1891-1972

ALLAMA BARAKAT ULLAH, M.A.F.R.A.S

Fellow of the Royal Asiatic Society London

ये रिसाला नेशनल क्रिस्चियन काउंसल आफ़ इंडिया के

लिट्रेचर बोर्ड की माली इम्दाद से शाएअ किया गया

अल-ग़ज़ाली

बाब अव़्वल

ग्यारहवीं सदी

दीबाचा

इस रिसाले का बेशतर हिस्सा अख़्बार नूर-अफ़्शां में बज़ेरे-उन्वान, “अनाजील-ए-अर्बा की चंद आयात का नया तर्जुमा” छप चुका है।

अहबाब तक़ाज़ा कर रहे हैं कि इन मज़ामीन को किताबी सूरत में शाएअ किया जाये। पस इन को मुनासिब रद्दो-बदल और ईज़ादियों के बाद शाएअ किया जा रहा है। मेरी दुआ है कि उर्दू ख़वान मसीही इस के मुतालए से इन्जील-ए-जलील की आयात और सय्यदना मसीह के कलिमात-ए-तय्यिबात को कमा-हक़्क़ा समझ कर अबदी ज़िंदगी के वारिस हो जाएं। आमीन

कोर्ट रोड अमृतसर पंजाब

अहकर-उल-ईबाद

बरकत-उल्लाह

यक्म जून 1953 ई॰

अनाजील-ए-अर्बा की चंद आयात का नया तर्जुमा

इन्जील-ए-मत्ती

बाबा आयत बाब आयत बाब आयत बाब आयत बाब आयत
2 23 5 48 6 13 8 9 10 2
10 4 10 10 11 12 13 13 26 41
26 45 27 32 72

इन्जील-ए-मर्क़ुस

बाब आयत बाब आयत बाब आयत बाब आयत बाब आयत
3 19 4 12 6 8 9 29 9 49
9 50 10 12 10 32 14 38 14 41
15 21 16 2

इन्जील-ए-लूक़ा

बाब आयत बाब आयत बाब आयत बाब आयत बाब आयत
1 39 2 1 6 16 6 40 7 8
8 10 8 27 8 39 9 3 9 10
10 4 11 4 11 48 13 31 13 32
13 33 16 8 16 9 16 16 21 5
22 40 22 46 23 26 24 32

इन्जील-ए-यूहन्ना

बाब आयत बाब आयत बाब आयत बाब आयत बाब आयत
1 13 1 15 1 18 3 13 3 33
3 34 5 44 6 21 6 32 7 3
7 27 7 28 7 37 7 38 8 56
10 7 11 49 12 7 13 32 14 2
14 31 20 2 20 17

हिस्सा अव़्वल

अनाजील-ए-अर्बा की ज़बान

यूनानी लफ़्ज़ इन्जील के मअनी बशारत या ख़ुशख़बरी के हैं। मसीही इस्तिलाह में ये लफ़्ज़ उमूमन उन सत्ताईस (27) किताबों के मजमूए के लिए इस्तिमाल किया जाता है जो “अह्दे-जदीद” में शामिल हैं। इलावा अज़ीं लफ़्ज़ “इन्जील” का इतलाक़ इस मजमूए की पहली चार किताबों पर भी किया जाता है जिनमें हज़रत कलिमतुल्लाह सय्यदना मसीह की ताअलीम और सवानिह हयात (ज़िन्दगी) वग़ैरह दर्ज हैं। मसलन मत्ती की इन्जील से मुराद वो किताब है जिसमें हज़रत मत्ती ने आपकी ताअलीम और सवानिह ज़िंदगी वग़ैरह जमा किए थे। अला हाज़ा-उल-क़यास (इसी तरह) मर्क़ुस की इन्जील, लूक़ा की इन्जील, और यूहन्ना की इन्जील से मुराद वो रिसाले हैं जो उन हज़रात ने लिखे थे जिनमें उन्हों ने अपने-अपने नुक्ता निगाह के मुताबिक़ कलिमतुल्लाह (मसीह) की ताअलीम और वाक़ियात ज़िंदगी वग़ैरह जमा किए थे। ये ताअलीम आपकी जाँफ़िज़ा “बशारत” थी और आप की ज़िंदगी के वाक़ियात इस बशारत को वाज़ेह करते थे और आप के पैग़ाम का अमली नमूना थे।

हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने ख़ुद ना कोई इन्जील लिखी और ना लिखवाई। लेकिन आप अपने पैग़ाम को “इन्जील” या, “ख़ुशख़बरी” कहते थे। (मर्क़ुस 1:14 ता 15) आपकी मादरी ज़बान अरामी थी। लेकिन अनाजील-ए-अर्बा जिनमें आपकी ताअलीम, सवानिह हयात, सलीबी मौत और सऊद-ए-आस्मानी का ज़िक्र है यूनानी ज़बान में हैं। इस की क्या वजह है? क्या ये अनाजील पहले-पहल अरामी ज़बान में लिखी गई थीं? अगर लिखी गई थीं तो वो कब अहाता तहरीर में आईं? मौजूदा यूनानी अनाजील कब और किन हालात के अंदर मअरज़े वजूद में आईं। उन के यूनानी मतन का अरामी अनाजील से क्या ताल्लुक़ है?

इस हिस्से में हम इख़्तिसार के साथ इन अहम सवालों पर ग़ौर करेंगे। अगरचे अनाजील आस्मानी किताबें हैं ताहम वो दीगर दुनियावी कुतुब की तरह इन्सानों के ज़रीये तालीफ़ की गईं। उन की ज़बान, उन के मोलफ़ीन की तर्ज़-ए-तहरीर, मुहावरात, नुक्ता निगाह वग़ैरह में फ़र्क़ है, अगरचे उनका मौज़ू एक ही है। लेकिन यहां हम उन के ख़ास मौज़ू पर बह्स नहीं करेंगे। बल्कि इन अनाजील के माख़ज़ और उन के मतन की सेहत पर बह्स करेंगे और उन को इन्ही उसूल-ए-तन्क़ीद की महक (कसौटी) पर परखेंगे जो अदबी दुनिया में तस्लीम किए गए हैं और जिन के मुताबिक़ फ़ी ज़माना, तमाम मुहज़्ज़ब अक़्वाम की लिट्रेचर की किताबों की छानबीन की जाती है। इन तन्क़ीदी उसूलों के मातहत हम बैरूनी शहादत यानी तारीख़ी वाक़ियात और अंदरूनी शहादत यानी बाइबल की आयात से ही काम लेंगे और कलीसियाई रिवायत वग़ैरह से कुछ सरोकार नहीं रखेंगे।

फ़स्ल अव़्वल

पहली सदी मसीही में अर्ज़-ए-मुक़द्दस की ज़बानें

अरामी ज़बान का उरूज व ज़वाल

पहली सदी मसीही में अर्ज़-ए-मुक़द्दस में चार ज़बानें बोली जाती थीं। अहले-यहूद अरामी बोलते और इब्रानी समझ सकते थे। ग़ैर-यहूद की ज़बानें लातीनी और यूनानी थीं। अहले-यहूद की कुतुब-ए-मुक़द्दसा इब्रानी ज़बान में थीं और यह किताबें अस्ल ज़बान में यरूशलेम की हैकल और दीगर जगहों के यहूदी इबादत ख़ानों में पढ़ी जाती थीं। लेकिन इब्रानी ज़बान अहले-यहूद के मदरिसा दीनियात और उलमा के तब्क़े तक ही महदूद थीं। अवामुन्नास अरामी ज़बान बोलते थे। (आमाल 1:19, 21:40, 22:2 वग़ैरह) हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की पैदाइश से सदीयों पहले अरामी ने इब्रानी की जगह ग़ज़ब करली थी। दोनों ज़बानें सामी थीं और एक दूसरे से मुताल्लिक़ थीं। अरामी भी एक क़दीम ज़बान थी। अहद-ए-अतीक़ से पता चलता है। कि ख़ास मिसोपोटामियह में अरामी आबाद थे। ये वो खित्ता था जो दजला, फुरात और शुमाल की जानिब सिलसिला कोहसार और सहरा के दर्मियान है और यही वजह थी कि यूनानियों ने इस ख़ित्ते का नाम मिसोपोटामियह रखा था। पैदाइश की किताब से पता चलता है कि हज़रत इब्राहिम, बीबी सारा, हज़रत याक़ूब, उन की इज़्दिवाज़ बीबी लियाह और बीबी राखिल सर-ज़मीन हारान के थे। हज़रत याक़ूब के ख़ुसर बेतवाईल अरामी थे। (पैदाइश 25:20, 28:5) और अरामी बोलते थे। (पैदाइश 31:47)

अख़ीमी सल्तनत के मग़रिबी निस्फ़ हिस्से में अरामी दरबारी ज़बान थी और मसीह से आठ सदीयां क़ब्ल शाम के शुमाली हिस्से में नविश्त व ख़वान्द का वसीला थी अगरचे इस हिस्से की आबादी ख़ालिस अरामी ना थी। ईरानी सल्तनत के ज़माने (अज़ 536 ता 330 क़ब्ल मसीह) में अरामी ने मग़रिबी एशिया में अपना तसल्लुत क़ायम कर लिया था। और फुरात से लेकर बहर मुतवस्सित तक बोली जाती थी और फुरात के मग़रिबी जानिब के सूबों की दरबारी ज़बान थी। मिस्र में भी ईरानी ज़माने के कुतबे दस्तयाब हुए हैं जिन पर ज़रसीस (Xerxes) को चौथा साल (482 क़ब्ल मसीह) सब्त है। इनसे और दीगर सरकारी काग़ज़ात से जो मिले हैं ये मालूम होता है, कि ईरानी शहनशाह अरामी को मिस्री ज़बान पर तर्जीह देकर मिस्रियों के साथ और मग़रिब के दीगर ममालिक-ए-महरूसा (मातहत किया गया) के साथ अरामी में ख़त व किताबत किया करते थे। असूरी सल्तनत के बादशाहों के वक़्त में अरामी ना सिर्फ दरबारी ज़बान थी बल्कि उन्हों ने इस को हर ज़बान पर तर्जीह दे रखी थी। क्योंकि इस सल्तनत की बेशतर आबादी अरामियों पर मुश्तमिल थी। यही वजह थी कि शाह-ए-असूर कारब साक़ी अरामी में कलाम करता था और शाह-ए-यहूदा के अराकीन-ए-दरबार भी अरामी से बख़ूबी आश्ना थे। (2 सलातीन 18:26 यसअयाह 36:11) फ़ाज़िल नवीलदीकी हमको बतलाता है कि :-

“असूरियों के ज़माने सल्तनत में उनकी रियाया का बहुत बड़ा हिस्सा अरामी ज़बान बोलता था।”

कलदी सल्तनत के ग़लबा ने भी (गो वो पाएदार ना था) अरामी ज़बान को बड़ी तक़वियत दी। मदीना के शुमाल से जो कुतबे दस्तयाब हुए हैं, उन से पता चलता है कि पाँच सौ साल क़ब्ल मसीह अरब के शुमाल मग़रिब में अरामी आबाद थे और यह ज़बान अरब में चौथी सदी मसीही तक नविश्त व ख़वान्द का ज़रीया था। और मुहज़्ज़ब ज़बान होने की वजह से इस को बड़ी क़द्र की निगाहों से देखा जाता था। अहले-अरब इसी ज़बान में लिखा पढ़ा करते थे क्योंकि उन की अपनी ज़बान हनूज़ अहाता तहरीर में नहीं आई थी। पारथियों की सल्तनत में भी इस को मुम्ताज़ जगह हासिल थी। क्योंकि ये ज़बान तहज़ीब और कल्चर की ज़बान थी। गो इस सल्तनत की दरबारी ज़बान पहलवी थी।

पस अगरचे अरामी ज़बान की इब्तिदा मिसोपोटामियह और शाम के चंद अज़ला से हुई लेकिन वो आहिस्ता-आहिस्ता दूर दराज़ के मुक़ामात और मुख़्तलिफ़ ममालिक में फैल गई। पहली सदी मसीही के क़ब्ल अरामी ज़बान की मुख़्तलिफ़ शाख़ें उन तमाम ममालिक में मुरव्वज थीं जो बहर मुतवस्सित और कोहिसार आरमीनिया और करूस्तान के दर्मियान वाक़ेअ थे। रफ़्ता-रफ़्ता ये ज़बान अर्ज़-ए-मुक़द्दस पर भी छा गई। हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की पैदाइश से बहुत पहले अर्ज़-ए-मुक़द्दस में अवामुन्नास इब्रानी की बजाय अरामी बोलते थे। अगरचे इस ज़माने का सही तअय्युन नहीं हो सकता। अहले-यहूद की असीरी (586 क़ब्ल मसीह) से पहले की यहूदी किताबों पर भी इस ज़बान का असर नज़र आता है। अगरचे अहद-ए-अतीक़ की बाअज़ कुतुब मसलन आस्तर की किताब, वाइज़ की किताब और बाअज़ मज़ामीर की ज़बान इब्रानी है। लेकिन इनकी तर्ज़-ए-तहरीर से ज़ाहिर है कि इनके मुसन्निफ़ीन की मादरी ज़बान अरामी थी क्योंकि इनके अल्फ़ाज़ के पीछे जो रूह है, वो अरामी है। एज़्रा की किताब (जो क़रीबन तीन सौ साल क़ब्ल मसीह लिखी गई) के मुसन्निफ़ ने एक अरामी किताब का इक़्तिबास किया है। (4: 8 ता 6:18, 7:12 ता 36) दानीएल की किताब 166 साल क़ब्ल मसीह लिखी गई और इस का निस्फ़ हिस्सा अरामी ज़बान में है। (2:4 ता 8:28)

पहली सदी मसीही में जिस क़िस्म की अरामी ज़बान अर्ज़-ए-मुक़द्दस में बोली जाती थी। इस का इल्म हमको यहूदी कुतुब, “तरजम” (Targum (1)) से मिल सकता है। यहूदी इबादत ख़ानों में ये दस्तूर हो गया था कि जब तौरात की कुतुब पढ़ी जातीं तो हर आयत के पढ़ने के बाद इस का अरामी में तर्जुमा किया जाता और जब सहाइफ़ अम्बिया और कुतुब तवारीख़ पढ़ी जातीं तो हर तीन आयात के पढ़ने के बाद तर्जुमा किया जाता ताकि अवामुन्नास सहीफ़-ए-मुक़द्दसा को समझ सकें। ये तर्जुमा माबाअ्द के ज़माने में अहाता तहरीर में आ गया जिस को “तरजम” कहते हैं। उनकी ज़बान उस अरामी से मुख़्तलिफ़ नहीं है जो बाइबल की कुतुब एज़्रा और दानीएल में है। हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) और आप के हवारी अरामी ज़बान में कलाम करते थे अगरचे उनकी ज़बान यरूशलेम और उस के मुज़ाफ़ात (मुज़ाफ़ की जमा, मुंसलिक, इज़ाफ़ा किया गया) की ज़बान की तरह शुस्ता (पाक ख़ालिस) ना थी। (मर्क़ुस 14:70) हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ख़ुद इब्रानी का इल्म रखते थे और कुतुब मुक़द्दसा की तिलावत अस्ल ज़बान में फ़रमाया करते थे। (मर्क़ुस 12:24, 27 15:34, लूक़ा 4:16 ता 17) लेकिन आप अपने पैग़ाम को अवाम-उन-नास की बोली अरामी में सुनाया करते थे। (आमाल 26:14) लोग जौक़ दरजोक़, “ख़ुशी” और शौक़ से आपके कलिमात को सुनने की ख़ातिर जम-ए-ग़फी़र (भीड़) में जमा हो जाते और ऐसा कि खो से खोवा छिलता था। (मर्क़ुस 1:33, 45, 2:4 4:1, 5:24 लूक़ा 19:48 वग़ैरह) इस बात का सबूत कि आप उनसे अरामी में कलाम किया करते थे, अनाजील-ए-अर्बा के यूनानी मतन से भी मिलता है जहां चंद मुक़ामात में आप के मुँह के अरामी अल्फ़ाज़ महफ़ूज़ हैं। (मर्क़ुस 5:41, 7:34, मत्ती 27:46 वग़ैरह)


(1) https://en.wikipedia.org/wiki/Targum

पहली सदी मसीही में अर्ज़-ए-मुक़द्दस पर क़ियासिरा रुम हुक्मरान थे। इनकी ज़बान लातीनी थी। लेकिन गो इस सदी के अवाइल में मुल्क-ए-शाम में यूनानी ने अपने क़दम जमा लिए थे ताहम अरामी ज़बान के ग़लबे का ये हाल था कि लातीनी ज़बान के वहम व गुमान में भी ये बात कभी ना आई कि अरामी की जगह ग़ज़ब करले। लेकिन मिस्ल मशहूर है, हर कमाले राज़ वाले (इंतिहाई तरक़्क़ी के बाद ज़वाल शुरू होता है) यरूशलेम की तबाही (70 ई॰) के बाद हालात दगरगों हो गए (उलट पुलट गए) क़ौम-ए-यहूद की तबाही के साथ यूनानी ने अपने पांव फैला लिए। फिर भी सातवीं सदी मसीही तक इस ज़बान की मुख़्तलिफ़ शाख़ें (बिलख़ुसूस शामी ज़बान) यूनानी ज़बान के बाद अहम तरीन ज़बान तसव्वुर की जाती थीं। लेकिन अहले-अरब की इस्लामी फ़ुतूहात ने अरामी ज़बान का यक-लख़त ख़ातिमा कर दिया और यह ज़बान जो बारह सौ (1200) साल से ज़ाइद अर्से तक हर मुहज़्ज़ब क़ौम के इस्तिमाल में आई थी, इस्लामी ग़लबे के हाथों नागहानी मौत मर गई और अरबी ज़बान ने इस की जगह ले ली। मौजूदा ज़माने में ये ज़बान चंद अज़ला (اضلاع) में ही बोली जाती है।

यूनानी ज़बान और यूनानी तहज़ीब

यूनानी ज़बान फ़ल्सफ़ा, अदब और तहज़ीब की ज़बान थी। वो अफ़लातून, अरस्तू और दीगर हुकमा की ज़बान थी। जो लिखा पढ़ा शख़्स मुहज़्ज़ब होने का दावा करते थे। उस के लिए यूनानी का इल्म हासिल करना लाबदी अम्र था। सिकन्दर आज़म की फ़ुतूहात (323 क़ब्ल मसीह) ने इस ज़बान और तहज़ीब की रौनक को दो-बाला कर दिया था। इस फ़ातेह के ज़माने में अरामी ज़बान फुरात से लेकर बहर मुतवस्सित के तमाम ममालिक पर छा गई थी। लेकिन इस की फ़ुतूहात के साथ ज़माने ने पल्टा खाया और यूनानी अरामी की हरीफ़ (दुश्मन) हो गई। जब सिकन्दर ने अर्ज़-ए-मुक़द्दस (कनआन) को (332 क़ब्ल मसीह) हासिल कर लिया तो उसी ने अहले-यहूद को अपनी शरीअत और दस्तुरात पर अमल करने की रिआयत अता की। जो यहूदी उस के शहर सिकंदरिया में बस्ते थे उन को पूरे शहरी हुक़ूक़ अता कर दिए। उस के जांनशीनों यानी टूलोमीयों के मातहत (320 क़ब्ल मसीह ता 198 क़ब्ल मसीह) और सुलूकियों के मातहत शाम और मिस्र के ममालिक ने यूनानी ज़बान और कल्चर को क़ुबूल कर लिया। रफ़्ता-रफ़्ता अहले-यहूद में भी यूनानियत अपना असर दिखलाने लगी। क्योंकि यहूदी इन दिनों तमाम दुनिया में फैले हुए थे। टूलोमीयों के मातहत सिकंदरिया के यहूदी बहुत हद तक यूनानी फ़ल्सफ़ा और तहज़ीब से मुतास्सिर हो चुके थे हत्ता कि इनकी ख़ातिर अहले-यहूद की कुतुब मुक़द्दसा का इब्रानी से यूनानी में तर्जुमा करना पड़ा। ये यूनानी तर्जुमा सेप्टवाजनट तीसरी सदी क़ब्ल मसीह के दर्मियान सिकंदरिया में शुरू हुआ और दूसरी सदी क़ब्ल मसीह में ख़त्म हुआ। ये तर्जुमा मशहूर तरीन तर्जुमा है जो निहायत मुस्तनद (सनद वाला) है।

अर्ज़-ए-मुक़द्दस के यहूदी भी यूनानियत की बेपनाह मौजों से ना बच सके। चुनान्चे मसीह से दो सदीयां क़ब्ल उनमें एक तरक़्क़ी-पसंद पार्टी क़ायम हो गई जिसका मक़्सद ये था कि यहूदी शरीअत और दस्तुरात की बजाय यूनानी फ़ल्सफ़ा तहज़ीब और कल्चर मुल्क कनआन में रिवाज पा जाएं। ऐन्टी ओक्स चहारुम (Antiochus Epiphanes(2)) ने हर मुम्किन तौर पर अज़हद कोशिश की कि अर्ज़-ए-मुक़द्दस में यूनानियत का बोल-बाला हो जाए। लेकिन अहले-यहूद ने मुनज़्ज़म तौर पर इस का मुक़ाबला किया। उस ने हुक्म दिया कि उस की तमाम रियाया (यहूदीयों समेत) यूनानी मज़्हब और यूनानी रसूम व रिवाज को इख़्तियार करलें और इस हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी करने वाले को जान से मारा जाये। उस ने 167 क़ब्ल मसीह सामरिया और यरूशलेम की हैकल की कुर्बानगाह पर जोपीटर की क़ुर्बानगाह बनाई। और ख़नाज़ीर (सूअर) और दीगर हराम जानवरों की क़ुर्बानियां कीं। उस ने यहूद को बुतों की क़ुर्बानीयों का गोश्त जबरन खिलाया और उन को मज्बूर किया कि वो बेकस (शराब का देवता) का तहवार मनाएं। सबत और खतना के शरई अहकाम को ना मानें, नमाज़ ना पढ़ें, अपने माबूद यहोवा की इबादत ना करें और उन तमाम उमूर से परहेज़ करें जिनसे ये तमीज़ हो सके कि वो यहूदी हैं। उस ने तौरात की कापियों को नज़र-ए-आतिश (आग में जलाना) कर दिया और हज़ारों यहूदीयों को तह तेग़ (तल्वार से क़त्ल) कर दिया। लेकिन अहले-यहूद ने (16 क़ब्ल मसीह) मकाबियों के मातहत उस का डट कर मुक़ाबला किया और बालाइन मुजाहिदीन की कोशिशों से यूनानियत को शिकस्त फ़ाश नसीब हुई। लेकिन इस के साठ साल बाद फ़रीसियों और सदूक़ियों के धड़े बाज़ी और अहले यहूद की बाहमी रक़ाबत व पुर ख़ाश की बदौलत यूनानियत के क़दम दुबारा जम गए। (63 क़ब्ल मसीह) यहूदिया रूमी सल्तनत का एक सूबा बन गया। क़ियासिरा रुम ने अदूमी नस्ल के हेरोदेस को (40 क़ब्ल मसीह) यहूदीयों का बादशाह बना दिया। इस शाही ख़ानदान की तुफ़ैल यूनानियत अर्ज़-ए-मुक़द्दस में मज़्बूत जड़ पकड़ गई। फ़रीसी रब्बी इस बादशाह के जानी दुश्मन थे। लेकिन उनकी मुख़ालिफ़त को दबाने की ख़ातिर उस ने यूनानियत के शैदाई यहूदीयों को मंज़ूर-ए-नज़र बना लिया और यूनानी और रूमी ख़यालात, रसूम व रिवाज और तर्ज़-ए-रिहाइश वग़ैरह को तरक़्क़ी दी। उस ने ख़ास यरूशलेम में थिएटर और तमाशा-गाहें (Amphi Theatre) बनाएँ। केसरिया के शहर को यूनानी रूमी आर्ट का बेहतरीन नमूना बनाकर क़ैसर के नाम पर इस शहर का नाम केसरिया रखा। उस ने जगह-जगह रूमी और यूनानी देवताओं के मंदिर बनवाए और यहूद को ख़ुश करने के लिए और अपनी अज़मत बढ़ाने के लिए उसने (सन 20 क़ब्ल मसीह) यरूशलेम की हैकल को निहायत आलीशान पैमाना पर तामीर करना शुरू किया। (मर्क़ुस 13:1 मत्ती 24:1 यूहन्ना 2:20 वग़ैरह) जिसको उस के पड़ पोते हेरोदेस अगरपा रुम ने 65 ई॰ में ख़त्म किया। लेकिन हेरोदेस ने इस हैकल के बड़े फाटक पर एक तिलाई उक़ाब नसब कर दिया जो क़ियासिरा रुम का निशान था। जिस साल सय्यदना मसीह पैदा हुए, अफ़्वाह उड़ गई कि हेरोदेस मर गया है। इस पर फ़रीसियों ने इस तिलाई उक़ाब के टुकड़े टुकड़े कर दिए। जब हेरोदेस को ख़बर हुई उस ने सरदार काहिन मथियास को उस के अहद से मुअत्तल (बर्खास्त) कर दिया और फ़रीसियों को ज़िंदा आग में जला दिया।


(2) https://en.wikipedia.org/wiki/Antiochus_IV_Epiphanes

पस आँख़ुदावंद के ज़माने में सियासी और समाजी हालात की वजह से यूनानियत की लहर बड़ी तेज़-रवी से अर्ज़-ए-मुक़द्दस में चार सो फेल गई। ख़ास यहूदिया के सूबा में अहले-यहूद के इलावा इतालवी, अदूमी और मुख़्तलिफ़ दीगर नसलों और क़ौमों के लोग बूद व बाश रखते थे। गलील का सूबा ग़ैर-क़ौमों की गलील कहलाता था। जिसमें यूनानी फेंकी, शामी वग़ैरह अक़्वाम आबाद थीं। इन तमाम बातों की वजह से यूनानी ज़बान और यूनानियत रोज़ बरोज़ तरक़्क़ी हासिल करती जाती थी। इलावा अज़ीं इक़्तिसादी हालात भी साज़गार थे और यूनानियत के फैलने में मुआविन (मददगार) थे। क्योंकि यूनानी ज़बान तिजारती अग़राज़ के लिए इस्तिमाल होती थी। बिलख़ुसूस वो बंदरगाहों और उन शाहराहों के इर्दगिर्द के क़स्बात और दिहात में बोली जाती थी जो मुल़्क कनआन को एशयाए कोचक मिसोपोटामियह और मिस्र के ममालिक के साथ मिलाते थे। इन सियासी, समाजी और इक़्तिसादी अस्बाब का क़ुदरती नतीजा ये था कि यूनानी ज़बान रोज़-अफ़्ज़ूँ तरक़्क़ी पर थी। अवामुन्नास (लोग) अरामी बोलते थे पर यूनानी समझ सकते थे और ज़रूरत के वक़्त बातचीत भी कर लेते थे। ख़ुद सय्यदना मसीह का आलीशान शहर (मत्ती 9:1-11) कफ़र्नहोम एक ऐसी शाहराह पर था। माहीगीरों (मछ्वारों) की बड़ी बंदरगाह होने के इलावा ये शहर तीन अतराफ़ से गेनसरत के ज़रख़ेज़ मैदान से घिरा हुआ था और तिजारत का बड़ा मर्कज़ था। इलावा अज़ीं वो उस शाहराह पर वाक़ेअ था जो दमिश्क़ से लियोयुनिट को जाती थी। लिहाज़ा ग़लब है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) यूनानी ज़बान से भी वाक़िफ़ थे।

फ़स्ल दोम

ज़माना तस्नीफ़-ए-अनाजील अर्बा

(1)

