1891-1972

ALLAMA BARAKAT

ULLAH, M.A.F.R.A.S

Fellow of the Royal Asiatic Socieity London

तहदिया

अल्लामा जान अब्दुस्सुब्हान साहब बी॰ ए॰ बी॰ डी॰

प्रोफ़ैसर मदरिसा इस्लामीयात

की ख़िदमत में पेश करता हूँ

1938 ई॰

दुआ का मुहताज

बरकतुल्लाह

















पहले ऐडीशन का दीबाचा

आफ़्ताब आमद दलील आफ़ताब

गुरु लीलत बायद अज़रवे रु महताब

मसीहिय्यत की क़तईयत1 और आलमगीरी एक ऐसी रोशन हक़ीक़त है कि कोई शख़्स जिसने तास्सुब की पट्टी अक़्ल की आँख पर नहीं बांध ली, इस से इन्कार नहीं कर सकता। ये एक तवारीख़ी वाक़िया है कि गुज़श्ता दो हज़ार साल से रुए-ज़मीन के ममालिक व अक़्वाम के करोड़ों अफ़राद मसीहिय्यत के हल्क़ा-ब-गोश हो गए हैं और मसीहिय्यत ने उनको कार-ए-ज़लालत (क़अर: गहराई, बड़ा गढ़ा) से निकाल कर रूहानियत के ओज (उरूज) पर पहुंचा दिया है। हमको ये मानने में ज़रा भी ताम्मुल नहीं कि बाअज़ अस्हाब ऐसे हैं जो ख़ुलूस दिल से ये ख़याल करते हैं कि मसीहिय्यत में चंद एक बातें ऐसी हैं जिनकी वजह से वो आलमगीर मज़्हब नहीं हो सकता। पस

अगर बेनम कि नाबीना व चाह अस्त

वगर ख़ामोश नबशीनम गुनाह अस्त

ऐसे अस्हाब और उनके एतराज़ात को मद्दे-नज़र रखकर हमने मसीहिय्यत की क़तईयत, जामईयत और आलम गीरी के मौज़ू पर कई पहलूओं से बह्स की है।

(1) हमने अपने रिसाला2 “नूर-उल-हुदा” (نور الہدیٰ) में तारीख़ी नुक़्त निगाह से इस मौज़ू पर बह्स की है। इल्म तारीख़, ज़माना-ए-माज़ी के वाक़ियात और मिलल व अस्बाब (मिलल: मिल्लत की जमा, अक़्वाम, मज़ाहिब) का ज़िक्र कर के ये बताना है कि गुज़श्ता ज़माने से मौजूदा दौर किस तरह सफ़ा हस्ती पर आया और मसीही उसूल ने इस की काया पलट में क्या किरदार अदा किया। हमने इस किताब में इस मक़्सद को साबित किया है कि इब्तिदा ही से मसीहिय्यत अपने उसूल और कलिमतुल्लाह (मसीह) की शख़्सियत और नजात के तसव्वुर की वजह से तमाम मुरव्वजा अद्यान पर ग़ालिब आई और उसने अपने आलमगीर होने का सबूत दिया। इस किताब में मर्हूम ख़्वाजा कमाल उद्दीन के एतराज़ात का जवाब दिया गया है।

(2) हमने अपनी किताब 3 “दीन फ़ित्रत इस्लाम या मसीहिय्यत” में इस मौज़ू पर इल्म-ए-नफ़्सीयात के नुक़्ता नज़र से साबित किया है कि सिर्फ मसीहिय्यत में ही इस बात की सलाहीयत है कि इन्सानी फ़ित्रत के मिलानात की तमाम इक़तिज़ाओं को बवजह-ए-अह्सन पूरा करके आलमगीर मज़्हब होने का सबूत दे।

(3) हमने अपनी किताब “कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की तालीम” में इन उसूलों पर मुफ़स्सिल बह्स की है जो इन्जील जलील की बुनियाद हैं और साबित किया है कि ख़ुदावंद ईसा मसीह की तालीम और शख़्सियत जामा और आलमगीर है और आपकी क़ुद्दूस ज़ात ने दुनिया को अपना गरवीदा बना लिया है।

(4) हमने अपनी कुतुब “क़दामत व अस्लियत अनाजील अरबा” और “सेहत कुतुब मुक़द्दसा” में तारीख़ी और लिसानी नुक़्ता-नज़र से साबित किया है कि जहां तक इन्जील जलील के यूनानी मतन की सेहत का ताल्लुक़ है, रुए-ज़मीन की कोई क़दीम किताब इन्जील की सेहत का मुक़ाबला नहीं कर सकती।

(5) हमने अपनी किताब “इस्राईल का नबी या जहान का मुनज्जी” में मोअतरज़ीन के एक एतराज़ पर ग़ौर किया है जो वो ख़ुदावंद मसीह के इस क़ौल के बिना पर करते हैं कि “मैं इस्राईल के घराने की खोई हुई भेड़ों के सिवा और किसी तरफ़ नहीं भेजा गया।” (मत्ती 15:24) और साबित कर दिया है कि जो तावील मोअतरिज़ इस आया शरीफ़ की करता है, वो सही उसूल तफ़्सीर तावील-उल-कलाम ’’ بما لا یرضی بہٖ قائلہ باطل‘‘ के ख़िलाफ़ है। पस वो बातिल है, क्योंकि वो ख़ुदावंद ईसा मसीह के ख़यालात व जज़्बात, लाएहा-ए-अमल और अहकाम के कुल्लियतन ख़िलाफ़ है और ख़ुदावंद ईसा मसीह की आमद का मक़्सद ये था कि अक़्वाम-ए-आलम आपके वसीले नजात हासिल करें। इस किताब में जो नाज़रीन के सामने है, मसीहिय्यत की आलमगीरी पर इल्म अख़्लाक़ीयात और फ़ल्सफ़ा के नुक़्ता निगाह से नज़र की गई है और ये साबित किया गया है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम अर्फ़ा और जामा उसूल पर मुश्तमिल है। ख़ुदावंद ईसा मसीह का नमूना कामिल और अकमल है और आपकी नजात कुल दुनिया की अक़्वाम के लिए है। इस किताब में हमने बाब सोम में दीदा व दानिस्ता उन एतराज़ात को नज़र-अंदाज कर दिया है जो उमूमन इन्जील शरीफ़ की आयात के बिना पर इस्मत-ए-मसीह पर किए जाते हैं। क्योंकि मसीही मुतकल्लिमीन ने उमूमन और इमाम-उल-मुनाज़िरीन मिस्टर अकबर मसीह साहब मर्हूम ने ख़ुसूसुन अपनी किताब “ज़रबत-ए-ईस्वी” (ضربتِ عیسوی) में इन एतराज़ात के दंदाने-शिकन जवाब दीए हैं जिनका जवाब-उल-जवाब ताहाल नहीं दिया गया। पस इन एतराज़ात को रद्द करना, दरहक़ीक़त तहसील हासिल है। लिहाज़ा उनको नज़र-अंदाज कर दिया गया है।


1“ कतअय्यात” (قطعیات) अरबी इस्म मुअन्नस है। ये क़तईय्यत की जमा है। इस के मअनी हैं “वो उमूर जिनमें शक व शुब्हा ना हो।
2“ये किताब पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी अनारकली लाहौर से मिल सकती है।
3“ ये किताब पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी अनारकली लाहौर से मिल सकती है।

पस हमने मसीहिय्यत की आलमगीरी पर अपनी मुख़्तलिफ़ किताबों में तारीख़ी, मज़्हबी, नफ़्सियाती और अख़्लाक़ी पहलूओं से बह्स की है और उन मोअतरज़ीन पर इतमाम-ए-हुज्जत कर दी है जो नेक नीयती से मसीहिय्यत की क़तईयत और आलमगीरी नहीं मानते थे। हमें वासिक़ उम्मीद है कि ऐसे मोअतरज़ीन ख़ाली-उल-ज़हन हो कर इस किताब का ग़ौर से मुतालआ करेंगे और मुसन्निफ़ की तरह ख़ुदावंद मसीह के क़दमों में आकर अबदी नजात हासिल करेंगे।

सिपास व सुन्नत व इज़्ज़त ख़ुदा ए राका नमूद

रह नजात व शदम अज़ हयात बर खूरदार

होली ट्रिनिटी चर्च लाहौर अहक़र

अल्लामा बरकत-उल्लाह (मर्हूम)

16 अगस्त 1948 ई॰

बाब अव़्वल

आलमगीर मज़्हब की ख़सूसियात

1. आलमगीर मज़्हब के उसूल आला तरीन पाये के हैं

इंग्लिस्तान का मशहूर फिलासफर और अख़्लाक़ीयात का उस्ताद मर्हूम डाक्टर रश्डाल (Rashdall) कहता है कि :-

“आलमगीर मज़्हब के लिए ये ज़रूरी शर्त है कि उस में ख़ुदा का तसव्वुर आला तरीन हो, जिसको सब लोगों की ज़मीरें मान सकें और ये भी ज़रूरी है कि उस का अख़्लाक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) आला तरीन हो।”4

पस आलमगीर मज़्हब की पहली शर्त ये है कि उस के उसूल बुलंद, आला व अर्फ़ा और आला तरीन हों। इन उसूलों में ये सिफ़त हो कि दुनिया के “सब लोगों की ज़मीरें” उनको मान सकें। बअल्फ़ाज़े दीगर ये उसूल ऐसे आला और अर्फ़ा हों, कि तमाम दुनिया के लोग बिला लिहाज़ रंग व नस्ल वग़ैरह उनको क़ुबूल कर सकें। अगर किसी मज़्हब की तालीम ऐसी है कि सिर्फ किसी ख़ास क़ौम या ज़माने या क़बीले के लोगों की नज़रों में ही मक़्बूल हो सकती है, लेकिन दीगर अक़्वाम या दीगर ज़माने के अफ़राद उस के उसूलों की वजह से उस को क़ुबूल नहीं कर सकते तो वो मज़्हब हरगिज़ आलमगीर मज़्हब कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं हो सकता। अगर कोई मज़्हब ऐसा है जो ख़ुदा की निस्बत ऐसी तालीम दे जो नूअ-इन्सानी की तरक़्क़ी की इब्तिदाई मनाज़िल से ही मुताल्लिक़ हो और नूअ-इन्सानी तहज़ीब याफ्ताह हो कर इस मंज़िल से आगे बढ़ गई हो ऐसा कि वो उस के पेश कर्दा तसव्वुर इलाही की नुक्ता-चीनी कर सके तो वो मज़्हब आलमगीर नहीं हो सकता। मसलन अगर किसी मज़्हब का माबूद चोरी या ज़िनाकारी का मुर्तक़िब हुआ हो तो ऐसा माबूद दौर हाज़रा में हरगिज़ क़ाबिल परस्तिश नहीं हो सकता। ऐसे माबूद की तंज़ीम नूअ इन्सानी की तरक़्क़ी की इब्तिदाई मनाज़िल से ही मुताल्लिक़ थी, लेकिन अब जो नस्ल इन्सानी ने इस क़द्र तरक़्क़ी करली है कि वो ऐसे माबूद की ताज़ीम व तकरीम तो दरकिनार उस को हिक़ारत की नज़र से देखती है तो ऐसा मज़्हब आलमगीरी नहीं हो सकता। अला हाज़ा-उल-क़यास अगर किसी मज़्हब की तालीम में उस का अख़्लाक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) अदना पाये का है तो वो मज़्हब अपने अन्दर यह अहलीयत नहीं रख सकता कि आलमगीर हो सके। चूँकि नूअ इन्सानी उस के अदना नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) से बहुत आगे बढ़ चुकी है। लिहाज़ा वो अदना उसूलों को तस्लीम करने के लिए तैयार नहीं है। मसलन अगर कोई मज़्हब ऐसा है जो इन्सानों में दर्जा बंदी और अछूत का सबक़ सिखाता है या ज़िनाकारी, गु़लामी, लूट मार को दुरुस्त और जायज़ क़रार देता है तो वो मज़्हब अपने अन्दर अहलीयत ही नहीं रखता कि आलमगीर हो। ऐसा मज़्हब सिर्फ एक ख़ास ज़माने या क़ौम या क़बीले ही का मज़्हब हो सकता है। इस दायरे के बाहर के लोग उस की तालीम को नाक़िस क़रार देंगे और अगर वह मज़्हब आलमगीर होने का मुद्दई हो तो अर्बाब दानिश के नज़्दीक बजा तौर पर वो तहक़ीर और मज़हका का निशाना बन जाएगा। पस लाज़िम है कि आलमगीर मज़्हब के उसूल निहायत आला अर्फ़ा और बुलंद पाया के हों। ये लाज़िम है कि आलमगीर मज़्हब ख़ुदा की निस्बत ऐसी तालीम दे जिसके सामने हर ज़माने, मुल्क और क़ौम की गर्दनें झुक जाएं। आलमगीर मज़्हब का तसव्वुर ख़ुदा ऐसा होना चाहीए कि नूअ इन्सानी अपनी तरक़्क़ी की इंतिहाई मनाज़िल में भी इस से बाला-तर तसव्वुर ख़याल में ना ला सके। इन्सानी क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला इस से ज़्यादा बुलंद परवाज़ी ना कर सके, बल्कि इस तसव्वुर को कमा-हक़्क़ा फ़हम में लाने से क़ासिर रहे और चार व नाचार अपने अजुज़ और नाताक़ती का इक़रार करे।


4“ Theory of Good and Evil, Vol.2 p.29.

اے ز خیال مابروں۔ در تو خیال کے رَسد

باصفت ِتو عقل را لاف ِکمال کے رَسد

کنگرِ کبریائے تو ہست فراز لا مکاں

طائر ماور آں ہوا بے پَروبال کے رسد (خسرو)

सिर्फ ऐसा ही मज़्हब इन्सान के सामने बुलंद तरीन अख़्लाक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) रख सकता है। क्योंकि ये एक वाज़ेह हक़ीक़त है कि कोई क़ौम अपने माबूद के औसाफ़ से आगे नहीं बढ़ सकती। जिस मज़्हब में ख़ुदा का तसव्वुर आला तरीन पाये का होगा उस मज़्हब में इन्सान के मुताल्लिक़ भी आला तरीन क़िस्म की तालीम होगी। हुक़ूक़-उल्लाह और हुक़ूक़-उल-ईबाद (खुदा के हुक़ूक़ और बन्दों के हुक़ूक़) में निहायत गहरा रिश्ता है। हुक़ूक़-उल-ईबाद का इन्हिसार ख़ुदा के तसव्वुर पर मौक़ूफ़ है। चुनान्चे अगर किसी मज़्हब में ख़ुदा का तसव्वुर अदना क़िस्म का है तो उस मज़्हब में इन्सानों के बाहमी सुलूक की निस्बत जो तालीम होगी वो भी निहायत अदना पाये की होगी। अगर किसी क़ौम का माबूद शराबी, चोर या ज़िनाकार होगा तो ये उम्मीद नहीं की जा सकती इस मज़्हब का अख़्लाक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) आला क़िस्म का हो। इस मज़्हब की तालीम में शराब, चोरी, ज़िनाकारी वग़ैरह आमाल हसना शुमार किए जाऐंगे। लेकिन अगर किसी मज़्हब में ख़ुदा का तसव्वुर आला तरीन पाया का होगा तो उस का अख़्लाक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) भी आला पाया का होगा। ये अम्र मुहताज बयान नहीं कि अगर कोई मज़्हब ऐसी बातों की तालीम देता है जो अख़्लाक़ को सुधारने की बजाय उनको बिगाड़ती हैं या वो ऐसे उसूल सिखाता है जिससे ऐसा नतीजा अख़ज़ हो सके जो मुख़र्रिब-ए-अख़्लाक़ हो तो ऐसा मज़्हब दौर-ए-हाज़रा में मज़्हब कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं हो सकता, चह जायके वो आलमगीर मज़्हब हो। मसलन अगर कोई मज़्हब ये तालीम देता है कि कोई औरत अपने ख़ावंद की मौजूदगी में किसी और मर्द के साथ जिन्सी ताल्लुक़ात रख सकती है या कोई मर्द अपनी ज़ौजा (बीवी) की मौजूदगी में किसी और औरत के साथ जिन्सी ताल्लुक़ात रख सकता है तो ऐसा मज़्हब हरगिज़ आलमगीर नहीं हो सकता।

आलमगीर मज़्हब के लिए ज़रूरी है कि ना सिर्फ उस में ख़ुदा का तसव्वुर ही ऐसा हो जिस के सामने हर ज़माना, क़ौम और मुल्क के अफ़राद की गर्दनें झुक जाएं, बल्कि ये भी ज़रूरी है कि उस का अख़्लाक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) भी ऐसा हो कि नूअ इन्सानी अपनी तरक़्क़ी की दौड़ में उस से आगे ना गुज़र सके। बल्कि जूं जूं इन्सान तरक़्क़ी करता जाये, ये नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) उफ़क की तरह उस की नज़र के आगे आगे चलता जाये। या जिस तरह कोई शख़्स जब एक पहाड़ी की बुलंदी पर पहुंच जाता है तो इस से आगे बुलंदी ख़त्म नहीं हो जाती, बल्कि एक और पहाड़ी की बुलंदी उस को नज़र आती है। इसी तरह जब नूअ इन्सानी अख़्लाक़ी तरक़्क़ी के ज़ीना (चढ़ाव) की एक बुलंदी को हासिल करले तो वहां भी उस को अख़्लाक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) की बुलंदी नज़र आए जो उस के लिए राह नुमा का फ़र्ज़ अदा करे। आलमगीर मज़्हब का अख़्लाक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) ऐसा बुलंद और अर्फ़ा होना चाहिए कि नूअ इन्सानी अपनी तरक़्क़ी की मुख़्तलिफ़ मनाज़िल में जिस ओज पर भी पहुंचे उस की रिफ़अत और बुलंदी को हमेशा अपनी नज़रों के सामने रख सके। पस आलमगीर मज़्हब के लिए पहली शर्त ये है कि उस में ज़ात इलाही की निस्बत ऐसी तालीम हो जिसके सामने हर मुल़्क, क़ौम, नस्ल और हर ज़माने के सर तस्लीम ख़म हो जाएं और उस मज़्हब का अख़्लाक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) ऐसा आला और बुलंद पाये का हो कि नूअ इन्सानी अपनी तरक़्क़ी के आला तरीन ज़ीना (चढ़ाव) पर भी उस को पेश-ए-नज़र रख सके ऐसा कि वो उस का दाइमी राहनुमा हो

2. आलमगीर मज़्हब के उसूल आलमगीर होते हैं

(1)

इस पहली शर्त का लाज़िमी नतीजा ये है कि आलमगीर मज़्हब के उसूल आलमगीर हों। कोई मज़्हब आलमगीर कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं हो सकता जिसके उसूल आलमगीर ना हों। जिस मज़्हब के उसूलों में ये सलाहीयत नहीं कि वो हर मुल़्क, क़ौम, ज़माने और नस्ल के लोगों पर हावी हो सकें, वो मज़्हब सिर्फ एक क़ौम या मुल्क या ज़माना या पुश्त के लोगों के लिए ही मुफ़ीद हो सकता है। लेकिन इस के उसूल का इतलाक़ किसी दूसरी क़ौम या पुश्त के लोगों पर नहीं हो सकेगा, क्योंकि क़ौमों और पुश्तों और ज़माने के हालात यकसाँ नहीं होते। मुआशरती हालात, ज़रूरीयात-ए-ज़िंदगी, तरीक़ हुकूमत वग़ैरह ज़माने की तब्दीली के साथ तग़य्युर-पज़ीर हो जाते हैं। मुतअद्दिद क़वानीन नाक़ाबिल अमल हो कर मन्सूख़ हो जाते हैं। पस जो मज़्हब सिर्फ एक क़िस्म के हालात के लिए मुफ़ीद है, वो दूसरी क़िस्म के हालात के लिए मुफ़ीद नहीं हो सकता। तारीख़ से ज़ाहिर है कि बाअज़ मज़ाहिब ऐसे हैं जो गुज़श्ता ज़माने में ख़ास हालात के मातहत निहायत कामयाब साबित हुए, लेकिन जब वो हालात बदल गए और ज़माने ने पल्टा खाया तो वो मज़ाहिब जामिद और ठोस नए हालात और ख़यालात के सामने क़ायम ना रह सके। पस माबाअ्द के ज़माने और पुश्त के लिए वो मज़ाहिब किसी काम के ना रहे। जिस तरह पुराने सालों की जंतरीयाँ (केलेन्डर) बेकार हो जाती हैं।

बक़ौल शख्से, कि तक़वीम-ए-पारयना नया यद ब-कार


इसी तरह ये मज़ाहिब भी बेसूद हो जाते हैं और पुराने ज़माने की दास्तानों से ज़्यादा क़द्र वक़अत नहीं रखते। दौर-ए-हाज़रा के लिए इनका वजूद अगर ज़रर रसां नहीं होता तो कम अज़ कम अदम वजूद के बराबर हो जाता है। पस लाज़िम है कि आलमगीर मज़्हब के उसूल ऐसे हों जो ये सलाहीयत रखते हों कि हर मुल़्क, क़ौम, नस्ल और ज़माने पर हावी हो सकें और किसी मुल़्क या क़ौम या ज़माने के लिए इस मज़्हब के उसूल दक़यानूसी, बोसीदा या फ़र्सूदा ख़याल ना किए जाएं। मसलन अगर कोई मज़्हब ऐसा है जो दर्जा बंदी या ज़ात पात या मुनाक़शात (मुनाक़शा की जमा, झगड़े), जंग व जदल (लड़ाई, फसाद), अदावत वग़ैरह की तालीम देता है तो ये मुम्किन हो सकता है कि वो किसी एक मुल्क या क़ौम के ख़ास हालात के अंदर किसी ख़ास ज़माने में कामयाब साबित हुआ हो। लेकिन ऐसा मज़्हब दुनिया की दीगर क़ौमों, नसलों और ज़मानों के लिए हरगिज़ राहनुमा का काम नहीं दे सकता। या अगर कोई मज़्हब ऐसा है जिसमें बच्चों, औरतों, ग़ुलामों, मज़लूमों वग़ैरह से बदसुलूकी रवा रखी गई है तो ऐसे मज़्हब के उसूल किसी ख़ास पुश्त या ज़माने या मुल्क पर ही हावी हो सकते हैं। उनमें ये अहलीयत हरगिज़ नहीं कि अक़्वाम आलम और कुल दुनिया के ममालिक व अज़मिना पर हावी हों। कोई मज़्हब आलमगीर नहीं हो सकता, तावक़्ते के उस के उसूल अपने अंदर अक़्वाम व ममालिक पर हावी होने की सलाहीयत ना रखें और हर ज़माने में रास्त और नाक़ाबिल तंसीख़ व तरमीम और लातब्दील हों और बनी नूअ इन्सान के तक़ाज़ा-ए-रूह और तमन्ना-ए-दिल को पूरा और साकित कर सकें।

(2)

पस लाज़िम है कि आलमगीर मज़्हब के उसूल ना सिर्फ ज़माना-ए-माज़ी के लिए किसी ख़ास क़ौम या पुश्त या मुल्क या ज़माने के सही राहबर रह चुके हों, बल्कि ये भी ज़रूरी अम्र है कि इन उसूल का इतलाक़ दौर-ए-हाज़रा के तमाम ममालिक व क़बाइल व अक़्वाम पर हो सके। मौजूदा सदी में और गुज़श्ता सदी में जो तब्दीलीयां वक़ूअ पज़ीर हुईं हैं, वो सब पर अयाँ हैं और अरबाब-ए-दानिश से ये मख़्फ़ी (छिपी) नहीं कि मौजूदा पुश्त मज़्हब के उसूल को इस नुक्ता-नज़र से नहीं देखती जिससे उस के आबा व अजदाद मज़्हब को देखते थे। आलमगीर मज़्हब के लिए लाज़िम है कि उस के उसूल दौर-ए-हाज़रा के लोगों की इसी तरह कामयाबी के साथ राहनुमाई करने की सलाहीयत रखते हों जिस तरह किसी गुज़श्ता पुश्त के लोगों की राहनुमाई करने में वो कामयाब हुए थे। अगर इन उसूलों में ये अहलीयत मौजूद नहीं तो वो उसूल आलमगीर नहीं हो सकते और ना वो मज़्हब आलमगीर कहलाने का मुस्तहिक़ हो सकता है। पस अगर कोई मज़्हब आलमगीर होने का दावा इस बिना पर करे कि किसी गुज़श्ता ज़माने में वो किसी मुल़्क या क़ौम के मसाइल की गुत्थियाँ सुलझाने में कामयाब रहा है, लेकिन दौर-ए-हाज़रा पर अपने उसूल का इतलाक़ ना कर सके तो उस मज़्हब का दावा “पिदरम सुल्तान बूद” (मेरा बाप बादशाह था) से ज़्यादा वक़अत नहीं रख सकता। लिहाज़ा कोई मज़्हब मह्ज़ अपनी क़दामत की वजह से या कोई धर्म मह्ज़ सनातनी (सनातन, क़दीम) होने की बिना पर आलमगीर नहीं हो सकता, तावक़्ते के वो ये साबित ना कर सके कि उस के क़दीम या सनातनी उसूल दौर-ए-हाज़रा के तमाम ममालिक व अक़्वाम के मुख़्तलिफ़ मसाइल को कामयाबी के साथ हल करने की अहलीयत रखते हैं।

(3)

आलमगीर मज़्हब के लिए ये लाज़िम है कि ना सिर्फ उस के उसूल ज़माना गुज़श्ता और दौरे हाज़रा के ममालिक व अक़्वाम के राहनुमा हो सकें, बल्कि मुस्तक़बिल ज़माने के तमाम ममालिक व अक़्वाम व अज़मिनह के लिए भी मशअल-ए-हिदायत हो सकें। ये अशद ज़रूरी अम्र है कि आलमगीर मज़्हब के उसूल ना सिर्फ नूअ इन्सानी की गुज़श्ता दौड़ में काम आए हों या मौजूदा तरक़्क़ी की मंज़िलों में काम आ सकते हों, बल्कि ये ज़्यादा ज़रूरी है कि आइंदा ज़माने में भी जूँ-जूँ नस्ल इन्सानी तरक़्क़ी करती जाये ये उसूल उस की तरक़्क़ी की राह को अपने नूर से रोशन करते जाएं ताकि नस्ल इन्सानी रोज़ बरोज़ तरक़्क़ी पज़ीर हो कर कामिल होती जाये और ख़ालिक़ के उस इरादे को पूरा कर सके जिसके वास्ते ख़ुदा ने इन्सान को पैदा है। इन्सान का ख़ल्क़ होना और नूअ इन्सानी का वजूद ये साबित करता है कि अज़ल से ख़ुदा ने किसी ख़ास मक़्सद को मद्द-ए-नज़र रखकर इन्सान को पैदा किया था। आलमगीर मज़्हब का ये काम है कि इस मंशा-ए-इलाही को पूरा करे और नूअ इन्सानी को उस की तरक़्क़ी की मुख़्तलिफ़ मनाज़िल में ऐसी शाह-राह पर चलाए जिस पर चल कर वो ख़ुदा के ख़ास अज़ली मक़्सद को पूरा करे। पस लाज़िम है कि आलमगीर मज़्हब ना सिर्फ नूअ इन्सानी के इब्तिदाई मरहलों में इस का साथ दे और ज़माना गुज़श्ता में इस का सही राहनुमा रहा हो, बल्कि इस से ज़्यादा ज़रूरी ये है कि दौर-ए-हाज़रा में और आइंदा ज़मानों में भी कुल इन्सान इस मज़्हब के ज़रीये अपनी नूअ की तरक़्क़ी की आख़िरी मंज़िलों को तै करके ख़ुदा के अज़ली इरादे को पूरा कर सकें। अगर कोई मज़्हब नूअ इन्सानी की मुस्तक़िल मंज़िलों में उस का साथ नहीं दे सकता तो वो मज़्हब यक़ीनन आलम गीर होने की सलाहीयत नहीं रखता। बअल्फ़ाज़-ए-दीगर जो मज़्हब ज़माना-ए-माज़ी में ही नूअ इन्सानी के काम आया हो या सिर्फ दौर-ए-हाज़रा के सियासी या मुआशरती मसाइल को आरिज़ी तौर पर ही हल कर सके, लेकिन ज़माना-ए-मुस्तक़बिल में नूअ इन्सानी की आख़िरी मंज़िलों में उस का हादी और राहनुमा ना हो सके, वो मज़्हब किसी सूरत में आलमगीर मज़्हब नहीं हो सकता। ऐसा मज़्हब तारीख़ के सफ़्हों में अपने लिए जगह हासिल कर लेगा। क्योंकि नूअ इन्सानी की गुज़श्ता तवारीख़ में वो किसी ज़माने में इन्सान के काम आया था, लेकिन चूँकि वो आइंदा ज़माने में इन्सान का साथ नहीं दे सकता, कोई ज़माना ऐसा आएगा जब वो ज़िंदा मज़्हब नहीं रहेगा बल्कि मर दर ज़माने के साथ ही वो मज़्हब भी मुर्दा हो जाएगा। आलमगीर मज़्हब सिर्फ वही मज़्हब हो सकता है जिस पर नूअ इन्सानी की बक़ा का इन्हिसार हो और आइंदा ज़माने में भी इस पर बनी नूअ इन्सान की हयात का दारो-मदार हो ताकि कुल ममालिक व अक़्वाम की आइंदा नसलें उस की राहनुमाई के मातहत अपनी हस्ती के तमाम मराहिल को तै करके मंशा-ए-इलाही को पूरा कर सकें।

(4)

इस में कुछ शक नहीं कि आलमगीर मज़्हब की शनाख़्त करने में नूअ इन्सानी की गुज़श्ता तारीख़ हमारी मदद और राहनुमाई कर सकती है। ये ज़ाहिर है कि किसी मज़्हब का ये दावा कि मैं आलमगीर हूँ, फ़ी नफ़्सही कुछ वक़अत नहीं रखता। ये ज़रूरी अम्र है कि उस का दावा दलाईल व बराहीन पर मबनी हो और उस की पुश्त पर ज़बरदस्त तारीख़ी शहादत हो। आलमगीर मज़्हब के पहचानने में क़ुद्रतन ये सवाल उठता है कि क्या ये मज़्हब ज़माना गुज़श्ता में किसी मुल़्क या क़ौम या क़बीले का चिराग़ हिदायत रहा है? क्या उसने किसी ख़ास ज़माने में किसी ख़ास मुल्क या क़ोम की ऐसी कामयाबी के साथ राहबरी की है कि वो मुल्क या क़ौम चाह्-ए-ज़लालत से निकल कर तरक़्क़ी की शाहराह पर गामज़न हो गई? क्या उस ख़ास ज़माने के बाद भी वो मज़्हब उस मुल्क या क़ौम की दौर-ए-हाज़रा तक कामयाबी से राह बरी करता रहा है। क्या उस क़ौम या मुल्क की तारीख़ में एक ज़माना ऐसा भी आया जब वो मज़्हब उस की राहबरी ना कर सका? और अगर किसी ज़माने में वो नाकाम रहा तो अपने उसूल के सबब से नाकाम रहा है या ख़ारिजी हालात ही ऐसे पैदा हो गए जिनकी वजह से इस मज़्हब का चिराग़ टिमटिमा ने लगा और इस की रोशनी मद्धम पड़ गई? क्या दुनिया की तारीख़ हमें बताती है कि उस मज़्हब के उसूल उस ख़ास मुल्क या क़ौम के इलावा दीगर ममालिक व अक़्वाम आलम के राहनुमा रह चुके हैं और दीगर अज़्मिना और अक़्वाम के लोगों पर कामयाबी से हावी हो चुके हैं या नहीं? अगर तारीख़ ये बताए कि उस के उसूल का इतलाक़ दीगर अक़्वाम व अज़मिनह और ममालिक पर नहीं हो सका तो ज़ाहिर है कि वो मज़्हब आलमगीर नहीं है। लेकिन अगर तारीख़ ये बताए कि उस के उसूल का इतलाक़ किसी ख़ास मुल्क के इलावा दीगर अक़्वाम, ममालिक और अज़्मिना पर कामयाबी से हुआ है तो ज़ाहिर है कि ये तारीख़ी शहादत उस के आलमगीर होने के हक़ में एक निहायत ज़बरदस्त दलील होगी। क्योंकि दुनिया के मुख़्तलिफ़ मुल्कों और जहान की मुख़्तलिफ़ क़ौमों और नूअ इन्सानी की मुख़्तलिफ़ नसलों के लाखों इख़्तिलाफ़ात में सिर्फ एक वाहिद अम्र यानी वो मज़्हब ही ऐसा होगा जो सब में आम है। पस अज़रूए उसूल मन्तिक़ वही एक शय इन मुख़्तलिफ़ मुल्कों, क़ौमों, गिरोहों और नसलों की कामयाबी का सबब मुतसव्वर होगी। अगर कोई मज़्हब ऐसा है जिसने ज़माना-ए-माज़ी में सदीयों तक दुनिया के बीसियों मुल्कों और हज़ारों क़ौमों और लाखों नसलों के करोड़ों अफ़राद की कामयाबी के साथ राहनुमाई की है और इस के उसूल उन पर हावी रहे हैं तो यक़ीनन ये साबित हो जाएगा कि इस मज़्हब में आलमगीर होने की सलाहीयत मौजूद है। अक़्ल और क़ियास यही चाहता है कि जो मज़्हब ज़माना-ए-माज़ी में ऐसी शानदार कामयाबी हासिल कर चुका है और दौर-ए-हाज़रा में अक़्वामे आलम की राहबरी कर रहा है, वो ज़माना-ए-मुस्तक़बिल में भी नूअ इन्सानी की आइंदा नसलों को ख़ुदा के अज़ली इरादे के मुताबिक़ ढाल कर मंशा-ए-इलाही को पूरा कर सकता है।

3. आलमगीर मज़्हब के उसूल जामे होते हैं

चूँकि आलमगीर मज़्हब का ताल्लुक़ कुल अक़्वाम-ए-आलम के साथ है और वो ज़माना-ए-माज़ी, दौर-ए-हाज़रा और ज़माना-ए-मुस्तक़बिल के साथ वाबस्ता है और इस के उसूल आला तरीन और बुलंद तरीन पाये के होते हैं। लिहाज़ा ये ज़रूरी अम्र है कि आलमगीर मज़्हब के उसूल मज़ाहिब-ए-आलम के आला उसूल के जामें हों। ये ज़ाहिर है कि दुनिया के मज़ाहिब में सदाक़त के अनासिर मौजूद हैं। दुनिया की तारीख़ में कोई ऐसा मज़्हब पैदा नहीं हुआ जो सरासर बातिल हो और जिसमें अलिफ़ से ले कर ये तक किज़्ब व दजल (झूट और फ़रेब) ही हो और जिसमें ज़र्रा भर सदाक़त का वजूद भी ना हो। हर मज़्हब किसी एक ज़माने में किसी एक क़ौम या मुल्क या पुश्त के लोगों की किसी हद तक राहनुमाई करता रहा है। जिस हद तक वो किसी क़ौम के अफ़राद की राहबरी करने में कामयाब रहा है, उस हद तक वो अपने उसूल की वजह से कामयाब रहा है और जिस हद तक उस के उसूल ने उस को कामयाब किया है उस हद तक उस के उसूल में सदाक़त का अंसर मौजूद है और जिस हद तक वो नाकाम रहा है, उस हद तक उस के उसूल बातिल साबित हुए। पस ना तमाम मज़ाहिब-ए-आलम में हत्ता कि उनके मज़ाहिब में भी जिनको हम “मज़ाहिब बातिला” और “मुश्रिकाना मज़ाहिब” के नाम से मौसूम करते हैं, सदाक़त का कोई ना कोई अंसर मौजूद है। जिसकी वजह से वो अपने ज़माने में किसी हद तक अपने मुक़ल्लिदों की राहनुमाई कर सके और करते भी रहे। लेकिन जिस हद तक वो ना कर सके, वो ना-कामिल और ग़ैर-मुकम्मल साबित हुए। इनमें से बाअज़ में बतालत के अनासिर इस क़द्र ज़्यादा थे कि उनमें हक़ की रोशनी निहायत मद्धम और ख़फ़ीफ़ तौर से हमको अपनी झलक कभी-कभी दिखाती है। जो शख़्स तारीख़ मज़्हब को तास्सुब के बग़ैर बनज़र-ए-ग़ौर मुतालआ करता है, उस को ये मद्धम से मद्धम झलक ज़रूर नज़र आ जाती है। इन मज़ाहिब के ग़ैर-मुकम्मल और ना-कामिल होने में किसी साहब-ए-होश को शक नहीं हो सकता और इस के लिए ये काफ़ी दलील है कि वो मज़ाहिब नूअ इन्सानी की तरक़्क़ी के बोझ के हामिल ना हो सके। उनमें सदाक़त के अनासिर इस क़द्र कमज़ोर थे कि उनके नाज़ुक कंधे इस बार-ए-गराँ को उठा ना सके।

नूअ़ इन्सानी तरक़्क़ी करके बहुत आगे निकल गई और उन मज़ाहिब को दक़यानूसी, फ़र्सूदा और बोसीदा समझ कर अपनी तरक़्क़ी की ख़ातिर उनसे ज़्यादा कामिल मज़ाहिब की तलाश करने में सरगर्दां रही, जिनमें सदाक़त के ज़्यादा अनासिर मौजूद थे। ये मज़ाहिब भी कुछ ज़माने तक नूअ इन्सानी के काम आए, लेकिन फिर एक वक़्त आया जब नूअ इन्सानी शाहराह-ए-तरक़्क़ी की ऐसी मंज़िल पर पहुंची जहां ये मज़ाहिब भी उस को ग़ैर-मुकम्मल और दक़यानूसी नज़र आने लगे और वो उनसे भी ज़्यादा कामिल मज़्हब की जुस्तजू और तलाश में मशग़ूल हो गई। यूं हर मज़्हब सदाक़त के उन अनासिर की वजह से जो वो अपने अंदर रखता था, नूअ इन्सानी की तरक़्क़ी की मुख़्तलिफ़ मनाज़िल में उस के काम आता रहा।

आलमगीर मज़्हब के लिए लाज़िम है कि वो उन ग़ैर-मुकम्मल मज़ाहिब की सदाक़तों के अनासिर का जामा हो और जो सदाक़तें किसी अदना से अदना मज़्हब में मौजूद हूँ (और जिन्हों ने इन्सानी तरक़्क़ी में मदद दी है। वो सबकी सब आला तरीन हालत में आलमगीर मज़्हब में मौजूद हूँ), ये एक हक़ीक़त है कि मुख़्तलिफ़ ममालिक के मज़ाहिब मुख़्तलिफ़ सदाक़तों पर ज़ोर देते रहे हैं। हर मज़्हब अपनी क़ौम और मुल्क की ज़रूरीयात के मुताबिक़ अहकाम जारी करता रहा है। मसलन जापान में शिन्तो मत मज़्हब एक क़िस्म की सदाक़त के अनासिर अपने अंदर रखता है। चीन का मज़्हब दूसरी क़िस्म के अनासिर पर ज़ोर देता है। अगर हिंदू मज़्हब के अंदर दूसरी क़िस्म के अनासिर सदाक़त मौजूद हैं। अरब के मज़्हब के अंदर दूसरी क़िस्म के अनासिर सदाक़त मौजूद हैं जो ज़रतुश्त मज़्हब के अनासिर-ए-सदाक़त से मुख़्तलिफ़ हैं। पस लाज़िम है कि आलमगीर मज़्हब इन तमाम सदाक़तों का मजमूआ हो और दुनिया के किसी मज़्हब की कोई सदाक़त भी इस मज़्हब से ख़ारिज ना हो, बल्कि हर मज़्हब की सदाक़त के अनासिर सिर्फ अपनी आला तरीन शक्ल में इस आलमगीर मज़्हब में मौजूद हूँ। मसलन चीन का मज़्हब ख़ानदान की पाकीज़गी की सदाक़त पर ज़ोर देता है। लाज़िम है कि आलमगीर मज़्हब ना सिर्फ ख़ानदानी पाकीज़गी की तालीम दे, बल्कि ये सदाक़त इस में बदर्जा अह्सन पाई जाये। अरब का मज़्हब अल्लाह की वहदानियत, अज़मत और बरतरी पर ज़ोर देता है। पस लाज़िम है कि आलमगीर मज़्हब ना सिर्फ ख़ुदा की अज़मत व वहदनियत की तालीम दे, बल्कि उस में ये सदाक़त अपनी आला तरीन हालत में पाई जाये। हिंदू मज़्हब के हमा ओसती नज़रिये में ये सदाक़त पाई जाती है कि परमात्मा हर जगह हाज़िर व नाज़िर है। लिहाज़ा ज़रूर है कि आलमगीर मज़्हब में ख़ुदा के हर जा हाज़िर व नाज़िर होने की तालीम उस की पाक तरीन शक्ल में पाई जाये। पस ये वाहिद आलमगीर मज़्हब, मज़ाहिबे आलम की सदाक़तों का जामा होना चाहीए और ये सदाक़तें जो मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब में टिमटिमाती रोशनी की तरह मौजूद हैं, आलमगीर मज़्हब में बदर्जा अह्सन पाई जाएं और आफ़्ताब निस्फ़-उन्नहार की तरह चमकें ताकि नूअ इन्सानी उनकी रोशनी में अज़ इब्तिदा ता इंतिहा तरक़्क़ी की तमाम मनाज़िल को तै कर सके।

4. आलमगीर मज़्हब के उसूल कामिल होते हैं

हमने सुतूर बाला में ये ज़िक्र किया है कि दुनिया के मज़ाहिब-ए-बातिला में भी सदाक़त के अनासिर पाए जाते हैं, जिनकी रोशनी उनके बातिल अनासिर की वजह से इमत्तीदाद (तवालत, मुद्दत) ज़माने के साथ निहायत धीमी और मद्धम पड़ जाती है। पस जहां ये ज़रूरी अम्र है कि आलमगीर मज़्हब में तमाम सदाक़त के अनासिर पाए जाएं, वहां ये भी अशद ज़रूरी है कि वो इन मज़ाहिब-ए-बातिला के बातिल अनासिर से बिल्कुल पाक हो। हम सुतूर बाला में ये ज़िक्र कर चुके हैं कि ये मज़ाहिब बातिला अपने बातिल अनासिर की वजह ही से नूअ़ इन्सानी को तरक़्क़ी की शाहराह पर चलाने में नाकाम रहे हैं। जब नूअ इन्सानी ने एक मरहला तै कर लिया तो उस को इन मज़ाहिब के ग़ैर-मुकम्मल और कज अख़्लाक़ बातिल पहलू नज़र आने लगे, जिनकी वजह से वो आगे तरक़्क़ी करने से रुक गई। पस वो ऐसे मज़ाहिब की तलाश करने लगी जिनमें सदाक़त के अनासिर ज़्यादा और ग़ैर-मुकम्मल अनासिर कम हों, जिनकी रोशनी में वो अगली मंज़िल तै कर सके। किसी मज़्हब की नाकामी उस के बातिल और ग़ैर-मुकम्मल अनासिर की वजह से है। पस जिस मज़्हब में बातिल और ना-मुकम्मल अनासिर होंगे, वो मज़्हब आलमगीर नहीं हो सकता। उस की तारीख़ में एक ज़माना ऐसा आएगा जब नूअ इन्सानी उस मज़्हब की अख़्लाक़ीयात के नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) से कहीं ज़्यादा तरक़्क़ी कर जाएगी और उस की नुक्ता-चीनी करके उस में बातिल अनासिर को तश्त अज़बाम (ज़ाहिर, रुस्वा) कर देगी और उस मज़्हब को ग़ैर-मुकम्मल क़रार दे देगी और एक ऐसे मज़्हब की तलाश और जुस्तजू करेगी जिसकी कामिल अख़्लाक़ीयात और अख़्लाक़ फाज़िला को वो अपना नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) बना सके। मसलन अगर किसी मज़्हब में उहाम और बातिल परस्ती के अनासिर मौजूद हैं तो उस की तारीख़ में एक ज़माना ऐसा आता है जब लोग इल्म की रोशनी की वजह से उन उहाम से नजात हासिल करके उस मज़्हब को ख़ैर बाद कह देते हैं और उस से बेहतर मज़्हब की जुस्तजू करने लग जाते हैं। जूँ-जूँ इल्म तरक़्क़ी करता जाता है और लोगों की अक़्ल उस के नूर से मुनव्वर हो जाती है, उन पर मज़्हब के ग़ैर-मुकम्मल पहलू रोशन होते जाते हैं और वो एक ऐसे मज़्हब को तलाश करते हैं जिसमें तारीकी का साया तक ना हो। आलमगीर मज़्हब के लिए ज़रूरी है कि उस की अख़्लाक़ीयात ग़ैर-मुकम्मल ना हों, बल्कि ऐसी कामिल, बुलंद और आला हूँ कि इन्सानी फ़हम और इदराक किसी मुस्तक़बिल ज़माने में भी उनको ग़ैर-मुकम्मल क़रार ना दे सके। बल्कि उस के बरअक्स नूअ़ इन्सानी अपनी तरक़्क़ी की हर मंज़िल पर इस कामिल और अकमल मज़्हब के नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को बराबर पेश-ए-नज़र रखकर अपने वजूद की इल्लते गाई को पूरा कर सके।

5. आलमगीर मज़्हब के उसूल अक़्वाम की नश्वो नुमा में मुमिद व मुआविन होते हैं

ये एक वाज़ेह हक़ीक़त है कि अक़्वाम-ए-आलम एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ होती हैं। हर क़ोम की तर्ज़-ए-रिहाइश और मुआशरत दूसरी क़ौम से अलग है। उनके ख़यालात, जज़्बात, एतिक़ादात, रस्मियात वग़ैरह में ज़मीन व आस्मान का फ़र्क़ है। हर क़ोम अपने वजूद का इज़्हार अपने ख़ुसूसी तर्ज़ से करती है। मसलन अफ़्रीक़ा के वहशी और नीम मुहज़्ज़ब क़बाइल की ज़िंदगी और अरब के तमद्दुन और जापान के तर्ज़-ए-मुआशरत और हिन्दुस्तान के बाशिंदों की तर्ज़-ए-ज़िंदगी में नुमायां फ़र्क़ है। अरब के बाशिंदे अपने वजूद का इज़्हार ऐसे तरीक़े से करते हैं जो उन्हीं से नुमायां मख़्सूस है और ये वो तरीक़ा नहीं है जिस से जर्मनी की क़ौम अपने वजूद का इज़्हार करती है। इस लिहाज़ से क़ौम क़ौम में फर्क-ए-अज़ीम है और ये ख़ालिक़ के मंशा के ऐन मुताबिक़ भी है। ख़ुदा ने निज़ाम-ए-आलम को इस तौर पर क़ायम किया है कि उस के हर एक हिस्से का काम दूसरे हिस्से के काम से जुदागाना है। जिस तरह जिस्म के मुख़्तलिफ़ आज़ा में हर एक उज़ू के सपुर्द जुदागाना काम है और जिस तरह एक ही सोसाइटी में मुख़्तलिफ़ अफ़राद हैं और ख़ुदा ने हर एक फ़र्द के सपुर्द जुदागाना काम किया है। बक़ौल शख़से :-

हर किसे राबहर कारे साख़तंद

इसी तरह नूअ इन्सानी में मुख़्तलिफ़ अक़्वाम शामिल हैं और हर क़ौम अपनी हस्ती का इज़्हार जुदागाना तौर पर करती है। इलावा अज़ीं जिस तरह हमारे जिस्म के आज़ा उन कामों को जो उनके सपुर्द हैं सरअंजाम देकर बदन को मज़्बूत और ताक़तवर बनाते हैं और जिस तरह एक सोसाइटी के अफ़राद अपने-अपने फ़राइज़ मन्सबी को सर-अंजाम देकर उस सोसाइटी की ताक़त का बाइस होते हैं, इसी तरह कुल दुनिया की क़ोमें अपने-अपने जुदागाना ख़ुसूसी तर्ज़ के मुताबिक़ अपने-अपने वजूद का इज़्हार करके नूअ इन्सानी को तक़वियत देती हैं और उस की तरक़्क़ी का बाइस होती हैं क्योंकि :-

बनी-आदम आज़ाए यक दीगर अंद

आलमगीर मज़्हब का ये काम है कि वो हर एक क़ौम की नश्वो नुमा में ऐसे तौर से मदद करे कि इस क़ौम की ख़ुसूसियात ज़ाइल ना हों, बल्कि इस के बरअक्स हर क़ौम इस आलमगीर मज़्हब के ज़रीये तरक़्क़ी करके अपने ख़ास तरीक़े मुआशरत व तमद्दुन वग़ैरह का यूं इज़्हार कर सके कि नूअ इन्सानी तरक़्क़ी और तक़वियत हासिल करे। जिस तरह हमारे जिस्म के क़वानीन ऐसे हैं कि वो हमारे एक-एक उज़ू को उस का जुदागाना फ़र्ज़ पूरा करने में मुमिद व मुआविन होते हैं ताकि हमारा तमाम जिस्म ताक़त पकड़े और इसी तरह सोसाइटी के क़वानीन ऐसे होने चाहिए कि वो एकएक फ़र्द की तरक़्क़ी और शख़्सियत के इज़्हार में मुमिद व मुआविन हूँ। इसी तरह आलमगीर मज़्हब के उसूल ऐसे होने चाहिऐं कि वो दुनिया की एक एक क़ौम की तरक़्क़ी और इस की हस्ती के इज़्हार में मुमिद व मुआविन हों। अगर हम अपने जिस्म के आज़ा पर ऐसा जबर कर सकें कि हर एक उज़ू सिर्फ एक ही क़िस्म का काम करे तो ये एक नामुम्किन बात होगी। इसी तरह अगर कोई सोसाइटी अपने अफ़राद पर जबर रवा रखकर हर एक फ़र्द को एक ही साँचे में ढालना चाहे तो ये एक ग़ैर-फ़ित्रती हरकत होगी। अला हज़ा-उल-क़ियास अगर कोई मज़्हब अक़्वाम आलम को एक ही साँचे में ढालने की कोशिश करे तो ये एक ग़ैर-फ़ित्रती बात होगी। क्योंकि ख़ुदा ने जिस तरह हर एक फ़र्द को मुख़्तलिफ़ क़ाबिलीयतें अता की हैं, इसी तरह उसने हर एक क़ौम को मुख़्तलिफ़ नेअमतें अता फ़रमाई हैं। चुनान्चे हज़रत ज़ौक़ फ़र्माते हैं :-

ऐ ज़ौक़ इस चमन को है ज़ेब इख़्तिलाफ़ से

जो मज़्हब दुनिया की मुख़्तलिफ़ क़ौमों की क़ाबिलियतों और नेअमतों के इख़्तिलाफ़ात को मिटा कर उनकी तर्ज़-ए-रिहाइश व मुआशरत, उनकी इक़्तिसादी, मजलिसी, तमद्दुनी, सियासी ज़िंदगी को एक ही साँचे में ढालने की कोशिश करता है या ऐसा करने का हुक्म देता है। वो मज़्हब मंशा-ए-इलाही के ख़िलाफ़ चलता है और इन्सानी फ़ित्रत का तक़ाज़ा पूरा नहीं करता। वो हरगिज़ इस लायक़ नहीं हो सकता कि आलमगीर मज़्हब कहलाने का मुस्तहिक़ हो। इस के बरअक्स आलमगीर मज़्हब की ये कोशिश होगी कि हर एक क़ौम अपनी जुदागाना तर्ज़-ए-रिहाइश, तरीक़ मुआशरत और मुख़्तलिफ़ आदाब तमद्दुन के ज़रीये अपनी हस्ती का इज़्हार ख़ालिक़ के उस अज़ली इरादे के मुताबिक़ करे जिसके लिए रब-उल-आलमीन ने इस क़ौम को पैदा किया है। आलमगीर मज़्हब हर एक क़ौम की क़ौमी नश्वो नुमा में ख़लल-अंदाज़ होने के बजाय उस की ख़ुसूसी क़ाबिलियतों को तरक़्क़ी देता है, ताकि अक़्वाम-ए-आलम अपनी अपनी जुदागाना क़ौमी नश्वो नुमा के ज़रीये नूअ इन्सानी की क़ुव्वत और तक़वियत का बाइस हों और नूअ इन्सानी शाहराह-ए-तरक़्क़ी की तमाम मंज़िलों को तै करके उस नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को हासिल करसके जिसके वास्ते ख़ुदा ने नूअ इन्सानी को पैदा किया है।

6. आलमगीर मज़्हब का बानी एक कामिल नमूना होना चाहिए

सुतूरबाला में हमने आलमगीर मज़्हब के सिर्फ उसूल का ही ज़िक्र किया है कि वो किस क़िस्म के होने चाहिऐं। लेकिन मुजर्रिद उसूल ख़्वाह वो कैसे ही अर्फ़ा व आला और अफ़्ज़ल क्यों ना हों, अपने अन्दर यह ताक़त नहीं रखते कि किसी शख़्स या जमाअत या क़ौम में तब्दीली पैदा कर सकें। पस आलमगीर मज़्हब के लिए ना सिर्फ ये ज़रूरी है कि उस के उसूल आला व अर्फ़ा, जामे और कामिल हों, बल्कि ये भी अशद ज़रूरी है कि उस में एक कामिल नमूना भी मौजूद हो, जिसकी शख़्सियत और ज़िंदगी में वो आला और अफ़्ज़ल उसूल पाए जाएं। वालदैन और उस्ताद इस हक़ीक़त से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं कि उसूल की तल्क़ीन से नेक नमूना दिखाना बेहतर और ज़्यादा मोअस्सर होता है। अगर बच्चों को नेक उसूल की जानिब राग़िब करना हो तो हम उनको सिर्फ़ नेक उसूल रटाने से ही राग़िब नहीं कर सकते, बल्कि नेक उसूल को ख़ुद अपनी अमली ज़िंदगी में दिखा कर उनको मुतास्सिर कर सकते हैं। क़ाबिल वालदैन और लायक़ उस्ताद वही होते हैं जो ख़ुद अपने ख़यालात व जज़्बात और आमाल व अफ़आल के ज़रीये अपने बच्चों को नेक उसूल पर चलने की तर्ग़ीब और नमूना दोनों देते हैं। इस तरह उनकी ज़िंदगीयों को हमेशा के लिए मुतास्सिर कर देते हैं। क्योंकि वो अपने नमूने से उनको नेक उसूल की तालीम देते हैं। अगर वालदैन या उस्ताद अपने बच्चों को सिर्फ नेक उसूल रटाने पर ही क़नाअत करें, लेकिन उन के सामने अपनी ज़िंदगी के ज़रीये इन नेक उसूल का नमूना बन कर ना दिखाएं तो बच्चों की ज़िंदगीयों पर रत्ती भर भी असर नहीं होता, बल्कि अक्सर औक़ात उन पर उल्टा असर पड़ता है। वालदैन और उस्ताद तजुर्बे से जानते हैं कि बच्चे तबअन निक़ाल होते हैं और वही काम करते हैं जो वो दूसरों को करते देखते हैं। पस उनको मुकम्मल नमूने की ज़रूरत होती है, ना कि आला और अफ़्ज़ल उसूल रटने की। अगर वालदैन या उस्ताद उनको सिर्फ़ नेक उसूल की तल्क़ीन करें, मसलन शराबखोरी और चोरी से मना करें, लेकिन ख़ुद मय खौर हों तो बच्चे मय ख़्वारी से कभी परहेज़ ना करेंगे, बल्कि उनकी वही आदतें होंगी जिनका नमूना उनके सामने रखा जाता है। लेकिन अगर वालदैन ना सिर्फ उनको नेक उसूल की तल्क़ीन करें बल्कि अपने अफ़आल के ज़रीये उन नेक उसूलों का नमूना भी अपने बच्चों के सामने पेश करें तो बच्चे उन नेक उसूलों की जानिब राग़िब होंगे और उनकी ज़िंदगी नेक उसूलों और नेक नमूना दोनों के ज़रीये मुतास्सिर भी होगी। इसी लिए क़ुरआन मजीद में आया है कि, یاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا لِمَ تَقُوۡلُوۡنَ مَا لَا تَفۡعَلُوۡنَ यानी “ऐ ईमान वालो वो बात क्यों कहते हो जो तुम ख़ुद नहीं करते।” (सूरह सफ़ आयत 2)

पस निहायत ज़रूरी है कि आलमगीर मज़्हब बनी नूअ इन्सान के सामने ना सिर्फ आला और अर्फ़ा उसूल पेश करे, बल्कि एक कामिल और अकमल नमूना भी पेश करे। जहां ये लाज़िम है कि आलमगीर मज़्हब के आला तरीन और अफ़्ज़ल तरीन उसूल हों जो अक़्वामे आलम पर हावी हो सकते हों, वहां ये भी लाज़िम है कि आलमगीर मज़्हब बनी नूअ इन्सान के सामने एक ऐसा आलमगीर नमूना भी पेश करे, जिसकी शख़्सियत में वो आला और अर्फ़ा उसूल मुजस्सम और मौजूद हों और जिसकी दिल-आवेज़ ज़ात व सिफ़ात तमाम अक़्वाम-ए-आलम का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) और मतमा नज़र हो सके, जिस तरह आलमगीर मज़्हब के उसूल होने चाहिऐं के सब लोगों की ज़मीरें उनको मान सकें। इसी तरह उस में एक ऐसा आलमगीर नमूना भी होना चाहीए जिसके सामने तमाम दुनिया बिला लिहाज़ रंग, नस्ल, क़ौम और मुल्क सर तस्लीम ख़म कर दे। आलमगीर मज़्हब में ना सिर्फ आलमगीर उसूल होने चाहीए बल्कि उस में एक ऐसा आलमगीर नमूना भी होना चाहीए जिस ने ज़माना माज़ी में करोड़ों इन्सानों की ज़िंदगीयों को तब्दील कर दिया हो और दौरे हाज़िर में वो अक़्वाम आलम को कमालियत के औज की तरफ़ ले जाता हो और ज़माना-ए-मुस्तक़बिल में अपने कामिल नमूने के नूर से नूअ इन्सानी की राह को रोशन करने की सलाहीयत रखता हो।

7. गुनाह पर ग़ालिब आने की तौफ़ीक़

आलमगीर मज़्हब के लिए सबसे बड़ी और बुनियादी शर्त ये है कि वो नूअ इन्सानी को गुनाह और बदी पर ग़ालिब आने की तौफ़ीक़ दे। आलमगीर मज़्हब के लिए ना सिर्फ ये लाज़िम है कि वो आला और अफ़्ज़ल उसूल और अख़्लाक़ हसना की तालीम दे और एक कामिल नमूना नूअ इन्सानी के पेश-ए-नज़र रखे, बल्कि ये भी अशद ज़रूरी है कि वो इन्सान को ये तौफ़ीक़ अता करे कि वो गुनाह और बदी को मग़्लूब कर सके। ख़्वाह वो उस के अंदर हो या उस के माहौल में हो। हमने सुतूर बाला में ये ज़िक्र किया है कि मुजर्रिद उसूल ख़्वाह वो कितने ही बुलंद पाये के हों, अपने अन्दर यह क़ुव्वत नहीं रखते कि इन्सान में उन पर चलने की तर्ग़ीब पैदा हो। लाज़िम है कि एक कामिल और नमूना भी हो जो उन नेक और आला उसूलों पर ख़ुद चल कर दूसरों को तहरीस व तर्गिब दे सके कि वो उस के नक़्श-ए-क़दम पर चलें। लेकिन जो लोग गुनाह के ग़ुलाम हो कर बदी के हाथों बिक चुके हैं, वो आला उसूल और कामिल नमूने की तारीफ़ व तौसिफ में रत्बुल्लिसान तो ज़रूर होंगे, लेकिन वो ख़ुद गुनाहों की ज़ंजीर में ऐसे जकड़े होते हैं और उनकी क़ुव्वते इरादी इस क़द्र सल्ब हो जाती है कि ना तो मुजर्रिद उसूल और ना कामिल नमूना उनको इस बात पर आमादा कर सकता है कि वो अपने नफ़्स-ए-अम्मारा का मुक़ाबला करें और अपनी बद-आदतों की गु़लामी की ज़ंजीरों को तोड़ सकें। बक़ौल शख्से :-

जानता हूँ सवाब-ए-ताअत व ज़हद

पर तबइयत इधर नहीं आती

मुक़द्दस पौलुस रसूल की तरह उनकी रात-दिन चीख़ व पुकार ही होती है कि हाय मैं गुनाह के हाथ बिका हुआ हूँ। जिस नेक उसूल पर अमल करने का इरादा करता हूँ वो मैं नहीं करता, लेकिन जिस बदी से मुझे नफ़रत है, मैं वही करता हूँ। मुझमें कोई नेकी मौजूद नहीं। अलबत्ता नेकी करने की ख़्वाहिश मुझमें मौजूद है, मगर नेक काम मुझसे बन नहीं पड़ता। चुनान्चे जिस नेकी का इरादा करता हूँ वो तो नहीं करता मगर जिस बदी का इरादा नहीं करता उसे ख़ुद बख़ुद बग़ैर शऊरी इरादा और कोशिश के कर लेता हूँ और जब नेकी का इरादा करता हूँ बदी मेरे पास आ मौजूद होती है। हाय मैं कैसा कमबख़्त आदमी हूँ, इस गुनाह की क़ैद से मुझे कौन छुड़ाएगा? (रोमीयों 7:14-24)

आलमगीर मज़्हब का काम है कि ऐसे शख़्स को गुनाह पर ग़ालिब आने की तौफ़ीक़ अता करके उस को बदी की क़ैद से छुड़ाए। उस की क़ुव्वत-ए-इरादी में जो सल्ब हो गई है, दुबारा जान डाले और अपने मसीहाई दम से उस मुर्दा को अज़सर-ए-नव ज़िंदा कर दे। आलमगीर मज़्हब का ये काम है कि गुनेहगार शख़्स के लिए ऐसे मरग़बात (मर्गुबात, पसंदा चीज़ें) और मुहर्रिकात मुहय्या और पैदा करे कि उस की मुर्दा क़ुव्वत-ए-इरादी तक़वियत हासिल करके अज़ सर-ए-नव मज़्बूत और ताक़तवर हो कर आज़माईश के वक़्त उन मर्गुबात और मुहर्रकात से मदद पाकर कामिल नमूने की तरफ़ नज़र करके गुनाह और बदी से मर्दानावार मुक़ाबला कर सके और उन पर ग़ालिब आकर आला और अफ़्ज़ल उसूल पर अमल कर सके। अगर किसी मज़्हब में ये ताक़त नहीं कि वो गुनेहगार को गुनाह पर ग़ालिब आने की तौफ़ीक़ दे सके तो ऐसा मज़्हब हरगिज़ आलमगीर नहीं हो सकता। जिस मज़्हब में सिर्फ आला उसूल ही हैं, वो सिर्फ़ अख़्लाक़ीयात का मजमूआ ही होता है और वो ऐसे लोगों के लिए ही मौज़ूं हो सकता है जिनकी क़ुव्वत-ए-इरादी ऐसी ज़बरदस्त होती है कि शैतान का मुक़ाबला करके उस को पछाड़ लें। वो तंदुरुस्त आदमीयों की मानिंद हैं, जिनको तबीब की ज़रूरत नहीं होती। लेकिन इस दुनिया में चिराग़ लेकर ढूंढ़ो आपको एक करोड़ इन्सानों में ब-सद मुश्किल एक ऐसा शख़्स मिलेगा जिसकी क़ुव्वत-ए-इरादी ऐसी ज़बरदस्त हो कि वो हर मौक़े पर आज़माईश पर ग़ालिब आ जाए। बाक़ी निनान्वें लाख निनान्वें हज़ार नौ सौ निनान्वें अश्ख़ास ऐसे होंगे जो गुनाह की बीमारी से नहीफ़, लागर और कमज़ोर हो गए हैं और अपनी क़ुव्वत-ए-इरादी को खोकर लाचार और बेज़ार बैठे हैं। आलमगीर मज़्हब का ये काम है कि उन लाखों अश्ख़ास की क़ुव्वत-ए-इरादी में अज़ सर-ए-नव जान डाल दे और उनको ये तौफ़ीक़ अता करे कि वो अपने गुनाहों पर ग़ालिब आ सकें।

8. आलमगीर मज़्हब और मसीहिय्यत

हम इंशा-अल्लाह इस रिसाले में ये साबित कर देंगे कि दुनिया में सिर्फ मसीहिय्यत ही एक ऐसा वाहिद मज़्हब है जिसमें वो तमाम ख़ुसूसियात मौजूद हैं जो आलमगीर मज़्हब में होनी चाहिऐं। मसीही मज़्हब अकेला वाहिद मज़्हब है जो इन तमाम शराइत को जिनका ज़िक्र इस बाब में किया गया है, बदर्जा अह्सन पूरा करता है। कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम तमाम आला तरीन और बुलंद तरीन उसूलों पर मुश्तमिल है। मसीहिय्यत ख़ुदा और इन्सान की निस्बत ऐसी तालीम देती है जिससे दीगर तमाम मज़ाहिब यकसर ख़ाली हैं। कलिमतुल्लाह ने ख़ुदा की ज़ात की निस्बत जो तालीम दी है, वो बेनज़ीर, ला-सानी और अबदी है। चूँकि हक़ और सदाक़त अबदी हक़ीक़तें हैं और कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम हक़ है, लिहाज़ा वो आलमगीर और अबदी है। वो नूअ इन्सानी के लिए ता क़ियामत क़ायम रहेगी, क्योंकि वो हक़ पर क़ायम है। (मत्ती 24:25) चुनान्चे फ़्रांस का नाम-वर अक़्ल परस्त रेनान (Renan) कहता है कि,

“सुक़रात ने फ़ल्सफ़ा और अरस्तू ने साईंस की बुनियाद रखी, लेकिन मसीह ने बनी-आदम को ऐसा मज़्हब दिया है कि किसी को ताहाल ये जुर्रत नहीं हुई कि उस के उसूल में कुछ कमी या बेशी करे और मुस्तक़बिल ज़माने में भी कोई शख़्स उनमें कुतर बेवंत (जोड़-तोड़) नहीं कर सकेगा। क्योंकि उस का मज़्हब हर पहलू से कामिल और हमागीर है। ख़ुदावंद मसीह का पहाड़ी वाज़ तमाम ज़मानों के वास्ते है। ऐसा कि ख़्वाह दुनिया में कैसे ही अज़ीम इन्क़िलाबात बरपा हों, दुनिया के इन्सान उस के अफ़्ज़ल, अक़्ली और अख़्लाक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) से मुनहरिफ़ और रु गर्दान नहीं हो सकते। रब्बना मसीह की ज़ात-ए-पाक इन्सानियत की अज़मत व बरतरी की बुलंद तरीन ऊंचाई पर है और उस की तालीम ज़िंदगी और नमूने से नूअ इन्सानी की हमेशा इस्लाह और तजदीद होती रहेगी।”

कलिमतुल्लाह (मसीह) की शख़्सियत, नमूना और तालीम हमारे मुल्क के हिमालया पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी ऐवरैस्ट की तरह है जिसकी ऊंचाई तमाम इन्सानी मसाई पर ख़ंदाज़न है। ये तालीम नूअ इन्सानी की ज़िंदगी की तमाम मनाज़िल व मराहिल में ऐसी राहनुमा है जो मावराए इल्म व तफ़क्कुर और मुनज़्ज़ह अनिल-ख़ता (जो खता ना करे منزہ عن الخطا) है। हुक़ूक़-उल्लाह और हुक़ूक़-उल-ईबाद (ख़ुदा और बन्दे के हुक़ूक़) के मुताल्लिक़ जो तालीम इन्जील शरीफ़ में पाई जाती है, वो लासानी और लाजवाब है। इस के उसूल अक़्वामे आलम पर हावी हैं और इनका इतलाक़ कुल ममालिक व अक़्वाम वज़मिनह पर होता रहा है। पस मसीहिय्यत के उसूल आलमगीर हैं। मसीहिय्यत ज़माना-ए-माज़ी में तमाम ममालिक व अक़्वाम के मज़ाहिब पर फ़ातेह रही है। दौर-ए-हाज़रा में तमाम मज़ाहिब इस के जलाली उसूल की रोशनी में अपनी इस्लाह में मशग़ूल रहते हैं। तारीख़-ए-आलम से अयाँ है कि मसीहिय्यत के सिवा किसी दूसरे मज़्हब का मुस्तक़बिल है ही नहीं। अक़्वाम-ए-आलम के कुल अद्यान की सदाक़तों के अनासिर इस में बदर्जा अह्सन मौजूद हैं और अदयाने आलम के बातिल अनासिर से वो सरासर पाक और मुबर्रा और मुनज़्ज़ह है। पस वो इस लिहाज़ से एक जामे और कामिल मज़्हब है, जिसकी नज़ीर सफ़ा तारीख़ में नहीं मिलती। मसीहिय्यत अक़्वामे आलम की क़ौमी और मिल्ली नश्वो नुमा और तरक़्क़ी में मुमिद व मुआविन रही है और इसने हर ज़माने और हर क़ौम व मुल्क की ज़रूरीयात को बतर्ज़-ए-अह्सन पूरा किया है। इब्ने-अल्लाह (मसीह) का कामिल और अकमल नमूना सदीयों से नूअ इन्सानी के पेश-ए-नज़र रहा है और उसने करोड़ों इन्सानों को “ख़ुदा के फ़र्ज़न्द बनने का हक़ बख़्शा” है। बक़ौल उमर ख़य्याम :-

آنہا کہ خلاصۂ جہاں انسان اند

ہر اوج ملک براق ہمت رانند

در معرفت ذات تو مانند فلک

سر گشتہ سر نگوں و سر گردانند

दौर-ए-हाज़रा में यही कामिल शख़्सियत दुनिया की राहबर है और मुस्तक़बिल में भी इब्ने-अल्लाह ही रूहानियत की दुनिया का वाहिद ताजदार और हुक्मरान नज़र आता है। कलीसियाए जामा के करोड़ों अफ़राद का ये ज़ाती तजुर्बा है कि ख़ुदावंद मसीह उनको गुनाहों से नजात देकर उनको ऐसा फ़ज़्ल अता करते हैं कि वो गुनाह और शैतान पर ग़ालिब आते हैं। वो फ़र्माते हैं "क्योंकि इब्ने आदम खोए हुओं को ढ़ूढ़ने और नजात देने आया है।” (मत्ती 18:11) “ऐ मेहनत उठाने वालो और बोझ से दबे हुए लोगो सब मेरे पास आओ, मैं तुम को आराम दूंगा।” (मत्ती 11:28)

दुनिया के तमाम ममालिक और अक़्वाम के लोग जो मुख़्तलिफ़ ज़मानों में आपके क़दमों में आए बेयक ज़बान इक़रार करते हैं कि “क्योंकि उस की मामूरी में से हम सबने पाया यानी फ़ज़्ल पर फ़ज़्ल।” (यूहन्ना 1:16) मगर ख़ुदा का शुक्र है जो हमारे जनाब मसीह के वसीले से हमको फ़त्ह बख़्शता है।” (1 कुरिन्थियों 15:57) “जो कोई ख़ुदा से पैदा हुआ है वो दुनिया पर ग़ालिब आता है और वो ग़लबा जिस से दुनिया मग़लूब हुई है हमारा ईमान है।” (1 यूहन्ना 5:4) इंशा-अल्लाह हम इस किताब के आइन्दा अबवाब में इस हक़ीक़त को आश्कारा कर देंगे कि तमाम शराइत जिनका बयान इस बाब में किया गया है, बतर्ज़-ए-अह्सन मसीहिय्यत में पूरी होती हैं और मसीहिय्यत अकेला वाहिद और फ़ातेह हुक्मरान और आलमगीर मज़्हब है।

बाब दोम

मसीह कलिमतुल्लाह(کلمتہ اللہ)


گوئی بغیر واسطہ درگوش خاکئے

رازے کزاں خبر بنوو جبرئیل را


(फ़स्ल अव्वल)

मसीहिय्यत की तालीम आलमगीर है

इस फ़स्ल में हम इंशा अल्लाह ये साबित कर देंगे कि मसीहिय्यत की तालीम में वो कुल ख़ुसूसियात बदर्जा अह्सन मौजूद हैं जो आलमगीर मज़्हब में होनी चाहीऐं। इस रिसाले के बाब अव्वल के शुरू में हमने ये बयान किया था कि लाज़िम है कि आलमगीर मज़्हब में ख़ुदा का तसव्वुर आला तरीन क़िस्म का हो, जिसको तमाम दुनिया के ममालिक और कुल आलम की अक़्वाम क़ुबूल कर सकें। इलावा अज़ीं आलमगीर मज़्हब में हुक़ूक़-उल-ईबाद (बन्दों के हुक़ूक़) का अख़्लाक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) ऐसा होना चाहीए जो जामेअ और मानेअ हो और जिसके उसूलों का इतलाक़ तमाम नूअ इन्सानी पर बग़ैर इम्तियाज़, नस्ल, क़ौम, रंग, मुल्क, क़बीला वग़ैरह हो सके। बअल्फ़ाज़े दीगर आलमगीर मज़्हब के अख़्लाक़ीयत का नसब ज़मान व मकान की क़ुयूद से आज़ाद होना चाहीए ताकि इस के उसूलों का इतलाक़ तमाम ज़मानों, मुल्कों और क़ौमों पर हो और इस के उसूल सब आलम व आलमयान पर हावी हों।

हमने इस मौज़ू पर एक मबसूत रिसाला कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम5 लिखा है। लिहाज़ा इस जगह हम निहायत मुख़्तसर तौर पर फ़क़त उन मसीही उसूलों का ज़िक्र करते हैं जो मसीही तालीम की असास (बुनियाद) हैं। इनका सतही मुतालआ भी नाज़रीन पर ज़ाहिर कर देता है कि मसीही तालीम के उसूल जामा हैं और चूँकि वो अज़ सर-ता-पा और अज़ इब्तिदाता इंतिहा रुहानी हैं। लिहाज़ा वो ज़मान व मकान की क़ुयूद से आज़ाद, आलमगीर और कुल अक़्वाम व ममालिक पर हावी हैं।


5 ये किताब पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी लाहौर से मिल सकती है।

1. ख़ुदा मुहब्बत है

कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम का अस्लुल-उसूल ये है कि “ख़ुदा मुहब्बत है।” (1 यूहन्ना 4:8, 4:16) ख़ुदा-ए-वाहिद एक एसी हस्ती है जिसकी ज़ात ही क़ुद्दूस मुहब्बत है। आपकी तालीम का ताना-बाना सिर्फ इस एक उसूल से बना है। इस तालीम के रग व रेशे में ख़ुदा की इस पाकीज़ा क़ुद्दूस मुहब्बत का तसव्वुर मौजूद है। (1 यूहन्ना 4:16 1 कुरिन्थियों 3:11, यूहन्ना 3:16, 14:23, 2 थिस्सलुनीकियों 2:16) ख़ुदा की तमाम सिफ़ात (जो दरहक़ीक़त उस की जोहर ज़ात हैं) फ़क़त इस एक उसूल के मुख़्तलिफ़ और कामिल ज़हूर हैं। मसीहिय्यत के मुताबिक़ इन तमाम सिफ़ात का सही मफ़्हूम सिर्फ़ मुहब्बत के उसूल की रोशनी में ही मालूम हो सकता है। मसलन ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़, अज़ली, ला-महदूद और हर जगह हाज़िर व नाज़िर है। ख़ुदा के हाज़िर व नाज़िर होने से ये मुराद नहीं कि ख़ुदा किसी मकान में इस तौर पर हाज़िर है जिस तरह कोई माद्दी और दीदनी शैय हमारे मकान में पड़ी होती है। बारी तआला ज़मान व मकाँ की क़ुयूद से आज़ाद, बाला, बरतर और रफ़ी है। उस की हुज़ूरी ज़मान व मकाँ में ज़ाहिर होती है, लेकिन ज़मान व मकाँ से महदूद नहीं होती। चूँकि ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है इसलिए जब हम कहते हैं कि वो हाज़िर व नाज़िर है तो इस का मतलब ये होता है कि उस की मुहब्बत हर जगह और हर ज़माने में हाज़िर व नाज़िर है, जो ज़मान व मकाँ से महदूद नहीं है। ख़ुदा एक वाजिब-उल-वजूद, हमादाँ रूह है। जिसकी मुहब्बत हर जगह और हर ज़माने में लामहदूद तौर पर मौजूद है, यानी उस की मुहब्बत की क़ुद्रत की कोई हद नहीं। उस की अज़ली मुहब्बत ऐसी क़ादिर-ए-मुतलक़ है कि वो हर गुनाह को اسفل السافلین (दोज़ख़ का सबसे नीचा यानी सातवाँ तब्क़ा) से बचाने पर क़ादिर है। (ज़बूर 18:16) उस की मुहब्बत हर जगह और हर ज़माने में हाज़िर व नाज़िर है और बदतरीन गुनेहगार को देखकर जोश में आती है और बदतरीन ख़लाइक़ को रूहानियत के औज बरीं पर अपनी क़ुद्रत कामिला से पहुंचा देती है। इस अज़ली मुहब्बत की क़ुद्दुसियत तमाम नेक अख़्लाक़ीयात की सर चश्मा, मर्कज़ और जलाल है और अख़्लाक़ की हस्ती की बिना (बुनियाद) है जिस तरह आफ़्ताब आलम-ए-ताब तमाम सय्यारों की नक़्ल-ए-हरकत का मर्कज़ है।

ये किताब पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी लाहौर से मिल सकती है।

ख़ुदा की मुहब्बत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि ख़ुदा अपनी सिफ़ात हसना से कुल बनी नूअ इन्सान को मुत्तसिफ़ (मौसूफ़, वस्फ़ किया गया) कर दे, ताकि नूअ इन्सानी के सब के सब अफ़राद उस की मुहब्बत में क़ायम रह कर उस के साथ रुहानी रिफ़ाक़त और क़ुर्ब हासिल करें। जिस तरह माँ बाप की मुहब्बत का ये तक़ाज़ा है कि वो अपने फ़रज़न्दों की फ़लाह व बहबूदी के लिए अपनी ज़िंदगी को वक़्फ़ कर दें और बच्चे उनकी मुहब्बत में क़ायम रहें। ख़ुदा का जोहर ज़ात मुहब्बत है जो ख़ुदा और नूअ इन्सानी के बाहमी ताल्लुक़ात की बिना पर है। ख़ुदा की ये मुहब्बत क़ुद्दूस मुहब्बत है। अगर ख़ुदा मुहब्बत ना होता तो वो क़ुद्दूस भी ना होता और अगर वो क़ुद्दूस भी ना होता तो वो मुहब्बत ही ना होता। ख़ुदा का जोहर ज़ात मुहब्बत है जो क़ुद्दूस है। क़ुद्दुसियत उस की मुहब्बत का मर्कज़ है। पस ख़ुदा की मुहब्बत इस बात की ख़्वाहां है कि कुल इन्सान पाक हों। पस इन्जील जलील ख़ुदा की क़ुद्दूस और पाक मुहब्बत को तमाम इन्सानी अख़्लाक़ीयात का मेयार क़रार देती है।

ख़ुदा की ज़ात हर क़िस्म के तनाक़ुज़ (एक दूसरे के मुख़ालिफ़ होना) और तज़ाद से पाक है। पस उस की सिफ़ात कामिला में किसी बाहमी तज़ाद व तनाक़ुज़ का वजूद एक नामुम्किन अम्र है। बाअज़ कम फ़ह्म लोग उस के रहम, क़ुद्दुसियत और अदल का एक दूसरे से मुक़ाबला करते हैं और इस मफ़रूज़ा तक़ाबुल से बाअज़ मसीही मसाइल की तावील करते हैं। लेकिन ये तावीलात अज़ सर-ता-पा बातिल हैं, क्योंकि ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात में बाहमी तज़ाद व तनाक़ुज़ के वजूद का इम्कान सिरे से ही नहीं। ख़ुदा की क़ुद्दूस मुहब्बत इलाही सिफ़त को अपने अंदर जमा रखती है। पस जहां तक मख़्लूक़ कायनात का ताल्लुक़ है ख़ालिक़ की मुहब्बत से कोई ऐसी शैय सादिर नहीं हो सकती जो क़ुद्दूस के ख़िलाफ़ हो और उस की क़ुद्दुसियत किसी ऐसी शैय से मुताबिक़त नहीं रख सकती जो मुहब्बत के ख़िलाफ़ हो। ख़ुदा की क़ुद्दुसियत और मुहब्बत दो अलग-अलग सिफ़त नहीं बल्कि एक वाहिद जोहर ज़ात के दो नाम हैं। ख़ुदा अपनी हिक्मत व क़ुद्रत से तमाम कायनात का इंतिज़ाम अपनी क़ुद्दूस पुर मुहब्बत ज़ात के मुताबिक़ सरअंजाम देता है। उस की हिक्मत व दानिश की सिफ़त इंतिज़ाम कायनात की अस्ल है जो ख़ल्क़त की तर्तीब में मौजूद है और ख़ालिक़ का पता देती है। उस की मुहब्बत हर जगह हाज़िर व नाज़िर है जो किसी ख़ास क़ौम, मिल्लत या नस्ल या फर्द तक महदूद नहीं, बल्कि वो तमाम बनी नूअ इन्सान और अक़्वामे आलम पर बिला-इम्तियाज़ हावी है। ख़ुदा अक़्वाम-ए-आलम के हर फ़र्द के साथ “अज़ली और अबदी मुहब्बत” रखता है। (मत्ती 7:11, लूक़ा 11:13, यर्मियाह 31:3) ख़ुदा बुलंदो बाला है क्योंकि उस की मुहब्बत इन्सानी क़ियास से कहीं ज़्यादा बुलंदो बाला है। यहां तक कि हर फ़र्द बशर के सर के बाल भी सब गिने हुए हैं। (मत्ती 10:31) जिसका मतलब ये है कि हर इन्सान की ज़िंदगी का हर वाक़िया ख़्वाह वो अहम हो या मामूली हो ख़ुदा की बेज़वाल मुहब्बत के दायरे के बाहर नहीं है।

ख़ुदा की क़ुद्दूस “अबदी मुहब्बत” के अस्लुल-उसूल से मुनज्जी आलमीन की तालीम के तमाम दीगर उसूल का इस्तिख़्राज होता है। मसीहिय्यत के दीगर तमाम उसूल इसी एक कुल्लिया क़ज़ीया के क़ुदरती और मन्तिक़ी नताइज हैं। पस ऐसे तमाम तसव्वुरात जो ख़ुदा की मुहब्बत के नक़ीज़ हैं, इन्जील जलील की असासी तालीम के ख़िलाफ़ हैं। मसलन मुहब्बत के कुल्लिया क़ज़ीया से हम ये नतीजा निकालते हैं कि ख़ुदा नेकी का सरचश्मा है। पस वो बदी और बुराई का सर चशमा नहीं हो सकता, जैसा बाअज़ मज़ाहिब मानते हैं। जिस तरह नूर और तारीकी में कोई निस्बत नहीं हो सकती, इसी तरह ज़ात इलाही जो क़ुद्दूस है ऐसे तमाम तसव्वुरात से पाक, मुनज़्ज़ह, आला और बाला है जो उसूल मुहब्बत के ख़िलाफ़ हैं। अला-हाज़ा-उल-क़यास इंजीली तालीम के मुताबिक़ इलाही सिफ़त “क़ादिर-ए-मुतलक़" से मुराद ये नहीं कि वो सब कुछ कर सकता है, बल्कि इस का ये मतलब कि वो उन तमाम उमूर को अपनी क़ुद्रत कामिला से ज़हूर में ला सकता है जो उस की ज़ात यानी मुहब्बत के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि ऐन उस के मुताबिक़ हैं। यही वजह है कि इन्जील के मुताबिक़ ख़ुदा कोई जाबिर, मुतलक़-उल-अनान, क़ह्हार हस्ती नहीं। क्योंकि ये और इसी क़िस्म की दीगर सिफ़ात ख़ुदा की मुहब्बत के ऐन मुनाफ़ी (खिलाफ) हैं। अगर हमने किसी मसीही अक़ीदे के उसूल की सही वाक़फ़ीयत हासिल करनी हो तो फ़क़त इस एक उसूल की रोशनी में उस को कमा-हक़्क़ा समझ सकते हैं। लेकिन अगर हम इस बुनियादी उसूल को जो दरहक़ीक़त एक किलीद है, नज़र-अंदाज कर देंगे तो कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम को किसी सूरत में भी नहीं समझ सकेंगे।

2. अहले-यहूद और ख़ुदा का तसव्वुर

ख़ुदा ने हज़रत मूसा को कोह-ए-सिना पर ये मुकाशफ़ा अता किया था कि जिस ख़ुदा की वो इबादत करता है, उस का ख़ास नाम “यहोवा” है। अहले-यहूद ख़ुदा का ये ख़ास नाम ज़बान पर लाने के ख़याल ही से काँप उठते थे। पस वो इस ख़ास इस्म-ए-आज़म की बजाय ख़ुदा के लिए दूसरे नाम इस्तिमाल करते थे। मसलन “अदोनाई” बमाअनी “आक़ा” ये नाम भी शाज़ो नादिर ही इस्तिमाल किया जाता था। बाज़-औक़ात ख़ुदा के लिए लफ़्ज़ “एल” या “एलोहेम” (जो तौरेत शरीफ़ की पहली किताब पैदाइश में वारिद हुए हैं) इस्तिमाल किए जाते थे। एक रब्बी ने तो ये फ़त्वा सादिर किया था कि जो शख़्स अपनी ज़बान पर ख़ुदा का इस्म-ए-आज़म यहोवा लाए वो मुस्तूजिब क़त्ल है। वो ख़ुदा के हुक्म (ख़ुरूज 20:7) को तोड़ता है। ख़ुदा का ये इस्म-ए-आज़म ऐसा मुक़द्दस समझा जाता था कि सरदार काहिन तक इस को ज़बान पर लाने से ख़ाइफ़ व हिरासाँ थे। यहां तक कि यौमे कफ़्फ़ारे के रोज़ भी वो दुआ के वक़्त दहश्त के मारे “यहोवा” की बजाय कहता था “ऐ नाम” मैंने तेरे हुज़ूर गुनाह किया है।”

दीगर औक़ात में ख़ुदा के लिए लफ़्ज़ “आस्मान और क़ुद्दूस” (यसअयाह 29:23), “हक़ तआला” (ज़बूर 18:13), “क़ुद्रत”, “क़ादिर-ए-मुतलक़” (पैदाइश 35:11), “सतूदा” (मर्क़ुस 14:61), “रहमान व रहीम” (नहमियाह 9:17) इस्तिमाल किए जाते थे। जहां क़ौम यहूद की हमसाया मुश्रिक बुत-परस्त अक़्वाम अपने माबूदों और देवी देवताओं का नाम झिजके बग़ैर “ज्यूपीटर”, “मथरा” वग़ैरह उमूमन ज़बान पर लाती थीं। वहां बनी-इस्राईल का आला से आला और अदना से अदना फ़र्द झिजके बग़ैर ख़ुदा का ख़ास नाम ज़बान पर नहीं लाता था। हक़ीक़ी इस्राईली वो था जो ख़ुदा से डरता था। 6

ख़ुदा ने अपने रहम व करम से अक़्वाम आलम में से क़ौम यहूद को चुन कर बर्गुज़ीदा कर लिया था। पस ये क़ौम अपने आपको ख़ुदा की ख़ास मंज़ूरे नज़र ख़याल करती थी। हालाँकि ख़ुदा ने तौरेत शरीफ़ में उनको निहायत साफ़ और वाज़ेह अल्फ़ाज़ में ये जता दिया था कि “ऐ मेरी ख़ास और बर्गुज़ीदा क़ौम ख़ुदावंद ने जो तुझको रुए-ज़मीन की और सब क़ौमों में से चुन लिया है ताकि तू उस की ख़ास उम्मत ठहरे। ख़ुदावंद ने जो तुमसे मुहब्बत की है और तुमको चुन लिया है, इस का सबब ये ना था कि तुम शुमार में और क़ौमों से ज़्यादा थे, बल्कि चूँकि तुमसे ख़ुदावंद को मुहब्बत है। तू अपने दिल में हरगिज़ ये ना सोचना कि तेरी नेकी के सबब मैंने ये किया, क्योंकि तू एक गर्दनकश क़ौम है और ख़ुदावंद से बग़ावत करती है।” (इस्तिस्ना 7:7, 9:4-7) ख़ुदावंद ख़ुदा ने अहले-यहूद की बार-बार की बग़ावत के बावजूद उस बरगज़ीदगी के ताल्लुक़ को क़ायम और उस्तिवार रखा। पस इस ख़ास क़ौमी ताल्लुक़ की बिना पर अहले-यहूद के बाअज़ नबियों और ज़बूर नवीसों ने बुलंद परवाज़ी से काम लेकर ख़ुदा के करम व फ़ज़्ल को बाप के करम व फ़ज़्ल से तश्बीह दी है। (गिनती 11:12, ज़बूर 68:5, अम्साल 3:12) इस लिहाज़ से ख़ुदा क़ौम इस्राईल का सिर्फ من حیث القوم “बाप” था। (यर्मियाह 31:9) लेकिन क़ौम इस्राईल की तमाम तारीख़ में किसी एक फ़र्द ने भी ये जुर्रत नहीं की थी कि वो कहे कि ख़ुदा बतौर एक फ़र्द के मेरा बाप है। बनी-इस्राईल की तमाम तारीख़ में ख़ुदा के लिए ये ख़िताब ना कभी बोला गया था और ना सुना गया था।


6 H.O. Rops, Daily life in the time of Jesus (The New American Library ,1962.

3. ख़ुदा बनी नूअ इन्सान का बाप है

बनी-इस्राईल की क़ौम की तमाम तारीख़ में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) अव्वलीन मुअल्लिम थे जिन्हों ने पहले-पहल ख़ुदा को “अब्बा” या “ऐ मेरे बाप” के कलिमे से मुख़ातब किया। (मर्क़ुस 14:36) आपने हमेशा ख़ुदा के लिए लफ़्ज़ “बाप” इस्तिमाल किया। (लूक़ा 22:42, 23:46) और अपने मुत्तबईन (पैरवी करने वाले) को ये ख़ुशी की ख़बर दी कि ख़ुदा उनमें से हर फ़र्द का बाप है जो कुल बनी नूअ इन्सान से अज़ली और अबदी मुहब्बत करता है और फ़रमाया कि जब तुम दुआ करो तो कहो “ऐ बाप” (लूक़ा 11:2, मत्ती 11:25-27), “ऐ हमारे बाप” (मत्ती 6:9) पस कलिमतुल्लाह (मसीह) ने हम को ये तालीम दी है कि ख़ुदा अपनी “अबदी मुहब्बत” की वजह से बनी नूअ इन्सान का बाप है। “सब का ख़ुदा और बाप एक ही है जो सब के ऊपर और सब के दर्मियान और सब के अंदर है।” (इफ़िसियों 4:6)


7 इस मौज़ू पर हमने अपनी किताब “अब्बुवते इलाही का मफ़्हूम” में मुफ़स्सिल बह्स की है। (बरकतुल्लाह)

“हमारे नज़्दीक तो एक ही ख़ुदा है यानी बाप जिसकी तरफ़ से सारी चीज़ें हैं।” (1 कुरिन्थियों 8:6) उसी में हम जीते चलते फिरते और मौजूद हैं। (आमाल 17:28) “क्योंकि तुमको ग़ुलामी की रूह नहीं मिली जिस से फिर डर पैदा हो बल्कि ले-पालक होने की रूह मिली जिस से हम अब्बा यानी ऐ बाप कह कर पुकारते हैं।” (रोमीयों 8:15, ग़लतीयों 4:4) कलिमतुल्लाह (मसीह) ने हम को सिखाया है कि दुआ के वक़्त ख़ुदा को “बाप” कह कर पुकारें। (मत्ती 6:9) क्योंकि ख़ुदा ने फ़रमाया है कि, ऐ बनी-आदम “मैं तुम्हारा बाप हूँगा और तुम मेरे बेटे बेटियां होगे।” (2 कुरिन्थियों 6:18) “एक ही रूह में बाप के पास हमारी रसाई होती है।” (इफ़िसियों 2:18) “बाप ने हमसे कैसी मुहब्बत की कि हम ख़ुदा के फ़र्ज़न्द कहलाए और हम फ़र्ज़न्द हैं भी।” (1 यूहन्ना 3:1, रोमीयों 8:15) ख़ुदा हर शख़्स से मुहब्बत करता है ख़्वाह वो कैसा ही नालायक़ हो। चुनान्चे कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया कि “ख़ुदा अपने सूरज को बदों और नेकों दोनों पर चमकाता है और रास्तबाज़ों और नारास्तों दोनों पर मेह (पानी) बरसाता है।” (मत्ती 5:45) “वो नाशुक्रों और बदों पर भी मेहरबान है।” (लूक़ा 6:35) ग़रज़ कि “ख़ुदा ने दुनिया से ऐसी मुहब्बत की कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (यूहन्ना 3:16) इस अब्बुवत की तह तक हम नहीं पहुंच सकते, क्योंकि वो ला-महदूद है। (मलाकी 2:10)

4. इन्सानी उखुव्वत व मुसावात के उसूल

जब कलिमतुल्लाह (मसीह) इस दुनिया में आए तो नूअ-ए-इन्सानी की मुख़्तलिफ़ अक़्वाम में तरह-तरह की दर्जा बंदीयां मौजूद थीं। यूनानी अपनी तहज़ीब पर फ़ख़्र करके ग़ैर-यूनानियों को “वहशी” के ख़िताब से मौसूम करके कहते थे कि वो यूनानियों के लिए पैदा किए गए हैं। रूमी अपनी सल्तनत, हश्मत, क़ुव्वत और सतवत की वजह से मग़रूर थे और यहूद को हिक़ारत और नफ़रत की निगाह से देखते थे। यहूद इस बात पर नाज़ाँ थे कि वो ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम हैं। लिहाज़ा वो तमाम ग़ैर-यहूद को जहन्नुमी और गुमराह शुमार करके उनसे इस क़द्र परहेज़ करते थे कि उनकी छत तले जाना भी नापाकी का मूजिब समझते थे। यहूद सामरियों से ऐसा कीना और अदावत रखते थे कि उनके साथ मेल-जोल रखना भी ख़िंज़ीर के गोश्त की तरह हराम ख़याल करते थे। (एज़्रा 4:3,10 यूहन्ना 4:9, 8:48, 9:53)

हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) इस दुनिया के पहले और आख़िरी मुअल्लिम हैं जिन्हों ने दुनिया की तमाम अक़्वाम को ख़ुदा की अब्बुव का सबक़ सिखा कर इन्सानी उखुव्वत व मुसावात के उसूल को चट्टान की तरह ऐसा मज़्बूत क़ायम किया कि वो ता अबद ग़ैर-मुतज़लज़ल रहेगा। जो शख़्स ख़ुदावंद की दुआ, (मत्ती 6:9,13) के इब्तिदाई अल्फ़ाज़ “ऐ हमारे बाप तू जो आस्मान पर है।” ज़बान पर लाता है, उस का ज़हन ख़ुद बख़ुद जुम्ला “हमारे बिरादर जो ज़मीन पर हैं” की जानिब मुंतक़िल हो जाता है। चुनान्चे मुक़द्दस यूहन्ना फ़रमाता है, “अगर कोई कहे कि मैं ख़ुदा से मुहब्बत रखता हूँ और वो अपने भाई से अदावत रखे तो झूटा है क्योंकि जो अपने भाई से जिसे उस ने देखा है मुहब्बत नहीं रखता वो ख़ुदा से भी जिसे उस ने नहीं देखा मुहब्बत नहीं रख सकता। और हमको उस की तरफ़ से ये हुक्म मिला है कि जो कोई ख़ुदा से मुहब्बत रखता है वो अपने भाई से भी मुहब्बत रखे।” (1 यूहन्ना 4:20, 21) हम उखुव्वत इन्सानी के उसूल पर अमल करने ही से अब्बुवत इलाही (ख़ुदा के बाप होने) के तसव्वुर को कमा-हक़्क़ा समझ सकते हैं और ना हम ख़ुदा की अब्बुवत के उसूल को क़ुबूल कर सकते हैं। तावक़्ते के हम उखुव्वत इन्सानी के उसूल को क़ुबूल ना करें। दोनों उसूल लाज़िम व मल्ज़ूम और अक़लीम ख़याल में एक दूसरे की तक्मील करते हैं।

चूँकि ख़ुदा कुल बनी नूअ इन्सान का बाप है और सबसे बराबर और मुसावी तौर पर मुहब्बत करता है। लिहाज़ा कुल बनी नूअ इन्सान और अक़्वाम आलम पर वाजिब है कि वो एक दूसरे से ऐसी मुहब्बत करें जैसी वो अपने आपसे मुहब्बत करते हैं। (मत्ती 5: 47-43, 22:39, 7:12, लूक़ा 10:25-37, यूहन्ना 13:34, 15:17, रोमीयों 13:8, इफ़िसियों 5:2, 1 पतरस 1:22, 1 यूहन्ना 2:10, 3:11-23, 4:7-12, 4:20)

इस ज़रीं जहांगीरी उसूल उखुव्वत व मुसावात को हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने एक लतीफ़ तम्सील से समझाया। चुनान्चे इन्जील मुक़द्दस में वारिद हुआ है कि एक दफ़ाअ आलिम शराअ ने ख़ुदावंद मसीह से पूछा कि “सब हुक्मों में मुक़द्दम हुक्म कौनसा है?” आपने फ़रमाया कि मुक़द्दम हुक्म ये है कि, ऐ इस्राईल सुन, ख़ुदावन्द हमारा ख़ुदा एक ही ख़ुदावन्द है। और तू ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा से अपने सारे दिल और अपनी सारी जान और अपनी सारी अक़्ल अपनी सारी ताक़त से मुहब्बत रख। दूसरा ये है कि तू अपने पड़ोसी से अपने बराबर महुब्बत रख। इन से बड़ा और कोई हुक्म नहीं।” (मर्क़ुस 12:29-31) “इन्ही दो हुक्मों पर तमाम तौरेत और अम्बिया के सहीफ़ों का मदार है।” (मत्ती 22:36-40) इस पर उसने आपसे दर्याफ़्त किया कि मेरा पड़ोसी कौन है? मुनज्जी आलमीन ने इस सवाल का जवाब एक तम्सील के ज़रीये दिया और फ़रमाया :-

“एक आदमी यरूशलेम से यरीहू की तरफ़ जा रहा था कि डाकूओं में घिर गया। उन्हों ने उस के कपड़े उतार लिए और मारा भी और अध-मुआ छोड़कर चले गए। इत्तिफ़ाक़न एक काहिन उसी राह से जा रहा था और उसे देखकर कतरा कर चला गया। इसी तरह एक लावे उस जगह आया। वो भी उसे देखकर कतरा कर चला गया। लेकिन एक सामरी सफ़र करते करते वहां आ निकला और उसे देखकर उस ने तरस खाया, और उस के पास आकर उस के ज़ख़्मों को तेल और मय लगा कर बाँधा और अपने जानवर पर सवार कर के सराए में ले गया और उस की ख़बर-गीरी की। दूसरे दिन दो दीनार निकाल कर भटयारे को दिए और कहा, इस की ख़बर-गीरी करना और जो कुछ इस से ज़्यादा ख़र्च होगा मैं फिर आकर तुझे अदा कर दूंगा। इन तीनों में से उस शख़्स का जो डाकुओं में घिर गया था तेरी दानिस्त में कौन पड़ोसी ठहरा? उस ने कहा, वो जिस ने उस पर रहम किया। येसूअ ने उस से कहा, जा तू भी ऐसा ही कर।” (लूक़ा 10:30-37)

इस तम्सील से ख़ुदावंद ने एक सामरी को (जिससे यहूद नफ़रत रखते थे) हक़ीक़ी पड़ोसी का नमूना दे कर उखुव्वत-ए-इन्सानी की उस वक़अत को वाज़ेह कर दिया कि बनी नूअ इन्सान का हर फ़र्द दूसरे का भाई है और इस नूअ के सब अफ़राद पर लाज़िम है कि वो बिला इम्तियाज़ रंग, नस्ल, ज़ात, दर्जा, मिल्लत, क़ौम वग़ैरह एक दूसरे से अपने बराबर मुहब्बत करें। आपने यहां तक फ़रमाया कि “तुम अपने दुश्मनों से मुहब्बत रखो। अपने सताने वालों के लिए दुआ माँगो, ताकि तुम अपने परवरदिगार के जो आस्मान पर है बेटे ठहरो। अगर तुम अपने भाईयों ही को फ़क़त सलाम करो तो क्या ज़्यादा करते हो? चाहीए कि तुम कामिल हो जैसा तुम्हारा आस्मानी बाप कामिल है।” (मत्ती 5:47, रोमीयों 15:2, ख़ुरूज 23:4, अहबार19:17)

ع پروانہ چراغ حرم ودیر نہ داند

5. इन्सानी मुसावात का उसूल

मर्हूम हज़रत मौलाना अबूल-कलाम आज़ाद रक़म तराज़ हैं :-

“हज़रत मसीह का ज़हूर ऐसे अहद में हुआ था जब यहूदीयों का अख़्लाक़ी तनज़्ज़ुल इंतिहाई हद तक पहुंच चुका था। दिल की नेकी और अख़्लाक़ की पाकीज़गी की जगह मह्ज़ ज़ाहिरी अहकाम व रसूम की परस्तिश ही दीनदारी और ख़ुदा-परस्ती समझी जाती थी। यहूदीयों के इलावा भी जिस क़द्र तमद्दुन कौमें उनके क़ुर्ब व जुवार में थीं। मसलन रूमी, मिस्री, असूरी (आशुरी) वग़ैरह, वो भी इन्सानी रहम व मुहब्बत की रु से यकसर ना-आश्ना थीं। लोगों ने ये बात तो मालूम कर ली थी कि मुजरिमों को सज़ाएं देनी चाहीऐं, लेकिन वो इस हक़ीक़त से बे-बहरा थे कि रहम, मुहब्बत और अफू व बख़्शिश की चारा साज़ियों से जुर्मों और गुनाहों की रोक-थाम करनी चाहिए। इन्सानी क़त्ल व हलाकत का तमाशा देखना, तरह-तरह के होलनाक तरीक़ों (मसलन सलीब) से मुजरिमों को हलाक करना, ज़िंदा इन्सानों को दरिंदों के सामने डाल देना, आबाद शहरों को बिला-वजह जला कर ख़ाकसतर कर देना, अपनी क़ौम के इलावा तमाम इन्सानों को ग़ुलाम समझना और ग़ुलाम बना कर रखना, रहम व मुहब्बत और हुलुम व शफ़क़त की जगह क़ल्बी फ़सादाद, बेरहमी पर फ़ख़्र करना, रूमी तमद्दुन का अख़्लाक़ और मिस्री और असूरी देवताओं का पसंदीदा तरीक़ा था। पस इस बात की अशद ज़रूरत थी कि नूअ इन्सानी की हिदायत के लिए एक ऐसी हस्ती मबऊस हो जो सर-ता-पा रहमत व मुहब्बत का पयाम हो और जो इन्सानी ज़िंदगी के तमाम गोशों से क़त-ए-नज़र कर के सिर्फ उस की क़ल्बी और माअनवी हालत की इस्लाह व तज़्किया पर अपनी तमाम पैग़म्बराना हिम्मत मबज़ूल कर दे। चुनान्चे हज़रत मसीह की शख़्सियत में वो हस्ती नमूदार हो गई। आपने जिस्म की जगह रूह पर, ज़बान की जगह दिल पर और ज़ाहिर की जगह बातिन पर नूअ इन्सानी की तवज्जोह मुनातिफ़ (मोड़ने वाला, मुतवज्जोह होने वाला) की और आला इन्सानियत का फ़रामोश शूदा सबक़ अज सर-ए-नौ ताज़ा कर दिया।”

(तर्जुमान-उल-क़ुरआन मुलख्ख़स)

मुनज्जी आलमीन (दुनिया को नजात देने वाले) ने हम को यह तालीम दी कि “जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ सुलूक करें तुम भी उनके साथ वैसा ही करो।”' (लूक़ा 6:31) आपने फ़रमाया, “मेरा हुक्म ये है कि जैसे मैंने तुमसे मुहब्बत की तुम भी एक दूसरे से मुहब्बत करो।” (यूहन्ना 15:12) “जो पैग़ाम तुमने शुरू से सुना वो ये है कि हम एक दूसरे से मुहब्बत करो। जो मुहब्बत नहीं रखता वो मौत की हालत में रहता है।” (1 यूहन्ना 3:11) “ऐ अज़ीज़ो, आओ हम एक दूसरे से मुहब्बत करें क्योंकि मुहब्बत ख़ुदा की तरफ़ से है।” (1 यूहन्ना 4:7) आपस की मुहब्बत के सिवा किसी चीज़ में किसी शख़्स के क़र्ज़दार ना हो, क्योंकि जो दूसरे से मुहब्बत करता है उसने तमाम शरीअत पर पूरा अमल किया। क्योंकि ये बातें कि ज़िना ना कर, ख़ून ना कर, चोरी ना कर, लालच ना कर और इनके सिवा और जो कोई हुक्म हो उन सब का ख़ुलासा इस बात में पाया जाता है कि अपने पड़ोसी से अपनी मानिंद मुहब्बत करो। मुहब्बत अपने पड़ोसी से बदी नहीं करती। इस वास्ते मुहब्बत शरीअत की तक्मील है।” (रोमीयों 13:8) “मुहब्बत को जो कमाल का पटका है बांध लो।” (कुलस्सियों 3:14) “तुम्हारी मुहब्बत आपस में और सब आदमीयों के साथ ज़्यादा हो और बढ़े।” (1 थिस्सलुनीकियों 3:12, 4:9, इब्रानियों 13:1) “जो कोई अपने भाई से मुहब्बत करता है वो नूर में रहता है।” (1 यूहन्ना 2:10, 3:14)

सुतूर बाला में हमने जो तम्सील इन्जील लूक़ा (10:25-37) से नक़्ल की है उस के अल्फ़ाज़ क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं। आलिम शराअ से सवाल “सब हुक्मों में मुक़द्दम हुक्म कौन सा है?” के जवाब में कलिमतुल्लाह (मसीह) ने “(कलिमा) शमाह” के अल्फ़ाज़ (इस्तिस्ना 6:4-5) के साथ अहबार के अल्फ़ाज़ को भी यकजा कर के शरीअत का ख़ुलासा शरीअत के अल्फ़ाज़ में बता दिया और फ़रमाया कि इन दो हुक्मों पर शरीअत अम्बिया का दारोमदार है। (मर्क़ुस 12:28-34, मत्ती 22:34-40) इन दोनों हुक्मों को जो तौरेत शरीफ़ की मुख़्तसर किताबों में मुंतशिर थे कलिमतुल्लाह (मसीह) से पहले किसी रब्बी या उस्ताद ने यकजा ना किया। आप इस दुनिया में पहले मुअल्लिम थे जिन्हों ने ख़ुदा की मुहब्बत और इन्सानी उखुव्वत व मुहब्बत व मुसावात के उसूल को यकजा कर के दो हुक्मों को एक हुक्म की लड़ी में मुंसलिक कर के इस को शरीअत और सहाइफ़ अम्बिया का निचोड़ क़रार दे दिया। मशहूर यहूदी आलिम और अनाजील के मुफ़स्सिर मर्हूम डाक्टर मॉन्टी फ़ेअरी ने तमाम यहूदी लिट्रेचर को छान मारा, लेकिन उसने कभी ये कहीं ना पाया कि इन दो अहकाम को आँ-ख़ुदावंद से पहले किसी ने यकजा किया हो। कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने इन दो अहकाम को ऐसे मुहक्कम तौर पर पैवस्ता कर दिया कि आपके वक़्त से अब तक दुनिया-ए-अख़्लाक़ ने इनको कभी जुदा ना किया। अब्बुवते इलाही और उखुव्वत व मुसावात के उसूल ना सिर्फ एक दूसरे से मन्तिक़ी तौर पर वाबस्ता हो गए हैं, बल्कि दोनों अहकाम एक दूसरे की जान हो कर और हर एक वाहिद उसूल हो कर इल्म-उल-अख़्लाक़ की बुनियाद हो गए हैं।

ख़ुदा की अज़ली मुहब्बत के उसूल और ख़ुदा से मुहब्बत रखने के उसूल में इल्लत व मालूल का रिश्ता है। ख़ुदा की मुहब्बत का क़ुदरती और मन्तिक़ी नतीजा इन्सान का प्यार है। ख़ुदा की मुहब्बत मुक़द्दम है और इन्सान की ख़ुदा से मुहब्बत मोअख्खर है। चुनान्चे मुक़द्दस यूहन्ना लिखता है, “मुहब्बत इस में नहीं कि हमने ख़ुदा से मुहब्बत की, बल्कि इस में है कि ख़ुदा ने पहले हमसे मुहब्बत की.....पस जब ख़ुदा ने हमसे ऐसी मुहब्बत की तो हम पर भी एक दूसरे से मुहब्बत रखना फ़र्ज़ है।” (1 यूहन्ना 4:10-11) पस कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम की असास मुहब्बत के उसूल के हर सेह ज़हूर पर क़ायम है।

अव्वल, ख़ुदा की मुहब्बत इन्सान के लिए जो मुक़द्दम ज़हूर है।

दोम, इन्सान की मुहब्बत ख़ुदा से।

सोम, इन्सान की मुहब्बत इन्सान से।

जिस तरह ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस की मुहब्बत पाक है, उसी तरह इन्सानी मुहब्बत पाक है जिसमें जिन्सी तसव्वुर का साया भी नहीं। इन्जील जलील के उर्दू तर्जुमे में जिस यूनानी लफ़्ज़ का तर्जुमा “मुहब्बत” किया गया है, वो “अगापे” (Agape) है जो यूनानी ज़बान के अदबी लिट्रेचर में कहीं इस्तिमाल नहीं हुआ। इस लफ़्ज़ “अगापे” के मअनी “पाकीज़ा मुहब्बत” हैं। ये लफ़्ज़ यूनानी बाइबल के इलावा और कहीं नहीं पाया जाता। यूनानी अदबी कुतुब में “मुहब्बत” के लिए लफ़्ज़ “इरोस” (Eros) इस्तिमाल किया जाता था, जिसके मअनी “नापाक इश्क़” है। लेकिन यूनानी इन्जील में लफ़्ज़ “इरोस” कहीं भी मुस्तअमल नहीं है, क्योंकि इस लफ़्ज़ के साथ जिन्सी नापाक जज़्बात का तलाज़ुम था जो कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम, ज़िंदगी और नमूने के कुल्ली तौर पर मुनाफ़ी (खिलाफ) था। इन्जील जलील का एक-एक वर्क़ उखुव्वत व मुसावात के सुनहरी जहांगीरी उसूल से मुज़य्यन है। (मत्ती 18:10, यूहन्ना 13:34, रोमीयों 12:5, 13:8, 1 कुरिन्थियों बाब 13, ग़लतीयों 5:13, 1 यूहन्ना 4:20, मर्क़ुस 12:29, मत्ती 22:40, लूक़ा बाब, मत्ती बाब 18, बाब 25 वग़ैरह-वग़ैरह) ख़ुदा की अबुव्वत और इन्सानी उखुव्वत का तसव्वुर मुनज्जी आलमीन (मसीह) की तालीम की असास है। मर्हूम मौलाना हाली का ये शेअर इन्जील शरीफ़ और सिर्फ इन्जील शरीफ़ पर ही सादिक़ आता है कि :-

ये पहला सबक़ था किताब हुदा का

कि है सारी मख़्लूक़ कुम्बा ख़ुदा का

इस आलमगीर मुहब्बत के जहांगीरी उसूल से कोई शख़्स या तब्क़ा मुस्तसना (छूटा हुआ) नहीं है। इस एक उसूल ने तरह-तरह की तफ़रीक़ और दर्जा बंदी को मिटा दिया। ग़ुलाम और आज़ाद, ग़रीब और दौलतमंद, आला और अदना, आलिम और जाहिल, मर्द और औरत का इम्तियाज़, ग़रज़ कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के इस एक उसूल के सबब हर क़िस्म के इम्तियाज़ात इस दुनिया से रुख़्सत हो गए। (रोमीयों 10:2, 5:8, 6:23, 1 कुरिन्थियों 1:28, 2 कुरिन्थियों 5:17, 1 यूहन्ना 2:12-15 वग़ैरह) नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि मुनज्जी आलमीन (मसीह) की तालीम तमाम बनी नूअ इन्सान के लिए है जिसमें यहूद और ग़ैर-यहूद सब शामिल हैं। आप नूअ इन्सानी के नजातदिहंदा थे। पस आपने अपने रसूलों को अल-विदाई हुक्म देते वक़्त भी नूअ इन्सानी में तफ़रीक़ व तमीज़ ना की और रसूलों को फ़रमाया, “पस तुम जा कर सब क़ौमों को शागिर्द बनाओ और उन को बाप और बेटे रूह-उल-क़ुद्दुस के नाम से बपतिस्मा दो।” (मत्ती 28:19) आपके रसूल दीगर यहूद की तरह ग़ैर-यहूद से नफ़रत रखने की फ़िज़ा में बचपन से पले थे। पस उन के लिए ये हुक्म सख़्त गिरां था। ख़ुदा ने मुक़द्दस पतरस को मुकाशफ़ा के ज़रीये इन्सानी उखुव्वत व मुसावात का ये सबक़ सिखाया कि, “....ख़ुदा किसी का तरफ़दार नहीं, बल्कि हर क़ौम में जो उस से डरता और रास्तबाज़ी करता है वो उस को पसंद आता है।” (आमाल 10:34-35) ये हक़ीक़त भी यहां क़ाबिल-ए-ज़िक्र है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ने भी इसी नफ़रत की फ़िज़ा में परवरिश पाई थी। (इस्तिस्ना 23:6, एज़्रा 9:12) जिसमें आपके रसूलों और हम-अस्र यहूद ने परवरिश पाई थी। लेकिन अनाजील अरबा का सतही मुतालआ भी ज़ाहिर कर देता है कि आपने कभी यहूद व ग़ैर-यहूद, सामरियों, रोमीयों और यूनानियों ग़रज़ कि किसी क़ौम के अफ़राद में कभी तमीज़ ना की। आप ख़ुदा की सब मख़्लूक़ से आज़ादाना निडर हो कर मेल-जोल रखते थे। सबको बिला इम्तियाज़ नस्ल व क़ौम शिफ़ा बख़्शते थे और ख़ुदा की मुहब्बत का पैग़ाम सुनाते थे। ख़्वाह वो यहूदी हो या ग़ैर-यहूदी, बड़ा हो या छोटा, आला हो या अदना, दौलतमंद हो या मुफ़्लिस, आलिम हो या जाहिल, हाकिम हो या मह्कूम, रब्बी हो या सामरी, मर्द हो या औरत, फ़क़ीह हो या फ़रीसी, रास्तबाज़ हो या गुनेहगार, मुक़तदिर हस्ती हो या महसूल लेने वाला और मछुवा (माही गीर) कलिमतुल्लाह (मसीह) की नज़र इन ज़ाहिरी पर्दों को ख़ाक कर के हमेशा हर फ़र्द के दिल और बातिन पर पड़ी और आप फ़ौरन भाँप जाते कि ख़ुदा के साथ उस का क्या है।

6. नफ़्स इन्सानी की वक़अत और एहतिराम

जनाबे मसीह ने ना सिर्फ नफ़्स इन्सानी के एहतिराम का ही हुक्म दिया, बल्कि आपने अपने नमूना और किरदार से ये हक़ीक़त दुनिया पर रोशन कर दी कि ख़ुदावंद की निगाह तमाम ज़ाहिरी दर्जा बन्दी से पार हो कर दिल की अंदरूनी हालत को जान लेती है और हर ज़ी-रूह शख़्स की क़द्र उस की रूह की वजह से करती थी। चुनान्चे एक दफ़ाअ आप सामरिया गए। (यूहन्ना 4:1-42) आप थके-माँदे और भूके थे। आपके हवारियों ने दरख़्वास्त की कि “ऐ रब्बी कुछ खा लीजिए।” आपने जवाब दिया “मेरे पास खाने के लिए ऐसा खाना है जिसे तुम नहीं जानते।” और वो खाना क्या था? एक बद-चलन सामरी औरत की रूह को बचाना आपका खाना था। चुनान्चे आपने फ़रमाया “मेरा खाना ये है कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अमल करूँ और उस का काम पूरा करूँ।” यूं आपने एक सामरी कसबी की रूह की क़द्र और वक़अत भी दुनिया पर ज़ाहिर कर दी। एक और दफ़ाअ आपने तूफ़ान में अपनी और अपने साथीयों की जान को ख़तरे में डाल कर झील को पार किया ताकि एक दीवाने की रूह को बचाएं। आपकी नज़र में सबसे बेवक़ूफ़ वो कारोबारी शख़्स था जो अपने माल की फ़िक्र करता था, लेकिन अपनी रूह की फ़िक्र नहीं करता था और आपने फ़रमाया “अगर आदमी सारी दुनिया को हासिल करले और अपनी रूह को ज़ाए (बर्बाद) कर दे तो उसे क्या फ़ायदा?” (मर्क़ुस 8:36)

जनाबे मसीह के लिए कोई शख़्स आम और मामूली नहीं था। भीक मांगने वालों की माली और समाजी हालत, कोढ़ीयों का कोढ़, दीवानों की दीवानगी, बूढ़ों का ज़इफ़ और बीमारी, गुनेहगार आदमीयों और बदकार औरतों का सोसाइटी से इख़राज। (लूक़ा 7:33-35, मत्ती 11:19, मर्क़ुस 2:7) ग़रज़ कि कोई बैरूनी और ज़ाहिरी शैय कलिमतुल्लाह (मसीह) की नज़र में किसी इन्सान की बेशक़ीमत रूह की क़द्र, वक़अत और नजात उखरवी अता करने की राह में रुकावट का बाइस ना हुई। आपने अला-उल-ऐलान फ़रमाया कि हर इन्सान की रूह ख़ुदा की नज़र में ऐसी बेशक़ीमत है कि “उस ने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया ताकि जो कोई उस पर (मसीह) ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (यूहन्ना 3:16) आपने कहा कि बदतरीन इन्सान वो है जो दूसरे इन्सानों को अछूत, अदना और हीच समझता है। (लूक़ा 18:11-14) और फ़रमाया, “ख़बरदार इन छोटों में से किसी को हक़ीर ना जानना।” (मत्ती बाब 18) आपने लोगों को मुतनब्बाह (आगाह किया) करके फ़रमाया कि अदालत के रोज़ जब आप मुंसिफ़-ए-हक़ीक़ी होंगे तो सब कौमें आपके सामने जमा की जाएँगी और वो अपनी दहनी तरफ़ वालों को कहेगा कि आओ मेरे बाप के मुबारक लोगो जो बादशाहत बनाए आलम से तुम्हारे लिए तैयार की गई है, उस को मीरास में लो। क्योंकि मैं भूका था तुमने मुझे खाना खिलाया, मैं प्यासा था तुमने मुझे पानी पिलाया, मैं परदेसी था तुमने मुझे अपने घर में उतारा, नंगा था तुमने मुझे कपड़ा पहनाया, बीमार था तुमने मेरी ख़बर ली, क़ैद में था तुम मेरे पास आए। तब रास्तबाज़ जवाब में कहेंगे, ऐ ख़ुदावंद हम ने कब आपको भूका देखकर खाना खिलाया या प्यासा देखकर पानी पिलाया। हमने कब आप को परदेसी देखकर घर में उतारा या नंगा देखकर कपड़ा पहनाया? हम कब आपको बीमार या क़ैद में देखकर आपके पास आए? बादशाह उनसे जवाब में कहेगा कि मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि चूँकि तुमने मेरे इन सबसे छोटे भाईयों में से किसी एक के साथ ये सुलूक किया, इसलिए मेरे ही साथ किया। फिर आप बाएं तरफ़ वालों से कहेंगे कि मैं भूका था तुम ने मुझे खाना ना खिलाया, मैं प्यासा था तुमने मुझे पानी ना पिलाया, मैं परदेसी था तुमने मुझे अपने घर में ना उतारा, नंगा था तुमने मुझे कपड़ा ना पहनाया, बीमार और क़ैद में था तुमने मेरी ख़बर ना ली। तब नारास्त जवाब में कहेंगे, ऐ ख़ुदावंद हमने कब आपको भूका देखकर खाना ना खिलाया या प्यासा देखकर पानी ना पिलाया। हमने कब आप को परदेसी देखकर घर में ना उतारा या नंगा देखकर कपड़ा ना पहनाया? हमने कब आपको बीमार या क़ैद में देखकर आपकी ख़िदमत ना की। उस वक़्त ख़ुदावंद उन से जवाब में कहेगा कि मैं तुमसे सच्च कहता हूँ चूँकि तुमने इन सबसे छोटों में से किसी एक के साथ ये ना किया, इसलिए मेरे साथ ना किया। (मत्ती 25:31-46)

ع ہر کہ بینی بداں کہ مظہر اوست

कहाँ जनाबे मसीह की तालीम और नमूना और कहाँ मज़ाहिब बातिला और यूनानी फिलासफर अफ़लातून का क़ौल कि बूढ़े मर्दों और बुढ़िया औरतों को मार डालना चाहीए, क्योंकि वो मुल्क के लिए बार-ए-गराँ साबित होते हैं।

ع بہ ہیں تفاوت راہ از کجاست تا بکجا

7. बच्चों की वक़अत व एहतराम

बर ट्रंडर सल (بر ٹرنڈر سل) जैसा मुख़ालिफ़ मसीहिय्यत इक़बाल करता है कि मसीह की आमद से पहले तिफ़्ल कुशी दुनिया के क़रीबन हर कोने में अमल में आई थी, हत्ता कि फिलासफर अफ़लातून भी इस क़बीह रिवाज की हिमायत करता है, लेकिन मुनज्जी आलमीन (मसीह) ने दुनिया जहां को बच्चों की वक़अत व एहतिराम का सबक़ सिखाया और फ़रमाया, “ख़बरदार इन छोटों में से किसी को ना चीज़ ना जानना क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ कि आस्मान पर इन के फ़रिश्ते मेरे आस्मानी बाप का मुंह हर वक़्त देखते हैं। क्योंकि इब्ने आदम खोए हुओं को ढ़ूढ़ने और नजात देने आया है।....तुम्हारा आस्मानी बाप ये नहीं चाहता कि इन छोटों में से एक भी हलाक हो।” (मत्ती 18:10-14)


8 The Basic Writings of Bertrend Russell Denawn, England,1961.

एक दफ़ाअ आपके शागिर्दों ने बच्चों को आपके पास आने से मना किया। आप ये देखकर ख़फ़ा हुए फ़रमाया, “बच्चों को मेरे पास आने दो और उन्हें मना ना करो क्योंकि ख़ुदा की बादशाही ऐसों ही की है। मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि जो कोई ख़ुदा की बादशाही को बच्चे की तरह क़बूल ना करे वो इस में हरगिज़ दाखिल ना होगा।” (लूक़ा 18:16-17) आपने बच्चों को अपनी गोद में लिया और उन पर हाथ रखकर बरकत दी (मर्क़ुस 10:16) और फ़रमाया, “जो कोई मेरे नाम पर ऐसे बच्चों में से एक को क़ुबूल करता है वो मुझे क़ुबूल करता है और जो कोई मुझे क़ुबूल करता है वो मुझे नहीं बल्कि उसे जिस ने मुझे भेजा है क़ुबूल करता है।” (मर्क़ुस 9:37) फिर आप ने फ़रमाया, “जो कोई उन छोटों में से, जो मुझ पर ईमान लाए हैं किसी को ठोकर खिलाता है, उस के लिए ये बेहतर है कि बड़ी चक्की का पाट उस के गले में लटकाया जाये और वो गहरे सुमंदर में डुबो दिया जाये।” (मत्ती 18:6, मर्क़ुस 9:42, लूक़ा 17:2) इन अल्फ़ाज़ की तह में निहायत लतीफ़ और अमीक़ मआनी हैं जो हर शख़्स के हिर्ज़ जान (बहुत अज़ीज़) समझना होने चाहीऐं।

मज़्कूर बाला आयात से मालूम हो गया होगा कि आँ-ख़ुदावंद ने अपने आलमगीर उसूल मुहब्बत का इतलाक़ बच्चों पर किया। उनकी क़द्रो मंजिलत को बनी नूअ इन्सान पर ज़ाहिर कर दिया, हत्ता कि फ़रमाया कि जब तक हम बच्चों की सी ख़ू और ख़सलत को इख़्तियार ना करें ख़ुदा की बादशाहत में हरगिज़ दाख़िल नहीं हो सकते। मसीहिय्यत के तुफ़ैल अब दुनिया की हालत क़ुल्लियन बदल गई है और रोज़ बरोज़ तब्दील हो रही है। ऐसा कि गुज़श्ता रबअ सदी में इस की काया पलट गई है। चुनान्चे शहरा आफ़ाक़ मुअर्रिख़ आरनल्ड टोइन बी (Toynbea) कहता है कि दौरे हाज़रा की ये ख़ुसूसीयत है कि इस में इन्सानी समाज कुल बनी नूअ इन्सान की फ़लाह व बहबूदी की तदाबीर व तजावीज़ में कोशां है। मज्लिस अक़वाम-ए-मुत्तहिदा ने तो इस बार गिरां को अमली जामा पहनाने का ज़िम्मा ले लिया है। इस बीसवीं सदी में इस मज्लिस की बयनुल-अक़्वाम जमाअत योनीसेफ़ (UNICEF) ने गुज़श्ता अठारह साल में बयनुल-अक़्वाम बच्चों का फ़ंड निहायत अज़ीम पैमाने पर क़ायम कर दिया है ताकि मुख़्तलिफ़ ममालिक के छोटे बच्चे जो अस्रत और इफ़्लास (ग़रीबी) की वजह से ज़िंदगी के लवाज़मात से महरूम हैं, वो उनकी देख-भाल में ख़र्च किया जाये। इस जमाअत की शाख़ें दुनिया के ममालिक में मौजूद हैं जो 485 मन्सूबों और प्लानों के ज़रीये इन बच्चों की निगाहदाश्त में मसरूफ़ हैं और इन मुख़्तलिफ़ ममालिक के अस्सी करोड़ बच्चों को तंगी, बीमारी, इफ़्लास (ग़रीबी) और जहालत से निकाल कर उनकी ख़ुराक, सेहत, रिहाइश, तालीम वग़ैरह का इंतिज़ाम करने में मसरूफ़ हैं।

8. तब्क़ा निसवां (औरतों की जमात) और मसीहिय्यत

(1)

जनाबे मसीह ने अपने आलमगीर उसूल मुहब्बत, उखुव्वत और मुसावात का इतलाक़ तब्क़ा निसवां (औरतों की जमात) पर भी किया। आपने दुनिया जहां को सिखाया कि इस बदनसीब तब्क़े के साथ मुहब्बत व मुसावात का सुलूक जायज़ रखें। किताब मुक़द्दस की ये तालीम है कि ख़ुदा ने मर्दो औरत दोनों को अपनी सूरत पर बनाया और कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपने नमूने से अपनी तालीम पर अमल कर के दिखा दिया कि इस तब्क़े की वाजिबी इज़्ज़त व तकरीम और क़द्र करनी चाहीए। (यूहन्ना 4:1-27) जिस तरह गुनेहगार मर्दों को आप ख़ुदा की मुहब्बत और मग़्फिरत की ख़ुशख़बरी का पैग़ाम देते थे, इसी तरह आप ने गुनेहगार औरतों को ख़ुदा की अबदी मुहब्बत का जाँ-फ़ज़ाँ पैग़ाम दिया और वो आँ ख़ुदावंद के क़दमों में आकर अबदी नजात हासिल करती थीं। (लूक़ा 7:37-39, 8:2,3) ये तब्क़ा आपके एहसानात का इस क़द्र शुक्रगुज़ार था कि औरतें अपनी दौलत ख़ुदावंद के क़दमों में निसार कर देतीं। (लूक़ा 8:2-3) हत्ता कि आपके आख़िरी लम्हों में आपके लिए मातम करती निकलीं और सलीब के मौक़े पर खड़ी गिर्ये वज़ारी करती रही थीं। (लूक़ा 23:27)

(2)

कलिमतुल्लाह (मसीह) ने ये तालीम दी है कि मर्द और औरत के जिन्सी ताल्लुक़ात इलाही इंतिज़ाम और मंशा के मुताबिक़ हैं। (मत्ती 19:4-6) और फ़रमाया कि इब्तिदा से ख़ुदा की मंशा यही थी कि मर्द एक औरत से ही ब्याह करे। (मर्क़ुस 10:2-9) आपने शादी की महफ़िल में जा कर ब्याह को एक क़ाबिल-ए-क़द्र और मुअज़्ज़िज़ शैय बना दिया। (यूहन्ना बाब 2) आपने कस्रत इज़्दवाज (ज़्यादा बीवियां रखना) और तलाक़ को जो एक दूसरे के हम-दोश (बराबर) हैं, क़तई ममनू क़रार दे दिया। क्योंकि ये दोनों आपके उसूल मुहब्बत और मुसावात के ख़िलाफ़ हैं। (मत्ती 19:5-6) और यूं आपने नफ़्सानी ख़्वाहिशात का सद्द-ए-बाब कर दिया। (मत्ती 19:4, मर्क़ुस 10:2) मुनज्जी कौनैन के रसूलों ने अपने ख़ुदावंद के उसूल की रोशनी में शौहर और ज़ौजा (बीवी) के ताल्लुक़ात के हुक़ूक़ की मज़ीद तौज़ीह की और फ़रमाया, ऐ शौहरों अपनी बीवीयों से मुहब्बत रखो। (इफ़िसियों 5:25) शौहरों को लाज़िम है कि अपनी बीवीयों से मुहब्बत रखें और उनसे तल्ख़ मिज़ाजी ना करें। (कुलस्सियों 3:19) शौहर अपनी बीवी का हक़ अदा करे और वैसा ही बीवी शौहर का। बीवी अपने बदन की मुख़्तार नहीं बल्कि शौहर मुख़्तार है। इसी तरह शौहर भी अपने बदन का मुख़्तार नहीं बल्कि बीवी मुख़्तार है। (1 कुरिन्थियों 7:2-4) अगर कोई अपने घराने की ख़बर-गीरी ना करे तो वो ईमान का मुन्किर और बेईमान से बदतर है। (1 तीम 5:8)

“ऐ बेवीयों तुम भी अपने-अपने शौहर के ताबेअ रहो। इसलिए कि अगर बाअज़ उन में से कलाम को ना मानते हों तो भी तुम्हारे पाकीज़ा चाल चलन और ख़ौफ़ को देखकर बगैर कलाम के अपनी-अपनी बीवी के चाल चलन से ख़ुदा की तरफ़ खिंच जाएं। और तुम्हारा सिंगार ज़ाहिरी ना हो यानी सर गूंधना और सोने के ज़ेवर और तरह-तरह के कपड़े पहनना। बल्कि तुम्हारी बातिनी और पोशीदा इंसानियत हिल्म मिज़ाज की ग़ुर्बत की गैर-फ़ानी आरईश से आरास्ता रहे क्योंकि ख़ुदा के नज़्दीक इस की बड़ी क़द्र है।...ऐ शौहरों तुम भी बीवीयों के साथ अक़्लमंदी से बसर करो और औरत को नाज़ुक ज़र्फ़ जान कर उस की इज़्ज़त करो और यूँ समझो कि हम दोनों ज़िंदगी की नेअमत के वारिस हैं ताकि तुम्हारी दुआएं रुक ना जाएं।” (1 पतरस 3:1-7, कुलस्सियों 3:18-19)

(3)

कहाँ ये इंजीली तालीम और कहाँ दीगर मज़ाहिब की तालीम, कि ख़ालिक़ ने सरिश्त से मर्दों को औरतों पर फ़ज़ीलत दी है। इस का वजूद सिर्फ़ नस्ल की अफ़्ज़ाइश के लिए है और बज़ात-ए-ख़ुद वो कोई ख़ुद-मुख़्तार हस्ती नहीं रखती। वो बचपन में अपने बाप की, जवानी में अपने ख़ावंद और ख़ुसर की और बुढ़ापे में अपने बेटों की मह्कूम हो कर ज़िंदगी गुज़ारे। अगर किसी की औरत बद ख़ो हो, ख़ावंद मार पीट से काम ले। मनु हिंदूओं के मज़्हबी क़ानून धर्मशास्त्र का मुसन्निफ़ तंबीया कर के मर्दों को कहते हैं कि जो शख़्स अपना फ़र्ज़ अदा नहीं करता, वो नए जन्म में ग़ुलाम या हैवान या औरत का जन्म लेगा। इन्सानी मुआशरत की इब्तिदाई मनाज़िल में मर्द एक औरत से ज़्यादा औरतों को ब्याह लेते थे, क्योंकि दुश्मनों के मुक़ाबले के लिए भेड़ बकरीयां चराने और खेती बाड़ी के काम के लिए मर्दों को ज़्यादा बच्चों की ज़रूरत पड़ती थी। उनका मक़ूला था “जवानी के फ़र्ज़न्द ऐसे हैं जैसे ज़बरदस्त के हाथ में तीर। ख़ुशनसीब है वह आदमी जिसका तरकश इनसे भरा है।” (ज़बूर 127:4-5) लेकिन ज़राए मआश और सियासी व इक़्तिसादी हालात के बदलने से बीवी बच्चों की तादाद पर हद लगाने की ज़रूरत लाहक़ हो जाती थी। इलावा अज़ीं ज़्यादा लौंडियों और बीवीयों की कफ़ालत, उन की बाहमी रक़ाबत, हसद और सोकन का जलापा, आए दिन घरेलू झगड़े, ख़ाना जंगीयाँ, विरासत के मसले, मुक़द्दमे, कस्रत अख़राजात और इसी क़िस्म की बीसियों दिक्कतों से मज्बूर हो कर मर्द ज़्यादा निकाहों से परहेज़ करने लगे। रफ़्ता-रफ़्ता कस्रत इज़्दवाजी (ज़्यादा बीवियां रखना) और तलाक़ की रस्म कम और एक ही बीवी से उम्र भर निभाने की रस्म तरक़्क़ी करने लगी। मुहज़्ज़ब ममालिक के क़वानीन और समाज उस की रस्म के मुआविन हो गए और तअद्दुद (बहुत सी) इज़्दवाजी सिर्फ़ अफ़्सोसनाक ऐश पसंदों के लिए रह गई।

अहले-यहूद की तारीख़ में औरतें हुक्मरान थीं (कज़ा 4:4), शाएरा थीं। (ख़ुरूज 15:21) हत्ता कि उनमें से बाअज़ नबीया भी थीं। (ख़ुरूज 15:20:, मीकाह 6:4, 2 सलातीन 22:14, 2 तवारीख़ 34:22, नहमियाह 6:14) लेकिन बईं-हमा औरतों की हैसियत आम समाजी ज़िंदगी में मर्दों से कम पाया की थी। निकाह का मक़्सद नस्ल की अफ़्ज़ाइश तसव्वुर की जाती थी और इस हक़ीक़त को भुला दिया गया कि ख़ुदा ने हव्वा को इस ग़र्ज़ से पैदा किया था कि वो हर बात में उस का साथ दे और ख़ुदा ने दोनों को “एक तन” क़रार दिया था। (पैदाइश 2:18,24)

आँ ख़ुदावंद के अय्याम में औरत के बाप को वाहिद इख़्तियार हासिल था कि वो उस के लिए ख़ावंद को तज्वीज़ करे। इस इंतिज़ाम में बेटी को चूँ व चरा करने का मुतलक़ मजाज़ ना था। किसी काहिन के वसीले फ़रीक़ैन का निकाह नहीं पढ़ा जाता था, बल्कि जब तरफ़ैन ब्याह का इंतिज़ाम कर लेते तो दूल्हा अपनी दुल्हन का हाथ पकड़ कर कहता था कि तू मूसवी शरीअत और क़ौम इस्राईल के रिवाज के मुताबिक़ मेरी बीवी हो गई। मंगनी और ब्याह में कोई तमीज़ ना थी, बल्कि दोनों एक ही थे। (मत्ती 1:18) इस रस्म के बाद दूल्हन दूल्हे के घर चली जाती थी जहां वो हस्ब-ए-तौफ़ीक़ ज़ियाफ़त करता था। (यूहन्ना 2:1-2) इस ज़ियाफ़त में कम-अज़-कम दस मेहमानों की मौजूदगी बतौर गवाह लाज़िम थी। आँ ख़ुदावंद के ज़माने में अहले-यहूद के रब्बियों ने चार बीवीयों से निकाह करने की हद लगा थी।

(4)

मूसवी शरीअत में ज़िनाकारी की मुमानिअत है। (ख़ुरूज 20:14) और मन्कूहा ज़ानिया की सज़ा संगसारी है, क्योंकि ऐसी सज़ा ख़ानदान के वजूद और बक़ा का तहफ़्फ़ुज़ करती है। पस मन्कूहा ज़ानिया की सज़ा ज़िनाकार मर्द से ज़्यादा सख़्त है। ज़िनाकार मन्कूहा ना सिर्फ अपने ख़ावंद से बेवफ़ाई करती है, बल्कि ख़ानदान और क़ौम में ऐसा बच्चा ले आती है जो उस के ख़ावंद का नहीं होता। ऐसे बच्चे की पैदाइश से ख़ानदानी ताल्लुक़ात बिगड़ जाते हैं और विरासत और जायदाद पर असर पड़ता है, लेकिन ख़ावंद की बेवफ़ाई से ये हालात पैदा नहीं होते। अगर ख़ावंद किसी की मंगेतर और मन्कूहा औरत से ज़िना करे तो वो मुस्तजिब सज़ा हो जाता है। इन सज़ाओं का ज़िक्र गिनती बाब 5 और इस्तिस्ना बाब 22 में मुफ़स्सिल तौर पर पाया जाता है। ज़िना बिल-जब्र की हालत में सिर्फ मर्द को सज़ा मिलती है। अगर कोई मर्द किसी कुँवारी से ज़िना करने के बाद उस से निकाह करे तो उस का निकाह फ़स्ख़ (मन्सूख, तोड़ना) करना नहीं हो सकता था।

मर्द औरत को मुख़्तलिफ़ वजूह के बाइस तलाक़ दे सकता था, क्योंकि वो उस का माल तसव्वुर की जाती थी। लेकिन चूँकि शौहर बीवी का माल ना था, पस औरत मर्द को तलाक़ नहीं दे सकती थी। तलाक़ के क़वानीन व क़वाइद इस्तिस्ना 24:1, यसअयाह 50:1, यर्मियाह 3:8, मत्ती 5:31 में दर्ज हैं। मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा) औरत की ज़िंदगी दुखों से भरी हुई थी। तलाक़ के बाद उमूमन वो अपने वालदैन के घर चली जाती थी। अगर तलाक़ की वजह ज़िना ना होती तो बच्चों की सुपुर्दगी औरत को दी जाती थी। लड़का 6 साल की उम्र तक और लड़की जब तक उस की शादी ना हो जाये मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा) माँ के साथ रहते थे। तलाक़ के वक़्त हर ख़ावंद को ज़र महर (कतोबा) अदा करना पड़ता था और ये हर मर्द पर गिरां गुज़रता था। पस यहूदी क़ानून इस बात की इजाज़त भी नहीं देता था कि ख़ावंद अपनी मन्कूहा औरत को एक बार तलाक़ देकर उस को फिर अपने निकाह में भी ले-ले। हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने सिवाए ज़िना की वजह के हर दूसरी हालत में तलाक़ को ममनू फ़र्मा दिया। (मत्ती बाब 19, मर्क़ुस बाब 10, लूक़ा बाब 16) और ये हुक्म दिया कि मर्द सिर्फ एक ही बीवी पर क़नाअत करे (मर्क़ुस 10:6-9)

(5)

कलिमतुल्लाह (मसीह) ने मूसवी शराअ की एक नई तफ़्सीर की। मूसवी शराअ में हुक्म था कि “तू ज़िना ना करना।” (ख़ुरूज 20:14), लेकिन यहूदी रब्बी इस हुक्म की निराली तफ़्सीर करते थे। ऐसा कि इस हुक्म में और आठवें हुक्म “तू चोरी ना करना।” (ख़ुरूज 20:15) में फ़र्क़ ना रहा था। वो ज़िना की मुमानिअत की वजह ये बयान करते थे कि औरत किसी ना किसी मर्द का माल होती है। (ख़ुरूज 20:17) लिहाज़ा किसी औरत से ज़िना करना पराए माल पर हाथ डालना और पराए शख़्स की जायदाद पर क़ब्ज़ा करने के बराबर है।

