Born 296.AD Died 373.AD
St. Athanasius
ON THE INCARNATION
कलाम-उल्लाह के तजस्सुम
के बयान में
मुक़द्दस अस्नासीस का रिसाला
मुतर्जमा पादरी ऐस॰ ए॰ सी॰ घूस बी॰ ए॰
क्रिस्चन नॉलेज सोसाइटी अनार-कली लाहौर
1908 ई॰
मत्बूआ फैज़बख्श स्टीम प्रैस फ़िरोज़-पूर शहर
अस्नासीस का अहवाल
इस रिसाले के मुसन्निफ़ यानी मुक़द्दस अस्नासीस मसीही कलीसिया के सबसे अज़ीम-उल-क़द्र अरकान-ए-दीन में से हैं और ये ख़ासकर इसलिए मशहूर हैं कि जो बिद्अत अराईस के नाम से मशहूर है जिससे मसीह की उलूहियत का इन्कार मुतसव्वर था उस का रद्द इन्होंने अपनी तस्नीफ़ात (लिखी हुई कुतब में) और नीज़ अपने इंतिज़ामी अमल-दर-आमद दोनों तरह से किया।
ये बुज़ुर्ग आरिफ़ 297 ई॰ में शहर सिकंदरिया में पैदा हुए और 373 ई॰ में वहीं इंतिक़ाल कर गए। इन के लड़कपन में बड़ा ज़ुल्म वाक़ेअ हुआ जो शहनशाह रूमा मकसिमिनुयस दारा की तरफ़ से 303 ई॰ ता 313 ई॰ में हुआ और उसी ज़ुल्म में पतरस उस्क़ुफ़-ए-सिकंदरिया 311 ई॰ में शहीद हुए। 318 ई॰ में अस्नासीस डेक्कन के ओहदे पर मामूर हुए और शहर सिकंदरिया के उस्क़ुफ़ (पादरीयों का सरदार, लार्ड बिशप) सिकंदरिया ने उन को बेटे के तौर पर रखा और जल्द आर्च डेक्कन के मन्सब पर पहुंचा दिया। इस हैसियत से उस्क़ुफ़ का ख़ास मददगार हो कर अस्नासीस को शहर नीकाया के मजमा-ए-आम में जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ और वहां उन्हों ने आराई बिद्अत की तर्दीद में इस क़द्र इल्म और संजीदगी और हलीमी रुहानी जोश के साथ दिखाई कि हर दिल-अज़ीज़ हो गए और 326 ई॰ में जब सिकंदरिया के सदर उस्क़ुफ़ का इंतिक़ाल हुआ तो सिर्फ उन्तीस (29) बरस की उम्र में उस की जगह उस बड़े शहर और बड़े इलाक़े के सदर उस्कुफ़ हो गए। तक़रीबन सात बरस तक उन्हों ने अमन और चेन की हालत में अपना काम अंजाम दिया मगर 333 ई॰ से लेकर अराई बिद्अतियों ने उन को तक्लीफ़ देनी शुरू की और चूँकि उन लोगों की क़ैसर के हुज़ूर तक रसाई थी इसलिए बारहा उन को सिकंदरिया निकलवा दिया। यहां तक कि उन की उम्र के बाकी चालीस (40) बरस का निस्फ़ हिस्सा जिलावतनी ही की हालत में गिरज़ा और पाँच दफ़ाअ उन को निकल कर भागना पड़ा लेकिन जब वापिस आते थे तो अहले शहर अपनी तरफ़ से उन को बड़े शौक़ और बड़ी ताज़ीम व तौक़ीर (इज़्ज़त) से लाते थे। आख़िरकार 373 ई॰ में सतत्तर (77) बरस की उम्र वफ़ात में पाई।
मुक़द्दस अस्नासीस ने अराई बिद्अतियों के ख़िलाफ़ बहुत सी किताबें और रिसाले तस्नीफ़ किए मगर इस बिद्अत के निकलने से पहले उन्हों ने दो ख़ास रिसाले तस्नीफ़ किए। पहला बनाम, तर्दीद ग़ैर-अक़्वाम दूसरा कलाम-उल्लाह के तजस्सुम के नाम से। और इस दूसरे रिसाले का तर्जुमा नाज़रीन की ख़िदमत में पेश किया जाता है। इस के चंद अबवाब छोड़े गए हैं जो हाल की मालूमात से मवाक़िफ़ नहीं रखते।
फ़ेहरिस्त मज़मीन को देखकर इस रिसाले का सिलसिला दलाईल मालूम हो सकता है। चुनान्चे दुनिया की पैदाइश, आदमी का गुनाह, कलाम-उल्लाह का तजस्सुम, और मसीह की मौत और क़ियामत। ये इस रिसाले के अव़्वल हिस्से यानी बाब 2 ता 32 के मज़ामीन हैं। अस्नासीस पहले उन अक़्ली और बिद्अती ख़यालात को रद्द करते हैं। जो उस ज़माने में दुनिया की पैदाइश के बारे में थे। और दुनिया की पैदाइश का सच्चा मसअला क़ायम करते हैं। यानी ये कि ख़ुदा बज़रिए अपने कलाम के दुनिया को नीस्ती से हस्ती में लाया। लेकिन इन्सान को उस ने हस्ती से बढ़कर फ़ज़ीलत बख़्शी। यानी उसे अपनी सूरत पर पैदा किया। फिर बहिश्त में रखकर और शरीअत देकर उस को और भी क़वी (मज़्बूत, ताक़तवर) किया। अगर शुरू पर क़ायम रहता तो उस की ख़ुशहाली भी क़ायम रहती और बग़ैर मौत के आख़िरकार आस्मानी ज़िंदगी में दाख़िल हो जाता। लेकिन बरअक्स उस के उस की ना-फ़र्मानी का ये नतीजा ठहरा कि उस पर मौत ग़ालिब आएगी और इंतिशार (परेशानी) में मुब्तला रहेगा। अब इन्सान ने वाक़ई ना-फ़र्मानी की और पहले वालदैन यानी आदम व हव्वा में शामिल होने के सबब से कुल नस्ल गुनेहगार बन गई। बनी-आदम का कुल्लियतन (मुकम्मल) गुनेहगार होना दलालत करता है कि अव़्वल ही गुनाह सादिर हुआ। क्योंकि आदम और हव्वा के अंदर कुल नूअ बशरी मौजूद थे और इन की सरकशी के बाइस गुनेहगार बने इसलिए ज़रूर है मौत की सज़ा मिले वर्ना ख़ुदा का क़ौल बातिल हो जाता। लेकिन ये क्या ही बुरा होता कि मख़्लूक़ का गुनाह ख़ुदा के मक़्सद को तोड़ दे। गुनाह कभी सिर्फ एक क़र्ज़ ना था। जो ख़ुदा की इज़्ज़त का हक़ था और जो आदम की तौबा पर माफ़ हो सकता। या लायक़ कफ़्फ़ारे से अगर इस का मिलना मुम्किन होता मौक़ूफ़ हो जाता वो एक ऐसा मर्ज़ और इंतिशार था आदमी की ऐन सरिश्त (आदत) में दाख़िल हो गया। मौत आदमी के ख़मीर में मिल गई थी और ज़रूर हुआ कि हयात के ताल्लुक़ से दूर की जाती इसलिए ख़ुदा का अज़ली कलमा जिसने शुरू में इंसान को ख़ुदा की सूरत पर ख़ल्क़ किया था नीचे उतर कर और आदमी बन कर मौत के क़ानून को पूरा कर दिया मगर ख़ुदाई की हैसियत में इस ने इन्सानी सरिश्त (फ़ित्रत, आदत) के अंदर उस इंतिशार का ईलाज दाख़िल कर दिया और अपनी क़ियामत से अबदी ज़िंदगी का वाअदा बख़्शा।
पस इस हिस्से की तमाम दलाईल की बुनियाद इस पर है कि कुल नूअ बशर एक शेय है और कलाम-उल्लाह के तजस्सुम के सबब से मसीह के साथ वाबस्ता हो गई है।
पस कफ़्फ़ारे की बाबत जो इस रिसाले में ज़िक्र है इस का मदार इसी पर है कि मसीह और उस के मोमिनों में ऐसा तवस्सुल (वसीला) है कि दोनों एक ही जिस्म समझे जाते हैं और इसलिए जो कुछ मसीह ने किया और सहा इस का फ़ायदा और असर सभी को पहुंचता है चुनान्चे पौलुस रसूल की इस्तिलाह के बमूजब अस्नासीस भी कहते हैं कि मसीह के ईमानदार लोग उस में हैं। तजस्सुम की ज़रूरत की बाबत अस्नासीस की ये तालीम है कि ख़ुदा बाप और किसी चीज़ का मज्बूर नहीं सिवा अपनी मुहब्बत के। इस सबब से आदम-ज़ाद की गिरी हुई हालत को ना देख सका बल्कि उस के ईलाज के लिए अपने अज़ली कलाम में मुजस्सम हुआ और इसलिए इन्सान ख़ुदा की सूरत पर और उस की रिफ़ाक़त की क़ाबिलियत के साथ पैदा हुआ था। अस्नासीस कहते हैं कि कलाम-उल्लाह इन्सान बनाता कि हम ख़ुदा बनें। यानी ख़ुदा की खुबियों का अक्स हम में पुरे तौर से चमके।
दूसरा हिस्सा इस रिसाले का वो है जो यहूदियों और ग़ैर क़ौमों की तर्दीद में लिखा गया मगर यहूदियों की तर्दीद में जो आठ बाब हैं वो इसलिए छोड़ दिए गए कि एक तो अस्नासीस पुराने अहदनामे को सिर्फ यूनानी बपतिस्मे की शक्ल में देखते थे और इस की चंद एसी तावीलें करते थे जो इब्रानी मतन के सही मअनी के मुताबिक़ नहीं। दूसरे ये कि यहूदियों से हमारा वास्ता इस मुल्क में बहुत कम पड़ता है बाक़ी ग़ैर क़ौमों की तर्दीद में पंद्रह (15) बाब हैं और उन में अस्नासीस पहले फ़लसफ़ियाना दलीलों से और बाद अज़ां हाल के वाक़ियात से सबूत देते हैं। वाज़ेह हो कि अस्नासीस अफ़लातूनी फ़ल्सफ़ा का मसअला मानते थे कि मजमूआ मख़्लूक़ात एक जिस्म है जिसकी रूह ख़ुद ख़ुदा है। इसी बिना पर ये दलील वो पेश करते हैं कि जो शैय कुल मौजूदात में मौजूद हो कर सबकी ज़िंदगी और तर्तीब इंतिज़ाम का मूजिब है इस का एक इन्सानी जिस्म में जो सब मख़्लूक़ात में अफ़्ज़ल व आला चीज़ है ज़ाहिर होना क़ियास से कुछ बईद नहीं। ये कलाम-उल्लाह, या इब्ने-अल्लाह वही है जो सब चीज़ों की हस्ती और ज़िंदगी का सबब है। ताहम बज़ाते मख़्लूक़ात से अलेहदा (अलग) और मुम्ताज़ और सिर्फ बाप के साथ एक है। उस की क़ुद्रत और फ़ौक़ियत इस से साबित है कि उस की हुज़ूरी में बदी की हर सूरत को शिकस्त होती है। और उस का मज़्हब दुनिया-भर में फैल रहा है। और ये फ़त्ह उस की मौत और क़ियामत से वक़ूअ में आई।
आख़िरी दो बाबों में अस्नासीस मगारेस नाम मसीही भाई को जिसके लिए उन्हों ने ये रिसाला लिखा ये नसीहत करते हैं कि इन बातों की तहक़ीक़ात के लिए सबसे ज़रूरी ये है कि आदमी पाक नविश्तों में ढ़ूंढ़े और मुक़द्दसों के चाल चलन की पैरवी करे।
मुसन्निफ़ की दलीलों में एक दलील है जो किसी क़द्र यूनानी लफ़्ज़ की शक्ल पर मबनी है इसलिए इसका तर्जुमा करना किसी क़द्र मुश्किल है यूनानी में लफ़्ज़ “अलागास” कलाम के भी मअनी रखता है और अक़्ल के भी। अब अस्नासीस की ये राय है कि गुनाह ने आदमी के ज़हन को भी बिगाड़ दिया और उसे नामाक़ूल या अलागास गोया ग़ैर नाज़ुक या हैवान-ए-मुत्लक़ बना दिया। इस क़बाहत का ईलाज कलाम के तजस्सुम से हुआ जिससे इन्सान फिर लागास यानी नातिक़ या ज़ी-उल-अक़्ल बन गया। इस सनअत लफ़्ज़ी के अदा करने के लिए हमने नातिक़ का लफ़्ज़ इस्तिमाल किया जिससे कलाम करने वाला और ज़ी-उल-अक़्ल दोनों मुराद है।
ये रिसाला फ़ी ज़माना मसीहियों और ग़ैर-मसीहियों दोनों के लिए दिलचस्पी रखता है चुनान्चे मसीही इस से मालूम कर सकते हैं कि जिस ज़माने में कलीसिया दुनियावी हाकिमों के ज़ुल्म और झूटे उस्तादों की बिद्अत दोनों की तरफ़ से जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) में मुब्तला थी उस में ख़ुदा ने कैसे-कैसे बुज़ुर्गों को उठा खड़ा किया जिन्हों ने इल्म और जाँनिसारी दोनों तरह से दीन की हिमायत की। इलावा इस के मसीहियों और ग़ैर-मसीहियों पर वाज़ेह हुआ है कि बह्स अब मसीही दीन और दुनिया के दीगर मज़ाहिब में हो रही है इस की अस्लिय्यत सौलाह सौ (1600) बरस हुए वुही थी मसलन पैदाईश दुनिया के जिन मसाइल की तर्दीद अस्नासीस इस रिसाले में करते हैं की दुनिया या तो ख़ुद बख़ुद पैदा हो गई या मौजूदा माद्दे से बनाई गई। ये दोनों ख़याल हुनूद (हिंदू की जमा) के शास्त्रों (हिंदू मज़्हब की किताबों) में मौजूद हैं। या अहले इस्लाम की तरफ़ से जो दावा है कि गुनाह की माफ़ी के लिए अल्लाह तआला तौबा को काफ़ी व वाफ़ी समझता है इसी का जवाब इस के सातवें बाब में लिखा है। फिर मिर्ज़ा क़ादियानी साहब जो कहते हैं कि मसीह का सलीब पर मरना और मुर्दों में से जी उठना हमारे ज़माने की सबसे भारी ग़लती है यही एतराज़ तीन सौ (300) बरस बाद अज़ मसीह किया जाता था और अस्नासीस ने इस की तर्दीद की और ये बात भी दिलचस्पी से ख़ाली नहीं कि ये रिसाला जिसका असर उस ज़माने में बहुत बड़ा था इन्जील और रसूलों के आमाल की तरह पहले-पहल एक ख़ास शख़्स के लिए तस्नीफ़ हुआ।
इस का तर्जुमा पादरी ऐस॰ ए॰ सी॰ घूस बी॰ ए॰ एस॰ पी॰ जी॰ मिशन दिल्ली ने किया और नज़रसानी पादरी एच॰ यु॰ वाएट ब्रेट साहब डी॰ डी॰ सी॰ ऐम॰ ऐस॰ ने की।
कलाम-उल्लाह के तजस्सुम के बयान में
(1) दीबाचा
पहले रिसाले में हम ज़ेल के उमूर पर बह्स कर चुके हैं। ग़ैर क़ौमों का बुतों की परस्तिश करना एक ग़लती है। उन्हों ने अपने तोहमात (झूट, बोहतान) से बुत-परस्ती ईजाद करली है। बनी-आदम ने अपनी गुनहगारी के सबब अपने वास्ते बुत ईजाद किए और उन को पूजने लगे।
ख़ुदा के फ़ज़्ल से हम इस बात का बयान भी कर चुके हैं कि बाप का कलाम उलूहियत का दर्जा रखता है कि वो कुल मख़्लूक़ात का मुंतज़िम और सब पर क़ादिर है कि ख़ुदा बाप उस के वसीले से कुल अश्या को तर्तीब बख़्शता है कलमा हर शैय का मुतहर्रिक और कुल हयात का सरचश्मा है।
अब ऐ ! मकारियुस तू जो मसीह का सच्चा आशिक़ है हम अपने मज़्हबगी पहचान में तरक़्क़ी करें। और कलमे के तजस्सुम और इलाही ज़हूर का बयान शुरू करें। यहूदी तो इस तजस्सुम और ज़हूर को बुरा कहते हैं और यूनानी इस पर तम्सख़र (मज़ाक, हंसी उड़ाना) करते हैं। लेकिन हम उस की कमाल ताज़ीम और इज़्ज़त करते हैं। ऐ मकारियुस ! जब तू कलमा अजुज़ व फ़िरोतनी को देखेगा तो ज़्यादा संजीदगी से उस की परस्तिश करेगा।
क्योंकि जो लोग उस पर ईमान नहीं लाए वो जिस क़द्र उस तम्सख़र (मज़ाक, हसीं उड़ाना) करते हैं। इसी क़द्र वो अपनी उलूहियत की ज़्यादा मज़्बूत शहादत देता है। जिन बातों को बनी-आदम अपनी ग़लतफ़हमी से नामुम्किन समझते हैं उन को वो सरीहन (ज़ाहिरन, साफ़) मुम्किन कर दिखाता है। जिन बातों पर बनी-आदम नाज़ेबा समझ कर हंसते हैं उन को वो अपनी ख़ूबी से ज़ेबाइश बख़्शता है और जिन चीज़ों पर बनी-आदम की अक़्ल ठट्ठा करती है ये समझ कर कि वो बशरी हैं उन को वो ख़ास अपनी क़ुद्रत से सरीहन इलाही साबित कर देता है। अपनी सलीब से उस ने बुतों के झूटे दावे को दरहम-बरहम कर दिया और ठट्ठा करने वालों और बेईमानों पर पोशीदा असर करके अपनी क़ुव्वत और उलूहियत का क़ाइल कर दिया।
इस अम्र के बयाँ करने में एक बात का याद रखना मुनासिब है। वो ये है कि बाप का अज़ीमुश्शान और बुलंद कलाम मुजस्सम होने पर मज्बूर था बल्कि अपनी ज़ात से गैर मुतजस्सद कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) होने के बावजूद वो अपने बाप की शफ़क़त और रहमत के सबब से हमारी नजात के लिए वो जिस्म में हम पर ज़ाहिर हुआ।
पस इस मज़्मून के बयाँ करने में मुनासिब है कि हम जहान की पैदाईश और जहान के सानेअ (ख़ालिक़, कारीगर) यानी ख़ुदा के ज़िक्र से आग़ाज़ करें। ताकि हमें मुनासिब तौर पर मालूम हो जाए की जहान की नई पैदाईश इसी कलमे के वसीले से हुई जिस ने इब्तिदा में इसे ख़ल्क़ किया था क्योंकि ये बात क़ियास (सोच बिचार) से बईद (दूर) नहीं कि जिस के वसीले से बाप ने दुनिया (को ख़ल्क़) किया था। उसी के वसीले से वो दुनिया के छुटकारे का इंतिज़ाम भी करे।
(2) दुनिया की पैदाईश के ग़लत ख़यालात की तर्दीद
जहान की ख़ल्क़त और कुल अशीया (चीजों) की पैदाईश की निस्बत मुख़्तलिफ़ लोगों ने मुख़्तलिफ़ ख़यालात बाँधे हैं और जैसा किसी ने चाहा वैसा उस ने फ़ैसला किया।
बाअज़ कहते हैं कि कुल अश्या अपने आप इत्तिफ़ाक़ीया तौर पर मौजूद हो गईं। चुनान्चे एपीक्योरियस फ़ैलसूफ़ नाहक़ कहते हैं कि जहां पर कोई मुंतज़िम नहीं है। इनका ये क़ौल उमूर वाक़ई के बिल्कुल और सरीहन ख़िलाफ़ है। दलील इस की ये है कि अगर सब अश्या अपने आप बग़ैर किसी मुंतज़िम की क़ुद्रत के मौजूद हो जातीं तो बेशक इनको वजूद तो हासिल होता लेकिन वो सब यकसाँ होतीं और एक शेय दूसरी से कोई फ़र्क़ ना रखती। कुल जहान आफ़्ताब या महताब होता। इन्सान का जिस्म या तो तमाम एक हाथ होता या आँख या पैर। लेकिन हम ये मुआमला नहीं देखते। बल्कि आफ़्ताब व मेहताब (सूरज और चाँद) में फ़र्क़ है। ज़मीन इन दोनों से फ़र्क़ रखती है। इन्सानी जिस्म में पांव अलैहदा है हाथ अलैहदा और सर अलैहदा। ऐसे साफ़ और सरीह इंतिज़ाम से
साबित होता है कि कुल अश्या आपसे आप मौजूद नहीं हो गईं बल्कि इनका कोई मुसब्बब (सबब पैदा करने वाला) था। इस मुरत्तिब दुनिया को देखकर हम उस ख़ुदा को पहचानते हैं जो इस का ख़ालिक़ और मुरत्तिब (तर्तिब देने वाला) है। फिर औरों ने जिनमें अफ़लातून यूनानियों का सबसे बड़ा फ़ैलसूफ़ शामिल है यूं कहा है कि :-
“ख़ुदा ने दुनिया को ख़ल्क़ नहीं किया बल्कि क़दीम और ग़ैर-मख़्लूक़ माद्दे में से तर्तीब देकर बनाया है। वो कहते हैं कि नीस्ती में से हस्ती मुसतख़रज नहीं हो सकती। अगर माद्दा पहले से मौजूद ना होता तो ख़ुदा किस चीज़ में से दुनिया को बनाता। अगर लकड़ी मौजूद ना होतो बढ़ई कुछ बना नहीं सकता।”
लेकिन वो नहीं जानते कि ऐसा ख़याल बाँधने से वो कमज़ोरी को ख़ुदा की तरफ़ मन्सूब करते हैं। क्योंकि अगर वह माद्दा का जिसे हम देखते हैं ख़ालिक़ नहीं बल्कि पेश्तर से मौजूद माद्दा का मुहताज है तो साबित हुआ कि वो कमज़ोर है। उस में क़ुद्रत नहीं कि बग़ैर सामान के किसी शैय को बना सके। बढ़ई जो बग़ैर लकड़ी के अपना काम नहीं कर सकता। सरीहन कमज़ोर है। चुनान्चे इस ख़याल के मुताबिक़ अगर माद्दा ना होता तो ख़ुदा किसी शैय को ना बना सकता। पस हम उसे ख़ालिक़ और सानेअ (बनाने वाला) क्यूँ-कर कहें जब कि वो माद्दा का गोया क़र्ज़दार है। अगर यही हालत है तो ख़ुदा पैदा करने वाला ख़ालिक़ नहीं बल्कि सिर्फ एक कारीगर है। क्योंकि वो माद्दे का ख़ालिक़ नहीं बल्कि सिर्फ़ माद्दे को लेकर इस में से मुख़्तलिफ़ अश्या (चीजें) बना सकता है। इस हालत में उसे ख़ालिक़ कहना नाजायज़ है। क्योंकि उस ने वो माद्दा ख़ल्क़ (पैदा) नहीं किया, जिस में से सारी चीज़ें बनीं।
फिर बाअज़ बिद्अती यानी गिनोस्टिक फ़िर्क़े वाले कहते हैं कि दुनिया का सानेअ (बनाने वाला) हमारे ख़ुदावन्द येसू मसीह का बाप नहीं। बल्कि कोई और ख़ुदा है। इन अल्फ़ाज़ के इस्तिमाल से ये लोग अपनी जहालत ज़ाहिर करते हैं। क्योंकि ख़ुदावन्द यहूदियों से फ़रमाता है, “क्या तुमने नहीं पढ़ा कि जिस ने उन्हें बनाया उस ने इब्तिदा ही से उन्हें मर्द व औरत बना कर कहा कि इस सबब से मर्द बाप से और माँ से जुदा हो कर अपनी बीवी के साथ रहेगा और वो दोनों एक जिस्म होंगे।” फिर वो ख़ालिक़ की तरफ़ इशारा करके फ़रमाता है। “पस जिसे ख़ुदा ने जोड़ा है उसे इन्सान जुदा ना करे।” (मत्ती 19:4)
इन अल्फ़ाज़ की मौजूदगी में कौन कह सकता है कि दुनिया का ख़ालिक़ बाप से अलैहदा (अलग) कोई और ख़ुदा है और जिस हाल में कि युहन्ना तमाम अश्या (चीजों) को शामिल करके कहता है कि “सारी चीज़ें उस के वसीले से पैदा हुईं और जो कुछ पैदा हुआ है उस में कोई चीज़ भी उस के बग़ैर पैदा नहीं हुई।” (यूहन्ना 1:3) तो क्यूँ-कर मुम्किन है कि दुनिया का सानेअ (बनाने वाला) मसीह के बाप के सिवा और कोई हो।
(3) दुनिया की पैदाईश की सच्ची तालीम
उन लोगों की जो बुतलान (बातिल) की पैरवी करते हैं ऐसी बकवास है। लेकिन दीनदारी की तालीम और मसीही ईमान ऐसे बेहूदा ख़यालात को बेदीनी बताता है क्योंकि दुनिया इत्तिफ़ाक़िया तौर पर मौजूद नहीं हो गई। ये इस इंतिज़ाम से साबित होता है जिस को हम बकस्रत अपने चारों तरफ़ देखते हैं। दुनिया पहले से मौजूद माद्दे में से नहीं बनाई गई। क्योंकि ख़ुदा कमज़ोर नहीं है बल्कि मह्ज़ नीस्ती से ख़ुदा ने अपने कलाम के वसीले से दुनिया को हस्त किया है। इस की उस ने ख़ुद मूसा की मार्फ़त ख़बर दी है। “इब्तिदा में ख़ुदा ने आस्मान और ज़मीन को पैदा किया।” (पैदाईश 1:1)
