Rev William Goldsack

Australian Baptist Missionary and Apologist
1871–1957

CHRIST IN ISLAM

BY REV. W. GOLDSACK.

शाने सलीब

इस्लाम में मसीह

अज़

पादरी डब्ल्यू गोल्डसेक साहिब

पंजाब रिलीजियस बुक सोसाईटी

अनारकली-लाहोर

1945 ईसवी

The Punjab Religious Book Society

Anarkali, Lahore










इस्लाम में सय्यदना मसीह

दीबाचा

हम्द लामहदूद ख़ुदा-ए-अज़्ज़-ओ-जल वह्दहू लाशरीक रउफुर्रहीम व रब्बुल आलमीन के लिए है। जिसने अम्बिया व मुर्सलीन को मबऊस फ़र्मा कर इन्सान ज़ईफ़-उल-बुनयान पर अपनी पाक मर्ज़ी का इज़्हार किया और अपने कलाम के वसीले से राह-ए-हयात-ए-दवाम की हिदायत फ़रमाई ।

हमारा इरादा है कि इस रिसाला में तमाम अम्बिया में से ईसा मसीह को मुंतख़ब करके क़ुरआन और अहादीस से दिखावें कि नबी नासरी इस्लाम में क्या रुत्बा रखता था ।

हमारे मुसलमान भाई अक्सर अवक़ात "ईसा रूहुल्लाह" का ज़िक्र करते हैं। लेकिन जो रुत्बा उसे क़ुरआन और अहादीस में दिया गया है। बहुत ही थोड़ों को इस का कुछ ख़्याल है। लिहाज़ा अब हम देखेंगे कि कुतुब इस्लाम मसीह के हक़ में क्या शहादत देती हैं और इस शहादत के बिना पर इस्लाम पर किया फ़र्ज़ ठहर है।

क़ुरआन में मसीह के अल्क़ाब व मोअजेज़ात और काम ऐसे और इस क़दर दर्ज हैं और इस में ऐसी बड़ी बड़ी पेशीन गोईयां पाई जाती हैं कि वो निहायत सफ़ाई और सराहत के साथ तमाम अम्बिया से अफ़ज़ल व बरतर ठहरता है। क्योंकि ऐसे अल्क़ाब व मोअजेज़ात किसी और नबी से कहीं मंसूब नहीं हैं। मसलन ईसा मसीह क़ुरआन में कलिमतुल्लाह और रूहुम्मिन्हू और अल-मसीह वग़ैरा के अल्क़ाब से मुलक़्क़ब है । कोई और नबी इन अल्क़ाब से मुमताज़ नहीं हुआ। पस इन बातों से हम पर फ़र्ज़ ठहरता है कि मसीह की ज़ात के बारे में तहक़ीक़ात करें हर तरह के पुराने तास्सुब और बे-बुनियाद यूंही माने हुए ख़्यालात को छोड़कर हम क़ुरआन और अहादीस की शहादत पर ग़ौर करें और देखें कि इस अज़-हद ज़रूरी और अहम मसले पर क़ुरआन और अहादीस से किया रोशनी पड़ती है।

इस्लाम में मसीह

पहला बाब

मसीह इस्राइली

पहले हम ये देखते हैं कि यहूदी क़ौम जिसमें ईसा मसीह पैदा हुआ अज़रूए क़ुरआन रुए ज़मीन की तमाम दीगर अक़्वाम पर फ़ज़ीलत रखती है । चुनांचे सूरह बक़रा की 46 आयत में मर्क़ूम :-

يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ اذْكُرُواْ نِعْمَتِيَ الَّتِي أَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَأَنِّي فَضَّلْتُكُمْ عَلَى الْعَالَمِينَ

यानी ए बनी-इस्राइल मेरी नेअमत को याद करो जो मैं ने तुम पर भेजी और तहक़ीक़ मैंने तुमको तमाम आलमीन पर फ़ज़ीलत बख़्शी I

इस आयत से साफ़ ज़ाहिर होता है कि सरवर अम्बिया के लक़ब का हक़दार ज़रूर बनी-इस्राइल में से होना चाहिए ।

क्योंकि इमाम राज़ी साहिब फ़रमाते हैं कि "लफ़्ज़ आलमीन"के मफ़हूम में ख़ुदा की ज़ात के सिवा तमाम मख़्लूक़ात शामिल है पस अब मुक़ाम-ए-ग़ौर है कि ईसा इब्ने मर्यम इस्राइल की मानिंद उस लक़ब का मुस्तहिक़ कौन है ?

क़ुरआन सिर्फ उसी को कलिमतुल्लाह और रूहुम्मिन्हू कहता है।

फिर सूरह अन्कबूत की 26 आयत में मर्क़ूम है :-

وَوَهَبْنَا لَهُ إِسْحَقَ وَيَعْقُوبَ وَجَعَلْنَا فِي ذُرِّيَّتِهِ النُّبُوَّةَ وَالْكِتَابَ

यानी हमने उस को इस्हाक़ व याकूब दीए और नबुव्वत व किताब का इनाम हमने उस की नसल में रखा I

इस में तो ज़रा भी शक नहीं कि क़ुरआन में अम्बिया की जिस जमात की तरफ़ इशारा है । वो ज़्यादा तर इस्हाक़ की औलाद में से थे। इस्माईल की औलाद में से एक भी नहीं था और इस का सबब भी साफ़ ज़ाहिर है क्योंकि बाइबल और क़ुरआन दोनों के बयान के मुताबिक़ ख़ुदा के इनाम और वाअदे का फ़रज़न्द इस्हाक़ ही था इस्माईल तो इब्राहीम की कनीज़ा हाजिरा का बेटा था और क़ुरआन उस को इनाम ईलाही बयान नहीं करता बल्कि बख़िलाफ़ उस के मुंदरजा बाला आयात निहायत सफ़ाई और सराहत से साबित करती है कि ख़ुदा ने नबुव्वत व किताब के इनाम को इस्हाक़ की नसल के लिए मख़सूस किया। लिहाज़ा क़ुरआन तौरेत के बयान से बिल्कुल मुताबिक़त रखता है। पैदाइश की किताब के 26 वें बाब की चौथी आयत में मर्क़ूम है कि:-

तेरी नसल से ज़मीन की सारी क़ौमें बरकत पाएंगी ।

हम अपने मुसलमान अहबाब से पूछते हैं कि क्या वो बाइबल या क़ुरआन में कहीं ये लिखा दिखा सकते हैं कि ख़ुदा ने इस्माईल की नसल की तरफ़ इशारा करके इब्राहीम से कहा कि मैं नबुव्वत व किताब का इनाम तेरी औलाद को दूँगा?

क्या क़ुरआन की मज़कूरा बाला आयात से मालूम नहीं होता कि बनी-इस्राइल इस्हाक़ की नसल से हैं और क्या ये अज़हर-मिनश्शम्स नहीं कि ईसा मसीह इब्ने मर्यम बनी-इस्राइल में से है ? पस मसीह की क़ौमीयत ही उसे हज़रत मुहम्मद या इस्माईल के किसी और फ़रज़न्द से कहीं बुज़ुर्ग व बरतर क़रार देती है। इस के साथ ही जब हम मसीह के इन अल्क़ाब का जो क़ुरआन में मुंदरज हैं ख़्याल करते हैं तो इस की शान दीगर अंबिया से निहायत ही आला व अरफ़ा नज़र आती है।

दूसरा बाब

मसीह की पैदाइश

अब हम दूसरी बात ये देखते हैं कि क़ुरआन में मसीह का सबसे आम नाम"ईसा इब्ने मर्यम" है। देखो सूरह इमरान आयत 46:5 अगर क़ुरआन का बग़ौर मुताअला किया जाये तो ना सिर्फ यही साबित होता है कि क़ौम बनी-इस्राइल जिसमें मसीह पैदा हुआ रुए ज़मीन की तमाम दीगर अक़्वाम पर फ़ज़ीलत रखती है बल्कि ये भी कि ख़ुदा ए ताअला ने ईसा की माँ मर्यम मुतह्हरा को भी तमाम खातून-ए-जहान से बर्गुज़ीदा किया और उन पर फ़ज़ीलत बख़्शी चुनांचे सूरह इमरान की 42 आयत में मर्क़ूम है :-

يَا مَرْيَمُ إِنَّ اللّهَ اصْطَفَاكِ وَطَهَّرَكِ وَاصْطَفَاكِ عَلَى نِسَاء الْعَالَمِينَ

यानी ए मर्यम बेशक अल्लाह ने तुझे बर्गुज़ीदा किया और पाक किया और तुझे तमाम जहान की मस्तूरात में से चुन लिया I

क्या इस से ये बात बख़ूबी ज़ाहिर नहीं होती कि इस का बेटा ईसा सबसे बड़ा नबी होने वाला था? कैसी ख़ूबसूरती से इस की इस वाअदा से ततबीक़ होती है जो ख़ुदा ने इस्हाक़ से किया कि"तेरी नसल से दुनिया की सारी क़ौमें बरकत पाएँगी"जैसा कि हमारे मुसलमान अहबाब अक्सर कहा करते हैं कि अगर आख़िरी और सब से बड़े नबी हज़रत मुहम्मद है तो क्या “ख़ुदा ने तुझको तमाम जहान की मस्तूरात में से चुन लिया"।का जुमला बजाय मर्यम के हज़रत मुहम्मद की माँ आमना के हक़ में नहीं होना चाहिए? अब हम पूछते हैं कि क़ुरआन में लफ़्ज़ ईसा क्या माअनी रखता है ? इस सवाल का जवाब इंजील शरीफ़ में तो मिल सकता है । क्योंकि इंजील मत्ती के पहले बाब की इक्कीसवीं आयत में ईसा का तर्जुमा "बचाने वाला" है। चुनांचे मर्क़ूम है:-

“तू इस का नाम येसु (ईसा) रखेगा क्योंकि वो अपने लोगों को उन के गुनाहों से बचाएगा”

जब मुसलमान भाईयों के सामने मसीह के दाअवे को ज़ोर से पेश किया जाता है तो अक्सर यूँ कहते हैं कि"हम भी मसीह पर ईमान रखते हैं"लेकिन क्या वो कभी उस के इस नाम के माअनी पर ग़ौर करते हैं ? जब मुसलमान क़ुरआन में मसीह की मोजज़ाना पैदाइश का बयान पढ़ते हैं कि वो क्योंकि ख़ुदा की क़ुदरत कामिला से कुँवारी मर्यम से पैदा हुआ तो क्या उन्हें कभी ख़्याल नहीं आता कि इस मोजज़ाना पैदाइश का क्या मतलब है? सूरह मर्यम की 19 आयत से 22 आयत तक यूं मर्क़ूम है :-

قَالَ إِنَّمَا أَنَا رَسُولُ رَبِّكِ لِأَهَبَ لَكِ غُلَامًا زَكِيًّا قَالَتْ أَنَّى يَكُونُ لِي غُلَامٌ وَلَمْ يَمْسَسْنِي بَشَرٌ وَلَمْ أَكُ بَغِيًّا قَالَ كَذَلِكِ قَالَ رَبُّكِ هُوَ عَلَيَّ هَيِّنٌ وَلِنَجْعَلَهُ آيَةً لِلنَّاسِ وَرَحْمَةً مِّنَّا وَكَانَ أَمْرًا مَّقْضِيًّافَحَمَلَتْهُ

यानी जिब्राईल ने कहा मैं यक़ीनन तेरे ख़ुदा की तरफ़ से तुझे एक पाकीज़ा बेटा बख़्शने के लिए भेजा गया हूँ। मर्यम ने कहा मेरे हाँ बेटा क्योंकर हो सकता है जबकि किसी मर्द ने मुझे नहीं जाना और मैं बदकार नहीं हूँ? फ़रिश्ते ने कहा तेरा ख़ुदा ऐसा फ़रमाता है कि ये बात मुझ पर आसान है हम उसको लोगों के लिए निशान और अपनी तरफ़ से रहमत बनायेंगे ये बात मुक़द्दर हो चुकी है । (पस वो हामिला हो गई)।

तमाम जहान में कोई और नबी ऐसे मोजज़ाना तौर से पैदा नहीं हुआ। बेशक हज़रत-ए-आदम को ख़ुदा ने बे-माँ बाप पैदा किया लेकिन इबतिदा में ऐसा करना ज़रूरी था। ईसा की पैदाइश हम देखते हैं कि ख़ुदा ने अपने मुक़र्रर करदा कानून-ए-क़ुदरत के बर-ख़िलाफ़ और इस से बढ़कर अमल किया ताकि मसीह कुँवारी से पैदा हो।

ख़ुदा का ये फे़अल हरगिज़ बेमानी नहीं हो सकता। बल्कि हम जानते हैं कि इस से मसीह के इस ख़ास रिश्ता की तरफ़ इशारा होता है जो उस के सिवा कोई दूसरा नबी ख़ुदा से नहीं रखता। इंजील शरीफ़ में जो मसीह की पैदाइश का बयान मुंदरज है इस के मुताअला से इस रिश्ता की हक़ीक़त साफ़ मालूम हो जाती है। चुनांचे इंजील लूका के पहले बाब की 31, 32 आयत में मर्क़ूम है कि :-

जिब्राईल फ़रिश्ता ने आकर मर्यम से कहा देख तू हामिला होगी और बेटा जनेगी उस का नाम येसु (ईसा) रखना वो बुज़ुर्ग होगा और ख़ुदा ताअला का बेटा कहलाएगा

इस मुक़ाम से मालूम होता है कि ईसा को इस की मोजज़ाना पैदाइश के सबब से "इब्नुल्लाह" का बड़ा लक़ब मिला है। ये एक माक़ूल इस्तिलाह है जिससे एक ख़ास रिश्ता ज़ाहिर होता है और कलिमतुल्लाह भी ऐसी ही इस्तिलाह है जो क़ुरआन में ईसा के हक़ में इस्तिमाल की गई है। इन दोनों इस्तलाहों में से एक भी महिज़ लफ़्ज़ी व लूग़वी माअनों में नहीं ली जा सकती जिस्मानी इब्नीयत के ख़्याल के लिए हरगिज़ गुंजाइश नहीं है लेकिन हज़रत मुहम्मद ख़ुद और बहुत से उनकी पैरवी करने वाले इस सख़्त ग़लती के गढ़े में गिरते हैं अगर ग़ौर से क़ुरआन का मुताअला किया जाये तो मालूम हो जाएगी कि हज़रत मुहम्मद ने मसीह की ईलाही इब्नीयत की मसीही तालीम को जिस्मानी रिश्ते पर महमूल किया चुनांचे सूरह अनआम की 101 आयत में लिखा है :-

بَدِيعُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ أَنَّى يَكُونُ لَهُ وَلَدٌ وَلَمْ تَكُن لَّهُ صَاحِبَةٌ

यानी वो ज़मीन व आस्मान का ख़ालिक़ है इस की औलाद क्योंकर हो सकती है जबकि उस की कोई बीवी ही नहीं ?

