समझाना था अम्बिया-ए-बाइबल समझ के समझा गए। अब दूसरे की क्या हाजत रही? फिर ये कहना कि रूहुल-क़ुद्दुस ने भी हवारियों की मार्फ़त ईमानदारों पर पूरा पूरा मुकाशफ़ा नहीं किया, मसीह के अक़्वाल के बिल्कुल ख़िलाफ़ है कि रूह क़ुद्दुस तुम्हें सब चीज़ें सिखाएगा। वो तुम्हें सारी सच्चाई की राह बताएगा। आख़िर में आपने उस सामरी औरत का क़ौल मन्क़ूल किया है कि उसने अपने शुब्हात हज़रत ईसा के सामने पेश कर के इक़रार किया कि ये सब बातें तब ही हल होंगी जब मसीह आएगा। अगर सामरियों के शुब्हात से आप वाक़िफ़ होते तो ये बात ना कहते। मगर हर नाज़रीन बाइबल पर रोशन है कि क्या थे। पस वाज़ेह हो कि सामरियों और यहूदीयों में मसीह के आने की इंतिज़ारी थी और उन लोगों ने हर क़िस्म के शुब्हात का हल मसीह की आमद अव्वल पर मुन्हसिर कर रखी थी और मसीह ने आकर वो शुब्हे हल कर दिए। नीज़ वो शुब्हा जो उस सामरी औरत ने बयान किया था इसलिए किसी दूसरे हल करने वाले की ज़रूरत लाहक़ नहीं, नाहक़ है।
साथ ही बाद इस सामरी के तज़्किरे के आपने मसीहीयों की इंतिज़ारी भी बयान कर दी कि मसीह के तशरीफ़ लाने पर हज़ारों इसरार और उक़दे मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) हो जाऐंगे। बेशक वक़्त मुअय्यना पर मुन्कशिफ़ हो जाऐंगे। हिजाब आइंदा अपने वक़्त पर उठ जाएगा और उमूर मुताल्लिक़ा आइन्दा की बाक़ी कैफ़ीयत बहैसीयत हमारी क़ाबिलीयत के मालूम हो जाएगी और ज़रूरी तजुर्बे जो इस ज़िंदगी में हासिल नहीं हो सकते, उस वक़्त हासिल हो जाऐंगे। अगर आइंदा को ज़माना-ए-हाल में खींच लाने की ज़रूरत है तो बेवक़्त ज़रूरत है। इसलिए इस के लिए भी किसी और नबी की ज़रूरत नहीं। जो बातें आइंदा के लिए मक़्सूद हुई हैं, वो आइंदा ही में मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) होंगी। इसलिए ठहर जाओ, सब्र करो, मसीह को आ लेने दो।
फिर रूह और उस के लवाज़मात मिस्ले क़ियामत और अदालत, दोज़ख़ और बहिश्त की बाबत और भी वाज़ेह हो कि ये उसी हाल में फ़ायदा रखते हैं अगर रूह ज़िंदा हो यानी रूह को बक़ा हो, और अगर रूह को फ़ना है तो उस को इन लवाज़मात से कुछ ताल्लुक़ नहीं है। लेकिन इंजील से ये बात बख़ूबी ज़ाहिर है। चुनान्चे लिखा है कि “मगर अब हमारे मुंजी (नजात देने वाले) मसीह यसूअ के ज़हूर से ज़ाहिर हुआ जिस ने मौत को नेस्त और ज़िंदगी और बक़ा को इस खुशखबरी (इंजील) के वसीले से रोशन कर दिया।” (2 तिमीथियुस 1:10) इस से ये अम्र रोशन होता है कि रूह को ज़िंदगी और बक़ा है। अब मालूम करो कि इस बात को मसीह ने किस तरह रोशन किया है। ना इस तरह से जैसे डाक्टर जॉन्सन वग़ैरह ने किया है। फिलसूफ़ों की तोज़ेहात ख़्याली हैं और फ़र्ज़ी बातों से ताईद की जाती हैं, मगर इंजील की तौज़ीह हक़ीक़त और तजुर्बे पर मबनी है और अगर ऐसा ना होता तो इंजील ये इद्दिआ (दाअवेदार होना) ज़ाहिर ना करती कि ज़िंदगी और बक़ा इंजील से रोशन किए गए हैं। फ़िलोसफ़ी कहती है कि रूह हयूला (माद्दा) नहीं इसलिए ज़रूर नाबूद होने के क़ाबिल नहीं। लेकिन किस वजह से यक़ीन हो सकता है कि हयूला (ہیولیٰ) ना होने से रूह नेस्त होने के क़ाबिल नहीं, किस फिलासफर ने रूह की आइंदा हालत का तजुर्बा किया? हमने तस्लीम किया कि रूह हयूला (ہیولیٰ) नहीं पर इस से क्या हासिल? इस से कुछ ग़रज़ नहीं कि रूह रूह है, मगर ग़रज़ इस बात से है कि रूह की आइंदा हालत इस दलील से क्योंकर दायरे यक़ीन में आ सकती है। यानी क्योंकर यक़ीन-ए-कामिल हो कि इस का हयूला (ہیولیٰ) ना होना उस की बक़ा की दलील है? ये बात सिर्फ फ़र्ज़ कर ली गई है कि रूह हयूला (ہیولیٰ) नहीं इसलिए इस को नीस्ती (نیستی) नहीं, यानी मौत के बाद भी ज़िंदा रहती है। ये मुश्किलात, ये कम एतिक़ादी इंजील से रफ़ाअ् हो गई है। बाइबल (कलाम) में ना सिर्फ मुर्दगाँ पेशीन मिस्ल इब्राहिम, इस्हाक़ और याक़ूब की मौत के बाद ज़िंदा हालत का बयान हुआ है बल्कि उनसे बढ़कर ये बात है कि मसीह ने मुर्दों में से ज़िंदा हो कर साबित किया, दिखाया दिया। एक आइंदा हालत को तजुर्बे में ला कर इसी दुनिया में रोशन किया कि रूह को ज़िंदगी और बक़ा है। इस नादीदनी (ना देखने वाली) हालत की एक दीदनी (दिखने वाली) नज़ीर दी है। ये उस धुँदली आइंदा हालत की एक रोशन मिसाल है। इस हक़ीक़त से कम एतिक़ादी की चोन-ओ-चरा का अमली जवाब मिलता है और यक़ीन-ए-कामिल होता है कि इसी तरह और रूहों को बक़ा है, क्योंकि अब तो मसीह मुर्दों में से जी उठा है और उनमें जो सो गए हैं पहला फल हुआ। (1 कुरंथियो 15:20)
फिर फ़िलोसफ़ी की एक और मज़्बूत दलील ये है कि रूह बलिहाज़ अपनी ताक़तों की तरक़्क़ी के ग़ैर-फ़ानी साबित होती है। ये बात और भी तजुर्बे के ख़िलाफ़ और आइंदा में ख़्याल दौड़ाना है। ये तो यहां एक बाट मुक़र्रर कर लेना और उसका नतीजा आइंदा में यूं या दूँ फ़र्ज़ कर लेना है। क़ुव्वतों की तरक़्क़ी से बिल्कुल ये यक़ीन नहीं होता कि ये मौत रूह की हद इंतिहाई नहीं है। तजुर्बा इस दलील की बिना नहीं है। इन्सान तंदरुस्ती की हालत में ऐसा ख़्याल कर सकता है। मगर अज़ीज़ो उस शख़्स से पूछो जो मौत के बिस्तर पर है। उस को कुव्वतों की सौ बरस की तरक़्क़ी आइंदा तरक़्क़ी की कुछ उम्मीद देती या यक़ीन कामिल दिलाती है। दरया-ए-मौत के पार देखने का उस के पास कौन सा ज़रीया है? देखो तजुर्बा तो इस दलील के बर-ख़िलाफ़ मालूम होता है। बक़ा की निस्बत मौत और उस के लवाज़मात जैसी नाउम्मीद करने वाली और कोई चीज़ नहीं। इस वक़्त क़ुव्वतें ज़ईफ़ और नेकियां ख़त्म हो जाती हैं। मौत उस को मौत के बिस्तर पर गुज़श्ता ख़ुशी और तंगी पर गोया जबरन क़नाअत (जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) का हुक्म देती है। नेचर उस को नहीं बताती कि निकला दम हसत रहा या नेस्त हो गया। पस ज़ाहिर तजुर्बा तो ये है और इंजील भी इस तजुर्बे की ताईद करती है कि मौत अज़ाब है। हाँ मसीह से बाहर वो दहश्त और सख़्ती है, क्योंकि उसने ज़िंदा हो कर तजुर्बे के नतीजे के बरख़िलाफ़ तजुर्बे से साबित कर दिखाया कि रूह को बक़ा है, क़ियामत एक सदाक़त है। पस देखो कि क्योंकर इंजील ज़िंदगी और बक़ा को रोशन करती है। क्या दफ़ईया (दफ़ाअ करने की तोड़) शक के लिए इस दुनिया में रूह और उस की आइंदा हालत की इस से ज़्यादा तसरीह के साथ शरह हो सकती है? इस दुनिया में ना हुई, ना होगी और ना किसी और की ज़रूरत है।
जालंधरी मुसलमान की दूसरी तहरीर के जवाब में
जिस जिस मुक़ाम में जालंधरी साहब ने नबी की ज़रूरुत नहीं लिखना था, वहां ज़रूरत ही लिख दिया। चुनान्चे हम उन्हीं की वजूहात की रु से इस नफ़ी को फिर दर्ज किए देते हैं और साथ ही मतलअ करना भी अनसब (ज़्यादा मुनासिब) समझते हैं कि आपके मज़्मून का पहला डेढ़ कालम हमारे मदा-ए-बह्स से बिल्कुल ख़ारिज है। इस हिस्से में जो बातें आपने तहरीर की हैं उन्ही के सबब से हम किसी ग़ैर नबी की ज़रूरत के नाफ़ी (नफ़ी करने वाला) और मुबतल (बातिल करने वाला) हैं।
क़रीबन शुरू मज़्मून में आपने इख़्तिलाफ़े समझ के सबब किसी नबी की ज़रूरत को ज़ाहिर क़रार दिया है। उस पर एक नज़र तो हम पेशतर लिख चुके हैं, अब एक दो और बातों का बयान किया जाता है।
अव्वल ये कि इख़्तिलाफ़े समझ से बाइबल में नुक़्सान मज़नून (ज़न किया गया, मशकूक) नहीं होता। बाइबल के अजज़ा-ए-इज़्हार ऐसे हैं जो एक कल की तरफ़ राजेअ हैं। उन में इख़्तिलाफ़ नहीं, कमी नहीं, क़सूर नहीं। इख़्तिलाफ़ अक़्लीया की तरफ़ हवारी का इशारा मालूम होता है जब उसने ग़ैर-इंजील सुनाए जाने पर लानत की और कलाम ईलाही से इख़्तिलाफ़ या उस की मुख़्तलिफ़ ताबीरें करने का ये सबब बताया कि नफ़्सानी आदमी ख़ुदा के रूह की बातें क़ुबूल नहीं करता कि वो ये उस के आगे बेवक़ूफियां हैं और ना वो उन्हें जान सकता है, क्योंकि वो रुहानी तौर पर बूझी जाती हैं। सच्च है, अगर कलाम-ए-ख़ुदा इस दुनिया की हिक्मत से होता तो नफ़्सानी रूह उसे समझ सकती और ऐसा इख़्तिलाफ़ ना होता और बिद्दतीयों का नाम भी ना सुनते। अब इस नफ़्सानियत को दिल से दूर करने वाला रूह हक़ है, ना कि कोई आदमज़ाद।
दोम, एक इन्सान सच्चाई को ज़्यादा समझ सकता है और दूसरा कम। एक को सच्चाई का एक हिस्सा समझने का इदराक है दूसरे को कोई और। इस सबब से भी इख़्तिलाफ़ सरज़द हो जाता है और ज़ाहिर है कि हर बशर के फ़हम की यकसाँ वुसअत नहीं है। फिर इख़्तिलाफ़ से हैरान क्यों हों? पौलुस और दीगर हवारियों ने इंजील से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) और इख़्तिलाफ़ ज़ाहिर करने पर बार-बार मुतनब्बाह (आगाह किया) किया है। इसलिए बाइबल (किताब मुक़द्दस) अपने किसी इज़्हार में क़ासिर नहीं, जो हर ज़माने में एक ना एक पौलुस की ज़रूरत को जगह दे। इसी पौलुस के नामजात (ख़ुतूत) अब भी काफ़ी हैं कि इख़्तिलाफ़ वग़ैरह को मुंतशिर करें।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) मसीह का शुहूद दुनिया पर बतौर नबी, काहिन और बादशाह के था और मैं पूछता हूँ कि वो ओहदे जिनकी अशद ज़रूरत उस वक़्त के लोगों को थी, क्या हाल की उम्मत को नहीं है?
(मसीही जवाब) बेशक है। हम जवाब में ये कहते हैं कि हमने तो इन बातों की बाबत लिख दिया कि इन तीनों को हम एक ही सीग़ा (صیغہ) की जुज़्व समझते हैं और वाक़ई ऐसा ही है और हमारी ग़रज़ उस नबी या नबियों से थी जो इस दायरे से बाहर हैं। इस के साथ हम ये लिख चुके हैं कि मसीह का वाअदा साथ रहने, दुआओं के सुनने का और रुहानी नेअमतों की तहसील किसी ग़ैर-नबी की ज़रूरत को और भी बरतरफ़ करती हैं और उन ग़ैरों का पता भी बता चुके। इसलिए हम कहते हैं कि मसीह का नबी, काहिन और सुल्तान होना और हर घड़ी और हर साअत (बलिहाज़ इन ओहदों के) इन्सान को रुहानी तरक़्क़ी बख़्शना और उस की हाजतों को पूरा करना बअ`दु (بعد ُ ہ‘(بَع۔دُ۔ہُو) (उस के बाद) हर ज़माने की उम्मत के लिए किसी ग़ैर-नबी की आमद को अबस (फ़िज़ूल) ठहराता है। मसीह का वो शहूद-ए-अर्ज़ी और ये ज़हूर फ़लकी ग़ैर नबी की अदम ज़रूरत के लिए दलील काफ़ी है और हम जालंधरी साहब का शुक्रिया अदा करते हैं कि उन्होंने किसी ग़ैर-नबी की अदम ज़रूरत के इज़्हार में हमारी ख़ूब मदद की है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) ईसा हमारा नबी है और अपने कलाम के ज़रीये से हर वक़्त और हर साअत (घड़ी) वही काम कर रहा है जो उसने आलम-ए-शहूद में आकर किया था।
(मसीही जवाब) जब ये हाल है तो साहबे मन ख़ुद ही अज़हर (ज़ाहिर) है कि आपका उन्वान ग़लत है कि हर वक़्त और हर हाल में नबी की ज़रूरत है। जब मसीह मौजूद है तो फिर इस ज़रूरत के क्या मअनी? मसीह के साथ रहने और वही काम करने की ज़रूरत थी, सो वो तो हासिल है। इसलिए ग़ैर ग़ैर ही ठहरा।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) माना कि वो जलीली (गलीली) आजकल टाबिराईस (तबरयास) के किनारों पर बदस्तूर खड़ा हो के लोगों को वाअज़-ओ-नसीहत नहीं सुनाता। ताहम उस का कलाम उसी मुक़ाम पर कहा हुआ बदस्तूर मौजूद है।
(मसीही जवाब) बिरादर अज़ीज़ उस कलाम का बदस्तूर मौजूद होना किसी ग़ैर-नबी के कलाम की मुदाख़िलत का मानेअ (रोकने वाला) हुआ या ना हुआ? अदम ज़रूरत की ये एक और दलील है और यही हमारा मुद्दा है। इसी कलामे मौजूदा की ज़रूरत है, ना किसी और की। इसलिए मुनाद सुनाते हैं और लोगों को सुनना वाजिब है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) मसीह ने ख़ुद अपने वक़्त में अपने से पहले नबियों पर इशारा करके यहूदीयों को बाआवाज़ बुलंद फ़रमाया था कि तुम लोग क्यों उनका कलाम नहीं पढ़ते हो? सो अगर हाल में नबी की ज़रूरत नहीं रही तो बताओ कि मसीह के इस ख़िताब से क्या मुराद थी?
(मसीही जवाब) इस ख़िताब से मुराद ये थी कि अम्बिया-ए-साबक़ीन की कुतुब में मेरी ख़बर है। सो तुम लोग उनमें ये ख़बर ढूंढो कि मसीह के नसब, काम, कलाम, मंजिलत और रुत्बे की बाबत वो क्या लिख गए थे? और यूं मेरी ज़रूरत के क़ाइल होगे। किसी ग़ैर-नबी की ज़रूरत का इशारा नहीं किया और अगर कुछ है तो ये है कि उन्हें किताबों में ढूंढ़ो, उन्हीं में मेरी ख़बर है। ये हुक्म किसी ग़ैर-किताब की तरफ़ रुजू करने का मानेअ (रुकावट) है।
जालंधरी साहब की बाक़ी मांदा तहरीर से हमें मालूम होता है कि वो हमारा मुद्आ पा गए और जिस ज़रूरत का आप अब तक गीत गाते रहे उस का तो ज़िक्र नहीं। इसी के तो हम मुफ़िर (जाये फ़रार) हैं और उसी के सबब ग़ैरों की अदम ज़रूरत की तश्बीह में हमें ज़रा पस-ओ-पेश नहीं है।
फस्ल-ए-अव्वल
अदमे ज़रूरत-ए-क़ुरआन अज़ रुए उमूर-ए-अख़्लाक़िया
इस से पेशतर हम किसी नबी नौ ज़ाद की ज़रूरत और अदम ज़रूरत का उमूमन तज़्किरा कर चुके हैं। अब मुनासिब है कि जिस ख़ुसूसीयत के लिए वो उमूमीयत गोया तम्हीदन इख़्तियार की गई थी, वो वाज़ेह की जाये। तख़्सीस का क़ुरआ बाएन् मौजूब क़ुरआन पर पड़ता है कि बावजूदगी कुतुब अम्बिया-ए-मुल्हम के इस का मुसन्निफ़ इल्हाम का दावा कर के अपनी तस्नीफ़ ख़ल्क़-उल्लाह की हिदायत के लिए पेश करता है। लिहाज़ा हम इन्साफ़ से दर्याफ़्त करना चाहते हैं और करेंगे कि क्या ज़रूरत थी? ज़रूरत थी या ना थी? इस तहक़ीक़ात में लाज़िम है कि ये अम्र ज़हन नशीन हो कि जब किसी मज़्हब की अस्लीयत से वाक़िफ़ होने की आरज़ू हो तो फ़क़त उस के फ़रुआत (फ़ुरू की जमा, जुज़्ईयात, ग़ैर उमूर) नौ ईजाद और बेहूदा को देखकर फूलना और कहना कि वो किताब जिसकी तक़्लीद के ये या वो लोग मुद्दई हैं झूटी और बेहूदा है, इस किताब की माहीयत (असलियत) हक़ीक़ी की वाकफ़ी से हमेशा महरूम रहेगा, मसलन दीन ईस्वी को रोमन कैथोलिकों वग़ैरह की ईजाद-ओ-तर्मीम में और ज़ाइद-उल-ग़र्ज़ रसूमात में लिपटा हुआ देखकर कहना कि ईस्वी मज़्हब बेहूदा तरीक़ है या ये कि बाइबल एक ऐसी किताब होगी जो बे-हूदगी से पुर हो और या अगर मुहम्मदी मज़्हब की सिर्फ ख़राबियों के सबब जो उस के मुक़ल्लिदों ने वारिद कर ली हैं, कोई ये गुमान करे कि ये बड़ा ख़राब मज़्हब है या क़ुरआन में यूं और वूं (इस तरह या उस तरह होगा) तो ऐसे कम-अंदेश मुहक़्क़िक़ों को हम बे-ख़बर और बे इन्साफ़ कहने में ज़रा ताम्मुल ना करेंगे। ऐसे शख्सों को लाज़िम है कि अस्ल कुतुब की तरफ़ रुजू करें और उनकी उम्दगी या बे-हूदगी से इस्तिदलाल पकड़ें। इस क़िस्म के इत्तिहाम (इल्ज़ाम) से बरी रहने की ग़रज़ से हमने फ़क़त बाइबल और क़ुरआन ही पर ज़ोर दिया है।
फिर हमने किसी नबी की ज़रूरत की निस्बत ये बयान किया था कि ये ज़रूरत, ज़रूरत पर मौक़ूफ़ है। अब हम ये कहते हैं कि अगर कोई अम्र अम्बिया-ए-सलफ़ से रह गया जो इन्सान की दफ़ईया (दफ़ाअ करने की तदबीर) हाजात के लिए ज़रूर था तो मुहम्मद साहब की ज़रूरत थी। या अगर उनसे किसी अम्र में ख़ता हो गई हो तो उस की तसहीह के लिए मुहम्मद साहब के आने की ज़रूरत की गुंजाइश थी। मगर बाइबल में ना कोई अम्र बाक़ी रह गया और ना किसी अम्र में ख़ता ही हुई इसलिए क़ुरआन की ज़रूरत नहीं थी, मुहम्मद साहब बेफ़ाइदा नबी बने।
इस मज़्मून के ज़िमन में ये भी बयान हुआ है कि बलिहाज़ बुत-परस्ती वग़ैरह के इल्हाम की ज़रूरत थी। मगर चूँकि बाइबल मुक़द्दस में ज़ात और सिफ़ात एज़दी के ऐसे इज़्हार दर्ज हैं जो अक़्ल की हर क़िस्म की आवारगी के क़िला क़ुमा के लिए मुकतफ़ी हैं। लिहाज़ा इस बारे में क़ुरआन की हाजत ना थी, ग़ौर करो। जब अहमक़ अपने दिल में कहता है कि ख़ुदा नहीं तो ख़ुदावंद यूं फ़रमाता है कि “मैं हूँ जो हूँ” मेरा नाम है। जब कोई फ़ैलसूफ़ (फ़ल्सफ़ी) अश्या-ए-ज़ाती को हर नतीजे का सबब बता कर मुसब्बिब-उल-असबाब के वजूद से मुन्किर होने पर आमादा हो तो ऐसे बेदार मग़ज़ की फ़हमाइश (हिदायत, नसीहत) के लिए बाइबल सिलसिला इज़्हार ईलाही का शुरू ही यूं है :-
“ख़ुदा ने इब्तिदा में ज़मीन व आस्मान को पैदा किया।” (पैदाइश 1:1)
जब इन्सान अला-अल-उमोम इस मुक़न्निन क़ादिर की जगह क़वानीने क़ुदरत को मानने लगे और वाजिब-उल-वजूद के एवज़ वजूद साख़ता को और उस हय्य-उल-क़य्यूम के मुक़ाबिल में हर जानदार मख़्लूक़ को हक़ इबादत का अदा करने लगे, तब इल्हाम बाइबल ने साफ़ साफ़ खुला खुली मुतनब्बाह (आगाह किया) किया कि तो अपने लिए कोई मूर्त या किसी चीज़ की सूरत जो आस्मान पर या ज़मीन पर या ज़मीन के नीचे हो मत बना और ना उनके आगे सज्दा कर क्योंकि मैं ग़यूर ख़ुदा हूँ। (ख़ुरूज 20:4-5) जब शरीर शरारत में ज़िंदगी गुज़ारते और कहते हैं कि कोई नहीं देखता, किए जाओ तो इल्हाम बाइबल ने ख़ुदा को हाज़िर व नाज़िर बताया, जैसा एक सौ उन्तालिस (139) ज़बूर में मर्क़ूम है। जब इन्सान बार-ए-गुनाह (गुनाह के बोझ) से मलूल ख़ातिर होता है तो बाइबल में ये तसल्ली मौजूद है कि ख़ातिरजमा रख, ईमान ला, ख़ुदा मुहब्बत है। जब शरीर शरारत में ख़ुश होते और बाज़पुर्स का ख़्याल तक नहीं करते तो ख़ुदावंद बाइबल के ज़रीये से ऐसों को और (इबरत के लिए सबको) उन्हीं के मुहावरात में ख़ूब तरह आगाह करता है कि हाकिम-उल-हाकिमिन रास्ती से दुनिया की अदालत करेगा, शरीर (बेदीन) घमंडी को भस्म कर देगा। जब कोई ख़ुश-फ़हम गुमान करता है कि ख़ुदा नज़र नहीं आता, यही मौजुदात ख़ुदा है, इस में हलूल हो रहा है, इस से जुदा नहीं तो बाइबल साफ़ साफ़ मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) करती हैं कि ये मौजूदात उस की दस्तकारी हैं। उसने उस की बिना (बुनियाद) डाली। ये उस की क़ुदरत का ज़हूर है। ख़ुदा रूह है, हेवलानी माद्दा नहीं।
ऐडीटर साहब सिफ़ात ईलाही का बयान तो बाइबल में मिस्ल सेलाब के मौजज़न है तो कहाँ तक ये क्लिक (क़लम) दो ज़बान सिफ़ात एज़दी की निस्बत इज़्हार बाइबल का बयान करे, इतने ही पर इक्तिफ़ा कर। अस्ल मुद्दआ की तरफ़ तवज्जा दिलाई जाती है कि वो कौन सी सिफ़त बाक़ी है जो बाइबल में नहीं हत्ता कि इस के इन्किशाफ़ के लिए क़ुरआन की ज़रूरत हुई, एक भी नहीं। मुसन्निफ़ क़ुरआन ख़ुद इल्म सिफ़ात ईलाही के लिए इसी बाइबल का दीन-दार है। इन सिफ़ात के क़ुरआन में पाए जाने के सबब ना तो वो इल्हामी ठहरता है और ना उस की ज़रूरत लाहक़ थी। बग़ैर क़ुरआन के बाइबल ने सिफ़ात ईलाही का ख़ूब चर्चा कर रखा था और अब भी कर रही हैं। जिन मुल्कों की आब-ओ-हवा का मज़ा क़ुरआन ने चखा ही नहीं, वहां बाइबल ने देखो उन सिफ़ात के इल्म से मज्हूल दिलों को कैसा रोशन कर दिया है। लो जहां क़ुरआन पहुंचा वहां ना तो बाइबल को बरतरफ़ किया और ना इस पर फ़ज़ीलत दिखाई। पस जिस हाल कि ना नुक़्स निकाला, ना फ़ज़ीलत दिखाई (फ़ज़ीलत क्या बराबर भी उतरा) तो उस की हाजत ही क्या थी। ख़्वामो-ख़्वाह इल्हाम पर इल्हाम के क्या मअनी, कुछ मअनी नहीं, बेमाअनी ख़्याल है।
इस बात पर नाज़रीन अहले इस्लाम मुतल्लिक़न नाज़ाँ ना हों कि मसीही कमाल नादानी से यसूअ मसीह को जो एक मक़्बूल पैग़म्बर थे, ख़ुदा और ख़ुदा का बेटा कहते थे इसलिए ऐसे नबी की ज़रूरत हुई कि इस फ़र्क़ से लोगों को आगाह करे। ऐसे आगाह करने वाले कई मुहम्मद साहब से पहले भी हो गुज़रे थे। मगर हक़ीक़त-ए-हाल ये है कि मोअल्लिफ़ क़ुरआन ने मसीह की दो ज़ातों का ख़्याल ना किया और या कि ख़्याल करने का मलिका ना था और इसलिए उस की इन्सानियत से उस की उलूहियत पर हमला किया। चुनान्चे लवाज़मात इन्सानी को बार-बार पेश कर के उस की उलूहियत से इन्कार किया, जैसे खाना खाना और बीबी मर्यम से तव्वुलुद (पैदा) होना। बाइबल ख़ुद ही इस क़िस्म की बातों से उस की इन्सानियत का कामिल सबूत पहुंचाती है और मसीह ख़ुद अपने तेईं इब्न-ए-आदम कहता है। मगर ईलाही लवाज़मात का भी बाइबल बार-बार ज़िक्र करती है जो उस की उलूहियत पर बे कम-ओ- कासित (बिल्कुल दुरुस्त, कमी बेशी बग़ैर) दाल करते हैं। पहले इल्हाम को ना समझना और अदम वाक़फ़ीयत के सबब मसीह की उलूहियत से इन्कार करना भूलने का मूजिब नहीं। बला समझे किसी कलाम पर कलाम करना नाज़रीन ख़ुद ही कहें कि नादानी है या कुछ और?, और किस के ज़िम्मे लगती है। यूनीटेरीयन (तौहीद परस्त) भी बाइबल से इन्सानी अर्ज़ात मसीह की उलूहियत के ख़िलाफ़ पेश कर के नाज़ाँ होते हैं। मुहम्मद साहब ने उनसे कुछ बढ़कर नहीं किया। हमें यक़ीन है कि अगर ज़्यादा दर्याफ़्त करते तो वाक़िफ़ होते कि इंजील इस वजूद जिस्मानी को जो तव्वुलुद (पैदा) हुआ, वजूद ईलाही नहीं कहती। हर दो में सरीह इम्तियाज़ करती है। पस ऐसी आगाही की हरगिज़ ज़रूरत ना थी।
फिर इन्कार तस्लीस भी अबस (फ़िज़ूल) है। मुहम्मद साहब ने बाइबल की तस्लीस से इन्कार नहीं किया और जिस तस्लीस फ़ील तौहीद का हज़रत ने इन्कार किया बाइबल ख़ुद पेशतर ही उस की मुबतल (बातिल करने वाली) है यानी मर्यम, ईसा (इब्ने-ए-मरियम) और ख़ुदा। ये बिद्दतीयों की तस्लीस थी। वही उस के मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) थे। बाइबल ऐसी तस्लीस की रवादार नहीं और वो तस्लीस जिसका बाइबल इज़्हार करती है मुहम्मद साहब साहब के इल्म से ख़ारिज (बाहर) रही। उस का क़ुरआन में कहीं ज़िक्र नहीं। अब जिस हाल कि बाअज़ उमूर की निस्बत बे-ख़बर है और बाअज़ की निस्बत साकित (खामोश), तो हादी सानी और मुसह्हे (सहीह करने वाला) किन बातों के थे? ये बातें तो उनकी अदम ज़रूरत की ऐन मुसद्दिक़ हैं।
फिर इस बात पर भी इफ़्तिख़ार (फ़ख़्र) बेजा ही है कि मुहम्मद साहब इल्म तौहीद बहाल करने आए थे। हम कहते हैं कि अगर बाइबल इस अम्र में क़ासिर होती तो आपकी ज़रूरत लाहक़ थी, लेकिन चूँकि यहूदी और ईसाई तौहीद को दिली तावीज़ किए बैठे थे और उनकी कुतुब इल्हामियाह इल्म तौहीद के इन्किशाफ़ से भरपूर थीं। लिहाज़ा इसे बहाल करने के क्या माअनी? तौज़ीह की ख़ातिर हम चंद मुक़ामात शान तौहीद में नक़्ल किए देते हैं। 2 समुएल 22:32 में है :-
“क्योंकि ख़ुदावन्द के सिवा और कौन ख़ुदा है? और हमारे ख़ुदा को छोड़कर और कौन चट्टान है?”
इस्तिस्ना 6:4 में लिखा है :-
“सुन ऐ इस्राईल ख़ुदावन्द हमारा ख़ुदा एक ही ख़ुदावन्द है।”
इस क़ौल का ख़ुदावंद ईसा ने भी हवाला दिया। (मरक़ुस 12:32) फिर पहले कुरंथियो 8:6 में मौजूद है कि हमारा एक ख़ुदा है जो बाप है, अलीख (तमाम, जब किसी इबारत का थोड़ा हिस्सा लिख कर बाक़ी बख़ोफ़ तवालत नहीं लिखते तो अलीख लिख देते हैं) अगर बाइबल इज़्हार तौहीद से बेगाना होती तो क़ुरआन लारयब (बिला शुब्हा) यगाना ठहरता। मगर इस हाल में तो उस का वही हाल है जो हम बयान कर रहे हैं। पस इज़्हार सिफ़ात ईलाही में क़ुरआन बाइबल को बरतरफ़ नहीं करता और ना उस पर फ़ज़ीलत दिखाता है। बाइबल अपने आप में कामिल है और किसी सिफ़त के बयान में क़ासिर ना थी जिससे इल्हाम मज़ीद की ज़रूरत होती। पस बाएँ जिहत क़ुरआन की ज़रूरत ना थी। अब जे़ल में हम सिलसिलेवार बाइबल और क़ुरआन के उमूर अख्लाक़ीया को पेश करते हैं जिससे मालूम होगा कि एक दूसरे से क्या निस्बत है और एक के मुक़ाबिल में दूसरे की क्या हैसियत और ज़रूरत है।
याद रहे कि शराअ अख़्लाक़ी यानी दस अहकाम जो कोह-ए-सीना पर हक़ तआला ने निहायत रोब व दाब के साथ फ़रमाए, उनका पहला हिस्सा इन सब बातों को शामिल करता है जिन का अब तक हमने अह्दे अतीक़ से इक़्तिबास किया। कोई ये ना समझे कि हमारे जवाबों से इस में बाक़ी कुछ नहीं रहा। इस क़िस्म की बातों से हुक्म, अहकाम और नसाएह से वो तो मामूर है। हमने तो सिर्फ बाँगी (नमूना) दिखाई है और फिर याद रहे कि अह्दे जदीद उमूर हाज़ा की और भी ज़्यादा ताकीद के साथ शरह करता है। ख़ुदा मुहब्बत है, ख़ुदा को सारे दिल व जान और ज़ोर से प्यार कर, ख़ुदा रूह है, रूह और रास्ती से उस की बंदगी कर।
ऐ अहले इन्साफ़ अब कहो क्या इन उमूर की निस्बत बाइबल में कुछ कमी थी, नुक़्स था या क्या था? जो लोग क़ुरआन की ज़रूरत दर्मियान में लाते हैं। किसी अम्र में भी क़ुरआन बाइबल पर तर्जीह पाता है? वही बातें, वही ताअलीम है। क़ुरआन ने कुछ नुक़्सान नहीं बताया और ना फ़ज़ीलत दिखाई तो आया क्यों? ज़रूरत क्या थी? अदम ज़रूरत इसी को कहते हैं और इसी तरह आइद होती है।
ऐ नाज़रीन बाइबल मुक़द्दस इन अहकाम और शरीयतों से मामूर है। तो क्या मुहम्मदी हमसे बाइबल रखवा कर इस के एवज़ में ये क़ुरआन पकड़ाते हैं। अगर दोनों का पूरा पूरा मुक़ाबला किया जाये तो मुंसिफ़ मिज़ाज क़ुरआन की तिलावत का ख़्याल तक ना करें। हमने तो आपको थोड़े ही में दिखा दिया कि क़ुरआन-ए-मजीद की मुतलक़ ज़रूरत ना थी। क़ुरआन में कौन सी बात मुताल्लिक़ अख़्लाक़ के बाइबल से बढ़कर बयान की गई है? कौन सा नुक़्स निकाला, किस अम्र अख्लाक़ीया को क़ासिर ठहराया, कोई नहीं, किसी एक को भी नहीं। अक्सर उन्हीं क़दीम अहकाम की नक़्ल की है और बाअज़ उमूर में ख़ुद ही क़ासिर है। लिहाज़ा इस की ज़रूरत का ख़्याल तक ना करना चाहीए, वो एक फ़ुज़ूल किताब है।
ज़मीमा नंबर 1 फ़स्ल अव्वल
अख़्बार मेहर-ए-दरख़्शाँ दिल्ली मत्बूआ 21 जून 1880 ई॰ में इमाम फ़न मुनाज़रा अहले-किताब सय्यद नासिर उद्दीन मुहम्मद अबू अलमंसूर ने कमतरीन के मुसलसल मज़ामीन बउनवान क़ुरआन की अदम ज़रूरत के नंबर 2 मत्बूआ दहुम जून 1880 ई॰ पर बतौर जवाब के कुछ लिखा था। मौलवी साहब के जवाब पर वाजिबी नज़र-ए-सानी नज़र नाज़रीन की गई थी।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) सफ़ा 190 में पादरी साहब फ़रमाते हैं कि ख़ुदा से मुहब्बत रखना कहीं क़ुरआन में नहीं आया, इस वजह से क़ुरआन के क़ासिर होने में कलाम नहीं।
(मसीही जवाब) नाज़रीन इस सफ़ा को फिर देखें और मालूम करें कि हमने क्या लिखा है यानी अगर ये ताअलीम क़ुरआन में कहीं मौज़ूद है या ऐसी ताकीद और तफ़्सील के साथ बयान हुई है जैसी बाइबल मुक़द्दस में मौजूद है तो इस अम्र से मुत्लाअ (बाखबर) किया जाए, वर्ना क़ुरआन के क़ासिर होने में कलाम ही नहीं। मौलवी साहब ने ताकीद और तफ़्सील तो ना दिखाई मगर उस आयत का हवाला दिया है जो हमने सफ़ा 189 में कालम क़ुरआनी के शुरू ही में लिखा है और नीज़ सूरह इमरान रुकूअ 4 का हवाला दिया है यानी अगर तुम मुहब्बत रखते अल्लाह की तो मेरी राह चलो। वाज़ेह हो कि इन आयात से हमारा मुद्दा ज़ाए नहीं होता, बाइबल मुक़द्दस में ये आयात अदम ज़रूरत की हैसियत रखती हैं। फिर अगर इसी क़द्र बयान पर ज़ोर है तो भी बाइबल के हुज़ूर क़ासिर ही हैं। बाइबल में ये मुक़द्दम ताअलीम है मगर क़ुरआन में पाया तक़दीम (मुक़द्दम समझना, तर्जीह) पर नहीं है, एक सरसरी ज़िक्र है।
क़ौलुह : (मौलवी वहाब ने कहा) सफ़ा 191 में भी पादरी साहब फ़रमाते हैं कि बाहमी मुहब्बत का ज़िक्र क़ुरआन में नदारद (नहीं, गैरहाज़िर) है। यहां भी पादरी साहब धोका खा गए। क़ुरआन की सूरह शूरा रुकूअ 3 में बाहमी मुहब्बत का भी हुक्म है यानी قُل لَّا أَسْأَلُكُمْ عَلَيْهِ أَجْرًا إِلَّا الْمَوَدَّةَ فِي الْقُرْبَىٰ
(मसीही जवाब) ये आयत जिसका मौलवी साहब हवाला देते हैं यह मअनी रखती है यानी तू कह मैं मांगता नहीं तुमसे इस पर कुछ नेक मगर दोस्ती चाहीए नाते में। सेल साहब मेरे नाते में तर्जुमा करते हैं। अरे साहब कहाँ नाते (रिश्तेदारों) से दोस्ती और कहाँ पड़ोसी से दोस्ती और दुश्मनों से मुहब्बत और लानत कनंदों के लिए बरकत और कीना-वर से नेक सुलूक और सितमगर के लिए दुआ-ए-ख़ैर। जब तक ये बातें ना हों बाहमी मुहब्बत हर एक से (ना फ़क़त नाते से) मुहाल है। बाइबल बाहमी मुहब्बत में नाते (रिश्ते) की क़ैद नहीं लगाती कुल के साथ यकसाँ फ़र्ज़ ठहराती है। इसलिए हमें अफ़्सोस है कि मौलवी साहब का ये चीदा हवाला बाहमी मुहब्बत में दाख़िल होने के लायक़ नहीं। फिर जब सूरह बक़रह के रुकूअ 24 आयत 194 का ख़्याल आता है और जिसका हवाला हम इंतिक़ाम लेने के बारे में दे चुके हैं यानी “जिसने तुम पर ज़्यादती की तुम उस पर ज़्यादती करो जैसी उसने ज़्यादती की तुम पर” क़ुरआन में बाहमी मुहब्बत को नदारद कहने में ताम्मुल नहीं है। पस साहब धोका कमतरीन ने खाया या क़ुरआन वाले ने जिसे एक मौक़ा की कही हुई दूसरे मौक़ा पर याद ही नहीं रहती। आपकी इन बातों से भी क़ुरआन की अदम ज़रूरत ज़ाहिर है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) अब उस का जवाब सुनो जो कहते हो कि मुंसिफ़ मिज़ाज क़ुरआन की तिलावत का ख़्याल तक ना करें, अलीख। अगर क़ुरआन में नेक ताअलीमात बाइबल से कम भी होतीं तब भी जबकि क़ुरआन में तहरीफ़ व तबद्दुल का किसी को गुमान तक नहीं। (रिसाला तहरीफ़ क़ुरआन तबा दोम मुसन्निफ़ मास्टर राम चन्द्र साहब देखना चाहीए) पस ऐसी किताब को छोड़कर उन किताबों की तिलावत करना जिनमें तहरीफ़ व तबद्दुल का बक़ौल उलमाए अहले-किताब पायान तक नहीं है, कोई मुसन्निफ़ मिज़ाज तज्वीज़ ना करेगा।
(मसीही जवाब) ताज्जुब है कि वो किताबें मुहर्रिफ़ (बदली हुई) हो कर फिर भी ताअलीमात में क़ुरआन से बदर्जा औला (अफ्ज़ल) हों? इस हाल में क़ुरआन की क्या हैसियत ठहरी कि ऐसी किताबों के मुक़ाबिल में भी अदम ज़रूरत से मौसूफ़ है? इस से ये भी ज़ाहिर है कि नेक ताअलीमात में तहरीफ़ व तब्दील नहीं हुई और तहरीफ़ का दावा तो उलमाए मसीही ख़ुसूसुन डाक्टर फ़नडर साहब ने मर्दूद साबित कर दिया है। लेकिन अगर उसे क़ायम करने की आपके पास कोई नई तर्ज़ हो तो काही को (काहे को, किस लिए) और किस वक़्त के लिए छिपा रखी है। अभी शायद ज़िंदगी के कुछ दिन बाक़ी हैं इनमें उस की निस्बत ही तसल्ली करलो और तिलावत क़ुरआन का ख़्याल बहर-सूरत मतरूक करो और बाइबल मुक़द्दस को जो नेक ताअलीम और तरीक़-उल-हयात से पुर है दिल से तस्लीम करो। ये भी ख़्याल रहे कि क़ुरआन की अदम ज़रूरत से किसी तरह रिहाई नहीं है। चुनान्चे आपके जवाबों से भी यही मुशर्रेह (वाज़ेह) है।
ज़मीमा नंबर 2 फ़स्ल अव्वल
अख़्बार मंशूर मुहम्मदी मत्बूआ 15 शाबान 1297 हिज्री नंबर 23 जिल्द 9 में हाफ़िज़ अबदुर्रहीम साहब ने बन्दे की तहरीर पर अपनी दानिस्त में ख़ुदा से मुहब्बत रखने और इन्सान की बाहमी मुहब्बत की निस्बत चंद नुस्खे़ लिखे हैं। आपकी इब्तिदाई बकवास से तरह दे के अस्ल मतलब की तरफ़ रुजू करना अंसब (ज़्यादा मुनासिब) है। हमारे नज़्दीक उन नुस्ख़ों की रू से भी क़ुरआन की अदम ज़रूरत में मुतलक़ कसर नहीं आती और आपने पादरी साहब की ख़ातिर ख़ुदा की मुहब्बत (ख़ुदा से रखने) की निस्बत कई एक नुस्खे़ लिखे हैं। बंदा निहायत मशकूर है मगर अफ़्सोस है कि नुस्खे़ मुजर्रिब (आज़मूदा) नहीं।
क़ौलुह :(मौलवी साहब ने कहा) (पहला नुस्ख़ा) قُلْ إِن كُنتُمْ تُحِبُّونَ اللَّهَ فَاتَّبِعُونِي يُحْبِبْكُمُ اللَّهُ कह दे ऐ नबी साहब अगर तुम ख़ुदा को दोस्त रखते हो तो मेरी ताबे फ़रमानी करो। ख़ुदा तुमको दोस्त रखेगा। (सूरह इमरान आयत 31)
(मसीही जवाब) वाज़ेह रहे कि ख़ुदा से मुहब्बत रखना किसी इन्क़ियादी (मुतीअ होना, फ़र्मांबरदारी अम्र से मुक़य्यद (क़ैद) ना होना चाहीए। ख़ुदा से मुहब्बत रखना सरिशत गबद्दों (गबद्द, बेवक़ूफ, कमअक़्ल) लिहाज़ किसी मह्ज़ इन्सान या रसूल भया ए इन्सान पर वाजिब है क्या अगर मुहम्मद साहब की फ़र्मांबरदारी ना की जाये तो ख़ुदा से मुहब्बत नहीं रख सकते। ये क्या बात है। पस ये मशरूअत मुहब्बत बाइबल के मुक़ाबिल में क़ासिर है जो तस्रीहन फ़रमाती है कि “ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा से अपने सारे दिल और अपनी सारी जान और अपनी सारी अक़्ल से मुहब्बत रख। बड़ा और पहला हुक्म यही है। (मत्ती 22:37-38)
फिर याद रहे कि जो नतीजा हाफ़िज़ साहब इस आयत क़ुरआनी से पेश करते हैं वो हमारे मुद्दआ (दाअवे) से ख़ारिज है। चुनान्चे आप लिखते हैं कि अगर पादरी साहब भी चाहें कि ख़ुदा मुझको दोस्त रखे तो हमारे पैग़म्बर इस्लाम की फ़र्मांबरदारी करें। हमारी ग़रज़ ये ना थी कि ख़ुदा इन्सान से मुहब्बत रखे या ना रखे मगर ये कि इन्सान ख़ुदा से मुहब्बत रखे। पस आपका नतीजा ग़ैर है और फिर चूँकि ख़ुदावंद मसीह मुहम्मद साहब से बदर्जहा अकमल और अफ़्ज़ल है, लिहाज़ा पैग़म्बर इस्लाम की ताबेदारी अदम ज़रूरत में दाख़िल है। पस देखिए आप के पहले ही नुस्खे का हर जुज़्व ग़ैर मुजर्रिब है।
क़ौलुह :(मौलवी साहब ने कहा) (दूसरा नुस्ख़ा) فِيهِ رِجَالٌ يُحِبُّونَ أَن يَتَطَهَّرُوا وَاللَّهُ يُحِبُّ الْمُطَّهِّرِينَ इस बरामदे में वो लोग रहते हैं जो पाक होने को दोस्त रखते हैं और अल्लाह तआला पाक रहने वालों को दोस्त रखता है। (सूरह तौबा आयत 108) पादरी साहब को भी मुनासिब है कि आब-ए-दस्त इस्तिंजा, तहारात व ग़ुस्ल जनाबत (नापाकी) वग़ैरह कर के पाक व साफ़ रहा करें, वर्ना ख़ुदा की दोस्ती से महरूम रहेंगे।
आपके इस हवाले से तो कुछ और ही हासिल है, ना वो बात जिसके आप साई हैं। अव्वल, इस में ये मुसर्रेह (वजाहत) नहीं कि इन्सान ख़ुदा से मुहब्बत रखे, मगर ये कि ख़ुदा ऐसों तेसों को दोस्त रखता है। दोम, ये कि वो पाकीज़गी जिसका ख़ुदा दोस्त है आब-ए-दस्त (इस्तिन्ज़ा) व ग़ुस्ल जनाबत है। साहब मन ऐसी पाकीज़गी पर तो आप जानते होंगे कि हनूद मुहम्मद साहब से बढ़कर ज़ोर देते हैं और और मुल्कों में भी ये दस्तूर पाक होने का था तो इस हालत में वो लोग क़ुरआन की अदम ज़रूरत के मज़्बूत मुद्दई (दाअवेदार) हो सकते हैं। मगर ये जिस्मानी पाकीज़गी है, ख़ुदा दिली तहारत को दोस्त रखता है। कहाँ बाइबल मुक़द्दस का ये फ़रमान अमीम (सब पर हावी) कि, “ख़ुदावंद के पहाड़ पर कौन चढ़ सकता है और उस के मकान मुक़द्दस पर कौन खड़ा रह सकता है। वही जिसके हाथ साफ़ हैं और जिसका दिल पाक है।” (ज़बूर 24:3-4), पाकीज़गी की पैरवी करो जिसके बग़ैर ख़ुदावंद को कोई ना देखेगा। (मत्ती 5:8, इब्रानियों 12:14) और कहाँ क़ुरआन का फ़रमान आब-ए-दस्त और ग़ुस्ल जनाबत जिसे मूजिब हुब्ब यज़्दानी ठहराया है। अरे साहब तहारत दिली और जिस्मानी में इम्तियाज़ कर के इन्साफ़ से कहीए कि इस तज़्किरे की रु से भी (इल्ला जो हमारी बह्स से ख़ारिज है) बाइबल क़ुरआन को फ़ुज़ूल ठहराती है या नहीं? मुकर्रर (दुबारा, फिर) इस बात का ख़्याल रखना कि आपका दूसरा नुस्ख़ा भी हमारे मतलब से बईद और ग़ैर मुजर्रिब है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) (तीसरा नुस्ख़ा) ये है कि تُوبُوا إِلَى اللَّهِ تَوْبَةً نَّصُوحًا तौबा करो तरफ़ अल्लाह के पूरी तौबा करो।إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ التَّوَّابِينَ अल्लाह तआला तौबा करने वालों को दोस्त रखता है।
(मसीही जवाब) हाफ़िज़ साहब आपका ये हवाला भी हमारे नज़्दीक बेमाअनी है क्योंकि हमारे मुद्दआ को तो आप ने नज़र ग़ायब कर रखा है और लिखते हैं कि तौबा करने वालों को अल्लाह तआला दोस्त रखता है, हालाँकि पेश-ए-नज़र ये बात थी कि इन्सान उमूमन और ताइब ख़ुसूसुन अल्लाह तआला से मुहब्बत रखें। अगर इस बात का ख़्याल रखते तो हमारे साथ इस क़ौल में मुत्तफ़िक़ होते कि क़ुरआन में ख़ुदा से मुहब्बत रखने का हुक्म ऐसी ताकीद और तफ़्सील के साथ मौजूद नहीं जैसा बाइबल में पाया जाता है और इसलिए उस के मुक़ाबिल में क़ुरआन क़ासिर है। बएं मूजिब आपका ये नुस्ख़ा भी मुजर्रिब ना ठहरा। आपने तस्लीस परस्तों की ख़ातिर तीन नुस्खे़ लिखे हैं। मगर तस्लीस परस्त इस बात के आदी हैं कि इस क़िस्म के नुस्ख़ों को ख़ूब तरह तहक़ीक़ कर लिया करते हैं और सच्च को इख़्तियार करने पर आमादा होते हैं। अब आप पर भी उनका ये वतीरा ज़ाहिर हो गया है। इसलिए आइंदा लिखते वक़्त ये ना समझ लेना चाहीए कि कुछ लिखने से ग़रज़ है ख़्वाह मतलब से बईद ही हो।
बाहमी मुहब्बत
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) ख़ुदावंद तआला ने हमारे दिलों में मुहब्बत पैदा कर दी है और हमको एक दूसरे का भाई फ़रमाया है। देखो إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ إِخْوَةٌ “बेशक मुसलमान भाई हैं।” وَأَلَّفَ بَيْنَ قُلُوبِهِمْ لَوْ أَنفَقْتَ مَا فِي الْأَرْضِ جَمِيعًا مَّا أَلَّفْتَ بَيْنَ قُلُوبِهِمْ وَلَٰكِنَّ اللَّهَ أَلَّفَ بَيْنَهُمْ “और मुहब्बत डाल दी उनके दिलों में अगर तू ऐ मुहम्मद साहब ख़र्च करता जो कुछ कि ज़मीन में है ना उल्फ़त दे सकता उनके दिलों में मगर अल्लाह तआला ने उनके दिलों में उल्फ़त पैदा कर दी।” देखो यहां कैसी बाहमी मुहब्बत की तारीफ़ है।
हम आपको बताते हैं कि कैसी मुहब्बत की तारीफ़ है और आपके हवालों को तस्लीम करते है। मगर उन का इन्सान की बाहमी मुहब्बत के लिए हुक्म होने से तहकीक़न इन्कार करते हैं। बबाइस आंकी ये सिर्फ़ मुहम्मदियत में बाहमी मुहब्बत का तज़्किरा है,ना कि कुल इन्सानों में। क़ुरआन में ऐसे मुक़ाम भरे पड़े हैं जिनसे बाहमी मुहब्बत महदूद ठहर चुकी है और वो बाहमी मुहब्बत जिसका बाइबल मुशाहिदा करती है क़ुरआन में नदारद (ग़ायब) है।
चुनान्चे सूरह इमरान रुकूअ 3आयत 28 :-
لَّا يَتَّخِذِ الْمُؤْمِنُونَ الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاءَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ
“ना पकड़ें मुसलमान काफ़िरों को रफ़ीक (दोस्त) मुसलमानों के सिवा, अलीख”
सूरह निसा आयत 144 में है:-
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَّخِذُوا الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاءَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ
أَتُرِيدُونَ أَن تَجْعَلُوا لِلَّهِ عَلَيْكُمْ سُلْطَانًا مُّبِينًا
ऐ अहले ईमान मोमिनों के सिवा काफ़िरों को दोस्त ना बनाओ क्या तुम चाहते हो कि अपने ऊपर ख़ुदा का सरीह इल्ज़ाम लो?