यही ख़बर उस ने पासबान की निहायत मुफ़ीद किताब में भी दी है, सबसे अव़्वल ईमान ला कि ख़ुदा एक है जिस ने तमाम अश्या को ख़ल्क़ और मुरत्तिब किया और नीस्ती से निकाला। मुक़्क़दस पौलुस भी यही कहता है, “ईमान ही के सबब से हम मालूम करते हैं कि आलम ख़ुदा के कहने से बने हैं। ये नहीं कि जो कुछ नज़र आता है ज़ाहिरी चीज़ों से बना हो।” (इब्रानियों 11:3)
क्योंकि ख़ुदा नेक है बल्कि नेकी का सर चशमा। मुम्किन नहीं कि जो नेक है वो किसी के साथ बख़ीलाना बर्ताव करे। पस उस ने अपनी सख़ावत से हर शेय को हस्ती की बख़्शिश इनायत की है और यूं सब अश्या को बवसीला अपने कलमे यानी हमारे ख़ुदावन्द येसू मसीह के नीस्ती से निकाला है और मख़्लूक़ात में से बनी-आदम पर ज़्यादा रहम किया है, क्योंकि जब उस ने देखा कि बनी-आदम अपनी क़ुव्वत से हमेशा क़ायम नहीं
रह सकते तो उन को एक ऐसा फ़ज़्ल भी बख़्शा जो और अश्या को ना बख़्शा था। उस ने इन्सान को ग़ैर-ज़ी अक़्ल मख़्लूक़ात की मानिंद मह्ज़ पैदा ही ना किया बल्कि उस को ख़ास अपनी सूरत पर पैदा किया यानी उस को अपने कलमे की क़ुद्रत का एक हिस्सा बख़्शा। ताकि उस में कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) या अक़्ल इलाही का अक्स पाया जाये। पस इन्सान माक़ूल बनाया गया है। इस वजह से वो ख़ुशी की हालत में क़ायम रह सकता है। उस में क़ाबिलियत है कि हक़ीक़ी और सच्ची ज़िंदगी बसर करे। ऐसी ज़िंदगी जैसी कि मुअदमीन जन्नत में बसर करते हैं।
इलावा इस के ख़ुदा को मालूम था कि मशियत (ख़्वाहिश) बशरी दो रास्तों पर चल सकती है ख़्वाह नेकी की पैरवी करे ख़्वाह बदी का रास्ता पकड़े। पस उस ने अपनी इलाही पेश-बीनी से इस फ़ज़्ल को जो इन्सान को बख़्शा गया था मज़्बूत किया। यानी बनी-आदम के लिए एक क़ानून और एक महल मुकर्रर किया। उस ने उन को जन्नत में जगह दी और उन को एक क़ानून के तहत में रखा ताकि अगर इस फ़ज़्ल को जो उन को दिया गया था थामे रहें और नेकी की हालत को हाथ से ना जाने दें तो जन्नत में उनको ऐसी ज़िंदगी नसीब हो जिस में रंज व अलम दर्द और तफ़क्कुरात (फ़िक्र, अंदेशा, सोच बिचार) का दाग़ ना हो। और साथ ही इस के ये वाअदा भी बख़्शा कि तुम को आस्मान में जगह मिलेगी जहां मौत और इंतिशार तुम पर ग़लबा ना पाएँगे लेकिन उन को एक डर भी दिखाया और कहा कि अगर तुम बग़ावत करके राह-ए-रास्त से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) करोगे और नेकी को छोड़कर बद हो जाओगे तो याद रखो कि मौत का इंतिशार तुम पर ग़ालिब आएगा। क्योंकि मौत तो तुम्हारी फ़ित्रत का हिस्सा है। तुम जन्नत में रह ना सकोगे बल्कि इस से बाहर कर दिए जाओगे। और जब इस दार ग़ैर-फ़ानी से बाहर हो गए तो मौत और इंतिशार के पंजे में फंसे रहोगे।
ख़ुदा की किताब इसी बात की ख़बर देती है। ख़ुदा ख़ुद फ़रमाता है कि “तू बाग़ के हर दरख़्त का फल खाया कर। लेकिन नेक व बद की पहचान के दरख़्त से ना खाना। क्योंकि जिस दिन तू इस से खाएगा तू ज़रूर मरेगा।” (पैदाईश 2:16-17)
(4) इन्सान का गुनाह में मुब्तला होना
मज़्मून तो हमारा ये था कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के तजस्सुम का बयान करें लेकिन बयान हमने ये किया कि बनी-आदम का आग़ाज़ किस तौर पर हुआ। तुम ताज्जुब करते होगे कि इन दो मज़ामीन में ताल्लुक़ क्या है। फ़िल-हक़ीक़त ये मज़ामीन आपस में एक बड़ा नज़दीकी रिश्ता रखते हैं। जब नजातदिहंदा के ज़हूर का ज़िक्र किया जाता है तो ज़रूर है कि नूअ इन्सानी के आग़ाज़ की तरफ़ भी तवज्जोह की जाये। क्योंकि हमारी हालत को देखकर वो नीचे उतरा। हमारे गुनाह ने कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की मुहब्बत को खींचा ऐसा कि वो हमारे पास जल्द आया और ख़ुदावन्द बनी-आदम के दर्मियान ज़ाहिर हुआ।
हमारे बाइस से वो मुजस्सम हुआ हमारी नजात के लिए उस ने ऐसी मुहब्बत दिखाई कि इस दुनिया में आकर पैदा हुआ और एक जिस्म बशरी में नमूदार हुआ। ख़ुदा ने इन्सान को पैदा किया और चाहा कि वो ग़ैर-फ़ानी रहे। लेकिन इन्सान ने ख़ुदा का ध्यान और तसव्वुर बिल्कुल अपने दिल से भुला दिया और उस का मुतलक़ (बिल्कुल) ख़याल ना रखा बल्कि अपने वास्ते बदी की सूरत पैदा कर के जिस का बयान पहले रिसाले में हो चुका है मौत की उस सज़ा में गिरफ़्तार हुआ जिस का डर ख़ालिक़ ने उसे पहले ही से दिखला दिया था। बाद-अज़ां उस की बुरी हालत हुई। जैसा वो बनाया गया था वैसा ना रहा। अपनी हिक्मत और बंदिश के फंदे में फंस कर वो बिल्कुल बिगड़ गया और मौत ने उन पर बादशाही की। (रोमियों 1:21-22, 5:14-21)
हुक्म के उदूल ने इन्सान के रुख को उस की असली और इब्तिदाई फ़ित्रत की तरफ़ राजेअ (रुजू करने वाला) किया। ख़ालिक़ ने उस को नीस्ती से हस्त किया था लेकिन गुनाह का ये नतीजा हुआ कि उस ने फिर नीस्ती का रस्ता लिया कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) अपनी मुहब्बत और रहमत से उनको अदम (नीस्ती) से वजूद में लाया था। लेकिन उन्हों ने ख़ुदा की पहचान को तर्क कर दिया और अदम की तरफ़ राजेअ (रुजू) हुए (क्योंकि गुनाह और अदम बराबर हैं और नेकी और वजूद बराबर) उन के गुनाह का यही ज़रूरी नतीजा था कि वो मादूम (नापीद) कर दिए जाएं। उस ख़ुदा ने जो हस्ती का सरचश्मा है उन को वजूद बख़्शा था। पस उन के गुनाह के सबब उन को ये सज़ा दी गई कि वो हमेशा के लिए हस्ती से महरूम अदम के क़ब्ज़े में रहें। यानी ये कि हलाक हो कर हमेशा मौत और बिगाड़ के तहत में रहें।
क्योंकि आदमी अपनी फ़ित्रत से फ़ानी है क्योंकि वो हस्ती से हसत हुआ है लेकिन चूँकि वो ख़ुदा ही अल-क़य्यूम के साथ मुशाबेह किया गया है। इसलिए उस के लिए मुम्किन है कि इस हलाकत के क़ब्ज़े से बचा रहे जो कि फ़ित्रत से उस का हिस्सा है। बशर्ते के अपने ख़ालिक़ की ज़ात को बिला ईस्तिक़लाल अपने तसव्वुर में रखे। चुनान्चे किताब हिक्मत कहती है कि उस के क़वानीन को महफ़ूज़ रखना बक़ा को क़ायम करता है। (हिक्मत 6:18)
पस फ़ना से छूट कर वो ख़ुदा की तरह बन जाता। ख़ुदा की किताब भी किसी जगह पर यही कहती है मैंने तो कहा कि तुम इलाही हो और तुम सब हक़ तआला के फ़र्ज़न्द हो। पर तुम बशर की तरह मरोगे और शाहज़ादों में से एक की मानिंद गिर जाओगे। (ज़बूर 82:6)
(5) गुनाह में पड़ने के बाद इन्सान की बुरी हालत
ख़ुदा ने हमको अदम की हालत से निकाल कर फ़क़त वजूद ही नहीं बख़्शा बल्कि अपने कलमे के फ़ज़्ल की वसातत से हमको एसी हयात भी बख़्शी है जो हयात इलाही के साथ मुशाबहत रखती है। लेकिन बनी-आदम जब अशयाए गैर फ़ानी को छोड़ बैठे और शैतान को अपना मुशीर बना कर उन चीज़ों की तरफ़ राजेअ (रुजू) हुए जो फ़ानी हैं। इस का नतीजा ये हुआ कि वो ख़ुद अपनी हलाकत के बाइस बने। पहले ही वो अपनी फ़ित्रत से फ़ानी थे, लेकिन कलमा अल्लाह की रुहानी शराकत ने उन को इस लायक़ कर दिया था कि अगर इस्मत को थामे रहें तो अपनी फ़ित्रत के नताइज से भी बचे रहें।
क्योंकि जब तक कलमा-अल्लाह इन्सानों के साथ था तो वो हलाकत जो उन की अपनी फ़ित्रत का जुज़्व थी उन के नज़्दीक ना आ सकती थी। किताब हिक्मत यूं कहती है ख़ुदा ने इन्सान को बक़ा के लिए ख़ल्क़ किया। उस ने उसे अपनी बक़ा का नमूना बनाया लेकिन शैतान के हसद के बाइस मौत दुनिया में दाख़िल हुई। (हिक्मत 2:23-24) पस जब ऐसा हुआ तो बनी-आदम मरने लगे। अबतरी ने उनमें ज़ोर पकड़ कर कुल नस्ल पर जितना चाहीए था उस से ज़्यादा ग़लबा किया। जब उन्हों ने हुक्म को उदूल किया तो जो धमकी ख़ालिक़ ने उन को दी थी उस का जारी होना लाज़िम आया। गोया इस धमकी के बाइस मौत उन पर ज़बरदस्त हो गई।
फिर आदमी ने फ़क़त एक या थोड़ा गुनाह नहीं किया बल्कि उस बे-तमाम अहातों और शराइत को तोड़ दिया और रफ़्ता-रफ़्ता ऐसा बिगड़ गया उस की ख़ता की कुछ हद ना रही। अव़्वल तो उन्हों ने शरारत को अजाद ही किया फिर मौत और बिगाड़ को अपने ऊपर ग़ालिब कर लिया। लेकिन बाद में बेदीनी और बे-शरई की तरफ़ ऐसे रुजू हुए कि फिर उन्हें किसी गुनाह से परहेज़ ना रहा। वो हर रोज़ अपने लिए नए नए गुनाह ईजाद करने लगे और गुनाह की हिर्स उन में ऐसी बढ़ी कि किसी तरह उन की तसल्ली ना होती थी। हर जगह ज़िना और चोरी का चर्चा फैला और कुल ज़मीन क़त्ल और रहज़नी (लूट मार) से भर गई। ज़ुल्म और बिगाड़ ने ऐसा ज़ोर पकड़ा कि शराअ और क़ानून का ज़िक्र भी उड़ गया। तन्हाई और मजलिसों में गुनाह ही गुनाह होने लगा। शहर पर शहर ने चढ़ाई की। क़ौम के ख़िलाफ़ क़ौम उठी और कुल ज़मीन साज़िशों और लड़ाईयों से दरहम-बरहम हो गई। कोई अपने गुनाह पर क़नाअत (सब्र) ना करता था, बल्कि हर शख़्स की कोशिश थी कि अपने हम-साए पर बे-शरई में सबक़त ले जाये।
इस से बढ़कर ऐसे गुनाह जो ख़िलाफ़-ए-वज़ा फ़ित्री थे उन में पाए गये थे जैसा कि मसीह का शहीद ररसूल कहता है यहां तक कि उन की औरतों ने अपने तबई काम को ख़िलाफ़ तबा काम से बदल डाला। इसी तरह मर्द भी औरतों से तबई काम छोड़कर आपस की शहवत से मस्त हो गए। यानी मर्दों ने मर्दों के साथ रू-स्याही के काम करके अपने आप में अपनी गुमराही के लाइक बदला पाया। (रोमियों 1:26-27)
(6) इन्सान के गिरने के ईलाज की ज़रूरत
पस इन्ही वजूहात के बाइस मौत रोज़ बरोज़ बनी-आदम पर ज़्यादा मुसल्लत होती जाती थी। बिगाड़ उनका दामन-गीर था। नस्ल इन्सान तबाह हो रही थी। इन्सान जो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) या अक़्ल इलाही से माक़ूल था और ख़ुदा की सूरत पर बनाया गया था मादूम होता जाता था। ख़ुदा का किया हुआ काम ज़ाए हो रहा था। क्योंकि जैसा हम पहले कह चुके हैं। इन्सानियत का ये क़ानून हो गया कि मौत उस पर ग़ालिब आए क्योंकि इन्सान की ख़ता के बाइस ख़ुदा ने ये क़ानून ठहराया था और जो कुछ ज़मीन पर हो रहा था वो फ़िल-हक़ीक़त मकरूह और नामुनासिब था। (ग़लतीयों 3:19)
क्या मुम्किन था कि ख़ुदा का क़ौल झूटा हो जाए। उस ने फ़र्मा दिया था कि अगर इन्सान गुनाह करेगा और अब जो गुनाह कर चुका तो क्या ज़िंदा रह सकता था? अगर ऐसा होता तो ख़ालिक़ का क़ौल बातिल साबित होता।
इलावा बरीं ये भी नामुनासिब था कि वो मख़्लूक़ जो नातिक़ यानी नत्क़-अल्लाह या कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के मुताल्लिक़ बनाए गए थे हलाक हो या पीछे को ऐसे पलटे कि बिगाड़ के बाइस मादूम ही हो जाए ये अम्र ख़ुदा की नेकी से बईद था कि उस की मख़्लूक़ बिल्कुल बर्बाद हो जाए और शैतान का फ़रेब ऐसा ग़ालिब हो कि ख़ुदा की कारीगरी यानी इन्सान अपनी ग़फ़लत या शयातीन के फ़रेब से मादूम हो जाए।
पस चूँकि ज़ी अक़्ल मख़्लूक़ बर्बाद हो रही थी और इन्सान जैसी आलीशान सनअत हलाक हो रही थी। ऐसी हालत में ख़ुदा जो नेक है क्या करता। क्या वो इस अम्र की इजाज़त देता कि फ़ना उन पर ग़ालिब रहे और मौत अपना क़ब्ज़े उन पर क़ायम रखे? अगर ख़ुदा की तरफ़ से इस इजाज़त का मिलना मुम्किन समझा जाये। तो ये सवाल लाज़िम आएगा कि शुरू में उस ने उन को ख़ल्क़ ही किस लिए किया था। यानी उन को ना बनाना इस से बेहतर था कि बनाने के बाद उनका ख़ालिक़ उन से ग़ाफ़िल हो जाए और उन को मरने दे।
ग़फ़लत से कमज़ोरी साबित होती है। ख़ुदा नेक है और अपनी मख़्लूक़ की तरफ़ से ग़ाफ़िल नहीं हो सकता। अगर वो ग़ाफ़िल हो जाये तो वो कमज़ोर साबित होगा। बनी-आदम के ना पैदा करने में किसी मकज़ूरी का इज़्हार ना पाया जाता। लेकिन पैदा करके अपनी मख़्लूक़ को मौत के हवाले कर देना सरीहन ना मुनासिब था।
पस नामुम्किन था कि फ़ना इन्सान को अपने तहत में रखे। अगर ख़ुदा उस को ऐसी हालत में छोड़ देता तो ये उस की ख़ुदाई नेकी के ऐन ख़िलाफ़ होता।
(7) फ़क़त गुनाह से तौबा करना इन्सान की बुरी हालत का काफ़ी ईलाज ना था
लेकिन साथ ही इस के ये ज़रूर था कि ख़ुदा अपने क़ानून को पूरा करे उस की ख़सलत सच्ची है और मुनासिब था कि मौत की सज़ा जिस की धमकी इन्सान को दिखलाई गई थी पूरी की जाये। क्योंकि इन्सान ने जब गुनाह किया तो क्या मुम्किन था कि ख़ुदा गुनाह को सरसरी तौर से माफ़ करके हमारे फ़ायदे और सलामती की ख़ातिर अपने तेईं झूटा बनाए।
पस इस हालत में ख़ालिक़ क्या कर सकता था। क्या वो इन्सान से कहता कि अपने गुनाह से तौबा कर। बाअज़ का ख़याल है कि ख़ालिक़ को यही करना चाहीए था, ताकि जिस तरह बनी-आदम गुनाह के बाइस फ़ना के तहत में आ गए थे उसी तरह तौबा के वसीले से दुबारा बक़ा की तरह राजेअ (रुजू) हो जाते।
लेकिन तौबा से इन्सान का गुनाह माफ़ ना हो सकता था। ख़ुदा तो कह चुका था कि अगर तू गुनाह करेगा तो मर जाएगा। इन्सान की तौबा की ख़ातिर ख़ालिक़ इसे रिहा ना कर सकता था। बावजूद तौबा के इन्सान मौत का मुतीअ रहता। तौबा का तो फ़क़त ये नतीजा है कि वो इन्सान को ज़्यादा गुनाह करने से रोक देती है। तौबा में ये क़ुद्रत नहीं कि इन्सान को किसी ऐसे क़ानून के तहत से निकाल ले जो उस की फ़ित्रत का हिस्सा है।
इलावा बरीं (इस के सिवा, बावजूद ये कि) याद रखना चाहीए कि इन्सान ने सिर्फ एक ख़ता ना की थी बल्कि ख़ता से बढ़कर गुनाह किया था जिस के बाइस बिगाड़ और हलाकत में पड़ गया था। ख़ता के नताइज से तौबा करके रिहा हो जाना मुम्किन है। लेकिन गुनाह के नतीजे से जो हलाकत है तौबा किसी को रिहा (आज़ाद) नहीं कर सकती। जब गुनाह चल पड़ा तो बनी-आदम इस हलाकत के दाम (जाल) में फंसे जो उन की फ़ित्रत में थी। पस वो फ़ज़्ल उन से छीन लिया गया जो ख़ुदा की सूरत में मख़्लूक़ होने के बाइस उन को दिया गया था।
पस बनी-आदम किस तरह से इस इब्तिदाई फ़ज़्ल को दुबारा हासिल करते। कौन सा ज़ोर उन कर उन की बुरी राह से वापिस ला सकता था। जवाब ये है कि ये क़ुद्रत फ़क़त कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) में थी जिस ने इब्तिदा में हर शेय को अदम में से निकाल कर वजूद बख़्शा था।
इस में क़ुद्रत थी कि फ़ानी को बक़ा बख़्शे। इसी में क़ुद्रत थी कि अपने बाप की सच्चाई को क़ायम व साबित कर दिखलाए क्योंकि वो बाप का कलाम और हर शेय से अफ़्ज़ल है। वही क़ादिर था कि हर शेय को दुबारा अज सर-ए-नौ ख़ल्क़ करे। वही इस लायक़ था कि सब के वास्ते दुख सहे और सबकी तरफ़ से बाप के पास सफ़ीर हो कर जाये।
(8) कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) का तजस्सुम
इसी मक़्सद से कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) जो अपनी ज़ात से ग़ैर मुतजसद और ग़ैर-फ़ानी ग़ैर-माद्दी था हमारे इलाक़े में आया। लेकिन ये ना समझना चाहिए कि हमारे दर्मियान ज़ाहिर होने से पहले वो हमसे दूर था। मख़्लूक़ात का कोई हिस्सा ऐसा नहीं जो उस की हुज़ूरी से ख़ाली है। वो हर जगह और हर शैय में हाज़िर है और बावजूद इस के भी अपने बाप के साथ है। लेकिन वो मुहर व मुहब्बत और फ़िरोतनी के बाइस अपने आपको हम पर ज़ाहिर करने के लिए हमारे पास आया है। उस ने देखा कि ज़ी अक़्ल नूअ इन्सान हलाक हो रही है और मौत सब पर तसल्लुत करके उन को फ़ना कर रही है। उस ने देखा कि ख़ुदा की धमकी इस फ़ना के फ़त्वे पर गोया मुहर कर रही है और नीज़ ये कि ख़ुदा का क़ानून बातिल नहीं हो सकता। उसने देखा कि बनी-आदम का जो हाल हुआ वो बिल्कुल नामुनासिब और क़ाबिले शर्म था यानी जिन चीज़ों का वो सानेअ है वही मादूम हो रही हैं। उस ने देखा कि बनी-आदम गुनाह में बहुत ही तरक़्क़ी कर गए और उन्हों ने अपनी शरारत को इस क़द्र बढ़ाया कि ख़ुद इस में ग़र्क़ हुए जाते हैं। फिर उस ने देखा कि सब मौत के पंजे में गिरफ़्तार हैं। तब उस ने हमारी जिन्स पर रहम किया और हमारी कमज़ोरी पर तरस खाया। उस ने हमको हलाक होते देखना गवारा ना किया। उस को इस की ताब ना हुई कि हमको हलाक होते देखे। पस हमको जो उस के ख़लूक़ और उस के बाप की सनअत थी कि ख़राबी से बचाने के लिए मुजस्सम हुआ बल्कि ऐन बनी-आदम का सा जिस्म इख़्तियार किया।
उस ने ये पसंद ना किया कि सिर्फ जिस्म इख़्तियार करे या सिर्फ दुनिया में ज़ाहिर हो क्योंकि ये उस की क़ुद्रत में था कि बग़ैर मुजस्सम हुए अपने तईं ज़ाहिर करे या किसी और बेहतर और अफ़्ज़ल तरीक़े से अपना रब्बानी जलवा दिखाए लेकिन उसने हमारा जिस्म लिया और इस जिस्म को इख़्तियार करने का वसीला उस ने एक बेदाग़ और बेऐब कुँवारी औरत को बनाया। जो मर्द से वाक़िफ़ ना थी उस का जिस्म पाक और मर्दों की सोहबत से मुब्बरा था। कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) गो ख़ुद क़ुद्रत वाला और आलम का सानेअ (बनाने वाला) था। ताहम उस ने इस कुँवारी के रहम का अपना मस्कन बनाया और फिर उस में दाख़िल हो कर रहा और अपने आपको ज़ाहिर करता रहा।
कुल बनी-आदम के अज्साम (जिस्म की जमा) फ़ानी हैं। पस हमारे अज्साम जैसे एक जिस्म को उस ने इख़्तियार किया और सब के बदले उस को मौत के हवाले करके बाप के हुज़ूर क़ुर्बान कर दिया। ये उस ने अपनी मुहब्बत और मेहरबानी के बाइस किया, ताकि सब उस में मौत का मज़ा चखें और इस तरह बनी-आदम के फ़ानी होने का क़ानून मौक़ूफ़ हो जाये। चूँकि इस क़ानून का ज़ोर ख़ुदावन्द के जिस्म पर पूरा हुआ और उसे उस के हम-जिंसो के ख़िलाफ़ कुछ ताक़त ना रही वो बनी-आदम जो फ़ना की तरफ़ दौड़े जाते थे बक़ा की तरफ़ वापिस फेरे गए। उस के जिस्म की शराकत के बाइस वो जो मर चुके थे ज़िंदा किए गए। क़ियामत के फ़ज़्ल ने उन को दुबारा हयात इनायत की। वो मौत से यूं बचे जैसे भूसी (घास) जलने से बचे।
कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के तजस्सुम ने हमको मौत से ख़लासी बख़्शी है
कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को मालूम था कि बनी-आदम को फ़ना से बचाने का फ़क़त एक ही वसीला है। यानी मौत, लेकिन चूँकि कलिमतुल्लाह ग़ैर-फ़ानी था और बाप का बेटा था। इसलिए उस के वास्ते मरना नामुम्किन था। पस उस ने एक फ़ानी जिस्म इख़्तियार किया चूँकि ये जिस्म कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) का मस्कन था। इस की सोहबत ने उस पर दो असर किए। अव़्वल वो जिस्म इस क़ाबिल हुआ कि सब के एवज़ में मरे। दुवम ब-वजह कलाम की सुकूनत के बावजूद मरने के वो इंतिशार और सड़ने से महफ़ूज़ रहा। और उस की क़ियामत के फ़ज़्ल से आइंदा को कुल इन्सानी अज्साम आख़िरकार