कलिमतुल्लाह (मसीह) ने ज़िना के हुक्म को नापाकी और शहवत से मुंसलिक किया और फ़रमाया कि इस हुक्म का ताल्लुक़ पराए शख़्स के माल से नहीं है। इस का मतलब ये है कि जिस किसी ने बुरी ख़्वाहिश से किसी औरत पर निगाह की वो उस के साथ ज़िना कर चुका। “अगर तेरी आँख तुझे ठोकर खिलाए तो उसे निकाल कर अपने पास से फेंक दे। काना हो कर ज़िंदगी में दाखिल होना तेरे लिए इस से बेहतर है कि दो आँखें रखता हो, तू आतिश जहन्नम में जाये।” (मत्ती 18:9, मर्क़ुस 9:47) पस ख़ुदावंद ने तब्क़ा निसवां (औरतों की जमात) की हैसियत कुल्लियतन बदल दी। वो किसी इन्सान की जायदाद मन्क़ूला की बजाय बज़ात-ए-ख़ुद एक मुस्तक़िल हस्ती बन गई जो मर्दों की तरह (लूक़ा 13:6) ग़ैर-फ़ानी रूह रखती थी और ख़ुदा की फ़र्ज़न्द होने का हक़ रखती थी (यूहन्ना 1:12)

(6)

कलिमतुल्लाह (मसीह) के ज़माने में जिन्सी ताल्लुक़ात का फ़ैसला मर्दों के हाथों में था। तमाम रुए-ज़मीन की औरतों की क़िस्मत की बागडोर मर्दों के हाथ में थी। दीगर मज़ाहिब आलम ये फ़र्ज़ कर लेते थे कि औरत ज़ात को किसी ना किसी के क़ब्ज़े में होना ज़रूरी है। मनुस्म्रती की तरह इन मज़ाहिब के मुताबिक़ औरत का बचपन, आलम-ए-शबाब ग़रज़ कि उस की ज़िंदगी की तमाम मंज़िलें आदमीयों के हाथों में थीं और ये ज़रूरी ख़याल किया जाता था कि जिस तरफ़ मर्द उन की बाग मोड़ें, वो चलें। ये कभी किसी के वहम व गुमान में भी नहीं आया था कि औरत का वजूद किसी मर्द के हिबाला-ए-अक़्द (निकाह बंधन) में आए बग़ैर मुम्किन हो सकता है। दुनिया के तमाम ग़ैर-मसीही मज़ाहिब ये फ़र्ज़ कर लेते हैं कि इस दुनिया में औरत के वजूद का वाहिद मक़्सद ये है कि वो किसी की मन्कूहा बीवी हो कर अपनी ज़िंदगी बसर करे। उस की वक़अत क़ौम और मुल्क के लिए बच्चे पैदा करने की मशीन से ज़्यादा नहीं। मसीहिय्यत ही अकेला वाहिद मज़्हब है जिसमें ये तालीम दी गई है कि औरत बग़ैर निकाह के और बग़ैर माल-ए-मन्कूला के मुतसव्वर हुए अपनी ज़िंदगी इज़्ज़त के साथ बसर कर सकती है। एक मुअर्रिख़ कहता है कि “मसीहिय्यत का बड़ा मोअजिज़ा ये है कि इस दुनिया में एक कुँवारी औरत मुद्दत-उल-उम्र कुँवारी रह सकती है।” कलिमतुल्लाह के तुफ़ैल औरत बज़ात-ए-ख़ुद एक मुस्तक़िल हस्ती हो गई है। इन्सान के जिन्सी ताल्लुक़ात को पूरा करने और उस की शहवत का आला कार नहीं रही। बल्कि वो मर्द की तरह ख़ुदा की फ़र्ज़न्द बन गई है और मर्द के साथ ख़ुदा की बादशाहत की हम मीरास हो गई है। वो मसीह के साथ रुहानी रिफ़ाक़त रखने वाली हो गई है। मर्द के बदन की तरह औरत का बदन भी रूहुल-क़ुद्दुस का मस्कन बन गया है। (1 कुरिन्थियों 6:19) और मर्द और औरत दोनों पर वाजिब हो गया है कि वो अपने बदन से ख़ुदा का जलाल ज़ाहिर करें ताकि उनकी रूह और जान और बदन ख़ुदावंद मसीह की आमद सानी तक कामिल तौर पर बेऐब रह कर महफ़ूज़ रहें। (1 कुरिन्थियों 6:20, 1 थिस्सलुनीकियों 5:23) पस कलिमतुल्लाह (मसीह) के ज़रीं उसूल के मुताबिक़ औरत और मर्द का दर्जा मुसावी और बराबर हो गया है। चूँकि मुनज्जी कौनैन (मसीह) मर्द और औरत दोनों के यकसाँ तौर पर नजातदिहंदा हैं। पस दोनों एक ही ईमान में शरीक और एक ही विरासत के हम मीरास हो गए हैं। (ग़लतीयों 3:28, 1 पतरस 3:7) मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील और किताब आमाल-उल-रसूल से ज़ाहिर है कि औरतें कलीसियाई ज़िंदगी में बड़ा हिस्सा लेती थीं। (आमाल 1:14) कुरिन्थियों के नाम पहले ख़त से ज़ाहिर होता है कि औरतें मुहब्बत की ज़ियाफ़त में मर्दों के साथ बराबर की शरीक होती थीं और दुआ और नबुव्वत में बराबर हिस्सा लेती थीं। वो रसूलों की ख़िदमत करने में मशग़ूल रहती थीं और कलीसियाई ओहदों पर भी मामूर हुआ करती थीं। (रोमीयों 16:1, 1 तीमुथियुस 2:11, 5:3-16) जर्मन नक़्क़ाद हारनेक कहता है कि “इन्जील की कुतुब में से एक किताब यानी इब्रानियों का ख़त एक औरत परसकिला का तहरीर किया हुआ है।” अगर ये सही है तो एक औरत की ज़बरदस्त तस्नीफ़ को इंजीली मजमूए में शामिल होने का शर्फ मिला।

हम सुतूर बाला में बता आए हैं कि अहले-यहूद की तारीख़ में औरतें हुक्मरान हो चुकी थीं। (कज़ा 4:4) लेकिन चूँकि क़ुरआन मजीद में आया है कि मर्दों को औरतों पर हुकूमत और फ़ज़ीलत हासिल है। लिहाज़ा अज़रूए शराअ कोई औरत किसी इस्लामी ममलकत की सरबराह हुकूमत नहीं हो सकती। चुनान्चे 1965 ई॰ के इंतिख़ाबात में जब बीबी फ़ातिमा जिन्नाह को पाकिस्तान की प्रैज़ीडैंट होने के लिए नामज़द किया गया तो देवबंद के मुफ़्ती सय्यद मह्दी हसन साहब ने लिखा कि :-

“शरीअत की किताबों की वर्क गरदानी और मुतालआ मफ़ाहीम व सराहत नसूस से यही साबित है कि इस्लामी नज़रिये के मातहत औरत सदर-ए-मुम्लिकत और सरबराह सल्तनत नहीं हो सकती। उस का मर्दों पर हाकिम होना जायज़ नहीं। शरअन औरत बाइख़्तियार हुक्मरान नहीं हो सकती।”

(रिसाला अल-फ़ुर्क़ान लखनऊ, फरवरी 65 ई॰ सफ़ा 4)

9. ज़ात-पात और दर्जा बंदी

मुनज्जी आलमीन के ज़रीं उसूल हर क़िस्म की तफ़रीक़, दर्जा बन्दी, ज़ात पात और दीगर तमाम इन्सानों की बनाई हुई जुदाइयों और मस्नूई (खुदसाख्ता) इम्तियाज़ात के ख़िलाफ़ हैं। आपके उसूल मुहब्बत, उखुव्वत और मुसावात जमअ हैं और उस में हर क़ौम, मिल्लत, मुल्क और ज़माने के हर तब्क़े के तमाम अफ़राद यकसाँ तौर पर शामिल हैं। वो सब पर हावी हैं। कोई फ़र्द बशर उनसे मुस्तसना (छूटा हुआ) नहीं किया गया। चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस फ़रमाता है कि ख़ुदावंद के इन उसूल की वजह से अब “ना कोई यहूदी रहा ना यूनानी। ना कोई ग़ुलाम ना आज़ाद। ना कोई मर्द ना औरत क्योंकि तुम सब मसीह यिसूअ में एक हो।” (ग़लतीयों 3:28) यानी यहूद को अपनी बर्गज़ीदगी पर, यूनानियों को अपनी हिक्मत और ख़िर्द पर, आज़ाद इन्सानों को ग़ुलाम रखने पर, फ़ख़्र ना रहा और मर्द को औरत पर फ़ौक़ियत ना रही। क़ौमीयत की दर्जा बन्दी, हश्मत और दौलत की दर्जा बन्दी, जिन्सी दर्जा बन्दी ग़रज़ कि हर क़िस्म की जुदाई और दर्जा बंदी का क़िला क़ुमाअ हो गया। सब मस्नूई (खुदसाख्ता) इम्तियाज़ात मिट गए और ख़ुदावंद मसीह के हल्क़ा-ब-गोश हो कर सब “मसीह यसूअ में एक हो गए।”

एक दफ़ाअ ख़ुदावंद के दवाज़ दह (12) रसूलों में ये तकरार हो गई कि हम में से कौन बड़ा है? “ख़ुदावंद ने उनसे फ़रमाया कि अक़्वाम आलम के बादशाह उन पर हुकूमत चलाते हैं और जवान पर इख़्तियार रखते हैं वो ख़ुदावंदे नेमत कहलाते हैं, लेकिन तुम ऐसे ना करना, बल्कि जो तुम में बड़ा होना चाहे वो तुम्हारा ख़ादिम बने और जो तुम में अव्वल होना चाहे वो तुम्हारा ग़ुलाम बने। मैं तुम्हारे दर्मियान ख़िदमत करने वाले की मानिंद हूँ। क्योंकि इब्ने आदम इसलिए नहीं आया कि ख़िदमत ले बल्कि इसलिए आया कि ख़िदमत करे और अपनी जान बहुतों के लिए फ़िद्या में दे।” (लूक़ा 22:24-27 मत्ती 20:20-27) आपने अपनी ज़िंदगी की आख़िरी शब में अपने इस हुक्म पर ख़ुद अमल फ़र्मा कर अपने रसूलों को नमूना दिया जो वो कभी ना भूले। चुनान्चे आपने आख़िरी खाना खाने से पहले “दस्तर ख़्वान से उठ कर कपड़े उतारे और रूमाल लेकर अपनी कमर में बाँधा। इस के बाद बर्तन में पानी डाल कर शागिर्दों के पांव धोने और जो रूमाल कमर में बंधा था उस से पोंछने शुरू किए।.....जब वो उन के पांव धो चुका और अपने कपड़े पहन कर फिर बैठ गया तो उन से कहा, क्या तुम जानते हो कि मैं ने तुम्हारे साथ क्या किया? तुम मुझे उस्ताद और ख़ुदावन्द कहते हो और ख़ूब कहते हो क्योंकि मैं हूँ। पस जब मुझ ख़ुदावन्द और उस्ताद ने तुम्हारे पांव धोए तो तुम पर भी फ़र्ज़ है कि एक दूसरे के पांव धोया करो। क्योंकि मैं ने तुमको एक नमूना दिखाया है कि जैसा मैं ने तुम्हारे साथ किया है तुम भी किया करो। मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि नौकर अपने मालिक से बड़ा नहीं होता और ना भेजा हुआ अपने भेजने वाले से। अगर तुम इन बातों को जानते हो तो मुबारक हो बशर्ते के उन पर अमल भी करो।” (यूहन्ना 13:4-17) अरबी ज़बान में मिस्ल मशहूर है, “सय्यद-उल-क़ौम खादिम हम” यानी क़ौम का अमीर जमाअत वही बनता है जो क़ौम की ख़िदमत करे। कलिमतुल्लाह (मसीह) ने ये हुक्म देकर और अपने हुक्म पर अमल कर के एक बेनज़ीर नमूना दे दिया ताकि आपके मुत्तबईन (मुत्तबअ : इत्तिबा करने वाला, पैरवी करने वाला) ये समझ लें कि ग़ुरबा और पसे मांदगान की ख़िदमत ही हक़ीक़ी अज़मत और इमारत है।

इन्जील मुक़द्दस में कलीसिया-ए-जामा का तसव्वुर इफ़िसियों के नाम ख़त में पाया जाता है। इस का सतही मुतालआ भी ये साबित कर देता है कि कलीसिया-ए-जामा का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) यही है कि उस में हर क़िस्म के इम्तियाज़ात कुल्लियतन बट जाएं और कलीसिया तमाम क़िस्म के अफ़राद और अक़्वाम आलम को अपने अंदर जमा करे। (इफ़िसियों 2:14-16) इसी वास्ते मसीही कलीसिया को “कैथोलिक कलीसिया” या “कलीसिया-ए-जामा” कहा जाता है और तमाम दुनिया के मसीही ख़्वाह वो किसी जमाअत व फ़िर्क़े के साथ ताल्लुक़ रखते हों अपने अक़ीदे में इक़रार कर के कहते हैं “मैं एक वाहिद कैथोलिक (जामा कलीसिया) पर ईमान रखता हूँ।”

10. मसीहिय्यत और नई पैदाइश

कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम मह्ज़ अख़्लाक़ीयात पर ही मुश्तमिल नहीं और ना ये तालीम सच्चे और आला तरीन उसूल का मह्ज़ एक मजमूआ है, बल्कि आपका हक़ीक़ी मक़्सद ये था कि आपकी तालीम और नमूने से नूअ इन्सानी के दिल बदल जाएं (यूहन्ना बाब 3) ताकि इन्सानों के जज़्बात व ख़यालात और अफ़आल ऐसे तब्दील हो जाएं कि जिन अश्ख़ास को वो पहले नफ़रत, हिक़ारत या अदावत की नज़र से देखते थे, अब उनको बिरादराना मुहब्बत से प्यार करें और इज़्ज़त की रु से उनको अपने से बेहतर समझें। (रोमीयों 10:12, इब्रानियों 3:1-5, 1 पतरस 3:8, 2 पतरस 1:7) यही वजह थी कि अवामुन्नास जिनको यहूद के रब्बी उनकी जहालत की वजह से मलऊन ख़याल करते थे (यूहन्ना 7:49) कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम और दीगर लीडरों की तालीम में फ़र्क़ पहचान सकते थे। (मर्क़ुस 2:22) और आपकी तालीम को सुनने के लिए दश्त व ब्याबान में कई-कई दिन ठहरे रहते थे और भूक और प्यास को भूल जाते (मर्क़ुस 8:2) अवामुन्नास आपके कलिमात तय्यिबात को सुनने के इस क़द्र मुश्ताक़ होते कि हुजूम में खोए से खोह छिलता (कंधे से कंधा रगड़ खाता था) था। ऐसे मौक़ों पर आप कश्ती में बैठ जाते और लोग आपके पास साहिल पर खड़े घंटों आप की तालीम से बहरावर होते (मर्क़ुस 3:20, 4:1) और कहते कि किसी दूसरे इन्सान की तालीम के अल्फ़ाज़ ने उनकी ज़िंदगीयों को ऐसा मुतास्सिर ना किया। (यूहन्ना 7:46)

بیانے را کہ کس واقف نبا شد نکتہ پروازی
زمانے را کہ کس دانا نبا شد،ترجماں استی

कलिमतुल्लाह (मसीह) के पैग़ाम की ये ख़ुसूसीयत है कि जो किसी दूसरे दीन व मज़्हब में नहीं कि आप इस बात पर इसरार करते हैं कि आपकी इन्जील के पैग़ाम से दुनिया की तारीख़ में एक नया बाब खुल जाएगा और दुनिया की काया ऐसी पलट जाएगी कि वो अज़ सर-ए-नव पैदा होगी और हर क़िस्म के इम्तियाज़ात, तफ़रीक़ और दर्जा बंदी का इस्तीसाल (खात्मा) हो जाएगा। इस मुबारक मक़्सद को हासिल करने के लिए जनाबे मसीह की तालीम इन्सान के लिए नए शरई क़वानीन को मुरत्तिब नहीं करती, बल्कि इन्सानी ज़िंदगी में एक नई रूह फूंकती है। कलिमतुल्लाह (मसीह) का मक़्सद ये है कि हम ज़िंदगी को एक नए ज़ावीया से देखें। चुनान्चे एक दफ़ाअ का ज़िक्र है कि एक यहूदी रब्बी आपके पास आया ताकि आपकी तालीम में कोई नया शरई क़ानून दर्याफ़्त करे। आपने उस को साफ़ फ़रमाया “जब तक कोई नए सिरे से पैदा ना हो वो ख़ुदा की बादशाहत को देख नहीं सकता।” (यूहन्ना 3:3) हम पहाड़ी वाज़ को समझ ही नहीं सकते तावक़्ते के हम ख़ुदा की बादशाहत में इस नई रोया को ना देखें, जो ख़ुदावंद मसीह हमको दिखाता है और जिसको देखकर इन्सान की ज़िंदगी कुल्लियतन तब्दील हो जाती है। आपने ख़ुद फ़रमाया “अगर कोई ख़ुदा की मर्ज़ी पर चलना चाहे तो वो इस तालीम की बाबत जान जाएगा।” (यूहन्ना 7:17) मुक़द्दम बात ये है कि हम अपनी ज़हनीयत और ज़िंदगी को तब्दील करें और अपनी मर्ज़ी पर चलने की बजाय ख़ुदा की मर्ज़ी पर चलने का मुसम्मम इरादा करें।

11. बैरूनी अफ़आल और मसीहिय्यत

कलिमतुल्लाह (मसीह) की अख़्लाक़ीयात और मज़ाहिब-ए-आलम की अख़्लाक़ीयात में नुमायां फ़र्क़ ये है कि दीगर अद्यान की निगाह इन्सानियत के ज़ाहिरी आमाल व अफ़आल पर है, लेकिन मसीहिय्यत की निगाह इन्सान के बातिन पर है। दीगर मज़ाहिब की ये कोशिश है कि इन्सानी ज़िंदगी के बैरूनी अफ़आल की निगहदाश्त करें ताकि वो आमाल सालेह करने वाले हों और बद आमालीयों से परहेज़ करें। ये मज़ाहिब शरई अहकाम मसलन ख़ून ना कर, चोरी ना कर, ज़िना ना कर, वग़ैरह सादिर करते हैं ताकि इन्सान के ज़ाहिरी आमाल को क़ाबू में रखें। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की निगाह इन्सान के बातिन पर है। आपकी ये तालीम है कि ख़ुदा हमारे ज़ाहिरी आमाल को नहीं देखता, बल्कि उस की निगाह हमारे बातिन पर है। ऐसा अक्सर होता है कि इन्सान ख़ून, चोरी और ज़िना के ज़ाहिरी आमाल से परहेज़ करता है, लेकिन इस पर भी वो ख़ुदा की नज़र में उन गुनाहों का मुर्तक़िब होता है। रिज़ा-ए-इलाही का ताल्लुक़ सिर्फ ज़ाहिरी आमाल के साथ नहीं होता, बल्कि हमारे दिलों के जज़्बात के साथ है। ख़ुदा की मर्ज़ी तब पूरी होती है जब हमारी नीयत साफ़ और हमारा बातिन पाक हो। अगर हमारा दिल साफ़ नहीं तो गो हम ज़ाहिरी अफ़आल के ज़रीये चोरी या ज़िना वग़ैरह के मुर्तक़िब भी ना हुए हों, ताहम ख़ुदा की नज़र में हमने इन गुनाहों का इर्तिकाब कर लिया।

रिज़ा-ए-इलाही का असली ताल्लुक़ हमारे अंदरूनी ख़यालात, एहसासात और जज़्बात के साथ है। कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया “तुम सुन चुके हो कि अगलों से कहा गया था कि ख़ून ना करना और जो कोई ख़ून करेगा वो अदालत की सज़ा के लाइक होगा। लेकिन मैं तुमसे ये कहता हूँ कि जो कोई अपने भाई पर गुस्से होगा वो अदालत की सज़ा के लायक़ होगा।....पस अगर तू कुर्बान गाह पर अपनी नज़र गुज़रानता हो और वहां तुझे याद आए कि मेरे भाई को मुझसे कुछ शिकायत है। तो वहीं क़ुर्बानगाह के आगे अपनी नज़र छोड़ दे और जा कर पहले अपने भाई से मिलाप कर तब आकर अपनी नज़र गुज़रान।.....तुम सुन चुके हो कि कहा गया था कि ज़िना ना करना। लेकिन मैं तुमसे ये कहता हूँ कि जिस किसी ने बुरी ख़्वाहिश से किसी औरत पर निगाह की वो अपने दिल में उस के साथ ज़िना कर चुका।” (मत्ती 5:21-28) दीगर मज़ाहिब गुनाह के मर्ज़ के बैरूनी आसार यानी आमाल को क़ाबू में रखना चाहते हैं, लेकिन ख़ुदावंद मसीह गुनाह के मर्ज़ की तशख़ीस करके उस के अंदरूनी और पिन्हा अस्बाब का क़िला क़ुमाअ (दरवाज़ा बंद) करते हैं ताकि गुनाह का मरीज़ कुल्लियतन सेहत-याब हो जाए। यही वजह है कि जनाबे मसीह की निगाह दौलत पर नहीं बल्कि दौलत की मुहब्बत पर है और आप इस से नूअ इन्सानी को ख़बरदार करते हैं। (लूक़ा 12:15) आपकी नज़र ज़िनाकारी पर नहीं बल्कि बुरी ख़्वाहिश पर है जिसका आप सिद्द-ए-बाब करना चाहते हैं (मत्ती 5:28) आपकी नज़र ख़ून, क़त्ल, जंग और तशद्दुद पर नहीं बल्कि कीनातोज़ी (कीना रखना, हसद करना) और अदावत पर है, जिसका आप इस्तीसाल करना चाहते हैं। (मत्ती 5:43-48) जब इन्सान के ख़यालात और जज़्बात दुरुस्त होंगे तो अफ़आल ख़ुद बख़ुद दुरुस्त हो जाएंगे। क्योंकि वो उन्ही ख़यालात और जज़्बात के नताइज होते हैं।

कलिमतुल्लाह (मसीह) ने गुनाह की बेख़कुनी करने के लिए नेक-आमाल और बद-अफ़आल के शरई क़वानीन को मुरत्तिब ना किया, बल्कि आमाल के लिए एक नया उसूल क़ायम कर दिया। जिससे दुनिया ना-आश्ना थी यानी आपने उसूल-ए-मुहब्बत को वज़ाअ किया। क्योंकि बअल्फ़ाज़ इन्जील शरीफ़ “जो दूसरे से मुहब्बत रखता है उसने शरीअत पर पूरा अमल किया। क्योंकि ये बातें कि ज़िना ना कर, ख़ून ना कर, चोरी ना कर और इनके सिवा और जो कोई हुक्म हो उन सब का ख़ुलासा इस बात में पाया जाता है कि अपने पड़ोसी से अपनी मानिंद मुहब्बत रखो मुहब्बत अपने पड़ोसी से बदी नहीं करती इस वास्ते मुहब्बत शरीअत की तक्मील है।” (रोमीयों 13:8-10) इस उसूल का ताल्लुक़ क़ानूनी नुक्ता निगाह से नहीं है। क्योंकि शरीअत और क़ानून सिर्फ़ ज़ाहिरी आमाल और बैरूनी अफ़आल पर ही हावी होते हैं। लेकिन मुहब्बत का उसूल आमाल के बैरूनी पर्दे को चाक करके इन्सान के असली इरादे और खु़फ़ीया रज़ा-ए-पिनहां पर निगाह करता है। लिहाज़ा वो शरीअत से बाला और कुल रुहानी ज़िंदगी पर हावी है और इन्सानी ज़िंदगी के हर शोबे को क़ाबू में रख सकता है।

12. नजात और अबदी ज़िंदगी का मफ़्हूम

आम तौर पर नजात के तसव्वुर को मौत के बाद की ज़िंदगी से मुताल्लिक़ समझा जाता है और मौजूदा ज़िंदगी को दार-उल-अमल क़रार देकर उखरवी ज़िंदगी को ही असली और हक़ीक़ी ज़िंदगी तसव्वुर किया जाता है। चुनान्चे ऐडीटर साहब रिसाला अल-फुर्क़ान (रब्वाह) माह जुलाई 1965 ई॰ के शुमारा में (सूरह अन्कबूत की आयत 64) وَاِنَّ الدَّارَ الۡاٰخِرَۃَ لَہِیَ الۡحَیَوَانُ ज़ेर-ए-उनवान “इस्लाम का मेयार नजात” को लिख कर इस का यूं तर्जुमा करते हैं “यानी आने वाली ज़िंदगी ही हक़ीक़ी और असली दाइमी ज़िंदगी है।” आयत के इक़्तिबास के बाद वो लिखते हैं “पस ये दुनिया तो आख़िरत के लिए खेती है। ये तो इम्तिहान की जगह है। इस जगह के आमाल का पूरा समरा (फल) अगले जहान में मिलेगा।...इस्लाम ने नजात की अहलीयत और अदम अहलीयत का मेयार यानी पास और फ़ेल होने के लिए मेयार आयात ज़ेल में ज़िक्र फ़रमाया है :-

فَاَمَّا مَنۡ ثَقُلَتۡ مَوَازِیۡنُہٗ۔ فَہُوَ فِیۡ عِیۡشَۃٍ رَّاضِیَۃٍ ۔وَ اَمَّا مَنۡ خَفَّتۡ مَوَازِیۡنُہٗ۔ فَاُمُّہٗ ہَاوِیَۃٌ

(सूरह अल-बक़रह आयात 6-9) तर्जुमा “जिन लोगों के (नेक-आमाल के) पलड़े भारी होंगे, वो आफ़ियत और ख़ुशी की ज़िंदगी में दाख़िल होंगे और जिनके पलड़े हल्के होंगे, उनका ठिकाना गढ़ा यानी जहन्नम होगा।”

َمَنۡ ثَقُلَتۡ مَوَازِیۡنُہٗ فَاُولٰٓئِکَ ہُمُ الۡمُفۡلِحُوۡنَ۔ وَ مَنۡ خَفَّتۡ مَوَازِیۡنُہٗ فَاُولٰٓئِکَ الَّذِیۡنَ خَسِرُوۡۤا اَنۡفُسَہُمۡ فِیۡ جَہَنَّمَ خٰلِدُوۡنَ (سور ہ المومنون آیات ۱۰۳،۱۰۲)۔

तर्जुमा : जिनके नेक-आमाल के पलड़े भारी होंगे, वो आफ़ियत और ख़ुशहाली में रहने वाले होंगे और जिनके ये पलड़े हल्के होंगे, वो लोग हैं जिन्हों ने (अपने) आपको ख़सारे में डाला। वो जहन्नम में सदा रहने वाले होंगे।” (सूरह मोमीनून आयात 102-103)

وَ الۡوَزۡنُ یَوۡمَئِذِ ۣالۡحَقُّ ۚ فَمَنۡ ثَقُلَتۡ مَوَازِیۡنُہٗ فَاُولٰٓئِکَ ہُمُ الۡمُفۡلِحُوۡنَ۔ وَ مَنۡ خَفَّتۡ مَوَازِیۡنُہٗ فَاُولٰٓئِکَ الَّذِیۡنَ خَسِرُوۡۤا اَنۡفُسَہُمۡ بِمَا کَانُوۡا بِاٰیٰتِنَا یَظۡلِمُوۡنَ(سورہ اعراف آیات۸۔۹) ۔

तर्जुमा : उस दिन वज़न सही तौर पर होगा जिनके तंग आमाल वाले पलड़े भारी होंगे, वो आफ़ियत और ख़ुशी पाएँगे और जिनके पलड़े हल्के होंगे, वो ऐसे लोग हैं जिन्हों ने हमारी आयात पर ज़ुल्म कर के अपने आपको ख़सारे में डाला।” (सूरह अल-आराफ आयात 8-9)

इन आयात का इक़्तिबास कर के ऐडीटर साहब इनका मतलब यूं वाज़ेह करते हैं,

“क़ुरआन मजीद की इन आयात में ऐलान फ़र्मा दिया गया है कि इस दुनिया के इम्तिहान में पास होने का अक़ल मेयार ये है कि इन्सान की नेकियां उसकी बदियों से ज़्यादा हों। गोया इस मुक़ाबले में जो शख़्स सौ (100) में से इक्यावन (51) फ़ीसद नम्बर लेगा वो कामयाब होगा। अलबत्ता ज़्यादा नम्बर पाने वाले आला दर्जात हासिल करेंगे।....इस्लाम का ये मेयार नजात फ़ित्रत के ऐन मुताबिक़ है और निहायत माक़ूल है। इस पर ज़रा सा तदब्बुर करने से इस्लाम की दीगर अद्यान पर फ़ज़ीलत व बरतरी रोज़ रोशन की तरह अयाँ है।” (स 504)

मज़्कूर बाला आयात और इनकी वज़ाहत से ज़ाहिर है (1) नजात का ताल्लुक़ मौजूदा ज़िंदगी से नहीं बल्कि हयात बाद-उल-मौत से है (2) ये दुनिया दार-उल-अमल है और हयात बाद अल-ममात (मौत के बाद) हक़ीक़ी असली और दाइमी ज़िंदगी है (3) हर शख़्स के नेक व बद आमाल पलड़ों वज़न किए (तौले) जाऐंगे जिस शख़्स के नेक-आमाल का पलड़ा आमाल बद के पलड़े से ज़्यादा भारी होगा वही जन्नत में दाख़िल होगा लेकिन जिस शख़्स के नेक-आमाल बद के पलड़े से ज़्यादा भारी होगा वही जन्नत में दाख़िल होगा लेकिन जिस शख़्स के नेक-आमाल का पलड़ा हल्का होगा वो जहन्नम में दाख़िल होगा (4) नेक व बद आमाल गोया अनाज के दानों की तरह गिनती में अलग-अलग होंगे नजात याफ़्तों के नेक-आमाल की तादाद कम-अज़-कम (51) फ़ीसद होगी और जहन्नम वासिल होने वालों के नेक-आमाल की तादाद फ़ीसद या इस से ज़्यादा कम होगी।

(2)

इन्जील जलील की तालीम में नजात का मफ़्हूम मज़्कूर बाला मेयार और क़सूर से कुल्लियतन मुख़्तलिफ है। जैसा हम सुतूर बाला में ज़िक्र कर चुके हैं मुनज्जी आलमीन की तालीम के मुताबिक़ गुनाह का ताल्लुक़ ना सिर्फ बैरूनी अफ़आल से है (जो मर्ज़ गुनाह के सिर्फ जिस्मानी और ज़ाहिरी निशान हैं) बल्कि गुनाह का असली ताल्लुक़ इन्सान के अंदरूनी मंशा, इरादे और नीयत से है जो इस के असली मुहर्रिक और सर चश्मा हैं। हक़ तो ये है कि हमारे कर्दा गुनाह कम होते हैं और नाकर्दा गुनाह बहुत ज़्यादा होते हैं। इन्सानी नीयत और इरादे का ताल्लुक़ इन्सान की रूह से है जो माद्दी शेय नहीं बल्कि बातिनी शेय हैं और ना इम्तिहान के नंबरों की तरह गिने जा सकते हैं और ना मिक़दार में तोले जा सकते हैं क्योंकि वो मुख़्तस (मख़्सूस) बिल-कैफियत होते हैं। वो ना बैरूनी और ज़ाहिरी होते हैं और ना माद्दी होते हैं बल्कि बातिनी नफ़्सी और ज़हनी होते हैं और बदी की क़ल्बी कैफ़यात ना तो एक दूसरे से जुदा की जा सकती हैं और ना भारी या हल्की क़रार दी जा सकती हैं।

बफर्ज़ मुहाल किसी शख़्स की नेकियां (51) फ़ीसद या ज़्यादा और बदीयाँ (49 फ़ीसद या कमोबेश हों तो कौन शख़्स है जो अपनी नेकियों पर इतराकर ख़ुदा की क़ुद्दूस नज़र में उनका शुमार व हिसाब कर सकता है। हज़रत दाऊद ख़ुदा से दुआ करते हैं “ऐ ख़ुदावंद अपने बंदे को अदालत में ना ला क्योंकि कोई इन्सान जीती जान तेरी नज़र में रास्तबाज़ नहीं ठहर सकता।” (ज़बूर 143:2)

“ऐ ख़ुदावंद, अगर तू बद-आमालियों का हिसाब करे तो कौन तेरे हुज़ूर खड़ा रह सकेगा। लेकिन मग़्फिरत तेरे हाथ में है।” (ज़बूर 130:3)

हज़रत अय्यूब कहते हैं “अगर मैं गुनाह करूँ तो ऐ ख़ुदावंद तू मुझ पर निगरां है और मुझे बदकारी से बरी नहीं करेगा। अगर मैं बदी करूँ तो मुझ पर अफ़्सोस। अगर मैं सादिक़ हूँ तो कभी भी अपना सर तेरे हुज़ूर नहीं उठा सकता क्योंकि मैं रुस्वाई से मुबर्रा हूँ। (10:14-15)

(3)

मुनज्जी आलमीन फ़र्माते हैं, “मैं तुमको अस्ल हक़ीक़त बतलाता हूँ। जो कोई गुनाह करता है वो गुनाह का ग़ुलाम है।” (यूहन्ना 8:34) गुनाह की गिरफ्त एक ऐसी गु़लामी जिससे गुनेहगार इन्सान ना तो किसी मुक़ाम की यात्रा और ज़ियारत कर के और ना किसी दरिया के पानी में इश्नान कर के छुटकारा हासिल कर सकता है। गुनेहगार इन्सान सिर्फ़ ख़ुलूस दिल से ख़ुदा की बे-बहा और बे पायां मुहब्बत पर ईमान लाने से और सच्ची तौबा करने से गुनाह की आदत पर ख़ुदा का फ़ज़्ल पाकर ग़ालिब आ सकता है। हम सब अपने तजुर्बे से जानते हैं कि ये आदत ऐसी ज़बरदस्त हो सकती है कि तौबा-शिकनी भी गुनाह के ग़ुलाम की आदत हो जाती है।

ست استغفار مامحتاج استغفار ما

ख़ुदा बाप की अज़ली मुहब्बत और बे पायां रहमत ये तक़ाज़ा करती है कि वो अपने गुनेहगार बंदे को जो शैतानी ख़यालात व जज़्बात का ग़ुलाम हो चुका है अपने फ़ज़्ल की क़ुद्रत कामिला के वसीले क़ल्बी तौबा की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए। इस के सिवा गुनाह का और कोई चारा नहीं। गुनेहगार अपने गुनाहों के हाथ बिक जाता है और इस गु़लामी से ऐसा मज्बूर हो जाता है कि वो हर-चंद कोशिश करता है कि इस से आज़ाद हो जाए, लेकिन जब वो अपने आपको ख़ुदा की मुहब्बत के हवाले कर देता है तो बक़ौल मुक़द्दस पौलुस रसूल ख़ुदा की मुहब्बत उस के दिल में इफ़रात से मोजज़िन हो कर (रोमीयों 5:15) उस के अंदर सच्ची तौबा पैदा कर देती है। “जहां गुनाह ज़्यादा हुआ वहां ख़ुदा का फ़ज़्ल उस से भी निहायत ज़्यादा हुआ।” (रोमीयों 15:20) जो इन्सान को इत्मीनान और सुकून-ए-क़ल्ब बख़्शता है। (मत्ती 11:28)

چند انکہ دست وپازدم آشفتہ تر شدم

ساکن شد م ،میانہ دریا کنار شد

गुनेहगार शख़्स को जहन्नम का ख़ौफ़ और सज़ा का होल उस को बद-आदात के पंजे से नहीं छुड़ाता और ना छुड़ा सकता है। हर शख़्स जिसका क़ैद-ख़ानों से साबिक़ा पड़ता है जानता है कि सज़ा का ख़ौफ़ मुजरिम की इस्लाह नहीं करता बल्कि मुजरिम क़ैदख़ाने से छूट कर आगे से ज़्यादा निडर हो जाता है और शौक़ से जुर्म की तरफ़ क़दम बढ़ाता है। इलावा अज़ीं गुनाहों के बदले सज़ा और अज़ाब दुनिया बदी का इज़ाफ़ा करना है। चुनान्चे उमर ख़य्याम कहता है :-

ناکردہ گناہ در جہان کیست ،بگو

آنکس کہ گناہ نکرد،چوں زیست بگو

من بدکنم وتوبد مکافات دہی

پس فرق میان من وتو چیست ،بگو

गुनाह के मर्ज़ का वाहिद ईलाज ख़ुदा की बेपायाँ अज़ली मुहब्बत का एहसास है। ख़ुदा की मुहब्बत ना सिर्फ गुनेहगार के गुनाहों को माफ़ करती है बल्कि उस की रूह को अपने चश्मा फ़ैज़ से तौबा के आँसूओं से धोकर अज सर-ए-नव बेगुनाह बना देती है। इसी मुहब्बत का मज़हर मसीह है और यही इन्जील की ख़ुशख़बरी है जो हम तमाम गुनेहगारों को सुनाते हैं।

نامائیم بلطف حق تو لاکردہ

وز طاعت ومعصیت مبرا کردہ

آنجاکہ عنایت تو باشد ،باشد

ناکردہ چوں کردہ ،کردہ چوں ناکردہ

हर ताइब गुनेहगार का ये तजुर्बा है कि जहां गुनाह ज़्यादा होता है वहां ख़ुदा की मग़्फिरत व मुहब्बत का फ़ज़्ल निहायत फ़िरावाँ होता है। (रोमीयों 5:20) उमर ख़य्याम कहता है :-

صدسال بامتحاں گناہ خوائم کرد

با جرم من است بیش یا رحمت تو

किसी गुनेहगार के दिल से सज़ा की हैबत और अक़ूबत की दहशत गुनाह की बेख़कुनी ना कर सकी और ना कर सकती है। सिर्फ ख़ुदा की अज़ली मुहब्बत जिसका ज़हूर इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी और मौत में हुआ उस के दिल में सच्ची तौबा पैदाकर सकती है और दो हज़ार साल से करती चली आई है। (आमाल 4:12, लूक़ा 9:56, यूहन्ना 3:16)

जैसा इन्जील में बार-बार ज़िक्र आया है कि ख़ुदा की ज़ात गुनेहगार की तरफ़ पेशक़दमी करती है जिसके फ़ज़्ल से गुनेहगार को ये तौफ़ीक़ हासिल होती है कि गुनाह पर ग़ालिब आए। लेकिन हर हालत में पहल हमेशा ख़ुदा की मुहब्बत करती है।

بوئے گل خود بہ چمن راہ نما شدزنخست

ورنہ بلبل چہ خبر داشت کہ گلزار ے ہست

इन्जील की तालीम के मुताबिक़ नजात का मतलब किसी दूसरे जहां में ऐश व आराम में रहना नहीं है, बल्कि नजात का सही मफ़्हूम ये है कि इसी जहां में गुनाह से मुख्लिसी (छुटकारा) और गुनाह की नीयत और इरादे की गु़लामी के पंजे से छुटकारा हासिल करना और गुनाह की आदत से रिहाई पाना है। नजात याफ्ताह लोग वो हैं जो इसी दुनिया में गुनाह और शैतान की गु़लामी से आज़ाद हो कर ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) व फर्ज़न्दियत और पिदराना मुहब्बत में क़ायम रह कर ज़िंदगी बसर करते हैं। (लूक़ा 19:9, तितुस 2:12, यूहन्ना 1:12,13, 8:34 वग़ैरह)

हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) और आपकी इन्जील के मुताबिक़ नेक ज़िंदगी ख़ुद अबदी ज़िंदगी है जो ज़मान व मकान की क़ुयूद से बुलंद व बाला है। चुनान्चे आपने फ़रमाया “मैं तुमसे एक हक़ बात कहता हूँ कि जो मेरा कलाम सुनता और मेरे भेजने वाले का यक़ीन करता है। हमेशा की ज़िंदगी उस की है और वो मौत से निकल कर ज़िंदगी में दाख़िल हो गया है।” (यूहन्ना 5:24) हम जानते हैं कि हम मौत से निकल कर ज़िंदगी में दाख़िल हो गए हैं क्योंकि हम भाईयों (नूअ इन्सानी) से मुहब्बत रखते हैं।” (1 यूहन्ना 3:14) नेकी की ज़िंदगी ख़ुद अबदी ज़िंदगी है। इस का ख़ातिमा नहीं होता। जिस्मानी मौत नई ज़िंदगी की इब्तिदा है जिससे मौजूदा जिस्म में तग़य्युर और तब्दीली वक़ूअ में आई है और ये तब्दीली एक बेहतर ज़िंदगी की पेश-ख़ेमा है। अबदी ज़िंदगी को फ़ना नहीं क्योंकि वो ग़ैर फ़ानी है और जिस्मानी मौत इस का ख़ातिमा नहीं कर देती। इस अबदी ज़िंदगी को जिसमें हम गुनाह की मौत से निकल कर इसी दुनिया में दाख़िल हो जाते हैं दाइमी बक़ा हासिल है क्योंकि ख़ुदा की मार्फ़त और उस की मुहब्बत का इर्फ़ान ही अबदी ज़िंदगी है। (यूहन्ना 17:2-3 वग़ैरह)

(4)

हम सुतूर बाला में कह चुके हैं कि जिस्मानी मौत से मह्ज़ एक तब्दीली वक़ूअ में आती है। जिस तरह आँख़ुदावंद का फ़ानी जिस्म आपकी सलीबी मौत के बाद रुहानी और ग़ैर-फ़ानी हो गया था इसी तरह हमारा बदन भी रुहानी हो जाएगा। (1 कुरन्थियो बाब15) हमारे जिस्म हमारी रूह के इज़्हार का वसीला और हमारी शख़्सियत के मज़हर हैं। जिस्म की रफ़्तार गुफ़्तार, नशिस्त व बर्ख़ासत, अफ़आल व किर्दार व आदात वग़ैरह के ज़रीये सब लोगों पर हमारी ख़सलत व खू आशकारा हो जाती है। इन्सानी रूह उस के ख़यालात व जज़्बात और एहसासात वग़ैरह के मुताबिक़ इन्सानी आज़ा और जिस्म को एक ख़ास ढांछे और शक्ल में ढालती है जो हमारे इस ख़ाक आग के पुतले को बदल देते हैं और जिससे हम एक फ़र्द को दूसरे से पहचान लेते हैं और बाज़ औक़ात किसी इन्सान को देखकर ही हम उस से मुहब्बत या नफ़रत करने लगते हैं क्योंकि उस की शक्ल से हम उस के बातिन को जान लेते हैं।

बदन की क़ियामत का मतलब ये है कि हयात बाद-अज़-ममात (मौत के बाद ज़िन्दगी) में हर शख़्स की शख़्सियत की इन्फ़िरादियत सालिम व कायम रहेगी गो इस का बदन बदल जाएगा और हमारे इस बन के आज़ा रूहानी तब्दीली के साथ साथ बदल कर ग़ैर-फ़ानी होते चले जाऐंगे और क़ुर्बत (नज़दिकी) इलाही के बाइस हमारे “बदन” बिल-आख़िर ख़ुदावंद मसीह के “बदन” की मानिंद जलाली होते चले जाऐंगे। (मर्क़ुस 9:2-4, 1 कुरिन्थियों 15 बाब) बअल्फ़ाज़ इन्जील “जब हम सब के बे-नक़ाब चेहरों से ख़ुदावंद का जलाल इस तरह मुनअकिस होता है जिस तरह आईने में तो उस ख़ुदावंद के वसीले से जो रूह है हम उस जलाली सूरत में दर्जा बदर्जा बदलते जाते हैं। (2 कुरिन्थियों 3:18) हमने इस मौज़ू पर अपनी किताब “तौज़ीह अल-अक़ाइद” में मुफ़स्सिल बह्स की है।

(5)

हमारे बाअज़ हिंदू बरादरां गुनाह की मग़्फिरत के मुताल्लिक़ ये ख़याल करते हैं कि गंगा जमुना वग़ैरह दरियाओं के पानी में इश्नान करने से गुनाह धुल जाते हैं। लेकिन गुनाह बैरूनी और ज़ाहिरी शैय नहीं बल्कि बातिनी है। अगर कोई धोबी मैले कपड़ों को एक संदूक़ में बंद कर दे और संदूक़ को बाहर से ख़ूब धोए तो संदूक़ धुल कर साफ़ हो जाएगा। लेकिन उस के अंदर के कपड़े वैसे के वैसे मैले रहेंगे, गंगा के पानी से पापी का जिस्म साफ़ हो जाएगा तो हो जाये, लेकिन उस का दिल हस्ब-ए-साबिक़ नापाक और नजिस ही रहेगा। इन्सान का दिल ख़ुदा का मस्कन है और मुक़द्दस है। जिसको गुनाह नापाक और तबाह कर देता है। (1 कुरिन्थियों 3:16) वो सच्ची तौबा के आँसूओं और ख़ुदा की बारान मग़्फिरत ही से धुल सकता है। (ज़बूर 51:1-17)

منکا پھیرت جنم گیا پرگیا نہ من کا پھیر

کرکا منکا ڈال دے تو من کا منکا پھیر

13. मसीहिय्यत की तालीम क़ाबिले अमल है

(1)

कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल बुलंद और अर्फ़ा होने में किसी मुख़ालिफ़ को चूँ व चरा की गुंजाइश नहीं। मुवालिफ़ व मुख़ालिफ़ दोनों तस्लीम करते हैं कि मसीहिय्यत की अख़्लाक़ीयात के उसूल आला और अफ़्ज़ल हैं। इस हक़ीक़त के क़ुबूल करने के बावजूद बाअज़ मुख़ालिफ़ीन इन उसूल के आला होने के बिना पर उनको नाक़ाबिले अमल क़रार देते हैं। मसलन वो ये कहते हैं कि पहाड़ी वाज़ की तालीम हमारे रोज़मर्रा के ख़याल से इतनी बाला है कि वो नाक़ाबिले अमल है। मसीहिय्यत के उसूल ऐसे बुलंद पाया के हैं कि इन्सानी फ़ित्रत उन पर अमल पैरा नहीं हो सकती। लेकिन क्या गाली खा कर गाली ना देना नाक़ाबिले अमल है? हाँ इस के लिए बड़ा दिल और गुर्दा दरकार है। (1 पतरस 2:21-23) हमने इस मज़्मून पर एक मबसूत रिसाला “दीन-ए-फ़ित्रत इस्लाम या मसीहिय्यत?” लिखा है। पस नाज़रीन की तवज्जोह इस रिसाले की जानिब मबज़ूल करते हैं। इस किताब में हमने इल्म-ए-नफ़्सीयात की रु से ये साबित किया है कि मसीहिय्यत में इन्सानी फ़ित्रत के तमाम इक़तिज़ा बदर्जा अह्सन पूरे होते हैं।

(2)

अल्फ़ाज़ “क़ाबिले अमल” का क्या मतलब है। तमाम ग़ैर-मसीही मज़ाहिब इन्सान के सिर्फ बैरूनी अफ़आल पर क़ाबू हासिल करना चाहते हैं। इस नुक़्ता निगाह से उन मज़ाहिब के क़वानीन और किसी मुहज़्ज़ब मुल्क के मुल्की और सियासी क़वानीन में कोई फ़र्क़ नहीं, दोनों का मक़्सद वाहिद है। क्योंकि इन क़वानीन की तह में ये क़ियास होता है कि आम्मतुन्नास से फ़ुलां हालात के मातहत फ़ुलां मौक़े पर फ़ुलां क़िस्म के अफ़आल उमूमन सरज़द होते हैं या होंगे और क़ानून साज़ों की ये कोशिश होती है कि ऐसे क़वानीन वज़ा किए जाएं जिन पर लोग आसानी से अमल कर सकें। बक़ौल शख्से,

مصلحت ہیں وکار آسان کن۔

मसलन एक मज़्हब ये खुली इजाज़त देता है कि मर्द जितनी बीवीयां चाहे, करे और इस को “क़ाबिले अमल” ख़याल करे। दूसरा मज़्हब बीवीयों की तादाद पर क़ैद लगाता है और तीसरा मज़्हब इस को “ना-क़ाबिल अमल” ख़याल करके सिर्फ चार बीवियों की बैयक वक़्त इजाज़त दे देता है और इस को क़ाबिले अमल ख़याल करता है। एक मज़्हब चोरी या डाका की खुली इजाज़त देता है। दूसरा ख़ास हालात के अंदर पराए माल को हलाल क़रार दे देता है और इस को “क़ाबिले अमल” ख़याल करता है। ये मज़ाहिब अपने-अपने मुल्क और अपनी-अपनी क़ौम के ख़ास हालात को मद्द-ए-नज़र रखकर किसी फ़ेअल की खुली इजाज़त दे देते हैं और किसी की ख़ास हालात के अंदर इजाज़त देते हैं और जब देखते हैं कि किसी फ़ेअल से लोग आसानी से बाज़ आ सकते हैं तो उस को ममनू क़रा दे देते हैं। लेकिन ऐसे मज़ाहिब बाअज़ अक़्वाम के ख़ास आरिज़ी हालात और वक़्ती ज़रूरीयात को ही पूरा करते हैं। लेकिन वो उन ख़ास ममालिक व अक़्वाम के आरिज़ी हालात और ज़रूरीयात के बाहर किसी मुसर्रिफ़ (काम, ख़र्च करने की जगह) के नहीं होते। लिहाज़ा उनमें आलमगीर होने की सलाहीयत नहीं होती।


9 ये किताब पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी, अनार कली, लाहौर से मिल सकती है। (बरकतुल्लाह)

(3)

जैसा हम सुतूर बाला में ज़िक्र कर चुके हैं कि ख़ुदावंद मसीह ने कोई शरई अहकाम सादिर ना किए, बल्कि नूअ इन्सानी को एक नया मुकाशफ़ा अता किया जिसका ताल्लुक़ किसी ख़ास मुल्क, क़ौम या ज़माने के साथ नहीं ताकि नूअ इन्सानी की तारीख़ में एक नया बाब खुल जाये और ख़ल्क़-ए-ख़ुदा नई ज़िंदगी बसर करे। चूँकि इस मुकाशफ़ा का ताल्लुक़ इन्सानी नूअ के साथ है। लिहाज़ा इस मुकाशफ़ा के उसूल ज़मान व मकान की क़ुयूद से आज़ाद और हमागीर औसाफ़ रखते हैं। कलिमतुल्लाह (मसीह) ने नूअ इन्सानी के आगे ये नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) रखा कि “चाहीए कि तुम कामिल हो जैसा तुम्हारा आस्मानी बाप कामिल है।” (मत्ती 5:48) मसीह चाहते हैं कि हमारी ज़िंदगीयां एक नई तर्ज़ इख़्तियार करें। हम अज़ सर-ए-नव पैदा हों ताकि नूअ इन्सानी कामिलियत के नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को पेश-ए-नज़र रखकर तरक़्क़ी करती चली जाये। तारीख़-ए-आलम ने ये साबित कर दिया है कि मसीह के पहाड़ी वाज़ के उसूल ना सिर्फ क़ाबिले अमल हैं, ये भी कि अगर उन पर अमल ना किया जाये तो नूअ इन्सानी पर तरक़्क़ी का दरवाज़ा बंद हो जाता है। ये बात भी सिर्फ अफ़राद पर बल्कि गिरोहों और क़ौमों की ज़िंदगी पर भी सादिक़ आती है कि अगर बदी का मुक़ाबला ना किया जाये और बदी का जवाब नेकी हो तो ये प्रोग्राम अफ़राद और अक़्वाम की ज़िंदगी और बक़ा का मूजिब होता है। लेकिन अगर बदी का जवाब बदी से और ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाये तो ये लाएहा-ए-अमल अफ़राद और अक़्वाम के फ़ना का मूजिब हो जाता है।

ख़ुद बर्र-ए-सग़ीर हिन्दुस्तान की मौजूदा सदी की तारीख़ पर निगाह करो तो इस सदाक़त की आला मिसाल पाओगे। बीसवीं सदी के शुरू में बंगाल के नौजवान क़ौम परस्तों ने इंग्लिस्तान की सख़्त-गीर पालिसी का जवाब बम साज़ी और दहशत अंगेज़ी से देना शुरू किया। जिसका नतीजा रौलट ऐक्ट हुआ। शुमाली हिंद के नौजवानों की तरफ़ से इस ऐक्ट का जवाब तशद्दुद की सूरत में दिया गया, जिसका नतीजा पंजाब में मार्शल लॉ की सूरत में नमूदार हुआ। बीसियों घर तबाह हो गए और हज़ारों की जान व माल का नुक़्सान हुआ। इस तशद्दुद के इल्लत व मालूल से हिन्दुस्तान की क़ौम का शीराज़ा बिखर गया।

شامتِ اعمالِ ماصورت ِنادِر گرفت

हिन्दुस्तान के तूल व अर्ज़ में गम व ग़ुस्से की लहर दौड़ गई। लेकिन मिस्टर गांधी मर्हूम की सरकर्दगी में तशद्दुद का जवाब अदम तशद्दुद से दिया गया। सब्र करने और तहम्मुल, ज़ब्त (क़ाबू) और बुर्दबारी को काम में लाने की तल्क़ीन की गई। पंजाब में सिखों की जरी और शुजाह क़ौम ने गुरू के बाग़ अमृतसर में अदम तशद्दुद पर अमल पैरा हो कर ऐसा नज़ारा दिखा दिया कि दुनिया व्रता हैरत में पड़ गई। मुसलमानों ने अपने उसूल क़िसास वग़ैरह को ख़ैर बाद कह दिया और मर्हूम मौलाना मुहम्मद अली ने कांग्रेस के इज्लास में अपने ख़ुत्बे में इन्जील जलील की आयत का इक़्तिबास करके तमाम मुल्क को यही दर्स दिया कि बदी का मुक़ाबला ना करो। जो तुमको एक गाल पर तमांचा मारे, दूसरे को भी उस की तरफ़ फेर दो। मर्हूम मौलाना ज़फ़र अली ख़ान ने भी अपने अख़्बार ज़मीनदार के ज़रीये यही सबक़ अहले-इस्लाम को सिखा दिया कि “महकूमों के पास ज़ब्त (क़ाबू) व अंज़बात के साथ ईसार व क़ुर्बानी की मुत्तहदा ताक़त का मुज़ाहरा ही एक चीज़ है जिस के आगे बड़ी से बड़ी जाह व जलाल और ग़ुरूर व नुखूत वाली हुकूमत घुटने टेक देती है और नियाज़ मंदाना दस्त-बस्त महकूमों के आगे खड़ी हो कर उनकी आरज़ूओं को पूरा करना तख़्तो ताज की बक़ा के लिए ज़रूरी समझती है। (17, नवम्बर 1929 ई॰) मिस्टर गांधी के पेश कर्दा लाएहा-ए-अमल का नतीजा आज हमको नज़र आ रहा है। हमारे मुल्क की मह्कूम क़ौम ने अदम तशद्दुद को इख़्तियार करके बक़ा और ज़िंदगी हासिल की और आज ख़ुद-मुख़्तार हो कर शाहराह-ए-तरक़्क़ी पर गामज़न है। हमारी अपनी क़ौम के बच्चों, जवानों और औरतों ने इस एतराज़ का मुँह-बंद कर दिया है कि मसीहिय्यत नाक़ाबिले अमल है और ये सबक़ सिखा दिया है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल के सिवा अफ़राद और अक़्वाम के लिए ज़िंदगी की और कोई राह है ही नहीं। जनाबे मसीह ने सच्च कहा था कि “बच्चों और शीर-ख़्वारों (बच्चों) के मुँह से ख़ुदा ने अपनी हम्द कराई।” (मत्ती 11:25) हमारे मुल्क के नौनिहालों ने कुल आलम व आलमियान पर साबित कर दिया है कि अदम तशद्दुद को इख़्तियार करके ना सिर्फ अफ़राद और गिरोह बल्कि दुनिया के कुल ममालिक और अक़्वाम भी तशद्दुद और जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) पर ग़ालिब आ सकती हैं।


10 ये एक फ़ारसी मिस्ल है। इस का मतलब यूं बयान किया जाता है “हमारे गुनाहों की सज़ा ने नादिर की सूरत इख़्तियार की।” ये मिसरा निज़ाम उल-मुल्क ने उस वक़्त कहा था जब नादिर शाह के ज़ुल्म व सितम ने दिल्ली में क़ियामत बरपा की थी।

(4)

इस सिलसिले में मर्हूम मौलाना अबूल-कलाम आज़ाद तर्जुमान-उल-क़ुरआन यूं रक़म हैं :-

“हज़रत मसीह अलैहिस्सलाम ने यहूदीयों की ज़ाहिर परस्तीयों और अख़्लाक़ी महरूमियों की जगह रहम और मुहब्बत, अफ़ू और बख़्शिश की अख़्लाक़ी क़ुर्बानीयों पर ज़ोर दिया और उनकी दावत की असली रूह यही है।”

चुनान्चे हम इन्जील मुक़द्दस के मवाइज़ में जाबजा इस तरह के खिताबात पाते हैं “तुम सुन चुके हो कि कहा गया था कि आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत। लेकिन मैं (ख़ुदावंद यसूअ मसीह) तुमसे ये कहता हूँ कि शरीर (बुरों) का मुक़ाबला ना करना जो कोई तेरे दहने गाल पर तमांचा मारे दूसरा भी इस की तरफ़ फेर दे।” (मत्ती 5:38-39) अफ़्सोस है कि नुक्ता-चीनों ने यहां ऐसी ठोकर खाई और इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला हो गए कि ये नाक़ाबिले अमल अहकाम हैं। लेकिन फ़िल-हक़ीक़त ये बड़ी ही दर्द अंगेज़ नाइंसाफ़ी है जो तारीख़ इन्सानियत के इस अज़ीमुश्शान मुअल्लिम के साथ जायज़ रखी गई है। ख़ुदावंद मसीह की तालीम को फ़ित्रत इन्सानी के ख़िलाफ़ समझना تفریق بین الرسل (रसूलों के बीच फर्क़ करना) है। क्या कोई इन्सान जो क़ुरआन की सच्चाई का मोअतरिफ़ हो ऐसा ख़याल कर सकता है कि ख़ुदावंद मसीह की तालीम फ़ित्रत इन्सानी के ख़िलाफ़ थी और इसलिए नाक़ाबिल अमल थी?

हक़ीक़त तो ये है कि क़ुरआन की तस्दीक़ के साथ ऐसा मुन्किराना ख़याल जमा नहीं हो सकता। अगर हम एक लम्हे के लिए इस को तस्लीम कर लें तो इस के ये मअनी होंगे कि हम ख़ुदावंद यसूअ मसीह की तालीम की सच्चाई और उनकी रिसालत से इन्कार कर दें। क्योंकि जो तालीम फ़ित्रत इन्सानी के ख़िलाफ़ हो वो ना तो सच्ची हो सकती है और ना किसी ख़ुदा के फ़िरिस्तादा पैग़म्बर की हो सकती है। लेकिन ऐसा एतिक़ाद ना सिर्फ क़ुरआन के ख़िलाफ़ है बल्कि उस की दावत की असली बुनियाद ही मुतज़लज़ल हो जाती है। क़ुरआन की दावत की बुनियादी अस्ल ये है कि तमाम राहनुमाओं की यकसाँ तौर पर तस्दीक़ करता है। और सबको ख़ुदा की एक ही सच्चाई का पयाम्बर क़रार देता है। वो कहता है कि पैरवान मज़्हब की सबसे बुरी गुमराही “तफ़रीक़-उल-रसूल” है यानी ईमान और तस्दीक़ के लिहाज़ से ख़ुदा के रसूलों में तफ़रीक़ करना। किसी एक को मानना और दूसरों को झुटलाना। या सबको मानना किसी एक का इन्कार कर देना। इसी लिए जा-ब-जा इस्लाम की राह ये बताई है कि لَا نُفَرِّقُ بَیۡنَ اَحَدٍ مِّنۡہُمۡ ۫ وَ نَحۡنُ لَہٗ مُسۡلِمُوۡنَ यानी “हम ख़ुदा के रसूलों में से किसी को भी दूसरों से जुदा नहीं करते (कि किसी को मानें और किसी को ना मानें) हम तो ख़ुदा के आगे झुके हुए हैं (इस की सच्चाई कहीं से भी आई हो और किसी की ज़बानी आई हो। हमारा इस पर ईमान है।) (सूरह आले-इमरान 3:84)

इलावा बरीं ख़ुद क़ुरआन-ए-करीम ने जनाबे मसीह की दावत का यही पहलू जा-ब-जा नुमायां किया है कि वो रहमत और मुहब्बत के पयाम्बर थे और यहूदीयों की अख़्लाक़ी ख़ुशवंत (दुश्मनी, नफ़रत) व ख़सावत के मुक़ाबले में मसीही अख़्लाक़ की रिक़्क़त (नर्मी, रहम) और रिफ़अत (बुलंदी. शान) की बार-बार मदह है। चुनान्चे मुलाहिज़ा हो, لِنَجۡعَلَہٗۤ اٰیَۃً لِّلنَّاسِ وَ رَحۡمَۃً مِّنَّا ۚ وَ کَانَ اَمۡرًا مَّقۡضِیًّا “ताकि हम उस को (मसीह के ज़हूर को) लोगों के लिए एक इलाही निशानी और अपनी रहमत का फ़ैज़ान बनाएँ और ये बात (मशीयते इलाही में) तय-शुदा थी।” (सूरह मर्यम 19:21) फिर लिखा है وَ جَعَلۡنَا فِیۡ قُلُوۡبِ الَّذِیۡنَ اتَّبَعُوۡہُ رَاۡفَۃً وَّ رَحۡمَۃً हमने उन लोगों के दिलों में जिन्हों मसीह की पैरवी की है शफ़क़त, नर्मी और रहमत डाल दी।” (सूरह अल-हदीद 57:27) इस मौक़े पर ये बात भी याद रखनी चाहीए कि क़ुरआन ने जिस क़द्र औसाफ़ ख़ुद अपनी निस्बत बयान किए हैं, वही औसाफ़ बार-बार ताकीद के साथ तौरात व इन्जील के लिए भी बयान किए हैं। मसलन जिस तरह वो अपने आपको हिदायत करने वाला, रोशनी रखने वाला, नसीहत करने वाला, क़ौमों का इमाम, मुत्तक़ियों का राहनुमा क़रार देता है। ठीक उसी तरह पिछले सहीफ़ों को भी इन तमाम औसाफ़ से मुत्तसिफ़ क़रार देता है। चुनान्चे इन्जील की निस्बत हम जा-ब-जा पढ़ते हैं وَ اٰتَیۡنٰہُ الۡاِنۡجِیۡلَ فِیۡہِ ہُدًی وَّ نُوۡرٌ ۙ وَّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ مِنَ التَّوۡرٰىۃِ وَ ہُدًی وَّ مَوۡعِظَۃً لِّلۡمُتَّقِیۡنَ (सूरह माइदा 5:46) ये ज़ाहिर है कि जो तालीम फ़ित्रत बशरी के ख़िलाफ़ हो और नाक़ाबिल अमल हो, वो कभी “नूर और हिदायत” नहीं हो सकती।

हमें ये बात फ़रामोश नहीं करनी चाहिए कि मर्हूम मिस्टर गांधी का उसूल अदम तशद्दुद असबाती का उसूल ना था, बल्कि मह्ज़ एक मन्फ़ी उसूल था। लिहाज़ा इस उसूल में जनाबे मसीह के उसूल मुहब्बत की सिर्फ एक अदना झलक पाई जाती है। गांधी जी रूस के मर्हूम टालिस्टाय (Count Tolstoy) की तालीम से मुतास्सिर थे, जो ये चाहता था कि जनाबे मसीह के इस उसूल मुहब्बत पर अमल करे जो आपके “पहाड़ी वाज़” में दर्ज है। मिस्टर गांधी ने कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल मुहब्बत के मन्फ़ी पहलू अदम तशद्दुद पर ही ज़ोर दिया और दुनिया को यही तालीम दी कि शरीर (बेदीन) का मुक़ाबला बदी से ना करो। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम सिर्फ इस मन्फ़ी पहलू पर ही क़नाअत नहीं करती, बल्कि ये हुक्म देती है कि ना सिर्फ हम बदी का मुक़ाबला बदी से ना करें, बल्कि नेकी के ज़रीये से बदी पर ग़ालिब आएं। चुनान्चे ख़ुदावंद ने फ़रमाया है, “अपने दुश्मनों से मुहब्बत रखो और अपने सताने वालों के लिए दुआ माँगो जो तुमसे अदावत रखें उनका भला करो, जो तुम पर लानत करें उनके लिए दुआ-ए-ख़ैर माँगो और जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें तुम भी उनके साथ वैसा ही करो।” (मत्ती 5:44, लूक़ा 6:27) “अपना इंतिक़ाम ना लो। अगर तेरा दुश्मन भूका हो तो उस को खाना खिला, अगर प्यासा हो तो उसे पानी पिला, क्योंकि ऐसा करने से तू उस के सिर पर आग के अंगारों का ढेर लगाएगा। बदी से मग़्लूब ना हो, बल्कि नेकी के ज़रीये से बदी पर ग़ालिब आओ।” (रोमीयों 12:19) ये ज़ाहिर है कि अगर मन्फ़ी पहलू में इस क़द्र ताक़त है जो दौरे हाज़रा की तारीख़ और हमारे अपने मुल्क के तजुर्बे ने साबित कर दिया है कि अदम तशद्दुद के उसूल पर अमल पैरा हो कर ही अफ़राद और अक़्वाम तरक़्क़ी कर सकती हैं तो हम क़ियास कर सकते हैं कि अगर कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल-ए-मुहब्बत के मुसबत पहलू पर अमल किया जाये तो दुनिया किस क़द्र तरक़्क़ी कर जाएगी ऐसा कि आलिम व आलमियान की काया पलट जाएगी। अगर ज़ुल्म व तअद्दी का जवाब ना सिर्फ अदम तशद्दुद से दिया जाये, बल्कि ज़ालिम के लिए सिदक़ क़ल्ब (दिल) से दुआ मांगी जाये और उस से ऐसी मुहब्बत रखी जाये, जैसी मज़्लूम अपने आपसे मुहब्बत रखता है और ज़ालिम से ऐसा सुलूक किया जाये, जैसा मज़्लूम चाहता है कि ज़ालिम उस के साथ रवा रखे, तो ये रवैय्या ज़ालिम के लिए तौबा का दरवाज़ा खोल देता है और मज़्लूम के सिने में इंतिक़ाम के जज़्बे की बजाय मुहब्बत की आग शोला-ज़न हो जाती है, जो ज़ालिम के दिल को कुल्लियतन तब्दील कर देती है। यूं ज़ालिम व मज़्लूम के दर्मियान अदावत के रिश्ते के बजाय आश्ती (सलामती), सुलह, मेल मिलाप और मुहब्बत का रिश्ता क़ायम हो जाता है।

وفا کینم وملامت کشیم وخوش باشیم

کہ در طریقت ِماہ کافری ست رنجیدن

(5)

पस अफ़राद व अक़्वाम के बाहमी मेल मिलाप, सुलह और अमन का एक ही वाहिद तरीक़ा है जो कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल-ए-मुहब्बत में मौजूद है और जिस पर अमल करके नूअ इन्सान तरक़्क़ी कर सकती है। हमारे मुल्क और दुनिया की तारीख़ ने साबित कर दिया है कि मसीही उसूल-ए-मुहब्बत पर एक बड़े और वसीअ पैमाने पर अमल हो सकता है। तारीख़ ने ये भी साबित कर दिया है कि अगर कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल पर अमल ना किया जाये तो नूअ इन्सानी को रुस्वाई, ज़िल्लत और नाकामी का मुंह देखना पड़ता है। नूअ इन्सानी का तजुर्बा इस बात को साबित कर देता है कि मज़्हब और फ़ल्सफ़ा दोनों में जनाबे मसीह का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) ही फ़ातेह है। क्योंकि ख़ुदा से और इन्सान से मुहब्बत रखने से बड़ा कोई और नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) हो ही नहीं सकता और मसीही अख़्लाक़ीयात का इन्हिसार इन्ही दो उसूलों पर है। अख़्लाक़ीयात का उस्ताद जान स्टवार्ट मिल (J.S.Mill) मसीही नहीं था, लेकिन वो भी इक़रार करता है कि :-

“एक मुन्किर मसीहिय्यत के लिए ये एक ना-मुम्किन अम्र है कि अमली ज़िंदगी के लिए इस से बेहतर कोई और क़ानून वज़ा कर सके। हम अपनी ज़िंदगीयों को इस तौर पर बसर करें कि मसीह हमारे तर्ज़-ए-ज़िदंगी को वज़ा (पसंद) करे।”

यहूदी आलिम मोंटी फ़ेअरी मर्हूम (Montifiori) कहता है :-

“मुस्तक़बिल में ऐसा ज़माना क़ियास में भी नहीं आ सकता, जब मसीह की शख़्सियत दरख़शां सितारे की मानिंद ना चमकेगी।”

यरूशलेम का मौजूदा यहूदी रब्बी डाक्टर जोज़फ़ कलासंर (Klausner) कहता है कि :-

“यसूअ मसीह की अख़्लाक़ी तालीम तमाम ज़मानों के लिए एक निहायत बेश-बहा मोती है।”

मर्हूम जॉर्ज बर्नार्ड शाह (G.B.Shaw) जैसा शख़्स भी ये इक़रार करने पर मज्बूर हो जाता है कि :-

“गुज़श्ता जंग-ए-अज़ीम से सिर्फ एक ही शख़्स है जो इज़्ज़त और शान से बच निकला है और वो यसूअ मसीह है।”

Quoted in John’s Finality of Christ, p.94. Praface to Androcles and the lion by G.B. Shaw.

दौर-ए-हाज़रा में तमाम इक़्तिसादी, मुआशरती और सियासी उमूर कलिमतुल्लाह (मसीह) के मेयार से ही परखे जाते हैं। प्रोफ़ैसर स्कॉट (Prof.Scot) बजा कहता है कि :-

“आज जब हम दुनिया की हालत पर नज़र करते हैं तो हम देखते हैं कि सिर्फ यसूअ मसीह ही नूअ इन्सानी का वाहिद अख़्लाक़ी लीडर है। गुज़श्ता चंद सालों के तल्ख़ तजुर्बे की कसौटी पर मसीह के उसूल पूरे उतरे हैं। तमाम अर्बाब दानिश इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि मुस्तक़बिल ज़माने में इन्सानी मुआशरत की इमारत इस एक बुनियाद के इलावा किसी और बुनियाद पर रखी नहीं जा सकती।”

पस मुख़ालिफ़ व मवालिफ़ दोनों इस बात का इक़रार करते हैं कि दुनिया की तमाम मुश्किलात का हल इसी में है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल मुहब्बत पर अमल किया जाये। मुख़ालिफ़ीन मसीहिय्यत जो इस की तालीम को नाक़ाबिले अमल साबित करने के ख़्वाहां हैं, कम अज़ कम ये इक़रार तो ज़रूर करेंगे कि अगर कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल और पहाड़ी वाज़ पर अमल किया जाये तो ये दुनिया नूअ इन्सानी के रहने के लिए ज़्यादा बेहतर जगह हो जाएगी। तारीख़ इस सदाक़त पर मुहर करके बता देती है कि जब कभी और जहां कहीं इस तालीम पर अमल किया गया ये दुनिया जन्नत-उल-फ़िरदौस का नमूना बन गई।


11 Quoted in John’s Finality of Christ, p.94.
12 Praface to Androcles and the lion by G.B. Shaw.

14. मसीही तालीम की जिद्दत

कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम के उसूलों के मुतालए से नाज़रीन पर वाज़ेह हो गया होगा कि आपकी तालीम आलमगीर है। इस तालीम के उसूल कलिमतुल्लाह की जिद्दत तबाअ का नतीजा थे। जब हम दीगर मज़ाहिब के अम्बिया की तालीम के उसूलों का मुतालआ करते हैं तो हम देखते हैं कि इन मज़ाहिब में ग़ालिब उसूल (अंसर) ऐसा है जो उन अम्बिया के गर्द व पेश के माहौल और उनके क़ौमी मज़्हब के उसूल पर मुश्तमिल है, जिनमें वो इस्लाह करते हैं। मसलन इस्लामी तालीम के माख़ज़ अरब के मज़ाहिब, मसीही और यहूदी अक़ाइद और ज़रतुश्ती और ज़माना-ए-जाहिलीयत की रसूम हैं। इनकी तफ़ासील रिसाला “यनाबी-उल-इस्लाम” (ینا بیع الاسلام) और “माख़ज़-उल-क़ुरआन” (ماخذ القرآن) में मौजूद हैं। हज़रत मुहम्मद ने इन अक़ाइद और रसूम की इस्लाह की और इस का नाम इस्लाम रखा। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) ने मह्ज़ अहद-ए-अतीक़ की तालीम और यहूदीयत के अक़ाइद की इस्लाह नहीं की। आपकी तालीम में और अह्दे-अतीक़ की तालीम में दर-हक़ीक़त कोई निस्बत है ही नहीं। आप साहिब-ए-इख़्तियार की तरह फ़र्माते थे, तुम सुन चुके हो कि अगलों से कहा गया।....लेकिन मैं तुमसे कहता हूँ।” आपके ख़यालात यहूदी निज़ाम और यहूदीयत के ऐन ज़िद थे। जिसका नतीजा ये हुआ कि अहले-यहूद ने इस के सिवा और कोई चारा ना देखा कि आपके ख़िलाफ़ साज़िश करें और आपको मस्लूब करवा दें। अख़्लाक़ीयात का मुअर्रिख़ लेकि (जो मसीही नहीं था) कहता है :-


13 रिसाला माख़ज़-उल-क़ुरआन अल्लामा नियाज़ फ़त्ह पूरी ने शाएअ किया है।

“यक़ीनन इस ख़याल से ज़्यादा ग़लत कोई और दूसरा ख़याल नहीं कि मसीहिय्यत की तालीम के अख़्लाक़ी अनासिर में कोई ख़ुसूसीयत नहीं है। मसीहिय्यत की तालीम और दीगर मज़ाहिब की तालीम में ऐसा बय्यन फ़र्क़ है कि दोनों दर-हक़ीक़त मुख़्तलिफ़ अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) की तालीम हैं और एक ही नूअ के मातहत नहीं की जा सकतीं।”

कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी के पहले तीस साल मुल्क कनआन जैसी तहज़ीब से दौर इफ़्तादा मुल्क के एक सूबे में गुज़रे जो जहालत की वजह से हक़ीर शुमार किया जाता था। (यूहन्ना 1:46, 7:41, 52) आपने किसी फिलासफर के सामने ज़ानोए शागिर्दी तह ना किया। आपके सामईन (सुनने वाले) आपकी तालीम को सुनकर हैरान रह जाते थे। (मर्क़ुस 1:22, 11:18, मत्ती 22:22) और कहते थे,”....इस में ये हिक्मत और मोअजज़े कहाँ से आए? क्या ये बढ़ई का बेटा नहीं? और इस की माँ का नाम मर्यम और इस के भाई याक़ूब और यूसुफ़ और शमओन और यहूदाह नहीं? और क्या इस की सब बहनें हमारे हाँ नहीं? फिर ये सब कुछ इस में कहाँ से आया?” (मत्ती 13:54-56) ये बातें इस को कहाँ से आ गईं और ये क्या हिक्मत है जो इसे बख़्शी गई है? (मर्क़ुस 6:2, लूक़ा 4:36) उस का कलाम इख़्तियार के साथ है। (लूक़ा 4:32) जब अहले-यहूद ने आपकी तालीम पर ताज्जुब किया और कहा कि “इस को बग़ैर पढ़े क्योंकर इल्म आ गया? “तो कलिमतुल्लाह (मसीह) ने उनको अपने इल्म के मंबा और सरचश्मा से मुत्ला`अ (बाख़बर) करके फ़रमाया, मेरी तालीम मेरी नहीं, बल्कि मेरे भेजने वाले की है। अगर कोई उस की मर्ज़ी पर चलना चाहे तो वो इस तालीम की बाबत जान जाएगा कि ख़ुदा की तरफ़ से है या मैं अपनी तरफ़ से कहता हूँ।” (यूहन्ना 7:16) “....मैं वोही हूँ और अपनी तरफ़ से कुछ नहीं करता बल्कि जिस तरह बाप ने मुझे सिखाया उसी तरह ये बातें कहता हूँ। और जिस ने मुझे भेजा वो मेरे साथ है। उस ने मुझे अकेला नहीं छोड़ा क्योंकि मैं हमेशा वोही काम करता हूँ जो उसे पसंद आते हैं।” (यूहन्ना 8:28-29) “क्योंकि मैं ने कुछ अपनी तरफ़ से नहीं कहा बल्कि बाप जिस ने मुझे भेजा उसी ने मुझको हुक्म दिया है कि क्या कहूं और क्या बोलूँ।... पस जो कुछ मैं कहता हूँ जिस तरह बाप ने मुझसे फ़रमाया है उसी तरह कहता हूँ।” (यूहन्ना 12:50-49:) “... ये बातें जो मैं तुम से कहता हूँ अपनी तरफ़ से नहीं कहता लेकिन बाप मुझमें रह कर अपने काम करता है।” (यूहन्ना 14:10) “....जो कलाम तुम सुनते हो वो मेरा नहीं बल्कि बाप का है जिस ने मुझे भेजा।” (यूहन्ना 14:24) रुए ज़मीन के किसी नबी या फिलासफर की तालीम आपकी तालीम के साथ मुक़ाबला नहीं कर सकती।

रिसाला माख़ज़-उल-क़ुरआन अल्लामा नियाज़ फ़त्ह पूरी ने शाएअ किया है।

गुज़श्ता दो हज़ार साल से किसी शख़्स ने किसी ज़माने में भी ऐसी तालीम नहीं दी जो आपकी तालीम की जगह ग़सब कर सके। इमत्तीदाद-ए-ज़माने के बावजूद आपके उसूल अब भी वैसे ही अजूबा रोज़गार हैं, जैसे पहले थे। कलिमतुल्लाह (मसीह) के अल्फ़ाज़ की लताफ़त, नदिरत (उम्दगी), अज़मत और क़ुद्रत में रत्ती भर फ़र्क़ नहीं आया। वो सदहा साल से हज़ारों मुल्कों और क़ौमों में मुरव्वज रहे हैं, लेकिन उनकी तरोताज़गी और शगुफ़्तगी मिस्ल साबिक़ क़ायम है और ताक़यामत क़ायम रहेगी। कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलिमात-ए-तय्यिबात की सहर (जादू) आफ़रीनी, बेनज़ीर मतानत, हलावत (मिठास) और लासानी हिक्मत और माक़ूलीयत सदीयों से मुख़्तलिफ़ मुल्कों और ज़मानों के करोड़ों इन्सानों को मुतास्सिर करती चली आ रही है और उन अल्फ़ाज़ की बरकत और करामत के तुफ़ैल नूअ इन्सानी शाहराह तरक़्क़ी पर गामज़न होती चली आई है। आपका पैग़ाम अपनी नज़ीर आप ही रहा है और ता-क़ियामत रहेगा।

15. मसीही तालीम की हमागीरी

(1)

दीगर मुअल्लिमों के पैग़ाम उनके अपने पैग़ाम या मुख़्तलिफ़ लोगों के ख़यालात का मजमूआ हैं, जो उनकी क़ौम और मुल्क के साथ मुख़्तस (मख़्सूस) हैं। यही वजह है कि उनके पैग़ाम आलमगीर होने की सलाहीयत नहीं रखते। वो एक ख़ास मुल्क या क़ौम या ज़माने के हालात या मसाइल को जो उनके बानीयों के दरपेश थे, एक ख़ास मुद्दत तक ही हल कर सके। लेकिन चूँकि उनके उसूल का ताल्लुक़ सिर्फ ख़ास हालात के साथ ही था। लिहाज़ा वो इस ताल्लुक़ और वाबस्तगी की वजह से आलमगीर ना हो सके। उनमें से बाअज़ को ख़ुद उनके वज़ा करने वालों को अपनी हीने-हयात (जीते जी) में ही मन्सूख़ करना पड़ा था। चुनान्चे क़ुरआन मजीद में बाअज़ अहकाम मसलन क़िब्ला का तअय्युन वग़ैरह, हज़रत रसूल अरबी की हीने-हयात (जीते जी) में ही मन्सूख़ हो गए। क्योंकि वो वक़्ती अहकाम थे और हालात के बदलने से उनका निफ़ाज़ मुफ़ीद ना रहा था। इसी वास्ते अल्लाह क़ुरआन में फ़रमाता है कि, مَا نَنسَخْ مِنْ آيَةٍ أَوْ نُنسِهَا نَأْتِ بِخَيْرٍ مِّنْهَا أَوْ مِثْلِهَا (सूरह बक़रह आयत 106) तर्जुमा, “जब हम किसी आयत को मन्सूख़ कर देते हैं या भुला देते हैं तो उस से बेहतर या उस की मिस्ल की आयात पहुंचा देते हैं।” हज़रत शाह वली-उल्लाह अस्बाब नस्ख़ पर बह्स के दौरान हैं :-

“किसी शैय में एक वक़्त कोई मस्लिहत या ख़राबी होती है। उस के मुताबिक़ हुक्म मुतय्यन हो जाया करता है। इस के बाद एक ज़माना आता है जिसमें इस शैय की वो हालत नहीं रहा करती। इसलिए उस का वो हुक्म भी नहीं करता।”

(आयात अल्लाह अल-कामिला तर्जुमा हुज्जतुल-बालग़ा, बाब 73, सफ़हा 191-192)

इस के बाद शाह साहब जिहाद की मिसाल देते हैं (सूरह हूद आयत 19, सूरह बनी-इस्राईल आयत 14, सूरह इब्राहिम आयत 4, सूरह अनआम आयत 25 वग़ैरह) सहाइफ़ अम्बिया में भी जाबजा ऐसे वक़्ती अहकाम मिलते हैं जिनको हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने ग़ैर-मुकम्मल या नाक़िस क़रार दे दिया। (मत्ती 22:22-33, 19:3-10) और फ़रमाया “मूसा ने तुम्हारी सख़्त दिली के सबब से तुमको इजाज़त दी थी।” (मत्ती 19:8) और ऐसे अहकाम के बजाय आपने जहांगीर उसूल बताए जो ख़ालिक़ के अज़ली इरादे\ के मुताबिक़ थे। (मत्ती 19:9, 22:29-33) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) के अहकाम और जहांगीर उसूलों में कोई हुक्म भी गुज़श्ता बीस सदीयों में किसी ज़माना, क़ौम, नस्ल और मुल्क में मन्सूख़ किए जाने के क़ाबिल नहीं समझा गया। क्योंकि इन आलमगीर उसूलों में नफ़्स की रिआयत, सख़्त दिली, जहालत वग़ैरह जो नस्ख़ के अस्बाब होते हैं, का सिरे से वजूद ही नहीं है। इलावा अज़ीं नस्ख़ से किताब में इख़्तिलाफ़ माअनवी पड़ जाता है, जो किताब-उल्लाह में नहीं हो सकता। यही वजह है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल (जो अनाजील अरबा में हैं) में किसी जगह इख़्तिलाफ़ माअनवी नहीं पाया जाता। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल किसी ख़ास क़ौम या मुल्क या ज़माने के माहौल के साथ ताल्लुक़ नहीं रखते। वो किसी ख़ास जमाअत के हालात के साथ वाबस्ता नहीं। लिहाज़ा वो ज़मान व मकान की क़ुयूद से आज़ाद और आलमगीर होने की सलाहीयत रखते हैं। वो मुकाशफ़ा जो ख़ुदा ने आपके ज़रीये दुनिया पर ज़ाहिर किया, क़तई और आख़िरी है। क्योंकि इस से बेहतर मुकाशफ़ा हो नहीं सकता। आपका पैग़ाम रूहानियत की इंतिहाई मंज़िल है। ये आख़िरी मेअराज है जिसके बाद कोई उरूज नहीं। कोई शख़्स आलम-ए-ख़याल में भी ऐसी तालीम वज़ाअ नहीं कर सकता जो इब्ने-अल्लाह (मसीह) की तालीम से आला हो। हर ऐसी नाकाम कोशिश और सई-ए-बातिल कलिमतुल्लाह के पैग़ाम के क़तई होने का बय्यन (खुला) सबूत है। जनाबे मसीह के साथ दुनिया में एक नई तालीम आई जो अबद तक ग़ैर-मुतज़लज़ल है। इस में वो आख़िरी और क़तई और बेमिसाल और लाज़वाल मुकाशफ़ा है जो खुदा ने एक लासानी और बेनज़ीर शख़्सियत के ज़रीये अता किया है जो हर पहलू से बे अदील है। इन्सानी तजुर्बा और तारीख़ इस बात के शाहिद (गवाह) हैं कि कलिमतुल्लाह (मसीह) अख़्लाक़ीयात के वाहिद हुक्मरान और ताजदार हैं।

(2)

इस हक़ीक़त को मुख़ालिफ़ीन तक चारो-ना-चार तस्लीम करते हैं। चुनान्चे यूरोप की अंजुमन के मुलाहिदा ने 1919 ई॰ के सालाना इजलास में कफ-ए-अफ़्सोस मिल कर (हाथ मल कर, पछता कर) इक़रार किया कि :-

“मसीहिय्यत का वजूद और इस की ज़िंदगी और बक़ा बजाय ख़ूद एक ऐसा ज़बरदस्त मोअजिज़ा है जिससे हमको मजाल इन्कार नहीं। माद्दियत और अख़्लाक़ीयात ने हर नुक्ता- नज़र और हर पहलू से इस पर ऐसे ज़बरदस्त हमले किए हैं जो अपना सानी नहीं रखते। लेकिन हमको इस मज़्हब में मग़्लूब व मफ़तूह होने के आसार नज़र नहीं आते। अगर आज हमको मसीहिय्यत इस दुनिया से रुख़्सत होती नज़र आती है तो रोज़ फ़र्दा मिस्ल साबिक़ हमारी नाकाम मसाई पर निहायत सुकून और इत्मीनान से मुस्कुराती नज़र आती है। रुए-ज़मीन के अद्यान में से किसी दूसरे मज़्हब को इस क़द्र संगलाख़ (दुशवार, मुश्किल) रुकावटों और जां काह (तक्लीफ़-देह) आज़माईशों से मुक़ाबला नहीं करना पड़ा। हमारे मग़रिबी ममालिक की हक़ीक़त-शनास फ़िज़ा में मसीहिय्यत की बक़ा एक ऐसा अजीबोगरीब वाक़िया है जिसने हमको व्रता हैरत में डाल रखा है। इस के पास सामान तक नहीं जिस से वह हमारे हमलों की वजह से अपनी हिफ़ाज़त भी कर सके। गुज़श्ता पुश्त के उलमा व फ़ुज़ला ने जो यगाना रोज़गार थे। मसीहिय्यत के गढ़ को अपने हमलों की टक्करों से चकना-चूर कर डाला था, लेकिन ये मिस्ल साबिक़ अपना सर वैसे ही बुलंद किए इत्मीनान ख़ातिर से हिम्मत बाँधे मुतकब्बिराना अंदाज़ से खड़ी है। ये अम्र हमारे लिए एक अजूबा और अचम्भा है, बल्कि एक हैरानकुन मोअजज़ाना बात है। हमने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया दुनिया जहां पर इस की बे-एतबारी को तश्त अज़बाम (ज़ाहिर, रुस्वा) कर दिया है और अपनी तरफ़ से हर मुम्किन कोशिश कर के ये साबित कर दिया है कि मसीहिय्यत का अख़्लाक़ी, तवारीख़ी और अक़्ली पहलू से दीवाला निकल गया है, लेकिन बावजूद हमारी मसाई के मसीहिय्यत पहले की तरह वैसी ही बढ़ती, फलती फूलती और तरक़्क़ी करती नज़र आती है।”


14 Rationalist Press Association.

(Quoted from the Christianity the Final Religion?)

इब्तिदा ही से मसीहिय्यत के मुख़ालिफ़ीन का यही तजुर्बा रहा है जो अंजुमन मुलाहिदा यूरोप का है। मसीहिय्यत की हर पहलू से आज़माईश की गई दो हज़ार साल से मुख़ालिफ़ीन इस की बेख़कुनी की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी तमाम कोशिशें बेसूद साबित होती हैं। इस के तमाम मुख़ालिफ़ रुम के बुत-परस्त क़ैसर जूलियन के हम-आवाज़ हो कर दम वापसीन (हालत-ए-नज़ा) यही कहते हैं कि “ऐ गलीली, तू फ़ातेह रहा।”

16. मसीहिय्यत और अद्यान-ए-आलम की इस्लाह

जनाबे मसीह ने क़तई कामिल और अकमल तौर पर ख़ुदा की ज़ात और सिफ़ात को बनी नूअ इन्सान पर ज़ाहिर कर दिया है और इन माअनों में आँ ख़ुदावंद ख़ातिम-उल-अम्बिया और ख़ातिम-उल-मुर्सलीन हैं। आपकी शख़्सियत लासानी और आलमगीर है। आप ख़ुदा का मज़हर और मुनज्जी आलम हैं। आपके पैग़ाम का ताल्लुक़ ज़मीन के किसी ख़ास ख़ित्ता के साथ नहीं, बल्कि वो कुल बनी नूअ इन्सान के लिए है। इस का ताल्लुक़ कुल ममालिक और अक़्वाम के साथ है। इस के उसूल ज़मान व मकान की क़ुयूद से आज़ाद और तमाम आलम और अज़्मिना पर हावी हैं। इस तसव्वुर ज़ा (तसव्वुर पैदा करने वाला) पैग़ाम की रोशनी में दुनिया की कुल अक़्वाम दो हज़ार साल से अपने ख़यालात, जज़्बात, मोतक़िदात, निसा वग़ैरह की इस्लाह करती आई हैं और ताअबद करती रहेंगी। तारीख़ इस अम्र की शाहिद है कि आपके बे अदील पैग़ाम को किसी दूसरे मज़्हब या फ़ल्सफे के उसूल की रोशनी में अपने रुहानी उसूल की इस्लाह करने की ज़रूरत कभी लाहक़ ना हुई। इस के बरअक्स उस की क़िस्मत में रोज़े अव्वल से ही ये लिखा है कि कुल अद्यान-ए-आलम पर फ़ातेह और तमाम दुनिया और अक़्वाम पर हावी हो। अगर हम दुनिया के मज़ाहिब की तारीख़ पर एक सतही नज़र डालें तो हम पर ये साबित हो जाएगा कि जिस-जिस मुल्क और क़ौम में मसीहिय्यत गई और जिस ज़माने में भी कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल की रोशनी चमकी, उस मुल्क और क़ौम और ज़माने के मज़ाहिब ने मसीहिय्यत की रोशनी में अपने-अपने उसूल की नज़र-ए-सानी कर डाली। आफ़्ताब-ए-सदाक़त की पाक शुवाओं ने उन मज़ाहिब के पैरौओं पर उनके बोसीदा उसूल की तारीकी का पर्दा चाक कर के उनको मुनव्वर कर दिया। उनके दीनी पेशवाओं ने सर तोड़ कोशिश की कि अपने मज़्हब के उसूल की कलिमतुल्लाह (मसीह) के पैग़ाम के साथ मुताबिक़त कर डालें और अपने मज़ाहिब के उसूल के उन अनासिर को तर्क कर दें जो इस पैग़ाम के साथ मुताबिक़त नहीं रखते। उन्होंने हत्त-उल-वसिअ कोशिश की कि अपने मज़ाहिब के बानीयों की ज़िंदगीयों के तारीक मुक़ामात की (जो जनाबे मसीह की मुक़द्दस ज़िंदगी के उसूल के मुताबिक़ नहीं) पादर हवा (बे-बुनियाद, ख़्याली) तावीलात करें या इन का सिरे से इन्कार कर दें।

इस बर्र-ए-सग़ीर को देख लो। हमारे बिरादरान हिंदू और मुस्लिम जो आँ ख़ुदावंद मसीह की मुक़द्दस ज़िंदगी और मुहब्बत के उसूल से मुतास्सिर हो चुके हैं, ये चाहते हैं कि उनके मज़ाहिब के बानीयों की ज़िंदगीयां भी इब्ने-अल्लाह (मसीह) की सी हों। लिहाज़ा दौर-ए-हाज़िर हमें इन मज़ाहिब के राहनुमा (पण्डित और मौलवी साहिबान) इस बात को साबित करने की सर तोड़ कोशिश करते हैं कि उनके बानीयों (हज़रत मुहम्मद और महाराज कृष्ण वग़ैरह) की ज़िंदगीयों के वो वाक़ियात जो इन्जील जलील के उसूल के नक़ीज़ हैं, सिरे से ग़लत और इफ़्तिरा (बोहतान) हैं और कि उन के मज़ाहिब के वो उसूल जो आँ ख़ुदावंद मसीह के जाँ-फ़ज़ाँ पैग़ाम के मुतज़ाद हैं, इनके मज़ाहिब का जुज़्व नहीं। मसलन ज़ात पात की क़ुयूद, अछूत, बुत-परस्ती, औहाम परस्ती, देवदासी, मंदिरों में ज़िनाकारी, शिर्क, जिहाद, तअद्दुद इज़्दिवाज़ (एक से ज्यादा बीवियां रखना), (जन्नत व दोज़ख़ का नक़्शा) वग़ैरह। जहां तक इस में बर्रे-सग़ीर का ताल्लुक़ है मर्हूम मौलाना हाली के मुसद्दस में एक बंद लिखा है जो एक लफ़्ज़ की तब्दीली से मसीही तहरीक पर पूरा सादिक़ आता है :-

वो बिजली का कड़का था या सौते अहादी

ज़मीन हिंद की जिसने सारी हिला दी

नई एक लगन सब के दिल में लगादी

एक आवाज़ से सोती बस्ती जगा दी

हिन्दुस्तान को कलिमतुल्लाह (मसीह) की ख़ुश-ख़बरी के पैग़ाम ने ऐसा मुसख़्ख़र कर लिया है कि हर शख़्स इसी बात का ख़्वाहां है कि काश मेरे मज़्हब के बानी की ज़िंदगी जनाबे मसीह की ज़िंदगी की मानिंद हो और मेरे मज़्हब के उसूल उस के पैग़ाम की मानिंद हों। मसीहिय्यत की ख़ुसूसीयत मुख़ालिफ़ व मुवालिफ़ दोनों पर अयाँ है। चुनान्चे डाक्टर सर राधा कृष्ण लिखता है कि :-

“मसीहिय्यत में हर जगह ये फ़ातिहाना अंदाज़ पाया जाता है कि मसीहिय्यत ही मज़्हब का बेहतरीन और आला तरीन इज़्हार है और कि वो बनी नूअ इन्सान के लिए क़तई अख़्लाक़ी मेयार है, जिसकी कसौटी पर हर दूसरा मज़्हब जाँचा जाये।”

पस तारीख़ शाहिद है कि जिस मुल्क या क़ौम या मिल्लत में मसीहिय्यत गई, उस के दुरूद मसऊद के साथ ही वहां के मज़्हब की इस्लाह शुरू हो गई। लेकिन अंजाम-कार इस्लाह की तमाम कोशिशें बेकार और बेसूद साबित हुईं।

मुसीबत में पड़ा है सीने वाला चाक-ए-दामन का

जो वो टांका तो ये उधड़ा जो वो उधड़ा तो ये टांका

दुनिया के ममालिक और अक़्वाम मसीहिय्यत के हल्क़ा-ब-गोश हो गए और जनाबे मसीह ग़ालिब और फ़ातेह हुए। लेकिन मसीहिय्यत ने किसी ज़माने में भी किसी दूसरे मज़्हब के उसूल की रोशनी में अपने बुनियादी उसूल की कभी इस्लाह ना की। इस की तमाम तारीख़ में इस को ऐसा करने की ज़रूरत कभी पेश ना आई। गुज़श्ता बीस सदीयों में कलीसिया-ए-जामा के किसी मुल्क की कलीसिया के किसी दीनी पेशवा के वहम गुमान में भी ये बात ना आई जो इस हक़ीक़त का बय्यन (खुला) सबूत है कि जनाबे मसीह की तालीम अद्यान-ए-आलम पर ग़ैर-मुकम्मल होने का फ़त्वा लगाती चली आई है और अक़्वामे आलम ने कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम की रोशनी में अपने मज़ाहिब की इस्लाह करके इस फ़त्वे की सेहत का इक़बाल कर लिया है।

17. मसीहिय्यत और अक़्वाम-ए-आलम की तरक़्क़ी

मज़्कूर बाला कवाइफ़ से नाज़रीन को मालूम हो गया होगा कि कलिमतुल्लाह (मसीह) का पैग़ाम आलमगीर और जामा है। वो ज़मान व मकान की क़ुयूद से आज़ाद है। इस के उसूल किसी ख़ास क़ौम या ज़बान या मुल्क या तमद्दुन के साथ ताल्लुक़ नहीं रखते, बल्कि ये उसूल तमाम अक़्वामे आलम पर यकसाँ तौर पर हावी हैं और हर क़ौम, मुल्क और ज़बान के अफ़राद इनकी यकसाँ तौर पर तामील कर सकते हैं और हर क़िस्म के दिमाग़ और समझ वाले इन उसूल के ज़रीये ख़ुदा की मार्फ़त हासिल कर सकते हैं। चूँकि इस तालीम के उसूल रसूम, अक़ाइद और क़ुयूद शरइया के पाबंद नहीं। इनमें ये अहलीयत है कि वो रुहानी उसूल होने के सबब आलमगीर हो सकें। आलमगीरियत का ये दावा या तो ग़लत है या सही है। लेकिन तारीख़ ने अपनी शहादत की मुहर इस की हमागीरी पर सब्त कर दी है। ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि मुनज्जी कौनैन (मसीह) की तालीम हर आबो हवा और हर ज़माने में फलती फूलती रही। वो हर ज़माना, हर मुल्क और क़ौम और मिल्लत के साथ साज़-गारी कर सकी। जहां-जहां ये तालीम गई इसने हर क़ौम और हर मुल्क के माहौल में कामयाबी के साथ राइज होने की क़ाबिलीयत और सलाहीयत रखने का पूरा-पूरा सबूत दे दिया।


15 East and West in Religion p.24.

तारीख़-ए-आलम ने ये साबित कर दिया है कि इस के उसूल और इस के क़वानीन कुल तमाम ममालिक और अज़्मिना के उसूल व कुल्लियात-ए-तमद्दुन, मुआशरत इक़तिसाद और इर्तिक़ाए ज़हनी का जामा हो कर ब-आसानी तमाम जुज़ईयात का इस्तिख़्राज कर सकने की इस्तिदाद (सलाहियत) और क़ाबिलीयत रखते हैं। इस की मुकम्मल और जामा तालीम तमाम ममालिक व अज़्मिया के तमाम शोबा हाय ज़िंदगी पर हावी होने की मुद्दई रही है और इस काम को बतर्ज़ अह्सन निहायत ख़ुश-उस्लूबी से सरअंजाम भी देती है। वो अक़्वामे आलम की नश्वो नुमा में मुमिद व मुआविन और उनकी तरक़्क़ी का बाइस रही है। इसने कभी किसी क़ौम को एक ही जामिद साँचा में ढालने की कोशिश ना की। इस की तारीख़ के तारीक तरीन ज़मानों में भी ऐसा वक़्त कभी ना आया जब उसने ये कोशिश की हो कि मुख़्तलिफ़ क़ौमों के फ़ित्रती इख़्तिलाफ़ को जो क़ुद्रत की तरफ़ से उनको मिले हैं, मिटा कर उनकी तर्ज़ रिहाइश, मुआशरत वग़ैरह को एक ही क़िस्म के क़ानून फ़िक़्ह के मातहत कर दे। मसीहिय्यत की हमेशा से यही कोशिश रही कि जिस तरह क़ुद्रत ने बदन के हर एक उज़ू को अलग-अलग काम सपुर्द किया है और कुल आज़ा अपने मुख़्तलिफ़ कामों को पूरा करके जिस्म की तक़वियत का बाइस होते हैं। इसी तरह हर मुल्क और हर क़ौम अपनी-अपनी जुदागाना ख़ुदादाद क़ाबिलीयत की नश्वो नुमा हासिल करके नूअ इन्सानी की तरक़्क़ी का बाइस बने। मसीहिय्यत ने हर मुल्क को और हर क़ौम को उस की ख़ुसूसी नश्वो नुमा में मदद दी। उस की तरक़्क़ी का राज़ इसी बात में मुज़म्मिर है कि हर मुल्क और क़ौम का इन्सान उस के हल्क़ा-ब-गोश हो कर भी अपनी क़ौमी और मिल्ली नश्वो नुमा और तरक़्क़ी में कोशां होता रहे। चीन या ईरान या अरब या मग़रिब का बाशिंदा मसीही हो कर अपनी क़ौमी तर्ज़ मुआशरत को तर्क नहीं कर देता। उस पर ये लाज़िम नहीं होता कि मसीही हो कर वो अपनी डाढ़ी ख़ास हद तक लंबी रखे या अपनी मूंछों को किसी ख़ास तर्ज़ से कटवाए या अपने पाजामे को टख़नों तक आने दे या किसी दूसरी क़ौम की ज़बान को अपनी ज़बान बना ले या किसी ख़ास मुक़ाम को हज, ज़ियारत और यात्रा के लिए जाना उस पर फ़र्ज़ हो जाए। जिस तरह बाअज़ मज़ाहिब हर मुल्क और हर क़ौम को एक ही ठोस साँचे में ढालने की कोशिश करके उस की तरक़्क़ी में सद्द-ए-राह हो जाते हैं।

मसीहिय्यत ने किसी क़ौम पर इस क़िस्म का ग़ैर-फ़ित्री जबर रवा नहीं रखा। अगर किसी हिन्दुस्तानी ने मसीहिय्यत को क़ुबूल कर लिया है तो वो अपने मुल्क के बाहर अर्ज़-ए-मुक़द्दस के किसी मुक़ाम को अपनाईय्यत क़रार नहीं देता, उस के लिए ये सवाल ही पैदा नहीं होता कि हम पहले मसीही हैं और फिर अपने मुल्क के शहरी हैं। क्योंकि कलीसिया-ए-जामा के नज़्दीक किसी मुल़्क का कोई मसीही अच्छा मसीही नहीं हो सकता जो अपने मुल्क का अच्छा शहरी ना हो। मसीहिय्यत का ये मक़्सद है कि हर एक क़ौम की नश्वो नुमा और तरक़्क़ी इस तौर पर हो कि वो उस ख़ास ख़ुदादाद क़ाबिलीयत को जो फ़ित्रत ने ख़ास उस क़ौम में वदीअत फ़रमाई है, बतर्ज़ अह्सन अंजाम दे सके। जिस तरह बदन का हर एक उज़ू अपने-अपने काम को कमा-हक़्क़ा, (कमा, हक़, क़ू, हो, बख़ूबी) अंजाम देता है। गुज़श्ता दो हज़ार साल में जिस मुल्क में भी मसीहिय्यत गई उसने वहां की अक़्वाम की क़ुदरती नश्वो नुमा में मदद दी और वो अक़्वाम तरक़्क़ी करके नूअ इन्सानी की तक़वियत का बाइस हो गईं। जिस तरह हमारे जिस्म के मुख़्तलिफ़ आज़ा नश्वो नुमा पा कर हमारे बदन की तक़वियत का बाइस होते हैं, इसी तरह मसीहिय्यत गुज़श्ता बीस सदीयों से हज़ारों ममालिक व अक़्वाम की नश्वो नुमा का बाइस बनी है और उन ममालिक व अक़्वाम के तमद्दुनी, मुआशरती, इक़्तिसादी, सियासी मसाइल को अपने आलमगीर उसूल के ज़रीये हल करके निज़ाम-ए-आलम की शीराज़ा-बंदी करती चली आई है।

मसीहिय्यत की आलमगीरी की वजह ही ये है कि वो अक़्वामे आलम को एक ही लाठी से नहीं हाँकती और ना उनको एक साँचा में ढालती है। इस की हमागीरी में तमाम अक़्वामे आलम की ख़ुसूसी नश्वो नुमा के लिए जगह है। तारीख़ से ज़ाहिर है कि मसीहिय्यत के आलमगीर उसूल के इतलाक़ में हर क़ौम की नश्वो नुमा की गुंजाइश है और इन उसूल का इतलाक़ हर मुल्क व क़ौम और ज़माने के मुख़्तलिफ़ हालात के मुताबिक़ होता है। जो शैय मसीहिय्यत को एक आलमगीर मज़्हब बनाती है, वो उस की आज़ादी की रूह है जिसकी वजह से हर मुल्क व कौम और ज़माने के मुख़्तलिफ़ हालात पर इस के उसूल आइद हो सकते हैं। मसीहिय्यत किसी क़ौम व मुल्क के लोगों को किसी ख़ास इंतिज़ाम का ग़ुलाम नहीं बनाती। इस हक़ीक़त को मुख़ालिफ़ीन भी तस्लीम करते हैं। मसलन एक फ़ाज़िल तुर्क मुसन्निफ़ एबल आदम अपनी तस्नीफ़ “किताब-ए-मुस्तफ़ा कमाल” (क़ुस्तुनतुनिया 1926 ई॰ में यूं रक़म तराज़ है :-

“इस्लाम ने अपने पैरोओं (मानने वालों) को ज़मीर और ख़यालात की आज़ादी अता नहीं की और इस्लामी शराअ ने ज़िंदगी से उस का हक़ छीन लिया है। चूँकि इस्लामी आईन लातब्दील हैं, लिहाज़ा वो तरक़्क़ी की राह को बंद करते रहे हैं। किसी को ये ख़याल नहीं आता कि ज़माने की रफ़्तार के साथ साथ आईन व क़वानीन का बदलना भी लाज़िम है। क़ुरआन व हदीस सहराए के उन बाशिंदों की किताबें हैं जो तहज़ीब व तमद्दुन की इब्तिदाई हालत में ज़िंदगी बसर करते थे। इस्लामी आईन व शरई क़वानीन में नफ़्सियात और मुआशरती ज़िंदगी की नश्वो नुमा और तरक़्क़ी का लिहाज़ नहीं रखा गया। जाये ग़ौर है कि मसीहिय्यत भी इस्लाम की तरह एक एशियाई मज़्हब है, लेकिन उसने किसी क़ौम की मुआशरत और तमद्दुनी ज़िंदगी पर जबर रवा ना रखा। मसीहिय्यत शहर रोमा में गई, लेकिन वो अपने साथ अहले-यहूद की मुआशरती ज़िंदगी ना ले गई। अगर इस्लाम की तरह मसीहिय्यत भी एक लश्कर-ए-जर्रार के साथ यरूशलेम से चलती और यूरोप पर क़ाबिज़ हो कर उन पर यहूदी मुआशरती ज़िंदगी जबरिया लाज़िम क़रार देती तो यूरोप का भी इस्लामी ममालिक सा हाल हो जाता, लेकिन मसीहिय्यत ने ऐसा ना किया।”

एक और तुर्की मुसन्निफ़ जलाल नूरी लिखता है :-

“इस्लाम में हमने मसीहिय्यत जैसी नश्वो नुमा और गर्दो पेश के हालात और माहौल से मुताबिक़ हो जाने की सलाहीयत और अहिलियत नहीं पाई। इस्लाम आज तक जुमूद की ग़ैर-मुतहर्रिक हालत में जामिद व साकिन रहा है। हम पुराने ज़माने के साकिन तसव्वुरात और ग़ैर-मुतहर्रिक मुआशरती, इक़्तिसादी और सियासी तसव्वुरात की ठोस ज़ंजीरों में जकड़े हुए बेबस (लाचार) पड़े हैं।”

(तुर्की इन्क़िलाब, सफ़ा 58)

18. मसीही उसूल और फ़रुआत

मसीहिय्यत की हैरत-अंगेज़ कामयाबी का असली सबब जो मसीहिय्यत का कमाल है और जो दीगर मज़ाहिब में नहीं पाया जाता, ये है कि मसीहिय्यत ने जामा उसूल और फ़रुआत में तमीज़ कर दी है। तमाम ग़ैर-मसीही मज़ाहिब में उसूलों के साथ फ़रुआत ऐसे वाबस्ता हैं कि उनको भी उसूलों की सी वक़अत हासिल है। जर्मन आलिम डाक्टर हारनेक ने सही कहा है कि, “मसीह का इम्तियाज़ी निशान ये है कि वो ना सिर्फ जामा है, बल्कि माने भी है।” कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपने उसूल में से तमाम रसूम और पाबंदीयां और वक़्ती क़वानीन जिनका सिर्फ किसी ख़ास ज़माना या पुश्त या मुल्क या क़ौम के साथ ताल्लुक़ था, ख़ारिज कर दें। मसलन हराम व हलाल का सवाल (मर्क़ुस बाब 7, रोमीयों 14:17), फ़िक़्ह के सवाल (मत्ती बाब 22) बुज़ुर्गों की सुन्नतों पर अमल करने का सवाल (मत्ती 15:3-9), दोनों तहवारों, सबतों, मौसमों वग़ैरह का मानना। (मत्ती बाब 12, ग़लतीयों 4:10), ज़ाहिरी अफ़आल और बैरूनी आमाल पर बेहद ज़ोर देना। (मत्ती बाब 6, लूक़ा 8:12, मत्ती बाब 5) वग़ैरह-वग़ैरह। यही वजह है कि मसीहिय्यत ने यहूदीयत से सिवाए उस की कुतुब मुक़द्दसा के और कुछ ना लिया और उन कुतुब की भी हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) से आज़ादाना तावील की। (मर्क़ुस 2:7, यूहन्ना 5:16-18, लूक़ा 6:5-11, 13:10-17, मत्ती 19:3-12, 23:23, 9:3) यहां हम अहले-यहूद के रब्बियों के फ़िक़्ह के अहकाम में से सिर्फ सबत को मानने का हुक्म मिसाल के तौर पर नाज़रीन के पेश करते हैं। अहले-यहूद की किताब सबत में सबत के मुफ़स्सिल अहकाम दर्ज हैं। ये किताब 39 अन्वाअ पर मुश्तमिल है, जिनमें चंद अहकाम मुलाहिज़ा हों। सबत के रोज़ ज़ेल के काम करने की मुमानिअत थी :-


16 The Turkish Revelution .p.58.
17 Daily Life in the time of JESUS.

हल चलाना, बीज का बोना, फ़स्ल काटना, गाँठ देना या खोलना, दो से ज़्यादा हुरूफ़ का लिखना, किसी शैय को उठा कर दूसरी जगह रखना, काठ की मस्नूई टॉनिक (टांग) इस्तिमाल करना, मस्नूई दामों (दाँतों) को उखाड़ कर मुँह में रखना, किसी शैय में से बाल निकालना, लकड़ी का सिर्फ इतना बोझ उठाना जायज़ था जिससे अण्डा गर्म हो सके। ऐसे सवालों पर बह्स की गई जो मज़हकाख़ेज़ मालूम होते हैं। मसलन अगर मुर्ग़ी सबत के रोज़ अण्डा दे तो क्या वो अण्डा खाना जायज़ है, क्योंकि मुर्ग़ी ने सबत का हुक्म तोड़ कर अण्डा दिया है। क्या किसी जूं को सबत के रोज़ मार डालना जायज़ है। बाअज़ फुक़हा कहते हैं कि सिर्फ जूं की टांगें तोड़ना ही जायज़ है। अगर अनाज की कोठी में क़ुर्बानी की ग़र्ज़ से अनाज जमा किया गया हो तो क्या इस में खाने की ग़र्ज़ से अनाज रखना जायज़ है। अगर किसी ने ये मिन्नत मानी हो कि वो कुचली हुई सब्ज़ी नहीं खाएगा तो उस के लिए ये जायज़ है ऐसा प्याज़ खाए जो उस ने अन्जाने सबत के रोज़ पांव के तले कुचल दिया हो। रब्बी हलेल और शमाउन जैसे ज़बरदस्त उलमा ऐसे मज़हकाख़ेज़ मसाइल पर फ़त्वा सादिर किया करते थे। इस का नतीजा ये हुआ कि यहूदीयत की शराअ की रूह क़ौम के बदन से परवाज़ कर गई और सिर्फ रसूम की पाबंदीयों का ढांचा हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के ज़माने में रह गया जो बअल्फ़ाज़ मुक़द्दस पतरस ऐसा भारी था जिसको ना तो उस के हम-अस्र यहूदी और ना उनके बाप दादा उठा सकते थे। (मत्ती 23:4,लूक़ा 11:46, आमाल 15:10, ग़लतीयों 5:1)

जूँ-जूँ ज़माना गुज़रता गया यहूदीयत के हर मस्लक के यहूदी अहकाम सबत पर एक दूसरे से बढ़-चढ़ कर बेश अज़ बेश (ज़्यादा से ज़्यादा) ज़ोर देते गए, क्योंकि अब क़ौम यहूद की ना हुकूमत रही थी और ना हैकल। उनका मज़्हब सिर्फ एक वाहिद शैय थी जो उनकी आँखों में क़ाबिल-ए-क़दर शैय थी। पस इबादत ख़ानों ने जाबजा हैकल की जगह ले ली थी जिनमें यहूदी शरीअत और बुज़ुर्गों की रिवायत पर दर्स दिए जाते थे। वहां तमाम यहूद सबत के रोज़ इकट्ठे होते। अब सबत ही उनकी क़ौमी ज़िंदगी और माज़ी की अज़मत का एक वाहिद निशान बाक़ी रह गया था, जो क़ौम की शीराज़ा-बंदी और इज्तिमाईयत का एक वाहिद वसीला था। पस हर दस बरस के यहूदी बच्चे पर लाज़िम कर दिया गया कि वो बाप दादा की रिवायत को ज़बानी हिफ़्ज़ करे। यहूदी रब्बी इल्म रिवायत और इल्म फ़िक़्ह में ताक़ थे। उनकी क़ुयूद शरइया ज़िंदगी के हर शोबे पर हावी थीं, लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) ने इन तमाम क़ुयूद को जिनका ताल्लुक़ ज़मान व मकान के साथ था बेताम्मुल रद्द कर दिया। (मत्ती बाब 23) यही वजह है कि मसीही कलीसिया ने बनी-इस्राईल से उनकी सिर्फ कुतुब-ए-मुक़द्दसा ही को लिया और बाक़ी तमाम रिवायत, तफ़ासीर, फ़िक़्ह वग़ैरह की कुतुब को रद्द कर दिया। जिसका नतीजा ये हुआ कि मसीहिय्यत में ये सलाहीयत पैदा हो गई कि वो अक़्वामे आलम का मज़्हब हो सके। दुनिया-ए-मज़ाहिब में अपने उसूल के लिहाज़ से सिर्फ मसीहिय्यत ही एक वाहिद जामा और मानेअ मज़्हब है।

19. इंजीली उसूल का इतलाक़ और अक़्वाम

ये एक रोशन हक़ीक़त है कि तमाम मज़ाहिब से ज़्यादा मसीही कलीसिया में दुनिया की मुख़्तलिफ़ अक़्वाम एक जगह जमा हैं। इस से हमारा ये मतलब नहीं कि दुनिया में सबसे ज़्यादा तादाद मसीहीयों की है (अगरचे ये भी एक हक़ बात है) बल्कि हमारा ये मतलब है कि दुनिया की इस क़द्र मुख़्तलिफ़ अक़्वाम मसीही झंडे तले जमा हैं और कलीसिया-ए-जामा में बराबर की शरीक हैं जो किसी दूसरे मज़ाहिब में नहीं हैं। जिससे कम अज़ कम ये साबित होता है कि मसीहिय्यत में ये सलाहीयत पाई गई है कि उस ने अक़्वाम आलम के ख़ुसूसी इख़्तिलाफ़ात और इम्तियाज़ी निशानात जो कि उनकी क़ौमी नश्वो नुमा और मिल्ली तरक़्क़ी का बाइस हैं, क़ायम रखे हैं और उनकी रुहानी और क़ौमी ज़रूरीयात को पूरा भी किया है। ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि सिर्फ मसीही मज़्हब में ही मुख़्तलिफ़ ज़मानों, मुल्कों और क़ौमों की रुहानी और क़ौमी ज़रूरीयात को पूरा करने की सलाहीयत मौजूद है। लिहाज़ा वो आलमगीर मज़्हब है जो हमागीर रहा है और रहेगा।

इलावा अज़ीं इन गुज़श्ता दो हज़ार सालों में सफ़ा हस्ती पर कोई ऐसी क़ौम नहीं गुज़री जिसने अपनी क़ौमी और मिल्ली ज़िंदगी को मसीही उसूल के मुताबिक़ नश्वो नुमा देने की कोशिश की हो और वो इस कोशिश में नाकाम रही हो। ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि किसी ज़माने में भी इस क़िस्म की मसाई जमीला में किसी मुल्क और क़ौम को नाकामी का मुँह देखना नसीब नहीं हुआ। जिस क़ौम और मुल्क ने कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल पर चलने की कोशिश की, वो तरक़्क़ी की शाहराह पर गामज़न हो गई। पस अक़्वामे आलम की तारीख़ मसीहिय्यत की आलमगीरी पर मुहरे सदाक़त सब्त करती है और ये साबित कर देती है कि कुल अद्यान आलम में से सिर्फ मसीहिय्यत हर क़ौम व मुल्क को ये तौफ़ीक़ अता करती है कि वो अपने क़ौमी कैरेक्टर और मिल्ली ख़साइल को सुधारे। दुनिया के नक़्शे पर नज़र डालो तो ये हक़ीक़त तुम पर अयाँ हो जाएगी कि जिन ममालिक ने अपनी बागडोर मसीहिय्यत के सपुर्द कर दी है, वहां हर क़िस्म के उलूम व फ़नून राइज हैं। ख़यालात की आज़ादी है। मर्दों और औरतों, बल्कि बच्चों तक को हुक़ूक़ हासिल हैं। इन ममालिक की कलीसिया के अफ़राद ना सिर्फ अपनी रुहानी बहबूदी को मद्दे-नज़र रखते हैं, बल्कि वो मसीही मुबल्लग़ीन को दूर दराज़ मुक़ामात में भेज कर दुनिया को बचाना चाहते हैं।

मसीहिय्यत ने हज़ारों वहशी और मर्दुमख्वार अक़्वाम को चाह्-ए-ज़िल्लत व ज़लालत से निकाला और उनको बेहूदा रस्मियात, वहशयाना दस्तुरात और तुहमात के पंजे से ख़लासी बख़्शी। उनके अफ़राद को हैवानों से इन्सान बना कर तरक़्क़ी और तहज़ीब की राह पर चलाया। गुज़श्ता बीस सदीयों में दुनिया का कोई मुल्क ऐसा नहीं जिसकी अक़्वाम ने दानिस्ता या ना-दानिस्ता कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल को अपनी ज़िंदगी का मेयार ना बनाया हो। दौर-ए-हाज़रा में रुए-ज़मीन पर कोई ऐसी क़ौम नहीं है कि जिसके रुहानी जज़्बात का मर्कज़ जनाबे मसीह की ज़ात सतूदा सिफ़ात नहीं है। पस मसीहिय्यत हमागीर है और आलिम व आलमियान पर हावी है।

20. बाइबल शरीफ़ की आलमगीरी

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दौरे हाज़रा किताबों की इशाअत और प्रोपेगंडा का ज़माना है। दुनिया के मुख़्तलिफ़ ममालिक के प्रैस हज़ारों किताबें रोज़ शाएअ करते हैं। लेकिन उन हज़ारों किताबों में मादूद-ए-चंद किताबें ऐसी होती हैं जो किसी मुल्क में एक साल के बाद उस मुल्क के बाशिंदों की निगाह में मिस्ल साबिक़ क़द्र की निगाह से देखी जाएं और उन ख़ुश-क़िस्मत किताबों में से कोई किताब ऐसी मिलेगी जो ना सिर्फ एक ख़ास मुल्क के बाशिंदों की निगाह में क़ाबिल-ए-क़द्र हो, बल्कि अकबर आज़म के तमाम ममालिक में क़द्र और वक़अत की नज़र से देखी जाये ओ राईक सदी के गुज़रने पर आपको शायद ही कोई किताब ऐसी मिलेगी जो दुनिया के तमाम मुल्कों और अक़्वामे आलम के नज़्दीक मक़्बूल आम हो।

लेकिन इस दुनिया में बाइबल मुक़द्दस ही एक वाहिद किताब है जो सदीयों से हज़ारों मुल्कों और क़ौमों के करोड़ों अफ़राद के नज़्दीक आज भी वैसी ही वक़अत के क़ाबिल है, जैसी वो उस ज़माने में थी जब वो तहरीर में आई। हक़ तो ये है कि जूँ-जूँ ज़माना गुज़रता जाता है और दुनिया में इल्म व तहज़ीब की रोशनी फैलती जाती है, ये किताब बेश अज़ बेश क़ाबिल-ए-एहतिराम ख़याल की जाती है। क्योंकि इस के सादा अल्फ़ाज़ की सतह के नीचे रुहानी रमूज़ के अमीक़ मुतालिब पिनहां हैं जिनको मामूली अक़्ल का इन्सान बख़ूबी समझ सकता है। अक़्वामे आलम घास की तरह मुरझा जाती हैं और दुनिया की पुश्तें और नसलें फूल की तरह कुमला जाती हैं, लेकिन हमारे ख़ुदा का कलाम अबद तक क़ायम है। (यसअयाह 40:8) मसीह ने सच्च फ़रमाया था, “आस्मान और ज़मीन टल जाऐंगे लेकिन मेरी बातें हरगिज़ ना टलेंगी।” (मत्ती 24:35, 1 पतरस 1:23-25) अनाजील अरबा में जज़्बात निगारी, तसना और ख़याल आफ़रीनी का नाम भी नहीं। गो वोह रूहानियत के इर्तिक़ाए कामिल की आख़िरी मंज़िल है, इस में नदिरत ख़याल के साथ साथ लताफ़त ज़बान और शुस्तगी कलाम अजीब लुत्फ़ देती है। ये तमाम अस्बाब इस (किताब) की मक़्बूलियत का राज़ हैं।

कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम की आलमगीरी का ये काफ़ी सबूत है कि जब से इन्जील जलील अहाता तहरीर में आई है, इस का तर्जुमा दुनिया की मुख़्तलिफ़ अक़्वाम की ज़बानों होता रहा है। हमने अपनी किताब “सेहत कुतुब मुक़द्दसा” में मुफ़स्सिल ज़िक्र किया है कि आँ-ख़ुदावंद की सलीबी मौत और ज़फ़रयाब क़ियामत के बाद की पाँच सदीयों में इन्जील जलील का तर्जुमा मशरिक़ व मग़रिब के मुख़्तलिफ़ मुहज़्ज़ब ममालिक की ज़बानों में हो गया। तारीख़ कलीसिया-ए-जामा हमको बताती है कि गुज़श्ता दो हज़ार सालों के दर्मियान में दुनिया के जिस मुल्क में भी मशरिक़ व मग़रिब के मसीही मुबल्लग़ीन गए, उन्होंने किताब मुक़द्दस का तर्जुमा उस मुल्क की ज़बान में कर दिया और इन्जील जलील की तब्लीग़ व इशाअत करते रहे और वहां की कलीसिया दिन दुगुनी और रात चौगुनी तरक़्क़ी करती चली गई।

मिसाल के तौर पर माज़ी क़रीब का ज़माना ले लो। क़रीबन डेढ़ सदी का अर्सा गुज़रा है कि 1816 ई॰ में अमरीकन बाइबल सोसाइटी ने छः हज़ार पाँच सौ (6500) जिल्दें मुख़्तलिफ़ ज़बानों में शाएअ कर के फ़रोख़्त कीं। लेकिन 1850 ई॰ में इस सोसाइटी ने क़रीबन छः लाख (600000) और इस के पच्चीस साल बाद साढ़े आठ लाख (850000) से ज़्यादा जिल्दें फ़रोख़्त कीं। गुज़श्ता सदी के आख़िर में ये तादाद साढ़े पंद्रह लाख (1550000) से ज़्यादा हो गई। 1925 ई॰ में इस सोसाइटी ने बानवे लाख पंद्रह हज़ार जिल्दें फ़रोख़्त कीं और इस के 25 साल बाद ये तादाद एक करोड़ साढ़े दस लाख से ज़्यादा हो गई। दस साल के बाद 1960 ई॰ में दो करोड़ बत्तीस लाख दस हज़ार से ज़ाइद जिल्दें फ़रोख़्त हो गईं। 1962 ई॰ में ये तादाद तीन करोड़ पंद्रह लाख दस हज़ार तक पहुंच गई। इस एक सोसाइटी ने अपनी 148 साला ज़िंदगी में ताहाल बासठ करोड़ इक्तालीस लाख अठारह हज़ार जिल्दें फ़रोख़्त की हैं। जब हम इस हक़ीक़त को अपनी नज़रों के सामने रखते हैं कि बाअज़ ममालिक में इन्जील जलील और उस के मुबल्लग़ीन और मुबश्शिरीन का दाख़िला क़ानूनन ममनू है और दुनिया के बहुतेरे ममालिक के बेशुमार बाशिंदे अपने मज़्हबी, नसली, क़ौमी और मुल्की तास्सुबात और तालीमी हालात की वजह से इन्जील जलील और इस के हिसस को नहीं ख़रीदते तो हम उन ख़ारिक़ आदत आदाद व शुमार पर हैरान रह जाते हैं। मुन्दरिजा बाला आदाद व शुमार सिर्फ एक मुल्क यानी अमरीका की बाइबल सोसाइटी के हैं।

लेकिन इन्जील जलील की इशाअत किसी एक मुल्क की कलीसिया की मसाई जमीला पर मुन्हसिर नहीं। मसलन बर्तानिया की ब्रिटिश ऐंड फ़ौरन बाइबल सोसाइटी के आदाद व शुमार पर नज़र करो। ये सोसाइटी 1804 ई॰ में शुरू हुई और 1937 ई॰ तक उसने अपनी 133 साला ज़िंदगी में किताब मुक़द्दस और उस के हिस्सों की पचास करोड़ से ज़ाइद जिल्दें फ़रोख़्त कीं। 1937 ई॰ में उसने एक करोड़ साढ़े तेराह लाख जिल्दें फ़रोख़्त कीं। अपनी ज़िंदगी के पहले पाँच सालों में ये सोसाइटी लंदन से हर घंटे में नौ जिल्दें दीगर ममालिक को रवाना करती थी। पचास साल के बाद 156 जिल्दें फ़ी घंटा रवाना करने लगी। एक सौ साल के बाद 650 जिल्दें फ़ी घंटा रवाना होने लगीं। 1937 ई॰ में इस सोसाइटी ने एक हज़ार तीन सौ जिल्दें फ़ी घंटा फ़रोख़्त कीं। बअल्फ़ाज़े दीगर हर मिनट में क़रीबन 22 जिल्दें लंदन से मुख़्तलिफ़ ज़बानों में दीगर ममालिक को भेजी गईं। ये आदाद शुमार इस एक सोसाइटी की फ़क़त एक शाख़ (लंदन) के हैं। इन आदाद में इस सोसाइटी की उन शाख़ों के आदाद शामिल नहीं हैं जो रूए ज़मीन के तमाम बर्र-ए-आज़म के मुख़्तलिफ़ मुल्कों के हर सूबा के हर बड़े शहर में मौजूद हैं।


18 American Bible Society Report for 1963.

ब्रिटिश ऐंड फ़ौरन बाइबल सोसाइटी की ये शाख़ें जो दुनिया-भर के हर बड़े सूबे में हैं। अब लंदन की शाख़ से अलग हो कर ख़ुद इन्जील की इशाअत का काम करती हैं। मसलन इराक़, अरदन, लेबनान, शाम और ख़लीज-ए-फारिस की रियासतों में 1959 ई॰ में सिर्फ 96 हज़ार के क़रीब किताब मुक़द्दस और इस के हिसस की जिल्दें फ़रोख़्त हुईं, लेकिन इस के तीन साल बाद 1962 ई॰ में इन ममालिक में एक लाख ग्यारह हज़ार के क़रीब जिल्दें फ़रोख़्त हुईं। इसी साल 1962 ई॰ में पाँच लाख सात हज़ार से ज़्यादा जिल्दें अफ़्रीक़ा की 38 ज़बानों में फ़रोख़्त हुईं। 1961 ई॰ में अफ़्रीक़ा के सिर्फ दो ममालिक गाना और नाईजीरिया में दो लाख इक्कीस हज़ार जिल्दें फ़रोख़्त हुईं। 1963 ई॰ में लंदन की शाख़ ने किताब मुक़द्दस को तीन सौ बयालिस ज़बानों में तर्जुमा करने का बीड़ा उठाया।

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बर्र-ए-सग़ीर हिन्दुस्तान में ब्रिटिश ऐंड फ़ौरन बाइबल सोसाइटी ने 1811 ई॰ में शहर कलकत्ता में अपनी शाख़ खोली। अगरचे इस साल से एक सदी पहले जुनूबी हिंद के अव्वलीन मुबल्लग़ीन में से एक यानी ज़ेगन बालिग (Bartholomäus Ziegenbalg) ने 1711 ई॰ में इन्जील जलील का तामिल ज़बान में तर्जुमा मुकम्मल कर लिया था और विलियम कैरी (William Carry) ने (जो हिन्दुस्तान की चव्वालीस ज़बानों से वाक़िफ़ था, और उसने बाअज़ ज़बानों की लुगात भी तैयार कर दी थीं) इन ज़बानों में इन्जील जलील और किताब मुक़द्दस के दीगर हिसस का तर्जुमा कर दिया था। हैनरी मार्टिन (Henry Martyn) अप्रैल 1806 ई॰ में हिन्दुस्तान आया और सिर्फ इकत्तीस साल की उम्र तक 16 अक्तूबर 1812 ई॰ के रोज़ तुर्की में फ़ौत हो गया। लेकिन इस छः साल के अर्से में इस सलीब के जांनिसार ने इन्जील जलील का तर्जुमा उर्दू, फ़ारसी और अरबी ज़बानों में कर दिया।

बर्र-ए-सग़ीर हिन्दुस्तान में तक़्सीम-ए-मुल्क के बाद ब्रिटिश ऐंड फ़ौरन बाइबल सोसाइटी की बजाय दो शाख़ें क़ायम हो गईं। यानी हिन्दुस्तान व लंका की बाइबल सोसाइटी और पाकिस्तान बाइबल सोसाइटी जिसकी दो शाख़ें लाहौर और ढाका में क़ायम हैं। ये दोनों सौ साइटियां अब अपने-अपने मुल्क में किताब मुक़द्दस और इस के हिसस को मुख़्तलिफ़ ज़बानों में शाएअ करती और फ़रोख़्त करती हैं। हिन्दुस्तान और लंका बाइबल सोसाइटी की सालाना रिपोर्ट से पता चलता है कि 1961 ई॰ में उसने किताब मुक़द्दस और इस के हिसस की सत्ताईस लाख इकानवे हज़ार से ज़ाइद जिल्दें फ़रोख़्त कीं जो 129 ज़बानों में मुल्क के 44 करोड़ अफ़राद के लिए शाएअ हुई थीं। इनमें से इकानवे ज़बानें ख़ास हिन्दुस्तान के बाशिंदों की थीं। उसने किताब मुक़द्दस के तामिल, बंगाली, हिन्दी, मराठी, सन्ताली, मलयालम और गुजराती तर्जुमों की नज़र-ए-सानी कर के उनको भी शाएअ किया। मग़रिबी पाकिस्तान बाइबल सोसाइटी की रिपोर्ट से मालूम होता है कि उसने 1962 ई॰ में किताब मुक़द्दस और इस के हिसस की क़रीबन पचहत्तर हज़ार जिल्दें 45 ज़बानों में फ़रोख़्त कीं। गुज़श्ता बानवे सालों में इस सोसाइटी ने 63 लाख 32 हज़ार से ज़ाइद जिल्दें फ़रोख़्त कीं। तक़्सीम-ए-मुल्क के बाद पिछले चार सालों में चार लाख चालीस हज़ार जिल्दें फ़रोख़्त हुईं। मशरिक़ी पाकिस्तान की बाइबल सोसाइटी ने अपनी एक साला ज़िंदगी में 1963 ई॰ में छब्बीस हज़ार से ज़ाइद जिल्दें फ़रोख़्त कीं। पाकिस्तान के दोनों हिस्सों की सोसाइटी ने किताब मुक़द्दस के मुख़्तलिफ़ हिस्सों के बलोची, मुसलमानी, बंगाली, फ़ारसी, सिंधी, उर्दू, पुश्तो वग़ैरह ज़बानों के तर्जुमों की नज़रे-सानी कर के उनको शाएअ किया। पस बर्रे-सग़ीर हिन्दुस्तान के दोनों मुल्कों यानी भारत और पाकिस्तान में 1962 ई॰ में अट्ठाईस लाख बानवे हज़ार जिल्दें 182 ज़बानों में शाएअ हो कर फ़रोख़्त हुईं।

सुतूर बाला में हमने मग़रिबी ममालिक की सिर्फ दो सोसाइटियों यानी अमरीकन बाइबल सोसाइटी और ब्रिटिश ऐंड फ़ौरन बाइबल सोसाइटी का ज़िक्र किया है। नाज़रीन पर मख़्फ़ी (छिपी) ना रहे कि इनके इलावा दुनिया के दीगर ममालिक की बाइबल सोसाइटीयों ने भी कार-ए-ख़ैर का ज़िम्मा उठाया हुआ है। मसलन स्कॉटलैंड की नैशनल बाइबल सोसाइटी वग़ैरह मशरिक़ी ममालिक और अफ़्रीक़ा के आज़ाद शूदा ममालिक की कलीसियाएं भी इस तब्लीग़ व इशाअत इन्जील के काम में कोशां हैं। अब दुनिया की तमाम बाइबल सोसाइटियों ने अज़ सर-ए-नौ अपनी तंज़ीम कर ली है और सबकी सब एक यूनाइटेड बाइबल सोसाइटी के मातहत हैं। जिसने इस काम का ज़िम्मा उठाया है कि मुत्तहदा और मुत्तफ़िक़ा सोसाइटी से दुनिया के तमाम ममालिक में किताब मुक़द्दस की तब्लीग़ व इशाअत के वसीले से इन्जील जलील का पैग़ाम बनी नूअ इन्सान के हर फ़र्द बशर तक पहुंच जाये।

ये सोसाइटी एक आलमगीर जमाअत है, जिसका काम दुनिया के तमाम बर्र-ए-आज़मों में है। इस की शाख़ों के सदर मुक़ाम ममालिक में हैं और इस का सदर आर्च बिशप आफ़ यार्क है। फ़ी ज़माना दुनिया की आबादी में हर साल 6 करोड़ का इज़ाफ़ा हो रहा है। हर बाइबल सोसाइटी ने अपने ज़िम्मे ये फ़र्ज़ ले लिया है कि दुनिया का हर फ़र्द अपनी-अपनी ज़बान में ख़ुदा का कलाम पढ़ सके। तादम तहरीर 1963 ई॰ इन्जील जलील दुनिया की एक हज़ार दो सौ बारह ज़बानों में तर्जुमा हो चुकी है। अगर दुनिया के आदाद व शुमार का लिहाज़ रखा जाये तो इस वाज़ेह हक़ीक़त का मतलब ये है कि अगर दुनिया में एक सौ आदमी ज़िंदा हैं तो उनमें से छियानवे इन्जील शरीफ़ के नजात बख़्श पैग़ाम को अपनी मादरी ज़बान में पढ़ सकते हैं। क्या ये रोशन हक़ीक़त कलिमतुल्लाह (मसीह) और इन्जील जलील की आलमगीरी पर दलालत नहीं करती? क्या किसी दूसरे मज़्हब की किताब को ऐसी जहांगीर शौहरत और हैरत-अंगेज़ कामयाबी हासिल है? क्या ये कामयाबी कलिमतुल्लाह (मसीह) की एजाज़ी तालीम की क़ुव्वत को ज़ाहिर नहीं करती?

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हमने सुतूर बाला में ज़िक्र किया है कि किताब मुक़द्दस और उस के हिसस का तर्जुमा दुनिया की एक हज़ार दो सौ बारह से ज़ाइद ज़बानों में हो चुका है। हर साल ये कोशिश की जा रही है कि दुनिया की तमाम मालूम ज़बानों में किताब मुक़द्दस का तर्जुमा हो जाए ताकि इन्जील शरीफ़ के नजात बख़्श पैग़ाम से रुए-ज़मीन के किसी मुल़्क या क़ौम का कोई फ़र्द महरूम ना रह जाये। दुनिया की बहुतेरी ज़बानें ऐसी हैं जिनमें हरूफ़-ए-तहज्जी तक मारज़ वजूद में नहीं थे। पस मसीही मुबल्लग़ीन को उनके हरूफ़-ए-तहज्जी को इख़्तिरा करना पड़ा ताकि वो बाइबल शरीफ़ का उस ज़बान में तर्जुमा कर सकें। मसीही मुबल्लग़ीन ने ना-बीनाओं तक को किताब मुक़द्दस के मुतालआ से महरूम नहीं रखा और हर साल उनके लिए किताब मुक़द्दस के तर्जुमे तैयार किए जाते हैं। चुनान्चे ब्रिटिश ऐंड फ़ौरन बाइबल सोसाइटी ने 1937 ई॰ के आख़िर तक 41 मुख़्तलिफ़ ज़बानों में किताब-ए-मुक़द्दस को नाबीनाओं और अँधों के लिए तैयार किया था। अब 62 ई॰ में अमरीकन बाइबल सोसाइटी ने किताब मुक़द्दस के क़रीबन त्रिसेठ हज़ार (तराजिम) “ब्रेल” के छापा में ना-बीनाओं के लिए शाएअ किए।

हमने ज़िक्र किया है कि बाइबल सोसाइटियां इसी कोशिश में हैं कि दुनिया की तमाम ज़बानों में किताब मुक़द्दस का तर्जुमा हो जाए ताकि रुए-ज़मीन के ममालिक व अक़्वाम पर इतमाम-ए-हुज्जत हो जाए और क़ियामत के रोज़ मुबल्लग़ीन सुर्ख़रु हों। आदाद व शुमार से मालूम होता है कि हर साल ब्रिटिश ऐंड फ़ौरन बाइबल सोसाइटी ग्यारह से लेकर चौदह नई ज़बानों में किताब मुक़द्दस और उसके के हिसस का तर्जुमा कर देती है जिस का मतलब ये है कि कोई महीना ऐसा नहीं गुज़रता जब इस दुनिया में किताब मुक़द्दस या उस के हिसस का दुनिया की किसी ना किसी नई ज़बान में तर्जुमा नहीं हो जाता है। क्या ये बाइबल शरीफ़ की एजाज़ी ताक़त पर दलालत नहीं करता?