जब हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) क़रीबन “तीस (30) बरस के हुए” (लूक़ा 3:23) आपने 26 ई॰ में “रूह की क़ुव्वत से मामूर हो कर” (लूक़ा 4:14) “ख़ुदा की ख़ुशख़बरी” की तब्लीग़ की और कहा कि वक़्त पूरा हो गया है और ख़ुदा की बादशाही नज़्दीक आ गई है। तौबा करो और ख़ुशख़बरी पर ईमान लाओ (मर्क़ुस 1:14) अवामुन्नास (लोगों) की भीड़ों की भीड़ें आपकी ख़ुशख़बरी का पैग़ाम सुनने के लिए हर जगह जमा हो जातीं। (मत्ती 4:23, 25, मर्क़ुस 1:33, यूहन्ना 6:10, 24, मर्क़ुस 4:1 वग़ैरह) आपने अपने मुक़ल्लिदीन (पैरवी करने वाले) में से “बारह (12) को मुक़र्रर किया ताकि वो आपके साथ रहें।” (मर्क़ुस 3:14) ये बारह हवारी बिल-उमूम मज़दूर तब्क़े के लोग और अहले यहूद के मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़ों और गिरोहों में से थे। लेकिन सब के सब लिखे पढ़े थे। क्योंकि अहले-यहूद के हर बच्चे के लिए लिखना पढ़ना लाज़िमी था। हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की ताअलीम सुनकर “सब लोग हैरान रह जाते और आपस में ये कह कर बह्स करते” कि ये क्या है, ये तो नई ताअलीम है” क्योंकि आप उन को फ़क़ीहों की तरह नहीं बल्कि साहिब-ए-इख़्तियार की तरह “ताअलीम देते थे।” (मर्क़ुस 1:27, मत्ती 7:29 वग़ैरह) ना सिर्फ सूबा गलील के पसमांदा (परेशान) लोग आपकी ताअलीम को सुन कर हैरान रह जाते थे। बल्कि यहूदी उलमा और फुज़ला के ख़ास गढ़ यरूशलेम के रहने वाले भी दंग रह जाते और बेसाख्ता पुकार उठते कि “इन्सान ने कभी ऐसा कलाम नहीं किया।” (यूहन्ना 7:46) दरें हालात आपके बाअज़ शैदाइयों और हवारियों ने जो आप के साथ शब व रोज़ रहे (मत्ती 17:1, यूहन्ना 15:15, लूक़ा 22:14 वग़ैरह) आपके कलिमात को कलमबंद करना शुरू किया जिस तरह रसूल-ए-अरबी के बाअज़ मोतक़िदीन (अक़ीदतमंदों) ने आपसे सुनकर क़ुरआन लिखना शुरू किया। इन हवारियों में से बिलख़ुसूस हज़रत मत्ती आपके नादिर और चीदा बरजस्ता कलिमात को अरामी में जमा किया करते थे। चुनान्चे फ़रगियह के शहर हायरापोलिस का बिशप पेपाईस (Papias of Hierapolis (3)) दूसरी सदी के अवाइल (130 ई॰) में हमको बतलाता है कि :-

“मत्ती ने आँख़ुदावंद के कलिमात को अरामी ज़बान में जमा किया और लोग अपनी लियाक़त के मुताबिक़ उन को समझते थे।”

पेपाईस की शहादत क़ाबिल-ए-क़द्र है। क्योंकि उस ने ये बात उन लोगों से मालूम की थी जो हज़रत मत्ती के साथी रह चुके थे। पस कलिमतुल्लाह (मसीह) की हीने-हयात (ज़िन्दगी) में लोगों ने और बिलख़ुसूस हज़रत मत्ती रसूल ने आपके चंद कलिमात को अरामी ज़बान में जमा किया।

(2)

जब हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) को मस्लूब किया गया तो वाक़िया सलीब के पचास (50) रोज़ बाद (आमाल 2:1) यानी दो माह के अंदर अंदर आपके हवारियों की तब्लीग़ी मसाई (कोशिश) की वजह से तीन हज़ार के क़रीब लोग आप पर ईमान ले आए (आमाल 2:41) ये यहूद मुख़्तलिफ़ ममालिक से ईद के रोज़ यरूशलेम में जमा हुए थे। जो पारथी, माद्दी, एलामी, मिसोपोटामियह, यहूदिया, कपदकियह, पंतस, आसीया, फ़िरौगिया, पमफ़ोलिह, मिस्र, करीने, करीत और अरब के रहने वालों में से थे। (आमाल 2:9) इस के चंद रोज़ बाद “ईमानदारों की तादाद पाँच हज़ार के क़रीब हो गई।” (आमाल 4:4) इस के चंद माह बाद यहूदी नव मुरीदों की कलीसियाएं और दीगर ग़ैर-यहूद कलीसियाएं अर्ज़-ए-मुक़द्दस के मुख़्तलिफ़ सूबों के शहरों, कस्बों, और गांव में बड़ी तेज़ रफ़्तारी से क़ायम हो गईं। (आमाल 5:28, 8:4, 14, 38, 40 9:20, 31, 32 10:24, 24, 44, 48 11:19 वग़ैरह) जब वाक़िया सलीब के क़रीबन छः (6) साल बाद हज़रत पौलुस मसीही कलीसिया के ज़ुमरे में दाख़िल हो गए। (आमाल 9 बाब) तो आप ने अर्ज़-ए-मुक़द्दस के अंदर और बाहर रूमी सल्तनत के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में यहूद और ग़ैर-यहूद दोनों को इन्जील का पैग़ाम सुनाया और अपनी शहादत के वक़्त तक बत्तीस (32) साल मेहनत-ए-शाक़ा (सख़्त मेहनत) करके जा-ब-जा कलीसियाएं क़ायम कर दीं। जिन को आप ने वक़्तन-फ़-वक़्तन यूनानी ज़बान में ख़ुतूत भी लिखे जो इन्जील के मजमूए में अब तक महफ़ूज़ हैं। दवाज़दा (12) रसूलों और सैंकड़ों मसीही मुबल्लिग़ों की तब्लीग़ी मसाई का ये नतीजा हुआ कि सय्यदना मसीह की वफ़ात के पैंतीस (35) साल बाद जब रूमी क़ैसर नीरू ने 64 ई॰ में मसीहियों को ईज़ाएं पहुंचाई तो उसी वक़्त तक लोग लाखों की तादाद में मसीही हो गए थे और रूमी सल्तनत के कोने कोने में पाए जाते थे।


(3) https://en.wikipedia.org/wiki/Papias_of_Hierapolis

(3)

इन मसीही कलीसियाओं को इस बात की अज़हद ज़रूरत थी कि वो अपने आक़ा व मौला की ताअलीम और वाक़ियात ज़िंदगी से वाक़िफ़ हों। चुनान्चे बहुत लोगों ने आँख़ुदावंद के वाक़्यात-ए-ज़िंदगी और पैग़ामात को जमा किया ताकि इन कलीसियाओं की रुहानी ज़रूरीयात को पूरा करें। चुनान्चे मुक़द्दस लूक़ा हम को बतलाता है कि “बहुतों ने इस पर कमर बाँधी है कि जो बातें हमारे दर्मियान वाक़ेअ हुईं उन को तर्तीबवार बयान करें जैसा कि उन्हों ने जो शुरू से ख़ुद देखने वाले और कलाम के ख़ादिम थे हम तक पहुंचाया।” (लूक़ा 1:1, 2) इब्तिदा में ज़्यादातर वो लोग मसीही कलीसिया में दाख़िल हुए थे जो अहले-यहूद में से थे। क्योंकि अव्वलीन मुबल्लग़ीन ख़ुद यहूदी थे और यह एक फ़ित्रती बात थी कि वो अपने आक़ा के फ़र्मान के बमूजब पहले अपने लोगों को यहूदी कुतुब-ए-मुक़द्दसा की मसीह की आमद, ताअलीम, सलीबी मौत की ज़रूरत और मसीह की माअनी-ख़ेज़ क़ियामत की बशारत देते। (लूक़ा 24:44-48, व आमाल 2:22 36, 26:22-23 वग़ैरह) इन ईमानदारों की ज़बान अरामी थी जिसमें हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने ताअलीम भी दी थी और जिस में हज़रत मत्ती ने आपके कलिमात जमा कर रखे थे। इलावा अज़ीं अरामी एक अदबी ज़बान थी। जिसमें हर क़िस्म का लिट्रेचर और ख़ास कर यहूदी का मज़्हबी लिट्रेचर, “तरजम” मौजूद था। ये ज़बान कई वजूह (वजह की जमा) से अदबी ज़बान होने की सलाहीयत भी रखती थी। क्योंकि इस की लुग़त के अल्फ़ाज़ निहायत वसीअ थे और उस ने बहुत सी ग़ैर-ज़बानों के अल्फ़ाज़ अपने अंदर जज़्ब कर रखे थे। बक़ौल फ़ाज़िल नौलदीकी (Noldeki ) (4)

“इस की ग्रामर पेचीदा ना थी। इस के सर्फ व नहो के क़वाइद आसान, सादा, और वाज़ेह थे। इस के फ़िक़्रों की तर्कीब आज़ादा रू थी, और यह अम्र क़ुदरती तौर पर साफ़ सलीस नस्र लिखने में मुमिद व मुआविन थे।”

इलावा अज़ीं अरामी ज़बान जानने वाले मुसाफ़िर को बहरा सूद से बालाई मिस्र तक और हिन्दुस्तान की हदूद से एजीन के किनारों तक किसी क़िस्म की दिक़्क़त पेश ना आती थी। पस ये ज़बान इस ख़ास वक़्त में इन्जील के पैग़ाम के लिए निहायत मौज़ूं थी और इन्जील नवीसों ने इस में पहले-पहल अपने आँख़ुदावंद की ताअलीम और वाक़ियात-ए-ज़िंदगी को कलमबंद किया कि नव-मुरीद मसीही अपने मज़्हब के उसूल और बानी की ज़िंदगी से कमा-हक़्क़ा वाक़िफ़ हो सकें।

अनाजील-ए-अर्बा की तारीख़ तस्नीफ़

(1)

हमने चारों इंजीलों की अदबी उसूल तन्क़ीद के मुताबिक़ जांच पड़ताल करके देखा है कि वो सबकी सब सय्यदना मसीह की वफ़ात के बाद क़रीबन दस और पच्चीस साल के दर्मियानी अर्से में लिखी गईं जब अभी सय्यदना मसीह के हम-अस्र और चश्म दीद (आँखों देखे) गवाह ज़िंदा मौजूद थे। इनमें से दो इंजीलों को हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के रसूलों ने ख़ुद लिखा। एक इन्जील को लिखवाया और चौथे इन्जील नवीस ने बड़ी काविश और जाँ-फ़िशानी के साथ तमाम उमूर को चश्मदीद गवाहों और रसूलों से ठीक ठीक दर्याफ़्त करके लिखा। ये अनाजील पहली सदी के निस्फ़ में अरामी ज़बान में लिखी गईं और सब की सब उन नव-मुरीदों के लिए लिखी गईं जो यहूदियत से मुशर्रफ़ ब मसीहिय्यत हुए थे। इन चारों इंजीलों में एक भी ऐसी नहीं जो उन हालात की फ़िज़ा में सांस ना लेती हो जो अर्ज़-ए-मुक़द्दस में पहली सदी के पहले निस्फ़ में मौजूद थे। ये हालात बहुत जल्दी तब्दील हो गए। क्योंकि अहले-यहूद के रूमी सल्तनत के साथ जो ताल्लुक़ात थे वो पहले निस्फ़ के बाद जो जल्द बिगड़ गए। जिसका नतीजा ये हुआ कि तितुस ने 70 ई॰ में यरूशलेम का मुहासिरा करके इस को सर कर लिया। उस की अज़ीमुश्शान हैकल को जो सिर्फ (5) साल पहले मुकम्मल हुई थी बर्बाद कर दिया। यहूद या क़त्ल हो गए या भाग कर एतराफ़ व जवानिब के ममालिक में परागंदा हो गए। इन हालात का अक्स अनाजील अर्बा में हमको कहीं नहीं मिलता। उन में हैकल की तबाही का ज़िक्र नहीं पाया जाता। यरूशलेम की बर्बादी का पता नहीं चलता। इनमें अहले-यहूद की परागंदगी और ख़स्ता-हाली का कहीं बयान नहीं मिलता। हालाँकि ये तीनों बातें ऐसी थीं जिनकी सय्यदना मसीह ने पेशीनगोई की थी और ये दलील कलीसिया के हाथों में एक ज़बरदस्त हर्बा होती। बिलख़ुसूस हज़रत मत्ती इस दलील का (मत्ती 27:25) के लिखने के वक़्त ज़रूर फ़ायदा उठाते। लेकिन अनाजील अर्बा में इस क़िस्म की दलील का इशारा तक नहीं मिलता। ये माअनी-ख़ेज़ ख़ामोशी, इस बात को साबित करती है कि अनाजील अर्बा सबकी सब पहली सदी के पहले निस्फ़ की तस्नीफ़ात हैं। (5)


(4) https://en.wikipedia.org/wiki/Theodor_N%C3%B6ldeke

(2)

इलावा अज़ीं तमाम अनाजील अर्बा की अस्ल मुख़ातब ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम अहले-यहूद है। अगरचे ग़ैर-यहूद का कहीं कहीं ज़िक्र है और इन का ख़ुदा की बादशाही में शामिल होने की ख़बर भी चारों इंजीलों में है लेकिन इनमें किसी जगह इस बात का इशारा तक मौजूद नहीं कि मसीहिय्यत का मरकज़-ए-सक़लले अर्ज़-ए-मुक़द्दस से हट कर ग़ैर-यहूदी ममालिक की तरफ़ मुंतक़िल हो गया है। (मत्ती 10:6, 23, मर्क़ुस 7:27, लूक़ा 19:9, 22:30, 24:47, यूहन्ना 4:42 वग़ैरह) हालाँकि पहली सदी के निस्फ़ के बाद और बिलख़ुसूस 70 ई॰ के बाद ये हालात रौनुमा हो गए थे। अगर ये हालात इन्जील चहारुम की तस्नीफ़ से पहले के होते तो मुक़द्दस यूहन्ना बारहवें बाब में इनसे ज़रूर फ़ायदा उठाते और मौक़े को हाथ से ना जाने देते। लेकिन चारों इंजीलों में मसीहिय्यत का मर्कज़ अर्ज़-ए-मुक़द्दस है। चारों इंजीलों में ग़ैर-यहूद नव-मुरीदों की ख़ातिर यहूदी अल्फ़ाज़, रसूम, और दस्तुरात की तश्रीह की गई है। (मर्क़ुस 5:4, 7:3, 34, यूहन्ना 19:3 वग़ैरह) क्योंकि ग़ैर-यहूद भी पहली सदी के पहले निस्फ़ में मसीही हो गए थे। चारों इंजीलों का बुनियादी मक़्सद एक ही है। वो सबकी सब ये साबित करती हैं कि सय्यदना ईसा ही मसीह-ए-मौऊद है। जिसकी ख़बर तौरेत, ज़बूर, सहाइफ़ अम्बिया में दी गई है और कि मसीह मौऊद की बरकात आलमगीर होंगी, जिनमें मशरिक़ व मग़रिब की अक़्वाम मुस्तक़बिल ज़माने में बराबर तौर पर शरीक होंगी। लेकिन अभी ये अक़्वाम कलीसिया में बड़ी तादाद में शामिल नहीं हुईं। अभी तक मसीहिय्यत का मरकज़-ए-सक़ल अर्ज़-ए-मुक़द्दस और यरूशलेम ही है। अनाजील में जिस कलीसिया की तस्वीर हमको नज़र आती है वो अभी तक शुमार, अक़ाइद और तंज़ीम के लिहाज़ से इसी मंज़िल पर है जिसका आमाल-उल-रसूल के इब्तिदाई अबवाब में ज़िक्र है। जिनका ताल्लुक़ पहली सदी के पहले निस्फ़ के अवाइल ज़माने के साथ है।


(5) See Also Allen, St Mark (Oxford Church Biblical Commentary) P.3

फ़स्ल सोइम

अनाजील-ए-अर्बा के यूनानी तर्जुमे का ज़माना

(1)

सुतूर-ए-बाला में हम बतला चुके हैं कि पहली सदी मसीही में अर्ज़-ए-मुक़द्दस के यहूदी की मादरी ज़बान अरामी थी और हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) उसी ज़बान में ताअलीम भी दिया करते थे। (आमाल 1:19, 26:14, 21:4, 22:2 वग़ैरह) लेकिन अहले-यहूद में मसीह से कई सदीयां क़ब्ल एक तरक़्क़ी-पसंद फ़िर्क़ा पैदा हो गया था जो यूनानियत का आशिक़ था। हेरोदेस आज़म के ज़माने में इस गिरोह को बहुत फ़रोग़ हासिल हो गया था। हुक्काम-ए-वक़्त यूनानियत के रंग में रंगे थे। और यूनानी इल्म व तहज़ीब की इशाअत में हरदम कोशां रहते थे। जो यहूदी कनआन से बाहर रहते थे उन की ख़ातिर यहूदी कुतुब समावी (आस्मानी किताब) का तर्जुमा यूनानी में हो गया था। क्योंकि इन ममालिक के यहूदीयों की ज़बान यूनानी थी सय्यदना मसीह के सऊदे आस्मानी के दस दिन बाद इन यहूद में से जो पारथी, एलामी, मिसोपतामियाह, कपदकियह, पंतस, आसीया, फ़िरौगिया, पमफ़ोलिया, मिस्र, रुम, क्रीत, अरब वग़ैरह ममालिक में रहते थे। तीन हज़ार के क़रीब मसीही जमाअत में शामिल हो गए थे (आमाल 2:9-41) ये सब के सब यूनानी बोलने वाले थे। आँख़ुदावंद की वफ़ात के बीस साल के अंदर ग़ैर-यहूद हज़ारों की तादाद में, मसीही कलीसिया में शामिल हो गए थे। जहां ख़ास यरूशलेम में पहली सदी के पहले निस्फ़ में “यहूदीयों में से हज़ारहा आदमी ईमान ले आए थे।” (आमाल 21:20) वहां इस अर्से में ग़ैर-यहूद नव-मुरीद सल्तनत-ए-रूम के हर मुल्क में लाखों की तादाद में मौजूद हो गए थे और रोज़ाना शुमार में तरक़्क़ी कर रहे थे। पस इस बात की ज़रूरत लाहक़ हुई कि इन ग़ैर-यहूद नव-मुरीदों की ख़ातिर यूनानी ज़बान में आँख़ुदावंद के कलिमात और सवानिह हयात तर्जुमा किए जाएं।

चुनान्चे सबसे पहले हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के उन अक़्वाल और कलिमात का तर्जुमा किया गया जो हज़रत मत्ती ने अरामी ज़बान में जमा किए थे। चंद साल हुए महिकमा आसार-ए-क़दीमा को मुल्क मिस्र से इस किताब का एक क़दीम यूनानी नुस्ख़ा दस्तियाब हुआ। जब हज़रत मर्क़ुस ने अरामी इन्जील लिखी तो उस का भी तर्जुमा यूनानी में हो गया। इस तर्जुमे की बहुत सी नक़लें मुख़्तलिफ़ ममालिक को भेजी गईं। ये तर्जुमे यूनानी बोलने वाले मसीहियों में हर जगह रिवाज पाकर इस क़द्र मक़्बूल आम हो गए कि जब हज़रत मत्ती की इन्जील का तर्जुमा किया गया और हज़रत लूक़ा ने अरामी माख़ज़ों का तर्जुमा करके अपनी इन्जील यूनानी ज़बान में लिखी तो न इंजीलों के मुतर्जिमों ने उन इबारतों का जो मर्क़ुस की इन्जील से और कलिमात से लफ़्ज़ बलफ़्ज़ नक़्ल की गई थीं, नया यूनानी तर्जुमा ना किया बल्कि वही तर्जुमा नक़्ल कर दिया ज उन में मौजूद था। चुनान्चे जब हम इन तीनों इंजीलों के अल्फ़ाज़ का मुक़ाबला करते हैं तो ये हक़ीक़त नज़र आ जाती है कि जहां ये तीनों यूनानी अनाजील किसी मुक़ाम पर मुत्तफ़िक़ हैं, इन तीनों के अल्फ़ाज़ एक ही हैं। इसी तरह मुक़द्दस यूहन्ना की इन्जील का भी यूनानी ज़बान में तर्जुमा हो गया और वो तर्जुमा होते ही मक़्बुल-ए-आम हो गई।

(2)

हम ऊपर ज़िक्र कर आए हैं कि पहली सदी के निस्फ़ के बाद अर्ज़-ए-मुक़द्दस के सियासी हालात दगरगों हो गए। यरूशलेम बर्बाद हो गया। हैकल मिस्मार हो कर शहीद की गई। अहले-यहूद या मक़्तूल हो गए या रुए-ज़मीन पर अबतरी की हालत में परागंदा हो गए। इन हालात की वजह से यहूदी मसीही भी मुख़्तलिफ़ ममालिक में नक़्ल-ए-मकानी कर गए। अब हर मुल्क की कलीसिया की बड़ी अक्सरीयत ग़ैर-यहूद पर मुश्तमिल हो गई। इन बातों का क़ुदरती नतीजा ये हुआ कि अरामी ज़बान की रौनक पर पानी फिर गया। रफ़्ता-रफ़्ता दूसरी सदी में अरामी अनाजील-ए-अर्बा की नक़्लें होना बंद हो गईं और मुख़्तलिफ़ दयार व मिसार (मिस्र की जमा, बहुत से शहर) में उनकी मादूद-ए-चंद (गिनती में थोड़े) कापीयां बाक़ी रह गईं जो इमत्तीदाद-ए-ज़माना (लंबी मुद्दत) के हाथों ना बच सकीं। मुम्किन है कि महिकमा आसार-ए-क़दीमा को मुस्तक़बिल के ज़माने में ये कापीयां हाथ आ जाऐं। दूसरी सदी के आख़िर में अरामी ज़बान के ये नुस्खें ऐसे नायाब हो गए थे कि जैसा हम ज़िक्र कर चुके हैं। जब 190 ई॰ में सिकंदरिया का पेंटेनस हिन्दुस्तान से वापिस गया तो वो एक अरामी नुस्ख़ा तबर्रुकन अपने हमराह ले गया।

अब अरामी अस्ल की बजाय इन अनाजील अर्बा के यूनानी तर्जुमे हर जगह नक़्ल हो कर इशाअत पा गए और अकनाफ़-ए-आलम (चारों सिम्त) में फैल गए। जिन ममालिक में यूनानी ज़बान इन अवाइल सदीयों में राइज ना थी उनमें यूनानी मतन का तर्जुमा किया गया। चुनान्चे तीन सौ (300) साल के अंदर यूनानी अनाजील-ए-अर्बा का तर्जुमा शामी, आर्मीनी, हब्शी, क़िबती, लातीनी वग़ैरह ज़बानों में हो गया और इन तर्जुमों के नुस्ख़े हज़ारों की तादाद में शाएअ हो गए। ख़ुदा की शान है कि वो ज़माना था जब अरामी ज़बान का हर जगह बोल-बाला था और अब ये ज़माना आ गया है जब लोग ये भी भूल गए कि अनाजील अरामी ज़बान में लिखी और यूनानी में तर्जुमा की गई थीं।

(3)

ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि उस ज़माने में जो मुसन्निफ़ अपने ख़यालात को अक़्वाम-ए-आलम तक पहुंचाना चाहता था उस के लिए ये लाज़िम हो गया था कि वो उन को यूनानी ज़बान में मलबूस करे। मिसाल के तौर पर यहूदी मुअर्रिख़ यूसीफ़स को ले लो। ये शख़्स अर्ज़-ए-मुक़द्दस का रहने वाला और काहिनों के एक मशहूर ख़ानदान का चश्म व चिराग था। उस ने फ़रीसियों, सदूक़ियों और एसनियों से ताअलीम हासिल की थी। पर वो यूनानियत का बड़ा हामी था। उस ने अपनी किताब, तारीख-ए-जंग यहूद अरामी ज़बान में पारुथी, बाबुल, अरब और मिसोपोटामियह के यहूदीयों की ख़ातिर लिखी। लेकिन यूनानी ज़बान बोलने वाले मुल्कों और लोगों की ख़ातिर उस को ये किताब यूनानी में तर्जुमा करना पड़ी। वो कहता है कि उसे अपनी किताब “एंटीकैटीज़” (Antiquities) को लिखने के लिए यूनानी में महारत हासिल करने के लिए बड़ी दुश्वारीयों का सामना करना पड़ा।

“हमें अपनी यहूदी तारीख़ को एक ग़ैर-ज़बान में जिससे हम मानूस नहीं, तर्जुमा करना सख़्त गिरां मालूम होता है। मैंने बड़ी हिम्मत और इस्तिक़लाल से काम लेकर इस किताब को ख़त्म किया है। जिसको कोई दूसरा शख़्स, यहूदी या ग़ैर-यहूदी इस ख़ूबी से ना निबाह सकता। मैंने अज़हद कोशिश की कि यूनानी ज़बान का इल्म कमा-हक़्क़ा हासिल करूँ। पस मैंने यूनानी सर्फ़ व नहो में बहुत मश्क़ की। अगरचे मेरी ज़ाती आदात और क़ौमी हालात इस ज़बान पर हावी होने में सद-ए-राह थे।”

ताहम उस की यूनानी ऐसी रवां और सलीस है कि वो तर्जुमा मालूम नहीं देती।

(4)

ये हक़ीक़त क़ाबिल ग़ौर है कि अगर अरामी अनाजील अर्बा का तर्जुमा अर्ज़-ए-मुक़द्दस की बर्बादी से क़ब्ल यूनानी ज़बान में ना किया जाता तो मसीहिय्यत की इशाअत कनआन की हदूद से आगे ना बढ़ती और वह यहूदी मसीहियों तक ही महदूद रह कर उनकी परागंदगी के साथ साथ मुख़्तलिफ़ ममालिक में अक़ल्लियत होने की वजह से या तो ख़त्म हो जाती और या सिसक सिसक कर ज़िंदा रहती। लेकिन चूँकि अनाजीले अरबा का यूनानी जैसी बैन-उल-अक़वामी ज़बान में मुस्तनद तर्जुमा हो गया था, जो अब मशरिक़ व मग़रिब की मुहज़्ज़ब अक़्वाम की ज़बान थी, लिहाज़ा मसीहिय्यत को उरूज हासिल होता गया। हत्ता कि पहली तीन सदीयों के अंदर रूमी शहनशाह किस्तनतीन आज़म के मसीही होने से पहले रूमी क़ियासिरा की पे दरपे और मुसलसल इज़ा रसानियों के बावजूद रुए-ज़मीन पर कोई मुल्क और शहर ऐसा ना था जिस में कलीसिया के पास इन्जील ना थी या जिसकी ज़बान में यूनानी इन्जील का तर्जुमा मौजूद ना था।

यूनानी तर्जुमे की ज़बान

अनाजील के तर्जुमे की ज़बान वो टकसाली यूनानी नहीं जो अफ़लातून, अरस्तू और दीगर यूनानी फ़िलासफ़ा और अदब की मुस्लिमु-स्सबूत उस्तादों की ज़बान है बल्कि इस तर्जुमे के यूनानी अल्फ़ाज़ उस यूनानी के हैं जो कोइन (Koine) कहलाती है। यानी वो यूनानी जो मसीह से चार सदीयां बाद यूनान के बाहर उन ममालिक में बोली जाती थी जो सिकन्दरे आज़म की फ़ुतूहात और टोलोमियों और सुलूकियों की बादशाहियों की वजह से यूनान औ यूनानियत ने तसख़ीर कर लिए थे। महिकमा आसारे-ए-क़दीमा की मुतवातिर कोशिशों के तुफ़ैल (1890 ई॰ और 1907 ई॰) के दर्मियान आठ सदीयों के नुस्ख़े, कुतबे, पत्थर, धातें और मिट्टी के बर्तन वग़ैरह दस्तयाब हुए हैं जिनसे उस, “कोइनी” ज़बान का पता चलता है जो सल्तनत रुम में भी पहली सदी में मुरव्वज थी और जिस में अनाजील अर्बा का तर्जुमा किया गया। इन क़दीम काग़ज़ात को पपायरस (Papyrus) कहते हैं। जिससे अंग्रेज़ी लफ़्ज़ पेपर बमाअनी काग़ज़ निकला है। ये काग़ज़ पपायरस के पौदे के गूदे से बना होता था। और बारीक होने के बावजूद, “एहराम मिस्र से ज़्यादा पायदार था।” जिसको सिर्फ पानी और सीलापन ही ख़राब कर सकते थे। लेकिन मिस्र की ख़ुश्क आबो हवा से ये काग़ज़ात सदीयों तक ज़र-ए-ज़मीन महफ़ूज़ रहे। इन क़दीम काग़ज़ात की यूनानी वो थी जो आम तौर पर इन आठ सदीयों में यूनानी और रूमी सल्तनतों के ममालिक-ए-महरूसा (मातहत किया गया) में बोली जाती थी। यूनानी अदीबों की टकसाली ज़बान के मुक़ाबले में “कोइनी” गँवारी यूनानी थी। इन दोनों में वैसा ही फ़र्क़ पाया जाता है जो या लखनवी अदीब की तहरीर और किसी मामूली लिखे पढ़े पंजाबी की उर्दू तहरीर में पाया जाता है।

इन क़दीम नुस्ख़ों से उलमा और नक़्क़ाद को इन्जील के मजमूआ कुतुब के अल्फ़ाज़ और मुहावरात के अस्ल मअनी और मतलब मालूम करने में बड़ी मदद मिलती है, मसलन इन काग़ज़ात के दस्तयाब होने से पहले ये ख़याल किया जाता था कि इन्जील मत्ती में लफ़्ज़, “कलीसिया” (मत्ती 16:18, 18:17) से मसीही जमाअत की वो मंज़िल मुराद है जब उस ने दूसरी सदी में तरक़्क़ी करके बाक़ायदा तौर पर मुनज़्ज़म सूरत इख़्तियार कर ली थी। लेकिन इन क़दीम कुतबों में एक कुतबा मिला है जिसकी तारीख़ (103 ई॰) की है। जिस ने ये साबित कर दिया है कि ये लफ़्ज़ हर क़िस्म की जमाअत के लिए इस्तिमाल किया जाता था ख़्वाह वो मुनज़्ज़म होया ग़ैर मुनज़्ज़म। इन क़दीम काग़ज़ात के ज़रीये हम यहूदी सहफ़-ए-समावी (आस्मानी सहाइफ़) के यूनानी तर्जुमा सेप्टवाजिंट (Septuagint) (तर्जुमा सबईनियह) के अल्फ़ाज़ के मफ़्हूम को भी बेहतर तौर पर समझ सकते हैं क्योंकि ये तर्जुमा भी इन्ही सदीयों के दौरान में हुआ था।

अनाजील अर्बा के यूनानी तर्जुमे की ख़ुसूसीयत

(1)

जब हम यूनानी तर्जुमे अनाजील की छानबीन करते हैं तो हम को ये अजीब बात नज़र आती है कि अगरचे इनके मुतर्जिम क़ादिर-उल-कलाम अदीब हैं और यूनानी ज़बान की लुग़त और अल्फ़ाज़ और ग्रामर पर हावी हैं और मुतरादिफ़ अल्फ़ाज़ यूनानी के बारीक फ़र्क़ और इम्तियाज़ से कमा-हक़्क़ा वाक़िफ़ हैं और इन का महल-ए-इस्तिमाल भी जानते हैं और अरामी का तर्जुमा आम फहम सलीस यूनानी अल्फ़ाज़ में भी करते हैं। ताहम उन के यूनानी फ़िक़्रों की साख़त और इबारत की तर्कीब भद्दी (बदसूरत) है और वह नहीं जो आम तौर पर उस वक़्त लिखी या बोली जाती थी। इस में कुछ शक नहीं कि जब एक ज़बान से दूसरी ज़बान में तर्जुमा किया जाता है तो अल्फ़ाज़ व मुहावरात वग़ैरह के नाज़ुक मआनी और मतलब को अदा करने में बड़ी दिक़्क़त पेश आती है। लेकिन ये चारों मुतर्जिम अरामी अल्फ़ाज़ व मुहावरात और यूनानी ज़बान दोनों पर क़ादिर हैं और सिर्फ वही आम अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करते हैं जो मौज़ूं और दुरुस्त हैं। क्योंकि यूनानी उन की मादरी ज़बान है लेकिन इस पर भी अनाजील अर्बा (चारो इंजील) की इबारत भद्दी, बेडौल और बेढंगी है।

(2)

यही हाल अहद-ए-अतीक़ के यूनानी तर्जुमा सेप्टवाजिंट (Septuagint) का है जो इल्म व फ़ज़्ल के मर्कज़ शहर सिकंदरिया में किया गया था। इस के मुतर्जीन की भी मादरी ज़बान यूनानी थी और वह इब्रानी और यूनानी दोनों ज़बानों के माहिर आलिम थे लेकिन फिर भी जिस तरह अनाजील अर्बा के यूनानी फ़िक़्रों की साख़त भद्दी है उसी तरह सेप्टवाजिंट (Septuagint) की इबारत भी बेढंगी है। आख़िर इस की क्या वजह है?