फ़ना के क़ब्ज़े से छूट जाएं। इस जिस्म को जिसे उस ने इख़्तियार किया था। मुतलक़ दाग़ मौत के आगे क़ुर्बान करके और इस तरह एक मुसावी शैय यानी अपना जिस्म पाक जो अकेला मजमूई तमाम इन्सानों के अज्साम के हम-क़द्र था देकर अपने सब हम-जिंसों के सर से मौत की बला को टाल दिया।
कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने अपने मस्कन और जिस्म को सबकी हयात की ख़ातिर क़ुर्बान कर दिया। वो अपनी ज़ात में सबसे बरतर व बाला था और उस की मौत से वो तमाम नताइज बरामद हुए जिन की तवक़्क़ो हो सकती थी। ख़ुदा का ग़ैर-फ़ानी कलमा इंसानी फ़ित्रत को इख़्तियार करने के सबब से नूअ इंसानी में मिल गया। उस की सोहबत ने कुल बनी-आदम को क़ियामत का वाअदा अता करके बक़ा से मुलब्बस किया। कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) उस के जिस्म में साकिन होने के बाइस कुल नूअ इंसानी में साकिन हुआ। पस मौत का इंतिशार उनके अज्साम पर कुछ ज़ोर नहीं रखता।
अगर कोई बड़ा बादशाह किसी शहर में दाख़िल हो कर उस के किसी मकान में रिहाइश इख़्तियार करे तो वो शहर बड़ी इज़्ज़त के लायक़ समझा जाता है और कोई दुश्मन या ग़ारत-गर उस पर हमला करने की जुराअत नहीं करता। बल्कि इस ख़याल से कि बादशाह उस के एक मकान में रहता है सब इस शहर को मुम्ताज़ समझते हैं। पस चूँकि कुल आलम का सुल्तान दुनिया में आया और हमारा हम-जिंस हो कर एक जिस्म में रहा। दुश्मन के वो तमाम इरादे जो वो हमारे ख़िलाफ़ रखता था टूट गए। और मौत जो सब पर ग़ालिब आती थी मादूम हो गई। अगर ख़ुदा का बेटा जो सब का मालिक और मुनज्जी है ना आता और यूं मौत का ख़ातिमा ना कर देता तो नस्ल इंसानी बिल-ज़रूर तबाह हो जाती।
(10) तजस्सुम की मुनासबत
दर-हक़ीक़त ये अज़ीम काम ख़ुदा की नेकी के साथ एक ख़ास रिश्ता और मुनासबत रखता था। फ़र्ज़ करो कि किसी बादशाह ने कोई शहर या मकान बनाया हो और इस में रहने वाले लोग उस की हिफ़ाज़त में ऐसे ग़ाफ़िल हो जाएं कि ग़ारत-गर उस का मुहासिरा करें। तो क्या वो बादशाह इस शहर की तरफ़ से बे-परवाह रहेगा। नहीं बल्कि फ़ौरन उसे अपना काम समझ कर दुश्मनों से इंतिक़ाम लेगा और अपने बनाए हुए
शहर की हिफ़ाज़त करेगा। उस को इस बात का ख़याल कम होगा कि जिन लोगों को मैंने अपने शहर में बसाया है कैसे बे-परवाह हैं लेकिन अपनी शान का ख़याल रखेगा। पस कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने भी नूअ़ इंसानी की तरफ़ से जिसे उस ने पैदा किया था और जो बिल्कुल बिगड़ती जाती थी बेपरवाही नहीं की। उस ने अपने जिस्म की क़ुर्बानी से इस मौत को मौक़ूफ़ किया जिस के वो सज़ावार बन गए थे। उस ने अपनी तालीम से उन की ग़फ़लत का ईलाज किया और अपनी क़ुद्रत से इंसान की कुल फ़ित्रत को सही व सालिम कर दिया।
नजातदिहंदा के शागिर्द अपनी इल्हामी शहादत से हमें इस अम्र का यक़ीन दिलाते हैं। चुनान्चे कहते हैं कि मसीह की मुहब्बत हमको मज्बूर कर देती है। इसलिए कि हम ये समझते हैं कि जब एक सब के वास्ते मुआ तो सब मर गए। और वो इसलिए सब के वास्ते हुआ कि जो जीते हैं वो आगे को अपने लिए ना जिएँ बल्कि उस के लिए जो उन के वास्ते मरा और फिर जी उठा। (2 कुरिन्थियों 5:14-15) यानी अपने ख़ुदावन्द येसू मसीह के लिए। फिर लिखा है कि “अलबत्ता उस को देखते हैं जो फ़रिश्तों से कुछ ही कम किया गया है। यानी येसू को कि मौत का दुख सहने के सबब जलाल और इज़्ज़त का ताज उसे पहनाया गया है ताकि ख़ुदा के फ़ज़्ल से हर एक आदम के लिए मौत का मज़ा चखे। (इब्रानियों 2:9)
ख़ुदा के कलाम में ये भी बतलाया गया है कि क्या ज़रूर था कि फ़क़त कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ही मुजस्सम हो कर इन्सान बने। चुनान्चे लिखा है कि जिसके लिए सब चीज़ें हैं और जिसके वसीले से सब चीज़ें हैं उस को यही मुनासिब था कि जब बहुत से बेटों को जलाल में दाख़िल करे तो उन की नजात के बानी को दुखों के ज़रीये से कामिल करे। (इब्रानियों 2:10) इन अल्फ़ाज़ से ये मुराद है कि बनी-आदम को उस बिगाड़ में से निकालना जिसमें वो मुब्तला थे कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के सिवा और किसी के बस में ना था। क्योंकि वही शुरू में उनका ख़ालिक़ था। और पाक किताब ये भी बताती है कि कलिमतुल्लाह ने इसलिए जिस्म क़ुबूल किया कि उन लोगों को नजात बख़्शे जो उस के से जिस्म रखते थे चुनान्चे लिखा है, कि “जिस सूरत में कि लड़के ख़ून और गोश्त में शरीक हैं तो वो ख़ुद भी उन की तरह उन में शरीक हुआ। ताकि मौत के वसीले से उस को जिसे मौत पर क़ुद्रत हासिल थी यानी इब्लीस को तबाह कर दे। और जो उम्र-भर मौत के डर से गु़लामी में गिरफ़्तार रहे उन्हें छुड़ा ले।” (इब्रानियों 2:14-15)
उस ने अपने जिस्म की क़ुर्बानी से दो काम लिए। अव़्वल इस क़ानून को मौक़ूफ़ कर दिया जो हमारा मुख़ालिफ़ था। दुवम हमें एक नई हयात अता की और जिस्म के जी उठने की उम्मीद दिलाई। मौत ने इन्सान के ज़रीये से इन्सान पर ग़लबा पाया था। पस कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने इन्सान बन कर मौत को मौक़ूफ़ कर दिया और ज़िंदगी की क़ियामत के सिलसिले को शुरू किया। वो शख़्स जो अपने जिस्म पर येसू के लिए दाग़ लिए फिरता था। (ग़लतियों 6:17) यूं लिखा है कि “जब आदमी के सबब से मौत आई तो आदमी ही के सबब से मुर्दों की क़ियामत भी आई और जैसे आदम में सब मरते हैं वैसे ही मसीह में सब ज़िंदा किए जाऐंगे।” (1 कुरिन्थियों 15:21-22)
हम उन लोगों की मानिंद नहीं जिन पर मौत का फ़त्वा जारी हो चुका है बल्कि उन की मानिंद हैं जो उठने वाले हैं और जो सबकी क़ियामत के मुंतज़िर हैं।
इस क़ियामत को ख़ुदा जिसने उस को बनाया है और हमें मुफ़्त बख़्शा है। अपने मुनासिब वक़्त पर ज़ाहिर करेगा। (1 तीमुथियुस 6:15)
नजातदिहंदा के इन्सान बनने का यही पहला सबब था।
लेकिन ज़ेल के वजूहात पर भी ग़ौर करने से मालूम होगा कि उस का फैज़ बख़्श ज़हूर ऐन वाजिब व मुनासिब था।
(11) इंसान के लिए ख़ुदा का हुस्ने इंतिज़ाम और इंसान की बदी
ख़ुदा ने जो सब चीज़ों पर क़ादिर है अपने कलमे के ज़रीये से बनी-आदम को ख़ल्क़ करते वक़्त उन की फ़ित्रत की कमज़ोरी को देखा। उस ने मालूम किया कि इन्सान अपने आप ना अपने ख़ालिक़ को जान सकता है और ना ख़ुदा का कोई लायक़ ख़याल व तसव्वुर अपने ज़हन में ला सकता है। पस उस ने बनी-आदम पर रहम किया और चूँकि वो नेक था उसने उनको अपनी पहचान से महरूम ना रखा कि मबादा उन की हस्ती निकम्मी व बेफ़ायदा रह जाये। पस अपने आप ख़ुदा को पहचानना इन्सान के लिए मुहाल था। लेकिन इन्सान को हस्ती से क्या नफ़ा होता अगर वो अपने ख़ालिक़ को ना
जानता। अगर बनी-आदम नुत्क़-अल्लाह या कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को जिससे उन्होंने हयात व हस्ती हासिल की थी ना जानते तो क्यूँ-कर नातिक़ या ज़ी अक़्ल कहला सकते। तब तो उन में और हैवान-ए-मुत्लक़ यानी ग़ैर ज़ी अक़्ल हैवानों में कुछ भी फ़र्क़ ना होता। अगर ज़मीनी उमूर को छोड़कर उनको आस्मानी उमूर के साथ ज़रा भी ताल्लुक़ ना होता तो फ़िल-हक़ीक़त वो हैवान उन से किसी बात में आला ना पाए जाते। अगर ख़ुदा की ये मर्ज़ी ना थी कि बनी-आदम मुझको पहचानें तो उस ने उन को पैदा ही किस लिए किया था।
पस चूँकि ख़ुदा नेक है इसलिए उस ने उन्हें ख़ुदावन्द येसू मसीह में जो उस की ज़ात का नक़्श है शराकत इनायत की यानी उन को अपनी ही सूरत पर इसलिए पैदा किया कि वो मुझसे नावाक़िफ़ ना रहें और वो जानता था कि इस फ़ज़्ल के इनाम के वसीले से बनी-आदम ख़ुदा की सूरत यानी कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को पहचानें और इस के सबब बाप का तसव्वुर हासिल करें। और अपने ख़ालिक़ को पहचानने के सबब से सरवर और सच्ची बरकत में ज़िंदगी बसर करें।
लेकिन बनी-आदम सच्चाई से भटक गए। उन्हों ने ख़ुदा के फ़ज़्ल को हक़ीर समझा। पस वो ख़ुदा से मुनहरिफ़ हुए और उनकी रूहें ऐसी नापाक हो गईं कि अपने ख़ालिक़ का ख़याल भी खो बैठे और ऐसे बिगड़े कि अपने लिए मुख़्तलिफ़ अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) के बुत ईजाद करने लगे। बाओज़ सच्च के उन्होंने बुत बना लिए और अपने औहाम बातिला (झूटे ख़यालात) को ख़ुदा पर जो मौजूद है तर्जीह देने लगे। मख़्लूक़ की परस्तिश को उन्हों ने ख़ालिक़ की परस्तिश पर तर्जीह दी। (रोमियों 1:25) और इससे भी बदतर ये किया कि जो इज़्ज़त ख़ुदा का हक़ थी उसे उन्हों ने पत्थर लकड़ी या अश्या-ए-माद्दी या आदमियों को देनी शुरू की बल्कि अपनी गुमराही में इस से भी बढ़ गए। उन की बेदीनी ने इस क़द्र तरक़्क़ी की कि उन्होंने शयातीन को पूजना और उनको ख़ुदा कहना शुरू किया। और अपनी शहवतों को पूरा करने में मसरूफ़ हुए। आदमियों और जानवरों को क़ुर्बान करना उनकी आदत हो गई और वो कहने लगे कि देवताओं का यही हक़ है। पस बनी-आदम अपनी दीवानगी के ख़ूब मुतीअ बने। उन के दर्मियान जादूगर और ग़ैब बीन पैदा हुए जिन्हों ने अपने हम-जिंसों को गुमराह किया। लोग ज़ाहिरी चीज़ों पर ऐसे फ़रेफ़्ता हुए कि अपनी पैदाईश और हालत को सितारों और अजराम-ए-फल्की की तासीर का नतीजा समझने लगे।
हासिल कलाम बेदीनी और ख़ुद-सरी ने ऐसा ज़ोर पकड़ा कि ख़ुदा और कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को सब भूल गए। गो ख़ालिक़ की पाक ज़ात किसी वक़्त उन से पोशीदा ना थी। ख़ुदा ने ना फ़क़त एक तरीक़े से बल्कि तरह-तरह अपने तईं अपनी मख़्लूक़ात पर ज़ाहिर किया था।
(12) तौरेत और नबियों के बावजूद बनी-आदम की सरकशी
इन्सान को ये फैज़ बख़्शा गया था कि वो ख़ुदा की सूरत पर ख़ल्क़ किया गया था। इस से ये नतीजा निकलना चाहीए था कि वो अव़्वल कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को पहचानता और उस के वसीले से ख़ुदा बाप की शनाख़्त हासिल करता, लेकिन ख़ुदा ने इन्सान की कमज़ोरी से वाक़िफ़ हो कर उस की ग़फ़लत का ईलाज किया। ऐसा कि अगर उनको अपनी अक़्ल के ख़ुदा के पहचानने की ख़्वाहिश ना होती ताहम कायनात को देखकर ख़ालिक़ की पहचान से महरूम ना रहते।
लेकिन चूँकि इन्सान की ग़फ़लत रोज़ बरोज़ ज़्यादा होती जाती थी ख़ुदा ने अज़सर-ए-नौ उन की कमज़ोरी का चारा किया। उस ने उन को एक शराअ बख़्शी और ऐसे शख्सों को जिनको वो जानते थे नबी बना कर उनकी तरफ़ मबऊस (भेजा हुआ) किया। बनी-आदम ने आस्मान की तरफ़ देखकर अपने ख़ालिक़ को पहचानना तो बिल्कुल छोड़ दिया था। पस ख़ुदा ने उन के दर्मियान ऐसे आदमी भेज दिए जिनसे वो तालीम हासिल कर सकते थे। आस्मानी बातों को आदमी ज़्यादातर इस हाल में बराह-ए-रास्त सीख सकता है जब कि सिखाने वाले उस के हम-जिंस इन्सान हों।
अगर इन्सान अपनी आँखें उठा कर आस्मान की वुसअत और ख़ल्क़त की इस कस्रत को देखता जिसमें यकजहती और इत्तिफ़ाक़ भी है तो उस के लिए मुम्किन था कि दुनिया के हाकिम और कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को पहचानता। जो कुल अश्या का मुंतज़िम है और अपने इंतिज़ाम से आदमियों को हिदायत ख़ुदा बाप की तरफ़ करता है। जो इसी ग़र्ज़ से आलम को मुतहर्रिक करता है ताकि सब बज़रीया उस के ख़ुदा को पहचानें।
या अगर ये मुश्किल था तो इन्सान के लिए मुम्किन था कि मुक़्क़दस आदमियों की सोहबत में बैठता और बज़रीये उन के ख़ुदा को जो सब अश्या का सानेअ (बनाने वाला) और मसीह का बाप है। पहचानता नेक आदमियों की सोहबत से इस को मालूम हो जाता कि बुतों की परस्तिश बेदीनी और ख़ुदा का इन्कार है।
या वो ख़ुदा के अहकाम को सीख करना नाफ़रमानी से बच सकता था। उस के लिए मुम्किन था कि ख़ुदा के हुक्मों की मदद से दीनदारी की ज़िंदगी बसर करे। क्योंकि शरीअत फ़क़त यहूदियों की ख़ातिर ही नहीं आती और नबी सिर्फ उन्ही की ख़ातिर नहीं भेजे गए। हाँ यहूदियों के पास भेजे तो गए और उन से ज़ुल्म उठाया मगर नबी कुल दुनिया के लिए ख़ुदा के इल्म का मदरिसा और रूह की हिदायत का मक्तब थे।
ख़ुदा की नेकी और मेहरबानी की तो कुछ हद ना थी ताहम इन्सान चंद रोज़ा ख़ुशियों पर आशिक़ हुआ और शयातीन के दाअवों और मक्र के बंद में फंसा। उसने अपना सरहक की तरफ़ ना उठाया। बल्कि बदी और गुनाह का ब-वजह अपने कंधे पर और भी धर लिया और ऐसा बिगड़ गया कि कोई ना कह सकता था कि ये नातिक़ ज़ी अक़्ल है, बल्कि उस की हालत ऐसी हो गई जैसी ग़ैर ज़ी अक़्ल हैवान-ए-मुत्लक़ की होती है।
(13) नस्ल इंसान का नया किया जाना मुनासिब था
पस मालूम हुआ की बनी-आदम ग़ैर ज़ी अक़्ल हो गए। शयातीन के फ़रेब ने हर जगह ख़ल्क़त में तारीकी फैला दी। हक़ीक़ी ख़ुदा का इल्म पोशीदा हो गया। अब क्या करना ख़ुदा की शान के लायक़ था? क्या वो ऐसे ज़ुल्म के मुक़ाबले में ख़ामोश रहता और बनी-आदम को शयातीन का फ़रेब खा कर अपनी ज़ात-ए-पाक से ग़ाफ़िल रहने देता।
अगर ऐसा ही करना मुनासिब था तो इब्तिदा में आदमी को अपनी सूरत पर पैदा करने से क्या हासिल होता। चुनान्चे इन्सान के लिए ये अच्छा होता कि शुरू ही से हैवान-ए-मुत्लक़ और ग़ैर ज़ी अक़्ल पैदा किया जाता बसबब इस के कि ज़ी अक़्ल और नातिक़ (नातिक़, साहिबे अक़्ल) होने के बाद हैवान-ए-मुत्लक़ की सच्ची ज़िंदगी गुज़ारे।
और इस का भी क्या फ़ायदा था कि आइंदा में ख़ुदा की बाबत कोई इल्म हासिल करता अगर बाद में इस इल्म को बिल्कुल हाथ से छोड़ देता। तो शुरू ही में उस का ना मिलना बेहतर होता क्या कोई बादशाह गो वो बशर है। अपने आबाद किए हुए ममालिक को किसी दूसरे कि हाथ में सौंप दे। क्या वो इस बात का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हो सकता है कि उस की रियाया किसी दूसरे बादशाह की ख़िदमत और दबदबे में रहे या ग़ैर की इताअत इख़्तियार करे? नहीं हरगिज़ नहीं बल्कि बरअक्स इस के वो ख़ुतूत लिखेगा और वक़्तन-फ़-वक़्तन अपने दोस्तों को भेजेगा और अगर ज़रूरत हो तो ख़ुद अपने आबाद किए हुए मुल्क को देखने जाएगा ताकि वहां के लोगों को अपनी हुज़ूरी से शर्मिंदा करे और उन को किसी दूसरे की ताबेदारी से रोकेगा ताकि उस का किया हुआ काम बर्बाद ना हो जाये। जब दुनियावी बादशाहों को इतनी ग़ैरत है तो क्या ख़ुदा की गय्युरी इस से भी कम है? क्या ख़ुदा अपनी मख़्लूक़ात की तरफ़ से ग़ाफ़िल रहेगा और उन को भटकने देगा? क्या वो उन्हें ख़ालिक़ को छोड़कर मादूम चीज़ों की इबादत करने देगा? और ख़ास कर इस हालत में जब कि उन के ऐसे फ़ेअल का ये नतीजा हो कि वो ख़ुद बर्बाद हो जाएं। क्या मुनासिब है कि ऐसी मख़्लूक़ तबाह हो जो ख़ालिक़ की मुशाबहत रखती है।
पस ख़ुदा को क्या करना मुनासिब था? वही जो उस ने किया। यानी ये कि उस ने अपने उस फ़ज़्ल को दुबारा बख़्शा जिसके बाइस उस ने इन्सान को अपनी सूरत पर ख़ल्क़ किया था। ताकि उस के ज़रीये से बनी-आदम फिर अपने ख़ालिक़ को पहचान सकें लेकिन इस का सिर्फ एक ही रास्ता था और वो ये कि ख़ुदा की वही सूरत यानी हमारा ख़ुदावन्द येसू मसीह फिर ज़मीन पर आए।
आदमी से ये काम ना हो सकता था। वो तो ख़ालिक़ की सिर्फ सूरत पर बनाए गए हैं। फ़रिश्तों से ये काम ना हो सकता था। क्योंकि वो ख़ुदा की सूरत पर बनाए नहीं गए। पस कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ख़ुद आया। जो बाप की सूरत है। ताकि इन्सान को अज़सर-ए-नौ ख़ुदा की सूरत पर लाए। इस काम के लिए ज़रूर था कि मौत और इंतिशार मौक़ूफ़ कर दिया जाये। पस उसने फ़ानी जिस्म इख़्तियार किया ताकि इस जिस्म में मौत को कुल्लिया (मुकम्मल) तौर पर दूर करे। और बनी-आदम को दुबारा ख़ुदा की सूरत पे लाए। इस ज़रूरत का रफ़ा करना फ़क़त बाप की सूरत के बस में था।
(14) कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के तजस्सुम की मुनासबत
फ़र्ज़ करो कि एक तस्वीर किसी तख़्ती पर नक़्श है जो दाग़ों और धब्बों के बाइस तक़रीबन मिट गई है। इस के दुबारा रोशन करने का इंतिज़ाम क्यूँ-कर हो सकता है। इस के लिए ज़रूर होगा कि वो शख़्स फिर बुलाया जाये जिसकी वो तस्वीर है अगर वो हाज़िर हो जाये तो उस की तस्वीर का दुबारा उसी पहली तख़्ती पर खींचना मुम्किन होगा। चूँकि तस्वीर किसी क़द्र मिट गई है कोई इस काग़ज़ को जिस पर किसी वक़्त में वो तस्वीर थी फेंक ना देगा। बल्कि कोशिश की जाएगी कि उसी तख़्ती पर इसी पुरानी तस्वीर को दुबारा रोशन करें। इसी तरह बाप का क़ुद्दूस बेटा जो बाप की सूरत है हमारे इलाक़े में आया ताकि आदमी को दुबारा अपनी सूरत पर लाए। और उस को जो खोया गया था। बज़रीये गुनाहों की मग़्फिरत के तलाश करे। चुनान्चे इस की वो ख़ुद शहादत देता है, कि “इब्ने-आदम खोए हुओं को ढ़ूढ़ने और नजात देने आया है।” (लूक़ा 19:10) इसी तरह उस ने यहूदियों से भी कहा। जब तक कोई नए सिरे से पैदा ना हो। (यूहन्ना 3:3) इस जुम्ले से उस की ये मुराद ना थी कि आदमी को दुबारा किसी औरत के वसीले से जन्म लेना ज़रूर है। जैसा वो समझते थे बल्कि वो नया जन्म मुराद था जो रूह के नए किए जाने और ख़ुदा की सूरत में दुबारा लाए जाने से आदमी को मिलता है।
जब कि दुनिया बुत-परस्ती के दीवाने-पन और बेदीनी के तसर्रुफ़ में थी और ख़ुदा की पहचान जाती थी तो किस का काम था कि दुनिया को बाप की सच्ची तालीम दे। क्या ये काम आदमी के बस का था। आदमियों के लिए तो मुम्किन ना था कि दुनिया के हर मोज़े (गांव, जगह) में जाएं। उनमें इतना सफ़र करने की ताक़त नहीं और कोई ऐसा मोअतबर नहीं कि हर जगाह लोग उस की बात को तस्लीम करलें। ना इन्सान को इतनी क़ुद्रत है कि शयातीन के हीले और फ़रेब का काफ़ी मुक़ाबला कर सके।
दुनिया के सब लोग शैतानी फ़रेब और बुतों की बातिल परस्ती में मुब्तला और सर गर्दान थे। पस इनमें से किसी से कब मुम्किन था कि दूसरों को रास्ती की तर्ग़ीब दे सकता। अंधा अंधे को किस तरह राह दिखा सकता है।
शायद कोई कहे कि ख़ुदा की शनाख़्त के लिए मह्ज़ दुनिया की पैदाईश ही काफ़ी थी। लेकिन अगर मह्ज़ पैदाईश ही काफ़ी होती तो फिर इतनी क़बाहतें और ख़राबियां किस तरह पैदा हो सकती हैं। ख़ुदा ने इन्सान को पैदा तो किया लेकिन बावजूद ख़ुदा की मख़्लूक़ होने के बनी-आदम ग़लतियों की कीचड़ में लौट रहे थे।