सूरह माइदा आयत 57 :-
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَّخِذُوا الَّذِينَ اتَّخَذُوا دِينَكُمْ هُزُوًا وَلَعِبًا مِّنَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ مِن قَبْلِكُمْ وَالْكُفَّارَ أَوْلِيَاءَ وَاتَّقُوا اللَّهَ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ
ऐ ईमान वालों जिन लोगों को तुमसे पहले किताबें दी गई थीं उनको और काफ़िरों को जिन्हों ने तुम्हारे दीन को हंसी और खेल बना रखा है दोस्त ना बनाओ और मोमिन हो तो ख़ुदा से डरते रहो।, अलीख”
सूरह मुम्तहना 13 आयत :-
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَوَلَّوْا قَوْمًا غَضِبَ اللَّهُ عَلَيْهِمْ قَدْ يَئِسُوا مِنَ الْآخِرَةِ كَمَا يَئِسَ الْكُفَّارُ مِنْ أَصْحَابِ الْقُبُورِ
“मोमिनो इन लोगों से जिन पर ख़ुदा ग़ुस्से हुआ है दोस्ती ना करो (क्योंकि) जिस तरह काफ़िरों को मुर्दों (के जी उठने की) उम्मीद नहीं इसी तरह उन लोगों को भी (आख़िरत (के आने की उम्मीद नही।, अलीख”
सूरह मुम्तहना की आयत 8 :-
إِنَّمَا يَنْهَاكُمُ اللَّهُ عَنِ الَّذِينَ قَاتَلُوكُمْ فِي الدِّينِ وَأَخْرَجُوكُم مِّن دِيَارِكُمْ وَظَاهَرُوا عَلَىٰ إِخْرَاجِكُمْ أَن تَوَلَّوْهُمْ وَمَن يَتَوَلَّهُمْ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ
अल्लाह तो मना करता है तुमको उनसे जो लड़े तुमसे दीन पर और निकाला तुमको तुम्हारे घरों से और मेल बाँधा तुम्हारे निकालने पर कि उनसे दोस्ती करो और जो कोई उनसे दोस्ती करे सो वो लोग वही हैं गुनाहगार”
देखो रफ़्ता-रफ़्ता दायरा मुहब्बत से हर एक को ख़ारिज कर दिया। ये इन्सानी ख़यालात हैं जो उस की तबीयत के ऐन मुवाफ़िक़ हैं। हर क़िस्म की लड़ाई, दुश्मनी और जुदाई जो आदम से आज तक दुनिया में वारिद हुई ऐसे ही ख़यालों और इरादों का नतीजा है। अपनी अपनी क़ौम के लोगों के साथ तो अक्सर रिफ़ाक़त रही है। इस हुब्ब मुक़य्यद के बर-ख़िलाफ़ देखो।
बाइबल ये फ़रमाती है किताब अह्बार 19:18 तू इंतिक़ाम ना लेना और ना अपनी क़ौम की नस्ल से कीना रखना बल्कि अपने हमसाया से अपनी मानिंद मुहब्बत करना। मैं ख़ुदावन्द हूँ।”
इंजील मत्ती 22:39-40 में ख़ुदावंद ने पहला और बड़ा हुक्म बयान कर के फ़रमाया कि दूसरा हुक्म उस की मानिंद है कि “अपने पड़ोसी से अपने बराबर मुहब्बत रख। इन्ही दो हुक्मों पर तमाम तौरेत और अम्बिया के सहीफ़ों का मदार है।”
और ये मालूम करने के लिए कि पड़ोसी कौन है उस शख़्स को याद करो जो यरेहू को जाते हुए डाकूओं से ज़ख़्मी हुआ। (लूक़ा 10:29-37) जो हम मज़्हब की क़ैद को ख़ारिज करता है और भी देखो (रोमीयों का ख़त 12:17-21) फिर लिखा है “बदी के औज़ किसी से बदी ना करो...जहां तक हो सके तुम अपनी तरफ़ से सब आदमीयों के साथ मेल मिलाप रखो। ऐ अज़ीज़ो अपना इंतिक़ाम ना लो बल्कि ग़ज़ब को मौका दो क्योंकि ये लिखा है कि ख़ुदावन्द फ़रमाता है इंतिक़ाम लेना मेरा काम है। बदला में ही दूंगा। बल्कि अगर तेरा दुश्मन भूखा हो तो उस को खाना खिला। अगर प्यासा हो तो उसे पानी पिला क्योंकि ऐसा करने से तू उसी के सर पर आग के अंगारों का ढेर लगाएगा। बदी से मग़लूब ना हो बल्कि नेकी के ज़रीये से बदी पर ग़ालिब आओ।” (रोमीयों 12:17-21)
लेकिन मैं तुम से ये कहता हूँ कि अपने दुश्मनों से मुहब्बत रखो और अपने सताने वालों के लिए दुआ करो। ताकि तुम अपने बाप के जो आस्मान पर है बेटे ठहरो क्योंकि वो अपने सुरज को बदों और नेकों दोनों पर चमकाता है और रास्तबाज़ों और नारास्तों दोनों पर मह (पानी) बरसाता है। क्योंकि अगर तुम अपने मुहब्बत रखने वालों ही से मुहब्बत रखो तो तुम्हारे लिए किया अज्र है? क्या महसूल लेने वाले भी ऐसा नहीं करते? (मत्ती 5:44-46)
ये सब बातें उन उमूर को जो मुहब्बत बाहमी (एक दुसरे से मुहब्बत) के मुज़ाहम हैं दूर व दफ़ा करती हैं। लारेयब (बेशक) बाहमी मुहब्बत इसी को कहते हैं। ऐ हाफ़िज़ साहब अगर कभी हालत इन्साफ़ और अदम तास्सुब का तजुर्बा किया हो तो आयात क़ुरआनी मज़्कूर बाला को इस ताअलीम रब्बानी से मुक़ाबला दे फ़रमाईए कि क़ुरआन में ये ताअलीम नदारद (ग़ायब) है या नहीं? ज़रा सोचो कि जो मुहब्बत इनाद व दुश्मनी की गुंजाइश रखती है वो कैसी मुहब्बत ठहरेगी। इस के साथ देखो तौज़ीह अदम ज़रूरत क़ुरआन फ़स्ल हफ़्तुम।
फ़स्ल दोम
अदमे ज़रूरते क़ुरआन अज़ रूए मुक़र्ररी उमूर अख़्लाक़िया
अहकामे अख्लाक़ीया का ज़िक्र हो चुका, अब मुक़र्ररी अहकाम अख्लाक़ीया का तज़्किरा पेश है। हर दो क़िस्म उमूर अख्लाक़ीया में हमने ये फ़र्क़ समझा है कि अव्वल तो अख़्लाक़ी ख़ूबी को बज़ात शामिल करते हैं और दोम में उनका अख़्लाक़ी होना मुक़र्रर किए जाने पर मौक़ूफ़ है। बुदून अहकाम अख़्लाक़िया के अहकाम के मुक़र्ररी इन्सान के हक़ में मुतल्लिक़न मुफ़ीद नहीं। मगर अहकाम मुक़र्ररी के बग़ैर अहकामे अख्लाक़ीया इन्सान की अख़्लाक़ी तबीयत की तरक़्क़ी और तहारत के लिए मुफ़ीद हैं हत्ता कि अगर वो ना भी हों तो भी ये तहसील मुद्दे के लिए किफ़ायत हैं।
इस मुक़ाबले से ज़ाहिर है कि नमाज़ के लिए बाइबल में सरीह हुक्म मौजूद था तो क़ुरआन की क्या ज़रूरत थी। क्या कुछ बढ़कर बयान किया या कुछ नई बात सुनाई? अगर कुछ नई मालूम होतो हम उस की भी अदमे ज़रूरत दिखाए देते हैं और याद रहे कि वो नई बातें जो क़ुरआन में नमाज़ के मुताल्लिक़ ठहराई हैं ऐसी हैं कि दिली नमाज़ को उनसे कुछ तक़वियत नहीं पहुँचती। वैसी और उनसे बढ़कर मुहम्मद साहब से पेशतर राइज थीं और उन के ज़माने में थीं।
जब ख़्याल गुज़रता है कि इन बातों में यहूदी मुहम्मद साहब के हादी थे तो क़ुरआन की मुतलक़ ज़रूरत नहीं मालूम होती और ख़ाकी वुज़ू की निस्बत ना सिर्फ यहूद के बल्कि फ़ारसी आतिश परस्तों के भी दीनदार थे। वक़्त-ए-ज़रूरत के वो भी इसी तरह किया करते थे। ख़ाक या रेत से वुज़ू करते यानी पाक करने का हुक्म गमारा में आया है (ڈیونسخ) और जनाबत (नापाकी) वग़ैरह से पाक होने की बाबत मालूम हो कि ये ना सिर्फ उस वक़्त के अरबों ही की रस्म थी बल्कि यहूदीयों को भी ऐसा ही हुक्म था। देखो इंतिख्व़ाब तल्मूद व मोअल्लिफ़ बारकली बाब 3 “मर्द अपनी जर्यान की नापाकी में और औरत अपनी नापाकी में ग़ुस्ल करे।” जिस हाल कि ये रसूम पेशतर मौजूद थीं तो क़ुरआन की क्या ज़रूरत थी? क्या क़ुरआन में दर्ज होने से इल्हामी हो गईं, नहीं। अगली बनावटों में से एक बनावट है और इसलिए है।
औक़ात (वक़्त) नमाज़ का बयान यहूदीयों की तल्मूद में भी आया है, देखो इंतिखाब तल्मूद बाब 4 मोअल्लिफ़ बारकली “फ़ज्र की नमाज़ दोपहर तक पढ़ी जा सकती है।” रब्बी यहूदाह कहता है “चौथे घंटे तक सहि पहर की दुआ शाम तक।” रब्बी यहूदाह कहता है “निस्फ़ सहि पहर तक। शाम की नमाज़ की क़ैद नहीं है और ज़ाइद दुआएं सारा दिन मांगी जा सकती हैं। रब्बी यहूदाह कहता है “सातवीं घंटे तक।” पस सुनके या औरों की देखा देखी इन बातों को फ़र्ज़ ठहरा कर क्या कुतुब साबिक़ा को बरतरफ़ कर गए?, हरगिज़ नहीं। अपनी तस्नीफ़ की अदम ज़रूरत पर शहादत दे गए। इसलिए बाइबल के होते हुए हम क्योंकर क़ुरआन की समाअत करें। ऐ नाज़रीन ज़रा सोचो कौन सी कसर थी जो मुहम्मद साहब ने पूरी की। अगर नहीं तो उनकी तक़्लीद से क्या हासिल है। उसी बाइबल की तरफ़ क्यों ना रुजू करें जो हर अम्र ज़रूरी का मख़ज़न और मख़रज है।
जवाब - इन आयात से ज़ाहिर होता है कि यहूदी और मसीही जानते थे कि रोज़ा क्या चीज़ है, और मुहम्मद साहब ने कोई नया अक़्दह हल ना किया और ना पहली कमी को पूरा किया। इसलिए इज़्हार रोज़े के लिए भी क़ुरआन की अदम ज़रूरत अज़हर (रोशन) है और इस आयत में मुहम्मद साहब ख़ुद भी अगलों का हवाला देते हैं। पस आपके ही मुँह से अदम ज़रूरत लपकती है। चंद बातें इस रोज़े के भी मुताल्लिक़ हैं जो अग़लबन नई मालूम हों। मगर हमें तो कोई नई नहीं मालूम होतीं जैसे खाने पीने से और औरतों से परहेज़। चुनान्चे सेल साहब दीबाचा क़ुरआन अंग्रेज़ी की फ़स्ल 4 में लिखते हैं कि :-
“रोज़े की निस्बत भी मुहम्मद साहब ने यहूद की पैरवी की है। यहूदी रोज़ों में ना सिर्फ खाने पीने से परहेज़ करते बल्कि औरतों से और चिकना लगाने से भी। दिन निकलने से सूरज ग़ुरूब होने तक और रात को जो चाहते खाते थे।”
ये बयान साहब मौसूफ़ गमारा (शरह मिशनाह) से नक़्ल करते हैं। इस के मुवाफ़िक़ मिशनाह में भी पाया जाता है यानी काम करने, नहाने, चिकना लगाने, जूती पहनने, चारपाई पर सोने, मंगनी और शादी करने से रोज़ों में मुमानिअत है। देखो इंतिख्व़ाब तल्मूद किताब 8 बाब 1 वग़ैरह मोअल्लिफ़ डाक्टर बारकली ।
पस इस ताकीद और तफ़्सील रब्बानी की मौजूदगी में तकरार फ़ुज़ूल क़ुरआनी की क्या गुंजाइश, क्या हाजत और क्या ज़रूरत थी?
अब लाज़िम है कि नाज़रीन को याद दिलाया जाये कि तौरेत में इन उमूर मुक़र्ररी की निस्बत कुछ ना कुछ सबब रवा और नारवा होने का बयान किया गया है। इल्ला (मगर, लेकिन) मुहम्मद साहब ने नहीं मालूम किस सबब ये बातें दर्ज कीं। ग़ालिबन यहूदीयों की देखा देखी आपने यूँही फ़र्मा दीं। ख़्वाह किसी सबब से कीं मगर उनकी अदम ज़रूरत में ज़रा भी कलाम नहीं है। क्योंकि मुहम्मद साहब मिस्ल यहूद के तौरेत की इन बातों की निस्बत ग़लतफ़हमी और धोके में पड़े जो बतौर नबुव्वत के बयान हुई हैं और नीज़ वो जो बलिहाज़ हिफ़ाज़त क़ौमीयत (क़ौम यहूद) के मस्तूर हुईं। पेशगोई ख़्वाह किसी सूरत से कही जाये अपने वक़ूअ तक ज़ोर रखती है और तशख़ीस हलाल व हराम की और दीगर इन्क़ियादी उमूर बनी-इस्राईल के दायरा क़ौमीयत के अंदर ही असर रखते हैं। ग़रज़ कि दोनों क़िस्म की बातों से एक मआल (नतीजा, अंजाम) मद्द-ए-नज़र था और जब वो हासिल हो गया तो वो बातें अपनी तरवीज मज़ीद की आप ही मानेअ होती हैं।
पस अव्वलन- वाज़ेह हो कि रसूम क़ुर्बानी मुंदरजा तौरेत एक क़ुर्बानी आज़म की अमली नबुव्वत थीं। उनकी हद ताम वहीं तक थी और इसी लिए उनकी निस्बत पाक और नापाक जानवरों की तशख़ीस आई है और बादहु किसी जानवर की क़ुर्बानी और उस के लवाज़मात पर अदमे ज़रूरत का ज़ोर है, ना कि वह्यी का।
सानियन-तौरेत के अहकाम रस्मी ग़ैर अक़्वाम में मुश्तहिर करने का हुक्म किसी किताब अह्दे अतीक़ में नहीं आया और ना यहूदीयों ने इस अम्र में कोशिश ही की। अगर आप ही आप कोई सीख ले तो इस से उनकी तरवीज अमीम की ज़रूरत आइद ना होगी।
सालसुन- ये अहकाम बनी-इस्राईल की क़ौमीयत की हिफ़ाज़त और सिर्फ उन्हीं के अमल के लिए मुक़र्रर हुए। चुनान्चे ख़ुद तौरेत ही से मुसर्रेह (वाज़ेह) है किताब इस्तिस्ना 14:1-29 “तुम ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा के फ़र्ज़ंद हो। तुम मुर्दों के सबब से अपने आपको ज़ख़्मी ना करना और ना अपने आँखों के बीच बाल मुंडवाना। क्योंकि तू ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा की मुक़द्दस क़ौम है और ख़ुदावन्द ने तुझको रूए-ज़मीन की और सब क़ौमों में से चुन लिया है ताकि तू उस की ख़ास क़ौम ठहरे। तू किसी घिनौनी चीज़ को मत खाना”, अलीख। फिर बाब 26 के आख़िर तक मुतफ़र्रिक़ हुक़ूक़ और अहकाम का ज़िक्र कर के इसी बाब की आयत 16 से आख़िर तक यूं फ़रमाता है “ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा आज तुझको इन आईन और अहकाम के मानने का हुक्म देता है। सो तू अपने सारे दिल और सारी जान से उन को मानना और उन पर अमल करना। तूने आज के दिन इक़रार किया है कि ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा है और तू उस की राहों पर चलेगा और उस के आईन और फ़रमान और अहकाम को मानेगा और उस की बात सुनेगा। और ख़ुदावन्द ने भी आज के दिन तुझको जैसा उस ने वाअदा किया था अपनी ख़ास क़ौम क़रार दिया है ताकि तू उस के सब हुक्मों को माने। और वह सब क़ौमों से जिनको उस ने पैदा किया है तारीफ़ और नाम और इज़्ज़त में तुझको मुम्ताज़ करे और तू उस के कहने के मुताबिक ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा की मुक़द्दस क़ौम बन जाये।” फिर 7:6 में यूं मर्क़ूम है “क्योंकि तू ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा के लिए एक मुक़द्दस क़ौम है। ख़ुदावन्द तेरे ख़ुदा ने तुझको रूए-ज़मीन की और सब क़ौमों में से चुन लिया है ताकि उस की ख़ास उम्मत ठहरे।...इसलिए जो फ़रमान और आईन और अहकाम मैं आज के दिन तुझको बताता हूँ तू उन को मानना और उन पर अमल करना।” इनसे और इसी क़िस्म के और मुक़ामात से बख़ूबी रोशन है कि रस्मी अहकाम के ज़रीये से बनी-इस्राईल का एक अलैहदा और ख़ास क़ौम रहना मुतसव्वर हो।
राबिअन- इन अहकाम मुक़र्ररी को दाइमी (हमेशगी) क़रार देने या उनके दवाम (हमेशगी) को क़ियाम देने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि वो लफ़्ज़ जिसके मअनी अबदी (हमेशा) किए गए हैं इब्रानी में कई एक मअनी अदा करता है और मुतफ़र्रिक़ (बहुत से) माअनों में से एक ये है कि किसी क़ौम के ज़माना क़ियाम पर बोला जाता है। पस जब इन अहकाम की निस्बत लफ़्ज़ अबदी (हमेशा) का इस्तिमाल होता है तो सिर्फ उनके ज़माना क़ियाम से मुराद है।
ख़ामसुन- इन बातों की तवारीख़ी हक़ीक़तें तक़वियत करती हैं। चुनान्चे ख़ुदावंद मसीह के शुहूद पर वो इंतिज़ाम साबिक़ अपनी मीयाद-ए-मुईयना (तय शुदा आखिरी वक़्त) पर पहुंच गया और मतलब मक़्सूदह हासिल हुआ। वो हैकल और उस के तअल्लका ख़त्म हुए। तौरेत के मक़ासिद मसीह में पूरे हुए। उनके क़ियाम का ज़माना उसी अज़ीमुश्शान ख़ुदा-ए-मुजस्सम तक था। इसलिए मसीह के बाद उनके रिवाज देने का ख़्याल करना भी ग़लतफ़हमी और तर्ग़ीब तरवीज अदम ज़रूरत में दाख़िल है। जब ख़ुदा तआला कोई इंतिज़ाम ख़्वाह इल्हाम के ज़रीये और ख़्वाह नेचर के ज़रीये किसी ख़ास अम्र की तहसील के लिए मुक़र्रर करता है तो बरवक़्त तहसील मतलब के वो इंतिज़ाम ख़त्म हो जाता और इस का ज़ोर मोअस्सर नहीं रहने पाता। उमूर मुक़र्ररी मज़्कूर सदर का यही हाल है। इसलिए उनकी रू से जो कि अपना काम दे चले थे क़ुरआन की अदमे ज़रूरत पर हम लारय बफी (لاریب فیہ) कहते हैं। ख़ुदावंद फ़ज़्ल करे।
फ़स्ल सोम
अदमे ज़रूरते क़ुरआन अज़ रूए तरीक़-उल-हयात
अगर मज़ामीन बाइबल का इख़्तिसार कर के सिर्फ एक मुद्दा बयान किया जाये तो बक़ाया हयात-ए-अबदी को एक माल मक़्सूदा पाएँगे। चुनान्चे बाइबल इस का ख़ुद ही इज़्हार करती है। “क्योंकि ख़ुदा ने दुनिया से ऐसी मुहब्बत रखी कि उस ने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (युहन्ना 3:16) और यही वाअदा है जो उसने हमसे किया यानी हमेशा की ज़िंदगी का (1 युहन्ना 2:25) ताकि वो उन सबको जिन्हें तू ने उसे बख़्शा है हमेशा की ज़िंदगी दे।” (इंजील युहन्ना 17:2) जानना चाहीए कि अज़रूए बाइबल हयात-ए-अबदी मह्ज़ हस्ती ही नहीं बल्कि उन ताल्लुक़ात ज़रूरी को शामिल करती है जिनसे वो आरास्ता हो। इन्सान के लिए एक ज़रूरी और बेहतरीन हस्ती ठहरती है। पस इस हाल में नजात किया है? ये कि उन चीज़ों से जो हयात-ए-अबदी की मानेअ् और मुज़ाहम हैं यानी जिस्मानी और रुहानी आलूदगी और सख़्ती से रिहाई पाना और यूं रूहानियत और तहारत से आरास्ता हो माल मज़्कूर को हासिल कर सकते हैं। इसलिए जो जो तरीक़ नजात के बाइबल और क़ुरआन में मर्क़ूम हैं उन पर ग़ौर करना और बाएं जिहत क़ुरआन की अदम ज़रूरत का क़ाइल होना रूह फ़रोशों के लिए ऐन सआदत है।
अज़ीज़ नाज़रीन ख़याल रखना कि अदमे ज़रूरत क़ाईम करना बजा है या बेजा?
इंजील ताकीद-ए-ईमान से पुर है। जब ये हाल है तो इस में और क्या पड़ सकता है, कुछ नहीं। इसलिए क़ुरआन की अदम ज़रूरत में शक नहीं। अगर किसी को ये कहने का शौक़ कूदे कि ईमान मसीही को ख़ारिज कर ईमान मुहम्मदी को जिसका सूरह आराफ़ रुकूअ 19 आयत 158 में ज़िक्र आया है क़ायम करने की ज़रूरत थी तो लाज़िम है कि इस ज़रूरत की क्यों और किस तरह का जवाब दिया जाये और सिवाए जंग और शहवत बाज़ी वग़ैरह के किसी अम्र में मुहम्मद साहब को ख़ुदावंद यसूअ मसीह से अफ़्ज़ल साबित किया जाये। अब तक के मुक़ाबले से मुहम्मद साहब में कमी बेशक ज़ाहिर रही।
अब चूँकि मुहम्मद साहब ने नेक कामों में वो बातें भी दाख़िल कीं हैं जो तौरेत में आरिज़ी तौर से मुक़र्रर हुई थीं। इसलिए उनका दुबारा हुक्म देना या तरीक़-उल-हयात में से एक तरीक़ क़रार देना फ़ुज़ूल है। फिर चूँकि हज़रत ने सिर्फ अम्बिया-ए-साबक़ीन के ढब पर नेक कामों की ताकीद ही की और यूं अपनी रिसालत के फ़ुज़ूल होने पर गवाही दी बल्कि उन कामों को शर्त नजात बताया और इन्सान की ना क़ाबिलीयत का कुछ ख़्याल ना क्या, कोई ईलाज ना बताया जिससे नाक़ाबिलियत दूर हो कर तहारत दिली हासिल हो और ईलाज मश्हूदा से भी आँख बचा के वो भारी बोझ फिर बेचारे लोगों के सर पर दे मारा। इसलिए ऐसे मुनाद (मुबल्लिग़) की मुतलक़ ज़रूरत नहीं थी। इस से तो यूँही भले हैं।
मगर इंजील से ये बात ज़ाहिर है कि नजात ईमान से है और उस ईमान की तौफ़ीक़ से नेक काम करने का मक़्दूर (ताक़त) हासिल होता है और यूं ईमानदार नेक काम कर कर के मीलान बद और गुनाह की आलूदगी से साफ़ होता रहता है और पाकीज़गी को जो हयात-ए-अबदी का मुक़द्दम और ज़रूरी उसूल है हासिल करता है। देखो तीतुस 2:14“जिस ने अपने आपको हमारे वास्ते दे दिया ताकि फ़िदया हो कर हमें हर तरह की बेदीनी से छुड़ाले और पाक कर के अपनी ख़ास मिल्कियत के लिए एक ऐसी उम्मत बनाए जो नेक कामों में सरगर्म हो।”फिर बाइबल इन्सान में नेक कामों की नाक़ाबिलियत और अदम रग़बत और ला-इल्मी (असली नेक कामों से) इन्सान के सामने रखती और फ़रमाती है कि नेक कामों से नजात नहीं। उसने हमको रास्तबाज़ी के कामों से नहीं जो हमने किए बल्कि अपनी रहमत के सबब नए जन्म और ग़ुस्ल और उस रूह क़ुद्दुस के सर-ए-नौ बनाने के सबब बचाया। (तीतुस 3:5 और रोमीयों बाब 3 देखना चाहीए) फिर अगर फ़ज़्ल से है तो आमाल से नहीं, नहीं तो फ़ज़्ल फ़ज़्ल ना रहेगा और अगर आमाल से है तो फ़ज़्ल फिर कुछ नहीं, नहीं तो अमल अमल ना रहेगा। (रोमीयों 11:6) तो भी ये जानकर कि आदमी शरीअत के आमाल से नहीं बल्कि सिर्फ़ यसूअ मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ ठहरता है ख़ूद भी मसीह यिसूअ पर ईमान लाए ताकि हम मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ ठहरें ना कि शरीअत के आमाल से। क्योंकि शरीअत के आमाल से कोई बशर रास्तबाज़ ना ठहरेगा।” (ग़लतीयों 2:16) पस जिस हाल कि बाइबल मुक़द्दस में कामिल तरीक़ नजात के मौज़ू हैं तो किसी नाक़िस तरीक़ की क्या ज़रूरत है?
मुअज़्ज़िज़ नाज़रीन बाइबल की इस बेनज़ीर ताअलीम के मुक़ाबिल में क़ुरआन की कुछ आब-ओ-ताब है। ज़रा सोचो कौन सा तरीक़ ख़ुदा के मुनासिब और इन्सान के शामिल-ए-हाल है और किस तरीक़ से हयात-ए-अबदी के लिए उम्दा और पाकीज़ा तैयारी हो सकती है, बाइबल ही के तरीक़-उल-हयात से। इसलिए क़ुरआन अज़रूए तरीक़-उल-हयात भी फ़ुज़ूल ठहरता है।
कफ़्फ़ारा : ये मसअला निहायत ही गौरतलब है इसलिए कि इसी पर मसीहीय्यत की बिना (बुनियाद) है। इस को ख़ारिज करने से मसीहीय्यत को फ़क़त बलिहाज़ आला ताअलीम अख़्लाक़ के ग़ैर मज़ाहिब से अफ़्ज़ल कह सकेंगे, मगर उस की हक़ीक़ी फ़ज़ीलत इसी तरीक़ नजात में है। इस में शक नहीं कि बाइबल मुक़द्दस अख़्लाक़ में अपना नज़ीर नहीं रखती, मगर इस तरीक़ नजात यानी क़फ़्फ़ारा शाफ़ी का इज़्हार उस की बे नज़ीरी की शान की मुक़द्दम जुज़्व है।
जब दुनिया के दीनी हालात मालूम करते हैं तो किसी क़ौम को किसी ना किसी तरीक़ क़फ़्फ़ारे से बे-ख़बर नहीं पाते। क़फ़्फ़ारे की ये उमूमीयत दो बातों में से एक ना एक को शामिल करती है यानी या तो हर क़ोम की अक़्ल व तमीज़ में क़ुर्बानी मग़फ़िरत का वसीला नज़र आया और इसलिए बावजूद इख़्तिलाफ़ ग़ैर बातों के अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) रसूम क़ुर्बानी ने रिवाज पाया और या तो रिवायतन ये रस्म ज़माना आदम से नूह तक और नूह से जिसके ज़माना की मर्दुम-शुमारी हर एक को मालूम है उन क़ौमों में फैली जो उस के बेटों और पोतों वग़ैरह से पैदा हो कर बढ़ते बढ़ते कौमें बनी गईं और ज़मीन की हदों को आबाद किया। बिलफ़अल हम इस बात पर बह्स मुल्तवी करते हैं कि उन बातों में से कौन सी ख़्याली और कौनसी वाक़ई हैं और इतने ही पर इक्तिफ़ा करते हैं कि नूह के ज़माने तक और बाद में भी ये रस्म हाबील (हाबिल) से जारी हो कर चली आई और इस के जारी करने का ख़्याल हाबिल के दिल में पैदा हुआ या ख़ुदा ने क़ुर्बानी करने का हुक्म दिया था। हर दो हालत में ज़ाहिर है कि ख़ुदा ने उसे मंज़ूर किया और इस रस्म की तरवीज के लिए इस ज़माने के बुज़ुर्गों को यही सनद काफ़ी थी। क़त-ए-नज़र इस के अगर पौलुस रसूल की शहादत का ख़्याल करें तो इस रस्म का ख़ुदा की तरफ़ से होना यानी उस के हुक्म से मुक़र्रर किया जाना मुसद्दिक़ ठहरता है और वो ये है “ईमान ही से हाबिल ने काइन से अफ़्ज़ल कुर्बानी ख़ुदा के लिए गुज़रानी और इसी के सबब से उस के रास्तबाज़ होने की गवाही दी गई क्योंकि ख़ुदा ने उस की नज़रों की बाबत गवाही दी...।” (इब्रानियों 4:11) इस से ज़ाहिर होता है कि क़ुर्बानी ख़ुदा की तरफ़ से है और उसे राज़ी करने को मुक़र्रर हुई। चूँकि इस सिलसिले में हमारी गुफ़्तगु सिवाए क़ुरआन के और मज़्हब वालों से नहीं लिहाज़ा मालूम करें कि वो इस अम्र में क्या कहता है :-
इस के साथ जनाब मसीह के अक़्वाल को पेश-ए-नज़र रखना चाहीए जो उसने इस अम्र में फ़रमाए यानी..... “ज़रूर है कि जितनी बातें मूसा की तौरेत और नबियों के सहीफ़ों और ज़बूर में मेरी बाबत लिखी हैं पूरी हों।” (लूक़ा 24:44) चुनान्चे इब्न-ए-आदम इसलिए नहीं आया कि ख़िदमत ले बल्कि इसलिए कि ख़िदमत करे और अपनी जान बहुतेरों के बदले फ़िदये में दे।” (मत्ती 20:28) पस तौरेत, ज़बूर और अम्बिया के सहीफ़ों और इंजील में यगानगी का बंधन मसीह है। सब क़ुर्बानीयों का इशारा इसी क़ुर्बानी की तरफ़ था और इसलिए वो हयात का कामिल और शाफ़ी वसीला है। बहुतेरे अहले यहूद में से कुतुब अम्बिया-ए-साबक़ीन व इंजील की यगानगी के इस बंधन से नावाक़िफ़ और बेपर्वा रह कर मुनहरिफ़ हुए और जहां कहीं उनका ख़मीर पहुंचा। (ख़ुसूसुन अरब में) उनको भी इसी हालत में रखा, जैसा जे़ल की बातों से मुसर्रेह (वाज़ेह) है।
जाये ताज्जुब है कि मुहम्मद साहब ने चौपाईयों की क़ुर्बानी का ज़िक्र किया और इस क़ुर्बानी आज़म की निस्बत ख़ामोश रहे। क़ुरआन के मुतालए से हमें मालूम पड़ता है कि हज़रत तौरेत की बनिस्बत इंजील का ज़िक्र बहुत कम करते हैं। यहूदीयों से हम-कलाम होना और मज़ामीन तौरेत के हवाले देने और रसूमात यहूद को इख़्तियार करना हमारे क़ौल के मुसद्दिक़ हैं। ये एक वाक़ई अम्र है कि क़ुरआन के क़रीबन कुल तक़र्रुत यहूद के मसाइल-उल-हयात के गूदे पर गोया पोस्त की निस्बत रखते हैं। मगर ऐसी कोई ताअलीम नहीं जिसको मसीहीय्यत का भी लॉग (ताल्लुक़, सहारा) लगा हो और वो बातें जो मसीह के तव्वुलुद (पैदा) होने और बुदून मस्लूब हुए उरूज करने के मुताल्लिक़ हैं, उनकी ख़बर ग़लत ज़रीयों से पा कर लिखी है। इस क़िस्म की बातों का ज़िक्र इस सिलसिले के किसी आइंदा हिस्से में करेंगे। पस इस अम्र से ज़ाहिर है कि दरहक़ीक़त मसीहीय्यत से मुहम्मद साहब नावाक़िफ़ थे। क्योंकि अगर वाक़िफ़ होते तो कफ़्फ़ारा मसीह की बाबत जो ईस्वीयत का मुक़द्दम उसूल इमानियाह था इस के बारे में कुछ ना कुछ लिखते और तौरेत, ज़बूर, अम्बिया और इंजील के मक़्सद मुक़द्दम से महरूम हो कर अग़लब है कि किसी मसीही जमाअत के बिशप होते। यही सबब है कि तरीक़-उल-हयात की कामलीयत के इज़्हार साबिक़ा से कमा-हक़्क़ा वाक़िफ़ ना हो कर यूं और दूँ हुक्म दिए। नाज़रीन इन्साफ़ करें कि इस हाल में ऐसे नावाक़िफ़ पेशवा के ना कामिल तरीक़-उल-हयात की क्या ज़रूरत थी? मुक़ल्लिदीने इस्लाम इस हालत में कफ़्फ़ारे मसीह से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) करें, अगर मुहम्मद साहब इस पर कुछ तहक़ीक़ी जरह व क़दह कर गए हों। बर-ख़िलाफ़ इस के क़ुर्बानीयों के ईलाही तक़र्रुर का इज़्हार करते हैं। पस मुनासिब है कि अव्वल तरीक़-उल-हयात मुंदरिज-ए-बाइबल को जांचें कि वो हमारे शामिल-ए-हाल है कि नहीं और पस अज़ां क़ुरआन के पसख़ुर्दा (बचा हुआ खाना, खाना) तरीक़ों पर चल कर जान गंवाईं।
आख़िर में इस बात का इज़्हार अंसब (ज़्यादा मुनासिब) है कि ख़ुदा की सिफ़त रहमानी का बाइबल और क़ुरआन दोनों में बहुत ज़िक्र है और इस सबब बाअज़ लोगों ने समझ छोड़ा है कि नजात ख़्वाह नख़्वाह भी फ़ज़्ल से हो जाएगी। मगर ये ख़्याल तक़ाज़ा-ए-बाइबल और क़ुरआन के ख़िलाफ़ है। चुनान्चे हमने नाज़रीन पर वाज़ेह कर दिया है कि बावजूद फ़ज़्ल के दोनों किताबों में नजात उमूर मज़ुकूर शूदा पर मुन्हसिर है। इसलिए अहले इस्लाम कफ़्फ़ारे की मुख़ालिफ़त करने में क़ुरआन के ख़िलाफ़ चला करते हैं।
फ़ज़्ल तौबा वग़ैरह से कुछ निस्बत नहीं रखता। इस हालत में तौबा वग़ैरह के बग़ैर बदी में ख़्वाह कैसे ही सरगर्म रहे होँ बख़्शिश हो सकेगी। लेकिन जब उमूर मुताल्लिक़ा नजात पर ग़ौर करते हैं तो मालूम होता है कि इस मुआमले में ख़ुदा की और सिफ़ात का भी दख़ल है यानी पाकीज़गी और अदल का। इसलिए हम कहते हैं कि अगर ख़ुदा मह्ज़ फ़ज़्ल ही फ़ज़्ल होता हत्ता कि हर दो सिफ़ात मज़्कूर ख़ारिज होतीं तो नजात इसी ढब पर होती जो ढब बाज़ों के ज़हनों में मुनक़्क़श हो रहा है। मगर जब पाकीज़गी और अदल का भी दख़ल देखते हैं तो कम से कम ये बातें तो इन्सान की मायूसी का मूजिब ठहरती हैं। अव्वल, गुनाह की सज़ा ज़रूर मिलेगी, यही अदल का तक़ाज़ा है। ख़ुदा गुनाह से नाराज़ और मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाला) है और अगर ये नाराज़ी टल ना जाये तो गुनाह की सज़ा लाज़िमी है। दोम, ख़ुदा गुनाह से क्यों मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाला) है? इसलिए कि वो क़ुद्दूस है। पस गुनाह और कुद्दूसी में मुख़ालिफ़त ज़ाती है और इस हाल में ख़ुदा अपने क़ौल और फे़अल में इस का मानेअ होगा और दुश्मन सा पेश आएगा। इन बातों के मुक़ाबिल में जब इन्सान की अदम तहारत और अहकाम अख़्लाक़िया की कामिल पैरवी की नाक़ाबिलियत देखते हैं तो वो तमाम तरीक़ नजात जो मज़्कूर हुए अबस (फुज़ूल) मालूम होते हैं और आख़िर फ़ज़्ल फ़ज़्ल पुकारते हैं। मगर हमने बयान किया कि इस फ़ज़्ल के हम नशीन ओर सिफ़तें हैं जो इन्सान से तहारत कुल या सज़ा कुल तलब करती हैं और ये बातें बग़ैर कफ़्फ़ारे ख़ुदा-ए-मुजस्सम के क़ाबिल तहसील नहीं। इसलिए तरीक़-उल-हयात मुंदरजा बाइबल हयात-ए-अबदी के तहसील का कामिल तरीक़ा है। लिहाज़ा क़ुरआन की अदमे ज़रूरत अम्र मुसल्लम है। ऐ गुनाहगारों ख़ुश हो, मानो और बचोगे।
फ़स्ल चहारुम
अदमे ज़रूरते क़ुरआन
अज़ रूए बयान वाक़ियात जो कभी वक़ूअ में नहीं आए
(दफ़ाअ 1) सूरह बक़रह रुकूअ 8 आयत 62 में मर्क़ूम है कि :-
وَإِذْ أَخَذْنَا مِيثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّورَ خُذُوا مَا آتَيْنَاكُم بِقُوَّةٍ وَاذْكُرُوا مَا فِيهِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ
और जब हमने तुमसे अह्द (कर) लिया और कोहे तूर को तुम पर उठा खड़ा किया (और हुक्म दिया) कि जो किताब हमने तुमको दी है, इस को ज़ोर से पकड़े रहो, और जो इस में (लिखा) है, उसे याद रखो, ताकि (अज़ाब) से महफ़ूज़ रहो।”
इस के मुवाफ़िक़ देखो सूरह आराफ़ रुकूअ 21 आयत 172 :-
وَإِذْ نَتَقْنَا الْجَبَلَ فَوْقَهُمْ كَأَنَّهُ ظُلَّةٌ وَظَنُّوا أَنَّهُ وَاقِعٌ بِهِمْ خُذُوا مَا آتَيْنَاكُم بِقُوَّةٍ وَاذْكُرُوا مَا فِيهِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ
और जब हमने (उनके सरों) पर पहाड़ उठा खड़ा किया गोया वो साएबान था और उन्होंने ख़्याल किया कि वो उन पर गिरता है तो (हमने कहा कि) जो हमने तुम्हें दिया है उसे ज़ोर से पकड़े रहो। और जो इस में लिखा है उस पर अमल करो ताकि बच जाओ।”
क्या ये कोई वाक़ई हक़ीक़त है? मुहम्मदियों की बे सरोपा रिवायतों के सिवाए कौन मुअर्रिख़ पहाड़ के इस तौर पर ऊंचा किया जाने का मुसद्दिक़ (तस्दीक़ करें वाला) है? क्या मूसा? मगर मूसा का बयान ये है “और कोह-ए-सीना ऊपर से नीचे तक धुंए से भर गया क्योंकि ख़ुदावन्द शोले में हो कर इस पर उतरा और धूवां तनूर के धुंए की तरह ऊपर उठ रहा था और वो सारा पहाड़ ज़ोर से हिल रहा था।” (ख़ुरूज 19:18) यहां पहाड़ के ऊंचा किए जाने का निशान तक नहीं है। फिर क्या यूसीफ़स? मगर इस मुअर्रिख़ ने मूसा ही के बयान का तज़्किरा किया है और क़ुरआन के रफ़ाअ-अल-तूर (رفع الطور) (यानी तूर के पहाड़ के उठने) का ज़िक्र नदारद (ग़ायब) है। (देखो एंटीकुवाईटी किताब 3 बाब 5 दफ़ाअ 2) पस क़ौले क़ुरआनी को किस के एतबार पर सच्च मानें? जाये फ़िक्र है कि सिवाए मूसा के कौन इस वाक़ये का सच्चा रावी हो सकता था? क्या मूसा जो उस वक़्त ना सिर्फ मौजूद बल्कि जिस पर वो वारदातें गुज़रीं या उस के हज़ारों बरस बाद की एक रिवायत। और अगर इन्हिसार सकाहत फ़र्सूदा वह्यी पर है तो अफ़्सोस वह्यी मूसवी और वह्यी अहमदी का मब्दा इल्म जुदा था। याद रहे कि किसी ताअलीम की निस्बत ख़ुदा ज़मानासाज़ी इख़्तियार करे तो अजब नहीं मगर किसी वाक़ई अम्र की निस्बत इख़्तिलाफ़ नहीं कर सकता। इसलिए ये मज़्कूर क़ुरआनी इन वाक़ियात में गिरदाना जाता है जो कभी वक़ूअ में ना आए। अरे लोगो बेदार हो, ये क्या बातें हैं।
(दफ़ाअ 2) सूरह बक़रा 8 रुकूअ आयत 64 में यूं मस्तूर है :-
وَلَقَدْ عَلِمْتُمُ الَّذِينَ اعْتَدَوْا مِنكُمْ فِي السَّبْتِ فَقُلْنَا لَهُمْ كُونُوا قِرَدَةً خَاسِئِينَ
और तुम उन लोगों को ख़ूब जानते हो, जो तुम में से हफ़्ते के दिन (मछली का शिकार करने) में हद से तजावुज़ कर गए थे, तो हमने उनसे कहा कि ज़लील व ख़्वार बंदर हो जाओ।”
इस वारदात की मुफ़स्सिल कैफ़ीयत सूरह आराफ़ रुकूअ 21 में मौजूद है। मुहम्मदी मुफ़स्सिर इस वारदात का वक़ूअ दाऊद के अह्द में बताते हैं और वो बस्ती जिसका पता सूरह आराफ़ में पूछा गया है, सील साहब उस का नाम अयलत (اَیلَۃ) बताते हैं जो बहर-ए-कुल्जुम पर वाक़ेअ थी। अगर इस का यही नाम व निशान था तो मालूम हुआ है कि दाऊद के अह्द में इस बस्ती की निस्बत सिर्फ इसी क़द्र मर्क़ूम है कि “उसने यानी दाऊद ने अदूम में चौकियां मुक़र्रर कीं, बल्कि सारे अदूम में चौकियां बिठाईं, और सारे अदूमी भी दाऊद के ख़ादिम हुए।” (1 समुएल 8:14) और मालूम हो कि ये बस्ती अयलत (اَیلَۃ) में थी जैसा 1 सलातीन 9:26 में मर्क़ूम है। इन दो मुक़ामों के मुक़ाबले से मालूम होता है कि दाऊद का अयलत (اَیلَۃ) पर क़ब्ज़ा था। इन क़दीम इल्हामी तवारीख़ों में अयलत (اَیلَۃ) का हाल जो दाऊद के अह्द में गुज़रा इसी क़द्र मर्क़ूम है। मगर वहां के लोगों का बंदर बन जाना किसी तवारीख़ से मुसद्दिक़ (तस्दीक़ किया हुआ) नहीं है या यूं कहें कि हमें कोई ऐसी तवारीख़ क़ाबिल-ए-एतिबार मालूम नहीं जो इस क़िस्से की ताईद करे और उस का वाक़ई अम्र (हक़ीक़त) होना क़ायम करे। पस ये ज़िक्र भी इस का वाक़ये का ठहरा जो कभी वक़ूअ में ना आया।
(दफ़ाअ 3) काअबा इब्राहिम ने बनाया जैसा सूरह बक़रह रुकूअ 15 आयत 127 में लिखा है :-
وَإِذْ يَرْفَعُ إِبْرَاهِيمُ الْقَوَاعِدَ مِنَ الْبَيْتِ وَإِسْمَاعِيلُ رَبَّنَا تَقَبَّلْ مِنَّا إِنَّكَ أَنتَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ’’
और जब इब्राहिम और इस्माईल बैतुल्लाह की बुनियादें ऊंची कर रहे थे (तो दुआ किए जाते थे) कि ऐ परवरदिगार, हमसे ये ख़िदमत क़ुबूल फ़र्मा। बेशक तू सुनने वाला (और) जानने वाला है।”
फिर काअबा इबादत का पहला घर ठहरा था। सूरह इमरान रुकूअ 10 आयत 99 :-
إِنَّ أَوَّلَ بَيْتٍ وُضِعَ لِلنَّاسِ لَلَّذِي بِبَكَّةَ مُبَارَكًا وَهُدًى لِّلْعَالَمِينَ
“तहक़ीक़ पहला घर जो ठहरा लोगों के वास्ते यही है जो मक्का में है। बरकत वाला और नेक राह लोगों को जहां के।”
