THE BIBLE IN ISLAM

BEING

A Study of the Place and Value of the Bible in Islam

BY THE

REV. WILLIAM GOLDSACK

कलाम-उल्लाह

अज़-रूए इस्लाम

मुसन्निफ़

अल्लामा डब्लियू गोल्ड सेक साहब

मुतर्जिम

पादरी जे॰ अली बख़्श साहब लाहौर

APPROVED BY THE C.L.M.C. AND PRINTED BY KIND PERMISSION OF THE C.L.S.

1924 ई॰

William Goldsack

(1871–1957)

कलाम-उल्लाह

अज़-रूए इस्लाम

बाब अव़्वल

कलाम-उल्लाह के बारे में मुहम्मद साहब का इल्म

जो शख़्स तवज्जोह से क़ुरआन मजीद का मुतालआ करता है वह ये मालूम किए बग़ैर नहीं रह सकता कि क़ुरआन मजीद में बार-बार तौरेत और इन्जील का ज़िक्र आया है। कम-अज़-कम एक सौ तीस (130) दफ़ाअ इन का ज़िक्र है। इन के इलावा अहादीस और तफ़ासीर क़ुरआन मजीद में बहुत से ऐसे इशारे पाए जाते हैं जिनसे हमको काफ़ी आगाही मिल सकती है कि इस्लाम में कलाम-उल्लाह की क़द्रों मंजिलत क्या है।

इस में तो शक को कुछ गुंजाइश नहीं कि तौरेत व इन्जील का बहुत असर मुहम्मद साहब पर हुआ। बाज़ औक़ात यहूदीयों और मसीहीयों से उनका बहुत गहिरा ताल्लुक़ पड़ा और क़ुरआन मजीद में उन की तरफ़ ऐसे इशारे पाए जाते हैं जिनसे बख़ूबी वाज़ेह है कि मुहम्मद साहब ने उन को अरबों बुत-परस्तों के ज़ुमरे से बिल्कुल अलग समझा। वो लोग खासतौर से अहले-किताब और इलाही मुकाशफ़े के मुहाफ़िज़ कहलाते हैं। बुत-परस्तों को तो ये दावत थी कि या तो इस्लाम को क़ुबूल करो या तल्वार के घाट उतरो, लेकिन अहले-किताब को ऐसी दावत से मुस्तसना (अलग) रखा।

मुहम्मद साहब की हीने-हयात (ज़िन्दगी) में उनका बर्ताव यहूदीयों से बदलता रहा। जब मुहम्मद साहब मदीने में पहुंचे तो उन्हों ने बाअज़ यहूदी फ़िर्क़ों के साथ दुश्मनों के हमले रोकने के लिए अहद व पैमान किए और इत्तिहाद बाँधा और यरूशलेम को अपना क़िब्ला क़रार दिया ताकि यहूदीयों की तालीफ़े क़ुलूब (दिलों को हाथ में लेना, दिल-जोई करना) कर के अपने साथ मिलाले, लेकिन जब ये उम्मीद जाती रही और बनी-इस्राईल अपने आबाओ अज्दाद के मज़्हब पर क़ायम रहे तो उन्हों ने यहूदीयों को सख़्त लानत व मलामत की और इस के बाद उनका बर्ताव यहूदीयों से सख़्त मुख़ालिफ़ाना था। लेकिन पेश्तर इस से कि जुदाई हो क़ुरआन मजीद के मुताअले से ये ज़ाहिर होता है कि मुहम्मद साहब का ताल्लुक़ बाअज़ यहूदी फ़िर्क़ों से बहुत दोस्ताना था। चुनान्चे यहूदी तारीख़ की तरफ़ जो इशारे उन्हों ने किए और उन के बुज़ुर्गों और नबियों के जो तूल तवील (बहुत लंबे) क़िस्से बार-बार आए वो उन्हों ने ज़रूर बाअज़ इब्रानियों से सुने और सीखे होंगे और क़ुरआन मजीद ही से साबित है कि मुहम्मद साहब पर ये इल्ज़ाम बार-बार लगाया गया कि बाअज़ गुमनाम अश्ख़ास ये असातीर-उल-अव्वलीन (अगले लोगों के कहानियां اسا طیر الاولین) उन को सिखाया करते थे। ना सिर्फ उन नबियों और बुज़ुर्गों के अहवाल जो तौरेत में मज़्कूर थे मुहम्मद साहब ने यहूदीयों से सीखे, बल्कि उन की ग़ैर मुलहम (गैर-मोतबर) किताबों से कई क़िस्से और उन की किताब तल्मूद से कई बयानात जो क़ुरआन मजीद में मज़्कूर हैं हासिल किए होंगे। नाज़रीन इस मज़्मून के लिए “यनाबी-उल-क़ुरआन मजीद” (ینابیع القرآن مجید) को पढ़ें जो हम शाएअ कर चुके हैं। (THE ORIGINS OF QURAN) यहां सिर्फ इतना बयान काफ़ी होगा जो उन्हों ने अपनी याददाश्त से लिखा, अगर बिला तास्सुब इस का मुतालआ किया जाये तो उस के चश्मे और वजह के बारे में कुछ शक बाक़ी ना रहेगा।

अरब के मसीहीयों के साथ मुहम्मद साहब का जो रिश्ता था वो उस रिश्ते से भी गहरा था जो मुहम्मद साहब और यहूदीयों के दर्मियान था। एक तो वो रिश्ता ऐसा क़रीब और दोस्ताना था कि मुहम्मद साहब को ये इक़रार करना पड़ा “मुसलमानों के साथ दोस्ती के एतबार से सब लोगों में उनको क़रीब-तर पाओगे जो कहते हैं कि हम नसारा हैं। ये इस सबब से है कि उन में उलमा और मशाइख़ हैं और ये कि ये लोग तकब्बुर नहीं करते।” (सूरह माइदा 5:82) क़ुरआन मजीद से साबित है कि मुहम्मद साहब की मसीही लौंडी को उन से ख़ास रसूख़ (रब्त, एतबार) था और ग़ालिबन इसी की वजह से मुहम्मद साहब और उन की दीगर बीवीयों के दर्मियान कशीदगी हो गई थी। इस लौंडी से मुहम्मद साहब ने नए अहदनामे के किसे और उस इन्जील का बयान सुना होगा जिसका ज़िक्र उन्हों ने हमेशा तारीफ़ के साथ किया। मुहम्मद साहब की पहली और महबूब बीवी ख़दीजा भी मसीही दीन से वाक़िफ़ थी और उस का चचाज़ाद भाई वर्क़ा बिन नवाफिल बक़ौल इब्ने हिशाम मसीही हो गया था।

क़ुरआन मजीद की तफ़्सीरों से मालूम होता है कि मुहम्मद साहब की ये आदत थी कि वो तौरेत व इन्जील को सुना करते थे। चुनान्चे इस आयत की तफ़्सीर में “वो कहते हैं कि हो ना हो इस शख़्स (फ़ुलां) आदमी सिखाया करता था।” बैज़ावी ये लिखता है :-

يَعْنُونَ جَبْرًا الرُّومِيَّ غُلَامَ عَامِرِ بْنِ الْحَضْرَمِيِّ. وَقِيلَ جَبْرًا وَيَسَارًا كَانَا يَصْنَعَانِ السُّيُوفَ بِمَكَّةَ وَيَقْرَآنِ التَّوْرَاةَ وَالْإِنْجِيلَ، وَكَانَ الرَّسُولُ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يَمُرُّ عَلَيْهِمَا وَيَسْمَعُ مَا يَقْرَءَانِهِ.

तर्जुमा : “जिस आदमी की तरफ़ इशारा है वो आमिर इब्ने-अल-हज़रमी का यूनानी ग़ुलाम जबरा नामी था और ये भी कहा जाता है कि जबरा और यस्सार मक्का के दो तलवारें बनाने वाले तौरेत व इन्जील मुहम्मद साहब को पढ़ कर सुनाया करते थे और मुहम्मद साहब जब उन के पास से हो कर गुज़रते तो जो कुछ वो पढ़ते थे उस को सुना करते थे और मुहम्मद साहब उन के पास।”

इलावा अज़ीं हमें ये भी मालूम हुआ है कि मुहम्मद साहब अहले-किताब से उन मुक़द्दस किताबों की ताअलीम के बारे पूछा करते थे। चुनान्चे एक हदीस इस मज़्मून के मुताल्लिक़ आती है :-

मुस्नद अहमद, जिल्द दोम, हदीस 837

وَقَالَ ابْنُ عَبَّاسٍ سَأَلَهُمْ النَّبِيُّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ عَنْ شَيْءٍ فَكَتَمُوهُ إِيَّاهُ وَأَخْبَرُوهُ بِغَيْرِهِ فَخَرَجُوا قَدْ أَرَوْهُ أَنْ قَدْ أَخْبَرُوهُ بِمَا سَأَلَهُمْ عَنْهُ

तर्जुमा : “इब्ने अब्बास से रिवायत है कि जब नबी अहले-किताब से कोई सवाल पूछते तो वो लोग उस मज़्मून को दबा लेते और उस की जगह कुछ और ही कह देते और इस ख़याल में चले जाते थे कि मुहम्मद साहब समझेंगे कि जो कुछ उन्हों ने पूछा था वही उन से बयान किया गया।”

ग़ालिबन मुहम्मद साहब ने बाइबल मुक़द्दस को ख़ुद कभी नहीं पढ़ा और बेशक बाअज़ मुसलमान ये दावा करते हैं कि मुहम्मद साहब को पढ़ना नहीं आता था लेकिन ये मुश्तबह अम्र है। बाअज़ मुस्तनद मिसालें अहादीस में भी और मुहम्मद साहब की मुरव्वज सवानिह उम्रियों में भी पाई जाती हैं जिनसे ज़ाहिर होता है कि वो पढ़ भी सकते थे और लिख भी सकते थे। जिनसे इन्कार नामुम्किन है। कलाम-उल्लाह की जो वाक़फ़ीयत उन को हुई वो सिर्फ़ सुनकर ही हुई। अह्दे-अतीक़ और अह्दे-जदीद के क़िस्से सीखने के बहुत मौक़े उन को हासिल थे।

हम ये भी ज़िक्र कर आए हैं कि मुहम्मद साहब ने यहूदीयों से ताल्मूद के क़िस्से भी सुने। इन क़िस्सों को उन्हों ने तौरेत ही का जुज़ समझा। क्योंकि ऐसे बाअज़ क़िस्से क़ुरआन मजीद में भी दाख़िल हो गए। इसी तरह मुहम्मद साहब को अरब के बिद्अती मसीही फ़िर्क़ों से भी मिलने का इत्तिफ़ाक़ हुआ और उन बिद्अतीयों से उन्हों ने बाअज़ जाअली (झूटी) किताबों के क़िस्से भी सुने। इस तरीक़े से बहुत से अफ़साने और झूटे क़िस्से ऐसी जाली किताबों के उन को मालूम हो गए मसलन “मुक़द्दस कुँवारी की क़िबती तारीख़”, “तुफुलिय्यत (बचपन) की इन्जील”, “तोमा इस्राईली की इन्जील” वग़ैरह-वग़ैरह का हाल मुहम्मद साहब ने अपने मसीही आश्नाओं से सुना होगा और मुहम्मद साहब ने उन को भी इन्जील का जुज़ (हिस्सा) क़रार दिया और क़ुरआन मजीद में उन को जगह दी। इस बयान के मुफ़स्सिल सबूत के लिए मुसन्निफ़ की किताब बनाम “चश्मा क़ुरआन मजीद” को देखो। हम यहां ये अम्र सिर्फ इस बात को ज़ाहिर करने के लिए बयान करते हैं कि मुहम्मद साहब को बाइबल मुक़द्दस (तौरेत, ज़बूर, इन्जील) का किस क़द्र महदूद इल्म हासिल था और क़ुरआन मजीद में ऐसे ग़लत क़िस्सों के मुन्दरज (दाखिल) होने की क्या वजह थी?

मसीहीयों के बाअज़ मसाइल के बारे में ग़लत राय पैदा होने की ये वजह थी कि मुहम्मद साहब को बाअज़ मसीही बिद्अती फ़िर्क़ों से मिलने का इत्तिफ़ाक़ हुआ और उन के ग़लत मसाइल को सुना। मसलन मुहम्मद साहब के ज़माने में अरब के बाअज़ हिस्सों में बाअज़ मसीही बिद्अती फ़िर्क़े आबाद थे जिन्हों ने कुँवारी मर्यम की ताज़ीम में इस हद तक मुबालग़ा किया जिस से मुहम्मद साहब को ये ख़याल गुज़रा कि मसीहीयों के मसअला सालूस (तस्लीस) में बाप, बेटा और कुँवारी मर्यम दाख़िल थे और इस की मुख़ालिफ़त इस आयत में है :

وَإِذْ قَالَ اللَّهُ يَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ أَأَنتَ قُلْتَ لِلنَّاسِ اتَّخِذُونِي وَأُمِّيَ إِلَٰهَيْنِ مِن دُونِ اللَّهِ ’’جب خدا کہے گا کہ اَے مسیح ابنِ مریم کیا تُو نے بنی آدم کو کہا تھا کہ مجھے اور میری ماں کو خدا کے سوا دو معبود مانو‘‘؟(سورۃ مائدہ۱۱۶:۵)۔

“जब ख़ुदा कहेगा, कि ऐ मसीह इब्ने मर्यम क्या तूने बनी-आदम को कहा था कि मुझे और मेरी माँ को ख़ुदा के सिवा दो माबूद मानो?” (सूरह माइदा 5:116)

मुहम्मद साहब को जो इल्म तौरेत व इन्जील के बारे में था उस की सेहत या अदम सेहत के बारे में कोई कुछ कह सकता है लेकिन इस के मुताल्लिक़ तो शक की गुंजाइश नहीं कि इन आरा का चश्मा क्या था और उन की क़द्रो क़ीमत क्या थी? उन के बारे में बहुत साफ़ व सरीह आयात आई हैं। मुहम्मद साहब ने हर जगह और हर वक़्त तौरेत व इन्जील को ख़ुदा का मुकाशफ़ा समझा जो ख़ुदा के मुक़द्दस नबियों के वसीले आदमीयों को दिया गया था और इसी वजह से उन की इज़्ज़त व ताज़ीम पर उन्हों ने ज़ोर दिया। अगले बाब में कुछ तफ़्सील के साथ हम इस अम्र की तहक़ीक़ की कोशिश करेंगे कि मुहम्मद साहब की राय उन के बारे में क्या थी और उन्हों ने उन को किस निगाह से देखा?

दूसरा बाब

कलाम-उल्लाह की क़द्र मुहम्मद साहब की निगाह में

ग़ौर से क़ुरआन मजीद का मुतालआ करते वक़्त सबसे पहले ये नज़र आता है कि मुहम्मद साहब ने कलाम-उल्लाह यानी तौरेत, ज़बूर व इन्जील का ज़िक्र कैसे अदब व ताज़ीम के साथ किया। बार-बार इस का ज़िक्र किया कि तौरेत, ज़बूर और इन्जील मिन-जानिबे अल्लाह (यानी अल्लाह की तरफ से) हैं और उन की आला दर्जे की तारीफ़ की। बारहा वो “कलाम-उल्लाह”, “किताब-उल्लाह”, “हिदायत व रहमत”, “आदमीयों के लिए नूर और हिदायत”, “ख़ुदा की शहादत”, “हिदायत नूर” वग़ैरह के नाम से मौसूम हैं।

मुहम्मद साहब ने ये भी बयान किया कि जैसा इल्हाम क़ुरआन मजीद में है, ठीक वैसा ही उन में है। चुनान्चे यह लिखा है :-

إِنَّا أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ كَمَا أَوْحَيْنَا إِلَىٰ نُوحٍ وَالنَّبِيِّينَ مِن بَعْدِهِ وَأَوْحَيْنَا إِلَىٰ إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالْأَسْبَاطِ وَعِيسَىٰ وَأَيُّوبَ وَيُونُسَ وَهَارُونَ وَسُلَيْمَانَ وَآتَيْنَا دَاوُودَ زَبُورًا

“हमने तेरी तरफ़ वही भेजी है जिस तरह हमने नूह और दूसरे पैग़म्बरों की तरफ़ जो उन के बाद हुए वही भेजी थी और जिस तरह हमने इब्राहिम और इस्माईल और इस्हाक़ और याक़ूब और औलाद याक़ूब और ईसा और अय्यूब और यूनुस और हारून और सुलेमान की तरफ़ भेजी थी।” (सूरह निसा 4:163)

एक दूसरे मुक़ाम में मुहम्मद साहब ने इस अम्र से मुतनब्बाह (आगाह किया) किया कि क़ुरआन मजीद और दीगर कुतुब समावी (आस्मानी किताबों) के दर्मियान जो उस से पेश्तर नाज़िल हुईं हैं फ़र्क़ ना करें।

قُولُوا آمَنَّا بِاللَّهِ وَمَا أُنزِلَ إِلَيْنَا وَمَا أُنزِلَ إِلَىٰ إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالْأَسْبَاطِ وَمَا أُوتِيَ مُوسَىٰ وَعِيسَىٰ وَمَا أُوتِيَ النَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمْ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِّنْهُمْ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ

“(मुसलमानों तुम यहूद व नसारा को ये) जवाब दो कि हम तो अल्लाह पर ईमान लाए हैं और जो हम पर उतरा और जो इब्राहिम और इस्माईल और इस्हाक़ और याक़ूब पर उतरा और मूसा और ईसा को जो (किताब) मिलीं उस पर और जो दूसरे पैग़म्बरों को उन के परवरदिगार से मिला उस पर। हम इनमें से किसी एक में भी किसी तरह का फ़र्क़ नहीं समझते और हम उसी एक ख़ुदा के फ़रमांबर्दार हैं।” (सूरह बक़रह 2:136)

मुहम्मद साहब ने कलाम-उल्लाह (तौरेत, ज़बूर, इन्जील, सहीफों) का ज़िक्र सिर्फ़ गहरी ताज़ीम व इज़्ज़त से किया बल्कि हमेशा इसे क़ाबिल-ए-एतिबार और अपने ज़माने के लोगों के लिए इसे “नूर व हिदायत” कहा जैसा कि वो इनसे माक़ब्ल लोगों के लिए था। इसी वजह से उन्होंने एक दफ़ाअ जब उस के और यहूदीयों के दर्मियान खानों के बारे में कुछ तनाज़ा (इख्तिलाफ़) हुआ तो इस का फ़ैसला करने के लिए उन्हों ने तौरेत को पेश किया। ऐसी एक मिसाल इस आयत में पाई जाती है :-

قُلْ فَأْتُوا بِالتَّوْرَاةِ فَاتْلُوهَا إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ

“अगर तुम सच्चे हो, तो तौरेत ले आओ और इस को पढ़ो।” (सूरह आले-इमरान 3:93)

एक दफ़ाअ ये बह्स उठी कि फ़ुलां यहूदीयों को क्या सज़ा दी जाये जो ज़िना के मुर्तक़िब हुए थे। इस के बारे में ये हदीस आई है :-

सहीह बुख़ारी, जिल्द दोम, अम्बिया अलैहिम अस्सलाम का बयान, हदीस 883

فَقَالَ لَهُمْ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ مَا تَجِدُونَ فِي التَّوْرَاةِ فِي شَأْنِ الرَّجْمِ

रसूले ख़ुदा ने उन से कहा, “पथराओ (संगसार) के बारे में तौरेत में तुम क्या पाते हो।” इस पर तौरेत लाई गई और जो कुछ इस किताब में लिखा था उस के मुताबिक़ उन पर फ़त्वा दिया। मुहम्मद साहब के ज़माने में जो कलाम-उल्लाह था उस के मुताल्लिक़ ऐसे वाक़ियात से बहुत रोशनी मिलती है। इनसे कम अज़ कम इतना तो पता लगता है कि उस वक़्त तक तहरीफ़ का कुछ ज़िक्र ना था क्योंकि यहूदीयों के साथ तकरारों में उन्हों ने तौरेत के फ़ैसले को मंज़ूर कर लिया। इलावा अज़ीं उन से ये भी वाज़ेह है कि उस वक़्त तक तहरीफ़ के मसअले का उन को कुछ इल्म ना था क्योंकि उन्होंने ये तस्लीम कर लिया कि उनके हम-अस्र यहूदीयों के लिए मूसा की शरीअत की पाबंदी लाज़िमी थी।

यहूदीयों और मसीहीयों की मुक़द्दस किताबों की निस्बत बार-बार क़ुरआन में ये अल्फ़ाज़ आए हैं कि वो “नूर और हिदायत” हैं। जब सूरते हाल ये हो तो कुछ ताज्जुब की बात नहीं कि मुहम्मद साहब ने अपने पैरौओं (मानने वालों) को ये नसीहत दी कि जब उन को कोई मज़्हबी शक हो तो अहले-किताब से सलाह लें। ऐसी सलाह क़ाबिल-ए-लिहाज़ है और इस से अयाँ है कि इस्लाम के नबी साहब बाइबल मुक़द्दस की क्या क़द्र करते थे? जिस आयत में इस का ज़िक्र हुआ वो ये है “हमने तुमसे पहले भी ऐसे आदमी भेजे थे जिनकी तरफ़ हमने वही की थी। अगर तुमको ख़ुद मालूम नहीं तो पिछली किताबों के पढ़ने पढ़ाने वालों से पूछ देखो।” (सूरह 16:43) इस आयत में जो लफ़्ज़ أَهْلَ الذِّكْرِ आया है जिसका तर्जुमा “पढ़ने पढ़ाने वाले” किया गया। जलालेन में इस की तफ़्सीर ये है “तौरेत और इन्जील के आलिम।” अब्बास ने भी यही मअनी समझे “अहले तौरेत व इन्जील” मज़ीद तफ़्सीर फ़ुज़ूल होगी।

कहाँ तक मुहम्मद साहब बाइबल मुक़द्दस की क़द्र करते थे, वो इस अम्र से भी ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब ने अपने ज़माने के यहूदीयों और मसीहीयों को उन पर अमल करने की ताकीद की। चुनान्चे क़ुरआन मजीद की कई आयतों में इस की शहादत मिलती है, मसलन सूरह माइदा 5:68 में यह लिखा है :-

قُلْ يَا أَهْلَ الْكِتَابِ لَسْتُمْ عَلَىٰ شَيْءٍ حَتَّىٰ تُقِيمُوا التَّوْرَاةَ وَالْإِنجِيلَ وَمَا أُنزِلَ إِلَيْكُم مِّن رَّبِّكُمْ

“ऐ अहले-किताब जब तक तुम तौरेत और इन्जील और उन (सहीफ़ों) को जो तुम पर तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से नाज़िल हुए हैं क़ायम ना रखोगे तो कुछ बहरा नहीं।”

एक दूसरा मुक़ाम जिसमें ज़िक्र है कि बाइबल मुक़द्दस ना मुहर्रिफ़ है और ना मन्सूख़ ये है :-

وَقَفَّيْنَا عَلَىٰ آثَارِهِم بِعِيسَى ابْنِ مَرْيَمَ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرَاةِ وَآتَيْنَاهُ الْإِنجِيلَ فِيهِ هُدًى وَنُورٌ وَمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرَاةِ وَهُدًى وَمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِينَ وَلْيَحْكُمْ أَهْلُ الْإِنجِيلِ بِمَا أَنزَلَ اللَّهُ فِيهِ

“और बाद को उनके क़दम ब क़दम हमने मर्यम के बेटे ईसा को चलाया कि वो तौरात की जो उन के वक़्त में पहले से मौजूद थी तस्दीक़ करते थे और उन को हमने इन्जील भी दी जिसमें हर तरह की हिदायत और नूर मौजूद है और तौरेत जो उस के नुज़ूल के ज़माने में पहले से मौजूद थी, ये इन्जील उस की तस्दीक़ भी करती और ख़ुद भी परहेज़गारों के लिए हिदायत और नसीहत है और अहले-इन्जील को चाहीए था कि जो हुक्म उस में ख़ुदा ने उतारे हैं उसी के मुताबिक़ हुक्म दिया करें।” (सूरह माइदा 5:46-47)

यहां इन्जील मिन-जानिब अल्लाह (अल्लाह की तरफ से) हिदायत कहलाती है, ना ऐसी किताब जो क़ुरआन मजीद से मन्सूख़ हो गई हो, बल्कि वो ऐसा मेयार था जिसके ज़रीये से मुहम्मद साहब के हम-अस्र मसीही हक़ व ना-हक़ के माबैन इम्तियाज़ कर सकते थे और जो लोग इस से ये फ़ायदा ना उठाएं वो ख़ुदा की नज़र में गुनेहगार थे क्योंकि इस आयत में आगे चल कर लिखा था :-

وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللَّهُ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الْفَاسِقُونَ

“और जो ख़ुदा के उतारे हुए हुक्मों के मुताबिक़ हुक्म ना दे तो यही लोग नाफ़र्मान हैं।” (सूरह माइदा 5:47)

एक दूसरी आयत में बाइबल मुक़द्दस के अहकाम की पाबंदी पर ज़ोर दिया गया है :-

وَلَوْ أَنَّهُمْ أَقَامُوا التَّوْرَاةَ وَالْإِنجِيلَ وَمَا أُنزِلَ إِلَيْهِم مِّن رَّبِّهِمْ لَأَكَلُوا مِن فَوْقِهِمْ وَمِن تَحْتِ أَرْجُلِهِم مِّنْهُمْ أُمَّةٌ مُّقْتَصِدَةٌ وَكَثِيرٌ مِّنْهُمْ سَاءَ مَا يَعْمَلُونَ

“और अगर ये लोग (अहले-किताब) तौरात और इन्जील और उन (सहीफ़ों) को जो उन पर उन के परवरदिगार की तरफ़ से उतरे हैं क़ायम रखते तो ज़रूर हम उन को ऐसी बरकत देते कि उन के ऊपर से रिज़्क़ बरसता और पांव के तले से उबलता और ये फ़राग़त से खाते।” (सूरह मायदा 5:66)

जिन तीन आयात का पहले ज़िक्र हुआ उन से शक की गुंजाइश नहीं रहती कि मुहम्मद साहब की राय बाइबल मुक़द्दस के बारे में क्या थी। ना सिर्फ अपनी ख़िदमत के शुरू में बल्कि मदीना को हिज्रत करने के चंद साल बाद भी उन्हों ने अपने ज़माने के यहूदीयों और मसीहीयों को तौरेत व इन्जील पर चलने की ताकीद ऐसे अल्फ़ाज़ में की जिनमें शक को जगह नहीं। उन को ये हुक्म था कि बाइबल मुक़द्दस के मुताबिक़ अमल करें, उसी के मुताबिक़ फ़ैसला करें। अगर उन के दीन का हिस्र (अहाता) उन मुक़द्दस किताबों पर ना हो तो उनका दीन बे-सूद व रायगां था और अगर वो मूसा और ईसा की मार्फ़त मिली हुई शरीअतों पर ना चलें तो उनका दावा दीन का बातिल था और जो उन शरीअतों पर अमल करते हैं उन से ख़ुदा की मक़बूलियत और बरकत का वाअदा था। क्या इस से ज़्यादा साफ़ बयान हो सकता है जिससे ये अम्र साबित हो कि मुहम्मद साहब की राय में उन के ज़माने की मुरव्वजा तौरेत व इन्जील ग़ैर मुहर्रिफ़ (नहीं बदली हुई) और ना मन्सूख़ थीं?