इस की वजह ये है कि सहफ़-ए-अतीक़ और अनाजील अर्बा दोनों के तर्जुमों में अस्ल अल्फ़ाज़ का लिहाज़ रखा गया है। ये हक़ीक़त हम पर ज़ाहिर हो जाती है जब हम अहद अतीक़ की कुतुब के इब्रानी मतन का सेप्टवाजिंट (Septuagint) के यूनानी मतन से मुक़ाबला करते हैं। इन कुतुब के मुतर्जमीन इब्रानी कुतुब समावी के एक एक लफ़्ज़ को इल्हामी मानते थे लिहाज़ा उन्हों ने इब्रानी इबारत का निहायत काविश और जांफ़िशानी के साथ लफ़्ज़ी तर्जुमा किया और इस बात का ख़ास ख़याल रखा कि ऐसे आम फहम यूनानी लफ़्ज़ मुहय्या किए जाएं जो इब्रानी लफ़्ज़ के मफ़्हूम को एन दुरुस्त तौर पर अदा कर सकें ख़्वाह ऐसा करने में यूनानी इबारत बेडौल ही मालूम दे। मसलन मुश्ते नमूना अज़ खरवा रे (बड़े ढेर में से मुट्ठी भर) गिनती 9:10 का उर्दू तर्जुमा ये है, “अगर तुम में से कोई आदमी कहीं दूर सफ़र में हो तो भी वो ख़ुदावंद के लिए ईद फ़सह करे।” उर्दू में इब्रानी लफ़्ज़ “ईश” का तर्जुमा कोई आदमी किया गया है। लेकिन इब्रानी मुहावरे के मुताबिक़ जब मुराद हर आदमी यानी एक एक फ़र्द से हो तब ये मफ़्हूम लफ़्ज़ ईश को दुबारा लिखने से अदा होता है। यानी “ईश ईश” पस इब्रानी मतन में इस आयत में आया है, “ईश ईश” सेप्टवाजिंट (Septuagint) के मुतर्जमीन ने उर्दू मुतर्जमीन की तरह नहीं किया बल्कि इब्रानी का लफ़्ज़ी तर्जुमा करके यूनानी में “एन थ्रोस, एन थ्रोस” यानी आदमी आदमी कर दिया है। हालाँकि ये यूनानी ज़बान के मुहावरे और क़वाइद के सरासर ख़िलाफ़ है। कोई सलीम-उल-अक़्ल (दाना शख़्स) ये ख़याल भी दिल में नहीं ला सकता कि इस क़िस्म की यूनानी सिकंदरिया जैसे दार-उल-उलूम में लिखी या बोली जाती थी। लेकिन इन मुतर्जमीन को ये एहसास था कि वो एक इल्हामी किताब के इल्हामी अल्फ़ाज़ का तर्जुमा कर रहे हैं। पस उन्हों ने यूनानी मुहावरे की तरफ़ से लापरवाह हो कर ऐसा तर्जुमा किया जो लफ़्ज़ी था और यूं अस्ल इब्रानी मतन के एक एक लफ़्ज़ को तर्जुमा करते वक़्त मल्हूज़ ख़ातिर रखा।

अनाजील अर्बा के मुतर्जमीन को भी इस बात का एहसास था कि वो किसी मामूली क़िस्म की किताबों का तर्जुमा नहीं करते। उनका ये ईमान था कि वो ऐसी किताबों का तर्जुमा करते हैं जिनमें उन की नजात के बानी को अपनी ज़बान के अल्फ़ाज़ और वाक़ियाते ज़िंदगी और मौत महफ़ूज़ हैं। उनके नज़्दीक ये किताबें मुक़द्दस किताबें थीं और यहूदी सहफ़-ए-समावी से कई गुना ज़्यादा क़ाबिल-ए-सनद थीं। (मत्ती 12:6, 41, 42, यूहन्ना 1:1-18, इब्रानियों 1:1-2, 2 पतरस 1:20-21, 3:2, 15 वग़ैरह) पस उन्हों ने सेप्टवाजिंट (Septuagint) के मुतर्जमीन का नमूना इख़्तियार किया। उन्हों ने यूनानी ज़बान के मुहावरे, ग्रामर और फ़िक़्रों की साख़त और तर्कीब के क़वाइद को बालाए ताक़ रख दिया और सख़्त पाबंदी के साथ अस्ल अरामी का मौज़ूं आम फहम यूनानी अल्फ़ाज़ में तर्जुमा कर दिया। इस यूनानी तर्जुमे की इबारत अहले-क़लम अदीबों की नज़रों में भद्दी और बे-डोल है। कोई यूनानी अदीब इस क़िस्म की इबारत नहीं लिख सकता था जिसके अल्फ़ाज़ तो आम फ़हम हों लेकिन फ़िक़्रे यूनानी मुहावरात और उसूल-ए-ग्रामर की तरफ़ से बेनियाज़ हों। लेकिन इस क़िस्म का तर्जुमा अनाजील-ए-अर्बा के चारों मुतर्जिमों के मक़्सद को कमा-हक़्क़ा (जैसा उस का हक़ है) पूरा करता था।

(3)

इस बात को हम शाह अब्दुल क़ादिर और शाह रफ़ी उद्दीन मुहद्दिस देहलवी के क़ुरआनी तर्जुमों की मिसाल से कुछ-कुछ समझ सकते हैं। अगरचे अरामी और यूनानी, अरबी और उर्दू ज़बानों के क़वाइद ग्रामर और इंशा-परदाज़ी में बड़ा फ़र्क़ है। शाह रफ़ी उद्दीन (सूरह बक़रा) की इब्तिदाई आयात के तहत अल-लफ्ज़ी (تحت اللفظی) तर्जुमा यूं करते हैं, “ये किताब नहीं शक बीच इस के राह दिखाती है, वास्ते परहेज़गारों के वो जो ईमान लाते हैं साथ ग़ैब के और क़ायम रखते हैं नमाज़ को और इस चीज़ से कि दी है हम ने उन को खर्च करते हैं और जो लोग कि ईमान लाते हैं साथ इस चीज़ से कि उतारी गई है तरफ़ तेरी और जो कुछ उतरी है पहले तुझसे और साथ आख़िरत के वो यक़ीन रखते हैं। ये लोग ऊपर हिदायत के हैं परवरदिगार अपने से और यह लोग वही हैं छुटकारा पाने वाले” वग़ैरह-वग़ैरह। शाह साहब मर्हूम देहलवी थे। टकसाली उर्दू बोलने थे। उर्दू और अरबी दोनों ज़बानों पर हावी थे। कोई वाक़िफ़ कार शख़्स ये नहीं कह सकता कि उन के ज़माने में इस क़िस्म की, “गलाबी उर्दू लिखी” या बोली जाती थी लेकिन वो एक ऐसी किताब का तहत अल-लफ्ज़ी (تحت اللفظی) तर्जुमा कर रहे थे जिसके एक एक लफ़्ज़ को वो अल्लाह से मन्सूब करते थे। जिसका नतीजा ये हुआ कि सब के सब अल्फ़ाज़ आम फहम हैं। और गो मुतर्जिम एक आलिम शख़्स है लेकिन फ़िक़्रों की तर्कीब और साख़त और उर्दू इंशा-पर्दाज़ी (मज़्मून लिखने का तरीक़ा) की तरफ़ से लापरवाह है। अगरचे अनाजील अर्बा का यूनानी तर्जुमा इस क़िस्म की गलाबी यूनानी का सा तहत अल-लफ्ज़ी (تحت اللفظی) तर्जुमा नहीं है ताहम इस मिसाल से हमको मुतर्जमीन के ख़यालात और नुक्ता निगाह को समझने में मदद मिल सकती है। अनाजील-ए-अर्बा के यूनानी मुतर्जिम भी ऐसी ही ज़हनीयत के मालिक थे। उन्हों ने यूनानी क़वाइद इंशा-पर्दाज़ी (मज़्मून लिखने का तरीक़ा) को पस-ए-पुश्त फेंक दिया और अस्ल अरामी मतन का आम फहम यूनानी फ़िक़्रों में अरामी अल्फ़ाज़ का तर्जुमा कर दिया।

अनाजील-ए-अर्बा के मतन की सेहत

(1)

इस, “ग़ुलामाना” लफ़्ज़ी तर्जुमे से दो फ़ायदे ज़रूर हुए। अव्वल, चूँकि ये मुतर्जमीन अरामी और यूनानी दोनों ज़बानों में महारत नामा रखते थे उन्होंने लफ़्ज़ी तर्जुमा करते वक़्त इस बात का सख़्त पाबंदी के साथ ख़ास ख़याल रखा कि यूनानी के सिर्फ वही अल्फ़ाज़ इस्तिमाल किए जाएं जो अरामी अल्फ़ाज़ के मफ़्हूम को कमा-हक़्क़ा बतरज़ अहसन ठीक और दुरुस्त तौर पर अदा कर सकें। तर्जुमा करते वक़्त उन्हों ने अल्फ़ाज़ के नाज़ुक फ़र्क़ को और मुतरादिफ़ अल्फ़ाज़ के बारीक इम्तियाज़ात को मलहूज़ ख़ातिर रखा। पस उन के यूनानी अल्फ़ाज़ निहायत सेहत के साथ अरामी अस्ल मुतालिब को अदा करते हैं और हम इस बीसवीं सदी के दर्मियान अस्ल अरामी मतन को जान सकते हैं और मालूम कर सकते हैं कि पहली सदी के अवाइल में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने क्या कहा था और क्या किया था। पस ये लफ़्ज़ी यूनानी तर्जुमा अस्ल अरामी मतन की सेहत का ज़िंदा जीता जागता ज़ामिन है। जिस तरह तर्जुमा सेप्टवाजिंट (Septuagint) अहद-ए-अतीक़ के इब्रानी मतन का मुहाफ़िज़ है।

(2)

अनाजील-ए-अर्बा के इन मुतर्जमीन की फ़ाज़िलाना कोशिशों के तुफ़ैल हमारे ज़माने के नक़्क़ाद और मुहक़्क़िक़ आज इस क़ाबिल हैं कि मौजूदा यूनानी अनाजील के मतन के अल्फ़ाज़ के ज़रीये वो उन अस्ल अरामी अल्फ़ाज़ को मालूम कर सकें, जिनका वो लफ़्ज़ी तर्जुमा हैं। चुनान्चे हमारे ज़माने के बाअज़ उलमा ने जो अरामी और यूनानी दोनों ज़बानों के माहिर हैं अनाजील-ए-अर्बा के यूनानी अल्फ़ाज़ का फिर दुबारा अरामी ज़बान में लफ़्ज़ी तर्जुमा करके अस्ल अरामी अनाजील के मतन का पता लगाने की कोशिश की है। ऐसा एक तर्जुमा इस वक़्त मेरी मेज़ पर रखा है। जिसका मुतर्जिम अमरीका का मशहूर फ़ाज़िल प्रोफ़ैसर टोरी (Prof Torrey) है।

इन्जील के मजमूए के बाक़ी रसाइल

पहली सदी के निस्फ़ के बाद दवाज़दा (12) रसूल की कोशिशों के तुफ़ैल और सदहा मसीही मुबल्लग़ीन की मसाई जमीला की बदौलत ग़ैर-यहूद कस्रत से कलीसिया में शामिल हो गए। जिसका नतीजा ये हुआ कि रसूलों और मुबल्लिग़ों ने जो ख़ुतूत मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं को पहली सदी के निस्फ़ हिस्से के बाद लिखे वो उन को यूनानी ज़बान में लिखने पड़े। इन ख़ुतूत में तेराह (13) ख़त मुक़द्दस पौलुस ने लिखे। दो मुक़द्दस पत्रस ने लिखे। तीन मुक़द्दस यूहन्ना ने लिखे। एक ख़त हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के भाई हज़रत याक़ूब ने लिखा। ये तमाम ख़ुतूत और रसाइल इब्तिदा ही से यूनानी ज़बान में लिखे गए और अब तक इन्जील के मजमूए में महफ़ूज़ हैं।

हिस्सा दोम

तम्हीद

हमने पहले हिस्से में शरह और बस्त के साथ डाक्टर टोरी के नज़रिये को बयान किया है कि अनाजील-ए-अर्बा पहले-पहल अरामी ज़बान में लिखी गईं और बाद में इन अरामी इंजीलों का यूनानी ज़बान में तर्जुमा किया गया। इस नज़रिये की ताईद में इस ज़य्यद आलिम ने अनाजील का नया तर्जुमा और एक मुशर्रेह किताब और मुतअद्दिद मज़ामीन शाएअ किए हैं। (6)

चंद दीगर उलमा भी डाक्टर टोरी के हम-नवा हो कर यही कहते हैं कि अनाजील अव़्वल-अव़्वल अरामी ज़बान में लिखी गईं और यह एक क़ुदरती बात मालूम देती है कि क्योंकि सय्यदना ईसा मसीह की और आप के बारह रसूलों की मादरी ज़बान अरामी थी और अव्वलीन नव मुरीद अरामी बोलने वाले यहूदी थे। जिनकी ख़ातिर ये अनाजील अहाता तहरीर में आईं। चुनान्चे आर्चडीकन ऐलन (Allen) इन्जील दुवम की निस्बत लिखते हैं कि :-

“मौजूदा यूनानी इन्जील अस्ल अरामी इन्जील मर्क़ुस का तर्जुमा है।” (7)


(6) Torrey, The Four Gospels. Also, Our Translated Gospels.
(7) St. Mark Oxford Church Biblical Commentary (Preface and Introduction)

प्रोफ़ैसर बरनी ने एक मबसूत किताब लिख कर ये साबित कर दिया है कि इन्जील चहारुम पहले-पहल अरामी ज़बान में लिखी गई थी जिस का बाद में यूनानी ज़बान में तर्जुमा किया गया। (8)इसी क़ाबिल मुसन्निफ़ ने एक और किताब में ये साबित किया है कि अनाजील-ए-अर्बा बिल-ख़ुसूस मुक़द्दस मत्ती की इन्जील, इब्रानी इल्म-ए-अदब की सनअतों से मामूर है।(9) मशहूर नक़्क़ाद डालमीन (Dalman) ने अपनी किताब (10)में साबित किया है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलिमात-ए-तय्यिबात की अस्ल ज़बान अरामी है जिनको यूनानी लिबास पहनाया गया है। दीगर उलमाए मग़रिब डाक्टर टोरी और प्रोफ़ैसर बरनी की तरह ये कहने को तैयार नहीं कि अनाजील अर्बा अव्वल से आख़िर तक तमाम की तमाम पहले-पहल अरामी ज़बान में लिखी गई थीं। लेकिन इन उलमा की तक़रीब क़रीब सब जमाअत इस अम्र पर मुत्तफ़िक़ है, कि अनाजील अर्बा के माख़ज़ कमोबेश सब के सब अरामी में थे जिन को यूनानी लिबास पहनाया गया है। (11)

प्रोफ़ैसर टोरी ने अपनी किताबों में ये साबित किया है कि यूनानी अनाजील अर्बा की जिन आयात की हम को समझ नहीं आती वो सबकी सब दर-हक़ीक़त अस्ल अरामी मतन का ग़लत यूनानी तर्जुमा हैं। इनकी समझ में ना आने की वजह यही है, कि यूनानी अनाजील के मुतर्जिमों ने इन आयात के किसी अरामी लफ़्ज़ का सही तर्जुमा नहीं किया। जिससे अस्ल मतलब ख़बत (दीवानगी) हो गया है। पस इस जय्यद आलम ने (जो अरामी और यूनानी दोनों ज़बानों का माहिर है) ऐसे यूनानी अल्फ़ाज़ का फिर से अरामी ज़बान में दुबारा तर्जुमा करके ग़लती खाने की अस्ल वजह दर्याफ़्त करके इस ख़ास लफ़्ज़ की अरामी ज़बान में तलाश करने की कोशिश की है जिसकी वजह से मुतर्जिम को धोका हुआ और जिस का उस ने ऐसा तर्जुमा कर दिया, जो अस्ल अरामी के मतलब को अदा नहीं करता और इस ग़लत तर्जुमे का नतीजा ये हुआ है कि इस ख़ास आयत को समझने में दिक्कत पेश आती है।

इस में शक नहीं कि डाक्टर टोरी और प्रोफ़ैसर बरनी के सबूत वज़न रखते हैं। रिसाला इस हिस्से से नाज़रीन डाक्टर मौसूफ़ के नए तर्जुमा को देख कर ख़ुद महसूस करेंगे कि उनके ख़यालात निहायत माक़ूल हैं। अगर साहब मौसूफ़ की ये कोशिश कामयाब हो जाए तो इन का ये नज़रिया पाया सबूत को पहुंच जाता है कि यूनानी अनाजील अर्बा दर-हक़ीक़त अरामी अस्ल मतन का तर्जुमा हैं।


(8) Burney, The Aramaic Origin of the Fourth Gospel Clarendon Press 1922
(9) Burney, The Poetry of Our Lord Oxford 1925
(10) Dalman, The Words of Jesus, T&T Clark, Edinburgh 1902.
(11) Black, Aramaic Approach to the Gospels and Acts,(Clarendon Press 1946)

मैंने ज़ेल में अनाजील अर्बा की सिर्फ तिहत्तर (73) मुश्किल और पेचीदा आयात का तर्जुमा किया है। ताकि जिस तरह मुझे डाक्टर टोरी की कुतुब के मुतालए से इन आयात का अस्ल मतलब समझने में मदद मिली है, उर्दू ख़वान नाज़रीन की मुश्किलात भी रफ़ा हो जाएं और वह इन्जील जलील की इन आयात के अस्ल मफ़्हूम को मालूम करके इन्जील जलील के मुतालए से मुस्तफ़ीद हो सकें।

अनाजील-ए-अर्बा की चंद आयात का नया तर्जुमा

(लूक़ा 16:8 ता 9)

“और मालिक ने बेईमान मुख़्तार की तारीफ़ की इसलिए कि उस ने होशयारी की थी। और मैं तुमसे कहता हूँ कि नारास्ती की दौलत से अपने लिए दोस्त पैदा करो ताकि जब वो बाक़ी रहे तो ये तुमको हमेशा के मस्कनों में जगह दें।” (लूक़ा 16:8 ता 9)

इन आयात का मौजूदा तर्जुमा सय्यदना मसीह की ताअलीम के ऐन ज़िद (उलट) है। क्योंकि इनसे ऐसा मालूम होता है कि आप एक बेईमान और ख़ाइन (ख़ियानत करने वाला) मुख़्तार की बद-दियानती को अपने शागिर्दों के लिए एक नमूना बतलाते हैं। लिहाज़ा मुफ़स्सिरीन हर मुम्किन तौर पर कोशिश करते हैं कि इन आयात की ऐसी तावील की जाये जो इन्जील जलील की ताअलीम के मुताबिक़ हो। लेकिन जहां तक राक़िम-उल-हरूफ़ का मुतालआ है ये कोशिशें बेकार साबित हुई हैं।

प्रोफ़ैसर टोरी साहब का ये नज़रिया है कि :-

“इन आयात का यूनानी मतन अरामी मतन का ग़लत तर्जुमा है। जिसकी वजह से उनके समझने में दिक़्क़त (मुश्किल) पेश आती है। वो कहते हैं कि अरामी ज़बान में इस्तिफ़हामीया (सवालिया जुम्ले का) निशान नहीं पाया जाता था लेकिन सियाक़ व सबाक़ के ज़रीये पढ़ने वाले पर ज़ाहिर हो जाता था कि फ़िक़्रह बयानिया है या कि इस्तिफ़हामीया (सवालिया) है।”

पस जब कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अरामी ज़बान में आयात 8 और 9 को अपनी ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया तो आप का दरहक़ीक़त ये कहने का मंशा था, क्या मालिक ने बेईमान मुख़्तार की तारीफ़ की इसलिए कि उस ने होशयारी की थी? (हरगिज़ नहीं) और क्या मैं तुमसे कहता हूँ कि नारास्ती की दौलत से अपने लिए दोस्त पैदा करो? (हरगिज़ नहीं।)”

पस इस नज़रिये से ये इन आयात का मतलब साफ़ और वाज़ेह हो जाता है जो इन्जील जलील की अख़्लाक़ी और रुहानी ताअलीम के ऐन मुताबिक़ भी है। इस मुक़ाम में कलिमतुल्लाह (मसीह) अपने शागिर्दों को ईमानदारी का सबक़ देना चाहते हैं ताकि वो इन उमूर का जो उन के सपुर्द किए गए हैं सही इस्तिमाल करें। क्योंकि अंदेशा है कि उन के ग़लत इस्तिमाल से वो उन को हाथ से खो बैठेंगे और अगर वो अपनी दुनियावी तरक़्क़ी और नफ़्स पर्वरी की ख़ातिर इनका ग़लत इस्तिमाल करेंगे तो इन का नुक़्सान करेंगे। इस सबक़ को ज़हन नशीन करने के लिए कलिमतुल्लाह (मसीह) ने हस्ब-ए-आदत एक तम्सील के ज़रीये उन को ताअलीम दी जो तन्ज़ आमेज़ है। और तंज़ीफ़ाना पैराए (रम्ज़ के साथ बयान करना) में बयान की गई है। आप फ़र्माते हैं कि अगर इस जहान के फ़र्ज़न्द होशियार और चालाक हों तो वो अपनी मुख्तारी को बद-दियानती से अपनी दुनियावी तरक़्क़ी का वसीला बना लेते हैं लेकिन नूर के फ़र्ज़न्द ये ग़लत ख़याल रखते हैं कि वो ख़ुदा और दौलत दोनों की ख़िदमत कर सकते हैं। क्या इनके दोस्त जिनको वो रिश्वत देते हैं ये ज़िम्मा ले सकते हैं कि वो इन को फ़िर्दोस में जगह देंगे? जब दौलत जैसी मामूली शैय अपना बुरा असर छोड़े बग़ैर नहीं रह सकती और वह ना रास्त दौलत के मुआमले में दियानतदार ना ठहरे तो कौन है जो हक़ीक़ी दौलत को उन के सपुर्द कर देगा? पस आयात (लूक़ा 8 ता 13) यूं पढ़ी जानी चाहीऐं।

(जब बेईमान मुख़्तार ने अपने मालिक को इस तरह दग़ा दी) तो क्या मालिक ने बेईमान की तारीफ़ की होगी। इसलिए कि उस ने होशयारी की थी? (क्योंकि इस जहान के फ़र्ज़न्द अपने हम-जिंसों के साथ मुआमलात में नूर के फ़रज़न्दों से ज़्यादा होशियार हैं)? (हरगिज़ नहीं) और क्या मैं तुमसे कहता हूँ कि नारास्ती की दौलत से अपने लिए दोस्त पैदा करो ताकि जब वो जाती रहे तो ये तुम को हमेशा के लिए मस्कनों में जगह दें? (हरगिज़ नहीं) जो थोड़े से थोड़े में दयानतदार है वो बहुत में भी दयानतदार है और जो थोड़े से थोड़े में बद-दयानत है वो बहुत में भी बद-दयानत है। पस जब तुम नारास्त दौलत में दयानतदार ना ठहरे तो हक़ीक़ी दौलत कौन तुम्हारे सपुर्द करेगा? और अगर तुम बेगाने माल में दयानतदार ना ठहरे तो जो तुम्हारा अपना है उसे कौन तुम्हें देगा? कोई नौकर दो मालिकों की ख़िदमत नहीं कर सकता। तुम ख़ुदा और दौलत दोनों की ख़िदमत नहीं कर सकते।

मत्ती 26 बाब 45 आयत, मर्क़ुस 14 बाब 41 आयत

मौजूदा तर्जुमे के मुताबिक़ बाग़ गतसमनी में जांकनी के वक़्त ख़ुदावंद अपने तीन मुक़र्रब शागिर्दों को हुक्म देते हैं, “अब सोते रहो और आराम करो।” हालाँकि इस से क़ब्ल आपने उन को हुक्म दिया था, तुम यहां ठहरो और जागते रहो।” (आयत 35) और जब उन को खिलाफ-ए-तवक़्क़ो सोता पाया तो फ़रमाया था ऐ शमऊन तू सोता है? क्या तू एक घड़ी भी ना जाग सका?, (आयत 37) फिर ताज्जुब ये है कि सोने और आराम देने का हुक्म देते हैं और हुक्म देने के ऐन बाद फ़र्माते हैं। “बस वक़्त आ पहुंचा उट्ठो।” (आयात 41, 42) ये क्यों?

नाज़रीन को याद होगा कि हमने (लूक़ा 16 बाब की 8 ता 9 आयत) पर बह्स करते वक़्त ये बतलाया था कि अरामी ज़बान में इस्तिफ़हामीया (सवालिया) निशान नहीं था। लेकिन सियाक़ व सबाक़ के ज़रीये पढ़ने वाले पर ज़ाहिर हो जाता था कि फ़िक़्रह बयानिया है या इस्तिफ़हामीया, आयत ज़ेर-ए-बहस भी दर-हक़ीक़त इस्तिफ़हामीया है। इस मुक़ाम में आँख़ुदावंद अपने मुक़र्रब शागिर्दों को सोने का हुक्म नहीं देते। बल्कि सवाल करते हैं। “क्या तुम अब भी सोते और आराम करते रहोगे?”

जर्मन नक़्क़ाद व लहासन का भी यही ख़याल है। (12) इस नज़रिये को (लूक़ा 22 बाब की 46 आयत) से भी तक़वियत मिलती है। जहां सय्यदना ईसा इनसे सवाल करते हैं “तुम सोते क्यों हो?”