क्या ये बातें क़ाबिल-ए-तस्लीम हैं? क्या इब्राहिम कभी मक्का में गया और काअबा तामीर किया? और क्या रसूमात मक्किया इब्राहिम से निस्बत रखती हैं? इस क़दीम और मुस्तनद तवारीख़ यानी तौरेत में इब्राहिम के सफ़र व सुकून का अहवाल हस्ब-ज़ैल में दर्ज है। इस हाल में इब्राहिम का अहवाल उस ज़माने से मालूम करना मुनासिब है जब वो अपने गिरोह से अलेहदा (अलग) हुआ और किधर किधर गया और क्या काम किए। पस वाज़ेह हो कि जब इब्राहिम अपना वतन छोड़कर कनआन में वारिद हुआ तो सुक़्म की बस्ती और मोरा के बलूत तक गुज़रा और वहां उसने ख़ुदावंद के लिए क़ुर्बानगाह बनाई। (पैदाइश 12:6-7) ये पहला घर या मुक़ाम इबादत का था जो इब्राहिम ने तामीर किया। बाद इस जगह से रवाना हो कर उसने बैतएल के पूरब के एक पहाड़ के पास अपना डेरा खड़ा किया। इस जगह भी इब्राहिम ने ख़ुदावंद के लिए एक क़ुर्बानगाह बनाई। ये दूसरी इबादतगाह थी। इसलिए काअबा पहला घर इबादत का नहीं हो सकता क्योंकि हनूज़ वो कनआन ही में था और इस्माईल भी पैदा ना हुआ था। इस के बाद इब्राहिम रफ़्ता-रफ़्ता दक्खिन की तरफ़ गया जब कनआन में काल पड़ा। (पैदाइश 12:10) तो उसे मिस्र में जाना पड़ा और नहीं मालूम कितना अरसा वो उस मुल्क में रहा, मगर जब लौटा तो सफ़र करता हुआ दक्खिन से फिर बैतएल में गया जहां आगे उस का डेरा था यानी बैतएल और अई के दरमयान (13:1-4) यहां से भी ज़ाहिर है कि मक्का की तरफ़ नहीं गया। बादहु लूत से जुदा हो कर उसने ममरीया हिब्रून में डेरा किया। इस के बाद लूत को उस के दुश्मनों से लड़ के छुड़ाया और मलिक सिद्दीक़ से मुलाक़ात की और ख़ुदावंद ने उस से अह्द किया। (पैदाइश बाब 15) इन बातों से मालूम होता है कि मक्का में जाने की कोई सूरत ना थी। इस के बाद इब्राहिम पर वो गुज़रा जो पैदाइश बाब 15,16,17 में मर्क़ूम है। इन अय्याम में इस्माईल पैदा हुआ। ये सब बातें कनआन ही में यानी ममरे के बलूतों में उस पर वाक़ेअ हुईं। फिर बीसवे बाब में उस के फिलस्तेह में जाने का ज़िक्र है। इब्राहिम के आख़िरी दिनों में उस की आज़माईश हुई। ये भी कनआन में ज़मीन मौर्याह में वाक़ेअ हुआ। (पैदाइश 22:1-3) इस के बाद भी इब्राहिम कनआन में था। उस की जोरू और वो ख़ुद कनआन ही में मर गए और मकफ़ीला के ग़ार में जो मामरे के सामने है दफ़न किए गए।
पस इस क़दीम इल्हामी तवारीख़ से ज़ाहिर है कि इब्राहिम कभी मक्का में ना गया और ना काअबा बनाया। ये कुछ बात नहीं है कि किताब पैदाइश में अहले पेशीन का बहुत थोड़ा हाल मर्क़ूम है। हम भी जानना चाहते हैं कि वो बाक़ी और मुफ़स्सिल अहवाल किस को मालूम था या है। ये रिवायत अलबत्ता मुहम्मद साहब के पेशतर से है कि इब्राहिम और इस्माईल ने काअबा बनाया और संग-ए-असवद इस में रखा। मगर इस़्माईलियों की बुत-परस्ती भी क़दामत के पाया पर है। ख़ुसूसुन जब वो पथरीली परस्तिश के ज़ेर-ए-बार हो गए तो अग़्लब (यक़ीनी, मुम्किन) है कि ऐसी रिवायत ईजाद कर ली जिससे काअबे की ताज़ीम हो और संग-ए-असवद की परस्तिश तौक़ीर पाए। क़त-ए-नज़र इस से क्योंकर मुम्किन है कि वो इब्राहिम जिसने एक ज़िंदा ख़ुदा का मुशाहिदा पाया ऐसी मकरूह बुत-परस्ती की बिना (बुनियाद) रखता। कजा काअबा और संग-ए-असवद और कजा ये मुशाहिदा कि “मैं ख़ुदाए क़ादिर हूँ तू मेरे हुज़ूर में चल और कामिल हो।” (पैदाइश 17:1) यही ईमान इज़्हाक़ का हुआ। (पैदाइश 28:3) और यही याक़ूब इब्राहिम के पोते का। (पैदाइश 35:11) फिर इब्राहिम ख़ुद ख़ुदा-ए-क़ादिर को एक और उम्दा सिफ़त से बयान करता है। (पैदाइश 18:25) और ख़ुदा का इब्राहिम को बुत परस्तों में से बुलाना, अपने तईं उस पर ज़ाहिर करना, उस से वाअदे करना, इताअत का अह्द करवाना और अह्द का निशान मुक़र्रर करना वग़ैरह सब उस के मक्का में जा कर काअबा तामीर करने और संग-ए-असवद की ताज़ीम करने के मानेअ (खिलाफ) है। ये कभी नहीं हुआ। यूसीफ़स मुअर्रिख़ उस की बाबत ख़ामोश है। पस मुहम्मद साहब ने अपने आबाओं (बाप दादाओं) की ग़लत रिवायत की ग़लती को ना जान कर और कुतुब इल्हामियाह साबिक़ा के सहीह बयान से बे-ख़बर रह कर उस को क़ुरआन में दर्ज कर दिया। अब नाज़रीन ही कहें कि मुहम्मद साहब ने अपनी सदाक़त का ख़ुद ही काम कर दिया कि नहीं। ऐसी बातों से क़ुरआन की अदम ज़रूरत लाहक़ ठहरती है।
(दफ़ाअ 4) सूरह हूद रुकूअ 4 आयत 42, 43, 46 में यूं मर्क़ूम है “और पुकारा नूह ने अपने बेटे को और वो हो रहा था किनारे, ऐ बेटे सवार हो साथ हमारे और मत रह साथ मुन्किरों के और बीच में आ पड़ी दोनों के मौज फिर हो गया वो डूबने वालों में” इस पर नूह ने ख़ुदावंद से फ़र्याद भी की मगर जवाब ये पाया कि उस के काम नाकारे हैं। इस से ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब इस वाक़ेअ को सच्च जानते थे।
इस के बरख़िलाफ़ तौरेत का बयान ये है “तब नूह और उस के बेटे और उस की बीवी और उस के बेटों की बीवीयां उस के साथ तूफ़ान के पानी से बचने के लिए कश्ती में गए।” (पैदाइश 7:7) फिर उनको नाम बनाम लिखा है, “उसी रोज़ नूह और नूह के बेटे साम और हाम और याफ़त और नूह की बीवी और उस के बेटों की तीनों बीवीयां (कश्ती में दाख़िल हुईं) (7:13) और जब तूफ़ान का पानी ख़ुशक हुआ तो यही जानें कश्ती से सहीह सलामत निकलीं, जैसा लिखा है (देखो पैदाइश 8: 15-18)
यूसीफ़स का बयान भी इस के मुवाफ़िक़ है (देखो एंटी कुवाईटी पहली किताब तीसरा बाब) ये मुअर्रिख़ ग़ैर क़ौम मोअर्रिखों को अपने बयान की सदाक़त के लिए नाम बिना सनदन पेश करता है। फिर रिवायत क़ुरआनी की बनिस्बत ज़्यादा-तर क़दीम रिवायतें अहवाल मूसवी की तस्दीक़ करती हैं। चुनान्चे ब्रूसस जिसने मुल्क कसदियह की तवारीख़ लिखी थी नूह के तूफ़ान का बयान करता है जो क़रीबन मूसा की तहरीर के मुवाफ़िक़ है, सिर्फ बाअज़ बातों में इख़्तिलाफ़ है। मासिवाए और बातों के वो ये लिखता है कि :-
“ज़ी सतहरस (या किसी सतहरस) के अह्द में एक बड़ा तूफ़ान वाक़ेअ हुआ। करआनास ने उस को ख्व़ाब में ज़ाहिर हो के बताया कि एक कश्ती तैयार करे और अपने रिश्तेदारों और रफ़ीक़ों समेत उस में दाख़िल हो। उसने फ़रमान मान कर कश्ती बनाई जिसका तूल पाँच सटे और अर्ज़ दो सटे दिया था और जब वो बमूजब इर्शाद के सब चीज़ें उस में जमा कर चुका तो वो अपनी जोरू और बाल बच्चों और रफ़ीक़ों समेत कश्ती में दाख़िल हुआ।” (हिस्टोरिकल एविडेंस, रालन ससन)
इस के बाद ये मुअर्रिख़ उस के और उस के साथीयों के सहीह सलामत निकल आने का ज़िक्र करता है। इस से ज़ाहिर है कि क़दीम में तूफ़ान का आना और नूह और उस के साथीयों यानी रिश्तेदारों और रफ़ीक़ों के बच जाने की रिवायत थी। ताज्जुब है कि क़ुरआन का साथ कोई मुअर्रिख़ नहीं देता। पस रिवायत क़ुरआनी का क्या एतबार करें? कौन सी सनद उस की सदाक़त की सफ़ा आलम तवारीख़ पर मौजूद है या कभी मौजूद थी।
रही तशरीह सेल साहब की कि मुहम्मदी मुफ़स्सिर मिस्ल यहया और जलाल उद्दीन के कनआन नामे नूह का मुन्किर बेटा बताते हैं जो डूब किया था, मगर मूसा कहता है कि नूह के बेटे जो कश्ती से निकले साम, हाम और याफत थे और हाम (ना कि नूह) कनआन का बाप था। नूह के यही तीन बेटे थे और उन्हीं से तमाम ज़मीन आबाद हुई। फिर वो जो कनआन को नूह का पोता नीज़ मुन्किर और डूबने वाला बताते हैं, वो ये जानें कि नूह के बेटे साम, हाम और याफत का ये नसब नामा है और तूफ़ान के बाद उनको बेटे पैदा हुए। (पैदाइश 10:1) ना कि पहले। पस ज़ाहिर है कि नूह का ना कोई बेटा और ना कोई पोता डूबा था। ये बात हरगिज़ वक़ूअ में ना आई थी।
मुकर्रर हम इस बात का इज़्हार अंसब (ज़्यादा मुनासिब) समझते हैं कि कुल ग़ैर क़ौम रावी और नीज़ मुहम्मद साहब मूसा के मुक़ाबिल में उस ज़माना-ए-सलफ़ की हिकायात के बयान करने में क़ासिर हैं। क्योंकि (इल्हाम को ज़रा बर कनार रखकर) उनका मब्दा इल्म सच्ची और झूटी रिवायतों पर इन्हिसार रखता है। हालाँकि मूसा को उन वाक़ियात की जो किताब पैदाइश में मर्क़ूम हैं और ख़ुसूसुन तूफ़ान और उस के बाद की वारदातों के वक़ूअ की हनूज़ ताज़ा ख़बर मिल चुकी थी। चुनान्चे साम यहां तक ज़िंदा रहा कि नूह और इब्राहिम दोनों का हमअसर था और तूफ़ान की चशम दीदा हक़ीक़तें इब्राहिम से बयान कर सकता था। फिर इज़्हाक़ इब्राहिम और यूसुफ़ का हमअसर था और यूं इब्राहिम वाली ख़बर को दूसरे से ताज़ा ही ताज़ा बयान कर सकता था और इसी तरह यूसुफ़ से अमराम को जो उस का हमअसर था वही ताज़ा ख़बरें पहुँचीं और अमराम से मूसा को। इस से मालूम करो कि जिस क़द्र उन वाक़ियात के नज़्दीक मूसा था और जैसी सूरतें तवारीख़ी मालूमात की वो रखता था किसी और मुअर्रिख़ को जो बाद उस के हुआ हासिल ना थीं, फिर कजा (कहाँ) मुहम्मद साहब?
इलावा अज़ीं अगर इन क़दीम रिवायतों को तहरीरी रिवायतें तस्लीम करें, जैसा अक्सर बड़े बड़े मुहक़्क़िक़ों ने मुश्तहिर किया है तो मूसा की रिवायत और भी क़वी और मोअतबर ठहरती है और याद रहे कि बाअज़ उलमा ने किताब पैदाइश के पहले छः या सात अबवाब आदम, सीत, नूह और साम की तस्नीफ़ क़ायम किए हैं और हमने अपनी समझ में इस क़ौल पर कोई माक़ूल एतराज़ नहीं देखा। पस अगर ये सहीह है तो मूसा की रिवायत और भी क़वी ठहरती है चूँकि उस का इन्हिसार चशमदीद (देखने वाले) गवाहों की तहरीरी शहादत पर है। हाँ उस को मूसा की नहीं बल्कि उन्हीं बुज़ुर्गों की रिवायत कहेंगे जो फ़ैज़ रहमानी से ख़ाली ना थे। क़त-ए-नज़र उमूर हाज़ा के मूसा का इल्हामी रावी मुसल्लमुस्सुबूत है। इस में मुहम्मद साहब को भी कलाम ना था यानी उस की ज़बान से ऐसा ही ज़ाहिर होता है। पस ऐसे बयानात से क़ुरआन की ज़रूरत कहाँ रही, कभी हुई ही नहीं।
(दफ़ाअ 5) सूरह बक़रह रुकूअ 35 आयत 259 में एक शख़्स का ज़िक्र है जो सौ बरस का मुर्दा हो कर ज़िंदा हुआ। चुनान्चे लिखा है :-
أَوْ كَالَّذِي مَرَّ عَلَىٰ قَرْيَةٍ وَهِيَ خَاوِيَةٌ عَلَىٰ عُرُوشِهَا قَالَ أَنَّىٰ يُحْيِي هَٰذِهِ اللَّهُ بَعْدَ مَوْتِهَا فَأَمَاتَهُ اللَّهُ مِائَةَ عَامٍ ثُمَّ بَعَثَهُ قَالَ كَمْ لَبِثْتَ قَالَ لَبِثْتُ يَوْمًا أَوْ بَعْضَ يَوْمٍ قَالَ بَل لَّبِثْتَ مِائَةَ عَامٍ فَانظُرْ إِلَىٰ طَعَامِكَ وَشَرَابِكَ لَمْ يَتَسَنَّهْ وَانظُرْ إِلَىٰ حِمَارِكَ وَلِنَجْعَلَكَ آيَةً لِّلنَّاسِ وَانظُرْ إِلَى الْعِظَامِ كَيْفَ نُنشِزُهَا ثُمَّ نَكْسُوهَا لَحْمًا فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهُ قَالَ أَعْلَمُ أَنَّ اللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ
“या इसी तरह इस शख़्स को (नहीं देखा) जिसे एक गांव में जो अपनी छतों पर गिरा पड़ा था इत्तिफ़ाक़ गुज़र हुआ। तो उसने कहा कि ख़ुदा उस (के बाशिंदों) को मरने के बाद क्योंकर ज़िंदा करेगा? तो ख़ुदा ने उस की रूह क़ब्ज़ कर ली (और) सौ बरस तक (उस को मुर्दा रखा) फिर उस को जिला उठाया और पूछा तुम कितना अरसा (मरे) रहे हो? उसने जवाब दिया कि एक दिन या इस से भी कम। ख़ुदा ने फ़रमाया (नहीं) बल्कि सौ बरस (मरे) रहे हो। और अपने खाने पीने की चीज़ों को देखो कि (इतनी मुद्दत में मुतलक़) सड़ी बसी नहीं और अपने गधे को भी देखो (जो मरा पड़ा है) ग़रज़ (इन बातों से) ये है कि हम तुमको लोगों के लिए (अपनी क़ुदरत की) निशानी बनाएँ और (हाँ गधे) की हड्डीयों को देखो कि हम उनको क्योंकर जोड़े देते और उन पर (किस तरह) गोश्त-पोस्त चढ़ा देते हैं। जब ये वाक़ियात उस के मुशाहिदे में आए तो बोल उठा कि मैं यक़ीन करता हूँ कि ख़ुदा हर चीज़ पर क़ादिर है।”
मुहम्मदी (मुस्लिम) मुफ़स्सिर उस शख़्स का नाम एज़रा बताते हैं। बहर-सूरत ये बात ख़िलाफ़ वाक़ेअ है क्योंकि जिन अय्याम में यरूशलेम बर्बाद पड़ा था नहमियाह गधे पर सवार हो कर रात के वक़्त शहर को देखने गया, जैसा नहमियाह की किताब बाब 2 आयत 12-18 में मर्क़ूम है। मगर उसकी मौत और सौ बरस के बाद ज़िंदा होने का ज़िक्र नहीं है। यूसुफ़स मुअर्रिख़ भी इस क़िस्से का ज़िक्र नहीं करता। अग़्लब (मुम्किन) है कि इस जाअली क़िस्से की वज़ा (बनना) नहमियाह की इस सरगुज़श्त से हुई, जाअली इसलिए कि अगर वक़ूअ में आया होता तो अदना बात ना थी, मुक़द्दस रावी इस से मुत्लाअ (आगाह) करते। हाँ इसलिए कि जिन पर ये कैफ़ीयत गुज़री उन्हें तो ख़बर ही नहीं और ख़बर देने वाला एक हज़ार बरस से भी ज़्यादा बाद इस वाक़िया के हुआ। पस ऐसे उमूर जो वक़ूअ में ना आए हों किसी के दिल में डालना सच्ची वह्यी का काम नहीं।
(दफ़ाअ 6) सूरह अह्क़ाफ़ रुकूअ 1 आयत 9 में है :-
قُلْ أَرَأَيْتُمْ إِن كَانَ مِنْ عِندِ اللَّهِ وَكَفَرْتُم بِهِ وَشَهِدَ شَاهِدٌ مِّن بَنِي إِسْرَائِيلَ عَلَىٰ مِثْلِهِ فَآمَنَ وَاسْتَكْبَرْتُمْ إِنَّ اللَّهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ
कहो कि भला देखो तो अगर ख़ुदा की तरफ़ से हो और तुमने उस से इन्कार किया और बनी-इस्राईल में से एक गवाह इसी तरह की एक (किताब) की गवाही दे चुका और ईमान ले आया और तुमने सरकशी की। बेशक ख़ुदा ज़ालिम लोगों को हिदायत नहीं देता।”
(इस के मुवाफ़िक़ देखो सूरह शूअरा रुकूअ 11 आयत 192-197) सूरह अह्क़ाफ़ वाली आयत से बाअज़ मुफ़स्सिर मूसा की तरफ़ इशारा बताते हैं, ख़्वाह उनका कहना ख़्याली ही हो क्योंकि मतन क़ुरआनी में किसी का नाम नहीं है और सूरह शूअरा में साफ़ अगली किताबों की तरफ़ इशारा है। मालूम होता है कि मुहम्मद ने किसी हमपल्ला यहूदी के कहे पर लिखा या वर्ना अगली किताबों में क़ुरआन की गवाही नदारद (गायब) है। नावाक़िफ़ इन्सान की कार्रवाई इसी तरह हुआ करती है। वह्यी के क्या इख़्तियार है और माहिरीन तो ऐसी गलतीयां नहीं किया करते।
क़ुरआन के मुतालए से हमें एक ये बात भी मालूम होती है कि साफ़ हवाला किसी ख़ास किताब का नहीं देते थे और मुजमल और मुहमल (बेमाअ्नी, लायाअ्नी, फ़िज़ूल, बेमतलब) तर्ज़ रखी है। ये तर्ज़ ख़ाली अज़ मतलब ना थी और ज़ाहिरन तो ये मालूम होता है कि गिरिफ़्त से बचे रहें। इस का हम फिर ज़िक्र करेंगे।
(दफ़ाअ 7) सूरह नमल रुकूअ 2 आयत 17 :-
وَحُشِرَ لِسُلَيْمَانَ جُنُودُهُ مِنَ الْجِنِّ وَالْإِنسِ وَالطَّيْرِ فَهُمْ يُوزَعُونَ
और जमा किए सुलेमान के पास उस के लश्कर जिन्न और इन्सान और उड़ते जानवर फिर उनकी मिस्ल में भी।”
सूरह स रुकूअ 3 आयत 37-34 में सिवाए इस बयान के ये भी है :-
فَسَخَّرْنَا لَهُ الرِّيحَ تَجْرِي بِأَمْرِهِ رُخَاءً حَيْثُ أَصَابَ وَالشَّيَاطِينَ كُلَّ بَنَّاءٍ وَغَوَّاصٍ
फिर हमने हवा को उनके ज़ेर फ़रमान कर दिया कि जहां वो पहुंचना चाहते उनके हुक्म से नरम नरम चलने लगती और देवों को भी (उनके) ज़ेर फ़रमान किया वो सब इमारतें बनाने वाले और ग़ोता मारने वाले थे।”
सेल साहब (मुतर्जिम क़ुरआन अंग्रेज़ी) लिखते हैं कि इस वहम के लिए मुहम्मद तल्मूद वालों का दीन-दार है जो सुलेमान की इन बातों का अपनी तर्ज़ पर बयान करते हैं जो किताब वाइज़ 8:2 में मस्तूर हैं यानी “मैंने गाने वाले और गाने वालियाँ रखीं।” इसी पर उनका ये वहम है कि जिन्न उस की कार-गुज़ारी करते थे। ख़ुसूसुन वो आलीशान इमारतें जिन्हें वो नहीं बनवा सकता था, वो जिन्नात ने बनाएँ और इसलिए जिन्न उस के ताबेअ् थे और उनसे ऐसा काम करवाता था। ताज्जुब है कि सुलेमान और सब बातों का इज़्हार करता है और बख़्शिश का ज़िक्र, हाँ इस मिल्कियत नहानी (पोशीदा) का पता नहीं देता और ना किसी और किताब अह्दे अतीक़ में और ना यूसेफ़स में इस का ज़िक्र पाया जाता है। इल्ला तल्मूद वाले एक अम्र नामंज़ूर को ख़ुद ही पा गए और मुहम्मद साहब ने भी उनके वहम को वह्यी के ज़िम्मे लगाने में ज़रा तवक़्क़ुफ़ ना किया। ग़ैर क़ौम मुअर्रिख़, मिस्ल नबांडर (Nbander's) और यू पौलेमिस वग़ैरह ने सुलेमान की दौलत, सल्तनत और हिक्मत की बाबत लिखा है और उनके बयान अह्दे अतीक़ से जा-ब-जा मुवाफ़िक़त रखते हैं। हमें ताज्जुब है और अफ़्सोस भी है कि क़ुरआन का हामी नज़र नहीं आता। ग़रज़ कि क़ुरआन का ये मज़्मून भी एक क़िस्सा है जिसके बानी मुहद्दिस तल्मूद हैं, मगर कभी वक़ूअ में नहीं आया। अगर कभी आया तो यहूद के वहम में आया और बस। पस अगर क़ुरआन की ज़रूरत होती भी तो बलिहाज़ सच्चे बयानों के होती, ना कि ग़लत बातों की रू से और इस हाल में तो अदम ज़रूरत लाहक़ है। ख़ुदा करे कि मुहम्मदी नाज़रीन तहक़ीक़ सदक़ की रू से क़ुरआन को तर्क करें और बाइबल आस्मानी, रब्बानी और इल्हामी को क़ुबूल करें और धोका ना खाएं।
फ़स्ल पंजुम
अदमे ज़रूरते क़ुरआन अज़ रूए बयान वाक़ियात जो मख़लूत बिल-अग़लात हैं
हम निहायत अफ़्सोस से कहते हैं कि क़ुरआन का मुक़ाबला बाइबल के साथ क़ायम ना रह सका, लेकिन मुक़ाबले में वो कुतुब भी पेश करनी पड़ीं जो अपने ज़माने कलहूर से जाअ्ली, ग़लत क़िस्से और रिवायतें क़रार दी गई हैं। इस मौक़ा पर हम मुहम्मदी बिरादरान को समझाते हैं और मसीही बिरादरान को आगाह करते हैं कि अब मुहम्मदियों का कहना कि ये तौरेत और इंजील वो तौरेत और इंजील नहीं हैं जो मूसा और ईसा पर नाज़िल हुईं, किस बात पर मबनी है। हम नाज़रीन पर वो बातें ज़ाहिर कर चुके हैं और कुछ और भी बताए देते हैं जो क़ुरआन में ग़ैर ज़रीयों से दर्ज हुई हैं। जिससे बख़ूबी ज़ाहिर होगा कि बाअज़ बातों में हक़ीक़त मादूम (ग़ायब) हो गई और बाअज़ बातों में मख़लूत (मिलावट) हो गई है और इसलिए क़ुरआन के बयानात की ये सूरत उस की अदमे ज़रूरत पर दाल करती है, क्योंकि ख़ल्क़-उल्लाह को साफ़ सहीह हक़ीक़तों की हमेशा ज़रूरत है ना जैसी क़ुरआन में हैं।
अब ज़ाहिर है कि क़ुरआन के इस बयान की कुछ बातें तौरेत के मुवाफ़िक़ और कुछ ज़ाइद और बरख़िलाफ़ हैं। चुनान्चे फ़रिश्तों से ख़ुदा का सवाल व जवाब करना और आदम को हिक्मत से जानवरों के नाम बता कर फ़रिश्तों को क़ाइल करना और आदम को फ़रिश्तों का सज्दा करना और इब्लीस का ना करना ग़ैर बातें हैं। ये कहाँ से पाईं? (क्या यहूद या मसीहीयों ने ये बयान तौरेत से निकाल डाला था जो क़ुरआन में है और तौरेत में नहीं) ये तो कभी नहीं हुआ। मगर क़ुरआन में ये बयान हज़रत मुहम्मद के मबदा-ए-इल्म सानी यानी अहादीस यहूद से आया है। चुनान्चे इस मुक़ाम पर सेल साहब लिखते हैं कि :-
ये क़िस्सा मुहम्मद (साहब) ने यहूदी हदीसों से लिया है जो बयान करती हैं कि जब ख़ुदा ने उनसे उस की पैदाइश की बाबत मश्वरा किया और फ़रिश्तों ने इन्सान की बाबत तहक़ीर से कलाम किया तो ख़ुदा ने जवाब दिया कि इन्सान तुमसे दाना है और उस की निस्बत उन्हें क़ाइल करने के लिए वो सब क़िस्म के जानवरों को उनके पास लाया और उनसे उस के नाम पूछे। जब वो ना बता सके तो उसने वही सवाल इन्सान से किया। उसने एक एक का नाम लिया और जब उस से अपना नाम और ख़ुदा का नाम पूछा गया उसने बहुत ठीक जवाब दिया और ख़ुदा का नाम यहोवा रखा।
फ़रिश्तों का आदम को सज्दा करना भी तल्मूद में मज़्कूर हुआ है। जाये ग़ौर है कि यहूद की हदीसें ना हुईं हज़रत मुहम्मद साहब के लिए इल्हाम ठहरीं। कभी मसीहीयों के और कभी यहूदीयों के जाअली क़िस्सों से काम चलाया है। यहूदीयों की हदीसों का ये हाल नहीं कि मूसा से शुरू हुई हों, मगर उनकी अपनी बनावट है जिसमें उन्होंने तौरेत की तफ़्सीर ही नहीं की है बल्कि बहुत बातें तौरेत पर बढ़ा के मूसा की तरफ़ मंसूब कर दीं हैं और उनकी ये ज़्यादती ख़ुद तौरेत और तौरेत के हुक्म के बरख़िलाफ़ ठहरती है। पस ऐसे बनावटी क़िस्सों को हक़ीक़तों के साथ मख़लूत (मिलान) करने की मुतलक़ ज़रूरत ना थी। यहूदीयों ने तो अपने ऐसे क़िस्सों को तौरेत से अलेहदा (अलग) भी किया था मगर हज़रत मुहम्मद साहब ने हर दो को मिला ही दिया। सिवाए इस के और क्या कह सकते हैं कि यहूद की आयत और रिवायत में फ़र्क़ मालूम ना हुआ और इसलिए ये आमेज़िश ज़हूर में आई। ये बात क़ुरआन की अदमे ज़रूरत को बिल्कुल साबित करती है क्योंकि सच्च और झूट की अलैह्दगी ही बेहतर है, इख़तिलात (मिलावट) की नहीं।
अब वाज़ेह हो के फ़िरऔन के मुतफ़र्रिक़ ज़ुल्मों का यही सबब था। चुनान्चे उन पर ख़राज के लिए महसल बिठाना और दाई जनाइयों को फ़र्ज़ंद नरीने (लड़के) के क़त्ल करने का हुक्म देना और उनसे मायूस हो कर सब लोगों को हुक्म करना कि उनमें जो बेटा पैदा हो तुम उसे दरिया में डाल दो और जो बेटी हो जीती रहने दो। (आयत 22) ये सब ज़ुल्म बनी-इस्राईल की कस्रत के सबब से हुए जिससे फ़िरऔन को अपनी सल्तनत का ख़ौफ़ हुआ। इसी ज़ुल्म के दर्मियान मूसा पैदा हुआ और छुपाया गया और बड़ा हो कर ख़ुदा का रसूल हुआ, ना कि उस के अय्यामे रिसालत में लड़कों का क़त्ल होना वाक़ेअ हुआ और वो भी इस सबब से कि बनी-इस्राईल मूसा पर यक़ीन लाए थे। इला बरख़िलाफ़ उस के अय्यामे रिसालत में फ़िरऔन और उस के लोगों पर इस क़द्र सख़्ती पर सख़्ती हुई कि आख़िरश उनके पहलौठे लड़के भी मारे गए। अलबत्ता जब मूसा फ़िरऔन के पास पहली मर्तबा पैग़ाम लाया (बाब 5) तो फ़िरऔन ने बनी-इस्राईल पर ईंट बनाने की बाबत बहुत सख़्ती की, मगर बाद इस के हमेशा वह ख़ुद और उस के लोग तक्लीफ़ उठाते रहे। पस क़ुरआन का ये बयान भी मख़लूत (मिलावट) है।
(दफ़ाअ 3) अददाए दीने इब्राहीम को सूरह बक़रह के शुरू में यानी पहले रुकूअ में क़ुरआन की कुल ताअलीम का ख़ुलासा पाया जाता है और उन्हीं बातों को बार-बार क़ुरआन में बयान किया है। लेकिन चूँकि हम इन बातों का बयान नज़र नाज़रीन कर चुके हैं लिहाज़ा अब उस बात की तरफ़ रुजू किया जाता है जो उस ताअलीम क़ुरआनी का मुक़द्दम हिस्सा है यानी दीने इब्राहिम जैसे सूरह नहल रुकूअ 16 में लिखा है :-
“अस्ल इब्राहिम था राह डालने वाला हुक्मबरदार अल्लाह का एक तरफ़ का हो कर और ना था शिर्क वालो में हक़ मानने वाला उस के एहसानों का। उस को अल्लाह ने चुन लिया और चिल्लाया सीधी राह पर और दी दुनिया में हमने उस को ख़ूबी और आख़िरत में अच्छे लोगों में है। फिर हुक्म भेजा हमने तुझको कि चल दीने इब्राहिम पर जो एक तरफ़ का था और ना था वो शिर्क वालों में।”
पेशतर उस से कि दीने इब्राहीम का ज़िक्र किया जाये इस जुमले का तवारीख़ी ज़िक्र गोश गुज़ार किया जाता है और इस में हम इस अम्र को पेश-ए-नज़र रखेंगे कि क्या मुहम्मद साहब इस ताअलीम का मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) मुतलक़ है या नहीं? तहक़ीक़ के बाद मालूम होता है कि इस दीन का ख़्याल पेशतर भी था और वहीं से मुहम्मद साहब भी इस ताअलीम का मुशाहिदा करने पर आमादा हुआ। मुहम्मद साहब से पेशतर हनीफियाह का एक गिरोह था। वो अपने तईं इब्राहीमी साबईन कहते थे और शुरू में मुहम्मद साहब ने अपने तईं उनमें से एक क़रार दिया था। उनका तरीक़ यहूदी मसीहीय्यत की सूरत रखता था। वो एक ख़ुदा को मानते थे। उनके पास तौरेत, इंजील, इब्राहिम और मूसा की रिवायतें थीं और ये रिवायतें यहूदीयों की कुतुब मदराशि में पाई जाती थीं जो बतारीक और फ़रिश्तों और परीयों के क़िस्से और और ज़बानें भी शामिल करते हैं। इस फ़िर्क़े में कई एक मशहूर आदमी हुए हैं। सबसे अव्वल अमायह (عمایہ) एक आला दर्जे का शायर था। ये मुहम्मद साहब को मुतलक़ ना मानता था और हमेशा उस की हजू (नज्म में बदगोई) किया करता था क्योंकि वो ख़ुद नबी बनने का इरादा करता था। इस के सिवा चार और हैं जो मुहम्मद साहब के रिश्तेदारों में से थे और मशहूर वर्क़ा भी उनमें से एक था। ये सब अपने मुल्क की पथरीली परस्तिश से बेज़ार हो कर एक दफ़ाअ सालाना ईद पर काअबा में जमा हुए और अपने ख़यालात एक दूसरे से यूं बयान किए कि क्या हम एक पत्थर के गर्द घूमा करें जो ना सुनता, ना देखता, ना मदद देता और ना नुक़्सान पहुँचाता है। आओ हम एक बेहतर ईमान की तलाश करें और फिर वो एतिक़ाद हनफ़ी यानी दीने इब्राहिम की तलाश में लगे। इस दीने इब्राहिम मुहम्मद (मुहम्मद हनफ़ी) ने बहाल करने का इरादा किया और फिर देखो कि किस तौर से करना शुरू किया? वही दलाईल और ताअलीम जो उस के अज्दाद इस्तिमाल करते थे आपने भी इस्तिमाल की और ख़ुसूसुन ज़ैद की जो लहू और बुत-परस्ती की क़ुर्बानियां खाने को नफ़रत के लायक़ कहता था (ये यहूदी ताअलीम यानी तौरेत का असर था) और बच्चों को ज़िंदा दफ़न करने से जो बुतपरस्त अरबों की रस्म थी हक़ारत करता था और इब्राहिम के ख़ुदा की बंदगी करता था। ये ज़ैद मक्का में ताअलीम दिया करता था और मुहम्मद साहब भी इस का शागिर्द हो चुका था। इस से ज़ाहिर होता है कि हज़रत मुहम्मद साहब दीने इब्राहीम के पहले वाइज़ ना थे, मगर इस अम्र में औरों के शागिर्द हो चुके थे।
अब हम अस्ल मतलब की तरफ़ रुजू करते हैं यानी दीने इब्राहिम क्या था? मुहम्मद साहब और उस के हम-असर उस से क्या समझे? सूरह बक़रह रुकूअ 16 से मालूम होता है कि इब्राहिम ना यहूदी था, ना नसारा लेकिन मुसलमान था। याद रहे कि जब लफ़्ज़ मुसलमान (مسلمان) इब्राहिम पर बोला गया तो उस से मुहम्मदी मुसलमानी मुराद नहीं है। लेकिन ये वो बात है जो तल्मूद में बयान हुई है। “मुस्लिम” (مسلم) ताल्मुदी लफ़्ज़ है। उस में ये लफ़्ज़ रास्तबाज़ों पर बोला गया है और फिर ये ख़्याल कि वो ना यहूदी था ना मसीही तल्मूद और मदराशि वाला ख़्याल है। जिससे ग़रज़ ये है कि उस के वक़्त में तौरात और इंजील ना थे और इब्राहिम की मुसलमानी या रास्तबाज़ी के लिहाज़ से मिश्ना में आया है कि तुम इब्राहिम के शागिर्द बनो। फिर दीने इब्राहिम में मुहम्मद साहब ने ख़ुदा की वहदानीयत का मौज़ू समझा। चुनान्चे हग्गादाह Haggadah के बमूजब दीने इब्राहीम ये था। एक ख़ुदा की हस्ती जो ख़ालिक-ए-कुल आलम का है और उस आलम पर रहम और मेहरबानी से हुकूमत करता है। फ़क़त वही इन्सान की क़िस्मत ठहराता है, ना कि फ़रिश्ते या सय्यारे। बुत-परस्ती अगरचे उस के एतिक़ाद के साथ मिलाई जाये ताहम नफ़रत के लायक़ है। सिर्फ उसी की बंदगी करनी चाहीए। मुसीबत में सिर्फ उसी पर तवक्कुल होना चाहीए। वो मज़्लूमों को रिहाई बख़्शता है। हमें उसी से दुआ करना और मुहब्बत से उस की ख़िदमत करनी चाहीए और वही किताब दीने इब्राहीम में बाहमी सुलूक की बाबत ये सिखाती है कि मेहरबानी और रहमत इब्राहिम के ईमान की निशानी है। वो जो रहम दिल नहीं है। इब्राहिम के फ़रज़न्दों में से नहीं है वग़ैरह।
मुहम्मद साहब ने इस दीन में ख़ुदाई ताअलीम को मुक़द्दम समझा है। इन कुल ताल्मुदी फ़िक़्रों में लफ़्ज़ रहमान इस्तिमाल हुआ है और ये लफ़्ज़ जा-ब-जा क़ुरआन में भी क़ायम रखा है, और सिवाए इस के मुहम्मद ने इन अहादीस यहूद के मतलब को हमेशा और लफ़्ज़ों को अक्सर क़ायम रखा है और क्या करते जो कुछ जिस तरह सुना और सीखा उसी ढब पर कहते हैं। पस ये उस की मुक़द्दम ताअलीम की अस्ल बिना (बुनियाद) थी। फिर हम बयान क़ुरआनी में ये देखते हैं। इब्राहिम शिर्क वाला ना था और तल्मूद में इस बात पर बहुत ज़ोर दिया है कि ख़ुदा एक है और उस की इबादत में शिरकत ना चाहीए यानी दरमयानी या वसीले मिस्ल बुतों या सय्यारों के बिल्कुल रद्द किए हैं। ग़रज़ कि दीने इब्राहीम का अहवाल हज़रत मुहम्मद साहब को तल्मूद से हासिल हुआ। इस से ये बातें आइद होती हैं। एक ये कि क़ुरआन की अदमे ज़रूरत अज़हर है और दूसरी ये कि हज़रत ने सीखा तल्मूद से और कह दिया कि हुक्म भेजा हमने तुझको कि दीने इब्राहीम पर। ये कैसा फ़रेब है! बेहतर होता अगर दीने इब्राहीम तौरेत से सीखते क्योंकि इस हाल में तल्मूद के बनावटी क़िस्सों के दाओ में आ जाने से तो बचते। अफ़्सोस कि क़ुरआन में वो भी सभी मन्क़ूल हुए हैं। चुनान्चे सूरह अन्आम रुकूअ 9 में यूं मर्क़ूम है :-
फिर अँधेरी आई उसी रात देखा एक तारा बोला ये मेरा रब है फिर जब वो ग़ायब हुआ तुझको ख़ुश नहीं आते छुप जाने वाले। फिर जो देखा चांद चमकता बोला ये है मेरा रब फिर जब वो ग़ायब हुआ बोला अगर ना राह दे मुझको रब मेरा तो बेशक रहूं में भटकते लोगों में। फिर देखा सूरज चमकता बोला ये है मेरा रब, ये सबसे बड़ा। फिर जब वो ग़ायब हुआ बोला उस क़ौम में, बेज़ार हूँ उनसे जिनको तुम शरीक करते हो।” और क़सम है अल्लाह की मैं ईलाज करूँगा तुम्हारे बुतों का जब तुम जा चुकोगे पीठ फेर कर। फिर कर डाला उनको टुकड़े......बोले इस को जलाओ और मदद करो अपने ठाकुरों की अगर कुछ करते हो। हमने कहा ऐ आग ठनदक (ठंडी) हो जा और आराम पर।” (सूरह अम्बिया रुकूअ 5) देखो ऐ नाज़रीन ये सब बातें हग्गादह (حگدہ ) मज़्कूर बाला में मुफ़स्सिल तौर से पाई जाता हैं। चुनान्चे प्रोफ़ैसर पोलानौ के इंतिख्व़ाब तल्मूद बाब...में ये क़िस्सा यूं लिखा है :-
“जब वो (इब्राहिम) बिल्कुल लड़का था उसने दोपहर के सूरज के रोशन जल्वे को और उस अकसी नूर को जो वो इर्दगिर्द की चीज़ों पर डालता था देखकर कहा कि यक़ीनन ये मुजल्ला नूर ज़रूर ख़ुदा है, मैं इस की परस्तिश करूँगा और उसने आफ़्ताब की परस्तिश की और उस से दुआ मांगी। लेकिन जूँ-जूँ दिन बढ़ा सूरज की रोशनी कम हुई। वो चमक जो वो ज़मीन पर डालता था रात की घटा में गुम हुई और ज्यूँ शफ़क़ गहरी हुई लड़के ने इल्तिजा की मौक़ूफ़ किया कि, नहीं ये ख़ुदा नहीं हो सकता। फिर ख़ालिक़ को मैं कहाँ पाऊं जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया। उसने मग़रिब और दक्खिन (दक्षिण) और उत्तर और पूरब की तरफ़ देखा। आफ़्ताब उस की नज़र से नापिदीद (पोशीदा) हुआ और नेचर एक गुज़रे हुए दिन की चादर में मलफ़ूफ़ हुई। तब चांद उठा और इब्राहिम ने उसे आसमानों में हज़ार-हा सितारों से घिरा हुआ देखकर कहा शायद ये वो अल्लाह हैं जिन्हों ने सब चीज़ें बनाईं और उसने उनके आगे दुआ की। लेकिन जब सुबह हुई और सितारे ज़र्द हुए और चांद रूपये की सी सफ़ेदी में ज़ाइल हुआ और आफ़्ताब की बाज़ आमदा रोशनी में गुम हुआ। तब इब्राहिम ने ख़ुदा को पहचाना और कहा कि एक आला क़ुदरत, एक आला हस्ती है और ये सूरज चांद वग़ैरह उस के ख़िदमतगुज़ार और उस की दस्तकारीयां हैं।”
फिर इब्राहिम की बुत-शिकनी और अज़ांअन से मूजिब भट्टी में डाले जाने की बाबत यूं लिखा है :-
तब इब्राहिम पुकारा ! मेरे बाप और इस ख़राब पुश्त पर अफ़्सोस उन पर अफ़्सोस जो अपने दिलों को बुतलान की तरफ़ माइल करते और बे-हिस (बेजान) मूरतों को पूजते हैं जो सूँघने, खाने, देखने और सुनने से महरूम हैं। उनके मुँह हैं लेकिन वो आवाज़ नहीं निकाल सकते वग़ैरह और एक लोहे का औज़ार लेकर उसने सिवाए एक के और सब मूरतों को तोड़ डाला और वो औज़ार उस बाक़ीमांदा के हाथों में रख दिया। लेकिन (इस हिक्मत से अपने बाप तारा को समझा कर थोड़ी देर बाद) वो लोहा उस के हाथों से लेकर उस को भी अपने बाप की आँखों के सामने तोड़ डाला (जब उस के बाप ने नमरूद बादशाह को इस बात की ख़बर दी तो बादशाह के मुशीरों ने जवाब दिया कि) वो जो बादशाह की बेइज़्ज़ती करे उस को फांसी देना चाहीए। इस शख़्स ने ज़्यादा किया है। वो तबर्रुकात की चोरी का मुजरिम है। उसने हमारे ईलाहों (खुदाओं) की बेइज़्ज़ती की है। इसलिए वो जलाए जाने के लायक़ है। अगर बादशाह को मंज़ूर हो तो एक भट्टी दिन और रात-भर गर्म की जाये और तब ये इब्राहिम उस में डाला जाये। ये सलाह बादशाह को पसंद आई और हुक्म दिया कि फ़ौरन ऐसा ही किया जाये।....और इब्राहिम और हारान (उस को भी इब्राहिम के बाप ने फंसा दिया था) दोनों बादशाह के रूबरू हाज़िर किए गए। सब बाशिंदों के सामने उनके कपड़े उतारे गए। उनके हाथों और पांव बाँधे गए और वो जलती भट्टी में डाले गए और आग की तेज़ी इस क़द्र थी कि बारह आदमी जिन्हों ने उनको डाला था भस्म हो गए। लेकिन खुदा ने अपने बंदे इब्राहिम पर रहम किया और अगरचे वो रस्से जिनसे वो बंधा था उस के आज़ा पर से जल गए थे, ताहम वो आग में बेज़रर सीधा हो कर फिरता था। लेकिन हारान उस का भाई जिसका दिल ख़ुदावंद का ना था, शोलों में फ़ौरन मर गया।
पस देखो क़ुरआन झूटी सच्ची रिवायतों का मजमूआ साबित होता है और रिवायतों का भी ज़रा ख़्याल करो कि और (दुसरे) मज़्हब वालों की थीं। उन्हीं से आपने सीखीं, ना कि किसी वह्यी आस्मानी से। इन बातों पर ग़ौर करने से क़ुरआन कैसा फ़ुज़ूल ठहरता है।
ये दोनों क़िस्म के बयान अनाजील इल्हामियाह के ख़िलाफ़ हैं और फिर क़ुरआन और इंजील याक़ूब में भी पूरी मुवाफ़िक़त नहीं है। ताहम ज़ाहिर है कि हज़रत मुहम्मद साहब की मालूमात का ज़रीया ऐसी या यही जाअली रिवायतें थीं जो अक्सरों की ज़बानी बयान होते होते क़दरे तब्दील हो गईं, मगर उनकी बिना इन्ही जाली इंजीलों पर थी।
