1891-1972
The Venerable Archdeacon

ALLAMA BARAKAT ULLAH

M.A.F.R.A.S
Fellow of the Royal Asiatic Society London

यादगार

बरादर-ए-खु़र्द नेअमत-उल्लाह मैनेजर अख़्बार उखुव्वत, लाहौर की यादगार में

आपने अपनी उम्र गराँमाया हक़ और ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ ख़ातिर वक़्फ़ कर दी

और 24 फरवरी 1907 ई॰ ख़ुदावंद के दिन अले-अल-सुबह

ख़ुदावंद में आराम से सो गए।

बरकत-उल्लाह

दीबाचा तबअ अव्वल

आया शरीफा “एली एली लमा शबक़तनी” (ایلی ایلی لما شبقتنی) (ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा, तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया?) इन्जील जलील की उन मादूद-ए-चंद (बहुत थोड़ी तादाद में) आयात में से है जिन पर मुख़ालिफ़ीन उमूमन एतराज़ किया करते थे। पस हमने इस रिसाले में इस आयत पर मुफ़स्सिल बह्स की है ताकि उन मोअतरज़ीन (एतराज़ करने वाले) की तश्फ़ी ख़ातिर हो जाए जो सिदक़-ए-नीयत से इस का सही मफ़्हूम समझने से कासिर हैं। हमें उम्मीद है कि ऐसे नाज़रीन ग़ौर से इस रिसाले को पढ़ कर उन तमाम हवालेजात का मुतालआ करेंगे जिनका ज़िक्र दौरान-ए-बह्स में किया गया है।

हमने मौलवी सना-उल्लाह साहब अमृतसरी को इस रिसाले में अपना मुख़ातिब बनाया है क्योंकि आपको शुमाली हिंद के मुसलमानों में ख़ास शौहरत हासिल है और पचास साल से ज़ाइद अर्से से मैदान-ए-मुनाज़रा में नबरद आज़माई (मुक़ाबला) करते रहे हैं। चुनान्चे वो ख़ुद फ़र्माते हैं, “कि मेरी उम्र पच्चीस साल से मुतजाविज़ (ज़्यादा) थी जब मैं तहसील इल्म से फ़ारिग़ हो कर बालिग़-उल-इल्म हुआ और 1892 ई॰ में मेरी दस्तार बन्दी (1) हुई थी।” (अहले-हदीस 29 जनवरी 1924 ई॰) हमने एक शख़्स को अपना मुख़ातिब बनाया है, जिसको मुसलमान अपना नुमाइंदा समझते हैं। हमें अफ़्सोस से कहना पड़ता है कि हम मौलवी साहब मौसूफ़ को मुत्लाशियां हक़ (तलाशे हक़ करने वाले) के ज़मुरा में नहीं पाते क्योंकि उनकी किताब “इस्लाम और मसीहिय्यत” में जिसका इस रिसाले में जा-ब-जा हवाला दिया गया है हमको तलाशे हक़ की तड़प नज़र नहीं आती। पस अगरचे वो मुत्लाशियान-ए-हक़ (हक़ की तलाश करने वाले) की सही मअनी में तर्जुमानी नहीं करते और ना कर सकते हैं ताहम वो मुनाज़राना रंग में आया करीमा पर मुख़्तलिफ़ पहलूओं से एतराज़ करते हैं और उन के एतराज़ात का तसल्ली बख़्श जवाब हक़ के मुतलाशी के लिए कारआमद हो सकता है। पस गो ज़ाहिरी तौर पर हमारे मुख़ातिब मौलवी साहब मौसूफ़ हैं ताहम हमारा रू-ए-सुख़न दर-हक़ीक़त ऐसे अहबाब की तरफ़ है जो जुस्तजूए हक़ में सरगर्दां हैं।


(1) मुसलमान रउसा की एक रस्म जिसमें मरने वाले रईस के बड़े बेटे को पगड़ी बंधाते हैं। या दीनी मदरसा के फारिग-उत-तहसील तलबा को फ़ज़ीलत के तौर पर पगड़ी बंधाते हैं।

हम दस्त बदुआ (दुआ के लिए हाथ उठाए हुए) हैं कि मौलवी साहब भी इस ज़ुमरे में शामिल हो जाएं। यही वजह है कि हम दर्द-ए-दिल से बार-बार उनको तौबा की दावत देते हैं ताकि :-

زاں پیشتر کہ بانگ برآید ثنا نماند

मौलवी साहब हक़ की जानिब रुजू करें और मुनज्जी आलमीन के क़दमों में आएं जो “राह, हक़ और ज़िंदगी है” और ख़ाकसार की तरह निजात-ए-अबदी से बहरमंद हों।

अनारर कली, बटाला

अहकर-उल-इबाद बरकत-उल्लाह15 नवम्बर 1945 ई॰

दीबाचा तबअ सानी

मौलवी सना-उल्लाह साहब की किताब “इस्लाम और मसीहिय्यत” 1940 ई॰ में शाएअ हुई। हमने अख़्बार उखुव्वत लाहौर में इस का जवाब 1941 ई॰ में लिखा और इस के जवाब-उल-जवाब का इंतिज़ार करते रहे लेकिन मौलवी साहब ने मरते दम तक चुप (ख़ामोशी) साध ली।

चार साल तक इंतिज़ार करने के बाद हमने इस रिसाले में वो तमाम मज़ामीन शाएअ कर दिए जिनका ताल्लुक़ (मर्क़ुस 15:34) यानी “और तीसरे पहर को येसू बड़ी आवाज़ से चलाया कि इलोही इलोही लिमा शबक़तनी? जिस का तर्जुमा है, ऐ मेरे ख़ुदा ऐ मेरे ख़ुदा तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया?” से था। मौलवी साहब अभी ज़िंदा थे लेकिन उनसे इस रिसाले का कोई जवाब ना बन पड़ा। अब 1957 ई॰ में इस की दूसरी ऐडीशन शाएअ की जाती है। इस ऐडीशन से वो तमाम मुक़ामात ख़ारिज कर दिए गए हैं जिनका ताल्लुक़ मर्हूम की शख़्सियत से था।

मेरी दुआ है कि ये रिसाला उन सबको इब्ने-अल्लाह (मसीह) की सलीब के नज़्दीक ले आए जो हक़ की तलाश में सरगर्दां हैं ताकि वो भी मेरी तरह नजात-ए-अबदी से बहरूर हो जाएं।

हैनरी मार्टिन स्कूल, अलीगढ़

25 मार्च 1957 ई॰

बरकत-उल्लाह

बाब अव्वल

मुख़ालिफ़ीन के एतराज़ात

मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील में वारिद है :-

“जब दोपहर हुई तो तमाम मुल्क में अंधेरा छा गया और तीसरे पहर तक रहा तीसरे पहर को सय्यदना ईसा बड़ी आवाज़ से चिल्लाए कि इलोही इलोही लिमा शबक़तनी? जिसका तर्जुमा है, ऐ मेरे ख़ुदा ऐ मेरे ख़ुदा आपने मुझे क्यों छोड़ दिया? जो पास खड़े थे उनमें से बाअज़ ने ये सुनकर कहा देखो वो इल्यास (एलियाह) को बुलाते हैं। एक ने दौड़ कर सपंच को सिरका में डुबोया और सरकंडे पर रखकर आपको चुसाया और कहा ठहर जाओ। देखें तो इल्यास इन्हें उतारने आता हैं या नहीं। फिर सय्यदना ईसा ने बड़ी आवाज़ से चिल्ला कर दम दे दिया। बैत-उल्लाह (हैकल) का पर्दा ऊपर से नीचे तक फट कर दो टुकड़े हो गया। सूबेदार आपके सामने खड़ा था उसने आपको यूं दम देते हुए देखकर कहा बेशक ये आदमी ख़ुदा का बेटा है।”

(मर्क़ुस 15:33 ता 39)

मज़्कूर बाला आयात की बिना पर इन्जील जलील के बाअज़ मुख़ालिफ़ीन एतराज़ करके इन आयात से ये नतीजा अख़ज़ करते हैं कि नाउज़ु-बिल्लाह (अल्लाह के पनाह نعوذ بالله ) सय्यदना मसीह को ख़ुदा ने सलीब पर छोड़ दिया था और आप जांकनी की हालत (जान निकलने की हालत) में इलाही रिफ़ाक़त से महरूम थे।

एक और एतराज़ ये किया जाता है कि चूँकि मुनज्जी कौनैन (मसीह) को ख़ुद आख़िरी दम क़ुर्बत-ए-ख़ुदावंदी हासिल ना थी। आपकी मुबारक मौत बनी-आदम की नजात का वसीला नहीं हो सकती और ना आप ख़ुदा का मज़हर हो सकते हैं। पस मसीही मसअला नजात और मसअला तजस्सुम बातिल हैं।

मौलवी सना-उल्लाह साहब मर्हूम ने मज़्कूर बाला एतराज़ात अपनी किताब “इस्लाम और मसीहिय्यत” में निहायत गुस्ताख़ाना अल्फ़ाज़ में बड़ी बेबाकी से किए हैं। बमिस्दाक़ “नक़ल-ए-कुफ्र कुफ्रना बाशिंद” हम उनके आमियाना और सोक़याना अल्फ़ाज़ को ज़ेल में नक़्ल करते हैं :-

“एक तरफ़ तो मसीह की शख़्सियत को ख़ुदा-ए-मुजस्सम बताया जाता है। जिसके मअनी ये हैं कि वो सब क़ुदरतों और ताक़तों का मालिक है उधर उस को दुश्मनों के हाथों चोरों और डाकूओं की तरह सूली पर चढ़ाया जाता है जिस पर ये सादिक़ आता है कि सपने इंद्र राजा भिऊ जागत भिऊ कंगाल। मसीह इस आजिज़ाना हालत में सलीब पर लटके गोया ये शेअर पढ़ रहे हैं।

ज़ोफ़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया वर्ना हम भी आदमी थे काम के” (सफ़ा 103)

“ग़ालिब अलल-कुल होना ख़ुदा तआला का ख़ास्सा है और ग़ैर मुनफ़क (जुदाई के बग़ैर) है यानी किसी वक़्त या किसी आन में ये ग़लबा उस की ज़ात से अलैहदा नहीं हो सकता। फिर क्या वजह है कि वो दुश्मनों के हाथों मग़्लूब हो कर असीर (क़ैदी) हुआ। कांटों का ताज पहनाया गया। उस की पसली में भाला मारा गया। आख़िर उसने एली एली लिमा शबक़तनी कहते हुए सूली पर चिल्ला कर जान दी।” (सफ़ा 68)

“दुनिया की तारीख़ी कुतुब और मसीही अनाजील बिल-इत्तिफ़ाक़ शहादत देती हैं कि यहूद मसीह के साथ बड़ी सख़्ती से पेश आते रहे यहां तक कि उन्होंने आपके सर पर कांटों का ताज रखकर आपको सलीब पर चढ़ा दिया और हाथों में मेख़ें गाड़ दीं। इस हालत में येसू मसीह की ये फ़र्याद कि ऐ मेरे ख़ुदा ऐ मेरे ख़ुदा तूने मुझे क्यों छोड़ दिया आपका सही मुक़ाम अबूदीयत (बंदगी, इबादत) मुतय्यन करने के लिए एक फ़ैसलाकुन जुम्ला है।”

“मसीहिय्यत ने दुनिया के बहुत बड़े मुअज़्ज़िज़ और ख़ुदा के मुक़र्रब और मासूम नाकर्दा गुनाह बंदे को फांसी पर चढ़ा कर गुनेहगारों की नजात का ज़रिया समझा। ऐसा करते हुए इस को ना तो अदल व इन्साफ़ का उसूल मानेअ आया और ना ख़ुदा के रहम ने इस को इस ज़ुल्म से बाज़ रखा।”

हमारे दिल में ये बात आई है कि हम येसू मसीह के इलाही औसाफ़ का नमूना तस्वीर की शक्ल में दिखाएं। शायर लोग अपने दिली जज़्बे और मुहब्बत अक्सर औक़ात लफ़्ज़ों में बयान करते हैं। मगर गाहे-गाहे (कभी-कभार) मुसव्विरों से तस्वीर-कशी की दरख़्वास्त करते हुए कहा करते हैं :-

मुसव्विर खींच वो नक़्शा जिसमें ये रसाई हो

उधर तल्वार खींची हो इधर गर्दन झुकाई हो

इसी बिना पर हम बा-दिल नाख़वास्ता बक़ौल नसारा मसीह की शख़्सियत इलाही का ख़ौफ़नाक अंजाम तस्वीर में दिखाते हैं। मुसलमान नाज़रीन हमें माफ़ रखें क्योंकि मकरूह फ़ेअल का इर्तिकाब कर रहे हैं। इन्जील मत्ती में लिखा है कि येसू मसीह को सलीब पर चढ़ाया गया। उस के हाथों को तख़्ते के बालाई हिस्से के साथ मिला कर मेख़ें गाड़ी गईं और उस के सर पर कांटों का ताज पहनाया गया। इस हालत में उसने निहायत आजिज़ी वज़ारी के साथ चिल्ला कर जान दी। जिसका नक़्शा अगले सफ़े की तस्वीर देखने से बख़ूबी मालूम हो सकता है।

इस इबारत के बाद मौलवी साहब ने एक निहायत करीह-उन्न-नज़र (क़ाबिले नफ़रत) तस्वीर खींच कर उस के ऊपर लिखा है “ऐ मेरे ख़ुदा ऐ मेरे ख़ुदा तूने मुझे क्यों छोड़ दिया।” (मक़ूला दर इन्जील) और तस्वीर के नीचे मिसरा लिखा है :-

देखे मुझे जो दीदा इबरत-ए-निगाह है

और फिर लिखते हैं कि :-

“बा-इन्साफ़ नाज़रीन अगर इस तस्वीर को ग़ौर से मुलाहिज़ा फ़रमाएँगे तो हमारी इस आवाज़ से मुत्तफ़िक़ होंगे कि हम हस्बे मज़्मून आया करीमा لااحب الا افلین ऐसी कमज़ोर शख़्सियत को ख़ुदाई के लिए पसंद नहीं कर सकते बल्कि हमारा यक़ीन है कि कोई भी अहले-बसीरत इस को पसंद नहीं करेगा।

(इस्लाम और मसीहिय्यत सफ़ा 131, 135, 107, ता 110)

“हमने अपनी किताब “इस्लाम और मसीहिय्यत” में मसीह की तस्वीर के ऊपर जो फ़िक़्रह नक़्ल किया था इस से हमारी जो ग़र्ज़ थी उसे हम मन्तिक़ी इस्लाह में बताते हैं। ईसाईयों का मुसल्लिमा अक़ीदा ये है कि ख़ुदा और मसीह में ग़ैर मुनफ़क इत्तिसाल चला आया है। ये मफ़्हूम क़ज़ीया (तकरार) दाइमा मुतल्लक़ा है। हमने ये फ़िक़्रह नक़्ल करके क़ज़ीया दाइमा मुतल्लक़ा आम्मा का सबूत दिया था जो दाइमा मुतल्लक़ा की नक़ीज़ (मुख़ालिफ़) है। आपको मालूम हो जाएगा कि ज़ात-ए- उलूहियत से मसीह का इत्तिसाल दाइमा मुतल्लक़ा की सूरत में साबित नहीं है इस के बरअक्स क़ज़ीया मुतल्लक़ा आम्मा की शक्ल में साबित है जो पहले क़ज़ीया की नक़ीज़ है।”

(अहले-हदीस बाबत माह जून 1942 ई॰)

मसीह के इस मक़ूले से साफ़ साबित होता है कि उलूहियत और ज़ात-ए-मसीह में लज़ूम (लाज़िम) की निस्बत ना थी बल्कि ज़ात-ए-उलूहियत मआज़ अल्लाह (अल्लाह की पनाह) इस शेअर की मिस्दाक़ थी :-

स्याह बुख़ती में कब कोई किसी का साथ देता है

कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इन्सान

(अहले-हदीस 6 फरवरी 1942 ई॰)