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बाइबल शरीफ़ के तर्जुमों के मुताल्लिक़ एक और बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है, बाइबल मुक़द्दस की असली ज़बान इस क़िस्म की है कि दुनिया की जिस ज़बान में भी इस का तर्जुमा किया जाता है, उस में तर्जुमे का लुत्फ़ असली ज़बान का सा नज़र आता है। कलिमतुल्लाह (मसीह) का कलाम बलाग़त व वज़ाहत से पुर है, जैसा हमने अपनी किताब “क़दामत व अस्लियत अनाजील” की जिल्द दोम में साबित कर दिया है। इस में कोई बात भद्दी नज़र नहीं आती, बल्कि तर्जुमे की इबारत तक निहायत सलीस और रवां होती है। मसलन आप किताब मुक़द्दस के अंग्रेज़ी तर्जुमे को लें। तमाम अंग्रेज़ी इल्म-ए-अदब को छान मारो ज़बान के लिहाज़ से आपको कोई किताब इस के अंग्रेज़ी तर्जुमे से आला पाये की नहीं मिलेगी। ऐसा मालूम होता है कि गोया किताब मुक़द्दस के मुसन्निफ़ीन ने इस को अंग्रेज़ी ज़बान में लिखा था। इन्जील शरीफ़ के उर्दू तर्जुमे को ले लीजिए। (इस की ज़बान) ऐसी साफ़, सलीस और रवां है कि ऐसा मालूम होता है कि इन्जील के मुसन्निफ़ीन ने इस को उर्दू ज़बान में लिखा था। मर्हूम मौलाना अबूल-कलाम आज़ाद ने बार-बार इस उर्दू तर्जुमे को सराहा है जिसमें कोई सबक (बे-तअल्लुक़) लफ़्ज़ नहीं है। यही हाल फ़ारसी और दीगर तराजुम का है।


19 ब्रेल (Braille) अँधों के लिए उभरे हुए हुरूफ़ का निज़ाम तबाअत। अंधे हुरूफ़ को हाथ से छू कर इबारत पड़ते हैं।

किताब मुक़द्दस की ज़बान, इबारत, अल्फ़ाज़ और मुहावरात ही ऐसे हैं कि दुनिया की हर ज़बान में बाआसानी तर्जुमा हो सकते हैं और ऐसा मालूम होता है कि वही ज़बान किताब मुक़द्दस की असली ज़बान है। कलाम की बलाग़त, बयान की लताफ़त, ज़बान की सलासत, बंदिश की चुसती, मौज़ूं अल्फ़ाज़ व मुहावरात, तम्सीलात व तश्बीहात की दिल-आवेज़ी ने सोने पर सुहागे का काम कर दिया है। दीगर मज़ाहिब आलम की मुक़द्दस किताबों का ये हाल नहीं। उनकी ज़बान और इबारत ऐसी है कि वो दूसरी ज़बानों में बाआसानी तर्जुमा नहीं की जा सकतीं और अगर ब-सद मुश्किल उनका तर्जुमा होता भी है तो नाज़िर को फ़ौरन पता चल जाता है कि वो एक ऐसी किताब पढ़ रहा है जो उस के मुल्क और क़ौम की नहीं। तर्जुमा भद्दा और इबारत मुग़लक़ (मुश्किल, दूराज़ फ़हम) और इसी क़िस्म की होती है कि असली ज़बान का मुद्दा दूसरी ज़बान में कमा-हक़्क़ा अदा ही नहीं किया जा सकता। उनके अंग्रेज़ी तराजुम जो मसीही उलमा ने किए एक से एक बढ़कर मौजूद हैं, लेकिन कोई तर्जुमा भी ऐसा नहीं जिसमें किताब मुक़द्दस के अंग्रेज़ी तर्जुमे की सी खूबियां मौजूद हों। मिसाल के तौर पर आप क़ुरआन को लें। इस के अंग्रेज़ी तराजुम जो मसीही उलमा ने किए एक से एक बढ़कर मौजूद हैं। पामर का तर्जुमा बेमिस्ल है। मुसलमान उलमा ने भी इस के तर्जुमे अंग्रेज़ी में किए हैं, लेकिन कोई तर्जुमा भी ऐसा नहीं जिसमें किताब मुक़द्दस के अंग्रेज़ी तर्जुमे की सी खूबियां मौजूद हों। क़ुरआन के इन अंग्रेज़ी तराजुम की इबारत भद्दी और तर्ज़ तहरीर करख़त है। नाज़िर फ़ौरन पढ़ते ही भाँप जाता है कि ये एक तर्जुमा है जो ग़ैर मानूस होने की वजह से उस को अपील नहीं करता और उस के जज़्बात को मुतास्सिर नहीं कर सकता। कोई सही-उल-अक़्ल शख़्स ये कहने की जुर्रत नहीं करेगा कि अगर किसी ने अंग्रेज़ी इल्म-ए-अदब का बेहतरीन नमूना देखना हो तो वो अंग्रेज़ी तर्जुमों को पढ़े। इन मज़ाहिब के उलमा ने मक़्दूर (ताक़त) भर कोशिश की है कि इन कुतुब का उर्दू में इस क़िस्म का तर्जुमा करें जिस तरह इन्जील शरीफ़ का उर्दू में मौजूद है। बीसियों उलमा ने इस मैदान में ज़ोर-आज़माई की और उन मुतर्जिमीन में से बाअज़ (डाक्टर नज़ीर अहमद मर्हूम) की मानिंद ना सिर्फ अहले-ज़बान, बल्कि उर्दू इल्म व अदब के फ़ाज़िल उस्ताद भी थे, लेकिन सब नाकाम रहे। इन्जील के तर्जुमे के मुक़ाबिल ये हाल दीगर मज़ाहिब की कुतुब का है। मसलन वेदों, झंद उस्ता वग़ैरह का तर्जुमा हुआ ही नहीं और अगर हुआ भी है तो उनके अल्फ़ाज़, मुहावरात, इबारत वग़ैरह की ये हालत है कि वो एक ख़ास मुल्क और क़ौम के साथ ही मुख़्तस (मख़्सूस) है। उर्दू के नाज़रीन इन तराजुम को देखकर उनके उयूब व नक़ाइस से फ़ौरन वाक़िफ़ हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर सूरह अल-बक़रह की पहली आयत का तर्जुमा अलीफ लाम मीम, इस किताब में कुछ शक नहीं। हिदायत है परहेज़गारों के लिए। (तर्जुमा, नवाब मुहम्मद हुसैन क़ुली ख़ान) “अलीफ लाम मीम, ये किताब नहीं शक बीच उस के राह दिखाती है वास्ते परहेज़गारों के।” (तर्जुमा, शाह रफ़ी उद्दीन देहलवी) “अलीफ लाम मीम, इस किताब में कुछ शक नहीं राह बताती है डर वालों को।” (तर्जुमा, शाह अब्दुल क़ादिर देहलवी) “अलीफ लाम मीम, ये किताब ऐसी है जिसमें कोई शुब्हा नहीं राह बताने वाली है ख़ुदा से डरने वालों को।” (तर्जुमा, अशरफ़ अली थानवी) “अलीफ लाम मीम, ये वो किताब है जिसमें कोई शक नहीं मुत्तक़ियों के वास्ते हिदायात है।” (तर्जुमा, डाक्टर अब्दुल हकीम) “अलीफ लाम मीम, ये वो किताब है जिसके कलाम इलाही होने में कुछ शक नहीं परहेज़गारों की राहनुमा है।” (तर्जुमा, डाक्टर नज़ीर अहमद) “अलीफ लाम मीम, ये किताब इलाही है। इस में कोई शुब्हा नहीं मुत्तक़ी इन्सानों पर फ़लाह व सआदत की राह खोलने वाली।” (तर्जुमा, मौलाना अबूल-कलाम आज़ाद) मज़्कूर बाला तमाम तराजुम बे-लुत्फ़ और ज़बान के लिहाज़ से एक भी ऐसा नहीं जो मतलब ख़ेज़ हो। किसी में लफ़्ज़ों का ज़्यादा लिहाज़ किसी में माअनों पर ज़्यादा ज़ोर किसी में मुहावरात की भर मार असली ग़ैर-मानूस इबारते क़ुरआन “अलीफ लाम मीम” हर एक में मौजूद है जिसका मतलब कोई शख़्स नहीं जानता। तर्जुमे के उयूब व नक़ाइस मुतर्जिमीन की नालियाक़ती की वजह से नहीं बल्कि क़ुरआन की अस्ल इबारत ही ऐसी है कि इस को दुनिया के ममालिक की अक़्वाम अपनी मादरी ज़बान में पढ़ नहीं सकतीं क्योंकि उस का दुनिया की ज़बानों में तर्जुमा हो नहीं सकता और अगर होता है तो उन अक़्वाम के लोगों को ऐसा मालूम होता है कि वो किसी दूसरी क़ौम की दीनी किताब को पढ़ रहे हैं जो उनकी अपनी क़ौम की नहीं हो सकती। यही हाल दीगर मज़ाहिब की कुतुब का है। उनके अल्फ़ाज़ मुहावरात, इबारत वग़ैरह की ये हालत है कि वो एक ख़ास मुल्क और क़ौम के साथ ही मुख़्तस (मख़्सूस) है। मसलन क़ुरआन में अगर फ़साहत व बलाग़त है तो सिर्फ अहले-अरब उस की क़द्र कर सकते हैं। ग़ैर-मज़्हब के लिए वो ज़बान ऐसी है कि जब उस का तर्जुमा किया जाता है तो वो उनके जज़्बात को मुतास्सिर ही नहीं कर सकती। इसी तरह संस्कृत की किताब में अगर कोई ख़ूबी है तो सिर्फ हिंदू संस्कृत दान ही इस को जान सकते हैं। जब ग़ैर-हनूद और ग़ैर-संस्कृत दान उस के एक दो फ़िक़्रों को पढ़ लेते हैं तो उनकी तबीयत उकता जाती है। यही हाल झन्द, उस्ता का है। इस का जो अंग्रेज़ी तर्जुमा हुआ भी है उस को पढ़ कर ग़ैर पार्सियों की तबीयत उचाट हो जाती है। वजह ये है कि ये दीनी कुतुब (क़ुरआन, वेद, झन्द, उस्ता वग़ैरह सिर्फ एक मुल्क या क़ौम के हालात के साथ ऐसी वाबस्ता हैं कि वो दीगर ममालिक व अक़्वाम वज़मिनिया के लिए ग़ैर मौज़ूं हो जाती हैं। यही वजह है कि इन किताबों के मानने वालों के हलक़े के बाहर (और अंदर भी) इन कुतुब के मज़ामीन से कोई वाक़िफ़ नहीं होता और इनका तर्जुमा ग़ैर-ज़बानों में नहीं किया जाता। सिर्फ़ बाइबल शरीफ़ ही एक ऐसी किताब है जो दुनिया की तक़रीबन तमाम मालूम ज़बानों में तर्जुमा हो चुकी है और जिस मुल्क और क़ौम की ज़बान में भी इस का तर्जुमा किया जाता है, उस मुल्क और क़ौम के अफ़राद के जज़्बात को वो मुतास्सिर कर देती है। ये हक़ीक़त साबित करती है कि रुए-ज़मीन पर बाइबल शरीफ़ के सिवा और कोई किताब आलमगीर नहीं है। क्योंकि सिर्फ यही किताब दुनिया की तमाम अक़्वाम की ज़बानों में उनकी मादरी ज़बान की तरह ही “उम्मुल-किताब” हो कर बोलती है और दुनिया के तमाम मुल्कों में चलती फिरती, जीती-जागती नज़र आती है।


20 पार्सियों के पेशवा ज़रतुश्त की मुक़द्दस किताब
21 ओस्ता का मुख़फ़्फ़फ़, आतिश परस्तों के पेशवा ज़रतुश्त की तसनीफ़। झन्द की शरह।

हासिल कलाम

हमने इस फ़स्ल में बयान किया है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ने जो तसव्वुर-ए-ख़ुदा बनी नूअ इन्सान के सामने पेश किया है, वो ऐसा है कि हर ज़माना, मुल्क और क़ौम का हर फ़र्द बशर ये तस्लीम करता है कि इस से बेहतर और आला तसव्वुर नामुम्किन है। मसीहिय्यत का अस्लुल-उसूल ये है कि ख़ुदा मुहब्बत है और वो बनी नूअ इन्सान से अबदी मुहब्बत रखता है। इन्सानी क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला इस से बेहतर तसव्वुर पेश नहीं कर सकती। इलाही मुहब्बत का नतीजा इन्सानी उखुव्वत, मुसावात और मुहब्बत है और यही मसीहिय्यत का अख़्लाक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) है जिससे बेहतर मुतम्मा नज़र (मरकज़-ए-निगाह, असली मक़्सद) का होना मुहालात में से है। ये नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) कामिल है जो रुए-ज़मीन की अक़्वाम की दीनी और दुनियावी ज़रूरीयात को पूरा करता है (कुलस्सियों 2:3) और अपने अंदर तमाम ममालिक और अज़्मिना के पेचिदा मसाइल को हल करने की सलाहीयत रखता है और इन्सानी ज़िंदगी के हर शोबे को शाहराह तरक़्क़ी पर गामज़न होने में मुमीद व मुआविन है। मसीहिय्यत का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) किसी ख़ास मुक़ाम, मुल्क या वक़्त या क़ौम का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) नहीं है। इब्तिदा ही से मसीहिय्यत का ये मक़्सद रहा है कि तमाम ज़मानों, तमाम मुल्कों और तमाम इन्सानों ग़रज़ कि कुल कायनात को अपने वसीअ और लामहदूद दायरे के अंदर लाए। इस का ये दावा है कि इस का बानी रहमतुलिल-आलमीन और मुनज्जी आलमीन है जो कुल इन्सानों को नजात देने और कामिल करने के लिए आया है। मसीहिय्यत तमाम बनी नूअ इन्सान को एक वाहिद कलीसिया-ए-जामा में इकट्ठा करती है। मसीहिय्यत के उसूल दीनी और दुनियावी उमूर पर हावी हैं। वो माद्दी आलम में भी वैसे ही हुक्मरान हैं जैसे वो अख़्लाक़ीयात पर हुक्मरान हैं। ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि मसीहिय्यत बनी नूअ इन्सान को हर ज़माने में ये सबक़ देती आई है कि कायनात की बुनियाद रुहानी उसूल पर क़ायम है और कि इस माद्दी दुनिया में हम हक़ीक़ी ख़ुशी हासिल नहीं कर सकते, तावक़्ते के हम अपने गर्दो पेश के हालात और दीगर तमाम ताल्लुक़ात में इन रुहानी उसूलों पर कारबन्द ना हों। चूँकि माद्दी दुनिया की बुनियाद रूहानियत पर क़ायम है, पस हमको तमाम उमूर उखुव्वत व महब्बत और मुसावात के उसूलों के मुताबिक़ सरअंजाम देने चाहिऐं। हमारी तमद्दुनी व मुआशरती ज़िंदगी, हमारी इक़्तिसादी और सियासी ज़िंदगी ग़रज़ कि हमारे ताल्लुक़ात की बुनियाद रूहानियत पर होनी चाहिए। जब से मसीहिय्यत इस दुनिया में आई दुनिया की तरक़्क़ी का राज़ इस एक हक़ीक़त में मुज़म्मिर रहा है। तारीख़-ए-आलम इस बात की गवाह है कि मसीहिय्यत ने तमद्दुनी, मुआशरती, इक़्तिसादी, सियासी और अख़्लाक़ी दुनिया में एक अज़ीम इन्क़िलाब पैदा कर दिया है और कोई मुस्तनद मुअर्रिख़ ऐसा नहीं जो इस वाज़ेह तारीख़ी हक़ीक़त में और मसीहिय्यत की तालीम और इशाअत में इल्लत व मालूल का रिश्ता क़ायम नहीं करता। मसीहिय्यत अपने अंदर कुल कायनात को नई मख़्लूक़ बना देने की सलाहीयत रखती है। जहां मसीहिय्यत जाती है, वहां एक नया आस्मान और नई ज़मीन पैदा हो जाती है और पहला आस्मान और पहली ज़मीन जाती रहती है, क्योंकि इब्ने-अल्लाह (मसीह) जो तख़्त पर बैठे हैं कहते हैं कि देख मैं सारी चीज़ों को नया बना देता हूँ। (मुकाशफ़ा 21:1-5) जनाबे मसीह कुल बनी नूअ इन्सान के वाहिद मुनज्जी हैं, जिनके इलावा “.....आस्मान के तले आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया जिस के वसीले से हम नजात पा सकें।” (आमाल 4:12) यही ईमान हमेशा है और यही ईमान मसीहिय्यत और मसीही कलीसिया की पुश्तपनाह् रहा है और इसी ईमान की क़ुव्वत ने दुनिया के तमाम मज़ाहिब पर फ़त्ह पाई है। (1 यूहन्ना 5:4) तारीख़ के सफ़हात इस हक़ीक़त के रोशन गवाह हैं कि दुनिया में कोई मज़्हब या फ़ल्सफ़ा ऐसा नहीं हुआ जिसके पैरौओं की दीनी, ज़हनी और रुहानी ज़रूरीयात को कलिमतुल्लाह (मसीह) ने कामिल तौर पर पूरा ना क्या हो। बल्कि हक़ तो ये है कि ये मज़ाहिब और फ़ल्सफ़ा इन ज़रूरीयात को कभी इस अह्सन तौर पर पूरा ना कर सके जिस तरह मुनज्जी कौनैन (मसीह) ने पूरा कर दिया है। वो अपनी नाकामी की वजह से मसीहिय्यत के सामने क़ायम ना रह सके और कलिमतुल्लाह (मसीह) बिल-आख़िर ग़ालिब हुए। “वो ग़लबा जिस से दुनिया मग़लूब हुई है हमारा ईमान है।” (1 यूहन्ना 5:4) इब्ने-अल्लाह (मसीह) बनी नूअ इन्सान की ज़रूरीयात का “अव्वल और आख़िर” है और वो “अबद-उल-आबाद ज़िंदा” है (मुकाशफ़ा 1:17) वही दुनिया-ए-मज़्हब पर अकेला वाहिद हुक्मरान है।

گوئی بغیر واسطہ در گوش خا کئے

راز ے گزاں خبر نبود جبرئیل را

फ़स्ल दोम

मसीहिय्यत जामे मज़्हब है

इस रिसाले के बाब अव्वल में आलमगीर मज़्हब की ख़ुसूसियात पर बह्स करते वक़्त हमने ज़िक्र किया था कि आलमगीर मज़्हब के लिए लाज़िम है कि उस में ख़ुदा का तसव्वुर आला व अरफ़ा और उस की अख़्लाक़ीयात का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) बुलंद पाये का और उस के उसूल आलमगीर हों। जो ज़मान व मकां की क़ुयूद से आज़ाद हों और इस क़ाबिल हों कि इन का इतलाक़ तमाम ममालिक व अक़्वाम और अज़्मिना पर हो सके। गुज़श्ता फ़स्ल में हमने ये साबित कर दिया है कि सिर्फ मसीहिय्यत ही एक वाहिद मज़्हब है जो इस शर्त को पूरा कर सकता है।

1. मसीहिय्यत और दीगर मज़ाहिब

मसीहिय्यत के आलमगीर होने का सबूत ये भी है कि ये मज़्हब अदयाने आलम (दुनिया के तमाम मज़्हबों) के बेहतरीन उसूल को अपने अंदर जमा कर लेता है। हमने बाब अव्वल में ये ज़िक्र किया था कि ख़ुदा ने हर क़ौम को हिदायत का नूर उस के दिल और ज़मीर में अता किया है। (आमाल बाब 17, रोमीयों 1:21) क़ुरआन मजीद में भी आया है कि हर उम्मत में ख़ुदा ने नज़ीर भेजा है। (सूरह फ़ातिर रुकूअ 3) पस दुनिया के तमाम मज़ाहिब में कमोबेश सदाक़त के अनासिर मौजूद हैं जो उन की कामयाबी का सबब रहे हैं। लेकिन चूँकि ये अनासिर इन मज़ाहिब में बातिल अनासिर के साथ ख़लत-मलत थे, वह इस क़ाबिल ना रहे कि अक़्वामे आलम के हादी हो सकें। वो एक ख़ास मुल्क या क़ौम या तब्क़े या पुश्त की सिर्फ ख़ास हालात के अंदर ही राहनुमाई कर सके। लेकिन इन हालात के बाहर इन मज़ाहिब के उसूल का इतलाक़ ना हो सका। चूँकि वो उसूल ख़ास हालात के रौनुमा होने की वजह से वज़ा किए गए थे। लिहाज़ा जब वो सूरत-ए-हालात बदल गई, वो उसूल ग़ैर-मुकम्मल होने की वजह से नाकाफ़ी साबित हुए। इन मज़ाहिब में जो सदाक़त के अनासिर थे वो टिमटिमाते चिराग़ की मानिंद रात की तारीकी में कुछ मुद्दत के लिए किसी ख़ास क़ौम को चंद क़दम तक राह दिखाने का काम देते रहे और बस। जूंही आंधी चली या तेल बत्ती ख़त्म हो गई चिराग़ बुझ गया और शब की तारीकी ने दुनिया को मिस्ल साबिक़ घेर लिया। यूं ये मज़ाहिब अपनी उम्र तबई को ख़त्म करके दुनिया को अपनी हालत पर छोड़कर रुख़्सत हो गए। मसीहिय्यत का ये अक़ीदा है कि कुल अद्यान आलम (दुनिया के मज़ाहिब) में जो सदाक़त के अनासिर हैं वो इस “हक़ीक़ी नूर” यानी जनाबे मसीह के नूर की शुवाएं हैं, जो हर एक आदमी रोशन करता है। (यूहन्ना 1:9) दुनिया की कुल अक़्वाम में से किसी को ख़ुदा ने बग़ैर गवाह के नहीं छोड़ा ताकि वो ख़ुदा को ढूंढें और उस को टटोल कर पाएं (आमाल 14:17, 17:27) दुनिया के तमाम मज़ाहिब में ये क़ुद्रत की तरफ़ से ये रोशनी मौजूद है। (रोमीयों 1:19, 2:14, यर्मियाह 31:33) क्योंकि “ख़ुदा किसी का तरफ़दार नहीं बल्कि हर क़ौम में जो उस डरता और नेक अमल करता है वो उस को पसंद आता है।” (आमाल 10:34, रोमीयों 3:29) ये मज़ाहिब अक़्वामे आलम को मसीह तक पहुंचाने में उनके राहबर का फ़र्ज़ अदा करते हैं। (ग़लतीयों 3:24, मत्ती 5:17, रोमीयों 10:4, इब्रानियों 9:10-9)

हर क़ौम रास्त राहे दीनी व क़िब्ला गाह है

हक़ तो ये है कि मुक़ाबला मज़ाहिब का इल्म इस हक़ीक़त को आश्कारा कर देता है कि कुल अक़्वाम के मज़ाहिब “आने वाली” मसीहिय्यत का पेश-ख़ेमा और “साया” हैं, मगर अस्ल चीज़ मसीह में है। (कुलस्सियों 2:17) वो आस्मानी मज़्हब की नक़्ल और अक्स की ख़िदमत का काम सरअंजाम देते हैं। (इब्रानियों 8:5) जवान से “बुज़ुर्ग तर और कामिल-तर” है। (इब्रानियों 9:11) मसीहिय्यत इन तमाम ग़ैर-मुकम्मल सदाक़तों को अपने अंदर जमा रखती है, क्योंकि वो उनसे ज़्यादा कामिल है। मुख़्तलिफ़ ममालिक और मुख़्तलिफ़ अक़्वाम के मज़ाहिब में सदाक़त के मुख़्तलिफ़ पहलू मौजूद हैं, लेकिन मसीहिय्यत ही अकेला वाहिद मज़्हब है जो तमाम दुनिया के ममालिक व अक़्वाम के मज़ाहिब की सदाक़तों को एक जगह जमा करता है। क्योंकि मसीह शरीअत व अम्बिया का कामिल करने वाला है। (मत्ती 5:17, यूहन्ना 10:39) इन्जील मुक़द्दस में इर्शाद है कि, इन ग़ैर-मुकम्मल मज़ाहिब में “जितनी बातें सच्च हैं और जितनी बातें शराफ़त की हैं और जितनी बातें वाजिब हैं और जितनी बातें पाक हैं और जितनी बातें पसंदीदा हैं और जितनी बातें दिलकश हैं। ग़र्ज़ जो नेकी और तारीफ़ की बातें हैं” हम उनको नज़र-अंदाज ना करें। (फिलिप्पियों 4:8) क्योंकि जो नूर मसीहिय्यत में अपनी सारी शानो-शौकत के साथ चमकता है, उस की शुवाएं अक़्वाम व मज़ाहिबे आलम की हक़ और सच्चाई की तरफ़ राहनुमाई भी करती हैं। (यूहन्ना 16:13) तमाम रसूलों की और बिल-ख़ुसूस मुक़द्दस पतरस और मुक़द्दस पौलुस की तहरीरात और तक़रीरात (आमाल बाब 2, बाब 7, 8:30, 10:34, बाब 11, बाब 15, बाब 17) से ज़ाहिर है कि जनाबे मसीह के रसूलों ने अपने सामईन के मज़ाहिब में “दिलकश और पसंदीदा” बातें पाइं। जिनके ज़रीये वो लोगों को जनाबे मसीह के क़दमों में ले आए। ख़ुद कलिमतुल्लाह (मसीह) ने इस क़िस्म के इस्तिदलाल से काम लिया था। (यूहन्ना 10:34-36)

इब्रानियों के ख़त का मुसन्निफ़ ये साबित कर देता है कि यहूदीयत एक इब्तिदाई मंज़िल थी। जिसकी इंतिहाई कड़ी मसीहिय्यत है। इसी तरह मुक़द्दस यूहन्ना ने यूनानी फ़ल्सफ़े में लोगोस (कलाम) की तालीम में सदाक़त के अनासिर देखे। उसने अपनी इन्जील में साबित किया कि ये सदाक़त आला तरीन और अफ़्ज़ल तरीन हालत में सिर्फ मसीह कलिमतुल्लाह (मसीह) में पाई जाती है। उसने लोगोस की इस्तिलाह को गोया बपतिस्मा देकर तमाम नाक़िस तसव्वुरात से जुदा और पाक कर के मसीही इल्म-ए-कलाम का हिस्सा बना दिया। पौलुस रसूल ने साबित किया कि मसीहिय्यत यहूदीयत की तक्मील है। (रोमीयों 13:10) महात्मा बुद्ध को ख़ुद इस बात का एहसास था कि उस का मिशन महदूद और ग़ैर-मुकम्मल है। चुनान्चे मौत से पहले उसने आनंद को कहा :-

“इस दुनिया में मैं आख़िरी बुद्ध नहीं हूँ। वक़्त मुक़र्ररा पर एक और बुद्ध ज़ाहिर होगा जो क़ुद्दूस हस्ती होगा और नय्यर-ए-आज़म होगा। जिसकी गुफ़तार सादिक़ होगी और जिसका नमूना कामिल होगा। वो बनी नूअ इन्सान का क़ाइदे आज़म होगा और तुम पर तमाम अबदी सदाक़तें ज़ाहिर करेगा। वो कामिल इन्सान होगा जिसकी ज़िंदगी में तमाम सदाक़तों का ज़हूर होगा। उस के पैरौ (मानने वाले) लाखों होंगे, गो मेरे पैरौ हज़ार ही हैं। उस का नाम ही “मुहब्बते मुजस्सम” होगा....।” 22

मुक़द्दस यूहन्ना रसूल ने साबित कर दिया कि यूनानी फ़ल्सफ़ा और मज़्हब की तक्मील मसीह में है। (इफ़िसियों 1:10, कुलस्सियों 1:17) आबा-ए-कलीसिया इस सदाक़त पर ज़ोर देते हैं कि, मसीह राह हक़ और ज़िंदगी है। पस जहां हक़ का अंसर है वहां कलाम-ए-हक़ मौजूद है जो इस क़ौम की मसीह की तरफ़ हिदायत कर रहा है। जस्टीन शहीद और सिकंदरिया के कलीमिन्ट ने यूनान के मज़्हब व फ़ल्सफ़ा में ऐसी बातें पाइं जो उनको मसीहिय्यत के क़दमों में ले आईं। चुनान्चे मोअख्ख़र-उल-ज़िक्र कहता है :-

“जिस तरह शरीअत यहूद को मसीह तक लाने में उनकी उस्ताद बनी, इसी तरह फ़ल्सफ़ा यूनानियों का उस्ताद बना।”23

तरतुलियान (Tertullian, 200 ई॰) ग़ैर-यहूदी मज़ाहिब की निस्बत कहता है कि,

“इनमें ऐसी सदाक़तें मौजूद हैं जो अपने कमाल में सिर्फ मसीहिय्यत में पाई जाती हैं।”

कलीसियाए इंग्लिस्तान के इसाक़िफ़ (اساقف) ने 1908 ई॰ की लीमबथ (Lambeth) कान्फ़्रैंस में ये हिदायत की थी कि :-

“मसीहीयों पर वाजिब है कि बग़ैर किसी ताम्मुल के ग़ैर-मसीही मज़ाहिब की सदाक़तों को क़ुबूल करलें और इस बात को तस्लीम करलें कि रब-उल-आलमीन की मंशा के मुताबिक़ सदाक़त के अनासिर दुनिया की तमाम अक़्वाम के मज़ाहिब में मौजूद हैं। लाज़िम है कि मसीही इन सदाक़तों के ज़रीये ग़ैर-मसीही मज़ाहिब वालों को मसीह के क़दमों में ले आएं, क्योंकि वही राह और हक़ (और) ज़िंदगी है।”


22 The Gospel of Buddah ch XCVI, Maitreya pp 217+210(Open court publisher COCHICEG,15)
23 Stromateis

2. कुल मज़ाहिब के उसूल मसीहिय्यत में शामिल हैं

(1)

जब हम मसीहिय्यत और दीगर मज़ाहिब का मुक़ाबला करते हैं तो हम पर ये हक़ीक़त ज़ाहिर हो जाती है कि आला उसूल और अच्छी तालीम जो इन मज़ाहिब में मौजूद है, वो बदर्जा अह्सन मसीहिय्यत में पाई जाती है। अक़्वामे आलम की एक भी रुहानी ज़रूरत ऐसी नहीं जिसको मसीहिय्यत पूरा नहीं करती। हम साबित कर आए हैं कि इन्सानी फ़ित्रत की तमाम ज़रूरीयात और तक़ाज़े मसीहिय्यत में अह्सन तौर पर पूरे होते हैं। लेकिन ये ज़रूरीयात दीगर मज़ाहिब में अधूरे तौर पर ही पूरी होती हैं। जब मसीहिय्यत के उसूल और दीगर मज़ाहिब के उसूल को पेश-ए-नज़र रखकर दोनों का मुक़ाबला किया जाता है तो इस मुवाज़ने से मसीही उसूल की रोशनी ज़्यादा चमकती है। ये दर-हक़ीक़त ऐसा ही है जैसा आफ़्ताब को चिराग़ दिखाना। दुनिया के मुख़्तलिफ़ कोनों की तारीकी में दीगर मज़ाहिब के उसूल टिमटाते चिराग़ की तरह काम में आए। लेकिन आफ़्ताब निस्फ़-उन्नहार (दोपहर के सूरज) के सामने ये चिराग़ बेकार हो जाते हैं। फिर सूरज और चांद की रोशनी की कुछ हाजत नहीं, क्योंकि ख़ुदा के जलाल ने इस को रोशन कर रखा है। (मुकाशफ़ा 21:23)

वो भी थी इक सीमिया की सी नमूद

सुबह को राज़ मह व अख़्तर खुला

(ग़ालिब)

हर सदाक़त पसंद शख़्स ख़ुशी से क़ुबूल करने को तैयार होगा कि एक ज़माना था जब इन मज़ाहिब की रोशनी मुत्लाश्यान हक़ (हक़ की तलाश करने वालों) को ख़ुदा की तरफ़ लाने में राहनुमा का काम देती रही। लेकिन ये बात अज़हर-मिन-श्शम्स (सूरज की तरह रोशन) है कि जो सदाक़त के अनासिर इन मज़ाहिब में मौजूद हैं, वो अपनी पाकीज़ा तरीन शक्ल में मसीहिय्यत में मौजूद हैं। दुनिया के किसी मज़्हब में भी सदाक़त का कोई ऐसा अंसर नहीं जो बदर्जा अह्सन मसीहिय्यत में मौजूद ना हो। जनाबे मसीह वो आफ़्ताब सदाक़त है जिसकी शुवाओं ने इन अनासिर को ऐसा मुनव्वर कर रखा है कि इन्सान की निगाह ख़ीरा हो जाती है। चुनान्चे लिखा है कि, “कौमें उस की रोशनी में चलीं फिरेंगी।” (मुकाशफ़ा 21:24) ये तमाम मज़ाहिब छोटी-छोटी पहाड़ी धारियों की तरह हैं और मसीहिय्यत समुंद्र की तरह है।

سالک را توئی رہبر ممالک را توئی زیور

محامدرا توئی مظہر معارفرا توئی

जिस तरह मसीहिय्यत एक जामे मज़्हब है और इस में तमाम दीगर मज़ाहिब की सदाक़तें पाई जाती हैं। इसी तरह जनाबे मसीह की शख़्सियत एक जामे शख़्सियत है जिसमें कुल बानियान-ए-मज़ाहिब की आला तरीन सिफ़ात बदर्जा अह्सन पाई जाती हैं। पस तमाम दुनिया के औलिया, अम्बिया और मुस्लिहीन के उसूल, तालीम व ज़िंदगी, मसीहिय्यत और मसीह में मौजूद हैं। मसीहिय्यत एक ऐसा जामे मज़्हब है जिसमें हम कुल अद्यान आलम (दुनियां के मज़ाहिब) की तमाम सदाक़तों को आला तरीन सूरत में पाते हैं। मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब की मुख़्तलिफ़ सदाक़तें मसीहिय्यत में जमा हैं और इब्ने-अल्लाह (मसीह) की क़ुद्दूस ज़ात रूहानियत का बहर नापीद अकट्ठ (بحر ناپید اکٹھ) है। मसीह में हिक्मत और मार्फ़त के सारे खज़ाने छुपे हैं। (कुलस्सियों 2:3)

ये एक वाज़ेह हक़ीक़त है कि दुनिया के मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब सिर्फ़ चंद एक सदाक़तों पर ज़ोर देने पर इक्तिफ़ा करते हैं। पर वो सदाक़त के दीगर पहलूओं को नज़र-अंदाज कर देते हैं। लेकिन मसीहिय्यत का ये जलाल है कि वो तमाम सदाक़तों को अपने अंदर जमा करती है और सच्चाई के किसी पहलू को भी नज़र-अंदाज नहीं करती। मसलन हिंदू धर्म इस सदाक़त पर ज़ोर देता है कि ख़ुदा हमारे अंदर है, लेकिन गुनाह की हक़ीक़त और वजूद को क़तई तौर पर नज़र-अंदाज कर के इस सदाक़त को फ़रामोश कर देता है कि ख़ुदा की ज़ात पाक और क़ुद्दूस है। इस्लाम ख़ुदा को ख़ुदा-ए-वाहिद और बरतर व तआला (बुलंद) मानता है, लेकिन वो इस बात को नज़र-अंदाज कर देता है कि ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है। वो उस को सुल्तान-उल-सलातीन मानता है, लेकिन ये नहीं जानता कि वो हमारा बाप है जो हर गुनेहगार से अबदी मुहब्बत रखता है और उस को बचाने के लिए बेक़रार है।

मसीहिय्यत में वो तमाम सदाक़तें पाई जाती हैं जिनको दीगर मज़ाहिब नज़र-अंदाज कर देते हैं या जिनसे वो कुल्लियतन नावाक़िफ़ है। कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम में सदाक़त के वो तमाम अनासिर पाए जाते हैं जिनको मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब तस्लीम करते हैं और इनके इलावा दीगर अनासिर भी पाए जाते हैं जो इन मज़ाहिब में मौजूद नहीं, अगरचे वो भी हक़ीक़ी रुहानी हक़ाइक़ हैं। मसलन हिंदू धर्म की ये तालीम है कि ख़ुदा अपनी कायनात के अंदर मौजूद है। यहूदीयत और इस्लाम इस हक़ीक़त पर ज़ोर देते हैं कि ख़ुदा कायनात से बुलंद व बाला और बरतर व अरफ़ा है। बुद्ध मत तालीम देता है कि ये दुनिया फ़ानी है और हमारी चंद रोज़ा ज़िंदगी एक निहायत अहम शेय है। चीन का मज़्हब दुनियावी ताल्लुक़ात और मुआशरत के उसूल को वाज़ेह करता है। अब जो शख़्स कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम से वाक़िफ़ है वो जानता है कि ये तमाम उसूल निहायत आला, अर्फ़ा (बुलंद) और पाकीज़ा तरीन शक्ल में मसीहिय्यत में मौजूद हैं और उनके इलावा दीगर रुहानी हक़ाइक़ भी मौजूद हैं जिनको ये मज़ाहिब नज़र-अंदाज कर देते हैं।

(2)

हमें इस अम्र को कभी फ़रामोश नहीं करना चाहीए कि दीगर अद्यान आलम (दुनिया के मज़ाहिब) में जहां चंद सदाक़तें पाई जाती हैं, वहां उनमें ऐसी मुतअद्दिद बातें भी पाई जाती हैं जो रूहानियत के मुनाफ़ी (खिलाफ) और मुख़र्रिब-ए-अख़्लाक़ हैं। ये मज़ाहिब उस घने जंगल की मानिंद हैं जहां दिन में भी तारीकी होती है, गो वहां आफ़्ताब की शुवाएं कहीं-कहीं दाख़िल हो ही जाती हैं। सिर्फ मसीहिय्यत ही अकेला ऐसा मज़्हब है जिसमें मुख़र्रिब-ए-अख़्लाक़ बातें तो दरकिनार नापाकी और बदी का साया तक नहीं मिलता। इस का बानी एक ऐसी क़ुद्दूस हस्ती है जिसकी ज़िंदगी और तालीम ने करोड़ों शैतान सिफ़त इन्सानों को कुद्दूसियों के दर्जे तक पहुंचा दिया है। दीगर मज़ाहिब में सदाक़त का एक अंसर बतालत के बेशुमार अनासिर के साथ मिला-जुला दिखाई देता है। अगर हम इन तारीक पहलूओं की तरफ़ से आँखें बंद करलें तो हम एक रोशन हक़ीक़त को झुटलाएँगे और ना सिर्फ ख़ुद गुमराह होंगे, बल्कि हक़ के मुतलाशियों को भी गुमराह करेंगे। उन मज़ाहिब की क़ुव्वत उनके अंसर सदाक़त की वजह से है। लेकिन उनके मुख़र्रिब-ए-अख़्लाक़ अनासिर इन मज़ाहिब की कमज़ोरी और नाकामी का बाइस हो जाते हैं। जिस हद तक इन मज़ाहिब में बतालत की आमेज़िश कर के अनासिर मौजूद हैं, उस हद तक वो मज़ाहिब बातिल हैं। अगर ख़ुदा के मुताल्लिक़ उनके तसव्वुरात ग़लत हैं या अगर गुनाह और नजात की निस्बत उनके ख़यालात बातिल हैं या अगर उनके उसूल मुख़र्रिब-ए-अख़्लाक़ और उन की रस्मियात बद हैं। अगर उन की तालीम में शिर्क या बुत-परस्ती, तादाद इज़्दिवाज़ (ज़्यादा निकाह) या ज़ात-पात की क़ुयूद हैं या उनकी इबादत बिगड़ी हुई है और देवदासी वग़ैरह उनकी इबादत का जुज़्व (हिस्सा) हैं। जिस हद तक उनमें ये बातें पाई जाती हैं, उस हद तक वो यक़ीनन बातिल हैं और कोई इस्तिदलाल बातिल को हक़ नहीं बना सकता। दियानतदारी और हक़-शनासी हमको मज्बूर करती है कि हम उन बातिल अनासिर को फ़िल-हक़ीक़त बातिल जानें और बातिल मानें और उनको रद्द करें।

ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि उन ग़ैर-मसीही मज़ाहिब में जो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ मसीह) की बिअसत के वक़्त दुनिया में मुरव्वज थे, हर क़िस्म की बदी ने पनाह ले रखी थी। पस मसीहिय्यत ने तमाम दुनिया को उन मज़ाहिब बातिला के बातिल अनासिर की तरफ़ से ख़बरदार किया है। हमने अपने रिसाला “नूर-उल-हुदा” में इन मज़ाहिब की मुफ़स्सिल तौर पर तौज़ीह, तन्क़ीह और तन्क़ीद की है और नाज़रीन की तवज्जोह इस रिसाले की जानिब मबज़ूल करते हैं। मुक़द्दस पौलुस ने इन मुश्रिकाना मज़ाहिब की रसूम बद को “शैतानी” क़रार दे दिया था। (1 कुरिन्थियों 10:14-22) आग़ाज़ मसीहिय्यत में आबा-ए-कलीसिया की तहरीरात भी इन मज़ाहिब बातिला की बतालत को तश्त अज़बाम कर देती हैं। मुक़द्दस इगनियेतीस (Ignatious) जो 107 ई॰ में शहीद हुआ और जस्टिन शहीद (Justin) 105 ई॰ में उनकी तहरीरात मुक़द्दस पौलुस की हमनवा हैं। शेइन (Tation, 170 ई॰) गो बिद्अती था ताहम मज़ाहिब बातिला की निस्बत लिखता है कि :-


24 ये रिसाला पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी अनारकली लाहौर से मिल सकता है। (बरकतुल्लाह)

“इन मज़ाहिब में कुफ़्र और फ़िस्क़ व फुजूर पाया जाता है जिससे इन्सान की रूह को सदमा पहुंचता है। यूनानी और रूमी माबूद बदी के मुजस्समे हैं। उनकी देवियाँ कस्बियाँ हैं, जिनकी तमाम उम्र बद-चलनी और बदकारी में गुज़री। इस क़िस्म के देवी देवताओं पर ईमान रखने की बजाय जो दग़ाबाज़ हैं हमने एक ख़ुदावंद पर ईमान रखना सीखा है जो मुहिब्ब सादिक़ है।”

थ्योफिलुस (Theophilus, 150 ई॰) कहता है कि :-

“बुत परस्तों को मुख़ातब कर के जिन माबूदों की तुम परस्तिश करते हो, वो मुर्दे हैं और जब वो ज़िंदा थे तो उनसे बदतरीन अफ़आल सरज़द होते थे। ज़ुहल (Saturn) मर्दुमख्वार था जिसने अपने बच्चों तक को निगल लिया। मुशतरी (Jupiter) ज़िनाकारी और शहवत परस्ती के लिए चार-दांग आलम में मशहूर था। तुम्हारे माबूदों के क़िसस अक़्ल मंदों के नज़्दीक मज़हकाख़ेज़ हैं। उनके अक़्वाल व अफ़्आल अर्बाबे दानिश के नज़्दीक रद्द करने के क़ाबिल हैं।”

मसीहिय्यत ने अपने रुहानी और जामे उसूल की अंदरूनी ताक़त की वजह से अपने आलमगीर उसूल और आला तसव्वुरात की वजह से, अपने ईमान की क़ुव्वत की वजह से, अपनी कुतुब मुक़द्दसा की दिल आवेज़ी की वजह से, ग़म और दुख और रंज के मसअले को हल करने की वजह से, आला तरीन तसव्वुर ख़ुदा की वजह से और कुल बनी नूअ इन्सान को नजात का इल्म और नई ज़िंदगी बख़्शने की वजह से तमाम मुश्रिकाना और बातिल मज़ाहिब पर फ़त्ह पाई। इन उमूर का मुफ़स्सिल ज़िक्र हम अपने रिसाले नूर-उल-हुदा में कर चुके हैं।

बड़ी से बड़ी बात जो मसीहिय्यत ने उन मुश्रिकाना मज़ाहिब और दीगर अदयाने आलम और फ़ल्सफ़े के हक़ में कही ये थी कि उनमें भी सदाक़त का अंसर मौजूद है और कि ये अंसर आफ़्ताब सदाक़त यानी कलिमतुल्लाह (मसीह) की शुवाओं का अक्स है। मुक़द्दस यूहन्ना के अल्फ़ाज़ में कलिमतुल्लाह (मसीह) “हक़ीक़ी नूर” है जो हर एक आदमी को रोशन करता है। (यूहन्ना 1:9) इस नूर की रोशनी हर मज़्हब में कमोबेश चमकती है ताकि उनके परस्तार इस रोशनी के ज़रीये “हक़ीक़ी नूर” के पास आ सकें। इन मज़ाहिब की टिमटिमाती रोशनी लोगों को ख़ुदावंद के क़दमों तक लाने में राहनुमा का फ़र्ज़ अदा कर सकती है। इनमें से हर एक मज़्हब गवाही के लिए आया ताकि नूर की गवाही दे ताकि सब उस के वसीले से ईमान लाएं। वो ख़ुद तो नूर ना था, मगर नूर की गवाही देने के लिए आया था। (यूहन्ना 1:8-7) ये नूर मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब की तारीकी में चमकता है।

जिस तरह इन मज़ाहिब बातिला में तारीकी और बतालत के अनासिर मौजूद हैं, इसी तरह दौर-ए-हाज़रा के ग़ैर-मसीही मज़ाहिब में ऐसे अनासिर हैं जिनका ताल्लुक़ तारीकी और बतालत के साथ है। ये हालत किसी एक मज़्हब की नहीं, बल्कि उन तमाम ग़ैर-मसीही मज़ाहिब की है जो फ़ी ज़माना मुख़्तलिफ़ ममालिक में मौजूद हैं। इन मज़ाहिब में मुख़्तलिफ़ अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) की बुराईयों ने पनाह पाई हुई है जो रवा और जायज़ ख़याल की गई है। कन्फियुशियस (Confucius) और टाओ (Tao) के मज़ाहिब में शिर्क और बुत-परस्ती और मदख़ूला औरात का रखना जायज़ है। हिंदू धर्म में हमा-ओसती ख़यालात, शिर्क, बुत-परस्ती, ज़ात-पात, देवदास तादाद इज़्दवाजी (ज़्यादा शादियाँ) वग़ैरह जायज़ हैं। चुनान्चे मशहूर जर्मन फिलासफर डाक्टर अल़्बर्ट स्वीटज़र (Schweitzer) कहता है कि :-

“हिंदू धर्म में शिर्क और वहदानियत, हमा-ओसती और मुल्हिदाना ख़यालात, तरस और रहम की तालीम, हर तरह के अख़्लाक़ी अफ़आल से परहेज़ रखने की तालीम, देवता परस्ती, ऊहाम परस्ती ग़रज़ कि मुख़्तलिफ़ क़िस्म के ख़यालात पाए जाते हैं। लेकिन इस बात का लिहाज़ नहीं किया जाता कि ये तसव्वुरात और ख़यालात एक दूसरे के मुतज़ाद हैं और दुनिया की कोई ताक़त इन मुख़्तलिफ़ और मुतज़ाद उसूलों को यकजा नहीं कर सकती। ये सदाक़त और बतालत के अनासिर मिले जुले एक कजकोल (भीक की झोली) में पड़े हैं।”

गोया सदाक़त का अंसर बतालत के अनासिर के जाल में चारों तरफ़ से घिरा हुआ है। इन ग़ैर-मसीही मज़ाहिब के अच्छे उसूल उस बीज की मानिंद हैं जो झाड़ीयों में गिरा और झाड़ीयों ने बढ़कर उस को दबा लिया और बे-फल रह गया। (मत्ती 13:22) यहां तक कि ये मज़ाहिब झाड़ियाँ ही रह गईं जिन्हों ने अपने पैरौओं को तरक़्क़ी की शाहराह पर गामज़न ना होने दिया। लेकिन यही अच्छे उसूल और नेक जज़्बात मसीहिय्यत में नश्वो नुमा पा कर उस बीज की मानिंद हो जाते हैं जो अच्छी ज़मीन में बोया गया और फल भी लाता है। कोई (उसूल) सौ गुना फल लाता है, कोई साठ गुना (मत्ती 13:23)

و جسم شرع راجانی تودرسل کافی تو گنج کا یزدانی ۔توراَ نی

(3)

चूँकि इस रिसाले में हम तमाम अदयाने आलम (दुनिया के मज़ाहिब) का ज़िक्र नहीं कर सकते और हमारा रू-ए-सुख़न सिर्फ़ शुमाल के बाशिंदों (शुमाली हिन्दुस्तान) की जानिब है। लिहाज़ा हम यहां मुख़्तसर तौर पर सिर्फ उन मज़ाहिब का ज़िक्र करेंगे जो शुमाल में राइज हैं, यानी हिंदू धर्म और इस्लाम, ताकि नाज़रीन पर ज़ाहिर हो जाए कि इन मज़ाहिब में बाअज़ सदाक़तें मौजूद हैं जो हमको इनमें सिर्फ़ धुँदली सी नज़र आती हैं। लेकिन मसीहिय्यत में यही सदाक़तें बदर्जा अह्सन मौजूद हैं। ये मज़ाहिब किसी एक सदाक़त पर ज़ोर देते हैं, लेकिन मसीहिय्यत की तालीम में इन तमाम मज़ाहिब की सदाक़तें एक जगह जमा हैं और मसीही तालीम इन मज़ाहिब के नाक़िस, ग़ैर-मुकम्मल और बातिल अनासिर से सरासर पाक है।

3. हिन्दू धर्म के उसूल और मसीहिय्यत

(1)

हिंदू धर्म ने अपनी सोसाइटी का इन्हिसार चार ज़ातों पर रखा है यानी ब्रहमण, क्षत्रिय, वेश और शूद्र। अछूत लोग जो शुमार में करोड़ों हैं इन ज़ातों में शामिल नहीं हैं। हमारे बाअज़ हिंदू भाई कहते हैं कि ज़ातें तंज़ीम की ख़ातिर की गई हैं। मुम्किन है कि हिन्दुस्तान की तारीख़ में कभी कोई ऐसा ज़माना आया हो जब तंज़ीम की ख़ातिर ज़ात का विचार मुफ़ीद था। लेकिन दौर-ए-हाज़िर हमें ज़ात-पात की क़ुयूद की ज़ंजीरें हिंदू मज़्हब और मुल्क के लिए लानत और गु़लामी का तौक़ हो गई हैं। जिस तरह किसी ख़िंज़ीर के दिमाग़ में ये ख़याल नहीं आ सकता कि वो अपने आक़ा के दीवानख़ाने में जाकर इस्तिराहत करे। इसी तरह हिंदू सोसाइटी में किसी अछूत ज़ात के आदमी के ज़हन में ये ख़याल नहीं आ सकता कि वो अपना घर किसी ब्रहमण की गली में जा बनाए। जिस तरह काला कुत्ता सफ़ैद नहीं हो सकता, उसी तरह कोई शख़्स ब्रहमण नहीं हो सकता। मनु ने कहा है कि नीच ज़ात के लोग पैदा ही इस ग़र्ज़ के लिए हुए हैं कि वो ब्रह्मणों के ग़ुलाम हो कर रहें। उसने हुक्म दिया है कि :-

“चण्डाल (अदना ज़ात का) और सिवा पक के घर क़स्बे के बाहर हों। उनके बर्तन टूटे फूटे हों। उनकी दौलत सिर्फ़ कुत्तों और गधों पर मुश्तमिल हो। उनके कपड़े सिर्फ़ वो हों जो मर्दों के बदनों पर से उतारे जाएं। उनके ज़ेवरात ज़ंगख़ुर्दा लोहे के हों। उनकी मुस्तक़िल जाये रिहाइश कहीं ना हों। कोई शख़्स जिसको अपने मज़्हब और समाज का ज़रा भी पास है उनके साथ किसी क़िस्म का ताल्लुक़ ना रखे। उनको मिट्टी के बर्तन में ख़ुराक दी जाये और देने वाले का हाथ बर्तन को लगने ना पाए। वो कस्बों और शहरों में सिर्फ रात को बाहर निकला करें।” 25

सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी दयानंद जी भी लिखते हैं, “चण्डाल वग़ैरह नीच लोगों का खाना नहीं खाना चाहीए।” (सत्यार्थ प्रकाश उर्दू मत्बूआ, 1908, सफ़ा 354) मनु शास्त्र में आया है कि :-

“ऐबदार बद-ख़स्लत आदमी, मेहनत, धोके वग़ैरह का और शूद्र का झूटा नहीं खाना चाहीए (4:411) हूर गाने वाला, बढ़ई, सूद-ख़ोर, चुगु़लखोर, नट (बाज़ीगर, एक नीच क़ौम), दर्ज़ी और एहसान ना मानने वाले की रोटी नहीं खानी चाहीए। लोहार, धोबी, रंगरेज़ (कपड़े रंगने वाला, नीलारी), जल्लाद और जिस औरत के घर में दूसरा शौहर हो उनकी रोटी नहीं खानी चाहीए (मनु शास्त्र 4) शूद्र सिर्फ अपनी ज़ात की लड़की से और वेश अपनी ज़ात और शूद्र की लड़की से और क्षत्रीय (खत्री) अपनी ज़ात और वेश व शूद्र की लड़की से ब्याह करे, लेकिन ब्रहमण चारों ज़ातों की लड़कीयों से ब्याह कर सकता है।” (बाब 2)


25 The Out-Cast’s Hope p.2

हम फ़स्ल अव्वल में ज़िक्र कर चुके हैं कि मसीहिय्यत का अस्लुल-उसूल ये है कि ख़ुदा कुल नूअ इन्सानी का बाप है जो बिला किसी इम्तियाज़ के सबसे यकसाँ मुहब्बत करता है और कुल बनी नूअ इन्सान एक दूसरे के भाई और जनाबे मसीह में एक हैं। पस ज़ात पात की क़ुयूद इन उसूल की ऐन ज़िद हैं। अज़रूए मन्तिक़ दो मुतज़ाद क़ज़ाया में से अगर एक सही और दुरुस्त हो, तो दूसरा ग़लत होता है। चूँकि मसीहिय्यत के उसूल अब्बुवत इलाही (खुदा का बाप होना) और उखुव्वत इन्सानी (इंसानी बराबरी भाईचारा) सही हैं। लिहाज़ा ज़ात-पात का वजूद ग़लत और बातिल है। पस मसीही कलीसिया-ए-जामा एक इन्सान और दूसरे इन्सान के दर्मियान उस की पैदाइश की बिना पर किसी क़िस्म की तफ़रीक़ को जायज़ क़रार नहीं देती। कलिमतुल्लाह (मसीह) जिस्मानी पैदाइश पर नहीं, बल्कि रुहानी पैदाइश पर ज़ोर देते हैं और फ़र्माते हैं। “...जब तक कोई आदमी पानी और रूह से पैदा ना हो वो ख़ुदा की बादशाही में दाखिल नहीं हो सकता। जो जिस्म से पैदा हुआ है जिस्म है और जो रूह से पैदा हुइ है रूह है...।” (यूहन्ना 3:5-12, 1:13, 2 कुरिन्थियों 5:17, इफ़िसियों 2:15) हक़ तो ये है कि ना सिर्फ हिन्दुस्तान बल्कि तमाम दुनिया में मसीही कलीसिया ही एक वाहिद जमाअत है जिसमें हर ज़ात के इन्सान मुसावी (बराबर) तौर पर हैं।

نہ افغا نیم ونے ترک وتتاریم

چمن زاد یم ازیک شاخسار یم

تمیز رنگ وبوبرما حرام است

کہ ماپرور دہ یک نو بہار یم

हिन्दुस्तान (के बर्रे-सग़ीर) में मसीही कलीसिया एक वाहिद जमाअत है जिसमें ब्रहमण, शेख़, सय्यद, चूहड़े, चमार, क्षत्रिय, सिख, वेश्य ग़रज़ कि हर क़िस्म के लोग बराबर तौर पर शामिल हैं, लेकिन एक दूसरे को हिक़ारत की निगाह से नहीं देखते। उन लोगों की लड़कीयां जो ब्रह्मणों से मसीही होते हैं ऐसे लोगों के बेटों को ब्याह दी जाती हैं जो चौहड़ों में से जनाबे मसीह के क़दमों में आए हैं। ये बात किसी और मज़्हब में नहीं पाई जाती। इस्लाम को इस्लामी उखुव्वत पर नाज़ है, पर ये नहीं देखा जाता कि कोई सय्यद अपनी लड़की को किसी ऐसे शख़्स को निकाह में देदे जो “दीनदार” यानी चौहड़ों में से मुसलमान हुआ हो। मसीहिय्यत किसी शख़्स को उस की पैदाइश की वजह से नापाक या अछूत क़रार नहीं देती, क्योंकि मसीहिय्यत में दाख़िल हो कर हर शख़्स यकसाँ तौर पर मसीह का उज़ू, ख़ुदा का फ़र्ज़न्द और आस्मान की बादशाहत का वारिस बन जाता है।

امتیازات نسل راپاک سوخت

آتش اوایں خس وخاشاک سوخت

पस ज़ात के तसव्वुर में जो सदाक़त का ये अंसर मौजूद था कि सोसाइटी की तंज़ीम हो, मसीहिय्यत में ये सदाक़त बतर्ज़ अह्सन पूरी होती है। क्योंकि सोसाइटी की तंज़ीम आज़ादी, मुसावात, इन्साफ़ और मुहब्बत व उखुव्वत की बिना पर होती है (इफ़िसियों 4:1-16) अहले-हनूद के ख़याल में ज़ात का ये फ़ायदा है कि इस के ज़रीये पाकीज़गी, शुस्ता (पाक, ख़ालिस) अत्वार और तहज़ीब व कल्चर क़ायम रहते हैं। उनके ख़याल में ये ख़ुसूसियात नीच ज़ात के लोगों में नहीं पाई जातीं। लेकिन मसीहिय्यत ने हमको ये तालीम दी है कि पाकीज़गी, कल्चर और शुस्ता अत्वार कुल नूअ इन्सानी के लिए हैं और किसी एक क़ौम या ज़ात से मख़्सूस नहीं। सिर्फ ब्रह्मणों नहीं, बल्कि सबको इस बात की ज़रूरत है कि वो पाकीज़ा अत्वार के लोग हों और उनकी रूहें ख़ुदा के हुज़ूर पाक हों। हिंदू-मज़्हब इस सदाक़त को सिर्फ एक ख़ास तब्क़े तक महदूद रखता है। मसीहिय्यत इस को सब इन्सानों के लिए आम कर देती है। यूं हिंदू मज़्हब की ये सदाक़त मसीहिय्यत में बतर्ज़ अह्सन पूरी होती है। हिंदू धर्म में ब्रहमण एक ऐसा शख़्स तसव्वुर किया जाता है जो दुआ और क़ुर्बानी के ज़रीये ख़ुदा के हुज़ूर हाज़िर हो सकता है। मसीहिय्यत के मुताबिक़ ये ना सिर्फ एक तब्क़े का बल्कि हर शख़्स का पैदाइशी हक़ है कि वो आस्मानी बाप के हुज़ूर दुआ के ज़रीये हाज़िर हो। शूद्र का ये काम था कि वो बाक़ी तीन ज़ातों की ख़िदमत करे। जनाबे मसीह ने हमको ये तालीम दी है कि ये हर मर्द और औरत का हक़ है कि वो दूसरों की ख़िदमत करे। इस में अपनी सर्फ़राज़ी समझ कर इस क़िस्म की ख़िदमत के ज़रीये अपनी अनानीयत को तरक़्क़ी दे। (मत्ती 20:28) हिंदूओं का ये ख़याल है कि ब्रहमण, क्षत्रिय और वेश्य के लिए ज़रूरी है कि वो अपने हुक़ूक़ को इस्तिमाल करने से पहले दूसरा जन्म लें। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) ने हम को ये तालीम दी है कि हर मर्द और औरत के लिए लाज़िम है कि वो ख़ुदा की बादशाहत में दाख़िल होने के लिए अज़ सर-ए-नौ पैदा हो (यूहन्ना बाब 3) और तौबा और माफ़ी के ज़रीये ख़ुदा से तौफ़ीक़ हासिल करके ऐसी ज़िंदगी बसर करे जो ख़ुदा की मर्ज़ी के मुताबिक़ हो। पस ज़ात के तसव्वुर में जो सदाक़त के अनासिर हैं वो मसीहिय्यत में बतर्ज़ अह्सन मौजूद हैं। लेकिन ज़ात की क़ुयूद की बुराईयों से मसीहिय्यत सरासर ख़ाली है। मसीहिय्यत में ज़ात की सदाक़त के अनासिर क़ायम रहते हैं, लेकिन बतालत के अनासिर ज़ाइल (ख़त्म) हो जाते हैं।

(2)

हिंदू मत के हमा-ओसती ख़यालात अवामुन्नास को गरवीदा नहीं कर सकते। मुजर्रिद फ़ल्सफ़ियाना तसव्वुरात में सिरे से यह ताक़त ही नहीं होती कि वो जज़्बात को मुश्तइल कर सकें या अफ़आल के मुहर्रिक हो सकें। लिहाज़ा अवाम हिंदू शिर्क को इख़्तियार करके ला-तादाद माबूदों और देवी-देवताओं को मानते हैं। हिंदूओं के देवताओं का शुमार उनकी अपनी मर्दुम-शुमारी की तरह करोड़ों पर मुश्तमिल है। इन करोड़ों माबूदों में से विष्णु की शो और उस की बीवी काली की, कृष्ण की और राम और उस की बीवी सीता की खासतौर पर पूजा की जाती है। ये हक़ है कि तुलसी दास, कबीर, रामानंद वग़ैरह के ख़यालात दिलों को मोह लेते हैं, लेकिन आम तौर पर ये कहना बजा ना होगा कि इन देवी देवताओं की पूजा में ऐसे अनासिर मौजूद हैं जो घिनौने, नफ़रत-अंगेज़ और मुख़र्रिब-ए-अख़्लाक़ हैं और दौर-ए-हाज़िरा में रोशन ख़याल हिंदू इनके ख़िलाफ़ सदाए एहतिजाज बुलंद कर रहे हैं। उनको यक़ीन है कि ये देवी-देवता हरगिज़ पूजा के लायक़ नहीं। उनके अठारह (18) पुराणों का मुतालआ अयाँ कर देता है कि वो सब के सब गुनाहों के पंजे में गिरफ़्तार हैं।

चुनान्चे स्वर्गीय लेखराम जी “कुल्लियात आर्या मुसाफ़िर” (सफ़ा 188) में और महाशा धरम पाल “कुफ़्र तोड़” (सफ़ा 27, 28) में लिखते हैं कि :-

“ब्रह्मा ने अपनी बेटी से मुजामअत की और झूट बोलने का मुर्तक़िब हुआ। कृष्ण, गोपी और राधिकान से और गोपियों से बद फ़अली करता और दूध, दही, मक्खन चुराता था। विष्णु को जलंधर की बीवी से इश्क़ था। महादेव को ऋषियों की स्त्रीयों से नाजायज़ मुहब्बत थी और उसने एक फ़ाहिशा औरत से बदकारी की। वो हमेशा भंग और धतूरा पिया करता था। सूरज को कुंती से चन्द्रमा को अपने गुरु ब्रहस्पति की बीवी तारा से माबू देवता को केसरी की औरत इंचनी से, वरूण देवता को अगस्त देवता की माँ उर्वशी से नाजायज़ इश्क़ था। बृहस्पति को अपने भाई की बीवी अंथा से विश्वामित्र को उर्वशी, पाराशर को ज़ूद से, बामन को छल से नाजायज़ प्यार था। बलदेव शराब का मतवाला था। राम चन्द्र ने धोका देकर बामी को मार डाला। राम ने अपनी बीवी सीता को ज़िना के शक में घर से निकाल दिया। हालाँकि वो उस को बेइल्ज़ाम समझता था।”


26 ग्वालिन, कृष्ण जी के साथ बचपन में खेलने वाली ग्वालों की लड़कीयों का लक़ब।

क़िस्सा मुख़्तसर पुराणों का मुतालआ और देवी देवताओं के अफ़आल हर सलीम-उल-तबा शख़्स पर गिरां गुज़रते हैं। उमूमन ये जवाब दिया जाता है कि सामर्थी (ज़ोर-आवर) को दोश नहीं, लेकिन ये देवी देवता सामर्थी ना थे। क्योंकि वो नफ़्स-ए-अम्मारा की ख़्वाहिशों के क़ाबू में आकर ख़ुद बेक़ाबू हो कर बद-आदात के ग़ुलाम थे। उनमें ये साथ (शराकत) ना था कि वो अपने गुनाहों से बच सकें।

او خود گمراہ است کرارہبری کند

हिंदू धर्म में बुत-परस्ती का आम रिवाज है और इस की तालीम पाई जाती है। ना सिर्फ आम्मतुन्नास हिंदू बुत-परस्त हैं, बल्कि बड़े-बड़े हिंदू फिलासफर और भगत बुत-परस्ती के शैदाई थे। मसलन शेंकर, मानका वाचकर, रामा नजू, रामा नंद, तुलसी दास, टिकाराम जैसे महात्मा पुरुष ज़माना-ए-माज़ी में और गांधी जैसे दौरे हाज़रा में बुतों की पूजा करते नज़र आते हैं। हमारे हिंदू बिरादरान बुत-परस्ती के जवाज़ में कहते हैं कि हम इस तरीक़े से अपने माबूद हुज़ूरी को महसूस कर सकते हैं और ये मान सकते हैं कि ख़ुदा इनके ज़रीये अपना मुकाशफ़ा लोगों को दिया है। अगर ये वजूह सही हैं तो बुत-परस्ती में ये सदाक़त के अनासिर थे जो दीगर तुहमात के साथ इस क़द्र ख़लत-मलत हो गए कि इन अनासिर की टिमटिमाती रोशनी बुझ गई। मसीहिय्यत में सदाक़त के इन अनासिर पर ज़ोर दिया गया है।


27 इस को राधा भी लिखा जाता है। कृष्ण जी की एक प्यारी गोपी।
28 एक पौदा जिसका बीज नशा आवर है और बतौर दवा इस्तिमाल होता है।

मसीहिय्यत हमको ये तालीम देती है कि “अगले ज़माने में ख़ुदा ने बाप दादा से हिस्सा ब हिस्सा और तरह ब तरह नबियों की मार्फ़त कलाम करके। इस ज़माने के आखिर में हमसे बेटे की मार्फ़त कलाम किया जिसे उस ने सब चीज़ों का वारिस ठहराया और जिस के वसीले से उस ने आलम भी पैदा किए। वो उस के जलाल का परतू और उस की ज़ात का नक़्श हो कर सब चीज़ों को अपनी कुदरत के कलाम से सँभालता है। वो गुनाहों को धोकर आलम-ए-बाला पर किब्रिया की दहनी तरफ़ जा बैठा।” (इब्रानियों 13:1) इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) ने कामिल तौर पर ख़ुदा की ज़ात को हम पर ज़ाहिर कर दिया है। ऐसा कि आपने फ़रमाया “मैं बाप (परवरदिगार) में हूँ और बाप मुझमें है।” (यूहन्ना 14:10) और “जिसने मुझे देखा उसने बाप (परवरदिगार) को देखा।” (यूहन्ना 12:45) जनाबे मसीह अन्देखे ख़ुदा की सूरत है। (कुलस्सियों 1:15) जिसमें उलूहियत की सारी मामूरी सुकूनत करती है। (कुलस्सियों 1:19) पस हिंदू धर्म की बुत-परस्ती में जिस सदाक़त का वजूद बताया जाता है वो बतर्ज़ अह्सन जनाबे मसीह की शख़्सियत में पाई जाती है। लेकिन बुत-परस्ती का बातिल पहलू यानी शिर्क वग़ैरह का मसीहिय्यत में दख़ल तक नहीं।

क्योंकि कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम ख़ुदा की वहदानियत पर इसरार करती है। (मर्क़ुस 12:29, रोमीयों 3:30, 1 कुरिन्थियों 8:4,6, ग़लतीयों 3:20, इफ़िसियों 4:6, 1 तीमुथियुस 1:17, 2:5)

(3)

शिर्क का अंसर हिंदू धर्म में ग़ालिब है। लेकिन वो एक ऐसा मुश्रिकाना मज़्हब है जिसमें ये सलाहीयत मौजूद है कि वो एक अख़्लाक़ी मुवह्हिदाना मज़्हब हो जाये। लेकिन उस के मुस्लिहीन (सुधारक) को इस बात में अरमान और हसरत ही नसीब होती है, क्योंकि उनमें ये जुर्रत नहीं कि शिर्क की ताक़त को मिटा दें। इस मज़्हब का तरीका-ए-कार ये है कि वो अपने बेशुमार माबूदों में से एक देवता को महादेव बना देता है। उमूमन ये देवता विष्णु (कृष्ण) होता है, जिसका नतीजा ये होता है कि बाज़ औक़ात हिंदू मत मुवह्हिदाना मज़ाहिब की सफ़ में खड़ा नज़र आता है और दीगर औक़ात वो मुश्रिकाना मज़ाहिब की सफ़ में खड़ा दिखाई देता है। अहले हनूद इस ग़लत दलील से अपने आपको धोका देते हैं कि जिन माबूदों की आम्मतुन्नास परस्तिश करते हैं, वोह दर-हक़ीक़त ख़ुदा-ए-बुज़ुर्ग के मुख़्तलिफ़ रूप हैं और कि वो दर-हक़ीक़त एक ख़ुदा की परस्तिश करते हैं। लेकिन इस क़िस्म की दलील का नतीजा ये होता है कि शिर्क तौहीद के ख़याल को अपने अंदर जज़्ब कर लेता है और वहदत इलाही का तसव्वुर ग़ायब हो जाता है। हिंदू मज़्हब की इन तमाम इस्लाही कोशिशों में हम सदाक़त का ये अंसर पाते हैं कि ख़ुदा एक अख़्लाक़ी हस्ती है जिसकी मुहब्बत के सपुर्द इन्सान अपने आपको कर सकता है। बाज़ औक़ात इस सदाक़त के अंसर की वजह से हिंदू मज़्हब ऐसे अल्फ़ाज़ भी इस्तिमाल करता है जिनसे मसीहिय्यत की बू टपकती है। लेकिन हक़ तो ये है कि जिस शख़्स ने इन्जील जलील का सतही नज़र से भी मुतालआ किया है, वो जानता है कि सदाक़त का ये अंसर कामिल तौर पर सिर्फ मसीहिय्यत में ही पाया जाता है। हिंदू धर्म एक अख़्लाक़ी मत (मज़्हब) नहीं हो सकता, क्योंकि इस में शिर्क और बुत-परस्ती के बातिल अनासिर ग़ालिब हैं और जिनकी वजह से हिंदू मज़्हब में ये सलाहीयत नहीं रहती कि वो ख़ुदा को एक वाहिद, कामिल, हक़ीक़ी, अख़्लाक़ी हस्ती मान सके। लेकिन मसीहिय्यत इन बातिल अनासिर से पाक है। लिहाज़ा इस में ख़ुदा के वाहिद, कामिल और बेमिस्ल अख़्लाक़ हस्ती होने का आला तरीन तसव्वुर पाया जाता है।

(4)

हिंदू धर्म में कर्म के अक़ीदे में सदाक़त का ये अंसर पाया जाता है कि दुनिया के परवरदिगार ने इस आलम को अदल व इन्साफ़ पर क़ायम किया है और कि नेक व बद-अफ़आल दोनों की जज़ा और सज़ा होगी। मसीहिय्यत ने सदाक़त के इस पहलू को बतर्ज़ अह्सन अपने उसूल अदल में महफ़ूज़ रखा है। (मत्ती 25:31-46, 2 कुरिन्थियों 5:10, ग़लतीयों 6:8) चुनान्चे इन्जील जलील में इर्शाद है, “फ़रेब ना खाओ। ख़ुदा ठट्ठों (हंसी) में नहीं उड़ाया जाता क्योंकि आदमी जो कुछ बोता है वुही काटेगा। जो कोई अपने जिस्म के लिए बोता है वो जिस्म से हलाकत की फ़स्ल काटेगा और जो रूह के लिए बोता है वो रूह से हमेशा की ज़िंदगी की फ़स्ल काटेगा।” (ग़लतीयों 6:7-8, रोमीयों 6:21) कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया, “....क्या झाड़ीयों से अंगूर या ऊंट-कटारों से इंजीर तोड़ते हैं? इसी तरह हर एक अच्छा दरख़्त अच्छा फल लाता है और बुरा दरख़्त बुरा फल लाता है। अच्छा दरख़्त बुरा फल नहीं ला सकता ना बुरा दरख़्त अच्छा फल ला सकता है। जो दरख़्त अच्छा फल नहीं लाता वो काटा और आग में डाला जाता है। पस उन के फलों से तुम उन को पहचान लोगे।” (मत्ती 7:16,20, 12:33, 19, 15:18, लूक़ा 6:45) पस इन्जील जलील ने बतर्ज़ अह्सन इस सदाक़त की तल्क़ीन की है कि दुनिया और कायनात का सिलसिला इल्लत व मालूल, इलाही इन्साफ़ और अदल के क़वानीन पर मबनी है, जो अटल हैं। क्योंकि वो ख़ुदा के मक़्सद और इरादे के ऐन मुताबिक़ हैं।

लेकिन जहां मसीहिय्यत ने मसअला कर्म की सदाक़त के अंसर को अपने अंदर महफ़ूज़ रखा है, वहां उसने बेताम्मुल इस मसअले के बातिल पहलू और इस के ग़लत नज़रिये यानी तनासुख़ और आवागुन (पुनर्जन्म) को रद्द कर दिया है। (यूहन्ना 9:2, लूक़ा 12:2:4, आमाल 28:4) कर्म की तालीम के बातिल अनासिर ने हिन्दुस्तान की ज़िंदगी को तबाह कर दिया है और इस के करोड़ों बद-नसीबों को उनकी ना-गुफ़्ता बह हालत पर छोड़ रखा है जो अपनी क़िस्मत पर रो रहे हैं और अब मसीहिय्यत ने इन बद-क़िस्मतों को चाह ज़लालत से निकालने का ज़िम्मा उठा लिया है।

वेदों में एक वेद का नाम अथर्व-वेद है जो बाज़ औक़ात “सराप वेद” कहलाता है। क्योंकि इस में ऐसे मंत्र बकस्रत मौजूद हैं जो दुश्मनों की तबाही की ख़ातिर पढ़े जाते हैं। इन्जील जलील की तालीम इस क़िस्म की बातों से पाक है, क्योंकि जैसा हम बता आए हैं कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया है कि, “....अपने दुश्मनों से मुहब्बत रखो और अपने सताने वालों के लिए दुआ करो, ताकि तुम अपने बाप के जो आस्मान पर है बेटे ठहरो क्योंकि वो अपने सुरज को बदों और नेकों दोनों पर चमकाता है और रास्तबाज़ों और नारास्तों दोनों पर मीना (पानी) बरसाता है।” (मत्ती 5:44-45) वेदों और सूत्रों के बाद मनु के क़वानीन (मनुस्म्रती) मुक़द्दस शुमार किए जाते है जो मसीह से पाँच सौ साल पहले लिखी गई थी। इन क़वानीन से बाअज़ आला तरीन अख़्लाक़ी पाये के उसूल हैं, लेकिन अक्सर क़वानीन ऐसे हैं जो फ़र्सूदा व क़यासी, बोसीदा और समाज के हक़ में मुज़िर हैं। मसलन तब्क़ा निसवां (जो समाज का कम अज़ कम निस्फ़ हिस्सा है) की निस्बत हुक्म है कि औरत बचपन में अपने बाप की, आलम-ए-शबाब में अपने ख़ावंद की और रंडापे में अपने बेटों की ताबे फ़र्मान रहे। कोई औरत किसी हालत में और अपनी उम्र की किसी मंज़िल में भी मुस्तक़िल तौर पर ख़ुद-मुख़्तार और आज़ाद हस्ती नहीं हो सकती और ना वो रिश्तेदारों से अलग बे-तअल्लुक़ हो कर ज़िंदगी बसर कर सकती है। वो हर मंज़िल में किसी ना किसी मर्द की मुहताज होती है। ख़ावंद (शौहर) जब चाहे अपनी बीवी को तलाक़ दे सकता है। इस को ज़ूद कोब कर सकता है। अगर बदनसीब बीवी बेऔलाद हो या उस के बेटे मर जाएं या वो सिर्फ़ बेटियां ही जने या ख़ावंद के हुक्म से रुगिरदानी करे तो ख़ावंद (शौहर) को इख़्तियार है कि वो इस को छोड़ दे और दीगर मुतअद्दिद निकाह करे।

29 एक सूरत से दूसरी सूरत इख़्तियार करना। रूह का एक क़ालिब से दूसरे क़ालिब में जाना। (हिंदू अक़ीदा)

मनुस्म्रती में ख़ुदा का तसव्वुर सांख्य फ़ल्सफ़ा (इल्म-उल-अर्वाह) पर मबनी है। ये तसव्वुर ऐसा है कि जहां तक इन्सान का ताल्लुक़ है ख़ुदा का वजूद अदम वजूद होने के बराबर है, क्योंकि उस के वजूद (को) कायनात से और बनी नूअ इन्सान से कोई ताल्लुक़ नहीं। पस ये तसव्वुर नाक़िस और ग़ैर-मुकम्मल है। हम ख़ुदा के इंजीली तसव्वुर का ज़िक्र बाब दोम की फ़स्ल अव्वल में कर आए हैं। नाज़रीन ख़ुद बनज़र इन्साफ़ देखकर कह सकते हैं कि इंजीली तसव्वुर बुलंद और आला है। इस ग़ैर-मुकम्मल और नाक़िस तसव्वुर को इन्जील ख़ुदा की अबुव्वत के उसूल से मुकम्मल करती है।

मनु के शास्त्र में इन्सानी आमाल के लिए कोई मुस्तनद मेयार और क़ायदा कुल्लिया या उसूल नहीं पाया जाता। जिसको मद्द-ए-नज़र रखकर हर ज़माने के इन्सान मुख़्तलिफ़ हालात में अमल कर सकें। ये किताब सिर्फ ऐसे मुईन अहकाम और क़तई हिदायात पर मुश्तमिल है जो इमत्तीदाद-ए-ज़माना से बेकार हो चुके हैं। ख़ुसूसुन अब अढ़ाई हज़ार साल की मुद्दत तवील गुज़रने के बाद हालात तग़य्युर व तब्दील हो जाने की वजह से वो ना सिर्फ नाकारा हो गए हैं, बल्कि समाज के लिए मुज़िर साबित हो रहे हैं और अफ़राद और मुल्क की तरक़्क़ी की राह में संग-ए-गिराँ की तरह हाइल हैं। इस के ज़ात-पात की क़ुयूद की ज़ंजीरों ने करोड़ों अफ़राद को सदीयों से आहनी शिकंजे में जकड़ रखा है और लुत्फ़ ये है कि वेदों में ज़ात-पात की तालीम का वजूद सिरे से नहीं है।

(5)

उपनिषदों (हिन्दुवों की मज़्हबी किताबें जिनमें वेदों का इंतिख़ाब दर्ज है।) में ज़ाते इलाही की निस्बत ये तालीम है कि वो बुलंद और रूहानी है। हम सदाक़त के इस अंसर को इन्जील जलील में बदर्जा अह्सन पाते हैं। चुनान्चे लिखा है कि “ख़ुदा रूह है और ज़रूर है कि उस के परस्तार रूह और सच्चाई से उस की परस्तिश करें।” (यूहन्ना 4:24) “ख़ुदावंद सारी उम्मतों पऱ बुलंद व बाला है उस का जलाल आसमानों से भी परे है।” (ज़बूर 113:4, 97:9, 99:2, वग़ैरह) “ख़ुदा तमाम कायनात पर वाहिद हुक्मरान है। ख़ुदावंद फ़रमाता है, “मैं अव्वल और मैं आख़िर हूँ और मेरे सिवा कोई ख़ुदा नहीं।” (यसअयाह 44:6, 41:4, मुकाशफ़ा 1:8,17) ख़ुदा अज़ली और अबदी है। “अज़ल से अबद तक तू ही ख़ुदा है।” (ज़बूर 90:2) “वो आली और बुलंद है और अबद-उल-आबाद सुकूनत करता है उस का नाम क़ुद्दूस है।” (यसअयाह 57:15) उस पाक ज़ात में तग़य्युर व तब्दीली वाक़ेअनहीं होती “मैं ख़ुदावंद हूँ मैं बदलता नहीं हूँ।” (मलाकी 3:6, रोमीयों 11:29, याक़ूब 1:17) वो ना-दीदनी (अन्देखा) ग़ैर-मुरई (जिसको देख ना सकें) हस्ती है। (इब्रानियों 11:27) जो फ़हम व इदराक से बाला है। (अय्यूब 11:7) वो आलम-ए-कुल है। (इब्रानियों 4:13) क़ादिर-ए-मुतलक़। (मुकाशफ़ा 19:6) हमा-जा हाज़िर व नाज़िर है। (यर्मियाह 3:23) गो वो कायनात और इन्सान के अंदर मौजूद है, (इफ़िसियों 4:6) ताहम उनसे बुलंदो बाला है। (1 सलातीन 8:27) पस उपनिषदों में जो तालीम ख़ुदा के मुताल्लिक़ मौजूद है वो आला तरीन हालत में किताबे मुक़द्दस में मौजूद है, लेकिन कुतुब अहले हनूद में कर्म के अक़ीदे और आवागवन (हिन्दुवों के एतिक़ाद के मुताबिक़ मरने और जन्म लेने का सिलसिला) के बातिल अनासिर की वजह से दुनिया एक ऐसी मशीन या कल क़रार दी गई है। जो ख़ुद बख़ुद क़वानीन इल्लत मालूल (सबब व मसबब) के मुताबिक़ चलती है और जिसके साथ ख़ुदा का किसी क़िस्म का ताल्लुक़ नहीं। इस नज़रिये में कायनात के अख़्लाक़ी क़वानीन में जिनके ज़रीये दुनिया का कारख़ाना चलता है ख़ुदा का हाथ नहीं रहता। इस बातिल अक़ीदे को मसीहिय्यत ने मर्दूद क़रार दे दिया है। बाइबल मुक़द्दस की ये तालीम है कि ख़ुदा एक अख़्लाक़ी हस्ती है और उस की ज़ात नेक है वो नेकी और रास्ती का ख़ुदा है और उस में बदी का साया तक नहीं। वो सरासर नूर-ए-हक़ और नेकी है। वो कायनात और इन्सान का परवरदिगार है और अख़्लाक़ी क़वानीन का जो कायनात में और इन्सान की ज़मीर में हैं ख़ालिक़ सरचश्मा और मम्बा है। जिस तरह कायनात, फ़ित्रत के क़वानीन इल्लत व मालूल की ज़ात के मज़हर हैं, उसी तरह अख़्लाक़ी क़वानीन भी उस की पाक और क़ुद्दूस ज़ात के मज़हर हैं। (यसअयाह 51:6, 57:15, इस्तिस्ना 32:4, ज़बूर 11:7, 33:4-5, 97:1-2, 36:5, 119:142, 33:14-15, अय्यूब 1:5, पैदाइश 1:26 वग़ैरह)

पस ज़ाते इलाही की निस्बत जो सदाक़त के अनासिर हिंदू मज़्हब में हैं वह बदर्जा अह्सन उसूल के तौर पर मौजूद हैं लेकिन वो तमाम बातिल अनासिर (गलत बातों) से पाक और मुबर्रा है।

(6)

वेदांत (हिन्दुवों के फ़लसफ़े और दीनयात का एक निज़ाम जिसमें ज़ाते इलाही पर बह्स की गई है) की तालीम के मुताबिक़ इन्सानी रूह और ख़ुदा में कोई तमीज़ नहीं। इस तालीम में सदाक़त का अंसर ये है कि इन्सानी रूह निहायत बेश-क़ीमत शए है और इन्सानियत के वजूद के आला तरीन पहलू पर ज़ोर दिया गया है। ये सदाक़त कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम में बतर्ज़ अह्सन मौजूद है। जनाबे मसीह ने ये तालीम दी है कि हर शख़्स ख़ुदा का फ़र्ज़न्द है और ख़ुदा की सूरत पर ख़ल्क़ किया गया है पस जिस तरह बेटा बाप के साथ रिफ़ाक़त रखता है, उसी तरह हर इन्सान ख़ुदा के साथ रिफ़ाक़त रख सकता है। पस वेदांत में जो सदाक़त का अंसर है वो मसीहिय्यत में महफ़ूज़ है लेकिन मसीहिय्यत उस के बातिल अनासिर को रद्द कर देती है और वो इस में जगह नहीं पाते मसलन मसीहिय्यत के मुताबिक़ ये अक़ीदा ग़लत है कि ख़ुदा और इन्सान में तफ़रीक़ व तमीज़ नहीं। अस्ल हक़ीक़त ये है कि मसीहिय्यत ने इन्सान को आला तरीन मर्तबा अता किया है लेकिन साथ ही ख़ुदा और इन्सान में हिफ़्ज़-ए-मुरातिब (मर्तबे का लिहाज़, पासे अदब) मौजूद है। अगर ख़ुदा और इन्सान में कोई तमीज़ नहीं तो इन्सान का गुनाह और बद-अख़्लाकी कोई मअनी नहीं रखते और नेकी और बदी मह्ज़ अल्फ़ाज़ ही रह जाते हैं। एक हिंदू मुसन्निफ़ लिखता है कि :-

“किसी इन्सान को गुनेहगार कहना ही सबसे बड़ा गुनाह है।”

इस लिहाज़ से दुआ, इबादत और रिफ़ाक़त इलाही वग़ैरह नामुम्किन और बेमाअनी हो जाते हैं, पस ये बातिल अजज़ा (हिस्से) मसीहिय्यत की तालीम से ख़ारिज हैं।

(7)

हिंदू धर्म में अवतारों (हिन्दुओं के अक़ीदे में ख़ुदा का किसी जन्म में दाख़िल हो कर मख़्लूक़ की इस्लाह के लिए दुनिया में आना) का अक़ीदा पाया जाता है। इस अक़ीदे में सदाक़त का ये अंसर है कि इन्सानी फ़ित्रत किसी ग़ैर-शख़्स ख़ुदा के मुजर्रिद तसव्वुर पर क़नाअत (जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) नहीं कर सकती बल्कि ख़ुदा की सिफ़ात को ज़मान व मकान की क़ुयूद (क़ैद की जमा, पाबंदीयां) के अंदर देखना चाहती है। ख़ुदा की ज़ात है।

لامکانے فوق وہم سالکان

लेकिन इन्सान की फ़ित्रत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि ये कामिल ज़ात ज़मान व मकान की क़ुयूद में उस को दिखाई दे जिसके ख़यालात जज़्बात और किरदार के नमूने वो अपने पेश नज़र रख सके। मसीही मज़्हब में सदाक़त का ये अंसर अपनी कामिलियत में मौजूद है। चुनान्चे इन्जील शरीफ़ में वारिद है, “इब्तिदा में कलाम में था। कलाम ख़ुदा के साथ था। और कलाम ख़ुदा था। कलाम मुजस्सम हुआ और फ़ज़्ल और सच्चाई से मामूर हो कर हमारे दर्मियान रहा और हमने उस का ऐसा जलाल देखा जैसा बाप के इकलौते का जलाल। उस की मामूरी में से हम सबने फ़ज़्ल पर फ़ज़्ल पाया। ख़ुदा को कभी किसी ने नहीं देखा। इकलौता बेटा (यानी जनाबे मसीह) जो बाप की गोद में है उसी ने ज़ाहिर किया।” (यूहन्ना पहला बाब, 1 यूहन्ना 1:1, 4:4, कुलस्सियों 1:16-17, मुकाशफ़ा 1:4,8,17, 3:14, 21:6, 22:13, रोमीयों 1:3, 8:3, ग़लतीयों 4:4, फिलिप्पियों 2:7, 1 तीमुथियुस 3:16, इब्रानियों 2:14, मत्ती 11:27 वग़ैरह) लेकिन मसीहिय्यत में राम और कृष्ण जैसे अवतार और मुजस्सम ख़ुदा नहीं पाए जाते हैं। जिनकी कहानियां तारीख़ पर मबनी नहीं हैं। वो शाएराना तख़य्युल और क़िसस से ज़्यादा वक़अत नहीं रखतीं। वो अवतार जंगजू बादशाह थे, वो मज़्हबी लीडर तक भी नहीं थे उनके मरने के तीन सौ साल बाद उनको अवतार (बना) दिया गया। बाअज़ हिंदू गौतम बुद्ध को अवतार मानते हैं अगरचे गौतम हिन्दुस्तान का मज़्हबी लीडर था लेकिन वो खुद तजस्सुम के अक़ीदे का मुख़ालिफ़ था। उस की मौत के पाँच सौ साल तक उस के पैरौओं (मानने वालों) को ये जुर्आत ना हुई कि वो गौतम बुद्ध के नाम के साथ एक ख़ुदा का तसव्वुर मुताल्लिक़ करें और उस को अवतार बनाएँ। पस हिंदू मज़्हब के तमाम अवतार कोई तारीख़ी हैसियत नहीं रखते जिस तरह मसीहिय्यत का बानी रखता है।

ये अवतार ना सिर्फ कोई तवारीख़ी हैसियत नहीं रखते और उनके अफ़साने (जैसा हम लिख चुके हैं) मुख़र्रिब (बिगड़ा हुआ) अख़्लाक़ हैं, बल्कि वो हक़ीक़ी अवतार भी नहीं हो सकते। चुनान्चे शास्त्र पुराणों से ज़ाहिर है कि मच्छ (मगरमच्छ) कुछ (कछवा), नर-सिंह, राम, कृष्ण वग़ैरह, अवतार बनी नूअ इन्सान की बहबूदी और तरक़्क़ी के काम के नहीं हो सकते। हक़ तो ये है कि उनके अवतार बनने की ये ग़र्ज़ ही ना थी कि नूअ इन्सानी का भला हो। चुनान्चे मच्छ (मगरमच्छ) के अवतार बनने की ये ग़र्ज़ थी कि चारों वेदों को समुंद्र से ढूंढ निकाले कुछ (कछवा) बराह डगमगाती धरती को थामने के लिए अवतार है। नर-सिंह ने हिरन्य कश्यप का पेट फाड़ने के लिए अवतार लिया। दामन अवतार बना ताकि राजा बल को फ़रेब दे। परसुराम अवतार बना ताकि क्षत्रियों को हलाक करे। राम रावण को और कृष्ण कंस को हलाक करने के लिए अवतार बने। दसवाँ अवतार क़लजुगी अवतार कल-जुग में होगा जो गुनाहगारों को हलाक व बर्बाद करने को आएगा। तब हर गुनेहगार अपने गुनाहों से छुटकारा हासिल करने के बजाय हलाक कर दिया जाएगा।

इलावा अज़ीं जैसा हम सुतूर बाला में लिख चुके हैं इन नाम निहाद अवतारों के चलन और ख़साइल ऐसे हैं कि वो अवतार कहलाने के मुस्तहिक़ ही नहीं हो सकते, क्योंकि वो हर क़िस्म की बदी, ज़िनाकारी, झूट और दग़ा वग़ैरह से मुत्तसिफ़ (सिफ़त रखने वाला) हैं। हक़ीक़ी अवतार के औसाफ़ एन नाम निहाद औतारों में से किसी में भी नहीं पाए जाते। उन पर ये कहावत सादिक़ आती है कि “लोभ गुरु लालची चेला” दोनों नरक में ठेलम ठेला” इन अवतारों के गुनाहों का नमूना देखकर और इनके अहवाल को देखकर इन्सान भी दीदा दिलेरी से गुनाह पर गुनाह करने की ज़िंदगी पर आमादा हो जाता है, चुनान्चे ये दोहा (दो मिसरों का हिन्दी शेअर) मशहूर है, “मूर्ख क्या समझाईए, ज्ञान गाँठे का जाये। कोयला ना होवे उजला, नौ मन साबुन लाए।

चूँकि हम आइन्दा बाब में इस अक़ीदे पर शरह और बस्त (वज़ाहत) के साथ बह्स करेंगे हम इस जगह सिर्फ इस क़ौल पर इक्तिफ़ा करते हैं कि हिंदू मज़्हब के इस अक़ीदे में जो सदाक़त का अंसर है वो बदर्जा अह्सन इब्ने-अल्लाह (यानी जनाबे मसीह) की शख़्सियत में मौजूद है लेकिन ये क़ुद्दूस हस्ती तमाम बातिल अनासिर से पाक है।

(8)

हिंदूओं के तालीम-याफ्ता तब्क़े का मज़्हब वो फ़ल्सफ़ियाना नज़रिया जात हैं जो उपनिषदों और भगवत गीता और वैदिक लिट्रेचर में पाए जाते हैं। उनका लुब्ब-ए-लुबाब ये है कि, “ओम” नाम का जपना ज़िंदगी का आला तरीन मक़्सद है। भगवत गीता क़रीबन दो हज़ार साल हुए लिखी गई और उपनिषद वग़ैरह की किताबें सन एक हज़ार क़ब्ल अज़ मसीह से आठ सौ साल क़ब्ल अज़ मसीह लिखी गईं। संस्कृत का फ़ाज़िल मैक्स मिलर उपनिषदों के मुताल्लिक़ इस नतीजे पर पहुंचता है कि जहां इनमें आला और पाकीज़ा ख़याल पाए जाते हैं वहां बीसियों ऐसी बातें भी मिलती हैं जो तिफ़लाना हैं और जिनको पढ़ कर इन्सान की तबीयत ना सिर्फ उकता जाती है बल्कि नफ़रत करने लग जाती है। (Sacred Books of The East Vol.1.p.1 xviii)

भागवत गीता हिंदूओं के तालीम-याफ्ता तब्क़े में वही जगह रखती है जो मसीहिय्यत में इन्जील शरीफ़ को हासिल है। इस किताब के बाअज़ हिसस में आला तालीम मौजूद है और ध्यान की हालत को अफ़्ज़ल क़रार दिया गया है। क्योंकि हक़ीक़त ये है कि मुजर्रिद फ़ल्सफ़ियाना तसव्वुरात जज़्बात को मुतास्सिर नहीं कर सकते। यही वजह है कि रामा नजू ने शंकर आचार्य के फ़ल्सफ़ियाना ख़यालात के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की और तालीम दी कि ख़ुदा शख़्सियत रखता है और भगती के ज़रीये उस का इल्म हमको हासिल है। सोलहवीं सदी में कबीर और गुरू नानक ने और उनके बाद चीता नया ने और ब्रहमो समाज ने हिंदू फ़ल्सफ़ियाना ख़यालात के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद की लेकिन हमा-ओसती नकार ख़ाने में इन तोतियों की आवाज़ कौन सुनता है?

(9)

हिंदू मज़्हब की तारीख़ पर ग़ौर करो तो तुम पाओगे कि हिंदू मज़्हब में जितने पसंदीदा दिलकश अनासिर हैं वो सब के सब अपनी पाकीज़ा और ख़ूबसूरत तरीन हालात में मसीहिय्यत में पाए जाते हैं मसलन भगती मार्ग के तमाम रोशन पहलू मसीही ईमान और इन्जील में मौजूद हैं, लेकिन इस की ख़ामियाँ मसीहिय्यत में ज़ाइल (ख़त्म) हो जाती हैं। जिन सही उसूलों पर गुरू नानक या कबीर या राजा राम मोहन राय या स्वामी दयानंद ने इस्लाह की ख़ातिर ज़ोर दिया है वो सब के सब उसूल अपनी बेहतरीन और दरख़शां सूरत में कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम में मौजूद हैं। जिन बातों को इन मुस्लिहीन ने रद्द किया है वो मसीहिय्यत की रोशनी में ही रद्द की गई हैं क्योंकि वो मसीहिय्यत के नज़्दीक मर्दूद और ना-क़ाबिल क़ुबूल हैं।

मसीहिय्यत के मुताबिक़ ख़ुदा मुजर्रिद तसव्वुर नहीं है बल्कि शख़्सियत रखता है। ख़ुदा की ज़ात कोई खला नहीं जिसमें रूह निरवान हासिल करे बल्कि उस की ज़ात मुहब्बत है जिसकी वजह से वो कुल नूअ इन्सानी का बाप है। पस कृष्ण मत में जो सदाक़त का अंसर है वो बतर्ज़ अह्सन मसीहिय्यत में मौजूद है।

(10)

अला हाज़ा-उल-क़यास (इसी तरह) माद्दा का फ़ानी होना एक ऐसा अक़ीदा है जिसका मसीहिय्यत बबान्गे दहल ऐलान करती है। (2 कुरिन्थियों 14:8, 5:7 वग़ैरह) हमको तालीम देती है कि बक़ा सिर्फ़ रूह को हासिल है। लेकिन माया के अक़ीदे का ग़लत पहलू मसीहिय्यत में दख़ल नहीं पाता, क्योंकि मसीहिय्यत की ये तालीम है कि हर शए के वजूद की इल्लत नुमाई है और माद्दा वजूद रखता है, यही वजह है कि मसीहिय्यत तजस्सुम की क़ाइल है और मानती है कि जनाबे मसीह कलिमतुल्लाह (मसीह) ख़ुदा-ए-मुजस्सम था। “जो हमारे दर्मियान रहा और हमने उस का ऐसा जलाल देखा जैसा बाप के इकलौते का जलाल।” (यूहन्ना 1:18)

(11)

हिंदूओं के फ़ल्सफ़ियाना अक़ाइद के मुक़ाबले में मसीहिय्यत का पैग़ाम निहायत सादा है। हिंदू फ़ल्सफ़े को इस बात का घमंड है कि उस के पास इन्सानी ज़िंदगी और दुनिया और कायनात के मसाइल का अक़्ली हल मौजूद है लेकिन ये ख़ामख़याली है। हिंदू फ़ल्सफ़ियाना नज़रियों का ये हाल है कि :-

چوں ندید ند حقیقت رہ افسانہ زوند۔

हक़ तो ये है कि कायनात के मसाइल के हल अक़्ल के ज़रीये नहीं होते और ना अक़्ल मज़्हब की बुनियाद है, क्योंकि “इल्म नाक़िस और ना-तमाम” होता है। (1 कुरिन्थियों 13:9) तारीख-ए-फ़ल्सफ़ियाना ये बतलाती है कि :-

نکشود ونکشاید بحکمت ایں معمارا

अक़्ल का ज़िंदा अख़्लाक़ीयात के साथ ताल्लुक़ नहीं होता। हिंदू फ़ल्सफ़ा मह्ज़ मज़्हब अक़्ली है जिसका तमाम अक़्ल पर है। उस में सदाक़त का ये अंसर मौजूद है कि हमको इन्सान, दुनिया और कायनात के मसाइल हल करने में अपनी ख़ुदादाद अक़्ल इस्तिमाल करनी चाहीए। मसीहिय्यत में ये सदाक़त बेहतरीन हालत में पाई जाती है। (यूहन्ना 7:17, 8:31, 16:12, यर्मियाह 9:24, दानीएल 12:13, होसेअ 6:3, 1 थसलीनकों 5:21, इफ़िसियों 5:10, 1 कुरिन्थियों 12:10, 14:29, अम्साल 24:3, 3:21, 2:3, 15:14, ज़बूर 119:66, अम्साल 2:10, 1 कुरिन्थियों 8:2, 14:20 वग़ैरह) चूँकि मसीहिय्यत में सदाक़त का ये अंसर मौजूद है लिहाज़ा बाअज़ लोग और बिल-ख़ुसूस थियोसोफट या थियोसोफी (ये अक़ीदा या उसूल कि हर शख़्स बिला-बास्ता ख़ुदा की मार्फ़त वजदान से हासिल कर सकता है) ये गुमान करते हैं कि हिंदू फ़ल्सफ़ा और मसीहिय्यत में कोई हक़ीक़ी फ़र्क़ नहीं। लेकिन जहां मसीहिय्यत अक़्ल के इस्तिमाल करने का हुक्म देती है वहां वो हिंदू फ़ल्सफ़े के बातिल अनासिर को अपने अंदर जगह नहीं देती और ये तालीम देती है कि ख़ुदा एक ज़िंदा अख़्लाक़ी हस्ती है जिसमें क़ुव्वत-ए-इरादी है जो हमारी अख़्लाक़ी क़ुव्वत-ए-इरादी को नई राह पर चलाना चाहती है। मसीहिय्यत ऐसा मज़्हब नहीं जिसका दारो-मदार सिर्फ़ अक़्ल पर ही हो और वो इन्सान की ज़िंदगी के दीगर पहलूओं को फ़रामोश करके नज़र-अंदाज कर दे। वो एक अख़्लाक़ी मज़्हब है जिसका नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) रिज़ा-ए-इलाही को हासिल करना है। जहां हिंदू-मत की अख़्लाक़ीयात सिर्फ़ अल्फ़ाज़ व तसव्वुरात पर ही मबनी हैं वहां मसीही मज़्हब की अख़्लाक़ीयात की बुनियाद इरादा और अमल पर है।

حکمت وفلسفہ کارے ست کہ پایا نش نیست

سیلی عشق ومحبت بہ دبستانش نیست

(12)

हिंदू फ़ल्सफ़ा मज़्हब-ए-मुहब्बत नहीं। इस की बिना अक़्लियात पर है। इस के फ़ल्सफ़े के मुताबिक़ रूह का ख़ुदा मैं फ़ना हो जाना मुहब्बत की वजह से नहीं है। लेकिन मसीहिय्यत की तालीम में ख़ुदा और इन्सान का बाहमी रिश्ता कामिल मुहब्बत पर मबनी है। हिंदू फ़ल्सफ़ा ये तालीम देता है कि हमें हर जानदार के साथ रहम के साथ पेश आना चाहीए। लेकिन साथ ही ये तालीम देता है कि इन्सान को हर तरह के जज़्बात से ख़ाली होना चाहीए। यहां तक कि नेकी करने के जज़्बे पर भी हमको ग़ालिब आना चाहीए। इस में जो सदाक़त का अंसर है वो मसीहिय्यत में कामिल तौर पर मौजूद है, क्योंकि इस में ये तालीम दी गई है कि “अपने पड़ोसी से अपने बराबर मुहब्बत रख।” लेकिन इस तालीम के बातिल अनासिर कि इन्सान को नेकी के जज़्बे से ख़ाली होना चाहीए मसीहिय्यत में जगह नहीं पाते क्योंकि :-

زندگی درجستجو پوشید ہ است

اصل اور در آرزو پوشید ہ است

हक़ तो ये है कि जिस तरह बाज़ औक़ात बादल बरसने के बजाय गर्म हवा में ज़ाइल हो जाता है इसी तरह हिंदू फ़ल्सफे में अख़्लाक़ी अंसर अक़्लियत की फ़िज़ा में गुम हो जाता है। मसीहिय्यत में मुहब्बत की तालीम ऐसी नहीं कि इस से बनी नूअ इन्सान से मुहब्बत रखने का जज़्बा ठंडा पड़ जाये। इस की इल्लत-ए-ग़ाई (हासिल, फ़ायदा) ही ये है, कि वो ऐसी सूरत-ए-हालात पैदा कर दे जिससे बनी नूअ इन्सान से मुहब्बत करने का जज़्बा हमेशा मुश्तइल (भड़कता हुआ) रहे। हिंदू मत में इस के नज़रिये की वजह से इस मज़्हब में रहम तरस हम्दर्दी वग़ैरह के जज़्बात मह्ज़ ज़बानी जमा ख़र्च हो कर रह जाते हैं। पस इनका असर रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर रत्ती भर नहीं पड़ता। ऐसा मज़्हब किसी तरह भी मुहब्बत का मज़्हब नहीं हो सकता क्योंकि इस में “आलम रूहानियत” मुहब्बत के जज़्बे के साथ मुताल्लिक़ नहीं है, लेकिन ये अम्र मुसल्लिमा है कि रूहानियत का असली ताल्लुक़ अख़्लाक़ीयात के साथ है और रुहानी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) अख़्लाक़ी ज़िंदगी के ज़रीये ज़हूर में आता है। ये नज़रिया कहता है कि तुम दुनिया में उसी तरह ज़िंदगी बसर करो कि गोया तुम मर गए हो और उस के साथ तुम्हारा किसी क़िस्म का वास्ता नहीं रहा। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की इन्जील कहती है कि “दुनिया में तुम अपने नफ़्स पर क़ाबू पाकर ऐसी ज़िंदगी बसर करो जो ख़ुदा की मर्ज़ी के मुताबिक़ हो।” हिंदू फ़ल्सफ़ा अपने इस बातिल नज़रिये की वजह से इफ़्लास-ज़दा मज़्हब है लेकिन मसीहिय्यत मुहब्बत के उसूल की तालीम की वजह से एक बहर ना-पीदा किनार है।

इस्लाम के उसूल और मसीहिय्यत

(1)


जब हम क़ुरआन व हदीस का मुतालआ करते हैं तो ये हक़ीक़त हम पर ज़ाहिर हो जाती है कि उस में जितनी खूबियां मौजूद हैं वो सबकी सब बाइबल मुक़द्दस में आला तरीन शक्ल में पाई जाती हैं। इस फ़स्ल में हम अहादीस को नज़र-अंदाज करके सिर्फ क़ुरआन शरीफ़ की तालीम पर नज़र करेंगे इस मुतालए से हमारे इस नज़रिये की तस्दीक़ होती है कि कुल अद्यान-ए-आलम (दुनिया के मज़ाहिब) में सदाक़तों के जितने अनासिर हैं वो तमाम के तमाम अपनी आला तरीन और पाकीज़ा तरीन सूरत में कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम में पाए जाते हैं। क़ुरआन तो ख़ुद कहता है कि उस की तालीम में जो सदाक़त है वो साबिक़ा कुतुब मुक़द्दसा से माखूज़ है। चुनान्चे लिखा है कि, “बेशक ये क़ुरआन जहान के रब का उतारा हुआ है तेरे दिल पर ताकि तू डराने वालों में हो जाए। फ़सीह अरबी ज़बान में है और बेशक ये क़ुरआन अगले पैग़म्बरों की किताबों में मज़्कूर है। क्या अहले मक्का के लिए ये इस की सदाक़त की निशानी नहीं कि इस क़ुरआन को उलमा-ए-बनी-इस्राईल जानते हैं।” (शोअरा आयत 192) क़ुरआन बार-बार साफ़ अल्फ़ाज़ में इक़रार करता है कि जो सदाक़त इस में पाई जाती है वो मह्ज़ कुतुबे साबिक़ा (पिछली किताबों) से माख़ूज़ है और इस हक़ीक़त को अपनी सदाक़त की दलील में पेश करता है और कहता है कि, क़ुरआन अरबी में सिर्फ इस वास्ते आया है ताकि साबिक़ा कुतुब मुक़द्दस की सदाक़तों को अहले-अरब के लिए सलीस अरबी ज़बान में पेश करे ताकि अहले-अरब पर इतमाम-ए-हुज्जत (आख़िरी दलील) हो जाए। चुनान्चे इर्शाद है कि, “क़ुरआन हमने नाज़िल क्या इसलिए कि तुम ना कहो कि हमसे पहले सिर्फ दो ही फ़िर्क़ों यानी यहूद और ईसाईयों पर किताब नाज़िल हुई थी और हम उन किताबों की इब्रानी और यूनानी ज़बानों की वजह से उनके पढ़ने से ग़ाफ़िल थे। या कहो कि अगर हम पर किताब (अरबी में) नाज़िल होती तो हम यहूदीयों और ईसाईयों से ज़्यादा हिदायत पर होते। सो अब तुम्हारे रब से तुम्हारे पास अरबी में हुज्जत आ गई है और हिदायात और रहमत है सो उस से ज़्यादा ज़ालिम कौन जिसने अल्लाह की आयात को झुठलाया।” (सूरह अन्आम आयत 156) फिर क़ुरआन ताकीदन फ़रमाता है, “तुम कहो कि हम मानते हैं जो उतरा हम पर और जो उतरा तुम पर हमारा ख़ुदा और तुम्हारा ख़ुदा एक ही है।” (अन्कबूत) नीज़ देखो सूरह नहल आयत 105, सूरह हामीम सज्दा 44, 20, यूसुफ़ आयत 3, सूरह रअद आयत 37, सूरह ताहा आयत 112, सूरह ज़मर आयत 29, सूरह शूरा आयत 5, सूरह ज़ुख़रुख आयत 2, सूरह अह्क़ाफ़ आयत 11 वग़ैरह) दौर-ए-हाज़िर के मुस्लिम उलमा इस हक़ीक़त के मोअतरिफ़ हैं। चुनान्चे मर्हूम मौलवी ख़ुदाबख़्श इस मज़्मून पर बह्स करके कहते हैं :-

“इस्लाम दर हक़ीक़त यहूदीयत और मसीहिय्यत की मह्ज़ रिवाइज़्ड (नज़र-ए-सानी) ऐडीशन है। हज़रत मुहम्मद ने कभी जिद्दत (नए होने) का दावा नहीं किया। आपका मज़्हब दीगर अद्यान (मज़्हबों) का इंतिख़ाब था।”

(A Mohammedan View of Islam and Christianity Muslim World For Oct 1926)

सर सय्यद अहमद मर्हूम भी फ़र्माते हैं कि :-

“इस्लामी उसूल और अक़ाइद मुतफर्रिक़ा और मुन्तशिरह मज़ाहिब साबिक़ की मह्ज़ एक तर्तीब और इज्तिमा का नाम है। हर ज़ी फ़हम शख़्स पर ये बात ज़ाहिर होगी कि ये मुशाबहत और मुमासिलत उसूल और अक़ाइद मज़्हब इस्लाम की दीगर मज़ाहिब इल्हामी के उसूल व अक़ाइद से मज़्हब इस्लाम के पाक और इल्हामी होने की सबसे बड़ी दलील है।”

(ख़ुत्बात अहमदिया स 223)

पस क़ुरआन और उलमा-ए-इस्लाम इस बात के मोअतरिफ़ हैं कि क़ुरआन की तमाम सदाक़तें कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम में पाई जाती हैं। हम इंशा-अल्लाह यहां ये साबित करेंगे कि वो सदाक़तें क़ुरआन में सिर्फ ग़ैर-मुकम्मल हालत में मौजूद हैं वो इन्जील जलील में वो कामिल तरीन और पाकीज़ा तरीन शक्ल में मौजूद हैं।

(2)

सबसे बड़ा दावा जो इस्लाम का है वो शिर्क की मज़म्मत और वहदत-ए-इलाही की दावत है। (सूरह बक़रा 158, सूरह नहल 13, सूरह निसा 40 और 116 वग़ैरह) लेकिन किताबे मुक़द्दस के नाज़रीन जानते हैं कि जैसा ऊपर बयान हो चुका है, ये सदाक़तें हज़रत रसूले अरबी ने यहूदीयत और मसीहिय्यत से हासिल कीं। (मर्क़ुस 12:29, यूहन्ना 17:3, 1 कुरिन्थियों 8:4-6, यसअयाह 44:6, ख़ुरूज 20:3-5, हिज़्क़ीएल 14:3, 1 यूहन्ना 5:21, आमाल 7:29, 115:4-8, रोमीयों 1:21-23 वग़ैरह-वग़ैरह)

लेकिन इस्लामी मुजर्रिद तौहीद का तसव्वुर ख़िलाफ़े क़ियास और हर क़िस्म की महतुयात (घेर लेना, शामिल) से ख़ाली और अज़रूए मन्तिक़ व फ़ल्सफ़ा ये तसव्वुर ख़ास है। लिहाज़ा तौहीद के इस तसव्वुर को मसीहिय्यत में दख़ल नहीं। ये एक लंबी बह्स है, जो इस रिसाले के हक़ीक़ी मौज़ू से ख़ारिज है। हम नाज़रीन की तवज्जोह पादरी इमाद-उद्दीन साहब मर्हूम व पादरी अब्दुल हक़ साहब मर्हूम, पादरी फ़ंडर साहब और डाक्टर बर्खुरदार ख़ान साहब की कुतुब की जानिब दिला कर यहां इस क़ौल पर इक्तिफ़ा करते हैं कि इस्लाम का ये अक़ीदा अपनी पाकीज़ा तरीन हालत में बाइबल मुक़द्दस में मौजूद है।

(3)

ख़ुदा और इन्सान के बाहमी रिश्ते और ताल्लुक़ात के मुताल्लिक़ जो तालीम क़ुरआन और इस्लाम में है उनमें जो सदाक़त के पहलू हैं वो तमाम के तमाम मसीहिय्यत में बवजह अह्सन मौजूद हैं। मसलन क़ुरआन की तालीम है कि ख़ुदा ख़ालिक़ है, मालिक है, परवरदिगार है वग़ैरह-वग़ैरह। (सूरह अनआम आयत 101 और 102, सूरह नहल आयत 3 और 17 वग़ैरह) ये तमाम बातें बाइबल मुक़द्दस में बतर्ज़ अह्सन मौजूद हैं। (पैदाइश 1:1, नहमियाह 9:6, आमाल 4:15, ज़बूर 148:5, आमाल 27:24 वग़ैरह) लेकिन क़ुरआनी तालीम में बाअज़ ऐसे पहलू हैं जो इन्जील में नहीं पाए जाते हैं, कि “ख़ुदा ऐसी जाबिर हस्ती है जो अपने क़हर से गुनेहगार इन्सान को फ़ना कर देती है और दोज़ख़ में डाल कर ख़ुश होती है।” (सूरह नहल 25, सूरह अह्क़ाफ़ 19, सूरह जासिया 7 और 20, सूरह मोमिन 37, सूरह यसीन 8, सूरह अनआम 138 वग़ैरह) इन मुक़ामात की सी तालीम इन्जील में नहीं मिलती कलिमतुल्लाह (मसीह) ने ये तालीम दी है कि ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है और वो गुनेहगार की ख़ातिर हर क़िस्म का ईसार और क़ुर्बानी करता है। (यूहन्ना 3:16, 1 यूहन्ना 4:10, रोमीयों 5:6 वग़ैरह) ख़ुदा और इन्सान के बाहमी ताल्लुक़ की बिना (बुनियाद) ख़ौफ़ और दहश्त नहीं बल्कि मुहब्बत है। इन्जील जलील में इर्शाद है कि “कामिल मुहब्बत ख़ौफ़ को दूर कर देती है।” (रोमीयों 8:15, 1 यूहन्ना 5:14, 4:17 वग़ैरह)

पस मसीहिय्यत में ये तमाम उसूल अपनी पाकीज़ा तरीन और आला तरीन शक्ल में मौजूद हैं जो क़ुरआन में सिर्फ ग़ैर-मुकम्मल तौर पर ही पाए जाते हैं।

(4)

इस्लाम ने ख़ुदा के मुताल्लिक़ ये तालीम दी है कि ख़ुदा अपनी मख़्लूक़ात से बुलंद व बाला है। (सूरह नहल 62, सूरह निसा 38 वग़ैरह) और इस सदाक़त के अंसर पर इस क़द्र ज़ोर दिया है कि ख़ुदा और इन्सान के दर्मियान एक वसीअ ख़लीज पैदा कर दी है। मसीहिय्यत में भी ये तालीम मौजूद है कि ख़ुदा कायनात से बुलंद व बाला है (ज़बूर 83:18, आमाल 7:49 वग़ैरह) लेकिन इस के साथ ही उसने ख़ुदा और इन्सान में कोई ख़लीज (दिवार) पैदा नहीं की, चुनान्चे लिखा है कि “वो जो आला और अर्फ़ा है और अबद-उल-आबाद तक क़ायम है जिसका नाम क़ुद्दूस है फ़रमाता है कि, मैं बुलंद और मुक़द्दस मुक़ाम में रहता हूँ और उस के साथ भी जो शिकस्ता-दिल और फ़रोतन है ताकि फ़रोतनों की रूह को और शिकस्ता-दिलों को ज़िंदगी बख्शूं। (यसअयाह 57:15, ज़बूर 113:2-7) ख़ुदा के बुलंद व बाला होने और उस के हाज़िर व नाज़िर होने में जो सदाक़त के पहलू हैं वो मसीहिय्यत में निहायत दिलकश हैं और पसंदीदा हालत में मौजूद हैं।

इस्लाम ने ख़ुदा और इन्सान के दर्मियान ख़लीज पैदा करके ये तालीम दी है कि ख़ुदा फ़रिश्तों के ज़रीये इन्सान से कलाम करता है। और यूँ अपनी मर्ज़ी इन्सान पर ज़ाहिर करता है। चुनान्चे क़ुरआन जिब्राईल फ़रिश्ते के ज़रीये रसूले अरबी पर नाज़िल हुआ। लेकिन मसीहिय्यत ये तालीम देती है कि ख़ुदा हमारा बाप है जिसकी ज़ात मुहब्बत है लिहाज़ा उस में और इन्सान में कोई ख़लीज (रुकावट) वाक़ेअ नहीं और ख़ुदा का कलाम ख़ुद मुजस्सम हुआ और उसने मसीह में हो कर अपने आपको बनी नूअ इन्सान पर ज़ाहिर किया। (यूहन्ना पहला बाब, इब्रानियों 1:8-1) इस्लाम में इन्सान ख़ुदा के साथ हक़ीक़ी रिफ़ाक़त नहीं रख सकता क्योंकि क़ुरआन के मुताबिक़ ख़ुदा “बेनियाज़” (लापरवाह) है। (सूरह इख़्लास वग़ैरह) बेनियाज़ी और मुहब्बत दोनों एक जगह इकट्ठे हो नहीं सकते। मुहब्बत एक रिश्ता है जो मुहिब और महबूब के दर्मियान होता है, लेकिन जहां बेनियाज़ी हो वहां ना कोई मुहिब हो सकता है और ना महबूब ना मुहब्बत की रिफ़ाक़त का इम्कान हो सकता है।

पस ख़ुदा के बुलंद व बाला होने और उस के हाज़िर व नाज़िर होने के मुताल्लिक़ जो तालीम क़ुरआन में पाई जाती है वो कामिल तौर पर इन्जील जलील में मौजूद है।

(5)

क़ुरआन के मुताबिक़ ख़ुदा रहमान और रहीम है जो हमारे गुनाहों को माफ़ करने वाला है। (सूरह माइदा 44 वग़ैरह) सदाक़त का ये पहलू अपनी बेहतरीन शक्ल और पाकीज़ा तरीन सूरत में इन्जील जलील की तालीम में पाया जाता है। (मर्क़ुस 11:25, इफ़िसियों 4:32, कुलस्सियों 3:13 वग़ैरह) लेकिन इस्लामी तालीम में ख़ुदा की रहमत का अख़्लाक़ीयात से ताल्लुक़ नहीं, क्योंकि इस रहमत में अख़्लाक़ी अंसर मौजूद नहीं, ख़ुदा का रहम करना और गुनाहों का बख़्शना उस की मुतलक़-उल-अनान मर्ज़ी पर मौक़ूफ़ है, लेकिन मसीहिय्यत में इस तसव्वुर को जगह नहीं मिलती। कलिमतुल्लाह (मसीह) ने ख़ुदा की रहमत के तसव्वुर को अख़्लाक़ीयात के साथ ऐसा वाबस्ता कर दिया हुआ है, कि ख़ुदा की रहमत और मग़्फिरत उस की ज़ात का (जिसका जोहर मुहब्बत है) क़ुदरती नतीजा है। चूँकि ख़ुदा बनी नूअ इन्सान से मुहब्बत करता है लिहाज़ा उस की ज़ात इस अम्र का तक़ाज़ा करती है कि वो गुनाहों को माफ़ करे और ताइब गुनेहगार को अपनी जवार रहमत में जगह दे। (लूक़ा 15 बाब वग़ैरह)

पस कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम क़ुरआनी तालीम के सादिक़ पहलू को कामिल तौर पर पेश करती है ऐसा कि इस का ग़ैर-मुकम्मल पहलू इन्जील में पाया-ए-तक्मील को पहुंचता है।

(6)

क़ुरआन के मुताबिक़ “ख़ुदा गुनाह का बानी है।” (सूरह आराफ़ आयत 178, बनी-इस्राईल 17, सूरह शूरा 45, सूरह हूद 36 और 120 वग़ैरह) कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम इस अक़ीदे से पाक है।

(7)

क़ुरआन में नमाज़ और दुआ का हुक्म है लेकिन ये अहकाम ज़मान व मकान की क़ुयूद से आज़ाद नहीं। (सूरह निसा 46, सूरह रुम 17 और 18, सूरह हूद 116, सूरह बनी-इस्राईल 80, सूरह ताहा 130, सूरह बक़रा 129) चुनान्चे हुक्म है कि नमाज़ ख़ास औक़ात पर और एक ख़ास जगह की तरफ़ रुख करके पढ़ी जाये लेकिन मसीहिय्यत में ये हुक्म ज़मान व मकान की क़ुयूद से आज़ाद है। कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया कि, हर वक़्त दुआ मांगते रहना चाहिए। (लूक़ा 18:1, इफ़िसियों 6:18, 1 थिस्सलुनीकियों 5:17, 1 तीमुथियुस 2:8 वग़ैरह) आपने किसी ख़ास जगह को क़िब्ला ना बनाया (यूहन्ना 4:20-25) इस्लाम में दुआ से पहले वुज़ू और ज़ाहिरी रस्मी पाकीज़गी पर ज़ोर दिया गया है (सूरह माइदा 8 और 9, सूरह बक़रह 183 वग़ैरह) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम में ज़ाहिरी तकल्लुफ़ात का पहलू दूर कर दिया है।

دل کہ پاکیزہ بود جامہ ناپاک چہ سود

سرکہ بے مغرز بود نغزی دستار چہ سود

कलिमतुल्लाह (यानी जनाबे मसीह) ने इर्शाद फ़रमाया “ख़ुदा रूह है और ज़रूर है कि उस के परस्तार रूह और सच्चाई से उस की परस्तिश (इबादत) करें।” (यूहन्ना 4:23, 24) पस कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम में दुआ और इबादत के उसूल दरख़शां हो कर चमकते हैं। (मत्ती 7:7-11, 21:22, मर्क़ुस 11:24, मत्ती 6:5-8, यूहन्ना 9:5-9, 18:10-14 वग़ैरह) मसीहिय्यत के उसूल ज़मान व मकान की क़ुयूद से आज़ाद हैं लिहाज़ा आलमगीर हैं।

(8)

क़ुरआन में रोज़े का हुक्म है और इस के लिए मुफ़स्सिल अहकाम और तफ्सीलात मौजूद हैं जो ज़मान व मकान की क़ुयूद में हैं। (सूरह बक़रा 179 अलीख) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम में रोज़ा ज़ाहिरी तकल्लुफ़ात पर मबनी नहीं और ना मह्ज़ रस्म परस्ती है। (मत्ती 6:16-18, यसअयाह 58:5-8, मत्ती 9:14-17 वग़ैरह)

(9)

क़ुरआन में हज का हुक्म है जो ज़मान व मकान की क़ुयूद से मुताल्लिक़ है (सूरह आले-इमरान 90, सूरह बक़रह 94, 95 192, 193 वग़ैरह) यहूदीयत और इस्लाम में ये मुमासिलत है कि जो जगह अहले-यहूद के मज़्हब में यरूशलेम को दी गई है वही जगह इस्लाम में मक्का को हासिल है। जिस तरह येरूशलेम ख़ुदा का शहर था इसी तरह मक्का उम्मूल क़ुरा (बस्तियों की माँ ام القریٰ) है जिस तरह यहोवा (परवरदिगार का ख़ास नाम) येरूशलेम की हैकल में रहता था इसी तरह इस्लाम का रब-ए-काअबा है। इस में कुछ शक नहीं कि अम्बिया-ए-यहूद ऐसी तालीम भी देते थे जो इस तसव्वुर से बुलंद व बाला थी। (यसअयाह 66:1-2, 1 सलातीन 8:27, 2 तवारीख़ 6:18, यर्मियाह 23:24, 2 तवारीख़ 2:6 वग़ैरह) और इस्लाम में ख़ुदा रब-उल-आलमीन है, लेकिन इस्लाम की तालीम हमेशा ज़मान व मकान की हदूद में रही। इन्जील जलील की तालीम इस क़िस्म की हदूद से बाला है। (यूहन्ना 4:6, आमाल 7:48, 17:24, मत्ती 5:34-35 वग़ैरह)

(10)

इस्लाम में क़ुर्बानी का हुक्म पाया जाता है। (सूरह हज 28 ता 38 वग़ैरह) हिंदू मज़्हब में भी काली के सामने बकरीयां क़ुर्बान की जाती हैं। कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम और नमूने ने इन मज़ाहिब के क़ुर्बानी के तसव्वुर को ऐसा कामिल कर दिया है कि लफ़्ज़ क़ुर्बानी के वो मअनी ही नहीं रहे जो दीगर मज़ाहिब में थे। (ज़बूर 5:9-15, 51:16-17) अब क़ुर्बानी का मतलब ईसार नफ़्सी और ख़ुद-फ़रामोशी और दूसरे के फ़ायदे को मुक़द्दम जानना हुआ। (इफ़िसियों 5:1, इब्रानियों 7:27, 9:14, ख़ुरूज 10:10-12 कलिमतुल्लाह (मसीह) के कामिल क़ुर्बानी के तसव्वुर की वजह से अद्यान-ए-आलम के तसव्वुरात जो इन मज़ाहिब में ख़ुदा और इन्सान के मुताल्लिक़ इस लफ़्ज़ से वाबस्ता थे वह या तो दुनिया जहान के लोगों के ज़हनों से कुल्लियतन (मुकम्मल तौर पर) मिट गए हैं या उन तसव्वुरात के मअनी मसीहिय्यत की रोशनी में बदल गए हैं। (ज़बूर 40:6)

बाअज़ मज़ाहिब में ये ख़याल किया जाता था कि क़ुर्बानियां चढ़ाने से हम ख़ुदा के इरादों को बदल सकते हैं। क़ुर्बानियां गोया एक रिश्वत ख़याल की जाती थीं। ये गुमान था कि जिस तरह दुनियावी हुक्काम रिश्वत से क़ाबू आ जाते हैं इसी तरह हम क़ुर्बानीयों के वसीले ख़ुदा पर क़ाबू पा लेते हैं और उस को ख़ुश करके जो चाहें हासिल कर सकते हैं। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम और ज़िंदगी ने एक तरफ़ क़ुर्बानी के तसव्वुर को कामिल कर दिया और दूसरी तरफ़ इस लफ़्ज़ के नाक़िस और बातिल मफ़्हूम को नूअ इन्सानी के अज़हान से ख़ारिज कर दिया।

(11)

क़ुरआन में हराम और हलाल ख़ुराक में तमीज़ की गई है। (सूरह माइदा 9, 90, 97 सूरह अनआम 146, वग़ैरह) इस क़िस्म की तालीम हम पर अयाँ कर देती है कि क़ुरआन सिर्फ ख़ास ममालिक व अक़्वाम पर ही हावी हो सकता है। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) ने इस क़िस्म की तालीम के नुक़्स को रफ़ा कर दिया और फ़रमाया कि कोई शए बज़ाते हराम नहीं। (मत्ती 15:11-19, रोमीयों 14:14, 1 तीमुथियुस 4:4 वग़ैरह) इन्जील में इर्शाद है कि “ख़ुदा की बादशाहत खाने-पीने पर नहीं बल्कि रास्तबाज़ी, मुहब्बत और इत्तिफ़ाक़ और उस ख़ुशी पर मौक़ूफ़ है जो रूहुल-क़ुद्दुस की तरफ़ से होती है।” मसीहिय्यत इस क़िस्म के ख़यालात से यकसर ख़ाली है।

(12)

इस्लाम में नअमाए (बरकात) बहिश्त और अज़ाब हाय दोज़ख़ की तालीम मौजूद है इस तालीम में सदाक़त का जो अंसर है वो मसीहिय्यत में अपनी पाकीज़ा तरीन सूरत में पाया जाता है। (यूहन्ना 14:2-3, मुकाशफ़ा 2:7, लूक़ा 20:27-36, मत्ती 22:30, 25 बाब वग़ैरह) क़ुरआन में बहिश्त (जन्नत) की तस्वीर शराब और नहरों, औरतों, ग़ुलामों, वग़ैरह पर मुश्तमिल है जिसे मुस्लिम सलीम-उल-तबाअ (दानिशमंद) अश्ख़ास भी क़ुबूल नहीं कर सकते, लेकिन मसीहिय्यत के मुताबिक़ ये तमाम बातें नाक़िस और ग़लत हैं। (मर्क़ुस 12:25 वग़ैरह) ये तालीम सिर्फ उन लोगों को ही भली मालूम हो सकती हैं जो तरक़्क़ी की इब्तिदाई मनाज़िल पर हों, लेकिन इस तब्क़े के बाहर ये तालीम दीगर ममालिक व अक़्वाम की राहबरी नहीं कर सकती और यही वजह है कि इस क़िस्म के ग़लत ख़यालात को मसीहिय्यत में जगह हासिल नहीं।

(13)

इस्लाम में जिहाद की तालीम मौजूद है। (सूरह तौबा 29, 112 और 11 ता 15, सूरह मुहम्मद 4 वग़ैरह) जो सिर्फ ख़ास हालात क़ौम और मुल्क से ही मुताल्लिक़ हो सकती है। बज़रीये जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) लोगों को किसी मज़्हब में जबरिया दाख़िल करने और लूट का माल क़ब्ज़े में रखने (सूरह अन्फ़ाल 70 वग़ैरह) की तालीम हरगिज़ इस क़िस्म की नहीं जिसका इतलाक़ कुल अक़्वाम और ममालिक आलम पर हो सके। ये तालीम सरासर बातिल है लिहाज़ा कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम में दख़ल नहीं पाती। अला-हाज़ा-उल-क़यास क़ुरआन क़िसास व इन्तिक़ाम की तालीम देता है। (सूरह बक़रा 19, सूरह माइदा 49, सूरह शूरा 34 ता 38, सूरह नहल 172 वग़ैरह) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) ने जैसा हम गुज़श्ता फ़स्ल में बयान कर चुके हैं इस क़िस्म की तालीम को ग़लत क़रार देकर दुश्मन से मुहब्बत करने की तालीम दी है।

(14)

औरात की हैसियत के मुताल्लिक़ अहकाम क़ुरआन में पाए जाते हैं। (सूरह निसा 23 ता 28, सूरह बक़रा 223 वग़ैरह) ये अहकाम अरब जाहिलियत को सुधारने की ख़ातिर वज़ा किए गए थे। इनमें जो सदाक़त के पहलू हैं वो बदर्जा अह्सन इन्जील जलील में मौजूद हैं जैसा कि हम इस बाब के फ़स्ल अव्वल में ज़िक्र कर चुके हैं। लेकिन क़ुरआनी तालीम के नाक़िस पहलू मसलन तादाद इज़्दवाजी (ज़्यादा बीवियां रखना), तलाक़ वग़ैरह (सूरह निसा आयत 3, सूरह बक़रा 230, 231 वग़ैरह) सिर्फ ख़ास मुल्क क़ौम और तब्क़े के साथ ही ताल्लुक़ रख सकते हैं और इनके उसूल का इतलाक़ कुल दुनिया के ममालिक व अक़्वाम पर नहीं हो सकता लिहाज़ा ये तालीम आलमगीर होने की सलाहीयत नहीं रखती और यही वजह है कि मसीहिय्यत इन तमाम नाक़िस ग़ैर मुकम्मल और बातिल अनासिर से पाक है।

(15)

क़ुरआन में उसूल मुवाख़ात (भाई चारे) सिर्फ मुसलमानों के दायरे तक महदूद किया गया है। (सूरह हजरात 10) मसीहिय्यत में उखुव्वत (भाईचारे) का उसूल बदर्जा अह्सन मौजूद है। (मत्ती 23:8-9, 22:40 वग़ैरह) इस मज़्मून पर हम गुज़श्ता फ़स्ल में मुफ़स्सिल बह्स कर चुके हैं। सदाक़त का वो अंसर जो क़ुरआन की तालीम उखुव्वत में है अपनी आला तरीन सूरत में इन्जील शरीफ़ में मौजूद है। (यूहन्ना 12:34-35, 15:12-14 वग़ैरह) लेकिन क़ुरआनी तालीम में नुक़्स ये है कि उखुव्वत को एक तब्क़े तक ही महदूद कर दिया गया है। (सूरह हुजरात 10) और दूसरों से दोस्ती रखने से मना किया गया है। (सूरह फ़त्ह 29, सूरह अन्फ़ाल 74, सूरह माइदा 62, सूरह मुम्तहना 8 ता 9 वग़ैरह) कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम ने इस नाक़िस और ग़ैर-मुकम्मल हद को तोड़ कर नूअ इन्सानी की उखुव्वत (भाईचारे) का सबक़ दिया है। (मत्ती 5:43)

(16)

हमने इस्लाम और क़ुरआन के अहम उसूल पर नज़र करके देखा है कि इन उसूल में जो सदाक़त के पहलू हैं वो सब के सब मसीहिय्यत में पाकीज़ा तरीन सूरत में पाए जाते हैं लेकिन क़ुरआनी तालीम के नाक़िस, ग़ैर-मुकम्मल और बातिल पहलूओं को मसीहिय्यत में कहीं दख़ल नहीं। लिहाज़ा मसीहिय्यत उन तमाम सदाक़तों को अपने अंदर जमा रखती है जो इस्लाम की कामयाबी का बाइस हैं लेकिन उन तमाम इबातील से पाक है जो इस्लाम की नाकामी का बाइस हैं। हमने इस मज़्मून पर एक और किताब में मुफ़स्सिल बह्स की और साबित किया है कि इस्लाम इन नाक़िस और ग़ैर-मुकम्मल अनासिर की वजह से आलमगीर मज़्हब नहीं हो सकता। लेकिन चूँकि मसीही मज़्हब तमाम सदाक़तों का मजमूआ है और इस में बातिल उसूल हरगिज़ नहीं पाते लिहाज़ा सिर्फ वही आलमगीर मज़्हब होने की सलाहीयत रखता है।

मसीहिय्यत की जामइयत

मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब के उसूल के मुतालए से नाज़रीन पर वाज़ेह हो गया होगा कि मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब हक़ और सदाक़त के सिर्फ मुख़्तलिफ़ पहलूओं पर ही ज़ोर देते हैं और बाक़ी पहलूओं को नज़र-अंदाज कर देते हैं। मसलन हिंदू मज़्हब हमा ओसती अक़ीदे का क़ाइल हो कर ख़ुदा के रफ़ी और बुलंद व बाला होने की हक़ीक़त को नज़र-अंदाज कर देता है। इस्लाम में ख़ुदा के बुलंद व बाला होने पर इस क़द्र ज़ोर दिया गया है कि ख़ुदा और इन्सान में एक वसीअ ख़लीज (रुकावट) हाइल कर दी गई है। अला-हाज़ा-उल-क़यास अगर इस्लाम एक सदाक़त पर ज़ोर देता है तो दूसरी को नज़र-अंदाज कर देता है। अगर हिंदू मज़्हब एक क़िस्म की सदाक़त की तालीम देता है तो वह दूसरी क़िस्म की सदाक़त को नज़र अंदाज़ कर देता है, लेकिन मसीहिय्यत में सदाक़त के मज़्कूरा बाला दोनों अनासिर पहलू बह पहलू एक ही निज़ाम में मुनज़्ज़म पाए जाते हैं। कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम के मुताबिक़ ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस मुहब्बत का ख़ुदा है जो बनी-आदम से बुलंदो बाला भी है और अपनी अज़ली मुहब्बत की वजह से हर फ़र्द बशर के साथ रिफ़ाक़त रखता है। बुद्ध मत में अदल और इन्साफ़ पर बेहद ज़ोर दिया गया है, लेकिन इस मज़्हब में मुहब्बत को जो इन्सान के दिल को फ़िल-हक़ीक़त बदल देती है नज़र-अंदाज कर दिया गया है। मसीहिय्यत में ख़ुदा की मुहब्बत और ख़ुदा का अदल दोनों पहलू बह पहलू पाए जाते हैं। चीन के कन्फूशीस का मज़्हब दुनियावी ताल्लुक़ात की पाकीज़गी पर ज़ोर देता है, लेकिन इस हक़ीक़त को नज़र-अंदाज कर देता है कि ये ताल्लुक़ात उन अज़ली ताल्लुक़ात का अक्स हैं, जो ख़ुदा और इन्सान की ज़ात से मुताल्लिक़ हैं। मसीहिय्यत में अज़ली और दुनियावी ताल्लुक़ात दोनों पर ज़ोर दिया गया है। जापान का शिन्तो मज़्हब हुब्ब-उल-वतनी का सबक़ सिखलाता है, लेकिन इस मज़्हब के नज़्दीक मुल्क की मुहब्बत सिर्फ एक मुल्क यानी जापान तक महदूद है, लेकिन मसीहिय्यत सदाक़त के इस अंसर को कामिल करके ये तालीम देती है, कि हम ना सिर्फ अपने मुल्क और क़ौम के साथ बल्कि तमाम ममालिक व अक़्वाम के साथ मुहब्बत करें।

बस्ता रंग-ए-ख़ुसूसीयत ना हो मेरी ज़बान

नूअ-ए-इन्सान क़ौम हो मेरी, वतन मेरा जहां (इक़बाल)

पस सदाक़त के मुख़्तलिफ़ अनासिर मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब में यहां और वहां और जगह बह जगह इधर-उधर बिखरे पड़े हैं लेकिन ये तमाम के तमाम अनासिर मसीहिय्यत में अपनी निहायत पाकीज़ा और आला सूरत में एक जगह जमा हैं। ये सब के सब अनासिर मुख़्तलिफ़ शुवाओं की तरह हैं जिनके ज़रीये “आलम-ए-बाला का आफ़्ताब लोगों पर तुलूअ हो।” (लूक़ा 1:78) और मसीह “आफ़्ताब सदाक़त” है। (मलाकी 4:2, इफ़िसियों 5:14 वग़ैरह) जिसके बानी ने फ़रमाया है कि “दुनिया का नूर मैं हूँ, जो मेरी पैरवी करेगा वो अंधेरे में ना चलेगा बल्कि ज़िंदगी का नूर पाएगा।” (यूहन्ना 8:12) हकीम क़ानी (قانی) का शेअर आप पर लफ़्ज़ बलफ़्ज़ सादिक़ आता है :-

توجسم شرع راجانی تودرّ عقل راکانی

توگنج کان یزدانی ۔تو رانی سرّما اوما۱

(2)

हक़ तो ये है कि अद्यान-ए-आलम की मुख़्तलिफ़ सदाक़तें सिर्फ़ मसीहिय्यत में ही जमा हो कर महफ़ूज़ रह सकती हैं। क्योंकि इन मज़ाहिब में सदाक़त का अंसर बतालत के अनासिर के साथ इस क़द्र मिला-जुला होता है, कि सदाक़त के अंसर की हस्ती हमेशा मारिज़-ए-ख़तर (खतरे) में रहती है। इन मज़ाहिब में सदाक़त और बतालत के अनासिर एक जगह बाहम ख़लत-मलत पाए हैं, मसलन अगर किसी इल्हामी किताब में एक सफ़े पर ख़ुदा की क़ुद्दुसियत की तालीम दी गई हो उस के अगले सफ़े पर ऐसी बातें हों जो मुख़र्रिब-ए-अख़्लाक़ (बिगड़ा हुआ रवैय्या) हैं, तो सदाक़त का अंसर इन्सान की ज़िंदगी को किस तरह मुतास्सिर कर सकेगा? इन मज़ाहिब में ग़लत तसव्वुरात के बादल और काली घटाएं सदाक़त के अनासिर की शुवाओं को छुपा लेती हैं और सदाक़त की ताक़त कमज़ोर पड़ जाती हैं और रुहानी तारीकी छा जाती है। मसलन हिंदूओं का तालीम-याफ़्ता तब्क़ा और बुत-परस्ती और दीगर ऊहाम (वहम की जमा, ज़हनी तसव्वुर) से बेज़ार है। लेकिन इस मत (मज़्हब) में करोड़ों ऐसे लोग भी मौजूद हैं जो बुत-परस्ती पर क़ायम हैं। हिन्दू धर्म के अंदर ख़ुदा-परस्त भी हैं, मुल्हिद और दहरिये भी हैं। हमा ओसती और माद्दा-परस्त दोनों इस के हल्क़ा-ब-गोश हैं। हिंदू धर्म मुख़्तलिफ़ क़िस्म के अक़ाइद और मुतज़ाद ख़यालात का मजमूआ है और कोई ताक़त इन मुख़्तलिफ़ मुतज़ाद ख़यालात और एतिक़ादात को जो मुंतशिर सूरत में हिंदू धर्म में पाए जाते हैं, बाहम एक जगह नहीं कर सकती। कोई इन्सान हिंदू धर्म की सदाक़तों पर मज़बूती से क़ायम नहीं रख सकता, क्योंकि वो इसी धर्म के बातिल अक़ाइद के साथ एक ही निज़ाम में मुनज़्ज़म हैं और सदाक़त और बतालत के अनासिर इस मज़्हब के जुज़्व लानीफ़क (वो हिस्सा जो अलैहदा ना हो सके) हो चुके हैं। यही वजह है कि इस तब्क़े की रोज़मर्रा की ज़िंदगी के मुआमलात पर सदाक़त के अनासिर का असर नहीं होता और अमली ज़िंदगी में अच्छे और बुरे हिसस (हिस्सा की जमा) की तमीज़ नहीं हो सकती। सदाक़त के अनासिर बज़ात-ए-ख़ुद क़ायम नहीं रह सकते क्योंकि वो बातिल अंसरों के साथ बेहद ख़लत-मलत हो चुके हैं। यही हाल दीगर मज़ाहिब का है। उनके बतालत के अनासिर की आंधीयां सदाक़त के अनासिर के टिमटिमाते चिराग़ को बुझा देती हैं।

दीगर तमाम सदाक़तें मसीहिय्यत में क़ायम और महफ़ूज़ रहती हैं, क्योंकि मसीहिय्यत में हक़ और बातिल का ताना-बाना नहीं और ना इस में तारीकी का कोई निशान है। (यूहन्ना 1:5) मसीहिय्यत एक ऐसा जामे मज़्हब है, जिसमें मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब की तमाम सदाक़तें जमा हो कर ज़ोर और क़ुव्वत हासिल करती हैं। चूँकि इस में बतालत का नाम तक नहीं, लिहाज़ा कमज़ोरी और नाकामी इस की क़िस्मत में रोज़-ए-अव्वल ही से नहीं। तारीख़ ममालिक मशरिक़ व मग़रिब हमको बताती है, वो जिस मुल्क में गई ग़ालिब आई और अद्यान-ए-आलम को हर क़िस्म की रुकावटों के बावजूद सिर्फ अपनी सदाक़त की क़ुव्वत से फ़त्ह करती चली आई है। मसीहिय्यत में सदाक़त के तमाम उसूल ज़िंदा क़ायम और उस्तिवार हो जाते हैं और बनी-आदम को अबदी ज़िंदगी को पहुंचाते हैं। मसीहिय्यत मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब की सदाक़तों को इन मज़ाहिब के बातिल अंसरों से मख़लिसी (छुटकारा) दिला कर उनकी तमाम बीमारीयों से शिफ़ा देकर उनकी मख़्सूस सदाक़तों को हलाक होने से बचाती है। ये सदाक़तें उक़ाब की मानिंद अज़ सर-नव जवान हो जाती हैं और मसीहिय्यत की आग़ोश में परवरिश पाकर बनी नूअ इन्सान को इस क़ाबिल बना देती हैं, कि वो ख़ुदा की सूरत हो जाएं।