मगर अनाजील इल्हामियाह में उनके बरख़िलाफ़ बयान मौजूद है। चुनान्चे मीकाह नबी की मार्फ़त ये ख़बर थी कि मसीह बैतलहम् में पैदा होगा। (मीकाह 5:2) और मत्ती की इंजील 1:2 में ये मज़्कूर है कि यसूअ हैरोदेस बादशाह के वक़्त यहुदियाह के बैतलहम में पैदा हुआ और मीकाह नबी की नबुव्वत का इस मौक़े पर हवाला दिया है और लूक़ा लिखता है “पस यूसुफ़ भी गलील के शहर नासरत से दाऊद के शहर बैतलहम् को गया जो यहुदियाह में है। इसलिए कि वो दाऊद के घराने और औलाद से था। ताकि अपनी मंगेतर मर्यम के साथ जो हामिला थी नाम लिखवाए। जब वो वहां थे तो एसा हुआ कि उस के वज़ा हमल का वक़्त आ पहुंचा। और उस का पहलौठा बेटा पैदा हुआ और उस ने उस को कपड़े में लपेट कर चरनी में रखा क्योंकि उन के वास्ते सराए में जगह न थी।” (लूक़ा 2: 4-7) और वाज़ेह हो कि तमाम उलमाए क़दीम मसीह के बैतलहम में पैदा होने पर शहादत (गवाही) देते हैं। ग़ार और खजूर का इन रावियों को ज़रा भी ख़्याल नहीं और मर्यम और लोगों का सवाल व जवाब भी एक जाअ्ली बनावट है। इन बातों ने अस्ल बयान को मख़लूत (मिलावट) कर दिया है। पस ऐसे क़ुरआन की मुतलक़ ज़रूरत नहीं जो जाअ्ली रिवायतों से अपनी हाजत (ज़रूरत) पूरी करता है।
अव्वलन, ज़ाहिर है कि इंजील मुक़द्दस के हुज़ूर (सामने) बयान क़ुरआनी की हाजत ना थी क्योंकि वो बयान रूहुल-क़ुद्दुस ने उन लोगों की मार्फ़त लिखवा दिया जो शुरू से मसीह के गवाह थे और इसलिए मुहम्मद साहब का बयान उनके मुक़ाबिल में कुछ हैसियत नहीं रखता। ज़ेरा कि इस क़दर अरसा-दराज़ के बाद इस की तहरीर का वजूद और अदम वजूद बराबर है।
सानियन, जब मज़मून क़ुरआनी के इन बयानात पर नज़र ठहरती है जिन पर ख़त खींचा है तो वो बयान मख़लूत (मिलावटी) मालूम होता है और क़ुरआन की अदमे ज़रूरत को और भी वाज़ेह लाइह (कोई वाज़ेह चीज़) करता है। ये मलूनी (मिलावट) कहाँ से आई मुहम्मद साहब तो कहते हैं कि ये ख़बरें ग़ैब की हैं। हम भेजते हैं तुझको, अलिख (आखिर तक) इस में शक नहीं कि वो उस वक़्त मौजूद ना थे मगर इस किस्म की ख़बरें तो उस ज़माने में मशरिकी मसीहीयों में राइज थीं। चुनांचे तुफुलिय्यत मसीह (मसीह के बचपन) की पहली इंजील जो ऐसी रिवायतों का गोया मख़रज था उस के बाब अव्वल में ये ज़िक्र है कि वो (यानी यूसुफ़ सरदार काहिन जिसे बाअज़ कैफ़ास कहते थे) बयान करता है कि ईसा ने जब वो मह्द (या माँ की गोद) ही में था अपनी माँ से कहा कि “ऐ मर्यम मैं ईसा ख़ुदा का बेटा हूँ। वो कलाम जो तूने जिब्राईल फ़रिश्ते के कहे के मुवाफ़िक़ जना और मेरे बाप ने मुझे दुनिया की नजात के वास्ते भेजा है।” सूरह मर्यम वाली आयत में ईसा का अपने तईं बंदा अल्लाह का कहना मुहम्मद साहब के ख़्याल के मुवाफ़िक़ बयान हुआ है लेकिन ग़रज़ मसीह के माँ की गोद में बातें करने से है। सो ये ऐसी बात ना जो मुहम्मद साहब को इस के इल्म के लिए वह्यी की हाजत हुई। वही मशहूर बातें जो मसीहीयों में रिवायतन रिवाज पाई हुई थीं, क़ुरआन में भी दर्ज की गईं। जब ये हाल है तो मुहम्मदी क्यों ना कहें कि इंजील मुरव्वजा असली इंजील नहीं क्योंकि क़ुरआन के नज़दीक तो असली इंजील वो जाली क़िस्से ठहरे जो मसीहीयों में राइज थे और जो आनजील मुक़द्दस के ख़िलाफ़ और क़ुरआन से किसी क़दर मुवाफ़िक़त रखते हैं। पस ऐसे क़ुरआन की किस को ज़रूरत है। आशिक़ाने हक़ को हरगिज़ नहीं है।
मसीह की तुफुलिय्यत (बचपने) की यही दो मिसालें क़ुरआन में बयान हुई हैं और वो भी जाली (मन-घड़त) क़िस्सों के एतबार पर। इस से हर एक मालूम करे कि क़ुरआन और बाइबल में क्यों ऐसा फ़र्क़ है और याद रहे कि साफ़ और सच्ची हक़ीक़तें, असली और इल्हामी अनाजील में मौजूद थीं और मासिवाए उनके ग़लत और जाली (मन-घड़त) क़िस्से भी जहाँ-तहाँ राइज थे। देखो सच्च और झूट की अलैह्दगी मुनासिब थी। सो वो तो शुरू ही से क़ायम व दायम रही। फिर क्या हर दो की आमेज़िश के लिए क़ुरआन की ज़रूरत हुई? मगर ऐसे इख़्तिलाफ़ात और इख़तिलात की मुतलक़ ज़रूरत ना थी। पस अव्वल इन बातों पर फ़िक्र करें और पस अज़ां क़ुरआन पर नाज़ाँ हों या उस की तामील व तिलावत का ख़याल दिल में लाएं या तर्क करें। ख़ुदा-ए-करीम हिदायत बख़्शे।
(दफ़ाअ 6) मसीह की उलूहियत (ख़ुदा होने) का अहवालवाज़ेह हो कि वो जाली (मन-घड़त) इंजील जिसका ऊपर ज़िक्र हुआ और इंजील तुफुलिय्यत मर्यम और इंजील याक़ूब वग़ैरह में और बहुत क़िस्से जात मसीह की बाबत लिखे हैं, मगर मसीह की उलूहियत (ख़ुदा होने) से इन्कार नहीं है और अनाजील इल्हामियाह में तो इस ताअलीम को बदर्जा औला रखा है। मगर क़ुरआन में इस मसअले से इन्कार है। पस वो इन्कार क्योंकर हुआ? ये इल्हामी और जाअली (मन-घड़त) तवारीख़ें इस अम्र में तो हज़रत मुहम्मद साहब का साथ नहीं देतीं जैसा मुक़ाबला जे़ल से ज़ाहिर है :-
वाज़ेह हो कि मसीह को सिर्फ ख़ुदा मानना इंजील के ख़िलाफ़ और एक बिद्दत है। चुनान्चे इंजील में मसीह की हक़ीक़ी इन्सानियत ऐसी ही मुसर्रेह (वाज़ेह) है जैसी उस की उलूहियत (यानी ख़ुदा होना)। जिस तरह उलूहियत के लिए ईलाही नाम, काम और औसाफ़ मंसूब हुए हैं इसी तरह इन्सानियत के लिए इन्सानी ग़रज़ात का ज़िक्र आया है। उलूहियत की चंद मिसालें बयान हुईं। अब इन्सानियत के बारे में हम सिर्फ एक ही मिसाल देते हैं। फिलिप्पियों के नाम ख़त 2:6-8 में यूं लिखा है :-
“उस ने अगरचे ख़ुदा की सूरत पर था ख़ुदा के बराबर होने को क़ब्ज़े में रखने की चीज़ ना समझा। बल्कि अपने आपको ख़ाली कर दिया और ख़ादिम की सूरत इख़्तियार की और इंसानों के मुशाबिह हो गया। और इंसानी शक्ल में ज़ाहिर हो कर अपने आपको पस्त कर दिया और यहां तक फ़रमांबर्दार रहा कि मौत बल्कि सलीबी मौत गवारा की।” इंतिहा। फिर देखो कि इसी सूरत में हो के वो ख़ुदा बाप का रसूल है।” जिसने मुझे भेजा, मेरे साथ है।” (युहन्ना 8:29) अब क़ुरआन में ये हाथ खेला है कि मसीह की इन्सानी ग़रज़ात से उस की उलूहियत पर हमला किया है। चुनान्चे क़ुरआन के हवालों मस्तूरा बाला में ये बातें शामिल हैं। अव्वल, ये कि ईसा मर्यम का बेटा था इसलिए ख़ुदा नहीं। दोम, रसूल है अल्लाह का इसलिए वो ख़ुद अल्लाह नहीं। सोम, खाना खाता था इसलिए ख़ुदा नहीं क्योंकि ख़ुदा खाना नहीं खाता।
मगर इन ही बातों से इंजील मसीह को कामिल और हक़ीक़ी इन्सान साबित करती है जैसा मज़्कूर हुआ। पस जब मुहम्मद साहब ने सुना कि मसीही मसीह को अल्लाह मानते हैं तो उस ताअलीम की माहीयत (असलियत) से सहवन (भूल से) या क़सदन (जानबूझ के) ना समझ रह कर उलूहियत (मसीह के खुदा होने) से इन्कार किया और यूं हक़ीक़त सादिक़ को बयान क़ासिर से एक और ही सूरत दी। फिर ये एक ज़ाहिरा बात है कि मसीह में इन्सानी लवाज़मात सुनकर या देखकर उस की उलूहियत का यक़ीन मुहाल (नामुम्किन) मालूम हो। चुनान्चे मुहम्मद साहब के सिवाए और बहुतेरों ने उनसे पहले जिनमें एरीअन (आरयूसी, चौथी सदी इस्कंदरिया में मिस्र) के परेसबटर बिशप आर्योस का पैरोकार मशहूर हैं और बाद में भी इसी सबब इन्कार किया और अब तक ऐसे लोग (युनिटेरियन) मौजूद हैं। अजब नहीं कि उनके दिल में भी इस बात ने जगह पाई। बईं-हमा ये भी ख़्याल रहे कि ऐसे इंकारी मुहम्मद साहब से पहले भी हो गुज़रे जिनके ज़रीये से इन्कार उलूहियत का आवाज़ बहुतेरों के कानों तक पहुंचा और इरादे ने भी इस आवाज़ की तरफ़ तवज्जा की। उनमें से सरंथस और थियोडोटस बाई ज़न टईस मशहूर हैं। उन मुल्हिदों के पास अपने मतलब की जाली अनाजील हुआ करती थीं, जैसे सरंथस की इंजील और पतरस का मुकाशफ़ा वग़ैरह और इसी तरह हम तुम सब देखते हैं कि मुहम्मद साहब ने भी अपने मतलब की क़ुरआन किताब निकाल दिखाई। इन बातों से ज़ाहिर है कि क़ुरआन की अदम ज़रूरत एक बदीही अम्र के पाया पर है।
अब कहा जाये कि ये इंजील मुहम्मदियों की जालसाज़ी है या कि किसी ईसाई का जाअल है जिसमें मुहम्मदियों ने मलूनी (मिलावट) की है तो हर दो हालत में क़ुरआन की ख़राबी है। क्योंकि एक वाक़ई हक़ीक़त को जो छः सौ बरस क़ब्ल आपके हर मुल्क में मशहूर हो रही थी और मसीहीयों के ईमान का गोया रुक्न थी (जैसा जस्टिन शहीद की गवाही से उन अय्याम की बाबत ज़ाहिर है। वो लिखता है कि इन्सान की कोई क़ौम नहीं ख़्वाह बरबरी, ख़्वाह यूनानी या जिस किसी नाम से वो कहलाते हैं जिनमें सब के बाप और मालिक को मसीह मस्लूब के नाम से दुआएं और शुक्र गुज़ारीयाँ गुज़रानी जाती हों) और फिर ये बयान इल्हामी किताबों में चशम दीदा (आँखों देखी) गवाहों की मार्फ़त क़लम-बंद हुआ। इस हक़ीक़त को एक बनावटी बात से टालना चाहा है और या एक जाली क़िस्से के एतबार पर क़ुरआन में ये तज़्किरा दर्ज किया है। अलबत्ता चंद बिद्दती लोग मुहम्मद साहब से पहले हुए जिन्हों ने क़रीबन ऐसा ही बयान किया जिनमें से हासि लाईडनीर और सरंथस मशहूर हैं। मगर उनके और हज़रत के बयान में कुछ फ़र्क़ है, यानी वो ईसा का सूली दिया जाना मानते थे मगर इस तौर से कि मसीह उस वक़्त ईसा से जुदा हो कर परवाज़ कर गया था और छठी सदी में भी मसीह के जिस्म की बाबत बह्स शुरू हुई और मुद्दत तक जारी रही। इस बह्स में बाज़ों ने मसीह की हक़ीक़ी तक्लीफ़ वग़ैरह से इन्कार किया। बिद्दतीयों की ऐसी बातों की हवा पा कर क़ुरआन में भी मसीह के मस्लूब होने से इन्कार हुआ, मगर इन सब के बरख़िलाफ़।
इंजील मुक़द्दस का बयान
इंजील मुक़द्दस का बयान इस अम्र में साफ़ साफ़ ज़ाहिर करता है कि मसीह मस्लूब हुआ और मुर्दों में से फिर ज़िंदा हुआ। किताब आमाल 2:36 “पस इस्राईल का सारा घराना यक़ीन जान ले कि ख़ुदा ने उसी यिसूअ को जिसे तुम ने सलीब दी ख़ुदावन्द भी किया और मसीह भी।” हमारे बाप दादा के ख़ुदा ने यिसूअ को जीलाया जिसे तुम ने सलीब पर लटका कर मार डाला था। उसी को ख़ुदा ने मालिक और मुंजी (नजात देने वाला) ठहरा कर अपने दहने हाथ से सर-बुलंद किया ताकि इस्राईल को तौबा की तौफ़ीक़ और गुनाहों की मुआफ़ी बख़्शे। और हम इन बातों के गवाह हैं और रूहुल-क़ुद्दुस भी जिसे ख़ुदा ने उन्हें बख़्शा है जो उस का हुक्म मानते हैं।” (आमाल 5:30-32) पस जब यिसूअ ने वो सिरका पिया तो कहा कि तमाम हुआ और सर झुका कर जान दे दी।” (युहन्ना 19:30)
यूसीफ़स का बयान
यूसीफ़स जो एक मशहूर यहूदी मुअर्रिख़ है और उसी ज़माने में हुआ वो भी मसीह के मस्लूब होने पर शहादत (गवाही) देता है।
तर्जुमा : अब क़रीब उसी वक़्त के (इस से पहले ये मुअर्रिख़ पिलातुस का ज़िक्र करता है) ईसा एक दाना आदमी हुआ अगर उस को इन्सान कहना रवा हो, क्योंकि वो अजाइबात (मोजज़ात) का करने वाला था। ऐसे लोगों का उस्ताद जो सच्चाई को ख़ुशी से क़ुबूल करते हैं। उसने यहूदीयों और यूनानियों में से बहुतेरों को अपनी तरफ़ खींचा। वो मसीह था और जब पीलातुस ने हमारे सरदारोँ की सलाह पर उसे सलीब का फ़त्वा दिया तो वो जो पहले उसे प्यार करते थे उन्होंने उसे ना छोड़ा क्योंकि वो उन्हें तीसरे दिन फिर ज़िंदा दिखाई दिया, जैसा ख़ुदा के नबियों ने उन की और दस हज़ार और अजीब बातों की ख़बर दी थी और मसीहीयों का फ़िर्क़ा जो उस के नाम से कहलाता है आज तक मादूम (ख़त्म) नहीं हुआ।” (एंटी कुआईटी किताब 18 बाब 3 दफ़ाअ 3)
) नहीं हुआ।” (एंटी कुआईटी किताब 18 बाब 3 दफ़ाअ 3) पस ज़ाहिर है कि क़ुरआन का ये बयान भी उस की अपनी अदम ज़रूरत को साबित करता है। हाँ अगर लग़वयात (फिज़ुलियात) को हक़ीक़तों पर तर्जीह दे सकते हैं तो एक नहीं और कई क़ुरआनों की ज़रूरत है। क्या हक़ तआला ने नए तौर इख़्तियार किए थे जो ऐसे क़ुरआन को नाज़िल किया, हरगिज़ नहीं। सदाक़त हर हाल में सदाक़त ही रहेगी।
ज़मीमा फ़स्ल पंजुम
किसी अम्र की तहक़ीक़ात करने में बहुत मेहनत और तजस्सुस चाहीए। बाअज़ वक़्त बाअज़ ग़ुस्से में आकर या अपनी नावाक़फ़ीयत से बे-ख़बर रह कर बेतरह कुछ ना कुछ लिख देते हैं और इस के छप जाने को इस का सबूत समझते हैं। लेकिन इस में बहुत धोका है और मुनासिब है कि ऐसे मुआमलात में जब क़लम उठा दें तो चारों खोंट की सोच लिया करें। अगर ये ना हो तो ग़लत क़ारीयों का बहुत अंदेशा है। मैं इस की एक नज़ीर (मिसाल) देकर अहले क़लम को बेदार किया चाहता हूँ। मंशूर मुहम्मदी मत्बूआ 25 जमादी-उल-अव्वल 1298 हिज्री जिल्द 10 नंबर 15 के सफ़ा 151 में यूं मर्क़ूम हुआ है :-
“लूक़ा और मत्ती और मरक़ुस में लिखा है कि मसीह की सलीब शमाउन कुरैनी पर रखकर सलीब देने के लिए ले चले और दस्तूर ये था कि हर शख़्स जो सलीब दिया जाता अपनी सलीब आप ले जाता था।” (तफ़्सीर स्कॉट साहब सफ़ा 223) इस से आपने ये बात निकाली है कि शमाउन कुरैनी मस्लूब हुआ क्योंकि वो सलीब उठा के ले गया था। ये कैसा हीला (बहाना) आमेज़ कलाम है। अगर मत्ती, मरक़ुस और लूक़ा के बयान से आपने शमाउन का मस्लूब होना समझ लिया तो फिर क्यों इन रावियों ने मसीह की सलीब दिए जाने का बयान इस क़द्र तसरीह के साथ किया है। क्या इतनी सोच ना आई कि शमाउन की बाबत तो वो लिखते हैं कि उन्होंने उसे जबरन बेगार में पकड़ा कि यसूअ के पीछे पीछे उस की सलीब ले चले, लेकिन यसूअ ही को सलीब दिया ना कि उस कुरैनी को। पस इन तीनों अनाजील से शमाउन का मस्लूब होना हरगिज़ साबित नहीं होता। जान-बूझ के अपनी आँखें ना फोड़नी चाहीऐं।
रहा एक फ़िर्क़ा और तीन फ़िर्क़े यानी बासीलीदी , सरहन्ति , कार्पो कराटी और डूसीटी। सो सरहन्ति की बाबत वाज़ेह हो कि वो यसूअ का सलीब दिया जाना मानता था लेकिन ये कहता था कि बरवक़्त मसीह जो बपतिस्मा पाने के उस में कबूतर की सूरत में दाख़िल हुआ था आस्मान पर उड़ गया। इस मुल्हिद की ग़रज़ ये थी कि नासटकफ़स और यहूदाह और मसीह यसूअ की ताअलीम को मिला कर एक नया फ़िर्क़ा बना दे। पस शमाउन कुरैनी के मस्लूब होने का ये फ़िर्क़ा शाहिद (गवाह) नहीं हो सकता। फिर कार्पोकराअटी और बासीलीदी का ख़्याल यसूअ और मसीह की निस्बत सरहनतन के मुवाफ़िक़ था। इसलिए उनके ख़यालों से भी शमाउन कुरैनी का मस्लूब होना साबित नहीं होता। बासीलीदीज़ की बाबत एड़ीनी एक्स के क़ौल पर बाज़ों ने कहा है कि वो मसीह का हक़ीक़ी जिस्म ना मानता था और कि शमाउन कुरैनी उस की जगह सलीब दिया गया। मगर ये क़ौल ग़लत साबित हुआ है। फिर डू सीटी के ख़्याल के बमूजब मसीह का हक़ीक़ी जिस्म ना था और इसलिए तारीकी का सरदार और यहूदीयों का ख़ुदा यानी इस दुनिया का ख़ालिक़ उसे ज़रर ना पहुंचा सके। इस से भी शमाउन का मस्लूब होना साबित नहीं होता। आपके गवाहों का ये हाल है इसलिए ये दावा कि इन तीनों इंजीलों और चार मसीही फ़िर्क़ों से (मसीही नहीं बिद्दती थे और कार्पोकराटीज़ तो मिस्री फ़लसूफ़ (फ़लसफ़ी) था।) कि जिनमें लाखों आलिम व फ़ाज़िल व तवारीख़दां होंगे (नहीं क्योंकि इन फ़िर्क़ों की कुछ वुसअत ना थी और ना बहुत मुद्दत क़ायम रहे) और हज़रत ईसा के उरूज के बाद उन्हीं दिनों में मौजूद थे (नहीं साहब ये सब दूसरी सदी में हुए) साबित हुआ कि सिर्फ शमाउन कुरैनी मस्लूब हुआ ना कि हज़रत ईसा, सरीहन ग़लत है।
क़त-ए-नज़र इस के वाज़ेह हो कि यसूअ मसीह का मस्लूब होना और ज़िंदा होना उसी वक़्त से लोगों में तहक़ीक़ी और यक़ीनी अम्र मुसल्लम हो गया था। इस अम्र में उलमा-ए-साबिक़ा ने मुल्हिदों और मुख़ालिफ़ों की तर्दीद की और इस बात को सच्ची हक़ीक़त साबित किया। किस-किस आलिम और मुसन्निफ़ का तज़्किरा सुनाऊँ क्योंकि ना सिर्फ मसीहीयों में ये एक हक़ीक़ी और यक़ीनी अम्र था बल्कि सरकारी दफ़्तरों में भी हसब-ए-दस्तूर क़लम-बंद हुआ और मसीही मुअर्रिख़ हस्ब-ए-ज़रूरत उनकी तरफ़ हवाला देते थे। चुनान्चे यूसीबईस मुअर्रिख़ लिखता है कि :-
“तमाम फ़लस्तीन में हमारे नजातदिहंदा के जी उठने के चर्चा होने पर पिलातूस ने बादशाह को इस से मुत्ला`अ (बाख़बर) किया और नीज़ उस के मोअजज़ों से जो वो सुन चुका था और कि उस के मारे जाने और जी उठने पर बहुतेरे उस को ख़ुदा मानते हैं।”
फिर जस्टिन शहीद और टरटोलेन जो दूसरी सदी में हुए। ऐक्ट्स आफ़ पायलेट (आमाल पिलातूस) का हवाला देते हैं। जस्टिन शहीद अपनी अपालोजी में मसीह के मस्लूब होने और इस के मुताल्लिक़ा हालात का ज़िक्र कर के कहता है और कि ये सब बातें इसी तरह वाक़ेअ हुईं तुम इन ऐक्टस (आमाल-नामे) से मालूम करो जो पंतुस पिलातूस के वक़्त में बनाया गया। फिर टरटोलेन इन अपालोजी में नजातदिहंदा के सलीब दिए जाने और जी उठने वग़ैरह का बयान कर के कहता है कि मसीह की बाबत इन सब बातों का अहवाल पीलातूस ने शहनशाह टाईब्रईस (तबरीस) की तरफ़ भेजा वग़ैरह।
फिर ग़ैरकोम मुअर्रिख़ मिस्ल टास्टेस् नेरो बादशाह की तारीख़ और ईसाईयों का अहवाल लिखते हुए कहता है कि “इस फ़िर्क़े का बानी मसीह था जो टाईब्रईस के अह्द में पीलातूस से मुजरिम के तौर पर क़त्ल किया गया।” यहूदी मुअर्रिख़ भी यही कहते हैं। यूसीफ़स का ज़िक्र सुनाया गया था अब सिर्फ एक यहूदी आलिम का ज़िक्र किया जाता है जो दूसरी सदी में हुआ। ये यहूदी आलिम बनाम ट्राईफ़ो दीने मसीही को इस के बानी के मस्लूब होने के सबब बड़ी तहक़ीर से बयान करता है और इस के मोअतक़िदों को एक मस्लूब शूदा शख़्स पर अपनी उम्मीद क़ायम करने की निस्बत हंसी करता है और फिर कहता है कि “वो शख़्स जिसे तुम मसीह कहते हो उस ने सब से हीच बेइज़्ज़ती उठाई क्योंकि वो मस्लूब हुआ” और फिर कहता है कि “शरीअत में लिखा है कि हर एक जो सलीब पर लटकाया गया लानती है।” इस यहूदी की तहक़ीर आमेज़ बातों का जस्टिन शहीद ने दूसरी सदी में जवाब दिया था। (हॉर्न) पस बहर-सूरत साबित है कि मसीह का मस्लूब होना और ज़िंदा होना वाक़ई अम्र हैं और इनसे इन्कार करना सदाक़त (सच्चाई) से इन्कार करना और हक़ के दुश्मन ठहरना है।
मालूम होता है कि किसी साहब ने मुहम्मद साहब के कहे को सच्च ठहराने की ख़ातिर ये बातें लिखी हैं। चुनान्चे अख़ीर में इस कहे को भी लिखा है وَمَا قَتَلُوهُ وَمَا صَلَبُوهُ وَلَٰكِن شُبِّهَ मगर हज़रत ने तो शमाउन कुरैनी का नाम नहीं दिया। सिर्फ बिद्दतीयों के ख़्याली फ़ल्सफ़े को सुनकर ना समझे यूँही लिख दिया है और इंजील बरनबास से भी कुछ सलाह ली। पस बाअज़ बिद्दतीयों के इख़्तिलाफ़े राय पर यानी मसीह के हक़ीक़ी जिस्म और दुख उठाने की निस्बत आपने भी क़ुरआन में फ़ैसला दे दिया कि ना उस को मारा है, ना सूली पर चढ़ाया व लेकिन वही सूरत बन गई उन के आगे और जो लोग इस में कितनी बातें निकालते हैं वो इस जगह शुब्हे में हैं, कुछ नहीं उनको उस की ख़बर, मगर अटकल पर चलना और उस को मारा नहीं बेशक। ऐ नाज़रीन इस से बढ़कर ना-वाक़िफ़ी और क्या हो सकती है? वो जो युहन्ना के बपतिस्मा से लेके उस दिन तक कि (मसीह) ऊपर उठाया गया उस के जी उठने के गवाह थे। हाँ वो जिन्हों ने उसे अपनी आँखों से देखा और ताक रखा और अपने हाथों से छुवा गवाही देते हैं कि यहूद ने उसे पकड़ा और बे-दीनों के हाथ से कीलें गढ़वा के क़त्ल किया। ग़ैरों की गवाही इस अम्र में हमारे नज़्दीक और सब के नज़्दीक इस गवाही के हुज़ूर बिल्कुल पोच (हक़ीर, लगू) है।
फिर कुजा बिद्दतीयों का ख़्याली फ़ल्सफ़ा जिसको हक़ीक़तों से निस्बत ही नहीं। क्या क़ुरआन की सदाक़त के ये ही गवाह हैं? मगर उनकी गवाही जो सिर्फ ख़्याली ख़्याल हैं क़ुरआन के लिए मुफ़ीद नहीं। इन बिद्दतीयों ने ईसा के मस्लूब होने से इन्कार नहीं किया, जैसा मज़्कूर हुआ। पस कहो क़ुरआन का कहना इस बात से भी झूट ठहरा या ना ठहरा? कौन अटकल पर चला? और कौन बे-ख़बर ठहरा? क़ुरआन की अदम ज़रूरत के लिए यही एक बात किफ़ायत करती है। ख़ूब सोच के देख लो।
बईं-हमा वाज़ेह रहे कि वो बयानात क़ुरआनी जो कुतुब मुक़द्दसा के मुवाफ़िक़ हैं उनके लिए भी क़ुरआन की ज़रूरत ना थी। अगर कहा जाये कि इन क़दीम वाक़ियात की शहादत (गवाही) के लिए क़ुरआन आया तो याद रहे कि ये शहादत बसबब इस क़द्र जदीद (नई) होने के कुछ शहादत (गवाही) नहीं है और हज़रत की ग़रज़ भी कुछ शहादत से ऐसी ना थी जैसी समझी जाती है। लेकिन उन्होंने इन कुतुब अक़दम के बयानात से सिर्फ अपनी रिसालत मद्द-ए-नज़र रखी थी, यानी उनको सच्चा कह कर आप भी हर क़ौल व फे़अल में सच्चे बनते हैं और इस हाल में फ़ाईलो और यूसेफ़स और जिस क़द्र बयान हराडाट्स और मनिथो मिस्री ने किया है और जिस क़द्र अनाजील जाली और टाईटस (तीतुस) वग़ैरह में है क़ुरआन की निस्बत ज़्यादा-तर मोअतबर है और क़ुरआन ना सिर्फ उन वाक़ियात से दूर होने बल्कि ग़लत आमेज़ियों के सबब से और भी कम-क़दर होता है। ग़रज़ कि क़ुरआन की गवाही भी कोई पुख़्ता गवाही ना गरदानी जाएगी।
ये सब माजरा देखकर अब नाज़रीन ग़ौर फ़र्मा दें कि मुहम्मदी क्यों कहा करते हैं कि इंजील मुरव्वजा असली इंजील नहीं। ऐसा कहे बिना बनती भी तो नहीं क्योंकि क़ुरआन में तो और ही ज़रीयों से रिवायतें दर्ज की गई हैं और उनके लिहाज़ से इंजील पर तअन किया जाता है। फिर जो जो बातें हमने इस सिलसिले में तहरीर की हैं उनसे मुहम्मदियों का दावा नस्ख़ सरासर रद्द होता है, यानी इन उमूर की वुसअत में नस्ख़ वग़ैरह का बिल्कुल दख़ल नहीं है। याद रहे कि इन उमूर की क़ैद हमने क़ुरआन के सबब से लगाई है। उमूर पेश शूदा में से कोई ऐसी बात नहीं जो क़ुरआन ने मंसूख़ की हो या कि इन्हीं को या मिस्ल इनके मुहम्मद साहब ने क़ुरआन में दर्ज किया है तो वो मंसूख़ क्योंकर कही जा सकती हैं? और वाक़ियात तो कभी मंसूख़ हो ही नहीं सकते, ख़्वाह वो जिनकी नक़्ल क़ुरआन में हुई है ख़्वाह जिनकी नहीं हुई। इसलिए क़ुरआन की रू से बाइबल की कोई बात मंसूख़ नहीं ठहरती और इस से ये भी ज़ाहिर है कि इन उमूर में तहरीफ़ भी नहीं हुई, क्योंकि क़ुरआन में उनकी नक़्ल आई है और वो जो बसबब मुख़ालिफ़त के नई मालूम होती हैं और शायद अज़ां मूजिब नस्ख़ या तहरीफ़ का रग़म (इख़्तिलाफ़) हो तो याद रहे कि हमने इन मुख़ालिफ़ और नई बातों का मब्दा बता दिया है जिससे क़सूर क़ुरआन में साबित होता है, ना कि बाइबल में। इसलिए क़ुरआन को फ़ुज़ूल जानना एक आला सदाक़त को मानना है। ऐ मुहम्मदी बिरादरान ज़िद करने में कुछ नफ़ा नहीं और देर करने में नुक़्सान है। इसलिए आओ हम सब के सब ख़ुदा के कलाम बाइबल की हिदायत क़ुबूल करें। ख़ुदा करे कि हम नविश्तों में ढूंढें और उनकी सोच में लगे रहें। आमीन।
फ़स्ल शश्म
अदमे ज़रूरते क़ुरआन
अज़ h2रूए उमूर मुताल्लिक़ा आइन्दा
आइंदा एक ऐसी हालत है कि इन्सान बह हिदायत मह्ज़ मुजर्रिद अक़्ल के जो ख़्याल चाहीए कर सकता है और ऐसा ही होता रहा है। इस हाल में इख़्तिलाफ़ होना कुछ अजब नहीं क्योंकि आइंदा की निस्बत किसी क़िस्म का ख़्याल क़ायम करने के लिए कोई यक़ीनी अम्र या बुनियाद नहीं है। ये कार्रवाई अपनी अपनी अमीक़ बीनी पर मौक़ूफ़ है। किसी ने आइंदा की निस्बत यूं कहा और किसी ने वूं कह दिया। चुनान्चे बाज़ों ने ये समझ छोड़ा कि मौत के बाद ख़ुदा में एक हो जाएंगे क्योंकि हर शैय की मौजूदा हालत ख़ुदाई हालत का सिर्फ जुदागाना ज़हूर है और जब मौत इस जुदाई को दूर करती है तो सब उस ख़ुदा में मिलकर एक हो जाते हैं। बाज़ों को आइंदा की निस्बत शक रहा, बाज़ों ने साफ़ इन्कार किया और बाअज़ ने आइंदा में इस फ़ानी दुनिया की ऐशो इशरत को किसी क़द्र बदल कर रवा रखा। बाज़ों ने इस फ़ानी ऐश को मतरूक कर के आइंदा ज़िंदगी के लिए रुहानी ख़ुशी और बुजु़र्गी को क़ायम किया। चूँकि इस सिलसिले में हमारी ग़रज़ ये नहीं कि हर मिल्लत और हर फ़ैलसूफ़ के ख़यालात का मुक़ाबला करें या इत्तिफ़ाक़ ही ज़ाहिर करें। लिहाज़ा हम बाइबल मुक़द्दस और क़ुरआन मजीद ही के बयान के मुवाफ़िक़ इज़्हार करते हैं ताकि मालूम हो कि बाइबल मुक़द्दस में क्या ताअलीम है और क़ुरआन क्या सिखाता है। आया बाइबल मुक़द्दस की ताअलीम से कुछ बढ़कर उम्दा ताअलीम देता है या फुज़ुल है।
ये उन ईमानदारों की ख़ुशवक़्ती और नेक-बख़्ती का बयान है। इस मुक़ाबले से ज़ाहिर है कि बाइबल और क़ुरआन की बहिश्त में सरीह नामुवाफ़िक़त है। एक रुहानी दूसरा नफ़्सानी है यानी एक में रुहानी ख़ुशी और दूसरे में नफ़्सानी ख़ुशी है। एक में ईमानदारों के पाक शुग़्ल यानी ख़ुदावंद की बंदगी में लगे रहना और दूसरे में इस के एवज़ शराब और औरतों के शुग़्ल में मशग़ूल रहना शामिल है। एक में शादी ब्याह, खाना पीना वग़ैरह नहीं है और दूसरे में ये बातें हैं। बहिश्त क़ुरआनी की निस्बत हम क्या कहें, औरों ने जो मुनासिब था इस अम्र में अहले इस्लाम की तंबीया और हिदायत के लिए लिखा है। हमारी ग़रज़ ये है कि मुहम्मद साहब ने ये बयान पाया कहाँ से? मालूम होता है कि मिस्ल अज़र अक्सर बातों के इस बात में भी यहूदी ही उनके उस्ताद हैं और किसी क़द्र फ़ारसी भी। चुनान्चे यहूदीयों की तल्मूद में ये बयान पाया जाता कि :-
“क़ियामत के बाद इन्सान कोई काम नहीं करते और जिस्मी थकावट या मांदगी नहीं होती। उनके मकान क़ीमती पत्थरों के होंगे और उनके बिस्तर रेशम के और शराब और इत्र की नहरें होंगी।” (देखो इंतिखाब तल्मूद सफ़हा 32 मोअल्लिफ़ डाक्टर जोसफ बार्क्ले)
सेल साहब भी दीबाचा तर्जुमा क़ुरआन के सफ़ा 72 में लिखते हैं कि यहूद कहते हैं कि :-
“ईमानदारों के लिए एक लज़ीज़ बाग़ है जो सातवें आस्मान तक पहुंचता है। उस के तीन दरवाज़े हैं और चार नहरें हैं जो दूध, मैय और बलसाम से बहती हैं।”
पस इस से ज़ाहिर है कि क़ुरआन में ताल्मुदी बहिश्त का इज़्हार किया गया है जिस में फ़ारसियों की भी बहिश्त की लॉग लगी है। अगर उनके बहिश्त में नफ़्सानियत की कुछ कसर थी तो वो मुहम्मद साहब ने पूरी कर दी है। इस के मुताल्लिक़ एक और बात है जिसका ज़िक्र इस मौक़े पर मुनासिब मालूम होता है यानी अगर कहा जाये कि बयान बहिश्त क़ुरआनी इस्तिआरा के तौर पर हुआ है तो इस हाल में लाज़िम है कि इस्तिआरा क़ुरआन से साबित किया जाये, क्योंकि वो सब मुक़ामात जिनमें बहिश्त और उस के ऐश का ज़िक्र आया है किसी में उस को इस्तिआरा के तौर पर बयान करने का इशारा भी नहीं है। बरख़िलाफ़ उस के बार-बार कहा है कि ये ईमान वालों का बदला है। क्या ख़ूब आराम है। कहीं तो कह दिया होता कि ये आस्मानी ख़ुशीयों की ज़मीनी मिसाल है। क़रीबन अट्ठाईस मुक़ाम हैं जिनमें बहिश्त का ज़िक्र आया है। उनमें से किसी में इस्तिआरा की बू तक नहीं है। बजाय इस्तिआरा के ताकीदन लिखा कि “वही बहिश्त है जो मीरास पाई तुमने बदले उन कामों के जो करते थे।” (सूरह ज़ुख़रुफ़ रुकूअ 7 आयत 72) और कि “यही है मुराद मिलनी बड़ी।” (सूरह तौबा आयत 73 रुकूअ 9) और फिर ये कि “अहवाल इस बहिश्त का जो वाअदा है डर वालों को।” (सूरह मुहम्मद आयत 6) इस बहिश्त की नेअमतों को और की तरह बयान करना या ना मानना गोया ख़ुदा की नेअमतों को झुटलाना है, देखो सूरह रहमान रुकूअ 3 कुल।
पस ज़ाहिर है कि इस ताअलीम के लिए भी क़ुरआन की ज़रूरत ना थी। क़ुरआन में औरों की पुरानी राइज बातों का भी इंदिराज (दखल) वक़ूअ में आया है। चुनान्चे सेल साहब दीबाचा क़ुरआन फ़स्ल 4 में लिखते हैं कि :-
“ये क़िस्सा दोज़ख़ के ख़ानों और दोज़ख़ियों का मुहम्मद साहब ने यहूदीयों से लिया है और बाअज़ बातें मेजाऊं से। ये दोनों कौमें दोज़ख़ में अलेहदा (अलग) ख़ाने क़ायम करती हैं और यहूदीयों के ख़्याल में इन दोज़ख़ी ख़ानों में से हर एक पर एक निगहबान फ़रिश्ता रहता है और कि शरीर मुख़्तलिफ़ क़िस्म की सज़ाएं उठाएँगे और वो निहायत सर्दी और सख़्त गर्मी से होगी। उनके चेहरे स्याह हो जाऐंगे और कि उनके हम-मज़्हब यानी यहूदी भी दोज़ख़ में सज़ा पाएँगे। लेकिन जब उनका बाप इब्राहिम उन्हें उनके गुनाहों से साफ़ करेगा तो वो जल्द वहां से रिहाई पाएँगे।”
याद रहे कि सिवाए इन बातों के जो क़ुरआन में बाइबल मुक़द्दस, अहादीस यहूद, क़िसस फ़ारसियान (फ़ारसी) और कुतुब जाली (झूटी किताबों) से ली गई हैं, और रिवायतें हैं जो उन लोगों की रिवायतों से निकाली गई हैं और ये बात पहली बात को क़ायम करती हैं कि मुहम्मद साहब ने चुने चुनाए और सुने सुनाए बयान क़ुरआन में दर्ज किए। चुनान्चे हम एक रिवायत का मसलन (बतौरे मिसाल) ज़िक्र सुनाए देते हैं। बहुत इसलिए नहीं कि हमारी ग़रज़ रिवायतों की रिवायत से नहीं है। क़ब्र में मुर्दों की आज़माईश की बाबत मुहम्मदियों का ये रिवायती क़िस्सा कि :-
“जब मुर्दा क़ब्र में रखा जाता है तो दो फ़रिश्ते सियाह-रंग और डराऊनी शक्ल के बनाम मुन्किर नकीर (वो दो फ़रिश्ते जो क़ब्र में मुर्दे से सवाल करते) हैं इस के पास आ जाते हैं। ये दोनों, मुर्दा को हुक्म देते हैं कि सीधा बैठ और फिर उस के ईमान की आज़माईश करते हैं। अगर वो ठीक जवाब दे तो इस को आराम से पड़ा रहने देते हैं और वो बहिश्त की आब-ओ-हवा से तर-ओ-ताज़ा किया जाता है, अगर नहीं तो लोहे के लठ से उस की कनपटियों पर मारते हैं और वो ऐसी आवाज़ से चिल्लाता है कि मशरिक़ से मग़रिब तक सिवाए आदमी और जिन्नात के और सबको सुनाई देता है। तब वो लाश पर मिट्टी डाल देते हैं और क़ियामत तक निनान्वें अज्देह उस को डंक मारा करते हैं और एक एक अज्दाह के सात सात सर हैं।
फ़रिश्तों की मार का क़ुरआन में भी इशारा पाया जाता है। चुनान्चे देखो सूरह अन्फ़ाल रुकूअ 7 आयत 52 “और कभी तो देखे जिस वक़्त जान लेते हैं फ़रिश्ते काफ़िरों की, मारते हैं उनके मुँह पर और पीछे और चखो अज़ाब जलने का।” फिर सूरह मुहम्मद आयत 29 रुकूअ 3 “फिर कैसा होगा जबकि फ़रिश्ते जान लेंगे उनकी मारते जाते हैं उनके मुँह पर और पीठ पर।” (सेल साहब (मुतर्जिम क़ुरआन अंग्रेज़ी लिखते हैं कि :-
“ये क़िस्सा यहूदीयों से लिया है जिसमें ये बातें क़दीम से माअनी जाती हैं। उन का ख़्याल है कि मौत का फ़रिश्ता आकर क़ब्र पर बैठता है तो रूह फ़ौरन जिस्म में दाख़िल होती है और उस को पांव पर खड़ा करती है। तब वो उस को आज़माता है और एक ज़ंजीर से जो आधी लोहे और आधी आग की है उसे मारता है। पहले और दूसरे सदमे से हड्डियां इधर उधर गिर जाती हैं और तीसरा सदमा जिस्म को ख़ाक कर देता है और फिर वो क़ब्र में पड़ा रहता है।” (तर्जुमा क़ुरआन दीबाचा सफ़ा 55 फ़स्ल 4)
इस बयान से भी ज़ाहिर है कि ना सिर्फ क़ुरआन ही फ़ुज़ूल है बल्कि हदीसों का भी यही हाल है। देखिए नाज़रीन जिन लोगों को अपनी तरफ़ से हिदायत करने आए उन्ही से सीख कर उन्हीं को सिखाने लगे। बेशक ऐसे मुअल्लिम और ऐसी ताअलीम की हरगिज़ ज़रूरत ना थी जिसमें और लोगों की तालीमों और बयानों का सिर्फ इंतिख़ाबी (चुना हुआ, पसंदीदाह) मजमूआ और जिस हाल कि क़ुरआन की अदम ज़रूरत ऐसी मुसर्रेह है तो बाइबल जो असली क़दीमी और इल्हामी किताब है क्यों ना मानें। ऐ बिरादराने अहले इस्लाम इस कमतरीन की अर्ज़ का ख़्याल रखना, हक़ तआला आप सभों को हक़ पर लाए।
फ़स्ल हफ़्तुम
ज़रूरते इंजील मुक़द्दसा और अदमे ज़रूरत क़ुरआन की तौज़ीह
मंशूर मुहम्मदी मत्बूआ 25 माह ज़िलहिज्जा 97 हिज्री नंबर 36 में हमारे मौलाना साहब ने नंबर 6 तक ज़रूरते क़ुरआन के बारे में और भी शौक़ दिखाया है। मगर दरअस्ल किसी में क़ुरआन की ज़रूरत साबित ना की। सिर्फ इधर उधर की बातें कर करा के उन्वान में ज़रूरते क़ुरआन लिख दिया है जिन में से पर्चा हाज़ा के नंबर 5,6 का जो हमने पेशी में रखे हैं जवाब लिखा जाता है और ये इसलिए नहीं कि उनसे क़ुरआन की ज़रूरत साबित होती है। लेकिन इसलिए कि इंजील मुक़द्दस को भी अदमे ज़रूरते क़ुरआनी में शामिल करने की कोशिश की है और आपने इस बात को ज़ोर दे के लिखा है। लिहाज़ा हम इन बातों को नाज़रीन के सामने रखकर जवाब देंगे।
वहुव हाज़ा
وَہُوَ ہٰذا
(और वो यूँ है)
क़ौलुह : (मौलाना साहब ने कहा) पहले हम पादरी साहब से सवालिया दर्याफ़्त करते हैं कि जब बक़ौल जनाब के (और दरअस्ल भी यूँ ही है) अह्दे अतीक़ में हर एक क़ानून और ताअलीम अल-ख़ुसूस ताअलीम तौहीद एक ज़ोर और कस्रत से मौजूद थी तो हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को इंजील किस उसूल और मक़्सद के अरवाज और पूरा करने के वास्ते दी गई थी? (क़ुरआन की फिर भी गुंजाइश नहीं उस की ज़रूरत और भी कहीं दूर जा पड़ी। क्या इस बात का ख़्याल ना आया कि क़ुरआन इंजील से ज़्यादा फ़ुज़ूल ठहरा) वो कौन सा उसूल और मक़्सद था जो बाइबल मुक़द्दस यानी अह्दे अतीक़ में मुंदरज होने से रह गया और उस को इंजील ने पूरा किया.... अनाजील में जिस क़द्र अख़्लाक़ी उसूल बयान हुए हैं वो सब बहेय्यत-ए-मज्मूई तौरेत में पाए जाते हैं। सारी तौरेत और सहफ़ अतीक़ा ना देखो सिर्फ़ अम्साल की किताब को ही ग़ौर से देखिए फिर मालूम हो जाएगा कि इंजील को सारे अह्दे अतीक़ से क्या निस्बत है। (इस हाल में तो क़ुरआन की ज़रूरत साबित करना सरासर अबस (बेकार) है। इस को तर्क करने ही में मसलिहत है।)
