Contents of the New Testament

Allama J.Ali.Bakhsh and Allama H.G.Gray

अहदे-जदीद की किताबें

अल्लामा जे॰ अली बख़्श और अल्लामा एच॰ जी॰ ग्रे साहब

अह्दे-जदीद का बयान

नए अहदनामे का बयान करने में हम दो बातों को याद रखें।

(अ) इस जिल्द में एक ही मुसन्निफ़ की एक ही तस्नीफ़ नहीं। बल्कि मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ों की मुख़्तलिफ़ तस्नीफ़ात हैं। और इस में एक ही गवाह की शहादत (गवाही) नहीं बल्कि बहुत गवाहों की। और वो अलग-अलग एक दूसरे की ताईद (हिमायत) करते हैं। मसलन चारों अनाजील मसीह की ज़िंदगी के अलैहदा-अलैहदा बयान हैं। इनका बाहमी मुक़ाबला करने से वाक़ियात की सेहत साबित हो जाती है। इसी तरह अगर आमाल की किताब के बयानात का पौलुस रसूल के ख़तों से मुक़ाबला करें तो उनकी पूरी मुवाफ़िक़त (मुताबिक़त) ज़ाहिर होगी। ये जिल्द तो मुसन्निफ़ों की तस्नीफ़ात का मजमूआ है। लेकिन तालीम की बड़ी-बड़ी बातों में वो सब यकसाँ हैं।

(ब) इल्हाम का मस यहां खासतौर पर ज़ेर-ए-बहस नहीं क्योंकि अगर बिलफ़र्ज़ ये किताबें इल्हामी साबित ना हों। लेकिन वाक़ियात का बयान इनमें क़लमबंद हुआ है वो तवारीख़ी तौर पर सही साबित हो जाएं। तो भी मसीही दीन क़ाबिल-ए-एतिबार ठहरेगा। चुनान्चे अगर मसीह की ज़िंदगी ऐसी ही पाक गुज़री जैसा कि चारों इंजीलों में मुन्दरज है। और अगर वो फील-वाक़ेअ मुर्दों में से जी उठा तो उस के इब्ने-अल्लाह होने का दावा काफ़ी तौर से साबित है। इस अम्र का ज़िक्र इसलिए किया जाता है कि मसीही होने के लिए इन वाक़ियात पर ईमान लाना ज़रूर है ना कि किताबों के इल्हाम पर। क्योंकि इन्सान की नजात मसीह की मौत और उस के जी उठने पर मौक़ूफ़ (ठहराया गया) है ना कि किसी किताब पर।

इस रिसाले का ख़ास मक़्सद है कि इस अम्र को जांचें और तहक़ीक़ात करें, कि जो बयान इन किताबों में मुन्दरज है वो तवारीख़ी तौर पर क़ाबिल-ए-एतिबार है। इस तहक़ीक़ात में हम तास्सुब (मज़्हब की बेजा हिमायत) से काम ना लें। जहां से सच्चाई मिले उसे ख़ुशी से क़ुबूल करने पर तैयार रहें। उधर कोई बयान इनसे ज़्यादा एतबार के लायक़ हो तो उस के मानने में ताम्मुल (देर) ना करें।

लेकिन ख़ास मज़्मून शुरू करने से पेश्तर ये बताना मुनासिब होगा कि किन वजूहात से अक्सर मसीही इन किताबों को इल्हामी मानते हैं। और इल्हाम से क्या मुराद लेते हैं। और किस तरीक़े से वो सब एक ही जिल्द में जमा हो गईं। लफ़्ज़ इल्हाम लहम से निकला है। जिनके मअनी अरबी में निगलना हैं। और इसलिए इल्हाम के मअनी ये हुए “दिल में डालना” पस इल्हाम कोई बैरूनी शैय नहीं बल्कि वो इन्सान के दिल से ख़ास ताल्लुक़ रखता है अंग्रेज़ी और यूनानी लफ़्ज़ों से भी तक़रीबन वही बात मुराद है। इनके लुगवी मअनी हैं किसी के “अंदर फूंकना” (2 तीमुथियुस 3:16), (अय्यूब 32:8) किस तरह से ख़ुदा ने इल्हाम के ज़रिये इतने ख़यालात बाअज़ इन्सानों के दिल में डाले? ये बहुत दिलचस्प सवाल है। इस की तहक़ीक़ात में हमें पहले से ये फ़र्ज़ कर लेना नहीं चाहिए कि जो इल्हाम ख़ुदा से मिलेगा वो ज़रूर ऐसा मुकम्मल और बेनुक्स होगा कि कभी उस में किस तरह के सहू (ग़लती) को दख़ल ना होगा बल्कि ख़ुद कोशिश कर के इन किताबों से दर्याफ़्त करें कि मुलहम (इल्हाम रखने वाला) और इनके हम-अस्रों ने इल्हाम से क्या समझा।

एक तरह से तो हर मख़्लूक़ को ख़ुदा की तरफ़ से इल्हाम मिलता है। मसलन शायर और मुत्रिब (गाने वाला) इल्हाम हासिल करने के लिए दुआ करते थे। और अपने शेअरों और रागों को इल्हाम से मन्सूब करते थे। चुनान्चे दुनियावी हिक्मत और हिर्फ़त (इल्म, होशयारी) वग़ैरह ख़ुदा के इल्हाम से मन्सूब हैं। “मैंने उस को हिक्मत और फ़हमीदा (समझदारी) और हर तरह की हुनरमंदी में रूह-उल्लाह से भर दिया। ताकि दुनियावी कामों को ईजाद करे। और सोने और रूपये और पीतल के काम करे।” (ख़ुरूज 31:3 ता 4) बल्कि जानवरों में जो हिक्मत है। वो भी इल्हाम के बग़ैर नहीं और क़ुर्आन में जो ये ज़िक्र है कि ख़ुदा शहद की मक्खी को भी इल्हाम देता है तो इस में बहुत सच्चाई है। (सूरह नहल 16, आयत 70) इस तबई इल्हाम का एक और दर्जा भी है जो हिक्मत इन्सानी और अक़्ल हैवानी से आला रुत्बा रखता है। ये नूरे क़ल्ब (दिल की रोशनी) है, जिसे तमीज़, ज़मीर, और कांशियसनेस वग़ैरह कहते हैं। ये नूर ख़ुदा के इल्हाम से है। (अय्यूब 32:8), (यूहन्ना 1:4 ता 5), (लूक़ा 11:34 ता 36), (रोमियों 2:15) ये मामूली तबई इल्हाम की क़िस्में हैं। लेकिन जब दीन में इल्हाम का ज़िक्र आता है तो इस से फ़ौक़ुल आदत (आदत से बढ़कर) इल्हाम मुराद है। यानी ऐसा इल्हाम जो इक्तिसाबी (ज़ाती मेहनत) से हासिल करना नहीं। और ये हमारी तबई कुव्वतों से हासिल नहीं होता। दहरिये और मुल्हिद (काफ़िर) लोग नहीं मानते कि इस क़िस्म का इल्हाम हो सकता है। उनकी राय को रद्द करने का यहां मौक़ा नहीं। लेकिन इतना कहना मुनासिब है कि ज़ी-अक़्ल शख़्स ख़ुदा से इल्हाम की तवक़्क़ो कर सकते हैं। इस में कुछ ख़िलाफ़ अक़्ल नहीं। मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब इस फ़ौक़ुल आदत इल्हाम के मुद्दई (दावा करने वाले) हैं। इनके दाअवों के साथ हमको इस वक़्त कुछ सरोकार नहीं। सिर्फ मसीही दीन के दाअवे से।

मसीहियों के नज़्दीक ख़ुदा के मुकाशफ़े का सबसे आला और पुख़्ता सबूत ख़ुद मसीह है। उस के आमाल, अफ़आल और सीरत और क़ियामत (मुर्दों से जी उठना) इस अम्र के शाहिद (गवाह) हैं। ख़ुदा का ये ज़िंदा मुजस्सम कलाम नजात की चट्टान है। इस पर अगर हम क़ायम हों तो नजात पाते हैं।

इस के इलावा मसीहियों का दावा है कि चंद किताबें भी इल्हामी हैं जो अपनी मुजल्लद सूरत (जिल्द की हुई) में बाइबल कहलाती हैं। इस बाइबल के दो हिस्से हैं। पहला हिस्सा पुराना अहदनामा कहलाता है। तवारीख़ी लिहाज़ से इस में उमूमन क़ौम बनी-इस्राईल की तवारीख़ है। इस तवारीख़ की हक़ीक़त ये है कि मुअर्रिख़ (तारीख़ लिखने वाले) इन क़ौमी वाक़ियात को हमेशा ख़ुदा से मन्सूब करते हैं। और ये दाअवा रखते हैं। कि हमें ख़ुदा की तरफ़ से एक इल्हाम मिला है। मसलन गिनती 12:8 में यूं लिखा है “मेरा बंदा मेरे सारे घर में ईमानदार है मैं उस से आमने-सामने सरीह (साफ़) बातें करता हूँ ना कि पोशीदा बातें।” (ख़ुरूज 20:1) में यूं आया है “ख़ुद ख़ुदा ने ये सारी बातें कहीं।” यानी दस अहकाम।

पैदाइश 15:12 वग़ैरह में इब्राहिम से नींद की हालत में ख़ुदा मुख़ातिब हुआ और उस के साथ अहद बाँधा। (गिनती 24:3 ता 4) में बलआम के बारे में लिखा है, “वो शख़्स जिसकी आँखें खुली थीं। जिसने ख़ुदा की बातें सुनीं और क़ादिर-ए-मुतलक़ की रोया को देखा।” (यसअयाह 1:1) में है कि “उसने रोया देखी।” इसी नबी ने ख़ुदा का दीदार हासिल किया। (यसअयाह 6 बाब) ये ही हाल दूसरे नबियों का है। उनके हम-अस्रों ने उनकी दआवे (दावा की जमा) को माना और उनको रोकना सख़्त गुनाह समझा गया। (यर्मियाह 26:16 ता 19), (आमोस 7:10 ता 17) मज़्कूर बाला मुक़ामात से ज़ाहिर है कि इल्हाम के तरीक़े मुख़्तलिफ़ थे। कभी रूबरू कलाम के ज़रिये, कभी रोया, और ख्व़ाब, और बातिनी तालीम के ज़रिये, अल-ग़र्ज़ ख़्वाह किसी तरीक़े से ये इल्हाम मिला हो। लेकिन जो तालीम और वही मिली वो इन्सान की अक़्ल और दिल पर रोशन हुई। ना कि किसी नाज़िल शूदा किताब की सूरत में। देखो (1 पतरस 1:10 ता 11) “नबियों ने बड़ी तलाश और तहक़ीक़ की जिन्हों ने इस नेअमत की पेशीनगोई की। जो मसीहियों पर ज़ाहिर होने को थी। वो उस की तहक़ीक़ में थे, कि मसीह की रूह जो उनमें थी। जब मसीह की बाबत उस के दुखों की और बाद उनके उस के जलाल की आगे गवाही देती थी किस ज़माने का बयान करती थी।” ये पेशीनगोईयां या तालीमात क़लमबंद हो कर बनी-इस्राईल में इल्हामी समझी जाने लगीं। और ये किताबें माबाअ्द तालीम की कसौटी (मेयार) ठहरीं। चुनान्चे यसअयाह अपने हम-अस्रों से कहता है कि “शरीअत पर और शहादत पर नज़र करें। अगर वो सुख़न (कलाम, बात) के मुताबिक़ ना बोलें तो उनमें रोशनी नहीं।” (यसअयाह 8:20) इन नबियों को अक्सर ये हुक्म भी मिला कि जो वही उनको मिली उस को लिख कर हिफ़ाज़त से रखें। (ख़ुरूज 17:14, 34:27, 31:28, 32:15 ता 16), (गिनती 33:1 ता 2), (इस्तिस्ना 31 9 ता 11, 22 ता 26), (यर्मियाह 36:2, 28) जो किताबें इस तरह से ख़ुदा के हुक्म से लिखी गईं। और जिनको ख़ुद नबियों ने दिली तक़्क़ीन (यक़ीन, एतबार) से तस्दीक़ की। उनको कुल क़ौम मुक़द्दस मानती चली आई है। अगरचे इन किताबों में ख़ुद इस क़ौम के अक्सर गुनाहों का ज़िक्र है। (इस्तिस्ना 9:24)

अब ये सवाल लाज़िम आता है, कि किस तरह ये किताबें जमा हुईं। और हम तक पहुंचीं। इस के बारे में एक मशहूर यहूदी मुअर्रिख़ जो 37 ई॰ से 110 ई॰ तक ज़िंदा था। यूं बयान करता है, कि हमारा ख़याल नहीं कि हमारे पास बहुत सी किताबें हों। जो एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ और ग़ैर मुताबिक़ हों। हमारे पास सिर्फ बाईस किताबें हैं। जिनमें सारे ज़माने की तवारीख़ मुन्दरज है। ऐसी किताबें जो ठीक तौर पर मानी गईं। फिर इन किताबों के मज़ामीन का तीन हिस्सों में बयान करने के बाद वो ये लिखता है कि “अरतख़शशताह (यानी फ़ारस का बादशाह 430 ई॰ क़ म) के ज़माने से हमारे ज़माने तक बेशक हर वाक़िया क़लमबंद हुआ है। लेकिन ये बयानात नबियों के सिलसिले-वार बरपा ना होने के बाइस पेश्तर की किताबों के बराबर एतबार के लायक़ ना समझे गए। जिससे हम इन नविश्तों का लिहाज़ करते हैं। इस का ये अमली सबूत है। क्योंकि गो अर्सा- दराज़ गुज़र चुका है। तो भी एक शख़्स ने भी ये जुर्रत नहीं की कि एक जुज़ को बढ़ाए या घटाए या बदले। और हर यहूदी की सरिशत (फ़ित्रत) में ये दाख़िल है कि पैदाइश के वक़्त से लेकर इन नविश्तों को ख़ुदा की तालीम समझे और इन पर अमल करे। और अगर ज़रूरत पड़े तो ख़ुशी से इनके लिए जान देने में भी दरेग़ ना करे। इस में वो दो बातों पर ज़ोर देता है। एक तो ये कि वो और उस की क़ौम के लोग समझते थे कि इन किताबों में हमारी क़ौम का सही और क़ाबिल-ए-एतिबार बयान क़लमबंद हुआ है। दोम ये है कि इस क़ौम की दीगर किताबों में से इनकी इस सबब से ख़ास इज़्ज़त और हिफ़ाज़त हुई कि इनमें इलावा तारीख़ के ख़ुदा की तरफ़ से मुकाशफ़ा भी है।

लेकिन शायद कोई कहे कि यहूदियों की राय से हमको इस अम्र में क्या तसल्ली मिल सकती है? जब कि बाअज़ दीगर कौमें भी इन ही किताबों के बारे में वैसा ही दावा करती हैं। ये माक़ूल सवाल है। और हम मसीहियों के लिए इस का ये शाफ़ी जवाब है। कि ख़ुद ख़ुदा ने इनकी तस्दीक़ की और अपनी मुहर लगाई। (मत्ती 5:17 ता 18), (यूहन्ना 5:29, 40, 10:35) और नीज़ उस के रसूलों ने (आमाल 26:22), (रोमियों 1:2, 3:2), (2 तीमुथियुस 3:15 ता 16), (1 पतरस 1:10 ता 12), (2 पतरस 1:20 ता 21)

इन नविश्तों ने यहूदियों में ये उम्मीद पैदा की कि एक नजातदिहंदा आने वाला है। जिसे वो मसीह कहते थे। फिर येसू मसीह के आने से इस उम्मीद ने तक्मील पाई। अपने हम-अस्र यहूदियों से जो इन नविश्तों को मानते और उनकी ताज़ीम करते थे। उसने कहा कि मैं वही हूँ जिसके तुम मुंतज़िर थे। (लूक़ा 26:24, 27, 44, 4:16, 21) मख़्फ़ी (छिपा हुआ) ना रहे कि इल्हाम से क़त-ए-नज़र कर के यहां दो अजीब तवारीख़ी माजरे बाहम मिलकर इनके मिंजानिब अल्लाह होने की शहादत देते हैं। क्योंकि सिवाए ख़ुदा के चार सौ बरस पेश्तर कौन मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात की ख़बर दे सकता था। और इस क़ौम में ऐसी उम्मीद पैदा कर सकता था।

इस से हम अपने ख़ास मज़्मून तक पहुंचते हैं। यानी ये कि हम नए अहदनामे की किताबों को क्यों मानते हैं? याद रहे कि जैसा ऊपर बयान किया गया था। दरअस्ल हमारे दीन की बुनियाद इन किताबों के इल्हाम पर नहीं बल्कि इस की तवारीख़ी सच्चाई पर है। हम इनको इल्हामी भी मानते हैं और इस की ये वजूहात हैं।

(1) बला-शुब्हा मसीह ने माना कि पुराना अहदनामा इल्हामी है।

(2) उसने अपने रसूलों से ख़ास वाअदा किया कि रूह-उल-क़ुद्स उनकी ख़ास मदद और हिदायत करेगा। मसलन “रूह-उल-क़ुद्स जिसे बाप मेरे नाम से भेजेगा। वही तुम्हें सब बातें सिखाएगा। और जो कुछ मैंने तुमसे कहा है वो सब बातें याद दिलाएगा।” याद रहे कि ये ख़ास वाअदा रसूलों से है कि मसीह की बातें उनको रूह-उल-क़ुद्स याद दिलाएगा। और “वो वकील जिसको मैं तुम्हारे पास बाप की तरफ़ से भेजूँगा यानी हक़ की रूह जो बाप की तरफ़ से निकलती है। तो वो मेरी गवाही देगी। और तुम भी गवाह हो। क्योंकि शुरू से मेरे साथ हो।” (यूहन्ना 15:26) और “जब वो यानी हक़ की रूह आएगी। तो तुमको तमाम हक़ की राह दिखाएगी इसलिए कि वो अपनी तरफ़ से ना कहेगी लेकिन जो कुछ सुनेगी वही कहेगी। और तुम्हें आइन्दा की ख़बरें देगी।” (यूहन्ना 16:13)

(3) ख़ुद रसूलों ने ये दावा किया कि हम मुलहम मोअल्लिम (इल्हाम रखने वाले उस्ताद) हैं। मसलन आमाल 2:32, 33 में मज़्कूर है, “इसी येसू को ख़ुदा ने जिलाया (मुर्दों में से ज़िंदा किया) जिसके हम सब गवाह हैं। पस ख़ुदा के दहने हाथ सर-बुलंद हो कर और बाप से वो रूह-उल-क़ुद्स हासिल कर के जिसका वाअदा किया गया था उसने ये नाज़िल किया।” और आमाल 10:41, 42 में यूं आया है कि “हमने उस के मुर्दों में से जी उठने के बाद उस के साथ खाया, पिया। और उसने हमें हुक्म दिया कि उम्मत में मुनादी करो और गवाही दो।” और पौलुस रसूल ने भी ये दावा किया, क्या मैं रसूल नहीं। क्या मैंने येसू को नहीं देखा जो हमारा खुदावंद है...... अगर इन्जील सुनाऊँ तो मेरा कुछ फ़ख़्र नहीं क्योंकि ये तो मेरे लिए ज़रूरी बात है। अगर इन्जील ना सुनाऊँ तो मुझ पर अफ़्सोस है।” (1 कुरिन्थियों 9:1, 16) और “ऐ भाइयो मैं तुम्हें बताए देता हूँ कि जो ख़ुशख़बरी मैंने सुनाई वो इन्सान की सी नहीं। क्योंकि वो मुझे इन्सान की तरफ़ से नहीं पहुंची और मुझे सिखाई गई बल्कि येसू मसीह की तरफ़ से मुझे इस का मुकाशफ़ा हुआ।” (ग़लतियों 1:11, 12) और इशाए रब्बानी के बारे में उसने ये कहा है कि “ये बात मुझे ख़ुदावंद की तरफ़ से पहुंची और मैंने तुमको भी पहुंचा दी कि ख़ुदावंद येसू ने जिस रात को वो पकड़वाया गया। रोटी ली और शुक्र कर के तोड़ी।” (1 कुरिन्थियों 11:23) इसी पौलुस की तस्नीफ़ात के बारे में पतरस रसूल यूं फ़रमाता है, “हमारे प्यारे भाई पौलुस ने भी इसी हिक्मत के मुवाफ़िक़ जो उसे इनायत हुई थी तुम्हें ये ही लिखा है और अपने सारे ख़तों में इन बातों का ज़िक्र किया है। जिनमें बाअज़ बातें ऐसी हैं जिनका समझना मुश्किल है और जाहिल और बे-क़याम लोग उनके माअनों को और सहीफ़ों की तरह खींच-तान कर अपने लिए हलाकत पैदा करते हैं। (2 पतरस 3:15 ता 16) इसी पतरस ने ख़त में ये भी लिखा है, “हमारे पास नबियों का वो कलाम है जो ज़्यादा मोअतबर ठहरा और तुम अच्छा करते हो कि जो ये समझ कर इस पर ग़ौर करते हो कि वो एक चिराग़ है जो अँधेरी जगह में रोशनी बख़्शता है। जब तक पौ ना फटे और सुबह का सितारा तुम्हारे दिलों में ना चमके। और सबसे पहले ये जान लो कि किताब मुक़द्दस की किसी नबुव्वत की बात की तावील किसी के ज़ाती इख़्तियार पर मौक़ूफ़ नहीं। क्योंकि नबुव्वत की कोई बात आदमी की ख़्वाहिश से कभी नहीं हुई। बल्कि आदमी ख़ुदा की तरफ़ से रूह-उल-क़ुद्स की तहरीक के सबब बोलते थे।” (2 पतरस 1:19 ता 21) इसी तरह यूहन्ना रसूल भी मुकाशफ़ा की किताब में यूं लिखता है, “येसू मसीह का मुकाशफ़ा जो उसे ख़ुदा की तरफ़ से इसलिए हुआ कि अपने बंदों को वो बातें दिखाए जो ज़रूर जल्द होने वाली हैं। और उसने अपने फ़रिश्ते को भेज कर उस की मार्फ़त उन्हें अपने इस बंदे यूहन्ना पर ज़ाहिर किया। जिसने ख़ुदा के कलाम और येसू मसीह की गवाही दी। यानी उन सब चीज़ों की जो उसने देखी थीं शहादत दी।.... मैं यूहन्ना जो तुम्हारा भाई और येसू की मुसीबत और बादशाही और सब्र में तुम्हारा शरीक हूँ। ख़ुदावंद के दिन रूह में आ गया और अपने पीछे नरसिंगे की सी ये एक बड़ी आवाज़ सुनी कि जो कुछ तू देखता है उस को किताब में लिख कर सातों कलीसियाओं के पास भेज दे।” (मुकाशफ़ा 1:9, 1 ता 11) इन मुसन्निफ़ों के इस यक़ीन के मुताबिक़ पहली सदी के मसीहियों ने सिर्फ उन किताबों को इल्हामी माना जो रसूलों की हिदायत से लिखी गईं। इस का नतीजा हमारे हाथों में है यानी नया अहदनामा। अब हम ये कह सकते हैं कि जैसे पुराना अहदनामे पर जो इसी तरीक़े से जमा हुआ था। मसीह ने अपनी मुहर लगाई। वैसे ही नए अहदनामे पर उसने रूह-उल-क़ुद्स के इस वाअदे के वसीले से गोया पेश्तर से मुहर लगाई।

मज़्कूर बाला बयान की तश्रीह में हम चंद बुज़ुर्गों को गवाह के तौर पर पेश करते हैं। मसलन रोम का क्लेमेंट (95) के क़रीब कुरिन्थस की कलीसिया को लिखते वक़्त फ़रमाता है कि “मैं तो इख़्तियार के साथ मुबारक पौलुस की तरह लिख नहीं सकता हूँ। और पोलीकार्प जो निहायत बूढ़ा हो कर तक़रीबन 155 ई॰ में शहीद हुआ। और जो यूहन्ना रसूल का शागिर्द रह चुका था यूं लिखता है कि “ना मैं ना मेरा कोई हम-अस्र मुबारक पौलुस की दानाई तक पहुंच सकता है।” अगनातियुस (115 ई॰) में शहीद हुआ कहता है कि “मैं पतरस और पौलुस की तरह हुक्म नहीं दे सकता हूँ वो तो रसूल थे।” यूसेबीस मुअर्रिख़ ने अपनी तवारीख़ 320 ई॰ के क़रीब लिखी। इन किताबों के जमा होने का साफ़ बयान करता है। मसीहियों की किताबों को उसने तीन फ़रीक़ पर तक़्सीम किया है :-

(1) चारों अनाजील, पौलुस के ख़त, यूहन्ना का पहला ख़त, इनकी बाबत वो कहता है कि कभी किसी ने शक नहीं किया।

(2) वो किताबें जिनको अक्सर मसीही मानते हैं लेकिन जिन पर किसी ने शक भी डाला था। मसलन याक़ूब और यहूदाह का ख़त, यूहन्ना का दूसरा और तीसरा ख़त, मुकाशफ़ा की किताब और इब्रानियों का ख़त। यूसेबीस की ख़ुलूस दिली यहां ज़ाहिर है कि ज़रा से शक का भी वो ज़िक्र करता है। अगरचे तहक़ीक़ात से वो शक रफ़ा हो गया।

(3) जो किताबें कभी इल्हामी नहीं समझी गईं। अगरचे बाज़ औक़ात अख़्लाक़ की दुरुस्ती वग़ैरह के लिए पढ़ी जाती थीं। मसलन पौलुस के आमाल, हर्मास का चौपान, पतरस का मुकाशफ़ा वग़ैरह।

मज़्कूर बाला गवाहियों से दो ख़ास बातें साबित होती हैं।

अव़्वल ये कि पहले तीन गवाह जो रसूलों के तक़रीबन हम-अस्र थे। यानी रोमी क्लेमेंट, पोलीकार्प और अगनातियुस इस पर ज़ोर देते हैं, कि सिर्फ वही किताबें इल्हामी समझी जाती हैं जो रसूली हिदायत से लिखी गईं।

दोम ये कि चौथा गवाह यानी यूसीबस जो चौथी सदी के शुरू में गुज़रा है बताता है, कि इस क़िस्म की किताबें उस के ज़माने से पेश्तर और किताबों से अलैहदा की गईं थीं। चुनान्चे नए अहदनामे की किताबों की एक फ़ेहरिस्त मौजूद है। जो 170 ई॰ के क़रीब लिखी गई। और वो फ़ेहरिस्त तक़रीबन हमारी फ़ेहरिस्त के मुताबिक़ है। उस का नाम मोरातोरी फ़ेहरिस्त है। क्योंकि ये नुस्ख़ा मीलान के शहर में एक शख़्स मोरातोरी नामी को मिला था। इस फ़ेहरिस्त का बयान करते वक़्त वो इस बात पर ज़ोर देता है, कि ये कुल कलीसिया की मुसल्लिमा (माअनी हुई) राय थी। यानी मुसन्निफ़ ही की राय या किसी ख़ास शख़्स की राय नहीं बल्कि कुल मसीहियों की जो सारे जहान में फैले हुए थे। वो फ़ेहरिस्त ये है :-

चारों अनाजील, रसूलों के आमाल की किताब, पौलुस रसूल के सारे ख़त, यूहन्ना का मुकाशफ़ा, और यूहन्ना के तीन ख़त। हर शख़्स जो नए अहदनामे से वाक़िफ़ है फ़ौरन मालूम करेगा, कि इस फ़ेहरिस्त में चंद किताबों का ज़िक्र नहीं। यानी इब्रानियों का ख़त, याक़ूब का ख़त, पतरस के दो ख़त, और यहूदाह का ख़त। इन किताबों के अदम ज़िक्र का सबब मुफ़स्सिल नहीं कर सकते। लेकिन इतना कहना काफ़ी होगा कि जिस नुस्खे में ये फ़ेहरिस्त है उस का कुछ हिस्सा तलफ़ (ज़ाए, बर्बाद) हो गया है और मालूम होता है कि इनमें से बाअज़ किताबों का ज़िक्र उस तलफ़ शूदा हिस्से में होगा।

अब हम ज़्यादा तफ़्सील से बयान करेंगे, कि किस तरह से हमको इतनी सदियों बाद ये यक़ीन है कि ये वही किताबें हैं जो रसूलों और उनके रफ़ीक़ों (साथियों) ने लिखीं। इस के लिए हम तीन तरह के सबूत पेश करेंगे। (अ) क़दीम नुस्ख़ों से (ब) क़दीम तर्जुमों से (ज) हम-अस्र (उसी ज़माने के) मुसन्निफ़ों के इक़्तिबासात से।

क़दीम नुस्ख़े

(अ) क़दीम नुस्ख़े : नए अहदनामे के नुस्ख़े तीन हज़ार से ज़्यादा मौजूद हैं। लेकिन वो मुख़्तलिफ़ ज़मानों के हैं। सोलहवीं सदी से लेकर जब कि फ़न छापे का रिवाज हुआ। चौथी सदी तक उनका ज़माना है। उनमें से जो सबसे पहले लिखे गए वो उमूमन ज़्यादा तवज्जोह के लायक़ हैं। क्योंकि उनके ज़रिये गोया एक जस्त (छलांग लगाना) कर के हम चौथी सदी तक पहुंच जाते हैं जो मसीह के ज़माने के क़रीब है। किसी क़द्र तर्ज़ तहरीर से उनके ज़माने का पता लगा सकते हैं। मसलन नौवीं सदी से पेश्तर के सब नुस्ख़े बड़े हुरूफ़ में लिखे हुए हैं। लेकिन नौवीं सदी से लेकर छोटे हुरूफ़ इस्तिमाल होने लगे। एक सौ उनत्तीस नुस्ख़े बड़े हुरूफ़ में हैं। मिसाल के तौर पर इनमें से चार नुस्ख़ों का ज़िक्र करेंगे।

अव़्वल : जो नुस्ख़ा ब कहलाता है। पोप के महल में मौजूद है। इस की जसामत एक फुट मुरब्बा है और सात सौ वर्क़ हैं। ये वर्क़ चमड़े के हैं। अव़्वल और आख़िर से कई वर्क़ तलफ़ (ज़ाए) हो गए हैं। ये नुस्ख़ा सबसे ज़्यादा क़ीमती और क़ाबिल-ए-एतिबार है। ये चौथी सदी में बमुक़ाम सिकंदरिया रखा गया था। और सोलहवीं सदी से पोप के महल में है। तक़रीबन तीस साल हुए कि पोप ने इस की अकसी नक़लें लेने की इजाज़त दी। चुनान्चे अब यूरोप के हर बड़े कुतुब ख़ाने में इस की नक़्लें पाई जाती हैं।

दोम : जो इब्रानी हरूफ़-ए-तहज्जी के पहले हर्फ़ अलिफ़ के नाम से मशहूर है। 1843 ई॰ में एक मशहूर आलिम तशनडरफ़ साहब ने कोह-ए-सिना के राहिब ख़ाने में इत्तिफ़ाक़न चंद वर्क़ पाए। जिन पर पुराने अहदनामे का यूनानी तर्जुमा बहुत पुराने हुरूफ़ में दर्ज था। इस से उनकी ख़्वाहिश हुई कि नए अहदनामे के औराक़ को भी दर्याफ़्त करे। लेकिन 1459 ई॰ तक उसे वहां जाने का मौक़ा नहीं मिला। पर इस साल राहिब ख़ाना में बहुत तफ़्तीश के बाद उसे आख़िरकार कुल जिल्द मिल गई।

जसामत और तर्ज़ तहरीर में मज़्कूर बाला नुस्खे से बहुत मुशाबेह (मिलता-जुलता) है। अब शहनशाह रूस के कुतुब ख़ाने वाक़ेअ सेंट पीटर्ज़ बर्ग में है।

सोम : जो आम हर्फ़ अलिफ़ के नाम से मशहूर है। उस के पहले सफे पर अरबी में ये लिखा है, कि ये नुस्ख़ा किसी शहीद मुसम्मा सकिला ने नक़्ल किया है। ये सर नामा अरबी में इसलिए लिखा गया कि बरसों तक क़ुस्तुनतुनिया के कुतुब ख़ाने में रहा। जहां अरबी का बहुत रिवाज था। क़ुस्तुनतुनिया के पेट्रीआर्क ने 1628 ई॰ में इस को इंग्लिस्तान के बादशाह चार्ल्स अव़्वल को नज़र किया। लेकिन अस्ल में ये नुस्ख़ा पांचवीं सदी में बमुक़ाम सिकंदरिया में लिखा गया था। अब ये लंदन के अजाइब घर में है। इस की चार जिल्दें हैं। जिनमें से तीन पुराने अहदनामे की और एक नए अहदनामे की। इस के भी चंद सफ़े खो गए हैं।

चहारुम : जीम यासी कीला नाम या एफ्राईम का नुस्ख़ा कहलाता है। चूँकि बारहवीं सदी में नए अहदनामे के नुस्खे पर किसी कातिब ने एक वाइज़ एफ्राईम नामी के चंद वाअज़ लिखे। उन दिनों में ये दस्तूर था कि चमड़े की गिरानी (सख़्ती) के सबब से किसी नुस्ख़े को लेकर उस के वर्क़ों पर मोम मल के कोई नया मज़्मून लिखा करते थे। चुनान्चे ये ही हाल यहां हुआ। अव़्वल तहरीर इस नुस्ख़े पर नया अहदनामा था। ये पांचवीं सदी में बमुक़ाम सिकंदरिया लिखा गया। और क़ुस्तुनतुनिया में से होता हुआ फ़्रांस के बादशाह के क़ब्ज़े में आ गया। 1834 ई॰ में किसी दवाई के ज़रिये ऊपर के मोम को उड़ा दिया। और नीचे की लिखाई साफ़ नज़र लगी।

अब याद रखिये कि ये नुस्ख़े हमको तक़रीबन 370 ई॰ तक पहुंचा देते हैं। लेकिन अब ये सवाल लाज़िम आता है, कि हमको किस तरह से मालूम हो कि ये नुस्ख़ा रसूलों की हिदायत से लिखा गया। ये नुस्ख़े उस की दुरुस्त नक़लें हैं। इस के लिए दो और वसाइल हमारे पास हैं। यानी क़दीम तर्जुमे, और बुज़ुर्गों के इक़्तिबासात।

क़दीम तर्जुमे

क़दीम तर्जुमे : इनमें से मशहूर ये हैं :-

(1) सुर्यानी तर्जुमा जो दूसरी सदी में किया गया। इस ज़बान में पांचवीं, छठी सदियों में भी तर्जुमे हुए। लेकिन ये सबसे पुराना है। इस में दो उमूर ख़ास लिहाज़ के क़ाबिल हैं :-

(अ) नए अहदनामे में लिखे जाने के पचास (50) साल बाद ही ये तर्जुमा किया गया। इस में से साफ़ ज़ाहिर है कि इस क़लील अर्से में नए अहदनामे की किताबें कैसी क़ाबिल-ए-क़द्र समझी गईं।

(ब) जिस ज़बान में ये तर्जुमा हुआ वो कनआन में अवामुन्नास की ज़बान थी। और ग़ालिबन इसी ज़बान को हमारे ख़ुदावंद ने देहाती लोगों के साथ इस्तिमाल किया।

(2) क़दीम लातीनी तर्जुमा जो अतालिया और अफ़्रीक़ा के शुमाल में काम आता था। ये दूसरी सदी के वस्त में हुआ।

(3) दीगर लातीनी तर्जुमा जिसे जेरोम साहब ने चौथी सदी में किया।

(4) कोशी तर्जुमा चौथी सदी का। मिस्र के जुनूब में मुरव्वज़ है।

(5) अर्मनी तर्जुमा पांचवीं सदी का है। और मुल्क आरमीना में मुस्तअमल है।

(6) गाथ ज़बान का तर्जुमा : उन वहशी क़बाइल की ज़बान में जिन्हों ने रोमी सल्तनत को आख़िरकार बर्बाद किया। ये चौथी सदी में किया गया। ये सारे तर्जुमे क़दीम नुस्ख़ों के मुताबिक़ हैं। और नीज़ मौजूदा तर्जुमों के। ये हमें तक़रीबन 130 ई॰ तक पहुंचा देते हैं।

क़दीम बुज़ुर्गों के इक़्तिबासात

1) पेपियास, हायरोपोलिस (मुत्तसिल कलसी) का बाशिंदा। 65 ई॰ से 135 ई॰ तक ज़िंदा था। उसने ख़ुदावंद के अक़्वाल की तफ़्सीर पाँच जिल्दों में लिखी। इस में वो हमारी मौजूदा अनाजील का ज़िक्र करता है।

(2) जस्टिन शहीद : ये शख़्स शुरू में यूनानी फ़ैलसूफ़ (आलिम, फ़ाज़िल) था और हक़ का तलाश करते-करते एक मसीही शख़्स उसे मिला। जिसने उसे मसीह की तालीम दी। उस वक़्त से लेकर वो बहुत पुख़्ता मसीह हो गया। और आख़िरकार मसीह के लिए शहीद हुआ। उसने चंद किताबें लिखीं। उनमें से एक माअज़िरत नामा क़ैसर की तरफ़ लिखा। उसने मसीहियों की इबादत का ये ज़िक्र किया है, कि “इतवार के दिन सब मसीही जमा होते हैं और रसूलों की तस्नीफ़ात और नबियों के सहीफ़े सुनाए जाते हैं।” इन तस्नीफ़ात की बाबत वो कहता है, कि मसीह के रसूलों ने और रसूलों के पैरौओं (मानने वालों) ने इनको क़लमबंद किया। ये बयान हमारी चार अनाजील से मुत्तफ़िक़ है। क्योंकि इनमें से और रसूलों की और वो उन पैरौओं (मानने वालों) की तस्नीफ़ हैं। और जब इन अक़्वाल से इक़्तिबास करता है तो वही जुम्ले लिखता है जो हमारी अनाजील में पाए हैं।

(3) टेश्यान ने जो जस्टिन शहीद का शागिर्द था चारों अनाजील का सिलसिले-वार बयान लिखा।

(4) इट्रेनेइस (160 ई॰ से 180 ई॰) चारों अनाजील का नाम बता कर ताकीद से कहता है कि हम इन ही को मुसल्लम (माना हुआ, क़ाबिल-ए-एतिबार) समझते हैं।

(5) हराकिल्यान (170 ई॰ के क़रीब) गनोस्तग बिद्अती मोअल्लिम ने जो इट्रेनेइस का ख़ास मुख़ालिफ़ था। अपनी तस्नीफ़ात में कोशिश की कि अपनी तालीम को इन अनाजील से साबित करे। इस से ज़ाहिर है कि जितने अपने तईं किसी तरह से मसीही ठहराते थे वो इन किताबों को इस दीन की बुनियाद समझते थे।

अनाजील

उमूमन ये सब जानते हैं कि इंजीलें चार हैं। शायद कोई कहे क्या अच्छा होता अगर मसीह की सवानिह उम्री का एक ही मुकम्मल बयान होता। जिसमें मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात सिलसिलेवार मुन्दरज होते? या शायद कोई ये कहे मसीह के अक़्वाल क्यों तर्तीबवार एक ही जिल्द में ना लिखे गए। जो फ़ील-वाक़ेअ इन्जील यानी मसीह की ख़ुशख़बरी हुई।

शायद ये इन्सानी हिक्मत के मुताबिक़ होता। लेकिन अक्सर ये तजुर्बा हुआ है कि ख़ुदा का तरीक़ा इन्सान के तरीक़े से मुतफ़र्रिक़ होता है। “मेरे ख़याल तुम्हारे से ख़याल नहीं और ना तुम्हारी राहें मेरी राहें हैं।'' (यसअयाह 55:8) और अगर ग़ौर करें तो ये मालूम होगा कि ख़ुदा का ये मक़्सद ना था कि मसीह की मुसलसल सवानिह उम्री लिखवाए। ना उस के कामों और ना उस के अक़्वाल का मुकम्मल बयान लिखवाना मद्दे-नज़र था। बल्कि ये ग़र्ज़ मालूम होती है, कि ख़ुदा की तरफ़ से ख़ुद मसीह हमारे लिए एक ख़ास मुकाशफ़ा हो। चुनान्चे चारों इन्जील नवीसों ने इस मुकाशफे के चार पहलू दिखाए हैं और इस के लिए मसीह के अक़्वाल और अफ़आल में से जो मुनासिब और मुफ़ीद समझा। उनको उन्होंने क़लमबंद किया। चुनान्चे मत्ती ने यहूदियों के इंतिज़ार के मुताबिक़ उस को मौऊद बादशाह ज़ाहिर किया। मर्क़ुस ने उस की इन्सानी ज़िंदगी का सादा तौर से बयान किया। लूक़ा ने उस को हम्दर्द काहिन मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर करना) किया। और यूहन्ना ने उस की उलूहियत (ख़ुदाई) पर ज़ोर दिया। इस से हमारा मतलब ये नहीं कि मज़्कूर बाला तसव्वुर अलग-अलग इंजीलों में अलग-अलग पाए जाते हैं। बल्कि एक तरह से ये चारों तसव्वुर चारों इंजीलों में पाए जाते हैं। लेकिन हर एक ने एक ख़ास तसव्वुर पर ज़ोर दिया है। और बाक़ी तीनों का आम बयान किया है।

यूं ये चारों मुतफ़र्रिक़ (अलग-अलग) बयान ख़ास बातों में मुत्तफ़िक़ होने की वजह से ज़्यादा क़ाबिल-ए-एतिबार हैं। अगर ये चारों बयान ज़रा-ज़रा तफ़्सील में भी मुत्तफ़िक़ और मुशाबेह होते तो फ़ौरन शक पैदा होता कि इस में कुछ साज़िश है।