पस कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के सिवा और किस की ज़रूरत थी। वही ऐसी बसारत (देखने की क़ुव्वत) रखता है कि इन्सान की रूह और अक़्ल के भेद जाने। वही हर शेय का मुतहर्रिक है और उन के ज़रीये से बाप की पहचान बख़्शता है। इस इंतिज़ाम और तर्तीब के ज़रीये से जो वो दीनवी अश्या को देता है जिससे हमको बाप की शनाख़्त हासिल होती है। पस ये उसी का हिस्सा था कि इस शनाख़्त को अज़सर-ए-नौ पैदा करे।
लेकिन ये क्योंकर किया जा सकता था। शायद कोई कहे कि ख़ुदा को चाहीए था कि तमाम ख़ल्क़त को अज़सर-ए-नौ पैदा करे और अपनी सनअत में फिर अपना ज़हूर व जलवा बख़्शे। जिस तरह उसने पहले किया था। लेकिन इस तरीक़ पर चंदाँ (कुछ) एतिमाद नहीं हो सकता था। यही तरीक़ा ख़ुदा ने पहले बरता लेकिन बनी-आदम ने इस की पर्वा ना की। बजाए आँखें ऊपर उठाने के उन्हों ने अपना रुख नीचे को कर लिया था।
पस आदमियों के फ़ायदे के लिए वो आदमी बन कर आया। और ऐसा जिस्म इख़्तियार किया जैसा मामूली आदमियों का होता है और उसने अदना चीज़ों यानी अपने जिस्म के लिए हुए कामों से ताकि वो जो दुनिया के इलाही हुस्ने इंतिज़ाम से उस को पहचानना नहीं चाहते थे। उस के जिस्मानी अफ़आल के ज़रीये से उस को जानें। और कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को मुजस्सम देखकर बाप की मार्फ़त हासिल करें।
(15) कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की फ़िरोतनी
बाअज़ तालिब ऐसे होते हैं कि मुश्किल मज़ामीन का समझना उन की ताक़त से बईद होता है। पस अक़्लमंद मुअल्लिम उनकी कमज़ोरी का लिहाज़ करके उनको किसी बड़े आसान तरीक़े से पढ़ाता है। कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने भी ऐसा ही किया। पौलुस भी ऐसा ही फ़रमाता है। इसलिए जब ख़ुदा की हिक्मत के मुताबिक़ दुनिया ने अपनी हिक्मत से ख़ुदा को ना पहचाना तो ख़ुदा को ये पसंद आया कि उस मुनादी की बेवक़ूफ़ी से ईमान लाने वालों को नजात दे। (1 कुरिन्थियों 1:21)
कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने देखा कि बनी-आदम ने ख़ुदा का तसव्वुर छोड़ दिया है। और जो अपनी नज़र को नीचे लगा कर मौजूदात और महसूसात में ख़ुदा की तलाश करते हैं। और यूं फ़ानी इन्सानों और शयातीन को अपना ख़ुदा गर्दान रहे हैं। तब उसने जो सब का मुनज्जी है अपने लुत्फ़ व मुहर से एक जिस्म इख़्तियार किया। और आदमियों के दर्मियान आदमी बन कर तमाम आदमियों की तवज्जोह को अपनी तरफ़ खींचा। आदमियों का ख़याल था कि ख़ुदा जिस्मानी चीज़ों में है। पस वो जिस्म ही में आ मौजूद हुआ ताकि उस के जिस्मानी कामों में वो हक़ को मालूम करें। और इस के ज़रिये से बाप की शनाख़्त तक पहुंच जाएं। वो बशर थे और उनकी तवज्जोह बिल्कुल बशरी मुआमलात में लगी हुई थी। पस कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने बशरियत का जामा पहन कर बशरियत की हालत को बदल दिया। अब बशरियत ख़ुदा की पहचान में मदद देने लगी और हर तरफ़ से इन्सान को हक़ की तालीम मिलने लगी।
क्या पहले बनी-आदम मख़्लूक़ात को देखकर मुतहय्यर (हवास बाख्ता, हैरान, हक्का बका) ना थे। यहां तक कि इस को माबूद मान लिया था अब उन्हें मसीह को ख़ुदा मानते हुए देखते उनकी अक़्ल ऐसी ना बिगड़ गई थी कि वो आदमियों को ख़ुदा मानते थे। अब नजातदिहंदा ने ऐसे काम दिखलाए कि अगर इनका मुक़ाबला इन्सानी कामों के साथ किया जाता तो इनसे साबित होता कि बनी-आदम मुक़ाबला नहीं कर सकते। क्या बनी-आदम शयातीन पर फ़रेफ़्ता ना हो गए थे। अब इन्होंने देखा कि ख़ुदावन्द इनको भगाता और ज़क (शिकस्त) देता है। पस इनको मालूम हुआ कि फ़क़त कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ही ख़ुदा है और शयातीन ख़ुदा नहीं हैं। क्या बनी-आदम गुज़श्ता ज़मानों के बहादुरों की परस्तिश ना करते थे और इन पर आशिक़ ना था जिन्हें शाइरों ने देवता बना दिया था। अब इन्होंने नजातदिहंदा की क़ियामत देखी और इक़रार किया कि हमारे पहले माबूद झूटे थे। इनको मालूम हुआ कि बाप का कलमा ही फ़क़त सच्चा ख़ुदावन्द है। बल्कि वो मौत पर भी इख़्तियार रखता है।
उस के इन्सानी तवल्लुद (पैदाइश) और ज़हूर की यही वजह थी। इसी लिए वो मरा और फिर ज़िंदा हुआ। उस के कामों की रोशनी के मुक़ाबले तमाम इन्सानी काम धुंदले हो कर ग़ायब हो गए। वो तमाम इन्सानों को हर जगाह खींचता है और अपने सच्चे बाप की पहचान बख़्शता है। वो ख़ुद फ़रमाता है “मैं इसलिए आया हूँ कि खोए हुओं को ढूंडूं और बचाऊं।” (लूक़ा 19:10)
(16) कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की मामूरी
जब इन्सानी अक़्ल नफ़्स की मुतीअ हो गई तो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने जिस्म के ज़रीये से ज़ाहिर होना मंज़ूर फ़रमायाता कि इन्सान हो कर आदमियों को अपना बना ले। और उनके हवास को अपनी तरफ़ रुजू करले और उस वक़्त से अब तक बज़रिये उन कामों के जो उसने किए थे। वो बनी-आदम को समझाता है कि गो तुम ने मुझे आदमी की सूरत में देखा ताहम मैं ख़ुदा हूँ। मैं कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और सच्चे ख़ुदा की अक़्ल व हिक्मत हूँ। पौलुस भी ये कह कर इस बात का इज़्हार करता है, “ताकि तुम मुहब्बत में जड़ पकड़ कर और बुनियाद क़ायम करके सब मुक़द्दसों समेत बख़ूबी मालूम कर सको कि इस की चौड़ाई और लंबाई और ऊंचाई और गहराई कितनी है। और मसीह की उस मुहब्बत को जान सको जो जानने से बाहर है ताकि तुम ख़ुदा की सारी मामूरी तक मामूर हो जाओ।” (इफ़िसियों 3:17-19)
चूँकि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने अपने तेईं हर जगह मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) किया है इसलिए कुल दुनिया ख़ुदा की पहचान से मामूर हो गई है। उसने हर जगह अपने आपको मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) किया है ऊपर और नीचे गहराई और चौड़ाई में। ऊपर यानी मख़्लूक़ात में। नीचे यानी अपने तजस्सुम में। गहराई यानी आलम-ए-अर्वाह में। चौड़ाई यानी कुल आलम में उस की मामूरी हो गई।
इसलिए उसने आते ही अपने तेईं क़ुर्बान नहीं कर दिया। दुनिया में आते ही उसने मौत और क़ियामत का तजुर्बा हासिल ना किया क्योंकि अगर वो ऐसा करता तो फ़ौरन हमारी नज़रों से ग़ायब हो जाता। बल्कि उसने अपने आपको बख़ूबी जिस्म में ज़ाहिर किया। वो जिस्म में रहा और ऐसे काम करता और निशान ज़ाहिर करता रहा जिनसे साबित हुआ कि वो मह्ज़ इन्सान नहीं है बल्कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और ख़ुदा है
नजात दहिंदा ने अपने तजस्सुम से बबाइस अपनी मुहब्बत और मुहर के ये दोनों काम किए। उसने मौत को हमसे दूर किया और हमको नई हयात बख़्शी। और चूँकि वो नादीदा (देखाई ना देने वाला) था इसलिए अपने कामों के ज़रीये से दिखाई दिया। उस के कामों को देखकर हमने पहचाना कि वो बाप का कलमा और कुल मख़्लूक़ात का हाकिम और बादशाह है।
(17) तजस्सुम के बाइस कलिमतुल्लाह महदूद ना हो गया
लेकिन जिस्म ने उस को महदूद ना कर दिया। और जिस्म में रहने से ये नतीजा ना निकला कि उस की हुज़ूरी और जगहों से जाती रही। वो जिस्म को तो मुतहर्रिक करता था और साथ ही इस के कुल आलम उस के असर अमल और इंतिज़ाम से मामूर था। और कैसी अजीब ये बात है कि वो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) होने के बाइस के किसी शैय से मुहात (घेरा गया, मशहूर) ना हुआ बल्कि उसी का अहाता हर शेय पर था। वो मख़्लूक़ात के अंदर हाज़िर था ताहम मख़्लूक़ात से बलिहाज़ माहीयत (असलियत) अलैहदा था। हर शैय ने उस से ज़िंदगी हासिल की। किसी शैय ने उस पर अहात ना किया बल्कि वो हर शैय पर अपना अहाता रखता था। उस की हस्ती हर तरह से फ़क़त उस के बाप की पाक ज़ात के अंदर थी। वो जिस्म के अंदर था और इस जिस्म को ज़िंदगी बख़्शता था लेकिन साथ ही इस के कुल आलम को ज़िंदा रखता था। वो आलम के हर हिस्से में हाज़िर था ताहम उस की कुल्लियत से बाहर था। उसने ना फ़क़त उन कामों के ज़रीये से अपने तईं नुमायां किया जो उसने जिस्म में हो कर किए बल्कि अपने इस असर व अमल के ज़रीये से भी जो कुल आलम में ज़ाहिर था।
रूह की ख़ासियत है कि वो बज़रिये ख़याल के उन अश्या पर ग़ौर कर सकती है जो जिस्म के बाहर हैं। लेकिन वो जिस्म के बाहर अमल नहीं कर सकती। ना वो उन अश्या को मुतहर्रिक कर सकती है जो इस से फ़ासिला पर हैं। आदमी में क़ुव्वत नहीं कि मह्ज़ ख़याल के ज़ोर से ऐसी अश्या को मुतहर्रिक (हरकत करने वाला, जारी) करे जो इस से दूर हैं। अपने घर बैठ कर आदमी अज्साम समावी की निस्बत सोच सकता है। लेकिन इस सोच में ये क़ुव्वत नहीं कि आफ़्ताब को हरकत या आस्मान को गर्दिश दे। हम देखते हैं कि आफ़ताब व मेहताब और सितारे गर्दिश करते और मौजूद हैं लेकिन हम अपना ज़ोर उन पर नहीं चला सकते।
लेकिन कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की मुजस्सम हो कर ये हालत ना थी। उस का जिस्म उस के लिए कोई रुकावट ना था बल्कि वो कामिल तौर पर इस जिस्म पर हावी था। वो ना फ़क़त जिस्म के अंदर था बल्कि हर जगह हाज़िर व नाज़िर था। वो कुल मख़्लूक़ात के बाहर अपने बाप में रहता था। अजूबा इस में है कि जिस हाल में वो इन्सानी ज़िंदगी बसर कर रहा था। बबाइस कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) होने के वो हर शैय को ज़िंदा करता था। और जब बेटा होने के बाप के साथ मौजूद था। पस कुँवारी के बतन से पैदा होने के बाइस भी उस में कोई तब्दीली वाक़ेअ ना हुई मुजस्सम होने के बाइस उस की ज़ात में कोई नुक़्स या नापाकी दाख़िल ना हुई। बल्कि के इसके बर-अक्स उसने जिस्म को पाक मुक़द्दस किया।
गो वो हर शैय के अंदर है ताहम उस की ज़ात अलैहदा है और मख़्लूक़ात की ज़ात अलैहदा वो हर शैय का ज़िंदा करने वाला और रज़्ज़ाक़ है। आफ़्ताब जिसे हम देखते हैं और जो गर्दिश करता है उस की सनअत है लेकिन आफ़्ताब ज़मीनी अज्साम के ताल्लुक़ से नापाक नहीं हो जाता। तारीकी उस पर ग़ालिब नहीं आती। बल्कि वो हर शैय को रोशन और पाक करता है। पस ख़ुदा का पाक कलमा जो आफ़्ताब का ख़ालिक़ और मालिक है जिस्म में ज़ाहिर होने से नापाक नहीं हुआ। बरअक्स इस के चूँकि वो ग़ैर-फ़ानी है उसने फ़ानी जिस्म को ज़िंदा और पाक किया। पाक कलाम भी यही कहता है कि ना उसने गुनाह किया ना उस के मुंह से मुकर की कोई बात निकली। (1 पतरस 2:22)
(18) कलाम मुजस्सम के काम
मुक़द्दस किताबों के लिखने वाले जब कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) का ज़िक्र करते हैं तो बयान करते हैं कि वो खाता पीता था। और वो औरत से पैदा हुआ। पस समझ लो कि इन मुहावरात का इतलाक़ मह्ज़ उस के जिस्म पर है यानी उस का जिस्म औरत से पैदा हुआ और ग़िज़ा खाता था। कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) जो ख़ुदा है जिस्म में रह कर आलम का मुंतज़िम था। उन कामों के ज़रीये से जो उसने जिस्म में हो कर किए उसने अपने आपको ना इन्सान बल्कि कलमा और ख़ुदा ज़ाहिर किया। जिस्मानी कामों यानी पैदा होने, खाने पीने, दुख सहने का इतलाक़ उस की तरफ़ इसलिए है कि वो जिस्म जो ये सब करता था उसी का जिस्म था मुनासिब था कि जब वो इन्सान बन गया तो काम भी ऐसे ही करता। ताकि सब पर साबित हो जाये कि वो जिस्म जो उसने इख़्तियार किया मह्ज़ धोका ना था बल्कि हक़ीक़ी था।1-
_____________________________
1अस्नासीस के ज़माने में दुकैती नाम एक बिदअत थी जिस कि तालीम के बमुजब मसीह का जिस्म हक़ीक़ी नहीं था बल्कि महज़ सूरी।जैसा कि बवसीला इन चीज़ों के उसने अपनी जिस्मानी हुज़ूरी को साबित किया। इसी तरह बज़रिये उन कामों के जो जिस्म की वसातत से किए अपने आपको ख़ुदा का बेटा साबित कर दिया इसी लिए उसने बे एतिक़ाद यहूदियों से फ़रमाया, “अगर मैं अपने बाप का काम नहीं करता तो मेरा यक़ीन ना करो। लेकिन करता हूँ तो गो मेरा यक़ीन ना करो मगर इन कामों का तो यक़ीन करो ताहम जानो और समझो कि बाप मुझमें है और मैं बाप में।” (यूहन्ना 10:37-38)
क्योंकि जिस तरह वो अनदेखा हो कर मख़्लूक़ात पर ग़ौर करने से पहचाना जाता है इसी तरह इन्सान बन कर और जिस्म से पोशीदा हो कर अपने कामों से साबित करता है कि मैं जो ये सब कुछ करता हूँ इन्सान नहीं बल्कि ख़ुदा की क़ुद्रत और उस का कलमा हूँ। शयातीन को हुक्म से दूर कर देना इन्सान का काम नहीं बल्कि ख़ुदा का है। कौन शख़्स है जो इस जिस्मानी अमराज़ को दूर करता देखकर कहेगा कि ये ख़ुदा नहीं बल्कि इन्सान है। उसने कोढ़ीयों को पाक-साफ़ किया लंगड़ों को चलने की ताक़त दी। बहरों को समाअत बख़्शी। अँधों को बसारत दी। और आदमियों में से हर क़िस्म के मर्ज़ और सनअफ़ को दूर किया। इन कामों को देखकर सरसरी नज़र से देखने वाले भी कहेंगे कि इस में बे-शुबह उलूहियत है उसने एक मादर-ज़ाद अंधे को आँखें देकर वो शैय इनायत की जो माँ के रहम से उसे ना मिली थी फिर ऐसे अज़ीम मोअजिज़ा को देखकर कौन ना कहेगा कि इन्सान की फ़ित्रत उस के क़ब्ज़े में है और वो फ़ित्रत इन्सान का ख़ालिक़ और सानेअ है क्योंकि जिसने वो चीज़ अता की जो आदमी अपनी पैदाइश से ना रखता था तो ज़रूर वो आदमी की पैदाइश का मालिक है। इब्तिदा में जब कि वो हमारे पास आने का क़सद करता था तो उसने कुंवारी के रहम में अपने लिए एक जिस्म तैयार किया। ताकि दुनिया को अपनी ख़ुदाई का एक बड़ा भारी सबूत दे दे। क्योंकि जो इन्सानी जिस्म को पैदा कर सकता है वो और सब चीज़ें भी बना सकता है। कौन है जो कुँवारी को बग़ैर सोहबत मर्द के हामिला होते और बच्चा जनते देखे और ना कहे कि ये जो जिस्म में ज़ाहिर हुआ है दुनिया का ख़ालिक़ और मालिक है। कौन है जो पानी को मए बनते देखे और ना कहे कि वो जिसने ये काम किया है पानी की माहीयत (हक़ीक़त) और अस्लियत का मालिक और ख़ालिक़ है। अपनी उलूहियत को साबित करने की ग़र्ज़ से वो पानी पर यूं चला जैसे ख़ुश्की पर। इस मोअजिज़े से उसने साबित किया कि मैं हर शैय पर क़ादिर हूँ।
उसने जो कितने ही आदमियों को थोड़ी सी रोटी से सैर किया। और क़हत को अर्ज़ानी (कस्रत) से बदल दिया। यहां तक कि पाँच रोटियों से पाँच हज़ार आदमी सैर हुए। और इब्तिदाई ज़ख़ीरे से फिर भी बहुत ज़्यादा रोटियाँ बाक़ी रह गईं। क्या इन कामों से साबित ना हुआ कि वो कुल इंतिज़ाम जहान का मालिक है।
(19) कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के काम और कायनात की गवाही
नजातदिहंदा ने इन सब कामों का करना पसंद किया। बनी-आदम इस से बे-ख़बर हो गए थे कि कुल आलम का वही मुंतज़िम है। मख़्लूक़ात के ज़रीये से वो उस की ख़ुदाई को ना महसूस करते थे। पस उसने एक जिस्म इख़्तियार किया ताकि उन कामों को देखकर जो उसने जिस्म में रह कर किए बनी-आदम दुबारा बसारत हासिल करें और उस के वसीले से बाप का इल्म उनको हासिल हो। और चंद ख़ास हालतों में कलामे मुजस्सम के असर को महसूस करके उस की क़ुद्रत को पहचानें जो कुल आलम की मुंतज़िम है। जिन लोगों ने ये देख लिया कि उसे शयातीन पर कैसा इख़्तियार हासिल था और शयातीन ने एलानिया उस की ख़ुदावंदी को तस्लीम कर लिया। वो किस तरह कह सकते थे हमें उस के इब्ने-अल्लाह या कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) या क़ुद्रत-उल्लाह होने में ज़रा भी शक बाक़ी है।
कायनात को भी उसने मज्बूर किया कि इस पर गवाही दे। और जाये ताज्जुब (ताज्जुब की जगह) है कि उस की मौत के वक़्त जिसको उस की फ़त्ह का वक़्त कहना ज़्यादा मुनासिब है यानी ऐन हालत तसलीब में कुल कायनात ने इक़रार किया कि ये जो जिस्म में ज़ाहिर हुआ और अब दुख उठा रहा है फ़क़त इन्सान नहीं बल्कि इब्ने-अल्लाह और सब का मुनज्जी है। क्योंकि आफ़्ताब ने अपना मुंह फेर लिया। और ज़मीन और पहाड़ शक़ (फट जाना) हो गए कुल बनी-आदम ख़ौफ़-ज़दा हो गए। पस इन सब वाक़ियात से साबित हुआ कि मसीह सलीब पर ख़ुदा था और कुल मख़्लूक़ात उस के मातहत होने के बाइस ख़ौफ़ के मारे उस की हुज़ूरी पर गवाही दे रही थी।
पस इस तौर पर कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने बज़रिये अपने कामों के अपने तईं बनी-आदम पर नुमायां किया। अब हम ये बयान करेंगे कि उस की जिस्मानी ज़िंदगी और दौर का अंजाम व नतीजा क्या हुआ। हम उस के जिस्म की मौत की हक़ीक़त को भी खोलेंगे। ख़ासकर इस वजह से कि हमारे ईमान का मर्कज़ यही है। और हर जगह उस का बहुत चर्चा हुआ करता है। इस बयान के पढ़ने से भी तुमको मालूम हो जाएगा कि मसीह ख़ुदा और ख़ुदा का बेटा है।
(20) गुज़श्ता दलाईल का ख़ुलासा
जहाँ तक मुम्किन था और जहाँ तक हमारी समझ ने काम दिया हमने बयान किया कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के जिस्म में ज़ाहिर होने के अस्बाब क्या थे। किसे क़ुद्रत थी कि फ़ानी को ग़ैर-फ़ानी कर दे मगर उसी मुनज्जी को जिसने शुरू में हर शैय को नेस्त से हस्त किया था। कौन बनी-आदम को दुबारा ख़ुदा की सूरत में पैदा कर सकता था मगर वो जो ख़ुद बाप की सूरत था। कौन मरने वाले को इस क़द्र बदल सकता था कि फिर उस पर मौत का ग़लबा ना रहे मगर हमारा ख़ुदावन्द येसू मसीह जो ख़ुद हयात व ज़िंदगी है। कौन बनी-आदम को बाप की सच्ची शनाख़्त देकर बुतों की परस्तिश मौक़ूफ़ कर सकता था मगर कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) जो सब अश्या का मुंतज़िम और अकेला बाप का बेटा है।
लेकिन ख़ासकर चूँकि ज़रूर था वो क़र्ज़ जिसके सब देनदार था अदा किया जाये और सब मौत के तहत में आ चुके थे वो हम में आकर रहा। इसी वजह से अपने कामों के ज़रीये से अपनी उलूहियत का सबूत देकर उसने सबकी ख़ातिर क़ुर्बानी गुज़रानी। यानी अपने जिस्म को सब के बदले मौत के हवाला किया। ताकि बाद इस के मौत का बनी-आदम पर कुछ दावा ना रहे और वो पिछली ख़ता से बरी और आज़ाद हो जाएं। उसने अपने तेईं मौत से ज़बरदस्त साबित किया और अपने ग़ैर-फ़ानी जिस्म को सबकी क़ियामत के पहले फल के तौर पर ज़ाहिर किया।