ये तो सच्च है कि मुहम्मद साहब ने यहूदीयों के साथ बह्स करते वक़्त उन पर ये इल्ज़ाम तो लगाया कि वो अपनी कुतुब मुक़द्दसा की ग़लत तफ़्सीर करते और ऐसे इक़्तिबास करते थे जिनका क़रीने (सहीह मफहूम) के साथ कुछ ताल्लुक़ ना था और सदाक़त को छुपाते थे। अहले इस्लाम का आजकल यही दस्तूर है जब वो जनाब मसीह के दआवों (दावे की जमा) के मुताल्लिक़ मसीहीयों से बह्स करते हैं। क़ुरआन मजीद की ऐसी आयात की ग़लत तफ़्सीर के बाइस आज बहुत से मुसलमान ये ख़याल करने लगे हैं कि मुहम्मद साहब ने यहूदीयों पर ये इल्ज़ाम लगाया था कि उन्होंने दानिस्ता अपनी मुक़द्दस किताबों में तहरीफ़ की। एहतियात से ऐसी आयात का मुतालआ करने से यह बख़ूबी वाज़ेह हो जाएगा कि अस्ल बात ये ना थी, जैसा कि ये मुहम्मदी साहिबान इल्ज़ाम लगाते हैं। अगर यहूदीयों ने ऐसा किया होता तो मुहम्मद साहब ऐसे अल्फ़ाज़ इस्तिमाल ना करते जिनको हमने पेश किया है। इसलिए हम अगले बाब में क़ुरआन मजीद के उन ख़ास मुक़ामों पर ब-तफ़सील ग़ौर करेंगे जिनको मुहम्मदी साहिबान बाइबल मुक़द्दस (यानी तौरेत, ज़बूर, इन्जील) की तहरीफ़ साबित करने के लिए पेश किया करते हैं। हर जगह यही ज़ाहिर होगा कि उन्हों ने ऐन नस (क़तई हुक्म, वो कलाम जो वाज़ेह और हो) में कोई तब्दीली ना की थी। सिर्फ उस के मअनी को बिगाड़ा था यानी उस आयत की ग़लत तफ़्सीर की थी। इस से ज़्यादा वहां और कुछ नहीं मिलता।

तीसरा बाब

अज़रूए क़ुरआन मजीद, तहरीफ़ का इल्ज़ाम ज़माना हाल में

सर सय्यद अहमद ख़ान मर्हूम ने लफ़्ज़ “तहरीफ़” की ये तारीफ़ की, “इमाम फ़ख़्रउद्दीन राज़ी ने अपनी तफ़्सीर में ये बयान किया कि लफ़्ज़ तहरीफ़ के मअनी हैं बदलना तब्दील करना, राहे सदाक़त से फेरना।” इस लफ़्ज़ के ये आम मअनी हैं लेकिन जहां कहीं ये लफ़्ज़ मुक़द्दस नविश्तों के बारे में मुस्तअमल (इस्तिमाल) हुआ वहां इत्तिफ़ाक़ राय से इस के ये मअनी समझे गए “ख़ुदा के कलाम को उस की सदाक़त और अस्ल मअनी व मक़सद (इरादा) से अम्दन (जानबूझ कर) बिगाड़ना।”

उमूमन तहरीफ़ दो क़िस्म की होती है :-

एक को “तहरीफ़ लफ़्ज़ी” कहते हैं यानी जहां नस इबारत में तब्दीली हुई हो।

दूसरी “तहरीफ़ माअनवी” है जहां ग़लत तफ़्सीर व तश्रीह के ज़रीये मअनी को बिगाड़ा हो।

यहूदीयों और मसीहीयों की मुक़द्दस किताबों की तहरीफ़ की बह्स का दारोमदार इन्हीं दो किस्मों पर है। ख़ुद मुहम्मद साहब ने क़ुरआन मजीद के अक्सर क़दीम मुफ़स्सिरों की तरह यहूदीयों पर तहरीफ़ माअनवी का इल्ज़ाम लगाया। उन्होंने ये इल्ज़ाम लगाया था कि जब तौरेत की ताअलीम या बाअज़ उमूर की निस्बत उन से सवाल किया जाता था तो वो ग़लत तफ़्सीर के ज़रीये या सदाक़त को छिपाने के ज़रीये से उन के मअनी बदल डालते थे। ज़माना-ए-हाल के अक्सर मुसलमान बाइबल मुक़द्दस को क़ुबूल ना करने की ये वजह बयान करते हैं कि यहूदीयों और मसीहीयों दोनों ने जान-बूझ कर बाइबल मुक़द्दस की नस (इबारत) में तब्दीली की। उनका ये दावा है कि मुहम्मद साहब के आने की पेशीनगोईयां थीं वो उन्हों ने निकाल दीं और मसीह की उलूहीयत के बारे में बहुत आयात डाल दीं। वो अपने इस दावे के इस्बात (सबूत) के लिए चंद मुक़ामात क़ुरआन मजीद से पेश करते हैं जिनमें उन के ख़याल में यहूदीयों पर ये इल्ज़ाम लगाया गया है कि उन्हों ने अपनी मुक़द्दस किताबों की नस (इबारत) को बदल डाला। अब हमारा फ़र्ज़ ये है कि इन सारे मुक़ामात की तहक़ीक़ करें और हम आसानी से यह दिखा सकेंगे कि उन में से किसी मुक़ाम में भी मुहम्मद साहब का ये मंशा (इरादा) ना था।

तहरीफ़ की तस्दीक़ में उमूमन ये आयत पेश की जाती है,یُحَرِّفُوۡنَ الۡکَلِمَ عَنۡ مَّوَاضِعِہٖ तर्जुमा : “लफ़्ज़ों को उन की जगह से फेरते हैं।” (सूरह माइदा 5:13)

बुख़ारी ने इस की ये तफ़्सीर की :-

يُحَرِّفُونَ يُزِيلُونَ وَلَيْسَ أَحَدٌ يُزِيلُ لَفْظَ كِتَابٍ مِنْ كُتُبِ اللَّهِ عَزَّ وَجَلَّ وَلَكِنَّهُمْ يُحَرِّفُونَهُ يَتَأَوَّلُونَهُ عَلَى غَيْرِ تَأْوِيلِهِ

तर्जुमा : “वो बदलते यानी हटाते हैं लेकिन कोई ऐसा शख़्स नहीं जो किताब-उल्लाह (अल्लाह किताब) में से एक लफ़्ज़ भी हटा सके।” इसलिए इस लफ़्ज़ “वो बदलते हैं।” से मुराद है “वो उस के मअनी (मफ्हुम) बदलते हैं।”

सय्यद साहब ने ख़ुद अपनी वासिक़ राय इन अल्फ़ाज़ में ज़ाहिर की “जो जुम्ला इन अल्फ़ाज़ के बाद आता है यानी ये कि जो नसीहत उन को मिली थी वो भूल गए। उस से ये ज़ाहिर होता है कि इस के ये मअनी हैं कि उन्हों ने इन अल्फ़ाज़ के मअनी व मक़्सद (मफ्हुम) को बदल डाला, ना ये कि उन्होंने ख़ुद लफ़्ज़ों को बदल डाला।”

इसी क़िस्म का इल्ज़ाम कि यहूदीयों ने अल्फ़ाज़ को उन की जगह से बदल डाला सूरह निसा 4:46 में आया है। वहां ये लिखा है :-

مِّنَ الَّذِينَ هَادُوا يُحَرِّفُونَ الْكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِ وَيَقُولُونَ سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا وَاسْمَعْ غَيْرَ مُسْمَعٍ وَرَاعِنَا لَيًّا بِأَلْسِنَتِهِمْ وَطَعْنًا فِي الدِّينِ

तर्जुमा : “यहूद में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अल्फ़ाज़ को उन की जगह (यानी असली माअनों) से फेरते हैं और ज़बान को मरोड़ मरोड़ कर और दीन में, سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا وَاسْمَعْ غَيْرَ مُسْمَعٍ وَرَاعِنَا कह कर ख़िताब करते हैं।” क़ुरआन मजीद की मुस्तनद तफ़्सीरों के देखने से बख़ूबी वाज़ेह हो जाएगा कि ना इस आयत में और ना इस से माक़बल आयत में यहूदी तौरेत की लफ़्ज़ी तहरीफ़ का कोई सबूत है, बल्कि बरअक्स इस के ये ज़ाहिर होता है कि जो अल्फ़ाज़ मज़्कूर हैं वो मुहम्मद साहब के अल्फ़ाज़ हैं मसलन जलालेन में ये मज़्कूर है कि मुहम्मद साहब की हंसी उड़ाने के लिए बाअज़ यहूदी मुरवज्जह सलाम को कुछ-कुछ बदल कर सलाम करते थे मसलन “السلام علیک” की जगह वो “السام علیک” (यानी तुझ पर आफ़त आए) कहा करते थे। यूं वो अपनी ज़बान और बोली से उन को हैरान करते थे। इमाम फ़ख़्र उद्दीन राज़ी कहते हैं कि बाअज़ यहूद मुहम्मद साहब के पास आकर उन से कुछ सवाल पूछा करते थे लेकिन उन से रुख़्सत होते वक़्त जो अल्फ़ाज़ मुहम्मद साहब ने सिखाए थे उन को बदल डालते थे। लफ़्ज़ رَاعِنَا की तफ़्सीर अब्दुल क़ादिर ने ये की है :-

“ये लफ़्ज़ यहूदीयों की ज़बान में बुरी बात थी या गाली थी। मुसलमानों को देखकर यहूदी भी मअनी बद अपने दिल में रख कर हज़रत को कहते कि رَاعِنَا इस वास्ते मुसलमानों को हुक्म हुआ कि लफ़्ज़ رَاعِنَا ना कहो।”

हुसैन ने ये लिखा :-

“यहूद راعیناके ऐन (عین) के ज़ेर को बढ़ा कर راعینا कहते थे यानी ऐ हमारे चरवाहे यानी आँहज़रत सल्ललाहो अलैहि वसल्लम पर गाय बकरी चुराने के साथ तअन व तइज़ करते थे।”

इसी तफ़्सीर में ये भी लिखा है कि इस के मअनी ये थे कि ख़ुदा ने मुहम्मद साहब को मुख़ातब कर के ये कहा, “ऐ मेरे हबीब तेरे दुश्मन यहूद तेरी बातें अपने महल और मौके़ से बदल डालते हैं।” मुफ़स्सिरों के इन बयानात से ये अयाँ है कि बाइबल मुक़द्दस की तहरीफ़ साबित करने के लिए जो आयत पेश की गई, उस में उस की तरफ़ इशारा तक नहीं बल्कि ये ज़िक्र है कि यहूदी मुहम्मद साहब के अल्फ़ाज़ को तोड़-मोड़ किया करते थे। ये इस अम्र की मिसाल है कि बाअज़ जाहिल मुसलमान क़ुरआन मजीद की ताअलीम के बारे में कैसी ग़लती में पड़ जाते हैं।

इसी क़िस्म के लोग क़ुरआन मजीद की इस आयत का हवाला भी दिया करते हैं,

وَقَدْ كَانَ فَرِيقٌ مِّنْهُمْ يَسْمَعُونَ كَلَامَ اللَّهِ ثُمَّ يُحَرِّفُونَهُ مِن بَعْدِ مَا عَقَلُوهُ وَهُمْ يَعْلَمُونَ

तर्जुमा : “और उनका हाल ये है कि उनमें कुछ लोग ऐसे भी हो गुज़रे हैं कि कलाम-ए-ख़ुदा सुनते थे फिर उस के समझे पीछे दीदा व दानिस्ता उस को कुछ का कुछ कर देते थे।” (सूरह बक़रा 2:75)

क़ाज़ी बैज़ावी ने इस मुक़ाम की ये तफ़्सीर की है :-

كَنَعْتِ مُحَمَّدٍ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، وَآيَةِ الرَّجْمِ أَوْ تَأْوِيلَهُ فَيُفَسِّرُونَهُ بِمَا يَشْتَهُونَ

तर्जुमा : “मसलन रसूलुल्लाह का हुलिया या पथराओ की आयत या उस की तफ़्सीर क्योंकि वो उनकी तश्रीह अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक़ किया करते थे।”

सर सय्यद अहमद ख़ान मर्हूम ने भी इस मुक़ाम की ये तफ़्सीर की :-

“ये जुम्ला कि वो कलाम-ए-ख़ुदा सुनते थे फिर उस के समझे पीछे “कुछ का कुछ कर देते थे” ज़ाहिर करता है कि इल्ज़ाम ये था कि वो पढ़ते वक़्त कुछ का कुछ पढ़ देते थे ना ये कि तहरीरी किताब के अल्फ़ाज़ बदल देते थे।”

ख़ुद मुहम्मद साहब के अल्फ़ाज़ से ये वाज़ेह है कि इस मुक़ाम के मअनी फ़िल-हक़ीक़त क्या हैं? क्योंकि अगर यहूदी अपने कलाम-उल्लाह की नस इबारत को बदल डालते तो वो ऐसे मुहर्रिफ़ नविश्तों को उन के और अपने दर्मियान तनाज़े फ़ैसला करने के लिए पेश ना करते। बुख़ारी के इस बयान से पता लगता है कि यहूदीयों के लिए मुसलमानों को गुमराह करना और फ़रेब देना आसान था।

सही बुख़ारी, जिल्द दोम, तफ़ासीर का बयान, हदीस 1665

रावी : मुहम्मद बिन बशार, उस्मान बिन उमर, अली बिन मुबारक, याह्या बिन अबी कसीर, अबी सलमा, अबू हुरैरा :-

أَبِي هُرَيْرَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ کَانَ أَهْلُ الْکِتَابِ يَقْرَئُونَ التَّوْرَاةَ بِالْعِبْرَانِيَّةِ وَيُفَسِّرُونَهَا بِالْعَرَبِيَّةِ لِأَهْلِ الْإِسْلَامِ

तर्जुमा : “अबू हुरैरा से रिवायत है कि उस ने कहा, कि अहले-किताब इब्रानी में तौरात पढ़ा करते थे और अरबी में मुसलमानों से उस की तश्रीह किया करते थे।”

ऐसी हालत में पेश कर्दा इबारत के ग़लत मअनी बताना यहूदीयों के लिए कैसा आसान था।

अहले इस्लाम तहरीफ़ के सबूत में एक मुक़ाम ये भी पेश किया करते हैं :-

إِنَّ الَّذِينَ يَكْتُمُونَ مَا أَنزَلْنَا مِنَ الْبَيِّنَاتِ وَالْهُدَىٰ مِن بَعْدِ مَا بَيَّنَّاهُ لِلنَّاسِ فِي الْكِتَابِ أُولَٰئِكَ يَلْعَنُهُمُ اللَّهُ وَيَلْعَنُهُمُ اللَّاعِنُونَ

तर्जुमा : “वो जो हमने खुले हुए अहकाम और हिदायत की बातें उतारीं और किताब (तौरेत) में हम ने लोगों को साफ़-साफ़ समझा दीं। इस के बाद भी जो उन को छुपाएं तो यही लोग हैं जिन पर ख़ुदा लानत करता है और दुनिया-भर के लानत करने वाले भी उन पर लानत करते हैं।” (सूरह बक़रा 2:159)

जिस छिपाने की तरफ़ यहां इशारा है इस का मतलब बाअज़ जाहिल लोग ये समझते हैं कि यहूदीयों ने बाअज़ इबारात अपनी किताबे मुक़द्दस से निकाल डालीं लेकिन क़ुरआन मजीद के मशहूर मुफ़स्सिरों से पता लगता है कि ये मअनी हरगिज़ नहीं। चुनान्चे राज़ी ने अपनी तफ़्सीर कबीर में ये लिखा :-

قال ابن عباس إن جماعة من الأنصار سألوا نفراً من اليهود عمّا في التوراةِ من صفته صلى الله عليه وسلم ومن الأحكام فكتموا فنزلت الآية

तर्जुमा : “इब्ने अब्बास ने कहा कि अंसार की एक जमाअत ने एक यहूदी गिरोह से पूछा कि मुहम्मद साहब के बारे में तौरेत में क्या लिखा था, और बाअज़ दीगर अहकाम के बारे में क्या आया था? लेकिन उन्हों ने इस बात को छुपा लिया और इस वक़्त ये आयत नाज़िल हुई।”

मुहम्मद साहब के सवानिह नवीस (सीरत लिखने वाले) इब्ने हिशाम ने भी इस मुक़ाम की यही तफ़्सीर की। उस ने बयान किया कि बाअज़ लोगों ने :-

سأل اليهود عن بعض ما في التوراة فاكتموه إياهم وأبوا أن يخبروهم عنه فأنزل الله عزّ وجلّ إن الذينَ يكتمون

“यहूदीयों से तौरेत की बाअज़ बातों के बारे में पूछा लेकिन उन्हों ने ये बात छुपा ली और उन को मुत्ला`अ (बाख़बर) करने से इन्कार किया। तब ख़ुदा-ए-अज़्ज़ोजल ने ये अल्फ़ाज़ नाज़िल किए اِن الذین یکتمون वग़ैरह। फ़िल-हक़ीक़त यहूदीयों का सच्चाई को इस तरह से छुपाना क़ुरआन मजीद में कई बार मज़्कूर हुआ है, लेकिन किसी जगह उस के ये मअनी नहीं कि उन्होंने अपने कलाम-उल्लाह (अल्लाह के कलाम) में से किसी इबारत को निकाल दिया या किसी इबारत को बदल डाला। मिश्कात-उल-मसाबिह में एक मशहूर हदीस आई है जिससे इस मुआमले पर बड़ी रोशनी पड़ती है और उस से बख़ूबी साबित हो जाता है कि ख़ुदा के कलाम के “छिपाने” के क्या मअनी हैं। ये हदीस उस किताब की फ़स्ल किताब-उल-हदूद में है। इस का तर्जुमा ये है :-

अब्दुल्लाह इब्ने उमर से रिवायत है कि यहूद रसूलुल्लाह साहब के पास आए और उन्हें ख़बर दी कि एक यहूदी मर्द और एक यहूदी औरत ज़िना के मुर्तक़िब हुए। रसूल-ए-ख़ूदा ने उन्हें कहा, “पथराओ के बारे में तौरेत में क्या लिखा है?” उन्हों ने जवाब दिया कि “उन को बेइज़्ज़त कर के कोड़े मारो।” अब्दुल्लाह बिन सलाम ने जवाब दिया, “तुम झूट बोलते हो उन को पथराओ करने का हुक्म इस में मौजूद है।” तब उन्हों ने तौरेत ला कर उन के सामने खोली और जो कुछ उस के माक़ब्ल या माबाअ्द इबारत थी वो पढ़ी, लेकिन अब्दुल्लाह बिन सलाम ने कहा, “अपने हाथ उठाओ।” तब उस ने अपने हाथ उठाए तो वो पथराओ की आयत वहां थी। तब उन्हों ने कहा, “उस ने सच्च कहा है, इस में ऐ मुहम्मद पथराओ की आयत है।” तब रसूलुल्लाह साहब ने हुक्म दिया कि “उन दोनों को पथराओ करो और ऐसा ही किया गया।”

इस हदीस में इस अम्र की दिलचस्प मिसाल है कि यहूदी कलाम-उल्लाह (अल्लाह के कलाम) को किस तरह छुपाया करते थे और इस से उन की तक़्ज़ीब होती है जो बाइबल मुक़द्दस की नस (इबारत) में तहरीफ़ होने का दावा करते हैं। तौरेत में तहरीफ़ साबित करने के लिए ये आयत भी पेश की जाती है :-

يَا أَهْلَ الْكِتَابِ لِمَ تَكْفُرُونَ بِآيَاتِ اللَّهِ وَأَنتُمْ تَشْهَدُونَ

तर्जुमा : “ऐ अहले-किताब क्यों हक़ व बातिल को गड मड करते और हक़ को छुपाते हो।”

मुहम्मद साहब के सवानिह नवीस (सीरत के मुसन्निफ़) इब्ने हिशाम ने इस आयत के शाने नुज़ूल के मौक़े का ज़िक्र किया और उन लोगों की राय को रद्द किया जो ये कहते हैं कि बाइबल मुक़द्दस मुहर्रिफ़ है। उस ने ये लिखा :-

قال عبد الله بن الصيِّف، وعدي بن زيد، والحارث بن عوف، بعضهم لبعض: تعالوا نؤمن بما أنزل على محمد وأصحابه غُدْوةً ونكفُر به عشيةً، حتى نلبس عليهم دينهم، لعلهم يصنعون كما نصنعُ، فيرجعوا عن دينهم! فأنـزل الله عز وجل فيهم: يَا أَهْلَ الْكِتَابِ لِمَ تَلْبِسُونَ الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُونَ الْحَقَّ وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ

तर्जुमा : “अबू अब्दुल्लाह बिन ज़ईफ़ वहदी बिन ज़ैद और हारिस बिन औफ़ ने आपस में कहा, “आओ हम सुबह के वक़्त जो कुछ मुहम्मद पर नाज़िल हुआ और उस के अस्हाब पर ईमान लाएं लेकिन शाम को उस का इन्कार कर दें ताकि वो अपने दीन में परेशान हों और वो भी एसा ही करें जैसा हम करते हैं और उन के दीन से उन को फेर दें।” फिर ख़ुदा-ए-अज़्ज़ व जल ने उन के बारे में ये आयत नाज़िल की “ऐ अहले-किताब क्यों हक़ व बातिल को गड मड करते हो और हक़ को छुपाते हो।”

इब्ने हिशाम के इन अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है कि इस मुक़ाम ज़ेर-ए-बहस में बाइबल मुक़द्दस की तरफ़ कोई इशारा नहीं। इस में चंद दरोग़ गो यहूदीयों का ज़िक्र है जो मुसलमानों को उन के दीन से गुमराह करने की ग़र्ज़ से सुबह को तो मुहम्मद साहब और क़ुरआन मजीद पर ईमान लाने का इक़रार करते थे और हक़ को छुपाते थे और अपने असली इरादे को बातिल से मुलब्बस करते थे लेकिन शाम के वक़्त वो बरमला उस का इन्कार करते थे।

तौरेत में तहरीफ़ साबित करने की ख़ातिर ये आयत भी पेश किया करते हैं :-

وَإِنَّ مِنْهُمْ لَفَرِيقًا يَلْوُونَ أَلْسِنَتَهُم بِالْكِتَابِ لِتَحْسَبُوهُ مِنَ الْكِتَابِ وَمَا هُوَ مِنَ الْكِتَابِ وَيَقُولُونَ هُوَ مِنْ عِندِ اللَّهِ وَمَا هُوَ مِنْ عِندِ اللَّهِ

तर्जुमा : “इन ही में एक फ़िर्क़ा है जो किताब (तौरेत) पढ़ते वक़्त अपनी ज़बान को मरोड़ते हैं ताकि तुम समझो कि वो किताब का जुज़ (हिस्सा) है, हालाँकि वो किताब का जुज़्व (हिस्सा) नहीं और कहते हैं कि ये जो हम पढ़ रहे हैं अल्लाह के हाँ से उतरा है। हालाँकि वो अल्लाह के हाँ से नहीं उतरा।” (सूरह आले-इमरान 3:78)