और फिर सूरह मोअमीन की बानवीं आयत में मुंदरज है :-

مااتخذ اللہ من ولد

ख़ुदा के लिए कोई बेटा बेटी नहीं

एक बंगाली मुसलमान ने इसी किस्म की ग़लत-फ़हमी की बुनियाद पर एक किताब लिखी और इस में बड़ी कोशिश से साबित करना चाहा है कि मसीह ख़ुदा का (जिस्मानी ) बेटा नहीं हो सकता। लेकिन कोई मसीही भी इस को जिस्मानी बेटा नहीं कहता क्योंकि जिस्मानी इब्नियत की तालीम मसीहीयों के नज़दीक भी ऐसी ही घिनौनी और नफ़रत-अंगेज़ व कुफ्र-आमेज़ है । जैसे कि किसी अहले इस्लाम के लिए हो सकती है ।

मसीह की इब्नीयत पर हज़रत मुहम्मद का एतराज़ यक़ीनन इस बिना पर था कि इब्नीयत का इक़रार ख़ुदा की तौहीद की तालीम के बर-ख़िलाफ़ है लेकिन अगर इस मसले को ठीक तौर से समझ लिया जाये तो इस से तौहीद पर मुतलक़ हर्फ़ नहीं आता। अहले इस्लाम की तरह मसीही भी ख़ुदा को वह्दहू-ला-शरीक-ला मानते हैं ख़ुदा के बेटे बेटियां मानना जाहिलों और बे-दीनों का एतिक़ाद है क़ुरआन में इसका इस मौक़ा पर ज़िक्र है जहां लिखा है कि बाअज़ अहले-अरब ख़ुदा से बेटियां मंसूब करते थे।

ये एक अजीब हक़ीक़त है कि मसीह की इब्नीयत पर लिखते वक़्त मसीही मुसन्निफ़ीन ने कहीं भी लफ़्ज़"वलद" का इस्तिमाल नहीं किया क्योंकि "वलद"जिस्मानी रिश्ते की तरफ़ इशारा करता है। बल्कि उन्हों ने हर जगह लफ़्ज़ "इब्न" लिखा है जो अरबी ज़बान में ग़ैर-जिस्मानी और रुहानी माअनों में भी अक्सर इस्तिमाल किया जाता है । हज़रत मुहम्मद ने मुंदरजा बाला आयात में इस बात पर-ज़ोर दिया है कि ख़ुदा का कोई बेटा यानी "वलद" नहीं हो सकता है लेकिन मसीही एतिक़ाद को पेश करते वक़्त ख़ास मुस्तसना दियानतदारी से लफ़्ज़ "इब्न" इस्तिमाल किया है। चुनांचे सूरह तौबा की 30 आयत में मर्क़ूम है :-

وَقَالَتْ النَّصَارَى الْمَسِيحُ ابْنُ

कहते हैं इस मुक़ाम पर मसीहीयों को ये सवाल करने का हक़ हासिल है कि अगर उसे “रूहुल्लाह” कहना जायज़ है तो "इब्नुल्लाह" कहना क्यों गुनाह है?

क़ुरआन ना सिर्फ मसीह की पैदाइश को मोजज़ाना बयान करता है बल्कि मसीह को तमाम मख़्लूक़ात के लिए एक निशान क़रार देता है। चुनांचे सूरह अम्बिया की 91 वीं आयत में मुंदरज है :-

وَجَعَلْنَاهَا وَابْنَهَا آيَةً لِّلْعَالَمِينَ

हमने उस को (मर्यम को) और इस के बेटे को तमाम मख़्लूक़ात के लिए निशान बनाया I

अगर हमारे मुसलमान भाई मसीह के बारे में जिस्मानी इब्नीयत का ख़्याल अपने दिलों से दूर कर दें तो इस्तिलाह "इब्नुल्लाह" के मुताल्लिक़ उनकी मुश्किल बहुत कुछ आसान हो जाएगी।जो मुसलमान क़ुरआन और अहादीस को अच्छी तरह से पढ़ते और बख़ूबी समझते हैं वो इतना तो ज़रूर मानेंगे कि इन किताबों में मसीह और ख़ुदा बाप के एक ऐसे बाहमी ख़ास रिश्ते की तरफ़ इशारात पाए जाते हैं जो किसी और नबी और ख़ुदा के दर्मियान पाया नहीं जाता मसलन मिश्कात अल-मसाबीह में लिखा है कि :-

हर एक इन्सान को उस की पैदाइश के वक़्त शैतान छू लेता है । लेकिन मर्यम और उस का बेटा इस से महफ़ूज़ हैं I

क्या इस हदीस से मसीह का मर्तबा दीगर तमाम अम्बिया से आला नहीं ठहरता ? और अगर ये हदीस सच्ची है तो क्या इस से इस अम्र की बख़ूबी तशरीह नहीं होती कि मर्यम और इस का बेटा क्यों तमाम मख़्लूक़ात के निशान मुक़र्रर किए गए ?

बाअज़ मुसलमान मसीह को "इब्नुल्लाह" मानते हैं लेकिन साथ ही ये भी कहते हैं कि तमाम मुक़द्दस लोग "इब्नुल्लाह" या ख़ुदा के बेटे हैं। इस में बेशक कुछ सच्चाई पाई जाती है लेकिन ये सच्चाई पूरी नहीं है। क्योंकि बाइबल निहायत सफ़ाई और सराहत से बताती है कि मसीह की इब्नीयत दीगर मोमिनीन की सी नहीं है चुनांचे इंजील शरीफ़ में ईसा ख़ुदा का इकलौता बेटा कहलाता है। इस से साफ़ ज़ाहिर होता है कि ख़ुदा बाप के साथ उस का ऐसा ख़ास रिश्ता है जो किसी और का नहीं है। अगर कोई तास्सुब से ख़ाली हो कर इंजील शरीफ़ को पढ़े तो ज़रूर इस हक़ीक़त का क़ाइल हो जाएगा।

चुनांचे ईसा मसीह ने अपने हवारियों से पूछा तुम मुझे क्या कहते हो ? शमाउन पतरस ने जवाब में कहा "तू ज़िंदा ख़ुदा का बेटा मसीह है" ईसा ने जवाब में इस से कहा "मुबारक है तू शमाउन बर्युंस क्योंकि ये बात जिस्म और ख़ून से नहीं बल्कि मेरे बाप ने जो आस्मान पर है तुझ पर ज़ाहिर की है" (इंजील मत्ती 16: 15 ता 17)।

अगर मसीह भी ऐसा ही"इब्नुल्लाह"होता और मोमिनीन "इब्नुल्लाह" हैं तो फिर हम पूछते हैं कि मसीह के इस जवाब का क्या मतलब हो सकता है? इलावा-बरें हम जानते हैं कि यहूदी लोग ईसा को इसी लिए क़त्ल करना चाहते थे कि "वो ख़ुदा को ख़ास अपना बाप कह कर अपने आपको ख़ुदा के बराबर बनाता था"(युहन्ना 5:18)।

पस अज़हर-मिनश्शम्स है कि "इकलौते बेटे" की इस्तिलाह ईसा की इब्नीयत को दीगर मोमिनीन की इब्नीयत से मुख़्तलिफ़ और बालातर क़रार देती है कैसी अजीब बात है कि बावजूद इंजील शरीफ़ की साफ़ शहादत के बहुत से मुसलमान मुसन्निफ़ीन ये साबित करने की कोशिश करते हैं कि मसीह की इब्नीयत दीगर मोमिनीन की इब्नीयत की सी है लेकिन मसीह की मोजज़ाना पैदाइश का बयान जो क़ुरआन में मुंदरज है क्या इस से ये ज़ाहिर नहीं होता कि मसीह का ख़ुदा बाप से ऐसा रिश्ता है जो किसी और का नहीं हो सकता ! इस हक़ीक़त पर क़ुरआन में तो सिर्फ इशारात पाए जाते हैं लेकिन इंजील शरीफ़ में इस की तालीम बिल्कुल साफ़ है जहां मसीह ख़ुदा का "इकलौता बेटा"कहलाता है। क़ुरआन किसी और की ऐसी मोजज़ाना पैदाइश का ज़िक्र नहीं करता। लिहाज़ा बलिहाज़-ए-पैदाइश क़ुरआन भी मसीह को तमाम दीगर अम्बिया-अल्लाह पर फ़ज़ीलत और बरतरी देने में इंजील शरीफ़ से मुत्तफ़िक़ है I

तीसरा बाब

ईसा मसीह मौऊद

फिर तीसरी बात हम ये देखते हैं कि ईसा इब्ने मर्यम क़ुरआन में अल-मसीह भी कहलाता है । चुनांचे सूरह इमरान की 46 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

اسْمُهُ الْمَسِيحُ عِيسَى ابْنُ مَرْيَمَ

यानी उस का नाम अल-मसीह ईसा इब्ने मर्यम है I

मुसलमान इस जुमला को अक्सर बार-बार पढ़ते हैं लिहाज़ा हम उन से भरपूर पूछते हैं कि इस का क्या मतलब है ? इस का क्या बाइस है कि तमाम क़ुरआन में सिर्फ ईसा के हक़ में ऐसे वज़नी अल्फ़ाज़ इस्तिमाल किए गए हैं कि सिर्फ वही अकेला "अल-मसीह" कहलाता है? मसीह की मतलब है "मसह किया गया" और हम देख चुके हैं कि "ईसा" का तर्जुमा "बचाने वाला" है पस "ईसा अल-मसीह" का तर्जुमा हुआ मसह किया गया "बचाने वाला या ममसुह" नजातदिहंदा"ख़ुद हज़रत मुहम्मद के हक़ में भी क़ुरआन में कोई ऐसा बड़ा लक़ब पाया नहीं जाता। हज़रत मुहम्मद अपनी निस्बत ख़ुद कहते हैं कि "मैं महिज़ एक वाइज़ हूँ" (सूरह अन्कबूत की 50 वीं आयत) अगर इस रिसाले का पढ़ने वाला कुछ तकलीफ़ गवारा करके तौरेत और ज़बूर को ग़ौर से पढ़े तो उसे इन किताबों में दुनिया के नजात-दिहंदा मसीह के हक़ में बहुत सी पेशीनगोईयां मिलेंगी। इन पेशीन- गोइयों में से बहुत सी ज़ाहिर करती हैं कि मसीह तमाम दीगर अम्बिया से बुज़ुर्ग व बरतर होगा या दूसरे अल्फ़ाज़ में यूं कहें कि इस की ज़ात ईलाही होगी। मसलन एक 110 ज़बूर की पहली आयत में दाऊद नबी मसीह के बारे में पीशीनगोई करते वक़्त कहता है कि :-

"ख़ुदावंद ने मेरे ख़ुदावंद से कहा कि मेरी दाहिनी तरफ़ बैठ जब तक मैं तेरे दुश्मनों को तेरे पांव की चौकी ना बना दूँ"

यहां हम देखते हैं कि दाऊद नबी ज़बूर में मसीह को अपना ख़ुदावंद कहता है और इस से साफ़ ज़ाहिर करता है कि मसीह इन्सान से बढ़कर और ईलाही था। ये बात काबिल-ए-ग़ौर है कि सय्यदना ईसा ने ख़ुद ज़बूर की मज़कूरा-बाला आयात को मसीह के हक़ में इस्तिमाल किया और इस से अपनी उलूहियत का सबूत दिया। चुनांचे इंजील मत्ती के 22 वें बाब की 41 से 45 आयत तक में मर्क़ूम है :-

और जब फ़रीसी जमा हुए तो येसु (ईसा) ने उनसे ये पूछा कि तुम मसीह के हक़ में क्या समझते हो? वो किस का बेटा है ? उन्होंने उससे कहा दाऊद का । उसने उनसे कहा पस दाऊद रूह की हिदायत से क्योंकर उसे ख़ुदावंद कहता है कि ख़ुदावंद ने मेरे ख़ुदावंद से कहा मेरी दाहिनी तरफ़ बैठ जब तक मैं तुम्हारे दुश्मनों को तुम्हारे पांव के नीचे ना कर दूं? पस जब दाऊद उस को खुदावंद कहता है तो वह उसका बेटा क्योंकर ठहरा ?

फिर यसायाह नबी की किताब के 7 वें बाब की 14 वीं आयत में मसीह के हक़ में यूं मर्क़ूम है कि :-

ख़ुदावंद तुम को एक निशान देगा देखो एक कुँवारी हामिला होगी और बेटा जनेगी। और उस का नाम इम्मानुएल (ख़ुदावंद हमारे साथ) रखेंगे"

ज़बूर और दीगर कुतुब अम्बिया के बहुत से मुक़ामात से निहायत सफ़ाई और सराहत के साथ मालूम होता है कि मसीह नबी, काहिन (इमाम), और बादशाह होगा और एक अजीब बईद-उल-फ़हम तौर से लोगों के गुनाहों के लिए अपनी जान देगा।

चुनांचे यसायाह नबी की किताब के 53 वें बाब में मुंदरज है :-

वो हमारे गुनाहों के लिए घायल किया गया और हमारी बदकारियों के बाइस कुचला गया। हमारी सलामती के लिए उस पर सियासत हुई और उस के मार खाने से हमने शिफ़ा पाई। हम सब भेड़ों की मानिंद भटक गए और हम में से हर एक अपनी अपनी राह को फिरा ख़ुदावंद ने हम सभों की बदकारी इस पर लादी।

अब मुक़ाम-ए-ग़ौर है कि बावजूद येकी यहूदीयों ने ईसा को मसीह मौऊद ना जाना। मसीह के हक़ में ये पेशीनगोईयां उनकी कुतुब मुक़द्दसा में पाई जाती हैं । लिहाज़ा हमारे पास इस बात का निहायत पुख़्ता सबूत है कि ये मुक़ामात जो उस की उलूहियत साबित करते हैं। उन किताबों में मसीहीयों ने दाख़िल नहीं कर दिए हैं और यह बात बिल्कुल ना-मुमकिन है कि यहूदीयों ने इन मुक़ामात को दाख़िल किया पस लाज़िम है जैसे वो फ़िल-हक़ीक़त हैं। ख़ुदा का कलाम तस्लीम कर लिए जाएं जो उस हय्युल-क़य्यूम ने अपने बर्गुज़ीदा बंदगान अम्बिया की मार्फ़त ज़ाहिर फ़रमाया। हक़ तो ये है कि यहूदीयों ने ख़ुद अपनी किताबों में मुंदरजा बाला मुक़ामात और ऐसे ही और बयानात को देखकर मसीह की बुजु़र्गी व अज़मत के बड़े बड़े ख़्यालात क़ायम किए और उसे तमाम दीगर अम्बिया पर तर्जीह दी।

चुनांचे यहूदी अहादीस, व रिवायात की किताबों में मसीह को "आस्मान से भेजा हुआ बादशाह" मूसा से बुज़ुर्गतर और फ़रिश्तगान से "बलंद पाया" लिखा है। किताब अख़नुअ में मसीह "ख़ुदा का बेटा"बयान किया गया है । हज़रत सुलेमान के मज़ामीर में उसे "गुनाह से आज़ाद", "ख़ुदावंद" और रास्त बादशाह वग़ैरा बड़े बड़े अल्क़ाब से लक़ब किया है । यहूदीयों की ऐसी ग़ैर-मोअतबर किताबें मसीह के वजूद को इब्तदाए आलम से क़दीम तर मानती हैं और उसे अंजाम-कार आकर दुनिया का इन्साफ़ करने वाला क़रार देती हैं।

पस इन बातों से साफ़ ज़ाहिर होता है कि यहूदी लोग अपनी कुतुब मुक़द्दसा को बख़ूबी समझते थे और आने वाले मसीह की बेनज़ीर बुजु़र्गी व अज़मत से नावाक़िफ़ नहीं थे। क़ुरआन बार-बार ईसा को मसीह बयान करता है और पूरे तौर से उसे तमाम दीगर अम्बिया से बुज़ुर्ग व बरतर तस्लीम करता है उसे ये अल्क़ाब देता है मगर यह नहीं बताता कि ईसा की ऐसी इज़्ज़त व अज़मत क्यों है लेकिन बख़िलाफ़ इस के बाइबल में इस का पूरा बयान मिलता है कि ये कौन है जिसको ख़ुदा ने इस क़दर मुअज़्ज़िज़ व मुमताज़ फ़रमाया।

मुसलमान मुफ़स्सिरीन क़ुरआन भी तस्लीम करते हैं कि ऐसा बड़ा लक़ब किसी और को नहीं दिया गया। लेकिन वो तरह तरह से कोशिश करते हैं कि इस लक़ब के साफ़ और लाज़िम नतीजे से बचें। मसलन इमाम राज़ी साहिब फ़रमाते हैं कि :-