पस इन आयात का सही उर्दू तर्जुमा हस्ब-ज़ैल है :-

“फिर वो एक जगह आए जिसका नाम गतसमनी था। और उस ने अपने शागिर्दों से कहा, “तुम यहां ठहरो और जागते रहो और वह थोड़ा आगे बढ़ा और ज़मीन पर गिर कर दुआ मांगने लगा। फिर वह आया और उन्हें सोता पाकर पतरस से कहा, ऐ शमऊन तू सोता है? क्या तू एक घड़ी भी ना जाग सका? जागो और दुआ माँगो ताकि (बवक़्ते) इम्तिहान (जो क़रीब है) तुम गिर ना जाओ।” फिर वो चला गया और फिर आकर उन्हें सोते पाया। और वह उन्हें छोड़ कर फिर चला गया। फिर तीसरी बार उन से कहा क्या तुम अब भी सोते और आराम करते रहोगे? बस वक़्त आ पहुंचा है...।(13) (मर्क़ुस 14 बाब की 32-42 आयत

यूहन्ना 6 बाब की 32 आयत

“मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि मूसा ने तुम्हें आस्मानी रोटी ना दी। लेकिन मेरा बाप तुमको हक़ीक़ी रोटी आस्मान से देता है।”

मौजूदा तर्जुमे के मुताबिक़ सय्यदना मसीह एक सरीह वाक़िये का इन्कार करते हैं और अजीब बात ये है कि इस वाक़िये का इन्कार आपकी दलील के लिए ज़रूरी ना था और ना आपके मुख़ालिफ़ों ने हज़रत मूसा का नाम ही लिया था। इन बातों के बरअक्स इस वाक़िये का तस्लीम करना ही आपकी दलील की बुनियाद थी। बिना-बरीं मतन का ये यूनानी तर्जुमा सही मालूम नहीं होता।


(12) McNeil, St. Matthew p.392
(13) The end and the hour are pressing (Black, An Aramaic Approach to the Gospels p.162

हम बतला चुके हैं कि अरामी ज़बान में इस्तिफ़हामीया (सवालिया) निशान ना था। लेकिन अहले ज़बान पढ़ते वक़्त समझ जाते थे कि फ़ुलां फ़िक़्रह बयानिया है या इस्तिफ़हामीया (सवालिया)। सवाल की सूरत और पूछने का अंदाज़ और बोलने वाले का तरीक़ा ख़िताब सामईन (सुनने वालों) पर ख़ुद ज़ाहिर कर देता था कि फ़िक़्रह इस्तिफ़हामीया (सवालिये जुम्ले) का जवाब, “हाँ” है या “नहीं” मसलन अगर बोलने या पढ़ने वाला कहे “बादशाह साहिबे क़ुद्रत नहीं है” तो अगर उस का अंदाज़-ए-ख़िताब सवालिया होगा तो इस का मतलब ये होगा, “क्या बादशाह क़ुद्रत वाला नहीं है?” और इस का जवाब सामईन (सुनने वालों) के दिलों में होगा “हाँ वो ज़रूर क़ुद्रत वाला है।” लेकिन अगर उस का अंदाज़-ए-ख़िताब सवालिया नहीं होगा तो ये जुम्ला बयानिया होगा कि बादशाह क़ुद्रत वाला शख़्स नहीं है।

प्रोफ़ैसर टोरी के मुताबिक़ ये आयत बयानिया नहीं जैसा कि मौजूदा तर्जुमा ज़ाहिर करता है। बल्कि इस्तिफ़हामीया (सवालिया) है। फ़सीह अरामी मुक़र्रर उमूमन ऐसा सवाल करते थे, जिसका जवाब मुख़ालिफ़ व मुवालिफ़ के नज़्दीक मुसल्लम होता। फिर वह इस मुसल्लम जवाब को अपनी दलील की बुनियाद क़रार दे कर बह्स करते थे। और अपने दावे को साबित करते थे मसलन (ज़बूर 94:8-11 अम्साल 6:27) वग़ैरह। सय्यदना मसीह ने यही तर्ज़ इख़्तियार फ़रमाया। आप यहूदी सामईन (सुनने वालों) से फ़र्माते हैं, “मैं तुमसे एक सच्ची बात करता हूँ। क्या मूसा ने तुमको रोटी आस्मान से ना दी थी? (हाँ। ज़रूर दी थी) लेकिन (अब) मेरा बाप तुमको (बग़ैर किसी इन्सानी वसीले के) आस्मान से हक़ीक़ी रोटी बख़्शता है।”

आँख़ुदावंद अक्सर इस क़िस्म की दलील से मुख़ालिफ़ीन का मुँह बंद किया करते थे। मसलन इसी इन्जील के अगले बाब में आप शक्क़ी यहूद से पूछते हैं। क्या मूसा ने तुम्हें शरीअत नहीं दी? (हाँ, ज़रूर दी) तो भी तुम में से शरीअत पर कोई अमल नहीं करता। तुम क्यों मेरे क़त्ल की कोशिश में हो।” (7 बाब 19 आयत)

पस इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये हुआ :-

“सय्यदना ईसा ने उन से कहा, क्या मूसा ने वो रोटी तुमको आस्मान से ना दी थी? लेकिन मैं तुमसे सच्च सच्च कहता हूँ कि मेरा बाप आस्मान से तुम्हें हक़ीक़ी रोटी देता है।”

यूहन्ना 7 बाब 27 से 28 आयत

“इस को तो हम जानते हैं कि वो कहाँ से है पर मसीह जब आएगा। तब कोई नहीं जानेगा कि वो कहाँ से है। येसू ने हैकल में ताअलीम देते वक़्त पुकार कर कहा, तुम मुझे जानते हो। और यह भी कि मैं कहाँ से हूँ। मैं तो आप से नहीं आया लेकिन मेरा भेजने वाला सच्चा है, जिसे तुम नहीं जानते।”

मौजूदा मतन के मुताबिक़ इस मुक़ाम में अहले-यहूद कहते हैं कि वो ख़ुदावंद को जानते हैं और ख़ुदावंद भी इस बात का इक़बाल करते हैं कि अहले-यहूद आपको जानते हैं और फ़र्माते हैं कि ख़ुदा सच्चा है। जो मुतनाज़िया फिया बात ही ना थी और जिस का अहले-यहूद ने इन्कार भी नहीं किया था। इलावा अज़ीं इस के बाद ही आप फ़र्माते हैं कि यहूद आप को नहीं जानते (8:14 ता 19) इन मुश्किलात की बिना पर टोरी साहब ख़याल करते हैं कि मतन का मौजूदा यूनानी तर्जुमा ग़लत है। बल्कि अस्ल अरामी कलिमा जो सय्यदना मसीह ने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया था वो बयानिया नहीं था। बल्कि दर-हक़ीक़त इस्तिफ़हामीया (सवालिया) था। जिसका जवाब नफ़ी (इन्कार) में था। डाक्टर टोरी का तर्जुमा दोनों मुश्किलों को दूर कर देता है आपके ख़याल में सही तर्जुमा ये है :-

“यहूद कहने लगे कि इस को तो हम जानते हैं कि कहाँ का है। मगर मसीह जब आएगा तो कोई ना जानेगा कि वो कहाँ का है। पस येसू ने हैकल में ताअलीम देते वक़्त पुकार कर कहा क्या तुम नहीं जानते हो? और क्या तुम ये भी नहीं जानते हो कि मैं कहाँ का हूँ? (हरगिज़ नहीं) लेकिन हक़ तो ये है कि मैं आपसे नहीं आया बल्कि जिसने मुझे भेजा है उस को तुम नहीं जानते।”

यूहन्ना 11 बाब 49 आयत

“इनमें से काइफ़ा नाम एक आदमी जो इस साल सरदार काहिन था उस ने कहा, तुम कुछ नहीं जानते हो और यह सोचते नहीं हो कि तुम्हारे लिए यही बेहतर है कि एक आदमी उम्मत के वास्ते मरे और सारी क़ौम हलाक ना हो।”

डाक्टर टोरी के मुताबिक़ ये फ़िक़्रह भी इस्तिफ़हामीया (सवालिया) है बयानिया नहीं। इस में कुछ शक नहीं कि अगर ये फ़िक़्रह इस्तिफ़हामीया (सवालिया) मान लिया जाये तो वो ज़्यादा मोअस्सर हो जाता है। और इन्जील नवीस के मक़्सद को बेहतर तौर पर अदा करता है। चुनान्चे ये तर्जुमा यूं होगा :-

“क्या तुम कुछ सूझ नहीं रखते? क्या तुम ये सोच नहीं सकते कि तुम्हारे लिए यही बेहतर है कि एक आदमी उम्मत के वास्ते मरे ना कि सारी क़ौम हलाक हो।”

यूहन्ना 12 बाब 7 आयत

“इसे ये इत्र मेरे दफ़न के लिए रखने दे।”

यहां अजीब बात ये है कि औरत ने इत्र को येसू के पांव पर डाल दिया था। लेकिन आँख़ुदावंद यहूदा ग़द्दार को फ़र्माते हैं कि इसे ये इत्र मेरे दफ़न के दिन के लिए रखने दे। जब इत्र ख़त्म हो चुका है तो वो किस तरह रखा जा सकता है? प्रोफ़ैसर टोरी के मुताबिक़ अरामी अस्ल का ये यूनानी तर्जुमा ग़लत है सही तर्जुमा ये है :-

“इसे (यानी औरत को) रहने दो। क्या वो ये इत्र मेरे दफ़न के दिन लिए रख छोड़े?” पस अस्ल अरामी फ़िक़्रह बयानिया नहीं बल्कि इस्तिफ़हामीया (सवालिया) है।

मर्क़ुस 4:12 लूक़ा 8:10 मत्ती 13:13

“उनके लिए जो बाहर हैं सब बातें तम्सिलियों में होती हैं ताकि वो देखते हुए देखें और मालूम ना करें और सुनते हुए सुनें और ना समझें। ऐसा ना हो कि वो रुजू लाएं और माफ़ी पाएं।”

अहले-यहूद की कुतुब मुक़द्दसा में ख़ुदा के अस्ल मक़्सद और उस के अटल क़वानीन के नताइज में तमीज़ नहीं की गई। हर वाक़िया ख़ुदा के मक़्सद और इरादा का ज़हूर तसव्वुर किया जाता था। अगर अहले यहूद ताइब हो कर ख़ुदा के पास नहीं आते तो ये समझा जाता था कि ख़ुदा का यही इरादा था कि वो नजात ना पाएं। चुनान्चे यसअयाह नबी कहता है, “ख़ुदा ने मुझे फ़रमाया कि जा और उन लोगों से कह कि तुम सुना करो और समझो नहीं। तुम देखा करो पर बूझो नहीं। तू उन लोगों के दिलों को चर्बा दे और उन के कानों को भारी कर और उन की आँखें बंद कर दे ताकि ना हो कि वो अपनी आँखों से देखें और अपने कानों से सुनें और अपने दिलों से समझ लें और बाज़ आएं और शिफ़ा पाएं।” (यसअयाह 6:9 ता 10) निज़ देखो (2 तवारीख़ 11:4)

बईना यही सवाल मुक़द्दस पौलुस और दीगर यहूदी मसीहियों के सामने था। उन की समझ में ये नहीं आता था कि जब मसीह अहले-यहूद के पास आया तो उस के अपनों ने उसे क़ुबूल ना किया। पस उन्हों ने भी अहले-यहूद के अम्बिया के हल को तस्लीम कर लिया कि ख़ुदा की मर्ज़ी ये नहीं थी कि वो नजात से बहरावर हों। (आमाल 28:25-38, यूहन्ना 12:38-40 वग़ैरह)

लेकिन अनाजील-ए-अर्बा का सतही मुतालआ भी ये ज़ाहिर कर देता है कि सय्यदना मसीह इस क़िस्म के ख़याल रखने वाले इन्सान ना थे। आप जानते थे कि आप कुल बनी नूअ इन्सान को नजात देने के लिए इस दुनिया में आए। आपको ये ज़बरदस्त एहसास था कि ख़ुदा की ये मर्ज़ी नहीं कि अदना से अदना इन्सान भी इस नजात से बे-बहरा (महरूम) रहे। (यूहन्ना 12:46, 3:16 वग़ैरह)

लेकिन इस के बरअक्स ज़ेर-ए-बहस आयात (मत्ती 13:13, मर्क़ुस 4:12, लूक़ा 8:10) से ज़ाहिर होता है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की तम्सिलियों में ताअलीम देने की ग़र्ज़ ही ये थी कि “लोग आपके इशारात को ना समझें और ताइब हो कर माफ़ी ना पाएं।” मुक़द्दस मत्ती लफ़्ज़ “ताकि” के बजाय “कि” इस्तिमाल करता है। (मत्ती 13:13) और बज़ाहिर यही मालूम देता है कि आँख़ुदावंद का अस्ल मक़्सद ये था कि बारह रसूलों के सिवा आपकी तम्सिलियों को समझ कर कोई तौबा ना करे।

एक और बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है मुक़द्दस मत्ती के बयान के मुताबिक़ हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ख़ुद यसअयाह की मज़्कूर बाला पेशीनगोई का इक़्तिबास फ़र्माते हैं। जिस किसी ने इन्जील-ए-अव़्वल का सतही मुतालआ भी किया है वो जानता है कि मुक़द्दस मत्ती अपनी इन्जील में बार-बार अम्बिया यहूद की पेशीन गोइयों के पूरा होने का ज़िक्र करते हैं और उन का इक़्तिबास करने से पहले हर मौक़े पर लिखते हैं “क्योंकि जो नबी की मार्फ़त कहा गया था वो पूरा हो।” “क्योंकि नबी की मार्फ़त यूं लिखा गया है।” (मत्ती 1:23, 2:5, 17, 4:14 13:35 वग़ैरह) लेकिन इस मुक़ाम में इन्जील नवीस ये फार्मूले इस्तिमाल नहीं करता क्योंकि यहां कलिमतुल्लाह (मसीह) ख़ुद फ़र्माते हैं “उन के हक़ में यसअयाह की पेशीनगोई पूरी हुई.....। और मैं उन को शिफ़ा बख्शूं।” अगर नाज़रीन यसअयाह नबी की किताब के अल्फ़ाज़ (यसअयाह 6:9 ता 10) और मुनज्जी आलमीन के अल्फ़ाज़ (मत्ती 13:14 ता 15) का बग़ौर मुक़ाबला करें तो दोनों इबारतों में हैरत-अंगेज़ फ़र्क़ पाएँगे जो हम पर फ़ौरन ज़ाहिर कर देता है कि ख़ुदावंद के वहम व गुमान में भी ये बात ना आई थी कि यसअयाह नबी के अल्फ़ाज़ से ये साबित करें कि तम्सिलियों में ताअलीम देने की ग़र्ज़ ये थी कि लोग ताइब हो कर रुजू ना लाएं।

इस इख़्तिलाफ-ए-क़िरआत की क्या वजह है? प्रोफ़ैसर मैनसन (14) (T.W. Manson) कहते हैं, कि ये इक़्तिबास यसअयाह की किताब के अस्ल इब्रानी मतन या उस के यूनानी सेप्टवाजिंट (Septuagint) तर्जुमे से नहीं लिया गया बल्कि तारगम (या तराजिम यानी यहूदी तोज़हीह) से किया गया है। तारग़म के इस मुक़ाम (यसअयाह 9:9) में लिखा है :-

“और ख़ुदावंद ने मुझे फ़रमाया जा और उन लोगों से कह जो देखते हुए नहीं देखते और सुनते और नहीं समझते ता ऐसा ना हो कि आँखों से मालूम करें और दिल से समझें और रुजू लाएं और मैं उन को शिफ़ा बख्शूं।”

अगर प्रोफ़ैसर मज़्कूर का ये ख़याल सही है (और हम को इस के क़ुबूल करने में मुतलक़ ताम्मुल नहीं) तो ये साबित हो जाता है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के ख़याल मुबारक के मुताबिक़ यसअयाह के तारगमी अल्फ़ाज़ के मिस्दाक़ वो लोग हैं जो दीदा दानिस्ता (जानबूझ कर) आँखें और कान बंद कर लेते हैं ताकि हक़ का कलिमा उनके दिलों में जड़ पकड़ कर उनको तौबा पर मज्बूर ना कर दे। ख़ुदा का ये मक़्सद था कि वो नजात पाएं लेकिन उनके अपने सरकश दिल उनको ख़ुदा की तरफ़ रुजू करने नहीं देते। ये तश्रीह सीधी-सादी है और इस को क़ुबूल करने से कोई मुअम्मा हल तलब नहीं रहता।

नाज़रीन ने ये नोट किया होगा कि इंजीली उर्दू तर्जुमे के अल्फ़ाज़ “कि और ताकि” की बजाय मज़्कूर बाला तर्जुमे में लफ़्ज़ “जो” इस्तिमाल किया गया है। जिसने हर मुश्किल को रफ़ा कर दिया है। सय्यदना मसीह की मादरी ज़बान अरामी थी। जिसमें आप ताअलीम दिया करते थे। आपने अरामी ज़बान का ज़मीर मौसूला “दी” (دِ) का इस्तिमाल फ़रमाया था जिसका मफ़्हूम यूनानी ज़बान में तीन अल्फ़ाज़ से अदा होता है, “जो, कि, ताकि” जिस तरह फ़ारसी ज़मीर मौसूला “कि” का मफ़्हूम उर्दू ज़बान में “जो, कि, ताकि” से अदा होता है जब अनाजील अर्बा के अरामी मतन का यूनानी तर्जुमा किया गया तो इन्जील-ए-अव़्वल के मुतर्जिम ने लफ़्ज़ “द” (د) के लिए लफ़्ज़, “कि” (کہ) इस्तिमाल किया और इन्जील दोम और सोम के मुतर्जमीन ने लफ़्ज़ “ताकि” इस्तिमाल किया। हालाँकि इस मुक़ाम में लफ़्ज़ “जो” सही तर्जुमा था। यूनानी मतन का ये ग़लत तर्जुमा अनाजील अर्बा के मुतअद्दिद मुक़ामात में ग़लत-फ़हमियाँ पैदा कर देता है। इंशा-अल्लाह हम आइन्दा आयात में भी ये वाज़ेह कर देंगे कि अरामी ज़मीर मौसूला “दी” (دِ) का ग़लत तर्जुमा बहुत दिक्कतों और मुश्किलों का ज़िम्मेवार है।


(14) T.W. Manson, Teaching of Jesus p.76 (Cambridge 1931)

पस आयात ज़ेर-ए-बहस का सही उर्दू तर्जुमा ये है “तुमको ख़ुदा की बादशाही का भेद दिया गया है। मगर उनके लिए सब बातें तम्सीलों में होती हैं जो देखते हुए मालूम नहीं करते और सुनते हुए नहीं समझते। ऐसा ना हो कि वो रुजू लाएं और माफ़ी पाएं।” (मर्क़ुस 4:12)

Black, Aramaic Approach pp.153-8

मत्ती 5 बाब 48 आयत

“तुम कामिल हो जैसा तुम्हारा आस्मानी बाप कामिल है।”

सदीयों से ये आयत मुफ़स्सिरों के लिए दर्द-ए-सर का मूजिब रही है। बाअज़ इस से ये मतलब अख़ज़ करते हैं कि मसीही का ये फ़र्ज़ है कि अपने आपको इस दर्जे तक कामिल करे कि इलाही फ़ज़्ल उस में कमाल तक पहुंच जाये। जिसका नतीजा एक ऐसी शख़्सियत हो जाए जिससे ज़्यादा कामिल ज़िंदगी तसव्वुर में भी नहीं आ सकती। चुनान्चे रियाज़त कश रहबान कहते थे कि इस आयत का मतलब ये है कि शख़्सी पाकीज़गी की इंतिहाई मंज़िल हासिल हो जाए जिसमें ख़ुदा की वो सूरत ज़ाहिर हो जाए जिस पर बाग़-ए-अदन में इन्सान ख़ल्क़ होने के वक़्त पैदा किया गया था। चुनान्चे मग़रिबी ममालिक के क़ुरून-ए-वुसता के मुतकल्लिमीन फ़ल्सफ़ियाना बारीकियों को काम में लाकर कहते थे कि आदम की मअसियत और नस्ल-ए-इन्सानी के हुबूत (नाज़िल, नीचे उतरना) के वक़्त ख़ुदा की सूरत (जिस पर इन्सान पैदा किया गया था) नहीं मिट्टी थी गो मुशाबहत का ख़ातिमा हो गया था।

(1)

दीगर मुफस्सिरीन(15) कहते थे कि इस आया (आयत) शरीफा का ये मतलब है कि हम मसीह की मानिंद हो जाएं जो ख़ुदा की सूरत पर था और ख़ुदा था। मसीह कामिल इन्सान थे और “हम पर फ़र्ज़ है कि हम कामिल इन्सान बनें और मसीह के कद के पूरे अंदाज़े तक पहुंच जाएं।” (इफ़िसियों 4:13, कुलस्सियों 1:28) इस के ख़िलाफ़ दीगर मुफ़स्सिर कहते हैं कि ये अम्र इन्सानी फ़ित्रत और नस्ले इन्सानी की तारीख़ के ख़िलाफ़ है। इस तसव्वुर का (कि इन्सान ख़ुदा के कमाल को हासिल कर सकता है) किताब मुक़द्दस में नामो निशान भी नहीं मिलता। गोया ग़ैर-मसीही बुत-परस्त फिलासफरों का मतमा नज़र ज़रूर था। पस इस हुक्म से मुराद ये है कि इन्सान ज़ईफ़-उल-बयान (इन्सान, कमज़ोर) पर ज़ाहिर हो जाए कि वो ख़ुद अपनी कोशिशों से ये मंज़िल नहीं हासिल कर सकता और कि सिर्फ वही इन्सान नजात हासिल करते हैं जिनको या तो ख़ुदा अपने अज़ली इरादे के मुताबिक़ पहले से चुन लेता है या जिनको फ़ज़्ल की मामूरी हासिल हो जाती है। बहरहाल इन्सानी आमाल बेकार रहें और इन्सानी कोशिश बेसूद है। लिहाज़ा दोनों का इस मुआमले में दख़ल नहीं। ये बह्स मुक़द्दस ऑगस्टीन से दौर-ए-हाज़रा तक बराबर जारी है।

(2)

बाअज़ उलमा इन उलझनों से छुटकारा हासिल करने के लिए इस आयत में लफ़्ज़ कामिल की जगह रहीम तर्जुमा करके कहते हैं कि इस आयत का मतलब ये है, तुम रहीम हो जैसा तुम्हारा आस्मानी बाप रहीम है लेकिन मशहूर जर्मन आलिम और ज़बान दान डालमन कहता है कि ये तर्जुमा सिर्फ कोई नावाक़िफ़ शख़्स ही कर सकता है।(16)

(3)

यहां एक और सवाल पैदा होता है कि ख़ुदा की ज़ात एक कामिल हस्ती है और जिन माअनों में वजूद-ए-मुतलक़ कामिल है उन माअनों में कोई इन्सान ज़ईफ़-उल-बयान कामिल नहीं हो सकता। क्यों कि जैसा मुक़द्दस याक़ूब फ़रमाता है “ना तो ख़ुदा बदी से आज़माया जा सकता है और ना वो किसी को आज़माता है।” (याक़ूब 1:13) लेकिन इन्सान आज़माया जाता है और आज़माईश पर ग़ालिब आकर ही कामिल होता है। चुनान्चे सय्यदना मसीह की कामिलियत का भी यही राज़ था। (इब्रानियों 4:15 मत्ती 4:1) और ख़ुद सय्यदना मसीह की ज़बान-ए-सदाक़त बयान ने इस फ़र्क़ को तस्लीम फ़रमाया है (मर्क़ुस 10:18) बड़ी से बड़ी बात जो इन्सान कर सकता है वो ये है कि, “बेऐब और भोले हो कर ख़ुदा का बे-नुक़्स फ़र्ज़न्द बना रहे।” (फिलिप्पियों 2:15) ज़ात-ए-इलाही की तरह कामिल होना इन्सान के लिए नामुम्किन है। अंदरें हाल सय्यदना मसीह के इस फ़र्मान का क्या मतलब है, जो इस आया शरीफा में मौजूद है?


(15) Thomas Aquinas, Summa Theological 1Art. 9
(16) Dalman, Words of Jesus p.66

इलावा अज़ीं सियाक़ व सबाक़ की आयात का इस आया शरीफा से कोई ताल्लुक़ नज़र नहीं आता। इन आयात में कलिमतुल्लाह (मसीह) फ़र्माते हैं, “अपने दुश्मनों से मुहब्बत रखो। अपने सताने वालों के लिए दुआ करो ताकि तुम अपने बाप के जो आस्मान पर है बेटे ठहरो क्योंकि वो अपने सूरज को बदों और नेकों दोनों पर चमकाता है और रास्तबाज़ों और नारास्तों दोनों पर मीना (पानी) बरसाता है।” फिर ऐन इस के बाद नतीजे के तौर पर फ़र्माते हैं, “पस चाहिए कि तुम कामिल हो जैसा तुम्हारा आस्मानी बाप कामिल है।” लेकिन पहली आयात में अख़्लाक़ी कामिलियत का ज़िक्र नहीं बल्कि इलाही मुहब्बत के सब पर हावी होने का ज़िक्र है। और आया ज़ेर-ए-बहस में लफ़्ज़, “पस” ज़ाहिर करता है कि इस आयत में पेश्तर की आयात का नतीजा मौजूद है। जिसमें लिखा है कि ख़ुदा की अख़्लाक़ी कामिलियत के कमाल की सी कामिलियत हासिल करो।

(4)

डाक्टर टोरी का तर्जुमा इस क़िस्म की तमाम उलझनों और मुश्किलों को हल कर देता है वो कहते हैं कि यहां मुतर्जिम ने अस्ल अरामी लफ़्ज़ पर ग़लत एराब लगा कर पढ़े जिनकी वजह से यूनानी मतन का ग़लत तर्जुमा वजूद में आ गया है। इस आलिम का ख़याल है कि अस्ल अरामी अल्फ़ाज़ थे “हू जमरन” (ھوجمرن) जिसके मअनी हैं कुशादा, वसीअ, मुहीत, जामेअ, लेकिन यूनानी मुतर्जिम इस को “जमर” (جمر) पढ़ गया जिसके मअनी कामिल के हैं।

पस डाक्टर टोरी के मुताबिक़ इस आया शरीफा का सही तर्जुमा (जो सियाक़ व सबाक़) के मुताबिक़ भी है, ये है :-

“जिस तरह तुम्हारे आस्मानी बाप (की मुहब्बत) सब पर हावी है। चाहिए कि तुम्हारी (मुहब्बत) भी जामेअ हो। यानी जिस तरह ख़ुदा बाप तमाम बदों और नेकों, नारास्तों और रास्तबाज़ों से मुहब्बत रखता है। तुम भी अपनी मुहब्बत के दायरे में सबको शामिल करलो। और किसी को इस दायरे से मुस्तिशना (बाहर) ना करो।

ये तर्जुमा सीधा है और सियाक़ व सबाक़ के ऐन मुताबिक़ है। और सब मुश्किलों को हल कर देता है और इस से पहली आयात का नतीजा भी ज़ाहिर कर देता है।

मत्ती 8:9 लूक़ा 7:8

इस आयत में सूबेदार सय्यदना मसीह को कहता है “क्यों कि मैं भी दूसरे के इख़्तियार में हूँ और सिपाही मेरे मातहत हैं।” बादियुन्नज़र में इस क़ौल के पहले हिस्से में सूबेदार गोया कहता है “ऐ ख़ुदावंद मैं भी तेरी तरह दूसरे के इख़्तियार में हूँ।” लेकिन दर-हक़ीक़त ये इस का मतलब नहीं है। डाक्टर टोरी कहता है कि अस्ल अरामी अल्फ़ाज़ के ग़लत यूनानी तर्जुमा का ये नतीजा है। इस हिस्से का सही तर्जुमा ये है कि “क्योंकि मैं भी दूसरों पर इख़्तियार रखता हूँ और सिपाही मेरे मातहत हैं।” इस तर्जुमे में किसी तरह की दिक़्क़त पेश नहीं आती।

मत्ती 10:2

और बारह रसूलों के नाम ये हैं, “पहला पतरस” इस तर्जुमे में ये दिक़्क़त पेश आती है कि मुक़द्दस पतरस, “पहला” रसूल नहीं था जो सय्यदना मसीह के पीछे हो लिया। ना आप मुक़द्दस इन्द्रियास से पहले सय्यदना मसीह के हल्क़ा-ब-गोश हुए थे। ये भी ज़ाहिर है कि यहां लफ़्ज़ “पहला” से मुराद किसी क़िस्म का तफ़व्वुक़ या मुक़द्दम होना नहीं है।” (देखो मर्क़ुस 10:44, मत्ती 20:27, लूक़ा 22:26) डाक्टर टोरी कहते हैं कि अरामी ज़बान में लफ़्ज़ “पहले” अल्फ़ाज़ “बारह” और “रसूल” के दर्मियान था। यानी इबारत ये थी, “और बारह पहले रसूलों के नाम ये हैं।” “पतरस........” लफ़्ज़ “पहले” के लिए अरामी लफ़्ज़ “क़दीम” था ना कि “मुक़द्दम” जब मुक़द्दस मत्ती इस इन्जील को लिख रहे थे इस ज़माने में मुक़द्दस मतियाह का नाम बारह रसूलों में शामिल था। (आमाल 1:15 ता 26) मुक़द्दस मत्ती का मंशा क़दीम रसूलों के नामों का बतलाना था। पस आयत हज़ा का सही तर्जुमा ये है, “और पहले बारह रसूलों के नाम ये हैं।”

मत्ती 10:4, मर्क़ुस 3:19, लूक़ा 6:16

बारह शागिर्दों की फ़हरिस्त में आख़िरी नाम है, यहूदाह इस्करियोती। जिसने उसे पकड़वा भी दिया।

