ALLAMA BARAKAT

ULLAH, M.A.F.R.A.S

Fellow of the Royal Asiatic Socieity London

1891-1972



दीबाचा

इस्लाम और नेचरियत

अहले इस्लाम अपने मज़्हब की हक़्क़ानियत के सबूत में बसा-औक़ात (बाअज़ दफ़ाअ) ये दलील पेश किया करते हैं कि इस्लाम फ़ित्रत के ऐन मुताबिक़ है, लिहाज़ा वो बरहक़ है।

अगर हम ग़लती पर नहीं तो ग़ालिबन सर सय्यद मरहूम बाल-क़बह हिन्दुस्तानी मुसलमानों में पहले शख़्स थे, जिन्हों ने अहले मग़रिब से नेचरी नज़रिये का सबक़ सीख कर इस्लाम में नेचरी मज़्हब की बुनियाद डाली। और ये दावा किया कि, “इस्लाम दीन फ़ित्रत है।”

आपने ’’الاسلام ہوفطرة والفطرة ہی الاسلامہ‘‘ का नारा बुलंद किया। उन्नीसवीं (19) सदी में मग़रिब के साईंसदान नेचरियत (फ़ित्रत) के हामी और दिलदादा (आशिक़) थे। हिन्दुस्तान में मग़रिबी उलूम की रोशनी नई-नई आई थी लिहाज़ा ताअलीम याफ़्ता मग़िरबज़दा मुसलमान बक़ौल शख्शे :-

درپس آئنہ طوطی صفتم داشتہ اند

آنچہ استاد ِ ازل گفت ہماں میگوئم

दरपस आईना तूती सफ़तम दाश्ता अंद

आँचा उस्ताद-ए-अज़ल गुफ़्त हमाँ मेगोयम

साईंस और नेचरियत के आशिक़ हो गए। उन्होंने ख़ुदा और रसूल से मुँह मोड़ लिया। मज़्हब के नाम से बेज़ार हो गए। और दीन के उसूल को बाला-ए-ताक़ रख दिया। सर सय्यद मरहूम ने हिन्दी इस्लाम की नब्ज़ पर हाथ रखा मर्ज़ की तशख़ीस की और ईलाज ये ढ़ूंडा कि इस्लाम को नेचरी लिबास से आरास्ता और पैरास्ता किया जाये ताकि ताअलीम-याफ़्ता मुसलमान अज़ सर-ए-नौ इस्लाम के हल्क़ा-ब-गोश (फ़रमांबर्दार, ग़ुलाम) हो जाएं। मरहूम की जे़रे क़ियादत हर तरफ़ से ये आवाज़ आने लगी कि इस्लाम दीन-ए-फ़ित्रत है। माअ्दूद-चंद (बहुत थोड़े) उलमा-ए-इस्लाम ने नेचरियत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। और सर सय्यद मरहूम पर कुफ़्र का फ़त्वा सादिर किया। लेकिन नक़ार ख़ाने में तोती की आवाज़ (बहुत शोरोगुल में कमज़ोर आवाज़ को कोई नहीं सुन सकता, बड़े आदमीयों की राय के मुक़ाबले में छोटों की आवाज़ अन-सुनी हो कर रह जाती है) कौन सुनता है। रफ़्ता-रफ़्ता नेचरियत का ख़मीर अपना असर करता गया, यहां तक कि दक़यानूसी (पुराने) मुल्ला ने (आलिम फ़ाज़िल) भी अब ये दलील पेश करते हैं कि इस्लाम दीन-ए-फ़ित्रत है लिहाज़ा सच्चा है।

नेचरियत के नज़रिये का हश्र

लेकिन इस अस्ना मग़रिब के ख़यालात ने पल्टा खाया। उलमा-ए-मग़रिब जो उन्नीसवीं (19) सदी में नेचरियत के शैदाई थे। बीसवीं (20) सदी के आग़ाज़ में इस नज़रिये के बदनुमा दाग़ों से मुत्लाअ (बाख़बर) होने लगे। नेचरियत के नज़रिये के हुस्न व क़ुब्ह (ऐब, बुराई) का चर्चा आम हो गया। और अब हालत ये हो गई है कि गुज़शता सदी में ख़ालिस नेचरियत के नज़रिये का मानने वाला ढूंढने से भी नहीं मिलता। अब “नेचरियत” के मअनी तक बदल गए हैं। फ़ित्रत और माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत में जो इम्तियाज़ और हद-ए-फ़ासिल मुक़र्रर की गई थी। अब बीसवीं (20) सदी के इल्म की रोशनी में वो दीवार गिर गई है। चुनान्चे अल्लामा सर मुहम्मद इक़बाल कहते हैं :-

इल्म तिब्बअ़यात ने अपने बुनियादी उसूल की जांच पड़ताल की है। और जिस बुत को उसने नसब कर रखा था। उसने ख़ुद तोड़ डाला है। और अब साईंस ने माद्दियत के ख़िलाफ़ बग़ावत इख़्तियार कर ली है। बिल-ख़सूस प्रोफ़ैसर इंस्टाइन (Prof Enstin) के हाथों से माद्दा के तसव्वुर को जो कारी ज़र्ब पहुंची है। उस से माद्दियत जांबर (महफ़ूज़, सही सलामत) नहीं हो सकी।”

लेकिन हमारे मुस्लिम बिरादरान ब-मिस्दाक़ “ज़मीन जनबद् ना जनबद् गुल मुहम्मद ताहाल सर सय्यद मरहूम का सिखाया हुआ सबक़ रट रहे हैं।”

लफ़्ज़ फ़ित्रत का मफ़्हूम

हमने ऊपर ज़िक्र किया है कि नेचरियत के मअनी भी वो नहीं रहे जो उन्नीसवीं (19) सदी में राइज थे। पस लाज़िम है कि इस मज़्मून पर बह्स करने से पहले हम लफ़्ज़ नेचरियत या फ़ित्रत के मफ़्हूम को मुतअ़य्यन कर दें ताकि मबहस (बह्स या तफ़्तीश का काम) ख़लत (मिलावट) ना हो जाए। बाअ्ज़-औक़ात लफ़्ज़ “फ़ित्रत” लफ़्ज़ “ख़ुदा” का मुतरादिफ़ होता है। लेकिन हम इस रिसाले में इस लफ़्ज़ को इन मअ़नों में इस्तिमाल नहीं करेंगे। बाअ्ज़-औक़ात इस लफ़्ज़ से मुराद “ख़ल्क़त” या “कायनात” होती है। लेकिन हम यहां लफ़्ज़ फ़ित्रत को इन मअ़नों में भी इस्तिमाल नहीं करेंगे। बाअ्ज़-औक़ात लफ़्ज़ “फ़ित्रत” को फ़लसफ़ियाना जामा पहनाया जाता है। और इस से मुराद वो नज़रिया होता है जिसको “फ़ित्रत” या “नेचरियत” या मज़्हब अक़्ली के नाम से मौसूम किया जाता है। ये नज़रिया अपनी ख़ालिस उर्यानी (नंगा होना, ब्रहंगी) सूरत में ख़ुदा, रूह और तमाम रुहानी उमूर और क़वा (قویٰ) का इन्कार करता है। इस नज़रिये का लाज़िमी नतीजा कुफ्र-उल-हाद (बेदीन, मुल्हिद) और माद्दियत (जिस्मानियत) है। हम इस रिसाले में लफ़्ज़ “फ़ित्रत” को इन मअनों में भी इस्तिमाल नहीं करेंगे। क्योंकि ये नज़रिया सिरे से इस रिश्ते और ताल्लुक़ की नफ़ी करता है, जो ख़ुदा और इन्सान में है। और जिसको दीन या मज़्हब कहते हैं। बल्कि इस के बरअक्स हम इस रिसाले में जे़ल के क़ज़ाया (क़ज़ीया की जमा, झगड़े फ़साद, मुबाहिसे) को फ़र्ज़ कर लेंगे।

(1) ख़ुदा हस्त है।

(2) ख़ुदा ने इन्सान को ख़ल्क़ किया है।

(3) ख़ुदा और इन्सान में ताल्लुक़ और रिश्ते पैदा और क़ायम हो सकता है।

(4) ख़ुदा ने इन्सान और इन्सानी क़वा (قویٰ) को किसी ख़ास मक़्सद की ख़ातिर पैदा किया है।

(5) गो इन्सान के जिब्बिली क़वा (قویٰ) (फ़ित्री क़ुव्वत, पैदाइशी क़ुव्वत) और इन्सानी तारीख़ मुआशरत और तमद्दुन का मुजर्रिद (अकेला, ग़ैर शादी शूदा, वो शैय जो मादा से पाक हो) मुतालआ हमको इस मक़्सद की ख़बर नहीं देता। जिसकी ख़ातिर इन्सान ख़ल्क़ किया गया है। ताहम मुतालआ इस अम्र की ताईद ज़रूर करता है। कि ख़ालिक़ ने इन्सान को बेवजह पैदा नहीं किया। बल्कि इन्सानी तारीख़ हमको इन मुख़्तलिफ़ मनाज़िल से आगाह कर सकती है। जिनमें से बनी-नूअ इन्सान को इस मक़्सद के हुसूल के लिए गुज़रना है (रोमीयों 2:14) हम इस रिसाले में इन मफ़रूज़ात को साबित करने की बेसूद कोशिश करके अपने और अपने नाज़रीन का क़ीमती वक़्त ज़ाए नहीं करेंगे। और ना इस रिसाले को बिला ज़रूरत तूल देंगे। क्योंकि किसी माअ्क़ूल शख़्स को जो मग़रिब के उन्नीसवीं (19) सदी के नज़रिया नेचरियत के पंजे से आज़ाद हो गया है मज़्कूर बाला उमूर के मानने में दिक़्क़त नहीं होगी।

इस रिसाले में हम लफ़्ज़ “फ़ित्रत” को सिर्फ उन जिबल्ली क़वा (قویٰ) (फ़ित्री ताक़त) के लिए इस्तिमाल करेंगे। जो इन्सान में वदीअत (अमानत, सुपुर्दगी) किए गए हैं। ये जिबल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) वो तिब्बी मीलानात (रुजहान) हैं जो हर इन्सान की फ़ित्रत में दाख़िल हैं और जिनके जायज़ और मुनासिब इस्तिमाल से हर इन्सान उस मंज़िल तक पहुंच सकता है। जो उस की हस्ती की इल्लत-ए-ग़ाई (नतीजा, हासिल, फल, वजह) है। इस रिसाले में हम मसीहिय्यत और इस्लाम को सिर्फ इस कसौटी (वो पत्थर जिस पर सोने को परखा जाये) पर परखेंगे। ताकि मालूम करें कि इन दोनों मज़ाहिब में से किस मज़्हब में इन्सान को उस के मंज़िल-ए-मक़्सूद तक पहुंचाने की सलाहीयत मौजूद है। मसीहिय्यत का ये दावा है कि सिर्फ सय्यदना ईसा मसीह इन्सान के जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) और तिब्बी मीलानात (रुझान) को ख़ुदा के अज़ली इरादे और मक़्सद के मुताबिक़ पाइया तक्मील तक पहुंचा सकते हैं। सिर्फ इब्ने अल्लाह ही इन वसाइल को बहम पहुंचा सकते हैं। जिनको इख़्तियार करने से इन्सानी फ़ित्रत की तमाम जायज़ ज़रूरीयात बदर्जा अहसन पूरी हो सकती हैं। सिर्फ कलिमतुल्लाह ही इस ताल्लुक़ को क़ायम अस्तवार और ज़िंदा रख सकते हैं। जो ख़ुदा और इन्सान में होना चाहिए। मसीहिय्यत का ये दावा है कि इन मअनों में सिर्फ वही अकेला मज़्हब है जो दीन फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ हो सकता है।

मुख़ालिफ़ीन को मुराआत

इस रिसाले में हमने इस बात को खासतौर पर मल्हूज़-ए-ख़ातिर रखा है। कि इल्म-ए-नफ़्सीयात की बह्स में सनद सिर्फ उन माहिर उलमा की ली जाये जो मसीहिय्यत के हल्क़ा-ब-गोश नहीं हैं। चुनान्चे इसी ख़्याल को मद्द-ए-नज़र रखकर हमने प्रोफ़ैसर मुकडोगल की कुतुब पर अपनी बह्स का इन्हिसार रखा है। मसीहिय्यत अपने मुख़ालिफ़ीन को हर तरह की रिआयत देने को तैयार है, क्योंकि इन तमाम मुराआत (रिआयत, मुरव्वत, लिहाज़) के बावजूद इस में अपने सब हरीफ़ों (दुश्मनों) पर ग़ालिब आने की सलाहीयत मौजूद है।

हमने इस रिसाले में अहले इस्लाम को एक और रिआयत दे दी है यानी हमने इस्लामी अक़ाइद बयान करते वक़्त सिर्फ़ क़ुरआनी आयात ही से इस्तिदलाल किया है। और अगर कहीं अहादीस वग़ैरह के हवाले दिए हैं। तो इनको सिर्फ क़ुरआनी आयात की ताईद तशरीह और तौज़ीह की ख़ातिर पेश किया है। इस बात का ख़ास लिहाज़ रखा गया है कि मुजर्रिद अहादीस और कुतुब फ़िक़्ह पर इस्तिदलाल की बुनियाद ना रखी जाये। पस बतौर एक मुस्तक़िल दलील के हमने हदीस और फ़िक़्ह की कुतुब से एक इक़्तिबास भी पेश नहीं किया। हालाँकि हमको अपने ख़यालात और दलाईल की ताईद में ऐसा करने का हक़ हासिल है। क्योंकि अहादीस के बग़ैर क़ुरआन एक अक़्दह-लाए-हल् (عقدہ لایخل वो मुश्किल मसअला जो हल ना हो) है। और इस्लाम की बक़ा के लिए अहादीस लाज़िमी हैं। लेकिन हमको ख़ूब मालूम है। कि जब हमारे मुसलमान भाईयों को कोई छुटकारे की राह नहीं सूझती तो अहादीस सहीहा को मौज़ू और सादिक़ रावियों को काज़िब (झूटा) क़रार देने में उनको ज़रा बाक (डर, ख़ौफ़) नहीं होता। लिहाज़ा हमने इतमाम-ए-हुज्जत की ख़ातिर अपने इस्तिदलाल (सबूत) की बुनियाद सिर्फ़ क़ुरआन पर रखी है। और अहले इस्लाम को इस राह-ए-फ़रार का मौक़ा नही दिया।

ख़ातिमा

हमने कोशिश की है कि इस रिसाले के मज़्मून पर निहायत मितानत (संजीदगी) से बह्स की जाये। ताकि हमारे मुसलमान बिरादरान ठंडे दिल से उन अहम उमूर पर ग़ौर करके मुनज्जी आलमीन सय्यदना ईसा मसीह के क़दमों में आकर अबदी ज़िंदगी हासिल करें।

ایں دعا ازمن و از جملہ جہاں آمین ا با د

मैं उन तमाम अहबाब का शुक्रगुज़ार हूँ। जिन्हों ने इस रिसाले की तालीफ़ में मेरी मदद की है। جزا ہم الله فی الله فی الدارین خیرا۔लेकिन मैं उनकी कर मुफ़िर माइयों का नाजायज़ फ़ायदा उठाना नहीं चाहता। पस मैं ना तो उनको और ना एस॰ पी॰ सी॰ के॰ को इस रिसाले की तर्तीब या दलाईल या ख़यालात का ज़िम्मेदार गिर्दान सकता हूँ। बल्कि मैं इस रिसाले का बतौर मुसन्निफ़ ख़ुद ज़िम्मेदार हूँ।

होली ट्रिनिटी चर्च लाहौर

यकम जनवरी 1938 ई॰

बरकतुल्लाह

फ़स्ल-ए-अव्वल

जिबिल्ली मीलानात और उन की ख़सुसियात जिबिल्ली (جبلّی) मीलानात (फ़ित्री रुझान)

जैसा हम दीबाचे में ज़िक्र कर चुके हैं इस रिसाले में लफ़्ज़ “फ़ित्रत” से हमारी मुराद इन्सान के उन जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) से है जिन का ताल्लुक़ नफ्सियात के साथ है और जो तमाम दुनिया के इन्सानों में ख़्वाह वो किसी क़ौम मुल्क या ज़माने के हों मुश्तर्क (बराबर) पाए जाते हैं। मसलन हर शख्श फ़ित्रतन अकेला-पै (तन्हाई) से घबराता है। और अपने हम-जिंसों (अपने जैसे इन्सान) में रह कर ज़िंदगी बसर करना चाहता है। हर एक इन्सान की सरिश्त (फ़ितरत) में ये बात दाख़िल है कि वो ख़ौफ़नाक अश्या से डरता है। अपने बीवी बच्चों से प्यार करता है। अगर उस को कोई ऐसी शए नज़र आ जाए जो उसने पहले ना देखी हो तो उस के मुताल्लिक़ मुतजस्सिस होता है। ये बातें हमको सिखलाई नहीं जातीं, बल्कि हमारी पैदाइश ही से हमारे अंदर मौजूद होती हैं। और हमको विरसे में मिलती हैं।

ख़ुदा ने ये जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) इन्सानी सरिश्त (तबियत) में वदीअत फ़रमाए हैं ताकि उनकी मुनासिब नशव व नुमा और उनके जायज़ इस्तिमाल से इन्सान उस दर्जे और कमालियत को हासिल कर सके। जो उस की पैदाइश का अस्ली मंशा था। ख़ालिक़ ने इन्सान को एक ख़ास मक़्सद के लिए पैदा किया है। और इस मक़्सद को हासिल करने के लिए उसने इन्सानी सरिश्त (तबियत) में ये क़वा-ए-वदीअत फ़रमाए हैं। अगर ये जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) मक़्सद ईलाही के मुताबिक़ नशव व नुमा पाएँगे। तो वो अपनी फ़ित्रत के मुताबिक़ ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ मदारिज (मरहले, दर्जे) को तय करके इन्सान को पाकीज़गी के उस कमाल दर्जे पर पहुंचा देते हैं। जो ख़ुदा के मंशा के ऐन मुताबिक़ है, लेकिन अगर ये जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) ख़ालिक़ के इरादे के मुताबिक़ नशव व नुमा नहीं पाते तो वो इन्सानी फ़ित्रत के ख़िलाफ़ ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ मदारिज में इन्सान को रोज़-ब-रोज़ बद से बदतर बना कर बिल-आख़िर शैतान का हम-शक्ल बना देते हैं।

चूँकि मज़्हब का वाहिद मक़्सद ये कि ख़ुदा और इन्सान के दर्मियान रिश्ते और ताल्लुक़ को ज़िंदा रखे। लिहाज़ा वो सिर्फ़ वही मज़्हब दीन फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ हो सकता है। जो इस ताल्लुक़ को बदर्जा अहसन क़ायम और उस्तुवार रख सकता है। और ये ताल्लुक़ सिर्फ इसी हालत में क़ायम रह सकता है। जब हमारी सरिश्त (फ़ित्रत या तबियत) के जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) अपनी फ़ित्रत के मुताबिक़ नशव व नुमा पाकर ईलाही इरादा और मंशा के मुताबिक़ इस्तिमाल हों। पस दीन फ़ित्रत वो मज़्हब है जो हमारे जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) को उनकी फ़ित्रत यानी मंशा-ए-ईलाही के मुताबिक़ नशव व नुमा पाने में राहनुमा हो। और उनके जायज़ और मुनासिब इस्तिमाल के वसाइल को इख़्तियार करने में मुमिद व मआवन हो। आलमगीर मज़्हब भी सिर्फ वही हो सकता है। जो इस मअ़नी में दीन फ़ित्रत हो। पस आलमगीर मज़्हब का ये काम है कि इन जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) को जो इन्सानी फ़ित्रत में वदीअत किए गए हैं ईलाही मंशा और इरादे के मुताबिक़ कामिल करे और इन्सानी फ़ित्रत की ज़रूरीयात को हल करने के लिए इन वसाइल को बहम पहुंचाए। जिनके ज़रीये इन्सान कामिल हो सकता है।

मसीहिय्यत का ये दावा है कि सिर्फ सय्यदना ईसा-मसीह हमारे जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) को ख़ुदा के अज़ली इरादे और मंशा के मुताबिक़ पाया-ए-तक्मील तक पहुंचा सकते हैं। और उन वसाइल को बहम पहुंचाते हैं, जिनको इख़्तियार करने से इन्सानी फ़ित्रत के तमाम तक़ाज़े ईलाही-इरादे के मुताबिक़ बदर्जा अहसन पूरे हो सकते हैं। इस तरह मुनज्जी आलमीन सय्यदना मसीह हक़ीक़ी ताल्लुक़ को क़ायम उस्तुवार और ज़िंदा रखते हैं, जो ख़ुदा और इन्सान में होना चाहिए।

जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) की अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में)

जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) और मीलान (रुझान) मुख़्तलिफ़ अन्वा व अक़्साम के हैं। हम यहां जिबिल्ली रुहजानात और मीलानात की सिर्फ उन अक़्साम (क़िस्मों) को लेंगे। जो निहायत अहम बसीत (वसीअ) ऊला (बेहतर, अच्छा) और इब्तिदाई हैं। और इस बह्स को सिर्फ उन तक ही महदूद रखेंगे। क्योंकि दीगर अन्वाअ़ के मीलानात उनके ताबेअ् और मातहत हैं। लिहाज़ा जो कुछ उन अहम बसीत और इब्तिदाई रुहजानात पर सादिक़ होगा। वो उन तमाम दीगर अन्वाअ़ के मीलानात पर भी आइद होगा जो बसीत नहीं बल्कि मुरक्कब हैं।

जिबिल्ली रुहजानात की वो बड़ी क़िस्में जो बसीत, इब्तिदाई और नाक़ाबिल तहलील हैं, हस्ब-ज़ैल हैं :-

(1) ख़ौफ़ की जिबिल्लत (डर की फ़ित्रत)

(2) जिबिल्लत-ए-जिन्सी या जिबिल्लत तौलीद मिस्ल नोई

(3) माँ बाप की जिबिल्लत या वालदेनी जिबिल्लत

(4) लड़ाकापन या ग़ुस्से की जिबिल्लत (फ़ित्रत)

(5) तजस्सुस और इस्तिफ़सार (दर्याफ़्त करने) की जिबिल्लत

(6) जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी

(7) जिबिल्लत अजुज़ व इताअ़त और जिबिल्लत-ए-तहक्कुम व ख़ुदनुमाई

(8) जिबिल्लत-ए-हुसूल व इक्तसाब (ज़ाती मेहनत से हासिल करना)

जिबिल्ली मीलानात की ख़सुसियात

मुन्दरिजा बाला-अक़्साम (क़िस्मों) के रुहजानात हर फ़र्द बशर (हर एक इंसान) में पाए जाते हैं, और इन्सानी तबीयत का ख़ास्सा हैं।

(1)

ये रुहजानात और मीलानात इब्तिदाई और बसीत हैं और हर इन्सान की सरिश्त (फ़ित्रत या तबियत) में दाख़िल हैं। मसलन दुनिया में कौन ऐसा शख़्स है जो ये दाअ्वा कर सकता है कि वो डर और ख़ौफ़ को जानता ही नहीं या जिसकी पिदरी मुहब्बत (वालिद की मुहब्बत) अपने बच्चों की मुसीबत देखकर जोश में नहीं आती। हाँ मुख़्तलिफ़ तबाइअ (तबीयत की जमा) में फ़र्क़ ज़रूर होता है। और हर इन्सान में ये जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) बराबर तौर पर नहीं पाए जाते। अगर एक शख़्स में एक जिबिल्ली मीलान ज़्यादा ग़ालिब है, तो दूसरे शख़्स में दूसरा मीलान ज़्यादा ज़ोर दिखाता है।

जिबिल्ली रुहजानात मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास में उनकी तबाइअ के मुताबिक़ मुख़्तलिफ़ औक़ात और मुख़्तलिफ़ सूरतों में नमूदार होते हैं। मसलन ख़ौफ़ हमारी सरिश्त (फ़ित्रत या तबियत) में एक जिबिल्ली (फ़ित्री) मीलान है। लेकिन हर इन्सान में ख़ौफ़ बराबर तौर पर ज़ाहिर नहीं होता। एक शख़्स किसी दहश्त अंगेज़ शय मसलन साँप या शेर को देखकर ख़ौफ़ के मारे सहम जाता है। लेकिन दूसरा शख़्स इस से ख़ौफ़ नहीं खाता, बल्कि वो किसी और शय से लर्ज़ह बरअनदाम (जिस्म का काँपना) हो जाता है। हर शख़्स में ख़ौफ़ एक ही सूरत में ज़ाहिर नहीं होता। गो हर शख़्स की सरिश्त (फ़ित्रत या तबियत) में ख़ौफ़ मौजूद ज़रूर है।

(2)

ख़ालिक़ ने ये जिबिल्ली रुहजानात और मीलानात पैदाइश ही से हमारी सरिश्त (फ़ित्रत या तबियत) में डाल रखे हैं वो इक्तिसाबी नहीं। यानी वो इन्सान की कोशिशों का नतीजा नहीं होते। बल्कि हर इन्सान को विरसा में मिलते हैं। और ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ मदारिज और मनाज़िल में मुख़्तलिफ़ औक़ात पर ज़हूर में आते हैं। मसलन बचपन के ज़माने से ही जिबिल्लत तजस्सुस व इस्तफ़सार ज़हूर में आती है, लेकिन इस में जिबिल्लत जिन्सी या तौलीद-ए-मिस्ल और वालदेनी जिबिल्लत ज़ाहिर होती है जब वो सन बलूग़त को पहुंचता है। मर्द और औरत की बाहमी कशिश इस से पहले ज़हूर में नहीं आती बल्कि ख़ुफ़ता हालत में रहती है और वक़्त-ए-मुअय्यना पर बेदार होती है।

(3)

हर जिबिल्ली मीलान का एक ख़ास मक़्सद होता है। मसलन तौलीद मिस्ल (अपने जैसा पैदा करने) की जिबिल्लत का मक़्सद नस्ल की अफ़्ज़ाइश है। तहसील व इक्तिसाब की जिबिल्लत (फ़ित्रत) का मक़्सद ज़िंदगी की मुख़्तलिफ़ ज़रूरीयात को फ़राहम करना है।

लेकिन जब बाअज़ हालात में किसी रुहजान का मक़्सद बा-आसानी हासिल हो जाता है तो हम इस रुहजान या मीलान की ताक़त या फ़ाज़िल क़ुव्वत को किसी दूसरे मक़्सद के हासिल करने के लिए इस्तिमाल कर सकते हैं। मसलन बद-अमनी के ज़माने में जब मुल्क का हाल अबतर (खराब) होता है। तो हर इन्सान का अव्वलीन मक़्सद ये होता है कि अपनी जान की हिफ़ाज़त करे। लेकिन सुलह के ज़माने में मुहज़्ज़ब ममालिक में इस मीलान की यानी जान की हिफ़ाज़त की चंदाँन (कुछ भी) ज़रूरत नहीं रहती। बैरूनी हालात ही ऐसे होते हैं कि जान को किसी क़िस्म का ख़तरा लाहक़ नहीं होता। अंदरें हालात हम इस मीलान की ताक़त को दीगर मक़ासिद के हासिल करने के लिए इस्तिमाल कर सकते हैं। और ईलाही मंशा ये है कि जब हम किसी एक मीलान की ताक़त को उस के ख़ास मक़्सद से मुंतक़िल करके किसी दूसरे मक़्सद के लिए इस्तिमाल करें। तो वो मक़्सद आला मक़्सद हो मसलन एक शख़्स की बीवी मर जाती है और अपने पीछे नन्हे बच्चे छोड़ जाती है। अब तक़ाज़ा-ए-फ़ित्रत या बाअल्फ़ाज़ दीगर अक़्ल-ए-सलीम ये चाहती है कि ख़ावंद (शौहर) अपने बच्चों की ख़ातिर दूसरी शादी करने से परहेज़ करे और ईलाही मंशा के मुताबिक़ जिबिल्लत तौलीद मिस्ल (अपने जैसा पैदा करने) की ताक़त को एक और आला मक़्सद को हासिल करने यानी बच्चों की परवरिश और तर्बीयत वग़ैरह की जानिब राग़िब करे।

पस एक क़िस्म के तिब्बी मीलान की क़ुव्वत को दूसरे आला मक़्सद के हुसूल की जानिब राजेअ़ (रुजू, राग़िब) करना एक क़ुदरती और फ़ित्रती बात है। मसलन तमाम फनूने लतीफ़ा इन जिबिल्ली मीलानात के दीगर आला मक़ासिद की जानिब मुनक़लिब (पलटने वाला) होने का ही नतीजा हैं। और ये बात तक़ाज़ा-ए-फ़ित्रत या ऐन ईलाही मंशा के मुताबिक़ है। और इन मीलानात की फ़ित्रत में दाख़िल है। लेकिन अगर हम इन मीलानात की ताक़त और रुहजानात की फ़ाज़िल क़ुव्वत को उनकी फ़ित्रत और ईलाही इरादे के मुताबिक़ यानी किसी आला मक़्सद की जानिब राग़िब करने की बजाय बुरे मक़ासिद की तरफ़ राग़िब कर देते हैं तो हमसे ऐसी लगू और बेहूदा हरकात सरज़द होती हैं जो फ़ित्रत के ख़िलाफ़ हैं। मसलन अगर हम तौलीद मिस्ल (अपने जैसा पैदा करने) की जिबिल्लत (फ़ित्रत) की वाफ़र या फ़ाज़िल ताक़त को बनी-नूअ इन्सान की बहबूदी और फ़लाह के लिए इस्तिमाल करें। तो ये ऐन फ़ितरत के मुताबिक़ और ईलाही-मंशा के मुताबिक़ होगा। लेकिन अगर हम इस मीलान की फ़ाज़िल ताक़त को ग़ैर फ़ित्री हरकात की जानिब या ज़िनाकारी की तरफ़ मुनक़लिब करेंगे। तो ये अफ़आल ख़िलाफ़ फ़ित्रत यानी ख़ालिक़ के इरादे के ख़िलाफ़ होंगे।

लिहाज़ा ये निहायत ज़रूरी है, कि जब उन जिबिल्ली रुहजानात और मीलानात की ताक़त का रुख किसी दूसरे मक़्सद के हुसूल की जानिब मुनक़लिब (फेरा जाना) किया जाये, तो वो दूसरा मक़्सद आला तरीन मक़्सद हो। उन रुहजानात और मीलानात का इस्तिमाल तब ही जायज़ क़रार दिया जा सकेगा। जब वो आला-तरीन तसव्वुरात और मक़ासिद के मातहत होंगे। इस अहम नुक्ते को समझना अशद ज़रूरी है। क्योंकि इस का ज़िक्र बार-बार इस रिसाले में किया जाएगा।

(4)

ये जिबिल्ली मीलानात बज़ात-ए-ख़ुद ना तो अच्छे होते हैं और ना बुरे। इन्सान पैदाइश ही से ना तो गुनाहगार होता है और ना नेकोकार पैदा होता है। बल्कि यही हमारी जिबिल्ली रुहजानात और मीलानात हमारी ख़सलतों की असास हैं। जिस तरह रूई से कपड़ा बनता है और जिस शक्ल का कपड़ा हम इस से बनाना चाहें हम बना सकते हैं। इसी तरह उन मीलानात से हमारी आदात और ख़साइल शक्ल पज़ीर होते हैं। इस हक़ीक़त को हम एक और मिसाल से वाज़ेह करते हैं। इल्म कीमीयाई की दरयाफ्तें इन्सान की बहबूदी और तरक़्क़ी का वसीला होती हैं। और यही दरयाफ़तें इन्सानी नस्ल की बर्बादी का वसीला हो सकती हैं। मसलन अबीसीनिया के मुल्क को इतालवी फ़ौजों ने ज़हरीली गैस से फ़ना कर दिया था। इसी तरह हमारी मीलानात का इस्तिमाल बनी-नूअ इन्सान की फ़लाह और बेहतरी का बाइस या उस के तनज़्ज़ुल और बर्बादी का बाइस हो जाता है। अगर इन नशव व नुमा ईलाही मंशा और इरादे के मुताबिक़ हो तो इन्सान ख़ुदा की सूरत पर बन जाता है। लेकिन अगर उनका इस्तिमाल नाजायज़ तौर पर किया जाये, तब इन्सान शैतान का हम-शक्ल बन जाता है। मसलन अगर किसी शख़्स में तौलीद मिस्ल (अपने जैसा पैदा करने) की जिबिल्लत (फ़ित्रत) या जिबिल्लत जिन्सी ईलाही-मंशा के मुताबिक़ नशव व नुमा पाए तो वो शख़्स रुहानी मदारिज को तय करता हुआ कामिलीयत की तरफ़ गामज़न हो कर फ़रिश्ते सीरत बन जाता है। लेकिन अगर यही रुहजानात ग़ैर-मुनासिब और नाजायज़ तौर पर उस में नशव व नुमा पायें तो वो ऐसे अफ़आल का मुर्तक़िब होता है, जो ख़िलाफ़ फ़ित्रत हैं और इन्सान शैतान ख़सलत (शैतानी) हो जाता है। इसी तरह अगर जिबिल्लत हुसूल व इक्तसाब जायज़ तौर पर इस्तिमाल की जाये तो इन्सान ख़ुदा के मंशा के मुताबिक़ रुहानी तरक़्क़ी करता है। लेकिन अगर उस का नाजायज़ इस्तिमाल किया जाये तो चोरी, लालच, लूट-मार, मुल्कगीरी वग़ैरह का इर्तिकाब करता है और ये अफ़आल ख़ुदा की नज़र में मक़्बूल नहीं। क्योंकि ख़ुदा ने इन अफ़आल के लिए इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) को हमारी फ़ित्रत में वदीअत (सुपुर्द) नहीं फ़रमाया था।

(5)

अगर हम ग़ौर से मुशाहिदा करें, तो हम देखेंगे कि इन्सान जिस सोसाइटी में चलता-फिरता है। उस की सोहबत का असर उन जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) पर पड़ता है। इन्सान के गिर्द व पेश के हालात और माहौल उस को ऐसा मोअस्सर कर देते हैं कि उस के जिबिल्ली क़वा (फ़ित्री ताक़त) का रुहजान और मीलान और उनका इस्तिमाल उन हालात के मुताबिक़ हो जाता है।

صحبت ِ صالح ترصالح کند

صحبتِ طالح ترا طالح کند

ये रोज़मर्रा का मुशाहिदा है, कि अगर किसी सालिह नेक मर्द का बच्चा बुरी सोहबत में पड़ जाये, तो उस के गिर्दो-पेश के हालात उस को रफ़्ता-रफ़्ता ऐसा मुतास्सिर कर देते हैं कि वो बदतरीन ख़लाइक़ हो जाता है।

پسر نوح یا بداں بہ نشست

خاندان نبوتش گم شد

इन मीलानात का ये ख़ास्सा है, कि अगर किसी मीलान का रुहजान किसी एक तरफ़ हो जाए तो इस की रग़बत इस ख़ास तरफ़ को ज़्यादा माइल हो जाती है और उस जिबिल्लत की इक़्तिज़ा (ख़्वाहिश करना, तक़ाज़ा) की क़ुव्वत का इज़्हार इस ख़ास जानिब होने लगता है और अगर इस रुहजान को शुरू से ही ना रोका जाये तो इस ख़ास बात की आदत पड़ जाती है। और फिर अपनी आदत से मज्बूर होकर इस जिबिल्लत की इक़्तिज़ा को सिर्फ इसी ख़ास तरीक़े से ज़ाहिर करता है। इसीलिए :-

سرچشمہ شاید گرفتن بمیل

چوپر شد نشا ئد گذشتن زیپل

हर शख़्स इस हक़ीक़त को अपने तल्ख़ तजुर्बे से जानता है कि जब हमको किसी चीज़ की लत पड़ जाती है, तो उस को तर्क करना कैसा मुश्किल हो जाता है। और अगर हमारी किसी जिबिल्लत (फ़ित्रत) की ताक़त और क़ुव्वत सिर्फ एक ही जानिब नाजायज़ तौर पर माइल और राग़िब रही हो, तो इस से पीछा छुड़ाना जान जोखों का काम होता है। मसलन अगर कोई शख़्स बार-बार चोरी करने या जुआ खेलने या ज़िना करने का मुर्तक़िब हुआ हो तो उस को इन बातों की ऐसी आदत पड़ जाती है कि जब मौक़ा मिलता है वो हर बार उन मकरूह बातों का इर्तिकाब करता है। वो इस अम्र से बख़ूबी वाक़िफ़ होता है कि ये बातें नाजायज़ हैं। लेकिन बावजूद इस इल्म के वो अपनी आदत से मज्बूर हो कर चोरी करने या शराब पीने के मौक़े की ताक में रहता है। हर इन्सान अपने तजुर्बे के बिना पर जानता है कि हम अपनी आदतों के ग़ुलाम होते हैं। हम को ये इल्म होता है कि फ़लां काम से हमको परहेज़ करना चाहिए, लेकिन जब आज़माईश आती है तो हमारी इस ख़ास जिबिल्लत का मीलान ख़ुद-बख़ुद इसी जानिब माइल हो जाता है। और हम देखते रह जाते हैं। क्योंकि हमारी क़ुव्वत-ए-इरादी कमज़ोर हो कर सल्ब (छीन जाना) हो जाती है। चुनान्चे हाली मरहूम नफ़्स के हमले और अक़्ल की ताक़त की निस्बत कहते हैं :-

जब किया हमला दिए सब हथियार डाल

ज़ोर बाज़ू पर हमेशा जिसके हमेशा इतराते थे हम

ऐसा मालूम होता है कि हम गुनाह के हाथों बिके हुए हैं। क्योंकि जिस शय का हम इरादा करते हैं वो नहीं करते लेकिन जो नहीं करना चाहते वही करते हैं। और करने के बाद पछताते हैं। और अपने आप से नफ़रत करने लगते हैं। अलबत्ता नेक इरादा तो हम में मौजूद होता है। मगर नेक काम हमसे बन नहीं पड़ते। चुनान्चे जिस नेकी का हम इरादा करते हैं वो तो नहीं करते। मगर जिस बदी का इरादा नहीं करते। वो अपनी तबीयत से मज्बूर होकर हम कर लेते हैं। और अपने हाथों से लाचार हो कर पुकार उठते हैं :- “हाय मैं कैसा कम्बख़्त आदमी हूँ। इस बद-आदत की क़ैद और गु़लामी की ज़ंजीरों से मुझे कौन छुड़ाएगा।”

देख आदत का तसल्लुत मैंने आदत से कहा

घेर ली अक़्ले सवाब अंदेश की तूने जाए (हाली)

जिबिल्ली मीलानात (फ़ित्री रुझान) और दीन फ़ित्रत

दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम है कि हर इन्सान को ख़्वाह वो बदतरीन ख़लाइक़ (ख़ल्क़ की जमा, मख़्लूक़ात) ही क्यों ना हो। गुनाह की गु़लामी से रिहाई दे। और उस को तौफ़ीक़ बख़्शे कि वो अपनी जिबिल्लत (फ़ित्रत) की क़ुव्वत के मीलान को बदी की जानिब राग़िब करने की बजाय नेकी की जानिब राग़िब कर सके। याद रहे कि जितनी किसी जिबिल्लत (फ़ित्रत) की क़ुव्वत शदीद होगी। उतना ही ज़्यादा इन्सान के लिए उस की क़ुव्वत के मीलान की रग़बत को बदलना होगा। मसलन एक ज़ानी (जिनाखोर) के लिए जिबिल्लत-ए-जिन्सी (जिस्मानी ताल्लुक़ात) की रग़बत का मुनक़लिब (फेरना) करना ना-मुम्किन हो जाता है। लिहाज़ा ज़रूर है कि जो तौफ़ीक़ दीन-ए-फ़ित्रत अता करे उस की क़ुव्वत जिबिल्लत (फ़ित्रत) की क़ुव्वत से बहुत ज़्यादा क़वी (ताक़तवर) हो। ताकि मीलान की इक्तिसाबी क़ुव्वत ज़ाइल हो सके।

ऐसे शख़्स को जो अपने गुनाह के पंजे में गिरफ़्तार है। मह्ज़ ये नसीहत करना काफ़ी नहीं होता कि नेक बनो या नेकों की सोहबत इख़्तियार करो। वो बुरा फअल (काम) करने से पहले ही जानता है कि जो फअल (काम) वो आदत से मज्बूर हो कर करता है गुनाह है उस को इल्म की ज़रूरत नहीं।

हज़रत नासेअ अगर आएं दिदाह व दिल फर्श राह

पर कोई यह बतलादे कि फ़रमाएंगे क्या?

(2)

इस्लाम और दीगर कुल मज़ाहिब इसी पर इक्तिफ़ा करते हैं, कि गुनाहगार को नेकी का दर्स दे दें और नसीहत कर दें। इस से ज़्यादा वो नहीं करते और ना करने का दाअ्वा करते हैं। लेकिन हर शख़्स तजुर्बे से जानता है कि नसीहत की क़ुव्वत जिबिल्लत (फ़ित्रत) की ज़बरदस्त ताक़त के सामने हीच (कमज़ोर) होती है। लिहाज़ा वो कारगर नहीं होती। और ना हो सकती है। पंदो-नसीहत की आवाज़ निहायत धीमी और मद्धम होती है। जो मीलानात के सेलाब के जोश व ख़रोश में सुनाई भी नहीं देती। लिहाज़ा वो तूफ़ान बदतमीज़ी का मुक़ाबला करने से क़ासिर होती है। अगर जिबिल्लत के मीलान की क़ुव्वत के रुहजान को एक तरफ़ से हटा कर दूसरी तरफ़ राग़िब करना मंज़ूर हो तो उस के लिए लाज़िम है कि ऐसी ज़बरदस्त ताक़त हमारी शामिल-ए-हाल हो। जिसकी क़ुव्वत के सामने जिबिल्लत की क़ुव्वत हीच हो और ये ज़बरदस्त ताक़त हमारी ज़िंदगी में ऐसे तौर पर दाख़िल हो कि अपनी क़ुदरत के करिश्मे से जिबिल्लत की क़ुव्वत के मीलान को एक तरफ़ से हटा दे और दूसरी जानिब राग़िब कर दे। अगर हम इस ताक़त के लिए “त” का हर्फ़ इस्तिमाल करें। और क़ुव्वत-ए-इरादी के लिए “अलिफ़” और जिबिल्लत की क़ुव्वत के लिए “ज” और अक़्ल और नसहीत के लिए हर्फ़ “नून” इस्तिमाल करें। तो हम कह सकते हैं कि ज की ताक़त अलिफ़+नून से ज़्यादा होती है। लेकिन अलिफ़+नून+त दर्जे-बदर्जे (आहिस्ता-आहिस्ता) से ताक़तवर हो जाते हैं। जब हम इस ज़बरदस्त ताक़त की मदद से तौफ़ीक़ हासिल करते हैं। तो हमारी क़ुव्वत-ए-इरादी में जो सल्ब हो गई थी नई जान पड़ जाती है। और हम अपनी जिबिल्लत की रग़बत पर ग़ालिब आ जाते हैं। और इस की क़ुव्वत के मीलान को एक नई जानिब राग़िब और मुनक़लिब (फेरना) करते हैं तो हम गोया अज़ सर-ए-नौ पैदा हो जाते हैं। हम नए मख़्लूक़ बन जाते हैं।

(3)

मसीहिय्यत ही एक वाहिद मज़्हब है, जो ये नई पैदाइश हमको अता करता है। जनाब मसीह ही अकेले हादी (हिदायत देने वाले) हैं जो ना सिर्फ हमको राह़-ए-हिदायत बताते हैं (युहन्ना 14:6) बल्कि हमको वो ज़बरदस्त ताक़त अता फ़रमाते हैं, जिसकी मदद से हम अपनी जिबिल्लत की ताक़त को एक जानिब से हटा कर दूसरी तरफ़ राग़िब कर सकते हैं। उस के ही फ़ज़्ल से हमको ये तौफ़ीक़ अता होती है। (युहन्ना 1:16-17, मत्ती 11:28, युहन्ना 7:37, 4:14, रोमीयों 2:24, 5:20, 15:10, 2-कुरंथियो 9:8, ग़लतीयों 2:21, इफ़िसियों 1:7, 2:7-8, 4:7, 1-तिमीथियुस 1:14, 2-तिमीथियुस 1:9, 2:1, तीतुस 2:11, 3:7, इब्रानियों 4:16 वग़ैरह वग़ैरह) और ये मह्ज़ इंजील का दाअ्वा ही नहीं बल्कि तजुर्बे इस दाअ्वे की तस्दीक़ भी करता चला आया है। चुनान्चे दो हज़ार साल से रुए ज़मीन के मुख़्तलिफ़ ममालिक और अज़ मुँह मुख़्तलिफ़ अक़्वाम और तबाइअ के लोग बैक ज़बान इक़रार करते चले आए हैं कि जनाब मसीह ने उनकी शैतानी ख़सलतों और मज़मूम (ख़राब, वो जिसकी बुराई की जाये) आदतों से अपने फ़ज़्ल के वसीले उनको तौफ़ीक़ अता करके नजात अता फ़रमाई है। हर मसीही का ये तजुर्बे है कि, “जहां गुनाह ज़्यादा हुआ वहां फ़ज़्ल इस से भी बहुत निहायत ज़्यादा हुआ।” गुनाह की मज़दूरी या नतीजा रुहानी मौत है। लेकिन हम मसीही अपने आक़ा व मौला सय्यदना मसीह के ज़रीये ख़ुदा का शुक्र करते हैं कि ख़ुदा की बख़्शिश हमारे आक़ा व मौला में हमेशा की ज़िंदगी है।

पस “अगर कोई मसीह में है तो वो नया मख़्लूक़ है। पुरानी चीज़ें जाती रहीं, देखो वो नई हो गईं।” (2-कुरंथियो 5:17)

क़ुरआन इन जिबिल्लतों (फित्रतों) की क़ुव्वत के तक़ाज़ाओं के मीलानों को एक जानिब से हटा कर दूसरी जानिब राग़िब करने से क़ासिर है। वो नेक-आमाल की दावत तो देता है। लेकिन ना तो नई पैदाइश की ताअलीम देता है। ना किसी शख़्स को नया मख़्लूक़ बनाने पर क़ादिर है। जिसका मतलब ये है कि दीन-फ़ित्रत के लवाज़िम (लाज़िम की जमा, ज़रूरी चीज़ें) इस में सिरे से नहीं हैं। लिहाज़ा वो दीन-ए-फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ भी नहीं हो सकता। तमाम अद्यान-ए-आलम (दुनिया के मजाहिब) में मसीही दीन को ही ये तुग़रा-ए-इम्तियाज़ (वो ख़ुसूसीयत और लियाक़त जो किसी और में ना हो) हासिल है। कि वो तमाम ममालिक वाअज़ मुँह में बदतरीन ख़लाइक़ के मीलानात को चाह ज़लालत से निकाल कर सिरात-ए-मुस्तक़ीम पर चलाता रहा है। और यूं अमलन साबित कर दिया है कि वो ऐसा करने पर क़ादिर है। लिहाज़ा मसीहिय्यत ही दीन-ए-फ़ित्रत है।

फ़स्ल दोम

ख़ौफ़ की जिबिल्लत ख़ौफ़ की जिबिल्लत की ख़सूसियात

ख़ौफ़ की जिबिल्लत (फ़ित्रत) तमाम हैवानात की बक़ा के लिए ज़रूरी है। इन्सानी सरिश्त (फ़ित्रत या तबियत) में ये जिबिल्लत क़वी-तरीन जिबिल्लतों में से है। दुनिया में ऐसा कौन शख़्स है जो ख़ौफ़ को ना जानता हो, और उस की ताक़त से वाक़िफ़ ना हो? ख़ौफ़ की जिबिल्लत (फ़ित्रत) का ये ख़ास्सा है, कि हम जिस शैय से ख़ौफ़ खाते हैं हम उस से या भागते हैं या पोशीदा हो जाते हैं और या मुदाफ़अत (दफ़ाअ करना, रोक) की ख़ातिर उस का मुक़ाबला करते हैं। पस इस जिबिल्लत के साथ फ़रारी या पोशीदगी या मुदाफ़अत मल्ज़ूम (लाज़िम किया गया, जो जुदा ना हो सके) है।

ये बात तसरीह (तशरीह, वाज़ेह करना) की मुहताज नहीं कि बनी-नूअ इन्सान की बक़ा के लिए ये जिबिल्लत निहायत कार-आमद और मुफ़ीद है। मसलन अगर हम ख़ौफ़ के मारे किसी शेर से ना भागें, या उस से रुपोश ना हों या उस का मुक़ाबला ना करें, तो हम ज़िंदा नहीं रह सकते। लेकिन हमें ये भी याद रखना चाहिए कि अगर इस जिबिल्लत पर ग़ैर-मामूली ज़ोर दिया जाये तो मुफ़ीद होने की बजाय ये जिबिल्लत वबाल जान हो जाती है। मसलन अगर एक शख़्स हर वक़्त ख़ौफ़ का शिकार रहे तो उस की ज़िंदगी मारिज़-ए-ख़तर में पड़ जाएगी। क्योंकि जब हमको ख़ौफ़ लाहक़ होता है तो हमारे जिस्म के मुख़्तलिफ़ हिस्से निहायत सख़्त कोशिश पर मज्बूर हो जाते हैं, और अगर ख़ौफ़ का असर हमारे जिस्म पर लगातार रहे तो इस का नतीजा ये होता है कि अअ़ज़ा-ए-रईसा इस जिस्मानी शिद्दत की कोशिश को सँभाल नहीं सकते। और बाअज़-औक़ात ख़ौफ़ के मारे मौत वाक़ेअ हो जाती है। मसलन अगर कोई शख़्स किसी सुनसान जंगल में अकेला हो और उस की नज़र बार-बार जंगली दरिंदों पर पड़े तो हम अंदाज़ा कर सकते हैं कि इस बात का असर उस के जिस्म पर और अअ़ज़ा-ए-रईसा पर कितना होता होगा। पस अगर ख़ौफ़ की जिबिल्लत मुतवातिर तहरीक में रहे तो इन्सान के दिल में होल (डर) बैठ जाता है। जिसके साथ ऐसा आसाबी इज़तिराब (बेक़रारी) वाक़ेअ होता है कि आज़ा-ए-रईसा मुज़्महिल (कमज़ोर, उदास) हो जाते हैं।

इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) की ग़ैर मोअ्तदिल (एतिदाल वाला, दर्मियानी दर्जे का) बरांगीख़्तगी (तैश में भरा हुआ) का लाज़िमी नतीजा ये होता है कि ना वाजिब शिद्दत और तकरार अमल से इन्सान हर वक़्त ख़ौफ़-ज़दा हो कर सहमा रहता है। उस का असर दिल की हरकत पर तनफ़्फ़ुस (सांस लेने) पर और जिस्म के मुख़्तलिफ़ अअ़ज़ा पर होता है। ख़ौफ़ के मारे इन्सानी ज़हन काम करने से जवाब दे देता है। क्योंकि ख़ौफ़ के मारे इन्सान को और कुछ नहीं सूझता और ख़ौफ़ उस की तमाम तवज्जा को अपनी जानिब खींच लेता है और इस का असर बहुत गहरा होता है, और बाअज़-औक़ात ये असर ज़हन पर उस्तुवार और मुहकम हो जाता है जिसका नतीजा ये होता है कि बेदारी और ख्व़ाब में हर लम्हा ख़ौफ़ (इन्सान) का दामन-गीर रहता है।

ख़ौफ़ की जिबिल्लत और दीन-ए-फ़ित्रत के लवाज़मात

पस दीन-ए-फ़ित्रत के लिए ये शर्त निहायत ज़रूरी है कि ख़ौफ़ की जिबिल्लत (फ़ित्रत) का जायज़ और मोअतदिल इस्तिमाल करे और इस को एतिदाल के साथ बरक़रार रखे। ये लाज़िम है कि दीन-फ़ित्रत के अक़ाइद ऐसे हों, जिनसे इस जिबिल्लत की ग़ैर मोअतदिल बरांगीख़्तगी वाक़ेअ ना हो। ताकि इन्सान होल और दहश्त का निशाना ना बना रहे, और ख़ौफ़ के बुरे नताइज से इन्सान की ज़िंदगी महफ़ूज़ रहे।

जिबिल्लत-ए-ख़ौफ़ और इस्लाम

इल्म-ए-नफ़्सियात ने ये साबित कर दिया है कि इन्सानी तरक़्क़ी की इब्तिदाई मनाज़िल में ख़ौफ़ और दहश्त का अन्सर अक़्वाम पर ग़ालिब रहता है। बदनी सज़ा और जिस्मानी ताज़ीरो ताज़ीब (दुख देना, सरज़निश करना) का ख़ौफ़ इन अक़्वाम और जमाअतों को हमेशा क़ाबू में रखता है। यही वजह है कि इब्तिदाई और वहशी-मज़ाहिब और मज़ाहिब-बातिला (झूटे मज़ाहिब, नाहक़ मज़ाहिब) में ख़ौफ़ दहश्त और होल (डर) का अन्सर ग़ालिब होता है। उनके देवी देवताओं का इमत्तीयाज़ी निशान ज़ुल्म और ख़ूँख़ारी होता है। बल्कि हक़ तो ये है कि जिस क़द्र किसी मज़्हब में दहश्त का अन्सर ग़ालिब होगा इसी निस्बत से वह मज़्हब अद्यान-ए-आलम (दुनिया के दीनो) की क़तार में अदना पाया (कम हैसियत) का शुमार किया जाएगा।

इस्लाम में ख़ौफ़ का अन्सर इसी तरह कारपर्दाज़ है। जिस तरह वहशी अक़्वाम के मज़ाहिब बातिला में देवताओं का ख़ौफ़ काम करता है। चुनान्चे मशहूर मुस्तश्रिक़ (वो फ़रंगी जो मशरिक़ी ज़बानों और उलूम का माहिर हो) सर टॉमस आरनल्ड की किताब में है कि :-

ज़माना-ए-जाहिलीयत में क़बाइल अरब के देवी-देवता अपने अपने परस्तारों के मुहाफ़िज़ और बादशाह तसव्वुर किए जाते थे। इस्लाम में अल्लाह ने इन देवताओं की जगह ले ली और उनकी बजाय अब अल्लाह इन्ही माअनों में उन क़बाइल का बादशाह और मुहाफ़िज़ क़रार दे दिया गया है। अल्लाह दुनियावी बादशाहों की तरह मुसलमानों पर हुकमरान है। चुनान्चे इस्लामी अफ़्वाज (फौजें) अल्लाह की फ़ौज है। इस्लामी ख़ज़ाना अल्लाह का ख़ज़ाना है।”

इस्लाम के तमाम मुहर्रिकात का अस्ल ख़ुदा का ख़ौफ़ और वईद-ए-अक़ूबत व ताज़ीब (सज़ा देने का वाअदा) है। क़ुरआन में ख़ुदा की इन सिफ़ात पर ज़ोर दिया गया है, जिनसे ख़ौफ़ टपकता है, और इन्सान मरऊब (डरने वाला) दहशतज़दा और लर्ज़ा बरानदाम रहता है। अल्लाह के चंद अस्मा-ए-हसना (नाम) ये हैं :-

ख़ालिक़, बारी, आली, रफ़ी, अज़ीम, कबीर, मूतआली, जलील, क़दीर, मजीद, क़वी, मुक़तदिर, क़ादिर, वाली, मालिक, अज़ीज़, हाकिम, हसब, मुतकब्बिर, मुज़म्मिल, जब्बार, क़ाबिज़, ख़ाफ़िज़, ज़ार, क़ह्हार, मुमीयत, मुंतक़िम, वग़ैरह वग़ैरह। अल्लाह ज़ुल्जलालो-वल-इकराम है। (सूरह रहमान आयत 78) इस की मिसाल बुलंद है (सूरह नहल आयत 62) वो रब-उल-अर्श है। (सूरह तौबा आयत 130 सूरह मोअमिनून 88) वो मशरिक़ व मग़रिब आस्मान व ज़मीन का मालिक है, जो गुनेहगारों से मुहब्बत नहीं रखता (सूरह बक़रह आयत 86) वह सरकशों को अज़ाब देता है। (सूरह नहल 25, सूरह अह्क़ाफ़ 19, सूरह जाशिया 7 व 20 सूरह मोमिन 37 व 62 व 76, सूरह ज़ुमर 60 व 61 व 72 सूरह साफ़्फ़ात 34, सूरह नहल 31, सूरह लुक़्मान 6 सूरह अनआम 93 वग़ैरह) ये अज़ाब अटल है। (सूरह तूर 11) वो जल्द हिसाब लेने वाला है। (सूरह माइदा 6 वग़ैरह) जिसकी पकड़ सख़्त तक्लीफ़-देह है। (सूरह हूद 9 सूरह नहल 6) वो सख़्त अज़ाब देने वाला है। (सूरह बक़रह आयत 192) वग़ैरह वो बिजली के कड़ाके भेजता है और जिस पर चाहे गिराता है (सूरह रअ़द 13) जिसको चाहता है अज़ाब देता है। (सूरह माइदा 44) वो गुनेहगारों फ़ासिक़ों की हिदायत नहीं करता। (सूरह तौबा आयत 110, सूरह माइदा 107 वग़ैरह) हालाँकि अगर वो चाहता तो सबको हिदायत पर कर देता। (सूरह इनआम आयत 150) सब चार व नाचार उसी को सजदा करते हैं। (सूरह रअ़द आयत 16) आस्मान और ज़मीन में कोई नहीं है, जो अल्लाह के पास ग़ुलाम हो कर हाज़िर ना हो, क्योंकि अल्लाह ने उन को घेर रखा है, और उन का शुमार कर रखा है। (सूरह मर्यम 93) चुनान्चे आख़िरी दिन जब सब लोग अपनी क़ब्रों से बाहर निकलेंगे तो अल्लाह फ़ख़्र ये उनसे पूछेगा कि अब बताओ आज के दिन किस की बादशाहत है और फिर फ़ातिहाना अंदाज़ में ख़ुद ही जवाब देगा कि अल्लाह वाहिद क़ह्हार की। (सूरह मोमिन 16) अल्लाह के निनान्वें नाम हैं। जिनमें से इकतालीस नाम ऐसे हैं जिनसे ज़ाहिर होता है कि अल्लाह की ज़ात में वो तमाम सिफ़ात पाई जाती हैं जो इन्सान के दिल में दहश्त और होल पैदा करती हैं। चुनान्चे कुतुब अहादीस में इस पर ज़ोर दिया गया है। ’’مشکواة باب الرقاق فے البکاؤ الخوف‘‘ (मिश्कात बाब अर्रक़ाक़ फी अल्बका व खौफ) में अबू हुरैरा से रिवायत है कि :-

“आँहज़रत ने फ़रमाया उस ख़ुदा की क़सम जिसके क़ब्ज़े क़ुदरत में मेरी जान है। अगर तुम उस की निस्बत वो बात जानते जो मैं जानता हूँ तो तुम ज़्यादा रोते और थोड़ा हंसते।”

इसी तरह “किताब अल-फितन” (کتاب الفتن) में है कि :-

“आँहज़रत ने फ़रमाया कि ऐ लोग ख़ूब रोओ और लोगों को रुलाओ।”

पस साफ़ ज़ाहिर होता है कि क़ुरआन व हदीस के मुताबिक़ अल्लाह और इन्सान का बाहमी ताल्लुक़ ज़बरदस्त और ज़ेरेदस्त हस्तीयों का है। एक ख़ालिक़ है तो दूसरी मख़्लूक़, एक मालिक है दूसरी ग़ुलाम एक ग़ालिब है दूसरी मग़्लूब एक क़ह्हार है दूसरी मकहूर व मग़ज़ूब (जिस पर ग़ुस्सा हो) एक जब्बार है दूसरी मज्बूर। अल्लाह की हस्ती ज़रर पहुंचाने वाली, छीन लेने वाली और अपने ग़ज़ब से गुनाहगारों को फ़ना कर देने वाली ऐसी हस्ती है जिसके इंतिक़ाम से कोई फ़र्द बशर बच नहीं सकता। क्योंकि उसने गुनेहगारों का ठिकाना जहन्नम मुक़र्रर कर रखा है। (सूरह बनी-इस्राईल आयत 19) जिसके सात (7) दरवाज़े हैं। (सूरह हिज्र 44) और जिस पर उन्नीस (19) निगहबान मुक़र्रर हैं। (सूरह मुदस्सिर आयत 30) जहां आग का ढेर सख़्त गर्म होगा (सूरह मुज़म्मिल आयत 12) ऊपर आग के साएबान और नीचे भी आग के साएबान होंगे। (सूरह ज़ुमर आयत 18) आग कभी ना बुझेगी। वो मुँह को झुलस देगी (सूरह मोमिनून 106) और दिलों को झाँकेगी। (सूरह हमज़ह आयत 7) वहां आग के कपड़े। (सूरह हज 21) और गंधक के कुरते होंगे। (सूरह इब्राहिम आयत 51) गुनाहगारों का खाना गला अटको होगा। (सूरह मुज़म्मिल आयत 13) उनके पीने को खौलता पानी और पीप होगी। (सूरह नबा आयत 26) उनको पानी गले हुए ताँबे की मानिंद पीना पड़ेगा। (सूरह कहफ़ 28) गर्म खौलता पानी उनकी अंतड़ियां काट डालेगा। (सूरह मुहम्मद आयत 17) वो ज़ंजीरों और तौक़ में गिरफ़्तार होंगे। (सूरह दहर आयत 4 सुबह आयत 32) और हथोड़ों से पीटे जाऐंगे। (सूरह हज आयत 22) वो मुँह-बंद आग में दमपुख्त होंगे। (सूरह बलद आयत 20) और दर्दनाक अज़ाब में मुब्तला होंगे। वो मौत माँगेंगे। (सूरह ज़ुख़रफ़ 77) लेकिन वहां ना मौत होगी और ना अज़ाब में किसी तरह तख़फ़ीफ़ (कमी) होगी। (सूरह फ़ातिर आयत 33) क़ुरआन और इस्लाम के अल्लाह की ज़ात व सिफ़ात ही ऐसी हैं जिनके मह्ज़ तसव्वुर ही से जिस्म पर रअश तारी हो जाता है।

बक़ौल मौलाना ज़फ़र अली ख़ां :-

है तबीई ये वो डर जिससे नहीं कोई मुफ़िर

ये वो ख़तरा है जो कुंजिश्क को शाहीन से है।

(2)

हक़ीक़त तो ये है कि अरब के बाशिंदे सिर्फ इसी क़िस्म के ईलाही तसव्वुर से मुतास्सिर और मरऊब हो सकते थे। चुनान्चे मरहूम मौलाना शिबली फ़रमाते हैं :-

इन्सान के दिल में जब ख़ुदा का ख़्याल एक शहनशाह मुतलक़ की हैसियत से आया तो ज़रूर था कि उसी के सिफ़ात भी उसी शहनशाही रुत्बे की हैसियत से ज़हन में आईं। इन्सान के शाहों और शहंशाहों के मुताल्लिक़ जो कुछ देखा या सुना था, यही था कि इज़्हार इताअत से ख़ुश होते हैं। जाँनिसारी, अदब, आजिज़ी, ख़ुशू और ताज़ीम पसंद करते हैं। और जो शख़्स जिस क़द्र ज़्यादा उन ख़िदमात को बजा लाता है वो इनाम-ए-सुल्तानी का इसी क़द्र ज़्यादा मुस्तहिक़ होता है। इन्ही ख़यालात के लिहाज़ से ख़ुदा की इबादत का ख़्याल पैदा हुआ।”

(अल-कलाम हिस्सा दोम सफ़ा 144)

चुनान्चे डाक्टर अब्दुल्ला ऐडीटर तुर्की अख़्बार इज्तिहाद अगस्त 1924 ई॰ की इशाअत में यूं रक़म-तराज़ है :-

तोहमात की इब्तिदाई मनाज़िल में ये कि एक क़ुदरती बात थी कि हर क़ौम अपने तसव्वुर के मुताबिक़ ख़ुदा को मुतसव्वर करे। इंतिक़ाम पसंद अरब से यही उम्मीद हो सकती थी कि उनका अल्लाह क़ादिर-ए-मुतलक़ और इंतिक़ाम पसंद होता। मैं तो उस ख़ुदा का क़ाइल हूँ जो सिर्फ नेक और रास्तबाज़ हो। जो अगर किसी शख़्स पर से आफ़त और मुसीबत टाल ना सके तो मुसीबत ज़दों और आफ़त रसीदों के साथ दुख और रंज के वक़्त रोए।” अल्लाह क़ुरआन में कहता है कि, “तहक़ीक़ हमने अरबी ज़बान में इस क़ुरआन को नाज़िल किया है ताकि तुम समझ सको।” इन अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है कि क़ुरआन सिर्फ अरब के लिए नाज़िल हुआ है। और तुर्कों का इस में कोई हिस्सा-बख़्रा नहीं हो सकता। अरबों ने हम पर ये जबरियह अपने ख़ुद-साख़्ता अल्लाह को ठूंस कर हमको तबाह और बर्बाद कर दिया है। इस्लाम के अल्लाह में बाअज़ खूबियां हैं लेकिन उस की सिफ़ात ऐसी हैं जिन्हों ने हमारी क़ौमी नशव व नुमा को अपाहिज और मिल्ली तरक़्क़ी को मफ़लूज (लक़वे का मरीज़) कर दिया है.... सल्तनत ईरान के ज़वाल का भी यही सबब है।”

एक और तुर्की अख़्बार लिखता है कि क़ुरआन का इस्लाम :-

एक ऐसा मज़्हब था जिससे तुर्कों के दिल ख़ौफ़ और अज़ाब के मारे दहल जाते थे। मज़्हब और ईमान पर जबर (ज़ोर ज़बरदस्ती) ग़ालिब था। जिससे हक़ीक़ी मज़्हब कमज़ोर हो गया था। तुर्की इन्क़िलाब ने जबर और ख़ौफ़ का ख़ातिमा कर दिया है।”

(हकीमियती बाबत 30, दिसंबर 1925 ई॰)

इस्लाम के अल्लाह की ज़ात व सिफ़ात के मह्ज़ तसव्वुर से इन्सान के बदन पर कपकपी लग जाती है। दिल में होल (डर) बैठ जाता है ख़ौफ़ और दहश्त के मारे इन्सान बेक़रार हो जाता है। आसाबी इज़्तिराब की वजह से अअ़ज़ा-ए-रईसा मुज़्महिल हो जाते हैं। ग़रज़ ये कि इस्लाम ख़ौफ़ की जिबिल्लत (फ़ित्रत) को निहायत ग़ैर मोअतदिल तौर पर बे-अंदाज़ा बरअंगीख़्ता कर देता है। जो फ़ित्रत के क़तअन ख़िलाफ़ है। दीने फ़ित्रत का तो ये काम था कि वो ख़ौफ़ की जिबिल्लत (फ़ित्रत) को जायज़ और मोअतदिल इस्तिमाल करे। और इस की ग़ैर मोअतदिल बरांगीख़्तगी से इन्सान को महफ़ूज़ रखे। लेकिन इस्लाम में अल्लाह का तसव्वुर ही ऐसा है, जिससे इन्सान की ज़िंदगी वबाल जान हो जाती है। चह जाय कि वो इस को औज आला (उरूज व बुलंदी) पर पहुंचा सके। पस जब हम इस्लाम को इस कसौटी पर, परखते हैं तो हम देखते हैं कि जहां तक इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) का ताल्लुक़ है इस्लाम दीने-फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं हो सकता।

जिबिल्लत-ए-खौफ़ और मसीहिय्यत

मसीहिय्यत हमको ये ताअलीम देती है कि, “ख़ुदावंद का ख़ौफ़ दानिश की इब्तिदा है।” (अम्साल 1:7) “ख़ुदावंद का ख़ौफ़ पाक है।” (ज़बूर 19:9) “ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा तुमसे सिवा इस के और क्या चाहता है कि तुम ख़ुदावंद अपने ख़ुदा का ख़ौफ़ मानो और उस की सब राहों पर चलो और उस से मुहब्बत रखो।” (इस्तिस्ना 10:12, यशूआ 24:14, 1-समूएल 12:14, अय्यूब 28:28, ज़बूर 25:14 वग़ैरह) “ख़ुदावंद से डरने वालों के चारों तरफ़ उस के फ़रिश्ते ख़ेमा-ज़न होते है। और उनको बचाता है जो उस से डरते हैं उनको कुछ कमी नहीं।” (ज़बूर 34:7, 60:4, 85:9 वग़ैरह) “जैसे बाप अपने बेटों पर तरस खाता है वैसे ही ख़ुदावंद उन पर जो उस से डरते हैं तरस खाता है। जिस क़द्र आस्मान ज़मीन से बुलंद है उसी क़द्र उस की शफ़क़त उन पर जो उस से डरते हैं।” (ज़बूर 103:11, 105:11, 118:4, 128:4, 130:4, 145:19, 147:11) “ख़ुदावंद का ख़ौफ़ बदी से अदावत है।” (अम्साल 8:12, 14:2, 14:28) “ख़ुदावंद का ख़ौफ़ ज़िंदगी बख़्श है। ख़ुदातरस सैर होगा और बदी से महफ़ूज़ रहेगा।” (अम्साल 19:23, यसअयाह 50:10) “तेरा दिल डरेगा और कुशादा होगा।” (यसअयाह 60:5) “तुम पर जो मेरे ख़ुदा के नाम से डरते हो आफ़्ताब सदाक़त तूलुअ होगा। और उस की किरनों में शिफ़ा होगी।” (मलाकी 4:2) “आओ हम अपने आपको हर तरह की जिस्मानी और रुहानी आलूदगी से पाक करें और ख़ुदा के ख़ौफ़ के साथ पाकीज़गी को कमाल तक पहुंचाएं।” (2_कुरंथियो 7:1) “ख़ुदा के ख़ौफ़ में एक दूसरे के ताबेअ् रहो।” (इफ़िसियों 5:21)

किताब-मुक़द्दस के मज़्कूर बाला इक्तबासात बतौर मुश्ते नमूना अज़ख़रदारे (ढेर में से मुट्ठी भर) दिए गए हैं। इनसे वाज़ेह हो गया होगा कि मसीहिय्यत में “ख़ुदा का ख़ौफ़” किस क़िस्म का है और उस का मफ़्हूम क्या है? ये ख़ौफ़ “दानिश (हिकमत) की इब्तिदा” है “पाक” है। इस से “ख़ुदा की मुहब्बत” पैदा होती है। इस का नतीजा “नेक नीयती और सदाक़त।” है। और इस से “दिल कुशादा” होता है। इस पर “आफ़्ताब सदाक़त” की किरनें चमकती हैं। जो हमको “शिफ़ा” बख़्शती हैं और वो हर चीज़ से हमको महफ़ूज़ रखता है। ये ख़ौफ़ इस क़िस्म का ख़ौफ़ है जो बेटा अपने बाप से रखता है। इस तसव्वुर में ख़ुदा की मुहब्बत पर ज़ोर दिया गया है, जिसकी वजह से इन्सान अपने आस्मानी बाप की मुहब्बत को ठुकराने से डरता है। इस ख़ौफ़ का होल (डर) के साथ कोई ताल्लुक़ नहीं है। बल्कि इस क़िस्म के ख़ौफ़ का जुज़्व-ए-आज़म मुहब्बत है। जिसमें बअल्फ़ाज़ इंजील, “दहश्त नहीं होती बल्कि कामिल मुहब्बत दहश्त को दूर कर देती है क्योंकि दहश्त से अज़ाब पैदा होता है। और कोई दहश्त खाने वाला मुहब्बत में कामिल नहीं हुआ।” (युहन्ना 4:18) ये मसीही तसव्वुर अअ़ज़ा-ए-रईसा को कमज़ोर और मुज़्महिल करने के बजाय “कुशादा” करता है। (यसअयाह 60:5) “उस की किरनों में शिफ़ा है।” (मलाकी 4:2) ऐसे ख़ौफ़ से ज़हन काम करने से जवाब नहीं देता। और इस से ज़हनी फ़अ़लियत का ख़ातिमा नहीं होता। बल्कि उस के बरअक्स ये मुहब्बत आमेज़ ख़ौफ़ क़वा-ए-ज़हनी के लिए “ज़िंदगी बख़्श” है। ख़ुदा की मुहब्बत होल (डर) के तमाम ख़तरनाक नताइज से हमको महफ़ूज़ रखती है। जो इश्याअ् पहले हम को दहशतनाक दिखाई देती थीं और जो वाक़ियात हमको होलनाक नज़र आते थे। अब मसीही ईमान की रोशनी में हमको ख़ुदा की मुहब्बत और उस की पर्वरदिगारी के नज़ारे मालूम देते हैं। वही बातें अब हमको ख़ुदा की मुहब्बत की मिसालें दिखाई देती हैं। क्योंकि वो ईलाही मुहब्बत की रोशनी से मुनव्वर हो जाती हैं। हमको अब ख़ुदा की पर्वरदिगारी और मुहब्बत की झलक उन वाक़ियात में नज़र आती है जो पहले हमको ख़ौफ़नाक दिखाई देते थे। और जिनसे देवी-देवताओं के परस्तार अभी तक ख़ाइफ़ व तरसाँ हैं। इन्सानी ज़िंदगी वबाल हो जाने की बजाय मुहब्बत से मामूर होकर पुर-लुत्फ़ कवाइफ़ का एक सिलसिला लामुतनाही (जिसकी कुछ इंतिहा ना हो) बन जाती है और आस्मानी सरवर दहश्त की जगह ले लेता है। (युहन्ना 14 बाब) और जूँ-जूँ ईलाही मुहब्बत का एहसास हम में बढ़ता जाता है हमारी ज़िंदगीयों में अजीब तब्दीलीयां पैदा होती जाती हैं। और हम ज़बूर नवीस के हम नवा हो कर पुकार उठते हैं।“ख़ुदावंद मेरी रोशनी और मेरी नजात है, मुझे किस की दहश्त? ख़ुदावंद मेरी ज़िंदगी का पुश्ता (बंद, वो चमड़ा या कपड़ा जिससे किताब की पुश्त के पट्ठे जोड़े जाते हैं) है, मुझे किस की हैबत? ख़ुदावंद मेरी पनाह और क़ुव्वत है इसलिए मुझको कुछ ख़ौफ़ नहीं ख़्वाह ज़मीन का तख़्ता उलट जाये और पहाड़ समुंद्र की तह में डाल दीए जाएं ख़्वाह उस का पानी शोर मचाए और मौजज़न हो, और पहाड़ उस की तुग़्यानी से हिल जाएं।” (ज़बूर 27:1, 46:1)

जिबिल्लत-ए-ख़ौफ़ और इस्लामी और मसीही ताअलीम का मुवाज़ना

मुम्किन है कि कोई कोताह अक़्ल (कम-अक़्ल) ये एतराज़ करे कि मसीहिय्यत भी ख़ुदा को ख़ालिक़, बारी, आली, रफ़ी, अज़ीम, कबीर, मिताली, जलील, क़ादिर, क़दीर, वग़ैरह मानती है। लेकिन मोअतरिज़ को मालूम होना चाहिए कि मसीहिय्यत और इस्लाम में ख़ुदा के तसव्वुरात में (بعد المشرقین) बाअ्द-उल-मुशरक़ीन है। मसीहिय्यत ख़ुदा को इन मअ़नों में रफ़ीअ़्, अज़ीम, जलील, क़ादिर वग़ैरह नहीं मानती जिन माअनों में इस्लाम अल्लाह को ऐसा मानता है। इस्लाम का अस्ल-उल-उसूल ये है कि ख़ुदा मुनज़्ज़ह (ऐबों से पाक) है। और वो एक हैबतनाक हस्ती है जो मुन्दरिजा बाला तमाम सिफ़ात से मुत्तसिफ़ (जिसके साथ कोई सिफ़त लगी हो) है। इस के बरअक्स मसीहिय्यत का अस्ल-उल-उसूल ये है कि ख़ुदा बाप है और उस की ज़ात मुहब्बत है। मुहब्बत ख़ुदा की मह्ज़ सिफ़त नहीं बल्कि मुहब्बत उस की ज़ात है। और मुन्दरिजा-बाला तमाम की तमाम सिफ़ात उस की ज़ात यानी मुहब्बत की सिफ़ात हैं। और वो हम पर ख़ुदा की मुहब्बत ज़ाहिर करती हैं। मसलन अगर ख़ुदा क़ादिर और क़वी है तो इस का मतलब ये है कि ख़ुदा की मुहब्बत क़ादिर है। जो बदतरीन गुनाहगार को भी अपने दस्त-ए-क़ुदरत से बचा सकती है। अगर ख़ुदा रफ़ीअ़्, आली और अज़ीम है तो इस का मतलब ये है कि उस की मुहब्बत की रिफ़अत और अज़मत को कोई शख़्स नहीं जान सकता (इफ़िसियों 3:19) लेकिन इस्लाम में इन अस्मा-ए-जलालीया से ये मतलब मक़्सूद नहीं होता बल्कि वहां ये सिफ़ात एक ऐसी ख़ौफ़नाक ज़बरदस्त और हैबतनाक हस्ती की जानिब इशारा करती हैं जिसे चार व नाचार (मजबूरन) इन्सानों को सज्दा करना लाज़िमी और लाबदी और नागरेज़ अम्र है। वर्ना उस के क़हर व ग़ज़ब की इंतिहा नहीं। लेकिन मसीहिय्यत के मुताबिक़ ख़ुदा का ग़ुस्सा किसी जब्बार और क़ह्हार हस्ती का क़हर व ग़ज़ब नहीं। बल्कि ख़ुदा बाप की अज़ली और अबदी मुहब्बत की आग की चिंगारियां हैं जिसकी इल्लत-ए-ग़ाई (हासिल, सबब) ये है कि इन्सान हलाक ना हो। बल्कि बच्चे की तरह तर्बीयत पाकर हमेशा की ज़िंदगी पाए (अम्साल 3:12, 2_तिमीथियुस 1:7, इब्रानियों 2:6-7, युहन्ना 3:16 वग़ैरह)