30 क़ुरआनी आयत के अल्फ़ाज़ बमाअनी तूने अपने बंदे से वो बातें कीं जो कीं।

(3)

इलावा अज़ीं अद्यान-ए-आलम में हम हक़ और बातिल के अनासिर की जो इम्तियाज़ करते हैं वो मसीहिय्यत की तुफ़ैल और मसीहिय्यत की रोशनी में ही कर सकते हैं। ये मज़ाहिब ख़ुद इस क़िस्म की सलाहीयत नहीं रखते कि हक़ और बातिल के अनासिर में तमीज़ कर सकें। यही वजह है कि इन मज़ाहिब के पैरौ (मानने वालें) उनके अच्छे और बुरे हिसस दोनों पर अमल करते हैं। मसलन हिंदू धर्म के उसूल की रोशनी में ज़ात-पात की क़ुयूद और अछूत को बुरा नहीं कहा जाता जिस तरह अहले हनूद अपने धर्म के अच्छे उसूल पर अमल पैरा हैं उसी तरह वो अछूत के अहकाम पर अमल करते हैं। हिंदू धर्म इस बात का अहल नहीं कि एक को दूसरे से जुदा करे। गांधी जी ने मसीहिय्यत की रोशनी में ही अछूत के ख़याल को मज़मूम बात क़रार देकर उस के ख़िलाफ़ जिहाद शुरू किया है। लेकिन ख़ुद गांधी जी बुत-परस्ती के ख़िलाफ़ नहीं और ज़ात-पात के क़ाइल हैं। इस्लामी दुनिया तादाद इज़्दिवाज़ (एक से ज़्यादा औरतें रखने) पर हमेशा अमल करती आई है और ज़माना-ए-माज़ी में इस्लाम की रोशनी में इस को कभी मज़मूम (बुरा) क़रार नहीं दिया गया लेकिन मसीहिय्यत की ज़िया पाशी (रोशनी फैलाना) की वजह से अब ये रस्म मज़मूम ख़याल की जाने लगी है इन मिसालों से ज़ाहिर होता है कि मसीहिय्यत के उसूल की ज़िया पाशी में ही हम इन मज़ाहिब के अच्छे और बुरे पहलूओं में तमीज़ कर सकते हैं और ना सिर्फ ये मालूम कर सकते हैं कि इनमें क्या कुछ है बल्कि ये भी मालूम कर सकते हैं कि इनमें क्या कुछ नहीं है।

कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल की रोशनी में कुल दुनिया के मज़ाहिब इस बात की सर तोड़ कोशिश कर रहे हैं कि किसी ना किसी तरह अपने उसूलों की इस्लाह करें। हिंदू धर्म अब वो नहीं रहा जो दो सौ (200) साल पहले था। इस्लामी तालीम अब वो नहीं रही जो पिछली सदी में मकतबों और मस्जिदों में और मिम्बरों पर से दी जाती थी। दक़यानूसी मुल्लानों के वाज़ों पर इस्लामी ममालिक मसलन मिस्र, ईरान, तुर्की वग़ैरह में कोई सही-उल-अक़्ल शख़्स ध्यान नहीं देता। चीन और जापान के मज़ाहिब का भी यही हाल है। मसीही तसव्वुरात ने उनके अक़ाइद और रसूम की बतालत को ऐसा ज़ाहिर कर दिया है, कि उनके पैरू (मानने वाले) मसीहिय्यत से मुतास्सिर हो कर उनसे बेज़ारी ज़ाहिर करते हैं और इन्जील जलील के ज़िंदा उसूल से ज़िंदगी का दम लेकर अपने मज़ाहिब की बोसीदा हड्डीयों में फूँकने की बेसूद कोशिश करते हैं। चीन की नई पोद (नस्ल) अपने देवताओं के मंदिरों के अंदर क़दम नहीं रखती। कन्फूशीस और टाओ मज़ाहिब लाचार खड़े ज़माने की नीरंगीयां देख रहे हैं और यह बे-दस्त व पा सलाहीयत नहीं रखते कि वो नई नस्ल और नई क़ौम को शाह-राह तरक़्क़ी पर चला सकें।

कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम ने हिन्दुस्तान को इस क़द्र मुतास्सिर कर रखा है, कि बेदार मग़ज़ हिंदू और मुसलमान अपने मज़ाहिब की काट छांट करके उनको मसीही तसव्वुरात के मुताबिक़ करने की कोशिश में मशग़ूल हैं। इस पर तुर्रा (अनोखी बात) ये कि दावा करते हैं कि ये तसव्वुरात तो हमारे मज़ाहिब का असली हिस्सा हैं और मसीहिय्यत को “बिदेशी” मज़्हब क़रार देकर अपने हम-वतनों के क़ौमी जज़्बात को भड़काते हैं ताकि कहीं मसीहिय्यत ग़ालिब ना हो जाए।

کس نیا موخت علم تیرا از من

کہ عاقبت مرا نشانہ نکرد

लेकिन ये चाल कोई नई बात नहीं है। तारीख़ हमको बताती है कि जिस मुल्क में मसीहिय्यत गई, वहां के मज़ाहिब ने यही वतीरा (रवैय्या) इख़्तियार किया, लेकिन चूँकि वो अपने अंदर ज़िंदगी ना रखते थे बिलाआखिर मग़्लूब हुए और मसीह फ़ातेह हुआ।

मसीहिय्यत वाहिद जहांगीर मज़्हब है

बाअज़ अस्हाब कहते हैं कि मसीहिय्यत दीगर अद्यान आलम (दुनियां के मज़ाहिब) की तरह एक मज़्हब है और वो वाहिद हमागीर और आलमगीर दीन नहीं है और कोई एक मज़्हब आलमगीर नहीं हो सकता। हम उनकी तवज्जोह मसीहिय्यत की ख़ुसूसियात की तरफ़ मुनातिफ़ (मुतवज्जोह) करते हैं।

1. मसीहिय्यत की एक ख़ुसूसीयत है जो इस को आलम गीर बना देती है और वो ये कि दीगर अद्यान के उसूल व कलाम की क़ुयूद से बाला नहीं हैं। वो हर मुल्क व कौम व नस्ल और ज़माने के इन्सानों पर आइद नहीं हो सकते। वो नूअ इन्सानी की तारीख़ में सिर्फ किसी ख़ास ज़माना, मुल्क या क़ौम व नस्ल के लिए ही वज़ा किए गए थे और वो ख़ास उसी ज़माना नस्ल, क़ौम और मुल्क तक ही महदूद रहे हैं और रह सकते हैं। लेकिन जैसा हम बाब दोम में मुफ़स्सिल तौर पर बता चुके हैं। इंजीली उसूल का इतलाक़ गुज़श्ता दो हज़ार साल से नूअ इन्सानी की हर नस्ल व क़ौम, मुल्क पर होता चला आया है और आइन्दा ज़माने में भी इन का इतलाक़ होता रहेगा। पस मसीहिय्यत ही एक वाहिद आलमगीर मज़्हब है और अद्यान आलम में एक दीन नहीं है। सिर्फ इस के उसूल ही आला तरीन, जामेअ और मानेअ और कामिल व अक्मल आलमगीर उसूल हैं, जो अक़्वामे आलम की नश्वो नुमा में मुमिद व मुआविन रहे हैं।

2. इस की दूसरी ख़ुसूसीयत ये है, कि मसीहिय्यत का बानी कलिमतुल्लाह (मसीह) और रूह-उल्लाह ने ख़ुदा का कामिल मज़हर हो कर इस दुनिया वालों के सामने ज़िंदगी का एक ऐसा नमूना रखा जो हर पहलू से कामिल और अकमल है। सिर्फ वही एक वाहिद बेमिसाल अदीमुन्नज़ीर कामिल इन्सान है इंशा अल्लाह इस नुक़्ते पर हम आइन्दा अबवाब में मुफ़स्सिल बह्स करेंगे।

3. मसीहिय्यत की तीसरी ख़ुसूसीयत जो इस को अद्याने आलम से मुमय्यज़ करती है, ये है कि दीगर अद्यान आलम के बानी अपने मज़्हब के जज़ूलानीफ़क (جزولانیفک) नहीं है। वो मह्ज़ अहकाम पंद व नसाइह (नेक मश्वरे) का मजमूआ हैं। जिन का ताल्लुक़ उनके बानीयों की शख़्सियत के साथ मह्ज़ आरिज़ी, वक़्ती और इत्तिफ़ाक़ी है। ये ताल्लुक़ अवारिज़ (आरिज़ा की जमा, पेश आने वाली चीज़ें, मर्ज़, दुख, बीमारीयां) में से है। मसलन चीन का मज़्हब कन्फियुशिश का मज़्हब है जो उस के उसूल पर मुश्तमिल है, लेकिन कन्फियुशिश की ज़ात व शख्शियत उस के मज़्हब की जज़ूलानीफ़क नहीं है। इसी तरह बुद्ध मत चंद उसूलों पर मुश्तमिल है जिनकी हस्ती और बक़ा का ताल्लुक़ क़तअन बुद्ध मत की ज़ात से नहीं है। इसी तरह बुद्ध मत है। यही हाल दीगर मज़ाहिब का है, लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) दीगर मज़ाहिब के बानीयों की तरह मसीही मज़्हब के बानी नहीं हैं। और हस्ती और बक़ा ख़ुदावंद मसीह की क़ुद्दूस ज़ात से ऐसी वाबस्ता है कि दोनों एक दूसरे से जुदा नहीं किए जा सकते। ख़ुदावंद मसीह की शख़्सियत की चट्टान पर मसीहिय्यत क़ायम है और दोनों का ताल्लुक़ आरिज़ी और इत्तिफ़ाक़ी नहीं बल्कि दाइमी और दवामी है। दीगर अद्यान किसी एक किताब पर ईमान रखते हैं, लेकिन मसीही कलीसिया किसी किताब पर ईमान नहीं रखती, बल्कि ख़ुदावंद मसीह की क़ुद्दूस ज़ात और शख़्सियत पर ईमान रखती है। वो इन्जीले जलील को इसलिए मानती है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) व इब्ने-अल्लाह की तालीम, ज़िंदगी और मौत और क़ियामत के वाक़ियात का ना सिर्फ ज़िक्र है, बल्कि वो इन वाक़ियात की सही मुफ़स्सिर और मुस्तनद तर्जुमान है। बअल्फ़ाज़े दीगर मसीह मसीहिय्यत है और मसीहिय्यत मसीह है। इंशा-अल्लाह अगले बाब की फ़स्ल अव्वल में इस नुक्ते पर मुफ़स्सिल बह्स करेंगे।

मसीह की ज़िंदगी के बग़ैर इन्जील एक बे-हक़ीक़त किताब हो जाती है। क्योंकि इस के उसूल मसीह की ज़िंदगी के तहत हैं और ये क़ुद्दूस पुर मुहब्बत ज़िंदगी है इन उसूलों की बेमिसाल मिसाल है। अनाजील-ए-अर्बा (चारो इन्जीलें) इब्ने-अल्लाह की तालीम और ज़ात व सिफ़ात के नुक़ूश हैं, जो “ख़ुदा के जलाल” का पर्तो और उस की ज़ात के नक़्श हैं। (इब्रानियों 1:3) इंशा-अल्लाह हम इस नुक्ते की अगले बाब की फ़स्ल अव्वल में तौज़ीह करेंगे।

बाब सोम

जनाबे मसीह इब्ने अल्लाह

कलिमतुल्लाह (मसीह) बनी नूअ इन्सान के लिए कामिल नमूना हैं

कामिल नमूने की ज़रूरत

हमने इस रिसाले के बाब अव्वल में लिखा था कि आलमगीर मज़्हब के लिए लाज़िम है, कि उस का बानी एक आलमगीर नमूना हो। ये एक हक़ीक़त है कि मुजर्रिद तसव्वुरात और उसूल अपने अंदर सिरे से ये सलाहीयत ही नहीं रखते कि इन्सानी ज़िंदगी को तब्दील कर सकें दौर-ए-हाज़रा में इल्म-उल-तालीम का ये मुसल्लिमा उसूल है कि बच्चे नमूने से सीखते हैं। मह्ज़ उसूलों के सिर्फ सबक़ सिखाने से कारगर नहीं होते।

हर बच्चे के वालदैन और उस्ताद इस वाज़ेह हक़ीक़त को जानते हैं कि बच्चे नक़्क़ाल होते हैं और उनसे वही अफ़आल सरज़द होते हैं जो दूसरों से सरज़द होते हैं। अगर बाप शराबी है तो वो ख़्वाह अपने बच्चे को शराब पीने से कितना ही मना करे बच्चा शराब पीने से हरगिज़ बाज़ ना रहेगा। क्योंकि शराबी बाप का नमूना हर वक़्त उस के साथ होता है। पस आलमगीर मज़्हब के उसूल ख़्वाह कितने ही आला और अर्फ़ा हों वो अपने अन्दर अहलीयत नहीं रखते कि बज़ात-ए-ख़ुद नेक अफ़आल के मुहर्रिक हो सकें। अगर मुजर्रिद उसूल अपने अन्दर यह क़ुव्वत रखते और किसी शख़्स की ज़िंदगी को तब्दील कर सकते हैं, तो उलमा का शुमार मुक़द्दिसन के गिरोह में होता। चुनान्चे یقولون مایفعلون में आया है और हर शख़्स “आलिम बेअमल” से वाक़िफ़ है। पस जब नेक उसूल किसी एक शख़्स की ज़िंदगी को तब्दील करने से आजिज़ हैं, तो वो नूअ ए इन्सान की काया पलट देने में किस तरह कामयाब हो सकते हैं? नूअ इन्सानी की ज़िंदगी को तब्दील करने के लिए एक कामिल इन्सानी नमूने की ज़रूरत है। जहां आलमगीर मज़्हब में आला और अर्फ़ा अख़्लाक़ी उसूल का होना एक लाज़िमी अम्र है वहां इस से भी ज़्यादा ज़रूरी ये अम्र है कि आलमगीर मज़्हब एक आलमगीर नमूना पेश करे जो तमाम अक़्वाम व ममालिक और अज़्मिना के करोड़ों अफ़राद की ज़िंदगीयों को मुतास्सिर कर सके और उनको औज-ए-फ़लक (आस्मान की बुलंदी) पर पहुंचा सके।

मसीहिय्यत के उसूल और जनाबे मसीह की शख़्सियत का ताल्लुक़

(1)

कुल अद्यान-ए-आलम में मसीहिय्यत अकेला वाहिद मज़्हब है जो इस सदाक़त पर ज़ोर देता है कि आलमगीर मज़्हब में एक कामिल नमूने का होना अज़हद लाज़िमी और लाबदी अम्र है। इस्लाम और हिंदू मज़्हब की किताबों में जैसा हम गुज़श्ता बाब में ज़िक्र कर चुके हैं सदाक़त के अनासिर पाए जाते हैं लेकिन उसूल ख़्वाह कैसे सुनहरे हों बज़ात-ए-ख़ुद एक ख़ूबसूरत ख्व़ाब की मानिंद ही होते हैं। उनमें ये ताक़त नहीं होती कि बज़ात-ए-ख़ुद किसी गुनेहगार इन्सान को नेक ज़िंदगी बसर करने की क़ुद्रत अता कर सकें मसीहिय्यत में ये एक खुली हक़ीक़त है, कि जब इब्ने-अल्लाह इस दुनिया से आस्मान पर सऊद फ़र्मा गए, तो आप विरसे के तौर पर अपने पीछे कोई किताब ना छोड़ गए जो उसूल पर मुश्तमिल हो। बल्कि आपने मसीही कलीसिया को विरसे के तौर पर अपना कामिल और अकमल नमूना दिया। इब्ने-अल्लाह की शख़्सियत एक ज़िंदा सहीफ़ा और किताब है जिसको हर शख़्स पढ़ सकता है। हर ज़माने मुल्क और क़ौम के अफ़राद इस जीती-जागती चलती फिरती हँसती बोलती तस्वीर को देखकर कहते आए हैं कि जिसने उस को देखा उसने ख़ुदा को देखा। इब्ने-अल्लाह का तरस, रहम, हम्दर्दी और मुहब्बत भरी ज़िंदगी और मिसाल देखकर गुनेहगार दुनिया ख़ुदा की अज़ली मुहब्बत का यक़ीन कर सकती है। क्योंकि आपके ख़यालात, तसव्वुरात, एहसासात, जज़्बात, अक़्वाल और अफ़आल वग़ैरह सब के सब इस इलाही मुहब्बत का ज़िंदा सबूत हैं। हर मअनी में आपकी ज़िंदगी हक़ीक़ी तौर पर ख़ुदा का मुकाशफ़ा थी।

दीगर मज़ाहिब किसी ना किसी किताब पर ईमान रखते हैं और लोगों को दावत देते हैं कि उस पर ईमान लाएं। लेकिन मसीही कलीसिया किसी किताब पर ईमान नहीं रखती और ना लोगों को उस पर ईमान लाने की दावत देती है वो ज़िंदा मसीह पर ईमान रखती है और इन्जील की किताब को इस वास्ते मानती है क्योंकि उस में ख़ुदा की मुहब्बत के इस मुकाशफे का तज़्किरा पाया जाता है। जो कलिमतुल्लाह (मसीह) वसीले दुनिया पर ज़ाहिर हुआ। कलीसिया लोगों को ज़िंदा मसीह पर ईमान लाने की दावत देती है। जिसने अपने कलाम व अमल ज़िंदगी, मौत और ज़फ़र-याब क़ियामत से ख़ुदा की लाज़वाल पिदराना मुहब्बत को आलिम व आलमियान पर ज़ाहिर कर दिया। वो इन्जील जलील को दुनिया वालों के सामने इस वास्ते पेश करती है, ताकि वो इस को पढ़ कर ख़ुदा की मुहब्बत के इस मुकाशफ़े से वाक़िफ़ हो सकें। मसीहिय्यत में और दीगर अद्यान में ये बय्यन और बुनियादी फ़र्क़ है, जो कभी नज़र-अंदाज नहीं किया जा सकता। मसीहिय्यत किसी किताब पर ईमान नहीं रखती, बल्कि वोह एक ज़िंदा मुनज्जी मसीह की शख़्सियत पर ईमान रखती, बल्कि वो एक ज़िंदा मुनज्जी मसीह की शख़्सियत पर ईमान रखती है। दीगर मज़ाहिब किताबों पर ईमान रखते हैं मसलन अहले-इस्लाम एक किताब (क़ुरआन) पर ईमान रखते हैं। वो रसूल अरबी को इस वास्ते मानते हैं कि वो क़ुरआन लाए। क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ हज़रत मुहम्मद दीगर इन्सानों की तरह एक इन्सान थे। लेकिन मसीही किताब इन्जील पर ईमान नहीं रखते, बल्कि उसको इसलिए तस्लीम करते हैं, क्योंकि उस में ख़ुदा का मुकाशफ़ा दर्ज है। जो मसीह है वो मसीह पर रखते हैं। जो दीगर ख़ाती और गुनेहगार इन्सानों की तरह एक इन्सान नहीं था। बल्कि हर क़िस्म की आज़माईशों पर ग़ालिब आकर बनी नूअ इन्सान के लिए एक कामिल और अकमल नमूना बना। बाक़ी तमाम मज़ाहिब अपनी दीनी कुतुब को पेश करते हैं। जो मुख़्तलिफ़ उसूलों का मजमूआ हैं लेकिन मसीहिय्यत किसी किताब या उसूल पर मुश्तमिल नहीं अगरचे जैसा हमने बाब दोम में साबित कर दिया है इस के उसूल आला अर्फ़ा और हमागीर हैं। मसीहिय्यत का तमाम दारो-मदार कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदा शख़्सियत पर है जो मसीहिय्यत की रूहे रवां है।

(2)

इब्ने-अल्लाह की ज़िंदगी का इन्जील शरीफ़ की अख़्लाक़ीयात के साथ गहिरा ताल्लुक़ है। इब्ने अल्लाह का जो ताल्लुक़ ख़ुदा के साथ था वो लासानी था। आपकी कामिल ज़िंदगी को देखकर आपके हवारइन (शागिर्दों) पर ये हक़ीक़त मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) हो गई कि ख़ुदा का जो मुकाशफ़ा आपने ज़ाहिर किया है, वो मह्ज़ आपकी तालीम और अल्फ़ाज़ में ही नहीं है, बल्कि आपकी कामिल ज़िंदगी और अकमल नमूने में भी है। आपकी तालीम लोगों के दिलों को मुतास्सिर करती थी। (यूहन्ना 7:46 वग़ैरह) क्योंकि वो तालीम एक ऐसे बाक़ुद्रत और बाइख्तियार शख़्स के मुँह से निकलती थी। (मर्क़ुस 1:22, मत्ती 7:28-29 वग़ैरह) जिसकी ज़िंदगी कामिल थी। (2 कुरिन्थियों 4:4, कुलस्सियों 1:29, इब्रानियों 1:3, 2:10 वग़ैरह) आपकी ज़िंदगी आपकी तालीम की तरह बेनज़ीर थी। आपकी तालीम की ज़िंदा बेमिसाल मिसाल थी। आपकी तालीम में ख़ुदा की मुहब्बत और इन्सान की मुहब्बत बाहम पैवस्ता थी तो आपकी अमली ज़िंदगी में भी लोगों को ख़ुदा की मुहब्बत और इन्सान की मुहब्बत यकजा नज़र आती थी। आपकी ज़िंदगी से ये सब पर अयाँ हो गया था कि बाप (परवरदिगार) की मुहब्बत आपके तमाम आमाल व अफ़आल की मुहर्रिक थी और ये मुहब्बत आपने बनी नूअ इन्सान के साथ मुहब्बत करने और उनकी ख़िदमत करने से ज़ाहिर की। मसीहिय्यत में जो निराली बात है वो मह्ज़ कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम ही नहीं बल्कि जिस तरीक़े से आपने ज़िंदगी बसर की वो दुनिया जहां से निराला है। आपकी तालीम के हर लफ़्ज़ की पुश्त पर आपकी मिसाल और नमूना है जिसने दुनिया को व्रता (भंवर) हैरत में डाल रखा है।

(3)

दीगर मज़ाहिब के बानी उम्र रसीदा हो कर इस फ़ानी दुनिया से रहलत कर गए। जब वो ज़िंदा थे मुद्दत-ए-मदीद तक लोगों को तालीम देते रहे चुनान्चे रसूले अरबी ने 22 साल और महात्मा बुध ने 45 साल तक तालीम दी। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) ने सिर्फ 33 साल की उम्र पाई जिसमें आपने सिर्फ तीन (3) साल के क़रीब तालीम दी। इन तीन साल में जो कुछ आपने किया और कहा वो ज़्यादा से ज़्यादा चालीस (40) सफ़्हों के अंदर लिखा गया है जिसको एक मामूली समझ का इन्सान दो तीन घंटों में बाआसानी तमाम पढ़ सकता है। लेकिन आपकी इस मुख़्तसर तालीम और ज़िंदगी ने दुनिया की काया पलट दी है। ताज्जुब तो ये है कि आपकी तालीम ज़िंदगी और नमूने ने किसी एक मुल्क या क़ौम या पुश्त या ज़माने को ही मुतास्सिर नहीं किया बल्कि दो हज़ार साल से दुनिया के हर मुल्क के गोशे-गोशे और हर क़ौम के हर ज़माने के करोड़ों अफ़राद के दिलों को मुसख़्ख़र कर लिया है। चुनान्चे मुअर्रिख़ लेकि (Lecky) रक़मतराज़ है कि :-

“अगरचे मसीह ने सिर्फ क़रीबन तीन साल तक तालीम दी और ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत की ताहम इस क़लील मुद्दत में उस के पाकीज़ा नमूने और ख़सलत के बेनज़ीर करिश्मे ने दुनिया को ऐसा मुतास्सिर कर दिया कि इन्सान की फ़ित्रत में जो वहशत और संगदिली थी उस की इस्लाह हो गई और दुनिया में मुहब्बत का ऐसा दौर-दौरा हो गया कि फिलासफरों की सैंकड़ों सालों की तालीम और अख़्लाक़ीयात के उस्तादों की हज़ारों नेक मसाई से इस से पहले ना हुआ था।”

दीगर मज़ाहिब के बानीयों के बरअक्स आपकी पुश्त पर ना क़ुव्वत थी ना सतवत (शानो-शौकत) ना सल्तनत। आपके हवारइन (शागिर्द) ना साहिब-ए-इल्म व जाह थे ना साहिबे सर्वत व दौलत थे। बल्कि मामूली मछोओं और महसूल लेने वाले जाहिल गँवार और बेसलीक़ा अश्ख़ास थे। (यूहन्ना 7:52, 1:46, 7:49, मत्ती 9:9, मर्क़ुस 1:20 वग़ैरह) इस क़िस्म के महदूद वसाइल के ज़रीये इब्ने-अल्लाह ने अपनी ग़ैर-फ़ानी बादशाहत को क़ायम किया, जिसका वजूद बजा-ए-ख़ुद एजाज़ी है। रुए-ज़मीन पर किसी शख़्स की सीरत पर बेशुमार ज़बानों में इस कस्रत से किताबें नहीं लिखी गईं जितनी इब्ने-अल्लाह की ज़िंदगी पर लिखी गईं हैं। कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी में ये एजाज़ है कि हर शख़्स जो आपके कलाम और ज़िंदगी से वाक़िफ़ हो जाता है, आपका शेफ़्ता (आशिक़) और गरवीदा हो जाता है। ख़ुदावंद मसीह का वजूद एक मक़ुबूल-ए-आम हस्ती है। आपकी मक़बूलियत मसीही कलीसिया के प्रोपगंडे पर मौक़ूफ़ नहीं है, बल्कि आपकी मक़बूलियत का राज़ आप की हमागीर शख़्सियत में मुज़म्मिर है।

خوباں شکستہ رنگ خجل ایستادہ اند

ہر جا تو آفتاب شمائل نشستہ

31 History of European morals vol.2

दीगर मज़ाहिब के पैरौ (मानने वाले) हर मुम्किन तौर पर कोशां हैं कि अपने मज़ाहिब के बानीयों की ज़िंदगीयों में से वो तमाम वाक़ियात किसी ना किसी तरह से ख़ारिज कर दें, जो इब्ने-अल्लाह की ज़िंदगी और नमूने के ख़िलाफ़ हैं। और उन की ज़िंदगीयों में जो उयूब हैं वो किसी ना किसी तरह हनर ज़ाहिर हो जाएं।

बक़ौल मौलाना हाली :-

पूछा जो कल अंजाम तरक़्क़ी बशर

यारों से कहा पीरे मग़ां ने हंसकर

बाक़ी ना रहेगा कोई इन्सान में ऐब

हो जाएंगे छलछला के सब ऐब हुनर

ग़ैर-मसीही मज़ाहिब के पैरौ (मानने वाले) बड़ी जद्दो जहद करके अपने हादियों और नबियों की ज़िंदगीयों की दिलकश तस्वीर खींचते हैं (जो उमूमन हक़ीक़त के बजाय उनकी अपनी क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला पर मबनी होती है) ताकि अवामुन्नास की नज़रों में उनके दीनी राहनुमाओं की हस्ती एक क़ाबिल-ए-क़द्र शख़्सियत मुतसव्वर हो सके लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़ात इन्सान की क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला और क़लमी मसाई (तहरीरी कोशिश) और मस्हूर कर लेने वाली तक़रीरों से मुस्तग़नी (आज़ाद) है। क्योंकि :-

آنچہ خوباں ہمہ دارند تو تنہاداری

हक़ीक़त तो यही है कि :-

زعشق ناکمال ماجمال یار مستغنی است

باب ورنگ وخال وخط چہ حاجت

बल्कि हमारे मुल्क के ग़ैर-मसीही अहबाब की उल्टी शिकायत ये होती है कि मुबल्लग़ीन इस बात के अहल नहीं होते कि हिंदूस्तानियों के सामने मसीह की दिला आवेज़ तस्वीर को ऐसे पैराए में पेश करें जो उस का हक़ है ताकि उनके ख़यालात व जज़्बात को कमा हिस्सा मुतास्सिर करे।

(4)

मसीहिय्यत की फ़तेह का राज़ ही ये है कि मसीहिय्यत मसीह है और मसीह मसीहिय्यत है। इब्ने-अल्लाह की शख़्सियत और आलमगीर पैग़ाम में एक ऐसा बेनज़ीर ताल्लुक़ है जो किसी दूसरे मज़्हब में मौजूद नहीं। ये ताल्लुक़ इस क़िस्म का नहीं जैसा हज़रत मुहम्मद साहब का इस्लाम के मज़्हब के साथ है। या महात्मा बुद्ध का हिन्दुस्तान के क़दीम मज़्हब के साथ या हज़रत ज़रतुश्त का ईरान के मज़्हब के साथ है। इन मज़ाहिब के बानीयों की ज़िंदगी उनके पैग़ाम का हिस्सा नहीं। वो मह्ज़ पैग़ाम-बर हैं और बस। लेकिन मसीहिय्यत की ये हालत नहीं है। कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़ात बाबरकात आपके पैग़ाम या ख़ुशख़बरी या इन्जील शरीफ़ का जज़्वलानीफ़क (جزولاینفک) है। जिससे वो जुदा नहीं है और ना हो सकती। ये नुमायां हक़ीक़त ख़ुद हमारे मुक़द्दस मज़्हब के नाम यानी “मसीहिय्यत” से अयाँ हैं किसी दूसरे मज़्हब में ये बात नहीं पाई जाती कि उस के बानी की शख़्सियत उस का जुज़्व हो। मसलन हज़रत मुहम्मद के मज़्हब का नाम “मुहम्मदियत” नहीं बल्कि इस्लाम है। बुद्ध मत की मुक़द्दस किताबों में इस मत का नाम “बुध मत” नहीं। हज़रत मुहम्मद ने अहले-अरब को इस्लाम के उसूल की तल्क़ीन की, लेकिन जनाबे मसीह ने तालीम देने के इलावा हर शख़्स को यही फ़रमाया “मेरे पीछे चले आओ।” (मत्ती 4:19) “तू मेरे पीछे चल।” (मत्ती 4:22) “मेरे पीछे हो ले।” (मत्ती 9:9) “अगर कोई मेरे पीछे आना चाहे तो अपनी ख़ुदी का इन्कार करे और अपनी सलीब उठाए और मेरे पीछे हो ले।” (मर्क़ुस 8:34) “अपना सब कुछ ग़रीबों को बांट दे और मेरे पीछे हो ले।” (लूक़ा 18:22) “मेरे पीछे हो ले।” (यूहन्ना 1:43) “मेरे पीछे हो ले।” (यूहन्ना 21:22) “मेरी भेड़ें मेरी आवाज़ सुनती हैं और मेरे पीछे-पीछे चलती हैं और मैं उनको हमेशा की ज़िंदगी देता हूँ।” (यूहन्ना 10:27) “अगर कोई शख़्स मेरी ख़िदमत करना चाहे तो मेरे पीछे हो ले।” (यूहन्ना 12:26) “दुनिया का नूर मैं हूँ जो मेरी पैरवी करेगा वो अंधेरे में ना चलेगा बल्कि ज़िंदगी का नूर पाएगा।” (यूहन्ना 8:12) जनाबे मसीह का ताल्लुक़ मसीहिय्यत के साथ गहरा और बेबुनियादी लासानी है। दीगर मज़ाहिब की ख़ुसूसीयत उनकी तालीम में है, लेकिन मसीहिय्यत की इब्तिदा इम्तियाज़ी ख़ुसूसीयत उस की सिर्फ तालीम नहीं है, बल्कि इस तुग़रा-ए-इम्तियाज़ (बुजु़र्गी की निशानी) ये है कि इस की ज़िंदगी और हस्ती उस के बानी की ज़िंदगी के साथ वाबस्ता है। इस के पैरौ (मानने वाले) उस के बानी की तालीम पर ईमान नहीं रखते बल्कि उस की ज़ात पर ईमान रखते हैं। लेकिन मसीही ख़ुदावंद मसीह पर ईमान रखते हैं। वो ख़ुदा पर इसलिए ईमान रखते हैं कि वो मसीह की मानिंद है। वो इन्जील शरीफ़ पर इसलिए ईमान रखते हैं कि इस में वो मुकाशफ़ा है मौजूद है, जिस पर ईमान रखते हैं, क्योंकि जनाबे मसीह की ज़ात के वसीले हम पर ज़ाहिर किया। वो क़ियामत पर इसलिए ईमान रखते हैं कि जनाबे मसीह ने मुर्दों में ज़िंदा हो कर साबित कर दिया कि “क़ियामत और ज़िंदगी मैं हूँ।” (यूहन्ना 11:52) मसीहिय्यत की बिना (बुनियाद) वो रिश्ता है जो जनाबे मसीह और आपके पैरौओं (मानने वालों) के दर्मियान है और रिश्ता लासानी और बेनज़ीर है। महात्मा बुद्ध की शख़्सियत का बुद्ध मत के साथ मुतलक़ ताल्लुक़ नहीं। चुनान्चे अपनी मौत से पहले उसने अनन्द को कहा, “ऐ अनन्द जो तालीम और क़वानीन मैंने तुमको सिखलाए हैं वो मेरी मौत के बाद तुम्हारे आक़ा होंगे।” इसी तरह हज़रत मुहम्मद इस्लाम नहीं पैग़म्बरे इस्लाम है। लेकिन मसीहिय्यत मसीह है और इस के बग़ैर मसीहिय्यत कुछ चीज़ नहीं। रसूल-ए-अरब की शख़्सियत से ज़ात इस्लाम की तालीम का कुछ वास्ता नहीं। चुनान्चे क़ुरआन में है कि “मुहम्मद इस से बढ़कर और कुछ भी नहीं कि वो एक रसूल है और बस। इस से पहले और भी रसूल हो गुज़र हैं पस अगर मुहम्मद मर जाये या क़त्ल हो जाए, तो क्या तुम अपने उल्टे पैरों कुफ़्र की जानिब फिर लौट जाओगे?” (सूरह आले-इमरान 138) इस ज़ाहिर है कि इस्लामी तालीम हज़रत मुहम्मद की ज़ात से जुदा है। लेकिन मसीहिय्यत की तालीम मुनज्जी आलमीन की ज़ात बाबरकात से जुदा नहीं हो सकती। क्योंकि आपकी ज़ात आपके पयाम का जुज़्व लाएनफ़क है और जुज़ हक़ीक़ी है। मसीहिय्यत का पैग़ाम जनाबे मसीह की ज़ात को नूअ इन्सानी के सामने पेश करता है और बस “ख़ुदा ने दुनिया से ऐसी मुहब्बत रखी कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि अबदी ज़िंदगी पाए।” (यूहन्ना 3:16) ख़ुदा की मुहब्बत और हमेशा की ज़िंदगी जनाबे मसीह पर ईमान लाना है। नजात आपकी ज़ात मुबारक के साथ वाबस्ता है। दीगर मज़ाहिब मसलन इस्लाम वग़ैरह का पैग़ाम उनके ख़ुसूसी अक़ाइद पर मुश्तमिल है, लेकिन मसीहिय्यत अक़ाइद या अख़्लाक़ी क़वानीन पर मुश्तमिल नहीं बल्कि उस की तालीम की इल्लत-ए-ग़ाई यही है बनी नूअ इन्सान को जनाबे मसीह के पास लाए।

क्योंकि इन्जील के “जलाल की रोशनी” इब्ने-अल्लाह ख़ुद है। जो “ख़ुदा की सूरत है।” (2 कुरिन्थियों 4:4) और जलाल का परतू और उस की ज़ात का नक़्श हो कर सब चीज़ों को अपनी क़ुद्रत कामिला के कलाम से सँभालता है। (इब्रानियों 1:3) चुनान्चे इन्जील जलील में वारिद हुआ कि कलिमतुल्लाह (मसीह) अनदेखे ख़ुदा की सूरत और तमाम मख़्लूक़ात से पहले मौलूद है। उसी में सब चीज़ें क़ायम रहती हैं। वही कलीसिया का सर है। वही इब्तिदा से मुर्दों में से जी उठने वालों में पहलौठा है। ताकि सब बातों में उस का दर्जा अव्वल हो क्योंकि ख़ुदा को ये पसंद है कि उलूहियत की सारी मामूरी उस में सुकूनत करे और उस के ख़ून के सबब से जो सलीब पर बहा, सुलह करके सब चीज़ों का उसी के वसीले से अपने साथ मेल करे ख़्वाह वो ज़मीन की हों ख़्वाह आस्मान की। (कुलस्सियों 1:15-20, 2:2, रोमीयों 3:25, 8:29, 11:36, 1 कुरिन्थियों 8:6, 2 कुरिन्थियों 5:18, इफ़िसियों 1:10, 2:13, इब्रानियों 11:27, 1 पतरस 3:23, यूहन्ना 1:16, 17:1-5, मत्ती 25:30 वग़ैरह)

जो अक़्वाम या अफ़राद किसी ज़माने में भी जनाबे मसीह के क़दमों में आ गए उनके अख़्लाक़ ख़ुदावंद की रूह के ज़रीये सुधर गए। आपने फ़रमाया “राह हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ।” (यूहन्ना 14:6) क्या किसी दूसरे मज़्हब के बानी ने अपनी ज़ात को कभी “सिरात मुस्तक़ीम, हक़ और ज़िंदगी” क़रार दिया? वो रसूले अरबी के हम-आवाज़ हो कर यही कहते रहे कि اھدنا الصراط المستقیم “ऐ ख़ुदा हमको सीधी राह पर हिदायत कर।” लेकिन ख़ुदावंद मसीह ख़ुद ज़िंदा राह है। (इब्रानियों 10:20)

जनाबे मसीह की इंजीली तस्वीर सही और तवारीख़ी है

सुतूर बाला से ज़ाहिर है कि मसीहिय्यत और दीगर मज़ाहिब में बुनियादी फ़र्क़ ये है कि उस के बानी की ज़िंदगी उस का जुज़्व लाएनफ़क है, लेकिन दीगर मज़ाहिब के बानीयों की ज़िंदगीयां उन मज़ाहिब के पैग़ाम का हिस्सा नहीं हैं और उस से जुदा की जा सकती हैं बअल्फ़ाज़े दीगर अगर उनकी ज़िंदगीयां बेलौस नहीं तो उनके पैग़ाम में कोई हर्ज वाक़ेअ नहीं होता लेकिन मसीह की ज़िंदगी और मौत और ज़फ़र-याब क़ियामत मसीहिय्यत का हक़ीक़ी जुज़्व है। मसीहिय्यत मसीह है और उस से अलग कोई वजूद नहीं रखती और ना रख सकती है। पस लाज़िम है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी (जो आपके उसूलों की सही तफ़्सीर है) ना सिर्फ बेलौस गुनाह से मुबर्रा और ख़ता से पाक हो बल्कि रूहानियत के हर पहलू से कामिल हो। मसीहिय्यत का ये दावा है कि उस का बानी एक कामिल इन्सान है जो कुल बनी नूअ इन्सान के लिए एक कामिल और अकमल नमूना है। मसीहिय्यत अपने ख़ुदावंद के हम-आवाज़ हो कर दो हज़ार साल से हर ज़माना मुल्क और क़ौम को चैलेंज करती चली आई है कि “तुम में से कौन मुझ पर गुनाह साबित कर सकता है?” (यूहन्ना 8:46) इब्ने-अल्लाह की इस्मत मसीही ईमान के “कोने का पत्थर” है।

पस सवाल उठता है कि क्या जनाबे मसीह की तस्वीर जो हमको इन्जील जलील की कुतुब में नज़र आती है सही है? हम अपने रिसाले “सेहत कुतुब मुक़द्दसा और क़दामत सेहत अनाजील अरबा की दो जिल्दों” में साबित कर चुके हैं कि तारीख़ इस अम्र की शाहिद है कि सफ़ा हस्ती पर कोई दूसरी किताब इन्जील शरीफ़ की सेहत के मेयार को नहीं पहुंच सकती और जो इन्जील की किताबें हमारे हाथों में हैं वो दरहक़ीक़त वही हैं जो उनके मुसन्निफ़ीन ने लिखी थीं।

मसलन यूनानी रूमी दुनिया के मुसन्निफ़ों की तस्नीफ़ात की हालत मुलाहिज़ा करो। यूनान का फिलासफर अफ़लातून ख़ुदावंद मसीह से चार सदीयां पहले ज़िंदा था। लेकिन उस की मुख़्तलिफ़ तस्नीफ़ात में से किसी तस्नीफ़ का नुस्ख़ा 895 ई॰ से ज़्यादा क़दीम नहीं है यानी तमाम नुस्खे़ उस की मौत के एक हज़ार दो सद साल बाद के हैं। यूनानी शायर होमर की तस्नीफ़ात के नुस्खे़ उस की वफ़ात के एक हज़ार एक सौ साल बाद के हैं यही हाल दीगर क़दीम मुसन्निफ़ीन और मौअर्रखीन मसलन हीर वदूतस, दर्जल मेस्सी बस और यूनानी रूमी दुनिया के वहम व गुमान में भी नहीं आता कि उनकी तस्नीफ़ात को जो फ़ी ज़माना मुरव्वज हैं शक की नज़र से देखिए। अब सवाल ये पैदा होता है कि क्या इन्जील जलील के मुसन्निफ़ों ने जनाबे मसीह की ज़िंदगी का नक़्शा सही तौर पर बयान किया है या कि नहीं? अज़रूए मन्तिक़ या तो जनाबे मसीह की इंजीली तस्वीर हक़ीक़त पर मबनी है या वो हवारइन (शागिर्दों) के तख़य्युल की शर्मिंदा एहसान है और इस की वक़अत एक अफ़साने से ज़्यादा नहीं। शक-ए-अव्वल में अगर ये तस्वीर हक़ीक़त पर मबनी है तो वो एक कामिल इन्सान की ज़िंदगी का ख़ाका है। शक़े दोम में अगर जनाबे मसीह का अहवाल जो इन्जील में दर्ज है मह्ज़ एक ख़्याली अफ़साना है तो इन्जील नवीस आला दर्जे की अफ़्साना नवीस, मुसव्विर और नक़्क़ाश थे। जिनके क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला का परवाज़ वहम व गुमान से भी दार लोरी (गुफ़्तगु में मीठे सुर) था। जिन लोगों ने हवारइन (शागिर्दों) के माहौल का और उनकी ज़हनीयत और उनके ज़हनी इर्तिक़ा का सतही मुतालआ भी किया है वो दूसरी शक़ को बेताम्मुल रद्द कर देंगे। हवारइन की क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला तो एक तरफ़ रही जनाबे मसीह के अक़्वाल और अफ़आल को समझने की अहलीयत ही नहीं रखते थे और वो बार-बार इस हक़ीक़त का एतराफ़ भी करते हैं। (मत्ती 16:8-11, 15:15-16, मर्क़ुस 4:13, यूहन्ना 16:16-18, 18:22-23, 3:2, 12:16, वग़ैरह।) हक़ तो ये है कि वो ईमानदार और दयानतदार मोअर्रिखों की तरह आपके अक़्वाल और अफ़आल को कमा-हक़्क़ा समझने के लिए बग़ैर अहाता तहरीर में ले आते हैं। ये एक मुसल्लिमा हक़ीक़त है कि इन्जील में एक ऐसी शख़्सियत का ज़िक्र है जो हर पहलू से कामिल है। इन्जील नवीस ख़ुद गुनेहगार थे और उनकी क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला एक कामिल शख़्स का नक़्शा पेश करने से आजिज़ थी जिस तरह पानी अपने मम्बा और सरचश्मे की सतह से ऊंचा नहीं हो सकता। बफ़र्ज़ मुहाल अगर इन्जील नवीसों की क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला परवाज़ करके एक कामिल इन्सान का तसव्वुर बांध सकी तो ऐसे इन्सान को वो रोज़मर्रा की ज़िंदगी के वाक़ियात और अपने गिर्दो पेश के माहौल में रखकर और मुख़्तलिफ़ क़िस्म के वाक़ियात और हवादिस में इस ज़िंदगी को डाल कर हर पहलू से इस को कामिल बनाने में किस तरह कामयाब हो गए और कामयाब भी ऐसे हुए कि इस तस्वीर में दो हज़ार साल से किसी शख़्स को तसना (बनावट के निशान) तक नज़र नहीं आए? जनाबे मसीह जैसी शख़्सियत घड़ने के लिए शैक्सप्रए (شیکسپئر ) है, पाया के ड्रामानवीस से भी आला दिमाग़ की ज़रूरत है। इन्जील शरीफ़ में जिस सीरत का ख़ाका खींचा गया है अगर वो हक़ीक़त पर मबनी नहीं तो इस क़िस्म की सीरत का ज़हनी इख़्तिरा होना बजा-ए-ख़ुद इस दुनिया का अज़ीमतरीन मोअजिज़ा होगा और अनाजील की मुरक़्क़ा निगारी एजाज़ी शैय होगी। लेकिन इन्जील जलील का सतही मुतालआ भी इस बात को वाज़ेह कर देता है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की इंजीली तस्वीर एक अक्सी तस्वीर है, जिसमें तख़य्युल की क़ुव्वत को रत्ती भर दख़ल नहीं। अनाजील अरबा में निहायत सादा और आम-फहम अल्फ़ाज़ और सलीस इबारत में जनाबे मसीह के ख़यालात व तसव्वुरात, एहसासात व जज़्बात और अफ़आल व किरदार वग़ैरह का ज़िक्र किया गया है और इन्जील नवीस कहीं इस बात की कोशिश नहीं करते कि मुबालग़ा आमेज़ अल्फ़ाज़ में एक ऐसी मस्नूई (खुदसाख्ता) हस्ती को पेश करें जो हक़ीक़ी और तवारीख़ी ना हो। उनकी तहरीरात से अयाँ है कि वो अपने आक़ा की तालीम और अपने मौला की ज़िंदगी के चंद वाक़ियात बयान करके उस की अज़ीमुश्शान शख़्सियत का ख़ाका खींचते हैं। (लूक़ा 1:1-4, 1 यूहन्ना 14:1, यूहन्ना 21:24-25) इंग्लिस्तान का मशहूर फिलासफर जान स्ट्वार्टमिल (मसीही नहीं था) कहता है :-

“ये कहना ख़ुराफ़ात (फ़ुज़ूल बकवास) में शामिल है कि जिस मसीह का ज़िक्र अनाजील में है वो तवारीख़ी शख़्स ना था। ज़रा ख़याल करो कि मसीह के शागिर्दों में कौन इस क़ाबिल था जो मसीह के अक़्वाल इख़्तिरा कर सकता या उसकी तरह की ज़िंदगी और कैरेक्टर (किरदार) को अपने दिमाग़ से पैदा कर सकता। यही फिलासफर एक और मुक़ाम में लिखता है “मसीहिय्यत ने अख़्लाक़ का मेयार मसीह की ज़िंदगी को ठहरा कर और एक क़ुद्दूस शख़्स का नमूना बनी-आदम के सामने पेश करके इस अम्र को लाज़िम कर दिया है कि तमाम दुनिया के इन्सान (ख़्वाह वो मसीह पर ईमान रखते हों या ना रखते हों) उस के नमूने पर चल कर अपने अख़्लाक़ को सुधारें मसीही कलीसिया ख़ुदा को नहीं बल्कि उस के मज़हर मसीह को बनी नूअ इन्सानी के सामने पेश करती बल्कि मसीह की सूरत, ख़साइल, आदात व अख्लाक को नूअ इन्सानी के सामने पेश करती है इस का नतीजा ये हो गया है कि ख़्वाह हम ख़ुदा की हस्ती के क़ाइल हों या दहरिया हों मसीह का नमूना हमेशा हमारे पेश-ए-नज़र रहता है और ये बेनज़ीर नमूना है और ना किसी ऐसे शख़्स की मानिंद है जो मसीह के बाद पैदा हुआ या मसीह का रसूल और जांनशीन हुआ था। उस की बेमिसाल और लासानी ज़िंदगी ऐसी है कि बनी-आदम को ये यक़ीन ही नहीं आता था कि मसीह की इंजीली तस्वीर कोई तवारीख़ी तस्वीर हो सकती है! लेकिन कोई ये तो बताए कि मसीह के रसूलों और मुत्तबईन या इब्तिदाई मुरीदों में से किस शख़्स में ये सलाहीयत मौजूद थी कि ऐसी तस्वीर को क़ुव्वत मुतख़य्युला पर ज़ोर लगाकर ईजाद कर लेता या उस की सी तालीम की तल्क़ीन कर सकता या उस की सी ज़िंदगी का नमूना पेश कर सकता जो अनाजील में मसीह से मन्सूब हैं। क्या गलील के मछुवे इस बात के अहल थे? क्या पौलुस में ये अहलीयत थी? पौलुस के ख़ुतूत से ज़ाहिर है कि उस की सीरत व ख़सलत मसीह की सीरत और ख़सलत से मुख़्तलिफ़ क़िस्म की थी। इन रसूलों और मुरीदों में से हर शख़्स यही इक़बाल करता है कि अगर उनमें कोई नेकी है तो मसीह के तुफ़ैल है मसीह की ज़िंदगी और तालीम और नमूने से उस की तबा ज़ाद जिद्दत और बालिग़ नज़री हर आक़िल पर है।”

“हम जो नासरत के नबी पर ईमान नहीं रखते ये मानने पर मज्बूर हो जाते हैं कि उस को बनी नूअ इन्सान में वो दर्जा दें जो किसी दूसरे फ़रज़ंद-ए-आदम को हासिल नहीं। जब हम इस हक़ीक़त को मद्द-ए-नज़र रखते हैं कि ऐसी बुलंद अख़्लाक़ और अर्फ़ा ज़िंदगी रखने वाला इन्सान रुए-ज़मीन पर सबसे बड़ा अख़्लाक़ीयात का उस्ताद, मुअल्लिम, मुसल्लेह और शहीद हो गुज़रा है, तो हम ये कहे बग़ैर नहीं रह सकते कि वो बनी नूअ इन्सान का आला तरीन राहनुमा है जिसकी क़ियादत का हमको चार व नाचार इक़बाल किए बग़ैर चारा नहीं रहता। हमको (जो उस पर ईमान नहीं रखते) मसीह से बेहतर नमूना चार वांग आलम में नहीं मिलता। ये नमूना उस शख़्स का है जिसने ख़ुद अपनी आला तालीम पर चल कर और उस पर अमल कर के बनी नूअ इन्सान को ज़बरदस्त और बेनज़ीर नमूना दिया है। हक़ तो ये है कि उस का नमूना हमको इस बात पर चार व नाचार मज्बूर कर देता है कि हम ऐसी ज़िंदगी बसर करें जो मसीह की नज़रों में मक़्बूल हो।”

फ़्रांस के नामवर अक़्ल परस्त ग़ैर-मसीही मुसन्निफ़ रूसो (Rousseau) ने दुरुस्त कहा है कि :-

32 J.S. Mill, Three Essay.s On Religion,

“अगर मसीह की इंजीली तस्वीर हक़ीक़त पर मबनी नहीं तो इस तस्वीर का मुसव्विर मसीह से भी बड़ी और ज़्यादा हैरत-अंगेज़ शख़्सियत है।”

“जिसका मतलब ये है कि मसीह की ज़िंदगी का जो ख़ाका अनाजील अरबा में मौजूद है वो ऐसा आला और अर्फ़ा है जो इन्सानी तख़य्युल और इन्सानी दिमाग़ का नतीजा नहीं हो सकता। यही अठारहवीं सदी का नामवर मुसन्निफ़ एक और जगह मिलता है। “सुक़रात की ज़िंदगी और मौत एक अच्छे फिलासफर की ज़िंदगी और मौत थी, लेकिन मसीह की ज़िंदगी और मौत ख़ुदा की शान के शायां थी। जब कभी मैं किसी से ये सुनता हूँ कि उस को इन्जील की सेहत पर शक है तो मैं उस शख़्स की अक़्ल पर हैरान रह जाता हूँ। अगर मसीह की इंजीली तस्वीर किसी इन्सानी दिमाग़ की इख़्तिरा होती तो वो अनाजील अरबा की तस्वीर से कुल्लियतन मुख़्तलिफ़ होती। मुझे इस बात पर ताज्जुब आता है कि कोई शख़्स भी सुक़रात की ज़िंदगी और तालीम से शक नहीं करता हालाँकि उस की ज़िंदगी की ख़ारिजी शहादत अनाजील अरबा की ख़ारिजी शहादत की तरह ज़बरदस्त शहादत नहीं है। ये नामुम्किन अम्र है कि चार मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ों ने मुख़्तलिफ़ मुक़ामात व अवक़ात में इस क़िस्म की ज़िंदगी का मह्ज़ क़ियास व तख़ील की बिना पर ख़ाका खींचा हो। यहूदी मुसन्निफ़ीन की तर्ज़ तहरीर अनाजील की सी ना थी और ना उनके अख़्लाक़ इंजीली पाये के बुलंद और अफ़्ज़ल अख़्लाक़ थे। इन्जील का सतही मुतालआ भी ये साफ़ ज़ाहिर कर देता है कि मसीह एक हक़ीक़ी ज़िंदा इन्सान था। जिसकी चलती फिरती जीती-जागती बोलती तस्वीर चारों इंजीलों में पाई जाती है। अगर ये इंजीली बयानात किसी इन्सान को क़ुव्वत मुतख़य्युला के मर्हूने मिन्नत होते तो ऐसा इन्सान मसीह से भी ज़्यादा अज़ीम हस्ती होता।”

33 (Emile) Book vol.4

अनाजील-ए-मौज़ूआ हम पर ज़ाहिर कर देते हैं कि अनाजील अरबा के लिखने वाले अपने दिमाग़ से काम लेते तो किस क़िस्म की तस्वीर दुनिया के सामने पेश करते और इन्सानी तख़य्युल का रुझान किस तरफ़ होता। इन मौज़ूआ अनाजील में ये कोशिश की गई है कि जनाबे मसीह की निस्बत ऐसी कहानियां बयान की जाएं जो उस ज़माने के लोगों के लिए दिलचस्पी का मूजिब हो सकती थीं। लेकिन वो पुश्त गुज़र गई और उस पुश्त के साथ ही वो मज़ाक़ भी जाता रहा और अब जो शख़्स भी उन क़िस्से कहानीयों को पढ़ता है, वो तिफ़लाना बातें समझ कर उनको छोड़ देता है। मसलन उनमें लिखा है कि, एक गाय और गधी ने जूंही ख़ुदावंद मसीह को देखा उन्हों ने आप को सज्दा किया। शेर और चीते तक आप के हुज़ूर सर निगों हो कर सज्दा करते थे। जब आपके वालदैन आप को मिस्र ले गए तो आप तिफ़्ल ही थे, लेकिन जिस तरफ़ भी आप चलते वहां आपके क़दमों के नीचे गुलाब ही गुलाब पैदा हो जाते। मिस्र के बुत आपको देखकर धड़ाम से गिर पड़ते। जब आप वापिस नासरत आए तो एक दफ़ाअ आप गली में जा रहे थे कि अचानक एक लड़का भागता भागता आपसे टकरा गया। आपने उस के हक़ में बददुआ की तो वो वहीं मर गया। आपने मिट्टी से एक दर्जन परिंदे ख़ल्क़ किए जो आस्मान की जानिब उड़ गए। एक उस्ताद की जो शामत आई तो उसने आप को बुरा भला कहा उस की सज़ा वहीं इस को मिल गई और मलक-उल-मौत ने उस को आ दबोचा। गावं गावं आपकी एजाज़ी क़ुद्रत से ख़ाइफ़ व लर्ज़ां थे। आपने एक मुर्दे को ज़िंदा किया। ज़िंदा होते ही उस का क़द इतना बड़ा हो गया कि उस का सर बादलों के साथ जा टकराया वग़ैरह-वग़ैरह। इस तरह के क़िस्से तीसरी और चौथी सदी के हैं जब अनाजील मौज़ूआ लिखी गई थीं। इन कहानीयों में से चंद एक ने क़ुरआन में भी दख़ल हासिल कर लिया हुआ है मसलन जनाबे मसीह का मिट्टी के परिंदों का बना कर उनको उड़ाना वग़ैरह। ये अफ़साने असातीर-उला-अव्वलीन (पहले लोगों की कहानियाँ) हैं और इसी क़िस्म की हैं जो दीगर अक़्वाम के मज़ाहिब में भी मिलते हैं। चुनान्चे मुख़्तलिफ़ सदीयों में मुख्तलिफ़ अक़्वाम ने कोशिश की है कि अपने मज़ाहिब के बानीयों की ऐसी दिलकश तस्वीर पेश करें जो लोगों के लिए दिलचस्पी का मूजिब हो जाए, मसलन पुराणों में कृष्ण के क़िसस वग़ैरह लेकिन जो तस्वीर एक क़ौम या मुल्क या पुश्त के लिए दिल आवेज़ होती है वो आने वाली पुश्तों और दीगर ममालिक वाज़्मियह और अक़्वाम की नज़र में मअयूब (एब वाला) हो जाती है, लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी का जो ख़ाका अनाजील अरबा में मौजूद है वो ऐसा क़ुदरती और नेचुरल है कि इस के असली होने में किसी साहिबे अक़्ल को शक नहीं हो सकता। जर्मन नक़्क़ाद डाक्टर बोरफ़र्ट (Borchert) ने अपनी किताब (The Original Jesus) और फ़्रैंच आलिम डाक्टर गूगुल (Goguel) ने अपनी किताब (Jesus The Nazarene Myth or History) में इस मौज़ू पर फ़ाज़िलाना बह्स की है कि :-

34 Apacryphal Gosples.

“अब तमाम मसीही और ग़ैर-मसीही उलमा-ए-मग़रिब और नक़्क़ाद इस बात पर इत्तिफ़ाक़ करते हैं कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की इंजीली तस्वीर हक़ीक़त पर मबनी है।”

चुनान्चे स्टराउस (Strauss) जो रास-उल-मुलाहदा (बेदीन लोगों की मीरास) था ये इक़बाल करता है कि :-

“मसीह की हस्ती क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला का नतीजा नहीं बल्कि उस की इंजीली तस्वीर गोश्त-पोस्त रखती है और एक तारीख़ी हक़ीक़त है। वो मज़्हब का आला तरीन मुअल्लिम और अफ़्ज़ल तरीन नमूना है। अगर मज़्हब कोई हक़ीक़त रखता है तो हलक़ा मज़्हब में मसीह से बढ़कर किसी हस्ती का तसव्वुर ना मुम्किनात में से है। आलमे मज़ाहिब में कमालात की जिस तरह बुलंद मंज़िल पर मसीह पहुंचा है वहां तक किसी फ़र्द बशर की रसाई ना-मुम्किन है।”

इब्ने-अल्लाह की तस्वीर ख़ुद अपनी बेहतरीन और सादिक़ तरीन गवाह है और आपकी ज़िंदगी का जलाल अपनी सदाक़त की ख़ुद ही गारंटी है।

تجلی ہاست حق را درنقاب ِ ذات انسانی

شہود ِ غیب اگر خواہی وجوب این جاست امکانی

इन्साने कामिल का तसव्वुर

मुख़्तलिफ़ ममालिक व अक़्वाम के फिलासफरों और हादियों ने इंसान-ए-कामिल के तसव्वुर पर बह्स की है। मसलन अरस्तू कहता है कि :-

“कामिल इन्सान वो है जो इफ़रात और तफ़रीत (कोताही, किसी चीज़ में कमी) से परहेज़ करे और एतिदाल और मियाना रवी पर अपनी रविश को क़ायम रखे।”

सतुयुकी (ستویقی) फिलासफर कहते हैं कि :-

“कामिल इन्सान वो है जो अपने ऊपर ज़ब्त (क़ाबू) रखे।”

चीन का कन्फूसशीश इस मज़्मून पर बह्स के दौरान में कहता है कि :-

“कामिल इन्सान वो है जो ख़ानदानी ताल्लुक़ात में पाकीज़गी को इख़्तियार करे।”

हिंदू मज़्हब के मुताबिक़ “कामिल इन्सान” वो है जो दुनिया से अलग-थलग रह कर ख़ुदा का नाम जपता रहे और भगती में मशग़ूल रहे।” लेकिन इमत्तीदाद-ए-ज़माना (तवील मुद्दत) ने इन तसव्वुरात को ग़ैर-मुकम्मल साबित कर दिया है। हर शख़्स ये बात क़ुबूल करने को तैयार होगा कि अरस्तू का मेयार मह्ज़ एक मुजर्रिद तसव्वुर है लिहाज़ा वो नाकाम साबित हुआ है। सतुयुकी फ़िलासफ़े का ख़याल जो उन्होंने इंसान-ए-कामिल की निस्बत पेश किया नाक़िस साबित हुआ। क्योंकि इन्सानी जज़्बात और एहसासात को दबाना ऐसा ही है जिस तरह एक चश्मे जिसके पानी से इन्सान अपनी प्यास बुझा सकते हैं दबा दिया जाये। कन्फूशीस का तसव्वुर एक घरेलू तसव्वुर है जो क़दीम ज़माने के लिए मौज़ूं था। जब हालात-ए-ज़िंदगी सादा थे और दौरे हाज़रा की ज़िंदगी के पेचीदा ताल्लुक़ात मारज़ वजूद में ना आए थे। पस दौरे हाज़रा की ज़िंदगी पर क़दीम चीन के मेयार-ए-ज़िंदगी का इतलाक़ नहीं हो सकता। हिंदू मज़्हब का तसव्वुर ग़लत साबित हुआ है और कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम व ज़िन्दगी के नमूने ने तक़द्दुस के मेयार को बदल दिया है। अब वो शख़्स मुक़द्दस शुमार नहीं किए जाते जो पहाड़ों की ग़ारों में अलग-थलग ज़िंदगी बसर करें। बल्कि वो हस्तियाँ मुक़द्दस शुमार की जाती हैं जो इस दुनिया में रह कर ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत करना सआदत-ए-दारेन का मूजिब ख़याल करती हैं।

इस्लामी फ़ल्सफ़ा और इंसाने कामिल का तसव्वुर

जब हम इस्लामी कुतुब-ए-फ़ल्सफ़ा पर नज़र करते हैं तो हम देखते हैं फ़िलासफ़ा ने इन्साने कामिल के लिए चंद शराइत मुक़र्रर किए हैं। चुनान्चे मौलाना जामी अलैहि रहमा फ़िसोस-उल-हकम की शरह में फ़र्माते हैं कि “शेख़-उल-कबीर किताब अल-फ़लूक” में लिखते हैं कि :-

“हक़ीक़ी इन्साने कामिल वो है जो वजूब (ज़रूरी होना) और इम्कान में बर्ज़ख हो और सिफ़ात-ए-क़दीमा और हादिसे का आईना हो यही हक़ और ख़ल्क़ के दर्मियान वास्ता है। इसी लिए और इसी के आईने से ख़ुदा का फ़ैज़ तमाम मख़्लूक़ात पर अलवी (आला दर्जा) का हो या सिफ्ली (पस्ती) का पहुंचता है और यही जुज़ ज़ात-ए-हक़ के तमाम मख़्लूक़ात की बक़ा का सबब है अगर ये बर्ज़ख़ जो वजूब और इम्कान का मुग़ाइर (ना-मुवाफ़िक़) नहीं है ना होता तो दुनिया की मदद हासिल ना होती बा सबब ना होने मुनासबत और इर्तिबात (आश्नाई) के।”

फिर सूफ़ी अब्दुल करीम जीलानी अपनी किताब अल-इंसान कामिल के हिस्सा दुवम में यूं लिखते हैं :-

“जानना चाहिए कि इन्सान कामिल वो है जो अस्मा-ए-ज़ातीया और सिफ़ाते इलाहिया का असली और मलक (क़ब्ज़ा) के तौर पर मुक़्तज़ा-ए-ज़ाती (हक़ीक़ी वजह) के हुक्म से मुस्तहिक़ हो। क्योंकि वो इन इबारात के साथ अपनी हक़ीक़त से ताबीर किया गया है और उन इशारात के साथ अपने लतीफ़ा की तरफ़ इशारा किया गया है। उस के वजूद में सिवाए इन्साने कामिल के कोई मुस्तनद (सहारा टेकने की जगह) नहीं। पस उस की मिसाल हक़ के लिए ऐसी ही है जैसे एक आईने कि उस में कोई शख़्स अपनी सूरत बग़ैर इस आईने के नहीं देख सकता और ना बग़ैर अल्लाह के इस्म के अपने नफ़्स की सूरत देखना उस को ग़ैर मुम्किन है पस वो उस का आईना है और इन्सान कामिल भी हक़ का आईना (मज़हर) है क्योंकि हक़ सुब्हाना व तआला ने अपने नफ़्स पर ये अम्र वाजिब कर लिया है कि अपने अस्मा व सिफ़ात को बग़ैर इन्सान कामिल के नहीं दिखाता।”

पस बर्ज़ख़ कुबरा और इंसान-ए-कामिल और मज़हर जामे सिर्फ वही शख़्स हो सकता है जो कि कामिल ख़ुदा और कामिल इन्सान हो सिफ़ात-ए-क़दीमा इलाहिया और सिफ़ात-ए-मुम्किना इंसानिया के साथ मुत्तसिफ़ (मौसूफ़ : जिसके साथ कोई सिफ़त लगी हो) हो। क्या अहले इस्लाम आँहज़रत में इन सिफ़ात का वजूद मानते हैं? हरगिज़ नहीं क्योंकि नबी इस्लाम को मज़हर ज़ात-ए-ख़ुदा क़रार देना उसूल-ए-इस्लाम को बदलना है। लेकिन रब्बन-उल-मसीह इन तमाम औसाफ़ से मुत्तसिफ़ हैं और वो आप में अंसब (ज़्यादा मुनासिब) और अकमल तौर पर मौजूद हैं। (यूहन्ना 10:30, 17:11-22, 1:14, 14:11, 1:1, कुलस्सियों 1:15, 2:9 वग़ैरह-वग़ैरह)

हम अहले इस्लाम की तवज्जोह शेख़-उल-अकबर इमाम मुही-उद्दीन इब्ने अरबी की किताब फ़िसोस-उल-हकम बिल-ख़ुसूस फ़स ईस्वी और बाब इन्जील और मौलवी अनवर अली साहब पानीपति की किताब शरह साएँ बुलहे शाह और सय्यद अब्दुल करीम जीलानी की किताब इन्साने कामिल की तरफ़ मबज़ूल करते हैं ताकि आप देखें कि हक़ीक़त ईस्वी के मुताल्लिक़ उन मुसलमान फ़िलासफ़ा और सूफ़िया ने क्या फ़रमाया है। हक़ीक़त ईस्वी एक एसी हक़ीक़त है जिस कि कुनह तक पहुंचने में अक़्ल-ए-इन्सानी व्रता हैरत में पड़ी रही है बक़ौल इमाम मुही-उद्दीन इब्ने अरबी “ईसा पर नज़र करने वाले के नज़्दीक उसी गुमान के मुवाफ़िक़ होंगे जो उस के ज़हन में ग़ालिब है।” चुनान्चे “जब ईसा मुर्दों को ज़िंदा करते थे तो कहा जाता था कि ईसा बशर हैं और बशर नहीं हैं और हर आक़िल को उनकी तरफ़ नज़र करने में हैरत वाक़ेअ होती थी जिस वक़्त नाज़िर देखता है कि वो मुर्दों को ज़िंदा करता है। हालाँकि मुर्दों को ज़िंदा करना ख़ुसूसीयत इलाहिया में से है। क्योंकि आप मुर्दों को इस तरह ज़िंदा नहीं करते थे कि सिर्फ हैवान मुतहर्रिक हों बल्कि मुर्दे ज़िंदा हो कर कलाम भी करते थे। पस नाज़िर इस मुआमले में हैरान रह जाता है। क्योंकि वो सूरत बशरी को असर इलाही के साथ मुलब्बस देखता है। पस बाअज़ अह्ल-ए-अक़्ल की नज़र फ़िक्री ने उनको ईसा के हक़ में कुछ समझाया और वो हक़ तआला के आप में हलूल होने के क़ाइल हो गए और ये कहने लगे कि ईसा ख़ुद ही अल्लाह तआला हैं।”

35 अल-इंसाने कामिल (उर्दू तर्जुमा मौलवी ज़हीर अहमद सहवानी हिस्सा दुवम सफ़ा 105 ता 106)

पस मसीहीयों ने फ़र्दन फ़र्दन और कौंसिलों के ज़रीये और मुसलमानों ने क़ुरआन व फ़ल्सफे के ज़रीये हक़ीक़त-ए-ईस्वी को समझने की कोशिश की लेकिन,

किसी की चलती नहीं यहां कुछ

पुकारते सब हैं माअर फ़नावह

फ़ख़्र उद्दीन राज़ी हों या फ़लातूँ, जलाल रूमी हों या ग़ज़ाली। आख़िर सबने यक ज़बान हो कर यही इक़्रार किया कि :-

ماعر فناک حق معرفتک

कलिमतुल्लाह (मसीह) कामिल इन्सान हैं

(1)

अगरचे कामिल इन्सान होने के लिए मासूम होना एक लाज़िमी और ज़रूरी शर्त है ताहम “इस्मत” कमालियत के मफ़्हूम को कमा-हक़्क़ा अदा करने से क़ासिर है। “इस्मत” या बेगुनाही मह्ज़ एक मन्फ़ी सिफ़त है। लेकिन कामिल इन्सान ना सिर्फ बेगुनाह होता है बल्कि वो कामिल तौर पर रास्तबाज़ होता है। (फिलिप्पियों 3:13) मसीहिय्यत के नज़्दीक कामिल इन्सान का मेयार निहायत बुलंद है। हमको ना सिर्फ ये हुक्म है कि “तुम पाक हो, इसलिए कि ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस पाक है।” (1 पतरस 1:15) बल्कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया है, “तुम कामिल हो जैसा तुम्हारा आस्मानी बाप कामिल है।” (मत्ती 5:48) ख़ुदा मुहब्बत है पस कामिल तौर पर रास्तबाज़ वो शख़्स है जो “ख़ुदावंद अपने ख़ुदा से अपने सारे दिल और अपनी सारी जान और अपनी सारी अक़्ल से मुहब्बत रखे।” और कुल बनी नूअ इन्सान से “अपने बराबर मुहब्बत रखे।” (मत्ती 22:37) कामिल इन्सान मुहब्बत मुजस्सम होता है। (मत्ती 5:45) उस की ज़िंदगी मुहब्बत के अफ़आल पर मुश्तमिल और मुहब्बत के जज़्बात और ख़यालात में सरशार होती है। कामिल ज़िंदगी मुहब्बत और उस के ज़हूर यानी ईसार की ज़िंदगी है। (मत्ती 19:21) कामिल इन्सान फ़नाफ़ील्लाह और फ़नाफ़ील-इंसान होता है, जो शख़्स ऐसी ज़िंदगी बसर करता है वो इस दुनिया को फ़िर्दोस बना देता है औरा एसे शख़्स के वजूद के तुफ़ैल ख़ुदा की मर्ज़ी जैसी आस्मान पर पूरी होती है ज़मीन पर भी होती है।

ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि जनाबे मसीह इस दुनिया में पहले और अकेले मुअल्लिम हैं, जिन्हों ने दुनिया को ये तालीम दी कि ख़ुदा मुहब्बत है और ये बताया कि मुहब्बत मज़्हब का अस्लुल-उसूल है। आपने ये सिखाया कि मुहब्बत उसूल एक वाहिद किलीद है, जिससे हम (1) ख़ुदा की ज़ात और (2) ख़ुदा और इन्सान के बाहमी ताल्लुक़ात और (3) इन्सान और इन्सान के बाहमी ताल्लुक़ात के तमाम पेचीदा और मुश्किल मसाइल और सवालात को हल कर सकते हैं। (मर्क़ुस 12:28) आपने ना सिर्फ ये तालीम दी बल्कि अपनी ज़िंदगी से इस नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को ज़ाहिर कर दिया। आपकी बेमिसाल शख़्सियत ने इस उसूल को बनी नूअ इन्सान के दिलों पर बिठा दिया। आपकी ज़िंदगी मह्ज़ आला तरीन उसूलों की तल्क़ीन करने पर ही मुश्तमिल ना थी बल्कि आपने इस तालीम पर अमल-पैरा हो कर दुनिया जहान के इन्सानों को एक कामिल नमूना दिया है। कलिमतुल्लाह (मसीह) के तमाम ताल्लुक़ात कामिल थे, जो आप ख़ुदा के साथ, अपने जिस्म व रूह के साथ, अपने हम-जिंसों के साथ और मौजूदात की दीगर अश्या के साथ रखते थे। चूँकि आपका ईमान कामिल था। (इब्रानियों 2:10, 7:28) और आप कामिल तौर पर ख़ुदा बाप के फ़रमांबर्दार (इब्रानियों 5:8-10) और रिज़ा-ए-इलाही के जोयायाँ थे। (यूहन्ना 4:34, 5:3) लिहाज़ा आपके ताल्लुक़ात जो ख़ुदा के साथ थे कामिल थे। (यूहन्ना 17:1, 2, 5, 21) आपके इन ताल्लुक़ात से जो आप दीगर इन्सानों के साथ रखते थे मुहब्बत का ज़हूर दिखाई देता है। आपने अपने माहौल को अपनी शख़्सियत के इज़्हार के लिए इस तौर पर इस्तिमाल किया, कि आपकी शख़्सियत जामे शख़्सियत हो गई जो हर दुनिया के फ़र्द बशर के लिए एक कामिल नमूना है इब्ने-अल्लाह (मसीह) की तालीम और ज़िंदगी ने एक ऐसा मेयार क़ायम कर दिया है जो दो हज़ार साल से हर ज़माने, क़ौम मिल्लत और मुल्क की मतमा नज़र (असली मक़्सद) और नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) रहा है। दौरे हाज़रा में तुमको इस दुनिया में एक शख़्स भी ऐसा नहीं मिलेगा जो ये चाहता हो कि इब्ने-अल्लाह का मतमा नज़र दुनिया की निगाहों से ओझल हो जाए। अगर उस को कोई शिकायत होगी तो ये होगी कि दुनिया के अश्ख़ास कमा-हक़्क़ा इस कामिल इन्सान की पैरवी नहीं करते।

(2)

कामिल इन्सान की सीरत के मुख़्तलिफ़ पहलू एक दूसरे से मुताबिक़त रखते हैं। कामिल इन्सान के ख़यालात, तसव्वुरात, जज़्बात अक़्वाल अफ़आल वग़ैरह, ग़रज़ कि उस की ज़िंदगी के जितने मुख़्तलिफ़ पहलू हैं, वो तमाम के तमाम ऐसे होते हैं कि उनमें बाहम इख़्तिलाफ़ और तज़ाद नहीं होता। हमको इस तालीम के उसूल उस की ज़िंदगी के हर पहलू में नज़र आते हैं और उस की ज़िंदगी का हर पहलू उस के उसूल की आला तरीन मिसाल दिखाई देती है। जो इन्सान कामिल नहीं होता उस की ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ पहलूओं में इख़्तिलाफ़ और तज़ाद पाया जाता है। उस के क़ौल और फ़ेअल में मुताबिक़त नहीं होती। वो आलिम और बेअमल होता है। उस के तसव्वुरात व ख़यालात, जज़्बात और अक़्वाल व अफ़आल में तफ़ावुत (दूरी) पाई जाती है। अगर एक पहलू से वो क़ाबिल-ए-तक़्लीद है तो दूसरे पहलू से वो क़ाबिल-ए-नफ़रीन (मज़म्मत) होता है। ऐसे शख़्स की निस्बत हम वसूक़ (यक़ीन) के साथ ये नहीं कह सकते कि वो हर पहलू से रास्तबाज़ है। मसलन अगर वो कामिल तौर पर दयानतदार और अमीन है, तो हम ये वसूक़ (यक़ीन) के साथ नहीं कह सकते कि वो औरतों के मुआमले में भी पाकीज़ा होगा। या वो ताक़त का बे-जा मुज़ाहरा नहीं करेगा। ऐसा शख़्स कामिल नमूना नहीं हो सकता। बनी नूअ इन्सान के लिए कामिल नमूना ना सिर्फ वो शख़्स हो सकता है जिसकी ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ पहलूओं में इख़्तिलाफ़, तफ़ावुत और तज़ाद ना हो और जिसकी ज़िंदगी के सब पहलू कामिल हों।

कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी का मुतालआ हम पर ये साबित कर देता है कि आपकी ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ पहलूओं में किसी क़िस्म की तफ़ावुत नहीं थी। आपके तसव्वुरात जज़्बात अक़्वाल और अफ़आल में बाहम मुताबिक़त पाई जाती है। आपकी ज़िंदगी आपके उसूलों की ज़िंदा मिसाल है। यही वजह है कि जैसा हम तारीफ़ ज़िक्र कर आए हैं कि मसीहिय्यत मसीह है और मसीह मसीहिय्यत है। कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम आपकी ज़िंदा शख़्सियत से जुदा नहीं की जा सकती क्योंकि वो कामिल मुताबिक़त की वजह से फ़िल-हक़ीक़त दो नहीं बल्कि एक हैं। चूँकि आपके ख़यालात और जज़्बात, अक़्वाल और अफ़आल में किसी तरह का भी तज़ाद नहीं, लिहाज़ा हम आपकी निस्बत ये क़ियास कर सकते हैं कि आप जैसे इन्सान से फ़ुलां-फ़ुलां हालात के अंदर फ़ुलां-फ़ुलां क़िस्म के ख़यालात जज़्बात या अफ़आल सादिर होंगे और इन्जील शरीफ़ का मुतालआ हमारे क़ियास की तस्दीक़ कर देता है और इस बात पर मुहर कर देता है, कि आप फ़िल-हक़ीक़त एक कामिल इन्सान हैं। रुए-ज़मीन की किसी दूसरी हस्ती की निस्बत हम कामिल वसूक़ (यक़ीन) के साथ ये क़ियास नहीं कर सकते कि फ़ुलां-फ़ुलां हालात के अंदर उस से फ़ुलां-फ़ुलां क़िस्म के जज़्बात, ख़यालात और अफ़आल सादिर होंगे क्योंकि गो उस की ज़िंदगी का एक पहलू तारीफ़ और तहसीन के लायक़ होता है, लेकिन उस का दूसरा पहलू मज़म्मत के क़ाबिल होता है। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी को बीस सदीयों से हर क़ौम, मुल्क और ज़माने ने अपने अपने ज़ावीया निगाह से देखकर कामिल पाया है। दुनिया के तमाम ममालिक व अक़्वाम ने आपकी पाकीज़ा ज़िंदगी को अपना मेयार बनाया है और अपनी क़ौमी, मिल्ली और इन्फ़िरादी ज़िंदगी की इस्लाह इस मेयार के मुताबिक़ की है।

हर क़ौम व मुल्क की आने वाली पुश्त ने सदीयों से आपकी ज़िंदगी को अपने ख़ुसूसी ज़ावीया निगाह से देखा लेकिन आपकी ज़िंदगी हर पहलू से कामिल निकली। चुनान्चे तारीख़ के मुतालए से ज़ाहिर है कि हर ज़माने के ख़ुसूसी मसाइल आपकी ज़िंदगी की रोशनी में हल हो गए। आपके अर्फ़ा उसूल और कामिल नमूने की रोशनी में हर ज़माने मुल्क और क़ौम का इन्सान ख़याल कर सकता है कि अगर इब्ने-अल्लाह (मसीह) मेरी जगह होते तो अंदरें हालात वो क्या ख़याल करते या क्या फ़र्माते या करते? चूँकि जनाबे मसीह की तालीम जामेअ और मानेअ है और आपका नमूना आलमगीर है लिहाज़ा उनका इतलाक़ हर ज़माने के अफ़राद की ज़िंदगी और हर क़ौम व मुल्क की तारीख़ और हर शख़्स पर आपका नमूना आलमगीर है। लिहाज़ा इनका इतलाक़ हर ज़माने के अफ़राद पर हो सकता है। दुनिया के हर इन्सान के लिए आपकी अर्फ़ा तालीम और कामिल नमूना मेयार का नाम है।

मसलन अगर किसी शख़्स का कोई जानी दुश्मन हो और वो ये जानना चाहता हो कि मैं अपने ख़ून के प्यासे के साथ क्या सुलूक करूँ? तो वो ये ख़याल कर सकता है कि अगर इब्ने-अल्लाह (मसीह) मेरी जगह होते तो क्या करते? अगर वो मेरी जगह होते तो मेरे जानी दुश्मन से इस तरीक़े से प्यार करते कि उस की बदी मुहब्बत के ज़रीये मग़्लूब हो जाती। (मत्ती 5:44, लूक़ा 23:34) पस मुझ पर फ़र्ज़ है कि मैं भी ऐसा तरीक़ा इख़्तियार करूँ जिससे मेरा दुश्मन मुहब्बत के ज़रीये प्यार करने वाला शख़्स बन जाये।

(3)

कामिल नमूना होने का ये मतलब नहीं कि कामिल इन्सान हर ज़माने, मुल्क और क़ौम के हर फ़र्द बशर की ज़िंदगी की हर अदना तफ़्सील में से ख़ुद गुज़र चुका हो। कोई इन्सान ज़मान व मकान की क़ुयूद से आज़ाद नहीं हो सकता। क्योंकि ये एक ना-मुम्किन अम्र है। पस वो इन क़ुयूद के अंदर ही एक कामिल ज़िंदगी बसर कर सकता है। लेकिन हमारे बाअज़ मुसलमान भाई इसी क़िस्म की अहम ग़लती में मुब्तला हैं। मसलन आँजहानी ख़्वाजा कमाल उद्दीन क़ादियानी कलिमतुल्लाह (मसीह) के मुजर्रिद रहने का ज़िक्र करके कहते हैं कि, मसीहिय्यत में “ज़न (औरत) व मर्द के मुताल्लिक़ कमोबेश तालीमात तो हैं लेकिन उस के बानी की ज़िंदगी हमारे लिए इस मुआमले में राह हिदायत नहीं हो सकती।” (यनाबीअ अल-मसीहिय्यत सफ़ा 160) जिसका मतलब ये है कि चूँकि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) अपनी तमाम उम्र मुजर्रिद (कुंवारे) रहे, लिहाज़ा आपकी ज़िंदगी एक शादीशुदा शख़्स के लिए नमूना नहीं हो सकती। हम अपनी किताब (“दीन-ए-फ़ित्रत इस्लाम या मसीहिय्यत” की फ़स्ल सोम सफ़ा 49) पर वजह बता चुके हैं कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ने तजर्रुद (गैर-शादीशुदा ज़िन्दगी) क्यों इख़्तियार किया और कि आपने तजर्रुद इख़्तियार करके मुहब्बत, ऐसारो नफ़्सी और ख़ुद-फ़रामोशी का आला तरीन नमूना बनी नूअ इन्सान को दिया।

सुतूर बाला में हम ज़िक्र कर चुके हैं कि कामिल नमूना होने के लिए सिर्फ ये ज़रूरी है कि कामिल इन्सान आला तरीन रुहानी उसूल पर अपनी ज़िंदगी की हर हालत और हर माहौल में कारबन्द रहा हो और उस की ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ पहलू एक दूसरे के मुतज़ाद ना हों। जैसा हम कह चुके हैं, ये अम्र ना-मुम्किनात में से है कि एक वाहिद शख़्स मुख़्तलिफ़ ममालिक वअज़्मिनियाह और अक़्वाम और मुख़्तलिफ़ ख़यालात और तबाइअ (तबीयत की जमा) के लोगों के लिए उनकी ज़िंदगी की हर अदना तफ़्सील के लिए अपनी फ़ानी ज़िंदगी के मुसव्वदे चंद सालों के अंदर आने वाली नसलों के हर फ़र्द के वाक़ियात ज़िंदगी में नमूना हो सके। मसलन बफ़र्ज़ मुहाल अगर हम इस ग़ैर-मुम्किन मेयार और मफ़्हूम को तस्लीम करलें फिर भी रसूले अरबी इस मफ़रूज़ा मेयार पर पूरे नहीं उतर सकते। मसलन मताहल (सोचने वाला) ज़िंदगी के लिए भी आप नमूना नहीं हो सकते। क्योंकि अल्लाह तआला ने आपको इन तमाम क़ुयूद से आज़ाद कर दिया था, जो औरतों के हुक़ूक़, तादाद और मुसावात (बराबरी के हुक़ुक़) के मुताल्लिक़ थीं। (सूरह अह्ज़ाब 49-51 वग़ैरह) फिर चूँकि आप शादीशुदा शख़्स थे आप मुजर्रिद (कुंवारें) अश्ख़ास के लिए नमूना नहीं हो सकते। चूँकि आप बचपन ही से यतीम हो गए थे और वालदैन का साया सर पर से उठ गया था और वालदैन की ख़िदमत का मौक़ा आपको नहीं मिला था। लिहाज़ा दुनिया के इन्सानों के लिए जिनके सर पर बचपन में ही वालदैन का साया नहीं उठा वालदैन के इताअत का नमूना नहीं हो सकते। अला-हाज़ा-उल-क़यास चूँकि आपका कोई बेटा नहीं था लिहाज़ा किसी वालिद के लिए उस के बेटे के मुआमले में नमूना नहीं हो सकते वग़ैरह-वग़ैरह। इस एक मिसाल से ज़ाहिर हो जाता है कि मोअतरज़ीन के ज़हन में कामिल नमूने का जो मफ़्हूम है वो सरासर ग़लत है कामिल नमूने का सिर्फ वही मफ़्हूम दुरुस्त है जो हम ऊपर बयान कर चुके हैं।

हुआ है मुद्दई का फ़ैसला अच्छा मेरे हक़ में

ज़ुलेख़ा ने किया ख़ुद पाक दामन माह-ए-कअनां का

बाअज़ अश्ख़ास कामिल नमूने के इम्कान का इन्कार करके कहते हैं कि कोई इन्सान मकान व ज़मान की क़ुयूद में ख़ुदा को कामिल तौर पर ज़ाहिर नहीं कर सकता। क्योंकि ख़ुदा एक लामहदूद हस्ती है लेकिन इन्सान एक महदूद हस्ती है जो महदूद ज़माने में एक मुद्दत तक अपनी ज़िंदगी गुज़ारता है।

लेकिन हक़ीक़त ये है कि इस एतराज़ की बिना (बुनियाद) ग़लत है। जब हम लफ़्ज़ “लामहदूद” इतलाक़ ख़ुदा की ज़ात पर करते हैं तो इस से ये मुराद नहीं लेते कि ख़ुदा एक एसी हस्ती है जो ज़मान व मकान में नहीं आ सकता। अगर ला-महदूद से ये मुराद हो सकती तब एतराज़ सही हो सकता कि किसी शए का कोई जुज़ कामिल तौर पर कुल को ज़ाहिर नहीं कर सकता। लेकिन ख़ुदा रूह है और ज़मान व मकान और माद्दे की तमाम क़ुयूद से बुलंद व बाला है। (यूहन्ना 4:23-24) पस ख़ुदा की ज़ात में जुज़ और कुल का सवाल ही पैदा नहीं नहीं होता। ख़ुदा की ला-महदुदीयत का वो मतलब ही नहीं जो मोअतरिज़ के ख़याल में है चूँकि ख़ुदा रूह है और रूह इन माअनों में लामहदूद कहते हैं तो हमारा मतलब ये होता है कि गो वोह मकान व ज़मान की क़ुयूद से बुलंद व बाला है ताहम उसकी सिफ़ात यानी मुहब्बत, पाकीज़गी, रहम वग़ैरह ज़मान व मकान की क़ुयूद और हदूद में ज़ाहिर हो सकती हैं। और रिज़ा-ए-इलाही पर कामिल तौर पर चलने वाला इन्सान इन सिफ़ात इलाही को कामिल तौर पर अपनी महदूद ज़िंदगी के दायरे के ज़रीये ज़ाहिर कर सकता है। और मसीहिय्यत का ये दावा है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ने कमा-हक़्क़ा तौर पर ज़ाते इलाही को फ़िल-हक़ीक़त अपनी ज़ात के ज़रीये दुनिया जहान पर ज़ाहिर कर दिया और आपने फ़रमाया “जिसने मुझे देखा उसने बाप (यानी) परवरदिगार को देखा।” (यूहन्ना 14:9)

इस्मत-ए-मसीह का मफ़्हूम

(1)

इस बात में किसी सही-उल-अक़्ल शख़्स को कलाम नहीं कि मुनज्जी आलमीन की आमद ने दुनिया की काया को पलट दिया है। ये एक मुसल्लिमा उसूल है कि हर इल्लत का मालूल होता है और जितना अज़ीम वाक़िया हो उतना ही बड़ा और आलीक़द्र उस वाक़िये का सबब होगा। ये नहीं हो सकता कि वाक़िया तो अज़ीमुश्शान हो, लेकिन उस का सबब निहायत ख़फ़ीफ़ हो। पस अगर दुनिया की काया पलट गई है तो ज़ाहिर है कि जिस चीज़ ने दुनिया की काया पलट दी है वो शख़्सियत ख़ुद निहायत अज़ीम-उल-क़द्र और बेनज़ीर होगी। जाहिल से जाहिल शख़्स भी इस हक़ीक़त से वाक़िफ़ है कि जनाबे मसीह की आमद ने दुनिया की तारीख़ को दो हिस्सों में बांट दिया है। यानी दुनिया का वो ज़माना जो क़ब्ल अज़ मसीह गुज़रा और दूसरा वो ज़माना जो आपकी बिअसत (रिसालत) के बाद आया। हर शख़्स जो दुनिया की अख़्लाक़ीयात से वाक़िफ़ है जानता है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की शख़्सियत ने अख़्लाक़ीयात में एक ऐसी अज़ीम और ज़बरदस्त तब्दीली पैदा कर दी है जिसकी नज़ीर रुए-ज़मीन की किसी और शख़्सियत में नहीं मिलती और जिसकी वजह से दुनिया की तारीख़ दो हिस्सों में बट गई। आपकी तालीम और आपकी ज़िंदगी के नमूने ने दुनिया के पहले दौर को ख़त्म कर दिया और दूसरा दौर आपके उसूल आपकी ज़िंदगी के रूह-ए-रवाँ थे और इन दोनों में कोई ख़लीज हाइल ना थी। आपकी ज़िंदगी आपके उसूलों की ज़िंदा मिसाल है (यूहन्ना 5:36, 10:37) पस दुनिया-ए-अख़्लाक़ीयात की तारीख़ इस बात की गवाह है, कि जिस तरह आपकी तालीम बेनज़ीर है उसी तरह आपकी शख़्सियत बेगुनाह मासूम लासानी और यकता (अनोखी) है।

(2)

जब हम ज़बरदस्त इस शख़्सियत पर नज़र करते हैं कि जिसका ख़ाका अनाजील-ए-अर्बा में पाया जाता है तो हम पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि आँ-खुदावंद एक मासूम और बेगुनाह हस्ती थे। इस्मत-ए-मसीह से हमारी मुराद ये है कि मुनज्जी आलमीन “सारी बातों में हमारी तरह आज़माऐ गए ताहम बेगुनाह रहे।” (इब्रानियों 4:15) आपकी ज़ात “पाक” थी और आप तमाम उम्र “बे-रिया और बेदाग़” रहे। आप गुनाहगारों के रफ़ीक़ थे, लेकिन उनके साथ रिफ़ाक़त रखने के बावजूद आप ऐसी पाकीज़ा ज़िंदगी बसर करते थे जो “गुनाहगारों से जुदा” थी। (इब्रानियों 7:26) इब्ने-अल्लाह (मसीह) “गुनाह से वाक़िफ़” ना थे। (2 कुरिन्थियों 5:21) आपकी “ज़ात में गुनाह नहीं था। (1 यूहन्ना 3:5) आप ने कभी कोई गुनाह ना किया।” (1 पतरस 2:22) इस हक़ीक़त का आप के दुश्मनों और जान लेवाओं तक को एतराफ़ था। (लूक़ा 23:4)

(3)

अगरचे आप मर्यम बतूल के बतन अतहर से पैदा हुए, लेकिन आपकी मोअजज़ाना पैदाइश आपकी इस्मत और बेगुनाही का बाइस ना थी, बल्कि आप फ़ाइल ख़ुद-मुख़्तार होने की वजह से मासूम थे। कलिमतुल्लाह (मसीह) का तजस्सुम आपके मासूम होने का बाइस ना था बल्कि आप ख़ुद अपनी ज़ात के मासूम होने का बाइस थे। जैसा हम आगे चल कर बताएँगे। आपके सामने दीगर इन्सानों की तरह आलम-ए-तुफुलिय्यत (बचपन) और आलम-ए-शबाब में आज़माईशें आईं, लेकिन आप उन पर ग़ालिब आकर “हिक्मत और क़द व क़ामत में और ख़ुदा की और इन्सान की मक़बूलियत में तरक़्क़ी करते गए।” (लूक़ा 2:52)

(4)

जब हम दीगर औलिया, अतक़िया (तक़ी की जमा, परहेज़गार लोग) और मुक़द्दीसीन की ज़िंदगीयों का मुतालआ करते हैं तो उनकी ज़िंदगीयों में और कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी में एक अज़ीम और हैरत-अंगेज़ फ़र्क़ पाते हैं। दीगर सालेहीन अपनी नफ़्सकुशी की ख़ातिर अपने बदनों को हर क़िस्म का आज़ार (दुख) देते हैं और अपनी ख़्वाहिशात को मग़्लूब करने के लिए और तज़्किया नफ़्स की ख़ातिर हर क़िस्म के वसाइल और आलात इस्तिमाल करते हैं, ताकि उनको अपने नफ़्स पर फ़त्ह हासिल हो सके और उनकी जिस्मानी ख़्वाहिशात उनके क़ाबू में आ जाऐं। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी में हम इन बातों को कहीं नहीं पाते। आप हमको हमेशा “ख़ुदा की गोद” में नज़र आते हैं। (यूहन्ना 1:18) ख़ुदा की हुज़ूरी इब्ने-अल्लाह (मसीह) के चारों तरफ़ ख़ेमा-ज़न रही। आपको ख़ुदा की रिफ़ाक़त का हर वक़्त एहसास था। आपकी तालीम आपकी ज़िंदगी के अफ़आल व किरदार से ये अयाँ है, कि ख़ुदा ने एक इन्सान की ज़िंदगी के ज़रीये अपनी ज़ात को हम पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) किया है। आपके ज़रीये हमको ये इल्म हासिल हो गया है कि ख़ुदा किस क़िस्म का ख़ुदा है क्योंकि “उलुहिय्यत की सारी मामूरी उस में मुजस्सम हो कर सुकूनत करती है।” (कुलस्सियों 2:9) उलूहियत का कमाल इन्सानियत के कमाल में ज़ाहिर है। उलूहियत और कामिल इन्सानियत आँ-खुदावंद की शख़्सियत में यकजा (एक साथ) नज़र आती हैं। जब हम आपकी शख़्सियत पर एक पहलू से नज़र करते हैं तो हम जान सकते हैं, कि ख़ुदा किस को कहते हैं? और जब दूसरे पहलू से नज़र करते हैं तो हम मालूम कर सकते हैं कि कामिल इन्सान किस को कहते हैं?

जनाबे मसीह की आज़माईशें

इब्ने-अल्लाह (ख़ुदावंद मसीह) अपने कामिल ईमान और कामिल फर्मांबर्दारी की वजह से उन तमाम आज़माईशों पर ग़ालिब आए जो वक़्तन-फ़-वक़्तन आपके सामने आती थीं। इन्जील मुक़द्दस के मुतअद्दिद मुक़ामात में इन आज़माईशों का किनायतन (इशारन) ज़िक्र है। (लूक़ा 4:13, 12:50, यूहन्ना 12:27, लूक़ा 22:28, इब्रानियों 2:18 वग़ैरह) लेकिन वज़ाहत के साथ तीन आज़माईशों का ज़िक्र किया गया है। (मत्ती 4:1-12)

(1)

जब हम इन आज़माईशों पर ग़ौर करते हैं तो पहली बात जो हमको नज़र आती है वो ये है कि इन आज़माईशों का जिस्मानी लज़्ज़ात, जिन्सी जज़्बात और नफ़्सानी ख़्वाहिशात के साथ (जिनको हम उमूमन गुनाह से ताबीर करते हैं) कोई ताल्लुक़ नहीं। इस की वजह ये है कि इन आज़माईशों को मुख़्तलिफ़ क़िस्म की आज़माईशों का मुक़ाबला करना पड़ता है। हर शख़्स की आज़माईश उस के चाल चलन ख़ुद ख़सलत और कैरक्टर पर मुन्हसिर होती है। एक शख़्स के सामने चोरी करने की आज़माईश आती है, वो इस क़िस्म की आज़माईशों पर ग़ालिब आता है और उस की ख़सलत इस क़िस्म की हो जाती है कि चोरी की ख़्वाहिश उस के लिए आज़माईश नहीं रहती। लेकिन अब इसी शख़्स के सामने ज़िनाकारी की आज़माईश आती है तो वो उस का मुक़ाबला नहीं कर सकता और गिर जाता है। दूसरे शख़्स के सामने झूट बोलने की आज़माईश आती है और वो इस क़िस्म की आज़माईशों पर ग़ालिब आकर रास्त गुफ़तार हो जाता है। लेकिन किसी और क़िस्म की आज़माईश में गिरफ़्तार हो जाता है। इब्ने-अल्लाह (मसीह) अपनी जिस्मानी और नफ़्सानी ख़्वाहिशों पर ग़ालिब आ चुके थे और आपकी ख़सलत इस क़िस्म की बुलंद हो चुकी थी कि नफ़्सानी ख़्वाहिशों की आज़माईशें आपके सामने अपनी ताक़त खो चुकी थीं। पस इब्ने-अल्लाह (मसीह) के लिए रुहानी जंग का महाज़ बदल चुका था। आपकी आज़माईशें अंदरूनी आदात व हालात की वजह से नहीं बल्कि बैरूनी और ख़ारिजी हालात की वजह से आपके सामने आती हैं, जिनका ताल्लुक़ आपके एजाज़ी क़वा-ए-, रुहानी पैग़ाम ज़िंदगी के मक़्सद के साथ है। जिसकी ख़ातिर बाप ने आपको दुनिया में था।

(2)

पहली आज़माईश ऐसी है जिसमें दुनिया की नामवर हस्तियाँ गिर गई हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी ख़ुदादाद क़ाबिलियतों को अपनी ज़ाती अग़राज़ के हुसूल की ख़ातिर इस्तिमाल किया। इब्ने-अल्लाह (मसीह) को ये एहसास था, कि आप में एजाज़ी क़ुव्वत है। पस आज़माईश आती है कि इस एजाज़ी क़ुव्वत को अपनी ज़ाती अग़राज़ और फ़वाइद की ख़ातिर इस्तिमाल करे। ये एक ऐसी आज़माईश है जिसने तारीख़ के औराक़ को ख़ूनीन (ख़ून-आलूद) बना दिया है। दीगर मज़ाहिब के नामवर अश्ख़ास ने अपनी ज़ाती हवस को पूरा करने की ख़ातिर हज़ारों इन्सानों को मैदान-ए-जंग में क़ुर्बान कर दिया है। तारीख़ हमको बताती है कि जिस ज़माने में इब्ने-अल्लाह (मसीह) की बिअसत हुई, वो खासतौर पर ख़ुदग़रज़ी का ज़माना था। क़यासिरा रुम से लेकर अदना इन्सानों तक लोग अपनी ज़ाती अग़राज़ पर क़ौमी और मुल्की मुफ़ाद को बे दरेग़ क़ुर्बान कर देते थे। अहले-यहूद के सरदार काहिन और सदूक़ी हर बात में मिल्ली मफ़ाद (क़ौमी मुफ़ाद) को अपनी ज़ाती अग़राज़ पर क़ुर्बान कर देते थे। (यूहन्ना 11:48) इस क़िस्म की फ़िज़ा में जनाबे मसीह ख़ुदावंद ने परवरिश पाई। लेकिन इस के बावजूद आपने इस आज़माईश को ठुकरा दिया और फ़रमाया कि इस क़िस्म का लाएहा अमल ख़ुदा की पाक मर्ज़ी के ख़िलाफ़ है। “आदमी सिर्फ रोटी ही से नहीं बल्कि हर बात से जो ख़ुदा के मुँह से निकलती है जीता है।” (मत्ती 4:4) आपने शागिर्दों को फ़रमाया कि “दुनिया की अक़्वाम इस क़िस्म की बातों की तलाश में रहती हैं। तुम पहले ख़ुदा की बादशाहत और उस की रास्तबाज़ी की तलाश करो।” (मत्ती 7:22) इस फ़ैसले ने जनाबे मसीह की मुबारक ज़िंदगी के मुस्तक़बिल को कुल्लियतन बदल दिया। आपके क़ब्ज़े में एजाज़ी क़ुव्वत थी लेकिन आपने उस को “क़ब्ज़े में रखने की चीज़ ना समझा बल्कि अपने आपको ख़ाली कर दिया और ख़ादिम की सूरत इख़्तियार की और अपने आपको पस्त कर दिया और यहाँ तक फ़रमांबर्दार रहा कि मौत बल्कि सलीबी मौत गवारा की।” (फिलिप्पियों 2:6) आपने सलीब जैसी होलनाक मौत को क़ुबूल किया लेकिन इस एजाज़ी क़ुव्वत को अपने ज़ाती मुफ़ाद की ख़ातिर इस्तिमाल ना किया। (मत्ती 26:52-53) जिस तौर पर आपने इस एजाज़ी क़ुव्वत को इस्तिमाल किया वो बज़ात-ए-ख़ुद एजाज़ी है और एक ऐसा अज़ीमुश्शान मोअजिज़ा है जिसका सानी रुए-ज़मीन की तारीख़ में हमको नहीं मिलता।

(3)

पहली आज़माईश पर ग़ालिब आकर जनाबे मसीह ने फ़ैसला कर लिया कि आपकी ज़िंदगी में ख़ुदी का इज़्हार नहीं होगा, बल्कि सिर्फ़ ख़ुदा की मर्ज़ी का इज़्हार होगा। अब आज़माईश आती है कि दुनिया किस तरह मालूम करेगी कि ऐसी ज़िंदगी जो तूने इख़्तियार की है ख़ुदा की तरफ़ से है? तो कोई ऐसा निशान दिखला जो तेरे मुताल्लिक़ हर तरह की ग़लतफ़हमी को दूर कर दे और दुनिया तुझको फ़िलवाक़ेअ मसीह मौऊद मान ले। तो हैकल (बैतुल्लाह) के कंगरे पर खड़ा हो कर अपनी क़ौम की आँखों के सामने अपने आपको नीचे गिरा दे क्योंकि लिखा है कि “ख़ुदा तेरी बाबत अपने फ़रिश्तों को हुक्म देगा जो तुझे अपने हाथों पर उठा लेंगे। ऐसा ना हो कि तेरे पांव को पत्थर की ठेस लगे।” (मत्ती 4:6) इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने इस आज़माईश को भी ठुकरा दिया और फ़रमाया कि हक़ीक़ी ईमान ख़ुदा पर भरोसा रखने का नाम है। ख़ुदा को इज़ारा-ए-तहक्कुम किसी ख़ास बात के लिए मज्बूर करना और उस की आज़माईश करना दर-हक़ीक़त उस की मुहब्बत पर शक करना है। हक़ीक़ी ईमानदार ख़ुदा को ये नहीं कहता कि जिस तरह मैं चाहता हूँ मेरे ज़रीये तू अपनी क़ुद्रत दिखला। बल्कि वो कामिल तौर पर भरोसा रखकर इंतिज़ार की आँखों से उस बात की जानिब टिकटिकी लगा कर देखता रहता है कि पर्दा-ए-गैब से रिज़ा-ए-इलाही किस तरह ज़ाहिर होती है। वो ये ख़याल नहीं करता कि दुनिया पर मेरा असर किस तरह क़ायम रहेगा बल्कि वो हर दिल-अज़ीज़ी को पसे-पुश्त फेंक कर ख़ुदा की मर्ज़ी पर अमल करता है। अद्यान-ए-आलम की तारीख़ हमको बतलाती है कि दुनिया के बेहतरीन इन्सान इस क़िस्म की आज़माईश में गिरफ़्तार हो कर गिर पड़े। लेकिन इब्ने-अल्लाह ऐसी सख़्त आज़माईश पर भी ग़ालिब आए।

इस आज़माईश की ताक़त को वो शख़्स ख़ूब समझ सकता है जो अहले-यहूद के मजनूनाना जोश से वाक़िफ़ है। अहले-यहूद जो क़ैसर रुम के मुतीअ थे। ये ख़याल करते थे, कि जब मसीह मौऊद आएगा तो क़ौम इस्राईल को रूमी क़यासिरा की गु़लामी से रिहाई देकर एक आज़ाद और ख़ुद-मुख़्तार रियासत की बुनियाद डालेगा। जब जनाबे मसीह की बिअसत हुई तो इस्राईल में ऐसे सरफ़रोशों की एक पार्टी थी जो “ज़ीलोतीस” यानी “ग़यूर” यहूद पर मुश्तमिल थी। अगर जनाबे मसीह अपनी क़ौम पर अपना असर क़ायम करना चाहते तो शुमाली कनआन और गलील का सूबा बग़ावत इख़्तियार कर लेता। (आमाल 5:36-37) और आप पर जानें निसार करने को तैयार हो जाता। आप ख़ुद गलीली थे और हज़रत दाऊद की शाही नस्ल से थे। आपकी शौहरत इब्तिदा ही से गलील में इस क़द्र फैल गई थी कि यरूशलेम तक क़ौम के सरदारोँ को इत्तिला हो चुकी थी। (लूक़ा 5:17) अगर इब्ने-अल्लाह (मसीह) हर दिल-अज़ीज़ होना चाहते और अवामुन्नास पर अपना असर व रसूख़ क़ायम करना चाहते, तो आपको हर तरह की आसानी मुहय्या थी। लेकिन आपने बाप (परवरदिगार) की मर्ज़ी पर चलना अपना मुक़द्दम फ़र्ज़ समझा। जिसका नतीजा ये हुआ कि यही हुजूम जो आप पर अपनी जानें निसार करने को तैयार थी। (मत्ती 21:8) और आपको बादशाह बनाना चाहत्ता थी। (यूहन्ना 6:15) आपकी दुश्मन-ए-जान हो गई। (मर्क़ुस 15:11) क्योंकि आपने उनके इशारों और उनकी मर्ज़ी पर चलने का नहीं बल्कि रिज़ा-ए-इलाही पर चलने का तहय्या कर लिया था।

(4)

एक और आज़माईश आती है कि तूने अच्छा किया जो अपनी एजाज़ी क़ुव्वत को अपने ज़ाती मफ़ाद की ख़ातिर इस्तिमाल नहीं किया। तू सिर्फ ख़ुदा की बादशाहत का क़ियाम चाहता है और तू इस मक़्सद को हासिल करने में कामयाब भी होना चाहता है। लेकिन जो तरीक़ा तू इस्तिमाल करना चाहता है वो दुरुस्त नहीं, क्योंकि तू चाहता है कि मुहब्बत, ख़िदमत, ईसार और क़ुर्बानी के ज़रीये ये बादशाहत क़ायम हो। (मत्ती 16:21, 20:28, यूहन्ना 15:13) लेकिन ये तरीक़ा कभी कारगर साबित ना होगा। लातों के भूत बातों से भला कब मानते हैं? बेहतर यही है कि तू दुनिया के सामने अपनी एजाज़ी क़ुव्वत और ताक़त का मुज़ाहरा करके तू उन पर जबर कर और तल्वार के ज़रीये दुनिया में ख़ुदा की बादशाहत को क़ायम कर दे। अहले-यहूद एक ख़ूनीन जंगजू मसीह और फ़ातेह की आमद के मुंतज़िर भी हैं। ज़ीलोतीस पार्टी के शरीक तेरे शागिर्द भी हैं (लूक़ा 6:15) ख़ुदा तेरी मदद करेगा। क्योंकि लिखा है “ऐ पहलवान अपनी तल्वार को जो तेरी हश्मत और बुजु़र्गवारी है हमाएल करके अपनी रान पर लटका। तेरा दहना हाथ तुझे मुहीब काम सिखलाएगा। तेरे तीर तेज़ हैं लोग तेरे नीचे गिरे पड़ते हैं तू सदाक़त का दोस्त और शरारत का दुश्मन है और यूँ सारे लोग अबद-उल-आबाद ख़ुदा की सताईश करेंगे। (ज़बूर 45:3-6) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) इस सख़्त आज़माईश पर भी ग़ालिब आते हैं। वो जानते हैं कि ऐसा ख़याल मुहब्बत करने वाले ख़ुदा की तरफ़ से नहीं बल्कि दुनिया-दारों का है। (मत्ती 16:23) पस आप फ़र्माते हैं कि मैं सिर्फ ख़ुदा और उस की रज़ा को ही अपनी नज़रों के सामने रखूँगा और सिर्फ उसी को सज्दा करूँगा। (मत्ती 4:10) तल्वार का इस्तिमाल और जब्र व ताक़त का मुज़ाहरा शैतानी औज़ार हैं। मैं ऐसे वसाइल का हरगिज़ इस्तिमाल ना करूँगा। अगर ऐसी नौबत आए कि मुझे अपनी जान भी फ़ी सबीलिल्लाह (ख़ुदा की राह में) ख़ुदा की बादशाहत के क़ियाम की ख़ातिर देनी पड़े तो मैं बखु़शी ख़ातिर मंज़ूर करूँगा। लेकिन नेकी को क़ायम करने के लिए बदी की ताक़तों को हरगिज़ इस्तिमाल नहीं करूँगा और उनके साथ किसी क़िस्म की मुसालहत ना करूँगा।

इब्ने-अल्लाह (मसीह) के सामने जो आज़माईश आई है, वो दुनिया के मुस्लिहीन और अम्बिया के सामने भी आई। लेकिन जिस आज़माईश पर मुनज्जी आलमीन (मसीह) ग़ालिब आए दीगर मुस्लिहीन और अम्बिया इस में गिर पड़े। जब उन हादियान-ए-दीन ने देखा कि मुहब्बत और सुलह के साथ उनका पैग़ाम नहीं माना जाता तो उन्हों तल्वार के ज़रीये अपने मज़्हब के उसूल की इशाअत की। जो शख़्स उनके मज़्हब में दाख़िल ना हुआ वो तह-ए-तेग़ कर दिया गया और जो एक दफ़ाअ दाख़िल हो कर फिर मुर्तद हो गया वो बे दरेग़ क़त्ल कर दिया गया। बज़ाहिर ये लोग कामयाब भी हो गए, लेकिन इस तरीके-कार ने उनकी ज़िंदगीयों को दागदार और उनके मज़ाहिब के उसूलों को खोखला कर दिया। जिसका नतीजा ये हुआ कि वो अपने मिशन में दर-हक़ीक़त कामयाब ना हुए और ना उनके मज़ाहिब आलमगीर होने के और कुल दुनिया में इशाअत पाने के क़ाबिल रहे। यूं इन अम्बिया और मुस्लिहीन की आमद की इल्लत-ए-ग़ाई फ़ौत हो गई।

(5)

कलिमतुल्लाह (मसीह) ने तीन साल तक अपनी एजाज़ी क़ुव्वत का इस्तिमाल बनी नूअ इन्सान की बहबूदी की ख़ातिर किया। जहां आपने किसी अंधे, गूँगे, बहरे, कौड़ी या किसी क़िस्म के बीमार को देखा आपकी मुहब्बत जोश में आई और वो शिफ़ायाब हो गए। आपने बेवा के इकलौते बेटे जो अपनी माँ के बुढ़ापे का आसरा था और लाज़र को जो अपनी बहनों की रोज़ी का वसीला था, अपनी लाज़वाल मुहब्बत की वजह से मुर्दों में से ज़िंदा किया। आपने हमेशा अपने ख़याल, क़ौल और फ़ेअल में इलाही मुहब्बत का ज़हूर दिखला दिया। जो तमाम इन्सानों के लिए एक नमूना है। (1 पतरस 2:21) लेकिन एजाज़ी क़ुव्वत का बेजा इस्तिमाल ना करने की वजह से आपकी क़ौम और क़ौम के रऊसा और उलमा-ए-दीन आपकी जान के प्यासे हो गए और आपके क़त्ल के दरपे थे लूक़ा 9:17, 14:1 वग़ैरह) सलीब आपको सामने दिखाई देती थी। (मर्क़ुस 8:21) आपको इस बात का इल्म था कि आपके मुहब्बत करने वाले आपको अकेला छोड़कर भाग जाऐंगे। आपका एक हवारी आपको पकड़वाएगा। आप इस दुनिया में अकेले बे-यारो मददगार रह जाऐंगे। (मत्ती 26:31, यूहन्ना 13:21) ऐसे आड़े वक़्त में यूनानी कलिमतुल्लाह (मसीह) के पास आए (यूहन्ना 12:21) कहते हैं कि उन्होंने आपसे दरख़्वास्त की कि आप हिज्रत करके कनआन छोड़कर हमारे हाँ यूनान में आजाऐं ताकि सलीब जैसी ख़ौफ़नाक मौत से बच जाये। (यूहन्ना 5:37) जनाबे मसीह के अल्फ़ाज़ ज़ाहिर करते हैं कि आपके लिए ये आज़माईश बड़ी ज़बरदस्त आज़माईश थी। आपने फ़रमाया “मेरी जान घबराती है पस मैं क्या कहूं? ऐ बाप (परवरदिगार) मुझे इस घड़ी से बचा? लेकिन मैं इसी सबब से तो इस घड़ी को पहुंचा हूँ। पस मैं कहूँगा ऐ बाप अपने नाम को जलाल दे। वो वक़्त आ गया है कि इब्ने आदम जलाल पाए (यूहन्ना 12:27-28) ये अल्फ़ाज़ साबित करते हैं कि हिज्रत की आज़माईश सख़्त आज़माईश थी। एक तरफ़ दर्दनाक मौत खड़ी थी और दूसरी तरफ़ आराम हिफ़ाज़त और इज़्ज़त की ज़िंदगी नज़र आती थी। लेकिन आप जानते थे कि “जब तक गेहूँ का दाना ज़मीन पर गिर के मर नहीं जाता अकेला रहता है लेकिन जब मर जाता है तो बहुत सा फल लाता है। जो अपनी जान को अज़ीज़ रखता है वो उसे खो देता है और जो दुनिया में अपनी जान से अदावत रखता है वो उसे हमेशा की ज़िंदगी के लिए महफ़ूज़ रखेगा।” (यूहन्ना 12:24-25) जनाबे मसीह सलीब को अज़ीयत की शक्ल में नहीं देखते बल्कि उस को “जलाल” का वसीला ख़याल फ़र्माते हैं। (यूहन्ना 12:25, 12:16, 7:39) आपने सलीब के नूरानी और जलाली पहलू को देखा और हिज्रत करने से इन्कार कर दिया। कलिमतुल्लाह (मसीह) रिज़ा-ए-इलाही के यहां तक फ़रमांबर्दार रहे कि मौत बल्कि सलीबी मौत भी गवारा की। (फिलिप्पियों 2:8) यहां ना सिर्फ फर्मांबर्दारी है बल्कि “ख़ुदा के ख़यालों” के साथ (मत्ती 16:23) कामिल तआवुन है, ताकि ख़ुदा की मर्ज़ी पूरी हो। यही वजह है कि आपने सलीब पर अपनी ज़बान मुबारक से इर्शाद फ़रमाया कि “पूरा हुआ।” (यूहन्ना 19:30)

दीगर मज़ाहिब के नामवर अश्ख़ास की ज़िंदगीयों में भी ऐसे वाक़ियात रौनुमा हुए कि लोग उनके पैग़ाम की वजह से उनकी जान के प्यासे हो गए और उनके सामने भी हिज्रत करने की आज़माईश आई, लेकिन जब मौत उनकी नज़रों के सामने आई तो वो उस आज़माईश का मुक़ाबला ना कर सके और गिर गए। उन्होंने चंद साला ज़िंदगी और अपने मुस्तक़बिल का ख़याल किया। लेकिन इब्ने-अल्लाह की मानिंद रिज़ा-ए-इलाही के जोयायाँ ना हुए।

(6)

इन्जील नवीसों ने मज़्कूर बाला आज़माईशें बतौर मुश्ते नमूना अज़-ख़रवारे (थोड़े से नमूने से कुल चीज़ की अस्लियत मालूम हो जाती है) बयान की हैं। इन्जील जलील से ये ज़ाहिर है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी एक ऐसी ज़िंदगी है जिसका कामिल इन्हिसार ख़ुदा पर है। आपकी ज़िंदगी का मर्कज़ ख़ुदी ना थी बल्कि रिज़ा-ए-इलाही थी। आप हमेशा हर बात में ख़ुदा के फ़रमांबर्दार बेटे थे। आपका हर क़ौल और फ़ेअल बाप की मर्ज़ी का ज़हूर था।

आपकी ख़ुदा से हमेशा यही दुआ थी “मेरी मर्ज़ी नहीं बल्कि तेरी मर्ज़ी पूरी हो।” (लूक़ा 22:42) ख़ुदी का अंसर आपकी ज़िंदगी में मफ़्क़ूद है और आलम-ए-ख़याल में भी आप कभी ख़ुदा से जुदा ना हुए। आपकी तमाम ज़िंदगी में हमको इस क़िस्म की जुदाई नज़र नहीं आती। आपने फ़रमाया “मैं अकेला नहीं बल्कि मैं हूँ और बाप जिसने मुझे भेजा है। ना तुम मुझको जानते हो ना मेरे बाप को। अगर मुझे जानते तो मेरे बाप को भी जानते।” (यूहन्ना 8:16-19, 16:32)

(7)

मज़्कूर बाला आज़माईशों से नाज़रीन पर ज़ाहिर हुआ होगा, कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) अपनी ख़ारिक़ (करामत) आदत पैदाइश की वजह से बेगुनाह ना थे। आपकी “बेगुनाही” से ये मुराद नहीं कि आप गुनाह कर ही नहीं सकते थे, बल्कि इस का मतलब ये है कि गो दीगर इन्सानों की तरह आप में भी गुनाह करने की अहलीयत मौजूद थी, लेकिन इस अहलीयत के बावजूद आप बेदाग़ रहे। आपकी कामिलियत किसी भी ख़्वाह हम आपकी ज़िंदगी को किसी ज़ावीया से भी देखें हम पर ये अयाँ हो जाएगा, कि जिन मुसाइद (ग़ैर-मुआविन) हालात में भी आप गुज़रे। बईना जब उन हालात में दुनिया को और मज़ाहिब आलम की हस्तियाँ गुज़रीं तो वह दाग़दार हो गईं। लेकिन आप तारीख़ में वाहिद इन्सान हैं जो किसी हालत में भी दाग़दार ना हुए और हमेशा बेदाग़ रहे।

ये दुरुस्त है कि कोई इन्सान अपनी महदूद ज़िंदगी में हर मुम्किन आज़माईश में से नहीं गुज़र सकता। लेकिन ये अम्र गौरतलब है कि जब हम किसी शख़्स को मसलन दियानतदार कहते हैं तो हमारा ये मतलब नहीं हो सकता कि उस के सामने हर क़िस्म की बद-दियानती की आज़माईश पेश आई थीं पर वो उन पर ग़ालिब हो कर दियानतदार रहा। बल्कि हमारा मतलब ये होता है कि उस शख़्स की ज़िंदगी में ऐसे हालात पेश आए थे, जिनमें ख़याल किया जा सकता है कि वो आज़माईश में गिर कर बद-दियानत हो जाएगा, लेकिन वो दियानतदार साबित हुआ। पस हम उस को दियानतदार कहते हैं। इसी तरह जब इन्जील हमको बताती है कि हज़रत इब्ने-अल्लाह (मसीह) सब बातों में हमारी तरह आज़माऐ गए तो भी बेगुनाह रहे। (इब्रानियों 4:15) तो इस का मतलब ये होता है कि शैतान ने आप पर बहोतरी क़िस्म के हमले बार-बार किए। लेकिन वो हर क़िस्म के हमले में शिकस्त खाता रहा और हज़रत रूह-उल्लाह (मसीह) फ़ातेह और बेदाग रहे। इब्लीस ने हर मुम्किन कोशिश की कि इब्ने-अल्लाह उस की ज़द में आ जाऐं और वो आप पर कोई फ़ातेह ज़र्ब लगा सके। लेकिन वो हर दफ़ाअ नाकाम व नामुरादी रहा। आँख़ुदावंद की तमाम ज़िंदगी में उस की ज़र्बों के कहीं निशान नज़र नहीं आते। हर आज़माईश पर ग़ालिब आकर इब्ने-अल्लाह की ज़िंदगी रूहानियत की बुलंद तरीन चोटियों पर पहुंच चुकी हैं, जिनको देखकर इन्सान की नज़र वग़ैरह और चका-चौंद हो जाती है।

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صد شبہ در ہست قیاس ودلیل را (نظیری)

चुनान्चे ख़ुदावंद ने ख़ुद फ़रमाया है, “जो ऊपर से आता है वो सबसे ऊपर है। जो ज़मीन से है वो ज़मीन ही से है और ज़मीन ही की कहता है।” तुम नीचे के हो मैं ऊपर का हूँ। तुम दुनिया के हो मैं दुनिया का नहीं हूँ इसी लिए मैंने तुमसे कहा है कि तुम अपने गुनाहों में मरोगे।” (यूहन्ना 3:31, 8:22-24) आपने तमाम उम्र गुनेहगार मर्दों और औरतों के दर्मियान गुज़ारी। लेकिन गुनाह की आलाईश ने आपके दामन को भी तर ना किया। आप उन गुनेहगारों को बेबांग वहल दावत देते रहे कि “इब्ने आदम” खोए हुए गुनेहगारों को ढ़ूढ़ने और नजात देने आया है। ऐ मेहनत उठाने वालो और शैतान से हज़ीमत (शिकस्त खाना) ख़ूर्दा लोगो और गुनाह के बोझ से दबे हुए लोगो, तुम सब मेरे पास आओ मैं तुमको इत्मीनान क़ल्ब (दिल) अता करूँगा और बख्शूंगा कि इब्ने आदम को गुनाह माफ़ करने का इख़्तियार है। मैं रास्तबाज़ों को नहीं बल्कि गुनाहगारों को बुलाने आया हूँ। (मत्ती 11:28, मर्क़ुस 2:17) गुज़श्ता वो दो हज़ार साल से हर एक क़ौम व मुल्क व नस्ल और ज़माने के गुनेहगार मुनज्जी आलमीन (मसीह) के पास आते रहे हैं और अपने गुनाहों की मग़्फिरत हासिल करके और क़ुर्बते इलाही पाकर नई ज़िंदगीयां बसर कर के कलिमतुल्लाह (मसीह) के इन दावों की तस्दीक़ करते चले आए हैं।

ग़ैर-मसीही आपकी उलूहियत के मुन्किर हों तो हों लेकिन किसी की ये मजाल ना हुई कि आपकी रूहानियत का औज इन्सानियत की ऊंचाई और गहराई का पता देता है। इन्सान की हैरत-ज़दा अक़्ल चकरा जाती है जब वो ये देखती है कि इन्सानियत का औज कमाल इक्तिसाबी था। इब्ने-अल्लाह दुख उठा कर और आज़माईशों पर ग़ालिब आकर कमाल हुए और हमारी नजात के बानी बने। आपकी ज़िंदगी में एक तरफ़ इन्सानियत का कमाल पाया जाता है और दूसरी तरफ़ उलूहियत की झलक नज़र आती है। आप कामिल इन्सान थे। आप में उलूहियत की सारी मामूरी सुकूनत करती है। (कुलस्सियों 2:9)

चंद ग़लत-फ़हमियों का इज़ाला

(1)

सुतूर बाला में हम ये लिख आए हैं कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) अपनी ख़ारिक़ आदत पैदाइश की वजह से बेगुनाह और मासूम ना थे और कि आपकी मासूमियत का ये मतलब नहीं कि आप गुनाह कर ही नहीं सकते थे। इस के बरअक्स आप दीगर इन्सानों की तरह एक इन्सान थे। लेकिन आपने गुनाह की अहलीयत रखने के बावजूद कभी गुनाह किया।

(2)

हम इस हक़ीक़त को भी वाज़ेह कर देना चाहते हैं कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की मासूमियत अबूल-बशर आदम की सी ना थी। आदम बाग़-ए-अदन में पहले-पहल बेगुनाह थे। लेकिन तब भी कामिल ना थे। क्योंकि आपके सामने कोई आज़माईश ना आई थी। लेकिन शैतान ने उनको आज़माया तो वो पहली आज़माईश ना थी। मुक़ाबले की ताब ना ला सका और गिर गया। लेकिन मुनज्जी आलमीन (मसीह) ने शैतान को कुचल कर (पैदाइश 3:15) और यूं कामिल बन कर अपने तमाम फ़रमांबर्दार लोगों के लिए अबदी नजात का बाइस हुआ। (इब्रानियों 5:10) इब्ने-अल्लाह की इस क़ुद्दूस ज़िंदगी की वजह से मुक़द्दस पौलुस हज़रत इब्ने-अल्लाह को “आदम-ए-सानी” का नाम देता है।

(3)

हम ने सुतूर बाला में लिखा है कि ख़ुदावंद मसीह में एक तरफ़ इन्सानियत का मेअराज पाया जाता है और दूसरी तरफ़ “उलूहियत की सारी मामूरी” आप में सुकूनत करती थी। इस से हमारी मुराद ये नहीं है, कि ख़ुदावंद मसीह इन्सानी क़ुद्दुसियत का दर्जा करने की वजह से उलूहियत के दर्जा पर नहीं पहुंचे थे, बल्कि वो दुनिया में आने से पहले उलूहियत का दर्जा रखते थे। (इब्रानियों 1:2-4, 5:9, 10:5-7) और बअल्फ़ाज़ मुक़द्दस पौलुस आपने अपने आप को ख़ाली कर दिया और ख़ादिम की सूरत इख़्तियार की और इन्सानों के मुशाबेह हो गया। उसने इन्सानी शक्ल में ज़ाहिर हो कर अपने आपको पस्त कर दिया और फ़रमांबर्दार रहा। (फिलिप्पियों 2:7) चुनान्चे आपने फ़रमाया, “मैं अपनी मर्ज़ी नहीं बल्कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी चाहता हूँ।” (यूहन्ना 5:30) “मैं बाप से मुहब्बत रखता हूँ और जिस तरह बाप ने मुझे हुक्म दिया है मैं वैसा ही करता हूँ।” (यूहन्ना 4:34, 12:49)

رضا ئے حق اور رضائے حق قضائے اوقضائےحق

دلش ازماسو ا ئے حق گزیدہ

इब्ने-अल्लाह (मसीह) की क़ुद्दुसियत का सर-चश्मा “क़ुद्दूस बाप” था। इन्जील जलील में ये तालीम नहीं देता कि कोई इन्सान ज़ईफ़-उल-बुनयान अख़्लाक़ी कामिलियत का दर्जा कुफ़्र है और कलीसिया-ए-जामे ने भी हमेशा ऐसे ख़यालात को कुफ़्र, बिद्दत क़रार दे कर रद्द कर दिया। इब्ने-अल्लाह ना तो ख़ुदा होने की वजह कामिल इन्सान थे और ना कामिल इन्सान होने की वजह से ख़ुदा थे। आप कामिल इन्सान थे क्योंकि इन्सानियत का कमाल जो उलूहियत की सूरत पर था। (पैदाइश 1:27) आपकी क़ुद्दूस ज़ात में पाया। आप कामिल ख़ुदा थे क्योंकि “इब्तिदा में कलमा था और कलमा ख़ुदा था और कलाम मुजस्सम हुआ” और उसने कामिल इन्सानियत का दर्जा हासिल किया और सब ख़ास व आम ने उस का जलाल देखा जो इब्ने-अल्लाह ही के शान हो सकता था। (यूहन्ना 1:1-18)

(4)

इस मुक़ाम पर हम नाज़रीन पर ये तारीख़ी हक़ीक़त भी आश्कारा कर देना चाहते हैं कि मासूम बेगुनाह इन्सान का तसव्वुर ना तो बुत परस्त यूनानी रूमी दुनिया का मज़्हबी या फ़ल्सफ़ियाना कुतुब में मौजूद था और ना ऐसा तसव्वुर यहूदी क़ौम की कुतुब में और सहाइफ़ अम्बिया में पाया जाता था। अहले-यहूद की किसी किताब में किसी नबी को बेगुनाह मासूम हस्ती नहीं कहा गया है और ना इस्मत को नबुव्वत का लाज़िमी जुज़ माना गया है। वो इस्मत अम्बिया के क़ाइल ही ना थे। उनके ख्व़ाब व ख़्याल में भी किसी बेगुनाह इन्सान या मासूम नबी के वजूद का तसव्वुर ना आता था। वो तमाम अम्बिया को दीगर इन्सानों की तरह ख़ाती और गुनेहगार मानते चले आए थे। कलिमतुल्लाह (मसीह) के हम-अस्र यहूद भी किसी इन्सान ज़ईफ़-उल-बुनयान को मासूम और बेगुनाह नहीं थे।

बनी-इस्राईल की तारीख़ में पहली दफ़ा अहले-यहूद ने एक ऐसे इन्सान को देखा जो उनकी तरह आज़माया गया मगर बेगुनाह था। कलिमतुल्लाह (मसीह) के रसूलों ने पहली दफ़ा अपनी तहरीरों और तक़रीरों में एक ऐसे अजूबा रोज़गार का ज़िक्र किया जो गुनाह से वाक़िफ़ ना था। पस सवाल पैदा होता है कि दौरान हालाँकि ना यूनानी रूमी दुनिया और ना अहले-यहूद एक बेगुनाह इन्सान के वजूद के क़ाबिल अमल थे। तो अनाजील अरबा के मुसन्निफ़ों और दीगर इंजीली तहरीरात के लिखने वालों को जो ऐसे मासूम और इन्सान कामिल ना थे तो आपके तबईन को ऐसे शख़्स की हस्ती और वजूद का पता कैसे लगा? इस सवाल का एक ही जवाब हो सकता है, कि इंजीली तहरीर के लिखने वालों को एक हक़ीक़ी ज़िंदगी तवारीख़ी मासूम और कामिल हस्ती का ज़ाती तजुर्बा था। जिसको उन्होंने सुना और अपनी आँखों से देखा बल्कि ग़ौर से देखा और अपने हाथों से छुवा। (यूहन्ना 1:1, आमाल 4:20, यूहन्ना 19:45, 1:14, 20:27, 1 यूहन्ना 4:14, वग़ैरह)

और जो इब्ने-अल्लाह (मसीह) की आज़माईशों में बराबर आपके साथ रहे (लूक़ा 22:8, इब्रानियों 2:18, 4:25 वग़ैरह) और वह ख़ूब देख-भाल कर इस नतीजे पर पहुंचे थे कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) इसलिए ज़ाहिर हुआ था कि वो गुनाहों को दूर करे। उस की ज़ात में गुनाह ना था जो कोई उस की मानिंद होने की उम्मीद रखता है वो अपने आपको ऐसा ही पाक करता है जैसा वो पाक है। (1 यूहन्ना 3:3-5) मुक़द्दस पतरस आपकी रुहानी अज़मत और इस्मत की शहादत देता है। (1 पतरस 2:21-22) और कहता है “अगर तुम नेकी करके दुख पाते और सब्र करते हो तो ये ख़ुदा के नज़्दीक पसंदीदा है। और तुम इसी लिए बुलाए गए हो क्योंकि मसीह भी तुम्हारे वास्ते दुख उठा कर तुमको एक नमूना दे गया है ताकि उस के नक़्शे क़दम पर चलो। ना उसने कभी गुनाह किया ना उस के मुँह से कभी मक्र की कोई बात निकली। ना वो गालियां खा कर गाली देता था और ना दुख पाकर किसी को धमकाता था। बल्कि अपने आपको सच्चे इन्साफ़ करने वाले के सपुर्द करता था।” (1 पतरस 2:19-25)

इब्रानियों के ख़त का मुसन्निफ़ भी लिखता है कि वो “पाक बे-रिया, बेदाग और गुनाहगारों से जुदा था। (इब्रानियों 7:26) हम मज़्कूर बाला इक्तिबासात पर इक्तिफ़ा करते हैं। जिन का एक-एक लफ़्ज़ इस बात का शाहीद है कि लिखने वाले एक ऐसी बुलंद और अर्फ़ा रुहानी हस्ती का ज़िक्र करते हैं जिसका उन को ज़ाती तजुर्बा हासिल था। उन्होंने ख़ुद इस हक़ीक़त का मुशाहिदा किया था कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी ख़ुदा की फर्मांबर्दारी के कमाल का नमूना है। आपकी ज़िंदगी का लाएहा अमल इसी फ़र्मांबर्दारी पर ही मबनी था। आपके तसव्वुरात जज़्बात और अफ़आल इसी फर्मांबर्दारी का नतीजा थे। यही एक उसूल आपके अक़्वाल व अफ़आल और तमाम ज़िंदगी पर हावी था। आपकी शख़्सियत में कोई शैय ना थी जो इस इन्हिसार का नतीजा ना थी। आपका कोई ख़याल या क़ौल व फ़अल ऐसा ना था, जो ख़ुदा से अलग हो कर अमल में आया हो (यूहन्ना 5:7) आपने फ़रमाया, “मैं तुमसे असली और हक़ीक़ी बात कहता हूँ कि बेटा आपसे कुछ नहीं कर सकता सिवा उस के जो बाप को करते देखता है। क्योंकि जिन कामों को वो करता है उनको बेटा भी उसी तरह करता है। (यूहन्ना 5:19) अगरचे आपने फ़िज़ा में सब्र कर जहां ये हमेशा ऐसी आज़माईशों पर ग़ालिब आए और मंशा-ए-इलाही में तसादुम वाक़ेअ मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) के लेकिन आप हमेशा ऐसी आज़माईशों पर ग़ालिब आए और रिज़ा-ए-इलाही के जोयाँ रहे। जिसका नतीजा ये कि आपके इरादे में और रिज़ा-ए-इलाही में कभी ताज़ीस्त तसादुम वाक़ेअ ना हुआ और आप इन्सान बने।

इब्ने अल्लाह (जनाबे मसीह) की इस्मत

(1)

इन्जील जलील का मुतालआ हम पर ज़ाहिर कर देता है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ख़ल्वत की ज़िंदगी बसर नहीं करते थे। आपकी ज़िंदगी का एक-एक लम्हा लोगों की नज़रों के सामने गुज़रता था। (यूहन्ना 18:20, मत्ती 15:32, मर्क़ुस 5:31, लूक़ा 12:1) आपके हवारइन (शागिर्द) शब व रोज़ आप की रिफ़ाक़त में रहते थे। (मत्ती 17:1) उनके बाहमी ताल्लुक़ात ऐसे थे जिस तरह एक ख़ानदान के शुरका के ताल्लुक़ात होते हैं। (यूहन्ना 15:12, लूक़ा 22:14 वग़ैरह) ये एक वाज़ेह हक़ीक़त है जो रोज़मर्रा के मुशाहिदे में आती है कि जो अश्ख़ास एक दूसरे के साथ शब रोज़ नशिस्त व बर्ख़ास्त रखें वो एक दूसरे की कमज़ोरीयों से बख़ूबी वाक़िफ़ हो जाते हैं। आपके हवारी आपकी “आज़माईशों में बराबर के आपके साथ रहे।” (लूक़ा 22:28) वो आपकी रफ़्तार व गुफ़्तार, मज़ाक़ तबइयत, अंदाज़-ए-गुफ़्तगु, तर्ज़-ए-ज़िदंगी, तरीक़ रिहाइश, खाने पीने, चलने फिरने, उठने बैठने, सोने जागने, हँसने रोने ग़रज़ कि आपकी ज़िंदगी की एक-एक अदा से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। (1 यूहन्ना 1:1) लेकिन हैरत की ये बात है कि वो लोग जिन्हों ने आपकी ख़सलत को “ग़ौर से देखा” वही आपकी तारीफ़ में रतब-उल-लिसान (मदह) हैं और बे-इख़्तियार कहते हैं कि “उस की ज़ात में गुनाह ना था।” (1 यूहन्ना 3:5) वो उस को बेगुनाह और कामिल समझते हैं और बेताम्मुल कहते हैं कि “वैसा ही मिज़ाज रखो जैसा ख़ुदावंद यसूअ मसीह का था।” (फिलिप्पियों 2:5) “मसीह तुमको एक नमूना दे गया है ताकि उस के नक़्शे क़दम पर चलो। ना उसने गुनाह किया और ना उस के मुँह से कोई मक्र की बात निकली। ना वो गालियां खा कर गाली देता था और ना दुख पाकर किसी को धमकाता था।” (1 पतरस 2:21) “हमारा ऐसा सरदार काहिन (इमाम-ए-आज़म) नहीं जो हमारी कमज़ोरीयों में हमारा हमदर्द ना हो सके बल्कि सारी बातों में वो हमारी तरह आज़माया गया ताहम बेगुनाह रहा।” (इब्रानियों 4:15) “हमारा सरदार काहिन पाक, बे-रिया और बेदाग़ गुनाहगारों से जुदा और आसमानों से बुलंद था।” (इब्रानियों 7:26) “सिर्फ़ ख़ुदावंद ही क़ुद्दूस है और सारी कौमें आकर उस के सामने सज्दा करेंगी।” (मुकाशफ़ा 15:4) “हमने उस का ऐसा जलाल देखा जैसा बाप के इकलौते का जलाल (यूहन्ना 1:14) वो ख़ुदा के जलाल का पर्तो और उस की ज़ात का नक़्श है।” (इब्रानियों 1:3)

(2)

हवारइन (शागिर्दों) का कलाम पढ़ने से मालूम होता है कि मसीही इब्तिदा ही से अपने मुनज्जी और आक़ा (मसीह) को बेगुनाह मानते थे। इन्जील के तमाम मुसन्निफ़ीन में सबसे ज़्यादा मुक़द्दस पौलुस गुनाह की आलमगीरी और उस के ख़ौफ़नाक नताइज और नजात की ज़रूरत और अह्मिय्यत के मुताल्लिक़ लिखते हैं। लेकिन वो किसी जगह भी जनाबे मसीह की इस्मत और बेगुनाही को साबित करने की ज़रूरत नहीं महसूस करते। इस्मत मसीह का तसव्वुर दवाज़दा रसूलों की अव्वलीन तक़रीरों का जज़्व-ला-नीफ़क था। जिसका मुफ़स्सिल ज़िक्र हम अपनी किताब “क़दामत अस्लियत अनाजील अरबा” की पहली जिल्द में कर चुके हैं। पस ये अक़ीदा ऐसा था जो पौलुस रसूल के मसीही होने से पहले कलीसिया में मौजूद और मुरव्वज था। तमाम मसीही शुरू से इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं। ख़्वाह वो अहले-यहूद में से थे या ग़ैर-यहूद से मसीहिय्यत के हल्क़ा-ब-गोश हुए थे। पस पौलुस रसूल की तहरीरात उस के ज़माने के अक़ाइद का आईना हैं। जिसमें हमको उन लोगों के ख़यालात नज़र आते हैं। जो मुनज्जी आलमीन (मसीह) के हवारीयन (शागिर्दों) और ताबईन थे। (1 कुरिन्थियों 3:15) चुनान्चे हज़रत पौलुस फ़र्माते हैं कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) में “उलूहियत की सारी मामूरी मुजस्सम हो कर सुकूनत करती है।” (कुलस्सियों 2:9) “वो ग़ैर मुरई (अनदेखे) ख़ुदा की सूरत है।” (कुलस्सियों 1:15) वो गुनाह से वाक़िफ़ ना था। (2 कुरिन्थियों 4:4) “मसीह ने अपनी ख़ुशी ना की।” (रोमीयों 15:3) रसूल मक़्बूल आपकी कामिल फर्मांबर्दारी का बार-बार ज़िक्र करता है। (रोमीयों 5:19, 2 कुरिन्थियों 10:6 वग़ैरह) और कहता है कि “वैसा ही मिज़ाज रखो जैसा यसूअ मसीह का था। उसने अगरचे ख़ुदा की सूरत पर था ख़ुदा के बराबर होने को ग़नीमत ख़याल ना किया बल्कि अपने आपको ख़ाली कर दिया और ख़ादिम की सूरत इख़्तियार की और इन्सानों के मुशाबेह हो गया। उसने इन्सानी शक्ल में ज़ाहिर हो कर अपने आपको पस्त कर दिया और यहां तक फ़रमांबर्दार रहा कि मौत बल्कि सलीबी मौत भी गवारा की। इसी वास्ते ख़ुदा ने भी उसे बहुत सर-बुलंद किया और उसे वो नाम बख़्शा जो सब नामों से आला है, ताकि मसीह के नाम पर हर एक घुटना टिके ख़्वाह आसमानियों का हो ख़्वाह ज़मीनियों का ख़्वाह उन का जो ज़मीन के नीचे हैं और ख़ुदा बाप के जलाल के लिए हर एक ज़बान इक़रार करे कि ख़ुदावंद यसूअ मसीह ख़ुदावंद है।” (फिलिप्पियों 2:5-11)