इस पर ताज्जुब ना करो कि हमें इस मज़्मून के बयान में पहले कही हुई बातें बार-बार दुहरानी पड़ती हैं। हम एक ऐसे काम का मतलब खोल रहे हैं जिसे ख़ुदा ने अपनी मेहरबानी व शफ़क़त के बाइस किया। पस हम मज्बूर हैं कि एक ही ख़याल को बहुत सी सूरतों में अदा करें। कि मबादा कोई बात बाक़ी रह जाये और हम पर ये इल्ज़ाम आए कि हमने किसी मसअले को ना-मुकम्मल छोड़ दिया तवालत (लंबाई, ज़्यादती) को हम ज़्यादा पसंद करते हैं। बनिस्बत इस के कि कोई ज़रूरी बात छोड़ दी जाये।
उस का जिस्म बबाइस और अज्साम की मानिंद माद्दी होने के फ़ानी था। गो वो एजाज़ी तौर पर बाकिरा (कुँवारी लड़की) के रहम में बनाया गया था। ताहम वो एक इन्सानी जिस्म ही था। इसलिए ज़रूर था कि मुनासिब वक़्त पर मौत से मग़्लूब हो। लेकिन चूँकि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) इस में दाख़िल हुआ था इसलिए वो ग़ैर-फ़ानी हो गया। कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) का मस्कन होने के बाइस वो जिस्म फ़ना के बस का ना रहा। और दो अजीब बातें एक ही साथ वक़ूअ में आईं। अव्वल सबकी मौत ख़ुदावन्द के जिस्म में पूरी हुई। दुवम मौत और फ़ना कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की हुज़ूरी के बाइस बिल्कुल मौक़ूफ़ कर दी गई। क्योंकि मौत की ज़रूरत थी ज़रूर है कि सब मरें ताकि सब का क़र्ज़ा अदा किया जाये। पस कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने जो मर ना सकता था बबाइस ग़ैर-फ़ानी होने के एक फ़ानी जिस्म इख़्तियार किया ताकि उसे सबकी ख़ातिर क़ुर्बान करे और सबकी ख़ातिर दुख सह कर और जिस्म में उतर कर मौत के वसीले से उस को जिसे मौत पर क़ुद्रत हासिल थी यानी इब्लीस को तबाह कर दे और जो उम्र-भर मौत के डर से गु़लामी में गिरफ़्तार रहे उन्हें छुड़ाले (इब्रानियों 2:14-15)
(21) मसीह ने किस लिए मौत इख़्तियार की
हम जो मसीह पर ईमान रखते हैं। शरीअत की धमकी के मुताबिक़ क़दीम ज़माने की मानिंद मौत के तहत में नहीं हैं। क्योंकि मसीह जो सब का मुनज्जी है। हमारी ख़ातिर अपनी जान दे चुका है। वो फ़त्वा जो हमारे ख़िलाफ़ था अब मौक़ूफ़ हो गया है। क़ियामत के फ़ज़्ल ने फ़ना को मौक़ूफ़ और ज़ाइल कर दिया है। पस ऐसे हम जो मरते हैं तो इस के फ़क़त यही मअनी हैं कि हमारे अज्साम अपनी फ़ानी फ़ित्रत के क़ानून के मुताबिक़ उस वक़्त पर जिसे ख़ुदा ने मुक़र्रर किया है मुंतशिर हो जाते हैं। ताकि एक बेहतर क़ियामत हमको हासिल हो। मौत हमारे लिए हलाकत नहीं बल्कि हम बीजों की
मानिंद बोए जाते हैं ताकि फिर उगें। नजातदिहंदा के फ़ज़्ल ने मौत को बेकार कर दिया है। इसलिए पौलुस जो सबकी क़ियामत का ज़ामिन बनाया गया है कहता है “क्योंकि ज़रूर है कि ये फ़ानी जिस्म बक़ा का जामा पहने। और ये मरने वाला जिस्म हयात-ए-अबदी का जामा पहने और जब ये फ़ानी जिस्म बक़ा का जामा पहन चुकेगा और मरने वाला जिस्म हयात-ए-अबदी का जामा पहन चुकेगा तो वो क़ौल पूरा होगा जो लिखा है कि मौत फ़त्ह का लुक़मा हो गई है। ऐ मौत तेरी फ़त्ह कहाँ रही ऐ मौत तेरा डंक कहाँ रहा?” (1 कुरिन्थियों 15:53 से 55 तक, यसअयाह 25:8, होसेअ 13:14)
यहां मुम्किन है कि कोई शख़्स ये पूछे
बिलफ़र्ज़ नजातदिहंदा के लिए ज़रूर था कि अपने जिस्म को सब के एवज़ में मौत के हवाले करे। तो क्यों उसने तख़लिया में इस काम को ना किया। और एलानिया मस्लूब होना मंज़ूर फ़रमाया। इज़्ज़त के साथ जिस्म को अपने से अलैहदा कर देना बेहतर होता बनिस्बत ऐसी शर्मनाक मौत बर्दाश्त करने के।
लेकिन देखो। ऐसा एतराज़ मह्ज़ एक इन्सानी एतराज़ है। क्यों कि जो कुछ नजातदिहंदा ने किया वो एक ख़ुदाई फ़ेअल था और कई वजूहात से उस की उलूहियत के लायक़ था।
अव़्वल,वो मौत जो आदमियों का हिस्सा है उनकी फ़ित्रत की कमज़ोरी के बाइस उन पर ग़ालिब आती है। इन्सान एक अर्से से ज़्यादा अपनी हालत पर क़ायम नहीं रह सकता बल्कि ख़ास मीयाद पर इस का जिस्म मुंतशिर हो जाता है। और इसी वजह से इस से पेश्तर इन्सान पर मुख़्तलिफ़ अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) की बीमारीयां आती हैं यहां तक कि कमज़ोर होते-होते मर जाता है। लेकिन हमारा ख़ुदावन्द कमज़ोर ना था। वो ख़ुदा की क़ुद्रत और कलमा और ख़ुद हयात था। पस अगर वो अपने जिस्म को तहलीया में किसी बसर मर्ग पर अपने से अलहदा कर देता जैसा कि बनी-आदम का क़ायदा है तो लोग समझते कि उस ने ये अपनी फ़ित्रत की कमज़ोरी के बाइस से किया है। और उस में और आदमियों में कुछ फ़र्क़ नहीं। लेकिन चूँकि वो हयात और कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) था और ज़रूर था कि सबकी ख़ातिर मरे इसलिए उस का जिस्म उस की सोहबत से मज़्बूत और ताक़तवर हो गया लेकिन चूँकि मौत ज़रूर थी इसलिए उसने जिस्मानी
कमज़ोरी की राह से नहीं बल्कि औरों का ज़ुल्म उठा कर अपनी क़ुर्बानी को चढ़ाना पसंद किया। कलमे के लिए जो औरों की बीमारीयों को दूर करता था मुनासिब ना था कि ख़ुद बीमारी में गिरफ़्तार हो। मुनासिब ना था कि जिस्म कमज़ोर हो जाए जिसमें हो कर उसने औरों की कमज़ोरीयों को ज़ोर से बदल डाला।
फिर अगर कोई कहे कि वो बीमारी को रोक सकता था। पस किस लिए मौत को भी ना रोका। तो इस का जवाब ये है मौत सहने ही की ग़र्ज़ से तो उसने जिस्म इख़्तियार किया था। फिर क्यों मौत को रोकता और मौत को रोकता तो क़ियामत भी रुक जाती। और इलावा इस के मौत से पेश्तर बीमार होना भी उस के लिए नामुनासिब था, क्योंकि अगर वो बीमारी क़ुबूल कर लेता तो लोग उस के जिस्म के साथ कमज़ोरी को मन्सूब करते।
लेकिन क्या उसे भूक ना लगती थी। बेशक लगती थी क्योंकि भूक जिस्म की ख़ासियत है। लेकिन वो भूक से हलाक नहीं हो सकता था बसबब इस ख़ुदावन्द के जो इस जिस्म को पहने था पस गो वो सब का फ़िद्या देने के लिए मरा ताहम उस का जिस्म सड़ने ना पाया। बल्कि कुल आअज़ा व अजज़ा को सही व सालिम लेकर वो ज़िंदा हुआ। क्यों कि वो जिस्म उस का जिस्म था जो ख़ुद हयात है।
(22) मसीह ने किस वजह से औरों के हाथ से मरना मंज़ूर किया
शायद कोई और कहे कि अगर वो यहूदियों की साज़िश व बंदिश से बच कर अपने जिस्म को मरने से महफ़ूज़ रखता। तो अच्छा होता। लेकिन सुनो और समझो कि ऐसा करना भी ख़ुदावन्द की शान के लायक़ ना होता।
कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) चूँकि ख़ुद हयात था इसलिए उस को मुनासिब ना था कि अपने हाथ से अपने जिस्म को क़त्ल करता। इसी तरह उस को ये भी मुनासिब ना था कि जब और लोग उस को मारना चाहते थे तो उनके हाथ से बच ने की कोशिश करता। यही बात उसी की ज़ात को शायान थी कि मौत की पैरवी करके मौत को नेस्त कर दे। पस उसने ना ख़ुद-ब-ख़ुद जिस्म को उतार दिया। और ना यहूदियों की साज़िश से बच ने की सई (कोशिश) की। इनमें से किसी काम से भी ये साबित ना हुआ कि वो कमज़ोर था। बल्कि बरअक्स इस के ये साबित हुआ कि वो नजातदिहंदा और हयात का मालिक है। क्यों कि वो इस बात का तो मुंतज़िर रहा कि मौत अपने वक़्त पर आकर उस के जिस्म को तलफ़ करे और जब वक़्त आ गया तो उसने मौत के सहने में जल्दी की जिसके बाइस कुल दुनिया ने नजात पाई।
इलावा बरीं नजातदिहंदा इसलिए ना आया कि अपनी तरफ़ से मरे बल्कि इसलिए कि उस में कुल बनी-आदम की मौत पूरी हो। पस इस वजह से उसने तख़लिया (तन्हाई) में मर कर अपने जिस्म को ना उतारा। वो तो ख़ुद हयात था। पस इस वजह से अज़-खु़द मौत का मुतीअ ना हो सकता था। लेकिन औरों के हाथ से मौत को ले लेना उसने मंज़ूर फ़रमाया। ताकि अपने जिस्म में मौत को लेकर उसे बिल्कुल नेस्त नाबूद कर दे।
दोम, ज़ेल की वजूहात से मालूम हो सकता है कि किस लिए ख़ुदावन्द के जिस्म का इस तौर पर ख़ातिमा हुआ। जिस्म की क़ियामत का जिसे वो पूरा करना चाहता था ख़ुदावन्द को ख़ास ख़याल था। वो चाहता था कि मुर्दों में से ज़िंदा हो कर ज़ाहिर करे कि मैंने अपनी क़ियामत में मौत को जीत लिया है। मेरी क़ियामत फ़त्ह का सबूत व निशान है। वो चाहता था कि ज़ाहिर करे कि हलाक व फ़ना मिटा दी गई हैं। और आइंदा बनी-आदम के अज्साम पर ग़ालिब ना आएगी। हलाकत के मौक़ूफ़ किए जाने और सबकी क़ियामत के सबूत में उसने अपने जिस्म को सड़ने से बचाया।
पस अगर उस का जिस्म मरीज़ हो जाता और इस वजह से सब के सामने कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) यूँ रहलत करता तो मह्ज़ नामुनासिब होता। क्या मुम्किन था कि जिसने औरों के अमराज़ को दूर किया अपनी मर्ज़ की तरफ़ से ग़ाफ़िल हो कर अपने जिस्म को बर्बाद होने देता। हमें क्यूँ-कर यक़ीन होता कि इस शख्स ने दूसरों की कमज़ोरियों को दूर किया। जब कि उस के अपने जिस्म को कमज़ोरी में मुब्तला देखते। ऐसी हालत में ज़रूर होता कि उसे बीमारी के मुक़ाबिल में कमज़ोर देखकर लोग उस पर हंसते। या कहते कि ये शख़्स अपने जिस्म पर रहम नहीं करता तो क्यूँ-कर दूसरों पर रहम करेगा। या अगर इस क़ाबिल था और ऐसा ना करता था तो लोग कहते कि ये शख्स ना अपने जिस्म से मुहब्बत रखता है ना औरों से।
(23) मसीह ने एलानिया मौत क्यों गवारा की
फिर फ़र्ज़ करो कि बग़ैर किसी मर्ज़ या दर्द को सहे मसीह का जिस्म तख़लिया (तन्हाई) में मरने के बाद किसी जंगल या मकान में या और कहीं अर्से तक पोशीदा रहता और फिर दफ़तन ज़ाहिर हो जाता और वो कहता कि मैं मुर्दों में से उठाया गया हूँ तो क्या सब सुनने वाले ना कहते कि ये तो क़िस्सा कहानी है।
अगर उस की मौत का कोई गवाह ना होता तो कौन उस की क़ियामत को बावर करता।
ज़रूर था कि क़ियामत से पेश्तर वो मरे। अगर मौत पहले ना हो तो क़ियामत क्यूँ-कर हो सकती है। पस अगर उस के जिस्म की मौत कहीं पोशीदगी में हो जाती और इस का कोई गवाह ना होता तो उस की क़ियामत भी मुहम्मल (बेमाअ्नी, लायाअ्नी, फ़िज़ूल) और मुहताज शहादत रहती।
इलावा इस के जब कि उसने ज़िंदा हो कर अपनी क़ियामत को मशहूर कर दिया तो क्या ज़रूरत थी कि वो पोशीदगी में मरता। उसने शयातीन को एलानिया निकाला। मादर-ज़ाद अंधे (पैदाइशी अंधा) को एलानिया बसारत (देखने की क़ुव्वत) बख़्शी। पानी को मेय से तब्दील कर दिया। इन सब कामों के एलानिया करने से उस की ये ग़र्ज़ थी कि दुनिया उसे कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) तस्लीम करे।
जब कि ये सब उसने एलानिया किया तो क्या ज़रूरत थी कि वो अपने जिस्म को सड़ने के नाक़ाबिल साबित ना करता। ताकि बनी-आदम मान लें कि यही हयात व ज़िंदगी है। अगर उस के शागिर्द पहले ये ना कह सकते कि हमारा ख़ुदावन्द मर गया था तो क़ियामत के मसअले की इशाअत की हिम्मत उस को कहाँ से हासिल होती।
जिन लोगों के सामने रसूलों ने दिलेरी से मुनादी की अगर वो मसीह की मौत के शाहिद (गवाह) ना होते तो रसूलों का ये कलाम क्यूँ-कर माना जाता कि मसीह मर कर जी उठा है।
गो उस की मौत और क़ियामत सब के सामने हुई थी ताहम उस ज़माने के फ़रीसी ईमान ना लाए। बल्कि उन्होंने उन लोगों को भी जो उस की क़ियामत को देख चुके थे उस का इन्कार करने पर मज्बूर किया। इस हालत में अगर वो पोशीदगी में मरता और जी उठता तो फ़रीसी ईमान ना लाने के लिए और भी कितने ही बहाने बना लेते।
मौत की शिकस्त फ़क़त एक ही तौर पर साबित हो सकती थी। यानी इस तौर पर कि सब के रूबरू मौत मुर्दा दिखलाई जाती। और अपने जिस्म को सड़ने के नाक़ाबिल साबित करके वो एलानिया दिखला देता कि मौत बिल्कुल बेकार हो गई है।
(24) किस वजह से मसीह ने अपनी मौत का तरीक़ आप ना तज्वीज़ किया
मुनासिब है कि बाअज़ और एतराज़ों के जवाब भी हम पहले से तहरीर कर दें। एक एतराज़ ये है। बिलफ़र्ज़ ये ज़रूर था कि मसीह सब के सामने मरता कि उस की क़ियामत पर सब ईमान ले आएं। ताहम बेहतर होता अगर वो अपने लिए मौत का कोई बाइज़्ज़त तरीक़ा तज्वीज़ करता और सलीब की बेइज़्ज़ती अपने ऊपर ना लाता लेकिन अगर वो ऐसा करता भी तो लोग ज़रूर इस पर शक करते और कहते कि वो फ़क़त एक ही क़िस्म की मौत के मुक़ाबले में ज़बरदस्त है। यानी उस मौत के जिसको उसने ख़ुद अपने वास्ते तज्वीज़ किया। यूं बाज़ों को उस की क़ियामत पर ईमान लाने का उज़्र (बहाना) मिल जाता। पस इस वजह से उसने अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ मरना मंज़ूर ना किया बल्कि ग़ैरों की साज़िश और बंदिश को अपने ख़िलाफ़ कामयाब होने दिया। ताकि मौत को ख़्वाह वो किसी तरीक़े और सूरत में आए बिल्कुल मौक़ूफ़ कर दे। हिम्मत वाला पहलवान बबाइस अपनी अक़्ल और जुर्आत के ये कहना पसंद नहीं करता कि मैं फ़ुलां शख़्स के ख़िलाफ़ ज़ोर-आज़माई करुंगा और फ़ुलां के ख़िलाफ़ ना करुंगा। अगर वो ऐसा
करे तो फ़ौरन उस की जुर्आत पर लोगों को शक हो जाता है। बल्कि वो अपने मुख़ालिफ़ का इंतिख़ाब नाज़रीन के ख़ासकर जब वो इस से मुख़ालिफ़त रखते हों सपुर्द कर देता है और जो कोई उस के सामने लाया जाये उस के साथ लड़ कर और उस पर फ़त्ह पाकर साबित कर देता है कि मैं सबसे ज़ोर-आवर हूँ। इसी तरह मसीह ने जो सबकी हयात और हमारा ख़ुदावन्द और मुनज्जी है अपने लिए कोई ख़ास मौत पसंद ना की मबादा लोगों को ख़याल गुज़रे कि ये किसी दूसरी क़िस्म की मौत से डरता और ख़ौफ़ खाता है। बल्कि उसने सलीब पर मरना मंज़ूर फ़रमाया और दूसरों के मारने से मरा। उसने अपने तईं दुश्मनों के हवाले किया और उस मौत से मरा जो बड़ी ख़ौफ़नाक और बेइज़्ज़ती की मौत समझी जाती थी। और जिससे सब बहुत ही डरते और बचते थे और इस ख़ौफ़नाक मौत पर ग़ालिब आ कर उस ने साबित किया कि मैं हयात हूँ यूं उसने मौत की ताक़त को आख़िरकार ज़ाइल कर दिया।
पस दुनिया में एक अजीब और हैरत-अफ़्ज़ा मुआमला हुआ है। दुश्मनों ने मसीह को बेइज़्ज़ती की मौत से मारा लेकिन वो बेइज़्ज़ती की मौत उस के लिए फ़त्ह और इज़्ज़त का निशान बन गई। वो यूहन्ना की तरह ना मरा जिसका सर क़लम किया गया। वो यशअयाह की तरह ना मरा। जो आरी से चीरा गया बल्कि मौत में भी उसने अपने जिस्म को तक़्सीम ना होने दिया। ताकि उनको जो कलीसिया को तक़्सीम करना चाहते हैं कोई बहाना ना मिले।
(25) किस वजह से मसीह सलीब पर मरा
मज़्कूर बाला बयानात और जवाबात हमने उन लोगों के वास्ते तहरीर किए हैं जो कलीसिया के बाहर हैं और मुख़्तलिफ़ क़िस्म के दलाईल और एतराज़ ईजाद करते हैं। लेकिन अगर कोई मसीह बह्स की नहीं बल्कि तालीम पाने की ग़र्ज़ से दर्याफ़्त करे कि मसीह क्यों सलीब पर मरा और क्यों उसने मरने का कोई दूसरा तरीक़ पसंद ना किया तो उस को वाज़ेह हो कि हमारी ख़ातिर, मसीह को मुनासिब था कि ख़ास इसी तौर पर अपनी जान दे ख़ुदावन्द ने बड़ी अज़मत के साथ इस मौत को हमारी ख़ातिर सहा। वो इसलिए आया कि :-
(1:21) उस लानत को उठाए जो हमारे ऊपर थी।
पस अगर वो इस मौत को ना सहता जो इस लानत का नतीजा थी तो किस तरह हमारी ख़ातिर लानती बन सकता। (ग़लतियों 3:31) और वो मौत सलीबी मौत थी। क्यों कि लिखा है जो कोई लकड़ी पर लटकाया गया वो लानती है। (इस्तिस्ना 12:32)
फिर अगर ख़ुदावन्द की मौत सब का फ़िद्या है और उस की मौत से जुदाई की दीवार जो बीच में थी ढाई गई है। (इफ़िसियों 2:41) और ग़ैर अक़्वाम ईमान की तरफ़ बुलाई गई हैं तो अगर वो मस्लूब ना होता तो किस तरह हमको बुला सकता। क्यों कि फ़क़त सलीब ही पर आदमी अपने हाथ फैलाए हुए मर सकता है। इस वजह से मुनासिब था कि ख़ुदावन्द सलीबी मौत को सह कर हाथों को फैलाए। एक हाथ से वो अपने क़दीम लोगों को बुलाता था और दूसरे से ग़ैर-अक़्वाम को ताकि दोनों को अपने साथ मिला कर एक कर दे। ये उसने ख़ुद बतलाया और ज़ाहिर किया कि किस मौत से मैं सब का फ़िद्या दूंगा। “मैं अगर ज़मीन से ऊंचे पर चढ़ाया जाऊँगा तो सबको अपने पास खींचूँगा।” (यूहन्ना 11:34)
(26) मसीह किस लिए तीसरे रोज़ मुर्दों में से जी उठा
पस बलिहाज़ हमारे फ़ायदे के मसीह का सलीब पर मरना ऐन मुनासिब और लायक़ था इस का सबब भी हर तरह से माक़ूल था। और ऐसे दलाईल भी हैं जिनसे साबित होता है कि बग़ैर सलीबी मौत के सबकी नजात का काम पूरा ना हो सकता था।
वो पोशीदगी में ना मरा। बल्कि सलीब पर एलानिया और उसने अपने जिस्म को बाद मौत के देर तक मुर्दा हालत में रहने ना दिया। बल्कि फ़ौरन तीसरे दिन उसे उठाया। और यूं अपने जिस्म को सड़ने और दुख सहने के नाक़ाबिल बना कर मौत पर फ़त्हयाबी की निशानी ले गया।
अलबत्ता उस में क़ुद्रत थी कि मरने के बाद फ़ौरन ज़िंदा हो जाए। लेकिन उसने अपनी हुस्न पेश-बीनी के सबब ऐसा ना किया। क्यों कि अगर ऐसा करता तो शायद बाअज़ कहते कि वो मरा ही ना था या मौत उस पर पूरी तरह ग़ालिब ना हुई थी इसलिए मौत का वक़ूअ होते ही क़ियामत का वक़ूअ में आना मुनासिब ना था।
अगर मौत और क़ियामत के दर्मियान फ़क़त दो दिन का फ़ासिला होता तो भी उस के सड़ने के नाक़ाबिल होने का जलाल पूरी तरह ज़हूर ना पाता। पस ये दिखलाने के लिए कि मेरा जिस्म फ़िल-हक़ीक़त मर गया है उसने एक पूरे दिन का वक़्फ़ा डाल दिया और ठहरा रहा। और तीसरे दिन सबको दिखला दिया कि मेरा जिस्म सड़ने के लिए नाक़ाबिल है। अपनी जिस्मानी मौत को ज़ाहिर करने के लिए उसने अपने जिस्म को तीसरे रोज़ उठाया। अगर वो अपने जिस्म को देर तक क़ब्र में रहने और सड़ने देता और बाद इस के उसे क़ब्र से उठाता तो लोग शक करते और कहते कि ये असली पुराना जिस्म नहीं है बल्कि कोई और जिस्म है। उस के देर तक क़ब्र में रहने से लोग उस के ज़हूर का यक़ीन ना करते और पहले के वाक़ियात को भूल जाते। पस वो तीन दिन से ज़्यादा क़ब्र में ना ठहरा। और उनको जिन्हों ने इस की क़ियामत की पेशगोई सुनी थी देर तक इंतिज़ार करना पड़ा। बरअक्स इस के जब कि हनूज़ (सिर्फ) इस का चर्चा बंद ना हुआ था और उनकी आँखें मुंतज़िर थीं और उनके दिल दाग़-दार थे। जब कि उस के क़ातिल ज़िंदा थे और नज़्दीक भी होने के सबब से ख़ुदावन्द के जिस्म की मौत के गवाह थे। तो ख़ुदा के बेटे ने तीसरे रोज़ अपने जिस्म को जो मर गया था ग़ैर-फ़ानी और सड़ने के लिए नाक़ाबिल कर दिखलाया। सब पर ज़ाहिर हो गया कि फ़ित्रत की कमज़ोरी के बाइस वो जिस्म ना मरा था। क्यों कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) इस में रहता था। वो इसलिए मरा कि नजातदिहंदा की क़ुव्वत से मौत इस जिस्म में नेस्त की जाये।