बाअज़ मुफ़स्सिर “इस्करियोती” से मुराद क़ुरियोत (قریوت) का रहने वाला कहते हैं।” (देखो यर्मियाह 48:34 वग़ैरह) अगर ये दुरुस्त है तो बारह रसूलों में से सिर्फ यहूदाह ही अकेला शख़्स था जो यहूदिया का रहने वाला था क्योंकि बाक़ी तमाम शागिर्द गलीली थे। दीगर मुफ़स्सिरों का ये ख़याल है कि “इस्करियोती” का मतलब ये है कि वो सिकरी (Sicarii) यानी ख़ंजर चलाने वाला था। ये गिरोह रूमी सल्तनत को दिरहम ब्रह्म करने के लिए तशद्दुद के तरीक़ों का हामी था। इस के मैंबरान यहूदीयों को क़त्ल करना अपना फ़र्ज़ समझते थे जो इस सल्तनत के वफ़ादार थे। डाक्टर टोरी कहते हैं कि :-

“लफ़्ज़ “इस्करियोती” एक दोगला लफ़्ज़ है। जिसके मअनी ग़द्दार हैं। अरामी लफ़्ज़ “शक़ार” (شقار) के मअनी ग़द्दार और दग़ाबाज़ के हैं। अरबी लफ़्ज़ “शक़ारा” (شقاریٰ) ग़ालिबन इसी से मुश्तक़ है।”

पस इस आयत का सही तर्जुमा ये है, “यहूदाह ग़द्दार जिसने उसे पकड़वा भी दिया और अनाजील अर्बा में जहां कहीं, “ये यहूदाह इस्करियोती” लिखा है वहां, “यहूदाह ग़द्दार” पढ़ना चाहिए।

मर्क़ुस 9:49 ता 5

“क्योंकि हर शख़्स आग से नम्कीन किया जाएगा.....।”

मसीही मुफ़स्सिर शुरू से ही से इस आया शरीफा के अल्फ़ाज़ समझने से क़ासिर रहे हैं। इस आयत का क्या मतलब है? मर्हूम मौलवी सना-उल्लाह ने एक दफ़ाअ ये आयत क़ुरआनी ताअलीम की हिमायत में पेश की थी कि हर शख़्स को जहन्नम में दाख़िल होना पड़ेगा। क़ुरआनी अल्फ़ाज़ ये है :-

وَإِن مِّنكُمْ إِلَّا وَارِدُهَا كَانَ عَلَىٰ رَبِّكَ حَتْمًا مَّقْضِيًّا

“यानी हर फ़र्द बशर एक दफ़ाअ ज़रूर दोज़ख़ में जाएगा।” ख़ुदा पर फ़र्ज़ है कि सबको एक दफ़ाअ ज़रूर दोज़ख़ में पहुंचाए। लेकिन इस क़िस्म के अक़ीदे को इन्जील जलील और बिल-ख़ुसूस मुनज्जी (मसीह) जहान के कलिमात-ए-तय्यिबात से किसी क़िस्म का ताल्लुक़ नहीं।

बाअज़ मुफ़स्सिरीन की तावीलें निहायत मज़हकाख़ेज़ हैं जो उन के अपने ज़ाती और शख़्सी ख़यालात का आईना हैं। चुनान्चे इब्तिदाई सदीयों में इस आयत को समझने के लिए (अहबार 2:13) की तरफ़ रुजू किया गया, जहां लिखा है कि तू अपनी नज़र की क़ुर्बानी के हर चढ़ावे को नम्कीन बनाना और अपनी किसी नज़र की क़ुर्बानी को अपने ख़ुदा के अहद के नमक बग़ैर ना रहने देना। अपने सब चढ़ाओं के साथ नमक भी चढ़ाना यही वजह है कि किसी इब्तिदाई मुफ़स्सिर की तावील को (जो उसने अपने नुस्खे के हाशिया में लिखी थी) नुस्खे के कातिब ने मतन में नक़्ल करली और यूं इसने बाअज़ नुस्ख़ों में जगह हासिल करली और इस आयत के बाद ये अल्फ़ाज़ ईज़ाद (ज़्यादा, इज़ाफ़ी) हो गए “और हर एक क़ुर्बानी नमक से नम्कीन की जाएगी।” जो ज़ाइद होने की वजह से अब अस्ल मतन से ख़ारिज हैं।

पादरी गोल्ड (Gould) अपनी तफ़्सीर में कहते हैं,(17) “तमाम लोग इस बात का इक़रार करते हैं कि ये आयत नए अहदनामे की उन आयतों में से है जो निहायत मुश्किल हैं। इस आयत में मुश्किल की अस्ल जड़ लफ़्ज़ “आग” है। जो 48 आयत में और इस आयत में भी मौजूद है।” ग़बी (कम अक़्ल) से ग़बी शख़्स पर भी ज़ाहिर है कि कोई इन्सान आग से नम्कीन नहीं किया जा सकता और ना वो नमक से आग की भट्टी में डाला जा सकता है।


(17) International Critical Commentary p.180

आयत 48 में अहद-ए-अतीक़ से यसअयाह नबी का इक़्तिबास किया गया है (यसअयाह 66:24) इस मुक़ाम में नबी “वादी हनोम” का ज़िक्र करता है। जो यरूशलेम के जुनूब मग़रिब में वाक़ेअ थी, जहां किसी ज़माने में बर्गश्ता इस्राईल मौलिक देवता के सामने अपने बच्चों की क़ुर्बानी किया करते थे। यर्मियाह नबी इस जगह को लानती क़रार देता है। (यर्मियाह 7:31) यसअयाह नबी वादी हनोम या जाये हनोम (जो बिगड़ कर “जहन्नम” हो गया है) की निस्बत कहता है कि “जाये हनोम” या “जहन्नम” में ख़ुदा के दुश्मनों की लाशें हमेशा के लिए जलती रहेंगी।

आयत 48 में अल्फ़ाज़ “इनका कीड़ा नहीं मरता और आग नहीं बुझती।” सय्यदना मसीह के अपने मुँह के अल्फ़ाज़ नहीं बल्कि (यसअयाह 66:24) का इक़्तिबास हैं जो यूनानी इन्जील के मुतर्जिम के सामने इब्रानी में लिखे थे। लफ़्ज़ “आग” की इब्रानी “हाइश” (ہائش) है जो आयत 48 में है। जब यूनानी मुतर्जिम आयत 49 का तर्जुमा करने लगा तो वहां अरामी लफ़्ज़ “बाइश” (بائش) था। लेकिन उसने ये समझ कर कि यहां भी वही इब्रानी लफ़्ज़ “हाइश” (ہائش) है। उस का तर्जुमा “आग” कर दिया। क्योंकि उसने मुशाबेह हुरूफ़ “ह” (ھ) और ब (ب) में तमीज़ ना की। मुतर्जिम की इस ग़लती की वजह से इस आयत का यूनानी तर्जुमा ग़लत हो गया। क्योंकि इब्रानी लफ़्ज़ “हाइश” (بائش) के मअनी “आग” है लेकिन अरामी लफ़्ज़ “बाइश” (ہائش) के मअनी “बिगड़ना” है।

एक और अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है। इस आयत के शुरू में अरामी अल्फ़ाज़ “कुल बाइश” (کُل بائش) थे जिन का मतलब ये है कि कुल बिगड़ी हुई चीज़ें लेकिन चूँकि मुतर्जिम ने इन को “कुल हाइश” (کل ہائش) पढ़ा लिहाज़ा इस का तर्जुमा “कुल इन्सानों को आग से” हो गया।

पस डाक्टर टोरी के मुताबिक़ आयत 49 का सही तर्जुमा ये है :-

“हर बिगड़ी हुई चीज़ नमक से नम्कीन की जाती है।”

इस तर्जुमे के मअनी निहायत वाज़ेह और साफ़ हैं और किसी तावील की ज़रूरत नहीं रहती।

मर्क़ुस 16:2

“वो (मर्यम मग्दलीनी वग़ैरह) हफ़्ते के पहले दिन बहुत सवेरे जब सूरज निकला ही था कब्र पर आईं।”

बाक़ी तीनों इंजीलों में लिखा है कि ये औरतें “पो फटते वक़्त” (मत्ती 28:1) “सुब्ह-सवेरे” (लूक़ा 24:1) “ऐसे तड़के कि अभी अंधेरा ही था” (यूहन्ना 20:1) क़ब्र पर आईं लेकिन मुक़द्दस मर्क़ुस में है कि वो “बहुत सवेरे जब सूरज निकला ही था क़ब्र पर आईं” क़ियास यही चाहता है कि वो सुबह तड़के पो फटते वक़्त क़ब्र पर आईं होंगी लेकिन उस वक़्त में और सूरज के निकलने के वक़्त में बड़ा फ़र्क़ है। पो फटते वक़्त ऐसे तड़के कि अभी अंधेरा ही हो, सूरज नहीं निकला करता।

प्रोफ़ैसर टोरी कहते हैं कि इस का असली सबब ये है कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के मुतर्जिम ने अरामी ज़बान के हर्फ़-ए-अतफ़ वाओ (واؤ) का लफ़्ज़ी तर्जुमा करते वक़्त इस को ऐसी जगह लिख दिया जो मौज़ूं ना थी। जिसकी वजह से फ़िक़्रे की साख़त में अल्फ़ाज़ “बहुत सवेरे” के बाद “जब सूरज निकला” लिखा गया प्रोफ़ैसर मज़्कूर के मुताबिक़ इन आयात का असली तर्जुमा ये है :-

“वो हफ़्ते के पहले दिन बहुत सवेरे क़ब्र पर आईं। जब सूरज निकला तो वो आपस में कहती थीं कि हमारे लिए पत्थर को क़ब्र के मुँह पर से कौन लुड़काएगा? उन्हों ने निगाह की तो देखा कि पत्थर लुड़का हुआ है और वो बहुत ही बड़ा था।”

यूहन्ना 20:17

येसू ने मर्यम से कहा, मुझे ना छू क्योंकि मैं अब तक बाप के पास ऊपर नहीं गया। लेकिन मेरे भाईयों के पास जाकर उन से कह.....। अलीख

इस मौजूदा तर्जुमे के मुताबिक़ सय्यदना मसीह को छूने की मुमानिअत का सबब समझ में नहीं आता और इन अल्फ़ाज़ को समझने के लिए मुख़्तलिफ़ मुफ़स्सिर मुख़्तलिफ़ तावीलें करते हैं।

प्रोफ़ैसर टोरी कहते हैं कि इस मुश्किल की वजह भी अरामी का हर्फ़-ए-अतफ़ वाओ (واؤ) है जो अल्फ़ाज़ “मेरे भाईयों से जाकर कह” से पहले है और जिस का उर्दू में तर्जुमा “लेकिन” किया गया है। यूनानी मुतर्जिम इन्जील नून हर्फ़-ए-अतफ़ वाओ (واؤ) का लफ़्ज़ी तर्जुमा और करके इस को यूनानी इबारत के ऐसे मुक़ाम में लिखा है जिससे तमाम आयत का मतलब ख़बत हो गया है।

इलावा अज़ीं इस आया शरीफा में अस्ल अरामी अल्फ़ाज़ के दो मअनी हो सकते हैं “मैं अब तक बाप के पास ऊपर नहीं गया” जो मौजूदा यूनानी मतन और इस के उर्दू तर्जुमे में है। लेकिन इन्ही अरामी अल्फ़ाज़ का ये तर्जुमा भी हो सकता है, “इस से पहले कि मैं बाप के पास ऊपर जाऊं” पहला उर्दू तर्जुमा बेमाअनी है। लेकिन दूसरा तर्जुमा इख़्तियार करने से सय्यदना मसीह के इर्शाद का मतलब निहायत वाज़ेह हो जाता है।

पस आयात का प्रोफ़ैसर टोरी और दीगर उलमा के मुताबिक़ तर्जुमा हस्ब-ज़ैल है,

येसू (सय्यदना ईसा) ने उस से कहा, मर्यम, वो उसे (18) कर उस से इब्रानी ज़बान में बोली और रब्बुनी यानी ऐ उस्ताद येसू ने उस से कहा, मुझे ना छू। लेकिन इस से पहले कि मैं बाप के पास ऊपर जाऊं तू मेरे भाईयों के पास जाकर उनसे कह कि मैं अपने बाप और तुम्हारे बाप और अपने ख़ुदा और तुम्हारे ख़ुदा के पास ऊपर जाता हूँ।”

मत्ती 6:13, 26:41, मर्क़ुस 14:38, लूक़ा 11:4, 22:40, 22:46

“आज़माईश में ना पड़ना।”


(18) Black, Aramaic Approach pp.189-190

मज़्कूर बाला छः मुक़ामात में लफ़्ज़ “पड़ना” की बजाय लफ़्ज़ “गिरना” अस्ल अरामी लफ़्ज़ को बेहतर तौर पर अदा करता है। उर्दू ज़बान के मुख़्तलिफ़ तर्जुमों में दुआए रब्बानी के इस फ़िक़्रे में लफ़्ज़ “लाना” और “डालना” इस्तिमाल किए गए हैं। लेकिन अरामी लफ़्ज़ के मअनी हैं।, “मग़्लूब हो जाना या गिरजाना” पस उर्दू तर्जुमा अरामी मफ़्हूम को बतर्ज़-ए-अह्सन अदा नहीं करते। “हम को इम्तिहान में ना डाल।” (तर्जुमा सराम पूर 1829 ई॰) “हमें आज़माईश में ना डाल” (तर्जुमा मिर्ज़ा पूरा 1870 ई॰) “हमें आज़माईश में ना ला।” (मौजूदा तर्जुमा) “हमें आज़माईश में ना पड़ने दे।” (तर्जुमा किताब दुआए अमीम 1900 ई॰) वग़ैरह की बजाय सही तर्जुमा ये है “हमको आज़माईश में ना गिरने दे।” या “हमको इम्तिहान के वक़्त फ़ेल ना होने दे।” बदक़िस्मती से आम तौर पर अल्फ़ाज़ इम्तिहान और फ़ेल का ताल्लुक़ तालिब-ए-इल्मों की ज़िंदगी के मदारिज के साथ हो गया है। वर्ना (मत्ती 26:41, मर्क़ुस 14:38, लूक़ा 22:40) में लफ़्ज़ “इम्तिहान” मौज़ूं तरीन लफ़्ज़ है और इन मुक़ामात में सही तर्जुमा ये होगा, “जागो और दुआ माँगो ताकि (बवक़्त) इम्तिहान (जो क़रीब है) तुम गिर ना जाओ।” (चुनान्चे मिर्ज़ा पूर का तर्जुमा दुआए रब्बानी के फ़िक़्रह में लफ़्ज़ “आज़माईश” इस्तिमाल करता है। इस मुक़ाम पर लफ़्ज़ “इम्तिहान” इस्तिमाल करता है।

लूक़ा 1:39

“इन्ही दिनों मर्यम उठी और जल्दी से पहाड़ी मुल्क में यहूदाह को गई।”

इस तर्जुमे में दिक़्क़त ये है कि यहूदाह शहर नहीं था। बल्कि एक सूबे का नाम था। पस उर्दू के मौजूदा तर्जुमा करने वालों ने अंग्रेज़ी रिवाइज़्ड तर्जुमे की तरह इस मुक़ाम पर “यहूदाह के एक शहर” लिख दिया है। जो अस्ल यूनानी का सही तर्जुमा नहीं है।

प्रोफ़ैसर टोरी ने ज़बरदस्त दलाईल से ये साबित कर दिया है कि “इब्रानी और यहूदी तसानीफ़ में इब्तिदा से लेकर मसीह से चंद सदीयां बाद तक लफ़्ज़ “मदीना” से मुराद “सूबा” ली जाती थी। लेकिन जब ग़ैर-यहूद इस लफ़्ज़ “मदीना” को इस्तिमाल करते थे, तो इस से मुराद “शहर” लेते थे। (19) चूँकि मुक़द्दस लूक़ा ग़ैर-अक़्वाम से मुशर्रफ़ बह मसीहिय्यत हुए थे लिहाज़ा उन्होंने इस मुक़ाम में इब्रानी लफ़्ज़ “मदीना” का तर्जुमा सूबा की बजाय ग़ैर-यहूदी मुहावरे के मुताबिक़ शहर कर दिया। लेकिन मुक़द्दस लूक़ा का अस्ल मतलब शहर नहीं था बल्कि सूबा था। (देखो लूक़ा 2:4) पस इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये हुआ। उन्ही दिनों में मर्यम उठी और जल्दी से पहाड़ी मुल्क में यहूदिया के सूबे को गई।”


(19) Harvard Theological Review Vol.11(1924) pp.83-89
लूक़ा 8:39

“वो रवाना हो कर तमाम शहर में चर्चा करने लगा।”

यहां भी मुक़द्दस लूक़ा ने इब्रानी लफ़्ज़ “मदीना” का तर्जुमा ग़ैर-यहूदी मुहावरे के मुताबिक़ “शहर” कर दिया है। लेकिन यहूदी मुहावरे के मुताबिक़ यहां भी लफ़्ज़ सूबा चाहिए। चुनान्चे मुक़द्दस मर्क़ुस के बयान में भी है कि उसने तमाम ज़िला (दिकपौलस) में चर्चा कर दिया था। (मर्क़ुस 5:20) पस डाक्टर टोरी के मुताबिक़ इस आयत का सही तर्जुमा ये है :-

“वो रवाना हो कर तमाम सूबा में चर्चा करने लगा।”

लूक़ा 2:1

“उन दिनों में ऐसा हुआ कि क़ैसर अगस्तस की तरफ़ से ये हुक्म जारी हुआ कि सारी दुनिया के लोगों के नाम लिखे जाएं।”

इस मुक़ाम में मुफ़स्सिरों को ये दिक़्क़त पेश आती है कि जिस यूनानी लफ़्ज़ का उर्दू तर्जुमा “दुनिया” किया गया है। इस के मअनी में तमाम दुनिया जिसमें इन्सान बस्ते हैं “और चूँकि इस क़िस्म की मर्दुम-शुमारी नामुम्किन थी लिहाज़ा मुफ़स्सिर इस मर्दुम-शुमारी को रूमी सल्तनत तक ही महदूद बतलाते हैं। लेकिन साथ ही इस बात का भी इक़रार करते हैं कि रूमी सल्तनत की इस मर्दुम-शुमारी के हुक्म का किसी दूसरी जगह पता नहीं चलता। (20)

प्रोफ़ैसर टोरी कहते हैं कि ये दिक़्क़त इब्रानी लफ़्ज़ अर्ज़ (ارض) के ग़लत यूनानी तर्जुमे की वजह से पेश आती है। इब्रानी लफ़्ज़ अर्ज़ से अहले-यहूद की मुराद हमेशा अर्ज़-ए-मुक़द्दस यानी कनआन के मुल्क से होती थी। लेकिन ग़ैर-यहूद इस यहूदी मुहावरे और इस्तिमाल से क़ुद्रतन वाक़िफ़ ना थे। पस मुक़द्दस लूक़ा जो ग़ैर-यहूदी थे इस का लफ़्ज़ी तर्जुमा “दुनिया” करते हैं।


(20) Plummer, St. Luke (International Critical Commentary p 48)

यही ग़लती मुक़द्दस लूक़ा से (आमाल 11:28) में सरज़द हुई जहां लिखा है कि “तमाम दुनिया में बड़ा काल पड़ेगा” हालाँकि यहां भी लफ़्ज़ अर्ज़ से मुराद सिर्फ अर्ज़-ए-मुक़द्दस है। क्योंकि ख़ुद आमाल की किताब ही से ज़ाहिर है कि इस काल का अन्ताकिया में भी वजूद ना था। अगरचे वो तमाम “दुनिया” पर हावी हो।

पस इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है “इन दिनों में ऐसा हुआ कि क़ैसर अगस्तस की तरफ़ से ये हुक्म जारी हुआ, कि सारी अर्ज़-ए-मुक़द्दस के लोगों के नाम लिखे जाएं।” और आमाल की किताब की पेश कर्दा आयत का सही तर्जुमा होगा कि सारी अर्ज़-ए-मुक़द्दस में बड़ा काल पड़ेगा।

लूक़ा 6:40

“शागिर्द अपने उस्ताद से बड़ा नहीं होता बल्कि हर एक जब कामिल हुआ तो अपने उस्ताद जैसा होगा।”

मौजूदा तर्जुमे में अल्फ़ाज़ “जब कामिल हुआ” इब्रानी लफ़्ज़ “तक़ीन” (تقین) का तर्जुमा हैं। अहले-यहूद के मुहावरे में ये लफ़्ज़ उमूमन तब इस्तिमाल किया जाता था जब कहने वाले का मतलब ये होता था, कि फ़ुलां बात मौज़ूं, मुनासिब, दुरुस्त या ठीक है। मसलन यही लफ़्ज़ (पैदाइश 2:18, 16:6, ख़ुरूज 8:26) में इस्तिमाल हुआ है। जहां इस का उर्दू तर्जुमा “अच्छा” भला” “मुनासिब” किया गया है। लेकिन ग़ैर-यहूद में ये लफ़्ज़ इन माअनों में राइज नहीं था। और वह इस यहूदी मुहावरे से नाआशना थे। पस मुक़द्दस लूक़ा ने (जो ग़ैर-यहूद) थे इस लफ़्ज़ के मअनी ग़ैर-यहूदी मुरव्वजा माअनों में इस्तिमाल करके इस लफ़्ज़ का तर्जुमा “जब कामिल हुआ” कर दिया। पस इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है :-

“शागिर्द अपने उस्ताद से बड़ा नहीं होता। बल्कि हर एक के लिए ये मुनासिब है कि वो अपने उस्ताद जैसा हो।”

चुनान्चे मुक़द्दस मत्ती ने भी अपनी इन्जील में इसी तरह तर्जुमा किया है, “शागिर्द अपने उस्ताद से बड़ा नहीं। शागिर्द के लिए काफ़ी है कि अपने उस्ताद की मानिंद हो।” (मत्ती 10:25)

लूक़ा 8:27

“जब वो किनारे पर उतरा तो इस शहर का एक मर्द उसे मिला जिसमें बद-रूहें थीं।”

जब हम इस बयान को इन्जील मर्क़ुस (मर्क़ुस 5:2) और इन्जील मत्ती (मत्ती 8:28) में पढ़ते हैं तो ये ज़ाहिर हो जाता है कि ये पागल आदमी शहर से नहीं आया था। बल्कि शहर के बाहर जो क़ब्रें थीं उन में से आया था। ख़ुद मुक़द्दस लूक़ा का बयान भी यही ज़ाहिर करता है कि “वो क़ब्रों में रहा करता था।” ये पागल शख़्स ख़तरनाक था जो नंगा फिरा करता था और शहर के किसी घर में नहीं रहता था बल्कि वो “बियाबानों” में भागा फिरा करता था।

इस आयत में लफ़्ज़ “शहर” अरामी लफ़्ज़ “क़र्या” (قریہ) का ग़लत तर्जुमा है। क़र्या (قریہ) का कनआनी अरामी ज़बान में तर्जुमा ना सिर्फ शहर था बल्कि इस से मुराद गांव बस्ती मज़रूआ ज़मीन, मुफ़स्सिलात खुला मैदान भी थे। ये लफ़्ज़ सिर्फ पहाड़ी बन्जर ज़मीन के लिए इस्तिमाल नहीं किया जाता था बल्कि इस लफ़्ज़ से मुराद वो ख़ित्ता ज़मीन था जो किसी आबादी के आस-पास हो। लेकिन ग़ैर-कनआनी इस लफ़्ज़ से उमूमन शहर से मुराद लेते थे। यही वजह है कि मुक़द्दस लूक़ा ने इस जगह इस लफ़्ज़ का ग़लत तर्जुमा शहर किया है। पस इस आयत का सही तर्जुमा ये है :-

“जब वो किनारे पर उतरे तो खुले मैदान से एक मर्द उसे मिला।”

लूक़ा 9:10

“वो इन को अलग लेकर बैत सैदा नाम एक शहर को गया।”

जब हम इस मुक़ाम का मुक़द्दस मर्क़ुस के बयान (मर्क़ुस 6:31) और मुक़द्दस मत्ती के बयान (मत्ती 14:13) से मुक़ाबला करते हैं तो हम पर अयाँ हो जाता है कि सय्यदना मसीह अपने रसूलों को किसी ख़ामोश मुक़ाम में ले जाना चाहते थे। ताकि वो क़दरे आराम करलें। लेकिन इस आयत में लिखा है कि आप उनको “बैत सैदा” नाम “शहर” में ले गए और फिर लुत्फ़ ये हुआ कि दो आयतों के बाद इस जगह को बाक़ी इन्जील नवीसों के बयान के ऐन मुताबिक़ “वीरान” जगह कहा गया है। (आयत 12) ये तज़ाद मुक़द्दस लूक़ा के अरामी लफ़्ज़ “क़र्या” के ग़लत तर्जुमा “शहर” की वजह से है। जैसा ऊपर ज़िक्र किया गया है। पस इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है :-

“वो उन को अलग लेकर बैत सैदा के मुफ़स्सिलात (शहर के इर्दगिर्द के क़स्बात व देहात) को गया।”

नाज़रीन रिसाला हज़ा को याद होगा कि इन आयात के नए तर्जुमे की बिना डाक्टर टोरी साहब का ये नज़रिया है कि अनाजील अर्बा पहले-पहल अरामी ज़बान में लिखी गई थीं। जिसे सय्यदना मसीह और आप के हम-अस्र यहूद बोलते थे और बाद में ये अनाजील लफ़्ज़ बलफ़्ज़ तर्जुमा की गईं। इस तर्जुमे के दौरान में सिर्फ चंद मुक़ामात में अरामी ज़बान से वाक़फ़ियत-ए-नामा हासिल ना होने की वजह से मुतर्जमीन से गलतीयां सरज़द हो गईं। जिनकी वजह से इन मुक़ामात का यूनानी मतन बाज़ औक़ात एक मुअम्मा सा बन जाता है। डाक्टर मौसूफ़ का ये दावा है के जब मौजूदा यूनानी मतन का अज़सर-ए-नू अरामी ज़बान में तर्जुमा किया जाता है तो हम पर फ़ौरन वाज़ेह हो जाता है कि अनाजील के मुतर्जिमों ने गलतीयां किस तरह कीं। मिसाल के तौर पर हम ज़ेल में और मुक़ामात पेश करते हैं। जिनसे डाक्टर टोरी का ये नज़रिया नाज़रीन को समझ में आ जाएगा।

मर्क़ुस 10:12

“अगर औरत अपने ख़ावंद (शौहर) को छोड़ दे और दूसरे से ब्याह करे तो ज़िना करती है।”

इस तर्जुमे में ये दिक़्क़त पेश आती है कि हिंदूओं की तरह मूसवी शरीअत के मुताबिक़ औरत अपने शौहर को तलाक़ नहीं दे सकती थी, अगरचे शौहर अपनी बीवी को तलाक़ दे सकता था। पस ये आयत बेमाअनी हो जाती है।

डाक्टर टोरी कहता है कि जिन अल्फ़ाज़ का तर्जुमा “शौहर को छोड़े” किया गया है, वो अरामी में पित्र लगबर (پتر لگبر) हैं। लेकिन चूँकि उर्दू की तरह अरामी इबारत पर उमूमन ज़ेरो ज़बर नहीं दी जाती थी लिहाज़ा यूनानी के मुतर्जिम ने इन अल्फ़ाज़ को पत्र लगबर पढ़ा लेकिन इस को यहां त पर ज़बर की बजाय ज़ेर पढ़ना चाहिए और अस्ल लफ़्ज़ पित्र लगबर था जो फ़ेअल मारूफ़ नहीं बल्कि फअल-ए-मजहूल था जिसके मअनी हुए शौहर की छोड़ी हुई।”

पस अस्ल तर्जुमा ये है “अगर शौहर की छोड़ी हुई औरत दूसरे से ब्याह करे तो ज़िना करती है।” बईना यही बात लूक़ा मुक़द्दस की इन्जील में लिखी है।” (लूक़ा 16:18) और मुक़द्दस मत्ती में भी “सय्यदना मसीह यही फ़र्माते हैं।” (मत्ती 5:32) यूनानी नुस्ख़ा बेनरी में भी “शौहर की छोड़ी हुई” औरत लिखा है।(21)

लूक़ा 10:4

“ना बटवा ले जाओ, ना झोली ना जूतीयां और ना राह में किसी को सलाम करो।”

इस तर्जुमे के मुताबिक़ सय्यदना मसीह ने अपने शागिर्दों को नाऊज़ु-बिल्लाह बदतमीज़ी की बात सिखलाते हैं। डाक्टर टोरी कहते हैं कि यहां अरामी लफ़्ज़ “शलीम” (شلیم) था। जिसका यूनानी मुतर्जिम “शलम” (شَلّم) ब मअनी सलाम करना पढ़ा गया। लेकिन इस लफ़्ज़ के श (ش) पर ज़बर ना थी और ना लाम (ل) मुशद्दद था। बल्कि लफ़्ज़ “शलीम” (شلیم) था। जिसके मअनी हैं “साथी होना” या “साथ करना” पस सय्यदना मसीह अपने शागिर्दों को हिदायत फ़र्माते हैं कि ना बटवा ले जाओ, ना झोली ना जूतीयां और ना राह में किसी के साथ बनो।”