(3)

इब्ने-अल्लाह (मसीह) की इस्मत के क़ाइल सिर्फ आपके हवारइन (शागिर्द) और ताबईन ही ना थे बल्कि आपके मुआसिरीन और मुख़ालिफ़ीन तक आपकी बेगुनाही का इक़रार करते थे। जिस ग़द्दार शागिर्द ने आपको पकड़वा दिया वो अपनी मौत और ख़ून से इस बात की तस्दीक़ करता है कि आप “बेक़सूर” थे। (मत्ती 27:4) जिस शागिर्द ने आपका इन्कार किया वो आपकी पाकीज़ा ज़िंदगी के आईने में अपने गुनाहों को देखकर इक़रार करके कहता है, “ऐ खुदावंद मैं गुनेहगार इन्सान हूँ।” (लूक़ा 5:8) मस्लूब डाकू ताइब हो कर इक़रार करता है कि, “उसने कोई बेजा काम नहीं किया।” और गो वोह मुनज्जी आलमीन (मसीह) को मस्लूब और बज़ाहिर मग़्लूब और मफ़तूह देखता है ताहम सलीब पर उस को आपकी मुहब्बत भरी ज़िंदगी याद आती है। उस का ईमान मुतज़लज़ल नहीं होता और वो ये मिन्नत कहता है “ऐ यसूअ जब आप अपनी बादशाहत में आए तो मुझे याद करना।” (लूक़ा 23:41) जब रूमी सूबेदार (जिसको बीसियों गुनेहगार मस्लूबों का तजुर्बा था) ने जो सलीब के पास निगहबान खड़ा था देखा कि मुनज्जी कौनैन (मसीह) दम वापसीन अपने ख़ून के प्यासों के लिए दुआ मांग रहे हैं तो “उस को यूं दम देते हुए देखकर कहा, “बेशक ये ख़ुदा का बेटा थाइ” (मर्क़ुस 15:39) आपके दुश्मने जान जो रऊसा क़ौम थे आपकी रास्तबाज़ी के क़ाइल थे। वो आपकी आला ज़िंदगी का इक़बाल ताने की शक्ल में किया करते हैं और मस्लूब करके आपको कहते हैं कि “उसने औरों को बचाया था। उसने ख़ुदा पर भरोसा रखा था।” (मत्ती 27:43) आपके ख़ून के प्यासे इक़रार करके कहते हैं कि “ऐ उस्ताद हम जानते हैं कि आप सच्चे हैं और सच्चाई से ख़ुदा की राह की तालीम देते हैं और किसी की परवाह नहीं करते क्योंकि आप किसी आदमी के तरफ़दार नहीं है।” (मत्ती 22:16) आपने उन जानी दुश्मनों को ललकार कर चैलेंज दिया था कि “तुम में से कौन मुझ पर गुनाह साबित कर सकता है?” (यूहन्ना 22:46) लेकिन गुनाह या ख़ता साबित करने के बजाय वो “सुम्मुन-बुकमन” (बहरे गूँगे) हो कर खड़े रह जाते हैं। क्योंकि वो जानते हैं और कहते हैं कि “आप सच्चे हैं।” (मत्ती 22:16) तो आप फिर सवाल करते हैं कि “अगर मैं सच्च बोलता हूँ तो मेरा यक़ीन क्यों नहीं करते।” (यूहन्ना 8:46) पिलातूस मजिस्ट्रेट है। वो मुक़द्दमे की मिस्ल को देखकर कलिमतुल्लाह (मसीह) को “रास्तबाज़” क़रार देता है। (मत्ती 27:24, लूक़ा 23:22) और कहता है कि “मैं इस में कुछ जुर्म नहीं पाता है।” (यूहन्ना 19:6) इस मजिस्ट्रेट की बीवी भी मिस्दाक़ “आवाज़ा (नामवारी) ख़ल्क़ को नक़्क़ारा ख़ुदा समझो” लोगों से आपकी इस्मत का हाल सुनकर आपको “रास्तबाज़” कहती है।” (मत्ती 27:19)

(4)

ना सिर्फ जनाबे मसीह के हवारइन (शागिर्द) और मुख़ालिफ़ीन आपकी इस्मत के क़ाइल हैं आपके मुआसिरीन भी आपकी बेगुनाही की शहादत देते हैं। हज़रत यूहन्ना बप्तिस्मा देने वाला आपका नज़दीकी रिश्तेदार था और बचपन से आपसे वाक़िफ़ था। वो खुले बंदों हर एक शख़्स पर उस के गुनाह जतला देता था। (मत्ती 3:7) और इस बात को एक फ़र्ज़ समझ कर बादशाह तक को मलामत करता था। लेकिन ऐसा बे-बाक शख़्सी जो नबी से बड़ा है। (मत्ती 11:9) आपकी आला रूहानियत के सामने सर-ए-तस्लीम ख़म करके कहता है “मैं आप तुझसे बपतिस्मा लेने का मुहताज हूँ और तू मेरे पास आया है।” “मैं उस की जूती का तस्मा खोलने के लायक़ नहीं।” (मत्ती 3:14, लूक़ा 3:16, यूहन्ना 3:15, 27, 3:30-31) आपके वक़्त की गुनेहगार औरतें और मर्द आपकी इस्मत का इक़रार करते हैं और आपसे मग़्फिरत हासिल करके रास्तबाज़ ठहरते हैं। (मर्क़ुस 2:5, लूक़ा 7:48, 8:48 वग़ैरह)

शयातीन आपकी इस्मत का इक़रार करते हैं। (मर्क़ुस 1:24, लूक़ा 4:34) आप जिस जगह भी जाते थे शैतानी ताक़तें ज़ाइल हो जाती थीं। आस्मान के फ़रिश्ते तक आपकी इस्मत पर गवाह हैं। (लूक़ा 1:35) ख़ुद अल्लाह तआला आपकी इस्मत की गवाही देता है। (मर्क़ुस 1:11, 9:7, यूहन्ना 12:28 वग़ैरह)

(5)

इब्ने-अल्लाह (मसीह) अपनी बेगुनाही के लिए चारों आलम में मशहूर है। यहां तक कि आपकी मौत और ज़फ़रयाब क़ियामत के पाँच सौ (500) साल बाद सहरा-ए-अरब से रसूल-ए-अरबी ने पुकार कर आपकी इस्मत का इक़रार किया। क़ुरआन आपकी इस्मत पर शाहिद है और इक़रार करता है कि अल्लाह ने आपको शैतान मर्दूद से अपनी पनाह में रखा। (सूरह आले-इमरान आयत 31, रुकू 4) तमाम क़ुरआन को छान मारो सिवाए कलिमतुल्लाह (मसीह) के तुमको कोई दूसरी मासूम हस्ती नहीं मिलेगी। क़ुरआन में इस्लाम के बाक़ी उलुल-अज़म नबी यानी हज़रत आदम, हज़रत इब्राहिम, हज़रत मूसा और हज़रत मुहम्मद अपने-अपने गुनाहों का इक़रार करके अल्लाह से मग़्फिरत के तालिब नज़र आते हैं। (हूद 46, इब्राहिम 40, 41, क़िसस 16, मोमिन 15 आराफ़) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की तरफ़ ना सिर्फ कोई कबीरा या सगीरा गुनाह या गुनाह का इक़रार या इस्तिग़फ़ार मन्सूब नहीं किया, बल्कि इस्तिसनाइ मासूमियत को सरीह और वाज़ेह अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है।

मुसलमानों में कलाम-उल्लाह के बाद सही हदीस का दर्जा है। सही बुख़ारी और सही मुस्लिम में रसूल-ए-अरबी का क़ौल है कि :-

“कोई बच्चा पैदा नहीं होता मगर उस को पैदा होते वक़्त शैतान छू लेता है। पस शैतान के छूने की वजह से पैदाइश के वक़्त चीख़ कर चिल्लाता है। मगर मर्यम और उसका बेटा मस-ए-शैतान (शैतान के छूने) से महफ़ूज़ रहे हैं।”

(मशारिक़-उल-अनवार सफ़ा 129)

ये हदीस गोया क़ुरआनी सूरह आले-इमरान की मुन्दरिजा बाला आयत की तफ़्सीर है और इस पर साद करती है। ये हदीस सही में मौजूद है और शाह वली उल्लाह हमको हुज्जता-उल-बालग़ा में बतलाते हैं कि :-

“सहिहैन की बाबत मुहद्दिसीन इस अम्र पर मुत्तफ़िक़ हैं कि इन दोनों में जो हदीस मुत्तसिल मर्फ़ूअ (वो हदीस जिसके रावियों का सिलसिला रसूल अकरम तक पहुंचे) है वो क़तअन “सही” है।

(जिल्द अव्वल सफ़ा 133 मत्बूआ मिस्र)

अब ये हदीस मर्फ़ूअ है और इस की सनद मुत्तसिल (मुहम्मद अरबी तक पहुँची) है यानी इस की बग़ैर किसी इन्क़िता के ख़ास रसूल-ए-अरबी तक पहुँचती है लिहाज़ा ये क़तअन सही है।

क़ुरआनी आया में जिस “पनाह” का ज़िक्र है इस में ना अग़वा (اغوا) का ज़िक्र है ना मस (مس) का ना वस्वसे का। क्योंकि ये सब बातें जुज़वी हैं। जो गुनाह और शैतान में शामिल हैं। इस्तअज़ाह (यानी पनाह استعاذہ) मुतलक़ शैतान से था जो इस क़द्र जामेअ और मानेअ है कि गुनाह और उस की तमाम शाख़ें कट जाती हैं। कलिमतुल्लाह (मसीह) क़ुरआन और हदीस के मुताबिक़ हक़ीक़ी माअनों में मासूम थे। आपके वजूद मुबारक के गर्द रहमत इलाही का क़िला बंध गया जिसकी दीवारें शैतान लईन के हर हमले को रोकने वाली थीं। (सूरह 22:51, 1411, 33:4-66 वग़ैरह)

पस कलिमतुल्लाह (मसीह) के हवारइन, ताबईन, मुर्सलीन, मुख़ालिफ़ीन, मुआसिरीन, नदनबीन, बल्कि शयातीन तक मुत्तफ़िक़ आवाज़ से पुकार कर कहते हैं कि कलिमतुल्लाह (मसीह) एक बेगुनाह और मासूम हस्ती हैं। क़ुरआन और कुतुब-ए-अहादीस भी इस बात का इक़रार करते हैं। आस्मान से मलाइका (फ़रिश्ते) और ख़ुदा भी इसी एक हक़ीक़त का इज़्हार करते हैं। हर ज़माने, मुल्क और क़ौम के लोग दीगर मज़ाहिब के बानीयों और रसूलों की इस्मत के मुताल्लिक़ इख़्तिलाफ़ करते चले आए हैं लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) एक वाहिद हस्ती है जिसके बेगुनाही और इस्मत पर हर ज़माने, मुल्क और क़ौम का इत्तिफ़ाक़ हमेशा से चला आया है। शुमाल और जुनूब, मशरिक़ और मग़रिब आस्मान और ज़मीन के बाशिंदे इसी के रतब-उल-लिसान हैं।

(6)

किसी शख़्स ने किया ख़ूब कहा है कि, (من آنم کہ من وانم) जब हम इस उसूल की रोशनी में कलिमतुल्लाह (मसीह) की रुहानी ज़िंदगी को परखते हैं कि तो हम देखते हैं, कि ना सिर्फ दीगर अश्ख़ास जनाबे मसीह को बेगुनाह जानते थे बल्कि आपको ख़ुद ये एहसास था कि आप बेगुनाह हैं। आपके कलिमात तय्यिबात आपके अंदरूनी ख़यालात और पिन्हानी जज़्बात को ज़ाहिर करते हैं और ये बतलाते हैं कि आप ख़ुदा से कभी एक लम्हा के लिए भी जुदा ना हुए। आप में और ख़ुदा में मुग़ाइरत (ना मुवाफ़िक़त, अजनबीयत) नज़र नहीं आती। दीगर अम्बिया के सवानिह हयात में हमको एक ऐसा वक़्त नज़र आता है जब उन्होंने ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस का नज़ारा पाकर अपने गुनाहों को महसूस किया। हज़रत यसअयाह ने कहा कि “हाय मुझ पर मैं नापाक होंट वाला आदमी हूँ।” (यसअयाह 6:5) हज़रत यर्मियाह ने कहा कि “मुझ पर वावेला! ऐ मेरी माँ, कि तू मुझे जनी।” (यर्मियाह 15:10) हज़रत दाऊद ने इक़रार किया कि “मैं अपने गुनाहों को मान लेता हूँ और मेरी ख़ता हमेशा मेरे सामने है। मैंने तेरा ही गुनाह किया है और तेरे ही हुज़ूर बदी की है।” (ज़बूर 51:3-4) कनफ़ूशीस जो चीन का नबी है कहता है कि “मुझे इस बात का ग़म है कि मैं नेकी पर अमल पैरा नहीं रहा हूँ। जो इल्म मैंने हासिल किया है उस की मैं अपनी ज़िंदगी में सही तौर पर तर्जुमानी नहीं कर सका। मैं उस को जो ग़लत राह पर था सिरात-ए-मुस्तक़ीम पर ना ला सका। मैं अपने नेक ख़यालात को नेक अफ़आल में तब्दील नहीं कर सका।”

रसूल-ए-अरबी को क़ुरआन में बार-बार हुक्म हुआ है कि “ऐ मुहम्मद तू अपने गुनाह के लिए मग़्फिरत मांग।” (सूरह मुहम्मद 21, मोमिन 57, निसा 160 वग़ैरह) चुनान्चे अहादीस में वारिद हुआ है कि आपने एक दफ़ाअ अपने सहाबा से कहा “ख़ुदा की क़सम मैं एक दिन में सत्तर (70) मर्तबे से ज़्यादा इस्तिग़फ़ार और तौबा करता हूँ।” (तल्ख़ीस अल-सहाह जिल्द दुवम सफ़ा 218, बुख़ारी जिल्द सोइम सफ़ा 165, तर्जमा मिर्ज़ा हैरत) लेकिन जनाबे मसीह की ज़िंदगी में गुनाहों का इक़रार या गुनाहों की मग़्फिरत के लिए शुक्रगुज़ारी का निशान तक नहीं मिलता। आप जानते ही ना थे कि गुनाह की वजह से ख़ुदा और इन्सान के बाहमी ताल्लुक़ात का टूटना किस शए को कहते हैं। हमको आपकी रुहानी ज़िंदगी में किसी क़िस्म के तूफ़ान दिखाई नहीं देते। शैतान के साथ जंग करने में आपने कभी ज़ख़्म ना खाया अनाजील अरबा में ऐसे ज़ख़्मों का निशान तक हमको नज़र नहीं आता “शक़-ए-सदर” (सीना चाक करने) का सा कोई वाक़िया हमको आपके सवानिह हयात में नहीं मिलता। ख़ुदा ने दीगर अम्बिया मसलन रसूल-ए-अरबी को “भटकता पाया फिर राह़-ए-हिदायत दिखाई।” (सूरह ज़ूहा 7) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी में कभी ऐसा मौक़ा पेश ना आया जब आपके दिल की तब्दीली पेश आई हो या आपकी ज़िंदगी में रुहानी इन्क़िलाब वाक़ेअ हुआ हो और आपने गुनाह को तर्क करके ख़ुदा की तरफ़ रुजू किया हो। आपको ख़ुदा के साथ गुनाह के बाद दुबारा मेल मिलाप करने का शख़्सी और ज़ाती तजुर्बा कभी ना हुआ। दीगर अम्बिया की ज़िंदगी की इंतिहाई मंज़िल ये थी कि उनकी ज़िंदगी में मंशा-ए-इलाही में मुवाफ़िक़त पैदा हो जाए। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी की ये इब्तिदाई मंज़िल थी। आप लोगों को तौबा की दावत देकर फ़र्माते थे, “तौबा करो क्योंकि आस्मान की बादशाहत नज़्दीक आ गई है।” (मत्ती 4:17) लेकिन आपने कभी ये ज़रूरत महसूस ना की कि ख़ुदा के सामने गिर्ये वज़ारी, बेकसी, लाचारी और तौबा का इज़्हार करें। आपके जज़्बात और अफ़आल से ज़ाहिर है कि आपको ये एहसास था कि आपको ख़ुद तौबा की मुतलक़ ज़रूरत नहीं। आपको रिफ़ाक़त-ए-इलाही और क़ुर्बते ख़ुदावंदी इस दर्जे तक नसीब थी कि आप ऐसी बातें फ़र्माते जो दूसरा इन्सान कुफ़्र का इर्तिकाब किए बग़ैर ज़बान पर नहीं ला सकता। (यूहन्ना 8:58, 520, 8:16, 6:45, 8:58, 10:15, 14:9-13 वग़ैरह) दीगर इन्सान और नबी जानते हैं कि अगर ख़ुदा उनके गुनाहों को माफ़ ना करता तो वो कहीं के नहीं रहते और वो ख़ुदा के रहम और फ़ज़्ल के लिए उस का शुक्रिया करते हैं। (1 तीमुथियुस 1:16) लेकिन जनाबे मसीह के मुँह से हम इस क़िस्म की शुक्रगुज़ारी के अल्फ़ाज़ नहीं सुनते। इब्ने-अल्लाह (मसीह) हर वक़्त गुनाहगारों की तलाश में सरगर्दां रहते थे। गुनेहगार मर्द और बदल चलन औरतें हर क़िस्म के शैतान ख़सलत इन्सान जो ख़ुदा से सरकश हो कर आवारा भटकते फिरते थे, आपके पास आते थे। एक सही हदीस में लिखा है कि लोगों ने एक दफ़ाअ हज़रत रूह-उल्लाह (मसीह अल्लाह की रूह) को एक बद-चलन औरत के घर से निकलते देखा। एक शख़्स ने आगे बढ़कर पूछा या रूह-उल्लाह (मसीह) हुज़ूर इधर कैसे गए थे? “हज़रत ने जवाब दिया कि तबीब मरीज़ों के पास जाया करते हैं। इन्जील में आपने तालीम दी कि ख़ुदा मुहब्बत व फ़ज़्ल और रहम का ख़ुदा है। आप तमाम उम्र गुनाहगारों को उनके गुनाहों की मग़्फिरत देते रहे। (मर्कुस 4:5 वग़ैरह) आपने तमाम उम्र गिरांमाया उनको ख़ुदा की बादशाहत में दाख़िल करने में सर्फ कर दी (लूक़ा 15:16) आपने फ़रमाया कि “मैं गुनाहगारों को बुलाने आया हूँ।” (मर्क़ुस 2:17) लेकिन आपने कभी अपने आपको गुनाहगारों के ज़मुरे में शुमार ना किया। आपने हर क़िस्म के गुनाह और गुनाह के सरचश्मे के ख़िलाफ़ अपनी सदा-ए-एहतिजाज बुलंद की (मत्ती 5 ता 8 बाब) लेकिन ख़ुद गुनाह से नावाक़िफ़ रहे। आपने तमाम उम्र उन लोगों को जो “अपने पर भरोसा रखते थे कि हम रास्तबाज़ हैं।” (लूक़ा 18:9, मत्ती 9:13) मलामत का निशाना बनाया लेकिन आपको ख़ुद ये एहसास था कि आप हक़ीक़ी माअनों में बेगुनाह मासूम और रास्तबाज़ हैं। (यूहन्ना 5:21, 5:28) और कोई शख़्स इन्जील जलील का मुतालआ करके आपके इस एहसास को क़ाबिल-ए-मज़म्मत ख़याल नहीं करता और ना उस को फ़रीसियाना रियाकारी और बेजा फ़ख़्र या लाफ़ व गिराफ पर महमूल करता है।

कलिमतुल्लाह (मसीह) में इन्सानियत के कमाल ने ज़हूर पकड़ा। आपकी कामिलियत का भेद ये था कि आप अपनी मर्ज़ी नहीं बल्कि ख़ुदा की मर्ज़ी पर चलना चाहते थे। आप में “नारास्ती” ना थी। क्योंकि अपने हर ख़याल व क़ौल और फ़ेअल में आप अपने बाप की इज़्ज़त व जलाल चाहते थे। (यूहन्ना 7:17-18) दीगर अम्बिया को ये एहसास था कि जिस काम के लिए ख़ुदा ने उन को भेजा है वो उस के लायक़ नहीं। (ख़ुरूज 3:11, यर्मियाह 1:6) लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) को इस क़िस्म का एहसास कभी ना हुआ। इस के बरअक्स आपने बार-बार फ़रमाया “में अपनी मर्ज़ी नहीं बल्कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी चाहता हूँ।” (यूहन्ना 5:30) “जिसने मुझे भेजा है वो मेरे साथ है उसने मुझे अकेला नहीं छोड़ा क्योंकि मैं हमेशा वही काम करता हूँ जो उस को पसंद आते हैं।” (यूहन्ना 8:48) मैं बाप को जानता हूँ और उस के कलाम पर अमल करता हूँ।” (यूहन्ना 4:34, 19:5, 6:38 वग़ैरह) “में बाप से मुहब्बत रखता हूँ और जिस तरह बाप ने मुझे हुक्म दिया मैं वैसा ही करता हूँ।” (यूहन्ना 4:31, 12:49) मज़्कूर बाला आयत से ज़ाहिर है कि इब्ने-अल्लाह और बाप की रज़ा में कामिल हम-आहंगी थी। कलिमतुल्लाह (मसीह) वापसीं भी अपनी ज़िंदगी को “हरा दरख़्त” कहते हैं। (लूक़ा 23:31) यानी रास्तबाज़ जो अपने वक़्त पर मेवा लाता है जिसके पत्ते मुरझाते नहीं और अपने हर काम में फूलता फलता है। (ज़बूर 1:4) आपने शागिर्दों को मुख़ातब करके फ़रमाया “दुनिया का सरदार (यानी शैतान) आता है और मुझमें उस का कुछ हिस्सा नहीं।” (यूहन्ना 14:30) यानी गुनाहगारों का सरदार इब्लीस जानता है कि मैं बेगुनाह हूँ। खुदावंद येसू मसीह को ये एहसास था कि “मैं दुनिया का नहीं।” (यूहन्ना 17:16) और फ़र्माते हैं कि “मैं ऊपर का हूँ।” (यूहन्ना 8:23) और “आस्मान से उतरा हूँ।” ना इसलिए कि अपनी मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अमल करूँ, बल्कि इसलिए कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अमल करूँ।” (यूहन्ना 6:38) आपने फ़रमाया कि “मेरा खाना ये है कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अमल करूँ और इस का काम पूरा करूँ।” (यूहन्ना 4:34) जब आपके सामने मौत खड़ी थी आपने तब भी रिज़ा-ए-इलाही का ख़याल किया और दुआ में ख़ुदा से कहा, “जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं बल्कि जैसा तू चाहता है वैसा ही हो।” (मत्ती 26:39) और दम वापसीन सलीब से ऐलान किया कि ख़ुदा का मक़्सद आपकी तालीम, ज़िंदगी और मौत से “पूरा हुआ।” (यूहन्ना 19:30) ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस में और आप में किसी क़िस्म की अख़्लाक़ी या रुहानी जुदाई ना थी। इस के बरअक्स दोनों में कामिल रिफ़ाक़त थी (1 पतरस 2:22, 1 यूहन्ना 3:5) आपको ये एहसास था कि आपके उसूल ज़िंदगी और मौत ग़रज़ कि आपकी ज़िंदगी की अदना तरीन तफ़्सील और वाक़िया रिज़ा-ए-इलाही का ज़हूर है। हमको ना सिर्फ आपकी शऊरी ज़िंदगी में बल्कि आपकी तहत-शऊर ज़िंदगी में भी गुनाह का शाइबा नहीं मिलता। गो आप गुनेहगारों की दुनिया में चलते फिरते थे। लेकिन आपकी रूह मिस्ल आईना शफ़्फ़ाफ़ थी। पस आपने हवारइन (शागिर्दों) से फ़रमाया, “जिसने मुझे देखा उसने बाप को देखा।” (यूहन्ना 14:9) “जो मुझे देखता है वो मेरे भेजने वाले को देखता है।” (यूहन्ना 12:45) “इब्ने आदम (ख़ुदावंद येसू मसीह) ने जलाल पाया और ख़ुदा ने उस में जलाल पाया।” (यूहन्ना 13:31) मेरे मुख़ालिफ़ों ने “मुझे और मेरे बाप दोनों को देखा है और दोनों से अदावत रखी है।” (यूहन्ना 15:24) “मैं अपने बाप में हूँ।” (यूहन्ना 14:20) “बाप मुझे जानता है और मैं बाप को जानता हूँ।” (यूहन्ना 10:24) “मैं और बाप एक हैं।” (यूहन्ना 10:30) क्या इस क़िस्म के दावे और कलिमे किसी ऐसे शख़्स के मुँह से निकल सकते हैं जिसको अपने गुनेहगार होने का एहसास हो? यूहन्ना 17 बाब की दुआ के अल्फ़ाज़ साबित कर देते हैं कि गुनाह का ख़याल भी इब्ने-अल्लाह (मसीह) के नज़्दीक कभी भटका ना था।

चुनान्चे जब जांकनी का वक़्त नज़्दीक आया तो आपने अपनी ज़िंदगी की आख़िरी शब में दुआ के वक़्त ख़ुदा को अपनी ज़िंदगी का हिसाब इन अल्फ़ाज़ में दिया “ऐ बाप वो घड़ी आ पहुंची, मैं तेरे पास आता हूँ, मैंने तेरा कलाम उनको पहुंचा दिया है। जो काम तू ने मुझे करने को दिया था उस को पाया-ए-तक्मील तक पहुँचाकर मैंने ज़मीन पर तेरा जलाल ज़ाहिर किया है।” (यूहन्ना 17 बाब) इस के बाद आपने इस आख़िरी शब में दूसरे लोगों की नजात, मग़्फिरत और हिफ़ाज़त के लिए दुआ मांगी लेकिन अपनी नजात और मग़्फिरत के लिए एक लफ़्ज़ भी आपके मुँह से ना निकला। जब आप मस्लूब कर दिए गए आपने पुकार कर ऐलान फ़रमाया कि आपने सब कुछ पूरा कर दिया। अपने आख़िरी लम्हों में आपको यक़ीन था कि आप बाप के पास जा रहे हैं (यूहन्ना 17:11) और आपकी जगह फ़िर्दोस है। (लूक़ा 23:43)

बफ़र्ज़-ए-मुहाल अगर ऐसे कलिमात इन्सानों के सामने निकल भी सकें लेकिन ख़ुदा के सामने जो हर इन्सान के अंदरूनी जज़्बात और दिल के पिन्हानी राज़ों से वाक़िफ़ है। (ज़बूर 44:21, 139:1) इस क़िस्म के कलिमात किसी इन्सान के मुँह से नहीं निकल सकते जिस तरह के कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़बान मुबारक से निकले। आप अपनी ज़िंदगी की आख़िरी शब ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस को मुख़ातब करके कहते हैं “ऐ बाप तू मुझ में है और मैं तुझमें हूँ। जो काम तूने मुझे करने को दिया था इस को पूरा करके मैंने ज़मीन पर तेरा जलाल ज़ाहिर किया और अब ऐ बाप तू उस जलाल से जो मैं दुनिया की पैदाइश से पेश्तर तेरे साथ रखता था मुझे अपने साथ जलाली बना ले। तूने बना-ए-आलम से पेश्तर मुझसे मुहब्बत रखी। (यूहन्ना 17 बाब) किसी इन्सान ज़ईफ़-उल-बुनयान को ये जुर्आत नहीं कि ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस के हुज़ूर इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ अपने मुँह से निकाले लेकिन जब हम कलिमतुल्लाह (मसीह) के मुँह से ऐसे अल्फ़ाज़ सुनते हैं तो एक क़ुदरती बात मालूम होती है और कोई सही-उल-अक़्ल शख़्स उनको कुफ़्र पर महलूल नहीं करता।

पस अनाजील के मुतालआ से ज़ाहिर है कि ना सिर्फ कलिमतुल्लाह (मसीह) के अक़्वाल व अफ़आल में हमको गुनाह का शाइबा तक नहीं मिलता बल्कि इस के बरअक्स आपको ये एहसास था कि आप कामिल तौर पर रिज़ा-ए-इलाही को पूरा करते हैं। इब्ने-अल्लाह (मसीह) के तसव्वुरात, जज़्बात, अक़्वाल और अफ़आल से ज़ाहिर है कि रिज़ा-ए-इलाही हमेशा आपकी मुतम्मा नज़र (असली मक़्सद) थी। (यूहन्ना 14:31) आपने इन्सानी क़ालिब में रह कर अपने ख़यालात, एहसासात और जज़्बात को ख़ुदा की ज़ात और मर्ज़ी का मज़हर बना रखा था। आपने एक ऐसी ज़िंदगी बसर की जिसमें इन्सानियत अपने कमाल तक पहुंच गई और आपके मुआसिरीन ने “उस का ऐसा जलाल देखा जैसा ख़ुदा के इकलौते बेटे का जलाल।” (यूहन्ना 1:14) आपके तसव्वुरात और जज़्बात, अक़्वाल और अफ़आल में हम इन्सानियत का कमाल देखते हैं, जो दर-हक़ीक़त रिज़ा-ए-इलाही पर कामिल तौर चलने का अक्स है। पस उलूहियत का कमाल इन्सानी जिस्म में ज़ाहिर हुआ। मुक़द्दस पौलुस रसूल “उलूहियत की सारी मामूरी उसी में मुजस्सम हो कर सुकूनत करती है।” (कुलस्सियों 2:9, 1:19, यूहन्ना 1:16) जब हम इस कामिलियत को इन्सानी पहलू से देखते हैं तो हम इन्सानियत के कमाल को देखते हैं और हम जान सकते हैं कि कामिल इन्सान किस क़िस्म का इन्सान हो सकता है और हमारी इन्सानियत कमाल के किस दर्जे तक पहुंचने की सलाहीयत रखती है। कलिमतुल्लाह (मसीह) की क़ुद्दूस ज़ात में उलूहियत और इन्सानियत का कमाल यकजा हैं। जब हम आपकी ज़िंदगी पर इलाही पहलू से नज़र करते हैं। तो उस में “उलूहियत की सारी मामूरी” पाते हैं और जब हम इसी ज़िंदगी पर इन्सानी ज़ावीया निगाह से नज़र करते हैं तो उस में इन्सानियत का कमाल पाते हैं। (यूहन्ना 1:1-17, 10:30, 1 यूहन्ना 1:1-3) इब्ने-अल्लाह (मसीह) बशर थे और फ़ौक़-उल-बशर भी थे। (इफ़िसियों 1:21-23) इन्सान की क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला मसीह की इंजीली तस्वीर में कुछ ईज़ाद (इज़ाफ़ा) नहीं कर सकती। दीगर मज़ाहिब के बानीयों की ज़िंदगीयों पर नज़र करके हर मुल्क और क़ौम के इन्सान कहते हैं कि इस में फ़ुलां फ़ुलां बात होती तो इस की ज़िंदगी क़ाबिल-ए-तक़्लीद होती। लेकिन मसीह की शख़्सियत की कामिलियत का ये एक बय्यन सबूत है कि किसी शख़्स के वहम गुमान में भी नहीं आता कि वो कहे कि काश मसीह में फ़ुलां ख़ुसूसीयत भी मौजूद होती। जनाबे मसीह की रोशन ज़मीर व क़ल्ब पर किसी को ऐसे हमलों और ज़ख़्मों के निशान नज़र नहीं आते जो आपने कभी शैतान के हाथों सहे हों। आपकी ज़ात हर नुक़्ता ख़याल से जामे सिफ़ात है। इब्ने-अल्लाह (मसीह) में इन्सानियत का कमाल मौजूद है आपने अपनी इन्सानियत के ज़रीये दुनिया पर ज़ाहिर कर दिया कि ख़ुदा की ज़ात कैसी है और उसने इन्सान को किस मक़्सद की ख़ातिर पैदा किया था और वो मक़्सद किस तरह आला तरीन पैमाने पर हासिल हो है।

(7)

मुनज्जी आलमीन (मसीह) ने दीगर अम्बिया की तरह गुनाहगारों को तौबा की दावत देने पर ही क़नाअत नहीं की। आपने गुनाहगारों के गुनाहों को माफ़ भी कर दिया। (मर्क़ुस 2:5, लूक़ा 7:48 वग़ैरह) दुनिया के लोगों का और दीगर मज़ाहिब के अम्बिया का यही ख़याल था कि “गुनाह कौन माफ़ कर सकता है सिवा एक यानी ख़ुदा के?” (मर्क़ुस 2:7) गुनाह ख़ुदा के ख़िलाफ़ बग़ावत का नाम है। लिहाज़ा सिर्फ़ ख़ुदा ही गुनाह को माफ़ कर सकता है लेकिन मुनज्जी आलमीन (मसीह) ने फ़रमाया “इब्ने आदम को ज़मीन पर गुनाहों के माफ़ करने का इख़्तियार है।” (मर्क़ुस 2:10) चूँकि दीगर अम्बिया हमारी तरह ख़ाकी और ख़ाती इन्सान थे वो इस बात की जुर्आत ही नहीं कर सकते थे कि वो गुनाह को माफ़ करने का ख़याल भी दिल में लाएं। इस के बरअक्स कलिमतुल्लाह (मसीह) की क़ुद्दूस और पाक ज़ात के दिल में गुनाहों के माफ़ ना करने का ख़याल कभी ना आया। जहां आपने गुनाह और तौबा के आसार देखे आपने गुनाहगारों के गुनाह माफ़ किए और फ़रमाया “बेटा ख़ातिरजमा रख तेरे गुनाह माफ़ हुए।” (मत्ती 9:3) “ऐ औरत तेरे गुनाह माफ़ हुए।” (लूक़ा 7:48) “आज के दिन तू मेरे साथ फ़िर्दोस में होगा।” (लूक़ा 23:43, यूहन्ना 5:14) जाये ग़ौर है कि मुनज्जी कौनैन (मसीह) तमाम गुनाहगारों को माफ़ करते हैं। (मर्क़ुस 2:5, मत्ती 11:28, यूहन्ना 8:11, 11:25, 14:27 वग़ैरह) लेकिन आपको ये एहसास है कि आपको ख़ुद मग़्फिरत की मुतलक़ हाजत नहीं। आपके मुख़ालिफ़ एज़्राह-ए-ताना आपको “गुनाहगारों का यार” (मत्ती 11:19, लूक़ा 7:34) कहते थे। क्योंकि आप उनके रफ़ीक़, मूनिस और हम्दर्द थे। उनके साथ मुहब्बत रखते थे और इस इलाही मुहब्बत के ज़हूर से उनको शैतान की गु़लामी से छुड़ा कर उनका मेल मिलाप दुबारा ख़ुदा के साथ कर देते थे। लेकिन अगरचे आपकी नशिस्त व बर्ख़ासत गुनेहगारों के दर्मियान भी आप गुनाह से मुबर्रा और ख़ता से मुनज़्ज़ह रहे। फ़रीसी गुनाहगारों से किनारा-कश रहते थे ताकि वो भी उनकी मानिंद गुनेहगार ना हो जाएं। लेकिन तमाम इन्जील छान मारो, तुम कहीं ये ना देखोगे कि इस क़िस्म का ख़दशा इब्ने-अल्लाह (मसीह) को कभी दामन-गीर हुआ हो। आपकी नेकी और रास्तबाज़ी को किसी मस्नूई (खुदसाख्ता) हिफ़ाज़त और चार-दीवारी की ज़रूरत ना थी। बदतरीन गुनेहगारों से मिलने से आपको आलाईश का अंदेशा ना था। आपको गुनाहगारों की हालत देखकर “तरस” आता था। क्योंकि “वो उन भेड़ों की मानिंद जिनका चरवाहा ना था ख़स्ता-हाल और परागंदा थे।” (मत्ती 9:36) उनके चरवाहे यानी फ़रीसी और काहिन “भेड़िए” (शैतान) को आते देखकर भेड़ों को छोड़कर भाग गए थे और भेड़िए ने उनको पकड़ कर परागंदा कर दिया था। (यूहन्ना 10:12) लेकिन मसीह ख़ुदावंद ने फ़रमाया “अच्छा चरवाहा मैं हूँ, अच्छा चरवाहा अपनी भेड़ों के लिए जान देता है।” (यूहन्ना 10:11) आपने अपने कलाम और अपनी ज़िंदगी और मौत से गुनाहगारों को उनके गुनाहों से मग़्फिरत अता की।

(8)

इब्ने-अल्लाह (मसीह) ना सिर्फ गुनाहों के माफ़ करने का दावा करते हैं, बल्कि गुनाहगारों के आदिल मुंसिफ़ होने का भी दावा करते हैं। (मत्ती 13:41 और 25 बाब वग़ैरह) आपने फ़रमाया “बाप किसी की अदालत नहीं करता बल्कि उसने अदालत का सारा काम बेटे के सपुर्द किया है।” (हज़रत यूहन्ना 5 बाब 22 आयत) बाप ने बेटे को अदालत करने का इख़्तियार भी बख़्शा है। (यूहन्ना 5:22) बाप ने बेटे को अदालत करने का इख़्तियार भी बख़्शा है। (यूहन्ना 5:27) “मैं दुनिया की अदालत करने आया हूँ।” (यूहन्ना 939) “इब्ने आदम अपने जलाल में आएगा और सब फ़रिश्ते उस के साथ आएँगे और वो अपने जलाल के तख़्त पर बैठेगा और सब कौमें उस के सामने जमा की जाएँगी और वो नेकों को गुनेहगारों से जुदा करेगा। जैसे चरवाहा भेड़ों को बकरीयों से जुदा करता है।” (मत्ती 25:31, 19:28, लूक़ा 3:17, आमाल 10:42, 17:31 वग़ैरह) इस दावे से ज़ाहिर है कि आप ख़ुद मासूम और बेगुनाह थे। आप जैसा ज़मीर और कोंशियास (वो इन्सानी क़ुव्वत जो इन्सान को भलाई की तरफ़ मुतवज्जोह करे) रखने वाला इन्सान गुनेहगार हो कर दूसरों की अदालत करने का दावा नहीं कर सकता। आपने फ़रमाया “मैं अपने आपसे कुछ नहीं कर सकता जैसा सुनता हूँ अदालत करता हूँ और मेरी अदालत रास्त है क्योंकि मैं अपनी मर्ज़ी नहीं बल्कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी चाहता हूँ।” (यूहन्ना 5:30) जिस शख़्स का अपना दिल गुनाहों से तारीक हो उस में अदालत करने की रोशन ज़मीरी नहीं आ सकती। सिर्फ एक बेगुनाह शख़्स ही बनी-नूअ इन्सान की अबदी ज़िंदगी और अबदी मौत का फ़ैसला कर सकता है। (मत्ती 25:46, 5:24-29) हक़ीक़त तो ये है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी और मौत हर एक शख़्स की ज़िंदगी की अदालत करती है। (यूहन्ना 16:11) जब आप दुनिया में थे तो आपकी बेगुनाह और मासूम ज़िंदगी एक आईना थी जिसमें बदकार अपनी बद-किर्दारी को उस की उर्यानी की हालत में देखते थे। (यूहन्ना 8:9, लूक़ा 5:8 वग़ैरह) आपने फ़रमाया था, “मैं नूर हो कर दुनिया में आया हूँ ताकि जो कोई मुझ पर ईमान लाए अंधेरे में ना रहे।” (यूहन्ना 12:46) आपकी ज़िंदगी की रोशनी में हर शख़्स अपने तारीक ख़यालात, नापाक जज़्बात, पलीद अक़्वाल और गंदे अफ़आल को देख सकता है। आपकी तुफुलिय्यत (बचपन) और शबाब को देखकर हर एक शख़्स अपनी तुफुलिय्यत (बचपन) और शबाब की ज़िंदगी से शर्माता है। आपका कलाम “दुनिया को गुनाह और रास्तबाज़ी और अदालत के बारे में क़सूरवार ठहराता है।” (यूहन्ना 16:8) इस तारीक दुनिया में सिर्फ आपकी ज़िंदगी हर पहलू से कामिल है और इन्सानियत के तमाम रुहानी मदारिज को रोशन कर देती है। आपकी क़ुद्दुसियत के सामने हर शख़्स का सर-ए-तस्लीम ख़म है। आपकी ज़िंदगी इन्सानी तारीख़ में एक मोअजिज़ा है, जो बेनज़ीर और अदील है।

दुनिया-ए-अख़्लाक़ में आपका कोई हम-सर नहीं। हर दीगर मज़्हब के बानी की अख़्लाक़ी ज़िंदगी को उस ज़मुरे में शुमार करते हैं, जिसमें हमारी अख़्लाक़ी ज़िंदगीयां हैं। उनकी ज़िंदगीयां हमारी ज़िंदगीयों की अदालत नहीं कर सकतीं। बल्कि बाअज़ बानीयों की ज़िंदगीयां ऐसी हैं जिनकी अदालत हमारी ज़िंदगीयां करती हैं। और उनको मुल्ज़िम गर्दानती हैं। हम जानते हैं कि गो वो मज़ाहिब के बानी और मुस्लेह (सुधारक) थे। ताहम वो हमारी तरह ख़ाकी और ख़ाती ज़ईफ़-उल-बुनयान (जिसकी बुनियाद कमज़ोर हो) थे। लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी हमारी ज़िंदगीयों की अदालत करती है और उनको मुल्ज़िम क़रार देती है। इब्ने-अल्लाह की ज़िंदगी एक आईने की मानिंद है (याक़ूब 1:23) जो शख़्स इस में अपना मुँह देखता है शर्मसार हो जाता है। आपकी पाकीज़ा ज़िंदगी हमारी गुनाह आलूदा ज़िंदगीयों पर हमेशा फ़त्वा सादिर करती है और हमको ये एहसास होता है कि ये फ़त्वा सच्चा है। जो शख़्स भी एक दफ़ाअ मसीह को देख लेता है वो अपनी अख़्लाक़ी और रुहानी ज़िंदगी की तरफ़ से ऐसा बेचैन हो जाता है कि उस को फिर इत्मीनान-ए-क़ल्ब (दिल) नसीब नहीं होता और वो हज़रत पतरस की तरह चिल्ला उठता है कि “ऐ ख़ुदावंद मैं नापाक आदमी हूँ।” (लूक़ा 5:8) पस आपकी मुक़द्दस ज़िंदगी को हम दीगर ज़ईफ़-उल-बुनयान इन्सानों की ज़िंदगीयों के साथ एक ही सफ़ में शुमार नहीं कर सकते और ना करते हैं। क्योंकि दोनों क़िस्म की ज़िंदगीयों में बाद उल-मशरक़ीन है। आपकी पाक ज़ात की रोशनी हर ज़माना, मुल्क और क़ौम के करोड़ों अफ़राद के लिए आला तरीन मेयार रही है, जिससे उन्होंने अपने गुनाहों और तारीक मुक़ामों को देखा है और उनकी इस्लाह की है। पस आप इब्तिदा ही से आलमे रूहानियत के वाहिद उस्ताद और हुक्मरान और दुनिया-ए-अख़्लाक़ के वाहिद ताजदार रहे हैं।

(9)

हक़ तो ये है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़ात ऐसी है जो दुनिया की पैदाइश से ताक़यामत एक ही बार वाक़ेअ हुई है यानी “एक ऐसा शख़्स जो इस दुनिया में आया जो खुद गुनाह से नावाक़िफ़ था।” लेकिन उसने गुनाह की हक़ीक़त को दुनिया पर वाज़ेह कर दिया। (मत्ती 5:27, 15:11 वग़ैरह) वो दूसरों को तौबा की दावत देते थे। (मत्ती 4:17) लेकिन उस को ख़ुद तौबा की मुतलक़ (बेक़ैद) हाजत ना थी। वो रियाकारी के जानी दुश्मन थे। लेकिन ख़ुद रास्तबाज़ होने के मुद्दई थे। (यूहन्ना 5:30) वो दूसरों को नजात देने आए थे लेकिन ख़ुद उनको नजात की मुतलक़ ज़रूरत ना थी। वो ख़ुदा की तरह गुनाहगारों को माफ़ करते हैं लेकिन वो गुनाहगारों को ख़ुदा के नाम से माफ़ नहीं करते बल्कि अपने नाम और इख़्तियार से माफ़ करते हैं। (मर्क़ुस 2:10, लूक़ा 23:43) और ख़ुदा का ज़िक्र तक दर्मियान में नहीं लाए। दीगर अम्बिया मसलन हज़रत समुएल वग़ैरह कहते थे कि “ख़ुदा ने तेरे गुनाह माफ़ कर दिए।” (2 समुएल 12:13) और उनकी तालीम ये थी कि सिर्फ ख़ुदा ही गुनाहों को माफ़ कर सकता है। (मत्ती 9:3, यसअयाह 43:45, यर्मियाह 31:34, हिज़्क़ीएल 36:35) कलिमतुल्लाह (मसीह) कामिल इन्सान होने का दावा करते हैं। (मत्ती 11:25-28) लेकिन ये कमाल उनको पैदाइश के वक़्त अतीया के तौर नहीं मिला था। बल्कि आपने ख़ुद हासिल किया था। दीगर इन्सानों की रुहानी तरक़्क़ी बदी से नेकी की जानिब होती है लेकिन ख़ुद इब्ने अल्लाह की रुहानी तरक़्क़ी कामिलियत की एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल की जानिब हुई। (लूक़ा 1:40) पस आपकी हस्ती अख़्लाक़ीयात और मज़ाहिब की दुनिया में बेनज़ीर है।

जनाबे मसीह की आलमगीर शख़्सियत

इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी का ख़ाका एक जामे हस्ती का ख़ाका है। आपकी पाक और क़ुद्दूस ज़ात में कोई बात नहीं पाई जाती जो मुक़ामी हो और इमत्तीदाद-ए-ज़माने के बाइस मन्सूख़ होने के लायक़ हो या क़ाबिल-ए-तक़्लीद ना रही हो। आपकी शख़्सियत और आपकी सतूदा क़ुद्दूस सिफ़ात का किसी ख़ास जगह वक़्त मकान ज़मान, क़ौम, पुश्त वग़ैरह के साथ ताल्लुक़ नहीं। बल्कि आपकी तालीम के उसूल की तरह आपकी ज़ात भी आलमगीर है। आप अहले-यहूद में से थे लेकिन हिटलर जैसे दुश्मने यहूद को भी आपकी ज़िंदगी में यहूदी ख़साइल का शमा तक नज़र नहीं आता। जहां हिटलर हर शए को जिससे यहूदीयत की बू भी आती है नेस्त व नाबूद करने को तैयार रहता है वहां जनाबे मसीह की शख़्सियत के सामने सर-ए-तस्लीम ख़म कर देता है क्योंकि आपका नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) और आपकी ज़ात किसी ख़ास क़ौम और मुल्क से वाबस्ता नहीं बल्कि आपकी हस्ती जामे और आलमगीर है।

मुख़्तलिफ़ ममालिक और अक़्वाम का मत्माअ नज़र पड़ने की जगह, मक़्सूद नज़र एक नहीं होता। जो शख़्स अरब की नज़र में हीरो है वो इटली की नज़र में क़ाबिल-ए-क़द्र नहीं होता। जो शख़्स मसलन हिटलर जर्मनी की नज़र में क़ाबिल-ए-क़द्र हस्ती है वो अमरीका या हिन्दुस्तान की नज़रों में वक़अत (इज़्ज़त) नहीं रखता। मसलन अहले-मग़रिब हिन्दुस्तान के गांधी जी को एक अज़ीम हस्ती मानेंगे। लेकिन उस को नजातदिहंदा मान कर हरगिज़ उस की पैरवी ना करेंगे। हिन्दुस्तान के बाशिंदे मग़रिब के किसी फिलासफर को क़ाबिल-ए-क़द्र हस्ती मान लेंगे लेकिन उस को अपना गुरू और मुक्ती दाता मानने को हरगिज़ तैयार ना होंगे। लेकिन मशरिक़ व मग़रिब के रहने वाले सब के सब ये ख़्वाहिश रखते हैं कि उनकी ज़िंदगी जनाबे मसीह की ज़िंदगी की तरह हो जाएगी। वो आपके कामिल नमूने पर चलने की आरज़ू रखते हैं। आप ख़ुदावंद की ज़िंदगी (لیں مثالیہ شی) है। क्योंकि ये बात किसी और दीन के हादी को नसीब है। मसलन क्या ग़ैर-मुस्लिम अस्हाब ऐसे शख़्स को मर्हबा कहेंगे जो अपनी ज़िंदगी को रसूल-ए-अरबी की मानिंद बनाने की कोशिश करता है? क्या ग़ैर-हनूद (और हनूद) भी ऐसे अश्ख़ास की दिल से वक़अत करेंगे जो अपनी ज़िंदगी को कृष्ण की ज़िंदगी के मुताबिक़ ढालने की कोशिश करते हैं। महात्मा बुद्ध दुनिया की अज़ीमुश्शान हस्तीयों में से है। लेकिन कितने अश्ख़ास हैं जो अपनी ज़िंदगी को बुद्ध के नक़्श-ए-क़दम पर चलाना चाहते हैं? लेकिन अगर कोई शख़्स ये तहय्या कर लेता है कि वो अपनी ज़िंदगी को जनाबे मसीह की ज़िंदगी के मुताबिक़ करेगा और अपने ख़यालात व जज़्बात व अफ़आल को आप खुदावंद के ख़यालात व जज़्बात व अफ़आल के नमूने पर चलाएगा तो जिस निस्बत से वो अपनी सई (कोशिश करने वाला) में कामयाब होता है उसी निस्बत से रुए-ज़मीन के तमाम ममालिक व अक़्वाम उस की दिल से क़द्र, वक़अत और ताज़ीम करती हैं और उस के वजूद को दुनिया के लिए बाइस-ए-ग़नीमत ख़याल करती हैं। रेनान जैसा आज़ाद ख़याल और अक़्ल परस्त ये कहने पर मज्बूर हो जाता है कि :-

“मसीह की ज़ात नूअ इन्सानी की हक़ीक़ी फ़लाह की मज़्बूत पुश्त व पनाह है। अगर इस दुनिया से मसीह का नाम मिट जाये तो दुनिया की बुनियादें खोखली हो जाएंगी। वो ऐसी बेनज़ीर हस्ती है जिसके हाथ में दुनिया की बागडोर है और जिसके ज़रीये इन्सान ख़ुदा के पास पहुंच सकता है। नूअ इन्सानी के लिए उस की ज़िंदगी एक ज़बरदस्त नमूना है। जब तक हमारे सीनों में मस्कन गज़ीं नहीं होता हमको हक़ीक़ी रास्तबाज़ी और पाकीज़गी हासिल नहीं हो सकती।”

कलिमतुल्लाह (मसीह) की शख़्सियत ही एक ऐसी वाहिद शख़्सियत है जिसकी तालीम और नमूने को हर ज़माने मुल्क और क़ौम के करोड़ों अफ़राद अपना नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) बनाए हुए हैं। क्या मशरिक़ मग़रिब और क्या शुमाल जुनूब। सब का सर आपकी ज़ात के सामने झुका हुआ है। जनाबे मसीह अकेले वाहिद मशरिक़ी शख़्स हैं जिनके सामने अहले मग़रिब और अहले मशरिक़ सब के सब सर बसजूद (सज्दा-रेज़) हैं। इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़ात कामिल है। आपकी सिफ़ात जामे हैं और आपका नमूना कुल बनी नूअ इन्सान के लिए कामिल और अकमल है।

कलिमतुल्लाह (मसीह) की आमद ने ख़ुदा की ज़ात को इन्सान पर ज़ाहिर कर दिया। ख़ुदा-ए-क़दीम का जलाल इब्ने-अल्लाह के जलाल के ज़रीये बनी नूअ इन्सान पर परतू-फिगन (پرتو فگن) हुआ। खुदा ने मसीह में मुजस्सम हो कर अपनी ज़ात की ज़िया पाशी की। ख़ुदा और इन्सान में, ख़ालिक़ और मख़्लूक़ में, आबिद और माबूद में गो फ़र्क़ और तमीज़ बरक़रार रहती लेकिन दोनों के दर्मियान कोई ख़लीज हाइल ना रही।

در بشر روپوش کردہ است آفتاب

فہم کن اللہ اعلم بالصواب

صورتش برخاک وجان برلامکان

لامکانے فوقِ وہم سالکان

(मौलाना रुम)

फ़स्ल दुवम

मसीह की फ़ज़ीलत की शान

और

इन्जील व क़ुरआन

हमारे मुख़ातब और अंदाज़ ख़िताब

(1)

इस फ़स्ल में हमारा रु-ए-सुख़न (कलाम, बात) मुसलमान बिरादरान की तरफ़ है जिनका ईमान तमाम कुतुब मिनज्ज़ल मिनल्लाह (तमाम किताब अल्लाह की तरफ से नाज़िल हुई منزل من اللہ) पर है। चुनान्चे क़ुरआन में वारिद हुआ है :-

(1) وَتُؤْمِنُونَ بِالْكِتَابِ كُلِّهِ (सूरह आले-इमरान आयत 119)

यानी जो ईमान रखते हैं ख़ुदा की सारी अल-किताब (बाइबल) पर।

क्योंकि क़ुरआन मुताबिक़ आयत शरीफ़ :-

(2) وَ ہٰذَا کِتٰبٌ اَنۡزَلۡنٰہُ مُبٰرَکٌ مُّصَدِّقُ الَّذِیۡ بَیۡنَ یَدَیۡہِ (सूरह आयत 92)

यानी ये (क़ुरआन भी) किताब (आस्मानी) है जिसको हमने उतारा है। बरकत वाली (किताब) है और जो (किताबें) इस (के ज़माना नुज़ूल) से पहले की मौजूद हैं उनकी (भी) तस्दीक़ करती है। (तर्जुमा नज़ीर अहमद)

(3) وَ ہُوَ الۡحَقُّ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَہُمۡ (सूरह बक़रह आयत 91)

यानी क़ुरआन हक़ है और तस्दीक़ करने वाला है उस किताब की जो उन के पास मौजूद है।

(4) وَ اٰتَیۡنٰہُ الۡاِنۡجِیۡلَ فِیۡہِ ہُدًی وَّ نُوۡرٌ ۙ وَّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ مِنَ التَّوۡرٰىۃِ وَ ہُدًی وَّ مَوۡعِظَۃً لِّلۡمُتَّقِیۡنَ (सूरह अल-मायदा आयत 46)

यानी हमने ईसाई को इन्जील दी और उस के अंदर हिदायत है और नूर और वो तस्दीक़ करती है तौरात की, जो उस के आगे थी और वो हिदायत है और नसीहत है परहेज़गारों के लिए।

(नीज़ देखो निसा रुकू 6, बकरा रुकू 5, रुकू 11, माइदा 7, 9, 10, अनआम रुकू 11, रुकू 19 मोमिन रुकू 6, वग़ैरह)

मुन्दरिजा बाला आयात से दो बातें साफ़ हो जाती हैं अव्वल कि कुतुब बाइबल में या ज़माना क़ुरआन तहरीफ़ वाक़ेअ नहीं हुई। पस वो तिलावत और इस्लामी ईमान का जुज़ हैं। दोम, कि सच्चा मुसलमान वही है जो बाइबल व क़ुरआन दोनों को कुतुब समावी (आस्मानी) समझ कर दोनों पर ईमान लाए और दोनों की ग़ौर व तदब्बुर (अंजाम पर ग़ौर करना) से तिलावत करके उन पर अमल करे जिस तरह नसारा अम्बिया-ए-यहूद की कुतुब पर ईमान रखते हैं और इन्जील जलील के साथ उनकी भी तिलावत हैं।

जो मुसलमान बिरादरान क़ाल-लल्लाह और क़ाल-लल्रसूल (अल्लाह व रसूल के फर्मान) को अपने ईमान की बुनियाद बनाते हैं। उनके लिए मसअला तहरीफ़ की ग़लती साबित करने के लिए मुन्दरिजा बाला आयत काफ़ी और वाफ़ी (मुकम्मल) हैं। लेकिन जो अक़्ल को भी दख़ल देते हैं और अदबीयात के तन्क़ीदी उसूलों के मुताबिक़ किताब मुक़द्दस और इन्जील जलील की सेहत को परखना चाहते हैं हम उनकी तवज्जोह अपनी कुतुब “सेहत कुतुब मुक़द्दसा” और “क़दामत व अस्लियत अनाजील अरबा” (2 जिल्द) की जांब-मब्ज़ूल करते हैं और उनको दावत देते हैं कि वो क़ुरआन को भी मौजूदा इल्म तन्क़ीद के उसूलों पर परखें ताकि उस की सेहत से भी वाक़िफ़ हो सकें।

(2)

फिर क़ुरआन में इर्शाद हुआ है :-

تَعَالَوۡا اِلٰی کَلِمَۃٍ سَوَآءٍۢ بَیۡنَنَا وَ بَیۡنَکُمۡ (सूरह आले-इमरान आयत 64)

यानी ऐ अहले किताब एक ऐसे कलिमा की तरफ़ आओ जो हमारे और तुम्हारे दर्मियान मुसल्लम है।

और मुसलमानों को हुक्म दिया गया है :-

وَ لَا تُجَادِلُوۡۤا اَہۡلَ الۡکِتٰبِ اِلَّا بِالَّتِیۡ ہِیَ اَحۡسَنُ اِلَّا الَّذِیۡنَ ظَلَمُوۡا مِنۡہُمۡ وَ قُوۡلُوۡۤا اٰمَنَّا بِالَّذِیۡۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡنَا وَ اُنۡزِلَ اِلَیۡکُمۡ وَ اِلٰـہُنَا وَ اِلٰـہُکُمۡ وَاحِدٌ وَّ نَحۡنُ لَہٗ مُسۡلِمُوۡنَ

यानी तुम अहले-किताब से झगड़ा (बह्स) करो तो ऐसे तौर पर करो जो सबसे अच्छा हो और उनसे यूं कहो कि हम ईमान रखते हैं क़ुरआन पर जो हम पर नाज़िल हुआ और बाइबल पर जो तुम पर उतरी। हमारा ख़ुदा और तुम्हारा ख़ुदा एक ही है और हम उसी के मह्कूम हैं। (सूरह अन्कबूत आयत 46)

इन्जील में भी वारिद हुआ है कि :-

हक़ बात को मुहब्बत के साथ ज़बान से निकालो। (इफ़िसियों 4:15)

तुम्हारा कलाम हमेशा पुर फ़ज़्ल और नम्कीन हो ताकि तुम्हें हर शख़्स को मुनासिब जवाब देना आ जाए। (कुलस्सियों 4:6)

जो कोई तुमसे तुम्हारी उम्मीद की वजह और दलील दर्याफ़्त करे उस को जवाब देने के लिए हर वक़्त हुलुम और ख़ौफ़ के साथ मुस्तइद रहो और नीयत भी नेक रखो। (1 पतरस 3:15 वग़ैरह)

मज़्कूरा बाला क़ुरआनी और इंजीली इर्शादात के मुताबिक़ राक़िम-उल-सतूर (जिसने ये सतरें तहरीर की हैं) इस्लामी दुनिया को दावत देता है कि एक ऐसे कलिमे की तरफ़ आओ जो हमारे और तुम्हारे दर्मियान मुसल्लम है। इन्जील जलील और क़ुरआन मजीद दोनों का ईमान एक वाहिद अल्लाह पर है जिसके हम सब मह्कूम हैं और हर कुतुब समावी (आस्मानी) हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की सना-ख़्वाँ हैं। पस इस फ़स्ल में हम कलिमतुल्लाह (मसीह) की अफ़्ज़ल ख़ुसूसियात का ज़िक्र करेंगे। जो इस्लाम और मसीहिय्यत में हैं।

मुक़ामे मर्यम व इब्ने मरियम

(1)

क़ुरआन और अनाजील से ये हक़ीक़त वाज़ेह है कि हज़रत मर्यम सिद्दीक़ा हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की पैदाइश के वक़्त पाकीज़ा थीं। अनाजील हमें बताती हैं कि आपकी मंगनी हज़रत यूसुफ़ से हो गई थी लेकिन उनके इकट्ठे होने से पहले (मत्ती 1:18) जिब्रईल फ़रिश्ता अल्लाह की तरफ़ से आपके पास आया। और उसने कहा, “सलाम, खुदा ने तुझको अपने फ़ज़्ल से सर्फ़राज़ फ़रमाया है क्योंकि ख़ुदा तेरे साथ है।”

हज़रत मर्यम अफ़ीफ़ा (परहेज़गार औरत, बाइस्मत औरत) थीं। आप फ़रिश्ते को देखकर और उस का कलाम सुनकर घबरा उठीं फ़रिश्ते ने आपकी हालत देखकर कहा :-

“बीबी। ख़ौफ़ ना कर, क्यों कि ख़ुदा की तरफ़ से तुझ पर फ़ज़्ल हुआ है। देख तू हामिला होगी और तेरे हाँ बेटा पैदा होगा। उस का नाम यसू रखना अपने लोगों को उन के गुनाहों से नजात देगा। वो एक अज़ीम शख़्सियत का मालिक होगा और ख़ुदा तआला का बेटा कहलाएगा। मर्यम मुक़द्दसा ने फ़रिश्ते से पूछा कि ये क्यूँ-कर हो सकता है जब कि मैं अब तक मर्द को नहीं जानती। जिब्रईल ने जवाब दिया कि ख़ुदा का रूह-उल-क़ुद्दुस तुझ पर नाज़िल होगा और ख़ुदा की क़ुद्रत तुझ पर साया डालेगी। इस सबब से वो मौलूद मुक़द्दस और इब्ने-अल्लाह होगा।”

हज़रत मर्यम ने जवाब दिया “मैं तो ख़ुदा की बंदी हूँ। अगर रिज़ा-ए-इलाही यही है तो मुझे मंज़ूर है, मेरे साथ तेरे क़ौल के मुवाफ़िक़ हो। तब फ़रिश्ता आपके पास से चला गया।” (लूक़ा 1:26 38, मत्ती 1:18 ता-आखिर, सूरह मर्यम 16 ता 33 आयात)

ये ख़ातून कौन थीं? क़ुरआन मजीद हमको मुफ़स्सिल तौर पर बतलाता है कि हज़रत बीबी मर्यम अपनी पैदाइश से पहले जब वो अभी बतन-ए-मादर (माँ का पेट) थीं तो आपकी वालिदा मुकर्रमा ने आपको ख़ुदा की नज़र करके दुआ की थी कि :-

“ऐ मेरे रब जो कुछ मेरे बतन में है उस को मैंने तेरी नज़्र किया है, तू इस को मेरी तरफ़ से क़ुबूल फ़र्मा।” (आले-इमरान आयत 31)

जब हज़रत मर्यम पैदा हुईं तो आपकी वालिदा ने आपको और आपकी औलाद को ख़ुदा के हिफ़्ज़ व अमान में देकर कहा :-

“ऐ मेरे रब मैं इस को और इस की औलाद को अश्-शैतानु-र्रजीम (الشیطان الرجیم) से तेरी पनाह में देती हूँ।” (आले-इमरान आयत 31)

ऐसी ख़ुदा रसीदा माँ की दुआ अपना असर देखाए बग़ैर ना रही पस :-

“इस के रब ने बीबी मर्यम को अच्छी तरह क़ुबूल फ़रमाया।” (सूरह आले-इमरान आयत 32)

इस आया शरीफा से ज़ाहिर है कि ख़ुदा ने मर्यम को बअल्फ़ाज़ इन्जील अपने “फ़ज़्ल” के साये में ले लिया और आपको “शैतान मर्दूद से पनाह” में रखा और आपके रिश्तेदार हज़रत ज़करीयाह जैसे सालिह काहिन (लूक़ा 1:8) को आपका कफ़ील और ज़िम्मेदार बनाया। (आले-इमरान 32)

चूँकि हज़रत ज़करीयाह काहिन थे मर्यम बतूला की तुफुलिय्यत (बचपन) का ज़माना हज़रत समुएल नबी की तरह ख़ुदा के मुक़द्दस में गुज़रा और ख़ुदा ख़ुद आपकी परवरिश आस्मानी ख़ुराक से करता रहा। (قَالَ یٰمَرۡیَمُ اَنّٰی لَکِ ہٰذَا ؕ قَالَتۡ ہُوَ مِنۡ عِنۡدِ اللّٰہِ اِنَّ اللّٰہَ یَرۡزُقُ مَنۡ یَّشَآءُ بِغَیۡرِ حِسَابٍ) (सूरह आले-इमरान आयत 37)

इस तर्बीयत का नतीजा ये हुआ कि जब आप जवान हुईं तो आप एक ऐसी ख़ातून थीं जिस पर बअल्फ़ाज़ इन्जील “और ख़ुदा की तरफ़ से फ़ज़्ल हुआ, और बअल्फ़ाज़ और क़ुरआन।”

जिसको अल्लाह ने पसंद फ़रमाया और पाक किया और तमाम जहां की औरतों से बर्गुज़ीदा फ़रमाया। (وَ اصۡطَفٰکِ عَلٰی نِسَآءِ الۡعٰلَمِیۡنَ) (सूरह इमरान आयत 42)

पस वो इस क़ाबिल थीं कि आपके बतन अतहर से इब्ने-अल्लाह व कलिमतुल्लाह (मसीह) पैदा होई क़ुरआन मजीद के अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है कि हज़रत बीबी मर्यम एक ऐसी पाक दामन और मुक़द्दस हस्ती थीं जो सिफ़त और परहेज़गारी के लिहाज़ से तमाम दुनिया के ताइफ़ा निसवां (तमाम औरतों طائفہ نسواں) पर फ़ज़ीलत रखती थीं। जिनको ये शर्फ़ हासिल हुआ कि अल्लाह तआला ने अपने फ़रिश्ता ख़ास के हाथ आपके पास पैग़ाम भेजा। यही है कि क़ुरआन में खुदा ने आपको “सिद्दीक़ा” का ख़िताब मुस्तताब (ख़ुशगुवार, नेक) अता फ़रमाया। (माइदा आयत 79)

मसीह की ख़ारिक़ आदत पैदाइश

क़ुरआन शरीफ़ में वारिद हुआ है :-

یٰمَرۡیَمُ اِنَّ اللّٰہَ یُبَشِّرُکِ بِکَلِمَۃٍ مِّنۡہُ اسۡمُہُ الۡمَسِیۡحُ عِیۡسَی ابۡنُ مَرۡیَمَ وَجِیۡہًا فِی الدُّنۡیَا وَ الۡاٰخِرَۃِ وَ مِنَ الۡمُقَرَّبِیۡنَ

यानी ऐ मर्यम, ख़ुदा तुझको अपने कलिमा की बशारत देता है जिसका नाम अल-मसीह ईसा बिन मर्यम है वो दुनिया और आख़िरत में ख़ुशनुमा बा-रौनक चेहरे वाला होगा और ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) में रहने वाला होगा। (सूरह आले-इमरान आयत 45)

इन्जील जलील का पहला वर्क़ हमें बतलाता है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की पैदाइश में और मज़्हब आलम के बानीयों की पैदाइश में फ़र्क़ है। जब से अबूल-बशर आदम ख़ल्क़ किया गया उस वक़्त से लेकर दौरे हाज़रा तक कोई शख़्स ख़्वाह वो कैसा ही अज़ीमुश्शान गुज़रा हो, हज़रत रूह-उल्लाह की तरह बाकिरा (कुँवारी) के बातिन अतहर से ख़ुदा तआला की क़ुद्रत ख़ास से पैदा नहीं हुआ। (मत्ती 1:20, लूक़ा 1:34-35)

इस क़िस्म की पैदाइश सिर्फ़ इब्ने-अल्लाह की ज़ात से ही मख़्सूस है और ये ख़ुसूसीयत है जिसको हर दो कुतुब समावी क़ुरआन व इन्जील तस्लीम करती हैं। (इमरान 40 ता 42 माइदा 109, मर्यम 16 ता 32, वग़ैरह)

पस इब्ने मरियम की ख़ारिक़ (करामत, अनोखी) आदत पैदाइश पर ख़ुदा उस के मलाइक (फरिश्तें) और हर दो कुतुब समावी (आस्मानी किताबों) के मानने वाले यानी कुल दुनिया के मसीही और मुसलमान मुताल्लिक़ हो कर सर-ए-तस्लीम ख़म करते हैं। इस नुक़्ता-ए-नज़र से इब्ने मरियम को दुनिया के कुल इन्सानों, हादियों, नबियों पर फ़ौक़ियत और तक़द्दुम हासिल है और इब्ने-अल्लाह फ़ौक़-उल-बशर इन्सान और अफ़्ज़ल अन्नास हस्ती ठहरते हैं।

’’مثل عیسیٰ عند اللہ کمثل آدم‘‘ का मतलब

बाअज़ अक़्ल परस्त आया क़ुरआनी “ईसा की मिस्ल अल्लाह के नज़्दीक आदम की मिसाल है। उस को मिट्टी से ख़ल्क़ किया। फिर उस को कहा “हो जा” पस वो हो गया। (सूरह आले-इमरान आयत 59) को इस वाक़िये के इन्कार से पेश करते हैं। पस हम इस आयत शरीफ़ का मफ़्हूम भी साफ़ किए देते हैं। तौरात शरीफ़ में आया है कि :-

“खुदा ने आदम को मिट्टी से इन्सान बनाया और उस के नथनों में ज़िन्दगी का दम फूँका।” (पैदाइश 2:7)

इन्जील में वारिद हुआ है कि :-

“ख़ुदा ने एक ही अस्ल से आदमीयों की हर एक क़ौम तमाम रू-ए-ज़मीं पर पैदा किया।” (आमाल 17:36)

क़ुरआन मजीद में भी आदम और नस्ल आदम की आफ़्रनीश की निस्बत यही आया है। (सज्दा, आले-इमरान, दहर)

अबूल-बशर आदम और हव्वा की पैदाइश इलाही तख़्लीक़ के तौर पर माँ बाप के वास्ते के बग़ैर हुई जिस तरह दीगर हैवानात के पहले जोड़े नर और मादा के बग़ैर पैदा हुए। (पैदाइश 2:19) उस वक़्त के बाद आज के दिन तक हर हैवान और हर फ़र्द बशर तबई क़ानून-ए-फ़ित्रत के मुताबिक़ नर और मादा से पैदा होता चला आया है। लेकिन इस क़ायदा कुल्लिया से सिर्फ एक वाहिद फ़र्द यानी मसीह इब्ने मरियम की पैदाइश मुस्तसना (वो शख़्स या चीज़ जिसे अलैहदा किया गया या चुना गया) और यानी फ़ौक़-उल-फ़ित्रत तौर पर हुई। बअल्फ़ाज़ मुक़द्दस पौलुस :-

“अबूल-बशर आदम अव्वल मिट्टी से था और ख़ाकी था लेकिन आदम-ए-सानी मसीह ज़िंदगी बख़्शने वाली रूह बना और आस्मानी है।” (1 कुरिन्थियों 15:45-47)

امراً مقضیاً

का मफ़्हूम

क़ुरआन मजीद में मसीह ईसा का ज़िक्र हर जगह सिर्फ आपकी कुन्नियत “इब्ने मरियम” से ही किया गया है सूरह आले-इमरान आपके किसी ज़मीनी बाप का ज़िक्र तो दर-किनार नाम तक मौजूद नहीं है। क़ुरआन ने बका-ए-जिन्स के फ़ित्री जिन्स के तरीक़ को मन्सूख़ करने और आफ़्रनीश का मुक़र्ररा सिलसिला तोड़ने की वजह भी इस को बतला दी है :-

وَ لِنَجۡعَلَہٗۤ اٰیَۃً لِّلنَّاسِ وَ رَحۡمَۃً مِّنَّا ۚ وَ کَانَ اَمۡرًا مَّقۡضِیًّا

“हम (यानी ख़ुदा) उस को (मसीह को) अपनी तरफ़ से दुनिया के आदमीयों के लिए रहमत और निशान बनाना चाहते हैं और ये अम्र अज़ल से मुईन और मुक़र्रर हो चुका है।” (सूरह मर्यम आयत 21)

अल्लाह ने ये पसंद ना किया कि अपने कलिमा और रूह को इसी हक़ीर सलसाल (صلصال गुँधी हुई मिट्टी जिससे बर्तन बनते हैं। सूखी मिट्टी जो बजाने पर आवाज़ दे।) से बनाए जिस से आदम अव्वल और उस की नस्ल की अफ़्ज़ाइश हुई। ऐसी अज़ीमुश्शान ख़ारिक़ आदत पैदाइश बग़ैर किसी ख़ास इलाही मक़्सद ’’ کَانَ اَمۡرًا مَّقۡضِیًّا ‘‘ के ना हो सकती थी। दोनों कुतुब समावी (इन्जील व क़ुरआन) के मुताबिक़ ये मक़्सद था कि दुनिया में एक ऐसा आयत-उल्लाह (अल्लाह की निशानी) और रहमत-उल्लाह (अल्लाह की रहमत) पैदा हो जो तमाम दुनिया के इन्सानों के लिए हुज्जत-उल्लाह (अल्लाह की हुज्जत) साबित हो। (यूहन्ना 9:39-41) इसी वास्ते इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़बान मोअजिज़ा बयान ने फ़रमाया कि :-

“राह हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ। कोई मेरे वसीले के बग़ैर बाप के पास नहीं आता। क़ियामत और ज़िंदगी मैं हूँ, जो मुझ पर ईमान लाता है गो वो मर जाये तो भी ज़िंदा रहेगा। दुनिया का नूर मैं हूँ जो कोई मेरी पैरवी करेगा वो अंधेरे में ना चलेगा, बल्कि ज़िंदगी का नूर पाएगा।” (यूहन्ना 14:6, 12:25, 8:12)

کَانَ اَمُرًا مَّقضِیًّا

की इंजीली तफ़्सीर

क़ुरआन हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की बेनज़ीर पैदाइश को “اَمۡرًا مَّقۡضِیًّا” क़रार देता है यानी एक ऐसा अम्र जो ख़ुदा के ख़ास अहले इरादे के मुताबिक़ हुआ है। लेकिन वो इस क़ज़ा-ए-इलाही की वजह नहीं बतलाता और इस हक़ीक़त के मक़्सद को पर्दा इख़फ़ा में रखता है। इन्जील जलील में भी इस लासानी कलिमे के जिस्म इख़्तियार करने की अस्ल ग़र्ज़ और मुद्दे को “राज़” कहा गया है जो अज़ल से पोशीदा रहा। (रोमीयों 16:25) और कलिमतुल्लाह (मसीह) के रसूलों पर जो साहिबे वही थे। (सूरह आले-इमरान आयत 45, सूरह सफ़ आयत 14, सूरह मायदा आयत 111, 1 कुरिन्थियों 14:37, लूक़ा 6:13, इब्रानियों 5:4, मत्ती 10:2, मर्क़ुस 6:30, रोमियो 1:1 वग़ैरह)

बज़रीये कश्फ़ व मुकाशफ़ा ख़ुदा से अज़ली के हुक्म के मुताबिक़ ज़ाहिर किया गया। (1 कुरिन्थियों 2:7, 1 तीमुथियुस 3:16, इफ़िसियों 1:8-9, 3:9-12 वग़ैरह)

यहां सवाल पैदा होता है कि इस क़ज़ा-ए-इलाही की ग़ायत क्या थी? क़ुरआन इस बारे में ख़ामोश है लेकिन उसने एक उसूल बतला दिया है, जिसके ज़रीये हम “اَمۡرًا مَّقۡضِیًّا” को समझ सकते हैं। चुनान्चे अल्लाह तआला क़ुरआन में रसूले अरबी को मुख़ातब करके फ़रमाया है :-

فَاِنۡ کُنۡتَ فِیۡ شَکٍّ مِّمَّاۤ اَنۡزَلۡنَاۤ اِلَیۡکَ فَسۡـَٔلِ الَّذِیۡنَ یَقۡرَءُوۡنَ الۡکِتٰبَ مِنۡ قَبۡلِکَ

यानी (ऐ मुहम्मद) अगर तुझको उस चीज़ में जो हमने तेरी तरफ़ उतारी कुछ शक हो (यानी पता ना चले) तो उन लोगों से पूछ लिया कर जो तुझसे पहले अल-किताब (बाइबल) पढ़ते हैं। (सूरह यूनुस आयत 94, अनआम रुकुअ 10, क़िसस 49)

इमाम राज़ी इस आयत शरीफा की तफ़्सील में लिखते हैं कि :-

“इस में ख़िताब रसूल से है। चूँकि आप इन्सान थे बाज़ औक़ात आपके दिल में मुख़्तलिफ़ क़िस्म के परेशान ख़याल और शुब्हात व तफ़करात पैदा होते थे। जो दलाईल और तश्रीह के बग़ैर रफ़ा ना होते थे पस ख़ुदा तआला ने यह आयत फ़रमाई।”

(तफ़्सीर जिल्द 5 सफ़ा 28, 29)

तफ़्सीर जलालेन में भी लिखा है कि :-

“लफ़्ज़ “तू” का मुख़ातब रसूल अल्लाह हैं।”

(जल्द अव्वल स 205)

आँहज़रत इस हुक्म पर अमल भी करते रहे। फिर अल्लाह ने जो हुक्म आँहज़रत को दिया उस को आम करके सब मुसलमानों को दिया और फ़रमाया :-

فَسۡـَٔلُوۡۤا اَہۡلَ الذِّکۡرِ اِنۡ کُنۡتُمۡ لَا تَعۡلَمُوۡنَ

यानी “ऐ मुसलमानो, अगर तुमको किसी शैय (बात) का इल्म ना हो तो बाइबल वालों से दर्याफ़्त कर लिया करो।” (सूरह नहल आयत 43)

जब हम इस क़ुरआनी इर्शाद के मुताबिक़ इन्जील जलील की तरफ़ रुजू करते हैं तो हमें इस “अम्र मुक़द्दर” और अज़ीम “राज़” को समझने की सही किलीद (चाबी) मिल जाती है। चुनान्चे इन्जील में वारिद हुआ है कि :-

“जिब्रईल फ़रिश्ते ने हज़रत मर्यम से मुलाक़ात करने के बाद हज़रत यूसुफ़ को “ख्व़ाब में दिखाई देकर कहा, ऐ यूसुफ़ इब्ने दाऊद ! अपनी बीवी मर्यम को अपने हाँ ले आने से मत डर क्यों कि जो उस के पेट में है वो रूहुल-क़ुद्दुस की क़ुद्रत से है। उस के बेटा होगा और तू उस का नाम यसूअ रखना क्यों कि वही अपनी क़ौम को उनके गुनाहों से नजात देगा।” (मत्ती 1:20-21)

इस लासानी मौलूद मुक़द्दस की पैदाइश के बाद फ़रिश्ता शब की तारीकी में चरवाहों के पास आ खड़ा हुआ। और ख़ुदावंद का जलाल उनके गर्द चमका और वो निहायत डर गए। मगर फ़रिश्ते ने उनसे कहा :-

“डरो मत क्यों कि मैं तुमको ख़ुशी की बशारत देने आया हूँ जो सारी उम्मत के लिए है। आज दाऊद के शहर में तुम्हारे लिए नजातदिहंदा पैदा हुआ है यानी मसीह ख़ुदावंद और यकायक उस फ़रिश्ते के साथ आस्मानी लश्कर का एक गिरोह ख़ुदा की हम्द करता और ये कहता ज़ाहिर हुआ कि आलम-ए-बाला पर ख़ुदा की तम्जीद हो और ज़मीन पर उन आदमीयों में जिनसे वो ख़ुश है सुलह।” (लूक़ा 2:8-14)

साहिबे वही मुक़द्दस पतरस रसूल ने रऊसा-ए-यहूद के सामने फ़रिश्ते के पैग़ाम की तौज़ीह करके फ़रमाया :-

“किसी दूसरे के वसीले से नजात नहीं। क्यों कि आस्मान के तले आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया जिसके वसीले से हम नजात पा सकें।”

आपने सरदार काहिन और सदर अदालत वालों के सामने ही अलल-ऐलान कहा,

“खुदा ने यसूअ मालिक और नजातदिहंदा मुक़र्रर कर के अपने दाहने हाथ सर-बुलंद फ़रमाया ताकि इस्राईल को तौबा की तौफ़ीक़ और गुनाहों की माफ़ी बख़्शे।” (आमाल 4:12, 5:31 वग़ैरह)

मज़्कूर बाला इंजीली मुक़ामात से ज़ाहिर है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की बेनज़ीर पैदाइश से ख़ुदा-ए-अज्ज-व-जल (बुज़ुर्ग) का अज़ली इरादा ये था कि मसीह जैसी लासानी शख़्सियत का मालिक (या इंजीली इस्तिलाह में “इकलौता बेटा जो बाप की गोद में है।”) ख़ुदा का रसूल बन कर (यूहन्ना 1:18) दुनिया के लोगों को अज़ली अबदी और लाज़वाल मुहब्बत का पैग़ाम दे और गुनेहगार दुनिया को गुनाहों से नजात देकर और शैतान की गु़लामी से छुड़ाकर उनको नई पैदाइश अता कर के अज सर-ए-नौ ख़ुदा का फ़र्ज़न्द बनाए। ये थी इस राज़ की हक़ीक़त जिसकी वजह से कलिमतुल्लाह (मसीह) का इस दुनिया में आना मुक़र्रर व मुईन (तय) हो चुका था जो तमाम आलम व आलीमान के लिए मोअजिज़ा यानी आजिज़ कर देने वाला निशान बना।

इमाम राज़ी लफ़्ज़ “अम्र” से मुराद आलम बसीत (कुशादा) व मुजर्रद हैं। क़ुरआन मजीद अल-मसीह के लिए “اَمۡرًا مَّقۡضِیًّا” जो आया है तो इस का मतलब ये हुआ कि आप आलम बसीत व मुजर्रद थे और अज़ली व अबदी हस्ती हैं और आस्मान या ऊपर की दुनिया से ताल्लुक़ रखते थे लेकिन लफ़्ज़ “مَّقۡضِیًّا” ने इस हक़ीक़त की तौज़ीह कर दी कि आपका लातअय्युन से तअय्युन में आना और आलम-ए-रंग व बु में जलवा पैरा होना अज़ल से ही आपके लिए मुक़र्रर व मुतय्यन हो गया। बअल्फ़ाज़े दीगर कलिमतुल्लाह (मसीह) का तजस्सुम होना अज़ल से ही मुक़र्रर व मुतय्यन हो था।

कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और रूह अल्लाह (روح اللہ) का मफ़्हूम

इन्जील यूहन्ना में वारिद हुआ है कि :-

“इब्तिदा में कलमा था, कलमा ख़ुदा के साथ था और कलमा ख़ुदा था सब चीज़ें उस के वसीले से पैदा हुईं। उस में ज़िंदगी थी और वो ज़िंदगी बनी नूअ इन्सान का नूर थी। कलमा मुजस्सम हुआ और फ़ज़्ल और सच्चाई से मामूर हो कर हमारे दर्मियान ख़ेमा-ज़न हुआ और हमने उस का ऐसा जलाल देखा जैसा बाप के इकलौते का जलाल।” (बाब अव्वल)

क़ुरआन में भी आया है कि फ़रिश्ते ने उम्मुल मोमनीन हज़रत मर्यम सिद्दीक़ा को कहा :-

یٰمَرۡیَمُ اِنَّ اللّٰہَ یُبَشِّرُکِ بِکَلِمَۃٍ مِّنۡہُ

यानी “ऐ मर्यम तुझको अल्लाह अपने कलिमे (کلمہ) की बशारत देता है। (सूरह इमरान आयत 45)

फिर लिखा है :-

اِنَّمَا الۡمَسِیۡحُ عِیۡسَی ابۡنُ مَرۡیَمَ رَسُوۡلُ اللّٰہِ وَ کَلِمَتُہٗ ۚ اَلۡقٰہَاۤ اِلٰی مَرۡیَمَ وَ رُوۡحٌ مِّنۡہُ

यानी “मसीह ईसा इब्ने मरियम अल्लाह का रसूल है और उस का कलिमा है जो मर्यम की तरफ़ डाल दिया और वो अल्लाह का रूह है। (सूरह आयत 171)

मज़्कूर बाला आयतों में ईसा मसीह को कलिमतुल्लाह (मसीह) यानी ख़ुदा का कलिमा या कलाम (कलिमा मिन्हु کلمہ منہ) और ख़ुदा का रूह या रूह-उल्लाह (رُوۡحٌ مِّنۡہُ) कहा गया है। तमाम क़ुरआन को तलाश करके देख लो। इब्ने मरियम के सिवा किसी दूसरे इन्सान या नबी के वास्ते अल्फ़ाज़ कलिमा मिन्हु (کلمہ منہ) और रूहुम्मिन्हु (رُوۡحٌ مِّنۡہُ) वारिद नहीं हुए। इस की वजह ये है कि नूअ इन्सानी मख़्लूक़ है और ग़ैर-उल्लाह है। इन दोनों आयतों में लफ़्ज़ “मिन्हु” (منہ) आया है। जो इज़ाफ़त तोज़ीही (اضافت توضیحی) है। यानी ग़ैर हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) व रूह-उल्लाह (روح اللہ) मसीह ईसा इब्ने मरियम एक ही ज़ात के हैं और एक ही वाहिद ज़ात से निस्बत रखते हैं। क़ुरआन में ये इज़ाफ़त और निस्बत ग़ैर-उल्लाह और मख़्लूक़ इन्सान या शैय के लिए इस्तिमाल नहीं हुई और ना हो सकती थी।

अला-हाज़ा-उल-क़यास मज़्कूर बाला दूसरी आयत में अल्फ़ाज़ “رُوۡحٌ مِّنۡہُ” में भी इज़ाफ़त तोज़ीही (اضافت توضیحی) है। यानी हज़रत रूह-उल्लाह मसीह ईसा इब्ने मरियम वही ज़ात और जोहर हैं, जो हर ज़ात का अल्लाह है। पस इस इज़ाफ़त तोज़ीही से साबित है कि वही इलाही का मतलब ये है कि अल्लाह और रूह-उल्लाह एक वाहिद हस्ती और ज़ात इलाही के जोहर के दो मुख़्तलिफ़ नाम हैं। क़ुरआनी आयत कलिमा की शख़्सियत जोहर और ज़ातियत ज़ाहिर करती है और साबित करती हैं कि जो उम्मुल मोमनीन हज़रत मर्यम सिद्दीक़ा से मौलूद हुआ। वो ख़ुदा-ए-अज्ज-व-जल की ज़ात और जोहर से था। दोनों कुतुब समावी (आस्मानी किताबें) इन्जील व क़ुरआन के इन अल्फ़ाज़ से साबित है कि जो कलिमा मुजस्सम हो कर दुनिया में ज़ाहिर हुआ वो अज़ली है और उस की ज़ात ख़ुदा की ज़ात में से है और उस का जोहर ख़ुदा के जोहर में से है।

मुआनबह हक़ीक़त भी अयाँ हो गई और कलिमतुल्लाह (मसीह) से मुराद کلمتہ من کلمات اللہ नहीं बल्कि ऐसा कलिमा मुराद है जो अपनी ज़ात व सिफ़ात में वाहिद ला शरीक और लासानी है कलिमतुल्लाह (मसीह) इस अफ़्ज़लीयत के लिहाज़ से तमाम सिफ़ात पर हावी और मुहीत होने के इलावा ज़ात-ए-हक़ का अकमल और अशरफ़ मज़हर है और ख़ुदा का इल्म व हिक्मत और इरादा और मक़्सद है। अला-हाज़-उल-क़यास रूहुम्मिन्हु से क़ुरआन की मुराद मुतअद्दिद रूहों में से एक रूह नहीं है, बल्कि ख़ुदा की अपनी रूह का असारह निचोड़ और जान मुराद है आँख़ुदावंद के अल्क़ाब कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और रूह-उल्लाह (روح اللہ) बातिनी, दाख़िली और अंदरूनी निस्बत पर दलालत करते हैं और कलिमा-मिन्हु और रूह-म्मिन्हु ज़ात हक़ तआला से हदूद व बरोज़ अज़ली ज़हूर की वज़ाहत करते हैं। बाअज़ फिलासफर के नज़्दीक इल्म ज़ात-ए-हक़ का बातिन है और कलाम उस का ज़हूर है। चुनान्चे सूफ़ी अब्दुल करीम कहते हैं, ان الکلام ھوا لوجود الظاھر

نہانی از نظر اے بے نظیر از بس عیانستی

عیاں شد سرایں معنی کہ میگفتم نہانستی

گہے گویم عیانستی ۔گہے گویم نہانستی

زانیستی نہ آنستی ہم انیستی ہم آنستی

(تآنی )

इन्जील जलील में मुक़द्दस पौलुस के अल्फ़ाज़ क़ुरआन की मज़्कूर बाला इज़ाफ़त की वज़ाहत कर देते हैं :-

“इन्सानों में से कौन किसी इन्सान की बातें जानता है सिवा इन्सान की अपनी रूह के इसी तरह ख़ुदा के रूह के सिवा कोई ख़ुदा की बातें नहीं जानता। रूह ख़ुदा की तह की बातें भी दर्याफ़्त कर लेता है।” (1 कुरिन्थियों 2:10-11)

क्यों कि ख़ुदा और रूह एक ही वाहिद ख़ुदा हैं और तीनों जोहर व ज़ात का कोई फ़र्क़ नहीं है। हाँ इन तीनों में इम्तियाज़ ज़रूरी मौजूद है और ये इम्तियाज़ दो कुतुब समावी (आस्मानी किताब) इन्जील व क़ुरआन में मौजूद है चुनान्चे क़ुरआनी इस्तिलाह में एक का नाम अल्लाह है और दूसरे का नाम मसीह ईसा कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) है और तीसरे का रूह-उल्लाह (روح اللہ) है इंजीली इस्तिलाह में एक का नाम बाप है और दूसरे का नाम कलिमा और इब्न है और तीसरे का रूहुल-क़ुद्दुस है। दोनों में ज़ात व जोहर नहीं है।

جناں باحق شدہ ملحق کہ استثنا بہ مستثنیٰ

हज़रत मौलाना रूमी फ़र्माते हैं :-

من زقراں مغز را برداشتم

استخوان پیش سگاں انداختم

इस सिलसिले में ये हक़ीक़त याद रखने के क़ाबिल है कि लफ़्ज़ कलिमा तानीस (تانیث) का सीग़ा है। दोनों किताबों में ये लफ़्ज़ सीग़ा मुज़क्कर में वारिद हुआ है। जिससे कि कलिमा की शख़्सियत अर्ज़ी नहीं थी, बल्कि जौहरी थी। जो ख़ुदा के साथ अज़ल से मुस्तक़िल तौर पर क़ायम थी। दोनों इल्हामी किताबों में कोई लफ़्ज़ इस सिलसिले में ज़ू माअनी नहीं है। दोनों किताबों का मफ़्हूम साफ़ और वाज़ेह है। जिसमें तसर्रुफ़ व तहरीफ़ और मन-माअनी तावील को दख़ल नहीं। दोनों के अल्फ़ाज़ हर कि दमा पर साफ़ तौर पर वाज़ेह कर देते हैं, कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ना सिर्फ रसूल-ए-ख़ूदा थे। (यूहन्ना 17:13) वग़ैरह बल्कि आप इलाही-उल-असल थे और ख़ुदा में ख़ुदा, नूर में से नूर, ख़ुदा के वाहिद बरहक़ के कलिमा थे जो पैकर इन्सानी में जलवागर हुए। दोनों इल्हामी किताबों में आया है कि कायनात इस कलिमे के वसीले से पैदा हुई और वजूद में आई। (यूहन्ना 1:1-14, बक़रह 111, इमरान 43)

ये इंजीली आयात क़ुरआनी अल्फ़ाज़ व आयात की तफ़्सीली व तफ़्सीर हैं और कलिमे को इब्ने मरियम से मुख़्तस (मख़्सूस) करती हैं। मतलब ये है कि जिस तरह इन्सान में अक़्ल इदराक और फ़हम व दानिश मौजूद है। जिसके ज़रीये वो ग़ौरो फ़िक्र कर के अपने तसव्वुरात व ख़यालात क़ायम करता है जिनमें तख़लीक़ी क़ुव्वत होती है इसी तरह ख़लाक़ आलम के कलिमे की तख्लीक़ी क़ुव्वत से कायनात वजूद में आई और जिस तरह ग़ैर-माद्दी तसव्वुरात माद्दी अल्फ़ाज़ व हरुफ़ तहरीर व तक़रीर के ज़रीये ज़ाहिर हो कर किसी शख़्स के बानी-उल-ज़मीर को अदा करते हैं और सब लोगों पर ये हक़ीक़त अयाँ हो जाती है कि कलाम करने वाला शख़्स किस क़िस्म का इन्सान है। इसी तरह इलाही अक़्ल कुल का पता हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम, ज़िंदगी, सलीबी मौत और ज़फ़र-याब क़ियामत वग़ैरह के ज़रीये चल जाता है। क्योंकि आपकी क़ुद्दूस शख़्सियत ख़ुदा की ज़ात को मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) कर देती है और हर इन्सान को ये इल्म हो जाता है कि ख़ुदा की किस क़िस्म का ख़ुदा है और नूअ इन्सानी को यक़ीन हो जाता है कि ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है।

मज़्कूर बाला इज़ाफ़त तोज़ीही से साफ़ ज़ाहिर है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) व रूह-उल्लाह का सदूर ख़ुदा की ज़ात में से है। यह अल्फ़ाज़ अक़ाइद कलीसिया कलिमतुल्लाह (मसीह) ख़ुदा में है ख़ुदा नूर में से नूर हक़ीक़ी ख़ुदा में से हक़ीक़ी ख़ुदा है। कलिमा ने मुजस्सम हो कर इन्सानियत के साथ हादिस मगर हक़ीक़ी इत्तिहाद इख़्तियार कर लिया और यूं कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) “इब्ने मरियम” हो गए।

लाया है मेरा शौक़ मुझे पर्दे से बाहर

मैं वर्ना वही ख़ल्वती राज़-ए-निहाँ हूँ (मीर)

इस को हम एक मिसाल से समझ सकते हैं। रूह और जिस्म दो जुदागाना माहीयतें हैं जो हर इन्सान मौजूद हैं। क्योंकि हर इन्सान ज़ी-रूह और ज़ी जिस्म हस्ती है इसी तरह इब्ने मरियम में उलूहियत और इन्सानियत दोनों मौजूद हैं और वो कामिल इन्सान थे। लेकिन आप में उलूहियत और इन्सानियत का इत्तिहाद तहलील (अलेहदा-अलेहदा होना) हो कर तर्कीब के तौर पर ना था बल्कि “ज़ाहिर” और “मज़हर” के तौर पर था। क़ुरआन मजीद में अल्लाह का एक नाम “अल-ज़ाहिर” (الظاہر) है और इन्जील में कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) का नाम “मज़हर” (مظہر) बार-बार आता है। (यूहन्ना 1:18 वग़ैरह) इंशा अल्लाह हम आगे चल कर इस नुक्ते पर मुफ़स्सिल बह्स करेंगे।

इस्लामी उलमा की तावील

(1) मुस्लिम उलमा और फ़िलासफ़ा भी क़ुरआनी अल्फ़ाज़ “रूहुम्मिन्हु” (روح منہ) से मज़्कूर बाला नतीजे पर पहुंचते हैं। चुनान्चे शेख़-उल-इस्लाम इब्ने क़य्युम जोज़ी “ख़ुदा की तरफ़ रूह की इज़ाफ़त पर बह्स करते हुए लिखते हैं :-

“अब दो अम्र बाक़ी रह गए हैं। अव्वल ये कि अगर कोई शख़्स ये कहे कि अगर फ़रिश्ते ने मर्यम में नफ़ख़ (फूंकना) किया था जिस तरह वो दीगर इन्सानों में करता है तो मसीह को रूह-उल्लाह क्यों कहा गया? जब तमाम अर्वाह (रूहें) इसी फ़रिश्ते के नफ़ख़ से हादिस होती हैं तो मसीह की इस में क्या ख़ुसूसीयत रही? दोम ये कि क्या हज़रत आदम में भी इसी फ़रिश्ते ने रूह फूंकी थी? या ख़ुद ख़ुदा तआला ने जिस तरह आदम को अपने हाथों से बनाया था इसी तरह उस में रूह फूंकी थी दर-हक़ीक़त ये दोनों सवाल क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं।

“अम्रे अव्वल का जवाब ये है कि जिस रूह को मर्यम की तरफ़ नफ़ख़ किया गया ये वही रूह है जो ख़ुदा की तरफ़ मुज़ाफ़ है और जिसको ख़ुदा ने अपने नफ़्स के लिए मख़्सूस किया है और ये रूह तमाम अर्वाह में एक ख़ास रूह है ये रूह फ़रिश्ता नहीं है जो ख़ुदा की तरफ़ से माँ के पेट में ही मोमिन और काफ़िर के बच्चों की रूह फूँकता है। बल्कि ये रूह जो मर्यम में नफ़ख़ की गई वो ख़ास रूह है जिसको ख़ुदा ने अपनी ज़ात के लिए मख़्सूस किया है।”

(किताब-उल-रूह मत्बूआ दायरा अल-मारुफ़ स 247)

(2) इमाम राज़ी अलैहि अलरहमा आया करीमा :-

اِذۡ قَالَتِ الۡمَلٰٓئِکَۃُ یٰمَرۡیَمُ اِنَّ اللّٰہَ یُبَشِّرُکِ بِکَلِمَۃٍ مِّنۡہُ ٭ۖ اسۡمُہُ الۡمَسِیۡحُ

(सूरह इमरान आयत 45) की निस्बत से लिखते हैं कि :-

“اسۡمُہُ” में जो ज़मीर है वो मुज़क्कर है और कलिमे की तरफ़ राजेअ (रुजू करने वाला) है। हालाँकि वो मुअन्नस है। इस का सबब ये है कि जो शख़्स कलिमा से मुराद है वो मुज़क्कर है।”

(जिल्द 3 स 276)

लेकिन इमाम साहब ने इस बात पर ग़ौर नहीं किया कि जब अस्मा (اسمہ) की ज़मीर कलिमे पर आइद होती है तो कलिमा एक ज़ात ठहरता है और ये बशारत कलिमे की ज़ातियत को ज़ाहिर करती है। दर-हालिका जिस कलिमे की ख़ुशख़बरी दी गई वो ख़ुदा की तरफ़ से ज़ात है तो ग़ौर इस बात पर करना चाहिए कि इस सूरत में ये ज़ात क्या ठहरी? इन्जील जलील के तमाम सहाइफ़ बयेक ज़बान इस सवाल का जवाब ये देते हैं कि वो ज़ाते उलूहियत है जो इस ज़ात में अपनी तमाम मामूरी के साथ मौजूद थी। जिसको क़ुरआन मजीद में कलिमा-मिन्हु (کلمہ منہ) और रूहुमिन्हु (روح منہ) का नाम देकर मुम्ताज़ किया गया है, ताकि वो इस ज़ात का इम्तियाज़ी निशान हो। पस यसूअ अल-मसीह नबी हैं मगर दीगर अम्बिया की मानिंद नहीं हैं। आप मसीह हैं मगर दूसरे ममसूहों की मानिंद नहीं बल्कि आप बिल-ख़ुसूस अल-मसीह हैं जिनका नसब कुल नस्ल इन्सानी से आला और बाला है जो दोनों जहानों में मर्तबा इज़्ज़त और जलाल वाले हैं। जिन्होंने मह्द (माँ की गोद) ही से अपनी रिसालत का ऐलान कर दिया और फ़रमाया, “قَالَ اِنِّیۡ عَبۡدُ اللّٰہِ ۟ؕ اٰتٰنِیَ الۡکِتٰبَ وَ جَعَلَنِیۡ نَبِیًّا” (सूरह मर्यम आयत 30)

“मैं ख़ुदा का बंदा हूँ जिसने मुझे किताब इन्जील दी और नबी बनाया है।”

इस हक़ीक़त का इमाम राज़ी को भी इक़बाल है कि :-

“ये एक ऐसी शरीफ़ फ़ज़ीलत है जो सिर्फ आपको ही हासिल हुई और किसी दूसरे नबी को ना तो आप से पहले और ना आपके बाद हुई।” (जिल्द 3 स 691)

बाअज़ मोअतरिज़ इमाम राज़ी की तक़्लीद करके कलिमतुल्लाह (मसीह) की जो तावील करते हैं वो बईद-अज़-हक़ीक़त है। दरअस्ल इस को तावील नहीं कह सकते क्योंकि वो पहलू-तही है। फ़र्क़ सिर्फ ये है कि मोअतरज़ीन (एतराज़ करने वाले) की ज़बान भोंडी लेकिन इमाम साहब की निहायत लतीफ़ है। इमाम साहब का मतलब ये है कि जिस तरह कलिमतुल्लाह (मसीह) बग़ैर नुत्फे के या किसी दूसरे वसीले के हुक्म क़ुद्रत ख़ुदा से पैदा हुए, उसी तरह अबूल-बशर आदम और दीगर मख़्लूक़ात भी इब्तिदा में वजूद में आए। पस अल-मसीह में कोई फ़ज़ीलत या ख़ुसूसीयत नहीं रहती। इस क़िस्म के मोअतरज़ीन भी हक़ीक़त बालाए ताक़ रखकर भूल जाते हैं कि क़ुरआन मजीद ना तो हज़रत अबूल-बशर (आदम) के और ना किसी दूसरे मख़्लूक़ के हक़ में (कहता है) कि वो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) हैं। ये दुरुस्त है कि आदम और ईसा नासरी दोनों बग़ैर बाप के पैदा हुए, लेकिन इस के बावजूद मसीह नासरी आदम से इस निस्बत के सबब कि वो ख़ास कलिमा-मिन्हु (کلمہ منہ) और रूहुम्मिन्हु (روح منہ) हैं, मुम्ताज़ किए गए हैं इमाम साहब की तावील के मुताबिक़ आदम भी कलिमा-मिन्हु (کلمہ منہ) और रूहुम्मिन्हु (روح منہ) ठहरता है लेकिन क़ुरआन आदम को कलिमा-मिन्हु (کلمہ منہ) भी नहीं ठहराता। पस इमाम साहब के लिए ये बेहतर होता कि आप विलादत मसीह की बाबत इस भेद के लिहाज़ से (जो इस इलाही निस्बत कलिमा-मिन्हु (کلمہ منہ) व रूहुम्मिन्हु (روح منہ) में पोशीदा है) इस तौर से इस्तिदलाल करते कि ये इलाही निस्बत ईसा मसीह नासरी के बिन बाप पैदा होने के बाइस है इस के बरअक्स आपने ये दलील दी कि आपकी सादिक़ आदत पैदाइश इस नाम यानी कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) का सबब है लेकिन आँखुदावंद ने बग़ैर बाप का पैदा होना ये लाज़िम नहीं ठहरता उनको ये नाम दिया जाये जैसा कि ख़ल्क़ आदम के मौके़ पर अबूल-बशर के ये नाम नहीं दिया गया था। कम-अज़-कम हर मोमिन ईमानदार मुसलमान पर ये बात अयाँ हो जानी वाजिब है कि क़ुरआन मजीद में अल-मसीह को जो अल्लाह की तरफ़ बतौर कलिमा-मिन्हु (کلمہ منہ) और रूहुम्मिन्हु (روح منہ) निस्बत दी गई है। वही आपके ख़िलाफ़ क़ायदा तबई पैदा होने का हक़ीक़ी सबब और इल्लत है।

(3) क़ुरआन मजीद में जैसा मुतज़क्किरा बाला आयह शरीफा में लिखा है। हज़रत ईसा मसीह को रूह मिनल्लाह (روح من اللہ) का नाम भी दिया गया है। इमाम राज़ी इस की तफ़्सीर में लिखता है कि वो रूह है दीगर अर्वाह शरीफा, आली और क़ुद्दुस में से है जिसको ख़ुदा ने अपनी तरफ़ शरीफ़ व ताज़ीम के लिए निस्बत की है और इस आया के बाक़ी अल्फ़ाज़ अबद तक बरूह-उल-क़ूदस (بروح القدس) से मुराद यही है। रूह आलीया है लेकिन ना तो इमाम साहब ने और ना उन के मुक़ल्लिदों (तक़्लीद करने वाला, पैरौ) ने इस बात पर ग़ौर किया कि ये तावील इनको मुश्किल में डालेगी। क्योंकि अगर मसीह रूह है ख़ुदा से यानी “अर्वाह शरीफा क़ुद्दूसिया और आलीया में से” जिसको ख़ुदा ने ऐसी शर्फ़ व इज्ज़त व अज़मत बख़्शी है कि उस को अपने नफ़्स की जानिब मन्सूब कर लिया है तो वो रूहुल-क़ुद्दुस कौन सी थी जिसकी निस्बत लिखा है कि “मदद की हमने तुझको रूह पाक से?” क्या वो रूहुल-क़ुद्दुस से मदद देता है? और क्या मसीह जो यही रूह से मदद दी जाये, जो इस को निशानी और मोअजज़ात करने की क़ुद्रत दे? हर साहिबे अक़्ल इस सवाल का जवाब नफ़ी में देगा क्योंकि ये इमदाद फ़क़ज़ उस शख़्स के लिए ही जायज़ ठहरती है जो ख़ुदा की रूह में से ना हो यानी जो रूहुम्मिन्हु (روح منہ) ना हो लेकिन क़ुरआन मजीद साफ़ अल्फ़ाज़ में अल-मसीह को रूहुम्मिन्हु (روح منہ) कहता है पस ये तावील ग़लत है और रूहुम्मिन्हु (روح منہ) वो है जो कि ख़ुदा से सादिर है। ना कि जो “दीगर अर्वाह शरीफ़ और क़ुद्दुस से है।” इस सिलसिले में एक और सवाल पैदा होता है ये रूह जिससे ख़ुदा ने अपने मसीह को मख़्सूस किया जो दीगर अम्बिया और मुर्सलीन को भी अता हुई और क़ुरआन का क़ौल रूहुम्मिन्हु (روح منہ) अबस हो जाता है। लेकिन क़ुरआन का क़ौल अबस नहीं हो सकता पस इस वजह से मुराद हरगिज़ नहीं नेअमत नहीं हो सकती। लिहाज़ा इस से मुराद ज़ात है और रूहुम्मिन्हु (روح منہ) का इलाही ज़ात से सादिर होना साबित हो गया और यही जैसा हम सुतूर बाला में कह आए हैं, इन्जील जलील फ़रमाती है। इन्जील की इस्तिलाह में आँख़ुदावंद कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) इब्ने-अल्लाह हैं। क़ुरआन की इस्तिलाह में आप कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ अल्लाह का कलमा) और रूह-उल्लाह (روح اللہ अल्लाह की रूह) हैं और दोनों कुतुब समावी (आस्मानी किताब) इस अम्र पर मुत्तफ़िक़ हैं कि आप ख़ुदा की ज़ात में से हैं।

बाअज़ अहबाब लफ़्ज़ “इब्न” पर एतराज़ करते हैं, कि इन एतराज़ात का जवाब रिसाला अबुव्वत ख़ुदावंदी और इब्नियत मसीह में दे चुके हैं और मोअतरिज़ की तवज्जोह उस किताब की जानिब मबज़ूल करते हैं। दीगर अहबाब बार-बार ये कहते हैं कि ईसा मसीह को रसूल कहो, उनको इब्न ना कहो। जवाबन अर्ज़ है कि आँख़ुदावंद ना सिर्फ रसूल-उल्लाह हैं बल्कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और इब्ने-अल्लाह भी हैं और ये दोनों कुतुब समावी इन्जील व क़ुरआन की मुत्तफ़िक़ा (इत्तिफ़ाक़ किया हुआ) आवाज़ है। (लूक़ा 1:25) इन्जील जलील में बार-बार आता है कि आप ख़ुदा के रसूल हैं। (यूहन्ना 17:3, 3:17 वग़ैरह) और बार-बार ये भी आया है कि आप इब्ने-अल्लाह हैं। (लूक़ा 14:33, मर्क़ुस 1:1, लूक़ा 1:25 वग़ैरह) क्या एक वाहिद शख़्स बैयक वक़्त (एक ही वक़्त में) रसूल-उल्लाह और इब्ने-अल्लाह नहीं हो सकता? मिसाल के तौर पर क्या कोई बादशाह या मुल्क का हाकिम अपने बेटे को बतौर सफ़ीर किसी दूसरे हाकिम मुल्क के पास नहीं भेज सकता? क्या वो बैयक वक़्त रसूल और इब्न मुल्क नहीं होता। इसी तरह एक मिसाल से ज़ाहिर है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) बदर्जा अह्सन ख़ुदा बाप की रज़ा और इरादे को जानते थे, क्यों कि आप ख़ुदा से निकले थे और रसूलों और नबियों से बढ़ चढ़ कर इलाही पैग़ाम मुहब्बत व नजात को बनी नूअ इन्सान पर वाज़ेह कर सकते थे। दीगर नबी सिर्फ़ मुर्सल और फ़िरिस्ता दे (क़ासिद, एलची) थे। लेकिन आप ख़ुदा के इब्ने वहीद थे। इन्जील जलील से ज़ाहिर है कि कलिमतुल्लाह की हस्सास तबइयत को इस फ़र्क़ का कामिल एहसास था। (मर्क़ुस 12:1-12, मत्ती 21:23-46, लूक़ा 20:9-19)

हमको उम्मीद वासिक़ से ज़ाहिर हो गया होगा कि अहले किताब لاتغلوافی دینکم अपने दीन में मुबालग़ा नहीं करते, बल्कि वही बात कहते हैं जो क़ुरआन व इन्जील दोनों कुतुब समावी कहती हैं। मफ़्हूम दोनों का एक ही है, गो क़द्रता अल्फ़ाज़ और इस्तिलाह में फ़र्क़ है। अहले इन्जील अपने दीन में मुबालगे के मुर्तक़िब नहीं हैं। बैज़ावी भी कहता है कि :-

मसीह साहिबे रूह हैं जो ख़ुदा से सादिर हुई ना बवसीला और ना क़ायदा तबई से और ना माद्दा से।

और यही अक़ीदा मसीही कलीसिया का अक़ीदा है कि रूहुल-क़ुद्दुस की ज़ात में से है सादिर हुआ जो इंजीली इस्तिलाह है और ख़ुद कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़बान हक़ीक़त तर्जुमान की तर्जुमान है। (यूहन्ना 15:46) कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपनी निस्बत आख़िरी शब ख़ुदा से दुआ मांगते वक़्त फ़रमाया “ऐ बाप तू उस जलाल से जो मैं दुनिया की पैदाइश से पेश्तर तेरे से रखता था। मुझे अपने साथ जलाली बना दे…। तूने बनाए आलम से पेश्तर मुझसे मुहब्बत रखी। (यूहन्ना 17:5,24, इफ़िसियों 1:4,1 पतरस 1:20) फिर आपने फ़रमाया “मेरे बाप की तरफ़ से सब कुछ मुझे सौंपा गया है और कोई बेटे को नहीं जानता सिवाए बाप के और कोई बाप को नहीं जानता सिवा बेटे के और उस के जिस पर बेटा इसे ज़ाहिर करे। (मत्ती 11:27, यूहन्ना 1:8, 6:46, 7:39, 8:17, 17:25, 10:15 वग़ैरह) ये उन आयात-ए-बीनात (रोशन दलाईल) मैं अल्क़ाब कलिमा-मिन्हु व रूहुम्मिन्हु (کلمہ منہ وروح منہ) की सही तफ़्सीर है जो ख़ुद कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और रूह-उल्लाह (روح اللہ) ने फ़रमाई है। लिहाज़ा ये तफ़्सीर आपका फ़र्मूदा होने की वजह से क़तई सही है। जिसको क़ुरआनी आया نسئلو اھل الذکر ان کنتم لا تعلمون के मुताबिक़ हर मोमिन मुसलमान को तस्लीम करना है।

وجھافی الدنیا والاخرۃ की इंजीली तफ़्सीर

اِذۡ قَالَتِ الۡمَلٰٓئِکَۃُ یٰمَرۡیَمُ اِنَّ اللّٰہَ یُبَشِّرُکِ بِکَلِمَۃٍ مِّنۡہُ اسۡمُہُ الۡمَسِیۡحُ عِیۡسَی ابۡنُ مَرۡیَمَ وَجِیۡہًا فِی الدُّنۡیَا وَ الۡاٰخِرَۃِ وَ مِنَ الۡمُقَرَّبِیۡنَ (सूरह आले-इमरान आयत 45)

सूरह आले-इमरान की मज़्कूर बाला आयत में जिब्रईल फ़रिश्ता उम्मुल मोमनीन हज़रत बीबी मर्यम सिद्दीक़ा को बशारत देता है कि आपका मौलूद क़ुद्दूस ना सिर्फ ख़ुदा का कलिमा और ख़ुदा का रूह होगा बल्कि वो, “दुनिया और आख़िरत में ख़ुशनुमा, ख़ुश रवा और रौनकदार चेहरे वाला होगा और वो ख़ुदा के मुक़र्रबीन में से होगा जिसको ख़ुदा की ख़ास क़ुर्बत (नज़दिकी) होगी।

क़ुरआन का ये ख़िताब कलिमतुल्लाह (मसीह) के ख़साइल व शमायल (आदतें) के आला तरीन मदारिज और हज़रत रूह-उल्लाह की रूहानियत के औज (बुलंदी) का मज़हर है। आपका मुबारक चेहरा रौनकदार और ख़ुशनुमा था इस हक़ीक़त का ज़िक्र अनाजील में पाया जाता है, चुनान्चे लिखा है कि :-

“यसूअ ने पतरस और याक़ूब और इस के भाई यूहन्ना को हमराह लिया और उनको लेकर एक ऊंचे पहाड़ पर दुआ करने गया। जब वो दुआ कर रहा था तो ऐसा हुआ कि उस के चेहरे की सूरत बदल गई और उस का चेहरा आफ़्ताब की मानिंद चमका और उस की पोशाक नूर की मानिंद सफ़ैद हो गई।” (लूक़ा 9:28-36)

क़ारईन को याद होगा कि हज़रत मूसा ने ख़ुदा से कोह-ए-सिना पर मिन्नते अर्ज़ की थी कि मुझे अपना जलाल दिखा। लेकिन खुदा ने उस को फ़रमाया था “तू मेरा चेहरा नहीं देख सकता।” (ख़ुरूज 23:18-20) लेकिन अर्ज़-ए-मुक़द्दस के पहाड़ पर ख़ुदावंद के रसूलों की आँखों ने आपका पुर नूर “जलाल देखा और बादल ने आकर उन पर साया किया और जब वो बादल में घिरने लगे तो डर गए और बादल में से एक आवाज़ आई कि ये मेरा बर्गुज़ीदा बेटा है, इस की सुनो।” (लूक़ा 9:32-35)

तब कलिमतुल्लाह (मसीह) का चेहरा ऐसा चमकता था जैसे तेज़ी के वक़्त आफ़्ताब। (मुकाशफ़ा 1:16)

تو بدیں جمال وخوبی بر طور گو خرامی

ارنی بگوید آنکس کہ بگفت لن ترانی

कलिमतुल्लाह (मसीह) के चेहरे की ये रौनक क़ुर्बत (नज़दिकी) इलाही और रुहानी ख़ुशी का मज़हर (यूहन्ना 15:11, 17:12, 1:14 वग़ैरह) होने की वजह से हमेशा ख़ुशनुमा और दिलकश थी। (यूहन्ना 15:11, लूक़ा 4:1) क्योंकि आपकी ज़िंदगी का हर लम्हा क़ुर्बत ख़ुदावंदी में गुज़रता था। (लूक़ा 11:1, 9:28, यूहन्ना 8:16, 8:29, 17:1-5, 16:32, मर्क़ुस 9:18 वग़ैरह)

चुनान्चे मुक़द्दस पतरस इस चश्मदीद वाक़िया के साल-हा-साल बाद लिखता है कि :-

“जब हमने तुमको अपने जनाबे मसीह की क़ुद्रत और आमद से वाक़िफ़ किया था कि दग़ाबाज़ी की घड़ी हुई कहानीयों की पैरवी नहीं की थी बल्कि ख़ुद उस के जलाल की शौकत की अज़मत व शौकत को देखा था कि उसने ख़ुदा बाप से उस वक़्त इज़्ज़त और जलाल पाया जब उस अफ़्ज़ल जलाल में से ये आवाज़ आई कि ये मेरा प्यारा बेटा है जिससे मैं ख़ुश हूँ और जब हम उस के साथ मुक़द्दस पहाड़ पर थे तो आस्मान से यही आवाज़ सुनी।” (2 पतरस 1:16-18)

और चश्म-दीद गवाह मुक़द्दस यूहन्ना फ़रमाता है, कलाम फ़ज़्ल और सच्चाई से मामूर हो कर इन्सानों के दर्मियान ख़ेमा-ज़न रहा और हमने उस का ऐसा जलाल देखा, जो सिर्फ बाप के इब्ने वहीद की शान के ही शायां है। (यूहन्ना 1:14)

कलिमतुल्लाह (मसीह) “दुनिया की पैदाइश से पेश्तर ख़ुदा के जलाल में थे।” रफ़ा आस्मानी के बाद ख़ुदा ने अपने कलमे को अपनी क़ुर्बत (नज़दिकी) से जलाली बनाकर (यूहन्ना 17:5) इस ज़ीशान को मालिक और मुनज्जी ठहराकर अपनी क़ुद्रत के दहने हाथ पर सर-बुलंद किया ताकि बनी नूअ इन्सान को तौबा की तौफ़ीक़ और गुनाहों की माफ़ी बख़्शे। (आमाल 5:31) ये है क़ुरआनी आया बाला की इंजीली तफ़्सीर जिसमें कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ), रूह-उल्लाह (روح اللہ) व इब्ने-अल्लाह (ابن اللہ) के दुनिया और आख़िरत के रुहानी कमालात और आला मदारिज व मरातिब दर्ज हैं। एक मोअतरिज़ ने लिखा है कि, क़ुरआन मजीद में हज़रत मूसा के लिए عند اللہ وجہیہ आया है पस आँख़ुदावंद की इस से कोई कमाल वख़ोबी साबित नहीं होती। जवाबन अर्ज़ है कि इमाम राज़ी ने तफ़्सीर कबीर में वजाहत (चेहरे की रौनक, इज़्ज़त) से मुराद मार्फ़त और इर्फ़ान लिया है। लेकिन बैज़ावी ने अल-मसीह के लिए लिखा है कि इस दुनिया में वजाहत का मफ़्हूम नबुव्वत और दूसरी दुनिया में शफ़ाअत किया है। राज़ी भी इस तफ़्सीर की हिमायत करता है और ज़महशरी कश्शाफ़ में लिखता है कि, इस दुनिया में वजाहत से मुराद नबुव्वत और तक़द्दुम व तफ़व्वुक़ (बरतरी) है। बअल्फ़ाज़े दीगर ख़ुदावंद मसीह को इस दुनिया में बनी नूअ इन्सान पर तफ़व्वुक़ और कुल अम्बिया पर फ़ज़ीलत हासिल है और इस दुनिया में वही शफ़ी आसीयाँ होंगे और ये तावील व तफ़्सीर इन्जील जलील के मुताबिक़ भी है। (इब्रानियों 7:25 वग़ैरह)

एक और अम्र ग़ौर तलब है कि जिस तरह अल्क़ाब कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और रूह-उल्लाह (روح اللہ) क़ुरआन मजीद में किसी दूसरे इन्सान और नबी के लिए वारिद नहीं हुए इसी तरह وَجِیۡہًا فِی الدُّنۡیَا وَ الۡاٰخِرَۃِ सिवाए अल-मसीह की ज़ात के किसी दूसरे शख़्स के लिए वारिद नहीं हुए। नाज़रीन को याद होगा कि क़ुरआन में आया है कि “तुम जिधर मुँह करो उधर ही अल्लाह का चेहरा, शक्ल या नूर है “وجھہِ” लफ़्ज़ “वजह” से मुश्तक़ है, जिसके मअनी हैं चेहरा, सूरत। पस जब आँख़ुदावंद को “وَجِیۡہًا فِی الدُّنۡیَا وَ الۡاٰخِرَۃِ” कहा गया है तो क़ुरआन का मतलब है कि “आपकी सूरत को ख़ुदा ने अपनी सूरत पर आदम की तरह पैदा किया।” (पैदाइश 1:27, लूक़ा 1:35) और आप ख़ुदा की सूरत हैं (2 कुरिन्थियों 4:4) और अनदेखे ख़ुदा की सूरत और तमाम मख़्लूक़ात से पहले “मौलूद” हैं। (कुलस्सियों 1:5) लफ़्ज़ “وجہ” से मुश्तक़ और सिफ़त मुशब्बेह है। ये जो मोअतरिज़ साहब ने लिखा है कि क़ुरआन में हज़रत मूसा की निस्बत भी “وجہیہ” आया है सही है लेकिन वो इस बात को नज़र अंदाज़ कर गया है कि अल-मसीह के मुताल्लिक़ “وَجِیۡہًا فِی الدُّنۡیَا وَ الۡاٰخِرَۃِ” आया जो आँख़ुदावंद का इम्तियाज़ी निशान है और ना मूसा के लिए और ना किसी दूसरे इन्सान के लिए क़ुरआन में है।

मसीह इब्ने-अल्लाह

(1)

सुतूर बाला में नाज़रीन ने मुलाहिज़ा किया होगा कि “कोह मुक़द्दस के अफ़्ज़ल जलाल” में से अल्लाह जल्ले शानह की आवाज़ ने ख़ुदावंद के तीन रसूलों को मुख़ातब करके फ़रमाया था :-

“ये मेरा बर्गुज़ीदा इब्न है जो मेरा महबूब है जिससे मैं ख़ुश हूँ, इस की सुनो।” (लूक़ा 9:35, 2 पतरस 1:17)

बएनिया यही आवाज़ और खिताबात (यानी बर्गुज़ीदा इब्न और महबूब रब्बानी) ख़ुदावंद मसीह के बपतिस्मे के वक़्त सुनाई देते थे। (मत्ती 3:17) जब “आस्मान खुल गया और “रूहुल-क़ुद्दुस जिस्मानी सूरत में” आप पर नाज़िल हुआ। (लूक़ा 3:32)

पस ख़ुद ख़ुदा-ए-अज़्ज़ व जल ने मसीह को ख़िताब “बर्गुज़ीदा बेटा” अता फ़रमाया। इस लक़ब का वही मतलब है जो क़ुरआन में “रूह-उल्लाह” के लक़ब से मुराद है। जहां क़ुरआन में आया है कि फ़रिश्ते ने सिद्दीक़ा को बशारत दी कि ख़ुदा उस को रूह-उल्लाह अता करेगा। वहां इन्जील में आया है कि फ़रिश्ते ने बशारत देते वक़्त मुक़द्दसा को कहा था कि उस का मौलूद मसऊद (ख़ुशनसीब, मुबारक) अज़ीम अल-मर्तबत (दर्जा, मर्तबा) होगा और ख़ुदा तआला का बेटा कहलाएगा। (लूक़ा 1:32) आपके पेश-रौ यूहन्ना इस्तिबाग़ी (यहया) ने क़ौम यहूद को कहा कि :-

“ये ख़ुदा का बेटा।” (यूहन्ना 1:34)

इस्तिबाग़ के वक़्त खुदा ने फ़रमाया :-

“तू मेरा बेटा है जो मेरा महबूब है तुझसे में ख़ुश हूँ।”

मुक़द्दस यूहन्ना इन्जील नवेस कहता है कि आप “ख़ुदा के इब्ने वहीद और बाप के मुक़र्रब तरीन हैं।” (यूहन्ना 1:18)

ख़ुद कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़बान सदाक़त बयान ने फ़रमाया कि, आप “ख़ुदा के इब्न हैं।” (यूहन्ना 3:35-36, मत्ती 11:27 वग़ैरह)

कलिमतुल्लाह (मसीह) तमाम लोगों को दावत-ए-आम देते हैं कि वो “ख़ुदा के बेटे पर ईमान लाएं।” (यूहन्ना 10:26)

आपके हवारइन और दवाज़दा रसूल जो साहिबे वही व इल्हाम थे। (सूरह अल-मायदा 111) ख़ुदा के ख़ास इल्हाम से आपको “ज़िंदा ख़ुदा का बेटा मसीह” मानते हैं (यूहन्ना 16:16-19)

मुक़द्दस पौलुस लिखते हैं कि “आप क़ुद्रत के साथ ख़ुदा के बेटे थे।” (रोमीयों 1:4 वग़ैरह)

ग़ैर-यहूद रूमी इक़रार करते हैं कि आप ख़ुदा के बेटे थे। (मर्क़ुस 15:39) ख़ुद इब्लीस लईन (लानती) और उस के चेले चाँटे तक इक़बाल करते हैं कि आप ख़ुदा के बेटे हैं। (मत्ती 4:3, 8:29 वग़ैरह)

मसीही कलीसिया-ए-जामा नुज़ूल क़ुरआन से सदीयों पहले इब्तिदा ही से इक़रार करती चली आती है आप ख़ुदा के बेटे हैं और रसूल अरबी की बिअसत के ज़माने में क़बाइल अरब जो मसीही थे यही शहादत देते थे कि “आप अल-मसीह इब्ने-अल्लाह” हैं। चुनान्चे क़ुरआन इस हक़ीक़त का गवाह है कि “आप अल-मसीह इब्ने-अल्लाह” हैं।

وَ قَالَتِ النَّصٰرَی الۡمَسِیۡحُ ابۡنُ اللّٰہِ

“यानी ईसाई दुनिया यही कहती है कि मसीह ख़ुदा का बेटा है।” (सूरह तौबा आयत 30)

(2)

मज़्कूर आयात से ज़ाहिर हो गया कि अहले-यहूद में (जो कट्टर मवह्हिद थे) ख़िताब “इब्ने-अल्लाह” कुफ़्र व शिर्क तसव्वुर नहीं किया जाता था। इस ख़िताब से ना तो शिर्क टपकता था और ना कुफ़्र की बू आती थी, लेकिन क़ुरआन इस यहूदी और मसीही इस्तिलाह को इस्तिमाल नहीं करता क्योंकि अरब के मुश्रिकीन और बुत-परस्त अपने माबूदों और देवी देवताओं की निस्बत से ये अक़ीदा रखते थे कि वो जिस्मानी तौर पर अल्लाह के और दीगर के और दीगर माबूदों के बेटे बेटियां हैं। (सूरह मर्यम 91-92) वो फ़रिश्तों को भी ख़ुदा की बेटियां कहते हैं और उर्फ़ी माअनों में अपने देवताओं को ख़ुदा के बेटे मानते थे। अंदरें हालात ख़दशा था कि अरब मुसलमान जो इन मुशरिकों में से निकल कर ख़ुदा और रसूल पर ईमान लाते थे, वो शिर्क व कुफ्र के ख़यालात को मोमिनीन की जमाअत में ना ले आएं। पस क़ुरआन ने इस ख़िताब को इस्तिमाल ना किया, बल्कि इस की जगह “रूह-उल्लाह” का ख़िताब मुस्तअमल किया बस इसका का क़ुरआनी मफ़्हूम वही है जो इन्जील में “इब्ने-अल्लाह” का है। (मत्ती 3:17)

पस गो क़ुरआन ने लफ़्ज़ “इब्न” का इस्तिमाल तर्क कर दिया, लेकिन इसने उसके मअनी और मफ़्हूम को बरक़रार रखा। हम सुतूर बाला में बतला आए हैं कि दोनों कुतुब समावी इन्जील व क़ुरआन का मतलब वाहिद है सिर्फ इस्तिलाहात दो हैं। दोनों इस्तलाहों से ये मुतरश्शेह है कि इब्ने-अल्लाह का वो मुक़ाम है जो फ़ोक-उल-बशरी है गो दोनों कुतुब रब्बानी मसीह को बशर मानती हैं। (सूरह माइदा 79, 1 तीमुथियुस 2:5) लेकिन दोनों आस्मानी किताबें मसीह को मानती हैं वो ये भी मानती हैं कि कोई दूसरा ख़ाकी इन्सान ज़ईफ़-उल-बुनयान (जिसकी बुनियाद कमज़ोर हो) इस मुक़ाम पर नहीं पहुंचा और ना पहुंच सकता है।

दुनिया के मुशरिकों की तरह इन्जील किसी को भी अल्लाह की साहिबा और “जोरू” (बीवी) नहीं मानती और ना कलिमतुल्लाह (मसीह) को वलद-उल्लाह और अल्लाह तआला को किसी का वालिद मानती है। अल्लाह की ज़ात-ए-पाक इस क़िस्म के रिश्ता और ताल्लुक़ से मुनज़्ज़ह (पाक) है। क़ुरआन की तरह इन्जील भी कहती है :-

“अल्लाह एक है जो वाजिब-उल-वजूद है ना उसने किसी को जना है और ना वो ख़ुद किसी से जना गया है उस के जोड़ का कोई नहीं।” (सूरह इख़्लास)

दोनों कुतुब समावी अल्लाह की कोई बीवी तज्वीज़ नहीं करतीं और दोनों ऐसे मुश्रिकाना तसव्वुर को कुफ़्र क़रार देती हैं। कलीसिया-ए-जामा ने गुज़श्ता दो हज़ार सालों में हर क़िस्म के मुश्रिकाना तसव्वुरात और अल्फ़ाज़ से क़तई इज्तिनाब किया है और लफ़्ज़ “इब्न” (ابن) को अल्लाह के साथ बईना उसी तरह तर्कीब दी है जिस तरह क़ुरआन में लफ़्ज़ इब्न (ابن) को मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ के साथ इस्तिमाल किया गया है। मसलन इब्नुस-सबील ابن السبیل बमाअनी मुसाफ़िर (बक़रह 72) उम्मुल किताब ام الکتاب (इमरान 5, अनआम 92) उम्मुल क़ुरा امالقریٰ वग़ैरह अल्फ़ाज़ इबनुल-वक़्त, इब्न-उल-अर्ज़, इब्न सहाब (ابن الوقت ابن الارض ابن سحاب) वग़ैरह में लफ़्ज़ “इब्ने” (ابن) मजाज़ी और ग़ैर-हक़ीक़ी मुनासबत को मद्द-ए-नज़र रखकर इस्तिमाल किया गया है। बईना इस तरह ख़िताब “इब्ने-अल्लाह” (ابن اللہ) इस्तिआरा के तौर पर इन्जील जलील में मुस्तअमल हुआ है। चुनान्चे मौलवी सना-उल्लाह मर्हूम तक को इस हक़ीक़त का इक़बाल है और वो लिखते हैं :-

“लफ़्ज़ इब्ने-अल्लाह (ابن اللہ) इन्जील के ख़ास मुहावरे में अब्दुल्लाह के मअनी में आया है।”

(अहले-हदीस 10 जुलाई 1942 ई॰ स 4)

मर्हूम मर गए लेकिन इन्जील के ख़ास मुहावरे को आपने कभी समझने की ज़हमत गवारा न की कि इन्जील जलील में अल-मसीह को हक़ीक़ी और असली व दाखिली और बातिनी फ़क़ीद-उल-मिसाल निस्बत व इज़ाफ़त की जिहत से इब्ने-अल्लाह कहा गया है। आप इल्म और कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की जिहत से इब्ने-अल्लाह हैं। तो अफ़लातूनी फिलासफर फ़ायलो ने इल्म-उल्लाह या कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को इब्ने-अल्लाह कहा है। इमाम ग़ज़ाली किसी मुसन्निफ़ की किताबों को उस की बातिनी औलाद कहते हैं। अहले-अरब ख़ुद ख़याल को بنت الفواد यानी दिल की बेटी कहते हैं। तो किस क़द्र अफ़्ज़ल तौर पर अल-मसीह ख़ुदा की हिक्मत व शऊर, अक़्ल व दानिश और इल्म व कलाम की हैसियत से इब्ने-अल्लाह और इब्ने वहीद कहलाने का इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) रखते हैं। अल-मसीह कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ज़ात-ए-हक़ से अज़ली ज़हूर व बुरूज़ व सुदूर के एतबार से इब्ने-अल्लाह हैं। इल्म-उल्लाह (علم اللہ) और कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) में अज़ल से सब कलिमात और तमाम मौजूदात मौजूद थीं और मौजूद हैं यानी वजूद ज़हनी के लिहाज़ से इंजीली इस्तिलाह “इब्ने-अल्लाह” (ابن اللہ) एक निहायत लतीफ़ मुहावरा है। इस ख़िताब से मुराद है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ने हर अम्र में अपनी मर्ज़ी को ज़िंदगी की अदना तरीन तफ़ासील में रिज़ा-ए-इलाही के ऐसा ताबे कर दिया था कि दोनों की रज़ा एक और वाहिद रज़ा और दोनों की मर्ज़ी एक मर्ज़ी थी। आपकी इन्फ्रादी रज़ा फ़ना फ़ील्लाह और बक़ा बिल्लाह के बुलंद और रफ़ी मुक़ाम पर पहुंच चुकी थी। (यूहन्ना 5:36, 9:4, फिलिप्पियों 2:6 वग़ैरह)

ख़ुद क़ुरआन के अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है कि फ़ीनफ्सिही किसी को “इब्ने-अल्लाह” कहना ग़लत नहीं है। चुनान्चे मुलाहिज़ा हो :-

لَوۡ اَرَادَ اللّٰہُ اَنۡ یَّتَّخِذَ وَلَدًا لَّاصۡطَفٰی مِمَّا یَخۡلُقُ مَا یَشَآءُ ۙ سُبۡحٰنَہٗ ؕ ہُوَ اللّٰہُ الۡوَاحِدُ الۡقَہَّارُ

यानी अगर ख़ुदा को ये पसंद आया कि किसी को फ़र्ज़ंदी में क़ुबूल फ़रमाए तो अपने मख़्लूक़ में से जिसको चाहता चुन लेता। वही पाक और अकेला है। (सूरह ज़ुमर आयत 4)

सिर्फ कलिमतुल्लाह (मसीह) की हस्ती इसी वाहिद फ़ौक़-उल-बशरी मासूम इन्सानी हस्ती से जो बामुतख़्सीस इस शर्फ के लायक़ है चुनान्चे मुक़द्दस लूक़ा इन्जील नवीस हमको बतलाना है कि :-

“अल्लाह तआला को ये पसंद आया कि इब्ने मरियम जैसे क़ुद्दूस मौलूद के हैं, “बाप की निस्बत सिवाए अपनी ज़ात-ए-पाक के किसी मख़्लूक़ शैय से निस्बत ना दे लिहाज़ा ख़ुदा ने ख़ुद फ़रिश्ते की मार्फ़त मसीह को “इब्ने-अल्लाह के ख़िताब से सर्फ़राज़ फ़रमाया। इब्ने-अल्लाह की ज़ात मंबअ मौजूद हुई ऐसा कि “जितनो ने उस को क़ुबूल किया उस उनको ख़ुदा के फ़र्ज़न्द बनने का हक़ इनायत फ़रमाया।” (यूहन्ना 1:16)

पस कुल आलम के ईमानदार हज़रत इब्ने-अल्लाह की ज़ात-ए-पाक के तुफ़ैल रिआयतन “ख़ुदा के फ़र्ज़न्द” ठहरे। सिर्फ कलिमतुल्लाह (मसीह) ही बनी नूअ इन्सान में एक वाहिद फ़र्द हैं जो इस्तहक़ाक़न (हक़ के साथ) इब्ने-अल्लाह हैं और ख़ुदा की गोद में हैं। (यूहन्ना 1:18)

जैसा कि मुक़द्दस पौलुस लिखते हैं :-

“बाप को पसंद आया कि उस की सारी मामूरी इब्ने-अल्लाह ही में सुकूनत करे।” (कुलस्सियों 1:19)

(3)

जो मुसलमान सुलूक की आला मनाज़िल पर पहुंच चुके हैं वो यहूदी और मसीही इस्तिलाह “इब्ने-अल्लाह” से फ़ायदा उठा कर निडर हो कर कहते हैं औलिया इतफ़ाल हक़ अंदए सिपर और

अबू बक्र शिबली फ़र्माते हैं :-

الصوفیہ اطفال فی حجرالحق यानी सूफ़िया ख़ुदा की गोद में हैं।

(रिसाला क़ुशेरिया)

ये इस्तिलाह इन्जील (यूहन्ना 1:18) से अख़ज़ की गई है। क़ुरआन में भी आया है :-

فَاذۡکُرُوا اللّٰہَ کَذِکۡرِکُمۡ اٰبَآءَکُمۡ اَوۡ اَشَدَّ ذِکۡرًا

यानी ख़ुदा की याद इस तरह करो जैसे अपने बापों की बल्कि इस से भी बढ़कर करो। (सूरह अल-बक़रह आयत 200)

दोनों कुतुब समावी के पढ़ने वालों पर यह ज़ाहिर है कि इब्ने-अल्लाह का तमाम वजूद जिन, व इन्स, मलाइका और मख़्लूक़ात में अफ़्ज़ल तरीन है सिर्फ इब्ने-अल्लाह ही ख़ुदा का कलमा और रूह हैं और “وَجِیۡہًا فِی الدُّنۡیَا وَ الۡاٰخِرَۃِ” हैं लिहाज़ा वही सिर्फ इस शर्फ़ के सज़ावार हैं कि वो अल्लाह तआला के ख़ास इकलौते बेटे हों क्योंकि :-

عدیم است عدیش جوخداوند کریم

चूँकि हमने इस मौज़ू पर अपने रिसाले “अबुव्वत इलाही और इब्नियत मसीह” में मुफ़स्सिल बह्स की है हम यहां सिर्फ ये कहना चाहते हैं कि अहले-किताब और अहले-क़ुरआन में जो नज़ाअ (तकरार) “इब्ने-अल्लाह” की इस्तलाह पर है वो मह्ज़ लफ़्ज़ी इख़्तिलाफ़ पर मबनी है।

कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ख़ुदा की क़ुद्रत और हिक्मत

(1)

इन्जील जलील में कलिमतुल्लाह (मसीह) से चंद और खिताबात मन्सूब हैं जिनमें से हम बाअज़ के ज़िक्र पर इक्तिफ़ा करते हैं :-

अव्वल लिखा है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ख़ुदा तआला की क़ुद्रत है और दोम कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ख़ुदा तआला की हिक्मत है। चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस रसूल लिखते हैं :-

“मसीह ख़ुदा की क़ुद्रत और ख़ुदा की हिक्मत है।” (1 कुरिन्थियों 1:24)

इस इंजीली आया शरीफा में इसी क़िस्म की इज़ाफ़त तोज़िही मौजूद है जो क़ुरआनी आयात में पाई जाती है। जिनमें कलिमतुल्लाह (मसीह) को मिन्हु (منہ) और रूहुम्मिन्हु (روح منہ) लिखा है। हम इस इज़ाफ़त पर सुतूर बाला में मुफ़स्सिल बह्स कर आए हैं, पस इंजीली आयात बाला में खिताबात “ख़ुदा की क़ुद्रत और ख़ुदा की हिक्मत” से मुराद वो क़ुद्रत मुतलक़ और हिक्मत मुतलक़ मुराद है, जो ख़ुदा से और सिर्फ ख़ुदा की ज़ात से मन्सूब है दोनों कुतुब समावी इन्जील व क़ुरआन में बार-बार ख़ुदा तआला की क़ुद्रत मुतलक़ और हिक्मत मुतलक़ का ज़िक्र आया है। पस इन मुक़ामात के हवाले देना तहसील हासिल है, ये क़ुद्रत मुतलक़ और हिक्मत मुतलक़ उस ज़ात से ही मन्सूब है जो क़ादिर-ए-मुतलक़ और हकीम मुतलक़ है और जिसकी शान में یس کمثلہ شی आया है। पस सिवाए कलिमतुल्लाह (मसीह) के और कोई ग़ैर-उल्लाह और कोई दूसरा मख़्लूक़-ए-ख़ुदा की क़ुद्रत व हिक्मत में शरीक नहीं किया गया और ये हर दो कुतुब समावी इन्जील व क़ुरआन पर सादिक़ आती है इन्जील जलील में कलिमतुल्लाह (मसीह) और सिर्फ कलिमतुल्लाह (मसीह) इस सिफ़त ऊला से मौसूफ़ किए गए हैं। दूसरा कोई नफ़्स इस में शरीक नहीं किया गया क्योंकि सिर्फ अल-मसीह ख़ुदा की हिक्मत व दानिश हैं (अम्साल बाब 8) पस आप हिक्मते अल्लाह व दनिशे ख़ुदा और इल्मे अल्लाह की जिहत से कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) हैं। आप कुल्लियतन (कामिल तौर से) ख़ुदा की हिक्मत व दानिश और ज़ाते हक़ का इल्म नहीं दर-हक़ीक़त इल्म और कलमा एक ही शैय के दो रुख और दो नाम हैं। ज़ात के बुतून (बतन की जमा, किसी शैय का अंदरूनी हिस्सा) में मख़्फ़ी (छिपी) होने के पहलू से जो इल्मे अल्लाह है वही ज़हूर है बुरुज़ होने के पहलू से कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) है। पस ख़ुदावंद अल-मसीह इल्म-उल्लाह (अल्लाह का इल्म) और कलिमतुल्लाह (अल्लाह का कलमा کلمتہ اللہ) होने की बिना पर इलाही ज़ात के बातिन व ज़ाहिर, अव्वल व आख़िर और अल्फ़ा और ओमेगा हैं। कलिमतुल्लाह (मसीह) कायनात इल्म और तजस्सुम में अला फ़र्क़ मुरातिब बा क़द्र-ए-हैसियत इन्सानी हर दो ज़ाहिर हैं पस मसीही अक़ीदा ये है कि जिस तरह ख़ुदा बाप क़ादिर-ए-मुतलक़ और हकीम मुतलक़ है। क्योंकि दोनों की ज़ात और जोहर वाहिद है।