मौलवी सना-उल्लाह तौहीन मसीह के मुर्तकिब

मौलवी साहब के मुन्दरिजा बाला अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है कि उन के ज़ोअम में इस आया शरीफा से इब्ने-अल्लाह (मसीह) की “आजिज़ी व ज़ारी” (इस्लाम और मसीहिय्यत सफ़ा 108 वग़ैरह) साबित होती है। इस आयत की आड़ में आप आँख़ुदावंद मसीह की तौहीन और तज़हीक (मज़ाक बनाना) करने से ज़रा नहीं झिजके। (सफ़ा 107 ता 113) आपके इस ओछे (कमज़र्फ़) हथियार पर मिर्ज़ाई तक (जिनको मौलवी साहब हमेशा गुमरान कुन और गुमराह शूदा मानते रहे) अंगुश्त बदनदाँ (दाँतों में उंगली देना, अफ़्सोस या हसरत का इज़्हार करना) हैं। चुनान्चे ऐडीटर साहब उर्दू रिव्यू आफ़ रीलिजियंस क़ादियान आपकी किताब पर रिव्यू करके लिखते हैं :-

“हज़रत मसीह मौऊद अलैहि सलातो वस्सलाम (यानी आँजहानी मिर्ज़ा साहब क़ादियानी) ने दरीदा दहन पादरीयों और ईसाई मुनाज़िरीन के इस्लाम और आँहज़रत पर नापाक एतराज़ात का इल्ज़ामी जवाब देने के लिए जो बाइबल और ईसाईयों की दीगर तसानीफ़ से सय्यदना ईसा मसीह की सख़्त क़ाबिल एतराज़ शख़्सियत को पेश किया तो मौलवी सना-उल्लाह साहब और उन की क़ुमाश के दीगर मौलवियों ने आस्मान सर पर उठा लिया कि देखो मिर्ज़ा साहब ने हज़रत ईसा अलैहि-स्सलाम की तौहीन कर दी। लेकिन आज मौलवी साहब को एक ईसाई की किताबों का जवाब लिखना पड़ा तो आपने वही रंग इख़्तियार किया जो हज़रत मसीह मौऊद अलैहि सलातो वस्सलाम (यानी मिर्ज़ा साहब) ने इख़्तियार फ़रमाया था। चुनान्चे सय्यदना ईसा मसीह के औसाफ़ का नमूना अल्फ़ाज़ की शक्ल में आपने (किताब के सफ़ा 55 से सफ़ा 113) तक ख़ूब दिखाया है। फिर इसी पर बस ना करते हुए आपने इसे तस्वीर की शक्ल में दिखाना भी ज़रूरी समझा। और सफ़ा 109 पर हज़रत सय्यदना ईसा मसीह को सलीब पर लटकता हुआ दिखाया है और नीचे किसी क़द्र तसर्रुफ़ करके ग़ालिब का ये मिसरा लिखा है :-

देखे मुझे दीदा इबरत निगाह हो

और इस तरह बक़ौल ख़ुद एक मकरूह फ़ेअल का इर्तिकाब किया।” (सफ़ा 55 बाबत फरवरी 1942 ई॰)

हम इन करीहा उन्न-नज़र शत रो तस्वीर बनाने वाले वहाबी मौलवी साहब की ज़हनियत पर हैरान हैं। आप अपनी किताब पर नाज़ाँ हो कर कहते हैं, “मैं अपने दिली ख़याल का इज़्हार करता हूँ कि अपनी जुम्ला तस्नीफ़ात में से दो किताबों की निस्बत मुझे ज़्यादा यक़ीन है कि ख़ुदा इनको मेरी नजात का ज़रीया बनाएगा। इनमें से एक किताब “मुक़द्दस रसूल” है जो “रंगीला रसूल” के जवाब में है। दूसरी किताब यही “इस्लाम और मसीहिय्यत” है। इसलिए मैं कह सकता हूँ :-

रोज़ क़ियामत हर किसे दर-दस्त गिर्द नामा

मन नीज़ हाज़िर मे शूम ताईद क़ुरआँ दरबग़ल

(सफ़ा अलिफ़)

लेकिन जहां तक तौहीन, तज़हीक और तम्सख़र (मज़ाक) का ताल्लुक़ है मर्हूम की किताब इस रुसवाए आलम किताब “रंगीला रसूल” से कम नहीं है। फ़र्क़ सिर्फ ये है कि मौलवियों ने एक मुसन्निफ़ पर “शातिम रसूल” का फ़त्वा देकर मुसलमानों को इस क़द्र बरा-फ़र्र-दख्ता कर दिया कि वो क़त्ल कर दिया गया। लेकिन मसीही कलीसिया कलिमतुल्लाह (मसीह) की ताअलीम और नमूने पर चल कर इस क़िस्म का वतीरा (चलन) इख़्तियार नहीं करती। आप जैसे मौलवियों की नापाक कोशिशों ने मुसलमानों और ईसाईयों में (जिनकी बमूजब आया क़ुरआनी ولتجدن اقرب ھمہ مودة للذین آمنوا الذین قالو انا نصاریٰ दोस्ती के लिहाज़ से क़रीब तरीन होना चाहिए था। (सूरह माइदा सफ़ा 85) ऐसा इफ़्तिराक़ (जुदाई, इख़्तिलाफ़) पैदा कर दिया है कि मुसलमान हज़रत रूह-उल्लाह (मसीह अल्लाह की रूह) की शान के ख़िलाफ़ तौहीन व तमसख़र के कलिमात सुनकर ना सिर्फ टस से मस नहीं होते बल्कि उल्टा ख़ुश हो कर ऐसे ईमान फ़रोश मौलवियों को क़ाइद मानते हैं। इस क़िस्म के हज़रात दावा करते हैं ताईद क़ुरआन का जो फ़रमाता है, “ऐ मुसलमानो! तुम कहो कि हम तो अल्लाह पर ईमान लाए हैं और क़ुरआन जो हम पर उतरा। और उस पर जो इब्राहिम और इस्माईल और इस्हाक़ और याक़ूब और उस के बारह बेटों पर नाज़िल हुआ और उस किताब पर जो मूसा और ईसा को मिली और जो दूसरे नबियों को उनके परवरदिगार की तरफ़ से मिला। हम उनके दर्मियान किसी भी किसी तरह का फ़र्क़ नहीं करते और हम उसी एक ख़ुदा के मुतीअ (फर्माबर्दार) हैं।” (बक़रह 130, 258, इमरान 78) इनको ये ख़याल नहीं आता कि वो मसीह की तौहीन करने से मुहम्मद की ताज़ीम नहीं करते बल्कि उस की, उस के अल्लाह की और उस की किताब की भी तौहीन करते हैं? मर्हूम अपनी किताब के सर-ए-वर्क़ को क़ुरआनी आयत لا تجادلو اھل الکتاب الابالتی احسن से मुज़य्यन करके अपनी तम्हीद में लिखते हैं कि :-

“ख़ुदा ने हिदायत फ़रमाई है कहा अहले किताब के साथ बेहतरीन तरीक़ से मुनाज़रा किया करो”

(सफ़ा 12)

लेकिन इनके तौहीन व तज़हीक (मज़ाकिया) आमेज़ अल्फ़ाज़ इस क़ुरआनी आया के ज़द (खिलाफ) हैं। इस क़िस्म के उलमा हज़रत रूह अल्लाह (मसीह) की तौहीन कर के क़ुरआन और उस्वा हसना को तर्क करने और अहले-यहूद की जमईयत-उल-उलमा के ज़ुमरे में शामिल होने के जुर्म के मुर्तक़िब होते हैं। (मत्ती 27:39 ता 45) हक़ तो ये है कि आँख़ुदावंद का तम्सख़र और मज़हका (हंसी उड़ाना और मज़ाक बनाना) करके वो मोमिनीन के गिरोह से निकल कर यहूदी काहिनों, फ़क़ीहों, मुजरिम मस्लूबों बल्कि बुत-परस्त रूमी सिपाहीयों के ज़मुरे में जा शामिल होते हैं। فاعتبرو یا الوالالباب

पासबाँ मिल गए काअबे को सनम-ख़ाने से

इस क़िस्म के बे-बाक मोअतरिज़ भूल जाते हैं कि “अहले-यहूद पर उन के कुफ्र की वजह से ख़ुदा की फटकार और लानत है।” (निसा आयत 24) और कि “अल्लाह ने उन पर लानत की और उन पर अपना ग़ज़ब नाज़िल किया और उनमें से बाअज़ को बंदर और सूअर बना दिया।” (माइदा 65) वो ऐसों की पैरवी करके قسی القلب (माइदा आयत 12) हो जाते हैं। और इन ناحلف (मर्यम 60, आराफ़ 168) यहूद के ज़मुरे में दाख़िल हो कर وجیھا ً فی الدنیا والاخرة की तौहीन करके अपनी आख़िरत को ख़राब कर लेते हैं। इस क़ुमाश के लोग हश्र के रोज़ इस क़िस्म की तौहीन आमेज़ किताब बग़ल में लेकर एक आदिल और (मुन्सिफ) के हुज़ूर हाज़िर होने की जुर्आत किस तरह कर सकेंगे?

मौलवी सना-उल्लाह साहब का मुनाज़राना रंग

मौलवी साहब की किताब “इस्लाम और मसीहिय्यत” का मुतालआ साबित कर देता है कि आप मुनाज़रे को तलाश-ए-हक़ का वसीला ख़याल नहीं फ़र्माते थे। हाँ चंद एतराज़ात और दलाईल आपने रट रखे थे। जो वक़्त बेवक़्त, जा और बेजा आप अपनी तकरीर व तहरीर में पढ़ कर सुनाया करते थे। मर्हूम को इक़बाल भी है कि ख़ाकसार किताबों में बह्स “निराले तर्ज़” पर बसूरत जदीद की गई है बक़ौल हज़रत ख़ुश :-

निराली बह्स छिड़ी थी नया मुक़ाबला था

लेकिन जब आप जवाब लिखने बैठे तो वही पुराने मुल्लानों के दक़यानूसी (क़दीम) एतराज़ात जो आपने अय्याम-ए-जवानी में सीखे थे तोते की तरह पढ़ सुनाए। चुनान्चे क़ादियानी रिव्यू भी इस बात का शाकी (शिकायत करने वाला) है और कहता है कि :-

“पादरी साहब का अंदाज़-ए-बयान मुख़्तलिफ़ था इसलिए ज़रूरी था कि उनके जवाब में भी उसी अंदाज़ को इख़्तियार किया जाता। लेकिन मौलवी साहब का अंदाज़ वही क़दीम मुनाज़राना है जिसके बयान में कोई नदिरत (उम्दगी, अनोखापन) नहीं।”

(फरवरी 1942 ई॰ सफ़ा 52)

درپس آئینہ طوطی صفتم داشتہ اند

آنچہ استاد ِ ازل گفت ہماں میگوئم

वाक़िया सलीब-ए-मसीह और क़ुरआन

लेकिन इस से क़ब्ल कि हम मौलवी साहब के एतराज़ात का जवाब दें हम मौलवी साहब से एक सवाल पूछना चाहते हैं जिसके जवाब पर उन के अपने दीन व ईमान का मदार है। आपने बिल्कुल सच्च फ़रमाया है कि :-

“दुनिया की तारीख़ी कुतुब और मसीही अनाजील बिल-इत्तिफ़ाक़ शहादत देती हैं कि यहूद मसीह के साथ बड़ी सख़्ती से पेश आते रहे। यहां तक कि उन्होंने आपके सर पर कांटों का ताज रखकर आपको सलीब पर चढ़ा दिया।”

(इस्लाम और मसीहिय्यत सफ़ा 131)

ये अल्फ़ाज़ साबित करते हैं कि आपको इस बात का इक़बाल है कि मसीह का सलीब पर चढ़ाया जाना एक हक़ीक़ी और सच्चा तारीख़ी वाक़िया है क्योंकि बाअल्फ़ाज़-ए-शमा “दुनिया की तारीख़ी कुतुब और मसीही अनाजील बिल-इत्तिफ़ाक़ शहादत (गवाही) देती हैं” कि ये वाक़िया कोई मन घड़त अफ़साना नहीं और इस अम्र में उन लोगों को जो वाक़िया सलीब के मौक़े पर हाज़िर थे ना तो क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला (ख़याल पैदा करने वाली क़ुव्वत, सोचने की क़ुव्वत) ने फ़रेब दिया था और ना कोई शख़्स वहम और शुब्हा में गिरफ़्तार हुआ था। बल्कि ये एक तारीख़ी वाक़िया है जिसको मानने वाले गुमान और ज़न (शुब्हा, बोहतान, बद-गुमानी) की पैरवी नहीं करते बल्कि हक़ बात कहते हैं। लेकिन क़ुरआन दुनिया की तारीख़ी कुतुब और मसीही अनाजील की मुत्तफ़िक़ा शहादत (गवाही) के ख़िलाफ़ कहता है “यहूद कहते हैं कि हमने ईसा बिन मर्यम रसूल अल्लाह को क़त्ल कर दिया हालाँकि ना उसे क़त्ल किया और ना उसे सलीब दी। लेकिन वो शुब्हा में पड़ गए और वो जो उस के बारे में इख़्तिलाफ़ रखते हैं उनकी निस्बत शक में हैं कि उनको इस का इल्म नहीं लेकिन वो गुमान की पैरवी करते हैं और यक़ीनन उस को क़त्ल नहीं किया बल्कि उसे ख़ुदा ने अपनी तरफ़ उठा लिया और अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला है।” (सूरह निसा आयत 156)

पस क़ुरआन “दुनिया की तारीख़ी और मसीही अनाजील की मुत्तफ़िक़ा शहादत (गवाही) के ऐन ज़िद वाक़िया सलीब का इन्कार करता है। चूँकि इल्म-ए-मन्तिक़ के रु से इज्तिमा-अल-ज़िद्देन (आपस में इख्तिलाफ का एक होना) महालात (नामुम्किन) में से है। पस या तो दुनिया की तारीख़ी कुतुब और मसीही अनाजील की मुत्तफ़िक़ा शहादत (गवाही) सच्ची है या क़ुरआन की शहादत (गवाही) सच्ची है। बसूरत अव्वल आप क़ुरआन और अपने ईमान का इन्कार करेंगे और बसूरत दोम दुनिया की तारीख़ी कुतुब की शहादत (गवाही) को काज़िब (झूटा) समझेंगे।

मुसीबत में पड़ा है सीने वाला चाक-दामाँ का

जो ये टांका तो वो उधड़ा जो वो टांका तो ये उधड़ा

देखें मर्हूम मौलवी साहब के हम-ख़याल अस्हाब क्या रवैय्या इख़्तियार करते हैं। और कौन सी राह़-ए-फ़रार तज्वीज़ फ़र्माते हैं।

बाब दोम

मौलवी सना-उल्लाह साहब के एतराज़ात की ख़ामी
मौलवी सना-उल्लाह साहब की तफ़्सीर

मर्हूम मौलवी साहब आयत ज़ेर-ए-बहस को इब्ने-अल्लाह (मसीह) से मन्सूब करके अपना ख़ास-उल-ख़ास एतराज़ अपने मख़्सूस अंदाज़ में ब-ईं अल्फ़ाज़ करते हैं :-

मसीह के इस मक़ूले से साफ़ साबित होता है कि उलूहियत और ज़ाते मसीह में लज़ूम की निस्बत ना थी। बल्कि ज़ात-ए-उलूहियत मआज़ अल्लाह (अल्लाह की पनाह) इस शेअर की मिस्दाक़ थी :-

सय बुख़ती में कब कोई किसी का साथ देता है

कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इन्सान से

(अहले-हदीस 6 फरवरी 1942 ई॰)

इस तमाम मज़्मून का और मुन्दरिजा बाला एतराज़ का जो ब-तकरार पेश किया गया है माहसल (हासिल) ये है कि ये आयत ज़ाहिर करती है कि ख़ुदा और मसीह में इन्फ़िकाक (जुदा होना) और अलैहदगी थी। यानी ख़ुदा मसीह से जुदा था और उसने मसीह को तर्क कर दिया था।