मसीहिय्यत के मुताबिक़ अगर ख़ुदा ज़ूल-जलाल है तो इस का मतलब ये है कि उस की मुहब्बत पुर जलाल है। अगर ख़ुदा अज़ली और अबदी है तो इस का मतलब ये है कि उस की मुहब्बत अज़ली और अबदी है। लेकिन इस्लाम का अल्लाह अस्मा-ए-जमालीया रखता है तो मह्ज़ अपने जलाल की ख़ातिर मसलन अगर वो रहमान-उल-रहीम है तो उस का रहम एक मुतलक़ उल-अनान क़ादिर, क़ह्हार व जब्बार, मुज़ील, और मुमीयत सुलतान का रहम है जो वो अपने मग़्लूब व मक़हूर व मग़ज़ूब ग़ुलाम पर करता है। ऐसा रहम अख़्लाक़ी अन्सर से बिल्कुल ख़ाली और मुअर्रा है। क्योंकि अल्लाह जिस मग़ज़ूब ग़ुलाम पर चाहे रहम करे और जिस पर चाहे क़हर करे। जिसको चाहे बख़्शे और जिसको चाहे अज़ाब दे। (सूरह माइदा आयत 44 वग़ैरह) वो जो चाहे हुक्म दे। (सूरह माइदा आयत 1 व 2 वग़ैरह) बहरहाल वो गुनेहगारों, फ़ासिक़ों, फ़ाजिरों से मुहब्बत नहीं रखता। (सूरह बक़रह आयत 92 वग़ैरह) बल्कि वो उनसे इंतिक़ाम लेता है। (सूरह सजदा 22 ज़ख़रफ़ 40 दुख्ख़ान 15 वग़ैरह)

पस इस्लाम के अल्लाह की हस्ती एक हैबतनाक डरावनी हस्ती है। जो डरने वालों को ही जज़ा देती है। (सूरह इब्राहिम 17 वग़ैरह) उस का रसूल डराने वाला नज़ीर है। (अह्ज़ाब 44 निसा 96 माइदा 57 व 58 बक़रा 2 ता 4 वग़ैरह) उस की किताब क़ुरआन डराने वाली किताब है। (सूरह हामीम सजदा आयत 3) इस ख़ौफ़ और दहश्त की वजह से इन्सान और अल्लाह में हक़ीक़ी रिफ़ाक़त मुम्किन नहीं हो सकती क्योंकि रिफ़ाक़त मुहब्बत का नतीजा है।मसीहिय्यत के मुताबिक़ ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है। जो अपनी मुहब्बत की ख़ूबी हम पर यूँ ज़ाहिर करता है कि, “जब हम गुनाहगार ही थे तो मसीह ने हमारी ख़ातिर जान दी।” (रोमीयों 5:8, युहन्ना 4:9 वग़ैरह) “उस के रहम की दौलत उस बड़ी मुहब्बत के सबब है जो उस ने हम से की। (इफ़िसियों 2:4) इस्लाम के ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात ऐसी हैं जिनसे हर लहज़ा ख़ौफ़ और दहश्त टपकती है। लेकिन मसीहिय्यत के “ख़ुदा ने हमको दहश्त की रूह नहीं बल्कि क़ुदरत और मुहब्बत और तर्बियत की रूह दी है।” (2_तिमीथियुस 1:7) मसीहिय्यत में ख़ुदा की लाज़वाल मुहब्बत ख़ुदा के ख़ौफ़ का सरचश्मा और मंबा है, और इस को तहरीक में लाती है। (रोमीयों 5:8, युहन्ना 4 बाब) ये कामिल मुहब्बत इन्सान को मज्बूर करती है कि वो ख़ुदा बाप की मर्ज़ी पर चले। ये मज्बूरी किसी क़ह्हार व जब्बार ख़ुदा के ग़ज़ब से होल (डर) खाने का नतीजा नहीं होती। बल्कि कामिल मुहब्बत के दिल में शोला-ज़न होने का नतीजा होती है। बअल्फ़ाज़ इंजील, “मसीह की मुहब्बत हम को मज्बूर करती है।” (2_कुरंथियो 5:14) ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है। लिहाज़ा हम को “गु़लामी की रूह नहीं मिली, जिससे डर पैदा हो, बल्कि ले-पालक होने की रूह मिली है। जिससे हम अब्बा यानी ऐ बाप कह कर ख़ुदा को पुकारते हैं।” (रोमीयों 8:15) इंजील की ख़ुशख़बरी ये है कि, “जो उम्र-भर मौत के डर से गु़लामी में गिरफ़्तार रहे, उनको छुड़ा दे।” (इब्रानियों 2:15) मुनज्जी आलमीन ने फ़रमाया, “मैं तुमको इत्मीनान देता हूँ। तुम्हारा दिल ना घबराए और ना डरे, तुम मुझमें इत्मीनान पाओ। मैं तुमको ग़ुलाम नहीं कहता। बल्कि मैंने तुमको दोस्त कहा है।” (युहन्ना 14 बाब) आपने बार-बार अपने शागिर्दों और दूसरे लोगों को ताकीद करके फ़रमाया कि, “मत डरो” (मत्ती 10:31, लूक़ा 5:10, 8:50, 12:32 वगैरह)

जैसा हम अपने रिसाले “नूर-उल-हुदा” में मुफ़स्सिल ज़िक्र कर चुके हैं। ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि इब्तिदा ही से मसीहिय्यत ने मुख़्तलिफ़ अज़्मिना में अक़्वाम आलम के करोड़ों अफ़राद को मज़ाहिब बातिला के दहश्त और होल (डर) और तुहमात के तबाहकुन ख़ौफ़ से नजात बख़्शी। इसी वास्ते ख़ुदावंद के पैग़ाम का नाम “इंजील” यानी “ख़ुशख़बरी” पड़ गया। क्योंकि इब्तिदा ही से ये पैग़ाम हक़ीक़ी माअनों में “ख़ुशख़बरी” साबित हुआ। उसने हर फ़र्द बशर को हर तरह के होल (डर) और दहश्त से छुटकारा दे दिया। अदयान आलम (दुनिया के तमाम मजहबों) में मसीहिय्यत ही एक ऐसा मज़्हब है जो ख़ौफ़ की जिबिल्लत (फ़ित्रत) का जायज़ इस्तिमाल करता है। और इस को ग़ैर मोअतदिल तौर पर बरअंगीख़्ता नहीं करता। बल्कि रोब एहतिराम और मुहब्बत के जज़्बात से दहश्त के अन्सर को दूर करके हर तरह का होल (डर) हमारे दिलों से निकाल देता है। जिसका नतीजा ये है कि हम ख़ुदा के “फ़ज़्ल के तख़्त के पास दिलेरी से” आते हैं। (इब्रानियों 4:16) जिस तरह बेटा अपने बाप के पास दिलेरी से आता है। चुनान्चे लिखा है कि, “हमें जो उस के सामने दिलेरी है। इस का सबब ये है कि मुहब्बत हम में कामिल हो गई है।” (1_युहन्ना 5:14, 4:17)

पस मसीहिय्यत में ख़ुदा का तसव्वुर मुहब्बत पर मबनी है। जनाब-ए-मसीह ने बाप की मुहब्बत हम पर ज़ाहिर की। इस अज़ली अबदी और लाज़वाल मुहब्बत के “एहतिराम” ने ख़ौफ़ और दहश्त के मुहर्रिकात की जगह हमारे दिलों में ले ली है। जिसका क़ुदरती नतीजा ये है कि जो शख़्स ख़ुदा पर मसीह के वसीले ईमान लाते हैं वह ईलाही कहर व ग़ज़ब और ख़ुदावंदी अक़ूबत व ताज़ीब के ख़ौफ़ से मरऊब हो कर ख़ुदा के अहकाम पर नहीं चलते। बल्कि ख़ुदा की अज़ली मुहब्बत के एहतिराम का पास करके ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस की पाक मर्ज़ी पर चलने का मुसम्मम इरादा कर लेते हैं।

इस्लामी तसव्वुर तारीख़ मज़्हब की इब्तिदाई मनाज़िल का तसव्वुर है लेकिन मसीही तसव्वुर इंतिहाई मंज़िल का तसव्वुर है और दोनों तसव्वुरात में बाअ़्द-उल-मुशरक़ीन है।

بہ بیں تفاوت راہ از کجاست تابہ کجا

पस जहां तक ख़ौफ़ की जिबिल्लत (फ़ित्रत) का ताल्लुक़ है मसीहिय्यत ही अकेला वाहिद मज़्हब है, जो हमारी सरिश्त (फ़ित्रत या तबियत) की इस जिबिल्लत के इक़्तिज़ा को बतर्ज़ अहसन पूरा करता है।

फ़स्ल सोम

जिबिल्लत-ए-तोलीद-ए-मिस्ले-नोई या जिबिल्लत-ए-जिंसी जिबिल्लत जिन्सी की ख़सुसियात

जिन्सी जिबिल्लत के ज़रीये एक हैवान अपनी नौ (अपने जैसे जानदार) के हैवान पैदा करता है। नर और माद्दा के बाहमी ताल्लुक़ात इसी जिन्सी जिबिल्लत (फ़ित्रत) की वजह से ज़हूर में आते हैं। इन्सानी मुआशरत के लिए ये जिबिल्लत निहायत ज़रूरी है। चूँकि इस जिबिल्लत से हर जमाअत ख़्वाह छोटी हो ख़्वाह बड़ी बहाल सरसब्ज़ और क़ायम रहती है। लिहाज़ा इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) के लिए ब्याह और इज़्दवाज का वजूद और इस हालत का क़ियाम निहायत ज़रूरी उमूर हैं।

(1)

तारीख़ अक़्वाम का मुतालआ हम पर ये वाज़ेह कर देता है कि वही अक़्वाम तरक़्क़ी करती हैं जिनमें ऐसे क़वानीन इज़्दवाज मुंज़ब्त (मज़्बूत किया हुआ, पैवस्ता किया गया) होते हैं। जो वालदेनी जिबिल्लत यानी माँ बाप की जिबिल्लत (फ़ित्रत) की ताईद करते हैं। वो क़बाइल और अक़्वाम जिनमें रस्म इज़्दवाज मुंज़ब्त नहीं होती जल्दी फ़ना हो जाते हैं। हक़ तो ये है कि अक़्वाम की शाइस्तगी और तहज़ीब का मेयार उनके इज़्दवाज के क़वानीन व क़वाइद हैं। जिन अक़्वाम में वहदत-ए-इज़्दवाज है और इस रिश्ते के क़ियाम व बक़ा पर ज़ोर दिया जाता है वो अक़्वाम शाहराह तरक़्क़ी पर गामज़न होती हैं। लेकिन जिन अक़्वाम में वहदत इज़्दवाज की बजाय कस्रत-ए-इज़्दवाज (एक से ज्यादा निकाह) राइज है और ब्याह के रिश्ते की तरफ़ से लापरवाही इख़्तियार की जाती है। और तलाक़ आम रोज़मर्रा का वाक़िया हो जाता है। उन अक़्वाम में ज़वाल पैदा हो जाता है। तारीख़ मुआशरत ये साबित करती है कि वो अक़्वाम जिनमें मुतअद्दिद (कई) बीवीयां या मुतअद्दिद शौहर रखने का रिवाज जाता रहा। वो अपनी वहशयाना हालत को छोड़कर मुहज़्ज़ब हो गईं। लेकिन वो अक़्वाम तरक़्क़ी के ज़ीना से गिर गईं। जिनमें वहदत इज़्दवाज (एक निकाह) की बजाय तादाद इज़्दवाज (एक साथ बहुत से निकाह) और तलाक़ मुरव्वज हो गया या जिनमें मर्दो ज़न में वफ़ादारी और बाहमी इख़्लास वग़ैरह के ताल्लुक़ात मुद्दत-उल-उम्र (तमाम ज़िंदगी) पाएदार ना रहे। तारीख़ दुनिया के सफ़हात इस उसूल की मिसालों से भरे पड़े हैं। मसलन मुल्क यूनान के बाशिंदों में पांचवीं सदी क़ब्ल अज़ मसीह तक वहदत इज़्दवाज (एक ही निकाह) की रस्म जारी थी। और उस ज़माने में उन्होंने हैरत-अंगेज़ तरक़्क़ी की। लेकिन जूंही इज़्दवाज (निकाह) के क़वानीन व क़वाइद ढीले होने शुरू हो गए। यूनान के ज़वाल के ज़माने की इब्तिदा हो गई। उस मुल्क के अख़्लाक़ी इन्हितात का ये हाल हो गया कि डेमस्थींज़ (Demosthenes) कहता है कि :-

हम अपनी मन्कूहा बीवीयों के साथ इस वास्ते ताल्लुक़ रखते हैं ताकि हमारे हाँ ऐसे बच्चे पैदा हों, जिनको क़ानून तस्लीम कर सके। लेकिन लज़्ज़त हासिल करने के लिए हम दूसरी औरतों को अपने घरों में रखते।”

वहां इज़्दवाज के क़वाइद के नर्म और ढीले होने का नतीजा ये हुआ कि अहले यूनान एक मह्कूम क़ौम बन गए। इसी तरह रोम में जब तक इज़्दवाज के क़वानीन सख़्त थे, सल्तनत-ए-रोम उरूज पर रही। लेकिन जहां उन क़वानीन की जानिब से लापरवाही इख़्तियार की गई। और तादाद इज़्दवाज और तलाक़ एक आम बात हो गई तो उस सल्तनत के ज़वाल का ज़माना आ गया। और इस अख़्लाक़ी इन्हितात का नतीजा ये हुआ कि रोम ने ऐसी क़ौम यानी जर्मनों के हाथों ज़बरदस्त शिकस्त खाई जिसमें वहदत इज़्दवाज जारी थी। इसी तरह मुल्क हसपानीया में इस्लामी फ़ुतूहात को सरअंजाम देने वाली क़ौम बर्बर थी जिसमें वहदत इज़्दवाज राइज थी। लेकिन जब फ़ातिह क़ौम की जड़ों को इस्लामी रसूम तादाद इज़्दवाज और तलाक़ ने खोखला कर दिया। तो इस को ऐसा ज़वाल आया कि इस्लाम का निशान तक मग़रिब से मिट गया।

पस ज़ाहिर है कि जिन ममालिक में वहदत-ए-इज़्दवाज जारी है और इस रिश्ते के क़वानीन व क़वाइद मुंज़ब्त और सख़्त हैं। वो मुल्क तरक़्क़ी करते हैं और मुहज़्ज़ब हो जाते हैं। लेकिन जिन ममालिक में वहदत इज़्दवाज नहीं और इस रिश्ते के क़वानीन नर्म और ढीले हैं और तादाद इज़्दवाज और तलाक़ राइज है। वो मुल्क जिन्सी ज़वाल पज़ीर हो जाते हैं। पस ये एक मुस्लिमा हक़ीक़त है कि जिस मुल्क और ज़माने में इज़्दवाज के ताल्लुक़ात मुद्दत-उल-उम्र पाएदार होते हैं वहां तरक़्क़ी इल्म सनअ़त व हरफ़त्त और तमद्दुनी और मुआशरती ज़िंदगी ज़हूर पज़ीर हो जाती है। जिससे साबित है कि वहदत-ए-इज़्दवाज और इज़्दवाजी ताल्लुक़ात की पाएदारी और क़ियाम और उन ताल्लुक़ात का इस्तिहकाम बनी-नूअ इन्सान की तरक़्क़ी के लिए ना सिर्फ ज़रूरी हैं बल्कि उस की तरक़्क़ी की लाज़िमी शराइत हैं। क्योंकि बक़ा-ए-नूअ़् इस अम्र की मुक़तज़ी है कि इज़्दवाज क़ायम रहे और मुद्दत-अल-उम्र (तमाम उम्र) क़ायम रहे। जिन्सी जिबिल्लत माँ बाप की जिबिल्लत के साथ मरबूत (वाबस्ता) और मख़लूत (मिला-जुला) है। और ये क़रीबी तलाज़ुम मुआशरत के लिए ना सिर्फ अज़-हद मुफ़ीद बल्कि लाज़िम और ज़रूरी है। इस बात में कुछ शक नहीं कि ये रब्त मबद फ़ित्रत से है। अली-उल-उमूम जो मारूज़ जिन्सी इक़्तिज़ा का है। वो किसी हद तक जज़्बा नाज़ुक का भी मारूज़ है। ये इर्तिबात (मेल मिलाप, दोस्ती) इस वफ़ादारी और बाहमी इख़्लास की बुनियाद है। जिसकी वजह से नर और मादा में वफ़ादारी और बाहमी इख़्लास वग़ैरह के ताल्लुक़ात मुद्दत-उल-उम्र (पूरी ज़िन्दगी, तमाम उम्र) पाएदार उस्तुवार और क़ायम रहते हैं।

(2)

यहां ये सवाल पैदा होता है कि क्यों वहदत इज़्दवाज और तहज़ीब की तरक़्क़ी लाज़िम मल्ज़ूम हैं? इस का जवाब ये है कि जो अफ़राद और अक़्वाम जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) की तरफ़ ही ख़्याल रखते हैं वो शहवत के ग़ुलाम हो जाते हैं। उनमें नर और मादा के जज़्बात ग़ैर-मोअतदिल तौर पर बरअंगीख़्ता रहते हैं। चूँकि इस क़िस्म के इन्सानों का ख़्याल हमेशा औरतों के जानिब ही लगा रहता है और वो उनसे हज़ (मज़ा) और लज़्ज़त हासिल करने में ही अपनी क़ुव्वतें सर्फ कर देते हैं। लिहाज़ा वो और किसी मुसर्रिफ़ (काम) के नहीं रहते। उनके आअ्ज़ा-ए-रईसा मुज़्महिल हो जाते हैं। जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) की ना-वाजिब शिद्दत और तकरार अमल के बाइस उनके ज़हन किसी काम के नहीं रहते। और यूं रफ़्ता-रफ़्ता उनकी ज़हनी फ़अलियत का ख़ातिमा हो जाता है। क्योंकि शहवानी ख़यालात की ये ख़ुसूसीयत है कि वो बाक़ी तमाम ख़यालात पर ग़लबा पाकर इन्सान की तमाम तवज्जा को अपनी तरफ़ खींच लेते हैं।

(3)

लेकिन जो शख़्स जिन्सी जिबिल्लत को सिर्फ जायज़ और मोअतदिल तौर पर इस्तिमाल करता है वो इस जिबिल्लत की वाफ़र ताक़त को दीगर अग़राज़ और मक़ासिद के हुसूल में लगा देता है। हर शख़्स अपने तजुर्बे से इस अम्र की ताईद कर सकता है। जब कोई इन्सान जिन्सी जिबिल्लत को ग़ैर-मोअतदिल तौर पर बरअंगीख़्ता नहीं होने देता। और इस पर क़ाबू पा लेता है तो वो इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) की अज़ीम तवानाई और ताक़त को दीगर इन्सानी मशाग़ुल और अग़राज़ व मक़ासिद के हासिल करने में सर्फ कर सकता है, और कर भी देता है। हमें ये हक़ीक़त हरगिज़ फ़रामोश नहीं करनी चाहिए कि इन्सानों में तमाम जिबिल्लतों से ज़्यादा जिबिल्लत जिन्सी मुख़्तलिफ़ वज्दानियात और इक़्तिज़ाओं को अपने इक़्तिज़ा की अज़ीम ताक़त, क़ुव्वत और तवानाई मुस्तआर (चंद रोज़, मांगा हुआ) देती है। चूँकि इन्सान की तवज्जा तमाम-तर इसी एक जिबिल्लत (फ़ित्रत) के इस्तिमाल पर लगी नहीं रहती, लिहाज़ा वो दीगर उमूर की तरफ़ मुतवज्जा हो सकता है। और इस जिबिल्लत की तवानाई को दीगर अग़राज़ व मक़ासिद की तहसील में ख़र्च कर सकता है। और ये जैसा हम फ़स्ल अव्वल में ज़िक्र कर चुके हैं ऐन-फ़ित्रत के मुताबिक़ है। इस की मिसाल यूं है जिस तरह कोई इंजनीयर किसी दरिया के वाफ़र पानी को नहरों में निकाल दे इन नहरों के ज़रीये ज़मीन सरसब्ज़ और शादाब हो कर अपना फल पैदा करती है और इन्सान की मुरफ़्फ़ा अल-हाली (आसूदगी) का बाइस हो जाती है उसी तरह जिन्सी जिबिल्लत (सहवत की फित्रत) की वाफ़र ताक़त और फ़ाज़िल तवानाई का रुहजान इन आला अग़राज़ और बेहतरीन मक़ासिद के हासिल करने की तरफ़ लगाना चाहिए जिनसे बनी-नूअ इन्सान की फ़लाह तरक़्क़ी और बहबूदी मक़्सूद होती है।

जिबिल्लत जिन्सी और दीन-ए-फ़ित्रत के लवाज़मात

सुतूर-बाला से ज़ाहिर हो गया होगा कि दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम है कि :-

(1) वहदत इज़्दवाज (एक निकाह) की ताअलीम दे।

(2) नर और मादा के रिश्ते की पाकीज़गी क़ियाम, उस्तिवारी और पाएदारी और उस की दवामी (हमेशगी) हालत की तल्क़ीन करे।

(3) तलाक़ की मुमानिअत करे और

(4) इस बात का मुहर्रिक हो कि जिबिल्लत जिन्सी (सोहबत की फ़ित्रत) की वाफ़र और फ़ाज़िल ताक़त और अज़ीम तवानाई आला-तरीन मक़ासिद और अग़राज़ को हासिल करने की जानिब राग़िब हो जाए।

जिन्सी जिबिल्लत और मसीहिय्यत

कलिमतुल्लाह (सय्यदना मसीह) की ताअलीम ने आदमी और औरत के बाहमी जिन्सी ताल्लुक़ात की काया पलट दी जो नर और मादा के ताल्लुक़ात आपके ज़माने में राइज थे, वो मूसवी शरीअत के मातहत थे। आपने उनके तमाम ग़ैर-मुकम्मल अनासिर को ख़ारिज करके इस रिश्ते को कामिल तौर पर पाकीज़ा बना दिया। औरत बच्चे जनने की मशीन और मर्द की शहवत का आलाकार ना रही। बल्कि मर्द की तरह एक आज़ाद ज़िम्मेंवार हस्ती हो गई। जिससे ख़ुदा लाज़वाल मुहब्बत करता है, और जिसकी रूह की ख़ातिर इब्ने-अल्लाह ने अपनी जान दे दी। ख़ुदा की नज़र में मर्द और औरत के हुक़ूक़ मुसावी (बराबर) हैं। पस इंजील जलील ये ताअलीम देती है कि जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) के जायज़ इस्तिमाल के लिए “हर मर्द अपनी बीवी और हर औरत अपना शौहर रखे, शौहर अपनी बीवी का हक़ अदा करे और बीवी शौहर का हक़ अदा करे।” (1_कुरंथियो 7:2) किताब-ए-मुक़द्दस के मुताबिक़ ये ख़ुदा के ऐन मंशा के मुताबिक़ है कि मर्द अपनी ज़िंदगी एक औरत के साथ रह कर बसर करे और औरत अपनी ज़िंदगी एक मर्द के साथ बसर करे। इन्सानी ज़िंदगी दोनों सिनफ़ों के बाहमी ताल्लुक़ात में उस्तुवार और कामिल होती है। (पैदाइश 2:18) चुनान्चे लिखा है कि मर्द और औरत “एक जान होंगे।” (पैदाइश 2:24) पस इंजील जलील ने ये ताअलीम दी है कि, “मर्द और औरत के जिन्सी (सोहबती) हुक़ूक़ मुसावी (बराबर) हैं, और उनकी वाजिबी अदायगी को हर ज़न व शौहर पर फ़र्ज़ कर दिया है जो उन बेवा औरतों को हुक्म दिया कि वो ब्याह करें। औलाद जनें और घर का इंतिज़ाम करें, और किसी मुख़ालिफ़ को बद-गोई का मौक़ा ना दें।” (1_तिमीथियुस 5:14) “ब्याह करना सब में इज़्ज़त की बात समझी जाये और बिस्तर बेदाग़ रहे।” (इब्रानियों 13:4) जो लोग इज़्दवाज (निकाह) के रिश्ते के ख़िलाफ़ हैं और शादी ब्याह को बुरा जानते हैं उनकी निस्बत इंजील मुक़द्दस में वारिद हुआ है कि “बाअज़ लोग गुमराह करने वाली रूहों और शयातीन की तालीमों की तरफ़ मुतवज्जा हो कर ब्याह करने से मना करेंगे।” (1 तिमीथियुस 4:1)

(2)

मसीहिय्यत वहदत-ए-इज़्दवाज पर ज़ोर देती है। और इस रिश्ते को मुद्दत-उल-उम्र (तमाम उम्र) पाएदार क़रार देकर उस को मुस्तहकम और मज़्बूत करती है। मसीही ताअलीम तलाक़ को क़तई तौर पर ममनू क़रार देती है।चुनान्चे एक दफ़ाअ फ़रीसयों ने आकर कलिमतुल्लाह से पूछा, “क्या ये रवा है कि मर्द अपनी बीवी को छोड़ दे?” आपने फ़रमाया, ख़ल्क़त के शुरू से ख़ुदा ने उनको मर्द और औरत बनाया, और वो दोनों एक जिस्म होंगे। पस वो दो नहीं बल्कि एक जिस्म हैं। इसलिए जिसको ख़ुदा ने जोड़ा है उसे आदमी जुदा ना करे। जो कोई अपनी बीवी को छोड़ दे और दूसरी से ब्याह करे वो इस पहली के ख़िलाफ़ ज़िना करता है। और अगर औरत अपने शौहर को छोड़ दे और दूसरे से ब्याह करे तो ज़िना करती है।” (मरक़ुस 10:2) “कोई अपनी जवानी की बीवी से बेवफ़ाई ना करे, क्योंकि ख़ुदा फ़रमाता है कि मैं तलाक़ से बेज़ार हूँ और इस से भी जो अपनी बीवी पर ज़ुल्म करता है। इसलिए तुम अपने नफ़्स से ख़बरदार रहो।” (मलाकी 2:15)मुनज्जी आलमीन के साफ़ और वाज़ेह अल्फ़ाज़ वहदत इज़्दवाज (एक ही निकाह) की पाएदारी और उस के लतीफ़ पाकीज़ा और मुक़द्दस ताल्लुक़ को निहायत सराहत और वज़ाहत से बयान कर देते हैं। मुक़द्दस पोलुस फ़रमाते हैं कि, “ख़ुदावंद में, ना औरत मर्द के बग़ैर है और ना मर्द औरत के बग़ैर। क्योंकि जैसे औरत मर्द से है वैसे ही मर्द भी औरत के वसीले से है मगर सब चीज़ें ख़ुदा की तरफ़ से हैं।” (1_कुरंथियो 11:11, रोमीयों 7:2 वग़ैरह) इन अल्फ़ाज़ से अयाँ है कि मसीहिय्यत के नज़्दीक औरत और मर्द के ताल्लुक़ात “ख़ुदावंद” में हैं। जिसका मतलब ये है कि निकाह की हालत पाक बाइज़्ज़त और दाइमी हालत है। और खुद इन्सान के बाहमी ताल्लुक़ की ज़िंदा मिसाल है। (मरक़ुस 2:19, मुकाशफ़ा 21:9, 1_कुरंथियो 6:14-20) मसीही ताअलीम जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) की पाएदारी और उस्तिवारी की ताईद करती है। और इस वफ़ादारी और इख़्लास के क़ियाम की बिना (बुनियाद) है। जो मसीही ख़ानदानों को इसी दुनिया में जन्नत बना देती है। जिसमें ख़ावंद और बीवी के ताल्लुक़ात में ख़लल और बदनज़्मी वाक़ेअ होने की बजाय मुहब्बत, प्यार और हम्दर्दी के लतीफ़ और नाज़ुक जज़्बात की नशव व नुमा और तक्मील होती है।

मसीहिय्यत के मुताबिक़ इज़्दवाज (निकाह) का रिश्ता एक ऐसा ताल्लुक़ है जिसका मक़्सद हरगिज़ पूरा नहीं हो सकता ता-वक़्त तक ये रिश्ते मुद्दत-उल-उम्र (तमाम उम्र) पायदार ना हो। फ़ित्रत ने इज़्दवाजी ताल्लुक़ात का मक़्सद बच्चों की पैदाइश रखी है। ताकि एक सोसाइटी माअरज़ वजूद में आ जाए। या बअल्फ़ाज़ दीगर सोशियल इमारत ख़ानदान की बुनियाद पर खड़ी की गई है। और जिन्सी जिबिल्लत ने सोशियल ताल्लुक़ात की सूरत इख़्तियार कर ली है। हक़ीक़त तो ये है कि अगर ये जिबिल्लत इस क़िस्म के ताल्लुक़ात के इलावा किसी और सूरत में ज़ाहिर हो तो अफ़राद और सोसाइटी दोनों के लिए वो ख़तरे का बाइस बन जाती है।

चूँकि इज़्दवाजी ताल्लुक़ात दर-हक़ीक़त बच्चों की शख़्सियत की नशव व नुमा और तरक़्क़ी का ज़रीया हैं। लिहाज़ा लाज़िम है कि ये ताल्लुक़ात सिर्फ एक ज़ौजा (बीवी) से मुताल्लिक़ हों और मुद्दत-उल-उम्र (तमाम उम्र) पायदार हों। क्योंकि इन्सानी बच्चा दीगर तमाम हैवानात की निस्बत अपने वालदैन की मदद का ज़्यादा मुद्दत तक मुहताज होता है। और जो सोसाइटी ज़्यादा मुहज़्ज़ब और तरक़्क़ी याफ्ताह होती है। उस में ये हाजत ज़्यादा देरपा होती है। मसीही तसव्वुर इज़्दवाज का सख़्त मुख़ालिफ़ लार्ड रसेल (Lord Russell) भी इस अम्र को चारूनार चार तस्लीम करता है।

पस इज़्दवाज की निस्बत जो ताअलीम कलिमतुल्लाह ने दी है, सिर्फ वही फ़ित्रत के लवाज़मात के मुताबिक़ है। क्योंकि सिर्फ वहदत-ए-इज़्दवाज और इस ताल्लुक़ की मुद्दत-उल-उम्र (तमाम उम्र) पाएदारी और क़ियाम ही नौ-इन्सानी की हस्ती बक़ा और तरक़्क़ी का मूजिब हो सकती हैं।

(3)

चूँकि कलिमतुल्लाह की ताअलीम तादाद इज़्दवाज को हराम और तलाक़ को ममनू क़रार देती है। लिहाज़ा जिन्सी जिबिल्लत की क़ुव्वत वहदत इज़्दवाज की वजह से सिर्फ मोअतदिल तौर पर ही इस्तिमाल हो सकती है। पस इस जिबिल्लत की वाफ़र और फ़ाज़िल ताक़त और अज़ीम तवानाई बनी-नूअ इन्सान की फ़लाह तरक़्क़ी और बहबूदी की ख़ातिर सर्फ हो सकती हैं। चूँकि नर और मादा के जज़्बात तादाद व इज़्दवाज की वजह से ग़ैर-मोअतदिल तौर पर बरअंगीख़्ता होने नहीं पाते। लिहाज़ा ना-वाजिब शिद्दत और तकरार अमल की नौबत ही नहीं आती। और इन्सानी दिमाग़ हर वक़्त जिन्सी ताल्लुक़ात की जानिब राग़िब रहने की बजाय नई बातों की दर्याफ़्त और दीगर मशग़लों में लग जाता है। और मियां-बीवी दोनों को ये मौक़ा मिल सकता है कि जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) की वाफ़र क़ुव्वत को बेकसों, लाचारों, मरीज़ों, ग़रीबों, मुहताजों, यतीमों, रांडों (बेवाओं) और मुसीबत ज़दों वग़ैरह के साथ हम्दर्दी के ज़राए मालूम करने में सर्फ करें। या दीगर आला तरीन मक़ासिद मसलन बनी-आदम की बहबूदी या साईंस की दर्याफ़्तों वग़ैरह की जानिब इस ज़बरदस्त मीलान की ताक़त के रुहजान को राग़िब करें।

कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) क्यों मुजर्रिद रहे

मुनज्जी आलमीन ने ख़ुद इस जिबिल्लत की अज़ीम तवानाई और तमाम की तमाम ताक़त को बनी-नूअ इन्सान की फ़लाह और बहबूदी में सर्फ कर दिया। हमने ऊपर देखा है कि ये जिबिल्लत (फित्रत) तमाम दीगर जिबिल्लतों से ज़्यादा मुख़्तलिफ़ वज्दानियात और इक़्तिज़ाओं को अपने इक़्तिज़ा की अज़ीम क़ुव्वत और तवानाई मुस्तआर दे देती है और ये ऐन उस जिबिल्लत की फ़ित्रत के और ईलाही-मंशा के मुताबिक़ है। पस मुनज्जी कौनैन ने इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) की तमाम की तमाम तवानाई और अज़ीम ताक़त को राह-ए-ख़ुदा में ख़र्च कर दिया। और इस जिबिल्लत की लज़्ज़त और हज़ (मज़ा) से बहरूर होने के बजाय आपने, अपनी तमाम ज़िंदगी इस बात के लिए वक़्फ़ कर दी कि गुनाहगार मर्दों और औरतों को तौबा और ईलाही मग़फ़िरत का पैग़ाम दें और ख़ुदा की बादशाहत की ख़ुशख़बरी दें और अँधों, लुंजों (लूलों), कोढ़ीयों और मफ़लूजों (लकवे वालों) वग़ैरह को शिफ़ा अता करें। “मुर्दों को ज़िंदा करें, क़ैदीयों को रिहाई दें, कुचले हुओं को आज़ाद करें, और ख़ुदावंद के साल मक़्बूल की मुनादी करें।” (लूक़ा 4:18) आपने “आस्मान की बादशाहत की ख़ातिर अपने आपको ख़ोजा बनाया।” (मत्ती 19:12) आपने कमाल ईसार को काम में लाकर तमाम “उम्र अपनी मर्ज़ी नहीं बल्कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी” पर अमल किया। (युहन्ना 5:30) और फ़रमाया, “मैं आस्मान से उतरा हूँ ना इसलिए कि अपनी मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अमल करूँ, बल्कि इसलिए कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अमल करूँ।” (युहन्ना 6:38) मुनज्जी आलमीन ने ख़ुदा की रज़ा को पूरा करने के लिए और उस की मुहब्बत का “शहर शहर और गांव गांव” (लूक़ा 8:1, मरक़ुस 6:6, मत्ती 9:35 वग़ैरह) ऐलान करने के लिए और अपना जाँफ़िज़ा पैग़ाम देने के लिए जिबिल्लत जिन्सी (सोहबत की फ़ित्रत) के जायज़ इस्तिमाल से भी परहेज़ फ़रमाया और इस जिबिल्लत की तमाम ताक़त क़ुव्वत और तवानाई को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत और रज़ा-ए-ईलाही को पूरा करने में सर्फ कर दिया। इब्ने अल्लाह को ख़ूब मालूम था कि आपकी उम्र इस दुनिया में चंद साल की होगी। (लूक़ा 31:13) खुदा ने आस्मान की बादशाहत को दुनिया में क़ायम करने की मुबारक ख़िदमत आपके सपुर्द की थी। पस आपने अपनी सारी उम्र को बेनज़ीर ईसार नफ़्सी के साथ फ़ी सबील लिल्लाह वक़्फ़ (खुदा की राह में) कर दिया। हत्ता कि आप ने तमाम ज़रूरी लज़्ज़ात को भी बखु़शी तर्क कर दिया। आप फ़रमाते थे, “मेरा खाना पीना ये है कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी को बजा लाऊँ और उस काम को पूरा करूँ।” (युहन्ना 4:34) पस जिस शख़्स को ऐसा बेमिस्ल काम सर-अंजाम देना हो उस को ये ज़ेबा ना था कि वो अपने बेश-बहा आस्मानी मुक़द्दस औक़ात का मोअ्तदिबा (क़ाबिल-ए-एतिमाद, बहुत सा) हिस्सा गृहस्ती के धंदों और जोरू (बीवी) के फुसलाने बच्चों को जनवाने और ख़वेश व अक़ारिब की ख़ातिर मुदारात में तल्फ़ कर दे और यूं अपनी ज़िंदगी के मक़्सद अव्वलीन को जिसकी ख़ातिर आप दुनिया में आए थे बर्बाद कर देते। ये काम आदम के ज़माने से लोग करते आते हैं और करते रहेंगे। मगर जो काम इब्ने अल्लाह करने आए थे। वो पस उन्हीं का हिस्सा था। पस आपने आस्मान की बादशाहत की ख़ातिर तजर्रुद इख़्तियार फ़रमाया। और जिबिल्लत जिन्सी (सोहबत की फ़ित्रत) की अज़ीम ताक़त क़ुव्वत और तवानाई को राह-ए-ख़ुदा में ख़र्च कर दिया।

क़ुरआन शरीफ़ ने आपके तजर्रुद इख़्तियार करने के नुक्ते को एक और लतीफ़ पैराया में बयान किया है। क़ुरआन में अल्लाह की ज़ात की निस्बत आया है,لم یلد ولم یولد اور لم یکن لہ صاحبۃयानी ना वो जना गया है और ना उस को किसी ने जना है, और ना उस की कोई जोरू है। चूँकि कलिमतुल्लाह को हर तरह की मुनासबत सिर्फ़ ख़ुदा के साथ है लिहाज़ा दुनियावी एतबार से ना आपका कोई बाप हो सकता था, ना कोई औलाद और ना कोई जोरू।

मसीहिय्यत और रहबानीयत

बहर-ए-हाल तजर्रुद के इख़्तियार करने में इब्ने अल्लाह ने अपनी जिबिल्लत जिन्सी (सोहबत की फ़ित्रत) की तमाम तवानाई और क़ुव्वत को ख़ुदा की बादशाहत के आला तरीन मक़्सद के हुसूल में सर्फ कर दिया। और ईसार नफ़्सी का कामिल नमूना बने। (युहन्ना 12:24) आपने अपने तजुर्बे के बिना पर फ़रमाया था कि :-

“बाअज़ खोजे ऐसे हैं, जिन्हों ने आस्मान की बादशाहत की ख़ातिर अपने आपको ख़ोजा बनाया।” (मत्ती 19:12) जिसका मतलब ये है कि बाअज़ मुबारक अश्ख़ास ऐसे भी हैं, जिनको खुदा ने ये तौफ़ीक़ अता फ़रमाई है कि जिन्सी जिबिल्लत (फ़ित्रत-ए-सोहबत) की ज़बरदस्त क़ुव्वत और अज़ीम तवानाई को इंजील की ख़िदमत में सर्फ कर देते हैं।

मुक़द्दस पोलुस ने भी जनाब मसीह की ख़ातिर और इंजील की तब्लीग़ की ख़ातिर जिन्सी जिबिल्लत के इस्तिमाल से इन्कार किया, और उस की ताक़त को इंजील की इशाअत में सर्फ कर दिया और वो अपने तजुर्बे से ये कहते हैं, “मैं तो ये चाहता हूँ कि जैसा मैं हूँ वैसे ही सब आदमी हों। लेकिन हर एक को ख़ुदा की तरफ़ से ख़ास-ख़ास तौफ़ीक़ मिली है किसी को किसी तरह की, किसी को किसी तरह की। पस मैं बे ब्याहों और बेवा औरतों के हक़ में ये कहता हूँ कि उनके लिए ऐसा ही रहना अच्छा है जैसा मैं हूँ। लेकिन अगर ज़ब्त (क़ाबू) ना कर सकें तो ब्याह कर लें।” (1-कुरंथियो 7:7)मुनज्जी आलमीन ने भी यही फ़रमाया था कि सब लोग इस बात के अहल नहीं कि जिबिल्लत जिन्सी (सोहबत की फ़ित्रत) के इक़्तिज़ा को पूरा ना करें और इस जिबिल्लत की तमाम की तमाम ताक़त को राह-ए-ख़ुदा में ख़र्च कर दें आपका इर्शाद है कि, “सब इस बात को क़ुबूल नहीं कर सकते है। मगर वही जिनको ये क़ुदरत दी गई है जो क़ुबूल कर सकता है वो क़ुबूल करे।” (मत्ती 19:11) पस वो लोग सरासर ग़लती पर हैं, जो कहते हैं कि मसीही ताअलीम में ब्याह की मुमानिअत है, या इस हालत को एक मज़मूम शैय क़रार दिया गया है। (सूरह हदीद आयत 27) कलिमतुल्लाह की ताअलीम इज़्दवाज के रिश्ते की पाकीज़गी पुर इसरार करती है (इब्रानियों 13:4) इब्ने अल्लाह के रसूल ऐसी ताअलीम को जो ब्याह को मज़मूम (मना) क़रार देती है “गुमराह करने वाली रूहों और शयातीन की ताअलीम।” (1 तिमीथियुस 4:1) क़रार देते हैं।

(2)

मसीहिय्यत रहबानीयत के उसूल की क़ाइल नहीं हो सकती। क्योंकि ये उसूल मसअला तजस्सुम के मुनाफ़ी (खिलाफ) है और मसीहिय्यत इब्ने अल्लाह के तजस्सुम की क़ाइल है। तजस्सुम के अक़ीदे की बुनियाद ही ये है कि हमारे बदन और उस की जिबलतें (फ़ित्रत) बिल-ख़सूस जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) और जिन्सी ताल्लुक़ात फ़ी-नफ्सिही बुरे नहीं। इस के बरअक्स तजस्सुम के अक़ीदे की रोशनी में हमारी जिबिल्लतों के ताल्लुक़ात और इक़्तिज़ा हमको उनकी निहायत पाकीज़ा सूरत में नज़र आते हैं। इब्ने अल्लाह के तजस्सुम के अक़ीदे की वजह से मसीहिय्यत जिन्सी जिबिल्लत और वालदेनी जिबिल्लत (नस्ल बड़ाने की फ़ित्रत व क़ुव्वत) की पाकीज़गी और ख़ानदानी ज़िंदगी को ख़ूबसूरती पर बेहद इसरार करती है। और ये हक़ीक़त ऐसी वाज़ेह है कि ऐडवर्ड कारपेंटर (Edward Carpanter) जैसा कट्टर मुख़ालिफ़ मसीहिय्यत को भी इस का एतराफ़ है।

(3)

बाअज़ लोग ये एतराज़ करते हैं कि बतौर मुस्तसना भी किसी शख़्स को जिन्सी ताल्लुक़ात के बग़ैर नहीं रहना चाहिए। इन मोअतरज़ीन के ख़्याल में हर बालिग़ मर्द की सेहत और तंदरुस्ती के लिए लाज़िम है। कि वो जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) को इस्तिमाल करे। और जिन्सी ताल्लुक़ात से बहरावर हो। लेकिन ये ख़्याल बिल्कुल ग़लत और सदाक़त से दूर है। चुनान्चे बर्तानिया की सोशियल हाई जैन कौंसल (British Social Hygienc Council) ने अपने बयान मौरख़ा 22 मार्च 1936 ई॰ में ये शाया किया है कि :-

हमको ना तो इल्म-उल-अजसाम (Physiology) ये बताता है। और ना ये बात हमारे तजुर्बे में आई है कि मुजर्रिद अश्ख़ास की सेहत को बरक़रार रखने के लिए जिन्सी ताल्लुक़ात से बहरावर होना लाज़िम है। इलावा अज़ीं ना तो इल्म-ए-नफ़्सीयात (Psychology) हमको ये बतलाता है और ना ये बात हमारे तजुर्बे में आई है कि मुजर्रिद अश्ख़ास की ज़हनी सेहत को क़ायम रखने के लिए जिन्सी ताल्लुक़ात से बहरूर होना लाज़िम है।”

(मन्क़ूल अज़ जर्नल आफ़ सोशियल हाईजिन बाबत दिसंबर 1927 ई॰) पस अगर कोई मसीही अपनी तमाम ज़िंदगी किसी ख़ास मक़्सद की ख़ातिर वक़्फ़ कर देना चाहे। और इस मक़्सद पर वो अपने जिन्सी ताल्लुक़ात तक को भी क़ुर्बान कर दे तो वो अपनी फ़ित्रत पर किसी क़िस्म का जबर रवा नहीं रखता परवरदिगार आलम ने ये तौफ़ीक़ हर एक को अता नहीं की। लेकिन जिनको ये तौफ़ीक़ मिली है, अगर वो जिन्सी ताल्लुक़ात से क़तअन परहेज़ करते हैं तो वो ना खिलाफ-ए-फ़ित्रत फे़अल करते हैं और ना फ़ित्रत पर किसी क़िस्म का तशद्दुद करते हैं।

(4)

पस इंजील जलील की सरीह और वाज़ेह ताअलीम ये है, कि जिबिल्लत जिन्सी (सोहबत की फ़ित्रत) के वाजिब और जायज़ इस्तिमाल के लिए “हर मर्द अपनी बीवी और हर औरत अपना शौहर रखे।” इज़्दवाज के रिश्ते के क़ियाम और पाएदारी की ख़ातिर तलाक़ को ममनू क़रार दिया गया है। जिबिल्लत जिन्सी के ना वाजिब शिद्दत और तकरार अमल को रफ़ाअ करने के लिए तादाद इज़्दवाज (एक से ज़्यादा औरतें रखने) को हराम गिरदाना गया है। अगर किसी शख़्स को ख़ालिक़ की तरफ़ से ये तौफ़ीक़ अता की गई है कि वो जिबिल्लत जिन्सी के इक़्तिज़ा को पूरा करने के बजाय उस की तमाम ताक़त क़ुव्वत और तवानाई को किसी आला मक़्सद के हुसूल की जानिब मोड़ दे तो बतौर इस्तिस्ना के ऐसे शख़्स को क़ायदा कुल्लिया से मुस्तसना कर दिया गया है। क्योंकि इन्सान मह्ज़ जिस्म नहीं जिसके पिंजरे में ख़ालिक़ ने एक रूह को मुक़य्यद कर दिया है। ताकि वो जिस्म की ख़्वाहिशात को पूरा करे बल्कि वो एक रूह है। और उस की रूह को क़ुदरत ने एक जिस्म इनायत किया है ताकि वो इस जिस्म के ज़रीये आला तरीन रुहानी मक़ासिद को हासिल कर सके। इन्सान शादी ब्याह की ख़ातिर ख़ल्क़ नहीं किया गया। बल्कि ब्याह इन्सान के इक़्तिज़ा (तक़ाज़ों) को पूरा करने के लिए है। बाअज़ अश्ख़ास को ये तौफ़ीक़ बख़्शी गई है कि वो इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) का इस्तिमाल ना करें। लेकिन जिन लोगों को ख़ुदा की तरफ़ से ये तौफ़ीक़ नहीं बख़्शी गई। मसीही ताअलीम के मुताबिक़ ऐसे अश्ख़ास ख़्वाह वो मर्द हों ख़्वाह औरत जिबिल्लत जिन्सी का मोअतदिल तौर पर इस्तिमाल करके उस की वाफ़र क़ुव्वत और फ़ाज़िल ताक़त को ख़ुदा की राह में अपनी रुहानी तरक़्क़ी और बनी-नूअ इन्सान की फ़लाह और बहबूद के ज़राए मुहय्या करने में सर्फ कर सकते हैं। चुनान्चे इंजील जलील में शौहर और बीवी को ये सलाह दी गई है कि, “तुम एक दूसरे से जुदा ना रहो। मगर थोड़ी मुद्दत तक आपस की रजामंदी से ताकि दुआ में मशग़ूल रह सको और इस मुद्दत के बाद फिर जुदा ना रहो। मबादा ग़लबा नफ़्स के सबब शैतान तुमको आज़माऐ।” (1 कुरंथियो 7:5)

हर शख़्स जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) की मुन्दरिजा बाला ख़सुसियात का मुक़ाबला मसीही ताअलीम के साथ करके ख़ुद देख सकता है कि जहां तक इस जिबिल्लत का ताल्लुक़ है मसीहिय्यत की ताअलीम ऐन उस जिबिल्लत की फ़ित्रत और इक़्तिज़ा (तक़ाज़ों) के मुताबिक़ है।

जिन्सी जिबिल्लत और इस्लाम

जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत करने की फ़ित्रत) की ख़सुसियात का ज़िक्र करते वक़्त हमने देखा था कि वहदत-ए-इज़्दवाज (एक ही निकाह) इस जिबिल्लत के अक्तज़ाए (तक़ाज़ों) के लिए निहायत लाज़िमी है और लाबदी अम्र है। और नीज़ ये कि इज़्दवाजी ताल्लुक़ात का क़ियाम, इस्तिहकाम, पाएदारी और उस्तिवारी और तलाक़ की मुमानिअत जिबिल्लत जिन्सी के लिए ना सिर्फ ज़रूरी है बल्कि उस की लाज़िमी शराइत हैं। ये अम्र बयान का मुहताज नहीं कि मसीहिय्यत के बरअक्स क़ुरआन की ताअलीम तादाद इज़्दवाज (एक मर्द का एक से ज़्यादा औरतें रखने) की इजाज़त देती है और तलाक़ को ममनूअ् (मना) क़रार नहीं देती। चुनान्चे क़ुरआन में लिखा है कि, “औरतों में से जो तुमको पसंद आएं, दो-दो, तीन-तीन और चार-चार निकाह में लाओ और अगर ये ख़ौफ़ हो कि अदल क़ायम ना रख सकोगे तो एक ही निकाह करो। या वो (बांदी) जो तुम्हारे हाथों का माल हो....शौहर वाली औरतों का निकाह में लाना हराम है। सिवाए उन (बांदियों, लोंडियों) के जो तुम्हारे हाथ की मिल्कियत हो जाएं... इनके सिवा सब औरतें तुमको हलाल हैं। जिनको तुम अपना माल देकर तलब करो। और उन औरतों में जिससे तुमने फ़ायदा उठाया। उनकी उज्रत (मजदूरी) दे दो। जो तुमने (फ़ायदा उठाने से पहले उनके साथ) मुक़र्रर की थी।” (सूरह निसा 1 ता 4)

“जो अपनी शर्मगाह की हिफ़ाज़त करते हैं, मगर अपनी बीवीयों पर या अपने हाथ के माल (यानी लौंडियों बांदियों) से। इस में उन पर कुछ इल्ज़ाम नहीं।” (मोमिनों आयत 5)

पस इन क़ुरआनी आयात के मुताबिक़ अगर कोई शख़्स चाहे तो वो चार मन्कूहा (निकाही) औरतें और लातादाद ग़ैर-मन्कूहा (बगैर निकाह किये) लौंडियां रख सकता है। मज़ीद बरआँ (सूरह निसा) मुन्दरिजा बाला आयात के मुताबिक़ मुतअ़ (यानी एक ख़ास वक़्त तक पहले से तय किया निकाह जिसमें तलाक़ देने की मुद्दत भी पहले से तय हो) भी हलाल और मशरूअ है। जिसके मुताबिक़ मुसलमान औरतों को उज्रत देकर वक़्त मुअय्यना के लिए उनसे “फ़ायदा उठा” सकते हैं। (सूरह निसा आयत 28) इलावा अज़ीं चूँकि क़ुरआन मन्कूहा (निकाही) औरतों को तलाक़ देने की इजाज़त देता है। (बक़रा 26 वग़ैरह) पस क़ुरआन की ताअलीम का उदूल किए बग़ैर और चार मन्कूहा (निकाही) बीवीयों की हद से तजावुज़ किए बग़ैर एक मुसलमान लातादाद औरतों से यके-बाद-दीगरे निकाह पर निकाह कर सकता है। और उनको तलाक़ पर तलाक़ दे सकता है। क्योंकि क़ुरआन के मुताबिक़ “औरतें तुम्हारा खेत हैं। सो तुम अपने खेत में जैसे चाहो जाओ।” (बक़र आयत 223)

(2)

अब ग़बी से ग़बी (कम-अक़्ल) शख़्स पर भी ज़ाहिर है कि क़ुरआनी ताअलीम जिन्सी जिबिल्लत के इक़्तिज़ाओं को पूरा नहीं कर सकती। और ना वो इज़्दवाजी (निकाही) ताल्लुक़ात को पायदार या मुस्तहकम कर सकती है। इस के बरअक्स कस्रत इज़्दवाजी (ज़्यादा औरतें व लोंडिया रखने) की ताअलीम औरतों के मुस्तक़बिल को तारीक कर देती है। बच्चों के नशव व नुमा, ताअलीम और तरक़्क़ी के हक़ में ज़हर-ए-क़ातिल का हुक्म रखती है। इज़्दवाज (निकाह) के रिश्ते और ख़ानदान के क़वाइद में ख़लल और बदनज़मी पैदा करती है। और इस बाहमी इख़्लास और वफ़ादारी के कूल्लीयता मुनाफ़ी (खिलाफ) है। जिसकी वजह से वालिदीनी जिबिल्लत (नस्ल बढ़ाने की फ़ित्रत) और जिबिल्लत जिन्सी (सोहबत की फ़ित्रत) के ताल्लुक़ात मुद्दत-उल-अम्र पायदार रहते हैं। तादाद इज़्दवाज जिबिल्लत जिन्सी को ग़ैर-मोअतदिल (बेइंसाफ) तौर बरअंगीख़्ता करती है और मर्द-ज़न (औरत व मर्द) के रिश्ते की पाकीज़गी के मुनाफ़ी (खिलाफ) है।

(3)

बाअज़ मुस्लिम बिरादरान वहदत-ए-अज़दवाज को इन्सान के लिए ग़ैर-फ़ित्रती हालत (यानी एक औरत रखना मर्द की फ़ित्रत के खिलाफ) क़रार देते हैं। और इस के सबूत में ये नज़रिया पेश करते हैं कि इन्सान अपनी तरक़्क़ी के इब्तिदाई मराहिल व मनाज़िल में वहदत इज़्दवाज (एक ही औरत पर) पर इक्तिफ़ा नहीं करता। लेकिन अव्वल ये बात सिरे से ग़लत है, कि इन्सानी मुआशरत के इब्तिदाई मराहिल में मर्दों और औरतों के ताल्लुक़ात गोया मुर्ग़ा और मुर्ग़ीयों के से होते हैं।

चुनान्चे इल्म-उल-इन्सान का माहिर डाक्टर मालनोस्कीस (Dr. Malinouskis) जो किसी तरह भी मसीहिय्यत का ख़ैर-ख़्वाह कहलाया नहीं जा सकता इस नज़रिये को मर्दूद क़रार देता है, और कहता है कि :-

“ये हक़ीक़त पर मबनी नहीं।”

(Sesc and Repression in Savage Society p.195)

दोम बफ़र्ज़ मुहाल अगर ये दुरुस्त भी हो ताहम कोई सही-उल-अक़्ल शख़्स वहशयाना ज़िंदगी को इन्सानी तरक़्क़ी और तहज़ीब का मेयार क़रार नहीं देगा। और ना कोई रोशन ख़्याल शख़्स ज़िंदगी के इब्तिदाई मराहिल के हालात को इंतिहाई मनाज़िल का नस्ब-उल-ऐन क़रार देगा।

(4)

तादाद इज़्दवाज (एक से ज़्यादा औरतें रखना) ये मौक़ा नहीं देती कि जिबिल्लत जिन्सी (सोहबत की फ़ित्रत) की वाफ़र क़ुव्वत और फ़ाज़िल ताक़त को ऐसे मक़ासिद और अग़राज़ के हासिल करने में सर्फ किया जा सके। जिनसे इन्सान की रुहानी तरक़्क़ी और बनी-आदम की बहबूदी मक़्सूद है। हालाँकि जैसा कि सुतूर बाला में मुफ़स्सिल तौर पर ज़िक्र हो चुका है। ये जिबिल्लत दीगर तमाम जिबिल्लतों से ज़्यादा मुख़्तलिफ़ वज्दानियात और इक़्तिज़ाओं को अपनी अज़ीम तवानाई मुस्तआर देती है। पस नतीजा ज़ाहिर है कि जहां तक जिबिल्लत जिन्सी (सोहबत की फ़ित्रत) का ताल्लुक़ है। इस्लाम किसी तरह भी दीन-फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं।

क़ुरआन और तअ़दाद इज़्दवाज

तअ़दाद इज़्दवाज के मुताल्लिक़ क़ुरआनी ताअलीम ऐसी वाज़ेह और सरीह है। और इस के बद नताइज बनी-नूअ इन्सान के लिए ऐसे ज़रर रसां (नुक़्सान देह) साबित हुए हैं कि मुस्लिहीन इस्लाम को इस मुआमले में बे-अंदाज़ा दिक्कतों (मुश्किलात) का सामना करना पड़ता है। बाअज़-औक़ात उनको राह-ए-फ़रार ये सूझती है कि क़ुरआनी ताअलीम का सिरे से इन्कार कर दिया जाये। मसलन जब वो ये देखते हैं कि निकाह मुतअ़ (आरज़ी तयशुदा किया गया निकाह तलाक़ देने के लिए)) और रंडी बाज़ी में फ़र्क़ नहीं। तो वो इस क़िस्म के निकाह के जवाज़ (जायज़ होने) का सिरे से इन्कार कर देते हैं। और कहते हैं कि इस्लामी शरअ़ में जो ये निकाह हराम है। लेकिन (सूरह निसा की आयत बस्त व हशतम) इस निकाह पर नस सरीह (क़ुरान-ए-पाक की वो आयतें जो साफ़ और सरीह हों) है। इस्लामी मुस्लिहीन कहते हैं कि हदीस में रसूलﷺ ने इस निकाह को हराम क़रार दे दिया है। लेकिन अव्वल कोई हदीस क़ुरआनी अहकाम को मंसूख़ (ख़त्म) नहीं कर सकती। क़ुरआन ने मुतअ़ (आरज़ी मुद्दत तक तय शुदा निकाह) को हलाल क़रार दिया है। और क़ुरआन की किसी आयत ने इस के जवाज़ (जायाज़ होने) को मंसूख़ नहीं किया। पस क़ुरआन के मुताबिक़ मुतअ़ हलाल है। यही वजह है कि अब्दुल्ला बिन मसऊद सा क़ुरआन-दां जिसको ख़ुद रसूल अरबी ने क़ुरआन मुस्लिम-उल-सबूत गिरदाना था। मुतअ़ के जवाज़ पर इसरार करता था। दोम अगर फ़िल-हक़ीक़त हुर्मत मूतअ़ वाली हदीस सही हदीस है और रसूल अरबी ने अपनी हीने-हयात (जीते जी) में मुतअ़ को हराम क़रार दे दिया था तो ख़लीफ़ा अव्वल के अह्द में मुतअ़ किस तरह हलाल और मुरव्वज हो गया? क्योंकि ख़लीफ़ा उमर ने अपनी ख़िलाफ़त के निस्फ़ अह्द में जाकर उस को हुक्मन बंद किया था। ख़लीफ़ा मामून ने मुतअ़ को दुबारा जारी कैसे कर दिया? हक़ीक़त तो ये है कि मुतअ़ के जवाज़ का इन्कार करना दर-हक़ीक़त क़ुरआन और तारीख़ इस्लाम का इन्कार करना है।

(2)

जब बीसवीं (20) सदी के इस्लामी मुस्लिहीन के लिए इन्कार की राह-ए-फ़रार मस्दूद (बंद) हो जाती है तो वो क़ुरआन की आयात की तावीलें करनी शुरू कर देते हैं। ताकि किसी ना किसी तरह तअ़दाद इज़्दवाज (एक से ज्यादा औरतें निकाह में रखना) और तलाक़ के बदनुमा धब्बों को इस्लाम के चेहरे पर से मिटा सकें। मबादा बीसवीं (20) सदी के ताअलीम-याफ़्ता रोशन ख़्याल मुसलमान इस्लाम को ऐसी ताअलीम की वजह से ख़ैर बाद ना कह दें। चुनान्चे वो इस कोशिश में लगे रहते हैं कि क़ुरआनी आयात की इस तरह तावील करें। कि क़ुरआन बीसवीं सदी के ख़यालात का मजमूआ हो जाए।वो क़ुरआन के मुँह से वो बातें कहलवाना चाहते हैं जिन को वो ख़ुद मानना चाहते हैं। चुनान्चे सय्यद अमीर अली साहिब मरहूम (सूरह निसा) की कस्रत इज़्दवाज (एक से ज़्यादा औरतें निकाह करने) वाली आयत की यूं तफ़्सीर करते हैं :-

शारअ़ इस्लाम ने इज़्दवाज (बीवी) की एक तादाद मुक़र्रर कर दी। और इज़्दवाज के मवाजिब व हुक़ूक़ उनके शौहरों पर मुईन कर दिए और शौहर पर फ़र्ज़-ऐन कर दिया कि सब इज़्दवाज से मन-जमीअ-उल-वजूह बराबर बर्ताव रखे.... तादाद इज़्दवाज में अदल की एक ऐसी क़ैद लगा दी है जिससे ये फे़अल सिर्फ़ महदूद ही नहीं हो गया है। बल्कि जिस आयत से इज़न मफ़्हूम होता है उस आयत के ये मअनी होते हैं कि कोई शख़्स एक से ज़्यादा ज़ौजा (बीवी) ना करे।”

(Syed Amir Ali’s Spirit of Islam)

अब ज़ाहिर है कि क़ुरआन चार औरतों को बशर्त अदल जायज़ बताता है। और साथ ही ये भी कहता है कि, “तुम हरगिज़ अदल ना कर सकोगे। औरतों में अगरचे उस का शौक़ करो।” (निसा 129) बस या तो यहां बख़याल सय्यद मरहूम तादाद इज़्दवाज हराम हुआ। क्योंकि अदल ना-मुम्किन है। और तमाम मोमिन मुसलमान जो चौदह सौ (1400) साल से एक से ज़्यादा निकाह करते आए हैं। मुवाफ़िक़ इस तावील के नऊज़-बिल्लाह हरामकारी और नवाही (नाजायज़, गैर-शरई, नाजायज़ उमूर) के मुर्तक़िब हुए। या ये क़ौल बातिल है कि तुम “औरतों में हरगिज़ अदल ना कर सकोगे।” और अगर ये दोनों दुरुस्त हैं तो “अदल” से मुराद चारों औरतों में मुसावात (बराबरी) का रखना। चारों से बराबर उल्फ़त और मुहब्बत वग़ैरह करना नहीं है। बल्कि “अदल” से मुराद कुछ और ही है। जिसका अमल में लाना हरगिज़ दुशवार नहीं। क़ुरआन मजीद ख़ुद हम को बताता है कि उस की मुराद “अदल” से क्या है? अदल से मुराद सिर्फ एक शर्त है और वो ये है, “सो निरे फिर भी एक की तरफ़ ही ना झुक जाओ और एक को उधड़ में लटकता ना छोड़ दो।” (निसा 128) यानी जब कोई मुसलमान एक से ज़्यादा औरतों से ब्याह करे तो क़ुरआन सिर्फ “ये अदल” तलब करता है कि उनमें से किसी एक को बिल्कुल रांड (बेवा) की तरह ना डाल रखे।

मौलवी मुहम्मद अली ऐम॰ साहब एम॰ ए॰ अमीर जमाअत अहमदिया लाहौर हमारी इस तन्क़ीह और तन्क़ीद के साथ मुत्तफ़िक़ हैं, चुनान्चे आप अदल की शर्त की निस्बत फ़रमाते हैं कि :-

“इन अल्फ़ाज़ से बाअज़ लोगों ने ये ग़लती भी खाई है कि यहां (निसा आयत 3) अदल की शर्त रख कर और दूसरी जगह (निसा आयत 128) अदल को इन्सानी इस्तिताअत (ताक़त) से बाहर क़रार देकर तअ़लीक़ (एक चीज़ को दूसरी चीज़ के मुताल्लिक़ करना) बाल-मुहाल कर दी है। लेकिन ज़ाहिर है कि शरीअत में एक अम्र की इजाज़त देना और फिर उस को एक मुहाल (नामुम्किन) अम्र के साथ मशरूअत करना क़ुरआन जैसी हकीम किताब की तरफ़ मंसूब नहीं हो सकता। अगर यही मंशा था, तो साफ़ यही फ़र्मा दिया होता कि तादाद इज़्दवाज (एक से ज़्यादा औरतें निकाह में रखने) की तुमको इजाज़त ही नहीं ये बातें मह्ज़ यूरोप की तक़्लीद ने कहलवाई हैं।

(बयान-उल-क़ुरआन जिल्द अव्वल सफ़ह 458 नोट 604)

फिर मौलवी साहब मौसूफ़ कहते हैं :-

“ये ख़्याल कि तअ़दाद इज़्दवाज (एक से ज़्यादा औरतें निकाह में रखने) की इजाज़त देकर फिर उसे एक मुहाल शर्त (नामुम्किन शर्त) से वाबस्ता कर दिया है और ख़ुद ही शर्त को मुहाल (नामुम्किन) क़रार दे दिया है। सही नहीं... ख़ुदा के कलाम को ये शायां नहीं कि ख़ुद एक ज़रूरत को बयान करे फिर ख़ुद ही उस के पूरा करने को एक मुहाल शर्त से वाबस्ता कर दे। अगर ज़रूरत तअ़दाद इज़्दवाज की है। तो फिर उस का इन्कार इस बिना पर नहीं हो सकता कि तुम अदल नहीं कर सकते। क्या ये ख़ुद ख़ुदा तआला पर एतराज़ नहीं कि एक तरफ़ तादाद इज़्दवाज की ज़रूरत को बयान करता है और दूसरी तरफ़ तअ़दाद इज़्दवाज को एक मुहाल शर्त से वाबस्ता करता है। इस आयत के मअनी साफ़ हैं कि अदल ज़ाहिरी का हुक्म तो हम दे चुके। मुहब्बत में मुसावात के लिए हम (ख़ुदा) तुमको मज्बूर नहीं करते। हाँ एक औरत की तरफ़ इस क़द्र बे-रग़बती करना कि वो ना ख़ावंद वालियों में दाख़िल हो ना बग़ैर ख़ावंद वालियों में उधड़ में लटकती हुई हो इस से मना फ़रमाया।”

(ईज़न सफ़ा 566 नोट 743)

यक़ीनन अगर इस दुनिया में कोई शख़्स गुज़रा है, जो क़ुरआनी आयात के हक़ीक़ी मफ़्हूम से वाक़िफ़ था, तो वो रसूल अरबी थे। पस आप के अक़्वाल व अफ़आल क़ुरआनी आयात की बेहतरीन तौज़ीह तशरीह और तफ़्सीर हैं। अगर सय्यद अमीर अली साहिब मरहूम का क़ौल दुरुस्त है। और तअ़दाद इज़्दवाज (एक से ज़्यादा औरतें निकाह में रखने) की इस्लाम में फ़िल-हक़ीक़त इजाज़त नहीं। तो आँहज़रत ज़रूर इस हुक्म रब्बानी पर अमल करते (सूरह अनआम 106) लेकिन आपने बैक (एक ही) वक़्त एक से ज़्यादा इज़्दवाज (औरतों) से निकाह किया। पस साबित हुआ कि क़ुरआन का मंशा हरगिज़ ये ना था कि मोमिनीन एक ही ज़ौजा (बीवी) पर क़नाअत (जितना मिल जाए उस पर सब्र) करें। पस उसने चार की इजाज़त दे दी। और आँहज़रत को चार की क़ैद से मुस्तसना (बाहर) करके इस रोशन हक़ीक़त पर मुहर सब्त कर दी कि क़ुरआन का हक़ीक़ी मंशा ये है कि इस्लाम में तादाद इज़्दवाज की रस्म मुरव्वज (जारी) रहे। चुनान्चे क़ुरआन में आया है कि, “ऐ नबी हमने तेरे लिए तेरी वो औरतें हलाल कर दी हैं, जिनका महर तू दे चुका है। और वो लौंडियां भी जो तेरे हाथ का माल हैं जो ख़ुदा ने तेरे हाथ लगवा दिया है। और तेरे चचा की बेटियां और तेरे मामूं की बेटियां और तेरी ख़ालाओं की बेटीयां जिन्हों ने तेरे साथ हिज्रत की है।” (सूरह अह्ज़ाब 49)

इलावा उन औरतों और बांदियों (लोंडियों) के अल्लाह ने हज़रत रसूल अरबी के साथ ये रिआयत मल्हूज़ रखी। जो आपकी ज़ात ख़ास तक महदूद थी कि आपके लिए वो “मोमिन औरत भी हलाल है, जो अपनी जान नबी को बख़्श दे। अगर नबी उस को निकाह में लेना चाहे ये ख़ास तेरे ही लिए है ना और ईमानदारों के लिए ताकि तेरे ऊपर तंगी ना रहे।” (अह्ज़ाब 49 ता 50)

अदल के क़ुरआनी उसूल का सही मफ़्हूम भी इस क़ुरआनी आयत से वाज़ेह है “उन औरतों में से जिसको तू चाहे अलैहदा (अलग) कर दे। और जिसको चाहे तू उस को अपने पास जगह दे। और जिनको तू ने अलैहदा कर दिया था, अगर उनमें से तू किसी की ख़्वाहिश करे, तो तुझ पर गुनाह नहीं। ये इजाज़त इस के ज़्यादा क़रीब है कि उनकी आँखें ठंडी रहें और ग़म ना करें। और सब उस पर जो तूने उनको दिया राज़ी रहें।” (अह्ज़ाब 51)

पस ये आयत बमूजब उसूल “मअनी क़ुरआन ज़ क़ुरआन परस वबस” इस तफ़्सीर की ताईद करती है, जो हमने उसूल अदल के मुताल्लिक़ सुतूर बाला में की है। और जिसकी तस्दीक़ अमीर जमाअत अहमदिया लाहौर ने अपनी किताब “बयान उल-क़ुरआन” में की है।

पस साबित हो गया कि क़ुरआन और शारअ़ (शरीअत) इस्लाम का हक़ीक़ी मंशा यही था कि अगर कोई शख़्स चाहे तो चार औरतों तक निकाह कर सकता है और ला-तादाद (जितनी चाहे उतनी) लौंडियां और कनीज़ें रख सकता है। और चूँकि तलाक़ जायज़ है लिहाज़ा इस्लाम में दरहक़ीक़त मन्कूहा (निकाही) औरतों की तादाद की कोई हद मुक़र्रर नहीं हो सकती। और लौंडियों की तादाद तो पहले ही महदूद ना थी। चूँकि लौंडियां बांदियां भी औरतों की जमाअत में शामिल हैं और निकाह मुतअ़ (थोड़े वक़्त के लिए निकाह फिर तलाक़) भी क़ुरआन के मुताबिक़ हलाल है लिहाज़ा हम कह सकते हैं कि इस्लाम में औरतों से फ़ायदा उठाने की दरहक़ीक़त कोई हद है नहीं।

जिबिल्लत जिन्सी और इस्लामी ममालिक की तारीख़

हमने जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) की ख़ुसूसीयत में देखा था कि इस जिबिल्लत को लाज़िम है कि वो वहदत इज़्दवाज (एक ही औरत से निकाह) के क़ानून की जानिब से लापरवाही इख़्तियार ना की जाये। बल्कि इस रिश्ते के क़ियाम व बक़ा पर ज़ोर दिया जाये ताकि तलाक़ के रिवाज की गुंजाइश ना रहे। और मर्द व ज़न (मियाँ बीवी) में वफ़ादारी और बाहमी इख़्लास के ताल्लुक़ात मुद्दत-उल-उम्र पाएदार और उस्तुवार रह सकें। हमने ये भी ज़िक्र किया था कि जिन अक़्वाम में वहदत इज़्दवाज (एक औरत से निकाह) की बजाय कस्रत इज़्दवाज (ज़्यादा औरतों से निकाह) राइज है और रिश्ते इज़्दवाजी की तरफ़ से बेपरवाही इख़्तियार की जाती है और तलाक़ की इजाज़त और कस्रत मुरव्वज हो जाती है उन अक़्वाम में ज़वाल पैदा हो जाता है।

इस्लाम की तारीख़ पर एक इज्माली नज़र डालो तो मज़्कूर-बाला हक़ीक़त का एक-एक हर्फ़ इस पर सादिक़ आता है। गोया इस्लामी ममालिक इस हक़ीक़त की ज़िंदा मिसालें हैं। जिस-जिस मुल्क को इस्लाम ने फ़त्ह किया और वहां इस्लामी ताअलीम के मुताबिक़ कस्रत इज़्दवाज और तलाक़ मुरव्वज हो गए। उस मुल्क में ज़वाल और इन्हितात के बीज बोए गए। इस ताअलीम की बदौलत उनका अख़्लाक़ी मेयार गिर गया उनकी क़ौमी क़ुव्वत और ताक़त कमज़ोर हो गई। चुनान्चे मशहूर मुसलमान मुअर्रिख़ मरहूम ऐस ख़ुदा बख्श मरहूम अपनी किताब “हिन्दी और इस्लामी मज़ामीन” (Indian & Islamic Essays) में यूं रक़मतराज़ हैं :-

तादाद इज़्दवाज (ज़्यादा औरतों से निकाह) ने इस्लामी ममालिक की सल्तनतों को खोखला कर दिया। औरतों और बांदियों की तादाद की वजह से मुसलमान बादशाहों के बाल-बच्चों की तादाद रोज़-अफ़्ज़ूँ होती हो गई। मसलन जब अब्बासिया ख़ानदान बरसर इक़्तदार था। तो उन खल़िफ़ा के बच्चों की तअ़दाद बेशुमार थी। ख़लीफ़ा मामों के वक़्त में इस ख़ानदान के अफ़राद की तअ़दाद 33000 हज़ार थी। तअ़दाद इज़्दवाज और बांदियों के वजूद का असर मुसलमानों की हुकूमत के इक़्तिसादी और सियासी हालात के हक़ में बहुत मुज़िर साबित हुआ। इस की वजह से नस्ल की शराफ़त और नजाबत (शराफ़त, आली ख़ानदान) में ख़लल वाक़ेअ हो गया। और ऐसे कमीने, नालायक़ और ना खल्फ़ बच्चों की तअ़दाद में अफ़्ज़ाइश का शमा तक ना था। तअ़दाद इज़्दवाज ने ख़ानदानी ज़िंदगी को तबाह और बर्बाद कर दिया। और हक़ तो ये है कि यही बात बदतरीन नताइज के वक़ूअ में आने की ज़िम्मेवार थी। दरहक़ीक़त तमाम इस्लामी सल्तनतों के ज़वाल का बाइस ही यही हुई। उसने मुसलमानों की अख़्लाक़ी क़ुव्वत को पामाल कर दिया। उन बेशुमार अफ़राद की ज़िंदगीयों पर ग़ौर करो जो हरम सराओं में रहते थे। मुख़्तलिफ़ औरतें अपने लड़कों, लड़कीयों और दीगर अज़ीज़ व क़ारिब के साथ एक ही जगह रहती थीं। लेकिन उनमें से हर एक दूसरे को शक की नज़र से देखती थी। इस ज़हरीली फ़िज़ा में उन औरतों के लड़के और लड़कीयां परवरिश पाती थीं। हम अंदाज़ा कर सकते हैं कि उनके नाज़ुक और ना तजुर्बेकार ज़हनों और दिमाग़ों पर इस फ़िज़ा का क्या असर पड़ता होगा? हर लड़का अपने हर दूसरे रिश्तेदार बल्कि भाई तक को शक की निगाहों से देखता था। अगर एक तख़्त नशीन हो जाता तो बाक़ी उस के ख़ून के प्यासे हो जाते और उस के ख़िलाफ़ साज़िशें करते थे। तारीख़ इस अम्र की गवाह है कि तअ़दाद इज़्दवाज इस्लामी सल्तनतों की बाहमी आवेज़िश, ख़ाना-जंगी, पर्ख़ाश, फ़साद, जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) और क़िताल (क़त्ल) का असली सबब है।”

(सफ़ह 93 ता 95)

(2)

जब तक तुर्क इस्लामी ताअलीम तअ़दाद इज़्दवाज और क़ुरआनी अहकाम तलाक़ के पैरौ रहे। वो बर्र-ए-आज़म यूरोप में “मर्द बीमार” के नाम से मौसूम रहे। लेकिन जहां तुर्की ने इस ताअलीम से रुगिरदानी इख़्तियार की वो शाहराह तरक़्क़ी पर गामज़न हो गई। चुनान्चे अब तुर्की में तअ़दाद इज़्दवाज (एक औरत से ज्यादा औरतों से निकाह करना) क़ानूनन जुर्म क़रार दे दिया गया है। इस की ताज़ीरात की दफ़ाअ 112 में है कि,“अगर किसी निकाह के वक़्त ख़ावंद या बीवी पहले से हिबाला (रिश्ते) अक़्द (निकाह, शादी के फंदे) में आ चुके हों तो ऐसा निकाह मंसूख़ होगा।” फिर दफ़ाअ 129 में है कि, “ख़ावंद और बीवी दोनों इस हालत में तलाक़ के जोयाँ (ख़्वाहिशमंद) हो सकते हैं। जब उनमें से किसी ने ज़िना का इर्तिकाब किया हो।” अब तुर्की में इस्लामी शरीअत की बजाय दीवानी मुआमलात में स्वीटज़रलैंड की ताज़ीरात और फ़ौजदारी मुआमलात में इटली की ताज़ीरात और तिजारती मुआमलात में जर्मनी के आईन मुक़र्रर हो गए हैं। चुनान्चे सबीहा ज़करीया ख़ानम लिखती हैं :-

मशरिक़ की पुरानी तहज़ीब के मुताबिक़ औरतें असास-उल-बैत ख़्याल की जाती थीं। लेकिन स्विटज़रलैंड के क़वानीन इख़्तियार करने की तुफ़ैल हमने इस ज़हनीयत को ख़ैर बाद कह दिया है।”

Resimli Ay Sept 1927 तुर्की अख़बारात लिखते हैं :-

तीस साल हुए औरत का ये हाल था कि वो एक ग़ुलाम थी। ख़ौफ़ और शर्म और जहालत के मारे मर्दों के सामने ख़ाइफ़ लर्ज़ां व तरसाँ रहती थी। औरत की ज़िंदगी का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) मर्द को ख़ुश करना था। उस की तमाम उम्मीदों की इंतिहा बहिश्त थी। जो उस के ख़ावंद के क़दमों में थी। औरत का दर्जा ये था कि वो ख़रीद और फ़रोख़्त की जा सकती थी, वो एक हैवान थी जो बच्चों के पैदा होने की आलाकार थी। वो एक खिलौना थी जिससे मर्द ब-वक़्त ज़रूरत खेला करते थे। दस साल हुए वो एक मुजरिम की तरफ़ हर वक़्त ख़ाइफ़ रहती थी। इस शशोपंज में रहती थी कि वो अपना बुर्क़ा उठाए या ना उठाए। शेख़-उल-इस्लाम उस के तन के कपड़े की लंबाई और चौड़ाई का फ़ैसला किया करता था। लेकिन अब क़ानून ने मर्द और औरत की तमीज़ उड़ा दी है। वो अब कनीज़ नहीं रही जो ख़रीदो फ़रोख़्त हो सके। वो ख़ानदान में और क़ौम में एक आज़ाद ख़ुद-मुख़्तार फ़र्द के तौर पर ज़िंदगी बसर कर सकती है। अब मर्द जानने लग गए हैं कि औरतें उनकी रफ़ीक़ और मूनिस हैं और मर्दों और औरतों के हुक़ूक़ मुसावी (बराबर) हैं।”

(इक़दाम बाबत 16 अप्रैल 1929 ई॰ व मिल्लिय्त 5 मई 1929 ई॰)

पस तुर्की में औरतें हरम सराय से बाहर निकल आईं हैं, और अब तुर्की में तअ़दाद इज़्दवाज, तलाक़, हरम सराओं की क़ैद, पर्दे (हिजाब) की पाबंदीयां खोजों की फ़ौज वग़ैरह ज़माना-ए-माज़ी की बातें हैं। जो एक डरावने ख्व़ाब की तरह शब की तारीकी के साथ गुज़र गई हैं।

(3)

तुर्की के इन्क़िलाब ने दीगर इस्लामी ममालिक की आँखों को खोल दिया है। मिस्र में मरहूम क़ासिम अमीन बे ने क़ुरआनी ताअलीम दरबारा औरात के ख़िलाफ़ इल्म बग़ावत बुलंद किया। वो लिखता है :-

अगर मिस्री चाहते हैं कि उनकी हालत सुधर जाये तो लाज़िम है कि वो अपनी हालत को इब्तिदाई मनाज़िल से सुधारें। उनको इस बात का यक़ीन कर लेना चाहिए कि कोई ज़िंदा क़ौम दीगर मुहज़्ज़ब अक़्वाम के हमदोश (बराबर का) हो कर नहीं चल सकती तावक़्त के उनके घर और उन के ख़ानदान ऐसे अश्ख़ास की तर्बीयत के मर्कज़ ना बन जाएं जिनसे कामयाबी की उम्मीद की जा सकती है। लेकिन उनके घर और ख़ानदान तर्बीयत के मर्कज़ नहीं बन सकते। तावक़्ते के उनकी औरतें ताअलीम हासिल करके अपने खाविंदों के ख़यालात की और उनकी उम्मीदों की और उनके दुख-दर्द और रंज की शरीक ज़िंदगी ना हों। मर्द अपने घर का मालिक होता है। लेकिन औरत उस की ग़ुलाम होती है, वह एक खिलौना तसव्वुर की जाती है, जिससे मर्द जब चाहे अपना दिल ख़ुश कर ले। इल्म और दानिश मर्द के लिए है लेकिन जहालत और तारीकी औरत का हिस्सा है। आस्मान दुनिया और रोशनी मर्द के लिए है, लेकिन पर्दा ज़िंदान (क़ैदख़ाना) और तारीकी औरत का हिस्सा है।”

(Quoted by Zwemer in Disintepration of Islam)

मैडम रशदी पाशा ने अपनी किताबों के ज़रीये और वज़ीर-ए-ताअलीम के इन्सपैक्टर की बेटी ने “अख़्बार अल-जरीदह” (اخبار الجریدہ) के ज़रीये कस्रत इज़्दवाज़, पर्दा.. सगिर-सनी की शादी वग़ैरह के ख़िलाफ़ औरतों की तरफ़ से सदा-ए-एहतिजाज बुलंद की है। मंसूर फ़हमी ने फ़्रैंच ज़बान में एक किताब लिखी है :-

(A Condition de la femme dams la iraistion et evolntorn de la islamisma)

जिसमें तअ़दाद इज़्दवाज़ पर और इस क़बीह हुक्म के माख़ज़ पर और इब्तिदाई इस्लाम में ज़्यादा बीवीयां करने वालों औरतों पर एतराज़ किया गया है। ये मुसन्निफ़ इस्लामी ममालिक की औरतों की पस्त हालत के अस्बाब को इस्लामी तारीख़ की रोशनी में बयान करके इस नतीजे पर पहुंचता है कि :-

“इस में कुछ शक नहीं कि इस्लामी इल्म और अदब और लिटरेचर ने अपनी तारीख़ में औरतों का दर्जा रोज़-बरोज़ गिराया और यूं इस्लामी लिटरेचर की हालत गिर गई।

इस नतीजे की ताईद में वो इमाम ग़ज़ाली और सीयूती की तसनिफ़यात से इक़्तिबास पेश करके कहता है कि :-

“औरतों के मुताल्लिक़ इन उलमा के ख़्यालात इस क़द्र गिरे हुए हैं कि वो नाक़ाबिल ज़िक्र हैं।”

(Disinterption of Islam) 1924 ई॰ में मिस्र की शहज़ादी ने मिस्री औरतों की हालत को सुधारने की ख़ातिर एक अंजुमन क़ायम की और अब जा-ब-जा औरतों की कल्ब, सोसायटियां और अंजुमनें क़ायम हैं। उनकी अख़बारें औरतों के हुक़ूक़ की तलबगार हैं। इन अंजुमनों की मैंबर मुल्क की ख़िदमत और औरतों की बेहतरी की हल्फ़ उठाती हैं। इन औरतों ने मिस्र के वज़ीर-ए-आज़म के सामने नौ मुतालिबात पेश किए। जिनमें से बाअज़ ये हैं कि औरतों को आदमीयों के बराबर हुक़ूक़ मिलें, हाई स्कूलों में लड़कों की तरह लड़कीयों को भी बराबर मौके़ दिए जाएं, शादीयों के दस्तुरात में और निकाह के क़वानीन में इस्लाह की जाये, शादी के लिए लड़की की उम्र क़ानूनन बढ़ा दी जाये। जिसका नतीजा ये हुआ कि मुल़्क मिस्र ने भी इस्लामी क़वानीन इज़्दवाज़ व तलाक़ की नज़र-ए-सानी की है। चुनान्चे 1922 ई॰ में मिस्र में एक नया क़ानून बनाया गया। जिसकी रू से सिर्फ़ वही शख़्स निकाह सानी कर सकता है जो ये साबित कर सके कि वो अपनी पहली ज़ौजा (बीवी) और उस के बाल बच्चों के साथ अच्छा सुलूक करेगा। इस क़ानून के मुताबिक़ बीवी को भी तलाक़ लेने का हक़ हासिल हो गया है। मिस्र की औरतें इस अम्र पर मुस्र (इसरार करने वाली) हैं कि निकाह सानी की इजाज़त सिर्फ इस हालत में मिलनी चाहिए जब कि पहली बीवी दाइम-उल-मरीज़ हो। या उस से कोई बच्चा ना हो। उनके मुक़ाबले में जामिआ इलाज़ हर के इस्लामी उलमा क़ुरआन व हदीस व सुन्नत पेश करते हैं। लेकिन वो जवाब में पूछती हैं कि क्या क़ुरआन आदमीयों की नफ़्सानी ख़्वाहिशात को पूरा करने के लिए इस बात का हामी है कि ख़ानदानों में आए दिन झगड़ा, फ़साद, जूती पैज़ार और जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) बरपा रहे। औरतों की ज़िंदगी दूभर हो जाए, और बच्चों की नशव व नुमा और तरक़्क़ी में ख़लल आए?