"ईसा को मसीह का लक़ब इस लिए दिया गया कि वो गुनाह के दाग़ से पाक व साफ़ रखा गया"

(जबकि दीगर अम्बिया में से किसी को यह लक़ब नहीं दिया गया तो क्या इस से ये साबित नहीं होता कि वो सब गुनेहगार थे)

फिर एक और मुफ़स्सिर अबू उमरू इब्नुलअला कहता है कि लफ़्ज़ "मसीह" से "बादशाह" मुराद है बैज़ावी कहता है :-

"वो इस लिए मसीह कहलाता है कि उस में बिलावास्ता ख़ुदाए ताअला की रूह है जो ज़ात व माहीयत में ख़ुदा के साथ एक है"

पस हम साफ़ देखते हैं कि काबिल-ए-एतिमाद व मुसलमान मुफ़स्सिरीन ईसा की बुजु़र्गी और फ़ज़ीलत के क़ाइल हैं और सिर्फ उसी एक नबी को "मसीह" के आली लक़ब का मुस्तहिक़ मानते हैं जिस आला रुत्बा पर क़ुरआन सय्यदना ईसा को बिठाता है और इस पर इंजील शरीफ़ से भी शहादत मिलती है चुनांचे मर्क़ूम है :-

इस लिए ख़ुदा ने भी उसे मसीह को सरफ़राज़ किया और उसे एक ऐसा नाम दिया जो सब नामों से बुलंद है"।

चौथा बाब

मसीह कलिमतुल्लाह

चौथी बात हम ये देखते हैं कि ईसा मसीह क़ुरआन में कलिमतुल्लाह कहलाता है। चुनांचे सूरह निसा की 169 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

إِنَّمَا الْمَسِيحُ عِيسَى ابْنُ مَرْيَمَ رَسُولُ اللّهِ وَكَلِمَتُهُ أَلْقَاهَا إِلَى مَرْيَمَ

यक़ीनन मसीह ईसा इब्ने मर्यम अल्लाह का रसूल है और उस का कलिमा जो उसने मर्यम की तरफ़ डाल दिया।

ये आयत बहुत सफ़ाई से ईसा मसीह को तमाम दीगर अम्बिया से कहीं बुज़ुर्ग व बरतर साबित करती है और मुसलमान मुफ़स्सिरीन उस की तफ़्सीर करने में बहुत आजिज़ हैं।

हम इस लक़ब मसीह का उन अल्क़ाब से मुक़ाबला करेंगे जो मुसलामानों ने दीगर अम्बिया को दिए हैं इस से साफ़ नज़र आजाएगा कि मसीह दुसरे नबियों से किस क़दर आला व बाला है मसलन "आदम सफ़ीउल्लाह" यानी ख़ुदा का बर्गुज़ीदा नूह नबी-उल्लाह यानी ख़ुदा का नबी, इब्राहीम ख़लील-उल्लाहयानी ख़ुदा का दोस्त, मूसा कलीम-उल्लाह यानी ख़ुदा से कलाम करने वाला, और मुहम्मद रसूल-उल्लाह यानी ख़ुदा का पैग़ाम लाने वाला कहलाता है। ये तमाम अल्क़ाब हमारे जैसे कमज़ोर और ख़ाती आदमीयों को दिए जा सकते हैं लेकिन मसीह क़ुरआन में "कलिमतुल्लाह" कहलाता है ये ऐसा लक़ब है जो अज़-हद सफ़ाई और सराहत के साथ मसीह और ख़ुदा बाप में एक ख़ास रिश्ते पर दलालत करता है।

मुसलमान मुसन्निफ़ीन ने कई तरह से कोशिश की है कि "कलिमतुल्लाह" से जो ईसा की उलूहियत का साफ़ नतीजा निकलता है इस पर धूल डालें मसलन इमाम राज़ी और हाल के चंद मुसन्निफ़ीन हमको ये मनवाना चाहते हैं कि "कलिमतुल्लाह" से सिर्फ ये मुराद है कि ईसा ख़ुदा के हुक्म या "कलिमतुल्लाह" यानी कलाम से पैदा किया गया है। लेकिन आदम भी तो ख़ुदा के हुक्म से पैदा किया गया था क्या कोई मुसलमान आदम को "कलिमतुल्लाह" कहने की जुरआत करेगा ? इलावा-बरीं क़ुरआन की मज़कूरा बाला आयात में ये साफ़ बयान किया गया है कि ईसा “कलिमतुल्लाह”था जो ख़ुदा ने मर्यम में डाल दिया और इमाम राज़ी के बे-बुनियाद बयान और तफ़्सीर की तर्दीद के लिए ये एक ही काफ़ी है। क्योंकि इस से साफ़ अयाँ है कि कलिमा मर्यम में डाला जाने से पेशतर भी मौजूद था हक़ीक़त यूं है कि खुदावंद ईसा का ये लक़ब सिर्फ इंजील शरीफ़ ही के मुताअला से समझ में आ सकता है।

क्योंकि इस में बड़ी सफ़ाई से बयान किया गया है कि ईसा"कलिमतुल्लाह" ईलाही है और मुजस्सम हो कर दुनिया में आने से पेशतर ख़ुदा के साथ मौजूद था। चुनांचे इंजील युहन्ना के 1 बाब की पहली आयत में मर्क़ूम है :-

इबतिदा में कलाम था और कलाम-ए-ख़ुदा के साथ था और कलाम ख़ुदा था और कलाम मुजस्सम हुआ और इस ने फ़ज़ल और सच्चाई से मामूर हो कर हमारे दर्मियान ख़ेमा किया और हमने उस का ऐसा जलाल देखा जैसे बाप के इकलौते का जलाल I

मुसलामानों की अहादीस में भी इस की शहादत मौजूद है । चुनांचे मिश्कात अल-मसाबीह के दफ़्तर अव्वल के चौथे बाब की तीसरी फ़सल में मुंदरज है :-

वोह (ईसा) अर्वाह में था। हमने उस को मर्यम में भेज दिया।

इसी किताब में अबी से मर्वी है कि मसीह की रूह मर्यम के मुँह से दाख़िल हुई अगरचे हमको ऐसी अहादीस व रिवायात की चंदाँ ज़रूरत नहीं तो भी उनसे इस क़दर ज़ाहिर होता है कि मोअतक़िदात इस्लाम में मसीह इस दुनिया में मुजस्सम हो कर आने से पेशतर मौजूद माना गया है ।

बाइबल और क़ुरआन दोनों ईसा को कलिमतुल्लाह कहते हैं और इस तरह से उसे तमाम दीगर अम्बिया से मुंतख़ब और मुमताज़ करके इस रिश्ते की तरफ़ इशारा करते हैं। जो उस में और ख़ुदा बाप में है। इस मुक़ाम पर ये बात भी काबिल-ए-ग़ौर है कि क़ुरआन में बाइबल के लिए जो लफ्ज़ इस्तिमाल हुआ है वो वही नहीं है जो ईसा मसीह के हक़ में इस्तिमाल किया गया है चुनांचे सूरह बक़रा की 74 वीं आयत में लिखा है :-

وَقَدْ كَانَ فَرِيقٌ مِّنْهُمْ يَسْمَعُونَ كَلاَمَ اللّهِ

यानी और उन में से एक फ़रीक़ ख़ुदा का कलाम सुनता था

यहां पर लफ़्ज़ कलाम कुतुब इल्हामी के लिए इस्तिमाल किया गया है वो "कलमा" है इस के हक़ में "कलाम" कभी इस्तिमाल नहीं हुआ। चुनांचे सूरह इमरान की 45 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

يَا مَرْيَمُ إِنَّ اللّهَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَةٍ

यानी ए मर्यम अल्लाह तुझे ख़ुशख़बरी भेजता है ,कलिमे से जो इस से है I

बाईंहमा मुफ़स्सिरीन हमसे ये मानने को कहते हैं कि कलिमतुल्लाह का आला लक़ब सिर्फ ये मअनी रखता है। कि मसीह ख़ुदा के हुक्म या कलाम से पैदा किया गया था। फिर मुंदरजा बाला आयत क़ुरआन में मसीह इस का कलिमा यानी "ख़ुदा का कलिमा" कहलाता है। अरबी से मालूम होता है कि इस से "अल-कलिमतुल्लाह" मुराद है ना सिर्फ कलमा-ए-ख़ुदा "कलिमतुल्लाह"ना महिज़ (کلمہ من کلمات اللہ) कलिमा मिन कलिमात अल्लाह पस साफ़ ज़ाहिर है कि ईसा “अल-कलिमतुल्लाह” या ख़ुदा का ख़ास इज़्हार सिर्फ इसी के वसीले से हम ख़ुदा की मर्ज़ी को मालूम कर सकते हैं किसी और नबी को ये लक़ब नहीं दिया गया। क्योंकि कोई और इस तौर से ख़ुदा कि मर्ज़ी को ज़ाहिर करने वाला नहीं है इसी लिए ईसा इंजील शरीफ़ में फ़रमाता है :-

“राह और हक़ और ज़िंदगी में हूँ। कोई बाप के पास नहीं आ सकता मगर मेरे वसीले से"

मेरे बाप की तरफ़ से सब कुछ मुझे सौंपा गया और कोई नहीं जानता कि बेटा कौन है सिवा बाप के और कोई नहीं जानता कि बाप कौन है सिवा बेटे के और इस शख़्स के जिस पर बेटा ज़ाहिर करना चाहे (लूका 1:22)।

हम ये दावा नहीं करते कि हम मसीह की उलूहियत का मसला पूरे तौर से समझते हैं क्योंकि इस से इसरार तस्लीस का ताल्लुक़ है लेकिन इस क़दर बख़ूबी सफ़ाई से देखते हैं कि ख़ुदा के"कलिमा" की ज़ात ईलाही होनी चाहिए । क्योंकि सिवाए ईलाही ज़ात के किसी और चीज़ से मसीह की मोजज़ाना पैदाइश का राज़ हरगिज़ नहीं खुलता। इंजील शरीफ़ से हम को ये मालूम होता है कि ख़ुदा के अज़ली कलाम ने कामिल इन्सानी ज़ात की लेकिन साथ ही ईलाही ज़ात से आरी नहीं हुआ इस में इन्सानी ज़ात और ईलाही ज़ात बाहम मौजूद थीं जैसा किसी दरख़्त पर पैवंद लगाने से पैवंद और पैवंद शूदा दरख़्त की शाख़ें अपनी अपनी ज़ात में जुदा-जुदा हैं लेकिन फिर भी एक ही दरख़्त है ऐसा ही इंजील शरीफ़ में मर्क़ूम है कि :-

कलाम मुजस्सम हुआ और हमारे दर्मियान रहा I

और क़ुरआन में लिखा है कि :-

"ख़ुदा ने अपना कलिमा मर्यम में डाला"

पस ख़ुदा ने जो ख़ुद ईसा मसीह में हो कर बनी-आदम में बूद-ओ-बाश की। इस्लाम के बाअज़ फ़िरक़े मानते हैं कि एक ही शख़्स में इन्सानियत व उलुहियत जमा हो सकती है। चुनांचे शहरसतानी 2:76-77 में मर्क़ूम है कि फ़िर्क़ा अल-मशतबा का ऐसा एतिक़ाद था

ये कहना कि चूँकि हम मसीह के मुजस्सम होने को या उस की उलूहियत को समझ नहीं सकते लिहाज़ा हम इस को नहीं मानते कोई माक़ूल जवाब नहीं है। क्योंकि हम क़ियामत को भी नहीं समझते लेकिन इस पर ईमान रखते हैं जो कोई दाना है। वो ज़रूर इस संजीदा मसले पर बाइबल मुक़द्दस की साफ़ तालीम को क़बूल करेगा बेशक तस्लीस का मसला निहायत मुश्किल और सर मकतूम है लेकिन गो अक़्ल से बाला हो और गो अक़्ल में ना आ सके तो भी ख़िलाफ़ अक़्ल तो नहीं है हमारे मुसलमान भाई ख़ुद सिफ़ात ईलाही की कसरत को मानते हैं। मसलन उस का रहम, इन्साफ़, और क़ुदरत वग़ैरा और बड़ी दुरुस्ती से उसे (الصفات الحسنہ محموع) अल-सिफ़ात उलहसना महमुअ यानी तमाम नेक सिफ़ात का मजमूआ कहते हैं । अगर ख़ुदा की सिफ़ात में कसरत मुम्किन है तो इस की ज़ात में क्यों नामुमकिन है ? इन दोनों सूरतों में से एक में भी इस की वहदत पर हर्फ़ नहीं आता।

अली की ज़बानी रिवायत की गई है :-

من عرف نفسہ ،فقد عرف برہ

यानी जो अपने आपको जानता है वो अपने ख़ुदा को जानता है I

तौरेत में लिखा है कि ख़ुदा ने इन्सान को अपनी सूरत पर पैदा किया अब जाये ग़ौर है कि हम सब अपनी“रूह” “अक़्ल” और “नफ़्स” को “मैं” कहते हैं। ये चीज़ें मुख़्तलिफ़ हैं लेकिन शख़्सियत एक ही रहती है जबकि हम अपने आपको भी पूरे तौर से नहीं समझ सकते तो किस तरह मुम्किन हो सकता है कि लामहदूद ख़ुदा की ज़ात हमारी समझ में आ जाए ?

इलावा-बरीं क़ुरआन में ख़ुदा "अल-वदूद" यानी मुहिब कहलाता है इस से ज़ाहिर होता है कि ख़ुदा की ज़ात में "अल-वदूद" यानी हुब्ब की सिफ़त मौजूद है और चूँकि ख़ुदा की ज़ात ला-तब्दील व ग़ैर-मुतग़य्यर है इस लिए ये सिफ़त अज़ली है लेकिन हुब्ब के लिए महबूब का वजूद लाअबदी है पस हम पूछते हैं कि जहान व फ़रशतगान की पैदाइश से पेशतर ख़ुदा की हुब्ब का महबूब किया था?

क्या इन ख़्यालात से ये ज़ाहिर नहीं होता कि ख़ुदा की ज़ात वाहिद में कसरत मौजूद है और वाहिद में कसरत के अफ़राद बाहम मुहिब व महबूब हैं? क्या मुसलमान ये नहीं देखते कि ख़ुदा की सिफ़ात मुंदरजा क़ुरआन से ज़ात बारी ताअला की वहदत में कसरत का कुछ ना कुछ ख़्याल पाया जाता है जो मसीहीयों की तालीम तस्लीस की मानिंद है। बाइबल सीखलाती है कि ख़ुदा की वहदत में तस्लीस मौजूद है और ईसा अक़ानीम सलासा में से एक उक़नूम है हमारे बहुत से मुसलमान भाई क़ुरआन की पैरवी करके तस्लीस की तालीम को रद्द करते और कहते हैं कि ये तालीम तौहीद के बर-ख़िलाफ़ है लेकिन अगर ग़ौर से क़ुरआन को पढ़ें तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि हज़रत मुहम्मद ने जिस बात की बड़े ज़ोर से तर्दीद की वो शिर्क या ख़ुदाओं की कसरत की तालीम थी चुनांचे सूरह निसा की 169 वीं आयत में मर्क़ूम :-

تَقُولُواْ ثَلاَثَةٌ انتَهُواْ خَيْرًا لَّكُمْ إِنَّمَا اللّهُ إِلَـهٌ

यानी मत कहो तीन ख़ुदा हैं इस से बाज़ रहो। ये तुम्हारे लिए बेहतर होगा

ख़ुदा सिर्फ एक ही है I

मशहूर मुफ़स्सिरीन जलालीन ने समझा कि ये आयत शिर्क या बहुत से ख़ुदा मानने की तरफ़ इशारा करती है चुनांचे वो लिखते हैं :-

"ए अहले बाइबल तुम अपने दीन में कुफ़्र की पैरवी मत करो और ख़ुदा की बाबत सिवाए हक़ बात के कुछ और मत कहो शिर्क और क़ादीर मुतलक़ का बेटा बयान करने से बाज़ आओ"।

पस इस से साफ़ नज़र आता है कि क़ुरआन शिर्क और एक से ज़्यादा ख़ुदा मानने की तालीम की तरीदद करता है जो तालीम मसीही लोग ना मानते हैं और ना औरों को सिखाते हैं । ईसा मसीह गोया हर तरह की ग़लतफ़हमी को दूर करने की ग़रज़ से ख़ुदा की तौहीद का यूं बयान फ़रमाता है :-

“मैं और बाप (ख़ुदा) एक हैं” (युहन्ना 10:30)

सूरह माइदा से साफ़ मालूम होता है कि हज़रत मुहम्मद तस्लीस की तालीम को मुतलक़ ना समझ सके चुनांचे 116 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

يَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ أَأَنتَ قُلتَ لِلنَّاسِ اتَّخِذُونِي وَأُمِّيَ إِلَـهَيْنِ مِن دُونِ اللّهِ

ए ईसा इब्ने मर्यम क्या तूने लोगों से कहा कि ख़ुदा के सिवा मुझको और

मेरी माँ को दो ख़ुदा मानो?