(मसीही जवाब) वाज़ेह हो कि इंजील उन ही उसूलों का इज़्हार करने से जो अह्दे अतीक़ में मुंदरज हैं फ़ुज़ूल नहीं ठहरती क्योंकि उनकी ना सिर्फ ताईद करती बल्कि अक्सर बातों को ऐसी तशरीह के साथ बयान करती है कि जिसके बग़ैर वह एक मुक़य्यद और ना तमाम सूरत रखती हैं और इंजील इस तौर का बयान कर के ख़ुद ही ज़ाहिर करती है कि इस में और तौरेत और अम्बिया में एक निस्बत है। तौरेत ही की बिना पर इतमामी (इतमाम यानी तमाम करना, तक्मील) ताल्लुक़ात पढ़हाए हैं हत्ता कि अह्दे अतीक़ और जदीद एक ही सिलसिले के दो जुज़्व ठहरते हैं। हर दो में ऐसी निस्बत है जैसी किसी चीज़ के शुरू और अंजाम में होती है। इस हाल में इंजील की अदमे ज़रूरत का ख़याल दिल में लाना इशारतन या और लफ़्ज़ों में ये कहना है कि कुतुब अह्दे अतीक़ में सराहतन, ग़लत हैं क्योंकि उनमें बहुत कुछ कहा गया है जो कभी पूरा नहीं हुआ। हाँ इंजील को बरतरफ़ करें तो झूट और बे-हूदगी में अह्दे अतीक़ के बराबर कोई और किताब ना ठहरेगी। पस तौज़ीह अम्र हाज़ा के लिए हम मसीह के इस क़ौल को पेश-ए-नज़र रखेंगे यानी “ये ना समझो कि मैं तौरेत या नबियों की किताबों को मंसूख करने आया हूँ। मंसूख करने नहीं बल्कि पूरा करने आया हूँ।” (मत्ती 5:17) बावजूद मौजूदगी अह्द अतीक़ा के यही एक क़ौल इंजील की ज़रूरत के लिए मुकतफ़ी (काफी) है। इसलिए कि अगर नबुव्वत की सदाक़त के लिए इस वाक़ये की ज़रूरत है जिसकी वो ख़बर है और अगर किसी अम्र की नातमामी (अधुरा-पन) अपने इतमाम (पूरा होने) की मुहताज है तो तौरेत और सहफ़ अम्बिया ए साबक़ीन के लिए इंजील की ज़रूरत है। अह्दे अतीक़ में एक शख़्स अज़ीम की आमद आमद रंग रही है। उस के काम, कलाम, नाम और औसाफ़ भी पेशतर ही मुश्तहिर हो चुके थे। इस हाल में अगर वो मर्द ममसोह ज़ाहिर ना होता तो इस बयान साबिक़ा की क्या नौबत होती। इसलिए ख़ुदावंद यसूअ मसीह ने फ़रमाया कि मैं तौरेत और नबियों की किताबें पूरी करने को हूँ।”.....ज़रूर है कि जितनी बातें मूसा की तौरेत और नबियों के सहीफ़ों और ज़बूर में मेरी बाबत लिखी हैं पूरी हों।” (लूक़ा 24:44) और ये तक्मील मसीह यसूअ ने बहर-सूरत मतलूबा कर दिखाई।
पस अव्वल मक़ासिद अख़्लाक़िया की बाबत वाज़ेह हो कि वो बदीही सदाक़तें हैं, मगर इन्सान उनसे ग़ाफ़िल रह सकता है और उनके बरख़िलाफ़ या एवज़ में झूटी बातें खड़ी कर के उनके इल्म व तअमील से बर्गशता हो सकता है और ऐसा ही हुआ। जब ऐसा ही वक़ूअ में आ चुका तो हक़ तआला ने बनी-आदम में से एक क़ौम को बर्गुज़ीदा करके वो उमूर गोया दुबारा बताए, मगर और बातें उनके मुताल्लिक़ कीं जो मह्ज़ इस बर गज़ीदगी पर असर करती हैं। इसलिए ज़रूर था कि जब तशख़ीस का ज़माना पूरा होतो वो सदाक़तें अपनी ज़ाती उमूमीयत के पाये पर लाई जाएं मसलन, जब मसीह ने फ़रमाया कि “उस ने उस से कहा कि ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा से अपने सारे दिल और अपनी सारी जान और अपनी सारी अक़्ल से मुहब्बत रख। बड़ा और पहला हुक्म यही है।” (मत्ती 22:37-38) तो इस को उन शरई अहकाम, शहादतों और हुक़ूक़ की क़ैद से निकाल कर वुसअत दी जिनकी इस्तिस्ना बाब 16 और, और जगहों में ताकीद आई है। क्योंकि वो अहकाम वग़ैरह सिर्फ़ बनी-इस्राईल के लिए ख़ुदा की इबादत का ज़रीया थे और फिर फ़रमाया कि “ख़ुदा रूह है और ज़रूर है कि इस के परस्तार रूह और सच्चाई से परस्तिश करें” (युहन्ना 4:24) याद रहे कि ख़ुदा को प्यार करने में फ़क़त उस की हस्ती का इक़रार ही नहीं बल्कि ईमान बा आमाल शामिल है यानी उस की सोहबत में ख़ुश रहना और उसी की इबादत करना और उस के अहकाम बजा लाना क्योंकि यूं तो “शयातीन भी ईमान रखते और थर-थराते हैं।” (याक़ूब 2:19)
फिर दूसरे हुक्म को भी इन इन्क़ियादी ताल्लुक़ात से जो उस की उमूमीयत की बतरीक़ आरिज़ी मानेअ थीं बरी कर के शरीअत का अस्ल- मुद्दआ बताता है, मसलन तौरेत में मुहब्बत का हुक्म है कि अपने पड़ोसी से दोस्ती रख और अपने दुश्मन से अदावत (अह्बार 19:18 और इस्तिस्ना 22:6) इन दोनों मुक़ामों से मालूम होता है कि उनकी दोस्ती और अदावत महदूद की गई थी। ये पड़ोसी इसी क़ौम के लोग थे और ग़ैर जो इस जमाअत में शामिल ना थे बल्कि मुख़ालिफ़ थे, उनसे अदावत का हुक्म है। पस मसीह इस हद को बेहद करने आया और यूं किया “लेकिन मैं तुम से ये कहता हूँ कि अपने दुश्मनों से मुहब्बत रखो और अपने सताने वालों के लिए दुआ करो। ताकि तुम अपने बाप के जो आस्मान पर है बेटे ठहरो क्योंकि वो अपने सुरज को बदों और नेकों दोनों पर चमकाता है और रास्तबाज़ों और नारास्तों दोनों पर मह (पानी) बरसाता है। क्योंकि अगर तुम अपने मुहब्बत रखने वालों ही से मुहब्बत रखो तो तुम्हारे लिए किया अज्र है? क्या मुहसूल लेने वाले भी ऐसा नहीं करते? और अगर तुम फ़क़त अपने भाईयों ही को सलाम करो तो क्या ज़्यादा करते हो? क्या गैर क़ौमों के लोग भी ऐसा नहीं करते? पस चाहिए कि तुम कामिल हो जैसा तुम्हारा आस्मानी बाप कामिल है।” (मत्ती 5:44-48) फिर कहा गया कि तू ख़ून ना करना और जो कोई ख़ून करे अदालत में सज़ा के लायक़ होगा। (ख़ुरूज 20:13 और 21:12-14) इस पर मसीह ने तश्रेहन ये ज़्यादा किया कि मैं तुम्हें कहता हूँ जो कोई अपने भाई पर बेसबब ग़ुस्सा हो अदालत में सज़ा के क़ाबिल होगा। उस से ख़ून के इरादे की जड़ को दिल से दूर किया ताकि ख़ून की नौबत ही ना पहुंचे, लेकिन इन्सान की तबीयत तो वाक़ई ख़ून को ख़ून कहती और उस की सज़ा देती है और तौरेत में बनी-इस्राईल को इस हरकत से बाज़ रखने के लिए सज़ाएं मुक़र्रर हुईं, मगर मसीह इस हुक्म को उनसे बरी कर के उमूमीयत देता है और सिर्फ़ ज़ाहिरी ख़ून ही की नहीं बल्कि उस की बीख़ व बुनियाद की सज़ा याबी की आगाही देता है। इसी तरह और उमूर अख़्लाक़िया की असली तशरीह बयान की है और उन अहकाम को सब के और हर एक के लिए वाजिब ठहराया है। याद रहे कि इन अहकाम की निस्बत यहूद के ख़्याल तौरेत के अस्ल मुद्दआ (दावे) के ख़िलाफ़ हो रहे थे। लिहाज़ा इलावा इस तशरीह के उन की ख़िलाफ़ ताबीरों के बरख़िलाफ़ भी तौरेत को सच्चा साबित किया है। हाँ ज़रूर था कि ये बातें और भी जो तौरेत में मक़ासिद अख़्लाक़िया के मुताल्लिक़ आरिज़ी तौर से ठहराई गई थीं उनकी मयाद पर कहे कि पूरा हुआ, मसलन जोरू को छोड़ने और सबत के मुताल्लिक़ अहकाम में ऐसी ही आरिज़ी बातें थीं। (मत्ती 19:3-9 और 12:1-8) और वो भी मसीह के आने से अपने अंजाम को पहुँचीं और उनका वाजिबी रिवाज क़ायम है।
दोम :वाज़ेह हो कि इस मर्द ममसोह की बाबत नबियों ने बहुत ख़बरें तरह तरह की लिखी हैं। उन का पूरा होना निहायत ज़रूरी था और इंजील इसी लिए ज़ाहिर हुई कि उनकी सदाक़त साबित करे। हम सिर्फ चंद मिसालों पर इक्तिफ़ा करेंगे। पस मालूम हो कि जैसा हमने पेशतर फ़स्ल सोम में बयान किया था, अब फिर कहा जाता है कि कुल बाइबल का मुक़द्दम मआल (जाये रुजू, नतीजा, अंजाम) हयात-ए-अबदी है और इस के लिए उमूर अख्लाक़ीया ज़रूरी हैं क्योंकि उन्ही की तामील दिल को पाक रख सकती है और गुनाह यानी उनकी ना-फ़रमानी इन्सान को इस तहसील मआल से महरूम रखता है। अब तौरेत में इस ना-फ़रमानी का फ़िद्या वो अहकाम हैं जो क़ुर्बानीयों को शामिल करते हैं और अगर ग़ौर से देखें तो वो क़ुर्बानियां शराअ (शरियते) अख़्लाक़ी के क़ायम रखने और दिलों पर साबित करने के लिए थीं। हर एक क़ुर्बानी उनमें से किसी ना किसी उदूली का फ़िद्या साबित हो सकता है। (हमारी मुराद इन क़ुर्बानीयों से नहीं जो हैज़ वग़ैरह की निस्बत थीं) देखो ख़ुसूसुन अह्बार चौथे से दसवीं बाब तक। इसी तरह अह्दे जदीद में है, जिसमें गुनाह का फ़िद्या मसीह है ताकि इन्सान हयात-ए-अबदी से महरूम ना रहें। उस की बिना तौरेत के उन्ही अहकाम पर है क्योंकि वो क़ुर्बानियां एक हक़ीक़ी क़ुर्बानी की तरफ़ इशारा करती थीं। इन का रिवाज इसी के ज़ाहिर होने तक था और ये बात आगे ही कुतुब अम्बिया में दर्ज हो चुकी थी। चुनान्चे यसअयाह (नबी) लिखता है :-
“हालाँकि वो हमारी ख़ताओं के सबसे घायल किया गया और हमारी बदकिर्दारी के बाइस कुचला गया। हमारी ही सलामती के लिए उस पर सियासत हुई ताकि उस के मार खाने से हम शिफ़ा पाएं। हम सब भेड़ों की मानिंद भटक गए। हम में से हर एक अपनी राह को फिरा पर ख़ुदावन्द ने हम सबकी बदकिर्दारी उस पर लादी। वो सताया गया तो भी उस ने बर्दाश्त की और मुंह ना खोला। जिस तरह बर्रा जिसे ज़ब्ह करने को ले जाते हैं और जिस तरह भेड़ अपने बाल कतरने वालों के सामने बेज़बान है इसी तरह वो ख़ामोश रहा। वो ज़ुल्म कर के और फ़त्वा लगा कर उसे ले गए पर उस के ज़माने के लोगों में से किस ने ख़्याल किया कि वो ज़िन्दों की ज़मीन से काट डाला गया? मेरे लोगों की ख़ताओं के सबब से उस पर मार पड़ी......जब उस की जान गुनाह की कुर्बानी के लिए गुज़रानी जाएगी तो वो अपनी नस्ल को देखेगा। उस की उम्र दराज़ होगी और ख़ुदावन्द की मर्ज़ी उस के हाथ के वसीले से पूरी होगी।” (यसायाह 53:5-10)
पस देखो कि बावजूद मूसवी क़ुर्बानीयों के एक और गुनाह की क़ुर्बानी की ख़बर है। किसी बेल और बकरी की नहीं मगर एक मर्द ग़मनाक के क़ुर्बान होने का बयान है। फिर दानीएल और भी साफ़ तौर से नाम लेकर बयान करता है :-
“तेरे लोगों और तेरे मुक़द्दस शहर के लिए सत्तर हफ़्ते मुक़र्रर किए गए कि ख़ताकारी और गुनाह का ख़ातिमा हो जाये। बदकिर्दारी का कफ़्फ़ारा दिया जाये। अबदी रास्तबाज़ी क़ाइम हो। रोया व नबुव्वत पर मुहर हो और पाकतरीन मुक़ाम ममसोह किया जाये।” (दानीएल 9:24)
और बासठ हफ़्तों के बाद वो ममसोह क़त्ल किया जाएगा और उस का कुछ ना रहेगा और एक बादशाह आएगा जिस के लोग शहर और मुक़द्दस को मिस्मार करेंगे और उस का अंजाम गोया तूफ़ानों के साथ होगा और आखिर तक लड़ाई रहेगी। बर्बादी मुक़र्रर हो चुकी है।” (आयत 26) और वो एक हफ़्ते के लिए बहुतों से अह्द क़ायम करेगा और निस्फ़ हफ़्ते मैं ज़बीहा और हद्या मोक़ूओफ़ करेगा।”, अलीख (आखिर तक)।
फिर देखो यर्मियाह 32:31-34 :-
देख वो दिन आते हैं ख़ुदावन्द फ़रमाता है जब मैं इस्राईल के घराने के साथ नया अह्द बांधूंगा। उस अह्द के मुताबिक नहीं जो मैं ने उन के बाप दादा से किया जब मैं ने उन की दस्त-गीरी की ताकि उन को मुल्क-ए-मिस्र से निकाल लाऊँ और उन्हों ने मेरे इस अह्द को तोड़ा अगरचे मैं उनका मालिक था ख़ुदावन्द फ़रमाता है। बल्कि ये वो अह्द है जो मैं इन दिनों के बाद इस्राईल के घराने से बांधूंगा। ख़ुदावन्द फ़रमाता है मैं अपनी शरीअत उन के बातिन में रखूँगा और उन के दिल पर उसे लिखूँगा और मैं उनका ख़ुदा हूँगा और वो मेरे लोग होंगे।”, अलीख। पस जब उस को नया कहा तो पहला पुराना हुआ और जब नया अह्द बाँधा तो पुराना ख़त्म हुआ हाँ उस के ख़त्म होने की ज़रूरत थी। देखो इन बातों का पूरा होना अज़हद ज़रूरी था और मसीह ने इसलिए फ़रमाया कि मैं तौरेत और अम्बिया को पूरा करने आया हूँ और सलीब पर भी पुकार के कहा कि “पूरा हुआ।” (युहन्ना 20:30) और ज़िंदा हो कर भी इस तक्मील की ज़रूरत बयान की (लूक़ा 24:44) बईं-हमा नाज़रीन नामा बतरफ़ इब्रानियों ग़ौर से देखें। इस से मालूम करो कि मसीह ने कौन सी बात पूरी की जो कुतुब साबिक़ा में तक्मील की हाजत रखती थी। दरहक़ीक़त इस क़ुर्बानी ने क़दीम क़ुर्बानीयों का दौर ख़त्म कर के आप उनका मतलब अदा किया जिसके लिए वो मुक़र्रर हुई थीं, यानी शराअ (शरियते) अख़्लाक़ी जो हर इन्सान पर ज़ोर रखती है इस की अदमे तामील यानी गुनाह का फ़िद्या दिया ताकि इन्सान हयात-ए-अबदी से महरूम ना रहे। इस कफ़्फ़ारे में ये फ़ौक़ियत है कि आम है और किसी ख़ास क़ौम की क़ैद नहीं। हालाँकि तौरेत की क़ुर्बानियां सिर्फ़ बनी-इस्राईल के लिए थीं। ये एक और बात है जो कुतुब साबिक़ा में ना थी और इस के लिए मसीह का आना ज़रूर हुआ और इस अह्द का आम होना यानी ग़ैर क़ौमों का भी यहूद के साथ नजात में शरीक होना कुतुब साबिक़ा में पहले दर्ज हो चुका था। देखो यसअयाह 66:19-21,23 और मलाकी 1:10-11 और इस्तिस्ना 32:21 बमुक़ाबला रोमीयों 10:19 और ये उमूमीयत मूसवी क़ुर्बानीयों से हासिल नहीं हो सकती थी। इसलिए मसीह का आना और ये काम ना तमाम तमाम करना ज़रूर था। देखो मत्ती 28:20
क़ुर्बानीयों के मुताल्लिक़ एक और अम्र है यानी कहानत, 110 ज़बूर में एक नई कहानत की ख़बर है जो मलिके सिदक़ की सफ़ में होगी। उस का पूरा होना ज़रूर था और ये ना तमाम अम्र मसीह ने पूरा किया। देखो इब्रानियों बाब 7 इस से लावी वाली कहानत का ख़त्म होना ज़ाहिर है और फिर यसअयाह 66:21 में ग़ैर क़ौमों के काहिन और लावी क़ायम होने की ख़बर है। पस इस कहानत का दौर मसीह ने अपने कलाम और काम से ख़त्म किया और ख़ुदा ने अपने इंतिज़ाम से ज़ाहिर किया कि उनकी मयाद वहीं तक थी, हत्ता कि ना वो हैकल ही रही और ना वो क़ुर्बानियां और ना लावी वाली कहानत रही। लेकिन मसीह ख़ुद मलिक सिदक़ के तौर पर हमेशा के लिए सरदार काहिन है और उस के ख़ुद्दाम अद्दीन उन क़दीम काहिनों की जगह रुहानी नज़रें हर जगह गुज़रानते हैं।
इस के साथ यरूशलेम और हैकल की बाबत याद रहे कि सिवाए यरूशलेम के और किसी जगह क़ुर्बानियां करने का हुक्म ना था। (देखो इस्तिस्ना 12:11,13,14) और क़ैद भी ख़ाली अज़ मतलब ना थी, यानी जब मसीह मस्लूब हो चुके और वो भी यरूशलेम में फाटक के बाहर (इब्रानियों 13:12) तब बाद उस के कोई जगह क़ुर्बानी की ना रही और यहूद इस से (हैकल से) महरूम हो कर मालूम करें कि फिर गुनाहों के लिए कोई क़ुर्बानी बाक़ी नहीं। (इब्रानियों 10:26) और ज़रूर इस आला और हक़ीक़ी क़ुर्बानी पर यक़ीन रख के अपने गुनाहों से पाक हुएं और बचे, वर्ना अपने गुनाहों में मरें जैसा ख़ुदावंद यसूअ मसीह ने उन्हें सरीहन फ़रमाया कि अगर तुम ईमान नहीं लाते कि मैं ही हूँ तो तुम अपने गुनाहों में मरोगे। (युहन्ना 8:24) और यहूद का हाल ऐसा ही हुआ और अब वैसा ही है। कहाँ है वो हैकल, वो क़ुर्बानियां और वो कहानत? पस ये मक़ासिद हैं जो अह्दे अतीक़ में बतरीक़ ना तमाम मुंदरज हुए और मसीह को उनके पूरा करने की ज़रूरत हुई। मिनजुम्ला इस के और बहुत ऐसी बातें हैं जिनका पूरा होना ज़रूर था, जैसे इस मर्द ममसोह का नबी और सुल्तान होना, कुँवारी से बैत-लहम् में पैदा होना और मर कर ज़िंदा होना वग़ैरह वग़ैरह। मगर अब इसी पर इक्तिफ़ा किया जाता है और हस्ब-ए-ज़रूरत फिर देखा जाएगा। इंजील में ये बात मद्द-ए-नज़र है कि ईसा वही मसीह है और इन सब बातों की तक्मील के लिए इंजील की अशद (बहुत ज़्यादा) ज़रूरत थी। इस से अह्दे अतीक़ और जदीद में लाज़िमी निस्बत साबित होती है। हाँ मौलाना साहब ऐसी निस्बत जैसी पौ फटने और तुलू-ए-आफ़्ताब में होती है और जब नी्यर आज़म निकल आया तो बाद उस के किसी क़ंदील (एक क़िस्म का फ़ानुस जिसमें चिराग़ जला कर लटकाते हैं) की क्या ज़रूरत है? कुछ नहीं, वो बेफ़ाइदा है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) अगर हक़ीक़ी तक्मील होती और मसीही इस पर अमल करते तो मसीहीयों और यहूदीयों में किसी क़िस्म की मुनाफ़िरत (नफ़रत) और मुख़ालिफ़त ना वाक़ेअ होती। यहूदीयों की मुनाफ़िरत (नफरत) की वजह यही है कि जनाब मौसूफ़ ने तौरेत के सारे हुक्मों को जड़ से नेस्त व नाबूद कर दिया।
(मसीही जवाब) ) वाज़ेह हो कि ये वजह अदम-तक्मील की बिल्कुल ग़लत है। मुनाफ़िरत (नफरत) से साबित नहीं होता कि हक़ीक़ी तक्मील नहीं हुई। इस मुनाफ़िरत का सबब उनकी अपनी नादानी और ज़िद थी। यहूद की इस कार्रवाई की भी अम्बिया-ए-सलफ़ ख़बर दे गए थे। चुनान्चे दाऊद कहता है कि “वो पत्थर जिसे मेअमारों ने रद्द किया कोने का सिरा हुआ।” अलीख (आखिर तक) (ज़बूर 118: 22-23) इस के साथ देखो मत्ती 22:33-43 जहां मसीह ने तम्सिलन भी यहूद को समझाया और पूछा”.....क्या तुम ने किताब मुक़द्दस में कभी नहीं पढ़ा कि जिस पत्थर को मेअमारों ने रद्द किया। वुही कोने के सिरे का पत्थर हो गया। ये ख़ुदावन्द की तरफ़ से हुआ। और हमारी नज़र में अजीब है? इसलिए मैं तुम से कहता हूँ कि ख़ुदा की बादशाही तुम से ले ली जाएगी और उस क़ौम को जो उस के फल लाए देदी जाएगी।”
फिर देखो यसअयाह 8:14-15 बमुक़ाबला 1 पतरस 2:6-8 जहां यहूद के ठोकर खाने की सरीह ख़बर है। पस ये इन्कार और ठोकर खाना यहूद के ज़िम्में है। मसीह ने कई मर्तबा उनकी नाफ़हमी और ज़िद पर मलामत की और ये मुनाफ़िरत (नफरते) उनकी अपनी नादानी से पैदा हुई है। उन्होंने हक़ीक़ी मसीह को ना माना और मुख़ालिफ़त की और उस वक़्त से अब तक किसी मसीह की आमद के लिए सर पटकते हैं। ये बेजा ज़िद उन्होंने हर सदी में दिखाई और कभी इस को कभी उस को (मुहम्मद साहब पर भी कुछ अरसा दिल लगा कर हट गए।) मसीह क़रार दिया, मगर आख़िर हर बार धोके खा कर मायूस हो रहे हैं और अजीब मुख़्तलिफ़ बातें सोच रखी हैं। इस से मालूम करो कि उनकी मुनाफ़िरत (नफ़रत) की बिना सदाक़त (सच्चाई) पर नहीं, मगर नाफ़हमी और ज़िद पर है। इस हाल में यहूदी और आप भी रोमीयों बाब 10,11 का ग़ोर से मुतालआ करें तो अव्वल यहूदीयों की ज़िद, नाफ़हमी और मायूसी जाती रहे और फिर आप नामुनासिब तहक्कुम (हुक्म ज़बरदस्ती) से बाज़गश्त करें और इंजील की ज़रूरत और क़ुरआन की अदमे ज़रूरत पर साद करें ताकि मालूम हो कि जिस ज़माने और जगह में ख़ुदावंद ईसा नमूदार हुआ, बमूजब अख़्बार अतीक़ा के वही ज़माना मसीह के ज़ाहिर होने का था और कि उन दिनों यहूदी मसीह के मुंतज़िर थे, उन्हीं के कामों से ज़ाहिर है। चुनान्चे उन्ही अय्याम में थीवडस (تھیوڈس) ने कुछ होने का दावा किया और बहुतेरे उस के मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) हुए। यूसीफ़स मुअर्रिख़ उस की बाबत कहता है कि :-
उसने लोगों के एक बड़े हिस्सा को तर्ग़ीब दी कि अपना अस्बाब लेकर मेरे पीछे यर्दन दरिया पर आएं क्योंकि उसने उन्हें कहा कि मैं नबी हूँ और अपने हुक्म से दरिया को दो हिस्से कर दूँगा और उनके लिए सहल रस्ता होगा और बहुतेरों ने उस की बातों से फ़रेब खाया ( एंटी कुआईटी किताब 20 बाब 5)
फिर किताब हाज़ा (इसी किताब) के बाब 8 में लिखता है कि :-
इन जालसाज़ों और फ़रेबियों ने लोगों को बहकाया कि जंगल में हमारे पीछे पीछे आओ और दावा किया कि हम तुम्हें सरीह अजाइबात और निशानीयां दिखाएँगे जो इंतिज़ाम ईलाही से होते हैं और बहुतेरे जो उन के फ़रेब में आ गए हलाक हुए।
इस के बाद एक मिस्री का ज़िक्र करता है। इस ने भी नबी होने का दावा किया और लोगों को कहा कि :-
मेरे साथ ज़ैतून के पहाड़ पर चलो और वहां से मैं तुम्हें दिखाऊँगा कि मेरे हुक्म से यरूशलेम की दीवारें गिर पड़ेंगी और मैं इन गिरी हुई दीवारों से तुम्हें शहर के अंदर दाख़िल करूँगा। ये लोग भी फ़रेब खा के बर्बाद हुए।
फिर जंग यहूद किताब 7 बाब 11 में एक यूनातन जलाहे का ज़िक्र है। उस ने मोअजज़े दिखाने के वाअदे पर लोगों को जंगलों में अपने पीछे बुलाया। उनको गटलस ने सवार और प्यादे भेज कर हलाक किया और बाज़ों को क़ैद किया और कई एक मिसालें हम छोड़े देते हैं। इन्ही से ज़ाहिर है कि उस ज़माने में यहूदीयों के दिल मसीह के इंतिज़ार में बेक़रार हो रहे थे। इस से पहले यहूद ने हर किस व नाकिस को नबी मान कर पीछा ना किया था और अजब माजरा है कि जब हक़ीक़ी मसीह ज़ाहिर हुआ तो यहूद ने उस से इन्कार किया। यहां तक कि उस को क़त्ल करवा के उस का ख़ून अपने और अपनी औलाद पर लिया और इस का बदला वो है जो आज तक यहूदी भोग रहे हैं और हम तुम देख रहे हैं और ताकि यसूअ को मसीह ना मानें। वो ज़िद से किसी ना किसी को हर सदी में मसीह समझ कर धो का खाते रहे हैं और अपनी ज़िद की कार्रवाई में कभी कामयाब ना हुए।
वो नहीं सोचते कि उनकी उम्मीद की कोई सूरत बाक़ी नहीं रही है। उनका कुल कारख़ाना मादूम (गायब) हो गया है फिर भी झूटी उम्मीद और ज़िद को क़ायम रखे जाते हैं और इस के लिए उन्होंने कभी किसी को मसीह गिरदाना और कभी किसी ज़माने को मसीह की आमद का ज़माना क़रार दिया, मगर हमेशा मायूस रहे, जैसा जे़ल के बयान से ज़ाहिर है जो मिस्टर लैसली साहब की किताब (मीथदवहटा दी जीविज़ میتھدوہٹہ دی جیوز) से लिया गया है। बअहद ट्राजान (तराजान) 14 ई॰ में एक एंड्रयू मसीह माना गया और हज़ारों यहूदीयों की बर्बादी का बाइस हुआ। एडरमान के अह्द में बारकूसब को मसीह समझा और ऐसी तबाही यहूद पर आई कि वैसी बुख़तनस्सर या टाइटस के अह्द में ना हुई थी। इस क़द्र हलाकत उठा के यहूद ने उस को झूटा मसीह कहा। फिर 434 ई॰ में जज़ीरा किरीट में एक झूटा मसीह उठा और उस ने मूसा होने का दावा किया और कहा कि मैं किरीट के यहूदीयों को समुंद्र में से ख़ुश्क ज़मीन पर पार करूँगा और बहुतेरों को तर्ग़ीब दी कि समुंद्र में कूदें। फिर 520 ई॰ में अरब में डोनान नामी एक झूटा मसीह उठा और अपने पैरौ यहूदीयों के साथ निग्र शहर में मसीहीयों पर हमला किया और बहुत ज़ुल्म व जफ़ा किया और आख़िर मारा गया। फिर 529 ई॰ में जोलियाँ नामी एक झूटे मसीह ने यहूदीयों और सामरियों से ब-ज़रीया फ़रेब के बग़ावत करवाई और इस सबब उनमें से बहुतेरे मारे गए। फिर उसी सदी में मुहम्मद साहब से भी धोका खाया और मसीह समझ कर कुछ अरसा उस के गिर्द रहे और आख़िर तरफ़ैन ने एक दूसरे से तर्क (दुरी) इख़्तियार किया। फिर 721 ई॰ में उन्होंने एक सुर्यानी की जिसने कहा कि मैं मसीह हूँ पैरवी की। फिर 1137 ई॰ में उन्होंने फ़्रांस में किसी को मसीह तसव्वुर किया और इस सबब उस मुल्क से निकाले गए बहुतेरे उनमें से हलाक हुए। फिर 1138 ई॰ में मलिक फ़ारस के अंदर मसीहाई का दावा कर के हथियार उठाए और वहां के यहूदीयों की मुसीबत का बाइस हुआ। फिर 1157 ई॰ में यहूदीयों ने मुल्क हस्पानीया में किसी मसीह के ज़ेर हो कर बग़ावत की और क़रीबन कुल बर्बाद हुए। फिर 1167 ई॰ के अंदर सल्तनत फ़नीर में एक और मसीह के नीचे यहूद ने बहुत तक्लीफ़ उठाई। फिर उसी सन में अरब के अंदर एक और उठा और उसी सदी में दरिया-ए-फ़ुरात के पार एक और मसीह उठा और ये निशान दिखाने का वाअदा किया कि मैं कौड़ी हो कर सो रहूँगा और तंदुरुस्त उठूँगा। उसी सदी में यहमू नाईडनीर यहूदी आलिम कहता है कि वो मशहूर झूटा मसीह फ़ारस में उठा जो डेविड रालराए कहलाया। ये बड़ा जादूगर था और बहुतेरे यहूदीयों को धोका दिया। फिर 1223 ई॰ में यहूदीयों ने जर्मनी में एक झूटे मसीह की पैरवी की जिसको वो इब्ने दाऊद कहते थे और इसी बरस वो एक औरत से मसीह के पैदा होने की उम्मीद रखते थे जो दुरमुस की थी, लेकिन इस औरत के लड़की पैदा हुई। फिर 1465 ई॰ में जब सारा बिसुन यानी मुहम्मदी ईसाईयों पर हमला करते थे तो यहूदीयों ने समझा कि ये मसीह के आने का वक़्त है और इसी साल एक यहूदी नजूमी रब्बी अब्रहाम ने नबुव्वत की कि मसीह के आने का वक़्त नज़्दीक है। रब्बी आबरियानल ने भी ऐसी ख़बरें दी थीं।
फिर 1497 ई॰ में इस्माईल सौफस ने यहूदीयों को धोका दिया क्योंकि उसने पार्थिया, फ़ारस और मिसोपितामिह में फ़त्हयाबी हासिल कर के यहूदीयों को धोका दिया और एक मुहम्मदी फ़िर्क़ा जारी किया। 1500 ई॰ में रब्बी इस्खर नीमला जर्मनी में ज़ाहिर हुआ और कहने लगा कि मैं मसीह का पेश-रौ हूँ और कि मसीह इसी साल आएगा और यहूदीयों को मुल्क कनआन में बहाल करेगा। अक्सर यहूदी हर कहीं उस की मान गए और मसीह के आने की तैयारी के लिए रोज़ों और नमाज़ों के वक़्त मुक़र्रर किए। फिर 1666 ई॰ में वो मशहूर झूटा मसीह से तिहाई ज़ेवी उठा और अपनी जान बचाने की ख़ातिर आख़िर मुहम्मदी हो गया। पस देखो कि किस तरह यहूदी ईसा नासरी को मसीह ना मानने की ज़िद पर हर सदी में मसीह मसीह कहते रहे हैं। ये मसीह है, वो मसीह है उनकी नाफ़हमी और ज़िद के सबब उनके मुँह से सादिर होता रहा है। इसलिए उनकी मुनाफ़िरत (नफ़रत) और मुख़ालिफ़त से तक्मील में नुक़्सान नहीं आता।
बजवाब अल्लाह दिया
अब इन बातों की तरफ़ रुजू किया जाता है जो मंशूर मुहम्मदी मत्बूआ रजब एल्मर जब 1298 हिज्री नंबर 19 में मुहम्मदियों की तरफ़ से क़ुरआन की ज़रूरत की ख़ातिर पेश की गई थीं और वो तौज़ीह जवाज़ मिंजानिब इस के जवाब में लिखी गई थी नज़र नाज़रीन की जाती हैं और वो ये है।
क़ौलुह : (यानी मौलवी साहब ने कहा) जब ये अम्र ख़ुद पादरी साहब तस्लीम करते हैं कि तमाम बाइबल मुख़्तलिफ़ ज़मानों में जुदा-जुदा अम्बिया अलैहिस्सलाम पर नाज़िल हुई है तो क्या मअनी जो बार-बार अहकाम के नुज़ूल को फ़ुज़ूल क़रार देते हैं। इस क़ायदे की बुनियाद तो सिर्फ नाफ़हमी या धोका दही पर मालूम होती है क्योंकि जब जुदा-जुदा ज़माने में अम्बिया अलैहिस्सलाम मबऊस हुए तो ख़ुदावंद तआला ने उनको ख़िलअत रिसालत से मुम्ताज़ फ़र्मा कर किसी क़ौम की तरफ़ भेजा तो एक क़ानून इसी क़ौम के लिए जो उनकी तहज़ीब ज़ाहिर व बातिन को आरास्ता करे, इस रसूल के हमराह इनायत किया। बाद उस के दूसरे ज़माने में जब दूसरा रसूल आया वही क़ानून उस को इनायत हुआ। मगर इस क़ानून जदीद में कुछ-कुछ क़ानून अव्वल की तशरीह और कुछ अहकाम की मंसूख़ीयत जो क़ौम अव्वल को बतौर मीयाद के जिसकी मयाद इल्म ईलाही में मौजूद थी नाज़िल फ़रमाई और बाक़ी कुल अहकाम अख़्लाक़ी और फ़रमाने ईलाही क़ानून अव्वल और क़ानून जदीद में ज़रूर एक ही होना चाहिए इंतिहा।
अव्वल : (मसीही जवाब) वाज़ेह हो कि मेरी ग़रज़ धोका देने की नहीं है लेकिन बेरिया मुहब्बत की रू से आप लोगों को एक फ़रेब अज़ीम से रिहा करने की है। पस वाज़ेह हो कि अम्बिया ए बाइबल ऐसे नहीं जैसे आप बयान करते हैं। आपका बयान मुहम्मदी ढब पर है, क्योंकि अम्बिया ख़ुदा की शरीअत यानी तौरेत के मुहाफ़िज़ और मुअल्लिम थे। उनमें से किसी ने कोई नया क़ानून सिवाए इस पहले के पेश ना किया। वो तौरेत ही के अहकाम की तामील के लिए बनी-इस्राईल को ताकीद करते थे। सिफ़ात ईलाही और फ़राइज़ इन्सानी जो तौरेत में मुंदरज हो चुके थे, उनसे आगाह करते रहते थे और हर उदूल के लिए इंतिक़ाम ईलाही की ख़बर देते थे और इस के वक़ूअ से उन्हें इबरत दिलाते थे। तौरेत के उमूर अख़्लाक़िया की ना सिर्फ ताकीद करते बल्कि इंतिज़ाम ईलाही से उनकी सदाक़त उन पर साबित करते थे। वो सब वाक़ियात जो बनी-इस्राईल या दीगर अक़्वाम की निस्बत कुतुब अम्बिया और कुतुब तवारीख़ में क़लम-बंद हुईं हैं, उनसे भी लोगों की हिदायत मद्द-ए-नज़र थी। हत्ता कि इंजील में भी उन्ही की तरफ़ रुजू कराया गया है ताकि मालूम हो कि अम्बिया तौरेत ही के मुअल्लिम और निगहबान थे और कोई अपना नया क़ानून ना लाया, इन्हीं किताबों से ज़ाहिर है। वो इस का हिदायतनामे के तौर पर ज़िक्र करते हैं। (यशुआ 23:6-7) और जितने क़ाज़ी हुए उनके अह्द में जो सवाब और सज़ाएं बनी-इस्राईल ने कमाएं वो तौरेत की तामील या ऊदूल का ज़हूर है। ज़बूर की किताब में दाऊद बारहा शरीअत की तरफ़ रुजू करता और तवज्जा दिलाता है। देखो पहला ज़बूर और 19 और 40 और 77, 78, 81, 105, 106, 135, 136 और ख़ुसूसुन 119 ज़बूर कुल और फिर उसने अपने बेटे सुलेमान को भी यही हिदायत दी (1 सलातीन 2:3-4, फिर देखो नोहा यर्मियाह 2:17, दानीएल 9:11-13, यसअयाह 24, 30:9, 5:24, यर्मियाह 8:8, आमोस 2:4, हज़िकीएल 44:24) इस से ज़ाहिर है कि कोई नबी नया क़ानून लेकर ना आया क्योंकि पेशतर जो एक मौजूद था। लेकिन हर एक अपनी इल्हामी आज़ादगी के मुवाफ़िक़ तरह बह तरह उसी अव्वल की पैरवी और तामील की तर्ग़ीब देता रहा और ना वो अपनी अपनी क़ौम के पास आए लेकिन उसी एक ही मूसा वाली क़ौम में भेजे गए और उस का कोई हुक्म मंसूख़ ना किया, क्योंकि उनकी आमद की ये ग़रज़ ना थी। अलबत्ता एक-आध हुक्म जिनकी पूरी तामील ना हुई उनको पूरा किया, मसलन बमूजब हुक्म किताब इस्तिस्ना 12:4-8 बमुक़ाबला 2 तवारीख़ 6:5 हैकल यरूशलेम में तामीर की गई, क्योंकि दाऊद के वक़्त तक कोई मुस्तक़िल जगह इबादत वग़ैरह की क़रार ना पाई थी। बावजूद इस के ये भी ज़ाहिर है कि शरीअत की रस्मियात और इन्क़ियादी ताल्लुक़ात आरिज़ी थे। उनकी हद तरवीज ख़ुदा के इरादे में मसीह तक थी। इसलिए अगरचे उन्होंने ख़ुद तौरेत का कोई हुक्म मौक़ूफ़ ना किया ताहम उस के ख़त्म होने और ख़त्म करने वाले की ख़बर देने की ज़रूरत हुई, जैसा हम और मवाज़ में इस अम्र का बयान कर चुके हैं। पस साहब इन अम्बिया ए साबक़ीन का ये काम था। आप इन बातों पर ग़ौर फ़रमाइये।
बईं-हमा ये भी वाज़ेह हो कि बाइबल एक किताब है और इस के दो हिस्से हैं जो दो ज़मानों के मुताल्लिक़ हैं। एक में तौरेत मआ शरह अम्बिया शामिल है और दूसरे में अनाजील अरबा (जो मिल के एक ही है) मआ शरह हवारिन शामिल है। पहला इब्तिदाई या तैयारी का हिस्सा है और दूसरा उस का अंजाम या तक्मील है और यूं दोनों हिस्से एक दूसरे के मुहताज हो कर एक ही किताब है। इसलिए एक किताब या उस के हिस्से को पारा-पारा कर के पनाह ना ढूंढनी चाहिए।
दोम : जो ताअलीम वग़ैरह हज़रत मुहम्मद साहब क़ुरआन में कह चुके हैं उनका ज़िक्र गोश गुज़ार किया गया है। पस जिस हाल कि अम्बिया ए अह्दे अतीक़ के अहकाम तौरेत की तर्ग़ीब देते रहे और उनकी ज़बानी ख़ुदा ने हर उदूली की सज़ा आइद की और आइंदा इस्लाह वग़ैरह की ख़बर दी और फिर जिस हाल कि वो अहकाम जो क़ौम अव्वल को बतौर मीयाद नाज़िल फ़रमाए थे यानी आरिज़ी अहकाम अपनी हद को पहुंच गए और अहकाम तशरीह तलब की ज़्यादा तशरीह की गई और जो तक्मील तलब थे उनकी तक्मील हो गई और जो दाइमी थे उनका दवाम क़ायम किया गया। हाँ ये सब मुतालिब इंजील मुक़द्दस से हासिल हो चुके थे। तो बाक़ी क्या रहा? इसलिए क़ुरान-ए-पाक आपकी तर्ज़ तहरीर की रू से भी फ़ुज़ूल ठहरता है। इस की कुछ ज़रूरत नहीं है। इस की पैरवी से क्या हासिल है? और सिवाए इस के उन बातों का ख़्याल करो जो क़ुरआन में लिखी गई हैं। वो क्या बातें हैं और कहाँ कहाँ से लेकर लिखी गई हैं। ये तो नहीं कि इल्हामी किताबों से मदद पा कर लिखा और सब्र करते, मगर ये जताने के लिए कि अगले नबियों वाली बातें ही नहीं ज़्यादा भी बयान करता हूँ (नाज़िल होती हैं) इन्सानी रिवायतों वग़ैरह वग़ैरह को भी इल्हामी बातों के साथ ही मिला दिया। पस क़ुरआन में ना सिर्फ ग़लत बनाओं से सीख कर सदाक़तों की मुख़ालिफ़त की है बल्कि अहकाम अख़्लाक़ी व आरिज़ी मालूम शूदा वग़ैरह को लिख कर उनको अपनी तरफ़ से जताया है और यूं नबी बनने का शौक़ दिखाया है। अगर नबी होना ऐसा ही सहल है तो कौन नहीं बन सकता।
सोम : बाईबल की मौजूदगी के मुक़ाबले में क़ुरआन की ज़रूरत उसी बिना पर होनी चाहिए जिस तरह बाईबल की किताब नेचर के मुक़ाबले में है। ख़ुदा की ज़ात और सिफ़ात इंसान के फ़राइज़ और नजात और आइन्दा हस्ती वह बातें है जिसकी बाबत इंसान को सहीह इल्म होना, और तामिल फ़राइज़ की सहीह सूरत मालुम होना ज़रूरी है, इन्हीं से बाज़ किस क़दर किताब नेचर से दरयाफ्त हो सकती हैं और बाज़ बिलकुल नहीं। और वह जो दरयाफ्त होने के क़ाबिल हैं वह भी बाईबल से बाहर किसी ज़माने में साफ़ और सहीह और से दरयाफ्त न हो सकीं।
अब बाईबल का इन सब बातों को हल करना उसकी ज़रुरत की क़वी दलील ठहरती है, इसलिए क़ुरआन बाईबल के मुक़ाबले में अपनी ज़रूरत इस बिना पर क़ाईम करे मगर यह बात क्योंकर हो सकती है जिस हाल कि क़ुरआन मांग तांग के लिखा है। उसकी बिना (बुनियाद) है अदम ज़रूरत के रद्दे गले हैं, तो यह मुदआ किस तरह हासिल हो सकता है।
इल्ज़ामी एतराज़ों का जवाब
मंशूर मुहम्मदी मत्बूआ 5 रजब अल मरजब 1258 हिज्री नंबर 19
क़ौलुह : (यानी मौलवी साहब ने कहा कि) पादरी साहब आपका क़ायदा इख़तिराई तो आपकी बाइबल अक़्दस ही की बेख़कुनी करता है। देखो पैदाइश बाब 9 आयत 4 में लिखा है कि “तुम गोश्त के साथ ख़ून को जो उस की जान है ना खाना।” फिर इस्तिस्ना 14:16 में भी ख़ून हराम ठहराया है। देखिए ये अहकाम हुर्मत ख़ून में दो दफ़ाअ अव्वलन नाज़िल हो चुका तो तीसरी बार उस के नुज़ूल की क्या हाजत थी जो इंजील आमाल अल-रसूल के बाब 15 की 20 आयत में नाज़िल हुआ?