(2)

मज़्कूर बाला क़ुद्रत मुतलक़ क़ुरआन व बाइबल में सिर्फ ख़ुदा से ही मन्सूब है। कोई ग़ैर-उल्लाह इस सिफ़त में भी ख़ुदा का शरीक नहीं हो सकता। (मत्ती 6:13) क्योंकि ख़ुदा की ये सिफ़त अज़ली है। (रोमीयों 1:20)

अहले-यहूद ख़ुदा के ख़ौफ़ और दहशत के मारे का इस्म-ए-आज़म “यहोवा” ज़बान पर नहीं लाते थे और अक्सर औक़ात जब वो अल्लाह तआला का ज़िक्र करते थे या उस से दुआ करते थे तो ख़ुदा को दूसरे नामों से मुख़ातब किया करते थे। यहूदी कुतुब मुक़द्दसा में लफ़्ज़ “नाम” से मुराद “ख़ुदा की ज़ात” है। पस यहूद इस्म-ए-आज़म “यहोवा” कि क़ुद्रत को यही मंज़ूर था और ज़बूर की किताब में आया है :-

“ख़ुदा ने एक बार फ़रमाया और मैंने दोबार सुना कि क़ुद्रत सिर्फ़ ख़ुदा ही से मन्सूब है।” (ज़बूर 62:12) क्योंकि सिर्फ उसी एक साहिबे क़ुद्रत व साहिबे हिक्मत ने कलाम (कलमे) के ज़रीये कायनात को ख़ल्क़ किया।” (यर्मियाह 51:4, ज़बूर 6:32, यूहन्ना 1:3)

फिर ख़ास क़ुद्रत इब्ने-अल्लाह को हासिल थी। चुनान्चे इन्जील में इब्रानियों के ख़त का मुसन्निफ़ लिखता है कि “इब्ने-अल्लाह ख़ुदा के जलाल का पर्तो और उस की ज़ात का नक़्श हो कर सब चीज़ों को जो उस के ज़रीये पैदा हुईं, तू अपनी क़ुद्रत के कलमे से सँभालता है।” (इब्रानियों 1:3) क्योंकि इब्ने-अल्लाह मुर्दों में से जी उठने के सबब से क़ुद्रत के साथ ख़ुदा का बेटा ठहरा।” (रोमीयों 1:4)

ये मुतलक़ क़ुद्रत और मुतलक़ इख़्तियार बाप की तरफ़ से बेटे को बख़्शा गया है उसी ने उस को :-

“हर बशर पर इख़्तियार बख़्शा है ताकि वो सबको ज़िंदगी अता फ़रमाए।” (यूहन्ना 17:2)

इब्ने-अल्लाह (मसीह) को ये क़ुद्रत और इख़्तियार मुतलक़ ना सिर्फ बशर पर हासिल है बल्कि आपको कुल कायनात और “आस्मान व ज़मीन का इख़्तियार दे दिया गया है।” (मत्ती 28:18) लेकिन फ़र्क़ ये है कि आपको ख़ुदादाद इख़्तियार मुतलक़ हासिल था, लेकिन रसूलों का इख़्तियार मुतलक़ नहीं बल्कि निस्बती इख़्तियार था जो इज़ाफ़ी और मशरूअत था। (मत्ती 9:8, 10:1 10:19 वग़ैरह) इब्ने-अल्लाह (मसीह) के मसीहाई नफ़्स और इख़्तियार मुतलक़ की वजह से जो आपके क़ब्ज़े क़ुद्रत में था। रसूलों से ऐसे मोअजज़ात और हैरानकुन निशानात सादिर होते थे कि “सब लोग ख़ुदा की शान और अज़मत को देखकर हक्का बक्का और शश्दर रह जाते थे। (लूक़ा 9:43) क्यों कि “इब्ने-अल्लाह (मसीह) का पैग़ाम भी नजात पाने वालों के लिए ख़ुदा की क़ुद्रत था।” (1 कुरिन्थियों 1:18) जब सरदार काहिन ने आपकी ज़िंदगी की आख़िरी रात आपसे सवाल किया कि :-

“क्या तू उस इस्तूदा (استودہ) ख़ुदा का फ़र्ज़न्द मसीह है? ईसा ने कहा, जी, मैं हूँ और आइन्दा तुम इब्ने आदम को क़ादिर-ए-मुतलक़ की दहनी तरफ़ बैठे और आस्मान के बादिलों के साथ आते देखोगे।” (मर्क़ुस 14:62) आपने मुतबईन को फ़रमाया कि दुनिया के आख़िर में जब “इब्ने आदम” (मसीह) का निशान आस्मान पर दिखाई देगा, तुम उस को बड़ी क़ुद्रत और जलाल के साथ आस्मान के बादिलों पर देखोगे।” (मत्ती 24:30)

इब्ने-अल्लाह की ये क़ुद्रत क़ुद्रत मुतलक़ है जब ही इन्जील में वारिद हुआ है कि मसीह मस्लूब ज़ब्ह किया हुआ बर्रा ही क़ुद्रत और हिक्मत, इज़्ज़त और हम्द व तम्जीद के शायां है.......ख़ुदा और बर्रे की हम्द व इज़्ज़त तम्जीद व सल्तनत अबद-उल-आबाद क़ायम रहे। (मुकाशफ़ात 5:13)

ہر چند کہ جان عارف آگاہ بود

کے در حرم قدس تواش راہ بود

دست ہمہ اہل کشف دار باب شہود

از داو ادرک تو کوتاہ بود

(جامی)

36 नाज़रीन ने मुलाहिज़ा क्या होगा कि सरदार काहिन इस मुक़ाम में ख़ुदा का इस्म-ए-आज़म “यहोवा” इस्तिमाल नहीं करता बल्कि ख़ुदा के लिए लफ़्ज़ “इस्तोदा” (استودہ) का इस्तिमाल करता है। बरकतुल्लाह

(3)

बाइबल मुक़द्दस और क़ुरआन मजीद दोनों के मुताबिक़ ख़ुदा की हिक्मत मुतलक़ है और उस ज़ूलजलाल के इलावा कोई हकीम मुतलक़ नहीं है। (मुकाशफ़ा 7:12) ख़ुदा अपनी हिक्मत मुतलक़ को काम में लाकर नबियों और रसूलों को अक़्वाम की तरफ़ भेजता है। (लूक़ा 7:25) मुक़द्दस पौलुस रसूल लिखता है कि “मसीह ख़ुदा की क़ुद्रत और हिक्मत है।” (1 कुरिन्थियों 1:24)

जिस तरह हम सुतूर बाला में बतला चुके हैं, यहां भी जो इज़ाफ़त इस्तिमाल की गई है वह इज़ाफ़त तौज़िही है, जिसका मतलब ये है वो हिक्मत मुतलक़ जो इन्जील में ख़ुदा से मन्सूब हो सकती है वो मसीह है। चुनान्चे यही रसूल एक और मुक़ाम में लिखता है कि “मसीह हमारे लिए ख़ुदा की हिक्मत ठहरा जो रास्ती और पाकीज़गी है।” (1 कुरिन्थियों 1:30) “मसीह ख़ुदा की पोशीदा हिक्मत है जो जहां के शुरू से नूअ इन्सानी को जलाल देने के वास्ते है।” (1 कुरिन्थियों 1:30) मसीह के वसीले से जो “ख़ुदा की हिक्मत है।” सब चीज़ों को पैदा किया गया “आस्मान की हों या ज़मीन की, मुरई हों या ग़ैर-मुरई (अनदेखी) तख़्त हों या रियासतें, हुकूमतें हों या इख्तियारात सब चीज़ें उस के वसीले से और उसी के वास्ते पैदा हुईं। वो सब चीज़ों से पहले है (हुव-उल-अव्वल) और उसी में सब चीज़ें क़ायम रहती हैं।” (कुलस्सियों 1:16-17) कलिमतुल्लाह (मसीह) में जो ख़ुदा की हिक्मत है “हिक्मत और मार्फ़त के सब खज़ाने पोशीदा हैं।” (कुलस्सियों 2:3) इस हिक्मत की मार्फ़त कलिमतुल्लाह (मसीह) के वजूद बाजूद में इब्तिदा ही से है। (लूक़ा 2:52) ये हिक्मत जो मसीह में है “दुनिया” की हिक्मत नहीं है, क्योंकि कायनात की ख़ल्क़त से पहले ख़ुदा में थी। (अम्साल की किताब 8 बाब)

चुनान्चे ख़ुदा फ़रमाता है “मैं हिक्मत हूँ और क़ुद्रत बिल-ज़ात हूँ।” (अम्साल 8:14) और जब मुक़द्दस पौलुस लिखता है कि मसीह ख़ुदा की क़ुद्रत और हिक्मत है तो वो इज़ाफ़त तौज़िही इस्तिमाल करता है। ख़ुदा को कभी किसी ने नहीं देखा इकलौता बेटा (कलिमतुल्लाह मसीह) जो बाप की गोद (ज़ात-ए-हक़ तआला) में है, उसी ने ज़ाहिर किया।” (यूहन्ना 1:18)

हज़रत इब्ने-अल्लाह (मसीह) भी फ़र्माते हैं कि :-

आप ख़ुदा की हिक्मत हैं। (लूक़ा 18:49) और दुनिया के लाखों ईमानदारों का तजुर्बा आपके इस दावे की तस्दीक़ करता है।

मसीह इब्ने आदम

चूँकि इब्ने-अल्लाह साहिबे क़ुद्रत व हिक्मत थे लिहाज़ा आपने ख़ुद अपनी ज़ात ख़ास की तौज़ीह करने के लिए एक लक़ब तज्वीज़ फ़रमाया जो हर चहार (चारों) अनाजील में ख़ुदावंद मसीह की ज़बाने हक़ीक़त तर्जुमान के अल्फ़ाज़ मुबारक में पाया जाता है और सिर्फ आपकी ज़बान मोअजिज़ा बयान से ही निकला है। ये लक़ब “इब्ने आदम” है जिसको कोई दूसरा शख़्स अनाजील में आपके लिए इस्तिमाल नहीं करता।

ये लक़ब कुतुब अम्बिया-ए-सलफ़ में से ख़ुदावंद ने चुना ताकि अहले-यहूद आपकी क़ुद्दूस ज़ात का इल्म हासिल कर सकें। मिनजुम्ला दीगर कुतुब के ये लक़ब हज़रत दानीएल के सहीफ़े के सातवें बाब में वारिद हुआ है। कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया कि, “चूँकि आप “इब्ने आदम” हैं लिहाज़ा आप को इस हादिस दुनिया में तमाम कायनात पर (जो आपके ज़रीये मख़्लूक़ हुई थी) कामिल इख़्तियार हासिल है।” (दानीएल 7:13 ता आख़िर यूहन्ना 5:25 वग़ैरह)

इलावा इस कुल्ली इख़्तियार के जो इस दुनिया में आपको हासिल है, आप आख़िरत में दुनिया की अदालत रास्ती से करेंगे। (मत्ती 25:31-46, मर्क़ुस 9:37,-41, लूक़ा 10:10-16, यूहन्ना 8:51, 12:26, 15:23 ता आख़िर वग़ैरह)

इन मुक़ामात से ग़बी से ग़बी (कम-अक़्ल, बेवक़ूफ़) शख़्स पर भी ज़ाहिर हो जाता है कि आपको इस हक़ीक़त का कामिल एहसास था कि आप अम्बिया-ए-सलफ़ की मानिंद मह्ज़ फ़िरिस्तादा पयाम्बर (रसूल, नबी) नहीं थे बल्कि आपको “इब्ने आदम” होने की हैसियत से आस्मान व ज़मीन का कुल इख़्तयार दिया गया है। (मत्ती 11:27, 28:18-20, लूक़ा 10:22, मर्क़ुस 12:6, यूहन्ना 3:34-36, 5:17-27, 8:58, 10:30 वग़ैरह)

मज़्कूर बाला आयात और दीगर इंजीली मुक़ामात (मर्क़ुस 8:38, 13:26, 14:62, लूक़ा 17:24, 21:37 वग़ैरह) हम पर ये हक़ीक़त वाज़ेह कर देते हैं कि कलिमतुल्लाह (मसीह) अपनी रिसालत के हक़ीक़ी और असली मफ़्हूम की तावील हज़रत दानीएल के सहीफ़े (7:13 ता आखिर) के अल्फ़ाज़ की रोशनी में करते थे।

कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपनी ज़ात-ए-पाक में और दानीएल के तसव्वुर “इब्ने आदम” में कामिल मुमासिलत पाई जिसको अक़्वामे आलम पर अबदी हुकूमत करने का इख़्तियार हासिल था यही वजह है कि आपका ये यक़ीन उस दर्जे पर पहुंचा हुआ था कि जिस सलीब की होलनाक और भयानक मौत का समां आपकी मुबारक आँखों के सामने था, तब भी आप का ये ईमान मुतज़लज़ल होने ना पाया। आपको ऐसी जांकनी की हालत में भी ये कामिल एहसास था कि तमाम ज़ाहिरी मुख़ालिफ़ हालात के बावजूद फ़त्ह का सेहरा आपके सर पर ही होगा और शैतानी ताक़तों के साथ जंग करके बिल-आख़िर आप ही फ़ातेह होंगे और इब्ने आदम मसीह को ही “क़ुद्रत और इख़्तियार और जलाल हासिल होगा।” (मत्ती 24:30, 26:64, 16:27, 25:31 वग़ैरह और दानीएल 7:13 वग़ैरह)

मसीह ख़ालिक़ बि-इज़्निल्लाह (خالق باذن اللہ)

इन्जील जलील और क़ुरआन मजीद में इब्ने-अल्लाह मसीह के लिए जो लफ़्ज़ “कलमा” (کلمہ) वारिद हुआ है वो कलमा तक्वीनी है। यानी वो “कलमा” कायनात और मौजूदात को वजूद में लाता है और उनको पैदा करता है। (सूरह बक़रह 111, ज़बूर 33:9, यूहन्ना 14:1 वग़ैरह) कलिमतुल्लाह (मसीह) के वसीले से ख़ुदा ने आलम पैदा किए। (इब्रानियों 1:2) चूँकि पौलुस फ़रमाता है :-

“हमारे नज़्दीक तो एक ही ख़ुदा है यानी बाप जिसकी तरफ़ से सब चीज़ें हैं और हम उसी के लिए हैं और एक ही ख़ुदावंद है, यानी यसूअ मसीह के वसीले से सब चीज़ें वजूद में आईं और हम भी उस के वसीले से हैं।”

क़ुरआन में भी वारिद हुआ है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ख़ालिक़ बि-इज़्निल्लाह (خالق باذن اللہ) हैं क़ुरआन में कलिमतुल्लाह (मसीह) फ़र्माते हैं :-

37 T.W.Manson,Studies in the gospels and epistles 1962 (Manchester University press)

اَنِّیۡ قَدۡ جِئۡتُکُمۡ بِاٰیَۃٍ مِّنۡ رَّبِّکُمۡ ۙ اَنِّیۡۤ اَخۡلُقُ لَکُمۡ مِّنَ الطِّیۡنِ کَہَیۡـَٔۃِ الطَّیۡرِ فَاَنۡفُخُ فِیۡہِ فَیَکُوۡنُ طَیۡرًۢا بِاِذۡنِ اللّٰہِ

“यानी मुझको खुदा ने ये क़ुद्रत दी है कि मैं तुम्हारे इत्मीनान की ख़ातिर के लिए मिट्टी से परिंदे की शक्ल की मानिंद एक जानवर ख़ल्क़ करूँ फिर उस में अपना दम फुंकू तो वो अल्लाह के इज़्न (इजाज़त) से परिंदा हो कर उड़ने लगे।” (सूरह आले-इमरान आयत 49)

फिर वारिद हुआ है :-

وَ اِذۡ تَخۡلُقُ مِنَ الطِّیۡنِ کَہَیۡـَٔۃِ الطَّیۡرِ بِاِذۡنِیۡ فَتَنۡفُخُ فِیۡہَا فَتَکُوۡنُ طَیۡرًۢا بِاِذۡنِیۡ

“(ऐ मसीह) जब तुम हमारे ख़ुदा के इज़्न (हुक्म) से मिट्टी से परिंदे की शक्ल की मानिंद ख़ल्क़ करते थे और उस में अपना दम फूँकते थे तो वो हमारे इज़्न से परिंदा हो कर उड़ जाता था।” (सूरह अल-मायदा आयत 110)

इन आयात से ज़ाहिर है कि कलमा जो तख़्लीक़ आलम का मूजिब और वसीला था ख़ुद कोई हादिस और मख़्लूक़ शैय नहीं हो सकता। इस वसीले की तख़्लीक़ के लिए एक और वसीले की ज़रूरत लाहक़ हो जाती और फिर उस के लिए एक तीसरे वसीले की ज़रूरत पड़ती और ये एक लामतनाही (बेइन्तहा, कभी ना ख़त्म होने वाला) सिलसिला हो जाता और मुसलसल अज़-रूए मन्तिक़ बातिल है। जाये ग़ौर है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) के ख़ल्क़ करने में और ख़ुदा के ख़ल्क़ करने में किस क़द्र बाहमी मुनासबत पाई जाती है। दोनों कुतुब समावी बाइबल शरीफ़ और क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ ख़ुदा ने आदम को मिट्टी से ख़ल्क़ किया और उस ख़ाकी (जिस्म) में अपना दम फूँका चुनान्चे क़ुरआनी अल्फ़ाज़ और सहाइफ़ सलफ़ के अल्फ़ाज़ मिला-ख़ित्ता (मिलान) करें। तौरात में लिखा है “ख़ुदावंद ख़ुदा ने ज़मीन की मिट्टी से इन्सान को बनाया और फिर उस में ज़िंदगी का दम फूँका तब इन्सान जीती जान हुआ।” क़ारईन क़ुरआनी अल्फ़ाज़ में मुलाहिज़ा करें :-

وَ نَفَخۡتُ فِیۡہِ مِنۡ رُّوۡحِیۡ

“यानी मैंने अपनी ज़िंदगी का दम फूँका, फिर आदम जानदार इन्सान बन गया।” (सूरह अल-हिज्र आयत 29)

इन्जील में आया है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) के वसीले से सब चीज़ें पैदा हुईं। उसमें में ज़िंदगी थी और ये ज़िंदगी आदमीयों का नूर थी। (यूहन्ना 1:4, इब्रानियों 1:2) क़ुरआन के मुताबिक़ हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने परिंदे की शक्ल को मिट्टी से ख़ल्क़ किया फिर فَتَنۡفُخُ فِیۡہَا में अपना दम फूँका और वो जानदार हो गया। पस ख़ुदा ने अपने इब्ने महबूब (मसीह) को इस सिफ़त से मौसूफ़ किया जो ख़ास ख़ुदा से मुख़्तस (मख़्सूस) है यानी आपको ख़ल्क़ करने की सिफ़त से मुत्तसिफ़ किया। दोनों कुतुब समावी ख़ल्क़ करने की सिफ़त को ख़ुदा से (और सिर्फ ख़ुदा) से मन्सूब करती हैं सिर्फ़ ख़ुदा ही तन्हा ख़ालिक़ है और बाक़ी तमाम कायनात मख़्लूक़ है।

फिर लिखा है :-

قُلِ اللّٰہُ خَالِقُ کُلِّ شَیۡءٍ

यानी ख़ुदा तमाम अश्या का ख़ालिक़ है। (सूरह अल-रअद आयत 17)

लेकिन तमाम मख़्लूक़ात में ख़ुदा ने सिर्फ अपने कलमे और रूह को ये फ़ज़ीलत बख़्शी कि वो बि-इज़्निल्लाह (باذن اللہ) ख़ल्क़ करे।

अगर कोई कहे कि ये तो ख़ुदा के इज़्न (हुक्म) से था तो हम जवाब देंगे कि बेशक ये ख़ुदा के इज़्न (हुक्म) से था लेकिन ख़ुदा किसी इन्सान को ऐसा इज़्न (हुक्म) नहीं देता जो ख़ाकी इन्सान आग के पुतले को उसकी ख़ालक़ीयत की सिफ़त में शरीक कर दे। तमाम क़ुरआन में और इन्जील में भी कलिमतुल्लाह (मसीह) के इलावा कोई नहीं जिसको ख़ुदा ने ये इज़्न (हुक्म) अता किया हो कि वो अदना तरीन शैय को ख़ल्क़ करे और उस में ज़िंदगी का मसीहाई दम फूंके क़ुरआन मजीद ऐसे मोअतरिज़ ही को मुख़ातब करता है :-

اَفَمَنۡ یَّخۡلُقُ کَمَنۡ لَّا یَخۡلُقُ ؕ اَفَلَا تَذَکَّرُوۡنَ

तो क्या जो ख़ल्क़ करे वो उस के बराबर हो सकता है जो कुछ भी ख़ल्क़ नहीं कर सकते? ऐ लोगो तुम सोचते क्यों नहीं। (सूरह अल-नहल आयत 17)

तमाम मह्ज़ मख़्लूक़ इन्सान और अम्बिया-अल्लाह ख़ल्क़ करने की सिफ़त और फ़ज़ीलत से यकसर महरूम हैं, क्योंकि ना सिर्फ शाने उलूहियत का ही ख़ास्सा है और इन्जील के मुताबिक़ इस अम्र में कलिमतुल्लाह (मसीह) बाप के नाम से बि-इज़्निल्लाह वही काम करता है जो बाप करता है। (यूहन्ना 5:36, 10:25 वग़ैरह) इस क़िस्म के काम सिवाए अल्लाह की ज़ात के और कलिमतुल्लाह (मसीह) के जो एन ज़ात इलाही है। (कोई नहीं कर सकता)

मसीह की सलीबी मौत

तारीख़ दुनिया, इन्जील जलील और क़ुरआन मजीद तीनों मुत्तफ़िक़-उल-लफ़्ज़ हो कर ऐलान करते हैं कि ख़ुदावंद मसीह को रूमी गवर्नर पिन्तुस पिलातूस के ज़माने में शक़ी यहूद की शिकायत और इसरार पर मस्लूब किया गया था। हमने तारीख़ की शहादत का मुफ़स्सिल ज़िक्र रिसाला तौज़ीह-उल-अक़ाइद में किया है।

कि वो अपने लोगों की उनके गुनाहों को नजात दें। (मत्ती 1:21) कलाम-उल्लाह कलिमात तय्यिबात और हुदूस पराज़ मुहब्बत ज़िंदगी के नमूने ने गुनाहगारों को जो तारीख़ी और मौत के साये में बैठे थे ख़ुदा की मुहब्बत का जलवा दिखा दिया और इस से भी ज़्यादा आपकी सलीबी मौत का दिन नूअ इन्सानी के लिए नजात व सआदत वारेन सलामती अता करने का दिन साबित हुआ, और आपकी ज़फ़रयाबी क़ियामत ने मौत और गुनाह की तारीक ताक़तों पर फ़त्ह हासिल करके साबित कर दिया कि आपकी मौत में अबदी बक़ा का राज़ मुज़म्मिर (पोशीदा) था। यही वो सलामती है जिसका ज़िक्र क़ुरआनी आयत में है, इसी क़िस्म के नहाई (वो औज़ार जिस पर लोहा कूटते हैं अहरन) रमोज़ व हक़ाइक़ को जानने के लिए क़ुरआन में हज़रत रसूल को और तमाम ईमानदारों को अल्लाह का हुक्म है कि अगर तुमको किसी शैय का पता ना चले तो बाइबल पढ़ने वालों से पूछ लिया करो। (यूनुस रूकू 10, आयत 94, अम्बिया आयत 7, नहल रूकू 4 वग़ैरह) ये रम्ज़ और राज़ को एक साहिब-ए-दिल और साहिब-ए-नज़र ही कमा हक़्क़ा समझ सकता है जिसके दिल की हर हरकत में अहले-दुनिया के लिए तड़प है। “जिसके कान सुनने के हों वो सुने।” जिनके दिल-दार दर्स (तसल्ली व तशफ़ी का सबक़) के फ़ल्सफ़े से मानूस हैं वो कान से ऊंचा नहीं सुनते और ना वो सलीब की राह से आँखें बंद कर सकते हैं लेकिन बअल्फ़ाज़ नबी “जो देखते हुए नहीं देखते और सुनते हुए नहीं सुनते” उनके हुक़ूक़ में क़ुरआन मजीद कहता है :-

خَتَمَ اللّٰہُ عَلٰی قُلُوۡبِہِمۡ وَ عَلٰی سَمۡعِہِمۡ ؕ وَ عَلٰۤی اَبۡصَارِہِمۡ غِشَاوَۃٌ ۫ وَّ لَہُمۡ عَذَابٌ عَظِیۡمٌ

“यानी ख़ुदा ने उनके दिलों पर मुहर कर दी है और उनकी आँखों पर पर्दा है। ऐसों के लिए बड़ा अज़ाब है।” (सूरह अल-बक़रह आयत 7)

मुनज्जी आलमीन (मसीह) ने शैतान को कुचल कर कुल दुनिया की अक़्वाम को गुनाह के पंजे से ता-अबद ख़लासी अता करके उनको अज सर-ए-नौ ज़िंदगी बख़्श कर ख़ुदा के फ़र्ज़न्द और आस्मान की बादशाही का वारिस बना दिया।

दूसरी क़ुरआनी आयत में ख़ुदा ताकीदन मुनज्जी जहां (मसीह) की मुबारक मौत का ज़िक्र कर के फ़रमाता है कि “ऐ ईसा, मैं तुझको कुफ़्फ़ार नाबकार व गुनेहगार से जुदा करके अपनी तरफ़ उठा लूंगा।” इन्जील जलील में इब्रानियों के ख़त में भी यही अल्फ़ाज़ वारिद हुए हैं। चुनान्चे ख़त का मुलहम मुसन्निफ़ लिखता है कि, “हमारा सरदार काहिन (मसीह) पाक, बे-रिया और बेदाग़ था जो गुनेहगारों से जुदा और आसमानों से बुलंद और आसमानों से भी गुज़र कर अर्श पर किब्रिया के तख़्त की दहनी तरफ़ जा बैठा।” (इब्रानियों 7:36, 4:14, 8:1)

मज़्कूर बाला तीसरी क़ुरआनी आया में ख़ुदावंद मसीह की वफ़ात का निहायत मुख़्तसर लेकिन सरीह और वाज़ेह अल्फ़ाज़ فلماتوفیتنی (जब तू ने मुझे मौत दी) में ज़िक्र किया गया है, इनसे ज़्यादा मुख़्तसर मगर साफ़ पुर मअनी और वाज़ेह आयात तमाम क़ुरआन में बमुश्किल मिलेंगी।

مَا قَتَلُوہُ وَ مَا صَلَبُوہ का सही मफ़्हूम

नाज़रीन ने मुलाहिज़ा किया होगा कि मज़्कूर बाला क़ुरआनी आयात में कलिमतुल्लाह (मसीह) की विलादत, मौत, क़ियामत और रफ़ा आस्मानी का बिल-तर्तीब ज़िक्र वारिद हुआ है, जिससे ज़ाहिर है कि इन वाक़ियात में से हर वाक़िया दूसरे का मुस्तल्ज़िम (कोई काम अपने ऊपर लाज़िम करने वाला) है। मुनज्जी आलमीन (मसीह) की सलीबी मौत से पहले आपकी विलादत मसऊद लाज़िम है और आपकी ज़फ़र-याब क़ियामत से पहले आपकी सलीबी मौत लाज़िम थी और आपके रफ़ा आस्मानी से पहले आपकी विलादत, मुबारक मौत और ज़फ़रमंद हो कर जी उठने का वाक़िया लाज़िम था। आपकी पैदाइश, मौत क़ियामत और सऊद आस्मानी का इक़रार लाज़िम व लज़ूम और मुक़द्दम व मोअख्खर में (ये) सिलसिला वाक़ियात में एक वाक़िये के से, हर वाक़िये का इक़रार लाज़िम हो जाता है कि हम आपकी सलीबी मौत, ज़फ़रयाब क़ियामत और सऊद आस्मानी का भी इक़रार करें और इन सब पर ईमान रखें।

अनाजील अरबा का सतही मुतालआ भी ज़ाहिर कर देता है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) का मसलक और मन्सब ही ये था कि अफ़राद और समाज की और बिलख़ुसूस मज़्हबी ज़ुल्म व तारीकी की ताक़तों के ख़िलाफ़ जिहाद करें। आप खुदा के लोगों को शैतानी ताक़तों से और शर व बदी की रूह से आज़ादी और हुर्रियत (गु़लामी के बाद आज़ादी) के पैग़ाम के अलमबरदार हो कर आए थे। आपकी तमाम ज़िंदगी में इन्सानियत के इज्तिमाई दुख का एहसास हर शख़्स को नज़र आता है। इस रुहानी कुर्ब का ज़िक्र बार-बार अनाजील में आता है। (लूक़ा 19:41-44, मत्ती 24:12-39, लूक़ा 23:27-31 वग़ैरह) उस का नतीजा वही हुआ जो होना था कि “फ़रीसी बाहर जा कर हैरोदियों के साथ उस के ख़िलाफ़ मश्वरा करने लगे कि उसे किस तरह हलाक करें। (मर्क़ुस 3:6, मत्ती 22:15 वग़ैरह) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की कार-ज़ार हयात में मर मिटने का जज़्बा मौजूद है और वो हवारइन (शागिर्दों) को भी वारिद रसुन के फ़ल्सफे की तालीम देते हैं। (यूहन्ना 12:24-34, मत्ती 10:34-39 वग़ैरह)

हर कली मस्लूब हो कर शाख़ की ज़ीनत बनी

दार पर खींचा गया जो फूल गुलशन हो गया। (हसन बख़्त)

कलिमतुल्लाह (मसीह) के लिए ज़ंजीर की झन्कार इलाही आवाज़ का नग़मा बन गई थी और कांटों का ताज इब्ने-अल्लाह के फ़र्क़ मुबारक का निशान और सलीब द्वार आपका पर्चम हो गई। लेकिन दुनिया में ऐसे अस्हाब कस्रत से मौजूद हैं जो वार दरसन के इंजीली सबक़ से नाआशना हैं क्योंकि उनके दिल दर्द से नावाक़िफ़ होते हैं। बअल्फ़ाज़ इन्जील “वो देखते हुए नहीं देखते और सुनते हुए नहीं सुनते।” (मत्ती 13:13-16 वग़ैरह) और बअल्फ़ाज़ क़ुरआन :-

صُمٌّۢ بُکۡمٌ عُمۡیٌ فَہُمۡ لَا یَرۡجِعُوۡنَ

“यानी वो बहरे हैं, गूँगे हैं, अंधे हैं, वो कलाम-ए-हक़ की जानिब नहीं फिरते।” (सूरह बक़रह आयत 18)

पस वो मुनज्जी जहां (मसीह) की सलीबी मौत का इन्कार करते हैं और क़ुरआनी आयात बय्यनात के साफ़ सरीह और वाज़ेह मुतालिब का सिरे से इन्कार कर देते हैं। हालाँकि मज़्कूर बाला तीनों की तीनों आयात में मसीह के हक़ में अल्फ़ाज़ “मौत” और “वफ़ात” सरीहन वारिद हुए हैं। ऐसे अस्हाब पर क़ुरआनी आयह :-

اَفَتُؤۡمِنُوۡنَ بِبَعۡضِ الۡکِتٰبِ وَ تَکۡفُرُوۡنَ بِبَعۡضٍ

(सूरह अल-बक़रह आयत 85)

सादिक़ आती है क्योंकि वो कुतुब समावी की जिस किताब के जिस हिस्से को चाहते हैं उ\स को मानते हैं और जिसको नहीं मानना चाहते उस का बे दरेग़ इन्कार कर देते हैं हालाँकि बाला तीनों की तीनों आयात के अल्फ़ाज़ साफ़ और वाज़ेह हैं कि इनमें किसी क़िस्म की तावील या शुब्हा की गुंजाइश बाक़ी नहीं रही।

सलीबी वाक़िये के मुन्कर अपनी बावर की हुई तावीलात को एक क़ुरआनी आया से सहारा देने की कोशिश करते हैं हालाँकि क़ुरआन का दावा साफ़ है कि “वो खुली आयतों में उतरा है और आसान किया गया है।” (हज 16) “हमने समझने के लिए क़ुरआन को आसान कर दिया है, सो क्या कोई है जो नसीहत पकड़े?” (क़मर 22) ये नाम निहाद मुफ़स्सिरीन बअल्फ़ाज़ क़ुरआन “क़ुरआन में ग़ौर नहीं करते और ये ख़याल नहीं करते कि अगर क़ुरआन ख़ुदा के पास से ना आया होता तो इस में बहुत से इख़्तिलाफ़ पाते।” (निसा आयत 84) ये अस्हाब अपने नाम निहाद इल्म व फ़ज़्ल पर फ़ख़्र करके क़ुरआन के ऐसे मुक़ामात में इख़्तिलाफ़ डाल देते हैं जहां इख़्तिलाफ़ नहीं होता। और ये नहीं सोचते कि दुश्मनां क़ुरआन इस इख़्तिलाफ़ की वजह से इस को من دون اللہ साबित कर देंगे ! पस ये उलेमा सलीबी वाक़िये के इन्कार को साबित करने के लिए क़ुरआन की आया में है कि :-

وَّ قَوۡلِہِمۡ اِنَّا قَتَلۡنَا الۡمَسِیۡحَ عِیۡسَی ابۡنَ مَرۡیَمَ رَسُوۡلَ اللّٰہِ ۚ وَ مَا قَتَلُوۡہُ وَ مَا صَلَبُوۡہُ

“यानी यहूद ने कहा कि हम ही ने तो ईसा इब्ने मरियम तुम्हारे अल्लाह के रसूल को क़त्ल कर दिया था। हालाँकि (यहूद ने) ना तो उस को क़त्ल किया और ना उन्होंने उस को मस्लूब किया।” (सूरह निसा आयत 157)

लेकिन अव्वल इस आया शरीफा में मसीह के मस्लूब होने के वाक़िये का इन्कार नहीं किया गया बल्कि जिस क़ौल की तर्दीद की गई है वो नाबकार (बेफ़ाइदा, शरीर) यहूद का तूल है जो इस आयत के पहले हिस्से में दर्ज है। पस इस आया में क़ुरआन कहता है कि यहूद का ये फ़ख़्र कि हमने तुम्हारे अल्लाह के रसूल ईसा बिन मर्यम को क़त्ल कर दिया “ग़लत और बे-बुनियाद है” बल्कि हक़ तो ये है कि मसीह को मस्लूब करने वाले यहूदी थे ही नहीं। यहूद ने ना तो उस को क़त्ल किया और ना मस्लूब किया।

इन्जील मत्ती में भी इस क़िस्म के एक वाक़िये का ज़िक्र है जब ख़ुदावंद मसीह ने अपने हम-अस्र अहले-यहूद को मुतनब्बाह (आगाह किया) करके कहा था कि तुम शेख़ी मार कर कहते हो और “अपनी निस्बत गवाही देते हो कि तुम नबियों के क़ातिलों के फ़र्ज़न्द हो तुम जहन्नम की सज़ा से क्योंकर बचोगे?” (मत्ती 23:29-33)

पस मुख़्तलिफ़ ज़ावीया निगाह से मज़्कूर बाला क़ुरआनी आया इन्जील जलील के सलीबी वाक़िये और मसीह की सलीबी मौत की तस्दीक़ करती है जिसके मुसद्दिक़ होने का क़ुरआन बार-बार दावा है।

दोम : क़ुरआनी आया का ये मतलब ना सिर्फ इन्जील जलील के बयानात के मुताबिक़ है बल्कि तारीख़-ए-आलम के वाक़ियात के साथ भी मुताबिक़त रखता है और ये साबित हो जाता है कि क़ुरआन मजीद के साफ़ और ग़ैर-मुबहम (यानी छिपे हुए) अल्फ़ाज़ इन्जील जलील के और एक तारीख़-ए-आलम के मुताबिक़ हैं। लेकिन अगर मुन्करीन सलीब की बातिल तावील को बफ़र्ज़ मुहाल सही मान लिया जाये तो इस से क़ुरआनी आयत बाला में और दीगर तीन मुतज़क्किरा आयात ज़ेर-ए-बहस हैं बाहमी तज़ाद लाज़िम आता है और एक तारीख़ी वाक़िये की तक़्ज़ीब भी लाज़िम हो जाती है और क़ुरआन और तारीख़-ए-आलम में इख़्तिलाफ़ बल्कि ख़ुद मुक़ामात क़ुरआन में इख़्तिलाफ़ का वजूद इस को “من دون اللہ” साबित कर देगा।

مَا قَتَلُوہُ یاَ مَا صَلَبُوہُ

हम कह चुके हैं कि आया शरीफा का मतलब साफ़ और वाज़ेह है जिसकी तावील की ज़रूरत नहीं लेकिन बाअज़ मुस्लिम अस्हाब ने सलीबी मौत को क़ुबूल करके क़ुरआन को इख़्तिलाफ़ और तक़्ज़ीब से बचाने के लिए एक तावील की राह निकाली है। चुनान्चे क़ादियानियत के बानी “हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद अलैहिस्सलाम” के क़दीम सहाबा में एक मुस्तनद आलिम मौलवी मुहम्मद अह्सन साहब अमरोही थे। इस जगह हम मर्हूम की फ़ारसी किताब “अल-तावील-उल-मुहक्कम फी मुतशाबेह फ़िसोस अल-हकम” (التاویل المحکم فے متشابہ فصوص الحکم) के चंद इक़तिबासात नक़्ल करते हैं जिनका उर्दू ख़वाँ नाज़रीन की ख़ातिर उर्दू में तर्जुमा किया गया है :-

“आँजनाब (हज़रत मसीह) को सलीब पर खींच दिया गया.... बावजूद ये कि मसीह अलैहिस्सलाम नौजवान थे। आपने ख़ुशी से अपनी जान ख़ुदा के सपुर्द कर दी किसी दूसरे शख़्स ने आपको क़त्ल ना किया.... आँजनाब के साथ दो चोर भी सलीब पर लटकाए गए थे। चूँकि दूसरे रोज़ सुबह को सबत का रोज़ था यहूद चाहते थे कि तीनों की हड्डियां तोड़ दी जाएं और उनको मार डाला जाये पस रूमी सिपाहीयों ने दोनों डाकूओं की हड्डियां तोड़ कर उनको मार डाला, लेकिन जब वो मसीह के नज़्दीक आए तो उन्होंने आपको मुर्दा पाया फिर भी एहतियात की ख़ातिर उन्होंने एक बिरछी आपके पहलू में मारी जिससे ख़ून निकल पड़ा। पस उन लोगों ने कहा कि हमने मसीह को मस्लूब कर दिया जिससे उनकी मुराद ये थी कि हमने उस की हड्डियां तोड़ कर उस को मार डाला। क्योंकि लफ़्ज़ मस्लूब “अगरचे लफ़्ज़ सल्ब صلب (बिलज़म بالضم) से मोख़ूज़ है जिसके मअनी “हड्डी निकालना” हैं। चुनान्चे अल्फ़ाज़ लेकिन इस मुक़ाम में ये लफ़्ज़ सल्ब से नहीं निकला बल्कि इस जगह ये लफ़्ज़ “सल्ब बिल-फ़तह” صلب بالفتح से माख़ूज़ है जिसके मअनी “हड्डी निकालना” हैं चुनान्चे अल्फ़ाज़ “अस्हाब सल्ब” اصحاب صلب से मुराद वो लोग होते हैं जो हड्डियां निकाल निकाल कर जमा करते हैं पस क़ुरआन की इस आयत के मअनी ये हैं कि यहूदीयों ने हज़रत मसीह को हरगिज़ क़त्ल नहीं किया बल्कि आपने ख़ुद अपनी जान हक़ के सपुर्द कर दी थी और कि अहले-यहूद ने आप को सल्ब नहीं किया यानी आपकी हड्डियां ना निकालीं। लेकिन आँजनाब मस्लूबों यानी हड्डियां तोड़े हुओं के मुशाबेह और उनकी मानिंद बन गए। उन्होंने आपको क़त्ल नहीं किया बल्कि आँजनाब को सबत की शब को क़ब्र में रख दिया गया ये जुमे की शाम थी और इस से अगला रोज़ शंबा (हफ़्ता) का दिन सबत था। आंजनाब इतवार की सुबह कुतुब साबिक़ा की और अपनी पेश गोइयों के मुताबिक़ अपने हवारियों पर ज़ाहिर हुए.....बाअज़ ने कहा यहूदा मसीह की सूरत पर आ गया था हालाँकि वो मर्दूद एक दिन पहले फांसी लेकर मर चुका था।.... क़ुरआन मजीद के मुफ़स्सिरीन भी चूँकि मुफ़स्सिल वाक़ियात से वाक़िफ़ ना थे उन्होंने भी इस क़ौल को क़ुबूल कर लिया जो क़ुरआन मजीद में मर्दूद ठहराया गया है कि यहूदा मसीह के एवज़ मारा गया।..... क़ुरआनी आयात “فَلَمَّا تَوَفَّيْتَنِي مُتَوَفِّيكَ” हज़रत मसीह की मौत पर सरीह दलालत करती हैं जैसा अनाजील में लिखा है। इलावा अज़ीं तलहा बिन अली की रिवायत जो इब्ने अब्बास से है और वह्ब की रिवायत जो तफ़्सीर मुआलिम में है, इस अम्र की शाहिद हैं।....पस अब मालूम हो गया कि आयत “ماصلبوہ” में लफ़्ज़ सलब (صلب) ज़बर के साथ है जिस तरह ज़बूर की पेश गोई में दर्ज है और जिसकी तस्दीक़ इन्जील भी करती है। सही लफ़्ज़ पेश के साथ लफ़्ज़ “सलब” (صلب) “बमाअनी दार नहीं बल्कि सलब है जिसके मअनी इख़राज इस्तख्वान है...।”

बहर-हाल अब नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि तसलीब मसीह का वाक़िया हक़ है जिसकी शहादत तारीख़ के औराक़, अनाजील अरबा दुश्मनाँ दीन यानी अहले-यहूद और बुत-परस्त हुक्काम और फ़ौजी अफ़्सर जो वाक़िये के चश्मदीद गवाह थे, सब मुत्तफ़िक़-उल-लफ़्ज़ हो कर देते हैं और क़ुरआन भी यही गवाही देता है। (मर्यम 34, इमरान 48, माइदा 117)

बईं-हमा (इन तमाम बातों के बावजूद) मुसलमान मुनाज़िरीन यही कहते हैं कि क़ुरआन में यूं लिखा है “مَا قَتَلُوۡہُ وَ مَا صَلَبُوۡہُ” (उन्होंने मसीह इब्ने मरियम को क़त्ल नहीं किया और उन्होंने उस को सलीब नहीं दी) पस ये बात साफ़ है कि जिस वाक़िये का इन्जील ने इस्बात किया, उसी का क़ुरआन ने इन्कार किया है।

अब इन साहिबान के लिए मुश्किल ये आन पड़ी कि मसीह का मस्लूब होना एक एसा वाक़िया है जो ना सिर्फ इन्जील में मज़्कूर है बल्कि तारीख़ दुनिया में दर्ज है और रोमीयों ने जिनके हुक्म से आपको मस्लूब किया गया, इस वाक़िये को क़लम-बंद कर रखा है। अगर इन्जील ना भी होती तो तारीख़ दुनिया इस पर शाहिद रहती और कोई वाक़िये से इन्कार ना कर सकता। लेकिन यहां तो एक छोड़ दो शहादतें हैं जो ऐनी हैं जिनको कोई सही-उल-अक़्ल (दानिशमंद) नामक़्बूल नहीं कर सकता। पस अगर क़ुरआन वाक़िये के छः सौ (600) साल बाद आकर ऐसे मुसल्लिमा वक़ूआ का इन्कार करे तो उस के इन्कार में सिर्फ इस को ख़तरा होगा। अगर बिलफ़र्ज़ ये मान लिया जाये कि क़ुरआन शरीफ़ ने फ़िल-हक़ीक़त तसलीब और मौत मसीह का इन्कार किया है तो लारेब (बेशक) बह क़ौल इन्जील के ख़िलाफ़ होगा जिसकी सेहत सदाक़त को उसने मुतअद्दिद मुक़ामात में तस्लीम किया है। इस मुश्किल को हर फ़हमीदा मुसलमान महसूस कर सकता है बिलख़ुसूस ऐसा मुसलमान जो क़ुरआन की सदाक़त के लिए ग़ैरत-मंद है।

इन फ़हमीदा और ग़य्यूर मुसलमानों में से बाअज़ ने अपनी वुसअत से मज्बूर हो कर आया मज़्कूर की ऐसी तावीलें की हैं जो क़ुरआनी आयत और इंजीली वाक़िये में मुताबिक़त दिखाती हैं। वो हस्बे इर्शाद क़ुरआन इन्जील को भी बरहक़ मानते हैं और क़ुरआनी मक़ूले को भी हक़ जानते हैं। पस वो ये नहीं कह सकते कि क़ुरआन ने वाक़िया सलीब का इन्कार किया है क्योंकि उनको मालूम है कि इस वाक़िये के इन्कार का इस्बात मुम्किन नहीं। ऐसे मुसलमानों में अलीगढ़ मशहूर मुहक़्क़िक़ (वह शख़्स जो बात को दलील से साबित करे) सय्यद अहमद मर्हूम को ख़ास मुक़ाम हासिल है। उन्होंने तफ़्सीर-उल-क़ुरआन में लिखा है कि :-

“जिस आयत से लोग इन्कार सलीब समझते हैं, उस के समझने में उनको धोका हुआ है।”

सय्यद मर्हूम ने वाक़िया सलीब की हक़ीक़त को तस्लीम करके आयत क़ुरआन की ऐसी तावील (बचाओ की दलील) की जिससे क़ुरआन मजीद के ऊपर से ना वाक़फ़ीयत का ये इल्ज़ाम रफ़ा हो कि उसने हक़ीक़त-उल-अम्र से इन्कार किया है।

एक और साहब का नाम चिराग़ दीन था वो जम्मू के रहने वाले थे और एक वक़्त मिर्ज़ा-ए-क़ादियानी के मुरीद थे पर बाद में उन्होंने तौबा कर ली थी। उन्होंने ताइब होने के बाद किताब “मिनार-तुल-मसीह” लिखी जो राक़िम-उल-हरूफ़ के पास रिटायर होने तक रही। उन्होंने भी आया मज़्कूर की ऐसी तफ़्सीर की जो इन्जील जलील के बयान से मुख़ालिफ़ नहीं थी। उनकी किताब में इस आयत पर मुफ़स्सिल बह्स है। वो अपना फ़र्ज़ समझते थे कि क़ुरआन शरीफ़ के बयान को ख़ुदा के कलाम साबिक़ के मुवाफ़िक़ करें क्योंकि उन की अक़्ल ये नहीं मान सकती कि ख़ुदा का एक कलाम उस के दूसरे कलाम के मुख़ालिफ़ हो सकता है।

एक दूसरे मौलवी साहब थे मुहम्मद अह्सन अमरोहवी जो क़ादियान के नबी के “सहाबा” में से थे वो पुरानी वज़अ के मुसलमान थे। मन्क़ूल पर फ़िदा थे और माक़ूल में कम दख़ल देते थे। उन्होंने फ़ारसी ज़बान में अरबी की मशहूर किताब “फ़िसूस अल-हकम” (فصوص الحکم) पर एक मबसूत शरह लिखी, जिसका हम इस सिलसिले में इक़्तिबास कर आए हैं। मज़्कूर बाला उलमा मुसलमान थे मगर उनसे पेश्तर एक मसीही बुज़ुर्ग ख़रसतग़ूरस जबारा अल-दमिश्की (خرسطغورس جبارہ الدمشقی) गुज़रे हैं। जो किताब मुक़द्दस के साथ-साथ क़ुरआन मजीद को भी इल्हामी मानते थे उन्होंने क़ुरआन की हिमायत में आया मज़्कूर की ऐसी भी तश्रीह की जिससे दोनों कुतुब में तज़ाद ना रहा। मुसलमानों में जितने उलमा-ए-मसीह इब्ने मरियम की तसलीब और मौत के इंजीली और क़ुरआनी बयानात को मुवाफ़िक़ करने की कोशिश की है, वो सब इस मसीही फ़ाज़िल के मर्हूने मिन्नत हैं।

क़ुरआनी आया में मसीही मुख़ातब नहीं

क़ुरआन के (सूरह निसा रुकूअ 22) में जो आयात इस मज़्मून से मुताल्लिक़ हैं, उनमें मुख़ातब यहूद और सिर्फ यहूद हैं और उनके सिवा कोई और मुख़ातब नहीं है। इस बयान में ना तो इन्जील जलील का नाम आया है और ना मसीहीयों का कहीं ज़िक्र या इशारा पाया जाता है। इस आया में दो उमूर गौरतलब हैं अव्वल सलीब का वाक़िया और दूसरा कि किस ने मस्लूब किया। ये दोनों उमूर एक दूसरे जुदा हैं अगर कोई पहले अम्र वाक़िया सलीब का इन्कार करे तो दूसरे अम्र का इन्कार लाज़िम हो जाता है। लेकिन इस के बरख़िलाफ़ अगर कोई दूसरे अम्र का इन्कार करे तो पहले वाक़िया सलीब का इन्कार लाज़िम नहीं आता। क़ुरआनी बयान में दूसरे अम्र का इन्कार किया गया है और वो भी सरीहन (खुल्लम खुल्ला) ये मुखालिफत यहूद ! मुसलमान उलमा ने ग़लती से इस इन्कार को अस्ल वाक़िया सलीब का इन्कार तसव्वुर कर लिया है और वो भी सरीहन जुदा रखता है और एक का इन्कार करता है। लेकिन उलमा हर दो उमूर को यकजा करके दोनों का इन्कार कर देते हैं क़ुरआन वाक़ई सलीब का इन्कार नहीं करता बल्कि अहले-यहूद के क़ौल का इन्कार करता है और ये इन्कार वाक़िया सलीब का इन्कार लाज़िम नहीं करता। पहला अम्र एक ऐसा वाक़िया है जिस पर यहूद और मसीही कलीसिया और इन्जील जलील सब के सब इत्तिफ़ाक़ करते चले आए हैं। इस वाक़िये का क़ुरआन शरीफ़ ने भी इन्कार नहीं किया। उसने सिर्फ यहूदीयों के क़ौल का इन्कार किया है, जिसमें अहले-यहूद के दावे और इंजीली बयान में इख़्तिलाफ़ है। क़ुरआन ने अहले-यहूद के क़ौल और दावे की तक़्ज़ीब की है पस उसने इन्जील और मसीहीयों के दावे की तस्दीक़ कर दी क्योंकि अगर उस को इंजीली वाक़िये की तस्दीक़ मंज़ूर ना होती तो वो यहूदीयों के साथ मसीहीयों को भी मुख़ातब बना कर दोनों की साफ़ अल्फ़ाज़ में तक़्ज़ीब कर देता। क्योंकि यहूद से मसीही मुख़ातबत के ज़्यादा सज़ावार थे। क्योंकि वो मसीह की सलीब को नजात का ज़रीया मानते थे। अगर मसीहीयों की तक़्ज़ीब मंज़ूर होती तो क़ुरआन साफ़ कह सकता था कि ना मसीह मरे और ना मस्लूब हुए ईसाई ग़लती पर हैं। जो मसीह की सलीब को नजात का ज़रीया मानते हैं। लेकिन इस मुक़ाम में ना तो मसीहीयों को मुख़ातब किया गया है और ना उनके एतिक़ाद से तार्रुज़ (मुज़ाहमत करना) किया गया है बल्कि यहां यहूद को मुख़ातब बना कर उनके ज़ोअम (ग़ुरूर) फ़साद को रद्द किया गया है और इन्जील जलील के एतिक़ाद को बजाय ख़ुद रहने दिया है।

क़ुरआन मुसद्दिक़ इन्जील

अगर हम इस आयत में यहूदीयों की तरफ़ से तवज्जोह हटा कर इस हक़ीक़त पर ग़ौर करें कि कैसे बर जस्ता अल्फ़ाज़ में क़ुरआन मजीद ने इन्जील की तस्दीक़ बार-बार की है और इस हक़ीक़त को मद्द-ए-नज़र रखकर इन आयात पर गौर करें :-

اِنِّیۡ مُتَوَفِّیۡکَ وَ رَافِعُکَ اِلَیَّ وَ مُطَہِّرُکَ مِنَ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا

“यानी ऐ ईसा मैं ज़रूर तुझको वफ़ात दूँगा और अपनी तरफ़ उठा लूंगा और तुझको पाक करूँगा उन लोगों से जिन्हों ने कुफ़्र और इन्कार किया।” (सूरह आले-इमरान आयत 55)

فَلَمَّا تَوَفَّيْتَنِي (यानी ईसा ने कहा, कि ऐ ख़ुदा जब तूने मुझको वफ़ात दी।)

तो कौन सही-उल-अक़्ल शख़्स ये कह सकता है कि इन अल्फ़ाज़ के बजिन्सा वही मअनी हैं जो इन्जील में हैं कि मसीह इब्ने मरियम ने वफ़ात पाकर आस्मान पर सऊद फ़रमाया। जब कोई मसीही या मुसलमान (जो क़ुरआन की तस्दीक़ इन्जील पर शुब्हा नहीं करता) इन आयात बय्यनात को ख़ाली-उज़-ज़हन हो कर पढ़ता है तो उस को ना लफ़्ज़ तूवफ्फ़ी (توفی) के माअनों को हक़ीक़त से फेरने की ज़रूरत लाहक़ होती है और ना किसी तावील को बईद की तलाश और सहारे की ज़रूरत पड़ती है। लफ़्ज़ तूवफ्फ़ी (توفی) के मअनी मौत है जिस पर इन्जील शाहिद है। क़ुरआन ने वफ़ात मसीह की कोई तफ़्सील नहीं की, कि आप किस मौत मरे। क़ुरआन को इस बात की मुतलक़ ज़रूरत भी ना थी कि वो इब्ने मरियम की मौत के तरीक़े का ज़िक्र करता। क्यों कि इस वाक़िये के मौत के तरीक़े की तफ़्सील इन्जील में मौजूद थी जिसकी वो बार-बार तस्दीक़ करता है। पस वफ़ात मसीह के इक़रार के साथ वाक़िया तसलीब का इक़रार लाज़िम आता है। अगर ये इक़रार क़ुरआन को मंज़ूर ना होता तो वो मसीहीयों को मुख़ातब करके उनके एतिक़ाद की तर्दीद कर सकता था। लेकिन उसने जैसा हम सुतूर बाला में लिख आए हैं इस बयान में ना तो मसीहियों को मुख़ातब करना ज़रूरी समझा और ना उनके अक़ीदे से तआरुज़ किया और इंजीली एतिक़ाद को बजा-ए-ख़ुद रहने दिया।

इस सीधी और सच्ची बात के ना समझने से अहले-इस्लाम के बाअज़ उलमा ने अपने लिए मुश्किलात पैदा कर लीं चुनान्चे नवाब सिद्दीक़ हसन ख़ां अपनी तफ़्सीर में लिखते हैं कि :-

“इब्ने कसीर ने कहा कि मुफ़स्सिरीन का इस बारे में इख़्तिलाफ़ है कि “مُتَوَفِّیۡکَ وَ رَافِعُکَ اِلَیَّ” से क्या मुराद है, क़तादा ने कहा कि तक़द्दुम व ताखिर से इबारत यूं है “الیٰ رافعک وانی متوفیک” यानी पहले आपकी रफ़ा और फिर वफ़ात हुई। इब्ने अब्बास ने मुतवफ़्फ़ी (متوفی) के माअने मौत किए। वह्ब बिन अतबा ने कहा कि, ये वफ़ात दी अल्लाह ने ईसा को तीन साअत (घड़ी, मुईन वक़्त) अव्वल रोज़ में जिस वक़्त कि उनको अपनी तरफ़ उठाया। इब्ने इस्हाक़ ने कहा कि, नसारा का ये अक़ीदा है कि वो सात साअत मरे रहे फिर ज़िंदा हो गए। वह्ब का दूसरा क़ौल ये है कि तीन दिन मरे रहे फिर मर्फ़ू (बुलंद किया गया) हो गए। मुतह्हर वराक़ ने कहा कि वफ़ात से मुराद दुनिया की वफ़ात है ना कि वफ़ात की मौत। इब्ने जरीर ने कहा तोफ़ा से मुराद रफ़ा है। मुतह्हर वराक़ ने कहा कि वफ़ात से मुराद दुनिया की वफ़ात है ना कि वफ़ात मौत। इब्ने जरीर ने कहा, तूवफ्फा (توفیٰ) से मुराद रफ़ा है अक्सर अहले इल्म का ये क़ौल है कि इस जगह वफ़ात से मुराद ख्व़ाब है !!

ग़र्ज़ ये कि जितने मुँह उतनी बातें और जितनी नज़रें उतने नज़रिए ! लेकिन अस्ल बात तो ये है कि ना तूवफ्फी (توفیٰ) के मअनी बिगाड़ने की ज़रूरत है और ना वफ़ात को क़ियामत तक मुल्तवी रखने की ज़रूरत है और ना क़ुरआनी आयत के अल्फ़ाज़ की तर्तीब बिगाड़ने की ज़रूरत है, इंजीली बयान के मुताबिक़ पहले वफ़ात हुई, क़ुरआन ने पहले वफ़ात का ज़िक्र किया और वफ़ात के तरीक़े और तफ़्सील का ज़िक्र ज़रूरी ना समझा और ना किया क्योंकि अम्र मुसल्लिमा फ़रीक़ैन ने अज़ अव्वल ता आख़िर तस्लीम कर लिया था। फिर वाक़िया वफ़ात के बाद रफ़ा समावी (आस्मान पर उठाये जाने) का वाक़िया हुआ। क़ुरआन ने इस का भी ज़िक्र कर दिया। लेकिन रफ़ा समावी का भी तर्ज़ और तफ़्सील बयान ना की क्योंकि इस अम्र को भी फ़रीक़ैन ने सर तापा तस्लीम कर था।

मज़ीद सबूत

पस क़ुरआनी आयात “انی متوفیک ورافعک” और “فلماتوفیتنی” मसीह इब्ने मरियम की मौत पर सरीह दलालत करती हैं। तलहा इब्न-ए-अली की रिवायत जो इब्ने अब्बास से है और वह्ब की रिवायत जो तफ़्सीर मुआलिम में है, सब इस अम्र की शाहिद हैं कि बाद नुज़ूल सूरत निसा (जिसमें आयत ماصلبوہ वारिद हुई है) हज़रत हातिब (जो बदरी सहाबा) रसूल अरबी के क़ासिद हो कर मक़ूक़श वाली सिकंदरिया के पास (जो मसीही था) गए और रसूल का ख़त उस को दिया। मक़ूक़श ने उनसे सवाल किया कि अगर तुम्हारा साहब फ़िल-वाक़ेअ नबी था तो उसने क्यों ख़ुदा से दुआ ना की कि उस को मक्का से हिज्रत ना करनी पड़े। इस पर हातिब ने कहा कि हज़रत ईसा भी तो नबी थे। उन्होंने क्यों दुआ ना की कि सलीब पर खींचे ना जाते। चुनान्चे किताब इस्तीआब से मदारिज-उन-नबुवह में ये वाक़ेया नक़्ल किया है।

ना सिर्फ हज़रत हातिब ने शाह मक़ूक़श के सामने तरीक़ा सलीब को तस्लीम किया बल्कि हज़रत उमर ख़लीफ़-तुल-रसूल के एक क़ौल से यही ज़ाहिर है कि वो इब्ने मरियम की वफ़ात के क़ाइल थे। चुनान्चे किताब मिलल व नहल (ملل ونحل) के शुरू में (स 9 मिस्री) लिखा है कि :-

“हज़रत उमर ने वफ़ाते रसूल के बाद ये कहा था कि अगर कोई कहेगा कि मुहम्मद मर गया तो मैं तल्वार से उस को क़त्ल कर दूँगा। वो तो आस्मान की तरफ़ उठा लिए गए हैं। जिस तरह ईसा बिन मर्यम उठा लिए गए।”

इस रिवायत को अबूल ग़दा (ابوالغدا) ने भी बयान किया है कि :-

“क़ाज़ी शहाब-उद्दीन अबी अल-दम अपनी तारीख़ में ये लिखते हैं कि बाद वफ़ात पैग़म्बर ख़ुदा, एक गिरोह पैग़म्बर पर हुजूम करके मुजतमा (जमा किया हुआ) हुआ। सब लोग हज़रत को देखते और मुज़्तरिब व परेशान हो कर ये कह रहे थे कि रसूल-उल्लाह फ़ौत नहीं हुए बल्कि मिस्ल ईसा मसीह आस्मान पर चले गए हैं और दरवाज़े पर ये मुनादी कर दी कि हज़रत को दफ़न ना करना क्योंकि आप फ़ौत नहीं हुए। चुनान्चे आपका जनाज़ा वैसे ही रखा रहा और उस को दफ़न करने ना दिया।”

शमाइल तिर्मिज़ी में है कि :-

“रसूल अल्लाह शंबा (हफ़्ता) को फ़ौत हुए और उस रोज़ आपकी लाश रखी रही और फिर मंगल की रात को और मंगल के दिन रखी रही और आप मंगल की रात को दफ़न हुए।”

जब हम ये वाक़िया मद्द-ए-नज़र रखते हैं कि ख़ुदावंद मसीह की मौत जुमे के रोज़ हुई और हफ़्ता की रात-भर और हफ्ते का दिन और इतवार की रात आप क़ब्र में रखे रहे और इतवार की सुबह को आप मुर्दों में से ज़िंदा हो गए। तो ज़ाहिर है कि सहाबी-ए-रसूल अरबी को इस हक़ीक़त का इल्म था कि आप तीसरे रोज़ मुर्दों में से जी उठे थे और कि वो ख़याल करते थे कि जिस तरह इब्ने मरियम वफ़ात के बाद तीसरे रोज़ ज़िंदा हो कर उस के बाद आस्मान पर उठा लिए गए थे उसी तरह रसूल भी तीसरे रोज़ ज़िंदा हो कर आस्मान पर उठा लिए जाएंगे। लेकिन जब ये मुद्दत गुज़र गई और लोगों को ये यक़ीन हो गया कि वो दुबारा ज़िंदा ना होंगे तब आपको दफ़न किया गया।

चुनान्चे अबूल-ग़दा लिखता है कि :-

“सही रिवायत यही है कि हज़रत रसूल चौथे रोज़ मदफ़ून हुए।”

मज़्कूर बाला वाक़ियात से ज़ाहिर है कि रसूले अरबी के सहाबा के ख़यालात किसी तरह भी मसीही अक़ीदा मौत व रफ़ा मसीह के ख़िलाफ़ ना थे। मौलवी मुहम्मद अह्सन साहब अपनी किताब (जिसका हमने सुतूर बाला में इक़्तिबास किया है) में लिखते हैं कि,

“मसीह ने अपनी जान ख़ुद बख़ुद दे दी थी।”

बिल्कुल इन्जील शरीफ़ के बयान के मुताबिक़ है चुनान्चे इन्जील यूहन्ना में वारिद हुआ है कि मुनज्जी जहां (मसीह) ने फ़रमाया “अच्छा चरवाहा भेड़ों के लिए अपनी जान भी क़ुर्बान कर देता है। बाप मुझसे इसलिए मुहब्बत करता है कि मैं अपनी जान देता हूँ ताकि उसे फिर ले लूं। कोई उसे मुझसे नहीं छीनता बल्कि मैं उसे आप ही देता हूँ मुझे उस के देने का इख़्तियार है और उसे फिर लेने का भी इख़्तियार है।” (यूहन्ना 10:11-18) और पिलातूस ने आपसे कहा, क्या तू नहीं जानता कि मुझे इख़्तियार है कि चाहूँ तुझे सलीब दूं, चाहूँ तो तुझे छोड़ दूं? “आपने फ़ौरन उस को जवाब दिया कि “अगर ये इख़्तियार तुझे क़ैसर से ना दिया जाता तो मुझ पर तेरा कुछ इख़्तियार ना होता।” (यूहन्ना 19:10-11) इसी के मुवाफ़िक़ (मत्ती 26:24) में आपका क़ौल है कि “इब्ने आदम तो जाता है जैसा उस के हक़ में लिखा है, लेकिन उस आदमी पर अफ़्सोस जिसके वसीले वो हवाले किया जाता है।” बजिन्सा इसी पहलू से कि यहूद ग़लत कहते हैं कि हमने ईसा बिन मर्यम को क़त्ल किया। मसीह की मौत तो ख़ुदा-ए-अज़्ज़ व जल के मक़्सद के मुताबिक़ है और मसीह की अपनी रज़ा व खूशी से वक़ूअ में थी।

मुसलमान उलमा मज़्कूर बाला नकात को ना उन्होंने समझने की कोशिश की। वो कुछ का कुछ समझते फिरे और भटक गए। ऐसा कि उनको कहना पड़ा “لایعلم تاویلہ الا اللہ” वो ये ना समझे कि उनकी तावीलें सही नहीं हैं क्योंकि वो ख़ुदा के पहले कलाम, इन्जील की ज़िद (खिलाफ़) हैं। उन्होंने ख़ुदा के हुक्म “فَسۡـَٔلُوۡۤا اَہۡلَ الذِّکۡرِ اِنۡ کُنۡتُمۡ لَا تَعۡلَمُوۡنَ” (सूरह नहल आयत 43)

“मुसलमानो अगर तुम को किसी बात का इल्म ना हो तो अहले-किताब (बाइबल) वालों से पूछ लिया करो।”

को बाला ताक रख दिया और राह-ए-रास्त से भटक गए। अगर वो इस इलाही हुक्म पर अमल करते तो मन-माअनी तावीलें ना करते। उनको अस्ल वाक़ियात का इल्म हो जाता और अपने ख़यालों से दस्त-बरदार हो कर ऐसी तावीलें करते जो ख़ुदा के कलाम के मुताबिक़ होतीं।

क़ुरआनी लफ़्ज़ रफ़ा (رفع) का सही मफ़्हूम

बाअज़ मुसलमान मोअतरिज़ इब्ने-अल्लाह के रफ़ा (رفع) आस्मानी पर ये एतराज़ करते हैं कि क़ुरआनी आयात के अल्फ़ाज़ ورافعک انی और रफा-इलल्लाह رفعہ اللہ الیہ से ये साबित नहीं होता कि हज़रत ईसा बिन मर्यम ब-जसद अंसरी (जिस्म समेत) आस्मान पर ज़िंदा मौजूद हैं इन क़ुरआनी अल्फ़ाज़ से सिर्फ आपकी रिफ़अत मंजिलत (दर्जे की बुलंदी) ज़ाहिर है।

ये तावील कोई नई तावील नहीं है बल्कि सदीयों पुरानी है जिसका मसीही उलमा ने बार-बार पोल खोल दिया है। चुनान्चे हम मर्हूम क़दू-तुल-मुतकल्लिमीन (قدوۃ المتکلمین) ने इमाम-उल-मूनाज़िरीन अल्हाज मौलाना पादरी सुल्तान मुहम्मद ख़ां अफ़्ग़ान काबुली का कातेअ और सातेअ जवाब मोअतरज़ीन की तसल्ली के लिए ज़ेल में दर्ज किए देते हैं सुल्तान-उल-क़लम लिखते हैं :-

हज़रत ईसा ब-जसद अंसरी आस्मान पर ज़िंदा हैं

मुख़ालिफ़ीन फ़र्माते हैं कि इस के बाद सवाल उनके आस्मान पर उठाए जाने का है जिसके सबूत में ورافعک انی और رفعہ اللہ الیہ के अल्फ़ाज़ ये पेश किए जाते हैं लेकिन यहां रफ़ा (उठाने) से मुराद रफ़ा जिस्म-जिस्म का (उठाना) नहीं बल्कि रिफ़अत मर्तबत (दर्जे की बुलंदी) मुराद है। जैसा कि मुफ़रिदात इमाम राग़िब और तफ़्सीर कबीर में भी सराहतन मज़्कूर है। अरबी में रफ़ा (رفع) के मअनी क़द्र के भी आते हैं और रफ़ी (رفیع) उस शख़्स को भी कहते हैं जो मुअज़्ज़िज़ बुलंद व मर्तबत वाला हो।” जो सरासर ग़लत और क़ुरआन मजीद के साथ खेलना है। सराह (खुली और साफ़ बातचीत, एक अरबी लुग़त) में जो अरबी लुगात में एक मुम्ताज़ लुग़त है “रफ़ा” (رفع) के मअनी ऊपर उठाने के हैं और इस के बिल-मुक़ाबिल लफ़्ज़ वज़अ (وضع) है, जिसके मअनी नीचे रखने के हैं, मिसबाह मुनीर में लिखा है कि “رفعتہ رفعا خلاف خفضۃ” यानी अरब जब किसी चीज़ को ऊपर उठाते हैं तो कहते हैं कि “ख़फ़ज़” (خفضۃ) मैंने उस को नीचे रखा। यानी रफ़ा और ख़फ़ज़ दो मुतक़ाबिल अल्फ़ाज़ में जो एक दूसरे के बरख़िलाफ़ इस्तिमाल होते हैं।

सराह (صراح) में लफ़्ज़ “रफ़ा” (رفع) के नीचे एक मुहावरा भी लिखा है कि “ومنذلک قو لھم رفعہ الی السلطان” जिससे बाअज़ नादान ये समझते हैं कि जब लफ़्ज़ रफ़ा (رفع) का सिला इला (الیٰ) आता है तो इस से मुराद “रिफअत मर्तबत” होती है जब इस मुहावरे की बिना पर हज़रत ईसा के रफ़ा (رفع) जिस्मी से इन्कार करना ना सिर्फ अरबी से नावाक़िफ़ होने की दलील है बल्कि फ़ारसी तक ना जानने का सबूत है, क्योंकि इस अरबी मुहावरे के शुरू में ये फ़ारसी इबारत मौजूद है “ونزدیک گردانیدن کسے رابہ کسے ومن ذلک” अलीख (आखिर तक) यानी रफ़ा (رفع) के दूसरे मअनी को किसी को किसी के क़रीब करने के हैं और इसी क़बील (जिन्स, ख़ानदान) से अरबों का यह मुहावरा है कि मैं इस को बादशाह के नज़्दीक ले गया” अब कोई इन मुदईयान (दावेदार) अरबियत से पूछे कि “نزدیک گردانیدن کسے رابہ کسے” के मअनी किस तरह रिफ़अत व मर्तबत के हो सकते हैं किसी को किसी के नज़्दीक करने में क़ुर्ब जिस्मी मल्हूज़ होता है ना ये कि किसी शख़्स को घर में बैठे बिठाए इज़्ज़त व मन्ज़िलत दिलाना। पस “رفعتہ الی السلطان” के ये मअनी हैं कि “मैं उस को बादशाह के पास ले गया।” इज़्ज़त और ज़िल्लत का इस में कोई लिहाज़ नहीं क्योंकि यही मुहावरा ऐन उस वक़्त भी बोला जाता है जब किसी को शिकायतन बादशाह के पास ले जाते हैं मुंतही-उल-अरब (منتہی الارب ) में इस मुहावरे के नीचे कि رفعہ الی الحاکم लिखा है कि “شکایت بردپیش حاکم ونزدیک آں شد باخصم” फ़त्ह-उल-बारी शरह सही बुख़ारी में भी इस मुहावरे के नीचे कि “رفعہ الی الحاکم” احضرہ للشکوہ लिखा है। “यानी शिकायत के लिए उस को हाकिम के पास ले गया।” (जुज़ 9)

नुक्ता

ये नुक्ता याद रखने के क़ाबिल है कि सराह की इबारत ज़ेर-ए-बहस का मतलब ये है कि अगर “रफ़ा जिस्मी” के साथ मर्तबत व मंजिलत का भी इरादा हो तब रफ़ा (رفع) का सिला इला (الیٰ) लाना मुनासिब है क्योंकि रिफ़अत मंजिलत रफ़ा जिस्मी के मुनाफ़ी (खिलाफ) नहीं। लेकिन इस सूरत में लाना क़रीना (बहमी ताल्लुक़) का होना ज़रूरी है ताकि इरादा एज़ाज़ी पर दलालत करे क्योंकि जब रफ़ा का सिला इला आता है तो अक्सर इस के मअनी सिर्फ़ रफ़ा जिस्मी के होते हैं। चुनान्चे अम्सिला ज़ेल इस की शाहिद हैं :-

सही बुख़ारी, जिल्द अव्वल, वकाला का बयान, हदीस 2214

مَا هُوَ قَالَ إِذَا أَوَيْتَ إِلَى فِرَاشِكَ فَاقْرَأْ آيَةَ الْكُرْسِيِّ اللَّهُ لَا إِلَهَ إِلَّا هُوَ الْحَيُّ الْقَيُّومُ حَتَّى تَخْتِمَ الْآيَةَ فَإِنَّكَ لَنْ يَزَالَ عَلَيْكَ مِنْ اللَّهِ حَافِظٌ وَلَا يَقْرَبَنَّكَ شَيْطَانٌ حَتَّى تُصْبِحَ فَخَلَّيْتُ سَبِيلَهُ فَأَصْبَحْتُ فَقَالَ لِي رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ مَا فَعَلَ أَسِيرُكَ الْبَارِحَةَ قُلْتُ يَا رَسُولَ اللَّهِ زَعَمَ أَنَّهُ يُعَلِّمُنِي كَلِمَاتٍ يَنْفَعُنِي اللَّهُ بِهَا فَخَلَّيْتُ سَبِيلَهُ قَالَ مَا هِيَ قُلْتُ قَالَ لِي إِذَا أَوَيْتَ إِلَى فِرَاشِكَ فَاقْرَأْ آيَةَ الْكُرْسِيِّ مِنْ أَوَّلِهَا حَتَّى تَخْتِمَ الْآيَةَ اللَّهُ لَا إِلَهَ إِلَّا هُوَ الْحَيُّ الْقَيُّومُ وَقَالَ لِي لَنْ يَزَالَ عَلَيْكَ مِنْ اللَّهِ حَافِظٌ وَلَا يَقْرَبَكَ شَيْطَانٌ حَتَّى تُصْبِحَ وَكَانُوا أَحْرَصَ شَيْءٍ عَلَى الْخَيْرِ فَقَالَ النَّبِيُّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَمَا إِنَّهُ قَدْ صَدَقَكَ وَهُوَ كَذُوبٌ تَعْلَمُ مَنْ تُخَاطِبُ مُنْذُ ثَلَاثِ لَيَالٍ يَا أَبَا هُرَيْرَةَ قَالَ لَا قَالَ ذَاكَ شَيْطَانٌ

तर्जुमा : उस्मान बिन हशीम कहते हैं कि हमसे औफ़ ने हदीस बयान की कि वो मुहम्मद बिन सरीन से वो अबू हुरैरा से, रिवायत है कि मुझको आँहज़रत ने सदक़ा ईदे फ़ित्र की निगहबानी पर मुक़र्रर किया था कि एक शख़्स आकर इस में से लब भर कर जाने लगा मैंने उसे पकड़ लिया फिर मैंने कहा कि तुझको रसूल के पास ज़रूर ले जाऊँगा और पूरी हदीस बयान की उसने बताया कि जब तू अपने बिस्तर पर आराम करे। तो आयतल-कुर्सी पढ़ लिया कर। हमेशा तेरे हमराह अल्लाह निगहबान रहेगा और सुबह तक शैतान तेरे पास भटकने ना पाएगा। आँहज़रत ने फ़रमाया उसने सच्च कहा हालाँकि वो झूटा है वो शैतान था।

फ़त्ह-उल-बारी शरह सही बुख़ारी में जुम्ला “لارفعتک الی رسول اللہ” की शरह में ये इबारत लिखी हुई है कि,ای ذہبن بک ادذکوک بقال رفعہ الی الحاکم اذا حاضرہ للشکویٰ यानी मैं बिल-ज़रूर तुझको रसूल अल्लाह की जनाब में तेरी शरारत के सबब ले जाऊँगा और तेरी शिकायत बजा है।

बेचारे मुख़ालिफ़ीन और उनके हमनवा ज़रा ग़ौर तो करें कि क्या हज़रत अबू हुरैरा जैसे जलील-उल-क़द्र सहाबी (मआज़-अल्लाह) शैतान को इज़्ज़त दिलाने की ग़र्ज़ से आँहज़रत के पास ले जाना चाहते थे?

(2) मिस्बाह मुनीर में लफ़्ज़ “रफ़ा” (رفع) के तहत में लिखा है कि :-

“رفعت ازرع الی الیہود” जिसका तर्जुमा सराह, मुंतही अल-अरब व मंतख़ब अल-लुग़ात में ये लिखा है कि, “برداشتم غلہ دور ودہ وبجز من گاہ آور دم” यानी “खेत को काटना और गल्ला उठा कर ख़िरमन गाह (खलियान, अंबार) में ले आया।”

क़ामूस और इसास-उल-बलाग़ा में भी लिखा है :-

(3) सही बुख़ारी और मुस्लिम और मिश्कात बाब-उल-बका-अला अल-मय्यत के (सफ़ा 150) मुजतबाई में आँहज़रत की बेटी ज़ैनब के फ़र्ज़न्द अर्जुमंद के फ़ौत होने की हदीस में ये है कि :-

فرفع الیٰ رسول اللہ الصبیی

“यानी वो लड़का आपके पास उठा कर लाया गया।”

क्या इस मुहावरे को पढ़ कर फिर भी आप रफ़ा (رفع) जिस्मी के क़ाइल ना होंगे?

(4) मजमा-उल-बख़ार जिल्द सानी में लफ़्ज़ रफ़ा (رفع) के नीचे लिखा है कि :-

فرفعہ الےٰ یدہ ای رفعہ الیٰ غلیۃ طول یدہ لیراہ الناس فیفطرون ۔

“यानी आँहज़रत ने पियाले को दस्त मुबारक की लंबाई के बराबर ऊपर को उठाया ताकि लोग उसे देख लें और रोज़ा इफ़तार करें।”

ग़र्ज़ हमें सैंकड़ों बल्कि हज़ारों इस क़िस्म की मिसालें मालूम हैं जिनसे बा-सराहत ज़ाहिर होता है कि जब रफ़ा (رفع) का सिला इला (الیٰ) आता है तो इस क़िस्म के मअनी शैय मज़्कूर को मदखूल इला (مد خول الیٰ) की तरफ़ उठाने के होते हैं।

बहर कैफ़ लुगत में “रफ़ा” (رفع) के हक़ीक़ी और वज़ई मअनी “ऊपर को उठाने के हैं।” पस जहां नहीं का मफ़ऊल माद्दी हो वहां इस से मुराद ऊपर को हरकत करना होगी और अगर इस का मुताल्लिक़ और मामूल कोई ग़ैर-माद्दी शैय हो तो अक्तज़ा-ए-मुक़ाम पर मजमूल होगा चुनान्चे मिस्बाह मुनीर में लिखा है, कि :-

فی الاجسام حقیقۃ فی المحرلۃ والانتقال وفی المعانی علیٰ مایقیضیہ المقام۔

यानी रफ़ा (رفع) का ताल्लुक़ जब अज्साम के साथ होता है तो उस के हक़ीक़ी मअनी हरकत और इंतिक़ाल के होते हैं और जब मअनी के मुताल्लिक़ होता है तो जैसा मौक़ा हो वैसी ही मुराद होती है।

मिस्बाह की इस तश्रीह से साफ़ ज़ाहिर है कि “रफ़ा” (رفع) के हक़ीक़ी मअनी इंतिक़ाल और हरकत के होते हैं और अम्सिला माफ़ौक़ से साबित हो गया है कि रफ़ा (رفع) के हक़ीक़ी व वज़ई मअनी इंतिक़ाल और हरकत के होते हैं और अम्सिला माफ़ौक़ से साबित हो गया कि “रफ़ा” (رفع) का सिला जब “इला” (الیٰ) आए तो इस के मअनी शैय मज़्कूर के मदख़ूल इला (مدخول الیٰ) की तरफ़ मर्फ़ूअ होने के होते हैं पस “ورافعک الی” के मअनी बजुज़ इस के और कुछ नहीं कि हज़रत ईसा ब-जसद अंसरी (जिस्म समेत) आस्मान पर ज़िंदा और मौजूद हैं।

दूसरा नुक्ता

चूँकि हमने इरादा कर लिया है कि इस बह्स का कामिल तौर पर यक़ीनी तजज़िया करें। लिहाज़ा यहां पर एक और नुक्ता लिखते हैं वो ये है कि किनाया (रम्ज़, इशारा) और मजाज़ में ये फ़र्क़ है कि किनायात में असली और हक़ीक़ी मअनी भी मुराद हो सकते हैं और मजाज़ात में नहीं चुनान्चे मुख़्तसर मआनी में जो इस फ़न में एक आला पाये की दर्सी किताब है लिखा है कि :-

الکنایۃ فی اللغتہ مصدر کنیت بکذاعن کذاوکنوت اذا ترکت التصریح بہ وفی الاصطلاح لفظ اوبد بہ لازم معناہ مع جوازادادتہ معہ ای ارادۃ ذلک المعنی مع لاذمہ کلفظ طویل التجاوالمر الدبہ طویل القامۃ مع جواذان یرادحقیقۃطول التجا دایضا تظہر انہا تخالف الجارمع ارادۃطول القامہ مخلاف المجازفانہ لایجوزفیہ ارادۃ المعنی الحقیقی الزوم القرینۃ والمانعۃ عن ارادۃ المعنی الحقیقی ۔

यानी किनाया मुअत्तिल (कमज़ोर, इस्तिलाह इल्म सर्फ में वो फ़ेअल या इस्म जिसमें हर्फ़-ए-इल्लत हो) याई या वादी है और इस के लुगवी मअनी मुबहम (यानी छिपे हुए) बात कहने के हैं, लेकिन इस्तिलाह में इस लफ़्ज़ को कहते हैं जिसके मअनी का लाज़िम मुराद हो और इस के साथ इस लफ़्ज़ के असली मअनी का इरादा भी जायज़ हो। मसलन तवील-उल-तजाद ये एक मुहावरा है जिसके लाज़िमी मअनी “दराज़-क़ामत” के हैं लेकिन इस के साथ इस के हक़ीक़ी मअनी ऐसे परतला वाला मुराद लेना भी जायज़ है पस ज़ाहिर है कि किफ़ाया और मजाज़ में यही फ़र्क़ है कि किनाया में लाज़िमी और हक़ीक़ी दोनों मअनी जमा हो सकते हैं और मजाज़ हक़ीक़ी मअनी के साथ जमा नहीं हो सकता है।

पस “رافعک الیٰ” के मअनी कुनाई (बशर्ते के) ऐसा ही हो भी हमारे लिए मुज़िर नहीं बल्कि मुफ़ीद है, क्योंकि ये दोनों मअनी एक दूसरे के मुनाफ़ी (खिलाफ) नहीं हैं। रफ़ा जिस्मी के साथ मर्तबत का होना एक नबी बरहक़ के लिए नूर है जैसा कि आयत ज़ेल में भी ये दोनों बातें साबित हैं कि “ورفع والدیہ علی العرش” “यानी यूसुफ़ अपने वालदैन को तख़्त पर चढ़ाकर बिठाया।” इस रफ़ा जिस्मी के साथ इज़्ज़त व इकराम भी मल्हूज़ है।

जाहिलों से कुछ बईद नहीं अगर ये कहें कि हम तो इस के मजाज़ी मअनी मुराद लेते हैं लिहाज़ा मुनासिब है कि उनको भी ये बतलाएं कि आयत “ورافعک الیٰ” के मजाज़ी मअनी भी मुराद नहीं हो सकते हैं क्योंकि मजाज़ के लिए ये शर्त है कि हक़ीक़ी मअनी लेने से अगर क़बाहत (ख़राबी) लाज़िम आ जाये या कोई क़रीना (बहमी ताल्लुक़) ऐसा हो कि हक़ीक़ी मअनी लेने से मना करें। चुनान्चे मुख़्तसर मआनी में लिखा है कि :-

’’ المجاز مفرد ومرکب اماالمفرد فہوالکمۃ المستعملہ فی غیر یا وصنعت فی اصطلاح بہ التخاطب علیٰ وجہ یصح مع قرینہ عدم ارادۃ ای ارادۃ الموضوع لہ‘‘

“यानी मजाज़ वो कलमा है जो अपने हक़ीक़ी मअनी में मुस्तअमल ना हो और कोई क़रीना (बहमी ताल्लुक़) भी क़ायम हो जिससे ये बात मालूम हो जाये कि कलमे के हक़ीक़ी मअनी मुराद नहीं हैं।”

चूँकि आयत ज़ेर-ए-बहस में हक़ीक़ी मअनी लेने में ना तो कोई क़बाहत लाज़िम आती है और ना इस में कोई क़रीना (बहमी ताल्लुक़) इस क़िस्म का है जो हक़ीक़ी मअनी के इख़्तियार करने को रोके लिहाज़ा आयत माफ़ौक़ के मजाज़ी मअनी लेना सरासर बातिल है।

इसी अस्ल ज़रीं को मद्द-ए-नज़र रखकर क़ुरआन मजीद ने जहां कहीं लफ़्ज़ “रफ़ा” (رفع) को ब-मअनाए “रिफ़अत मर्तबत” इस्तिमाल किया है, उन कुल मुक़ामात में कोई ना कोई क़रीना (बहमी ताल्लुक़) इस क़िस्म का क़ायम है जिससे साफ़ तौर पर मालूम होता है कि यहां मअनी मौज़ू ला (हक़ीक़ी) मुराद है मसलन :-

وَّ رَفَعۡنٰہُ مَکَانًا عَلِیًّا (सूरह मर्यम आयत 57)

نَرۡفَعُ دَرَجٰتٍ مَّنۡ نَّشَآءُ (सूरह यूसुफ़ आयत 76)

وَ رَفَعَ بَعۡضَکُمۡ فَوۡقَ بَعۡضٍ دَرَجٰتٍ (सूरह अल-अन्आम आयत 165)

رَفَعۡنَا بَعۡضَہُمۡ فَوۡقَ بَعۡضٍ دَرَجٰتٍ (सूरह आयत 32)

इन तमाम आयात में अल्फ़ाज़ “مکاناً علیاودرجات” क़रीने (ढंग, तर्तीब) हैं इस बात के कि लफ़्ज़ “रफ़ा” (رفع) अपने असली मअनी में मुस्तअमल नहीं है।

इमाम राग़िब और इमाम राज़ी पर तोहमत

हमारे मुख़ालिफ़ीन का यह कहना कि यहां रफ़ा (उठाना رفع) से मुराद है जैसा कि मुफ़रिदात इमाम राग़िब और तफ़्सीर कबीर में भी सराहतन मौजूद है। इमाम राग़िब और तफ़्सीर कबीर में भी सराहतन मज़्कूर है। इमाम राग़िब और इमाम फ़ख़्रउद्दीन राज़ी रहमतुल्लाह अलैहुमा पर बोहतान बांधना और सफ़ैद चश्मी की तोहमत लगाना है। किसी अम्र की तहक़ीक़ के लिए क़ाबिल वसूक़ (यक़ीन) अश्ख़ास का सिर्फ नाम ले लेना काफ़ी नहीं हो सकता है तावक़्ते के उनके तहरीरी बयान भी पेश ना किए जाएं चूँकि उनकी किताबें मुख़ालिफ़ीन की नज़र से नहीं गुज़री हैं इसलिए समाई तौर पर उनका नाम लिख दिया जाये। मुख़ालिफ़ीन की ख़ातिर हम उन दोनों की इबारात नक़्ल किए देते हैं :-

(1) इमाम फ़ख़्रउद्दीन राज़ी रहमतुल्लाह अलैह इसी आयत के तहत में लिखते हैं कि :-

وقد ثبت بالہ لیل انہ حی ویں دالخبر عن النبی انہ سینزل ویقتل الدجال ثم انہ تعالیٰ تیوفاہ بعد ذلک

यानी बेशक ये बात दलील से साबित है कि हज़रत ईसा ज़िंदा हैं और इस बारे में रसूले अरबी से हदीस भी आ चुकी है कि आप उतरेंगे और दज्जाल को क़त्ल करेंगे और फिर इस के बाद अल्लाह तआला आपको वफ़ात देगा। (तफ़्सीर कबीर जिल्द दोम) (माहनामा उखुव्वत अप्रैल 1946 ई॰)

مشبہ لہم की इस्लामी तावील

मज़्कूर बाला अल्फ़ाज़ “ماقتلوہ وماصلبوہ” की दो तावीलें (जो सुतूर बाला में लिखी गई हैं) हम मह्ज़ क़ुरआन व इस्लाम पेश कर रहे हैं ताकि क़ुरआन मजीद पर इस मुआमले में हर्फ़ आने ना पाए और अहले-इस्लाम के उलमा को इस मख़मसा से निकलने की कोई राह सूझे जाये ग़ौर है कि इन्जील मत्ती के बयान से साफ़ ज़ाहिर है कि यहूदाह ग़द्दार जुमे की सुबह को यहूद की सदर अदालत के फ़ैसले के एन बाद ख़ुद फांसी लेकर मर चुका था। (मत्ती 27:1-10)

दरीं हाल वो मर्दूद आँख़ुदावंद की शबाहत में सदर अदालत के सामने फ़ैसले से पहले दौराने मुक़द्दमे में किस तरह हाज़िर किया जा सकता था? सरदार काहिन अल-मसीह और यहूदा ग़द्दार दोनों से बख़ूबी वाक़िफ़ थे क्योंकि वो आपको क़त्ल करवाने पर तुले हुए थे। (यूहन्ना 11:48-52) और यहूदा से सौदे-बाज़ी कर चुके थे। पस वो और सदर अदालत के दीगर शुरका किस तरह धोका खा सकते थे? इलावा अज़ीं सदर अदालत के “सरदारोँ में से भी बहुतेरे आँख़ुदावंद पर ईमान ला चुके थे मगर ख़ौफ़ के मारे एलानिया इक़रार ना करते थे।” (12:42, 3:1, 7:13 वग़ैरह) वो किस तरह धोका खा गए। अरमिता का “सरदार” मुशीर यूसुफ़ जिसने पिलातूस से मस्लूब की लाश मांगी और उस को क़ब्र में रखा। (लूक़ा 23:5-53) किस तरह धोका खा सकता था? और लोगों की बड़ी भीड़ और बहुत सी औरतें जो ख़ुदावंद के वास्ते रोती पीटती आप के पीछे चलीं।” (लूक़ा 23:27) ये सब किस तरह धोका खा गए? उम्मुल मोमनीन हज़रत बीबी मर्यम जिन का करातुल-ऐन قراۃ العین (जिससे आँखों को ठंडक पहुंचे, नूर चश्म, बेटा) मस्लूब हुआ और आपके दवाज़दा (बारह 12) रसूल और हज़ारों मुत्तबईन जो ईद के लिए आए थे और इस वाक़िये हाइला (हाइल की जमा, होलनाक) के चश्मदीद गवाह थे वो किस तरह धोका खा सकते थे। “क्योंकि ये माजरा कहीं कोने में तो हुआ नहीं था।” (आमाल 26:26) बल्कि दिन-दहाड़े दोपहर के वक़्त उनके सामने हुआ था जो ज़ियारत और ईद की ख़ातिर अर्ज़-ए-मुक़द्दस के कोने कोने से आए थे। जिनके अंधे बहरों, लंगड़ों, कोढ़ीयों मफ़लूजों, लुंजों, गूंगों, मर्दों औरतों और बच्चों को आपने अपने मसीहाई दम से शिफ़ा बख़्शी थी, जिनके मुर्दों को आपने ज़िंदा किया था और जो तीन सालों तक आपका पयाम सुनते और मोअजज़ात बय्यिनात देखकर हैरत-ज़दा होते रहे थे और पा पैदल कश्तीयों पर सफ़र करके आपके दीदार की ख़ातिर दौड़ते आते थे। (मर्क़ुस 6:34) क्या ये हज़ारों अश्ख़ास सब के सब धोका खा गए? क़ुरआनी अल्फ़ाज़ “شبہ لہم” की तावील सरीहन बातिल है जिस पर आक़िल क़ुरआनी अल्फ़ाज़ “مالھم بہ من علم الا اتباع الظن” का इतलाक़ करके इस नज़रिये को रद्द करेगा।

(2) क्या ये बात किसी सलीम-उल-अक़्ल (अक़्ल रखने वाला, दाना) शख़्स के क़ुबूल करने के लिए पेश की जा सकती है कि एक तरफ़ तो क़ुरआन मजीद दिल खोल कर बार-बार इन्जील जलील की तस्दीक़ करे और उस को (हुदल्लिनास ھدی الناس) क़रार दे और दूसरी तरफ़ एक ऐसे वाक़िये का इन्कार कर दे जो इस किताब के हर सहीफ़े का मर्कज़ है? मज़ीदबराँ क़ुरआन इस सलीबी वाक़िये का ज़िक्र तीन मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में और मुख़्तलिफ़ सियाक़ व सबाक में इस्बात में करे। अगर क़ुरआनी तस्दीक़ और क़ुरआनी आयात (जिन का गुज़श्ता सफ़हात में ज़िक्र किया गया है) सही हैं तो जो नज़रिया उनके ख़िलाफ़ होगा वो उनकी तक़्ज़ीब (झूट बोलने का इल्ज़ाम लगाना) करेगा। लिहाज़ा वो ग़लत और बातिल तसव्वुर होगा क्योंकि इस क़िस्म के दर नक़ीज़ (उलट, मुख़ालिफ़) दावे जमा नहीं हो सकते और ना अज़-रूए मन्तिक़ मुहाल अम्र है।

इस आयत की निस्बत इमाम राज़ी चंद मुश्किलात का ज़िक्र करता है और लिखता है कि :-

“मुश्किल ये है कि दरां-हाल ये कि ख़ुदा तआला हज़रत ईसा को आपके दुश्मनों के हाथ से ख़लासी देने पर क़ादिर था और आपको आस्मान की तरफ़ उठा सकता था फिर आपकी सूरत ग़ैर पर डालने से क्या फ़ायदा हुआ? क्या एक ग़रीब मज़्लूम बे-गुनाह आदमी की शक्ल बदल कर उस को क़त्ल के लिए बग़ैर किसी फ़ायदे के हवाले करना इन्साफ़ से बईद नहीं है? एक और मुश्किल ये है कि हज़रत ईसा की सूरत मुहैय्यर बदल गई और इस के बाद आपको आस्मान पर उठाया गया और क़ौम ने ये यक़ीन कर लिया कि वो ईसा था जो मारा गया, हालाँकि वो ईसा ना था। ये गोया ख़ल्क़त को जहालत और फ़रेब में डालना है, जो ख़ुदा की शान के लायक़ नहीं। इलावा अज़ीं नसारा कस्रत से मशरिक़ से लेकर मग़रिब तक बावजूद ये कि वो मसीह ईसा अलैहिस्सलाम से सख़्त मुहब्बत रखते और आपकी शान में सख़्त मुबालग़ा करते हैं, फिर भी वो इस बात का ऐलान करते हैं कि वो आपके मक़्तूल व मसलूब होने के गवाह हैं। पस अगर हम इस से इन्कार करें तो ये गोया ऐसी बात का जो तवात्तुर (कस्रत) के साथ पाया सबूत को पहुंच चुकी है, इन्कार करना होगा और तवातिर से इन्कार करना नबुव्वत मुहम्मद, मौत ईसा, बल्कि इन दोनों के वजूद और तमाम अम्बिया अलैहि सलातो वस्सलाम के वजूद से एहतिमालात पैदा करते हैं। लेकिन इस क़िस्म के एहतिमाल पैदा करने वाले सवाल जो नसे क़ातेअ के मुख़ालिफ़ हों, मना हैं और ख़ुदा हिदायत को दोस्त रखने वाला है।”

(राज़ी जिल्द दोम सफ़ा 690 ता 692)

नाज़रीन ! देखा आपने, मुलहम रसूलों के चश्मदीद वाक़िये का इन्कार और क़ुरआन मजीद की सरीह नस का इन्कार किस तरह एक मुस्तनद मुफ़स्सिर को एक मुश्किल से निकालने की बजाय मुश्किलात में इज़ाफ़ा कर देता है और मज्बूर हो कर शकूक को रफ़ा करने के बजाय ख़ुदा की आड़ है।

خشت اول چوں نہد معمار کج

تاثر یامی ردد دیوار کج

इब्ने-अल्लाह की सलीबी मौत का मक़्सद

हम सुतूर बाला में लिख चुके हैं कि ख़ुदावंद मसीह की पैदाइश की बशारत देते वक़्त ख़ुदा के फ़रिश्ते ने बतलाया था कि आँजनाब की आमद का असली मक़्सद दुनिया के गुनेहगारों को उनके गुनाहों की गु़लामी से आज़ाद करना है। चुनान्चे मुक़द्दस यूहन्ना इन्जील नवीस जो साहिबे इल्हाम थे लिखते हैं कि “ख़ुदा ने दुनिया से ऐसी मुहब्बत रखी कि उसने अपना इब्ने वहीद दुनिया में भेजा ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए वो तबाह व बर्बाद ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (यूहन्ना 3:16) कलिमतुल्लाह (मसीह) तमाम ज़िंदगी-भर ख़ुदा की लाज़वाल मुहब्बत को अपनी गुफ़तार और किरदार से गुनेहगारों पर ज़ाहिर करते रहे और फ़ानी ज़िंदगी के तमाम होने के बाद आख़िर में अपनी सलीबी मौत से आपने ख़ुदा की मुहब्बत के जलाल के अनवार (नूर की जमा) ज़िया पाशों (रोशनी फैलाने वाला) इस गुनाह भरी दुनिया के तारीक-तरीन मुक़ामों को रोशन कर दिया। सलीब ने साबित कर दिया कि ख़ुदा बनी-आदम से अज़ली और अबदी प्यार करता है औलाद-ए-आदम में कलिमतुल्लाह (मसीह) (और फ़क़त कलिमतुल्लाह) एक वाहिद इन्सान है जिसने अपनी मौत से नूअ इन्सानी को ख़ुदा की मुहब्बत और गुनाहों की मग़्फिरत का ना सिर्फ यक़ीन दिलाया बल्कि उनको नई पैदाइश की बशारत देकर अज़ सर-ए-नौ ख़ुदा के फ़र्ज़न्द बना दिया ये एक वाज़ेह हक़ीक़त है कि मुहब्बत का जोहर ईसार और क़ुर्बानी है। मुनज्जी आलमीन (मसीह) के बे-अदील ईसार और बेनज़ीर क़ुर्बानी ने ये हक़ीक़त अज़हर-मिन-श्शम्स कर दी है कि ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है जिसका कामिल और अकमल ज़हूर उस के मज़हर इब्ने वहीद की तालीम, ज़िंदगी, किरदार और सबसे ज़्यादा सलीबी मौत पर हुआ।

दाद देते हैं ज़र्फ़ की उस के

जिसने दुश्मन गले लगाया है

(बख़्त)

कलिमतुल्लाह (मसीह) की सलीब ने दुनिया को दार दरसन का फ़ल्सफ़ा सिखा दिया है। गुज़श्ता पचास साल में हमारे मुल्क के हम वतनों ने ख़ुदावंद मसीह की तक़्लीद करके कुल दुनिया के ममालिक व अक़्वाम पर यह रोशन कर दिया है कि :-

जोभी ज़ेब सलीब व दार हुए

दोनों आलम के शाहकार हुए

(रिफ़अत सुल्तान)

इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने सलीब पर से आलिम व आलमियान को ख़ुदा की मुहब्बत व ईसार का ऐसा सबक़ सिखाया है जो गुनेहगार इन्सान कभी फ़रामोश नहीं कर सकता।

मर्यम की आबरू का यूं जागा है अब नसीब

हर दाग़ दिल चिराग़, तो हर शाख़ गुल सलीब

(बख़्त)

कलिमतुल्लाह (मसीह) से पहले किसी माँ जाये ने ना ये सबक़ सीखा और ना किसी को सिखाया। इसी वास्ते उनकी याद तक महव हो गई। ना उनकी याद तक महव होगी ना उनके नाम ज़िंदा रहे और ना उनके मज़ाहिब और ना उनके पैरौ।

از ہستی باز بروے زمیں تک نشاں نماید

सच्च है,

बुझे चिराग़ पे आते नहीं हैं परवाने

ये फ़ज़ीलत ख़ुदावंद मसीह और सिर्फ ख़ुदावंद मसीह ही को हासिल है।

बन गए जब चिराग़-ए-महफ़िल हम

इक जहान को मिली ज़िया हमसे

(बख़्त)

कलिमतुल्लाह (मसीह) ने ना सिर्फ अपनी ज़िंदगी से ख़ुदा की मुहब्बत लोगों पर ज़ाहिर की बल्कि आपने अपनी सलीबी मौत से तमाम दुनिया पर ज़ाहिर कर दिया कि बनी-आदम से अज़ली और अबदी मुहब्बत रखता है। मज़ाहिब आलम में से किसी मज़्हब के बानी ने अपनी मौत से ख़ुदा की मुहब्बत रखता है। मज़ाहिब आलम में से किसी मज़्हब के बानी ने अपनी मौत से ख़ुदा की मुहब्बत का जलाल ज़ाहिर ना किया। बनी-आदम में से सिर्फ इब्ने-अल्लाह (मसीह) की शख़्सियत ही एक ऐसी वाहिद शख़्सियत है जिसने अपनी मौत से बनी नूअ इन्सान को ख़ुदा की मुहब्बत और मग़्फिरत का यक़ीन दिलाया ये एक वाज़ेह हक़ीक़त है कि मुहब्बत का जोहर ईसार और क़ुर्बानी है और ख़ुदावंद मसीह के बे अदील ईसार और बेनज़ीर क़ुर्बानी ने ये हक़ीक़त अज़हर-मिन-श्शम्स कर दी है कि ख़ुदा मुहब्बत है जिसका वो ख़ुद मज़हर है। इंशा-अल्लाह हम बाब चहारुम में इस मौज़ू पर मुफ़स्सिल बह्स करेंगे।

इब्ने-अल्लाह की ज़फ़रयाब क़ियामत

इन्जील जलील और क़ुरआन मजीद दोनों सहफ़ समावी इस हक़ीक़त पर इत्तिफ़ाक़ हैं कि ख़ुदावंद मसीह अपनी मौत के बाद और क़ब्र पर फ़त्ह पाकर फिर ख़ुदा की क़ुद्रत से ज़िंदा हो गए। हर चहार अनाजिल में वाक़िया क़ियामत मसीह को मुफ़स्सिल तौर पर लिखा गया है। (मत्ती 27:62, 28:15, मर्क़ुस 16 बाब, लूक़ा 24 बाब, यूहन्ना 20-21 बाब) इंजीली बयानात की तफ़्सील से हर रोशन दिमाग़ शख़्स पर अयाँ हो जाता है कि वो अफ़साने नहीं बल्कि तारीख़ी बयानात की तफ्सीलात हैं। इन्जील जलील के दीगर मुक़ामात में इस अहम तरीन तारीख़ी वाक़िये के सबूत दिए गए हैं। चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस रसूल कुरिन्थियों के पहले ख़त के पंद्रहवीं तवील बाब में आँख़ुदावंद की क़ियामत चश्मदीद शहादत और दीगर दलाईल पेश करते हैं। ख़ुद कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़बान हक़ीक़त तर्जुमान पर इस वाक़िये का बार-बार ज़िक्र आता है, मसलन लिखा है कि जब आप आख़िरी बार यरूशलेम को जा रहे थे तो आपने अपने रसूलों को जो आपके हमराह थे फ़रमाया “हम यरूशलेम को जाते हैं, वहां इब्ने आदम सरदार काहिनों और फ़क़ीहियों के हवाले किया जाएगा और वो उस के क़त्ल का हुक्म देंगे और उसे रोमीयों के हवाले करेंगे। जो उस को ठट्ठों में उडाएंगे, उस पर थूकेंगे और उस को कोड़े मारेंगे और क़त्ल करेंगे पर वो तीसरे रोज़ मुर्दों में जी उठेगा। लेकिन वो इस बात को ना समझे और उस से पूछते हुए डरते थे। (मर्क़ुस 10:33-34, 9:31-32 वग़ैरह)

क़ुरआन मजीद में कलिमतुल्लाह (मसीह) की क़ियामत का वाक़िया सिर्फ़ मुजम्मलन वारिद हुआ है चुनान्चे एक आयत में है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया, “والسلام علی یوم ولدت ویوم اموت ویوم ابعث حیا” यानी “मुझ पर सलामती है जिस दिन में पैदा हुआ।”

जिस दिन मैं मरूँगा और

हर चहार अनाजील क़ियामत मसीह के वाक़िये को मुफ़स्सिल तौर पर लिखती हैं। (मत्ती 27:62, 28:15, मर्क़ुस 16 बाब, लूक़ा 24 बाब, यूहन्ना 20-21 बाब) इन बयानात की तफ़्सील हर आक़िल शख़्स पर यह हक़ीक़त रोशन कर देती है कि ये बयानात अफ़साने नहीं बल्कि तारीख़ी बयानात हैं। जिस दिन मैं फिर जी कर उठ खड़ा हूँगा। (सूरह मर्यम आयत 34) क़ुरआन में एक और आयत है जो निहायत माअनी-ख़ेज़ है :-

وَ اِنَّہٗ لَعِلۡمٌ لِّلسَّاعَۃِ فَلَا تَمۡتَرُنَّ (सूरह अल-ज़ुख़रफ़ आयत 61)

“यानी ईसा तो क़ियामत की निशानी है, पस तुम मुर्दों की क़ियामत के बारे में कोई शक ना करो।”

इस आया शरीफा का मतलब ज़ाहिर है कि चूँकि ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त और अम्र वाक़िया हो गुज़रा है कि हज़रत ईसा मुर्दों में से जी उठा है और उसने मौत और क़ब्र के बंदों को तोड़ दिया है। पस वो क़ियामत की निशानी है और चूँकि उस का मुर्दों में से जी उठना यक़ीनी और बरहक़ है पस मुर्दों की क़ियामत भी बरहक़ अम्र है। तुम इस मुआमले में किसी क़िस्म का शक व शुब्हा दिल में ना लाओ।

इस क़ुरआनी आया की मुफ़स्सिल तफ़्सीर इन्जील जलील में मौजूद है, चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस रसूल जो साहिबे वही व इल्हाम थे, शहर कुरिन्थुस की कलीसिया को लिखते हैं, “मैंने सबसे पहले तुमको वही बात पहुंचा दी जो मुझे मिली थी कि मसीह किताबे मुक़द्दस के मुताबिक़ हमारे गुनाहों के लिए मुआ (मरा) और दफ़न हुआ, और तीसरे रोज़ किताबे मुक़द्दस के मुताबिक़ जी उठा और पतरस को और उस के बाद बारह (12) रसूलों को दिखाई दिया। फिर पाँच सौ (500) से ज़्यादा ईमानदारों को दिखाई दिया जिनमें से अक्सर अब भी ज़िंदा मौजूद हैं फिर सबसे पीछे मुझ को दिखाई दिया।....पस जब मसीह की ये मुनादी की जाती है कि वो मुर्दों में से जी उठा तो तुम में से बाअज़ किस तरह कहते हैं कि मुर्दों की क़ियामत है ही नहीं।

وَ اِنَّہٗ لَعِلۡمٌ لِّلسَّاعَۃِ فَلَا تَمۡتَرُنَّ بِہَا (सूरह अल-ज़ुख़रफ़ आयत 61)

अगर मुर्दों की क़ियामत नहीं तो मसीह भी नहीं जी उठा और अगर मसीह नहीं जी उठा तो तुम्हारा ईमान बेफ़ाइदा है और तुम अब तक अपने गुनाहों में गिरफ़्तार हो। लेकिन मसीह फ़िल-वाक़ेअ मुर्दों में से जी उठा और जो मर गए हैं उन सब में वो पहला है जो जी उठा है। जैसे आदम में सब मरते हैं वैसे ही मसीह में सब ज़िंदा किए जाऐंगे लेकिन हर एक अपनी-अपनी बारी से, पहला फल मसीह है। फिर मसीह के आने में उस के ईमानदार, इस के बाद आख़िरत है। उस वक़्त वो तमाम हुकूमत और सारा इख़्तियार और सब क़ुद्रत नेस्त करके बादशाही को ख़ुदा बाप के हवाले कर देगा, जब सब कुछ उस के ताबे हो जाएगा, तो इब्ने-अल्लाह (मसीह) ख़ुद बाप के ताबे हो जाएगा, जिसने सब चीज़ें अपने इब्न (मसीह) के ताबे कर दीं, ताकि सब में ख़ुदा ही सब कुछ हो।” (1 कुरन्थियों 15 बाब)

अब नाज़रीन पर इंजीली बयानात की रोशनी में क़ुरआनी आया (सूरत मर्यम आयत 34) का सही मफ़्हूम भी ज़ाहिर हो गया होगा। कलिमतुल्लाह (मसीह) की पैदाइश सलीबी मौत और ज़फ़रयाब क़ियामत फ़र्दन-फ़र्दन और मजमूई तौर पर कलिमतुल्लाह (मसीह) के लिए और बनी नूअ इन्सान के लिए सलामती के दिन थे जब कलिमतुल्लाह (मसीह) पैदा हुए तो गुनेहगार दुनिया के लिए सलामती और नजात का सामान हो गया। जब तक कलिमतुल्लाह (मसीह) ज़िंदा रहे आप गुनेहगारों को ख़ुदा की मग़्फिरत और अबदी मुहब्बत का जान फ़िज़ा और सलामती बख़्श पैग़ाम देते रहे। जब रूमी हुकूमत ने आपको मस्लूब किया तो आपने सलीब पर से आख़िरी दम पुकार कर फ़रमाया कि सलामती और नजात का काम, मैंने तमाम का तमाम पूरा कर दिया। (यूहन्ना 19:30) जब आप मुर्दों में से ज़िंदा हो कर जी उठे तो आपने दुनिया जहां के गुनेहगारों को सलामती और नजात अता फ़रमाई। और तब से लेकर आज तक जो गुनाह में गिरफ़्तार हैं उन सबको वो सलामती और आराम जान बख्शता है।

क़ियामत मसीह बेनज़ीर और लासानी वाक़िया

नस्ल इन्सानी की इब्तिदा से दौरे हाज़रा तक और अब से लेकर अबद तक कोई फ़रज़ंद-ए-आदम एक दफ़ाअ मर के दुबारा मुर्दों में से सिवाए कलिमतुल्लाह (मसीह) के नहीं जी उठा। अबूल-बशर आदम से लेकर अब तक किसी फ़र्द बशर ने कभी मौत और क़ब्र पर फ़त्ह नहीं पाई। इस क़ायदा कुल्लिया से तब्क़ा अम्बिया भी मुस्तसना (छूटे हुए) नहीं है। अगर बनी नूअ इन्सान में कोई फ़र्द मुस्तसना हुआ है तो इन्जील व क़ुरआन की मुत्तफ़िक़ा शहादत के मुताबिक़ कलिमतुल्लाह (मसीह) और सिर्फ कलिमतुल्लाह (मसीह) की वाहिद हस्ती ही मुस्तसना (छूटे हुए) है। ये हक़ीक़त गौर व तदब्बुर के क़ौल है।

किताबे मुक़द्दस और क़ुरआन मजीद दोनों सहफ़ समावी कुल कायनात और औलाद-ए-आदम को फ़ानी बतलाते हैं। किताबे मुक़द्दस और इन्जील जलील के हर सहीफ़े में इस हक़ीक़त का सरीहन अर्शातन ज़िक्र पाया जाता है। क़ुरआन शरीफ़ में भी वारिद है, کُلُّ نَفۡسٍ ذَآئِقَۃُ الۡمَوۡتِ (सूरह आले-इमरान 185)

“यानी ज़रूर है कि हर शख़्स एक दिन मौत का मज़ा चखे।”

लेकिन एक दूसरी आयत के मुताबिक़ इस क़ायदा कुल्लिया से ख़ुदा की ज़ात को मुस्तसना (अलग) कर दिया गया है क्योंकि सिर्फ उसी वाजिब-उल-वजूद को बक़ा हासिल है और उस का वजूद बक़ा का अस्ल है। चुनान्चे लिखा है, کُلُّ شَیۡءٍ ہَالِکٌ اِلَّا وَجۡہَہٗ (सूरह क़िसस आयत 88)

“यानी ख़ुदा की ज़ात के सिवा सब फ़ानी हैं।”

जब हम इन आयात का मुक़ाबला उन इंजीली मुक़ामात से करते हैं जिनमें वफ़ात और क़ियामत मसीह के बयानात लिखे हैं और क़ुरआनी आया والسلام علی یوم ولدت وبوم اموت ویوم ابعث حیا से भी गिरते हैं तो इंजीली बयानात की रोशनी में सुतूर बाला की हर सिहा आयात के सही मआनी और असली सही मुतालिब हम पर रोशन करते हैं। चुनान्चे आयत सानी में आया है कि तमाम बनी नूअ इन्सान के हिस्से में फ़ना है और कि बक़ा सिर्फ़ ख़ुदा की ज़ात को ही हासिल है। चूँकि बर्दे हर दो कुतुब समावी बक़ा सिर्फ़ ख़ुदा की ज़ात को हासिल है और दोनों कुतुब के मुताबिक़ इब्ने-अल्लाह (मसीह) को बक़ा हासिल है। पस इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने मौत और फ़ना को फ़ना करके साबित कर दिया कि फ़क़त आप ही इब्ने-अल्लाह (अल्लाह के फ़र्ज़न्द) हैं और आपकी ज़ात-ए-पाक ख़ुदा की ज़ात में से है, क्योंकि बक़ा सिर्फ़ आपको ही हासिल है। (2 कुरन्थियो 13:4) चुनान्चे इन्जील में वारिद हुआ है कि “हमारे जनाबे मसीह ने मुर्दों में से जी उठकर कुल आलम पर बग़ैर किसी शक व शुब्हा के इस हक़ीक़त को साबित कर दिया कि इब्ने-अल्लाह हैं।” (रोमीयों 1:4, इफ़िसियों 1:19-22) क़ुरआनी इस्तिलाह में रूह-उल्लाह के ابعث حیا ने तमाम आलम व आलमियान पर इस हक़ीक़त को आफ़्ताब आलम-ए-ताब की तरह रोशन कर दिया कि कलिमा-मिन्हु और रूहुम्मिन्हु इसी एक हक़ीक़त हस्ती के जोहर हैं और ज़ात से सादिर है जो बक़ा का सर चशमा और मम्बा है। वो अज़ल से ख़ुदा का कलमा और ख़ुदा का रूह है क्योंकि वो अज़ल से ख़ुदा के साथ है और अबद तक ख़ुदा के साथ रहेगा। इसी नुक्ते को अदा करने के लिए क़ुरआन व इन्जील में मसीह की पैदाइश, वफ़ात और क़ियामत के वाक़ियात को मज़्कूर बाला आयत में यकजा कर दिया गया है। (सूरह मर्यम आयत 34) और हर एक वाक़िये के मआनी व मतालिब के साथ मुंसलिक और पैवस्ता कर दिया गया है।

इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़फ़रयाब क़ियामत आपको तमाम मख़्लूक़ात से मुराद सबसे आला बाला और अफ़्ज़ल साबित कर देती है। (कुलस्सियों 1:18) पस आप और दीगर अम्बिया-ए-उज़्ज़ाम (अज़ीम की जमा, बुज़ुर्ग) एक ही क़तार में शुमार नहीं हो सकते।

یقیں ہر چند می گوئد گماں ہر چند پوید

نہ محصور یقیں استی نہ مغلوب کمانستی

बनी नूअ इन्सान में फ़क़त इब्ने-अल्लाह एक ऐसी वाहिद हस्ती हैं जो ज़िंदा जावेद हैं। इस सिलसिले में एक और क़ुरआनी आयत क़ाबिल-ए-ग़ौर है क्योंकि ख़ुद क़ुरआन इस आयत के नुक्ते पर ग़ौर करने के लिए हुक्म देता है। وَ مَا یَسۡتَوِی الۡاَحۡیَآءُ وَ لَا الۡاَمۡوَاتُ (सूरह फातिर आयत 22)

“यानी ज़िंदे और मुर्दे बराबर नहीं हो सकते।”

इन्जील जलील व क़ुरआन दोनों के रु से कलिमतुल्लाह (मसीह) दीगर मुर्दा इन्सानों की तरह अब मुर्दा नहीं बल्कि ज़िंदा जावेद हैं। ज़िंदगी और बक़ा सिर्फ़ कलिमतुल्लाह (अल्लाह का कलमा मसीह) व रूह-उल्लाह (अल्लाह की रूह मसीह) की है क्योंकि उस का ताल्लुक़ अल्लाह की ज़ात से है। इसी वास्ते वो मौत और गुनाह पर ग़ालिब आकर फ़ातेह हुए। जिस तरह ज़िंदा मुर्दा से अफ़्ज़ल है उसी निस्बत से इब्ने-अल्लाह (मसीह) कुल बनी नूअ इन्सान से अफ़्ज़ल है। आपके सिवा तमाम कायनात में कोई दूसरी हस्ती है ही नहीं जिसको ख़ुदा ए अल-हय्युल-क़य्यूम ने ख़ुद अपनी इलाही (* अव्वल व आखिर अज़्ली सिफत अता की और) इब्ने-अल्लाह ही अबद-उल-आबाद ज़िंदा है। (मुकाशफ़ा 4:9, 5:14, 10:6, 15:7 वग़ैरह) वही है जो “ये कह कर अपना दहना हाथ हर गुनेहगार मर्द और औरत पर रखकर कहता है कि ख़ौफ़ ना कर मैं आख़िर हूँ।” (ھو الاول والاخر) “फ़क़त मैं ज़िंदा हूँ। मैं मर गया था और देख अबद-उल-आबाद ज़िंदा रहूँगा, मौत और आलम-ए-अर्वाह की कुंजियाँ मेरे पास हैं।” (मुकाशफ़ात 1:18)

पस सिर्फ वही एक वाहिद शख़्स है जो ये कह सकता है कि “क़ियामत और ज़िंदगी मैं हूँ। जो मुझ पर ईमान लाता है गो वोह मर जाये तो भी ज़िंदा रहेगा और जो कोई ज़िंदा है और मुझ पर ईमान लाता है वो अबद तक कभी ना मरेगा।” (यूहन्ना 11:25) चूँकि इब्ने-अल्लाह (मसीह) फ़ातेह और ज़िंदा है पस “बाप की मर्ज़ी ये है कि जो कोई बेटे को देखे और उस पर ईमान लाए वो हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (यूहन्ना 6:39) क्योंकि उसने मौत को नेस्त कर दिया है और इन्जील के वसीले ज़िंदगी और बका को रोशन कर दिया है। (2 तिमुथियुस 1:10)

इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने ना सिर्फ मौत और क़ब्र पर फ़त्ह हासिल की बल्कि उस की ज़िंदा शख़्सियत नूअ इन्सानी की “अबद तक” रफ़ीक़ और मूनिस है। (यूहन्ना 14:16-19) वो हम में हमेशा क़ायम रहता है। (1 यूहन्ना 2:27, यूहन्ना 17:21) जिस तरह अंगूर की डाली दरख़्त में क़ायम रहती हैं, (यूहन्ना 15 बाब) या जिस तरह बदन के आज़ा बदन में क़ायम रहते हैं और तक़वियत हासिल करते हैं। (रोमीयों 12:5, 1 कुरिन्थियों 12:12, इफ़िसियों 5:30) मसीह के साथ मोमिनीन का ताल्लुक़ भी इस क़िस्म का हो जाता है कि ईमानदार कह सकता है कि “मैं जो जिस्म में ज़िंदगी गुज़ारता हूँ तो ख़ुदा के बेटे पर ईमान लाने से गुज़ारता हूँ जिसने मुझसे मुहब्बत रखी पस अब मैं ज़िंदा ना रहा बल्कि मसीह मुझमें ज़िंदगी है।” (ग़लतीयों 2:20, अय्यूब 3:6, 4:13, 5:12 वग़ैरह)

من تو شدم تومن شدی من جاں شدم توتن شدی

تاکہ کس نگوید بعد ازیں من دیگرتودیگری

इस क़िस्म का रिश्ता और ताल्लुक़ किसी दूसरे मज़्हब का हादी या नबी अपने पैरौओं (मानने वालों) के साथ नहीं रख सकता क्योंकि वो ख़ुद मर गया है और रोज़-ए-हश्र दीगर इन्सानों की तरह अपने आमाल का हिसाब देगा। लेकिन ख़ुदावंद मसीह ज़िंदा और फ़ातेह है जो क़ियामत के रोज़ दुनिया की अदालत करेगा। (मत्ती 25:31 ता आख़िर)

मज़्कूर बाला वजूह (वजह की जमा, दलाईल) के सबब मसीहिय्यत अपने बानी को ख़ुदा का मज़हर मानती है और दुनिया के किसी नबी को भी ख़्वाह वो कैसा ही अज़ीमुश्शान हो उस का हम-सर नहीं गर्दानती इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ख़ुसूसियात ऐसी हैं जो रू-ए-ज़मीं के किसी दूसरे मज़्हब के बानी हादी या मुसलेह (मुजद्दिद) में मौजूद नहीं। पस मसीहिय्यत का ये ईमान है कि जिस तरह ख़ुदा का कोई हम-सर नहीं उसी तरह ख़ुदा के बेटे का भी कोई हम-सर नहीं।

آں کس است اہل بشارت کہ اشارت داند

نکتہ ہاہست بسے محرم اسرار کجاست ؟

मसीह मुर्दों को ज़िंदा करने वाला है

इन्जील जलील और क़ुरआन मजीद दोनों इस हक़ीक़त को निहायत साफ़ और वाज़ेह अल्फ़ाज़ में बयान करते हैं कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) मुर्दों को ज़िंदा किया करते थे। गो इन्जील में बतफ्सील मुख़्तलिफ़ मुर्दों को ज़िंदा करने का बयान है और क़ुरआन में मुजम्मल तौर पर ये बयान मौजूद है। लेकिन दोनों इल्हामी किताबें इस हक़ीक़त-उल-अम्र की शहादत देती हैं कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) मुर्दों को ज़िंदा करते थे। चुनान्चे हर चहार अनाजील में मुर्दों के ज़िंदा करने के मुतअद्दिद वाक़ियात तफ़्सील के साथ दर्ज हैं। (यूहन्ना 11 बाब, मत्ती 9:18-26, मर्क़ुस 5:21-48, लूक़ा 7:11-17 वग़ैरह) क़ुरआन में भी आया है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अहले-यहूद को मुख़ातब करके फ़रमाया :-

اَنِّیۡ قَدۡ جِئۡتُکُمۡ بِاٰیَۃٍ مِّنۡ رَّبِّکُمۡ ۙ اَنِّیۡۤ اَخۡلُقُ لَکُمۡ مِّنَ الطِّیۡنِ کَہَیۡـَٔۃِ الطَّیۡرِ فَاَنۡفُخُ فِیۡہِ فَیَکُوۡنُ طَیۡرًۢا بِاِذۡنِ اللّٰہِ ۚ وَ اُبۡرِیُٔ الۡاَکۡمَہَ وَ الۡاَبۡرَصَ وَ اُحۡیِ الۡمَوۡتٰی بِاِذۡنِ اللّٰہِ

“यानी मैं तुम्हारे पास तुम्हारे रब से एक निशान लेकर आया हूँ। मैं मिट्टी से तुम्हारे लिए परिंदे की सूरत पैदा करके उस में दम फूँकता हूँ तो वो ख़ुदा के इज़्न (हुक्म) से उड़ने लग जाता है। मैं मुर्दों को ज़िंदा करता हूँ।” (आले-इमरान आयत 49)

इन्जील में भी मुख़्तसरन वारिद हुआ है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ने हज़रत यूहन्ना इस्तिबाग़ी के पयाम्बर यहूदीयों से फ़रमाया, “जो कुछ तुम सुनते हो और देखते हो, जाकर यूहन्ना से बयान कर दो कि अंधे देखते और लंगड़े चलते-फिरते हैं। कौड़ी पाक साफ़ किए जाते हैं, बहरे सुनते हैं और मुर्दे ज़िंदा किए जाते हैं। ग़रीबों को ख़ुशी की ख़बर सुनाई जा रही है। मुबारक हैं वो जो मेरे बारे में ठोकर ना खाए।” (मत्ती 11:4-6)

हम सुतूर बाला में बता आए कि क़ुरआन में आया है, “وَاِنَّہٗ لَعِلۡمٌ لِّلسَّاعَۃِ فَلَا تَمۡتَرُنَّ” (सूरह अल-ज़ुख़रफ़ आयत 61) यानी ईसा तो क़ियामत की निशानी है। पस तुम मर्दों की क़ियामत के बारे में कोई शक ना करो। क़ुरआन फ़रमाता है, “وَ ہُوَ الَّذِیۡ یُحۡیٖ وَ یُمِیۡتُ” (सूरह मोमिनों आयत 80) यानी सिर्फ़ ख़ुदा ही ज़िंदा करता है और मारता है।

लेकिन फ़ित्रत के इस क़ायदा कुल्लिया से अल्लाह जल्ले शाना ने कलिमतुल्लाह (मसीह) को मुस्तसना (अलग) कर दिया है, “وَ اُحۡیِ الۡمَوۡتٰی بِاِذۡنِ اللّٰہِ” बअल्फ़ाज़ क़ुरआन और “मुर्दे ज़िंदा किए जाते हैं।” बअल्फ़ाज़ इन्जील जिससे ज़ाहिर है कि ख़ाकी इन्सानों में एक बशर भी हज़रत कलिमतुल्लाह व रूहुल्लाह व इब्ने-अल्लाह का हमपाया हम-रुत्बा या सानी नहीं हुआ और ना कभी होगा। बनी-आदम में सिर्फ इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ही शख़्सियत बेनज़ीर, बे अदील और बेमिसाल है। चुनान्चे इब्ने-अल्लाह ने ख़ुद ही ज़बान हक़ीक़त तर्जुमान से इर्शाद फ़रमाया, (और ये इर्शाद क़ुरआन व ह इन्जील की आयात के अल्फ़ाज़ को रोशन कर देता है) कि, “मैं तुमसे एक बात हक़ कहता हूँ बेटा आपसे कुछ नहीं कर सकता सिवा उस के जो वो बाप को करते देखता है।” (بِاِذۡنِ اللّٰہِ) क्योंकि जिन जिन कामों को बाप करता है बेटा भी उनको उसी तरह कर रहा है, इसलिए कि बाप बेटे को अज़ीज़ रखता है और जितने काम वो ख़ुद करता है उसे दिखाता है जिस तरह मुर्दों को उठाता है और ज़िंदा करता है। (وَ ہُوَ الَّذِیۡ یُحۡیٖ وَ یُمِیۡتُ) इसी तरह बेटा भी जिनको चाहता है उनको ज़िंदा करता है। (وَ اُحۡیِ الۡمَوۡتٰی بِاِذۡنِ اللّٰہِ) “बाप किसी की अदालत नहीं करता बल्कि उसने अदालत का तमाम काम बेटे के सपुर्द किया है ताकि सब लोग बेटे की इज़्ज़त करें जिस तरह बाप की इज़्ज़त करते हैं।” (यूहन्ना 5:19-23, 6:33, 11:25, मत्ती 25:31-46 वग़ैरह)

बाअज़ कादियां के मुसलमान क़ुरआन व इन्जील की मुत्तफ़िक़ा शहादत को दरा-ज़हूरहम पसे पुश्त फेंक कर क़ुरआन मजीद की ऐन ज़द (खिलाफ) में सीधे साधे मोमिन मुसलमानों को बहकाते हैं और कहते हैं :-

“वो लोग जिनका अक़ीदा है कि हज़रत मसीह नासरी अलैहिस्सलाम मुर्दे ज़िंदा किया करते थे, वो इस्लाम की तालीम से किस क़द्र बेगाना हैं और मुश्रिकाना अक़ाइद में मुब्तला हैं। इस क़िस्म के अक़ाइद रखने वाले मुसलमान इतना भी नहीं सोचते कि अगर मसीह नासरी की तरफ़ जिस्मानी मुर्दों के अहया (ज़िंदा करने) का मोअजिज़ा मन्सूब किया जाये तो इस में रसूल करीम की खुली हतक (बे-हुरमती) है। हमारा आक़ा जो अफ़्ज़ल-उल-रसूल था वो अपनी तमाम ज़िंदगी में एक जिस्मानी मुर्दा भी ज़िंदा ना कर सके और परिंदा क्या, परिंदे का एक पर भी पैदा ना कर सके और मसीह नासरी जो आपसे दर्जे में बहुत कम थे। उनके मुताल्लिक़ ये कहा जाये कि वो मुर्दे ज़िंदा किया करते थे और परिंदे पैदा करते थे। इस से बड़ा ज़ुल्म और क्या हो सकता है? क़ुरआन तो़ बतलाता है कि रसूल करीम जब अपने मोअजज़ात कुफ़्फ़ार के सामने पेश करते तो वो जवाब में कहा करते थे कि हम आपके मोअजज़ात को नहीं मानते।

ائۡتُوۡا بِاٰبَآئِنَاۤ اِنۡ کُنۡتُمۡ صٰدِقِیۡنَ (सूरह जाशिया आयत 25)

“यानी अगर तुम सच्चे हो तो हमारे बाप दादा को ज़िंदा करके दिखा दो।”

इस का जवाब रसूल यही देते हैं कि “अल्लाह ही ज़िंदा करता और वही मारता है।” (सूरत मोमिनों आयत 82) मगर मुसलमानों की हालत पर अफ़्सोस कि वो कहते हुए ज़रा नहीं शर्माते कि हज़रत मसीह ने जिस्मानी मुर्दे ज़िंदा किए और इस तरह ईसाईयत की तक़वियत और इस्लाम के ज़ोफ़ (कमज़ोरी) का बाइस बनते हैं।

(अल-फ़ज़ल क़ादियान 4, सितंबर 1942 ई॰)

हमारा रुए सुख़न (कलाम, बात) इस क़िस्म के नाम निहाद मुसलमान क़ादियानियत के शैदाइयों की तरफ़ नहीं जो ना ख़ुदा पर, ना उस के फ़िरिस्तादा (क़ासिद) रसूल पर, ना उस के क़ुरआन पर सही ईमान रखते हैं और कुतुब समावी की खुली और वाज़ेह आयात-ए-बय्यनात का इन्कार करके ख़ुदा और उस के अम्बिया और उस की कुतुब की बेईज़्ज़ती और हतक करने से ज़रा नहीं झिजकते। इस क़िस्म के मुसलमानों के ईमान की निस्बत क़ुरआन में इर्शाद है :-

قُلۡ بِئۡسَمَا یَاۡمُرُکُمۡ بِہٖۤ اِیۡمَانُکُمۡ اِنۡ کُنۡتُمۡ مُّؤۡمِنِیۡنَ (सूरह बक़रह आयत 93)

ضربت علیہم الذلتہ والمسکنۃ۔

हक़ीक़ी ईमानदार मज़्कूर बाला क़ुरआनी इर्शादात और इंजीली बयानात को पढ़ कर आमन्ना सद्दक़ना कह कर तस्लीम करके कहते हैं, سبحٰنک لا علم لنا الا ما علمتنا انک انت العلیم الحکیم “यानी तेरी ज़ात-ए-पाक है हमको कुछ इल्म नहीं मगर उतना ही है जो तूने हमको सिखला दिया तूही दाना पुख़्ताकार है।”

मसीह मुर्दा रूहों को ज़िंदा करता है

इन्जील जलील से ज़ाहिर है कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) ना सिर्फ जिस्मानी तौर पर मुर्दों को जिलाते और ज़िंदगी बख़्शते थे, बल्कि आप उन तमाम मर्दों और औरतों की रूहों को भी अपने मसीहाई दम से अज सर-ए-नौ ज़िंदगी अता फ़रमाया करते थे जो गुनाह के लाइलाज और ज़हरीली मर्ज़ से मुर्दा हो चुकी थी। मसीही इस्तिलाह में इस हक़ीक़त को लफ़्ज़ “नजात” से ताबीर किया गया है। चुनान्चे हज़रत इब्ने-अल्लाह ने फ़रमाया है, “मैं तुमको एक हक़ बात बतलाता हूँ, जो मेरे कलाम को सुनता है हमेशा की ज़िंदगी उसी की है, उस पर सज़ा का हुक्म नहीं होता क्योंकि वो मौत से निकल कर ज़िंदगी में दाख़िल हो गया है। ये एक हक़ीक़त है कि वो वक़्त आता है बल्कि अब आ गया है मुर्दे इब्ने-अल्लाह (मसीह) की आवाज़ सुनेंगे और जो सुनेंगे वो ज़िंदा हो जाएंगे क्योंकि जिस तरह बाप अपने आप में ज़िंदगी रखता है उसी तरह उसने बेटे को भी ये बख़्शा है कि अपने आप में ज़िंदगी रखे बल्कि बाप ने बेटे को अदालत करने का भी इख़्तियार बख़्शा है।” (यूहन्ना 5:24-27, 1 यूहन्ना 3:14, 5:21, यूहन्ना 5:9-13, 4:21-23, 10:16, 1:4, 17:20, रोमीयों 5:1, 8 ता 11, 15 ता 21, 6:11 ता 14 वग़ैरह)

इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने गुज़श्ता दो हज़ार सालों में दुनिया के कुल ममालिक व अक़्वाम की करोड़ों मुर्दा रूहों को अज सर-ए-नौ ज़िंदगी बख़्शी है जिन मुर्दा दिलों ने ख़ुदा के बेटे की आवाज़ “तुम” को सुना है वो “मौत से निकल कर ज़िंदगी में इसी दुनिया में दाख़िल हो गए” उन्होंने अपने मुल्क व कौम और समाज की काया पलट दी और मुर्दा रूहों को बचाने का वसीला बन गए। और अबदी नाम पाकर ज़िंदा जावेद हो गए। ख़ुदावंद मसीह ने ख़ुद फ़रमाया है, “मैं तुमसे एक हक़ बात कहता हूँ, जो मेरे कलाम पर अमल करेगा वो अबद तक कभी मौत को ना देखेगा।” (यूहन्ना 8:51, इफ़िसियों 5:14, यसअयाह 36:19 वग़ैरह) इब्ने-अल्लाह (मसीह) अपनी हीने-हयात (ज़िन्दगी) में उनको जो गुनाह में पड़े कराहते थे, अपने लुत्फ़ व मुहब्बत से गुनाहों की मग़्फिरत का कलमा सुनाते थे। (मर्क़ुस 2:5, लूक़ा 7:47-49, यूहन्ना 5:14, 8:1-11) बनी नूअ इन्सान के करोड़ों गुनेहगार दो हज़ार साल से अपने गुनाहों के हाथों लाचार हो कर इक़रार करते चले आए हैं कि “नेकी करने का इरादा तो मुझमें मौजूद है मगर नेक काम मुझसे अमल बन नहीं पड़ते। जिस नेकी का मैं इरादा करता हूँ वो तो नहीं करता मगर जिस बदी का इरादा नहीं करता, मैं उस को कर लेता हूँ हाय में कैसा कम्बख़्त इन्सान हूँ। इस गुनाह की मौत से मुझे कौन छुड़ाएगा? मैं अपने जनाबे मसीह के वसीले ख़ुदा का शुक्र करता हूँ जिसने मुझे गुनाह की ज़ंजीरों से और शैतान की गु़लामी से नजात बख़्शी।” (रोमीयों 7 बाब) हर गुनेहगार जिसने इब्ने-अल्लाह से ख़ुदा की ला-ज़वाल मुहब्बत और मग़्फिरत का पैग़ाम सुनकर नई रुहानी ज़िंदगी हासिल की है वो अपनी नई पैदाइश के तजुर्बे से इस हक़ीक़त से कमा हक़्क़ा वाक़िफ़ है कि गुनाह की मज़दूरी मौत है मगर ख़ुदा की बख़्शिश हमारे ख़ुदावंद यसूअ में हमेशा की ज़िंदगी है।”

आदम से मिली मौत, हयात इब्ने ख़ुदा

आग़ाज़ से बेहतर हुआ अंजाम हमारा

(वाइज़)

इन्जील जलील और क़ुरआन मजीद दोनों कुतुब समावी में मसीही नजात याफ्तागां की बरकत व अज़मत का ज़िक्र आया है। इंजीली मजमूए के हर सहीफ़े में बार-बार मुफ़स्सिल तौर पर वज़ाहतन व सराहतन उनकी मुबारक हाली और रुहानी औज का बयान मौजूद है। चुनान्चे एक शख़्स जो अपने आपको बदतरीन ख़लाइक़ (ख़ल्क़ की मख़्लूक़ात) कहता था नजात हासिल करके पुकार उठता है कि, “अब मैं ज़िंदा नहीं रहा बल्कि मसीह मुझमें ज़िंदा है।” क़ुरआन में मुजम्मल तौर पर इन गुनेहगारों की रुहानी तब्दीली....का ज़िक्र पाया जाता है जो इब्ने-अल्लाह (मसीह) पर ईमान लाकर शैतान और नफ़्स-ए-अम्मारा की गु़लामी से आज़ाद हो गए थे। चुनान्चे उनकी निस्बत वारिद हुआ है कि, (وَ جَعَلۡنَا فِیۡ قُلُوۡبِ الَّذِیۡنَ اتَّبَعُوۡہُ رَاۡفَۃً وَّ رَحۡمَۃً) (सूरह हदीद आयत 27)

“यानी जो लोग ईसा के ताबे हो गए अल्लाह ने उनके दिलों को तब्दील करके उनमें शफ़क़त और रहमत डाल दी है।”

चुनान्चे मुफ़स्सिरीन बैज़ावी लिखता है कि :-

“हज़रत ईसा मसीह रूह-उल्लाह (روح اللہ) मुर्दों को और मुर्दा दिलों को ज़िंदा करते थे और इसी लिए उनको रूहुम्मिन्हु (روح منہ) कहा गया है।” (जिल्द अव्वल सफ़ा 219)

आपके सिवा क़ुरआन में किसी दूसरे शख़्स को रूह-उल्लाह (روح اللہ) का लक़ब नहीं दिया गया जिससे ज़ाहिर है कि आपके इलावा कोई इन्सान ख़्वाह वो कैसा ही अज़ीमुश्शान नबी हो बनी नूअ इन्सान को रुहानी मौत से ज़िंदा नहीं कर सकता, फिर लिखा है :-

وَ جَاعِلُ الَّذِیۡنَ اتَّبَعُوۡکَ فَوۡقَ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡۤا اِلٰی یَوۡمِ الۡقِیٰمَۃِ

ख़ुदा फ़रमाता है कि, “ऐ ईसा मैं तेरे मानने वालों को उन पर जो तेरा इन्कार करते हैं क़ियामत के दिन तक ग़लबा अता करूँगा।” (सूरह आले-इमरान आयत 55)

रसूल अरबी की बिअसत के ज़माने से साल-हा-साल पहले मसीही कलीसिया में हज़ारों की तादाद में मग़रिबी एशिया के ममालिक के गोशे गोशे में फैली हुई थीं और दिन बदिन रुहानी तरक़्क़ी करती चली जा रही है। अरब के मुतअद्दिद क़बाइल मुशर्रफ़ बह मसीहिय्यत हो चुके थे। और “मोनोफ़ी ज़ाइट” फ़िर्क़े से मुताल्लिक़ थे जिसका ये अक़ीदा था कि मसीह की ज़ात वाहिद थी और उस की मशीयत (मर्ज़ी) का फ़ेअल भी वाहिद था। (طبیعۃ واحدۃ ومشیۃ واحدۃ وفعل واحد) चुनान्चे मग़रिबी अरबों का बादशाह अल-मालिक-उल-हारिस-अल-बदवी इस फ़िर्क़े का ज़बरदस्त हामी था नजरान और हरमस जैसे दूर दराज़ मुक़ामात और बादिया अरब के क़बाइल मसीही थे। ग़स्सान का तमाम क़बीला मसीही था। मिस्र और ईरान और शाम के गोशे गोशे में मसीही गिरजे खड़े थे तै का क़बीला और नबू हीरा का क़बीला मसीही थे। हज़रत रसूल अरबी नजात याफ्ताह मसीहीयों की रोज़मर्रा की रुहानी ज़िंदगीयों और उनकी शफ़क़त व राफत और इल्म व हुलुम से ऐसे मुतास्सिर थे कि क़ुरआन में आया है :-