(मुस्लिम वर्ल्ड बाबत जनवरी 1928 ई॰)

(4)

तारीख़ ईरान में 1931 ई॰ एक तारीख़ी साल है। क्योंकि इस साल इस्लामी क़वानीन इज़्दवाज़ की नज़र-ए-सानी की गई। और तलाक़ के क़वाइद को महदूद कर दिया गया। ईरान की औरतें अब अपने हुक़ूक़ के लिए जद्दो-जहद करती हैं। और वो ये बातें मह्ज़ बह्स व मुबाहसा की ख़ातिर नहीं करतीं। बल्कि वो अपने हुक़ूक़ के मुतालिबात माओं और बीवीयों की हैसियत से करती हैं। वो ये चाहती हैं कि मर्दों के ख़यालात और जज़्बात में जिबिल्लत जिन्सी के मुताल्लिक़ एक अज़ीम इन्क़िलाब पैदा हो जाए, लेकिन ये ख़ुशगवार नताइज इस्लाम के हदूद में रह कर पैदा नहीं हो सकते। क्योंकि क़ुरआन और हदीस ने औरतों के लिए ख़ास हदें मुक़र्रर कर दी हैं। जिनसे वो तजावुज़ नहीं कर सकतीं। अगर औरतों की हालत की इस्लाह की कोशिश की जाती है तो वो इस्लामी अहकाम को तोड़ कर की जाती है। यही वजह है कि ये तमाम कोशिश इस्लामी ममालिक में बारवर (फ़ल देने वाला) नहीं होतीं।

(5)

ख़ुद हिन्दुस्तान में आए दिन ऑल इंडिया वुमंस कान्फ़्रैंस और ऑल इंडिया मुस्लिम लेडीज़ कान्फ़्रैंस के इजलास मुनअक़िद होते रहते हैं। और उनमें ग़रीब औरतों की यही चीख़ पुकार सुनाई देती है। तअ़दाद इज़्दवाज़ और तलाक़ वग़ैरह के ख़िलाफ़ और निस्वानी हुक़ूक़ के लिए धुआँ-धार तक़रीरें होती हैं और रैज़ोलीयूशन होते हैं। बक़ौल मौलाना ज़फ़र अली ख़ान :-

कांग्रेस में भी हैं कुछ मगर हक़ है यही

गर्म हंगामा हिंद उस की ख़वातीन से है।

लेकिन मौलवी साहिबान क़ुरआन व हदीस की सिपर लगाए रखते हैं। वो इस तहरीक को इस्लामी शरीअत और सुन्नत नब्वी पर ख़ौफ़नाक हमले तसव्वुर करते हैं। ब-सद मुश्किल सगर सनी (कम उम्री) की शादी के ख़िलाफ़ सारदा ऐक्ट पास हुआ था। लेकिन हमारे मुस्लिम अख़बारात ने इस को मज़्हबी आज़ादी में बेजा मुदाख़िलत क़रार दे दिया। उलमाए किराम ने भी इन अख़बारात की हिमायत ही की। और कहा कि ये सुन्नत नब्वी के ख़िलाफ़ है। नतीजा ये हुआ कि अब सारदा ऐक्ट की क़ीमत सिफ़र (ज़ीरो) के बराबर भी नहीं रही। तअ़दाद इज़्दवाज़ तलाक़ और सगर-सनी की शादी हिन्दुस्तानी क़ौम की तरक़्क़ी और मुफ़ाद के हक़ में ज़हर-ए-क़ातिल का असर रखती हैं।

ग़रज़-कि इस्लामी ममालिक की तारीख़ इस हक़ीक़त को ज़ाहिर कर देती है कि इस्लाम में कोई हुक्म क़ायदा या क़ानून ऐसा नहीं। जिसके लिए दौरे हाज़रा की औरत ख़ुदा का शुक्र कर सके। अगर इस्लामी ममालिक शाहराह तरक़्क़ी पर मुहज़्ज़ब ममालिक के साथ दोश-बदोश हो कर चलना चाहते हैं तो लाज़िम है कि वो इस्लामी शरीअत दरबारा क़वानीन इज़्दवाज़ व तलाक़ को बाला-ए-ताक़ रख दें। वर्ना तरक़्क़ी का मुँह देखना उनको नसीब नहीं हो सकता। ये हक़ीक़त ऐसी वाज़ेह और रोशन है कि क़ादियान जैसे ज़ुल्मत-कदा से भी यही आवाज़ बुलंद हुई है। चुनान्चे “रिव्यू आफ़ रिलिजियस बाबत सितंबर 1915 ई॰” में इस्लामी ममालिक की हालत-ए-ज़ार पर नोहा किया गया है। और लिखा है :-

आजकल इस्लाम की हालत क्या है? इस्लाम के हाथों से मुल्क निकल रहे हैं। गो ये बात दुरुस्त है कि हर मुल्क को क़ुदरती तौर पर ज़वाल आता है। लेकिन जब हम देखते हैं कि बादशाहतें की एक बड़ी तादाद जिनका ताल्लुक़ मुख़्तलिफ़ ममालिक और अक़्वाम से है। और जो दुनिया के मुख़्तलिफ़ गोशों में वाक़ेअ हुए हैं। उनमें उनका मज़्हब इस्लाम ही एक मुशतर्का बात है और ये बादशाहतें यके-बाद-दीगरे तबाह और बर्बाद हो रही हैं। तो ये एक निहायत मअनी ख़ैर अम्र हो जाता है। अगर एक ही सल्तनत के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में ज़वाल आ जाता है। तो हम समझ सकते कि कोई ऐसी बात होगी जो उनमें मुशतर्का होगी। जिसकी वजह से सल्तनत के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में ज़वाल आ गया। लेकिन जब ये इस्लामी बादशाहतें दुनिया के मुख़्तलिफ़ कोनों में वाक़ेअ हों और एक दूसरे से इस क़द्र दूर-दराज़ हों। जिस तरह अल-जरया, मुराको, ट्रिपोली, मिस्र, हिन्दुस्तान, ईरान, अफ़्ग़ानिस्तान, तुर्किस्तान, फ़िलपाईन जज़ाइज़, सूडान, अबीसीनिया वग़ैरह एक दूसरे से दूर हैं। और मुख़्तलिफ़ ज़मानों में मुख़्तलिफ़ अक़्वाम से मुताल्लिक़ हों और ये तमाम इस्लामी ममालिक ज़वाल पज़ीर हों। तो ये ज़ाहिर है कि उनके ज़वाल के सबब मामूली नहीं।”

तारीख़ इस क़ादियानी के ख़्याल की ताईद करती है। इन तमाम ममालिक में जो दुनिया के मुख़्तलिफ़ गोशों में वाक़ेअ हैं। और जिनमें मुख़्तलिफ़ अक़्वाम बसती हैं। सिवाए एक बात यानी इस्लामी ताअलीम के और कोई शैय मुशतर्का नहीं। लिहाज़ा क़ादियानी इस नतीजे पर पहुंचता है कि इस्लामी ममालिक के ज़वाल व इनहतात का हक़ीक़ी बाइस इस्लामी ताअलीम ही है।

(6)

पस जहां तक जिबिल्लत जिन्सी (सोहबत की फ़ित्रत) और इस के इक़्तिज़ाओं का ताल्लुक़ है। इस्लामी ताअलीम और क़ुरआनी अहकाम दरबारा इज़्दवाज़ व तलाक़ इस जिबिल्लत की फ़ित्रत के ख़िलाफ़ हैं और तारीख़ इस्लाम इस नतीजे की ताईद करती है। लिहाज़ा इस्लाम दीन फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं हो सकता। इस के बर-ख़िलाफ़ नाज़रीन पर वाज़ेह हो गया होगा कि कलिमतुल्लाह की ताअलीम जिबिल्लत जिन्सी के तमाम इक़्तिज़ाओं को बतरज़ अहसन पूरा करती है। लिहाज़ा मसीहीय्यत ही एक ऐसा मज़्हब है, जो दीन फ़ित्रत हो सकता है।

फ़स्ल चहारुम

माँ बाप की जिबिल्लत या वालदेनी जिबिल्लत वालदेनी जिबिल्लत की ख़सुसियात

इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) का ताल्लुक़ बराह-ए-रास्त नूअ के क़ियाम और नूअ की ख़िदमत बहबूदी और बक़ा के साथ है। इस के साथ माँ की ममता और बाप की शफ्क़त के जज़्बात वाबस्ता हैं। इस जिबिल्लत का तक़ाज़ा ये है कि बच्चे की हिफ़ाज़त और परवरिश हो। और इस मक़्सद के हुसूल के लिए माँ बाप भूक-प्यास तक्लीफ़ बल्कि मौत भी बर्दाश्त करते हैं। ये जिबिल्लत बाक़ी तमाम जिबिल्लतों से क़वी और उन पर हत्ता के ख़ौफ़ पर भी ग़ालिब आ सकती है। इस जिबिल्लत की वजह से माँ अपनी अनानीयत (ख़ुदी, गुरूर) को दबाती है। और उस की ज़िंदगी ईसार नफ़्सी का एक ला-मुतनाही (बेइन्तहा, जिसकी कुछ इंतिहा ना हो) सिलसिला हो जाती है। और बाप की ज़िंदगी मेहनत और मशक़्क़त की कोशिशों का मजमूआ हो जाती है।

(2)

माँ बाप की जिबिल्लत के अमल में जब मुमानिअत या मुज़ाहमत होती है तो इस से ग़ुस्सा ज़हूर में आता है। और यह इन्सान की मुआशरती ज़िंदगी के लिए निहायत एहमीय्यत रखता है। मसलन जब कोई हमारे बच्चों के साथ मुज़ाहमत करता है तो हमको तैश आता है। ये ग़ुस्सा, ग़ज़ब और जोश दरहक़ीक़त तमाम अख़्लाक़ी नाख़ुशनुदी और अख़्लाक़ी इस्तिहक़ार (हक़ारत, नफ़रत करना) की जड़ है। जो बच्चों या बेकस लोगों या नादानों की तक्लीफ़ या उन पर ज़ुल्म और ज़्यादती देखकर हमारे दिलों में पैदा होती है। दौरे हाज़रा में इन्सान की मुआशरती ज़िंदगी में इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) का मैदान बहुत वसीअ हो गया है। और लतीफ़ और नाज़ुक जज़्बे इसी जिबिल्लत की वजह से बरअंगेख़्ता होते हैं। मसलन गु़लामी के ख़िलाफ़ तहरीक, बच्चों, हैवानों, अछूत अक़्वाम पर ज़ुल्म की बंदिश और मुमानिअत की अंजुमनों का क़ियाम। काश्तकारों से ग़ुलामाना सुलूक का इंसिदाद (रोक-थाम) वग़ैरह-वग़ैरह, इसी की वजह से हैं। ये नाज़ुक जज़्बात हमको मुसीबत ज़दों के रफ़ीक़ (साथी) बना देते हैं। और हम्दर्दी इस बात का तक़ाज़ा करती है कि उनकी मुसीबत को कम या ख़त्म किया जाये। पस माँ बाप की जिबिल्लत या वालदेनी जिबिल्लत सिर्फ वालदैन की शफ़्क़त की ही माख़ज़ नहीं। बल्कि जुम्ला नाज़ुक जज़्बात की माख़ज़ है। चुनान्चे ख़ैरात और सख़ावत का ज़हूर शिफ़ा ख़ानों का इजरा और ज़र-ए-ख़तीर (कसीर, बहुत) का ख़र्च वग़ैरह भी इसी जिबिल्लत (फ़ित्रत) की वजह से हैं।

वालदेनी जिबिल्लत और दीन-ए-फ़ित्रत के लवाज़मात

मुंदरजा बाला सुतूर से वाज़ेह हो गया होगा कि दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम है कि बच्चों की पैदाइश, परवरिश, हिफ़ाज़त, बहबूदी और तरक़्क़ी की निस्बत अहकाम सादिर करे। वालदेनी जिबिल्लत के मैदान इस्तिमाल को वुसअत दे। अनानीयत और ख़ुदी के दबाने और क़ुर्बानी और ईसार नफ़्सी को बढ़ाने की ताअलीम दे। इन तमाम लतीफ़ और नाज़ुक जज़्बात की तक्मील में ममदो मुआविन हो। जिनका ज़िक्र सुतूर बाला में किया गया है। नीज़ ये लाज़िम है कि दीन फ़ित्रत ज़ात ईलाही और बनी-नूअ इन्सान के मुताल्लिक़ ऐसी ताअलीम दे, जो इस जिबिल्लत के ऐन मुताबिक़ हो।

वालदेनी जिबिल्लत और तलाक़

गुज़श्ता फ़स्ल में जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) पर बह्स करने के दौरान में हमने ये ज़िक्र किया था, कि जिबिल्लत जिन्सी वालदेनी जिबिल्लत के साथ मर्बूत और मख़्लूत है। और यह रब्त मुआशरत के लिए लाज़िमी है। और मबदा-ए-फ़ित्रत से है। पस मज़्हब फ़ित्रत का काम ये है कि ऐसे क़वानीन इज़्दवाज मुंज़ब्त करे जो ना सिर्फ वालदेनी जिबिल्लत की ताईद करें, बल्कि इन तमाम उमूर मसलन तलाक़ वग़ैरह को ममनू और हराम क़रार दें जो वालदेनी जिबिल्लत के इक़्तिज़ाओं की राह में हाइल होते हैं।

मसीहीय्यत और तलाक़

कलिमतुल्लाह की ताअलीम ने तलाक़ को क़तअन ममनू और हराम क़रार दे दिया है चुनान्चे लिखा है कि, एक दफ़ाअ फ़रीसियों ने आकर आपसे पूछा कि क्या ये रवा है कि, मर्द अपनी बीवी को छोड़ दे? आपने जवाब में फ़रमाया, “ख़ल्क़त की इब्तिदा से ख़ुदा ने “जोड़े” को मर्द और औरत बनाया। और वो दोनों एक जिस्म होंगे, पस वो दो नहीं बल्कि एक जिस्म हैं, इसलिए जिसको ख़ुदा ने जोड़ा है, आदमी उसे जुदा ना करे। जो कोई अपनी बीवी को छोड़ दे और दूसरे से ब्याह करे वो उस पहली के ख़िलाफ़ ज़िना करता है। और अगर औरत अपने शौहर को छोड़ दे और दूसरे से ब्याह करे तो ज़िना करती है।” (मरक़ुस 10:2)) मर्द अपना ये हक़ समझता था कि जब चाहे औरत को जिस बिना पर चाहे तलाक़ दे दे। इब्ने अल्लाह की ताअलीम ने हर मर्द पर ये ज़ाहिर कर दिया, कि इस का ये मज़ाविमा (गुमान किया हुआ) हक़ इन्सानी फ़ित्रत के ख़िलाफ़ है। क्योंकि फ़ित्रत का हक़ीक़ी मंशा यही है कि मर्द और औरत ऐसे दाइमी ताल्लुक़ात में बाहम पैवस्ता हो जाएं। कि वो दो नहीं बल्कि एक तन और एक जान हों। कोई मर्द या औरत दूसरे शख़्स को अपना बदन दे कर अपनी मुस्तक़बिल ज़िंदगी इस तरह बसर नहीं कर सकती कि गोया उसने अपने आपको जिस्म और जान समेत दूसरे के हवाले नहीं किया। ये बात इन्सानी फ़ित्रत के ख़िलाफ़ होगी जिन्सी ताल्लुक़ात की यकजाई और यगानगत का मुंतक़ीया ना नतीजा यही है कि वो जुदा ना हों। पस फ़ित्रत और अक़्ल दोनों तलाक़ के उसूल के ख़िलाफ़ हैं। क्योंकि इस उसूल के मुताबिक़ जिन्सी ताल्लुक़ात दाइमी होने की बजाय आरिज़ी क़रार दिए जाते हैं। और ब्याह पाकीज़ा हालत होने की बजाय एक मज़ह का ख़ेज़ अम्र हो जाता है। मसीहीय्यत की ये ताअलीम है कि इन्सान का जिस्म शहवत का आला नहीं। बल्कि ख़ुदा की रूहुल-क़ुद्दुस का मस्कन है (1 कुरंथियो 6:19) पस औरत और मर्द के जिन्सी ताल्लुक़ात पाकीज़ा ताल्लुक़ात हैं। जिनका मक़्सद ख़ुदा का जलाल ज़ाहिर करना है। (1-कुरंथियो 6:20, इब्रानियों 13:4, 1 थिसलिनकीयों 5:23) मसीहीय्यत में निकाह एक ऐसी पाकीज़ा हालत ख़्याल की जाती है कि वो इस रुहानी यगानगत का निशान क़रार दी गई है जो मसीह और उस की कलीसिया के दर्मियान है। चुनान्चे इंजील जलील में मसीह को दूल्हा और कलीसिया को दुल्हन कहा गया है। यही वजह है कि किताब मुक़द्दस में तलाक़ के लिए जो लफ़्ज़ वारिद हुआ है, वो “इर्तिदाद” (फिर जाना, मुर्तद हो जाना) है। जिससे मालूम हो सकता है कि बाइबल की निगाह में तलाक़ और इर्तिदाद दोनों एक ही क़िस्म की ज़हनीयत का नतीजा हैं।

तलाक़ ना सिर्फ ब्याह के पाकीज़ा मफ़्हूम के ख़िलाफ़ है, बल्कि वो अफ़व और मआनी का दरवाज़ा भी बंद कर देता है। फ़र्ज़ कीजिए कि औरत से कोई क़सूर हो गया है, ख़ावंद (शौहर) का ये काम है कि उस को माफ़ करे। ना कि इस को तलाक़ देकर अपनी शरीक-ए-ज़िंदगी के मुस्तक़बिल को तारीक कर दे। माफ़ करना मुहब्बत का ख़ास्सा है, और इन्सानी फ़ित्रत इस अम्र का तक़ाज़ा करती है कि हम अपने बीवी बच्चों के साथ मुहब्बत करें। और अगर उनसे कोई क़सूर सरज़द हो जाए तो मुलाइम (नर्माई) से उनको समझाएँ ताकि वालदेनी जिबिल्लत का तक़ाज़ा पूरा हो। लेकिन तलाक़ का उसूल अफ़व और माफ़ी और मुहब्बत के ऐन नक़ीज़ (मुख़ालिफ़) है। लिहाज़ा वो फ़ित्रत के ख़िलाफ़ है और मसीहीय्यत में ममनू है।

इस से हमारा ये मतलब नहीं कि इन्सान बे-ग़ैरत हो जाए और अगर उस की बीवी ज़िनाकार हो, तो उस की ज़िनाकारी की तरफ़ से लापरवाह हो जाए। कलिमतुल्लाह ने साफ़ ताअलीम दी है कि ज़िना का गुनाह इज़्दवाज़ के पाक रिश्ते को ख़ुद बख़ुद तोड़ देता है। क्योंकि इस से पाक रिश्ता नापाक हो जाता है। लेकिन हम तलाक़ के रिवाज पर ग़ौर करें, तो हम पर ज़ाहिर हो जाएगा कि इस्लामी दुनिया में मुक़ाबलतन बहुत कम देखने में आया है कि ख़ावंद (शौहर) ने बीवी को ज़िना की बिना पर तलाक़ दी हो। बिल-उमूम तलाक़ की बिना ख़ावंद और बीवी की नाचाक़ी होती है और उन हालात में उमूमन ख़ावंद (शौहर) की बदमिज़ाजी नाचाक़ी का बाइस होती है। मुंदरजा ज़ैल मिसाल में ग़रीब बीवी का क्या क़सूर था? तलाक़ की ख़्वाहिश तक़रीबन हमेशा ख़ावंद की तरफ़ से होती है क्योंकि ग़रीब बीवी का ना कोई मुस्तक़िल वजूद होता है और ना ख़ावंद से जुदा उस का कोई मुस्तक़बिल होता है। बल्कि उमूमन यही देखा गया है कि अगर ख़ावंद ज़ानी भी हो। तो ग़रीब बीवी उस के उयूब (ऐब की जमा, कमज़ोरीयों) पर पर्दा ही डालती है। और उस को माफ़ करती है और माफ़ी की रूह घर को और बच्चों को एक जा (जगह) रखती है। आम तौर पर ये एक सही बात है कि ख़ावंद दरहक़ीक़त तलाक़ का मूजिब होता है। लेकिन अगर बीवी ख़ावंद की बद-मिज़ाजी की सब्र से बर्दाश्त कर सकती है तो कोई वजह नहीं कि ख़ावंद (शौहर) बीवी की बद-मिज़ाजी और कम फ़ह्मी और नादानी को माफ़ ना करे। ख़ानदान की बक़ा और क़ियाम और बच्चों के लिए नेक नमूना इस अम्र के मुतक़ाज़ी हैं कि ख़ावंद बीवी के और बीवी ख़ावंद के नक़ाइस (ऐबों) और उयूब की सब्र से बर्दाश्त करें। और यूं अज़राह मुहब्बत एक दूसरे को माफ़ करके एक आला ख़ानदान के क़ियाम का सबब हों।

इस्लाम और अख़्लाक़

इस के बर-अक्स दीन इस्लाम ने तलाक़ की ना सिर्फ इजाज़त दे रखी है बल्कि इस का बाब (दरवाज़ा) खोल दिया है। ख़ावंद (शौहर) जब चाहे बग़ैर किसी माक़ूल वजह के अपनी बीवी को तलाक़ दे सकता है। लेकिन ग़रीब और मज़्लूम बीवी को ये इख़्तियार नहीं दिया गया कि वो अपने खाविंदों (शौहरों) को किसी हालत में भी तलाक़ दे सकें। क्योंकि क़ुरआन कहता है कि “मर्द औरतों पर हाकिम हैं।” (सूरह निसा 38) किसी मुसलमान मर्द का, बीवी को तलाक़ देने पर क़ादिर हो कर तलाक़ ना देना उस को दूसरों की नज़रों में गिरा देता है। चुनान्चे एक शख़्स ने हज़रत उमर से जब वो ख़लीफ़ा थे पूछा कि :-

क्या आप अपने बाद अब्दुल्ला बिन उमर को ख़लीफ़ा ना करेंगे। आपने फ़रमाया वल्लाह मैंने कभी ख़ुदा से, अपने बेटे के ख़लीफ़ा होने के लिए दुआ नहीं मांगी भला मैं ऐसे आदमी को ख़लीफ़ा मुक़र्रर कर सकता हूँ जिसको इतनी भी जुर्आत ना हो कि अपनी बीवी को तलाक़ दे दे।”

(तारीख़-उल-ख़लफ़ा सफ़ा 131)

इस्लामी ममालिक में तलाक़ एक आम शैय है। ख़ुद हिन्दुस्तान के तक़रीबन हर शहर और गांव में ये रोज़मर्रा का वाक़िया है। चुनान्चे हम “रिसाला अल-मुनीर हज़रत केलिया नवाला बाबत 8/16 दिसंबर 1933 के सफ़ा नंबर 10” से जे़ल का इक़्तिबास बतौर मुश्ते नमूना इज़ख़रवारे (ढेर में से मुट्ठी भर, बहुत कम) करते हैं :-

“क़रीब चार माह का अरसा गुज़रा है कि तहसील हाफ़िज़ आबाद ज़िला गुजरांवाला के एक शख़्स ने अपनी वफ़ादार नेक-चलन बीवी को (जिसने कि अपने ख़ावंद (शौहर) की बीमारी में उसे मक़रूज़ होते देखकर बजाय उस की ज़मीन फ़रोख़्त कराने के अपने मयके के तमाम जे़वरात जो कि उस को दहेज़ में मिले थे। और जो आम तौर पर औरतों को प्यारे होते हैं, गिरवी रखकर ख़र्च कर दिए हैं इस हैरत-अंगेज़ वजह से तलाक़ दी है कि ख़ुदावंद करीम ने उस के हाँ लड़के के लड़की पैदा की जिस मासूम बच्ची की उम्र इस वक़्त ज़्यादा से ज़्यादा तीन साल की है।”

चुनान्चे एक दिन का ज़िक्र है कि बद-क़िस्मत बीवी ममता की मुहब्बत से मज्बूर होकर अपनी लड़की के बालों को तेल लगा कर कंघी कर रही थी कि इतने में ख़ावंद (शौहर) घर आया। और लड़की को सँवरती हुई देखकर आग बगूला हो कर ज़ौजा (बीवी) को मारना शुरू कर दिया। और कहा कि लड़की को क्यों सँवारती रहती हो, ये कोई लड़का तो नहीं है।

इस पर बीवी ने जवाब दिया कि लड़का-लड़की तो ख़ुदा-ए-अज़्ज़ोजल के इख़्तियार मुतलक़ में है। इस में मेरा क़सूर नहीं है। तुझे ख़्वाह-मख़्वाह इस वजह से मारने का हक़ नहीं है। अलबत्ता आइन्दा तुम ग़ैर-औरतों से हरामकारी करने से तौबा करो तो वो ज़ात-ए-पाक मेहरबानी फ़रमाकर हमें कोई बच्चा इनायत फ़र्मा देगा। और हमारी मासूम बच्ची की उम्र तो इस वक़्त तीन साल की भी नहीं है, इस को संवारने में कोई हर्ज नहीं। तमाम जहान अपने बच्चे बच्चीयों को इसी तरह सँवारे रखते हैं। शहरों में जाकर देखो कि वो लोग किस तरह अपनी नन्ही बच्चीयों को सँवारते और मुहब्बत करते हैं।

ख़ावंद (शौहर) ने जवाब दिया कि शहरी लोग कंजर होते हैं, जो लड़कीयों को सँवारते हैं और इस तकरार से ग़ज़नबाक हो कर फ़ौरन हज्जाम को बुलाया। और नन्ही मासूमा के बाल सर से कटवा दिए और ज़ौजा (बीवी) को मार कर घर से निकाल दिया। और नन्ही बच्ची ज़बरदस्ती रोती धोती उस की गोद से छीन ली। इस पर वो मज्बूरन अपने मयके चली आई। जहां उस के वालदैन पहले ही मर चुके हैं। जिनके ये नमक से पला था। जिन्हों ने हज़ार-हा रूपयों के जे़वरात कपड़े और बर्तनों के इलावा ग्यारह अ़दद भेंस एक घोड़ी और एक डाची दहेज़ में दी थी। अब ख़ावंद (शौहर) किसी नए रिश्ते की तलाश में सरगर्दां था, कि कहीं से कोई और अमीर घराने का शिकार हाथ आए चुनान्चे सुना गया है कि एक शख़्स ने इस शर्त पर रिश्ते देना मंज़ूर किया कि है अगर वो पहली बीवी को तलाक़ दे दे। इसलिए उसने अपनी बीवी को घर से निकाल देने के चंद रोज़ बाद मौज़ागकखड़ तहसील गुजरांवाला में जहां कि वो अपनी एक ख़ास बीमारी का ईलाज एक हकीम से करवाता था से बज़रीया रजिस्ट्री तलाक़ नामा औरत के भाई के नाम भेज दिया।”

अगरचे ऐसे इन्सानियत सोज़ वाक़ियात से इन्सान की तबीयत क़ुदरती तौर पर मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) हो जाती है लेकिन इस्लाम में शरई दायरे के अंदर रह कर एक मोमिन मुसलमान ऐसा शर्मनाक रवैय्या इख़्तियार कर सकता है।

तलाक़ औरतों के मुस्तक़बिल को तारीक कर देता है। बच्चों की परवरिश ताअलीम और उनकी जिस्मानी और ज़हनी नशव व नुमा और तरक़्क़ी के हक़ में ज़हर-ए-क़ातिल का असर रखता है। ख़ानदानी ज़िंदगी की पाकीज़ा हालत को तबाह व बर्बाद कर देता है। ग़रज़ कि जिबिल्लत (फ़ित्रत) वालदेनी की राह में तलाक़ की इस्लामी ताअलीम एक नाक़ाबिल गुज़र रुकावट है, पस इस्लाम दीन-ए-फ़ित्रत नहीं हो सकता।

वालदेनी जिबिल्लत और बच्चों के फ़राइज़

चूँकि वालदेनी जिबिल्लत का ताल्लुक़ बराह-ए-रास्त नूअ के क़ियाम और नौ-इन्सानी की ख़िदमत बहबूदी और बक़ा के साथ है। लिहाज़ा लाज़िम है कि दीन फ़ित्रत वालदैन को उनके फ़राइज़ हुक़ूक़ और ज़िम्मेदारीयों पर मुत्लाअ (बाख़बर) करे। और बच्चों को उनके हुक़ूक़ ज़िम्मेदारीयों और फ़राइज़ की निस्बत आगाह करे। चुनान्चे इंजील जलील में वारिद हुआ है :-

“ऐ फ़रज़न्दों ! ख़ुदावंद ख़ुदा में अपने माँ बाप के फ़र्मांबरदार रहो, क्योंकि ये ख़ुदावंद ख़ुदा में पसंदीदा है।” (कुलस्सियों 3:20, अम्साल 19:26, 23:22, 30:17 ख़ुरूज 21:27 वग़ैरह) क़ुरआन में भी वालदैन की इताअत और ख़िदमत की ताअलीम मौजूद है। मसलन “वालदैन से नेकी करो।” (अनआम आयत 152, बनी-इस्राईल 34, लुक़्मान 113, अह्क़ाफ़ 14 वग़ैरह)पस इंजील व क़ुरआन में फ़रज़न्दों के फ़राइज़ और ज़िम्मेदारीयों के मुताल्लिक़ अहकाम हैं।

वालदेनी जिबिल्लत और वालदैन के फ़राइज़

वालदेनी जिबिल्लत का ताल्लुक़ खासतौर से बच्चों के हुक़ूक़ और वालदैन के फ़राइज़ और ज़िम्मेदारीयों के साथ वाबस्ता है। इंजील जलील में बच्चों के हुक़ूक़ पर ज़ोर दिया गया है। कलिमतुल्लाह ने फ़रमाया“ख़बरदार इन छोटे बच्चों में से किसी को नाचीज़ ना जानना, क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ कि आस्मान पर उनके फ़रिश्ते मेरे आस्मानी बाप का मुँह हर वक़्त देखते हैं। तुम्हारे बाप की जो आस्मान पर है ये मर्ज़ी नहीं कि इन छोटों में से एक भी हलाक हो।” (मत्ती 18:10, लूक़ा 18:15, मरक़ुस 10:16, 9:36, लूक़ा 17:3 वग़ैरह) मज़ीद बरआँ वालदैन को उनकी ज़िम्मेदारीयों और फ़राइज़ से आगाह किया गया है, “ऐ बच्चे वालो, ख़ुदावंद की तरफ़ से तर्बीयत और नसीहत दे देकर उनकी परवरिश करो और अपने फ़रज़न्दों को ग़ुस्सा ना दिलाओ।” (इफ़िसियों 6:3) “ऐ बच्चे वालो अपने फ़र्ज़ंदों को दिक़ ना करो कि वो बे-दिल ना हो जाएं।” (कुलस्सियों 3:30) “वो अपने बेटों को हुक्म दे कि वो ख़ुदावंद की राह में क़ायम रह कर अदल व इन्साफ करें।” (पैदाइश 18:19) “ख़ुदा के ये हुक्म तू अपनी औलाद के ज़हन नशीन करना।” yaha tak doc 46 (इस्तिस्ना 6:7, 4:9, 11:19, ज़बूर 78:4 वग़ैरह) “जब तक उम्मीद है अपने बेटे की तादीब किए जा और उस की बर्बादी पर दिल ना लगा।” (अम्साल 19:18) “लड़के की उस राह में तर्बीयत कर जिस पर उसे जाना है। वो बड़ा हो कर भी उस से ना मुड़ेगा।” (अम्साल 22:6, ,29:17 वग़ैरह) “जवान औरतें अपने बच्चों को प्यार करें।” (तीतुस 2:4 वग़ैरह-वग़ैरह)

क़ुरआन में बच्चों के हुक़ूक़ और वालदैन के फ़राइज़ और उनकी ज़िम्मेदारीयों की निस्बत कहीं भी ज़िक्र नहीं। इस के बरअक्स साफ़ और वाज़ेह अल्फ़ाज़ में है कि, “तुम जान लो कि तुम्हारी औलाद फ़ित्ना है।” (अन्फ़ाल आयत 28, आले-इमरान 12, कहफ़ 43 वग़ैरह) जब औलाद “फ़ित्ना” ठहरी तो उस के हुक़ूक़ क्या और माँ बाप की ज़िम्मेदारी क्या? क़ुरआन में बच्चों के हुक़ूक़ और वालदैन की ज़िम्मेदारीयों का ज़िक्र नहीं पाया जाता लेकिन वालदैन जिबिल्लत का ताल्लुक़ इन उमूर के साथ खासतौर पर है। इंजील जलील में बच्चों के हुक़ूक़ और वालदैन की ज़िम्मेदारीयों का ताकीदन हुक्म है। पस जहां तक वालदेनी जिबिल्लत के इक़्तिज़ाओं का ताल्लुक़ है इस्लाम दीन फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ हो नहीं सकता। लेकिन मसीहीय्यत इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) के तमाम इक़्तिज़ाओं (तक़ाज़ों) को पूरा करती है, लिहाज़ा वो दीन फ़ित्रत है।

वालदेनी जिबिल्लत और ज़ाते ईलाही का तसव्वुर

ख़ालिक़ ने वालदेनी जिबिल्लत हमारी सरिश्त में वदीअत फ़रमाई है। पस इस जिबिल्लत के तक़ाज़ाओं को इन्सान बख़ूबी जानता है। पस अगर कोई मज़्हब ऐसा हो जो इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) के ज़रीये ख़ुदा की ज़ात का इल्म हम पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना, कशफ़ करना, ज़ाहिर करना) करे। तो हम इस इल्म को जान सकेंगे। क्योंकि इल्म-ए-नफ़्सीयात का ये कुल्लिया क़ायदा है कि हम एक नामालूम और ग़ैर-मानूस शैय को किसी मालूम शैय कि ज़रीये जान सकते हैं। पस हम ख़ुदा की ज़ात का इल्म अपनी सरिश्त के क़वा (क़ुव्वत) और तिब्बी रुहजानात के ज़रीये और बिलख़सूस वालदेनी जिबिल्लत के ज़रीये हासिल कर सकते हैं। चूँकि ये जिबिल्लत दीगर जिबिल्लतों से क़वा (قویٰ) और ताक़त-वर होती है। लिहाज़ा अगर कोई मज़्हब ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात का इल्म जिबिल्लत वालदेनी के ज़रीये हम पर ज़ाहिर करे तो हम को इस जिबिल्लत के ज़रीये ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात का इल्म ज़्यादा हासिल हो सकता है।

वालदेनी जिबिल्लत और मसीही और इस्लामी तसव्वुर ख़ुदा

मसीहीय्यत के दीन-ए-फ़ित्रत होने का ये बय्यन (खुला) सबूत है कि हम ख़ुदा की ज़ात का इल्म इस तौर पर हासिल कर सकते हैं। मसीहीय्यत की ये ताअलीम है कि ख़ुदा बनी-नूअ इन्सान का बाप है। पस हर इन्सान अपनी वालदेनी जिबिल्लत के ज़रीये ख़ुदा की ज़ात का तसव्वुर क़ायम कर सकता है। और अपने तजुर्बे की बिना पर ख़ुदा की मुहब्बत और उस के ईसार का अंदाज़ा कर सकता है।

कलिमतुल्लाह ने हम को ये ताअलीम दी है कि ख़ुदा हमारा बाप है। जिसकी ज़ात मुहब्बत है। ख़ुदा और इन्सान का बाहमी ताल्लुक़ बाप और बेटे का ताल्लुक़ है। पस वालदेनी जिबिल्लत गोया आलम रूहानियत के हक़ायक़ की एक झलक है। इस आलम में बक़ा-ए-नौ का इन्हिसार जिबिल्लत वालदेनी पर है। ये एक मिसाल है जिसके ज़रीये हम समझ सकते हैं कि रुहानी आलम में बनी-नूअ इन्सान की रुहानी बहबूदी का और उस की बक़ा का इन्हिसार इस बात पर है कि ख़ुदा हमारा बाप है। जो हमसे अज़ली और अबदी मुहब्बत रखता है। (मत्ती 7:11, लूक़ा 11:13, इफ़िसियों 4:6, 1-कुरंथियो 8:6 वग़ैरह) “चूँकि तुम बेटे हो, इसलिए ख़ुदा ने अपने बेटे का रूह हमारे दिलों में भेजा है जो अब्बा यानी ऐ बाप कह कर पुकारता है।” (ग़लतीयों 4:4) “देखो बाप ने हमसे कैसी मुहब्बत की, कि हम ख़ुदा के फ़र्ज़ंद कहलाए और हम फ़र्ज़ंद हैं भी।” (1-युहन्ना 3:1)हम बख़ोफ़ तवालत आयात के इक़्तिबास से परहेज़ करते हैं। और सिर्फ इस क़ौल पर इक्तिफ़ा करते हैं कि इंजील जलील की तमाम कुतुब में लफ़्ज़ “बाप” ख़ुदा के लिए वारिद हुआ है। और उन कुतुब का कोई बाब नहीं। जिसमें ये ख़िताब एक या एक से ज़्यादा दफ़ाअ सराहतन या किनायतन वारिद ना हुआ हो। कुल अदयान आलम (दुनिया के मजाहिब) में सिर्फ मसीहीय्यत ही एक मज़्हब है, जो ख़ुदा और इन्सान के बाहमी रिश्ते के मुताल्लिक़ ताअलीम देता है कि ख़ुदा हमारा बाप है जिसकी ज़ात मुहब्बत है और हम उस के बेटे हैं।

इस्लाम में इस क़िस्म का तसव्वुर नहीं पाया जाता। क़ुरआन के मुताबिक़ ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत नहीं। इस के बरअक्स “अल्लाह बेनियाज़ है” (सूरह इख़्लास 2, बक़रह 27, आले-इमरान 92, निसा 130, यूनुस 69, हज 65 वग़ैरह) पस अल्लाह और इन्सान में रिफ़ाक़त ना-मुम्किन है। इस्लाम में ख़ुदा के निनान्वें नाम हैं। लेकिन इन अस्मा-ए-हसना (अल्लाह के नामों) में “अब्ब” यानी बाप का नाम मौजूद नहीं। और ना इस ख़िताब का पाकीज़ा और लतीफ़ मफ़्हूम किसी और नाम से मौजूद है। ख़ुदा के मसीही तसव्वुर और अल्लाह के इस्लामी तसव्वुर में बाद-उल-मुशरक़ीन है। अगर इस्लाम का अल्लाह मेहरबान ग़फ़्फ़ार और रहमान-उल-रहीम है। तो वो अपनी पिदराना शफ़्क़त और अज़ली मुहब्बत की वजह से नहीं है बल्कि अपनी ख़ुसरवाना (बादशाही के तरीक़े से) इनायात की वजह से है। वो एक क़ादिर-ए-मुतलक़ सुल्तान और ग़ैर ज़िम्मेंदाराना हस्ती है जिसकी मुतलिक़-उल-अनान मर्ज़ी पर मौक़ूफ़ है कि जिसको चाहे माफ़ करे और जिसको चाहे अज़ाब दे और जो चाहे हुक्म दे। (बक़रह 284, आले-इमरान 25 व 35 माइदा आयत 1 व 44 वग़ैरह) ग़रज़ ये कि इस्लामी ताअलीम का ईलाही ज़ात के तसव्वुर के बारे में वालदेनी जिबिल्लत के साथ दूर का वास्ता भी नहीं। जहां तक इस्लाम का ताल्लुक़ है इन्सानी सरिश्त ईलाही ज़ात के समझने में किसी क़िस्म की मदद नहीं दे सकती। क़ुरआन के मुताबिक़ अल्लाह की ज़ात इन्सानी फ़ित्रत से इस क़द्र बुलंद-बाला और अर्फ़ा और मुनज़्ज़ह है कि दोनों में ऐसी ख़लीज (बड़ी दिवार) हाइल है जिसकी वुसअत बे-अंदाज़ा और ला-महदूद है (सूरह नहल 62 वग़ैरह) इस वसीअ ख़लीज (बड़ी दिवार) के ख़िलाफ़ अहले शीया ने और बहाई मज़्हब वालों ने और सूफ़िया ने मुख़्तलिफ़ ज़मानों और मुल्कों में अपनी सदाए एहतिजाज बुलंद की है। क्योंकि ये उसूल ही इन्सान की फ़ित्रत के ख़िलाफ़ है कि ख़ुदा और इन्सान में एक ऐसी ख़लीज (रोक) हाइल कर दी जाये जिसकी वजह से इन दोनों में ताल्लुक़ात का होना मुहाल हो। इन्सानी फ़ित्रत इस क़िस्म की ताअलीम के ख़िलाफ़ इल्म बग़ावत बुलंद करती है। अगर कोई मज़्हब इस बग़ावत को मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से फ़िरौ (दूर) करने की कोशिश करता है। तो वो इन्सानी फ़ित्रत पर जबर करता है। इन्सानी फ़ित्रत इस अम्र का तक़ाज़ा करती है कि ख़ुदा और इन्सान की ज़ात में किसी क़िस्म का बुअद (फ़ासिला, दूरी) ना हो। बल्कि दोनों के बाहमी ताल्लुक़ात ऐसे हों जिनका ख़ास्सा मुहब्बत और शफ़्क़त हो। पस इस नुक्ता-ए-नज़र से भी इस्लाम दीन-ए-फ़ित्रत नहीं हो सकता। इस के बरअक्स मसीहीय्यत की ताअलीम ऐन-ए-फ़ितरत के तक़ाज़ाओं के मुताबिक़ है।

सुतूर-बाला में ज़िक्र हो चुका है कि जिबिल्लत वालदेनी की वजह से इन्सान हर तरह की तक्लीफ़, दुख, अज़ीयत बल्कि मौत तक बर्दाश्त करने को तैयार हो जाता है। क्योंकि इस जिबिल्लत का इक़्तिज़ा और मुहब्बत का जोहर क़ुर्बानी और ईसार है। कलिमतुल्लाह ने हमको ये ताअलीम दी है कि चूँकि ख़ुदा बनी-नूअ इन्सान के साथ अबदी और अटल मुहब्बत रखता है। लिहाज़ा अपनी पिदराना मुहब्बत और प्यार की वजह से ख़ुदा इन्सान की ख़ातिर हर क़िस्म का दुख और रंज बर्दाश्त करता है। वालदैन की मुहब्बत का ज़हूर इसी में है कि वो अपने बच्चों की ख़ातिर दुख उठाएं। माँ की ममता का ज़हूर इसी में है कि वो अपने बच्चे की ख़ातिर रात को जागती और दिन को बेक़रार रहती है। हक़ तो ये है कि मुहब्बत और ईसार एक ही हक़ीक़त के दो मुख़्तलिफ़ नाम हैं। इसी तरह ख़ुदा की मुहब्बत का ज़हूर इस रंज और तड़प में जलवागर होता है। जो हमारा आस्मानी बाप हर गुनाहगार इन्सान के लिए महसूस करता है ईलाही मुहब्बत कामिल है। लिहाज़ा वो महबूब गुनाहगार की ख़ातिर हर तरह का दुख उठाने को तैयार है। “ख़ुदा ने दुनिया से ऐसी मुहब्बत रखी कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (युहन्ना 3:16)सलीब-ए-मसीह ख़ुदा की मुहब्बत और प्यार का बेहतरीन मुकाशफ़ा है। ये सदाक़त इब्ने अल्लाह की ज़िंदगी और मौत के ज़रीये दुनिया पर मिस्ले-आफ़्ताब-नस्फ़-उल-नहार रोशन हो गई है और ये हक़ीक़त वालदेनी जिबिल्लत का तक़ाज़ा है। “ख़ुदा ने अपनी मुहब्बत की ख़ूबी हम पर यूं ज़ाहिर की जब हम गुनाहगार ही थे तो मसीह हमारी ख़ातिर मरा।” (रोमीयों 5:8, 1 युहन्ना 4:10 वग़ैरह)

इस्लामी ताअलीम के मुताबिक़ “अल्लाह बे-परवाह है” (सूरह इख़्लास 2) जो गुनेहगारों से मुहब्बत नहीं रखता। (आले-इमरान 50 वग़ैरह) ये अम्र तो ज़िया (वज़ाहत) का मुहताज नहीं कि बेपरवाही, बेनियाज़ी और दीगर ऐसी सिफ़ात जो क़ुरआन और इस्लाम के अल्लाह में बकस्रत मौजूद हैं मुहब्बत के क़तअन मुनाफ़ी (खिलाफ) हैं। इनमें और वालदेनी जिबिल्लत में बाद-उल-मुशरक़ीन है। माँ की ममता अगर बच्चे की तरफ़ से बे-परवाह और बेनियाज़ हो जाएगी तो बच्चे का ज़िंदा रहना अम्र मुहाल है। इसी तरह अगर ख़ुदा बेनियाज़ हो तो इन्सान की रूह का ज़िंदा रहना महालात (नामुम्किन) में से होगा। जब ख़ुदा ही गुनाहगार का दुश्मन है और वही इंतिक़ाम लेने वाला ठहरा तो गुनाहगार का ठिकाना कहाँ रहा? (सूरह फ़ातिर 44, हूद 104 वगैरह) इसी वास्ते क़ुरआन इस का ठिकाना जहन्नम तज्वीज़ करता है। लेकिन किताब मुक़द्दस की ताअलीम के मुताबिक़ “ख़ुदा गुनाहगार की मौत नहीं चाहता।” (हज़िकीएल 33:11) बल्कि उस की पिदराना शफ़्क़त इस अम्र की मुतक़ाज़ी हुई कि, “जब हम कमज़ोर ही थे तो ऐन वक़्त पर मसीह बे-दीनों की ख़ातिर मुआ (मरा)।” (रोमीयों 5:6 वग़ैरह) ख़ुदा का प्यार और उस की पिदराना मुहब्बत सलीब मसीह में जलवागर हुई.... “ख़ुदा मुहब्बत है। जो मुहब्बत ख़ुदा को हमसे है, वो इस से ज़ाहिर हुई कि ख़ुदा ने अपने इकलौते बेटे को दुनिया में भेजा है ताकि हम उस के सबब से ज़िंदा रहें। मुहब्बत इस में नहीं कि हमने ख़ुदा से मुहब्बत की बल्कि इस में है कि उसने हमसे मुहब्बत की और हमारे गुनाहों के कफ़्फ़ारे के लिए अपने बेटे को भेजा।” (युहन्ना 4:8-10) इस के बरअक्स क़ुरआन कहता है कि, “अल्लाह को जहान के लोगों की परवाह नहीं।” (सूरह अन्कबूत 5)

क़ुरआनी ताअलीम के मुताबिक़ ख़ुदा की ज़ात में मुहब्बत और ईसार नहीं। मुहब्बत और ईसार वालदेनी जिबिल्लत का ख़ास्सा हैं। लिहाज़ा इस्लाम ख़ुदा की ज़ात के बारे में ऐसी ताअलीम देता है, जो इन्सानी फ़ित्रत के ख़िलाफ़ है। पस इस नुक्ता निगाह से भी इस्लाम दीन-ए-फ़ित्रत नहीं हो सकता। सिर्फ मसीहीय्यत की ताअलीम ही फ़ित्रत के मुताबिक़ है।

जिबिल्लत वालदेनी और मसीही और इस्लामी उखूवत इन्सानी

कलिमतुल्लाह ने हमको ये ताअलीम दी है कि चूँकि ख़ुदा हमारा बाप है लिहाज़ा कुल बनी-नूअ इन्सान एक दूसरे के भाई हैं। उखूवत इन्सानी उबुवत ख़ुदावंदी का लाज़िमी और मुंतक़ीयाना नतीजा है। आपने फ़रमाया,, “मेरा हुक्म ये है कि जैसा मैंने तुमसे मुहब्बत रखी तुम भी एक दूसरे से मुहब्बत रखो।” (युहन्ना 15:12, 1-युहन्ना 4:7, 3:11, 2:10 वग़ैरह) जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें, तुम भी उनके साथ वैसा ही सुलूक करो। अगर तुम अपने मुहब्बत करने वालों ही से मुहब्बत रखो, तो तुम्हारा क्या एहसान है? और अगर तुम सिर्फ उन ही का भला करो जो तुम्हारा भला करें तो तुम्हारा क्या एहसान है? तुम अपने दुश्मनों से मुहब्बत रखो, और उनका भला करो तो तुम ख़ुदा तआला के महबूब ठहरोगे।” (लूक़ा 6:31)

कलिमतुल्लाह के उसूल उब्बुत ईलाही (खुदा का बाप सिफत होना) और उखुवत व मसावात इन्सानी (बराबरी) मसीहीय्यत को तमाम अदयान आलम (दुनिया के मज़हबों) से मुम्ताज़ कर देते हैं और हक़ीक़ी माअनों में इस को आलमगीर मज़्हब और दीन-ए-फ़ित्रत बना देते हैं। कलिमतुल्लाह ने दीदा दानिस्ता (जानबूझ कर) इस उसूल को दीगर मज़ाहिब और अपने दीन क़य्यूम (क़ायम करने वाला, निगरान) में हद-ए-फ़ासिल (वो हद जो दो चीज़ों को एक दूसरे से अलग कर दे) के तौर पर मुक़र्रर किया। आपको इस अम्र का एहसास था कि उसूल उखुवत इन्सानी (इंसानी भाईचारा) आलम अख़्लाक़ीयात में एक नया नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) है। जिस से पहले मज़ाहिब ना आशाना थे। चुनान्चे आपने फ़रमाया,“तुम सुन चुके हो कि अगलों से कहा गया था कि अपने पड़ोसी से मुहब्बत रख और अपने दुश्मन से अदावत। लेकिन मैं तुमसे कहता हूँ कि अपने दुश्मनों से मुहब्बत रखो ताकि तुम अपने परवरदिगार के जो आस्मान पर है महबूब ठहरो।” (मत्ती 5 बाब, युहन्ना 13:34, 15:12)पस मुनज्जी आलमीन ने इस वालदेनी जिबिल्लत के ज़रीये दुनिया-ए-अख़्लाक़ के सामने इन्सानी उखुवत (इंसानी भाईचारा) का एक नया तसव्वुर पेश किया। आपके ज़माने में मुख़्तलिफ़ अक़्वाम में बेशुमार इम्तीयाज़ात थे। अहले यहूद बुत-परस्त ग़ैर-अक़्वाम को नफ़रत की निगाह से देखते थे और तमाम ग़ैर यहूद को लफ़्ज़ “पड़ोसी” के दायरे से ख़ारिज करके उनसे शरीअत के हुक्म के मुताबिक़ अदावत रखते थे। कलिमतुल्लाह ने एक तम्सील के ज़रीये ये ताअलीम दी कि लफ़्ज़ “पड़ोसी” में कुल नौ इन्सान (तमाम इंसान) शामिल है। (लूक़ा 10:25) लेकिन यहूद इस हक़ीक़त को बाला-ए-ताक़ रख कर ना सिर्फ बुत-परस्त ग़ैर-अक़्वाम से बल्कि सामरियों से भी नफ़रत करते थे। (युहन्ना 4:9) सामरी भी ईंट का जवाब पत्थर से देकर अहले यहूद से बुग़्ज़ और अदावत रखते थे। (लूक़ा 4:54) रोमी भी यहूद को हक़ारत की निगाह से देखते थे ख़ुद अहले यहूद में सदुक़ी और फ़रीसी एक दूसरे को मशकूक निगाहों से देखते थे। फ़रीसी आम्मतुन्नास (आम लोगों) को मलऊन हीच और अछूत समझते थे लेकिन कलिमतुल्लाह ने उखुवत इन्सानी (इंसानी भाईचारा) का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) सब के सामने रखा और फ़रमाया कि बनी-नूअ इन्सान हर फ़र्द बशर एक ही ख़ानदान से ताल्लुक़ रखता है। इस नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) के ज़रीये आपने हर तरह का इम्तियाज़ और फ़िर्काबंदी का क़िला क़ुमा कर दिया। तारीख़ इस अम्र की गवाह है कि हर ज़माने और मुल्क और क़ौम में मसीहीय्यत ने दर्जा बन्दी, मुनाक़श्त (झगड़ा, क़िस्सा) मुनाफ़िरत (नफ़रत, परहेज़) और तमाम मस्नूई (खुद-साख्ता) और आरिज़ी इम्तीयाज़ात को बेख़ व बिन (जड़) से उखाड़ फेंका। (ग़लतीयों 3:28) ख़ुद हिन्दुस्तान में मसीहीय्यत ने हमारे हम वतनों को एक दूसरे से मुहब्बत करने और बिरादराना उल्फ़त (मुहब्बत) रखने की ताअलीम दी। और बिल-ख़सूस मसीही कलीसिया ने सय्यद, ब्रह्मण, अंग्रेज़, हिन्दुस्तानी हिंदू, सिख, चोहड़ा और मुसलमान वग़ैरह तमाम इम्तीयाज़ात को सिरे से मिटा दिया है। क्योंकि इंजील जलील का एक-एक वर्क़ उखुवत इन्सानी (इंसानी भाईचारे) के सुनहरे उसूल से मुज़य्यन (आरास्ता) है। (रोमीयों 13:8, मत्ती 18:10, रोमीयों 12:5, युहन्ना 13:34, 1_ युहन्ना 4:20, ग़लतीयों 5:13, 1_कुरंथियो 13 बाब वग़ैरह) कलिमतुल्लाह ने फ़रमाया कि तमाम तौरेत और सहाइफ़ अम्बिया का मदार ईलाही मुहब्बत और इन्सानी उखुवत व मसावात (इंसानी भाईचारे और बराबरी) पर है (मरक़ुस 12:29, मत्ती 22:40) आपने तम्सीलों के ज़रीये ये सबक़ सिखाया कि हर शख़्स बिला इम्तियाज़ रंग, नस्ल, ज़ात, दर्जे और क़ौम वग़ैरह दूसरे से अपने बराबर मुहब्बत रखे। (लूक़ा 10 बाब, मत्ती 18 बाब, 25 बाब वग़ैरह) मौलाना हाली का ये शेअर इंजील और सिर्फ़ इंजील पर ही सादिक़ आता है :-

ये पहला सबक़ था किताब हज़ा का

कि है सारी मख़्लूक़ कुम्बा ख़ुदा का

कलिमतुल्लाह की ताअलीम ने वालदेनी जिबिल्लत के ज़रीये ख़ानदानी इस्तिलाहात के इस्तिमाल से उब्बुवत ईलाही (खुदा का बाप सिफत होना) और उखुवत इन्सानी (इंसानी भाईचारे) के उसूल हर मुल्क और क़ौम को सिखा दिए। आपकी ताअलीम की इसास (बुनियाद) ही यही हैं कि ख़ुदा हमारा बाप है और कुल बनी-नूअ इन्सान उस के बेटे हैं। आपकी तम्सीलें ख़ानदानी ताल्लुक़ात से भरी पड़ी हैं जिनके ज़रीये आपने अज़ली उसूल की तल्क़ीन की (लूक़ा 15 बाब, मत्ती 13 बाब, मत्ती 6:9 वग़ैरह) नौ-ए-इन्सानी के मुताल्लिक़ आपका नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) एक ख़ानदान का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) है जिसमें कुल अक़्वाम आलम के तमाम अफ़राद एक ही ख़ानदान से मुताल्लिक़ किए गए हैं। पस कलिमतुल्लाह ने वालदेनी जिबिल्लत के ज़रीये ख़ुदा की मुहब्बत और उब्बुवत और इन्सानी उखुवत व मसावात के उसूल की हक़ीक़त हम पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) कर दी है।

इस्लाम में उखुवत इन्सानी (इंसानी भाईचारे) का उसूल ढूंढे से भी नहीं मिलता। क़ुरआन में एक जगह वारिद है कि, “मुसलमान आपस में भाई हैं।” (सूरह हुजरात आयत 10) इस आयत के ज़रीये मुसलमानों पर फ़र्ज़ है कि अहले इस्लाम के साथ बिरादराना सुलूक करें। लेकिन उन पर ये फ़र्ज़ नहीं कि वो किसी ग़ैर-मुस्लिम से मुहब्बत रखें। क्योंकि ग़ैर-मुस्लिमों से मुहब्बत करना क़ुरआन में कहीं नहीं पाया जाता। उनके बरअक्स उनके साथ दुश्मनी रखने और लड़ने के अहकाम क़ुरआन में बकस्रत मौजूद हैं। (सूरह माइदा आयत 56 व 62 मुम्तहना आयत 9 वग़ैरह) अहले इस्लाम को हुक्म है कि यहूदी शराअ की तरह “अपने मुहब्बत रखने वालों ही से मुहब्बत रखो और अपने दुश्मन से अदावत रखो।” यहां तक कि इस्लाम ने दुनिया को दो हिस्सों में मुनक़सिम कर दिया है। एक दार-उल-इस्लाम और दूसरा दार-उल-हर्ब और मुसलमानों पर फ़र्ज़ कर दिया गया है कि ग़ैर-मुस्लिमों को क़त्ल करें। ख़्वाह ये बात मुसलमानों को बुरी लगे। (सूरह बक़रह आयत 214, अन्फ़ाल 62 व 66, तौबा आयत 1 ता 29, तहरीम 9, मुहम्मद आयत 4 व 5, अन्फ़ाल आयत 40 वग़ैरह वग़ैरह) लेकिन मुसलमान का क़त्ल उम्दन व सहवन (इरादी और ग़ैर-इरादी तौर पर) ममनू है। (सूरह निसा आयत 94 व 95)

चुनान्चे मिश्कात किताब-उल-जिहाद बाब अल-जज़ियह में इब्ने अब्बास से रिवायत है कि :-

रसूल-ए-ख़ूदा ने फ़रमाया कि एक मुल्क में दो क़बीले रवा नहीं और मुसलमान पर जज़िया रवा नहीं है।”

जिसका मतलब ये है कि किसी इस्लामी मुल्क में इस्लाम के सिवा कोई दूसरा दीन ब-तरीक़ मुसावात (बराबरी हुकुक़ के साथ) नहीं रह सकता और अगर कोई ज़ी-मुसलमान हो जाए तो उस से जज़िया लेना रवा नहीं।

पस साबित हो गया कि मसीहीय्यत ही एक वाहिद मज़्हब है जो ख़ुदा और इन्सान के बाहमी रिश्ते और बनी-नूअ इन्सान के बाहमी ताल्लुक़ात की निस्बत ऐसी ताअलीम देता है जो जिबिल्लत वालदेनी के तक़ाज़ाओं के मुताबिक़ है। पस मसीहीय्यत ही दीन-ए-फ़ित्रत कहलाने की मुस्तहिक़ हो सकती है। इस्लाम बनी-नूअ इन्सान के बाहमी ताल्लुक़ात के मुताल्लिक़ ऐसी ताअलीम की तल्क़ीन करता है। जो इस जिबिल्लत के तक़ाज़ाओं को ना सिर्फ पूरा नहीं करती बल्कि उनके मुनाफ़ी (खिलाफ) है। लिहाज़ा इस्लाम दीन-ए-फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं हो सकता।

जिबिल्लत वालदेनी और मसीही और इस्लामी फ़ज़ाइल

वालदेनी जिबिल्लत के साथ वो तमाम लतीफ़ जज़्बात वाबस्ता हैं, जिन पर मसीही ताअलीम ज़ोर देती है।चुनान्चे कलिमतुल्लाह की ताअलीम में दिल की ग़रीबी, हुलुम, रहम, सब्र, सुलह, पाकीज़गी, मुहब्बत, ईसार नफ़्सी और ख़ुद-फ़रामोशी वग़ैरह को अफ़्ज़ल जगह दी गई है। और ये निस्वानी फ़ज़ाइल शुमार की जाती है। लेकिन इस के बरअक्स इस्लाम ने हमेशा मर्दानगी, शुजाअत, जंग, जिहाद, हुकूमत, सियासत, ग़नीमत और क़िसास वग़ैरह पर ज़ोर दिया है जो मर्दाना फ़ज़ाइल हैं। वालदेनी जिबिल्लत का ताल्लुक़ निस्वानी फ़ज़ाइल, नाज़ुक जज़्बात और लतीफ़ ख़यालात के साथ है। लेकिन मर्दाना फ़ज़ाइल नाज़ुक और लतीफ़ जज़्बात को ठुकराती हैं। पस इस पहलू से भी इस्लाम की निस्बत मसीहीय्यत का ताल्लुक़ वालदेनी जिबिल्लत और इन्सानी फ़ित्रत के साथ ज़्यादा क़रीब है।

जिबिल्लत वालदेनी और ग़ुस्सा का जज़्बा

इस फ़स्ल के शुरू में हम ज़िक्र कर चुके हैं कि जिबिल्लत वालदेनी का ये ख़ास्सा है कि जब उस के अमल में मुज़ाहमत या रुकावट होती है तो ग़ुस्सा और तैश ज़हूर में आता है। इसी तरह जब हम किसी बेकस हैवान या इन्सान पर ज़्यादती और ज़ुल्म होता देखते हैं। तो हम जोश में आ जाते हैं और मज़्लूम की हिमायत करना अपना फ़र्ज़ समझते हैं। इस बात का मुफ़स्सिल ज़िक्र हम आगे चल कर करेंगे। इस की मिसालें हमको इंजील जलील में मिलती हैं। यहां बख़ोफ़ तवालत सिर्फ एक मिसाल पर इक्तिफ़ा किया जाता है। इंजील जलील में वारिद है कि मुनज्जी आलमीन एक दफ़ाअ इबादतखाना में गए, “और वहां एक आदमी था जिसका हाथ सूखा हुआ था, और वो उस की ताक में रहे कि अगर वो उसे सबत के दिन अच्छा करे तो उस पर इल्ज़ाम लगाऐं।” इस एक वाक़िया से हम आंखुदावंद के दुश्मनों की सख़्त दिली और बेरहमी का अंदाज़ा लगा सकते हैं जो वो इस ग़रीब बेकस इन्सान पर रवा रखते थे जिसका हाथ सूखा हुआ था। आपके रहम व मुहब्बत ने जोश खाया और आपने उनकी सख़्त दिली के सबब ग़मगीं हो कर चारों तरफ़ ग़ुस्से से नज़र कर के इस आदमी से फ़रमाया कि अपना हाथ बढ़ा. उसने बढ़ा दिया और उस का हाथ दुरुस्त हो गया।” (मरक़ुस 3:1)

जिबिल्लत वालदेनी और ईसार नफ़्सी

इस फ़स्ल के शुरू में हमने ये ज़िक्र किया था कि दौरे हाज़रा में माँ-बाप की जिबिल्लत (फ़ित्रत) का मैदान-ए-अमल बहुत वसीअ हो गया है। फ़ी-ज़माना हमको ऐसी तहरीकात नज़र आती है, जिन का ताल्लुक़ हैवानों, बच्चों, कमज़ोरों, लाचारों, बेकसों मज़्लूमों, मुसीबत ज़दों, मुफ़लिसों वग़ैरह की इम्दाद के साथ है। इन तमाम तहरीकों और कोशिशों का माख़ज़ माँ-बाप की जिबिल्लत है। इसी जिबिल्लत की वजह से हमारे अंदर हम्दर्दी और नाज़ुक जज़्बे पैदा होते हैं। जिनकी वजह से हम बे-इख़्तियार हो जाते हैं, और हम दुनिया के बेकसों और मज़्लूमों की हिमायत पर कमरबस्ता हो जाते हैं। उनकी जहालत को दूर करने के लिए मदरसे जारी करते हैं, उन की अमराज़ को रफ़ा करने की ख़ातिर शिफ़ा-ख़ाने खोल देते हैं, उनकी भूक मिटाने के लिए लंगर ख़ाने खुल जाते हैं।

मसीही और इस्लामी ईसार

दीने फ़ित्रत का काम ये है कि वालदेनी जिबिल्लत के मैदान-ए-अमल को वसीअ कर दे और इस बाब में मसीहीय्यत को कुल अदयान आलम (दुनिया के तमाम मजहबों) पर फ़ौक़ियत हासिल है। बच्चों, बेकसों, मज़्लूमों, मुहताजों, बेयार व मददगार लोगों की ख़ातिर अपनी ख़ुदी और अनानीयत (अना) को दबाना और उनकी ख़ातिर हर तरह की ईसार नफ़्सी को काम में लाना मसीहीय्यत का जुज़्व-ए-आज़म है। (मरक़ुस 8:35) “हमको जो तवाना हैं चाहिए कि ना-तवानों की कम्ज़ोरीयों का लिहाज़ रखें और ना कि अपनी ख़ुशी करें। हम में से हर एक शख़्स दूसरे को इस की बेहतरी के वास्ते ख़ुश करे ताकि उस की तरक़्क़ी हो, क्योंकि मसीह ने भी अपनी ख़ुशी नहीं की।” (रोमीयों 15:1) “हर एक अपने ही अहवाल पर नहीं, बल्कि दूसरों के अहवाल पर नज़र रखे। वैसा ही मिज़ाज रखो जैसा सय्यदना मसीह का था, जिसने अपने आपको ख़ाली कर दिया।” (फिलिप्पियों 2:4-5) “मुबारक है वो जो ग़रीब का ख़्याल रखता है।” (ज़बूर 41:1) “मज़्लूमों की मदद करो, यतीमों की फ़र्याद रसी करो, बेवाओं के हामी हो।” (यसअयाह 1:17) “तू अपनी रोटी भूकों को खिला और मिस्किन को जो आवारा हैं अपने घर में ला। जब किसी को नंगा देखे तो उसे पहना, और अपने हम-जिंसों से रूपोशी मत कर, तब तेरी रोशनी सुबह की मानिंद फूट निकलेगी।” (यसअयाह 58:7) “हर शख़्स अपने भाई पर करम और रहम करे और बेवा और यतीम और मुसाफ़िर और मिस्कीन पर ज़ुल्म ना कर।” (ज़करीयाह 7:10) “ख़ैरात बांटने वाला सख़ावत से बाँटे रहम करने वाला ख़ुशी से रहम करे मुसाफ़िर पर्वरी में लगे रहो। अगर तेरा दुश्मन भूका होतो उसे खाना खिला। अगर प्यासा हो तो उसे पानी पिला।” (रोमीयों 12 बाब) “जिसके पास दुनिया का माल हो और वो अपने भाई को देखकर रहम करने में दरेग़ करे तो उस में ख़ुदा की मुहब्बत क्योंकर क़ायम रह सकती है? (1_युहन्ना 3:17) “हमारे ख़ुदा और बाप के नज़्दीक ख़ालिस और बेऐब दीनदारी ये है कि यतीमों और बेवाओं की मुसीबत के वक़्त उनकी ख़बर लें।” (याक़ूब 1:27)

एक दफ़ाअ एक दौलतमंद शख़्स कलिमतुल्लाह के पास आया और पूछने लगा कि, “ऐ उस्ताद मैं कौनसी नेकी करूँ ताकि हमेशा की ज़िंदगी पाऊं? आपने जवाब में फ़रमाया कि अगर तू कामिल होना चाहता है तो जा अपना माल व असबाब बेच कर ग़रीबों को दे तुझको आस्मान पर ख़ज़ाना मिलेगा।” (मत्ती 19:21) कलिमतुल्लाह ने फ़रमाया कि अदालत के रोज़ हर फ़र्द बशर का हिसाब रहम के उसूल पर लिया जाएगा। और आप नेक लोगों को मुख़ातब करके फ़रमाएँगे“ऐ मेरे बाप के मुबारक लोगो जो बादशाहत बना-ए-आलम के वक़्त से तुम्हारे लिए तैयार की गई है, उसे मीरास में लो क्योंकि मैं भूका था तुमने मुझे खाना खिलाया, मैं प्यासा था तो तुमने मुझको पानी पिलाया. मैं परदेसी था तो तुमने मुझे अपने घर में उतारा, मैं नंगा था तो तुमने मुझे कपड़ा पहनाया, बीमार था तुमने मेरी ख़बर ली, क़ैद में था तुम मेरे पास आए, तब रास्तबाज़ उस को जवाब में कहेंगे कि “ऐ मौला हमने कब आपको भूका देखकर खाना खिलाया या प्यासा देखकर पानी पिलाया? हमने कब आपको परदेसी देखकर घर में उतारा या नंगा देखकर कपड़ा पहनाया? हम कब आप बीमार या क़ैद में देखकर आपके पास आए? बादशाह जवाब में उनसे कहेगा मैं तुमसे सच कहता हूँ चूँकि तुमने मेरे इन सबसे छोटे भाईयों में से किसी एक के साथ ये किया इसलिए मेरे ही साथ ये किया।” (मत्ती 25:34)इस क़िस्म के मुहर्रिकात बाक़ी तमाम अदयान आलम (दुनिया के तमाम मजहबों) में मफ़्क़ूद (लापता) हैं। इन आयात में और इंजील के दीगर मुक़ामात में मुनज्जी आलमीन ने अपने आपको फिक्र व मस्कंत का मुजस्समा क़रार दे दिया और फ़रमाया कि जो लोग मुहताजों, बीमारों, यतीमों, क़ैदीयों, मज़्लूमों और बेकसों की ख़िदमत करते हैं। और उनके साथ नेक बर्ताव करते हैं। वो “मेरे ही साथ” करते हैं। ये मुहर्रिकात और मर्ग़बात किसी दूसरे मज़्हब में नहीं। यही वजह है कि वो लतीफ़ और नाज़ुक जज़्बात जो वालदेनी जिबिल्लत से मुताल्लिक़ हैं। मसीहीय्यत का जुज़्व-ला-वनीफ़क (वो हिस्सा जो अलैहदा ना हो सके) हो गए हैं।

ख़ुद मुनज्जी कौनैन की ज़िंदगी पर एक सतही निगाह डालो तो मालूम हो जाएगा कि जहां में आपने किसी मुसीबतज़दा बीमार, मफ़लूज, अंधे, लुंजे, कौड़ी को देखा। आपकी मुहब्बत जोश ज़न हुई और आपने उस को शिफ़ा बख़्शी। इस जिबिल्लत के मैदान-ए-अमल को आपने यहां तक वुसअत दी कि आपने दावत-ए-आम देकर अल-उल-ऐलान फ़रमाया “ऐ सब मेहनत उठाने वालो और बोझ से दबे हुए लोगो मेरे पास आओ मैं तुमको आराम दूँगा।” (मत्ती 28:11)

(2)

क़ुरआन में आया है, “तुम जो ख़ैरात देते हो या नज्र मानते हो। अल्लाह उस को जानता है और अगर तुम ख़ैरात को ज़ाहिर करके दो, तो अच्छी बात है और अगर उसे छुपाओ और फ़क़ीरों को दो ये तुम्हारे लिए और भी बेहतर है और इस से तुम्हारे बाअज़ गुनाह दूर हो जाएंगे।” (सूरह बक़रह 273, निसा 40 ता 43) ज़कात का माल सिर्फ़ मुहताजों और फ़क़ीरों के लिए है और उनके लिए जो उस के वसूल करने पर मुक़र्रर हैं और उनके लिए है जिनके दिल इस्लाम की तरफ़ राग़िब करने मंज़ूर हैं। और गर्दनों के छुड़ाने और क़र्ज़दारों और ख़र्च जिहाद और मुसाफ़िरों के लिए है।” (सूरह तौबा 60) माल अल्लाह अपने रसूल को बस्तीयों वालों से मुफ़्त दिलवा दे वो रसूल का और रसूल के क़राबत दारों का और यतीमों का और मुहताजों और मुसाफ़िरों का हक़ है।” (सूरह हश्र आयत 7) “जो शैय तुम लूट के लाए हो उस का पांचवां हिस्सा अल्लाह और रसूल और रसूल के रिश्तेदारों, यतीमों, और मुहताजों और मुसाफ़िरों के लिए है।” (सूरह अन्फ़ाल 42) “ऐ मुहम्मद तू यतीमों पर ज़ुल्म ना कर और ना साइल को झिड़क।” (सूरह ज़ुहा 9 नीज़ देखो बक़रह आयत 246 व 265 व 274 बनी-इस्राइल 31 वग़ैरह)

(3)