सूरह माइदा में हज़रत मुहम्मद बड़ी कोशिश से इस बात को साबित करते हुए नज़र आते हैं कि मर्यम ईसा की माँ ख़ुदा नहीं और दलील ये पेश करते हैं कि वो खाना खाती थी !

ताहम बैज़ावी और दीगर अच्छे अच्छे मुसलमान मुफ़स्सिरीन मानते हैं कि मसीही तस्लीस अक़ानीम सलासा बाप, बेटा और रूह-उल-क़ूद्दूस हैं तस्लीस के बारे में जो ग़लत ख़्याल हज़रत का था वही इस ज़माना के बहुत से मुसलामानों का है वो सख़्त ग़लतफ़हमी से ये समझे बैठे हैं कि मसीही लोग तीन ख़ुदा मानते हैं और इस ग़लतफ़हमी के सबब से वो मसीहीयों की तालीम की कभी तहक़ीक़ात नहीं करते लेकिन बाअज़ मुसलमान कुछ-कुछ दुरुस्त ख़्याल रखते हैं चुनांचे डाक्टर इमादा उद्दीन साहिब हिदायत-अलमुस्लिमीन में लिखते हैं कि :-

फ़िर्क़ा सलहीयह के मुसलमान मानते हैं कि ख़ुदा की ज़ात-ए-वाहिद के अंदर तस्लीस की तालीम देना कुफ़्र नहीं है I

अगर ठीक तौर से समझ ली जाये तो तस्लीस की तालीम से ख़ुदा की तौहीद की मुख़ालिफ़त नहीं होती बल्कि "इब्नुल्लाह" के मुजस्सम होने का राज़ बख़ूबी समझ में आता है और कलिमतुल्लाह और रूहुल्लाह के मुश्किल अल्क़ाब की (जो मुसलमान मसीह के हक़ में इस्तिमाल करते हैं) तशरीह होती है। कलिमतुल्लाह ख़ुदा का सुख़न है और सुख़न ख़ुदा ऐसा ही क़दीम व अज़ली है जैसा ख़ुद ख़ुदा। इसी कलिमा ने कुँवारी मर्यम के रहम में मुजस्सम हो कर कामिल इन्सानी ज़ात इख़्तियार की। चुनांचे लिखा है कि :-

येसु (ईसा) नासरी दीगर आदमीयों की तरह खाता पीता और ग़मगीन और थकामाँदा होता था। क्योंकि इन्सानी हैसियत में सिवाए गुनाह के और जो जो ख़्वाहिशें हम में हैं इस में भी थीं"कलिमतुल्लाह" जो ख़ुदा ने मर्यम में डाला उस के बारे में यही तालीम है और हर एक सच्चे मुसलमान पर अज़रोइ-ए-कलाम-ए-ख़ुदा उस को मानना लाज़िम ठहरता है "कलाम-उल्लाह" की शहादत को ना मानना और ख़ुदा की ज़ात व माहीयत की निस्बत छानबीन बेहूदगी और बे-दीनी है हज़रत मुहम्मद ने भी कहा है कि :-

ख़ुदा की बख़्शिशों का ख़्याल करो और इस की ज़ात के बारे में मत सोचो।

यक़ीनन तुम उस को नहीं समझ सकते

और फिर ये भी मर्वी है कि :-

हमने तेरी हक़ीक़त को नहीं जाना

एक और हदीस में ये दहशतनाक अल्फ़ाज़ पाए जाते हैं कि :-

البحث من ذات اللہ کفر

ख़ुदा की ज़ात पर बहस करना कुफ़्र है

कोई सच्ची तालीम अक़्ल के ख़िलाफ़ नहीं हो सकती हाँ अलबत्ता ये ज़रूर है कि जो बातें ख़ुदा की ज़ात से इलाक़ा रखती हैं वो हमारी कमज़ोर इन्सानी अक़्ल से बाहर और बाला हो सकती हैं। मुसलमान ख़ुद मानते हैं कि क़ुरआन के बाअज़ फ़िक़रे मुतशाबेह हैं और उन के मअनी इन्सान से पोशीदा हैं और क़ियामत के दिन तक वैसे ही पोशीदा रहेंगे चुनांचे हुरूफ़ अलिफ़ व लाम व मीम (الم) और ख़ुदा के मुँह और हाथों वग़ैरा के बयान में जो फ़िक्रात क़ुरआन में पाए जाते हैं पस जिस आज़ादी को मुसलमान अपने लिए जायज़ क़रार देते हैं उसे मसीहीयों के लिए क्यों नाजायज़ समझते हैं ?

हम भी तालीम तस्लीस और मसीह की उलूहियत को मुतशाबेह कह सकते हैं। लिहाज़ा उन तालीमात को पूरे तौर से समझ ना सकने के सबब से रद्द करना मुसलामानों के लिए माक़ूल बात नहीं है।

मसीही लोग बाइबल शरीफ़ की सनद पर ईसा मसीह की उलूहियत को मानते हैं और इस अम्र में वो अकेले नहीं बल्कि तमाम अम्बिया व रसूल भी उन के साथ यही ईमान रखते थे हम ज़िक्र कर चुके हैं कि मसीह के हक़ में बहुत सी पेशीनगोईयां ऐसी हैं जिनसे ज़ाहिर होता है कि इस का जलाल ईलाही जलाल से कम नहीं है चुनांचे हम एक दो ऐसी पेशीनगोइयों का हवाला देते हैं । यसायाह नबी की किताब के नौवीं बाब की छटी आयत में मर्क़ूम है :-

हमारे लिए एक बेटा तव्वुलुद हुआ। हमें एक बेटा बख़्शा गया सल्तनत उसके कंधे पर होगी और इस का नाम अजीब मुशीर ख़ुदाए क़ादिर अबदीयत का बाप सलामती का शहज़ादा होगा। उस की बादशाहत की तरक़्क़ी और सलामती का अंजाम अबदलआबाद तक है।

फिर दाऊद नबी मसीह से मुखातिब हो कर कहता है :-

“तेरा तख़्त अबद-उल-अबाद तक है”

मसीह के हवारी जिनको क़ुरआन "अंसार-उल्लाह" के लक़ब से मुमताज़ करता है ईसा की उलूहियत पर ईमान रखते थे और यह इंजील शरीफ़ के बहुत से मुक़ामात से रोज़-ए-रौशन की तरह अयाँ है। चुनांचे लिखा है कि मसीह के शागिर्दों में से एक थोमा नामी ने इस के मुर्दों में से जी उठने को पहले ना माना लेकिन जब उसने मह्शूर मसीह को रूबरू देखा तो ताज़ा ईमान और ख़ुशी से माअमूर हो कर उसने कहा :-

"ए मेरे ख़ुदावंद ए मेरे ख़ुदा” ! ईसा ने जवाब दिया तू तो मुझे देखकर ईमान लाया है। मुबारक वो हैं जो बग़ैर देखे ईमान लाए (युहन्ना 20:29)

मुसलमान दोस्तो ! इस ईलाही "इब्नुल्लाह" पर ईमान लाना उसके नाम के तुफ़ैल से आप को हयात अबदी का वारिस बनाएगा। क्योंकि लिखा है कि :-

“खुदावंद ईसा पर ईमान ला और नजात पाएगा I”

पांचवां बाब

मसीह रूहुल्लाह

मुसलमान मसीह को एक और बड़े लक़ब यानी "रूहुल्लाह" से मुलक़्क़ब करते हैं चुनांचे सूरह निसा की 169 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

إِنَّمَا الْمَسِيحُ عِيسَى ابْنُ مَرْيَمَ رَسُولُ اللّهِ وَكَلِمَتُهُ أَلْقَاهَا إِلَى مَرْيَمَ وَرُوحٌ مِّنْهُ

यानी बे-शक मसीह ईसा इब्ने मर्यम ख़ुदा का रसूल है और उस का कलिमा है जिसे उसने मर्यम में डाला और उस की रूह है

इस बड़े लक़ब "कलिमतुल्लाह" की तरह मुसलमान मुफ़स्सिरीन को इस लाज़िम नतीजा यानी ईसा की उलूहियत से इन्कार की मुख़्तलिफ़ राहें ढूँढते हैं निहायत मुश्किल में डाल रखा है । ख़लील-उल्लाह ,सफ़ी-उल्लाह और नबी-उल्लाह वग़ैराह अल्क़ाब जो दूसरे अम्बिया को दिए गए हैं हमारी मानिंद कमज़ोर इन्सानों को दिए जा सकते हैं लेकिन "रूहुल्लाह" जो मुसलामानों ने सय्यदना मसीह को दिया है निहायत सफ़ाई से इस की बुजु़र्गी व बरतरी पर दलालत करता है और अज़हद यक़ीनी तौर से उसे तमाम दीगर अम्बिया से आला व बाला ठहराता है।

ऐसे शख़्स को बख़ूबी "इब्नुल्लाह" कह सकते हैं लेकिन मसीहीयों को अक्सर इस से हैरत होती है कि मुसलमान बिरादरान "इब्नुल्लाह" पर क्यों एतराज़ करते हैं दर-हालीका वो ख़ुद उसे रूहुल्लाह कहते हैं और रूहुल्लाह इब्नुल्लाह से कम नहीं है।

रासिख़ मुसलमान मुसन्निफ़ीन मानते हैं कि "रूहुल्लाह" एक ऐसी ख़ुसूसीयत रखता है जो किसी और नबी से मंसूब नहीं हो सकता। चुनांचे इमाम राज़ी कहते हैं कि :-

वो (मसीह) इस लिए "रूहुल्लाह” कहलाता है कि वो अहले-दुनिया को उनके अदयान में ज़िंदगी बख़्शने वाला है"

और बैज़ावी तहरीर फ़रमाते हैं :-

"वो ऐसी रवा रखता है जो ज़ात और असल के लिहाज़ से बिलावासिता ख़ुदा से सादर है" और या कि वो मुर्दों को ज़िंदा करता है और बनी-आदम के दिलों को हयात बख़्शता है"

हाँ ये "रूहुल्लाह" अब भी साहिबे उलूहियत होने के सबब से दुनिया को ज़िंदा करता और क़ुलूब इन्सानी को हयात बख़्शता है और आज-कल ग़ैर-मामूली तौर से शुमाल व जुनुब और मशरिक़ व मगरिब के लोग वो नई पैदाइश और ज़िंदगी हासिल कर रहे हैं जो फ़क़त ईसा ही से मिलती है इमाम साहिब ने ये लिखते वक़्त ज़रूर इंजील शरीफ़ से सय्यदना ईसा का ये फ़रमान पढ़ा होगा कि :-

“क़ियामत और ज़िंदगी में हूँ और जो मुझ पर ईमान लाता है अगरचे वो मर गया हो तो भी जियेगा”

(युहन्ना 11:25)

फ़िर यह भी मर्क़ूम है कि :-

“पहला आदम जीती जान हुआ और दूसरा आदम (मसीह) ज़िंदगी बख़्शने वाली रूह”

बैज़ावी की तफ़्सीर मसीह के अल्फ़ाज़ से कैसी मुताबिक़त रखती है क्योंकि बैज़ावी और मसीह के अल्फ़ाज़ में फ़र्क़ सिर्फ ये है कि मसीह फ़रमाता है :-

"मैं आया हूँ कि वो ज़िंदगी पाएं और उसे कसरत से हासिल करें"।

ये मालूम करके कि ज़माना-ए-हाल के बाअज़ मुसलमान मसीह की आस्मानी असल को मानते हैं हमें बहुत ख़ुशी है चुनांचे एक बंगाली इस्लामी अख़बार मुसम्मा-बह प्रचारक "पूस 1307 हिज्री में मर्क़ूम है" :-

ईसा महिज़ ज़मीनी शख़्स ना था वो जिस्मानी शहवत से पैदा नहीं हुआ वो आस्मानी रूह है.....ईसा आस्मान के बुलंद तख़्त से आया और ख़ुदा के अहकाम दुनिया में लाकर इस ने नजात की राह दिखाई "।ख़ुदा की "रूह" ज़रूर ख़ुदा की तरह अज़ली है और जब हम क़ुरआन में पढ़ते हैं कि वो ये "रूह मर्यम में फूंकी गई" (सूरह अम्बिया 91 आयत) और बैज़ावी के बयान के मुवाफ़िक़ “ख़ुदा से निकली” तो ज़रूर ये नतीजा निकालना पड़ता है कि ये बुज़ुर्ग हस्ती उलूहियत से ख़ाली नहीं और मर्यम में दाख़िल होने से पेशतर मौजूद थी। क़ुरआन में ईसा ख़ुदा का "अज़ली कलिमा" है और यह सब बातें बाहम पूरी मुताबिक़त रखती हैं। किसी महिज़ इन्सान नबी के हक़ में ऐसे अल्फ़ाज़ और ऐसे बड़े बड़े अल्क़ाब इस्तिमाल नहीं किए जा सकते इनसे निहायत साफ़ तौर से बाइबल शरीफ़ की इस की पूरी तालीम की तरफ़ इशारा मिलता है। जिसमें ईसा ख़ुद इस जलाल का ज़िक्र करते हैं जो वो इब्तिदाए आलम से पेशतर परवरदिगार के साथ रखते थे। चुनांचे ईसा ने दुआ की और फ़रमाया :-

"ए बाप तू मुझे अपने साथ इस जलाल से जो मैं दुनिया की पैदाइश से पेशतर तेरे साथ रखता था जलाली बना दे" (युहन्ना 17:5)

लेकिन ईसा मसीह के अज़ली वजूद पर फ़क़त इंजील ही गवाह नहीं है बल्कि सहफ़-ए-अम्बिया से भी यही शहादत मिलती है । चुनांचे मीकाह नबी आने वाले मसीह का ज़िक्र करते वक़्त यूं कहता है :-

"ए बैतल-लहम अफराताह अगरचे तू यहुदाह के हज़ारों में छोटी है तो भी वोह शख़्स जो मेरे लिए बनी-इस्राइल पर सल्तनत करेगा और जिस का निकलना अय्याम अज़ल से है तुझसे निकलेगा" (मीकाह 5: 3)

पस साफ़ ज़ाहिर है कि मसीह की अज़लियत पर कुतुब मुक़द्दस यहूद भी शाहिद हैं अगरचे यहूदीयों ने बहैसियत-ए-क़ौम महिज़ ज़िद और हिट धर्मी से ईसा को एक नबी नहीं माना।

"रूहुल्लाह" से जो मसीह की उलूहियत का नतीजा निकलता है इस से इन्कार करने की गर्ज़ से बाअज़ मुसलमान मुसन्निफ़ीन बहुत ही अजीब और हिच-पोच दलायल पेश करते हैं मसलन एक हाल का बंगाली मुसलमान लिखता है मसीह इस लिए रूहुल्लाह कहलाता है कि वो ख़ुदा से पैदा किया गया" इस किस्म के दलायल की किसी ज़ी-होश के सामने कुछ हक़ीक़त नहीं है क्या हम सबको ख़ुदा ने पैदा नहीं किया? हम में से कौन अपने आपको "रूहुल्लाह" कहने की ज़ुर्रात कर सकता है ?