ख़याल तो ये गुज़रता था कि इस मुक़ाम का ग़ौर से मुतालआ करने ही से मुतअस्सिब से मुतअस्सिब शख़्स को यक़ीन हो जाएगा कि तौरेत के नस (इबारत) की तहरीफ़ का यहां कुछ ज़िक्र नहीं। ज़बान के तोड़ने मरोड़ने से मुराद ये है कि किताब को पढ़ते वक़्त ये तब्दीली कर दिया करते थे। इस अम्र को सर सय्यद अहमद ख़ान ने तफ़्सीर बाइबल मुक़द्दस में तस्लीम कर लिया और ये कहा, “ये आयत ज़ाहिर करती है कि किताबे मुक़द्दस के पढ़ने वाले नस इबारत की जगह अपने लफ़्ज़ पढ़ दिया करते थे लेकिन इस से ये ज़ाहिर नहीं होता कि ख़ुद किताबी इबारत में कुछ बढ़ा घटा देते थे।”

मशहूर मुफ़स्सिर इब्ने अब्बास ने इस आयत की ये तफ़्सीर की :-

يقولون على الله الكذب وهم يعلمون أنه ليس ذلك في كتابهم

तर्जुमा : “वो ख़ुदा पर झूट बाँधते हैं और वो जानते हैं कि जो कुछ वो कहते वो किताब में नहीं है।”

इब्ने अब्बास ने इसे बख़ूबी वाज़ेह कर दिया कि बाअज़ यहूदीयों की ये आदत थी कि तौरेत को पढ़ते वक़्त बाअज़ लफ़्ज़ या जुम्ले ज़ाइद पढ़ दिया करते थे जो उस किताब में ना थे जो उन के सामने खुली हुई थी। इस से रोशन है कि नस इबारत में कोई तब्दीली नहीं हुई।

जलालेन में भी इस मुक़ाम की यही तफ़्सीर की गई है :-

يعطفونها بقراءته عن الْمُنْزَل

तर्जुमा : “वो पढ़ने में इस को अपनी जगह से बदल डालते हैं।”

तफ़्सीर दुर्रे-मंसूर के मुसन्निफ़ की राय को क़लम-बंद करना भी ख़ाली अज़ फ़ायदा ना होगा। वो कहते हैं :-

وأخرج اِبْنُ الْمُنْذِرِ وَابْنُ أَبِي حَاتِمٍ عَنْ وَهْبِ بْنِ مُنَبِّهٍ قَالَ: إِنَّ التَّوْرَاةَ وَالْإِنْجِيلَ كَمَا أَنْزَلَهُمَا اللَّهُ لَمْ يُغَيَّرْ مِنْهُمَا حَرْفٌ وَلَكِنَّهُمْ يَضِلُّونَ بِالتَّحْرِيفِ وَالتَّأْوِيلِ وَالكُتُبٍ كَانُوا يَكْتُبُونَهَا مِنْ عِنْدِ أَنْفُسِهِمْ، وَيَقُولُونَ هُوَ مِنْ عِنْدِ اللَّهِ، فَأَمَّا كُتُبُ اللَّهِ تَعَالَى فَإِنَّهَا مَحْفُوظَةٌ لَا تُحَوَّلُ

तर्जुमा : “इब्ने मंज़र और इब्ने हातिम ने वह्ब इब्ने मंबा से रिवायत की कि तौरेत व इन्जील से एक हर्फ़ भी बदला (तहरीफ़) नहीं किया। जैसी वो ख़ुदा से नाज़िल हुई थी वो वैसी ही है लेकिन वो (यहूदी) उन के मअनी बदलने और उलट पलट करने के वसीले लोगों को गुमराह करते थे। फिर वो अपनी तरफ़ से किताबें लिख कर ये कहा करते थे कि वो मिन-जानिब अल्लाह (अल्लाह की तरफ से) थीं हालाँकि वो मिन-जानिब अल्लाह ना थीं, लेकिन ख़ुदा की असली किताबें तहरीफ़ से महफ़ूज़ थीं और उन में कुछ तब्दीली नहीं हुई।” (तफ़्सीर दुर्रे-मंसूर जिल्द दुवम सफ़ा 269, पब्लिशर दार-उल-इशाअत उर्दू बाज़ार कराची पाकिस्तान)

बड़े बड़े मुसलमान मुफ़स्सिरों के मज़्कूर बाला बयानात से ये बख़ूबी वाज़ेह है कि क़ुरआन मजीद ने तहरीफ़-ए-लफ़्ज़ी का कोई इल्ज़ाम नहीं लगाया। सिर्फ ये साबित हुआ कि अरब के बाअज़ यहूदी अपने मुसलमान सामईन (सुनने वालों) की बेइल्मी से फ़ायदा उठा कर कलाम-उल्लाह के बाअज़ मुक़ामात की ग़लत तफ़्सीर के ज़रीये से उन को गुमराह किया करते थे। वो मुक़द्दस किताबें इब्रानी में लिखी हुई थीं और मुसलमानों को समझाने के लिए इनका तर्जुमा अरबी में करना पड़ता था, इसलिए इन किताबों के ग़लत मअनी बताने का उन को बहुत मौक़ा हासिल था। चुनान्चे एक मिसाल का ज़िक्र आ चुका है कि दो शख्सों को पथराओ की मौत की सज़ा से बचाने के लिए बाअज़ यहूदीयों ने ये कह दिया कि तौरेत में ज़िना की सज़ा सिर्फ़ कोड़े लगाना था और ये इल्ज़ाम कभी ना लगाया गया कि यहूदीयों ने पथराओ की आयत को तौरेत से निकाल डाला था। इस अम्र की काफ़ी शहादत आज तक मिलती है कि यहूदीयों ने अपनी मुक़द्दस किताबों की हिफ़ाज़त कैसी एहतियात की।

दूसरे मज़्मून पर जाने से पहले एक या दो और आयात का ज़िक्र करना मुनासिब होगा। बाज़ औक़ात बाइबल मुक़द्दस की तहरीफ़ साबित करने के लिए ये आयत भी पेश की जाती है :-

وَلَا تَلْبِسُوا الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُوا الْحَقَّ وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ

तर्जुमा : “और हक़ को बातिल से ना मुलब्बस करो और ना हक़ को छुपाओ जैसा कि तुम जानते हो।” (सूरह बक़रह 2:42)

इस आयत की तफ़्सीर में सर सय्यद अहमद ख़ान ने ये कहा :-

“इमाम फ़ख़्र-उद्दीन राज़ी की तफ़्सीर से हमको ये ताअलीम मिलती है कि इस आयत की ये तश्रीह की जाती थी। पुराने और नए अहद नामों में मुहम्मद रसूलुल्लाह साहब की आमद के बारे में बाअज़ पेश गोईयां ज़ू-मअनी (दो मअनी) थीं और आला दर्जे के ग़ौर व फ़िक्र और शरह की मदद के बग़ैर उनके मअनी समझ में ना आते थे। अब ये यहूदी इन पेश गोइयों की सही तफ़्सीर नहीं करते थे बल्कि फ़ुज़ूल बह्स व तकरार में वक़्त ज़ाए करते थे और खींची तानी दलाईल से और ग़ैर-मन्तिक़ी बुरहान से उन के असली मअनी ज़ाइल कर देते थे। इस वजह से ये आयत आस्मान से नाज़िल हुई और उनको ताकीद हुई कि हक़ में बातिल ना मिलाओ और ऐसे शुब्हात से जो वो किताबे मुक़द्दस के उन ज़ेर-ए-बहस मुक़ामों पर सही माअनों को छिपाने के लिए डाला करते थे लोगों को गुमराह करते थे।”

इस इक़्तिबास से इस अम्र की तश्रीह होती है कि अल्फ़ाज़ के ग़लत मअनी करने का इल्ज़ाम उन यहूदीयों पर लगाया गया। ना कि इस अम्र का कि उन्हों ने किताब में अल्फ़ाज़ को बदल डाला। राज़ी की मशहूर तफ़्सीर में से मुफ़स्सला-ज़ैल इक़्तिबास इस मज़्मून के बारे में इस मुफ़स्सिर की आम राय को ज़ाहिर कर देगा :-

عن ابن عباس أنهم كانوا يحرفون ظاهر التوراة والإنجيل، وعند المتكلمين هذا ممتنع، لأنهما كانا كتابين بلغا في الشهرة والتواتر إلى حيث يتعذر ذلك فيهما، بل كانوا يكتمون التأويل

तर्जुमा : “इब्ने अब्बास से रिवायत है कि वो तौरेत और इन्जील के मतन को तब्दील कर रहे थे लेकिन आलिमों की राय में ये नामुम्किन था क्योंकि वो मुक़द्दस किताबें मशहूर और बहुत मुल्कों में फैल चुकी थीं क्योंकि पुश्त दर पुश्त चली आई। इसलिए इनमें तब्दीली करना ना-मुम्किन था बल्कि वो लोग उनके मअनी छुपाते थे।”

मज़्कूर बाला बयान से ये बख़ूबी साबित है कि उम्दन (जानबूझ कर) बाइबल मुक़द्दस के मतन की तहरीफ़ का इल्ज़ाम यहूदीयों के ख़िलाफ़ क़ुरआन मजीद में कभी नहीं लगाया गया। अलबत्ता ये इल्ज़ाम लगाया गया कि वो झूटी तफ़्सीरों के ज़रीये से मअनी को बदलते या बाअज़ मुक़ामात के छिपाने के ज़रीये हक़ को छुपाते थे, लेकिन मसीहीयों के बारे में सारे क़ुरआन मजीद में इशारा तक नहीं कि उन्हों ने माअनवी तहरीफ़ भी की हो। लोग इस अम्र को अक्सर नज़र-अंदाज कर देते हैं और अहले इस्लाम से हमारी ये दरख़्वास्त है कि इस पर ज़रूर ग़ौर करें, क्योंकि अगर ये साबित भी हो जाये कि मदीना के चंद यहूदीयों ने तौरेत की बाअज़ जिल्दों में तहरीफ़ की तो भी कौन इसे मुम्किन ख़याल करेगा कि कुल दुनिया के सारे यहूदीयों ने इत्तिफ़ाक़ करके वही तब्दीलीयां सारी जिल्दों में कर दीं जो ऐसा इल्ज़ाम लगाते हैं वो अपनी नादानी इस से ज़ाहिर करते हैं। इलावा अज़ीं बिलफ़र्ज़ अगर यहूदीयों ने तौरेत की अपनी जिल्दों में से मुहम्मद साहब की आमद के बारे में चंद पेश गोईयां निकाल दी हों, फिर क्या वजह है कि वो पेश गोईयां उन नुस्ख़ों में पाई नहीं जातीं जो मसीहीयों के पास थे? ये तो मशहूर बात है कि मसीहीयों और यहूदीयों के दर्मियान इब्तिदा से ही सख़्त दुश्मनी चली आई है। इसलिए किताब-ए-मुक़द्दस की तहरीफ़ में उनके दर्मियान इत्तिफ़ाक़ कैसे मुम्किन हो सकता है? नतीजा साफ़ ज़ाहिर है।

बाब चहारुम

अज़रूए कलाम-उल्लाह तहरीफ़ का इल्ज़ाम ज़माना हाल में

जो मुसलमान ये ईमान रखते हैं कि यहूदीयों और मसीहीयों ने बाइबल मुक़द्दस में तहरीफ़ की वो इस के सबूत के लिए ना सिर्फ क़ुरआन मजीद से मदद ढूंडते हैं बल्कि वो यहूदी और मसीही मुक़द्दस किताबों से ऐसी मिसालें पेश करने की कोशिश करते हैं जिनसे उन के दावे की ताईद हो। इस बाब में उन के ऐसे एतराज़ों पर हम ग़ौर करेंगे और ये बताएँगे कि हमले का ये तरीक़ा दो धारी तल्वार की मानिंद है जिससे ना सिर्फ मुख़ालिफ़ को ज़र्ब पहुँचती है बल्कि ख़ुद हमला करने वाले को भी।

इस छोटे रिसाले में सिलसिले-वार बाइबल मुक़द्दस के उन मुक़ामात पर ग़ौर करना नामुम्किन है जिनको मुसलमान मुसन्निफ़ों ने अपने दावे के सबूत में पेश किया है। हम सिर्फ मुश्ते नमूना अज़ खरवारे (ढेर में से मुट्ठी भर) चंद मुक़ामात को ले लेंगे जिनसे वो मुख़्तलिफ़ तरीक़े मालूम हो जाऐंगे जो उन्होंने बाइबल मुक़द्दस की सेहत के ख़िलाफ़ इस्तिमाल किए हैं और ये ज़ाहिर करना मुश्किल होगा कि अगर वही उसूल ठीक तौर से क़ुरआन मजीद पर आइद करें तो वो किताब भी मुसलमान ईमानदारों को छोड़नी पड़ेगी।

जो लोग ये ख़याल करते हैं कि यहूदीयों और मसीहीयों ने उम्दन (जानबूझ कर) बाइबल मुक़द्दस में तहरीफ़ की है उनका एक मशहूर तरीक़ा ये है कि बाइबल मुक़द्दस के क़दीम नुस्ख़ों में जो क़िरआतें (Readings) पाई जाती हैं उन को पेश करते या पुराने और नए तराजुम में जो इख़्तिलाफ़ मिलते हैं उनका हवाला देकर फ़त्ह का नारा लगाते हैं कि लो हमारा एतराज़ साबित हो गया। इसलिए हम नाज़रीन से दरख़्वास्त करते हैं कि लफ़्ज़ “तहरीफ़” की जो तारीफ़ सर सय्यद अहमद ने की उस पर ग़ौर से तवज्जोह करें। वो ये है “कलाम-उल्लाह (अल्लाह के कलाम) के सही और असली मक़्सद व मअनी को उम्दन (जानबूझ कर) बिगाड़ना।”

अब ये तो साफ़ ज़ाहिर है कि किताब मुक़द्दस के किसी लफ़्ज़ या जुम्ले को उम्दन (जानबूझ कर) बिगाड़ना किसी ख़ास मक़्सद से होगा। मह्ज़ तब्दीली की ख़ातिर कोई शख़्स किताब-ए-मुक़द्दस की इबारत को कुछ यहां कुछ वहां ना बदलेगा। हालाँकि जो अल्फ़ाज़ मुसलमान मोअतरिज़ों (एतराज़ करने वालों) ने बाइबल मुक़द्दस के नुस्ख़ों की क़िरआतों में से पेश किए हैं वो अक्सर इस क़िस्म के हैं। वो सहव-ए-कातिब (गलती से लिखावट में भूलचुक) हैं या शरहें (शरह की जमा, तफ़्सीर) हैं जो नादानिस्ता (अन्जाने में) मतन में आ गईं, लेकिन ख़्वाह वो कुछ ही हों उन्हें उम्दन (जानबूझ कर की गई) तहरीफ़ नहीं कह सकते। ये बरा-ए-नाम तहरीफ़ें बाइबल मुक़द्दस के एक मसअले में भी फ़र्क़ नहीं डालतीं और उन में से अक्सरों में कोई ख़ास ग़र्ज़ भी तब्दीली की नहीं पाई जाती।

अगर इन मुख़्तलिफ़ क़िरआतों की वजह से बाइबल मुक़द्दस को रद्द करना चाहिए तो इन्हीं वजूहात से क़ुरआन मजीद को भी रद्द करना पड़ेगा, क्योंकि क़ुरआन मजीद में भी सैंकड़ों ऐसी मुख़्तलिफ़ क़िरआतें पाई जाती हैं। नाज़रीन से दरख़्वास्त है कि मुसन्निफ़ का रिसाला “क़ुरआन मजीद दर इस्लाम” का मुतालआ इस मज़्मून की मुफ़स्सिल बह्स के लिए करें। यहां इतना कहना काफ़ी होगा कि जब ख़लीफ़ा अबू बक्र के हुक्म से क़ुरआन मजीद जमा किया गया तो इस किताब में मुख़्तलिफ़ क़िरआतें दाख़िल हो गईं। इसलिए उस्मान ने मज्बूर हो कर ये हुक्म सादिर किया कि क़ुरआन मजीद की एक जिल्द तैयार की जाये और बाक़ी सारी जिल्दें जला दी जाएं।

अअ्राब (اعراب) की अदमे मौजूदगी मुद्दत तक तक्लीफ़ व झगड़े का बाइस रही जिससे क़ुरआन मजीद के पढ़ने और तफ़्सीर करने में बहुत इख़्तिलाफ़ पैदा हो गया। जलाल-उद्दीन सिवती लिखता है कि “जो क़ुरआन मजीद उस्मान ने जमा कराया उस की पाँच हज़ार जिल्दें लिखी गईं और वो जिल्दें मक्का, मदीना, दमिश्क़, बस्रा और कूफ़ा को भेजी गईं। जहां दूसरी सदी हिज्री में सात क़ारीयों ने शौहरत हासिल की जो क़ुरआन मजीद को सात मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से पढ़ा करते थे। इन क़ारीयों में से हर एक के दो दो रावी (रिवायत करने वाला, सुन कर कहने वाला) हैं। इन क़ारीयों के ये नाम हैं, नाफ़ी मदीना का रहने वाला, इब्ने कसीर मक्का का रहने वाला, अबू आमिर बस्रा का, इब्ने आमिर दमिश्क़ का, आसिम कूफ़ा का, हम्ज़ा कूफ़ा का और अल-कुसाई कुफा का।

मुसलमान आलिमों ने कई किताबें लिखीं जिनमें क़ुरआन मजीद की मुख़्तलिफ़ क़िरआतों को जमा किया। इन में से सबसे मशहूर “तब्दीर अल-दअना” (تبدیر الدعنا) है। इस मुसन्निफ़ ने ना सिर्फ मुख़्तलिफ़ क़ारीयों की क़िरआतों को जमा किया बल्कि इस ने उन क़ारीयों के नाम भी बताए जिनके ज़रीये से सात क़ारीयों में से हर एक ने इस अम्र की ख़बर हासिल की थी। राज़ी ने अपनी तफ़्सीर में कई दलाईल दिए हैं जो इन मुख़्तलिफ़ क़िरआतों की तर्दीद या ताईद करती हैं। इसलिए ये ज़ाहिर है कि दीगर क़दीम किताबों की तरह क़ुरआन मजीद में भी मुख़्तलिफ़ क़िरआतें हैं और जिन्हों ने तफ़्सीर के साथ जिरह के क़वानीन के मुताबिक़ क़ुरआन मजीद का मुतालआ किया है, वो बख़ूबी जानते हैं कि ऐसी मुख़्तलिफ़ क़िरआतों का शुमार कई सौ है। मिसाल के तौर पर हम सूरह फ़ातिहा की आठ आयतों में जो मुख़्तलिफ़ क़िरआतें आई हैं उन को लिखते हैं। ये सूरह क़ुरआन मजीद के शुरू में है। इस को पढ़ कर उम्मीद है कि अहले इस्लाम बाइबल मुक़द्दस की मुख़्तलिफ़ क़िरआतों पर इल्ज़ाम ना लगाएँगे।

तफ़्सीर बैज़ावी से पता लगता है कि सूरह फ़ातिहा की आयत 3 में जो ये लफ़्ज़ हैं मालिकि-यौमिद्दीन (مالِکِ یَوۡمِ الدِّیۡنِ)आसिम और अल-कुसाई और याक़ूब की क़िरआत है। बाअज़ ने मलक (ملک) पढ़ा। अहले मक्का और मदीना की ये क़िरआत है इसलिए क़ाबिल-ए-तर्जीह है। अगरचे बैज़ावी ने क़िरआत मलक (ملک) को तर्जीह दी, फिर भी मुरव्वजा क़िरआतों में म मालिक (م مالک) की क़िरआत है। क़िरआत के इस इख़्तिलाफ़ का ज़िक्र जलालेन ने भी किया है। इस के दूसरे जुम्ले में बैज़ावी ने एक और मुख़्तलिफ़ क़िरआत का ज़िक्र किया है :-

قرئ ایاک بفتح الھمزۃ

तर्जुमा : “बाअज़ हमज़ा को कसर ( کسر) की बजाए फ़त्ह (فتح) से पढ़ते हैं।”

फिर इमाम साहब लिखते हैं कि इस आयत में बाअज़ लोग नून (نون) को फ़त्ह (فتح) की बजाए ( کسر) कसर से पढ़ते हैं और इस की आयत 6 में मौजूदा क़ुरआन मजीद से एक मुख़्तलिफ़ क़िरआत का उस ने ज़िक्र किया। चुनान्चे इमाम साहब ने लिखा :-

قرئ صراط من انعمت علیہم

हालाँकि मुरव्वजा क़िरआतों में ये जुम्ला यूं है सिरातल्लज़ीन अनअमत अलैहिम (صراط الذین انعمت علیہم) इस इख़्तिलाफ़ ने इमाम साहब को भी घबरा दिया। इस किताब के मुसलमान नाज़रीन ख़ुद ही बताएं कि असली क़िरआत जो मुहम्मद साहब ने बताई वो क्या थी? और इस में भी बहुत शक है कि उन्हों ने शायद दोनों क़िरआतें बताईं क्योंकि सहाबा किराम में से एक ने जो ख़ुद मशहूर क़ारी थे यानी इब्ने मसऊद ने इस सारी सूरह को ये कह कर रद्द कर दिया कि ये क़ुरआन मजीद का जुज़ (हिस्सा) नहीं।

जलाल उद्दीन के ज़रीये ये इत्तिला पहुंची है :-

قال ابن حجر فی شرح البخاری قد صح عن ابن مسعود انکار ذلک فا خرج الحمد

तर्जुमा : “इब्ने हज्र ने शरह बुख़ारी में कहा कि इब्ने मसऊद ने अल-हम्द (الحمد) का इन्कार किया और इस को रद्द कर दिया। (यानी सूरह फ़ातिहा का क़ुरआन मजीद का हिस्सा होने से इन्कार किया)”

इस सूरह की आठवीं आयत में बैज़ावी ने एक और मुख़्तलिफ़ क़िरआत का ज़िक्र किया। वो कहता है कि इन अल्फ़ाज़ वलज़्ज़ालीन (والضّآ لین) की जगह बाअज़ ग़ैर-ज़्-ज़ाल्लीन (غیر الضّآ لین) पढ़ते थे और इसी मुफ़स्सिर ने यहां एक और क़िरआत का भी ज़िक्र किया कि इस में हमज़ा (ہمزہ) भी है ला-अल-जाइलीन (لا الضأ لین)

ये तो मुसल्लम है कि क़िरआत के इस इख़्तिलाफ़ से इस आयत के मअनी में कोई फ़र्क़ नहीं आता। लेकिन अम्र ज़ेर-ए-बहस ये नहीं, बल्कि ये है कि क़िरआतों के इख़्तिलाफ़ से जो इल्ज़ाम बाइबल मुक़द्दस पर आता है वही इल्ज़ाम क़ुरआन मजीद पर भी आइद होता है। इलावा अज़ीं क़ुरआन मजीद की पिछली सूरतों में क़िरआत के ऐसे इख़्तिलाफ़ात भी हैं जिन से माअनी में भी बहुत फ़र्क़ पड़ता जाता है। इन में से बाअज़ का ज़िक्र रिसाला “क़ुरआन दर इस्लाम” में किया गया है। इन उमूर के बावजूद भी बाअज़ ताअलीम याफ्ता मुसलमान ऐसे पाए जाते हैं जो बाइबल मुक़द्दस पर बराबर हमला करते रहते हैं और इन इख़्तिलाफ़ात की बिना पर जो मुख़्तलिफ़ क़दीम नुस्ख़ों में मिलते हैं बाइबल मुक़द्दस की सेहत को रद्द करना चाहते हैं। क्या अदम ख़ुलूस क़ल्बी और तलव्वुन मिज़ाजी इस से ज़्यादा हो सकती है?