सरसरी पढ़ने वाले पर ये ज़ाहिर हो जाएगा कि पहली तीन अनाजील आपस में ज़्यादा मुशाबेह हैं। और यूहन्ना का बयान इन तीनों से बहुत मुतफ़र्रिक़ (अलग) है। और फ़र्क़ इतना बड़ा है कि बाअज़ों ने इन बयानात को ज़िदें समझा। लेकिन ज़्यादा तफ़्तीश से ये राय सही नहीं ठहरती। सुक़रात के भी दो बयान मौजूद हैं। एक बज़रिया अफ़लातून और एक बज़रिया ज़ीनोफ़न। और इनमें बहुत फ़र्क़ है तो भी सब लोग मानते हैं कि दोनों दुरुस्त हैं।

इन तीनों इंजीलों और यूहन्ना की इन्जील में ख़ास फ़र्क़ ये है। कि पहली तीनों अनाजील में उमूमन उन कामों का ज़िक्र है जो इस मुल्क के शुमाली इलाक़े यानी गलील में मसीह ने किए। लेकिन यूहन्ना की इन्जील में अगरचे इनका कुछ ज़िक्र आता है। मगर ख़ुसूसुन इनमें यरूशलेम और यहूदिया में वाक़ेअ शूदा माजरे का बयान है। और फ़र्क़ की ख़ास वजह ये मालूम होती है, कि यूहन्ना ने पहली तीन अनाजील के लिखे जाने के बाद अपनी इन्जील लिखी। उस वक़्त वो बहुत बूढ़ा हो गया था। और इफ़िसुस में रहता था। उस को मसीह की सारी ज़िंदगी पर ग़ौर करने का मौक़ा मिला।

अब हम पहली तीन अनाजील का आपस में मुक़ाबला करें। ऐसा करना ज़रूर है। क्योंकि अगरचे वो आज़ादाना शहादत (गवाही) देती हैं। तो भी इनमें अजीब मुशाबहत (यक्सानियत) है। ना सिर्फ मज़ामीन में बल्कि वाक़ियात और अल्फ़ाज़ की तर्तीब में भी मसलन मफ़लूज के शिफ़ा देने के बयान में जो तीनों अनाजील में पाया है। (यानी मत्ती 9, मर्क़ुस 2, लूक़ा 5 बाब) अल्फ़ाज़ का फ़र्क़ तो है जैसा कि हर आज़ादाना बयान में होना चाहिए। लेकिन कई एक जुमलों में ऐन एक ही अल्फ़ाज़ आते हैं। मसलन “ताकि तुम जान लो कि इब्ने-आदम को ज़मीन पर गुनाह माफ़ करने का इख़्तियार है। उसने मफ़लूज से कहा उठकर.... चला जा।” ये जुम्ले जो तीनों अनाजील में ख़ुतूत वहदानी में पाया जाता है। एक असली मुश्तर्क चश्मे (एक जैसा ज़रिये) पर दलालत करता है। फिर ख़ुदावंद की तब्दील सूरत के वक़्त तीनों अनाजील में ये बयान इस वाक़िये के बाद आता है जब मसीह ने अपने दुखों की पेशीनगोई की इस पेशीनगोई और इस वाक़िये में ताल्लुक़ इस जुम्ले के ज़रिये दिया गया है, “मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि जो यहां खड़े हैं। इनमें से बाअज़ ऐसे हैं कि जब तक इब्ने-आदम को बादशाह हो कर आते हुए ना देख लेंगे। हरगिज़ मौत का मज़ा ना चखेंगे।” इस जुम्ले की तफ़्सीर और इस का क़रीना (बहमी ताल्लुक़) से ताल्लुक़ निहायत मुश्किल है। तो भी ये जुम्ले तीनों अनाजील में इसी जगह में पाया जाता है। इस का ज़रूर कोई सबब होगा। और वो सबब यही मालूम होता है कि एक अस्ल बयान इन तीनों की बुनियाद है। अगर कोई अस्ल बयान या कोई मुश्तर्क चशमा (एक जैसा ज़रिया) इन तीनों की बुनियाद था तो वो किस क़िस्म का होगा। इनके बारे में बहुत मुख़्तलिफ़ राएं होती हैं। इनमें ख़ास राएं हैं।

(1) अगर मत्ती ने पहले अपनी इन्जील लिखी और मर्क़ुस ने उनका ख़ुलासा करके अपनी इन्जील में लिखा। और लूक़ा ने उनका मुक़ाबला करके अपनी इन्जील लिखी। चंद सदियों तक ये बहुत मशहूर राय रही। लेकिन आजकल बहुत थोड़े इस राय को मानते हैं। क्योंकि इस के ज़रिये अनाजील के ख़ास फ़िर्क़ों की तश्रीह नहीं होती।

(2) मर्क़ुस ने अपनी इन्जील पहले लिखी। क्योंकि इस में वाक़ियात का सादा बयान है और मसीह की तक़रीरों और वाअज़ों का बहुत कम बयान है। और मत्ती और लूक़ा ने इसे इस्तिमाल किया। मगर वो लकीर के फ़क़ीर ना रहे। क्योंकि दीगर वसाइल से भी उन्होंने काम लिया। मसलन मत्ती ने जो ख़ुद चश्मदीद गवाह था। अपनी याद से मसीह के वाअज़ों और नसीहतों का मुफ़स्सिल (तफ़्सील के साथ) बयान किया। लूक़ा ने ग़ालिबन मुक़द्दसा मर्यम और दूसरी औरतों से तफ़्तीश करके दीगर बातों का भी ज़िक्र किया। मसीह की पैदाइश का मुफ़स्सिल बयान। इस की एक मिसाल है।

(3) चूँकि मसीह ने अपने शागिर्दों को कहा था कि “तुम मेरे गवाह होगे।” इस के मुताबिक़ हर एक शागिर्द मसीह की ज़िंदगी के ख़ास वाक़ियात का बार-बार ज़बानी बयान किया करता था। और इस तकरार से तक़रीबन एक ही अल्फ़ाज़ इस्तिमाल होने लगे। आमाल की किताब के पहले अबवाब से भी इस का पता लगता है। पतरस के चार वाअज़ों का मुक़ाबला करो। (आमाल 2:32 ता 38, 3:13 ता 15, 5:30 ता 32, 10:38 ता 43) ये तजुर्बे की बात है, कि ऐसे तकरार से ख़्वाह दुआ करने में हो। ख़्वाह गीतों के सुनाने में हो ये ही नतीजा पैदा होता है।

(4) दूसरी और तीसरी राय को मिलाने से एक चौथी राय निकलती है। जो शायद सबसे ज़्यादा क़रीन-ए-क़ियास (वो बात जिसे अक़्ल क़ुबूल करे) है। यानी जो बयान पतरस रसूल इन्जील के वाक़ियात का ज़बानी किया करता था। मर्क़ुस ने उस को क़लमबंद किया। चुनान्चे पापियास ने इस का साफ़ ज़िक्र किया है, कि मर्क़ुस जो पतरस का रफ़ीक़ (साथी) था जो कुछ वो पतरस के मुँह से सुनता उस को सेहत (दुरुस्त) तौर पर से लिख लेता। और कि पतरस हस्बे-मौक़ा सामईन (सुनने वालों) की हालत के मुताबिक़ अपने बयान को तर्तीब दिया करता था। आर्येनियुस ने भी ये ही शहादत दी है।

मर्क़ुस के इस तहरीरी बयान की बुनियाद पर मत्ती रसूल ने अपनी याद से मसीह के बहुत से अक़्वाल इस पर ईज़ाद किए मसलन पहाड़ी वाअज़। इस तरह लूक़ा ने दीगर चश्मदीद गवाहों से कुछ ज़्यादा हालात दर्याफ़्त कर के अपनी इन्जील में दर्ज किए। (लूक़ा 1:1 ता 4) मख़्फ़ी (छुपा) ना रहे कि जो अजीब ताल्लुक़ इन तीनों अनाजील में है वो इस बात की बड़ी दलील है, कि ये तीनों आज़ादाना लिखते हैं लेकिन अजीब तौर से मुत्तफ़िक़ हैं।

छटा बाब

मत्ती की इन्जील

इस इन्जील का सरनामा ये है, “मत्ती के मुताबिक़” इस जुम्ले से ये मुराद हो सकती है कि इस में मत्ती की मुनादी का ख़ुलासा पाया जाता है। लेकिन ग़ालिबन इस से ये मुराद होगी कि मत्ती मुसन्निफ़ था। क्योंकि इस क़िस्म का सरनामा मर्क़ुस की इन्जील पर है। जिसमें पतरस की मुनादी का ख़ुलासा है। अगर पहले मअनी दुरुस्त होते तो सरनामा ये होता। पतरस के मुताबिक़, इलावा अज़ीं क़दीम कलीसिया में ये आम राय थी कि ख़ुद मत्ती मुसन्निफ़ था।

मत्ती रसूल का अहवाल

लावी इब्ने हलफ़न कफर-नाहूम में महसुल (टैक्स लेने वाला) था उस का ख़ास काम ये था जो झील में मछलियाँ पकड़ते थे। और जो सौदागर दमिश्क़ से जुनूब की तरफ़ सफ़र करते थे उनसे महसूल ले। एक दिन झील की तरफ़ से आते हुए येसू का गुज़र इस महसूल ख़ाने के क़रीब हुआ। जहां लावी चुंगी पर बैठा हुआ था। येसू ने उस से कहा मेरे पीछे हो ले। वो उठकर उस के पीछे हो लिया। (मत्ती 9:9) इस बात का कुछ ज़िक्र नहीं कि येसू ने पेश्तर भी लावी से कलाम किया था। लेकिन ये तो क़रीन-ए-क़ियास है कि वो हुक्म का मुंतज़िर था। और वो बिल-फ़स्ल येसू का शागिर्द था। और जूंही मसीह ने हुक्म दिया वो उस की ख़ातिर सब कुछ छोड़ने को तैयार था। लावी ने किसी क़द्र इस बड़े रब्बी (उस्ताद) और उस की तालीम के बारे में सुना होगा। और ख़ुदा की सल्तनत के बारे में मसीह की तालीम को क़ुबूल करने के लिए उसने इरादा किया होगा।

जब लावी येसू का शागिर्द हो गया तो उसने ग़ालिबन अपने नाम लावी को मत्ती से बदल डाला। क्योंकि उस के ये दो नाम आते हैं। लफ़्ज़ मत्ती के मअनी हैं ख़ुदा की बख़्शिश। ये नई बात ना थी। क्योंकि शमऊन और साऊल ने नई ज़िंदगी में आकर नए नाम इख़्तियार किए। इसी रोज़ मत्ती ने ज़ियाफ़त की। (शायद अपने पुराने रफ़ीक़ों को अलविदाई ज़ियाफ़त देने या येसू से मुलाक़ात कराने की ग़र्ज़ से) इस में उसने येसू और उस के शागिर्दों को बुलाया। मत्ती के लिए वो बड़ी ख़ुशी की ज़ियाफ़त हुई होगी। जब उसने पहले-पहल बतौर ऐनी गवाह के येसू के अल्फ़ाज़ और काम मुलाहिज़ा किए। वो वाक़िया उस के ज़हन नशीन हो गया। और ऐसी हिदायत से माबाअ्द कलीसिया की तालीम के लिए लिखा। इलावा अज़ीं बारह रसूलों की फ़ेहरिस्त के सिवा इन्जील की तवारीख़ में मत्ती का कहीं नाम नहीं आता। मुक़द्दस मत्ती का ये थोड़ा सा अहवाल इन्जील से मालूम होता है। मगर इन चंद इशारों से इस इन्जील नवीस की दीनी हालत सीरत और तालीम मालूम होती है।

चूँकि कफ़र-नाहूम हेरोदेस अंतिपास के इलाक़े में था इसलिए ग़ालिबन लावी इस बादशाह के मातहत अफ़्सर होगा। ना कि रोमी सल्तनत के मातहत जो लोग मसीह के शागिर्द हुए। उनमें से बहुत अग़लबन मौऊद मसीह की इंतिज़ारी में मुल्की बादशाही की उम्मीद रखते थे। मसलन शमऊन ज़ीलोतीस (लूक़ा 6:15) ये लक़ब ज़ीलोतीस एक ख़ास फ़िर्क़े का लक़ब था। जो इस सल्तनत के इंतिज़ार में बड़े सरगर्म थे। शायद मत्ती का ये ही हाल हो। इसलिए हेरोदेस के ख़ानदान को तस्लीम करना उस के लिए ऐसा बुरा ना था। जैसा रोम के आगे ख़म (झुकना) होना। हेरोदेस ऐसा अजनबी और ग़ैर क़ौम ना था जैसा रोमी क़ैसर। अदूम इस्राईल से मुल्हिक़ हो चुका था। इसलिए ये ख़याल हो सकता है कि एक यहूदी जो मसीह की सल्तनत का मुंतज़िर हो हालत मायूसी में अपनी उम्मीदों की तक्मील हेरोदेस के ख़ानदान में समझे। अगर मसीह के मुताल्लिक़ ख़यालात को अंतिपास या उस के मशहूर फिलिप्पुस के साथ पैवस्ता करना ना-मुम्किन था तो भी ये ना-मुम्किन ना था, कि इस ख़ानदान से कोई बादशाह उठे। और इस्राईल की सल्तनत बहाल करे।

जो कोई मत्ती की इन्जील पड़ेगा वो ज़रूर ये मालूम करेगा कि मत्ती यूनानी ना था। बल्कि इब्रानियों का इब्रानी। अपनी क़ौम की तवारीख़ और नबुव्वतों में आलिम। और निहायत आरज़ू से उनकी तक्मील का मुंतज़िर था। लेकिन उसे शायद मजबूरन ये गुमान करना पड़ा कि ये तक्मील हेरोदेस के ख़ानदान में होगी। ये राय दो तरह से उस की तबीयत के मुवाफ़िक़ थी। अव्वलन उस में नफ़ा की मुहब्बत मालूम होती है। ये यहूदी क़ौम की तक़रीबन जबलत (आदत) हो गई थी। अगर ऐसा ना होता तो मत्ती ऐसा पेशा इख़्तियार ना करता जो इस क़द्र ज़लील व हक़ीर समझा जाता था। सानियन वो ग़ौर व फ़िक्र और बे शोर व शर ज़िंदगी बसर करना चाहता था। वो गलील के शूरू शर और मन्सूबों और बंदिशों से अलग हो कर रहता था। शायद लावी की इस क़िस्म की उम्मीद थी। लेकिन जब येसू की तालीम और मंशा (मर्ज़ी) उस के दिल पर ज़ाहिर हुआ तो उसने फ़ौरन इस तसव्वुर को क़ुबूल कर लिया। और दिल व जान से इब्ने दाऊद पर फ़िदा (आशिक़) हो गया। ख़ुदा और उस की सल्तनत की ख़ातिर उसने अपनी दुनियावी तरक़्क़ी को क़ुर्बान किया। और अपने पेशे और दोस्तों को छोड़ दिया। हो सकता है कि मत्ती की दौलत बमुक़ाबला जहान के दौलतमंदों के कस्रत से ना हो। लेकिन बमुक़ाबला एक गलीली क़स्बे के वो बहुत थी। अगर पौलुस की तरह वो अपनी ज़िंदगी का अहवाल बयान करता तो शायद इस बात का भी ज़िक्र करता कि उसने कितने नफे की चीज़ों को मसीह येसू के इल्म की हिक्मत के मुक़ाबले में नुक़सान समझा।

अगर अनाजील की ख़ामोशी से हम कुछ नतीजा निकालें तो वो ये होगा कि मत्ती शागिर्दों में फ़रोतन शख़्स था। वो तीन ख़ास शागिर्दों में ना था। उस का नाम किसी वाक़िये से मुताल्लिक़ नहीं। जैसे कि इन्द्रियास, शमऊन, फिलिप्पुस, लूक़ा, बरतलमाई, याक़ूब के भाई यहूदाह और ज़बदी के नाम किसी ना किसी वाक़ियात से मुताल्लिक़ हैं। लेकिन इस का कुछ ज़िक्र नहीं कि मत्ती ने एक बात भी मसीह से कही। जब वो बुलाया गया तो वो उठकर चुप-चाप उस के पीछे हो लिया।

रिवायत है कि वो फ़िलिस्तीन में दूसरे रसूलों की निस्बत ज़्यादा मुद्दत तक रहा। और उसने अपने हम वतनों को येसू के अल्फ़ाज़ और अक़्वाल से वाक़िफ़ किया। और नीज़ कि एथोपीया, पार्थिया, मिस्र और मक़िदूनिया में उसने मुनादी की। सिकंदरी क्लेमंस कहता है, कि मत्ती बिल्कुल रियाज़त-कश (नफ़्सकुशी करने वाला) हो गया और उसने गोश्त खाना तर्क किया। मशरिक़ी कलीसिया की राय है कि वो तबई मौत से मर गया। लेकिन मग़रिबी कलीसिया उसे शहीदों में शुमार करती है।

ये इन्जील कभी दूसरे मुसन्निफ़ से मन्सूब नहीं हुई। पहली सदी के आख़िर से पेश्तर दूसरी सदी के शुरू में बिद्अतियों और मसीहियों दोनों ने इस से इक़्तिबास किया है। पैपियास ने भी ये ज़िक्र किया कि मत्ती ने इब्रानी ज़बान में ये बयान लिखा। और हर एक ने हस्बे ताक़त इस का तर्जुमा किया।

मुसन्निफ़ के बारे में क़दीम बुज़ुर्गों की शहादत, पैपियास, आर्यिनुस, ओरीजन, यूसेबीस, एपीफ़ीनियस, जेरोम सब इस अम्र के शाहिद (गवाह) हैं, कि मत्ती इस इन्जील का मुसन्निफ़ है। इनमें पैपियास जो हरापौलिस वाक़िया फ़िरोगिया का बिशप दूसरी सदी के शुरू में था यूं कहता है, “मत्ती ने इब्रानी ज़बान में (लोगिया) को तालीफ़ किया। और हर शख़्स हस्बे लियाक़त इस का तर्जुमा करता था।” इस जुम्ले से दो तीन दिलचस्प सवाल निकलते हैं। अव़्वल ये कि “लोगिया” (बमाअनी अक़्वाल) से क्या मुराद है। बाअज़ समझते हैं कि इस से ये इन्जील ही मुराद है। अगरचे इस में ना सिर्फ अक़्वाल ही हैं बल्कि माजरों (वाक़ियात) का बयान भी है। चुनान्चे (रोमियों 3:2) में ये लफ़्ज़ “लोगिया” सारे पुराने अहदनामे के लिए आया है। लेकिन बाअज़ ये समझते हैं कि इस से मुराद मसीह के अक़्वाल का मजमूआ है जिसे मत्ती ने जमा किया। दोम कि क्या इस इन्जील की असली ज़बान इब्रानी थी या यूनानी। पैपियास ने तो साफ़ कहा कि मत्ती ने ये इन्जील इब्रानी में लिखी और यूसीस कहता है कि पंतेनौस ने मत्ती की इब्रानी इन्जील हिन्दुस्तान में देखी। (यानी बरतलमाई रसूल इसे साथ लाया था) जेरोम एक इन्जील का ज़िक्र करता है जो इब्रानियों की कहलाती है या जिसे बाअज़ ख़याल करते हैं मत्ती की इन्जील। इस का उसने यूनानी में तर्जुमा किया। लेकिन बरअक्स इस के मौजूदा यूनानी इन्जील की तर्ज़ इबारत और मर्क़ुस व लूक़ा की इंजीलों से लफ़्ज़ी मुशाबहत इस बात पर दलालत करती है, कि ये इन्जील तर्जुमा नहीं है। बल्कि शुरू से यूनानी में लिखी गई। और जेरोम के मक़ूले के बारे में ये क़ाबिल लिहाज़ है कि अगर वो इब्रानी इन्जील मत्ती की असली इन्जील थी तो उसने क्यों इस का तर्जुमा यूनानी में किया। क्योंकि हम जानते हैं कि उस के हाथ में हमारी मौजूदा यूनानी इन्जील थी। और याद रहे वो शक के साथ इस का ज़िक्र करता है कि बाअज़ लोग समझते थे कि वो मत्ती की इन्जील थी। और जेरोम ने इस इब्रानी इन्जील से जो इक़्तिबास दिए हैं वो मौजूदा इन्जील में पाए नहीं जाते। शायद कोई इब्रानियों की इन्जील थी जिसे बाअज़ों ने मत्ती की इन्जील समझा। और ये ताज्जुब (हैरानगी) नहीं क्योंकि ये मशहूर बात थी कि मत्ती ने इब्रानी मसीहियों के लिए इन्जील लिखी।

किन के लिए लिखी गई

इन्जील में इस का साफ़ ज़िक्र नहीं। लेकिन इस के मज़ामीन से ये ज़ाहिर होता है कि यहूदी मसीहियों के लिए लिखी गई। चुनान्चे इस का आम मक़्सद भी इसी अम्र की तरफ़ इशारा करता है। क्योंकि मत्ती ये साबित करना चाहता है कि येसू में यहूदी क़ौम की उम्मीद जो मसीह के बारे में थी और जिसके वो बड़ी सरगर्मी से मुंतज़िर थे पूरी हुई है। इस की ताईद में वो ख़ासकर पहले चार अबवाब में अह्दे-अतीक़ से बहुत इक़्तिबास करता है। (देखो 1:21 ता 23, 2:4 ता 6, 3:3, 4:14 ता 17 मुक़ाबला करो आमाल 26:6 ता 7) इसी तरह से मूसवी शरीअत की तक्मील को ज़ाहिर करता है। देखो पांचवां बाब फ़िल-जुम्ला मत्ती ये ज़ाहिर करना चाहता है कि यहूदी क़ौमी बादशाहत, जब कि ख़ुद क़ौम रोज़ बरोज़ ज़वाल पकड़ती जाती थी मसीह की रुहानी बादशाहत में हक़ीक़ी तक्मील पाती है। देखो कई दफ़ाअ उस की इन्जील में आस्मान की बादशाहत का ज़िक्र आया है। और इसी को मद्दे-नज़र रखकर मसीह का नसब-नामा अब्रहाम और दाऊद से लेकर बताया है। और नसब-नामे के बाद फ़ौरन ये ज़िक्र होता है कि ये नजात-दहिंदा “अपनी उम्मत को उनके गुनाहों से बचाएगा।” हालाँकि पुराने अहदनामे में ये ख़ास ख़याल था कि ये क़ौम अपने मुल्की दुश्मन से बच जाये।

ताहम ग़ैर क़ौमों को मुक़द्दस मत्ती नज़र-अंदाज नहीं करता। मसलन मत्ती 8:11 “बहुतेरे पूरब और पक्षिम से आकर इब्राहिम और इज़्हाक़ और याक़ूब के साथ आस्मान की बादशाही में बैठेंगे।”

(मत्ती 11:21 ता 24) में यहूदियों के बे-तौबा शहरों को मलामत कर के ये कहता है कि “जो मोअजिज़े तुम में ज़ाहिर हुए” अगर वो सूर और सैदा में ज़ाहिर होते तो टाट ओढ़ कर और ख़ाक में बैठ कर कब के तौबा कर लेते।

(मत्ती 15:31) से लेकर यूं लिखा है कि “जब इब्ने-आदम जलाल में आएगा तो उस वक़्त वो अपने जलाल के तख़्त पर बैठेगा। और सब कौमें उस के सामने जमा की जाएँगी। और वो एक को दूसरे से जुदा करेगा। जैसा गल्लाबान भेड़ों को बकरियों से जुदा करता है। और भेड़ों को अपने दाहने और बकरियों को बाएं खड़ा करेगा।.... उस वक़्त बादशाह अपनी दाहिनी तरफ़ वालों से कहेगा कि आओ मेरे बाप के मुबारक लोगो जो बादशाही बनाए आलम के वक़्त से तुम्हारे लिए तैयार की गई है उसे विरसा में लो।” और सऊद (आस्मान पर उठाया जाने) से पेश्तर जब मसीह ने अपने शागिर्दों को आख़िरी हुक्म दिया तो यूं फ़रमाया “आस्मान व ज़मीन का कुल इख्तियार मुझे दिया गया है पस तुम जा कर सब क़ौमों को शागिर्द बनाओ।” (मत्ती 28:18 ता 19)

इस इन्जील का सिलसिला

इस इन्जील में ये जुम्ला पाँच ख़ास मौक़ों पर आया है यानी जब येसू ने ये बातें कहीं तो....। (मत्ती 7:28, 11:1, 13:53, 19:1, 26:1)

इस से बाअज़ों ने ये समझा कि मत्ती का मंशा (मर्ज़ी) ये था कि अपनी इन्जील को तौरेत की तरह पाँच हिस्सों में तक़्सीम करे। लेकिन ये क़ियास दुरुस्त नहीं। क्योंकि उस के मुताबिक़ इन पाँच जुमलों से इन्जील के छः हिस्से होते हैं। जैसा जस्टिन शहीद ने ज़िक्र किया है। जब मसीही लोग इतवार के रोज़ इबादत के लिए जमा होते थे तो रसूलों की तस्नीफ़ात पढ़ते थे। और उनमें से एक हिस्सा एक इतवार के लिए विर्द (तिलावत करना) होगा।

बाब अव़्वल : मसीह का नसब-नामा और उसकी एजाज़ी पैदाइश (मोअजज़ाना पैदाइश)

बाब दोम : बचपन के माजरे। हेरोदेस से भागना। मिस्र को भाग कर जाना। और वहां से वापिस आना।

बाब सोम : यूहन्ना का बपतिस्मा।

बाब चहारुम : 1 से 11 मसीह का शैतान से आज़माया जाना। 12 से 25 गलील में मसीह के काम का शुरू और चंद शागिर्दों की बुलाहट।

5, 6, 7 बाब : पहाड़ी वाअज़ (पहली फ़स्ल का ख़ातिमा)

8:1 से 9:8 तक : चंद मोअजिज़ों का ज़िक्र।

9:9 से 17 : महसूल लेने वाले मत्ती की बुलाहट। महसूल लेने वालों के साथ खाने पर फ़रीसियों का एतराज़।

18:9 से 33 : चार मोअजिज़ों का बयान।

9:35 से 11:1 तक : भीड़ पर मसीह का तरस खाना। और ख़ुद उनको तालीम देना और रसूलों की रिसालत। (गलील में दूसरा दौरा) दूसरी फ़स्ल का ख़ातिमा।

11:2 से 30 तक : क़ैदख़ाने से यूहन्ना बप्टिस्ट का सवाल और मसीह का जवाब बे-तौबा शहरों पर मलामत। थके मांदों की बुलाहट।

12 बाब : फ़रीसियों से मुबाहिसा दरबारा (1) सबत (बदरूहों के निकालने)

13:1 से 52 तम्सीलें। तीसरी फ़स्ल का ख़ातिमा।

13:53 से 14:36 तक : मसीह के काम का तीसरा दौरा। जिसमें वाक़ियात का ज़िक्र है। हम वतनों से रद्द किया जाना, यूहन्ना बप्टिस्ट की मौत की ख़बर मिलना। पाँच हज़ार को खिलाना। पानी पर चलना।

15:1 से 20 : तहारत और नाजायज़ खानों के बारे में मुबाहिसा।

15:21 से 39 : कनआनी औरत की बेटी को अच्छा करना। चार हज़ार को खिलाना।

16:1 से 12 तक : फ़रीसियों के इस्तिजाब और ख़मीर के बारे में।

19:13 से 26 तक : अपनी मौत की इत्तिला और पतरस का इक़रार। ये दो माजरे मसीह के काम की निस्फ़ मंज़िल में।

17:1 से 13 तक : सूरत की तब्दीली।

17:14 से 27 तक : मिर्गी के बीमार को शिफ़ा देना। मौत की दुबारा ख़बर। नीम मिस्क़ाल का वाक़िया।

18 बाब : ठोकरों और भाईयों को माफ़ करने का ज़िक्र (चौथी फ़स्ल का ख़ातिमा)

19:1 से 5 : तलाक़, और छोटे बच्चों को बरकत देना।

19:16 से 20:16 तक : दौलतमंद का ठोकर खाना और मज़दूरों की तम्सील।

20:17 से 28 तक : मौत का सह बारह ज़िक्र

20:29 से 21:11 तक : यरूशलेम तक आना और इस में दाख़िल होना। असना-ए-राह में दो अँधों को बीनाई देना और गधे पर सवार होना।

21:12 से 28:20 तक : मसीह की ज़िंदगी के आख़िरी हफ़्ते के माजरे।

सिलसिलेवार चारों अनाजील के मुताबिक़

मुनासिब होगा कि इन माजरों का बयान सिलसिलेवार चारों अनाजील के मुताबिक़ लिखा जाये।

(1) सबत बैत-अन्याह में। यूहन्ना 12:1 से 11, मत्ती 26:6 से 13, मर्क़ुस 14:3 से 9

(2) इतवार : या ख़जूरों का इतवार, शाहाना यरूशलेम में दाख़िल होना। मत्ती 21:1 से 11, मर्क़ुस 11:1 से 11, लूक़ा 19:29 से 44, यूहन्ना 12:12 से 19

(3) पीर : इंजीर के दरख़्त का सूख जाना। हैकल की सफ़ाई। मत्ती 21:21 से 19, मर्क़ुस 11:12 से 19, लूक़ा 19:45 से 48

(4) मंगल और बुध : चंद मुबाहिसे फ़रीसियों के साथ। मत्ती 21:20 से 23:39 तक। मर्क़ुस 11:27 से 12:44, लूक़ा 20:1 से 21:4 तक, यूहन्ना 12:20 से 50

(5) बुध की शाम : चंद शागिर्दों के सामने यरूशलेम की बर्बादी और अदालत के दिन का बयान। यहां मत्ती ने तीन ख़ास तम्सीलें लिखी हैं। जो ना मर्क़ुस और ना लूक़ा ने बयान की हैं। मत्ती 24, 25 बाब, मर्क़ुस 13, लूक़ा 21:5 से 38, इन चारों में शाम के वक़्त बैत-अन्याह को वापिस चला जाता है।

(6) जुमेरात : इस रोज़ सुबह को वो बैत-अन्याह से रवाना नहीं होता। बल्कि पतरस और यूहन्ना को फ़सह तैयार करने के लिए यरूशलेम में भेजता है। (मत्ती 26:17 से 19), (मर्क़ुस 14:12 से 16), (लूक़ा 22:7 से 13) दोपहर के बाद बाक़ी शागिर्दों के साथ यरूशलेम में आकर फ़सह खाता है। (मत्ती 26:20 से 35), (मर्क़ुस 14:17 से 25), (लूक़ा 22:13 से 38), (यूहन्ना 13, 14, 15, 16, 17 बाब)

गतसमनी के बाग़ में जानकनी और मसीह का गिरफ़्तार होना। मत्ती 26:36 से 56, मर्क़ुस 14:26 से 52 लूक़ा 22:39 से 53, यूहन्ना 18:1 से 12

मसीह की जवाबदेही हन्ना, कैफ़ा के सामने। (मत्ती 26:57 से 75), (मर्क़ुस 14:53 से 72), (लूक़ा 22:54 से 65)

(7) जुमा : सदर मज्लिस के सामने जवाबदेही। (मत्ती 27:1), (मर्क़ुस 15:1 से 15), (लूक़ा 2:2 1 से 66), (यूहन्ना 18:28 से 19:16)

मस्लूब होना। (मत्ती 27:17 से 56), (मर्क़ुस 15:16 से 41), (लूक़ा 23:26 से 49), (यूहन्ना 19:17 से 37)

उस का दफ़न होना और जी उठना। (मत्ती 27:57 से 28:20), (मर्क़ुस 15:42 से 16:20), (लूक़ा 23:50 से 24:53), (यूहन्ना 19:38 से 21:25)

चारों अनाजील इस अम्र पर मुत्तफ़िक़ हैं मसीह के दुखों और मौत मसीह के जी उठने के सबूत पर

मज़्कूर बाला बयान से जिसमें मसीह के आख़िरी हफ़्ते के माजरे पाए जाते हैं। हर शख़्स जो सरसरी तौर पर भी इन इंजीलों को पड़ेगा वो इन दो बातों को मालूम करेगा :-

(1) चारों अनाजील इस अम्र पर मुत्तफ़िक़ हैं कि मसीह के दुखों और मौत का मुफ़स्सिल बयान करें। उसे वो कुल बयान को मेअराज (आला दर्जा, बलंद मर्तबा) समझते हैं।

(2) मसीह के जी उठने के सबूत पर बहुत ज़ोर देते हैं। ये दो माजरे यानी मौत और जी उठना मिलकर कुल इन्जील का लुब्ब-ए-लुबाब (ख़ुलासा) हैं। (देखो रोमियों 4:25) इस जगह हम उस की मौत के मक़्सद की मुफ़स्सिल तश्रीह नहीं कर सकते। लेकिन मसीह की क़ियामत (मुर्दों में से जी उठना) चूँकि एजाज़ी (मोअजज़ाना) है। इसलिए इस की शहादत मुफ़स्सिल (तफ़्सीली गवाही) दी गई है। चूँकि मोअजिज़ों पर एतराज़ करने वाले जी उठने की इन शहादतों (गवाहियों) पर हर्फ़गीरी (नुक्ता-चीनी, ऐब निकालना) करते हैं। इसलिए मुनासिब है कि इनका तफ़्सील-वार बयान करें।

मख़्फ़ी (छुपा) ना रहे कि ख़ुद मुल्हिद (लादीन, काफ़िर) मानते हैं कि बिलफ़र्ज़ अगर क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा हो तो मोअजिज़े ग़ैर-मुम्किन नहीं। जिसने ख़ल्क़त पैदा की और वो इस को बदल भी सकता है। इलावा अज़ीं अगर ख़ुदा अख़्लाक़ी मक़्सद को सारे मक़ासिद से आला समझता है तो ताज्जुब नहीं कि वो किसी अख़्लाक़ी मक़्सद के लिए अस्बाब मौजूदात में कोई मोअजिज़ा दिखाए।

पस हम मसीह के जी उठने की शहादतों को बिला-तास्सुब (मज़्हब की बेजा हिमायत के बग़ैर) जांच सकते हैं। चारों अनाजील के बयान से और ख़ुतूत से ये शहादत (गवाही) मिलती है।

(1) औरतें क़ब्र पर आईं। (मत्ती 28:1), (मर्क़ुस 16:1), (लूक़ा 24:1), (यूहन्ना 20:1)

(2) क़ब्र के ख़ाली होने से हैरान हो कर तितर-बितर हो गईं ताकि शागिर्दों को ख़बर दें। (मत्ती 28:8), (मर्क़ुस 16:8), (लूक़ा 24:9)

(3) मसलन मर्यम मग्दलीनी पतरस और यूहन्ना को। (यूहन्ना 20:2)

(4) पतरस और यूहन्ना क़ब्र को ख़ाली देखकर चले जाते हैं। (यूहन्ना 20:3 ता 10)

(5) मर्यम को क़ब्र पर मसीह दिखाई देता है। (यूहन्ना 20:11 ता 18), (मत्ती 28:9 ता 10) (अग़लबन ये आयात मर्यम से मुताल्लिक़ हैं)

(6) पतरस को (लूक़ा 24:34), (1 कुरिन्थियों 15:5)

(7) दो शागिर्दों पर इमाओस के गांव में। (लूक़ा 24:13 से 33)

(8) दस रसूलों को मये दीगर शागिर्दों के। (लूक़ा 24:36 से 44), (यूहन्ना 20:19 ता 23), (1 कुरिन्थियों 15:5)

मज़्कूर बाला ज़हूर जी उठने के दिन ही वाक़ेअ हुए।

(9) अगले इतवार ग्यारह रसूलों को। (यूहन्ना 20:26 ता 29)

(10) गलील में रसूलों और शागिर्दों की बड़ी जमाअत को। (मत्ती 28:16 ता 20), (1 कुरिन्थियों 15:6)

(11) याक़ूब को। (1 कुरिन्थियों 15:7)

(12) दरिया-ए-तिबरियास पर। (यूहन्ना 21:1 वग़ैरह)

ये पाँच अलग-अलग बयानात हैं। लेकिन जी उठने के वाक़िये पर सब मुत्तफ़िक़ हैं।

मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील

मसीह के आख़िरी हुक्म के मुताबिक़ उस के रसूल और दीगर शागिर्द इधर-उधर जा कर मुनादी करने लगे। रसूलों की ऐन हयात में ये बयान काफ़ी था। लेकिन जब वो यके बाद दीगरे इंतिक़ाल करते गए। तो एक तहरीरी बयान की ज़रूरत महसूस हुई और बहुतों ने (लूक़ा 1:1 से 4) इस अम्र की कोशिश की बाअज़ों की राय है कि मर्क़ुस की इन्जील इन इब्तिदाई कोशिशों का तक़रीबन पहला नतीजा है।

पैपियास जो हेरापौलिस का उस्क़ुफ़ (पादरियों का सरदार) था (दूसरी सदी के पहले हिस्से में) यूं लिखता है कि “मर्क़ुस ने पतरस का तर्जुमान हो कर बसहित तमाम (अगरचे तर्तीबवार नहीं) मसीह के सारे अहवाल और अफ़आल जहां तक उस को याद रहा क़लमबंद किया। क्योंकि उसने ना ख़ुदावंद के मुँह से सुना ना उस की रिफ़ाक़त में रहा। मगर पतरस का रफ़ीक़ (साथी) था। जो सामईन (सुनने वालों) को हस्ब-ए-ज़रूरत तालीम देता था। मगर मसीह के वाक़ियात का बयान तर्तीबवार ना करता था। पस मर्क़ुस ने इस तरह से जुदा-जुदा बातें तहरीर करके किसी तरह की ग़लती ना की। एक ही बात पर ज़ोर देता था कि मैं ना कुछ छोड़ूँ ना ग़लत-बयानी करूँ। आईरिनियस भी जो उस सदी में था। यूं कहता है कि मर्क़ुस ने पतरस का शागिर्द और तर्जुमान हो कर पतरस की मुनादी के मज़ामीन तहरीर करके हमारे सपुर्द किए।

मुख़्तसर सीरत व हालात मर्क़ुस

मर्क़ुस : ये लातीनी नाम है यहूदी नाम यूहन्ना है। (आमाल 12:12) उस की वालिदा एक मशहूर दौलतमंद ख़ातून मर्यम नामी थी। जिसके घर में मसीही दुआ बंदगी के लिए जमा हुआ करते थे। और बाअज़ों की राय है कि गतसमनी का बाग़ उसी की मिल्कियत था। अगर ये दुरुस्त हो तो शायद वो जवान जिसका ज़िक्र मर्क़ुस 51:14, 52 में आया है यही यूहन्ना मर्क़ुस हो। इस के बाप का कोई ज़िक्र नहीं। ये बर्नबास का ख़ाला ज़ाद भाई था। (फिलिप्पियों 4:10) पौलुस और बर्नबास का पहले सफ़र में रफ़ीक़ था। लेकिन जल्द उनसे जुदा हो गया। (आमाल 13:13, 5) इस जुदाई के बाइस पौलुस और बर्नबास में इख़्तिलाफ़ राय हुआ। (आमाल 15:37) बाअदा (बाद में) वो पतरस की रिफ़ाक़त में नज़र आता है। (1 पतरस 5:13) इस के बाद वो पौलुस का मददगार हुआ (फिलिप्पियों 4:10) (फिलिप्पियों 4) (2 तीमुथियुस 4:11)

नए अहदनामे के बाद ये रिवायत है कि पतरस की वफ़ात के बाद वो मिस्र में रहा।

तस्नीफ़ मर्क़ुस

तस्नीफ़ : इस के बारे में चार बातों का लिहाज़ करें

(1) तारीख़ तस्नीफ़ : गुमान ग़ालिब है कि तक़रीबन 67 या 68 ई॰ में लिखी गई। शायद इस से भी पेश्तर। बहरहाल तर्ज़ बयान से पता चलता है कि मुसन्निफ़ उन वाक़ियात का ज़िक्र सफ़ाई और सादगी से करना चाहता है जिनको उसने ऐन गवाहों से सुना था।

(2) तहरीर की जगह : आम रिवायत है कि ये इन्जील शहर रोम में तहरीर हुई। ये रिवायत क़ाबिल-ए-एतिबार मालूम होती है। क्योंकि इस की कुछ मुख़ालिफ़त नफ़्स-ए-मज़मून से नहीं होती।

(3) किन के लिए लिखी गई : ग़ालिबन कोई ख़ास फ़रीक़ मद्दे-नज़र नहीं था। इस में मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात का सादा बयान है। किसी ख़ास फ़रीक़ के मुताबिक़ नहीं लिखी गई। अलबत्ता ग़ैर क़ौमों के फ़ायदे के लिए ख़ास यहूदी मुहावरों और दस्तुरात की तश्रीह की गई है। बुआनर्गिस (मर्क़ुस 3:17) तुल्यता क़ौमी (मर्क़ुस 5:29) क़ुर्बान (7 मर्क़ुस :11) बर्तमाई (मर्क़ुस 10:46) अब्बा (14:26) इलोही इलोही (15:34) जहन्नम (9:43) कवार्डनेटस (मर्क़ुस 12:42) स्पक्युलीटर (मर्क़ुस 6:27) वग़ैरह यहूदी जब तक हाथ ना धोते (मर्क़ुस 7:3) ज़ैतून का पहाड़ हैकल के सामने (मर्क़ुस 13:3) फ़सह के ज़ब्ह करने के बारे में (मर्क़ुस 14:12) तैयारी का दिन (मर्क़ुस 15:42) लेकिन ना मसीह का नसब-नामा है ना पुराने अहदनामे से इक़्तिबासात हैं सिवाए पहले बाब के।