जिसका मतलब ये है कि “तुम इन्जील सुनाने जा रहे हो, राह में इस बात का इंतिज़ार ना करो कि जब तुमको कोई साथी मिले तब सफ़र करो।”

लूक़ा 11:41

“अन्दर की चीज़ें ख़ैरात कर दो तो देखो सब कुछ तुम्हारे लिए पाक होगा।”

इन्जील सोम का हर मुफ़स्सिर इस आया शरीफा को मुश्किल बतलाता है और मुख़्तलिफ़ मुफ़स्सिरीन इस की मुख़्तलिफ़ तावीलें करते हैं और बमुश्किल दो मुफ़स्सिर ऐसे होंगे जिनकी तावील एक हो।


(21) Montefiore, Synoptic Gospel, vol 1 p.234

जब हम मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील (लूक़ा 11:39 से 41) का मुक़द्दस मत्ती की इन्जील (मत्ती 23:25) से मुक़ाबला करते हैं तो हम पर फ़ौरन ज़ाहिर हो जाता है कि मुक़द्दस मत्ती के अल्फ़ाज़ अस्ल मफ़्हूम को पेश करते हैं। इन्जील अव्वल के अल्फ़ाज़ “पहले प्याले और रकाबी को अंदर से साफ़ करता है कि वो ऊपर से भी साफ़ हो जाएं।” के सामने इन्जील सोम के अल्फ़ाज़ “अन्दर की चीज़ें ख़ैरात कर दो तो देखो सब कुछ तुम्हारे लिए पाक होगा।” एक अजीब और पेचीदा मुअम्मा सा दिखाई देता है।

जर्मन नक़्क़ाद वलहासन का ख़याल है कि :-

“मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील में कातिब ने ग़लती से “दको” (دَکو) बमाअनी “पाक करो” की बजाय “ज़कू” (زکو) बमाअनी “ख़ैरात करो” लिख लिया।”

इस नक़्क़ाद के मुताबिक़ इस आया शरीफा में लफ़्ज़ “दको” (دَکو) था और अस्ल मतन ये था कि “अन्दर की चीज़ों को पाक करो तो देखो तुम्हारे लिए सब पाक होगा।”

डाक्टर टोरी वलहासन के लफ़्ज़ पर ये एतराज़ करते हैं कि अरामी हुरूफ़ मज़्कूर बाला अल्फ़ाज़ के पहले हुरूफ़ जिनको उर्दू में “व” (و) और “ज़” (ز) से लिखा गया है। आसानी से ख़लत-मलत नहीं हो सकते। लिहाज़ा कातिब ये ग़लती नहीं कर सकता था। इलावा अज़ीं लफ़्ज़ “ज़कू” (زکو) अरामी लफ़्ज़ नहीं बल्कि ख़ालिस अरबी लफ़्ज़ है जो कनआन की अरामी बोली में नहीं था। उर्दू ख्वान नाज़रीन इस नुक्ते को समझ सकते हैं। क्योंकि वो लफ़्ज़ ज़कवात (زکواتہ) से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं। टोरी साहब कहते हैं कि अस्ल अरामी मतन में लफ़्ज़ सदक़ा बमाअनी “सदाक़त” से काम लो” था। जिसको यूनानी के मुतर्जिम ने सदक़ा बमाअनी “ख़ैरात” पढ़ कर ग़लत तर्जुमा यूनानी में कर दिया। उर्दू ख्वान नाज़रीन सदाक़त बमाअनी सच्चाई और सदक़ा बमाअनी ख़ैरात से वाक़िफ़ हैं और इस नुक्ते को आसानी से समझ सकते हैं। पस आया शरीफा का डाक्टर टोरी के मुताबिक़ सही तर्जुमा ये है जो “तुम्हारे अन्दर है उस को दुरुस्त करो। तो सब कुछ तुम्हारे लिए पाक होगा।”

लूक़ा 11:48

“उन्होंने (तुम्हारे बाप दादा) ने उन नबियों को क़त्ल किया था। और तुम उन की क़ब्रें बनाते हो।”

अगर इस आयत का मुक़द्दस मत्ती की इन्जील (मत्ती 23:29 ता 31) से मुक़ाबला करें तो सय्यदना मसीह के इस क़ौल का मतलब वाज़ेह हो जाता है, कि “तुम तो नबियों की क़ब्रें बनाते हो और तुम्हारे बाप दादा ने इन को क़त्ल किया था।” (आयत 47) पस उनकी क़ब्रें बनाने से तुम अपने बाप दादा के तर्ज़-ए-अमल से बेज़ारी का इज़्हार करते हो। और कहते हो “अगर हम अपने बाप दादा के ज़माने में होते तो नबियों के ख़ून में उन के शरीक ना होते।” (मत्ती 23:30) लेकिन आयत 48 में लिखा है कि तुम गवाह हो, और अपने बाप दादा के कामों को पसंद करते हो। क्योंकि उन्हों ने क़त्ल किया था और तुम उन की क़ब्रें बनाते हो।” (लूक़ा 11:48)

इन्जील अव्वल व सोम की मज़्कूर बाला आयात की तफ़ावुत से ज़ाहिर है कि ये आया ज़ेर-ए-बहस में सय्यदना मसीह का मंशा ये ना था कि “तुम नबियों की क़ब्रें बनाते हो।” इलावा अज़ीं इस आयत में अल्फ़ाज़ “उनकी क़ब्रें” किसी यूनानी लफ़्ज़ का तर्जुमा नहीं(22) बल्कि आयत को समझने के लिए ये लफ़्ज़ अंग्रेज़ी और उर्दू तर्जुमों में ईज़ाद (इज़ाफ़ा) किए गए हैं। यूनानी मतन के सामने सवाल पैदा हुआ कि क्या बनाते हो? और उसने आयत 47 से लफ़्ज़ “क़ब्रें” लेकर आयत को पूरा कर दिया। लेकिन क़ब्रों के बनाने से जैसा मुक़द्दस मत्ती में वारिद हुआ है। नापसंदीदगी का इज़्हार मक़्सूद था ना कि पसंदीदगी का।

पस यूनानी मतन में सिर्फ लफ़्ज़ बनाना आया है। प्रोफ़ैसर टोरी कहता है कि इस मुक़ाम में अस्ल अरामी लफ़्ज़ बनीन (بنین) ब मअनी औलाद या बच्चे था। लेकिन यूनानी मतन के मुतर्जिम ने इस लफ़्ज़ को बनीन (بنین) ब मअनी बनाना समझ लिया। जिसकी वजह से आया शरीफा के समझने में दिक़्क़त पैदा होती है। उर्दू ख़वान नाज़रीन लफ़्ज़ बनी ब मअनी औलाद और लफ़्ज़ “बना” ब मअनी बनाना से वाक़िफ़ हैं और इस नुक्ते को बाआसानी समझ सकते हैं। पस डाक्टर टोरी के मुताबिक़ इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है “उन्हों ने उन को क़त्ल किया था और तुम (भी तो) उन्ही की औलाद हो इसी लिए ख़ुदा की हिक्मत ने कहा है........ अलीख।


(22) West Cott and Host, Greek New Testament.
लूक़ा 16:16 मत्ती 11:12

“शरीअत और अम्बिया यूहन्ना तक रहे। उस वक़्त से ख़ुदा की बादशाहत की ख़ुशख़बरी दी जाती है और हर एक ज़ोर मार कर उस में दाख़िल होता है।”

आँख़ुदावंद का मतलब ये है कि यूहन्ना की आमद तक सिर्फ मूसवी शरीअत और अम्बिया-अल्लाह ही अहले-यहूद के रहनुमा थे। लेकिन अब आपकी आमद से दुनिया में एक नई चीज़ यानी ख़ुदा की बादशाहत आ गई है। लेकिन लोग उस से किस क़िस्म का सुलूक करते हैं? इस सवाल का जवाब (मत्ती 11:12) में है, कि ख़ुदा की बादशाहत का मुक़ाबला किया जाता है और ज़ोर आवर शख़्स उस के नुमाइंदों पर तुंद हाथ डालते हैं। यूहन्ना को क़त्ल किया गया और मेरे साथ भी यही सुलूक किया जाएगा। (मत्ती 17:12)

लेकिन मौजूदा तर्जुमा सय्यदना मसीह का ये मतलब अदा नहीं करता। इस के बरअक्स इस से ये ज़ाहिर होता है कि लोग जौक़ दरजोक़ ख़ुदा की बादशाहत में ज़ोर मारकर दाख़िल होते हैं। जो आप के मंशा के ख़िलाफ़ है। इलावा अज़ीं ये तर्जुमा (मत्ती 11:12) के मुतज़ाद है।

डाक्टर टोरी कहते हैं कि यूनानी मतन एक अरामी लफ़्ज़ का ग़लत तर्जुमा है जो एराब की तब्दीली की वजह से वजूद में आया है। अगर मुतर्जिम एसी लफ़्ज़ के एराब को सही तौर पर पढ़ता तो इस का सही तर्जुमा ये होता “शरीअत और अम्बिया यूहन्ना तक रहे उस वक़्त से ख़ुदा की बादशाही की ख़ुशख़बरी दी जाती है। और हर एक इस से ज़ोर-आज़माई करता है।” ये तर्जुमा (मत्ती 11:12) के मुताबिक़ भी है।

लूक़ा 24:32

“क्या हमारे दिल जोश से ना भर गए थे।”

ये तमाम वाक़िया (लूक़ा 24:13 से 35) साबित करता है कि “इमाऊस की राह पर दोनों शागिर्दों ने आँख़ुदावंद को ना पहचाना। क्योंकि “उन की आँखें बंद थीं।” (आयत 16) लेकिन ज़ेर-ए-बहस तर्जुमा कहता है कि राह में ही उनके दिलों के जज़्बे ने उन को बतला दिया था कि उनका साथी कौन है? इब्रानी और अरामी ज़बानों में लफ़्ज़ दिल से उमूमन मुराद “ज़हन” ली जाती है। पस दोनों शागिर्दों का दर-हक़ीक़त मतलब ये था कि जब आँख़ुदावंद उन से गुफ़्तगु फ़र्मा रहे थे तो उन की समझ पर पत्थर पड़ गए थे (आयत 25) और उन के ज़हन ऐसे कुंद और सुस्त हो गए थे कि वो आपकी शनाख़्त (पहचान) भी ना कर सके। दोनों शागिर्द अपने आपको ग़बी (कम अक़्ल) होने की वजह से मलामत करते थे।

ये अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि अनाजील के क़दीम तरीन तीनों शामी तर्जुमों में “हमारे दिल जोश से भर गए थे।” की बजाय अल्फ़ाज़ “हमारे ज़हन कुंद हो गए थे।” पाए जाते हैं। हालाँकि इन शामी मुतर्जिमों के सामने यूनानी मतन मौजूद था जिससे वो तर्जुमा कर रहे थे। डाक्टर टोरी का ख़याल है कि यहां अरामी लफ़्ज़ “यक़ीर” (یقیر) मअनी “कुंद, ग़बी या सुस्त” था जिस को यूनानी मुतर्जिम ने बक़ैद बमाअनी जोश पढ़ कर ग़लत यूनानी तर्जुमा कर दिया। पस इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है, “उन्होंने आपस में कहा कि जब वो राह में हमसे बातें करता और हम पर नविश्तों का भेद खोलता था तो क्या हमारे ज़हन (सच-मुच) कुंद ना हो गए थे। (कि हम उस को पहचान भी ना सके)?

यूहन्ना 6:21

“पस वो उसे कश्ती पर चढ़ा लेने को राज़ी हुए।”

मौजूदा तर्जुमा निहायत अजीब और हैरान कुन है। आँख़ुदावंद झील के पानी पर चलते हैं। शागिर्दों की डर के मारे जान निकली जाती है। सय्यदना मसीह उन को ढारस देकर फ़र्माते हैं, “मैं हूँ, डरो मत। पस वो उसे कश्ती पर चढ़ा लेने को राज़ी हुए।” डाक्टर टोरी कहते हैं कि यहां अस्ल अरामी लफ़्ज़ ब, ए, व (ب،ع،و) था। यूनानी मतन के मुतर्जिम ने, बऊ (بعو) बमाअनी राज़ी होना पढ़ कर मौजूदा तर्जुमा कर दिया। लेकिन ये लफ़्ज़ दर-हक़ीक़त बूऊ (بُعو) था जिसके मअनी हैं “फर्त-ए-इंबिसात (इंतिहाई शादमानी) से ख़ुश और मसरूर होना।” पस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये हुआ मैं हूँ, डरो मत पस वो उसे कश्ती में चढ़ाकर निहायत मसरूर हुए यही लफ़्ज़ बूऊ (بُعو) (इस्तिस्ना 28:63, ज़बूर 19:5, अम्साल 2:14, यर्मियाह 22:41, हबक़्क़ूक़ 3:14) में वारिद हुआ है।

यूहन्ना 10:7

“भेड़ों का दरवाज़ा मैं हूँ जितने मुझसे पहले आए सब चोर और डाकू हैं।”

मौजूदा तर्जुमा में मुफ़स्सिरीन को ये मुश्किल पड़ती है कि इस से पहले की आयात में जब सय्यदना मसीह ने सामईन (सुनने वालों) से दरवाज़ा “भेड़ ख़ाना” दरबान का दरवाज़ा खोलना वग़ैरह की तम्सील फ़रमाई और वह तम्सील को ना समझे तो मुक़द्दस यूहन्ना के मुताबिक़ सय्यदना मसीह ने इस तम्सील को वाज़ेह करने की ख़ातिर उनसे फ़रमाया कि “भेड़ों का दरवाज़ा मै हूँ” लेकिन इस इस्तिआरा से मुन्दरिजा बाला तम्सील पर रोशनी नहीं पड़ती बल्कि ये इस्तिआरा दिमाग़ी उलझन और कोफ़त पैदा कर देता है। आपके सामईन तो ये समझ गए कि “चोर और डाकू” से आपकी मुराद “उन फ़क़ीहों फ़रीसियों और सदूक़ियों से थी जो आप के मुख़ालिफ़ थे।” (मत्ती 7:15 23 बाब, 11:54 वग़ैरह) जिनमें से बाअज़ वहां खड़े भी थे और जो आप के ख़ून के प्यासे थे। वो अच्छे चरवाहे ना थे। क्योंकि इन नाम निहाद लीडरों ने अहले-यहूद के ख़यालात को अपनी मन-माअनी तफ़्सीरों और तावीलों से ऐसा कर दिया था कि जब मसीह मौऊद आए तो भेड़ें अपने असली चरवाहे को ना पहचान सकीं। (हिज़्क़ीएल 34:1 ता 16, यर्मियाह 23:1 ता 4 वग़ैरह) लेकिन ये सामईन “दरवाज़ा” के इस्तिआरा से ना आश्ना थे पस वो “ना समझे कि ये क्या बातें हैं, जो वो उन से कहता है।” (आयत 6) इस पर सय्यदना मसीह उन को अपना मतलब समझाना चाहते हैं। लेकिन आयत के मौजूदा तर्जुमे के मुताबिक़ समझने की बजाय उन की मुश्किलात में इज़ाफ़ा होता है।

डाक्टर टोरी कहता है कि आयत सात में यूनानी मुतर्जिम अस्ल अरामी अल्फ़ाज़ नहीं समझा। जिसका नतीजा ये ग़लत तर्जुमा है। चुनान्चे अस्ल अरामी अल्फ़ाज़ ये हैं “आनातेर खार ख्वान दिअना” (اَناتِ خار حوان دِانا) लेकिन अरामी हुरूफ़ की ग़लत तक़्सीम करके यूनानी मुतर्जिम उनको “आनातार खून दिअना” (اَناتارَ خون دِانا) पढ़ गया। और “त” (ت) को मुशद्दद कर गया। जिसका तर्जुमा हो गया “मैं भेड़ों का दरवाज़ा हूँ।” लेकिन अस्ल अरामी अल्फ़ाज़ का तर्जुमा “मैं भेड़ों का चरवाहाँ हूँ।” बाद में आयत 9 को आयत 7 के ख़ातिर ईज़ाद (इज़ाफ़ा) कर दिया। जिस तरह (मर्क़ुस 9:49) को समझाने की ख़ातिर उस में अल्फ़ाज़ ईज़ाद कर दिए गए थे। पस आयत 9 को हज़फ़ कर देना चाहिए।

लिहाज़ा डाक्टर टोरी के मुताबिक़ इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है “भेड़ों का चरवाहा मैं हूँ।” डाक्टर ब्लैक भी इस तर्जुमें की हिमायत करके कहते हैं कि डाक्टर टोरी की मुजव्वज़ा अरामी इबारत सादा और क़ुदरती है। जब “त” (ت) को रद्दकर दिया जाये। तो इस का यूनानी तर्जुमा वही होता है, जो मतन में है।(23)

डाक्टर टोरी का तर्जुमा अनाजील के सहीदी तर्जुमा के मुताबिक़ भी है। डाक्टर मोफ़ट के ख़याल में सही है। चुनान्चे आप इस का यही तर्जुमा करते हैं।(24)

यूहन्ना 14:2

“मेरे घर में बहुत से मकान हैं अगर ना होते तो मैं तुमसे कह देता क्योंकि मैं जाता हूँ ताकि तुम्हारे लिए जगह तैयार करूँ।”

मौजूदा तर्जुमे के मुताबिक़ आयत का दूसरा हिस्सा “अगर ना होते.....जगह तैयार करूँ।” समझ में नहीं आता। पस बाअज़ मुफ़स्सिरीन इस को सवालिया फ़िक़्रह समझ कर कि “अगर ना होते तो मैं तुमसे कह ना देता?” इस की तावील करते हैं दीगर उलमा मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से इस मुश्किल को हल करते हैं।

डाक्टर टोरी कहते हैं कि यहां भी यूनानी मुतर्जिम ने अरामी अल्फ़ाज़ को ग़लत पढ़ कर इनके हुरूफ़ की ग़लत तक़्सीम की है। और यह अम्र तमाम मुश्किलात की अस्ल वजह है। वो कहते हैं कि यहां अस्ल अरामी अल्फ़ाज़ “वालेअ” (والاِ) थे। जिसके मअनी हैं “ये वाजिब है” या “ये अच्छा है” लेकिन यूनानी मुतर्जिम ने उनको “वएला” (واِلا) पढ़ा जिसके मअनी हैं “अगर ऐसा ना होता” चुनान्चे फ़ारसी और अरबी तराजुम में भी मौजूदा यूनानी मतन का तर्जुमा “वएला” (واِلا) ब शमा है “गुफ़्तम वइल्ला फ़ानी कुंत क़ुद क़िल्लत लकम” (وَاِلا فاِنی کنت قُد قلت لکم) किया गया है और नाज़रीन आसानी से देख सकते हैं कि “वएला” (واِلا) किस तरह “वालेअ” (والاِ) हो गया।


(23) Black, Aramaic Approach p.193 Note
(24) Moffat, New Translation of N.T

पस डाक्टर टोरी के मुताबिक़ इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है “मेरे बाप के घर में बहुत से मकान हैं। मैं तुमसे कहता हूँ कि ये अच्छा है कि मैं जाकर तुम्हारे लिए जगह तैयार करूँ।”

पस इस आयत के दूसरे हिस्से के अल्फ़ाज़ का वही मफ़्हूम है “मेरा जाना तुम्हारे लिए फ़ायदेमंद है।” जहां “अच्छा आए” “फ़ाइदेमंद” या मुफ़ीद तर्जुमा किया गया है।

पस चौधवां बाब यूं शुरू होता है :-

“तुम्हारा दिल ना घबराए। तुम ख़ुदा पर ईमान रखते हो मुझ पर भी ईमान रखो। मेरे बाप के घर में बहुत से मकान हैं मैं तुमसे कहता हूँ कि ये अच्छा है कि मैं जाकर तुम्हारे लिए जगह तैयार करूँ।”

यूहन्ना 1:18

“ख़ुदा को किसी ने कभी नहीं देखा। इकलौता बेटा जो बाप की गोद में है। उसी ने ज़ाहिर किया।”

क़दीम ज़माने ही से इस आयत के अल्फ़ाज़ ज़ेर-ए-बहस रहे हैं। इस आयत में दो उमूर गौरतलब हैं।

अव्वल : जब सय्यदना मसीह दुनिया में थे तो वो “बाप की गोद” में थे। क्यों कि आपने तजस्सुम इख़्तियार कर लिया हुआ था। लेकिन इस आया शरीफा में ज़माना हाज़िर इस्तिमाल हुआ है। “जो बाप की गोद में है” इस ज़माने का क्या मतलब है?

प्रोफ़ैसर टोरी कहते हैं कि यूनानी मतन का मुतर्जिम अस्ल अरामी अल्फ़ाज़ को ख़लत करने की वजह से ग़लती कर गया। ये ग़लती अरामी लफ़्ज़ “हू” (ھو) (जो इस्म वाहिद ग़ायब है) मैं और हुवा (बमाअनी “जो था।”) में तमीज़ ना करने से है। मुक़द्दम अल-ज़िक्र लफ़्ज़ ज़माना हाज़िर के लिए इस्तिमाल होता है दूसरे लफ़्ज़ का ताल्लुक़ ज़माना-ए-माज़ी से है। मुतर्जिम ने इस मुक़ाम पर लफ़्ज़ हुवा (ھوا) को हू (ھو) पढ़ लिया। पस इस जगह सही अल्फ़ाज़ “गोद में है” नहीं हैं। बल्कि उन की बजाय सही अल्फ़ाज़ “गोद में था।” होने चाहिए। और तर्जुमा ये है “इकलौता बेटा जो बाप की गोद में था।”

दोम : “इकलौता बेटा” बाअज़ यूनानी नुस्ख़ों और क़दीम तर्जुमों में ये अल्फ़ाज़ आए हैं। लेकिन दीगर क़दीम तरीन यूनानी नुस्ख़ों में उन की बजाय “इकलौता ख़ुदा” लिखा है और यह नुस्ख़े मोअतबर क़िस्म के हैं। सुर्यानी तर्जुमा (रिवाइज़्ड) में भी इस मुक़ाम पर “इकलौता ख़ुदा” आया है। दोनों क़िरआत यानी “इकलौता बेटा” और “इकलौता ख़ुदा” दूसरी सदी के नुस्ख़ों में पाई जाती हैं। चुनान्चे डाक्टर माफ़ट इस का यूं तर्जुमा करते हैं(25) :-

“ख़ुदा को इकलौते बेटे ने ज़ाहिर किया है। जो इलाही (सिफ़ात से मुत्तसिफ़) है।”

डाक्टर लेमज़ अंग्रेज़ी तर्जुमा पशतियह का तर्जुमा है। इस में लिखा है :-

“ख़ुदा के पहलौठे ने जो बाप की गोद में है। इस को ज़ाहिर किया है।”

डाक्टर टोरी इस का तर्जुमा ये करते हैं :-

“के इकलौते बेटे ने जो बाप की गोद में था। उस को ज़ाहिर किया है।”

यूहन्ना 3:13

“आस्मान पर कोई नहीं चढ़ा सिवा उस के जो आस्मान से उतरा यानी इब्ने आदम जो आस्मान में है।”

मौजूदा यूनानी मतन के ज़माना हाल ने “जो आस्मान में है” क़दीम से मुफ़स्सिरों को सरगर्दां कर रखा है। हत्ता कि इस मुश्किल की वजह से ये अल्फ़ाज़ बाअज़ क़दीम तरीन मोअतबर नुस्ख़ों में पाए नहीं जाते। चुनान्चे विस्टिकट हार्ट ने भी इनको अपनी ऐडीशन से ख़ारिज कर दिया है।(26) बाअज़ मुफ़स्सिर इस हिस्से का ये मतलब लेते हैं कि(27) इब्ने आदम गो ज़मीन पर है लेकिन उस का दिल और असली रिहाइश आस्मान में है। बाअज़ कहते हैं कि इन्जील नवीस का ये मतलब था कि अब इस वक़्त जब मैं इन्जील चहारुम लिख रहा हूँ इब्ने आदम आस्मान में है।


(25) Moffat, New Translation of the New Testament, also Good Speech New Testament lomsa, The Four Gospels according to the Eastern Version
(26) West Cott and Hart, the New Testament in Greek.

डाक्टर टोरी कहते हैं कि इस आया शरीफा के आख़िरी हिस्से में भी यूनानी मतन के मुतर्जिम ने अरामी अल्फ़ाज़ हुवा (ھوا) और हू (ھو) को ख़लत मलत कर दिया है। यहां मुतर्जिम ने अरामी लफ़्ज़ हुवा (ھوا) (बमाअनी जो था) की बजाय लफ़्ज़ हू (ھو) पढ़ लिया। जिसका ताल्लुक़ ज़माना हाज़रा से है।

डाक्टर टोरी के तर्जुमे से आया शरीफा में किसी क़िस्म की मुश्किल नहीं रहती। चुनान्चे आयत का तर्जुमा ये होगा “आस्मान पर कोई नहीं चढ़ा। सिवा उस के जो आस्मान से उतरा यानी इब्ने आदम जो आस्मान पर था।”

ये तर्जुमा ना सिर्फ सीधा साधा है जो किसी तावील का मुहताज नहीं बल्कि आयात 11, 12 के मफ़्हूम को वाज़ेह कर देता है।

मर्क़ुस 9:29

“ये क़िस्म दुआ के सिवा किसी और तरह नहीं निकल सकती।”

इस तर्जुमे में मुश्किल ये है कि सय्यदना ईसा ने शागिर्दों को “नापाक रूहों पर इख़्तियार बख़्शा।” था। (मर्क़ुस 3:15, 6:7) और उन्हों ने मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में “बहुत सी बदरूहों को निकाला” भी था। (मर्क़ुस 6:13) फिर क्या वजह है कि नौ के नौ शागिर्द इस ख़ास नापाक रूह को निकाल ना सके?