अगर इख़्तिलाफ़ात क़िरआत के बारे में बाइबल मुक़द्दस और क़ुरआन मजीद का मुतालआ किया जाये तो मालूम हो जाएगा कि बाइबल मुक़द्दस का पल्ला भारी है। इस में इस क़द्र इख़्तिलाफ़ नहीं जिस क़द्र कि क़ुरआन मजीद में पाया जाता है। हम ये ज़िक्र कर आए हैं कि उस्मान ने ये ज़रूरी समझा कि क़ुरआन मजीद के इख़्तिलाफ़ात क़िरआत को मिटाए और बाक़ी सारी जिल्दों को जला कर सिर्फ एक ही जिल्द रख ले और उस एक की नक़्लें जा-ब-जा रवाना करे। इसलिए मुसलमान इस एक नुस्खे़ के पढ़ने पर मज्बूर हैं, लेकिन जैसा हम बता चुके हैं इस पर बहुत शकूक आइद होते हैं। जब सूरते-हाल ये हो तो मुसलमान आलिमों के लिए ये नामुम्किन है कि क़ुरआन मजीद के मुख़्तलिफ़ क़दीम नुस्ख़ों का मुक़ाबला करें और सही मतन को क़ायम करें। लेकिन मसीहीयों के लिए मुख़्तलिफ़ मुआमला है क्योंकि उन्हों ने बाइबल मुक़द्दस के क़दीम नुस्ख़ों को बहुत एहतियात और जाँनिसारी से महफ़ूज़ रखा और इसलिए वो उनका मुक़ाबला कर के रद्द-कद्द (बह्स, हुज्जत) के अमल से सही मतन को दर्याफ़्त कर सकते हैं। हम ने मुख़्तलिफ़ और मुतफ़र्रिक़ नुस्ख़ों की क़यासी क़िरआतों को ज़ेल में दिया है ताकि नाज़रीन इस दलील का ज़ोर मालूम कर सकें। तश्रीह की ग़र्ज़ से इन इख़्तिलाफ़ात को उम्दन मुबालग़े से बयान किया है। मुख़्तलिफ़ आयात का एहतियात के साथ मुक़ाबला करने से ज़ाहिर हो जाएगा कि अव्वल फ़िल-हक़ीक़त तक़रीबन सही है। लेकिन क़ुरआन मजीद के बारे में ऐसा मुक़ाबला करना नामुम्किन है क्योंकि उन के पास तो एक के सिवा कोई दूसरा नुस्ख़ा बाक़ी ही नहीं रहा और उन के पास उस की सेहत दर्याफ़्त करने का कोई वसीला नहीं। एक सौ (100) आयात का मुक़ाबला करने से ये नतीजा और भी यक़ीनी होगा।

(1) यसूअ कफ़र्नहूम को उतर गया और यहूदीयों के इबादत ख़ाने में दाख़िल हुआ।

(2) यसूअ कफ़र्नहूम को चढ़ गया और यहूदीयों के इबादत ख़ाने में दाख़िल हुआ।

(3) यसूअ कफ़र्नहूम को उतर गया और यहूदीयों की हैकल में दाख़िल हुआ।

(4) यसूअ कफ़र्नहूम को गया और यहूदीयों के इबादत ख़ाने में दाख़िल हुआ।

(5) इसलिए यसूअ कफ़र्नहूम को उतर गया और यहूदीयों के इबादत ख़ाने में दाख़िल हुआ।

(6) यसूअ कफ़र्नहूम को उतर गया और सामरियों के इबादत ख़ाने में दाख़िल हुआ।

(7) यसूअ नासरत को उतर गया और यहूदीयों के इबादत ख़ाने में दाख़िल हुआ।

(8) यसूअ और इस के शागिर्द कफ़र्नहूम को उतर गए और यहूदीयों के इबादत ख़ाने में दाख़िल हुए।

दूसरी क़िस्म की आयात जिनको मुसलमान बाइबल मुक़द्दस में तहरीफ़ साबित करने के लिए पेश करते हैं, ऐसी हैं जिनमें बाअज़ नबियों के गुनाहों का ज़िक्र है। चुनान्चे बंगाली ज़बान में एक किताब बनाम “रद्दे ईसाई” शाएअ हुई जिसके एक सारे बाब में यही ज़िक्र है कि “ख़ुदा के मुक़द्दसों की बदनामी।” उस ने और दीगर वैसे मुसन्निफ़ों ने ये बेबुनियाद क़ियास फ़र्ज़ कर लिया जिसका ज़िक्र क़ुरआन मजीद में मुतलक़ पाया नहीं जाता कि सारे अम्बिया बेगुनाह थे। इसलिए यहूदी और मसीही मुक़द्दस किताबों में जहां कहीं अम्बिया के गुनाहों का ज़िक्र आता है उस को ग़लत और मुहर्रिफ़ (तहरीफ़-शुदा) ठहराया। पस उन के नज़्दीक बाइबल मुक़द्दस मुहर्रिफ़ (तहरीफ़-शुदा) ठहरी। बाअज़ मुसलमान मोअतरिज़ों का मन्तिक़ और फ़ख़्र यही है।

जिस किताब बनाम “रद्दे ईसाई” का ज़िक्र ऊपर हुआ ऐसी ला-सानी बुरहान का अहल होने में वाहिद नहीं बल्कि एक शख़्स जिसने अपने तईं “मौलाना” ज़ाहिर किया जेठ 1327 के बंगाली पर्चे बना नूर में बाइबल मुक़द्दस पर एतराज़ करते हुए ऐसे चंद मुक़ामात को नक़्ल किया जिनमें लूत, याक़ूब, हारून, दाऊद, सुलेमान और दूसरों के गुनाहों का ज़िक्र था और बड़े ग़ुस्से से ये सवाल किया कि क्या ऐसे मुक़ामात असली तौरेत और इन्जील का जुज़ (हिस्सा) हो सकते हैं? फिर उस ने ये लिखा “अज़रूए क़ुरआन मजीद ये साबित है कि ये मुक़ामात जाली और मुहर्रिफ़ (तब्दील) हैं।”

ऐसे अश्ख़ास और ऐसे दलाईल की मुसीबत ये है कि क़ुरआन मजीद में भी ठीक ऐसी ही ताअलीम पाई जाती है और चंद एक नबियों के गुनाहों का ज़िक्र साफ़ तौर से क़ुरआन मजीद में आया है। जब सूरत-ए-हाल ये हो तो उन की दलील के मुताबिक़ ये दुशवार होगा कि बाइबल मुक़द्दस को तो रद्द कर दें और क़ुरआन मजीद को मानते रहें। अगर बाइबल मुक़द्दस को इस बिना पर रद्द किया जाता है कि उस में मुक़द्दस नबियों के गुनाहों का ज़िक्र आया है तो उसी दलील से क़ुरआन मजीद को भी रद्द करना पड़ेगा।

आगे क़दम बढ़ाने से पेश्तर क़ुरआन मजीद की चंद आयात को पेश करना मुनासिब होगा जिनमें नबियों के गुनाहों, उन की तौबा और माफ़ी के लिए मुनाजात का साफ़ ज़िक्र आया है।

हज़रत इब्राहिम के बारे में क़ुरआन मजीद में ये लिखा है कि ख़ुदा को मुख़ातब करके उस ने ये कहा था :_

وَ الَّذِیۡۤ اَطۡمَعُ اَنۡ یَّغۡفِرَ لِیۡ خَطِیۡٓئَتِیۡ یَوۡمَ الدِّیۡنِ

तर्जुमा : “मुझे उम्मीद है कि रोज़-ए-हिसाब को वो मेरे गुनाह मुझे माफ़ कर देगा।” (सूरह शूअरा 26:82)

बाअज़ गुनाहों मसलन झूट वग़ैरह का साफ़ ज़िक्र क़ुरआन मजीद और अहादीस में हुआ। हज़रत मूसा के बारे में क़ुरआन मजीद में ये लिखा है कि उस ने एक मिस्री को क़त्ल किया था।

فَوَکَزَہٗ مُوۡسٰی فَقَضٰی عَلَیۡہِ ٭۫ قَالَ ہٰذَا مِنۡ عَمَلِ الشَّیۡطٰنِ اِنَّہٗ عَدُوٌّ مُّضِلٌّ مُّبِیۡنٌ قَالَ رَبِّ اِنِّیۡ ظَلَمۡتُ نَفۡسِیۡ فَاغۡفِرۡ لِیۡ

तर्जुमा : “और मूसा ने उसे मुक्का मार कर क़त्ल किया। उस ने कहा कि “ये शैतान का काम था क्योंकि वो दुश्मन और साफ़ गुमराह करने वाला है।” उस ने कहा “ऐ मेरे ख़ुदावंद मैंने गुनाह कर के अपना नुक़्सान किया मुझे माफ़ कर दे।” (सूरह क़िसस 28:15-16)

हज़रत दाऊद के ज़िना के गुनाह का ज़िक्र सूरह साद 38:24 में हुआ है और उस की तौबा और माफ़ी की दुआ का ज़िक्र आया है।

فَاسۡتَغۡفَرَ رَبَّہٗ وَ خَرَّ رَاکِعًا وَّاَنَابَ

तर्जुमा : “सो उस ने अपने परवरदिगार से माफ़ी मांगी और घुटने टेक कर सज्दा किया और तौबा की।”

उसी सूरह में सुलेमान गुनेहगार बयान हुआ।

فَقَالَ اِنِّیۡۤ اَحۡبَبۡتُ حُبَّ الۡخَیۡرِ عَنۡ ذِکۡرِ رَبِّیۡ ثُمَّ اَنَابَ قَالَ رَبِّ اغۡفِرۡ لِیۡ

तर्जुमा : “और उस ने कहा, अपने परवरदिगार को याद करने की निस्बत से मैंने दुनिया की चीज़ों को ज़्यादा प्यार किया....। फिर उस ने तौबा की तरफ़ रुजू की और कहा, ऐ मेरे परवरदिगार मुझे माफ़ कर।” (सूरह साद 38:32-35)

मज़्कूर बाला मिसालें इस बात के साबित करने के लिए काफ़ी होंगी कि बाइबल मुक़द्दस की तरह क़ुरआन मजीद ने भी अम्बिया को कमज़ोर और ख़ताकार बयान किया और वो बार-बार अपने गुनाहों की माफ़ी मांगा करते थे। फिर बाइबल मुक़द्दस पर ये मज़हका उड़ाया जाता है कि वो मुहर्रिफ़ (बदली हुई) और ना-क़ाबिल एतबार है। जो कुछ हम ऊपर लिख आए हैं उस के लिहाज़ से तो ऐसे एतराज़ात बंद हो जाने चाहीऐं। अगर मुसलमान मोअतरिज़ साहिबान के पास यही कुछ है तो ये ना सिर्फ उन की मुतलव्विन मिज़ाजी बल्कि उन की अदम ख़ुलूस क़ल्बी का अफ़्सोसनाक इज़्हार है क्योंकि जो लोग ऐसे एतराज़ात करते हैं वो इस से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं कि क़ुरआन मजीद पर भी यही इल्ज़ाम और एतराज़ आइद होते हैं। अम्र वाक़ई ये है कि अम्बिया सलफ़ भी हमारे जैसे जज़्बात रखने वाले थे और बाइबल मुक़द्दस ने उन की ख़ूबीयों और नक़ाइस, उन की फ़त्ह व शिकस्त दोनों को दिखा दिया।

मुसलमान मोअतरज़ीन का एक दूसरा तरीक़ा बाइबल मुक़द्दस को रद्द करने और उस की सेहत पर शक डालने का ये है कि वो बाइबल मुक़द्दस की चंद आयात जिनमें एक ही वाक़िये का ज़िक्र है नक़्ल कर के उन के इख़्तिलाफ़ दिखाने की कोशिश करते हैं। चारों अनाजील में जो मसीह की सवानिह उम्री पाई जाती है उस में से वो ऐसी मिसालें पेश करते हैं और ये दावा करते हैं कि इन मुख़्तलिफ़ बयानात में लफ़्ज़ी इख़्तिलाफ़ात इस अम्र का सबूत हैं कि ये किताब मुहर्रिफ़ (बदली हुई) है। जब हम इन ज़ाहिरा इख़्तिलाफ़ात का इम्तिहान करते हैं तो उमूमन ये ज़ाहिर होगा कि इनमें उमूमन कोई भी मुश्किल पाई नहीं जाती बल्कि मोअतरिज़ की नादानी को ज़ाहिर करती हैं। इलावा अज़ीं हम ये ज़ाहिर करेंगे कि क़ुरआन मजीद के वर्क़ों (पन्नों) में भी इसी क़िस्म की मुश्किल पेश आती है।

मुफ़स्सिला बाला एतराज़ की एक मिसाल मुस्लिम रिव्यू से पेश की जाती है। ये रिसाला अहमदिया मुसलमानों की तरफ़ से इंग्लिस्तान में वोकिंग (WOKING) शहर से शाएअ होता है। आर्टीकल के लिखने वाले ने अनाजील में मसीह की सलीब के ऊपर जो कुतबा लिखा हुआ था उस को लेकर चारों अनाजील के मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ की दलील पर ये दावा किया कि ये किताब मुहर्रिफ़ है। मत्ती की इन्जील में ये कुतबा इन अल्फ़ाज़ में आया है, “ये यहूदीयों का बादशाह यसूअ है।” मर्क़ुस की इन्जील में इख़्तिसार के साथ ये है, “यहूदीयों का बादशाह।” लूक़ा की इन्जील में ये है, “ये यहूदीयों का बादशाह है।” और यूहन्ना की इन्जील में ये लफ़्ज़ आए हैं, “यसूअ नासरी यहूदीयों का बादशाह।”

जो तारीफ़ तहरीफ़ की सर सय्यद अहमद ख़ान साहब ने की अगर हम उस को इन मुक़ामात पर लगाऐं तो हमको फ़ौरन मालूम हो जाएगा कि ये मानना कैसा नामुम्किन है कि जिन इख़्तिलाफ़ात का यहां ज़िक्र है वो उम्दन (जानबूझ कर) किए गए। दीगर अल्फ़ाज़ में अलीगढ़ कॉलेज के इस बड़े बानी के मुताबिक़ इन मुक़ामात में तहरीफ़ की कोई मिसाल पाई नहीं जाती बल्कि बरअक्स इस के अगर ख़ुलूस क़ल्बी से इन मुक़ामात को समझने की कोशिश करेंगे तो बेशक ये वाज़ेह हो जाएगा कि इन्जील के मुसन्निफ़ उस इल्ज़ाम नामा का मज़्मून दर्ज कर रहे थे, ना लफ़्ज़ ब लफ़्ज़ उस को नक़्ल कर रहे थे। इलावा अज़ीं मुक़द्दस यूहन्ना की इन्जील से ज़ाहिर है कि ये इल्ज़ाम नामा इब्रानी, लातीनी और यूनानी ज़बानों में लिखा हुआ था और ये नामुम्किन नहीं कि शायद इन अस्ल कुतबों में भी इख़्तिलाफ़ हो। बहरहाल जो तश्रीह हमने की है वो साफ़-दिल आदमीयों के लिए काफ़ी है और जो लोग ऐसे लफ़्ज़ी इख़्तिलाफ़ात को बाइबल मुक़द्दस के ग़ैर-मोअतबर साबित करने की दलील गिरदानते हैं तो उन को वाज़ेह हो कि ऐसे लफ़्ज़ी इख़्तिलाफ़ात क़ुरआन मजीद में भी बकस्रत आए हैं। इसलिए अगर ये लोग अपनी दलील पर अड़े रहे तो बाइबल मुक़द्दस की तरह उन्हें क़ुरआन मजीद को भी रद्द करना पड़ेगा।

मुसलमान मोअतरज़ीन मत्ती 27:9 को भी बाइबल मुक़द्दस की तहरीफ़ के सबूत में अक्सर पेश किया करते हैं। वहां ये लिखा है, “उस वक़्त वो पूरा हुआ जो यर्मियाह नबी की मार्फ़त कहा गया था कि जिसकी क़ीमत ठहराई गई थी उन्हों ने उस की क़ीमत के वो तीस रूपये ले लिए (उस की क़ीमत बाअज़ बनी-इस्राईल ने ठहराई थी) और उन को कुम्हार के खेत के लिए दिया जैसा ख़ुदावंद ने मुझे हुक्म दिया।”

मोअतरज़ीन (एतराज़ करने वाले) ये कहते हैं कि यहां ये अल्फ़ाज़ यर्मियाह नबी से मन्सूब हैं लेकिन जो किताब उन के नाम से मशहूर है इस में वो अल्फ़ाज़ पाए नहीं जाते बल्कि ज़करीयाह की किताब में पाए जाते हैं और ज़करीयाह की किताब में जो लफ़्ज़ आते हैं मत्ती ने उन को भी लफ़्ज़ ब लफ़्ज़ नक़्ल नहीं किया। इसलिए मोअतरज़ीन ये दलील निकालते हैं कि बाइबल मुक़द्दस मुहर्रिफ़ है। अब अगर नाज़रीन को वो बयान याद होगा जो हमने सलीब के वक़्त इल्ज़ाम नामे की चार सूरतों के बारे में कहा था तो वो ये मानने को तैयार होंगे कि मत्ती ने यहां उस नबुव्वत का ख़ुलासा दिया है और उस का लफ़्ज़ी इक़्तिबास नहीं किया।

ये मशहूर बात है कि इब्रानी बाइबल मुक़द्दस में यर्मियाह की किताब अम्बिया की किताबों के शुरू में थी और इसलिए इस हिस्से का नाम अक्सर यर्मियाह आया जैसे कि आम बोल-चाल में तौरेत जो अह्दे-अतीक़ के शुरू में रखी गई, वो अक्सर सारे अह्दे-अतीक़ के लिए आती है। अगरचे ठीक तौर पर वो नाम सिर्फ मूसा की किताबों ही का है।

नाज़रीन की इत्तिला के लिए सर सय्यद अहमद की किताब (बाइबल मुक़द्दस की तफ़्सीर जिल्द दोम सफ़ा 32) का हवाला दिया जाता है जिसमें ये लिखा है, “अगरचे ठीक तौर पर ये नाम तौरेत मूसा की किताबों को दिया गया तो भी मुसलमानों की इस्तिलाह में इस नाम से कभी तो मूसा की किताब मुराद है और कभी अह्दे-अतीक़ की सारी किताबों का ये नाम आया है।” इसलिए अगर नबियों की किताबों से हवाला देकर वो ये कहे कि ये तौरेत में लिखा है तो कौन उसे मुजरिम ठहरा सकता है। इसी तरह मत्ती ने ये नाम यर्मियाह अह्दे-अतीक़ के सारे मजमूआ अम्बिया के लिए इस्तिमाल किया। ये इल्ज़ाम लगाना कैसा फ़ुज़ूल होगा कि उसे मालूम ना था कि वो किस किताब में से लिख रहा था या ये कि माबाअ्द लोगों ने उन लफ़्ज़ों में तहरीफ़ की जो उस ने अस्ल में लिखे थे। ये ज़ेर-ए-बहस मुक़ाम इस अम्र की बहुत उम्दा मिसाल है कि बिला (बगैर) इल्म एतराज़ करना कैसा ख़तरनाक है।

अब क़ुरआन मजीद के सैंकड़ों ऐसे मुक़ामात से मुश्ते नमूना अज़ खरवारे (ढेर में से चंद नमूने के तौर पर) हम दो या तीन मिसालें पेश करते हैं जहां क़ुरआन मजीद में वैसा ही लफ़्ज़ी इख़्तिलाफ़ मौजूद है जो बाअज़ मुसलमान मुक़द्दस बाइबल मुक़द्दस के ख़िलाफ़ पेश किया करते हैं। सूरह ताहा 20 की दसवीं आयत में ये बयान है कि जब ब्याबान में मूसा ने जलती झाड़ी को देखा तो बाअज़ अल्फ़ाज़ में अपनी उम्मत से ख़िताब किया। फिर सूरह नमल की सातवीं आयत में वही वाक़िया क़लम-बंद हुआ और वो ख़िताब भी जो मूसा ने अपनी उम्मत से किया। इन दोनों बयानों में इख़्तिलाफ़ है। हमने उन को बिल-मुक़ाबिल रखकर इख़्तिलाफ़ को वाज़ेह तौर से दिखा दिया है।

सूरह ताहा 20:9-10

भला तुमको मूसा की हिकायत भी पहुंची है कि जब उन को आग दिखाई दी तो उन्हों ने अपने घर के लोगों से कहा कि ज़रा ठहरो मुझको एक आग दिखाई दी है तो अजब नहीं कि मैं इस आग से तुम्हारे लिए एक चिंगारी ले आऊँ या आग के अलाव पर राह का पता मालूम हो।

सूरह नमल 27:7

(तो लोगों को ये वाक़िया याद दिलाओ) जब कि मूसा ने अपने घरवालों से कहा, कि मुझको आग सी दिखाई दी है ज़रा ठहरो तो मैं वहां से तुम्हारे पास रस्ते की कुछ ख़बर लाऊँ या हो सके तो एक सुलगता हुआ अँगारा तुम्हारे पास ले आऊँ ताकि तुम तापो।

इन दोनों सूरतों में ये बयान दर्ज है और इस के बाद उन अल्फ़ाज़ का ज़िक्र है जिनमें ख़ुदा मूसा से मुख़ातब हो कर बोला। इसलिए इन दो मुक़ामों को भी हम बिल-मुक़ाबिल पेश करते हैं ताकि नाज़रीन ख़ुद उन इख़्तिलाफ़ात को मिला ख़ित्ता (मुलाहिज़ा) कर लें जो इन दोनों बयानों में पाए जाते हैं।

सूरह ताहा 20:11-12

फिर जब मूसा वहां आए तो उन को आवाज़ आई कि मूसा हम हैं तुम्हारे परवरदिगार तो अपनी जूतीयां उतार डालो। क्योंकि इस वक़्त तुम तूवा (नाम) के मैदान पाक में हो।

सूरह नमल 27:8-10

फिर जब मूसा आग पास आए तो उन को आवाज़ आई कि मुबारक है वो ज़ात जो इस नूरानी आग में जलवाफ़रमा है और....ऐ मूसा ये तो हम अल्लाह हैं ज़बरदस्त हिक्मत वाले और अपनी लाठी नीचे डाल दो।

ख़ुदा और मूसा के दर्मियान जो गुफ़्तगु हुई वो बख़ोफ़ तवालत पूरे तौर से यहां दर्ज नहीं हो सकती, लेकिन जिन आयात का तर्जुमा हमने ऊपर क़लम बंद किया वो इस मक़्सद के लिए काफ़ी है। जब तक क़ुरआन मजीद में ऐसे लफ़्ज़ी इख़्तिलाफ़ बाक़ी हैं तब तक अहले इस्लाम के लिए मसीह की क़ियामत के बयानात के इख़्तिलाफ़ात को जो चारों अनाजील में मुन्दरज हैं, इस ग़र्ज़ के लिए पेश करना फ़ुज़ूल होगा कि वो किताबें मुहर्रफ (तब्दील शुदा) हैं।

मूसा ने जो जवाब दिया और जो क़ुरआन मजीद के मुख़्तलिफ़ मुक़ामों में दर्ज है इस को भी नक़्ल करना ख़ाली अज़ फ़ायदा ना होगा।

सूरह ताहा 20:25-35

मूसा ने अर्ज़ किया कि, ऐ मेरे परवरदिगार मेरा हियाव (जुर्रत) खोल दे और मेरे काम को मेरे लिए आसान कर और मेरी ज़बान की गिरह खोल दे ताकि लोग मेरी बात अच्छी तरह समझें और मेरे कुम्बे वालों में से मेरे भाई हारून को मेरा बोझ बटाने वाला बना कर उन से मेरी ढारस बंधवा और मेरे काम में उन को शरीक कर ताकि हम दोनों एक दिल हो कर कस्रत से तेरी तस्बीह करें और कस्रत से तेरी यादगारी में लगे रहें कि तू हमारे हाल को ख़ूब देख रहा है। (तर्जुमा नज़ीर अहमद)

सूरह अल-शुअरा 26:12-14

मूसा ने अर्ज़ किया, ऐ मेरे परवरदिगार मैं डरता हूँ कि कहीं मुझे झुटलाएँ और बात करने में मेरा दम रुकता है और मेरी ज़बान अच्छी तरह नहीं चलती। तो हारून को कहला भेज कि वो मेरा साथ दें और मेरे ज़िम्मे क़िबतियों का एक तावान भी है कि मैंने एक क़िबती को मार दिया था तो मैं डरता हूँ कि कहीं उस के बदले में मुझको मार ना डालें।

ये क़ाबिल लिहाज़ है कि सूरह ताहा में मूसा ने ये दरख़्वास्त की कि हारून को मददगार बना के इस के साथ भेजे। हालाँकि सूरह अल-शुअरा में ये ज़िक्र है कि इस की जगह हारून भेजा जाये क्योंकि उस क़त्ल के बाइस जिसका ज़िक्र क़ुरआन मजीद में किसी दूसरी जगह आया है उसे सज़ा-ए-मौत का ख़ौफ़ था। यहां ना सिर्फ एक ही क़िस्से का बयान मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ में हुआ है बल्कि ख़ुद क़िस्से में इख़्तिलाफ़ है और अम्र वाक़िये की निस्बत जो सवाल हैं वो बहुत मुख़्तलिफ़ हैं। जो मुसलमान साहिबान बाइबल मुक़द्दस पर एतराज़ किया करते हैं वो इस का क्या जवाब देंगे?