मौलवी साहब की इख़्फ़ाए हक़ की कोशिश

हमें अफ़्सोस है कि मौलवी सना-उल्लाह साहब का ये एतराज़ ना सिर्फ उनकी मुनाज़राना हैसियत को बिट्टा (कमी) लगाता है बल्कि अख़्लाक़ी पहलू से भी क़ाबिल-ए-गिरिफ्त है। आपने अपनी किताब और अपने अख़्बार अहले-हदीस के मज़्मून में जिस जिस जगह ज़ेर-ए-बहस आयत का ज़िक्र किया है आपने अपने नाज़रीन पर ये ज़ाहिर किया है, कि ये कलिमा (ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा तूने मुझे क्यों छोड़ दिया?) इब्ने अल्लाह (मसीह) का अपना मक़ूला है जो आपके मानी (मान करने वाला) अलज़मीर का इज़्हार करता है। हालाँकि ये कलिमा आँख़ुदावंद का अपना मक़ूला नहीं। बल्कि ये आयत बाईस्वीं (22) ज़बूर की पहली आयत है जिसको आपने सलीब पर से इस मज़मूर का इब्रानी ज़बान में इक़्तिबास करके तिलावत फ़रमाया। पस मौलवी साहब मर्हूम इस मुक़ाम पर इख़्फ़ाए हक़ (हक़ को छिपाने) के मुर्तकिब हुए हैं और ये हरकत आपसे सहवन (भूल से) सादिर नहीं हुई बल्कि आपने दिदिया दानिस्ता (जान-बूझ कर) की है क्योंकि :-

अव्वल : आपका दावा है कि आप सहफ़-ए-मुक़द्दसा से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं। लिहाज़ा आपको ये ज़रूर मालूम होगा कि जो कलिमा इस आया शरीफा में है वो इब्ने-अल्लाह (मसीह) का अपना मक़ूला नहीं बल्कि बाईस्वीं (22) ज़बूर की पहली आयत है।

दोम : बफ़र्ज़-ए-मुहाल अगर आपको ये इल्म नहीं था तो जिस इन्जील के सफ़ा पर से आपने इस आयत को नक़्ल किया था उस सफ़ा के हाशिये ने आपको बतला दिया होगा कि ये आयत मह्ज़ एक इक़्तिबास है जो बाईस्वीं (22) ज़बूर की पहली आयत है।

सोम : आपको इन्जील जलील के मुताल्लिक़ हमादानी (पूरी मालूमात) का दावा है (किताब इस्लाम और मसीहिय्यत सफ़ा 38) पस आप कम अज़ कम इस अम्र से (जिसको मसीही कलीसिया का बच्चा बच्चा जानता है) ज़रूर वाक़िफ़ होंगे कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने ख़ुदा को मुख़ातिब करते हुए कभी “ख़ुदा या ऐ मेरे ख़ुदा” नहीं कहा। बल्कि आप हमेशा ख़ुदा को “अब्बा” (मर्क़ुस 14:36) “ऐ मेरे बाप, “मेरा बाप”, “मेरा आस्मानी बाप”, (मत्ती 11:25, मर्क़ुस 13:32, मत्ती 7:21, 10:32, लूक़ा 2:49, मत्ती 16:17, 18:10 मत्ती 18:35 वग़ैरह-वग़ैरह) कह कर मुख़ातिब करते थे। अपनी ज़िंदगी की आख़िरी रात आपने जो दुआ मांगी उस में भी ख़ुदा को “ऐ बाप” ही कहा। (यूहन्ना 17 बाब) बल्कि सलीब पर से आपने जो सात कलिमात अपनी मुबारक ज़बान से फ़रमाए उनमें से पहले और आख़िरी कलिमे (जिसके बाद ही आपने दम दे दिया) में आपने ख़ुदा को मुख़ातिब करके “ऐ बाप” ही कहा। (लूक़ा 23:34) पस मौलवी साहब ने इन्जील मत्ती में “एली एली लिमा शबक़तनी” पढ़ा तो आप जैसे नुक्ता-रस (तेज़ फ़हम) शख़्स क्यों ना चौंक पड़े कि इस ख़ास मुक़ाम में सय्यदना मसीह “अब्बा” के बजाय “एली एली” क्यों कहते हैं? अगर आपने दर्याफ़्त करने की ज़हमत गवारा की होती तो आप पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि ये मक़ूला इब्ने-अल्लाह (मसीह) का नहीं बल्कि आप ज़बूर शरीफ़ की आयत की तिलावत फ़र्मा रहे थे।

सय्यदना मसीह के सलीब पर के पहले और आख़िरी कलिमात के अल्फ़ाज़ (लूक़ा 23 34, 46) ही ऐसे चौंका देने वाले हैं कि हर साहिब-ए-अक़्ल पर ये फ़ौरन ज़ाहिर हो जाता है कि ये मक़ूले सय्यदना मसीह के हैं। लेकिन आया ज़ेर-ए-बहस इस क़िस्म की तबइयत रखने वाले इन्सान की रुहानी हालत की तर्जुमान नहीं हो सकती और यह कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) का मक़ूला नहीं बल्कि ज़बूर की आयत है जो आप तिलावत फ़र्मा रहे थे।

चहारुम : आप जैसे इन्जील दान से ये मख़्फ़ी (छिपी) ना होगा कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) की मादरी ज़बान इब्रानी नहीं बल्कि अरामी ज़बान थी। (मर्क़ुस 5:41, 7:34, 14:36 वग़ैरह) पस जब आपने इन्जील मत्ती में पढ़ा कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने सलीब पर से इब्रानी ज़बान में एक कलिमा फ़रमाया तो अगर आप ने वजह दर्याफ़्त की होती तो आपको मालूम हो जाता कि जिस तरह हिन्दुस्तान का कोई मोमिन मुसलमान हालत-ए-नज़ा (मौत के वक़्त) में क़ुरआनी सूरह यासीन की आयात अरबी ज़बान में तिलावत करता है इसी तरह इब्ने अल्लाह ने भी जांकनी की हालत में बाईसवीं (22) ज़बूर की पहली आयत ज़बूर शरीफ़ की अस्ल ज़बान इब्रानी में तिलावत फ़रमाई थी।

पंजुम : मुम्किन है कि बावजूद दाअवा हमादानी (सफ़ा 38) आप ये उज़्र लंग पेश करें कि आपको ये इल्म ही ना था कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) की मादरी ज़बान आरामी थी, लेकिन आपको कम अज़ कम ज़बान अरबी की तारीख़ और इस्लामी तारीख़ से तो वाक़फ़ीयत थी। क्योंकि आप बड़े मौलवी और मौलवी फ़ाज़िल भी थे। आपकी किताब ने तो ये ज़ाहिर कर दिया कि मसीही कलीसिया की तारीख़ के मुताल्लिक़ आपके माख़ज़ सिर्फ बच्चों के इब्तिदाई मदारिज की कुतुब ही हैं। (सफ़ा 45, 46) लेकिन अरबी दानी का तो ये हाल नहीं होना चाहिए था कि अर्ज़-ए-मुक़द्दस में अरबी ज़बान की आमद से पहले अरामी ज़बान राइज थी जिसकी जगह अरबी ने ले ली थी।

ये ज़बान बाबुल की ज़बान थी जो कनआन में अहले यहूद के साथ आई थी। अहले यहूद की कुतुबे मुक़द्दसा के तराजुम और तफ़ासीर जिनको “तारगम” कहते हैं। इसी ज़बान में मुनज्जी आलमीन (मसीह) की बिअसत (रिसालत) से एक सदी पहले और एक सदी बाद के दौरान लिखे गए थे। यही ज़बान हज़रत कलिमतुल्लाह और आपके रसूलों की मादरी ज़बान थी। दसवीं सदी मसीही तक अहले-यहूद इसी ज़बान में किताबें लिखा करते थे। ये ज़बान तमाम पारथी सल्तनत में बोली जाती थी जिसकी हदूद दरिया-ए-सिंध से दरिया-ए-फ़ुरात तक और बहर हिंद से बहर कैस्पियन और कोह हिंदूकुश तक थीं। ये ज़बान इस क़द्र वसीअ रक़बा और दूर दराज़ के ममालिक में बोली जाती थीं कि मुअर्रिख़ यूसीफ़स ने अपनी किताब पहले अरामी ज़बान में तस्नीफ़ की थी ताकि बाबुल के मुल्क के रहने वाले और अरब के दौर उफ़्तादा बाशिंदे और फुरात के पार रहने वाले यहूदी और पारथी उस की किताब को पढ़ सकें। बाद में यूसीफ़स ने इस किताब को यूनानी ज़बान में उन लोगों की ख़ातिर जो रूमी सल्तनत में रहते हैं तर्जुमा किया था।(2)

अरब की फ़ुतूहात से एक हज़ार साल पहले मशरिक़ में यही अरामी ज़बान मुहज़्ज़ब दुनिया की ज़बान समझी जाती थी। हत्ता के ईरान जैसे दूर दराज़ मुल्क में भी ईरानी ज़बान की बजाय अरामी ज़बान ही तस्नीफ़ व तालीफ़ का ज़रीया थी। लेकिन इस्लामी फ़ुतूहात ने ये नक़्शा बदल दिया और अरबी ने अरामी ज़बान पर ग़लबा हासिल कर लिया। पस आपको इस बात से नावाक़िफ़ नहीं होना चाहिए था कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) की मादरी ज़बान अरामी थी और इब्रानी फ़िक़्रह जो आपकी ज़बान मुबारक से निकला वो ज़बूर शरीफ़ की अस्ल ज़बान इब्रानी का इक़्तिबास था।

वजूहे बाला (ऊपर बयान की गई वजूहात) की बिना पर हम ये कह सकते हैं कि आप इख़्फ़ाए हक़ (हक़ छुपाने के) के उम्दन मुर्तकिब हुए हैं। क्योंकि गो आप को ख़ुद मालूम था कि ये इब्रानी कलिमा बाईसवीं (22) ज़बूर का हिस्सा है। लेकिन आपने हर जगह अपने नाज़रीन पर यही ज़ाहिर किया है कि कलिमा ख़ुद इब्ने-अल्लाह (मसीह) का अपना मक़ूला है जो उनके ख़यालात व जज़्बात का मज़हर है और यूं आपने लोगों को दीदा व दानिस्ता (जानबूझ कर) गुमराह किया। हर सही-उल-अक़्ल शख़्स एक क़ाइल के अपने क़ौल और किसी दूसरे के कलाम में जिसका उसने इक़्तिबास क्या हो तमीज़ कर सकता है और अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में तमीज़ करता है। मसलन अगर ज़ैद किसी को बतलाए कि बक्र ने हालत-ए-नज़ा (मौत के वक़्त) में सूरह यासीन की आयत पढ़ी, إِنَّا جَعَلْنَا فِي أَعْنَاقِهِمْ أَغْلاَلاً فَهِيَ إِلَى الأَذْقَانِ فَهُم مُّقْمَحُونَ तर्जुमा, “यानी हमने उनकी गर्दनों में तौक़ डाल दिए हैं और वो ठोढ़ियों तक फंसे हुए हैं तो उनके सर अफल कर रह गए हैं।” (सूरह यसीन 7 तर्जुमा नज़ीर अहमद) तो कोई अक़्ल और समझ रखने वाला शख़्स इस अरबी कलाम को बक्र से मन्सूब करके नहीं कहेगा कि ये कलाम बक्र का अपना कलाम है। बल्कि हर शख़्स जिसके सर में दिमाग़ और दिमाग़ में अक़्ल है यही कहेगा कि ये अरबी कलाम क़ुरआनी आयत है जिसको बक्र बहालत-ए-नज़ा (मौत के वक़्त) तिलावत कर रहा था। एक और मिसाल से हम इस अम्र को वाज़ेह कर देते हैं। क़ुरैश क़ुरआन जो झुटला कर कहते थे कि क़ुरआन “परेशान ख़्वाबों का मजमूआ है।” (अम्बिया 5 आयत) और वह “पहले लोगों की कहानियां” है। तब हज़रत ने बारगाह इलाही में फ़र्याद करके कहा था, “या अल्लाह मेरी क़ौम ने क़ुरआन को ठहराया झुक-झुक” (तकरार, बक बक) (फुर्क़ान आयत 32) अब मोअतरिज़ की सी अक़्ल के मालिक ही ये कहेंगे कि रसूल अरबी का ये मक़ूला है कि क़ुरआन मह्ज़ झुक-झुक (तकरार, बक बक) है। लेकिन हर साहिब-ए-होश यही कहेगा कि :-


(2) See Max Muller, Lectures on the Science of Language Vol.1 Lecture 8 and Josephus, Wars of the Jews.

ع بریں عقل ودانش بباید گریست

पस आपने अपने मफ़रूज़ा (कि आयत ज़ेर-ए-बहस इब्ने-अल्लाह (मसीह) का अपना मक़ूला है) की बिना पर जो मंतिक़ियाना इस्तिदलाल की इमारत खड़ी की है। (इस्लाम और मसीहिय्यत सफ़ा 68, अहले-हदीस बाबत 6 फरवरी 1942 ई॰ सफ़ा 3, 4 वग़ैरह) वो अज़-सर-तापा बे-बुनियाद है। मोअतरिज़ से तो यहूदी रब्बी कलासंर (Klaussner) ही अच्छे रहे जो अपनी ज़ैग़म किताब “येसू नासरी” में इस कलिमे की निस्बत फ़र्माते हैं कि “येसू सहफ़-ए-मुक़द्दसा की रूह से इस क़द्र मामूर था कि उसने सलीब पर अपनी जान देते वक़्त भी किताब-ए-मुक़द्दस की आयत की तिलावत की।” (Jesus of Nazareth) काश कि मोअतरिज़ इन यहूद ही से जिनको क़ुरआन ناحلف और قسی القلب वग़ैरह कहता है। हक़ और सदाक़त का सबक़ सीख लेते। मर्हूम डाक्टर इक़बाल ऐसे मोमिन मुसलमान की निस्बत ही फ़र्मा गए हैं :-

ये मुसलमाँ हैं जिन्हें देखकर शर्माएँ यहूद

काश कि मर्हूम मौलवी साहब इख़्फ़ाए हक़ (हक़ को छुपाने) से ये काम ना लेते और जीते जी ख़ुद अपने फ़त्वा को याद रखते कि मज़्हबी मुनाज़रात में जो ख़ुदा की अदालत में पेश होते हैं वाक़ियात सहीहा का इख़फ़ा (छुपाना) किसी तरह जायज़ नहीं है।” (सफ़ा 12) और कि मुंसिफ़ मिज़ाज लोग मज़्हबी मुबाहसात में ख़ासकर इख़्फ़ाए वाक़ियात करना जुर्म अज़ीम समझते हैं। (सफ़ा 23) आपने इख़्फ़ाए वाक़ियात (सहीह वाक़ियात छुपाने) से काम लेकर एक “जुर्म अज़ीम” का इर्तिकाब किया।

मर्हूम मौलवी साहब को तफ़्सीर नवीसी पर नाज़ था। इसी लिए बिचारे ख़लीफ़ा क़ादियान को आए दिन तफ़्सीर नवीसी के लिए चैलेंज भी दिया करते थे। आपने एक रिसाला तफ़्सीर बिल-राए लिख कर अपने मुख़ालिफ़ क़ादियानीयों, शीयों, लाहौरी मिर्ज़ाईयों, नेचरी मुसलमानों वग़ैरह को उसूल-ए-तफ़्सीर की ताअलीम भी दी है। पस हमें ताज्जुब आता है कि इन्जील जलील की आयात की तफ़्सीर करते वक़्त उन्होंने सही उसूल-ए-तफ़्सीर को पस-ए-पुश्त क्यों फेंक दिया?