अगर"रूहुल्लाह" का मफ़हूम ख़ुदा की मख़्लूक़ रूह हो तो इन्सानी रूह इन्सान की मख़्लूक़ ठहरेगी जो कि लगू महिज़ है। जब मुसलमान सिर्फ ईसा ही को "रूहुल्लाह" के लक़ब से मुलक़्क़ब करते हैं तो साफ़ मालूम होता है कि इस का कुछ ख़ास मतलब है और वो ख़ास माअनों में "रूहुल्लाह" है और इस से इंजील शरीफ़ की पूरी तालीम तक सिर्फ एक क़दम बाक़ी है यानी ये कि वो ख़ुदा का अज़ली बेटा है।

फ़िर यह कहा जाता है कि अगर "रूहुल्लाह" ईसा मसीह की उलूहियत पर दलालत करता है तो क़ुरआन करीम की तालीम के मुवाफ़िक़ आदम और दीगर अम्बिया को साहिबे उलूहियत मानना पड़ेगा क्योंकि क़ुरआन में मर्क़ूम है कि ख़ुदा ने फ़रिश्तों से आदम के हक़ में फ़रमाया कि :-

"जब में इस को पूरे तौर से बना चुकू और इस में अपनी रूह फूंक दूं तो तुम उस के सामने गिर कर उसे सज्दा करो"

हम नहीं समझ सकते हैं कि क़ुरआन की इस आयत से किस तरह आदम की उलूहियत का इक़रार हम पर लाज़िम ठहरता है क्योंकि आदम को इस जगह "रूहुल्लाह" नहीं कहा गया। बल्कि महिज़ इन्सान जिसमें ख़ुदा ने अपनी रूह फूंकी जो कि मुआमला ही दीगर है। क़ुरआन में ईसा की निस्बत कहीं भी ऐसा नहीं लिखा इस किस्म की ज़बान ईसा की माँ मर्यम के हक़ में बेशक इस्तिमाल की गई है। चुनांचे सुरह अम्बिया 91 वीं आयत में मर्कुम है :-

और याद कर उस खातून को जिसने दोशिज़गी को महफूज़ रखा और जिसमे हमने अपनी रूह में से फूंक दिया

अगर इस आयत के बिना पर मसीही लोग मर्यम कि उलुहियत के कायल होते तो मुसलमान कह सकते थे कि आदम के लिए भी ऐसी ज़बान इस्तेमाल कि गई है लिहाज़ा मसीहीयों पर फ़र्ज़ है कि आदम को साहिबे उलूहियत तस्लीम करें। लेकिन ना तो मसीही लोग मर्यम को साहिबे उलूहियत मानते हैं और ना ही क़ुरआन में सिर्फ ये लिखा है कि ख़ुदा ने मसीह में अपनी रूह फूंकी। बल्कि बख़िलाफ़ इस के मुसलमान ख़ुद मसीह को ही रूहुल्लाह कहते हैं इसी तरह से बाइबल शरीफ़ में भी लिखा है कि ख़ुदा ने बाअज़ आदमियों को अपनी रूह इनायत की लेकिन इस से उन को उलूहियत नहीं मिल गई और ना वो रूहुल्लाह बन गए । अगर हम कहें कि जै़द ने एक फ़क़ीर को पाँच रुपय दीए तो क्या कोई इस्तिदलाल करके ये कह सकता है कि “वो फ़क़ीर पाँच रुपये है ?”

पस हम फिर कहते हैं कि लक़ब “रूहुल्लाह” जो मुसलमान मसीह के हक़ में इस्तिमाल करते हैं इस को तमाम अम्बिया से बुज़ुर्ग व बरतर ठहराता है और इसकी उलुहियत फिर भी जिसकी तालीम इंजील शरीफ में बिल्कुल साफ़ है दलालत करता है I

छटा बाब

मसीह अकेला शफ़ाअत कनुंदाह

हम देख चुके हैं कि मसीह के हक़ में इस्लाम कैसी बड़ी शहादत देता है। लेकिन इंजील शरीफ़ की पूरी तालीम के बग़ैर हम इस को ठीक तौर से समझ नहीं सकते क्योंकि इंजील ही में ख़ुदा के अज़ली बेटे का जलाल कामिल तौर से ज़ाहिर किया गया है। क़ुरआन ईसा को एक और बड़े लक़ब से मुलक़्क़ब करता है यानी"हर दो-जहाँ में मुअज़्ज़िज़" कहता है। चुनांचे सूरह इमरान की 46 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

يَا مَرْيَمُ إِنَّ اللّهَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَةٍ مِّنْهُ اسْمُهُ الْمَسِيحُ عِيسَى ابْنُ مَرْيَمَ وَجِيهًا فِي الدُّنْيَا وَالآخِرَةِ

यानी ए मर्यम यक़ीनन ख़ुदा तुझे ख़ुशख़बरी देता है कलिमा की जो इस से है और जिस का नाम मसीह ईसा इब्ने मर्यम है वो दुनिया व आख़रत में वजीहा है I

ऐसे बड़े बड़े अल्क़ाब क़ुरआन में किसी और नबी को नहीं दीए गए । उनसे एक ऐसी ख़ास निस्बत और ताल्लुक़ ज़ाहिर होता है जो ख़ुदा को किसी दूसरे से नहीं बड़े बड़े मशहूर इस्लामी मुफ़स्सिरीन-ए-क़ुरआन ने इस हक़ीक़त को पहचाना है वो मज़कूरा बाला आयत से मालूम करते हैं कि ईसा मसीह गुनेहगारों की शफ़ाअत करेगा।

चुनांचे बैज़ावी इस आयत की तफ़्सीर मैं कहता है :-

الوجا ھتہ فی الدنیا النبوتہ وفی الاخرتہ الشفاعتہ

दुनिया में नबुव्वत और आख़िरत में शफ़ाअत वजाहत है I

एक और मुफ़स्सिर ज़मखशरी अल-कशाफ़ में लिखता है :-

“इस दुनिया में नबुव्वत और तमाम लोगों पर तक़द्दुम और आख़िरत में शफ़ाअत व बहिश्त में आला दर्जा हासिल करने का नाम "वजाहत" है I”

दीगर अम्बिया पर मसीह की फ़ज़ीलत की तालीम भी बाइबल शरीफ़ में दी गई है चुनांचे इब्रानियों के तसीरे बाब की तीसरी आयत में मर्क़ूम है :-

बल्कि वो (मसीह) मूसा से इस क़दर ज़्यादा इज़्ज़त के लायक़ समझा गया जिस क़दर घर का बनाने वाला घर से ज़्यादा इज़्ज़तदार होताहै......और मूसा तो उस के सारे घर में ख़ादिम की तरह दयानतदार रहा ताकि आइन्दा बयान होने वाली बातों की गवाही दे लेकिन मसीह बेटे की तरह उस के घर का मुख़तार है"

बैज़ावी और ज़मखशरी लिखते हैं कि क़ुरआन ये तालीम देता है कि आख़िरत में मसीह गुनेह्गारों का शफ़ी होगा।

क्या कोई मुसलमान तमाम क़ुरआन में एक आयत भी बता सकता है कि जिसमें ये साफ़ बात मर्क़ूम हो कि क़ियामत के रोज़ हज़रत मुहम्मद या कोई और नबी शफ़ाअत कनुन्दा के तौर पर मुमताज़ होंगे ? बेशक बाज़ मुसलमान कहते हैं कि मुहम्मद साहब शफ़ाअत करेंगे और सूरह बनी-इस्राइल की 80 वीं आयत को इस की दलील पेश करते हैं इस में यूँ मर्क़ूम है :-

"शायद तेरा ख़ुदावंद तुझे एक आला रुत्बे पर सर्फ़राज़ करेगा"

इस आयत की इबारत ऐसी है कि कुछ साफ़ मतलब नहीं निकल सकता और बहुत से मोअतबर मुसलमान लिखते हैं कि इस में शफ़ाअत की तरफ़ कुछ भी इशारा नहीं है। हम्बली इस आयत का मतलब ये बयान करते हैं कि हज़रत मुहम्मद को तख्त-ए-ईलाही से क़रीब मुक़ाम का वाअदा दिया गया है ।

लेकिन क़ुरआन ख़ुद तमाम शकूक को रफ़ा करता है क्योंकि क़ुरआन में साफ़ लिखा है कि हज़रत मुहम्मद गुनेह्गारों की शफ़ाअत नहीं कर सकते । सूरह तौबा की 81 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

اسْتَغْفِرْ لَهُمْ أَوْ لاَ تَسْتَغْفِرْ لَهُمْ إِن تَسْتَغْفِرْ لَهُمْ سَبْعِينَ مَرَّةً فَلَن يَغْفِرَ اللّهُ لَهُمْ

तू उन के लिए मग़फ़िरत मांग या ना मांग अगर तू (ए मुहम्मद) उन के लिए सत्तर बार मग़फ़िरत मांगे तो भी अल्लाह उन को हरगिज़ माफ़ नहीं करेगा ।

फिर क़ुरआन में ये भी लिखा है कि जब अरबों ने लड़ाई के लिए हज़रत मुहम्मद के साथ जाने से इन्कार किया और बाद उस के पास आकर कहा कि हमारे लिए "मग़फ़िरत मांग" तो इस ने क़ुरआन के मुवाफ़िक़ यूं जवाब दिया कि :-

فَمَن يَمْلِكُ لَكُم مِّنَ اللَّهِ شَيْئًا إِنْ أَرَادَ بِكُمْ ضَرًّا أَوْ أَرَادَ بِكُمْ نَفْعًا

यानी कौन तुम्हारे लिए ख़ुदा से कुछ हासिल कर सकता है? ख्वाह वो तुमको दुख में डाले या नफ़ा पहुंचाने पर रज़ामंद हो (सूरह फ़तह आयत 11)

मुंदरजा-बाला आयतों में से पहली में रियाकारों का ज़िक्र है और दूसरी में मुसलमान मुख़ातब हैं। लिहाज़ा साफ़ ज़ाहिर है कि हज़रत मुहम्मद ना मोमिनों के शफ़ी हो सकते हैं ना काफ़िरों के बहुत से मुसलमान इस बात को मानते हैं कि मसलन फ़िर्क़ा ख़ारजिया के मुसलमान हज़रत मुहम्मद की शफ़ाअत से साफ़ इंकारी हैं। मोतज़िला कहते हैं कि हज़रत मुहम्मद बड़े बड़े गुनाहों वालों की शफ़ाअत नहीं कर सकेंगे (देखो हिदायत अलमुस्लिमीन 209 वग़ैरा) पस ये बात अज़हर-मिनश्शम्स है कि मुसलमान हज़रत मुहम्मद से हरगिज़ शफ़ाअत की उम्मीद नहीं रख सकते। बख़िलाफ़ उस के क़ुरआन ये तालीम देता है कि ईसा शफाअत करेगा और यह तालीम इंजील शरीफ़ में तशरीहन मुंदरज है और साफ़ लिखा है कि सय्यदना ईसा गुनेह्गारों का बड़ा शफ़ाअत कनुंदा है।

फिर क़ुरआन से ये भी साबित होता है कि शफ़ाअत की ज़रूरत अब है क़ियामत के रोज़ तो "गया वक़्त फिर हाथ आता नहीं" की सी मिसाल होगी चुनांचे सूरह मर्यम की 90 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

لَا يَمْلِكُونَ الشَّفَاعَةَ إِلَّا مَنِ اتَّخَذَ عِندَ الرَّحْمَنِ عَهْدًا

कोई शफ़ाअत नहीं कर सकेगा सिवाए उस के जिसने ख़ुदा से अह्द लिया है।

इलावा-बरीं सूरह निसा की 17 वीं आयत में मर्क़ूम है कि :-

ऐसे लोगों की तौबा क़बूल नहीं होती जो बुरे काम करते जाते हैं यहां तक कि जब किसी ऐसे की मौत आ जाती है तो कहता है अब मैंने तौबा की और ना उनकी जो कुफ़्र मैं मरते हैं ये वो लोग हैं जिनके लिए हमने दर्दनाक अज़ाब तैयार किया है।

सूरह ज़ुमर में लिखा है :-

जिस पर अज़ाब का फ़तवा लग चुका और जो आग में पड़ गया क्या तू (ए मुहम्मद) उस को छुड़ा लेगा ?

क़ुरआन की ये तालीम ऐसी है कि हर एक ज़ी फ़हम और बाहोश आदमी उस को बख़ूबी समझ सकता है क्योंकि ये बिल्कुल साफ़ बात है कि अगर कोई शख़्स मरने तक यानी अपनी सारी उम्र गुनाह ही करता रहा है या दूसरे अल्फ़ाज़ में यूं कहें कि ख़ुदा से अह्द ना करे तो क़ियामत के रोज़ कोई शफ़ाअत उस को गुनाह की वाजिबी सज़ा से बचा ना सकेगी। पस इन्सान इस अम्र का मुहताज है कि इसी ज़िंदगी में इस का कोई ज़िंदा शफ़ाअत कनुंदा हो जिसकी मदद और क़ुदरत से ताक़त व फ़ज़ल हासिल करके अभी से रास्तबाज़ी और नेकोकारी की राहों में चलने लगे पस हम पूछते हैं कि वो ज़िंदा शफ़ाअत कनुंदा कौन हैं जिससे मदद पाकर हम गुनाह से महफ़ूज़ रहें और ख़ुदा की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ ज़िंदगी बसर करें?

हज़रत मुहम्मद तो अपनी क़ब्र में पड़े हैं और रोज़ क़ियामत तक वहीं पड़े रहेंगे हत्ता कि नर्सिंगा फूँका जाएगा और मुर्दे उठाए जाऐंगे लिहाज़ा अगर मान भी लिया जाये कि वो उस वक़्त शफ़ाअत कर सकेंगे तो क्या हासिल क्योंकि शफ़ाअत का तो मौक़ा ही नहीं रहेगा। क़ुरआन और इंजील की शहादत ईसा के हक़ में कैसी मुख़्तलिफ़ है "वो आलम आख़िरत में मुअज़्ज़िज़ है" क़ुरआन उस के हक़ में यूं कहता है :-

بل رفعہ اللہ الیہ

ख़ुदा ने उसे अपने पास ऊपर उठा लिया

तमाम मुसलमान ये मानते हैं कि मसीह आस्मान पर ज़िंदा है इस आयत से ये भी साफ़ ज़ाहिर है कि सय्यदना मसीह हज़रत मुहम्मद से बहुत ही बढ़कर और बुज़ुर्ग व बरतर है क्योंकि आस्मान पर ज़िंदा है। बड़े बड़े मुफ़स्सिरीन क़ुरआन ने इस हक़ीक़त पर शहादत दी कि सय्यदना मसीह आस्मान पर ज़िंदा और अपने लोगों के लिए शफ़ाअत करता है। चुनांचे सूरह यासीन में हबीब नज्जार की हिकायत पाई जाती है । बैज़ावी उस के बारे में लिखता है कि :-

"पतरस ने एक सात दिन के मुर्दा लड़के को ज़िंदा किया जब इस से पूछा गया कि तूने आस्मान पर क्या देखा तो लड़के ने जवाब दिया कि मैंने ईसा मसीह को आस्मान पर अपने तीन शागिर्दों के लिए (यानी पतरस और इस साथी जो क़ैद में थे) सिफ़ारिश करते देखा है"।

इस अहम मज़मून पर इंजील शरीफ़ की तालीम बहुत ही साफ़ है और इस अम्र में ज़रा भी शक नहीं छोड़ती कि ईसा आस्मान पर ज़िंदा है और उन सबकी जो इस पर भरोसा रखते हैं सिफ़ारिश करता है चुनांचे लिखा है :-

ईसा जो ख़ुदा की दाहिनी तरफ़ है और हमारी शफ़ाअत भी करता है (रोमीयों 8:34)

और कि वो (ईसा) उनकी शफ़ाअत के लिए हमेशा जीता रहेगा (इब्रानियों 7: 25)

मसीह आस्मान ही में दाखिल हुवा ताकि अब खुदा के रूबरू हमारी खातिर हाज़िर हो (इब्रानियों 9: 24)

पस इस से हम बख़ूबी समझ सकते हैं कि गुनेह्गारों की उम्मीद का लंगर सिर्फ़ मसीह ही है यानी वही ज़िंदा शफ़ाअत कनुंदा है जो हम को हमारी इस बेकसी और लाचारी की हालत में मदद दे सकता है। ए अज़ीज़ बिरादरान अहले इस्लाम आप क्यों एक मुर्दा शख़्स पर भरोसा किए बैठे हैं और क्यों बेफ़ाइदा ये ख़्याल करते हैं कि क़ियामत के दिन वो शफ़ाअत करेगा? इस से पेशतर आपका अंजाम मुक़र्रर हो चुकेगा और उस वक़्त कोई शफ़ाअत कुछ काम ना आएगी हमें तो शफ़ाअत की अब ज़रूरत है। और जब बाइबल व क़ुरआन दोनों से सिर्फ ईसा मसीह ही शफ़ाअत करने वाला साबित होता है तो क्या ये दानाई की बात नहीं होगी कि हम भी इसी पर भरोसा करें?