जिबिल्लत वालदेनी के मैदान-ए-अमल के वुसअत के मसअले पर ग़ौर करते वक़्त ये लाज़िम है कि इस बात की जांच पड़ताल की जाये कि ख़ैरात का सही मुसर्रिफ़ क्या है? और कौन उस के मुस्तहिक़ हैं। क़ुरआन इस मुआमले में एक निराली तज्वीज़ पेश करता है कि ज़कात का माल उन लोगों के लिए है जिन के दिल लालच देकर “इस्लाम की जानिब राग़िब करने मंज़ूर हैं।” (सूरह तौबा आयत 60) और ख़ैरात का माल जिहाद के अख़राजात को बर्दाश्त करने के लिए है। क्या लालच देकर मुसलमान बनाना और दुश्मनों पर जिहाद करने के लिए ख़र्च करना ख़ैरात को सर्फ करने का अच्छा तरीक़ा है? हर सहीह-उल-अक़्ल शख़्स इस का जवाब नफ़ी में देगा। इस के बरअक्स इंजील में वारिद हुआ है, “अगर तेरा दुश्मन भूका हो तो उसे रोटी खाने को दे अगर प्यासा हो तो उसे पानी पीने को दे।” (रोमीयों 12:20) क़ुरआन कहता है कि ख़ैरात के माल से दुश्मनों का क़िला क़ुमा कर दे। इंजील कहती है कि ख़ैरात के माल से भूके प्यासे दुश्मन जान तक का पेट पाल। नाज़रीन ख़ुद अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कौन सा मज़्हब जिबिल्लत वालदेनी के मैदान-ए-अमल को वुसअत (बढावा) देता है और इस जिबिल्लत के लतीफ़ और नाज़ुक जज़्बात को भड़काता है। कौनसा मज़्हब मुसीबत ज़दों का रफ़ीक़, बद-नसीबों का शफ़ीक़ और करीमाना इक़्तिज़ाओं का सरचश्मा है? इस्लाम या मसीहीय्यत? मसीहीय्यत हर पहलू से करीमाना और मुशफ़िक़ाना इक़्तिज़ाओं का मंबा है। चुनान्चे इंजील इस बात पर इसरार करती है कि जो ख़ैरात रहम और मुहब्बत के जज़्बात के बग़ैर की जाती है वो बेकार और बेसूद है। चुनान्चे लिखा है कि, “अगर कोई अपना सारा माल ग़रीबों को खिला दे और उनकी ख़ातिर अपना बदन भी जलाने को दे दे, लेकिन मुहब्बत ना रखे, तो उसे कुछ भी फ़ायदा नहीं।” (कुरंथियो 13:20)क़ुरआन में इस क़िस्म की ताअलीम मुतलक़ नहीं। पस इस नुक्ता निगाह से भी इस्लाम दीन फ़ित्रत के मेयार पर पूरा नहीं उतरता सिर्फ़ मसीहीय्यत ही दीन-ए-फ़ित्रत कहलाने की मुस्तहिक़ हो सकती है।

(4)

अगर नाज़रीन एक दफ़ाअ फिर इन इंजीली आयात का मुलाहिज़ा करें, जिनका इक़्तिबास बतौर मशे नमूना इज़ख़रवारे इस फ़स्ल में किया गया है। तो उन पर ज़ाहिर हो जाएगी कि मसीहीय्यत के मुहर्रिकात और मरग़बात इस्लाम में मफ़्क़ूद हैं। इंजील जलील में सय्यदना मसीह ने अपने आपको फिक्रो मस्कंत का मुजस्समा क़रार दे दिया और फ़रमाया कि जो लोग मुहताजों, बीमारों, यतीमों, क़ैदीयों, भूकों, प्यासों, ग़रीबों, मज़्लूमों, बेकसों, की ख़िदमत करते हैं। वो ख़ुद मसीह की ख़िदमत करते हैं। (मत्ती 25 बाब, मरक़ुस 9:36 वग़ैरह) ये मुहर्रिकात इस्लाम में नहीं हैं और ना हो सकते हैं। क्योंकि इस्लाम तक़्दीर के मसअले का क़ाइल है। तक़्दीर का मसअला इस्लामी अक़ीदे के जुज़्व-लाए-नफ़क है। (सूरह बनी-इस्राईल 14, क़मर 49, तलाक़ 3 वग़ैरह) नेकी और बदी ख़ुशहाली और मुसीबत ख़ुदा की तरफ़ से आते हैं, “हमको वही पहुंचेगा जो अल्लाह ने हमारे लिए लिखा है।” (तौबा आयत 51) चूँकि हमने मसअला तक़्दीर का ज़िक्र ज़्यादा तफ़्सील के साथ इसी रिसाले की फ़स्ल पंजुम में किया है। लिहाज़ा हम इस पर ही इक्तिफ़ा करते हैं, कि अल्लामा इक़बाल जैसा शख़्स, ये तस्लीम करने पर मज्बूर हो जाता है कि :-

“इस बात का इन्कार नहीं कर सकते कि तक़्दीर का अक़ीदा क़ुरआन के तारो पोद में मौजूद है।”

(Relegious Thought in Islam p.103)

इस क़िस्म के अक़ीदे में कोई शैय हमको मुसीबत ज़दों की तक्लीफ़ दूर करने लाचारों की मदद करने और मज़्लूमों की हिमायत करने की जानिब राग़िब नहीं कर सकती। इस के बरअक्स ये अक़ीदा इन बेकसों की जानिब से हमारे दिलों को सख़्त कर देता है। लेकिन जो मुहर्रिकात मसीहीय्यत से मख़्सूस हैं वो इस अम्र के मुक्ताज़ी हैं कि हम हर मुम्किन तौर से ऐसे लोगों की मदद करने पर हर वक़्त आमादा रहें। यही वजह है कि वो लतीफ़ और नाज़ुक जज़्बात जो वालदेनी जिबिल्लत से मुताल्लिक़ हैं। मसीहीय्यत का जुज़्व लानीफ़क हो गए हैं कि मुन्करीन तक को इन्कार की मजाल नहीं। चुनान्चेमशहूर मुल्हिद हक्सले (Huxley) कहता है कि :-

“सिर्फ बाइबल ही इब्तिदा से दौरे हाज़रा तक ग़रीबों और मज़्लूमों के हुक़ूक़ के मुहाफ़िज़ रही है।”

मसीही कलीसिया की तारीख़ इस बात की गवाह है कि तमाम नाज़ुक और लतीफ़ जज़्बात जिनका माख़ज़ वालदेनी जिबिल्लत है। मसीहीय्यत का तुग़रा-ए-इम्तियाज़ रहे हैं। मुअर्रिख़ लेकि हम को बतलाता है कि :-

“ग़ुलामों को आज़ाद करना, क़ैदीयों की ख़बर-गीरी करना, असीरों का फ़िद्या देना, ग़ुरबा पर्वरी करना, सख़ावत और ख़ैरात देना, ख़ुदकुशी तिफ़्ल कुशी और इस्क़ात-ए-हमल का ख़ातिमा करना, हुर्रियत और नफ़्स इन्सानी की वक़अत करना, बच्चों और औरतों का एहतिराम करना, अछूत अक़्वाम से मुसावात करना, उखुवत इन्सानी (इंसानी भाईचारे) का सबक़ सिखाना, ग़लाज़त और अमराज़ की इंसिदाद के लिए अस्पताल का खोलना, ज़ुल्म बंदिश बंद करना, काश्तकारों और मज़दूर पेशा लोगों से ग़ुलामाना सुलूक का मना करना, जहालत को रफ़ा करने के लिए ताअलीम का इंतिज़ाम करना वग़ैरह-वग़ैरह मसीहीय्यत के रोशन कारनामों में से हैं। क्योंकि ये तमाम बातें कलिमतुल्लाह की तालीम, ज़िंदगी और नमूने का नतीजा हैं।”

हर ज़माने और हर मुल़्क हर क़ौम और हर मिल्लत में जहां-जहां मसीहीय्यत गई। वहां कलीसिया ने इन बातों को अपने ज़िम्मे ले लिया और तमाम लतीफ़ और नाज़ुक जज़्बात का बीज बोकर बनी-नूअ इन्सान की बहबूदी और तरक़्क़ी की कूशां रही। बख़िलाफ़ इस के क़ैद और गु़लामी, औरतों की पस्त हालत बच्चों की जानिब से लापरवाही और ग़फ़लत तास्सुब और जहालत, लूट मार और ग़ारत वग़ैरह मसअला तक़्दीर की वजह से इस्लाम के हमदोश रहे। ये एक ऐसी रोशन हक़ीक़त है जिससे किसी मुअर्रिख़ को इन्कार की मजाल नहीं हो सकती। हत्ता कि अल्लामा सर इक़बाल को भी इस अम्र का इक़बाल है कि :-

“क़िस्मत और तक़्दीर का बदतरीन पहलू सदियों से दुनिया-ए-इस्लाम पर ग़ालिब रहा है।” (सफ़ा 104 ता 105)

नतीजा

इस फ़स्ल में हमने जिबिल्लत वालदेनी के मुख़्तलिफ़ पहलूओं पर बह्स की है और जिस पहलू से भी इस्लाम पर निगाह की है। वो दीन-ए-फ़ित्रत नज़र नहीं आया बख़िलाफ़ इस के हमने देखा कि मसीहीय्यत ही एक ऐसा वाहिद मज़्हब है। जो वालदेनी जिबिल्लत के हर तक़ाज़े को बतरज़ अहसन पूरा करता है। माओं और बच्चों के हुक़ूक़ की निगहदाश्त करता है। इन हुक़ूक़ की राह में जो रुकावटें हैं, उनका सद्द-ए-बाब (दरवाज़ा बंद) करता है। बच्चों और वालदैन को उनकी ज़िम्मेदारीयों और उनके फ़राइज़ से आगाह करता है। ख़ुदा की ज़ात और ख़ुदा और इन्सान के बाहमी रिश्ते के मुताल्लिक़ और बनी-नूअ इन्सान के मुताल्लिक़ ऐसी ताअलीम देता है। जो जिबिल्लत वालदेनी के ना सिर्फ मुताबिक़ है बल्कि इस पर मबनी है। यही एक मज़्हब है जो जिबिल्लत वालदेनी के मैदान-ए-अमल को बीस (20) सदीयों से मुख़्तलिफ़ ममालिक व अक़वाम में वुसअत देता चला आया है। लिहाज़ा मसीहीय्यत ही एक मज़्हब है जो अदयान आलम (दुनियां के मजहबों में) दीन-ए-फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ है।

फ़स्ल पंजुम

लड़ाकापन और ग़ुस्से की जिबिल्लत जंगजूई की जिबिल्लत की ख़सुसियात

हमारी फ़ित्रत की जिबिल्लतों का ये तक़ाज़ा है कि उनको पूरा किया जाये, और उनके पूरा करने की राह में कोई रुकावट ना हो। मसलन माँ-बाप की जिबिल्लत इस बात की ख़्वाहां है कि बच्चे की हिफ़ाज़त और परवरिश हो और इन्सानी फ़ित्रत इस बात पर मज्बूर है कि वो अपने बच्चे की हिफ़ाज़त करे और इस की हिफ़ाज़त की राह में कोई रुकावट ना हो। लेकिन जब रुकावट हाइल हो जाती है, तो ये हमारी फ़ित्रत में दाख़िल है कि हम में ग़ुस्सापन और लड़ाकापन पैदा हो जाता है। और हम इस रुकावट को दूर करना चाहते हैं। पस जब किसी फ़ित्रती इक़्तिज़ा की मुज़ाहमत होती है। तो इस मुज़ाहमत की वजह से ग़ुस्सा और लड़ाकापन की जिबिल्लत का ज़हूर होता है और ये जिबिल्लत उस चीज़ को दूर और ख़त्म कर देना चाहती है, जिससे फ़ित्रती इक़्तिज़ा के आज़ादाना फ़स्ल में रुकावट पड़ी थी। पस ज़ाहिर है कि इस जिबिल्लत की बरंगेख्तगी दूसरों की तहरीक पर मौक़ूफ़ है।

(2)

एक और बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि गुस्से की जिबिल्लत (फ़ित्रत) इसी क़द्र और इसी निस्बत से शदीद होती है जिस क़द्र रोके हुए इक़्तिज़ा की क़ुव्वत शदीद होती है मसलन अगर नर और मादा के ताल्लुक़ात में कोई शैय रुकावट का बाइस है, तो ग़ुस्सा और लड़ाकापन हमारी तबीयत में शिद्दत से पैदा होगा। ऐसी रुकावटों की वजह से रोज़मर्रा क़त्ल और ख़ून की वारदातें होती हैं। कमसिन बच्चों में इस जिबिल्लत की बरांगेख़्तगी अपनी ख़ालिस सूरत में ज़ाहिर होती है। मसलन जब छोटे बच्चों की किसी जिबिल्लत की आज़ादाना फे़अल में हम मुज़ाहम (रोकने वाला) होते हैं और उनको छेड़ते हैं। तो वो बरहम होकर मुंह खोल कर काटने को दौड़ते हैं।

(3)

मुख़्तलिफ़ अफ़राद और अक़्वाम में इस जिबिल्लत की ताक़त के एतबार से अज़ीम इख़्तिलाफ़ है। और तहज़ीब व नशो व नुमा से इस जिबिल्लत के इज़्हार के तरीक़ों में तग़य्युर हो गया है। चुनान्चे जों-जों इन्सान और अक़्वाम तरक़्क़ी करती हैं। उनमें ज़ब्त (क़ाबू) की ताक़त बढ़ती जाती है। उनके ख़यालात वसीअ हो जाते हैं। और जंगजूई की जिबिल्लत अपनी ख़ालिस उर्यानी (नंग) सूरत में ज़हूर पज़ीर नहीं होती, क्योंकि मुज़ाहमतों पर ग़ालिब आने के वसाइल ज़्यादा शाइस्ता हो जाते हैं।

(4)

इलावा अज़ीं इन्सानों और जमाअतों की ज़िंदगी में मुआशरती उमूर की तक्मील और निज़ाम जमाअत के लिए रक़ाबत का जज़्बा इस जिबिल्लत की जगह को ग़ज़ब करता जाता है यहां तक कि दुनिया के कारोबार के दस हिस्सों में से नौ हिस्सों का काम इसी रक़ाबत से चलता है। मसलन हमारा निज़ाम ताअलीम रक़ाबत के जज़्बे पर मबनी है इस की बरकत से अदबीयात और फ़नून में दिन-ब-दिन इज़ाफ़ा होता जाता है। चूँकि रक़ाबत के जज़्बा हौसलामंदी का असली जोहर है। लिहाज़ा इस जज़्बे का ज़हूर जंगजोई की जिबिल्लत में मुदाख़िलत करता है। हत्ता कि मुहज़्ज़ब अश्ख़ास और जमाअतों में ये जिबिल्लत मुहर्रिक ऊला नहीं रही। मुबारिज़त (लड़ाई) का जोश इन्सानों और क़ौमों को तबाह व बर्बाद कर देता है। लेकिन रक़ाबत का जज़्बा इज़्तिराब के साथ मुवाफ़िक़त रखता है। और इस का तिब्बी रुजहान फ़ना और बर्बादी की बजाय हिफ़ाज़त की जानिब है रक़ाबत का जज़्बा आला दर्जे की मुहज़्ज़ब जमाअतों का तुग़रा-ए-इम्तियाज़ है, जिसका नतीजा ये है कि जंगजूई के एवज़ मेहनत और दानिश की रक़ाबत होती है और सोसाइटी का रुहजान तिजारत और सनअ़त व हिरफ़त की रक़ाबत की तरफ़ हो जाता है।

(5)

अगर जंगजूई की जिबिल्लत का रुहजान दीगर जिबिल्ली मीलानात के अग़राज़ को हासिल करने की जानिब राग़िब किया जाये। तो ये जिबिल्लत निहायत तवानाई का मूजिब हो जाती है। इस के इक़्तिज़ा की ताक़त दूसरी जिबिल्लतों की इक़्तिज़ाओं को कुमक देती है और उनके साथ शरीक हो कर हमको इस क़द्र ताक़त देती है कि इन अग़राज़ के हासिल करने में हम मुश्किलात पर ग़ालिब आ जाते हैं।

लड़ाकापन की जिबिल्लत और दीन-ए-फ़ित्रत के लवाज़मात

मज़्कूर बाला सुतूर से ज़ाहिर है कि दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम है कि जंगजोई की जिबिल्लत की तर्बीयत करे ताकि इन्सानों में ये जिबिल्लत अपनी ख़ालिस उर्यां सूरत में मग़्लूब हो जाए और इन्सानी उमूर में ज़ब्त (क़ाबू) की ताक़त बढ़ जाये ताकि ये जिबिल्लत मुहर्रिक ऊला ना रहे। रक़ाबत का जज़्बा इस की जगह ग़ज़ब कर ले। दीन-ए-फ़ित्रत का काम है कि इस जिबिल्लत का रुहजान दीगर जिबिल्ली मीलानात के इक़्तिज़ाओं को हासिल करने की जानिब राग़िब करे ताकि अक़्वाम और अफ़राद तबाह व बर्बाद होने की बजाय तरक़्क़ी की शाहराह पर गामज़न हो सकें।

मसीहीय्यत और गु़स्सा

मसीहीय्यत हमको ताअलीम देती है कि लड़ाकापन और ग़ुस्से की जिबिल्लत (फ़ित्रत) का इस की उर्यानी (नंग-पन) में मुज़ाहरा मत करो। बल्कि ज़ब्त (क़ाबू) को काम में ला कर अपने जज़्बात पर क़ाबू हासिल करो। चुनान्चे किताब मुक़द्दस में लिखा है कि, “ग़ुस्से से बाज़ आओ और ग़ज़ब को छोड़ दो।” (ज़बूर 37:8)

“नर्म जवाब ग़ुस्से को दूर कर देता है।” (अम्साल 15:1) “वो जो क़हर करने में धीमा है पहलवान से बेहतर है और वो जो अपनी रूह पर ज़ाबित है इस से बेहतर है जो शहर को फ़त्ह कर लेता है।” (अम्साल 16:32) कलिमतुल्लाह ने फ़रमाया “तुम सुन चुके हो कि अगलों से कहा गया कि ख़ून ना कर लेकिन मैं तुमसे कहता हूँ कि जो कोई अपने भाई पर ग़ुस्सा होगा वो अदालत की सज़ा के लायक़ होगा। अगर तू क़ुर्बान गाह पर अपनी नज्र गुज़रानता है और वहां तुझे याद आए कि मेरे भाई को मुझसे कुछ शिकायत है, तो अपनी नज्र क़ुर्बानगाह के आगे छोड़ दे और जाकर पहले अपने भाई से मिलाप कर।” (मत्ती 5:21) पोलुस रसूल फ़रमाते हैं, “हर तरह की तल्ख़ मिज़ाजी और क़हर और ग़ुस्सा तुम से दूर हो जाएं।” (इफ़िसियों 4:31) “इंतिक़ाम ना लो बल्कि ग़ुस्से की राह छोड़ दो बदी से मग़्लूब ना हो बल्कि नेकी के ज़रीये बदी पर ग़ालिब आओ।” (रोमीयों 12:19) मुक़द्दस याक़ूब फ़रमाते हैं, “ऐ मेरे प्यारे भाइयों हर आदमी ग़ुस्से में धीमा हो क्योंकि इन्सान का ग़ुस्सा ख़ुदा की रास्तबाज़ी का काम नहीं करता।” (याक़ूब 1:19) पस ज़ाहिर है कि मसीहीय्यत ग़ुस्सा और जंगजोई की जिबिल्लत को उस की उर्यां (नंग) हालत में ज़ाहिर होने से रोकती है और इस पर क़ाबू पाने की तल्क़ीन करती है।

(2)

हम ऊपर बतला चुके हैं कि हमारी तबीयत में ग़ुस्सा उस वक़्त पैदा होता है जब हमारी फ़ित्रत की किसी जिबिल्लत के फ़ित्रती इक़्तिज़ा के पूरा होने में मुज़ाहमत और रुकावट हो इस ग़ुस्से का मक़्सद ये होता है कि इस रुकावट को दूर कर दे और मुज़ाहमत का ख़ातिमा कर दे। पस अगर ग़ुस्से का मक़्सद नेक होगा तो ग़ुस्सा जायज़ होगा लेकिन अगर इस का मक़्सद मंशा-ए-ईलाही के ख़िलाफ़ होगा तो ग़ुस्सा नाजायज़ और ममनू होगा। मसीहीय्यत जायज़ ग़ुस्से के ख़िलाफ़ नहीं। मसलन जब कोई किसी क़ाबिल-ए-रहम इन्सान को देखकर उस की लाचारी से नाजायज़ फ़ायदा उठाना चाहे या उस की मज़्लूमियत को देखकर मुहब्बत, रहम, तरस और हम्दर्दी की बजाय सख़्त दिली और ज़ुल्म का इज़्हार करे। तब हम जायज़ तौर पर उस से ग़ुस्सा हो सकते हैं। मसलन गुज़शता फ़स्ल में हमने देखा था कि मुनज्जी आलम के दुश्मन एक शख़्स को जिसका हाथ सूखा हुआ था नहीं चाहते थे कि वो सबत के रोज़ शिफ़ा पाए तो आपने उनकी सख़्त दिली के सबब ग़मगीं हो कर चारों तरफ़ उन पर ग़ुस्से से नज़र की और बीमार को तंदुरुस्त कर दिया। अगरचे आप के हक़ में इस का नतीजा सलीबी मौत ही हुआ। (मरक़ुस 3:66) आपकी जिबिल्लत वालदेनी के इस्तिमाल में आपके दुश्मनों की सख़्त दिली मुज़ाहम थी। इसी तरह एक दफ़ाअ जब आपके रसूलों ने बच्चों की तहक़ीर की तो आप ये “देखकर ख़फ़ा हुए” (मरक़ुस 10:14) क्योंकि वो इसी जिबिल्लत के इक़्तिज़ा के पूरा होने में मुज़ाहम हुए। किसी बीमार कमज़ोर और लाचार हस्ती को देखकर उस के साथ तरस, रहम, हम्दर्दी और मुहब्बत के साथ पेश आने की बजाय इस से लापरवाई, तहक्कुम, सख़्त दिली और बेरहमी से पेश आना ख़ुदा के मंशा के मुताबिक़ नहीं ऐसे हालात की वजह से कलिमतुल्लाह ने फ़रमाया है कि, “उन छोटों में से एक को ठोकर खिलाने की निस्बत ये बेहतर होता है कि ठोकर खिलाने वाले के गले में चक्की का पाट लटकाया जाता और वो समुंद्र में फेंका जाता।” (लूक़ा 17:2) आपने फ़किहियों और फ़रीसियों को बार-बार मुतनब्बाह फ़रमाया कि बेवाओं और यतीमों पर ज़ुल्म करने से एतराज़ करें। (लूक़ा 20:47) आपने तमसीलों के ज़रीये ग़ुरबा पर्वरी पर ज़ोर दिया (लूक़ा 16 बाब) जब आपने देखा कि ख़ुदा के घर में ग़रीब इबादत गुज़ारों की राह में रुकावटें डाली जाती हैं तो आप उनसे जो आपकी जान के लेवा थे निहायत ख़फ़ा हुए और इस बुराई को दूर करने की ख़ातिर आपने अपनी जान-ए-अज़ीज़ को ख़तरे में डाल दिया। (मरक़ुस 11:17۔18) आपका ग़ुस्सा आपकी मुहब्बत और हम्दर्दी का ज़हूर था। क्योंकि आपकी मुहब्बत इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी कि कमज़ोर और मज़्लूम हस्तीयों को तबाह और बर्बाद किया जाये। जब आपके दुश्मनों ने आपकी ज़ात मुबारक पर ज़ुल्म किया। तो आपने सब्र और मुहब्बत से उनके ज़ुल्म की बर्दाश्त की। जब उन्होंने आपको मस्लूब किया तो आपके मुँह से उनके लिए दुआ-ए-ख़ैर ही निकली। लेकिन आप ये बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि दूसरों पर ज़ुल्म और जबर रवा रखा जाये जब आप दूसरों पर ज़ुल्म होता देखते तो आपकी मुहब्बत जोश ज़न होती और आप ज़ालिमों पर अपना रास्त ग़ुस्सा ज़ाहिर करते। बाअज़ हालात मसीहीय्यत ने ग़ुस्से को जायज़ क़रार दिया है लेकिन यहां भी क़ैद लगा दी है। चुनान्चे मुक़द्दस पोलुस रसूल फ़रमाते हैं कि, “ग़ुस्सा तो करो मगर ग़ुस्से के दौरान गुनाह ना करो।” (इफ़िसियों 4:26) ऐसा ग़ुस्सा जिसमें गुनाह की आलाईश नहीं मसीहीय्यत ने जायज़ क़रार दिया है क्योंकि वो दिली मुहब्बत का इज़्हार है और इन्सान की बर्बादी और तबाही की बजाय हिफ़ाज़त और निगहबानी का काम करता है। ऐसे हालात में “इन्सान का ग़ुस्सा ख़ुदा की सताइश (हम्द) का बाइस होता है।” (ज़बूर 76:10)

गु़स्से की जिबिल्लत और क़िसास

इस क़िस्म के ग़ुस्से में और इंतिक़ाम के ग़ुस्से में बाद-उल-मुश्रक़ीन है। इंजील जलील में बदला, क़िसास, और इंतिक़ाम की सख़्त मुमानिअत की गई है। कलिमतुल्लाह ने फ़रमाया, “तुम सुन चुके हो कि कहा गया था कि आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत लेकिन मैं तुमसे ये कहता हूँ कि शरीर (बेदीन) का मुक़ाबला ना करना बल्कि जो कोई तेरे दहने गाल पर तमांचा मारे दूसरा भी उस की तरफ़ फेर दे।” (मत्ती 5:38) “अगर तुम आदमीयों के क़सूर माफ़ करोगे तो तुम्हारा आस्मानी बाप भी तुमको माफ़ करेगा और अगर तुम आदमीयों का क़सूर माफ़ ना करोगे तो तुम्हारा बाप भी तुम्हारे गुनाह माफ़ ना करेगा।” (मत्ती 6:14, 18:21, 18:35, मरक़ुस 11:25, लूक़ा 17:4 वग़ैरह) इब्ने-अल्लाह ने तम्सीलों के ज़रीये ये हक़ीक़त अपने मुक़ल्लिदीन (पैरवी करने वालों) के ज़हन नशीन की, कि हक़ीक़ी मज़्हब का मतलब ही ये है कि हक़ीक़ी उखुवत (असली भाईचारे) का अंदरूनी एहसास हो और ये कि बैरूनी बातें मसलन नमाज़ की अदायगी, ख़ैरात का देना वग़ैरह, इस अंदरूनी अफ़व के एहसास और मुहब्बत के बग़ैर बेमाअनी बातें हैं। (मत्ती 18:23) आपने अपनी ज़िंदगी और नमूने से दुश्मनों को माफ़ करने का सबक़ सिखाया। हत्ता कि जब आपके ख़ून के प्यासे आपको मस्लूब कर रहे थे और आप उनके दिल को पाश-पाश करने वाले तमस्सख़र और तअन व तशनी की आमाजगाह बने हुए थे। आपने उनको इस जांकनी की हालत में भी दुआ-ए-ख़ैर दी और कहा :- “ऐ बाप इनको माफ़ कर क्योंकि वो नहीं जानते कि वो क्या कर रहे हैं।” (लूक़ा 23:34) इस के बरअक्स जब रसूल अरबी के हक़ीक़ी चचा अबू-लहब और उस की बीवी ने आपको सताया तो आपने उनके हक़ में बददुआ की (सूरह लहब) जनाब मसीह के अफ़व और मुहब्बत के नमूने ने दुनिया को ऐसा मोह लिया है कि अब बनी-नूअ इन्सान किसी ऐसे शख़्स को हक़ीक़ी माअनों में जलील-उल-क़द्र मानने को तैयार नहीं जो आपके अफ़व के नमूने को इख़्तियार नहीं करता। हक़ तो ये है कि कलिमतुल्लाह ने अफ़व और मुहब्बत का नमूना सलीब पर ही नहीं दिखाया, बल्कि आपकी तमाम ज़िंदगी का एक-एक दिन दुश्मनों के तानों को सुनने और उनको माफ़ करने में गुज़रता था। (1 पतरस 4:13) एक आपको काफ़िर और दरोग़गो कहता। (मरक़ुस 2:7) दूसरा आपको पागल और दीवाना बतलाता। तीसरा कहता कि आप पेटू और शराबी हैं। कोई कहता था कि आपने नापाक शैतानी रूह के साथ साज़-बाज़ कर रखी है। कोई आपको गुनेहगारों का यार कह कर पुकारता ग़र्ज़ कि आपको हर तरह से “बेइज़्ज़त” किया जाता था। (मरक़ुस 6:4) लेकिन आप रहम और मुहब्बत मुजस्सम थे। आपने इन्ही दुश्मनों को हर तरह की बीमारी और बला से शिफ़ा बख़्शी। उनसे इंतिक़ाम लेने के बजाय उनको अपनी जाविदानी मुहब्बत के करिश्मे मोअजज़ात की सूरत में दिखाए और उनके जिस्म और रूह दोनों को नजात बख़्शी। कलिमतुल्लाह की नज़र में दुश्मनों के जिगर ख़राश ताने ये साबित करते थे कि उनकी रूहें और उनके ज़हन शैतान के क़ब्ज़े में हैं, जिसके पंजे से छुड़ाने की ख़ातिर आप इस दुनिया में आए थे। पस आपने बदी के एवज़ बदी ना की बल्कि हर एक से नेकी के साथ पेश आए। इंजील जलील की ताअलीम आपके नमूना का अक्स है। चुनान्चे वारिद हुआ है कि, “ऐ अज़ीज़ो इंतिक़ाम ना लो बल्कि अगर तेरा दुश्मन भूका है तो उस को खाना खिला अगर प्यासा है तो उसे पानी पिला बदी से मग़्लूब ना हो बल्कि नेकी के ज़रीये बदी पर ग़ालिब आ।” (रोमीयों 12:19, 1_थिस्स्लिनिकियों 5:15, अम्साल 24:29 वग़ैरह) कलिमतुल्लाह ने क़िसास (इन्तिक़ाम) के मुआमले में एक ज़रीन उसूल बनी-नूअ इन्सान के सामने पेश किया और फ़रमाया,कि जो कुछ तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें तुम भी वही उनके साथ करो (मत्ती 7:12) आप ने हुक्म दिया, अपने दुश्मनों से मुहब्बत करो अपने सताने वालों के लिए दुआ करो, ताकि तुम अपने बाप के जो आस्मान पर है बेटे ठहरो।” (मत्ती 5:44, लूक़ा 6:27, 1_कुरंथियो 4:12, ख़ुरूज 23:4 वग़ैरह)

(2)

इस ताअलीम के ख़िलाफ़ इस्लाम व क़ुरआन क़िसास और इंतिक़ाम की ताअलीम देता है। “मोमिनो मक़्तूलों का क़िसास तुम पर फ़र्ज़ किया गया है। आज़ाद के बदले आज़ाद, ग़ुलाम के बदले ग़ुलाम, औरत के बदले औरत, ऐ अक़्ल मंदो क़िसास में तुम्हारे लिए ज़िंदगी है।” (सूरह बक़रह आयत 173 ता 175) “जो तुम पर ज़्यादती करे तुम उस पर ज़्यादती करो, जैसे उसने तुम पर ज़्यादती की।” (सूरह बक़रह 190, माइदा 49) “जो तुम बदला दो तो इतना ही बदला दो जिस क़द्र तुमको तक्लीफ़ पहुंची है और जो तुम सब्र करो तो सब्र साबिरों के लिए ख़ूब है।” (सूरह नहल 127) “जो अल्लाह के पास है, वो ईमानदारों और उनके लिए जो अपने रब पर भरोसा रखते है, बेहतर और पायदार है। और जब उनको ग़ुस्सा आता है तो वो माफ़ कर देते हैं। और जब उन पर ज़्यादती होती है तो वो बदला लेते हैं और बदी का बदला उसी की मानिंद बदी है। फिर जिसने माफ़ किया और सुलह की तो इस का अज्र अल्लाह पर है। जो कोई ज़ुल्म सहने के बाद बदला लेगा, तो उन पर कोई राह मलामत नहीं है। (सूरह शूरा 34 ता 38)

(3)

बीसवीं सदी के आग़ाज़ में क़िसास (बदला लेने) की ताअलीम की वजह से इस्लाम को दीन-ए-फ़ित्रत कहा जाता था और मसीहीय्यत की ताअलीम को ख़िलाफ़-ए-फ़ित्रत क़रार दिया जाता था। लेकिन ख़ुद हिन्दुस्तान में हमारे ग़ैर-मसीही हम वतनों ने गुज़शता बीस (20) सालों में मिस्टर गांधी की ज़ेर क़ियादत सत्याग्रह (हुकूमत के ख़िलाफ़ पुर अमन तहरीक) की तहरीक के दौरान में सय्यदना मसीह की इस ताअलीम पर अमल पैरा हो कर ना सिर्फ हिन्दुस्तान बल्कि दुनिया जहान पर ये साबित कर दिया कि कलिमतुल्लाह की ये ताअलीम ना सिर्फ क़ाबिले अमल है बल्कि यही एक वाहिद तरीक़ा है जिससे मग़्लूब ग़ालिब पर हक़ीक़ी फ़त्ह हासिल कर सकता है। चुनान्चे लाहौर के मौलाना ज़फ़र अली ख़ान के अख़्बार ज़मीनदार ने इसी मज़्मून पर अपने एक मक़ाला में जे़ल के पुर ज़ोर अल्फ़ाज़ रक़म किए हैं :-

महकूमों के पास ज़ब्त (क़ाबू) और इंज़िबात (पैवस्तगी, ढंग, ज़ाबता) के साथ ईसार व क़ुर्बानी की मुत्तहदा ताक़त का मुज़ाहरा ही एक ऐसी चीज़ है जिसके आगे बड़ी से बड़ी जाह व जलाल और गुरूर वाली हुकूमत घुटने टेक देती है, और नियाज़ मंदाना दस्त-बस्ता महकूमों के आगे खड़ी हो कर उनकी आर्ज़ुओं को पूरा करना तख़्तोताज की बक़ा के लिए ज़रूरी समझती है।”

(17 नवम्बर 1929 ई॰)

पस कट्टर से कट्टर मुख़ालिफ़ीन मसीहीय्यत भी अब तजुर्बे करने के बाद इस बात का एतराफ़ करते हैं कि ये ताअलीम ऐन फ़ित्रत के मुताबिक़ है। क्योंकि जैसा हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं, फ़ित्रत का ये तक़ाज़ा है कि जों-जों इन्सान और अक़्वाम तरक़्क़ी की तरफ़ गामज़न होते जाते हैं। उनमें ज़ब्त (क़ाबू) की क़ुव्वत बढ़ती और क़िसास का माद्दा ज़ाइल होता जाता है। और मुज़ाहमतों पर ग़ालिब आने के वसाइल ज़्यादा शाइस्ता होते जाते हैं। पस क़िसास की ख़्वाहिश ये साबित करती है कि इंतिक़ाम चाहने वाले की तबीयत उस की हक़ीक़ी फ़ित्रत से कोसों दूर चली गई है और कि उस की नशव व नुमा ईलाही मंशा के मुताबिक़ नहीं हुई है। इस में शक नहीं कि नेकी के ज़रीये बदी पर ग़ालिब आने की, और बुरा कहने वालों को दुआ देने की और इंतिक़ाम के एवज़ माफ़ करने की ताअलीम ऐसी तबीयत रखने वालों के लिए मुश्किल है, लेकिन इस का सही ईलाज ये नहीं कि ताअलीम को कोसा और ख़्वाह-मख़्वाह ख़िलाफ़ फ़ित्रत कहा जाये, बल्कि सही ईलाज ये है कि तबीयत को सुधारा जाये ताकि वो अपनी असली फ़ित्रत पर आ जाए। ख़ुद क़ुरआन अफ़व और बर्दाश्त को “अहसन बात” क़रार देता है। और हम को बतलाता है कि बहिश्त में कीना और बुग़्ज़ ईमानदारों के दिलों में से निकाल दिए जाऐंगे। (सूरह आराफ़ 41, सूरह हिज्र 47) जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि कीना बुग़्ज़ और क़िसास (बदला लेने) की ख़्वाहिश बहिश्ती औसाफ़ नहीं। यानी वो ईलाही मंशा और इन्सानी फ़ित्रत के ख़िलाफ़ हैं। लेकिन अफ़व बख़्शिश और मुहब्बत के औसाफ़ ख़ुदा के इरादे और इन्सानी सरिश्त और फ़ित्रत के मुताबिक़ हैं।

पस क़िसास (इन्तक़ाम लेने) की क़ुरआनी ताअलीम साबित करती है कि इस्लाम दर-हक़ीक़त दीन फ़ित्रत नहीं। और अफ़व और मुहब्बत की इंजीली ताअलीम ही दरअस्ल फ़ित्रत के मुताबिक़ है।

(1)

लड़ाकापन की जिबिल्लत और जिहाद की ताअलीम

इस्लाम में लड़ाकापन की जिबिल्लत (फ़ित्रत) अपनी ख़ालिस उर्यानी (नंग) सूरत में ज़ाहिर होती है, चुनान्चे क़ुरआन में हुक्म है, “मुसलमानो ! जंग कुफ़्फ़ार के लिए जिस क़द्र तुमसे हो सके, क़ुव्वत और घोड़े बाँधने की तैयारी करो, ताकि ऐसा करने से तुम अपने दुश्मनों और ख़ुदा के दुश्मनों को डराओ और उनके सिवा तुम और लोगों को भी डराओ।” (अन्फ़ाल आयत 62) “ऐ नबी मुसलमानों को लड़ाई पर उभारो ! तुम में सौ हों तो हज़ार काफ़िरों पर ग़ालिब हों के।” (सूरह अन्फ़ाल 66) “मुसलमानो हल्के और बोझल हो कर निकलो और अपनी जान व माल से अल्लाह की राह में जिहाद करो।” (सूरह तौबा 41) “ऐ नबी ! काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों से लड़ाई कर और उन पर सख़्ती दिखला, उनका ठिकाना जहन्नम है।” (सूरह तौबा 74, तहरीम 9) “मुशरिकों को जहां पाओ क़त्ल करो और पकड़ो और घेरो और हर घात की जगह में उनके लिए बैठो।” (सूरह तौबा 5) “जब तुम काफ़िरों से भिड़ो, तो उनकी गर्दनें मारो यहां तक कि तुम उनमें ख़ूब ख़ूँरेज़ी कर चुको तब उनकी मश्कें बाँधो।”(सूरह मुहम्मद 4, बक़रह 245, सफ़ 4, तौबा 19 व 112, निसा 91, तौबा 5 व 11, अंबिया 112, हज 40 ता 44 व 54 व 77, तौबा 24,21, व 121, तूर 47, सज्दह 21, अन्कबूत 5, नम्ल 205?, मोमिनून 95 व 97 निसा 76, माइदा 59, निसा 73 ता 83 व 96 ता 97 वगैरह-वगैरह)

ऐसा मालूम होता है कि बाअज़ मुसलमानों को लड़ाकापन की जिबिल्लत (लड़ने की फ़ित्रत) का मुज़ाहरा इस की ख़ालिस सूरत में बहुत बुरा मालूम हुआ। लिहाज़ा क़ुरआन ऐसे अश्ख़ास को तादीब देता है और कहता है कि क़िताल (क़त्ल) तुम पर फ़र्ज़ हुआ। और वो तुमको बुरा मालूम होता है। लेकिन शायद तुम किसी चीज़ को बुरा समझो और वो तुम्हारे लिए बेहतर हो। और शायद तुम किसी चीज़ (यानी सुलह और मुहब्बत) वग़ैरह को पसंद करो। और वो तुम्हारे हक़ में बुरी हो? ख़ुदा जानता है और तुम नहीं जानते। (सूरह बक़रह 212) “पस तुम ऐ मुसलमानो ! इन काफ़िरों को यहां तक क़त्ल करो कि फ़ित्ना (यानी ग़लबा कुफ़्र) ना रहे, और सरासर ख़ुदा का दीन हो जाए।” (सूरह अन्फ़ाल 40)

कोई कहाँ तक क़ुरआनी आयात का इक़्तिबास करता जाये। जिनमें हुक्म है कि लड़ाकापन और ग़ुस्से की जिबिल्लत का उस की उर्यानी (नंगे-पन) सूरत में मुज़ाहरा किया जाये,इस्लाम ने ख़ुदा और मज़्हब के नाम पर जंग व क़िताल (क़त्ल) को जायज़ क़रार दिया हुआ है।आयात की आयात और सूरतों की सूरतें जिहाद के आदाब व अहकाम, जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) असीर (क़ैदी) औरतों की अस्मत, माल-ए-ग़नीमत की तक़्सीम, क़त्ल व ग़ारत के ज़िक्र से भरी पड़ी हैं। मुसलमानों को इस काम पर उभारने के लिए जो बेहतरीन मुहर्रिकात व मर्ग़बात क़ुरआन को मिले, वो इस जहान में असीर (क़ैदी) औरतें और माल-ए-ग़नीमत है और उस जहान में नामा-ए-बहिश्त यानी शराब और हूर व ग़लमान हैं।

(2)

जिहाद के मुताल्लिक़ क़ुरआनी आयात इस क़द्र कस्रत और सराहत व वज़ाहत से वारिद हुई हैं कि बीसवीं (20) सदी के मुस्लिहीन इस्लाम को बड़ी दिक़्क़त पेश आ गई है। इन मुस्लिहीन ने इंजील जलील से मुहब्बत का सबक़ सीख लिया है। अब उनकी ये कोशिश है कि क़ुरआन की ज़बान से भी मुहब्बत का सबक़ निकलवाएं। लिहाज़ा तमाम क़ुरआन को तलाश करने के बाद एक आयत उनके हाथ लगी, जिसमें मर्कुम है, “दीन में ज़बरदस्ती नहीं।” (सूरह बक़रह 257) इस आयत का सहारा लेकर वो इस बात को पेश करते हैं कि इस्लाम दीन के मुआमले में जबर को रवा नहीं रखता, लेकिन तारीख़ इस्लाम हमको बतलाती है कि ये आयत जंग बद्र से पहले की आयत है जो माबअ़द के क़ुरआनी अहकाम दरबारा जिहाद से मंसूख़ हो गई, चुनान्चे हुसैनी कहता है कि :-

हुक्में आयत बआयत क़िताल (क़त्ल) मंसूख़ अस्त”

शाह वली-उल्लाह भी हुज्जता-उल-बालग़ा बाब 73 में यही कहते हैं :-

बाअज़ मुस्लिहीन ये कहते हैं कि क़ुरआन की रू से मुख़ालिफ़ीन इस्लाम को मुन्किर इस्लाम होने की वजह से क़त्ल करना जायज़ नहीं।”

इस ख़्याल के जवाब में हम उनको अ़नान तवज्जा मुंदरजा-बाला आयात क़ुरआनी की तरफ़ मुनअ़तफ़ (मुड़ने वाला) करते हैं और उनसे दरख़्वास्त करते हैं, कि वो उनको ख़ाली-उल-ज़हन हो कर पढ़ें और ख़ुद फ़ैसला करें कि उनका उज़्र कहाँ तक माक़ूल है। बाअज़ ये उज़्र (बहाना) करते हैं कि आयात जिहाद का ताल्लुक़ अपनी हिफ़ाज़त के साथ है। लेकिन क़ुरआनी आयात के अल्फ़ाज़ और कुतुब अहादीस व सीर (सीरत) और इस्लामी तारीख़ सब के सब उस को उज़्र लंग (ग़लत और लगू उज़्र, बहाना) क़रार देते हैं।चुनान्चे तिबरी अपनी किताब में हमको बतलाता है कि :-

जब मुहम्मदﷺ देखते कि आपके अहकाम को कुफ़्फ़ार रद्द करते हैं, और वो आपकी निस्बत बदज़न हैं और बर्ज़ाद व रग़बत ख़ुद दीन इस्लाम में दाख़िल हो कर ख़ुदा के फ़ज़्ल से फ़ैज़याब नहीं होते, तो आपको इनकी ज़बरदस्ती दीन-ए-हक़ में दाख़िल कर लेते।”

यहां तिबरी वही लफ़्ज़ “इकराह” (اکراہ) इस्तिमाल करता है जो आयत ’’ لااکراہ فی الدین ‘‘ में आया है। इस्लामी शरीअत दुनिया को दो हिस्सों में तक़्सीम करती है। यानी दार-उल-इस्लाम और दार-उल-हर्ब। दार-उल-इस्लाम दार-उल-हर्ब से उस वक़्त तक लड़ेगा जब तक उस में एक शख़्स भी ज़िंदा रहेगा। और सारी दुनिया दार-उल-इस्लाम में दाख़िल ना होगी। मुस्लिहीन इस्लाम के लिए एक ही राह-ए-फ़रार है कि वो मिर्ज़ा क़ादियानी की तरह क़ुरआनी अहकाम जिहाद वग़ैरह को मंसूख़ क़रार दे दें। और ये कह दें कि ये आयात उन वक़्ती अहकाम में से हैं, जिनकी अब ज़रूरत नहीं रही। वर्ना क़ुरआन तो इस बात पर मिस्र (इसरार करने वाला) है कि, “मुसलमानों से अल्लाह ने उनकी जानें और माल बएवज़ बहिश्त (जन्नत के बदले) ख़रीद ली हैं, वो अल्लाह की राह में लड़ते हैं, फिर मारते हैं और मरते हैं।” (सूरह तौबा 112)

इंजील में भी है कि मसीह ने हमारी जानें अपना ख़ून बहा कर और अपनी बेशक़ीमत ज़िंदगी को निसार करके ख़रीद ली हैं। (आमाल 20:28) लेकिन दोनों ख़रीदारों के मक़ासिद में ज़मीन आस्मान का फ़र्क़ है, क़ुरआन में अल्लाह ने जानें ख़रीदी हैं ताकि मुसलमान लड़ें, मारें और मरें। लेकिन मसीह ने इस मक़्सद से ख़रीदी हैं ताकि ख़ून ख़रीदा “अपने बदन से ख़ुदा का जलाल ज़ाहिर करे।” (1-कुरंथियो 6:20) और “मसीह का ग़ुलाम हो कर आदमीयों का ग़ुलाम ना बने।” (1-कुरंथियो 7:23) ये जिहाद बानफ़्स है, “हम अगरचे जिस्म में ज़िंदगी गुज़ारते हैं मगर जिस्म के तौर पर लड़ते नहीं। इसलिए कि हमारी लड़ाई के हथियार जिस्मानी नहीं, हम हर एक ख़्याल को क़ैद करके मसीह का फ़रमांबर्दार बना देते हैं।” (2-कुरंथियो 10:3)

(3)

मसीहीय्यत इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) की इक़्तिज़ा को इन्सान की रुहानी तरक़्क़ी को तक्मील तक पहुंचाने में मदद लेती है। ताकि बनी-नूअ इन्सान शैतान और नफ़्स के साथ जंग करके उन पर ग़ालिब आएं। चुनान्चे इंजील शरीफ़ में वारिद है। “ईमान की अच्छी कुश्ती लड़ और हमेशा की ज़िंदगी पर क़ब्ज़ा कर ले।” (1 तिमीथियुस 6:12, याक़ूब 4:7 वग़ैरह) हमारी लड़ाई के हथियार जिस्मानी नहीं, बल्कि ख़ुदा के नज़्दीक क़ल्ओं को ढा देने के क़ाबिल हैं। चुनान्चे हम तसव्वुरात और हर एक ऊंची चीज़ को जो ख़ुदा की पहचान के बर-ख़िलाफ़ सर उठाए हुए है ढा देते हैं, और हर एक ख़्याल को क़ैद करके मसीह का फ़रमांबर्दार बना देते हैं।(2 कुरंथियो 10:4, 1-पतरस 5:8, इफ़िसियों 4:27, 1-तिमीथियुस 1:18 वग़ैरह) ख़ुदावंद में और उस की क़ुदरत के ज़ोर में मज़्बूत बनो। ख़ुदा के सब हथियार बांध लो। ताकि तुम इब्लीस के मन्सूबों के मुक़ाबले में क़ायम रह सको। क्योंकि हमको ख़ून और गोश्त से कुश्ती नहीं करनी, बल्कि शरारत की रुहानी फ़ौजों से इस वास्ते तुम ख़ुदा के सारे हथियार बांध लो। पस सच्चाई से अपनी कमर कस कर और रास्त बाज़ी का बक्तर लगा कर और पांव में सुलह की ख़ुश-ख़बरी की तैयारी के जूते पहन कर और इन सब के साथ ईमान की सिपर लगा कर क़ायम रहो, जिससे तुम इस शरीर (शैतान) के सारे जलते हुए तीरों को बुझा सको। नजात का ख़ुद और रूह की तल्वार जो ख़ुदा का कलाम है ले लो।” (इफ़िसियों 6:10) पस मसीहीय्यत जंगजूई की जिबिल्लत के इक़्तिज़ा को रुहानी तरक़्क़ी के हुसूल के लिए इस्तिमाल करती है। अमरीका का मशहूर आलिम नफ़्सियात प्रोफ़ैसर जेम्स क्या ख़ूब लिखता है कि :-

“दुनिया को जंग की ज़रूरत नहीं बल्कि जंग के अख़्लाक़ी मुतरादिफ़ की ज़रूरत है।”

पस मसीहीय्यत इस जिबिल्लत की रुहजान को ऐसे मक़्सद की जानिब राग़िब करती है जो मंशा-ए-ईलाही के मुताबिक़ है। और इस जिबिल्लत की फ़ित्रत का हक़ीक़ी तक़ाज़ा है, और यूं दीन-ए-फ़ित्रत की सलाहीयत रखने का सबूत देती है।

मसीहीय्यत और रक़ाबत का जज़्बा

इन्सानी मुआशरत की तारीख़ हमको बताती है कि जों-जों अक़्वाम तरक़्क़ी करती हैं ज़ब्त (क़ाबू) की क़ुव्वत बढ़ जाती है, और रक़ाबत का जज़्बा इन्सानों और जमाअतों की ज़िंदगी में जंगजूई की जिबिल्लत की जगह ग़ज़ब कर लेता है। मसीहीय्यत ने रक़ाबत के जज़्बे को भी इन्सान की रुहानी तरक़्क़ी के हुसूल की ख़ातिर इस्तिमाल किया और यूं दीन फ़ित्रत होने का सबूत दिया है। चुनान्चे मुक़द्दस पोलुस फ़रमाता है, “क्या तुम नहीं जानते कि मैदान में दौड़ने वाले दौड़ते तो सब ही हैं, मगर इनाम एक ही ले जाता है तुम भी ऐसे ही दौड़ो कि जीतो। हर पहलवान सब तरह का परहेज़ करता है, वो लोग, मुरझाने वाला सहरा पाने के लिए ये करते हैं मगर हम उस सहरे के लिए करते हैं जो नहीं मुर्झाता।” (1 कुरंथियो 9:25) “आओ हम हर एक बोझ और उस गुनाह को जो हमें आसानी से उलझा लेता है, दूर करके सब्र से दौड़ें जो हमें दरपेश है।” (इब्रानियों 12:1, ग़लतीयों 2:2, 5:7, फिलिप्पियों 2:16 वग़ैरह)

लड़ाकापन की जिबिल्लत और बनी-नूअ इन्सान की बहबूदी के लिए मसीही और इस्लामी मसाई

इस फ़स्ल के शुरू में हम लिख आए हैं कि अगर ग़ुस्सा और जंगजूई की जिबिल्लत का रुहजान देर जिबिल्ली मीलानात के अग़राज़ के हुसूल की जानिब राग़िब किया जाये। तो ये जिबिल्लत निहायत कार-आमद साबित होती है। दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम है कि इस जिबिल्लत की इक़्तिज़ा की तवानाई के ज़रीये दूसरी इक़्तिज़ाओं के हासिल करने में जो मुश्किलात सिर-ए-राह होती हैं, उन पर हम ग़ालिब आ जाऐं। मसीहीय्यत इस इक़्तिज़ा को बनी-नूअ इन्सान की फ़लाह व बहबूदी के लिए इस्तिमाल करती है। ताकि इन्सानी तरक़्क़ी की राह में जो रुकावटें हाइल हैं। वो दूर हो जाएं और ख़ुदा की बादशाहत दुनिया में क़ायम हो जाएगी। मसीहीय्यत ही का ये तुग़रा-ए-इम्तियाज़ है कि जहां वो ग़ुर्बत, इफ़्लास (ग़रीबी), नापाकी, पलीदगी, बदी, शरारत, ग़लाज़त, बीमारी, जहालत, क़बीह रसूम, या बुरे रिवाज वग़ैरह को देखती है। वो इस जिबिल्लत की इक़्तिज़ा का इस्तिमाल करके इन बुराईयों के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान कर देती है। मसीही स्कूल, अस्पताल, अंजुमनें, मजालिस, बैन-उल-अक़्वामी मुज़ाहिरे उनका क़िला-क़ुमा करने के लिए सफ़-आरा हो जाते हैं। और मुनज़्ज़म तौर पर उनको शिकस्त देने के लिए जिहाद करते हैं। हिन्दुस्तान की अछूत ज़ातों में, चीन व जापान के भूत-प्रेत मानने वालों में अफ़्रीक़ा की ख़ूँख़ार और मर्दुम ख़ौर वहशी अक़्वाम में ग़रज़ कि मसीहीय्यत ने रूए-ज़मीन की अदना-तरीन मुफ़्लिस तरीन, हक़ीरतरीन, रज़ील तरीन अक़्वाम को हर मुम्किन तौर पर और हर पहलू से बेहतर बनाने की कोशिश की। सिर्फ मसीहीय्यत की मसाई जमीला की वजह से दुनिया और बिल-ख़सूस हिन्दुस्तान तरक़्क़ी की शाहराह पर गामज़न है। ये एक ऐसी रोशन हक़ीक़त है जिससे किसी साहिब को इन्कार की मजाल नहीं। चुनान्चे मिस्टर एम॰ सी॰ राजा ने गुज़शता साल एसैंबली में अछूत अधार बल पर तक़रीर करते हुए कहा कि :-

“जुनूबी हिंद में अव्वल-अव्वल मसीही कलीसिया के मिशन स्कूलों ने अछूत ज़ात के तालिब-ए-इल्मों को मसाई और बराबर हुक़ूक़ अता किए।”

हिंदू धर्म हज़ारों सालों से हिन्दुस्तान में चला आया है, लेकिन उसने अछूतों को मुसावी हुक़ूक़ (बराबरी) ना दिए। चुनान्चे मिस्टर ऐम॰ के॰ मुंशी ने हिंदू युनिक मैन एसोसीएशन के ख़ुत्बे सदारत में कहा :-

“अछूत का ताल्लुक़ एक ख़ास निज़ाम से मुताल्लिक़ है। चूँकि हम इस निज़ाम की फ़िज़ा में रहते हैं, लिहाज़ा हम अछूत के घिनौने पन को बख़ूबी महसूस नहीं कर सकते। इस निज़ाम का ताल्लुक़ सोसाइटी की दर्जा-बंदी के साथ है, जो सदीयों से हमारे मुल्क में राइज है। इस निज़ाम के मुताबिक़ करोड़ों आदमी और औरतें इन्सान कहलाने के मुस्तहिक़ नहीं। ये निज़ाम इन्सानियत के ऐन मुतज़ाद है, और इस मुजरिमाना सुलूक का ज़िम्मेदार है, जो इन्सान अपने भाई इन्सान के साथ साल-हा-साल से करता चला आया है, ऐसे निज़ाम का ताल्लुक़ वहशयाना ज़माने के साथ है, लेकिन हम दौरे हाज़रा में एक नई दुनिया में बस्ते हैं, अब अफ़राद की क़द्र और मंजिलत ब-हैसियत अफ़राद के होती है, इन्सान किसी दूसरे मक़्सद की ख़ातिर आलाकार नहीं बनाया जा सकता। हम चाहते हैं कि हिन्दुस्तान एक तवाना और क़ौमी क़ौम बन जाये। जो शख़्स अछूत का आमी है, वो क़ौम का दुश्मन है। और दौरे हाज़रा में रहने के लायक़ नहीं। अगर हिंदू धर्म छूत के बग़ैर ज़िंदा नहीं रह सकता है और अगर उस के शास्त्रों के मुताबिक़ अछूत देवताओं का दर्शन भी नहीं कर सकते। तब हिंदू धर्म के ज़िंदा रहने का कोई हक़ हासिल नहीं। क्योंकि वो मज़्हब जिसकी बुनियाद इन्सानों के इम्तियाज़ पर है। दरहक़ीक़त तमाम मुक़द्दस पाकीज़ा लतीफ़ तसव्वुरात और जज़्बात के मुनाफ़ी (खिलाफ) है।”

(Trilume Feb 26 1934)

मिस्टर गांधी ने जुनूबी हिंद में दौरा करते वक़्त कहा कि :-

किसी शख़्स को मसीही अछूत कहना इज्तिमा अल-ज़द्दीन है।”

गुज़शता साल नवाब ज़वाल-क़द्र जंग बहादुर वज़ीर हुज़ूर निज़ाम ने एक तक़रीर के दौरान में कहा :-

“हुज़ूर निज़ाम की सरकार ने अपनी तमाम रियाया को एक ही नज़र से देखा है और इस बात की हमेशा ख़्वाहिशमंद रही है कि हर शख़्स को यकसाँ तौर पर मौक़ा दिया जाये।”

लेकिन आप ख़्याल कर सकते हैं कि सरकार निज़ाम के लिए अछूत ज़ातों के हक़ में हिंदूओं के नुक्ता निगाह ने मुश्किलात पैदा कर दी हैं, क्योंकि मज़्हबी उमूर में मुदाख़िलत करना सरकार के उसूल के ख़िलाफ़ है, इस का नतीजा ये है कि अगरचे हम इन बेचारों की तरफ़ से लापरवाह नहीं रहे। और हत्त-उल-इम्कान उनके ख़ैर-ख़्वाह रहे हैं। ताहम दरहक़ीक़त मसीही मुबल्लग़ीन की मसाई जमीला उनकी मौजूदा तरक़्क़ी की ज़िम्मेदार हैं। हिंदूओं की एक बड़ी तादाद के नुक्ता निगाह में जो तब्दीली वाक़ेअ हुई है, वो भी मसीहीय्यत के मिशनरियों की कोशिशों का नतीजा है। ख़्वाह हम इस हक़ीक़त को पसंदीदगी से देखें, या ना पसंद करें। हमको इस अम्र का एतराफ़ करना पड़ता है। और इस में रत्ती भर शक नहीं कि मुस्तक़बिल ज़माने के मौअर्रखीन मसीहीय्यत के मुबश्शिरों और मुबल्लिगों के मसाई का जो उन्होंने बनी-नूअ इन्सान की तरक़्क़ी की ख़ातिर की हैं, निहायत पुरज़ोर अल्फ़ाज़ में ज़िक्र करेंगे। (Guardian Feb/8/1934)

हिंदू मज़्हब इस मुल्क में हज़ारों सालों से चला आया है, इस्लाम सदीयों तक इस पर हुकमरान रहा, लेकिन जो काम मसीहीय्यत ने गुज़शता पचास साल के अंदर कर दिखाया है, वो इन मज़ाहिब से सदीयों में ना हो सका, और ना उन मज़ाहिब के दिल में इस काम का बेड़ा उठाने का ख़्याल तक आया। मसीही कलीसिया की देखा देखी इस्लामी अंजुमनें और हिंदू समाजें क़ायम हो गई हैं, लेकिन बावजूद अपनी अक्सरीयत और सरमाया-दारी के किसी काम को सर-अंजाम नहीं दे सकतीं, क्योंकि उनमें मसीहीय्यत के मुहर्रिकात मफ़्क़ूद हैं। इस्लाम तक़्दीर का क़ाइल है तक़्दीर इस के सफ़ ईमान का छटा जुज़्व है। अमंतब ’’ا الله وملائکہ وکتبہ ورسلہ وبالیوم الاخرہ والقدر خیر بشرہ من الله تعالیٰ والبعث بعد الموت ‘‘लिहाज़ा ये काम उस से किसी तरह भी सरअंजाम नहीं हो सकता। चुनान्चे तक़्दीर की निस्बत क़ुरआन में आया है कि, “हमारा हाल वही होगा, जो अल्लाह ने हमारे लिए लिखा है।” (सूरह तौबा 51) हर आदमी का परिंदा (तक़्दीर) अल्लाह ने उस की गर्दन में लटका दिया हुआ है। (बनी-इस्राईल 14) “हमने हर शैय एक अंदाज़ा से पैदा की है।” (सूरह क़मर 49) “अल्लाह ने अंदाज़े के मुताबिक़ पैदा किया, और उनकी तक़्दीर मुक़र्रर की।” (आला 2) “जब हम किसी बस्ती को हलाक करने का इरादा करते हैं, तो वहां के दौलत मंदों को हुक्म देते हैं, तब वो इस में ना फ़रमानी करते हैं, तब उन पर वाअदा अज़ाब साबित हो जाता है, फिर हम उनको उखाड़ फेंकते हैं।” (सूरह बनी-इस्राईल 17) “ख़ुदा ने तुम में से बाअज़ को बाअज़ पर जो फ़ज़ीलत बख़्शी है। तुम उस की तमन्ना ना करो।” (निसा 36, आला 1) “तुम किसी चीज़ को ना चाहोगे, जब तक खुदा ना चाहे, जिसको अल्लाह ने गुमराह किया, उस के लिए कोई राह नहीं।” (सूरह शूरा 45) “तू ऐ (मुहम्मद) कह दे कि सब कुछ ख़ुदा ही की तरफ़ से है, अगर उनको कोई भलाई पहुँचती है तो कहते हैं कि ये ख़ुदा की तरफ़ से है, और अगर उन पर कोई मुसीबत आती है तो कहते हैं कि (ऐ मुहम्मद) ये तेरी तरफ़ से है। तू कह सब भलाई और बुराई अल्लाह की तरफ़ से है। इस क़ौम को क्या हो गया है कि ये इतनी बात भी नहीं समझते? (सूरह निसा आयत 80) मिशकात बाब-उल-क़द्र में हज़रत अली से रिवायत है कि रसूल-अल्लाह ने फ़रमाया :-

“कोई बंदा मोमिन नहीं, जब तक वो चार चीज़ों पर ईमान ना लाए, यानी वो गवाही दे कि अल्लाह के सिवाए कोई हक़ीक़ी माबूद नहीं और मैं उस का बरहक़ रसूल हूँ। और वो ईमान लाए साथ मरने के और मरने के बाद जी उठने के और तक़्दीर पर ईमान लाए। ये तिर्मिज़ी और इब्ने माजा ने रिवायत की है। इब्ने उमर से रिवायत है कि रसूल-ए-ख़ूदा ने फ़रमाया कि हर चीज़ तक़्दीर के साथ है यहां तक कि नादानी और दानाई भी। ये मुस्लिम ने रिवायत की है।”

(मिश्कात बाब अल-क़द्र)

चूँकि इस्लाम तक़्दीर के क़ुरआनी मसअले का क़ाइल है लिहाज़ा वो गुमराहों, मक़हूरों, मग़ज़ूबों, बीमारों, मज़्लूमों वगैरह को उनकी क़िस्मत पर ही छोड़ देता है। यही वजह है कि गो इस्लाम हिन्दुस्तान में सदीयों तक हुक्मरान रहा, लेकिन उसने हिन्दुस्तान के बद-क़िस्मतों और बद-नसीबों के लिए कुछ ना किया। मसीहीय्यत तक़्दीर के मसअले की क़ाइल नहीं। लिहाज़ा वो मुख़ालिफ़ हालात के सामने ना उम्मीद हो कर मायूसी की हालत में हाथ पर हाथ रखकर बैठी नहीं रहती। बल्कि उनके ख़िलाफ़ लगातार जंग करके उन सिफली ताक़तों पर फ़त्ह हासिल कर लेती है, जो मज़्हब तक़्दीर के मसअले का क़ाइल है। वो सिरे से दीन-फ़ित्रत होने की सलाहीयत ही नहीं रखता। वो जिबिल्लत जंगजोई की इक़्तिज़ा को इन्सानी तरक़्क़ी के वसाइल मुहय्या करने की जानिब राग़िब ही नहीं कर सकता। हक़ तो ये है कि जिस तौर पर मसीहीय्यत जंगजोई की जिबिल्लत की इक़्तिज़ा को बनी-नूअ इन्सान की रफ़ाह आम और बहबूदी की ख़ातिर इस्तिमाल कर सकती है, वो किसी और मज़ाहिब से नहीं हो सकता। जनाब मसीह की ज़िंदगी पर ग़ौर करो, आपका हर मोअजज़ा तरस, रहम और मुहब्बत के जज़्बात के जोश ज़न होने का नतीजा था। कलिमतुल्लाह ने ये मोअजज़ात अपनी नबुव्वत और रिसालत या इब्नीयत को साबित करने के लिए नहीं किए। (मत्ती 12:38) बल्कि आपके मोअजज़ात आपकी मुहब्बत का क़ुदरती इज़्हार थे अगर कोई बीमार कौड़ी, मफ़लूज, अंधा, बहरा, गूँगा वग़ैरह आपके पास से गुज़रता तो आपकी मुहब्बत का इक़्तिज़ा ये था कि आप उस को शिफ़ा बख़्शें। पस जब मसीहीय्यत की नजात का कप्तान (इब्रानियों 2:10) और उस के वफ़ादार रसूल “अच्छी लड़ाई लड़े।” (2 तिमीथियुस 4:7) तो मसीही कलीसिया उनके नक़्श-ए-क़दम पर चल कर और “अपने ईमान के बानी और कामिल करने वाले मसीह” (इब्रानियों 12:2) से तौफ़ीक़ हासिल करके जहालत ग़लाज़त बीमारी, इफ़्लास (ग़रीबी), लाचारी वग़ैरह की अफ़्वाज पर हमला कर देती है।

नतीजा

हमने इस फ़स्ल में मसीहीय्यत की ताअलीम पर इस जिबिल्लत के मुख़्तलिफ़ पहलूओं की रोशनी में नज़र की है। हमने देखा है कि जिस पहलू से भी लड़ाकापन और ग़ुस्से की जिबिल्लत (फ़ित्रत) पर नज़र की जाये। मसीहीय्यत दीन-ए-फ़ित्रत होने का सबूत देती है। और इस्लाम किसी पहलू से भी दीन-ए-फ़ित्रत होने की सलाहीयत नहीं रखता। मसीहीय्यत जंगजोई की जिबिल्लत की तर्बीयत करती है और ज़ब्त (क़ाबू) की ताक़त को बढ़ाती है। ताकि ये जिबिल्लत अपनी उर्यानी सूरत में मुहर्रिक ऊला ना रहे। मसीहीय्यत सिर्फ जायज़ ग़ुस्से की इजाज़त देती है। और वो भी जब वो मुहब्बत का ज़हूर हो। लेकिन इस्लाम इंतिक़ाम और क़िसास (बदले) की ताअलीम देता है जिहाद की तरफ़ लोगों के जज़्बात को भड़काता है। इस के बरअक्स मसीहीय्यत जिहाद बिल-नफ़्स की तल्क़ीन करती है। जंगजोई के बजाय रुहानी रक़ाबत के जज़्बे को तरक़्क़ी देती है। बनी-नूअ इन्सान के हर तबक़े की फ़लाह और बहबूदी में हद दर्जे तक कूशां होती है। लिहाज़ा जहां तक इस जिबिल्लत का ताल्लुक़ है, सिर्फ मसीहीय्यत में ही ये सलाहीयत है कि वह दीन-ए-फ़ित्रत कहलाए।

फ़स्ल शशुम

इस्तिफ़सार की जिबिल्लत इस्तिफ़सार की जिबिल्लत की ख़ुसूसियात

इन्सानी फ़ित्रत में ये एक तिब्बी मीलान है कि जिस चीज़ को इन्सान नहीं जानता या जो शेय उस के लिए अजनबी या ग़ैर-मानूस और ग़ैर-मामूली होती है, उस की निस्बत वो तजस्सुस और इस्तिफ़सार (दर्याफ़्त करना, पूछ-गुछ) करता है। इस जिबिल्लत का ये इक़्तिज़ा है कि किसी ग़ैर-मालूम शैय की निस्बत इल्म बहम पहुंचाया जाये। इस जिबिल्लत के साथ ताज्जुब और हैरत का जज़्बा मख़्सूस है। और हर ऐसी चीज़ इस जिबिल्लत की मुहर्रिक हो सकती है, जो इन चीज़ों से जिनसे इन्सान मानूस है, मुशाबहत और इख़्तिलाफ़ दोनों रखती हो। मसलन अगर राह चलते किसी शख़्स को ऐसी चीज़ मिल जाये, जो उस के लिए अजनबी हो तो वो फ़ौरन उस की निस्बत ताज्जुब और इस्तिफ़सार (मालूमात) करता है, अपनी अक़्ल को दौड़ाता है ताकि उस को ये इल्म हो जाए कि वो शैय क्या है? नई बातें और नई चीज़ें इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) की खासतौर पर मुहर्रिक होती हैं। इसी जिबिल्लत की वजह से बच्चे हर ग़ैर-मानूस और ग़ैर-मामूली बात की निस्बत अपने बड़ों से सवाल पूछ कर उनका दम-नाक में कर देते हैं। बाज़-औक़ात जब वो इन सवालों का जवाब देने से आजिज़ हो जाते हैं, तो उनको झिड़क कर चुप करवा देते हैं। अदम इस्तिमाल की वजह से ये जिबिल्लत बड़ों में कमज़ोर हो जाती है, लेकिन अगर हम इस का इस्तिमाल जारी रखें, तो ये जिबिल्लत अक़्ली क़ुव्वत और ज़हनी मसाई (कोशिश) का सरचश्मा हो जाती है। इसी जिबिल्लत की तुफ़ैल हमारी अक़्ल-ए-रसा आस्मान और ज़मीन की बातें दर्याफ़्त करती है। नए नज़रिये जात क़ायम करती है। इसी जिबिल्लत की वजह से साईंस नई बातों को आए दिन दर्याफ़्त करती रहती है, जिनको सुनकर और देखकर हम दंग रह जाते हैं। इल्म और हुनर सनअ़त व हिरफ़त की तरक़्क़ी इस जिबिल्लत की कोशिशों का नतीजा है। इसी जिबिल्लत की वजह से इन्सान अपनी ज़िंदगी को मअरिज़ ख़तरे में डाल कर कभी कोह हिमालय की बुलंद तरीन चोटियों पर चढ़ने की कोशिश करता है और कभी क़ुतब-ए-शिमाली पर डेरा डालने की उमंग रखता है। तमाम आला तरीन बेग़र्ज़ अक़्ली कोशिशें इसी जिबिल्लत की इक्तिज़ा का नतीजा हैं।

(2)

जिस तरह इस जिबिल्लत (मालूमात की फ़ित्रत) को साईंस की एक अस्ल और जड़ तसव्वुर करना चाहिए, उसी तरह मज़्हब और दीनयात के मुआमले में भी ये जिबिल्लत अस्ल और जड़ का काम देती है। साईंस दीदनी अश्या की निस्बत ये तजस्सुस और इस्तिफ़सार करती है कि ये बैरूनी अश्या किस तरह, कहाँ, और कब वजूद में आईं। और मुख़्तलिफ़ जवाबों को एक निज़ाम में मुंसलिक करना चाहती है। मज़्हब अश्या की निस्बत इस अम्र का मुतजस्सिस है कि ये अश्या क्यों वजूद में आईं? इनका मब्दा और इंतिहा इनकी ग़र्ज़ और ग़ायत क्या है? फ़ित्रत का माफ़ोफ़क़-उल-फ़ितरत के साथ क्या ताल्लुक़ है? और इस ताल्लुक़ के क्या नताइज हैं वग़ैरह वग़ैरह। पस इन्सानी सरिश्त में इस जिबिल्लत को साईंस और मज़्हब दोनों की एक अस्ल और जड़ तसव्वुर करना चाहिए।

पस ज़ाहिर है कि जिस मज़्हब में अक़्ल को ये जाबिराना हुक्म दिया जाता है कि तुम हमारे मुआमलात में दख़ल ना दो, वो हर क़िस्म की तहक़ीक़ात और इज्तिहादात से मुत्मइन तो रहता है, लेकिन ऐसा मज़्हब फ़ित्रत के ख़िलाफ़ होता है। इस का नतीजा ये होता है कि एक शख़्स मन्तिक़ फ़ल्सफ़ा, रियाज़ियात, साईंस वग़ैरह में अजीब व ग़रीब ईजादात करता है। लेकिन जहां मज़्हब का ताल्लुक़ आया, उस की अक़्ल कुंदावर नुक्ता बीनी बिल्कुल बेकार पड़ जाती है। अक़्ल की मुतवातिर बेकारी की वजह से वो मज़्हब लगू अक़ाएद तुहमात और अजाइब परस्ती और ना-मुम्किनात का मजमुआ बन जाता है।

ये ज़ाहिर है कि इस्तिफ़सार की जिबिल्लत (मालूमात करने की फ़ित्रत) का रुहजान अदना, कम माया और बे-हक़ीक़त उमूर की जानिब राग़िब नहीं होना चाहिए। ये भी ज़ाहिर है कि हमको इस जिबिल्लत को ख़्वाह-मख़्वाह दबाना और रोकना भी नहीं चाहिए वर्ना इस से नुक़्सान अज़ीम पैदा होने का अंदेशा है। वाजिब ये है कि जब हमारे बच्चे हमसे मुख़्तलिफ़ क़िस्म के सवालात पूछें। तो हम उनको हत्ता-उल-इम्कान दुरुस्त और सही जवाब दें। हमको इस बात की कोशिश करनी चाहिए कि वो ऐसी बातों की निस्बत मुस्तफ़्सिर हों और उनकी जिबिल्लत इस्तिफ़सार ऐसी बातों की तरफ़ राग़िब हो जो कम माया और हीच ना हों, बल्कि उनके जिस्म, ज़हन और रूह की तरक़्क़ी का बाइस हों, ताकि जब वो बड़े हों तो वो इन उमूर पर ग़ौर करें। जो इन्सान की बहबूदी का बाइस हैं ताकि उनकी बेग़र्ज़ अक़्ली कोशिशों ने नौ- इन्सान तरक़्क़ी पाए। बच्चों को जवाब देने की बजाय उनको झिड़क देना और उनको ख़ामोश हो जाने का हुक्म देना और यूं इस्तिफ़सार की जिबिल्लत को दबाना फ़ित्रत के ख़िलाफ़ है।

जिबिल्लत तजस्सुस और दीन फ़ित्रत के लवाज़मात

पस दीन फ़ित्रत के लिए लाज़िम है कि इस्तिफ़सार की जिबिल्लत (मालूमात करने की फ़ित्रत) को मैदान-ए-अमल में आने की इजाज़त दे। अपने इख़्तियार के रोब से इस ख़ुदादाद जिबिल्लत को ना दबा जाये और ना रोके। बरअक्स इस के तजस्सुस व तफ़हस (तलाश) इस्तिफ़सार, ताज्जुब और हैरत के जज़्बात की नशव व नुमा और तरक़्क़ी में कूशां रहे। इस का ये भी काम है कि जिबिल्लत इस्तिफ़सार का रुहजान अदना, कममाया और हीच और बे-हक़ीक़त अश्या की तरफ़ से हटा कर अहम और ज़रूरी उमूर की जानिब राग़िब करे। और चूँकि मज़्हब का ताल्लुक़ आलम रूहानियात से है, लिहाज़ा लाज़िम है कि हम दीन-ए-फ़ित्रत के ज़रीये ख़ुदा की मार्फ़त (पहचान) हासिल कर सकें। पस दीन-ए-फ़ित्रत के उसूल ऐसे होने चाहिऐं, जिनको अक़्ले-सलीम ना सिर्फ क़ुबूल कर सके, बल्कि जिबिल्लत-ए-तजस्सुस को काम में लाकर इन उसूल का इतलाक़ मुख़्तलिफ़ ममालिक व अक़वाम के मुख़्तलिफ़ हालात पर कर सके।

(1)

जिबिल्लत तजस्सुस और मसीहीय्यत

जनाब मसीह के ज़माने में दीनी मुअल्लिमों का तबक़ा ज़्यादा-तर फ़रीसियों और फ़किहियों पर मुश्तमिल था। ये तबक़ा शरीअत और सहाइफ़ अम्बिया के इलावा कुतुब फ़िक़्ह पर इस क़द्र ज़ोर देता था (मत्ती 15:2, मरक़ुस 7:3, वग़ैरह) कि अवामुन्नास (आम लोगों) पर उन्होंने अरसा हयात को तंग कर दिया था। (लूक़ा 11:46) यहूदी उलमा का ये तबक़ा परले दर्जे का रुजअ़त (वापसी) पसंद वाक़ेअ हुआ था। इस्लाफ़ के अक़्वाल उनको अज़बर याद (ज़बानी याद कर लेना) थे। मुरव्वजा अक़ाइद से बाहर क़दम रखना उनके नज़्दीक गुनाह कबीरा से कम ना था। बात-बात पर वो मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) की सनद मांगते और पेश करते थे। जिबिल्लत इस्तिफ़सार और तजस्सुस को ज़ाइल (दूर होने वाला, कम होने वाला) करने में उन्होंने कोई दक़ीक़ा (मामूली बात, बारीकी) बाक़ी नहीं रख छोड़ा था। उनकी मिसालें वही थी :-