(27) मसीह की मौत से मौत मग़्लूब हुई
इस का कि मौत मौक़ूफ़ (मुल्तवी, मन्सूख़) हुई और सलीब ने इस पर फ़त्ह पाई। और इस का कि मौत में अब कोई असली क़ुव्वत नहीं रहती बल्कि अब वो बिल्कुल मुर्दा है ये सबूत और निशान है कि मसीह के शागिर्द इस (मौत) को बिल्कुल हक़ीर समझते हैं। और वो इस पर हमले करते हैं और मुतलक़ इस से नहीं डरते। बल्कि सलीब के निशान और मसीही ईमान की तासीर और क़ुव्वत से वो इस (मौत) को मुर्दा ही जान कर पामाल करते हैं। क़दीम ज़माने में याने हमारे मुनज्जी के ज़हूर से पेश्तर मुक़द्दस लोग भी मौत से ख़ौफ़ करते थे और दस्तूर था कि मुर्दों के लिए यूं गम किया जाता था कि गोया वो बिल्कुल हलाक व मादूम हो गए हैं। (देखो अय्यूब 18:14, ज़बूर 55:4, ज़बूर 88:10, ज़बूर 89:47, यसअयाह 38:18) लेकिन अब मुनज्जी के जिस्म के
उठने के बाद मौत ख़ौफ़नाक नहीं रही। मसीह पर ईमान लाने वाले मौत को बिल्कुल हक़ीर समझ कर पामाल करते हैं। वो अपने मसीही ईमान से इन्कार करने की निस्बत मौत को ज़्यादा पसंद करते हैं। क्यों कि वो जानते हैं कि मौत हमें हलाक नहीं, बल्कि ज़िंदगी में दाख़िल करती है और बज़रिये क़ियामत के हम सड़ने लिए के नाक़ाबिल हो जाते हैं। अब चूँकि मौत के बंद खोले गए हैं। (आमाल 2:24) शैतान जो क़दीम से मौत को देखकर ख़ुश हुआ करता था अकेला मुर्दा और मौत के बंद में गिरफ़्तार है। सबूत इस का ये है कि बनी-आदम मसीह पर ईमान लाने से पेश्तर मौत को हैबतनाक समझते और इस से बेदिल होते थे। लेकिन ईमान और तालीम के दायरे के अंदर आकर वो मौत को इस क़द्र हक़ीर गिरदानते हैं कि जोश में इस की तरफ़ झपटते हैं। यूं वो इस अम्र के गवाह बनते हैं कि मुनज्जी ने मौत को क़ियामत से फ़त्ह कर लिया है।
बचपन में भी वो मरने के लिए जल्दी करते हैं। और ना फ़क़त मर्द बल्कि औरतें भी बज़रिये रियाज़त के अपने को मौत के मुक़ाबले में मज़्बूत बनाती हैं। मौत ऐसी कमज़ोर हो गई है कि औरतें भी जो पहले इस के फ़रेब में आ जाती थीं अब इसे मुर्दा और क़ुव्वत से महरूम समझ कर इस पर ठट्ठा करती हैं।
फ़र्ज़ करो कि कोई ज़ालिम बाग़ी है जिसको किसी हक़दार और सच्चे शहनशाह ने मग़्लूब कर लिया है और हाथ पांव बांध कर एक जगह डाल दिया है जहाँ सब उसे देखने वाले उस पर हंसते हैं मारते और बुरा-भला कहते हैं। कोई उस के ग़ुस्से और ज़ुल्म से आप ख़ौफ़ नहीं खाता। क्यों कि हक़दार बादशाह इस पर फ़त्ह पा चुका है। इसी तरह नजातदिहंदा ने सलीब पर से मौत को फ़त्ह करके इस पर शिकस्त का दाग़ लगा दिया है। उसने इस के हाथ और पांव बांध दिए हैं। पस अब मसीह के सब पैरौ उस के पास से गुज़रते हुए इस को पामाल करते हैं। और मसीह के गवाह हो कर मौत पर हंसते और तम्सख़र करते हैं। और इन अल्फ़ाज़ को ज़बान से कहते हैं जो मौत के ख़िलाफ़ लिखे हैं “ऐ मौत तेरी फ़त्ह कहाँ। ऐ बर्ज़ख़ तेरा डंक कहाँ।” (होसेअ 13:14)
(28) मौत पर मसीह की फ़त्ह
पस मौत की कमज़ोरी का क्या ये कोई छोटा सबूत है। या उस फ़त्ह का जो मुनज्जी ने मौत के ख़िलाफ़ हासिल की है ये कोई अदना निशान है कि नौजवान लड़के और लड़कीयां मसीह में होने के बाइस इस ज़िंदगी के बाद दूसरी ज़िंदगी की उम्मीद रखते हैं और बज़रिये रियाज़त अपने तईं मौत के लिए तैयार करते हैं।
मौत से ख़ौफ़ खाना और जिस्म के इंतिशार से डरना इन्सान की फ़ित्रत में है लेकिन ताज्जुब इस में है कि जो कोई सलीबी ईमान से मुलब्बस है वो इस तबई हरकत को भी नाचीज़ जान कर बबाइस मसीह के मौत के मुक़ाबले में बुज़दिल नहीं रहता।
जिस ज़ालिम बाग़ी का ज़िक्र हम पिछले बाब में कर चुके हैं अगर कोई उसे बंधा हुआ देखना चाहे तो उस के फ़ातिह के इलाक़े और सल्तनत में जाये वहां उसे जो पहले ख़ौफ़ का बाइस था कमज़ोर और लाचार देखेगा इसी तरह अगर कोई बावजूद इतने दलाईल और शहीदों की शहादत के और मसीह के मशहूर शागिर्दों को हर रोज़ मौत पर हंसते देखने के भी यक़ीन नहीं लाया। और अभी तक उसे शक है कि मौत मौक़ूफ़ हुई या नहीं हुई और इस का ख़ातिमा नहीं हुआ तो उस के लिए यही बेहतर है कि इस बड़े मुआमला पर ताज्जुब ही करता रहे।
लेकिन मुनासिब नहीं कि कोई बेईमानी में ज़िद्दी हो जाए। और ऐसे सरीह (साफ़) वाक़ियात से ग़ाफ़िल (बे-ख़बर) रहे। जो कोई ज़ालिम बाग़ी को देखना चाहे उस के फ़ातिह के मुल्क में जाये। इसी तरह जो कोई मौत को मग़्लूब देखना चाहे मसीह पर ईमान लाए और उस की तालीम को क़ुबूल करे वो ज़रूर मौत की कमज़ोरी और सलीब को उस पर फ़त्हमंद देखेगा। क्यों कि बहुतों ने जो पहले ईमान ना लाए और हंसते थे जब ईमान को क़ुबूल कर लिया तो मौत को ऐसा हक़ीर समझा कि ख़ुद मसीह के नाम पर जान दे दी।
(29) सलीब के निशान और मसीह के ईमान का मौत पर ग़ालिब आना
पस जब कि सलीब के निशान और मसीह पर ईमान लाने से मौत पामाल की जाती है तो ऐन हक़ व इन्साफ़ की रु से अयाँ है कि फ़क़त मसीह ही है जिसने मौत पर फ़त्ह पाई है। और इस की ताक़त को ख़त्म कर दिया है। और अगर मौत पहले क़वी और ब-वजह अपनी क़ुव्वत के ख़ौफ़नाक थी और अब मुनज्जी के इस दुनिया में रहने और मौत के बाद जी उठने के बाइस हक़ीर हो गई है तो ज़ाहिर है कि इसी मसीह ने जो सलीब पर चढ़ा मौत को निकम्मा और मग़्लूब कर दिया है।
जब रात के बाद आफ़्ताब निकलता है और कुल कुर्राह ज़मीन रोशन हो जाता है तो कोई शक नहीं करता कि ये तमाम रोशनी आफ़्ताब की है। सब मान लेते हैं कि आफ़्ताब ने तारीकी को दूर करके कुल अश्या को मुनव्वर कर दिया है। इसी तरह चूँकि मुनज्जी के नजात बख़्श जिस्मानी ज़हूर और सलीब पर जान देने के बाद से आज तक मौत बिल्कुल हक़ीर और पस्त हो गई है तो ये ख़ूब ज़ाहिर है कि वो नजातदिहंदा ही था जिसने जिस्म में ज़ाहिर हो कर मौत को नेस्त व नाबूद किया और अपनी फ़त्ह को अपने मोमिनों के अफ़आल व अक़्वाल से हमेशा ज़ाहिर करता है हम देखते हैं कि ऐसे आदमी जो अपनी फ़ित्रत से कमज़ोर हैं मौत के ऊपर ख़ुद पल पड़ते हैं जिस्म के इस इंतिशार और सड़ने से जो मौत का नतीजा है मुतलक़ नहीं डरते बर्ज़ख़ (वो आलम जिसमें मरने के बाद क़ियामत तक रूहें रहेंगी) में उतरने से उनको ख़ौफ़ नहीं आता और मौत के अज़ाब से बचने की कोशिश तो कैसी बरअक्स उनके रुहानी जोश में उसे आप अपने ऊपर बरअंगेख़्ता (तैश में भरा हुआ, मुश्तइल) करते हैं।
मसीह की ख़ातिर इस ज़िंदगी की निस्बत मौत उनको ज़्यादा पसंद है मर्द औरतें और कमसिन बच्चे मसीही दीन की ख़ातिर मौत का मुक़ाबला करते बल्कि मौत पर झपटते हैं। बावजूद ऐसी शहादतों के कौन ऐसा सादा-लौह या बेईमान या ख़फ़ीफ़-उल-अक़्ल (कम-अक़्ल) है कि तस्लीम ना करे कि मौत पर ऐसी फ़त्ह फ़क़त उस मसीह की तरफ़ से इनायत होती है। जिस पर वो गवाही देते हैं वही मौत को उन लोगों के हक़ में जो उस पर ईमान लाए और उस की सलीब के निशान को अपने अंदर रखते हैं कमज़ोर कर देता है।
साँप एक बड़ा तुंद और ख़ौफ़नाक जानवर है। लेकिन जब हम देखते हैं कि लोग इस को बे-ख़ौफ़ पामाल कर रहे हैं तो हमें फ़ौरन यक़ीन हो जाता है कि वो बिल्कुल कमज़ोर हो गया है या मर गया है अगर कोई लड़कों को शेर बब्बर पर ठट्ठा करते हुए देखे तो ज़रूर कहेगा या तो ये शेर मुर्दा है बिल्कुल कमज़ोर है। पस जब हम देखें कि मसीह के पैरौ (मानने वाले) मौत को हक़ीर जानते और इस की कुछ पर्वाह नहीं करते तो क्यूँ-कर यक़ीन ना करें कि मसीह कि मौत में मौत मग़्लूब हुई वो इंतिशार और सड़ना जो मौत का नतीजा था अब मौक़ूफ़ हो गया है।
(30) मसीह की क़ुद्रत और उस के काम उस की क़ियामत का सबूत हैं
इस अम्र का सबूत कि मौत मौक़ूफ़ की गई और ख़ुदावन्द की सलीब मौत पर फ़त्ह का निशान है गुज़श्ता बाबों में दिया गया है। लेकिन ख़ुदावन्द के जिस्म की जो सब का मुनज्जी और हक़ीक़ी ज़िंदगी है लाज़वाल क़ियामत का सबूत बाअज़ सरीह वाक़ियात से निकलता है जिसकी शहादत रोशन दिमाग़ लोगों के लिए लफ़्ज़ों की शहादत से क़वी है।
ये ज़ाहिर हो गया है कि मौत मौक़ूफ़ हुई और मसीह की मदद से सब उस को पामाल करते हैं। पस ज़रूर है कि ख़ुद मसीह ने अपने जिस्म में इस को पामाल और नेस्त किया हो जब उसने मौत को मारा तो फ़क़त यही बाक़ी था कि वो अपने जिस्म को उठाए और उसे अपनी फ़त्ह का निशान बना कर सबको दिखाए अगर ख़ुदावन्द का जिस्म उठाया ना जाता तो क्यूँ-कर मालूम होता कि मौत मग़्लूब हुई है। लेकिन अगर उस की क़ियामत का ये सबूत किसी के लिए काफ़ी ना हो तो ज़ेल के वाक़ियात पर ग़ौर करे।
जब आदमी मर गया तो बाद मरने के कुछ कर नहीं सकता इस का असर क़ब्र तक जाता है। और वहां ख़त्म हो जाता है ऐसे काम और अफ़आल जिनका असर आदमियों पर हो सकता है फ़क़त ज़िंदों ही के बस में हैं अब जो कोई चाहे देखे और इन्साफ़ करे और जो कुछ नज़र आता है उस के मुताबिक़ फ़ैसला करे।
हमारा मुनज्जी बड़े-बड़े काम कर रहा है। वो हर रोज़ हज़ारों को अपनी तरफ खींचता है। यूनानी और अजनबी सब के सब उस पर ईमान लाते और उस की तालीम को क़ुबूल करते जाते हैं। पस क्या कोई इस में शक कर सकता है कि मुनज्जी मर्दों में से जी उठा है। कौन ये कहने की जुर्आत कर सकता है कि मसीह ज़िंदा नहीं या ये कि
वो ख़ुद हयात का सरचश्मा नहीं। क्या मुर्दे में क़ुव्वत है कि ज़िंदों के दिलों को क़ाबू करे और उनको आमादा करे कि अपने आबाई क़वानीन को तर्क करके मसीह की तालीम की ताज़ीम करें। या फ़र्ज़ करो कि उस का काम अब बंद हो गया है। और इस में शक नहीं कि मौत इन्सान के काम को बंद कर ही देती है। तो ये क़ुव्वत उस में कहाँ से आई की ज़िंदों के अफ़आल को रोके। क्यों कि कुछ शक नहीं कि वो ज़ानियों को ज़िना करने से रोकता है। ख़ूनियों को ख़ून करने से बाज़ रखता है। ना रास्तों को तमअ (लालच) से बचाता है और बेदीनों को दीनदार बनाता है। अगर वो ज़िंदा नहीं हुआ बल्कि अब तक मुर्दा है तो क्यूँ-कर झूटे माबूदों को उनके दर्जे से गिरा कर तबाह कर देता है और किस ज़रीये से शयातीन की परस्तिश को नेस्त व नाबूद कर रहा है। क्यों कि जहां मसीह का चर्चा है और उस का ईमान पाया जाता है वहां से बुत-परस्ती दूर हो जाती है। शयातीन के सब फ़रेब टूट जाते हैं। बल्कि यहां तक उस का ज़ोर है कि शयातीन उस का नाम सुनने की ताब ना लाकर भाग जाते हैं।
ये तो अजीब हंसी की बात होगी अगर कोई कहे कि वो शयातीन जिन पर वो जबर करता है और बुत जिनको वो नेस्त व नाबूद करता है ज़िंदा हैं। लेकिन वो जो उनको निकालने पर क़ादिर और अपनी क़ुव्वत से उनको नाबूद कर सकता है और जिसको सब ख़ुदा का बेटा तस्लीम करते हैं मुर्दा है।
(31) मसीह की क़ियामत के सबब से देवताओं और शयातीन का मग़्लूब होना
जो लोग मसीह की क़ियामत को नहीं मानते वो अपने दावे को इस सूरत में ख़ुद बातिल करते हैं कि जो जिन्नों और देवताओं को पूजते हैं उस को इस मसीह को ज़ेर करने वाला साबित नहीं करते जो उनके नज़्दीक मुर्दा है बल्कि बरअक्स इस के कह सकते हैं कि मसीह उन्ही को मुर्दा साबित करता है। मुर्दे से तो कोई काम नहीं हो सकता। मगर मसीह हर रोज़ बड़े-बड़े काम करता है वो आदमियों को दीनदारी और नेकी की तरफ़ राग़िब करता है। उनको बक़ा की तालीम देता और सिखाता है कि आस्मानी
चीज़ों की तलाश करें। वो बाप की पहचान बख़्शता और मौत के बर-ख़िलाफ़ आदमी को मज़्बूत करता है। वो अपने आपको हर मोमिन पर ज़ाहिर करके बुत-परस्ती की बेदीनी को दुनिया से ज़ाइल (दूर होने वाला, कम होने वाला) कर रहा है। बेईमानों के फ़र्ज़ी देवता और जिन्न ऐसे काम नहीं कर सकते। बल्कि वो तो मसीह के सामने मुर्दा हो जाते हैं। उनका सारा दिखलावा और सहर (जादू) बातिल हो जाता है। उस के ज़ोर के मुक़ाबिल बुत-परस्ती बंद हो जाती है। और तमाम ना-रवा और खिलाफ-ए-अक़्ल ऐश व इशरत मौक़ूफ़ हो जाती है। हर शख़्स ज़मीन से आस्मान की तरफ़ देखता है।
पस अब हम किस को मुर्दा गिनें। क्या मसीह को जो ये सब कुछ करता है। काम करना तो ना मुर्दों की ख़ासियत है ना उस वजूद की जो जिन्नों और बुतों की तरह बे-तासीर और बे-जान पड़ा रहता है।
इब्ने-अल्लाह तो ज़िंदा और मोअस्सर है। (इब्रानियों 4:12) वो हर रोज़ काम करता और सब को नजात बख़्शता है। मौत हर रोज़ कमज़ोर ठहराई जाती है। बुत और शयातीन मरते जाते हैं। और बमुश्किल ही अब किसी को मसीह के जिस्म की क़ियामत पर शक बाक़ी होगा।
अब जो कोई ख़ुदावंद के जिस्म की क़ियामत पर शक करता है कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और कलिमतुल्लाह की क़ुव्वत और ख़ुदा की हिक्मत को नहीं जानता है। क्यों कि जब उसने जिस्म लिया और जिस्म लेने के नताइज को भी इख़्तियार कर लिया तो इस जिस्म का क्या हाल होना चाहीए था। इस जिस्म की क्या हालत होनी थी बाद इस के कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने इसे अपना मस्कन बना लिया था। मरना तो उसे लाज़िम था क्यों कि वो जिस्म फ़ानी था और सब के बदले मौत के हवाले किया गया था। कि इसी ग़र्ज़ से मुनज्जी ने इस को अपने लिए तैयार किया था। लेकिन बरअक्स इस के वो मौत की हालत में हमेशा ना रह सकता था। क्यों कि वो हयात का मस्कन बन गया था। पस फ़ानी होने के सबब से तो वो मर गया लेकिन उस हयात के बाइस जो उस में थी फिर ज़िंदा भी हो गया। और उस के काम उस की क़ियामत का सबूत हैं।
(32) मसीह की क़ियामत का सबूत उस की तासीर से
फ़र्ज़ करो कोई कहे कि मसीह को अब मैं देख नहीं सकता इसलिए उस की क़ियामत को भी तस्लीम ना करुंगा। तो इस दलील के मुताबिक़ लाज़िम आएगा कि फ़ित्रत की रविश भी तस्लीम ना की जाये। ख़ुदा की ऐन सिफ़त यही है कि ग़ैर मुरई (वो चीज़ जो देखाई ना दे) हो मगर अपने कामों से पहचाना जाये अगर मसीह का काम ज़ाहिर ना होता उसे इख़्तियार था कि उस की क़ियामत को भी ना मानता। लेकिन अब तो उस के काम बाआवाज़ बुलंद पुकार कर सबूत उस की क़ियामत का दे रहे हैं।
पस अब मुख़ालिफ़ क्यों जान-बूझ कर उस की एसी मुसल्लिम-उस-सबूत (मुसनद दलाईल) क़ियामत का इन्कार करते हैं। अगर मुख़ालिफ़ों की अक़्ल जाती भी रही हो ताहम हवास-ए-ख़मसा (पाँच हवास देखने, सुनने, सूँघने, चखने और छूने की पाँच क़ुव्वतों) के ज़रीये मसीह की ख़ुदाई की यक़ीनी ताक़त का महसूस करना मुम्किन है।
अंधा आदमी गो आफ़ताब (सूरज) को देख नहीं सकता ताहम बज़रीये उस की हरारत के जानता है कि आफ़्ताब ज़मीन के ऊपर है। इसी तरह हमारे मुख़ालिफ़ों को लाज़िम है कि गो वो सच्चाई की तरफ़ से नाबीना (अंधे) होने की वजह से ईमान ना भी लाएं ताहम उस की तासीर को जो मोमिनों में ज़ाहिर है देखकर मसीह की ख़ुदाई के इन्कार से तौबा करें और उस की क़ियामत को तस्लीम करलें।
क्यूँ-कर ज़ाहिर है कि अगर मसीह मुर्दा होता तो ना शयातीन को निकाल सकता ना बुतों को तबाह कर सकता। क्या शयातीन मुर्दे के हुक्म को मानते? पस जब कि वो उस के नाम की तासीर से ख़ारिज किए जाते हैं तो ज़ाहिर है वो मुर्दा नहीं है। शयातीन तो ग़ैबी मुआमलात से भी वाक़िफ़ हैं और इसलिए उन चीज़ों को देख सकते हैं जिन तक आदमी की बसारत की पहुंच नहीं। पस उनको ख़ूब मालूम है कि आया मसीह मुर्दा है या ज़िंदा। अगर वो उस को मुर्दा जानते तो हरगिज़ उस की इताअत ना करते। लेकिन अब वो बातें जिनको बेदीन आदमी तस्लीम नहीं करते शयातीन तक तस्लीम कर रहे हैं। शयातीन जानते हैं कि वो ख़ुदा है इसी वजह से वो उस से भागते हैं और उस के हुज़ूर गिर पड़ते हैं। जब कि वो साथ जिस्म के इस दुनिया में मौजूद था तो वो यूं पुकारा करते थे हम जानते हैं कि तू कौन है। तू ख़ुदा का क़ुद्दूस है। (लूक़ा 4:34) “ऐ ख़ुदा तआला के बेटे मुझे तुझसे क्या काम। मैं तेरी मिन्नत करता हूँ मुझे ना सता।” (मर्क़ुस 5:7)
पस शयातीन के इक़रारात और रोज़मर्रा के वाक़ियात की गवाही से ज़ाहिर है। कौन ऐसा बेशरम है कि अब भी इन्कार की जुर्आत करे कि मुनज्जी (मसीह) ने अपने जिस्म को मरने के बाद ज़िंदा किया है कि वो फ़िल-हक़ीक़त इब्ने-अल्लाह और बाप की हस्ती में से हस्ती रखने वाला। यानी उस का अपना कलमा और हिक्मत और क़ुव्वत है। इन आख़िरी दिनों में उसने सबकी नजात के लिए जिस्म लिया और बाप की वाक़फ़ियत दुनिया को बख़्शी। उसने मौत को नेस्त करके बज़रीये क़ियामत (जी उठने) के वाअदे के सबको बक़ा का फ़ज़्ल मुफ़्त बख़्शा उसने पहले अपने जिस्म को ज़िंदा करके क़ियामत का पहला फल दिखलाया और सलीब को मौत और फ़ना की शिकस्त का निशान और अपनी फ़त्ह का झंडा क़रार दिया।
(33) कलिमतुल्लाह का जिस्म में ज़ाहिर होना ख़िलाफे अक़्ल नहीं
हमें यूनानियों पर ताज्जुब आता है कि वो इन बातों पर तम्सख़र (हंसी) करते हैं जो क़ाबिल-ए-तम्सख़र नहीं और अपनी बेशर्मी की ख़बर नहीं लेते जिसका लकड़ी और पत्थर के बुतों की सूरतों में सरीहन इज़्हार कर रहे हैं। लेकिन चूँकि हमारा अक़ीदा दलाईल से ख़ाली नहीं इसलिए हम उनको ऐसी माक़ूल दलीलों से क़ाइल करेंगे जो बिल-ख़ुसूस देखी हुई चीज़ों से की गई हैं। पस अव़्वल हम पूछते हैं कि हमारे मसअले में ऐसी कौनसी बात है जिस पर कोई तम्सख़र (हंसी) कर सके।
क्या हमारा ये दावा कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) जिस्म में ज़ाहिर हुआ है उनको बुरा मालूम होता है। अगर वो हक़ से मुहब्बत रखते हैं तो उन्हें ज़रूर मानना पड़ेगा कि इस अम्र हक़ में कोई ऐसी बात नहीं जो अक़्ल के ख़िलाफ़ हो।
अगर वो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के वजूद का ही इन्कार करें तो ये इन्कार भी फ़ुज़ूल और ग़लत है और वो जिस बात को नहीं जानते उस पर हंसते हैं। लेकिन अगर वो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के वजूद के क़ाइल हैं और उस को आलम का हालिम मानते हैं और तस्लीम करते हैं कि ख़ुदा बाप ने उसी की मार्फ़त मख़्लूक़ात को ख़ल्क़ किया और वही आलम का नूर है। अगर उनको ये मानना मंज़ूर है कि ज़िंदगी उस में है और सब चीज़ों पर हुकूमत करता है और वो अपने इंतिज़ाम व क़ुद्रत के कामों के ज़रीये से पहचाना जाता है और बाप उस के ज़रीये से। तो उस के तजस्सुम को जान लेना उनके लिए चंदाँ (कुछ) मुश्किल ना होना चाहीए।