इलावा अज़ीं इस आयत से और मुक़द्दस मत्ती की इन्जील से ज़ाहिर है कि सय्यदना ईसा के शागिर्दों में दुआ की कसर ना थी। बल्कि ईमान की कसर थी। उन के नापाक रूह को ना निकाल सकने की वजह उनकी और लड़के के बाप की बे एतिक़ादी थी। (मर्क़ुस 9:33, मत्ती 17:20) इलावा अज़ीं इस मुक़ाम पर आँख़ुदावंद शागिर्दों को दुआ ना करने के लिए मलामत फ़र्माते हैं। जो उन की बे एतिक़ादी का नतीजा थी।


(27) Plummer, St. John (Cambridge Bible)

यहां ये अम्र भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि सय्यदना ईसा इस ख़ास बद-रूह को निकालने से पहले ख़ुद भी दुआ मांगते। जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि इस के निकालने और दुआ मांगने में लाज़िम व लज़ूम का ताल्लुक़ नहीं है। डाक्टर टोरी कहते हैं कि ये मुश्किल यूनानी मुतर्जिम की ग़लती का नतीजा है। इस मुक़ाम में दर-हक़ीक़त अरामी लफ़्ज़ इला (اِلا) (बमाअनी “सिवाए”) नहीं लिखा था। बल्कि अरामी मतन में इस मुक़ाम पर लफ़्ज़ अपला (اپ لا) (बमाअनी “से भी”) था। यूनानी मुतर्जिम अरामी हुरूफ़ के यकसाँ होने की वजह से ये ग़लती कर गया। पस इस आलिम के मुताबिक़ इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है “ये क़िस्म दुआ से भी किसी तरह नहीं निकल सकती।”

मर्क़ुस 15:21, लूक़ा 23:26, मत्ती 27:32

“शमऊन नाम एक क़ुरैनी आदमी सिकन्दर और रोफस का बाप दिहात से आते हुए उधर से गुज़रा।”

डाक्टर टोरी कहते हैं कि यूनानी मुतर्जिम ने इस जगह क़रवाई (قروائی) की वाओ (واؤ) को ग़लती से नून (نون) पढ़ कर क़रनाई (قرنائی) लिख दिया है। पस इस फ़ाज़िल मुसन्निफ़ के ख़याल में इस आया शरीफा में लफ़्ज़ क़रनाई (قرنائی) बमाअनी कुरैनी नहीं था। बल्कि क़रवाई (قروائی) बमाअनी देहाती या किसान था। चुनान्चे मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस मर्क़ुस दोनो लिखते हैं कि “शमऊन दिहात से आते हुए उधर से गुज़रा।” इन आयात से डाक्टर टोरी साहब के ख़याल की तस्दीक़ और ताईद होती है।

जब सलीबी वाक़िये के दस साल बाद इन्जील मर्क़ुस लिखी गई तो शमऊन के बेटे मसीही कलीसिया के “बर्गुज़ीदा” रुक्न थे। जब मुक़द्दस पौलुस ने अपना ख़त रोमीयों को लिखा तो इस ख़ानदान के चंद शुरका रुम में इक़ामत-गज़ीं थे। चुनान्चे रसूल मक़्बूल रोफस और उस की माँ को सलाम भेजते हैं। (रोमीयों 16:13) पस डाक्टर टोरी साहब के मुताबिक़ इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है :-

“शमऊन नाम एक किसान सिकन्दर और रोफस का बाप दिहात से आते हुए उधर से गुज़रा।”

यूहन्ना 1:15

“यूहन्ना ने उस की बाबत गवाही दी कि जो मेरे बाद आता है वो मुझसे मुक़द्दम ठहरा क्योंकि वो मुझसे पहले था।”

प्रोफ़ैसर बरनी कहते हैं कि इस आया शरीफा की अरामी इबारत का सही तर्जुमा यूं होना चाहिए। वो जो मेरे बाद आ रहा है मुझसे मुक़द्दम होगा। क्योंकि वो (सबसे) क़दीम था। यानी वो “इब्तिदा” में था। यहां अरामी अल्फ़ाज़ “कदामए” (قدامئے) और क़दमे (قدمے) इस्तिमाल किए गए थे। जो एक दूसरे से मुशाबेह हैं। इन्जील नवीस ने इस सनअत को इस्तिमाल करके मुक़द्दस यूहन्ना इस्तिबाग़ी और कलिमतुल्लाह (मसीह) में फ़र्क़ दिखाया है।

यूहन्ना 20:2

“वो (मर्यम मगदलीनी) दौड़ी हुई गई। और उन (शागिर्दों) से कहा, कि ख़ुदावंद को क़ब्र से निकाल ले गए और हमें मालूम नहीं कि उसे कहा रख दिया।”

इस इन्जील के मुताबिक़ “मर्यम मग्दलीनी” क़ब्र पर अकेली गई थी। (पहली आयत) लेकिन दूसरी आयत के आख़िर में वो सीग़ा जमा मुतकल्लिम “हमें” इस्तिमाल करती है। डाक्टर बरनी कहते हैं(28) कि यहां अरामी अल्फ़ाज़ “लाया दिअना” (لایادِانا) थे। जिनको यूनानी मतन के मुतर्जिम ने ग़लती से “लायुदना” (لایُدنا) पढ़ लिया। मुक़द्दम-उल-ज़िक्र फ़ेअल वाहिद मुतकल्लिम सीग़ा मुअन्नस है। जिसके मअनी हैं “मैं नहीं जानती” लेकिन मोख्ख़र-उल-ज़िक्र फ़ेअल जमा मुतकल्लिम है जिसके मअनी हैं “हम नहीं जानते हैं” पस इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है।

“मैं नहीं जानती कि उसे कहाँ रख दिया।”

लूक़ा 13:31 से 3

“देख मैं आज और कल बदरूहों को निकालता और शिफ़ा देने का काम अंजाम देता रहूँगा। और तीसरे दिन कमाल को पहुँचूँगा। मगर मुझे आज और कल और परसों अपनी राह जाना ज़रूरी है। क्योंकि मुम्किन नहीं कि नबी यरूशलेम से बाहर हलाक हो।”

मौजूदा तर्जुमे के मुताबिक़ आयत 32, और 33 में तज़ाद है। आयत 32 में आँख़ुदावंद फ़र्माते हैं कि “आप” आज और कल “अपना” काम अंजाम देंगे। लेकिन आयत 33 में है, कि आपको इन्ही दिनों में “अपनी राह जाना ज़रूर है।”


(28) Aramaic Origin Ch.7

मौजूदा तर्जुमे के मुताबिक़ अल्फ़ाज़ “अपनी राह जाना ज़रूर है” का मतलब भी सही तौर पर वाज़ेह नहीं। इब्रानी और अरामी मुहावरे के मुताबिक़ इन अल्फ़ाज़ का मतलब आपकी सलीबी मौत है। (यूहन्ना 8:21, मर्क़ुस 14:21, मत्ती 26:24, लूक़ा 22:23, अय्यूब 33:18 वग़ैरह)

इलावा अज़ीं अल्फ़ाज़ “कमाल को पहुँचूँगा” मौजूदा सियाक़ व सबाक़ में मौज़ूं नहीं हैं। यही वजह है कि मुख़्तलिफ़ मुफ़स्सिरीन इनकी मुख़्तलिफ़ तावीलें करते हैं।(29) और दौर-ए-हाज़रा के मुतर्जमीन इन अल्फ़ाज़ के मुख़्तलिफ़ तर्जुमे करते हैं वलहासुन इन आयात में से अल्फ़ाज़ “और तीसरे दिन कमाल को पहुँचूँगा” मगर आज और कल को ख़ारिज कर देता है ताकि इन आयात का मतलब निकल आए।

हमें ये भी फ़रामोश नहीं करना चाहिए कि अल्फ़ाज़ कमाल को पहुँचूँगा अनाजील अर्बा के किसी और मुक़ाम मैं मुनज्जी आलमीन (मसीह) की सलीबी मौत के लिए इस्तिमाल नहीं हुए हैं।

डाक्टर टोरी कहते हैं कि अरामी ज़बान में अरामी अल्फ़ाज़ का तर्जुमा “काम अंजाम देना” (لِمعِبدَ) और “राह जाना” (لِمعَبر) हैं इनमें सिर्फ़ हुरूफ़ “व” (و) और “र” (ر) का फ़र्क़ है जो मुशाबेह होने की वजह से अक्सर एक दूसरे की बजाय लिखे जाते हैं। इसी तरह अरामी ज़बान के अल्फ़ाज़ (मशलम) (مَشلَم) बमाअनी “कमाल को पहुँचूँगा”.... और मशलम (مَشلَم) एक ही तरह लिखे जाते हैं। यूनानी मुतर्जिम ने इन अरामी अल्फ़ाज़ को ख़लत मलत कर दिया है। जिसकी वजह से इन आयात का सही मतलब समझ में नहीं आता।

डाक्टर ब्लैक (30) कहते हैं कि अल्फ़ाज़ “आज और कल और बरसों” शामी ज़बान में एक मुहावरा है जिससे मुराद कोई ख़ास दिन या ज़माना नहीं बल्कि ग़ैर मुईन वक़्त होता है। (होसेअ 6:2) मुक़ाम ज़ेर-ए-बहस में भी कोई ख़ास दिन मुराद नहीं हैं जिन अल्फ़ाज़ का “आज और कल” तर्जुमा हुआ है वो अरामी ज़बान में “यौम दिन व यौम अख़र हैं।” जिनसे मुराद सिर्फ “यौम ब यौम” होती है और आँख़ुदावंद का मतलब है कि “मैं बदरूहों को निकालता हूँ और यौम ब यौम शिफ़ा बख़्शता हूँ।” यही अल्फ़ाज़ दुआए रब्बानी में भी इस्तिमाल हुए हैं। हिबा लनालहम (ہبہ لنالحم) (हमें रोटी दे) “यौम दिन यौम अख़र” (यौम ब यौम) यानी हमें यौम ब रोटी दे।


(29) Farrar, St Luke (Cambridge Bible)
(30) Black, An Aramaic Approach the Gospels and Act pp.151.153

पस डाक्टर ब्लैक के मुताबिक़ मज़्कूर बाला आयात का तर्जुमा ये है :-

“देख मैं बदरूहों को निकालता हूँ और यौम ब यौम शिफ़ा बख़्शने का काम अंजाम देता हूँ। लेकिन मैं एक दिन जल्दी कमाल को पहुँचूँगा। मगर ये ज़रूर है कि मैं यौम ब यौम काम करूँ और एक दिन जल्दी जाऊं।”

डाक्टर टोरी के मुताबिक़ इन आयात का तर्जुमा ये है :-

“देख मैं आज और कल बदरूहों को निकालने और शिफ़ा बख़्शने का काम अंजाम देता रहूंगा। और तीसरे दिन पकड़वाया जाऊँगा। क्योंकि ये ज़रूर है कि मैं आज और कल काम करूँ मगर परसों मुझे अपनी राह पर जाना ज़रूर है।”

यूहन्ना 13:31 ता 3

“जब वो बाहर चला गया तो येसू ने कहा कि अब इब्ने आदम ने जलाल पाया और ख़ुदा ने उस में जलाल पाया और ख़ुदा भी उसे अपने में जलाल देगा बल्कि फ़ील-फ़ौर उसे जलाल देगा।”

इन आयात में अल्फ़ाज़ “जलाल पाना” और “जलाल देना” चार दफ़ाअ वारिद हुए हैं। लेकिन इन अल्फ़ाज़ के इआदा से आयात के मअनी वाज़ेह नहीं होते। पस क़दीम ज़माने से ही मुफ़स्सिरीन इन आयात की तरह ब तरह तावील करते चले आए हैं लेकिन किसी को नुमायां कामयाबी नसीब नहीं हुई।

डाक्टर टोरी कहता है कि ऐसा मालूम होता है कि इन्जील के मौजूदा क़दीम तरीन नुस्ख़ों की नक़्ल से भी पहले किसी कातिब ने आयत 32 के यूनानी अल्फ़ाज़ के योथियोस (یوتھیوس) बमाअनी ओरी फ़ील-फ़ौर (اوری فی الفور) “को” के हो थियोस (ہوتھیوس) बमाअनी “और ख़ुदा” लिख दिया। किताबत ये ग़लती आयत 31 के आख़िरी अल्फ़ाज़ की वजह से ग़ालिबन सरज़द हो गई। अगर डाक्टर टोरी का ये क़ियास दुरुस्त है तो इन आयात का मतन ये है :-

“जब वो बाहर चला गया तो येसू ने कहा कि अब इब्ने आदम ने जलाल पाया और ख़ुदा ने उस में जलाल पाया और वो (इब्ने आदम) अब फ़ील-फ़ौर अपने में उस (ख़ुदा) को जलाल देगा।”

अगर ये दुरुस्त है तो इस आया शरीफा का ये मतलब होगा कि सय्यदना मसीह ऐलान फ़र्माते हैं कि अनक़रीब आप अपनी ही जान को क़ुर्बान करके ख़ुदा का जलाल ज़ाहिर करने वाले हैं। इस क़ियास की तस्दीक़ इस बात से भी होती है कि अल्फ़ाज़ “अब मैं” एक इब्रानी और अरामी मुहावरा है जिसके मअनी “अपनी जान” के हैं। बईद यही मुहावरा (1 सलातीन 2:23) में है जहां लिखा है “तब सुलेमान बादशाह ने क़सम खाई और कहा कि अगर अदूनियाह ने ये बात अपनी ही जान के ख़िलाफ़ नहीं कही तो ख़ुदा मुझसे ऐसे ही बल्कि इस से ज़्यादा करे।”

पस आँख़ुदावंद इस आया शरीफा में अपनी मौत की तरफ़ इशारा करते हैं। लेकिन सामईन आपकी इस रम्ज़ को ना समझे। जिस तरह वो ख़ुदावंद के दीगर इशारात और किनायात को नहीं समझते थे जिनका ताल्लुक़ आपकी सलीबी मौत से था। (यूहन्ना 3:14, 8:28, 12:32, 33 18:32 वग़ैरह)

पस डाक्टर टोरी के मुताबिक़ आयात-ए-बाला का सही तर्जुमा ये है :-

“जब वो बाहर चला गया तो येसू ने कहा कि अब इब्ने आदम ने जलाल पाया और ख़ुदा ने उस में जलाल पाया और वह उस को अपनी ही जान से जलाल देगा।”

लूक़ा 21:5

“और जब बाअज़ लोग हैकल की बाबत कह रहे थे कि वो नफ़ीस पत्थरों और नज़र की हुई चीज़ों से आरास्ता है तो इसलिए कहा कि वो दिन आएँगे.....कि यहां किसी पत्थर पर पत्थर बाक़ी ना रहेगा जो गिराया ना जाये।”

इस मुक़ाम में “नज़र की हुई चीज़ों” का ज़िक्र इस सियाक़ व सबाक़ में बेमहल और अजीब मालूम होता है। सय्यदना मसीह ने अपने शागिर्दों के साथ बैतुल्लाह से दूर शहर की दीवार से बाहर जा चुके थे। (मर्क़ुस 13:1, मत्ती 24:1) और “ज़ैतून के पहाड़ पर बैतुल्लाह के सामने” (मर्क़ुस 13:2) बैठे थे। ग़ालिबन इस वक़्त आफ़्ताब ग़ुरूब हो रहा था और इस की आख़िरी शुवाएं बैतुल्लाह की दीवारों पर पड़ रही थीं। शागिर्द इमारत की हैरत से देखकर अंगुश्त बदंदाँ हो कर कहते हैं, “ऐ उस्ताद देख ये कैसे कैसे पत्थर और कैसी इमारतें हैं।” (मर्क़ुस 13:1) क्योंकि हैकल की दीवारों के पत्थर बड़े क़द के थे और बाअज़ चालीस मकअब फुट लंबे और दस फिट ऊंचे थे। संगमरमर की सुर्ख व सफ़ेद सिलें यके बाद दीगरे सिलसिले-वार तर्तीब से लगी हुई एक अजब नज़ारा पेश कर रही थीं।(31) इस सियाक़ इबारत में “नज़र की हुई चीज़ों” का ज़िक्र बेजा और ग़ैर मौज़ूं मालूम पड़ता है। इन चीज़ों में अगरपा की तिलाई ज़ंजीर, टूलोमी फ़ील्ड फस और अगस्तस और हेलन(32) की नज़र की हुई चीज़ें और ताज, सिपरें और ढालें और बेश क़ीमत सागरो जाम वग़ैरह दीगर बे-बहा अश्या थीं।(33) जिनकी वजह से टेसिटस (Tacitus(34)) कहता है कि “हैकल बेशुमार दौलत का ख़ज़ाना है।” लेकिन “इन बेशक़ीमत नज़र की हुई चीज़ों” को तो शागिर्द वहां से देख भी नहीं सकते थे बल्कि अगर वह हैकल के अंदर होते तो वहां भी उनकी नज़र इन अश्या पर ना पड़ सकती थी। इलावा अज़ीं सय्यदना मसीह के जवाब में भी जो अगली आयत में है “इन नज़र की हुई चीज़ों” का ज़िक्र छोड़, इशारा तक पाया नहीं जाता।

इस बिना पर डाक्टर टोरी का ये ख़याल है कि जिस अरामी लफ़्ज़ का यहां तर्जुमा “नज़र की हुई चीज़ों” किया गया है। वो दर-हक़ीक़त “क़ुर्बानें” (قربانیں) नहीं था बल्कि “रुरबानीं” (رُربانیں) था जिसके मअनी “बड़े, कलां, अज़ीम” हैं। अरामी हरूफ़-ए-तहज्जी में हुरूफ़ क़ (ق) और र (ر) में फ़र्क़ नज़र नहीं आता। जिसकी वजह से अरामी मतन के मुतर्जिम ने रुरबानीं (رُربانیں) को क़ुर्बानें (قربانیں) “पढ़ कर” बड़े” लिखने के बजाय “नज़र की हुई चीज़ें” लिख दिया है।

पस डाक्टर टोरी के मुताबिक़ इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है :-


(31) Josephus B.J.V.
(32) Helen
(33) Josephus B.J.V. 5.4: 2 Macc 5.16 Josephus, Antiquities xiii 3.xv 11.3
(34) https://en.wikipedia.org/wiki/Tacitus

“और बाअज़ लोग हैकल (बैतुल्लाह) की बाबत कह रहे थे कि वो नफ़ीस और बड़े बड़े पत्थरों से आरास्ता है तो उस ने कहा कि वो दिन आएँगे.....कि यहां किसी पत्थर पर पत्थर बाक़ी ना रहेगा जो गिराया ना जाये।”

यूहन्ना 14:31 का आख़िरी हिस्सा

“उठो, यहां से चलें।”

(यूहन्ना 14 ता 16) अबवाब में आँख़ुदावंद मसीह के आख़िरी कलिमात दर्ज हैं और यह कलिमात मुसलसल हैं। लेकिन (यूहन्ना 14:31) आयत का ये आख़िरी हिस्सा इस सिलसिले कलाम को तोड़ देता है जिसकी वजह से नफ़्स-ए-मज़्मून के बयान में ख़लल वाक़ेअ हो गया है। इलावा अज़ीं पंद्रहवीं बाब के शुरू में ये नहीं लिखा कि आँख़ुदावंद और आप के शागिर्द चले भी गए। बल्कि इनके जाने का ज़िक्र (यूहन्ना 18:1) में आता है।

इन दोनों मुश्किलों को हल करने के लिए मुफ़स्सिरीन ने मुख़्तलिफ़ तरीक़े इख़्तियार किए हैं। बाअज़ कहते हैं कि इन्जील का ये हिस्सा (अबवाब 15 ता 16) बाद ज़माने का है। बाअज़ अबवाब (13 ता 16) की अज़सर नव तशकील करके कहते हैं, कि ये अबवाब यूं लिखे जाने चाहिऐं (13:1 ता 30, 15 बाब, 16 बाब 13:31 ता 38, 14 बाब) ग़र्ज़ ये कि (यूहन्ना 14:31) का ज़ेर-ए-बहस आख़िरी हिस्सा मुश्किलात बरपा कर देता है।

इलावा अज़ीं इन्जील के यूनानी मतन से ज़ाहिर है कि इस आया शरीफा में आँख़ुदावंद ने एक बात शुरू की है जो अधूरी रह गई है। और ख़त्म होने नहीं पाई। वो कौन सी बात है जिससे दुनिया जान लेगी कि आँख़ुदावंद बाप से मुहब्बत रखते हैं? इस सवाल का जवाब मौजूद नहीं।

एक और अम्र क़ाबिले ज़िक्र है। अगर अल्फ़ाज़ ज़ेर-ए-बहस आयत 31 के आख़िर में ना होते तो 14 बाब के बाद पंद्रहवीं (15) बाब का आग़ाज़ एक क़ुदरती अम्र नज़र आता है।

डाक्टर टोरी कहते हैं कि इन मुश्किलात की अस्ल वजह आयत के इस हिस्से का ग़लत यूनानी तर्जुमा है। अरामी इन्जील के इस हिस्से के दोनों अरामी लफ़्ज़ों में हर्फ़ “अलिफ़” (الف) मौजूद था यानी पहले लफ़्ज़ के आख़िर में “अलिफ़” (الف) था और दूसरे लफ़्ज़ के शुरू में भी “अलिफ़” (الف) था लेकिन कातिब दोनों जगह हर्फ़ “अलिफ़” (الف) लिखने की बजाय एक “अलिफ़” को नज़र अंदाज़ कर दिया गया यानी दो “अलिफ़” (الف) लिखने की बजाय सिर्फ एक “अलिफ़” लिख गया। जिसकी वजह से तर्जुमा यूनानी में इबारत कुछ से कुछ हो गई। किताबत की ये ग़लती एक आम ग़लती है। इस ग़लती की वजह से कातिब ने लफ़्ज़ क़ौमो (قومو) लिख दिया जो सीग़ा जमा का हो गया और इस का तर्जुमा हो गया “उट्ठो यहां से चलें।” दरअस्ल अरामी अल्फ़ाज़ का तर्जुमा ये था “मैं यहां से चलने को खड़ा हूँ।”

अगर आयत का ये हिस्सा इस तरह पढ़ा जाये तो कलिमात के तसलसुल में और नफ़्स-ए-मज़्मून में किसी क़िस्म का फ़र्क़ नहीं आता और (अबवाब 14 ता 16) एक मुसलसल सूरत इख़्तियार कर लेते हैं। मुनज्जी आलमीन (मसीह) फ़र्माते हैं “तुम्हारा दिल ना घबराए मैं जाता हूँ। मैं फिर आकर तुम को अपने साथ ले लूँगा। मैं बाप से दरख़्वास्त करूँगा और वह तुमको तसल्ली देने वाला बख़्शेगा। मैं तुमको इत्मीनान दिए जाता हूँ। तुम्हारा दिल ना घबराए और ना डरे। मैंने तुमसे कहा है कि मैं जाता हूँ। अगर तुम मुझसे मुहब्बत रखते हो तो इस बात से कि मैं बाप के पास जाता हूँ ख़ुश होते। अब वक़्त होता है। इस दुनिया का सरदार दरवाज़े पर है। मेरी मौत का वक़्त आ गया है। इसलिए कि दुनिया जान ले कि मैं बाप से मुहब्बत रखता हूँ और जिस तरह बाप ने मुझे हुक्म दिया मैं वैसा ही करता हूँ मैं यहां से जाने को तैयार खड़ा हूँ।” यानी में मरने को तैयार हूँ।”

मर्क़ुस 6:8 (मत्ती 10:10 लूक़ा 9:3)

“(येसू ने बारह को) हुक्म दिया कि रास्ते के लिए सिवा लाठी के कुछ ना लो। रोटी, ना झोली, ना अपने कमरबंद में पैसे।”

जब हम इस आयत का इन्जील अव्वल और सोम के मज़्कूर-बाला मकामात से मुक़ाबला करते हैं तो हम पर यह ज़ाहिर हो जाता है कि इन मुक़ामात में लाठी को मुस्तिशना नहीं किया गया। पस मुख़्तलिफ़ मुफ़स्सिर तरह तरह की तावीलें करते हैं।

डाक्टर टोरी कहते हैं कि मज़्कूर बाला आयत में अरामी लफ़्ज़ जिसके उर्दू में मअनी “सिवा” किए गए हैं। वो “इला” (اِلا) नहीं था। बल्कि “ला” (لا) बमाअनी नहीं था। इस आलिम के ख़याल के मुताबिक़ लफ़्ज़ “इला” (لا) का पहला हर्फ़ “अलिफ़” दर-हक़ीक़त इस से पिछले अरामी लफ़्ज़ का हिस्सा था और हाँ सिर्फ़ लफ़्ज़ “ला” (لا) था। लेकिन यूनानी मुतर्जिम ने इस हर्फ़ “अलिफ़” (الف) को “ला” (لا) के साथ मिलाकर “इला” (اِلا) पढ़ा जिसका तर्जुमा “सिवा” हो गया। दर-हक़ीक़त यहां लफ़्ज़ “ला” (لا) जिसका तर्जुमा यहां नहीं होना चाहिए।

पस डाक्टर टोरी साहब के मुताबिक़ इस आया शरीफा का असली तर्जुमा ये है :-

“उस ने हुक्म दिया कि रास्ते के लिए कुछ ना हो। ना लाठी ना रोटी, ना झोली, ना अपने कमरबंद में पैसे।”

ये तर्जुमा (मत्ती 10:10 और लूक़ा 9:3) के मुताबिक़ भी है।

यूहन्ना 3:33

“जिस यूहन्ना (बपतिस्मा देने वाले) ने उस (आस्मान से आने वाले) की गवाही क़ुबूल की उस ने इस बात पर मुहर कर दी कि ख़ुदा सच्चा है।”

जब हम इस आया शरीफा के सियाक़ व सबाक़ पर ग़ौर करते हैं तो मौजूदा तर्जुमे की ख़ामी हम पर अयाँ हो जाती है। क्योंकि अव्वल वो इस आयत को ग़ैर ज़रूरी और फ़ुज़ूल बना देता है। दोम, इस आयत के इब्तिदाई अल्फ़ाज़ से ये ख़याल पैदा होता है कि आयत के आख़िरी हिस्से का नतीजा निहायत मज़्बूत और ज़बरदस्त होगा लेकिन मौजूदा तर्जुमे में नतीजा निहायत बोदा और कमज़ोर है। इलावा अज़ीं इस आयत के बाद जो अक़ीदा दर्ज है इस का इन्हिसार इस दलील पर है जो ज़ेर-ए-बहस आयत में है लेकिन दोनों में कोई ताल्लुक़ नज़र नहीं आता।

जिस हक़ीक़त का ये आयत ऐलान करती है वो पुर-ज़ोर अल्फ़ाज़ से शुरू होती है कि एक तन्हा ईमानदार (यूहन्ना) ने उस की गवाही को क़ुबूल किया जो आस्मान से उतरा है और उस ने क़ुबूल करके इस बात पर मुहर लगा दी है कि “ख़ुदा सच्चा है” अब ग़बी से ग़बी शख़्स पर भी ज़ाहिर है कि यहां नतीजा ख़ुदा सच्चा है बेमहल है। क्योंकि जो शख़्स ख़ुदा पर ईमान लाता है उस को इस बात के मानने के लिए किसी “मुहर” की ज़रूरत नहीं कि “ख़ुदा सच्चा है।”

डाक्टर टोरी कहते हैं कि अरामी में अस्ल लफ़्ज़ “इलाह” (اِلاہ) बमाअनी रब्बानी (या समावी) था लेकिन या तो अरामी नुस्खे के कातिब ने इस लफ़्ज़ के बाद एक और “अलिफ़” (الف) ईज़ाद कर दिया या यूनानी मुतर्जिम ने इस को “इलाहा” (اِلاہا) पढ़ लिया जिसके मअनी ख़ुदा हो गए।

पस आयत का सही तर्जुमा ये हुआ :-

“जिस (यूहन्ना) ने उस (आस्मान से आने वाले) की गवाही क़ुबूल की उस ने इस बात पर मुहर दी कि वो सच-मुच रब्बानी या (समावी) है।”

ये तर्जुमा ना सिर्फ 29 ता 34 आयत के मफ़्हूम के मुताबिक़ है बल्कि सियाक़ व सबाक़ इस के ख़्वाहां हैं। ये तर्जुमा आयत 35 के अल्फ़ाज़ के मतलब को भी रोशन कर देता है। जिसमें लिखा है कि ख़ुदा ने अपने मसीह को रूह नाप कर नहीं बल्कि कामिल और अकमल तौर पर अता की थी।

यूहन्ना 3:34

“क्योंकि जिसे ख़ुदा ने भेजा है वो ख़ुदा की बातें कहता है। इसलिए कि वो रूह नाप नाप कर नहीं देता।”

गुज़श्ता आयत की निस्बत हमने बतलाया था कि डाक्टर टोरी के मुताबिक़ इस से पहली आयत का सही तर्जुमा ये है :-

“जिस (यूहन्ना) ने उस को (आस्मान से आने वाले यानी येसू) की गवाही क़ुबूल की उसने बात पर मुहर दी कि वो (येसू) सच-मुच रब्बानी (या समावी) है।”

डाक्टर टोरी कहते हैं कि आयत 34 में जिस अरामी लफ़्ज़ का तर्जुमा “देता” किया गया है वो “यहब” (یہب) है। यूनानी मुतर्जिम ने इस लफ़्ज़ में हर्फ़ “य” (ی) पर “ज़बर” और हर्फ़ “ह” (ہ) पर “ज़ेर” लगाकर उस लफ़्ज़ को यहिब (یَہِب) पढ़ा। जिसकी वजह से इस लफ़्ज़ का तर्जुमा “देता” हो गया। डाक्टर मौसूफ़ के ख़याल में इस लफ़्ज़ में हर्फ़ “य” (ی) पर “ज़ेर” और “ह” (ہ) पर “ज़बर” थी। पस मुतर्जिम को उसे “यिहब (یِہَب) पढ़ना चाहिए था। जो फ़ेअल माज़ी है और जिस का तर्जुमा “दी” होना चाहिए था।

पस डाक्टर मौसूफ़ के मुताबिक़ इस आया शरीफा का सही उर्दू तर्जुमा ये है :-

“क्योंकि जिसे (येसू) को ख़ुदा ने भेजा है वो ख़ुदा की बातें कहता है। इसलिए कि उसने (येसू) को रूह नाप नाप कर नहीं दी।”

यूहन्ना 5:44

“तुम जो एक दूसरे से इज़्ज़त चाहते हो और वह इज़्ज़त जो ख़ुदा-ए-वाहिद की तरफ़ से होती है या नहीं चाहते क्यूँ-कर ईमान ला सकते हो?”