सही तफ़्सीर के लिए लाज़िम है कि (1) कि वो किताब-उल्लाह की आयात-ए-बय्यनात के ख़िलाफ़ ना हो और कि (2) वो क़ाइल के अस्ल मफ़्हूम और हक़ीक़ी मंशा के ख़िलाफ़ ना हो और उस के ख़यालात, जज़्बात और अफ़आल के मुनाफ़ी (खिलाफ) ना हो। वर्ना वो तफ़्सीर अल-क़ोल बिमा लायर्ज़ा क़ाइला (القول بما لایرضیٰ قائلہ) मुतसव्वर होगी। इस के बरअक्स लाज़िम है कि सही तावील कहने वाले के ख़यालात का आईना हो और उस के जज़्बात की दुरुस्त तर्जुमानी करे और उस के अक़्वाल व अफ़आल के मुताबिक़ हो और (3) किताब-उल्लाह की आयात इस तावील की मुसद्दिक़ हूँ।

अगर मर्हूम की ज़ेर-ए-बहस आयत की तावील दुरुस्त है तो लाज़िम था कि वो ये साबित करते कि उनकी तावील हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के असली मफ़्हूम और हक़ीक़ी मंशा और माअनी-उल-ज़मीर की सही तर्जुमानी करती है। (2) कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) के ख़यालात, जज़्बात, अक़्वाल व अफ़आल जो अनाजील अरबा में पाए जाते हैं (बिलख़ुसूस वो जिनका ताल्लुक़ ख़ुदावंद की ज़िंदगी के आख़िरी हफ़्ते के साथ है) सब ये ज़ाहिर करते हैं कि ख़ुदा ने मसीह को तर्क कर दिया था और (3) इन्जील जलील की आयात इस बात की बय्यन शाहिद हैं कि ख़ुदा मसीह से जुदा था। क्योंकि उसने आपको मआज़ अल्लाह (अल्लाह की पनाह) रद्द कर दिया था। अगर वो ये साबित कर सकते तो हम भी मान लेते कि तफ़्सीर नवीसी में आप बाल की खाल उतारने वाले हैं।” (सफ़ा 51) लेकिन इन्जील की आयात-ए-बय्यनात और कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलिमाते तय्यिबात से तो मोअतरज़ीन ताक़यामत ये साबित नहीं कर सकते। فَإِن لَّمْ تَفْعَلُواْ وَلَن تَفْعَلُواْ فَاتَّقُواْ النَّارَ الَّتِي وَقُودُهَا النَّاسُ وَالْحِجَارَةُ أُعِدَّتْ لِلْكَافِرِينَ पस अगर ये ना कर सको और हरगिज़ ना कर सकोगे तो दोज़ख़ की आग से डरो जिसके ईंधन आदमी और पत्थर होंगे और वो मुन्किरों के लिए तैयार है। (बक़रह आयत 23)

मौलवी सना-उल्लाह साहब की तफ़्सीर अनाजील के नक़ीज़ (खिलाफ़) है

अनाजील अरबा का एक एक सफ़ा और इब्ने-अल्लाह (मसीह) की मुबारक ज़िंदगी का एक एक वर्क़ मौलवी साहब मर्हूम की तफ़्सीर को ग़लत साबित करता है। चारों इंजीलों की एक एक आयत की बाल की खाल उतार लो। हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के इर्शादात और कलिमात तय्यिबात को एक एक करके छान मारो। आपके ख़यालात जज़्बात और अफ़आल को एक एक करके देख लो तुमको किसी मुक़ाम पर ये ना मिलेगा कि ख़ुदा ने इब्ने अल्लाह (मसीह) को तर्क कर दिया था। इस के बरअक्स इन्जील जलील की आयात-ए-बय्यनात से यही ज़ाहिर होता है कि अब्ब (बाप) और इब्न (बेटे) में इन्फ़िकाक (अलग होना) और जुदाई और मुग़ाइरत (बेगानगी, अजनबीयत) का नामोनिशान भी नहीं। इस के बरअक्स हर वक़्त और हर जगह कामिल इत्तिसाल रिफ़ाक़त क़रुबत और इत्तिहाद नज़र आता है।

सय्यदना मसीह के अक़्वाल

किसी ने ख़ूब कहा है कि मन आनम कि मन दानम (من آنم کہ من دانم) इस मेयार से जब हम इब्ने-अल्लाह (मसीह) के अक़्वाल पर नज़र करते हैं तो हमको यही दिखाई देता है कि ख़ुदा में और आप में रिफ़ाक़त, क़रुबत, इत्तिहाद और मुहब्बत का रिश्ता शुरू से आख़िरी दम तक हमेशा क़ायम रहा। चुनान्चे इब्ने-अल्लाह (मसीह) फ़र्माते हैं कि बाप बेटे से मुहब्बत करता है, और उस की इज़्ज़त करता है। (यूहन्ना 3:35, 14:21, 5:20, 8:54, 10:17, 15:19, 17:26) और “बेटा बाप से मुहब्बत करता है।” (यूहन्ना 15:10) “जो कुछ मेरा है वो बाप का है। और वो सब मेरा है।” (यूहन्ना 16:15, 17:10) “मेरे बाप की तरफ़ से सब कुछ मुझे सौंपा गया है और कोई बेटे को नहीं जानता सिवा बाप के और कोई बाप को नहीं जानता सिवा बेटे के और उस के जिस पर बेटा ज़ाहिर करना चाहे।” (मत्ती 11:27, लूक़ा 10:22 यूहन्ना 8:55, 10:15) आँख़ुदावंद फ़र्माते हैं कि “जिसने मुझे देखा उसने बाप को देखा।” (यूहन्ना 14:9) क्योंकि “मैं और बाप एक हैं।” (यूहन्ना 10:30) आपने फ़रमाया कि बाप की रिफ़ाक़त और उस के काम को पूरा करना आपका “खाना पीना” है। (यूहन्ना 4:32, 5:30 6:38) और कि आप ख़ुदा की तरफ़ से आए हैं और ख़ुदा के पास वापिस लौट जाऐंगे। (यूहन्ना 7:29, 7:33, 8:23, 16:28, 20:17 वग़ैरह) क्या ये अल्फ़ाज़ (जिनमें अक्सर आपने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी हफ़्ते में बल्कि आख़िरी रात फ़रमाए थे) किसी ऐसे शख़्स की ज़बान से निकल सकते हैं जिसको ये ख़याल हो कि ख़ुदा उस से नाराज़ है या वो मग़ज़ूब-ए-क़हर इलाही (जिस पर खुदा का ग़ुस्सा हो) है या कि ख़ुदा ने उस को तर्क कर दिया है?

अल्लाह तआला की शहादत

अगर मौलवी सना-उल्लाह साहब के ख़याल में इब्ने-अल्लाह (मसीह) के मुन्दरिजा बाला कलिमात उनकी तावील को मुर्दा साबित करने के लिए काफ़ी नहीं तो वो चूँकि क़ाल-अल्लाह (قال الله) और अतीउल्लाह (اطیعوا الله) के मानने वाले हैं और इतमाम-ए-हुज्जत की ख़ातिर उनकी पास-ए-ख़ातिर हमें मंज़ुर है लिहाज़ा हम उनको बतलाते हैं कि ख़ुद इर्शाद-ए-ख़ुदावंदी साबित करता है कि ख़ुदा ने इब्ने-अल्लाह (मसीह) को तमाम उम्र कभी तर्क नहीं किया था। बल्कि इस के बरअक्स ख़ुदा ने बनाए आलम से पेश्तर बेटे से मुहब्बत रखी।” (यूहन्ना 17:24) जब कलिमतुल्लाह (मसीह) मबऊस हुए तो इलाही इर्शाद हुआ, “ये मेरा प्यारा बेटा है जिससे मैं ख़ुश हूँ।” (मत्ती 3:17) इस आया शरीफा की बेहतरीन तफ़्सीर (यसअयाह 42:1-4) में है। सलीबी वाक़िये से चन्द हफ़्ते पहले फिर इलाही इर्शाद होता है “ये मेरा प्यारा बेटा है जिससे मैं ख़ुश हूँ। उस की सुनो।” (मत्ती 17:5) सलीब दीए जाने से चंद साअत पहले इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने कहा अब मेरी जान घबराती है पस मैं क्या कहूं? ऐ बाप ! मुझे इस घड़ी से बचा? लेकिन मैं तो इसी सबब से इस घड़ी को पहुंचा हूँ। ऐ बाप अपने नाम को जलाल दे। पस आस्मान से आवाज़ आई कि “मैंने उस को जलाल दिया है और फिर भी दूँगा।” (यूहन्ना 12:27 ता 28) जिन शागिर्दों ने इन इलाही कलिमात को सुना वो शहादत देते हैं कि दूसरों के साथ उन्होंने ख़ुदा की ये गवाही सुनी थी। (2 पतरस 1:17) और मुक़द्दस यूहन्ना कहता है कि “ख़ुदा की गवाही ये है कि उसने अपने बेटे के हक़ में गवाही दी है।” (यूहन्ना 5:9) ख़ुद इब्ने-अल्लाह (मसीह) फ़रमाता है कि “बाप जिसने मुझे भेजा है उसी ने मेरी गवाही दी है।” (यूहन्ना 5:37) मौलवी साहब! ख़ुदा से बड़ा तो कोई गवाह नहीं है और ख़ुदा की गवाही आपकी तावील को (कि उसने इब्ने-अल्लाह (मसीह) को तर्क कर दिया था) मर्दूद क़रार देती है।

इब्ने-अल्लाह (मसीह) का तर्ज़-ए-अमल

इब्ने-अल्लाह फ़र्माते हैं कि आपकी आमद का वाहिद मक़्सद ये है कि आप अपने बाप की मर्ज़ी को पूरा करें और उस का काम सरअंजाम दें जो बाप ने आपके सपुर्द किया है। (यूहन्ना 4:34, 5:30, 6:38, 12:49, 15:10, मर्क़ुस 14:36, मत्ती 26:39 ता 42 लूक़ा 22:42) आप हमेशा इसी काम को सरअंजाम देने की धुन में रहते थे। (यूहन्ना 4:32 ता 34, 9:4, 14:31) और इस को पूरा करने पर तुले थे और इस की तक्मील में किसी क़िस्म के ख़तरे की परवाह नहीं करते थे। (लूक़ा 9:51, 12:50) यहां तक कि आपने इस काम को पूरा करके छोड़ा। (यूहन्ना 7:21, 8:29, 9:4, 17:14, 19:30) इब्ने-अल्लाह (मसीह) को ख़ूब मालूम था कि इस को सरअंजाम देने की राह में अहले-यहूद की रोज़-अफ़्ज़ूँ बेईमानी और बर्गश्तगी की वजह से आपको अन्वा व अक़्साम की दिक्कतों और दुशवारीयों का जान तोड़ मुक़ाबला करना होगा। आपके तजुर्बे ने आपको बतला दिया था कि आपकी क़ौम के क़ाइदों और सरदार काहिनों की ख़ुसूमत दिन-ब-दिन तरक़्क़ी कर रही है। आपने अम्बिया-ए-सलफ़ और अपने हम-अस्र नबी यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के अंजाम में (मत्ती 23:29, 23:37, 21:32 वग़ैरह) देख लिया था कि आपका अपना हश्र क्या होगा। (मत्ती 17:12 ता 13) सहफ़-ए-मुक़द्दसा के मुतालआ से (जैसा हम अपनी किताब “कलिमतुल्लाह की ताअलीम” में लिख चुके हैं) कलिमतुल्लाह को यक़ीन हो गया था कि यसअयाह नबी के सहीफे के “ख़ादिम-ए-यहोवा” के तसव्वुर के मिस्दाक़ आप ही हैं। (लूक़ा 22:37, 4:21) लेकिन ये सब बातें आपके पहाड़ जैसे ज़बरदस्त और मुसम्मम (मज्बूत) इरादे को ना बदल सकीं और आप ने ये ठान ली कि हरचेबादअबाद आप इस काम को पूरा करके छोड़ेंगे जिसके वास्ते बाप ने आपको दुनिया में भेजा था। (मत्ती 20:28, मर्क़ुस 10:45) ख़्वाह ऐसा करने में आपको अपनी जान-ए-अज़ीज़ भी क़ुर्बान करनी पड़े। (यूहन्ना 10 बाब) पस आपने अपनी अज़ीयत और मस्लूब होने की बाबत अपने शागिर्दों को इत्तिला दी। (मत्ती 16:21, 17:9, 21, 22, 23 व 40, 20:19 26:2, 12, 13, 32 मर्क़ुस 9:8 ता 13, 31 10:33, 34 14:24, 26, 15:16 ता 20, लूक़ा 9 22, 44, 12:50, 13:32,17:25, 18:31 ता 34, 22:63 ता 66, 23:1 ता 33, 24:21 यूहन्ना 10:15 ता 18, 16:16, 20:9 वग़ैरह) इस के साथ ही इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने अपने शागिर्दों को ये भी बतला दिया कि अहले यहूद आपकी ख़ातिर उनको भी तरह तरह की ईज़ाएं (तकलीफें) पहुंचाएंगे और उन को क़त्ल करेंगे। (मत्ती 24:9 ता 13, 5:10 ता 11, 10:16 ता 32, 23:34 ता 36, 24:8 ता 12, मर्क़ुस 13:9, 12, 13 लूक़ा 10:3, 11:49, 17:33, 21:12, 16, 17, यूहन्ना 15:20, 21, 16:2 ता 4 वग़ैरह) लेकिन जिस तरह क़ुरआन और दौर-ए-हाज़रा के मुसलमान ये बात गवारा नहीं कर सकते कि ख़ुदा का प्यारा नबी मक़्तूल व मस्लूब हो और कहते हैं कि وما قتلو ہ وما صلبو इसी तरह शागिर्द भी ये बात गवारा ना कर सके और उन में से एक ने कहा, “ऐ ख़ुदावंद, ख़ुदा ना करे, ये तुझ पर हरगिज़ नहीं होने का।” पर इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने उसे समझाया कि सलीब की राह दर-हक़ीक़त हुदा (ख़ुदा) की राह है और फ़रमाया कि “तू ख़ुदा की बातों का नहीं बल्कि आदमीयों की बातों का ख़याल रखता है।” और अलल-ऐलान फ़रमाया “अगर कोई मेरे पीछे आना चाहे तो अपनी ख़ुदी से इन्कार करे और अपनी सलीब उठाए और मेरे पीछे हो ले क्योंकि जो कोई अपनी जान बचानी चाहे वो उसे खोएगा और जो कोई मेरे वास्ते अपनी जान खोएगा वो उसे पाएगा। वो वक़्त आ गया है कि इब्ने आदम जलाल पाए मैं तुमसे सच्च सच्च कहता हूँ कि जब तक गेहूँ का दाना ज़मीन पर गिर के मर नहीं जाता वो अकेला रहता है लेकिन जब मर जाता है तो बहुत सा फल लाता है। इब्ने आदम का ऊंचे पर चढ़ाया जाना ज़रूर है और जब मैं ऊंचे पर चढ़ाया जाऊँगा, तो सबको अपने पास खींचूँगा।” (मत्ती 16:12 ता 27, यूहन्ना 12:23 व 24, 32 ता 34) आपने शागिर्दों को ख़बरदार करके फ़रमाया लोग तुमको ईज़ा देने के लिए पकड़वाएंगे और तुमको क़त्ल करेंगे। मगर जो आख़िर तक बर्दाश्त करेगा वही नजात पाएगा।” (मत्ती 24:8 ता 12)

मौलवी साहब को ये ख़याल ना आया कि जो शख़्स अपने शागिर्दों को “मरते दम तक” वफ़ादार रहने की तल्क़ीन करता है। (मत्ती 10:22) वो ख़ुद भी “आख़िर तक बर्दाश्त” करेगा। कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपने हवारियों को फ़रमाया था कि ईज़ा और मुसीबत के वक़्त वो ख़ुदा पर भरोसा रखें। (मत्ती 10:19 व 29, मर्क़ुस 13:11) और ईज़ा पहुंचाने वालों के लिए दुआ-ए-ख़ैर करें। (मत्ती 5:44) आपने क्यों ना सोचा कि जो शख़्स अपनी ताअलीम पर चल कर सलीब पर से अपने दुश्मनों के लिए दुआ-ए-मग़्फ़िरत मांगता है वो ख़ुद उसी सलीब पर ज़रूर ख़ुदा पर भरोसा रखेगा? वो जो दूसरों को कहता है “ख़ातिरजमा रखो मैं दुनिया पर ग़ालिब आया हूँ। मैं अपना इत्मीनान तुमको देता हूँ।” (यूहन्ना 16:33) ख़ुद क़ल्बी इत्मीनान से किस तरह महरूम हो सकता है? नाज़रीन ही इन्साफ़ से बतलाएं कि हज़रत इब्ने-अल्लाह (मसीह) बाप की रिफ़ाक़त और इत्मीनान पाए बग़ैर किस तरह ऐसे कलिमात अपने मुँह से निकाल सकते हैं? अगर ख़ुदा ने मसीह को तर्क कर दिया होता तो वो किस तरह ख़ुद मुत्मइन हो कर ऐसे तसल्ली बख़्श कलिमे फ़र्मा सकते हैं? नाज़रीन ने हज़रत अय्यूब का नाम ज़रूर सुना होगा। जब उस पर मसाइब व अलाम (दुःख मुसीबत) का पहाड़ टूट पड़ा तो वो ख़ुदा से बह्स करता है और ख़ुदा को मौरिद-ए-इल्ज़ाम गर्दान कर उस को अपना दुश्मन और अपने आप को बेगुनाह क़रार देता है। वो कहता है कि ख़ुदा जानता है कि मैं बे-गुनाह हूँ ताहम वो बेइंसाफ़ी से मुझको तर्क करता है और ख़्वाह-मख़्वाह मुझको मुजरिम क़रार देने पर तुला है। अय्यूब कहता है कि ख़ुदा गोया صُم بکم (गूँगा बहरा) आस्मान पर बैठा है ना सुनता है ना जवाब देता है और ना मेरी वावेला की पर्वाह करता है। नाज़रीन ख़ुदारा इन्साफ़ से कहना क्या आपको मसीह मस्लूब का वतीरा अय्यूब का सा नज़र आता है? क्या सलीब पर इब्ने-अल्लाह (मसीह) के किसी क़ौल या फ़ेअल से किसी साहिब-ए-होश के दिमाग़ में ये ख़याल भी आ सकता है कि मुनज्जी आलमीन का ईमान आख़िरी वक़्त में एक लम्हा या लम्हा के किसी हिस्से के लिए भी मुतज़लज़ल हो गया था?