शफ़ाअत के मुताल्लिक़ एक और काबिल-ए-ज़िक्र बात येह बाक़ी है कि शफ़ाअत कनुन्दा बेगुनाह होना चाहिए क्योंकि कोई गुनेहगार किसी दूसरे गुनेहगार की शफ़ाअत नहीं कर सकता हम ये साबित करेंगे कि अज़रुए बाइबल व क़ुरआन सय्यदना ईसा मसीह कामिल तौर से बेगुनाह था लिहाज़ा वो शफ़ाअत कर सकता है। चुनांचे इंजील शरीफ़ में मर्क़ूम है:-

अगर कोई गुनाह करे तो बाप के पास हमारा वकील मौजूद है “यानी ईसा मसीह रास्तबाज़” (1 युहन्ना 2:1)

इस आयत में वो दो बड़ी बातें जिन पर सच्ची शफ़ाअत का दार-ओ-मदार होना चाहिए निहायत साफ़-तौर से दिखाई गई हैं यानी (1) मसीह हमारा ज़िंदा वकील है और (2) वो बिल्कुल बेगुनाह है बख़िलाफ़ उस के अज़रूए क़ुरआन व अहादीस हज़रत मुहम्मद अपने गुनाहों की माफ़ी मांगते हुए नज़र आते हैं। अब हम साफ़ देखते हैं कि ईसा का "दुनिया व आख़िरत में साहब-ए-इज़्ज़त होना कैसा अज़हर-मिनश्शम्स है क्या ये बात बिल्कुल साफ़ नहीं कि ईसा इस लिहाज़ से भी तमाम दीगर अम्बिया से बुज़ुर्ग व बरतर नज़र आता है ? क्योंकि वो ज़िंदा और बेगुनाह शफ़ाअत कनुंदा है और जो इस पर भरोसा करते हैं अब उन के लिए आस्मान पर बैठा शफ़ाअत करता है।

सातवाँ बाब

इस्लाम का बेगुनाह नबी

जैसा हम पहले भी इशारतन ज़िक्र कर आए हैं कि ईसा मसीह को इस्लाम ने अन्नबी मासूम की हैसियत में नूह, इब्राहीम, मूसा ,दाऊद और तमाम दीगर अम्बिया से बुज़ुर्ग व बरतर पेश किया है। इस्लाम ने इब्ने मर्यम को जो मुअज्जज़ अल्क़ाब दीए हैं उनका ख़ुलासा उस की शान के बयान में इस के "मासूम नबी" होने में मिलता है। क़ुरआन में लिखा है जिब्राईल फ़रिश्ता ने आकर मर्यम से यूं कहा :-

إِنَّمَا أَنَا رَسُولُ رَبِّكِ لِأَهَبَ لَكِ غُلَامًا زَكِيًّا

मैं तेरे ख़ुदा की तरफ़ से तुझे एक पाकीज़ा बेटा देने आया हूँ I

देखो सूरह मर्यम 20 वीं आयत। फिर सूरह इमरान की 36 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

وَإِنِّي سَمَّيْتُهَا مَرْيَمَ وِإِنِّي أُعِيذُهَا بِكَ وَذُرِّيَّتَهَا مِنَ الشَّيْطَانِ الرَّجِيمِ

मैंने इस का नाम मर्यम रखा है और मैं इस को और इस की औलाद को ख़ुदा के सपुर्द करती हूँ। कि वो शैतान रजीम से महफ़ूज़ रहें I

हम देखते हैं कि इन मक़तबात के मुताबिक़ ईसा मसीह कुतुब इस्लाम में हर जगह बिल्कुल बेगुनाह बताया गया है । क़ुरआन व अहादीस में कहीं भी इस का कोई गुनाह मज़कूर नहीं है। हालाँकि बख़िलाफ़ उस के बाइबल और क़ुरआन दोनों में दीगर अम्बिया के गुनाहों पर बकसरत इशारात पाए जाते हैं और क़ुरआन में ख़ुद हज़रत मुहम्मद को बार-बार अपने गुनाहों की मग़फ़िरत मांगने का हुक्म मिलता है।

चुनांचे जे़ल में हम मिसाल के तौर पर क़ुरआन से चंद आयतें नक़ल करते हैं सूरह आराफ़ की 23 वीं आयत और 24 वीं आयत में आदम के गुनाह और इस की माफ़ी मांगने का ज़िक्र यूँ मुंदरज है :-

قَالاَ رَبَّنَا ظَلَمْنَا أَنفُسَنَا وَإِن لَّمْ تَغْفِرْ لَنَا وَتَرْحَمْنَا لَنَكُونَنَّ مِنَ الْخَاسِرِينَ

पस शैतान ने फ़रेब देकर उन को गिरा दिया......और उन्होंने कहा ए हमारे रब हमने ज़ुल्म किया अपनी जानों पर अगर तू हमको माफ़ ना करे और हम पर रहम ना फ़र्मा दे तो अलबत्ता हम खासीरीन में से हो जाएंगे I

इसी तरह से सूरह अम्बिया में इब्राहीम का गुनाह मज़कूर है लिखा है कि इब्राहीम ने बुत परस्तों के बहुत से बुत तोड़ डाले लेकिन सबसे बड़े को साबित रहने दिया। बाद में जब बुत परस्तों ने इब्राहीम को इस फे़अल का मुर्तक़िब क़रार दिया तो इस ने साफ़ इन्कार किया और कहा कि सबसे बड़े बुत ने छोटों को तोड़ डाला दीगर मुक़ामात में इस की मग़फ़िरत की दुआएं दर्ज हैं।

मूसाभी क़ुरआन में गुनेहगार की हैसियत में पेश किया गया चुनांचे सूरह क़िसस में मर्क़ूम है कि एक मिस्री को मार डालने के बाद मूसा ने यूं दुआ की :-

رَبِّ اِنِّىْ ظَلَمْتُ نَفْسِيْ فَاغْفِرْ لِيْ فَغَفَرَ لَهٗ

ए मेरे रब तहक़ीक़ मैंने अपनी जान पर ज़ुल्म किया मुझे माफ़ कर दे पस उसने उसे माफ़ कर दिया I

दाऊद ने गुनाह किया और अपने गुनाह की माफ़ी चाही। चुनांचे सूरह साद की 23 और 24 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

وَظَنَّ دَاوُودُ أَنَّمَا فَتَنَّاهُ فَاسْتَغْفَرَ رَبَّهُ وَخَرَّ رَاكِعًا وَأَنَابَ فَغَفَرْنَا لَهُ

और दाऊद ने मालूम किया कि हमने उसको आज़माया और इस ने अपने रब से मग़फ़िरत मांगी और गिर कर सज्दा किया और तौबा की पस हमने उसको माफ़ कर दिया।

हज़रत मुहम्मद को भी अपने गुनाहों की माफ़ी मांगने के लिए क़ुरआन में बार-बार हुक्म आया है। चुनांचे सूरह मुहम्मद की 21 वीं आयत में यूं मर्क़ूम है :-

وَاسْتَغْفِرْ لِذَنبِكَ وَلِلْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ

ए मुहम्मद अपने गुनाहों के लिए मग़फ़िरत मांग और मोमिन मर्द व ज़न के लिए भी दुआ-ए-मग़्फ़िरत कर I

फिर सूरह फ़तह की पहली और दूसरी आयात में यूं लिखा है :-

لِيَغْفِرَ لَكَ اللَّهُ مَا تَقَدَّمَ مِن ذَنبِكَ وَمَا تَأَخَّرَ

ताकि ख़ुदा तेरे अगले पिछले गुनाह माफ़ करे I

फिर सूरह अहज़ाब की 37 वीं आयत में हज़रत मुहम्मद के एक ख़ास गुनाह का ज़िक्र पाया जाता है चुनांचे मर्कुम है :-

وَتُخْفِي فِي نَفْسِكَ مَا اللَّهُ مُبْدِيهِ وَتَخْشَى النَّاسَ وَاللَّهُ أَحَقُّ أَن تَخْشَاهُ

और ए मुहम्मद तू अपने दिल में छुपाता था वो बात जिसको ख़ुदा ज़ाहिर करना चाहता था और तू लोगों से डरता था। हालाँकि तुझे ख़ुदा से ज़्यादा डरना चाहिए था।

हम दिखा चुके हैं किअज़रूए क़ुरआन आदम, मूसा, दाऊद और हज़रत मुहम्मद सब के सब गुनेहगार थे और मज़ीद तहक़ीक़ात से मालूम होगा कि उन्होंने मंसब, रिसालत पर मामूर होने के बाद गुनाह किए लेकिन यह एक हैरत-अफ़्ज़ा हक़ीक़त है कि बाइबल या क़ुरआन में कहीं भी ईसा "कलिमतुल्लाह"का कोई गुनाह मज़कूरा नहीं इस लिहाज़ से भी तमाम अम्बिया पर ईसा की फ़ज़ीलत साफ़ नज़र आती है अहादीस की शहादत भी ऐसी ही है। क्योंकि अगरचे उनमें बार-बार मज़कूर है कि हज़रत मुहम्मद अपने गुनाहों की मग़फ़िरत मांगता था तो भी बेगुनाह ईसा के हक़ में कहीं ऐसे......अल्फ़ाज़ नहीं पाए जाते बल्कि बख़िलाफ़ उस के मिश्कात और दीगर कुतुब अहादीस में जो हदीसें उस की पैदाइश के मुताल्लिक़ हैं उनसे साफ़ मालूम होता है कि वो पैदाइश ही से मासूम और बेगुनाह रखा गया।

मसीह की बेऐब पैदाइश के बारे में मुस्लिम की एक हदीस में यूं लिखा है कि :-

सिवाए मर्यम और इस के बेटे के हर एक इब्ने आदम को पैदाइश के वक़्त शैतान छू लेता है I

इमाम ग़ज़ाली से एक हदीस यूं मर्वी है कि :-

जब ईसा इब्ने मर्यम अलैहिस्सलाम तव्वुलुद हुआ तो शैतान के तमाम कारगुज़ारों ने आकर शैतान से कहा कि सुबह के वक़्त तमाम बुत सर-निगूँ थे। शैतान उस का सबब बिल्कुल ना समझ सका जब तक कि उसने दुनिया में फिर कर ये मालूम ना कर लिया कि अभी ईसा पैदा हुआ है और फ़रिश्तगान उस के गिर्द उस की पैदाइश पर ख़ुशीयां मना रहे हैं पस उसने वापिस आकर अपने शयातीन को बताया कि कल एक नबी पैदा हुआ था। इस से पेशतर हर एक इन्सान पर मैं हाज़िर होता था लेकिन इस की पैदाइश के मौक़ा में हाज़िर ना था ।

मसीह की बेगुनाही पर क़ुरआन और अहादीस की शहादत इंजील शरीफ़ से बिल्कुल मुताबिक़त रखती है क्योंकि इंजील इस से भी साफ़ अल्फ़ाज़ में "मसीह को मासूम और बेगुनाह करती है चुनांचे मर्क़ूम है :-

“इस में गुनाह ना था” (1 युहन्ना 3:5)

“उसने बिल्कुल कोई गुनाह ना किया”(पतरस)

मसीह ने ख़ुद अपने चलन की पाकीज़गी पर ज़ोर दे कर अपने दुश्मनों से कहा कि :-

"तुम में से कौन मुझ पर गुनाह साबित करता है?" (युहन्ना 8:46)

इस मज़मून की मज़ीद तहक़ीक़ात की अशद ज़रूरत पर हम बहुत कुछ कह चुके हैं और नाज़रीन से इलतिमास है कि आप एक ऐसे नतीजे पर पहुंचने की हत्त-उल-मक़दूर पूरी कोशिश करें जिससे इस ज़िंदगी में आपको दिली इतमीनान और आइन्दा ज़िन्दगी के बारे में कामिल उम्मीद हासिल हो। अगर आप मुसलमान हैं तो ज़रूर आप शफ़ाअत कनुंदा की ज़रूरत को समझते हैं और ग़ालिबन आप ख़्याल करते हैं कि हज़रत मुहम्मद आपकी शफाअत करके आपके गुनाहों को गुनाहों की सज़ा से बचा लेंगे लेकिन अज़ीज़-ए-मन क्या गुनेहगार दूसरे गुनेहगार की शफ़ाअत कर सकता है ?

ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता पस इस हालत में क्या इस पर भरोसा करना अक्लमंदी नहीं है जिसको बाइबल और क़ुरआन व अहादीस कामिल-तौर पर बेगुनाह क़रार देते हैं ?