(5) किस ज़बान में लिखी गई : यूनानी ज़बान में लिखी गई। सिवाए दीगर सबूतों के एक सबूत ये है कि अरामी ज़बान की तश्रीह की गई है जैसा पहले ज़िक्र हुआ।

मर्क़ुस की इन्जील के ख़साइस

याद रहे कि मर्क़ुस की इन्जील पतरस की मुनादी के मुताबिक़ लिखी गई। इस मुनादी के दो नमूने आमाल की किताब में मौजूद हैं। (आमाल 1:21-22) (आमाल 10:26 से 42) चुनान्चे वो कहता है कि बपतिस्मे के वक़्त किस तरह ख़ुदा ने येसू नासरी को रूह-उल-क़ुद्स और क़ुव्वत से ममसूह किया। और किस तरह उस की आज़माईश के बाद वो नेकी करता फिरा। और उन सबको जो शैतान के हाथ से ज़ुल्म उठाते थे चंगा करता फिरा क्योंकि ख़ुदा उस के साथ था। यूं जो तस्वीर मर्क़ुस ने मसीह की हमारे वास्ते खींची है वो हक़ीक़ी इन्सान की है। चुनान्चे वो उस के रंज, मुहब्बत, तरस, ग़ुस्सा, भूक, आराम, सोना (7:34, 12:8, 21:10, 24:6, 2:6, 3:5, 8:12, 33, 10:16, 11:12, 6:31, 4:38) वग़ैरह को दिखाता है। इलावा अज़ीं मसीह की हरकात व सकनात का ज़िक्र करता है। (देखो 7:33, 8:33, 9:36, 10:16, 4:38, 6:31, 10:32) मुक़द्दस मर्क़ुस लफ़्ज़ फ़ील-फ़ौर या फ़ौरन को तक़रीबन 46 दफ़ाअ इस्तिमाल करता है। इस से पता लगता है गोया वो वाक़ियात उस की आँखों के सामने गुज़र रहे हैं।

(1) इस इन्जील का सिलसिला : इस इन्जील के शुरू में ये बात नज़र आती है कि कुछ अर्से तक ख़ुदावंद मसीह अपने मोअजिज़ों और नई दिलचस्प तालीम के ज़रिये मशहूर और हर दिल अज़ीज़ हो गया।

(2) लेकिन थोड़े ही अर्से के बाद बाक़ी शरई मोअल्लिम उस की मुख़ालिफ़त करने लगे। इसलिए इस इन्जील का बड़ा हिस्सा इन ही दो बातों पर मुश्तमिल है। यानी अवामुन्नास में मुनादी और मुआल्लिमों से मुबाहिसा।

(3) तब उसने तर्ज़ तालीम को बदला और ज़्यादा तम्सीलों में कलाम करने लगा। शायद पहले भी उसने तम्सीलें इस्तिमाल की हों।

(4) इन्जील के ऐन वस्त में (8:30) शागिर्दों से अपने दुखों का ज़िक्र करने लगता है। और उस वक़्त से लेकर इन शागिर्दों को तन्हाई में बहुत तालीम देता रहता है। गोया आइन्दा दुखों और सलीब का साया उस के दिल पर छाता जाता था।

(5) इस से हम उस हिस्से तक पहुंचते हैं जिसमें उस के आख़िरी मुबाहिसे पकड़वाए जाने वग़ैरह का ज़िक्र है।

इस से साफ़ ज़ाहिर है कि गो मसीह मोअल्लिम हो कर दुनिया में आया तो भी ख़ुद मसीह और उस के शागिर्द उस की मौत पर ख़ास ज़ोर देते थे। चुनान्चे मर्क़ुस 10:45 में लिखा है कि “बनी-आदम इसलिए नहीं आया कि ख़िदमत ले बल्कि ख़िदमत करे और अपनी जान बहुतों के लिए फ़िद्ये में दे।”

सिलसिला मज़ामीन

(1) तैयारी 1:1 से 13 तक

(2) मशरिक़ी गलील में मसीह के काम (1:14 से 7:23 तक)

(3) शुमाली गलील में मसीह के काम (7:24 से 9:2 तक)

(4) यहूदिया में मसीह का काम (10:1 से 31)

(5) आख़िरी सफ़र यरूशलेम को और दुख सहना (10:32 से 15:47 तक)

(6) दफ़न, क़ियामत और सऊद (16 बाब)

अगरचे मसीह काम में ऐसा मसरूफ़ रहता था कि अक्सर खाना खाने की भी फ़ुर्सत ना होती थी। (3:20) फिर भी ख़ुदा के साथ तन्हाई में वक़्त काटने का मौक़ा निकालता था। चुनान्चे ज़ेल के मुक़ामात से ज़ाहिर है। (1) मर्क़ुस 1:35 (2) 1:45 (3) 3:7 से 13 (4) 6:6 (5) 6:30 से 32 (6) 7:24 (7) 8:27 (8) 9:2 (9) 11:1, 19

ज़ेल की बातें इस ही इन्जील में पाई जाती हैं :-

1:13 दरिंदों के साथ।

4:26 से 29, बीज का आप ही उगना।

7:31 ता 37, गूँगे और तुतले को शिफ़ा देना।

10:32 येसू आगे बढ़ता जाता था।

14:51 ता 52 नौजवान कत्तानी चादर में।

16:17, 18, 20 रसूलों की मुनादी पर मोअजिज़ों का वक़ूअ में आना।

लूक़ा की इन्जील

मुसन्निफ़

इस इन्जील के शुरू में एक मुख़्तसर दीबाचा है। जो और किसी इन्जील में पाया नहीं जाता। इस दीबाचे से इस किताब का ताल्लुक़ आमाल की किताब से ज़ाहिर होता है। मुसन्निफ़ किसी नौजवान मसीही थियुफिलुस नामी से मुख़ातिब है। और आमाल की किताब भी इस शख़्स के लिए लिखी गई। तर्ज़-ए-कलाम इस बात की ताईद (हिमायत करना) करता है कि इन दोनों किताबों का मुसन्निफ़ एक ही है। क़दीम कलीसिया में ये अम्र तस्लीम किया गया कि मुसन्निफ़ का नाम लूक़ा था। इस शख़्स का ज़िक्र ज़ेल की आयात में पाया जाता है। कुलुस्सियों 4:11, 14 लूक़ा प्यारा तबीब 2 तिमुथियुस 4:11 लूक़ा अकेला मेरे साथ है। फिलिप्पियों 4 पौलुस का हम ख़िदमत।

नए अहदनामे के इन मुक़ामों से ये ज़ाहिर है कि वो पौलुस का रफ़ीक़ (साथी) था। हर दिल अज़ीज़ तबीब और वफ़ादार दोस्त था। चुनान्चे ना सिर्फ पौलुस की ख़िदमत बशारती दौरे के वक़्त की बल्कि जब पौलुस क़ैद हो कर केसरिया से रोम को गया उस वक़्त भी वो साथ रहा। क्योंकि आमाल की किताब के बाअज़ हिस्सों में मुसन्निफ़ सिगा जमा मुतकल्लिम यानी हम इस्तिमाल करता है। (आमाल 16:10 से 17, 20:5 से 15, 21:1 से 18, 27:1 से 28:16) इलावा इस के रिवायत में यूं मज़्कूर है। कि अन्ताकिया वाक़ेअ सूरिय्या में वो पैदा हुआ और शायद यूनान में मर गया। या बक़ौल गिरीगौरी नाज़ी अंज़न वो शहीद हो गया। अगर वो थियुफिलुस जिसके वास्ते ये दोनों किताबें लिखी गईं। अन्ताकिया का वो दौलतमंद शख़्स था। जिसका क्लीमेंट ने अपने ख़तों में ज़िक्र किया है कि उसने पतरस की मुनादी से अपना घर दे डाला। तो लूक़ा शायद उस का आज़ाद किया हुआ ग़ुलाम हो गया। और नाम में इस क़िस्म का इख़्तिसार (मुख़्तसर होना) ग़ुलामों के नाम में आम था। इस की निस्बत दो और गुमान भी हुए हैं। पहले ये कि वो उन सतरों में से था जिनका ज़िक्र इस इन्जील के दसवें बाब में आया है। लेकिन इस का कोई सबूत नहीं। बल्कि बरअक्स इस के दीबाचे ही से ज़ाहिर है कि वो (लूक़ा) गवाह होने का दावा नहीं करता। दूसरा गुमान ये है कि वो यहूदी ना था। क्योंकि कुलुस्सियों 4:11 ता 14 में पौलुस इस का ज़िक्र करता है, कि उस से मख़्तून (जिसका खतना हुआ) हो मालूम नहीं होता। ये नतीजा दुरुस्त मालूम होता है। शायद वो फाटक का मुरीद था। तरतलियान कहता है कि वो पौलुस के ज़रिये मसीही हो गया। और कि पौलुस की हिदायत से लूक़ा ने इन्जील लिखी।

सनद : क्लीमेंट रोमी और पोलीकार्प ऐसे अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करते हैं जिनसे मालूम होता है कि वो लूक़ा की इन्जील से वाक़िफ़ थे। बेसीलीडैस (basilides) ने 120 ई॰ में इस इन्जील को इस्तिमाल किया। हीराक्लियों (heracleon) ने इस की तफ़्सीर की। मारशियां (marcion) ने 140 ई॰ में इस इन्जील को कुछ बदल कर अपनी इन्जील बनाया। इस से पता लगता है कि वो समझता था कि मसीही किस क़द्र इस इन्जील की क़द्र करते हैं।

जस्टिन शहीद को ये इन्जील मालूम थी। 145 ई॰ गो वो इन्जील के मुसन्निफ़ों के नाम नहीं बताता। लेकिन लूक़ा की इन्जील की तरफ़ इशारा करता और इस में से अक्सर हवाला देता है। मसलन उसी ने ज़िक्र किया कि फ़रिश्ते ने मर्यम को ख़बर दी। और कोरियनस के दिनों में इस्म-ए-नवीसी हुई। येसू बंधा हुआ हेरोदेस के पास भेजा गया। और वो बाज़ औक़ात ऐसी इबारत इस्तिमाल करता था जो सिर्फ इसी इन्जील में पाई जाती है।

हेगेसिप्स (hegesppus) में कम अज़ कम दो जुम्ले हैं जो लफ़्ज़न लूक़ा 20:21 और 23:24 का इक़्तिबास मालूम होते हैं। तरतलियान का ज़िक्र ऊपर हो चुका। ऐसा ही आयरनेवस कहता है, लूक़ा ने जो पौलुस का रफ़ीक़ था इस ख़ुशख़बरी को क़लमबंद किया जो पौलुस सुनाता था। और मोरातोरी नुस्खे में ये इन्जील लूक़ा की कहलाती है। वही लूक़ा तबीब जिसे पौलुस ने अपने शागिर्दों में शामिल किया। पुश्तो, (सुर्यानी तर्जुमा) में जो तक़रीबन दूसरी सदी का है। ये लूक़ा की तस्नीफ़ मानी गई है और उस वक़्त से बराबर लूक़ा की तस्नीफ़ तस्लीम की गई है।

किन चश्मों (माख़ज़) से ये इन्जील तैयार हुई?

किन चश्मों (माख़ज़) से ये इन्जील तैयार हुई? ख़ुद लूक़ा ने इस इन्जील के दीबाचे में बताया है कि “मैंने ये ही मुनासिब जाना कि सब बातों का सिलसिला शुरू से ठीक-ठीक दर्याफ़्त करूँ।” मत्ती और मर्क़ुस की इंजीलों का ज़िक्र करते वक़्त दो ख़ास चश्मों का ज़िक्र हुआ। यानी मसीह की सवानिह उम्री का सादा बयान जैसे मर्क़ुस की इन्जील में है।

और मसीह के अहवाल का मजमूआ जो उमूमन लोगिया कहलाता है। जिससे पहाड़ी वाअज़ वग़ैरह लिए गए। लूक़ा की इन्जील के 4:21 से 6:19 तक, 8:4 से 9:5 तक, और 18:15 से 22:14 तक मर्क़ुस के बयान से मुशाबेह है। लेकिन 6:20 से 8:3 तक मत्ती के पहाड़ी वाअज़ वग़ैरह से मुशाबेह है। बाक़ी रहे पहले तीन बाब और 9:21 से 18:14 तक और चंद दीगर हिस्से जिनमें ऐसे वाक़ियात का ज़िक्र है। जो ना मत्ती ना मर्क़ुस की इंजीलों में पाए जाते हैं। लूक़ा ने किसी दूसरे चश्मे (माखज़) से जमा किए। अब ज़रा दर्याफ्त करें कि वो कोसा चशमा (माखज़) होगा? कोई तहक़ीक़ जवाब नहीं दे सकता। सिर्फ मज़ामीन में से कुछ नतीजा निकाल सकते हैं। मसलन पहले दो अबवाब में ऐसी बातों का ज़िक्र है जो सिर्फ मर्यम ही से मालूम हो सकती थीं। नीज़ चौथे बाब में नासिरत के इबादतखाने का माजरा मज़्कूर है। और आठवीं बाब की पहली तीन आयतों में और 23:28 वग़ैरह में जिन बातों का ज़िक्र है। उनको लूक़ा ने या ख़ुद मर्यम से या दूसरी औरतों से दर्याफ़्त किया होगा। ये भी क़ाबिले लिहाज़ है कि मज़्कूर बाला आयात का तर्ज़-ए-कलाम आमाल की किताब के पहले बारह अबवाब से बहुत मुशाबेह है। और उन बारह अबवाब में ऐसे माजरों का ज़िक्र है जो मर्यम वालिदा मर्क़ुस की हवेली से मुताल्लिक़ थे, क्योंकि वहां शागिर्द जमा हुआ करते थे। (आमाल 1:13, 13:14, 12:1, 4:23, 12:12)

तक़्सीम मज़ामीन

(अ) दीबाचा 1:1 से 4

(ब) मसीह की पैदाइश व लड़कपन 1:5 से 2:52

(1) जिब्राईल के ज़रिये बशारत पैदाइश। (यूहन्ना 1:5 से 25)

(2) जिब्राईल के ज़रिये बशारत पैदाइश मसीह। (1:26 से 38)

(3) मर्यम का इलेशबा के पास जाना। (1:39 से 56)

(4) यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की पैदाइश और नाम रखना। 1:57 से 80

(5) मसीह की पैदाइश बैत-उल-लहम के शहर में। 2:1 से 20

(6) मसीह का खतना और उनकी हैकल में दाख़िल किया जाना। 2:21 से 38

(7) नासरत से मसीह का यरूशलेम जाना और हैकल में बुज़ुर्गों से गुफ़्तगु। 2:39 से 52

(ज) यूहन्ना का काम और मसीह का बपतिस्मा और नसब नामा। 3:1 से 38

(ज)यूहन्ना का काम और मसीह का बपतिस्मा और नसब नामा। 3:1 से 38

(द) मसीह की आज़माईश। 4:1 से 13

(ह) गलील में मसीह का बशारती दौरा। 4:14 से 44

(1) नासरत के इबादतखाना में मसीह का रद्द किया जाना। 4:16 से30

(2) कफ़रनहोम में जा कर रहना और मोअजिज़े करना 4 31 से 44

(ओ-) फ़रीसियों के साथ गुनाह की माफ़ी और रोज़ा और सबत के बारे में मुबाहिसा। 5:1 से 6:11

(ज़) बारह रसूलों का इंतिख़ाब और पहाड़ की मुर्तफ़े परवाज़। 12 से 39

(ह) मोअजिज़े, यूहन्ना बप्तिस्ता के बारे में बयान। दो क़र्ज़दारों की तम्सील। 7 बाब

(त) बीज की तम्सील, झील के पार, दीवाने शख़्स को शिफ़ा देना और दो और मोअजिज़े। 8 बाब

(य) बारह शागिर्दों की रिसालत, भीड़ को खिलाना, सूरत की तब्दीली, मिर्गी के बीमार को अच्छा करना। 9:1 से 50

(काफ़) सतरों की रिसालत। 9:51 से 10:24

(लाम) सामरी की तम्सील, दुआ की तालीम, फ़रीसियों पर मलामत 10:25 से 11:54

(म) लालच और लापरवाही के ख़िलाफ़ आगाही। 12 बाब

(नून) यरूशलेम की तरफ़ सफ़र पर चंद तम्सीलों और तालीम का ज़िक्र। मसलन मसरफ़ बेटे की तम्सील 13:1 से 16:31

(स) फ़िरोतनी, शुक्रगुज़ारी, दूसरी आमद, और दुआ की तालीम। 17:1 से 18:14

(ए) यरूशलेम के सफ़र पर बच्चों को बरकत देना। और मसीह का अपनी मौत की ख़बर देना। अंधे और ज़क्काई के के बारे में और दस कोड़ों की तम्सील। 18:15 से 19:27

(फ) यरूशलेम में दाख़िल होना। सरदारोँ से मुबाहिसा। दूसरी आमद की पेशीनगोई। 19:28 से 21:38

(स) मसीह का गिरफ़्तार होना और मारा जाना। 22 और 23 बाब

(क) मसीह की क़ियामत और सऊद। 24

तस्नीफ़ का वक़्त

इस में इख़्तिलाफ़ राय यहां तक है, कि बाअज़ कहते हैं 80 ई॰ या 90 ई॰ में ये लिखी गई। इस राय की ताईद में ये दलील पेश करते हैं, कि ख़ुद लूक़ा इक़रार करता है कि मुझसे पेश्तर बाअज़ों ने इन्जील लिखने की कोशिश की। 1:1 और ऐसी कोशिशों के लिए कुछ अर्सा दरकार है। लेकिन 70 ई॰ से पेश्तर बहुत कुछ लिखा जा सकता था। चुनान्चे मर्क़ुस की इन्जील और पौलुस के ख़ुतूत इस के शाहिद (गवाह) हैं। दूसरा सबब ये पेश करते हैं। कि लूक़ा ने मसीह की दूसरी आमद और यरूशलेम की बर्बादी में ऐसा इम्तियाज़ (फ़र्क़) किया है। और इस बर्बादी का ऐसा मुफ़स्सिल (तफ़्सील) के साथ ज़िक्र किया है, कि गुमान गुज़रता है कि ऐसे वाक़िये के बाद उसने ये बयान लिखा होगा। लेकिन कुछ ताज्जुब (हैरानी) नहीं कि मसीह ने दोनों वाक़ियात की पेश ख़बरी की। इस वास्ते लूक़ा इस तफ़्सील के साथ लिख सकता था। पस ये आम राय माक़ूल मालूम होती है। कि वो 62 ई॰ के क़रीब लिखी गई। इस राय की ताईद इस से भी होती है, कि ग़ालिबन आमाल की किताब 66 ई॰ के क़रीब लिखी गई। और सब मानते हैं कि लूक़ा ने अपनी इन्जील आमाल की किताब से पेश्तर लिखी थी।

कहाँ लिखी गई? अगर मज़्कूर बाला तारीख़ दुरुस्त हो तो क़रीन-ए-क़ियास (जिसे अक़्ल तस्लीम करे) है कि रोम में पौलुस के पहले क़ैद होने के वक़्त लिखी गई। लेकिन इस का कुछ सरीह (वाज़ेह) ज़िक्र नहीं।

किन के लिए लिखी गई?

अगरचे दीबाचे में थियुफिलुस का नाम आया है लेकिन वो मह्ज़ उसी के लिए ना लिखी गई होगी बल्कि आम मसीहियों के फ़ायदे के लिए। ना ख़ास यहूदियों के लिए। ना ख़ास ग़ैर क़ौमों के लिए।

बाअज़ उमूर से ज़ाहिर है कि यहूदियों को मद्दे-नज़र रखा। मसलन अगरचे दीबाचे की यूनानी उस ज़माने की फ़सीह यूनानी का नमूना है। ताहम जब लूक़ा तारीख़ शुरू करता है तो ऐसी यूनानी इस्तिमाल करता है जिसमें उस वक़्त के यहूदी सतरों के तर्जुमे के ज़रिये मानूस (जानना) थे। और पहले दो अबवाब में मसीह की आमद पर ज़ोर देता है। जिसकी इंतिज़ारी यहूदी क़ौम को थी। शुक्रगुज़ारी के गीत जो इन दो अबवाब में पाए जाते हैं। वो इस बुनियाद पर हैं कि ख़ुदा ने अपनी क़ौम पर तवज्जोह की। 1:46, 68 वग़ैरह 2:11, 29 से 32 इन्जील के बाक़ी हिस्से में इन आयात को देखें। 3:8-13:16-18:38-19:9, 28-24:21, 27, 44

बरअक्स इस के ग़ैर क़ौमों का लिहाज़ भी लूक़ा ने किया है। मसलन नसब-नामा ना इब्राहिम तक बल्कि आदम तक का देता है। और शमऊन के गीत में मसीह ग़ैर-क़ौमों का नूर कहलाता है। 2:32 नासरत के इबादतखाने में उसने पुराने अहदनामे से ग़ैर क़ौमों को ख़ुदा की तरफ़ से बरकत मिलने की दो मिसालें दीं। 4:25 से 27 तक और 13:28, 29 में वो कहता है बहुत यहूदी ख़ुदा की बादशाही से महरूम रहेंगे। लेकिन ग़ैर क़ौम पूरब और पक्षिम से आकर हिस्सा लेंगी। दो दफ़ाअ नेक मिज़ाज सामरियों का ज़िक्र किया। 10:30 से 33, 17:11 से 19, और आख़िरकार पहले से ख़बर दी कि ये इन्जील सारी क़ौमों में फैल जाएगी। 24:47

लूक़ा ने ये ज़ाहिर किया कि मसीह ग़रीबों, कमज़ोरों, और गुनेहगारों का कैसा लिहाज़ करता था। 2:24 4:18 6:20 से 25, 30, 7:37 8:1 से 3, 10:36, 39, 12:16 से 21, 33, 15 बाब, 16:20 वग़ैरह 14:12 से 15-18:13-1-9:1-26:27-40

फिर इस इन्जील में लूक़ा ने ख़ासकर मसीह की दुआओं और दुआ के बारे में उस की तालीम को बताया है। 3:21, 11:1 ता 4-5, 16, 6:12-9:18-29 वग़ैरह 18:1, 10-21:36-22:44

इस इन्जील में माफ़ी और रहम का ख़ास ज़िक्र है। मसलन 4:18 5:8, 10-7:47 से 50, 15:11 वग़ैरह 23:43-24:47

इन्जील का ख़ातिमा ये है कि मसीह अपने हाथों बरकत देता हुआ आस्मान पर चला जाता है।

जो वाक़ियात मोअजिज़े और तम्सीलें वग़ैरह इस ही की इन्जील में पाए जाते हैं

पहले दो बाब मसीह की पैदाइश के बारे में यूहन्ना बप्तिस्ता की मुफ़स्सिल तालीम 13:10 से 14, नासरत के इबादतखाने में तालीम 4:16 से 30, मछलियों का मोअजिज़ा, लूक़ा 5:4 से 10, नाइन में बेवा के बेटे को जिलाना, 7:11 से 16, औरत जो कमज़ोरी की रूह रखती है। 13:11 से 17, जलिन्द्र 14:1 से 6, दस कौड़ी 17:11 से 19, मल्कथस को चंगा करना। 22:51, दो क़र्ज़दारों की तम्सील 7:41 से 43, नेक सामरी 10:25 से 37, ज़िद्दी दोस्त 11:5 से 8, नादान दौलतमंद 12:16 से 21 बे-फल इंजीर का दरख़्त 23:6 से 9, ज़ियाफ़त की तम्सीलें 4:1-7, 24 गुमशुदा दिरहम 15:8 मसर्रफ़ बेटा 15:11 से 32 बददियानत मुंतज़िम 16:1 से 13, दौलतमंद और लाज़र 16:19 से 31 बेसूद नौकर 17:7 से 10, बे-इन्साफ़ क़ाज़ी 18:1 से 8, फ़रीसी और महसूल लेने वाला 18:10 से 14, दस अशर्फ़ियां 19:13 से 27

यूहन्ना की इन्जील

मुसन्निफ़

ये इन्जील यूहन्ना से मन्सूब है। इस यूहन्ना की ज़िंदगी के दो हिस्से हैं :-

अव़्वल वो हिस्सा जो नए अहदनामे से मालूम होता है।

दोम वो जो रिवायतों से मालूम होता है। उनसे इस की मुकम्मल सवानिह उम्री नहीं मिल सकती।

लेकिन इस का आम अहवाल और सीरत इस से दर्याफ़्त (मालूम) हो सकती है।

अव़्वल : इस के बाप का नाम ज़बदी और माँ का नाम सलोमी था। और अपने भाई याक़ूब के हमराह मछली पकड़ने में अपने बाप की मदद करता था। ये ख़ानदान बैतसदा में गलील की झील के किनारे रहता था। और कुछ आसूदा हाल (ख़ुशहाल) मालूम होता है। क्योंकि इनके पास नौकर थे। (मर्क़ुस 1:20) और इस की माँ अपने माल से मसीह की ख़िदमत करती थी। (मर्क़ुस 15:41-40) और ऐसी हैसियत रखता था, कि सरदार काहिन का दोस्त बन सके। (यूहन्ना 18:15) जब मसीह ने बारह रसूलों को मुक़र्रर किया। तो इस को और इस के भाई को बिवांरजीस यानी गरज के बेटे का लक़ब दिया। (मर्क़ुस 3:17) ये इस सबब से हुआ होगा कि इस में और इस के भाई में तेज़ मिज़ाजी पाई जाती थी। (लूक़ा 9:49 ता 54) (मर्क़ुस 10:35) अक्सर अहले गलील की तरह ग़ालिबन ये बहुत तालीम-याफ़्ता ना थे। (आमाल 4:13) लेकिन क़ौमी बातों में बड़े सरगर्म और मौऊद यहूदी बादशाह का शौक़ से इंतिज़ार खींच रहे थे। शायद इनके दिल में और शमऊन ज़ीलोती (यानी ग़ैरत वाला) के दिल में शुरू में ये ख़याल था कि ये येसू नासरी मुल्की बादशाह होगा। चुनान्चे एक मौक़े पर ये ही गलीली लोग इस को ज़बरदस्ती बादशाह बनाना चाहते थे। (यूहन्ना 6:14 ता 15) बावजूद इस सरगर्मी और तेज़ मिज़ाजी के इस में हलावत (मिठास) नर्मी भी पाई जाती थी। जिसके बाइस मसीह और बाक़ी लोग इस को प्यार करते थे। इन दो सिफ़ात के ख़तलात (मिलाप) से एक दिलकश सीरत पैदा हुई। गलील में तर्बियत पाने से दो और खूबियां इस में ज़ाहिर हुईं कि वो पक्का यहूदी और हुब्बुल-वतन (वतन से मुहब्बत करने वाला) था। और साथ ही यूनानी ज़बान और ख़यालात से वाक़िफ़ था। इस वसीअ ख़्याली के बाइस इस के तर्ज़-ए-कलाम से मालूम होता है कि काहिनों की तंग-ख़याली से इस को नफ़रत हो गई थी। हक़ जोई की इस तबीयत से वो यूहन्ना बप्तिस्ता की पैरवी को तैयार था। (यूहन्ना 1:37 से 40) और उस की हिदायत से मसीह का शागिर्द बन गया।

मालूम होता है कि येसू के साथ कुछ अर्सा रहने के बाद उसने अपना पुराना पेशा फिर इख़्तियार किया। और वहां से फिर बुलाया गया। (मत्ती 4:18), (लूक़ा 5:1 से 11), (मर्क़ुस 1:19 ता 20) ताकि रसूल और आदमियों का मछुवा हो। ये तीन ख़ास शागिर्दों में से एक था जिनका बहुत क़रीब ताल्लुक़ मसीह से रहा। मसलन मर्क़ुस 5:37-9:2-14:33-13:3 शायद वो बैतअन्याह के ख़ानदान से भी ज़्यादा वाक़िफ़ था क्योंकि उसने इस ख़ानदान का हाल तीनों अनाजील से ज़्यादा बयान किया है। (यूहन्ना 11 और 12 बाब) हमारे ख़ुदावंद ने अपनी माँ को इस के सपुर्द किया। (19:26 ता 27) मसीह जी उठने के बाद झील तिबरियास पर यूहन्ना से मिला। जब वो दूसरे शागिर्दों के साथ मछली पकड़ रहा था। (21:2) और पतरस ने ख़ुदावंद से इसी शागिर्द के बारे में ये सवाल किया था कि इस शख़्स के साथ क्या होगा। (21:21 ता 22)

आमाल की किताब में वो पतरस की रिफ़ाक़त में नज़र आता है। (आमाल 3:1 वग़ैरह 4:13 वग़ैरह 8:14 से 25) इस के बाद नए अहदनामे में इस का कोई साफ़ ज़िक्र नहीं आता। लेकिन तारीख़ से मालूम होता है कि उसने अपनी ज़िंदगी का पिछला हिस्सा इफ़िसुस में गुज़ारा। लेकिन ये ग़ालिबन पौलुस की वफ़ात के बाद हुआ होगा। क्योंकि पौलुस के जीते-जी कोई और रसूल इफ़िसुस की कलीसिया से मुताल्लिक़ ना था। किसी ईज़ा रसानी के वक़्त जिला-वतन हो कर पतमस को गया। (मुकाशफ़ा 1:9) लेकिन इस का मुफ़स्सिल ज़िक्र मुकाशफ़े की किताब के दीबाचे के वक़्त होगा। रिवायत है कि इस की उम्र के ऐन आख़िर में जब वो ऐसा कमज़ोर था कि उठा कर उसे गिरजा में ले जाते थे तो वो वाअज़ की जगह सिर्फ ये ही कहा करता था, कि “ऐ छोटे बच्चो एक दूसरे से प्यार करो।” सामईन (सुनने वालों) ने थक कर उसे कहा कि ऐ उस्ताद तू हमेशा हमें ये ही क्यों कहा करता है। (यूहन्ना 13:24, 15:12) बहुत बूढ़ा हो कर तबई मौत से मर गया।

अब ये दर्याफ़्त करें कि आया ये ही शख़्स इस इन्जील का मुसन्निफ़ था। इस इन्जील में इस यूहन्ना का नाम नहीं आया। लेकिन कई मुक़ामात में इस के बारे में ये जुम्ला आया है, “वो शख़्स जिसे येसू अज़ीज़ रखता था।” (यूहन्ना 13:23, 19:26, 20:2, 21:7, 20:24) और बाअज़ दीगर मुक़ामात से साफ़ मालूम होता है कि मुसन्निफ़ क़सदन (इरादे से) अपना नाम नहीं देता। (यूहन्ना 11:40, 18:15, 19:35, 21:20, 24) ये आख़िरी आयत इक्कीसवीं बाब में जो ग़ालिबन बतौर ततिम्मा (किसी चीज़ का आख़िरी हिस्सा) के यूहन्ना के किसी शागिर्द ने लिखा ये साबित करती है कि इस वक़्त भी ये बात मशहूर थी कि यूहन्ना इस इन्जील का मुसन्निफ़ है। हर शख़्स मानेगा कि अगर इस इन्जील का मुसन्निफ़ फ़िल-हक़ीक़त येसू मसीह का ख़ास अज़ीज़ शागिर्द यूहन्ना था तो उस की गवाही निहायत क़ाबिल-ए-एतिबार है।

इस अम्र की ताईद में बैरूनी और अंदरूनी शहादतें मुत्तफ़िक़ हैं

(1) बैरूनी शहादत : क़दीम कलीसिया की शहादत (गवाही) सरासर इस मुसन्निफ़ की ताईद करती है। अलबत्ता मशहूर बिद्अती मारशियां ने और चंद अश्ख़ास ने जो आलूगोई कहलाते थे। इस इन्जील को नहीं माना। लेकिन इस अम्र में उनकी राय कुछ वक़अत (एहमीय्यत) नहीं रखती। क्योंकि इस इन्जील की तालीम उनकी तालीम से ना मिलती थी। इसी लिए दानिस्ता (जान-बूझ कर) उन्होंने इस इन्जील को रद्द किया। चुनान्चे आलूगोई इसी लिए कहलाते हैं। कि वो लागास की तालीम के मुन्किर (इन्कार करने वाले) थे।

आर्येनियुस जो क़रीबन 130 ई॰ में पैदा हुआ और 185 ई॰ तक बहुत किताबें लिखता रहा। इस इन्जील को यूहन्ना से मन्सूब करता था। और उस को इस के बारे में ज़रा सा भी शक नहीं था। आर्येनियुस की शहादत तहरीरी इन्जील के बारे में इसलिए ज़्यादा पुर ज़ोर है क्योंकि वो यूहन्ना के शागिर्द पोलीकार्प का शागिर्द था। चुनान्चे वो कहता है कि जो कुछ पोलीकार्प ने ज़बानी मुझसे बयान किया। वो हर तरह से इस इन्जील के बयान से मुत्तफ़िक़ है। ये पोलीकार्प 70 ई॰ में पैदा हुआ। और 156 ई॰ के क़रीब शहीद हुआ। पस वो कम अज़ कम यूहन्ना की वफ़ात के वक़्त पच्चीस साल की उम्र का था। और पोलीकार्प की वफ़ात के वक़्त आर्येनियुस पच्चीस साल का था।

आर्येनियुस से ज़रा पहले अन्ताकिया के थियुफिलुस ने लिखा कि यूहन्ना मुलहम (इल्हाम रखने वाले) ने कहा कि “इब्तिदा में कलाम था” यानी इस इन्जील की पहली आयत का इक़्तिबास करता है।

मोरातोरी नुस्ख़े में जो आर्येनियुस के ज़माने का है मज़्कूर है, कि चौथी इन्जील शागिर्द यूहन्ना ने लिखी।

टेश्यां जिसने चारों अनाजील का सिलसिला लिखा इस चौथी इन्जील का बयान इसी सिलसिले में मुन्दरज करता है।

जस्टिन शहीद (149 ई॰ के क़रीब) ने यूहन्ना का नाम तो नहीं लिया लेकिन इस इन्जील के पहले और तीसरे बाब से इक़्तिबास करता है।

बसीऐडेँ (125 ई॰ के क़रीब) असकंदरी लिखता है कि ये बात है जो अनाजील में मज़्कूर है “हक़ीक़ी नूर वो था जो हर एक इन्सान को जो दुनिया में आता रोशन कर देता है।” (1:7)

पेपियास कहता है कि यूहन्ना की इन्जील यूहन्ना के हाथ से कलीसिया को मिली। इस से साबित है कि इन्जील दूसरी सदी के शुरू में मौजूद थी। और सिवाए यूहन्ना के किसी और से मन्सूब नहीं होती।

अंदरूनी शहादत : इन्जील से ये दो बातें साबित हो सकती हैं कि :-

(1) मुसन्निफ़ यहूदी था। क्योंकि (1) इब्रानी मुहावरे से अपनी यूनानी अक्सर इस्तिमाल करता है।

(2) इब्रानी अल्फ़ाज़ के माअनों से अच्छी तरह वाक़िफ़ है। मसलन 5:2 19:13

(3) इब्रानी दस्तुरात से वाक़िफ़ है। मसलन यूहन्ना 2:13 ता 14, 4:9-6:4, 7:37, 13:1, 19:14-21

(4) इस की इब्रानी इब्रानी ख़यालात से पुर है। यूहन्ना 1:29, 38, 41, 46, 7:52, 3:22, 5:36 अब्रहाम का दिन देखा 8:56 पीतल का साँप 3:14 फ़सह का बर्रा 19:36 नविश्ता बातिल नहीं हो सकता? 10:34 ता 35, 19:28 मज़्कूर बाला आयात से बख़ूबी ज़ाहिर है कि मुसन्निफ़ यहूदियों की ईदों रीत रसूम और दस्तुरात व मुहावरात से अच्छी तरह वाक़िफ़ था।

(2) ना सिर्फ यहूदी बल्कि ऐसा यहूदी जो फ़िलिस्तीन का बाशिंदा था क्योंकि असनाए बयान में मुक़ामात का ऐसी सेहत से बयान किया है, कि अगर वो वहां का बाशिंदा ना होता तो ऐसा बयान ना कर सकता। आजकल फ़िलिस्तीन के जुग़राफ़िया के बारे में जो तहक़ीक़ात हो रही है इस से यूहन्ना के बयान की पूरी तस्दीक़ होती है (यूहन्ना 1:28) बैतअनिया जो यर्दन के परे है। (यूहन्ना 3:23) एनून शालीम के नज़्दीक है। (यूहन्ना 4:4 ता 6) याक़ूब का कुँआं जो सामरिया के शहर अस्कर के नज़्दीक था। (यूहन्ना 4:46 ता 51) काना और कफ़र्नहूम के दर्मियान फ़ासिला। (यूहन्ना 5:2) बैत हसदा। (यूहन्ना 6:1) गलील का दरिया जो दरिया-ए-तिबरियास भी कहलाता है। (यूहन्ना 11:18) बैतअनिया यरूशलेम के नज़्दीक तख़मीनन दो मील के फ़ासिले पर। (यूहन्ना 18:1) कदरोन के परे बाग़ीचा। (यूहन्ना 19:13) चबूतरा (यूहन्ना 9:7) सलवाम (शीलोख़) का हौज़ जिसका तर्जुमा भेजा हुआ है।

अब यहां तक साबित हो गया कि मुसन्निफ़ फ़िलिस्तीन का यहूदी था। और इस से भी इस की ताईद होती है कि जब पुराने अहदनामे से कुछ इक़्तिबास करता है तो वो इब्रानी किताब से तर्जुमा करता है। ना कि सतरों के यूनानी तर्जुमे से लेता है। देखो 6:45 13:18, 19:37

(3) मुसन्निफ़ मौक़े का गवाह था। (अ) वो ऐसा दाअवा करता है। 1:14 19:35, 21:14 (ब) इस दाअवे की ताईद इस से होती है कि बारहा इत्तिफ़ाक़ी तौर से बहुत तफ़्सील और बारीक बातों का ज़िक्र करता है। (यूहन्ना 1:47, 2:6, 4:2 ता 6, 4:27, 11:33 ता 3:5 ता 13:4, 25)

(4) ये मौक़े का गवाह ग़ालिबन ख़ुद यूहन्ना होगा। मसलन यूहन्ना 21:2 में सात शागिर्दों का ज़िक्र है जिनमें ज़बदी के बेटे थे। और जिस वाक़िये का बयान वहां है वो ज़रूर मौक़े के गवाह की क़लम से निकला। 21:24 में यूहन्ना की तरफ़ साफ़ इशारा है। और सारी किताब में इस का नाम कभी नहीं दिया गया। बल्कि वो ऐसा शागिर्द कहलाता है जिसे येसू प्यार करता था। 1:48, 13:23, 19:35, 20:2, 21:7, 20:24 अल-ग़र्ज़ मज़्कूर बाला और दीगर आयात से साफ़ ज़ाहिर है कि मुसन्निफ़ ज़रूर मौक़े का गवाह था। बारह रसूलों में से तीन ख़ास शागिर्दों में से। (तीन ख़ास शागिर्द पतरस, याक़ूब और यूहन्ना थे) अब ग़ौर कीजीए कि इस इन्जील का मुसन्निफ़ पतरस नहीं हो सकता। क्योंकि इस इन्जील का तर्ज़-ए-कलाम पतरस के ख़ुतूत से मुतफ़र्रिक़ (अलग) है। और ख़ुद पतरस का ऐसा बयान है जो पतरस के क़लम से ना निकला होगा। इलावा अज़ीं पतरस ग़ालिबन इस इन्जील के लिखे जाने से बहुत साल पहले शहीद हुआ। इसी सबब से याक़ूब भी नहीं हो सकता। क्योंकि वो पतरस से भी कई साल पहले शहीद हुआ (आमाल 12:2)

शायद ये अंदरूनी शहादत अकेली क़तई शहादत का ज़ोर नहीं रखती। लेकिन मज़्बूत बैरूनी शहादत (बाहर की गवाही) के साथ मिलकर पुख़्ता दलील बन जाती है।

चंद एतराज़ात

आख़िर में चंद एतराज़ात का ज़िक्र करना भी मुनासिब है, जो इस इन्जील के मुसन्निफ़ के बारे में किए गए हैं। यानी (1) इस इन्जील में बाअज़ ऐसे मुक़ामात और अश्ख़ास का ज़िक्र आया है, जिनकी तरफ़ पहली तीन अनाजील में इशारा तक नहीं। मसलन लाज़र का मुर्दों में से जिलाना जो यूहन्ना 11 बाब में मज़्कूर है। क्यों इस का ज़िक्र बाक़ी अनाजील में नहीं? बादियुन्नज़र (पहली नज़र) में ये अजीब मालूम होता है। मगर याद रहे कि पहली तीन अनाजील में मुर्दों में से जिलाने का कई बार ज़िक्र आया है। (मती 9:25, 10:8, लूक़ा 7:15)

इलावा अज़ीं चूँकि यूहन्ना ने अपनी इन्जील दीगर अनाजील से बहुत देर बाद लिखी। और उनसे वो वाक़िफ़ था। क़सदन ऐसे वाक़ियात का ज़िक्र है जो उनमें पाए नहीं जाते। उसने ख़ुद ये बताया कि येसू ने इलावा इनके और बहुत काम किए। और ये भी ज़ाहिर है कि उसने ख़ासकर उन कामों का ज़िक्र किया जो यहूदिया के मुल्क में हुए। हालाँकि दूसरे इन्जील नवीसों ने ख़ुसूसुन गलील के कामों का बयान किया।