मौलाना ने ज़रा ग़ौर व फिक्र करके ये ख़याल तो किया होता कि हर क़िस्म की अज़ीयत, मुसीबत और अज़ाब को सब्र और मुहब्बत के साथ बर्दाश्त कर लेने के बाद जब इन तमाम मसाइब अक़ूबत (दुख) और अज़ाब का ख़ातिमा होने वाला था तो क्या दम-ए-वापसीं (आख़िरकार) मसीह मस्लूब का ईमान मुतज़लज़ल हो सकता था? क्या ऐसे वक़्त यास और ना उम्मीदी इब्ने-अल्लाह (मसीह) पर इस क़द्र ग़ालिब आ सकती थी कि वो ख़याल करते कि ख़ुदा ने उनको तर्क कर दिया है? उनकी तो ये ताअलीम थी कि “ख़ुदा पर ईमान रखो।” (मर्क़ुस 11:22) और वो अपने इसी ईमान के बाइस मस्लूब भी किए गए थे तो क्या ख़ुदा ऐसे ईमानदार को छोड़ सकता था? क्या ख़ुदा का वतीरा है कि वो अपने ईमानदार बंदों को ऐन उनकी हाजत के वक़्त तर्क कर दिया करता है और वह भी ऐसे ईमानदार को जो करोड़ों के “ईमान का बानी और कामिल करने वाला” हो। (इब्रानियों 12:2) ऐसे ईमानदार का ईमान किस तरह मुतज़लज़ल हो सकता था? फ़्रांसीसी आलिम डाक्टर एल्फ़र्ड लवाज़ी (जो रासिख़-उल-एतक़ाद मसीही नहीं था) इन अल्फ़ाज़ की निस्बत कहता है (3):-


(3) Loisy, Le Evangiles Synoptiques.

“ये अल्फ़ाज़ ख़ुदा से दूरी और ना उम्मीदी को ज़ाहिर नहीं करते। ये एक रास्तबाज़ शख़्स की चीख़ पुकार है जो दर्द व क्रब में मुब्तला है लेकिन इस बात पर ईमान रखता है कि ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस की मुहब्बत और हिफ़ाज़त मौत में भी उस को चारों तरफ़ घेरे हुए है।”

डाक्टर वनसंट टेलर के अल्फ़ाज़ :-

“ये (4) नज़रिया कि ख़ुदा ने येसू को छोड़ दिया था। अब इस क़ाबिल नहीं रहा कि इस का ज़िक्र भी किया जाये।”

जर्मन आलिम डीपलस कहता है कि :-

“इस फ़िक़्रह से ये ज़ाहिर नहीं होता कि ख़ुदा ने मसीह को छोड़ दिया था या मसीह को ऐसा मालूम देता था कि ख़ुदा ने उस को छोड़ दिया है बल्कि हक़ तो ये है कि कोई भी दीनदार यहूदी मरते दम इस आयत को पढ़ते वक़्त ये ख़याल भी दिल में नहीं ला सकता था कि ख़ुदा ने उस को छोड़ दिया (5) है।”

नाज़रीन, लिल्लाह, (खुदा के वास्ते) ज़रा इन्साफ करें। क्या ख़ुदा का इन्साफ़ इस बात का मुतक़ाज़ी हो सकता था कि वो इब्ने-अल्लाह (मसीह) के साथ ऐसा सुलूक करे जो वो इन्जील जलील के मुताबिक़ बदतरीन गुनेहगारों से भी नहीं करना चाहता? (यूहन्ना 3:16, लूक़ा 15:7) ख़ुदा की मुहब्बत किस तरह इस बात की मुतक़ाज़ी हो सकती थी कि वो ऐसे तारीक वक़्त में अपनी रोशनी को इस से बाज़ रखती? मुनज्जी आलमीन (मसीह) गुनाह और शैतान पर ग़ालिब आए लेकिन आपने आख़िरी दम उनसे शिकस्त खा कर फ़त्ह हासिल नहीं की थी। इस के बरअक्स दम-ए-वापसीं के वक़्त भी ख़ुदा की हुज़ूरी और क़ुर्बत (नज़दिकी) के एहसास की वजह से आप शैतान पर मौत की तल्ख़ी के वक़्त ग़ालिब आए और आप ने आस्मान की बादशाहत सारे मोमिनीन के लिए खोल दी।

इन्जील जलील से ये साबित है कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने मस्लूब होने से पेश्तर एक एक बाकी पेशगोई के तौर पर पहले से अपने शागिर्दों को ख़बर दी थी। चुनान्चे इस मुख़्बिर-ए-सादिक़ ने फ़रमाया था “तुम सब इसी रात मेरी बाबत ठोकर खाओगे। लेकिन मैं अपने जी उठने के बाद तुमसे पहले गलील को जाऊँगा और मुक़द्दस पतरस को मुख़ातिब करके फ़रमाया था इसी रात मुर्ग के बाँग देने से पहले तू तीन बार मेरा इन्कार करेगा।” “तुम में से एक जो मेरे साथ खाना खाता है मुझे पकड़वाएगा।” “देखो हम यरूशलेम को जाते हैं और इब्ने आदम सरदार काहिनों और फ़क़ीहों के हवाले किया जाएगा और वो उस के क़त्ल का हुक्म देंगे और उसे ग़ैर-क़ौमों के हवाले करेंगे और वो उसे ठट्ठों में उड़ाएंगे और उस फिर थूकेंगे और उसे कोड़े मारेंगे और क़त्ल करेंगे और तीन दिन के बाद वो जी उट्ठेगा।” (मर्क़ुस 10 बाब, मत्ती 20 बाब वग़ैरह) लेकिन आपने उनको ये ख़बर कभी ना दी कि ख़ुदा बाप भी मुझे तर्क कर देगा। इन्जील जलील के किसी लफ़्ज़ से हमको ये पता नहीं मिल सकता कि ख़ुदावंद के नज़्दीक कभी ये ख़याल भी फटका (लम्हा) हो कि ख़ुदा आपको छोड़ देगा। इस के बरअक्स गतसमनी बाग़ में जांकनी (नज़ा की हालत, अज़ीयत) की हालत का एक एक लफ़्ज़ ये ज़ाहिर करता है कि आपको कामिल यक़ीन था कि ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) अकमल तौर पर इस अज़ाब के वक़्त आपका साथ देगी।


(4) Life and Ministry Of Jesus p.143 in Vol .7 of the Interpreter’s Bible.
(5) Dibelius. From Tradition to Gospel pp.193 -194

नाज़रीन आप कोहे कलवरी पर निगाह करें और तीनों मस्लूबों को देखें। क्या आपको तीनों के तीनों मस्लूब ख़ुदा के रद्द किए हुए नज़र आते हैं? क्या मसीह मस्लूब का वतीरा वही है जो बाक़ी दो डाकूओं का है? ये डाकू तो मानते हैं कि वो “अपने कामों का बदला पा रहे हैं और उनकी सज़ा वाजिबी है।” (लूक़ा 23:41) क्या मोअतरिज़ इब्ने-अल्लाह (मसीह) की दुश्मनी में इन डाकूओं से भी ज़्यादा क़सी-उल-क़ल्ब (संगदिल قسی القلب ) हो गए हैं। इनमें से एक डाकू ताइब हुआ तो इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया “आज ही तू मेरे साथ फ़िर्दोस में होगा।” (लूक़ा 23:43) क्या एक शख़्स जो ख़ुद ख़ुदा की रिफ़ाक़त से जुदा हो चुका हो दम-ए-वापसीं किसी दूसरे गुनेहगार के गुनाह माफ़ करके उस को उसी रोज़ अपने साथ जन्नत में दाख़िल होने की बशारत दे सकता है?

सच्च तो ये है कि ख़ुदा की पिदराना मुहब्बत इब्ने-अल्लाह (मसीह) की तमाम ज़िंदगी-भर आपका वाहिद सहारा थी। आपको इस लाज़वाल अबदी मुहब्बत का एहसास इस क़द्र था कि दुनिया की कोई आफ़त आपके जीते-जी उस को महव ना कर सकी बल्कि सलीब पर से आपने आख़िरी लफ़्ज़ जो अपनी ज़बान-ए-मुबारक से बयान फ़रमाए, ये थे “ऐ बाप मैं अपनी रूह तेरे हाथों में सौंपता हूँ और यह कह कर दम दे दिया।” (लूक़ा 23:42) मोअतरिज़ ने कुछ तो ग़ौर किया होता। क्या ये अल्फ़ाज़ मरते दम किसी ऐसे शख़्स के मुँह से निकल सकते हैं जिसको ये ख़याल हो कि ख़ुदा ने उस को छोड़ दिया है? अगर ख़ुदा ने इब्ने-अल्लाह (मसीह) को फ़िलवाक़े तर्क कर दिया था और सलीब पर से उनकी तमाम ज़िंदगी का काम मालिया-मेट (ख़त्म) हो गया था तो वो अपने आख़िरी दम फ़ातिहाना अंदाज़ से बड़ी आवाज़ से पुकार के क्यों ऐलान करते हैं कि ख़ुदा का वो काम जो उसने इब्ने-अल्लाह (मसीह) के सपुर्द किया था पूरा हुआ। (यूहन्ना 19:30) और यह तमाम अल्फ़ाज़ कुछ ऐसे अंदाज़ से ब-आवाज़-ए-बुलंद फ़रमाए गए कि सख़्त दिल रूमी सूबेदार तक मुतास्सिर हो गए। (लूक़ा 23:47), लेकिन मोअतरिज़ हक़ीक़त की तरफ़ से आँखें बंद करके हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की शान में बेअदबी करने से ज़रा नहीं झिजकते और कहते हैं कि “मसीह इस आजिज़ाना हालत में सलीब पर लटकते हुए गोया ये शेअर पढ़ रहे हैं :-

ज़अफ़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया

वर्ना हम भी आदमी थे काम के

(सफ़ा 103)

हर इन्जील ख़वान हज़रत इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी की आख़िरी साअतों का हाल पढ़ कर देख सकता है कि “आजिज़ाना हालत” और “ज़अफ़” आँख़ुदावंद के पास फटके भी ना थे। आप फ़ातिहाना अंदाज़ में सरदार काहिन को फ़र्माते हैं “अब से इब्ने आदम क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा की दहनी तरफ़ बैठा रहेगा।” (लूक़ा 22:69) और मैं इस सतूदा (ख़ुदा) का बेटा मसीह हूँ और “तुम इब्ने आदम को क़ादिर-ए-मुतलक़ की दहनी तरफ़ बैठे और आस्मान के बादिलों के साथ आते देखोगे।” (मर्क़ुस 14:62) और गवर्नर पिलातूस को मुख़ातिब करके कहते हैं “मैं हक़ का बादशाह हूँ। मैं इसलिए पैदा हुआ और इस वास्ते दुनिया में आया हूँ कि हक़ पर गवाही दूं। जो कोई हक़्क़ानी (हक़ से निस्बत रखने वाला) है वो मेरी आवाज़ सुनता है।” (यूहन्ना 18:37 ता 38)

इब्ने-अल्लाह (मसीह) फ़र्माते हैं कि आपका इस दुनिया में आने का वाहिद मक़्सद ये था कि आप ख़ुदा की मर्ज़ी को पूरा करें। आपने अपनी ज़िंदगी का एक एक लम्हा बाप की मर्ज़ी को पूरा करने में सर्फ किया। (यूहन्ना 5:20, 5:30, 6:37,7:16, 12:10, 19:32 वग़ैरह) अपनी ज़िंदगी की आख़िरी शब आपने ख़ुदा से इल्तिजा कर के कहा था “ऐ बाप, मेरी मर्ज़ी नहीं बल्कि तेरी मर्ज़ी पूरी हो।” अब जब वो ख़ुदा के इरादे और मंशा और मर्ज़ी के मुताबिक़ फ़रमांबर्दारी से मौत बल्कि सलीबी मौत को बर्दाश्त करके ख़ुदा की मर्ज़ी को पूरा कर रहे हैं तो ख़ुदा उनसे किस तरह जुदा हो सकता है? उनकी दुआ के अल्फ़ाज़ साफ़ ज़ाहिर करते हैं कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) की नज़रों के सामने सलीब थी और मौलवी साहब के क़ियास (सफ़ा 190) के ख़िलाफ़ इब्ने-अल्लाह के ख्व़ाब व ख़्याल में भी ये बात ना आई थी कि ख़ुदा किसी ख़वारिक़-ए-आदत (मोअजिज़ा) तौर पर आपको सलीबी मौत से बचाएगा। क्योंकि वह जानते थे कि सलीब की राह ऐन ख़ुदा की मर्ज़ी के मुताबिक़ है। (मत्ती 16:21 ता 28) पस अगर मौलवी साहब की तफ़्सीर सही है तो हमारा ये हक़ है कि हम उनसे पूछें कि इन बातों के पेश-ए-नज़र होने के बावजूद इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने क्यों एक ऐसा कलिमा ज़बान से निकाला जिससे बक़ौल आपके यास ना उम्मीदी टपकती थी? उनका फ़र्ज़ है कि वो हमको बतलाएं कि यास और ना उम्मीदी किस चीज़ की निस्बत थी? वो क्या उम्मीद थी जो बर ना आई और जिस के पूरा ना होने के बाइस ये यास-अंगेज़ (मायूसी भरा) कलिमा बक़ौल मोअतरिज़ इब्ने-अल्लाह के मुँह से निकला? इब्ने-अल्लाह (मसीह) तो अपने तजुर्बे से जानते थे कि आप दुनिया और शैतान पर ग़ालिब आ गए हैं। (मत्ती 4:11, यूहन्ना 16:33 वग़ैरह) दरीं हाल (इस सूरत में) दम-ए-वापसीं ना-उम्मीदी और यास (मायूसी) की क्या वजह थी? क़ियास तो ये चाहता है कि एक शख़्स पर जो बक़ौल मौलवी साहब ज़ारी लाचारी की आजिज़ाना हालत में सलीब पर लटका हो मायूसी उसी क़द्र ग़ालिब होगी कि उस की यास (मायूसी) और ना उम्मीदी की आवाज़ धीमी निकलेगी। लेकिन इब्ने-अल्लाह की बुलंद और “बड़ी आवाज़ की पुकार” (लूक़ा 23:42, मत्ती 27:50, मर्क़ुस 15:37) ये साबित करती है कि ना-उम्मीदी, मायूसी और यास सलीब के नज़्दीक फटकने भी ना पाई थी। बल्कि ये बड़ी आवाज़ की पुकार एक फ़ातिहाना आवाज़ थी जो जिस्म की कमज़ोरी और अज़ीयत के बावजूद इलाही रिफ़ाक़त और क़ुर्बत (नज़दिकी) की वजह से बुलंद थी जिसको सुनकर सूबेदार भी मरऊब हो कर मान गया कि “बेशक ये आदमी रास्त बाज़ था”। (लूक़ा 23:47)