(जवाब मौलवी साहब के सवाल का) वाज़ेह हो कि जब ख़ुदा उस मख़्सूस क़ौम को खासतौर से अहकाम फ़रमाने लगा तो ज़रूर था कि हर अमरोनही (अहकाम) को जो पहले था या ना था उनके लिए क़लम-बंद कराए। अगर ये हुक्म दुबारा तौरेत में दर्ज ना किया जाता तो बनी-इस्राईल इस हुक्म के ज़ेर-ए-बार ना होते और वो ख़ुद भी उस के नूह वाले हुक्म को औरों के लिए समझते ना कि अपने लिए, क्योंकि उनको उन्ही अहकाम पर अमल करने का हुक्म हुआ जो तौरेत में फ़रमाए गए और इसलिए ज़रूर हुआ कि वो आम हुक्म बनी-इस्राईल के लिए ख़ास किया जाये। फिर बताया भी गया कि क्यों ये हुक्म उनके लिए भी क़ायम रहा, जैसे लिखा कि “और इस्राईल के घराने का या उन पर देसियों में से जो उन में बूओदोबाश करते हैं जो कोई किसी तरह का ख़ून खाए में इस ख़ून खाने वाले के खिलाफ हूँगा और उसे लोगों में से काट डालूँगा। क्योंकि जिस्म की जान ख़ून में है और मैं ने मज़बह पर तुम्हारी जानों के कफ़्फ़ारा के लिए उसे तुम को दिया है कि इस से तुम्हारी जानों के लिए कफ़्फ़ारा हो क्योंकि जान रखने ही के सबब से ख़ून कफ़्फ़ारा देता है। इसी लिए मैंने बनी इस्राईल से कहा है कि तुम में से कोई शख़्स ख़ून कभी ना खाए और ना कोई परदेसी जो तुम में बूओदोबाश करता हो कभी ख़ून को खाए।...इसी लिए मैंने बनी इस्राईल को हुक्म किया है कि तुम किसी क़िस्म के जानवर का ख़ून ना खाना क्योंकि हर जानवर की जान उस का ख़ून ही है। जो कोई उसे खाए वो काट डाला जाएगा”, अलीख (आखिर तक) बनी-इस्राईल में से जो शख़्स ख़्वाह इस्राईल के घराने का हो ख़्वाह मुसाफ़िरों में से जिनकी बूओदोबाश उनमें हो किसी ख़ून को खाए तो मेरा चेहरा इस ख़ून खाने वाले के बरख़िलाफ़ होगा और मैं उसे उस की जमाअत में से काट दूँगा, क्योंकि बदन की हयात लहू में है। सो मैंने मज़बह पर वो तुम को दिया है कि इस से तुम्हारी जानों के लिए कफ़्फ़ारा हो, क्योंकि वो जिससे किसी जान का कफ़्फ़ारा होता है सो लहू ही है। इसी लिए मैंने बनी-इस्राईल को कहा कि तुम में से कोई ख़ून ना खाए, अलीख (आखिर तक) (अह्बार 17:10-16) पस बनी-इस्राईल के लिए तौरेत में इस हुक्म के दुबारा नुज़ूल की ज़रूरत थी और किताब आमाल अल-रसूल में जो इस का सहि बारह ज़िक्र आया है तो वो भी ज़रूरत से ख़ाली नहीं है। ना इस मज़्कूर से वो किताब फ़ुज़ूल ठहरती है क्योंकि जब अहकाम रस्मी इंजील से यानी मसीह के आने और कफ़्फ़ारा होने से अपनी हद तरवीज को पहुंचे जिनमें ये हुक्म मज़्कूर भी शामिल था तो ये ज़ाहिर करने के लिए कि ये हुक्म ख़ून ना खाने का क़ायम है। इस हुक्म को फिर फ़रमाना ज़रूर हुआ। इसलिए कि अगर ये हुक्म इंजील में फिर मज़्कूर ना होता तो ग़ैर क़ौम ईसाई और यहूदी ईसाई भी इस से वैसे ही बरी होते जैसे और अहकाम से हैं। पस देखिए हुक्म अव्वल अपने दुबारा और सहि बारह मज़्कूर को फ़ुज़ूल नहीं ठहराता। सो साहब समझ में आपकी ना आया और नाफ़हमी इब्तिदा ही में मेरे ज़िम्में लगाई थी। बात पीछे करना और पहले दूसरे को नाफ़हम कह लेना किसी किसी का काम है।
फिर दूसरी नज़ीर (मिसाल) आपने (मौलवी साहब ने) तम्सील अंगूरस्तान की दी है और लिखते हैं कि ये तम्सील अव्वलन ज़बूर 80 और फिर सहीफ़े यसअयाह अलैहिस्सलाम के पांचवें बाब में भी मज़्कूर हो चुकी थी और इस की माक़बल इबारत में कहते हैं कि जब ये तम्सील रूहुल-क़ुद्दुस की इमदाद से हज़रत मत्ती ने इंजील में नक़्ल कर दी तो वही तम्सील रूहुल-क़ुद्दुस ने मरक़ुस व लूक़ा को क्यों इर्शाद की और इस कुल पर यूं कहते हैं कि आपके इख़तिराई क़ायदा बमूजब एक अम्र अगर दुबारा नाज़िल होने से तो फ़ुज़ूल हो जाता है, यहां पाँच दफ़ाअ एक ही तम्सील के बयान को क्या फ़रमाएंगे?
(जवाब मौलवी साहब के सवाल का) सुनीए (मौलवी) साहब ये तम्सील पांचों दफ़ाअ हस्ब-ए-ज़रूरत बयान हुई। देखिए पहला ज़िक्र यानी ज़बूर 80:8 में सिर्फ एक ताक के लाए और लगाए जाने का ज़िक्र है। यसअयाह में इस को ताकिस्तान बयान किया है और बताया है कि किस तरह और किस लिए ख़ुदा ने उसे लगाया और निगहबानी की, लेकिन कुछ फल इस से ना पाया और इस तम्सील को ऐसी तशरीही तौर से इसलिए बयान किया ताकि बनी-इस्राईल की बदी की शिद्दत और उस की सज़ा से आगाह करे या उसे वारिद करने के लिए ऐसा बयान किया। दाऊद के वक़्त में बनी-इस्राईल बिगड़े ना थे कि ऐसी तम्सील की नौबत पहुँचती और इसलिए ज़बूर मज़्कूर में ये बातें नहीं हैं। ज़बूर में सिर्फ उस के लगाए जाने का ज़िक्र है।
दूसरी दफ़ाअ ये तम्सील या मिस्ल हमारे ख़ुदावंद ने कही और चूँकि इस ताकिस्तान की सूरत में मसीह के ज़माने तक तग़य्युर आ गया था इसलिए मसीह ने इस की यानी तम्सील की तर्ज़ किसी क़द्र बदल कर इस में वो बातें बढ़ाईं या ज़ाहिर कीं जो यसअयाह के ज़माने के बाद गुज़रीं। अगर यसअयाह वाली बातें कह कर ख़त्म करता तो उस के कहे को फ़ुज़ूल कहने की गुंजाइश होती। लेकिन यसअयाह और मसीह ने इस तम्सील के मुख़्तलिफ़ ज़माने बयान किए हैं। पस ये तम्सील दो ही मौक़े पर हस्ब-ए-ज़रूरत कही गई और इस का दुबारा ज़िक्र फ़ुज़ूल नहीं ठहरता और रूहुल-क़ुद्दुस ने मत्ती, मरक़ुस और लूक़ा तीनों से अंगूरस्तान की तम्सील का ज़िक्र बह हैसियत हम-अस्र मोअर्रिखों या गवाहों के करवाया है ताकि इस बात को कि मसीह ने ये तम्सील कही थी कस्रत गवाहों से साबित करे और मसीह के काम और कलाम ऐसे वाक़ियात थे कहा उन का कस्रत गवाहों से साबित करना ज़रूर था। हाँ इसलिए ज़रूर था कि उनकी सक़ाहत (मितानत, क़ाबिल-ए-एतिबार होने) में शक की गुंजाइश ना रहे। अगर मसीह के काम और कलाम इन्सान की नजात का मर्कज़ ना होते तो जिस तरह दुनिया के और वाक़ियात के लिए ख़्वाह एक गवाह हो ख़्वाह बहुत तो चंदाँ मज़ाइक़ा नहीं होता, इसी तरह उनकी हालत रहती। मगर रूहुल-क़ुद्दुस ने ऐसा करना मुनासिब ना जाना और अपनी बातों को गवाहों के अब्र (बादलों) से घेर दिया। (पस इन बातों को जो ऐसे गवाहों से साबित हो चुकी थीं लेकर बयान करना या उनके बरख़िलाफ़ कहना, और कहना कि मैं भी रसूल हूँ, कैसा बड़ा फ़रेब है। क़ुरआन में उनके तस्दीक़ करने की हाजत ना थी क्योंकि उनके सबूत में ज़रा भी क़सूर ना था, वो अल-हासिल आपकी इस हिम्मत से भी क़ुरआन आख़िर फ़ुज़ूल ठहरता है। ये नज़ीरें उस की ज़रूरत के लिए मुतलक़ मुफ़ीद नहीं हैं। बाद उस के जो आपने ख़ुदा और इन्सान से मुहब्बत रखने की बाबत लिखा है। इस से भी हमारा इत्तिफ़ाक़ नहीं है और हमारा मतलब इस अम्र में ये है कि क़ुरआन में ख़ुदा से मुहब्बत करने का बयान बाइबल के मुक़ाबले में क़ासिर और फ़ुज़ूल है यानी क़ासिर होने से ख़ुद बख़ुद फ़ुज़ूल ठहरा। लेकिन अगर बराबर भी हो तो भी फ़ुज़ूल है और बाहमी मुहब्बत इस में नदारद (ग़ायब)।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) ये जो आपने ख़ुदा की मुहब्बत की बाबत बाइबल से नक़्ल कर के लिखा है कि तू अपनी सारी अक़्ल और सारे जी और अपने सारे ज़ोर से अपने ख़ुदा को दोस्त रख। जनाब-ए-मन ये मुहब्बत आम है। हर कोई झूटा और सच्चा ये दावा कर सकता है कि मैं ख़ुदावंद तआला को सारे दिल और जान से मुहब्बत करता हूँ। यहां कोई क़ैद नहीं लगाई गई जिससे झूटी और सच्ची मुहब्बत में तमीज़ हो सके। बरख़िलाफ़ इस के क़ुरआन शरीफ़ में बाइबल से कहीं बढ़कर अव्वल तो मुहब्बत ख़ुदावंद तआला का ज़िक्र है। दूसरे झूटी और सच्ची मुहब्बत करने वालों में एक ऐसा उम्दा क़ायदा मुक़र्रर हुआ है जिससे फ़ौरन मालूम हो सकता है कि ये शख़्स मुहिब सादिक़ (सच्चा मुहब्बत करने वाला) है। इन दोनों बातों के लिए आपने (मौलवी साहब ने) सूरह इमरान रुकूअ 4 का हवाला दिया है यानी “कह दे ऐ मुहम्मद साहब अगर तुम दोस्त रखते हो अल्लाह को तो मेरी ताबेदारी करो।”
उक़ूल : (मौलवी साहब के सवाल का जवाब) बड़े अफ़्सोस की बात है कि आप इस मशरूअत बयान को बाइबल के बयान सरीह से बढ़कर बताते हैं। वाज़ेह हो कि इस आयत में मुहम्मद (साहब) की ताबे फ़रमानी मुक़द्दम है और उस की ताबे फ़रमानी करना गोया ख़ुदा से मुहब्बत करना है। इस ताबे फ़रमानी को ज़रा अलेहदा (अलग) तो कर के देखो कि बाक़ी क्या रहता है। ये कि अगर तुम अल्लाह को दोस्त रखते हो। इस फ़िक़्रे में हुक्म मुहब्बत का कहाँ है? बग़ैर मुहम्मद की ताबे फ़रमानी के साथ मिलाए कुछ बात ही नहीं बनती। मुहम्मद साहब का दख़ल इस में ज़रूर है और आपका दूसरा हवाला भी ताबे फ़रमानी का आवाज़ा देता है यानी वो जो मुसलमान हुए हैं उनको ख़ुदा से निहायत सख़्त मुहब्बत है। यहां ख़ुदा से मुहब्बत करना क्या है? मुसलमान होना। जो मुसलमान नहीं उनको ख़ुदा से मुहब्बत नहीं। इस ताबे फ़रमानी का पीछे ज़िक्र होगा। अव्वल आपकी इस बात का जवाब दिया जाता है कि बाइबल में कोई क़ैद नहीं लगाई गई जिससे झूटी और सच्ची मुहब्बत में तमीज़ हो सके। लो देखिए 1 युहन्ना 2:15 “और ना दुनिया से मुहब्बत रखो ना उन चीज़ों से जो दुनिया में हैं। जो कोई दुनिया से मुहब्बत रखता है उस में बाप की मुहब्बत नहीं।” फिर 4:20 “अगर कोई कहे कि मैं ख़ुदा से मुहब्बत रखता हूँ और वो अपने भाई से अदावत रखे तो झूठा है क्योंकि जो अपने भाई से जिसे उस ने देखा है मुहब्बत नहीं रखता वो ख़ुदा से भी जिसे उस ने नहीं देखा मुहब्बत नहीं रख सकता।” ये बातें तो मुहम्मद साहब के क़ियास में आई ही नहीं। सो साहब मुहब्बत सादिक़ (सच्ची मुहब्बत) का ये अंदाज़ा है और यूं तो हर एक पेशवा अपने पैरौओं और औरों से भी कह सकता है कि मेरी ताबे फ़रमानी ख़ुदा की मुहब्बत का ज़हूर है।
फिर देखिए इंजील युहन्ना 5:23 “ताकि सब लोग बेटे की इज़्ज़त करें जिस तरह बाप की इज़्ज़त करते हैं। जो बेटे की इज़्ज़त नहीं करता वो बाप की जिस ने उसे भेजा इज़्ज़त नहीं करता।” फिर बाब 15:23 जो मुझसे अदावत रखता है वो मेरे बाप से भी अदावत रखता है।” 1 कुरंथियो 16:22 “जो कोई ख़ुदावन्द को अज़ीज़ नहीं रखता मलऊन हो। हमारा ख़ुदावन्द आने वाला है।” देखिए क़ैद मुहम्मदी के मुक़ाबले में ये क़ैद हुब्ब यज़्दानी की मौजूद थी। इसलिए मुहम्मद साहब का अपनी ताबे फ़रमानी तलब करना फ़ुज़ूल है। ख़ुदा की मुहब्बत और अदम मुहब्बत की दलील मसीह है। क़ुरआन में किस वजह से मुहम्मद साहब को शर्त-ए-मोहब्बत कहा है? कौन सा काम या कलाम मुहम्मद (साहब) ने मसीह से बढ़कर ज़ाहिर किया जिससे मसीह का ख़ुदा की मुहब्बत की क़ैद होना नापसंद किया जाता है? पस साहब क़ुरआन वाली ताबे फ़रमानी भी फ़ुज़ूल ठहरी। बिलफ़र्ज़ अगर मसीह को फ़क़त इन्सान ही मानें तो इस पर भी मसीह के हुज़ूर (सामने) मुहम्मद (साहब) की कुछ हैसियत नहीं। क़ुरआन वाली मुहब्बत यज़्दानी का ये हाल है और उस को आप बाइबल की ताअलीम से बढ़कर कहते हैं और इस में मुहब्बत हक़ और बातिल की क़ैद से इन्कार करते हैं। ज़िद से कुछ हासिल नहीं मुनासिब है कि हक़ को हक़ की ख़ातिर क़ुबूल करो।
फिर कहीए (मौलवी) साहब क्या मुहम्मद साहब अपने तईं इस मुहब्बत की कुल वुसअत का जो इन्सान पर ख़ुदा की तरफ़ वाजिब है अंदाज़ा ठहराते हैं और क्या आप भी उनके कलाम से ऐसा ही समझते हैं। अगर जवाब हाँ ही है तो हमारे नज़्दीक ग़लत है। अगर बमूजब आपकी तशरीह के मुहम्मद साहब अपने तईं इस मुहब्बत की क़ैद गरदानते हैं तो क्या शक है कि उनका ख़्याल मुहब्बत ईलाही की निस्बत क़ासिर था। क्योंकि मुहब्बत ईलाही की एक सूरत या मूजिब ये है कि ख़ुदा की ज़ाती सिफ़ात के लिहाज़ से या कि ख़ुदा को ख़ुदा जान के मुहब्बत करना यानी ज़ात ईलाही की मुहब्बत बिला किसी क़ैद के होनी चाहीए, जैसे पाकीज़गी को पाकीज़गी की ख़ातिर यानी उस की ज़ाती उम्दगी के सबब प्यार करना चाहीए। इस मुहब्बत को हम अख़्लाक़ी मुहब्बत से ताबीर करते हैं और इस का ज़हूर इन्सान की तरफ़ से ख़ुदा की तारीफ़ और बुजु़र्गी करने में साबित होता है और वो हुक्म कि तू ख़ुदावंद अपने ख़ुदा को अपने सारे दिल व जान व ज़ोर और समझ से प्यार कर इस अख़्लाक़ी मुहब्बत की तर्ग़ीब है। इस का नाम ना मशरूअत मुहब्बत है और ये क़ुरआन में कम-नज़र आती है।
दूसरा मूजिब मुहब्बत एज़दी का ये है कि ख़ुदा से उस की मेहरबानीयों के सबब से मुहब्बत ज़ाहिर करनी है और अगर क़ैद लग सकती है तो इस मुहब्बत पर लगेगी, युहन्ना 4:11 हे अज़ीज़ो जब ख़ुदा ने हमसे ऐसी मुहब्बत की तो हम पर भी एक दूसरे से मुहब्बत रखना फ़र्ज़ है।” फिर आयत 19 “हम इसलिए मुहब्बत रखते हैं कि पहले उस ने हमसे मुहब्बत रखी।” ख़ुदा की मेहरबानीयां इन्सान पर बड़ी हैं और उन के लिहाज़ से इन्सान को लाज़िम है कि ख़ुदा मुहब्बत रखे। लेकिन उसने एक बड़ी और अबदी रहमत यानी यसूअ मसीह को जिसके वसीले से ख़ुदा का फ़ज़्ल और फ़ज़्ल से बख़्शिश बहुतेरों के लिए हुई नाज़िल कर के इन्सान से ख़ास मुहब्बत तलब की है और बरकतें सब इस से नीचे हैं। उस की शनाख़्त की अलामत ये है कि हम भी एक एक से मुहब्बत रखें। इस बाहमी मुहब्बत में हर एक के लिए हर अम्र में ख़ैर ख़्वाही लाज़िम है। बातों ही से नहीं कामों से लाज़िम है कि हम भाईयों के वास्ते अपनी जान दें। (1 युहन्ना 3:16) पस इस मुहब्बत के लिए जिसका इज़्हार इन्सान से ख़ुदा के शुक्रिया में अदा होता है, एक क़ैद मौजूद है जिससे झूटी और सच्ची मुहब्बत में तमीज़ हो सकती है तो मुहम्मद साहब की क़ैद क्योंकर दर्मियान आ सकती है, ये फ़ुज़ूल है। मुहम्मद को हम किसी बात के लिए ख़ुदा की बरकत या फ़ज़्ल नहीं ठहरा सकते। ये हक़ उस के फलों का है, फिर बाहमी मुहब्बत की बाबत।
क़ौलुह :(मौलवी साहब ने कहा) अव्वलन जो पादरी साहब ने इंजील मत्ती 5:43-44, में से नक़्ल कर के लिखा है कि अपने पड़ोसी से दोस्ती रखो और अपने दुश्मन से अदावत। पादरी साहब अगर मत्ती साहब के मुआविन और मददगार हैं तो इस इबारत का और अपने दुश्मनों से अदावत का निशान दें, वर्ना मत्ती साहब की ख़ाना साज़ी में कलाम ही क्या है?
(जवाब मौलवी साहब के एतराज़ का) जनाब (मौलवी साहब) जब हमने पड़ोसी से दोस्ती रखने का हवाला दिया था तो उस के साथ दुश्मन से अदावत का भी दिया, मगर चूँकि वो हवाले ख़ुतूत वहदानी में थे आपने सिर्फ अह्बार 19:18 को देखा जिसमें दोस्ती का बयान है और दूसरे को इसी मज़्मून का समझ कर ये लिख मारा है और या कि उमूर अख़्लाक़िया के बयान में सिर्फ मुहब्बत का हवाला दिया गया था इस से आपने अदावत का ज़िक्र तौरेत में नदारद (गैर मौजूद) समझ लिया। हर हालत में ग़लती ही की है और या अपने ही तौर पर ग़लती की है। सो साहब फिर देखो इस्तिस्ना 23:6 और एज़रा 9:12 और मालूम करो कि ये मत्ती रसूल की ख़ाना साज़ी नहीं आपकी ना-वाक़िफ़ी का ज़हूर है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) अब मैं चंद आयात बाहमी मुहब्बत की क़ुरआन शरीफ़ से नक़्ल करता हूँ। देखिए अव्वल सूरह रअद में अल्लाह जल शाना फ़रमाता कि “जो लोग बुराई के एवज़ में भलाई करते हैं उन लोगों के लिए दार आख़िरत यानी क़ियामत है” दोम फिर सूरह क़िसस में अल्लाह तआला फ़रमाता है “उनको दोहरा अज्र मिलेगा कि उन्होंने सब्र किया और भलाई करते हैं, बुराई के बदले।”
(मसीही) जवाब : ये बातें हमने भी सूरह रअद के रुकूअ 3 और सूरह क़िसस के रुकूअ 6 में देखीं। अब आप देखिए सूरह शूरा रुकूअ 4 :-
وَجَزَاءُ سَيِّئَةٍ سَيِّئَةٌ مِّثْلُهَا فَمَنْ عَفَا وَأَصْلَحَ فَأَجْرُهُ عَلَى اللَّهِ إِنَّهُ لَا يُحِبُّ الظَّالِمِينَ
और बुराई का बदला तो इसी तरह की बुराई है। मगर जो दरगुज़र करे और (मुआमले को) दुरुस्त कर दे तो उस का बदला ख़ुदा के ज़िम्मे है। इस में शक नहीं कि वो ज़ुल्म करने वालों को पसंद नहीं करता।”
फिर देखिए सूरह हज रुकूअ आयत 60 :-
ذَٰلِكَ وَمَنْ عَاقَبَ بِمِثْلِ مَا عُوقِبَ بِهِ ثُمَّ بُغِيَ عَلَيْهِ لَيَنصُرَنَّهُ اللَّهُ إِنَّ اللَّهَ لَعَفُوٌّ غَفُورٌ
और जिसने बदला दिया जैसा इस से किया था फिर इस पर कोई ज़्यादती करे तो अलबत्ता उस की मदद करेगा अल्लाह।”
(देखो क़ुरआन मुहब्बत सिखाता है !) फिर देखिए सूरह बक़रह रुकूअ 24 आयत :-
وَاقْتُلُوهُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوهُمْ وَأَخْرِجُوهُم مِّنْ حَيْثُ أَخْرَجُوكُمْ وَالْفِتْنَةُ أَشَدُّ مِنَ الْقَتْلِ وَلَا تُقَاتِلُوهُمْ عِندَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ حَتَّىٰ يُقَاتِلُوكُمْ فِيهِ فَإِن قَاتَلُوكُمْ فَاقْتُلُوهُمْ كَذَٰلِكَ جَزَاءُ الْكَافِرِينَ
और उनको जहां पाओ क़त्ल कर दो और जहां से उन्होंने तुमको निकाला है (यानी मक्के से) वहां से तुम भी उनको निकाल दो। और (दीन से गुमराह करने का फ़साद) क़त्ल व खून-रेज़ी से कहीं बढ़कर है और जब तक वो तुमसे मस्जिद मुहतरम (यानी ख़ाना काअबा) के पास ना लड़ें तुम भी वहां उनसे ना लड़ना। हाँ अगर वो तुमसे लड़ें तो तुम उनको क़त्ल कर डालो। काफ़िरों की यही सज़ा है। (वाह रे मुहब्बत तेरी यही खूबियां हैं)
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) सोम सूरह मोमिन में ख़ुदावंद करीम फ़रमाता है “बुरी बात का जवाब वो कह जो बेहतर हो।”
जवाब : ये फ़रमान सूरह मोमिन में नदारद (यानी गैर मौजूद) है। लेकिन देखो सूरह मोमिनुन रुकूअ 6 आयत 97 जहां ये बयान पाया जाता है। ये ताअलीम बेशक क़ाबिल पसंद है मगर क़ुरआन के दीगर मुक़ामात या मंशाए क़ुरआन के बरख़िलाफ़ मालूम होती है। इख़्तिलाफ़ पर अफ़्सोस है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) चहारुम सूरह तग़ाबुन आयत 13 में यू मर्क़ूम है :-
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّ مِنْ أَزْوَاجِكُمْ وَأَوْلَادِكُمْ عَدُوًّا لَّكُمْ فَاحْذَرُوهُمْ وَإِن تَعْفُوا وَتَصْفَحُوا وَتَغْفِرُوا فَإِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ
(इस आयत) में अल्लाह जल्ले शाना फ़रमाता है “ऐ ईमान वालो बाअज़ तुम्हारी जोरूएं और औलाद दुश्मन हैं सो उनसे बचते रहो (यहां तक मुहब्बत नहीं है और अगर माफ़ करो और दरगुज़रो अलीख (आखिर तक पढ़ो) (इस में माफ़ करना और ना करना मर्ज़ी पर मौक़ूफ़ है और माफ़ ना करने को ऐब नहीं कहा है)
(मसीही) जवाब : देखिए सूरह मुजादिला आख़िरी आयत “तू ना पाएगा कोई लोग जो यक़ीन रखते हों अल्लाह पर और पिछले दिन पर दोस्ती करें ऐसों से जो मुख़ालिफ़ हों अल्लाह के और उस के रसूल के अगरचे वो अपने बाप हों या अपने बेटे या अपने भाई या अपने घराने के।” (इंतिहा यानी आखिर तक पढ़ो) फिर देखिए सूरह तौबा रुकूअ 3 “ऐ ईमान वालो ना पकड़ो अपने बापों और भाईयों को रफ़ीक़ (दोस्त अज़ीज़) अगर वो अज़ीज़ रखें कुफ़्र को ईमान से और जो तुम में उनकी रिफ़ाक़त करें सो वही लोग हैं गुनाहगार।”
यहां बाप वग़ैरह भी दोस्ती से ख़ारिज किए गए हैं। अब देखिए कि मसीह ने बाहमी मुहब्बत की एक ये दलील बताई है कि ख़ुदा अपने सूरज को बदों और नेकों पर उगाता है और रास्तों और नारास्तों पर मेह (बारिश) बरसाता है। इसलिए तुम भी अपने दुश्मनों को प्यार करो ताकि अपने बाप के जो आस्मान पर है फ़र्ज़ंद हो। हाँ जिस हाल कि ख़ुदा बदकारों यानी अपने दुश्मनों के साथ नेक सुलूक करता है तो हम क्यों उस के और अपने दुश्मनों से अदावत करें और फिर देखिए कि जोरूओं और बेटों की दुश्मनी से दरगुज़र करना वो मुहब्बत है जो आप ने पादरी इमाद-उद्दीन लाहिज़ साहब की तफ़्सीर से बयान किया है यानी जिस्मानी प्यार। लेकिन ख़ुदावंद ने फ़रमाया कि अगर तुम फ़क़त अपने भाई को सलाम कहो तो क्या ज़्यादा किया? और हमारा मतलब बाहमी मुहब्बत को क़ुरआन में नदारद (गैर मौजूद) कहने से ये नहीं कि उस में जोरू वग़ैरह से भी मुहब्बत का इन्कार है, लेकिन ये कि वो मुहब्बत नदारद (ग़ायब) है जिसका बाइबल मुक़द्दस मुशाहिदा करती है। क्योंकि मुहम्मद साहब ने वही ताअलीम सिखाई जो हमारे ख़ुदावंद ने नाक़िस ठहराई है। बाइबल की ताअलीम में उमूमीयत और रूहानियत है। (देखो लूक़ा 6:31) क़ुरआन में नफ़्सानी क़ैद है। आख़िर इस जवाब के आप को ये भी समझाया जाता है कि इस जिस्मानी मुहब्बत की ताकीद भी बाइबल में आ चुकी है। इसलिए क़ुरआन फ़ुज़ूल कहता है देखो नामा (इफ्सियों 6:7) अख़ीर अपनी तहरीर के अल्लाह दिया साहब ने इन हवालों का जो हमने नूर अफ़्शां नंबर 36 जिल्द 8 में बाहमी मुहब्बत के नदारद होने के सबूत में पेश किए थे कुछ जवाब ना सुनाया और इस के बजाय ये लिखते हैं।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) देखो इंजील मत्ती 10:5 पादरी साहब देखिए आप तो सिर्फ मुहब्बत ख़ास ही पर तअन करते हैं (साहब तअन नहीं हक़ कहता हूँ) और बमूजब क़ौल हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के मसीही दीन ही ख़ास है क्योंकि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ख़ुद नबी इस्राईल थे और सिर्फ बनी-इस्राईल ही के लिए हिदायत चाहते थे और दीगर अक़्वाम को इस हिदायत से महरूम रखना चाहते थे।
(मसीही जवाब) ) इस के लिए मसीह की तम्सील अंगूरस्तान देखो तो मसीही दीन की उम्दियत मालूम होगी और भी देखो मत्ती 8:11-12 जहां बनी-इस्राईल के निकाल दिए जाने और ग़ैर क़ौमों का पूरब और पच्छिम से आकर आस्मान की बादशाहत में शामिल किए जाने का बयान है। फिर वाज़ेह हो कि अव्वल वाअदे बनी-इस्राईल से हुए। वो वाअदे के फ़र्ज़ंद थे और इसलिए उनकी हिदायत पहले शुरू की गई।”....ज़रूर था कि ख़ुदा का कलाम पहले तुम्हें सुनाया जाये लेकिन चूँकि तुम उस को रद्द करते हो और अपने आपको हमेशा की ज़िंदगी के नाक़ाबिल ठहराते हो तो देखो हम गैर क़ौमों की तरफ़ मुतवज्जह होते हैं।” (आमाल 13:46) इसी सबब से मसीह ने जी उठने से पहले वो हुक्म ना दिया था जो मत्ती की इंजील के आख़िर में मर्क़ूम है और इस के मुताबिक़ पौलुस रोमीयों के ख़त बाब अव्वल में फ़रमाता है कि मसीह की इंजील हर एक की नजात के वास्ते जो ईमान लाता पहले यहूदी फिर यूनानी के वास्ते ख़ुदा की क़ुदरत है। पस साहब इस हिदायत में तदरीज (दर्जप ब-दर्जा होना) मद्द-ए-नज़र थी ना कि ग़ैर क़ौमों को हिदायत से महरूम रखना और याद रखो कि वाक़ियात भी इस तदरीज को साबित करते हैं।
अल्लाह दिया साहब के जवाब-उल-जवाब का जवाब
हमारे जवाब मर्क़ूमा बाला पर अल्लाह दिया साहब ने फिर मंशूर मुहम्मदी मत्बूआ 25 सफ़र अलज़फ़र नंबर 6 जिल्द 11 में कुछ जवाब लिखा था मगर इल्ज़ामी तर्ज़ को और भी बढ़ाया है और क़ुरआन की ज़रूरत के सबूत को फिर भी भूले हुए मालूम होते हैं। मैं कहता हूँ कि अगर मुहम्मदियों से क़ुरआन की ज़रूरत साबित नहीं होती तो साफ़ इक़रार करें क्योंकि बाइबल की चंद एक बातों के मुकर्रर सह्-ए-करर (दुबारा, तिबारा, बार बार) बाइबल ही में मज़्कूर होने से क़ुरआन की ज़रूरत साबित ना होगी। चाहीए कि क़ुरआन की ज़रूरत तहक़ीक़ी तौर से वाज़ेह की जाये।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) सदहा (बहुत सी) बातें क़ुरआन शरीफ़ की तौरात व ज़बूर व सहीफ़े अम्बिया अलैहिम अस्सलाम से मिलती हैं। इस मिलने को लेकर बयान करना पादरी साहब की ख़ामख़याली है क्योंकि इल्हाम ईलाही से जो किताब लिखी जाएगी उस का पहली इल्हामी किताबों से मेल-जोल होना ज़रूरी अम्र है।
उक़ूल (जवाब) हाँ साहब देखो क़ुरआन वाला भी इसी तरह कहता है। सूरह यूसुफ़ आख़िरी आयत “कुछ बात बनाई हुई नहीं लेकिन मुवाफ़िक़ उस कलाम के जो इस से है” मगर हमारा दावा तो ज्यूँ का त्यूँ रहा कि इस बात की मुतलक़ ज़रूरत ना थी कि वही अगली बातें ले कर बयान करें और कह दें कि देखो मैं इन किताबों के मुवाफ़िक़ बयान करता हूँ। वो बयानात मादूम (ग़ायब) ना हो गए थे जिनके बहाल करने के लिए ज़्यादा इल्हाम की ज़रूरत होती। साहब मन उनके होते हुए तो ऐसा इल्हाम फ़ुज़ूल है। जिस बात को साबित करना था आपने उस को यूंही फ़र्ज़ कर लिया है कि यूं या वूं हुआ क्योंकि बंदे का इस बात से इन्कार नहीं कि इल्हामी बातें मुवाफ़िक़ होनी चाहीऐं। अगर मुवाफ़िक़ ना हों तो इख़्तिलाफ़ की वजह मज़्कूर होनी चाहीए। मगर ये क्या ज़रूर था कि मुहम्मद साहब को इल्हाम होता कि आख़िर अगली किताबों की बातें बयान करे। इसलिए क़ुरआनी सिलसिला ही फ़ुज़ूल ठहरता है और फिर याद रहे कि कमतरीन ने क़ुरआन की धारा के सब चश्मों का सुराग़ निकाल दिया है और आप फिर भी कहे जाते हैं कि ये मुवाफ़िक़त इल्हाम ईलाही के सबब से है। कुछ तो सोचो। जो बातें बाइबल से ली गई हैं वो तो बाइबल के मुवाफ़िक़ होंगी और जो और जगहों से ली गई हैं वो क्योंकर बाइबल के मुवाफ़िक़ होंगी। नाज़रीन क़ुरआन का ये मुरक्कब हाल देख चुके हैं। सो साहब ख़ामख़याली तो आप ही के साथ निस्बत रखती है, मुझे इस से क्या वास्ता है।
क़ौलुह :(मौलवी साहब ने कहा) इल्हामी किताबों से जो मदद पा कर हवारियों ने लिखा है वो पादरी साहब बख़ूबी जानते हैं। यहां बयान करना मज़्मून को तूल देना है। बाक़ी रहा पादरी साहब का ये कहना कि इन्सानी रिवायतों वग़ैरह वग़ैरह। सो जवाब ये है कि पादरी साहब का ये एतराज़ तो अस्ल में इंजील पर सादिक़ आता है। पादरी साहब अज़राह तास्सुब अव्वलन क़ुरआन पर वार करते हैं।
उक़ूल (मसीही जवाब) आपका अस्ल मतलब से कतराना ख़ूब ज़ाहिर है क्योंकि इस का तहक़ीक़ी जवाब कुछ नहीं है और इस बात को क़ायम रखते हो कि मुहम्मद साहब ने बेशक ना सिर्फ इल्हामी किताबों से मदद पाई बल्कि इन्सानी ग़लत और जाली रिवायतों से भी ऐसा काम चलाया कि उनको अपने इल्हाम में शामिल कर लिया। इस नतीजे को आप अन्जाने क़ुबूल करते हो, मगर शर्म के मारे इस इक़रार को दबाते हो और जी छुपा कर फिर-फिर इंजील पर-ज़ोर मारते हो। हवारियों को इस मदद की ज़रूरत थी क्योंकि अह्दे अतीक़ इंजील की बिना (यानी बुनियाद) है और इंजील उस की तक्मील या ख़ातिमा हो कर उस के उन मज़ामीं को पेश करती है जिनसे वो अपनी ज़रूरत की बिना (बुनियाद) रखती है। ताहम इंजील अह्दे अतीक़ के मुक़ाबिल में कुल पर एक नई किताब है मगर क़ुरआन ऐसा नहीं है। लेकिन पुरानी बातों से मख़्लूत व मुरक्कब है और उन ही बातों को फिर-फिर पेश कर के हज़रत ने अपनी रिसालत जताई है। इन बातों का ज़िक्र पेशतर हो चुका है। अब फिर यहां उस को पेश करना ज़रूर नहीं। फिर इंजील में रिवायती बातों के इंदिराज की दो मिसालें आपने पेश की हैं। एक मत्ती 2:22 में जैसा नबियों ने फ़रमाया था पूरा हुआ कि वो यानी हज़रत ईसा नासरी कहलाएगा। इस पर कहते हो कि तमाम अह्दे अतीक़ में कहीं नहीं लिखा कि मसीह बासबब सुकूनत ना सुरत बस्ती का नासरी कहलाएगा।
वाज़ेह हो कि इस मतलब की कोई रिवायत भी ना थी कि ख़ुदावंद ईसा नासरी कहलाएगा और ना किसी ख़ास नबी की किताब से इक़्तिबास है। लेकिन अक्सर नबियों के बयान की तरफ़ इशारा है और हवारी लफ़्ज़ “नबियों” लिखता है जिन्हों ने उस की नासरी हालत को बयान किया है यानी जिन के अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) बयान का ये एक ख़ुलासा है। चुनान्चे यसअयाह नबी ने बयान किया था कि वो आदमीयों में बेनिहायत ज़लील और हक़ीर था बमुक़ाबला ज़बूर 22:6 और चूँकि नासरत एक हक़ीर जगह थी, यहां तक कि गलीली जिनको और इलाक़ों के यहूदी कमीना और हक़ीर जानते थे। वो भी अपनी इस बस्ती को हीच समझते थे। हत्ता कि मिस्ल हो चुकी थी कि नासरत से कोई अच्छी चीज़ नहीं निकल सकती। लिहाज़ा बलिहाज़ इस बस्ती की सुकूनत के हवारी ने नबियों के बयान को लफ़्ज़ नासरी से बयान किया और किसी इन्सानी रिवायत को दर्ज नहीं किया है और नबियों के अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) बयान को एक ख़ुलासे में पेश करना और मुक़ामों से भी ज़ाहिर है। (देखो युहन्ना 7:38 और याक़ूब 4:5)
दूसरी मिसाल यहूदाह का ख़त आयात 4:9 भी इन्सानी रिवायत से बयान किए गए हैं। मालूम हो कि ये इन्सानी रिवायत इस तौर पर बयान नहीं की गई है जैसा क़ुरआन वाले ने किया है यानी इल्हाम इंजील के अजज़ा में से नहीं है। लेकिन हवारी उन लोगों की मुसल्लम रिवायतों से भी उन पर अपने बयान को साबित करता है। पौलुस रसूल ने एक दो मर्तबा ग़ैर क़ौम शायरों के क़ौल इसी मतलब के लिए पेश किए हैं। चुनान्चे एक मक्कलम किताब आमाल अल-रसूल 17:28 है “…..जैसा तुम्हारे शायरों में से भी बाअज़ ने कहा है कि हम तो इस की नस्ल भी हैं।” इस जगह रसूल ने अपने मुद्दा को उन लोगों पर साबित करने के लिए उनकी ख़ातिर उन्ही के शायरों को पेश किया है। दूसरा मुक़ाम तीतुस 1:12 है जहां पौलुस कुरंथियो के शायर के क़ौल से कुरंथियो का हाल तीतुस पर ज़ाहिर है “इन ही में से एक शख़्स ने कहा है जो ख़ास उनका नबी था कि कुरेती हमेशा झूटे, मूज़ी जानवर, अहदी खाओ होते हैं।” पस ये रिवायतें और ग़ैर बयान ग़ैर ही रहते हैं और सिर्फ लोगों की ख़ातिर रिवायत के तौर पर पेश किए गए और रसूलों के इल्हाम में दाख़िल नहीं हैं। क्योंकि ये बातें उन्हें और तरह मालूम हुईं और जिस तरह मालूम हुईं उन्होंने उन्हें उसी तरह पेश किया है यानी उनको उन शायरों ही का कलाम कहा है। मगर क़ुरआन वाले ने देखो क्या किया है। सूरह निसा रुकूअ 17 आयत 112 :-
अल्लाह ने नाज़िल की तुझ पर किताब और काम की बात और तुझको सिखाया जो तू ना जान सकता।” फिर सूरह बनी-इस्राईल रुकूअ 10 “कह जमा होएं आदमी और जिन्न....कि लाएं ऐसा क़ुरआन ना लाएँगे ऐसा क़ुरआन और बड़ी मदद करें एक की एक और हमने फिर-फिर समझाई लोगों को इस क़ुरआन में हर कहावत।”
देखो सब कुछ वह्यी के मत्थे मारा है। हालाँकि आपने ग़ैर ज़रीयों से, हादियों से सीखा जो हज़रत के मुल्क और ज़माने में मौजूद थे। इस का नाम जालसाज़ी है और ये क़ुरआन के नुज़ूल आस्मानी की अदम ज़रूरत के लिए क़वी दलील है यानी ऐसे क़ुरआन के आस्मान से नाज़िल होने की कुछ ज़रूरत ना थी। क्योंकि उस की तर्कीब का सामान ज़मीन ही पर मौजूद था।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) भला पादरी साहब ये जो आपने तहरीर किया कि अहकाम अख़्लाक़ी व आरिज़ी मालूम शूदा वग़ैरह को लिख कर अपनी तरफ़ से जताया है। बराह मेहरबानी क़ुरआन शरीफ़ में दिखाइए तो सही ये दावा आँहज़रत ने कहाँ किया। हाय अफ़्सोस सदा-अफ़्सोस पादरी साहब अदम ज़रूरत क़ुरआन का तो दावा करें और क़ुरआन शरीफ़ की मालूमात का ये हाल। क्या पादरी साहब की नज़र मुबारक से सूरह नज्म सिपारा 27 रुकूअ अव्वल भी नहीं गुज़रा।
उक़ूल (मसीही जवाब)
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) शायद पादरी साहब ने क़ुरआन शरीफ़ को मिस्ल इंजील के हवारियों की मन घड़त ख़्याल कर लिया होगा, इसलिए ऐसा दावा कर बैठे।
उक़ूल (मसीही जवाब)साहब मन, दावा कहाँ रहा साबित कर दिया है कि क़ुरआन ना सिर्फ मन घड़त बल्कि सुनी सुनाई और सीखी सिखाई मुरव्वज बातों का मजमूआ है जिस से ज़ाहिर है कि वो इस हालत में एक फ़ुज़ूल किताब है। मगर देखिए आपकी लाचारी फिर-फिर (बार बार) ज़ाहिर होती है और अस्ल मतलब से आँख बचाते हो। आप मुहम्मदी साहिबों ने समझ छोड़ा है कि इंजील पर एतराज़ करने से क़ुरआन का बचाओ है। सो आप धोका खाते हैं। कोई वाजिबी सूरत इख़्तियार कीजिए।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) चुनान्चे चंद मुक़ामात इंजील से हवारियों की मन घड़त बयान करता हूँ। ख़त अव्वल कुरंथियो 7:25 में लिखा है कि “कुंवारीयों के हक़ में मेरे पास ख़ुदावन्द का कोई हुक्म नहीं लेकिन दयानतदार होने के लिए जैसा ख़ुदावन्द की तरफ़ से मुझ पर रहम हुआ उस के मुवाफ़ीक़ अपनी राय देता हूँ।” फिर ख़त दोम कुरंथियो, 11:16-17 में यूं मस्तूर है कि “मैं फिर कहता हूँ कि मुझे कोई बेवकूफ़ ना समझे वर्ना बेवकूफ़ ही समझ कर मुझे क़ुबूल करो कि मैं भी थोड़ा सा फ़ख़्र करूँ। जो कुछ मैं कहता हूँ वो ख़ुदावन्द के तौर पर नहीं बल्कि गोया बेवकूफ़ी से और इस जुर्आत से कहता हूँ जो फ़ख़्र करने में होती है।” इन आयात मज़्कूर बाला से मालूम हो गया कि आज़म-उल-हवारिन जनाब पौलुस बुदून इल्हाम ईलाही अपनी तरफ़ से मन घड़त तो क्या बल्कि बेवक़ूफ़ी से भी जो दिल में आया फ़र्मा दिया करते थे।
उक़ूल (मसीही जवाब) अव्वल मुक़ाम की निस्बत वाज़ेह हो कि ख़ुदावंद यसूअ ने इस अम्र की निस्बत ज़मीन पर होते हुए कोई हुक्म ना दिया था। इसलिए हवारी कहता है कि कुँवारियों के हक़ में ख़ुदावंद का कोई हुक्म मुझ (मेरे) पास नहीं। लेकिन पौलुस रसूल जिस पर दियानतदार होने के लिए ख़ुदावंद की तरफ़ से रहम हुआ, इस हैसियत में हो कर ये सलाह देता है और ये रहम रिसालत के रहम से मुराद है, जैसा देखो 1 कुरंथियो 15:10 लेकिन जो कुछ हूँ ख़ुदा के फ़ज़्ल से हूँ और उस का फ़ज़्ल जो मुझ पर हुइ वो बेफ़ाइदा नहीं हुआ बल्कि मैं ने उन सबसे ज़्यादा मेहनत की और ये मेरी तरफ़ से नहीं हुई बल्कि ख़ुदा के फ़ज़्ल से जो मुझ पर था।” पस साहब पौलुस रसूल इस फ़ज़्ल या रहम की राह से सलाह देता है और उस के ज़िम्मे मन घड़त का इल्ज़ाम लगाना, आपकी घड़त है।
दूसरे मुक़ाम की निस्बत मालूम हो कि इस बाब में रसूल उन झूटे नबियों के बरख़िलाफ़ जिन्हों ने कुरंथियो को पौलुस की तरफ़ से बदज़न कर दिया था अपनी रिसालत साबित करता है और उन पर अपनी रिसालत साबित करने को बेवक़ूफ़ी कहता है, क्योंकि लोग ऐसी तर्ज़ को बेवक़ूफ़ी समझते कि अपने आप ही कहता है और चाहता है कि वो उस की इस बेवक़ूफ़ी और फ़ख़्र की बर्दाश्त करें। ये बात साबित कर के कहता है कि कोई मुझे बेवक़ूफ़ ना जाने इस ख़्याल से कि मैं अपनी रिसालत आप ही साबित करता हूँ और फिर भी अगर वो इस बात के लिए बेवक़ूफ़ समझें तो भी उसे क़ुबूल करें यानी जो कुछ वो कहता है उसे क़ुबूल करें और उस के इस फ़ख़्र का साथ दें। उस के बाद बयान करता है कि ख़ुदावंद ने ऐसा फ़ख़्र नहीं किया लेकिन मैं इस फ़ख़्र को जो कि गोया बेवक़ूफ़ी है बयान करने की ज़रूरत देखता हूँ और आयत 18 से उन बातों का ज़िक्र करता है जिन पर झूटे उस्ताद अपना फ़ख़्र करते थे। हवारी जताता है कि इस अम्र में मैं उनसे बेशतर फ़ख़्र कर सकता हूँ और यूं अपना पिछ्ला हाल उन पर ज़ाहिर करता है। अब इस में आपका नतीजा बिल्कुल नापीद है क्योंकि रसूल लोगों के ख़्याल के मुवाफ़िक़ अपने तईं बेवक़ूफ़ ही ठहरा के फिर भी अपनी रिसालत और फ़ख़्र साबित करता है। (क्या मुहम्मद (साहब) ने कभी इस तरह अपनी रिसालत के वाज़ेह सबूत दिए?) और इस मौक़े को आप फ़रमाते हैं कि पौलुस बुदून इल्हाम ईलाही फ़र्मा दिया करते थे। देखो इसी बाब की आयत 31 और समझ लो कि पौलुस रसूल मन घड़त बातें नहीं कहता था। रसूल यूं लिखता है “लेकिन ख़ुदावंद यसूअ मसीह का ख़ुदा और बाप जो हमेशा मुबारक है जानता है कि (पौलुस) झूट नहीं कहता।” अरे साहब क़ुरआन का तो हाल ही कुछ और है। वो तो सरासर धोका है। .