इस मुक़ाम में जैसा प्रोफ़ैसर ज़ाहिन कहता है, अल्फ़ाज़ ख़ुदा-ए-वाहिद मौज़ूं नहीं हैं। इब्तिदाई ज़माने की क़िरआत भी इस मुफ़स्सिर की हिमायत करती है।

इस से पहली आयत में हक़ीक़ी मसीह मौऊद का जो “बाप के नाम से आता है।” दीगर काज़िब दावेदारों से जो अपने ही नाम से आते हैं मुक़ाबला किया गया है। पस आया ज़ेर-ए-बहस में “ख़ुदा-ए-वाहिद” के अल्फ़ाज़ बेमहल और ग़ैर मौज़ूं हैं क्योंकि वो सियाक़ व सबाक़ के मुताबिक़ दुरुस्त मालूम नहीं होते।

डाक्टर टोरी कहता है कि यूनानी मुतर्जिम ने जिस अरामी लफ़्ज़ का तर्जुमा इस आयत में “ख़ुदा-ए-वाहिद” किया है वही लफ़्ज़ है जो (यूहन्ना 1:8 और 3:18) में वारिद हुआ है जहां इस का तर्जुमा “इकलौता बेटा” किया गया है। अगर ये दुरुस्त है तो इस आया शरीफा का ये मतलब है कि दुनिया के लोग काज़िब दावेदाराने मसीहिय्यत को क़ुबूल करने के लिए तैयार होते हैं। क्योंकि वो एक दूसरे से इज़्ज़त चाहते हैं। लेकिन उनके दिलों में इस इज़्ज़त को हासिल करने की ख़्वाहिश मौजूद नहीं जो हक़ीक़ी मसीह मौऊद उन को देता है।

डाक्टर टोरी के मुताबिक़ मुतर्जिम के सामने जो अरामी नुस्ख़ा था, इस में इन दो लफ़्ज़ों में से (जिनका तर्जुमा “ख़ुदा-ए-वाहिद” किया गया है) हर्फ़ अलिफ़ (الف) पहले लफ़्ज़ के आख़िर में और दूसरे लफ़्ज़ के शुरू में था लेकिन अलिफ़ को सिर्फ दो लफ़्ज़ के शुरू “अलहद” (الہد) में ही होना चाहिए था।

पस इस आलिम के मुताबिक़ आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है :-

“तुम जो एक दूसरे से इज़्ज़त चाहते हो और वो इज़्ज़त जो ख़ुदा के इकलौते बेटे की तरफ़ से होती है नहीं चाहते क्यूँ-कर ईमान ला सकते हो।”

यूहन्ना 8:56

“तुम्हारा बाप अब्रहाम मेरा दिन देखने की उम्मीद पर बहुत ख़ुश था। चुनान्चे उस ने देखा और ख़ुश हुआ।”

प्रोफ़ैसर बरनी कहते हैं कि इन दोनों फ़िक़्रों में लफ़्ज़ “ख़ुश” निहायत बेमहल है और ग़ैर मौज़ूं भी है। पहले फ़िक़्रे में लफ़्ज़ ख़ुश की बजाय कोई और लफ़्ज़ अस्ल अरामी ज़बान में था। जिस का मतलब ये था कि अब्राहाम मेरा दिन देखने की बहुत तमन्ना रखता था या वो मेरा दिन देखने का निहायत मुश्ताक़ था। तब दूसरा फ़िक़्रह एक निहायत ज़ोरदार औरपुरमाअनी फ़िक़्रह हो सकता है। मौजूदा तर्जुमे में लफ़्ज़ “ख़ुश” का इआदा किया गया है। जिससे ना सिर्फ ज़ोर कम हो जाता है बल्कि फ़िक़्रे के दोनों हिस्सों में कुछ फ़र्क़ नहीं रहता। डाक्टर टोरी कहते हैं कि अस्ल अरामी के कातिब ने या यूनानी मुतर्जिम ने दोनों फ़ेअलों को जिन का तर्जुमा यहां पर दोनो जगह “ख़ुश” किया गया है गड-मड कर दिया है। जिसका नतीजा ये हुआ है कि दोनो फ़ेअलों का ग़लत तर्जुमा एक ही लफ़्ज़ यानी ख़ुश किया गया है। इस गड-मड की वजह ये है कि या अरामी कातिब ने और या यूनानी मुतर्जिम ने एक “अलिफ़” को नज़र-अंदाज कर दिया है। पस इस फ़ाज़िल मुसन्निफ़ के मुताबिक़ पहले फ़िक़्रह के फ़ेअल में हर्फ़ “अलिफ़” (الف) को ईज़ाद कर देना चाहिए।

पस डाक्टर मौसूफ़ के मुताबिक़ इस आया शरीफा का अस्ल तर्जुमा ये है :-

“तुम्हारे बाप अब्राहाम ने मेरा दिन देखने की उम्मीद के लिए दुआ की। चुनान्चे उस ने देखा और ख़ुश हुआ।”

प्रोफ़ैसर बरनी कहते हैं(35) कि यहां अरामी में जो लफ़्ज़ इस्तिमाल किया गया था उस के मअनी ख़्वाहिशमंद हैं जिसका यूनानी के मुतर्जिम ने ग़लत तर्जुमा करके इस आयत के दोनों हिस्सों को एक सा बना दिया है। पस प्रोफ़ैसर मौसूफ़ के मुताबिक़ इस आयत का सही तर्जुमा ये है :-

“तुम्हारा बाप अब्राहाम मेरा दिन देखने का ख़्वाहिशमंद था। चुनान्चे उस ने देखा और ख़ुश हुआ।”

मर्क़ुस 10:32

“और वो यरूशलेम को जाते हुए रास्ते में थे और येसू उन के आगे-आगे जा रहा था। और वह हैरान होने लगे और जो पीछे-पीछे चलते थे डरने लगे।”

इस आया शरीफा में ये दिक़्क़त पेश आती है कि अस्ल यूनानी में लफ़्ज़ “वो” जो तीसरे फ़िक़्रे का फ़ाइल है, मौजूद नहीं है। पस यहां ये सवाल पैदा होता है कि कौन “हैरान होने लगे?” अगर ये शागिर्द थे तो उन के हैरान होने की माक़ूल वजह क्या थी? इलावा अज़ीं वो कौन लोग थे “जो पीछे पीछे चलते थे?” और यह लोग क्यों डरने लगे?” उमूमन मुफ़स्सिरीन कहते हैं कि ये लोग वो थे जो कारवां में ईद-ए-फ़सह के लिए यरूशलेम को जाते हुए आँख़ुदावंद के पीछे पीछे चलते थे। लेकिन आयत 32 के दूसरे हिस्से और आयत 33 से साफ़ ज़ाहिर है कि ये जो “पीछे पीछे चलते थे” कोई ग़ैर नहीं थे बल्कि वो बारह शागिर्द ही थे। पस ये तफ़्सीर दुरुस्त नहीं हो सकती। और अगर हम एक लम्हे के लिए इस को दुरुस्त मान भी लें तो फिर इस सवाल का क्या जवाब है कि कारवां के लोगों के लिए “डरने” का क्या मौक़ा था?

पस बाअज़ मुफ़स्सिर मसलन डाक्टर टर्नर (C.H. Turner) और डाक्टर सामंड (Salmond) वग़ैरह कहते हैं कि इस मुक़ाम में यूनानी मतन में कुछ फ़ुतूर वाक़ेअ हो गया है और अस्ल क़िरआत ये होगी कि “वो हैरान होने लगा।”(36)


(35) C.F. Burney, The Aramaic Origin of the Fourth Gospel ch.7
(36) St. Mark (Cent Bible) p.701

अस्ल हक़ीक़त ये है कि अरामी ज़बान के हर लफ़्ज़ का एक एक हर्फ़ अंग्रेज़ी, हिन्दी और पंजाबी ज़बानों के अल्फ़ाज़ों की तरह अलग अलग लिखा जाता था और अरामी इबारत के फ़िक़्रों के दर्मियान या इबारत के लफ़्ज़ों के दर्मियान लिखते वक़्त कोई फ़ासिला या वक़्फ़ा नहीं छोड़ा जाता था। और ना एक फ़िक़्रह के ख़त्म होने के बाद और दूसरे फ़िक़्रे के शुरू करने से पहले कातिब कोई फ़ासिला छोड़ता था। पस कातिब और मुतर्जिम दोनों से इस ग़लती के होने का इम्कान था कि वो किसी एक लफ़्ज़ के आख़िरी हर्फ़ को इस के बाद के दूसरे लफ़्ज़ के शुरू का हर्फ़ समझ लें या दूसरे लफ़्ज़ के शुरू के हर्फ़ को पहले लफ़्ज़ का आख़िरी हिस्सा समझ लें।

आया ज़ेरे बह्स में इसी क़िस्म की ग़लती वाक़ेअ हो गई है जिससे मतलब ख़बत हो गया है। इस मुक़ाम की अरामी इबारत में हर्फ़-ए-अतफ़ वाओ (واؤ) (बमाअनी और) जो दर-हक़ीक़त आयत के चौथे फ़िक़्रे का पहला हर्फ़ है, “और जो पीछे पीछे वग़ैरह” इस को अरामी कातिब ने या यूनानी मुतर्जिम ने तीसरे फ़िक़्रे “वो हैरान होने लगे” के आख़िरी लफ़्ज़ “होने” का आख़िरी हर्फ़ समझ लिया जिससे ये फ़ेअल सीग़ा वाहिद की बजाय सीग़ा जमा हो गया यानी “होने लगा” की बजाय “होने लगे” हो गया। क्योंकि अरामी और इब्रानी ज़बानों में हर्फ़ वाओ (واؤ) हर्फ़-ए-अतफ़ भी है और जमा की निशानी भी है। पस अस्ल अरामी मतन में इस फ़िक़्रे का फ़ेअल वाहिद था। (हैरान होने लगा) और चूँकि इस से अगला फ़िक़्रह हर्फ़ वाओ (واؤ) (जो दर-हक़ीक़त हर्फ़-ए-अतफ़ था) से शुरू होता है लेकिन यूनानी मुतर्जिम ने इस को इस फ़ेअल के जमा की निशानी ख़याल करके फ़ेअल को जमा बना दिया। जिससे आया ज़ेर-ए-बहस बेमाअनी हो गई।

यहां लफ़्ज़ “हैरान” से मुराद हैरत नहीं है। बल्कि बेक़रारी और बेचैनी मुराद है। देखो मर्क़ुस (14:23)

पस इस आया शरीफा का अस्ल तर्जुमा ये है :-

“और वो (यानी सय्यदना मसीह) और शागिर्द यरूशलेम को जाते हुए रास्ते में थे और येसू उन के आगे आगे जा रहा था और वह बेचैन होने लगा और (शागिर्द) जो पीछे पीछे चलते थे (उस की बेक़रारी को देख कर) डरने लगे।”

यूहन्ना 1:13

“वो ना ख़ून से ना जिस्म की ख़्वाहिश से ना इन्सान के इरादे से बल्कि ख़ुदा से पैदा हुए।”

इस आयत में भी अरामी मतन के कातिब से या यूनानी के मुतर्जिम से वही ग़लती सरज़द हुई है। जो (मर्क़ुस 10:32) में हुई थी। यानी हर्फ़-ए-अतफ़ वाओ (واؤ) जिससे अगला फ़िक़्रह (कलाम मुजस्सम हुआ) शुरू होता है, आयत ज़ेर-ए-बहस के आख़िरी लफ़्ज़ यानी फ़ेअल होना का हिस्सा समझ लिया गया है जिससे वो फअल-ए-वाहिद “पैदा हुआ” की बजाय जमा “पैदा हुए” हो गया। क्योंकि अरामी और इब्रानी ज़बान में हर्फ़ वाओ (واؤ) हर्फ़-ए-अतफ़ होने के इलावा जमा की निशानी भी है।

लुत्फ़ की बात ये है कि यहां फ़ेअल मुस्तक़बिल के ज़माने में नहीं है बल्कि माज़ी के ज़माने में है यानी “पैदा होंगे” नहीं है बल्कि “पैदा हुए” है। पस यहां कोई वाअदा मौजूद नहीं है कि मोमिनीन अज़सर-ए-नव पैदा होंगे। (देखो यूहन्ना 3:3) यहां इबारत का मफ़्हूम भी इसी बात का मुक़तज़ी है कि इस फ़ेअल का ताल्लुक़ सिर्फ एक वाहिद ज़ात के साथ हो। क्योंकि सिर्फ एक ही वाहिद इकलौता बेटा था जो “ना जिस्म की ख़्वाहिश से और ना इन्सान के इरादे से” पैदा हुआ। तमाम ईमानदार जिस्म की ख़्वाहिश से और इन्सान के इरादे से पैदा होते आए हैं और पैदा होते रहेंगे। (देखो यूहन्ना 1:8, 3:16 3:18 वग़ैरह)

पस आया ज़ेर-ए-बहस का अस्ल तर्जुमा ये है :-

“वो ना ख़ून से ना जिस्म की ख़्वाहिश से ना इन्सान के इरादे से बल्कि ख़ुदा से पैदा हुआ।”

सिर्फ यही तर्जुमा इबारत के सियाक़ व सबाक़ के मुताबिक़ हो सकता है। “वो (कलाम) अपनों के पास आया और उस के अपनों ने उसे क़ुबूल ना किया। लेकिन जितनों ने उसे क़ुबूल किया। उसने उन को ख़ुदा के फ़र्ज़न्द बनने का हक़ बख़्शा।....वो ना ख़ून से ना जिस्म की ख़्वाहिश से ना इन्सान के इरादे से बल्कि ख़ुदा से पैदा हुआ। और कलाम मुजस्सम हुआ और फ़ज़्ल और सच्चाई से मामूर हो कर हमारे दर्मियान रहा और हम ने उस का ऐसा जलाल देखा जैसा बाप के इकलौते का जलाल।”

इस तर्जुमे से ये बात भी वाज़ेह हो जाती है कि जहां तक तजस्सुम के मफ़्हूम और सय्यदना मसीह की पैदाइश का ताल्लुक़ है। मुक़द्दस यूहन्ना और इन्जील अव्वल व सोम के बयानात में रत्ती भर फ़र्क़ नहीं है।

मत्ती 2:23

“और (यूसुफ़) नासरत नाम एक शहर में जा बसा। ताकि जो नबियों की मार्फ़त कहा गया था, वो पूरा हो कि वो (येसू) नासरी कहलाएगा।”

पहली सदी मसीही से इन्जील अव्वल के मुफ़स्सिरीन उन मुक़ामात की तलाश में सरगर्दां रहे हैं, जहां “नबियों की मार्फ़त कहा गया था कि वो नासरी कहलाएगा।” लेकिन उनसे ये मुअम्मा ताहाल हल नहीं हो सका। क्योंकि वो ये बात फ़र्ज़ करते रहे हैं कि ये इन्जील इब्तिदा ही से यूनानी ज़बान में लिखी गई थी। लेकिन उनको अहद-ए-अतीक़ के सहफ़-ए-अम्बिया में कोई ऐसे मुक़ामात नहीं मिले जिनकी बिना पर ये कहा जा सके कि आँख़ुदावंद का “नासरी” कहलाना पूरा हुआ।

चौथी सदी में मुक़द्दस जेरोम ने और इस के बाद दीगर मुफ़स्सिरीन ने ये बेसूद कोशिश की कि इस आया शरीफा को यसअयाह नबी के सहीफ़ा (यसअयाह 11:1) से मुताल्लिक़ किया जाये जहां लिखा है कि “यस्सी के तने से एक कोन्पल निकलेगी।” और इस की जड़ों से एक बार-आवर शाख़ पैदा होगी।” ये कोशिश नाकाम रही है। क्योंकि यहां लफ़्ज़ नासरी नहीं है।

लेकिन अस्ल हक़ीक़त यही है कि इन्जील नवीस की मुराद इसी आयत यानी (यसअयाह 11:1) से है। और चूँकि हज़रत यर्मियाह नबी मसीह मौऊद के लिए लफ़्ज़ शाख़ इस्तिमाल करता है। (यर्मियाह 23:5, 33:15) लिहाज़ा इन्जील नवीस सीग़ा जमा का इस्तिमाल करके कहता है कि “जो (यसअयाह और यर्मियाह) नबियों की मार्फ़त कहा गया था वो पूरा हुआ।”

डाक्टर टोरी जो अरामी ज़बान के माहिर हैं लफ़्ज़ नासरी के मुअम्मा को यूं हल करते हैं। वो फ़र्माते हैं। कि ये इन्जील पहले-पहल अरामी ज़बान में लिखी गई थी। और इस आयत के अरामी मतन में जो अल्फ़ाज़ थे वो ये थे :-

“नसरीतक़रा” (نصریتقرا) जिनके मअनी हैं “वो शाख़ कहलाएगा” लेकिन अरामी कातिब ने या यूनानी मुतर्जिम ने दूसरे लफ़्ज़ यतक़रा (یتقرا) के पहले हर्फ़ “य” (ی) को इस से पहले लफ़्ज़ “नस्र” (نصر) का आख़िरी हर्फ़ समझ लिया। और यूं लफ़्ज़ नस्र हर्फ़ “य” (ی) के साथ “नसरी” (نصری) हो गया और इस का यूनानी ज़बान में शाख़ की बजाय नासरी तर्जुमा हो गया।

इस ग़लती की अस्ल वजह ये है कि अरामी इबारत के फ़िक़्रों के दर्मियान और फ़िक़्रों के मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ के दर्मियान और अल्फ़ाज़ के हुरूफ़ के दर्मियान (जो अलग अलग लिखे जाते थे) कोई वक़्फ़ा या फ़ासिला छोड़ा नहीं जाता था। पस कातिब के सामने अरामी इबारत यूं थी :-

“न स र य त क़ रा” (ن ص ر ی ت ق را) पस कातिब या मुतर्जिम ने “यतक़रा” (یتقرا) की “य” (ی) को इस से पहले लफ़्ज़ “नस्र” (نصر) का आख़िरी हर्फ़ समझ कर “नसरी” (نصری) लिख दिया। और “यतक़रा” (یتقرا) की “य” (ی) को भी बहाल रखा। और इस को यूं पढ़ा,

“न स र य त क़ रा” (ن ص ر ی ت ق را) यूं लफ़्ज़ “नस्र” (نصر) बमाअनी “शाख़” जिसका ज़िक्र यसअयाह और यर्मियाह नबियों के सहीफ़ों में मौजूद है “नसरी” (نصری) यानी नासरी हो गया। चूँकि उस ज़माने में किताबों तूमारों में लिखी जाती थी और अबवाब और आयात में मुनक़सिम ना थीं लिहाज़ा अरामी कातिब या यूनानी मुतर्जिम ने तूमारों को खोल कर हवाला देखने की ज़हमत गवारा ना की। बिलख़ुसूस जब कि ये आया ज़ेर-ए-बहस में किसी ख़ास नबी का नाम भी नहीं लिखा था।

चूँकि अरामी ज़बान में अल्फ़ाज़ नासरत और “नस्र” एक ही अस्ल से हैं। लिहाज़ा इन्जील नवीस यहां सनअत ईहाम और तजनीस इस्तिमाल करके लिखा है कि हज़रत यूसुफ़ नासरत में जा बसा ताकि जो यसअयाह और यर्मियाह नबी के सहीफ़ों में लिखा था वो पूरा हो कि येसू “नस्र” यानी “शाख़” कहलाएगा।

यूहन्ना 7:3

“यहूदीयों की ईद-ए-ख़य्याम नज़्दीक थी। पस उस (येसू) के भाईयों ने उस से कहा, यहां (यानी गलील) से रवाना हो कर यहूदिया को चला जाता कि जो काम तू करता है उन्हें तेरे शागिर्द भी देखें।”

मौजूदा यूनानी तर्जुमा हैरानकुन तर्जुमा है। क्योंकि आँख़ुदावंद के गलीली शागिर्द तो आप के मोअजिज़ात-ए-बय्यिनात (रोशन दलाईल) को हमेशा देखते रहते थे। पस बाअज़ मुफ़स्सिरीन लफ़्ज़ “शागिर्द” से मुराद उन शागिर्दों से लेते हैं, जो उन के ख़याल में यहूदिया में रहते थे। लेकिन आया शरीफा के सियाक़ व सबाक़ से इस तावील की हिमायत नहीं होती। क्योंकि इस से अगली आयत में ही आपके भाई ये दलील पेश करते हैं कि तू गुज़श्ता साल भी ईद-ए-ख़य्याम के मौक़े पर यरूशलेम नहीं गया था लेकिन ऐसा कोई नहीं जो मशहूर होना चाहे और छुप कर काम करे। “अगर तू ये काम करता है तो अपने आपको दुनिया पर ज़ाहिर कर” इन अल्फ़ाज़ से साफ़ ज़ाहिर है कि आँख़ुदावंद के भाईयों का मतलब ये था कि अगर आप फ़िल-हक़ीक़त मसीह मौऊद हैं तो आप को यरूशलेम में जाकर ईद-ए-ख़य्याम के मौक़े पर बय्यन (खुले) निशानों के ज़रीये दुनिया पर ये बात ज़ाहिर कर देनी चाहिए और अपनी कोशिशों को दूर अफ़्तादा गलील के सूबे के जाहिल और गँवार अवाम तक ही महदूद नहीं रखना चाहिए।

डाक्टर टोरी कहते हैं कि अरामी ज़बान में इस फ़िक़्रह का फ़ेअल (देखें) जमा ग़ायब है। जिसका फ़ाइल “लोग” फ़ेअल में ही मुज़म्मिर है। अरामी कातिब ने या यूनानी मुतर्जिम ने हर्फ़-ए-अतफ़ वाओ (واؤ) को जो अल्फ़ाज़ “तेरे शागिर्दों” से पहले अरामी इबारत में था नज़र-अंदाज कर दिया और यूं इस आया शरीफा का अस्ल मतलब ख़बत हो गया। आँख़ुदावंद के भाईयों के मश्वरे का अस्ल मक़्सद ये था कि तू ईद-ए-ख़य्याम के मौक़े पर गलील से यरूशलेम जा, वहां तमाम अर्ज़-ए-मुक़द्दस (दुनिया) जमा होगी और क़ौम के उमरा-ए-और रऊसा, उलमा और फुज़ला सब लोग उन कामों को देख सकेंगे जो तू करता है और वह तेरे शागिर्दों को भी देख सकेंगे जो यहां गलील से और दूसरी जगहों से यरूशलेम में जमा होंगे। क्योंकि ऐसा कोई नहीं जो मशहूर होना चाहे और गुमनाम मुक़ामों और आम लोगों में ही काम करे। अगर तेरे काम फ़िलवाक़े मसीहाई काम हैं तो अपने आप को यरूशलेम में ईद के मौक़े पर ज़ाहिर कर जहां तमाम दुनिया जमा होगी। ज़ाहिर है कि इस तर्जुमे में ना किसी तावील की ज़रूरत है और ना कोई मुश्किल बाक़ी रहती है। पस डाक्टर टोरी के मुताबिक़ इस आया शरीफा का सही तर्जुमा ये है :-

“उस के भाईयों ने उस से कहा, यहां से रवाना हो कर यहूदिया को चला जाता ताकि (लोग) तेरे शागिर्दों को और तेरे कामों को देखें।”

यूहन्ना 7:37-38

“फिर ईद के आख़िरी दिन येसू खड़ा हुआ और उसने पुकार कर कहा, अगर कोई प्यासा हो तो मेरे पास आ कर पिए। जो मुझ पर ईमान लाता है उस के पेट से जैसा किताब मुक़द्दस ने कहा है ज़िंदगी के पानी के दरिया जारी होंगे।”

मौजूदा तर्जुमे के मुताबिक़ ये पता नहीं चलता कि ख़ुदावंद मसीह ने इस मुक़ाम में किस “किताब-ए-मुक़द्दस” का हवाला दिया है और इब्रानी कुतुब मुक़द्दसा में किस जगह आया है कि ईमानदार के पेट से ज़िंदगी के पानी के दरिया जारी होंगे। मुफ़स्सिरीन कहते हैं कि यहां आँख़ुदावंद ने (यसअयाह 44:3, 55:11, ज़करीयाह 13:1, 14:8, हिज़्क़ीएल 47:1-12, योएल 3:18, यर्मियाह 2:13) वग़ैरह की जानिब इशारा फ़रमाया है। लेकिन इन तमाम हवालेजात में अल्फ़ाज़ “उस के पेट से” कहीं नहीं मिलते। इन हवालेजात का ये मतलब है कि चूँकि अहले-यहूद के ख़याल के मुताबिक़ “यरूशलेम दुनिया की नाफ़ यानी मर्कज़ है।” लिहाज़ा मसीह मौऊद के ज़माने में ज़िंदगी के पानी के दरिया यरूशलेम की हैकल की पहाड़ी में फूटकर बह निकलेंगे और दूर व नज़्दीक के इन्सानों की ज़िंदगीयों को सेराब कर देंगे। सय्यदना मसीह ने अपने सामईन को मुत्ला`अ (बाख़बर) फ़रमाया कि अब मसीह मौऊद का दौर शुरू हो गया है लेकिन उन में से किसी ने भी अल्फ़ाज़ “इस के पेट से” को ना समझा होगा क्योंकि जैसा मुक़द्दस क्रिस्टम ने कहा है ये अल्फ़ाज़ किताब-ए-मुक़द्दस के किसी हिस्से में नहीं मिलते। अरामी ज़बान के माहिरीन कहते हैं कि ये अल्फ़ाज़ ना इब्रानी मुहावरे के मुताबिक़ हैं और ना अरामी मुहावरे के मुताबिक़ हैं।

आयत 38 के पहले हिस्से के अल्फ़ाज़ में डक्स बेनरी में इख़्तिलाफ मौजूद है(37) और इस क़िरआत को क़ुबूल करके मग़रिबी कलीसिया के क़दीम मुफ़स्सिरीन (और बाअज़ जदीद मुफ़स्सिरीन) भी कहते हैं कि ये अल्फ़ाज़ “जो मुझ पर ईमान लाता है” दर-हक़ीक़त आयत 37 से मुताल्लिक़ हैं और सय्यदना मसीह का ये क़ौल दो मुतवाज़ी हिस्सों पर मुश्तमिल है “जो कोई प्यासा है वो मेरे पास आए। जो मुझ पर ईमान लाता है वो पिए।”


(37) Strachan, the Fourth Gospel p.202

आयत 38 के बाक़ीमांदा हिस्से की निस्बत मुख़्तलिफ़ उलमा के मुख़्तलिफ़ ख़याल हैं। डाक्टर बरनी(38) कहता है कि मज़्कूर बाला कुतुब मुक़द्दसा के हवालेजात ज़ाहिर करते हैं कि इस मुक़ाम में कोई लफ़्ज़ था जिसका मतलब “चश्मा या नदी” था। जिसको यूनानी मतन के मुतर्जिम ने ग़लत पढ़ कर वो यूनानी लफ़्ज़ लिख दिया जिसके मअनी “पेट” हैं। चुनान्चे इस आलिम के ख़याल में यहां अस्ल अरामी लफ़्ज़ “मैन” (مِین) (बमाअनी चश्मा) था। जिसको यूनानी के मुतर्जिम ने “मैने” (مینِ) (बमाअनी पेट) पढ़ कर ग़लत तर्जुमा कर दिया। पस इस आलिम के ख़याल में आयत 38 के बाक़ी मांदा हिस्से का तर्जुमा ये है, “जैसा किताब-ए-मुक़द्दस ने कहा है, ज़िंदगी के पानी के चश्मे से दरिया जारी होगे।” और इन आयात का तर्जुमा ये है “येसू ने पुकार कर कहा, जो कोई प्यासा है वो मेरे पास आए। जो मुझ पर ईमान लाता है वो पिए जैसा किताब-ए-मुक़द्दस ने कहा है ज़िंदगी के पानी के चश्मे से दरिया जारी होंगे।”

डाक्टर टोरी के ख़याल में डाक्टर बरनी का ये हल दुरुस्त नहीं। वो कहता है कि सय्यदना मसीह ने इस आयत में साफ़ और वाज़ेह तौर पर ज़बूर 46 की आयत 4 की जानिब इशारा किया है क्योंकि इस आयत में ना सिर्फ लफ़्ज़ “दरिया” मौजूद है बल्कि अगली आयत में अल्फ़ाज़ “इस (यरूशलेम) के बीच” में मौजूद हैं और सय्यदना मसीह के सामईन जो यरूशलेम में खड़े थे आपके असली मफ़्हूम को पा गए कि आप यहां ज़बूर शरीफ़ की (ज़बूर 46:4) का इक़्तिबास फ़र्मा रहे हैं। डाक्टर मौसूफ़ कहता है कि यहां अरामी लफ़्ज़ “गो” (گو) था जो इस्म ज़मीर मुअन्नस के सीगे में लफ़्ज़ “गोह” (گِوہ) हो गया जो “शहर के बीच” के लिए हमेशा इस्तिमाल होता है। (एज़्रा 4:15) लेकिन जब लफ़्ज़ “गो” (گوَ) के साथ इस्म ज़मीर मुज़क्कर हो तब ये लफ़्ज़ “गोह” (گِوہ) पढ़ा जाता है जो अरामी कुतुब “मुतर्जिम” में इन्सानों और हैवानों के पेट के लिए इस्तिमाल हुआ है। पस यूनानी मुतर्जिम ने इस मुक़ाम में अरामी लफ़्ज़ “गोह” (گِوہ) (बमाअनी शहर यरूशलेम के बीच में) को ग़लती से “गोह” (گِوہ) पढ़ कर ग़लत तर्जुमा करके “उस के पेट” से लिख दिया। डाक्टर टोरी के तर्जुमे के मुताबिक़ सय्यदना मसीह का मफ़्हूम निहायत वाज़ेह हो जाता है कि आप की आमद से मसीहाई दौर शुरू हो गया है और अब शहर यरूशलेम की हैकल की पहाड़ी में से ज़िंदगी के पानी के दरिया बह निकलें। पस डाक्टर मौसूफ़ के मुताबिक़ इन आयात का सही तर्जुमा ये है :-


(38) Burney, Aramaic Origin of the Fourth Gospel p.110

“फिर ईद के आख़िरी दिन येसू खड़ा हुआ और उस ने पुकार कर कहा,

“जो कोई प्यासा है वो मेरे पास आए। जो मुझ पर ईमान लाता है वो पिए।”

(अब वो वक़्त आ गया है) जैसा किताब-ए-मुक़द्दस ने कहा है इस शहर (यरूशलेम) के बीच से ज़िंदगी के पानी के दरिया जारी होंगे।