क़ुरआन मजीद में क़िस्सों के ऐसे इख़्तिलाफ़ की एक दूसरी मिसाल वो अल्फ़ाज़ हैं जो ख़ुदा ने हमारे जद्द-ए-अमजद को बाग़-ए-अदन में फ़रमाए। हम यहां तीन मुख़्तलिफ़ बयानात जो क़ुरआन मजीद की तीन मुख़्तलिफ़ सूरतों में आए हैं यहां हद्या नाज़रीन करते हैं। इन तीनों में ख़ुदा की एक ही तक़रीर का बयान मुन्दरज है। नाज़रीन अपने लिए ख़ुद नतीजा निकालें।

सूरह बक़रा 2:36-39

हमने हुक्म दिया कि तुम सब उतर जाओ। तुम एक के दुश्मन एक, और ज़मीन में तुम्हारे लिए एक वक़्त ख़ास तक ठिकाना और ज़िंदगी बसर करने का साज़ो सामान होगा।...जब हमने हुक्म दिया कि तुम सब के सब यहां से उतर जाओ। अगर हमारी तरफ़ से तुम लोगों के पास कोई हिदायत पहुंचे तो उस पर चलो क्योंकि जो हमारी हिदायत की पैरवी करेंगे उन पर ना तो ख़ौफ़ होगा और ना आज़ुरदा ख़ातिर होंगे और जो लोग ना-फ़र्मानी करेंगे और हमारी आयतों को झुटलाएँगे वही दोज़ख़ी होंगे और वो हमेशा दोज़ख़ ही में रहेंगे।

सूरह आराफ़ 7:24-25

ख़ुदा ने फ़रमाया कि नीचे उतर जाओ तुम में से एक का दुश्मन एक और तुमको एक वक़्त ख़ास तक ज़मीन पर रहना होगा और सामान ज़ीस्त भी वहीं मुहय्या है। ख़ुदा ने ये भी फ़रमाया कि ज़मीन ही में ज़िंदगी बसर करोगे और उसी में मरोगे और उसी में से निकाल खड़े किए जाओगे।

सूरह ताहा 20:123-124

ख़ुदा ने हुक्म दिया कि तुम दोनों बहिश्त से नीचे उतर जाओ। एक का दुश्मन एक, फिर अगर तुम्हारे पास हमारी तरफ़ से हिदायत आए तो जो हमारी हिदायत पर चलेगा ना भटकेगा और ना हलाकत में पड़ेगा और जिसने हमारी याद से रुगरदानी की तो उस की ज़िंदगी ज़ैक़ (तंगी, दुश्वारी) में गुज़रेगी और क़ियामत के दिन हम उस को अंधा उठाएँगे।

मज़्कूर बाला मिसाल की तरह हम दर्जनों दीगर मिसालें क़ुरआन मजीद से पेश कर सकते हैं जिनसे बख़ूबी वाज़ेह है कि जिन इख़्तिलाफ़ात के बाइस वो बाइबल मुक़द्दस पर इल्ज़ाम लगाते हैं वैसे ही इख़्तिलाफ़ात ख़ुद क़ुरआन मजीद में मौजूद हैं। मख़्फ़ी (छिपा) ना रहे कि जो लोग ऐसे एतराज़ात करते हैं उन्हें किसी क़द्र ताअलीम-याफ्ता होने का भी दावा है। इसलिए उन को ये मालूम होना चाहिए कि क़ुरआन मजीद में ऐसे इख़्तिलाफ़ात और फ़र्क़ कस्रत से मौजूद हैं। इसलिए ऐसे एतराज़ात सिदक़ (सच्चे) दिली से सादिर नहीं हो सकते। अगर ये साहिबान अपनी राय के इज़्हार में सिदक़ दिली से काम लें या कम अज़ कम इन्साफ़ पर चलें तो ना सिर्फ बाइबल मुक़द्दस को बल्कि क़ुरआन मजीद को भी वो रद्द करेंगे। हमारा ये काम नहीं कि क़ुरआन मजीद के इन इख़्तिलाफ़ात की तश्रीह करें। लेकिन बाइबल मुक़द्दस में जो ऐसे लफ़्ज़ी इख़्तिलाफ़ात हैं वो हमारे अक़ीदे को जुंबिश नहीं दे सकते। जो बयान एक इन्जील नवीस ने किया वो अक्सर दूसरे इन्जील नवीस के बयान की तक्मील कर देता है। कभी एक के मुजम्मल बयान को दूसरे इन्जील नवीस से ज़्यादा मुफ़स्सिल कर दिया जाता है। या अगर किसी इख़्तिसार की वजह से ग़लती का अंदेशा मालूम हुआ तो उस को वाज़ेह कर दिया। लेकिन इस को हम तहरीफ़ नहीं कह सकते और ना अनाजील के बयान के एतबार पर कोई हर्फ़ आ सकता है। इन्जील नवीसों ने अह्दे-अतीक़ के अम्बिया के अल्फ़ाज़ को नक़्ल नहीं किया बल्कि उनका मज़्मून दर्ज किया। इसी तरह नए अहद नामे में मसीह या रसूलों और शागिर्दों की तक़रीरों को लफ़्ज़न क़लम-बंद नहीं किया बल्कि उनका ख़ुलासा दिया है। ऐसे उमूर में लफ़्ज़ी मुताबिक़त के ना होने की बिना पर बाइबल मुक़द्दस को तो मुहर्रिफ़ (बदली हुई या तहरीफ़ शुदा) कहना और क़ुरआन मजीद को क़ुबूल कर लेना मच्छर को छानने और हाथी को निगलने की मिसाल है।

बाइबल मुक़द्दस पर तहरीफ़ का इल्ज़ाम बाज़ औक़ात इस वजह से भी लगाया जाता है क्योंकि मोअतरिज़ बाइबल मुक़द्दस और यहूदी दस्तुरात से नावाक़िफ़ होते हैं। चुनान्चे “रद्दे ईसाई” के मुसन्निफ़ ने जिसका ऊपर ज़िक्र हो चुका है और उस के मुक़ल्लिदीन (मुक़ल्लद की जमा, तक़्लीद करने वाले) ने मर्क़ुस 2:26 का हवाला इसलिए दिया कि दाऊद ख़ुदा के घर में अबियातर सरदार काहिन के दिनों में दाख़िल हुआ और नज़्र की रोटियाँ खाईं। मोअतरिज़ कहता है कि ये ग़लत है क्योंकि 1 समुएल 21 वें बाब से मालूम होता है कि अख़ीमलक सरदार काहिन था।

अब ये एतराज़ मुसन्निफ़ के दीगर ऐसे एतराज़ात की तरह इस ग़लत क़ियास पर मबनी है कि एक वक़्त में सिर्फ एक ही सरदार काहिन हुआ करता था। लेकिन अगर वो लूक़ा की इन्जील का मुतालआ करते तो इनको फौरन ये मालूम हो जाता कि बाज़ औक़ात दो सरदार काहिन भी होते थे। चुनान्चे ये ज़िक्र है कि “तबेरियुस क़ैसर की हुकूमत के पंद्रहवे बरस जब….. हन्नाह और काइफ़ा सरदार काहिन थे.... ख़ुदा का कलाम.... यूहन्ना पर नाज़िल हुआ।” (लूक़ा 3:1-2) इसी तरह 1 समुएल 23:6-9 से उन को बख़ूबी मालूम हो सकता था कि जैसा मुक़द्दस मर्क़ुस ने बयान किया अबियातर काहिन भी उस वक़्त सरदार काहिन था। चुनान्चे वहां ये लिखा है, “और दाऊद को मालूम हो गया कि साऊल उस के ख़िलाफ़ बदी की तदबीरें कर रहा है। सो उस ने अबियातर काहिन से कहा कि अफ़ूद यहां ले आ।” ये अबियातर दाऊद की वफ़ात तक सरदार काहिन रहा। इस वक़्त दाऊद के बेटे सुलेमान ने उस की बदकिर्दारियों के सबब उसे माज़ूल कर दिया। चुनान्चे ये लिखा है, “फिर बादशाह ने अबियातर काहिन से कहा तू अंतोत को अपने खेतों में चला जा क्योंकि तू वाजिब-उल-क़त्ल है पर मैं इस वक़्त तुझको क़त्ल नहीं करता क्योंकि तू मेरे बाप दाऊद के सामने ख़ुदावंद यहोवा का संदूक़ उठाया करता था और जो जो मुसीबत मेरे बाप पर आई वो तुझ पर भी आई। सो सुलेमान ने अबियातर को ख़ुदावंद के काहिन के ओहदे से बरतरफ़ किया ताकि वो ख़ुदावंद के उस क़ौल को पूरा करे जो उस ने सेला में ऐली के घराने के हक़ में कहा था।” (1 सलातीन 6:26-27)

इस किताब “रद्द-ए-ईसाई” में बाइबल मुक़द्दस की तहरीफ़ का एक सबूत ये दिया है कि मुक़द्दस मत्ती की इन्जील में ये लिखा है कि यसूअ ने “झील गलील” के किनारे चलते हुए अपने पहले शागिर्दों को बुलाकर कहा, “मेरे पीछे चले आओ, तो मैं तुम्हें आदमीयों का पकड़ने वाला बनाऊँगा।” (मत्ती 4:18-22) हालाँकि लूक़ा की इन्जील में लिखा है कि “गन्नेसरत की झील” के किनारे चलते वक़्त उस ने इन शागिर्दों को बुलाया था। (लूक़ा 5:2-11) और बड़े ज़ोर से चिल्ला उठे कि देखो बाइबल मुक़द्दस में ये नक़ीज़ (बरअक्स, तज़ाद, उलट) बयानात हैं।

ऐसे बेइल्म लोग जब बाइबल मुक़द्दस पर एतराज़ करने लगते हैं तो हैरत होती है क्योंकि स्कूल के आम लड़के भी जिन्हों ने जुग़राफ़िया पढ़ा है वो ये जानते हैं कि वो झील कभी तो “गलील की झील” कभी “तबरीस की झील” और कभी “गन्नेसरत की झील” कहलाती है। ख़ुद क़ुरआन मजीद में एक शहर एक जगह तो “बक्का” और दूसरी जगह “मक्का” कहलाता है। लेकिन इस वजह से कोई शख़्स क़ुरआन मजीद के इन मुक़ामात को नक़ीज़ और मुहर्रिफ़ नहीं ठहराता। ये मोअतरिज़ अक़्लमंद एक और मुक़ाम पर भी हंसी उड़ाया करते हैं। उस मुक़ाम में ये लिखा है, “उस वक़्त यसूअ सबत के दिन खेतों में हो कर गया और उस के शागिर्दों को भूक लगी और बालें तोड़ तोड़ कर खाने लगे।” (मत्ती 12:1) इस मुक़ाम पर ये एतराज़ किया जाता है कि यसूअ ने जान-बूझ कर और रजामंदी से अपने शागिर्दों को इस चोरी और मुदाख़िलत बेजा की इजाज़त दी और चूँकि उनका ये एतराज़ और क़ियास इस्मते अम्बिया के मुसल्लिमा मसअला इस्लाम के ख़िलाफ़ है इसलिए इस को तहरीफ़ का नाम दे दिया।

इस एतराज़ से भी मोअतरिज़ की नादानी और बेइल्मी ज़ाहिर है क्योंकि मूसा की तौरेत से ये बख़ूबी वाज़ेह है कि यसूअ मसीह के शागिर्दों का ये फ़ेअल बालें तोड़ने का यहूदी शरीअत और मुरव्वज दस्तूर के ऐन मुताबिक़ था। चुनान्चे तौरेत में लिखा है, “जब तू अपने हमसाये के खड़े खेत में जाये तो अपने हाथ से बालें तोड़ सकता है पर अपने हमसाये के खड़े खेत को हंसवा ना लगाना।” (इस्तिस्ना 23:25) “जब तू अपने हमसाये के ताकिस्तान में जाये तो जितने अंगूर चाहे पेट भर कर खाना पर कुछ अपने बर्तन में ना रख लेना।” (इस्तिस्ना 23:24)

जाये ताज्जुब है कि बाइबल मुक़द्दस की जिस ताअलीम पर ये सख़्त एतराज़ किया जाता है वही ताअलीम ख़ुद इस्लाम में भी पाई जाती है! जब मुहम्मद साहब से दरख़्तों में लगे हुए फलों के बारे में सवाल किया गया तो आप साहब ने ये जवाब दिया,

مَنْ اَصَابَ مِنْہُ مِن ذی حاجِۃٍ غَیرَ مُتَّجذٍ جُنبَۃً فَلا شئ عَلَیہِ ومَن خَرج بشئِ فعلیہِ عَزَمَۃُ مثلہ والعقوبَۃ

तर्जुमा : “जो कोई ज़रूरत (यानी भूक) के बाइस इस में से ले, बिला इस के कि जिस क़द्र वो ले जा सकता है ले जाए, वो बेक़सूर है। लेकिन अगर वो उस में से कुछ ले जाये तो उस का फ़र्ज़ है कि उस की दुगुनी क़ीमत अदा करे और वो मुस्तजिब सज़ा है।” (मिशकात-उल-मसाबेह, किताब अल-बीआत)

इसी तरह मुहम्मद साहब ने ये इजाज़त दी कि अगर वो प्यास की शिद्दत बुझाने को किसी दूसरे की गाय का दूध दवा ले तो रवा (जायज़) है, लेकिन वो दूध किसी हालत में ले ना जाये। इस से ज़ाहिर है कि जिस ताअलीम पर बाअज़ मुसलमान एतराज़ करते हैं उस की इजाज़त तौरेत में भी है और मुहम्मद साहब ने भी दी है। इस की मज़ीद तश्रीह फ़ुज़ूल होगी।

मुसलमान मोअतरिज़ों (एतराज़ करने वालों) की नादानी ज़्यादा साफ़ तौर से वाज़ेह हो जाती है जब अनाजील में क़लम-बंद यसूअ मसीह के नसब नामों पर वो एतराज़ करते हैं। ये नसब नामे मत्ती और लूक़ा की इंजीलों में मुन्दरज हैं। इन एतराज़ात के बित्तफ़सील ज़िक्र करने की तो गुंजाइश नहीं, लेकिन यहूदी दस्तुरात की तरफ़ से उन की बेइल्मी ज़ाहिर करने की एक दो मिसालें दी जाती हैं।

मत्ती 1:16 में लिखा है कि मर्यम के ख़ावंद यूसुफ़ के बाप का नाम याक़ूब था, हालाँकि लूक़ा 3:22 में यूसुफ़ के बाप का नाम ऐली था। नामों की इन दो फ़हरिस्तों में दीगर फ़र्क़ भी हैं जिनसे पता लगता है कि एक नसब नामा तो “शरई नस्ल” का ज़िक्र करता है और दूसरा नसब नामा “तबई नस्ल” का ज़िक्र करता है। इस अम्र को वाज़ेह करने की ख़ातिर नाज़रीन को वो यहूदी क़ानून याद दिलाना है जिसकी रु से अगर कोई शख़्स बेऔलाद मर जाता है तो उस के भाई को हुक्म था कि उस की बेवा से शादी कर के अपने भाई के लिए औलाद पैदा करे ताकि उस भाई के ख़ानदान का नाम क़ायम रहे। इस तरह से जो औलाद पैदा होती वो शरीअत की निगाह में उस मुतवफ़्फ़ी (मरहूम) की औलाद समझी जाती थी। गो तबई तौर से वो औलाद अपने हक़ीक़ी बाप की थी यानी मुतवफ़्फ़ी (मरे हुए) के भाई की। इस क़ानून का ज़िक्र तौरेत में इस तरह से आया है, “अगर कई भाई मिलकर साथ रहते हों और एक उन में से बेऔलाद मर जाये तो उस मर्हूम की बीवी किसी अजनबी से ब्याह ना करे बल्कि उस के शौहर का भाई उस के पास जा कर उसे अपनी बीवी बना ले और शौहर के भाई का जो हक़ है वो उस के साथ अदा करे। और उस औरत के जो पहला बच्चा हो उस आदमी के मर्हूम भाई के नाम का कहलाए ताकि उस का नाम इस्राईल में से मिट ना जाये।” (इस्तिस्ना 25:5, 6)

पस अगर एली बेऔलाद मर गया और उस के सगे या सौतेले भाई ने शरीअत के मुताबिक़ ऐली की बेवा से शादी कर ली तो उस की औलाद यानी यूसुफ़ शरई तौर पर ऐली का बेटा होगा लेकिन तबई तौर पर याक़ूब का। पस जो बादी-उन-नज़र (सरसरी नज़र से) में एक बड़ा नुक़्स मालूम होता था वो बिल्कुल नुक़्स नहीं रहता।

इस क़रीने में अहले इस्लाम से इल्तिमास है कि वो ख़ुद क़ुरआन मजीद की तरफ़ ही मुतवज्जोह हों क्योंकि क़ुरआन मजीद में इस्हाक़ और याक़ूब दोनों इब्राहिम के बेटे कहलाते हैं। हालाँकि ये बख़ूबी मालूम है कि याक़ूब इस्हाक़ का बेटा था। चुनान्चे सूरह अनआम 6:84 में मुन्दरज है, “और हमने उस (इब्राहिम) को इस्हाक़ और याक़ूब दिए।” चुनान्चे नईम उद्दीन ने अपनी तफ़्सीर क़ुरआन मजीद के सफ़ा 115 पर ये लिखा “यानी ख़ुदा कह रहा है कि ऐ मुहम्मद मैंने इब्राहिम को दो बेटे दिए इस्हाक़ और याक़ूब और मैंने दोनों की हिदायत की।”

अम्र वाक़ई तो ये है कि यहूदी और मसीही मुक़द्दस किताबों को मुहर्रिफ़ साबित करने की जो कोशिश हुई। ख़्वाह वो क़ुरआन मजीद से हो या ख़ुद बाइबल मुक़द्दस से वो नाकाम साबित हुई। रहा लफ़्ज़ी और क़िरआत का इख़्तिलाफ़ वो तो क़ुरआन मजीद में भी मौजूद है और उन से ना क़ुरआन मजीद की सेहत व एतबार पर हर्फ़ आता है ना बाइबल मुक़द्दस की सेहत व एतबार पर। अगर हमारे मुसलमान भाई अपने रसूल की शहादत पर ही इतना वक़्त सर्फ़ करते जो उन्हों ने बाइबल मुक़द्दस की सेहत व मोअतबर होने के बारे में दी है, जितना कि वो बाइबल मुक़द्दस में तहरीफ़ साबित करने पर देते हैं तो नतीजा बिल्कुल मुख़्तलिफ़ होता।

बाब पंजुम

तन्सीख़ के बारे में ज़माना हाल के इल्ज़ाम

हम इस से माक़ब्ल (पहले के) बाब में ये ज़िक्र कर चुके हैं कि मुहम्मद साहब ने बाइबल मुक़द्दस को ना सिर्फ ग़ैर-मुहर्रिफ़ कलाम-उल्लाह (यानी जो बदली नहीं गई) तस्लीम किया बल्कि उन्होंने अपने ज़माने के यहूदीयों और मसीहीयों को हिदायत की कि उस के अहकाम की तामील करें और उन्होंने ख़ुद ख़ुराक और ज़िनाकार की सज़ा के सवाल को तौरेत के मुताबिक़ हल करना चाहा और इस के ज़रीये इस अम्र का सरीह व वाज़ेह सबूत दिया कि क़ुरआन मजीद की इशाअत के ज़रीये यहूदी मुक़द्दस किताबें मन्सूख़ नहीं हुईं। लेकिन बावजूद इन वाक़ई उमूर के बाअज़ ऐसे मुसलमान साहिबान पाए जाते हैं कि जब वो बाइबल मुक़द्दस की तहरीफ़ साबित करने में क़ासिर रहते हैं तो वो ये कह कर उन किताबों को रद्द करना चाहते हैं कि वो क़ुरआन मजीद के आने से मन्सूख़ हो गई हैं और जब हम उन से पूछते हैं कि किस दलील के ज़ोर पर वो मुहम्मद साहब की ताअलीम के ख़िलाफ़ ऐसे दावा करते हैं, तो वो क़ुरआन मजीद की तीन आयात को पेश करके कहते हैं कि इनकी रु से बाइबल मुक़द्दस मन्सूख़ साबित है।

पस अब हमारा ये फ़र्ज़ है कि क़ुरआन मजीद के मुफ़स्सिरों की मदद से हम इन मुक़ामात पर ग़ौर करें और ये ज़ाहिर करने में कुछ मुश्किल पेश ना आएगी कि तहरीफ़ के इल्ज़ाम की तरह ये इल्ज़ाम भी बिल्कुल बे-बुनियाद है।

इन में से पहला मुक़ाम सूरह नहल 16:101 है जिसमें से वो बाइबल मुक़द्दस के मन्सूख़ होने की दलील लाते हैं। इस आयत का तर्जुमा ये है, “जब हम एक आयत को बदल कर उस की जगह दूसरी आयत नाज़िल करते हैं और अल्लाह जो (अहकाम) नाज़िल फ़रमाता है उस की मस्लहतों को वही ख़ूब जानता है तो (काफ़िर तुमसे) कहने लगते हैं कि बस तू तो अपने दिल से बनाया करता है। उनका ये शुब्हा ग़लत है बल्कि बात ये है कि उनमें से अक्सर वक़्त की मस्लहतों को नहीं समझते।” मुस्तनद तफ़्सीरों के देखने से ये ज़ाहिर हो जाएगा कि इस आयत में बाइबल मुक़द्दस की तरफ़ कोई इशारा नहीं बल्कि बरअक्स इस के इस का ताल्लुक़ क़ुरआन मजीद ही से है कि क़ुरआन मजीद के बाअज़ अहकाम माबाअ्द अहकाम के ज़रीये से मन्सूख़ हो गए। चुनान्चे तफ़्सीर जलालेन में ये है :-

قالوای الکفار للنبی صلے اللہ علیہ وسلم انما انت مفتر کذاب تقولہ من عندک بل اکثر ھم لا یعلمون حقیقۃ القران وفائدۃ النسخ

तर्जुमा : “उन्हों (यानी काफ़िरों) ने नबी से कहा (साहब) तू तो झूटा मुफ़्तरी है तू (ये बातें) अपने आपसे बना लेता है। लेकिन उन में से अक्सर क़ुरआन मजीद की हक़ीक़त और नस्ख़ के फ़ायदे का इल्म नहीं रखते।”

जलालेन के इन अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है कि जब क़ुरआन मजीद की एक आयत दूसरी आयत के ज़रीये मन्सूख़ हो गई तो बेईमानों ने तंज़न (ताने से) ये कहा कि इस नई शरीअत का बानी ख़ुद मुहम्मद साहब है।

तफ़्सीर क़ादरी (जिल्द दोम, सफ़ा 581) और तफ़्सीर मदाह-उल-क़ुरआन मजीद (सफ़ा 280) में भी यही तश्रीह पाई जाती है और बैज़ावी ने तो इस आयत की तफ़्सीर और भी वाज़ेह कर दी है। वहां ये लिखा है :-

قالوا أي الكفار إنما أنت مفتر متقّول على الله تأمر بشيء ثم يبدو لك فتنهى عنه

तर्जुमा : “उन्हों ने यानी काफ़िरों ने कहा, तू तो मुफ़्तरी (झुटा) है तू अपने कलिमात को ख़ुदा से मन्सूब करता है। तू पहले एक बात का हुक्म देता है फिर पीछे (बाद में) तू इस की मुमानिअत करता है।” बैज़ावी ने ये बिल्कुल वाज़ेह कर दिया कि इस मुक़ाम में क़ुरआन मजीद के अहकाम का ज़िक्र है। तौरेत और इन्जील से इस का कुछ वास्ता नहीं।

बाइबल मुक़द्दस को मन्सूख़ साबित करने के लिए सूरह बक़रह की 100 वीं आयत भी पेश की जाती है जिसका तर्जुमा यूं है, “हम कोई आयत मन्सूख़ कर दें या तुम्हारे ज़हन से इस को उतार दें तो इस से बेहतर या वैसी ही नाज़िल भी कर देते हैं।” पहली आयत की तरह इस आयत में भी क़ुरआन मजीद की तरफ़ इशारा है ना बाइबल मुक़द्दस की तरफ़। मुस्तनद तफ़ासीर के चंद इक़तिबासात से ये वाज़ेह हो जायेगा मसलन तफ़्सीर जलालेन में ये लिखा है :-

ولما طعن الكفار في النسخ وقالوا إنّ محمداً يأمر أصحابه اليوم بأمر وينهى عنه غداً فنزل مَا نَنسَخْ

तर्जुमा : “नस्ख़ के बारे में बेईमानों ने जब मुहम्मद साहब पर ताना किया और कहा सच-मुच मुहम्मद साहब अपने अस्हाब को आज एक हुक्म देता है और कल उस को मना कर देता है, तब ये अल्फ़ाज़ नाज़िल हुए।” “हम कोई आयत मन्सूख़ कर दें।” इन अल्फ़ाज़ के बारे में “या तुम्हारे ज़हन से इस को उतार दें।” इसी मुफ़स्सिर ने ये तश्रीह की : -

أي نُنْسِكها ونمحيها من قلبك

तर्जुमा : “यानी ऐ मुहम्मद तुझे भुलवा दे और तेरे दिल से उड़ा दे।”

जलालेन के इन अल्फ़ाज़ से बख़ूबी ज़ाहिर है कि इस आयत ज़ेर-ए-बहस के अल्फ़ाज़ का ताल्लुक़ तौरेत या इन्जील से नहीं, बल्कि क़ुरआन मजीद के अल्फ़ाज़ से है। ख़ुदा मन्सूख़ करे या मुहम्मद साहब को भुलवा दे जो इस से पेश्तर इस पर मुन्कशिफ़ (नाज़िल) हुआ था जैसा कि जलालेन ने तफ़्सीर की ये सारा मुआमला बिल्कुल आसानी से समझ में आ जाता है। मुहम्मद साहब को अक्सर ज़रूरत पड़ी कि बाअज़ अहकाम को जो उस ने मुसलमानों को जिहाद, क़िब्ला वग़ैरह के बारे में दिए थे, उन को बदल डाले। इन तब्दीलीयों की वजह से बेईमानों को ठट्ठा करने का मौक़ा मिला जैसा कि जलालेन ने ज़िक्र किया है। इस के जवाब में ये कहा जाता है कि ख़ुदा मन्सूख़ शूदा आयत से बेहतर नाज़िल कर देता है। मुसलमान मुफ़स्सिरों की ये मुत्तफ़िक़ अलैह राय है। चुनान्चे मुफ़स्सला-ज़ैल इक़तिबासात से ये साबित है।

बैज़ावी ने ये तफ़्सीर की :-

نزلت لما قال المشركون أو اليهود ألا ترون إلى محمد يأمر أصحابه بأمر ثم ينهاهم عنه ويأمر بخلافه

तर्जुमा : “ये आयत नाज़िल हुई जब मुशरिकों और यहूदीयों ने ये कहा था कि तुम मुहम्मद को देखते हो वो अपने पैरौओं (मानने वालों) को एक हुक्म देता है और फिर उस को मना कर के उस के बरअक्स हुक्म देता है।”

तफ़्सीर क़ादरी सफ़ा 26 पर ये लिखा है कि इस आयत के ये मअनी हैं :-

“जो कुछ मन्सूख़ कर दिया हमने आयात क़ुरआन मजीद से..... लाते हैं हम बेहतर उस मन्सूख़ की हुई आयत से जैसे दस काफ़िरों के साथ एक ग़ाज़ी का मुक़ाबला मन्सूख़ कर दिया और दो काफ़िरों के साथ मुक़र्रर किया।.... और जैसे क़िब्ले को बैतुल-मुक़द्दस से काअबा की तरफ़ फेर दिया।”