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) जनाब पादरी साहब आपको ना बाइबल की मालूमात और ना क़ुरआन की फिर किस शेख़ी पर अदम ज़रूरत क़ुरआन लिखने बैठे थे।
उक़ूल (मसीही जवाब) आपने कई मर्तबा ऐसी दुर् अफ़्शानी (ख़ुश-बयानी) की है और बिरादर अज़ीज़ कमतरीन की मालूमात तो आप पर और सब नाज़रीन अख़्बार पर रोशन है। आप क्यों तंग आ गए? मुझे अपने इल्म की शेख़ी नहीं, मगर इज़्हार सदाक़त की ग़ैरत ने ये असर दिखाया है और इस में आप लोग लाचार से हो रहे हैं। मुझे इस बात का हसद नहीं अगर आपकी मालूमात मुझे से ज़्यादा हो, मगर तशहीर हक़ से ग़रज़ है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) और ये जो आपने फ़रमाया कि नबी था अगर ऐसा ही सहल है तो कौन नहीं बन सकता। जनाब पौलुस साहब की नबुव्वत का हाल देखो बख़ूबी मालूम है कि आप ही आँखें बंद कर के अंधा हो गया, फिर आप ही आँखें खोल कर बीना हो गया और आँखें बंद करने और खोलने से नबी बन सकता है तो कौन नहीं बन सकता।
उक़ूल (मसीही जवाब) शायद हज़रत मुहम्मद साहब ने नबी बनने का ये तरीक़ा किसी से सुना ना होगा, वर्ना इतना झूट सच्च बोलने की बजाय आँखें ही फोड़ लेते तो मुराद को पहुंच जाते। आपके इस बयान से साबित हुआ कि कमतरीन का क़ौल सहीह है यानी हज़रत मुहम्मद का नबी बनना सहल था यानी जो तरीक़ उन्होंने इस मतलब के लिए इख़्तियार किए, वो इस शौक़ को सहल कर देते हैं और बंदे ने उन के नबी बनने की सहूलतों को सराहतन साबित कर दिया है। मगर आपने पौलुस रसूल का आप ही आँखें बंद कर लेना और फिर आप ही खोल कर नबी बन जाने का क्या सबूत दिया है? इस के सबूत में भी तो कुछ कहा होता। क्या ऐसा या वो ख़्याल क़ुरआन की ज़रूरत साबित करेगा? अव्वल ख़ूब ग़ौर से देखो पौलुस रसूल होने से पेशतर क्या था। मसीह की कलीसिया का कैसा मुख़ालिफ़ था। पस उस को मानने और नबी बनने में क्या नफ़ा था। आपके ख़्याल के बरख़िलाफ़ ज़ाहिर है कि आस्मानी नूर से अंधा हो गया और दूसरे शख़्स के वसीले बीना हुआ और बादहु (बाद में) अपने रसूल होने के क़वी (मजबूत) सबूत दिए जिनसे उस के हम-अस्रों के मुँह-बंद हुए। मगर आपके ख़्याल का क्या सबूत है, अजब चक्कर खा रहे हो।
फिर बंदे ने तहरीर किया था कि बाइबल की मौजूदगी के मुक़ाबले में क़ुरआन की ज़रूरत इसी बिना पर होनी चाहीए जिस तरह बाइबल की किताब नेचर के मुक़ाबले में है। इस बिना पर तो आप क़ुरआन की ज़रूरत साबित करने से कतराए हैं या कमतरीन का मुद्दा नहीं समझे और बादीदा व दानिस्ता शर्मसारी को छिपाने की ख़ातिर अपनी आदत के मुवाफ़िक़ बाइबल ही पर इधर उधर एतराज़ कर दिए हैं और इस के जवाब में यूं लिखते हैं।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) नेचर के मअनी हैं क़ानून-ए-क़ुदरत। सो बाइबल क़ानून-ए-क़ुदरत के ख़िलाफ़ है। चुनान्चे किताब वाइज़ 10:2 में ख़िलाफ़ नेचर के साफ़ लिखा है कि “हकीम का दिल उस की दहनी तरफ़ है।” देखिए दहनी तरफ़ दिल का होना सरीह नेचर के ख़िलाफ़ है।
उक़ूल (मसीही जवाब) ) कहीए साहब क्या ये मेरी तहरीर का जवाब है? मुझे तो आप नावाक़िफ़ और जो कुछ जी में आता है कहते हैं और अपनी समझ का ये हाल है। इस जुम्ले का बाक़ी हिस्सा ये है “पर अहमक़ का दिल उस के बाएं है।” ये लफ़्ज़ ही ज़ाहिर करते हैं कि दिल की जगह से मुराद नहीं है कि इन्सान की दहनी तरफ़ या बाएं तरफ़ मौज़ूद है। इला हकीम के दिल को दहनी तरफ़ और अहमक़ के दिल को बाएं तरफ़ कहा है, चूँकि दहना हाथ बाएं की निस्बत ज़्यादा कारा॓मद होता है इसलिए हकीम के दिल को दहने हाथ या तरफ़ कहने से उस के दिल की अमली हालत को ज़ाहिर किया है यानी वो काम ज़ाहिर करता है। आप यूंही ख़िलाफ़ नेचर पुकार उठे। दूसरा मुक़ाम आप ग़ज़ल-उल-ग़ज़लात 4:1 यूं पेश करते हैं ऐ महबूबा तेरी आँखें तेरे सतर के पीछे हैं।” देखिए आँखों का सतर के पीछे होना भी ख़िलाफ़ नेचर है।
(मसीही जवाब) ) मालूम हो कि आपने सालिम इबारत बयान नहीं की और वो यूं है “तेरी आँखें तेरी चादर (सतर) के पीछे कबूतरों की सी हैं” या “तेरी आँखें तेरी ज़ुल्फ़ों के दर्मियान कबूतरों की सी हैं” चादर को आपने सतर लिखा है और सतर के मअनी हैं पर्दा। पस तो आँखों का चादर या पर्दे के पीछे होना क्योंकर ख़िलाफ़-ए-क़ानून क़ुदरत हुआ। औरतों की चादर या ज़ुल्फ़ मुँह पर पड़ने से आँखें उनके पीछे हो जाती हैं। यहां क़ानून-ए-क़ुदरत का क्या ज़िक्र है। क़ानून-ए-क़ुदरत आँखों का चादर के पीछे आ जाने का माने नहीं है और फिर अगर चादर की बजाय ज़ुल्फ़ों पढें जैसा अंग्रेज़ी तर्जुमे में है और उर्दू तर्जुमे के हाशिये पर है, तो चादर या सतर वाला बयान ज़रूरी नहीं है। पस आपका बाइबल को इन मिसालों की रू से ख़िलाफ़ नेचर ख़्याल करना बातिल व रायगां ठहरा और क़ुरआन के फ़ुज़ूल होने में कुछ कमी बेशी नहीं आई। जिस बात से आपने जी लगाया वो सामने ही रही यानी बाइबल के होते हुए क़ुरआन की ज़रूरत इसी बिना पर होनी चाहीए जिस तरह किताब नेचर की मौजूदगी में बाइबल की है। याद रहे कि मुहम्मदियों को समझाने के लिए ज़रूरी नहीं कि नेचर के मुक़ाबिल में बाइबल की ज़रूरत साबित करें। इस बात पर गुफ़्तगु उन लोगों से निस्बत रखती है जो इल्हाम ईलाही के क़ाइल नहीं और मज़्हब तिब्बी पर शाकिर हैं। लेकिन ये बात कि बाइबल मौजूद है तो क़ुरआन की क्या ज़रूरत है मुहम्मदी ईसाईयों पर साबित करें। मगर हमारी तरफ़ इस बात का ख़ातिर-ख़्वाह सबूत दिया गया है कि क़ुरआन-ए-मजीद फ़ुज़ूल है।
फिर जो कुछ अज़ीं जानिब अल्लाह दिया साहब की इन मिसालों के जवाब में लिखा गया था जिनका आपने दुबारा और सहि बारह और पाँच बारह लिखा जाना पेश कर के क़ुरआन में मज़ामीन बाइबल वग़ैरह के तकरार के लिए आसरा ढ़ूंडा था। इस को आप कहते हैं कि मआ रद्द उल-जवाब बयान करता हूँ और आपके जवाब हस्ब-ज़ैल हैं।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) भला पादरी साहब ये तो ख़ुदावंद तआला ने ख़ास क़ौम बनी-इस्राईल की ख़ातिर दुबारा अहकाम तौरेत मुक़द्दस में नाज़िल फ़रमाए। क्या आप ईसाई साहब भी ख़ास क़ौम होने का दावा करते हो, क्योंकि सिवाए तौरेत के ईसाईयों की ख़ातिर भी वही हुक्म हुर्मत ख़ूनी में सहि बारह इंजील आमाल अल-रसूल 15:20 में मौजूद है।
उक़ूल (मसीही जवाब) वाज़ेह हो कि इंजील में इस हुक्म के सहि बारह बयान किए जाने की क़वी वजह और ज़रूरत बयान की गई थी। शायद इस पर से नज़र फिसल गई हो इसलिए आपके सवाल का फिर जवाब दिया जाता है।
अव्वल : यहूदी कलीसिया के ख़ारिज होने पर मसीही कलीसिया क़ायम हुई तो वो ख़ुसूसीयत लज़ूमन मोअख्ख़र में तब्दील हुई और इस के मुवाफ़िक़ यूं लिखा है कि “तुम भी ज़िंदा पत्थरों की तरह रूहानी घर बुनते जाते हो ताकि काहिनों का मुक़द्दस फ़िर्क़ा बन कर ऐसी रूहानी कुर्बानियां चढ़ाओ जो यिसूअ मसीह के वसीले से ख़ुदा के नज़्दीक मक़्बूल होती हैं। चुनांचा किताब-ए-मुक़द्दस में आया है कि देखो। मैं सियोन में कोने के सिरे का चुना हुआ और क़ीमती पत्थर रखता हूँ जो इस पर ईमान लाएगा हरगिज़ शर्मिंदा ना होगा। पस तुम ईमान लाने वालों के लिए तो वो क़ीमती है मगर ईमान ना लाने वालों के लिए जिस पत्थर को मेअमारों ने रद्द किया वोही कोने के सिरे का पत्थर हो गया। और ठेस लगने का पत्थर और ठोकर खाने की चट्टान हुआ क्योंकि वो नाफ़रमान हो कर कलाम से ठोकर खाते हैं और इसी के लिए मुक़र्रर भी हुए थे। लेकिन तुम एक बरगुज़ीदा नस्ल, शाही काहिनों का फ़िर्क़ा, मुक़द्दस क़ौम और ऐसी उम्मत हो जो ख़ुदा की ख़ास मिल्कियत है ताकि उस की खूबियाँ ज़ाहिर करो जिस ने तुम्हें तारीकी से अपनी अजीब रोशनी में बुलाया है। पहले तुम कोई उम्मत ना थे मगर अब ख़ुदा की उम्मत हो। तुम पर रहमत ना हुई थी मगर अब तुम पर हुई।” (1 पतरस 2:5-9,10) फिर रोमीयों 9:24, 25, 26 यानी हमारे ज़रीये से जिन को उस ने ना फ़क़त यहूदीयों में से बल्कि गैर क़ौमों में से भी बुलाया। चुनांचे होसीअ की किताब में भी ख़ुदा यूँ फ़रमाता है कि जो मेरी उम्मत ना थी उसे अपनी उम्मत कहूँगा और जो प्यारी ना थी उसे प्यारी कहूँगा। और ऐसा होगा कि जिस जगह उन से ये कहा गया था कि तुम मेरी उम्मत नहीं हो उसी जगह वो ज़िंदा ख़ुदा के बेटे कहलाएँगे।” पस देखो ख़ुदा ने मसीहियों को ख़ास क़ौम कर लिया है। हमारे मह्ज़ दावे की क्या हैसियत होती।
दोम :मसीह में अहकाम रस्मी ख़त्म हुए और अगर ये हुक्म फिर इंजील में बयान ना किया जाता तो उन्हीं में गिरदाना जाता और ख़ून से परहेज़ करने की पाबंदी ना होती। मगर चूँकि इस हुक्म की ज़्यादा तामील मंज़ूर थी खुदा ने उसे इंजील में फिर मुंदरज करवाया और यूं आज़रों में से उसे दवाम (हमेशगी) बख़्शा। पस क़ुरआन ज्यूँ का त्यूँ फ़ुज़ूल ही रहा।
क़ौलुह : (मौलाना साहब ने कहा) जब ईसाईयों को मख़्सूस क़ौम होने के सिवाए सहि बारह वही हुक्म सादिर हुए अगर आँहज़रत मुहम्मद रसूलुल्लाह को बसबब औलाद होने हज़रत इब्राहिम के चौथी बार अहकाम नाज़िल फ़रमाए तो पादरी साहब का क्या जरह है।
उक़ूल (मसीही जवाब)) क्या इस सबब से सारे ही अहकाम चौथी बार फ़रमाने थे। क्यों, क्या ज़रूरत थी? अगर हज़रत को इब्राहिम की औलाद से होने का कुछ फ़ख़्र था तो बनी-इस्राईल की किताब को मानते ना कि उन्ही की किताब की बातों को अपने इल्हाम के ज़िम्मे लगाते। उन का ऐसा करना बिल्कुल फ़ुज़ूल था। मगर हमारे जवाब मज़्कूर बाला से मालूम हो गया कि ईसाई मख़्सूस क़ौम के सिवाए नहीं बल्कि अब मख़्सूस क़ौम वही ठहराए गए हैं। इसलिए इस तरफ़ से आप की बात की शिकस्त है और फिर जब कि वो पहली रसूम और निशानीयां मसीह में पूरी हो गईं जिस तक्मील का सबूत इंजील में ख़ुदा ने ना फ़क़त क़ौलन बल्कि फे़अलन भी ज़ाहिर किया है और जबकि मसीही क़ौम में नस्ल इब्राहिम के लिहाज़ को ज़ाए किया और ईमान मसीह पर क़ौमी ख़ुसूसीयत ठहराई गई और जिस ख़ुसूसीयत में दुनिया की हर एक क़ौम शरीक हो सकती है। देखो कुलस्सियों के नाम ख़त 3:11 तो फिर लौंडी (हाजरा) वाली औलाद को जो वाअदे के फ़र्ज़ंद नहीं हैं और जिनकी निस्बत पैदाइश 16:12 और 17:20 वाली बात के सिवाए और कोई वाअदा ही नहीं है। फिर वो अहकाम क्योंकर फ़रमाए जाते। ज़रूरत ही क्या थी और इस में बंदे का कुछ जरह नहीं, हर्ज तो क़ुरआन का है जो बिला ज़रूरत उन अहकाम और अहवाल से अपनी वह्यी का मुँह भरता है और यूं अपने तईं फ़ुज़ूल ठहराता है।
क़ौलुह :(मौलाना साहब ने कहा) ये पादरी साहब का मह्ज़ झूट है। अगर पादरी साहब अपने दावा में सच्चे हैं तो हमको तौरेत में निशान दें जहां (मौलवी) अल्लाह (दिया) साहब ने क़ौम बनी-इस्राईल को ये फ़रमाया हो कि तुम पहले अम्बिया अलैहिम अस्सलाम के हुक्मों को जो हमने उनको बज़रीया इल्हाम अता किए हैं, हरगिज़ अमल ना करियो।
उक़ूल (मसीही जवाब) ) वाज़ेह हो कि बंदे ने इस अम्र को बख़ूबी ज़ाहिर किया था कि इस हुक्म की तकरार तौरेत में ख़ास सबब से हुई थी और कि जो कुछ तौरेत में मुंदरज हुआ वही बनी-इस्राईल के लिए क़ानून हिदायत था। इस पर अल्लाह दिया साहब मुझे झूटा कहते हैं मगर झूट को साबित नहीं करते हैं, क्योंकि ये बात तो आप ने साबित करनी थी कि देखो फ़ुलां मुक़ाम जहां ख़ुदा ने सिवाए तौरेत के इलावा अहकाम पर जो तौरेत में नहीं लिखे गए और पहलों के फ़रमाए हुए हैं अमल करने को फ़रमाया। मगर आपने ये तो ना किया और मुझे झूटा कहने में झट से मुँह खोल दिया। पर ख़ैर देखो इस्तिस्ना 5:33 “तुम इस सारे तरीक़ पर जिस का हुक्म ख़ुदावन्द तुम्हारे ख़ुदा ने तुमको दिया है चलना ताकि तुम जीते रहो और तुम्हारा भला हो और तुम्हारी उम्र इस मुल्क में जिस पर तुम क़ब्ज़ा करोगे दराज़ हो।” और भी देखो 4:40, 7:11, 10:13 पस साहब आप ही फिर सोचें कि झूटा मैं हूँ या आप हैं।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) अब मैं पादरी साहब से दर्याफ़्त करता हूँ कि एक ही तम्सील को बकस्रत बयान करना दोहाल से ख़ाली नहीं या तो (मौलवी) अल्लाह (दिया) साहब को इस तम्सील की ताकीद ज़्यादा बयान करना मंज़ूर थी इस वास्ते ये तम्सील बार-बार बयान की गई। सो यही ताकीद क़ुरआन शरीफ़ के अहकाम बयान किए जाने पर तसव्वुर की जाये या पहले हवारी के बयान का एतबार नहीं था जो दूसरे और तीसरे बयान कनुंदा की हाजत हुई।
उक़ूल (मसीही जवाब)याद करो साहब कि बंदे ने आपके एतराज़ से पहले ही बयान किया था कि सकाहत के मुआमले में हज़रत मुहम्मद साहब की क्या हैसियत है यानी पहली बातों की ताकीद या तस्दीक़ करने के लायक़ ना थे और ना इस अम्र की ज़रूरत बाक़ी थी। फिर यही तो सवाल है कि जिस हाल वो पहले अहकाम और वाक़ियात तरह बह तो क़ुरआनी तकरार और तस्दीक़ की मुतलक़ ज़रूरत ना थी और इसी बात में आप हज़रत के लिए पनाह ढूंडते हैं। मसीही और बेदीन मुहक़्क़िक़ भी जब बाइबल के वाक़ियात की तहक़ीक़ करते हैं तो वो क़ुरआन की परवाह नहीं करते हैं। साहब मन आप इस बात का ख़्याल क्यों नहीं रखते कि क़ुरआन की बनफ़्सही क्या ज़रूरत थी? बेशक बड़े अंधेर की बात है अगर बाइबल के होते हुए ख़ुदा क़ुरआन जैसी किताब नाज़िल कर दे। ख़ुदा और इन्सान को इस से किया हासिल होगा? ऐसी फ़ुज़ूल किताब से बचो।
अल-हासिल क़ुरआन के हामीयों के इल्ज़ामी एतराज़ जिनसे वो अदम ज़रूरत क़ुरआन के बरख़िलाफ़ क़ुरआन की ज़रूरत साबित करना चाहते थे तहक़ीक़ी तौर पर रद्द हुए और उम्मीद है कि ये लोग आइंदा होशयार रहेंगे। अब आईए हिन्दुस्तान के मुहम्मदियों ! क्या सोच के मुहम्मदियत में क़ायम हो? तुम्हारे हिंदू आबा जिनमें से बाज़ों ने जहालत और बाइबल की ना-वाक़िफ़ी के सबब क़ुरआन को जैसे-तैसे मान लिया और बाज़ों से जबरन मनवाया गया क़ुरआन की इस कैफ़ीयत से नावाक़िफ़ थे जो मसीहियों ने तुम पर ज़ाहिर की है। पस उस को छोड़ो हमें तुम्हें जे़बा नहीं देता है, और बाइबल की पैरवी करो जो बज़ात-ए-ख़ुद एक कामिल हिदायत और क़ुरआन का मख़रज है। भाईओ सोचो !
ज़रूरत क़ुरआन के लिए मुहम्मद साहब के अक़्वाल
हमने पैरौओं की दलीलें ज़रूरत क़ुरआन के लिए सुनीं, अब हज़रत मुहम्मद साहब की भी सुनें कि वो इस बात के लिए क्या वजह पेश करते हैं और वो हस्ब-ज़ैल हैं :-
(1) सूरत इनाम रुकूअ 20 आयत 155-157 “और एक ये किताब है कि हमने उतारी बरकत की। इस वास्ते कि कभी कहो किताब जो उतरी थी सो दो ही फ़िर्क़ों पर हमसे पहले और हमको इनके पढ़ने पढ़ाने की ख़बर ना थी। या कहो कि अगर हम पर उतरती किताब तो हमराह चलते उनसे बेहतर।” इस के मुताबिक़ देखो सूरह क़िसस रुकूअ 5 आयत 46,47
यानी उन लोगों में पहले कोई किताब नहीं आई थी इसलिए मुहम्मद साहब अपने अह्ले वतन के लिए क़ुरआन लेकर आए।
जानना चाहीए कि लोगों ने ये सवाल या दरख़्वास्त किसी रसूल या किताब के लिए नहीं की थी। चुनान्चे क़ुरआन की आयतों से ऐसा मालूम होता है, लेकिन ख़ुद मुहम्मद साहब लोगों की तरफ़ से बनावटी सबब क़ुरआन के उतरने का पेश करते हैं यानी पेश-दस्ती से ख़ुद ही अगर मगर लगा कर लोगों की ख़्वाहिश फ़र्ज़ की है। हालाँकि लोग कहते थे कि हम तौरेत व क़ुरआन दोनों को नहीं मानते (सूरह आयत 48) फिर ये कि हम हरगिज़ ना मानेंगे ये क़ुरआन और ना इस से अगला (सूरह सबा रुकूअ 4 आयत 30) और इस क़ुरआन की निस्बत ये कहा करते थे कि कुछ नहीं ये मगर झूट बांध लाया है और साथ दिया है इस का इस में और लोगों ने, ये नक़लें हैं अगलों की जो लिख लिया है, सो वही लिखवाई जाती हैं इसके पास शाम व सुबह। (सूरह फुर्क़ान रुकूअ पहला) याद रहे कि इस बात की मुहम्मद साहब ने तर्दीद बिलसबूत ना की सिर्फ अपना मामूली दावा सुना दिया था। पस जिस हाल कि मुनकिरों का इस क़ुरआन की निस्बत ये गुमान था तो ऐसी किताब के लिए वो क्योंकर आरज़ू कर सकते थे। कुछ नहीं सिर्फ मुहम्मद साहब ने आप ही लोगों की तरफ़ से आरज़ू फ़र्ज़ कर के कहा कि कभी तुम ऐसा कहने लगो कि ऐ रब हमारे वग़ैरह और फिर ये कि अगर हम पर उतरती किताब, अलीख (आखिर तक पढ़ें) इस वास्ते हम ने उतारी है ये किताब। ज़ाहिरन ये फ़र्ज़ी आरज़ू क़ुरआन के उतरने का कोई सबब नहीं हो सकती। अगर उनकी आरज़ू उस के नुज़ूल की ज़रूरत की वजह थी तो उनकी अदम ख़्वाहिश उस की अदम ज़रूरत क़ायम करती है और वो अदम ख़्वाहिश बल्कि सरीह इन्कार क़ुरआन ही से साबित है, मगर आरज़ू साबित नहीं है। लिहाज़ा क़ुरआन के नुज़ूल के लिए मुहम्मद साहब की ये वजह बिल्कुल नाक़िस है, एक फ़र्ज़ी बात है।
इसी तरह हज़रत ने अहले किताब से कहा था। देखो सूरह माइदा आयत 22 “ऐ किताब वालो आया है तुम्हारे पास रसूल हमारा तोड़ा पड़े पीछे रसूलों का। कभी तुम कहो हमारे पास ना आया कोई ख़ुशी या डर सुनाने वाला। सो आ चुका तुम्हारे पास ख़ुशी और डर सुनाने वाला।” ये भी वैसी ही फ़र्ज़ी बात है जैसी आपने मुनकिरों से बयान की थी और ज़ाहिर है कि अहले-किताब के लिए ये बिल्कुल कुछ वजह ज़रूरत क़ुरआन के लिए ना थी। उनको ऐसा ख़्याल करने या कहने की हाजत ही ना थी। यहूदी तौरेत रखते थे जिसकी निस्बत मुहम्मद साहब यहूद के सामने अच्छी गवाही देते थे और तौरेत में भी उनको तौरेत ही की तामील की हिदायत ताकीदी थी। ऐसे लोगों की तरफ़ से ऐसी फ़र्ज़ी बातें पेश करना बिल्कुल फ़ुज़ूल था। अम्बिया ए साबक़ीन के इख़्तताम के बाद वो लोग मसीह की इंतिज़ारी करते थे और ख़ुदावंद यसूअ को मसीह ना माना और अपनी इस बेईमाअनी के सबब अब तक किसी मसीह की इंतिज़ारी करते हैं। मुहम्मद साहब के लिए ख़्वाहिश ज़ाहिर करने की उनको क्या हाजत थी जो मुहम्मद साहब ऐसी फ़र्ज़ी बात उनकी तरफ़ से लिखते हैं और फिर मसीहियों को तो ये फ़र्ज़ी आरज़ू करने की गुंजाइश ही ना थी, क्योंकि इंजील में मसीह के बाद किसी नबी किताब वाले की ख़बर नहीं है। अलबत्ता मसीह के मुख़ालिफ़ों की ख़बरें हैं। झूटे नबियों की ख़बर है और फिर उनको ऐसी आरज़ू करने के बरख़िलाफ़ क़तई मुमानिअत थी, जैसा लिखा है कि “अगर हम या आस्मान का कोई फ़रिश्ता भी इस खुशखबरी के सिवा जो हमने तुम्हें सुनाई कोई और खुशखबरी तुम्हें सुनाए तो मलऊन हो।” (ग़लतीयों 1:8) इस से नाज़रीन समझें कि इंजील की रु से मुहम्मद साहब को कैसा समझना चाहीए। मुहम्मद साहब ने बिल्कुल पोच वजह क़ुरआन के आने की पेश की। दरअस्ल ये कोई वजह ही ना थी कि जिसके सबब क़ुरआन आया। मगर हज़रत का फ़र्ज़ी ख़्याल है।
फिर इस बात का ख़्याल करना चाहीए कि अहले-किताब उमूमन क़ुरआन को न मानते थे जैसा कि क़ुरआन ही से ज़ाहिर है। सूरह माइदा रुकूअ 10 आयत 72 “और उनमें बहुतों को बढ़ेगी इस कलाम से जो तुझको इतरा तेरे रब से शरारत और इन्कार सो तू अफ़्सोस ना कर इस क़ौम मुन्किर पर।” फिर सूरह इमरान आयत 99 “तू कह ऐ किताब वालो क्यों रोकते हो अल्लाह की राह से ईमान लाने वालों को ढूंडते हो इस में ऐब और तुम ख़बर रखते हो और अल्लाह बे-ख़बर नहीं तुम्हारे काम से” सूरह माइदा आयत 64 “तू कह ऐ किताब वालो क्या बेहतर है तुमको हमसे, मगर ये ही कि हम यक़ीन लाए अल्लाह पर और जो हमको उतरा और जो उतरा पहले।” इंतिहा (आखिर तक पढ़ें) पस इस हाल में वो क्योंकर क़ुरआन जैसी किताब की कभी आरज़ू करने वाले थे। वो तो उस के इंकारी थे। इस के साथ मालूम करो कि मुहम्मद साहब ने अहले-किताब को तौरेत और इंजील पर अमल करने की हिदायत दी थी, जैसा क़ुरआन से मुसर्रेह (वाज़ेह) है। सूरह माइदा आयत 74 “तू कह ऐ किताब वालो तुम कुछ राह पर नहीं जब तक ना क़ायम करो तौरेत और इंजील, और जो उतरा तुमको तुम्हारे रब से।” फिर इसी सूरह माइदा की आयत 48, 51 देखो आयत 51 में है “और चाहीए कि हुक्म करें इंजील वाले इस पर जो अल्लाह ने उतारा इस में और जो कोई हुक्म ना करे अल्लाह के उतारे पर सौ वही लोग हैं बे हुक्म।” जाये ग़ौर है कि एक तरफ़ तो अहले-किताब क़ुरआन को मानते ना थे और दूसरी तरफ़ मुहम्मद साहब उनको तौरेत और इंजील पर अमल करने की ताकीद करते हैं। तो फिर क्योंकर वो लोग, वो फ़र्ज़ी ख़्याल कभी कर सकते जो मुहम्मद साहब ने उनकी तरफ़ से किया है। इस सूरत में मुहम्मद साहब का क़ौल क़ुरआन के हक़ में बिल्कुल रायगां है। फ़ुज़ूल किताब के लिए एक फ़ुज़ूल दलील है।
अलबत्ता एक जगह ज़िक्र है कि अहले-किताब ने कहा कि हम पर उतार ला किताब आस्मान से (सूरह निसा रुकूअ 22 आयत 152) हज़रत ने उनका सवाल तो पूरा ना किया मगर कह दिया कि मांग चुके हैं मूसा से इस से बड़ी चीज़, अलीख। (आखिर तक पढ़ें) मांगने पर तो कोई किताब ना दी मगर ख़्वानख़्वाह फ़र्ज़ किया कि कभी तुम कहो कि हमारे पास ना आया कोई डर सुनाने वाला, अलीख। (आखिर तक) अल-हासिल मुहम्मद साहब का ये क़ौल क़ुरआन की ज़रूरत की दलील नहीं हो सकता।
(2) सूरह नहल रुकूअ 8 आयत 66 “और हमने उतारी तुझ पर किताब इसी वास्ते कि खोल सुनाए उनको जिसमें झगड़ रहे हैं।” फिर सूरह माइदा आयत 16 “ऐ किताब वालो आया तुम्हारे पास रसूल हमारा खौलता तुम पर बहुत चीज़ें जो तुम छुपाते थे किताब की और दरगुज़र करता है बहुत चीज़ों से।”
वाज़ेह हो कि जब हम ने इस रसूल को इस क़ौल की सदाक़त के लिए आज़माया तो उसे इन बातों की निस्बत ग़लतकार और नावाक़िफ़ पाया जिनकी निस्बत लोग झगड़ते और जिनको छुपाते थे, मसलन मसीह की उलूहियत की निस्बत जो बयान मुहम्मद साहब ने किया है इस का मूजिब ताअलीम इंजील से मह्ज़ ना-वाक़िफ़ी थी। अगरचे मुहम्मद साहब कहते थे कि जो मैं कहता हूँ वो तहक़ीक़ बात है, मगर अस्ल बिना उस की ना थी। (देखो रिसाला हाज़ा फ़स्ल पंजुम दफ़ाअ 6)
फिर मसीह के मस्लूब होने की निस्बत मुहम्मद साहब ने कहा कि “जो लोग इस में कई बातें निकालते हैं वो इस जगह शुब्हे में पड़े हैं, कुछ नहीं उनको उस की ख़बर मगर अटकल पर चलना और उस (ईसा) को मारा नहीं बेशक बल्कि उस (ईसा) को उठाया अल्लाह ने अपनी तरफ़ और ना उस को मारा है, ना सूली दिया लेकिन वही सूरत बन गई उनके आगे।” (सूरह निसा रुकूअ 22 आयत 156-157) इस में भी मुहम्मद साहब ने सरीह ग़लती की है और झगड़े को मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) करने में आपने बिद्दतीयों का साथ दिया है जिन्हों ने इस बात में इंजील मुक़द्दस के साथ इख़्तिलाफ़ कर रखा था। इसलिए मुहम्मद साहब का दावा कि क़ुरआन इसलिए आया कि खोल सुनाए जिसमें झगड़ रहे हैं, बिल्कुल फ़ुज़ूल और ग़लत है। आपको इस बात की सहीह ख़बर मिली ही नहीं और ग़लत सुना दिया और इसलिए क़ुरआन बेफ़ाइदा आया। (देखो रिसाला हाज़ा फ़स्ल पंजुम दफ़ाअ 7)
फिर दीने इब्राहिम की निस्बत अहले-किताब के झगड़े पर जो आपने सूरह इमरान रुकूअ 7 में बयान किया है वो यहूदीयों की तल्मूद का बयान है और वही हज़रत ने अपने फ़ैसले में सुना दिया (देखो रिसाला हाज़ा फ़स्ल पंजुम दफ़ाअ 3) ग़ालिबन यहूद और ईसाई अब्रहाम के यहूदी या ईसाई होने की निस्बत झगड़े होंगे। हक़ीक़त में दोनों दुरुस्त थे। मगर मुहम्मद साहब ने तौरेत और फिर इंजील की ना-वाक़िफ़ी के सबब कह दिया कि वो ना यहूदी था ना नसारा क्योंकि तौरेत और इंजील उस के बाद उत्तरी थीं और इस में लुत्फ़ ये है कि अपनी मुनासबत अब्रहाम के साथ पेश कर दी। हालाँकि क़ुरआन इंजील से भी पीछे आया है। अच्छी ख़बर रखते थे जो इस तरह की करवाई की ! पस इस अम्र में मुहम्मद साहब ने ना सिर्फ नक़्ल बल्कि ग़लती भी की है।
यही हाल उन बातों का है जिनकी निस्बत कहा है कि लोग छुपाते थे। हज़रत मुहम्मद साहब समझते थे कि अगली किताबों में मेरी निस्बत ख़बर है और उनका इशारा उन्हीं ख़बरों की तरफ़ है जब कहते हैं कि लोग छुपाते थे किताब की बात। चुनान्चे कई एक मौक़े पर आपने इस बात को ज़ाहिर भी किया था। चुनान्चे सूरह आराफ़ रुकूअ 19 आयत 158 “वो जो ताबे होते हैं इस रसूल के जो नबी है उम्मी जिसको पाते हैं लिखा हुआ अपने पास तौरेत और इंजील में।” फिर सूरह सफ़ आयत 6 “और जब कहा ईसा मर्यम के बेटे ने ऐ बनी-इस्राईल मैं भेजा आया (रसूल) हूँ अल्लाह का तुम्हारी तरफ़, सच्चा करता उस को जो मुझसे आगे है तौरात और ख़ुशख़बरी सुनाता एक रसूल की जो मुझसे पीछे उस का नाम अहमद।” ज़ाहिर है कि तौरेत में मुहम्मद साहब की बाबत ख़बर ना थी। अलबत्ता यहूदी ख़ुदावंद यसूअ को मसीह ना मानने के सबब किसी और मसीह की इंतिज़ारी करते थे। मुम्किन है कि मुहम्मद साहब ने इस अम्र में इन लोगों के फ़रेब में आके ये बात कही थी और इंजील में से ईसा की ज़बानी जो ख़बर अपनी निस्बत पेश की है, वो इंजील में नहीं है। इसलिए मुहम्मद साहब ने ग़लत कहा है, वर्ना लोगों ने ये बात छुपाई ना थी और एक जाली इंजील में जो बरनबास की कहलाती है, ये ज़िक्र पाया जाता है। ये इंजील बरनबास मसीह के बाद पांचवीं सदी में सुनने में आई थी और ज़माना मुहम्मद साहब में इस में किसी ईसाई मुहम्मदी ने ये बातें बढ़ाईं और इस इंजील बरनबास का झूटा होना और तरह से भी है। (देखो रिसाला हाज़ा फ़स्ल पंजुम दफ़ाअ 7 और इसी फ़स्ल का ज़मीमा और भी देखो इज़्हार ईस्वी जिल्द दोम बाब 3 फ़स्ल) ग़रज़ कि मुहम्मद साहब ने अहले-किताब पर ये ऐब लगाया है कि तुम छुपाते हो किताब की बातें हालाँकि वो छुपाते ना थे। लेकिन उनकी किताबों में वो बातें नहीं थीं। पस ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब ने बहुत ख़बरें खोलने में बहुत गलतीयां भी की हैं जिनमें से कई एक रिसाला हाज़ा की फ़स्ल चहारुम व पंजुम के मुलाहिज़ा से मालूम हो सकती हैं। इसलिए अहले-किताब क़ुरआन जैसी किताब के ना ख़्वाहिशमंद हुए थे और ना उस की ज़रूरत समझते हैं। पस मालूम हुआ कि ये क़ौल भी मुहम्मद साहब का फज़ूलगो में दाख़िल है और क़ुरआन की ज़रूरत के लिए मुहम्मद साहब की वजह और भी नाक़िस है।
तंबीया
जानना चाहीए कि अगर हर क़ौम में सहीह उमूर अख़्लाक़िया की निस्बत मुवाफ़िक़त हो तो कुछ अजब नहीं क्योंकि मुवाफ़िक़त होनी ज़रूरी है। ज़ीरा कि हर क़ौम एक ही अस्ल की नस्ल है और वो अस्ल ख़्वाह आदम, ख़्वाह नूह को तसव्वुर कर लो। हक़ तआला ने इन्सान के बातिन में ये बातें गोया लिख दी थीं, मगर बर्गशतगी और एक दूसरे से अलैहदगी के सबब उमूर अख्लाक़ीया में मुतफ़र्रिक़ क़िस्म के तसव्वुर और इख़्तिलाफ़ पड़ गए। सहीह इल्म की नाक़िस हालत हो गई और ये वाक़ई बात है कि इस हाल में अख़्लाक़ के बिगाड़ की मुख़्तलिफ़ सूरतें हो गई हैं, मगर सहीह अख़्लाक़ की हर ज़माना, हर मुल्क और हर क़ौम में मुवाफ़िक़त है और होनी लाज़िम है। पस जब अल्लाह हक़ तआला ने कामिल और सहीह अख़्लाक़ दुबारा जताना मुनासिब जाना और वैसा ही किया तो इस में सिर्फ यही बात शामिल ना हुई कि नाक़िस की सेहत ज़हूर में आए और बस। इस मर्ज़ की दवा तो ज़रूर थी लेकिन इस में कुल अख़्लाक़ की ताअलीम शामिल है यानी वो उमूर जिनकी सेहत क़ायम थी और वो जिनकी तसहीह की गई हर दो क़िस्म शामिल हैं। सहीह अख़्लाक़ एक मुकम्मल क़ानून अख़्लाक़ ज़ाहिर करने के लिहाज़ से तरमीम शूदा के साथ फिर बयान किया गया और इस की तकरार से ये धोका कि शायद तरमीम शूदा उमूर ही कुल रस्म अख़्लाक़ होंगे, दूर हुआ। अब इस हाल में जिस क़द्र सहीह अख़्लाक़ किसी क़ौम या सब क़ौमों में बाक़ी था या है (यानी जहां इल्हाम नहीं पहुंचा) ज़रूर उस मुशाहिदे के मुवाफ़िक़ ठहरेगा जो ख़ुदा ने गोया दुबारा इन्सान को बताया यानी सहीह अख़्लाक़ ख़्वाह वो इल्हामी किताबों में हो ख़्वाह ग़ैर इल्हामी में ज़रूर मुवाफ़िक़ होगा। ख़्वाह वो ग़ैर इल्हामी किताबें या रिवायतें इल्हाम से पहले की हों। अब वाज़ेह हो कि ये हरगिज़ ख़्याल ना किया जाये कि सीग़ा अख़्लाक़ में हम हर क़ौम के सहीह अख़्लाक़ की अदम ज़रूरत मद्द-ए-नज़र रखे हुए हैं, हरगिज़ नहीं (अलबत्ता उन क़ौमों को हमारी तरफ़ से ये आवाज़ है कि अब इस हादी कामिल की तरफ़ रुजू करें) लेकिन ग़रज़ ये है कि क़ुरआन जो बाइबल से बेशतर निस्बत दिखाता है इस की ज़रूरत ना थी। क्योंकि बाइबल में हर क़सूर व फ़ुतूर को जो अख़्लाक़ में पड़ गया था सहीह कर के मन अजज़ा ए अख़्लाक़ के जिनमें सेहत बाक़ी थी एक कामिल और सहीह क़ानून ज़ाहिर किया है। तो फिर उस हाल में क़ुरआन की क्या ज़रूरत हुई ?और फिर बड़े ग़ज़ब की बात है कि इसी बाइबल के अख़्लाक़ वग़ैरह को (झूट बातें और ग़लत अख़्लाक़ की और जगह से सीखा) क़ुरआन में बयान कर के मुहम्मद साहब ने सिर्फ अपने नबी होने का दावा ज़ाहिर किया है। हाँ सिर्फ अपना ये शौक़ पूरा किया है, वर्ना क़ुरआन की किसी अम्र के लिए ज़रूरत ना थी। बाइबल का मुक़ाबला नेचर और अहले नेचर से है और क़ुरआन का बाइबल से है। पस क़ुरआन की ज़रूरत बाइबल के मुक़ाबले में क़ायम करनी चाहीए। मगर क्या ज़रूरत साबित होगी, उस की तो क़ुरआन ताज़ीम बजा लाता है। बेशक क़ुरआन वालों की हालत पर हमको दिल से अफ़्सोस है। क्यों ये लोग बाइबल को छोड़े हुए हैं और इस के बर-ख़िलाफ़ हाथ उठाए हुए हैं और एक फ़ुज़ूल किताब के जुए (बोझ) में सर दिया हुआ है। ऐ बिरादरान हमने आगाह कर दिया है, आगे तुम जानो।
ख़्याल रहे कि हर एक मुआहिदा) अपनी मतलब बर आरी( काम निकालने के लिए अपनी अपनी तर्ज़ बयान और तर्ज़ सबूत रखता है और अपनी एक दफ़ाअ की कही हुई बात को दूसरे मौक़ा पर ज़रूरत के मुवाफ़िक़ दुबारा और सहि बारह पेश कर सकता है, जैसा कल अह्दे अतीक़ एक वसीक़ा है और एक बयान या नबुव्वत या ताअलीम को दूसरे मौक़ा पर बयान कर के ताईद और तशरीह करता है ।या वैसे ही बयान का मौक़ा देखकर ऐसी तकरार ज़हूर में आती है यानी अपने मतलब को हर सूरत और हर मौक़ा से पूरा करता है। इसी तरह अह्दे जदीद में है और एसा ही क़ुरआन में है। हमारा मतलब ना था कि क़ुरआन में एक बयान को इस के इसी क़िस्म के दूसरे बयान से फ़ुज़ूल ठहराएँ, ये देखकर कि क़ुरआन में ऐसी तकरार की मिसालें कस्रत से हैं। लेकिन ये कि क़ुरआन एक जुदा और नया वसीक़ा बजा-ए-ख़ुद होने का मुद्दई है और इस हैसियत में हो कर मवासीक़ (मीसाक़ की जमा) साबिक़ा के मुक़ाबिल में इस की क्या ज़रूरत थी। हाँ ख़्याल रहे कि अह्दे अतीक़ में तौरेत, ज़बूर, अम्साल, यसअयाह, यर्मियाह और दानीएल वग़ैरह अलेहदा (अलग) अलेहदा (अलग) वसीके नहीं हैं और ना इंजील में अनाजील अर्बा, आमाल अल-रसूल और नामजात वग़ैरह जुदा जुदा वसीके हैं और ना क़ुरआन में हर एक सूरत या हर एक सीपारा बजा-ए-ख़ुद कामिल क़ुरआन है। मगर ये कुल किताब के तर्कीबी या असबाती अजज़ा (हिस्सें) हैं। पस मुहम्मदी नाहक़ हमारे बयान से तंग होते हैं और अस्ल मतलब से कतराते हैं और लाचारी की अलामतें ज़ाहिर करते हैं, जब कह बैठते हैं कि अह्दे अतीक़ या जदीद में फ़ुलां बयान की तकरार आई है और इसलिए फ़ुज़ूल है। उनके जवाब में हम भी क़ुरआन की एक सूरत को दूसरी से फ़ुज़ूल साबित कर सकते हैं। मगर ये हमारी ग़रज़ ना थी बल्कि ये थी कि कुल क़ुरआनी इंतिज़ाम बाइबल मुक़द्दस के सामने फ़ुज़ूल है और इस अम्र को हमने साबित किया है और नीज़ इन बातों का भी जवाब तहक़ीक़ी दिया गया जो इल्ज़ामन और नाफ़हमी मुद्दा के सबब पेश की गई थीं और हमारा मतलब या दावा ज्यूँ का त्यूँ क़ायम व साबित है कि बाइबल के मुक़ाबिल में या उस की मौजूदगी में क़ुरआन सरासर फ़ुज़ूल किताब है और यूँही है।
फ़स्ल हश्तम
पहला हिस्सा
वो नबी पर गुफ़्तगु
सवाल अब्दुल मजीद साहब (ऐडीटर साहब सलामत)
बाद सलाम के इल्तिमास ये है कि इन चंद सतरों को अपने अख़्बार में जगह देकर ममनून फरमाइए। वो ये हैं कि अख़्बार नूर-अफ़शाँ नंबर 22 जिल्द 8 मत्बूआ 27 मई 1880 ई॰ सफ़ा 173 मज़्मून बउनवान क़ुरआन की अदम ज़रूरत मिंजानिब ठाकुर दास ईसाई मेरी नज़र से गुज़रा। लिहाज़ा मैंने भी मुनासिब जाना कि सिर्फ दो बात ठाकुर दास साहब से दर्याफ़्त करूँ। अव्वल, ये कि इंजील युहन्ना 1:20 तो उस ने इक़रार किया और इन्कार ना किया बल्कि इक़रार किया कि मैं तो मसीह नहीं हूँ।” (आयत 21) उन्हों ने उस से पूछा फिर कौन है? क्या तू एलियाह है? उस ने कहा मैं नहीं हूँ। क्या तू वो नबी है? उस ने जवाब दिया कि नहीं।” अब 19 वीं सदी अनक़रीब गुज़रने वाली है क्या आज तक वो नबी नहीं आया? अब आपको लाज़िम है कि इस नबी का निशान दें। दूसरे ये कि आपके नज़्दीक क़ुरआन शरीफ़ तस्नीफ़ इन्सानी है तो मेहरबानी फ़र्मा कर एक दो सफ़ा मिस्ल क़ुरआन शरीफ़ के बना कर पेश कीजिए और जब तक ये दोनों अम्र ऐसे अंजाम को ना पहुंचे तो आप ही फ़रमाइए क्या आपको और आपकी किताब को सच्चा समझा जाएगा? हरगिज़ नहीं और जो आप सिर्फ तू तू मैं मैं के फेर में हों तहक़ीक़ात के दर्जे में ना आएं तो आपको इख़्तियार है, ख़ूब ख़ल्क़ हंसाई कीजिए। जिस वक़्त आप की जानिब से दोनों अम्र मुतज़क्किरा बाला कामिल तौर पर तहक़ीक़ हो जाएंगे आप की तहरीर नंबर 2, 3, 4 का जवाब शाफ़ी दिया जाएगा। (राक़िम अब्दुल मजीद मुहर्रिर कोठी एफियों शाह-जहाँ पूर)