وَ لَتَجِدَنَّ اَقۡرَبَہُمۡ مَّوَدَّۃً لِّلَّذِیۡنَ اٰمَنُوا الَّذِیۡنَ قَالُوۡۤا اِنَّا نَصٰرٰی ؕ ذٰلِکَ بِاَنَّ مِنۡہُمۡ قِسِّیۡسِیۡنَ وَ رُہۡبَانًا وَّ اَنَّہُمۡ لَا یَسۡتَکۡبِرُوۡنَ

“यानी मुसलमानों के लिए दोस्ती के लिहाज़ से तू उनको ज़्यादा क़रीब पाएगा जो कहते हैं कि हम ईसाई हैं। ये इसलिए कि उनमें आलिम और दरवेश हैं और वो तकब्बुर नहीं करते।” (सूरह माइदा आयत 82)

मुहम्मद अरबी इन आलिमों और रह्बानियत से इस क़द्र अक़ीदत रखते थे कि क़ुरआन में उनके इल्म की वजह से रसूल को हुक्म हुआ :-

فَاِنۡ کُنۡتَ فِیۡ شَکٍّ مِّمَّاۤ اَنۡزَلۡنَاۤ اِلَیۡکَ فَسۡـَٔلِ الَّذِیۡنَ یَقۡرَءُوۡنَ الۡکِتٰبَ مِنۡ قَبۡلِکَ

“यानी ऐ मुहम्मद अगर तुझको इस में जो हमने तेरी तरफ़ उतारी है किसी चीज़ का पता ना लगे तो उन लोगों से पूछ जो तुझसे पहले बाइबल (अल-किताब) पढ़ते हैं।” (सूरह यूनुस आयत 94)

फिर यही हुक्म तमाम इस्लामी दुनिया को हुआ कि :-

فَسۡـَٔلُوۡۤا اَہۡلَ الذِّکۡرِ اِنۡ کُنۡتُمۡ لَا تَعۡلَمُوۡنَ

“ऐ मुसलमानो, अगर तुमको किसी बात का इल्म ना हुआ करे तो तुम अहले-ज़िक्र (बाइबल वालों) से पूछ लिया करो।” (सूरह अल-नहल आयत 43)

फिर यही हुक्म मुकर्रर क़ुरआन में वारिद हुआ है। (अम्बिया 7) रसूल अरबी ने मसीहीयों की रुहानी ज़िंदगी और उनके ऊंचे अख़्लाक़ को देखकर मुसलमानों को ताकीदन हुक्म दिया :-

وَ لَا تُجَادِلُوۡۤا اَہۡلَ الۡکِتٰبِ اِلَّا بِالَّتِیۡ ہِیَ اَحۡسَنُ

“यानी मुसलमानो ! तुम अहले-किताब से झगड़ा मत करो पर जो सबसे अच्छा है।” (सूरह अन्कबूत आयत 46)

وَ قُوۡلُوۡۤا اٰمَنَّا بِالَّذِیۡۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡنَا وَ اُنۡزِلَ اِلَیۡکُمۡ وَ اِلٰـہُنَا وَ اِلٰـہُکُمۡ وَاحِدٌ وَّ نَحۡنُ لَہٗ مُسۡلِمُوۡنَ

“और अहले-किताब से ये कहो, कि ऐ बाइबल वालो हम ईमान रखते हैं। उस क़ुरआन पर जो हम पर उतरा और उस बाइबल पर जो तुम पर उतरी और हमारा और तुम्हारा ख़ुदा एक ही है और हम उसी के मह्कूम हैं।” (सूरत अन्कबूत आयत 46)

सही मुस्लिम (7207) में अयाज़ बिन हमार की हदीस है कि आँहज़रत ने एक ख़ुत्बे में ईसाईयों की निस्बत ये शहादत दी कि :-

نظر انی اھل الارض فہقتھم عربھم وعجھم الابقایامن اھل الکتاب

“यानी अल्लाह ने ज़मीन पर रहने वालों पर नज़र की तो सबसे मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) हुआ, अरबों से और अजमों से भी। सिवाए उन के जो अहले-किताब से बाक़ी थे।” (किताब सिफ़ात अल-मुनाफ़िक़ीन अहले जन्नाह व अहले नार)

हम दीगर मुतअद्दिद हदीसों का इक़्तिबास बख़ोफ़ तवालत नहीं करते, लेकिन हमें उम्मीद है कि अहले इन्साफ़ पर वाज़ेह हो गया होगा कि क़ुरआन और सही हदीस की भी यही शहादत है कि मुनज्जी आलमीन इब्ने-अल्लाह (मसीह) ईमानदारों को गुनाह पर और नफ़्स-ए-अम्मारा पर और बदी की ताक़तों पर और दोज़ख़ की कुव्वतों पर ग़ालिब आने की रुहानी क़ुव्वत और तौफ़ीक़ अता फ़रमाता है और इन्जील जलील के तमाम सहीफ़े बेयक ज़बान यही शहादत देते हैं :-

हमको ज़ुल्मत बदोश कहते हो

हमने लाखों रूपये जलाए हैं

(बख़्त)

अम्बिया-ए-साबक़ीन और मसीह के मोअजज़ात

जनाबे मसीह के मोअजज़ात और दीगर अम्बिया के मोअजज़ात में ज़मीन आस्मान का फ़र्क़ है। दीगर अम्बिया अपनी एजाज़ी (करामत, करिश्मा) ताक़त को अपने ज़ाती मुफ़ाद की ख़ातिर इस्तिमाल करने से कभी हिचकिचाते नहीं थे। मसलन एलियाह ने सारिफ़ (सारपत) की बेवा से कहा कि पहले मेरे लिए रोटी बना और फिर अपने और अपने बेटे के लिए (1 सलातीन 17:13) लेकिन जैसा गुज़श्ता फ़स्ल में हम ज़िक्र कर चुके हैं कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपने ज़ाती मुफ़ाद की ख़ातिर क़ुव्वत एजाज़ी का कभी इस्तिमाल ना किया (मत्ती 4 बाब) आपने इस ताक़त को आम्मतुन्नास (आम लोगों) को मर्ग़ूब करके अपना तसल्लुत क़ायम करने की ग़र्ज़ से कभी इस्तिमाल ना फ़रमाया हालाँकि ये बात आपके क़ब्ज़े क़ुद्रत में थी। (मत्ती 26:53) आपने अपनी मोअजज़ाना ताक़त से दीगर अम्बिया की तरह (2 सलातीन 1:9) लोगों को सज़ा ना दी। (लूक़ा 9:55) बल्कि आपने क़ुव्वत और ताक़त रखने के बावजूद किसी पर जब्र व तशद्दुद रवा ना रखा। कलिमतुल्लाह (मसीह) की एजाज़ी ताक़त का सब से बड़ा मोअजिज़ा ये है कि आपने हमेशा इस ताक़त का सही और जायज़ इस्तिमाल किया और अपने ज़ाती मफ़ाद हत्ता कि अपनी जान की हिफ़ाज़त की ख़ातिर भी इस को इस्तिमाल ना फ़रमाया। (मत्ती 26:53, यूहन्ना 7:10, 8:59, 10:18, 12:37) अगर हम इस हक़ीक़त का दीगर अम्बिया (2 सलातीन 1:9) और दीगर मज़ाहिब के बानीयों की ज़िंदगी के साथ मुक़ाबला करें तो हम पर फ़र्क़ अयाँ हो जाता है। आपने बेशुमार लोगों को शिफ़ा बख़्शी और साथ ही ताकीद भी फ़रमाई कि किसी को ना बताना। (मर्क़ुस 1:40, 5:43, 7:36, 8:26, मत्ती 9:30, 17:9 वग़ैरह) जिससे ज़ाहिर है कि आप अपनी शौहरत को बढ़ाने की ख़ातिर इस एजाज़ी क़ुव्वत को इस्तिमाल नहीं करते थे। आप यहां तक मुहब्बत जिस्म वाक़ेअ होते थे कि अपनी जान के दुश्मन और ख़ून के प्यासे तक को आपने एजाज़ी क़ुव्वत से शिफ़ा अता की। (लूक़ा 22:51) हक़ीक़त तो ये है कि आप ख़ुदा की मोअजज़ाना ताक़त के इस्तिमाल की शान एजाज़ी से और ख़ुदा बाप के जलाल का अक्स है। (यूहन्ना 1:28, मत्ती 5:45 वग़ैरह)

अगरचे कलिमतुल्लाह (मसीह) के मोअजज़ात इस अम्र के गवाह थे कि आप ख़ुदा की तरफ़ से भेजे गए हैं। ताहम इन मोअजज़ात से आपका ये मक़्सद ना था कि आप अपनी रिसालत को साबित करें। (मत्ती 16:3, 11:4, 11:20, 9:33, यूहन्ना 3:4, 9:32, 15:24, 10:37, 14:11 वग़ैरह) इन मोअजज़ात की गवाही को वही शख़्स रद्द कर सकता था जिसने हक़ के ख़िलाफ़ अपने दिल को सख़्त कर लिया हो। (मत्ती 23:37, यूहन्ना 5:40 वग़ैरह) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की नज़र में ऐसा ईमान जिसकी बिना (बुनियाद) मह्ज़ मोअजज़ात पर हो निहायत कमज़ोर क़िस्म का ईमान था। (यूहन्ना 2:23, 4:48, 20:29 वग़ैरह) इसी वास्ते आपने निशान मांगने वालों को यक़ीन दिलाने के लिए भी मोअजज़ाना ताक़त का इस्तिमाल ना किया। (मत्ती 12:38, 16:1, लूक़ा 23:8, मर्क़ुस 15:30) दीगर मज़ाहिब के हादी और अम्बिया-ए-साबक़ीन अपने दुश्मनों की मुख़ालिफ़त पर ग़ालिब आने की ख़ातिर मोअजज़ाना ताक़त इस्तिमाल करते थे लेकिन आपने ये वत्रा कभी इस्तिमाल ना किया। (यूहन्ना 6:30) आपका दिली मंशा और ख़्वाहिश ये थी कि लोग आपकी क़ुव्वत एजाज़ी पर नहीं बल्कि आपकी शख़्सियत और आपके पैग़ाम पर ईमान लाएं। (यूहन्ना 6:68) और ख़ुदा की मुहब्बत का जलवा देख कर उस की तरफ़ रुजू करें। अम्बिया-ए-साबक़ीन दीगर इन्सानों की तरह गुनेहगार और ख़ाती इन्सान थे लिहाज़ा उनको ये ज़रूरत थी कि वो ख़ुदा की मदद पा कर अपनी रिसालत के सबूत में ख़ारिजी मोअजज़ात को पेश करें। लेकिन ख़ुदावंद एक कामिल इन्सान थे लिहाज़ा ये एजाज़ी ताक़त आपके अंदर से ख़ुद बख़ुद निकलती थी। (मर्क़ुस 5:30, लूक़ा 22:51 वग़ैरह) कलिमतुल्लाह (मसीह) की कामिल शख़्सियत ख़ुद ऐसी क़ाइल करने वाली शैय थी कि उस के मुक़ाबिल में ख़ारिजी मोअजज़ात कुछ हक़ीक़त ही नहीं रखते थे।

अम्बिया-ए-साबक़ीन मोअजज़ाना लियाक़त के ज़रीये ख़ुदा का जलाल ज़ाहिर करना चाहते थे। (ख़ुरूज 7:3-5, 16:7, 2 सलातीन 5:15-17 वग़ैरह) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) के मोअजज़ात से आपका अपना जलाल ज़ाहिर होता था। (यूहन्ना 11:4, 2:11 वग़ैरह) तमाम लोगों पर आपके मोअजज़ात से ये अयाँ हो जाता था कि आप ख़ुदा में हैं और ख़ुदा आप में है। (यूहन्ना 10:38, 3:2, 14:11) दीगर अम्बिया से मोअजज़ात कभी कभी ज़हूर पज़ीर होते थे लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की शख़्सियत मोअजज़ात का एक समुंद्र थी जो आपकी ज़िंदगी के बहर ज़ख़ारोबे किनार की तरह हमेशा रवां रहता था। (लूक़ा 8:46 वग़ैरह) आपकी शख़्सियत का अंदरूनी जलाल और आप के मोअजज़ात का बैरूनी जलाल दोनों एक ही क़िस्म के थे और दोनों लासानी थे (यूहन्ना 2:11, 9:5, 11:4, 11:40 वग़ैरह)

अम्बिया-ए-साबक़ीन एजाज़ी क़ुव्वत को इस्तिमाल करने से पहले ख़ुदा से दुआ मांगा करते थे। (1 सलातीन 17:20, 2 सलातीन 4:33 वग़ैरह) लेकिन हैरत की ये बात है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) के मोअजज़ात में ये ख़ुसूसीयत है कि आपने रसूलों को हिदायत की कि एजाज़ी क़ुव्वत इस्तिमाल करने से पहले दुआ किया करें। (मर्क़ुस 11:22, 9:28) लेकिन आपने ख़ुद इस बात की ज़रूरत महसूस ना की।

अम्बिया-ए-साबक़ीन अपने मोअजज़ात को ख़ुदा का नाम लेकर किया करते थे (1 सलातीन 13:21, 17:14, 2 सलातीन 1:16, 4:43 मुक़ाबला यसअयाह 7:11) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) ने कभी ऐसा ना किया और आपके बाद आपके रसूल (शागिर्द) ख़ूदा का नाम लेने के बजाय “यसूअ के नाम” से मोअजज़ात किया करते थे। (आमाल 3:6 वग़ैरह) वो ख़ुदा की बजाय इब्ने-अल्लाह (मसीह) को पेश करते थे। (आमाल 3:12) क्योंकि उनको ये इल्म था कि कलिमतुल्लाह (मसीह) लोगों के सामने ख़ुदा के बजाय अपनी शख़्सियत को पेश करते थे। क्योंकि आपकी ज़ात ख़ुदा का कामिल मज़हर और अकमल मुकाशफ़ा थी। (मत्ती 8:3, लूक़ा 5:24, 7:14, मर्क़ुस 9:25, 10:51, लूक़ा 5:24 वग़ैरह) और जिस तरह ख़ुदा तआला ने बहीरा क़ुलज़ुम को झिड़का था। (ज़बूर 106:9, नहोम 1:4) इसी तरह इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने बहीरा गलील को झिड़का (मत्ती 8:36)

अम्बिया-ए-साबक़ीन लोगों को कहते थे कि मोअजज़ात के लिए ख़ुदा का शुक्र करें लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) का ये रवैय्या ना था इस के बरअक्स आपका ये रवैय्या था कि लोग दरख़्वास्त और अर्ज़ करें तो आपसे अर्ज़ करें। ईमान रखें तो आप पर ईमान रखें। (मत्ती 9:28, वग़ैरह) और शुक्र करें तो आपका शुक्र अदा करें। (लूक़ा 17:16) आपको इस बात का एहसास था कि आप का दस्ते-क़ुद्रत ख़ुदा का हाथ है। (यूहन्ना 10:28 ता आख़िर) और ऐसी क़ुद्रत रखने का सबब भी बतला दिया। (यूहन्ना 5:30) आपके क़ब्ज़े क़ुद्रत में एजाज़ी ताक़त का ये हाल था कि आप ने यह ताक़त रसूलों को भी अता कर दी। (मर्क़ुस 16:20, लूक़ा 9:54, 10:17, वग़ैरह) यहां तक कि बदरूहों और शयातीन पर भी उनको इख़्तियार बख़्श दिया। (मर्क़ुस 6:7, मत्ती 10:8, लूक़ा 10:18 ता आखिर) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) ने उनको ये हुक्म ना दिया कि एजाज़ी ताक़त को इस्तिमाल करते वक़्त ख़ुदा से दुआ करें या ख़ुदा का नाम लें बल्कि हुक्म ये दिया कि वो आपके ताबे रहें। (लूक़ा 7:17, यूहन्ना 14:12 ता आख़िर) और फ़रमाया जब आप इस दुनिया से रुख़्सत हो जाएं तो ऐसा ही करें। (यूहन्ना 14:12) ता आखिर क्योंकि आपने फ़रमाया “मेरे बाप की तरफ़ से सब कुछ मुझे सौंपा गया है।” (मत्ती 27:11) “आस्मान और ज़मीन का कुल इख़्तयार मुझे दिया गया है।” (मत्ती 28:18, 9:5, यूहन्ना 17:20, 16:15, 172, 10:30, 1:51, 3:35 वग़ैरह)

मोअजज़ात मसीह

इब्ने-अल्लाह के मोअजज़ात का ज़िक्र इन्जील जलील और क़ुरआन मजीद दोनों में जा-ब-जा आया है हर चहार अनाजील में आपके मोअजज़ात का मुफ़स्सिल और क़ुरआनी सूरतों में मुजम्मिल तौर पर आया है। चुनान्चे दर्ज है :-

وَ اٰتَیۡنَا عِیۡسَی ابۡنَ مَرۡیَمَ الۡبَیِّنٰتِ

“यानी हमने ईसा बिन मर्यम को खुले मोअजज़े अता किए।” (सूरह अल-बक़रह आयत 87)

सूरह माइदा में आस्मानी ख़ुराक के मोअजिज़े का ज़िक्र ज़्यादा तफ़्सील से मौजूद है। “जब हवारियों ने कहा ऐ ईसा बिन मर्यम। क्या तेरे ख़ुदा में ऐसी क़ुद्रत है कि हम पर आस्मान से खाने का एक ख्वान (थाल, तबक़) उतारे ईसा ने जवाब दिया, अगर तुम ईमान रखते हो तो अल्लाह से डरो, उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि ऐसे आस्मानी ख्वान में से खाएं और हमारे दिल को इत्मीनान नसीब हो और हम सब पर अयाँ हो जाए कि आप सादिक़ुल-क़ौल हैं और हम इस पर गवाह हैं। पस ईसा बिन मर्यम ने कहा, “ऐ हमारे रब आस्मान पर से हम पर एक ख्वान नाज़िल कर कि हमारे लिए ईद हो। हमारे पहलों और पिछलों के लिए और वो तेरी तरफ़ से एक निशान हो और हमें ये रिज़्क़ अता कर क्योंकि तूही बेहतर रिज़्क़ देने वाला है।” (सूरह माइदा आयात 112 ता 114) इस क़िस्म के आस्मानी खाने और पानी के मोअजज़ात का ज़िक्र हर चहार अनाजील में भी मौजूद है। (यूहन्ना 2:1-11, 6:1-14, 30-42, मर्क़ुस 8:1-10, 18-21, मत्ती 14:17-21, लूक़ा 5:1-10, 9:10-17 वग़ैरह) एक और क़ुरआनी आयत में मुख़्तलिफ़ अक़्साम के मोअजज़ात का ज़िक्र है। चुनान्चे लिखा है कि, ईसा ने कहा, “मैं तुम्हारे पास तुम्हारे रब से एक निशान लेकर आया हूँ तो वो बहुक्म ख़ुदा एक परिंदा हो जाता है। मैं मादरज़ाद अंधे और कौड़ी को चंगा करता हूँ और बइज़्न अल्लाह मुर्दों को ज़िंदा करता हूँ।” (सूरह आले-इमरान आयत 43) चहार अनाजील के मुसन्निफ़ लिखते हैं कि “इब्ने-अल्लाह ने बहुतों को जो तरह-तरह की बीमारीयों में गिरफ़्तार थे अच्छा किया और बहुत सी बदरूहों को निकाला।” (लूक़ा 7:18, मर्क़ुस 1:34, मत्ती 4:24, 6:53, 15:20-21) आपके जानी दुश्मन भी मानते थे कि आप मोअजज़ात करते हैं लेकिन वो कहते थे कि आप इन मोअजज़ात को शयातीन की मदद से करते हैं। (मर्क़ुस 3:6, 3:22) ख़ुदावंद ने ख़ुद अपनी ज़बान मुबारका से फ़रमाया, “देखो अंधे देखते हैं लंगड़े चलते फिरते हैं। कौड़ी पाक साफ़ किए जाते हैं। बहरे सुनते हैं। मुर्दे ज़िंदा किए जाते हैं। ग़रीबों को इन्जील की ख़ुशख़बरी सुनाई जाती है। वो शख़्स मुबारक है जो ठोकर नहीं खाता।” (लूक़ा 7:18-23) इब्ने-अल्लाह (मसीह) से ना सिर्फ ख़ुद मोअजज़ात सादिर होते थे, बल्कि आपने अपने रसूलों और मुबल्लिग़ों को भी क़ुद्रत बख़्शी कि वो भी नापाक रूहों को निकालें और हर तरह की बीमारी और हर तरह की कमज़ोरी को दूर करें।” (मत्ती 10:1, लूक़ा 10:17) चारों अनाजील के मुसन्निफ़ मुख़्तलिफ़ अबवाब में इब्ने-अल्लाह (मसीह) के मुख़्तलिफ़ मोअजज़ात का बित्तफ़सील ज़िक्र करते हैं हम मुश्ते नमूना अज़ख़रदारे (बतौर नमूना) चंद एक फ़राइज़ के हवालेजात दिए जाते हैं। नापाक और बद अर्वाह व श्यातीन को निकालने के मोअजज़े। (मर्क़ुस 1:21-28, 5:1-15, लूक़ा 4:32-36) बुख़ार से शिफ़ा याबी (मर्क़ुस 1:29) सूखे हाथ में जान डालने का मोअजिज़ा (मर्क़ुस 3:1-6) क़रीब-उल-मर्ग का शिफ़ा पाना। (यूहन्ना 4:46-54) समुंद्र के तूफ़ान को बंद करना। (मर्कूस 4:25-41) मुर्दों को ज़िंदा करने का मोअजिज़ा। (मर्क़ुस 5:35-43, लूक़ा 7:11-16, 8:49-56, यूहन्ना 11 बाब) बहरों गूंगों को शिफ़ा बख़्शना। (मर्क़ुस 7:31-37) अँधों को बीनाई बख़्शना। (8:22-26, 10:46-52) कोढ़ीयों के कोढ़ साफ़ करना। (लूक़ा 5:12-16) मफ़लूजों को शिफ़ा अता करना। (लूक़ा 5:17-26, मत्ती 9:1-8) जलंधर के मरीज़ को चंगा करना। (लूक़ा 14:1-6 मादर-ज़ाद अँधों को बसारत अता करना। (यूहन्ना 9 बाब) पुराने अड़तीस बरस के लाइलाज मरीज़ के मर्ज़ को रफ़ा करना। (यूहन्ना 5:1-9) मिर्गी वाले मसरू (जिसको मिर्गी का मर्ज़ हो) को शिफ़ा अता करना। इब्ने-अल्लाह (मसीह) ना सिर्फ मर्दों को चंगा करते थे बल्कि आपकी बख़्शिश आम थी। आप बच्चों, लड़कीयों और औरतों को भी शिफ़ा अता करते थे और मुर्दा लड़कीयों को भी दुबारा ज़िंदा करते थे। (मर्क़ुस 5:25-34, 7:25-30, लूक़ा 8:1-2 वग़ैरह)

मोअजज़ात मसीह आयातुल्लाह (آیات اللہ) हैं

हमने गुज़श्ता सफ़हात में कई जगह मोअजज़ात मसीह का इशारतन या मुजम्मलन ज़िक्र करके बताया है कि इब्ने-अल्लाह का हर मोअजिज़ा आयतुल्लाह (آیت اللہ) था और निशान देता था कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़ात-ए-पाक का जो ज़िंदा जावेद और ज़िंदगी बख़्श हस्ती है और बअल्फ़ाज़ क़ुरआन “اٰیتہ للعالمین” “दुनिया जहां के तमाम लोगों के लिए निशानी क़रार दिया गया है।” (अम्बिया आयत 91, मर्यम आयत 21) क़ुरआन ख़ुदावंद मसीह के मोअजज़ात को आयात-ए-बय्यनात “यानी खुली और साफ़ निशानीयां क़रार देता है।” (बक़रह 81, 254, आले-इमरान 43, माइदा 110 वग़ैरह) जो “रोशन दलीलें” (सूरह ज़ुख़रफ़ 63) थीं। इन्जील व क़ुरआन दोनों सहफ़ समावी कहते हैं कि ये मोअजज़ात और निशानीयां रूहुल-क़ुद्दुस की क़ुद्रत और पाएद से ज़हूर में आती थीं। (सूरह बक़रह 254 वग़ैरह। मत्ती 12:28 वग़ैरह) क़ुरआन मुजम्मल तौर पर चंद एक का ज़िक्र करता है। मसलन मुर्दों को ज़िंदा करना, मादर-ज़ाद अँधों को बीनाई अता करना, कोढ़ीयों को शिफ़ा बख़्शना। (आले-इमरान 43) ख्वान का नाज़िल करना। (माइदा 112 वग़ैरह) क़ुरआन मजीद कहता है कि इन रोशन दलीलों के बावजूद शक़्क़ी यहूद इन का इन्कार करते और कहते थे :-

فَقَالَ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا مِنۡہُمۡ اِنۡ ہٰذَاۤ اِلَّا سِحۡرٌ مُّبِیۡنٌ

कि “ये तो सरीह जादू है।” (सूरह माइदा आयत 110)

इन्जील जलील में भी वारिद हुआ है कि जब इब्ने-अल्लाह से हैरानकुन निशानीयां और मोअजज़े ज़ाहिर होते थे तो अहले-यहूद के फ़क़ीहा जो यरूशलेम से आए कहते थे कि “उस के साथ बालज़बूल है और ये भी कि वो बदरूहों के सरदार की मदद से बदरूहों को निकालता है।” (मर्क़ुस 3:23, मत्ती 10:25 वग़ैरह) जिसके जवाब में कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया, “जो कोई रूहुल-क़ुद्दुस के हक़ में कुफ़्र बके वो अबद तक माफ़ी ना पाएगा।” (मर्क़ुस 3:23-30, लूक़ा 11:17-22, मत्ती 12:25-29 वग़ैरह)

अनाजील अरबा (चारो इंजील) में इब्ने-अल्लाह (मसीह) के एजाज़ी कामों और मोअजज़ात के लिए अल्फ़ाज़ “निशानी” “खुली निशानियाँ” इस्तिमाल हुए हैं और क़ुरआन की मुख़्तलिफ़ सूरतों में भी कलिमतुल्लाह (मसीह) के मुख़्तलिफ़ मोअजज़ात के लिए अल्फ़ाज़ “निशानी” “खुली निशानियाँ” इस्तिमाल हुए हैं। इन्जील चहारुम में अल्फ़ाज़ “निशान” और “निशानी” ख़ुसूसीयत के साथ कलिमतुल्लाह (मसीह) के मोअजज़ात और क़ुद्रत वाले कामों के लिए इस्तिमाल हुए हैं अनाजील अरबा से ज़ाहिर है कि आप ना सिर्फ क़ादिर-उल-कलाम थे, (यूहन्ना 8:46, 7:29, 13:54, 22:33, मर्क़ुस 1:22, 1:2, 11:18, लूक़ा 4:32) बल्कि आप जिस मुक़ाम में भी होते आपके मसीहाई दम से “क़ुद्रत के काम” “मोअजज़ात” और निशान” सादिर होते थे। (मत्ती 8:16) आपकी क़ुद्दूस शख़्सियत की हुज़ूरी में शैतानी ताक़तें और अर्वाह बद खड़ी ना रह सकतीं। (मत्ती 8:28, 15:28, 17:18, मर्क़ुस 1:25) आपका मसीहाई नफ़्स हर क़िस्म के बीमारों को शिफ़ा अता करता था। मफ़लूज, गूँगे बहरे, अंधे, कौड़ी वग़ैरह के क़वाए जिस्मानी और रुहानी बहाल कर दिए जाते थे। (मत्ती 8:13, 9:6, यूहन्ना 5:9, मत्ती 12:13, लूक़ा 13:12, 14:2, मत्ती 9:33, 12:22, मर्क़ुस 7:35, मत्ती 9:29, 30:34, मर्क़ुस 8:25, यूहन्ना 9:7, लूक़ा 17:19 वग़ैरह) आप ख़ुद क़ियामत और ज़िंदगी थे। पस आप मुर्दों को “क़ुम” (قم) कह कर क़ब्रों में से ज़िंदा करते थे। (यूहन्ना 11:44, मत्ती 9:25, लूक़ा 7:15) इब्ने-अल्लाह (मसीह) ऐसे साहिबे क़ुद्रत थे कि आपसे हर वक़्त क़ुव्वत निकलती थी। (लूक़ा 8:46) ऐसा कि “सब लोग उसे छूने की कोशिश करते थे क्योंकि क़ुव्वत उस से निकलती थी और सबको शिफ़ा बख़्शती थी।” (लूक़ा 6:19) और जो हुजूम की वजह से आपके मुबारक हाथों को छू ना सकते थे वो आपकी पोशाक के किनारे ही छू लेते और “जितने छूते थे शिफ़ायाब हो जाते थे।” (मत्ती 14:34-36) जूंही इब्ने-अल्लाह किसी बीमार को देखते आपको उस पर तरस आता और आप उस को शिफ़ा बख़्शते (वग़ैरह) जब आप शहर नाईन को गए तो आपने देखा कि लोग एक मुर्दे को शहर के फाटक के बाहर लिए जा रहे थे जो अपनी माँ का इकलौता बेटा था। माँ की हालत-ए-ज़ार को देखकर आपसे ना रहा गया। “ख़ुदावंद को तरस आया और उस से फ़रमाया मत रो। आपने जनाज़े को छुआ और कहा “ऐ जवान मैं तुझसे कहता हूँ उठ और मुर्दा उठ बैठा और उसने उस की माँ को सौंप दिया।” (लूक़ा 7:11-17) अला-हाज़ा-उल-क़यास “जब बैत-अन्याह का लाज़र मर गया तो उस की बहनों की हालत को देखकर आपके दिल को सख़्त रंज पहुंचा और आपके आँसू बहने लगे।” और क़ब्र पर आकर “चार दिन के मुर्दे को बुलंद आवाज़ से पुकारा, ऐ लाज़र निकल आ जो मर गया था वो कफ़न समेत निकल आया।” (यूहन्ना 1:11-53)

इब्ने-अल्लाह (मसीह) के ये क़ुद्रत के काम लोगों को एजाज़ी क़ुव्वत दिखाने की ख़ातिर नहीं थे, इस के बरअक्स जो लोग मह्ज़ एजाज़ी क़ुव्वत को देखने की ख़ातिर मोअजिज़ा करने को कहते आप साफ़ इन्कार करके उनको सख़्त मलामत करते, ताकि वो आपकी इलाही ताक़त और इन्सानों के करिश्मों शोबदों वग़ैरह में चश्म-ए-बसीरत को इस्तिमाल करके तमीज़ करना सीखें और तौबा करें। (मत्ती 12:38-43, मर्क़ुस 8:11-13, लूक़ा 11:16, 10:12-16, 23:8, यूहन्ना 2:8, 4:48, 6:30 वग़ैरह) इसी वास्ते अनाजील अरबा और बिलख़ुसूस मुक़द्दस यूहन्ना की इन्जील में मोअजज़ात को “निशानात” कहा गया है ताकि उनका एजाज़ी अंसर लोगों के लिए निशानदेही का काम सर-अंजाम दे। इन निशानात का वाहिद मक़्सद ही ये था कि इनके ज़रीये हर ख़ास व आम पर ख़ुदा-ए-मुहब्बत आफ़्ताब की तरह ज़ाहिर हो जाए, क्योंकि वो इब्ने-अल्लाह (मसीह) की शख़्सियत के मज़हर थे।

चुनान्चे सिर्फ एक इन्जील (यूहन्ना की इन्जील) के सात निशानात को लें हर मोअजिज़ा पुर-मअनी है और किसी ख़ास हक़ीक़त का निशान देता है, जो इब्ने-अल्लाह (मसीह) की शख़्सियत के वसीले ख़ुदा की मुहब्बत के किसी पहलू का निशान देता है चुनान्चे मुलाहिज़ा हो :-

(1) बाब 2:1-11 इस वाक़िये के निशान से आलम व अलमियायाँ पर ज़ाहिर हो जाए कि मुनज्जी जहां (मसीह) गुनेहगार इन्सान की फ़ित्रत व तबीअत को बिल्कुल तब्दील करता है।

(2) 4:46-54 ये निशान ख़ुदा की मुहब्बत पर ईमान रखने की ज़रूरत का ऐलान करता है।

(3) 5:2-19 इस वाक़िये और निशान से दुनिया के गुनेहगारों को जो बरसों से शैतान की गु़लामी में गिरफ़्तार हो कर बेकस व लाचार पड़े हैं। ये वासिक़ यक़ीन हो जाता है कि ख़ुदा की मुहब्बत मसीह के ज़रीये उनकी क़ुव्वत-ए-इरादी को जो सल्ब हो गई थी दुबारा ज़िंदा कर देता है और हर गुनेहगार शैतान दुनिया और नफ़्स-ए-अम्मारा (इन्सान की ख़्वाहिश जो बुरी की तरफ़ माइल करती है) पर क़ाबू हासिल करके अज़सर-नौ ख़ुदा का फ़र्ज़न्द और नजात का वारिस हो जाता है।

(4) 6:4-13 इस निशान का ज़िक्र क़ुरआन की सूरह माइदा आयात 112 ता 115 में भी है और ये इस हक़ीक़त का निशान है कि जिस तरह ख़ुदा की मुहब्बत व रिज़ा इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ख़ुराक थी। (यूहन्ना 4:36) इसी तरह कलिमतुल्लाह (हज़रत मसीह) की तालीम ज़िंदगी मौत व क़ियामत हर ईमानदार की रोटी है। (यूहन्ना 4:5-26, 6:27-35)

(5) 6:16-21 ये मोअजिज़ा इस सच्चाई का निशान देता है कि इस दो-रोज़ा फ़ानी ज़िंदगी में इब्ने-अल्लाह (मसीह) हमारी ज़िंदगीयों का राहनुमा है और उस की ज़ात हमारी रुहानी ज़िंदगी का सहारा है।

(6) 9:1-7 ये इस हक़ीक़त का निशान देता है कि आँख़ुदावंद जो दुनिया का नूर है हर ईमानदार की रूह और ज़िंदगानी का आफ़्ताब है जो शख़्स आप की पैरवी करता है वो गुनाह की तारीकी में नहीं भटकता फिरता क्योंकि ज़िंदगी का नूर उस को हासिल है। (यूहन्ना 8:12, 9:5 1:4, 1:9 वग़ैरह)

(7) 11:1-44 इस अबदी सदाक़त का निशान है कि फ़क़त इब्ने-अल्लाह (मसीह) हमारी ज़िंदगी का सर-चश्मा है और मबदा व इंतिहा है। क्योंकि वही “क़ियामत और ज़िंदगी है। जो उस पर ईमान लाता है गो वह मर जाये तो, भी ज़िंदा रहेगा और जो कोई ज़िंदा है और उस पर ईमान लाता है वो अबद तक कभी ना मरेगा।” (यूहन्ना 11:25)

अब नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि किन माअनों में इब्ने-अल्लाह (मसीह) के मोअजज़े बअल्फ़ाज़ इन्जील व क़ुरआन “आयात-ए-बय्यनात” खुले और वाज़ेह रोशन निशानात थे। ख़ुदावंद मसीह के तमाम मोअजज़ात ख़ुदा की मुहब्बत और इब्ने-अल्लाह की ज़ात जो इस मुहब्बत की मज़हर ही के मुख़्तलिफ़ पहलूओं पर रोशनी डालते हैं और इस हक़ीक़त की निशानदेही करते हैं कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़ात बाबरकात गुनेहगार इन्सान के रुहानी क़वाए मुर्दा को अपने मसीहाई दम से ज़िंदा करके उस को एक नया मख़्लूक़ बना देता है, इब्ने-अल्लाह हमारी रूहों की ख़ुराक बन कर हमको ये ताक़त बख़्शता है कि अपने ईमान के बानी और रहबर के नक़्शे क़दम पर चल कर इस दुनिया के तूफ़ानों से महफ़ूज़ रह कर दुनिया के नूर यानी मसीह की सी ज़िंदगी बसर कर सकें ताकि आइन्दा को हम नहीं बल्कि मसीह हम में ज़िंदा रहे। (ग़लतीयों 2:30)

ये ख़ुसूसीयत ऐसी है जो किसी दूसरे नबी के मोअजज़ात में नहीं पाई जाती और सिर्फ इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़ात-ए-पाक से है ऐसे निशानात मख़्सूस हैं। यही वजह है कि क़ुरआन मजीद में अल्लाह रसूले अरबी को मुख़ातब करके फ़रमाता है :-

تِلۡکَ اٰیٰتُ اللّٰہِ نَتۡلُوۡہَا عَلَیۡکَ بِالۡحَقِّ ؕ وَ اِنَّکَ لَمِنَ الۡمُرۡسَلِیۡنَ تِلۡکَ الرُّسُلُ فَضَّلۡنَا بَعۡضَہُمۡ عَلٰی بَعۡضٍ مِنۡہُمۡ مَّنۡ کَلَّمَ اللّٰہُ وَ رَفَعَ بَعۡضَہُمۡ دَرَجٰتٍ ؕ وَ اٰتَیۡنَا عِیۡسَی ابۡنَ مَرۡیَمَ الۡبَیِّنٰتِ وَ اَیَّدۡنٰہُ بِرُوۡحِ الۡقُدُسِ ؕ وَ لَوۡ شَآءَ اللّٰہُ مَا اقۡتَتَلَ الَّذِیۡنَ مِنۡۢ بَعۡدِہِمۡ مِّنۡۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡہُمُ الۡبَیِّنٰتُ وَ لٰکِنِ اخۡتَلَفُوۡا فَمِنۡہُمۡ مَّنۡ اٰمَنَ وَ مِنۡہُمۡ مَّنۡ کَفَرَ ؕ وَ لَوۡ شَآءَ اللّٰہُ مَا اقۡتَتَلُوۡا ۟ وَ لٰکِنَّ اللّٰہَ یَفۡعَلُ مَا یُرِیۡدُ

“यानी ऐ मुहम्मद, ये अल्लाह की आयतें हैं जो बरहक़ हैं जो हम तुमको पढ़ कर सुनाते हैं और बेशक तुम रसूलों में से एक हो। इन रसूलों में से हमने बाअज़ को बाअज़ पर फ़ज़ीलत और बरतरी दी है चुनान्चे इनमें से कोई तो ऐसा है जिससे ख़ुदा ने कलाम किया और किसी के दर्जे बुलंद किए और ईसा बिन मर्यम को हमने खुले-खुले निशानात दिए और उनकी रूहुल-क़ुद्दुस से मदद की....अल्लाह जो चाहता है करता है।” (सूरह बक़रह आयत 252 ता 253)

इब्ने मरियम (मसीह) की बरतरी दर्जे की बुलंदी और फ़ज़ीलत आपके निशानात की ख़ुसूसियात और दीगर ख़ुसूसियात में है जिनका ज़िक्र हम ऊपर के उनवानात में कर आए हैं।

इस्मते मसीह

इस मौज़ू पर हम गुज़श्ता बाब में मुफ़स्सिल लिख कर आए हैं, यहां हम सिर्फ ये कहना चाहते हैं कि इन्जील जलील, क़ुरआन मजीद और हदीस सब के सब इस हक़ीक़त के गवाह हैं कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ख़ता, गुनाह और बदी से पाक थे। चुनान्चे हम ज़ेर-ए-उनवान “मुक़ामात मर्यम व इब्ने मर्यम” क़ुरआन की आयात नक़्ल कर आए। जिनमें लिखा है कि, “ख़ुदा ने अपने मसीह को “शैतान मर्दूद से अपनी पनाह में रखा।” (आले-इमरान रुकूअ 4 आयत 31) तमाम के तमाम क़ुरआन मजीद में सिवाए कलिमतुल्लाह के कोई दूसरी मासूम हस्ती नहीं मिलती। इस के बरअक्स क़ुरआन में तमाम उलुल-अज़्म (बुलंद इरादे वाले) अम्बिया अपने-अपने गुनाहों का इक़रार करके अल्लाह से माफ़ी के ख़ास्तगा रहें हैं। (सूरह हूद आयत 46, इब्राहिम आयत 40, 41, क़िसस आयत 16, मोमिन 15, आराफ़ 22 वग़ैरह) लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) की तरफ़ कबीरा तो अलग रहा कभी कोई गुनाह सगीरा का ख़याल तक भी कहीं मन्सूब नहीं किया गया है तमाम क़ुरआन में ना सिर्फ आपकी तरफ़ ना सिर्फ कोई गुनाह या इक़रारे गुनाह या इस्तिग़फ़ार मन्सूब है और उनसे आपको मुस्तग़नी (बरी, आज़ाद) किया गया है, बल्कि आपकी मासूमियत का सरीह खुले और वाज़ेह अल्फ़ाज़ में ज़िक्र किया गया है और आपको وجیھا فی الدنیا والاخرۃ ومن المقربین कहा गया है। क़ुरआन ने इसी पर क़नाअत नहीं की बल्कि आपको कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और रूह-उल्लाह (روح اللہ) क़रार देकर आपकी ज़िंदगी को इन्सानियत और बनी नूअ इन्सान का मेयार मुक़र्रर कर दिया है।ख़ुदा की रहमत व फ़ज़्ल ने आपके मुबारक वजूद के चारों तरफ़ साया कर रखा है (सूरह 22:51, 24:11, 33:4, 66:1) ऐसा कि पैदाइश से लेकर सलीबी मौत तक आप इब्लीस की हर आज़माईश पर ग़ालिब आए और सलीब पर आपने शैतान के सर को कुचल दिया जिस पर आपकी ज़फ़र मंद क़ियामत गवाह है।

ख़ुदा की रहमत व फ़ज़्ल ने आपके मुबारक वजूद के चारों तरफ़ साया कर रखा है (सूरह 22:51, 24:11, 33:4, 66:1) ऐसा कि पैदाइश से लेकर सलीबी मौत तक आप इब्लीस की हर आज़माईश पर ग़ालिब आए और सलीब पर आपने शैतान के सर को कुचल दिया जिस पर आपकी ज़फ़र मंद क़ियामत गवाह है।

पस इन्जील व क़ुरआन दोनों कुतुब समावी के मुताबिक़ कलिमतुल्लाह (मसीह) में इन्सानियत के कमाल ने ज़हूर पकड़ा और ये इन्सानियत आदम की अव्वलीन सूरत का मब्दा थी जिस पर ख़ुदा ने इन्सान को पैदा किया था। चुनान्चे तौरात शरीफ़ में आया है, “खुदा ने इन्सान को अपनी सूरत पर पैदा किया। ख़ुदा की सूरत पर उस को पैदा किया।” (पैदाइश 1:27) पस कलिमतुल्लाह (मसीह) की इन्सानियत उलूहियत की सूरत पर थी और ज़ात बारी तआला का अक्स थी ऐसा कि आपने अपने रसूलों को फ़रमाया कि “जिसने मुझे देखा उसने बाप को देखा।” (यूहन्ना 14:9) मैं और बाप एक हैं। (यूहन्ना 14:20) आपका वजूद मुबारक “ख़ुदा की ज़ात का नक़्श” था, क्योंकि आप मज़हर ज़ाते इलाही थे। इस वजूद में दुनिया के ख़ाकी और ख़ाती इन्सानों ने ख़ुदा के जलाल का परतो देखा (इब्रानियों 1:3) कलिमतुल्लाह (मसीह) की क़ुद्दूस और पुर मुहब्बत इन्सानी ज़ात में उलूहियत के कमाल का ज़हूर था और आपके वजूद में उलूहियत और इन्सानियत दोनों मौजूद थीं। क्योंकि कामिल इन्सानियत उलूहियत की “सूरत” थी। जब हम कलिमतुल्लाह (मसीह) की क़ुद्दूस ज़िंदगी पर इलाही पहलू से नज़र करते हैं तो उस में हमको “उलूहियत की सारी मामूरी सुकूनत करती।” (कुलस्सियों 1:19) नज़र आती है और हमको ये इल्म हो जाता है कि ख़ुदा किस क़िस्म का ख़ुदा है और जब हम इस क़ुद्दूस ज़िंदगी पर इन्सानी ज़ावीया निगाह से नज़र करते हैं तो हम उस में इन्सानियत का कमाल देखते हैं और हमको इल्म हो जाता है कि कामिल इन्सान किस क़िस्म का इन्सान होता है। हमको इंजीली ख़िताब “इब्ने-अल्लाह” (अल्लाह का फ़र्ज़न्द) और क़ुरआनी ख़िताब कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ अल्लाह का कलमा) व “रूहुल्लाह” (अल्लाह की रूह روح اللہ) के हक़ीक़ी और असली माअनों का इल्म हो जाता है।

وجووز باقضاتوام زجودش ماسواخرم

حدوثش باقدم ہمدم حیاتش باابدہمتا

हवारीने मसीह साहिबे-वही व इल्हाम और रसूल थे

इन्जील जलील और क़ुरआन मजीद दोनों इल्हामी सहीफ़े इस हक़ीक़त का ज़िक्र करते हैं कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) के शागिर्द रसूल और साहिबे वही थे। चुनान्चे इंजीली मुक़ामात (मत्ती 10:3, मर्क़ुस 6:30, रोमीयों 1:1 वग़ैरह) से ज़ाहिर है कि इंजीली मजमूआ तहरीरात के लिखने वाले ख़ुदा से इल्हाम पाकर नविश्तों को लिखते थे (1 कुरिन्थियों 14:37 वग़ैरह) इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने ख़ुद अपनी ज़बान मुबारक से अपने बारह रसूलों को “रसूल” का लक़ब दिया। (लूक़ा 6:13, इब्रानियों 5:4) क़ुरआन में भी आया है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के ये दवाज़दा (बारह) रसूल मुस्लिम यानी इताअत में गर्दन रखने वाले, मोमिन, अंसार-उल्लाह (अल्लाह के मददगार) और साहिबे वही और इल्हाम थे। (सूरह आले-इमरान आयत 5, 45, सूरत सफ़ आयत 14, सूरह अल-मायदा आयत 111 वग़ैरह) इन रसूलों पर ख़ुदा की तरफ़ वही नाज़िल हुई थी (आमाल 2:4, 10:19, 11:22) और वो ख़ुदा की तरफ़ से रसूल हो कर अर्ज़-ए-मुक़द्दस और बैरूनजात के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात को जाते थे ताकि उनको नजात की खूशख़बर का पैग़ाम दें। (आमाल 8:26, 13:2 वग़ैरह) और जहां उनको ले जाता वो जाते। (आमाल 8:26, 13:2 वग़ैरह) जहां उनको जाने से मना किया जाता वो ना जाते। (आमाल 16:6 वग़ैरह) क़ुरआन मजीद में ग़ालिबन आमाल-उल-रसूल के (15:32) और (18 बाब) के वाक़ियात का मुख़्तसर बयान भी आया है।

وَ اضۡرِبۡ لَہُمۡ مَّثَلًا اَصۡحٰبَ الۡقَرۡیَۃِ اِذۡ جَآءَہَا الۡمُرۡسَلُوۡنَ اِذۡ اَرۡسَلۡنَاۤ اِلَیۡہِمُ اثۡنَیۡنِ فَکَذَّبُوۡہُمَا فَعَزَّزۡنَا بِثَالِثٍ فَقَالُوۡۤا اِنَّاۤ اِلَیۡکُمۡ مُّرۡسَلُوۡنَ

“यानी तू उन के लिए मिसाल के तौर पर एक बस्ती वालों का हाल बयान कर। जब इस बस्ती में रसूल आए। जब हमने उनकी तरफ़ दो रसूल भेजे तो उनको बस्ती वालों ने झुठलाया और फिर हमने तीसरा रसूल भेज कर उनकी मदद की, तब उसने कहा कि हम तुम्हारी तरफ़ भेजे गए हैं।” (सूरह यासीन आयत 13-14)

इन आयात से ज़ाहिर है कि क़ुरआन ना सिर्फ इब्ने-अल्लाह (मसीह) के दवाज़दा (12) रसूलों को ही “रसूल” बतलाता है बल्कि उन सबको भी रसूल के लक़ब से मुलक़्क़ब करता है। जो इन्जीली नजात के पयाम्बर (पैगाम देने वाले) हो कर अर्ज़-ए-मुक़द्दस के अंदर और बाहर अक़सा-ए-आलम (ज़मीन की इन्तिहाँ) तक पहुंच गए थे। (मत्ती 28:19, आमाल 1:8 वग़ैरह) ये पयाम्बर (पैगाम देने वाले) भी अपने आप को रसूल कहते थे क्योंकि उनको ये एहसास था कि उनको इब्ने-अल्लाह और ख़ुदा बाप की तरफ़ से रिसालत का दर्जा अता हुआ है। (रोमीयों 1:1, 1 कुरिन्थियों 9:1, इफ़िसियों 1:1, 1:4, आमाल 11:27, 3:1, 15:22, 1 कुरिन्थियों 12:28 वग़ैरह)

मज़्कूर बाला हक़ाइक़ में ज़ाहिर है कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) ना सिर्फ ख़ुद नबी और रसूल थे। (मत्ती 13:57, यूहन्ना 4:44, मर्क़ुस 11:32, लूक़ा 7:16, यूहन्ना 17:2) बल्कि आप रसूल-गिर भी थे। कलिमतुल्लाह (मसीह) ने नबुव्वत का दरवाज़ा जो बनी-इस्राईल में सालहा साल से बंद और मुक़फ़्फ़ल (तआला लगा होना) था खोल दिया। (मत्ती 10 बाब, लूक़ा 10 बाब, 1 कुरिन्थियों 14:1-6 वग़ैरह) और आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत और रफ़ा आस्मानी के बाद आपके पयाम्बर और नबी हर जानिब आपकी नजात की इशाअत करने गए। और उन्होंने नबुव्वत का दर्जा हासिल करके दुनिया के मुख़्तलिफ़ गोशों में आपका जान फ़िज़ा पैग़ाम दिया। (1 कुरिन्थियों 12:28, 14:29, 32, आमाल 11:27, 13:1, 15:32, इफ़िसियों 2:20, 3:5, 4:11, मत्ती 3:24, लूक़ा 11:49, आमाल 21:9-10, 28;16, 28:31 वग़ैरह) नबुव्वत का ये दरवाज़ा जो कलिमतुल्लाह (मसीह) ने खोला वो दो हज़ार साल से ता हाल खुला है और मुख़्तलिफ़ ममालिक व अक़्वाम में बीसों ना-मुवाफ़िक़ और मुख़ालिफ़ हालात में खुला रहा है और इस दरवाज़े को ता क़ियामत कोई बंद नहीं कर सकता। (मुकाशफ़ात 3:7)

मसीह की रफ़ा आस्मानी

इन्जील जलील और क़ुरआन मजीद दोनों कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़फ़र-याब क़ियामत के बाद आपके रफ़ा आस्मानी का ज़िक्र करते हैं, चुनान्चे क़ुरआन में है :-

يَا عِيسَىٰ إِنِّي مُتَوَفِّيكَ وَرَافِعُكَ إِلَيَّ

“यानी ऐ ईसा मैं तुझे वफ़ात देने वाला हूँ और अपनी तरफ़ उठाने वाला हूँ।” (सूरह आले-इमरान आयत 55)

सूरह मर्यम में आया है कि हज़रत ईसा ने फ़रमाया :-

وَ السَّلٰمُ عَلَیَّ یَوۡمَ وُلِدۡتُّ وَ یَوۡمَ اَمُوۡتُ وَ یَوۡمَ اُبۡعَثُ حَیًّا

“यानी मुझ पर सलामती है जिस दिन मैं पैदा हुआ और जिस दिन मरूँगा और जिस दिन मैं फिर जी कर उठ खड़ा हूँगा।” (सूरह मर्यम आयत 33)

इन्जील में भी इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़फ़र-याब क़ियामत के वाक़िये के बाद रफ़ा आस्मानी के वाक़िये का ज़िक्र आया है। चुनान्चे कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़बान हक़ीक़त तर्जुमान ने ख़ुद फ़रमाया है “तुम इब्ने आदम को ऊपर जाते देखोगे जहां वो पहले था।” (यूहन्ना 6:62) मुक़द्दस मर्क़ुस लिखता है, “जनाबे मसीह अपनी क़ियामत के बाद रसूलों से कलाम करने के बाद आस्मान पर उठाया गया और ख़ुदा की दहनी तरफ़ बैठ गया।” (मर्क़ुस 16:19) मुक़द्दस लूक़ा लिखता है, “फिर यसूअ रसूलों को बेत-अन्याह के सामने तक बाहर ले गया उसने अपने हाथ उठा कर उनको बरकत दी, जब वो उनको बरकत दे रहा था तो वो उनसे जुदा हो गया और आस्मान पर उठाया गया और वो उस को सज्दा करके बड़ी ख़ुशी से यरूशलेम को लौट गए और हर वक़्त हैकल में हाज़िर हो कर ख़ुदा की हम्द करते थे।” (लूक़ा 24:5-53) इन्जील जलील के मजमूए के दीगर मुसन्निफ़ भी कलिमतुल्लाह (मसीह) के जलाली रफ़ा आस्मानी का अक्सर ज़िक्र करते हैं (आमाल 7:55-56, रोमीयों 8:34, इफ़िसियों 1:20, कुलस्सियों 3:1, इब्रानियों 1:3, 8:1, 10:12, 12:2, 1 पतरस 3:22, मुकाशफ़ात 3:21 वग़ैरह)

क़ुरआन मजीद में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के रफ़ा समावी (आस्मान पर जाने) का ज़िक्र है लेकिन किसी दूसरे नबी या इन्सान के लिए ये वारिद नहीं हुआ कि ख़ुदा ने उस को अपनी तरफ़ उठा लिया था। इब्ने-अल्लाह (मसीह) का रफ़ा आस्मानी इसलिए हुआ कि “आस्मान पर कोई नहीं चढ़ा सिवा उस के जो आस्मान पर से उतरा, यानी इब्ने आदम जो आस्मान में है।” (यूहन्ना 3:13) इब्ने-अल्लाह (मसीह) आस्मान पर से उतरे ताकि अपने आस्मानी बाप की रिज़ा पर अमल करें। (यूहन्ना 6:38) अबूल-बशर हज़रत आदम और तमाम फ़रज़ंद-ए-आदम यानी बनी नूअ इन्सान “ख़ाकी” थे लेकिन “आदम-ए-सानी” “'इब्ने-अल्लाह” (मसीह) आस्मानी थे। (1 कुरिन्थियों 15:47) जो अपने आस्मानी बाप के महबूब इब्ने वहीद थे। (मत्ती 3:17) जिसके आप कामिल और अकमल मज़हर थे। (यूहन्ना 1:18) आप दुनिया को आस्मानी बाप की अज़ली मुहब्बत की हक़ीक़त और आस्मान की बातें बतला कर “आस्मान पर उठा लिए गए, और बाप की दहनी तरफ़ जा बैठे।” (यूहन्ना 3:12, 16, मर्क़ुस 16:19)

मसीह की आमद सानी

इन्जील और क़ुरआन मजीद के मानने वाले सब के सब इब्ने-अल्लाह (मसीह) की आमदे सानी के चश्मबराह हैं। आपने क़ाइदीन यहूद को जो आपके ख़ून के प्यासे थे फ़रमाया, “तुम इब्ने-आदम को क़ादिर-ए-मुतलक़ की दहनी तरफ़ बैठे और आस्मान के बादलों के साथ आते देखोगे।” (मर्क़ुस 14:16) आपने अपने मुतबईन से फ़रमाया था, “इब्ने-आदम (मसीह) अपने जलाल में आएगा और सब फ़रिश्ते उस के साथ आएँगे।” (मत्ती 24:30, 25:31)

किसी दूसरे रसूल व पैग़म्बर की निस्बत से ऐसा दावा नहीं करते। यही वजह है कि इस्लामी और मसीही दुनिया के लोग सिर्फ कलिमतुल्लाह (मसीह) की आमदे सानी का इस शद व मद से इंतिज़ार कर रहे हैं।

इब्ने-अल्लाह मुंसिफ़ व आदल

(1)

इन्जील जलील में वारिद हुआ है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़बाने हक़ीक़त तर्जुमान ने फ़रमाया कि अदालत के रोज़ अक़्वामे आलम इब्ने-आदम (मसीह) को बड़ी क़ुद्रत और जलाल के साथ आस्मान के बादिलों पर आते देखेंगे। (मत्ती 24:30) “जब इब्ने आदम (मसीह) अपने जलाल में अपने फ़रिश्तों के साथ आएगा और उस वक़्त हर एक को उस के कामों के मुताबिक़ बदला देगा।” (मत्ती 16:27) जब इब्ने-आदम अपने जलाल में आएगा और सब फ़रिश्ते उस के साथ आएँगे, तब वो अपने जलाल के तख़्त पर बैठेगा और सब कौमें उस के सामने जमा की जाएँगी।”

“क्योंकि बाप किसी की अदालत नहीं करता, बल्कि उस के लिए अदालत का सारा काम बेटे के सपुर्द कर दिया है।” और “उसे अदालत करने का इख़्तियार बख़्शा है।” (मत्ती 25:31, यूहन्ना 5:22, 5:27 वग़ैरह)

(2)

इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने वो बुनियादी उसूल भी बतला दीए हैं जिनकी बिना पर आप क़ौमों की अदालत करेंगे। जब कलिमतुल्लाह (मसीह) जो ख़ुदा की ज़ात-ए-पाक का मज़हर है इस दुनिया में आए थे आपने ये तालीम दी थी कि ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है और वो मख़्लूक़ का अज़ली और अबदी बाप है क्योंकि वो बनी नूअ इन्सान से लाज़वाल मुहब्बत करता है। आपने फ़रमाया था कि “तू ख़ुदावंद अपने ख़ुदा से अपने सारे दिल और अपनी सारी ताक़त से मुहब्बत रख और हर इन्सान से अपने बराबर मुहब्बत रख। इन्ही दो हुक्मों पर तमाम तौरात और सहाइफ़ अम्बिया का मदार है।” (मत्ती 22:34-40, लूक़ा 10:25-37 वग़ैरह)

पस रोज़े अदालत इब्ने-अल्लाह (मसीह) इन दो उसूलों की बिना पर अक़्वाम व अफ़राद की अदालत करेंगे चुनान्चे आपने फ़रमाया कि, “बादशाह (इब्ने-अल्लाह) ख़ुद उस रोज़ अक़्वामे आलम के अफ़राद को एक दूसरे से जुदा करके तख़्त अदालत के दहनी और बाएं तरफ़ वालों से कहेगा, आओ मेरे बाप के मुबारक लोगो जो बादशाहत बनाए आलम (दुनिया के शुरू) से तुम्हारे लिए तैयार की गई है, उसे मीरास में लो। क्योंकि मैं भूका था तुमने मुझे खाना खिलाया। मैं प्यासा था तुमने मुझे पानी पिलाया। मैं परदेसी था तुमने मुझे घर में उतारा। नंगा था तुमने मुझे कपड़ा पहनाया। बीमार था तुमने मेरी ख़बरगीरी की। क़ैद में था तुम मेरे पास आए। तब रास्तबाज़ जवाब में उस से कहेंगे, ऐ ख़ुदावंद ! हमने कब तुझे भूका देखकर खाना खिलाया? या प्यासा देखकर पानी पिलाया? हमने कब तुझे परदेसी देखकर घर में उतारा या नंगा देखकर कपड़ा पहनाया? हम कब तुझे बीमार या क़ैद में देखकर तेरे पास आए? बादशाह जवाब में उनसे कहेगा, मैं तुमको सच्च कहता हूँ कि जब तुमने मेरे साथ ये सुलूक किया फिर बादशाह बाएं तरफ़ वालों से कहेगा कि मैं भूका था तुमने मुझे खाना ना खिलाया। प्यासा था पर तुम ने मुझे पानी ना पिलाया। परदेसी था तुमने मुझे घर में ना उतारा। मैं नंगा था पर तुम ने मुझे कपड़े ना पहनाए। बीमार और क़ैद में था पर तुम ने मेरी ख़बर ना ली। तब वो भी जवाब में कहेंगे, ऐ ख़ुदावंद हम ने कब तुझे भूका या प्यासा परदेसी या नंगा या बीमार या क़ैद में देखा और हमने तेरी ख़िदमत ना की? उस वक़्त वो उनसे जवाब में कहेगा, कि जब तुमने इन सबसे छोटों में से किसी के साथ ये सुलूक ना किया तो मेरे साथ ना किया।” (मत्ती 25:31-46)

पस जो शख़्स ख़ुदा की रिज़ा पर चल कर बनी नूअ इन्सान के साथ रंग ज़ात, मज़्हब क़ौम वग़ैरह की तमीज़ किए बग़ैर मुहब्बत, उखुव्वत और मुसावात का सुलूक करे गो वही मुबारक होगा और अदालत के रोज़ इब्ने-अल्लाह (मसीह) की अदालत में दाएं हाथ खड़ा होगा। लेकिन जो शख़्स ख़ुदा और इन्सान के साथ ज़बानी जमा ख़र्च का सुलूक करेगा और ना ख़ुदा की मुहब्बत का जवाब उस के दिल में होगा और ना इन्सान की मुहब्बत व उख्व्वत व मसावात के उसूल उस के दिल में होंगे वो इब्ने-अल्लाह (मसीह) की नज़र में “मलऊन” होगा। (मत्ती 5:41) क्योंकि जब इब्ने-अल्लाह इस दुनिया में ख़ुदा का मज़हर हो कर आए, नूर रिज़ा-ए-इलाही और मुहब्बत ख़ुदावंदी आपका “खाना पीना था।” (यूहन्ना 4:34) आप यही चाहते हैं कि जो आपकी पैरवी करता है वो ज़बानी जमा ख़र्च के ईमान की “तारीकी में ना चले” बल्कि ख़ुदा की मुहब्बत भरी रिज़ा पर चले और “नूर की पैरवी” करे और आपके से काम करे। इसी वास्ते कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया, “तुम उनके फलों से उनको पहचान लोगे। जो मुझको ऐ ख़ुदावंद, ऐ ख़ुदावंद कहते हैं उनमें से हर एक आस्मान की बादशाही में दाखिल ना होगा मगर वही जो मेरे आस्मानी बाप की मर्ज़ी पर चलता है। उस रोज़ अदालत के वक़्त बहुतेरे मुझसे कहेंगे, ऐ ख़ुदावंद, ऐ ख़ुदावंद, क्या हमने तेरे नाम से मोअजज़े नहीं किए? उस वक़्त मैं उनसे साफ़ कह दूंगा कि मेरी तुमसे कभी वाक़फ़ीयत ही ना थी। ऐ बदकिर्दार लोगो मेरे पास से चले जाओ।” (मत्ती 7:20-23)

(3)

पस इन्जील जलील के मुताबिक़ इब्ने-अल्लाह (मसीह) “ज़िंदों और मुर्दों की अदालत करेंगे।” (2 तीमुथियुस 4:1, 1 पतरस 4:5 वग़ैरह) आपकी ज़बान मोअजिज़ा बयान ने फ़रमाया, “मैं अपने आपसे कुछ नहीं कर सकता, मैं जैसा सुनता हूँ वैसी अदालत करता हूँ। मेरी अदालत रास्त है क्योंकि मैं अपनी मर्ज़ी नहीं, बल्कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी चाहता हूँ। मैं आस्मान से इसलिए नहीं उतरा हूँ कि अपनी मर्ज़ी करूँ बल्कि इसलिए आया हूँ कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अमल करूँ ये इसलिए है ताकि दुनिया जान ले कि मैं बाप से मुहब्बत रखता हूँ और जिस तरह बाप ने मुझे हुक्म दिया है मैं वैसा ही करता हूँ।” (यूहन्ना 5:30, 6:38, 14:31 वग़ैरह) “पस मेरी अदालत दुरुस्त है और मेरा फ़ैसला सच्चा है क्योंकि फ़ैसला करने वाला मैं अकेला नहीं हूँ बल्कि मैं हूँ और बाप है जो मेरी गवाही देता है।” (यूहन्ना 8:18 वग़ैरह)

आँख़ुदावंद को क़ियामत का इल्म कुल्ली तौर पर है क्योंकि बअल्फ़ाज़ क़ुरआन आप “علم للساتمہ” हैं और “इल्म अल्लाह” علم اللہ (अल्लाह और क़ियामत का इल्म) हैं कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) रूह-उल्लाह (روح اللہ) हैं। अब ज़ाहिर है कि इल्म इल्लत से इल्म मअलूल लाज़िम है पस आपको जमी हवादसात (हादिसा की जमा, मुसीबतें) व वाक़ियाते आलम का इल्म है और हर बशर के ज़ाहिर व बातिन से आप वाक़िफ़ हैं पस क़ियामत के रोज़ सुब्हाना तआला ने अदालत का काम अल-मसीह इब्ने-अल्लाह के सपुर्द कर दिया है जिससे ज़ाहिर है कि आप मालिके यौम उद्दीन (मालिक क़यामत के) हैं और आप ही मालिक और बादशाह हैं और यही इन्जील जलील के अल्फ़ाज़ हैं। (मत्ती 24:30, 16:27, 25:31, यूहन्ना 5:22, 5:27, 2 तीमुथियुस 4:8 वग़ैरह)

زماں راعدل اوزیور جہاں راذات اومفخر

زماں رااوزماں پرور جہاں رااوجہاں پیرا

جہاں رااوبعد آمر چہ درباطن چہ در ظاہر

بآمر اوشودصادر زد یوان قضا طغرا

(قآنی)

ख़ुदा ने अदालत का सारा काम इब्ने-अल्लाह (मसीह) के सपुर्द कर दिया है। लेकिन ये सर्फ़राज़ी खुदा ने किसी और इन्सान या नबी को अता नहीं फ़रमाई। पस इस लिहाज़ से भी कलिमतुल्लाह (मसीह) दीगर अम्बिया की क़तार में शुमार नहीं किए जा सकते। हक़ तो ये है कि जिस ज़ावीये से भी कलिमतुल्लाह (मसीह) की पैदाइश, ज़िंदगी, तालीम, सलीबी मौत, ज़फ़रमंद क़ियामत, रफ़ा समावी को देखा जाये वो कुतुब समावी के मुताबिक़ बे-अदील, बेनज़ीर और लासानी नज़र आती है। आप बशर होते हुए भी फ़ौक़-उल-बशर थे। ऐसा कि “उलूहियत की सारी मामूरी कलिमतुल्लाह (मसीह) में मौजूद थी और आपकी कामिल इन्सानियत के पर्दे में उलूहियत कामिल और अकमल ज़ुहूर जल्वागर था। कामिल उलूहियत का ज़हूर आपकी कामिल इन्सानियत में पाया जाता है और आपकी इन्सानियत के कमाल में ख़ाकी और ख़ाती इन्सान को उलूहियत की झलक नज़र है।

در بشر روپوش کردہ است آفتاب

فہم کن اللہ اعلم بالصواب

صورتش برخاک وجاں بر لامکاں

لامکا نے فوق وہم سالکاں

(मौलाना रुम)

अगर कोई शख़्स ये सवाल पूछे कि क़दीम और हादिस किस तरह बाहम पैवंद हो सकते हैं तो हम उस की तवज्जोह क़ुरआन मजीद की (सूरह क़िसस की आयत 30) की जानिब मबज़ूल करेंगे। जहां ये लिखा है कि, “जब मूसा आग के पास पहुंचा तो मैदान के दाएं किनारे मुक़द्दस जगह में झाड़ी से ये आवाज़ आई, कि “ऐ मूसा मैं रब-उल-आलमीन हूँ।” फिर वारिद हुआ है कि “ये आवाज़ दी गई कि मुबारक है वो जो आग में है और उस के आस-पास है।” (सूरह नहल आयत 8) तौरात मुक़द्दस में भी यही लिखा है कि “ख़ुदा एक झाड़ी में आग के शोले की सूरत में हज़रत मूसा को नज़र आया और उस में से आवाज़ आई कि मैं तेरे बाप का ख़ुदा हूँ।” (ख़ुरूज 3:1-6) जब लामहदूद ख़ुदा माद्दी अश्या के ज़रीये अपने जलाल का जलवा ख़ाती इन्सान पर ज़ाहिर कर सकता है तो वो अपनी ज़ात का कामिल ज़हूर (कलिमतुल्लाह व रूहुल्लाह व وجھافی الدنیاوالاخرۃ ومن المقربین) की आला, बरतर, पाक और क़ुद्दूस इन्सानियत के वसीले बदर्जा अह्सन दिखला सकता है क्योंकि इब्ने-अल्लाह (मसीह) ख़ुदा की ज़ात का नक़्श “और उस के जलाल का पुरतो (जलवा) है। उलूहियत का जलवा मज़हर यज़्दानी इब्ने-अल्लाह की नूरानी ज़िंदगी के अनवार की ज़ियापाशियों में ज़हूर पज़ीर हुआ।

پدر نوروپسرنور یست مشہور

پدر نوروپسرنور یست مشہور

“हम (ख़ुदा) अपने कलिमे और रूह ईसा मसीह इब्ने मरियम को अपनी तरफ़ से दुनिया के आदमीयों के लिए रहमत और निशान बनाना चाहते हैं और ये अम्र मुक़द्दर हो चुका है।” (सूरह मर्यम आयत 21)

कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपने बेमिसाल पैग़ाम पर ख़ुद अमल करके बनी नूअ इन्सान को ऐसा कामिल और अकमल नमूना दिया है जो हर पहलू से ख़ुदा की उस लाज़वाल और अज़ली मुहब्बत का मज़हर है जो वो हर फर्दे बशर से और बदतरीन गुनेहगारों से करता है। इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी और मौत एक साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ आईना है जिसमें ख़ुदा की ज़ात और उस की मुहब्बत की झलक हर साहिबे बसीरत को दिखाई देती है। हज़रत रूह-उल्लाह (मसीह अल्लाह की रूह) की क़ुद्दूस ज़ात में एक बात भी ऐसी नहीं पाई जाती जो मुक़ामी हो और इमत्तीदाद-ए-ज़माने के साथ काबिले तक़्लीद ना रही हो। कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलाम के उसूलों की तरह आपकी पाक ज़ात भी आलमगीर और हमागीर है, क्योंकि आपकी कामिल इन्सानियत में “उलूहियत की सारी मामूरी” का ज़हूर है। इब्ने-अल्लाह इलाही-अल-असल (الہٰی الاصل) थे और ख़ुदा-ए-वाहिद व बरहक़ के कलमा थे जो पैकर-ए-इंसानी में ज़ाहिर हुए।

وجودش باقضاتوام ، زجودش ماسوا خرم

حدوثش باقدم ہمدم ،عیاتش باابدہمتا

(हकीम क़ानी)

हमने इस फ़स्ल में कलिमतुल्लाह (मसीह) की ख़ुसूसियात का ज़िक्र किया है जो इन्जील व क़ुरआन में मुशतर्का हैं। हमने नाज़रीन को बतलाया है कि आँख़ुदावंद की फ़ौक़ुल आदत और एजाज़ी पैदाइश में कोई दूसरा इन्सान या नबी आपका हम-सर नहीं हुआ क्योंकि कोई दूसरा फ़रज़ंद-ए-आदम ख़ुदा की ख़ास क़ुद्रत से पैदा नहीं हुआ। आँख़ुदावंद मादरज़ाद नबी थे जिनको खुदा ने ख़ुद कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ अल्लाह का कलमा), रूह अल्लाह (روح اللہ अल्लाह की रूह) और इब्ने-अल्लाह (अल्लाह का फ़र्ज़न्द) के अल्क़ाब से मुअज़्ज़िज़ फ़रमाया। इन खिताबात से ज़ाहिर है कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) “ख़ुदा में से ख़ुदा” हैं और आपको वो मुक़ाम हासिल है जो किसी दूसरे इन्सान को कभी हासिल ना हुआ। कलिमतुल्लाह (मसीह) ख़ुदा की क़ुद्रत और ख़ुदा की वो हिक्मत हैं इन सिफ़ात से किसी इन्सान ज़ईफ़-उल-बुनयान (जिसकी बुनियाद कमज़ोर हो) को, ख़ुदा ने मुत्तसिफ़ (सिफ़त रखने वाला) नहीं किया। आपकी जानिब वो क़ुद्रत व हिकमत और जलाल व अज़मत मन्सूब की गई जो किसी बशर के हिस्से में ना आ सकती है और ना आई। आप ख़ालिक़ बि-इज़्निल्लाह (अल्लाह के हुक्म से) हैं और ख़ुदा का वो कलाम है जिसके वसीले से कुल मौजूदात और कायनात वजूद में आई। आप ना सिर्फ जिस्मानी मुर्दों को ही ज़िंदा करते थे, बल्कि आप गुनेहगारों की मुर्दा रूहों को इब्लीस के पंजे से रिहा करते थे और उनको अज़ सर-ए-नौ ज़िंदगी अता कर के ख़ुदा के फ़र्ज़न्द बना दिया और गुज़श्ता दो हज़ार साल से हर क़ौम नस्ल मुल्क के करोड़ों रुहानी मुर्दों को ज़िंदा करते चले आए हैं। इन तमाम बातों में दुनिया का कोई इन्सान या नबी आपका हम-सर (हमपल्ला) नहीं हुआ।

کہ عدیم است عدیلش جو خداوند کریم

आप ना सिर्फ ख़ुद रसूल थे बल्कि आप रसूल-गर थे और रसूल-गर हैं। आपके रसूल साहिबे वही व इल्हाम हैं। आपके मोअजज़ात ख़ुदा के वो निशानात हैं जो ख़ुदा के क़ुद्दूस और मुहब्बत भरे दिल का इज़्हार हैं। आपकी सलीबी मौत भी आपकी ज़िंदगी की तरह ख़ुदा की ज़ात का कामिल और अकमल मुकाशफ़ा है। आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत ने आलम व आलमियान पर इस हक़ीक़त को आफ़्ताब निस्फ़-उन-नहार (दोपहर के सूरज) की तरह रोशन कर दिया है कि “मौत फ़त्ह का लुक़मा हो गई।” और आपने इब्लीस और उस की तमाम ताक़तों को कुचल कर रख दिया और मौत के डंक को निकाल दिया। ऐसा कि अब तमाम मोमिनीन और मोमिनात मौत और शैतान को ललकार कर कहते हैं “ऐ मौत तेरी फ़त्ह कहाँ रही? ऐ मौत तेरा डंक कहाँ रहा? मौत का डंक गुनाह है, मगर ख़ुदा का शुक्र है जो हमारे जनाबे मसीह के वसीले से हमको फ़त्ह बख़्शता है।” (1 कुरिन्थियों 15:54-57) क्या किसी दूसरे इन्सान या नबी ने इन उमूर को ऐसी नुमायां कामयाबी से सर-अंजाम दिया है? क्या किसी दूसरे फ़रज़ंद-ए-आदम का रफ़ा आस्मानी (आस्मान पर उठाया जाना) हुआ है कि वो अर्श मुअल्ला पर “ख़ुदा के दहने हाथ जा बैठा” हो? क्या किसी शख़्स ने इस दुनिया में किसी गुनेहगार को अपने इख़्तियार से उस के गुनाहों की मग़्फिरत बख़्शी है? क्या किसी इन्सान के वहम व गुमान में भी यह बात आई है कि ख़ुदा ने क़ियामत के दिन बनी नूअ इन्सान की अदालत का सारा काम उस के सपुर्द कर दिया है? ये इज़्ज़त, रुत्बा, दर्जा और सर्फ़राज़ी इब्ने-अल्लाह (मसीह) और सिर्फ इब्ने-अल्लाह (मसीह) को ही हासिल हुई है जिसने बनी-आदम पर अपनी ज़ात में इन्सानियत का कमाल और ज़ाते उलूहियत की मुहब्बत अज़ली का जलाल दिया।

खुदा ने अपने महबूब इब्न (फ़र्ज़न्द) को दुनिया और माफ़ीहा (जो कुछ इस में है) पर क़ुद्रत और मख़्लूक़ फर्द बशर पर और हर मुर्सल, नबी और रसूल पर फ़ज़ीलत बख़्शी इब्ने-अल्लाह (मसीह) की एजाज़ी पैदाइश ख़ारिक़ आदत (करामत) थी आपका मसीही नफ़्स मुर्दों को ज़िंदगी बख़्शता था और ज़िंदों की ज़िंदगी का अस्ल था। आपकी सलीबी मौत ने तमाम दुनिया को दादरसन के फ़ल्सफे का सबक़ सिखा दिया आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत ने तारीकी के तमाम कुव्वतों और शैतानी ताक़तों पर फ़त्ह हासिल करके दुनिया जहान के गुनेहगारों को इब्लीस लईन की गु़लामी से नजात बख़्श कराज़सर-नौ ख़ुदा के फ़र्ज़न्द और आस्मान की बादशाही के वारिस बना दिया और उनको नया मख़्लूक़ बना कर इस क़ाबिल कर दिया कि वो दुनिया की काया पलट दें।

زفرق تا بقدم ہر کجا کہ می گیرم

کرشمہ دامن دل کشدکہ جااینجاست

अब क्या हर गुनेहगार शख़्स का फ़र्ज़ नहीं कि वो कलिमतुल्लाह (मसीह) की पाक और पराज़ मुहब्बत हस्ती पर नज़र करे और उस के फ़ज़्ल से तौफ़ीक़ पाकर दिली तौबा करे और :दुनिया के मुनज्जी” (नजात देने वाले) पर ईमान लाकर नजात अबदी और सआदत सरमदी हासिल करे?

چسیت یاران طریقت بعد ازیں تدبیرما

फ़स्ल सोइम

आप ना सिर्फ ख़ुद रसूल थे बल्कि आप रसूल-गर थे और रसूल-गर हैं। आपके रसूल साहिबे वही व इल्हाम हैं। आपके मोअजज़ात ख़ुदा के वो निशानात हैं जो ख़ुदा के क़ुद्दूस और मुहब्बत भरे दिल का इज़्हार हैं। आपकी सलीबी मौत भी आपकी ज़िंदगी की तरह ख़ुदा की ज़ात का कामिल और अकमल मुकाशफ़ा है। आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत ने आलम व आलमियान पर इस हक़ीक़त को आफ़्ताब निस्फ़-उन-नहार (दोपहर के सूरज) की तरह रोशन कर दिया है कि “मौत फ़त्ह का लुक़मा हो गई।” और आपने इब्लीस और उस की तमाम ताक़तों को कुचल कर रख दिया और मौत के डंक को निकाल दिया। ऐसा कि अब तमाम मोमिनीन और मोमिनात मौत और शैतान को ललकार कर कहते हैं “ऐ मौत तेरी फ़त्ह कहाँ रही? ऐ मौत तेरा डंक कहाँ रहा? मौत का डंक गुनाह है, मगर ख़ुदा का शुक्र है जो हमारे जनाबे मसीह के वसीले से हमको फ़त्ह बख़्शता है।” (1 कुरिन्थियों 15:54-57) क्या किसी दूसरे इन्सान या नबी ने इन उमूर को ऐसी नुमायां कामयाबी से सर-अंजाम दिया है? क्या किसी दूसरे फ़रज़ंद-ए-आदम का रफ़ा आस्मानी (आस्मान पर उठाया जाना) हुआ है कि वो अर्श मुअल्ला पर “ख़ुदा के दहने हाथ जा बैठा” हो? क्या किसी शख़्स ने इस दुनिया में किसी गुनेहगार को अपने इख़्तियार से उस के गुनाहों की मग़्फिरत बख़्शी है? क्या किसी इन्सान के वहम व गुमान में भी यह बात आई है कि ख़ुदा ने क़ियामत के दिन बनी नूअ इन्सान की अदालत का सारा काम उस के सपुर्द कर दिया है? ये इज़्ज़त, रुत्बा, दर्जा और सर्फ़राज़ी इब्ने-अल्लाह (मसीह) और सिर्फ इब्ने-अल्लाह (मसीह) को ही हासिल हुई है जिसने बनी-आदम पर अपनी ज़ात में इन्सानियत का कमाल और ज़ाते उलूहियत की मुहब्बत अज़ली का जलाल दिया।

खुदा ने अपने महबूब इब्न (फ़र्ज़न्द) को दुनिया और माफ़ीहा (जो कुछ इस में है) पर क़ुद्रत और मख़्लूक़ फर्द बशर पर और हर मुर्सल, नबी और रसूल पर फ़ज़ीलत बख़्शी इब्ने-अल्लाह (मसीह) की एजाज़ी पैदाइश ख़ारिक़ आदत (करामत) थी आपका मसीही नफ़्स मुर्दों को ज़िंदगी बख़्शता था और ज़िंदों की ज़िंदगी का अस्ल था। आपकी सलीबी मौत ने तमाम दुनिया को दादरसन के फ़ल्सफे का सबक़ सिखा दिया आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत ने तारीकी के तमाम कुव्वतों और शैतानी ताक़तों पर फ़त्ह हासिल करके दुनिया जहान के गुनेहगारों को इब्लीस लईन की गु़लामी से नजात बख़्श कराज़सर-नौ ख़ुदा के फ़र्ज़न्द और आस्मान की बादशाही के वारिस बना दिया और उनको नया मख़्लूक़ बना कर इस क़ाबिल कर दिया कि वो दुनिया की काया पलट दें।

زفرق تا بقدم ہر کجا کہ می گیرم

کرشمہ دامن دل کشدکہ جااینجاست

अब क्या हर गुनेहगार शख़्स का फ़र्ज़ नहीं कि वो कलिमतुल्लाह (मसीह) की पाक और पराज़ मुहब्बत हस्ती पर नज़र करे और उस के फ़ज़्ल से तौफ़ीक़ पाकर दिली तौबा करे और :दुनिया के मुनज्जी” (नजात देने वाले) पर ईमान लाकर नजात अबदी और सआदत सरमदी हासिल करे?

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फ़स्ल सोइम

अल-मसीह की ख़ुसूसियात मोअजज़ात और दआवे

ख़ुसूसियात-ए-मसीह

मसीहिय्यत का इब्तिदा ही से ये अक़ीदा रहा है कि जनाबे मसीह ख़ुदा के बे-अदील मज़हर और कुल दुनिया के मुनज्जी (नजात देने वाले) हैं। मसीहिय्यत ने अपनी तारीख़ के किसी ज़माने में भी आँख़ुदावंद को दीगर अम्बिया, औलिया, सालहीन, मुस्लिहीन या मुर्सलीन की क़तार में शुमार ना किया। उस के कभी वहम व गुमान में भी ना आया कि कलिमतुल्लाह (मसीह) को मह्ज़ एक रसूल क़रार दे दे, जिसकी ज़िंदगी दीगर अम्बिया की ज़िंदगीयों से बेहतर थी और जो इन्सानी कमज़ोरीयों में दीगर इन्सानों से कम मुब्तला था और जिसका काम दीगर अक़्वाम के अम्बिया और मुस्लिहीन की तरह यहूदी क़ौम और मज़्हब की मह्ज़ इस्लाह करना था। चुनान्चे मुअर्रिख़ लेकि (Lecky) कहता है :-

“मसीहिय्यत ने असबीयत (तरफ़-दारी) के ज़ोर से अपने निज़ाम को जिस क़द्र मज़्बूत और मुस्तहकम बना लिया था ये बात किसी और मज़्हब को नसीब ना थी। मसीहिय्यत के से इंज़िबात व असबीयत से उस के हरीफ़ यकसर मुअर्रा (बिल्कुल पाक साफ़) थे। उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि उस के सिवा दुनिया के तमाम मज़ाहिब बातिल हैं। नजात सिर्फ उस के पैरौओं के लिए हैं और बदनसीब हैं वो जो उस के हलक़े के बाहर हैं।”

इन्जील जलील में कहीं इस बात का इशारा तक नहीं पाया जाता कि तमाम मज़ाहिब यकसाँ हैं और कि मसीहिय्यत दीगर मज़ाहिब में से एक मज़्हब है जिसका बानी दीगर मज़ाहिब के बानीयों में से एक है। उस के वाहिद अद्यान के अक़ीदे के बर-अक्स इन्जील शरीफ़ का एक-एक सफ़ा इस बात का गवाह है कि मसीहिय्यत और दीगर मज़ाहिब के दर्मियान बाद-उल-मशरक़ीन (ज़मीन आस्मान) का फ़र्क़ है।

मसीहिय्यत का दावा

जब हम इन्जील शरीफ़ का मुतालआ करते हैं तो हम पर ये हक़ीक़त अयाँ हो जाती है कि ख़ुदावंद मसीह ख़ुद इस अक़ीदे के मंबा और सर-चश्मा थे कि आप अम्बिया की क़तार में शुमार नहीं हो सकते गो आपकी रुहानी नश्वो नुमा अह्दे-अतीक़ की कुतुब के ज़रीये हुई। हत्ता कि यहूदी अम्बिया की कुतुब मुक़द्दसा आपको ज़बानी याद थीं। लेकिन आपको ये एहसास और इल्म था कि आपके इख़्तियार में और अह्दे-अतीक़ के दीगर अम्बिया-ए-उज्ज़ाम के इख़्तियार में ज़मीन व आस्मान का फ़र्क़ है। दीगर अम्बिया कहते थे, “ख़ुदावंद यूं फ़रमाता है।” (यसअयाह 42:5, 2 तवारीख़ 18:13 वग़ैरह) लेकिन आप कहते थे “मैं तुमसे कहता हूँ।” (मत्ती 5 बाब) आप रसूल की तरफ़ नहीं बल्कि भेजने वाले की तरह कलाम करते थे क्योंकि आपको ये एहसास था कि आप ख़ुदा की बातें कहते हैं। (यूहन्ना 3:24) दीगर अम्बिया कहते थे कि ''ख़ुदा का कलाम अबद तक रहता है (यसअयाह 4 6, 8) लेकिन आपने फ़रमाया “आस्मान और ज़मीन टल जाऐंगे लेकिन मेरी बातें हरगिज़ ना टलेंगी।” (लूक़ा 21:33) आपके ज़माने में अम्बिया यहूद की कुतुब चट्टान की मानिंद मज़्बूत और उस्तिवार ख़याल की जाती थीं लेकिन आपके अज़ीमुश्शान पैग़ाम के एक लफ़्ज़ से उनको तब्दील कर दिया। (तोबित 5:3, लूक़ा 9:59 अलीख, तोबित 5:16, मत्ती 7:12, तोबित 18:5, मत्ती 9:10) आपको ये एहसास था कि मूसवी शरीअत के अहकाम सादिर कर रहे हैं लेकिन जा-ए-हैरत ये है कि जब आप इस क़िस्म की तब्दीलीयां करते और अपने उसूल की तल्क़ीन करते हैं तो आप ये नहीं फ़र्माते कि ख़ुदा का फ़र्मान ये है। इन मुआमलात में आप ख़ुदा के नाम का ज़िक्र तक नहीं करते बल्कि शरीअत के इख़्तियार के मुक़ाबले में आप अपना इख़्तियार पेश करके फ़र्माते हैं, “मैं तुमसे कहता हूँ।” (मत्ती 5:22, 28, 33, 34, 39, 44) अद्याने आलम (दुनिया के मज़ाहिब) के अम्बिया में से किसी के वहम व गुमान में भी कभी ना आया कि वो इब्ने-अल्लाह (मसीह) की मानिंद कहे “तुम सुन चुके हो कि अगलों से कहा गया है... लेकिन” मैं तुमसे कहता हूँ।” तमाम जहां के मज़ाहिब की कुतुब छान मारो तुम कहीं इस क़िस्म का इख़्तियार ना पाओगे लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) इन अहकामात को इस तरह सादिर फ़र्माते हैं कि वो आपके ज़हन की क़ुदरती बातें हैं। हज़रत मूसा के ख्व़ाब व ख़्याल में भी ये बात कभी ना आई (ख़ुरूज 20:1) लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) को ये एहसास था कि आप बनी नूअ इन्सान के सामने एक इलाही मुक़न्निन (क़ानून बनाने वाला) के तौर पर ख़ुदा बाप की तरह हुक्म दे सकते हैं। (यूहन्ना 13:34, 14:15, 15:10 वग़ैरह) आपने अपने पैग़ाम को अम्बिया-ए-साबक़ीन के पैग़ाम से आला और अर्फ़ा और अपनी ज़िंदा शख़्सियत को कुतुब मुतदादला (एक दूसरे से बारी-बारी लिया गया) के अल्फ़ाज़ से बुलंद व बाला क़रार दे दिया। (मत्ती 12:41-42) आपको ये एहसास था कि अम्बिया-ए-साबक़ीन (पीछले नबियों) ने ख़ुदा का पैग़ाम ग़ैर-मुकम्मल तौर पर अदा किया है। पस आपने फ़रमाया “मैं शरीअत और सहफ़ अम्बिया को कामिल करने आया हूँ।” (मत्ती 5:17) आपने इन कुतुब मुक़द्दसा और अम्बिया के कलाम की तन्क़ीह और तन्क़ीद भी की। (लूक़ा 9:54, मत्ती 18:22, 9:13) आपको ये एहसास था कि आपकी ज़ात बाबरकात ख़ुद कुतुब अह्दे-अतीक़ का हक़ीक़ी मुतम्माअ नज़र और नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) है। (यसअयाह 42:2-3, 41:1-2, यूहन्ना 3:14, मत्ती 12:40, 22:42) पस आप अपने पैग़ाम को उनसे आला और अर्फ़ा (मत्ती 5:39, 5:45, 6:41-42, मर्क़ुस 1:22 वग़ैरह) और अपनी ज़िंदा शख़्सियत को इन कुतुब के अल्फ़ाज़ से बुलंद व बाला क़रार देते थे। (यूहन्ना 9:35, 7:38, 6:58 वग़ैरह) कहाँ आपकी तालीम और कहाँ यहूदी रब्बी हलील और रब्बी शमाउन और रब्बी निकोदीमस और रब्बी ग़मलीएल की तालीम यही वजह है कि सामईन बे-इख़्तियार बोल उठते थे कि आप “साहिब-ए-इख़्तियार की तरह” तालीम देते थे।” (मर्क़ुस 1:22, मत्ती 7:28 वग़ैरह)

یہ بین تفاوت راہ از کجاست تا یکجا

कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम में ऐसे अनासिर थे जिनको अहले-यहूद ने कभी ना सुना था और जो मुरव्वजा यहूदीयत के बुनियादी उसूलों के ख़िलाफ़ थे। चुनान्चे यहूदी आलिम डाक्टर मॉन्टी फ़ेअरी कहता है :-

“इस्राईल की मज़्हबी तारीख़ में ये एक नई बात थी जो नासरत के रब्बी ने सिखाई कि मुहब्बत से लोगों को ख़ुदा की तरफ़ लाया जाये।”

ख़ुदा के मसीही तसव्वुर की निस्बत ये यहूदी नक़्क़ाद लिखता है कि :-

“इब्रानी कुतुब मुक़द्दसा में किसी नबी की ज़बान से ख़ुदा की निस्बत ये अल्फ़ाज़ ना निकले “बाप” “तुम्हारा बाप” “हमारा बाप” जिस तरह मत्ती की इन्जील में यसूअ की ज़बान से निकले।”

यहूदी आलिम डाक्टर क्लासिज़ (Klusner) कहता है कि :-

“अख़्लाक़ीयात और इलाहीयात के मुआमले में यसूअ के ख़यालात ऐसे अजीब और निराले थे कि अहले-यहूद के लिए उनको तस्लीम करना ग़ैर-मुम्किन था। इन हालात में यहूद और यसूअ का किसी बात पर इत्तिफ़ाक़ करना मुम्किन ना था यसूअ की तालीम ना सिर्फ फ़रीसयों की तालीम के ख़िलाफ़ थी बल्कि वो यहूदी कुतुब मुक़द्दसा के भी ख़िलाफ़ थी।”

मसीह और इल्म-ए-ग़ैब

इन्जील जलील और क़ुरआन मजीद दोनों इस हक़ीक़त पर इसरार करते हैं कि कलिमतुल्लाह (मसीह) एक बशर थे। (रोमीयों 1:30, 1 तीमुथियुस 2:5, सूरह माइदा आयत 79 वग़ैरह) लेकिन हैरत की बात ये है कि दोनों सहफ़ समावी कलिमतुल्लाह (मसीह) को बशर मानने के बावजूद उनसे ग़ैब का इल्म मन्सूब करते हैं हालाँकि दोनों आस्मानी किताबों के मुताबिक़ ग़ैब का इल्म सिर्फ अलीम व ख़बीर को ही हासिल है। (मत्ती 24:36, सूरह जिन्न आयत 26 वग़ैरह) दोनों सहाइफ़ समावी कहते हैं कि नूअ इन्सानी में सिवाए मसीह के कोई दूसरा इन्सान ग़ैब का इल्म नहीं रखता (सूरत हूद आयत 33) चुनान्चे क़ुरआन में आया है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) लोगों को मुख़ातब करके फ़र्माते हैं, “जो कुछ तुम लिखा के आओ और जो कुछ तुम अपने घरों में रखकर आओ वो सब मैं तुमको बतला देता हूँ।” (सूरह आले-इमरान आयत 43) इन्जील में भी आया है कि इब्ने-अल्लाह लोगों के दिलों के ख़यालात तक से वाक़िफ़ थे। (मत्ती 9:4, 12:25, लूक़ा 6:8, 11:17 वग़ैरह) आपके हवारी और रसूल बार-बार लिखते हैं कि वो सब के दिल के बातिनी और अंदरूनी पोशीदा ख़यालात को जानते थे। (यूहन्ना 2:24-25, 1:47, 6:15, मत्ती 26:21 वग़ैरह) पस इस लिहाज़ से भी हज़रत रूह-उल्लाह (मसीह) एक अदीमुन्नज़ीर और यकता हस्ती थे। अगर आपको किसी से निस्बत दी जा सकती है तो फ़क़त ख़ुदा-ए-वाहिद लाशरीक से निस्बत दी जा सकती है बाक़ी तमाम अम्बिया दीगर इन्सानों की मानिंद हैं उनमें और दूसरे इन्सानों में फ़र्क़ सिर्फ यही है कि उन पर वही आती है। (सूरत कहफ़ आयत 110) लेकिन इल्म-ए-ग़ैब की ख़ुसूसीयत किसी नबी में भी नहीं पाई जाती। आपकी मुख़्तलिफ़ ख़ुसूसियात की वजह से क़ुरआन में आपको आयात-उल-आलमीन (दुनिया की निशानी) क़रार दिया गया है। आपकी ज़ात-ए-पाक कुल अम्बिया की जामा सिफ़ात है। किसी एक नबी को भी कोई ऐसी सिफ़त ख़ुदा की तरफ़ से अता नहीं की गई, जो कलिमतुल्लाह (मसीह) में बवजह अह्सन नहीं।

इन्जील शरीफ़ से ज़ाहिर है कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) लोगों के दिलों के ख़यालात और भेदों तक से वाक़िफ़ थे। दीगर अम्बिया अपने हम-जिंसों की तरह लोगों के ख़यालात का अपने फ़हम और ज़कादत (ज़हन की तेज़ी) की तरफ़ से क़ियास कर सकते थे। लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) इन्सानों के दिलों के पोशीदा राज़ों तक से वाक़िफ़ थे। मसलन ऐसे लोग आपके पास आए जिनको आपने पहले ना देखा था लेकिन आप उनके खु़फ़ीया ख़यालों से वाक़िफ़ थे। (यूहन्ना 1:48-49, मर्क़ुस 10:21, 9:3) आपने फ़रीसयों को उनके पिन्हानी ख़यालात की वजह से मलामत की। (लूक़ा 7:39, मर्क़ुस 2:8, यूहन्ना 8:8, 12:25 वग़ैरह)

आप गुनेहगार लोगों के दिलों के खु़फ़ीया राज़ों से वाक़िफ़ थे। (यूहन्ना 4:39 वग़ैरह) लिहाज़ा आप गुनाहों को माफ़ करते वक़्त उन को जतला देते थे कि वो तौबा करें और अपने गुनाहों से आइन्दा परहेज़ करें। (मत्ती 9:2, यूहन्ना 5:14, 8:8, 11 वग़ैरह) आप अपने हवारियों के अंदरूनी ख़यालात को जानते थे। (मर्क़ुस 9:33, यूहन्ना 11:6, 11, 14 वग़ैरह) आप को अपने मुख़ालिफ़ों की पिन्हानी साज़िशों और इरादों की वाक़फ़ीयत थी। (मर्क़ुस 2:8, मत्ती 6:64, 12:25, यूहन्ना 13:21 वग़ैरह) आपके हवारइन, ताबईन और मुख़ालिफ़ीन तक हैरान थे कि आपको ये इल्म कहाँ से आया। (यूहन्ना 1:48, 5:42, 16:30 वग़ैरह) लेकिन ये सब जानते थे कि “वो आप चाहता था कि इन्सानी फ़ित्रत कैसी है और कि इन्सान के दिल में क्या है।” (यूहन्ना 2:25)

लेकिन सबसे बड़ा मोअजिज़ा ये है कि गो आप सब कुछ जानते थे और इस की हाजत ना रखते थे कि कोई आपको कुछ बतलाए, (यूहन्ना 2:24) ताहम आपने इस ग़ैबी इल्म को अपने ज़ाती मुफ़ाद की ख़ातिर कभी इस्तिमाल ना फ़रमाया। दीगर अम्बिया और हादियान दीन ने लोगों से सूरत-ए-हालात मालूम करके इस इल्म को अपने इक़तिदार और हश्मत और जाह व इज्ज़त बढ़ाने के लिए इस्तिमाल किया लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने ग़ैब का इल्म रखते हुए भी अपने इल्म को इस क़िस्म के इस्तिमाल से परहेज़ फ़रमाया बल्कि इस के बरअक्स आपने इस इल्म को सिर्फ ख़ुदा की बादशाहत और उस्तिवारी की ख़ातिर और बनी नूअ इन्सान के अख़्लाक़ सुधारने की ख़ातिर इस्तिमाल फ़रमाया। (यूहन्ना 4:39, लूक़ा 5:10 वग़ैरह)

मसीह के मिशन की फ़ज़ीलत

जब हम दीगर मज़ाहिब आलम के अम्बिया की ज़िंदगीयों का मुतालआ करते हैं तो हम देखते हैं कि वो अपने लोगों के अख़्लाक़ सुधारने और अपनी इस्लाह के मिशन की नाकामी को महसूस करके अपनी क़ौम की तरफ़ से अक्सर मायूस हो जाते थे। मसलन हज़रत मूसा बार-बार बनी इस्राईल की जानिब से मायूस हुए। हज़रत एलियाह भी मायूस हुए। (1 सलातीन 19:4) यर्मियाह नबी का भी यही हाल था। (यर्मियाह 15:10, 20:14...अलीख) यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला भी मायूस हुआ। (मत्ती 11:2) लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) कभी अपनी क़ौम की तरफ़ से मायूस ना हुए और ना आपके दिल में कभी अपने मिशन और रिसालत के मुताल्लिक़ शकूक पैदा हुए। महात्मा बुद्ध को अपने मिशन के मुताल्लिक़ शक था। रसूल अरबी के शकूक मसीही आलिम वर्क़ा बिन नवाफिल ने दूर किए। लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) को अपने मिशन और उस की कामयाबी का पूरा यक़ीन था। हत्ता कि जब हालात कुल्लियतन (मुकम्मल) ना-मुवाफ़िक़ थे आपने दम वापसीं सलीब पर से पुकार कर ऐलान किया और फ़रमाया कि, “आपने सब बातों को पाया तक्मील तक पहुंचा दिया है।” (यूहन्ना 19:28-30 17:4) आपको अव्वल से लेकर आख़िर तक अपनी रिसालत और इब्नियत का एहसास और कामिल यक़ीन रहा (यूहन्ना 6:38, 46, 62, 8:23, 42, 14:12, 28, 16:10 वग़ैरह)

अम्बिया-ए-साबक़ीन और मसीह के मोअजज़ात

हमने गुज़श्ता फ़स्ल में मोअजज़ाते मसीह का मुजम्मल तौर पर ज़िक्र करके बतलाया था कि आपका हर मोअजिज़ा “आयतुल्लाह” (آیت اللہ अल्लाह की निशानी) (सूरह अम्बिया आयत 91) और निशान देता था उस ज़ात पाक का जो ज़िंदा जावेद हस्ती है और आलम व आलमियान के लिए आयत-उल-आलमीन (آیتہ ًللعالمین) है।

मसीह के दआवे और अनाजील अरबा

अगर कोई शख़्स इब्ने-अल्लाह (मसीह) के अक़्वाल का सतही मुतालआ भी करे तो उस को मालूम हो जाएगा कि जहां दीगर अम्बिया लोगों को ख़ुदा की तरफ़ रुजू करने की दावत देते हैं वहां इब्ने-अल्लाह (मसीह) लोगों को अपनी ज़ात की जानिब रुजू करने की दावत देता है। (मत्ती 11:28, 23:37, 5:11 वग़ैरह) आपने एलानिया लोगों को फ़रमाया कि वो आपकी बातों पर कान लगाऐं। (मत्ती 7:24, यूहन्ना 18:27 वग़ैरह) जहां दीगर अम्बिया ने अपने पैरौओं को कहा, “तुम ख़ुदा पर ईमान लाओ” वहां आपने हुक्म दिया कि लोग आपकी शख़्सियत पर ईमान लाएं। (यूहन्ना 14:1, 9:35, 14:2 वग़ैरह) आप ये नहीं फ़र्माते थे कि लोग आपकी रिसालत पर या मोअजज़ात पर या तालीम पर ईमान (लाएं एसा) कभी किसी दूसरे नबी ने तलब ना किया। आपने साफ़-साफ़ कहा कि रोज़-ए-महशर इन्सान की क़िस्मत का फ़ैसला इस पर होगा कि आया वो आपकी ज़ात पर ईमान रखते हैं या कि नहीं। (मत्ती 10:32, मर्क़ुस 8:38 वग़ैरह) और लुत्फ़ ये है कि ये ईमान बईना इस क़िस्म का है जो ख़ुदा हम से तलब करता है।

توبدیں جمال وخوبی بر طور گر

ارنی بگوید آنکس کہ بگفت لن ترانی

इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ऐन ये ख़्वाहिश है कि बनी नूअ इन्सान आपकी ज़ेरे हिफ़ाज़त आ जाऐं। (मत्ती 23:37) क्योंकि सिर्फ आप ही उनके दिलों की बेक़रारी और बेचैनी को दूर करके इत्मीनान क़ल्ब (दिल) अता करते हैं। (मत्ती 11:28, यूहन्ना 14:27, 20:19, लूक़ा 26:32 वग़ैरह) अगर हम रिफ़ाक़ते इलाही चाहते हैं तो आपकी बेचूं व चरा ख़िदमत करें। (मर्क़ुस 10:45, यूहन्ना 13:4...ता आखिर वग़ैरह) इब्ने-अल्लाह (मसीह) हर इन्सान का दिल तलब करते हैं जिस तरह ख़ुदा तलब करता है और हुक्म देते हैं कि कुल बनी नूअ इन्सान आपकी ताबेदारी करें आपकी रहनुमाई में ज़िंदगी बसर करें और अपने आपको कुल्लियतन इब्ने-अल्लाह (मसीह) के सपुर्द करें। (मत्ती 11:29, 10:38, 16:24, यूहन्ना 8:12, 12:26 वग़ैरह) क्योंकि सिर्फ आप ही नूअ इन्सानी के अकेले वाहिद हादी और बरहक़ उस्ताद हैं। (मत्ती 23:8...आख़िर) इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने हुक्म दिया कि तमाम क़ौमों को आपके नाम से बपतिस्मा दिया जाये जिसका ये मतलब है कि अक़्वामे आलम आपकी मक़बूज़ा मिल्कियत हो जाएंगी और आइंदा आप और सिर्फ आप ही उन पर हुक्मरान होंगे जिन पर “मख़लिसी के दिन आपके मुहर लगी है।” (इफ़िसियों 4:30) इब्ने-अल्लाह (मसीह) हर शख़्स से ये तलब करते हैं कि वो आपकी ज़ात के साथ इसी क़िस्म की मुहब्बत करे, (यूहन्ना 21:15-17, 15:9 वग़ैरह) जो अहदे अतीक़ की कुतुब में ख़ुदा के साथ की जाती थी। (इस्तिस्ना 33:29, मत्ती 10:37....ताआखिर, लूक़ा 14:26 वग़ैरह)

ग़र्ज़ ये कि मुनज्जी आलमीन (मसीह) के अपने अक़्वाल की बिना पर मसीहिय्यत में आपकी ज़ात को मर्कज़ी जगह दी गई है। इब्ने-अल्लाह (मसीह) हमारे साथ अबद तक है। (मत्ती 18:20, यूहन्ना 14:23) आपकी हश्मत व जलाल ता-अबद है। (मर्क़ुस 12:36, 14:62) आप ख़ुद “राह, हक़ और ज़िंदगी” हैं। (यूहन्ना 14:16, मत्ती 11:27) आप ज़िंदगी का वसीला हैं। (यूहन्ना 14:6) आप नजात का दरवाज़ा हैं। (यूहन्ना 10:9) आप वो हक़ीक़ी रोटी हैं जो आस्मान पर से उतरी जो रूह की भूक को दूर कर सकती है। (यूहन्ना 6:51) आप ज़िंदगी का पानी हैं। (यूहन्ना 7:37) आप दुनिया के नूर हैं। (यूहन्ना 8:12) कुल नूअ इन्सानी आप में पैवंद है। आपका दीगर इन्सानों के साथ दरख़्त और शाख़ों का सा ताल्लुक है। (यूहन्ना 15:4) और अपनी ज़िंदगी और क़ुद्रत कामिला से बनी नूअ इन्सान को नई मख़्लूक़ बनाते हैं। (लूक़ा 19:5...ता आखिर) और उनको नई ज़िंदगी बख़्शते हैं।

ہست بہ تخت گاہ دل جلوہ قرب روز وشب

لیک بجلوہ چناں چشم خیال کے رسدہ

“इब्ने आदम (मसीह) को ज़मीन पर गुनाहों के माफ़ करने का इख़्तियार है।” (मत्ती 9:6) आपने फ़रमाया कि, “आस्मान और ज़मीन का कुल इख़्तयार मुझे दिया गया है।” (मत्ती 28:18) “अब से इब्ने आदम क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा की दहनी तरफ़ बैठा रहेगा।” (लूक़ा 22:69) इब्ने आदम नई पैदाइश में अपने जलाल के तख़्त पर बैठेगा। (मत्ती 19:28) “यहां वो है जो हैकल से भी बड़ा है।” (मत्ती 12:6) इब्ने आदम (मसीह) अपने फ़रिश्तों को भेजेगा। (मत्ती 13:41) जब इब्ने आदम अपने जलाल में आएगा और सब फ़रिश्ते उस के साथ आएँगे तो वो उस वक़्त अपने जलाल के तख़्त पर बैठेगा “और अदालत करेगा।” (मत्ती 25:31) “मेरे बाप की तरफ़ से सब कुछ मुझे सौंपा गया है और कोई बेटे को नहीं जानता सिवाए बाप के और उस के जिस पर बेटा उसे ज़ाहिर करना चाहे।” (मत्ती 11:27) जैसे मेरे बाप ने मेरे लिए एक बादशाहत मुक़र्रर की है मैं भी तुम्हारे लिए मुक़र्रर करता हूँ। (लूक़ा 29:22) “जहां दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे हैं वहां मैं उनके बीच में हूँ।” (मत्ती 18:20) “ये मेरा (ख़ुदा का) प्यारा बेटा है जिससे मैं ख़ुश हूँ।” (मत्ती 17:5) “मैं ख़ुदा का बेटा हूँ।” (मत्ती 14:33) आपने एक तम्सील में अपने आपको “इब्न” ऐसे माअनों में क़रार दिया जिन माअनों में दीगर इन्सान ख़ुदा के बेटे नहीं हो सकते। (यूहन्ना 1:12-14, 20:17, यूहन्ना 5:1 वग़ैरह) जिसका मतलब है कि आपको इल्म था कि आपकी इब्नियत बेनज़ीर और लासानी है और आपका पैग़ाम दीगर अम्बिया से जुदा है जिनको आपने “खादिमों” का दर्जा दिया। (मर्क़ुस 12:6-7)

मज़्कूर बाला आयात से साफ़ ज़ाहिर है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) का ये मतलब था कि इस अबुव्वत और इब्नियत के वजूद में सिर्फ ख़ुदा और मसीह वाहिद तौर पर मौजूद हैं और दीगर इन्सान इस ख़ास-उल-ख़ास रिश्ते के बाहर हैं। कलिमतुल्लाह (मसीह) की हस्ती कुल बनी नूअ इन्सान से जुदागाना और अलग है क्योंकि वो और ख़ुदा दोनों एक हैं। दोनों एक दूसरे की ज़ात का कामिल तौर पर इल्म रखते हैं। (यूहन्ना 10:22, 17:5, मत्ती 11:27) और उनकी ज़िंदगी एक दूसरे से छिपी नहीं। (यूहन्ना 1:18) इब्ने-अल्लाह (मसीह) के हवारी आपको “ख़ुदावंद” कहते हैं और जब आपके रसूल अपनी तक़रीरात व तहरीरात में अह्दे-अतीक़ की कुतुब के इक़तिबासात पेश करते हैं तो वो ख़ुदावंद यहोवा की बजाय आपके मुबारक वजूद का ज़िक्र करते हैं और ख़ुदा के ख़ास नाम “यहोवा की बजाय” (आपका) नाम लेते हैं। इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने यहूद को मुख़ातब करके फ़रमाया, “मेरे बाप की तरफ़ से सब कुछ मुझे सौंपा गया है और कोई बेटे को नहीं जानता सिवाए बाप के और कोई बाप को नहीं जानता सिवाए बेटे के और उस के जिस पर बेटा उस को ज़ाहिर करना चाहे।” (मत्ती 11:27) ख़ुदा के मुताल्लिक़ आपका इल्म-उल-यक़ीन इस दर्जे तक यक़ीनी था कि आपने यहूद को फ़रमाया, कि “मैं ख़ुदा को कामिल तौर पर जानता हूँ।” (यूहन्ना 8:19) और “अगर मैं कहूं कि उस को नहीं जानता तो तुम्हारी तरह झूटा हूँगा मगर मैं उसे जानता हूँ और उस के कलाम पर अमल करता हूँ।” (यूहन्ना 8:55) दीगर अम्बिया कहते थे कि ख़ुदा हम सब इन्सानों का ख़ालिक़ और बाप है। (मलाकी 2:10) वग़ैरह लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) का ख़ुदा बाप के साथ लासानी बेनज़ीर और बे अदील रिश्ता है।

38 हमने इस मौज़ू पर अपने रिसाले “अबुव्वते इलाही का मफ़्हूम” में बित्तफ़सील बह्स की है। ये रिसाला पंजाब रिलिजियस बुक सोसाइटी से मिल सकता है। (बरकतुल्लाह)

پدر نور وپسرنور بست مشہور

ازیں جافہم کن نور علیٰ نور

आपने दीगर इन्सानों को इस रिश्ते में शामिल करके ये कभी ना फ़रमाया कि “हमारा बाप” बल्कि इस रिश्ते में तमीज़ करके हमेशा फ़रमाया “मेरा बाप और “तुम्हारा बाप” (मत्ती 7:21, 8:14, यूहन्ना 20:17 वग़ैरह)

“मेरा बाप अब तक काम करता है और मैं भी काम करता हूँ। इस सबब से यहूदी उस के क़त्ल की कोशिश करने लगे क्योंकि वो ख़ुदा को ख़ास अपना बाप कह कर अपने आपको ख़ुदा के बराबर बनाता था।” (यूहन्ना 5:17) “में और बाप एक हैं।” (यूहन्ना 30:10) जो मुझे देखता है वो मेरे भेजने वाले को देखता है। मैं नूर हो कर आया हूँ ताकि जो कोई मुझ पर ईमान लाए अंधेरे में ना रहे।” (यूहन्ना 12:45) “पेश्तर इस से कि इब्राहिम पैदा हुआ मैं हूँ।” (यूहन्ना 8:58) अब ऐ बाप तू उस जलाल से जो मैं दुनिया की पैदाइश से पेश्तर तेरे साथ रखता था मुझे अपने साथ जलाली बना.....तू ने बनाए आलम से पेश्तर मुझसे मुहब्बत रखी।” (यूहन्ना 17:5, 24) राह, हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ कोई मेरे वसीले के बग़ैर बाप के पास नहीं आता। (यूहन्ना 14:6) पस इस बाहमी ताल्लुक़ व रिफ़ाकत के बिना पर आपने फ़रमाया “ज़िंदगी की रोटी मैं हूँ, अगर कोई इस रोटी में से खाए तो अबद तक ज़िंदा रहेगा बल्कि जो रोटी मैं जहां की ज़िंदगी के लिए दूँगा वो मेरा गोश्त है।” (यूहन्ना 6:51) अगर कोई प्यासा हो तो मेरे पास आकर पिए जो मुझ पर ईमान लाएगा उस के अंदर से ज़िंदगी के पानी की नदियाँ जारी होंगी। (यूहन्ना 7:38) “दरवाज़ा मैं हूँ अगर कोई मुझसे दाख़िल हो तो नजात पाएगा।” (यूहन्ना 10:9) जिस तरह बाप मुर्दों को उठाता और ज़िंदा करता है उसी तरह बेटा भी जिनको चाहता है ज़िंदा करता है।.... वो वक़्त अब है कि मुर्दे ख़ुदा के बेटे की आवाज़ सुनेंगे जिस तरह बाप अपने आप में ज़िंदगी रखता है उसी तरह उसने बेटे को भी ये बख़्शा कि अपने आप में ज़िंदगी रखे बल्कि उसे अदालत करने का इख़्तियार भी बख़्शा है।” (यूहन्ना 5 बाब) पस नूअ इन्सानी के मुस्तक़बिल और क़ौमों की क़िस्मत की बाग दौड़ आपके हाथ में है। “दुनिया का नूर मैं हूँ जो मेरी पैरवी करेगा वो अंधेरे में ना चलेगा बल्कि ज़िंदगी का नूर पाएगा।” (यूहन्ना 8:12) क़ियामत और ज़िंदगी मैं हूँ जो मुझ पर ईमान लाता है गो वो मर जाये तो भी ज़िंदा रहेगा और जो कोई ज़िंदा है वो अबद तक कभी ना मरेगा।” (यूहन्ना 11:25)

ख़ुदावंद के कलिमाते तय्यिबात में से मज़्कूर बाला चंद इक़तिबासात जो किसी एक इन्जील में से नहीं बल्कि हर चहाराना जेल में से लिए गए हैं इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी हैं कि आँख़ुदावंद के ख़याल मुबारक में आपकी ज़ात आपके दीन की असास है और आपकी शख़्सियत बेनज़ीर और आपका पैग़ाम आलमगीर है (यूहन्ना 13: 2) किसी और मज़्हब के बानी के वहम व गुमान में भी ना आया कि इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ अपनी ज़ात और पैग़ाम की निस्बत अपने मुँह से निकाले।

जब हम इन अहम तरीन दाअवों को देखते हैं और इनके अंदरूनी मआनी पर ग़ौर करते हैं तो व्रता (भुल बलिय्या, ऐसी सर-ज़मीं जिसमें रास्ता ना हो) हैरत में पड़ जाते हैं। क़ुदरती तौर पर ये सवाल हमारे दिलों में पैदा होता है कि क्या कोई मह्ज़ इन्सान ज़ईफ़-उल-बुनयान (कमज़ोर बुनियाद) इस क़िस्म के दावे कर सकता है? और अगर वो मह्ज़ इन्सान है तो क्या उस के दिमाग़ में कोई ख़लल वाक़ेअ हो गया है? इस क़िस्म के दावे कोई मह्ज़ इन्सान नहीं कर सकता और अगर वो करता है तो वो सही-उल-दिमाग़ शख़्स नहीं है। पस इस क़िस्म के दावे करने वाला इन्सान या सही-उल-अक़्ल शख़्स नहीं या वह मह्ज़ इन्सान नहीं है। कोई शख़्स जिसके सर में दिमाग़ और दिमाग़ में अक़्ल है तो नहीं कह सकता कि कलिमतुल्लाह (मसीह) नऊज़बिल्लाह पागल थे। पस नतीजा ज़ाहिर है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) मह्ज़ इन्सान ना थे बल्कि आपकी हस्ती इन्सानियत की हदूद में रह कर भी इन्सानियत से आला अरफ़ा और बुलंद व बाला थी और ज़ाते ख़ुदावंदी का मज़हर और इलाही ज़ात का नक़्श थी। (इब्रानियों 1:3, 2 कुरिन्थियों 4:4 वग़ैरह)

जनाबे मसीह के दावे और हवारईन की तहरीरात

(1)

जनाबे मसीह के दावों के बिना पर हज़रत यूहन्ना फ़र्माते हैं, कि “इब्तिदा में कलिमतुल्लाह (کلمتہ الله) था और यही कलमा ख़ुदा के साथ था और कलमा ख़ुदा था। यही कलमा इब्तिदा में ख़ुदा के साथ था। सारी चीज़ें उस के वसीले से पैदा हुईं। उस में ज़िंदगी थी और वो ज़िंदगी आदमीयों का नूर था। जिन्हों ने उस को क़ुबूल किया उसने उनको ख़ुदा के फ़र्ज़न्द बनने का हक़ बख़्शा।.... कलिमा मुजस्सम हुआ और फ़ज़्ल और सच्चाई से मामूर हो कर हमारे दर्मियान रहा और हमने उस का ऐसा जलाल देखा जो सिर्फ बाप के इकलौते को ही शायां हो सकता है।.....उस मामूरी में से हम सबने फ़ज़्ल पर फ़ज़्ल पाया। शरीअत तो मूसा की मार्फ़त दी गई लेकिन फ़ज़्ल और सच्चाई मसीह की मार्फ़त पहुंची। ख़ुदा को कभी किसी ने नहीं देखा, इकलौता बेटा जो बाप की गोद में है उसी ने ज़ाहिर किया।” (यूहन्ना 1:1-18) इस ज़िंदगी के कलमे की बाबत जो इब्तिदा से था और जिसको हमने सुना और अपनी आँखों से देखा बल्कि ग़ौर से देखा और अपने हाथों से छुवा। इसी हमेशा की ज़िंदगी की निस्बत तुमको ख़बर देते हैं जो बाप के साथ थी ताकि तुम भी हमारे शरीक हो और हमारी शराकत बाप के साथ और उस के बेटे मसीह के साथ है।” (1 यूहन्ना 1:1) “ख़ुदावंद ख़ुदा जो है और जो था और जो आने वाला है यानी क़ादिर-ए-मुतलक़ फ़रमाता है कि मैं ही हूँ।” (मुकाशफ़ा 1:8) “ज़ब्ह किया हुआ बर्रा ही क़ुद्रत और दौलत और हिक्मत और ताक़त और इज़्ज़त और तम्जीद के लायक़ है। जो तख़्त पर बैठा है उस की और बर्रे की हम्द और इज़्ज़त और तम्जीद और सल्तनत अबद-उल-आबाद रहे।” (मुकाशफ़ा 13:5 “बर्रा ख़ुदावन्दों का ख़ुदावंद और बादशाहों का बादशाह है।” (मुकाशफ़ा 17:14) “ख़ुदा के रूह को तुम इस तरह पहचान सकते हो कि जो रूह इक़रार करे कि यसूअ मसीह मुजस्सम हो कर आया है वो रूह ख़ुदा की तरफ़ से है और जो कोई रूह यसूअ का इक़रार ना करे वो ख़ुदा की तरफ़ से नहीं और यही दज्जाल (मुख़ालिफ़-ए-मसीह) की रूह है।” (1 यूहन्ना 4:2) “अगर कोई गुनाह करे तो बाप के पास हमारा एक शफ़ी (शफाअत करने वाला) मौजूद है यानी यसूअ मसीह जो ना सिर्फ हमारे ही गुनाहों का कफ़्फ़ारा है बल्कि तमाम दुनिया के गुनाहों का भी कफ़्फ़ारा है।” (1 यूहन्ना 2:2) “मसीह इसलिए ज़ाहिर हुआ कि गुनाहों को उठा ले जाये और उस की ज़ात में कोई गुनाह नहीं। जो कोई उस में क़ायम रहता है वो कोई गुनाह नहीं करता।” (1 यूहन्ना 3:5) “ख़ुदा ने हमको हमेशा की ज़िंदगी बख़्शी है और ये ज़िंदगी उस के बेटे में है। जिसके पास बेटा है उस के पास ज़िंदगी है और जिसके पास बेटा नहीं उस के पास ज़िंदगी भी नहीं।” (1 यूहन्ना 5:12)

(2)

यही ख़यालात हमको बाक़ी दवाज़दा रसुल (12 रसूलों) की तक़रीरात और तहरीरात में मिलते हैं। मसलन “ख़ुदा के और जनाबे मसीह के अब्द याक़ूब (मसीह के बन्दे याक़ूब) की तरफ़ से।... हमारे ख़ुदावंद ज़ूल-जलाल यसूअ मसीह का दीन” (याक़ूब 1:1, 2:1) “हमारे ख़ुदा और मुनज्जी यसूअ मसीह की अबदी बादशाहत” रूहुल-क़ुद्दुस में दुआ मांग के।.... ख़ुदा की मुहब्बत में क़ायम और हमेशा की ज़िंदगी के लिए जनाबे मसीह की रहमत के मुंतज़िर रहो।” (ख़त यहूदाह) “इसी तरह जनाबे मसीह को ख़ुदा ने मालिक और मुनज्जी ठहरा कर अपने दाहिने हाथ से सर-बुलंद किया ताकि इस्राईल को तौबा की तौफ़ीक़ और गुनाहों की माफ़ी बख़्शे।” (आमाल 5:31) “उसने ख़ुदा का जलाल और मसीह को ख़ुदा की दाहिनी तरफ़ खड़ा देखा।” (आमाल 7:55) “हमारे ख़ुदा और मुनज्जी ख़ुदावंद मसीह की रास्तबाज़ी।” (2 पतरस 1:1) “बेटा ख़ुदा के जलाल का पर्तो और उस की ज़ात का नक़्श हो कर सब चीज़ों को अपनी क़ुद्रत के कलाम से सँभालता है वो गुनाहों को धोकर आलम-ए-बाला पर किबरिया की दहनी तरफ़ जा बैठा।...बेटे की बाबत कहता है कि ऐ ख़ुदा तेरा तख़्त अबद-उल-आबाद रहेगा और तेरी बादशाहत का असा रास्ती का असा है। ऐ ख़ुदावंद तूने इब्तिदा में ज़मीन की न्यू डाली और आस्मान तेरे हाथ की कारीगरी हैं। वो नेस्त हो जाएंगे पर तू बाक़ी रहेगा।” (इब्रानियों पहला बाब) “बेटे ने मौत के वसीले से उस को जिसे मौत पर क़ुद्रत हासिल थी यानी इब्लीस को तबाह कर दिया और जो उम्र-भर मौत के डर से गु़लामी में गिरफ़्तार रहे उनको छुड़ा लिया।...उसने आज़माईश की हालत में दुख उठाया। पस वो उनकी भी मदद कर सकता है जिनकी आज़माईश होती है।” (इब्रानियों 2:14-15) “हर एक अपने गुनाहों की माफ़ी के लिए ख़ुदावंद मसीह के नाम पर बपतिसहमा ले।” (इब्रानियों 2:28) इस “ज़िंदगी के मालिक” के नाम से मोअजज़ात वक़ूअ में आते थे। “मसीह के सिवा किसी दूसरे के वसीले से नजात नहीं क्योंकि आस्मान के नीचे आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया जिसके वसीले से हम नजात पा सकें।” (आमाल 4:12) “यसूअ कामिल बन कर अपने सब फ़रमांबर्दारों के लिए अबदी नजात का बाइस हुआ।” (इब्रानियों 5:9) “जो इस (यसूअ) के वसीले से नजात पाते हैं वो उन को पूरी और कामिल नजात दे सकता है क्योंकि वो उनकी शफ़ाअत के लिए हमेशा ज़िंदा है।” (इब्रानियों 7:25)

(3)

हज़रत पौलुस की तक़रीरें और तहरीरें इन्ही ख़यालात का अक्स हैं जो हमको मुनज्जी आलमीन (मसीह) के कलिमात तय्यिबात और आपके दवाज़दा (12) रसूलों के कलाम में मिलते हैं जिनका ज़िक्र मुश्ते नमूना इज़ख़रवारे (ढेर में से मुठ्ठी भर नमूने) सुतूरे बाला में किया गया है। चुनान्चे रसूल मक़्बूल फ़रमाता है “हमारे नज़्दीक तो एक ही ख़ुदा है यानी बाप और एक ही ख़ुदावंद है यानी यसूअ मसीह जिसके वसीले से सारी चीज़ें मौजूद हुईं और हम भी उसी के वसीले से हैं।” (1 कुरिन्थियों 8:6) “मसीह यसूअ वो है जो मर गया बल्कि मुर्दों में से जी उठा और ख़ुदा की दहनी तरफ़ है और हमारी शफ़ाअत भी करता है।” (रोमीयों 8:34) “मसीह यसूअ अगरचे ख़ुदा की सूरत पर था ताहम उसने ख़ुदा के बराबर होने को ग़नीमत ना समझा बल्कि अपने आपको ख़ाली कर दिया और ख़ादिम की सूरत इख़्तियार की और इन्सानी शक्ल में ज़ाहिर हुआ। ख़ुदा ने भी उसे बहुत सर-बुलंद किया और उसे वो नाम बख़्शा जो सब नामों से आला है ताकि यसूअ के नाम पर हर एक घुटना झुके ख़्वाह आसमानियों का हो ख़्वाह ज़मीनियों का ख़्वाह उन का जो ज़मीन के नीचे हैं और ख़ुदा बाप के जलाल के लिए हर एक ज़बान इक़रार करे कि यसूअ मसीह ख़ुदावंद है।” (फिलिप्पियों 2:6-11) “बेटे में हमको गुनाहों की माफ़ी हासिल है। वो अनदेखे ख़ुदा की सूरत और तमाम मख़्लूक़ात से पहले मौजूद है, क्योंकि उसी में सारी चीज़ें पैदा की गईं आस्मान की हों या ज़मीन की, देखी हों या अनदेखी, तख़्त हों या रियासतें, हुकूमतें या इख्तियारात सारी चीज़ें उसी के वसीले और उसी के वास्ते पैदा हुई हैं। वो सब चीज़ों से पहले है और उसी में सब चीज़ें क़ायम रहती हैं। वही मब्दा है। और बाप को पसंद आया कि सारी मामूरी उसी में सुकूनत करे।” (कुलस्सियों 1:14) “ख़ुदावंद मसीह के वसीले से ईमान के सबब इस फ़ज़्ल तक हमारी रसाई भी हुई जिस पर क़ायम हैं और ख़ुदा के जलाल की उम्मीद पर फ़ख़्र करें।” (रोमीयों 2:5) “गुनाह की मज़दूरी मौत है मगर ख़ुदा की नेअमत और बख़्शिश हमारे ख़ुदावंद मसीह में हमेशा की ज़िंदगी है।” (रोमीयों 6:23) “तुम ख़ुदावंद मसीह के नाम से हमारे ख़ुदा की रूह से धुल गए और पाक हुए और रास्तबाज़ी भी ठहरे।” (1 कुरिन्थियों 6:11) “ख़ुदा का शुक्र है जो हमारे ख़ुदावंद मसीह के वसीले से हमको गुनाह और मौत पर फ़त्ह बख़्शता है।” (1 कुरिन्थियों 15:57) “मसीह में सब चीज़ों का मजमूआ हो जाए ख़्वाह वो आस्मान की हों, ख़्वाह ज़मीन की, तुम्हारे दिल की आँखें रोशन हो जाएं ताकि तुमको मालूम हो कि ईमान लाने वालों के लिए उस की क़ुद्रत क्या ही बेहद है। उस की बड़ी क़ुव्वत की तासीर के मुवाफ़िक़ जो उसने मसीह में की।” “ख़ुदा ने अपने रहम की दौलत से उस बड़ी मुहब्बत के सबब जो उसने हमसे की जब हम क़ुसूरों के सबब मुर्दा ही थे तो हमें मसीह के साथ ज़िंदा किया। तुमको फ़ज़्ल ही से नजात मिली है मसीह ने तुमको जो दूर थे और उनको जो नज़्दीक थे दोनों को सुलह की ख़ुशख़बरी दी क्योंकि उस ही के वसीले से हम दोनों की एक ही रूह में बाप के पास रसाई होती है। पस अब तुम परदेसी और मुसाफ़िर नहीं रहे बल्कि मुक़द्दसों के हम-वतन और ख़ुदा के घराने के हो गए।” (इफ़िसियों 2:19) “ये बात हक़ और क़ुबूल करने के लायक़ है कि मसीह गुनाहगारों के बचाने के लिए इस दुनिया में आया।” (1 तीमुथियुस 1:15) “इस न्यू (बुनियाद) के सिवा जो पड़ी हुई है और वो ख़ुदावंद मसीह है। कोई शख़्स दूसरी न्यू नहीं रख सकता।” (1 कुरिन्थियों 3:11) “अगर कोई मसीह में है तो वो नया मख़्लूक़ है पुरानी चीज़ें जाती रहीं देखो वो नई हो गईं और ख़ुदा ने मसीह के वसीले अपने साथ दुनिया का मेल मीलाप कर लिया और उनकी तक़सीरों को उनके ज़िम्मे ना लगाया।” (2 कुरिन्थियों 5:18) “मैं मसीह के साथ मस्लूब हुआ हूँ और अब मैं ज़िंदा ना रहा बल्कि मसीह मुझमें ज़िंदा है और मैं जो अब जिस्म की ज़िंदगी गुज़ारता हूँ तो ख़ुदा के बेटे पर ईमान लाने से गुज़ारता हूँ।” (ग़लतीयों 2:20) “मसीह जो जलाल की उम्मीद है तुम में रहता है।” (कुलस्सियों 1:27) “उलूहियत की सारी मामूरी मसीह में मुजस्सम हो कर सुकूनत करती है और तुम उसी में मामूर हो गए हो जो सारी हुकूमत और इख़्तियार का सर है।” (कुलस्सियों 2:9) “तुम्हारी ज़िंदगी मसीह के साथ छिपी हुई है जब मसीह जो हमारी ज़िंदगी है ज़ाहिर किया जाएगा तो तुम भी उस के साथ जलाल में ज़ाहिर किए जाओगे।... मसीह सब कुछ और सब में है।” (कुलस्सियों 3:3) “जिस पर मैंने भरोसा रखा है मैं उस को जानता हूँ और मुझे यक़ीन है कि वो मेरी अमानत की उस दिन तक हिफ़ाज़त कर सकता है।” (2 तीमुथियुस 1:12)

मुन्दरिजा बाला इक़तिबासात के इलावा बीसियों आयात ऐसी हैं जो ये साबित करती हैं कि पौलुस रसूल के ख़याल में जनाबे मसीह की शख़्सियत लासानी, बे-अदील, आलमगीर और जामे शख़्सियत है। जनाबे मसीह कायनात का मर्कज़, इब्ने-अल्लाह और ख़ुदा है जो हमारी ख़ातिर इन्सान बना ताकि हमारा मिलाप ख़ुदा के साथ हो जाए। आपकी ज़ात-ए-पाक आपकी पैदाइश दुनिया जहां से निराली, आपका पैग़ाम सबसे आला है। रूहानियत के मदारिज व मनाज़िल में आपको वो दर्जा हासिल है जो किसी दूसरे इन्सान ज़ईफ़-उल-बुन्यान (कमज़ोर बुनियाद) को हासिल ना हो सका और ना हो सकता है। आप आदम-ए-सानी और नई इन्सानियत के बानी हैं। आपकी मौत और ज़फ़रयाब क़ियामत ने बनी नूअ इन्सान को ज़िंदा कर दिया। आपका जलाल उलूहियत का अक्स और इन्सानियत का कमाल और आपकी मामूरी हर तरह से सबको मामूर कर देने वाली है और इलाही इरादे के मुताबिक़ इस कायनात का “इंतिज़ाम ऐसा हुआ कि” मसीह में सब चीज़ों का मजमूआ हो जाए। ख़्वाह वो आस्मान की हों ख़्वाह ज़मीन की।” और आपको “वो नाम बख़्शा गया जो सब नामों से आला है ताकि आपके नाम पर हर घुटना टिके और हर एक ज़बान इक़रार करे कि यसूअ मसीह ख़ुदावंद है।” (आमाल 4:12)

(4)

सुतूर बाला से नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि इन्जील जलील की तमाम कुतुब की ये मुत्तफ़िक़ा शहादत है (जिसके ख़िलाफ़ तमाम इन्जील में कोई सदा नहीं उठती) कि जनाबे मसीह की शख़्सियत एक जामे, बेनज़ीर और आलमगीर हस्ती है। आपके दवाज़दा (12) रसूलों की शहादत निहायत अहम है क्योंकि वो बयान करते हैं कि वो अपने मौला की बाबत लिखते हैं “ज़िंदगी कलाम था। जिसको हमने सुना और अपनी आँखों से देखा, बल्कि ग़ौर से देखा और अपने हाथों से छुआ। जो कुछ हमने देखा और सुना है तुमको भी उस की ख़बर देते हैं, ताकि तुम भी हमारे शरीक हो।” (1 यूहन्ना 1:1) ये उन लोगों की गवाही है जिन्हों ने “शुरू ही से” (लूक़ा 1:2) “आपका अक़्वाल व अफ़ाल, रफ़्तार व गुफ़तार, नशिस्त व बर्ख़ासत, मज़ाक़ तबइयत, तर्ज़ ज़िंदगी, अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू, तरीक़ मुआशरत, खाना पीना, सोना जागना, हँसना बोलना वग़ैरह देखा था जो आपकी आज़माईश में बराबर आपके साथ रहे।” (लूक़ा 22:28) “जब ऐसे लोग आपकी निस्बत हम-आवाज़ हो कर कहें कि “जिसने आपको देखा उसने ख़ुदा को देखा।” कि आपकी शख़्सियत को इन्सानों के दर्मियान वो दर्जा हासिल है जो लासानी है और ऐसा आला और अर्फ़ा है कि कोई ख़ाकी इन्सान वहां तक नहीं पहुंच सकता तो हमको सर-ए-तस्लीम ख़म किए बग़ैर चारा नहीं रहता।

जनाबे ईसा मसीह नूअ इन्सानी के दर्मियानी हैं

मसीहिय्यत का ये अक़ीदा है कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) ख़ुदा और नूअ इन्सानी के बीच में एक दर्मियानी (वसीला) है। चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस फ़र्माते हैं कि, “ख़ुदा एक है और ख़ुदा और बनी नूअ इन्सान के बीच में दर्मियानी भी एक ही है यानी ख़ुदावंद मसीह जो इन्सान है।” (1 तीमुथियुस 2:5, रोमीयों 1:8, 6:23, 8:34, 1 कुरिन्थियों 6:11, 15:57, इफ़िसियों 2:13-18, 3:12, 5:20, कुलस्सियों 3:17 वग़ैरह)

(1)

लफ़्ज़ “दर्मियानी” एक जो माअनी (दो माअनों वाला, वो बात जिसमें कई मअनी निकलते हैं) लफ़्ज़ है और मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब और ख़यालात के अश्ख़ास इस का मतलब मुख़्तलिफ़ तौर पर समझते हैं।

अगर इस लफ़्ज़ का मफ़्हूम ये है कि ख़ुदा एक ऐसी बुलंद व बाला और बरतर हस्ती है जिस तक इन्सान की रसाई ना-मुम्किन है पस ख़ुदा और इन्सान के दर्मियान एक “दर्मियानी” के वजूद का होना लाज़िम है तो मसीहिय्यत इस मअनी में “दर्मियानी” की हरगिज़ क़ाइल नहीं। क्योंकि इस मफ़्हूम के मुताबिक़ ख़ुदा और इन्सान के दर्मियान एक ऐसी वसीअ ख़लीज हाइल है जिसको उबूर (पार) करना एक नामुम्किन अम्र है। मसीहिय्यत ने इब्तिदा ही से इस क़िस्म के ख़यालात को बिद्अत क़रार देकर मर्दूद ठहराया।

जो लोग मसलन मुसलमान इस क़िस्म के ख़यालात के पाबंद हैं वो अपने-अपने ख़याल के मुताबिक़ ख़ुदा को समझना चाहते हैं। उनका ख़याल है कि ख़ुदा एक मुतलक़ उल-अनान बादशाहों का बादशाह और शहंशाहों का शहनशाह है और जिस तरह एक दुनियावी शहनशाह के दरबार में किसी ग़रीब की रसाई बजुज़ किसी दर्मियानी के नहीं हो सकती, उसी तरह ख़ुदा-ए-बुलंद व बरतर का मुक़ाम ऐसा रफ़ी और आली है कि उस के हुज़ूर तक किसी मह्ज़ इन्सान की रसाई बग़ैर किसी दर्मियानी के नहीं हो सकती लेकिन मसीहिय्यत ख़ुदा के ऐसे तसव्वुर के क़ुल्लियतन ख़िलाफ़ है। इस का मक़ूला बअल्फ़ाज़-ए-हाफ़िज़ शीराज़ी ये है :-

ہر کہ خواہد گوبیاوہر کہ خواہد

گیر دوار وحاجب ودرباں دریں

मसीहिय्यत का बुनियादी उसूल जिस पर उस के तमाम मोअतक़िदात का इन्हिसार है ये है कि ख़ुदा हमारा बाप है। (मत्ती 5:45) जिसकी ज़ात मुहब्बत है। (1 यूहन्ना 4:8) पस ख़ुदा की ज़ात में और इन्सान की ज़ात में कोई ख़लीज हाइल नहीं हो सकती और ना उनमें किसी क़िस्म की मुग़ाइरत (अजनबीयत) है। किताबे मुक़द्दस का इब्तिदाई सबक़ ये है कि “ख़ुदा ने इन्सान को अपनी सूरत पर पैदा किया।” (पैदाइश 1:27) और उस का इंतिहाई सबक़ ये है कि “ख़ुदा ने दुनिया से ऐसी मुहब्बत रखी।” (यूहन्ना 3:16) कि क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला इस इलाही मुहब्बत की लंबाई और चौड़ाई, ऊंचाई और गहराई का तसव्वुर बाँधने से आजिज़ है। (इफ़िसियों 3:18) ऐसी तालीम का लाज़िमी नतीजा ये है कि ख़ुदा और इन्सान के दर्मियान अजनबीयत और मुग़ाइरत की बजाय मुहब्बत का रिश्ता ताल्लुक़ और रिफ़ाक़त हो सकता है। (1 यूहन्ना 4 बाब) इस उसूल की रोशनी में ये ज़ाहिर है कि मसीहिय्यत किसी ऐसे दर्मियानी की क़ाइल नहीं जिसका मक़्सद ये है कि वो कुल्लियतन मुख़्तलिफ और मुतज़ाद हस्तीयों को यकजा करने का वसीला बने। (ग़लतीयों 3:19, रोमीयों 3:24, 5:8)

(2)

लेकिन अगर लफ़्ज़ “दर्मियानी” का मतलब “वसीला” हो तो मसीहिय्यत सिर्फ़ मुकाशफ़ा के मतलब में क़ाइल है। मैं अपने मतलब को एक आम फहम मिसाल से समझाता हूँ। नाज़रीन किताब को मेरे ख़यालात का जो मेरे ज़हन में हैं किस तरह पता चल सकता है? ये ज़ाहिर है कि मैं ख़ामोश रहूं तो वो मेरे ख़यालात से वाक़िफ़ नहीं हो सकते। चुनान्चे शेख़ सादी शीराज़ी कह गए हैं :-

چومرد سخن نگفتہ باشد

عیب وہنر ش نہفتہ باشد

पस अल्फ़ाज़ ही एक वाहिद वसीला है जिनके ज़रीये मेरे ख़यालात का इज़्हार हो सकता है। इसी तरह हमारे पोशीदा जज़्बात का इज़्हार सिर्फ हमारे अफ़आल के वसीले से हो सकता है। अगर हम हरकात पर कामिल तौर पर ज़ब्त (क़ाबू) रख सकें और अपने चेहरे की जुंबिश, लबों की हरकत और अपने जिस्म को अपने क़ाबू में रख सकें, तो कोई शख़्स हमारे दिल के अंदरूनी जज़्बात से वाक़िफ़ नहीं हो सकता। पस हमारी नशिस्त व बर्ख़ासत हरकात व सकनात हमारी रफ़्तार व गुफ़तार हमारे अल्फ़ाज़ व कलमात हमारे आमाल व किरदार ही एक अकेला वसीला हैं, जिनके ज़रीये हमारे ख़यालात व एहसासात और जज़्बात का ग़रज़ कि हमारे अंदरूनी दुनिया का इज़्हार बैरूनी दुनिया के चलने फिरने वालों पर हो सकता है। हमारे अल्फ़ाज़ और अफ़आल एक “दर्मियानी” का फ़र्ज़ अंजाम देते हैं। जो हमारे अंदरूनी ख़यालात जज़्बात की दुनिया को बैरूनी दुनिया पर ज़ाहिर कर देते हैं।