तफ़्सीर रउफी के सफ़ा 114 पर लिखा है :-

“जो कुछ मौक़ूफ़ (मन्सूख) करते हैं हम आयतों से क़ुरआन शरीफ़ के।”

अब्दुल क़ादिर ने ये तफ़्सीर की :-

“जो मौक़ूफ़ (मन्सूख) करते हैं हम कोई आयत क़ुरआन मजीद की मुवाफ़िक़ मस्लहत-ए-वक़्त के या भुला देते हैं, उस आयत को दिलों से, तो लाते हम यानी भेज देते हैं हम इस से अच्छी, जैसे कि लड़ाई में अव्वल हुक्म था कि दस काफ़िरों से एक मुसलमान लड़े, फिर हुक्म हुआ कि दो काफ़िरों से एक मुसलमान लड़े। ये आसानी हुई मुसलमानों पर। बराबर इस के आयत भेजते हैं जैसे कि पहले हुक्म था कि बैतुल-मुक़द्दस की तरफ़ सज्दा करो फिर मक्के की तरफ़ नमाज़ का हुक्म हुआ।” (सफ़ा 17)

इन मशहूर मुहम्मदी उलमा की तफ़ासीर से ये रोशन है कि आयत ज़ेर-ए-बहस में क़ुरआन मजीद ही की आयात की तरफ़ इशारा है, ना किसी और किताब की आयात की तरफ़ और बाइबल मुक़द्दस की तरफ़ इस में मुतलक़ कोई इशारा नहीं। सारे क़ुरआन मजीद में कोई आयत ऐसी नहीं जहां ये ताअलीम हो कि क़ुरआन मजीद ने बाइबल मुक़द्दस को मन्सूख़ कर दिया लेकिन मुसलमान उलमा कहते हैं कि कम-अज़-कम 225 मुख़्तलिफ़ आयात को माबाअ्द (बाद की) आयात ने मन्सूख़ कर दिया है तो भी मुसलमान सारे क़ुरआन मजीद को पढ़ते हैं यानी मन्सूख़ शूदा आयात को भी क़ुरआन मजीद में पढ़ते रहते हैं। इसलिए अगर ये साबित भी हो जाये कि बाइबल मुक़द्दस के अहकाम मन्सूख़ हो गए हैं तो भी ये कोई उज़्र ना होगा कि मुसलमान इस किताब को नज़र-अंदाज करें क्योंकि ये तो तस्लीम कर लिया गया कि वो इलाही मुकाशफ़ा है और बावजूद मन्सूख़ होने के भी वो बेश-बहा और अहम तारीख़ी बयान है।

इस मज़्मून को छोड़ने से पेश्तर नाज़रीन की तवज्जोह क़ुरआन मजीद की इस आयत की तरफ़ मुनातिफ़ करना चाहता हूँ जिसमें कि नस्ख़ के मज़्मून का ज़िक्र आया है। वहां ये लिखा है, “हमने तुमसे पहले कोई ऐसा रसूल नहीं भेजा और ना कोई ऐसा नबी कि उस को ये मुआमला पेश ना आया हो कि जब उस ने अपनी तरफ़ से किसी बात की तमन्ना की, शैतान ने उस की तमन्ना में वस्वसा डाला। फिर आख़िरकार ख़ुदा ने वस्वसा शैतानी को दूर और अपनी आयतों को मज़्बूत कर दिया।” (सूरह हज 22:51) इस आयत में किताब मुक़द्दस के उन हिस्सों पर नस्ख़ का हुक्म सादिर हुआ जो वस्वसा शैतानी से उस में दाख़िल हो गई थीं और इस की तश्रीह में मुसलमान मुफ़स्सिरों ने एक अजीब क़िस्सा सुनाया है कि मुहम्मद साहब को शैतान ने धोका देकर उस से कुफ़्र कहलवा दिया। इस के बाद मुहम्मद साहब को इस का बड़ा रंज हुआ। आख़िरकार ये आयत नाज़िल कर के ख़ुदा ने उस की तश्फ़ी (दिलासा) की।

क़ाज़ी बैज़ावी ने इस की ये तफ़्सीर की है, (सफ़ा 447) “वो कहते हैं कि मुहम्मद साहब ये चाहते थे कि उस क़ौम के लोगों को ईमान की तरफ़ लाने के लिए इस पर कोई ऐसी आयत नाज़िल हो जिसके ज़रीये उस के और उस की क़ौम के माबैन दोस्ती का रिश्ता क़ायम हो जाये और वो बराबर यही चाहता रहा हत्ता कि वो एक रोज़ बुत-परस्तों की मज्लिस में हाज़िर था और उस ने ये सूरह पढ़नी शुरू की और जब वो इन अल्फ़ाज़ पर पहुंचा, وَمَنٰوۃً الثّا لِثَۃَ الاُخری तो शैतान ने उस के कान में फूँका और उस की ज़बान पर ये अल्फ़ाज़ डाल दिए और उस ने कहा, “ये (अरबी देवियाँ) मुम्ताज़ हंस हैं और यक़ीनन इनकी सिफ़ारिश की उम्मीद रखनी चाहीए।” इस पर बेईमान लोग तो ख़ुश हो गए और जब मुहम्मद साहब सज्दे में झुका तो ये लोग भी उस के साथ सज्दे में झुके, यहां तक कि मस्जिद में कोई ईमानदार या बुत-परस्त ऐसा ना था जिसने सज्दा ना किया हो। इस के बाद जिब्राईल ने हज़रत को मुतनब्बाह (आगाह किया) किया और वो बहुत रंजीदा हुआ और ख़ुदा ने इस आयत के ज़रीये उस की तसल्ली की। ये अजीब क़िस्सा जिसका ज़िक्र बहुत मुसलमानी किताबों में आया है कम अज़ कम ऐसी मिसाल है कि जिन अल्फ़ाज़ को ख़ुदा ने मन्सूख़ किया वो मुहम्मद साहब के ऐसे अल्फ़ाज़ थे जो वस्वसा शैतानी के ज़रीये दाख़िल हो गए थे।

जिन आयात को बाइबल मुक़द्दस की तन्सीख़ के मुताल्लिक़ पेश करते हैं वो ऐसी ही हैं। तौरेत और इन्जील के मन्सूख़ होने के दावे की बजाय मुहम्मद साहब ने बार-बार बयान किया कि क़ुरआन मजीदمصد قا لما بین یدیہ कि वो इन्ही किताबों का मुसद्दिक़ (सच्चा बताने वाला) था। मगर ये तो अयाँ है कि जब क़ुरआन मजीद बाइबल मुक़द्दस का मुसद्दिक़ (सच्चा बताने वाला) हुआ तो वो उस का नासिख़ नहीं हो सकता। चूँकि मुहम्मद साहब ने अपने ज़माने के यहूदीयों और मसीहीयों को ये ताअलीम दी कि वो अपने मुक़द्दस नविश्तों पर अमल करें तो ये दर्याफ़्त करना मुश्किल नहीं कि इन दोनों बातों में से क़ुरआन मजीद की सही ताअलीम कौन सी है।

ये सारा मुआमला ऐसा साफ़ है कि बहुत सच्चे मुसलमान ये मान लेते हैं कि बाइबल मुक़द्दस मन्सूख़ नहीं हुई। पस इन आयात की तफ़्सीर करते हुए “अगर वो तौरेत और इन्जील पर अमल करें जो उन के ख़ुदा की तरफ़ से उन पर नाज़िल हुईं तो उन के ऊपर और उन के पांव के तले से नेअमतों की मामूरी उन को हासिल होगी।” (सूरह माइदा 5:70) पस ये राय कैसी लगू होगी जो अक्सर मुहम्मदी और उन के देखा देखी मसीही ज़ाहिर किया करते हैं कि क़ुरआन मजीद ने माक़ब्ल मुक़द्दस किताबों को मन्सूख़ कर दिया है। क़ुरआन मजीद ने किसी जगह भी ये ज़ाहिर नहीं किया कि तौरेत या इन्जील या दीगर सहाइफ़ मन्सूख़ हो गए हैं बल्कि बार-बार ये ज़ाहिर किया कि ये उन की ताअलीमात का मुसद्दिक़ (सच्चा बताने वाला) था। सिर्फ वस्वसा शैतानी को ख़ुदा ने मन्सूख़ किया। अलीगढ़ कॉलेज के बानी सर सय्यद अहमद ख़ान मर्हूम ने ये बयान किया :-

“जो लोग ये समझते हैं कि मुहम्मदी अक़ीदे का ये जुज़ (हिस्सा) है कि एक शरीअत ने दूसरी शरीअत को बिल्कुल मन्सूख़ कर दिया वो सरासर ग़लती पर हैं। हमारा अक़ीदा ये नहीं कि ज़बूर ने तौरेत को मन्सूख़ कर दिया और इन्जील ने ज़बूर को और क़ुरआन मजीद ने इन्जील को। हमारी ताअलीम हरगिज़ ये नहीं। अगर कोई जाहिल मुहम्मदी इस के ख़िलाफ़ कहे वो अक़ीदे के अरकान और ताअलीम से बिल्कुल बे-बहरा (बेइल्म, ना-आश्ना) है।”

इस बाब को ख़त्म करने से पेश्तर हम इस मसअले के एक और पहलू पर भी नज़र डालना चाहते हैं। वो ये है कि नस्ख़ उमूर वाक़ई (वाक़्यात) पर आइद नहीं हो सकता मुम्किन है कि कोई हुक्म मन्सूख़ हो जाये लेकिन एक तारीख़ी वाक़िया हमेशा वाक़िया ही रहेगा। मशहूर मुसलमान मुफ़स्सिर जलाल उद्दीन सिवती ने इस अम्र को तस्लीम कर लिया। चुनान्चे वो लिखता है :-

لا يقع النسخ إلا في الأمر والنهي

तर्जुमा : “नस्ख़ सिर्फ़ अवामिर (अहकामे इलाही, शरई हुक्म) व नवाही (मना किये गए हुक्म) पर ही आइद हो सकता है।”

मज़हरी ने भी ये लिखा :-

النسخ انما یعترض علی الا و امروالنواھی دون الاخبار

तर्जुमा : “नस्ख़ सिर्फ़ अवामिर व नवाही (शरई हुक्म करने ना करने) के बारे में ही हो सकता है।” अगर इन्जील में ये साफ़ बयान हो (चुनान्चे ऐसा ही है) कि यसूअ मसीह ने अपनी जान सलीब पर गुनाहों की क़ुर्बानी की ख़ातिर नज़र गुज़रानी और तीसरे दिन फिर जी उठा तो ऐसा तारीख़ी वाक़िया कभी मन्सूख़ नहीं हो सकता। हमेशा ये रास्त ही रहेगा कि यसूअ मर गया और फिर जी उठा।

हम ये ज़िक्र कर चुके हैं कि बाइबल मुक़द्दस के मन्सूख़ होने के बारे में क़ुरआन मजीद में इशारा तक नहीं। इन्जील में तो ये साफ़ बयान है कि इन्जील का अहद ज़माने के आख़िर तक रहेगा। चुनान्चे ये लिखा है, “घास मुरझाती है। फूल कुमलाता है पर हमारे ख़ुदा का कलाम अबद तक क़ायम है।” (यसअयाह 40:8) और ख़ुद मसीह ने फ़रमाया, “आस्मान और ज़मीन टल जाऐंगे लेकिन मेरी बातें हरगिज़ ना टलेंगी।” (मत्ती 24:35) और ज़मीन पर जिस सल्तनत को क़ायम करने के लिए मसीह आया था उस की निस्बत इन्जील में ये लिखा है कि, “उस की बादशाही का कभी आख़िर ना होगा।” (लूक़ा 1:33) पस ये कैसे हो सकता था कि इस्लाम के आने से मसीही अहद मन्सूख़ हो जाये। ऐसा ख़याल क़ुरआन मजीद और इन्जील दोनों के ख़िलाफ़ है।

बाब शश्म

अज़रूए इस्लाम मसअला कलाम-उल्लाह

गुज़श्ता अबवाब में हम ये अम्र साबित कर चुके हैं कि मसीही मुक़द्दस किताबें ना तो तहरीफ़ हुईं और ना मन्सूख़ हुईं। जैसी वो मुहम्मद साहब के अय्याम (दिनों) में थीं वैसी ही वो अब मौजूद हैं। “हिदायत और नूर” जो कुछ अह्सन है वो कामिल तौर से उन में मौजूद है और हर सवाल का हल और हिदायत और रहमत उन में है। वो मुत्तक़ियों के लिए नसीहत हैं और इस हैसियत में जो लोग आला नेकी के मुतलाशी हैं उनका फ़र्ज़ है कि उन किताबों को पढ़ें और उन पर अमल करें। अब हम ये दर्याफ़्त करेंगे कि इस्लाम में बाइबल मुक़द्दस की ताअलीम की ताईद और तस्दीक़ कहाँ तक पाई जाती है? क़ुरआन मजीद ने जो बार-बार इन किताबों के मुसद्दिक़ होने का दावा किया है कहाँ तक क़ुरआन मजीद के मुतालए से उस के इस दावे की ताईद है?

मसअला ख़ुदा अज़रूए बाइबल मुक़द्दस

बाइबल मुक़द्दस में ये ताअलीम है अल्लाह वाहिद ज़ुल-हयात और बरहक़ है। वो अज़ली व अबदी है है। वो ग़ैर मुतजसद, ग़ैर-मुनक़सिम और ग़ैर-मुतास्सिर है। उस की क़ुद्रत और हिक्मत और ख़ूबी बेहद है। वो सब मुरई (देखी) और ग़ैर मुरई (अन-देखी) चीज़ों का ख़ालिक़ और हाफ़िज़ है। यहां तक तो इस्लाम को पूरा इत्तिफ़ाक़ है। लेकिन जब इलाही वजूद के तरीक़े पर ग़ौर करने लगते हैं, वहां ताअलीम में इख़्तिलाफ़ शुरू हो जाता है। बाइबल मुक़द्दस में ये मुकाशफ़ा पाया जाता है कि उस एक और वाहिद ख़ुदा में तीन अक़ानीम यानी बाप, बेटा और रूहुल-क़ुद्दुस हैं जिनका जोहर, क़ुद्रत और अज़लियत एक ही है। इस से ज़ाहिर होता है कि ख़ुदा की अज़ली ज़ात में रिश्ते पाए जाते हैं। तीन मुत्तफ़िक़ मर्ज़ीयाँ बाहमी मुहब्बत और इत्तिहाद के साथ अज़ल से मौजूद हैं, ऐसा कि उलूहियत की वहदत में अक़ानीम सलासा मौजूद हैं। तक़रीबन वैसे ही जैसे कि इन्सानी शख़्सियत की वहदत में अक़्ल, नफ़्स और रूह का सालूस मौजूद है तो भी इन्सान की शख़्सियत वाहिद है ना तीन, वैसे ही मसीही इल्म इलाहीइत में सालूस ख़ुदा लासानी और मुतलक़ वाहिद है। मुक़द्दस सालूस का ये बड़ा राज़ मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर शुदा) हक़ीक़त है और ये उस बाइबल मुक़द्दस में पाया जाता है जिसका ज़िक्र मुहम्मद साहब ने ऐसी तारीफ़ के साथ किया और जिसकी ताज़ीम व तामील करने की उन्हों ने आदमीयों को ताअलीम दी। इसलिए ये दर्याफ़्त करना अहम अम्र है कि मसीही दीन की इस उसूली ताअलीम के बारे में मुहम्मद साहब की राय क्या थी? और इलाही ज़ात के इस तिहरे इज़्हार के मुताल्लिक़ इस्लाम ने क्या ताअलीम दी? मगर इस सवाल का जवाब देने से पेश्तर फिर ये दुहराना और ज़ोर देना ज़रूर है कि सवाल ये नहीं कि ख़ुदा एक है या तीन। क़ुरआन मजीद की तरह बाइबल मुक़द्दस ने भी ख़ुदा की वहदत पर यकसाँ ज़ोर दिया है। “सुन ऐ इस्राईल, ख़ुदावंद हमारा ख़ुदा एक ही ख़ुदावंद है।” (इस्तिस्ना 6:4) ये उसूली ताअलीम है जिस पर बाइबल मुक़द्दस ने मसअला ख़ुदा की बुनियाद रखी। जो सवाल ज़ेर-ए-बहस है वो ये है कि इलाही हस्ती और इलाही ज़ात के इज़्हार का तरीक़ा क्या है।

जब इस सवाल के जवाब के लिए हम क़ुरआन मजीद और अहादीस की तरफ़ मुतवज्जोह होते हैं कि इस इलाही वहदत में तिहरी ज़ात की मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना) ताअलीम के बारे में मुहम्मद साहब की क्या राय थी तो हमको मसीही कलीसिया की इस ताअलीम के मुताल्लिक़ कुछ पता नहीं लगता, बल्कि बरअक्स इस के ये मालूम होता है कि तीन ख़ुदाओं के एक क़यासी मसअले की तर्दीद में बार-बार कोशिश की गई। क़ुरआन मजीद में बार-बार इस का ज़िक्र ऐसे तरीक़े से हुआ है जिससे ये साफ़ मालूम होता है कि मुहम्मद साहब मारश्यान के बिद्अती मुक़ल्लिदों से ना झगड़ रहे थे (बिलफ़र्ज़ अगर उस ज़माने में ऐसे लोग अरब में मौजूद हों) जो तीन ख़ुदाओं को मानते थे यानी अदल का ख़ुदा, रहमत का ख़ुदा और बदी का ख़ुदा। बल्कि मुहम्मद साहब को ये ग़लत ख़याल पैदा हो गया कि मसीहीयों के दर्मियान जो मसअला सालूस था वो तीन ख़ुदाओं का मसअला था। जिन अल्फ़ाज़ में मुहम्मद साहब ने इस फ़र्ज़ी मसअले तस्लीस का ज़िक्र किया उस से इस राय की ताईद हुई है। चुनान्चे सूरह माइदा 5:76 में ये आया है, “जो लोग कहते हैं कि ख़ुदा तो यही तीन में का तीसरा है। क्योंकि एक के सिवा कोई ख़ुदा नहीं।” फिर दूसरे मुक़ाम में ये आया है, “ऐ मर्यम के बेटे ईसा क्या तुम ने लोगों से ये बात कही थी कि ख़ुदा के इलावा मुझको और मेरी वालिदा को भी दो ख़ुदा मानो।” (सूरह माइदा 5:116)

मुहम्मद साहब को यहां दुहरी ग़लती लगी। अव्वल तो ये कि उन्हों ने ख़याल किया कि मसीहीयों का मसअला सालूस तीन ख़ुदाओं को तस्लीम करना है और दोम ये कि सालूस बाप, बेटे और कुँवारी मर्यम पर मुश्तमिल था। मसीहीयों की इस ताअलीम के बारे में मुहम्मद साहब ही को ग़लती नहीं लगी बल्कि क़ुरआन मजीद के मुसलमान मुफ़स्सिरों ने भी ये ग़लती खाई। चुनान्चे जलालेन ने ऐसी ही राय ज़ाहिर की। जिस आयत का इक़्तिबास हम ऊपर कर आए हैं इस की तफ़्सीर में उन्हों ने यह लिखा :-

ان اللّٰہ ثالث ثلٰثۃ ھوا حدھا والا خران عیسیٰ و امّہ

तर्जुमा : “तहक़ीक़ ख़ुदा तीन में का तीसरा है, वो उन में से एक है, बाक़ी दो ईसा और उस की माँ हैं।”

ये बताने की चंदाँ ज़रूरत नहीं कि ऐसी फ़ुज़ूल ताअलीम कभी किसी मसीही फ़िर्क़े की ना थी। ख़ुदा की ज़ात के बारे में बह्स मुबाहिसे तो होते रहे, लेकिन सारे ज़मानों और मुल्कों में ख़ुदा की वहदत की उसूली ताअलीम हमेशा मसीही कलीसिया मानती रही। अब हम मुसलमान नाज़रीन ही से पूछते हैं कि जब क़ुरआन मजीद ने मसीही अक़ीदे के इस अम्र वाक़ई के मुताल्लिक़ ऐसी बड़ी ग़लती खाई तो उन गहरे उमूर के बारे में जो हमारी अज़ली जंग से इलाक़ा रखते हैं, हम उस को किस तरह से अपना हादी मान लें। अगर मसीही मसअला ख़ुदा की हक़ीक़त से मुहम्मद साहब नावाक़िफ़ थे तो हम उन दीगर बातों का एतबार कैसे करें जो ख़ुदा का रस्ता दिखाने के मुताल्लिक़ उन्हों ने बयान कीं?

बाज़ों ने नादानी से ये सवाल उठाया कि मसअला सालूस बाद की इख़्तिरा है और इब्तिदा में मसीहीयों के दर्मियान ख़ुदा का ऐसा तसव्वुर ना था। लेकिन अह्दे-जदीद को जो ज़रा ग़ौर से पढ़ते हैं वो ये मालूम किए बग़ैर नहीं रह सकते कि जिस क़द्र ज़ोर व ताकीद ख़ुदा की ज़ात वाहिद पर हुई, उसी क़द्र ज़ोर व ताकीद यसूअ और रूहुल-क़ुद्दुस की उलूहियत पर दी गई। मसीह ने जब ये हुक्म दिया कि सारी दुनिया में जा कर इन्जील की मुनादी करो तो साथ ही उस ने ये सरीह हिदायत की कि उन नौ-मुरीदों (नए शागिर्दों) को बाप, बेटे और रूहुल-क़ुद्दुस के नाम (ना नामों) में बपतिस्मा देना। पौलुस रसूल के बाअज़ ख़तों के आख़िर में जो कलिमा तम्जीद पाया जाता है उस से भी इस की ताईद होती है। वो अपने शागिर्दों के लिए ये दुआ करता है, “ख़ुदावंद यसूअ मसीह का फ़ज़्ल, ख़ुदा की मुहब्बत और रूहुल-क़ुद्दुस की शराकत तुम्हारे साथ हो।” मसीह कलीसिया की क़दीम नमाज़ की किताबों में भी इलाही ज़ात के बुतून में तस्लीस का सबूत पाया जाता है। चुनान्चे सिकंदरीया की कलीसिया की क़दीम किताब अन्नमाज़ जो 200 ई॰ के क़रीब मुरव्वज थी, लोगों को ये तल्क़ीन करती थी, “एक ही वाहिद क़ुद्दूस है, बाप, एक ही वाहिद क़ुद्दूस है, बेटा, एक ही वाहिद क़ुद्दूस है, रूहुल-क़ुद्दुस।” तारीख़ कलीसिया में लिखा है कि जब सिमर्ना के बुज़ुर्ग पोली कॉर्प ने जो 69 ई॰ में पैदा हुआ था और जो ख़ुद यूहन्ना रसूल का शागिर्द था, ईमान की ख़ातिर अपनी जान दी तो अपने मक़त्ल में अपनी दुआ को इन अल्फ़ाज़ पर ख़त्म किया “उस के लिए और सारी बातों के लिए मैं तेरी हम्द करता, तुझे मुबारक कहता, मैं तेरा जलाल ज़ाहिर करता मए अज़ली आस्मानी यसूअ के जो तेरा प्यारा बेटा है। उस के साथ तुझको और रूहुल-क़ुद्दुस को जलाल हो अब और सारे ज़मानों तक। आमीन।” इस अम्र की एक और अजीब शहादत मशहूर मुसन्निफ़ और ज़रीफ़ लूश्यान की तस्नीफ़ात में पाई जाती है। ये शख़्स 125 ई॰ में पैदा हुआ। उस की तस्नीफ़ बनाम पतरस (PHILOPATRIS) में मसीही ये इक़रार करता है, “ख़ुदा तआला।... बाप का बेटा।..... रूह जो बाप से सादिर है तीन का एक और एक का तीन।” ये इक़तिबासात इस अम्र के ज़ाहिर करने के लिए काफ़ी हैं कि ख़ुद मसीह के ज़माने से लेकर मसीही कलीसिया की ये ताअलीम चली आई है कि एक ख़ुदा तीन अक़ानीम में है। ये मसअला माबाअ्द ज़मानों में रफ़्ता-रफ़्ता पैदा ना हुआ बल्कि इस की ताअलीम की बुनियाद ख़ुद मुक़द्दस किताब में पाई जाती है।

मुसलमानों का ये कहना कि चूँकि वो मसअला सालूस को समझ नहीं सकते, इसलिए वो इस को मान भी नहीं सकते, दूर तसलसुल के मुग़ालते की तरफ़ ले जाता है। आख़िरी रोज़ की क़ियामत के राज़ को कौन समझ सकता है? तो भी हज़ारहा इस को मानते हैं। क़ुरआन मजीद में बहुत बातें ऐसी पाई जाती हैं जिनको मुसलमान नहीं समझते तो भी उस किताब की वाहिद सनद पर उस को मान लेते हैं। चुनान्चे क़ुरआन मजीद की जिस आयत में ख़ुदा के अर्श पर बैठने का ज़िक्र आया है, तफ़्सीर अल-रउफ़ी ने उस की ये शरह है :-

“मुतशाबहात क़ुरआनी से, ईमान हमारा है इस पर और हक़ीक़त उस की अल्लाह ही जानता है। जैसा वो बे-कैफ़ है इस्तिवा उस का अर्श पर बिला कैफ़ है।” इसी तरह मसीही लोग किताब मुक़द्दस की वाहिद सनद पर मसअला सालूस के राज़ के आगे सर निगों करते और उस को क़ुबूल करते हैं। उन को मालूम है कि महदूद कभी ग़ैर-महदूद को पूरे तौर से समझ नहीं सकता। क्योंकि ख़ुदा का समझना ख़ुद ख़ुदा होने पर दाल है। अगर मुसलमान साहिबान भी यही वतीरा इख़्तियार करें तो दानाई से ख़ाली ना होगा। वो क़ुरआन मजीद की वाहिद सनद पर जिसे वो इल्हामी किताब समझते हैं क़ियामत और आइन्दा अदालत के मसाइल को मानते हैं फिर क्यों ख़ुदा के पाक कलाम की शहादत पर ख़ुदा की शख़्सियत के मसअले को क़ुबूल नहीं कर लेते?