फिर हम ये भी मालूम कर चुके हैं कि शफ़ाअत की अभी ज़रूरत है ईसा चूँकि आस्मान पर ज़िंदा है इस लिए वो शफ़ाअत कर सकता है। और चूँकि वो बेगुनाह है इस लिए वो शफ़ाअत करने का इख़्तियार रखता है।

आठवां बाब

मसीह मोजिज़ा कार

ख़त्म करने से पहले एक अम्र तवज्जोह तलब मालूम होता है ये अमरोह आला रुत्बा है जो क़ुरआन ने बलिहाज़ मोजिज़ात-ए-ईसा को दिया है क़ुरआन के कई मुक़ामात पर ईसा के मोअजज़ात मज़कूर हैं। चुनांचे सूरह माइदा की 109 वीं और 110 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

إِذْ قَالَ اللّهُ يَا عِيسى ابْنَ مَرْيَمَ اذْكُرْ نِعْمَتِي عَلَيْكَ وَعَلَى وَالِدَتِكَ إِذْ أَيَّدتُّكَ بِرُوحِ الْقُدُسِ تُكَلِّمُ النَّاسَ فِي الْمَهْدِ وَكَهْلاً وَإِذْ عَلَّمْتُكَ الْكِتَابَ وَالْحِكْمَةَ وَالتَّوْرَاةَ وَالإِنجِيلَ وَإِذْ تَخْلُقُ مِنَ الطِّينِ كَهَيْئَةِ الطَّيْرِ بِإِذْنِي فَتَنفُخُ فِيهَا فَتَكُونُ طَيْرًا بِإِذْنِي وَتُبْرِىءُ الأَكْمَهَ وَالأَبْرَصَ بِإِذْنِي وَإِذْ تُخْرِجُ الْمَوتَى بِإِذْنِي

जब कहा अल्लाह ने ए ईसा मर्यम के बेटे याद कर मेरा एहसान अपने ऊपर और अपनी माँ पर जब मदद दी मैंने रूह पाक से तू कलाम करता था लोगों से गोद में और अधेड़ उम्र में और सिखाई मैंने तुझको किताब और पुख़्ता बातें और तौरात और इंजील और जब तू मिट्टी से जानवर की सूरत बनाता था मेरे हुक्म से और फिर इस में दम फूँकता था पस वो मेरे हुक्म से जानवर हो जाता था और मादर-ज़ाद अंधे को चंगा करता था और कौड़ी को मेरे हुक्म से (शिफ़ा देता था) और जब मुर्दे को मेरे हुक्म से निकाल खड़ा करता था ।

क़ुरआन की मुंदरजा-बाला आयात में ईसा मसीह के मोअजज़ात का बयान अज़-बस हैरत-अफ़्ज़ा है। क्योंकि उनमें ना सिर्फ यही लिखा है कि वो तरह तरह की बीमारीयों को दूर करता और मुर्दों को ज़िंदा करता था। बल्कि ये भी साफ़ लिखा है कि इस ने एक परिंदा ख़ल्क़ किया I

बाइबल और क़ुरआन में कहीं भी ये नहीं लिखा कि किसी और नबी ने ख़ल्क़ करने के काम में हिस्सा लिया। अगरचे दोनों किताबों में बहुत से नबियों के तरह तरह के मोअजज़ात बयान किए गए हैं ईसा के इस मोजिज़ा के बयान में क़ुरआन लफ्ज़ "ख़ल्क़" इस्तिमाल करता है जोकि ख़ुदा के दुनिया को पैदा करने के बयान में इस्तिमाल किया गया है कि क़ुरआन के हर एक साहिब फ़हम पढ़ने वाले को ये पढ़ कर हैरत होनी चाहिए क्योंकि इस बयान से तमाम अम्बिया पर ईसा की लाइन्तहा फ़ज़ीलत साबित होती है।

शायद कोई ये कहे कि क़ुरआन की मुंदरजा बाला आयात में सिर्फ ये लिखा है कि ईसा ने ख़ुदा के हुक्म से एक परिंदा ख़ल्क़ किया पस ख़ल्क़ करने की ताक़त मसीह की अपनी ताक़त ना थी। बिलफ़र्ज़ अगर हम इस बात को यूंही मान भी लें तो तोभी ये बात बिल्कुल सच्च है कि किसी और नबी के हक़ में ऐसे अल्फ़ाज़ इस्तिमाल नहीं किए गए ईसा की बुजु़र्गी व बरतरी और सब अम्बिया पर फ़ज़ीलत बदस्तूर क़ायम रहती है इलावा बरीं एक तरह से क़ुरआन की ये शहादत इंजील से मुताबिक़त रखती है। इंजील में मर्क़ूम है कि ईसा सब कुछ ख़ुदा की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ करता है चुनांचे ईसा ने ख़ुद कहा :-

"में अपनी तरफ़ से कुछ नहीं करता बल्कि जिस तरह बाप ने मुझे सिखाया" इसी तरह ये बातें कहता हूँ" (युहन्ना 8:28)

साथ ही इंजील हमें ये भी बताती है कि ईसा अपने आप में मोअजज़ात की ताक़त रखता था। लिहाज़ा वो तमाम दीगर अम्बिया से निराला और आला व बाला है वो फ़रमाता है :-

"मैं अपनी जान देता हूँ ताकि उसे फिर ले लूं। कोई उसे मुझसे छीनता नहीं बल्कि में उसे आप देता हूँ मुझे उस के देने का भी इख़्तियार है और इस के फिर लेने का भी इख़्तियार है" (युहन्ना 10:17 ता 18)

इंजील शरीफ़ में ईसा के और भी बहुत से मोअजज़े मुंदरज हैं मसलन बीमारों को चंगा करना। पानी पर चलना और मुर्दों को ज़िंदा करना वग़ैरा और उनसे उनके अमल में लाने का मक़सद भी मालूम होता है । चुनांचे ईसा ख़ुद फ़रमाते हैं कि इस के मोअजज़ात का एक ख़ास मक़सद ये था कि वो उस के मिंजानिब-अल्लाह होने पर मुहर हों। एक मौक़ा पर वो अपने मोअजज़ात की तरफ़ इशारा करके लोगों से कहता है कि :-

"जो काम बाप ने मुझे पूरे करने को दिए यानी ये काम जो मैं करता हूँ वो मेरे गवाह हैं"। (युहन्ना 5:36)

हज़रत मुहम्मद ने भी इसी भारी हक़ीक़त की तालीम दी। चुनांचे मुस्लिम की एक हदीस में जिसका रावी अबू हुरैरा है लिखा है कि हज़रत मुहम्मद ने कहा :-

مامن الا بنیاوالااعطی من الایات مامثلہ امن علیہ

हर एक नबी को मोअजज़े दीए गए हैं ताकि लोग उस पर ईमान लाएं I

इस्लामी फ़िक़्ह की किताबों में भी यही सच्चाई सिखाई जाती है चुनांचे इमाम गज़ाली साफ़ कहता है। कि नबी की रिसालत का सबूत ये है कि वो मोअजज़े दिखा सकता हो।

یعرف صدق النبی بالمجزہ

अक़्ल इस बात पर शहादत देती है कि नए अह्दनामे के लिए जो नया इल्हाम या नई शरीयत लेकर आता है इसे शवाहिद की ज़रूरत है और अगर ईसा मसीह ऐसे निशान और सबूत ना दिखाता तो लोग तबअन उस की रिसालत पर शक लाते ।

इसी तरह से जब मूसा को तौरात मिली तो उसने भी बहुत से मोअजज़े दिखाए ताकि उस की रिसालत पर बैनदलील हो उनमें से बाअज़ क़ुरआन में मुंदरज हैं। बेशक बाअज़ नबियों ने कोई मोजिज़ा नहीं दिखाया मसलन युहन्ना बपतिस्मा देने वाला लेकिन इस का सबब साफ़ ये है कि युहन्ना बपतिस्मा देने वाला मूसा और मसीह की तरह कोई नई शरीयत नहीं लाया। वो सिर्फ़ मसीह का पेशरू और राह दुरुस्त करने वाला था। चुनांचे जब यहूदीयों ने युहन्ना से पूछा तू कौन है तो इस का जवाब इंजील में यूं मर्क़ूम है :-

मैं तो मसीह नहीं हूँ.....मैं ब्याबान में एक पुकारने वाले की आवाज़ हूँ कि तुम ख़ुदावंद की राह को सीधा करो.....तुम्हारे दर्मियान एक ऐसा शख़्स खड़ा है। जिसे तुम नहीं जानते यानी मेरे बाद का आने वाला जिसकी जूती का तस्मा भी मैं खोलने के लायक़ नहीं हूँ......देखो ख़ुदा का बर्रा जो जहान का गुनाह उठाले जाता है (युहन्ना 1:20-30)

युहन्ना कोई नई शरीयत नहीं लाया था। लिहाज़ा इसको मोअजज़ात की शहादत की ज़रूरत ना थी। लेकिन मसीह ने आकर इंजील सुनाई और बहुत से हैरत-ख़ेज़ मोअजज़े दिखाए ताकि लोग इस पर ईमान लाएं "इन्ही कामों की ख़ातिर" ।

इस अम्र पर सोचने से एक और क़ाबिल ए ग़ोर बात पेश आती है कि अगर हज़रत मुहम्मद ख़ुदा की तरफ़ से नई शरीयत और नए इल्हाम के साथ आए और जिस से बाअज़ मुसलामानों के ख़्याल के मुताबिक़ साबिक़ा इल्हाम और शरीयत की तंसीख़ हो गई तो अज़-हद ज़रूरी था कि मोअजज़े दिखाते ताकि उनके मिंजानिब-अल्लाह होने का सबूत मिलता। बेशक अहादीस में तो बहुत से मोअजज़े मुंदरज हैं लेकिन ये हदीसें हज़रत मुहम्मद की मौत से बहुत अरसा बाद की लिखी हुई हैं और बाहम मुतज़ाद और ग़ैर-मोअतबर हैं।

हज़रत मुहम्मद ने यूं कहा था कि जब कभी तुम मेरे हक़ में कुछ सुनो तो इस किताब को देखो जो मैं तुम्हारे साथ छोड़े जाता हूँ। अगर जो कुछ तुमने मेरे करने या कहने की निस्बत सुना है। इस में मज़कूर हुआ और इस के मुताबिक़ हो तो सच्च वर्ना वो बात जो मेरे करने या कहने की निस्बत बयान की गई है। झूट है में इस से बरी हूँ ना मैंने कभी उसे कहा और किया ।

अब मुनासिब है कि हज़रत मुहम्मद के इस फ़रमान के मुताबिक़ क़ुरआन देखें कि आया वो हज़रत मुहम्मद के मोअजज़ात पर शहादत देता है या नहीं। क़ुरआन की शहादत बिल्कुल साफ़ है और इस से ज़ाहिर होता है कि हज़रत मुहम्मद ने हमेशा मोजिज़ा दिखाने से इन्कार और अपने अजुज़ का इक़रार किया ।

क़ुरआन में इस अजुज़ व इन्कार के सबूत में बहुत सी आयात मुंदरज हैं लेकिन हम सिर्फ दो तीन से इस अम्र की तशरीह करेंगे कि इस से ना सिर्फ यही बात पूरे तौर से साबित होगी कि मोअजज़ात के लिहाज़ से हज़रत मुहम्मद मसीह से अज़हद कमतर हैं बल्कि उनका मुर्सल मिन-उल्लाह होने और नया इल्हाम व आखिरी शरियत लाने का दावा भी अज़बस मशकूक ठहरेगा ।

क़ुरआन से थोड़ी सी वाक़फ़ीयत यह बता देगी कि अरबों ने बार-बार हज़रत मुहम्मद से उन की नबुव्वत के सबूत में मोजिज़ा तलब किया लेकिन आपका जवाब हमेशा यही था कि मैं महिज़ एक वाइज़ हूँ और तुम्हारी ख़ाहिश के मुवाफ़िक़ मोजिज़ा दिखाने की क़ुदरत नहीं रखता चुनांचे सूरह रअद की 8 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

وَيَقُولُ الَّذِينَ كَفَرُواْ لَوْلآ أُنزِلَ عَلَيْهِ آيَةٌ مِّن رَّبِّهِ إِنَّمَا أَنتَ مُنذِرٌ

काफ़िर कहते हैं कि ख़ुदा की तरफ़ से कोई निशान उस के पास क्यों नहीं भेजा गया? तू तो महिज़ एक वाइज़ है।

फिर सूरह अन्कबूत की 139 वीं आयत में यूं लिखा है :-

وَقَالُوا لَوْلَا أُنزِلَ عَلَيْهِ آيَاتٌ مِّن رَّبِّهِ قُلْ إِنَّمَا الْآيَاتُ عِندَ اللَّهِ وَإِنَّمَا أَنَا نَذِيرٌ مُّبِينٌ

उन्होंने कहा उस के रब की तरफ़ से कोई निशान उस के पास क्यों नहीं भेजा गया ? तू कह निशान सिर्फ़ अल्लाह के पास हैं और मैं महिज़ एक साफ़ गो वाईज़ हूँ।

फिर सूरह बनी-इस्राइल में और भी साफ़ साफ़ बतलाया गया है कि हज़रत मुहम्मद ने मोअजज़ात क्यों ना दिखाये । चुनांचे 61 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

وَمَا مَنَعَنَا أَن نُّرْسِلَ بِالآيَاتِ إِلاَّ أَن كَذَّبَ بِهَا الأَوَّلُونَ

किसी चीज़ ने हमको इस से नहीं रोका कि तुझको निशानों के साथ भेजते सिवाए उस के कि पहली क़ौमों ने उनको झुठलाया।

इन आयात से बिल्कुल अज़हर-मिनश्शम्स है कि हज़रत मुहम्मद ने मोजिज़ा दिखाने से साफ़ इन्कार किया और अपने अजुज़ का इक़रार किया। आपने हमेशा ये फ़रमाया कि क़ुरआन ही एक काफ़ी मोजिज़ा है चुनांचे सूरह अन्कबूत की 50 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

أَوَلَمْ يَكْفِهِمْ أَنَّا أَنزَلْنَا عَلَيْكَ الْكِتَابَ

क्या उनको ये किफ़ायत नहीं करता कि हमने तुझ पर किताब नाज़िल की है?

क़ुरआन के बड़े-बड़े मुफ़स्सिरीन मसलन इमाम राज़ी और बैज़ावी वग़ैरा साफ़ मानते हैं कि क़ुरआन से हज़रत मुहम्मद के मोअजज़ात की नफ़ी साबित होती है चुनांचे सूरह बनी-इस्राइल की मज़कूरा बाला आयत की तफ़्सीर में बैज़ावी यूं लिखता है :-

“मतलब ये है कि क़ुरैश की दरख्वास्त के मुवाफ़िक़ हमने इस लिए तुझको मोअजज़ात के साथ नहीं भेजा कि पहली अक़्वाम यानी आद समुद ने इन को झुठलाया वैसे ही अहले मक्का भी झुटलाएँगे और हमारी सुन्नत के मुताबिक़ बर्बाद किए जाऐंगे पस जब हमने देखा कि उनमें बाअज़ ईमान वाले या ईमान का बीज रखने वाले हैं तो हमने उनको हलाक करना ना चाहा”

क्या बैज़ावी हज़रत मुहम्मद के बग़ैर मोअजज़ात आने का साफ़ तौर से अज़रूए क़ुरआन ये सबब नहीं बताता कि ख़ुदा जानता था कि अगर मोअजज़ात भेजे भी तो अहले मक्का उनको झुटलाएँगे और नतीजतन हलाक होंगे लिहाज़ा उसने रहम फ़र्मा कर हज़रत मुहम्मद को मोअजज़ात से ख़ाली भेजा? हुसैन भी अपनी मशहूर तफ़्सीर में यही बात लिखता है कि :-

अगर हज़रत मुहम्मद साहब-ए-मोजज़ात के साथ आते तो अहले मक्का भी आद और समुद की तरह मोजज़ात को झुठलाते और हलाक हो जाते।

ख़ुदा कहता है कि पहले ज़माने के लोगों ने मोअजज़ात तलब किए । और मैंने इनके लिए पत्थर से ऊंटनी निकाली और दीगर अक़्वाम के लिए भी तरह तरह के मोअजज़े किए गए। लेकिन उन्होंने इन को झुठलाया और नतीजतन हलाक हो गए। अब अगर उन लोगों को भी जैसा कि तलब करते हैं मोअजज़े दिखाऊँ तो हरगिज़ मुतमइन ना होंगे और ईमान नहीं लाएँगे और सज़ा के तौर पर उन को भी हलाक करूँगा। लेकिन मैंने ये इरादा कर रखा है कि इन को हलाक नहीं करूँगा क्योंकि इनकी औलाद से बहुत से नेक और रास्तबाज़ लोग पैदा होंगे ।

इमाम राज़ी कहता है कि :-

ख़ुदा ने अपने अम्बिया को ऐसे मोअजज़ात के साथ भेजा जो वक़्त और हालत के लिहाज़ से उन लोगों के लिए मुनासिब थे जिनके पास नबी भेजे गए। मसलन हज़रत-ए-मूसा के अय्याम में जादूगरी का बहुत ज़ोर था लिहाज़ा उस को इसी किस्म के मुनासिब-ए-हाल मोअजज़े दिए गए हज़रत-ए-ईसा के वक़्त में साईंस और अदवियात में लोग बहुत तरक़्क़ी कर रहे थे लिहाज़ा हज़रत-ए-ईसा बीमारों को शिफ़ा बख़्शने और मुर्दों को ज़िंदा करने के लिए भेजे गए । इसी तरह चूँकि हज़रत मुहम्मद के अय्याम में इंशापर्दाज़ी को बड़ा ज़ोर था उन को फ़साहत क़ुरआन बतौर मोजिज़ा अता की गई ।