इस इन्जील के 20:31 में यूहन्ना ने अपना मक़्सद पेश किया, “ये इसलिए लिखे गए कि तुम ईमान लाओ कि येसू मसीह है, इब्ने-अल्लाह। और ईमान ला कर उस के नाम से ज़िंदगी पाओ।” और इसलिए यूहन्ना ऐसे वाक़ियात और मोअजज़ात चुनता है। जिनसे वो येसू मौऊद मसीह साबित हो। और जिनसे ईमानदारों को तर्ग़ीब मिले, कि रुहानी ज़िंदगी के लिए उस को पकड़े रहें। चुनान्चे अगर इस इन्जील के सिलसिले पर ग़ौर किया जाये तो हम ये मालूम करेंगे। कि उस ने यूहन्ना बप्टिस्ट आख़िरी नबी से शुरू किया। जिसकी शहादत (गवाही) से चंद शख्सों के दिलों में ख़याल पैदा हुआ कि शायद ये येसू नासरी ही मसीह मौऊद है। (यूहन्ना 1:29 से 51) बाक़ी इन्जील में दिखाया गया कि किस तरह बतद्रीज उनके और बाक़ी शागिर्दों के दिलों में ये ख़याल बढ़ते-बढ़ते कामिल यक़ीन तक पहुंच गया। इस तरक़्क़ी के दर्जों का हम सुराग़ लगा सकते हैं। मसलन एक ख़ास मोअजिज़े के बाद जो तासीर उस के दिल पर हुई उस को इन अल्फ़ाज़ में ज़ाहिर करता है, “ये पहला मोअजिज़ा येसू ने दिखा कर अपना जलाल ज़ाहिर किया। और उस के शागिर्द उस पर ईमान लाए।” (2:11) लेकिन ये ईमान अभी कमज़ोर था। क्योंकि छटे बाब में लिखा है कि एक ख़ास मोअजिज़े और तक़रीर के बाद बाअज़ शागिर्दों ने उस की आला तालीम पर ठोकर खाई, कि “ये कलाम सख़्त है इसे कौन सुन सकता है। और बहुतेरे फिर गए। और इस के बाद मसीह के साथ ना रहे फिर येसू ने उन बारह से कहा। क्या तुम भी चले जाना चाहते हो। शमऊन पतरस ने उसे जवाब दिया ऐ ख़ुदावंद हम किस के पास जाएं। हमेशा की ज़िंदगी की बातें तो तेरे ही पास हैं। और हम ईमान लाए। और जान गए हैं कि ख़ुदा का क़ुद्दूस तू ही है।” (6:60 से 71) इस तरह यूहन्ना के चौधवें बाब में जब मसीह ने फ़रमाया कि “जहां मैं जाता हूँ तुम जानते हो और रास्ते को भी जानते हो तो तोमा ने कहा ऐ ख़ुदावंद हम नहीं जानते हैं, कि तू कहाँ जाता है, फिर राह किस तरह जानें। येसू ने उस से कहा कि राह और हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ कोई मेरे वसीले के बग़ैर बाप के पास नहीं आता। जिसने मुझे देखा है उसने बाप को देखा है।” (14:4 से 7)

फिर 20:14 से 29 में यूहन्ना ने बयान किया कि किस तरह से ये ही तोमा इस शक से गुज़रकर इस पुख़्ता यक़ीन तक पहुंचा, कि वो मसीह को ज़िंदा देखकर उस से यूं मुख़ातिब हुआ कि “ऐ मेरे उस्ताद और ऐ मेरे ख़ुदा।” लेकिन यहां अजीब तौर पर पतरस रसूल का ये मशहूर क़ौल सादिक़ आता है, कि “जो पत्थर ईमानदारों के लिए ठोकर खाने की चट्टान हुआ।” (2 पतरस 2:7) चुनान्चे जिस तालीम और जिन कामों से शागिर्दों का ईमान यक़ीन के दर्जे तक पहुंचा। उन ही ज़रिये बाअज़ दूसरों की मुख़ालिफ़त दुश्मनी के दर्जे तक पहुंची। मसलन 2:23 से 25 में लिखा है कि मसीह के पहले मोअजिज़ों को देखकर बहुत लोग ताज्जुब के मारे ईमान लाने लगे। लेकिन मसीह ने इस की चंदाँ (ज़रा) परवाह ना की क्योंकि वो उनके दिल की हालत से वाक़िफ़ था।

फिर पांचवें बाब में एक अजीब मोअजिज़े के बाद जो सबत के दिन के हुआ। बाअज़ ने ख़ासकर सरदारोँ ने सबत के तोड़ने के बहाने से उस की सख़्त मुख़ालिफ़त की (5:5, 16 से 18) और सबत के मुताल्लिक़ ये मुख़ालिफ़त बराबर जारी रही। (7:21 से 24, 9:14, 16) ये अदावत (दुश्मनी) और ज़िद उनके दिलों में ऐसी तरक़्क़ी कर गई कि लाज़र को क़ब्र से ज़िंदा निकलते देखकर भी मसीह की जान लेने के दर पै हो गई (यूहन्ना 11:43 से 53) और रफ़्ता-रफ़्ता यहां तक नौबत पहुंची कि ग़ैर क़ौम हाकिम के सामने वो ये चिल्लाते रहे कि “इस को नहीं बरब्बा को जो डाकू था।”

पस अगर इस इन्जील में यूहन्ना के ख़ास मक़्सद को मद्दे-नज़र रखें तो ताज्जुब ना होगा कि मसीह की तालीम और कामों का ज़िक्र करने में वो बाक़ी तीन अनाजील से कुछ मुतफ़र्रिक़ (अलग) है।

(2) बाअज़ों ने ये एतराज़ किया कि इस इन्जील का मुसन्निफ़ चंद ख़ास तालीमों को पेश करना चाहता था। इस में मसीह को अपने तसव्वुरात का लिबास पहनाया। यहां तक तो दुरुस्त है कि यूहन्ना और हर एक मुसन्निफ़ अपने अपने ख़वास के मुताबिक़ ऐसी तस्वीर खींचता है जो मसीह का मुशाहिदा करने से उस के दिल पर नक़्श हो गई थी। लेकिन ये तस्वीर ख़याली नहीं जो किसी ना किसी क़द्र पहली तीन अनाजील में मज़्कूर ना हो। इस से वो दूसरा एतराज़ भी रद्द हो जाता है, कि मसीह की तस्वीर जो यूहन्ना की इन्जील में है वो पहली तीनों अनाजील की तस्वीर से मुतफ़र्रिक़ है।

ये एतराज़ भी किसी ने किया है कि इस इन्जील की तक़रीरों का कई जगह पता नहीं लगता कि कहाँ मसीह के अल्फ़ाज़ ख़त्म हुए। और कहाँ से यूहन्ना के तशरीही जुम्ले शुरू होते हैं। मसलन 3:13 से 21

मज़्कूर बाला मुक़ाम में ये दिक़्क़त (मुश्किल) ज़रूर पेश आती है लेकिन तालीम में कुछ फ़र्क़ नहीं और सिवाए एक और मुक़ाम के (यानी इस तीसरे बाब के आख़िरी हिस्से में यूहन्ना के अल्फ़ाज़ का ख़ातिमा करना मुश्किल है) फ़िल-हक़ीक़त और कहीं ये मुश्किल है नहीं।

(3) बाअज़ कहते हैं कि ये इन्जील ख़ुद यूहन्ना की तस्नीफ़ नहीं बल्कि उस की मौत के बाद उस के शागिर्दों में से किसी ने तस्नीफ़ की। लेकिन बैरूनी और अंदरूनी शहादत (गवाही) जिसका ज़िक्र ऊपर हो चुका है ऐसी राय के ख़िलाफ़ है। और अगर कोई ये कहे कि कुछ हिस्सा यूहन्ना का और कुछ किसी दूसरे का है तो इक्कीसवें बाब को छोड़कर बाक़ी बीस अबवाब का तर्ज़ तहरीर ज़ाहिर कर देता है कि वो एक ही शख़्स की क़लम से निकले।

(4) एक और एतराज़ भी किया जाता था जो आजकल तक़रीबन जाता रहा है यानी ये कि मुसन्निफ़ का मक़्सद ये था कि नास्तिक लोगों की तालीम को रद्द करे। और वो तालीम दूसरी सदी की थी।

और ये एतराज़ दूसरी सूरत में यूं पेश किया गया कि ये इन्जील चंद नास्तिक बिद्अतियों की तस्नीफ़ है क्योंकि इस में इस की ख़ास चंद इस्लाहें पाई जाती हैं। मसलन मामूरी, लोगास वग़ैरह। मगर ये इस्तेलाहें इन नास्तिक लोगों से बहुत पहले बल्कि पहली सदी के शुरू में फ़ायलो वग़ैरह आलिमों ने इस्तिमाल की हैं। लेकिन यूहन्ना ने इन इस्तलाहों को नास्तिकी माअनों में इस्तिमाल नहीं किया।

तक़्सीम मज़ामीन

कई तरह से तक़्सीम कर सकते हैं। आम तक़्सीम ये है :-

अव़्वल : अलिफ़ : 1 से 18 तक

दीबाचा : इस के तीन हिस्से हैं।

(1) 1:1 से 5 तक कलाम की असली ज़ात

(2) 1:6 से 13 तक कलाम का आदमियों पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) होना और आदमियों का उस को करना। अलिफ

(3) 1:14 से 18 तक बाप का मुकाशफ़ा

दोम : 1:19, 16:5 तक कलाम का येसू की ज़िंदगी और कामों के ज़रिये जहान पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) होना।

(अ) 1:19 से 2:12 तक शहादत

(1) 1:19 से 37 तक यूहन्ना बप्टिस्ट की शहादत

(2) 1:38 से 51 तक शागिर्दों की शहादत

(3) 2:1 से 12 तक पहले मोअजिज़े की शहादत

(ब) 2:13, 11:57 तक मसीह के काम

(1) 2:13 से 3:36 तक यहूदियों के दर्मियान

(2) 4:1 से 42 तक सामरियों के दर्मियान

(3) 4:43 से 54 तक ग़लतियों के दर्मियान

(4) 5 बाब से 11 बाब के आख़िर तक मिली जुली भीड़ के दर्मियान

(ज) 12 बाब के आखिर तक फ़तवा

(1) 12:1 से 36 आदमियों का

(2) 12:37 से 43 तक इन्जील नवीस का

(3) 12:43 से 50 तक मसीह का

यहां मसीह के आम काम का ख़ातिमा है

सोम : 13 बाब से 20 बाब तक मसीह के काम के नताइज

(अ) 13 बाब से 17 बाब तक मसीह का जलाल उस की आख़िरी तक़रीरों में

(1) 13:1 से 30 तक ख़ाकसारी में उस की मुहब्बत ज़ाहिर होती है।

(2) 13:31, 5:27 तक अपनों की हिफ़ाज़त में उस की मुहब्बत ज़ाहिर होती है।

(3) 16 बाब तक मसीह का वाअदा रूह-उल-क़ुद्स के और अपने वापिस आने के बारे में।

(4) 17 बाब तक सिफ़ारिश की दुआ

(ब) 18, 19 बाब दुख सहने में मसीह का जलाल

(1) से 11 मसीह का पकड़वाया जाना

(2) 18:2 से 19:16 तक यहूदी सदर मज्लिस और रोमी अदालत

(3) 19:17 से 46 तक सलीब और दफ़न

(ज) 20 बाब जी उठना

(1) 20:1 से 10 मर्यम मग्दलीनी पर ज़ाहिर होना

(2) 20:9 ता 23 दस शागिर्दों पर

(3) 20:4 ता 29 तोमा पर जब दस शागिर्द हाज़िर थे।

(4) 20:30 ता 31 ख़ातिमा और इन्जील का मक़्सद

चहारुम : 21 बाब ततिम्मा

अबवाब तक़्सीम कर सकते हैं

(1) 1:1 से 18 तक दीबाचा

(2) 1:19 से 51 तक यूहन्ना बप्टिस्ट की शहादत और मसीह के पहले शागिर्द

(3) 2, 3 बाब पहले मोअजिज़े और निकोदीमस से गुफ़्तगु

(4) 4 बाब सामरिया में तालीम

(5) 5 बाब यरूशलेम में सबत के दिन बैत हसदा के हौज़ पर मोअजिज़ा और इसके बारे में मुबाहिसा

(6) 6 बाब पाँच हज़ार को खिलाना, और ज़िंदगी की रोटी के बारे में तक़रीर

(7) 7, 8 बाब ईद ख़ेमा के वक़्त मुबाहिसे का सरसब्ज़ होना

(8) और 10 बाब अंधे को बीनाई देना और इस की निस्बत मुबाहिसा

(9) 11, 12 बाब लाज़र को जिलाना, और यरूशलेम में दाख़िल होना

यहां ईमान और बे एतिक़ादी अपने अपने कमाल तक पहुँचती हैं

(10) 13 से 17 बाब तक आख़िरी ज़ियाफ़त, आख़िरी तक़्दीर, और सिफ़ारिश

(11) 18, 19 बाब पकड़वाया जाना, जवाबदेही, मौत और दफ़न होना

(12) 20 बाब जी उठने के बाद मसीह का ज़ाहिर होना

(13) 21 बाब ततिम्मा, एक और ज़हूर

आमाल की किताब

11 रसूलों की आमाल की किताब नए अहदनामे की तवारीख़ी किताबों में से पांचवी किताब और आख़िरी किताब है। और इंजीलों को ख़तों से मिलाती है। ये इंजीलों का मुफ़ीद ततिम्मा और ख़तों का मुनासिब दीबाचा है। इसी बाइस से ये किताब उमूमन अनाजील के बाद आती है। गो बाअज़ क़दीम नुस्ख़ों और तजुर्बों में अक्सर पौलुस के ख़तों के बाद पाई जाती है। कैंब्रिज के नुस्ख़े में इस का ये नाम है “रसूलों के आमाल, सिकंदरी नुस्ख़े में और दीगर बाअज़ नुस्ख़ों में “मुक़द्दस रसूलों के आमाल”

इस किताब को “रूह-उल-क़ुद्स के आमाल किताब” कहना भी मुनासिब होता। क्योंकि शुरू से आख़िर तक उसी की हिदायत से सब कुछ होता है। मसलन 2:15, 8, 16, 2:4, 38, 5:4, 33, 6:3, 7:51, 8:9, 9:17, 10:44, 11:15, 12, 16, 13:4, 52, 16:7, 18:25

मुसन्निफ़ आमाल

(2) मुसन्निफ़ : लूक़ा की इन्जील के दीबाचे के वक़्त इस का मुफ़स्सिल ज़िक्र हुआ। यहां इतना कहना काफ़ी है कि क़दीम ज़माने से इस का और इन्जील का मुसन्निफ़ लूक़ा माना गया है। क्योंकि ये दोनों किताबें एक ही शख़्स यानी थियुफिलुस के लिए लिखी गई। और आमाल की किताब के शुरू में इन्जील के बारे में कहता है कि मैंने पहला रिसाला तस्नीफ़ किया। और ज़ेल की आयात से ज़ाहिर है कि मुसन्निफ़ पौलुस का हम-सफ़र था। 16:1 से 17, 20:5 से 15, 21:1 से 18, 27:1 से 28:16

वक़्त तहरीर

चूँकि इस किताब में पौलुस की असीरी (क़ैद) के दूसरे साल के आख़िर तक का बयान है। तो ये 62 ई॰ से पेश्तर ना लिखी गई होगी। और चूँकि उस रसूल की वफ़ात का इस में ज़िक्र नहीं इस से गुमान गुज़रता है कि ग़ालिबन ये किताब इस वाक़िये यानी 65 ई॰ या 67 ई॰ से पेश्तर लिखी गई है।

सनद : इस किताब की सेहत और सनद के बारे में क़दीम मसीही बुज़ुर्ग बराबर गवाही देते रहते हैं। मसलन आर्येनियुस और तर तलियान औरीजन।

क्लीमेंट : सिकंदरी, जेरोम, मारशियां बिद्अती ने इसे लूक़ा से मन्सूब किया है। खरिस्टम और बाअज़ दीगर बुज़ुर्गों की तस्नीफ़ात से मालूम होता है। कि ईस्टर और पीन्तिकोस्ट के दर्मियानी अर्से में हर साल ये किताब गिरजाओं में पढ़ी जाती है।

बाअज़ नास्तिक फ़िर्क़ों ने इस किताब को रद्द किया। वो मानते थे कि आम कलीसिया ने इस किताब को माना। लेकिन चूँकि इस किताब की तालीम उनकी रायों के ख़िलाफ़ थी इसलिए उन्होंने रद्द किया।

मक़्सद

इस किताब के बड़े हिस्से में पतरस और पौलुस और मसीही कलीसिया की तवारीख़ क़लमबंद होती है। हमारे नजातदिहंदा के सऊद से शुरू करके पौलुस के रोम तक पहुंचने तक तक़रीबन तीस साल के अर्से का बयान है 33 ई॰ से 63 ई॰ तक

लूक़ा का ये मंशा (मक़्सद) मालूम नहीं होता कि इस तीस साल के अर्से की कामिल तवारीख़ लिखे वर्ना वो सब रसूलों के कामों का और हर जगह कलीसिया क़ायम होने का बयान करता। बल्कि उसने सिर्फ पतरस और पौलुस के कामों का बहुत ज़िक्र किया है।

ग़ौर के साथ पढ़ने से ये मालूम होता है कि लूक़ा ने दो उमूर को मद्दे-नज़र रखा :-

(1) रूह-उल-क़ुद्स की नेअमत पीन्तिकोस्त के दिन नाज़िल हुई। और जो मोअजिज़े रसूलों ने किए। इस अम्र का साफ़ बयान करना ज़रूरी था क्योंकि मसीह ने बार-बार अपने शागिर्दों को यक़ीन दिलाया था कि वो रूह-उल-क़ुद्स पाएँगे।

(2) ऐसे बयानात को क़लमबंद करना जिनसे मसीह की कलीसिया में ग़ैर-अक़्वाम के शामिल होने का दावा साबित हो। क्योंकि यहूदी ख़ासकर उस ज़माने में इस दाअवे पर एतराज़ करते थे (1 थिस्सलुनीकियों 2:14 से 16) इसी वजह से यहूदी लोग पौलुस के सख़्त दुश्मन हो गए और उसे रोम में क़ैद करवाया। इसी वजह से सामरियों के रुजू लाने (8 बाब) और ना मख़्तून, कुर्नेलियुस, पतरस के हाथ से बपतिस्मा पाना (10 और 11 बाब) मज़्कूर है। इसी वजह से मूसवी शरीअत के मुताल्लिक़ यरूशलेम की पहली मज्लिस ने फ़ैसला किया (14 बाब) और इसी वजह से पौलुस के बपतिस्मे और ग़ैर-क़ौमों के दर्मियान उस की मुनादी करने का बयान ज़्यादा मुफ़स्सिल है।

ये ज़ाहिर है कि लूक़ा ने सिर्फ इन वाक़ियात को क़लमबंद करना चाहा जिनको उसने ख़ुद देखा था। जिनको उसने आदमियों से सुना था। जिन्हों ने वह वाक़ियात देखे थे।

तर्तीब : इस का पता आमाल 1:8 से लगता है यहां ये लिखा है कि “जब रूह-उल-क़ुद्स तुम पर नाज़िल होगा तो तुम क़ुव्वत पाओगे और यरूशलेम और तमाम यहूदिया और सामरिया में बल्कि ज़मीन की इंतिहा तक मेरे गवाह होगे।” चुनान्चे 1 से 8 बाब 4 आयत तक यरूशलेम और यहूदिया में काम करने का ज़िक्र है। और 8:5 से 12 बाब के आख़िर तक सामरिया में ऐसे ग़ैर क़ौमों में जो यहूदी दीन के मुरीद थे। मसलन मिस्री ख़ोजा 8:27 से 39, कुर्नेलियुस 10 बाब, यूनानी 11:20 और 13:1 से 28 बाब यानी किताब के आख़िर में पौलुस के काम के ज़िक्र जो दूर ममालिक के ग़ैर अक़्वाम में था। चुनान्चे पौलुस यूं कहता है कि “मैं यरूशलेम से लेकर चारों तरफ़ मसीह की ख़ुशख़बरी की पूरी-पूरी मुनादी करता हुआ इल्लुरिकुम तक पहुंच गया।” (रोमियों 15:19) (ये इल्लुरिकुम रोमी सल्तनत की सरहद पर था) ये क़ाबिले लिहाज़ है कि इस किताब का आग़ाज़ यहूदिया के दार-उल-ख़िलाफ़ा यरूशलेम से हुआ और ख़ातिमा ग़ैर क़ौमों के दार-उल-ख़िलाफ़ा रोम पर हुआ।

इस किताब में मसीही दीन के वाइज़ों के बोलने का तरीक़ा मज़्कूर है कि किस तरह से वो यहूदियों से और किस तरह से वो और क़ौमों से मुख़ातिब हुए मसलन 7, 13 बाब में स्तिफ़नुस और पौलुस यहूदियों से मुख़ातिब हो कर अस्बाब मौजूदात से ख़ुदा की शहादत (गवाही) पेश करता है और जब आतीनी शहर में शाइस्ता तालीम-याफ़्ता लोगों से मुख़ातिब हुआ तो उसने फ़ल्सफ़ी दलाईल को पेश किया।

तवारीख़ी सेहत

इस किताब में चंद ऐसे वाक़ियात और अश्ख़ास का ज़िक्र है। जिनकी हक़ीक़त रोमी और दीगर तवारीख़ से मालूम हो सकती है मसलन फेलिक्स हाकिम। पौलुस यरूशलेम में आया जहां यहूदियों ने उसे क़ैद कराया। ये उन हंगामों के बहुत पीछे ना हुआ जो मिस्रियों ने बरपा किए। (21:37 से 39) ये क़ैद फेलिक्स के यहूदिया छोड़ने से दो साल बाद फ़ीसतस यहूदिया का हाकिम मुक़र्रर हुआ। (23:26 24:27) पौलुस इसी साल मौसम-ए-सरमा में जब फ़ीसतस यहूदिया में पहुंचा क़ैद हो कर रोम को गया राह में उस का जहाज़ टूट गया। सर्दी मालटा में काटी और अगले साल रोम में पहुंचा। (26:27 ता 28)

हेरोदेस अगरप्पा अव़्वल का ज़िक्र बारहवें बाब में आता। इस का ज़िक्र यूसिफ़स की तवारीख़ में आता है। ये बादशाह याक़ूब रसूल के क़त्ल से थोड़ी देर बाद मर गया इस की होलनाक मौत का ज़िक्र यूसीफ़स ने मुफ़स्सिल किया है और इस बयान से मिलता है।

11:28 में इस का ज़िक्र है जो किलोदेस क़ैसर के वक़्त में हुआ। इस के मुताबिक़ चार मुअर्रिख़ बयान करते हैं। कि इस क़ैसर के अहद में सख़्त काल पड़े।

पौलुस के ख़ुतूत

नए अहदनामे में आमाल की किताब के बाद पौलुस रसूल के ख़त आते हैं। और ये मुनासिब तर्तीब है। क्योंकि आमाल की किताब का एक बड़ा हिस्सा पौलुस की सरगुज़िश्त पर मुश्तमिल है। पस इस का कुछ मुख़्तसर अहवाल लिखना मुफ़ीद होगा।

पौलुस का इब्रानी नाम साऊल या सोलूस था। इब्रानियों का इब्रानी इब्राहिम की औलाद और बिनियामीन के फ़िर्क़े से था। (फिलिप्पियों 3:5, 2 कुरिन्थियों 11:22) तरसूस वाक़ेअ किल्तिया का बाशिंदा था पैदाईश ही से रोमी होने का हक़ रखता था। (आमाल 22:25 से 28, 23:27, 16:37 से 38) ये ऐसी इज़्ज़त और ऐसा हक़ था जो उस के बाप दादों में से किसी को मुल्की ख़िदमत के एवज़ इनायत हुआ था। इस का बाप फ़रीसी था। और ख़ुद पौलुस इस फ़िर्क़े की तालीम का सख़्त पाबंद रहा। (आमाल 22:3, 23:6, 26:5, ग़लतियों 1:14 फिलिप्पियों 3:5 ता 6) इस के बाअज़ रिश्तेदार उस के रुजू लाने से पेश्तर मसीही हुए। (रोमियों 16:7, 11, 21, आमाल 23:16) चूँकि तरसूस शाइस्ता ज़बानों के लिए मशहूर था। इसलिए पौलुस ने यूनानी ज़बान की तालीम वहां पाई। ये शहर बंदरगाह होने के बाइस तिजारत का बड़ा मर्कज़ हो गया था। और मौक़े की जगह होने के बाइस मुल्की हाकिम अक्सर आकर यहां रहते। इलावा अज़ीं इल्म ने भी बहुत फ़रोग़ (तरक़्क़ी) हासिल किया था। यहां तक कि आतीनी और सिकंदरिया के दार-उल-उलूम से ये जगह ज़्यादा मशहूर हो गई। पौलुस का यूनानी सीखना इस से भी ज़ाहिर है कि उसने कई यूनानी शाइरों से इक़्तिबास किया है। (आमाल 17:28, 1 कुरिन्थियों 15:33 तीतुस 1:12) पौलुस तरसूस से यरूशलेम को गया और वहां मशहूर मालुम ग़मलीएल से यहूदी हदीसों की तालीम पाई। (आमाल 22:3, 26:4 ता 5, ग़लतियों 1:14) वो साहिबे लियाक़त, तेज़ फ़हम, मज़्बूत तबीयत और मुस्तक़िल मिज़ाज आदमी मालूम होता है। उस का चाल चलन शरीअत के लिहाज़ से बेऐब था और जहां तक उसे इल्म था वो अपने नूर क़ल्ब (दिल) के मुताबिक़ चलता। जो फ़र्याद उसने यहूदियों से की। और जो मुक़ाबला उसने अपनी मौजूदा और गुज़श्ता हालत का किया उस से ये ज़ाहिर है। (आमाल 23:11, 24:16, 26:9 ता 10, फिलिप्पियों 3:6, 1 तीमुथियुस 1:13 2 तीमुथियुस 1:3) उस के वालदैन ने ख़ेमा दोज़ी का फ़न सीखा कर उस की तालीम को मुकम्मल किया। (आमाल 18:3, 20:34, 1 थिस्सलुनीकियों 2:9) कुछ अर्से तक ये शख़्स मसीही दीन का सख़्त मुख़ालिफ़ रहा और जब पहले शहीद स्तिफ़नुस पर पथराओ किया गया तो पौलुस ना सिर्फ उस के क़त्ल पर राज़ी था। बल्कि जिन्हों ने उसे पथराओ किया उनके कपड़ों की हिफ़ाज़त करता था। इस वाक़िये के बाद पौलुस ने मसीहियों को ना सिर्फ यरूशलेम में बल्कि कुल यहूदिया में सताना शुरू किया। (आमाल 8:1 ता 3, 9:1, वग़ैरह 22:4 26:9 से 11, ग़लतियों 1:13, 1 तिमुथियुस 1:13)

इस ही शौक़ में उसने यहूदी सरदारोँ से सिफ़ारशी ख़त दमिश्क़ के इबादत ख़ानों के वास्ते लिए ताकि यहां कहीं किसी यहूदी मर्द या औरत को मसीही दीन में शामिल हुआ पाए तो उसे यरूशलेम में पकड़ लाए। जब पौलुस इस मक़्सद के लिए दमिश्क़ को जा रहा था तो उस के रुजू लाने का वाक़िया वक़ूअ में आया। जो आमाल की किताब के नौवीं बाब में मज़्कूर है। जिसकी तरफ़ पौलुस ने ख़ुद कई बार इशारा किया। (1 कुरिन्थियों 15:9, ग़लतियों 1:13, 1 तीमुथियुस 1:12 ता 13) उस के बारे में हम तीन बातों का ख़ास लिहाज़ रखें :-

अव़्वल : वो एक नेक और रास्त शख़्स था। उस के रुजू लाने का कोई काफ़ी सबब ज़रूर हुआ होगा।

दोम : जिस वक़्त से उसने येसू नासरी को मसीह माना तो वो आख़िर तक इस तालीम पर क़ायम रहा। और हमेशा मसीह को इलाही नजातदिहंदा क़रार दिया। और अपने तेईं नजात का मुहताज समझा। यानी मसीह को अपने से अज़-हद आला समझता था।

सोम : उस के ख़तों से अनाजील और आमाल की किताब की बड़ी ताईद होती है। उस में सारी उसूली बातें पाई जाती हैं। मसलन मसीह की मौत और क़ियामत वग़ैरह। इन ख़तों में से दो में उस की सवानिह उम्री का ख़ास बयान पाया जाता है। (2 कुरिन्थियों 11 बाब, ग़लतियों 1 और 2 बाब) मसलन उस का अरब को जाना, उस को ख़ास मकाशफ़े मिलना, दमिश्क़ में वापिस आना, यरूशलम को दो दफ़ाअ जाना, और केसरिया और तरसूस को जाना। तरसूस से बर्नबास के बुलाने पर अन्ताकिया को गया। और वहां कलीसिया में मुद्दत तक तालीम देता रहा। और उस कलीसिया ने रूह-उल-क़ुद्स की हिदायत से (आमाल 13:1 से 4) पौलुस और बर्नबास को ग़ैर क़ौमों में मुनादी करने के लिए भेजा। और आमाल 13 से 21 बाब तक उस के ऐसे तीन बड़े सफ़रों का ज़िक्र है। इस का मुख़्तसर बयान ये है :-

तीन बड़े सफ़रों का ज़िक्र है।

पहला मिशनरी सफ़र : कप्रस, पमफिलिया, पुसदिया का अन्ताकिया, अकनीम, लुस्तरा और दिर्बे (ये दोनों शहर किलकिया के इलाक़े में थे) इसी रास्ते से अन्ताकिया को वापिस गया।

इस मौक़े पर खतना के बारे में मुबाहिसा बरपा हुआ। जिसके लिए पौलुस और बर्नबास यरूशलेम को गए और अन्ताकिया को वापिस आकर दूसरे सफ़र का क़सद (इरादा) किया लेकिन इस सफ़र में बर्नबास उस के हमराह नहीं गया बल्कि सीलास।

दूसरा सफ़र : सीरिया, किलकिया, गलतिया के दिर्बे और लुस्तरा, फ़िरोगिया, एशयाए कोचक, त्राउस, यूरोप में फिलिप्पी, थिस्लिनिके, आतीनी, कुरिन्थस और वापसी के वक़्त इफ़िसुस और केसरिया और अन्ताकिया। इस सफ़र पर कुरिन्थस में उसने थिस्सलुनिके की कलीसिया को दो ख़त लिखे। तक़रीबन 53 ई॰ में।

तीसरा सफ़र : गलतिया और फिरोगिया, इफ़िसुस, कुरिन्थस, फिलिप्पी वग़ैरह मक़िदूनिया में, दुबारा कुरिन्थस को, तरवास को, लमीतस, सूर, केसरिया, यरूशलेम।

इस सफ़र में उसने कुरिन्थियों को दो ख़त लिखे। ग़लतियों को और रोमियों को। तक़रीबन 58 ई॰ में। इस सफ़र में एक दो जगह पर उस को आगाही मिली कि यरूशलेम में उस को तक्लीफ़ पहुँचेगी। चुनान्चे अगबस ने बमुक़ाम केसरिया इसी क़िस्म की ख़बर दी। लेकिन पौलुस ने यरूशलेम को जाना अपना फ़र्ज़ समझा। यरूशलेम में मसीही भाईयों ने उसे अच्छी तरह क़ुबूल किया। लेकिन एक दिन हैकल में इबादत करते हुए वो चंद यहूदियों के ज़रिये पकड़ा गया। जो ये कहते थे कि उसने ग़ैर क़ौमों को अंदर ला कर हैकल को नापाक किया है। रोमी सिपाहियों ने इस को यहूदी भीड़ से छुड़ाया। और चंद हाकिमों ने उस के मुक़द्दमे की तहक़ीक़ात की। और पौलुस को उनके सामने मसीह की गवाही देने का अच्छा मौक़ा मिला। (लूक़ा 21:12 ता 13।) जब इन हाकिमों ने रिश्वत की उम्मीद और यहूदियों को ख़ुश करने की ग़र्ज़ से उस का इन्साफ़ ना किया। तो पौलुस ने दिक़ हो कर क़ैसर की दुहाई दी। और रोमी होने की हैसियत से ये उस का हक़ भी था। इस लिए चंद सिपाहियों के हमराह रोम की तरफ़ रवाना किया। लूक़ा इस सफ़र में उस का रफ़ीक़ (साथी) था। और उसने आमाल की किताब में इस का मुफ़स्सिल बयान किया है। और 61 ई॰ में या इस से कुछ पेश्तर रोम में पहुंचा। और कम अज़ कम दो साल तक वहां रहा। इस अर्से में उसने चार ख़त लिखे। यानी कुलुस्सियों और फ़िलेमोन और इफ़िसियों और फिलिप्पियों की तरफ़।

आमाल की आख़िरी आयात पौलुस को रोम में क़ैद में छोड़ती हैं। अगरचे उसे कुछ आज़ादी भी थी। (आमाल 28:16) और इन अल्फ़ाज़ पर यकलख़त ख़त्म हो जाती है। वो पूरे दो बरस अपने किराया के घर में रहा। और जो उस के पास आते थे उन सबसे मिलता रहा और कमाल दिलेरी से बग़ैर रोक-टोक के ख़ुदा की बादशाही की मुनादी करता और ख़ुदावंद येसू मसीह की बातें सिखाता रहा।

मज़्कूर बाला ख़तों के इलावा पौलुस ने तीन और ख़त लिखे जो चौपानी ख़त कहलाते हैं। और ये सवाल आता है कि उस की ज़िंदगी के किस हिस्से में ये ख़त लिखे गए। इस के बारे में बहुत क़ाबिल-ए-एतिबार रिवायत है, कि क़रीबन 63 ता 64 ई॰ में पौलुस ने रोम की क़ैद से रिहाई पाई। और मग़रिब की इंतिहा तक मुनादी करता गया (रोम के क्लीमेंट) और इफ़िसुस मक़िदूनिया और क्रियते को, क्रियते में तीतुस को और इफ़िसुस में तीमुथियुस को छोड़ा (1 तीमुथियुस 1:3, तीतुस 1:1 ता 5) फिर रोम को लौट गया। और वहां शहीद हुआ। 67 या 68 ई॰ में। तीमुथियुस को पहला ख़त और तीतुस की तरफ़ उस का ख़त उसने इस अर्से में लिखा होगा। और तीमुथियुस को दूसरा ख़त शहीद होने से पेश्तर रोम से लिखा। (1 तीमुथियुस 4, 6)

एक और रिवायत भी है जो ऐसी पुख़्ता नहीं कि रोम से बाहर उस का सर क़लम हुआ और किस्तनतीन आज़म ने उस की यादगार में गिरजा बनाया।

बाअज़ों का ख़याल है कि वो पस्तक़द (छोटा क़द) और बारीश (दाढ़ी वाला) था। बहर-हाल वो सरगर्म पुर जोश साहिबे सलीक़ा और साहिबे फ़न था।

पौलुस के ख़ुतूत

हम यहां इन ख़ुतूत का बयान तर्तीब वक़्त के मुताबिक़ करेंगे।

थिस्सलुनीकियों की तरफ़ के ख़त

तिस्लूनिकिया का क़दीम नाम थर्मी था यानी गर्म चश्मे। क्योंकि यहां मादनियात के गर्म चश्मे थे। 315 ई॰ क॰ म॰ में इस की वुसअत बहुत बढ़ गई। और इस का नाम सिकंदर की बहन तिस्लूनीकी के नाम पर रखा गया। उस वक़्त से लेकर इस को बहुत रौनक हुई। और रोमियों ने इस को मक़िदूनिया का दार-उल-ख़िलाफ़ा बनाया। कुछ अर्से बाद वो कुल मक़िदूनिया का दार-उल-ख़िलाफ़ा बन गया। ना सिर्फ दार-उल-ख़िलाफ़ा होने की वजह से बल्कि तिजारत की कस्रत से इस को तरक़्क़ी हुई। आजकल भी ये एक बड़ा शहर है और इस का नाम सलूनिक़ी है। और टरकी गर्वनमैंट के मातहत और यहूदियों की बड़ी जमाअत यहां रहती है। इस शहर में पौलुस सीलास के हमराह फिलिप्पी के क़ैदख़ाने से निकल कर आया। ये उस शामी सड़क की राह से गया होगा। जो रोमी सरकार ने बनाई थी। (आमाल 17:1 से 10) यहां पहुंच कर वो हस्बे-मामूल यहूदियों के इबादतखाने में गया और कई हफ़्तों तक अह्दे-अतीक़ से दलील लाकर उनको जताता था, कि येसू नासरी ही मसीह है। सामईन (सुनने वालों) से बाअज़ यहूदी ईमान लाए और यूनानियों में से बहुतेरे। यहां तक कि बाक़ी यहूदी हसद के मारे हंगामा बरपा करने लगे। और आख़िरकार रात के वक़्त पौलुस और सीलास वहां से रवाना हो गए। और बैरिया को चले गए। वहां के यहूदियों की पौलुस ज़्यादा तारीफ़ करता है और कहता है कि “वहां के लोग थिस्सलुनीकियों से शरीफ़ थे। क्योंकि उन्होंने बड़े शौक़ से कलाम को क़ुबूल किया। और रोज़ बरोज़ किताब-ए-मुक़द्दस में तहक़ीक़ करते थे। कि ये बातें इस तरह हैं या नहीं।” तो भी क़ाबिले लिहाज़ है कि माबाअ्द तवारीख़ में बैरिया के मसीहियों का बहुत कम ज़िक्र आता है। लेकिन थिस्सलुनीकियों के नाम पौलुस के ये दो ख़त मौजूद हैं। जिनसे हम इस कलीसिया का हाल बख़ूबी मालूम कर हैं।

इन दो ख़तों में ना यहूदी रीत रसूम और ना यहूदी नविश्तों का कुछ ज़िक्र है इस से हम ये नतीजा निकाल सकते हैं कि इस कलीसिया के शुरका उमूमन ग़ैर क़ौम से थे। और आमाल की किताब के सत्रहवें बाब की चौथी आयत इस राय की ताईद करती है क्योंकि वहां यूं आया है, कि बाअज़ यहूदियों ने मान लिया लेकिन यूनानियों में से बड़ी जमाअत ने जब पौलुस को वहां से भागना पड़ा तो उस को ये बड़ी फ़िक्र हुई कि तिस्लूनीकी नव-मुरीदों का हाल क्या होगा। इसलिए वो थोड़ी देर के बाद उनके पास जाना चाहता था। लेकिन अपनी जगह तीमुथियुस को भेजा। (1 थिस्सलुनीकियों 3:2) जब तीमुथियुस उनको देखकर पौलुस के पास गया तो उसने ये ख़बर दी। कि तिस्लूनीकी मसीही ईमान पर क़ायम हैं। इस से पौलुस को बड़ी ख़ुशी हुई। पर तीमुथियुस ने उनके चंद नुक़्सों का ज़िक्र भी किया। मसलन बाअज़ ये कहने लगे थे, कि पौलुस ज़ाती नफे के लिए मुनादी करता है। और बाअज़ लोग मसीह की आमद को क़रीब समझ कर मेहनत करना छोड़ बैठे। और इस तरह औरों पर अपना बोझ डाला।

थिस्सलुनीकियों का पहला ख़त

मक़्सद : मज़्कूर बाला नुक़्सों को रफ़ा करना और मसीही दीन की बुनियादी बातों पर उनको मज़्बूत करना। चुनान्चे ख़ुलासा मज़्मून से ये बख़ूबी ज़ाहिर है।

(1) 1:1 से 3 थिस्सलुनीकियों के ईमान के बारे में पौलुस शुक्र करता है।

(2) 1:4 से 10, और इसलिए कि वो औरों के लिए नमूना बन गए थे।

(3) 2:1 से 12 अपनी उज़्र-ख़्वाही करता है कि ना सिर्फ मैंने इन्जील सुनाई बल्कि अपने हाथों की मेहनत से अपना गुज़ारा किया।

(4) 2:13 से 16, ख़ुद तिस्लूनीकी मसीही इज़ार सानी की बर्दाश्त में इन्जील की इलाही क़ुद्रत के शाहिद (गवाह) हैं।

(5) 2:17 से 3:13 तिस्लूनीकी के छोड़ने का बाइस बताया है कि वो लापरवाही के सबब से नहीं भागा बल्कि तीमुथियुस को उनका हाल दर्याफ़्त करने भेजा।

(6) 4:1 से 12 अमली नसीहतें कि ज़िनाकारी और सुस्ती से बरकिनार रहें।

(7) 4:13 से 18, वफ़ात याफ्ता भाईयों के बारे में तसल्ली, कि वो मसीह के साथ दूसरी आमद के वक़्त आएँगे।

(8) 5:1 से 11 इस आमद का वक़्त नामालूम है। इस वास्ते तैयार रहना चाहिए।

(9) 5:1 से 24, इस अस्ना में काम और दुआ में मसरूफ़ रहना ताकि कुल रूह नफ़्स और बदन कामिल हो जाएं।