मसअला मसीह अज़रूए बाइबल मुक़द्दस

बाइबल मुक़द्दस में ये ताअलीम पाई जाती है कि यसूअ मसीह ख़ुदा का बेटा, बाप का कलमा था जो अज़ल से बाप से मौलूद, हक़ीक़ी और अज़ली ख़ुदा है। उस का और बाप का एक ही जोहर है। इस कलिमा या कलाम ने इन्सानी ज़ात मुबारक कुँवारी के पेट में इस के जोहर से क़ुबूल की। चुनान्चे दो पूरी और कामिल ज़ातें यानी उलूहियत और इन्सानियत एक ही शख़्स में ऐसी मुतवस्सिल हो गईं कि फिर कभी दोनों की जुदाई नहीं होने की और उन से एक मसीह हुआ जो हक़ीक़ी ख़ुदा और हक़ीक़ी इन्सान है। उस ने फ़िल-हक़ीक़त अज़ीयत उठाई, मस्लूब हुआ और दफ़न हुआ ताकि अपने बाप को हमसे मिलाए। ना सिर्फ आदमीयों की मौरूसी क़सूर-वारी के लिए बल्कि उन के सब फ़अली गुनाहों के लिए भी क़ुर्बान हो। बाइबल मुक़द्दस की मज़ीद ताअलीम ये भी है कि तीसरे दिन ये मसीह मुर्दों में से फ़िलवाक़े जी उठा और आस्मान पर चढ़ गया। जहां वो अब ख़ुदा के दाहने हाथ बैठा है और जो उस पर भरोसा रखते हैं उन सबकी सिफ़ारिश के लिए हमेशा तक ज़िंदा है।

बाइबल मुक़द्दस ने ये मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) किया कि ख़ुदावंद यसूअ मसीह ख़ुदा का बेटा है। मुक़द्दस सालूस के मसअले की तरह ये बड़ा मसअला सरासर मुक़द्दस किताबों का कश्फ़ शूदा मसअला है। जिस इब्नियत का यहां ज़िक्र है वो सालूस के पहले और दूसरे अक़ानीम के माबैन रुहानी और अज़ली रिश्ता है। मसीह हमेशा बेटा था। बनाए आलम से पेश्तर ख़ुदा का महबूब, वो ज़माने में बेटा नहीं बना, वो लाज़िमी और अज़ली बेटा है। इस तारीफ़ के साथ इस लफ़्ज़ की दलालत उलूहियत पर है और मुक़द्दस बाइबल मुक़द्दस में ऐसे मुक़ामात कस्रत से हैं जिन में सराहतन या किनायतन इस ताअलीम व सदाक़त का ज़िक्र है। पस जब मसीही यसूअ मसीह को ख़ुदा का बेटा कहते हैं तो वो इन्ही मुक़द्दस नविश्तों की सनद पर कहते हैं, जिनकी ऐसी आला तारीफ़ मुहम्मद साहब ने की मसलन उस के बप्तिस्में के वक़्त ये ज़िक्र आया है कि आस्मान से एक आवाज़ ये कहते सुनाई दी, “ये मेरा प्यारा बेटा है जिससे मैं ख़ुश हूँ।” (मत्ती 3:17) इस से बहुत अर्से बाद जब एक यहूदी सरदार काहिन की अदालत में यसूअ को क़सम देकर सरदार काहिन ने पूछा, “क्या तू उस सतूदा का बेटा मसीह है? यसूअ ने कहा, “हाँ मैं हूँ और तुम इब्ने आदम को क़ादिर-ए-मुतलक़ की दहनी तरफ़ बैठे और आस्मान के बादिलों के साथ आते देखोगे।” (मर्क़ुस 14:61-62) उस के दुश्मन यहूदीयों की ये आम शिकायत थी, “वो ख़ुदा को ख़ास अपना बाप कह कर अपने आपको ख़ुदा के बराबर बनाता था।” (यूहन्ना 5:18) इन्जील मुक़द्दस में यसूअ की जिन दुआओं का ज़िक्र है उन में से एक में उस की अज़ली हस्ती की तरफ़ इन अल्फ़ाज़ में बयान हुआ है, “अब ऐ बाप तू उस जलाल से जो मैं दुनिया की पैदाइश से पेश्तर तेरे साथ रखता था, मुझे अपने साथ जलाली बना दे।” (यूहन्ना 17:5)

अब हम ये पूछते हैं कि मसीह की ज़ात को क़ुरआन मजीद ने कहाँ तक तस्लीम किया और उस की तस्दीक़ की? जैसा इन्जील में मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हुआ कि ख़ुदावंद यसूअ मसीह ख़ुदा का बेटा है मुहम्मद साहब इस की निस्बत क्या कहते हैं? क़ुरआन मजीद के मुताअले से ये अयाँ हो जाता है कि उन को इस के बारे में मुतलक़ कुछ ख़बर ना थी। अलबत्ता क़ुरआन मजीद के औराक़ में बार-बार एक क़यासी फ़र्ज़ी तबई इब्नियत की तर्दीद की गई है क्योंकि ऐसी तबई जिस्मानी इब्नियत जिस्मानी पैदाइश पर दलालत करती है, जैसा कि तबई आलम में चारों तरफ़ नज़र आता है। हालाँकि मसीहीयों ने किसी ज़माने में ना ऐसी ताअलीम मानी और ना उस की तल्क़ीन दूसरों को की। मुहम्मद साहब के नज़्दीक मसीह की इब्नियत ख़ुदा बाप से एक तबई जिस्मानी रिश्ते पर दाल थी जिसमें जिस्मानी मुबाशरत की कुफ़्र आमेज़ ताअलीम की तरफ़ इशारा था। इसी वजह से क़ुरआन मजीद में ये ज़िक्र आया।

तर्जुमा : “उन लोगों ने बे जाने बूझे ख़ुदा के लिए बेटे और बेटियां तराश लीं। जैसी जैसी बातें ये लोग बयान करते हैं वो उन से पाक और बाला-तर है। वो आस्मान व ज़मीन का मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) है और उस के औलाद क्यों होने लगी जब कि कभी उस की कोई जोरू (औरत) ही नहीं रही।” (सूरह अनआम 6:100-101)

नाज़रीन को ये जताने की चंदाँ ज़रूरत नहीं कि मसीह की इब्नियत का ये भद्दा ख़याल उस रुहानी ताअलीम से किस क़द्र बईद है जिसका मुकाशफ़ा बाइबल मुक़द्दस में हुआ और जिसकी तश्रीह ऊपर की गई। जिस्मानी इब्नियत का ये तसव्वुर जिस क़द्र मुसलमानों के नज़्दीक नफ़रतअंगेज़ है, वैसा ही मसीहीयों के नज़्दीक और मसीही इल्म इलाहियत में उसने कभी दख़ल नहीं पाया। बदक़िस्मती से किसी ने मसीह की इब्नियत की सही ताअलीम मुहम्मद साहब से बयान नहीं की। बुत-परस्त अरब ख़ुदा से बेटियां मन्सूब करते थे और जब मुहम्मद साहब ने सुना कि लोग मसीह को “बेटा” कह कर पुकारते हैं तो उन्हों ने यही समझा कि ये ख़याल वैसा ही जिस्मानी था जैसे बुत-परस्त अरब लोग अदना देवी देवताओं को ख़ुदा के बेटे बेटियां क़रार देते थे। ऐसी सरीह ग़लती के सामने जो एक आम अम्र वाक़ई मसअले के बारे में मुहम्मद साहब को हुई, हम ये पूछते हैं कि हम कैसे दीन के उन उसूलों के बारे में एतबार करें जो उन्हों ने सिखाए?

मसीह की वफ़ात का मसअला

मसीहीयों का एक उसूली मसअला ये है कि ख़ुदावंद यसूअ मसीह ने सलीब पर जान दी ताकि दुनिया के गुनाहों का कफ़्फ़ारा दे। उस ने ख़ुद ये फ़रमाया, “इब्ने आदम इस लिए नहीं आया कि ख़िदमत ले बल्कि इसलिए कि ख़िदमत करे और अपनी जान बहुतेरों के बदले फ़िद्ये में दे।” (मत्ती 20:28) ना सिर्फ इन्जील मुक़द्दस में यसूअ की मौत का मुफ़स्सिल ज़िक्र है बल्कि यहूदीयों की मुक़द्दस किताबों में भी इस की पेशीनगोई पाई जाती है। यहूदी लोग जैसा कि सबको मालूम है यसूअ को मौऊद मसीह मानने से इन्कार करते थे तो भी उन की मुक़द्दस किताबों में उस की मौत की साफ़ पेशीनगोई पाई जाती है मसलन यसअयाह नबी ने मसीह की मौत की पेशीनगोई इन हैरत-अंगेज़ अल्फ़ाज़ में की, “...वो ज़िंदों की ज़मीन से काट डाला गया? मेरे लोगों की ख़ताओं के सबब उस पर मार पड़ी। उस की क़ब्र भी शरीरों के दर्मियान ठहराई गई थी और वो अपनी मौत में दौलत मंदों के साथ मुआ।” (यसअयाह 53:8-9)

दाऊद नबी ने भी मसीह के बारे में ये ख़बर दी, “बदकारों की गिरोह मुझे घेरे हुए है। वो मेरे हाथ और मेरे पांव छेदते हैं। मैं अपनी सब हड्डियां गिन सकता हूँ। वो मुझे ताकते हैं और घूरते हैं। वो मेरे कपड़े आपस में बाँटते हैं और मेरी पोशाक पर क़ुरआ डालते हैं।” (ज़बूर 22:16-18) यसूअ के मरने पर ये अजीब पेशीनगोई पूरी हुई, ना यहूदीयों के पथराओ के तरीक़े से बल्कि मस्लूब होने के ज़रीये से जो रोमीयों का सज़ा-ए-मौत का तरीक़ा था।

इलावा अज़ीं ये भी याद रखें कि यसूअ की ज़िंदगी और मौत रूमी तारीख़ का एक जुज़ (हिस्सा) हैं क्योंकि सलीब का ये वाक़िया रूमी गवर्नर के अह्दे हुकूमत में गुज़रा और तारीख़ी काग़ज़ात से इस की तस्दीक़ हो चुकी है। ऐसी सूरत में ये जाये ताज्जुब नहीं कि उस ज़माने की तारीख़ में मसीह के मौत के इंजीली बयान की अजीब तौज़ीह पाई जाती है मसलन रूमी मशहूर मुअर्रिख़ टेसीटस (TACITUS) नामी ने जो 55 ई॰ के क़रीब पैदा हुआ अपनी रूमी सल्तनत की तारीख़ में (यानी 14 ई॰ से 68 ई॰ तक) मसीहिय्यत का ये ज़िक्र किया, “वो अपने तईं मसीही कहते हैं। मसीह जिससे ये नाम उन्होंने इख़्तियार क्या वो तबरीस के अहद सल्तनत में गवर्नर पन्तिस पीलातुस के हुक्म से मारा गया था।” उन ज़मानों का एक और मशहूर मुसन्निफ़ लूश्यान यूनानी था जिसने अपनी किताब में मसीहीयों का ये ज़िक्र किया, “वो अब तक उस बड़े आदमी की परस्तिश करते हैं जो फ़िलिस्तीन में मस्लूब हुआ था क्योंकि उस ने दुनिया में एक नए मज़्हब को जारी किया था।” दीगर ग़ैर-मसीही मोअर्रिखों की शहादत भी पेश कर सकते हैं, लेकिन जिन इक़तिबासात का हवाला दिया गया वो इस अम्र को ज़ाहिर करने के लिए काफ़ी हैं कि जब इन्जील मुक़द्दस ने ये बयान किया कि यसूअ मसीह ने सलीब पर जान दी तो उस ने पेशीनगोई की तक्मील के लिहाज़ से इस का ज़िक्र नहीं किया बल्कि इस लिहाज़ से कि ये एक तारीख़ी तक्मील शूदा अम्र वाक़ई था।

अब हम फिर पूछते हैं कि मसीही दीन के इस मर्कज़ी उसूल के बारे में इस्लाम क्या सिखाता है? क़ुरआन मजीद के औराक़ (पन्नो) में मुहम्मद साहब ने इस का क्या ज़िक्र किया? क़ुरआन मजीद के सब पढ़ने वालों को ये बख़ूबी मालूम है कि बाइबल मुक़द्दस के इस बयान की तस्दीक़ के बजाए कि मसीह मर गया, उस ने ये दावा किया कि वो मर नहीं गया, बल्कि ज़िंदा आस्मान पर चला गया। क़ुरआन मजीद में ये है, उनके इस कहने की वजह से कि हमने मर्यम के बेटे ईसा मसीह को जो रसूल-ए-ख़ूदा थे क़त्ल कर डाला। ना तो उन्होंने उन को क़त्ल किया और ना उन को सूली चढ़ाया। मगर उन को ऐसा ही मालूम हुआ।” (सूरह निसा 4:158) यहां हमारे हाथ में एक कसौटी आ जाती है जिससे हम क़ुरआन मजीद की क़द्रो-क़ीमत परख सकते हैं। एक तरफ़ तो वो अम्बिया-ए-कबीर हैं जिन्हों ने मसीह की मौत की पेशीनगोई की। एक तरफ़ इन्जील में बहुत से गवाहों की चश्मदीद शहादत मुन्दरज है जिनमें से बाअज़ों ने अपने ईमान की ख़ातिर अपनी जानें क़ुर्बान कर दीं और उनके साथ-साथ ग़ैर-मसीही मोअर्रिखों की आज़ादाना तारीख़ी शहादत है। ये सब इस अम्र की तस्दीक़ कर रहे हैं कि यसूअ मस्लूब हुआ लेकिन दूसरी तरफ़ इस के बरअक्स मुहम्मद साहब की शहादत (गवाही) है जो कई सदीयां पीछे (बाद में) हुए, वो यसूअ के मरने का इन्कार करते हैं और ये दावा करते हैं कि वो ज़िंदा आस्मान पर उठाया गया। हमें यक़ीन है कि किसी ग़ैर-मुतअस्सिब शख़्स को इस अम्र में कुछ मुश्किल ना होगी कि उनमें से किस के बयान को मानें।

जैसा हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं कि ग़ालिबन मुहम्मद साहब ने ख़ुद बाइबल मुक़द्दस को कभी नहीं पढ़ा। मुम्किन है कि मानी के बिद्अती पैरौओं से मिलने का इत्तिफ़ाक़ हुआ हो जो ये कहा करते थे कि यसूअ मुआ नहीं और इस से शायद मुहम्मद साहब को ये ख़याल गुज़रा हो कि शायद उनकी ये राय बाइबल मुक़द्दस के बयान के मुताबिक़ होगी। बहर-हाल जब क़ुरआन मजीद में एक सरीह तारीख़ी वाक़िये के बारे में ऐसा मुख़्तलिफ़ बयान हो तो गुनाहों की माफ़ी के बारे में क़ुरआन मजीद की ताअलीम को मान कर कौन अपनी नजात को जोखों (खतरे) में डालेगा? इस मोख्ख़र-उल-ज़िक्र मज़्मून का मुख़्तसर ज़िक्र आगे चल कर होगा।

गुनाहों की माफ़ी का मसअला

बाइबल मुक़द्दस की ताअलीम ये है कि मसीह की कफ़्फ़ारा बख़्श मौत के वसीले गुनाह की काफ़ी और कामिल तलाफ़ी जब हो चुकी तो मुजरिम गुनेहगार ताइब हो कर पूरी और ग़ैर-मशरूत माफ़ी हासिल कर सकता है और उस के वसीले ख़ुदा के साथ मिलाप हासिल कर के उस की आस्मानी बादशाहत में मक़बूलियत हासिल कर सकता है। पस सलीब इलाही मुहब्बत का आला मुकाशफ़ा है। किताब मुक़द्दस के मुहावरे में ख़ुदा ने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया, ताकि वो हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा हो। “ना सिर्फ हमारे गुनाहों का बल्कि तमाम दुनिया के गुनाहों का भी।” (1 यूहन्ना 2:2) इस तरीक़े से ख़ुदा ने इन्सान की उफ़्तादगी (आजिज़ी, ख़ाकसारी) का ईलाज किया कि उस ने मख़लिसी का एक बेहद अज़ीम व अजीब इनाम हमें अता किया। ये इनाम उन सबको हासिल हो सकता है जो गुनाह को तर्क कर के सारे दिल से अपने तईं यसूअ की मर्ज़ी पर छोड़ दें और उसी पर सारा तवक्कुल (भरोसा) रखें। बाइबल मुक़द्दस में ख़ुदा की ये तस्वीर दिखाई गई है कि “वो चाहता है कि सब आदमी नजात पाएं और सच्चाई की पहचान तक पहुंचे?” (1 तीमुथियुस 2:4) वो “किसी की हलाकत नहीं चाहता बल्कि ये चाहता है कि सबकी तौबा तक नौबत पहुंचे।” (1 पतरस 3:9) और किताब मुक़द्दस में ये भी लिखा है कि, “शरीर के मरने में मुझे कुछ ख़ुशी नहीं बल्कि इस में है कि शरीर अपनी राह से बाज़ आए और ज़िंदा रहे।” (हिज़्क़ीएल 33:11) इस तरह से ख़ुदा को एक पुर मुहब्बत बाप की सूरत में ज़ाहिर किया जो अपने गुमराह बच्चों के लिए फ़िक्र करता और ये आरज़ू रखता है कि उस के बच्चे उस की दावत को क़ुबूल कर के अपने बाप के घर को वापिस आएं। ये दावत सबको दी गई “जो प्यासा हो।” “जो कोई चाहे आब-ए-हयात मुफ़्त ले।” (मुकाशफ़ा 22:17) पस इलाही तज्वीज़ ये है। गुनाहों की माफ़ी और ख़ुदा के साथ मिलाप का इंतिज़ाम सब के लिए है और साथ ही ये दावत सबको दी गई कि वो तौबा कर के मसीह में इस पेश-कर्दा इनाम को क़ुबूल लें।

लेकिन जो क़ुबूल नहीं करते उन के लिए बाइबल मुक़द्दस में एक दूसरी ख़ौफ़नाक आगाही दी गई कि ऐसा अमल हलाकत की तरफ़ ले जाएगा। ऐसी ख़तरनाक राह का इख़्तियार करना भी इन्सान के इरादे पर मौक़ूफ़ है क्योंकि बाइबल मुक़द्दस में कहीं ये ज़िक्र नहीं कि बदी के लिए कोई मज्बूर है। ख़ुदा का ये हुक्म है “चुन लो” और सारे इन्सानी मुआमलात में बाइबल मुक़द्दस ने शख़्सी ज़िम्मेदारी पर ज़ोर दिया है। ऐसा इंतिज़ाम उस ख़ुदा के शायां है जो मुहब्बत है क्योंकि उस में सारे इन्सानों के लिए नजात का इम्कान है और उस के ज़रीये से ख़ुदा की ग़ैर-महदूद रहमत और फ़ज़्ल की बुजु़र्गी होती है बल्कि इस से ज़्यादा इस के ज़रीये से ताइब गुनेहगार के दिल में शुक्रगुज़ारी और मुहब्बत की ज़बरदस्त तहरीक पैदा होती है।

अब ऐसी तज्वीज़ नजात की निस्बत इस्लाम क्या कहता है? क़ुरआन मजीद के सफ़हात में गुनाह और नजात का ज़िक्र मुहम्मद साहब ने क्या किया? क्या ये किताब क़ुरआन मजीद, क्या दीन इस्लाम बाइबल मुक़द्दस की इस मज़्कूर बाला ताअलीम की तस्दीक़ करते हैं और जो लोग गुनाह से हट कर रास्तबाज़ी की तरफ़ ऊद करते हैं उन के सामने पूरी और मुफ़्त नजात पेश करते हैं? हम चाहते हैं कि क़ुरआन मजीद और अहादीस ख़ुद इस का जवाब दें। उन की शहादत ये मिलती है कि सारे आदमीयों की नजात के मुताल्लिक़, ख़ुदा के फ़ज़्ल के इंतिज़ाम के बजाए, इस्लाम ने एक बे तरस तक़्दीर का ज़िक्र किया जिसके ज़रीये हज़ार-हा उन की पैदाइश से पेश्तर ही नार-ए-जहन्नम (जहन्नम की आग) के लिए मख़्सूस हो गए। अज़रूए क़ुरआन मजीद इन्सान का हर फ़ेअल ख़ुदा के ख़ास हुक्म से सादिर होता है और इन्सान अपने मुक़द्दर तरीक़े पर ही चलता है। ख़्वाह वो तरीक़ा बहिश्त में जाने का हो, ख़्वाह दोज़ख़ में जाने का। वो नजात की उस फ़हर्त बख्श उम्मीद से महरूम है जो हर मसीही की मीरास है। हमारे इस बयान को कोई ये ना समझे कि हमने उसे टेढ़ा तिर्छा कर के पेश किया है। इसलिए हम क़ुरआन मजीद और अहादीस से चंद इक़तिबासात पेश हैं।

अहले-इस्लाम में तक़्दीर के मसअले का बहुत ज़िक्र क़ुरआन मजीद और अहादीस में आया है, इसलिए उस के मतलब व मक़्सद समझने में कुछ मुश्किल पेश नहीं आती। उमूमन इस का ये ज़िक्र है कि सारे नेक व बद अफ़आल को ख़ुदा ने पहले ही से मुक़र्रर कर दिया है और ख़ल्क़त आलम (दुनिया की पैदाइश) से पेश्तर (पहले) ही इस को किताब में लिख दिया। चुनान्चे ये बयान है :-

مَاۤ اَصَابَ مِنۡ مُّصِیۡبَۃٍ فِی الۡاَرۡضِ وَ لَا فِیۡۤ اَنۡفُسِکُمۡ اِلَّا فِیۡ کِتٰبٍ مِّنۡ قَبۡلِ اَنۡ نَّبۡرَاَہَا

तर्जुमा : “जितनी मुसीबतें रुए-ज़मीन पर नाज़िल होती हैं और जो ख़ुद तुम पर नाज़िल होती हैं। वो सब उन के पैदा करने से पहले हम ने किताब में लिख रखी हैं।” (सूरह अल-हदीद 57:22)

اِنَّا کُلَّ شَیۡءٍ خَلَقۡنٰہُ بِقَدَرٍوَ کُلُّ شَیۡءٍ فَعَلُوۡہُ فِی الزُّبُرِوَ کُلُّ صَغِیۡرٍ وَّ کَبِیۡرٍ مُّسۡتَطَرٌ

तर्जुमा : “ये लोग जो कुछ भी कर चुके हैं आमाल नामों में लिखा हुआ मौजूद है और कोई काम भी हो छोटा या बड़ा सब लिखा हुआ है।” (सूरह 54:49, 52, 53)

ये बयान अहादीस में ज़्यादा मुफ़स्सिल है। उन में मुहम्मद साहब की ये ताअलीम पाई जाती है।

اِنّ اَوَّلَ مَا خَلَفَ اللّٰہُ الْقَلَم فَقَالَ لَہُ اکُتُب قَالَ مَا اَکتُبُ قَالَ اکتُبً القَدَرَ فَکتَبَ مَا کانَ وَمَا ھُوَ کائِنُ الَی الاَ بَدِ

तर्जुमा : “तहक़ीक़ अव्वल शैय जो ख़ुदा ने पैदा की वो क़लम था और उस ने उसे कहा लिख, उस (क़लम) ने कहा में क्या लिखूँ? उस ने कहा ख़ुदा के फतावा (फ़त्वा की जमा) लिख। सो उस (क़लम) ने सब कुछ जो था और जो अबद तक होने वाला था लिखा।” (मिश्कात-उल-मसाबेह किताब ईमान)

ख़ुदा का ये फ़त्वा आदमीयों के सारे आमाल पर हावी है ख़्वाह वो नेक हों या बद। इसलिए बाअज़ तो गुमराह हो जाते हैं और बाअज़ राह़-ए-रास्त की हिदायत पाते हैं। इस बिना पर इन्सान फ़ेअल मुख़्तार नहीं रहता और इसलिए वो ज़िम्मेदार भी नहीं क्योंकि जब तक इंतिख़ाब (चुनाव) का इख़्तियार ना हो तब तक कोई ज़िम्मेदारी नहीं हो सकती। क़ुरआन मजीद में एक जुम्ला बार-बार आया है और अहले-इस्लाम से हमारी ये दरख़्वास्त है कि उस पर ग़ौर करें। वो है :-

یُّضِلُّ مَنۡ یَّشَآءُ وَ یَہۡدِیۡ مَنۡ یَّشَآءُ

तर्जुमा : “जिसको चाहता है वो गुमराह करता है और जिस को चाहता है हिदायत करता है।” (सूरह नहल 16:93)