इमाम साहिब के इस बयान से साफ़ ज़ाहिर है कि वो भी निहायत सफ़ाई से मानता है कि हज़रत मुहम्मद ने कोई मोजिज़ा नहीं दिखाया। क़ुरआन ही काफ़ी मोजिज़ा था।

इस मौक़ा पर एक नए मुफ़स्सिर के ख़्यालात का ज़िक्र करना दिलचस्पी से ख़ाली नहीं होगा। हिन्दुस्तान के मुसलमान अक्सर उनका ज़िक्र करते रहते हैं और सुल्तान रुम से वो कई ख़िताब भी हासिल कर चुके हैं ये हाल के मुफ़स्सिर लोरपोल क़ोलीम साहिब हैं। अब हम देखें कि मास्टर क़ोलीम हज़रत मुहम्मद की मोजिज़ा दिखाने की क़ुदरत पर क्या कहते हैं हम लौरपोल ही के अल्फ़ाज़ को देखेंगे वो अपनी किताब “फ़ेथ आव इस्लाम” के बयालिस्वें सफ़हा पर लिखते हैं :-

"हज़रत मुहम्मद के दुश्मनों ने इस के जवाब में उनकी नबुव्वत के सबूत में मोजिज़ा तलब किया। लेकिन उन्हों ने मोजिज़ा दिखाने से इन्कार किया और कहा कि मैं सच्चाई फैलाने के लिए आया हूँ ना कि मोअजज़े दिखाने के लिए...इस बात का कोई सबूत नहीं मिलता कि हज़रत मुहम्मद.....ने अपने मिंजानिब-अल्लाह या अपनी तालीम को मनवाने और अम्बिया-अल्लाह में से होने के सबूत में कभी कोई मोजिज़ा दिखाया बल्कि बख़िलाफ़ उस के अक़्ल व फ़साहत पर कामिल भरोसा किया"।

पस जब क़ुरआन की तालीम और इस पर बड़े बड़े मुसलमान मुफ़स्सिरीन की शहादत से ये बात पाया सबूत को पहुंच गई कि हज़रत मुहम्मद ने कोई मोजिज़ा नहीं किया तो हर एक ज़ी-होश और ज़ी-फ़हम आदमी मोअजज़ात मुंदरजा अहादीस को रद्द करेगा क्योंकि वो महिज़ मस्नूई हिकायात और ख़िलाफ़ वाक़िया ठहरती हैं इस सूरत में सिर्फ क़ुरआन बाक़ी रहता है।

कई तरह से ये अम्र रोशन है कि क़ुरआन मोजिज़ा तसव्वुर नहीं हो सकता जब क़ुरआन हमारे पास मौजूद है तो उस के मोजिज़ा ना होने को दलायल से साबित करने की क्या ज़रूरत है ? क़ुरआन में लिखा है कि अरबों ने बार-बार हज़रत मुहम्मद से मोजिज़ा तलब किया क्या इसी से ये बात साफ़ साबित नहीं होती कि उनकी नज़र में क़ुरआन मोजिज़ा ना था ? फ़िल-हक़ीक़त क़ुरआन की इबारत और अरब के शोअरा और दीगर मुसन्निफ़ीन की तसानीफ़ में बहुत ही कम फ़र्क़ था। मसलन अमरा-उलक़ेस, मुतबन्ना और हरीरी वग़ैरा की तसानीफ़ ऐसी हैं बहुत से मुसलमान ख़्याल करते हैं कि तर्ज़ बयान और फ़साहत और बलाग़त के लिहाज़ से क़ुरआन के हमपाया तसानीफ़ हो सकती हैं और क़ुरआन की फ़साहत बमंज़िला मोजिज़ा नहीं मानी जा सकती।

चुनांचे फ़िर्क़ा मोतज़िला के मुसलमान कहते हैं :-

ان الناس قادرون علی مثل ھذا لقرآن فصاحتہ ونظماً بلاغتہ

फ़साहत व बलाग़त और नज़म के लिहाज़ से क़ुरआन की हमपाया किताब तसनीफ़ करने पर इन्सान क़ादिर है I

फिर शहरस्तानी अपनी किताब दरबारा मुजद्दिद में लिखता है :-

البطالتہ اعجاز القرآن من جہت الفاصحتہ والابلاغتہ

वो फ़साहत व बलाग़त के बिना पर क़ुरआन को मोजिज़ा क़रार देने के ख़्याल को बातिल समझता था।

किताब अलमवाक़िफ़ में मर्क़ूम है कि हज़रत मुहम्मद के बाअज़ असहाब को क़ुरआन की बाअज़ आयात के हिस्सा क़ुरआन होने पर शक था मसलन इब्न मसऊद कहता था कि "सूरह फ़ातिहा क़ुरआन में नहीं है लेकिन अगर क़ुरआन की फ़साहत व बलाग़त इस दर्जा की होती कि इस का मुक़ाबला ना हो सकता और मोजिज़ा क़रार दी जा सकती तो उस के बारे में इस तरह के मुख़्तलिफ़ ख़्यालात ना पाए जाते ।

क़ुरआन के बाअज़ हिस्सों के बारे में इस किस्म के मुख़्तलिफ़ ख़्यालात का पाया जाना ही इस हक़ीक़त का काफ़ी सबूत है कि हज़रत मुहम्मद के ज़माना में क़ुरआन की हमपाया तसानीफ़ अरबी ज़बान में मौजूद थीं।

क़ुरआन को जमा करने के वक़्त जिन मुश्किलात का सामना हुआ उन से भी निहायत साफ़ तौर से मज़कूरा बाला नतीजा हासिल होता है किताब अलमवाक़िफ़ में लिखा है कि

जब क़ुरआन की आयात जमा की जा रही थीं अगर जमा करने वालों के पास कोई ऐसी आयत लाना जिससे वो वाक़िफ़ ना थे तो बड़ी तहक़ीक़ात के बाद (कि कब और कैसे मौक़ा पर नाज़िल हुई )। क़ुरआन में दख़ल की जाती थी।

पस इस से भी हर एक साहिब-ए-होश बखु़शी समझ सकता है कि अगर आयात क़ुरआन की फ़साहत व बलाग़त मोजिज़ा होती तो इस किस्म की सब तहक़ीक़ात बिल्कुल फुज़ूल और बे फ़ायदा थी। क़ुरआन की हर एक आयत अपनी फ़साहत व बलाग़त की ख़ूबी से फ़ौरन पहचानी जाती है।

बिलफ़र्ज़ अगर तस्लीम भी कर लिया जाये कि अरबी ज़बान में क़ुरआन फ़साहत व बलाग़त के लिहाज़ से लासानी किताब है तो इस से भी क़ुरआन मोजिज़ा नहीं ठहरता ये महिज़ ख़्याली पुलाव है और बस क्योंकि नाज़ुक ख़्याली और फ़साहत का बसा-औक़ात मामूली ख़ाकसार और आजिज़ लोगों में भी जलवा देखा गया है। मोजिज़ा और ही शैय है। मोजिज़ा हमारी महदूद अक़्ल और हमारे महदूद हवास के लिए मामूली कानून-ए-क़ुदरत से आला व बाला है लेकिन कोई किताब ख्वाह वो कैसी ही फ़साहत व बलाग़त से पुर हो मोजिज़ा नहीं मानी जा सकती हिन्दुस्तान में काली दास अपने तर्ज़ पर लासानी मुसन्निफ़ है क्या हमारे मुसलमान भाई कालीदास काफ़िर की तसानीफ़ को इल्हामी मानेंगे।

ये वाक़ई बड़े ताज्जुब की बात है कि जिसने आख़िर नबीय्यीन होने का दावा किया और जिसकी शरीयत ने तमाम पहले शराए को मंसूख़ कर दिया वो कोई मोजिज़ा ना दिखा सका । बल्कि उसने अपने अजुज़ का साफ़ इक़रार क्या इस से निहायत सफाई और सराहत के साथ इस किताब का ये दावा साबित होता है कि ख़ुद क़ुरआन की शहादत से ईसा मसीह तमाम दीगर अम्बिया से बुज़ुर्ग व बरतर है मुंसिफ़ मिज़ाज पढ़ने वाले को चाहिए कि निहायत दानाई और सरगर्मी से इन हक़ीक़तों का बाहम मवाज़ाना करे और अपने आपको उस के सपुर्द व ताबेह करे जिसका नाम सब नामों से बुलंद है।

ईसा मसीह इब्ने मर्यम की फ़ज़ीलत और बुजु़र्गी व बरतरी के सबूत में और बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन अब हम सिर्फ एक ही इक़तिबास पर क़नाअत करते हैं।

हज़रत मुहम्मद की अहादीस में जो मुसलामानों ही ने जमा की हैं ईसा मसीह के हक़ में यूं मर्क़ूम है :-

لیکوشکن ان ینزل فیکمہ ابن مریمہ علیہ الصلواتہ والسلام حکماً مقسطاً

बेशक इब्ने मर्यम अलैहि सलातो वस्सलाम रास्तकार मुंसिफ़ की हैसियत में तुम्हारे दर्मियान नाज़िल होगा I

हमने बाइबल और क़ुरआन को शुरू से आख़िर तक पढ़ा है और हज़रत मुहम्मद को बहुत सी अहादीस को भी पढ़ा है लेकिन ईसा के सिवा किसी और के हक़ में ऐसे अल्फ़ाज़ कहीं नहीं देखे हज़रत मुहम्मद के इन अल्फ़ाज़ की इंजील शरीफ़ से बहुत अच्छी तरह से ताईद व तस्दीक़ होती है चुनांचे लिखा है :-

जब इब्ने आदम (ईसा) अपने जलाल में आएगा और सब फ़रिश्ते उस के साथ आएँगे। तो उस वक़्त वो अपने जलाल के तख़्त पर बैठेगा और सब क़ौमें उस के सामने जमा की जाएँगी और वह एक को दूसरे से जुदा करेगा जैसा गल्लेबान भेड़ों को बकरीयों से जुदा करता है और भेड़ों को अपने दाहिने और बकरीयों को बाएं खड़ा करेगा (मत्ती 25:31-33)

जिस शख़्स को इंजील शरीफ़ और हज़रत मुहम्मद दोनों तमाम बनी-आदम का मुंसिफ क़रार देते हैं इस में पनाह गज़ीं होना हमारे लिए यक़ीनन बड़ी दानाई की बात होगी।

अब हम बख़ूबी साबित कर चुके हैं कि बाइबल की तरह क़ुरआन भी ईसा मसीह को तमाम दीगर अम्बिया से बुज़ुर्ग व बरतर क़रार देता है और इस को ऐसे अल्क़ाब से मुलक़्क़ब करता है जिनका कोई दूसरा शख़्स दावेदार नहीं है।

मसीह के ख़ानदान यानी बनी-इस्राइल से तमाम अक़्वाम के लिए बरकत का वाअदा है। मसीह की माँ ही एक ऐसी ख़ातून थी जिसको ख़ुदा ने तमाम खातून-ए-जहां पर तर्जीह और फ़ज़ीलत दी और सिर्फ उसको और इस के बेटे को तमाम मख़्लूक़ात के लिए निशान मुक़र्रर किया। सिर्फ मसीह के हक़ में ये कहा गया है कि वो मोजज़ाना तौर से पैदा हुआ क्योंकि वो कलिमतुल्लाह था जो कुँवारी मर्यम में मुजस्सम हुआ ।

मुसलमान सिवाए ईसा के किसी और को रूहुल्लाह के मुअज़्ज़िज़ लक़ब से मुलक़्क़ब नहीं करते और क़ुरआन किसी दूसरे को अल-मसीह के लक़ब से मुमताज़ नहीं करता। सिर्फ सय्यदना ईसा ही क़ुरआन और अहादीस में कामिल तौर पर बेगुनाह बयान किया गया है सिवाए उस के किसी दूसरे को क़ुरआन हर दो जहान में साहब-ए-इज़्ज़त क़रार नहीं देता। तवारीख़ इस्लाम में ईसा मसीह के मोअजज़ात बेनज़ीर हैं और हज़रत मुहम्मद ने भी उसके सिवाए किसी दूसरे को बनी-आदम के मुंसिफ़ के लक़ब से याद नहीं किया।

क़ुरआन मसीह की बुजु़र्गी और बरतरी की ख़ूब झलक दिखाता है लेकिन इसके ईलाही कमाल व जलाल को ज़ाहिर नहीं करता। दरवाज़ा तक ले जाता है लेकिन खोल कर दाख़िल नहीं होता । इश्तियाक़ की आग तो दिल में मुश्तइल करता है लेकिन मतलूब तक पहुंचा कर दिली आराम नहीं देता।

अब ए मुसलमान बिरादरान पढ़ने वालो क्या इस बड़े अहम मसले को जिस पर आपके अबदी नफ़ा व नुक़सान का इन्हिसार है बे हल किए ही छोड़ दोगे?

ख़ुदा ना करे कि आपसे ऐसा हो बल्कि अक़्ल का तक़ाज़ा ये है कि हम तौरात और इंजील को देखें जिनमें सय्यदना मसीह अपने जलाल के कमाल के साथ ख़ुदा के "इकलौते बेटे" की सूरत में नज़र आता है । क्या दीनदार मुसलमान हर-रोज़ ये दुआ नहीं करता कि :-

اهدِنَــــا الصِّرَاطَ المُستَقِيمَ صِرَاطَ الَّذِينَ أَنعَمتَ عَلَيهِمْ غَيرِ المَغضُوبِ عَلَيهِمْ وَلاَ الضَّالِّينَ

हिदायत कर हम को सीधी राह की । इन लोगों की राह जिन पर तूने इनाम किया ना उनकी जिन पर तो ग़ज़बनाक हुआ और ना गुमराहों की ?

वो कौन हैं जिन पर ख़ुदा ने इनाम किया ? क्या ज़माना-ए-क़दीम के अम्बिया मसलन इबराहीम, मूसा और दाऊद वग़ैरा नहीं हैं? ये बुज़ुर्ग ईमान की आँख से मसीह मौऊद की आमद का इंतिज़ार करते थे और बनी आदम की उम्मीद का दार-ओ-मदार इसी में देखते थे चुनांचे लिखा है कि ये सब ईमान की हालत में मरे और वाअदा की हुई चीज़ें ना पाई मगर दूर ही से उन्हें देखकर ख़ुश हुए और इक़रार किया कि हम ज़मीन पर परदेसी और मुसाफ़िर हैं I

पस हमको तौरात व ज़बूर और दीगर सहफ़ अम्बिया की तरफ़ मुतवज्जा होना चाहिए क्योंकि वहीं हमको ईमान की राह मिलेगी जिस पर ये बुज़ुर्ग चलते थे और वहीं हम उसको पाएंगे जिसका वो ज़िक्र करते थे इलावा बरीं जिस मसीह को क़ुरआन एसा आलीशान बयान करता है इस का पूरा मुकाशफ़ा इंजील शरीफ़ में है पस इंजील की तिलावत भी हम पर फ़र्ज़ है क्योंकि इसी तरह से पेशीनगोइयों के कामिल कनुंदा और राह-ए-हयात को पा लेंगे हम ख़ुद मसीह के संजीदा ,अल्फ़ाज़ को कभी ना भूलें वो इंजील शरीफ़ में फ़रमाता है कि :-

"राह-ए-हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ कोई मेरे वसीले के बग़ैर बाप (ख़ुदा) के पास नहीं आता" (युहन्ना 14:6)

तमाम शुद