(10) 5:25 से 28, अलविदा

थिस्सलुनीकियों का दूसरा ख़त

इसी साल यानी 53 ई॰ में दूसरे ख़त को लिखने का मौक़ा मिला। पहले ख़त के मज़ामीन से तिस्लूनीकी मसीहियों ने ये नतीजा निकाला कि जब मसीह की आमद ऐसी क़रीब है तो क्यों मेहनत करें। अगरचे ख़ुद पौलुस ने इस ख़त में ये समझाया था कि ऐसा नतीजा ना निकालें बल्कि मेहनत करें। वो समझ ना सकते थे कि अगरचे आमद फ़ौरन हो सकती है ताहम इस में देर हो सकती है। चुनान्चे मसीह ने फ़रमाया कि उस वक़्त को ठीक कोई नहीं जानता। इसलिए पौलुस को ये दूसरा ख़त लिखना पड़ा। जिसमें ये दो ख़ास बातें हैं :

अव़्वल : मसीह की दूसरी आमद से पेश्तर चंद उमूर का वाक़ेअ होना ज़रूर है। (2 बाब)

दोम : अगर वो बेकार और सुस्त रहें तो इस से मसीही दीन की बदनामी होगी (3 बाब)

पहले बाब में पौलुस ये बताता है कि बेशक दूसरी आमद होने वाली है।

मज़्कूर बाला हिस्सों से इस ख़त का सिलसिला मज़ामीन मालूम हो सकता है।

पौलुस की तालीम जो इन ख़तों में है दो हिस्सों पर मुनक़सिम हो सकती है :-

अव़्वल : इन्सान की नजात के बारे में। इस हिस्से में मुफ़स्सिल बयान नहीं करता जैसा रोमियों और चंद दीगर ख़तों में पाया जाता है। सिर्फ इतना कहता है कि इन्जील का मक़्सद है कि कुल इन्सानियत बदन नफ़्स और रूह पाकीज़ा और अबदी ज़िंदगी के लायक़ बन जाएं। (1 थिस्सलुनीकियों 2:12, 4:3, 5:23, 2 थिस्सलुनीकियों 3:6 से 13)

दोम : मसीह की दूसरी आमद। (1 थिस्सलुनीकियों 1:10, 2:19, 3:13, 4:13 से 18, 5:2 वग़ैरह) (2 थिस्सलुनीकियों 1:9, 2:1 से 8)

इस मज़्मून के बारे में ये याद रखना चाहिए कि रसूल आमद के ठीक वक़्त से नावाक़िफ़ थे मसलन यहां पौलुस को शायद ख़याल है कि मैं इस आमद तक ज़िंदा रहूँगा। (1 थिस्सलुनीकियों 4:15) ऐसा ही 2 कुरिन्थियों 5:4 में उस की ऐसी ही उम्मीद मालूम होती है। लेकिन फिलिप्पियों 1:23 में रहलत कर के मसीह के पास जाने का ज़िक्र है। 2 तीमुथियुस 4:6 में वो जानता है कि मसीह की दूसरी आमद से पेश्तर मैं शहीद हो जाऊँगा।

कुरिन्थियों की तरफ़ ख़त

कुरिन्थस ये शहर बहीरा यूनान और ईजी इनके दर्मियान ख़ाकना पर उस चट्टान के दामन में वाक़ेअ है जिस पर एक क़िला बना था। इस के दो बंदरगाह थे। एक कुरिन्थस के नज़्दीक मग़रिबी किनारे पर लख़यान नामी था। और दूसरा मशरिक़ी किनारे पर जो मख़रिया के नाम से नामज़द था। रोमियों 16:1 आमाल 18:18 में इस का ज़िक्र है। इस राह पर जो इन दोनों बंदरगाहों के पास वाक़ेअ थी। बहुत तिजारत और आमदो रफ्त होती थी। चुनान्चे नेरू के अहद में रोमियों ने वहां नहर बनाने का इरादा किया था। लेकिन किसी ना किसी तरह इरादा छोड़ दिया। जब रोमियों ने इस मुल्क को फ़त्ह किया तो यूनान का नाम बदल कर अक्खाया रखा और कुरिन्थस को इस सूबे का दार-उल-ख़िलाफ़ा ठहराया। इस शहर का पहला नाम अफ़ायर था। ये शहर ख़ास तीन बातों के सबब मशहूर हुआ :-

अव़्वल : ऐश व इशरत

दोम : तिजारत

सोम : दौड़ और खेल के बाइस

इस की तरफ़ ज़ेल (निचे) की आयात में इशारा पाया जाता है। (1 कुरिन्थियों 4:9, 5:2, 16:9 से 11, 9:24 से 27, 11:21) इस के दार-उल-ख़िलाफ़ा होने की वजह से आतीनी के इल्म और फ़ल्सफे ने यहां भी रिवाज पाया। अगरचे आतीनी में पौलुस को चंद दिनों तक यूनानी फ़ल्सफे से दो-चार होना पड़ा। लेकिन ख़ासकर कुरिन्थस में मसीही दीन और यूनानियों और रोमियों के इल्म आपस में दो-चार हुए। क्योंकि यहां पौलुस को बहुत कामयाबी हुई। अक्सर ग़ैर क़ौमों में से मसीही हो गए। लेकिन बाअज़ यहूदियों में से भी ईमान लाए। (आमाल 18:8) अगरचे वहां बहुत मसीही थे पर अक्सर ग़रीब थे (1 कुरिन्थियों 1:26) बाअज़ मालदार भी थे मसलन क्रिस्पस इबादतखाने का सरदार (आमाल 18:8, 1 कुरिन्थियों 1:14) अरास्तस शहर का ख़ज़ानची (रोमियों 16:23) और गियुस जिसे पौलुस अपना और सारी कलीसिया का मेज़बान कहता है। और मुहब्बत की ज़ियाफ़त में भी मिले-जुले आदमी पाए जाते हैं। (1 कुरिन्थियों 11:22)

जिस तरीक़े से पौलुस ने कुरिन्थस में मुनादी की इस का ज़िक्र ख़ुद पौलुस ने 1 कुरिन्थियों 2:1 में किया है। उसने सादगी से फ़साहत और दुनियावी हिक्मत की मदद के बग़ैर मसीह की सलीब को पेश किया। यहूदियों ने बहुत मुख़ालिफ़त की (आमाल 18:5) ग़ैर क़ौम मसीहियों की हालत भी पुर-ख़तर थी।

पौलुस के बाद अपोलूस वहां गया जो सिकंदरिया का यहूदी नविश्तों में आलिम और बहुत सरगर्म था। अगरचे पौलुस और अपोलूस की तालीम एक ही थी। लेकिन तर्ज़ बयान में बहुत फ़र्क़ था। जिससे लोगों ने पौलुस की कुछ हिक़ारत की और फ़साहत और फ़ल्सफे के चाहने वालों ने लोगों को अपोलूस की तरफ़ रुजू किया।

कुरिन्थस में पौलुस की बहुत मुख़ालिफ़त हुई। चंद यहूदी मुअल्लिम (2 कुरिन्थियों 11:42) वहां आए और दूसरी कलीसियाओं से सिफ़ारशी ख़ुतूत लाए (2 कुरिन्थियों 3:1) और जो बुनियाद पौलुस ने डाली थी (1 कुरिन्थियों 3:10 से 18, 2 कुरिन्थियों 10:13 से 18) इस पर एक निकम्मी इमारत बनाने और इस पर फ़ख़्र करने लगे। इन मुअल्लिमों ने अपने आपको रसूल कहा (2 कुरिन्थियों 11:5, 2) और पौलुस की रिसालत की तर्दीद (रद्द करना) की (1 कुरिन्थियों 9:3, 2 कुरिन्थियों 10:7 ता 8) और तर्ग़ीब दी कि उस के हुक्म ना माने जाएं। (2 कुरिन्थियों 4:1 ता 2, 5:1, 11:16 से 12) ख़याल ग़ालिब है कि ये लोग पौलुस के पहले ख़त के मज़्मून से उस के ख़िलाफ़ ग़ज़बनाक हो गए। क्योंकि दूसरे ख़त में इस का साफ़ ज़िक्र है। तहक़ीक़ मालूम नहीं कि इनकी ख़ास तालीम क्या थी लेकिन इतना जानते हैं कि वो ख़ुदावंद के सामने क़ायम रहने वाले ना थी।

(1 कुरन्थियों 3:11)

ख़त का मक़्सद

1 कुरिन्थियों 5:9 से ज़ाहिर है कि पौलुस ने इस से पेश्तर एक और ख़त लिखा था जो अब मौजूद नहीं। और मालूम होता है कि वो एक और दफ़ा कुरिन्थस को गया। जिसका साफ़ ज़िक्र नये अहदनामे में नहीं। (2 कुरिन्थियों 2:1, 12:14, 20 से 13:2) मौजूदा पहले ख़त के लिखने में दो तरह का मक़्सद था।

अव़्वल : वहां के मसीहियों को उनके चंद क़ुसूरों के बारे में नसीहत करना चाहता था। मसलन तफ़र्रुक़ों के बारे में (1:11 ता 12) हिक्मत पर फ़ख़्र के बारे में (1:7, 31, 4:1) ज़िनाकारी (5 बाब) मुक़द्दमात (6 बाब) इशाए रब्बानी के वक़्त हसद (11:18 से 22)

दोम : दूसरा मक़्सद ये था कि कुरिन्थियों के चंद सवालों का जवाब दे। शादी के बारे में (7 बाब) बुतख़ानों की ज़ियाफ़त के बारे में (8:1) इबादत की तर्तीब (11 बाब के पहले हिस्से में) रुहानी नेअमतों के बारे में (14, 12 बाब) बदन की क़ियामत (15 बाब) ग़रीब मसीहियों के लिए चंदे की बाबत (16:1 वग़ैरह)

कहाँ से लिखा गया ये ख़त इफ़िसुस से पौलुस ने लिखा 57 ई॰ के शुरू में (16:8) ठीक मालूम नहीं कि किस के हाथ ये ख़त भेजा। बाअज़ों का ये ख़याल है कि स्तफ़नास और फ़र्रतौनातस और अख़ीकस (16:17) के हाथ भेजा गया।

तक़्सीम

1:1 से 9 दीबाचा व सलाम, कुरिन्थियों के ईमान और रुहानी नेअमतों के बाइस ख़ुदा का शुक्र।

1:10 से 14:21 तफ़र्रक़ा पर मलामत और इस में

(1) ख़ुदा की हिक्मत आदमी की हिक्मत से बढ़कर है। ये इलाही हिक्मत मसीह है।

(2) सिर्फ रूह-उल-क़ुद्स ना कि रसूल हक़ीक़ी मुअम्मार है।

(3) पौलुस अपोलूस वग़ैरह नायब मुअम्मार हैं।

5:1 से 13 ज़िनाकार को कलीसियाई सज़ा

6:1 से 11 मुक़द्दमात कचहरी में ग़ैर-मसीहियों के सामने नहीं ले जाने चाहिऐं

6:12 से 20 मसीह में आज़ादी बेलगाम नहीं

7 निकाह के बारे में जवाब

8:1 से 11:1 तक बुतख़ानों की ज़ियाफ़तों के बारे में

(1) अगरचे शरीक हो सकते हैं लेकिन हमेशा मुनासिब नहीं

(2) पौलुस अपना नमूना पेश करता है।

(3) अह्दे-अतीक़ से इबरत की मिसालें

(4) इशाए रब्बानी की हक़ीक़त से दलील

(5) आवारगी की शरीअत मुहब्बत की शरीअत से मशरूत है।

11:2 से 16 इबादत के वक़्त सर ढांपने के मुताल्लिक़

11:17 से 24 इशाए रब्बानी के वक़्त ज़ियाफ़त की ख़राबियां

12 से 14 बाब तक रुहानी नेअमतों का मुनासिब इस्तिमाल

इस में दो बातें हैं। (1) कलीसिया मुख़्तलिफ़ आज़ा का बदन है। (2) सबसे बढ़कर नेअमत मुहब्बत है। (3) नबुव्वत या नसीहत ग़ैर-ज़बान बोलने से बढ़कर है।

15 बाब, क़ियामत के बारे में

16 बाब, मुख़्तलिफ़ इल्मी नसीहतें मसलन चंदे के बारे में

चंद ख़ास ख़यालात मुन्दरिजा ख़त (1) कुरिन्थस जैसे शहर में ये ताज्जुब (हैरानगी) की बात नहीं कि सब लोग इल्म और फ़ल्सफे की बहुत क़द्र करते थे यूनानी लफ़्ज़ सूफ़िया जिससे लफ़्ज़ फ़ल्सफ़ा मुरक्कब है यूनान के सारे दार-उल-उलूम में बह्स का ख़ास मज़्मून था। ये मुनासिब था क्योंकि लफ़्ज़ सूफ़िया से मुराद है। ख़ल्क़त की हक़ीक़त मालूम करना। लेकिन पौलुस के ज़माने में ये मशहूर हो गया था, कि फ़ल्सफ़ा अपने मक़्सद में नाकाम रहा। ना सिर्फ ख़ल्क़त के भेदों के हल करने में ना-कामयाब रहा। बल्कि इन्सान के अख़्लाक़ के सुधारने में बिल्कुल आजिज़ रहा। इसलिए पौलुस ने कुरिन्थस में ज़ोर दिया कि जो काम फ़ल्सफे से ना हो सका उस को मसीह ने अंजाम दिया। चुनान्चे पहले बाब में उसने लिखा है कि “जब ख़ुदा की हिक्मत के मुताबिक़ दुनिया ने अपनी हिक्मत से ख़ुदा को ना पहचाना। तो ख़ुदा को ये पसंद आया कि मुनादी की बेवक़ूफ़ी से ईमान लाने वालों को नजात दे। चुनान्चे यहूदी निशान चाहते हैं। और यूनानी हिक्मत तलाश करते हैं। मगर हम मसीह मस्लूब की मुनादी करते हैं जो यहूदियों के लिए ठोकर और ग़ैर क़ौमों के नज़्दीक बेवक़ूफ़ी है। लेकिन जो बुलाए गए हैं। यहूदी हों या यूनानी। उनके नज़्दीक मसीह ख़ुदा की क़ुद्रत और ख़ुदा की हिक्मत है। (1 कुरिन्थियों 1:21 ता 24) येसू मसीह इस वास्ते हिक्मत है क्योंकि उस में रास्तबाज़ी, पाकीज़गी, और मख़लिसी मिलती है। इस ख़त के दीगर मुक़ामों में भी इस हिक्मत का ज़िक्र मिलता है मसलन 2:5, 13, 4:10, 8:1 ता 2

(2) रूह की नेअमतें : मालूम होता है कि इस कलीसिया में मुख़्तलिफ़ ज़बानों से बोलना और मोअजिज़े दिखाना आम था। और लोग इन पर ज़्यादा फ़ख़्र करने पर माइल थे। इस के ज़िमन में पौलुस ने ये बताया कि ऐसी नेअमतें कलीसिया के आम फ़ायदे के लिए होनी चाईं ना कि अफ़राद के लिए। और ये भी बताया कि सबसे बढ़कर नेअमत मुहब्बत है। और जो शख़्स इस मुहब्बत से ख़ाली है वो मसीह से भी ख़ाली है। (1:7, 12:7, 31, 13 बाब) इस में पौलुस का एतिदाल (मियानारवी) बहुत क़ाबिल लिहाज़ है। वो दूसरी नेअमतों की बेक़दरी नहीं करता। मगर ये बताता है कि इनका फ़ायदा उनके दुरुस्त इस्तिमाल पर मुन्हसिर है। और किसी क़द्र ज़राफ़त से इनकी हिक्मत के दाअवे को याद दिलाता है मसलन (8:1 ता 3, 14:18)

(3) आज़ादी की शरीअत और मुहब्बत की शरीअत का ताल्लुक़। यहूदी मोअल्लिमों के ख़िलाफ़ पौलुस ने इस अम्र पर बख़ूबी ज़ोर दिया कि मसीह में कामिल आज़ादी है, कि मसीही रीत रसूम के पाबंद नहीं जैसे यहूदी थे। मसलन हर क़िस्म का खाना रवा है अगरचे वो बुतख़ाना में भी बिकता हो। लेकिन वो ये भी बताता है कि एक और शरीअत है जिसको मुहब्बत की शरीअत भी कह सकते हैं। और जिसके मुताबिक़ ये नामुनासिब है कि मसीही आदमी अपनी आज़ादी के सबब से अपने भाई को ठोकर खिलाए। मसलन अगर बाअज़ों को ये नागवार मालूम होता था कि कोई मसीही बुतख़ाने की ज़ियाफ़त में शरीक हो तो इस से परहेज़ करना अच्छा होता। (देखो 8:4 से 10, 6:12)

(4) मसीह की कलीसिया : पौलुस ने इस को दो बातों से तश्बीह दी :-

अव़्वल : हैकल या मंदिर से (3:9 से 17) जिसमें हर एक मसीही गोया इमारत का पत्थर है। और ख़ादिमान दीन मुअम्मार और येसू मसीह हक़ीक़ी बुनियाद है।

दोम : बदन और इस के आज़ा से (12 बाब) इस दिलचस्प बाब से हम ये सीखते हैं कि मसीह का अपने आज़ा से कैसा क़रीबी ताल्लुक़ है। और इस ताल्लुक़ का वसीला रूह-उल-क़ुद्स है।

(4) नफ़्सानी और रुहानी : इस ख़त में दो अल्फ़ाज़ अक्सर आते हैं। और इस से हम साफ़ मालूम कर सकते हैं कि आदमी की ज़ात और उस का ख़ुदा के मुकाशफे से मुनव्वर हो जाने के बारे में पौलुस की क्या तालीम थी। नफ़्सानी आदमी अपनी कोशिश से ख़ुदा के मुकाशफे को क़ुबूल नहीं कर सकता (1:21, 30, 2:5, 3:1, 12:3) रुहानी आदमी वो है जिसमें मसीह पर ईमान लाने के ज़रिये से ख़ुदा का रूह बस्ता है। चुनान्चे हर हक़ीक़ी मसीही में नफ़्सानी ख़यालात किसी क़द्र रहते हैं। ताहम रोज़ बरोज़ रूहानियत में ज़्यादा बढ़ता जाता है। (2:12, 15, 16, 3:2, 14:37) इस के मुताबिक़ पौलुस बदन के बारे में भी इम्तियाज़ (फ़र्क़) करता है। हमारा मौजूदा बदन नफ़्सानी है। यानी बदन की हरकात और आमाल के मुताबिक़ है। रुहानी या जलाली बदन वो है जो रूह की तहरीकों को बख़ूबी अंजाम दे सकता है। (15:44 से 50 तक)

(6) मसीह हमारी क़ुर्बानी : कुरन्थी मसीहियों में चंद यहूदी ज़बीहों और ज़ियाफ़तों की तरफ़ माइल थे। लेकिन अक्सर ग़ैर क़ौमों की क़ुर्बानियों और ज़ियाफ़तों की तरफ़। दोनों के जवाब में पौलुस एक बात पेश करता है।

यानी ये कि हमारी क़ुर्बानी हो चुकी, यानी ख़ुद मसीह। और अब हमारी कुल ज़िंदगी ख़ुशी की ईद है। (5:7, 8, 10:15 से 21) इस से वो ये नतीजा निकालता है कि मसीही लोग ना यहूदियों ना ग़ैर क़ौमों के गुनाहों में मुब्तला रह सकते हैं।

कुरिन्थियों की तरफ़ का दूसरा ख़त

(1) ये बयान हो चुका है कि पहला ख़त इफ़िसुस से 57 ई॰ के शुरू में लिखा गया। पेश्तर इस के कि पौलुस इस शहर से रवाना हुआ। इफ़िसुस से हंगामे के बाइस क़ब्ल अज़ वक़्त ग़ालिबन त्रोआस को गया (आमाल 20:1) जो बहीरा रोम के साहिल पर वाक़ेअ है। उसे उम्मीद थी कि तीतुस मुझे वहां मिलेगा। और मैं उस से कुरिन्थस की कलीसिया का सारा हाल सुनूंगा (2 कुरिन्थियों 2:12) लेकिन उस से मुलाक़ात ना हुई। (2 कुरिन्थियों 2:13) इसलिए पौलुस मक़िदूनिया को गया। और वहां ग़ालिबन शहर फिलिप्पी में तीतुस से मिला। और तस्कीन बख़्श ख़बर इस कलीसिया की सुनी। (7:5 से 7) इस वास्ते इसी मुल्क से उसने दूसरा ख़त लिखा और तीतुस और उस के हम-राहियों के हाथ रवाना किया।

(2) इस ख़त के लिखने के वक़्त तीमुथियुस उस के साथ था। (1:1) पहले ख़त में ये ज़िक्र हुआ कि पौलुस ने तीमुथियुस को कुरंथिस में भेजा था। (1 कुरिन्थियों 4:17, 16:10)

(3) मक़्सद : पहले ख़त से कुरिन्थियों पर मुख़्तलिफ़ तासीर (असर होना) हुई। बहुतों ने अपने चाल-चलन को दुरुस्त किया। अक्सरों में तौबा के आसार नज़र आए। और रसूल की इज़्ज़त करने लगे कि उन्होंने इस बदकार शख़्स को ख़ारिज कर दिया। (2 कुरिन्थियों 2:5 से 11, 7:11) रो-रो कर दरख़्वास्त की कि वो उनके पास फिर आए। (7:7) और झूटे मोअल्लिमों के ख़िलाफ़ पौलुस की रिसालत को माना। अगरचे बाअज़ लोग झूटे मोअल्लिमों के पैरौ (मानने वाले) रहे और इस के ख़त से बहुत बातें उस के ख़िलाफ़ निकालीं। उसने अपने इस इरादे का ज़िक्र पहले किया था कि मैं इफ़िसुस से कुरिन्थस को जाऊँगा। (1:15 ता 16) लेकिन कुरिन्थियों की हालत सुनकर उसने अपना इरादा बदल डाला। (23 बाब) इसलिए उस के मुख़ालिफ़ों ने ये इल्ज़ाम उस पर लगाए कि (1) कि वो ग़ैर-मुस्तक़िल मिज़ाज है (2 कुरिन्थियों 1:18) इसलिए वो रसूल नहीं हो सकता। (2) उसने इस ज़िनाकार से बहुत सख़्त सुलूक किया। (3) उसे अपने काम के बाइस तकब्बुर था। (2 कुरिन्थियों 10:10)

पस हम ये कह सकते हैं कि इस ख़त के तीन मक़्सद हैं :-

(1) तीतुस से ख़बर सुनने पर शुक्रिया। 1 से 7 अबवाब में, ख़ासकर 2, 6 वग़ैरह

(2) चंदे को तैयार रखने के बारे में 8 और 9 बाब

(3) मुतलव्विन मिज़ाजी और रिसालत के ख़िलाफ़ इल्ज़ामों को रद्द करना। (10 से 13 बाब और नीज़ 1:16 से 2:4)

वक़्त तहरीर : मज़्कूर बाला वाक़ियात के मुताबिक़ ये ख़त 57 ई॰ की मौसम-ए-ख़ज़ाँ में लिखा गया।

तक़्सीम मज़मून

मज़्कूर बाला तीन मक़ासिद से ख़त का सिलसिला ज़ाहिर होता है। और इन तीन बड़े हिस्सों के ये छोटे जुज़्व हैं।

1:1 से 11 दीबाचा, रसूल का ग़म, और इफ़िसुस के ख़तरे से बच जाना, इनमें ख़ुदा की मदद और हम्दर्दी।

1:12 से 2:4 इरादे की तब्दीली मुतलव्विन मिज़ाजी से नहीं हुई बल्कि ज़रूरी अस्बाब से।

2:5 से 17, रसूल की ख़ुशी कि कुरंथियुस के मसीहियों ने नसीहत क़ुबूल की और ख़ताकार को सज़ा दी।

3 बाब, पौलुस के शागिर्द नए अहद के काम में पौलुस की रिसालत के सबूत हैं। इस नए अहद की फ़ज़ीलत।

4, 5, 6 बाब, रसूल इस ख़िदमत पर फ़ख़्र करता है। कमज़ोरी के बावजूद आख़िरी कामयाबी की उम्मीद से हौसला पाता है। और आदमियों को ख़ुदा की तरफ़ बुलाता रहता है और चाहता है कि कुरिन्थस के मसीही भी ख़ुदा की रूह की क़ुद्रत से और दुनियावी शहवतों से परहेज़ करने से इस काम में हों।

7 बाब, रसूल दुबारा बताता है कि मेरी ख़ुशी कुरिन्थस के मसीहियों की फ़र्मांबरदारी से कितनी बढ़ गई। और मुहब्बत की राह से उनको तम्बीह दी।

8:1 से 7, चंदे के बारे में मक़िदूनिया की कलीसियाओं की फ़य्याज़ी

8:8 से 15, कुरिन्थस के मसीही उनके नमूने पर चलें।

8:16 से 9:5 तीतुस और दो भाई चंदा जमा करने के लिए पेश्तर भेजे गए।

9:16 से 15, दुनिया ख़ुदा की नज़र में मंज़ूर है और इलाही सिफ़त है।

10 बाब, मजबूरन रसूल को सख़्ती करनी पड़ती है।

11 बाब, रसूल इलाही रिसालत की सनद में अपने मुख़्तलिफ़ दुख-दर्द और मेहनत वग़ैरह पेश करता है।

12:1 से 11 इस तरह से अपनी रिसालत को अपने इल्हामों के ज़रिये ज़ाहिर करता है।

12:12 से 13 के आखिर तक। चाहिए था कि कुरिन्थस के मसीही पौलुस की रिसालत की ताईद करते। तीसरी दफ़ाअ आकर वो ख़ुद अपनी रिसालत और इख़्तियार को साबित करेगा। लेकिन इस अस्ना में कुरिन्थस के मसीही अपनी रुहानी हालत को जांचें।

ख़ास ख़याल और ख़ास मुहावरे : ख़यालात पहले ख़त से मुशाबेह हैं। लेकिन चंद ख़ास मुहावरे और अल्फ़ाज़ पाए जाते हैं। जो दूसरे ख़तों में नहीं। इस की वजह ये है कि खासतौर से पौलुस का दिल ग़म और ख़ुशी दोनों से भरा था। मसलन ख़फ़गी 2 कुरिन्थियों 7:11 ख़र्च हो जाऊँगा 12:15

तलव्वुन मिज़ाजी 1:17

ग़लतियों की तरफ़ ख़त

(1) मुसन्निफ़ : सब लोगों ने माना है कि ये ख़त पौलुस की तहरीर है क़दीम कलीसिया के बुज़ुर्ग इस से इक़्तिबास करते हैं। मसलन पोलीकार्ब (4:26 6:7) आर्येनियुस (3:19) जस्तीन शहीद (4:12, 5:20) मुक़द्दस नविश्तों की हर फ़ेहरिस्त में ये ख़त पाया जाता है और मारश्यान ने जो फ़ेहरिस्त पौलुस के ख़तों की दी है उस में इस ख़त को सबसे पहले रखा।

किन की तरफ़ और किस वक़्त और किस जगह से ये ख़त लिखा गया? ये क़ाबिल लिहाज़ है कि 1:2 में गलतिया की कलीसियाओं का ज़िक्र है ना कि कलीसिया का। इस की वजह ये है कि गलतिया एक बड़ा इलाक़ा था जिसके चंद शहरों में मसीही कलीसियाएं थीं। इस इलाक़े के दो हिस्से थे शुमाली और जुनूबी। शुमाली हिस्से में लोग ज़्यादा वहशी थे और वहां एक ख़ास फ़िर्क़ा था। जो 287 क॰ म॰ गाल से आया था। और थ्रेस से उबूर कर के एशयाए कोचक में आया। और इस के एक फ़रीक़ ने तीसरी सदी क़ब्ल अज़ मसीह में डलफ़े की ताख़त व ताराज (तबाह करना) किया था। एशिया में पहले-पहल वो बैत-अनियाह के बादशाह निकोसेदस के किरायेदार सिपाही हो गए। लेकिन बहुत देर ना गुज़री थी कि तक़रीबन कुल एशयाए कोचक को पामाल किया। आख़िरकार अन्ती ओख़स सोतेर और योमीनस ने उनको निकाल कर इस इलाक़ा में भगा दिया। जो बाअदा गलातिया कहलाया। इस शुमाली इलाक़े के तीन बड़े शहर ये थे। उनकोरा, पीसीनस और तावेउम। तक़रीबन 1895 ई॰ तक ये राय रही कि इस शुमाली इलाक़े में इन कलीसियाओं की बुनियाद डाली गई जिनकी तरफ़ ये ख़त लिखा गया। और कि ये पौलुस के दूसरे सफ़र के शुरू में हुआ। (आमाल 16 बाब के पहले हिस्से में 50 ई॰ के क़रीब) लेकिन इस वक़्त से बाअज़ सय्याहों ने इस इलाक़े की तहक़ीक़ात की है। और पुरानी क़ब्रों के कुतबों और दीगर पुरानी तहरीरों से इस राय ने फ़रोग़ पाया, कि फ़िल-हक़ीक़त गलातिया के जुनूबी हिस्से में ये कलीसियाएं वाक़ेअ थीं। क्योंकि इस इलाक़े में लोग ज़्यादा तहज़ीब याफ्ता थे। और रोमी सरकार की शाहराह पर बहुत आमद व रफ़्त होती थी। और इलावा बरीं ये राय इस बयान से मिलती है कि पौलुस ने इकनीम लुस्तरा और दिर्बे में जो इस इलाक़े के तीन शहर थे कलीसिया की बुनियाद डाली। (आमाल 13 और 14 बाब) (हालाँकि आमाल 16 बाब में ऐसे काम की गुंजाइश और ना फ़ुर्सत मालूम होती है) इस मज़्कूर बाला दौराइयों में से दूसरी ज़्यादा क़रीन-ए-क़ियास (जिसे अक़्ल क़ुबूल करे) है। और अगर हम इस राय को क़ुबूल करें तो तहरीर का वक़्त भी मुख़्तलिफ़ होगा। क्योंकि अगर ये कलीसियाएं दूसरे सफ़र के वक़्त (आमाल 16) क़ायम हुईं। तो 57 ई॰ के अख़ीर या 58 ई॰ के शुरू से पेश्तर ये ख़त ना लिखा गया होगा। और पहले सफ़र के वक़्त (आमाल 14) अगर ये कलीसियाएं क़ायम हुईं यानी 47 ई॰ या 48 ई॰ में तो शायद ये ख़त 49 ई॰ के क़रीब लिखा गया होगा।

49 ई॰ में खतना के बारे में मशहूर मुबाहिसा बरपा हुआ। जिसका फ़ैसला इसी साल यरूशलेम में हुआ। और आजकल के आलिम समझते हैं कि ये ख़त इस फ़ैसले के क़रीब लिखा गया। इस सन की ताईद इस ख़याल से भी होती है कि गलतिया के मसीही इस कलीसियाई फ़ैसले के बाद खतने के मुबाहिसे में फिर मुड़ कर मुब्तला ना हुए होते।

हासिल कलाम पौलुस ने पहले सफ़र के वक़्त गलातिया के इलाक़े के जुनूबी हिस्से में अन्ताकिया, इकनीम, लुस्तरा और दिर्बे में कलीसिया की बुनियाद डाली। फिर खतना के बारे में जो मुबाहिसा यरूशलेम में हुआ उस के क़रीब उसने ये ख़त लिखा। उमूर ज़ेर-ए-बहस ये थे कि आया नजात यहूदी रीत रसूम के ज़रिये से होगी या मह्ज़ मसीह के फ़ज़्ल से। इस बात का मुफ़स्सिल बयान मुफ़स्सला-ज़ैल तक़्सीम मज़ामीन से मालूम होगा।

तक़्सीम मज़मून

1:1 से 5, सलाम और बरकत

1:1 से 9, ग़लतियों की बर्गश्तगी पर ताज्जुब

1:10 से 2:14 पौलुस अपनी रिसालत और तालीम की हिमायत करता है।

इस अस्ना में वो अपने रुजू लाने और माबाअ्द वाक़ियात का ज़िक्र करता है। (ये बयान आमाल की किताब के बयान से बख़ूबी मिलता है। अगरचे चंद छोटी बातों में मुतफ़र्रिक़ है)

2:15 से 21 पतरस की ग़लती की मिसाल से मसीही आज़ादगी की तश्रीह करता है।

3 बाब, पुराने अहदनामे से इब्राहिम के अहद की क़दामत दिखा कर मूसवी अहद पर इंजीली अहद की फ़ौक़ियत ज़ाहिर करता है।

4 बाब, वारिस के हाल से और सारा व हाजिरा की तश्बीह से वो फिर इस आज़ादगी को साबित करता है।

5 बाब, अमली नसीहत, इस आज़ादगी में क़ायम रहो। लेकिन मुहब्बत और रूह के फलों के क़ानून से इस को मशरूत करो।

6 बाब, दीगर अमली नसीहतें, एक दूसरे की ख़िदमत करो। ना कि खतना और रीत रसूम पर फ़ख़्र करो क्योंकि फ़ख़्र का मौक़ा सलीब है।

मुक़ाबला ग़लतियों के ख़त का रोमियों के ख़त से, इन दोनों ख़तों में दलील का तरीक़ा यकसाँ है। मुहावरे भी एक ही क़िस्म के हैं। “मसलन रास्तबाज़ ठहरना” “शरीअत के मातहत” ईमान और आमाल का मुक़ाबला। हक़ीक़ी आमाल ईमान का फल हैं।

ताहम कुछ फ़र्क़ भी है। क्योंकि पौलुस गलतिया के मसीहियों से वाक़िफ़ था। और उनकी बर्गश्तगी (फिर जाने) के बाइस मुबाहिसे के तौर पर लिखता है। लेकिन रोमी मसीहियों से वो नावाक़िफ़ था। उनकी तरफ़ ज़्यादा नर्मी से मसीही दीन की उसूली बातों पर ज़ोर देता है।

ख़ास ख़यालात : इस की ख़ास आयात हैं, 1:6, 7, हक़ीक़ी इन्जील, 10:12, 21, 3:16-17, 4:4 से 7, 5:1, 13, 6:12 से 15

रोमियों की तरफ़ ख़त

मुसन्निफ़

पौलुस है। इस के बारे में कलीसिया में कोई इख़्तिलाफ़ राय नहीं। अलबत्ता आख़िरी दो अबवाब के बारह में बाअज़ों ने कुछ शक डाला है। लेकिन इस का ज़िक्र पीछे होगा।

मकतूब अलय्याह

ये रोमी मसीही हैं। इनके बारे में दो सवाल लाज़िम आते हैं :-

अव़्वल : कि मसीही दीन किस तरह रोम में पहुंचा। इस का कोई साफ़ बयान हमारे पास नहीं। यूसीबस मुअर्रिख़ (कलीसिया की तवारीख़ बाब दोम फ़स्ल 25) ने एक दफ़ाअ रिवायत का ज़िक्र किया है, कि पतरस और पौलुस रसूल रोम में इकट्ठे मुनादी करते थे। और दोनों नेरू क़ैसर की ईज़ा रसानी में शहीद हुए। मुम्किन है कि ऐसा हुआ हो। बाअज़ों की राय है कि पतरस अपने पहले ख़त के 5:13 में जो बाबिल का ज़िक्र करता है इस में वो रोम मुराद लेता है। ये आजकल आम राय नहीं है। लेकिन बहर-हाल इस रिवायत से रोम में मसीही दीन के जड़ पकड़ने के बारे में कुछ रोशनी नहीं पड़ती। इस से पता नहीं लगता है कि पतरस रसूल ने सबसे पहले वहां मुनादी की। बरअक्स इस के वो ऐसे वक़्त का ज़िक्र करता है। जब पौलुस भी रोम में था। और हम इस ख़त से जानते हैं कि पौलुस के इस ख़त लिखने से पेश्तर मसीही दीन वहां क़ायम हो चुका था। और मसीहियों का शुमार भी बढ़ गया था। (रोमियों 1:10 से 15, 15:24-16 बाब) इलावा इस के रोमियों 15:20 से ज़ाहिर है, कि पौलुस को यक़ीन था कि कोई रसूल वहां नहीं गया था। आर्येनियस कहता है कि मत्ती ने अपनी इन्जील उस वक़्त लिखी थी। जब पतरस और पौलुस रोम में इन्जील की मुनादी कर रहे थे। और वहां की कलीसिया की बुनियाद डाल रहे थे। इस से ये मुराद नहीं हो सकती कि इसी वक़्त इन्जील रोम में भेजी। मतलब ये होगा कि इस ज़माने में ये दो रसूल वहां की कलीसिया का इंतिज़ाम कर रहे थे। (आमाल 14:23) इस से भी कुछ तौज़ीह (वज़ाहत) नहीं होती। पस अगर रिवायत से पता नहीं लगता। तो हम आमाल की किताब और नए अहदनामे की दीगर किताबों से रोम में मसीह की कलीसिया के शुरू होने के बारे में क्या मालूम कर सकते हैं? आमाल 2:10 में लिखा है कि पंतीकोस्त के दिन रोम से बाअज़ यहूदी पतरस का वाअज़ सुन रहे थे। हो सकता है कि इनमें आए हुए बाअज़ यहूदी मसीही हो कर मसीह की ख़बर रोम तक ले गए। हम जानते हैं कि उस वक़्त रोम में कम से कम नव यहूदी इबादत ख़ाने थे।

इस राय के ख़िलाफ़ ये ख़याल आता है कि अगर इन इबादत ख़ानों के मैंबरों के ज़रिये से मसीही दीन वहां फैल गया तो आमाल 28:17 से 22 में क्यों लिखा है कि यहूदी पौलुस को मिले इस दीन से ऐसे नावाक़िफ़ थे।

दोम : दूसरी राय ये है कि मसीही दीन ग़ैर क़ौम मसीहियों के ज़रिये वहां क़ायम हुआ। इस के साथ ये मिलता है कि एशिया के जिन इलाक़ों में मसीही दीन बहुत फैल गया था। उनकी रोम के साथ बहुत आमद व रफ़्त हुई थी और तक़रीबन हर नई बात रोम में जा घुसती थी। इन दोनों रायों में से ये ख़याल ग़ालिब है।

दूसरा सवाल ये है कि रोम में कलीसिया किस क़िस्म के अश्ख़ास पर मुश्तमिल थी? पिछली सदी के शुरू तक ये राय ग़ालिब थी कि रोम की कलीसिया में ख़ासकर ग़ैर क़ौम के मसीही थे। उस वक़्त से लेकर बाअज़ों ने ये राय पेश की कि अक्सर यहूदी मसीही इस कलीसिया में थे। मगर लोग पहली राय की तरफ़ ज़्यादा माइल थे। इस राय की ताईद में कि अक्सर यहूदी मसीही इस कलीसिया में थे। ज़ेल की आयात पेश की जाती हैं 3:9, 14:1 कि इन आयात में पौलुस गोया यहूदियों से मुख़ातिब है। मगर इसी तरह से (1 कुरिन्थियों 10:1) वो ग़ैर क़ौमों से मुख़ातिब होता है। फिर रोमियों 7:1 से 6 में मूसा की शरीअत की तरफ़ इशारा करता है। लेकिन अगरचे शरीअत से दलील ली गई है। लेकिन वो ऐसी दलील है जो आम शरीअत पर हावी है। जिसे यहूदी और ग़ैर क़ौम दोनों मान सकते हैं। (रोमियों 9:1, 11) ये बाब ख़ासकर यहूदियों के हाल के मुताबिक़ है। लेकिन इन ही अबवाब में साफ़ लिखा है कि मैं पौलुस तुम ग़ैर क़ौमों से मुख़ातिब होता हूँ। (11:13 वग़ैरह) इसी तरह से लोग ये कहते हैं कि 13 बाब की पहली सात आयात में यहूदियों के हस्बे-हाल नसीहत है।

जो लोग कहते हैं कि इस कलीसिया में अक्सर ग़ैर क़ौम थे। वो ये आयात पेश करते हैं (1:5, 13, 11:13, 15:15) क्योंकि इनमें वो ऐसे तौर से लिखता है कि गोया सुनने वाले ग़ैर क़ौम हैं और जो बातें ज़ेर-ए-बहस थीं यानी (4:1-15) इनसे मालूम होता है कि रोम के अक्सर मसीही ग़ैर क़ौमों में से हो कर यहूदी मसीहियों के तास्सुब (मज़्हब की बेजा हिमायत) की हिक़ारत करते थे। पौलुस उनको समझाता है कि अगर तुम मज़्बूत हो तो कमज़ोर भाईयों की बर्दाश्त करो।

तहरीर का मक़्सद और इस की तारीख़

अगर आमाल 19:21 से रोमियों 15:19 से 25 का मुक़ाबला करें तो ज़ाहिर होगा कि ये ख़त पौलुस ने कुरिन्थस से 58 या 59 ई॰ के मौसम-ए-सरमा में लिखा। आम हिसाब के मुताबिक़ ये ही मालूम होता है। ख़ातिमे पर जो जुम्ला है वो क़ाबिल-ए-एतिबार नहीं। और मालूम होता है कि पांचवीं सदी में उस्क़ुफ़ बोखी अगस ने डाला। ताहम फ़िलवाक़ेअ हो सकता है कि फ़ेबे जिसका वहां ज़िक्र है। ये ख़त कुरिन्थस से रोम तक ले गई (रोमियों 16:1) पौलुस के मक़्सद को दर्याफ़्त करने के लिए उस ज़माने के हालात का लिहाज़ मुनासिब है।