जवाब पादरी साहब : “वह नबी” से किनाया उस नबी की तरफ़ है जिसकी इस्तिस्ना 18:15-18 में ख़बर है और वो मसीह ईसा है। इला याद रहे कि बाअज़ यहूद का गुमान था कि वो नबी मसीह से अलेहदा (अलग) और एक और ही नबी है जो आने वाला था। युहन्ना 1:20-21 उसने इक़रार किया....कि मैं मसीह नहीं हूँ.....पस आया तू वह नबी है उसने जवाब दिया नही। फिर युहन्ना 7:40-41 “पस भीड़ में से बाअज़ ने ये बातें सुनकर कहा बेशक यही वो नबी है। औरों ने कहा ये मसीह है और बाअज़ ने कहाँ क्यों? क्या मसीह गलील से आएगा? और भी देखो 6:14 ये उन अहले यहूद का ख़्याल था और इस ख़्याल में इस सबब पड़ सकते थे कि किताब इस्तिस्ना में सिर्फ एक नबी से बयान हुआ है और नविश्तों को ना जान कर सिवाए वो नबी के ज़्यादा ना कह सकते थे।
बरख़िलाफ़ उनके बाज़ों का गुमान था कि वो नबी से मुराद मसीह है, जैसा सूख़ार शहर की औरत की बातों से ज़ाहिर है और वो औरत सामरी थी और सामरी सिवाए तौरेत के और किताबों को ना मानते थे। इस की बाबत लिखा है “औरत ने उस से कहा मैं जानती हूँ कि मसीह जो ख़रिसतुस कहलाता है आने वाला है। जब वो आएगा तो हमें सब बातें बता देगा।” (युहन्ना 4:25) ये बात उन लोगों को तौरेत ही से मालूम हुई और इस्तिस्ना वाली ख़बर के सिवाए मसीह के इस से बढ़कर सरीह ख़बर का निशान ना रखते थे। फिर युहन्ना 1:45 में है “फ़लप्पुस ने नतनएल से मिल कर उस से कहा कि जिस का ज़िक्र मूसा ने तौरेत में और नबियों ने किया है वो हमको मिल गया। वो यूसुफ़ का बेटा यिसूअ नासरी है।” इस से ज़ाहिर है कि बाअज़ उस नबी और मसीह को एक ही समझते थे।
वाज़ेह हो कि ये इख़्तिलाफ़ राय उसी ज़माने में जिसको पौने उन्नीस सौ बरस गुज़र गए, रफ़ा हो गया था। वो नबी से सिवाए मसीह के कोई और नबी तसव्वुर करने की गुंजाइश ही ना रही, जैसा कि मसीह और उस के रसूलों के अक़्वाल से मुसर्रेह (वाज़ेह) है जिसमें ज़रा भी कलाम नहीं हो सकता।
अक़्वाल मसीह
“क्योंकि अगर तुम मूसा का यक़ीन करते तो मेरा भी यक़ीन करते। इसलिए कि उस ने मेरे हक़ में लिखा है। (युहन्ना 5:46) फिर उस ने उन से कहा ये मेरी वो बातें हैं जो मैं ने तुम से उस वक़्त कही थीं जब तुम्हारे साथ था कि ज़रूर है कि जितनी बातें मूसा की तौरेत और नबियों के सहीफ़ों और ज़बूर में मेरी बाबत लिखी हैं पूरी हों।” (लूक़ा 24:44)
अक़्वाल रसूल
पतरस रसूल ख़ुदावंद यसूअ मसीह का ज़िक्र करते हुए फ़रमाता है और इस्तिस्ना वाली ख़बर का हवाला देता है “चुनान्चे मूसा ने कहा कि ख़ुदावन्द ख़ुदा तुम्हारे भाइयों में से तुम्हारे लिए मुझसा एक नबी पैदा करेगा। जो कुछ वो तुमसे कहे उस की सुनना। और यूँ होगा कि जो शख़्स उस नबी की ना सुनेगा वो उम्मत में से नेस्त व नाबूद कर दिया जाएगा।” (आमाल 3:22-23) लेकिन ख़ुदा की मदद से मैं आज तक क़ाइम हूँ और छोटे बड़े के सामने गवाही देता हूँ और उन बातों के सिवा कुछ नहीं कहता जिन की पेशगोई नबियों और मूसा ने भी की है। कि मसीह को दुख उठाना ज़रूर है और सब से पहले वोही मुर्दों में से ज़िंदा हो कर इस उम्मत को और गैर क़ौमों को भी नूर का इश्तहार देगा। (26:22-23)
अब ऐ साइल जिस हाल कि बाइबल अपनी नबुव्वत का निशान व पता आप ही बताती है तो ये कमतरीन इस से ज़्यादा और क्या बताए। मस्लिहत यही है और ख़ैर भी इसी में है कि ऐसी नबुव्वत के ख़्याली पते ना पूछें और ना बताएं। मगर हस्ब-ए-ज़रूरत वाक़ई निशान और भी बताए जा सकते हैं। बिलफ़ाल इन यक़ीनी निशानों ही पर इक्तिफ़ा किया जाता है। लेकिन अगर अब भी आपका दिल उन फ़रीसयों के सवाल पर लगा हो कि आया तू वो नबी है? और अगर समझो कि उनका इशारा इस्तिस्ना वाली ख़बर की तरफ़ ना था तो आपको मालूम हो कि उनके ख़्याली वो नबी का बंदा ज़िम्मेदार नहीं है। इस हाल में वो किताबी ना होने के सबब मर्दूद ठहरेगा।
दूसरे सवालमें आपने अजब बातें पेश की हैं। हनूज़ बंदा आपके जवाब में इसी क़द्र इज़्हार करता है कि आज तो आपने ऐसा सवाल किया कल को कोई होमर का बालका या काली दास का हामी या मिल्टन साहब का ख़ैर-ख़्वाह भी यूंही कह उठे कि दो दो सफ़े मिस्ल उनके बना कर पेश करो तो मैं समझता हूँ कि मेरे लिए ये बहुत काम होगा अगर ना करूँ इधर तो क़ुरआन कलाम-ए-ख़ुदा ठहरता है और उधर होमर की एलेडर रब्बानी हुई जाती है और फिर मिल्टन साहब के ख़ैर-ख़्वाह होने का भी ख़ौफ़ है कि कहीं इल्हाम इल्हाम ना पुकार उठें। इसलिए आपको ख़ूब तरह मालूम हो कि ज़ाहिरी सफ़ेदी जिसमें इन्सान के हुनर का कमाल ही क्यों ना हो अंदरूनी ख़ूबीयों या ख़राबियों की निस्बत बहुत हीच जानता हूँ। घास फूस के झोंपड़े पर हाथी दाँत के पारछे की हैसियत का बहुत ही कमक़दर दान हूँ और यक़ीन है कि किसी चीज़ की उम्दगी, पुख़्तगी और फ़ायदा उसी तरीक़ से कमाहक़्क़ा दर्याफ़्त हो सकता है।
फिर आप कहते हो कि जब ये दोनों अम्र आपसे अंजाम को ना पहुंचे तो आप ही फ़रमाइये क्या आपको और आप की किताब को सच्चा समझा जाएगा? एक का तो साथ ही जवाब शामिल है और दूसरा फ़र्ज़ करो मुझसे ना हो सके तो क्या इस से बाइबल झूटी ठहरेगी? आप क्या कहते हो? क्या अगर पारा डाईनरलास्ट के मुवाफ़िक़ एक और किताब ना बन सके तो इस से गबन साहब की तवारीख़ फ़ाल आफ़ दी रोमन एम्पायर झूट ठहरेगी? हरगिज़ नहीं। ज़रा निस्बत का तो ख़्याल कीजिए।
पादरी साहब का दूसरा जवाब : फिर आपने मंशूर मुहम्मदी मत्बूआ 5 ज़ीक़अदा 97 ई॰ में बंदे के जवाब मस्तूरा बाला पर कुछ ना कुछ तो लिख ही दिया। मगर वो जवाब हमारे जवाब की किसी जुज़्व पर असर नहीं करता। चुनान्चे हमारे इस क़ौल पर कि नविश्तों को ना जान कर सिवाए वो नबी के ज़्यादा ना कह सकते थे। आपका ये बयान है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) उन यहूद से जो नविश्तों को ना जान कर सिवाए “वो नबी” के ज़्यादा ना कह सकते थे मुतज़क्किरा बाला के यहूद का क़ौल मोअतबर है जिन्हों ने नविश्तों को जान कर मसीह और वो नबी को अलेहदा (अलग) कर दिया क्योंकि वो नविश्तों से वाक़िफ़ और ये बेचारे नावाक़िफ़, अलीख।
(मसीही जवाब) वाज़ेह हो कि उन ही यहूद से हमारी मुराद है जिन्हों ने इस अम्र में इख़्तिलाफ़ राय ज़ाहिर की। मगर हक़ीक़त में उनकी बातें एक ही नतीजा दिखाती हैं। चुनान्चे जिन्हों ने वो नबी कहा उन्होंने ना जाना कि वो नबी और मसीह एक ही है और जिन्हों ने मसीह कहा वोह भी नासमझ रहे कि मसीह वही नबी है, वर्ना ऐसा ना कहते। पस वो ना-वाक़िफ़ी हर दो क़िस्म के ज़िम्मे है। दोनों ने मसीह और वो नबी को अलेहदा (अलग) समझा। लिहाज़ा एक को दूसरे की बनिस्बत मोअतबर कहने की गुंजाइश नहीं है। फिर यहूद का नविश्तों की उन बातों को ना जानना जो आइंदा की ख़बर देते थे ,एक तहक़ीक़ी अम्र है। चुनान्चे मसीह ने यहूद को ना सिर्फ और बातों की ना-वाक़िफ़ी पर मलामत किया (मत्ती 22:29) बल्कि इस माऊद (वादा किया मसीह) की ख़बरों की निस्बत भी नासमझ ठहराया। (देखो युहन्ना 5:45-46 और लूक़ा 24:45) इसलिए अब मुनासिब है कि दीदा व दानिस्ता ना समझ ना रहें। क़त-ए-नज़र इस से जब युहन्ना 14: 6 पर ग़ौर करते हैं तो इस मौक़े पर ऐसा इख़्तिलाफ़ नहीं पाते। मगर इस बयान से ये पाया जाता है कि तौरेत और अम्बिया की इस क़द्र नबुव्वतों के बावजूद सिर्फ एक बड़े नबी के आने की इंतिज़ारी थी और ये बात दूसरे गुमान की मुईद है और यही गुमान क़वी साबित हुआ। युहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने भी इसी मज़्मून का सवाल किया था। फिर सामरी औरत के बयान पर भी जो हमने पेश किया था कुछ ऐसा ही बे मौक़ा ज़िक्र करते हैं और मतलब की बात का ख़्याल ही नहीं किया, चुनान्चे
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) उस नेक-बख़्त औरत ने तो वो नबी का नाम तक नहीं लिया। सिर्फ मसीह को ख़रसतुस कहा था और ख़रसतुस लफ़्ज़ यूनानी है जिसका तर्जुमा मसीह है।
वाज़ेह हो कि हमने इस औरत के बयान की बाबत लिखा था कि मसीह का आना उन लोगों यानी सामरियों को तौरेत ही से मालूम हुआ और इस्तिस्ना वाली ख़बर के सिवाए मसीह की इस से बढ़कर सरीह ख़बर का निशान ना रखते थे। मगर अब्दुल मजीद साहब के ख़्याल शरीफ़ में ये बात ना आई और ना ये कि मसीह का लफ़्ज़ उनमें कहाँ से आया (तौरेत (जिसके सामरी पाबंद थे सिर्फ एक नबी का पता देती थी और ईसा ने (भी) उस से कहा मैं जो तुझसे बोलता हूँ वही हूँ। सो साहब मन आप इस बात का ज़ोर फिर आज़मादें।
मुकर्रर आपको इस बात का भी ख़्याल रहे कि मसीह कोई ख़ास नाम ना था। मगर आख़िर एक आने वाले का लक़ब पड़ गया और ये लक़ब दाऊद और दानीएल ने मशहूर किया लेकिन ज़रूर था कि किसी मसीह किए गए का पता उन्हें हो और वो पता वो तौरेत में पाते थे और ये बात कि अम्बिया की नबुव्वतें (मसीह के हक़ में) तौरेत की नबुव्वतों की तफ़्सील हैं, इंजील से बख़ूबी ज़ाहिर है। पस अगर सामरी भी मसीह और उस एक नबी को एक ही ना जानते तो ग़ैर मसीह की उम्मीद ना रखते और ना ये लफ़्ज़ उस एक नबी पर बोलते।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) रहा क़ौल फ़ेलबोस का, अगर आपके नज़्दीक बुला दलील मोअतबर है तो और मज़्हब में क्या कीड़े पड़ गए हैं जो उस मज़्हब के पैरौओं का क़ौल मोअतबर नहीं होता।
(मसीही जवाब) वाज़ेह हो कि अगर उस के क़ौल का एतबार नहीं तो उनका गुमान जिनमें से बाअज़ ने वो नबी और बाअज़ ने मसीह कहा मुतलक़ मोअतबर ना होगा। हमारा मतलब तो इन अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) ख़यालात के बयान करने से ये था कि उस वक़्त लोगों में इख़्तिलाफ़ वाक़ेअ हुआ। जिस तरह कोई उन अख़्बार क़दीम को समझा उसी तरह बयान किया। बाअज़ ने उनसे मुख़्तलिफ़ शख्सों की तरफ़ इशारा समझा और बाअज़ ने सबसे एक ही की तरफ़ और कि वो इख़्तिलाफ़ दफ़ाअ हो गया था। इसलिए आप जैसों के ख़यालात की गुंजाइश नहीं है। अगर ना समझो तो हमारा क्या इख़्तियार है और फ़ेलबोस की बाबत याद रहे कि वो अख़्बार अह्दे अतीक़ को ऐसा ही समझे हुए था और जब उस पर वाज़ेह हुआ कि ईसा वो शख़्स है, तब उसने औरों पर भी वही बयान ज़ाहिर किया और ये बात उसने तब ज़ाहिर की जब मसीह ने उसे कहा कि मेरे पीछे हो ले। पस इस पैरवी में वो इस बात की तस्दीक़ भी हासिल कर सकता था और मसीह ने ख़ुद उस के क़ौल के मुवाफ़िक़ फ़रमाया था, जैसा हमने अक़्वाल मसीह में बयान किया। बदीं जिहत उस का क़ौल मोअतबर साबित होता है। बईं हमा ख़्याल रहे कि और मज़्हब में कीड़े पड़ जाना भी कुछ अजब नहीं और ये इस हाल में जब पेशवा को एक बात की ख़बर ना हो और पैरौ तेरहवीं सदी में उसे उस की ख़बर दें यानी सुस्त मुद्दई (मुद्दई भी कहाँ) के चुस्त गवाह बनें। पस आपके जवाब का जो हमारे जवाब के तमहीदी हिस्से पर था ये हाल है, अब बाक़ीमांदा का हाल भी सुनीएगा। अक़्वाल मसीह में हमने बयान किया कि अख़्बार तौरेत व अम्बिया को मसीह ने अपने ऊपर सादिक़ ठहराया मगर आप उनसे क्यों मुँह फेर गए। सिर्फ कह देते कि मोअतबर नहीं हैं तो आपकी तरफ़ से ये जवाब हो जाता और रसूलों के अक़्वाल की निस्बत तो ऐसी तहरीर से ना चौके। चुनान्चे पतरस रसूल की निस्बत ऐसा ही लिखते हो। मगर अन्जाने में साबित करते हो कि इस्तिस्ना वाली ख़बर मसीह की ख़बर है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) दूसरे ये कि जब जनाब पतरस ख़ुद आपके नज़्दीक मोअतबर शख़्स नहीं तो हमारे लिए उनका क़ौल सनद हो सकता है? आपको पतरस का क़ौल ही लिखना मुनासिब ना था, अलीख (आखिर तक) इस पर मत्ती 26:74 का हवाला दिया है जहां पतरस के इन्कार का ज़िक्र है और ग़लतीयों के ख़त:2 11 जिसमें पतरस के मलामत किए जाने का बयान है।
(मसीही जवाब) देखिए साहब आपको उस के इन्कार का एतबार आ गया और इक़रार का एतबार ना आया। ये क्या चालाकी है। पस मुक़ाम मुक़द्दम की बाबत मालूम हो कि हवारी हनूज़ मसीह के अक़्वाल व अफ़आल के गवाह होने पर बिलयक़ीन आमादा ना हुए थे। मगर जब मसीह मुर्दों में से जी उठा और रूह क़ुद्दुस उन पर नाज़िल हुआ, तब उन्होंने बिलयक़ीन वो गवाही दी जो इंजील में शुरू से आख़िर तक मुंदरज है। पस हालत साबिक़ा में पतरस ने मसीह से इन्कार किया मगर बाब 26 की आख़िरी आयत में है कि जब उस को यसूअ की बात याद आई तो बाहर जा के ज़ार-ज़ार रोया। फिर जब मसीह मुर्दों में से जी उठा तो तीन बार पतरस ने मसीह के रूबरू इक़रार किया कि ख़ुदावंद मैं तुझे प्यार करता हूँ और मसीह ने उसे गल्लाबानी सपुर्द की। बाद उस के रूहुल-क़ुद्दुस रसूलों पर नाज़िल हुआ तो पतरस ने वो बातें बयान कीं जो अक़्वाल रसुल में मज़्कूर हुईं। पस पतरस का इन्कार इस शहादत पर असर नहीं करता। वो इन्कार उस के दिल की कमज़ोरी से हुआ था और ये शहादत उसने इम्दादे रब्बानी से दी और अगर कुछ असर करता है तो ये कि उस की गवाही को और भी मोअतबर ठहराता है कि जिसने पहले शक किया और इन्कार किया अब क़ाइल हो उन्हीं बातों का बयान बालसबूत (सबूत के साथ) करता है। इसलिए जब उस के इन्कार से एतबार कम हो तो उस के इक़रार वग़ैरह से क़ायम होता है और आप जैसों की ऐसी तहरीर इस दफ़ीअ इन्कार की रु से तब ही दफ़ाअ हो चुकी थी। लिहाज़ा आपका कहना कि पतरस ख़ुद आपके नज़्दीक मोअतबर शख़्स नहीं, सरासर ग़लत है क्योंकि पतरस हमारे नज़्दीक मोअतबर शख़्स है।
फिर पतरस का मलामत किया जाना उस की अपनी ज़ाती दिली कमज़ोरी के सबब हुआ और हमारा एतबार उस के उन कामों और क़ोलो पर है जो रूह क़ुद्दुस की मदद से हुए और नविश्तों की शरह रसूल इसी क़ुव्वत रब्बानी से किया करते थे। पस ये दोनों बातें पतरस के एतबार से कुछ ताल्लुक़ नहीं रखतीं। उस के बयान जो पेश-ए-नज़र हैं रूह के बयान हैं। हाँ मसीह के सिखाए हुए बयान हैं जिनमें मुतलक़ शक नहीं है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) आपने जनाब मसीह को मानिंद मूसा तेज़ी अक़्ल से बनाया है, मगर ये ख़्याल आपका मुहाल दर मुहाल बल्कि मह्ज़ वहम व ख़्याल है क्योंकि उस की ताक़त बेहद है। हम उस की कारीगरी हैं। (देखो सफ़ा 93 नूर अफ़्शां जिल्द 8 मत्बूआ 18 मार्च 1880 ई॰) भला ईसाई तो मसीह की कारीगरी ठहरे, हज़रत मूसा की कारीगरी कौन सी मख़्लूक़ है। अगर कोई मख़्लूक़ कारीगरी मूसा की ना हो तो हज़रत मसीह क्योंकर मानिंद मूसा के हो सकते हैं। इस का जवाब सँभल कर लिखिए, अलीख। (आखिर तक)
(मसीही जवाब)आप भी ज़रा हवास क़ायमा से सुनिए कि जब मूसा और मसीह में मुवाफ़िक़त बताई जाती है तो मसीह की उलूहियत से नहीं मगर इन्सानियत से और इस हालत में हो कर मसीह का रसूल होना मुसल्लम है, जैसा उस ने ख़ुद फ़रमाया और अक़्वाल रसुल से भी मुसर्रेह (ज़ाहिर) है। (देखो आमाल 2:22 और युहन्ना 5:26-38) फिर जब पौलुस रसूल मूसा और मसीह में मुशाबहत बयान करता है तो उस की ज़ाती मंजिलत को यगाना ठहराता कि “मूसा तो उस के सारे घर में ख़ादिम की तरह दियानतदार रहा ताकि आइंदा बयान होने वाली बातों की गवाही दे। लेकिन मसीह बेटे की तरह उस के घर का मुख़्तार है और उस का घर हम हैं बशर्ते के अपनी दिलेरी और उम्मीद का फ़ख़्र आखिर तक मज़बूती से क़ाइम रखें।” (इब्रानियों 3:5-6) इंतिहा। पर पेशतर इस से जब रसूल मसीह की रिसालत और कहानत का ज़िक्र करता है तो यूं कहता है “……इस रसूल और सरदार काहिन यिसूअ पर गौर करो जिस का हम इक़रार करते हैं। जो अपने मुक़र्रर करने वाले के हक़ में दियानतदार था जिस तरह मूसा उस के सारे घर में था।” (आयत 1-2) इस से मालूम करो कि मसीह क्योंकर मूसा की मानिंद ठहराया जाता है और याद रहे कि मूसा की ख़बर में मौजूद है कि मेरी मानिंद एक नबी बरपा करेगा। पस मुशाबहत भी ओहदा नबुव्वत में है ना कि इधर उधर की बातों में, क्योंकि सिकंदर-ए-आज़म भी कई एक बातों में मूसा के मुवाफ़िक़ हो सकता है।
पस ज़ाहिर है कि इस्तिस्ना वाली ख़बर मसीह पर सादिक़ आती है क्योंकि इलावा इन हवालों के जो हमने बयान किए थे मसीह ने मूसा और सब नबियों से शुरू कर के वो बातें जो सब किताबों में उस के हक़ में हैं उनके लिए तफ़्सीर कीं। (लूक़ा 24:27) ग़ौर करो कि इस हाल में हज़रत मुहम्मद साहब के लिए जगह नहीं है। अब आपके दावे के लिए देर हो गई है और ये भी हम आपसे कहे देते हैं कि यहूद के ख़यालों पर कहीं धोका ना खाना क्योंकि उन्होंने अपने ख़यालों से आप (खुद) कई मर्तबा फ़रेब खाया और खिलाया है। अह्दे अतीक़ की सहीह तफ़्सीर अह्देज दीद में मौजूद है इस को पढ़ो बचोगे।
दूसरा हिस्सा
फ़ारक़लीत (فارقلیط) पर गुफ़्तगु
यानी मुहम्मद अब्दुल मजीद साहब ज़िला गोदावरी के दावे की तफ़्तीश
मंशूर मुहम्मदी मत्बूआ 25 ज़ीक़अदह 97 हिज्री नंबर 33 जिल्द 9 में मुहम्मद अब्दुल मजीद साहब (अज़ अलवर ज़िला गोदावरी) ने कमतरीन के मज़ामीन दरबारा अदमे ज़रूरते क़ुरआन का जवाब तहरीर फ़रमाया है और कहते हैं कि आपकी अदम ज़रूरत नबी व क़ुरआन मजीद के लिखने से हज़रत मसीह और किताब मुक़द्दस पर नुक़्स लाज़िम आते हैं और उन आयात इंजीली को पेश किया है जिनमें मसीह ने रूहुल-क़ुद्दुस का वाअदा फ़रमाया है और आप उन को हज़रत मुहम्मद साहब के हक़ में बताते हैं और इस से मुहम्मद और क़ुरआन की ज़रूरत निकालते हैं। पस हम उनकी वजूहात की तफ़्तीश कर के नाज़रीन हक़ शनास पर वाज़ेह करते हैं कि मसीह की मुराद मुहम्मद (साहब) से नहीं है बल्कि रूह क़ुद्दुस से है जो उन्हीं अय्याम में रसूलों पर नाज़िल हुआ और यूं किसी दूसरे फ़र्ज़ी नबी मऊद को ख़ारिज किया।
क़ौलुह : (मौलवी साहब का कहना) लफ़्ज़ फ़ारक़लीत (فارقلیط) कि जिसका तर्जुमा मुहम्मद है और अगरचे मुतर्जिमों ने इस तर्जुमे का तसल्ली देने वाला रूहुल-क़ुद्दुस, रूह-उल-सदक़, हाकिम, जहान का सरदार वग़ैरह किए हैं, मगर ताहम हमारे नबी मतलब की ताईद है।
(मसीही जवाब) वाज़ेह हो कि लफ़्ज़ “αρακλητο” (पाराकलीटास) जो इंजील युहन्ना 14:16 में मुस्तअमल हुआ है और जिसका तर्जुमा तसल्ली देने वाला किया गया है। इस का तर्जुमा मुहम्मद नहीं है। ये ग़लत बात है और इस लफ़्ज़ के और मअनी ये हैं यानी वकील, मददगार और इस माअनी से ये लफ़्ज़ युहन्ना के पहले ख़त 2:1 में मसीह के हक़ में बोला गया है। मगर वो लफ़्ज़ जिसके मअनी मुहम्मद हैं वो ’’ ‘‘ (पीरी किलोटॉस (پیری کلو ٹاس) है। इन दोनों लफ़्ज़ों का मुसद्दिर भी जुदा है। फिर वाज़ेह हो कि मुतर्जिमों ने लफ़्ज़ मुक़द्दम का तर्जुमा रूहुल-क़ुद्दुस और रूह-उल-सदक़ नहीं किया, मगर अव्वल मसीह ने और फिर मुक़द्दस रावियों ने उसको तसल्ली देने वाले रूहुल-क़ुद्दुस और रूह हक़ के नाम से बयान किया है यानी ये उसी तसल्ली देने वाले के और नाम हैं ना कि पाराकिलेटॉस के मुख़्तलिफ़ मअनी हैं जैसा आप कहते हैं और जहान का सरादर लिखते वक़्त चाहीए था कि इस आयत का पता देते जहां ये लफ़्ज़ रूहुल-क़ुद्दुस या तसल्ली देने वाले पर बोला गया है, क्योंकि युहन्ना 12:31 में है “इस जहान का सरदार निकाल दिया जाएगा।” फिर 14:30 में है “इस जहान का सरदार आता है और मुझमें उस की कोई चीज़ नहीं।” फिर 16:11 “अदालत के बारे में इसलिए कि दुनिया का सरदार मुजरिम ठहराया गया है” और भी देखो 2 कुरंथियो 4:4 और इफ्सियों 12:6 इन मुक़ामों में (लफ्ज़) जहान का सरदार और हाकिम शैतान पर बोले गए हैं। आपकी किस सरदार से मुराद है? क्या इन्हीं मुक़ामों की तरफ़ इशारा है? अगर है तो ख़ूब है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) अगर ईसाई ये एतराज़ करे कि लफ़्ज़ फ़ारक़लीत (فارقلیط) शैतान के लिए बोला गया है तो मैं जवाब देता हूँ ये एतराज़ उस का सरासर ग़लत है।
(मसीही जवाब) हाँ साहब इस पाराकलीटॉस को शैतान समझना सरासर ग़लत है, मगर बताइए कि किस ईसाई ने ये एतराज़ किया या आप ही घड़ घड़ के उनके ज़िम्मे लगाते हो। ईसाई ये एतराज़ हरगिज़ नहीं करते। इसलिए आपकी बाक़ी तशरीह सब रायगां ठहरी। ख़्वानख़्वाह एक कालम स्याह कर डाला है। मगर इस तशरीह में से एक बात का इज़्हार हम किए भी देते हैं। चुनान्चे
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) क्योंकि आंहज़रत साहब ने उन लोगों को जो हज़रत मसीह को रसूल नहीं जानते थे और उनकी रिसालत के क़ाइल नहीं हुए थे, सज़ा दी वग़ैरह।
(मसीही जवाब) साहब मन ये काम तो हज़रत के पहले ही हो चुका था। ऐसा कि ज़माना मसीह (यहूदी) मुनकिरों ने ऐसी सज़ा पाई कि मुल्क से बे मुल्क हुए, क़ौम होने से मौक़ूफ़ हुए, हज़ार-हा बर्बाद हुए और उन की नस्ल आज तक इस सज़ा का असर भोग रही है। हज़रत ने क्या सज़ा दी मारे हुओं को मारा। वो भी अपने मतलब के लिए इस में मसीह की क्या ख़ातिरदारी की। अगर आप इस अम्र से ख़ूब वाक़िफ़ होते तो ऐसा ख़्याल हरगिज़ ना करते क्योंकि हज़रत पहले तो यहूद की ख़ातिरदारी करते रहे और उनके तरीक़ की बातें इख़्तियार कीं, जैसे नमाज़ का रुख बैतूल अक़्सा की तरफ़ वग़ैरह। लेकिन जब देखा कि यहूदी मेरी रिसालत नहीं मानते और राज़ी नहीं होते और धोके देते हैं। (सूरह बक़रह आयत 120 और बनी-इस्राईल आयत 78) तो उनको लानती और बे ईमान कहना शुरू कर दिया। (सूरह निसा रुकूअ 42 आयत 43) और आख़िर उनसे लड़ाई शुरू कर दी।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) अगर फिर कोई ईसाई ये एतराज़ करे कि तसल्ली देने वाले से रूहुल-क़ुद्दुस मुराद है तो मैं फिर यही जवाब देता हूँ कि ये दावा भी उनका ग़लत है, क्योंकि रूहुल-क़ुद्दुस कबूतर की शक्ल में हज़रत मसीह पर पहले ही नाज़िल हो चुका है। (मरक़ुस बाब 10) और ख़ुद हज़रत मसीह आस्मान पर जाने से पेशतर रूहुल-क़ुद्दुस अपने हवारियों को दे चुके थे। (युहन्ना 20:22) तो फिर इस सूरत में रूहुल-क़ुद्दुस का नाज़िल होना ग़लत है क्योंकि रूहुल-क़ुद्दुस तो हवारियों में मौजूद था, फिर नाज़िल होने की क्या हाजत थी?
(मसीही जवाब) वाज़ेह हो कि ये बात सहीह है और आपका इसे ग़लत कहना ग़लत है क्योंकि रूहुल-क़ुद्दुस के मुतफ़र्रिक़ काम हैं। चुनान्चे मसीह पर बशक्ल कबूतर नाज़िल होना इसलिए हुआ कि मसीह को ना सिर्फ ममसोह करे। (आमाल 10:38) बल्कि युहन्ना को और औरों को भी यक़ीन हो कि मसीह ख़ुदा का बेटा और वही है जो आने वाला था (युहन्ना 1:33-34) इसी तरह युहन्ना 20:22 में वो बात हासिल नहीं है जो पैंतीकोस्त के दिन वाक़ेअ हुई, यानी वो सब रूहुल-क़ुद्दुस से भर गए और ग़ैर ज़बानें जैसी रूह ने उन्हें बोलने की क़ुदरत बख़्शी बोलने लगे। (आमाल 2:4) पस मालूम करो कि रूहुल-क़ुद्दुस का वक़्त ब-वक़्त दिया जाना ख़ास मतलब से ख़ाली नहीं था और ज़ाहिर है कि ख़ुदा का रूह अम्बिया-ए-साबक़ीन के साथ पहले भी हुआ करता था, मगर वो शराकत इस नुज़ूल की माने नहीं फिर रूहुल-क़ुद्दुस के हवारियों में मौजूद होने से क्या समझते हो? हम तो ये जानते हैं कि रूहुल-क़ुद्दुस की बरकतें जुदागाना और बतदरीज हुआ करती हैं। पैंतीकोस्त के दिन से पेशतर एक बरकत उन्हें दी गई मगर ये और ज़रूरी बरकतों को नहीं रोकती। पस रूहुल-क़ुद्दुस का बलिहाज़ ज़माने के (यानी पहले या पीछे के) किसी में मौजूद होना रूह की किसी बरकत या बरकतों का मौजूद होना है, ना ये कि रूहुल-क़ुद्दुस उस में या उनमें घुस गई और फिर बाहर ना निकली। इलावा इस के याद रहे कि तसल्ली देने वाले से ज़रूर रूहुल-क़ुद्दुस ही मुराद है। देखो युहन्ना 14:26 “लेकिन वो तसल्ली देने वाला जो रूहुल-क़ुद्दुस है, अलीख।” अगर ग़ौर करके देखो तो यही एक ही फ़िक़्रह आपकी सारी चूँ चरां को दूर व दफ़ाअ करता है।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) फिर अगर कोई ईसाई ये कहे कि उस वक़्त रूहुल-क़ुद्दुस थोड़ा मिला था मगर मसीह के आस्मान पर जाने के बाद अज़्कामिल रूहुल-क़ुद्दुस मिला, तब भी मैं इस कहने को ग़लत जानता हूँ क्योंकि ख़ुदा कुछ पैमाइश करके रूह नहीं देता (युहन्ना 3:34 फ़िक़्रह)
(मसीही जवाब) वाज़ेह हो कि थोड़ा या बहुत कहना तो आपकी बात है। मगर हक़ीक़त-ए-हाल वो है जो हमने ऊपर बयान किया यानी रूहुल-क़ुद्दुस का वक़्तन-फ़-वक़्तन दिया जाना रूह की ख़ास बरकतों और नेअमतों का दिया जाना है जो मुख़्तलिफ़ और बतदरीज हुआ करती हैं और हवारियों को भी इसी तरीक़ से अता हुईं। “नेअमतें तो तरह तरह की हैं मगर रूह एक ही है। और ख़िदमतें भी तरह तरह की हैं मगर ख़ुदावन्द एक ही है। और तासीरें भी तरह तरह की हैं मगर ख़ुदा एक ही है जो सब में हर तरह का असर पैदा करता है। लेकिन हर शख़्स में रूह का ज़ुहूर फ़ाइदा पहुंचाने के लिए होता है। क्योंकि एक को रूह के वसीले से हिकमत का कलाम इनायत होता है और दूसरे को इसी रूह की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ इल्मिय्यत का कलाम, किसी को इसी रूह से ईमान और किसी को इसी एक रूह से शिफ़ा देने की तौफ़ीक़, किसी को मोअजज़ों की कुदरत किसी को नबुव्वत, किसी को रूहों का इम्तियाज़, किसी को तरह तरह की ज़बानें, किसी को ज़बानों का तर्जुमा करना, लेकिन ये सब तासीरें वही एक रूह करता है और जिस को जो चाहता है बाँटता है।” (1 कुरंथियो 12:4-11) और हम में से हर एक पर मसीह की बख़्शिश के अंदाज़े के मुवाफ़िक़ फ़ज़्ल हुइ है।” (इफ्सियों 4:7) और वो हवाला जो आपने पेश किया है सो याद रहे कि वो बात मसीह अपने हक़ में कहता है, ना कि हर एक इन्सान के, क्योंकि जैसा बयान हुआ इन्सानों को रुहानी बरकात अंदाज़े के मुवाफ़िक़ मिलती हैं, “और कलाम मुजस्सम हुआ और फ़ज़्ल और सच्चाई से मामूर हो कर हमारे दर्मियान रहा....”...“क्योंकि उस की मामूरी में से हम सबने पाया यानी फ़ज़्ल पर फ़ज़्ल।” (आयत 16) “क्योंकि बाप को ये पसंद आया कि सारी मामूरी उसी में सकूनत करे।” (कुलस्सियों 1:19)
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) फिर अगर कोई ईसाई ये कहे कि रूहुल-क़ुद्दुस से हज़रत जिब्राईल मुराद है तब भी में इस दावे को ग़लत जानता हूँ, अलीख।
(मसीही जवाब) ये बात आपकी एक और बनावट है। ईसाई हरगिज़ रूहुल-क़ुद्दुस से जिब्राईल मुराद नहीं लेते। रूहुल-क़ुद्दुस को जिब्राईल कहना मुहम्मदियों की इस्तिलाह है। चुनान्चे सुरह बक़रह आयत 253 रुकूअ 33 में है “और ज़ोर दिया उस को (ईसा को) रूह पाक से” इस पर सेल साहब (मुतर्जिम क़ुरआन अंग्रेज़ी) जलाल उद्दीन वग़ैरह के एतबार पर लिखते हैं कि हम ये ख़्याल ना करें कि मुहम्मद साहब इस जारूहुल-क़ुद्दुस को मसीही मुस्लिम माअनों में समझता है। मुफ़स्सिर कहते हैं ये रूह पाक जिब्राईल फ़रिश्ता था जिसने ईसा की तक़्दीस की और हमेशा उस की ख़िदमत करता था। पस साहब आप काही को ऐसे एतराज़ ईसाईयों की तरफ़ गाँठ रहे हैं।
क़ौलुह : (मौलवी साहब) अगर तसल्ली देने वाले से रूहुल-क़ुद्दुस मुराद होती तो मोल्टानस ने क्यों दावा किया कि मैं तसल्ली देने वाला हूँ और बहुत से लोग उस के पैरौ हो गए।
(मसीही जवाब) मोल्टानस ने इस लिए ऐसा दावा किया कि बिद्दती शख़्स था और इंजील के बरख़िलाफ़ करना चाहा। मालूम हुआ कि आपको कोई और ठिकाना ना मिला तो एक मुल्हिद के दावे को सनद समझा है और इंजील युहन्ना 14:26 के बयान से कतराए जिसमें मौजूद है कि वो तसल्ली देने वाला जो रूहुल-क़ुद्दुस है, अलीख और ना आपको जम्हूर मुतक़द्दमिन की परवाह रही इसलिए कि एक मुल्हिद का दावा जो नज़र पड़ा। मगर तिस पर (इस पर) भी देखिए साहब कि हज़रत मुहम्मद साहब ने तो वो तसल्ली देने वाला होने का दावा भी नहीं किया, लेकिन एक ग़लत क़ौल मसीह के ज़िम्मे लगाया जो सूरह सफ़ में मज़्कूर है यानी अहमद नामे एक रसूल की ख़बर। हालाँकि मसीह ने एक तसल्ली देने वाला यानी रूहुल-क़ुद्दुस की ख़बर दी थी और इस क़ौल को मुहम्मद (साहब) के हक़ में बयान करना सरीह कुफ़्र है। फिर उस के बाद तीसरी सदी में माअनीज़ फ़ारसी (याकसदी) ने भी ये दावा इसी तरह किया लेकिन उनके इस दावा करने से यानी रूहुल-क़ुद्दुस और तसल्ली देने वाले में इम्तियाज़ कर के अपने अपने तईं तसल्ली देने वाला क़रार देने से उन का कुछ मतलब था। चुनान्चे मोल्टानस ने ये समझा कि मसीह और उस के शागिर्दों ने एक ग़ैर मुकम्मल तरीक़ा सिखाया था और आप उस की तक्मील करने का इरादा कर बैठा और इस काम के लिए वो तसल्ली देने वाला होने का दावा किया और माअनीज़ ने जब मसीही किताबें देखीं और अपने पुराने तरीक़ के मुवाफ़िक़ और मुख़ालिफ़ समझा तो ईस्वीयत को अपने दज्जाली तरीक़ के साथ मख़्लूत करने का इरादा किया। इस मतलब की तहसील की सहूलत के वास्ते उस ने (ये कह कर कि मसीह ने तरीक़ नजात जो कामिल तौर से बयान नहीं किया) दावा किया कि मैं वो तसल्ली देने वाला हूँ जिसका मसीह ने वाअदा किया था और अपने इस और उर्वाही ख़यालों की ताईद और तशरीह के लिए उसने अनाजील में ख़राबियां पड़ जाने का दावा किया और आमाल रसूल को बिल्कुल रद्द किया और उनके एवज़ में एक अपनी इंजील अर्निंग नामे क़ायम की। पस साहब उनकी नीयत में फ़र्क़ था वर ना ऐसा दावा ना करते। अब कहीए क्या ऐसों की समझ को सनद समझ चुके हो। अगर उनका दावा सहीह है तो उन पर से हटा के हज़रत मुहम्मद पर क्यों जमाते हो। उन्ही को वो तसल्ली देने वाला होने दो। उन्होंने अपने दावे की वजह तस्मीया (नाम रखने की वजह) भी बयान की, अपनी अपनी किताबें भी चलाईं और मोलटानस ने नबुव्वतें भी कीं वग़ैरह तो उन्हीं को वो माऊदह क्यों नहीं मान लेते और नाहक़ इस तज़बज़ब में पड़ते हो कि इन बिद्दतीयों ने तसल्ली देने वाला होने का दावा किया इसलिए मुहम्मद वही तसल्ली देने वाला है। इस से तो मुहम्मद साहब मिस्ल इनके एक बिद्दती ठहरेंगे और मसीह ऐसे लोगों के हक़ में उम्दा ख़बर क्योंकर दे सकता था। अपने बाद आने वाले मुख़ालिफ़ों को उसने और ही नामों से बयान किया है, ना कि तसल्ली देने वाले, रूह हक़ और रूहुल-क़ुद्दुस से।
क़ौलुह : (मौलवी साहब ने कहा) फिर अगर कोई ईसाई कहे कि सुनने वाले से भी रूहुल-क़ुद्दुस मुराद है तो मैं कहता हूँ कि ये कहना भी उस का ग़लत है क्योंकि बमूजब अक़ाइद ईसाईयों रूहुल-क़ुद्दुस ख़ुद ख़ुदा है तो फिर वो किस से सुनता है और इस सूरत में कहने वाला रूहुल क़ुद्दुस से भी बड़ा ठहरा।
(मसीही जवाब) अगर ईसाईयों के पूरे अक़ीदे को ख़्याल करते तो मालूम करते कि किस से सुनता है यानी तस्लीस का एक उक़नूम दूसरे से सुनता है और दूसरा इस से कहता है। मगर सलासा अक़ानीम का बाहम बोलना और सुनना उनके ज़ाती ईलाही तर्ज़ पर है जिसको इन्सान मालूम नहीं कर सकता और ना इन्सानी तरीक़ पर है। अलबत्ता इन्सानी मुहावरा उन पर लगाया गया है। लेकिन फिर भी उनकी हमकलामी इन्सान के लिए एक इसरार ही है यानी किस तरह अक़ानीम तस्लीस कहते और सुनते हैं बयान नहीं हो सकता और इसलिए उनके छोटे और बड़े होने का ख़्याल भी इन्सानी ख़्याल है जो उन पर सादिक़ नहीं आता।
आख़िर में हम सिर्फ चंद मुक़ामात का मुक़ाबला कर के बख़ूबी ज़ाहिर करते हैं कि तसल्ली देने वाला और रूह अल-क़ूदस में तमीज़ नहीं हो सकती और कि वो एक ही मौऊद के मुतफ़र्रिक़ नाम हैं। देखो युहन्ना 14:16-17......वो तुम्हें दूसरा मददगार (तसल्ली देने वाला)....यानी रूह-ए हक़....”... “लेकिन मददगार यानी रूहुल-क़ुद्दुस जिसे बाप मेरे नाम से भेजेगा लेकिन जब वो मददगार आएगा....यानी रूह-ए-हक़ जो बाप से सादिर होता है,...(15:26)...इन तीनों मुक़ामों से मालूम करो कि मददगार (तसल्ली देने वाला),...रूह हक़ और रूहुल-क़ुद्दुस एक ही है। मुक़द्दस रावी उनके इम्तियाज़ से नावाक़िफ़ हैं। अगर दो मौऊद मक़्सूद होते तो रसूल ऐसा ही कहते और करते और मसीह भी फ़र्मा देता कि एक मौऊद तो आया कि आया और दूसरा छठी सदी में आएगा या किसी और तरह से दोनों में फ़र्क़ ज़ाहिर कर देता। पस साहब आपकी हर एक वजह की तफ़्तीश हो चुकी, इस से आप ख़ूब सोच कर मालूम करो कि नबी और क़ुरआन की अदम ज़रूरत ठीक है।