मन्तिक़ी तौर पर ये हमें इस मज़ीद ताअलीम की तरफ़ ले जाता है कि बाज़ों को ख़ुदा ने पेश्तर से बहिश्त के लिए मुक़र्रर कर दिया और बाज़ों को दोज़ख़ के लिए। चुनान्चे ये लिखा है :-

وَ لَقَدۡ ذَرَاۡنَا لِجَہَنَّمَ کَثِیۡرًا مِّنَ الۡجِنِّ وَ الۡاِنۡسِ

तर्जुमा : “इलावा अज़ीं जिन्नों और इन्सानों में से बहुतों को हमने दोज़ख़ के लिए पैदा किया।” (सूरह अल-आराफ़ 7:179)

इस की वजह क़ुरआन मजीद की एक दूसरी आयत में हमें बताई गई है। वो है,

وَ لَوۡ شِئۡنَا لَاٰتَیۡنَا کُلَّ نَفۡسٍ ہُدٰىہَا وَ لٰکِنۡ حَقَّ الۡقَوۡلُ مِنِّیۡ لَاَمۡلَـَٔنَّ جَہَنَّمَ مِنَ الۡجِنَّۃِ وَ النَّاسِ اَجۡمَعِیۡنَ

तर्जुमा : “अगर हम चाहते तो (दुनिया ही में) हर शख़्स को ऐसी सूझ इनायत करते कि वो सीधे रस्ते पर आ जाता मगर हमारी वो बात जो हम रोज़ अज़ल में फ़र्मा चुके थे पूरी होनी ही थी और पूरी हो कर रही कि जिन्नात और आदमी इन ही सबसे हम दोज़ख़ को भर कर रहेंगे।” (सूरह अल-सज्दा 32:13)

मुसलमान साहिबान से ये दरख़्वास्त है कि इस ख़ौफ़नाक तस्वीर का मुक़ाबला बाइबल मुक़द्दस की पुर मुहब्बत दावत से करें क्या कोई एक लहज़े के लिए भी ये मान सकता है कि ये दोनों उसी आला वजूद की तरफ़ से हैं जो रहमान कहलाता है? क्या हम ये मान लें कि ख़ुद ख़ुदा गुनाह का बानी है? कि दीनदारों की दीनदारी और शरीरों का कुफ्र दोनों को ख़ुदा ही ने मुक़र्रर किया? क्या इस छोटी किताब के मुसलमान नाज़रीन ये फ़िल-हक़ीक़त मान सकते हैं कि तक़्दीर का ये इस्लामी मसअला रहमान ख़ुदा से मुकाशफ़ा (नाज़िल-शुदा) है? मुसलमान नाज़रीन से हमारी ये इल्तिमास (दरख्वास्त) है कि इस पर ग़ौर करते वक़्त तास्सुब के पर्दे को हटा दें और यसूअ की इस पुर मुहब्बत दावत पर सोचें, “ऐ मेहनत उठाने वालो और बोझ से दबे हुए लोगो सब मेरे पास आओ, मैं तुम्हें आराम दूंगा।”

बाब हफ़्तुम

अज़रूए इस्लाम, तारीख़ कलाम-उल्लाह

क़ुरआन मजीद का हर पढ़ने वाला ये जानता है कि क़ुरआन मजीद में बाइबल मुक़द्दस के तूल तवील हवाले बार-बार आए हैं। क़दीम पत्री (चिट्ठी, ख़त) ऑरिकों का अहवाल क़ुरआन मजीद के बहुत औराक़ में मज़्कूर है और मूसा, दाऊद, सुलेमान वग़ैरह का ज़िक्र इस में बार हा हुआ। अगर क़ुरआन मजीद अपने दावे के मुताबिक़ पुराने और नए अहद नामों की किताबों की तस्दीक़ करता है तो ये अयाँ है कि इन बुज़ुर्गों का जो अहवाल उस में क़लम-बंद है वो तौरेत और इन्जील में क़लम-बंद अहवाल के मुताबिक़ होगा। मगर सूरत-ए-हाल ये नहीं, बल्कि मुहम्मद साहब ने जिन बुज़ुर्गों का ज़िक्र किया उनका अहवाल बहुत से उमूर में मुख़्तलिफ़ है। इस इख़्तिलाफ़ की दो बड़ी वजूहात हो सकती हैं। अव्वल तो हमें इस्लामी तसानीफ़ से सरीह शहादत (गवाही) मिलती है कि मुहम्मद साहब यहूदीयों से उन के अक़ीदे के बारे में अक्सर पूछा करते थे और ये चालाक बनी-इस्राईल अक्सर दानिस्ता ग़लत बयानी करते थे और उन को ये यक़ीन दिलाने की कोशिश करते थे कि जो कुछ उन्हों ने मुहम्मद साहब को जवाब दिया वो उन की मुक़द्दस किताब के ऐन मुताबिक़ था। मुहम्मद साहब के एक ख़ास सहाबी अब्बास नामी ने इस की रिवायत की है। मुस्लिम में ये हदीस मज़्कूर है, उस में ये लिखा है :-

قَالَ ابْنُ عَبَّاسٍ فلما سَأَلَهُمُ النَّبِيُّ صلعم عَنْ شَىْءٍ من أهل الكتاب فَكَتَمُوهُ إِيَّاهُ وَأَخْبَرُوهُ بِغَيْرِهِ فَخَرَجُوا قَدْ أَرَوْهُ أَنْ قَدْ أَخْبَرُوهُ بِمَا سَأَلَهُمْ

तर्जुमा : “इब्ने अब्बास ने कहा कि जब नबी सलअम अहले-किताब से कोई सवाल पूछते तो वो उस मज़्मून को दबा देते और उस की जगह कुछ और ही उन को बता देते और ये यक़ीन कर के चले जाते कि वो ख़याल करेंगे कि हमने उन को उन के सवाल का ही जवाब दिया था।”

पस इस अम्र की इस से काफ़ी तश्रीह हो जाती है कि जो बहुत से यहूदी क़िस्से क़ुरआन मजीद में बयान हुए हैं वो तौरेत व इन्जील के इल्हामी बयानों से क्यों मुख़्तलिफ़ हैं। इस तारीख़ी इख़्तिलाफ़ की दूसरी वजह लाकलाम ये होगी कि मुहम्मद साहब के अय्याम में अरब के यहूदीयों में तौरेत की जगह तल्मूद की तिलावत होती थी। इस तल्मूद में यहूदीयों की अहादीस और रब्बियों के तुहमात का मजमूआ था और तक़रीबन हर मज़्मून के मुताल्लिक़ इस में कोई ना कोई रिवायत या क़िस्सा दर्ज था। क़दीम पत्री ऑरिकों के जाली क़िस्से और क़दीम मुक़द्दस किताबों की रिवायती तफ़्सीरें और तश्रीहें तल्मूद का जुज़्व आजम (बड़ा हिस्सा) हैं। तौरेत की तिलावत की जगह इसी तल्मूद की तिलावत व ताअलीम स्कूलों और तहवारों वग़ैरह के मौक़ों पर होती थी। फिर ये जाये ताज्जुब नहीं कि मुहम्मद साहब ने ये ख़याल कर लिया हो कि ये किताब मुक़द्दस ही के अल्फ़ाज़ थे और इसी ख़याल से उन को क़ुरआन मजीद में जगह दी हो। सर अमीर अली जैसे फ़ाज़िल शख़्स की यही राय है वो ये मानते हैं कि मुहम्मद साहब ने ज़रदुश्तियों (ज़रतश्तियों), साइबीन और ताल्मूद यहूदीयों के जोलानी ख़यालात को मुस्तआर लिया। इन मुस्तआर ख़यालात की वजह से क़ुरआन मजीद में वो तारीख़ी गलतीयां दाख़िल हो गईं। फ़ाज़िल मौसूफ़ ने उन अहादीस के बारे में जो मुहम्मद साहब के अय्याम (दिनों) में अरब के मसीहीयों के दर्मियान मुरव्वज थीं ये इज़्हार राय किया, “मुहम्मद साहब की बिअसत से पेश्तर ये सारी रिवायत जो अम्र वाक़ई पर मबनी थीं, वो जोलानी ख़यालात में रंगी जा कर अवामुन्नास के अक़ीदे का जुज़ (हिस्सा) बन गई थीं और उस मुल्क में मुरव्वज थीं। इसलिऐ मुहम्मद साहब ने अपने अक़ीदे और शरीअतों की इशाअत शुरू की तो उन्होंने लोगों के दर्मियान इन रिवायतों का रिवाज देखा। इसलिए उन्होंने उनको भी ले लिया ताकि उन के ज़रीये से अहले-अरब को और गर्दो नवाह (आसपास) की क़ौमों को तमद्दुनी और अख़्लाक़ी पस्ती के गढ़े से जिसमें कि वो गिर पड़े थे निकाल कर सर्फ़राज़ करे। (1) अगर बक़ौल सय्यद साहब मुहम्मद साहब ने इन रिवायतों को लिया जो अम्र वाक़ई पर मबनी थीं गो वो जोलानी (खयाली) तबअ में रंगी गई थीं तो क्या ताज्जुब कि उमूर वाक़ई के मुताल्लिक़ कई तारीख़ी गलतीयां उस की ताअलीम में दाख़िल हो गई हों। हमारा मंशा इस जगह ये दिखाना नहीं कि मुहम्मद साहब ने कहाँ तक यहूदी और मसीही रिवायतों से अख़ज़ किया।(2) लेकिन हम यहां उन तारीख़ी ग़लतीयों की चंद मिसालें देना चाहते हैं जो क़ुरआन मजीद में बकस्रत पाई जाती हैं। हम बेशुमार मिसालें दे सकते थे लेकिन बख़ोफ़ तवालत (बात लम्बी ना हो जाए) हमने ये चंद मिसालें मुश्ते नमून अज़ खरवारे (ढेर में से चंद मिसाल) के तौर पर पेश की हैं।

तौरेत में मूसा पर ये मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हुआ कि हमारे पहले वालदैन बाग़-ए-अदन में रहते थे जहां से दो दरिया दजला और फुरात निकल कर ज़मीन को सेराब करते थे। वहां ये भी ज़िक्र है कि सर-ज़मीन असूर वहां के नज़्दीक थी। इस से ये ज़ाहिर है कि बाग़-ए-अदन इस ज़मीन पर वाक़ेअ था लेकिन क़ुरआन मजीद में इस के ख़िलाफ़ ये बयान है कि बाग़-ए-अदन आस्मान में था। चुनान्चे वहां ये लिखा है, “ऐ आदम तुम और तुम्हारी बीबी बहिश्त (जन्नत) में रहो। और जहां से चाहो खाओ मगर इस दरख़्त के पास ना फटकना। अगर ऐसा करोगे तो तुम आप अपना नुक़्सान कर लोगे।” (सूरह अल-आराफ़ 7:19) ख़याल ग़ालिब है कि मुहम्मद साहब ने अहले-यहूद से पूछा होगा कि तुम्हारी मुक़द्दस किताबों में इस का क्या ज़िक्र है तो उन्हों यही ग़लतबयानी की होगी। ऐसे ही एक दूसरे मौक़े पर जब मुहम्मद साहब ने उन से दर्याफ़्त किया कि तौरेत में ज़िनाकार की सज़ा क्या थी? तो उन्होंने ये झूटा जवाब दिया कि कोड़े मारने की सज़ा थी, हालाँकि बज़रीये संगसारी मौत की सज़ा थी।

इसी क़िस्म की एक ग़लती ये है कि हामान फ़िरऔन के बड़े अफ़सरों में से था (मुफ़स्सिर तो उस को फ़िरऔन का वज़ीर समझते हैं) चुनान्चे ये लिखा है, “और फ़िरऔन ने (अपने वज़ीर हामान से) कहा, कि “ऐ हामान हमारे लिए एक महल बनवा ताकि जो आस्मान (पर चढ़ने) के रास्ते हैं हम उन रास्तों पर जा पहुंचे। फिर हम मूसा के ख़ुदा तक (आसानी से) पहुंच जाऐंगे और हम तो मूसा को (इस बयान में) झूटा ही समझते हैं।” (सूरह अल-मोमिन 40:36) ये तो मशहूर अम्र है कि हामान मूसा से सैंकड़ों बरस बाद गुज़रा। वो तो बाइबल मुक़द्दस के बादशाह अख़स्वेरुस का वज़ीर था और आस्तर की किताब में उस का ज़िक्र आया है। “इन बातों के बाद अख़स्वेरूस बादशाह ने अजाजी हमदाता के बेटे हामान को मुम्ताज़ और सर्फ़राज़ किया और इस की कुर्सी को सब उमरा से जो उस के साथ थे बरतर किया।” (आस्तर 3:1) ना सिर्फ आस्तर की किताब में उस का ये ज़िक्र है बल्कि यूसेफ़स् यहूदी मुअर्रिख़ ने भी ये साफ़ बयान किया कि हामान बाबुल में अख़स्वेरूस के मातहत अफ़्सर था और इस की ज़िंदगी के बारे में कई बातों का ज़िक्र उस ने किया है।(3) पस क़ुरआन मजीद का ये बयान कि हामान मूसा के ज़माने में मिस्र में था सरीह ग़लती है।

जिस आयत क़ुरआनी का हम ऊपर ज़िक्र कर आए हैं इस में दुहरी ग़लती पाई जाती है क्योंकि इस में बाबुल के बुर्ज की तामीर फ़िरऔन से मन्सूब हुई, हालाँकि फ़ील-वाक़ई मूसा से बहुत साल पहले ये बुर्ज बन चुका था। अगर नाज़रीन पैदाइश की किताब के ग्यारवें (11) बाब को निकाल कर देखें तो उन को मालूम हो जाएगा कि इस बुर्ज की तामीर और मूसा के ज़माने के फ़िरऔन के दर्मियान किस क़द्र दराज़ अर्से का फ़ासिला था। इलावा अज़ीं वो बुर्ज सन्आर (बाबुल) की सर-ज़मीन में था ना कि मिस्र की सर-ज़मीन में।


1) मुहम्मद स॰ की ज़िन्दगी का हाल। मुसन्निफ़ अमीर अली सफा 25
2) देखो गोल्ड सेक साहब की तस्नीफ़ चश्मा क़ुरआन, बाब दोम, सोम
3) यहूदियोंकी क़दीम तारीख़, मुसन्निफ़ यूसेफस सफा 283

तौरेत में ये लिखा है कि हज़रत इब्राहिम के बाप का नाम “तारा” था। यहूदीयों के बड़े मुअर्रिख़ यूसीफ़स का भी यही बयान है क्योंकि उस की किताब (35 सफ़ा) पर में ये ज़िक्र है कि “तारा (तारा) इब्राहिम का बाप था।” इसलिए इस में कुछ शक नहीं कि “तारा” सही नाम है, लेकिन ये अजीब बात है कि क़ुरआन मजीद में ये नाम “आज़र” आया है। चुनान्चे ये लिखा है :-

وَاِذ قَالَ اِبراھیِمُ لاَ بِیہِ اَذَرَ

“और जब इब्राहिम ने अपने बाप आज़र से कहा।” इस का कोई तसल्ली बख़्श जवाब अब तक नहीं मिला। गो माबाअ्द मुसलमान उलमा ने ये ग़लती देखकर इस से बचने की बहुत सई (कोशिश) की। जलालेन ने इस आयत की तफ़्सीर करते वक़्त यह कहा :-

ھو لَقَبہُ واسمہ تارخ

ये (यानी लफ़्ज़ आज़र) उस का लक़ब था और तारख उस का नाम था।” मुफ़स्सिर बैज़ावी ने एक दूसरी राय ज़ाहिर की कि इब्राहिम के बाप के दो नाम थे आज़र और तारख। ये मह्ज़ इस ग़लती को मिटाने की सई (कोशिश) थी।

सूरह अल-क़सस 28:9 में ये ज़िक्र है कि फ़िरऔन की बीवी ने तरस खा कर उस शीर-ख्वार (दूध पीते) बच्चे मूसा को लेकर उस की परवरिश की, जब कि उस ने मूसा को दरिया से निकाला जहां उस की माँ ने उस को छुपाया था। वहां ये लिखा है, “फ़िरऔन की औरत अपने शौहर से बोली कि ये मेरी और तुम्हारी दोनों की आँखों की ठंडक है। तो तुम लोग इस को मॉरो नहीं। अजब नहीं कि हमको कोई फ़ायदा पहुंचाए या उस को अपना बेटा ही बना लें।” ये भी एक वाक़ई अम्र (वाक़िये) के बारे में ग़लती है क्योंकि तौरेत में ये साफ़ बयान है कि ये औरत फ़िरऔन की बीवी ना थी बल्कि उस की बेटी थी जिसे ये बच्चा मिला और जिसने उस को मुतबन्ना (गोद लिया बेटा) बनाया। “और फ़िरऔन की बेटी दरिया पर ग़ुस्ल करने आई और उस की सहेलियाँ दरिया के किनारे किनारे टहलने लगीं। तब उस ने झाऊ में वो टोकरा देखकर अपनी सहेली को भेजा कि उसे उठा लाए। जब उस ने उसे खोला तो लड़के को देखा।... जब बच्चा बड़ा हुआ तो वोह उसे फ़िरऔन की बेटी के पास ले गई और वो उस का बेटा ठहरा।” (ख़ुरूज 2:5-10) बाइबल मुक़द्दस के इस बयान की यूसेफ़स मुअर्रिख़ ने साफ़ तस्दीक़ की और ये लिखा “बादशाह की बेटी का नाम थरमोथस था। इस वक़्त वो दरिया के किनारे तफ़रीह-ए-तबअ के लिए गई हुई थी। उस ने एक मह्द (टोकरी) को दरिया में बहते जाते देखा। चंद तैराक शख्सों को उस के पकड़ने के लिए उस ने भेजा ताकि वो उसे पकड़ कर उस के पास लाएं।....इसलिए थरमोथिस ने उसे ऐसा अजीब बच्चा देखकर अपना बेटा बना लिया।” (4)ب

बाइबल मुक़द्दस में इस्राईली बड़े पेशवा और क़ाज़ी जदऊन का मुफ़स्सिल बयान है जिसे ख़ुदा ने हिदायत की, कि लड़ाई के लिए चंद ऐसे शख्सों को चुन लो जो दरिया से चुल्लूओ में पानी लेकर पियें और घुटने टेक कर चपड़ चपड़ ना पियें। (क़ुज़ात बाब 7) यूसीफ़स ने भी इस क़िस्से का बयान किया और बताया कि ये वाक़िया जदऊन के ज़माने में हुआ, लेकिन क़ुरआन मजीद में इस का बयान और तरह से हुआ है कि ये वाक़िया बहुत साल पीछे (बाद) साऊल के ज़माने में हुआ। वो बयान ये है :-


4) यूसेफस की तारीख़ यहूद,सफा 63

“फिर जब तालूत फ़ौजों समेत अपने मुक़ाम से रवाना हुआ तो उस ने अपने हम-राहियों से कहा कि रस्ते में एक नहर पड़ेगी अल्लाह उस नहर से तुम्हारी यानी तुम्हारे सब्र की जांच करने वाला है तो जो सैर हो कर उस का पानी पी लेगा वो हमारा नहीं और जो उस को नहीं पिएगा वो हमारा है। मगर हाँ अपने हाथ से कोई एक-आध चुल्लू भर ले और पीले तो मज़ाइक़ा (हर्ज़) नहीं। अब हम ये पूछते हैं कि किस का यक़ीन करें? क्या उन मुल्हम लोगों का जो फ़िलिस्तीन के रहने वाले थे और जिन्हों ने इस वाक़िये को वक़ूअ (होने) से थोड़े अर्से बाद ही क़लम-बंद किया और जिनको उस वाक़िये की तस्दीक़ का बहुत मौक़ा था या मुहम्मद साहब की बात मानें जो अरब के रहने वाले थे और जिन्हों ने इस वाक़िये से एक हज़ार बरस के बाद इस वाक़िये का बयान किया और ये बयान ना सिर्फ बाइबल मुक़द्दस के बयान के ख़िलाफ़ है बल्कि यहूदी मुअर्रिख़ यूसीफ़स के बयान के भी?

क़ुरआन मजीद के बयान में एक इख़्तिलाफ़ ये भी है कि वहां मर्यम वालिदा यसूअ को मूसा और हारून की बहन मर्यम समझ लिया। ये इख़्तिलाफ़ सूरह मर्यम 19:27-28 में पाया जाता है। वहां ये लिखा है, “वो देखकर लगे कहने, कि मर्यम ये तू ने बहुत ही नालायक़ काम किया। ऐ हारून की बहन ना तो तेरा बाप ही बुरा आदमी था और ना तेरी माँ ही बदकार थी।” क़ुरआन मजीद के एक दूसर मुक़ाम में मर्यम इमरान की बेटी कहलाती है। मुहम्मद साहब ने मूसा को भी इमरान का बेटा समझा। इस से ये साफ़ ज़ाहिर है कि नबी साहब ने दोनों मर्यमों (मूसा की बहन और ईसा की माँ) को एक ही शख़्स समझा। ये तो मशहूर बात है कि यसूअ की वालिदा मर्यम मूसा और हारून से कई सदीयां बाद हुई और उन में कोई ताल्लुक़ ना था, सिवाए इस के कि दोनों की क़ौमीयत एक ही थी और दोनों का नाम एक ही था। बाइबल मुक़द्दस से साबित है कि मूसा, हारून और मर्यम के बाप का नाम अमराम था। इस से और भी वाज़ेह हो गया कि मुहम्मद साहब ने इसी मर्यम को यसूअ की वालिदा समझा।

इस बात को ख़त्म करने से पेश्तर एक और मिसाल पेश करना काफ़ी होगा। सूरह बनी-इस्राईल की पहली आयत में ये पाया जाता है “वो ख़ुदा पाक है जो अपने बंदे (मुहम्मद) को रातों रात मस्जिद हराम से मस्जिद अक़्सा तक ले गया।” मुफ़स्सिरों का इस अम्र पर इत्तिफ़ाक़ है कि मस्जिद अक़्सा से यरूशलेम की मुक़द्दस हैकल मुराद है और अहादीस में इस क़यासी सफ़र की बहुत तफ़्सील आई है। मिश्कात में एक हदीस मज़्कूर है जिसमें मुहम्मद साहब ने ये कहा :-

तर्जुमा : “इसलिए मैं उस पर सवार हुआ (यानी बुराक़ पर) फिर यानी कि मैं बैतुल-मुक़द्दस में पहुंचा (यानी यरूशलेम की मस्जिद में) फिर मैंने उस को उस हलक़े से बांध दिया जिससे कि अम्बिया बाँधा करते थे (यानी अपनी सवारी के जानवरों को) उस ने कहा। इस के बाद मैं मस्जिद में दाख़िल हुआ और दो रकअत नमाज़ पढ़ी।” इस क़िस्से की सदाक़त साबित करना मुश्किल होगा क्योंकि बद-क़िस्मती से यरूशलेम की मशहूर यहूदी हैकल को रोमीयों ने मुहम्मद साहब की पैदाइश से सदीयों पेश्तर बिल्कुल बर्बाद कर दिया था और उस की तामीर अज़ सर-ए-नौ (नए सिरे से) ना हुई थी। इसलिए ये सारा क़िस्सा मए क़ुरआनी हवाले के बिल्कुल ग़लत है। ये राय या तफ़्सीर की बात नहीं बल्कि ये एक सरीह तारीख़ी वाक़िया है जिसकी तस्दीक़ हर ज़ी फ़हम मुस्लिम अपने लिए कर सकता है। पस नतीजा ये निकला कि क़ुरआन मजीद के ऐसे बयानात पर यक़ीन नहीं कर सकते।

हमने कलाम-उल्लाह यानी बाइबल मुक़द्दस के मुआमले में अहादीस को नहीं छुआ। इस की वजह ये है कि इस का मुफ़स्सिल बयान “इस्लामी अहादीस” (मुसन्निफ़ गोल्ड सेक साहब) में हो चुका है। (देखो इस का चौथा बाब)

पस अब हम कलाम-उल्लाह (अल्लाह का कलाम) अज़रूए इस्लाम के मुख़्तसर बयान को ख़त्म करते हैं। हम ये देख चुके हैं कि मुहम्मद साहब ने बराबर बाइबल मुक़द्दस को ख़ुदा का ग़ैर-मुहर्रिफ़ कलाम तस्लीम किया, उसे नूर और हिदायत माना और यहूदीयों और मसीहीयों को उस पर अमल करने की तल्क़ीन की। उन्होंने ये साबित किया कि वो मन्सूख़ नहीं। हमने ये भी ज़ाहिर किया कि मुहम्मद साहब को बाइबल मुक़द्दस का इल्म दूसरों से सुनी सुनाई बातों से हासिल हुआ था, इसलिए उस की ताअलीम और तारीख़ के बारे में गलतीयां भी दाख़िल हो गईं। अगर उनको मसीहिय्यत से वास्ता पड़ता और बिद्अती मसीही फ़िर्क़ों की तासीर बचते तो ग़ालिबन मसीही होते

हम नाज़रीन से ये इल्तिमास (दरख्वास्त) करते हैं कि वो ख़ुद बाइबल मुक़द्दस को पढ़ें तो उन पर साबित हो जाएगा कि ज़िंदगी, मुश्किलात और मसाइल में वो नूर है और इस दुनिया से आक़िबत (आख़िरत) तक वो हिदायत है।

तमाम शुद