सुतूर बाला में हम ज़िक्र कर चुके हैं कि आख़िरी शब गतसमनी बाग़ में इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने अपने आपको ख़ुदा के हाथों में सपुर्द कर दिया था और कहा था “ऐ बाप! मेरी मर्ज़ी नहीं बल्कि तेरी मर्ज़ी पूरी हो।” जिससे आपका मतलब मह्ज़ “गर्दन बरज़ा-ए-इलाही” को मह्ज़ सर-ए-तस्लीम ख़म करने से पूरा नहीं कर सकता बल्कि इलाही इरादे और मंशा के साथ ख़याल क़ौल और फ़ेअल से बदिल व जान अमली तआवुन करने से पूरा करता है। (यूहन्ना 12:27 ता 28) यही वजह है कि आपने दुआ ख़त्म करने के बाद ही शागिर्दों को इर्शाद फ़रमाया “उट्ठो चलें।” (मर्क़ुस 14:42) ताकि ख़ुदा की मर्ज़ी को पूरा करें और मौत को ख़ुदा की मुहब्बत और उस के जलाल का वसीला बनाएँ। (लूक़ा 24:26) आप मुद्दत से इस मौत के पियाले के मुंतज़िर थे। और जाम-ए-शहादत को पीने के ख़्वाहिशमंद थे। (मत्ती 21:22) आपने अलल-ऐलान (गवाहों के रूबरू, अलानिया तौर पर) फ़रमाया था कि “मुझे (सलीबी) मौत का बपतिस्मा लेना है। और जब तक वो ना हो ले मैं बहुत ही तंग रहूँगा।” (लूक़ा 12:50) क्योंकि आपको ये इल्म था कि आपकी मौत भी आपकी ज़िंदगी की तरह “बहुतों के फ़िद्ये” के लिए ज़रूरी और लाज़िमी है। (मर्क़ुस 10:45) आपने अपनी मौत की वजह बतला कर फ़रमाया “वो वक़्त आ गया कि इब्ने आदम जलाल पाए। मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि जब तक गेहूँ का दाना ज़मीन में गिर कर मर नहीं जाता अकेला रहता है। लेकिन जब मर जाता है तो बहुत सा फल लाता है। जो अपनी जान को अज़ीज़ रखता है वो उसे खो देता है और जो दुनिया में अपनी जान से अदावत रखता है वो उसे हमेशा की ज़िंदगी के लिए महफ़ूज़ रखेगा।.....पस मैं क्या कहूं कि ऐ बाप मुझे इस घड़ी से बचा? लेकिन मैं इसी सबब से तो इस घड़ी को पहुंचा हूँ। ऐ बाप अपने नाम को जलाल दे। पस आस्मान से आवाज़ आई कि मैंने उस को जलाल दिया है और फिर भी दूँगा।” (यूहन्ना 12:23 ता 28) मोअतरिज़ को ज़रा ख़याल ना आया कि इस क़िस्म के शख़्स के मुँह से किस तरह दम-ए-वापसीं कोई यास अंगेज़ (मायूसी भरा) कलिमा निकल सकता है?

इन्जील की क़तई नस

मौलवी साहब, आईए हम आपको इब्ने-अल्लाह (मसीह) के वो कलिमात तय्यिबात सुनाएँ जो आपके वहम के ख़िलाफ़ एक क़ातेअ और कतई दलील हैं। आप तो बग़ैर किसी दलील के दावा करते हैं कि ख़ुदा ने इब्ने-अल्लाह (मसीह) को तर्क कर दिया था, लेकिन सुनिए इब्ने-अल्लाह ख़ुद यहूद को क्या फ़र्माते हैं, आपने इर्शाद फ़रमाया “मैं अकेला नहीं बल्कि मैं हूँ और बाप है जिसने मुझे भेजा है।” (यूहन्ना 8:16) फिर बताकिद फ़रमाया, “जिसने मुझे भेजा है। वो मेरे साथ है। उसने मुझे अकेला नहीं छोड़ा।” और साथ ही वजह भी बतला दी, “क्योंकि मैं हमेशा वही काम करता हूँ जो उसे पसंद हैं।” (यूहन्ना 9:29) फिर आपने अपनी ज़िंदगी की आख़िरी शब शागिर्दों को फ़रमाया, “तुम सब परागंदा हो कर अपने अपने घर की राह लोगे और मुझे अकेला छोड़ दोगे। तो भी मैं अकेला नहीं हूँ क्योंकि बाप मेरे साथ है।” (यूहन्ना 16:32) क्या ये इंजीली नस क़तई तौर पर आपके एतराज़ का मुंह बंद नहीं कर देती? बाप की मुहब्बत आपको हर लहज़ा चारों तरफ़ ज़िंदगी में हर लम्हा मौत में घेरे रही। आप ख़ुदा को मुख़ातिब करके फ़र्माते हैं कि “ऐ बाप मैं तेरा शुक्र करता हूँ कि तूने मेरी सुन ली और मुझे तो मालूम है कि तू हमेशा मेरी सुनता है।” (यूहन्ना 11:41) और इब्रानियों के ख़त का मुसन्निफ़ इस पर सादिर करके कहता है कि, खुदा ने ज़िंदगी और मौत दोनों हालतों में इब्ने-अल्लाह (मसीह) की सुनी। (इब्रानियों 5:7 ता 8) और उस का रफ़ीक़ रहा।

मुक़द्दस पौलुस रसूल भी फ़रमाता है कि “ख़ुदा अपनी मुहब्बत की ख़ूबी हम पर यूं ज़ाहिर करता है, कि जब हम गुनेहगार ही थे तो मसीह हमारी ख़ातिर मुआ। पस हम अपने सय्यदना मसीह के सबब जिसके वसीले से अब हमारा ख़ुदा के साथ मेल हो गया ख़ुदा पर फ़ख़्र करते हैं।” (रोमीयों 5:8 ता 11) अब मौलवी साहब ही फ़रमाएं कि अगर ख़ुदा ने ऐन सलीब के मौक़े पर मसीह मस्लूब को छोड़ दिया था तो उसने अपनी मुहब्बत की ख़ूबी का इज़्हार किस तरह किया? और हम किस बात पर और किस तरह फ़ख़्र कर सकते हैं?

इस सिलसिले में डाक्टर बटर्क के अल्फ़ाज़ क़ाबिल गौर हैं वो कहता है :- (6)

“हम जानते हैं कि दीनदार यहूदी मुसीबत के वक़्त इस ज़बूर को पढ़ कर तसल्ली हासिल किया करते थे। ये अम्र यक़ीनी है कि इन अल्फ़ाज़ की तिलावत से ये ज़ाहिर नहीं होता कि सय्यदना मसीह अपना ईमान खो बैठे थे और कि ख़ुदा की रिफ़ाक़त आप को नसीब ना थी। बल्कि हक़ तो ये है कि अगरचे सब आपको छोड़कर चले गए थे लेकिन ख़ुदा आपके साथ था। और इस से पहले आपको ख़ुदा की ऐसी क़ुर्बत (नज़दिकी) कभी हासिल ना हुई थी जैसी इस लम्हा में हासिल थी। जब आप ख़ुदा की कामिल फ़रमांबर्दारी करके अपनी जान क़ुर्बान कर रहे थे। ख़ुदा बाप ने अपने बेटे को इस लम्हे में ऐसी क़ुर्बत (नज़दिकी) अता की थी कि वो मसीह में हो कर अपने साथ दुनिया का मेल मिलाप कर रहा था।” (2 कुरिन्थियों 5:13)


(6) George A.Buttrick
Exegesis and Exposition of St. Matthew in vol 7 of the Interpreter’s Bible pp.608 -609

मुक़द्दस पौलुस को मसीह मस्लूब के ईसार, मौत और क़ुर्बानी में ख़ुदा का मक़्सद नज़र आता है चुनान्चे वो फ़रमाता है कि “ख़ुदा ने मसीह में हो कर अपने साथ दुनिया का मेल मिलाप कर लिया।” (2 कुरिन्थियों 5:8) देखिए अल्फ़ाज़ “ख़ुदा ने मसीह में हो कर” कैसे साफ़ वाज़ेह और ग़ैर मुबहम हैं। ख़ुदा ने मसीह से जुदा हो कर और उस को तर्क करके नहीं बल्कि “मसीह में हो कर अपने साथ दुनिया का मेल मिलाप कर लिया।” जिसका मतलब ये है कि सलीबी मौत के वक़्त बाप इब्ने-अल्लाह (मसीह) के ज़रीये और उस में हो कर नजात का काम करता है। क्योंकि बेटा बाप का मज़हर है (इफ़िसियों 2:4 ता 5, ग़लतीयों 4:3 ता 6 वग़ैरह)

हक़ तो ये है कि ख़ुदा अपने बेटे से सलीब के मौक़े पर खासतौर पर ख़ुश था। क्योंकि ख़ुदा की मुहब्बत का नज़ारा हमको आला तरीन जलाली सूरत में सलीब पर ही मिलता है। ख़ुदा मुहब्बत और सय्यदना मसीह की ज़िंदगी और मौत इस मुहब्बत के जलाल का कामिल और अकमल ज़हूर हैं। इब्ने-अल्लाह (मसीह) मुजस्सम मुहब्बत थे। आपने अपनी मुहब्बत का इज़्हार खल्क़ की ख़िदमत, इसार-ए-नफ़्स और कामिल क़ुर्बानी के ज़रीये किया। (मत्ती 20:28, मर्क़ुस 10:45, 10:17 ता 18, 13:1 ता 7, 3:13, 21, 4:34, 5:17, 44, 8 बाब 17:1 वग़ैरह) जिस तरह इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी ईसार के ज़रीये ख़ुदा की मुहब्बत का ज़हूर थी जिसके वसीले सब पर अयाँ हो गया था कि “ख़ुदा उस के साथ है।” (आमाल 10:38) इसी तरह आपकी मौत ईसार व महब्बत का सबूत थी और मौत के वक़्त भी ख़ुदा आप के साथ था क्योंकि आप महबूब-ए-किब्रिया थे। (मत्ती 3:17, 17:5) चुनान्चे आपने फ़रमाया कि “बाप मुझसे इसलिए मुहब्बत रखता है कि मैं अपनी जान देता हूँ। कोई उसे मुझसे छीनता नहीं, बल्कि मैं उसे आप ही देता हूँ।” (यूहन्ना 1:17 ता 18) आपकी मुबारक मौत आपकी ज़िंदगी का कमाल और ताज थी। जब ख़ुदा ने आपकी ज़िंदगी में आपका साथ ना छोड़ा तो वो आपकी मौत में आपको कैसे छोड़ सकता था? बिलख़ुसूस जब ये मुबारक मौत आपकी ज़िंदगी का कमाल थी? आपने ज़िंदगी और मौत दोनों में अपनी जान दूसरों के लिए निसार कर दी। (1 यूहन्ना 3:16, मत्ती 20:28) जिस तरह बनी-इस्राईल को कोहे सीना पर पुराने अहदनामे का जलवा नज़र आया उसी तरह कोहे कलवरी पर इलाही मुहब्बत के कमाल के लिए अहद का जलवा नज़र आता है। सलीब पर का तजुर्बा इब्ने-अल्लाह (मसीह) के ईमान और कामिलियत का ज़हूर है। (फिलिप्पियों 2:8 ता 11) इब्रानियों के ख़त का मुसन्निफ़ हमको बतलाता है कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) की नज़रों के सामने ना उम्मीदी और यास (मायूसी) नहीं बल्कि एक अजीब ख़ुशी थी और कहता है कि “हमारे ईमान के बानी और कामिल करने वाले येसू ने उस ख़ुशी के लिए जो उस की नज़रों के सामने थी शर्मिंदगी की परवाह ना करके सलीब का दुख सहा और ख़ुदा के तख़्त की दहनी तरफ़ जा बैठा।” (इब्रानियों 12:2) इब्ने अल्लाह (मसीह) की निगाह इस “ख़ुशी” पर टिकी हुई थी। (ज़बूर 119:35) जिसकी वजह से आपने सलीब की इंतिहाई शर्मिंदगी की परवाह ना की। ये ख़ुशी क्या थी? इब्ने-अल्लाह (मसीह) अपनी ज़फ़रयाब (फ़त्हमंद) क़ियामत के बाद अपनी ज़बान-ए-मोअजिज़ा बयान से अपने शागिर्दों को और मर्हूम के हम-ख़यालों को इस ख़ुशी की निस्बत बतलाते हैं, “ऐ नादानो और नबियों की सारी बातों के मानने में सुस्त एतक़ादों, क्या मसीह को ये दुख उठाकर अपने जलाल में दाख़िल होना ज़रूर ना था?” (लूक़ा 24:25) आप कामिल और मुजस्सम मुहब्बत थे और मुहब्बत ईसार का दूसरा नाम है। ईसार तब ही कामिल होता है जब उस में ख़ुशी हो और यह ख़ुशी ईसार का जलाल होती है। किसी माँ से पूछो कि वो अपने बीमार बच्चे को किसी दाया या नर्स के सपुर्द करने के बजाय उस की ख़िदमत में क़ुर्बानी और ईसार-ए-नफ्स से काम लेकर रात-दिन एक क्यों कर देती है? माँ की मामता की ख़ुशी ऐसे ईसार और क़ुर्बानी में ही पूरी होती है और ये ख़ुशी माँ की मुहब्बत ईसार का जलाल है। चुनान्चे इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने भी आख़िरी शब अपने शागिर्दों को फ़रमाया “मैंने ये बातें इसलिए तुमसे कही हैं कि मेरी ख़ुशी तुम में हो और तुम्हारी ख़ुशी पूरी हो जाए। इस से ज़्यादा मुहब्बत कोई शख़्स नहीं कर सकता कि अपनी जान अपने दोस्तों के लिए दे दे।” (यूहन्ना 15:13, यसअयाह 53:11) इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने जो दुआ आख़िरी शब (रात) की थी उस में आपने ख़ुदा को मुख़ातिब करके कहा “ऐ बाप, वो घड़ी आ पहुंची अपने बेटे का जलाल ज़ाहिर कर ताकि बेटा तेरा जलाल ज़ाहिर करे। जो काम तूने मुझे करने को दिया था उस को पूरा करके मैंने ज़मीन पर तेरा जलाल ज़ाहिर किया और अब ऐ बाप तू उस जलाल से जो मैं दुनिया के पेश्तर तेरे साथ रखता था मुझे अपने साथ जलाली बना ले।” (यूहन्ना 17:15)

मौलवी साहब की तफ़्सीर क़ुरआन के मुख़ालिफ़

पस इन्जील जलील के मुतालए से साबित हो जाता है कि मर्हूम मौलवी साहब की तफ़्सीर ग़लत है। अल्लाह तआला की शहादत, कलिमतुल्लाह (मसीह) की शहादत, हवारइन (शागिर्दों) की गवाही, इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़िंदगी के आख़िरी हफ़्ते के वाक़ियात। आपकी सलीब और अज़ीयत का एक एक लम्हा और इन्जील जलील की एक एक आयत उनकी तफ़्सीर का ग़लत साबित करती है। अगर मोअतरिज़ इनसे क़ाइल नहीं हुए तो कम अज़ कम क़ुरआन व हदीस के तो आप क़ाइल हैं। और ये दोनों इस्मत-ए-मसीह (मसीह की पाकीज़गी) पर शाहिद हैं। (सूरह इमरान आयत 31 वग़ैरह, मशारिक़-उल-अनवार सफ़ा 929) जिस हाल कि कलिमतुल्लाह (मसीह) बेगुनाह और मासूम थे तो ख़ुदा आपको कैसे छोड़ सकता था? क्या ख़ुदा बेगुनाह ईमानदार बंदों और अपने मासूम रसूलों को जांकनी (मौत के करीब) की हालत में तर्क कर दिया करता है। बिलख़ुसूस जब वो अपने पैग़ाम की वजह से मसाइब व अलाम में मुब्तला हों? मोअतरिज़ ने बाईस्वीं (22) ज़बूर की आयत की तावील करते वक़्त क़ुरआन व हदीस का ही पास और लिहाज़ किया होता। क्या इस्लामी अक़ाइद के मुताबिक़ ख़ुदा उन रसूलों को जो रज़ा-ए-इलाही को पूरा करते हैं उनकी मौत के वक़्त मायूसी और ना उम्मीदी की हालत में छोड़कर उनको तर्क कर दिया करता है। क़ुरआन व हदीस के मुताबिक़ मसीह की शान ऐसी है कि मौत के वक़्त ख़ुदा आपको मायूसी की हालत छोड़ देता? वो जो ख़ुदा का मासूम नबी और कलिमा है और रूह-अल्लाह (अल्लाह की रूह) है और ख़ुदा का रसूल और फ़रमांबर्दार बंदा है और जिस पर अल्लाह तआला ने एहसान किए क्या उस का अंजाम ऐसा हसरतनाक हो सकता है? क़ुरआन साफ़ तौर पर कहता है कि, اسۡمُہُ الۡمَسِیۡحُ عِیۡسَی ابۡنُ مَرۡیَمَ وَجِیۡہًا فِی الدُّنۡیَا وَ الۡاٰخِرَۃِ وَ مِنَ الۡمُقَرَّبِیۡنَ (सूरत आले-इमरान आयत 45) कि “ईसा दुनिया और आख़िरत दोनों में रूदार और ख़ुदा के मुक़र्रिबों में से है।” क्या مِنَ الۡمُقَرَّبِیۡنَ की यही तफ़्सीर है कि मौत के वक़्त उस को ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) और रिफ़ाक़त भी नसीब ना हो?