درپس آئینہ طوطی صفتم داشتہ اند آنچہ استاد ازل گفت ہماں میگویم

लेकिन इंजील जलील का सरसरी मुतालआ भी ग़बी से ग़बी (कम अक़्ल) शख़्स पर ज़ाहिर कर देता है कि कलिमतुल्लाह का तर्ज़-ए-कलाम इस क़िस्म का ना था। आप अवाम-उन्-नास (आम लोगों) के सामने जो अपनी ज़बान मोअजिज़ा बयान खोलते तो लोग बेसाख़्ता पुकार उठते कि उनको “फ़किहियों की तरह नहीं बल्कि साहिब-ए-इख़्तियार लोगों की तरह ताअलीम” देते थे। (मरक़ुस 2:7) आप ना तो किसी मुरव्वजा अक़ीदे का उस के रिवाज की बुनियाद पर लिहाज़ करते, और ना अस्लाफ़ की सनद का ख़्याल करते। आपकी नुक्ता-रस निगाह जिबिल्लत तजस्सुस को काम में लाकर सतही और ज़ाहिरी उमूर को नज़र अंदाज कर देती और बातिनी और रुहानी उसूल को मज़्बूती से थाम लेती। मसलन सबत के अहकाम, हराम, हलाल, ख़ुराक, और अश्या के अहकाम, रस्मी पाकीज़गी के अहकाम, औरत ब्याह और तलाक़ के अहकाम, वग़ैरह यहूद के साथ तमद्दुनी और मज़्हबी ताल्लुक़ात के अहकाम नमाज़, रोज़ा, ख़ैरात के अहकाम वग़ैरह-वग़ैरह पर नज़र करो। तो ज़ाहिर हो जाएगी कि कलिमतुल्लाह ने दुनिया-ए-अख़्लाक़ को एक तंग व तारीक चाह से निकाला जहां अख़्लाक़ीयात के उसूल ज़माने व मकान की क़ुयूद में जकड़े हुए थे और शरीअत और रसूम और फ़िक़्ह के “भारी बोझ” तले दब कर दम दे रहे थे। इब्ने अल्लाह ने अपने मसीहाई दम से इस नीम-मुर्दा बदन में रूह फूंक दी और उनको इस क़ाबिल बना दिया कि आलमगीर उसूल हो कर तमाम दुनिया पर ता-अबद हुक्मरानी करें।

(2)

कलिमतुल्लाह ना सिर्फ ख़ुद जिबिल्लत तजस्सुस व इस्तफ़सार को काम में लाते थे, बल्कि आपकी ये ऐन ख़्वाहिश थी कि आपके हवारीन और सामईन (सुनने वाले) भी इस ख़ुदादाद जिबिल्लत को काम में लाएं। और जो लोग ऐसा नहीं करते थे, उन की निस्बत आपने अफ़्सोस ज़ाहिर करके फ़रमाया, “वो देखते हैं लेकिन ताहम नहीं देखते, वो सुनते हैं ताहम नहीं सुनते, और नहीं समझते। उन्होंने अपनी आँखें बंद कर ली हैं, और कानों से ऊंचा सुनते हैं। ताकि कहीं ऐसा ना हो कि आँखों से मालूम कर लें और कानों से सुनें, और दिल से समझें।” (मत्ती 13 बाब) आपने अपने मुख़ालिफ़ीन को मुख़ातब करके फ़रमाया, “किताबे-मुक़द्दस को ढूंढ़ो।” (युहन्ना 5:39) और तलाश करने वालों की यूं हौसला-अफ़ज़ाई की कि “ढूंढ़ो तो पाओगे, दरवाज़ा खटखटाओ तो तुम्हारे वास्ते खोला जाएगा।” (लूक़ा 11:9) और कहा कि, “अगर कोई ख़ुदा की मर्ज़ी पर चलना चाहे, तो वो ताअलीम की बाबत जान जाएगा।” (युहन्ना 7:17) मुनज्जी आलमीन ने फ़रमाया कि, “राह हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ।” (युहन्ना 14:6) “हमेशा की ज़िंदगी ये है कि वो तुझ ख़ुदा-ए-वाहिद बरहक़ और ईसा-मसीह को जिसे तूने भेजा है जानें। जो कलाम तूने मुझे पहुंचाया वो मैंने उनको पहुंचा दिया और उन्होंने क़ुबूल कर लिया और सच जान लिया।” (युहन्ना 17 बाब) आपने शागिर्दों को फ़रमाया, “अगर तुम मेरे कलाम पर क़ायम रहोगे तो सच्चाई से वाक़िफ़ होगे, और सच्चाई तुमको आज़ाद करेगी।” (युहन्ना 8:31) पस इस ताअलीम के मुताबिक़ जिबिल्लत तजस्सुस व इस्तफ़सार (तहक़ीक़ व मालूमात की फ़ित्रत) “तमाम सच्चाई” की जुस्तजू में (युहन्ना 16:13) मुनज्जी आलमीन की रूह के ऐन मंशा के मुताबिक़ कारपर्दाज़ है। आँ ख़ुदावंद के वाअदे के मुताबिक़ रूह-ए-हक़ हमको तमाम सच्चाई की राह दिखाता है। (युहन्ना 16:13) क्योंकि “फ़ज़्ल और सच्चाई सि़र्फ मसीह की मार्फ़त हमको मिली।” (युहन्ना 1:17) मुनज्जी आलमीन की ताअलीम हमारी जिबिल्लत इस्तिफ़सार को राह सदाक़त में चला कर हमारी ताअ़लीम व तर्बियत करती है। (ज़बूर 25:5, 86:11) कलिमतुल्लाह की रूह ने हर ज़माने में हर मुल्क व कौम और मिल्लत को ईलाही मार्फ़त (खुदा की पहचान) बख्शी और उन अक़्वाम के सवालात काइन की ज़रूरीयात के मुताबिक़ जवाब दिया। (मरक़ुस 13:11, मत्ती 10:19 वग़ैरह)

(3)

किताब-मुक़द्दस जिबिल्लत तजस्सुस (मालूमात करने की फ़ित्रत) के इस्तिमाल पर जा-ब-जा ज़ोर देती है और इस के नेक नताइज से हमको आगाह करती है। मसलन हम ख़ुदा के घर में दाख़िल हों, तो वो अपनी राहें हमको बताएगा। (यसअयाह 2:3) “जिस तरह समुंद्र पानी से भरा है, उसी तरह ज़मीन ख़ुदावंद के इर्फ़ान से मामूर होगी।” (यसअयाह 11:9) “ख़ुदावंद फ़रमाता है कि जो फ़ख़्र करता है इस पर फ़ख़्र करे कि वो समझता है और जानता है कि मैं ही ख़ुदावंद हूँ जो दुनिया में शफ़्क़त व अदल और रास्तबाज़ी को अमल में लाता हूँ।” (यर्मियाह 9:24) “अहले दानिश नूर फ़लक की मानिंद चमकेंगे और वो जिनकी कोशिश से बहुतेरे सादिक़ हो गए हैं, सितारों की मानिंद अबद-उल-आबाद तक रोशन होंगे।” (दानी 12:13) “आओ हम दर्याफ़्त करें... और ख़ुदावंद के इर्फ़ान में तरक़्क़ी करें। उस का ज़हूर सुबह की मानिंद यक़ीनी है, ख़ुदा का इर्फ़ान क़ुर्बानीयों से ज़्यादा पसंदीदा है।” (होसीअ 6:3) मुक़द्दस पोलुस कहता है कि :-

“हम कामिलों में हिक्मत की बातें कहते हैं लेकिन इस जहान की और इस जहान के नेस्त होने वाले सरदारोँ की हिक्मत नहीं बल्कि हम ख़ुदा की वो पोशीदा हिक्मत बयान करते हैं जिसको इस जहान के सरदारोँ में से किसी ने ना समझा। हमने वो रूह पाया है जो ख़ुदा की तरफ़ से है ताकि उन बातों को जानें, जो ख़ुदा ने हमको इनायत की हैं। हम रुहानी बातों के ज़रीये रुहानी बातों का बयान करते हैं, मगर नफ़्सानी आदमी ख़ुदा के रूह की बातें क़ुबूल नहीं करता, क्योंकि वो रुहानी तौर पर परखी जाती है।” (1 कुरंथियो 2 बाब) पस ज़ाहिर है कि मसीहीय्यत हर एक शख़्स को हुक्म देती है, वो आज़ादाना इस्तिफ़सार (मालूमात) किया करे। “ऐ अज़ीज़ो हर एक रूह का यक़ीन ना करो, बल्कि रूहों को आज़माओ और परखो।” (युहन्ना 4:1, अय्यूब 34:4 वग़ैरह) “सब बातों को परखो और आज़माओ जो अच्छी है उसे पकड़े रहो।” (1-थिस्सलिनीकीयों 5:21, इफ़िसियों 5:10, 1-कुरंथियो 12:10, 14:29, मुकाशफ़ा 2:2 वग़ैरह) हिक्मत से घर तामीर किया जाता है, फ़हम से इस को क़ियाम होता है, इल्म से लतीफ़ व नफ़ीस होता है, दाना आदमी ज़ोर-आवर है और साहिब-ए-इल्म का ज़ोर बढ़ता रहता है। (अम्साल 24:3) “दानाई और तमीज़ की हिफ़ाज़त कर, उनको अपनी आँखों से ओझल ना होने दे। वो तेरी जान की हयात और तेरे गले की ज़ीनत होंगी।” (अम्साल 3:21) “तू हिक्मत की तरफ़ कान लगा फ़हम की तरफ़ दिल लगा अक़्ल को पुकार, और इस को ऐसा ढूंढ जैसे चांदी को, और इस की ऐसी तलाश कर जैसी पोशीदा ख़ज़ानों की, तो तू ख़ुदा की मर्ज़ी को हासिल करेगा। क्योंकि ख़ुदावंद हिक्मत बख़्शता है, इल्म व फ़हम उस के मुँह से निकलते हैं।” (अम्साल 2:3) “साहिबे फ़हम का दिल इल्म का तालिब है, पर अहमक़ों की ख़ुराक हिमाक़त है।” (अम्साल 15:14) “होशियार का दिल इल्म हासिल करता है, और दाना के कान इल्म के तालिब हैं।” (अम्साल 18:15) “ऐ ख़ुदा मुझे सही इम्तियाज़ और दानिश सिखला।” (ज़बूर 119:66 वग़ैरह) “ऐ ख़ुदा मुझे समझने वाला दिला अता कर ताकि मैं बुरे और भले में इम्तियाज़ कर सकूं।” (1-सलातीन 3:9) “ख़ुदावंद फ़रमाता है कि, “तूने मार्फ़त को रद्द किया, इसलिए मैं भी तुझे रद्द करूँगा। मेरे लोग अदम मार्फ़त से हलाक हुए।” (होसीअ 4:6) “हिक्मत तेरे दिल में दाख़िल हो, इल्म तेरी जान को मर्ग़ूब हो, तमीज़ निगहबान हो, फ़हम तेरी हिफ़ाज़त करे।” (अम्साल 2:10) “हिक्मत हासिल कर, फ़हम हासिल कर।” (अम्साल 4:5) “तहक़ीक़ और तफ़्तीश कर, दानिश अफ़्ज़ूँ होगी।” (दानीएल 12:4) ख़ालिक़ ने जिबिल्लत इस्तिफ़सार (तहक़ीक़ व मालूमात करने की फ़ित्रत) हमारे अंदर इस ग़रज़ से नहीं रखी कि इस का गला घोंट कर दबा दिया जाये। मुक़द्दस पोलुस इल्म और तजस्सुस व इस्तफ़सार को ख़ुदा की बख़्शिश और नेअमत क़रार देता है। (1 कुरंथियो 12:6) और फ़रमाता है, “तजुर्बे से इल्म हासिल करते रहो।” (इफ़िसियों 5:10) “नबियों के कलाम को परखो।” (1 कुरंथियो 14:29) इल्म की शेख़ी के ख़िलाफ़ ख़बरदार करके फ़रमाता है कि, “अगर कोई गुमान करे कि मैं कुछ जानता हूँ तो जैसा जानना चाहिए वैसा अब तक नहीं जानता, लेकिन जो कोई ख़ुदा से मुहब्बत रखता है, उस को वो पहचानता है।” (1 कुरंथियो 8:2) “ऐ भाईयों तुम समझ में बच्चे ना बनो, बल्कि समझ में जवान बनो।” (1 कुरंथियो 12:20) “उस वक़्त ख़ुदा से नावाक़िफ़ हो कर तुम उन माबूदों की गु़लामी में थे, जो अपनी ज़ात से ख़ुदा नहीं, मगर तुमने ख़ुदा को पहचाना और ख़ुदा ने तुमको पहचाना।” (ग़लतीयों 4:8) “तुम नादान बेसमझ मत बनो, बल्कि ख़ुदावंद की मर्ज़ी को समझो कि क्या है?” (इफ़िसियों 5:17) “तुमने नई इन्सानियत को पहन लिया है और जो ईलाही मार्फ़त हासिल करने के लिए अपने ख़ालिक़ की सूरत पर नई बनती जाती है।” (कुलस्सियों 3:10) “तुम तारीकी में नहीं हो क्योंकि तुम सब नूर के फ़र्ज़ंद और दीन के फ़र्ज़ंद हो और ख़ुदा ने हमको मुक़र्रर किया है कि हम अपने आक़ा व मौला सय्यदना ईसा-मसीह के वसीले से नजात हासिल करें।” (1 थिस्सलिनिकियों 5:4) “हमारा मुनज्जी ख़ुदा चाहता है कि सब आदमी नजात पायें और हक़ की मार्फ़त हासिल करें।” (1 तिमीथियुस 2:4 वग़ैरह) पाक नविश्ते तुमको मसीह पर ईमान लाने से नजात हासिल करने की मार्फ़त बख़्शते हैं। क्योंकि “हर एक सहीफ़ा जो ख़ुदा के इल्हाम से है ताअलीम और इल्ज़ाम और इस्लाह और रास्तबाज़ी में तर्बीयत करने के लिए फ़ाइदेमंद है। ताकि मर्द-ए-ख़ुदा कामिल बने, और हर एक नेक काम के लिए बिल्कुल तैयार हो जाएं। (2 तिमीथियुस 3:15 वग़ैरह-वग़ैरह)

(4)

तारीख़ इस अम्र की शाहिद है कि जिबिल्लत इस्तिफ़सार कलीसिया की ज़िंदगी में एक ज़बरदस्त क़ुव्वत रही है। इसने कलीसिया की तारीख़ में ताज्जुब की सूरत में काम किया है, जो मसीहीय्यत की तरक़्क़ी में हमेशा पेश पेश रहे हैं। इस लिहाज़ से तजस्सुस व इस्तफ़सार की जिबिल्लत (तहक़ीक़ व मालूमात की फ़ित्रत) कलीसिया के निज़ाम की हिफ़ाज़त करने वाली कुव्वतों में से रही है। कलीसिया की हैरत-अंगेज़ कामयाबी का राज़ इसी में मुज़म्मिर रहा है। और इस के शानदार फ़लसफ़ियाना और मुहक़्क़िक़ाना कारनामे इल्मी रुहजानात और ज़हनी मसाई इसी पर मौक़ूफ़ रहे हैं। मसीही कलीसिया ने हर ज़माने में हर क़ौम की ज़रूरीयात और मसाइल को हल करने और अक़ाइद को वज़अ़ करने के लिए इसी जिबिल्लत से मदद ली है। यहां तक कि हर मुल्क के बाशिंदे कलीसिया-ए-जामेअ को अपना हक़ीक़ी रुहानी घर समझने लगे। और सब ममालिक ने ख़ुदा के जलाल के इल्म को उस नूर की जानिब राग़िब किया जिसका मज़हर जनाब मसीह है। रूह हक़ की ज़ेर हिदायत कलीसिया-ए-जामेअ हर मुल्क और क़ौम के इल्म के ज़ेवर से हर ज़माने में आरास्ता और पैरास्ता होती हो गई। तारीख़ कलीसिया में गुज़शता दो हज़ार साल से अब तक कोई ज़माना ऐसा नहीं आया जब कलीसिया-ए-जामेअ इल्मी तरक़्क़ी के किसी ख़ास ज़ीना पर ठहर गई हो और उसने बुज़ुर्गान सल्फ़ के अक़्ली कारनामों पर नज़र करना ही ग़नीमत ख़्याल करके इस बात पर क़नाअत (जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) की हो कि मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) के इक्तिसाबात को ऐसा तसव्वुर कर ले कि वहां तक किसी के ज़हन की रसाई मुहाल है और अगर किसी एक मुल्क की कलीसिया के तारीक तरीन ज़माने में ऐसी बात हुई भी है तो तारीख़ इस बात की शाहिद है कि कलीसिया-ए-जामेअ के हक़ीक़ी रुहानी फ़रज़न्दों ने इस के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त एहतिजाज बुलंद करके उस तारीक ज़माने को इल्म की रोशनी से मुनव्वर कर दिया है।

(5)

मसीही अक़ाइद पर नज़र करो, तो उनको अक़्ल-ए-सलीम के तक़ाज़ाओं के मुताबिक़ पाओगे। मसीहीय्यत का अस्ल-उल-उसूल ये है कि :-

“ख़ुदा हमारा बाप है।”

(मत्ती 6:9, 5:45, 6:26, 6:32, 23:9, लूक़ा 6:36, 12:32 रोमीयों 1:7, 1-कुरंथियो 8:6, 2-कुरंथियो 1:3, इफ़िसियों 2:18, 2:6, इब्रानियों 1:5, याक़ूब 1:17, 1-युहन्ना 1:3, 3:1 वग़ैरह-वग़ैरह)

“ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है।”

(1-युहन्ना 2:8, 4:16, 1-कुरंथियो 13:11, युहन्ना 3:16, 14:23, 2-थिस्सलिनिकियों 2:16 वग़ैरह-वग़ैरह)

“कुल बनी-नूअ इन्सान ख़ुदा का कुम्बा है।”

(युहन्ना 1:12, ग़लतीयों 3:26, रोमीयों 8:14-16)

“जिन पर लाज़िम है कि एक दूसरे से मुसावात और मुहब्बत का सुलूक करें।”

(मत्ती 5:44-48, 22:39, 7:12, लूक़ा 10:25-37 युहन्ना 13:34, 15:17, 13:18, इफ़िसियों 5:2, 1-पतरस 1:22, 1-युहन्ना 2:10, 3:11-23, 4:7-12, 4:20-21 वग़ैरह-वग़ैरह)

चूँकि ख़ुदा मुहब्बत है, और उस की मुहब्बत ये तक़ाज़ा करती है कि उस का गुनेहगार फ़र्ज़ंद अपने गुनाहों को तर्क करके उस की तरफ़ दुबारा रुजू करे। पस जिस तरह एक बाप अपने गुम-गश्ता फ़र्ज़ंद की तलाश में रहता है। उसी तरह ख़ुदा की मुहब्बत गुनेहगारों की तलाश करती है। (हज़िकीएल 34:11, लूक़ा 15 बाब, 1-पतरस 2:25, लूक़ा 19:10, मत्ती 9:13, युहन्ना 10:28 वग़ैरह)

क्योंकि “बाप की जो आस्मान पर है ये मर्ज़ी नहीं कि इनमें से एक भी हलाक हो।” (मत्ती 18:14)

सय्यदना मसीह कलिमतुल्लाह है जो बाप की ज़ात को हम पर ज़ाहिर करता है। पस इब्ने अल्लाह के ज़रीये और उस के वसीले हमको बाप की मुहब्बत का इल्म होता है।

(युहन्ना 1:1, 1:18, मत्ती 11:27, युहन्ना 17:26, 14:9, 12:45, कुलस्सियों 1:15, इब्रानियों 1:3 वग़ैरह)

“पस हम उस पर ईमान लाकर अबदी ज़िंदगी हासिल करते हैं।”

(युहन्ना 17:3, 1:4, 3:16, 3:26, 4:14, 5:20, 6:35, 6:40, 6:47-48, 8:12, 10:10, 11:25, 14:6, रोमीयों 6:23, 1-युहन्ना 1:2, 3:14, 5:11-13 वग़ैरह)

उस के फ़ज़्ल से तौफ़ीक़ हासिल करके हम अपने गुनाहों की गु़लामी से नजात हासिल करते हैं।

(मत्ती 1:21, युहन्ना 12:47, 1-तिमीथियुस 1:15, तीतुस 3:5, इब्रानियों 7:25, मत्ती 11:28, युहन्ना 7:37, रोमीयों 5:12, 6:23 वग़ैरह-वग़ैरह)

मज़्कूर बाला अक़ाएद मसीहीय्यत की इसास (बुनियाद) हैं। कोई सलीम-उल-अक़्ल शख़्स इन अक़ाएद को अक़्ल के ख़िलाफ़ क़रार नहीं देगा। मसीही कलीसिया मुख़्तलिफ़ ममालिक और मुख़्तलिफ़ अज़्मना में इन बुनियादी उसूलों की हर मुल्क और ज़माने के इल्म की रोशनी में तौज़ीह और तशरीह करती आई है। जिबिल्लत तजस्सुस व इस्तफ़सार (मालूमात व तहक़ीक़ करने की फ़ित्रत) ने मसीही कलीसिया की तारीख़ में एक निहायत ज़बरदस्त हिस्सा लिया है। मसीहीय्यत के शानदार नज़रिये जात और फ़लसफ़ियाना ख़यालात इसी जिबिल्लत का नतीजा हैं।

सुतूर बाला से रोशन हो गया होगा कि मसीहीय्यत जिबिल्लत इस्तिफ़सार के इक़्तिज़ाओं (तक़ाज़ों) को बतर्ज़ अहसन पूरा करती है। इस का रुहजान बे-हक़ीक़त और हिच उमूर से हटाकर इस की क़ुव्वत और तवानाई को आला मक़ासिद की जानिब राग़िब करती है। ख़ुदा की मुहब्बत का इल्म और उस की मार्फ़त बख़्शती है। आलमे रूहानियत के उसूल का कमा-हक़्क़ा तौर पर इल्म देती है। इस के उसूल और अक़ाएद ऐसे हैं कि जिनको अक़्ल-ए-सलीम को क़ुबूल किए बग़ैर चारा नहीं। पस जहां तक इस जिबिल्लत का ताल्लुक़ है, मसीहीय्यत दीन फ़ित्रत है।

जिबिल्लत तजस्सुस और क़ुरआन की ताअलीम

चूँकि इस्लाम में तमाम बातों और सवालों के फ़ैसलों का दारो-मदार क़ाल-अल्लाह और क़ाल-उल-रसूल (अल्लाह का फरमान और नबी का फरमान) पर होता है। लिहाज़ा इस्लाम में सिरे से ये सलाहीयत ही मौजूद नहीं कि इस में तजस्सुस व इस्तफ़सार की जिबिल्लत (तहक़ीक़ व मालूमात करने की फ़ित्रत का इस्तिमाल) नशव व नुमा पा सके, या उस का मैदान-ए-अमल वसीअ हो सके। चुनान्चे क़ुरआन में आया है कि :-

“जिस बात का तुझे इल्म नहीं, उस के दर पे मत हो। बेशक कान और आँख और दिल इन सबकी इस से परस्तिश (पूछ) होगी, ज़मीन पर इतराता हुआ ना चल, ना तू ज़मीन फाड़ सकता है, और ना पहाड़ों की बुलंदी को पहुंच सकता है, इन सब बातों की बुराई तेरे रब को नापसंद है।”

(बनी-इस्राईल 38 ता 40)

पस क़ुरआन जिबिल्लत इस्तिफ़सार (तहक़ीक़ व मालूमात करने की फ़ित्रत) के तक़ज़ाओं के ख़िलाफ़ है, ये बातें रब को ना पसंद हैं, लेकिन बक़ौल डाक्टर सर मुहम्मद इक़बाल :-

“आज़ादाना तहक़ीक़ फ़ल्सफ़ा की रूह-ए-रवाँ है। और तहक़ीक़ हर क़िस्म के इख़्तियार को मशकूक निगाहों से देखती है। साईंस से ज़्यादा मज़्हब को इस बात की ज़रूरत है कि इस के अक़ाइद की बुनियाद अक़्ल पर रखी जाये।”

(Relegious Thought in Islam pp.102)

लेकिन इस्लाम में ’’ اطیعوا لله وطیعوا الرسول ‘‘ हर तरह के तजस्सुस और इस्तिफ़सार और ताज्जुब और हैरत के जज़्बात का आख़िरी और क़तई जवाब है। (सूरह आले-इमरान 29 व 126, अन्फ़ाल 48, मुहम्मद 35 वग़ैरह) “इस के बाद किसी मोमिन मर्द को दम मारने की गुंजाइश नहीं रहती, “जो कोई सच्ची राह खुल जाने के बाद फिर पैग़म्बर के ख़िलाफ़ करे हम उस को दोज़ख़ में डाल देंगे।” (सूरह निसा 115 व 17 व 62 तौबा 64, अन्फ़ाल 13 वग़ैरह)) “मोमिनो अल्लाह और उस के रसूल की इताअत करो। और उस से मुँह ना मोड़ो, हालाँकि तुम सुनते हो। और उनकी मानिंद मत बनो जो कहते हैं कि हमने सुना और नहीं सुनते।” (सूरह अन्फ़ाल 20) “जो लोग पैग़म्बर का हुक्म नहीं मानते और उनको डरना चाहिए कि दुनिया में उन पर मुसीबत ना आन पड़े। या कोई तक्लीफ़ का अज़ाब उन पर पहुंचे।” (सूरह नूर आयत 63, हश्र आयत 7, जिन 24, अन्फ़ाल 1 व 24, आराफ़ 158 वग़ैरह) “अल्लाह ने जो किताब तुझ पर नाज़िल की है, उस की बाअज़ आयात पक्की हैं और दूसरी आयात ऐसी हैं जो मुश्तबा मअनी की हैं। जिनके दिल में कजी है, वो फ़ित्ना और तावील की तलाश उन मुश्तबा मअनी की निस्बत इस्तिफ़सार (तहक़ीक़) करते हैं। हालाँकि उनकी तावील अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता। लेकिन जो पक्के आलिम हैं वो कहते हैं कि हम उन सब पर ईमान लाए, जो हमारे रब की तरफ़ से है।” (सूरह आले-इमरान 5) “ईमान वालों की बात तो ये है कि जब वो अल्लाह और उस के रसूल की तरफ़ बुलाए जाएं, कि वो किसी बात की निस्बत फ़ैसला करे तो कहें कि हमने सुना और हुक्म माना।” (सूरह नूर 50) “जब अल्लाह और उस का रसूल कोई बात मुक़र्रर कर दे तो किसी ईमानदार मर्द या औरत का काम नहीं कि (इस में) चोन-विचरा करे (या इस की निस्बत सवाल करे) क्योंकि (इस मुआमले में) इनका कोई इख़्तियार नहीं रहता।” (सूरह अह्ज़ाब 36) पस क़ुरआनी ताअलीम के मुताबिक़ हर मसअले का क़तई जवाब क़ाल-अल्लाह और क़ाल-उल-रसूल (अल्लाह का फरमान और उसके रसूल का फरमान) है। अगर किसी सवाल के जवाब में ये मालूम हो जाए कि क़ुरआन व हदीस इस की निस्बत क्या कहते हैं तो फिर चोन व चरा की गुंजाइश नहीं रहती। हर कि शक आरो काफ़र्र गुर्दो। मसलन अगर कोई मुसलमान जिहाद की निस्बत ये दर्याफ़्त करे, कि कुफ़्फ़ार का क़िताल क्यों जायज़ है तो क़ुरआन के मुताबिक़ वो अपनी जिबिल्लत इस्तिफ़सार (फ़ित्रत तहक़ीक़) को काम में ला कर ये पूछने का मजाज़ नहीं कि अल्लाह और रसूल ने ऐसे अहकाम क्यों सादिर किए? ये काफ़ी है कि अल्लाह ने ये हुक्म दिया है, चुनान्चे क़ुरआनी इर्शाद है, “क़िताल तुम पर फ़र्ज़ किया गया, और वो तुमको बुरा मालूम होता है। और शायद तुम किसी चीज़ को बुरा समझो, और वह तुम्हारे लिए बेहतर हो और शायद तुम किसी चीज़ को पसंद करो और वो तुम्हारे हक़ में बुरी हो ख़ुदा जानता है और तुम नहीं जानते।” (बक़रह 212)

मिशकात बाब अल-क़द्र में अबू हुरैरा से रिवायत है कि :-

“एक दिन आँहज़रत आए, जबकि हम तक़्दीर के मुआमले में बह्स कर रहे थे। आप का मुंह लाल हो गया कि गोया किसी ने आपके चेहरे पर अनार निचोड़ दिया है। आपने कहा कि क्या तुमने इस मुआमले में हुक्म दीए गए हो और क्या मैं तुम्हारी तरफ़ इसीलिए रसूल हो कर आया हूँ? तुमसे पहले लोग इसी लिए हलाक हुए, कि वो इस मसअले पर बह्स किया करते थे। मैं तुमको क़सम देकर कहता हूँ कि ख़बरदार इस मुआमले में तुम कभी बह्स ना करना।”

इस को तिर्मिज़ी और इब्ने माजा ने रिवायत किया है।

पस किसी मोमिन मुसलमान का काम नहीं है कि वो किसी दीनी मसअले के मुताल्लिक़ सवाल पूछे। इस का सर-ए-तस्लीम ख़म करना है और बस। और इस्लाम तो नाम है सर-ए-तस्लीम ख़म करने का।

مژہ برہم مزن تا نشکنی رنگ تماشا را

मुम्किन है कि हमारे मुसलमान बिरादरान ये ख़्याल करें कि इज्तिहाद (फ़िक़्ह इस्लामी की इस्तिलाह में क़ुरआन व हदीस और इज्मा पर क़ियास करके शरई मसाइल का अख़ज़ करना) और मुज्तहिदों का वजूद ये साबित करता है कि इस्लाम में जिबिल्लत तजस्सुस व इस्तफ़सार (तहक़ीक़ व मालूमात करने की फ़ित्रत) कार फ़र्मा रही है। लेकिन :-

अव्वल : क़ुरआन में इज्तिहाद का कोई हुक्म नहीं।

दोम :बफ़र्ज़ मुहाल अगर किसी क़ुरआनी आयत पर जबर करके इस से इज्तिहाद की सनद ली भी जाये, तो मुज्तहिद क़ुरआन व हदीस की हदूद के अंदर ही इज्तिहाद कर सकता है। क़ुरआनी अहकाम का जायज़ या नाजायज़ होने के मुताल्लिक़ वो अपनी जिबिल्लत इस्तिफ़सार को काम में नहीं ला सकता।

सोम :: इलावा-अज़ीं अहले इस्लाम में सन हिज्री के ढाई सौ साल के बाद यानी गुज़शता ग्यारह सौ साल से कोई मुज्तहिद (जद्दो-जहद या कोशिश करने वाला) पैदा नहीं हुआ। क्योंकि उस वक़्त से इज्तिहाद का दरवाज़ा बंद हो गया हुआ है। चुनान्चे अल्लामा सर मुहम्मद इक़बाल लिखते हैं :-

“अहले सुन्नत-वल-जमाअत में मुज्तहिदों मुतलक़ के वजूद के इम्कान का इक़बाल तो किया जाता है। लेकिन दरहक़ीक़त जब से मज़ाहिब अरबिया क़ायम हो गए हैं ऐसे इज्तिहाद का हमेशा इन्कार ही किया गया है, क्योंकि इस क़िस्म के इज्तिहाद के साथ ऐसी ना-मुम्किन शराइत चस्पाँ कर दी गई हैं। जिन का किसी एक शख़्स में इकट्ठा होना अम्र मुहाल है।”

“अहले सुन्नत-वल-जमाअत में मुज्तहिदों मुतलक़ के वजूद के इम्कान का इक़बाल तो किया जाता है। लेकिन दरहक़ीक़त जब से मज़ाहिब अरबिया क़ायम हो गए हैं ऐसे इज्तिहाद का हमेशा इन्कार ही किया गया है, क्योंकि इस क़िस्म के इज्तिहाद के साथ ऐसी ना-मुम्किन शराइत चस्पाँ कर दी गई हैं। जिन का किसी एक शख़्स में इकट्ठा होना अम्र मुहाल है।”

पस लाज़िम है कि हर मोमिन मुसलमान मज़्कूर बाला चार मज़ाहिब में से किसी एक को इख़्तियार कर लेता है, तो फिर उस को ये इख़्तियार नहीं रहता। कि इस मज़्हब के उसूल व क़वाइद से सर-ए-मू (ज़रासा भी) इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) करे। ये रवैय्या सदीयों से चला आया है। और इसी तरह चलता रहेगा।

पस ब-रुए क़ुरआन कोई मुसलमान दीन के मुआमलात में आज़ाद ख़्याल को जगह नहीं दे सकता। यही वजह है कि इस्लाम में तहक़ीक़ की गुंजाइश नहीं इस का नतीजा ये हो गया है कि बाइख़तियार अश्ख़ास के अहकाम को बे-चोन व चरा तस्लीम करना, तास्सुब और हट धर्मी को काम में लाना, हर शैय को दूसरों की सनद पर क़ुबूल कर लेना, और यूं जिबिल्लत तजस्सुस व इस्तफ़सार (तहक़ीक़ व मालूमात करने की फ़ित्रत) को रोकना और दबाना मुसलमानान आलम का तुग़रा-ए-इम्तियाज़ है। दक़यानूसी तफ़सीर और कुतुब अहादीस और फ़िक़्ह को रट लेना ग़नीमत ख़्याल किया जाता है। मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) की तस्नीफ़ सनद के लिए काफ़ी समझी जाती हैं। उलमा-ए-सल्फ़ के नक़्श-ए-क़दम पर चलना। मूजिब फ़ख़्र होता है। मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग), मुहद्दिसीन और मुफ़स्सिरीन के ख़यालात व मुअ़तकदात को हर बात में फ़ौक़ियत हासिल है। पस इस्लाम फ़ौक़-उल-फ़ितरत एतिक़ादात के निज़ाम की क़ुव्वत और उनकी इज्तिमाई तासीर और अहकाम से क़ियाम पज़ीर हुआ और उनका मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) रहा। उसने तहक़ीक़ व इस्तफ़सार के मैदान को वुसअत नहीं दी। और ना दे सकता है।

जिबिल्लत तजस्सुस और इस्लामी तहज़ीब और कल्चर

उमूमन अहले इस्लाम ये दावा करते हैं कि उलूम व फ़नून ने इस्लाम के गहवारे (गोद) में परवरिश पाई। और इस्लाम के तुफ़ैल ही अहले मग़रिब को यूनानी इल्म व फ़ल्सफ़ा का मुंह देखना नसीब हुआ। अगर तारीख़ इस दावे की तस्दीक़ कर दे, तो ये साबित हो जाएगा कि इस्लाम ने जिबिल्लत तजस्सुस (तहक़ीक़ की फ़ित्रत) को दबाने के बजाय इस के मैदान-ए-अमल को इस क़द्र वसीअ कर दिया है कि दुनिया ता क़यामत इस बार मिन्नत से सबकदोश नहीं हो सकती।

(2)

इस अम्र की तहक़ीक़ के लिए इल्म-ए-अदब की तारीख़ की वर्क़ गरदानी ज़रूरी है। तारीख़ हमको बतलाती है कि तीसरी सदी मसीही से आरामी या सुरयानी, यूनानी तहज़ीब के इल्म बरदार नस्तूरी मसीही थे। जब इफ्सिस की कौंसल ने 431 ई॰ में उनको बिद्दती क़रार दे दिया। तो वो एडीसा में नक़्ल-ए-मकानी करके आ गए वहां से 489 ई॰ में शहनशाह ज़ीनोने उनको मुल्क बद्र कर दिया। और वो ईरान में आ बसे जहां सासानी फ़र्मांरवाओं ने उनका ख़ैर-मक़्दम किया। उन्हों ने ईरान को मर्कज़ बनाकर एशियाई ममालिक में बल्कि मग़रिबी चीन तक मसीहीय्यत की तब्लीग़ कर दी। उनकी जिलावतनी का एक नतीजा ये हुआ कि एडीसा का दार-उल-उलूम मिसोपटामिया में नसीबस (Nesibus) में मुंतक़िल हो गया। और वहां से ईरान के जुनूब मग़रिब में जतदे शापूर (Jandeshapur) में छठी सदी के अवाइल में मुंतक़िल हो गया। जहां सासानी ख़ानदान के बादशाहों ने चौथी सदी में एक दार-उल-उलूम और एक अस्पताल क़ायम किया हुआ था। ख़ुसरो व नोशीरवां 531 ई॰ ता 579 ई॰ के अह्द सल्तनत में ये शहर इल्म व फ़ज़्ल का मर्कज़ था। जब रूमी क़ैसर जस्टनेन् (Justinian) ने 529 ई॰ में शहर एथनज़ के फ़लसफ़ियाना दर्सगाहों को बंद कर दिया, तो यूनान के फुज़ला उस जगह नक़्ल-ए-मकानी कर के आ गए। और यूं सुरयानी, ईरानी और हिन्दी फुज़ला एक जगह जमा हो गए। उनके तबादले-ख़यालात का नतीजा ये हुआ कि एक ऐसे मख़्लूत मज़्हब की बुनियाद पड़ गई, जो मुख़्तलिफ़ ख़यालात का माजून था। जिसका असर माबाअ़द में इस्लामी ख़यालात पर बहुत पड़ा। ख़ुसरो ने अपने तबीब को तिब्बी कुतुब की तलाश में हिन्दुस्तान भेजा, और उन कुतुब का पहलवी ज़बान में तर्जुमा हुआ। और दीगर बहुत सी साईंस की कुतुब का यूनानी ज़बान से फ़ारसी और सुरयानी ज़बानों में तर्जुमा हुआ। जंडेशापूर के दार-उल-उलूम का एक तालिबे इल्म अरब का बाशिंदा और रसूल अरबी का हम-असर था। जिसका ज़िक्र मुहद्दिसों ने भी किया है। सुरयानी ज़बान बोलने वाले में पहला मशहूर शख़्स रेशऐना (Reshaina) का सुरजीस था। जो 532 ई॰ में फ़ौत हुआ। ये आलम नस्तूरी मसीही नहीं था। बल्कि मोनोफ़ेनराइट यअ़क़ूबी मसीही था। और मिसोपोतामिया का तबीब आला था। और इस ने कुतुब तिब्ब का यूनानी से सुरयानी में तर्जुमा शुरू किया। जालीनूस की कुतुब का तर्जुमा भी इसी से मंसूब किया जाता है। इस्लाम की इब्तिदा से चंद साल पहले पादरी अहरोन (Ahron) ने यूनानी में तिब्ब की मशहूर किताब तस्नीफ़ की। जिसका सुरयानी में और बाद में अरबी में भी तर्जुमा हो गया।

(3)

जब मुसलमानों ने शुमाली अफ़्रीक़ा और मग़रिबी एशिया पर क़ब्ज़ा कर लिया, तो जंडेशापूर का दार-उल-उलूम उनकी सल्तनत में उलूम व फ़नून का मर्कज़ था। खुल्फ़ा-ए-बनू-उमिय्या के ज़माने में हुकूमत में (661 ई॰ 749 ई॰) उलमा दमिशक़ में आए, ये उलमा या मसीही थे और या यहूदी थे। जिनके नाम अरबी थे। खुल्फ़ा-ए-बनू-उमिय्या ने इस्लामी सल्तनत को वुसअत दी। और अरबी हर जगह राइज हो गई। लेकिन जाये ताज्जुब है कि पहली सदी हिज्री में ख़लीफा-ए-बनू-उमिय्या ख़ालिस नेज़राद अरबों पर अपना माअनी अल-ज़मीर ज़ाहिर करने से क़ासिर थे। (lagcay of Islam pv.111) जिससे ये पता चलता है कि क़दीम अरब की ख़ालिस ज़बान सिर्फ़ ज़माना-ए-जाहिलीयत और इब्तिदाई इस्लामी ज़माने तक ही महदूद रही।

(4)

इस्लामी हुकूमत का ज़रीं ज़माना खुल्फ़ा-ए-अब्बासिया का था। लेकिन खुल्फ़ा-ए-अब्बासिया ने ख़ालिस अरबों और कट्टर मुसलमानों की उम्मीदों के ख़िलाफ़ जंगों से फ़राग़त पाकर अपनी तवज्जा को ग़ैर-अरब उलूम व फ़नून फ़ल्सफ़ा, कल्चर, और तहज़ीब की जानिब किया। चुनान्चे 750 ई॰ से 900 ई॰ तक का ज़माना तराजुम का ज़माना कहलाता है ख़लीफ़ा अल-मंसूर के ज़माने हुकूमत (174-175 ई॰) में यूनानी कुतुब का तर्जुमा जंडेशापूर में होता था। यहां जार्जेस तबीब आला था, जो बख़्त यसूअ (यानी यसूअ ने नजात दी है) ख़ानदान का मुम्ताज़ फ़र्द था। इस मसीही ख़ानदान के तबीब ख़लीफ़ा-उल-हादी (786 ई॰) और ख़लीफ़ा हारून अल-रशीद (809 ई॰) के तबीब थे। इस ख़ानदान के सात अफ़राद निहायत मशहूर और मुम्ताज़ तबीब थे। इसी ख़ानदान की बदौलत खुल्फ़ा-ए-अब्बासिया ने यूनानी इल्म तिब्ब की कुतुब को अपनी सल्तनत में मुरव्वज किया।

ख़लीफ़ा अल-मंसूर रासिख़-उल-एतिक़ाद कट्टर मुसलमान ना था। चुनान्चे उसने इमाम अबू-हनीफा को दुर्रे (कोड़े) लगवाए क़ैद किया और मरवा डाला। जलाल उद्दीन सियूती बताता है कि :-

सबसे पहले मंसूर के वक़्त में सुरयानी और दीगर अजमी ज़बानों से किताबों का तर्जुमा किया गया। मसलन क़लीला, दमना, अक़्लीदस वग़ैरह। सबसे पहले इसी ने ग़ैर मुल्कीयों को अहले अरब पर हाकिम किया। यहां तक कि अरब के लोगों में से हम्माल मुक़र्रर होने बंद हो गए।”

(तारीख़-उल-खुलफा सफ़ा 184)

ग़ैर-अरब लेटरेचर का रिवाज देखकर ख़ालिस अरब जो हक़ीक़ी इस्लाम के दिलदादा थे, इस से सख़्त नालां थे। चुनान्चे इसमई कहते हैं कि :-

“मंसूर को शाम में कोई बदवी (ख़ाना-बदोश अरब) मिला। मंसूर ने कहा शुक्र है कि अल्लाह ने तुम पर से ताऊन को मह्ज़ इस वजह से दफ़ाअ किया कि तुम हमारी ज़ेर हुकूमत हो, जो अहले-बैत से हैं। उस बदवी ने जवाब दिया कि तेरी हुकूमत और ताऊन दोनों यकसाँ हैं।”

(तारीख़ अल-खुलफ़ा सफ़ा 181)

ख़लीफ़ा हारून अल-रशीद इल्म दोस्त और आलिम परवर शख़्स था। ख़ानदान बरामिका के मुम्ताज़ अफ़राद जो ईरानी-उल-नस्ल थे। वो उस के वज़ीर थे। उनकी सलाह पर अमल करके हारून ने सल्तनत के ख़ज़ानों को मुफ़ीद उमूर की ख़ातिर ख़र्च किया। उसने जा-ब-जा स्कूल और कुतुब ख़ाने खोल दिए। ताकि लोग इल्म के ख़ज़ाने से बहरूर हो सकें। यूनानी और आरामी ज़बानों की इस्तिलाहात को अरबी ज़बान का जामेअ पहनाया गया। ख़लीफ़ा की फ़य्याज़ी की वजह से यूनानी, शामी, ईरानी, और हिन्दी उलमा उस के दरबार में रहने लगे। और उन्होंने मुसलमानों को मुख़्तलिफ़ उलूम व फ़नून का दर्स देना शुरू किया।

हमने ऊपर ज़िक्र किया है कि नौवीं (9) सदी तर्जुमों की सदी है। इस ज़माने में सर-जैस-के सुरयानी तर्जुमों की नज़र-ए-सानी की गई। और दीगर किताबों का भी तर्जुमा किया गया। और मुतर्जिम बिल-उमूम नस्तूरी मसीही थे, जो यूनानी, सुरयानी, अरबी और फ़ारसी ज़बानों में माहिर थे। युहन्ना इब्ने मासिवा (Ibn’masawyh) (सन वफ़ात 857 ई॰) नस्फ़ सदी तक हारून अल-रशीद के जांनशीनों का शाही तबीब था, उसने अरबी ज़बान में इल्म तिब्ब की कुतुब को तस्नीफ़ किया।

ख़लीफ़ा मामूं-अल-रशीद का ज़माना हुकूमत (813-33 ई॰ 198-218 हि॰) नई रोशनी का सुनहरा ज़माना था। इस ख़लीफ़ा ने बग़दाद में तर्जुमों का मर्कज़ और कुतुब ख़ाना खोल दिया। मुतर्जिमिन (तर्जुमा करने वालों) में से नस्तूरी मसीही तबीब हुनैन इब्ने इस्हाक़ (Hunayn) (अज़ 809 ई॰ ता 873 ई॰) का और इस के ख़ानदान का नाम ख़ास तौर पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र है। इस क़ाबिल मसीही ने जालनेवस की तक़रीबन तमाम कुतुब का तर्जुमा एक सौ सुरयानी और उन्तालिस अरबी कुतुब में कर दिया। इस के बेटे इस्हाक़ और भतीजे जैश और दीगर तिलामज़ा ने तेराह सुरयानी और साठ अरबी तर्जुमा कर डाले। हुनैन ने ना सिर्फ यूनानी इल्म का तिब्ब का तर्जुमा किया, बल्कि अरस्तू की तस्नीफ़ात व अह्दे अतीक़ के यूनानी तर्जुमा सिपटवाजनट का भी अरबी में तर्जुमा कर दिया। उस के क़रीबन सत्तर शागिर्द थे, जिनकी अक्सरीयत मसीहीयों की थी। और ये सब के सब तर्जुमों के काम में मशग़ूल थे। हुनैन ने ना सिर्फ बग़दाद में ही काम किया। बल्कि उसने मुल्क-ए-शाम, इराक़ और कनआन का भी सफ़र किया और सिकंदरिया तक पहुंचा, ताकि यूनानी ज़बान के उलूम व फ़नून पर उबूर हासिल करे। नौवीं (9) सदी के अवाइल में ये तर्जुमे ज़्यादा तादाद अरबी ज़बान में होने लगे। उन तराजुम को यअक़ूबी मसीहीयों ने जारी रखा। उसी ज़माने में जंडेशापूर का मदरिसा बंद हो गया। क्योंकि उलमा और फुज़ला-ए-रोज़गार ख़ुलफ़ा के दार-उल-हुकूमत बग़दाद और सामरा (Samarra) की जानिब नक़्ल-ए-मकानी कर गए। बग़दाद में फ़ल्सफ़ा का बाक़ायदा मुतालआ किया जाता था, और वहां यूनानी कुतुब के तराजुम और मुतालआ का बाज़ार गर्म हो गया। ख़ुद ख़लीफ़ा मामूं आलिम शख़्स था। वो शायर था और शाइर-नवाज़ था, वो ख़ुद ईरानी ख़यालात से मुतास्सिर था। लिहाज़ा मज़्हबी रवादारी का हामी था। उस के दरबार में हर ख़्याल के आलिम मौजूद थे। उसी के ज़माने में इमाम बुख़ारी, हम्बल, और शाफ़ई थे। हर क़िस्म के इल्म व फ़न के उस्ताद, शायर, फिलासफर, तबीब, उस के वज़ीफ़ा-ख़्वार थे। और किसी शख़्स का मज़्हब उस की तरक़्क़ी के रास्ते में हाइल ना था। यहूदी और ईसाई जो इब्रानी और यूनानी और अरबी ज़बानों के आलिम थे। उस के दरबार की ज़ीनत थे। उन्होंने क़ुस्तुनतुनिया, शाम, एशया-ए-कोचक, आरमीनीया, मिस्र और लेवांट की ख़ानक़ाहों और कुतुब ख़ानों को यूनानी फिलासफरों मोअर्रिखों और हिसाब दानों की तस्नीफ़ात के नुस्खे जात हासिल करने की ख़ातिर छान मारा और मामूं के ज़माने हुकूमत में मज़्हब और नस्ल की तमीज़ मिट गई। इन इल्मी मर्कज़ों में मसीही तलबा बग़ैर किसी इम्तियाज़ के मुसलमान तलबा के साथ मुतालआ करते थे। मामूं ने लड़कीयों के लिए मदरिसा खोला, जिसमें क़ुस्तुनतुनिया और एथनज़ की औरतें ताअलीम देती थीं। उस के अह्दे हुकूमत में मज़वी मज़्हब ने खुरासान में ज़ंदिक़ा मज़्हब की सूरत इख़्तियार कर ली। लेकिन उसने ज़ंदिक़ा के ख़िलाफ़ किसी क़िस्म की कार्रवाई करने से इन्कार कर दिया। वो ख़ुद क़ुरआन को मख़्लूक़ मानता था। उस के क़ायम कर्दा स्कूलों और कालेजों में यूनानी इल्म-ए-हिंदिस की बुनियाद पर मुख़्तलिफ़ उलूम ने तरक़्क़ी की। कुसूर-ए-आशारिया का इस्तिमाल हुआ। अलजीरा ने जन्म लिया।

ख़लीफ़ा मुतवक्किल ने 856 ई॰ में बग़दाद में एक कुतुब ख़ाना खोला। और तर्जुमों का मदरिसा जारी किया। इस दार-उल-उलूम का अफ़्सर आला हुनैन ही था। ख़लीफ़ा और उस के अमाइद सल्तनत मसीही उलमा को ढूंढ-ढूंढ कर दूर व दराज़ मुक़ामात को यूनानी नुस्ख़ों की तलाश में भेजते थे। ताकि वो इन नुस्ख़ों को बग़दाद लाएं, और उनका तर्जुमा करें। चुनान्चे हुनैन ख़ुद जालनेवस के एक नुस्खे की निस्बत लिखता है कि :-

“मैंने उस को मिसोपोतामिया, सीरिया, कनआन, और मिस्र में तलाश किया, यहां तक कि मैं सिकंदरिया को भी गया। लेकिन दमिशक़ में मुझको इस का सिर्फ आधा नुस्ख़ा मिला।”

उसी ज़माने में इस्लाम में पहला और आख़िरी अरब नज़ाद फिलासफर गुज़रा है। यानी अबू यूसुफ़ याक़ूब इब्ने इस्हाक़ अलकिंदी जो कूफ़ा में 850 ई॰ के क़रीब पैदा हुआ था। इस एक शख़्स के इलावा तमाम इस्लामी तारीख़ में कोई दूसरा मुसलमान फिलासफर पैदा नहीं हुआ जो अरब नज़ाद हो।

(5)

पहली मुस्लिम यूनीवर्सिटी बग़दाद की निज़ामी यूनीवर्सिटी थी जिसको उम्र ख़य्याम के दोस्त निज़ाम-उल-मुल्क ने 457 हि॰ या 1072 ई॰ में क़ायम किया। ये शख़्स तूर्क अल्प अर्सलान का वज़ीर था। इस की थोड़ी मुद्दत-बाद ही नीशापूर, दमिशक़, यरूशलेम, क़ाहिरा, सिकंदरिया, और दूसरे शहरों में यूनीवर्सिटीयां क़ायम हो गईं लेकिन उनमें से बेहतरीन यूनीवर्सिटी मुस्तंसिरयह (Mustansiryah) थी, जो 1234 ई॰ में बग़दाद में क़ायम हुई।

(6)

उमूमन ये दावा किया जाता है कि ममालिक मग़रिब ने अरस्तू की किताबें दुबारा अरबों से सीखीं, लेकिन तारीख़ हमको बतलाती है कि ये दावा मुबालग़ा से ख़ाली नहीं। ये बात तो सच है कि पादरी गंडसालूस (Dominic Gundisalvus) ने जो सगोविया (Segovia) का आर्च-डेक्कन था। बारहवीं सदी मसीही में अबी सुनिया, फ़ाराबी, और अल-ग़ज़ाली की कुतुब के मुतालए के बाद मग़रिबी ज़बान में अरस्तू की कुतुब के तराजिम किए। लेकिन साथ ही ये भी हमको मानना पड़ेगा कि अबू-अलीद इब्ने रशद (अज़ 92-520 हि॰ या 1126 ई॰) यूनानी ज़बान से कोरा था, और उसने अरस्तू की ताअलीमात और नज़रिये जात को यूनानी ज़बान के ना जानने की वजह से ग़लत मिल्लत कर दिया था। अरस्तू की यही ताअलीम जारी रही, जब तक सेंट टॉमस ने अरस्तू की सही ताअलीम और अरस्तू के मुफ़स्सिरीन की राओं को एक दूसरे से जुदा ना किया।

(7)

हमने ज़रा तवालत को काम में ला कर उस ज़माने के इल्म व अदब की तारीख़ का ज़िक्र किया है, ताकि मुंसिफ़ मिज़ाज नाज़रीन तारीख़ के सफ़्हों से ख़ुद ही अंदाज़ा लगा लें कि आया मज़्कूर बाला तहज़ीब और कल्चर का सर-चश्मा क़ुरआन व हदीस और अरब नज़ादो मुसलमान थे या नहीं। हम तारीख़ के मुतालआ से सिर्फ इसी नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि खुल्फ़ा-ए-अब्बासिया के ज़माने के ख़यालात और एतिक़ादात और रोशन कारनामे क़ुरआन व हदीस के मुतालआ का नतीजा नहीं हैं। उन उलमा की कसीर तादाद ना तो अरब नज़ाद थी और ना मुसलमान थी। इस्लामी इल्म व फ़ज़्ल के मर्कज़ मक्का या मदीना नहीं थे। बल्कि खुरासान, ख़्वारिज़्म, तुर्किस्तान और बकतेरया थे। मसलन खवारिज़्मी ख़ीवा का बाशिंदा था। अल-फ़र्ग़ानी (Fargani) ट्रांस और केनिया का रहने वाला था। अबू उलूफ़ा और अल-बत्तानी (Albattani) ईरानी नज़ाद थे फ़ाराबी एक तुर्क था, और अबीसीनिया बलख़ का रहने वाला था, अल-ग़ज़ाली और नसीर उद्दीन तूस के रहने वाले थे। उमर ख़य्याम जिसने अरबी में इल्म जबर व मुक़ाबला लिखा। ईरानी शायर था। इब्ने रशद, अल-रज़काली (Alzaruali) और अल-बित्रूजी (Albitruji) हसपानीया के अरब थे। सिर्फ तमाम इस्लामी तारीख़ में एक फिलासफर अलकिंदी अरबी नज़ाद था। मज़्हब के लिहाज़ से हुनैन बिन इस्हाक़ और उस का बेटा इस्हाक़ और क़ुस्ता बिन लूक़ा (Qusta bin Luka) और दीगर मुतर्जिम मसीही थे। साबित बिन क़रा मशहूर मुनज्जम था, वो और अल-बशाकी दोनो सितारों की परस्तिश करने वाले थे। बाअज़ माशा-अल्लाह की तरह यहूदी थे। बस्रा का अल-जाहिज़ (Aljahiz) साफ़ इक़रार करता है कि इस्लाम यूनानी फिलासफर का मर्हूने मिन्नत है। इस्लामी फिलासफरों ने अपने नज़रियों के मंबा और सर-चश्मा को छिपाने की कभी बेसूद कोशिश नहीं की। और अगर वो इस क़िस्म की कोशिश करते थे तो वो इस अम्र को कट्टर मुसलमानों से ना छिपा सकते, जो क़ुरआन व हदीस के शैदाई थे। रासिख़-उल-एतक़ाद मुसलमान उन तमाम दिमाग़ी और ज़हनी मसाई को जो रसूल अल्लाह के ज़माने में ना थीं। मलऊन व मतावन ही गिरा देते रहे। उन्होंने फ़ल्सफ़ा का नाम ही “अक़्ल व कुफ़्र का मुरक्कब” रख छोड़ा था। अरबी फ़ल्सफ़ा दर-हक़ीक़त अरस्तवी और नौ फ़लातुनी ख़यालात का माजून है जिसका मज़्हब इस्लाम से दूर वास्ता भी नहीं, उस के मोअ्तक़िदीन या तो उमूमन बरा-ए-नाम मुसलमान होते थे। और या वो लोग थे जो अब्बासिया ख़ानदान की हुकूमत के बाद अपने ख़यालात की ख़ातिर मारे गए, या क़ैद व ज़न्दां में रहे।

जब खुल्फ़ा-ए-अब्बासिया इल्म की रोशनी बग़दाद से दीगर ममालिक को पहुंचा रहे थे तो अरब के क़बाइल ख़ाना-जंगी में मसरूफ़ थे। हज के मुताल्लिक़ हमेशा झगड़ा बरपा होता, और अमीर मक्का हाजियों के माल व असबाब को लूटना अपना फ़र्ज़ समझते थे। बग़दाद और क़ाहिरा ने बेहतर ज़ोर मारा कि इस्लामी ममालिक के बाशिंदे मुज़ाहमत के बग़ैर हज कर सकें। लेकिन वो नाकाम रहे। अरब क़बाइल एक दूसरे से बईना इसी तरह बरसीर पैकार थे, जिस तरह रसूल अरबी की बिअसत से पहले थे। अरब जुमूद की हालत में रहे और ग़ैर ममालिक से कुछ सरोकार नहीं रखते थे। वो इल्म व फ़न की तहरीक को शक की निगाह से देखते रहे। कट्टर मुसलमानों की निगाह में खुल्फ़ा-ए-अब्बासिया के ज़माने की नई रोशनी की तहरीक ज़बरदस्त बिद्दत थी, जो क़ुरआन व हदीस और सुन्नत नब्वी के ख़िलाफ़ थी। पस सबलहोक ने क़ुरआन व हदीस की हिमायत में ख़ानदान अब्बासिया का ख़ातिमा कर दिया। और उस के साथ ही इस सुनहरे ज़माने का भी ख़ातिमा हो गया, और इस्लामी सल्तनत का ज़वाल शुरू हो गया। चुनान्चे मशहूर इस्लामी मुअर्रिख़ ऐस॰ ख़ुदाबख़्श मरहूम कहता है कि :-

“अब्बासिया ख़ानदान के बाद मुस्लिम सल्तनत के ज़वाल का सबब उस का मज़्हब और सियासियात थे। चूँकि इस्लाम में ये दोनों एक दूसरे से पैवस्ता हैं, लिहाज़ा हम कह सकते हैं कि मज़्हब जो इब्तिदा में मुसलमानों की कामयाबी का सबब था, अब उनकी राह में सबसे बड़ी रुकावट हो गया। अगरचे ज़ाहिरी तौर पर सल्तनत “इस्लामी” थी। लेकिन अंदरूनी तौर पर मज़्हब बेमाअनी रसूम का मजमूआ हो गया था और तास्सुब, मज़्हबी जुनून, तरक़्क़ी से नफ़रत, बे-बसीरती, नई रोशनी और नई ताअलीम की मुख़ालिफ़त का बोल-बाला था। रोशनी के अह्द का ख़ातिमा हो गया। और तारीकी की हुकूमत की इब्तिदा हो गई। वो ज़माना चला गया, जब मुस्लिम फिलासफर निज़ाम कहा करता था कि, “इल्म की पहली शर्त शक करना है।” अब इस्लाम के नज़्दीक शक करना बेइज़्ज़ती, अक़ूबत, और मौत का मुतरादिफ़ था। मज़्हब का रोशनी, इल्म और तरक़्क़ी के साथ वास्ता ना रहा। हर वाक़िया अल्लाह की मर्ज़ी की तरफ़ मंसूब किया जाता था, जिसके ख़िलाफ़ किसी क़िस्म की जद्दो-जहद करना कुफ़्र और परले दर्जे की हिमाक़त ख़्याल की जाती थी। इस्लामी सल्तनत का ज़वाल ना सिर्फ शुरू हो गया, बल्कि ज़वाल ने जड़ पकड़ ली। मुसलमान मुर्दा और लापरवाह हो गए। और दीगर ममालिक की इल्मी तहरीकों की जानिब से ग़ाफ़िल हो कर या बद-अख़्लाकी के गढ़े में गिर गए, या मज़्हबी जुनून में गिरफ़्तार हो गए। और उनकी दिमाग़ी और ज़हनी हालत तारीक हो गई।”

(Essays Islamic Indian p.23)

पस खुल्फ़ा-ए-अब्बासिया के ज़माने की तहज़ीब को हम क़ुरआन व हदीस या “अरब” की तहज़ीब नहीं कह सकते। क्योंकि ये तहज़ीब ममालिक-ए-मफ़्तूहा के बाशिंदों की तहज़ीब थी। जो जबरन इस्लाम के हल्क़ा-बगोश हो गए थे। उन खल़िफ़ा के ज़माने में इस्लामी सल्तनत ने यूनानी, ईरानी, शामी, क़िबती, कलदानी और हिन्दी तहज़ीब से फ़ायदा उठाया था। उन मफ़्तूहा ममालिक की तहज़ीब का क़ुरआन व हदीस से कुछ वास्ता नहीं, क्योंकि इस्लाम की आमद से पहले ये इन ममालिक में मौजूद थी। अगर कल्चर और तहज़ीब से मुराद ये है कि किसी क़ौम के अफ़राद का ज़ेहन रसा उस क़ौम को तरक़्क़ी की शाहराह पर चला रहा है, तो हम कह सकते हैं कि यूनानी तहज़ीब का वजूद था, रोमी तहज़ीब का वजूद था, इस्लामी तहज़ीब का वजूद था, लेकिन ये तहज़ीब अरब की तहज़ीब नहीं। क्योंकि वो मफ़्तूहा ममालिक के बाशिंदों की तहज़ीब थी जो अरबी नस्ल और मुल्क के ना थे। ये इस्लामी तहज़ीब क़ुरआन व हदीस और ख़ालिस अरबी इस्लाम की वजह से माअरज़ वजूद में नहीं आई थी। चुनान्चे अल्लामा इक़बाल कहते हैं कि :-

“हम सब जानते हैं कि यूनानी फ़ल्सफ़ा ने इस्लाम के तहज़ीब पर गहरा असर डाला है, लेकिन अगर हम क़ुरआन का और इस्लाम के इन मज़ाहिब का बग़ौर मुतालआ करें। जो यूनानी फ़ल्सफ़े की वजह से पैदा हुए थे। तो ये रोशन हक़ीक़त हम पर वाज़ेह हो जाती है कि अगरचे यूनानी फ़ल्सफ़े ने इस्लामी उलमा के अज़हान को कुशादा कर दिया था, लेकिन उसने क़ुरआन को धुँदला कर दिया। ये लोग क़ुरआन को यूनानी फ़ल्सफ़े की रोशनी में पढ़ते थे। और दो सद साल के बाद उनको ये मालूम हुआ कि क़ुरआन की रूह यूनानी फ़ल्सफ़ा के नक़ीज़ है ग़ज़ाली ने दीनीयात की बुनियाद शक के फ़ल्सफ़े पर रखी, और ये बात भी क़ुरआन के ख़िलाफ़ है।”

(Religious Thought in Islam pp. 3-4)

पस साबित हो गया कि इस्लामी सल्तनत के इल्म व फ़ज़्ल के ज़माने के ज़िम्मेदार क़ुरआन व हदीस ना थे। ग़ैर ममालिक के ख़यालात क़ुरआन व हदीस से मुतास्सिर नहीं हो रहे थे। बल्कि इस के बरअक्स इन ममालिक के ख़यालात यानी यूनानी मसीही, यहूदी, ईरानी, हिन्दी ख़यालात से इस्लाम मुतास्सिर हो रहा था। उन ग़ैर अरब ममालिक में कुतुब ख़ाने खुल गए, जिनमें ग़ैर-अरब क़ातिबों की फ़ौज की फ़ौज नुस्ख़ों की नक़्ल में मसरूफ़ थी। बग़दाद इल्म की रोशनी का मर्कज़ था, जिसकी शेवाएं हसपानीया तक पहुंचीं। और ये बातें इस वास्ते मुम्किन हो गई थीं, क्योंकि खुल्फ़ा-ए-अब्बासिया ने क़ुरआन व हदीस की ताअलीम को तर्क कर के मज़्हबी रावादारी की पालिसी इख़्तियार कर ली थी। पस इस तहरीक का सहरा इस्लाम पर नहीं बल्कि ये नए ख़यालात यूनानी, यहूदी, तुर्की, मसीही, क़िबती, कलदानी, आरामी, शामी, ईरानी, और हिन्दी ख़यालात और संस्कृत की कुतुब के ममनून एहसान थे। (See Spengler’s Deeline of the West)

यही वजह है कि सर टॉमस आरनल्ड जैसा मुतशरक कहता है कि :-

“इस्लाम ने जो तरका छोड़ा है, वो रसूल अरबी के दीन इस्लाम के उसूलों की वजह से नहीं है। इस्लाम के तरका में कोई ऐसी बात नहीं पाई जाती, जिसका ताल्लुक़ ख़ास इस्लाम के साथ हो। इस के बरअक्स जब कभी हज़रत मुहम्मद के ख़ालिस मज़्हब ने अपना इक़्तिदार जमाया, वहां इस्लाम के तरका और विरासत की क़ीमत सिफ़र बराबर हो गई।”

(Legacy of Islam edly Sir .T.Avroldalfred and Guillaume oxford 1931 p.v)

जिबिल्लत तजस्सुस और इस्लामी ममालिक की तारीख़

इस फ़स्ल के शुरू में हम ज़िक्र कर चुके हैं कि इल्म-ए-नफ़्सीयात के मुताबिक़ जब किसी बच्चे की जिबिल्लत तजस्सुस (तहक़ीक़ व मालूमात करने की फ़ित्रत) अपने इख़्तयारात और रोब से दबाया जाता है तो बड़ा होने पर ये जिबिल्लत उस में निहायत कमज़ोर हो जाती है इसी तरह इस्लामी ममालिक में जिबिल्लत तजस्सुस अदम इस्तिमाल की वजह से निहायत कमज़ोर बल्कि मुर्दा पड़ गई है। यही वजह है कि इस्लामी ममालिक में इल्मी रुहजानात और ज़हनी मसाई तक़रीबन मफ़्क़ूद (गायब) हैं। तजस्सुस व इस्तिफ्सार की जिबिल्लत बनी-नूअ इन्सान के तमाम शानदार इक्तिसाबात की ता में है। इन रुहजानात का आज़ाद और मोअस्सर अमल जमाअतों, क़ौमों, मिल्लतों और मुल्कों की तहज़ीब का ना सिर्फ मेयार है। बल्कि उनकी तहज़ीब की तरक़्क़ी की ख़ास शर्त भी है, क्योंकि अगर हम इन ममालिक वाज़मनह पर मुहक़्क़िक़ाना नज़र करें, जिनमें अक़्ली इक्तिसाबात हुए हैं, तो हम देखेंगे कि वो ज़माने बईना उन ज़मानों पर मुंतबिक़ (बराबर) है जिनमें इज्तिमाई तरक़्क़ी हुई है।

(2)

मुल्क अरब गुज़शता चौदह (14) सदीयों से इस्लाम का हल्क़ा-ब-गोश रहा है, लेकिन अरब में लतीफ़ तख़ैयुलात का नाम नहीं है। वो फ़ल्सफ़ा से ना-आश्ना है। ख़ालिस अरबी इल्म-ए-अदब में कोई जिद्दत नहीं पाई जाती। मुल्क की आबो-हवा ही ऐसी है कि दिन की धूप की गर्मी, आफ़्ताब की तपिश, सहरा की जलती रेत की जिद्दत वग़ैरह ज़हनी मसाई के हक़ में बाद-ए-समूम का असर रखती हैं। ख़ुद मज़्हब इस्लाम में जैसा साहिब रिसाला यनाबैअ-उल-इस्लाम ने साबित कर दिया है कोई नया अन्सर नहीं जो मज़ाहिब साबिक़ा में ना था। इस पर ’’قال الله ارلرسول اور اطیعوا الله واطعیوا الرسول‘‘ (अल्लाह की इताअत और उसके रसूल की इताअत) के अहकाम ने इल्मी रुहजानात का बाब मस्दूद (बंद) कर दिया। यही वजह है कि तरक़्क़ी की दौड़ में तमाम मुहज़्ज़ब ममालिक अरब से बहुत आगे निकल गए हैं। अरब तरक़्क़ी याफ्ताह मुल्क शुमार नहीं हो सकता। उस की अख़्लाक़ी हालत आला नहीं। तादाद इज़्दवाज़ और तलाक़ का हर जगह दौर दौरा है। उसने “ज़माना-ए-जाहिलीयत” से आज तक इल्म व अदब और उलूम व फ़नून में तरक़्क़ी नहीं की बदवी अनपढ़ और जाहिल हैं। शहरों में कुतुब का इल्म क़ुरआन हदीस और फ़िक़्ह के मुतालआ तक महदूद है। तक़्दीर और क़िस्मत के जानस्तान अक़ीदे ने तरक़्क़ी की राह को मस्दूद कर रखा है। ज़ुल्म, बे इंसाफ़ी, क़त्ल और लूटमार का बाज़ार गर्म है। 1925 ई॰ में सुल्तान इब्ने मसऊद को ताक़त हासिल हुई, उस के ज़माने में क़ुरआन व हदीस का दौर दौरा रहे। सियासियात की बुनियाद दीनयात पर है। शरीअत अरब के ज़हनों और मज़्हबी ख़यालात पर हुक्मरान है। अगर कोई शख़्स क़ुरआन व हदीस के ख़िलाफ़ अपनी अक़्ल और आज़ादाना राय रखता है, तो उस को क़रार वाक़ई सज़ा दी जाती है, ताकि दूसरे इबरत पकड़ें मुल्क अरब में इस्तिफ़सार, तफ़ह्हुस, और तजस्सुस का जवाब ’’قال الله قال الرسول اور اطیعوا الله اطعیوا الرسول ‘‘ (अल्लाह की इताअत और रसूल की इताअत) ही है। बीसवीं (20) सदी में अरब को एक तंग, महदूद और लातब्दील शरीअत पर और एक ऐसी आस्मान किताब पर अमल करना पड़ता है, जिसका ताल्लुक़ सातवीं (7) सदी के साथ था। क्या आज के दिन हिन्दुस्तान या मिस्र या तुर्की के मुसलमान अरब के मुल्क में वहाबी हुकूमत के ज़ेर-ए-साया ज़िंदगी बसर कर सकते हैं? आज हिन्दुस्तान में कितने मुसलमान हैं, ख़्वाह वो लिखे पढ़े हों, ख़्वाह नाख़्वान्दा जाहिल हों। जो वहाबी ख़यालात की हिमायत और क़द्र करते हैं। लेकिन ये एक हक़ीक़त है कि वहाबी ख़यालात ख़ालिस क़ुरआन व हदीस पर मबनी हैं।’’فاعتبروایا اولی الابصار ‘‘

ख़यालात की आज़ादी अरब के सहरा और बादिया में फल फूल नहीं सकती। ये हालत उस मुल्क की है जो ख़ुदा का बर्गुज़ीदा है। (सूरह हज आयत 77) जिसका हर एक शोबा चौदह (14) सदीयों से मज़्हब इस्लाम के मातहत रहा है। जब तक अरब इस्लाम के ज़ी-रंगीन रहेगा, वो तरक़्क़ी नहीं कर सकता।

(3)

एक अरब पर ही क्या मौक़ूफ़ है तारीख़ इस्लाम की वर्क़ गरदानी करो तो तुम देखोगे कि जिस मुल्क में भी इस्लाम गया, उसने इस्तिफ़सार (तहक़ीक़ व मालूमात) की जिबिल्लत (फ़ित्रत) को यहां तक दबाया कि उन ममालिक व अक़वाम में जुस्तजू का माद्दा ज़ाइल हो गया। उनके उलूम व फ़नून यकसर हर्फ़-ए-ग़लत की तरह मिट गए। इस्लाम ने मिस्र को 641 ई॰ में फ़त्ह किया। और मिस्र की क़दीम तहज़ीब उलूम व फ़नून सनअ़त व हिरफ़त को ऐसा धचका लगा कि वो ठंडे पड़ गए, उनका ख़ातिमा हो गया। आख़िर कोई वजह तो है कि जब शामी, मिस्री, और बराबरी अक़्वाम यूनान और रूमा के मातहत थीं, तो वो अपनी फ़हम व फ़रास्त और ज़ेहन-ए-रसा और इल्म व फ़न के लिए मशहूर थीं। लेकिन जूंही वो इस्लाम की हल्क़ा-ब-गोश हो गईं, वो तरक़्क़ी की मनाज़िल में बहुत पीछे रह गईं। और जहालत और असबीयत उनका तुग़रा-ए-इम्तियाज़ हो गया। मुल्क हसपानीया में इस्लामी तारीख़ इसी सदाक़त की गवाह है। जब इस मुल्क पर ख़ुलफ़ा क़ुरआन व हदीस के मुताबिक़ हुक्मरानी की, तो तरक़्क़ी का दरवाज़ा बंद हो गया, और तहज़ीब का दौर ख़त्म हो गया। लेकिन इस के बरअक्स जब कोई ख़लीफ़ा मज़्हबी जुनून से ख़ाली होता तो इस क़ौम को तरक़्क़ी और आज़ाद ख़्याली नसीब होती। पस ज़ाहिर है कि जब ख़ालिस इस्लाम को ग़लबा हासिल होता है तो इस ज़हनीयत को ग़लबा हासिल होता है, जो क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला से ख़ाली और जिद्दत व इफ़्तरा के ख़िलाफ़ है। जूंही हसपानीया से इस्लाम का ग़लबा ख़त्म हो गया, और वो मसीहीय्यत का हल्क़ा-ब-गोश हो गया, तो मुल्क ने इस्लामी ख़यालात के पंजे से रिहाई हासिल की और उस की तरक़्क़ी और तहज़ीब नसीब हुई।

क़ुरआन व हदीस के अहकाम उन ममालिक के हालात पर हरगिज़ आयद नहीं हो सकते, जिन्हों ने यूनानी और रोमी तहज़ीब के गहवारे में परवरिश पाई है या जो अक़्वाम दौरे हाज़रा में मग़रिब के ख़यालात और जज़्बात से मुतास्सिर हो चुकी हैं। चूँकि इस्लाम ज़िंदगी के हर शोअबे की अदना तरीन तफ़्सील पर भी वाहिद हुक्मरान होने का मुद्दई है, लिहाज़ा वो उन ममालिक की फ़िज़ा में फल फूल नहीं सकता, जिनके अफ़राद आज़ादी ख़यालात के आदी और हामी हो चुके हों और जो हर बात में हर तरह की सनद और इख़्तियार को चैलेंज करते रहे हैं। हाँ एशिया और अफ़्रीक़ा के वो ममालिक जो ताहाल तरक़्क़ी याफ्ताह नहीं। जहां आज़ाद ख़्याली का दौर-दौरा नहीं। और जो अक़्वाम बुज़ुर्गान सल्फ़ के ख़यालात पर चलना ही मूजिब सआदत दारेन समझती हैं। ऐसे ममालिक में इस्लाम मुरव्वज हो सकता है। यही वजह है कि मुसलमानों की ज़्यादा-तर आबादी अफ़्ग़ानिस्तान, सूबा सरहद बलोचिस्तान, कश्मीर, डच ईस्ट इंडिया वग़ैरह में है चुनान्चे अल्लामा इक़बाल कहते हैं कि :-

“तारीख़ इस्लाम में ऐसी बिद्दत के इर्तिकाब की मिसाल बहुत ही कम मिलेगी, जिसने मुअय्यना हदूद के अंदर रह कर किसी दूसरी तोजहीह की जुर्आत की हो।”

(इस्लाम और अहमदियत सफ़ा 12)

(एडिटर ज़मीनदार 9 सितंबर 1936 ई॰) कहता है :-

“अल्लाह तआला ने दीन को कामिल कर दिया....उलमा-ए-हक़ ने कभी नए शाख़्सा ने खड़े करने की कोशिश नहीं की। उन्होंने हक़ व सदाक़त क़ुरआन व सुन्नत और तौहीद व हसन अमल की तरफ़ बुलाया। उनकी पुकार वही एक पुकार थी, कोई नई पुकार नहीं थी, जिसके हुस्न व क़ुब्ह और सिदक़ व कज़ब मालूम करने के लिए उम्मत का ज़हन मुब्तला-ए-फ़ित्ना हो जा सके।”

पस क्या मग़रिब और क्या मशरिक़, जहां कहीं इस्लाम गया, उस की आमदो और ग़लबा ने तजस्सुस तफ़ह्हुस और इस्तिफ़सार (तहक़ीक़, इल्म, मालूमात की आज़ादी) का ख़ातिमा कर दिया। ये हक़ीक़त ऐसी अयाँ है कि आज़ाद ख़्याल और मुंसिफ़ मिज़ाज मुसलमान भी इस को तस्लीम करने के बग़ैर चारा नहीं देखते। चुनान्चे ईरान के शहर तबरेज़ के अख़्बार आज़ाद ने अपनी इशाअ़त मौरख़ा यक्म जनवरी 1922 ई॰ में लिखा :-

“तमाम दुनिया के मुसलमान हर अम्र में अदना, मुफ़्लिस, ग़लीज़, ग़ैर मुहज़्ज़ब, बेवक़ूफ़ और जाहिल हैं। और यूरोप और अमरीका के ईसाईयों से बल्कि ज़रतशतियों से भी दो सद साल पीछे हैं। अगर इस्लाम का ये हाल बाअज़ ममालिक में ही होता तो हम कह सकते हैं कि ये बुरी हालत दीगर अस्बाब का नतीजा है, लेकिन दुनिया के हर मुल्क में इस्लाम की हालत यही है पस हम सिवाए इस के और कुछ नहीं कह सकते कि ये हालत इस्लाम ही का नतीजा है।”

(Quoted in John’s Finality of Chirst. p.21)

(4)

पस अहले इस्लाम इस बात से वाक़िफ़ हो गए हैं कि क़ुरआन व हदीस ने इस्तिफ़सार की जिबिल्लत (तहक़ीक़ व इल्म हासिल करने की फ़ित्रत) को ख़िलाफ़ फ़ित्रत तौर पर दबा दिया है। तारीख़ इस्लाम से ज़ाहिर है कि मफ़्तूहा ममालिक ने इस हालत के ख़िलाफ़ कई दफ़ाअ इल्म बग़ावत बुलंद किया है। और ये बग़ावत तीन अतराफ़ से हुई है :-

अव्वल :- इमाम ग़ज़ाली और दीगर सूफ़िया ने ये कोशिश की है कि क़ुरआन व हदीस की ताअलीम को रुहानी लिबास पहनाया जाये, लेकिन ये मसाई बेसूद (बेकार) साबित हुईं।

दोम :- जब इस्लाम पर फ़ल्सफ़ा का बैरूनी असर पड़ा, तो जिबिल्लत इस्तिफ़सार (तहक़ीक़ व इल्म हासिल करने की फ़ित्रत) जुंबिश में आई। और लोगों ने दीनी उमूर की निस्बत सवाल पूछने शुरू किए। मज़्हबी उमूर की असास की निस्बत बहस व तम्हीस शुरू हो गई। जिसका नतीजा ये हुआ कि इस्लाम में दो फ़िर्क़े हो गए। एक वो जो बग़ैर चोन व चरा क़ुरआन को कलाम-अल्लाह मानते थे। लेकिन दूसरा फ़िर्क़ा क़ुरआन के मुतालए में अक़्ल को राह देता था। यूं फ़िर्क़ा मंज़िला की इब्तिदा आठवीं (8) सदी मसीही में हुई लेकिन मोअतज़िला बिद्दती तसव्वुर किए जाते थे। गो उनमें सिर्फ़ मादूद-ए-चंद ही ऐसे थे, जो यूनानी और फ़लसफ़ियाना ख़यालात के मातहत इल्म को इल्म की ख़ातिर तलाश करते थे। ज़्यादा तादाद ऐसों की थी जो अपना वक़्त-ए-अज़ीज़ सिर्फ़ इस्लाम के मुतालआ में सिर्फ किया करते थे।