पौलुस को यक़ीन था कि अब मेरे सामने एक नया मैदान है। (19:21 रोमियों 15:23, 24) पस ये क़रीन-ए-क़ियास (जिसे अक़्ल क़ुबूल करे) है कि रवाना होने से पेश्तर वो इन मुल्कों के दार-उल-ख़िलाफ़ा की कलीसिया की तरफ़ ख़त लिखे ताकि उस के पहुंचने से पेश्तर लोग उस की इन्जील की कैफ़ीयत को मालूम कर लें। (रोमियों 1:13 से 16, 2:16) पस ताज्जुब की बात नहीं कि ये ख़त एक तवील मस की सूरत पकड़े। ये ख़त मुबाहिसे से ख़ाली तो नहीं लेकिन इस क़िस्म का मुबाहिसा नहीं जो ग़लतियों के ख़त में पाया जाता है। जहां उसे शख़्सी मुख़ालिफ़ों का मुँह बंद करना और ख़ास यहूदी तालीम को रद्द करना है। लेकिन रोमियों के ख़त में गो तर्ज़ तहरीर और लिबास यहूदी है। तो भी ऐसे उसूलों का ज़िक्र है जिनकी ज़रूरत कुल नूअ इन्सान के लिए है मसलन हर मुल्क और हर ज़माने में इन्सान मानना नहीं चाहता है कि इन्सान में जो नेकी और ख़ूबी है, वो सबकी सब ख़ुदा से है। क्योंकि इन्सान चाहता है कि कुछ अपने से मन्सूब करे। इस बात के मानने में ताम्मुल करता है कि ख़ुदा ऐसा मेहरबान है कि वो इन्सान को मुफ़्त माफ़ी देता है। ये ही वजह थी कि पौलुस ने इस उसूल पर इतना ज़ोर दिया कि इन्सान मह्ज़ ईमान से रास्तबाज़ ठहरता है। और सच-मुच तक़रीबन हर ज़माने में अंदेशा (डर) है कि ये तालीम दब जाये। इस्लाह के ज़माने में मार्टिन लूथर इस तालीम को कलीसिया के गिरने या क़ायम होने की कसौटी (मेयार) कहता था।

मज़्कूर बाला यानी ईमान से रास्तबाज़ ठहरने की तालीम को साबित करना बाअज़ों के नज़्दीक पौलुस का ख़ास मक़्सद था। और लोग कहते हैं कि ग़ैर क़ौम और यहूदी मसीहियों के दर्मियान सुलह कराना पौलुस का ख़ास मक़्सद था। और इस लिहाज़ से इस ख़त का मर्कज़ बाब 9 से 14 तक है।

सेहत ख़त

सिर्फ आख़िरी दो अबवाब के बारे में कुछ शक और मुबाहिसा है। और इस की वजह ये है कि कलमा तम्जीद जवाब 16:25 से 27 में मुन्दरज है। बाअज़ नुस्ख़ों में मुख़्तलिफ़ मुक़ामों पर है। यानी बाअज़ों में 14:24 के बाद। मारशियां ने इस को बिल्कुल छोड़ा। यानी ना 14 बाब के आख़िर में और ना 16 बाब के आख़िर में रखा। पस बाअज़ों की राय है कि पौलुस ने 14 बाब के आख़िर में अपना ख़त ख़त्म किया और कुछ नहीं लिखा। लेकिन बाअज़ ये समझते हैं कि पहली दफ़ाअ पौलुस ने 14 बाब पर ख़त को तमाम किया। लेकिन बाअदा (बाद में) दूसरे मौक़े पर 15, 16 बाब को बढ़ाया। इसलिए दोनों जगहों पर तमजीदी कलमा आया है। दूसरी राय ये है कि 16 बाब किसी और ख़त का ततिम्मा (किसी चीज़ का हिस्सा) है। मसलन इफ़िसुस के ख़त का, क्योंकि जो नाम इस में मज़्कूर हैं मसलन फीबी वग़ैरह इफ़िसुस के मुताबिक़ हैं। मगर बरअक्स इस के नामों की फ़ेहरिस्त से ज़ाहिर है कि क़रीबन सब रोमी नाम हैं। और एक नाम भी ऐसा नहीं जो इफ़िसुस के मालूमा बाशिंदा का हो। सबसे अच्छे नुस्ख़ों में ये तम्जीदी कलमा 16 बाब के आख़िर में है इसलिए शक की कोई माक़ूल वजह नहीं कि इन दो अबवाब का मुसन्निफ़ पौलुस ना हो।

इस दीबाचे के आख़िर में हम इस ख़ास बात पर ज़ोर देना चाहते हैं कि शुरू ही से मसीह की क़ियामत (मुर्दों में से जी उठना) के सबूत कैसे पुख़्ता थे। क्योंकि यहां पौलुस मसीह की क़ियामत (मुर्दों में से जी उठना) के तक़रीबन पच्चीस साल बाद बयान करता है कि ये क़ियामत मसीहियों में एक मुसल्लिमा (मानी हुई, हक़ीक़त) बात और उनकी बुनियाद है। (1:4, 4:25, 5:10, 6:4, 7:4, 8:34, 14:9) चुनान्चे ताज्जुब की बात नहीं कि शुरू ही में उसने कहा कि “मुर्दों में से जी उठने के सबब क़ुद्रत के साथ ख़ुदा का बेटा ठहराया गया।”

तक़्सीम मज़मून

(1) 1:1 से 17, दीबाचा जिसमें दो हिस्से हैं :-

(अ) 1:1 से 7 तक सलाम

(ब) 1:8 से 17 तक बाइस तहरीर

(2) 11:18 से 3:20 तक, ये सब बनी-आदम ख़्वाह यहूदी हों ख़्वाह ग़ैर क़ौम गुनेहगार हैं।

(अ) 11:18 से 37, ग़ैर क़ौम

(ब) 2:1 से 16, यहूदियों को शामिल करता है।

(ज) 2:17 से 3:27 से 3:20 ख़ुसूसुन यहूदी क़सूरवार हैं।

(3) 3:21 से 8:39 तक, ख़ुदा की नजात सब मोमिनीन के लिए।

(अ) 3:21 से 5:21 तक, मोमिनीन से रास्तबाज़ी मन्सूब होती है।

(ब) 6:1 से 8:16 तक, मसीह की क़ियामत और रूह-उल-क़ुद्स के आने के ज़रिये से मोमिनीन अंदरूनी पाकीज़गी हासिल करते हैं।

(ज) 10:17 से 39, कामिल मख़लिसी

(4) 9:1 से 11, 26, यहूदी और ग़ैर क़ौम मसीहियों में इलाही इंतिज़ाम के मुताबिक़ रिश्ता।

(5) 12:1 से 15:13 अमली फ़राइज़ जो ख़ुदा की मेहरबानी पर मबनी हैं।

(अ) 12:1 से 21 आम नसीहतें, ख़ासकर रुहानी नेअमतों के बारे में फ़िरोतनी

(ब) 13:1 से 7, सरकार की फ़रमांबर्दारी

(ज) 13:8 से 12 मसीह की मुहब्बत और उस की दूसरी आमद की इंतिज़ारी सब फ़राइज़ के लिए मुहर्रिक है।

(द) 14:1 से 15:7 बाहमी बर्दाश्त

(ह) 15:1 से 13, अह्दे-अतीक़ में भी इस यगानगत का ज़िक्र है।

(6) 15:14 से 33, आख़िरी नसीहतें और रोम को जाने का इश्तियाक़

(7) 16 बाब, मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास को सलाम, और तफ़र्रक़ा के ख़िलाफ़ नसीहत

पौलुस की असीरी (क़ैद) के ख़ुतूत

इफ़िसियों, फिलिप्पियों, कुलुस्सियों, और फ़िलेमोन की तरफ़ के ख़ुतूत पौलुस ने अपनी असीरी (क़ैद) के वक़्त लिखे। चुनान्चे इन आयात से ज़ाहिर है कि जब पौलुस ने ये ख़त लिखे वो क़ैद में था। इफ़िसियों 3:1, 4:1, 6:20, फिलिप्पियों 1:7, 4, 13, 14, 17 कुलुस्सियों 4:17, फ़िलेमोन 1 आयत, और आमाल की किताब से साफ़ ज़ाहिर है कि वो दो दफ़ाअ क़ैद हुआ। पहले केसरिया में। और फिर रोम में। अब ये सवाल रहा कि किस असीरी (क़ैद) के वक़्त उसने ये ख़त लिखे। बाअज़ों का तो ये ख़याल है कि उसने इफ़िसियों, कुलुस्सियों, और फ़िलेमोन के ख़त पहली असीरी (क़ैद) के वक़्त केसरिया से लिखे। और फिलिप्पियों की तरफ़ का ख़त दूसरी असीरी (क़ैद) के वक़्त रोम के क़ैदख़ाने से। मगर फिलिप्पियों 1:13, 4:22 की शहादत (गवाही) का ग़लबा इस तरफ़ है कि उसने चारों ख़ुतूत रोम से लिखे और इनमें से फिलिप्पियों को पहले लिखा।

इफ़िसियों की तरफ़ का ख़त

मुसन्निफ़

क़दीम कलीसिया को पौलुस के मुसन्निफ़ होने के बारे में कुछ शक ना था। गनातियुस ने अपने एक ख़त में 100 ई॰ में इस को पौलुस से मन्सूब किया। और इस से इक़्तिबास किया है। पोलीकार्प रोम का क्लीमेंट वग़ैरह इस से इक़्तिबास करते हैं। उस वक़्त से लेकर सब मुसन्निफ़ों का इत्तिफ़ाक़ इसी पर है। अलबत्ता उन्नीसवीं सदी में बाअज़ जर्मन आलिमों ने समझा कि ये ख़त पौलुस का नहीं। और इस इन्कार की ये वजूहात बताईं। कुलुस्सियों के ख़त के मुशाबेह होने से ये नतीजा निकालते हैं कि ये इस ख़त की एक जाली नक़्ल है। मगर हक़ीक़तन मुशाबहत इस सबब से है कि ये दोनों ख़ुतूत एक ही वक़्त और मौक़े पर लिखे गए। फ़र्क़ भी इन ख़तों में बहुत हैं। चुनान्चे आजकल बहुत थोड़े लोग ये एतराज़ करते हैं।

तहरीर का वक़्त

ऊपर ज़िक्र हो चुका है कि ये ख़त रोम में लिखा गया 60 ई॰ या 62 ई॰ में।

मकतूब अलय्या

पौलुस इफ़िसुस में तीन साल तक रहा था। (आमाल 19:8, 10) और ज़रूर बहुत मसीहियों से वाक़िफ़ हो गया होगा। लेकिन इस ख़त में वो.... किसी का नाम नहीं लेता। और ना किसी को नाम लेकर सलाम भेजता है। इलावा इस के तीसरे बाब की पहली चार आयतों में उनसे ऐसा मुख़ातिब होता है गोया वो उनसे नाआशना (नावाक़िफ़) है। मासिवाए इस के हमें ये भी मालूम है कि इफ़िसुस की कलीसिया में बहुत यहूदी मसीही भी थे। (आमाल 18:19, 19:8, 13 से 16) मगर इस ख़त में सिर्फ ग़ैर क़ौम मसीहियों का लिहाज़ किया गया है। इन सारी बातों से ये मानना मुश्किल है कि ये ख़त सिर्फ़ इफ़िसुस की कलीसिया को लिखा गया था। लेकिन ये मुश्किल बहुत कुछ इस तरह से हल हो जाती है, कि वो सबसे अच्छे नुस्ख़ों (यानी अ और ब) में ये अल्फ़ाज़ “इफ़िसुस के” (1:1) पाए नहीं जाते। और पहली तीन सदियों के मुसन्निफ़ों की तफ़्सीरों से ज़ाहिर है कि अच्छे नुस्ख़ों में ये अल्फ़ाज़ उस वक़्त मौजूद ना थे। इस की वजह ये होगी, कि ये गश्ती ख़त (गश्त करने वाला, फिरने वाला) था जो ना सिर्फ इफ़िसुस बल्कि दीगर मुक़ामों की ग़ैर क़ौम कलीसियाओं के लिए भी लिखा गया। और जब एक कलीसिया से दूसरी कलीसिया की तरफ़ रवाना किया जाता तो उस जगह में इस नई कलीसिया का नाम दर्ज किया जाता। या ये कि सारा ख़त नक़्ल किया जाता। जैसे कुलुस्सियों 4:16 में लादुकिया के ख़त का ज़िक्र आता है ग़ालिबन वो ये ही ख़त है। इस ख़त की सारा तर्ज़ुमा मज़्कूर बाला उमूर के इस राय के मुताबिक़ हैं।

मज़ामीन

इस के दो बड़े हिस्से हैं :-

(अ) पहले तीन बाब में मसीह और उस की कलीसिया के बारे में तालीम

(1) 1:1 से 13, सलाम और वो बरकतें जो ख़ुदा के अज़ली मक़्सद के मुताबिक़ कलीसिया को मिलती हैं।

(2) 1:15 से 23, पौलुस की ये दुआ कि ये बरकतें कलीसिया फ़ील-वाक़ेअ हासिल करे।

(3) 2 बाब, कलीसिया के बारे में जो ख़ुदा का ये मक़्सद है, वो यहूदियों और ग़ैर क़ौमों दोनों के लिए है। दोनों से मिलकर एक इमारत बनती है।

(4) 3 बाब 1 से 13, ये रूह की तासीर से वक़ूअ में आता है और नबी और रसूल इस रूह के औज़ार हैं।

(5) 3:14 से 21, इसलिए पौलुस उनके लिए ख़ास दुआ करता है, कि रूह के वसीले ख़ुदा की सारी भर पूरी को पहचानें।

(ब) (1) 4:1 से 16, यहां पहले हिस्से की तालीम की बुनियाद पर अमली नसीहतें आती हैं। कलीसिया की अमली यगानगत।

(2) 4:17 से 5:21 तक, ऐसे गुनाहों से परहेज़ करने की नसीहत कि जिनसे यगानगत की रूह रंजीदा हो।

(3) 5:22 से 6:9 तक, चंद फ़िर्क़ों में इन नसीहतों की मिसालें मियां बीवी, वालदैन, औलाद, मालिक और ग़ुलाम

(4) 6:10 से 24 तक, ख़ुदा के मोअस्सर इस्लाह के ज़रिये रुहानी लड़ाई लड़ना

इस ख़त के ख़ास ख़यालात

ख़ुदा का इरादा, कलीसिया की यगानगी

(1) ख़ुदा के साथ (2) और हर उज़ू के साथ फ़ज़्ल। ये लफ़्ज़ 13 दफ़ाअ आता है।

आस्मानी जगह (1:3, 20, 2:6, 3:10, 6:12)

भर पूरी (1:10, 23, 3:19, 4:13)

राज़ (1:9 3:3, 4, 9, 5:32, 6:19)

इनमें से बाअज़ ख़यालात की मुशाबहत दूसरे मुक़ामों से पाई जाती है। (आमाल 20:17 से 38) कुलुस्सियों में जैसा कि ज़िक्र हुआ। और पतरस का पहला ख़त। ये मुशाबिहतें इत्तिफ़ाक़ी हैं और रूह की हिदायत के आसार हैं।

फिलिप्पियों का ख़त

मुसन्निफ़

क़दीम कलीसिया में मुसन्निफ़ के बारे में कुछ शक नहीं हुआ। पोलीकार्प अपने एक ख़त में जो उसने फिलिप्पियों को लिखा ये कहता है, कि पौलुस ने तुम्हें एक ख़त लिखा था। मोरातोरी फ़ेहरिस्त में ये पौलुस के ख़तों की फ़ेहरिस्त में मुन्दरज है। एक क़दीम ख़त में जो इज़ार सानी के वक़्त गाल की कलीसिया ने दूसरी कलीसियाओं की तरफ़ लिखा। इस ख़त से हवाला दिया गया है जिससे ज़ाहिर है कि उस वक़्त ये ख़त इल्हामी समझा गया था, उन्नीसवीं सदी में यूरोपियन आलिमों ने इस पर एतराज़ किया। इस बिना पर कि ख़त में गनास्तिक बिद्अत के आसार पाए जाते हैं। यानी 2:6 से 9 तक। जहां मसीह के आला दर्जे का ज़िक्र है। और मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाले) समझते थे कि यहां मसीह की सर्फ़राज़ी का ज़िक्र गनास्तिक तालीम के जवाब में है। हालाँकि पौलुस के ज़माने तक गनास्तिक तालीम मुरव्वज ना हुई थी। मगर आजकल सब लोग मानते हैं कि पौलुस के ज़माने में ये तालीम मशहूर हो गई थी। और फ़ील-वाक़ेअ आजकल ये एतराज़ मतरूक (तर्क होना) हो गए हैं।

मज़्कूर बाला बैरूनी गवाही की ताईद में ये अंदरूनी शहादत (गवाही) भी मौजूद है। मसलन तर्ज़-ए-कलाम, फ़लीप्पी की कलीसिया के ताल्लुक़ात पौलुस से जो आमाल की किताब से ज़ाहिर हैं। और पौलुस की वहां के मसीहियों पर पिदराना शफ़क़त (1:27, 2:16 से 25, 4:1 से 3, 10, 15 से 18)

मकतूब अलय्या

फिलिप्पी शहर मक़िदूनिया के साहिल पर वाक़ेअ था। इस बड़ी सड़क जो रोमी सरकार ने बनाई थी। जिस पर फ़ौजों की आमद व रफ़्त और तिजारत बहुत होती थी। इस शहर का असली नाम कुरीनी डक्स (यानी पानी के चश्मे) था लेकिन सिकंदर आज़म के बाप फिलिप्पुस ने इस शहर को तौसीअ दी और अपने नाम से मौसूम किया। रोमियों के ज़माने में आगस्तीन क़ैसर ने इसे रोमी बस्ती बनाया। वहां के बाशिंदे दीनी सरगर्मी के बाइस मशहूर थे। और आज तक बहुत पुराने कुतबे मौजूद हैं। जिनमें वहां के देवताओं के क़िस्से कुंदा हैं। पौलुस के इस जगह आने और यहां की कलीसिया की बुनियाद डालने का ज़िक्र आमाल के 16 बाब में मुन्दरज है। इस जगह पौलुस और सीलास क़ैद हुए थे, मगर वहां से रवाना होने से पेश्तर चंद आदमी मसीही हो गए थे। मसलन लुदिया अर्ग़वान फ़रोश और दारोगा जेल का ख़ानदान। और ये बात क़ाबिले लिहाज़ है कि आमाल 16 बाब के शुरू में ज़मीर इस्म का इस्तिमाल करता है, जिससे ज़ाहिर है कि मुसन्निफ़ वहां मौजूद था। लेकिन इस बाब के आख़िर में बीसवें बाब तक यानी जब पौलुस फिलिप्पी से गैर-हाज़िर था। ज़मीर हम नहीं आया जिससे ख़याल ग़ालिब है, कि लूक़ा फिलिप्पी में पौलुस की गैर-हाज़िरी के वक़्त रहा होगा।

इस शहर में यहूदी बहुत थोड़े थे। यहां तक कि उनका कोई इबादतखाना ना था। बल्कि दरिया के किनारे पर दुआ के लिए चंद शख़्स जमा होते थे। (आमाल 16:13) और इस ख़त के मज़्मून से पता लगता है कि फिलिप्पी की कलीसिया में से यहूदी मोअल्लिम जो कुरिन्थस और गलतिया में पौलुस की मुख़ालिफ़त करते थे।... सिर्फ 3:2 में इस क़िस्म की तालीम के ख़िलाफ़ कुछ आगाही पाई जाती है। और पौलुस की जो बे-तकल्लुफ़ उल्फ़त इन मसीहियों से थी। इस से ज़ाहिर है कि पौलुस का इनसे कुछ इख़्तिलाफ़-उल-राए ना था। सिर्फ चंद ख़फ़ीफ़ (मामूली) क़ुसूरों से उनको आगाह करता है। (2:14, 3:17 से 19, 4:2)

तहरीर का वक़्त और मौक़ा

ज़ाहिर है कि ये ख़त रोम के क़ैदख़ाने से लिखा गया। (1:7, 13, 14, 17) अगरचे बाअज़ आलिमों ने समझा कि ये केसरिया के क़ैदख़ाने से तहरीर हुआ। (आमाल 23 बाब) लेकिन जैसा कि हम ज़िक्र कर आए हैं। ग़ालिबन रोम के क़ैदख़ाने से लिखा गया। क्योंकि फिलिप्पियों 1:13, 4:22 में क़ैसर के महल का ज़िक्र है। बाअज़ ख़याल करते हैं कि ये ख़त असीरी (क़ैद) के चारों ख़तों से पहला ख़त है। क्योंकि इस के मज़ामीन रोमियों के ख़त से जो इस से पेश्तर लिखा गया बहुत मिलते हैं। मगर बाअज़ों की राय है कि ये उनमें पिछला ख़त है। क्योंकि पहले बाब से ज़ाहिर है कि वो क़ैदख़ाने में रखा गया। हालाँकि आमाल की किताब के आख़िर से ज़ाहिर है, कि पौलुस रोम में पहुंचने के बाद मुद्दत तक अलैहदा किराये के घर में रहा (28:30) अल-ग़र्ज़ 61 ई॰ और 62 ई॰ के माबैन (दर्मियान) किसी वक़्त ये ख़त लिखा गया।

तक़्सीम मज़ामीन

1:1 से 11 दीबाचा, और कुलुस्सियों की अच्छी हालत पर शुक्रिया।

1:12 से 30, पौलुस के हाल का ज़िक्र और उनके साथ हम्दर्दी।

2:1 से 18, मेल मिलाप और बर्दाश्त की नसीहतें मसीह के नमूने पर। 2:19 से 30, पौलुस और उस के साथियों का हाल।

3 बाब, पौलुस अपने तजुर्बों से बताता है कि शरीअत से नहीं बल्कि मसीह ही से नजात हो सकती है। जो मसीह के हैं वो मसीह की शराअ पर चलें।

4:1 से 9, चंद आख़िरी सलाम और ख़ास अश्ख़ास का ज़िक्र।

4:10 से 23, फिलिप्पियों को याद दिलाता है कि तुमने मेरी ख़ास मदद की जिसके लिए मैं हमेशा शुक्रगुज़ार हूँ।

ख़ास ख़यालात

मसलन ख़ुदा की वफ़ादारी कि वो अपने बर्गज़ीदों की हिफ़ाज़त बावजूद तक़्लीफों के ज़रूर करेगा। 6, 7, 18, 29, 30 दूसरी आमद की बाबत पौलुस अब समझता है कि इस से पेश्तर शायद मुझे मरना होगा। 1:19 से 26

इन्जील की तरक़्क़ी (1:12, 2:16) मसीह की उलूहियत (2:5 से 11) शरीअत और मसीह का मुक़ाबला (3:13 से 14) मसीह में ख़ुश रहना। (1:26, 2:2, 17, 18, 3:3, 4:4)

कुलुस्सियों की तरफ़ का ख़त

मुसन्निफ़

इस ख़त के मुसन्निफ़ के बारे में भी क़दीम कलीसिया में कुछ शक नहीं हुआ। लेकिन उन्नीसवीं सदी के बाअज़ आलिमों ने चंद वजूहात से पौलुस के मुसन्निफ़ होने पर एतराज़ किया। मगर ये वजूहात जैसा आगे ज़ाहिर किया जाएगा नापायदार हैं। बर्नबास के ख़त और क्लीमेंट रोमी के ख़त, अगनातियुस के ख़त, जस्टिन शहीद की तस्नीफ़ात में इस ख़त के जुम्ले पाए जाते हैं। क़रीबन 175 ई॰ में आइरीनियस की तस्नीफ़ात में और मोरातोरी फ़ेहरिस्त में इस का साफ़ ज़िक्र है। मारश्यान बिद्अती ने भी इस का ज़िक्र किया है।

मकतूब अलय्या

कुलुस्से शहर की कलीसिया को लिखा गया। ये शहर फ़िरोगिया के इलाक़े में दरिया-ए-लोकस के जुनूबी किनारे पर वाक़ेअ था। इस वादी के नज़्दीक एक ख़ूबसूरत ऊंचा पहाड़ 70 हज़ार फुट ऊंचा था। इस इलाक़े में बहुत ज़लज़ले होते थे और उनसे अक्सर बड़ी वीरानी होती थी। लेकिन ज़मीन की ज़रख़ेज़ी के बाइस बहुत लोग वहां रहते थे। और ऊनी कपड़े वहां बुनते थे। इस के नज़्दीक तक़रीबन बारह मील के फ़ासिले पर हीरापौलुस और लुदुकिया के शहर थे। लुदुकिया तक़रीबन 250 क॰ म॰ माबाअ्द हुआ। और उसने कुलुस्से की रौनक को मांद कर दिया। अंतीअखियुस आज़म ने इस इलाक़े में दो हज़ार यहूदी ख़ानदान बाबिल के इलाक़े में लाकर बसाए। और ज़मीन की ख़ूबी के बाइस और बहुत यहूदी भी वहां आके आबाद हो गए। यहां तक कि तल्मूद में लिखा है कि फिरोगिया के चश्मों और ताकिस्तानों ने बनी-इस्राईल के दस फ़िर्क़ों को खराब किया।

किस ने वहां की कलीसिया की बुनियाद डाली? पौलुस बानी ना था। क्योंकि इस ख़त के दूसरे बाब की आयत में लिखा है कि तुमने मेरा चेहरा कभी नहीं देखा। लेकिन ख़याल ग़ालिब है कि इपफ्रास जिसका ज़िक्र 1:7, 4:12 में है। उनके ईमान लाने का वसीला हुआ। और ये इपफ्रास ग़ालिबन पौलुस का शागिर्द था। अक्सर मसीही ग़ैर अक़्वाम थे। लेकिन यहूदी मसीहियों का शुमार भी कुछ कम ना था। मज़्कूर बाला बयान से मालूम किया होगा कि यहां के यहूदी अपने दीन के बहुत पाबंद ना थे। इस का दोहरा नतीजा हुआ।

अव़्वल : ये कि वो बिला-तास्सुब इन्जील की बात सुनने को तैयार थे।

दोम : वो दीगर फ़ैलसूफ़ों की तालीम क़ुबूल करने को भी तैयार थे।

चुनान्चे ख़त के मज़ामीन से ज़ाहिर है कि इनमें यहूदी और मशरिक़ी ग़लत तालीम सब फैल गई थी। ग़ालिबन उस को रोकने की ग़र्ज़ से ये ख़त लिखा।

तहरीर की जगह और वक़्त

कुलुस्सियों 4:18 से ज़ाहिर है, कि पौलुस इस ख़त की तहरीर के वक़्त क़ैद में था। जैसे कुलुस्सियों के ख़त के दीबाचे में बताया गया। ये ख़त या तो केसरिया के क़ैदख़ाने से या रोम के क़ैदख़ाने से लिखा गया। लेकिन तक़रीबन यक़ीन है कि वो रोम की क़ैद के वक़्त 61 ई॰ में तहरीर हुआ। (आमाल की किताब का दीबाचा आमाल 28 30, 31)

इस ख़त की ख़ास बातें ये हैं

ग़लत तालीम की कैफ़ीयत बाअज़ समझते हैं कि एक यहूदी फ़िर्क़ा आसीनी नाम से ये तालीम मसीहियों में आई थी। जिनकी ख़ास ख़ुसूसियत थी।

(1) वो औरों से अलग रहते थे।

(2) बहुत रियाज़त कश थे।

(3) फ़रिश्तों के बारे में ख़्याली तालीम देते थे।

मगर अग़लबन इस फ़िर्क़े से कुलुस्सियों ने तालीम नहीं पाई क्योंकि कुलुस्से मसीही अलग रहने वाले ना थे। और इस फ़िर्क़े की तालीम ज़्यादातर फ़िलिस्तीन के मुल्क में महदूद रही। शायद फिरोगिया तक नहीं पहुंची। मामूली तास्सुब जिससे यहूदी अपनी रसूम पर ज़ोर देते थे। वो मशरिक़ी और यूनानी फ़लसफ़े से मिलकर कुलुस्से मसीहियों की तालीम की काफ़ी वजह होगी। मसलन फ़रिश्तों के बारे में (कुलुस्सियों 2:18) लिखा है कि फ़रिश्तों की इबादत ख़ाकसारी के साथ पसंद करते थे यानी वो समझते थे कि ख़ुदा तआला की जगह फ़रिश्तों की इबादत करना फ़िरोतनी में दाख़िल था। इस वक़्त यहूदियों के दर्मियान इस क़िस्म की बहुत तालीम मुरव्वज थी। और पुराने अहदनामे के चंद मुक़ामों से इस तालीम की ताईद करते थे। मसलन ख़ुरूज 23:20, 23 इस्तिस्ना 33:2, दानीएल 10, 11 बाब, नीज़ मुक़ाबला करो ग़लतियों 3:19, इब्रानियों 2:2, आमाल 7:30, 53, 1 कुरिन्थियों 6:2 वग़ैरह। इन आयतों से ज़ाहिर है कि पौलुस भी यहूदी तफसीर का इतना लिहाज़ करता था कि फ़रिश्तों को एक तरह से पुराने अहद नामे के दर्मियानी समझता था। बाअज़ों ने फ़रिश्तों की इबादत से ये नतीजा निकाला कि ये ख़त पौलुस के ज़माने के बाद लिखा गया। मगर मज़्कूर बाला बयान से ज़ाहिर है कि पौलुस इस क़िस्म की तालीम से वाक़िफ़ था। गनास्तिक तालीम का मुफ़स्सिल बयान करना यहां बाइस तवालत (लंबा होना) होगा। हम सिर्फ इस पर ग़ौर करें कि पौलुस रसूल किस तरह से गनास्तिक तालीम और फ़रिश्तों के बारे में तालीम का जवाब देता है। इस का एक जवाब ये है कि मसीह मुजस्सम ख़ुदा है। पस वो फ़रिश्तों से आला। उनका ख़ालिक़ व हाकिम है। उनकी सिफ़ारिश की कोई ज़रूरत नहीं। मसीह की इबादत छोड़कर फ़रिश्तों की इबादत इख़्तियार करना यानी आला को छोड़ अदना को इख़्तियार करना ना माक़ूल है। (1:3 से 20:2 8, 9) इलावा अज़ीं वो जवाब में ख़ुद इनके तजुर्बों को पेश करता है कि मसीह के वसीले वो नई ज़िंदगी में शामिल हुए। (1:12 से 14, 2:1 से 14, 3:1 से 4) और कि ये ही तजुर्बा ना सिर्फ कुलुस्से में बल्कि रोमी सल्तनत के हर इलाक़े में मसीहियों का तजुर्बा हुआ है। इसलिए वो सर को पकड़े रहें और रियाज़त कुशी और खानों से परहेज़ वग़ैरह पर तकिया ना करें। जो एतराज़ इस ख़त के मुसन्निफ़ पर किए गए हैं वो इन दो बातों पर मबनी थे। यानी नास्तिक और फ़रिश्तों की तालीम पर। इस ख़याल से कि ये दोनों तालीमें पौलुस के ज़माने की नहीं। मगर आजकल सब लोग मानते हैं कि ये तालीम पौलुस के ज़माने में मुरव्वज थी।

तीसरा एतराज़ इस बिना पर किया गया कि इस का तर्ज़ तहरीर दूसरे ख़तों से कुछ मुतफ़र्रिक़ (अलग) हैं।

तक़्सीम मज़ामीन

1:1-2 सलाम

1:2 से 14, दीबाचा जिसमें शुक्रगुज़ारी है कि कुलुस्से मसीही इन्जील में पायदार रहते हैं।

1:15 से 20, इस इन्जील का आग़ाज़ और अंजाम ख़ुद मसीह है।

1: 21 से 29, इस में ख़ुद पौलुस और कुलुस्से के मसीही बज़रिये दुखों के शामिल हैं।

2:1 से 3, पौलुस इनकी तरक़्क़ी के लिए दुआ करता रहता है।

2:4 से 15, मसीह में जो उनका रुत्बा और तजुर्बा हुआ है इस को याद दिला के उनको झूटे फ़ल्सफे से दूर रहने की नसीहत करता है।

2:16 से 23, इस झूटे फ़ल्सफे की चंद मिसालें मसलन रियाज़त कशी और फ़रिश्तों की इबादत।

3:1 से 4, 6 तक, अमली नसीहतें।

(1) 3:1 से 13 मसीह के साथ मर के और जी उठ के ज़मीनी बातों को छोड़ना और आस्मानी बातों को इख़्तियार करना चाहिए।

(2) 3:14 से 17, मुहब्बत और शुक्रगुज़ारी से रहना।

(3) 3:18, 4:6 तक, मियां बीवी और आक़ा नौकर के फ़राइज़।

4:7 से 18, ख़ास अश्ख़ास को सलाम।

फ़िलेमोन की तरफ़ का ख़त

सब मुत्तफ़िक़ हैं कि कुलुस्सियों और फिलिप्पियों के ख़त का मुसन्निफ़ एक ही था।

मकतूब अलय्या

मज़ामीन से ज़ाहिर है कि फ़िलेमोन कुलुस्से का एक शरीफ़ मसीही था। पौलुस के ज़रिये मसीही हो गया। (19 आयत) ग़ालिबन इफ़िसुस में। पौलुस का मददगार रहा। (1 आयत) उस की बीवी अफिया और बेटा अरख़पस था। (2 आयत, कुलुस्सियों 4:17) उनके घर में कुलुस्से की कलीसिया जमा हुआ करती थी। (2 आयत) उस का एक ग़ुलाम अनेस्मस नाम उस को छोड़कर रोम को भाग गया था शायद इत्तिफ़ाक़न पौलुस से मिला और पक्का मसीही बन गया।

ख़त का मक़्सद ये है कि फ़िलेमोन इस ग़ुलाम को क़ुबूल करे और उस से अच्छा सुलूक करे। लफ़्ज़ अनेस्मस के मअनी हैं फ़ाइदेमंद और 11, 20 आयत में इस नाम के मअनी की तरफ़ इशारा करता है। ग़ालिबन पौलुस ने बहुत ऐसे शख़्सी ख़त लिखे। और नमूने के तौर पर यही किताब मुक़द्दस में दाख़िल किया गया।

सन तस्नीफ़

60 ई॰ और 63 ई॰ के दर्मियान लिखा। और अनेस्मस और तख़कस के हाथ भेजा गया।

ख़ास ख़यालात

अव़्वल : पौलुस अपने ओहदे पर ज़ोर देकर फ़िलेमोन पर इख़्तियार नहीं जताता बल्कि दोस्ताना दरख़्वास्त करता है। (8:19)

दोम : गु़लामी के बारे में अगरचे गु़लामी के दस्तूर पर हमला कर के इस को नाजायज़ नहीं ठहराता। लेकिन बिरादराना मुहब्बत से जो यहां मज़्कूर है। ये नतीजा निकलता है कि गु़लामी मसीही आज़ादगी के साथ क़ायम नहीं रह सकती। अफ़्सोस की बात है कि मसीही कलीसिया की तवारीख़ में बड़ी मुद्दत तक बल्कि अठारवीं सदी के शुरू तक गु़लामी जायज़ समझी जाती थी।

चौपानी ख़ुतूत

यानी तीमुथियुस की तरफ़ दो ख़त और तीतुस की तरफ़ ख़त

मुसन्निफ़

क़दीम कलीसिया में सब लोग इन ख़तों को पौलुस से मन्सूब करते हैं। मगर ये सवाल पैदा होता है कि पौलुस की ज़िंदगी में वो किस मौक़े पर लिखे गए। रोम में पहुंचने से पेश्तर कोई माक़ूल मौक़ा मालूम नहीं होता। और तीमुथियुस के पहले ख़त और तीतुस के ख़त से साफ़ ज़ाहिर है कि ये दो ख़त रोम से ना लिखे गए थे। बल्कि आज़ादगी के वक़्त लिखे गए ना असीरी (क़ैद) के वक़्त (1 तीमुथियुस 4:13, तीतुस 3:12) तीमुथियुस के दूसरे ख़त से ज़ाहिर है कि वो हाल ही में त्राओस, कुरिन्थस और तीतुस से हो कर रोम में गया था। (2 तमथीस 4:13, 20) पस अगर ये ख़त पौलुस के हैं तो ज़रूर वो पौलुस की उस असीरी (क़ैद) के बाद लिखे गए। जो आमाल 28 में मज़्कूर है। और मशहूर और मोअतबर रिवायत है कि पौलुस नेरू की ईज़ा रसानी 64 ई॰ और 65 ई॰ में हुई। अगर पौलुस रोम में 61 ई॰ के क़रीब पहुंचा। और वहां दो तीन साल रहने के बाद आज़ाद हो गया। तो मुश्किल से माबाअ्द सफ़र और इन ख़तों के लिखने का मौक़ा मिला होगा। लेकिन ग़ालिबन वो रोम में 59 ई॰ में पहुंच गया। और 61 ई॰ में आज़ाद हो गया और 64 ई॰ या 65 ई॰ में पाई।

मज़्कूर बाला राय के साथ दो क़दीम गवाहियाँ मुत्तफ़िक़ हैं। एक गवाही ये है। मोरातोरी नुस्ख़े में लिखा है कि पौलुस ने हस्पानिया तक सफ़र किया। दोम, रोमी क्लीमेंट लिखता है कि पौलुस ने मग़रिब के सिरे तक सफ़र किया। हम जानते हैं कि पौलुस ने अपनी पहली असीरी (क़ैद) से पेश्तर ये सफ़र नहीं किया था। बल्कि रोमियों 15:24 से ज़ाहिर है, कि उस के दिल में हस्पानिया तक सफ़र करने का इरादा था। पस सब इस पर मुत्तफ़िक़ हैं कि पौलुस की ज़िंदगी में इन ख़तों का मौक़ा था।

लेकिन उन्नीसवीं सदी के आलिमों ने तीन और एतराज़ किए हैं।

अव़्वल : कलीसिया की जो तर्तीब इन ख़तों में नज़र आती है। पौलुस के ज़माने में इतनी तरक़्क़ी ना की होगी। मसलन ख़ादिमान दीन, डेक्कन्स, बेवा ख़ाने वग़ैरह मगर आमाल की किताब के साथ मुक़ाबला करने से मालूम होता है, कि पौलुस के ज़माने से पेश्तर ही डेक्कनों और बेवाओं की ख़बर-गीरी का इंतिज़ाम क़ायम हो चुका था। रोमियों 16:1 में डेक्कन्स का ज़िक्र आता है। और पौलुस के दूसरे ख़तों में कलीसिया का इन्तिज़ाम कुछ पुख़्ता हो जाता है। और अगनातियुस के ख़ुतूत 110 ई॰ के हैं। कलीसियाई इंतिज़ाम को आला तरक़्क़ी की हालत में दिखाते हैं। मसलन इन चौपानी ख़तों में बुज़ुर्गों और उस्तफ़ों के दर्मियान कुछ फ़र्क़ नहीं किया गया। लेकिन अगनातियुस के ज़माने में ये फ़र्क़ बिल्कुल क़ायम हो चुका था। और जो कलीसियाई इंतिज़ाम चौपानी ख़तों में पाया जाता है। वो आमाल की किताब के ज़माने और अगनातियुस के ज़माने के बैन-बैन (दर्मियानी) का है।

दोम : इन ख़तों में जो नास्तिक तालीम रोकी गई है वो पौलुस के ज़माने की नहीं। इस के जवाब में कुलुस्सियों के ख़त का दीबाचा देखो। इन ख़तों में जो ज़िक्र है। इस ज़िक्र के मुशाबेह है (1 तीमुथियुस 1:3, 4, 19 4:1 से 3, 7, 6:8, 2 तीमुथियुस 2:16 से 18, 3:1 से 9, 4:3, 4, तीतुस 1:1, 14, 16 3:9, कुलुस्सियों 2:8, 18 से 24) इस में कुछ शक नहीं कि पौलुस के दिनों में नास्तिक तालीम इस दर्जे तक पहुंच गई थी।

सोम : तर्ज़-ए-कलाम पौलुस का नहीं। बहुत अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जो पौलुस के दूसरे ख़तों में पाए नहीं जाते। लेकिन उमूमन ये अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जो ख़ास मज़ामीन के मुताबिक़ हैं। मसलन सिकंदर ठठेरा, जादूगरी वग़ैरह बाअज़ ऐसे अल्फ़ाज़ हैं जो आदमी के.... तर्ज़-ए-कलाम में चंद सालों में दख़ल पा जाते हैं।

इलावा अज़ीं आर्येनियुस, क्लीमेंट असकंदरी, तरतलियान, यूसीबस वग़ैरह सब के सब इन ख़तों को पौलुस का समझते थे। और इस से पेश्तर पोलीकार्प क्लीमेंट रूमी, जस्टिन शहीद इस से कुछ इक़्तिबास करते हैँ। अलबत्ता मारश्यान ने इन ख़तों को रद्द किया। लेकिन ख़ास तालीम की वजह से जैसा कि और नविश्तों को जो उस की तालीम के ख़िलाफ़ थे।

जगह और वक़्त

मज़्कूर बाला बयान से ज़ाहिर है कि 61 ई॰ और 64 ई॰ के दर्मियान ये ख़त लिखे गए। तीमुथियुस का पहला ख़त और तीतुस का ख़त मक़िदूनिया या आसीया के किसी मुक़ाम से लिखे गए और तीमुथियुस का दूसरा ख़त रोम से शहीद होने से कुछ पेश्तर (4:6)