अगर मोअतरिज़ आँजहानी मिर्ज़ाए क़ादियानी की पैरवी करके ये कहें कि हम हज़रत ईसा की निस्बत ये नहीं मानते लेकिन ईसाईयों की इन्जील येसू मसीह की निस्बत ये कहती है तो वो गोया दुनिया पर रोशन कर देते हैं कि वो एक ऐसी बात पेश करते हैं जिसको वो ना तो ख़ुद मानते हैं और ना उनके मुख़ातिब मानते हैं और यह एक ऐसी शर्मनाक पोज़ीशन है जिसको कोई हक़-पसंद जायज़ नहीं रख सकता।

मर्हूम मौलवी साहब पर वाजिब था कि अगर वो कलिमतुल्लाह (मसीह) के मुताल्लिक़ क़ुरआन की शहादत (गवाही) से कोई ऐसी बात मानते हैं जिसका ज़िक्र इन्जील में उनके ज़ोअम (ग़ुरूर, गुमान) में इस के ख़िलाफ़ है और अगर इन्जील जलील के किसी क़ौल से कोई वस्वसा (अंदेशा) उन के दिल में पैदा हुआ था तो उनको उस की तावील इस तौर से करना चाहिए थी जो इस को क़ुरआन के मुताबिक़ कर दे। क्योंकि क़ुरआन के मुताबिक़ इन्जील कलाम-ए-इलाही है जिसका वो ख़ुद मुहाफ़िज़ और मुसद्दिक़ (सच्चा बताने वाला) है। (सूरह माइदा रुकूअ 6, आयात 48 ता 52 व 91 वग़ैरह) जिसके मफ़्हूम को अहले-अरब पर ज़ाहिर करने की ख़ातिर वो अरबी ज़बान में नाज़िल किया गया। (शोअरा आयत 197, अनआम रुकूअ 20 आयात 156 ता 158 वग़ैरह) यही वजह है कि क़ुरआन के मुताबिक़ सच्चा मुसलमान सिर्फ वही हो सकता है जो इन्जील पर भी ईमान रखे। (सूरह बक़रह आयत 3 वग़ैरह) और चूँकि ख़ुदा के कलाम में तज़ाद व तनाकिस (टकराव) नहीं होता। (सूरह निसा आयत 84) लिहाज़ा क़ुरआन व इन्जील की तावील का उसूल भी एक ही है। (सूरह यूनुस आयत 94) ये क़ुरआनी उसूल सही उसूल तफ़्सीर है जिसकी मुफ़स्सिल तश्रीह हम अपने रिसाले “तौज़ीह-उल-बयान फ़ी उसूल-उल-क़ुरआन” में कर चुके हैं। लेकिन मौलवी साहब ने सही तावील करने की बजाय ऐसी तावील की जो ना सिर्फ क़ुरआन के ख़िलाफ़ है बल्कि इन्जील जलील के एक एक लफ़्ज़ के ख़िलाफ़ है और क़ुरआन व इन्जील दोनों इस को मुत्तफ़िक़ा तौर पर बातिल और मर्दूद क़रार देते हैं।

गर तू क़ुरआँ बरीं ग़लत ख़वानी

बबरी रौनक-ए-मुसलमानी

अगर मोअतरज़ीन के ईमान ने इन को ग़लत तावील करना ही सिखलाया है तो क़ुरआन उनको मुख़ातिब करके कहता है, قل بئسما یا مرکمہ بہ ایمانکمہ وان کنتمہ مومنین “तू कह अगर तुम्हारा ईमान यही है और तुम ही ईमानदार हो तो तुम्हारा ईमान तुमको बुरा सिखाता है।”

इस बाब में हमने ये साबित किया है :-

(1) मौलवी सना-उल्लाह साहब ने दीदा व दानिस्ता (जानबूझ कर) वाक़ियात सहीहा का इख़फ़ा (पोशीदा करना) करके आम्मतुन्नास (लोगों) को ये मुग़ालता देना चाहा है कि आया ज़ेर-ए-बहस इब्ने-अल्लाह (मसीह) का अपना “मक़ूला” है। हालाँकि ये कलिमा आँख़ुदावंद का अपना “मक़ूला” नहीं है। बल्कि बाईस्वीं (22) ज़बूर की पहली आयत है जिसकी मुनज्जी कौनैन ने सलीब पर से तिलावत फ़रमाई। इस बह्स के दौरान में मौलवी साहब ने हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की शान में इस क़द्र सोअदबी का इर्तिकाब किया है कि अल-इमान :-

बिक रहा हूँ जिन्नों में क्या कुछ

कुछ ना समझे ख़ुदा करे कोई

(2) हमने इन्जील जलील से साबित किया है कि मौलवी सना-उल्लाह का इस्तिदलाल कि ये कलिमा ज़ाहिर करता है कि ख़ुदा में और मसीह में जुदाई और दूरी थी और कि ख़ुदा ने आपको मआज़-अल्लाह (खुदा एसी बातों से बचाए) छोड़ दिया था सरीहन ग़लत है। ये तावील तफ़्सीर-बिल-राए की उम्दा मिसाल है जिसके ख़िलाफ़ मर्हूम ख़ुद जिहाद करते रहे। ये तफ़्सीर हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलिमात, तय्यिबात, ख़यालात, जज़्बात और अफ़आल की ज़िद (खिलाफ) है और इन्जील जलील की आयात-ए-बय्यनात की ऐन नक़ीज़ (खिलाफ) है। मौलवी साहब ने आया ज़ेर-ए-बहस को इस तरह माएल कर दिया है और आपकी तावील ऐसे दर्जे पर पहुंच गई है कि इस (पर) तावील “का लफ़्ज़” भी सादिक़ नहीं आ सकता। मौलवी साहब की तावील القول بما لایرضیٰ بہ قایلہ के ग़लत अस्ल के मुताबिक़ है, लिहाज़ा मर्दूद है।

बाब सोम

आया ज़ेरे बह्स का मफ़्हूम

फ़स्ल अव़्वल

बाईसवां ज़बूर

बाईस्वीं (22) ज़बूर की शान-ए-नुज़ूल

ज़बूर की किताब एक मजमूआ है जो क़ौम यहूद के बेहतरीन शुअरा के मिल्ली और मज़्हबी कलाम का इंतिख़ाब है। ये यहूदी शायर हज़रत दाऊद से लेकर मुख़्तलिफ़ ज़मानों में पैदा हुए। उन्होंने अपने अपने वक़्त के कवाइफ़ व हालात को पेश-ए-नज़र रखकर इन मज़ामीर को मंजूम किया। बाअज़ मज़ामीर क़ौम यहूद की ख़ुशहाली के ज़माने में लिखे गए और बाअज़ उस क़ौम के ज़वाल के ज़माने में मंजूम किए गए। बाईसवां (22) ज़बूर और चंद दीगर मज़ामीर (मसलन 26, 27, 28, 31, 35, 38, 39, 40, 41, 69, 71 वग़ैरह) की तरह क़ौम इस्राईल की पस्ती, ज़िल्लत, मुसीबत और ज़वाल के ज़माने में लिखा गया। इस ज़बूर के मुतालए से अयाँ है कि मज़मूर नवीस के इर्द-गिर्द के हालात इस क़द्र तारीक हैं कि क़ौम यहूद पड़ी सिसक (हिचकी, सुबकी) रही है। दम तोड़ रही है और फ़ना होने के क़रीब है। बुत-परस्त अक़्वाम ने ख़ुदा की अपनी क़ौम को जो अक़्वाम आलम के लिए एक नूर थी। (यसअयाह 42:7) चारों तरफ़ नरगा में घेर रखा है। (आयत 6, 12, 21) मज़मूर नवीस के दिल में बीम वर्जा की कश्मकश है। और उस को ऐसा मालूम होता है कि ख़ुदा ने अपनी बर्गुज़ीदा क़ौम को तर्क कर दिया है। (आयत 1) “सिय्यून कहती है यहोवा ने मुझे तर्क किया है और ख़ुदावंद मुझे भूल गया है।” (यसअयाह 49:14, ज़बूर 13:1, 88:14) बाअज़ मुफ़स्सिरीन का ख़याल है कि (22 ज़बूर) हज़रत नहमियाह के ज़माने के हालात का आईना है। जब क़ौम इस्राईल निहायत मुसीबत और ज़िल्लत की हालत में गिरफ़्तार थी। (नहमियाह 1:3) वो इस ज़बूर की सातवीं आयत की (नहमियाह 4:2) के ज़रीये और छठी आयत की (नहमियाह 2:19) के ज़रीये ताबीर करते हैं। इन मुफ़स्सिरीन का ख़याल है कि आयत 12 से मुराद अम्मोनी हैं। (सफ़नियाह 2:8 यर्मियाह 49 1) और तेरहवीं (13) आयत से मुराद क़बाइल अरब हैं और आयत (22, 16 व 17) से मुराद सिकम के रहने वाले हैं।

इस ज़बूर का मतलब

बाईस्वीं (22) ज़बूर का मुतालआ ये ज़ाहिर करता है कि इस का मुसन्निफ़ शायर (जो ख़ुद एक ईमानदार शख़्स है) ना-मुवाफ़िक़ हालात की तारीकी में अपने ईमान के ज़रीये ये मालूम करना चाहता है कि एक क़ौम जो अक़्वाम-ए-आलम में से ख़ुदा की वाहिद परस्तार (इबादत-गुज़ार) है क्यों फ़ना हो रही है? पहली आयत में लफ़्ज़ “क्यों” ख़ुदा की परवरदिगारी पर शक नहीं करता बल्कि इस से मुराद ताज्जुब का सवाल और हैरानगी का इज़्हार है। वो पूछता है कि क्या वजह है कि ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम फ़ना हो रही है? मज़मूर नवीस मुतअज्जिब हो कर सवाल करता है कि ख़ुदा ने क़ौम इस्राईल को क्यों तर्क कर दिया है? और इस क़ौम की पुकार उस के नजात देने वाले ख़ुदा से क्यों दूर है? वो क्यों नहीं सुनता? क़ौम की हालत ऐसी है कि वहिश्ब व रोज़ बेक़रारी की हालत में पड़ी कराहती है। (ज़बूर 22:1, 2) ख़ुदा तू क़ौम इस्राईल का क़ुद्दूस ख़ुदा है जो ज़माना-ए-माज़ी में उस के दुश्मनों के हाथों से रिहाई देता रहा है। (ज़बूर 22:4) और जिस का वाअदा है कि वो अय्याम मुस्तक़बिल में भी अपनी क़ौम को छुड़ाएगा। (इस्तिस्ना 30:3 ता 4 वग़ैरह) क़ौम इस्राईल की ज़बूनी का अब ये हाल हो गया है कि वो एक कीड़े की मानिंद हो गई है। (ज़बूर 22:6, यसअयाह 41:14) जिसको बुत-परस्त अक़्वाम हक़ीर जान कर अंगुश्त-नुमाई करती हैं। (ज़बूर 22:6, 7, यसअयाह 49:7, 53:13) ये बुत-परस्त अक़्वाम अज़रूए तमस्सख़र इस्राईल का ठट्ठा करके कहती हैं कि इस क़ौम ने ख़ुदा पर तवक्कुल किया था। अब इस को छुड़ाने वाला ख़ुदा आए। और अपनी बर्गुज़ीदा क़ौम को हमारे हाथों से छुड़ाले। (ज़बूर 22:8, यसअयाह 41:14, 43:14, 44:6, 24, 47:4, 48:7, 49:7, 26, 54:5, 8) क़ौम पर हलाकत आ पड़ी है। (ज़बूर 22 11) और बुत-परस्त अक़्वाम जंगी दरिंदों, कुत्तों और सांडों की तरह इस पर पै दरपे हमले कर रही हैं। (ज़बूर 22:12 ता 19) क़ौम की ज़िंदगी मारिज़-ए-ख़तर में है और उस के दुश्मन शादयाने बजा रहे हैं। ऐसे नाज़ुक अय्याम में इस्राईल की क़ौम अपने ख़ुदा से फ़र्याद करके कहती है कि ऐ ख़ुदा अपनी बर्गुज़ीदा क़ौम इस्राईल को बुत-परस्त अक़्वाम के हलाकत आफ़रीन हाथों से बचा। (ज़बूर 22:19, 20) फिर मज़मूर नवीस शायर कहता है कि बिल-आख़िर ख़ुदा ने इस तंगी की हालत में क़ौम इस्राईल की गिर्ये वज़ारी की आवाज़ और दुआ सुन कर इस को रिहाई बख़्शी। (ज़बूर 22:21, 24) पस क़ौम इस नजात को कभी फ़रामोश ना करेगी। बल्कि ख़ुदा की सना-ख़्वाँ हो कर उस की सताइश और मदह-सराई (हम्द) करेगी। (ज़बूर 22:22 ता 26) और शुक्रगुज़ार हो कर बुत-परस्त अक़्वाम को ख़ुदा के इल्म और उस की नजात की बशारत देगी। ताकि कुल अक़्वाम आलम ये जान लें कि सल्तनत ख़ुदावंद की है और वही अक़्वाम आलम का वाहिद ख़ुदा है। (ज़बूर 22:27 ता आख़िर)

पस ये ज़बूर एक क़ौम की चीख़ व पुकार की आवाज़ है जो वो अपनी मिल्ली ज़िंदगी और क़ौमी हस्ती की माअरज़-ए-ख़तर में पड़ा देखकर ख़ुदा के हुज़ूर करती है। लेकिन गौरतलब बात ये है कि ऐसे आड़े वक़्त में भी जब क़ौम हलाक और फ़ना होती नज़र आती है मज़मूर नवीस का ईमान मुतज़लज़ल नहीं होता। और गो हालात बज़ाहिर ऐसे यास-अंगेज़ (मायूसी से भरे) हैं कि ना उम्मीदी की तारीक घटाऐं हर तरफ़ से इस क़ौम को घेरे हुए हैं।

ऐसा मालूम होता है कि ख़ुदा ने इस क़ौम को छोड़ दिया है। ताहम मज़मूर नवीस के ईमान का नूर घटा टोप अंधेरे में भी चमकता है जिसकी ज़िया पाशियों से यास (मायूसी) की पुकार नजात और रिहाई के नारों में तब्दील हो जाती है।