बइय्ना इन माअनों में मसीहिय्यत ये मानती है कि जनाबे मसीह एक वाहिद वसीला हैं जिनके ज़रीये हम ख़ुदा के ख़यालात जज़्बात और उस की ज़ात से वाक़िफ़ हो सकते हैं। जिस तरह कलाम के ज़रीये हम किसी शख़्स के दिल के ख़यालात से वाक़िफ़ हो सकते हैं, उसी तरह हम जनाबे मसीह के वसीले ख़ुदा के दिल के ख़यालात से वाक़िफ़ हो सकते हैं। यही वजह है कि आपको कलिमतुल्लाह (अल्लाह का कलमा کلمتہ اللہ) कहा गया है। (यूहन्ना 1:1, मुकाशफ़ा 19:13) जिस तरह हमारे अफ़आल हमारी ज़ात को ज़ाहिर करते हैं उसी तरह ख़ुदावंद मसीह के अफ़आल ख़ुदा की ज़ात को ज़ाहिर करते हैं। यही वजह है कि आपको ख़ुदा का मज़हर कहा गया है। (इब्रानियों 1:3) जिस तरह अल्फ़ाज़ और कलाम के बग़ैर हम किसी इन्सान के ख़यालात से वाक़िफ़ नहीं हो सकते उसी तरह मसीह कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के बग़ैर हम ख़ुदा के ख़यालात से भी वाक़िफ़ नहीं हो सकते। जिस तरह इन्सान के अफ़आल के बग़ैर हम उस की मर्ज़ी को नहीं जान सकते इसी तरह मसीह मज़हरे अल्लाह (अल्लाह के मज़हर) के बग़ैर हम ख़ुदा की मर्ज़ी को भी नहीं जान सकते। मसीहिय्यत कहती है कि ऐ लोगो क्या तुम ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात और उस की मुहब्बत से वाक़िफ़ होना चाहते हो? जनाबे मसीह के अक़्वाल व अफ़आल आपके एहसासात व जज़्बात आपकी नशिस्त व बर्ख़ासत आपकी रफ़्तार व गुफ़तार ग़र्ज़ ये कि आपकी एक एक अदा को देख लो तो तुमने ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात को देख लिया। ख़ुदावंद मसीह की ज़ात एक आईना है जिसमें हमको ख़ुदा की ज़ात का अक्स दिखाई देता है। वो “ख़ुदा के जलाल का परतू और उस की ज़ात का नक़्श है।” (इब्रानियों 1:3) “ख़ुदा को किसी ने नहीं देखा।” क्योंकि ज़ाहिरी आँखें उस को देख नहीं सकतीं लेकिन अगर कोई इन्सान ख़ुदा को देखने का ख़्वाहिशमंद है तो वो मसीह कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को देख सकता है। (यूहन्ना 1:18, 14:9) क्योंकि ख़ुदावंद मसीह में इन्सानियत का कमाल ज़हूर पज़ीर हुआ और उलूहियत की सारी मामूरी उस इन्साने कामिल में हमको नज़र आती है। (कुलस्सियों 2:9)

लाया है मेरा शौक़ मुझे पर्दे से बाहर में

वर्ना वही ख़ल्वती राज़-ए-निहाँ हूँ

(मीर)

उलूहियत की सिफ़ात को हम कामिल इन्सानियत और सिर्फ कामिल इन्सानियत के ज़रीये ही जान सकते हैं। (1 तीमुथियुस 2:5) सच्च तो ये है कि अगर ये कामिल इन्सान ना होता तो हम ख़ुदा को भी ना जान सकते। पस मसीहिय्यत एक और सिर्फ एक वाहिद वसीला यानी ख़ुदावंद मसीह की क़ाइल है, जिसके वसीले बनी नूअ इन्सान ख़ुदा को जान सकते हैं। (आमाल 4:12)

(3)

पस अगर कोई ये सवाल करे कि ख़ुदावंद मसीह ने ख़ुदा को किस तरह ज़ाहिर किया है? तो मसीहिय्यत इस का ये जवाब देती है कि जनाबे मसीह ने अपनी तालीम, ज़िंदगी और मौत और क़ियामत के ज़रीये ख़ुदा की ज़ात और अबुव्वत को उस की मुहब्बत और इस मुहब्बत के ईसार को बनी नूअ इन्सान पर ज़ाहिर किया है।

अव्वल : जनाबे मसीह की तालीम ने लासानी तौर पर हमको ख़ुदा का इर्फ़ान और इल्म बख़्शा है। ये तालीम सिर्फ़ चंद हज़ार अल्फ़ाज़ पर मुश्तमिल है जो मामूली पढ़ा लिखा शख़्स दो तीन घंटों के अंदर बख़ूबी पढ़ सकता है। लेकिन इन चंद हज़ार अल्फ़ाज़ ने दुनिया की काया पलट दी है और दो हज़ार साल से मशरिक़ व मग़रिब के सदहा ममालिक की हज़ार-हा अक़्वाम के लाखों करोड़ों इन्सान ख़ुदा की मुहब्बत को जान गए हैं।

दोम :है ख़ुदा नूर-ए-मुहब्बत मज़हर उस का है मसीह ख़ुदावंद मसीह ने ना सिर्फ अपनी तालीम से ख़ुदा को हम पर ज़ाहिर किया है, बल्कि आपने अपनी तालीम पर अमल करके बे-अदील ज़िंदगी और ईसार से ख़ुदा की मुहब्बत को बनी नूअ इन्सान पर ज़ाहिर किया है। आपने अपनी ज़िंदगी का एक एक लम्हा इस बात के लिए वक़्फ़ कर दिया था कि गुनेहगारों को ना सिर्फ़ पनदो नसीहत की जाये बल्कि उनकी तलाश की जाये। (लूक़ा 9:10) जिस तरह ख़ुदा गुनाहगारों की तलाश करता है। (लूक़ा 15:4) उनके मज़्हबी पेशवा उनको उनके पेशा और अफ़आल के वजह से अछूत गिरादन्ते थे। (लूक़ा 15:2) और ख़ुदावंद मसीह को अज़रूए ताना कहते थे कि वो “गुनेहगारों का यार” है। (मत्ती 11:19) लेकिन दुश्मनों का ये ताना दर-हक़ीक़त जनाबे मसीह का बेहतरीन ख़िताब है क्योंकि ख़ुदा गुनेहगारों से मुहब्बत रखता है। (यूहन्ना 3:16) और आपकी ज़िंदगी ख़ुदा के दिल के जज़्बात की बेहतरीन तर्जुमान थी। पस आप ने अपनी ज़िंदगी को गुनाहगारों पर ख़ुदा की अज़ली मुहब्बत को ज़ाहिर करने की ख़ातिर वक़्फ़ कर दिया।

है ख़ुदा नूर-ए-मुहब्बत मज़हर उस का है मसीह

हमको हक़ ने अपनी सूरत और दिखलाई नहीं

(वाइज़)

जनाबे मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात पर ग़ौर करो तो तुमको मालूम हो जाएगा कि आपकी ज़िंदगी के तमाम के तमाम वाक़ियात ख़ुदा की मुहब्बत और उस के रहम और तरस का इज़्हार हैं। अगर जनाबे मसीह को राह में कौड़ी मिल गए तो अहले-यहूद के मज़्हबी पेशवाओं की तरह उन्हें अछूत क़रार देकर आपने उनसे किनारा-कशी ना की बल्कि उनको छूकर शिफ़ा बख़्शी। (मर्क़ुस 1:40) अगर कोई मफ़लूज, अंधे, गूँगे, बहरे, अपाहिज, दीवाने, बीमार, लाचार, गुनेहगार मिल गए तो आपने ख़ुदा की मुहब्बत को उन पर ज़ाहिर किया और उनको शिफ़ा बख़्शी। (मर्क़ुस 1:34, मत्ती 12:15, 11:54) आप कमज़ोरों के हामी, बेकसों के हम्दर्द लाचारों के मददगार गुनेहगारों के यार ग़म-ज़दों के ग़मख़्वार, मुसीबत ज़दों के ग़मगुसार (हम्दर्द) थे। ग़र्ज़ ये कि आप इलाही मुहब्बत का मुजस्समा थे और हर दर्जे और हर हालत के इन्सानों पर हर वक़्त ख़ुदा की लाज़वाल मुहब्बत को ज़ाहिर करने का वसीला थे। (मर्क़ुस 1:28)

सोम : जनाबे मसीह ने ना सिर्फ अपनी लासानी तालीम और बे-अदील ज़िंदगी के ज़रीये ख़ुदा की मुहब्बत को ज़ाहिर करने का वसीला बने बल्कि आपने अपनी बेनज़ीर मौत से ख़ुदा की मुहब्बत को बनी नूअ इन्सान पर ज़ाहिर कर दिया। आपकी ज़िंदगी ख़िदमत, ईसार और क़ुर्बानी की ज़िंदगी थी। आपने इस हक़ीक़त को (जो आपकी तालीम का लुब्बे लबाब है) अपनी ज़िंदगी से ज़ाहिर कर दिया कि दूसरों की ख़ातिर दुख उठाना दर-हक़ीक़त मुहब्बत का बेहतरीन इज़्हार है। (मत्ती 20:28) आपने दुनिया को इस हक़ीक़त से आगाह कर दिया कि क़ुर्बानी और मुहब्बत एक ही शेय कि दो मुख़्तलिफ़ पहलू हैं। ये ज़ाहिर है कि जो शख़्स किसी से मुहब्बत करता है वो उस की ख़ातिर हर तरह की अज़ीयत और दुख झेलने को तय्यार होता है (यूहन्ना 15:13) जिस तरह माँ अपने बच्चे की ख़ातिर या एक सादिक़ मुहिब्ब-ए-वतन अपने वतन की ख़ातिर मुहब्बत की वजह से दुख उठाता है और अपने आपको क़ुर्बान कर देता है। इब्ने-अल्लाह (मसीह) की सलीबी मौत ख़ुदा की मुहब्बत का बेहतरीन मुकाशफ़ा है क्योंकि इस मौत ने दुनिया पर इस हक़ीक़त को आला तरीन तरीक़े पर ज़ाहिर कर दिया है कि मुहब्बत का ताज अपनी जान की क़ुर्बानी और ईसार-ए-नफ़्स है। (इफ़िसियों 5:2, 5:25) पस कोह-ए-कलवरी पर ख़ुदावंद मसीह की सलीबी मौत के वसीले हम इन्सानी मुहब्बत के कमाल और इलाही मुहब्बत की तड़प और ईसार की झलक का नज़ारा देख सकते हैं।

लेकिन ये ज़ाहिर है कि क़ुर्बानी और ईसार का एक मक़्सद ज़रूर होता है। क़ुर्बानी और ईसार के ज़रीये हम उस मक़्सद को हासिल करना चाहते हैं जो मुहब्बत की इल्लत-ए-ग़ाई होती है। मसलन एक सादिक़ मुहिब्ब-ए-वतन बेइज़्ज़ती, अज़ीयत, तशद्दुद, क़ैद वग़ैरह की बर्दाश्त करता है और उस का मक़्सद ये होता है कि उस की क़ुर्बानी के वसीले उस का वतन ग़ैरों की गु़लामी से नजात और मख़लिसी पाए और आज़ादी हासिल करके एक नई ज़िंदगी का दौर शुरू करे। इसी तरह ख़ुदावंद मसीह की क़ुर्बानी और ईसार और सलीबी मौत की अज़ीयत का मक़्सद ये है कि इस क़ुर्बानी के वसीले नूअ इन्सानी शैतान और गुनाह की गु़लामी से नजात और मख़लिसी पाए और आज़ादी हासिल करके एक नई ज़िंदगी का दौर शुरू करे। मैं इस नुक्ते को एक मिसाल से वाज़ेह करता हूँ। (लूक़ा 15 बाब) की तम्सील से ज़ाहिर है, कि अगर किसी नेक माँ या सालिह बाप का बेटा बुरी सोहबतों में पड़ जाये और अपनी ज़िंदगी और दौलत शराब खोरी, बदचलनी और अय्याशी में ज़ाए कर दे तो जितनी ज़्यादा मुहब्बत माँ बाप अपने बेटे से करते हैं उतना ही ज़्यादा दुख और सदमा उनके दिलों को होगा। इसी तरह ख़ुदा बाप हमसे मुहब्बत रखता है और हमारे गुनाहों की वजह से उस को बेहद दुख और सदमा उनके दिलों को होता है। इसी तरह ख़ुदा बाप हमसे लामहदूद मुहब्बत रखता है और हमारे गुनाहों की वजह से उस को बेहद दुख और रंज व सदमा होता है। जिस तरह माँ की ममता चाहती है उस का बद-चलन बेटा ताइब हो कर नई ज़िंदगी बसर करे। उसी तरह ख़ुदा की मुहब्बत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि गुनेहगार इन्सान ताइब हो कर नई ज़िंदगी बसर करे। जिस तरह बेटा ये महसूस करके कि उस की बदचलनी की वजह से बाप के मुहब्बत भरे दिल को सदमा पहुंचा है। अपनी बदी से पशेमान (शर्मिंदा) हो कर बाप के पास वापिस आता है उसी तरह गुनेहगार ये महसूस करता है कि इन्सान के तकब्बुर, ख़ुदग़रज़ी, दुश्मनी, इनाद और गुनाह ने मसीह को मस्लूब किया था और वो ख़ुद अपने अंदर बईना वही गुनाह देखता है जिनकी वजह से मसीह मस्लूब किया गया। पस वो जनाबे मसीह की क़ुर्बानी और अज़ीयत को देखकर अपनी बदी से पशेमान (शर्मिंदा) हो कर कहता है कि, “मैं उठकर अपने बाप के पास जाऊँगा और उस को कहूँगा कि ऐ बाप मैंने तेरी नज़र में गुनाह किया है और अब इस लायक़ नहीं रहा कि तेरा बेटा कहलाऊँ।” (लूक़ा 15:18) जिस तरह बाप अपनी मुहब्बत की वजह से अपने ताइब बेटे को क़ुबूल करके शादमान होता है उसी तरह “एक तौबा करने वाले गुनेहगार की बाबत आस्मान पर ख़ुशी होती।” (लूक़ा 15:17) जिस तरह बाप के ताल्लुक़ात अपने ताइब बेटे से अज़ सर-ए-नौ ऐसे हो जाते हैं कि वो उस की गुज़श्ता बद-चलनी को दिल से मिटा देता है और अपने सरमाया की दौलत से उस को पांव पर खड़ा होने में मदद देता है, उसी तरह ख़ुदा बाप के ताल्लुक़ात ताइब इन्सान से अज़ सर-ए-नौ एसे हो जाते हैं कि ख़ुदा उस की गुनेहगारी को मिटा देता है। (रोमीयों 3:25) और अपने बेक़ियास फ़ज़्ल की दौलत से उस को क़ाबिल कर देता है कि वो रुहानी तौर पर अपने पांव पर खड़ा हो सके और नई ज़िंदगी बसर कर सके। (रोमीयों 5:20-21) ग़र्ज़ ये कि जिस तरह माँ या बाप के दिल का दुख बेटे की बहाली का वसीला होता है उसी तरह ख़ुदावंद मसीह की ईसार भरी ज़िंदगी और सलीबी मौत गुनेहगार इन्सान की बहाली का वसीला हो जाती है। (2 कुरिन्थियों 5:18, इब्रानियों 9:14)

चहारुम : ना सिर्फ ख़ुदावंद मसीह की बेनज़ीर तालीम, लासानी ज़िंदगी और सलीबी मौत ख़ुदा की मुहब्बत के इज़्हार का वसीला हैं, बल्कि आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत भी ख़ुदा की ज़ात को हम पर ज़ाहिर करती है। इन्सानी तकब्बुर, ख़ुद-ग़रज़ी, दुश्मनी और गुनाह ने जनाबे मसीह को मस्लूब करवाया था, लेकिन आपकी ज़फ़रमंद क़ियामत इस बात का बय्यन सबूत है कि बदी की ताक़तें नेकी को कभी मग़्लूब नहीं कर सकतीं, कि नेकी बाला आख़िर तमाम रुकावटों और शैतानी कुव्वतों पर ग़ालिब हो कर रहेगी। गुनाह का ग़लबा और बदी का तसल्लुत आरिज़ी और चंद रोज़ा है। ख़्वाह ये तसल्लुत हमारे दिल पर हो, ख़्वाह बैरूनी दुनिया पर हो और कि ख़ुदा की मुहब्बत इस बात पर क़ादिर है कि वो बदी और गुनाह को ज़ाइल (ख़त्म) कर दे। (यसअयाह 46:11, रोमीयों 6 बाब)

(4)

पस मसीहिय्यत के मुताबिक़ जनाबे मसीह सिर्फ़ इस माअनी में दर्मियानी हैं। आपके ज़रीये नूअ इन्सान को ख़ुदा का हक़ीक़ी इर्फ़ान और उस की ज़ात का सही इल्म हासिल हुआ है। कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम आपकी लासानी ज़िंदगी, आपकी बेनज़ीर क़ुर्बानी और मौत और आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत आपकी लाज़वाल मुहब्बत और उस के अज़ली मक़्सद को बईना उसी तरह ज़ाहिर कर देती हैं जिस तरह अक़्वाल व अफ़आल हमारे दिलों के ख़यालात व जज़्बात को ज़ाहिर कर देते हैं। यहां तक कह सकते हैं कि ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि ख़ुदावंद मसीह की तालीम, ज़िंदगी मौत और क़ियामत के बग़ैर ख़ुदा की ज़ात और उस की मुहब्बत को जिस तौर पर हम अब जानते हैं हरगिज़ ना जान सकते कि ताइब हो कर अपने गुनाहों से इस तौर पर पशेमान (शर्मिंदा) हो सकते। क्योंकि ख़ुदावंद मसीह की ईसार मुहब्बत और सलीबी मौत तौबा की बेहतरीन मुहर्रिक हैं। आपकी मौत के बग़ैर ना तो हमको अपने गुनाहों का यक़ीन होता, ना हम इस तौर पर पशेमान (शर्मिंदा) हो सकते। क्योंकि ख़ुदावंद मसीह की ईसार भरी ज़िंदगी और क़ुर्बानी और सलीबी मौत तौबा की बेहतरीन मुहर्रिक हैं। आपकी मौत के बग़ैर ना तो हमको ख़ुदा की अथाह मुहब्बत का इल्म होता, ना हमको उस मुहब्बत की ग़ायत और मक़्सद का पता चलता और ना हमको अपने गुनाहों की मग़्फिरत का यक़ीन आता और ना आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत के बग़ैर इस बात का यक़ीनी इल्म होता कि नेकी बदी की ताक़तों पर ज़रूर-बिल-ज़रूर ग़ालिब हो कर रहती है और कि इन्सान उस अबदी ज़िंदगी को हासिल कर सकता है जो ज़माँ व मकान की क़ुयूद से बाला है और ख़ुदा की रिफ़ाक़त का दूसरा नाम है।

मसीह ख़ुदा का मज़हर

ख़ुदा कुल कायनात का ख़ालिक़ है। मख़्लूक़ात पर नज़र करके हमको किसी हद तक ख़ालिक़ की ज़ात व सिफ़ात का पता चलता है पस ख़ुदा ने फ़ित्रत और माद्दी दुनिया के ज़रीये नूअ इन्सानी को एक हद तक अपना इल्म और मुकाशफ़े का ज़हूर अता किया है। चुनान्चे एक साहब ने कहा कि “عالم ہمہ مرات جمال ازلی است” यानी दुनिया अज़ली जमाली का नज़ारा है। शेख़ सादी अलैहि-रहमा भी कह गए हैं :-

برگ درختان سبز در نظر ہوشیار

ہر ورق دفتر یست ازمعرفت

कुतुब समावी से भी हमको ये पता चलता है, कि बाज़ औक़ात ख़ुदा ख़ास तौर पर माद्दी अश्या को अपने ज़हूर का वसीला बनाता है। चुनान्चे ख़ुरूज की किताब में लिखा है कि ख़ुदा एक झाड़ी में आग के शोले की सूरत में हज़रत मूसा पर ज़ाहिर हुआ और खुदा ने उस को झाड़ी में से पुकारा और कहा, अपने पांव से जूता उतार क्योंकि जिस जगह तू खड़ा है वो (ज़हूर ख़ास के सबब से) पाक और मुक़द्दस ज़मीन है। मैं तेरे बाप अब्राहाम का ख़ुदा हूँ। (ख़ुरूज 3:1-6) क़ुरआन में भी तौरात के अल्फ़ाज़ वारिद हुएं हैं, “जब मूसा आग के पास पहुंचा तो मैदान के दाएं किनारे मुक़द्दस जगह में झाड़ी से ये आवाज़ आई कि ऐ मूसा मैं रब-उल-आलमीन हूँ।” (सूरह क़सस आयत3 0) पर लिखा है “ये आवाज़ दी गई कि मुबारक है वो जो आग में है और उस के आस-पास है।” (सूरह नहल आयत 3)

खुदा ने ना सिर्फ झाड़ी के शोले में अपना ज़हूर और जलवा दिखाया बल्कि उसने अपना जलाल मूसा और बनी-इस्राईल पर “दिन के वक़्त बादल के सुतून में” और रात के वक़्त “आग के सुतून में” ज़ाहिर किया। (ख़ुरूज 13:21-22, 19:9) ख़ुदा ने मूसा को और बनी-इस्राईल को कोह-ए-सिना पर अपना जलाल दिखाया, “जब सुबह होते ही बादल गरजने और बिजली चमकने लगी और पहाड़ पर काली-घटा छा गई और क़र्ना की आवाज़ बहुत बुलंद हुई और सब लोग डेरों में काँप गए। कोह-ए-सिना ऊपर से नीचे तक धुंए से भर गया क्योंकि ख़ुदावंद शोले में हो कर उतरा और सारा पहाड़ हिल गया।” (ख़ुरूज 19:16-20) जब हज़रत मूसा ने ख़ेमा खड़ा किया तो “अब्र का सुतून उतर कर ख़ेमे के दरवाज़े पर ठहरा रहता और ख़ुदावंद मूसा से बातें करने लगता और सब लोग अपने डेरों के दरवाज़े पर ख़ुदा को सज्दा करते जैसे कोई शख़्स अपने दोस्त से बातें करता है वैसे ही ख़ुदावंद रूबरू हो कर मूसा से बातें करता था।” (ख़ुरूज 33:10-11) जब मूसा ने कहा, तू मुझे अपना जलाल दिखा तो ख़ुदा ने कहा, तू मेरा चेहरा नहीं देख सकता क्योंकि इन्सान मेरा चेहरा देखकर ज़िंदा नहीं रह सकता। तब ख़ुदावंद उस के आगे से ये पुकारता हुआ गुज़रा “ख़ुदावंद ख़ुदा रहीम और मेहरबान है। क़हर करने में धीमा और शफ़क़त और वफ़ा में ग़नी है। हज़ारों पर फ़ज़्ल करने वाला गुनाह और तक़सीर व खता का बख़्शने वाला है।” (ख़ुरूज 33:17 ता 34:9)

खुदा ने ना सिर्फ माद्दी अश्या के ज़रीये अपने जलाल का जलवा दिखाया, बल्कि उसने अपने अम्बिया के ज़रीये और अम्बिया की रोशन शराए के ज़रीये भी अपनी ज़ात-ए-पाक का इज़्हार किया। चुनान्चे इब्रानियों के ख़त का मुसन्निफ़ लिखता है कि “अगले ज़माने में ख़ुदा ने बाप दादा से हिस्सा बह हिस्सा और तरह बह तरह नबियों की मार्फ़त कलाम करके इस ज़माने के आख़िर में हमसे अपने बेटे की मार्फ़त कलाम किया। उसने अपने इब्न (फ़र्ज़न्द) को सब चीज़ों का वारिस ठहराया और उस के वसीले उसने आलम भी ख़ल्क़ किए।” (इब्रानियों 12:1) पस ख़ुदा का ना सिर्फ अश्या-ए-फ़ित्रत में और सहाइफ़ अम्बिया में ज़हूर हुआ, बल्कि उस के ज़हूर का जलाल का आख़िरी मेअराज इब्ने-अल्लाह में हुआ जो “ख़ुदा के जलाल का परतो और उस की ज़ात का नक़्श हो कर अपनी क़ुद्रत के कलाम से सब चीज़ों को सँभालता है।” (इब्रानियों 1:3)

कलाम मुजस्सम हुआ

(1)

हमने सुतूर बाला में बतलाया है कि अश्या की फ़ित्रत में ख़ुदा का ज़हूर है और हर क़ुदरती शैय ख़ुदा का जलाल ज़ाहिर करती है। चुनान्चे ज़बूर शरीफ़ में है, “आस्मान ख़ुदा का जलाल ज़ाहिर करता है और फ़िज़ा उस की दस्तकारी दिखाती है। दिन दिन से बातें करता है और रात रात को हिक्मत सिखाती है गो उनकी आवाज़ सुनाई देती है ताहम उनका सर सारी ज़मीन पर और उनका कलाम दुनिया की इंतिहा तक पहुंचता है। ख़ुदा जलवागर हुआ है। आस्मान उस की सदाक़त बयान करता है ख़ुदा नूर को पोशाक की तरह पहनता है और आस्मान को साएबान की तरह तानता है। वो बादिलों को रथ बनाता है और हवाओं और आग के शोलों को अपना ख़ादिम बनाता है। उसने ज़मीन को क़ायम किया और उस को समुंद्र से छुपाया पहाड़ भर आए। वादीयां बैठ गईं। वो वादीयों में चश्मे जारी करता है। उस की सनअतों के फल से ज़मीन आसूदा है वो ज़मीन से ख़ुराक पैदा करता है। उसने चांद और सूरज को वक़्त और ज़मानों के इम्तियाज़ के लिए मुक़र्रर किया। मौसम-ए-बहार में वो रुए-ज़मीन को नया बना देता है। ऐ ख़ुदावंद तेरी सनअतें कैसी बेशुमार हैं। तूने सब कुछ हिक्मत से बनाया। ख़ुदावंद का जलाल अबद तक रहे।” (ज़बूर 19:104) मुक़द्दस पौलुस भी लिखता है, “ख़ुदा की अनदेखी सिफ़ात उस की अज़ली क़ुद्रत और उलूहियत दुनिया की पैदाइश के वक़्त से बनाई हुई चीज़ों के ज़रीये से मालूम हो कर साफ़ नज़र आती है।” (रोमीयों 1:20) पस ख़ुदा की क़ुद्रत और उलूहियत का अश्या-ए-फ़ित्रत और अजराम-ए-फल्की वग़ैरह के ज़रीये इल्म और मार्फ़त हासिल हो सकती है क्योंकि इनमें उलूहियत का ज़हूर है।

लेकिन ख़ुदा की मार्फ़त का और उस की उलूहियत का ज़हूर अश्या-ए-फ़ित्रत और अजराम-ए-फल्की से भी बढ़कर ख़ुदा के नबियों और आस्मानी किताबों के ज़रीये हम पर होता है। क्योंकि अम्बिया और सहाइफ़ अम्बिया हमको ना सिर्फ कायनात के ख़ालिक़ का पता देते हैं, बल्कि ख़ुदा की बादशाही और हुक्मरानी का और रिज़ा-ए-इलाही का भी पता देते हैं और हमको बतलाते हैं कि रिज़ा-ए-इलाही अटल है और उस के क़वानीन ना सिर्फ फ़ित्रत में जारी हैं, बल्कि अख़्लाक़ी और रुहानी दुनिया में भी सारी हैं और कोई शख़्स या क़ौम या मुल्क इन अटल फ़ित्री अख़्लाक़ी और रुहानी क़वानीन को बग़ैर नताइज भुगते नहीं तोड़ सकता। जिस क़ौम ने अपनी राहों को इन क़वानीन के मुताबिक़ दुरुस्त किया वो उरूज को पहुंच गई, लेकिन जिस क़ौम की रास्तबाज़ी के क़वानीन को तोड़ा और ख़ुद-सरी करके अपनी राह पर चली वो क़अर-ए-मिज़िल्लत (इंतिहाई ज़िल्लत) ज़लालत में खो गई। सहफ़ अम्बिया का पैग़ाम ही ये है कि जिस तरह फ़ित्रत में ख़ुदा की हिक्मत व दानिश का ज़हूर मौजूद है उसी तरह इन्सान की ज़िंदगी में और हर क़ौम की ज़िंदगी में उस का ज़हूर मौजूद है और अहले-दानिश अक़्वाम व मलल (मिल्लत की जमा, मज़ाहिब, अद्यान) की तारीख़ में रिज़ा-ए-इलाही का ज़हूर का मुशाहिदा कर लेते हैं और ये जान सकते हैं कि दुनिया और दुनिया की तारीख़ में ख़लाक़ कायनात का ज़हूर है। ख़ुदा के ज़हूर का जलाल और एक तारीख़ में रोशन हो कर चमकता है और ख़ालिक़ की रिज़ा और ख़ालिक़ की ज़ात व सिफ़ात का साफ़ पता देता है।

(2)

पस ख़ुदा का ज़हूर औराक़ फ़ित्रत, औराक़ सहाइफ़ अम्बिया और और एक तारीख़ में हर बालिग़ नज़र को नज़र आ जाता है। लेकिन ख़ुदा के इन मुख़्तलिफ़ ज़हूरों में फ़र्क़ है और ये फ़र्क़ सिर्फ ज़र्फ़ या वसीले या वास्ते का ही फ़र्क़ नहीं ये फ़र्क़ सिर्फ हद का या कमोबेश दर्जे का भी फ़र्क़ नहीं, बल्कि ये फ़र्क़ ज़हूरों की नौईय्यत का फ़र्क़ है। दरख़्तों के बर्ग-ए-सब्ज़ में जो ख़ुदा का ज़हूर नज़र आता है वो इस ज़हूर से नौईय्यत में फ़र्क़ रखता है जो अजराम-ए-फल्की में है बल्कि अजराम-ए-फल्की के ज़हूरों में भी फ़र्क़ है। “आफ़्ताब का जलाल और है महताब का जलाल और सितारों का जलाल और है बल्कि सितारे सितारे के जलाल में फ़र्क़ है। ज़मीनों का जलाल और है।” अजराम-ए-फल्की में जो इलाही ज़हूर से नौईय्यत में फ़र्क़ रखता है जो इब्ने-अल्लाह (मसीह) के ज़रीये हुआ इस नोई फ़र्क़ की बुनियाद वो सिफ़ात हैं जो सिर्फ मसीह कलिमतुल्लाह, रूह-उल्लाह (کلمتہ اللہ روح اللہ وجہیا فی الدنیا والا آخرت) की क़ुद्दूस ज़ात में पाई जाती हैं और किसी दूसरे फ़रज़ंद-ए-आदम में नहीं पाई जातीं। जिस निस्बत से इब्ने-अल्लाह (मसीह) की कामिल इन्सानियत और उस की ज़ात-ए-पाक की शख़्सियत दीगर फ़ानी इन्सानों से बाला और बरतर है। इसी निस्बत से ख़ुदा का ये मज़हर दीगर ज़हूरों से मुख़्तलिफ़ और इसी निस्बत से ख़ुदा के ज़हूर का नूर और नूर का जलाल साफ़ और वाज़ेह नज़र आएगा। यही वजह है कि हज़रत मूसा कलीम-उल्लाह से ख़ुदा के चेहरे का नूर ना देखा जा सका लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) ख़ुद “ख़ुदा के जलाल का परतो और उस की ज़ात का नक़्श है और अपनी क़ुद्रत से कायनात की सब चीज़ों को सँभालता है।” पस इब्ने-अल्लाह (मसीह) ख़ुदा का कामिल और अकमल मज़हर है हज़रत रूह अल्लाह की ज़ात व सिफ़ात इलाही ज़ात व सिफ़ात हैं जिनके ज़रीये नूअ इन्सानी को पूरा-पूरा इल्म हो जाता है कि रब-उल-आलमीन ख़ुदा किस क़िस्म का ख़ुदा है और उस की ज़ात व सिफ़ात किस क़िस्म की हैं। कलिमतुल्लाह (मसीह) एक पहलू से कामिल इन्सानियत का कामिल मज़हर है और दूसरे पहलू से ज़ाते इलाही का अकमल मज़हर है। आपकी ज़ात-ए-पाक में उलूहियत और कामिल इन्सानियत यकजा आपके जिस्म अतहर में नूअ इन्सानी को नज़र आएं। “ख़ुदा को कभी किसी ने नहीं देखा। उस के इब्ने वहीद ने जो महबूब इलाही है।” (लूक़ा 4:22) ख़ुदा को अह्सन और अकमल तौर पर ज़ाहिर कर दिया। आपकी इन्सानी ज़ात-ए-पाक में इलाही ज़हूर का मेअराज और इलाही जलाल का परतो और इलाही ज़ात का नक़्श ऐसा मुकम्मल और जामे है कि हज़रत रूह-उल्लाह अपनी ज़बाने मुबारक से फ़र्माते हैं “जिसने मुझे देखा उसने बाप को देखा।” (यूहन्ना 14:9) आया शरीफा “कलाम मुजस्सम हुआ।” (यूहन्ना 1:14) से मुराद सिर्फ उलूहियत का कामिल ज़हूर ही नहीं बल्कि इन्सानियत कमाल का ज़हूर भी मुराद है। यानी वो इन्सानियत जो “ख़ुदा की सूरत पर पैदा” की गई थी। (पैदाइश 1:27) इस इब्ने वहीद की वाहिद और ग़ैर-मुनक़सिम ज़ात में उलूहियत का ज़हूर और असली ख़लक़ी इब्तिदाई इन्सानियत के कमाल का ज़हूर दोनों साफ़ नज़र आते हैं। क्योंकि आपकी कामिल इन्सानियत में “उलूहियत की सारी मामूरी सुकूनत करती है।” (कुलस्सियों 1:19, 2:9, यूहन्ना 1:14, 1:16, 2 कुरिन्थियों 5:19 वग़ैरह)

(3)

अगर कोई ये सवाल करे कि वाजिब-उल-वजूद उलूहियत का ज़हूर महदूद और हादिस मसीह की इन्सानियत में किसी तरह हो सकता है? तो हम उस को हकीम क़ानी के अशआर याद दिलाते हैं :-

یکے گفتا قدیم ازاصل باحادث نہ

سپش پیوند ماباذات بے ہمتا

بگفتم راست می گوئی دراہ

ولیکن آنچہ می جوئی عیاں ازیں

लेकिन हम हकीम क़ानी की मिसाल की बजाय मोअतरिज़ की तवज्जोह इलाही और क़ुरआनी सूरह क़िसस की मज़्कूर बाला आयत (130) की जानिब मुनातिफ़ (मुतवज्जोह होने वाला) करते हैं। जिस तरह झाड़ी में महदूद और हादिस शोला अल्फ़ाज़ और आवाज़ में वाजिब-उल-वजूद “रब-उल-आलमीन” मौजूद था और हज़रत बारी तआला की हुज़ूरी की वजह से “आग और आस-पास” की अश्या मुबारक हो गईं इसी तरह कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलाम, रूह-उल्लाह की ज़िंदगी और इब्ने-अल्लाह की मौत और ज़फ़रयाब क़ियामत में बदर्जा अह्सन “उलूहियत की सारी मामूरी सुकूनत करती है।” हज़रत रूह-उल्लाह की रूह ख़ुदा का मज़हर है और आपका “नूरानी” जिस्म (मत्ती 17:23) “मुबारक” था। क्योंकि वो हर लहज़ा ख़ुदा का मज़हर था पस आपकी ज़ात-ए-पाक के वास्ते में वजूब (लाज़िम होना) व इम्कान दोनों मौजूद हैं और वाजिब और मुम्किन में रब्त का वजूद है।

بحمد اللہ کہ ربطے ہست بامطلق مقیدرا

चुनान्चे हम बाब सोम की फ़स्ल अव्वल ज़ेर उन्वान “कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) इन्सान है।” मौलाना जामी अलैहि रहमा की किताब फ़िसोस-उल-हकम (فصوص الحکم) से इक़्तिबास कर आए हैं कि :-

“हक़ीक़ी कामिल इन्सान वो है जो वजूब व इम्कान में बर्ज़ख़ हो और सिफ़ात क़दीमा और हादिसा दोनों का आईना हो। यही हक़ और ख़ल्क़ के दर्मियान वास्ता है इसी के ज़रीये ख़ुदा का फ़ैज़ तमाम मख़्लूक़ात को पहुंचता है और वही बजुज़ ज़ात-ए-हक़ के तमाम मख़्लूक़ात की बक़ा का सबब है। ये बर्ज़ख़ वजूद व इम्कान का मुग़ाइर नहीं। अगर ये ना होता तो दुनिया को ख़ुदा की मदद हासिल ना होती क्योंकि ख़ुदा और दुनिया में कोई मुनासबत और इज़तिबात ना होता।”

(स 22 मत्बूआ फै़ज़बख्श प्रैस)

بمعنی ہست پایندہ بصورت ہست زائندہ

بوجھے ازمکان بیروں بوجھے

(قآنی)

पस कलिमतुल्लाह और इब्ने-अल्लाह (मसीह) की इस “मुनासबत और इर्तिबात (मिलाप, दोस्ती)” से इस जुदाई की ख़लीज को (जो इन्सान के गुनाह की वजह से ख़ुदा और नूअ इन्सान में हाइल हो गई थी) दूर करके अज सर-ए-नौ ऐसा ताल्लुक़ पैदा कर दिया कि इन्सान फ़ैज़ाने इलाही (रूहुल-क़ुद्दुस) से हमेशा मुस्तफ़ीज़ हो कर ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) में रह सकता है।

इब्ने-अल्लाह (मसीह) की क़ुद्दूस ज़ात-ए-ख़ुदा का मज़हर है “ख़ुदा को किसी ने कभी नहीं देखा इकलौता बेटा जो बाप की गोद में है उसी ने ज़ाहिर किया।” (यूहन्ना 1:18) जनाबे मसीह ने ख़ुदा को ऐसे और अकमल तौर पर ज़ाहिर किया कि आपने सामईन को फ़रमाया, “अगर तुम मुझे जानते तो मेरे बाप को भी जान सकते।” (यूहन्ना 8:19) “जिसने मुझे देखा उसने बाप को देखा।” (यूहन्ना 12:45) क्योंकि “मैं और बाप एक हैं।” (यूहन्ना 10:30) अगर हम ये मालूम करना चाहते हैं कि ख़ुदा किस क़िस्म का ख़ुदा है तो हम जनाबे मसीह को देखकर ये जान सकते हैं कि ख़ुदा किस क़िस्म का ख़ुदा है। इलाही ज़िंदगी इसी तरह की ज़मान व मकान की क़ुयूद में बसर हुई जिनमें दीगर इन्सानों की ज़िंदगीयां बसर होती हैं और ऐसे हालात के बसर हुई जिनसे नूअ इन्सानी मानूस है। (1 तीमुथियुस 3:16) कलिमतुल्लाह (मसीह) के ख़यालात को देख कर जान सकते हैं कि ख़ुदा के क्या ख़यालात हैं। (मत्ती 16:23) आपके जज़्बात को हम देख कर कह सकते हैं कि ख़ुदा के जज़्बात किस क़िस्म के हैं। (यूहन्ना 5:22) आपका नुक़्ता निगाह ख़ुदा का नुक़्ता निगाह है। जो नजात की तदबीर आपने पेश की वो इलाही तदबीर है। (मत्ती 16 बाब) और जब हम देखते हैं कि कलिमतुल्लाह (मसीह) नूअ इन्सानी से किस क़िस्म की मुहब्बत करता है। (यूहन्ना 3:16) अगर इस दुनिया में कलिमतुल्लाह (मसीह) की सीरत ख़ुदा का अक्स नहीं और वो ख़ुदा की ज़ात की निस्बत हमको कुछ नहीं बतला सकती तो दुनिया की कोई और शए या हस्ती इस काम को सरअंजाम नहीं दे सकती। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) के ज़रीये ख़ुदा की असली सूरत हम पर ज़ाहिर हो सकती है और हम कह सकते हैं कि ख़ुदा एक एसी हस्ती है जिसको हम जान सकते हैं और जिससे हम मुहब्बत कर सकते हैं।

(4)

हम ये कह सकते हैं ख़ुदा मसीह की मानिंद है। लेकिन हमारे वो वहम व गुमान में भी नहीं आता कि हम कहें कि ख़ुदा किसी और नबी या रसूल या बुद्ध या कृष्ण की मानिंद है। ये क्यों? इस वास्ते कि हमको ख़ुदा और मसीह के दर्मियान कोई ख़लीज नज़र नहीं आती लेकिन ख़ुदा और दीगर मज़्हबी राहनुमाओं और नबियों के दर्मियान एक वसीअ ख़लीज हाइल है जो नाक़ाबिल-ए-उबूर है। जिन मज़्हबी पेशवाओं को देवता बनाया गया मसलन गौतम बुद्ध या कृष्ण वग़ैरह उनको देवताओं का दर्जा देने वाले वो लोग थे जो शिर्क और देवता परस्ती में मुब्तला थे। लेकिन इब्ने-अल्लाह की उलूहियत को मानने वाले मुश्रिक नहीं थे बल्कि ऐसे मवह्हिद (ख़ुदा को एक मानने वाला) यहूदी थे, जिन्हों ने कुल दुनिया को वहदते इलाही का सबक़ पढ़ाया था वो ख़ुद शिर्क और बुत-परस्ती से कोसों दूर भागते थे और उन बातों के ख़िलाफ़ अपनी तक़रीरों और तहरीरों में लोगों को होशियार और ख़बरदार करते थे। (आमाल 17:22, रोमीयों 1:23-25, 1 कुरिन्थियों 6:9-10, अय्यूब 5:21, मुकाशफ़ा 8:21 वग़ैरह) यहूद की तारीख़ इस बात की गवाह है कि क़ौम यहूद निहायत मुतअस्सिब मवह्हिद थी। यहूद अपने दीन और अक़ाइद की ख़ातिर हर वक़्त लड़ने मरने को तैयार रहते थे। किताब आमाल-उर्रसूल से ज़ाहिर है कि इब्तिदाई कलीसिया सिर्फ इन मवह्हिद यहूदीयों पर ही मुश्तमिल थी। क्या ये बात किसी सही-उल-अक़्ल शख़्स के ख़याल में आ सकती है कि कलीसिया के चंद ग़ैर-मारूफ़ अश्ख़ास कलिमतुल्लाह (मसीह) के मवह्हिद यहूदी हवारईन और ताबईन के होते हुए एक शख़्स को जो मह्ज़ नबी और इन्सान था उलूहियत का दर्जा देते और ये कट्टर मवह्हिद यहूदी मसीही कलीसिया “सुम्मुन-बुकमुन” (गूंगी, बहरी) ख़ामोश बैठी देखा करती और बक़ौल शख़से टुक-टुक देदम दम ना कशीदम की मिस्दाक़ बनती? आमाल-ऊर्रसूल से ज़ाहिर है कि ये लोग ख़ामोश बैठने वाले नहीं थे। उन्होंने खतना जैसी मामूली रस्म के अदा ना होने पर हंगामा मचा दिया था। (आमाल 15 बाब) क्या इस क़ुमाश (अंदाज़) के अश्ख़ास से ये उम्मीद की जा सकती है कि अगर मसीह की उलूहियत जैसा बुनियादी उसूल मुतनाज़ा अम्र होता तो वो हर्फ़-ए-शिकायत तक ज़बान पर ना लाते और सदा-ए-एहतिजाज तक बुलंद ना करते बल्कि उल्टा उस का परचार करते। इब्तिदाई कलीसिया अपने रुहानी तजुर्बा से जानती थी कि गो इब्ने-अल्लाह (मसीह) जिस्म में मोमिनीन के साथ ना थे ताहम आपकी रूह उनके अंदर बस्ती है। (आमाल 2:2 ता आख़िर, 4:8, 31, 5:32, रोमीयों 9:1, 1 कुरिन्थियों 2:10, 3:16, 2 कुरिन्थियों 1:22, इफ़िसियों 1:13, इब्रानियों 10:15 वग़ैरह) और उन सब यहूदी और ग़ैर-यहूदी मसीहीयों का मेयार एक ही था “ख़ुदा के रूह को तुम इस तरह पहचान सकते हो कि जो कोई रूह इक़रार करे कि जनाबे मसीह मुजस्सम हो कर आया है वो ख़ुदा की तरफ़ से है।” (1 यूहन्ना 4:2, 1 कुरिन्थियों 12:3) मसीह की ज़िंदा रूह मसीही कलीसिया के शुरका के साथ ज़िंदा रिफ़ाक़त रखती थी और इब्ने-अल्लाह में और ईमानदारों में बाहमी ताल्लुक़ात इस क़िस्म का था कि ईमानदार की रूह का उस के बग़ैर ज़िंदा रहना ना-मुम्किन है। (यूहन्ना 15:4)

معشوق وعشق وعاشق ہر سہ یکے ست ایں جا

दीगर मज़ाहिब-ए-आलम के हादी अपने पैरौओं के साथ इस क़िस्म का ताल्लुक़ नहीं रखते और ना रख सकते हैं। मसलन “क्या गौतम बुद्ध या मुहम्मद अरबी या कृष्ण इन्सानी रूह के साथ ऐसा ताल्लुक़ रख सकते है कि ईमानदार कहे गौतम बुद्ध या मुहम्मद या कृष्ण मुझमें ज़िंदा है और मैं जो ज़िंदगी अब जिस्म में गुज़ारता हूँ गौतम या मुहम्मद या कृष्ण पर ईमान लाने से गुज़ारता हूँ, जिसने मुझसे मुहब्बत रखी और अपने आपको मेरे लिए मौत के हवाले कर दिया पस अब मैं ज़िंदा ना रहा बल्कि गौतम या मुहम्मद या कृष्ण मुझमें ज़िंदा है।” या “मैं गौतमबुद्ध या मुहम्मद या कृष्ण के ज़रीये जो मुझको ताक़त बख़्शता है सब कर सकता हूँ।” लेकिन ये अल्फ़ाज़ और इस क़िस्म के हज़ारों फ़िक्रात इन्जील जलील की कुतुब में ईमानदारों के दर्द-ए-ज़बान हैं (फिलिप्पियों 4:13) दौरे हाज़रा में भी ग़ैर-मसीही मज़ाहिब के पैरौओं में से कोई शख़्स इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ अपने दीनी पेशवा या हादी के मुँह से नहीं निकालता मसलन ऐ शंकराचार्य, ऐ रामानुज या ऐ अफलातूं तो मेरी जान को प्यार करता है।” लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) और ईमानदार का बाहमी ताल्लुक़ ऐसा है कि दौर-ए-हाज़रा में तमाम जहान के कलीसिया-ए-जामा इस दुनिया के गोशे-गोशे में इस क़िस्म के गीत और अल्फ़ाज़ रोज़ाना हिर्ज़ जान बनाए रखती है।

दीगर मज़ाहिब-ए-आलम के हादी अपने पैरौओं के साथ इस क़िस्म का ताल्लुक़ नहीं रखते और ना रख सकते हैं। मसलन “क्या गौतम बुद्ध या मुहम्मद अरबी या कृष्ण इन्सानी रूह के साथ ऐसा ताल्लुक़ रख सकते है कि ईमानदार कहे गौतम बुद्ध या मुहम्मद या कृष्ण मुझमें ज़िंदा है और मैं जो ज़िंदगी अब जिस्म में गुज़ारता हूँ गौतम या मुहम्मद या कृष्ण पर ईमान लाने से गुज़ारता हूँ, जिसने मुझसे मुहब्बत रखी और अपने आपको मेरे लिए मौत के हवाले कर दिया पस अब मैं ज़िंदा ना रहा बल्कि गौतम या मुहम्मद या कृष्ण मुझमें ज़िंदा है।” या “मैं गौतमबुद्ध या मुहम्मद या कृष्ण के ज़रीये जो मुझको ताक़त बख़्शता है सब कर सकता हूँ।” लेकिन ये अल्फ़ाज़ और इस क़िस्म के हज़ारों फ़िक्रात इन्जील जलील की कुतुब में ईमानदारों के दर्द-ए-ज़बान हैं (फिलिप्पियों 4:13) दौरे हाज़रा में भी ग़ैर-मसीही मज़ाहिब के पैरौओं में से कोई शख़्स इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ अपने दीनी पेशवा या हादी के मुँह से नहीं निकालता मसलन ऐ शंकराचार्य, ऐ रामानुज या ऐ अफलातूं तो मेरी जान को प्यार करता है।” लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) और ईमानदार का बाहमी ताल्लुक़ ऐसा है कि दौर-ए-हाज़रा में तमाम जहान के कलीसिया-ए-जामा इस दुनिया के गोशे-गोशे में इस क़िस्म के गीत और अल्फ़ाज़ रोज़ाना हिर्ज़ जान बनाए रखती है।

ہست رب الناس رابا جان ِ ناس

(5)

ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि इब्तिदा से ले कर दौर-ए-हाज़रा तक दो हज़ार साल से हर ज़माने और मुल्क और क़ौम के सामने कलीसिया-ए-जामा ने मुनज्जी आलमीन (मसीह) की यही तस्वीर पेश की है। इस इंजीली तस्वीर के इलावा ख़ुदावंद यसूअ मसीह की और कोई तस्वीर मौजूद नहीं और अगर है तो ऐसी तस्वीर का इन्जील-ए-जलील की तस्वीर के साथ दूर का वास्ता भी नहीं और चूँकि ऐसी तस्वीर इब्ने-अल्लाह (मसीह) की तवारीख़ी तस्वीर के ऐन नक़ीज़ (मुख़ालिफ़) होगी और लिहाज़ा वो मुस्तनद और क़ाबिले एव एतबार नहीं हो सकती क्योंकि उस की बिना तवारीख़ी हक़ीक़त नहीं बल्कि मह्ज़ इन्सानी तख़य्युल है। इज्तिमा-उल-ज़द्दीन अक़्ली तौर पर मुहाल है। ज़िद्दीन में से अगर एक ग़लत हो तो दूसरा ज़रूर सही होता है और चूँकि जनाबे मसीह की वो तस्वीर जो इन्जील जलील की कुतुब में है सही है लिहाज़ा हर दूसरी तस्वीर जो उस की ज़िद है ग़लत और नाक़ाबिल-ए-क़बूल है। पस जनाबे मसीह दीगर अम्बिया की तरह एक नबी नहीं थे और ना वो ख़ुदा का एक मुकाशफ़ा और मज़हर थे बल्कि आपका मुकाशफ़ा आख़िरी और क़तई है और आप ख़ुदा के कामिल और अकमल मज़हर हैं। दीगर तमाम मकाशफ़े ग़ैर-मुकम्मल नाक़िस और ज़मान व मकान की क़ुयूद में जकड़े हुए हैं।

बाअज़ मज़ाहिब और मज़्हबी लीडरों ने ये कोशिश की है कि वो जनाबे मसीह की अज़मत को बरक़रार रखें लेकिन आपकी उलूहियत, बादशाहत, वाहिद हुक्मरानी, जामईयत, क़तईयत और आलमगीरियत का इन्कार करें। इस्लाम ने आपको “रूह-उल्लाह” कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ), وجیھاً فی الدنیا والا آخر مس ِ شیطان (अल्लाह का कलमा, अल्लाह की रूह, दुनिया व आखिरत में अल्लाह के क़रीब, शैतान के छूने से बचा हुआ) से मुनज़्ज़ह” और मर्यम बतूल की जायज़ औलाद माना है। आपकी आमदे सानी को बरक़रार रखा है। आपकी तालीम को “हिदायत”, “इमाम”, “नूर” वग़ैरह क़रार दिया है। ग़र्ज़ ये कि इस्लाम ने और दीगर मज़ाहिब के मुस्लिहीन ने इस्लाम के हमनवा हो कर आपको अज़मत दी है। लेकिन आप को वो दर्जा नहीं दिया जो इन्जील शरीफ़ की तवारीख़ी तस्वीर में दिया गया है। उन्होंने आपकी शख़्सियत और नबुव्वत को दीगर अम्बिया की शख़्सियत और नबुव्वत की मानिंद क़रार देकर आपको नबियों में से एक गिरदाना है। लेकिन आपके मुकाशफ़ा को क़तई और आख़िरी नहीं माना। आपकी तालीम, ज़िंदगी, मौत और ज़फ़रयाब क़ियामत को बनी नूअ इन्सान की नजात का बाइस नहीं जाना। लेकिन ये तस्वीर वो नहीं जो हमको इन्जील जलील की कुतुब में नज़र आती है वो तस्वीर वाक़ियात पर मबनी है लेकिन ये तस्वीर मह्ज़ इन्सानी नज़रियों और ख़यालों पर मबनी है। लिहाज़ा ये तस्वीर ग़लत है। यही वजह है कि इस्लाम में कलिमतुल्लाह (मसीह) की और इन्जील की वो क़द्र और वक़अत नहीं की जाती जो क़ुरआन की रू से भी उन का हक़ है। गो इस्लाम इन्जील को मिन-जानिब-अल्लाह (अल्लाह की तरफ से) मानता है लेकिन चूँकि उस को बे-अदील पैग़ाम क़रार नहीं देता लिहाज़ा उस का इक़रार मह्ज़ ज़बानी जमा ख़र्च है। मुसलमान इन्जील जलील के जाँफ़िज़ा पैग़ाम को पसे पुश्त फेंक देते हैं और मसीही कुतुब मुक़द्दसा का मुतालआ तक रवा नहीं रखते। जिस मज़्हबी मुसलेह ने ख़ुदावंद मसीह और आपके पैग़ाम की इसी हद तक अज़मत ना की जिस ** तो चूँकि ये अज़मत तवारीख़ी हक़ीक़त पर मबनी नहीं होती इस मुसलेह के मुक़ल्लिदीन (मुक़ल्लिद की जमा, पैरोकार) ने कलिमतुल्लाह (मसीह) को अपने दिल में वो जगह ना दी जो उन्होंने हज़रत मुहम्मद को या महात्मा बुद्ध को या कृष्ण महाराज को दी। चूँकि ऐसा ग़लत नज़रिया और ख़याल अपने अंदर ज़िंदगी नहीं रखता लिहाज़ा ज़बानी जमा ख़र्च के इक़रार के इलावा उन्होंने अमली पैराये में ये ना दिखाया कि ख़ुदावंद मसीह उनके दिलों पर हुक्मरान हैं। इस का नतीजा ये हुआ कि वो इस्लाह चंद रोज़ ही रही और फिर हर्फ़-ए-ग़लत की तरह मिट गई। मसलन हिन्दुस्तान में राजा राम मोहन राय और उनके चेलों ने इसी बुनियाद पर हिंदू मत की इस्लाह की लेकिन आज हिन्दुस्तान में ब्रहमो समाज के पैरौ लादूदे चंद हैं, जिनकी आवाज़ का कोई शुन्वा नहीं। इस इस्लाह में ज़िंदगी ना थी उन्होंने “ज़िंदगी के मालिक” (आमाल 3:15) को अपने दिलों पर हुक्मरान ना किया और सिर्फ आपके उसूल की रोशनी में अपने फ़र्सूदा मज़्हब की इस्लाह करनी चाही। उन्होंने “नई मेय को पुरानी मश्कों में भरा।” (मत्ती 9:17) जिसका नतीजा ये हुआ कि मश्कें फट गईं और उन के मज़्हब की इस्लाह की तमाम काविशें बेसूद साबित हुईं। हिंदू मज़्हब के मुस्लिहीन का ये ख़याल था कि मसीही उसूल दीगर मज़ाहिब के उसूल साथ एक जगह जमा हो सकते हैं लेकिन ये अम्र मुहाल है। ख़ुदावंद मसीह के उसूल दीगर मज़ाहिब के उसूल के साथ एक क़तार में खड़े नहीं हो सकते और ना मुनज्जी आलमीन (मसीह) दीगर मज़ाहिब के बानीयों का हमपल्ला क़रार दिए जा सकते हैं। आपकी तालीम आपकी लासानी शख़्सियत से जुदा नहीं की जा सकती। लिहाज़ा आपकी लासानी तालीम दीगर मज़ाहिब की तालीम के साथ यकजा नहीं हो सकती। अगर वो किसी मुल़्क या जमाअत में दख़ल पाएगी तो वाहिद हुक्मरान हो कर रहेगी।

अहले इस्लाम ने देखा कि मुनज्जी आलमीन की इंजीली तस्वीर में और हज़रत ईसा की क़ुरआनी तस्वीर में फ़र्क़ अज़ीम है और तस्वीर के ये दोनों रुख़ मुसावी तौर पर दुरुस्त और सही नहीं हो सकते तो उनको बजुज़ इस के और कोई चारा ना सूझा कि आँख़ुदावंद की इंजीली तस्वीर की सेहत का इन्कार कर दें। चूँकि मुसलमान बिरादरान कलिमतुल्लाह (मसीह) को सिर्फ अफ़्ज़ल नबियों में से मह्ज़ एक नबी गिरादन्ते हैं। लेकिन इन्जील जलील आपकी शख़्सियत को जामे, बेनज़ीर, बे-अदील, और आलमगीर हस्ती क़रार देती है जिसमें उलूहियत की सारी मामूरी सुकूनत करती है और चूँकि ये दोनों दावे एक ही हस्ती की तरफ़ मुसावी तौर पर मन्सूब नहीं किए जा सकते लिहाज़ा अहले इस्लाम ने बमिस्दाक़ :-

من نیز حاضر مے شوم تفسیر قرآں دربغل ۔

39 इस मौज़ू पर “अपनी किताब “क्या तमाम मज़ाहिब यकसाँ हैं?” में मुफ़स्सिल बह्स की है। (बरकतुल्लाह)

इन्जील जलील की कुतुब मुहर्रिफ़ (टेढ़ा, मज़्हब को अपने मुफ़ाद का ज़रीया बनाने वाला) क़रार दे दिया और इब्ने-अल्लाह (मसीह) की इंजीली तस्वीर को मस्नूई (खुदसाख्ता) और ग़लत क़रार दे दिया। चुनान्चे मौलाना सना-उल्लाह साहब अमृतसरी फ़र्माते हैं कि :-

“इन्जील में लिखा है कि मसीह ख़ुदा का बेटा है और मसीह को कारख़ाना क़ुद्रत में मालिक व मुख़्तार बनाया गया है और यह भी लिखा है कि मसीह इन्सानों के लिए कफ़्फ़ारा हुआ है।.... ईसाई मज़्हब की बुनियादी बातें यही हैं। (यूहन्ना 10:28, 8:58, 5:17, 6:35-51, 14:13) पस इन्जील इल्हामी नविश्ता और मज़्हबी किताब पढ़ने के क़ाबिल नहीं।”

(अहले हदीस 14 सितंबर 1936, सफ़ा 3 ता 4)

मौलाना मर्हूम की तफ़्सीर उन क़ुरआनी आयात की जिनमें इन्जील को नूर और हिदायत क़रार दिया गया है और जिसकी सेहत की तस्दीक़ क़ुरआन बार-बार करता है और मोमिनीन पर इस की तिलावत फ़र्ज़ कर देता है !

मौलाना मर्हूम मौसूफ़ का मतलब ये है कि अज़-बस कि कलिमतुल्लाह (मसीह) के वो दावे जो हमने इस फ़स्ल में लिखे हैं इन्जील में पाए जाते हैं। लिहाज़ा इन्जील मुहर्रिफ़ (तहरीफ़ की गई) है और इल्हामी नविश्ता नहीं है। हमने अपने रिसाला “क़दामत व असलिय्यत अनाजील अरबा” और रिसाला “सेहत-ए-कुतुब-मुक़द्दसा” में ये साबित कर दिया है कि अहले इस्लाम का ये दावा बातिल बे-बुनियाद और क़ुरआन की तारीख़ के सरासर ख़िलाफ़ है और कुतुब-ए-मुक़द्दसा में तहरीफ़ नहीं हुई जो मुद्दई के ज़हन में है बल्कि इस के बरअक्स रुए-ज़मीन की तमाम कुतुब-ए-मुक़द्दसा में सिर्फ इन्जील जलील ही एक ऐसी किताब है जिसकी सेहत का पाया लाजवाब है।

पस साबित हो गया कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) की वो तस्वीर जो इन्जील जलील पेश करती है सही है। चूँकि अज़रूए उसूल मन्तिक़ इज्तिमा-उल-ज़द्दीन मुहाल है। लिहाज़ा वो तमाम बयानात और ख़यालात जो इस तस्वीर के नकीस (खिलाफ) हैं सरासर ग़लत और बे-बुनियाद ज़न हैं। इब्ने-अल्लाह (मसीह) के काम और पैग़ाम ज़िंदगी और शख़्सियत के लासानी बेनज़ीर होने से इन्कार नहीं हो सकता।

(6)

दुनिया-ए-मज़ाहिब में जनाबे मसीह अकेला फ़ातेह हैं। जब से मुनज्जी आलमीन (मसीह) इस दुनिया में आए दुनिया की क़िस्मत दो हिस्सों में तक़्सीम हो गई “क़ब्ल अज़ मसीह” और “बाद अज़ मसीह” आपकी हस्ती ने दुनिया की काया ऐसी पलट दी कि तारीख़-ए-आलम के मुअर्रिख़ के लिए दोनों हिसस (हिस्सा की जमा) में इम्तियाज़ करना अम्र-ए-नागुज़ीर हो गया। ज़रा एक लम्हे के लिए तौसुन ख़याल को दौड़ाओ और आलम-ए-ख़याल में ये तसव्वुर करो कि आँ खुदावंद इस दुनिया में कभी पैदा ना हुए थे। ज़रा अंदाज़ा करो कि दुनिया के ख़यालात और जज़्बात क्या होते? ममालिक-ए-आलम की तारीख़ के सफ़हात किस स्याही से लिखे जाते? इन्सानी ज़िंदगी के अख़्लाक़ी मेयार क्या होते? अक़्वाम-ए-आलम का क्या हाल होता? मुआशरत और तमद्दुन पर इस का क्या असर पड़ता? बनी नूअ इन्सान का क्या हश्र होता? इस के ख़याल से ही हर सही-उल-अक़्ल शख़्स के बदन में कपकपी और रअशा पड़ जाता है। अगर हिंदू मज़्हब दुनिया से मिट जाता। अगर इस्लाम के ख़ुसूसी अक़ाइद जो (यहूदीयत और मसीहिय्यत से अख़ज़ नहीं किए गए) दुनिया से रुख़्सत हो जाते या अगर बुद्ध मत के उसूल नापैद हो जाएं तो कोई ये नहीं कह सकता कि दुनिया की हालत अबतर हो जाएगी। लेकिन अगर मुनज्जी आलमीन (मसीह) की शख़्सियत और कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के उसूल दुनिया से रुख़्सत हो जाएं तो दुनिया दोज़ख़ का नमूना बन जाएगी और जहान एक ऐसा ज़ुल्मत-कदा बन जाएगा जिसमें बदनज़्मी, तारीकी और घुप-अँधेरे के सिवा और कुछ नहीं होगा।

اگر لطف تواے داورنگر دوخلق

زآہ خلق در محشر صامت ہا شود برپا

इस हक़ीक़त को मुवालिफ़ व मुख़ालिफ़ सब मानते हैं। चुनान्चे फ़्रांस का मशहूर अक़्ल परस्त आलिम रेनान (Renan) कहता है :-

“अगर मसीह की हस्ती को नज़र-अंदाज कर दिया जाये तो तारीख़ जहान लायानी और मुहम्मल हो जाती है।”

बरनार्डशा (G.B.Shaw) कहता है :-

“दुनिया के ऊंच नीच और फ़ित्रत इन्सानी को देखकर मैं बे-ताम्मुल कह सकता हूँ कि दुनिया के दुख-दर्द और रंज व तक्लीफ़ का आला तरीन ईलाज सिर्फ़ मसीह है।”

जनाबे मसीह की पाक ज़ात और मुक़द्दस उसूलों के तुफ़ैल दुनिया शाहराह तरक़्क़ी पर गामज़न है। आपकी शख़्सियत ने दुनिया की रज़ील तरीन अक़्वाम को चाह-ए-ज़लालत (गुमराही के कुँआं) से निकाल कर ओज-ए-बरीं (आस्मानी उरूज) पर खड़ा कर दिया। आपकी ज़ात ने इस दुनिया की अंधेर नगरी में उजाला कर दिया और इस को बक़ा (ज़मीन का वो हिस्सा जो दूसरी जगह से मुम्ताज़ हो) नूर बना दिया। आपकी ज़ात दुनिया का नूर है। (यूहन्ना 8:12) जिस तरह सय्यारे सितारे आफ़्ताब की रोशनी से दरख़शां हैं इसी तरह दुनिया जहान का निज़ाम इसी एक नय्यर के (सामने) शर्मिंदा एहसान हैं और ये बात किसी एक क़ौम या मुल्क या ज़माने से मुख़्तस (मख़्सूस) नहीं बल्कि हर मुल़्क क़ौम ज़माना और जमाअत का यही तजुर्बा रहा है। मुनज्जी आलमीन रूहानियत की बुलंदीयों के वाहिद ताजदार रहे हैं। अगर किसी क़ौम ने ख़ुदा की हक़ीक़ी पहचान हासिल की तो सिर्फ आपकी तुफ़ैल हासिल की “ख़ुदा को कभी किसी ने नहीं देखा, “इकलौता बेटा जो बाप (परवरदिगार) की गोद में है उसी ने उस को ज़ाहिर किया।” (यूहन्ना 1:18)

पस जब ख़ुदावंद मसीह इस दुनिया में तशरीफ़ लाए तो आप एक क़ाइद-ए-आज़म की हैसियत से ना आए और ना आप मह्ज़ नबी की हैसियत में इस दुनिया पर ज़ाहिर हुए, बल्कि आपके वजूद में उलूहियत की सिफ़ात ने ज़हूर पकड़ा। ज़मान व मकान की क़ुयूद के अंदर बनी नूअ इन्सान पर ये अक़्दह (भेद) खुल गया कि ख़ुदा की ज़ात दर-हक़ीक़त क्या है। “उलूहियत की सारी मामूरी उसी में मुजस्सम हो कर सुकूनत करती है।” (कुलस्सियों 2:9) मशहूर फिलासफर और इल्म अख़्लाक़ का उस्ताद टी॰ ऐच॰ ग्रीन (T.H.Green) कहता है :-

“यसूअ मसीह ने महदूद दायरे के अंदर ज़मान व मकान की क़ुयूद में एक ऐसी ज़िंदगी बसर की जिसके उसूल इन क़ुयूद के पाबंद ना थे और ख़ास हालात के अंदर ऐसे उसूल का ऐलान किया जो तमाम हालात पर आइद हो सकते हैं लिहाज़ा हम इस को एक हक़ीक़त क़रार दे सकते हैं कि उस की ज़िंदगी और उस के उसूल आख़िरी, क़तई, और आलमगीर हैं।”

दुनिया ये महसूस करती है कि गुज़श्ता ज़माने और सदीयों के तमाम तवारीख़ी अश्ख़ास में से सिर्फ इब्ने-अल्लाह (मसीह) ही एक ऐसी शख़्सियत है जो दर-हक़ीक़त ज़िंदा है। दीगर मज़ाहिब के बानी और मुस्लिहीन पैदा हुए और मिट गए। उनके ख़यालात और जज़्बात और एतिक़ादात हर्फ़-ए-ग़लत की तरह महव हो गए या औराक़ पारीना (पुराना) की तरह किसी काम के ना रहे। सिर्फ मसीह और उस की तालीम ज़िंदा जावेद और आलमगीर है।

लेकिन उन गुज़श्ता ज़माने की यादगारों में सिर्फ ख़ुदावंद मसीह की शख़्सियत ऐसी है जिनकी निस्बत दुनिया ये महसूस करती है कि आपका ईजाब (क़ुबूल करना, मंज़ूर करना) व इन्कार ज़िंदगी और मौत का सवाल है। आपकी शख़्सियत मह्ज़ एक तवारीख़ी हक़ीक़त ही नहीं बल्कि इस का ताल्लुक़ बनी नूअ इन्सान की ज़मीर का और कोंशियंस (वो इन्सानी क़ुव्वत जो इन्सान को भलाई की तरफ़ मुतवज्जोह करे।) और क़िस्मत के साथ है जो हमारी अख़्लाक़ी ज़िंदगी की निस्बत हमको चैलेंज करती है। क्योंकि आपकी शख़्सियत जामें है। मशरिक़ व मग़रिब आपके आगे ख़म है। सिर्फ जनाबे मसीह ही अकेले वाहिद मशरिक़ी शख़्स हैं जिनके नाम का परचार मग़रिबी ममालिक के बाशिंदों ने मशरिक़ के कोने कोने में कर दिया है। मग़रिब उस को सज्दा करता है। मशरिक़ उस को हर पहलू से क़ाबिल-ए-तहसीन व सताइश व तम्जीद क़रार देता है। मुनज्जी आलमीन (मसीह) की शख़्सियत ही एक वाहिद शख़्सियत है जो ऐसी कामिल और जामे है कि हर ज़माने, मुल्क क़ौम और मिल्लत का इन्सान बिला-तफ़रीक व इम्तियाज़ उस के आगे सर-ए-तस्लीम ख़म करता है। इस शख़्सियत के बग़ैर कायनात ऐसा धड़ है जिस का सर ना हो। क्योंकि सिर्फ वही कायनात का मर्कज़ और इस की ज़िंदगी और इस का नूर है। (यूहन्ना 1:3) इब्ने-अल्लाह (मसीह) ज़मान व मकान की क़ुयूद में ज़ाहिर हुए लेकिन इन क़ुयूद से बाला रहे। आपने ज़मान व मकान की क़ुयूद में ज़ाहिर हो कर दुनिया और माफ़ीहा को ख़ाक से उठा कर अर्श-ए-बरीं पर पहुंचा दिया ताकि इन्सानियत ख़ुदा के “बेटे की हमशक्ल हो जाए।” (रोमीयों 8:29) इब्ने-अल्लाह कायनात की ज़िंदगी का उसूल हैं क्योंकि “उस में सारी चीज़ें पैदा की गईं। आस्मान की हों या ज़मीन की। मुरई (दिखती) हों या ग़ैर मुरई (अन्देखी), तख़्त हों या रियासतें या हुकूमतें या इख्तियारात। सारी चीज़ें उसी के वसीले से और उसी के वास्ते पैदा हुईं और वो सब चीज़ों से पहले है और उसी में सारी चीज़ें क़ियाम रखती हैं। वही मब्दा है। वही इंतिहा है। सब बातों का वही अव्वल है और वही आख़िर है। वो अबद-उल-आबाद ज़िंदा है। ख़ुदा बाप को ये पसंद आया कि सारी मामूरी उस में सुकूनत करे और सब चीज़ों का उस के वसीले से अपने साथ मेल करे ख़्वाह वह ज़मीन की हों ख़्वाह आस्मान की हों। (कुलस्सियों 1:15, 1 कुरिन्थियों 8:9)

बाब चहारुम

मसीह मुनज्जी जहान

इस रिसाले के बाब अव्वल में आलमगीर मज़्हब की ख़ुसूसियात पर बह्स करते वक़्त हमने ये ज़िक्र किया था कि आलमगीर मज़्हब के लिए ये लाज़िम है कि ना सिर्फ उस के उसूल आला और अर्फ़ा हों, मज़ीदबराँ उस का बानी एक कामिल नमूना बनी नूअ इन्सान के सामने पेश कर सके। बल्कि ये ज़रूरी अम्र है कि आलमगीर मज़्हब नूअ इन्सानी को ये तौफ़ीक़ अता करे कि वो उस के उसूल नमूने पर गामज़न हो सके। अगर कोई मज़्हब सिर्फ़ आला तरीन उसूलों का मजमूआ ही है और नूअ इन्सानी के लिए नमूना भी पेश कर सकता है, लेकिन अगर वो ये तौफ़ीक़ देने की सलाहीयत नहीं रखता कि बनी नूअ इन्सान को अपने उसूलों पर और कामिल नमूने पर चला सके तो वो मज़्हब आलमगीर कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं हो सकता।

ये एक वाज़ेह हक़ीक़त है कि गुनाह एक आलमगीर मर्ज़ है जो किसी ख़ास क़ौम या मुल्क ज़माने से मख़्सूस नहीं, बल्कि हर ज़माने मुल्क क़ौम व मिल्लत के अफ़राद “सब के सब गुनाह के मातहत हैं।” (रोमीयों 3:10) पस आलमगीर मज़्हब का ये काम है कि वो ना सिर्फ अर्फ़ा उसूल और आला नमूना पेश करे बल्कि इस आलमगीर मर्ज़ का एक ऐसा आलमगीर ईलाज पेश करे जिससे कुल दुनिया के फ़र्द बशर अपने गुनाहों पर ग़ालिब आ सकें।

उसूल और अहकाम नजात नहीं दे सकते

रुए ज़मीन के तमाम मज़ाहिब इस बात पर इक्तिफ़ा करते हैं कि लोगों को शरई अहकाम बतला दें और साथ ही नसीहत कर दें कि अगर इन पर तुम अमल करोगे तो नजात हासिल करोगे। मसलन यहूदीयत और इस्लाम शरीअत पर और शरई अहकाम पर ज़ोर देते हैं और ये तल्क़ीन करते हैं कि बनी नूअ इन्सान उन इलाही अहकाम को अपना नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) बना कर उन पर अमल करें। (इस्तिस्ना 25:13, हिज़्क़ीएल 14:4 सूरत तौबा आयत 106, सूरह कहफ़ 110 वग़ैरह) अगर कोई इन्सान सालेह आमाल करेगा तो उस का अज्र पाएगा। (हिज़्क़ीएल 5:18, सूरह बक़रह 23, 172) अगर वो आमाल बद का मुर्तक़िब होगा तो उस को सज़ा मिलेगी। (अय्यूब 11:20, सूरह ताहा 76, क़मर 172 वग़ैरह) लेकिन ये मज़ाहिब और दीगर मज़ाहिबे आलम गुनेहगार शख़्स को कोई मोअस्सर तरीक़ा नहीं बतलाते जिससे वो अपने गुनाहों पर फ़त्ह हासिल कर सके। ये मज़ाहिब इस बात को तस्लीम करते हैं कि इस दुनिया में और रूहानियत की दुनिया में मुग़ाइरत (अजनबीयत) है, लेकिन कोई ऐसी राह नहीं बतलाते जिससे ये मुग़ाइरत दूर हो सके। वो रुहानी दुनिया के क़वानीन और अहकाम की तल्क़ीन करते हैं लेकिन कोई वसीला नहीं बतलाते जिससे इन्सान गुनाह और बदी को तर्क करके नेकी की राह को इख़्तियार करने के क़ाबिल हो जाए। वो सिर्फ ये ताकीद करने पर इक्तिफ़ा करते हैं कि एक को तर्क करो और दूसरे को इख़्तियार करो। लेकिन उनमें ये सलाहीयत नहीं कि वो गुनेहगार इन्सान को क़ुव्वत अता करें और इन्सान ज़ईफ़-उल-बुनयान (कमज़ोर बुनियाद) को ताक़त अता करके इस क़ाबिल बना दें कि वो अपनी आला तरीन आरज़ूओं और उमंगों पर अमल कर सके। वो नजात के रास्ते की तरफ़ उंगली से इशारा करते हैं लेकिन थके-माँदे कमज़ोर निढाल राह-रौ (रह-गीर) को ये ताक़त और तौफ़ीक़ अता नहीं करते कि वो इस शाह-राह पर चल सके।

باہیچ کس نشانے زاں دلستاں

یا من خبر ندارم یا اونشاں ندارد

सुतूर बाला से ज़ाहिर हो गया होगा कि मुजर्रिद उसूल इस क़ाबिल नहीं होते कि किसी गुनेहगार इन्सान की क़ुव्वत-ए-इरादी को अज़ सर-ए-नौ बहाल कर सकें। हर फ़र्द बशर का ये ज़ाती तजुर्बा है कि :-

है बे-सदा वो चीनी जिसमें बाल आया

उसूल बज़ाहिर ख़ूबसूरत नज़र आते हैं लेकिन वो अपने अन्दर यह ताक़त नहीं रखते कि जिस शख़्स की क़ुव्वत-ए-इरादी सल्ब हो चुकी है में नई जान डाल दें। मसलन सिगरेट के शैदाइयों की मिसाल लें। डाक्टर और महिकमा हिफ़्ज़ान-ए-सेहत उनको लाख समझाते हैं कि ये बद-आदत उस की सेहत के लिए मुज़िर है। उनको ख़ुद इस बात का इल्म और एहसास होता है कि उनकी सेहत के लिए सिगरेट ज़हर-ए-क़ातिल का असर रखते हैं वो बार-बार मुसम्मम (मज़बूत) इरादे भी करते हैं कि वो सिगरेट पीना क़तई तर्क करेंगे लेकिन शराब की तरह :-

छुटती नहीं कम्बख़्त ये मुँह से लगी हुई

तर्क करने के बजाय वो “चेन स्मोकर (Chain Smoker) हो जाते हैं। ममालिक-ए-मुतहदा अमरीका की सरकार के हुक्म के मुताबिक़ सिगरेट की डिबिया पर पीने वालों को ख़तरे से आगाह किया जाता है। लेकिन सब बेसूद नतीजा ये हो गया है कि सिर्फ एक मुल्क अमरीका में गुज़श्ता साल 5,32000000000 सिगरेट फ़रोख़्त हुए। यानी 1963 ई॰ की फ़रोख़्तगी से भी आठ अरब ज़्यादा सिगरेट पिए गए। ये ना-मुराद मर्ज़ हर साल हर मुल़्क व क़ौम के अरबों अफ़राद की सेहत को बिगाड़ता चला जा रहा है और उनकी क़ुव्वत-ए-इरादी सल्ब हो गई है।

अगर किसी शख़्स की हादिसे की वजह से टांग टूट गई हो और वो नीम जान हो कर सड़क के दर्मियान मज्बूरी और लाचारी की हालत में पड़ा या किसी पर राह चलते फ़ालिज गिरा हो और सड़क पर एक मोटर बे-तहाशा उस की जानिब चली आती हो तो अगर तमाशाई बरलब सड़क खड़ी हो कर उस को चिल्ला चिल्ला कर आने वाले ख़तरा से आगाह करने पर ही इक्तिफ़ा करें तो इस ग़रीब का क्या फ़ायदा होगा? उस की टांग टूटी हुई है वो चल फिर तो दर-किनार हिल नहीं सकता। इस बेकस शख़्स की आँखें तेज़-रफ़्तार मोटर को देख रही है, लेकिन वो लाचार पड़ा है। अपनी जगह से खिसक भी नहीं सकता मौत उस को सामने नज़र आ रही है इस को तमाशाइयों की आगाही की ज़रूरत नहीं। वो आने वाले ख़तरे से ख़ुद-आगाह है उस को किसी नज़ीर की ज़रूरत नहीं बल्कि उस को इस बात की ज़रूरत है कि तमाशाइयों में कोई शख़्स उस से ऐसी मुहब्बत रखे कि वो उस की ख़ातिर अपनी जान की परवाह ना करे और मोटर के पहुंचने से पहले उस को सड़क पर से उठा कर सलामती की जगह पर ले जाये। इसी तरह हर गुनेहगार जो गुनाह की गु़लामी में लाचार और गिरफ़्तार है। (यूहन्ना 8:34-36) जानता है कि उस का हश्र क्या होगा। बक़ौल ग़ालिब

मुफ़्त की पीते थे मेय लेकिन समझते कि हाँ

रंग लाएगी हमारी फ़ाका मस्ती एक दिन

उस को आगाही की ज़रूरत नहीं क्योंकि गुनाह के मर्ज़ ने उस के क़ल्ब (दिल) व दिमाग़ पर ऐसा ग़लबा हासिल कर लिया, उस को ये इल्म होता है कि जो अफ़आल में कर रहा हूँ जिन बद-आदात में गिरफ़्तार हूँ उनका अंजाम क्या होगा। वो ज़बान-ए-हाल से पुकार कर कहता है :-

شب تاریک وبیم موج وگرداب

شب تاریک وبیم موج وگرداب

इस गुनाह के ग़ुलाम को किसी नासेह या नज़ीर की ज़रूरत नहीं वो कहता :-

कोई नासेह है कोई दोस्त है कोई ग़मख़्वार

सबने मिलकर मुझे दीवाना बना रखा है !

बल्कि उस को इस बात की ज़रूरत है कि कोई उस की मदद करे और उस की क़ुव्वत-ए-इरादी को जो सल्ब हो गई है अज़ सर-ए-नौ तक़वियत दे दीगर अद्याने आलम इसी बात पर इक्तिफ़ा करते हैं कि गुनाहगारों को तंबीया की जाये और उनको उनके अंजाम से वाक़िफ़ करवाया जाये। चुनान्चे क़ुरआन ख़ुद कहता है कि वो एक नसीहत की किताब है जिसमें पनदो नसाएह वाज़ेह तौर पर मौजूद हैं। (सूरह हिज्र आयत 1, सूरह नमल आयत 1, सूरह यासीन आयत 69, सूरह साद आयत 1, सूरह ज़ुमर आयत 28 वग़ैरह) जो लोगों को डराने के लिए नाज़िल हुआ है। (सूरह अनआम आयत 19, सूरह शूरा आयत 5 वग़ैरह) हज़रत मुहम्मद अरब के लोगों को डराने की ख़ातिर भेजे गए। (सूरह अह्ज़ाब आयत 44 वग़ैरह) लेकिन हमारा तजुर्बा हमको बतला सकता है कि जज़ा और सज़ा के वाअदे किसी इन्सान को इस बात पर आमादा नहीं कर सकते कि वो नेक अमल करे। दीगर मज़ाहिब में ये अहलीयत ही नहीं होती कि गुनेहगार इन्सान को पनदो नसीहत के इलावा आमाल-ए-सालेह की तहरीक व तर्गीब दे सकें। इस से पेश्तर कि वो आला उसूल पर अमल कर सके ये लाज़िम है कि उस के अंदर इस क़िस्म की तहरीक पैदा हो जाए जो इन उसूल पर चलने की ख़्वाहिशमंद हो। आलमगीर मज़्हब के लिए ज़रूरी अम्र है कि वो गुनेहगार इन्सान की मुर्दा क़ुव्वत-ए-इरादी में अज सर-ए-नौ ज़िंदगी की रूह फूंक दे और अपनी क़ुद्रत से उस को क़ुव्वत अता करे। गुनेहगार इन्सान अपनी आदत से मज्बूर होता है और आदत का ग़ुलाम हो कर मुक़ाबला करके चूर और लाचार हो जाता है और ऐसा थक जाता है कि उस की कमर हिम्मत टूट जाती है। वह कहता है,

ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह

कोई चारासाज़ होता कोई ग़मगुसार होता

ऐसे अश्ख़ास के सामने जनाबे मसीह ना सिर्फ आला और अर्फ़ा उसूल और अपना कामिल और अकमल नमूना पेश करता है बल्कि अलल-ऐलान (बाआवाज़ बुलंद, एलानिया तौर पर, बे रोक-टोक) दावत देता है, “ऐ ज़हमत कशो और हज़ीमतख़ुर्दा (शिकस्त ख़ूर्दा, पसपा होना) लोगो गुनाह के बोझ से दबे हुए हो तुम सब मेरे पास आओ। मैं तुमको आराम दूंगा।” (मत्ती 11:28, यूहन्ना 7:37) कुल मज़ाहिब-ए-आलम के हादियों और पेशवाओं में सिर्फ ख़ुदावंद मसीह अकेले वाहिद हादी हैं जो थके-माँदे, कमज़ोर, निढाल गुनाहगारों की रूहों को “आराम” देता है और नई ज़िंदगी बख़्शता है। यही वजह है कि आपके पैग़ाम का नाम ही “इन्जील” यानी ख़ुशी की ख़बर है। (मत्ती 1:21, लूक़ा 2:10, 4:18) क्योंकि वो तमाम गुनाहगारों के लिए जो गुनाह का मुक़ाबला करके बार-बार हज़ीमत और शिकस्त खा खा कर अपनी बद-आदतों से लाचार हो कर अपनी ज़िंदगी से तंग आ गए हैं ये ख़ुशी की ख़बर देता है कि वो अपने गुनाहों को मग़्लूब करके अज़ सर-ए-नौ ऐसी ज़िंदगी बसर कर सकते हैं जो मंशा-ए-इलाही के मुताबिक़ हो। यही वो ईमान है जिसके ग़लबे ने दुनिया को मग़्लूब कर दिया है। (1 यूहन्ना 5:4)

गुनाह के अमल और आमिल गुनेहगार में इम्तियाज़

ख़ुदावंद मसीह के ज़माने में अहले-यहूद फ़रीसयों की जमाअत बड़ी मुक़तदिर और बारसूख जमाअत थी। इस जमाअत के लीडर ये चाहते थे कि मूसवी शरीअत के अहकाम और ज़माना-ए-जिलावतनी के बाद के ज़माने की “बुज़ुर्गों की रिवायत” दोनों अहले-यहूद की ज़िंदगी के हर शोबे में सराअत करें, ताकि क़ौम की शीराज़ा-बंदी हो जाए। इस जमाअत को अवाम में बड़ा असर और इक़तिदार हासिल था। पस मज़्हबी ग़ुरूर और जमाअत की क़ुव्वत का तकब्बुर उनके सरों में समा गया था और वो ये ख़याल करते थे कि वो ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम इस्राईल की ख़ास-उल-ख़ास जमाअत के अफ़राद हैं। वो अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ हाजत के वक़्त “बुज़ुर्गों की रिवायत की पाबंदीयों का इतलाक़ क़ियास और इज्तिहाद (जद्दो जहद) से काम लेकर नए हालात पर करते। तमाम फ़रीसी “गुनेहगारों और महसूल लेने वालों” को बनज़र हिक़ारत देखते हैं और उनसे किनारा-कश रहते थे। वो गुनाह और गुनेहगार दोनों से नफ़रत करते थे और अमल बद में गुनाह करने वाले बदकार इन्सान में किसी क़िस्म का फ़र्क़ या तमीज़ रवा नहीं रखते थे।

इस जमाअत के बरअक्स कलिमतुल्लाह (मसीह) गुनाह और गुनेहगार यानी अमल और आमिल में तमीज़ कर के अपनी तालीम में ये सिखलाते थे कि ख़ुदा हर गुनेहगार से मुहब्बत करता है लेकिन गुनाह से नफ़रत करता है और ख़ुदा की मुहब्बत हर गुनेहगार को तलाश करती है और इस बात की मुतक़ाज़ी है कि “शरीर (बेदीन) अपनी शरारत से तौबा करे और बाज़ आए।” और वो अज सर-ए-नौ ख़ुदा का फ़र्ज़न्द और आस्मान की बादशाही का वारिस बन जाये। कलिमतुल्लाह (मसीह) गुनाह से नफ़रत लेकिन गुनेहगार से मुहब्बत रखते थे और बदतरीन गुनेहगारों को तलाश करके उनसे मेल-जोल रख उनको ख़ुदा की लाज़वाल मुहब्बत का पैग़ाम देते थे। आप फ़र्माते थे कि “तन्दरुस्तों को तबीब की ज़रूरत नहीं होती बल्कि बीमारों को ज़रूरत होती है। मैं रास्तबाज़ों को नहीं बल्कि गुनेहगारों को ख़ुदा की तरफ़ बुलाने के लिए दुनिया में आया हूँ।” (मर्क़ुस 2:17) तबीब का काम ये है कि लोगों को अमराज़ से आगाह करे लेकिन वो मरीज़ों से नफ़रत नहीं करता बल्कि उनसे निहायत शफ़क़त, मुहब्बत से पेश आकर अपनी तमाम तवज्जोह उस की मर्ज़ पर मर्कूज़ कर देता है जो इन्सान जितना ज़्यादा बीमार या ख़तरनाक बीमारी में मुब्तला होता है उतना ही ज़्यादा वो अपने तबीब की तवज्जोह और मुहब्बत का मुस्तहिक़ होता है। (लूक़ा 5:31) इब्ने-अल्लाह (मसीह) बदतरीन गुनेहगारों के लिए सरतापा रहमत थे और उनको तलाश करके ख़ुदा की मुहब्बत की ख़ुशख़बरी का पैग़ाम देते थे और उनसे कहते थे कि ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस मुहब्बत का ख़ुदा है जो गुनाहों से नफ़रत करता है, लेकिन “एक तौबा करने वाले गुनेहगार के लिए आस्मान पर ज़्यादा ख़ुशी होती है।” और इस हक़ीक़त को उनके ज़हन नशीन करने के लिए आप तम्सीलों से काम लेते थे ताकि गुनेहगार को ख़ुदा की मुहब्बत का यक़ीन आ जाए और वो ख़ुलूस-ए-दिल से तौबा करे। (लूक़ा 15 बाब)

इस सिलसिले में मर्हूम हज़रत मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद के अल्फ़ाज़ याद रखने के क़ाबिल हैं। मर्हूम लिखते हैं :-

“हज़रत मसीह अलैहिस्सलाम की तालीम सरासर इस हक़ीक़त की दावत थी कि गुनाहों से नफ़रत करो, मगर इन इन्सानों से जो गुनाहों में मुब्तला हैं नफ़रत ना करो। अगर एक इन्सान गुनेहगार है तो इस के मअनी ये हैं कि उस की रूह और दिल की तंदरुस्ती बाक़ी नहीं रही। लेकिन अगर उसने बद बख्ताना अपनी तंदरुस्ती ज़ाए कर दी है तो तुम उस से नफ़रत क्यों करो? वो तो अपनी तंदरुस्ती खो कर तुम्हारे रहम व शफ़क़त का और ज़्यादा मुस्तहिक़ हो गया है। वो मौक़ा याद करो जिसकी तफ़्सील हमें मुक़द्दस लूक़ा की ज़बानी मालूम हुई है जब एक गुनेहगार औरत हज़रत मसीह की ख़िदमत में आई और उसने अपने बालों की लटों से उस के पांव पोंछे तो इस मौक़े पर रियाकार फ़रीसयों को सख़्त ताज्जुब हुआ। लेकिन मसीह अलैहिस्सलाम ने कहा कि “तबीब बीमारों के लिए होता है ना कि तुंदरुस्तों के लिए।” फिर ख़ुदा और उस के गुनेहगार बंदों का रिश्ता रहमत वाज़ेह करने के लिए एक निहायत ही मोअस्सर और दिल नशीन मिसाल बयान की और फ़रमाया कि फ़र्ज़ करो एक साहूकार के दो क़र्ज़दार थे एक पचास का और एक हज़ार रुपये का। साहूकार ने दोनों का क़र्ज़ माफ़ कर दिया। बताओ किस क़र्ज़दार पर उस का ज़्यादा एहसान हुआ और कौन उस से ज़्यादा मुहब्बत करेगा? वो जिसे पचास माफ़ कर दिए या जिसे हज़ार?”

نصیب ماست بہشت اے خدا شناس برد

کہ مستحق کرامت گناہ گار انند

(तर्जुमान-उल-क़ुरआन स 106-108)

(2)

मसीही कलीसिया के जिन मुबश्शिरों ने अपने मुनज्जी और मौला के नक़्शे क़दम पर चल कर बदकार शराबियों ज़ानी मर्दों और फ़ाहिशा औरतों को गुनाहों की गु़लामी से नजात हासिल करने का पैग़ाम देने के लिए अपनी ज़िंदगी वक़्फ़ कर दी है ताकि हर क़िस्म का गुनेहगार ख़ुदा की फ़र्ज़न्दियत की इज़्ज़त पाकर इलाही ज़िंदगी के रास्ते पर चलें। वो अपनी ज़िंदगी के मक़्सद को मुबारक समझ कर ख़ुदा का शुक्र करते हैं, जिसने उनको ये इज़्ज़त बख़्शी कि वो अपने आक़ा के नक़्शे क़दम पर चल कर उन बदनसीब गिरे हुए लोगों की रूहों को बचाने का वसीला होने के लायक़ समझे गए। वो अपने आक़ा का नमूना लेकर उनके दर्मियान मुहसिन, मुरब्बी और वाइज़ बन कर नहीं रहते बल्कि “गुनेहगारों के यार” और उनकी रूहों के हक़ीक़ी ख़ैर-ख़्वाह बन कर “ख़ादिम की तरह” उनकी ख़िदमत करते हैं। वो गुनाह की गहराईयों में उतरते हैं ताकि उनका हाथ पकड़कर उनको ग़लाज़त से निकालने और रूहानियत का मेअराज हासिल करने का वसीला बनें।

बदकार मर्द और औरतें ज़िंदगी की शाहराह पर ठोकरें खा खा कर गिर जाती हैं और अपनी शर्म को छिपाने की ख़ातिर दीदा दिलेरी से काम लेती हैं लेकिन वो अपने मुनज्जी ख़ुदा की नज़रों से अपनी चोटों को नहीं छिपा सकतीं। जब ख़ुदा की मुहब्बत उनके दिलों के दरवाज़ों को खटकटाती है तो वो ये ख़याल करती हैं कि अब वो समाज और दुनिया में बाइज़्ज़त वक़ार की ज़िंदगी बसर नहीं कर सकतीं और बदी के दलदल में ज़्यादा फंस कर उस शख़्स की मानिंद हो जाती हैं जिसके अंदर दर्जनों बद-रूहें थीं और ख़ुदा को कहती हैं, “मुझे अज़ाब में ना डाल।” (मर्क़ुस 5:7, लूक़ा 8:28, मत्ती 8:29) इबादत नुमा पारसाओं की मफ़रूज़ा दिखावे की पाकबाज़ी उनको “गुनेहगार” ठहराती है। लेकिन ख़ुदा के तरस व मुहब्बत कलिमा-ए-मग़्फिरत उनको सुना कर कहती है “जिसने ज़्यादा मुहब्बत की, उस के बहुत गुनाह माफ़ हुए। सलामत चली जा।” जब ये बदकार मर्द और औरतें देखती हैं कि इन्जील के मुबश्शिर उनको बचाने की ख़ातिर गहराईयों में उतरने से दरेग़ नहीं करते लेकिन ख़ुद नेक और पाक दामन रहते हैं तो उनके दिल बेक़रार हो जाते हैं कि अगर ये हमारी ज़िंदगी की इस्लाह की ख़ातिर इन कठिन मंज़िलों में से ख़ुदा की मुहब्बत से मामूर हो कर गुज़रते हैं तो ऐसे ख़ुदा की मुहब्बत की क़ुद्रत कैसी अजीब होगी, वो मुनज्जी (नजात देने वाले) की मुहब्बत से मज्बूर हो कर और ताइब हो कर उस के क़दमों में आ जाते हैं लेकिन वो आस्मानी बाप की मुहब्बत भरी दावत क़ुबूल करके हमेशा की ज़िंदगी हासिल करते हैं।

हक़ तो ये है कि ख़ुदा की नज़र में मुअज़्ज़िज़ ज़िंदगी बसर करने वाला गुनेहगार और फ़ाहिशा औरत दोनों बराबर हैं। ये इबादत नुमा पार्सा अपने आपको और दूसरों को फ़रेब और धोका देते हैं। पस ख़ुदावंद मसीह ने अपने हम-अस्र पार्सा फ़रीसयों को फ़रमाया “मैं तुमसे एक हक़ बात कहता हूँ कि महसूल लेने वाले गुनेहगार और कस्बियाँ तुमसे पहले ख़ुदा की बादशाही में दाख़िल होती हैं।” (मत्ती 21:31)

شخصے بزن فاحشہ گفتا مستی

ہر لحظہ بدام دیگر ے پابستی

گفتا۔ ہر آنچہ گوئی ہستم

اماتوچنا نچہ نمائی ہستی

(عمر خیام )

ये इबादत नुमा पार्सा फ़रीसी जो इब्ने-अल्लाह (मसीह) के ख़ून के प्यासे थे। आपको अज़ रुए ताना “अछूत महसूल लेने वालों और गुनेहगारों का यार” कहते थे। (मत्ती 11:19) और बेचारे नहीं जानते थे कि बअल्फ़ाज़ यहूदी आलिम डाक्टर मोंटी फ़ेअरी :-

“ये ख़िताब दर-हक़ीक़त यसूअ का ताज है।”

मुनज्जी जहां (मसीह) की सलीब के नीचे की ज़मीन हमवार है जहां दुनिया के बड़े और छोटे गुनेहगार एक ही सतह पर खड़े होते हैं। इस जगह कोई गुनाह “मामूली” गुनाह नहीं है, बल्कि हर गुनाह घिनौना है। जो ख़ुदा को इन्सान से जुदा कर देता है और ख़ुदा की मुहब्बत को ठुकराता है। वहां ग़ुरूर, तकब्बुर, हसद वग़ैरह वैसे ही घिनौने गुनाह हैं जैसे जिन्सी गुनाह और सब गुनेहगार सलीबे मसीह पर से मग़्फिरत का कलिमा सुनकर दाख़िल फ़िर्दोस होते हैं। (लूक़ा 23:43) हर गुनेहगार ईमानदार फ़र्ज़न्द हो जाता है। वहां नाउम्मीदों को सच्ची उम्मीद और नाक़ाबिल माफ़ी गुनाहगारों को ख़ुदा की मुहब्बत का अज़ली और अबदी पैग़ाम मिलता है जिनको दुनिया और दीगर मज़ाहिब किसी तरह भी मुहब्बत करने के क़ाबिल नहीं समझते।

ख़ुदा की मुहब्बत और गुनाहों की मग़्फिरत

मुनज्जी आलमीन (मसीह) की तालीम के मुताबिक़ गुनाह उस रिफ़ाक़त के क़ता (ढंग, काट) होने का नाम है जो इन्सान ख़ुदा के साथ रखता है। ख़ुदा इन्सान से अपनी मुहब्बत की वजह से रिफ़ाक़त रखता है। (यर्मियाह 31:3, मलाकी 1:2, यूहन्ना 3:16 वग़ैरह) वो हमारे साथ और हमारे दिलों में सुकूनत करता है। (यूहन्ना 14:23, 1 यूहन्ना 2:24, 2 कुरिन्थियों 6:19 वग़ैरह) लेकिन इन्सान फ़ाइल ख़ुद-मुख़्तार होने की वजह से गुनाह करके इस रिफ़ाक़त के ताल्लुक़ को आप तोड़ देता है। चुनान्चे किताब-ए-मुक़द्दस में परवरदिगार फ़र्माते हैं कि, “देखो ख़ुदा का हाथ छोटा नहीं कि वो बचा ना सके और उस का कान भारी नहीं कि वो सुन ना सके। बल्कि तुम्हारी बदकारीयाँ तुम्हारे और तुम्हारे ख़ुदा के दर्मियान जुदाई पैदा करती हैं और तुम्हारे गुनाहों ने उस को तुमसे रुपोश किया है।” (यसअयाह 59:1) पस गुनाह का वजूद इन्सान की मुहब्बत की अदम मौजूदगी की वजह से है। चुनान्चे इन्जील में इर्शाद हुआ है, “अगर कोई कहे कि मैं ख़ुदा से मुहब्बत रखता हूँ और अपने भाई से अदावत रखे तो वो झूटा है। जो कोई ख़ुदा में क़ायम रहता है वो गुनाह नहीं करता।... जब हम ख़ुदा से मुहब्बत रखते हैं तो उस के हुक्मों पर अमल करते हैं।” (1 यूहन्ना 4:20) पस गुनाह का वजूद ये ज़ाहिर करता है कि गुनेहगार ख़ुदा की अबदी मुहब्बत को ठुकरा देता है और ख़ुद-राई करके उसकी तरफ़ से मुँह मोड़ लेता है।

किताबे मुक़द्दस ने हमको ये तालीम दी है कि अगरचे गुनेहगार इन्सान ख़ुदा की मुहब्बत से अपनी बग़ावत की वजह से मुँह मोड़ लेता है ताहम ख़ुदा की मुहब्बत अटल है। (यसअयाह 54:10, 51:6) ख़ुदा की मुहब्बत ये नहीं चाहती कि उस का गुनेहगार फ़र्ज़न्द हलाक हो। (मत्ती 14:18, यूहन्ना 39:6, 10:28, रोमीयों 2:12, 1 कुरिन्थियों 1:18, 2 पतरस 3:9 वग़ैरह) बल्कि इस बात की मुतमन्नी और ख़्वाहां है कि बदतरीन गुनेहगार हमेशा की ज़िंदगी पाए। (यूहन्ना 3:16) ख़ुदा की मुहब्बत हमेशा इस इंतिज़ार में रहती है कि गुनेहगार उस की तरफ़ रुजू करे। (लूक़ा 15 बाब) और अगर वो रुजू नहीं करता तो वो गुनेहगार की तलाश में निकलती है। (लूक़ा 19:10, 15:4, 8, मत्ती 10:6, 18:12 वग़ैरह) जिस तरह एक बाप अपने ग़म-गश्ता फ़र्ज़न्द को तलाश करता है। ख़ुदा की मुहब्बत गुनेहगार को तलाश करती है। (हिज़्क़ीएल 34:10, लूक़ा 15:20, मत्ती 9:3, यूहन्ना 10:28, 1 पतरस 2:25 वग़ैरह)

اے واقف اسرار ضمیر ہمہ کس

یا رب تو مرا توبہ وہ عذر پذیر اے توبہ وہ دعذر پزیر ہمہ کس

(خیام )

जिस तरह माँ की ममता अपने नाख़लफ़ (बदकार लड़का) बेटे के लिए बेचैन रहती है और उस का दिल अपने बच्चे के लिए तड़पता रहता है जब तक वो बच्चा अपने गुनाहों का इक़रार करके उस की तरफ़ रुजू नहीं करता। इसी तरह ख़ुदा की मुहब्बत बेक़रार और बेचैन रहती है। (यसअयाह 49:15) जब तक उस का गुनेहगार बेटा उस की लाज़वाल मुहब्बत को देखकर तौबा करके (ज़बूर 89:26) ये नहीं कहता “ऐ बाप मैं तेरी नज़र में गुनेहगार हुआ अब इस लायक़ नहीं रहा कि फिर तेरा बेटा कहलाऊँ।” (लूक़ा 15:22) जब गुनेहगार ताइब हो कर रुजू करता है तो मुनज्जी आलमीन (मसीह) फ़र्माते हैं कि “एक तौबा करने वाले गुनेहगार की बाबत आस्मान के फ़रिश्तों के सामने ख़ुशी होती है।” (लूक़ा 15:10)

(2)

पस ख़ुदा की मुहब्बत गुनाहों की मग़्फिरत का बाइस है, “ख़ुदा ने दुनिया से ऐसी मुहब्बत रखी कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो, बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (यूहन्ना 3:16) चूँकि ख़ुदा मुहब्बत है उस की मुहब्बत इस पर क़ादिर है कि दुनिया के बदतरीन शैतान ख़सलत इन्सान को भी फ़रिश्ता खस्लत और ख़ुदा की सूरत पर बना दे। ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि इस दुनिया में इब्ने-अल्लाह (मसीह) अकेला शख़्स है जिसने गुनेहगार दुनिया पर ख़ुदा की लाज़वाल और अबदी मुहब्बत की हक़ीक़त को मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) किया। इन्जील जलील का सतही मुतालआ भी इस बात को ज़ाहिर कर देता है कि आँ-खुदावंद ने ना सिर्फ अपनी तालीम और उसूल की तल्क़ीन से ख़ुदा की अटल मुहब्बत को ज़ाहिर किया। (यूहन्ना 1:18) बल्कि इस से कहीं ज़्यादा मोअस्सर तरीक़े पर आपने अपनी ज़िंदगी से ख़ुदा की मुहब्बत को ज़ाहिर किया। आप मुहब्बत मुजस्सम थे। इलाही मुहब्बत आपके एक एक काम एक एक लफ़्ज़ और एक एक अदा से टपकती थी। बिल-ख़ुसूस गुनाहगारों को तलाश करने की तड़प आपके दिल में हर वक़्त मौजूद थी। आपने फ़रमाया, “इब्ने आदम इस मक़्सद के लिए दुनिया में आया है कि खोए हुओं को ढ़ूंढ़े और नजात दे।” (लूक़ा 19:10, मत्ती 9:13, 10:6, 15:24, 18:12, मर्क़ुस 2:17, यूहन्ना 5:14 वग़ैरह) “ख़ुदा ने बेटे को दुनिया में इसलिए नहीं भेजा कि दुनिया पर सज़ा का हुक्म करे बल्कि इसलिए कि दुनिया उस के वसीले से नजात पाए।” (यूहन्ना 3:17) चूँकि सिर्फ़ मुनज्जी आलमीन (मसीह) ही इलाही मुहब्बत का कामिल और अकमल मज़हर हैं। लिहाज़ा इलाही मुहब्बत आपके वसीले से गुनेहगारों को अज़ सर-ए-नौ सिराते मुस्तक़ीम पर ला कर उनको नजात बख़्शती है। (यूहन्ना 14:6, इब्रानियों 9:8, 10:20 वग़ैरह) बअल्फ़ाज़-ए-दीगर आपके सिवा “किसी दूसरे के वसीले नजात नहीं क्योंकि आस्मान के तले बनी-आदम को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया जिसके वसीले से नजात पा सकें।” (आमाल 4:12)

इस इलाही मुहब्बत का अज़ीमुश्शान मुज़ाहरा मुनज्जी जहान (मसीह) की सलीब पर हुआ। जिस तरह किसी खोए हुए बेटे की माँ की मुहब्बत का मुज़ाहरा माँ के दुख रंजो-ग़म में होता है। जिस तरह ये दुख अलम और रंज खोए हुए बेटे के गुनाहों का नतीजा होता है। इसी तरह मुनज्जी कौनैन (मसीह) की सलीब दुनिया के गुनेहगारों के गुनाहों का नतीजा है। जिस तरह गुनेहगार बेटा अपनी माँ का ग़म और अलम देखकर अपने गुनाहों से ताइब होता है। उसी तरह गुनेहगार इन्सान मुनज्जी आलमीन (मसीह) की सलीब पर ध्यान करके अपने गुनाहों से ताइब होता है। कामिल मुहब्बत हर तरह का दुख उठाने को तैयार होती है। उर्फ़ी ने क्या ख़ूब कहा है :-

کسے بہ زمرہ ارباب دل نداردرہ کہ تحفہ زنسیم بلا نمی آرد

मुहब्बत करना और महबूब की ख़ातिर दुख उठाना दोनों बातें दर-हक़ीक़त एक ही शेय के दो रूख और तस्वीरें हैं। पस इलाही मुहब्बत जो कामिल है महबूब गुनेहगार इन्सान के लिए हर तरह का दुख उठाने को तैयार है। लिहाज़ा मुनज्जी आलमीन (मसीह) गुनेहगार इन्सान की ख़ातिर अपनी जान दरेग़ ना की (यूहन्ना 15:13) और “मौत बल्कि सलीबी मौत भी गवारा की।” (फिलिप्पियों 2:9) जब हम कमज़ोर ही थे तो ऐन वक़्त पर मसीह बे-दीनीयों की ख़ातिर मुआ किसी रास्तबाज़ की ख़ातिर भी कोई मुश्किल से अपनी जान देगा। मगर शायद किसी नेक आदमी के लिए अपनी जान तक देने की जुर्आत करे। लेकिन ख़ुदा ने अपनी मुहब्बत की ख़ूबी हम पर यूं ज़ाहिर की कि जब हम गुनेहगार ही थे तो मसीह हमारी ख़ातिर मुआ। जब बावजूद दुश्मन होने के ख़ुदा से उस के बेटे की मौत के वसीले से हमारा मेल हो गया तो मेल होने के बाद तो हम उस की ज़िंदगी के सबब ज़रूर ही बचेंगे। जहां गुनाह ज़्यादा हुआ वहां इलाही फ़ज़्ल इस से भी निहायत ज़्यादा हुआ, ताकि जिस तरह गुनाह ने हमारे ऊपर बादशाही की उसी तरह फ़ज़्ल भी हमारे ख़ुदावंद मसीह के वसीले हमेशा की ज़िंदगी के लिए रास्तबाज़ी के ज़रीये बादशाही करे। तुम भी अपने आपको गुनाह के एतबार से मुर्दा मगर ख़ुदा के एतबार से मसीह में ज़िंदा समझो। (रोमीयों 5 बाब) पस इलाही मुहब्बत ने “मसीह में हो कर अपने साथ दुनिया का मेल मिलाप कर लिया। उसने मेल मिलाप का पैग़ाम हमारे सपुर्द किया है। पस हम मसीह के एलची हैं गोया हमारे वसीले से ख़ुदा इल्तिमास करता है। हम मसीह की तरफ़ से मिन्नत करते हैं कि ख़ुदा से मेल मिलाप करलो।” (2 कुरिन्थियों 5:16) “पस मुहब्बत में चलो जैसे मसीह ने तुमसे मुहब्बत की और अपने आपको क़ुर्बान कर दिया।” (इफ़िसियों 5:2) “ख़ुदा ने हमको ग़ज़ब के लिए मुक़र्रर नहीं किया बल्कि इसलिए किया कि हम अपने ख़ुदावंद यसूअ मसीह के वसीले से नजात हासिल करें।” (थिस्सलुनीकियों 5:9) पस “ये बात हक़ और हर तरह से क़ुबूल करने के लायक़ है कि मसीह गुनाहगारों को नजात देने के लिए दुनिया में आया जिनमें से सबसे बड़ा गुनेहगार मैं हूँ। मुझ पर रहम इसलिए हुआ कि मसीह ने मुझ बड़े गुनेहगार में अपनी नजात का कमाल तहम्मुल ज़ाहिर करे।” (1 तीमुथियुस 1:15) “ख़ुदा मुहब्बत है। जो मुहब्बत ख़ुदा को हमसे है वो इसलिए ज़ाहिर हुई कि ख़ुदा ने अपने इकलौते बेटे को दुनिया में भेजा है ताकि हम उस के सबब से ज़िंदा रहें।” (1 यूहन्ना 4:9) गुनेहगार की आँसू भरी तौबा और उस के गुनाहों की मग़्फिरत, सब ख़ुदा की उस मुहब्बत का नतीजा हैं जिसका कामिल ज़हूर इब्ने-अल्लाह (मसीह) की सलीब पर हुआ। (मर्क़ुस 14:72, मत्ती 26:75, लूक़ा 22:62)

मोती समझ के शान-ए-करीमी ने चुन लिए

क़तरे जो थे मरे अर्क़-ए-इन्फ़िआल के

हम सलीब पर ख़ुदा का मुज़ाहरा देखकर उस की मुहब्बत पर ईमान लाकर रास्तबाज़ ठहरते हैं ख़ुदा की मुहब्बत हमारे दिलों में मोजज़िन हो कर हमारी मुर्दा क़ुव्वत-ए-इरादी में अज सर-ए-नौ जान डाल देती है हमको ना सिर्फ नसूह (पक्की तौबा) तौबा हासिल होती है, बल्कि हमारा ख़ुदा के साथ मेल मिलाप हो जाता है। (रोमीयों 5 बाब)

(3)

मुनज्जी आलमीन (मसीह) के ज़रीये दुनिया के हर मुल़्क क़ौम और ज़माने के हर फ़र्द बशर को नजात मिलती है क्योंकि :-

मुनज्जी आलमीन (मसीह) के ज़रीये दुनिया के हर मुल़्क क़ौम और ज़माने के हर फ़र्द बशर को नजात मिलती है क्योंकि :-

آخر نہ گیا ہ باغ اویم !

ये नजात हमारे आमाल पर मुन्हसिर नहीं। हम गुनाहगारों के “गुनाह की मज़दूरी मौत मगर ख़ुदा की बख़्शिश हमारे ख़ुदावंद मसीह में हमेशा की ज़िंदगी।” (रोमीयों 6:23) जिस तरह माँ का ग़म-गश्ता बेटा अपने आमाल के बाइस माँ की माफ़ी हासिल नहीं कर सकता बल्कि माँ की मुहब्बत इस माफ़ी की मुहर्रिक होती है। इसी तरह ख़ुदा की मुहब्बत हमारे गुनाहों की माफ़ी की मुहर्रिक है। “मुहब्बत इस में नहीं कि हमने ख़ुदा से मुहब्बत की बल्कि इस में है कि उसने हमसे मुहब्बत की और हमारे गुनाहों के कफ़्फ़ारे के लिए अपने बेटे को भेजा।” (1 यूहन्ना 4:10) “तुमको ईमान के वसीले फ़ज़्ल ही से नजात मिली है और ये तुम्हारी तरफ़ से नहीं बल्कि ख़ुदा की बख़्शिश है और ना आमाल के सबब।” (इफ़िसियों 2:8) जिस तरह क़ुरआन की सूरतों के शुरू में ख़ुदा के रहम पर नुमायां ज़ोर दिया गया है उसी तरह इन्जील के हर वर्क़ में ख़ुदा के फ़ज़्ल पर ज़ोर दिया गया है जो उस की मुहब्बत का फ़ेअल है। “उस के फ़ज़्ल के सबब उस मख़लिसी के वसीले से जो यसूअ मसीह में है मुफ़्त रास्तबाज़ ठहराए जाते हैं।” (रोमीयों 3:16)

ماراتو بہشت اگر بطاعت بخشی

ایں مزدبودو لطف وعطائے تو کجاست

(4)

हमने दुनियावी माँ की मुहब्बत की मिसाल से मुनज्जी कौनैन (मसीह) की आलमगीर नजात को वाज़ेह किया है। क्योंकि हमको इन्सानी ताल्लुक़ात में इलाही मुहब्बत की झलक दिखाई देती है और हम इस तौर पर ख़ुदा की मुहब्बत को बाआसानी समझ सकते हैं। हम इन ताल्लुक़ात के ज़रीये ये भी समझ सकते हैं कि ख़ुदा किस तरह गुनेहगार इन्सान के इंतिज़ार और तलाश में रहता है और इस के साथ अज़ सर-ए-नौ मेल मिलाप करने के लिए हर तरह का रंज और दुख दर्द और तड़प महसूस करता है। (लूक़ा 15 बाब) इस बे-बहा और लाज़वाल मुहब्बत के कमाल को देखकर गुनेहगार के दिल में तौबा का ख़याल पैदा होता है। (रोमीयों 4:2) और वो मुसम्मम (मज़बूत) इरादा कर लेता है कि ख़ुदा से फ़ज़्ल और तौफ़ीक़ हासिल करके वो आइन्दा “नई ज़िंदगी की राह” पर चलेगा। (रोमीयों 6:4) नजात के काम में पेश-क़दमी ख़ुदा की मुहब्बत करती है।

بوے گل خود بہ چمن راہ نماشد زنخست

ورنہ بلبل چہ خبر داشت کہ گلزار ے ہست

चूँकि ख़ुदावंद मसीह ख़ुदा की मुहब्बत का कामिल और अकमल मज़हर है। लिहाज़ा आपकी ज़िंदगी और मौत ख़ुदा की मुहब्बत का आला तरीन मज़हर हैं। अगर कोई शख़्स हमसे इस क़द्र मोहब्बत रखे कि वो अपनी जान हमारी ख़ातिर दे दे तो उस की ज़िंदगी और मौत की शुक्रगुज़ारी का जज़्बा (यूहन्ना 15:3, 1 कुरिन्थियों 11:26) हमारे दिलों में एक ऐसी क़ुव्वत पैदा कर देता है और हमारी क़ुव्वत-ए-इरादी को ऐसी तक़वियत अता कर देता है जिसका मुक़ाबला दुनिया और शैतान की कोई ताक़त नहीं कर सकती। (रोमीयों 8:35-37, 5:6) ये जज़्बा अज़ सर-ए-नौ ख़ुदा के साथ हमारी रिफ़ाक़त क़ायम कर देता है और यूं गुनाह का क़िला क़ुमअ हो जाता है। क्योंकि गुनाह जैसा हम कह चुके हैं उस रिफ़ाक़त के टूटने का नाम है जो शैतानी ख़यालात व जज़्बात और अफ़आल करने का नतीजा था। लेकिन “ख़ुदा का बेटा इसी लिए ज़ाहिर हुआ था कि इब्लीस के कामों को मिटा दे।” (यूहन्ना 3:8) इस नई क़ुव्वत की ताक़त उतनी ही ज़्यादा ज़बरदस्त होगी जितना ज़्यादा मुहब्बत का मुज़ाहरा होगा। (लूक़ा 7:26-50) पस जब मुनज्जी कौनैन (मसीह) की ज़िंदगी और मौत इलाही मुहब्बत का कामिल और अकमल मुज़ाहरा है तो उस नई क़ुव्वत की ताक़त भी जो हमारी क़ुव्वत-ए-इरादी में फूंकी जाती है उतनी ही ज़्यादा कामिल और मुकम्मल होगी। चूँकि ये एक तवारीखी हक़ीक़त है कि रुए-ज़मीन पर मुनज्जी कौनैन (मसीह) के सिवा किसी और शख़्स ने अपनी ज़िंदगी और मौत से इलाही मुहब्बत को इस कामिल पाये तक ज़ाहिर नहीं किया। (यूहन्ना 1:18, मत्ती 11:27, यूहन्ना 17:26, 14:9, 12:45, कुलस्सियों 1:15, इब्रानियों 1:3 वग़ैरह) लिहाज़ा यसूअ मसीह के नाम के सिवा कोई “दूसरा नाम नहीं दिया गया जिसके वसीले से नजात हो सके।” (आमाल 4:12) जो नई क़ुव्वत कलिमतुल्लाह (मसीह) के वसीले हर ज़माने मुल्क और क़ौम, ग़र्ज़ ये कि दुनिया जहान के अफ़राद के दिलों में पैदा हो जाती है वो इस क़द्र ताक़त और क़ुद्रत रखती है कि उनके तमाम गुनाहों से उन की मख़लिसी और नजात दिला कर उनकी ख़ुदा के साथ अज़ सर-ए-नौ दाइमी रिफ़ाक़त क़ायम कर देती है। (मत्ती 1:21, यूहन्ना 12:47, 1 तीमुथियुस 1:15, तितुस 3:5, इब्रानियों 7:35, यूहन्ना 7:37 वग़ैरह) और इन्सान की क़ुव्वत-ए-इरादी तक़वियत हासिल करके इस क़ाबिल हो जाती है कि वो अज़ सर-ए-नौ शैतान और गुनाह का मुक़ाबला कर सके और ख़ुदावंद मसीह से तौफ़ीक़ हासिल कर के उस पर ग़ालिब आ सके और अगर वो फिर भी जाता है तो वो मग़्लूब नहीं होता। क्योंकि ख़ुदावंद उस को अपने हाथ से फिर सँभालता है। (ज़बूर 37:24, यूहन्ना 1:16-17, मत्ती 11:28, यूहन्ना 7:37, 4:14, रोमीयों 3:24, 5:20, 15:10, 2 कुरिन्थियों 9:8, ग़लतीयों 2:21, इफ़िसियों 1:7, 28:7, 4:7, 1 तीमुथियुस 1:14, 2 तीमुथियुस 1:9, 2:1, तितुस 2:11, 3:7, इब्रानियों 4:16 वग़ैरह) “पस अगर कोई मसीह में है तो वो नया मख़्लूक़ है। पुरानी बातें और आदतें जाती रहीं देखो वो नई हो गईं।” (2 कुरिन्थियों 5:17) चुनान्चे ख़ुदावंद फ़रमाता है, “देखो में नए आस्मान और नई ज़मीन को पैदा करता हूँ। गुज़श्ता ज़माने की बातें भूली-बिसरी हो गईं। वो ख़याल में भी ना आयेंगी। बनी नूअ इन्सान मेरी इस नई ख़ल्क़त से अबदी ख़ुशी और शादमानी करेंगे।” (यसअयाह 65:17-18)

पस इस दुनिया में मसीहिय्यत ही अकेला मज़्हब है जो सिर्फ अर्फ़ा उसूल को बयान करने और आला नमूना देने पर ही इक्तिफ़ा नहीं करता, बल्कि उन उसूलों पर अमल करने की और उस नमूने के नक़्शे क़दम पर चलने की तौफ़ीक़ भी बख़्शता है। ख़ुदावंद मसीह दुनिया में वाहिद शख़्स हैं जिनकी ज़िंदगी और मौत के ज़रीये गुनेहगार इन्सान आला तरीन अख़्लाक़ी मेयार पर चलने के क़ाबिल हो जाता है। मुक़द्दस यूहन्ना फ़रमाता है कि “शरीअत तो मूसा की मार्फ़त दी गई मगर तौफ़ीक़ और फ़ज़्ल और हक़ीक़त मसीह की मार्फ़त मिली।” (यूहन्ना 1:17) इसी लिए ख़ुदावंद मसीह की शख़्सियत के साथ इन्जील जलील में लफ़्ज़ “क़ुद्रत” बार-बार इस्तिमाल किया गया है। मुअर्रिख़ लेकि (Lecky) इस पर साद (इक़रार) करके कहता है कि :-

“मसीहिय्यत ने दुनिया को एक आला तरीन मेयार एक शख़्स की ज़िंदगी में दिखा दिया। मसीहिय्यत में ना सिर्फ नेकी का आला तरीन नमूना पाया जाता है, बल्कि इस में तमाम दीगर इन्सानों के लिए तहरीक और तर्ग़ीब भी मौजूद है कि वो इस नमूने के नक़्श-ए-क़दम पर चल सकें, क्योंकि मसीहिय्यत ज़िंदगी का रास्ता है।”

(History of European Morals, vol 2)

फ़्रांस का अक़्ल परस्त रेनान (Renan) कहता है :-

“मसीहिय्यत ने शरई क़वानीन व क़वाईद वज़ा ना किए बल्कि आलमगीर उसूल दुनिया के सामने पेश किए। और साथ ही उसने दुनिया में नई रूह फूंक दी है। जिसने दुनिया की बदकारियों और सिया क़ारीयों की बेख़कुनी करके दुनिया की काया पलट दी है।”

زمین از کوکب ِ تقدیر ماگردوں شود روزے

فروغ خاکیاں از نوریاں افزوں شود روزے

मसीही तजुर्बे की हक़ीक़त

चूँकि मुनज्जी आलमीन (मसीह) की ज़िंदगी और मौत के वसीले बनी नूअ इन्सान की सल्ब शूदा क़ुव्वत-ए-इरादी अज़ सर-ए-नौ तक़वियत पाकर ज़िंदा हो जाती है। लिहाज़ा सलीब मसीहिय्यत का मर्कज़ है। इब्ने अल्लाह (मसीह) की सलीबी मौत मह्ज़ एक तवारीख़ी वाक़िया ही नहीं, बल्कि ख़ुदा की अज़ली मुहब्बत की हक़ीक़त की एक निहायत अहम झलक है। सलीब एक मायूस दुनिया के लिए नजात का फ़र्हत अफ़्ज़ा पैग़ाम है। क्योंकि वो ख़ुदा की अज़ली और अबदी मुहब्बत का आला तरीन मुकाशफ़ा है। जिस तरह ताइब बेटा अपने बाप के दुख और अलम की रोशनी में अपनी स्याह क़ारीयों को देखकर पछताता है, उसी तरह ताइब गुनेहगार मसीह की सलीब की रोशनी में अपने गुनाहों की घिनौनी हालत देखकर पशेमान (शर्मिंदा) होता है पस मसीह की सलीब बनी-आदम की नजात के साथ वाबस्ता है और मुनज्जी आलमीन (मसीह) की मौत और दुनिया-भर के शोहदा की मौत में यही अज़ीम फ़र्क़ है। सलीब के बग़ैर गुनाहों की माफ़ी का अक़ीदा बेमाअनी हो जाता है। क्योंकि वो इस अख़्लाक़ी अंसर से सरासर ख़ाली हो जाता है जो इलाही मुहब्बत की वजह से मसीही नजात के तसव्वुर में मौजूद है। सलीब के ज़रीये हर गुनेहगार को इस बात का यक़ीन हो जाता है कि ख़ुदा उस को माफ़ करता है क्योंकि ख़ुदा उस से मुहब्बत रखता है। इलाही मुहब्बत की वजह से “जहां गुनाह ज़्यादा हुआ वहां फ़ज़्ल इस से भी निहायत ज़्यादा हुआ ताकि जिस तरह गुनाह ने बादशाही की उसी तरह फ़ज़्ल भी हमारे ख़ुदावंद मसीह के वसीले हमेशा की ज़िंदगी के लिए रास्तबाज़ी के ज़रीये बादशाही करे।” (रोमीयों 5:20)

(2)

लेकिन क्या गुनेहगार को गुनाह करने में इसी तरह दिलेरी नहीं हो जाती है? ये सवाल क़ाबिल-ए-ग़ौर है। हम इन्सानी मिसाल के ऊपर ज़रा ख़याल करें। क्या ताइब बेटे को दिलेरी हो जाती है जब उस का बाप अपनी मुहब्बत की वजह से उस का ख़ता क़ारीयों को माफ़ करता है? हम तजुर्बे से जानते हैं कि ताइब बेटे को ये ख़याल नहीं आता कि चूँकि मेरे बाप ने मुझे माफ़ कर दिया है, चलो छुट्टी हुई आओ गुनाह कर लें। अगर इस क़िस्म का ख़याल उस के दिल में आएगा तो ये ज़ाहिर हो जाएगा कि उसने अपने बाप के दुख और रंज का एहसास नहीं किया और उस की मुहब्बत की क़द्र नहीं की बअल्फ़ाज़े दीगर वो दर-हक़ीक़त ताइब ही नहीं हुआ। उस की तौबा नसूह नहीं बल्कि मह्ज़ ज़बानी जमा ख़र्च है। इसी तरह जिस ताइब गुनेहगार ने मसीह की सलीब पर ख़ुदा की मुहब्बत का जलवा देखा है और उस की क़द्र की है और उस का एहसास किया है उस का दिल दुबारा गुनाह करके ख़ुदा की मुहब्बत ठुकराने के ख़याल से ही काँप उठता है। ख़ुदा की मुहब्बत उस को रिज़ा-ए-इलाही की पाबंद कर देती है।

दर पै बैठे हैं तेरे बे-ज़ंजीर

हाय किस तरह की पाबंदी है

पस इन्जील शरीफ़ में इस सवाल के मुताल्लिक़ “क्या हम गुनाह करते रहें ताकि फ़ज़्ल ज़्यादा हो?” इर्शाद है, “हरगिज़ नहीं। हम जो गुनाह के एतबार से मर गए क्यूँ-कर उस में आइन्दा को ज़िंदगी गुज़ारें। हम जितनों ने मसीह यसूअ में शामिल होने का बपतिस्मा लिया तो उसकी मौत में शामिल होने का बपतिस्मा लिया, ताकि हम नई ज़िंदगी की राह चलें और गुनाह का बदन बेकार हो जाए और हम आइन्दा गुनाह की गु़लामी में ना रहें। पस तुम अपने आपको गुनाह के एतबार से मुर्दा मगर ख़ुदा के एतबार से मसीह में ज़िंदा समझो।”

ये अगर आईन हस्ती है कि हो हर शाम सुबह

मरक़द-ए-इन्सा की शब का क्यों ना हो अंजाम सुबह?

“पस गुनाह तुम्हारे फ़ानी बदन में बादशाही ना करे और अपने आज़ा ना-रास्ती के हथियार होने के लिए गुनाह के हवाले ना करो, बल्कि अपने आपको मुर्दों में से ज़िंदा जान कर अपने आज़ा रास्तबाज़ी के हथियार होने के लिए ख़ुदा के हवाले करो, इसलिए कि गुनाह का तुम पर इख़्तियार ना होगा। क्योंकि तुम पहले गुनाह के ग़ुलाम थे, लेकिन उन बातों से अब शर्मिंदा हो और अब गुनाह से आज़ाद हो कर रास्तबाज़ी के ग़ुलाम हो गए हो और इस का अंजाम हमेशा की ज़िंदगी है। “क्योंकि गुनाह का लाज़िमी नतीजा रुहानी मौत है मगर ख़ुदा की बख़्शिश हमारे ख़ुदावंद मसीह यसूअ में हमेशा की ज़िंदगी है।” (रोमीयों 6 बाब)

इस तरह तै की हमने मंज़िलें

गिर पड़े, गिर कर उठे, उठ कर चले

(3)

सलीब के ज़रीये हर ईमानदार अज़ सर-ए-नौ ज़िंदा हो कर मसीह में पैवंद हो जाता है कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया था कि, “अंगूर का हक़ीक़ी दरख़्त मैं हूँ।...तुम मुझमें क़ायम रहो और मैं तुम में। जिस तरह डाली अगर अंगूर के दरख़्त में क़ायम ना रहे तो अपने आपसे फल नहीं ला सकती, उसी तरह तुम भी अगर मुझमें क़ायम ना रहो तो फल नहीं ला सकते। मैं अंगूर का दरख़्त हूँ, तुम डालियां हो। जो मुझ में क़ायम रहता है और मैं उस में वही बहुत फल लाता है क्योंकि मुझसे जुदा हो कर तुम कुछ नहीं कर सकते।” (यूहन्ना 15 बाब) पस रसूल अपना तजुर्बा बयान करके कहते हैं, “मैं मसीह के साथ मस्लूब हुआ हूँ और अब मैं ज़िंदा ना रहा, बल्कि मसीह मुझमें ज़िंदा है और मैं जो ज़िंदगी अब जिस्म में गुज़ारता हूँ वो इब्ने-अल्लाह (मसीह) पर ईमान लाने से गुज़ारता हूँ जिसने मुझसे मुहब्बत रखी।” (ग़लतीयों 2:20) “ज़िंदा रहना मेरे लिए मसीह है।” (फिलिप्पियों 1:21) “मसीह हमारे लिए ज़िंदगी है।” (कुलस्सियों 3:4) ख़ुदा का जो रुहानी तजुर्बा मसीहीयों के दिलों में है इस का जुज़्व लाए-नफ़क आँख़ुदावंद की सलीब और क़ियामत है। अगर उन को अलग कर दें तो मसीही तजुर्बा सिफ़र के बराबर रह जाता है। इस रुहानी तजुर्बे का सर चश्मा और मर्कज़ इब्ने-अल्लाह (मसीह) की शख़्सियत है। इस का तजुर्बा अव़्वल मसीह है और इस का आख़िर भी मसीह है। इस तजुर्बे से हम जानते हैं कि हमारा ख़ुदावंद हमारे “अंदर” मौजूद है। (यूहन्ना 14:13, 27) और "हमेशा दुनिया के आख़िर तक” हमारे साथ है। (मत्ती 28:20) जिस तरह रग में ख़ून और तन में जान है उसी तरह मसीह की रूह हम में रवां है।

दीगर मज़ाहिब के तजुर्बात में मसीही तजुर्बे की ये ख़ुसूसीयत मफ़्क़ूद (नामालूम) है। तसव्वुफ़ में वज्द वग़ैरह है। लेकिन मसीही तजुर्बे के इम्तियाज़ी निशान नहीं मिलते। यही वजह है कि मसीही तसव्वुफ़ और इस्लामी तसव्वुफ़ और हिंदू फ़ल्सफ़ा में आस्मान ज़मीन का फ़र्क़ है। चुनान्चे यहूदी रब्बी आलिम सुलेमान फ़्री होफ (S.Frehof) कहता है,

“ये बात हमको तूहन व कराहन (जबरन, ख़्वाह-मख़्वाह) माननी पड़ती है कि करोड़ों मर्दों और औरतों के दिलों में ख़ुदा की हुज़ूरी का एहसास मसीह के ज़रीये होता है। मसीही इल्म-ए-अदब का हर तालिबे इल्म इस बात से बख़ूबी वाक़िफ़ है कि मसीह की क़ुव्वत का राज़ उस की शख़्सियत के अंदर मुज़म्मिर (पोशीदा) है। हम नहीं समझ सकते कि ज़माने ने इस तस्वीर को अब तक क्यों महव नहीं कर दिया। यसूअ मसीह अब भी बेशुमार इन्सानों का ज़िंदा साथी है। किसी मुसलमान के मुँह से ऐसा गीत ना निकला। “मुहम्मद मेरी रूह के आशिक़, तेरे पास मैं भागता हूँ। मेरी आड़ हो या मुहम्मद” किसी यहूदी ने ऐसा गीत कभी ना गाया। “ऐ मूसा मुझे हर साअत तेरी ज़रूरत है, तू मुझे दरकार है। दे बरकत ऐ मूसा, मैं तेरे पास आया हूँ।” मसीह की ख़ुसूसीयत उस की तालीम या उस की कलीसिया की तंज़ीम में नहीं, बल्कि उस असर में है जिससे वो अपने पैरौओं के दिलों को मुतास्सिर कर देता है।”

(Stormers of Heaven)

मसीही रुहानी तजुर्बा दीगर मज़ाहिब के रुहानी तजुर्बों से इस जिहत से मुख़्तलिफ़ है, क्योंकि हर दीगर मज़्हब का बानी मर गया और उस की दुनियावी ज़िंदगी के साथ ही उस की ज़िंदगी का ख़ातिमा हो गया। लेकिन गो ख़ुदावंद मसीह मस्लूब हुआ और मर गया लेकिन मौत ने आपकी ज़िंदगी का ख़ातिमा ना किया। आप मुर्दों में से जी उठे और अपनी ज़फ़रयाब क़ियामत के ज़रीये आपने मौत और क़ब्र पर फ़त्ह पाई और अब आपकी ज़िंदा रूह मोमिनीन के दिलों के अंदर बस्ती है। क़ुरआन में कहीं इस बात का इशारा तक नहीं कि रसूले अरबी की रूह वफ़ात के बाद मुसलमानों की रूहों के साथ ज़िंदा रिफ़ाक़त रखेगी। क्या क़ुरआन या किसी और मज़्हब की किताब में इस क़िस्म की बात उस के बानी की निस्बत मन्सूब की गई है। “जिस तरह ऐ बाप तू मुझ (मसीह) में है और मैं तुझमें हूँ वह (तमाम दुनिया के मसीही) भी हम में हों। वो जलाल जो तूने मुझे दिया है मैंने उनको दिया है, ताकि वो एक हों जैसे हम एक हैं। अगर कोई मुझ (मसीह) से मुहब्बत रखे तो मेरा बाप उस से मुहब्बत रखेगा और हम उस के पास आएँगे और उस के साथ सुकूनत करेंगे।” (यूहन्ना 17:21, 14:23) ये तजुर्बा मसीही उलमा फुज़ला और सूफ़िया तक ही महदूद नहीं, बल्कि हर एक नादान से नादान मसीही का है। जो आप पर ज़िंदा ईमान रखता है। ख़्वाह वो किसी क़ौम मुल्क या नस्ल का हो। मसीही तजुर्बा एक आलमगीर तजुर्बा है। गुज़श्ता बीस (20) सदीयों में दुनिया का कोई मुल़्क क़ौम या क़बीला ऐसा नहीं जिसके लाखों अफ़राद इस आलमगीर तजुर्बे से बहरावर ना हुए हों। ये तजुर्बा मसीह की आलमगीर हस्ती का ज़िंदा सबूत है।

40 हमने इस मौज़ू पर अपनी किताब “तौज़ीह-उल-अक़ाइद” में बह्स की है।

मसीही रुहानी तजुर्बा दीगर मज़ाहिब के रुहानी तजुर्बों से इस जिहत से मुख़्तलिफ़ है, क्योंकि हर दीगर मज़्हब का बानी मर गया और उस की दुनियावी ज़िंदगी के साथ ही उस की ज़िंदगी का ख़ातिमा हो गया। लेकिन गो ख़ुदावंद मसीह मस्लूब हुआ और मर गया लेकिन मौत ने आपकी ज़िंदगी का ख़ातिमा ना किया। आप मुर्दों में से जी उठे और अपनी ज़फ़रयाब क़ियामत के ज़रीये आपने मौत और क़ब्र पर फ़त्ह पाई और अब आपकी ज़िंदा रूह मोमिनीन के दिलों के अंदर बस्ती है। क़ुरआन में कहीं इस बात का इशारा तक नहीं कि रसूले अरबी की रूह वफ़ात के बाद मुसलमानों की रूहों के साथ ज़िंदा रिफ़ाक़त रखेगी। क्या क़ुरआन या किसी और मज़्हब की किताब में इस क़िस्म की बात उस के बानी की निस्बत मन्सूब की गई है। “जिस तरह ऐ बाप तू मुझ (मसीह) में है और मैं तुझमें हूँ वह (तमाम दुनिया के मसीही) भी हम में हों। वो जलाल जो तूने मुझे दिया है मैंने उनको दिया है, ताकि वो एक हों जैसे हम एक हैं। अगर कोई मुझ (मसीह) से मुहब्बत रखे तो मेरा बाप उस से मुहब्बत रखेगा और हम उस के पास आएँगे और उस के साथ सुकूनत करेंगे।” (यूहन्ना 17:21, 14:23) ये तजुर्बा मसीही उलमा फुज़ला और सूफ़िया तक ही महदूद नहीं, बल्कि हर एक नादान से नादान मसीही का है। जो आप पर ज़िंदा ईमान रखता है। ख़्वाह वो किसी क़ौम मुल्क या नस्ल का हो। मसीही तजुर्बा एक आलमगीर तजुर्बा है। गुज़श्ता बीस (20) सदीयों में दुनिया का कोई मुल़्क क़ौम या क़बीला ऐसा नहीं जिसके लाखों अफ़राद इस आलमगीर तजुर्बे से बहरावर ना हुए हों। ये तजुर्बा मसीह की आलमगीर हस्ती का ज़िंदा सबूत है।

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तारीख़-ए-आलम हमको बतलाती है कि बनी नूअ इन्सान के तमाम रुहानी तजुर्बों में सिर्फ उन लोगों का तजुर्बा ही आला तरीन क़िस्म का है जो मुनज्जी आलमीन (मसीह) के हक़ीक़ी पैरौ (मानने वाले) हैं। दीगर मज़ाहिब आलम के पैरौ रूहानियत की इस मंज़िल तक पहुंच ही नहीं सके। इन मज़ाहिब में नेक इन्सान हुए हैं, क्योंकि जैसा हम बाब दोम की दूसरी फ़स्ल में कह चुके हैं कोई मज़्हब ऐसा नहीं जो सदाक़त के अंसर से ख़ाली हो। लेकिन जब मसीहिय्यत के रुहानी तजुर्बा और दीगर मज़ाहिब के मुक़ल्लिदीन के रुहानी तजुर्बे का मुक़ाबला किया जाता है, तो ये हक़ीक़त ज़ाहिर हो जाती है कि जिस तौर से मसीहिय्यत ने दुनिया के बदतरीन ख़लाइक़ को मुक़द्दस हस्तीयों में तब्दील कर दिया है इस की नज़ीर रुए ज़मीन के मज़ाहिब में नहीं मिलती। चुनान्चे मशहूर मुअर्रिख़ सैली (J.R.Seeley) इस अम्र पर तारीख़ नुक़्ता निगाह से नज़र करके इस नतीजा पर पहुंचा है कि :-

“जो रुहानी पाकीज़गी मसीही सदीयों में ज़हूर पज़ीर हुई है उस का मसीहिय्यत से क़ब्ल वजूद भी ना था। मसीहिय्यत में ये सलाहीयत है कि बनी नूअ इन्सान को अज़ सर-ए-नौ ख़ल्क़ कर दे और उसने ऐसा करके दिखा भी दिया है और पाकीज़गी का ऐसा आला मेयार क़ायम कर दिया है कि दूसरे मज़ाहिब उस की गर्द को भी नहीं पहुंच सकते।”

मसीह की ज़िंदा शख़्सियत ऐसी लासानी है कि उस के ज़रीये ख़ुदा के बेटे वजूद में आते हैं। (रोमीयों 8:14-17) मुनज्जी आलम (मसीह) का असर ऐसा है कि वो तमाम बनी नूअ इन्सान को ख़ुदा के बेटे बनाने की क़ुद्रत रखता है। (यूहन्ना 1:12) वो एक कामिल हस्ती है और उस का कमाल इस बात का मुतक़ाज़ी है कि नूअ इन्सान कामिल हो जाए। उस के मुक़ाबिल में तमाम दीगर अद्यान आलम बेबस और लाचार हैं, लेकिन मसीह फ़ातेह है। वो तमाम बनी नूअ इन्सान का वाहिद हुक्मरान है और ताअबद ताजदार रहेगा, क्योंकि वही अल्फ़ा और ओमेगा, अव्वल और आख़िर, इब्तिदा और इंतिहा है। (मुकाशफ़ा 21:27)

बअल्फ़ाज़ क़ुरआन (ہُوَ الۡاَوَّلُ وَ الۡاٰخِرُ) (सूरह हदीद आयत 3)

बरकतुल्लाह