यूनानी फ़ैलसूफ़ (आलिम) कहते हैं कि कुल आलम एक जिस्म है। उनका ये दावा सही है क्यों कि इस जिस्म के अजज़ा को हम अपने हवास-ए-ख़मसा से महसूस कर सकते हैं। पस अगर कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) इस बड़े आलम में जो एक जिस्म है सुकूनत रखता है और उस के कुल और हर जुज़्व में भी मौजूद है तो हमारे इस दावे में कि वो एक इन्सानी जिस्म में आया कौन सी बात हैरत की या खिलाफ-ए-अक़्ल है। अगर उस का एक इन्सानी जिस्म में सुकूनत करना मुहाल है तो ये भी मुहाल है कि वो कुल आलम में हो कर उस को मुनव्वर करता और अपने इंतिज़ाम से कुल अश्या को हरकत देता है। क्यों कि आलिम यूनानियों के अपने ही अक़ीदे के मुवाफ़िक़ एक जिस्म है। अगर अक़्ल इस को तस्लीम कर सकती है कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) कु’ल आलम में है और कुल आलम में पहचाना जाता है तो अक्ल इस को भी तस्लीम कर सकती है कि उसने अपना ज़हूर एक ऐसे इन्सानी जिस्म में दिया जिसको उसने अपने नूर व ताक़त से मुनव्वर व क़वी किया। क्या नस्ल इन्सानी कुल आलम का एक जुज़्व नहीं है। पस अगर आलम के एक हिस्से के लिए उस का मज़हर बनाना मुनासिब है तो कुल आलम उस का मज़हर समझना इस से ज़्यादा नामुनासिब है।
(34) कलिमतुल्लाह का ज़हूर कायनात में और जिस्म में
आदमी की क़ुव्वत कुल जिस्म में फैली हुई होती है। पस अगर कोई कहे कि पांव की उंगली में इस क़ुव्वत का ज़रासा हिस्सा भी नहीं है तो हम ज़रूर उस को दीवाना समझेंगे। किसी सिफ़त को कुल के साथ मन्सूब करना और जुज़्व के साथ उस को मन्सूब करने से इन्कार करना खिलाफ-ए-अक़्ल है। इसी तरह कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को कुल आलम में हाज़िर तस्लीम कर लेना और साथ ही इस के ये कहना कि उस का एक इन्सानी जिस्म में सुकूनत करना मुहाल है अक़्लमंदों का काम नहीं है। लेकिन शायद कोई कहे कि इन्सान एक मख़्लूक़ है और इस वजह से नजातदिहंदा इन्सानी जिस्म में ज़ाहिर ना हो सकता था। अगर हम इस एतराज़ को सही मान लें तो ये भी मान लेना पड़ेगा कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) कुल आलम में ज़ाहिर नहीं हो सकता। क्यों कि कुल
आलम भी मख़्लूक़ है। कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) आलम को अदम से वजूद में लाने वाला है। जिस शैय का इतलाक़ कुल के साथ है उस का इतलाक़ जुज़्व के साथ भी हो सकता है। आलम का जो कुल है इन्सान सिर्फ एक जुज़्व है। पस किसी सूरत से कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) का इन्सानी जिस्म में आना मुहाल नहीं ठहर सकता। क्यों कि हर शैय उसी से हरकत पाती और मुनव्वर होती है। सबकी ज़िंदगी उस से और उस में है। और ये किसी यूनानी ने ख़ुद कहा है क्यों कि उसी में हम जीते और चलते फिरते और मौजूद हैं।
अगर वो चाहता तो अपने आपको बाप को आफ़्ताब या माहताब में आस्मान या ज़मीन मिट्टी पानी या आग में ज़ाहिर कर सकता था। क्योंकि वो हर शैय में हाज़िर व नाज़िर और हर कुल और जुज़्व में मौजूद है। और बिन देखे अपने आपको ज़ाहिर करता है। लेकिन उसने ये पसंद किया कि एक जिस्म में बसूरत इन्सान ज़ाहिर हो और इसी तरह बाप के इल्म और सच्चाई को मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) करे। चुनान्चे बशरियत फ़िल-हक़ीक़त आलम का एक जुज़्व है।
क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला (सोचने की क़ुव्वत) जिसका अमल तमाम जिस्म इन्सान पर है फ़क़त बज़रिये एक ख़ास हिस्से यानी ज़बान के ज़हूर पाती है। इसी तरह कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) जो कुल अश्या में मौजूद है अगर एक जिस्म के ज़रिये से ज़ाहिर हुआ। तो इस को कौन ख़िलाफ़ अक़्ल क़रार दे सकता है।
(35) कलिमतुल्लाह ने जिस्म इन्सानी ही किस लिए इख़्तियार किया
अगर कोई पूछे कि उस ने किस लिए अपने आपको मख़्लूक़ात के किसी बड़े और अशरफ़ हिस्से में ज़ाहिर ना किया। यानी आफ़्ताब या मेहताब या सितारा या आग या हवा में तो हमारा जवाब ये है कि वो नमूद के लिए ना आया था। बल्कि इसलिए कि मज़लूमों और मुसीबत ज़दों को सेहत और शिफ़ा और हिदायत बख़्शे। जो कोई नमूद ही चाहता है वो लोगों को अपने नमूद से हैरत-ज़दा करके चल देता है। लेकिन जो सेहत और हिदायत बख़्शने आता है वो ना सिर्फ थोड़ा सा अर्सा ठहरता है बल्कि मुहताजों की मदद करता है और ऐसे तौर पर ज़ाहिर होता है कि लोग उस की बर्दाश्त कर सकें। और
वो अपनी फ़य्याज़ी से मुहताजों को घबराहट में डाल कर ख़ुदा के इन्किशाफ़ को बेसूद नहीं करता। ख़ुदा की कुल मख़्लूक़ात में फ़क़त इन्सान ही ने अपने ख़ालिक़ की पहचान में ग़लती की थी। इस ग़लती और गुमराही में आफ़्ताब, मेहताब, सितारे और समुंद्र और हवा शामिल ना थे। वो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) अपने ख़ालिक़ व बादशाह को जान कर अपनी मुनासिब हालत पर क़ायम रहे। फ़क़त बनी-आदम ने नेकी से हट कर अपने लिए सच्चाई के एवज़ फ़र्ज़ी माबूद बना लिए थे। जो इज़्ज़त ख़ुदा का हक़ थी उसे उन्होंने जिन्नों और पत्थर पर ख़ुदी हुई आदमियों की मूरतों को दे दिया था। ख़ुदा ऐसी गुमराही और टेढ़े-पन से क़त-ए-नज़र ना कर सकता था। ऐसा करना उस की नेकी के ख़िलाफ़ था। लेकिन चूँकि बनी-आदम उस को महसूस ना कर सकते थे और उस की हुकूमत की पहचान से महरूम थे उसने अपनी मख़्लूक़ात के एक हिस्से को अपना मज़हर बनाया। उसने इन्सानी जिस्म लिया और नीचे उतरा। कुल में तो वो उस को पहचान ना सकते थे इसलिए उसने अपने आपको जुज़्व में ज़ाहिर किया। एक मुरई सूरत में वो उन पर ज़ाहिर हुआ। उस ने उनका जिस्म लिया ताकि उस की ख़ुदाई कामों से जो उसने जिस्म में रह कर किए थे वो पहचानें कि ये बशर के काम नहीं। बल्कि ख़ुदा के हैं।
लेकिन अगर यूनानियों की राय के मुताबिक़ कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) का अपने तईं जिस्म के कामों के ज़रीये से ज़ाहिर करना मुहाल था तो आलम के कामों में उस का ज़हूर भी मुहाल होना चाहिए वो आलम में होने के बाइस मख़्लूक़ नहीं हो जाता। बरअक्स इस के आलम उस की क़ुव्वत से बहरावर होता है। इसी तरह जब उसने जिस्म को एक आवाज़ के तौर पर इस्तिमाल किया तो जिस्म की ख़वास उस की ज़ात में दख़ल ना कर गई। बल्कि उसने जिस्म को पाकीज़गी और सर-फ़राज़ी बख़्शी।
अफ़लातून जिसकी यूनानियों में बड़ी ताज़ीम है यूं कहता है, “आलम के ख़ालिक़ ने देखा कि दुनिया तूफ़ान की मौजों में सर-गर्दान और अबतरी के समुंद्र में ग़र्क़ होने के ख़तरे में है ये देखकर उसने दुनिया की पतवार को यानी ज़िंदगी के उसूल को पकड़ा और अपनी मदद से उस की तमाम ग़लतियों को सही किया।”
जब कि अफ़लातून ये कहता है तो हमारा दावा किस तरह ग़लत है। वो दावे ये है कि जब नस्ल इन्सान गुमराह हो गई तो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) नाज़िल हुआ। उसने आदमी की सूरत में ज़ाहिर हो कर दीनी हिदायत और मुदिर से इस तूफ़ान ज़दा जहाज़ को बचाया।
(36) ख़ुदा ने मह्ज़ हुक्म से इन्सान को बहाल क्यों ना किया
मोअतरिज़ का मुंह बंद करना मुश्किल है। शायद कोई कहेगा कि अगर ख़ुदा की मर्ज़ी थी कि बनी-आदम को नजात व रास्ती बख़्शे तो क्यों उसने फ़क़त एक हुक्म ना दे दिया वो तो सब काम फ़क़त अपनी क़ुद्रत व हुक्म से कर सकता है। क्या ज़रूरत थी कि उस का कलमा एक जिस्म के साथ ताल्लुक़ पैदा करे। ख़ुदा तो मह्ज़ अपने हुक्म से मौजूदात को अदम से वजूद में लाया है। इस एतराज़ का जवाब ये है कि इब्तिदा में जब कुछ ना था तो सिर्फ इस बात की ज़रूरत थी कि ख़ालिक़ अपने हुक्म से दुनिया को वजूद बख़्शे लेकिन जब इन्सान पैदा हो कर बिगड़ गया तो मौजूदा अशिया के ईलाज की हाजत थी। ना इस की कि कोई नई शैय अदम से वजूद में लाई जाये। इसलिए इस बिगाड़ की इस्लाह के वास्ते कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) इन्सान बना। इसी वजह से उसने जिस्म बशरी को एक औज़ार के तौर पर इस्तिमाल किया। लेकिन अगर उस को ऐसा करना रवा ना था तो और कौन सा औज़ार था जिसको वो अपने मक़्सद के लिए बरत (इस्तिमाल) सकता था। मौजूदा औज़ारों को छोड़कर वो कौन से औज़ार को लेता। बनी-आदम इसी बात के मुहताज थे कि उस की उलूहियत इन्सानी जिस्म में अपना जलवा दिखाए। अगर मादूम चीज़ों को मादूमी की हालत से निकालना था तो फ़क़त एक हुक्म किफ़ायत करता लेकिन इन्सान मादूम ना था बल्कि मौजूद था और अपने गुनाहों से अपने आपको तबाह कर रहा था। पस ज़ाहिर है कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने ऐन मुनासिब काम किया जब एक इन्सानी जिस्म को अपना औज़ार बना कर या अपने आपको मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) किया।
फिर ग़ौर करो कि जो बिगाड़ ईलाज का मुहताज था वो जिस्म से बाहर ना था बल्कि उस के अंदर जमा हो रहा था। पस इस बात की ज़रूरत थी कि ऐन उस जगह में जहां वो बिगाड़ था ज़िंदगी आकर अपना घर कर ले। ताकि जिस तरह मौत बज़रिये जिस्म के आई थी उसी तरह अब हयात उसी के अंदर रहे। अगर मौत जिस्म के बाहर होती तो ज़िंदगी भी बाहर से इस के लिए मुहय्या हो सकती थी।
लेकिन जब कि मौत जिस्म में हुलूल (एक चीज़ का दूसरी चीज़ में इस तरह होना कि दोनों में तमीज़ ना हो सके) करके इस को मग़्लूब कर रही थी तो ज़रूर हुआ कि ज़िंदगी भी इस जिस्म में हुलूल करे और इस को लायक़ कर दे कि ज़िंदा हो कर बिगाड़ को अपने अंदर से ख़ारिज कर सके।
इलावा इस के अगर कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) सिर्फ़ जिस्म के बाहर आता ना उस के अंदर दाख़िल हो कर तो अलबत्ता अपनी क़ुद्रत से वो मौत को मग़्लूब कर सकता था। क्यों कि हक़ीक़ी मौत ज़िंदगी के मुक़ाबले में कुछ हक़ीक़त नहीं रखती। लेकिन इस हालत में वो बिगाड़ जो जिस्म में दख़ल पा चुका था उस के अंदर ही रह जाता लेकिन नजातदिहंदा का जिस्म को पहन लेना ऐन मुनासिब था। ताकि ज़िंदगी के जिस्म में हुलूल करने की वजह से जिस्म बावजूद फ़ानी होने के मौत के क़ब्ज़े में न रहे। बल्कि बक़ा से मुलब्बस हो कर क़ियामत और बक़ा का वारिस बने। क्यों कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) का इख़्तियार किया हुआ जिस्म जब फ़ानी था तो बग़ैर हुलूल ज़िंदगी के मुर्दों में से उठ नहीं सकता था। इलावा इस के मौत फ़क़त जिस्म ही में ज़ाहिर हो सकती है। इसलिए उसने जिस्म पहना। ताकि जिस्म में से मौत को मिटा दे। फ़ानी को ज़िंदा करने से ख़ुदावन्द ने अपने आपको हयात का मालिक साबित किया।
भूसी एक जलने वाली शैय है। जिसको आग से महफ़ूज़ रखकर जलने से बचाना पड़ता है ताहम उस की ख़ासियत वही रहती है। और जब आग उस के नज़्दीक आएगी वो जल जाएगी। लेकिन फ़र्ज़ करो कि हम भूसे को किसी ऐसी चीज़ के अंदर रख दें जिस पर आग असर नहीं कर सकती। तब भूसी भी जलने से बची रहेगी। जिस्म और मौत के ताल्लुक़ की ये एक मिसाल है। अगर ख़ुदावन्द मौत को फ़क़त अपने एक हुक्म से दूर रखता तो बावजूद इस के भी उस का जिस्म फ़ानी और बाक़ी कुल अज्साम की ख़ासियत के मुताबिक़ सड़ने के क़ाबिल रहता। लेकिन इस फ़ानी ख़ासियत को दूर करने के लिए उसने ग़ैर-मुजस्सम कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को पहन लिया। पस अब जिस्म मौत या सड़ने से ख़ौफ़ नहीं खाता और चूँकि इस को ज़िंदगी का लिबास पहनाया गया है बिगाड़ इनमें से दूर हो गया है।
(37) कलिमतुल्लाह ने ख़ुदा की शनाख़्त को कमाल के दर्जे तक पहुंचा दिया
पस कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) का जिस्म को इख़्तियार करना बहुत ही मुनासिब था। उसने इस जिस्म को एक औज़ार के तौर पर इस्तिमाल किया और इस के ज़रीये से और अज्साम को भी ज़िंदगी बख़्शी। और जिस तरह कि वो कायनात में अपने कामों के ज़रीये से पहचाना जाता है इसी तरह इन्सानी हालत में भी वो बवसीला अपने कामों के पहचाना गया। उसने अपने आपको हर जगह दिखलाया। कोई हिस्सा उस की ख़ुदाई ताक़त और पहचान से ख़ाली ना रहा।
जहान का हर एक हिस्सा उस की हुज़ूरी से भरपूर है। उसने जिस्म को लिया ताकि हर शैय को अपनी पहचान से भर दे। पाक कलाम की भी यही तालीम है कि कुल ज़मीन ख़ुदावन्द की पहचान से भर गई। (यसअयाह 11:9) अगर कोई आस्मान की तरफ़ से देखे तो वहां अजीब तर्तीब को देखेगा। या अगर वो अपने सर को ऊपर की तरफ़ उठा नहीं सकता तो सिर्फ आदमियों ही को देखे। तब उसे मालूम होगा कि मसीह की वो ताक़त जो उस के कामों में दिखाई देती है ऐसी बड़ी है कि इन्सान की ताक़त उस का मुक़ाबला नहीं कर सकती। उसे ये भी यक़ीन हो जाएगा कि फ़क़त मसीह बनी-आदम में कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) है। या अगर कोई जिन्नों की तरफ़ तवज्जोह करे और उनको देखकर मुतहय्यर हो तो उसे ये मालूम होगा कि मसीह उनको निकालता है और सरीहन उनका मालिक है या अगर वो पानी को देखे और मिस्रियों की मानिंद उनकी परस्तिश करने लगे तो देखेगा कि मसीह पानी को तब्दील कर सकता है और उस का ख़ालिक़ है।
क्योंकि ख़ुदावन्द ने हर शैय को छुवा है और सबको हर तरह के फ़रेब से रिहा किया है। पौलुस का क़ौल है कि उसने हुकूमतों और इख्तियारों को अपनी और से उतार कर उनका बरमला तमाशा बनाया। और सलीब के सबब से उन पर फ़त्हयाबी का शादियाना बजाया। (कुलस्सियों 2:15) ताकि अब से कोई फ़रेब में ना रहे बल्कि हर जगह सच्चे कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को पा सके।
पस आदमी कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की ख़ुदाई को देखकर और उस से महात (मशहूर, अहाता किया गया, समझा गया) हो कर आस्मान में आलम-ए-अर्वाह में। आदमी ज़मीन पर ख़ुदा की निस्बत अब धोका नहीं खा सकता। बल्कि फ़क़त कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की परस्तिश करता और बवसीला उस के बाप को सच्चे तौर पर पहचानता है।
(38) बुत-परस्ती का ज़वाल
बुत-परस्ती को लोगों ने किस वक़्त से तर्क करना शुरू किया? जब से कि ख़ुदा जो सच्चा कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) है दुनिया में आया और कब ग़ैब बीनी यूनानियों में से जाती रही और हर जगह ख़त्म हुई और बेहूदा मानी गई? जब कि मुनज्जी ने अपने आपको ज़मीन पर ज़ाहिर किया। कब लोगों को मालूम हुआ कि वो अश्ख़ास जिन को क़दीम ज़माने में शोअरा देवता और हीरो कहते थे मह्ज़ इन्सान थे? उस वक़्त जब कि ख़ुदावन्द ने मौत पर फ़त्ह पाई और उस जिस्म को जिसे उसने पहना था। सड़ने से बचाया और मुर्दों में से उठाया कब बनी-आदम शयातीन के फ़रेब से छूटे? उसी वक़्त जब कलमा जो ख़ुदा की ताक़त और शयातीन का भी मालिक है बनी-आदम की कमज़ोरी पर रहम खाकर दुनिया में ज़ाहिर हुआ। कब जादू के फ़न और जादूगरों के मदरसों के भेद फ़ाश हुए? जब कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने बनी-आदम को अपना ख़ुदाई दीदार बख़्शा। यूनानियों की अक़्ल व हिक्मत कब नादानी से मुबद्दल (तब्दील) हो गई? जब कि ख़ुदा की सच्ची हिक्मत ने अपने आपको ज़मीन पर ज़ाहिर किया। क़दीम से ये हाल ज़ाहिर था कि दुनिया बुतों की परस्तिश में गुमराह है और सिवाए बुतों के और कोई ख़ुदा नहीं माना जाता था। लेकिन अब कुल दुनिया में ख़ल्क़ ख़ुदा बुतों के वहम को तर्क करके मसीह की तरफ़ दौड़ रही है और उस को ख़ुदा मान कर पूजती है और बवसीला उस के बाप की शनाख़्त हासिल करती है जिसे आगे जानती ना थी।
और हैरत का मुक़ाम ये है कि गो पहले मुख़्तलिफ़ अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) के सदहा (सैंकड़ों) माबूद थे और हर शहर और गांव का माबूद निराला था और एक मौज़ा (गांव) का ख़ुदा दूसरे मौज़ा पर कुछ इख़्तियार ना रखता था और ना दूसरे मौज़ा (गाँव) के लोगों से अपनी परस्तिश करा सकता था बल्कि बमुश्किल अपने ही गांव में माना जाता था मगर अब सब के सब मसीह की परस्तिश करते हैं और वो काम जो बुतों से ना हो सका कि ग़ैर इलाक़े वालों को अपने तहत में करे इससे बहुत कुछ ज़्यादा मसीह से हुआ कि उसने एक आलम को अपनी और अपने बाप की परस्तिश का क़ाइल और मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) कर दिया।
(39) मसीह के काम उस की उलूहियत पर शाहिद हैं
हमारे दावे फ़क़त हमारी बातों पर मुन्हसिर नहीं बल्कि तजुर्बा इनकी सदाक़त पर गवाही देता है। जो चाहे आए और नेकी का सबूत उन बाइस्मत बाकिरा (कुँवारी) औरतों की ज़िंदगी में देखे जिनका ख़ास काम अपने तईं ज़ब्त (क़ाबू) करना है अगर कोई बक़ा का यक़ीन देखना चाहे तो बेशुमार शहीदों को देखे जिन्होंने अगली ज़िंदगी की उम्मीद में इस ज़िंदगी को क़ुर्बान कर दिया है।
पस ये शख़्स मसीह कितना बड़ा है जिस का नाम ही ऐसी तासीर रखता है और जिसके सामने तमाम मुख़ालिफ़ ताक़तें कमज़ोर बल्कि ज़ाइल हो जाती हैं। जो सब पर ज़बरदस्त है और जिसने अपनी तालीम से कुल दुनिया को भर दिया है। ठट्ठा करने वाले बेशरम यूनानियों को इस का जवाब देना चाहीए। अगर वो फ़क़त इन्सान है तो किस तरह उनके इक़्तिदार पर ग़ालिब आता है जिन्हें वो अल्लाह मानते हैं। बल्कि उसी ने उन्हें हस्ती से मादूम साबित कर दिखाया।
(40) मसीह के काम बेमिस्ल हैं
बनी-आदम में कौन ऐसा हुआ है जिसने अपने वास्ते बज़रीये एक कुँवारी औरत का जिस्म तैयार किया? कौन ऐसा हुआ है जिसने अपनी बीमारियों को दूर किया? जैसा सब के ख़ुदावन्द ने किया है। किस में ये ताक़त थी कि किसी को वो शैय बख़्शे जो उसे पैदाइश से हासिल ना थी और मादर-ज़ाद अंधे को बसारत बख़्शी।
किस की मौत के वक़्त आफ़्ताब तारीक हो गया? मौत हमेशा से बनी-आदम पर ग़ालिब है और आजकल भी लोग मरते हैं। लेकिन किस की मौत के वक़्त ऐसा अचंबा (हैरत) की बात देखा गया?