मकतूब अलय्या

तीमुथियुस का ज़िक्र आमाल 16:1, 3 में आता है। इस की माँ का नाम युनिके और नानी लूइस थी (2 तीमुथियुस 1:5) बाप यूनानी था। पौलुस के ज़रिये ग़ालिबन मसीही हुआ क्योंकि पौलुस उसे अपना बेटा कहता है। (1 तीमुथियुस 1:2, 2 तीमथस 3:14, 15) इस के बाद चंद मौक़ों पर पौलुस के सफ़रों में इस का ज़िक्र आता है। और चंद ख़तों में वो पौलुस का शरीक है। (आमाल 17:4, 19:22, 20:3, 4, 1 थिस्सलुनीकियों 3:2, 6, फिलिप्पियों 1:1 फ़िलेमोन 1, कुलुस्सियों 1:1 इब्रानियों 13:23)

रिवायत है कि तीमुथियुस दोमतियान की ईज़ा रसानी के वक़्त 96 ई॰ में शहीद हुआ। ख़तों में जो चंद इशारात इस तरफ़ हैं उनसे मालूम होता है कि वो शर्मीला सा आदमी था। (1 तीमुथियुस 1:18, 4:12, 6:11 से 14, 20, 2 तीमुथियुस 1:4, 6 से 8, 2:2, 3, 3:14, 15, 4:1, 2)

तीतुस, (ग़लतियों 2:1, 3) 2 कुरिन्थियों 2:12, 7:6 से 15, 8:16, 23, 12:18 (2 तीमुथियुस 4:10)

इन हवालों से ज़ाहिर है कि तीतुस ग़ैर क़ौम से मसीही हुआ। पौलुस ने इस को ख़ास पैग़ाम देकर कुरिन्थस की कलीसिया के पास भेजा। और उसने वहां अच्छा काम किया। आख़िरी आयत से साफ़ मालूम नहीं होता कि जब तीतुस व लमात्या को गया तो वो पौलुस को छोड़कर अपनी मर्ज़ी से गया या पौलुस की तरफ़ से गया।

तीमुथियुस की तरफ़ पहला ख़त

तक़्सीम मज़ामीन

1 बाब, सलाम के बाद तीमुथियुस को याद दिलाता है कि इफ़िसुस में रहे। ताकि झूटे मोअल्लिमों को रोके। इन झूटे मोअल्लिमों के ख़िलाफ़ अपने रुहानी तजुर्बों और इंजीली मक़्सद को पेश करता है।

बाब 2, दुआ और सिफ़ारिश के बारे में, इस में मर्दों और बीवीयों का फ़र्ज़।

बाब 2, दुआ और सिफ़ारिश के बारे में, इस में मर्दों और बीवीयों का फ़र्ज़।

बाब 4, झूटे मोअल्लिम बरपा होंगे और उनसे क्या सुलूक करना चाहिए।

बाब 5, कलीसिया के इंतिज़ाम के मुताल्लिक़ चंद आम हिदायात।

बाब 6, नौकरों, दौलतमंदों और झूटे मोअल्लिमों के बारे में।

तीमुथियुस का दूसरा ख़त

1 बाब, सलाम के बाद तीमुथियुस को हौसला दिलाता और अपनी तक़्लीफों और हालत तन्हाई का नमूना पेश करता है।

2 बाब, तीमुथियुस को उभारता है कि बर्दाश्त, दिलेराना इक़रार, पाकीज़गी और नर्मी और गर्मी से काम ले (चंद तश्बीहें पौलुस ने यहां इस्तिमाल की हैं। मसलन सिपाही, पहलवान, ज़मीनदार, घर के बर्तन, महर और कारीगर)

3 बाब, ख़राब ज़माने की आगाही, और इस के लिए दो नसीहतें पेश करता है। मेरे दुखों को याद रख। और पाक नविश्तों की हिदायत पर चल।

3 बाब, गोया वसीयत है कि तीमुथियुस पौलुस की तरह आख़िर तक मर्दानगी कर चंद भाईयों के बारे में हिदायात और रोम में पौलुस का हाल।

तीतुस का ख़त

1 बाब, सलाम के बाद तीतुस के कुरिन्थस में मुक़र्रर किए जाने का मंशा, ख़ादिमान दीन को किस तरह से मुक़र्रर करना और झूटे मुअल्लिमों से एहतियात।

2 बाब, इन्जील की बरकतों का वास्ता देकर मुख़्तलिफ़ दर्जों के मसीहियों को नसीहत करता है।

3 बाब, मसीह में रास्तबाज़ ठहरने की बुनियाद पर नेक आमाल की तरफ़ उभारता है।

चंद ख़ास ख़यालात

सही तालीम का मुजम्मल बयान। (1 तीमुथियुस 1:5, 2:4 से 6, 3:16), (2 तीमुथियुस 1:13, 2:19), (तीतुस 1:9, 2:11 से 14, 3:4 से 8)

झूटी तालीम का ज़िक्र। (1 तीमुथियुस 1:3 से 7, 19, 4:1 से 4:1 से 4, 7, 6:3 से 5, 20), (2 तीमुथियुस 2:16, 17, 23, 3:1 से 9)

(तीतुस 1:10 से 16, 3:9 से 11)

तमजीदी कलिमात। (1 तीमुथियुस 1:17, 6:15, 16), (2 तीमुथियुस 4:18)

पौलुस का अपना ज़िक्र। (1 तीमुथियुस 1:3, 11 से 16), (2 तीमुथियुस 1:8 से 12, 3:8 से 11, 4:6 से 17)

तीमुथियुस का शर्मीला-पन। (1 तीमुथियुस 1:18, 4:6, 12, 14 से 16, 6:11 से 14, 20), (2 तीमुथियुस 1:4, 8, 2:1, 3, 15, 3:14, 15, 4:2, 1)

ख़ादिमान दीन का दर्जा। (1 तीमुथियुस 3 बाब), (तीतुस 1:5 से 9)

इन आयात में उस्क़ुफ़ (सरदार पादरी) और प्रस्बेटरी यकसां हैं। बाअज़ों की राय है कि तीमुथियुस और तीतुस ख़ुद इफ़िसुस और कुरिन्थस के गोया उस्क़ुफ़ थे।

मसीह की दूसरी आमद। (1 थिस्सलुनीकियों 4:15), (2 कुरिन्थियों 5:1 से 5 तक) पौलुस का ख़याल था कि मैं मसीह की दूसरी आमद तक शायद जीता रहूँगा (फिलिप्पियों 1:21 से 25) उस को पता लगा कि उस आमद से पेश्तर मरूँगा। (2 तीमुथियुस 4:6 से 8) जो उस का आख़िरी ख़त था। उस को पूरा यक़ीन हुआ कि मुझे शहीद होना पड़ेगा। ताहम मसीह की आमद के दिन पर खास नज़र है।

इब्रानियों की तरफ़ का ख़त

मुसन्निफ़

क़दीम ज़माने से ये शहादत (गवाही) चली आई है, कि ये रसूली ज़माने का और इल्हामी तस्नीफ़ है। मसलन रोम का क्लीमेंट जो पहली सदी का था। इस में से बहुत कुछ इक़्तिबास करता है। और नीर तरतलियान औरीजन और असकंदरी क्लीमेंट वग़ैरह। तो भी शुरू से इस बारे में शक रहा कि मुसन्निफ़ कौन था। चुनान्चे औरीजन कहता है, “अलबत्ता क़दीम मसीहियों ने बेसबब इसे पौलुस से मन्सूब नहीं किया होगा।” लेकिन जिसने हक़ीक़तन ये ख़त लिखा उसे ख़ुदा ही जानता है। इस शक की वजह से मग़रिबी कलीसिया ने आगस्तीन के ज़माने तक इस ख़त की इतनी क़द्र ना की लेकिन मशरिक़ी कलीसिया में लोग इस की बड़ी क़द्र करते थे। इसलिए कई आदमियों से ये मन्सूब किया गया। मसलन पौलुस से। इस की ताईद इस तरह होती है कि सिकंदरिया के बुज़ुर्ग पंतेनूस, क्लीमेंट, डाओंसीआस वग़ैरह इसे पौलुस की तस्नीफ़ बताते हैं। यूसीबस एक मुक़ाम में कहता है कि पौलुस ने इस को इब्रानी में लिखा। दूसरी जगह में इस पर कुछ शक करता है।

पौलुस के ख़तों की फ़ेहरिस्त में अक्सर पाया जाता है। मगर इस राय के ख़िलाफ़ ये उमूर हैं कि और नुस्ख़ों में वो पौलुस के ख़तों से अलग है। और आर्येनियस अगरचे पौलुस के ख़तों की तरफ़ बारहा इशारा करता है। इस की तरफ़ इशारा नहीं करता। इस ख़त का तर्ज़-ए-कलाम पौलुस के मुवाफ़िक़ नहीं। इस का नाम इस पर नहीं। वो तीमुथियुस को भाई कहता है। हालाँकि दूसरे ख़तों में वो बेटा कहलाता है। (इब्रानियों 13:23)

बाअज़ इसे क्लीमेंट रोमी की तस्नीफ़ समझते हैं। मगर इस की ताईद बहुत नहीं होती और ख़ुद क्लीमेंट इस का इक़्तिबास ऐसा करता है जैसे इल्हामी किताब से।

एक और राय है कि अप्पोलूस मुसन्निफ़ था। इस आदमी का ज़िक्र आमाल 18 और 19 अबवाब में है। इस से ज़ाहिर है कि वो सिकंदरिया का रहने वाला और नविश्तों में माहिर और बड़ा मुबाहिस (मुनाज़िर) था। और इस ख़त का मुसन्निफ़ कुछ इसी क़िस्म का शख़्स होगा।

बर्नबास को भी मुसन्निफ़ बताता है। इस की ताईद में तरतलियान लिखता है कि ये ख़त बर्नबास का है और कि हमारी कलीसिया यानी शुमाली अफ़्रीक़ा की कलीसिया में ये बात मशहूर है। इस के साथ भी मुत्तफ़िक़ है कि बर्नबास लावी था। और इस ख़त में लावी फ़िर्क़े का बहुत ज़िक्र आता है। चुनान्चे आजकल अक्सर आलिम लोग इस राय की तरफ़ हैं।

मकतूब अलय्या

सब लोग मानते हैं कि ये ख़त यहूदी मसीहियों को लिखा गया। लेकिन इस के बारे में इख़्तिलाफ़-उल-राये है कि ये कौन से यहूदी मसीही थे।

अव़्वल : कुल यहूदी मसीहियों के लिए। लेकिन मज़ामीन से मालूम होता है कि ये ख़त ऐसा आम नहीं है।

दोम : यरूशलेम की यहूदी कलीसिया की तरफ़ लिखा गया। मुम्किन है कि ऐसा हो। लेकिन 12:14 में लिखा है कि अब तक ऐसा मुक़ाबला नहीं किया जिसमें ख़ून बहा हो। लेकिन यरूशलेम की इज़ार सानियों में ख़ून तक नौबत पहुंची थी।

सोम : फ़िलिस्तीन की किसी ख़ास कलीसिया के नाम।

चहारुम : अन्ताकिया की यहूदी मसीही कलीसिया की तरफ़।

वक़्त

मज़ामीन से मालूम होता है कि ये ख़त यरूशलेम की बर्बादी से पेश्तर लिखा गया था। क्योंकि जब क़ुर्बानियों का ज़िक्र आता है तो लिखा है कि वो गुज़रानी जाती हैं यानी वो इंतिज़ाम अब तक क़ायम था। मसलन 13:11 लेकिन ये कोई क़तई दलील नहीं क्योंकि शायद यहां आम दस्तूर की तरफ़ इशारा है। ज़्यादा माक़ूल दलील ये मालूम होती है, कि अगर यरूशलेम इस ख़त के लिखे जाने से पेश्तर बर्बाद हो जाता तो ज़रूर इस का ज़िक्र होता। क्योंकि उस के ज़रिये इस की दलील लाजवाब हो जाती है। इस लिहाज़ से ये ख़त 70 ई॰ से पेश्तर लिखा गया होगा। मगर बहुत पेश्तर नहीं। क्योंकि तीमुथियुस के रिहा होने का ज़िक्र है। (इब्रानियों 13:22) और ये रिहाई 66 ई॰ से पेश्तर ना हुई होगी।

कहाँ से लिखा गया : इब्रानियों 13:24 में लिखा है कि अतालिया वाले तुम्हें सलाम कहते हैं। इस से बाअज़ों ने नतीजा निकाला कि ये ख़त शायद अतालिया से लिखा गया। लेकिन इस जुम्ले से ये मुराद भी हो सकती है कि जो लोग अतालिया से उस के साथ थे। इसलिए जगह का ठीक पता लगाना मुश्किल है।

इब्रानियों 13:24 में लिखा है कि अतालिया वाले तुम्हें सलाम कहते हैं। इस से बाअज़ों ने नतीजा निकाला कि ये ख़त शायद अतालिया से लिखा गया। लेकिन इस जुम्ले से ये मुराद भी हो सकती है कि जो लोग अतालिया से उस के साथ थे। इसलिए जगह का ठीक पता लगाना मुश्किल है।

ये बहुत साफ़ है कि जिनको ये ख़त लिखा गया। वो बर्गश्तगी (फिर जाने) के ख़तरे में थे। यानी यहूदियों के समझाने से ये मसीही मसीह का इन्कार करने और हैकल के इंतिज़ाम को क़ुबूल करने की तरफ़ माइल हो चले थे। इसलिए मुसन्निफ़ बड़े ज़ोर से उनको समझाता और आगाह करता है। (2:1 से 3, 3:12 से 14, 4:1, 6:6, 7, 11, 12, 10:23 से 39, 12:25 से 29, 13:10 से 14)

ख़ास ख़यालात

मज़्कूर बाला मुक़ामात में अमली नसीहतें पाई जाती हैं। लेकिन इनकी बुनियाद क्या है? यानी मसीह की फ़ौक़ियत से ख़त के सिलसिले से ये वाज़ेह है।

सिलसिला मज़ामीन

1, 2 बाब, मसीह का मुक़ाबला फ़रिश्तों से।

(1) उनसे आला है क्योंकि अल्लाह कहलाता है।

(ब) तजस्सुम और मौत के बाइस उनसे अदना।

(ज) इसी वजह से वो नजातदिहंदा होता है। फ़रिश्ते नजात नहीं दे सकते।

3 बाब, मूसा से मसीह का मुक़ाबला (दोनों ख़ुदा की तरफ़ से भेजे गए थे। इसलिए मसीह यहां रसूल कहलाता है 3:1) लेकिन मूसा घर का ख़ादिम और मसीह घर का मालिक।

4 बाब, येशू से आला। क्योंकि वो हक़ीक़ी आरामगाह तक पहुंचा सकता है।

5:1 से 10:18 तक। यहूदी सरदार काहिन से मसीह का मुक़ाबला।

(अ) मसीह कम से कम उस के बराबर है। (5 बाब)

(ब) मसीह सरदार काहिन से आला है। मेल्कीसिदक़ के दर्जे के लिहाज़ से जो इब्राहिम से आला था और इसलिए लावी से भी आला (6, 7)

(ज) मसीह का अहद लावी के अहद से कहीं बेहतर (8 बाब)

(द) मसीह की हैकल (यानी आस्मान) यहूदी हैकल से आला (9 बाब)

(ह) उस का कफ़्फ़ारा कहीं बेहतर (10:1 से 18)

अमली नसीहतें, 10:19 से 13:25 तक

(1) बर्गश्तगी का होलनाक ख़तरा। 10:19 से 39

(2) 11 बाब, पुराने अहद नामों के मुक़द्दसों का नमूना

(3) 12 बाब, दुखों को ख़ुदा की तरफ़ से तम्बीह समझना चाहिए

(4) 13 बाब, आख़िरी नसीहत। मसीह के साथ ख़ारिज किया जाना और मलामत उठाना।

इस ख़ास मज़्मून के इलावा चंद ख़ास बातें हैं जिनका लिहाज़ करना चाहिए। मसलन :-

(1) कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के दर्जे की तालीम गो मसीह से ये लक़ब इस ख़त में मन्सूब नहीं। (11:1, 4, 4:13, 14)

(2) फ़ज़्ल का अहद बड़ी ज़िम्मेदारी पर दलालत करता है। (2:3,3:1, 4:1,10:29, 12:25)

(3) मसीह का काम, बलिहाज़ नबी, बादशाह और काहिन के। नबी यानी ख़ुदा की तरफ़ से बोलता है। (1:2 3:1, 12:25) मेल्कीसिदक़ की तरह बादशाही काहिन था। और ये मुहावरा अक्सर आता है कि वो जनाब-ए-आली के दाहिने जा बैठा (1:3) सरदार काहिन, हम्दर्द, पायदार, क़ादिर, ख़ुद क़ुर्बानी और क़ुर्बानी चढ़ाने वाला है। (10:10 से 14)

(4) इस ख़त में इस पर ज़ोर दिया जाता है, कि सलीब पर कफ़्फ़ारे और आस्मान पर ख़ुदा के हुज़ूर उस की मक़्बूलियत एक बार ही हमेशा के लिए मक़्बूल हो चुकी है। और चूँकि ये सरदार काहिन अबद (हमेशा) तक ज़िंदा है। इसलिए हर मसीही के लिए ये अहम अम्र है कि इस ज़िंदा मसीह के साथ रिश्ता क़ायम रहे। इस रिश्ते का वसीला ईमान है। ना शरीअत की रसूम। चुनान्चे अह्दे-अतीक़ के मुक़द्दस लोग भी ज़िंदा यहोवा पर ना कि शरीअत पर भरोसा रखते थे।

मुक़द्दस याक़ूब का ख़त

मुसन्निफ़

नए अहदनामे में चंद मुक़ामात पर ये नाम आया है। मसलन रसूलों की फ़ेहरिस्त में ज़बदी का बेटा (मत्ती 10:2, 3, मर्क़ुस 3:17, 18, लूक़ा 6:14 से 15) याक़ूब जो मसीह का भाई कहलाता है। (मत्ती 13:55) याक़ूब ख़ुर्द (मर्क़ुस 15:40) याक़ूब यरूशलेम का मीर मज्लिस (आमाल 15:13) यहूदाह का भाई (यहूदाह 1:1) लेकिन इनमें बाअज़ नामों से एक ही शख़्स मुराद है। यानी यरूशलम का मीर मज्लिस। यहूदाह का भाई और मसीह का भाई एक ही शख़्स था। और ख़याल ग़ालिब है कि उसने ये ख़त लिखा।

लेकिन यहां ये सवाल ग़ालिब आता है, कि मसीह के भाई से क्या मुराद है? इस के बारे में तीन राय हैं :-

(1) हक़ीक़ी भाई, यानी यूसुफ़ और मर्यम का बेटा।

(2) यूसुफ़ का बेटा किसी पहली बीवी से।

(3) ख़ालाज़ाद भाई।

यूसीफ़स रावी (रिवायत बयान करने वाला) है कि ये याक़ूब मुद्दत तक यरूशलेम में रहा और सब लोग ख़्वाह मसीही ख़्वाह यहूदी उस की बड़ी इज़्ज़त करते थे। लेकिन आख़िरकार बाअज़ यहूदियों ने इस को हैकल के कुंगुरा से गिरा कर मार डाला। मसीह की मौत से पेश्तर ईमान नहीं लाया। (यूहन्ना 7:5) मगर फ़ौरन मसीह के जी उठने के बाद इस का मसीहियों में ज़िक्र आता है। (आमाल 1:13, 14) यरूशलेम की कलीसिया में इस का ओहदा बिशप के ओहदे की मानिंद था। और ग़लतियों 1:19 में वो रसूल भी कहलाता है। यहूदी लोग इसलिए इस की क़द्र करते थे, कि अगरचे वह पक्का मसीही था। तो भी वो मूसवी शरीअत की इज़्ज़त करता था। (आमाल 17), (ग़लतियों 2:11)

मकतूब अलय्या

पहली आयत में साफ़ लिखा है कि “उन बारह फ़िर्क़ों को जो जाबजा रहते हैं सलाम पहुंचे।” यानी उन मसीहियों को लिखता है जो यहूदी क़ौम में से मुख़्तलिफ़ मुल्कों में मसीही हो गए थे। इस पर बाअज़ों ने एतराज़ किया कि यहां वो चंद जमाअतों को जिनके क़ुसूरों से वो वाक़िफ़ है लिखता है। मगर आम ख़त में भी ऐसा लिख सकते हैं क्योंकि बाअज़ों के क़ुसूरों को दिखाना औरों के लिए भी मुफ़ीद है।

वक़्त तहरीर

इस के बारे में दो मशहूर राय हैं :-

(1) यरूशलम की बर्बादी से कई बरस पेश्तर (पहले) लिखा गया।

(2) 150 ई॰ के क़रीब लिखा गया।

इस राय की ताईद में ये कहा जाता है कि इस ज़माने के मसीही बुज़ुर्गों की तस्नीफ़ात में इस से पेश्तर इस का ज़िक्र नहीं आता। और कलीसिया का हाल इस ख़त में कुछ बिगड़ा हुआ मालूम होता है। जो माबाअ्द ज़माने में हुआ।

लेकिन पहली राय ज़्यादा मज़्बूत मालूम होती है। मसलन चंद तस्नीफ़ात में ना मुसन्निफ़ और ना तस्नीफ़ का ज़िक्र है मगर इस के अल्फ़ाज़ और ख़याल इस्तिमाल होते हैं। मसलन हर्मास के चौपान में। और शायद रोमी क्लीमेंट की तस्नीफ़ात में। और सुर्यानी तर्जुमे में ये ख़त पाया जाता है।

इस ख़त में जो मुबाहिसा ईमान और आमाल के बारे में है वो पहली सदी का है। दूसरी सदी में इस का कुछ पता नहीं मिलता। और कलीसिया का हाल यक़ीनन पहली सदी के ज़्यादा मुवाफ़िक़ है। क्योंकि दौलतमंद जिसको याक़ूब मलामत करता है ग़ालिबन यहूदी थे। चूँकि शुरू में मसीही कलीसियाएं यहूदी इबादत ख़ाने से ताल्लुक़ रखती थीं। और कोई ऐसी बात इस में नहीं। जिसके बाइस इस को दूसरी सदी की तस्नीफ़ समझें।

इस ख़त में जो मुबाहिसा ईमान और आमाल के बारे में है वो पहली सदी का है। दूसरी सदी में इस का कुछ पता नहीं मिलता। और कलीसिया का हाल यक़ीनन पहली सदी के ज़्यादा मुवाफ़िक़ है। क्योंकि दौलतमंद जिसको याक़ूब मलामत करता है ग़ालिबन यहूदी थे। चूँकि शुरू में मसीही कलीसियाएं यहूदी इबादत ख़ाने से ताल्लुक़ रखती थीं। और कोई ऐसी बात इस में नहीं। जिसके बाइस इस को दूसरी सदी की तस्नीफ़ समझें।

बाब अव़्वल, याक़ूब मसीहियों को उभारता है, कि आज़माईशों के वक़्त बर्दाश्त करें। ख़ुदा से मांगें। और फ़िरोतनी से ख़ुदा की मर्ज़ी को पूरा करें।

बाब दोम, चंद गुनाहों के सबब मलामत करता है।

(1) 2:1 से 13, दौलतमंदों की तरफ़दारी।

(2) 2:14 से 26 मुर्दा ईमान जो बेफल है।

बाब सोम, ज़बान के गुनाहों पर मलामत। ख़ासकर तोहमत लगाना।

बाब चहारुम, बुरी शहवत, तकब्बुर, और इल्ज़ाम लगाना।

बाब पंजुम, ग़रीबों पर ज़ुल्म।

5:7 से आख़िर तक आख़िरी नसीहत। सब्र, अयादत, और सिफ़ारिश के बारे में।

ख़ास ख़यालात

(1) मसीही अक़ीदे की कोई तश्रीह नहीं। इस अम्र में ये ख़त रोमियों के ख़त और ग़लतियों के ख़त से मुतफ़र्रिक़ (अलग) है।

(2) मसीही तहरीकों का बहुत कम ज़िक्र है। मसलन मसीह या उस की मुहब्बत वग़ैरह का बहुत कम वास्ता दिया है। अगरचे मसीह का कुछ ज़िक्र तो है। (1:1, 2:1, 7, 5:7) लेकिन बरअक्स इस के बहुत अमली तालीम है। जो मसीह की पहाड़ी वाअज़ की तालीम से बहुत मुशाबेह (मिलती-जुलती) है। इस से पता लगता है कि याक़ूब का ख़ास मक़्सद ये है कि ये भाई ख़ाली ईमान पर भरोसा ना रखें। और आमाल के बारे में जो उस की तालीम है वो पौलुस की तालीम के ख़िलाफ़ नहीं।

क्या याक़ूब ने ये अमली तालीम तहरीर शूदा इंजीलों से ली या ज़बानी रिवायत से जो उस के ज़माने में मुरव्वज थी। इस का फ़ैसला ना मुम्किन है ना ज़रूरी है। इस्लाह के ज़माने में चंद आदमियों ने इस पर एतराज़ किया। मसलन इरासमस और लूथर ने। लेकिन उनके एतराज़ इस ख़त के मज़ामीन के बाइस हुए ना किसी तवारीख़ी शहादत (गवाही) के सबब। और मज़ामीन के बारे में उनकी ग़लतफ़हमी थी।

पतरस का ख़त

मुसन्निफ़

जिस शख़्स से ये ख़त मन्सूब करता है, वो हवारियों (शागिर्दों) में से था। इस का ज़िक्र पहले-पहल यूहन्ना 1:4 वग़ैरह में आया है जब उस के भाई इन्द्रियास ने उस को येसू नासरी के बारे में बताया। उस वक़्त से वो येसू का शागिर्द तो हो गया। लेकिन अपने पेशे के काम में यानी मछुवे के काम में मसरूफ़ रहा। जब तक कि मसीह ने उसे ख़ास तौर पर ना बुलाया कि हमेशा उस के साथ रहे। (लूक़ा 5:1 वग़ैरह) रसूलों की फ़ेहरिस्त में इस का नाम पहले आता है। और गुफ़्तगु में भी वो हमेशा पेश क़दम था। चुनान्चे उसने एक ख़ास मौक़े पर एक बड़ा इक़रार किया कि तू मसीह ज़िंदा ख़ुदा का बेटा है। (मत्ती 16:16 वग़ैरह) इसी मौक़े पर मसीह ने उसे पतरस का नाम दिया (क्योंकि अस्ल नाम उस का शमऊन इब्ने यूना था) ये नाम पतरस यूनानी ज़बान में उस लफ़्ज़ से मुशाबेह है जिसके मअनी हैं चट्टान या पत्थर। और मसीह ने फ़रमाया था कि इस चट्टान पर मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा। इस आयत की सनद पर रोमी कलीसिया ने दाअवा किया है कि हमारी कलीसिया पतरस रसूल पर मबनी है। और वो अकेली हक़ीक़ी कलीसिया है। इस के जवाब में ये कहना पड़ता है कि इस का ना तो क़तई सबूत है कि पतरस रसूल रोम की कलीसिया का बानी था और ना वो सिर्फ इस कलीसिया का बानी बल्कि और कलीसियाओं का भी बानी था। वो ग़ालिबन रोम में शहीद हुआ। लेकिन वो रोम की कलीसिया का उस्क़ुफ़ (सरदार पादरी) कभी नहीं था।

हक़ीक़ी बात ये है कि मसीह ने पंतिकुस्त के दिन यहूदियों के लिए और कुर्नेलियुस के ख़ानदान के ज़रिये से ग़ैर क़ौमों के लिए ईमान का दरवाज़ा खोला। (आमाल 2:14, 10:9, 15:7 वग़ैरह) पहली सदी में बाक़ी कलीसियाओं ने रोमी कलीसिया के ना तो आला इख़्तियार को माना और ना इसे अकेली हक़ीक़ी कलीसिया समझा। मसीह के गिरफ़्तार होने के वक़्त पतरस ने तीन दफ़ाअ मसीह का इन्कार किया। लेकिन बहाल होने के बाद वो बड़ा सरगर्म और कामयाब वाइज़ हुआ। उस का ख़ास काम मख़्तूनों में था। (ग़लतियों 2:9) बाक़ी काम का हाल मालूम नहीं अलबत्ता ये रिवायत है कि आख़िरकार रोम में मसीह की पेशीनगोई के मुताबिक़ मस्लूब हुआ। (यूहन्ना 21:18 ता 19)

अब दर्याफ़्त करें कि किस तरह साबित होता है कि पतरस इस ख़त का मुसन्निफ़ है। बैरूनी शहादत उस के मुसन्निफ़ के बारे में बहुत पुर ज़ोर है मसलन रोमी क्लीमेंट (1 पतरस 1:9 2:9, 3:20, 5:5) का इक़्तिबास करता है। बर्नबास से मन्सूब शूदा ख़त में (1 पतरस 1:9, 17) हर्मास के चौपान में (1:7, 2:5) पोलीकार्प के ख़त में (1 पतरस 1:8, 13, 21) का इक़्तिबास है। पेपियास और जस्टिन वग़ैरह सब इस से इक़्तिबास करते हैं। आर्येनियस ना सिर्फ इक़्तिबास करता है, बल्कि वो इसे पतरस से मन्सूब करता है। वैसा ही तरतलियां और क्लीमेंट असकंदरी बहुत इक़्तिबास करते हैं। सारे तर्जुमों में ये ख़त पाया जाता है। और एक के सिवा यानी मोरातोरी फ़ेहरिस्त के सिवा बाक़ी सब फ़हरिस्तों में पाया जाता है। इस मोरातोरी नुस्ख़े का आख़िरी हिस्सा तल्फ़ हो गया है। (2 पतरस 3:1) में इस ख़त की तरफ़ इशारा है। अगर ये दूसरा ख़त पतरस का ना भी हो तो भी बहुत पुरानी तस्नीफ़ है। और इस से पहले ख़त की साफ़ ताईद होती है।

अंदरूनी सबूत : ख़यालात वही हैं जो आमाल की किताब में पतरस से मन्सूब हैं। लेकिन बाअज़ों का ख़याल है कि तर्ज़-ए-कलाम और यूनानी इस से आला है। जो पतरस जैसे यहूदी से मन्सूब कर सकें। लेकिन याद रखें कि 1 पतरस 5:12 में साफ़ लिखा है कि मैंने सलवानस के ज़रिये तुमको ये ख़त लिखा है। और ग़ालिब ख़याल है कि यूनानी तर्ज़-ए-कलाम सलवानस का है।

मकतूब अलय्या

पहली आयत में मकतूब अलय्या चंद कलीसियाएं हैं जो एशया-ए-कोचक में पाई जाती थीं। इनको वो मुसाफ़िर जो जाबजा रहते हैं कहता है। इस लक़ब से या तो वो मसीही मुराद हैं जो यहूदियों में से आए और इस क़िस्म के लोग पंतिकुस्त के रोज़ यरूशलेम में आए हुए थे। (आमाल 2:9 से 11) ऐसे लोग यहूदियों की इज़ार सानियों के वक़्त मुख़्तलिफ़ मुल्कों में परागंदा (बिखरना) हो गए थे। (आमाल 8:1) वग़ैरह।

इन कलेसियाओं की बुनियाद किस ने डाली होगी और पतरस क्यों उनसे मुख़ातिब होता है? ग़ालिबन पंतिकुस्त के दिन के ईमानदारों और ख़ुद पतरस ने इधर-सफ़र कर के चंद कलीसियाएं क़ायम कीं। क्योंकि आमाल की किताब में उस की ख़िदमत और मुनादी का मुफ़स्सिल (तफ़्सील के साथ) बयान नहीं। अगरचे पौलुस ग़ैर क़ौमों का ख़ास रसूल था। तो भी दूसरे रसूलों ने बहुत सफ़र किए। और पतरस ने मुख़्तलिफ़ क़िस्म के यहूदियों में बहुत काम किया होगा।

ख़त लिखने की जगह : 1 पतरस 5:13 में बाबिल का ज़िक्र है गोया वो बाबिल से लिख रहा है। बाबिल के बारे में तीन राय हैं।

(1) लफ़्ज़ी तौर पर वो बाबिल जो मसोपुतामिया में है।

(2) मिस्र का एक शहर जो इस नाम का था।

(3) तशबीही तौर पर रोम मुराद है

पहली राय की ताईद (हिमायत) में ये कहा जाता है कि जिस तर्तीब से उसने मुक़ामात का ज़िक्र किया है वो बाबिल की तरफ़ से शुरू होती है। लेकिन इस में बहुत ज़ोर नहीं। और बाबिल की तरफ़ पतरस के जाने का और कुछ ज़िक्र नहीं।

दूसरी राय की बहुत कम ताईद होती है। अक्सर लोग तीसरी राय मानते हैं। क्योंकि बाबिल रोम का लक़ब मशहूर हो गया था। मगर इस पर ये एतराज़ होता है कि ये लक़ब नेरू की ईज़ा रसानी से पेश्तर पाया नहीं जाता।

तहरीर का वक़्त

आर्येनियुस कहता है कि पतरस और पौलुस दोनों रोम में मुनादी करते थे। और ख़याल ग़ालिब है कि पतरस ने ये ख़त रोम से शहीद होने से कुछ पेश्तर लिखा।

अब रहा ये सवाल कि कितना अर्सा पेश्तर? इस का ठीक पता नहीं। अलबत्ता बाअज़ कहते हैं कि 66 ई॰ और बाअज़ 58 ई॰ और 67 ई॰ के दर्मियान लिखा होगा।

ख़त के मज़ामीन और ख़ास ख़यालात

तक्लीफ़ उठाने का बहुत ज़िक्र इस ख़त में आता है। लेकिन पता नहीं कि ये तक्लीफ़ यहूदियों की तरफ़ से थी या अवामुन्नास की तरफ़ से या सरकार की तरफ़ से। राएमिज़ी साहब यक़ीन से कहते हैं कि सरकार की तरफ़ से ये तक्लीफ़ पहुंची। क्योंकि 1 पतरस 4:4 में ये जुम्ला आया है कि “अगर मसीह के नाम के सबब से तुम्हें मलामत (बुरा-भला कहना) की जाती है।” इस से ये मुराद है कि ये लोग मसीही होने के ही सबब से सताए जाते थे। लेकिन ये दस्तूर सरकार में नेरू के वक़्त से पेश्तर कभी नहीं हुआ। अक्सर आलिम लोगों की राय ये है कि इस ख़त में ऐसी इज़ार सानी का ज़िक्र है जो यहूदियों और अवामुन्नास से होती थी। ये क़ाबिले लिहाज़ है कि इस में मौत तक दुख उठाने का ज़िक्र नहीं। और 1 पतरस 3:13 में लिखा है कि “अगर तुम नेकी करने में सरगर्म हो तो तुमसे बदी करने वाला कौन है।” जिस पतरस ने ये चाहा था कि मसीह सलीब के दुख से किनारा करे वो इस ख़त में बारहा बताता है कि पहले दुख उठाना है और बाअदा (बाद में) जलाल में शामिल होना। (1 पतरस 1:11 2:21, 3:14, 18, 4:13, 5:1, 10)

एक सवाल ये भी किया जाता है कि पतरस कहाँ तक पौलुस के ख़तों से वाक़िफ़ था। अलबत्ता 2 पतरस 3:15, 16 में पौलुस और उस के ख़तों का ज़िक्र आया है। मगर इस से हमको पूरी तसल्ली नहीं मिलती कि पतरस पहले ख़त के लिखते वक़्त पौलुस के ख़तों से वाक़िफ़ था। बाअज़ आलिमों ने कहा है कि रोमियों और इफ़िसियों के ख़तों से इस पहले ख़त की मुशाबहत है। लेकिन दूसरे आलिम इस का इन्कार करते हैं। हाँ इतना कह सकते हैं और इस पर सब मुत्तफ़िक़ हैं कि पतरस और पौलुस दोनों तालीम की असली बातों की यकसाँ तालीम देते हैं। नाज़रीन इस बात पर भी ग़ौर करें कि ये दो रसूल मसीह की इन्जील को पेश करने में मुतफ़र्रिक़ पहलूओं से नज़र करते थे। एक मुफ़स्सिर ने ये लिखा है कि पौलुस तो सूफ़ी मिज़ाज नज़र आता है यानी अंदरूनी रुहानी बातों पर ज़ोर देता है और पतरस पाबंद शराअ है। यानी सब कुछ हुक्म के तौर पर मानता है। इलावा अज़ीं ये ख़यालात भी पाए जाते हैं। फ़िरोतनी (1 पतरस 5:6, 2:18 वग़ैरह) बशाशत (1 पतरस 1:6, 8, 3:13, 4:19, 5:10)

तक़्सीम मज़ामीन

1:1,2 सलाम।

1:3 से 12 तक़्लीफों के बावजूद नजात की उम्दा उम्मीद।

1:13 से 2:1 बर्दाश्त, पाकीज़गी और बिरादराना उल्फ़त और तरक़्क़ी की नसीहतें।

2:11 से 3:12 ख़ास लोगों को नसीहतें। मसलन सरकारो रईयत, नौकरों, मियां बीवी को।

3:13 से 4:6 ईज़ा रसानी से हिरासाँ ना हो क्योंकि

(1) उमूमन नेकों को लोग नहीं सताते।

(2) ख़ुद मसीह ने दुख उठाया।

(3) और वो आख़िरकार सबों की अदालत करेगा।

4:7 से 5:11 तक, आम नसीहतें, मुहब्बत, हम्दर्दी से चलना, मसीह के नाम के लिए ख़ुशी दुख उठाना, फ़िरोतनी से अपने फ़राइज़ अदा करना। मसलन बुज़ुर्गों के फ़राइज़।

5:12 से 14, ख़ातिमा।

पतरस का दूसरा ख़त

मुसन्निफ़

इस ख़त के 1:1, 14, 16, 17, 3:1, 2, 15 से मालूम होता है कि मुसन्निफ़ दाअवा करता है कि मैं शमऊन पतरस हूँ। और अपने पहले ख़त की तरफ़ इशारा करता है। लेकिन बाअज़ अश्ख़ास इस दाअवे को नहीं मानते और कहते हैं कि ये ख़त दूसरी सदी के वस्त के क़रीब लिखा गया। इस राय की ये वजूहात पेश की जाती हैं :-

(1) वो अपना दाअवा ऐसे तौर से पेश करता है कि जिससे शक पैदा होता है।

(2) और जिस पहाड़ पर मसीह की सूरत बदली उसे वो मुक़द्दस पहाड़ कहता है (1:18) पहली सदी का ये मुहावरा नहीं।

(3) पतरस के पहले ख़त में ईज़ा रसानी का ज़िक्र है। लेकिन इस में बिद्अती तालीम से मुक़ाबला है। जो ख़यालात इस ख़त में पाए जाते हैं वो पहले ख़त से मुतफ़र्रिक़ हैं। और नीज़ तर्ज़-ए-कलाम भी मुख़्तलिफ़ है। इलावा अज़ीं 3:15, 16 से मालूम होता है कि नये अहदनामे की अक्सर किताबें इस ख़त की तहरीर के वक़्त रिवाज पा चुकी थीं। और सबसे क़दीम मसीही बुज़ुर्ग इस से इक़्तिबास नहीं करते। और यूसीबस मुअर्रिख़ इसे मुश्तबा (मशुक़ूक़) किताबों की फ़ेहरिस्त में दर्ज करता है। जेरोम और औरीजन भी इस के बारे में शक ज़ाहिर करते हैं। लेकिन इन बातों के जवाब में दीगर आलिम कहते हैं :-

(1) कि अगर मुसन्निफ़ सच-मुच पतरस था तो उसे अपना ज़िक्र करना नामुनासिब था और ना उस पहाड़ को मुक़द्दस कहना ना रवा था। मत्ती 4:5 27:53 में यरूशलम मुक़द्दस शहर कहलाता है।

(2) बिद्अती तालीम पहली सदी में बहुत थी। चुनान्चे पौलुस रसूल के ख़तों से ज़ाहिर है। इसलिए कुछ ताज्जुब नहीं कि पतरस उन कलीसियाओं की हालत से आगाह हो कर उनको मुतनब्बाह (ख़बरदार करना) करता है।

(3) इस तरह से चूँकि मज़्मून मुतफ़र्रिक़ है तो तर्ज़-ए-कलाम भी मुतफ़र्रिक़ होगा।

(4) याद रहे कि जैसा पहले ख़त में ज़ाहिर किया गया है। पतरस ने ग़ालिबन किसी मुंशी के ज़रिये ये ख़त लिखवाया और सब मानते हैं कि इस ख़त का तर्ज़-ए-कलाम गो अजीब है तो भी नए अहदनामे की दीगर किताबों की निस्बत पतरस के पहले ख़त के मुशाबेह है।

(5) इस में शक नहीं कि पौलुस के ख़त शुरू ही से इज़्ज़त की निगाह से देखे जाते और इबादत में पढ़े जाते थे। (2 थिस्सलुनीकियो 2:2) (कुलुस्सियों 4:16)

(6) गो योसीबस इसे मुश्तबा (मशुक़ूक़) किताबों की फ़ेहरिस्त में दर्ज करता है। तो भी उसने इक़रार किया कि अक्सर मसीही इस ख़त को मानते थे और जेरोम और औरीजन जो कुछ शक ज़ाहिर करते हैं। तो भी वो इस को क़ुबूल करने के लिए तैयार थे।

दीगर मुसन्निफ़ों की तस्नीफ़ात में मसलन क्लीमेंट असकंदरी और आर्येनियुस में इस ख़त के जुम्ले इस्तिमाल किए जाते हैं।

पतरस का मुकाशफ़ा जो एपोक्रिफल किताबों में है। अगरचे पतरस की तस्नीफ़ नहीं और दूसरी सदी (130 ई॰) की तस्नीफ़ है वो बाअज़ों के नज़्दीक इस दूसरे ख़त पर मबनी है।