खुल्फ़ा-ए-अब्बासिया के दौरान अह्द में इख़्वान-उस-सफ़ा ने बस्रा में ये कोशिश की कि दीनी मुआमलात में उसूल अक़्लीया से काम लिया जाये और इस्लाम में फ़लसफ़ियाना ख़यालात का दौर-दौरा हो। लेकिन क़ुरआन व हदीस के मानने वाले उन को काफ़िर और मुल्हिद तसव्वुर करते रहे। मसलन अबू सुलेमान अल-मंतकी उनकी बाबत कहता है :-

“शरीअत को अल्लाह तआला ने एक मुल्हम (इल्हामी) नबी के ज़रीये भेजा, और हम पर फ़र्ज़ है कि हम बे चूं व चरा (चुपचाप बगैर सवाल के) उस की इताअत करें। मुनज्जमों के ख़यालात और इल्म-ए-तब्इयात की बातें।, मसलन गर्मी, सर्दी, स्याल, ख़ुश्क, मुख़्तलिफ़ अजज़ा की इज्तिमाई हालत वग़ैरह का या मंतिक़ वहनदसा का शरीअत से कोई ताल्लुक़ नहीं। अगर ये उमूर जायज़ होते, तो अल्लाह तबारक व तआला उनको जायज़ क़रार देकर शरीअत को मुकम्मल कर देता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, इस के बरअक्स उसने इन उमूर को मना फ़रमाया, क्योंकि वो नहीं चाहता कि इन्सान ज़ईफ़-उल-बुनयान (कमज़ोर, इन्सान) उस के राज़ों की ख़्वाह-मख़्वाह तलाश में सरगर्दां हो ज़माना-ए-माज़ी में मुसलमानों ने फ़ल्सफ़ा की इमदाद के बग़ैर अपनी मज़्हबी मुश्किलात को हल कर लिया है।”

इमाम ग़ज़ाली जैसा आलिम भी सिर्फ ऐसे इल्म को ज़रूरी ख़्याल करता है, जो मोमिन मुसलमान को उस के दीनी फ़राइज़ की अदायगी में मदद दे सके। वो पहला के तबक़ा को ये इजाज़त नहीं देता, कि वो किसी शैय की निस्बत इस्तिफ़सार (अक़्ली तहक़ीक़ात व मालूमात) करें। किताब अल-फ़ज़्ल में इब्ने हज़म कहता है :-

हर एक अम्र जो अक़्ल से साबित हो सकता है, वो या तो क़ुरआन में मौजूद है या हदीस में लिखा है लेकिन चूँकि क़ुरआन ने तमाम मज़ाहिब को मंसूख़ कर दिया। लिहाज़ा क़ुरआन ने उन तमाम उलूम व फ़नून को भी बातिल कर दिया है, जिनका ताल्लुक़ उन मज़ाहिब से था।”

दौरे हाज़रा में मुस्लिहीन (इस्लाह करने वालो) ने ये कोशिश की है कि इस्लाम के दक़यानूसी लिबास में नई रोशनी के ख़यालात के कोरे कपड़े का पैवंद लगा दिया जाये। इस का नतीजा ये हुआ है कि इस्लाम में नित-नए फ़िर्क़े और नए मज़्हब जारी हो गए हैं। मसलन बाबी मज़्हब, बहाई मज़्हब, सर सय्यद अहमद ख़ान का नेचरी मज़्हब, क़ादियानी मज़्हब वग़ैरह। इस्लाम के मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़े और मज़ाहिब एक दूसरे के उसूलों पर क़ुरआन व हदीस की बिना (बुनियाद) पर नुक्ता-चीनी करके एक मुंसिफ़ मिज़ाज ग़ैर-मुस्लिम पर ये साबित कर देते हैं कि ख़्वाह इस्लाम में कितनी ही इस्लाह की जाये, इस में ये सलाहीयत ही नहीं कि क़ुरआन व हदीस की ख़ालिस ताअलीम पर अमल पैरा हो कर किसी क़ौम और मुल्क को शाहराह तरक़्क़ी पर चला सके। दौरे हाज़रा के इस्लामी ममालिक को इस बात का पुख़्ता यक़ीन हो गया है कि जब तक वो इस्लाम के ज़ेर-नगीन रहेंगे। और क़ुरआनी अहकाम और इस्लामी शराअ की क़ुयूद में जकड़े रहेंगे, वो किसी क़िस्म की तरक़्क़ी नहीं कर सकेंगे। लिहाज़ा उन ममालिक ने इस्लाम का भारी बोझ जो उतार फेंकने की कोशिश की है। इन मसाई का हम किसी क़द्र तफ़्सील के साथ ज़िक्र करेंगे।

(5)

जब से अरब ने तुर्की पर ग़लबा हासिल किया था और क़ुरआन और हदीस उन पर हुक्मरान रहे, तो इस्लाम ने उन तमाम तरक़्क़ी के ख़यालात को जिनका ताल्लुक़ क़ुरआन और फ़िक़्ह से ना था, कुफ़्र से मंसूब करके तुर्कों को क़ुरआन व हदीस की हदूद के बाहर निकलने ना दिया। जब मुस्तफ़ा कमाल और उस के हम-ख़यालों ने ये एहसास किया कि तुर्की का ज़वाल उस के मज़्हब और दीनयात की वजह से है, तो उन्होंने इस्लामी शरीअत और अपने मुल्क की तरक़्क़ी के बाहमी रिश्ते को बैक जुम्बिश-ए-क़लम तोड़ दिया। एक फ़ाज़िल तुर्क अबुल आदम अपनी किताब मौसूमा किताब “मुस्तफ़ा कमाल” (क़ुस्तुनतुनिया 1926 ई॰) में लिखता है:-

“हमारे मदरसों में एक ही मन्तिक़ और एक ही ज़हनीयत है कि दीनी कुतुब से सब उमूर का इस्तिख़्राज किया जाये। इस्लामी मदरसे सल्तनत तुर्की को बचा ना सके, क्योंकि उनकी ये ताअलीम थी कि हक़ीक़त और सच्चाई सि़र्फ क़ुरआन हदीस और सुन्नत नब्वी में ही पाई जाती है। इस्लामी मुतकल्लिमीन ने ज़मीर और ख़यालात की आज़ादी लोगों को ना दी, और इस्लामी शराअ (शरीअत) ने ज़िंदगी से उस का हक़ छीन लिया। एशियाई अक़्वाम क़वानीन इस्लाम के मातहत रही हैं, और उनके आईन कुतुब दीनयात से ही अख़ज़ किए गए हैं। और चूँकि ये आईन लातब्दील हैं, लिहाज़ा वो तरक़्क़ी की राह को बंद करते रहे हैं। कभी किसी को ये ख़्याल ना आया, कि ज़माने की रफ़्तार के साथ-साथ आईन व क़वानीन का बदलना भी लाज़िम है। इस के बरअक्स वो स्याह ग़लाफ़ वाली किताब (क़ुरआन) से आईन अख़ज़ करते रहे, जो क़ुस्तुनतुनिया से पहले बग़दाद में थी, और बग़दाद से पहले मक्का में थी। और सहरा के इब्तिदाई बाशिंदों की किताब थी क्या हम ऐसे आईन व क़वानीन पर अमल कर सकते हैं। जो नफ़्सियात और मुआशरती ज़िंदगी के नशव व नुमा और तरक़्क़ी का ख़्याल तक ना करें। तुर्की ने अपनी तमाम आमदनी मदरसों पर ख़र्च कर दी, लेकिन उनकी ताअलीम का तुर्की क़ौम, तुर्की ज़बान और तुर्की तहज़ीब के साथ कुछ ताल्लुक़ ना था। तुर्की की तारीख़ में सबसे ज़्यादा शर्मनाक बात ये है कि दर्सगाहों ने अल-हयात की बुनियाद क़ुरआन व हदीस पर रखी है। और जो शख़्स इस महदूद दायरा से बाहर निकलना चाहता था, उस को मतऊन व मलाऊन (लानती) क़रार दे दिया। मसीहीय्यत भी इस्लाम की तरह एक एशियाई मज़्हब था, लेकिन उसने किसी क़ौम की मुआशरत और तमद्दुनी ज़िंदगी पर जबर रवा ना रखा। मसीहीय्यत शहर रूमा में गई, लेकिन वो अपने साथ यहूद की मुआशरती ज़िंदगी ना ले गई। अगर इस्लाम की तरह मसीहीय्यत भी एक लश्कर-ए-जर्रार के साथ यरूशलेम से चलती, और यूरोप पर क़ाबिज़ हो जाती तो यूरोप का भी इस्लामी ममालिक का सा हाल हो जाता। लेकिन मसीहीय्यत ने ऐसा ना किया। जिसका नतीजा ये है कि यूरोप सलामत और महफ़ूज़ है। तुर्की ने ये कोशिश की कि दौरे हाज़रा के मुताबिक़ चले, और मुसलमान भी रहे। लेकिन ये ना हो सका। उन क़वानीन के जो इस्लाम से अख़ज़ किए गए थे, बुरे नताइज ज़ाहिर हैं।” (Muslim’s World July 1927 सफ़ा 7 ता 12)

फिर यही तुर्क कहता है कि :-

“इस्लाम के आहनी क़फ़स (लोहे के क़ैद-ख़ाने) ने एशियाई अक़्वाम की निजात का कोई इम्कान रहने ही ना दिया था।”

इसी तरह जलाल नूरी ये कहता है कि :-

“इस्लाम में हमने मसीहीय्यत जैसी नशव व नुमा और अपने गिर्द व पेश के हालात और माहौल से मुताबिक़ हो जाने की सलाहीयत और अहलीयत नहीं देखी। इस्लाम आज तक ग़ैर-मुतहर्रिक हालत में साकिन रहा है। पुराने फतावा की ज़ंजीरों में जकड़े रहना तरक़्क़ी के मुनाफ़ी (खिलाफ) है। हम ज़माना-ए-क़दीम के साकिन तसव्वुरात और ग़ैर मुतहर्रिक मुआशरती इक़्तिसादी और सयासी तसव्वुरात में बेबस हो कर बंधे हुए हैं। लेकिन ज़िंदगी का ये उसूल है कि जोशे साकिन और ग़ैर-मुतहर्रिक रहती है वो लाज़मी तौर पर लाज़वाल पज़ीर हो जाती है।”

(तुर्की इन्क़िलाब सफ़ा 58)

तुर्कों के इस एहसास का नतीजा ये हुआ कि 1922 ई॰ में मुस्तुफ़ा कमाल-अता तुर्क ने सुल्तान अब्दुल हमीद को जो दुनिया-ए-इस्लाम का ख़लीफ़ा था, तुर्की से मुल्क बद्र कर दिया। और मार्च 1922 ई॰ में उसने ख़िलाफ़त का ख़ातिमा कर दिया। जब दीगर इस्लामी ममालिक ने ख़िलाफ़त का ख़ातिमा देखा और इस्लाम के जलाल को ग़ुरूब होते देखा तो उन्होंने और बिल-ख़सूस हिन्दुस्तान के मुसलमानों ने सदा-ए-एहतिजाज बुलंद की। लेकिन मुस्तफ़ा कमाल ने जवाब दिया कि हिन्दुस्तान की तहरीक ख़िलाफ़त के वजूद से हासिल था, लेकिन उन्होंने इस्लामी इत्तिहाद को तुर्की इत्तिहाद पर क़ुर्बान कर दिया। क्योंकि वो ख़ूब जानते थे कि इस्लामी ख़यालात और दौरे हाज़रा (मौजूदा ज़माने) के ख़यालात एक दूसरे के मुतज़ाद हैं। एक तुर्क मुसन्निफ़ ने तो यहां तक कह दिया कि :-

“अगर तुर्की कौम मुसलमान ना होती, तो ये उस के हक़ में बेहतर होता।”

तुर्की सल्तनत जमहूरीया ने उन तमाम इस्लामी क़ुयूद को उड़ा दिया जो तुर्की की तरक़्क़ी की राह में हामिल थीं। कमाल अता तुर्क ने मुल्की ज़ाबता में सब से बड़ी तब्दीली ये की कि इस्लाम को तुर्की जमहूरीया सल्तनत का मज़्हब ना बनाया और यूं उमूर सल्तनत को क़ुरआन व हदीस की क़ुयूद से आज़ाद कर दिया। उस की ताज़ीरात की पहली दफ़ाअ ये है कि, “इस्लाम सल्तनत तुर्की का मज़्हब नहीं है।” और दफ़ाअ 75 में है कि, “कोई शख्श अपने मज़्हब या फ़िर्के या रसूम या फ़लसफ़ियाना ख़यालात की वजह से सज़ा और ताज़ीब का मुस्तूजिब ना होगा।” कहाँ ये दफ़ाअ और कहां क़ुरआन व हदीस की शरीअ़त इर्तिदाद जिसकी रू से मुर्तद का क़त्ल जायज़ है।

दीगर इस्लामी ममालिक की तरह तुर्क भी अपनी मादरी ज़बान को फ़रामोश कर चुके थे, और उनकी ज़बान अरबी हो चुकी थी। पस कमाल-अता तुर्क ने अरबी को सल्तनत से ख़ारिज कर दिया। अब नमाज़ आस्मानी ज़बान अरबी के बजाय तुर्की में पढ़ी जाती है। और ये क़दम ऐसी पालिसी का पेश-ख़ेमा था कि सल्तनत तुर्की पर क़ुरआन व हदीस हुक्मरान ना रहीं। बल्कि तुर्की की क़ौमी और मिल्ली नशव व नुमा और तुर्की सियासियात की बुनियाद इस्लाम के बजाय तुर्की क़ौमीयत पर क़ायम हो। तुर्कों ने तुर्की में नमाज़ पढ़ने और मस्जिदों में तरन्नुम से गाने और दिल-नवाज़ बाजा बजाने का हुक्म दे दिया है। ख़ुत्बात अरबी ज़बान के बजाय तुर्की में अदा होते हैं। ख़्वाह ख़्वाजा हसन निज़ामी दहेलवी मस्जिदों के अंदर बाजा बजाने के हुक्म को “दुश्मनों” की तरफ़ ही से मंसूब करें क्योंकि आपके ख़्याल के मुताबिक़ “कोई इन्सान ख़्वाह किसी अक़ीदे का हो ये गवारा नहीं कर सकता कि काफ़िरों की तरह मस्जिदों में बाजा बजाया जाये। तुर्की हुकूमत मज़्हब इस्लाम के ख़िलाफ़ कोई हुक्म नहीं दे सकती।”

(प्रताप 11 जुलाई 1928 ई॰)

इधर हिन्दुस्तान में ख़्वाजा हसन निज़ामी ये लिखता है, उधर तुर्की में डाक्टर अब्दुल्ला मुदीर अख़्बार इज्तिहाद अगस्त 1924 ई॰ की इशाअत में लिखता है कि :-

“इस्लाम एक ऐसा कुर्ता है जो अहले अरब के लिए काटा और बनाया गया है, और जो हम तुर्कों के गले में ज़बरदस्ती जबर के साथ पहनाया गया। उस ने हम को ज़ंजीरों में जकड़ रखा है। और हमारी क़ौमी और मिल्ली नशव व नुमा की राह में हाइल है। तुर्की ने अब तमाम क़ुयूद से नजात हासिल कर ली है।”

فاعبر وایا اولی البصارतुर्की ने अरबी रस्म-उल-ख़त को सल्तनत से ख़ारिज कर दिया है, और लातीनी रस्म-उल-ख़त इख़्तियार कर लिया है। मुस्तफ़ा शकेब बे जो क़ुस्तुनतुनिया की यूनीवर्सिटी में इल्म-ए-नफ़्सीयात का प्रोफ़ैसर है, रस्म-उल-ख़त की तब्दीली की निस्बत यूं रक़मतराज़ है :-

“अरबी हुरूफ़ तुर्की ज़बान के लिए वज़ाअ नहीं किए गए थे, जिस तरह चीनी लोहे की जूतीयां चीन के बाशिंदों के पांव के नशव व नुमा में हाइल होती रहीं। इसी तरह अरबी रस्म-उल-ख़त ने तुर्की ज़बान को तरक़्क़ी ना करने दी। अरबी हुरूफ़ का इख़्तियार करना हमारी बदक़िस्मती थी। दौरे हाज़रा में मुख़्तलिफ़ उलूम व फ़नून साईंस की इस्तिलाहात, तलग़राफ़, बंज व्यापार, तिजारत, मालियात और जंगी ज़रूरीयात के लिए नई इस्तिलाहात को वज़ाअ करने के लिए अरबी ना काफ़ी साबित हुई है। पस हमें एक नए रस्म-उल-ख़त की ज़रूरत महसूस हुई। हम ये बर्दाश्त नहीं कर सकते, कि अरबी हुरूफ़ हमारे बच्चों के ज़हनों और रूहों का गला घोंट दें। हमको एक ऐसे रस्म-उल-ख़त की ज़रूरत है जो हमारी ज़बान की तरक़्क़ी और तक्मील में मुमिद व मुआविन हो। और ये अरबी रस्म-उल-ख़त से नहीं हो सकता जो ज़माना-ए-क़दीम के क़द-आवर हैवानों की तरह भद्दी है। तुर्की क़ौम की मौजूदा जहालत अरबी हुरूफ़ और रस्म-उल-ख़त की वजह से है। उन हुरूफ़ की बेकाइदगी की वजह से हमारे बच्चे ताअलीम से कोसों दूर भागते हैं। तुर्की रस्म-उल-ख़त हमको अरबी हुरूफ़ के बुरे नताइज से बचाएगा, और हमारे बच्चों को ताअलीम का शौक़ ऊद कराएगा। इलावा-अज़ीं ये रस्म-उल-ख़त तुर्की को जो अरबी और फ़ारसी सर्फ़ व नहो के मातहत मफ़लूज रही है। अज़ सर-ए-नौ इल्म व फ़नून के सीखने में ममदू मुआविन होगा।”

(Variet Aug/22/1928)

तुर्की रिसाला इक़दाम अपनी इशाअत मई 1928 ई॰ में लिखता है कि :-

“तुर्कों ने इस्लाम क़ुबूल करते वक़्त अरबी रस्म-उल-ख़त अरबी तहज़ीब दस्तुरात और क़वानीन इख़्तियार कर लिए। और इस तरह अरबियत का क़दम तुर्की सोसाइटी में जम गया। ये तुर्कों की बद-क़िस्मती थी कि ये हालात एक हज़ार साल तक रहे। लेकिन इस्लामी दुनिया से अरबी ज़बान की वजह से साईंस और उलूम व फ़नून गुम हो गए। इस्लामी तहज़ीब टूटते तारे की तरह है जिसकी चमक का ज़माना निहायत महदूद होता है। तुर्की क़ौम में हर तरह की तरक़्क़ी की सलाहीयत मौजूद थी, लेकिन इस्लामी तहज़ीब साकिन और ग़ैर-मुतहर्रिक थी। और इस के इख़्तियार करने का नतीजा तुर्कों के हक़ में निहायत मुज़िर (नुक़्सानदेह) साबित हुआ।”

इस्लाम की वजह से तुर्कों का ये हाल हो गया था कि इस्तिफ़सार की जिबिल्लत (तहक़ीक़ व मालूमात करने की फ़ित्रत) बिल्कुल नाकारा हो गई थी। तुर्की की साबिक़ा ज़हनीयत की उम्दा मिसाल एक ख़त है जो किसी तुर्की अफ़्सर ने एक अंग्रेज़ मुहक़्क़िक़ को तहरीर किया था। अंग्रेज़ मुहक़्क़िक़ ने उस तुर्की अफ़्सर से आदाद व शुमार तलब किए थे, जिस पर उस को ये जवाब मिला कि :-

जो बात आपने मुझसे दर्याफ़्त की है, वो ना सिर्फ मुश्किल बल्कि ग़ैर-मुफ़ीद भी है। अगरचे में मुद्दत तवील से इस जगह सुकूनत पज़ीर हूँ, लेकिन मैंने ना तो घरों को शुमार किया है, और ना यहां के बाशिंदों की तादाद दर्याफ़्त की है। ये मेरा काम नहीं कि ये मालूम करता फिरूँ कि फ़ुलां अपने ख़च्चर पर क्या लादता है और फ़ुलां क्या-क्या अश्या जहाज़ के ज़रीये भेजता है। इस शहर की गुज़श्ता तारीख़ के मुताल्लिक़ सिर्फ़ ख़ुदा को ही इल्म है कि इस्लाम की तल्वार से पहले कुफ़्फ़ार ने क्या गोह खाया होगा। हमारा इन बातों को दर्याफ़्त करना मह्ज़ बेसूद है। कोई फ़ल्सफ़ा ख़ुदा की वहदत पर ईमान लाने से बेहतर नहीं। उसी ने दुनिया व माफिहा को पैदा किया। क्या ये बात सज़ावार है कि हम उस की ख़ल्क़त के राज़ों को दर्याफ़्त करते फिरें। क्या ये लायक़ है कि हम कहते फिरें, कि फ़ुलां सितारा फ़ुलां सितारे से गिर्द गर्दिश करता है। और फ़ुलां दुमदार सितारा इतने बरसों के बाद आता और फिर जाता है आप इन बातों को रहने दें। और उनकी तरफ़ मुतवज्जा ना हों। जिस दस्त-ए-क़ुदरत ने उनको पैदा किया है, वही उनको सँभालता है। और वही उनको उनकी मुक़र्रर राह पर चलाएगा।

(Quoted by Prof W.James from Sir A.Layord Ninevah & Babylonia)

अल्लाह ! अल्लाह ! कहाँ ये इस्लामी ज़हनीयत जो क़ुरआनी आयात (बनी-इस्राईल 38 ता 40) के ऐन मुताबिक़ है, और कहाँ दौरे हाज़रा के तुर्क-ए बह हैं तफ़ावुत राज़-अज़ कजासत तायकजा। गुज़शता तेरह साल में तुर्की क़ुरून-ए-वुस्ता के तारीक ज़माने से निकल कर हैरत-अंगेज़ तौर पर दौरे हाज़रा की तरक़्क़ी याफ्ताह क़ौम बन गई है।

(6)

अगरचे अफ़्रीक़ा में इस्लाम एक हज़ार (1000) साल से ज़ाइद अर्से से जारी है, और उसने ऐसे शहरों पर क़ब्ज़ा कर रखा है जो उस के ग़लबा हासिल करने में ममदू मुआविन रहे हैं। ताहम इस्लाम ने हब्शी अक़्वाम की ताअलीम के लिए मसीहीय्यत के मुक़ाबले में कुछ नहीं किया। मिस्र और सूडान में इस्लाम ने सबसे ज़्यादा तरक़्क़ी की है, लेकिन इस का तरीक़ा ताअलीम वही दक़यानूसी तरीक़े से जो सदीयों से चला आया है, और जिसका सबसे आलीशान नतीजा क़ाहिरा में जामेअ-उल-उलूम अज़हर है ये जामेंअ़ क़ुरआन व हदीस और फ़िक़्ह का हुसैन क़िला है। और दौरे हाज़रा के उलूम व फ़नून का जानी दुश्मन है। जिबिल्लत इस्तिफ़सार (गौर व फ़िक्र व तहक़ीक़ की फ़ित्रत) को हर वक़्त और हर हालत में दबाना तफ़ह्हुस तजस्सुस के ख़िलाफ़ हर वक़्त कार्रवाई करना इस दार-उल-उलूम का तुगरा इम्तियाज़ है। इस के उलमा ज़माना-ए-सल्फ़ के नक़्श-ए-क़दम पर चलना और क़ुरआन व हदीस और कुतुब फ़िक़्ह से सनद लेना मूजिब सआदत दारेन ख़्याल करते हैं।

लेकिन तुर्कों की देखा देखी ईरान और मिस्र के मुसलमान भी इस महदूद दायरे में रहना नहीं चाहते। जो ख़यालात की वुसअत और आज़ादी के ख़िलाफ़ है। चुनान्चे शेख़ अली अबदूर्रज़्ज़ाक़ जो जामेअ़ अज़हर की फैकल्टी का मैंबर है। और मंसूर की अदालत शरईयह का क़ाज़ी है, अपनी किताब में लिखता है कि :-

क़वानीन शरईयह सियासी गर्वनमैंट की हिदायत के लिए वज़ाअ नहीं किए गए थे, बल्कि उनका मक़्सद अफ़राद की अमली ज़िंदगी की रहनुमाई करना है। मुहम्मदﷺ मह्ज़ एक रसूल थे, जो एक मज़्हबी पैग़ाम लेकर आए थे। आपके पैग़ाम का ताल्लुक़ सियासियात से ना था। आपने कोई सल्तनत क़ायम ना की थी। आप दीगर अम्बिया की तरह एक नबी थे।”

(Islam & Foundations of State)

डाक्टर ता हुसैन आफ़ंदी प्रोफ़ैसर अरबी लिटरेचर जामेअ़ अज़हर ने लिखा है कि :-

जामेअ अज़हर के उलमा चाहते हैं कि साईंस मज़्हब इस्लाम के मातहत रहे हम चाहते हैं कि साईंस और मज़्हब को जुदा किया जाये, ताकि साईंस बग़ैर किसी बेजा मुदाख़िलत के तरक़्क़ी करे।”

(Quoted by levoniont in Islam mentality p.120)

इसी प्रोफ़ैसर ने 1926 ई॰ में एक किताब ज़माना-ए-जाहिलीयत की शायरी पर तस्नीफ़ की, जिसके बाअज़ नताइज रासिख़-उल-एतक़ाद मुसलमानों के ख़यालात के ख़िलाफ़ थे, मसलन वो कहता है कि :-

“ज़माना-ए-जाहिलीयत के शुअ़रा में से बाअज़ का कलाम ऐसा है जो फ़साहत व बलाग़त में क़ुरआन के बराबर है।”

हालाँकि किताब का ताल्लुक़ मज़्हब के साथ नहीं था, बल्कि शायरी के साथ था। लेकिन इस का चर्चा यहां तक हुआ कि मिस्र की पार्लीमैंट में ये तक़ाज़ा किया गया कि प्रोफ़ैसर ताहा हुसैन को जामेअ़ अज़हर से अलग कर दिया जाये। एक मैंबर ने तो यहां तक कह दिया कि ऐसे जुर्म की सज़ा क़ुरआन के मुताबिक़ संगसारी है। चुनान्चे इस किताब की तमाम कापीयां नज़र-ए-आतिश कर दी गईं।

(7)

हक़ीक़त तो ये है कि जिबिल्लत इस्तिफ़सार (आज़ाद गौर ओ फ़िक्र तहक़ीक़ की फ़ित्रत) की नशव व नुमा और तरक़्क़ी इस्लामी ममालिक में नहीं हो सकती, क्योंकि क़ुरआन व हदीस इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) के ख़िलाफ़ हैं। जिसका नतीजा ये है कि उन ममालिक में ख़यालात की आज़ादी की मुमानिअत है। और यूं इस्लामी ममालिक पर ही क्या मुन्हसिर है, जिस जगह भी अहले इस्लाम की अक्सरीयत है, वहां ख़यालात की आज़ादी की राह में रुकावटें पैदा की जाती हैं। ख़ुद हिन्दुस्तान में जहां क़ुरआन व हदीस के मुताबिक़ हुक्मरानी नहीं की जाती। आए दिन ऐसी किताबें बहक मुल्क मुअज़्ज़म ज़ब्त (क़ब्ज़े में) की जाती हैं, जिनमें इस्लाम के ख़िलाफ़ आज़ादाना बह्स हो। ऐसी किताबों के मुसन्निफ़ों पर मुक़द्दमात चलाए जाते हैं, और जो मुसलमान मज़्हबी जुनून की वजह से ऐसे मुसन्निफ़ों को क़त्ल कर देते हैं, उनको अवामुन्नास ग़ाज़ी और शहीद का ख़िताब दे देते हैं। ये हाल उस मुल्क का है जहां क़ुरआन व हदीस के शरई अहकाम के मुताबिक़ हुकूमत नहीं की जाती। और जहां के मुसलमान सदीयों से ग़ैर मुस्लिम तासिरात से मुतास्सिर हो चुके हैं। नाज़रीन ख़ुद अंदाज़े लगा सकते हैं कि उन ममालिक में ख़यालात की आज़ादी तफ़ह्हुस, तजस्सुस और इस्तिफ्सार (अज़ादाना तहक़ीक़ गौर व फ़िक्र मालूमात) का क्या हश्र होगा। जहां आईन मुल्क और क़वानीन सल्तनत क़ुरआन व हदीस पर ही मबनी हैं।

(8)

लेकिन जिबिल्लत इस्तिफ़सार (तहक़ीक़ व मालूमात की फ़ित्रत) हमारी सरिश्त का एक ज़बरदस्त हिस्सा है। इन्सानी फ़ित्रत इस बात का तक़ाज़ा करती है, कि हम हर बात में तजस्सुस, इस्तिफ़सार, तफ़ह्हुस और जुस्तजू (अज़ादाना तहक़ीक़ गौर व फ़िक्र मालूमात) करें। पस दौर-ए-हाज़रा के मुस्लिम नौजवान जिनके अज़हान (ज़हन) नई रोशनी से मुनव्वर हो चुके हैं। ख़्वाह वो शुमाली अफ़्रीक़ा के रहने वाले हों। ख़्वाह मुराको, त्रिपोली, मिस्र, कनआन, ईरान, इराक़, हिन्दुस्तान तुर्की चीन के बाशिंदे हों। फ़ी-ज़माना इस बात पर इसरार करते हैं, कि उनको ख़यालात की आज़ादी नसीब हो। चुनान्चे अल्लामा डाक्टर इक़बाल कहते हैं कि :-

“गुज़शता पाँच सौ साल से इस्लामी ख़यालात साकिन रहे हैं। उन तमाम सदीयों में जब हमारे दिमाग़ सो रहे थे, मग़रिब जागता रहा और उस का ज़हन काम करता रहा। क़ुरून-ए-वुसता में इस्लामी दीनयात मुकम्मल हो गई, लेकिन उस वक़्त से ज़माने ने करवट ले ली है। और इन्सानी फ़ल्सफ़ा वग़ैरह बहुत आगे निकल गए हैं। नए नज़रिये जात क़ायम हो गए हैं, और पुरानी बातें नए ख़यालात की रोशनी में नज़र आती हैं। और नित-नए हल तलब मसाइल अपना मुँह दिखा रहे हैं। ऐसा मालूम होता है कि इन्सानी अक़्ल ज़माने व मकान और इल्लत व माअलूल की क़ुयूद से बाला हो गई है, और अब इस्लाम की नई पोद जो एशिया और अफ्रीका के मुमालिक में है ये चाहती है कि नये ख़यालात की रोशनी में इस्लामी अक़ीदा नज़र आए।”

(सफ़ा 7)

फिर अल्लामा मौसूफ़ कहते हैं कि :-

“जो दीनयात मुर्दा फ़ल्सफ़ा की इस्तिलाहात पर क़ायम हो, वो उन अश्खाश के लिए कारआमद नहीं हो सकता जिनके ख़यालात दौरे-जदीद (नए ज़माने) से ताल्लुक़ रखते हैं।”

(सफ़ा 92)

इसी तरह मशहूर मुसन्निफ़ ऐस॰ ख़ुदा बख्श मरहूम अपनी किताब (Essays. Indian & Islamic) में कहता है कि जो :-

“शख़्स ये ख़्याल करता है कि जो मज़्हबी और सोशियल अहकाम हमको तेरह सौ (1300) साल हुए मिले थे, वो अब भी बग़ैर किसी तब्दीली के तमाम के तमाम दौरे हाज़रा पर आयद हो सकते हैं। वो अपने आपको धोका देता है और फ़रेब-ख़ुर्दा है। पचास (50) साल से इस एक बात पर हिन्दुस्तान की नई पोद और पुरानी नस्ल के ख़यालात में जंग हो रही है। क़दीम ख़यालात रोज़-बरोज़ ज़वाल-पज़ीर हो रहे हैं, और बोसीदा हो कर तिब्बी मौत मर रहे हैं। अगर कोई शख़्स हवा के तूफ़ान के साथ या समुंद्र की लहरों के ख़िलाफ़ जंग कर सकता है तो वो तरक़्क़ी के साथ भी जंग कर सकता है। ताअलीम याफ़्ता मुसलमान चाहते हैं कि उनके दीनी अक़ाइद वग़ैरह की इस्लाह अक़्ल-ए-सलीम के मुताबिक़ हो सके। वो बुज़ुर्गान सल्फ़ की सनद और अक़्वाल के सामने सर-ए-तस्लीम ख़म करने को तैयार नहीं, बल्कि इस के बरअक्स उनकी सनद को वो दिलेराना चैलेंज करते हैं, वो इस अम्र का इक़दाम क़ौमीयत, तरक़्क़ी, तहज़ीब, और कल्चर के नाम से करते हैं।”

चुनान्चे तुर्की मुसन्निफ़ जलाल नूरी बे अपनी किताब तुर्की इन्क़िलाब में बेमिस्ल जुर्आत को काम में ला कर लिखता है :-

“मेरी राय तो ये है कि क़ुरआन का किताबी सूरत में जमा होना ना तो क़ाबिल-ए-तारीफ़ बात थी और ना मुफ़ीद थी। हमें इस बात का इल्म नहीं कि रसूल ने इस के जमा किए जाने का कभी हुक्म भी दिया था। बहर-हाल ख़लीफ़ा उस्मान की ये सई और कोशिश चंदाँ सताइश के क़ाबिल भी नहीं। क़ुरआन में चंद अहकाम और हिदायात मौजूद हैं, लेकिन ये अहकाम ज़रूरत के मुताबिक़ नाज़िल होते थे, और उनका एक दूसरे से कोई ताल्लुक़ भी नहीं था। क़ुरआन का ये मक़्सद नहीं था कि उन अहकाम को एक जा तर्तीब देकर किताबी सूरत में जमा किया जाये। नबीﷺ ने ऐसा हुक्म कभी नहीं दिया था और ना आपका ये इरादा और मक़्सद था। लेकिन मोअल्लिफ़ क़ुरआन ने इस बात को नज़र-अंदाज कर दिया। क़ुरआन का एक-एक हुक्म किसी ख़ास वक़्त ज़माने और मौक़े से ताल्लुक़ है।”

(सफ़ा 130)

पस इस्लाम की तारीख़ में पहली दफ़ाअ दौर-ए-हाज़रा में मज़्हब को क़ौमीयत और सियासत से जुदा किया जा रहा है। मज़्हबी अक़ाएद को इन्सान की ज़मीर से मुताल्लिक़ किया जा रहा है ताकि क़ुरआनी अहकाम इन्सानी ज़िंदगी के हर शोअबे की अदना तफ़सीलात पर वाहिद हुक्मरान ना रहें। और जिबिल्लत इस्तफ़सार (आज़ादाना तहक़ीक़ात व गौर फ़िक्र की फ़ित्रत) बग़ैर किसी रोक-टोक के अपने इक़्तिज़ा (तक़ाज़ों) को पूरा करने के लिए तफ़ह्हुस और तजस्सुस से काम ले सके।

नतीजा

सुतूर-बाला से ये ज़ाहिर हो गया होगा कि इस्लाम जिबिल्लत इस्तिफ़सार (आज़ादाना तहक़ीक़ात व गौर फ़िक्र की फ़ित्रत) को अपने इख़्तियार और रोब से दबाता है, उस की नशव व नुमा और तरक़्क़ी की राह में रूकावटें पैदा करता है। इस्लामी तारीख़ हमारे इस नतीजे की मुअय्यिद है कि इस्लामी ममालिक में ख़यालात की आज़ादी की गुंजाइश नहीं। लिहाज़ा जहां तक इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) का ताल्लुक़ है इस्लाम दीन फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं हो सकता।

इस के बरअक्स मसीहीय्यत इस बात पर मिस्र है कि,“सब बातों को परखा और आज़्माया जाये, और जो बेहतर हो उस को इख़्तियार किया जाये।”वो तजस्सुस तफ़ह्हुस, इस्तिफ़सार, (आज़ादाना तहक़ीक़ात व गौर फ़िक्र की फ़ित्रत) की नशव व नुमा और इल्म की तरक़्क़ी की ख़्वाहां है। मसीहीय्यत की तारीख़ इस अम्र को अयाँ कर देती है, कि इस के ज़ेर-ए-साया फ़ल्सफ़ियाना नज़रीए, मुहक़्क़िक़ाना कारनामे, इल्मी मुबाहसात वग़ैरह फलते-फूलते रहे हैं। लिहाज़ा मसीहिय्यत एक वाहिद मज़्हब है जो हक़ीक़ी माअनों में दीन-ए-फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ हो सकता है।

फ़स्ल हफ़्तुम

जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी की ख़सुसियात

इन्सानी फ़ित्रत ऐसी वाक़ेअ हुई है कि जब मुख़्तलिफ़ अफ़राद तबअन आपस में मिल-जुल कर रहना पसंद करते हैं, और तन्हाई से नफ़रत रखते हैं। जानदार और बे-जान अश्या में ये इम्तियाज़ है कि जानदारों में तमद्दुनी गिरोहबंदी है। इस जिबिल्लत का असर हमारी मुआशरती ज़िंदगी पर बे-अंदाज़ा होता है। हम तिब्बी तौर पर अपने हम-जिंसों की तलाश करते हैं और उनसे रिफ़ाक़त रखना चाहते हैं, यही वजह है कि अकेली कोठड़ी में बंद हो जाने की सज़ा नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त होती है।

(2)

इन्सानी तारीख़ में कोई ऐसा ज़माना नहीं मिलता, जब मुख़्तलिफ़ अफ़राद क़बाइल में ना रहे हों। इन्सानी तारीख़ ये ज़ाहिर करती है कि तहज़ीब और तरक़्क़ी की इब्तिदाई मनाज़िल में अफ़राद को कोई एहमीय्यत और वक़अत हासिल ना थी। हर शख़्स क़बीले का मह्ज़ एक फ़र्द था और बस उस की हस्ती बज़ात-ए-ख़ुद कुछ क़द्र और वक़अत ना रखती थी। क़बीले की हस्ती और बक़ा और क़ियाम ही आला मक़ासिद ख़्याल किए जाते थे। अगर अफ़राद की कुछ हस्ती थी, तो मह्ज़ क़बीले की ख़ातिर थी। क़बीले से अलग किसी फ़र्द की सिफ़र बराबर भी क़द्र ना थी। इस की मिसाल हमारे मुल्क की ज़ातों की दर्जाबन्दी में पाई जाती है। अगर कोई शख़्स किसी अछूत ज़ात के घर पैदा हुआ है, तो वो अछूत तसव्वुर किया जाता है। बतौर एक फ़र्द के वो कुछ हस्ती नहीं रखता, ख़्वाह वो बज़ात-ए-ख़ुद कैसा ही पाक और नेक इन्सान क्यों ना हो।

(3)

उन इब्तिदाई मनाज़िल से तरक़्क़ी करके इन्सान इस मंज़िल पर पहुंचता है जब क़बीले की जगह क़ौम और मुल्क की हस्ती और बक़ा आला तरीन मक़ासिद ख़्याल किए जाते हैं। अगर कोई फ़र्द बशर क़ौम और मुल्क की बक़ा के लिए मुफ़ीद है, तो वो वक़अत और क़द्र की निगाह से देखा जाता है। लेकिन अगर कोई फ़र्द क़ौम और मुल्क की ज़िंदगी से जुदा हो कर ज़िंदगी बसर करना चाहे, तो वो कुछ वक़अत नहीं रखता। अगर वो जीता है तो क़ौम और मुल्क की बक़ा के लिए जीता है और अगर क़ौमी और मुल्की मफ़ाद उस की मौत से हासिल हो सकते हों, तो वो बे-दरेग़ मौत का लुक़्मा किया जाता है। अंदरें-हालात किसी इन्सान को ये आज़ादी हासिल नहीं होती कि क़ौमी, मिल्ली, और मुल्की रसूम व रिवाज को तर्क कर दे, या नए रसूम या नए आईन को वज़ाअ करे या किसी नए मज़्हब को इख़्तियार करे। अगर कोई फ़र्द इस क़िस्म की बात करने की जुर्आत करता है, तो वो क़ौम व मिल्लत और मुल्क से ख़ारिज कर दिया जाता है या क़त्ल कर दिया जाता है।

(4)

इन्सानी तरक़्क़ी की आख़िरी और इंतिहाई मंज़िल पर अफ़राद की क़द्र और वक़अत अफ़राद के तौर पर की जाती है इस मंज़िल पर हर एक फ़र्द बशर को एक आज़ाद और ज़िम्मेवार हस्ती तस्लीम किया जाता है। जो बक़ा-ए-नौ की ख़ातिर या क़बीले या मिल्लत या क़ौम और मुल्क की ख़ातिर पैदा नहीं होता, बल्कि इस के बरअक्स क़बीले और क़ौम और मुल्क उस की रुहानी तरक़्क़ी का वसीला और ज़रीया ख़्याल किए जाते हैं।

लेकिन ये अम्र ज़रूरी है कि इस इंतिहाई मंज़िल में अनानीयत (अना) और जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी में बाहम सुलह हो। और दोनों पहलू इफ़रात व तफ़रीत से ख़ाली रहें। जिस तरह इब्तिदाई मनाज़िल में जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी अनानीयत (अना) को दबाती रही है। अब तरक़्क़ी की इस इंतिहाई मंज़िल पर अनानीयत इस जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी को दबाने ना पाए। बल्कि दोनों पहलू ब पहलू और दोश-बदोश हो कर अफ़राद और अक़्वाम को उनकी आला-तरीन मनाज़िल की जानिब चलने में ममदू मुआविन हों।

जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी और दीन-फ़ित्रत के लवाज़मात

सुतूर-बाला से ज़ाहिर हो गया होगा, कि दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम है कि इस बात का ख़्याल रखे कि इस इज्तिमा पसंदी की जिबिल्लत (एक साथ मिल कर रहने की फ़ित्रत) अफ़राद की हस्ती को दबाने ना पाए। बल्कि हर फ़र्द को ज़िम्मेदार आज़ाद व अख़्लाकी हस्ती क़रार दे, ताकि हर फ़र्द अपने क़बीले, जमाअत, मिल्लत, क़ौम, और मुल्क की ख़िदमत तरक़्क़ी और बहबूदी में अपनी नजात की तलाश करे।

दीन-ए-फ़ित्रत का ये भी काम है, कि ऐसे जामेअ़ उसूल वज़ाअ और क़ायम करे। जिनका इतलाक़ हर ज़माने, क़ौम और मुल्क के इन्सानी तमद्दुन और मुआशरत के मुख़्तलिफ़ शोअ्बों पर हो सके।

दीन-ए-फ़ित्रत का ये भी काम है कि ख़ुदा की ज़ात की निस्बत ऐसी ताअलीम दे जो इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) के इक़्तिज़ा (तक़ाज़ों) के मुताबिक़ हो, और ऐसे उसूल बतलाए जिससे ख़ुदा और इन्सान के बाहमी ताल्लुक़ात में रिफ़ाक़त का सिलसिला क़ायम और जारी रह सके।

मसीहीय्यत और अफ़राद की वक़अत

ये एक तवारीखी हक़ीक़त है कि कलिमतुल्लाह इस दुनिया के पहले मुअल्लिम थे जिन्हों ने कुल आलम को ये सिखलाया कि हर फ़र्द बशर (हर एक इंसान) एक ज़िम्मेदार अख़्लाक़ी हस्ती है। आपने ये ताअलीम दी कि ख़ुदा बाप हर फ़र्द बशर से लाज़वाल मुहब्बत रखता है। और हर एक बशर (इंसान) की ज़िंदगी का ख़्वाह वो मर्द हो या औरत, बच्चा हो या बूढ़ा, ख़फ़ीफ़ से ख़फ़ीफ़ वाक़िया भी ख़ुदा के इल्म और मुहब्बत का मज़हर है। (मत्ती 10:30) आपने फ़रमाया कि, हक़ीरतरीन इन्सान की रूह की क़द्र ना सिर्फ तमाम दुनिया से ज़्यादा है, (मरक़ुस 8:36) बल्कि वो ऐसी क़ीमती शैय है कि उस को हासिल करने के लिए ख़ुदा ने अपने इकलौते बेटे को इस दुनिया में भेजा। ताकि किसी फ़र्द बशर (इंसान) की रूह हलाक ना हो, बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए। (युहन्ना 3:16) आपने ये ताअलीम दी कि, सबसे बुरा वो शख़्स है जो किसी अदना से अदना इन्सान की रुहानी तरक़्क़ी में रुकावट का बाइस होता है। और फ़रमाया, “जो कोई इन छोटों में से किसी को ठोकर खिलाता है, उस के लिए ये बेहतर है कि एक बड़ी चक्की का पाट उस के गले में लटकाया जाये, और वो गहरे समुंद्र में डुबो दिया जाये। ख़बरदार इन छोटों में से किसी को हक़ीर ना जानना।” तुम क्या समझते हो? अगर किसी आदमी की सौ (100) भेड़ें हों, और उनमें से एक भटक जाये तो क्या वो निनान्वें (99) को छोड़कर और पहाड़ों पर जाकर उस भटकी हुई को ना ढूंढेगा? और अगर ऐसा हो कि उसे पाए तो मैं तुमसे सच कहता हूँ कि वो इन निनान्वें (99) की निस्बत जो भटकी नहीं, उस भेड़ की ज़्यादा ख़ुशी करेगा। इसी तरह तुम्हारे बाप (परवरदिगार) की जो आस्मान पर है, ये मर्ज़ी नहीं कि इन छोटों में से एक भी हलाक हो। (मत्ती 18:48, लूक़ा 9:48 वग़ैरह) मुनज्जी आलमीन इस दुनिया में इसलिए आए ताकि हर ज़माने और हर मुल्क और क़ौम के हर मर्द और हर औरत, हर बच्चे, और हर जवान और बूढ़े को नजात दें (1-युहन्ना 6:12-15) जो कोई बेटे पर ईमान लाता है, हमेशा की ज़िंदगी उस की है। (युहन्ना 3:26, 5:24, 6:37, 7:38, 10:27 वग़ैरह) इंजील जलील हमको ताअलीम देती है कि, ख़ुदा के हाँ किसी की तरफ़दारी नहीं, जलाल और सलामती हर एक नेकोकार को मिलेगी। (रोमीयों 2:10) हर फ़र्द बशर ख़ुदा के नज़्दीक क़द्र और वक़अत रखता है, और मसीह हर एक का मुनज्जी (नजात देने वाला) है। (रोमीयों 5:8, 6:23, 9:32, 1-कुरंथियो 8:12 वग़ैरह) मुक़द्दस पोलुस फ़रमाता है कि, ख़ुदा ने दुनिया के कमीनों और हक़ीरों को बल्कि बे वजूदों को नजात के वास्ते चुन लिया। (1-कुरंथियो 3:16) पस हर एक शख़्स ख़्वाह वो अदना हो या आला, ख़्वाह अमीर हो या ग़रीब, ख़्वाह बड़ा हो छोटा, ख़्वाह मर्द हो ख़्वाह औरत, जो मसीह में है वो नया मख़्लूक़ है। उस में से पुरानी चीज़ें जाती रहीं, देखो वो नई हो गईं। (2-कुरंथियो 5:17 वग़ैरह-वग़ैरह)

जनाब मसीह का एक दरख़शां कारनामा ये है कि जहां आप किसी इन्सान की बुरी आदतों के अम्बार में किसी नेक ख़सलत का शमा (क़लील मिक़्दार) भी देख लेते। आप इस कोशिश में रहते कि वो नेक आदत रोज़-बरोज़ बढ़ती जाये और यहां तक तरक़्क़ी कर जाये कि रफ़्ता-रफ़्ता उस की अनानीयत (अना) और ज़ात के इज़्हार का वसीला हो जाएगी। मसलन हज़रत पतरस जैसे जल्दबाज़ और बुज़दिल शख़्स, हज़रत युहन्ना जैसे ग़ुस्सेवार और तुंद मिज़ाज शख़्स, अला-हाज़ा-उल-क़यास (इसी तरह और भी होते जाएं) दीगर हवारियों को आपने रिसालत के ओहदे पर मुम्ताज़ फ़रमाया। “और उनसे आपने इस क़द्र मोहब्बत की।” (युहन्ना 15:12-15, 17:12) कि उनकी तमाम बद-आदतें उनसे दूर हो गईं, और उनकी नेक खूबियां ऐसी तरक़्क़ी कर गईं, कि वो उनकी ज़ात का जोहर हो गईं। और उनकी बदौलत तमाम अकनाफ़ आलम में मसीहीय्यत फैल गई। इसी तरह-ए-दीगर अश्ख़ास के साथ भी आपने यही सुलूक किया। (मरक़ुस 12:41-44, 14:3-9, 10:17-22, मत्ती 26:36۔41, लूक़ा 23:34, 15:11, 19:8-9 वगैरह) आपने फ़रमाया कि अगर किसी बदतरीन गुनेहगार शख़्स में नेकी का इतना शमा बाक़ी रहा हो कि उसने अज़राह रहम अपनी ज़िंदगी में एक दफ़ाअ भी तरस खाकर किसी प्यासे को पानी का पियाला पिलाया हो, तो ऐसे गुनाहगार के लिए भी उम्मीद बाक़ी है कि वो किसी दिन मुक़द्दसों की सफ़ में शुमार हो जाएगी। (मरक़ुस 9:40-41 वग़ैरह) आपने एक तम्सील के ज़रीये ये हक़ीक़त मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) फ़रमाई, कि अगर किसी शख़्स में रत्ती भर लियाक़त नेकी करने की मौजूद हो और वो इस लियाक़त को इस्तिमाल करे और यूं अपनी अनानीयत (अना) को तरक़्क़ी दे। तो वो अपनी ज़ात का इज़्हार इस रत्ती भर लियाक़त से इसी तरह से कर सकता है जिस तरह एक दूसरा शख़्स जिसकी ज़ात में नेकी फ़रावाँ हो। (मत्ती 24:14,23) ग़रज़-कि मसीहीय्यत की ये ख़ुसूसीयत है कि वो हर इन्सान को मौक़ा और तौफ़ीक़ अता करने की सलाहीयत रखती है। ताकि दुनिया का हर फ़र्द बशर (हर एक इंसान) अपनी अनानीयत (अना, खुदी) का जायज़ तौर पर इज़्हार कर सके, और अपनी ज़ात को तरक़्क़ी और तक्मील दे सके। जिससे ज़ाहिर है कि मसीहीय्यत दीन-ए-फ़ित्रत है।

इस्लाम और अफ़राद की वक़अत

क़ुरआन गु़लामी की क़बीह रस्म को जायज़ क़रार देता है। क़ुरआन ख़ुद कहता है कि, “ग़ुलाम पराए के बस में होता है और किसी शैय पर इख़्तियार नहीं रखता।” (सूरह नहल आयत 77, सूरह रोम 27) ताहम वो ना सिर्फ गु़लामी को मुबाह क़रार देता है बल्कि उस को जिहाद वग़ैरह के मरग़बात व महरकात हसना में शुमार करता है। माल-ए-ग़नीमत में से बांदियों को हासिल करना, (सूरह निसा 29) और उनमें से लातादाद के साथ मुबाशरत करना, (निसा आयत 3, अह्ज़ाब 5 वग़ैरह) ख़्वाह वो मन्कूहा (शादीशुदा) औरतें ही क्यों ना हों। (निसा 28) क़ुरआन की रू से जायज़ है इस में कुछ शक नहीं कि क़ुरआन ने उनके साथ नेक सुलूक रवा रखने का हुक्म दिया है। (निसा आयत 40) और अगर ग़ुलाम ज़र फ़िद्या अदा कर दे, तो वो आज़ाद हो सकता है। (नूर 33) लेकिन क़ुरआनी बिना (बुनियाद) पर हम किसी ऐसे मुस्तक़बिल (आने वाले) ज़माने का ख़्याल नहीं कर सकते, और (ना क़ुरआन ने ऐसा ख़्याल किया है) जब गु़लामी बिल्कुल बंद हो जाएगी इस्लामी ममालिक में गु़लामी बंद नहीं हो सकती, क्योंकि क़ुरआन व हदीस ने इस को मुबाह (जायज़) क़रार दिया है। और इस्लामी शराअ (शरीअत) इस को जायज़ क़रार देती है। यही वजह है कि तमाम ख़ालिस इस्लामी ममालिक में इस्लाम के तेरह सौ (1300) साल गुज़रने पर भी ग़ुलामों की मंडीयां हर जगह मौजूद हैं।

(2)

इस्लाम ने इन्सान को अख़्लाक़ी तौर पर भी आज़ाद ज़िम्मेदार हस्ती क़रार नहीं दिया। चुनान्चे क़ुरआन कहता है, “जब हम किसी बस्ती को हलाक करने का इरादा करते हैं तो वहां के दौलतमंदों को हुक्म देते हैं, फिर वो इस में ना फ़रमानी करते हैं, तब उन पर वाअदा अज़ाब साबित हो जाता है, फिर हम उनको उखाड़ फेंकते हैं।”(बनी-इस्राईल आयत 17) “हमने (अल्लाह ने) आदमीयों और जिन्नों में से अक्सरों को दोज़ख़ के लिए पैदा किया है।” (सूरह आराफ़ 178) “अगर तेरा रब चाहता तो सब लोगों को राह पर कर देता, और वो हमेशा इख़्तिलाफ़ करते रहेंगे मगर जिस पर तेरे रब का रहम हुआ, अल्लाह ने उनको इख़्तिलाफ़ करने के लिए ही पैदा किया है, और तेरे रब की बात पूरी हुई। कि अलबत्ता मैं जिन्नों और आदमीयों सबसे, दोज़ख़ को भर दूंगा।” (सूरह हूद 120)“अगर अल्लाह चाहता तो सबको एक ही दीन पर कर देता, लेकिन वो जिसको चाहे गुमराह करे और जिसको चाहे हिदायत दे।”

(सूरह नहल 38 व 55, मुजादिला 22, नज्म 44, अन्आम 36, व 39 व 105 क़मर 49, आले-इमरान 139, आला 2, अन्फ़ाल 17, तौबा 51, रअद 30 इब्राहिम 4, कहफ़ 101, वग़ैरह-वग़ैरह)

आयात मुंदरजा बाला से ज़ाहिर है कि क़ुरआन के मुताबिक़ अल्लाह ने इन्सान को एक आज़ाद ख़ुद-मुख़्तार अख़्लाक़ी हस्ती के तौर पर ख़ल्क़ नहीं किया। बेशुमार अहादीस-सहीहा इन क़ुरआनी आयात की मुसद्दिक़ (तस्दीक़ करने वाली ताईद में) व मवेद हैं। ये तमाम की तमाम इस एक आयत की सदा-ए-बाज़गश्त हैं कि, “ये नसीहत है कि पस जो कोई चाहे अपने रब की तरफ़ से राह पकड़े, लेकिन तुम चाह नहीं सकते, जब तक अल्लाह ना चाहे।” (सूरह दहर 26 व 30) अल्लाह ने तुमको और तुम्हारे अफ़आल और कामों को पैदा किया। (सूरह साफ़्फ़ात 94)जबरियों का यही अक़ीदा है कि इन्सान किसी फे़अल (आमाल) का फ़ाइल (करने वाला) ख़ुद-मुख़्तार (आज़ाद) नहीं है। और इन्सान वही करता है जो अल्लाह का हुक्म होता है। यही अक़ीदा क़ुरआन और अहादीस के मुताबिक़ है और रासिख़-उल-एतिक़ाद मुसलमानों का है। अगरचे फ़िर्क़ा कद़रियों ने इस बात को अक़्ल-ए-सलीम के ख़िलाफ़ पाया, और इस के मुन्किर हो गए। लेकिन वो इस्लाम में शुरू ही से बिद्दती मुतसव्वर होते रहे। चुनान्चे मिशकात बाब-अल-क़द्र में इब्ने उमर से रिवायत है कि आँहज़रत ने फ़रमाया कि :-

क़द्रीया इस्लाम में एक मजूसी फ़िर्क़ा है, अगर ये बीमार हो जाएं, तो उनकी अयादत मत करो। अगर ये मर जाएं तो उनका जनाज़ा मत पढ़ो।”

(3)

इस्लाम फ़ख़्र के साथ ये दावा करता है कि इस के उसूल उमूर सल्तनत के साथ ऐसे वाबस्ता हैं कि क़ुरआन व हदीस के उसूल सल्तनत के हर शोअबा पर ता-अबद आइद हो सकते हैं। चुनान्चे डॉक्टर मुहम्मद इक़बाल कहते हैं कि :-

“हमारा मज़्हबी उसूल ये है कि वो सियासी और मुआशरती इंतिज़ाम जो इस्लाम के नाम से मौसूम है मुकम्मल और अबदी है।”

(इस्लाम और अहमदियत सफ़ा 15)

पस कोई शख़्स जो एक दफ़ाअ इस्लाम का हल्क़ा-ब-गोश हो चुका हो। दायरे इस्लाम से बाहर नहीं जा सकता चुनान्चे सूरह बक़रह में है जो कोई तुम में से अपने दीन से ख़ुद मुर्तद (इस्लाम को छोड़ने वाला) हुआ और कुफ़्र ही में मर गया, तो ऐसों ही के आमाल दुनिया और आख़िरत में ज़ाए हो जाते हैं, वही दोज़ख़ी हैं, और उस में हमेशा रहेंगे। (सूरह माईदा 59 वग़ैरह) हदीस और शराअ (शरीअते) इस्लाम में मुर्तद (यानी वह जो दीन इस्लाम से फिर गया, यानी उसने इस्लाम को छोड़ दिया वह) वाजिब-उल-क़त्ल है। पस बरु-ए क़ुरआन कुफ़्फ़ार को जबरीया इस्लाम में दाख़िल करना और जब वो इस में दाख़िल हो जाए, उस को जबरीया अपनी हदूद से बाहर निकलने ना देना इस्लाम का ख़ास्सा है। अल्लामा मुहम्मद इक़बाल जैसा शख़्स भी इस नज़रिये का क़ाइल है। आप लिखते हैं कि :-

“इस्लाम का ये तर्ज़-ए-अमल अस्लन इल्म-उल-हयात पर मब्नी है। जहां एक गिरोह के अफ़राद फ़ित्रतन या माक़ूल इस्तिदलाल के बिना पर ये महसूस करते हैं, कि इस मुआशरती निज़ाम की हयात ख़तरे में है, जिसके वो ख़ुद एक रुक्न हैं ये मुदाफ़आना एहसास इल्म-उल-हयात के मेयार पर क़ाबिल-ए-क़द्र है। इस ज़िमन में हर फ़िक्र और हर अमल का फ़ैसला इस बिना पर करना चाहिए कि इस से निज़ाम की ज़िंदगी की तरक़्क़ी होती है या तनज़्ज़ुल। ज़ेर-ए-बहस मसअला ये नहीं कि आया एक शख़्स को काफ़िर क़रार देने वाले फ़र्द या क़ौम का तर्ज़-ए-अमल अख़्लाक़न मअयूब (एब वाला) है, या मुतहसिन (नेक, पसंदीदा) बल्कि अस्ल मसअला ये है कि आया ये बात निज़ाम के हक़ में ज़िंदगी बख़्श है या ज़िंदगी कश।”

(इस्लाम और अहमदियत सफ़ा 10)

ब-अल्फ़ाज़ दीगर इस्लाम अभी तक इस इब्तिदाई मंज़िल से आगे नहीं बढ़ा, जिस मरहले पर (जैसा हम इस फ़स्ल की इब्तिदा में लिख चुके हैं) क़ौम और मुल्क की ज़िंदगी और बक़ा ही आला तरीन मक़्सद ख़्याल किया जाता है। और मुख़्तलिफ़ अफ़राद की ज़िंदगी की वक़अत का मेयार फ़क़त ये होता है कि, “आया उनका वजूद निज़ाम के हक़ में ज़िंदगी बख़्श है या ज़िंदगी कश है।” इस मंज़िल पर किसी शख़्स को ये आज़ादी हासिल नहीं होती, कि क़ौमी ख़यालात और रसूम को तर्क कर दे, या किसी नए मज़्हब को इख़्तियार कर ले। और मज़्हब और हुकूमत दो जुदागाना बातें नहीं होतीं, बल्कि एक ही शैय के दो पहलू होते हैं। चुनान्चे डाक्टर इक़बाल लिखते हैं :-

“इस्लामी तारीख़ के दौरान में मज़्हब और हुकूमत की अलैहदगी मह्ज़ फ़राइज़ की तक़्सीम तक ही महदूद है। लेकिन इस अलैहदगी से ख़यालात व अफ़कार का इख़्तिलाफ़ मक़्सूद नहीं हुआ। इस्लामी ममालिक में हुकूमत और मज़्हब की अलैहदगी का ये मतलब नहीं कि मुसलमान आईन साज़ों को ये आज़ादी हासिल है कि अहले इस्लाम के उन ख़यालात की परवा ना करें, जिनकी नशव व नुमा रूहानियत इस्लाम के गहवारे में सदीयों तक तर्बीयत पाने का नतीजा है। सिर्फ तजुर्बा ही साबित करेगा, कि ये नज़रिया तुर्की जदीद में कहाँ तक कामयाब हो सकता है।”

(इस्लाम और अहमदियत सफ़ा 39)

फिर अल्लामा मौसूफ़ा कहते हैं कि :-

मज़्हबी तौर पर इस्लाम के इस्तिहकाम की बुनियाद उस वक़्त मुतज़लज़ल हो जाती है जब मुसलमान अरकान-ए-दीन और उस के बुनियादी उसूल में से किसी एक उसूल या रुक्न के ख़िलाफ़ सरकशी करें। इसी अबदी इस्तिहकाम की ख़ातिर ही इस्लाम ये बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई सरकश गिरोह उस के अपने दायरे के अंदर पैदा हो।”

(एज़न सफ़हा 44)

मौलाना ज़फ़र अली ख़ान मिर्ज़ा क़ादियानी के बारे में मुसलमानान आलिम के ख़यालात की तर्जुमानी करते हुए लिखते हैं :-

हिन्दुस्तान में अगर इस्लामी हुकूमत होती, तो मुम्किन ना था, कि मिल्लत-ए-इस्लामीया की वहदत को पारा-पारा करने के लिए इस क़िस्म का ख़तरनाक मुलहिद जो ना ख़ुदा का क़ाइल हो ना क़ुरआन का, और जो हुताम (टूटी फूटी चीज़, कूड़ा करकट) दीनवी की ख़ातिर इस्लाम की सीज़दह (तेरह) सद साला रोशन हक़ीक़तों को झुटलाने में ज़रा बाक ना रखता हो, यूं खुले बंदों छोड़ दिया जाता......अलीख।”

(अरमूग़ान क़ादियान सफ़ा 181)

डॉक्टर सर मुहम्मद इक़बाल भी इस पर सादिर करते और कहते हैं कि :-

ये सही है कि जिस सूरत में बिद्दती अक़ाइद रखने वाले इन्सान का वजूद निज़ाम मुआशरत के लिए बाइस ख़तरा बन जाता है, तो उस वक़्त एक ख़ुद-मुख़्तार इस्लामी हुकूमत उस के ख़िलाफ़ यक़ीनन कार्रवाई करेगी।”

(इस्लाम और अहमदियत सफ़ा 11)

एक और जगह अल्लामा मौसूफ़ लिखते हैं कि :-

इस्लाम एक वाहिद निज़ाम है जिसका तार पोद सियासियात और दीनयात है, इस्लाम में ये दोनों जुदागाना नहीं हैं, बल्कि दोनों दर-हक़ीक़त एक ही हैं। फ़र्क़ सिर्फ ज़ावीया निगाह का है, अगर किसी इस्लामी मसअले को एक नुक्ता निगाह से देखा जाएगा तो वो सियासियात से मुताल्लिक़ होगा, लेकिन अगर इसी मसअले को दीनी नुक़्ता निगाह से देखा जाएगा तो इस का ताल्लुक़ दीनयात से होगा।”

(Religious Thought in Islam p.146)

इस्लाम और सल्तनत का बाहमी इर्तिबात और इख़्तिलात और दर-हक़ीक़त क़ुरआन हदीस और फ़िक़्ह का अस्ल-उल-उसूल है, और इस हक़ीक़त को वाज़ेह कर देता है कि इस्लाम इस मंज़िल से आगे क़दम नहीं मार सकता, जिसमें अफ़राद की क़द्र और मंजिलत सिर्फ इस बिना पर होती है कि वो एक ख़ास निज़ाम की क़ुव्वत और इस्तिहकाम का बाइस होते हैं। क़ुरआन व हदीस के उसूल बनी-नूअ इन्सान की तरक़्क़ी के इस इंतिहाई मरहले से क़तअन नावाक़िफ़ हैं। जिस मंज़िल पर अफ़राद की क़द्र और वक़अत बतौर एक आज़ाद ख़ुद-मुख़्तार, और ज़िम्मेवार हस्ती के होती है और जिस पर मसीहीय्यत पहुंच चुकी है।

फ़स्ल दोम में हमने ज़िक्र किया था, कि इस्लाम में ख़ुदा की तंज़िया पर इस क़द्र ज़ोर दिया गया है कि इन्सान की हस्ती की क़द्र व वक़अत की गुंजाइश ही नहीं रहती। फ़स्ल सोम में देखा था, कि इस्लाम में औरत की हस्ती फ़िर्क़ा उन्नास (उनसी की जमा औरतें) के लिए वबाल जान है। फ़स्ल चहारोम में हम इस नतीजे पर पहुंचे थे कि इस्लाम की नज़र में बच्चे कुछ हुक़ूक़ नहीं रखते। फ़स्ल पंजुम में हमने देखा था, कि इस्लाम की नज़र में ग़ैर मुस्लिम अक़्वाम व अफ़राद की रत्ती भर वक़अत नहीं। और फ़स्ल शश्म में हमने इस्लामी तारीख़ की वर्क़ गरदानी करके ये साबित किया था कि इस्लाम ने किसी फ़र्द को ख़यालात की आज़ादी का इख़्तियार नहीं दिया। इस फ़स्ल में हमने देखा है कि इस्लाम इस सतह पर पहुंचा ही नहीं, जिस पर अफ़राद को आज़ाद ख़ुद-मुख़्तार हस्ती तस्लीम किया जाता है। ग़र्ज़ कि इस्लाम के जिस पहलू से भी इन्सान की हस्ती पर नज़र करो, क़ुरआनी ताअलीम के मुताबिक़ इन्सान की ज़िंदगी की क़द्र, वक़अत और मंजिलत सिरे से मौजूद ही नहीं। लेकिन दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम है कि इस बात का लिहाज़ रखे, कि जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी (साथ में मिल-जुल कर रहने की फ़ित्रत) अफ़राद की हस्ती को दबाने के बजाय हर फ़र्द बशर (इंसान) को आज़ाद ज़िम्मेवार और अख़्लाक़ी हस्ती क़रार दे। ये काम मसीहीय्यत बतर्ज़ अहसन सर-अंजाम देती है, लेकिन इस्लाम इस बात के नज़्दीक भी नहीं जाता, लिहाज़ा मसीहीय्यत ही दीन-ए-फ़ित्रत है।

जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी और अनानीयत

मसीहीय्यत की ये ख़ुसूसीयत है कि जहां वो ये ताअलीम देती है कि हर फ़र्द बशर (हर इंसान) बज़ात-ए-ख़ुद क़द्र और वक़अत रखता है, वहां ये भी तल्क़ीन करती है कि हर फ़र्द बशर अपनी जमाअत क़ौम और मुल्क के ज़रीये ही अपनी नजात हासिल कर सकता है। (याक़ूब 1:27, मत्ती 25:31) हर शख़्स पर ये फ़र्ज़ किया गया है कि वो अपने अब्ना-ए-वतन की ख़िदमत करे, और तमद्दुनी ताल्लुक़ात मुआशरती मुआमलात और मुल्क और क़ौमी और मिल्ली उमूर के ज़रीये अपनी अनानीयत और शख़्सियत की नशव व नुमा और तक्मील करे। (मत्ती 20:25-28) कलिमतुल्लाह की ताअलीम के मुताबिक़ इन्सान की शख़्सियत तब ही कामिलियत की तरफ़ गामज़न हो सकती है, जब हम सोशियल ताल्लुक़ात पर मसीही उसूल का इतलाक़ करेंगे। (याक़ूब 2:16 वग़ैरह) हर फ़र्द की रुहानी हालत सिर्फ़ सोसाइटी और जमाअत के ज़रीये उरूज के कमाल तक पहुंच सकती है। जब हम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत करने का बेड़ा उठाते हैं, (ग़लतीयों 5:13-14, मत्ती 23:11, 1-युहन्ना 4:20) या जमआती मिल्ली, क़ौमी, सियासी, तमद्दुनी, इक़्तिसादी, और दीगर सोशियल मक़ासिद उमूर और ताल्लुक़ात को मसीही उसूल के मुताबिक़ चलाने का ज़िम्मा लेते हैं। (मत्ती 25:15-30) तब हम अपनी शख़्सियत की भी नशव व नुमा तरक़्क़ी और तक्मील करते हैं। (मरक़ुस 8:35, मत्ती 16:26 वग़ैरह) कोई बशर जमाअती ताल्लुक़ात के बग़ैर ख़ुदा की ख़िदमत नहीं कर सकता। (मत्ती 25:40,लूक़ा 16:13, रोमीयों 14:18-19, 1-युहन्ना 3:15-18) कलिमतुल्लाह ने हमको सिखलाया है कि अगर तुम ख़ुदा की मुहब्बत का इज़्हार करना चाहते हो, तो ख़ल्क़-ए-ख़ुदा से मुहब्बत करो। (मत्ती 22:38-39, लूक़ा 10:25-37 वग़ैरह)और उसूल मुहब्बत व उखुव्व्त व मसावात (भाईचारा व बराबर हुकुक़) का इतलाक़ तमाम सोशियल ताल्लुक़ात पर करो। (लूक़ा 16:19, मत्ती 7:12 वग़ैरह) यूं हमारी अनानीयत (खुदी) और शख़्सियत जिबिल्लत इज्तिमा (साथ मिलजुल कर रहने की फ़ित्रत) पसंदी के ज़रीये कामिल होती है, और जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी हमारी अनानीयत और शख़्सियत को दबाकर बर्बाद कर देती है। कलिमतुल्लाह की ये ताअलीम है कि जो शख़्स जमाअती ताल्लुक़ात का लिहाज़ रखे बग़ैर अपनी अनानीयत और शख़्सियत को तरक़्क़ी देना चाहता है। वो एक ख़ामख़याल में मुब्तिला है। और ऐसा फ़र्द अपनी शख़्सियत को तरक़्क़ी देने के बजाय उस को ज़ाए कर देता है। लेकिन जो शख़्स मसीही उसूल मुहब्बत व मसावात और उखुवत (बराबरी व भाईचारे) के मुताबिक़ जमाअती ताल्लुक़ात के ज़रीये ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत करता है। और इस में ऐसा मुनहमिक (किसी काम में बहुत मसरूफ़) हो जाता है कि वो अपनी शख़्सियत को ईलाही-मंशा के मुताबिक़ तरक़्क़ी देता है। पस उस की अनानीयत और जमाअती ताल्लुक़ात में कोई तसादुम वाक़ेअ नहीं होता। मुनज्जी आलमीन ने फ़रमाया है,“मैं तुमसे सच कहता हूँ कि जब तक गेहूँ का दाना ज़मीन पर गिर के मर नहीं जाता, वो अकेला रहता है। लेकिन जब मर जाता है तो बहुत से फल लाता है, जो अपनी जान को अज़ीज़ रखता है, वो उसे खो देता है, और जो दुनिया में अपनी जान को खो देता है वो इस को हमेशा की ज़िंदगी के लिए महफ़ूज़ रखेगा। आदमी अगर सारी दुनिया को हासिल कर ले और अपनी जान का नुक़्सान करे तो उसे क्या फ़ायदा होगा।” (युहन्ना 12:24, मरक़ुस 8:35 वग़ैरह) पस मसीही ताअलीम के मुताबिक़ अनानीयत और जमाअत दोनों एक दूसरे की मुमिद व मुआविन हैं। ये दोनों चीज़ें जो बज़ाहिर मुतज़ाद (एक दुसरे के खिलाफ) मालूम होती हैं और किसी दूसरे मज़्हब में यकजा नहीं हो सकतीं, मसीही ताअलीम में बाहम सुलह करके पहलू ब पहलू (साथ साथ मिल जुल कर) चलती हैं।

(2)

चूँकि क़ुरआन और इस्लाम अफ़राद को ख़ुद-मुख़्तार, आज़ाद ज़िम्मेवार हस्तियाँ तस्लीम नहीं करते लिहाज़ा वो इस तसव्वुर का गरवीदा नहीं हो सकता। कि फ़र्द दीगर अफ़राद की ख़िदमत करने में ही अपनी शख़्सियत की तरक़्क़ी और नशव व नुमा कर सकता है। क़ुरआन के मुताबिक़ अफ़राद की ज़िंदगी का आला तरीन नस्ब-उल-एन और बेहतरीन मतमाअ नज़र ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत करना नहीं है, लिहाज़ा वो अख़्लाक़ीयात के इस पहलू को छूता नहीं। और अगर छूता भी है तो इस पर ज़ोर नहीं देता, जिस तरह इंजील देती है। लेकिन दीन फ़ित्रत के लिए लाज़िम है कि वो जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी के तक़ाज़ाओं को पूरा करे। चूँकि क़ुरआन व इस्लाम में तक़ाज़े को पूरा करने से क़ासिर हैं, लिहाज़ा इस्लाम दीन-ए-फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं हो सकता। मसीहीय्यत की तालीम ही दीन-ए-फ़ित्रत का जुज़्व हो सकती है।

जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी और नूअ-इन्सानी की कामिलियत

जो नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) कलिमतुल्लाह ने हमारी नज़रों के सामने रखा है, वो मह्ज़ अफ़राद की नजात और कामिलियत का ही नहीं है, बल्कि सोसाइटी की कामिलियत और नजात का भी है। “ख़ुदा ने हर एक इन्सान को मुख़्तलिफ़ नेअमतें और क़ाबिलीयतें अता करके इस दुनिया में भेजा है।” (मत्ती 25:15) और इस दुनिया का निज़ाम ऐसा बनाया है कि मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास की मुख़्तलिफ़ नेअमतों की तक्मील और तरक़्क़ी से जमाअत की तरक़्क़ी और तक्मील होती है। (1-कुरंथियो 12 बाब) जिस तरह हमारे बदन में बहुत से आज़ा (हिस्से) होते हैं, और तमाम आज़ा का काम यकसाँ नहीं इसी तरह हम भी बहुत से हैं। मसीह में शामिल हो कर एक बदन और आपस में एक दूसरे के आज़ा हैं। उस तौफ़ीक़ के मुवाफ़िक़ जो हमको दी गई, हमें तरह-तरह की नेअमतें दी गईं, ताकि मुक़द्दस लोग कामिल बनें, और ख़िदमतगुज़ारी का काम किया जाये। और मसीह का बदन (यानी जमाअत) तरक़्क़ी पाए। जब तक हम सब के सब ख़ुदा के बेटे के ईमान और उस की पहचान में एक हो जाएं और कामिल इन्सान बनें यानी मसीह के पूरे क़द के अंदाज़े तक पहुंच जाएं, और मुहब्बत के साथ सच्चाई पर क़ायम रहे और मसीह के साथ पैवस्ता हो कर हर तरह से बढ़ते जाएं जिससे सारा बदन हर एक जोड़ की मदद से पैवस्ता हो कर और गठ कर इस तासीर के मुवाफ़िक़ जो बक़द्र हर हिस्से के होती है, अपने आपको बढ़ाता है ताकि मुहब्बत में तरक़्क़ी करता जाये। (रोमीयों 12:4, इफ़िसियों 4:13 वग़ैरह) कुल बनी-नूअ इन्सान ख़ुदा के ख़ानदान के अफ़राद हैं, और हर फ़र्द इस ख़ानदान की ख़िदमत के ज़रीये अपनी शख़्सियत और क़ाबिलीयत की नशव व नुमा है। (मरक़ुस 9:35, 1 युहन्ना 3:15) “ये ख़ानदान इन अफ़राद की कामिलियत से कामिल होता है और बनी-नूअ इन्सान का सारा बदन जोड़ों और पट्ठों के वसीले से परवरिश पाकर और बाहम पैवस्ता हो कर ख़ुदा कि तरफ़ बढ़ता है।” (कुलस्सियों 2:19)

(2)

अगर नाज़रीन ने गुज़शता फसलों का बग़ौर मुतालआ किया है, तो उन पर ये अम्र अज़हर-मिन-अश्शम्स (रोज़-ए-रौशन की तरह अयाँ) हो गया होगा, कि इस्लाम में बनी-नूअ इन्सान की तरक़्क़ी एक मौहूम शैय है। जिस मज़्हब ने बनी-नूअ इन्सान को तेरह सौ (1300) साल से ख़ौफ़ व दहशत की हालत में रखकर उनके आज़ा-ए-रईसा को मुज़हमिल कर दिया हो। कस्रत इज़्दवाज़ (बहुत सी औरतों रखना) और तलाक़ को जायज़ क़रार देकर नूअ इन्सानी के निस्फ़ हिस्से की ज़िंदगी को हिरासाँ कर रखा हो, और दूसरे हिस्से की अख़्लाक़ी हालत को गिरा दिया हो, औलाद के हुक़ूक़ की तरफ़ से लापरवाई इख़्तियार कर रखी हो, दुनिया के मुसीबत ज़दों, मज़्लूमों और बे-कसों को उनकी क़िस्मत पर छोड़ रखा हो, दुनिया के क़रीबन चौबीस करोड़ अफ़राद को छोड़कर बाक़ी एक अरब और सत्तर करोड़ अफ़राद को काफ़िर या ज़िम्मी कह कर उनको गर्दनज़दनी क़रार देता हो, ख़यालात की आज़ादी जुर्म अज़ीम गिरादनता हो, और उलूम व फ़नून की नशव व नुमा और तरक़्क़ी की राह में हाइल (रूकावट) हो, गु़लामी की क़बीह रस्म को जायज़ क़रार देता हो, हर फ़र्द की ज़िंदगी की क़द्र और वक़अत करने के बजाय उस को एक आज़ाद ख़ुद-मुख़्तार अख़्लाक़ी हस्ती भी तस्लीम ना करता हो, ग़र्ज़ कि जो मज़्हब इन्सानी फ़ित्रत की तमाम जिबिल्लतों (फित्रतों, खूबियों) के इक़्तिज़ाओं (तक़ाज़ों) के पूरा होने में रुकावट का बाइस हो, ऐसे मज़्हब से क्या उम्मीद हो सकती है, कि वो बनी-नूअ इन्सान की तरक़्क़ी के उसूल की तल्क़ीन करे या नूअ इन्सान को कामिलियत की शाहराह पर गामज़न होने में मुमिद व मुआविन हो सके? मसीहीय्यत ही एक ऐसा वाहिद मज़्हब है जिससे नूअ इन्सानी की उम्मीदें वाबस्ता हैं। कलिमतुल्लाह ही एक ऐसा यगाना रोज़गार उस्ताद है, जिस पर बनी-नूअ इन्सान की आँखें लगी हुई हैं।

जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी और तसव्वुर ज़ात ईलाही

कलिमतुल्लाह ने हमको ये भी ताअलीम दी है कि ख़ुदा मुहब्बत है, और वो गुनाहगार इन्सानों के साथ जो उस के बेटे हैं रिफ़ाक़त रखनी चाहता है। और इस ग़र्ज़ को हासिल करने के लिए उस की लाज़वाल मुहब्बत गुनाहगार की तलाश में रहती है, और जब किसी गुनाहगार का ख़ुदा के साथ मेल-मिलाप हो जाता है, तो निनान्वें (99) रास्तबाज़ों की निस्बत जो तौबा की हाजत नहीं रखते, एक तौबा करने वाले गुनाहगार की बाबत आस्मान पर ज़्यादा ख़ुशी होती है। (लूक़ा 15 बाब) मज़्हब का मक़्सद यही है कि ख़ुदा और इन्सान में बाहमी रिफ़ाक़त क़ायम हो जाए। कलिमतुल्लाह की ताअलीम इन्सान के वजूद की इल्लत-ए-ग़ाई को बदर्जा अहसन पूरा करती है। ख़ुदा हमारा बाप है और जिस तरह दुनियावी बाप अपने बेटे के साथ रिफ़ाक़त रखता है। कलिमतुल्लाह की ये ताअलीम इस्लाम और क़ुरआन के इन तमाम तसव्वुरात के ख़िलाफ़ है। जो ख़ुदा को बेनियाज़ और लापरवाह बतलाते हैं। मुनज्जी आलमीन ने फ़रमाया कि ख़ुदा मुहब्बत है, और वो सिर्फ़ गुनेहगारों की तरफ़ से बेनियाज़ी ही नहीं बल्कि उनकी जुदाई उस पर शाक़ गुज़रती है। और वो उनके साथ रिफ़ाक़त का रिश्ता अज़-सर-नौ (नए सिरे से) क़ायम करना चाहता है। और इस मक़्सद के हासिल करने में उस की मुहब्बत हर तरह का ईसार करने के लिए तैयार है। (मत्ती 23:37, युहन्ना 3:16, 15:13) जिस तरह माँ-बाप की मुहब्बत अपने ग़म-गश्ता फ़र्ज़ंद के लिए हर तरह की क़ुर्बानी करने को तैयार होती है। पस जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी के ज़रीये हम ख़ुदा की ज़ात और उस की मुहब्बत का इल्म हासिल कर सकते हैं।

(2)

ख़ुदा का तसव्वुर जो मसीहीय्यत पेश करती है, वो जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी (मिलजुल कर साथ रहने) के तक़ाज़े के मुताबिक़ है। ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है। (1-युहन्ना 4:8 वग़ैरह) चूँकि ख़ुदा अज़ल से मुहब्बत है। और चूँकि उस की ज़ात में हुदूस का इम्कान नहीं, लिहाज़ा ख़ुदा की अज़ली मुहब्बत इस अम्र का तक़ाज़ा करती है कि ख़ुदा की ज़ात में अज़ल से मुहिब, महबूब, और मुहब्बत का रिश्ता मौजूद हो। पस मसीहीय्यत ख़ुदा की वहदत में सालूस की क़ाइल है यानी बाप, बेटा और रूहुल-क़ुद्दुस ख़ुदा की ज़ात मुहिब, महबूब और मुहब्बत के रिश्ते के तौर पर हैं। (मत्ती 28:19, युहन्ना 12:26, 15:26 वग़ैरह) बाप अज़ल से बेटे के साथ मुहब्बत रखता है, और बेटा बाप के साथ मुहब्बत रखता है। (युहन्ना 17:5, 17:24, 5:20, मत्ती 11:27 वग़ैरह) पस हम जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी (मिलजुल कर रहने की फ़ित्रत) के ज़रीये जो हमारी सरिश्त में मौजूद है ख़ुदा की ज़ात का इल्म हासिल कर सकते हैं।

इस का ये मतलब नहीं कि हम तीन ख़ुदाओं के मानने वाले हैं। हम ख़ुदा वाहिद के क़ाइल हैं। (मरक़ुस 12:29, युहन्ना 17:3, 1-कुरिन्थियों 8:6 वग़ैरह) हम शिर्क से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) और बेज़ार हैं। (ख़ुरूज 20:3-5, 1-कुरंथियो 8:4, आमाल 14:15, 1-युहन्ना 5:21, ज़बूर 115:4-8) हम उन तमाम बातों से परहेज़ करते हैं जिनसे शिर्क की बू आती है। (रोमीयों 14:21-23, 1-कुरंथियो 10:19-21, गलतीयों 5:13-14 वग़ैरह) हम ख़ुदा को अकेला और वाहिद ख़ुदा तस्लीम करते हैं। हम क़ुरआन के हमनवा हो कर कहते हैं कि “बेशक वो काफ़िर हैं जो कहते हैं कि अल्लाह तीन में से एक है।” (सूरह माइदा 77) हम भी कहते हैं कि “ख़ुदा की निस्बत हक़ बात बोलो, और तीन ना कहो, बाज़ आओ तुम्हारा भला होगा, अल्लाह जो है वो तो एक ही माबूद है।” (सूरह निसा 169) क़ुरआन कहता है, अल्लाह की कोई जोरू नहीं, उस का बेटा क्योंकर हो गया। (सूरह अनआम 101) हम भी इस पर साद करते (तस्दीक़ करना) हैं और अल-मसीह की इब्नीयत के तसव्वुर में से हर तरह के जिस्मानी और दुनियावी अनासिर को ख़ारिज कर के सूरह इख़्लास की आयत को निहायत इख़्लास से पढ़ते हैं कि “अल्लाह ने ना किसी को जना और ना वो ख़ुद किसी से जना गया और उस के जोड़ का कोई नहीं।” (सूरह इख़्लास आयात 3 व 4) अगर क़ुरआन शरीफ़ का इन आयात से ये मतलब था, कि मसीही अक़ीदे पर एतराज़ वारिद करे, तो उसने मसीही अक़ीदे के समझने की ज़हमत गवारा नहीं की’’سبحانک ہذا بھتان عظیم‘‘ दुनिया के कुल मसीही बग़ैर किसी इस्तिस्ना के ऐसे अक़ीदे को मज़मूम व मतऊन गिरा देंते हैं, कलीसिया-ए-जामेअ ख़ुदा की वहदानियत की क़ाइल है। तारीख़ कलीसिया इस बात की शाहिद है कि ख़ुदा की तौहीद के अक़ीदे को बहाल और मुस्तहकम करने की ख़ातिर निक़ाया की कौंसल ने तस्लीस-फ़ील-तौहीद और तौहीद-फ़ील-तस्लीस का अक़ीदा वज़ाअ किया था।

हम ख़ुदा की ज़ात में तीन हस्तीयों के क़ाइल नहीं, ख़ुदा एक वाहिद हस्ती है। हम उस की हस्ती में जमा और तफ़रीक़ को जायज़ क़रार नहीं देते, कि कोई कहे कि एक जमा एक जमा एक तीन हुए। क्योंकि ख़ुदा की ज़ात में अजज़ा नहीं। ख़ुदा रूह है और उस की ज़ात इन बातों से पाक और मुनज़्ज़ह है।

लेकिन जहां इन्सान अपनी सरिश्त और अपनी जिबिल्लतों (फित्रतों) के मीलान व तकाज़े के ज़रीये ख़ुदा के इस तसव्वुर का क़ियास कर सकता है। जो मसीहीय्यत पेश करती है वहां वो इस्लाम के अल्लाह की ज़ात का तसव्वुर करने से क़ासिर है। इस्लाम ख़ुदा की वहदत की तल्क़ीन करता है, लेकिन जब इन्सान ये पूछता है कि इस वहदत का मफ़्हूम क्या है? तो जवाब मिलता है, कि वहदत का मतलब मह्ज़ वहदत है। जब इन्सान अपनी जिबिल्लत इस्तिफ़सार (तहक़ीक़ात व मालूमात करने की फ़ित्रत) से मज्बूर हो कर ये जानना चाहता है कि वहदत महज़ क्या शैय है? क्योंकि वो इस क़िस्म की वहदत को ना तो आलम-ए-शुहूद में और ना अपनी फ़ित्रत और सरिश्त में और ना अपने रुहानी तजुर्बात में पाता है, तो क़ुरआन उस को अपने रोब और इख़्तियार से ख़ामोश कर देता है। (सूरह हज 35, इख़्लास 1) इस्लाम ज़ात ईलाही की निस्बत सवालों का पूछना कुफ़्र क़रार देता है। इस्लाम के मुताबिक़ ख़ुदा एक सुल्तान है, जो बज़रीया पैग़म्बर और वही अपने शाहाना अहकाम अपनी रियाया को पहुँचाता है। (सूरह बक़रह 101 वग़ैरह) क़ुरआन बज़रीया जिब्राईल लफ़्ज़ ब लफ़्ज़ नाज़िल किया गया है। (सूरह ज़ख़रफ़ 3, यूनुस 38 वग़ैरह) इस की इल्हामी इबारत आस्मानी अल्फ़ाज़ हैं, जिनमें इन्सानी अन्सर का रत्ती भर दख़ल नहीं। उस की वही इन्सानों के रुहानी तजुर्बात और ज़हनी तफ़क्कुरात से बिल्कुल मुस्तग़नी है, इन्सानी फ़िक्र ग़ौर और ख़ोज़ का उस के साथ कोई ताल्लुक़ नहीं।

लेकिन मसीहीय्यत का ये अक़ीदा है कि ख़ुदा मह्ज़ सुल्तान ही नहीं। जो अपनी रियाया को अहकाम पहुंचाने पर ही इक्तिफ़ा करे और बस। बल्कि मसीहीय्यत के मुताबिक़ ख़ुदा हमारा बाप है जिस तरह दुनियावी बाप अपने ख़यालात को अपने बेटे पर ज़ाहिर करता है, और बेटा अपने तजुर्बे ख़यालात और जज़्बात के ज़रीये बाप के तसव्वुरात, ख़यालात और जज़्बात को समझ सकता है और जान सकता है, और यूं बाप और बेटे में बाहमी रिफ़ाक़त क़ायम रहती है। इसी तरह ख़ुदा और इन्सान में बाहमी क़ुर्बत (नज़दिकी) और रिफ़ाक़त क़ायम हो जाती है। बाइबल शरीफ़ की इल्हामी कुतुब इन तसव्वुरात जज़्बात और तजुर्बात का मज़हर हैं, जो ख़ुदा और इन्सान की बाहमी रिफ़ाक़त व क़ुर्बत की वजह से वजूद में आते हैं। मसीहीय्यत के मुताबिक़ ख़ुदा ऐसी हस्ती नहीं, जो इन्सान के साथ हक़ीक़ी माअनों में रिफ़ाक़त ना रखे। अगर ख़ुदा इन्सान के साथ रिफ़ाक़त नहीं रखता, तो जहां तक बनी-नूअ इन्सान का ताल्लुक़ है। इस का वजूद और अदम वजूद बराबर है। इन्सानी मुहावरे में हम कह सकते हैं कि गुफ़्तगु और रिफ़ाक़त के लिए कम अज़ कम दो अश्ख़ास का होना लाज़िमी अम्र है। अगर सिर्फ एक इन्सान ही गुफ़्तगु करता जाये। तो वो मख़्त-उल-हवास (पागल) क़रार दिया जाता है। अगर कोई दूसरा शख़्स इस से बातचीत ना करे। तो हम इस शख़्स के क़ाल पर गुफ़्तगु का लफ़्ज़ चस्पाँ नहीं कर सकते, और ना दूसरे शख़्स को पहले का रफ़ीक़ या साथी क़रार दे सकते हैं। जिस तरह हम किसी दीवार पर की मूर्त के साथ गुफ़्तगु नहीं कर सकते या संगतराश के बुत के साथ रिफ़ाक़त नहीं रख सकते। इसी तरह हम ऐसे ख़ुदा के साथ क़राबत और रिफ़ाक़त नहीं रख सकते जो बेपरवाह हो। और जिसकी सिफ़त बेनियाज़ी हो क़ुरआन बार-बार इसरार के साथ कहता है कि अल्लाह बेपरवाह है। (सूरह बक़रह आयत 270) ख़ुदा जहान के लोगों की तरफ़ से बेपरवाह है।(सूरह आले-इमरान आयत 92, यूनुस 69, निसा 130, हज 63 वग़ैरह)

ख़ुदा के बेनियाज़ी का तसव्वुर इन्सान की इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) पर ज़ेर बह्स के ऐन नक़ीस है। अगर ख़ुदा बेनियाज़ है, तो इन्सान और ख़ुदा में बाहमी रिफ़ाक़त व क़ुर्बत ना-मुम्किन है। और अगर इन्सानी फ़ित्रत इस बात की मुतक़ाज़ी है, कि इन्सान और ख़ुदा में क़ुर्बत (नज़दिकी) और रिफ़ाक़त हो, तो ख़ुदा बेनियाज़ नहीं हो सकता। पस इस्लामी ताअलीम इस बारे में इन्सानी फ़ित्रत के ख़िलाफ़ है, लिहाज़ा इस्लाम दीन-ए-फ़ित्रत नहीं हो सकता। बरअक्स इस के मसीहीय्यत इस बात पर इसरार करती है कि ख़ुदा मुहब्बत है और ख़ुदा इन्सान के साथ क़ुर्बत (नज़दिकी) और रिफ़ाक़त रखने का ख़्वाहां है। सिर्फ यही ताअलीम इन्सान की फ़ित्रत के तक़ाज़े को पूरा करती है, लिहाज़ा मसीहीय्यत दीन-ए-फ़ित्रत है।

नतीजा

सुतूर बाला में हमने देखा कि कलिमतुल्लाह की ताअलीम हर फ़र्द व बशर (हर इंसान) को ज़िम्मेवार अख़्लाक़ी हस्ती क़रार देती है जिसकी तरक़्क़ी और तक्मील सोशियल ताल्लुक़ात के ज़रीये होती है, और सोसाइटी की तरक़्क़ी और बनी-नूअ इन्सान की तरक़्क़ी अफ़राद की कामिलियत के ज़रीये वक़ूअ पज़ीर होती है। मसीहीय्यत ने ऐसे उसूल वज़ाअ किए हैं, जिनके इतलाक़ से हर ज़माने और मुल्क की क़ौम और मिल्लत और जमाअत कामिल हो सकती है। मुनज्जी आलमीन ने ख़ुदा की ज़ात और बनी-नूअ इन्सान के बाहमी ताल्लुक़ात की निस्बत ऐसी ताअलीम दी है, जो जिबिल्लत इज्तिमा (साथ मिलजुल कर रहने की फ़ित्रत) पसंदी के ज़रीये हम पर रोज़-ए-रौशन की तरह अयाँ हो जाती है। पस जहां तक इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) का ताल्लुक़ है मसीहीय्यत ही सिर्फ दीन फ़ित्रत हो सकता है। 

फ़स्ल हश्तम

जिबिल्लत तहक्कुम और जिबिल्लत अजुज़ जिबिल्लत तहक्कुम व अजुज़ की ख़सुसियात

तहक्कुम की जिबिल्लत (हुक्म चलाने की फ़ित्रत) इन्सानी सरिश्त के रुहजानात अव्वलिया में से है। हर इन्सान बा-तबेअ ख़ुद नुमा होता है। हर शख़्स में ये क़ुदरती ख़्वाहिश मौजूद है कि वो अपनी ज़ात का इज़्हार करे। दुनिया में जिस शख़्स को देखोगे, उस की ज़बान पर लफ़्ज़ “मैं” और उस के जज़्बात और अफ़आल से इस “मैं” हेकड़ी (शेख़ी, सरकशी) मिलेगी। ना सिर्फ तन आवर ज़रदार और साहिब जाह अश्ख़ास में ख़ुद-नुमाई और तहक्कुम (हुकूमत करना) मिलता है बल्कि कमज़ोर, बुज़दिल और ज़बरदस्त हस्तीयों में भी तहक्कुम (हुकूमत करना) पाया जाता है। बल्कि सच तो ये है कि आली नज़ाद हस्तियाँ तवाज़ो इख़्तियार करती हैं। और उनमें ख़ुद-नुमाई इस क़द्र नहीं पाई जाती, जितनी फ़िरोमाया लोगों में पाई जाती है। क्योंकि कमीना फ़िरोमाया बुज़दिल अश्ख़ास का ये रवैय्या है कि वो बुज़दिल के सामने तहक्कुम और ख़ुद-नुमाई से काम लेते हैं। पस जिबिल्लत तहक्कुम (हुक्म चलाने करने की फ़ित्रत) और जिबिल्लत अजुज़ (हलीमी की फ़ित्रत) इन्सानी सरिश्त का हिस्सा हैं। जानवरों में घोड़ा और मोर निहायत ख़ुद-नुमा जानवर हैं, इनके बरअक्स अजुज़ व इताअत की मिसाल वो कुत्ता है, जो मग़्लूब और कमज़ोर हो लेकिन जब वो अपनी गली में होता है तो वह भी शेर होता है।

इसी तरह बाअज़ अश्ख़ास जब अपने आक़ाओं के सामने हाज़िर होते हैं। तो उनके अजुज़ और इताअत की हद नहीं होती। हर वक़्त अल्फ़ाज़ हुज़ूर, ख़ुदावंद उनके विर्द ज़बान रहते हैं। लेकिन जब यही अस्हाब घर में जाते हैं। तो बीवी बच्चों पर हुक्मरानी करते और उनको मारते-पीटते हैं। बाज़-औक़ात वही मालिक जो अपने दफ़्तर में अपने मातहतों पर शेर होते हैं, जब घर में जाते हैं तो बीवी के डर के मारे कोने में दुबक कर पड़े रहते हैं।

(2)

ये दोनों जिबिल्लते (फ़ित्रतें) ख़ुसूसन उस मौक़े पर तहरीक में आती हैं, जब देखने वाले मौजूद हों। जिनकी मौजूदगी की वजह से हमको अपनी ज़ात किसी तरीक़े से बेहतर या कहतर नज़र आती है। तहक्कुम और ख़ुद-नुमाई की जिबिल्लत के साथ अजब या गुरूर फ़ख़्र और मौक़े के जज़्बात वाबस्ता होते हैं। इन दोनों जिबिल्लतों की तहत में तसना, दिखावा, लाफ़ व गुज़ाफ़ (शेख़ी, बेहूदा गुफ़्तगु) ख़ुद-पसंदी या ख़जालत शर्म और ख़िफ़्फ़त वग़ैरह के मीलानात दाख़िल हैं, जो कमसिन बच्चों से लेकर सन रसीदा (उम्र रसीदा, बूढ़े) अश्ख़ास तक सब में पाए जाते हैं। ना जिबिल्लत तहक्कुम चाहती है कि दुनिया मेरी मह्कूम हो जाए और इस की ख़्वाहिश रोज़-अफ़्ज़ूँ हो जाती है।

जिबिल्लत तहक्कुम व अजुज़ और दीन-ए-फ़ित्रत के लवाज़मात

सुतूर बाला से ज़ाहिर है कि दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम है कि तहक्कुम (हुक्म चलाना) और ख़ुद-नुमाई के जज़्बे को हद से ज़्यादा बढ़ने ना दे, ताकि गुरूर नाजायज़, फ़ख़्र, लाफ़ व गुज़ाफ़, तसना, दिखावा और ख़ुदपसंदी का क़िला-क़ुमा (ख़ातिमा) हो जाए। इस के साथ ही अजुज़ व इताअत की जिबिल्लत (नरमाई और मानने की फित्रत) यहां तक तजावुज़ ना कर जाये, कि पस्त-हिम्मती, तज़मल, और शिकस्त ख़ोरी इन्सान के इम्तियाज़ी निशान हो जाएं। दोनों जिबिल्लतें बाहम दोश-बदोश हो कर चलें। ताकि इन्सानी ताल्लुक़ात में दोनों जिबिल्लतें से इस मक़्सद का इज़्हार हों जिसकी वजह से ख़ुदा ने ये जिबिल्लतें हमारी फ़ित्रत में दवीअ़त फ़रमाई हैं।

दीन-ए-फ़ित्रत को ये ताअलीम देनी चाहिए कि इन्सान अपनी ज़ात के इज़्हार और अनानीयत की तरक़्क़ी और तक्मील में इस बात का ख़ास लिहाज़ रखे, कि ये तरक़्क़ी और तक्मील दूसरे लोगों की अनानीयत को पामाल करने से ना हो इस तक्मील पर ख़ल्क़-ए-ख़ुदा के हुक़ूक़ को क़ुर्बान ना किया जाये। और दूसरे लोगों की अनानीयत को दबाया और पांव तले रौंदा ना जाये, बल्कि इस के बरअक्स हर इन्सान अपनी-अपनी अनानीयत की तरक़्क़ी इल्म और आजिज़ी के साथ ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत के ज़रीये करे। अगर कोई शख़्स अपनी ज़ात का इज़्हार करना चाहता है तो वो बनी-नूअ इन्सान की फ़लाह बहबूदी और ख़िदमत के ज़रीये करे। और ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत में अदना तरीन काम करना अपना फ़र्ज़ अव्वलीन ख़्याल करे। यहां तक कि दूसरों की ख़ातिर ख़ुशी से अपने जायज़ हुक़ूक़ से भी दस्तबरदार हो जाए, और अपनी जाऐ बे-जा अग़राज़ की हवस को पूरा करना ही अपनी ज़िंदगी का वाहिद मक़्सद ख़्याल ना करे, बल्कि अपने हम-जिंसों की ख़ातिर अपनी ख़ुदी से इन्कार करके अपनी ज़ात का इज़्हार बनी-नूअ इन्सान की बहबूदी को सरअंजाम देने के ज़रीये करे।

एक और अम्र क़ाबिले-ग़ौर है कि अगर इन्सान इस जिबिल्लत ख़ुदादाद के ज़रीये अपनी अनानियत (अना) को दुरुस्त तरीक़े से तरक़्क़ी देगा। तो उस में हेकड़ी नहीं आएगी, बल्कि इस के बरअक्स इस में हुलुम और फ़िरोतनी और ख़ुदा की शुक्रगुज़ारी के जज़्बे बढ़ेंगे। मसलन किसी ज़लज़ला या रेल के हादसे के वक़्त बाअज़ इन्सान तबअन जाए वक़ूअ की तरफ़ इमदाद करने की ख़ातिर भागते हैं और इस इमदाद के ज़रीये अपनी ज़ात का इज़्हार और अपनी अनानीयत की तरक़्क़ी और तक्मील करते हैं। लेकिन ऐसे अश्ख़ास लोगों पर अपने कारनामे नहीं जताएंगे, बल्कि इस तरीक़े से अपनी ज़ात के इज़्हार करने में फ़ख़्र और लाफ़ व गुज़ाफ़ से बाज़ रहेंगे, और फ़िरोतनी से ख़ुदा का शुक्र करेंगे कि वो इस लायक़ ख़्याल किए गए कि अपने हम-जिंसों की मुसीबत के वक़्त वो उनकी ख़िदमत कर सकें।

अजुज़ व तहक्कुम की जिबिल्लत और मसीहीय्यत

कलिमतुल्लाह ने ये ताअलीम दी है कि, “जो कोई अपने आपको बड़ा बनाएगा वो छोटा किया जाएगा, और जो अपने आपको छोटा बनाएगा वो बड़ा किया जाएगा।” (मत्ती 23:12) एक दफ़ाअ जब आपके शागिर्दों में ये तकरार हुई, कि हम में से बड़ा कौन है, तो मुनज्जी आलमीन ने अज़मत और बड़ाई का मेयार बनी-नूअ इन्सान की ख़िदमत क़रार दिया, और फ़रमाया, “अक़्वाम के बादशाह उन पर हुकूमत चलाते हैं, और जो उन पर इख़्तियार रखते हैं, वो ख़ुदावंदाने नेअमत कहलाते हैं। मगर तुम ऐसे ना होना, बल्कि जो तुम में बड़ा है, वो छोटे की मानिंद और जो सरदार है, वो ख़िदमत करने वाले की मानिंद बने। मैं तुम्हारे दर्मियान ख़िदमत करने वाले की मानिंद हूँ।” (लूक़ा 22:25) इंजील में हज़रत पोलुस फ़रमाते हैं कि, “मैं इस तौफ़ीक़ की वजह से जो मुझको मिली है, तुम में हर एक से कहता हूँ कि जैसा समझना चाहिए, उस से ज़्यादा कोई अपने आपको ना समझे बल्कि जैसा ख़ुदा ने हर एक को अंदाज़े के मुवाफ़िक़ ईमान तक़्सीम किया है, एतिदाल के साथ अपने आपको वैसा ही समझे।” (रोमीयों 12:3, 2-कुरंथियो 10:13 वग़ैरह) जनाब मसीह ने फ़रमाया, “मुबारक हैं वो जो दिल के ग़रीब और हलीम हैं।” (मत्ती 5:4) इंजील में वारिद है कि हम “बेजा फ़ख़्र करके ना एक दूसरे को चिढ़ाएं, और ना एक दूसरे से जलें।” (ग़लतीयों 5:26) “मसीह के ख़ौफ़ से एक दूसरे के ताबे रहो।” (इफ़िसियों 5:21) बेजा फ़ख़्र के बाइस कुछ ना करो, बल्कि फ़िरोतनी से एक दूसरे को अपने से बेहतर समझे। हर एक अपनी ही अहवाल पर नहीं, बल्कि हर एक दूसरों के अहवाल पर भी नज़र रखे। वैसा ही मिज़ाज रखो जैसा सय्यदना मसीह का था। उन्होंने अगरचे ख़ुदा की सूरत पर थे, अपने आपको ख़ाली कर दिया। और ख़ादिम की सूरत इख़्तियार की, और आप इन्सानी शक्ल में ज़ाहिर हुए और अपने आपको पस्त कर दिया, और यहां तक फ़रमांबर्दार है कि मौत बल्कि सलीबी मौत गवारा की। इसी वास्ते ख़ुदा ने भी उन्हें सर-बुलंद किया, और आप को वो नाम बख़्शा, जो सब नामों से आला है। (फिलिप्पियों 2:3) “एक दूसरे की ख़िदमत के लिए फ़िरोतनी से कमर-बस्ता रहो। इसलिए कि ख़ुदा मग़रूरों का मुक़ाबला करता है, मगर फ़िरोतनों को तौफ़ीक़ बख़्शता है। पस ख़ुदा के क़वी हाथ के नीचे फ़िरोतनी से रहो ताकि वो तुमको वक़्त पर सर-बुलंद करे।” (1-पतरस 5:6, 2-कुरंथियो वग़ैरह)

(2)

मुनज्जी आलमीन की पैदाइश, वाक़ियात, ज़िंदगी और मौत सब के सब इल्म और फ़िरोतनी का इज़्हार हैं।एक दफ़ाअ जब शागिर्द इस बात पर बह्स कर रहे थे कि उनमें बड़ा कौन है तो आपने उठकर कपड़े उतारे और रूमाल लेकर अपनी कमर पर बाँधा, इस के बाद बर्तन में पानी डाल कर शागिर्दों के पांव धोए और जो रूमाल कमर में बंधा था, उस से पोंछने शुरू किए....जब आप उनके पांव धो चुके, और अपने कपड़े पहन कर फिर बैठ गए तो उनसे कहा क्या तुम जानते हो कि मैंने तुम्हारे साथ क्या किया? तुम मुझे उस्ताद और मौला कहते हो, और ख़ूब कहते हो, क्योंकि मैं हूँ, पस जब मैंने उस्ताद और मौला हो कर तुम्हारे पांव धोए, तो तुम पर भी फ़र्ज़ है कि एक दूसरे के पांव धोया करो। क्योंकि मैंने तुमको एक नमूना दिखाया है, कि जैसा मैंने तुम्हारे साथ किया है, तुम भी किया करो। (युहन्ना 13 बाब)

(3)

इंजील जलील की ताअलीम की बुनियाद ये है कि चूँकि जनाब मसीह अपनी लाज़वाल मुहब्बत की वजह से फ़िरोतन हो कर इन्सानी शक्ल में आए। (फिलिप्पियों 2:6-9 वग़ैरह) ताकि ईसार के ज़रीये बनी-नूअ इन्सान का अपने साथ मेल मिलाप करें। (2-कुरंथियो 5:18 वग़ैरह) लिहाज़ा कोई इन्सान अपने आमाल पर नाज़िल हो कर अज़राह तहक्कुम ख़ुदा के सामने खड़ा नहीं हो सकता (ज़बूर 130:3) बाअज़ इन्सानों का ये क़ायदा है कि जब वो दूसरों के साथ नेकी और एहसान करते हैं, या नमाज़, ज़कात, रोज़ा, ख़ैरात, वग़ैरह के पाबंद होते हैं, तो वो अपने आमाल पर फ़ख़्र करना शुरू कर देते हैं। उनमें बेजा गुरूर और तरफा के जज़्बात पैदा हो जाते हैं। और दूसरों को जो शरई उमूर के पाबंद नहीं होते, बनज़र हक़ारत देखते हैं। इस क़िस्म का गुरूर हमारी रूहों को बर्बाद कर देता है। कलिमतुल्लाह ने ऐसी बातों के ख़िलाफ़ तमाम उम्र जिहाद किया और अपने सामईन को बार-बार इस के ख़िलाफ़ मुतनब्बाह (आगाह) किया। (मत्ती 6:5, 6:16, 7:1-5, लूक़ा 12:1 वग़ैरह) आपके रसूल ने भी इन बातों के ख़िलाफ़ लोगों को ख़बरदार किया, और फ़रमाया, “कि जो फ़ख़्र करे ख़ुदावंद पर फ़ख़्र करे। (2-कुरंथियो 10:17) कलिमतुल्लाह ने उन लोगों को जो अपने पर भरोसा रखते थे कि हम मुत्तक़ी और परहेज़गार हैं, और बाक़ी आदमीयों को नाचीज़ जानते हैं, ये तम्सील फ़रमाई,“दो शख़्स बैतुअल्लाह में दुआ मांगने गए, एक फ़रीसी और दूसरा महसूल लेने वाला। फ़रीसी खड़ा हो कर अपने जी में यूं कहने लगा कि ऐ परवरदिगार ! मैं तेरा शुक्र करता हूँ कि बाक़ी आदमीयों की तरह ज़ालिम बे-इन्साफ़ ज़िनाकार या महसूल लेने वाले की तरह नहीं हूँ। मैं हफ़्ते में दो बार रोज़ा रखता हूँ, और अपनी सारी आमदनी पर दसवाँ हिस्सा लगाता हूँ। लेकिन महसूल लेने वाले ने दूर खड़े हो कर इतना भी ना चाहा, कि आस्मान की तरफ़ नज़र उठाए। बल्कि छाती पीट-पीट कर कहा ऐ ख़ुदा ! मुझ गुनाहगार पर रहम कर, मैं तुमसे कहता हूँ कि ये शख़्स दूसरे की निस्बत मुत्तक़ी और परहेज़गार ठहर कर अपने घर गया।” (लूक़ा 18:9)हम अपने आमाल के सबब मुत्तक़ी और परहेज़गार नहीं हो सकते। ये मह्ज़ ख़ुदा का फ़ज़्ल और करम है, और उस की लाज़वाल अबदी मुहब्बत का नतीजा है कि हम गुनाह की गु़लामी से नजात पा गए हैं। लिहाज़ा ख़ुदा के हुज़ूर बेजा फ़ख़्र की गुंजाइश ही नहीं।

(इफ़िसियों 2:8-9, 1:9, 3:5, रोमीयों 3:20, 3:28 वग़ैरह)

(4)

पस मसीहीय्यत तहक्कुम और ख़ुद-नुमाई को हद से बढ़ने नहीं देती। और हर तरह के नाजायज़ फ़ख़्र और गुरूर, लाफ़ व गुज़ाफ़ का इस्तीसाल (जड़ से उखाड़ना) करती है। जहां वो ये ताअलीम देती है कि इन्सान ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत के ज़रीये अपनी अनानीयत को तरक़्क़ी और तक्मील दे, वहां वो अजुज़ (नर्माई) और इताअत की जिबिल्लत को हद से तजावुज़ नहीं करने देती, बल्कि इस मुआमले में एतिदाल की तल्क़ीन करती है। और इफ़रात और तफ़रीत से हमको बचाती है। जिसका नतीजा ये है कि मसीहीय्यत में तहक्कुम और इताअत की दोनों जिबिल्लतें बग़ैर किसी तसादुम के हमदोश चल कर हमारी अनानीयत का ईलाही मंशा के मुताबिक़ इज़्हार करती हैं, और साबित कर देती हैं कि मसीहीय्यत दीन फ़ित्रत होने की सलाहीयत रखती है।

जिबिल्लत तहक्कुम व अजुज़ और इस्लाम की ताअलीम

ये हक़ीक़त एक मुसल्लिमा अम्र है कि जिन औसाफ़ से किसी क़ौम का माअबूद व मुतस्सिफ़ (लबरेज़) होता है। उस क़ौम के अफ़राद का मतमअ नज़र (मक़्सद असली) और नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) यही होता है कि उन माबूद के औसाफ़ इनके अंदर मौजूद हों। मसलन अगर किसी क़ौम का देवता ख़ूँख़ार सिफ़ात से मुत्तसिफ़ है तो वो क़ौम भी ख़ूँख़ार ही होगी। और उस में हुलुम (नर्माई) और रहम और मुहब्बत अन्क़ा (नायाब चीज़) होंगे। हमने फ़स्ल दोम में देखा है कि क़ुरआन में अल्लाह तमाम असमा-ए-जलाली से मुत्तसिफ़ (भरा) है और अपनी सिफ़ात पर ज़्यादा ज़ोर भी दिया गया है। मसलन क़ुरआनी अल्लाह क़दीर, क़वी, मुक़्तदिर, क़ादिर, ग़ालिब, मुज़ील, क़ह्हार, जब्बार वग़ैरह है। और ये ज़ाहिर है कि इन सिफ़ात का ताल्लुक़ तहक्कुम और ख़ुदनुमाई के साथ है। चूँकि अल्लाह इन सिफ़ात से मुत्तसिफ़ (लबरेज़) है। जिनका ताल्लुक़ तहक्कुम और ख़ुद-नुमाई के साथ है। लिहाज़ा हर मोमिन मुसलमान का ज़ेर हुक्म تخلقو ابااخلاق الله۔ यानी अपने अंदर अल्लाह की सिफ़ात पैदा करो। ये नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) है कि अपने अंदर तहक्कुम (हुक्म चलाने की फ़ित्रत) और ख़ुद-नुमाई पैदा करे। पस क़ुरआन इंजील की तरह इस बात पर ज़ोर नहीं देता कि इन्सान हुलुम, फ़िरोतनी और सब्र के साथ ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत के ज़रीये अपनी अनानीयत (अना) का इज़्हार करे। बल्कि इस के बरअक्स वो तहक्कुम पर हद से ज़्यादा बल्कि बे-अंदाज़ा ज़ोर देता है, चुनान्चे क़ुरआनी हुक्म है कि,“जंग कुफ़्फ़ार के लिए जिस क़द्र तुमसे हो सके क़ुव्वत.... से तुम अपने और ख़ुदा के दुश्मनों को डराओ। और उनके सिवा और लोगों को भी डराओ।” (सूरह अन्फ़ाल 62) “मुशरिकों को जहां पाओ क़त्ल करो, घेरो, और हर घाट की जगह में उनके लिए बैठो।” (सूरह तौबा आयत 5) “मुहम्मद के साथी काफ़िरों पर सख़्त हैं।” (सूरह फ़त्ह आयत 29)आपस में झगड़ा ना करो। वर्ना तुम बुज़दिल बन जाओगे और तुम्हारी हवा जाती रहेगी। (अन्फ़ाल 48) अगरचे क़ुरआन इस अम्र को तस्लीम करता है कि ईसाई मुसलमानों के दोस्त हैं। चुनान्चे लिखा है कि दोस्ती के बारे में मुसलमानों के हक़ में तू उनको ज़्यादा क़रीब पाएगा जो कहते हैं कि हम नसारा हैं ये इसलिए कि उनमें आलिम और दरवेश हैं। और ये लोग तकब्बुर नहीं करते। (माइदा 85) ताहम क़ुरआन मुसलमानों को हुक्म देता है कि तुम ईसाईयों को ना सिर्फ दोस्त ना बनाओ, (सूरह माइदा 56) बल्कि उनसे मुक़ाबला करो। यहां तक कि वो अपने हाथों से जज़िया दें और ज़लील हो कर रहें। (तौबा आयत 29) क़ुरआन की ताअलीम है कि मुसलमान अपने लोगों को ही सलाम करें। और ग़ैर-मुस्लिमों को सलाम करने में पहल ना करें। (सूरह नूर 61) लेकिन अगर वह सलाम करें, तो उनके सलाम का जवाब दें। (सूरह निसा 88) मुसलमान मर्द, औरतों पर हाकिम हैं। (सूरह निसा 39) ग़रज़-कि क़ुरआनी ताअलीम बेजा गुरूर और फ़ख़्र और झूटी इज़्ज़त और शान की हिमायत करती है। लेकिन इंजील जलील की ताअलीम इस क़िस्म के जज़्बात के मुनाफ़ी (खिलाफ) है। (मत्ती 5:43-48, कुलस्सियों 3:12-13, फिलिप्पियों 2:3-5, इफ़िसियों 4:31, 4:1-4 वग़ैरह)

(2)

दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम था कि तहक्कुम (हुक्म चलाने) और ख़ुद-नुमाई के जज़्बे को एक मुक़र्रर और मुईन हद से तजावुज़ ना होने दे। और नाजायज़ फ़ख़्र का क़िला क़ुमा (खातिमा) करे। इस्लाम और क़ुरआन की ताअलीम ये नहीं करती। इस में ये बात ही नहीं कि इन्सान अपनी ज़ात का इज़्हार और अपनी अनानीयत (अना) की तरक़्क़ी सिर्फ़ ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की इल्म और आजिज़ी के साथ ख़िदमत करने में ही कर सकता है। क़ुरआन इस बात की बर्दाश्त ही नहीं कर सकता कि कोई मुसलमान ग़ैर-मुस्लिमों की ख़ातिर अपने जायज़ हुक़ूक़ से दस्तबर्दारी इख़्तियार करे या अपनी ख़ुदी का इन्कार करे। इस के बरअक्स कुफ़्फ़ार को क़त्ल करना, हर शख़्स को अपना मुतीअ करना बल्कि ईसाईयों तक जो इस्लाम के दोस्त हैं, ज़लील और ख़्वार करना ये इस्लाम की ख़ुसूसी ताअलीम है। चुनान्चे अल्लामा इक़बाल जैसा शख़्स भी “इसरार ख़ुदी” में कहता है कि :-

ईसार नफ़्सी और ख़ुद इंकारी दुनिया की मह्कूम अक़्वाम का मज़्हब है। और उनके हाथ में ये आलात हाकिम क़ौम को अपने असर से कमज़ोर कर देते हैं। रुहानी ख़ौफ़ उनकी ताक़त को कमज़ोर कर देता है, और जों-जों ईसार नफ़्सी बढ़ती है, हुक्काम की जिस्मानी क़ुव्वत में फ़र्क़ आता जाता है।”

अल्लामा मौसूफ़ अहले इस्लाम को ख़बरदार करता है कि ऐसे मज़्हब के नज़्दीक ना फटकें। लेकिन ये ताअलीम जैसा हम ऊपर साबित कर आए हैं। हमारी शरस्त की जिबिल्लत ज़ेर-ए-बहस के क़तअन ख़िलाफ़ है। लिहाज़ा जहां तक इस जिबिल्लत का ताल्लुक़ है, इस्लाम के दीन-ए-फ़ित्रत होने की अपने अंदर सलाहीयत नहीं रखता।

तहक्कुम की जिबिल्लत और मुहम्मद अरबी या मसीह नासरी

क़ुरआन अल्लाह और रसूल की इताअत का हुक्म दिया है। हमने देखा है कि वो अल्लाह की सतूत (क़हर, रुअ़ब, शानो-शौकत) और जबरूत (अज़मत) के मनवाने पर निहायत ग़ल्व और मुबालग़ा से काम लेता है। (सूरह आले-इमरान 126,29, निसा 62, माइदा 93 वग़ैरह) क़ुरआन ना सिर्फ रसूल अरबी की इताअत का हुक्म देता है, बल्कि इस इताअत की तफ़्सील भी करता है ताकि आपकी दीनवी इज़्ज़त व वक़ार बढ़े। मसलन क़ुरआन मुसलमानों को हुक्म देता है कि, “मोमिनो जब तुम रसूल के कान में बात कहना चाहो तो कान में बात करने से पहले कुछ ख़ैरात आगे रख लिया करो। ये तुम्हारे हक़ में बेहतर और ज़्यादा सफ़ाई का मूजिब है।” (मुजादिला आयत 13) “तुम अल्लाह और उस के रसूल पर ईमान लाओ। और अल्लाह के रसूल को क़ुव्वत दो, और उस की ताज़ीम करो।” (सूरह फ़त्ह 9) “अल्लाह के रसूल के आगे ना बढ़ो और अल्लाह से डरो। नबी की आवाज़ पर अपनी आवाज़ें बुलंद ना किया करो। और उस के साथ ज़ोर-ज़ोर से बात ना करो ऐसा ना हो कि तुम्हारे आमाल अकारत जाएं। जो लोग रसूल के सामने अपनी आवाज़ें पस्त करते हैं वही हैं, जिनके दिल अल्लाह ने तक़्वा के लिए आज़माऐ हैं। उन के लिए मग़फ़िरत और अज़ीम अज्र है। जो लोग घर की चार-दीवारी के बाहर तुझको पुकारकर बुलाते हैं, वो अक्सर बेअक़्ल हैं। उनको चाहिए कि वो सब्र करें, यहां तक कि तू बाहर निकले। ये उनके लिए बेहतर होता।” (हुजरात 1 ता 4) “मोमिन वही हैं, जो अल्लाह और उस के रसूल पर ईमान लाएं। और जब उस के साथ किसी जमा होने का काम में हों तो उस से इजाज़त हासिल किए बग़ैर ना चले जाया करें। जो लोग तुझसे इजाज़त हासिल करके जाते हैं, वही हैं जो अल्लाह और रसूल पर ईमान लाते हैं। जब वो अपने किसी काम के लिए तुझसे जाने की इजाज़त मांगें। तो उनमें से जिसको चाहे तू इजाज़त दे। अल्लाह उनको जानता है, जो तुम में से नज़र बचा कर खिसक जाते हैं। सो जो लोग उस के हुक्म की मुख़ालफत करते हैं। चाहिए कि डरें कि उन पर कोई आफ़त ना आ जाए, या उनको दुख देने वाला अज़ाब पहुंचे।” (सूरह नूर आयत 62 व 63) अपने दर्मियान रसूल का बुलाना ऐसा ना ठहराओ, जैसे तुम आपस में एक दूसरे को बुलाते हैं।” (सूरह नूर 63) ऐ मुहम्मद जब तक ये लोग अपने झगड़ों में तुझको मुंसिफ़ ना बनाएँ, ये मुसलमान हो नहीं सकते। फिर जो फ़ैसला दे, इस पर अपने दिलों में तंग ना हों, बल्कि ताबेदार बन कर तस्लीम करें।” (निसा 68) “ईमान वालों को लाज़िम है कि जब वो अल्लाह और उस के रसूल की तरफ़ बुलाऐं जाएं, ताकि वो उनके दर्मियान फ़ैसला करे। तो कहें कि हमने सुना और हुक्म माना।” (सूरह नूर 50) “जब अल्लाह और उस का रसूल कोई बात मुक़र्रर करे, तो किसी ईमानदार मर्द और औरत का काम नहीं कि उनको अपने काम का इख़्तियार है।” (सूरह अह्ज़ाब 36)

मुंदरजा बाला आयात का मक़्सद ये ना था कि अरब की वहशी ग़ैर मुहज़्ज़ब क़ौम को आदाब-ए-मजलिस सिखलाए जाएं, क्योंकि उनका ताल्लुक़ रसूल की ज़ात ख़ास से है। और ज़माना-ए-जाहिलीयत के अरब आदाब-ए-मजलिस से नावाक़िफ़ ना थे। इन आयात से रसूल के वक़ार व इफ़्तख़ार का इस्तिहकाम और आपकी अज़मत व शान की उस्तवारी के सिवा और कोई मक़्सद ना था।

(2)

इस के बरअक्स अगर हम इब्ने अल्लाह की ज़िंदगी पर सतही नज़र डालें। तो हमको मालूम हो जाएगा कि गो आप इल्म और फ़िरोतनी का नमूना थे। (मत्ती 11:19) ताहम आपके हुलुम (नर्म दिली) और फ़िरोतनी का ये मतलब ना था कि आप पस्त हिम्मत थे या अपनी ज़ात और ख़ुद्दारी का इज़्हार नहीं करते थे।

इंजील इस पर गवाह है कि जहां सच्चाई और हक़गोई, फ़र्ज़ शनासी या ज़मीर वग़ैरह का ताल्लुक़ है वहां आपने बेमिसाल दिलेरी के साथ अपनी शख़्सियत और इख़्तियार का मुज़ाहरा किया। मसलन आपने तमाम जहान की मुख़ालिफ़त को सह लिया, लेकिन गुनाहगारों को नजात की ख़ुशख़बरी देने से आप दस्तबर्दार ना हुए। तमाम फ़रीसी आपके दुश्मन जान हो गए। लेकिन आपने उनकी बे क़ुयूद और ग़लत उसूल को तश्त अज़बाम (मशहूर और आम होना) कर दिया।आपकी सलीब इस अम्र की गवाह है कि दुनिया की ताक़त आपको मस्लूब तो कर सकी लेकिन आप को मग़्लूब ना कर सकी। आपमहसूस करते थे कि “आस्मान और ज़मीन का कुल इख़्तयार मुझे दिया गया है।” (मत्ती 28:18) “मेरे बाप की तरफ़ से सब कुछ मुझे सौंपा गया है।” (मत्ती 11:27) आप हर तरह से “साहिब-ए-इख़्तियार” थे। (युहन्ना 3:35, 13:3, 17:2, आमाल 2:36, रोमीयों 14:9, 1-कुरंथियो 15:27, इफ़िसियों 1:10, 1:20-22, फिलिप्पियों 2:6-10, कुलस्सियों 2:10, इब्रानियों 1:2, 2:8, 1-पतरस 2:22, मुकाशफ़ा 17:14 वग़ैरह) आपने ऐसे दावे किए, जो इन्सान ने कभी ना किए। यहां तक कि आपने फ़रमाया कि आप रोज़-ए-हश्र दुनिया का इन्साफ़ करेंगे। (मत्ती 16:27, 15:31 वग़ैरह) आप जब दुनिया में थे। तो इस इख़्तियार के बाइस “साहिब-ए-इख़्तियार” की तरह ताअलीम देते थे। (मत्ती 7:29, मरक़ुस 1:22 वग़ैरह) आपकी गुफ़तार व रफ़्तार मोअजज़ात, ग़रज़ कि एक-एक अदा से आपका इख़्तियार टपकता था। (मत्ती 8:9, मरक़ुस 1:27, लूक़ा 9:1, युहन्ना 5:27 वग़ैरह) ये बात आपके दुश्मन भी मानते थे। (मत्ती 21:23, मरक़ुस 11:28, युहन्ना 7:46 वग़ैरह) लेकिन आप बावजूद साहिब-ए-इख़्तियार होने के परले दर्जे के फ़िरोतन और हलीम थे। (मत्ती 11:29) आप ने अपनी ज़ात का इज़्हार ख़ल्क़ की ख़िदमत के ज़रीये किया, और फ़रमाया, “इब्न-ए-आदम इसलिए नहीं आया कि ख़िदमत ले बल्कि ख़िदमत करे।” (मत्ती 20:28) चुनान्चे आपको ये एहसास था कि “बाप ने सब चीज़ें मेरे हाथ में कर दीं हैं। और मैं ख़ुदा के पास से आया। और ख़ुदा ही के पास जाता हूँ।” (युहन्ना 13:3) लेकिन आपने इस इख़्तियार का इज़्हार “दुनिया की सारी बादशाहतें और इनकी शान व शौकत” को हासिल करके ना किया। (मत्ती 4 बाब) बल्कि इस इख़्तियार के एहसास का इज़्हार यूं किया कि, “आपने दस्तर ख़्वान से उठकर कपड़े उतारे, और रूमाल लेकर अपनी कमर में बाँधा था, इस से पोंछने शुरू किए। जब आप उनके पांव धो चुके तो उनसे फ़रमाया क्या तुम जानते हो कि मैंने तुम्हारे साथ क्या किया? तुम मुझे उस्ताद और मौला कहते हो और ख़ूब कहते हूँ क्योंकि मैं हूँ पस जब मुझ उस्ताद और मौला ने तुम्हारे पांव धोए, तो तुम पर भी फ़र्ज़ है कि एक दूसरे के पांव धोया करो। क्योंकि मैंने तुमको एक नमूना दिखाया है कि जैसा मैंने तुम्हारे साथ किया है तुम भी किया करो।” (युहन्ना 13:4) आपकी ज़ात में इन दोनों जिबिल्लतें तहक्कुम (हुक्म चलाने की फ़ित्रत) और जिबिल्लत अजुज़ (नर्म दिली की फ़ित्रत) दोनों अपनी कमालियत में जमा थीं। और आपने इन दोनों जिबिल्लतों के ज़रीये इस मुहब्बत का इज़्हार फ़रमाया, जो आपके दिल में बनी-नूअ इन्सान के लिए मोजज़िन थी।’’حسنت جمیع خصالہ ‘‘ सिर्फ आपकी ज़ात-ए-पाक पर हर पहलू से सादिक़ आ सकता है।

(3)

इब्ने अल्लाह ने अपने नमूने से हमको सिखलाया है कि हमको दूसरों की ख़ातिर अपने हुक़ूक़ से दस्तबरदार हो जाना चाहिए। इंजील शरीफ़ ब मुताबिक़ (मत्ती 11:29) में जिस यूनानी लफ़्ज़ का तर्जुमा “हलीम” हुआ है। उस के मअनी “हुक़ूक़ से दस्तबरदार” हो जाना है। और यही बात (फिलिप्पियों 2:4) में सरीहन वारिद हुई है। जनाब मसीह की ज़िंदगी ऐसे बेशुमार वाक़ियात रौनुमा हुए जब आप अपने जायज़ हुक़ूक़ से “दस्तबरदार” हुए। (मत्ती 3:13-17, 17:24-27 वग़ैरह) इंजील ने हमको ताअलीम दी है कि दूसरों की ख़ातिर हमको बखु़शी ख़ातिर अपने जायज़ हुक़ूक़ से दस्तबरदार हो जाना चाहिए। (रोमीयों 12:21, ग़लतीयों 5:13, 1-कुरंथियो 8:9, 10:23 वग़ैरह) दूसरे लोगों की मुहब्बत की ख़ातिर कलिमतुल्लाह हर तरह का ईसार और क़ुर्बानी करने को तैयार थे। आपके नमूने और आपकी इंजील ने हलीमी और मुहब्बत का बाहमी रिश्ता दिखलाया। “मुहब्बत शेख़ी नहीं मारती, और फूलती नहीं, अपनी बेहतरी नहीं चाहती।” (1-कुरंथियो 13:4) मुहब्बत के साथ दूसरों की ख़िदमत इल्म और फ़िरोतनी से करना और इस क़िस्म की ख़िदमत सरअंजाम देने में अपनी ऐन सआदत समझना। ये दोनों बातें ज़ेर-ए-बहस जिबिल्लतों के तक़ाज़ाओं को अहसन तौर पर पूरा करती हैं। इब्ने अल्लाह ने दूसरों की मुहब्बत की ख़ातिर अपनी ख़ुदी से इन्कार करने पर और हर क़िस्म का ईसार करने पर ज़ोर दिया है। आपने फ़रमाया,“अगर कोई मेरे पीछे आना चाहे तो अपनी ख़ुदी से इन्कार करे, और अपनी सलीब उठाए और मेरे पीछे हो ले। क्योंकि जो कोई अपनी जान बचानी चाहे वो उसे खोएगा, और जो कोई मेरे वास्ते अपनी जान खोएगा, वो उसे पाएगा। (मत्ती 16:24) फ़िरोतनी दर-हक़ीक़त ख़ुद-फ़रामोशी है। हम अपनी अमली ज़िंदगी में बनी-नूअ इन्सान के साथ मुहब्बत का इज़्हार सिर्फ इस तरह कर सकते हैं कि उनकी ख़ातिर अदना तरीन उमूर को भी फ़िरोतनी से पूरा करें। (मत्ती 25:35-45, युहन्ना 13:14 वग़ैरह) जहां मुहब्बत नहीं वहां हक़ीक़ी फ़िरोतनी और हुलुम नहीं। लेकिन जहां मुहब्बत है, वहां बेजा तहक्कुम, लाफ़ ग़ज़ाफ, ख़ुद-नुमाई, गुरूर व फ़ख़्र की गुंजाइश नहीं। (2 कुरंथियो 10:14 वग़ैरह) बल्कि मुहब्बत की मौजूदगी नफ़्सकुशी, हक़ीक़ी हुलुम और असली फ़िरोतनी का बाइस होती है।

नतीजा

नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि मसीहीय्यत ज़ात के इज़्हार की जिबिल्लत को ईलाही मुहब्बत और इन्सानी उखुवत (भाई चारे, मेल-मिलाप) के उसूल के तहत करके इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) की जायज़ और मुनासिब नशव व नुमा करती है। इंजील की ये ताअलीम है कि बनी-नूअ इन्सान की फ़लाह और बहबूदी की ख़ातिर अदना तरीन काम मुहब्बत के जज़्बे से सरशार हो कर किया जाये। मुनज्जी आलमीन का नमूना हमारे लिए सिराज हिदायत है ताकि इस ख़िदमत को सरअंजाम देने के लिए हम हर तरह के ईसार और क़ुर्बानी को अमल में ला सकें। ख़ल्क़ ने इस जिबिल्लत को इसी ग़रज़ के लिए हमारे सरिश्त में वदीअ़त फ़रमाया है। लिहाज़ा जहां तक इस जिबिल्लत का ताल्लुक़ है, मसीहीय्यत ही दीन-ए-फ़ित्रत हो सकता है।

फ़स्ल नह्म

जिबिल्लत हुसूल व इक्तिसाब जिबिल्लत हुसूल व ख़ुसूसियात इक्तिसाब की

हर इन्सान में अश्या को फ़राहम करने और ज़ख़ीरा जमा करने की इक़्तिज़ा किसी ना किसी सूरत में पाई जाती है, क्योंकि ये जिबिल्लत (फ़ित्रत) उस की सरिश्त में दाख़िल है। इस दुनिया में कोई बच्चा ऐसा नहीं जो बालिग़ होने तक और इस के बाद भी किसी ना किसी क़िस्म की अश्या (चीजों) को जमा ना करे। बचपन में उमूमन इस ज़ख़ीरे के जमा करने का कोई ख़ास मक़्सद नहीं होता, क्योंकि इक्तिसाब व हसूल की जिबिल्लत (कमाने व जमा करने की फ़ित्रत) इन्सानी फ़ित्रत में दाख़िल है।

इन्सानी ज़िंदगी में ये जिबिल्लत इन पेचीदा तस्वीक़ात और जज़्बात का बाइस होती है, जिनका ताल्लुक़ मिल्कियत और क़ब्ज़े के साथ है। यही जिबिल्लत सरमाया और दौलत के फ़राहम करने में मदद देती है।

(2)

इस जिबिल्लत का ये ख़ास्सा है कि इस की तस्कीन (तसल्ली) नहीं होती, बल्कि इस की ख़्वाहिश रोज़-अफ़्ज़ूँ है। दीगर ख़्वाहिशात एक ख़ास नुक़्ते पर पहुंच कर साकिन हो जाती हैं, और उनकी कामिल तस्कीन हो जाती है। मसलन जब इन्सान एक ख़ास उम्र को पहुंच जाता है, तो उस में नर और मादा की ख़्वाहिश बाक़ी नहीं रहती। लेकिन इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) का ये ख़ास्सा है कि इस की ख़्वाहिश रोज़ बरोज़ बढ़ती जाती है। गोया जमा करने के जुनून को तस्कीन (तसल्ली) से आगाही नहीं। ऐसे इन्सान बहुत ही कम देखने में आते हैं, जो अपनी ख़्वाहिशों की तस्कीन के लिए सिर्फ मायहताज पर ही क़नाअत (जितना मिले उस पर सब्र) करते हैं। किसी दूसरी जिबिल्लत के इक़्तिज़ा के हुसूल के लिए इस क़द्र क़दो काविश नहीं की जाती। जितनी दौलत को जायज़ और नाजायज़ तरीक़ों मसलन क़िमारबाज़ी वग़ैरह से जमा करने या सरमाए को फ़राहम करने या ज़मीन और मकान की मिल्कियत को हासिल करने या मुल्कगीरी वग़ैरह के लिए की जाती है। इस से ज़ाहिर है कि इस जिबिल्लत में फ़ासिद (ख़राब) इफ़रात (कस्रत) की सलाहीयत मौजूद है।

जिबिल्लत हुसूल और दीन-ए-फ़ित्रत के लवाज़मात

दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम है कि इस जिबिल्लत के रुहजान को हीच, कम माया बे-हक़ीक़त और अदना अश्या की तरफ़ से हटा कर ऐसे आला तरीन मक़ासिद को हासिल करने की जानिब राग़िब करे। जिनसे इन्सान की अपनी ज़ाती तरक़्क़ी और बनी-नूअ इन्सान की बहबूदी मक़्सूद है। दीन-ए-फ़ित्रत का ये भी काम है कि इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) में जो फ़ासिद इफ़रात की सलाहीयत मौजूद है, उस का ईलाज करे ताकि इन्सान इस जिबिल्लत की रोज़-अफ़्ज़ूँ ख़्वाहिश को क़ाबू में रख सके।

जिबिल्लत हुसूल और मसीहीय्यत की ताअलीम

मसीहीय्यत हमको ये ताअलीम देती है कि दौलत एक बेमाया, हीच, अदना और बे-हक़ीक़त शैय है। और हमारी ज़िंदगी का ये नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) हरगिज़ नहीं होना चाहिए, कि हम इस के जमा करने में मुनहमिक (मसरूफ) हो जाएं।“मालदार होने के लिए परेशान ना हो, क्या तू उस चीज़ पर आँख लगाएगा, जो बे-हक़ीक़त है? क्योंकि दौलत पर लगा कर उड़ जाती है।” (अम्साल 24:4) “तुम ख़ुदावंद अपने ख़ुदा का शुक्र बजा लाओ। ख़बरदार कहीं ऐसा ना हो कि जब तुम खाकर सैर हो, और ख़ुशनुमा घर बना कर उनमें रहने लगो, और तुम्हारे पास चांदी, सोना, और माल बकस्रत हो जाए, तो तुम ख़ुदावंद अपने ख़ुदा को भूल कर उस के फरमानों और अहकाम और आईन को मानना छोड़ दो।” (इस्तिस्ना 9:11) “सादिक़ का थोड़ा सा माल शरीरों (बुरों) की बहुत सी दौलत से बेहतर है।” (ज़बूर 37:16) “जो कोई अपने आपको दौलतमंद बनाता है वो नादार है। और जो कोई अपने आपको कंगाल बनाता है वो बड़ा मालदार है।” (अम्साल 13:7) “थोड़ा जो ख़ुदावंद के ख़ौफ़ के साथ हो, बड़े गंज से बेहतर है।” (अम्साल 15:16) “दरोग़गोई से खज़ाने हासिल करना बे-ठिकाना नजात की मानिंद है, और इस के तालिब मौत के तालिब हैं।” (अम्साल 21:6) “ज़र दोस्त रुपये से आसूदा ना होगा, और दौलत का चाहने वाला उस के बढ़ने से सैर ना होगा, ये भी बुतलान है।” (वाइज़ 5:10) कलिमतुल्लाह ने फ़रमाया कि, “इस दुनिया में बहुत आदमी ऐसे हैं, जो ख़ुदा का कलाम तो सुनते हैं लेकिन दुनिया की फ़िक्र और दौलत का फ़रेब इस कलाम को दबा देता है, और वो बे फल रह जाता है।” (मत्ती 13:22) आपने अपने रसूलों से फ़रमाया, “जो लोग दौलत पर भरोसा रखते हैं, उनके लिए ख़ुदा की बादशाहत में दाख़िल होना निहायत मुश्किल है, ऊंट का सूई के नाके में से निकल जाना इस से आसान है कि दौलतमंद ख़ुदा की बादशाहत में दाख़िल हो।” (मरक़ुस 10:23) आपने लोगों को ज़र (माल) से मुहब्बत करने के ख़िलाफ़ ख़बरदार फ़रमाया और कहा कि, “अगर आदमी सारी दुनिया हासिल कर ले और अपनी रूह का नुक़्सान उठाए तो उसे क्या फ़ायदा होगा? आदमी अपनी जान के बदले क्या देगा?” (मत्ती 16:26) आपने फ़रमाया, “कोई नौकर दो मालिकों की ख़िदमत नहीं कर सकता, क्योंकि या तो एक से अदावत रखेगा और दूसरे से मुहब्बत, या एक से मिला रहेगा और दूसरे को नाचीज़ जानेगा। तुम ख़ुदा और दौलत दोनों की ख़िदमत नहीं कर सकते।” (लूक़ा 16:13) और फिर फ़रमाया, “अपने वास्ते ज़मीन पर माल जमा ना करो, जहां कीड़ा और ज़ंग ख़राब करता है, और जहां चोर नक़ब लगाते और चुराते हैं, बल्कि अपने लिए आस्मान पर माल जमा करो, जहां ना कीड़ा ख़राब करता है ना ज़ंग, और ना वहां चोर नक़ब लगाते और चुराते हैं। क्योंकि जहां तेरा माल है, वहीं तेरा दिल भी लगा रहेगा।” (मत्ती 16:19) आपने दौलत की कम-माइगी, और उस के साथ मुहब्बत रखने की ना-आक़ेबत अंदेशी को ज़ाहिर करने के लिए एक तम्सील फ़रमाई और कहा कि, “किसी दौलतमंद की ज़मीन पर बड़ी फ़स्ल हुई, पस वो अपने दिल में सोच कर कहने लगा कि मैं क्या करूँ कि मेरे हाँ जगह नहीं कि जहां अपनी पैदावार भर रखूं उसने कहा मैं ये करूँगा कि अपनी कोठियाँ ढाकर इनसे बड़ी बनाऊँगा और उनमें अपना सारा अनाज और माल भर रखूँगा, और अपनी जान से कहूँगा, ऐ जान तेरे पास बरसों के लिए बहुत सा माल जमा है चैन कर, खा पी और ख़ुश रह। मगर ख़ुदा ने उस से कहा ऐ नादान उसी रात तेरी जान तुझसे तलब कर ली जाएगी, पस जो तूने तैयार किया है वो किस का होगा? ऐसा ही वो शख़्स है, जो अपने लिए ख़ज़ाना जमा करता है, और ख़ुदा के नज़्दीक दौलतमंद नहीं। इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ कि अपनी जान की फ़िक्र ना करो, कि हम क्या खाएँगे और अपने बदन का कि क्या पहनेंगे। क्योंकि जान ख़ुराक से बढ़कर है, और बदन पोशाक से, हवा के परिंदों को देखो कि ना बोते हैं ना काटते हैं, ना कोठियों में जमा करते हैं, तो भी तुम्हारा आस्मानी बाप उनको खिलाता है। क्या तुम उनसे ज़्यादा क़द्र नहीं रखते? और पोशाक के लिए क्यों फ़िक्र करते हो? जंगली सोसन के फूलों को ग़ौर से देखो कि वो किस तरह बढ़ते हैं, वो ना मेहनत करते ना कातते हैं। तो भी मैं तुमसे कहता हूँ कि सुलेमान भी बावजूद अपनी सारी शानो-शौकत के उनमें से किसी की मानिंद पोशाक पहने हुए ना था। पस जब ख़ुदा मैदान की घास को जो आज है। और कल तनूर (आग) में झोंकी जाएगी ऐसी पोशाक पहनाता है तो ऐ कम एतिक़ादो ! तुमको क्यों ना पहनाएगा? पस तुम इस की तलाश में ना रहो कि क्या खाएँगे और क्या पहनेंगे? और ना शाकी बनो, क्योंकि तुम्हारा बाप जानता है कि तुम इनके मुहताज हो। हाँ ख़ुदा की बादशाहत की तलाश में रहो, तो ये चीज़ें भी तुमको मिल जाएँगी। (लूक़ा 12 बाब, मत्ती 6 बाब) आपने फ़रमाया, “ख़बरदार अपने आपको हर तरह के लालच से बचाए रखो, क्योंकि किसी शख़्स की ज़िंदगी उस के माल की कस्रत पर मौक़ूफ़ नहीं।” (लूक़ा 12:15) “फ़ानी ख़ुराक के लिए मेहनत ना करो, बल्कि उस ख़ुराक के लिए जो हमेशा की ज़िंदगी तक ठहरती है।” (युहन्ना 6:27) सय्यदना मसीह के रसूल भी फ़रमाते हैं, “ना दुनिया से मुहब्बत रखो, ना उन चीज़ों से जो दुनिया में हैं। जो कोई दुनिया से मुहब्बत रखता है, उस में बाप की मुहब्बत नहीं।” (1-युहन्ना 2:15) “जिसके पास दुनिया का माल हो और वो अपने भाई को मुहताज देखकर रहम करने में दरेग़ करे, तो उस में ख़ुदा की मुहब्बत क्यूँ-कर क़ायम रह सकती है?” (युहन्ना 3:17) हज़रत याक़ूब कहते हैं, “ऐ दौलतमंद तुम्हारा माल बिगड़ गया तुम्हारी पोशाकों को कीड़ा खा गया। तुम्हारे सोने चांदी को ज़ंग लग गया।” (याक़ूब 5:1) ज़र (माल) की मुहब्बत से ख़ाली रहो, और जो तुम्हारे पास है इस पर क़नाअत (जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) करो, क्योंकि खुदा ने ख़ुद फ़रमाया है कि, “मैं तुझसे दस्तबरदार ना हूँगा, और कभी तुझे ना छोड़ूँगा।” (इब्रानियों 13:5) हज़रत पोलुस फ़रमाते हैं, “बहुतेरे ऐसे हैं जिनका ख़ुदा, पेट है, और वो दुनिया की चीज़ों के ख़्याल में रहते हैं, वो मसीह की सलीब के दुश्मन हैं। और उनका अंजाम हलाकत है। मगर हमारा वतन आस्मान पर है।” (फिलिप्पियों 3:19) “लालच, बुत-परस्ती के बराबर है।” (कुलस्सियों 3:5) “दीनदारी क़नाअत (जितना मिल जाए उस पर सब्र करने) के साथ बड़े नफ़ा का ज़रीया है। क्योंकि ना हम दुनिया में कुछ लाए और ना कुछ इस में से ले जा सकते हैं। पस अगर हमारे पास खाने और पहनने को है, तो उसी पर क़नाअत (सब्र) करें। लेकिन जो दौलतमंद होना चाहते हैं, वो ऐसी आज़माईश और फंदे और बहुत सी बेहूदा और नुक़्सान पहुंचाने वाली ख़्वाहिशों में फँसते हैं। जो आदमीयों को तबाही और हलाकत के दरिया में ग़र्क़ कर देती है। क्योंकि ज़र (दौलत) की मुहब्बत हर क़िस्म की बुराई की जड़ है। इस मौजूदा जहान के दौलतमंदों को हुक्म देकर मगुरूर ना हों, और ना पायदार दौलत पर, नहीं, बल्कि ख़ुदा पर-उम्मीद रखें, और अच्छे कामों में दौलतमंद बनें।” (1-तिमीथियुस 6 बाब)

(2)

सुतूर बाला से ज़ाहिर है कि मसीहीय्यत जिबिल्लत हुसूल व इक्तिसाब (कमाने व पाने की फ़ित्रत) को नाकारा नहीं बतलाती, ये हमारी सरिश्त में दाख़िल है। लिहाज़ा मसीहीय्यत इस जिबिल्ली फ़ित्रत को ज़ाए नहीं करती, बल्कि इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) के रुहजान को ज़ोर व माल जैसी बे-हक़ीक़त अश्या के जमा करने की तरफ़ से हटा कर उस का रुख आला मक़ासिद की तरफ़ कर देती है। कलिमतुल्लाह ने ये सबक़ ज़हन नशीन करने के लिए एक तम्सील फ़रमाई कि, “एक शख़्स ने बड़ी ज़याफ़त की, और बहुत से लोगों को बुलाया, और खाने के वक़्त अपने नौकर को भेजा कि बुलाए हुओं से कहो कि आओ, अब खाना तैयार है। इस पर सबने मिलकर उज़्र करना शुरू किया पहले ने उस से कहा कि मैंने खेत ख़रीदा है मुझे ज़रूर है कि जाकर उसे देखूं मैं तेरी मिन्नत करता हूँ, मुझे माज़ूर रख। दूसरे ने कहा मैंने पाँच जोड़ी बैल ख़रीदे हैं, उनको आज़माने जाता हूँ, मैं तेरी मिन्नत करता हूँ, मुझे माज़ूर रख। एक और ने कहा मैंने ब्याह किया है, इस सबब से नहीं आ सकता। (लूक़ा 14:14-16) इस तम्सील के ज़रीये सय्यदना मसीह हमको बतलाते हैं कि जब लोगों को ख़ुदा की बादशाहत की क़बूलीयत की दावत दी जाती है तो वो इस मुक़द्दम और अहम मक़्सद को छोड़कर अपनी तवज्जा मुक़ाबलतन हीच और कममाया अश्या (कम-तरीन चीजों) में लगा देते हैं। जनाब मसीह का ये मक़्सद नहीं कि ज़र और माल और दीगर दुनियावी अश्या बज़ात-ए-ख़ुद बुरी हैं, लेकिन आपका मतलब ये है कि हर एक शैय अपनी-अपनी जगह क़द्र और वक़अत रखती है। और किसी शैय को उस की जायज़ और मुनासिब क़द्र से ज़्यादा वक़अत दुनिया फ़ित्रत के ख़िलाफ़ है एक कम-क़द्र शैय को वक़अत देकर मुक़द्दम जानना और मुक़द्दम शैय को बेवक़अ़त और मोअख्ख़र शुमार करना ये ज़ाहिर करता है कि हम जिबिल्लत हुसूल व इक्तिसाब (कमाने व पाने) के रुहजान को मुक़द्दम मक़ासिद से हटाकर बे-हक़ीक़त अश्या की जानिब राग़िब कर रहे हैं। और ग़ैर फ़ित्रती हरकात के मुर्तक़िब हो रहे हैं। दुनिया का ज़र एक ऐसी शैय है, जिससे हमको मुहब्बत नहीं रखनी चाहिए दौलत के जमा करने का जुनून एक कममाया अदना और हीच शैय है, और जब ख़ालिक़ ने जिबिल्लत हुसूल व इक्तिसाब को हमारी सरिश्त में वदीअत फ़रमाया, तो इस का हरगिज़ ये मुद्दा ना था कि हम ऐसी जिबिल्लत की ताक़त और तवानाई (जिसकी कभी तस्कीन नहीं होती बल्कि जिसकी ख़्वाहिश रोज़-अफ़्ज़ूँ है) ऐसी कममाया और हीच शैय के हुसूल में सर्फ कर दें।

(3)

मसीहीय्यत की आमद ने इस दुनिया की मुख़्तलिफ़ अश्या की वक़अत के तसव्वुरात में अज़ीमुश्शान तब्दीलीयां पैदा करके दुनिया के अख़्लाक़ की काया पलट दी। कलिमतुल्लाह की बिअसत से पहले अक़्वाम आलम के मुम्ताज़ तरीन अफ़राद वो समझे जाते थे, जो इक्तिसाब ज़र दौलत, हुसूल इज़्ज़त व मर्तबत, जाह और शौकत, मुल्कगीरी और शहंशाहियत वग़ैरह में सबसे ज़्यादा कोशां होते थे। अक़्वाम आलम का ये ख़्याल था कि, “मुबारक हैं वो जो दौलतमंद हैं।” कलिमतुल्लाह ने फ़रमाया, “मुबारक हो तुम जो ग़रीब हो।” (लूक़ा 6:20) और “अफ़्सोस तुम पर जो दौलतमंद हो।” (लूक़ा 6:24) इन का ख़्याल था कि “बदनसीब हैं वो जो भूके हैं।” कलिमतुल्लाह ने फ़रमाया, “मुबारक हो तुम जो भूके हो।” (लूक़ा 6:20) और “अफ़्सोस तुम पर जो सैर हो।” (लूक़ा 6:25) इनका ये ख़्याल था कि “मुबारक हैं वो जिनकी ज़िंदगी ऐश और हंसी में गुज़रती है।” कलिमतुल्लाह ने फ़रमाया, “मुबारक हो तुम जो रोते हो।” और “अफ़्सोस तुम पर जो हंसते हो।” (लूक़ा 6:25) इनका ये ख़्याल था कि मुबारक हैं वो लोग जिनको तमाम लोग तहसीन व आफ़रीन कहें। लेकिन कलिमतुल्लाह ने फ़रमाया, “तुम मुबारक होगे, जब लोग तुमको सताएँगे और हर तरह की बुरी बातें तुम्हारी निस्बत नाहक़ कहेंगे।” (मत्ती 5:11) और “अफ़्सोस तुम पर जब सब लोग तुमको भला कहें।” (लूक़ा 6:26) अक़्वाम आलम का ये ख़्याल था कि जाह और इज़्ज़त और लोगों पर हुकूमत चलाने की ताक़त का हासिल करना हमारी ज़िंदगी का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) होना चाहिए इस के बरअक्स कलिमतुल्लाह ने ताअलीम दी कि ख़ल्क़ ख़ुदा की ख़िदमत हमारा मतमाअ नज़र होना चाहिए। और कि हुकूमत और इख़्तियार जताने की रूह अच्छी नहीं और फ़रमाया, “तुम जानते हो कि अक़्वाम आलम के सरदार इन पर हुकूमत चलाते और अम्र इन पर इख़्तियार जताते हैं। लेकिन तुम में ऐसा ना होगा, बल्कि जो तुम में बड़ा होना चाहे, वो तुम्हारा ख़ादिम बने। और जो तुम में अव्वल होना चाहे, वो तुम्हारा ग़ुलाम बने। चुनान्चे इब्न-ए-आदम इसलिए नहीं आया कि ख़िदमत ले बल्कि इसलिए कि ख़िदमत करे और अपनी जान बहुतेरों के बदले फ़िदीए में दे।” (मत्ती 20:25) पस जनाब मसीह ने ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत को मुक़द्दम और दौलत जाह इज़्ज़त और हुकूमत वग़ैरह के हुसूल को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत का मह्ज़ एक वसीला मुक़र्रर कर दिया। चुनान्चे एक दफ़ाअ एक ऐसा शख़्स जनाब मसीह के पास आया, जिसने हुसूल ज़र (दौलत हासिल करने) को अपनी ज़िंदगी का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) बना रखा था। और आपसे पूछने लगा कि मैं क्या करूँ कि हमेशा की ज़िंदगी का वारिस बनू? आपने फ़रमाया, कि जो माल तूने जमा किया है उस को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत में सर्फ कर।” (मरक़ुस 10:21) लेकिन इस बात से “उस के चेहरे पर उदासी छा गई, और वो ग़मगीं हो कर चला गया, क्योंकि वो बड़ा मालदार था।” पस सय्यदना मसीह ने फ़रमाया, जो लोग इक्तिसाब-ए-ज़र दौलत और हुसूल इज़्ज़त जाह की ख़ातिर ज़िंदगी बसर करते हैं। उनके लिए ख़ुदा की बादशाहत में दाख़िल होना निहायत मुश्किल है। ऊंट का सूई के नाके में से गुज़र जाना इस से आसान है कि ऐसा दौलतमंद उस में दाख़िल हो, जो अपनी दौलत और मर्तबत को ख़ल्क़-ख़ुदा की ख़िदमत और ख़ुदा की बादशाहत के क़ियाम और वुसअ़त की ख़ातिर ख़र्च करने से दरेग़ करता है। जनाब मसीह ने ख़ुदा की बादशाहत के तसव्वुर को मुक़द्दम ठहरा कर तमाम दीगर उमूर को इस एक नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) के मातहत कर दिया। और आलम अख़्लाक़ीयात में अज़ीमुश्शान तब्दीली पैदा कर दी। मुनज्जी आलमीन ने हमारी जिबिल्लत हुसूल व इक्तिसाब की जिबिल्लत (कमाने और हासिल करने की फ़ित्रत) के रुख को कममाया, बे-हक़ीक़त और नाकारा अश्या की तरफ़ से हटा दिया, और हुक्म दिया कि चंद रोज़ा और फ़ानी उमूर को नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) बना कर उनको हासिल करने के बजाय उनको आला तरीन ग़ैर-फ़ानी मक़ासिद के मातहत और उनके हुसूल का वसीला बना दें। (युहन्ना 6:27) ताकि जिबिल्लत हुसूल का हक़ीक़ी मंशा जो ख़ालिक़ के इरादे के मुताबिक़ है पूरा हो जाए, और यूं हमारी फ़ित्रत का असली तक़ाज़ा पूरा हो जाए।

पस जनाब-ए-मसीह ने एक नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) हमारी आँखों के सामने रख दिया है कि जिसके हासिल करने के लिए हम इस जिबिल्लत की पूरी ताक़त को इस्तिमाल कर सकते हैं। आपने फ़रमाया, “मुक़द्दम बात ये है कि तुम ख़ुदा की बादशाहत और उस की रास्तबाज़ी को हासिल करो।” (मत्ती 6:23) इस आला तरीन मक़्सद के हासिल करने में इन्सान अपनी जान और रूह की तरक़्क़ी और बनी-नूअ इन्सान की तरक़्क़ी का बाइस हो सकता है।