इन कामों को छोड़ दो जो जिस्म में हो कर किए और उन पर ग़ौर करो जो उस की क़ियामत के बाद देखे गए। क्या कभी कोई ऐसा हुआ है जिसकी तालीम यकसाँ ऐसी आलमगीर साबित हुई हो और दुनिया के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक फैल गई हो जिसको कुल आलम ने बिल-इत्तिफ़ाक़ पूजना क़ुबूल कर लिया हो? अगर मसीह फ़क़त एक आदमी है और ख़ुदा और कलमा नहीं तो बुत किस लिए उस की परस्तिश को अपने इलाक़ों में आने से नहीं रोकते। पस ये तस्लीम करना पड़ेगा कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने दुनिया में आकर अपनी तालीम से दूसरे माबूदों की परस्तिश बंद कर दी है और उनके आबिदों के झूटे दावे तोड़ कर उन्हें शर्मिंदा कर दिया है।
(41) मसीह की फ़ज़ीलत बमुक़ाबला हुक्काम और हुकमा के
इस शख़्स से पहले दुनिया ने बेशुमार बादशाह और जाबिर देखे हैं क़सदियों मिस्रियों और हिन्दियों की तवारीख़ में कई बड़े-बड़े दाना और जादूगरों का ज़िक्र है। लेकिन उनमें कौन ऐसा हुआ जिसने अपनी ज़िंदगी में (मौत के बाद का यहां ज़िक्र नहीं) ऐसे ग़लबे के साथ दुनिया को अपनी तालीम से भर दिया हो? किसी में ये ताक़त थी कि इतने आदमियों को बुत-परस्ती के वहम से छुड़ा कर अपना मुअतक़िद (अक़ीदतमंद, मानने वाला) बना ले जितने हमारे मुनज्जी ने बनाए? यूनानी फ़ैलसूफ़ों ने बड़ी-बड़ी दिलकश और मुदल्लिल किताबें लिखीं। लेकिन मसीह की सलीब के मुक़ाबले में उनकी अक़्ल की क्या वक़अत है। उनकी दलीलें उनकी ज़िंदगी में ज़ोर रखती थीं। बल्कि जब कि वो ज़िंदा थे उनका मुँह पर जिनकी निस्बत उनका ख़याल था कि हमने उनको कमाल तक पहुंचाया है बह्स रही। एक आलिम दूसरे के साथ बह्स करता बल्कि उस को बुरा कहता था। लेकिन ताज्जुब का मुक़ाम है कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने गो उस के अल्फ़ाज़ बहुत सीधे थे आलिमों के बारीक ख़यालात को हक़ीर कर दिया और उनकी तालीम को सच्च ठहरा कर सब आदमियों को इसी तरह अपनी तरफ़ खींचा है कि इस के गिरजा और इबादतगाहें बिल्कुल भर गई हैं फिर और ताज्जुब का मुक़ाम ये है कि उसने हालते बशरी में मौत की वादी में उतर कर उन बुलंद दाअवों को जो दुनिया के
अक़्लमंद बुतों की निस्बत किया करते थे बातिल कर दिया है किस की मौत से कभी देव भागे या किस की मौत से कभी शयातीन ऐसे डरे जैसे कि मसीह की मौत से डरे थे? जहां कहीं मुनज्जी का नाम लिया जाता है वहां से तमाम शयातीन भाग जाते हैं। किसी में ये ताक़त हुई कि आदमियों की नफ़्सानी ख़्वाहिशों को इस तरह मग़्लूब करता कि ज़ानी मासूम हो गए। ख़ूनी तल्वार को छोड़ बैठे। और बुज़दिल दिलेर हो गए मसीह के ईमान और सलीब के निशान के सिवा और किसी में ये ताक़त थी कि वहशी लोगों और मुख़्तलिफ़ क़ौमों से दीवानगी तर्क करा कर सुलह का ख़्वाहां और इत्तिफ़ाक़ पर माइल कर दे? मसीह की सलीब और उस के बदन की क़ियामत से ज़्यादा कौनसी बात ने बनी-आदम को बक़ा का यक़ीन दिलाया है। यूनानी हर शैय की निस्बत झूट बोलने के आदी थे लेकिन ये ख़याल उनको कभी ना आया कि अपने बुतों में से किसी की निस्बत दावे करें कि वो मुर्दों में से ज़िंदा हुआ है। वो जानते भी ना थे कि मौत के बाद जिस्म का रहना मुम्किन है।
(42) मसीह की अख़्लाक़ी क़ुव्वत
किस ने मसीह के बराबर अपनी मौत के बाद या ज़िंदगी में इस्मत और तजर्रुद की ऐसी पुर तासीर तालीम दी है। या किस ने बताया है कि बनी-आदम में इस सिफ़त का होना दर-हक़ीक़त मुम्किन है लेकिन हमारे मुनज्जी और सब के मुनज्जी और बादशाह मसीह की तालीम में ऐसी तासीर है कि लड़के और लड़कीयां जो अभी अज़रूए क़ानून सन बलूग़ को नहीं पहुँचीं और शरअन उन पर वाजिब नहीं फिर भी मुजर्रद रह कर अपनी ज़िंदगी ख़ुदा को देने का अहद करती हैं। इन्सानों में किस का इख़्तियार था कि अपना कलाम दूर दूर के मुल्कों तक पहुंचा कर जादूगरों, हद से ज़्यादा वहमियों, और वहशियों को नेकी और ज़ब्त (क़ाबू) की तालीम देता और उनको सिखाता कि बुत-परस्ती छोड़ दें? ये सब उसी के काम में जिसे हम जहान का ख़ुदावन्द, ख़ुदा की क़ुद्रत और ख़ुदावन्द येसू मसीह कहते हैं। उसने ना फ़क़त अपने हवारियों के वसीले से बशारत दी बल्कि आदमियों के ज़हनों पर ऐसा असर ना डाला कि उनके अत्वार की वहशत दूर हो गई और उन्होंने अपने मौरूसी बुतों की परस्तिश को तर्क करके उस का साफ़ इल्म हासिल किया और उस के वसीले से उस के बाप की परस्तिश करने लगे क़दीम ज़माने में यूनानी और वहशी बुतों को पूजते। आपस में जंग करते और अपने रिश्तेदारों पर भी
बेरहमियाँ करते थे और उनकी इस मुतवातिर जंग व जदाल के सबब से बग़ैर मुसल्लह हुए कोई ख़ुशकी या तरी का सफ़र ना कर सकता था। कुल ज़िंदगी लड़ाईयों में सर्फ होती थी। लकड़ी के बदले लोग तल्वार हाथ में रखते थे और हर ज़रूरत के मौक़े पर उसी पर अपना भरोसा करते थे। गो वो बुतों को पूजते और देवताओं के लिए क़ुर्बानियां चढ़ाते थे ता-हम इस बुत-परस्ती का वहम उस के मानने वालों को इस से बेहतर तालीम पाने से रोक रहा था लेकिन जब से वो मसीह की तालीम में आ गए हैं उनके दिल ही बदल गए हैं। बेरहमी और ख़ूँरेज़ी को तर्क कर दिया और जंग से हाथ उठा लिया है। मसीह ने उनको इत्तिफ़ाक़ इत्तिहाद का गरवीदा बना दिया है।
(43) मसीह की आस्मानी तालीम इत्मीनान बख़्शती है
पस वो कौन शख़्स है जिसने इतना बड़ा काम किया है। वो कौन है जिसने पुराने दुश्मनों को सुलह के बंद में बाँधा है। वो बाप का अज़ीज़ बेटा येसू मसीह है जो सब का मुनज्जी है जिसने मुहब्बत के बाइस सबकी नजात की ख़ातिर हर क़िस्म का दुख सहा। उस सुलह की निस्बत जो उस की मार्फ़त दुनिया में आने वाली थी पहले से पेशगोई हो चुकी थी कि वो अपनी तलवारों को तोड़ कर फ़ालें और अपने भाईयों को हंसवे बना डालेंगे। और क़ौम क़ौम पर तल्वार ना चलाऐंगे और वो फिर कभी जंग ना सीखेंगे। (यसअयाह 2:4, मीकाह 4:3) इस पेशगोई का यक़ीन कर लेना कुछ दुशवार नहीं। क्योंकि देखा जाता है कि वहशी अक़्वाम जिनके अत्वार तबअन वहशयाना हैं। जब तक अपने बुतों के आगे क़ुर्बानियां गुज़राँते रहे हैं ग़ेय्ज़ (गुस्सा) व ग़ज़ब में भर कर आपस के कुश्त व ख़ून (लड़ाई) में मसरूफ़ रहते हैं। और तल्वार को एक पल-भर भी हाथ से नहीं छोड़ते लेकिन जब मसीह की तालीम उनके कानों में पहुँचती है तो बजाए जंग के काश्तकारी को इख़्तियार करते हैं और बजाए तल्वार पकड़ने के दुआ में अपने हाथों को बुलंद करते हैं। बजाए आपस की जंग के वो शयातीन के मुक़ाबले के लिए मुसल्लेह (इस्लाह करने वाला) होते हैं और तहम्मुल और एतिदाल (दर्मियानी दर्जा) और रुहानी नेकी से उन पर ज़फ़र-याब होते हैं।
मुनज्जी की उलूहीय्यत का एक ये सबूत है कि जिस शैय को बनी-आदम बुतों से सीख ना सकते थे उसे उन्हों ने मुनज्जी से सीखा है। इस से शयातीन और बुतों की कमज़ोरी और बतालत पूरी तरह साबित होती है। शयातीन अपनी कमज़ोरी से आगाह हो
कर आदमियों में जंग कराते थे। ताकि ऐसा ना हो कि बनी-आदम हमारी कमज़ोरी को पहचान कर हमसे जंग करना शुरू करें। लेकिन जो लोग मसीह के पैरौ हो जाते हैं वो आपस में नहीं लड़ते। बल्कि शयातीन के मुक़ाबले में सफ़ बस्ता हो जाते हैं और अपनी नेक चलनी और अच्छे कामों के हथियारों को पकड़ कर उनसे लड़ते हैं। वो शयातीन पर जबर करते और उनके सरदार यानी शैतान पर ठट्ठा करते हैं। जवानी में उनको ज़ब्त (क़ाबू) की ताक़त, आज़माईश में इस्तिक़लाल और बेइज़्ज़ती में सब्र हासिल होता है। लुट जाने की उन को कुछ पर्वा नहीं है। और सबसे बड़ा ताज्जुब ये है कि वो मौत को भी हक़ीर समझ कर मसीह के शहीद हो जाते हैं।
(44) मसीह की उलूहियत उस के अज़ीमुश्शान कामों से ज़ाहिर हुई
कौन ऐसा इन्सान या जादूगर या जब्बार या शहनशाह हुआ है जिसमें इतनी ताक़त हुई हो कि अकेला इतने दुश्मनों का मुक़ाबला कर सके। और तमाम बुत-परस्ती, शयातीन के लश्कर जादू और यूनानियों की तमाम हिक्मत के ख़िलाफ़ जंग करे। कौन ऐसा मज़्बूत और आदमियों को हैरत में डालने वाला हुआ है और कौन ऐसा बहादुर साबित हुआ है कि पहले ही हमले में कामयाब हो जाए। हाँ ये तमाम खूबियां हैं तो हमारे ख़ुदावन्द ही में हैं। जो सच्चा कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) है। उसने पोशीदगी में सब के फ़रेब को तोड़ा और बनी-आदम को उनकी तरफ़ से हटा रहा है। यहां तक कि जो पहले बुतों को पूजते थे वही अब उनको पामाल करते हैं और वो जो पेश्तर अपने जादू से लोगों को हैरत में डालते थे अब आप अपनी जादू की किताबों को जला रहे हैं।
और जो अक़्लमंद हैं वो अब अनाजील के मआनी को खोलना सब कामों से ज़्यादा पसंद करते हैं। जिनको वो पहले पूजते थे अब उनको छोड़ते जाते हैं और मसीह जिस पर वो पहले इसलिए हंसते थे कि वो एक मस्लूब शख़्स है उसे अब ख़ुदा मान कर पूजते हैं। और वो जो उनके दर्मियान ख़ुदा माने जाते हैं सलीब के निशान से भागते हैं। तमाम दुनिया में वही मस्लूब मुनज्जी ख़ुदा और इब्ने-अल्लाह मुश्तहिर (मशहूर, शौहरत देने वाला) हो रहा है। यूनानियों के ख़ुदा हक़ीर ठहर कर मतरूक (तर्क किया हुआ, रद्द किया हुआ) हो रहे हैं। और मसीह की तालीम के क़ुबूल करने वाले ऐसी पाकीज़ा ज़िंदगी बसर करते हैं कि वैसी देवताओं को भी नसीब नहीं हुई।
अगर कोई कहे कि ऐसे काम इन्सान के बस के हैं तो हम उस से दरख़्वास्त करते हैं कि कोई ऐसा आदमी पेश करे जिसने किसी ज़माने में ऐसे काम किए हों। तो हम क़ाइल हो जाऐंगे। लेकिन अगर ये सब काम बज़ाहिर और दर-हक़ीक़त इन्सान के नहीं बल्कि ख़ुदा के काम हैं तो हम पूछते हैं कि मुख़ालिफ़ किस लिए ऐसी बेदीनी से हमारे मालिक को जो उनका पैदा करने वाला है मानने से इन्कार करते हैं।
मसीह को मानने से इन्कार करने वाले उस शख़्स की मानिंद हैं जो मख़्लूक़ात को तो देखता है लेकिन ख़ालिक़ को नहीं पहचानता। क्योंकि अगर इस क़ुद्रत से जो आलम में देखी जाती है ख़ुदा पहचाना जाता है। तो बज़रीये इन कामों के जो मसीह ने जिस्म में हो कर किए ये भी साबित होता है कि वो काम इन्सानी ना थे बल्कि सब के मुनज्जी के थे जो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) है अगर उनको ये इल्म होता तो मुक़द्दस पौलुस के क़ौल के बमूजब वो जलाल के ख़ुदावन्द को सलीब ना देते।
(45) मसीह के कामों की हक़ीक़त और अज़मत
ख़ुदा ग़ैर मुरई (अनदेखा) है उस को कोई देख नहीं सकता। लेकिन उस की पहचान उस के कामों से इन्सान को हासिल हो सकती है। इसी तरह जिस किसी की अक़्ल मसीह को नहीं देख सकती उन कामों को देखे जो मसीह ने किए और उनके करने वाले को पहचाने। और इन्साफ़ करे कि आया ये काम बशर के हैं या ख़ुदा के। अगर वो काम बशर के मालूम हों तो देखने वाले को इख़्तियार है कि उन पर हंसी और तम्सख़र करे। लेकिन अगर वो बशर के नहीं बल्कि ख़ुदा के साबित हों तो क्यों ना मसीह की उलूहियत को मान कर इस ठट्ठे बाज़ी से बाज़ आए। ऐसे कामों पर हँसना जो हँसने के क़ाबिल नहीं अक़्लमंदों का शेवा नहीं बरअक्स इस के उसे ताज्जुब करना चाहीए कि कैसे सादा वसाइल से ख़ुदाई उमूर हम पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) किए गए हैं और बवसीला मौत के बक़ा सबको हासिल हुई। कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के तजस्सुम के तुफ़ैल (वसीला, बदौलत) से उस का आलमगीर इंतिज़ाम सबको मालूम हो गया। इसी तजस्सुम के तुफ़ैल से दुनिया ने कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को जो कुल आलम का मुंतज़िम और सानेअ (बनाने वाला) है पहचान लिया।
वो इन्सान बनाता कि हम ख़ुदा बनें। उसने अपने आपको ज़रीया जिस्म के ज़ाहिर किया ताकि हम ग़ैर मुरई (अनदेखे) बाप को पहचान सकें। उसने आदमियों के हाथों से बेइज़्ज़ती उठाई ताकि हम बक़ा के वारिस बन जाएं। और वो चूँकि जो बज़ात-ए-ख़ुद इन्फ़िआल और इंतिशार से मुबर्रा और ऐन कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) है उस को इन बातों से किसी तरह का नुक़्सान ना पहुंचा बल्कि जो आदमी दुख-दर्द में मुब्तला थे उनकी वो ख़बर लेता और हिफ़ाज़त करता था बल्कि उन दुश्मनों तक की जिनके हाथ से ख़ुद उसने रंज व आज़ार उठाया था। वो फ़ुतूहात जो नजातदिहंदा ने बज़रीये अपने तजस्सुम के हासिल कीं इस क़िस्म की और इतनी बड़ी हैं कि अगर हम इन सब का शुमार करना चाहें तो उस शख़्स की मानिंद होंगे जो समुंद्र की वुसअत को देखकर उस की मौजों के शुमार करने का क़सद करे क्या किसी की आँख में ये ताक़त है कि समुंद्र की तमाम लहरों को मालूम करसके? उनकी कस्रत तादाद और उनका तवात्तिर हरकात उन का शुमार में आना नामुम्किन कर देता है। इसी तरह उन कुल फ़ुतूहात को मालूम करना जो मसीह ने जिस्म में हो कर हासिल कीं आदमी के इल्म से बईद (बाहर) है। कौन इनको शुमार के अहाते में ला सकता है? उस की तो वो फ़ुतूहात है जो आदमी की अक़्ल से बरतर व बाला हैं बनिस्बत उनकी जिनको इन्सान समझ सकता है शुमार में कहीं ज़्यादा हैं। पस यही बेहतर है कि हम उन सब के ज़िक्र का क़सद ना करें। क्योंकि हमारे अल्फ़ाज़ ऐसे क़ासिर और कमज़ोर हैं कि इनके एक अश्र-ए-अशीर (बहुत थोड़ा सा) का पूरा बयान भी नहीं कर सकते। हमने फ़क़त एक हिस्से का बयान लिखा है और बस जिससे तुम कुल की हैरत-अफ़्ज़ा अज़मत का तसव्वुर ख़ुद कर सकते हो। उस के सब काम हैरत-अफ़्ज़ा होने में मुसावी हैं और जिधर आँख फिरती है उधर कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की ख़ुदाई के काम देखकर हदसे ज़्यादा मुतहय्यर होती है।
(46) गुज़श्ता दलाईल का ख़ुलासा
जो कुछ कहा गया इस के बाद मुनासिब है कि तुम इस बात को समझो और गुज़श्ता दलाईल के खुलासे पर ग़ौर कर के ख़याल करो कि कैसे अज़ीम-उल-क़द्र और ताज्जुबख़ेज़ ये उमूर हैं कि नजातदिहंदा के हम में रहने के वक़्त से बुत-परस्ती की तरक़्क़ी सिर्फ़ बंद ही नहीं हो गई बल्कि जितनी मौजूद है वो भी रफ़्ता-रफ़्ता घटती जाती है। यूनानी हिक्मत भी मुरझा गई बल्कि मादूम होती जाती है। शयातीन अपने मकर और झूटे इल्हाम और सहर (जादू) से अब किसी को फ़रेब नहीं दे सकते। अगर कभी क़सद करते भी हैं तो सलीब का निशान उनको शर्मिंदा कर देता है।
पस देखो किस तरह मुनज्जी की तालीम तरक़्क़ी कर रही है। और तमाम बुत-परस्ती और हर शैय जो मसीही ईमान को रोकने वाली है। किस तरह रोज़ बरोज़ घटती और कमज़ोर हो हो कर मिस्मार होती जाती है। अब ये सब कुछ देखकर तो इस नजातदिहंदा की परस्तिश करो जो सबसे बरतर और कावर और कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) है। और उन मुख़ालिफ़ों को मुल्ज़िम ठहराओं जो इस से शिकस्त खाते और मादूम होते जाते हैं।
जब आफ़्ताब निकलता है तो तारीकी ज़ाइल हो जाती है अगर कहीं ज़रा भी तारीकी रह गई हो तो वो भी आफ़्ताब के निकलने से दूर हो जाती है। इसी तरह अब भी जब कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने अपना ख़ुदाई जलवा दिखाया तो बुतों की तारीकी का ग़लबा दूर हो गया उस की तालीम ने कुल दुनिया को और उस के हर हिस्से को मुनव्वर कर दिया। कभी ऐसा भी होता है कि किसी मुल्क में एक शहनशाह हुक्मरान है लेकिन वो अपने आपको ज़ाहिर नहीं करता बल्कि अपने महल में रहता है उस की गैबियत में कोई सरकश अपने आपको बादशाह बना बैठता है और सल्तनत के ज़ाहिरी आसार दिखा कर भोली रईयत को फ़रेब देता है। लोग तो जानते हैं कि हमारा एक बादशाह है लेकिन बबाइस उस को देख ना सकने के और ख़ासकर इस सबब से कि महल के अंदर जा नहीं सकते वो फ़रेब में आ जाते हैं। लेकिन जब अस्ल बादशाह बाहर निकल कर ज़ाहिर होता है तो वो सरकश धोके बाज़ उस की हुज़ूरी के बाइस क़ाइल व शर्मिंदा हो जाता है। जब रियाया हक़ीक़ी बादशाह को देख लेती है तो इस धोके बाज़ को तर्क कर देती है। इसी तरह पेश्तर शयातीन ने आदमियों को फ़रेब दे रखा था। और दावे करते थे कि ख़ुदा की इज़्ज़त के हम ही हक़दार हैं। लेकिन जब कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) जिस्म में ज़ाहिर हुआ और अपने बाप को हम पर ज़ाहिर किया उस वक़्त शयातीन का फ़रेब ग़ायब और मौक़ूफ़ हो गया। आदमियों ने सच्चे ख़ुदा यानी बाप के कलमे को देख लिया और बुतों को छोड़ कर उसी ख़ुदा ए बरहक़ का सही इर्फ़ान हासिल कर लिया।
इस से साबित हुआ कि मसीह ख़ुदा और कलमा और ख़ुदा की क़ुद्रत है। इन्सानी बनावट तमाम होती जाती है। मसीह का कलाम बाक़ी है। पस ज़ाहिर है कि जो अश्या तमाम होती जाती हैं वो आरिज़ी हैं। लेकिन वो जो बाक़ी रहता है ख़ुदा और ख़ुदा का हक़ीक़ी बेटा और इकलौता कलमा है।
(47) ख़ातिमा, पाक नविश्तों में ढूंढ़ो
ऐ मसीह के मुख़ब ये रिसाला हमारी तरफ़ से तेरे लिए एक हद्या है इस में हमने मसीही ईमान और मसीह के ज़हूर ख़ुदा का मुख़्तसर बयान करके ख़ाका खींचा है। अगर तू इस रिसाले के ख़यालात को लेकर पाक कलाम को पढ़े और सच्चाई से इस में दिल लगाए तो तुझको कामिल और साफ़ तौर पर इन बातों की सदाक़त मालूम हो जाएगी जिनको हमने यहां बयान किया है पाक कलाम ख़ुदा का कलाम और ख़ुदा की तस्नीफ़ है और इस को उन लोगों ने तहरीर किया जो इल्मे इलाही के आलिम थे। हमने इस की तालीम उन लोगों से पाई है जिन पर इल्हाम नाज़िल हुआ और जिन्हों ने नविश्तों को पढ़ कर मसीह की उलूहियत की ख़ातिर अपनी जान-निसार कर दी।
जो तालीम हमने उनसे पाई थी तुझे उस का आशिक़ समझ कर अब तेरे हवाले करते हैं। तुझे उस की दूसरी जलाली और हक़ीक़ी आमद भी मालूम हो जाएगी जब कि वो ना आजिज़ी में बल्कि अपने अस्ल जलाल में आएगा। ना फ़िरोतनी में बल्कि मुनासिब शान में। ना कि तक्लीफ़ उठाने के लिए बल्कि सबको अपनी सलीब के फल बांटने के लिए यानी क़ियामत और बक़ा। फिर बनी-आदम उस पर अदालत करने को ना बैठेंगे बल्कि वह सब का मुंसिफ़ होगा। मुताबिक़ उन कामों के जो हर एक ने जिस्म में हो कर किए हैं ख़्वाह वो भले हों या बुरे। तब नेकों को आस्मान की सल्तनत इनायत होगी। लेकिन बदों को हमेशा की आग और बाहर की तारीकी। ख़ुदावंद ने ख़ुद भी फ़रमाया है मैं तुमसे कहता हूँ कि अब से तुम इब्ने-आदम को क़ादिर-ए-मुतलक़ की दाहिनी तरफ़ बैठे और आस्मान के बादलों पर आते देखोगे। (मत्ती 26:64) इस आमद के लिए तैयारी करने को मुनज्जी के अल्फ़ाज़ हमारे पास हैं। पस जागते रहो। क्योंकि तुम्हें मालूम नहीं कि किस दिन तुम्हारा ख़ुदावंद आएगा। (मत्ती 24:42) और मुबारक पौलुस ने भी फ़रमाया है कि ज़रूर है कि मसीह के तख़्त अदालत के सामने जाकर हम सब का हाल ज़ाहिर किया जाये ताकि हर शख़्स अपने उन कामों का बदला पाए जो उसने जिस्म के वसीले से किए हों। ख़्वाह भले हों या बुरे। (2 कुरिन्थियों 5:10)
नोट :इस से अथनासीस अपने उन उस्तादों की तरफ़ इशारा करता है जिन्हों ने 303 से 313 तक के बड़े ज़ुल्म में शर्फ़ शहादत हासिल किया।
(48) ख़ातिमा, मुक़द्दसों की पैरवी करो
लेकिन पाक कलाम की तहक़ीक़ और सच्ची शनाख़्त के लिए नेक ज़िंदगी पाक रूह और मसीही ख़ूबियों की हाजत है ताकि इस के ज़रीये से दिल की हिदायत हो और आदमी को उन बातों तक रसाई हासिल हो जिनको वो लेना चाहता है और जहां तक कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की पाक ज़ात में आदमी को इदराक (समझ, फ़हम) हासिल हो सकता है वहां तक वो पहुंच सके। बग़ैर पाक दिली और मुक़द्दसों की ज़िंदगी की पैरवी के मुम्किन नहीं कि कोई शख़्स उन्हीं मुक़द्दसों के अल्फ़ाज़ को समझे।
जब कोई आफ़्ताब की रोशनी को देखना चाहता है तो अपनी आँखों को पूंच कर साफ़ कर लेता है। जो किसी पाक शैय को ढूंढता है। उसे लाज़िम है कि अपने आपको पहले पाक करे अपनी आँख साफ़ करे ताकि आफ़्ताब की रोशनी उसे पहुंचे। अगर कोई किसी शहर या मुल्क को देखना चाहे तो उसे ज़रूर है कि वहां पहुंचे इसी तरह जो कोई आलिमों के ख़यालात को समझना चाहे तो उसे लाज़िम है कि ऐसी ज़िंदगी बसर करे जिससे उस की रूह शत और पाक हो जाए और मुक़द्दसों के से काम करके उनका क़ुर्ब हासिल करे ताकि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उनका शरीक हो कर उन बातों को समझे जो ख़ुदा ने उन पर खोली थीं और यूं उनके साथ मुत्तहिद हो कर गुनेहगारों की सज़ा याबी और रोज़-ए-हश्र की आग से बचे और उन चीज़ों का वारिस हो जो मुक़द्दसों के लिए आस्मान की सल्तनत में रखी हुई हैं जिनको ना आँख ने देखा ना कान ने सुना ना आदमी के दिल में कभी आईं। (1 कुरिन्थियों 2:9) यानी ऐसी चीज़ें जो उनके लिए तैयार की गई हैं जो नेक ज़िंदगी बसर करने और मसीह येसू हमारे ख़ुदावंद में ख़ुदा और बाप से मुहब्बत रखते हैं। अबद-उल-आबाद उसी के वसीले से और उसी के साथ बाप की और रूह-उल-क़ुद्स की इज़्ज़त और क़ुद्रत और जलाल अबद-उल-आबाद होता है। ख़त्म शूदा
-------------