एक मुश्किल सवाल यहां पेश आता है कि इस दूसरे ख़त का ताल्लुक़ यहूदाह के ख़त से क्या है? सरसरी पढ़ने से ये रोशन है कि इनमें से एक ने दूसरे का ख़त देखा होगा। क्योंकि झूटे मोअल्लिमों के बारे में अल्फ़ाज़ और जुम्ले तक़रीबन यकसाँ हैं। बाअज़ कहते हैं कि पतरस ने यहूदाह से नक़्ल किया। ये मुश्किल अम्र है। लेकिन अग्लबन दूसरे ख़त के मुसन्निफ़ ने पहले लिखा। अगर ऐसा हो तो पूरा यक़ीन है कि पतरस मुसन्निफ़ था। बाअज़ों ने इस मुशाबहत की वजह भी बताई कि इन दोनों मुसन्निफ़ों ने किसी और से नक़्ल किया। और इस की ताईद में ये बात नज़र आती है कि ये दोनों मुसन्निफ़ चंद यहूदी मुकाशफ़े की किताबों से इक़्तिबास करते हैं। लेकिन आजकल राय ये है, कि इन दोनों ने बिला-वास्ता एक दूसरे से मदद ली। अल-ग़र्ज़ अगरचे इस ख़त के बारे में हमेशा शक रहेगा। लेकिन बहैसियत कुल इसे पतरस से मन्सूब करना रवा (वाजिब) है।

मकतूब अलय्या

बाअज़ कहते हैं कि सामरी कलीसियाओं को ये ख़त लिखा गया। या अन्ताकिया की गिर्द व नवाह (आसपास) की कलीसियाओं को। मगर ग़ालिबन इन कलीसियाओं को ये ख़त लिखा गया। जिनकी तरफ़ पतरस ने अपना पहला ख़त लिखा था। जिन कलेसियाओं में पतरस को मालूम हुआ कि इसी क़िस्म की ग़लत तालीम पैदा हो रही थी। जिसके ख़िलाफ़ पौलुस ने कुरिन्थस और गलतिया वग़ैरह की कलीसियाओं को आगाह किया था।

तहरीर की जगह और वक़्त

अगर ये पतरस का ख़त हो तो इस के लिखने का वक़्त और जगह क्या होगी? बाअज़ आलिम कहते हैं कि ये ख़त मौजूदा पहले ख़त से पेश्तर लिखा गया। और पतरस का एक और ख़त था जो खो गया। मगर अक्सर लोग समझते हैं कि ये दूसर ख़त हमारे मौजूदा पहले ख़त के बाद रोम से पतरस की शहादत से कुछ पेश्तर लिखा गया।

तक़्सीम मज़ामीन

2 पतरस 1:1, 2 सलाम

1:3 से 11 तरक़्क़ी की नसीहत ताकि उनकी बर्गुज़ीदगी साबित हो।

1:12 से 21 उस की शख़्सी गवाही और अह्दे-अतीक़ की नबुव्वतों की सनद पर ये नसीहत मबनी है।

2:1 से 22 झूटे मोअल्लिमों के बयान में। पुराने अहदनामे की चंद मिसालों से इबरत दिला कर उनको आगाह करता है।

3:1 से 13, तूफ़ान की मिसाल से दूसरी आमद का यक़ीन दिलाता है और सब चीज़ों के बहाल होने की उम्मीद पेश करता है।

3:1 से 13, तूफ़ान की मिसाल से दूसरी आमद का यक़ीन दिलाता है और सब चीज़ों के बहाल होने की उम्मीद पेश करता है।

इस ख़त का ख़ास ज़ोर ये है कि झूटे मोअल्लिमों से ख़बरदार रहो। और इस पर ज़ोर देने के लिए। (1) अपना मसीही तजुर्बा। (2) अह्दे-अतीक़ की मिसालें। (3) और एपोक्रिफल किताबों से नज़ीरें (मिसालें) पेश करता है। उस की दिली मुहब्बत और अंदेशा इस में ज़ाहिर है मसलन 1:8, 14, 2:1, 3:1, 11, 17

यहूदाह का ख़त

मुसन्निफ़

नए अहदनामे में मसीह के भाईयों की फ़ेहरिस्त में ये नाम आता है। (मत्ती 13:55) (मर्क़ुस 6:3) अगर इस रिश्ते से ये मुराद है कि यहूदाह यूसुफ़ का बेटा पहली बीवी से था। तो मुसन्निफ़ अपने त्यों ग़ालिबन अदब के लिहाज़ से मसीह का भाई नहीं बल्कि याक़ूब का भाई कहता है। और ये ज़ाहिर है कि मसीह के भाईयों में एक शख़्स याक़ूब था। जो यरूशलेम की कलीसिया का मीर मज्लिस था। शायद इसलिए यहूदाह ने ये कहना काफ़ी समझा।

बैरूनी शहादत : इस ख़त के बारे में बहुत पुर ज़ोर है। मसलन मोरातोरी क़ानून में, क्लीमेंट असकंदरी, दोमस असकंदरी, तरतलियान और औरीजन की तस्नीफ़ात और शायद पोलीकार्प के ख़त में भी इस का ज़िक्र आता है। बरअक्स इस के ये सुर्यानी तर्जुमे में नहीं पाया जाता। यूसीबस मुअर्रिख़ कहता तो है कि बहुत कलीसियाएं इस को मानती हैं। लेकिन ख़ुद उसने इसे मुश्तबा (मशुक़ूक़) किताबों की फ़ेहरिस्त में दर्ज किया है।

और ज़माना-हाल के आलिमों ने इस ख़त पर ये एतराज़ किए हैं :-

अव़्वल : कि जिस ग़लत तालीम का ज़िक्र है वो दूसरी सदी में मुरव्वज थी। लेकिन याद रहे कि यहूदाह गनासतिकों का ज़िक्र नहीं करता। और जिस तालीम को वो रद्द करता है। वो पहली सदी में भी पाई जाती थी।

दोम : 17 आयत में लिखा है इन बातों को याद रखो, कि जो हमारे ख़ुदावंद येसू के रसूलों ने पहले कही थीं। इस जुम्ले से ये नतीजा निकालते हैं कि मुसन्निफ़ रसूलों का हमसर ना था। लेकिन ये नतीजा दुरुस्त नहीं। वो अपने त्यों रसूल नहीं कहता और रसूलों की ज़बानी तालीम की तरफ़ इशारा करता है। जिसे उन मसीहियों ने सुना था। दरअस्ल ये जुम्ला उस ज़माने की ताईद करता है।

सोम : इस में एपोक्रिफल किताबों से इक़्तिबास हुआ है। यानी हनोक की किताब और मूसा की सऊद की किताब से। सब लोग मानते हैं कि ये किताबें रसूलों के ज़माने से पेश्तर लिखी गई थीं। यहूदाह का इन किताबों से इक़्तिबास करना क़ाबिले एतराज़ हो सकता है। लेकिन इस से ज़माना तस्नीफ़ पर शक नहीं आ सकता।

(14 आयत में हनोक की किताब से, 9 आयत मूसा की सऊद की किताब) जेरोम के बयान से मालूम होता है कि इसी वजह से बाअज़ कलीसियाओं ने ये ख़त रद्द किया था। मगर ये मुनासिब नहीं। क्योंकि तश्रीह के लिए ऐसी किताबों से इक़्तिबास करना नामाक़ूल और नाजायज़ नहीं। और ना ऐसे इक़्तिबास से वो इन किताबों को इल्हामी ठहराता है। ख़ुद पौलुस ने 2 तीमुथियुस 3:8 में एक यहूदी रिवायत से इक़्तिबास किया है जो पुराने अहदनामा में पाई नहीं जाती।

तवारीख़ में लिखा है कि 81 ई॰ में दूमतियान क़ैसर के अहद में चंद यहूदियों पर ये इल्ज़ाम लगाया गया। कि वो बादशाही दावा करते हैं। और कि ये अश्ख़ास यहूदाह के भाई के पोते थे। क़ैसर ने उनकी ग़रीब हालत देखकर उनको छोड़ दिया इस से हम ये नतीजा निकाल सकते हैं कि ख़ुद यहूदाह उस वक़्त ज़िंदा ना होगा।

मकतूब अलय्या

ख़ुद ख़त में इस का कुछ ज़िक्र नहीं। सिर्फ मुक़द्दसों के नाम लिखा गया। बाअज़ ने क़ियास किया कि शायद फ़िलिस्तीन के मसीहियों के लिए लिखा गया होगा। बाअज़ का ख़याल है कि ये इसी क़िस्म के लोगों को लिखा गया। जिस क़िस्म के लोगों की तरफ़ पतरस का दूसरा ख़त लिखा गया। लेकिन फिर भी साफ़ पता नहीं लगता।

तहरीर वक़्त और जगह

बाअज़ों की राय है कि सिकंदरिया में लिखा गया। बाअज़ों ने यरूशलेम जाये तहरीर बताया। लेकिन कोई सबूत नहीं। वक़्त तहरीर इस अम्र पर मबनी है (जिसका ज़िक्र पतरस के दूसरे ख़त के दीबाचे में मज़्कूर है) कि इन दोनों में से पहले कौनसा लिखा गया। ख़याल ग़ालिब है कि पतरस का ख़त पहले लिखा गया। अगर ऐसा हो तो ये ख़त 66 ई॰ के बाद लिखा गया होगा। आम राय है कि 67 ई॰ में लिखा गया।

तक़्सीम मज़ामीन

1 से 4, सलाम और बाइस तहरीर यानी असली ईमान पर क़ायम रहना।

5 से 7, पुराने अहदनामे से तीन इबरतनाक मिसालें यानी ब्याबान में बनी-इस्राईल की बर्गश्तगी फ़रिश्तों की बर्गश्तगी और सदोम गमोरा की शरारत।

8 से 19, ऐसे गुमराह करने वालों का मुफ़स्सिल बयान उनका तकब्बुर कुफ़्र और नापाकी।

20 से 23, आख़िरी पुर मुहब्बत नसीहत रूह-उल-क़ुद्स और ख़ुदा की मुहब्बत में क़ायम रहना।

24 और 25 ख़ातिमे पर ख़ुदा की तम्जीद।

ख़ास ख़यालात

यहूदाह अगरचे इसी क़िस्म का मज़्मून बयान करता है जो दूसरे पतरस में है। लेकिन इस में ज़्यादा सख़्ती पाई जाती है। यूनानी तर्ज़ ज़्यादा आला है। मालूम होता है कि वो दूसरे पतरस के चंद जुमलों को लेकर उनको ज़्यादा सफ़ाई से लिखता है। वो इस ख़याल से भरा है, कि ख़ुदा की आला नेअमतें जब बिगड़ जाएं तो होलनाक ख़राबी और हलाकत पैदा करती हैं।

चूँकि मुसन्निफ़ यहूदी माइल मसीही था इसलिए अह्दे-अतीक़ के शीशे में हर चीज़ को देखता है और मसीह की आमद और गुज़श्ता तवारीख़ की मिसालों पर ज़ोर देता है। बावजूद सख़्त मिज़ाजी की आख़िरी नसीहत और कलमा तम्जीद बहुत पुर मुहब्बत और दिलचस्प हैं।

यूहन्ना के ख़ुतूत
ख़त अव़्वल जो आम कहलाता है

मुसन्निफ़

बैरूनी शहादत : क़दीम कलीसिया में कभी शक नहीं हुआ कि वो यूहन्ना के सिवा किसी और का है। बैरूनी शहादत बहुत मज़्बूत है। पोलीकार्प 1 यूहन्ना 4:3 का इक़्तिबास करता है। अगरचे यूहन्ना का ज़िक्र नहीं करता। पेपियास और आर्येनियस ने भी इस का इक़्तिबास किया है (1 यूहन्ना 4:1 से 5:1) क्लीमेंट असकंदरी तरतलियान और कपरयान ना सिर्फ बहुत इक़्तिबास करते हैं बल्कि इस को यूहन्ना की तस्नीफ़ कहते हैं। इसी तरह औरीजन और यूसीबस मुअर्रिख़। इलावा अज़ीं यूसीबस ने इसे मुसल्लमा (माना हुआ) ख़तों की फ़ेहरिस्त में शामिल किया है। मोरातोरी क़ानून में इस के पहले बाब की पहली और चौथी आयत का इक़्तिबास है। अलबत्ता पुश्तो तर्जुमे में ये नहीं है। क्योंकि इस पुश्तो तर्जुमे में आम ख़तों में से बहुत थोड़ों का ज़िक्र है।

अंदरूनी शहादत भी इस पर मुत्तफ़िक़ है क्योंकि इस का तर्ज़ इबारत और मज़ामीन इन्जील से मिलते हैं। और ये मुशाबहत इस क़द्र है कि बाअज़ों ने इस ख़त को इन्जील का दीबाचा समझा। ग़ालिबन ये तो दुरुस्त नहीं कि वो दीबाचे के तौर पर हो। बल्कि ख़त के मज़ामीन इन्जील के वाक़ियात पर मबनी हैं। और मकतूब अलय्या (जिसको ख़त लिखा जाये) इन वाक़ियात से वाक़िफ़ थे। अलबत्ता बाअज़ हाल के आलिमों ने कुछ एतराज़ किया है। अगरचे वो बैरूनी शहादत के ज़ोर को तस्लीम करते हैं। लेकिन अंदरूनी ख़यालात पर एतराज़ करते हैं मसलन :-

(1) इस में किसी ख़ास शख़्स का ज़िक्र नहीं। हालाँकि यूहन्ना अगर इफ़िसुस के इलाक़े की कलीसियाओं को लिखता तो ज़रूर शख्सों का ज़िक्र करता।

जवाब : आदमियों का ज़िक्र करना उस का दस्तूर नहीं। यहां तक कि अपना नाम भी नहीं लिखता। तो भी उन्स (मुहब्बत) और शख़्सी वाक़फ़ियत के चंद आसार पाए जाते हैं।

(1:1 से 4, 2:12 से 14, 18, 4:1 से 3, 5:21)

(2) मुसन्निफ़ तिफ़लाना तौर (बच्चों की तरह) पर इन्जील की नक़्ल करता है।

जवाब : मुशाबहत तो है फिर भी कई एक नए ख़यालात भी हैं। अगर मुसन्निफ़ दोनों का एक ही शख़्स हो तो मुशाबहत के बारे में ताज्जुब नहीं करना चाहिए।

(3) अगर यरूशलेम की बर्बादी के बाद पहली सदी में ही लिखा जाता तो ज़रूर इस का ज़िक्र होता।

(4) हालाँकि इस ख़त में मसीह की दूसरी आमद का बहुत ज़िक्र है लेकिन इन्जील में इस का कुछ ज़िक्र नहीं।

जवाब : ये ग़लत है। अलबत्ता इन्जील में मसीह की रुहानी आमद पर जो रूह-उल-क़ुद्स के ज़रिये हुई। बहुत ज़ोर दिया जाता है तो भी मसीह अपनी आमद का ज़िक्र करता है। (यूहन्ना 14:2, 3, 21:22)

(5) इन्जील में जिस वकील का ज़िक्र है वो रूह-उल-क़ुद्स है। ख़त में ये लक़ब मसीह का है। (1 यूहन्ना 2:1)

जवाब : ख़ुद इन्जील में मसीह भी वकील कहलाता है। (14:16) ये सिर्फ़ नाम की बात है। लेकिन इस ख़त में रूह-उल-क़ुद्स का ज़िक्र अक्सर आया है। (2:20, 27, 3:14 4:2, 6:13)

(6) नास्तिक तालीम इस ख़त में मुकम्मल नज़र आती है हालाँकि वो तालीम दूसरी सदी में मुकम्मल हुई।

जवाब ; यूहन्ना रसूल के ज़माने में सरंथस नास्तिक इसी क़िस्म की तालीम देता था जो इस ख़त में रद्द की जाती है।

(7) बाअज़ मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाले) इस ख़त को रद्द तो नहीं करते लेकिन ये कहते हैं कि बुढ़ापे की कमज़ोरी के आसार इस में हैं।

जवाब : लाकलाम (बेशक, यक़ीनन) एक बूढ़े शख़्स के मुहब्बत भरे ख़यालात नज़र आते हैं लेकिन इस में कोई कमज़ोरी नहीं।

(8) बाअज़ों का ख़याल है कि ये एक दूसरे यूहन्ना की तस्नीफ़ है जो प्रसबेटर था।

जवाब : इस का कोई पक्का सबूत नहीं (देखो यूहन्ना की इन्जील का दीबाचा)

मकतूब अलय्या

ख़ुद ख़त से इनकी बाबत कुछ पता नहीं लगता लेकिन ओगस्तीन और चंद दीगर अश्ख़ास लफ़्ज़ पारथियों की तरफ़ ईज़ाद (इज़ाफ़ा करना) करते हैं। लेकिन ये किसी कातिब की ग़लती मालूम होती है। क्योंकि यूहन्ना का मशहूर लक़ब कुँवारा पढ़ गया था। और ये लफ़्ज़ यूनानी में पार्थियां से बहुत मुशाबेह है। ख़याल ग़ालिब है कि ये ख़त इफ़िसुस और इस के गिर्द व नवाह (आसपास) की कलीसियाओं के लिए गश्ती ख़त (गश्त करने वाला, फिरने वाला) के तौर पर लिखा गया।

ख़त का मज़्मून और मक़्सद

इस ख़त का लुब्ब-ए-लुबाब (ख़ुलासा) है “शराकत”

1:1 से 3:2 शराकत की हक़ीक़त। मसीह के तजस्सुम और मौत के वसीले से ये होती है। ताहम जो इस में शरीक हैं उनमें कुछ गुनाह हनूज़ (अभी तक) रहता है ये शराकत मुहब्बत की बुनियाद है। और सब के लिए लाज़िमी है। इस के ज़रिये दुनिया से अलैहदगी हासिल होती है। और झूटी तालीम से भी। वो इब्नियत और आइंद जलाल पर मुहीत है।

3:3 से 24, शराकत का फल पाकीज़गी बिरादराना मुहब्बत वग़ैरह।

4:1 से 6, शराकत की शर्त है सच्चाई।

4:7 से 21 शराकत की ज़िंदगी है मुहब्बत।

5:1 से 21 शराकत की जड़ है ईमान। हक़ीक़ी ईमान मोअस्सर है। ख़ुदा और उस के कलाम और उस की रूह इस पर गवाह हैं। ईमान से सिफ़ारिश मोअस्सर है।

तक़्सीम मज़ामीन

सिलसिला क़ायम करना तो मुश्किल है क्योंकि एक ही बात का तकरार पाया जाता है। और ये इस ख़त का ख़ास्सा है।

1:1 से 4, ख़ुदा से ज़िंदगी ज़ाहिर हुई।

1:5 से 2:11 ख़ुदा नूर है और ख़ुदा के फ़र्ज़न्द नूर में चलें।

2:12 से 3:10 ख़ुदा हक़ और रास्ती है और ये भी मसीहियों की ख़ुसूसियत है।

3:11 से 5:21 ख़ुदा मुहब्बत है। जो ख़ुदा से पैदा हुआ है वो उस से और उस के फ़रज़न्दों से ज़रूर मुहब्बत रखेगा।

यूहन्ना का दूसरा और तीसरा ख़त

ये दोनों ख़त तवाम बहनें (जुड़वां बहनें) कहलाते हैं।

मुसन्निफ़

क़दीम कलीसिया में इनके मुसन्निफ़ के बारे में कुछ शक तो था। मसलन योसीबस मुअर्रिख़ इनको मुश्तबा (मशुक़ूक़) फ़ेहरिस्त में दर्ज करता है। लेकिन ख़ुद इनको यूहन्ना की तस्नीफ़ मानता है। औरीजन कहता है कि बाअज़ इनको क़ुबूल नहीं करते। पुश्तो तर्जुमे में ये दोनों पाए नहीं जाते। लेकिन इन शकों की बुनियाद ये थी कि वो शख़्सी और छोटे ख़त थे। चूँकि अक्सर लोगों ने इनको क़ुबूल किया। इस से तसल्ली मिलती है कि वो सच-मुच यूहन्ना के थे। वर्ना कोई इनको यूहन्ना से मन्सूब ना करता। जो यूहन्ना का दूसरा ख़त कहलाता है। उसे आर्येनियुस साफ़-साफ़ यूहन्ना रसूल से मन्सूब करता है। और सिकंदरिया का क्लीमेंट यूहन्ना के पहले और बड़े ख़त का ज़िक्र करता है। जिससे पता लगता है कि इस के और ख़त छोटे थे। और बाअज़ों ने समझा कि चूँकि मुसन्निफ़ ने लक़ब बुज़ुर्ग इस्तिमाल किया है। इसलिए ये दूसरा यूहन्ना होगा जिसका ज़िक्र पहले हो चुका है। लेकिन ग़ालिबन ये यूहन्ना प्रसबेटर कोई ख़्याली शख़्स होगा यूहन्ना ने क्यों अपने लिए रसूल की बजाए लक़ब प्रसबेटर इस्तिमाल किया? कि रसूल इसलिए कि पहली सदी के आख़िरी सालों में ये लक़ब रसूल बहुत आम हो गया। मसलन कलीसियाओं के वकीलों और एलचियों के लिए पापियास और दूसरे शख्सों की तस्नीफ़ात में लफ़्ज़ बुज़ुर्ग से वो लोग मुराद थे जिन्हों ने ख़ुद मसीह का कलाम सूना था।

दूसरा ख़त यूहन्ना के पहले ख़त से अल्फ़ाज़ और तर्ज़ में बहुत मुशाबेह है। और तीसरा किसी क़द्र मुशाबेह है। और बाअज़ अल्फ़ाज़ के ज़रिये दूसरे ख़त से निहायत मुशाबेह है।

दूसरा ख़त, बर्गुज़ीदा बीबी के नाम लिखा गया। क्या इस से (1) लफ़्ज़न बीबी मुराद है? और अगर ऐसा हो तो क्या उस का ख़ास नाम बर्गुज़ीदा था। इस का ठीक पता नहीं (देखो पतरस 5:13) (2) क्या इस से बर्गुज़ीदा कलीसिया मुराद है? ये जेरोम की राय थी। जो नसीहतें इस ख़त में पाई जाती हैं वो कुछ इस राय के मुताबिक़ मालूम होती है। अगर ऐसा हो तो वो कौन सी कलीसिया होगी। इस के बारे में भी हम तहक़ीक़ नहीं जानते अलबत्ता ये कह सकते कि यूहन्ना वहां हो आया था। आयत 4:8

तक़्सीम मज़मून

1 से 4 तक, सलाम और शुक्रगुज़ारी कि वो सच्चाई पर चलती है।

5 से 7 तक, मुहब्बत पर भी चलना चाहिए।

8 से 11 तक, झूटे मोअल्लिमों को क़ुबूल करना नहीं चाहिए।

12, 13, ख़ातिमा, यूहन्ना वहां जाने की उम्मीद करता है।

यूहन्ना का तीसरा ख़त

मकतूब अलय्या

ये ख़त गयुस की तरफ़ है। इस नाम का ज़िक्र रोमियों 16:23, 1 कुरिन्थियों 1:14, आमाल 19:29 20:4 में आता है। मगर हम नहीं जानते कि आया मकतूब अलय्या इनमें से था या नहीं क्योंकि ये आम नाम था।

मालूम होता है कि ये ख़त एक शख़्स के नाम भेजा गया क्योंकि इस से पेश्तर एक ख़त जो कलीसिया के नाम पर भेजा गया। एक दुश्मन देत्रफ़ीस ने रोक लिया था। बाअज़ लोगों ने ये ख़याल किया कि ये देत्रफ़ीस रोम का उस्क़ुफ़ था। और कि किसी मोनतानस्त ने दूसरी सदी में ये ख़त लिखा। लेकिन ये मह्ज़ बेबुनियाद है।

तक़्सीम मज़ामीन

1 से 4, सलाम और ख़ुशी कि गयुस तंदुरुस्त है और सच्चाई पर चलता है।

5 से 8, उस की मेहमानदारी की तारीफ़ करता है।

9 से 12 उस को देत्रफ़ीस से आगाह करता है।

13 और 14, ख़ातिमा, वहां पर जाने की उम्मीद ज़ाहिर करता है।

ये क़ाबिल लिहाज़ है कि जैसे पहले ख़त में यूहन्ना ने सच्चाई और मुहब्बत पर बहुत ज़ोर दिया वैसा ही इन दो ख़तों में ये ख़ास ख़याल पाए जाते हैं। जैसे अब वैसे ही उन दिनों में तफ़र्रुक़ों का अक्सर सबब उमंग (जोश) और तकब्बुर (ग़ुरूर) है। (3 ख़त 9 आयत)

मुकाशफ़ा की किताब

जो ज़माना पुराने और नए अहदनामे के दर्मियान गुज़रा है। वो यहूदियों के लिए बड़ी मुसीबत और तंगी और ग़म का ज़माना था। फ़ारसियों और अनता की सल्तनत की तरफ़ से इनको बहुत तक्लीफ़ पहुंची। अगरचे यूसीफ़स के क़ौल के मुताबिक़ सारी क़ौम को यक़ीन हो गया था कि नबुव्वत की नेअमत उनसे जाती रही। ताहम मक्काबियों के ज़माने से लेकर एक नई क़िस्म की तस्नीफ़ात पैदा हुईं जिनको मुकाशफ़ा कहते हैं। इस क़िस्म की तस्नीफ़ात की ख़ुसूसियत ये थी कि फ़ी ज़माना तक्लीफ़ात में तसल्ली और बर्दाश्त हासिल हो। इस ग़र्ज़ से वो मिजाज़ी बयानात में आइन्दा मख़लिसी की उम्मीद पेश करते थे। और अपनी तस्नीफ़ात को मुस्तनद (माना हुआ) ठहराने के लिए उनको पुराने अहदनामे के किसी मशहूर बुज़ुर्ग से मन्सूब करते थे। मसलन हनोक की किताब मूसा का सऊद वग़ैरह। लेकिन ग़ैर क़ौम सरकार की सज़ा से बचने के लिए वो ईज़ा-दहिंदों (तक्लीफ़ पहुंचाने वाले) का ज़िक्र बनावटी नामों से करते थे।

यूहन्ना के मुकाशफे की किताब भी इसी नमूने पर है। मसलन रोम के लिए बाबिल का लक़ब आया है। और बहुत मुश्किल तशबीहात का इस्तिमाल है। अब यहां ये सवाल आता है कि आया इस में भी मुसन्निफ़ का नाम बनावटी है? ग़ालिबन ऐसा नहीं। क्योंकि क़दीम कलीसिया में काफ़ी शहादत इस बात की मिलती है, कि ये किताब ख़ुद यूहन्ना की तस्नीफ़ है। बल्कि बैरूनी शहादत (बाहर की गवाही) इस किताब के लिए एसी मज़्बूत है कि शायद किसी दूसरी किताब के लिए नहीं। मसलन जस्टिन शहीद, आर्येनियुस, तरतलियां, मोरातोरी फ़ेहरिस्त, क्लीमेंट असकंदरी, औरीजन वग़ैरह सब के सब इस को यूहन्ना रसूल से मन्सूब करते हैं। अलबत्ता पुश्तो यानी सुर्यानी तर्जुमे में ये पाई नहीं जाती। लेकिन इस की वजह शायद ये होगी कि मुकाशफे की किताब इस तर्जुमे के बाद मशहूर हो गई।

बरअक्स इस के क़दीम कलीसिया के चंद लोगों ने इन पर एतराज़ किया। मसलन अलोगोई लोगों ने जिनका ज़िक्र यूहन्ना की इन्जील के दीबाचे में हुआ। यूसीबस मुअर्रिख़ अगरचे बैरूनी शहादतों को मानता है। लेकिन फिर भी इस के बारे में शक करता है। और लादुकिया के मजमे के क़ानून में ये किताब पाई नहीं जाती। इन शकों का बाइस वायोनिसीस असकंदरी की तस्नीफ़ात में मुफ़स्सिल पाया जाता है (ये शख़्स तीसरी सदी में गुज़रा है) ये शख़्स कहता है कि मैं मानता हूँ कि ये किताब किसी दीनदार मसीही की तस्नीफ़ है। लेकिन मैं नहीं जानता कि इस का मुसन्निफ़ यूहन्ना रसूल है। क्योंकि इस का तर्ज़ इबारत यूहन्ना की इन्जील से मुतफ़र्रिक़ है। और इस के मज़ामीन उस तालीम की ताईद करते हैं, जिसे हज़ार साला सल्तनत कहते हैं। इस से ज़ाहिर है कि ये मुसन्निफ़ बैरूनी शहादत के ज़ोर को मानता है। लेकिन मज़ामीन के लिहाज़ से वो इस पर शक करता है। इस वक़्त हज़ार साला तालीम वाले कलीसिया को ख़ुसूसुन मिस्र की कलीसिया को जहां वायोनिसीस बिशप था। बहुत तक्लीफ़ देते थे। और लोग इस किताब के बीसवें बाब से इस तालीम का सबूत पाते थे।

वायोनिसीस के ज़माने से लेकर आज तक कुछ शक चला आया है और आजकल के आलिम लोग वायोनिसीस के एतराज़ात के इलावा एक नया एतराज़ पेश करते हैं। यानी ये कि इस किताब का एक ख़ास मतलब ये है कि पौलुस की तालीम के ख़िलाफ़ यहूदी माइल मसीहियों की ताईद करे। जो इसे यूहन्ना रसूल की तस्नीफ़ नहीं मानते वो या तो ये कहते हैं कि एक यूहन्ना प्रसबिटर की तस्नीफ़ है। या ये कि दरअस्ल इस किताब में किसी मुसन्निफ़ का नाम मुन्दरज ना था। पीछे यूहन्ना का नाम डाला गया। (1:4, 4, 9, 21:2, 22:8)

पस फ़िल-हक़ीक़त दो एतराज़ हैं :-

अव़्वल : तर्ज़ इबारत के इख़्तिलाफ़ के बारे में।

दोम : हज़ार साला सल्तनत की तालीम।

अव़्वल तर्ज़ इबारत : ये सच्च तो है कि यूहन्ना की इन्जील के तर्ज़ से इस का तर्ज़ मुख़्तलिफ़ तो है मसलन अगरचे ख़ुदा के बर्रे का ज़िक्र दोनों में पाया जाता है। लेकिन मुकाशफे में जो लफ़्ज़ बर्रे के लिए आया है। वो इन्जील के लफ़्ज़ से मुतफ़र्रिक़ है। अगरचे यूहन्ना की इन्जील की यूनानी सलीस (आसान) है। पर सर्फ व नहो (ग्रामर) के मुताबिक़ है। मगर मुकाशफे की यूनानी अक्सर बिगड़ी हुई यूनानी और सर्फ व नहो के ख़िलाफ़ है। जो मुहावरे सर्फ़ व नहो के ख़िलाफ़ समझे जाते हैं। क़रीना (बहमी ताल्लुक़) (तरीक़ा, सलीक़ा) का लिहाज़ करने से उनका सबब साफ़ ज़ाहिर हो जाता है। मसलन “जो था जो है और जो आने वाला” (1:4) एक लक़ब के तौर पर इस्तिमाल हुआ है। इसलिए सीगे में तब्दीली नहीं हुई बर्रे के लिए जो दो लफ़्ज़ हैं वो आम लफ़्ज़ हैं। इन्जील में वो यूहन्ना बप्टिस्टा के मुँह में से आता है। (यूहन्ना 1:29, 36) जो लफ़्ज़ मुकाशफ़ा में है। वो ना सिर्फ मुकाशफ़ा में बारहा आया है बल्कि यूहन्ना की इन्जील में भी पाया जाता है। (यूहन्ना 21:15)

मुकाशफ़ा की किताब की बिगड़ी हुई यूनानी की ये वजह बताते हैं कि ग़ालिबन पतमस के जज़ीरे में उसने ये किताब लिखी जहां यूनानी ख़वांदा (पढ़े लिखे) लोग बहुत कम थे लेकिन इन्जील इफ़िसुस में लिखी गई। जहां ऐसे ख़वांदा लोग बहुत कम थे। बहर-हाल बावजूद इख़्तिलाफ़ के बहुत मुशाबहत भी है।

दोम : हज़ार साला सल्तनत। हमने ज़िक्र किया कि इस में तशबीही बयान है इसलिए किसी का हक़ नहीं कि क़तई तौर पर हज़ार बरस के ज़माने से हज़ार ही बरस का ज़माना समझें।

पस अगरचे मज़ामीन में कई मुश्किलात पाई जाती हैं लेकिन इनमें कोई ऐसी बात नहीं कि जिसके बाइस बैरूनी शहादत को रद्द करें।

ज़माना तहरीर

आर्येनियुस कहता है कि यूहन्ना को ये मुकाशफ़ा दूमतयान की सल्तनत के आख़िर के क़रीब मिला। ये दूमतयान रोम का क़ैसर 81 ई॰ से 96 ई॰ तक था। अगर ये सच्च हो तो ये किताब तक़रीबन उसी ज़माने में लिखी गई। जिसमें कि इन्जील क़लमबंद हुई। लेकिन बहुत लोगों की राय ये है कि नेरू क़ैसर की इज़ार सानी के ऐन बाद ये मुकाशफ़ा मिला। और शायद यूहन्ना ने रोम में इस होलनाक इज़ार सानी के हादिसे देखकर और जिला-वतन हो कर ये किताब लिखी। इन दो तारीख़ों में फ़ैसला करना नामुम्किन मालूम होता है।

मकतूब अलय्या

पहले तीन अबवाब में साफ़ लिखा है कि आसिया की कलीसियाओं के लिए ये मुकाशफ़ा लिखा गया। लेकिन मालूम होता है कि मुसन्निफ़ का ख़याल ये भी था कि ये उस की तस्नीफ़ कुल कलीसिया के फ़ायदे के लिए है।

मज़ामीन और उनकी तफ़्सीर

पहले तीन बाब में कुछ मुश्किलात नहीं सिवाए इस के कि कहाँ तक जो पैग़ाम उन कलीसियाओं को भेजा गया हर ज़माने और हर मुल्क की कलीसिया के लिए मुनासिब है। मसलन बाअज़ समझते हैं कि सात कलीसियाओं से (जो कमाल का अदद है) कुल कलीसिया की सात मुख़्तलिफ़ हालतें मुराद हैं। बाअज़ की राय में ये हालतें एक ही ज़माना की हैं और बाअज़ की राय में पे दरपे ज़माने के लिए ख़्वाह कुछ ही हो ये ज़ाहिर है कि इनमें से कलीसिया को ज़रूर कुछ अमली नसीहत मिलती है। चौथे बाब से लेकर ज़्यादा मुश्किल है। इस का सिलसिला है :-

4:1 से 8:1 तक, सात मोहरों की किताब जिनको सिर्फ़ बर्रा तोड़ सकता है। इन मोहरों के टूटने के मिजाज़ी मअनी।

8:2 से 11:19 तक, सात नरसिंगे।

12 बाब औरत से एक बच्चे का पैदा होना और अज़दहे से उस का दुख उठाना।

13 बाब दरिन्दा जानवर का बरपा होना।

14 बाब बर्रे के बर्गज़ीदे ख़्वाह मर गए और ख़्वाह ज़िंदा हों जो इस जानवर से महफ़ूज़ रहे।

15 और 16 बाब सात फ़रिश्ते और सात प्याले।

17 और 22 बाब के आख़िर तक, ज़ूलजलाल ख़ातिमा। जिसमें बाबिल की बर्बादी बर्रे की शादी और अदालत का दिन और नई ज़मीन का ज़िक्र है।

इस किताब की तश्रीह में बेशुमार राय हुई हैं।

एक क़िस्म की राय ये है कि शुरू से आख़िर तक मह्ज़ रुहानी तश्बीहें हैं यानी इस ज़माना में ऐसे ख़तरों का ज़िक्र आता है जो हर ज़माने में पेश आते हैं। मगर इनको तर्तीब देना मुहाल (मुश्किल) है।

दूसरी क़िस्म की राय ये है कि अगरचे बेशक ये किताब तशबीही है ताहम इस में कोई ना कोई तवारीख़ी सिलसिला भी है। इन मुफ़स्सिरों को तीन गिरोहों पर तक़्सीम कर सकते हैं :-

(अ) सिर्फ इस मौजूदा ज़मानों के माजरों (वाक़ियात) के बारे में है। मसलन सात बादशाह आगस्तन, क़ैसर तिबरियास, क्लेगोला, क्लादेवस, नीरू, ग़लबा और जो मुसन्निफ़ के वक़्त में हुक्मरान था। और एक जो होने वाला था। इस की ताईद में ये भी कहा जाता है कि 13:3 में लिखा है कि “उस के सरों में से एक पर ज़ख़्म कारी लगा हुआ था। मगर उनका ज़ख़्म कारी अच्छा हो गया। इस से वो ये मुराद लेते हैं कि नेरू अगरचे ज़ाहिर तौर पर मर गया था। मगर अवामुन्नास का ख़याल था कि वो फिर निकल कर ज़ुल्म करेगा और 13:18 में जो तादाद 666 है वो क़ैसर नेरू के नाम के अदद हैं अगर इब्रानी में इस को लिखें।

बादियुन्नज़र (पहली नज़र) में ये तश्रीह माक़ूल (मुनासिब) मालूम होती है क्योंकि मुसन्निफ़ कहता है कि ये बातें जल्द होने वाली हैं। लेकिन इस में दो बड़ी मुश्किलात पेश आती हैं।

अव़्वल : अगर ऐसा होता तो क्यों कलीसिया ने इस किताब की क़द्र हर ज़माने में की है हालाँकि चाहिए था कि वो समझे कि ये माजरे हो चुके हैं।

दोम : मज़ामीन और पेशीन गोईयाँ जो इस में पाई जाती हैं। उस ज़माने के माजरों से महदूद नहीं हो सकती हैं।

(ब) दूसरा फ़िर्क़ा ये कहता है कि ये सारे माजरे सिर्फ़ अख़ीरी ज़माने में होने वाले हैं। अब तक इनका शुरू भी नहीं हुआ। बल्कि मज़्कूर सात कलीसियाएं भी आइन्दा हैं और आइन्दा ज़माने में सिलसिलेवार ये वाक़ियात पूरे होंगे। अगर ऐसा हो तो इस किताब से बहुत थोड़ा फ़ायदा मिल सकता है। सिर्फ इस चंद रोज़ा ज़माने में चंद मसीहियों के लिए फ़ाइदेमंद हो है।

(ज) मुतवस्सित, इस फ़िर्क़े की राय ये है कि इस किताब में मसीह के माबाअ्द ज़माने की कलीसिया की सिलसिलेवार तवारीख़ है। और वक़्तन-फ़-वक़्तन रुहानी लोग इस सिलसिले का सुराग़ लगा सकते हैं। मसलन औरत से बिगड़ी हुई कलीसिया मुराद है और इस की ताईद में कहते हैं कि इस औरत की जगह सात पहाड़ियों पर है कि वो दरिन्दा जानवर पर सवार होती है और ऐन इसी तरह से रोम की बुत परस्तों की जांनशीन हो गई और रोम में सल्तनत करती थी। बाअज़ लोग कहते हैं कि दरिंदों में से एक मुहम्मद था। ये तीसरी राय छोटी बातों से क़त-ए-नज़र (नज़र-अंदाज) कर के ज़्यादा माक़ूल मालूम होती है। अगर ऐसा हो तो ये कौनसा सिलसिला है। आया सात मोहरों, सात नरसिंगों और सात पियालों से कुल 21 दर्जे या ज़माने यके बाद दीगरे मुराद हैं या सिर्फ सात हैं। जिनकी तश्रीह तीन तरह से पेश की जाती हैं। यानी मोहरों की और नरसिंगों की और पियालों की तश्बीह है।

ख़ास ख़यालात

(1) एक बड़ी तसल्ली का ख़याल ये है कि दुनिया के सारे इन्क़िलाबात में ख़ुदा हुक्मरान है और उसने मसीह को सब पर मुसल्लत (इख़्तियार देना) किया है।

(2) कलीसिया की हालत उमूमन आज़माईश और मुसीबत की है ताहम अंजाम नेक होगा।

(3) ख़यालात उमूमन पुराने अहदनामे और ख़ासकर नबियों की किताबों से लिए गए हैं। दानीएल 7 से 12 बाब तक, और इन का ताल्लुक़ मसीह की पेशगोई से जो यरूशलेम और दुनिया के आख़िर के बारे में की गई।

(4) अददों का ख़ास ज़िक्र है मसलन अदद सात, जो यहूदियों के नज़्दीक कामिलियत का निशान था। सात कलीसियाएं। सात मोहरें, सात नरसिंगे, सात प्याले वग़ैरह ये अदद सात दो हिस्सों पर तक़्सीम होता है यानी 3 और 4, 3 उलूहियत का अदद है और 4 जहान का। 3 जमा 4 बराबर 7 यानी ख़ुदा और जहान। और 12 कलीसिया का अदद है जो गोया बर्रे की दुल्हन है। और सात का निस्फ़ साढे़ तीन भी इस्तिमाल हुआ है। (12:14, 12:6, 7, 11:9) दूसरा अदद जो मद्दे-नज़र है वो 10 है। 10 आला अदद है जिससे हर चीज़ का कमाल या ज़मानों का कमाल मुराद है।

(5) किताब आख़िर में ये याद दिलाती है कि जो मसीह एक दफ़ाअ आया था वो जलाल के साथ फिर आएगा। और उस वक़्त सारी चीज़ें बहाल होंगी। और इस दुनिया का भेद हल हो जाएगा। (21:1 से 15, 10:6, 7)

तमाम शुद