आपने तम्सीलों के ज़रीये ख़ुदा की बादशाहत का मुक़द्दम होना लोगों पर ज़ाहिर किया और फ़रमाया कि, “आस्मान की बादशाहत उस सौदागर की मानिंद है जो उम्दा मोतीयों की तलाश में था, जब उसे एक बेशक़ीमत मोती मिला तो उसने जाकर जो कुछ उस का था, बेच डाला, और उसे मोल ले लिया। आस्मान की बादशाहत एक छिपे ख़ज़ाने की मानिंद है, जिसको किसी आदमी ने पाकर छिपा दिया, और ख़ुशी के मारे जाकर जो कुछ उस का था, बेच डाला, और उस खेत को मोल ले लिया।” (मत्ती 13 बाब) ख़ुदा की बादशाहत एक ऐसा बेश-बहा नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) है, जिसको हासिल करने की ख़ातिर तमाम वसाइल इस्तिमाल करने चाहिए। इस की वक़अत इस क़द्र है कि बाक़ी हर शैय गो बज़ाहिर क़ाबिल-ए-क़द्र मालूम होती हो। लेकिन इस के मुक़ाबले में उस की क़द्र हीच है। जिस तरह बेशक़ीमत मोती के मुक़ाबले में बाक़ी तमाम मोतीयों की वक़अत हीच (कमतर) थी। अगरचे वो मोती भी अपनी-अपनी जगह क़ाबिल-ए-क़द्र थे। ख़ुदा की बादशाहत की क़द्र और वक़अत इतनी रफ़ी और बुलंद है, कि उस के क़ियाम और वुसअ़त की ख़ातिर इब्ने अल्लाह ने अपनी जान दे दी।

(4)

हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं कि जिबिल्लत व इक्तिसाब (कमाने व पाने वाली फ़ित्रत) में फ़ासिद इफ़रात की सलाहीयत मौजूद है। दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम है कि फ़ासिद सलाहीयत की रोक-थाम करे। कलिमतुल्लाह ने इस सलाहीयत को यूं ज़ाइल किया कि आपने इस सलाहीयत की रोज़-अफ़्ज़ूँ ख़्वाहिश को ख़ुदा की बादशाहत की बिना (बुनियाद), क़ियाम, पाएदारी, और उस्तिवारी के हुसूल के मातहत कर दिया। यूं इस के इफ़रात में जो फ़साद का इम्कान था वो जाता रहा। ख़ुदा की बादशाहत के क़ियाम और पाएदारी में हम जितनी भी कोशिश करेंगे, वो कम होगी, और इस से किसी फ़र्द बशर को नुक़्सान और गज़ंद पहुंचने का अंदेशा नहीं। अगर हम इस जिबिल्लत के रुहजान को आला तरीन मक़ासिद के हुसूल यानी ख़ुदा की बादशाहत और उस की रास्तबाज़ी को हासिल करने की जानिब राग़िब करेंगे। तो चूँकि इस जिबिल्लत का ख़ास्सा है कि इस की तस्कीन कभी नहीं होती, और इस की ख़्वाहिश रोज़-अफ़्ज़ूँ है। तो हम इस नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को हासिल करने की रोज़-अफ़्ज़ूँ कोशिश करेंगे और इस नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) के हुसूल के इफ़रात से हमको और बनी-नूअ इन्सान को किसी क़िस्म का गज़ंद (सदमा) पहुंचने का ख़दशा भी नहीं है। बरअक्स इस के जब इस आला नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को हासिल करने के लिए हमारी कोशिश लगातार जारी रहेगी तो जितनी इस कोशिश को तस्कीन नहीं होगी उसी क़द्र इस की रोज़-अफ़्ज़ूँ ख़्वाहिश हमारी रूह की बहबूदी और इन्सानी तरक़्क़ी और फ़लाह के लिए मुबारक और फ़ाइदेमंद साबित होगी। हम हर वक़्त इसी कोशिश में होंगे कि ख़ुदा की बादशाहत इस दुनिया में क़ायम हो जाए। (मत्ती 4:17 वग़ैरह) और दुआ करेंगे कि इस दुनिया का कारोबार ख़ुदा की रास्तबाज़ी के उसूलों पर चले। (मत्ती 6:9) पस कलिमतुल्लाह ने जिबिल्लत हुसूल व इक्तिसाब (कमाने व हासिल करने की फ़ित्रत) की इफ़रात में जो फ़साद की सलाहीयत थी। उस का सिद बाब (दरवाज़ा बंद) कर दिया आपकी ताअलीम ने इस सलाहीयत को आला तरीन नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) के मातहत करके उस की तवानाई और क़ुव्वत को ख़ुदा और उस की बादशाहत और उस की रास्तबाज़ी की तहसील में ख़र्च कर दिया।

जिबिल्लत हुसूल व इक्तिसाब और

क़ुरआनी ताअलीम

क़ुरआन में ऐसी आयात पाई जाती हैं, जो ज़र और दौलत के हुसूल को हीच (कमतर) और अदना बतलाती हैं, “जिसने माल जमा किया, और गिन-गिन कर रखा समझता है कि उस का माल हमेशा उस के पास रहेगा, हरगिज़ नहीं। वो तो रौंदने वाली (दोज़ख़ की आग) में फेंका जाएगा।” (सूरह हम्ज़ा आयत 2 व 6, आले-इमरान 12, अन्फ़ाल 28, कहफ़ 43 व 44, इनाम 32, हिज्र 88, ताहा 131 वग़ैरह)

(2)

लेकिन एक तरफ़ तो क़ुरआन इन चीज़ों को कममाया (कमतर) क़रार देता है, लेकिन दूसरी तरफ़ इन्ही चीज़ों को बेहतरीन मरग़बात में शुमार करके माल-ए-ग़नीमत वग़ैरह के ज़रीये लोगों को जिहाद के लिए उभारता है। (सूरह अन्फ़ाल 1 व 42 सूरह फ़त्ह 15) “जो तुम लूट के लाए, हलाल पाक है तुम खाओ।” (सूरह अन्फ़ाल 70) यूं क़ुरआन इस दुनिया के माल व असबाब (और माल भी ऐसा जो लूट के ज़रीये हासिल किया हो) की कम-माइगी के उसूल को ख़ुद ही ज़ाइल कर देता है। इलावा अज़ीं क़ुरआन ने ये इजाज़त दे रखी है कि रुपये के ज़रीये लोगों के दिल इस्लाम की तरफ़ राग़िब करना जायज़ है। (सूरह तौबा आयत 60) यूं रुपये की मुहब्बत और लालच की रोज़-अफ़्ज़ूँ ख़्वाहिश लोगों के दिलों में जागज़ीन हो जाती है। इस के बजाय कि दुनिया और ज़र (दौलत) की मुहब्बत का इस्तीसाल हो जिबिल्लत हुसूल व इक्तिसाब (कमाने व हासिल करने की फ़ित्रत) का इफ़रात में जो फ़साद की सलाहीयत है, उस को तक़वियत मिलती है। इन्सान का यही जी चाहता है कि लूट के ज़रीये जिबिल्लत हुसूल व इक्तिसाब की ख़्वाहिश को पूरा करे। यही वजह है कि दौरे हाज़रा में भी अरब के मुसलमान बद्दूओं को दुनिया-ए-इस्लाम के हाजियों को लूट लेने से बाज़ रखना एक निहायत मुश्किल अम्र है।

(3)

इलावा अज़ीं क़ुरआन जिबिल्लत हुसूल (हासिल करने की फ़ित्रत) की क़ुव्वत को कममाया और हीच इश्याय की जानिब से हटा कर उस की रुहजान का रुख किसी दूसरे मक़्सद आला के मातहत नहीं करता। क़ुरआन में कोई तामीरी प्रोग्राम या नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) नहीं। जिस तरह इंजील जलील में “ख़ुदा की बादशाहत” का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) है। बिल-फ़र्ज़ अगर ये मान भी लिया जाये कि क़ुरआन दौलत-ए-दुनिया को हीच जानता है, और नहीं चाहता है कि जिबिल्लत हुसूल (पाने की फ़ित्रत) की ताक़त ज़र (दौलत) के हुसूल में ख़र्च हो। तो सवाल ये है कि फिर ये ताक़त किस बात के हुसूल में ख़र्च की जाये? ये ज़ाहिर है कि जिबिल्लत हमारी सरिश्त में दाख़िल है, और हज़रत रसूल अरबी ﷺ इस अम्र से बख़ूबी वाक़िफ़ थे कि इस जिबिल्लत की तस्कीन (तसल्ली) नहीं होती। चुनान्चे मिशकात किताब-उल-रिक़ाक़ में अनस से रिवायत है कि :-

“आँहज़रत ने फ़रमाया कि आदमी तो बूढ़ा हो जाता है। लेकिन उस में दो चीज़ें जवान और क़वी रहती हैं, यानी माल की हिर्स और दराज़ी उम्र की ख़्वाहिश।”

पस ज़रूर है कि इन्सान के सामने कोई तामीरी प्रोग्राम या नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) हो जिसकी जानिब इस जिबिल्लत की क़ुव्वत को राग़िब करे और जिसको हासिल करने के लिए वो दिलोजान से कोशिश करे। लेकिन क़ुरआन इस बारे में बिल्कुल ख़ामोश है। और अगर उस के पास मतमाअ नज़र है, तो बस नामाह-ए-बहिश्त हैं। जिनके ज़िक्र से क़ुरआन के सफ़्हों के सफ़े भरे पड़े हैं। (सूरह मुहम्मद 12 व 17, साफ्फात 39 ता 47, नबा 30, दहर 13, तौर 24, ग़ाशिया 15, वाक़िया 22 व 35, रोम 14, कहफ़ 30, रहमान 46 ता 72, दुख़ान 51 ता 55, वग़ैरह-वग़ैरह) लेकिन किसी सलीम-उल-तबअ़ शख़्स के नज़्दीक क़ुरआनी नगमा-ए-बहिश्त सही मरग़बात में शुमार नहीं हो सकते।

(4)

पस क़ुरआन व इस्लाम जिबिल्लत हुसूल व इक्तिसाब (कमाने व हासिल करने की फ़ित्रत) की क़ुव्वत को हीच और कममाया (कमतर) बे-हक़ीक़त और अदना अश्या की तरफ़ से नहीं हटाता। उस की ताक़त के रुहजान को किसी और बेहतर मक़्सद और नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) की जानिब नहीं कर सकता, जिससे बनी-नूअ इन्सान की बहबूदी मक़्सूद है। इस जिबिल्लत में जो फ़ासिद इफ़रात की सलाहीयत मौजूद है। उस के रोक-थाम का इस्लाम के पास कोई ईलाज नहीं। ग़रज़ कि जहां तक इस जिबिल्लत का ताल्लुक़ है, इस्लाम दीन-ए-फ़ित्रत नहीं हो सकता।

नतीजा

मसीहीय्यत जिबिल्लत हुसूल व इक्तिसाब (कमाने व हासिल करने की फ़ित्रत) के इक़्तिज़ा को तस्लीम करके इस रुहजान को ज़र (दुनियावी दौलत) जैसी बे-हक़ीक़त अश्याय से हटा देती है, और इस का रुख बेहतर और आला मक़ासिद के हासिल करने की जानिब लगाती है। जिनसे इन्सान की अनानीयत की तरक़्क़ी और बनी-नूअ इन्सान की फ़लाह और बहबूदी मक़्सूद है। यूं मसीहीय्यत ने मुख़्तलिफ़ मक़ासिद की क़द्र और मंजिलत के तसव्वुरात में अज़ीमुश्शान तब्दीली करके दुनिया-ए-अख़्लाक़ की काया पलट दी है। इंजील-ए-जलील ने इस जिबिल्लत की इफ़रात में जो फ़साद की सलाहीयत मौजूद थी। इस की रोक-थाम इस तरह सर-अंजाम दी कि ख़ुदा की बादशाहत का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) हमारी नज़र के सामने रख दिया, ताकि इस तामीरी प्रोग्राम पर अमल करके इन्सान अपनी अनानीयत (खुद) की और बनी-नूअ इन्सान की फ़लाह और बहबूदी का बाइस हो जाए। पस जहां तक जिबिल्लत-ए-हुसूल व इक्तिसाब (कमाने व पाने की फ़ित्रत) का ताल्लुक़ है, मसीहीय्यत इस के तमाम इक़्तिज़ाओं को बवजह-ए-अह्सन पूरा करके अरबाब-ए-दानिश पर साबित कर देती है कि वो दीन-ए-फ़ित्रत है।

इश्तिराकीयत और मसीहीय्यत

(1)

फ़ी-ज़माना बेरोज़गारी के मसअले ने हिन्दुस्तान की तवज्जा अपनी तरफ़ ऐसी जज़्ब कर ली है कि लोग किसी और मसअले की जानिब तवज्जा ही नहीं देते। जिधर आँख उठाओ बेरोज़गारों और बेकारों की क़तार-वर-क़तार नज़र आती है। हर तरफ़ से एक ही सदा कानों में पड़ती है कि ’’چور خورو بامدا فرزندم‘‘ “हाय रोटी” की चीख़ पूकार के सामने दुनिया का हर क़िस्म का शोर और गुल मद्धम पड़ गया है। दौर-ए-हाज़रा में किसी शख़्स के लिए और बिलख़सूस ताअलीम याफ़्ता तबक़े के लिए कोई ऐसा अम्र दिलचस्पी का बाइस नहीं होता जिसका ताल्लुक़ रोटी के साथ ना हो। हिन्दुस्तान की मौजूदा सियासियात में इक़्तिसादीयात को इस क़द्र एहमीय्यत दी गई है कि मज़्हबी उसूल और दीनयात तक को इस के तहत कर दिया गया है। और उनको ज़रीया मआश बना दिया गया है। मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब के पैरौ (मानने वाले) अपने-अपने मज़्हब की आड़ में अपने ज़ाती अग़राज़ व मक़ासद को पूरा करके इस मक़ूला पर अमल कर रहे हैं कि, “ईमान बरा-ए-ताअ़त व मज़्हब-बरा-ए-जंग।” जिसका नतीजा ये हो गया है कि फ़िर्कावाराना शोलों ने कश्मीर बेनज़ीर से लेकर (कन्या) रास कुमारी तक हिन्दुस्तान भर में आग लगा दी है। और हिन्दुस्तान जो तीस (30) साल पहले दार-उल-अमान था। अब बाहमी नज़ाअ और निफ़ाक़ की वजह से दारा-उल-हर्ब बन गया है। अन्दरेन हालात दौरे हाज़रा के नौजवान जिनके आबा-ओ-अज्दाद ख़ुदा और मज़्हब के नाम पर मर मिटना सआदत दारेन का मूजिब समझते थे। वो मज़्हब के नाम से ना सिर्फ बेज़ार दिखाई देते हैं। बल्कि मज़्हबी मुबाहिस और दीनी मशाग़ुल से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) हो कर उनसे कोसों दूर भागते हैं। उनकी नज़रें मशरिक़ के अम्बिया और हिन्दुस्तान के औलिया की तरफ़ से हट कर रूस की जानिब जा लगी हैं। जहां बेरोज़गारी ज़माना-ए-माज़ी की दास्तान पारीना हो चुकी है और इश्तिराकीयत ने मस्नूई (खुदसाख्ता) दर्जा बंदीयों को मिटा कर हर एक शख़्स के लिए रोटी, ताअलीम, रिहाइश और आसाइश का इंतिज़ाम करके मुवासात (मदद, ग़म ख्वारी, दरगुज़र, सुलह) को आलम-ए-इम्कान से आलम-ए-वुजूद में लाकर पर्दा शुहूद पर रौनुमा कर दिया है। और अब हर रोशन ख़्याल शख़्स ये सवाल पूछता है कि अगर इश्तिराकीयत (साझा, एक एतिदाल पसंद फ़ल्सफ़ा या नज़रिया हयात जिसके मुताबिक़ ज़रा-ए-पैदावार पर अवाम की मुशतर्का मिल्कियत होनी चाहिए) ने रूस जैसे पसमांदा मुल्क में बीस (20) साल के अंदर एजाज़ी करिश्मे दिखा कर इन्क़िलाब बर्पा कर दिया है। तो क्या हिन्दुस्तान के लिए इश्तिराकीयत का क़ियाम इस के इक़्तिसादी मसाइल के लिए नफ़ा बख्श नहीं होगा? हिन्दुस्तान के करोड़ों बाशिंदों के लिए ये सवाल ज़िंदगी और मौत का सवाल हो गया है।

(2)

अगर बनज़र तअ़मीक़ (दूर अंदेशी से काम लेना, ग़ौर से) देखा जाये। तो इक़्तिसादी मअ़तक़िदात और मौजूदा हालात के अंदर फ़साद की जड़ तक़ाबुल और Competition है। हमारी इक़्तिसादी इमारत मुक़ाबले की बुनियाद पर क़ायम की गई है।

पस....

خشت اول چوں نہد معمار کج

تاثریا مے رود دیوار کج

मुक़ाबले की रूह की ये ख़ुसूसीयत है कि हर शख़्स यही चाहता है कि दूसरों को जायज़ व नाजायज़ तरीक़ों से पछाड़ कर ख़ुद आगे बढ़े। पस मौजूदा इक़्तिसादीयात इस दौड़ की मानिंद है, जिसमें हर शख़्स उसी सर तोड़ कोशिश में लगा रहता है कि मैं कामयाब हो कर दूसरों से गोय सबक़त ले जाऊं, और बाक़ी तमाम हरीफ़ दीवालीया हो जाएं। पस ख़ुदी और तमअ़ (लालच) सरमाया-दारी की इमारत के बुनियादी पत्थर हैं। जो हर क़िस्म के इत्तिफ़ाक़, यगानगत और मुहब्बत के जानी दुश्मन हैं। अब तल्ख़ तजुर्बे ने हम पर ज़ाहिर कर दिया है कि मग़रिब के ज़ेर-ए-असर मानचैस्टर के मदरिसा इक़्तिसादीयात (Manchester School of Ecnomics) ने जो सब्ज़-बाग़ हमको शुरू-शुरू में दिखाए थे। उनकी हक़ीक़त और वक़अत सराब (आँखों का धोके) से ज़्यादा नहीं है। और हिन्दुस्तानी क़ौम हरगिज़ तरक़्क़ी नहीं कर सकती। अगर वो मादूद-ए-चंद ख़ुशहाल सरमायादारों पर और पचानवे (95) या ज़्यादा फ़ीसद भूकों पर मुश्तमिल होगी, जहां सरमाया-दार फ़ाक़े मस्तों को मुख़ातब करके कहें :-

غوغائے کارخانہ آہنگری زمن گلبا نگ ارغنون کلیسا زآن تو

نخلے کہ شہ خراج برومی نہذمن باغ بہشت وسدرہ وطوبی ٰز آن تو

تلخابہ کہ درد سر آروزآن من صہبائے پاک آدم وحوا ازان تو

مرغابی وتدرود کبوتر ازآن من ظل ہما دشہپر عنقا ازآن تو

ایں خاک وآنچہ از شکم ادزان من وز خاک تابہ عرش معلی ازآن تو

सरमाया-दारी में सिरे से ये सलाहीयत ही नहीं, कि दुनिया की अच्छी चीज़ों और नेअमतों को मुहब्बत और इन्साफ़ के उसूल के मुताबिक़ तक़्सीम करे। लेकिन ख़ुदा ने इस दुनिया की नेअमतें सब के लिए रखी हैं, और इस का ये हरगिज़ मतलब नहीं है कि इन नेअमतों की तक़्सीम मौजूदा इक़्तिसादी हालात के मुताबिक़ ख़ुदी और तमअ़ (लालच) की बिना पर की जाये।

(3)

फ़ी-ज़माना में रूस एक ऐसा मुल्क है जिसमें इश्तिराकीयत ने अपनी इक़्तिसादीयात की बुनियाद मुक़ाबले की बजाय इत्तिफ़ाक़, मुवालात और कोऑप्रेशन पर रखकर बीस (20) साल के अंदर अज़ीम पैमाने पर ऐसा इन्क़िलाब पैदा कर दिया है, जिसकी नज़ीर तारीख़ में कहीं नहीं मिलती। पस हमारे मुल्क के नौजवान ख़्याल करते हैं कि अगर हिन्दुस्तान में भी इश्तिराकीयत का बोल-बाला हो जाए। तो हमारे कुल इक़्तिसादी मसाइल हल हो जाएंगे, इस में कुछ शक नहीं। कि इश्तिराकीयत का सबसे ज़्यादा दिलकश और रोशन पहलू यही है कि उसने अपनी इक़्तिसादीयात की बुनियाद कोऑप्रेशन पर रखी है। लेकिन कोई सही-उल-अक़्ल शख़्स इश्तिराकीयत के बदनुमा दाग़ों की तरफ़ से अपनी आँखें बंद नहीं कर सकता। इश्तिराकीयत सोसाइटी के मुख़्तलिफ़ तब्क़ों में मुनाफ़िरत के जज़्बात फैलाती है। और मज़दूरों की जमाअत को ये तल्क़ीन करती है कि सरमायादारों के वजूद को दुनिया से नाबूद कर दिया जाये इलावा-अज़ीं इश्तिराकीयत के पास ऐसे मुहर्रिकात और मअ़लात नहीं, जिनके ज़रीये वो लोगों को सरमाया-दारी की जानिब से हटा सके। और इन्सान की ख़ुदी और तमअ़ (लालच) पर ग़ालिब आ सके। पस वो अपने मक़ासिद को हासिल करने के लिए लोगों को मज्बूर करती है कि वो उस के प्रोग्राम पर अमल करें। पस इश्तिराकीयत ख़ुदी और तमअ़ (लालच) का क़िला क़ुमा नहीं कर सकती। क्योंकि उनका ताल्लुक़ ग़ैर माद्दी उमूर के साथ है, जिनका इश्तिराकीयत सिरे से इन्कार करती है। इश्तिराकीयत ताअद्दी, जब्र व तशद्दुद, क़त्ल और ख़ून के हथियारों से अपना काम निकालती है, और आज़ादी की दुश्मन है, माद्दियत, अल-मिहाद, और ला-मज़्हबी इस की बुनियादें हैं। वक़्त को ताह व क़सा तूलानी, वर्ना रूस की गुज़शता बीस (20) साला तारीख़ से साबित किया जा सकता है कि उस का एक-एक वर्क़ इन बातों की ज़िंदा मिसाल है।

(4)

पस लाज़िम है कि हिन्दुस्तान किसी ऐसे सियासी और इक़्तिसादी लायेहा-ए-अमल की तलाश करे। जिसमें इश्तिराकीयत की तमाम खूबियां मौजूद हों, लेकिन उस की बुराईयां मफ़्क़ूद (गायब) हों। मसीही मज़्हब का ये दावा है कि उस के पास इस क़िस्म का तामीरी प्रोग्राम मौजूद है, जिसका नाम मसीही इस्तिलाह ने “ख़ुदा की बादशाहत” रखा है, और वो प्रोग्राम रूसी इश्तिराकीयत का जवाब है। मसीहीय्यत का ये दावा है कि ये बादशाहत अटल है, और इस का बादशाह अज़ली और अबदी बेनज़ीर शख़्सियत का मालिक है। और इस का लायेहा-ए-अमल एक ऐसा प्रोग्राम है, जो आलमगीर है। ये बादशाहत, प्रोग्राम को मुरत्तिब करती है, और इस का बादशाह लोगों को इस के प्रोग्राम पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता करता है। आओ हम चंद लम्हों के लिए देखें, कि आया माद्दापरस्त और मुल्हिदाना इश्तिराकीयत हिन्दुस्तान की इक़्तिसादी मुश्किलात को हल करेगी या इस मुबारक काम में “ख़ुदा की बादशाहत” के उसूल हमारे राहनुमा होंगे।

(5)

ख़ुदा की बादशाहत के बुनियादी उसूल ये हैं कि ख़ुदा हमारा बाप है, जो हर फ़र्द बशर (हर इंसान) से अज़ली और अबदी मुहब्बत करता है। और कुल बनी-नूअ इन्सान बिला लिहाज़ ज़ात, मज़्हब, नस्ल, रंग, क़ौम और मुल्क वग़ैरह एक दूसरे के भाई और ख़ुदा की बादशाहत के शरीक हैं। इस बादशाहत के बानी का इर्शाद है कि,“तुम्हारा बाप एक ही है जो आस्मान पर है और तुम सब भाई हो।” (मत्ती 23:8)

“ये पहला सबक़ है किताब हुदा का......कि है सारी मख़्लूक़ कुम्बा ख़ुदा का”

इस मुवाख़ात की वजह से हर शख़्स पर ये फ़र्ज़ आइद कर दिया गया है कि वो दूसरों से इस तरह मुहब्बत करे जिस तरह अपने आपसे मुहब्बत करता है। हर एक शख़्स को जो ख़ुदा की बादशाहत का मैंबर है मुसावी (बराबर) हुक़ूक़ हासिल हैं। पस ख़ुदा की बादशाहत का अस्ल-उल-उसूल मुहब्बत है, और उखुवत व मसावात (भाईचारा व बराबर हुकुक़) इस बादशाहत के बुनियादी उसूल हैं।

मुहब्बत, उखुवत और मुसावात (भाईचारा और बराबर हुकुक़) के उसूल का ये तक़ाज़ा है कि दूसरों के साथ वही सुलूक रवा रखा जाये, जो हर इन्सान अपने लिए चाहता है। सच पूछो, तो हक़ीक़त ये है कि अगर इन्सान मुहब्बत के उसूल पर अमल करे तो ये जान लो कि उसने तमाम शरीअत पर अमल कर लिया। चुनान्चे इंजील जलील में इर्शाद हुआ है कि, “आपस की मुहब्बत के सिवा किसी चीज़ में किसी के कर्ज़दार ना हो। क्योंकि जो शख़्स दूसरे से मुहब्बत रखता है, उसने शरीअत पर पूरा अमल कर लिया। क्योंकि ये अहकाम कि ज़िना ना कर, ख़ून ना कर, चोरी ना कर, लालच ना कर, और इन के सिवा और जो कोई हुक्म हो, इन सब का ख़ुलासा इस बात में पाया जाता है कि अपने अब्ना-ए-जिंस से अपनी मानिंद मुहब्बत रख। मुहब्बत अपने अब्ना-ए-जिंस से बदी नहीं करती। इस वास्ते मुहब्बत शरीअत की तामील व तक्मील है।” (रोमीयों 13 बाब) तमाम हुक़ूक़-उल-इबाद इसी ज़मुरा में आ जाते हैं। पस मुहब्बत का अस्ल-उल-उसूल जामेअ और मानेअ है जो तमाम आईन व क़वानीन और फ़िक़्ह पर हावी है।

خلل پذیر بود ہر بنا کہ مے بینی

مگر بنائے محبت کہ خالی از خلل است

ये अस्ल इन्सान के रोज़मर्रा के फ़राइज़ के साथ वाबस्ता किया गया है, और इन्सानी अख़्लाक़ का नस्ब-उल-एन (मक़्सद) क़रार दे दिया गया है। पस ख़ुदा की बादशाहत के इस अस्ल ने हर क़िस्म की दर्जा-बन्दी तफ़रीक़ और तमीज़ को मिटा दिया। और जिस बात को इश्तिराकीयत ने आज जबर और तशद्दुद के ज़रीये हासिल किया है दो हज़ार साल हुए, कलिमतुल्लाह ने मुहब्बत के ज़रीन अस्ल के ज़रीये इस को हासिल करने का रास्ता दिखा दिया था।

मुहब्बत का अस्ल ख़ुदी का ऐन नक़ीज़ है। मुहब्बत और ख़ुदी इज्तिमा अल-ज़द्दीन हैं। जहां मुहब्बत है वहां ख़ुदी नहीं हो सकती। क्योंकि मुहब्बत का जोहर ख़ुद इंकारी और एसार-ए-नफ़्सी है। इसी तरह तमअ़ (लालच) और मुहब्बत दोनों एक दूसरे से बेगाना हैं। कलिमतुल्लाह ने सरमायादारों को फ़रमाया कि, “कोई शख़्स दो मालिकों की ख़िदमत नहीं कर सकता, क्योंकि या तो वो एक से अदावत रखेगा, और दूसरे से मुहब्बत। और या एक से मिला रहेगा, और दूसरे को नाचीज़ जानेगा। तुम ख़ुदा और दौलत दोनों की ख़िदमत नहीं कर सकते।” (मत्ती 6:24) इब्ने अल्लाह ने तामेंअ़ (लालची) लोगों को फ़रमाया, ख़बरदार हर तरह के लालच से अपने आपको बचाए रखो क्योंकि किसी की ज़िंदगी उस के माल की कस्रत पर मौक़ूफ़ नहीं।” (लूक़ा 12:15) कलिमतुल्लाह की निगाह में तमअ़ (लालच) गुनाह कबीरा में से था। चुनान्चे इंजील मुक़द्दस में वारिद हुआ है कि, “लालच बुत-परस्ती के बराबर है।” (कुलस्सियों 3:5) यही वजह थी कि मालदार और सरमाया-दार अश्ख़ास कलिमतुल्लाह और आपके हवारीन से किनारा-कश रहते थे।

(6)

पस कलिमतुल्लाह की ताअलीम के मुताबिक़ ख़ुदा की बादशाहत की बुनियाद किसी ऐसे अस्ल पर मब्नी नहीं हो सकती, जिस का ताल्लुक़ ख़ुदी और तमअ़ (लालच) के साथ हो। पस इस बादशाहत के इक़्तिसादी निज़ाम और उसूल तक़ाबुल और (Competition) पर क़ायम नहीं हो सकते, बल्कि सिर्फ़ को-ऑप्रेशन मुवालात और मुहब्बत के उसूल पर ही क़ायम हो सकते हैं.....

ऐसा कोऑप्रेशन इश्तिराकीयत की तरह जबर व तशद्दुद, क़त्ल व खून के ज़रीये माअरज़ वजूद में नहीं आ सकता, बल्कि ईलाही, मुहब्बत, उखुवत और मुसावात (भाईचारा और बराबरी) इस बादशाहत की सियासियात और इक़्तिसादीयात की मुहर्रिक और बुनियाद हैं। पस ख़ुदा की बादशाहत के तसव्वुर में वो अन्सर जो इश्तिराकीयत का रोशन पहलू है, बतरज़ अहसन मौजूद है। और वो तमाम अनासिर जो इश्तिराकीयत पर बदनुमा धब्बे हैं, इस तसव्वुर से निकियतन ग़ायब हैं। इस बादशाहत में मुलूकियत और इश्तिराकीयत के बदतरीन अनासिर यानी जोर व ज़ुल्म, तअद्दी (नाहक़, हद से बढ़ जाना) और इस्तिबदाद (ज़ुल्म व जोर से हुकूमत करना, ज़िद) अक़ूबत (सज़ा) व ताज़ीब, जिदाल व क़िताल को दख़ल नहीं, क्योंकि इस की इक़तिसादीयात, मुहब्बत, व शफ़क़त, हम्दर्दी और रहम, हक़ और अदल, फ़िरोतनी इन्किसारी और ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत पर क़ायम हैं। पस इस बादशाहत के मैंबरों पर अदावत और नज़ाअ, कीना और हसद, ग़ुस्सा और शिकाक बुग़्ज़, और क़त्ल, मस्ती और लहू व लाब ममनू और हराम हैं, क्योंकि ये सब बातें उस के उसूल के ख़िलाफ़ हैं। क्योंकि मुहब्बत और ख़ुशी इत्मीनान और तहम्मुल, नेकी और ईमानदारी, तवाज़ो और परहेज़गारी इस बादशाहत के उसूल के अमली नताइज हैं। (ग़लतीयों 5:19 वग़ैरह)

पस कलिमतुल्लाह ने ख़ुदा की बादशाहत के क़वानीन को एक जामेअ अस्ल मुहब्बत के मातहत कर दिया, और मसीहीय्यत ने अपने इक़्तिसादी लायेहा-ए-अमल को इस जामेअ अस्ल के मातहत मुरत्तिब किया है। अगर हम अपने अब्ना-ए-जिंस (इंसानों) से अपने बराबर मुहब्बत करेंगे, तो इफ़्लास (मुफ़्लिसी) और ग़रीबी का ख़ुद ब ख़ुद क़िला-क़ुमा (खातिमा) हो जाएगा। चुनान्चे इब्रानियों की इंजील में एक वाक़िये का ज़िक्र है जो इंजील मत्ती पर मब्नी है कि, “एक दौलतमंद ने जनाब मसीह को कहा, “ऐ आक़ा मैं क्या करूँ कि ज़िंदगी हासिल करूँ? आपने जवाब दिया, मियां शरीअत और सहाइफ़ अम्बिया पर अमल कर। उसने कहा कि इन सब पर मैंने अमल किया है। आपने जवाब दिया कि जा जो कुछ तेरा है बेच कर ग़रीबों को दे, और आकर मेरे पीछे हो ले। इस पर वो सरमाया-दार बरहम हो गया, क्योंकि ये बात उस की तबअ़ पर नागवार गुज़री। जनाब मसीह ने उस को कहा, तू किस तरह कह सकता है कि मैंने शरीअत और सहाइफ़ अम्बिया पर अमल किया है? दरां हाल ये कि शरीअत में लिखा है कि अपने अब्ना-ए-जिंस (इंसानों) से अपनी मानिंद मुहब्बत रख। देख तेरे बहुत से भाई जो आले-इब्राहिम हैं चीथडों में ज़िंदगी बसर कर रहे हैं, और भूकें मर रहे हैं, और तेरा घर माल, अस्बाब और सामान ख़ुर्द व नोश से भरा पड़ा है, और इस में से कुछ नहीं निकलता।”

(7)

जब इब्ने अल्लाह मबऊस हुए। और आपने ख़ल्क़-ए-ख़ुदा को नजात का पैग़ाम देना शुरू किया, तो इब्तिदा ही में पहली बात जो आपने की वो ये थी कि आपने ख़ुदा की बादशाहत का प्रोग्राम मुरत्तिब किया, और मरते दम तक आप इस लायेहा-ए-अमल पर कारफ़रमा रहे। आपने सबत के रोज़ जब ख़ल्क़-ए-ख़ुदा नासरत के इबादतखाने में जमा थी, भरे मजमे में खड़े हो कर अपनी ज़बान मोअजिज़ा से बयान फ़रमाया, “ख़ुदा ने मुझे मस्ह किया है, ताकि ग़रीबों को जिनको दौलतमंदों ने पांव तले रौंद रखा है ख़ुशख़बरी दूं। उनको जो मज्लिसी और सियासी क़ुयूद (कैदों) की ज़ंजीरों में जकड़े हुए हैं रस्तगारी (रिहाई) बख्शूं, उनको जिनके बदन चूर और शिकस्ता हैं, और जिनके माहौल ना-गुफ़्ता बह हैं, शिफ़ा और ताक़त दूं, कुचले हुवों को आज़ाद करूँ, और सबको ख़ुदा की बादशाहत की बशारत दूं।” (लूक़ा 4 बाब) इस प्रोग्राम का पहला क़दम ग़रीबों और मुफ़्लिसों से मुताल्लिक़ था। और आपने बबांग बुलंद (बुलंद आवाज़ से) फ़रमाया कि, “मुबारक हैं वो जो मुफ़्लिस हैं, क्योंकि ख़ुदा की बादशाहत उन्हीं की है।” (मत्ती 5 बाब) इब्ने अल्लाह इस दुनिया में मबऊस हो कर आए ताकि दुनिया की काया पलट दें, और एक नया आस्मान और नई ज़मीन माअरज़ वजूद में आए, और ये दुनिया जो ख़ुदा और उस के मसीह की हो जाएगी। बअल्फ़ाज़े-दीगर ख़ुदा की बादशाहत मौजूदा दौर की जगह ले-ले, इस मक़्सद को मद्द-ए-नज़र रखकर जनाब मसीह ने अपना लायेहा-ए-अमल तज्वीज़ फ़रमाया, ताकि ख़ुदा की बादशाहत आलमगीर पैमाने पर इस दुनिया में हमेशा के लिए क़ायम हो जाए।

(8)

इब्ने अल्लाह ने इस प्रोग्राम की तफ़्सील को तम्सीलों के ज़रीये दुनिया के ज़हन नशीन कर दिया, और सिखलाया कि हर शख़्स की आमदानी उस की ज़रूरीयात के मुताबिक़ होनी चाहिए। तवालत के ख़ौफ़ की वजह से मैं सिर्फ एक तम्सील पर इक्तिफ़ा करता हूँ। आपने फ़रमाया कि, “आस्मान की बादशाहत उस घर के मालिक की मानिंद है जो सवेरे निकला, ताकि अपने अंगूरी बाग़ में मज़दूर लगाए और उसने मज़दूरों से एक दीनार रोज़ ठहरा कर उनको अपने बाग़ में भेज दिया। फिर पहर दिन चढ़े के क़रीब निकल कर उसने औरों को बाज़ार में बेकार खड़े देखा, और उनसे कहा तुम भी बाग़ में चले जाओ, जो वाजिब है कि तुमको दूँगा, पस वो चले गए। फिर उसने दोपहर और तीसरे पहर के क़रीब निकल कर वैसा ही किया, और कोई घंटा दिन रहे फिर निकल कर औरों को खड़े पाया, और उनसे कहा तुम क्यों यहां तमाम दिन बेकार खड़े रहे? उन्होंने उस से कहा इसलिए कि किसी ने हमको मज़दूरी पर नहीं लगाया, उसने उनसे कहा, तुम भी बाग़ में चले जाओ। जब शाम हुई तो बाग़ के मालिक ने अपने कारिंदे से कहा कि मज़दूरों को बुला और पिछलों से लेकर पहलों तक उनको मज़दूरी दे दे, जब वो आए, जो घंटा भर दिन रहे लगाए गए थे। तो उनको एक-एक दीनार मिला। जब पहले मज़दूर आए तो उन्होंने ये समझा कि हम को ज़्यादा मिलेगा लेकिन उनको भी एक ही दीनार मिला। तब वो घर के मालिक से ये कह कर शिकायत करने लगे कि उन पिछलों ने एक ही घंटा काम किया है और तूने उनको हमारे बराबर कर दिया। जिन्हों ने दिन-भर का बोझ उठाया और सख़्त धूप सही? उसने जवाब दिया, मियां मैं तेरे साथ बे इंसाफ़ी नहीं करता, क्या तेरा मुझसे एक दीनार नहीं ठहरा था? जो तेरा है उठा ले और चला जा, मेरी मर्ज़ी ये है कि जितना तुझे देता हूँ इस पिछले को भी उतना ही दूं। क्या मुझे रवा नहीं कि अपने माल के साथ जो चाहूँ सो करूं? (मत्ती 20 बाब)

इस तम्सील में हम देखते हैं कि मालिक को बेकारों से हम्दर्दी थी, और उसने उनको पूरी मज़दूरी दे दी। क्योंकि अगर वो बेकार थे, तो वो अपने किसी क़सूर की वजह से बेकार ना थे, बल्कि मह्ज़ इसलिए बेकार थे कि उनको किसी ने मज़दूरी पर ना लगाया था। और बेकारी के ज़माने में उनकी ज़रूरीयात बदस्तूर साबिक़ थीं, और मालिक ने उनकी ज़रूरीयात के मुताबिक उनको मज़दूरी दी। दूसरी बात जो इस तम्सील से अयाँ है वो ये है कि हर मज़दूर के हुक़ूक़ मुसावियाना हैं। मालिक ने कहा कि मेरी मर्ज़ी ये है कि जितना तुझे देता हूँ, इस पिछले को भी उतना ही दूं। पस ख़ुदा की मर्ज़ी यही है कि इस दुनिया की नेअमतों की तक़्सीम में सब मज़दूरों के हुक़ूक़ मुसावियाना (बराबरी के) हों। और हर शख़्स को उनकी ज़रूरीयात के मुताबिक़ इन्साफ़ से बाँटा जाये। लेकिन जिस तरह इस तम्सील में दीगर मज़दूरों ने मालिक की मुंसिफ़ाना तक़्सीम पर एतराज़ किया, उसी तरह फ़ी ज़माना सरमाया-दार ग़ुरबा के हुक़ूक़ तलफ़ करने पर आमादा रहते हैं, और नहीं चाहते कि उनकी हाजतों और जरूरतों के मुताबिक़ उनकी आमदनी हो। लेकिन ख़ुदा की मर्ज़ी ये है कि हर तरह का ग़ैर-मुसावियाना (बेइंसाफ) सुलूक जो फ़ित्रत पर मबनी नहीं ख़ुदा की बादशाहत में से ख़ारिज कर दिया जाये क्योंकि ये बातें मौजूदा तर्ज़ मुआशरत ने सोसाइटी में दाख़िल कर दी हैं, लेकिन वो फ़ित्रत के ख़िलाफ़ हैं। ख़ुदा की बादशाहत का तर्ज़ मुआशरत ऐसा है, जिसमें हर इन्सानी बच्चे के लिए जो दुनिया में पैदा होता है ये मुम्किन हो सकता है कि वो दूसरों की तरह अपने फ़ित्री क़वा (फ़ित्री ताक़त) के इस्तिमाल से आला तरीन ज़ीना (चड़ाव) पर पहुंच सके। पस ख़ुदा की बादशाहत में वो दीवारें जो मौजूदा सोसाइटी ने मुख़्तलिफ़ इन्सानों के दर्मियान हाइल कर रखी हैं, मिस्मार कर दी जाएँगी। और हर इन्सान के बच्चे को मुसावी मौक़ा दिया जाएगा, ताकि इस के मुख़्तलिफ़ फ़ित्री क़वा (फ़ित्री ताक़त) मुनासिब माहौल में नशव व नुमा (तरक्क़ी) पाकर बनी-नूअ इन्सान की तरक़्क़ी का मूजिब बनें।

एक और तम्सील के ज़रीये (मत्ती 25 बाब) कलिमतुल्लाह ने हमको ये सबक़ सिखलाया है कि जिस शख़्स को ख़ुदा ने आला पैमाने पर फ़ित्री क़वा अता किए हैं, इस से ख़ुदा की बादशाहत में ये उम्मीद की जाएगी कि वो इन क़वा (ताक़तों) को इस तौर पर इस्तिमाल करे कि वो क़वा (ताक़त) ख़ुदा की बादशाहत के क़ियाम और उस के मैंबरों की तरक़्क़ी का बाइस हों। पस इन दोनों तम्सीलों से हम ये अख़ज़ करते हैं कि मसीहीय्यत की इक़्तिसादीयात इन दो क़वानीन पर मुन्हसिर हैं कि अव़्वल माल की फ़रावानी के बहम पहुंचाने में हर शख़्स अपनी-अपनी लियाक़त के अंदाज़े के मुताबिक़ काम करे, ताकि नूअ इन्सानी मुरफ़्फ़ा-उल-हाल हो जाए। और दोम, माल की तक़्सीम के वक़्त हर शख़्स को उस की ज़रूरीयात के मुताबिक़ बाँटा जाये। इन इक़्तिसादी क़वानीन पर अमल करने से आला लियाक़त के इन्सान अपने क़वा (ताक़त) को अपनी ज़ाती अग़राज़ और मुनफ़अत की तहसील की ख़ातिर इस्तिमाल नहीं करेंगे। बल्कि उनके क़वा नूअ इन्सानी की तरक़्क़ी और ख़ुशहाली के लिए इस्तिमाल होंगे। ख़ुदा की बादशाहत में आला लियाक़त का शख़्स सीम व ज़र में और अदना लियाक़त का शख़्स ख़ाक व ख़ाशाक में लेटता नज़र नहीं आएगा, बल्कि आला और अदना लियाक़त के इन्सान अपनी-अपनी क़ाबिलियतों को बनी-नूअ इन्सान की मुरफ़्फ़ा-उल-हाल में ख़र्च करेंगे, ताकि इन लियाक़तों के मजमूई नताइज और समरात (फलों) से हर शख़्स का घर फले और फूले।

(9)

तारीख़ कलीसिया में ऐसा ज़माना भी गुज़रा है जब ख़ुदा की बादशाहत के मज़्कूर बाला इक़्तिसादी उसूलों पर अमल भी किया गया। और इस तजुर्बे ने ये साबित कर दिया कि ये उसूल मह्ज़ किताबी उसूल ही नहीं बल्कि वो अमली उसूल भी हैं। चुनान्चे जब इब्ने अल्लाह ने इस दुनिया से सऊद फ़रमाया, तो इंजील जलील में लिखा है कि,“सब ईमानदार एक जगह रहते थे और सारी चीज़ों में शरीक थे, और अपनी जायदाद और अमलाक व मवाल (प्रापर्टी) को फ़रोख़्त करके हर एक की ज़रूरत के मुवाफ़िक़ तक़्सीम कर दिया करते थे। और हर रोज़ यकदिल हो कर जमा हुआ करते थे और ख़ुदा की हम्द करते थे और सब लोगों को अज़ीज़ थे। और मोमिनीन की जमाअत एक दिल और एक जान थी। यहां तक कि कोई शख़्स भी अपने माल को अपनी मिल्कियत ना समझता था, बल्कि उनकी सब चीज़ें मुश्तर्क (आपस में बटी हुईं) थीं, और उन सब पर फ़ैज़ अज़ीम था, क्योंकि इस गिरोह में से एक शख़्स मुहताज ना था। इसलिए कि जो सरमाया-दार ज़मीनों या घरों के मालिक थे, वो उनको बेच-बेच कर फ़रोख़्त कर्दा चीज़ों की क़ीमत लाकर रसूलों के क़दमों में डाल देते थे, फिर हर एक को उस की ज़रूरत और एहतियाज के मुताबिक़ बांट दिया जाता था। (आमाल 2 और 4 बाब)

ये इश्तिराकीयत मसीही उसूल इक़्तिसादीयात का नतीजा थी। लेकिन इस क़िस्म की इश्तिराकीयत में और रूसी इश्तिराकीयत में बाद-उल-मुशरक़ीन है। क्योंकि….

अव्वलइस इश्तिराकीयत (माली सिस्टम) की बुनियाद माद्दियत, दहरियत और अल-हाद, (मुल्हिद मज़हब) के बजाय रूहानियत और ख़ुदा की मुहब्बत पर क़ायम थी।

दोम ये इश्तिराकीयत इन्सानी मुहब्बत पर मब्नी थी ना कि जबर और तशद्दुद पर, किसी शख़्स को मज्बूर नहीं किया जाता था कि वो अपने अमलाक व मवाल (प्रापर्टी) को फ़रोख़्त (बेच) करके हर एक की ज़रूरत के मुताबिक़ सब में तक़्सीम कर दे।

सोमइस इश्तिराकीयत के क़ियाम का तरीक़ा ये नहीं था कि सरमायादारों के ख़िलाफ़ मुनाफ़िरत (नफरत) के जज़्बात मुश्तइल किए जाएं ताकि मज़दूरों की जमाअत और सरमायादारों के तबक़े में तसादुम और जंग इश्तिराकीयत का पेश-ख़ेमा हों, बल्कि सरमायादारों ने अज़राह मुहब्बत अपने भाईयों की हाजतों को रफ़ाअ करने के लिए ख़ुद बखु़शी ख़ातिर अपना माल व असबाब फ़रोख़्त (बेच) करके सब चीज़ों को मुश्तर्क (बटा हुआ) बना दिया था।

इस क़िस्म की इश्तिराकीयत अवाइल मसीही सदीयों में क़ायम रही। चुनान्चे बरनबास के ख़त (70 ता 110 ई॰) में है :-

तू अपनी तमाम चीज़ें अपने हम जिंसों (साथियों) के साथ मुश्तर्क (बाट) रख और अपने किसी माल को अपनी ज़ाती मिल्कियत ना समझ।”

जस्टिन शहीद और टरटोलेन (110 ई॰ ता 180 ई॰) ग़ैर मसीही बुतपरस्त सरमायादारों (अमीरों) को कहते हैं कि :-

हम मसीही सब चीज़ों को मुशरिक (आपस में बाँट कर) रखते हैं।”

पतरस के मवाज़त (दूसरी सदी) में मर्क़ूम है कि, “ऐ सरमायादारों (अमीरों) याद रखो, कि तुम्हारा फ़र्ज़ है कि दूसरों की ख़िदमत करो, क्योंकि तुम्हारे पास तुम्हारी ज़रूरीयात से कहीं ज़्यादा चीज़ें मौजूद हैं। याद रखो कि जो चीज़ें तुम्हारे पास फ़रावानी से मौजूद हैं, वो दूसरों के पास नहीं हैं। पस वो चीज़ें उनको दे दो। क्योंकि उनका हक़ रखना तुम्हारे लिए शर्म का बाइस है। ख़ुदा के इन्साफ़ और मुहब्बत की पैरवी करो, तो तुम्हारी जमाअत में एक शख़्स भी मुहताज नहीं रहेगा।” चौथी सदी में मुक़द्दस ऑगस्टीन कहता है कि :-

ज़ाती मिल्कियत रखना, एक ग़ैर-फ़ित्रती (फ़ित्रत के खिलाफ) हरकत है। क्योंकि इस की वजह से दुनिया में हसद, कीना, बुग़्ज़, इनाद, जंग व जिदाल, गुनाह और कुश्त व ख़ून वाक़ेअ होते हैं।”

बिशप किलेमिनस अव्वल कहता है कि :-

तमाम दुनियावी चीज़ें सब के इस्तिमाल के लिए मुश्तर्क (बटीं हुई) होनी चाहिऐं। किसी को ये नहीं कहना चाहिए कि ये शैय मेरी है। वो चीज़ तेरी है और फ़ुलां चीज़ उस की है, क्योंकि इसी से इन्सानों में जुदाइयाँ और अदावतें पड़ती हैं।”

(10)

पस हिन्दुस्तान की पेचीदा माली मुश्किलात और गंजीदा इक़्तिसादी मसाइल को सुलझाने का वाहिद ज़रीया मसीहीय्यत के बानी के पास है। कलिमतुल्लाह ने ख़ुदा की बादशाहत के तसव्वुर के ज़रीये एक ऐसा लायेहा-ए-अमल हिन्दुस्तान के सामने पेश कर दिया है। जिसका अस्ल-उल-उसूल मुहब्बत है। और इस की इल्लत-ए-ग़ाई (मक़्सद) ये है कि हर क़िस्म की ख़ुदी और तमअ़ (लालच) का इस्तीसाल कर दिया जाये ताकि इनकी बजाय ईसार नफ़्सी और हम्दर्दी, हक़ और अदल का बोल-बाला हो। और हर तरह की दर्जा बन्दी तफ़रीक़ (फ़रक और भेदभाव) और तमीज़ को बेख़ व बिन (जड़ से) से उखाड़ फेंका जाये, ताकि इनकी जगह मुहब्बत उखुवत और मुसावात (भाई चारा और बराबरी) क़ायम हों। इन मक़ासिद को हासिल करने के लिए मसीहीय्यत के पास मुहर्रिकात भी मौजूद हैं। इस बादशाहत का लायेहा-ए-अमल इस बिना पर मुरत्तिब किया गया है कि हर शख़्स कोऑप्रेशन (इमदाद-ए-बाहमी) के उसूलों के मातहत अपनी लियाक़त के अंदाज़े के मुताबिक़ काम करे। ताकि नूअ इन्सानी मुरफ़्फ़ा-उल-हाल हो जाए और हर एक शख़्स के लिए उस की हाजतों के मुताबिक़ ज़रूरीयात-ए-ज़िंदगी मुहय्या हो सकें।और इस दुनिया में कोई फ़र्द बशर (इंसान) मुहताज ना रहे, और मौजूदा मुआशरत (सोसाइटी) की जगह ख़ुदा की बादशाहत क़ायम हो जाए। जिसकी निस्बत हर शख़्स कह सके कि :-

ایں زمیں را آسمانے دیگر است

फ़स्ल दहुम

ख़ुलासा-ए-किताब

(1)

इस रिसाले में हमने इन्सानी फ़ित्रत के चंद अहम इब्तिदाई और बसीत मीलानात और रुहजानात पर बह्स की है, ताकि ये मालूम करें कि इन मीलानात के इक़्तिज़ाओं (तक़ाजों) को मसीहीय्यत और इस्लाम में से कौन सा मज़्हब बतरज़ अहसन (बेहतर तौर पे) पूरा कर सकता है।

हमने दौराने बह्स में देखा था कि ये मीलानात जो फ़ित्रत ने हमारी सरिश्त में पैदाइश ही से डाल रखे हैं, बज़ात-ए-ख़ुद ना तो अच्छे होते हैं, और ना बुरे। बल्कि ये क़वा-ए-इन्सानी ख़सलत की असास हैं, और इन मीलानात से हमारी आदात शक्ल पज़ीर होती हैं। गिर्द व पेश के हालात और हमारी ताअलीम व तर्बियत और सोसाइटी की सोहबत का असर हमारी आदतों को अच्छा या बुरा बना देते हैं। और जब ये आदतें पक्की हो जाती हैं तो इन्सान अपनी बद आदतों का ग़ुलाम हो जाता है जिनके पंजे से वो मह्ज़ नसीहत और नेक-आमाल की दावत के ज़रीये छुटकारा हासिल नहीं कर सकता। क्योंकि आदत की शदीद क़ुव्वत के सामने पन्द व नसाएह की बस इतनी पेश जाती है, जितनी सेलाब के सामने किसी तिनके की। बस इस ज़बरदस्त क़ुव्वत पर ग़ालिब आने के लिए इन्सान को फ़ज़्ल और तौफ़ीक़ दरकार है, ताकि वो एक नया मख़्लूक़ बन जाये। इस्लाम नेक-आमाल की दावत देता है, पनदो नसीहत करता है। लेकिन वो मह्ज़ राह हिदायत दिखाने पर ही इक्तिफ़ा करता है। मसीहीय्यत ना सिर्फ सिरात-ए-मुस्तक़ीम दिखाती है, बल्कि इस पर चलने की फ़ज़्ल और तौफ़ीक़ भी अता करती है, ताकि इन्सान अपनी बद-आदतों पर ग़ालिब आकर अपने ख़ालिक़ के सामने अज़ सर-ए-नौ ज़िंदगी बसर कर सके। पस मसीहीय्यत को इस्लाम पर फ़ौक़ियत हासिल है, और इसी में ये सलाहीयत है कि दीन-ए-फ़ित्रत हो।

(2)

फ़स्ल दोम में हमने ख़ौफ़ की जिबिल्लत (डर की फ़ित्रत) पर नज़र की थी और ये देखा था कि दीन-ए-फ़ित्रत के लिए लाज़िम है कि इस जिबिल्लत को ग़ैर मोअतदिल तौर पर बरअंगेख़्ता होने ना दे जिससे इन्सान का दिल डर और होल के मारे हर वक़्त दहशत-ज़दा रहे। लेकिन इस्लाम में ख़ुदा का तसव्वुर ही ऐसा है कि जिससे इन्सान हर वक़्त ख़ाइफ़ और तरसाँ रहता है। वो एक क़ह्हार और जब्बार हस्ती है। लेकिन मसीहीय्यत में ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है, ख़ुदा हमारा बाप है, जो हमसे लाज़वाल मुहब्बत करता है। मसीहीय्यत में इस अज़ली मुहब्बत के एहतिराम के जज़्बे ने इस्लामी ख़ौफ़ और दहश्त के मुहर्रिकात की जगह ले ली है। मसीही जज़्बा एहतिराम में जो ख़ौफ़ का अन्सर है वो इस दहश्त से कोसों दूर है, जो इस्लामी ताअलीम का लाज़िमी नतीजा है। पस मसीहीय्यत की ताअलीम ख़ौफ़ की जिबिल्लत का जायज़ इस्तिमाल करके साबित कर देती है कि इस में दीन फ़ित्रत होने की सलाहीयत मौजूद है। बख़िलाफ़ इस के इस्लाम इस जिबिल्लत को ग़ैर मोअतदिल तौर पर बरअंगेख़्ता करके अर्बाब व दानिश पर ज़ाहिर कर देता है कि वो दीन-ए-फ़ित्रत नहीं हो सकता।

(3)

जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) पर बह्स करते वक़्त हमने देखा था कि दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम है कि वहदत इज़्दवाज़ (एक ही औरत से निकाह) पर ज़ोर दे और इस रिश्ते की पाकीज़गी क़ियाम, उस्तिवारी, और पाएदारी की तल्क़ीन करे, औरत को मर्द की शहवत पर आलाकार होने की बजाय उस को एक आज़ाद ज़िम्मेवार हस्ती क़रार दे। मर्द और औरत के जिन्सी हुक़ूक़ की मुसावात (बराबरी) की ताअलीम दे। लेकिन इस्लाम तादाद व इज़्दवाज़ को जायज़ क़रार देता है। तलाक़ की खुले बंदों इजाज़त देता है, जो जिन्सी ताल्लुक़ात की जड़ को खोखला कर देती हैं। वो औरत को मर्द की खेती क़रार देकर तबक़ा निसवां (औरतों) को चाह ज़िल्लत में गिरा देता है। इस के बरअक्स मसीहीय्यत जिन्सी ताल्लुक़ात को पाकीज़ा क़रार देकर वहदत इज़्दवाज़ (एक ही औरत से निकाह) पर इसरार करती है और तलाक़ की क़तई मुमानिअत करके इस रिश्ते को दाइमी और पायदार क़रार देती है। जहां इस्लाम ने औरतों को इन्सान का ग़ुलाम बना कर उनके मुस्तक़बिल को तारीक कर रखा था। मसीहीय्यत उन मर्दों के साथ मुसावियाना हुक़ूक़ अता करती है, और औरत को बजा-ए-ख़ुद आज़ाद अख़्लाक़ी हस्ती क़रार देकर उनको उनके जज़्बात और अफ़आल का ज़िम्मेवार गर्दानती है।

इलावा-अज़ीं इस्लाम में तादाद इज़्दवाज़ (एक से ज्यादा औरतें रखने) की वजह से मर्द की जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) हर वक़्त ग़ैर मोअतदिल तौर पर बरअंगेख़्ता रहती है और इस ना वाजिब शिद्दत और तकरार अमल की वजह से मर्द की जिस्मानी क़ुव्वत पर बुरा असर पड़ता है। उस की ज़हनी फ़अलियत का ख़ातिमा हो जाता है। और वह बनी-नूअ इन्सान की फ़लाह व बहबूदी में रत्ती भर इज़ाफ़ा भी नहीं कर सकता। इस्लामी ममालिक की तारीख़ इस हक़ीक़त की वाज़ेह है और रोशन तफ़्सीर है, लेकिन मसीहीय्यत में जिन्सी जिबिल्लत (सोहबत की फ़ित्रत) की क़ुव्वत वहदत इज़्दवाज़ (एक ही औरत से निकाह) की वजह से सिर्फ एतिदाल के साथ इस्तिमाल हो सकती है और इस का नतीजा ये होता है कि इन्सान की जिस्मानी क़ुव्वत और उस के ज़हनी क़वा (ताक़त) बहाल रहते हैं। जिबिल्लत जिन्सी की वाफ़र और फ़ाज़िल क़ुव्वत को वो बनी-नूअ इन्सान की तरक़्क़ी और बेहतरी में सर्फ कर सकता है, क्योंकि इस जिबिल्लत की फ़ित्रत में ये बात दाख़िल है कि वो अपने इक़्तिज़ा की अज़ीम क़ुव्वत को मुख़्तलिफ़ वज्दानियात और दीगर इक़्तिज़ाओं को मुस्तआर दे देती है। पस इस लिहाज़ से भी इस्लाम दीन-ए-फ़ित्रत होने की सलाहीयत नहीं रखता। लेकिन इस के बरअक्स मसीही ईमान और अमल साबित कर देता है कि मसीहीय्यत ही वाहिद दीन-ए-फ़ित्रत है।

(4)

फ़स्ल चहारुम में वालदेनी जिबिल्लत पर बह्स करते वक़्त हम इस नतीजे पर पहुंचे थे। दीन-ए-फ़ित्रत का काम है कि तलाक़ और दीगर तमाम ऐसी रुकावटों को दूर करे, जो बच्चों की परवरिश, हिफ़ाज़त, तर्बीयत, और उन के क़वा (क़ुव्वतों) की नशव व नुमा और तरक़्क़ी में हाइल हों। हम देख चुके हैं कि इस्लाम ऐसे क़वानीन इज़्दवाज़ मुंज़ब्त नहीं करता। जो वालदेनी जिबिल्लत के मददगार हों। बरअक्स इस के वो तलाक़ वग़ैरह की इजाज़त देकर इस जिबिल्लत की इक़्तिज़ाओं की राह में बे-अंदाज़ा रुकावटें डालता है। लेकिन मसीहीय्यत इन तमाम उमूर को हराम और ममनू क़रार देती है, जो जिबिल्लत वालदेनी के आज़ादाना फे़अल में ख़लल-अंदाज़ होते हैं।

इलावा-अज़ीं क़ुरआन में बच्चों के हुक़ूक़ और वालदैन के फ़राइज़ और उनकी भारी ज़िम्मेदारीयों का कहीं ज़िक्र नहीं पाया जाता। हालाँकि वालदेनी जिबिल्लत का ताल्लुक़ इन उमूर के साथ ख़ास तौर पर वाबस्ता है। लिहाज़ा इस्लाम दीन-ए-फ़ित्रत होने की सलाहीयत नहीं रखता। लेकिन इस बाब में मसीही ताअलीम हर साहिब-ए-होश पर साबित कर देती है कि सिर्फ मसीहीय्यत ही दीन-ए-फ़ित्रत है।

मसीहीय्यत ख़ुदा की ज़ात और इन्सानी ताल्लुक़ात के ऐसे तसव्वुरात की तल्क़ीन करती है, जो वालदेनी जिबिल्लत के ऐन मुताबिक़ हैं। ख़ुदा हमारा बाप है, और कुल बनी-नूअ इन्सान एक दूसरे के भाई हैं। चूँकि ख़ुदा बनी-नूअ इन्सान से अबदी मुहब्बत रखता है, पस वो अपने गुमशुदा फ़रज़न्दों को राह हिदायत पर लाने की ख़ातिर हर तरह का ईसार काम में लाता है। बईना जिस तरह माँ अपनी ममता की मारी अपने बच्चे की ख़ातिर हर तरह का दुख उठाती है और हर तरह की क़ुर्बानी करने को तैयार होती है। लेकिन इस्लाम में इस क़िस्म की ताअलीम कुफ़्र क़रार दी जाती है। क्योंकि क़ुरआन के मुताबिक़ ख़ुदा बेनियाज़, और बनी-नूअ इन्सान की जानिब से लापरवाह है। पस इस्लामी तसव्वुर ख़ुदा वालदेनी जिबिल्लत के ऐन नक़ीज़ है। लिहाज़ा इस्लाम दीन-ए-फ़ित्रत नहीं हो सकता।

दीन-ए-फ़ित्रत का ये भी काम था कि वालदेनी जिबिल्लत के मैदान-ए-अमल को वुसअत दे ताकि इन्सान की मुआशरती ज़िंदगी में इस ज़ुल्म क़ैद और ज़्यादती की बंदिश हो जाए, जो ज़बरदस्त हस्तियाँ ज़ेर-दस्तों, बेकसों, लाचारों, और मुसीबत ज़दों पर रवा रखती हों। हमने इस बारे में मसीही और इस्लामी ताअलीम पर मबसूत (कुशादा) बह्स की थी और देखा था कि मसीही मुहर्रिकात और मरग़बात ना सिर्फ इस्लाम में मफ़्क़ूद हैं बल्कि इस्लाम में तक़्दीर के मसअले पर ईमान रखने की वजह से बनी-नूअ इन्सान के मज़्लूम हिस्से की जानिब से एक गोना सख़्त दिली इख़्तियार कर लेता है, क्योंकि क़ुरआन की ताअलीम है कि, “ख़ुदा ने तुम में से बाअज़ को बाअज़ पर जो फ़ज़ीलत बख़्शी है, तुम इस की तमन्ना ना करो।” (निसा 36) अल्लामा इक़बाल भी इस अम्र को तस्लीम किए बग़ैर कोई चारा नहीं देखते कि :-

“क़िस्मत और तक़्दीर का बदतरीन पहलू सदीयों से दुनिया-ए- इस्लाम पर ग़ालिब रहा है।”

पस वालदेनी जिबिल्लत के जिस पहलू से भी हम इस्लाम पर नज़र करते हैं वो इस के इक़्तिज़ाओं (तक़ाज़ों) को पूरा करने से क़ासिर निकलता है। लेकिन मसीहीय्यत इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) की हर इक़्तिज़ा को बतरज़ अहसन पूरा करती है, लिहाज़ा वही दीन फ़ित्रत है।

(5)

लड़ाकापन और ग़ुस्से की जिबिल्लत (फ़ित्रत) पर तबस्सरा करके हमने देखा था कि दीन-ए-फ़ित्रत के लिए लाज़िम है कि इस जिबिल्लत की तर्बीयत करे ताकि इन्सानी उमूर में ज़ब्त (क़ाबू) की ताक़त बढ़े और ये जिबिल्लत अपनी नंगी हालत में इन्सान की मुआशरती ज़िंदगी में नज़र ना आए। लेकिन इस्लाम क़िसास (इन्तिक़ाम) और जिहाद की ताअलीम की तल्क़ीन करके इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) का मुज़ाहरा इस की ख़ास सूरत में करता है। इस के ख़िलाफ़ मसीहीय्यत अफ़व (माफ़ी, दरगुज़र) और मुहब्बत का सबक़ देकर इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) की तर्बीयत करके जिहाद बिल-नफ़्स पर ज़ोर देती है और यूं साबित कर देती है कि इस में दीन-ए-फ़ित्रत होने की अहलीयत मौजूद है।

इलावा-अज़ीं इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) के तहत में हम इस नतीजे पर पहुंचे थे कि दीन-ए-फ़ित्रत का काम है कि इस जिबिल्लत का रुहजान दीगर जिबिल्ली मीलानात के इक़्तिज़ाओं को हासिल करने की जानिब राग़िब करे ताकि इस जिबिल्लत की अज़ीम ताक़त की मदद से दीगर इक़्तिज़ाओं को कुमक (हिमायत) हासिल हो और वो उन तमाम मुश्किलात पर ग़ालिब आ जाऐं जो उनके आज़ादाना फे़अल में रुकावट का बाइस हैं। मसलन मसीहीय्यत लड़ाकापन और जंगजूई की जिबिल्लत की शदीद ताक़त को इस जानिब राग़िब करती है ताकि ग़ुर्बत इफ़्लास (ग़रीबी), बीमारी, जहालत, गुनाह, और शैतान का मुक़ाबला करके इन पर फ़त्ह हासिल करे तारीख़ इस बात की तस्दीक़ करती है कि मसीहीय्यत शैतानी ताक़तों के ख़िलाफ़ ऐलाने जंग करके उनको शिकस्त देती है। लेकिन इस्लाम तक़्दीर के मसअले पर ईमान रखने की वजह से लोगों को उनकी क़िस्मत पर छोड़ देता है। क़ुरआन कहता है कि भलाई और बुराई अल्लाह की जानिब से है। पस इस्लाम में सलाहीयत ही नहीं कि इस जंगजोई की जिबिल्लत को बुराई के अखाड़े की जानिब राग़िब करे और बनी नूअ इन्सान की फ़लाह और बहबूदी का बाइस हो सके। लेकिन बख़िलाफ़ इस के मसीहीय्यत का ये तुग़रा-ए-इम्तियाज़ रहा है। पस जहां तक इस जिबिल्लत का ताल्लुक़ है, मसीहीय्यत हर पहलू से दीन-ए-फ़ित्रत है।

(6)

तजस्सुस और इस्तिफ़सार की जिबिल्लत (अजादाना तहक़ीक़ व मालूमात की फ़ित्रत) इन्सानी सरिश्त का एक लाज़िमी हिस्सा है। पस दीन-ए-फ़ित्रत के लिए लाज़िम है कि इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) को अपने रोब और इख़्तियार से ना दबाए बल्कि इस के मैदान-ए-अमल को वसीअ करने में कोशां होता कि हम ना सिर्फ इस दुनिया की अश्या की निस्बत मुस्तफ़्सिर (तहक़ीक़ करने वाले) हों, बल्कि ख़ुदा की मार्फ़त और आलम रूहानियत के हक़ायक़ को भी जहां तक इन्सानी अक़्ल काम कर सकती है जान सकें। लेकिन जहां जनाब मसीह का नमूना और ताअलीम इस जिबिल्लत के इक़्तिज़ाओं के पूरा करने पर इसरार करती है वहां क़ुरआन की ताअलीम जाबिराना हुक्म सादिर करके इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) को दबाने की कोशिश करती है। हमने इस तहत में इस्लामी ममालिक की तारीख़ पर एक अमीक़ और मबसूत बह्स की है और बिल-आख़िर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि क़ुरआन इस्लामी ममालिक को ख़यालात की आज़ादी की इजाज़त नहीं देता और तजस्सुस, तफ़ह्हुस और इस्तिफ़सार के ख़िलाफ़ है। पस इस्लाम हमारी फ़ित्रत की इस जिबिल्लत के इक़्तिज़ाओं के साथ ऐसा जाबिराना सुलूक करके साबित कर देता है कि वो दीन-ए-फ़ित्रत कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं हो सकता। इस के बरअक्स हमने इस मौज़ू पर मुफ़स्सिल बह्स करके साबित कर दिया है कि मसीहीय्यत हर पहलू से इन्सानी फ़ित्रत की जिबिल्लत तजस्सुस (अजादाना तहक़ीक़ व मालूमात की फ़ित्रत) के तमाम इक़्तिज़ाओं (तक़ाज़ों) को बदर्जे अहसन पूरा करती है लिहाज़ा वही दीन-ए-फ़ित्रत भी है।

(7)

जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी (मिलजुल कर साथ मुहब्बत से रहने) की बह्स के दौरान में हमने देखा था कि तरक़्क़ी की इब्तिदाई मनाज़िल में इन्सानी अफ़राद को बतौर एक फ़र्द के किसी क़िस्म की एहमीय्यत और वक़अत हासिल ना थी। जमाअत की हस्ती और बक़ा बेहतरीन नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) था और अगर किसी फ़र्द की हस्ती जमाअत के वजूद में ख़लल का बाइस होती, तो वो बे दरेग़ क़त्ल कर दिया जाता था। अफ़राद की क़द्र वक़अ़त बतौर एक ज़िम्मेदार फ़र्द के नहीं की जाती थी। हमने क़ुरआनी अहकाम पर नज़र करके देखा था कि इस्लाम इस हद से आगे नहीं गुज़रा। इस्लाम का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) इस्लामी जमाअत की हस्ती बक़ा और तरक़्क़ी है अगर किसी इन्सान मसलन मिर्ज़ा क़ादियानी का वजूद इस जमाअत के लिए बाइस ख़तरा है तो क़ुरआनी अहकाम के मुताबिक़ वो गर्दनज़दनी (वाजिबुल क़त्ल) है। क़ुरआन के मुताबिक़ इन्सान एक ख़ुद-मुख़्तार आज़ाद ज़िम्मेवार अख़्लाक़ी हस्ती भी नहीं है। लेकिन कलिमतुल्लाह की ये ताअलीम है कि हर फ़र्द बशर (हर इंसान) ख़ुदा के हुज़ूर एक ज़िम्मेदार अख़्लाक़ी हस्ती है। मसीहीय्यत ने नफ़्स-ए-इन्सानी के एहतिराम का सबक़ सिखला कर दुनिया अख़्लाक़ की काया पलट दी। उस की नज़र में हर मर्द औरत और बच्चे की हस्ती क़ाबिल-ए-क़द्र और वक़अत है, और यही फ़ित्रत की ताअलीम है।

इलावा-अज़ीं मसीहीय्यत जहां ये ताअलीम देती है कि हर फ़र्दे-बशर (हर इंसान) बज़ात-ए-ख़ुद क़द्र और वक़अत रखता है वहां वो ये भी तल्क़ीन करती है कि हर फ़र्द अपनी जमाअत क़ौम और मुल्क के ज़रीये ही अपनी अनानीयत (खुद) को तरक़्क़ी दे सकता है। और हर इन्सान ख़ुदा की ख़ल्क़त की ख़िदमत के ज़रीये अपनी रुहानी तरक़्क़ी को हासिल कर सकता है। पस मसीही ताअलीम ना अनानीयत को दबाती है और ना सोशियल ताल्लुक़ात को मुक़द्दम क़रार देती है, बल्कि इस ताअलीम के मुताबिक़ अनानीयत (खुदी) और जमाअत दोनों बनी-नूअ इन्सान की फ़लाह बहबूदी और कामिलियत की मंज़िल की तरफ़ दोश-बदोश गामज़न हो सकते हैं। लेकिन इस्लाम में ये दोनों बातें जैसा हम इस बह्स में साबित करे आए हैं एक दूसरे के नक़ीज़ हैं।

जो तसव्वुर-ए-ख़ुदा मसीहीय्यत पेश करती है वो जिबिल्लत इज्तिमा पसंदी (साथ मिलजुल कर रहने) के ऐन मुताबिक़ है लेकिन इस्लामी तसव्वुर ख़ुदा को जानने और समझने में इन्सानी फ़ित्रत मदद नहीं देती इस लिहाज़ से भी मसीहीय्यत की ताअलीम ऐन-ए-फ़ित्रत के मुताबिक़ है लिहाज़ा वही दीन-ए-फ़ित्रत भी है।

(8)

दीन-ए-फ़ित्रत के लिए लाज़िम है कि तहक्कुम (हुक्म चलाने) और ख़ुद-नुमाई के जज़्बात को हद से बढ़ने ना दे ताकि गुरूर और बेजा फ़ख़्र का क़िला-क़ुमा (खात्मा) हो जाए और कोई शख़्स अपनी तरक़्क़ी की ख़ातिर दूसरों के हुक़ूक़ को अपने पांव तले ना रौंदे, बल्कि इस के बरअक्स दीन-ए-फ़ित्रत ऐसी ताअलीम दे। जिससे जिबिल्लत तहक्कुम (हुक्म चलाने की फ़ित्रत) व अजुज़ की इफ़रात व तफ़रीत का सद्द-ए-बाब हो जाए और इन्सान फ़िरोतनी और ईसार को काम में लेकर हलीमी के साथ अपनी अनानीयत (खुदी) की नशव व नुमा और तरक़्क़ी और अपनी ज़ात का इज़्हार जायज़ तौर पर ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत के ज़रीये करे।

क़ुरआन के अहकाम ही ऐसे हैं कि तहक्कुम (हुक्म चलाने) और ख़ुद-नुमाई हद एतिदाल से ख़ुद-बख़ुद तजावुज़ कर जाती है। क़ुरआनी ताअलीम के मुताबिक़ एक मुस्लिम बे दरेग़ ग़ैर-मुस्लिमों के हुक़ूक़ को इस्लामी सियासियात व जमाअ़त की तरक़्क़ी और अपनी ज़ात के इज़्हार के ख़ातिर पायमाल कर सकता है और ये हमारी सरिश्त की जिबिल्लत के ख़िलाफ़ है इस के बरअक्स इब्ने अल्लाह ने अपनी ज़िंदगी के नमूना और ताअलीम से हर तरह के गुरूर बेजा लाफ़ व गुज़ाफ़ और फ़ख़्र की मुमानिअत करके ये सिखलाया है कि हर इन्सान अपनी ज़ात का जायज़ इज़्हार-ए-मोहब्बत के ज़रीये अपने हम-जिंसों (इंसानियत) की ख़िदमत के वसीले फ़िरोतनी और हुलुम (नर्मी) के साथ करे और ख़ुदा का शुक्र करे कि उस को ऐसा करने का शर्फ़ बख़्शा गया है। अर्बाब-ए-दानिश पर मख़्फ़ी (छिपी) नहीं कि ये ताअलीम इस जिबिल्लत के इक़्तिज़ाओं के ऐन मुताबिक़ है। लिहाज़ा मसीहीय्यत ही दीन-ए-फ़ित्रत है।

(9)

जिबिल्लत हुसूल इक्तिसाब (कमाने और हासिल करने की फ़ित्रत) पर बह्स करते वक़्त हमने ये देखा था कि दीन-ए-फ़ित्रत का ये काम है कि इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) का रुख अदना और बे-हक़ीक़त अश्या (कमतर चीजों) की तरफ़ से हटाकर बेहतरीन मक़ासिद के हुसूल की जानिब लगाया जाये। लेकिन इस्लाम में कोई ऐसे मुहर्रिकात हमको नहीं मिलते जो इन्सान को इस मक़्सद के सर-अंजाम देने की जानिब राग़िब कर सकें। बख़िलाफ़ इस के मसीहीय्यत ना सिर्फ कम-क़द्र अश्या (चीजों) को अदना बतला कर उनकी अस्ल हक़ीक़त हम पर ज़ाहिर कर देती है बल्कि इस जिबिल्लत की तवानाई को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की बहबूदी के हुसूल की जानिब राग़िब भी करती है।

इलावा-अज़ीं मसीहीय्यत एक ऐसा नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) इन्सानी तख़य्युल के सामने पेश करती है। जिसके हासिल करने में जितनी ज़्यादा कोशिश की जाये वो कम है। कलिमतुल्लाह ने ख़ुदा की बादशाहत का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) बनी-नूअ इन्सान के सामने पेश किया और फ़रमाया कि इस नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को हासिल करने की ख़ातिर इन्सान सई मलीग और अज़हद कोशिश करे। जितनी कोशिश इस मक़्सद की ख़ातिर की जाएगी उतना ही नूअ-ए-इन्सानी का फ़ायदा होगा। पस जो फ़ासिद इफ़रात की सलाहीयत इस जिबिल्लत (फ़ित्रत) में मौजूद थी वो कलिमतुल्लाह ने इस नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को क़ायम करके ख़ारिज कर दी। लेकिन क़ुरआन और इस्लाम ने बनी-नूअ इन्सान के सामने कोई ऐसा तामीरी प्रोग्राम या नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) नहीं रखा। जिसकी जानिब इस जिबिल्लत का रुख बदला जा सके और ना क़ुरआन इन्सानी फ़ित्रत की इस जिबिल्लत के फ़ासिद इफ़रात के अन्सर की रोक-थाम का इंतिज़ाम कर सकता है। पस इस्लाम में ये सलाहीयत ही नहीं कि दीन-ए-फ़ित्रत कहलाया जा सके। इस के बरअक्स मसीहीय्यत ने हर पहलू से दीन-ए-फ़ित्रत होने का सबूत दिया है।

ख़त्म शूदा