सुतूर बाला में हवालेजात दीए गए हैं उनमें नाज़रीन ने मुलाहिज़ा किया होगा, कि 22 वां ज़बूर और हज़रत यसअयाह नबी के सहीफे के दूसरे हिस्से (अबवाब 40 ता आख़िर) में मुशाबहत और मुताबिक़त पाई जाती है। ख़ादिम-ए-यहोवा एक कीड़ा है (यसअयाह 41:14) और क़ौम इस्राईल एक ऐसी जमाअत है, जिसको लोग हक़ीर समझ कर (यसअयाह 49:7, 53:3) उस से किनारा-कश होते हैं गोया कि वो जिन्स इन्सानी में शुमार होने के क़ाबिल ही नहीं। (यसअयाह 52:14, 53:2, 13, 51:7) लेकिन उस की उम्मीद गाह उस का रिहाई देने वाला ख़ुदा इस्राईल का क़ुद्दूस और वाहिद ख़ुदा है जिसकी वो वाहिद परस्तार है। (यसअयाह 41:14, 43:14, 44:6, 14, 24:64, 47:4, 7:4, 48:17, 49:7, 26, 54:5, 8) इस मुख़्तसर मुक़ाबले से ज़ाहिर है कि (22) वीं ज़बूर का ताल्लुक़ सहीफ़ा मज़्कूर के उस हिस्से से (जिसमें ख़ादिम यहोवा का बारहा ज़िक्र आता है) किस क़द्र गहिरा है।

सीग़ा वाहिद का इस्तिमाल

मज़्कूर बाला तफ़्सीर से ज़ाहिर है कि बाईस्वीं (22) ज़बूर में सीग़ा वाहिद मुतकल्लिम और वाहिद ग़ायब क़ौम बनी-इस्राईल के लिए इस्तिमाल किया गया है और तमाम ज़बूर में इस सीगे का इतलाक़ किसी ख़ास फ़र्द पर नहीं है। जो हज़रात अहले-यहूद की कुतुब समावी की ज़बान और मुहावरात से नावाक़िफ़ हैं वो मज़ाला में पड़ कर ख़याल करते हैं कि सीग़ा वाहिद किसी ख़ास फ़र्द के लिए इस्तिमाल हुआ है। लेकिन अम्बिया-ए-अहद-ए-अतीक़ की सहफ़-ए-मुक़द्दसा का मुतालआ ज़ाहिर कर देता है कि वाहिद का सीग़ा ना सिर्फ अफ़राद के लिए इस्तिमाल हुआ है बल्कि क़ौमों, गिरोहों और जमाअतों के लिए भी आम तौर पर कसीर-उल-तादाद मुक़ामात में मुस्तअमल हुआ है।

तौरात शरीफ़ और सहाइफ़ अम्बिया के बेशुमार मुक़ामात में क़ौम बनी-इस्राईल के लिए सीग़ा वाहिद हाज़िर वारिद हुआ है। मिसाल के तौर पर मुश्ते नमूना अज़ख़रवारे (मुट्ठी भर नमूने के तौर पर) मुलाहिज़ा हो (ख़ुरूज 4:22, इस्तिस्ना 6:4, 9:1, 23:29, यसअयाह 4:27, 41:8, 43:1 ता 7, 43:22, 44:21 ता 22, यर्मियाह 2:2, 46:27, हिज़्क़ीएल 13:4, होसेअ 4:15, 9:1, आमोस 4:12, 6:6, 7:15 ता 17, सफ़नियाह 3:14 ता 15, वग़ैरह-वग़ैरह) ज़बूर की किताब में (80) मज़ामीर यानी आधे से ज़्यादा मज़ामीर ऐसे हैं जिनमें मज़मूर नवीस शूअरा वाहिद मुतकल्लिम का सीग़ा इस्तिमाल करते हैं। इन ज़बूरों में बेशुमार मुक़ामात में ऐसे मिसरे और अशआर हैं जिनमें मज़मूर नवीस शूअरा वाहिद हाज़िर और वाहिद मुतकल्लिम के सीगे क़ौम बनी-इस्राईल के लिए इस्तिमाल करते हैं। चुनान्चे (ज़बूर 129) इस की एक बय्यन मिसाल है। किताब यर्मियाह का नोहा में क़ौम इस्राईल सीग़ा वाहिद मुतकल्लिम में कलाम करती है।

कुतुब अह्दे-अतीक़ में वाहिद का सीग़ा ना सिर्फ क़ौम बनी-इस्राईल के लिए वारिद हुआ है बल्कि दीगर अक़्वाम के लिए भी आया है। (यशूअ 9:7, गिनती 2:12 ता 21, 21:22, इस्तिस्ना 2:27 ता 29, कज़ा 11:19 वग़ैरह) बाज़ औक़ात किसी शहर की आबादी का ज़िक्र मन हैस-उल-क़ौम सीग़ा वाहिद में आया है। (1 सामुएल 5:10) बाअज़ मुक़ामात में सीग़ा वाहिद बनी-इस्राईल के ख़ास क़बाइल के लिए इस्तिमाल हुआ है। (यशूअ 17 बाब आयात 14 ताआखिर, कज़ा 1:3, ज़करीया 8:21 वग़ैरह) यसअयाह नबी के सहीफ़े के दूसरे हिस्से में बिलख़ुसूस जहां “ख़ादिम यहोवा” का ज़िक्र आता है कि और सीग़ा वाहिद इस्तिमाल किया गया है उन मुक़ामात में सीग़ा वाहिद किसी फ़र्द-ए-वाहिद के लिए वारिद नहीं हुआ बल्कि इस से क़ौम बनी-इस्राईल की बर्गुज़ीदा जमाअत मुराद है। मसलन (यसअयाह 42:1 ता 4, 49:1 ता 6, 50:4 ता 9, 52:13, 53:13) में सीग़ा वाहिद से मुराद क़ौम इस्राईल की ख़ास जमाअत है। चुनान्चे इसी सीग़ा के 49 बाब की पहली छः (6) आयात में वाज़ेह अल्फ़ाज़ में ज़िक्र किया गया है कि सीग़ा वाहिद से मर्द कोई ख़ास फ़र्द नहीं। बल्कि इस्राईल की बर्गुज़ीदा जमाअत मुराद है। अम्साल की किताब के आठवें (8) बाब में शायर ने हिक्मत और ख़िर्द और दानिश को शख़्स-ए-वाहिद क़रार दिया है।

पस तौरात, ज़बूर और सहाइफ़ अम्बिया की ज़बान और मुहावरात से ज़ाहिर है कि (22) ज़बूर में वाहिद का सीग़ा क़ौम इस्राईल के लिए इस्तिमाल किया गया है। मुस्तनद यहूदी मुफ़स्सिरीन बाईस्वीं (22) ज़बूर की इसी तरह तफ़्सीर करके कहते हैं कि इस ज़बूर में सीग़ा मुतकल्लिम से मुराद क़ौम बनी-इस्राईल है जो मसाइब व अलाम (दुःख तक्लीफ) में मुब्तला हो कर ख़ुदा को पुकारती है और उस का रिहाई देने वाला ख़ुदा उस की गिर्ये वज़ारी को सुनकर उस की मदद करता है और क़ौम की पस्ती और ज़बूनी से नजात बख़्शता है।

एली, एली, लमा शबक़तनी का मफ़्हूम

पस इस मज़मूर शरीफ़ की पहली आयत, “ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा तूने मुझे क्यों छोड़ दिया” से मुराद ये है, “ऐ क़ौम इस्राईल के ख़ुदा, ऐ क़ौम इस्राईल के ख़ुदा तूने बनी-इस्राईल को क्यों छोड़ दिया?” तू अपनी बर्गुज़ीदा क़ौम की फ़र्याद की आवाज़ से और उस की आह फ़ुग़ां से क्यों दूर रहा?”

पस इस मज़मूर शरीफ़ की पहली आयत, “ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा तूने मुझे क्यों छोड़ दिया” से मुराद ये है, “ऐ क़ौम इस्राईल के ख़ुदा, ऐ क़ौम इस्राईल के ख़ुदा तूने बनी-इस्राईल को क्यों छोड़ दिया?” तू अपनी बर्गुज़ीदा क़ौम की फ़र्याद की आवाज़ से और उस की आह फ़ुग़ां से क्यों दूर रहा?”

जुर्आत आमोज़ मरी ताब-ए-सुख़न है मुझको शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-ब-दहन है मुझको

ऐ ख़ुदा शकोह-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले ख़ूगर-ए-हम्द से थोड़ा सा गिला भी सुन ले

फिर ये आज़ुर्दगी-ए-ग़ैर सबब क्या मअनी? अपने शैदाओं पे ये चश्म-ए-ग़ज़ब क्या मअनी

हमसे पहले था अजब तेरे जहां का मुंतज़िर कहीं मस्जूद थे पत्थर, कहीं माबूद शजर

ख़ूगर पैकर महसूस थी इन्सान की नज़र मानता फिर कोई अन-देखे ख़ुदा को क्योंकर?

तुझको मालूम है लेता ना था कोई नाम तेरा क़ुव्वत बाज़ूए मुस्लिम ने किया काम तेरा

नक़्श-ए-तौहीद का हर दिल पे बिठाया हमने ज़ेर-ए-ख़ंजर भी ये पैग़ाम सुनाया हमने

अब वो अलताफ़ नहीं हम पे इनायत नहीं बात क्या है पहली इसी मुदारात नहीं?

ख़ंदाज़न कुफ़्र है एहसास तुझे है कि नहीं अपनी तौहीद का कुछ पास तुझे है कि नहीं?

तअन-ए-अग़यार है, रुस्वाई व नादारी है क्या तेरे नाम पे मरने का एवज़ ख़ारी है?

जो-ए-ख़ूँ मे चकदाज़ हसरत देरीना मा मे तपद नाला ब-नश्तर कदा सीना मा

मुन्दरिजा बाला अशआर में से पहले तीन का मुक़ाबला (22) ज़बूर की पहली दो आयात से करें और मुलाहिज़ा फ़रमाएं कि अशआर नम्बर 4, 5 की रोशनी में तीसरी आयत का मतलब किस तरह वाज़ेह हो जाता है। इतना फ़र्क़ ज़रूर है कि अल्लामा मर्हूम ने शाएराना मुबालग़ा से काम लिया है लेकिन मज़मूर नवीस एक सच्ची और वाज़ेह हक़ीक़त को बयान करता है क्योंकि ये अम्र एक तारीख़ी वाक़िया है उस के ज़माने में सिर्फ क़ौम बनी-इस्राईल ही दुनिया-भर में एक ऐसी क़ौम थी जो ख़ुदा की वाहिद परस्तार थी और दुनिया की बाक़ी कुल उम्मम बुत-परस्ती में मुब्तला थीं। शेअर नम्बर 6 आयात नम्बर 4, 5, 6 को वाज़ेह करता है और शेअर नम्बर 7, 8 की मदद से हम आयात 6 ता 13 को बख़ूबी समझ सकते हैं और आख़िरी शेअर आयात 14, 15 का समां हमारी आँखों के सामने बांध देता है।

पस (22) ज़बूर एक शिकवा और शिकायत है जो किसी ज़बरदस्त ईमानदार यहूदी शायर ने लिखा है। इस शायर के दिल में क़ौम का दर्द है। इस के सीने में मिल्ली ग़ैरत की आग भड़क रही है। ये शिकवा उसी क़िस्म का है जिस क़िस्म का हज़रत यसअयाह नबी ने किया था। (बाब 63) आयात 15 ता आख़िर बाब 64) जिसका जवाब भी ख़ुदा ने इस नबी को दे दिया था। (यसअयाह 49:13 ता 15) इसी क़िस्म का शिकवा हज़रत यर्मियाह ने किया था, “ऐ ख़ुदावंद मैं तेरे साथ हुज्जत करूँगा। शरीर अपनी रविश में क्यों कामयाब होते हैं? उन्होंने जड़ पकड़ ली वो बढ़ गए बल्कि बरूमंद हुए। ऐ इस्राईल की उम्मीद और मुसीबत के वक़्त में उस के बचाने वाले तू मुल्क में परदेसी की मानिंद बना और उस मुसाफ़िर की तरह जो रात काटने के लिए डेरा डाले। ऐ ख़ुदावंद तू हमारे दर्मियान है तू हमको तर्क ना कर।” (यर्मियाह बाब 12, 14) ये शिकवा इसी क़िस्म का है जिस क़िस्म का हज़रत हबक़्क़ूक़ ने किया, “ऐ ख़ुदावंद में कब तक नाला करूँगा और तू ना सुनेगा? मैं तेरे हुज़ूर कब तक चिल्लाऊंगा, ज़ुल्म ज़ुल्म और तू ना बचाएगा?.... तेरी आँखें तो ऐसी पाक हैं कि तू बदी को नहीं देख सकता। फिर तू दग़ाबाज़ों पर क्यों नज़र करता है और जब शरीर सादिक़ को निगल जाता है तब तू क्यों ख़ामोश रहता है?” (हबक़्क़ूक़ पहला बाब) ये इसी क़िस्म का “शिकवा” है जिस क़िस्म का मुहम्मद अरबी ने किया था। क़ुरआन ऐसे ही अम्बिया-अल्लाह की तरफ़ इशारा करके कहता है कि (सूरह यूसुफ़ रुकूअ 12) “पहले लोग भी पैग़म्बरों को झुठलाते रहे यहां तक कि जब रसूल ना उम्मीद हो गए और उन को ये गुमान हुआ कि उनके साथ ख़ुदा ने झूटे वाअदे किए हैं तो उनके पास हमारी मदद आ पहुंची....इस में शक नहीं कि इन क़िस्सों में अक़्लमंदों के लिए इबरत है। ये कुछ बनावटी बात नहीं है लेकिन उस कलाम (कुतुब-ए-आस्मानी) की तस्दीक़ करती है जो इस के पहले है। इस में इन लोगों के लिए जो ईमान वाले हैं हर चीज़ की, तफ़्सील, हिदायत और रहमत है।” (आयात 110, 111) उम्मीद है कि अब मोअतरिज़ इस नुक्ते को इन आयात की मदद से समझ सकेगा। क़ुरआनी सूरत सूरह नूह हज़रत नूह के शिकवे से भरी है जो वो दरगाह-ए-इलाही में करता है।

बाईस्वीं (22) ज़बूर का शिकवा इसी क़िस्म का शिकवा है जिस क़िस्म का मुहम्मद अरबी ने किया था। जब क़ुरैश क़ुरआन को झटलाते और कहते थे कि “क़ुरआन एक झूट बात है जो मुहम्मद ने घड़ी है।” (फुर्क़ान आयत 5, 6) “और वो परेशान ख़्वाबों का मजमूआ है।” (अम्बिया आयत 5) और “पहले लोगों की कहानियां है।” तब आपने दरगाह-ए-इलाही में शिकायत की कि “या अल्लाह मेरी क़ौम ने क़ुरआन को ठहराया झुक-झुक।” (फुर्क़ान आयत 22) फिर जब हज़रत मुहम्मद ने बाशिंदगान-ए-ताइफ को दावत-ए-इस्लाम दी और वहां के ग़ुंडों ने आप पर पत्थर बरसाए जिनके हाथों से एक ईसाई ने आपको बचाया तो आपने शिकवा करके कहा, “ऐ अल्लाह मैं तेरे हुज़ूर अपनी ज़अफ़-ए-क़ुव्वत और लाचारी की निस्बत अर्ज़ करता हूँ। ऐ अरहम-उल-राहमीन तूही बे चारों का चारा और मेरा कारसाज़ है। मुझको तू किस के सपुर्द करता है? क्या तुर्श रवाजनबियों के और दुश्मनों के?” जंग बद्र के रोज़ आप पर सख़्त ख़ुज़ू (आजिज़ी, गिड़गिड़ाना) की हालत तारी थी और आप अल्लाह से कहते थे। या अल्लाह अगर काफ़िर फ़त्हमंद हो गए तो कुफ़्र फैल जाएगा। अगर मुसलमानों की ये क़लील जमाअत हलाक हो गई तो फिर कौन तेरी परस्तिश करेगा? ऐ अल्लाह मैं तेरी रहमत से फ़र्याद चाहता हूँ।”

बईना इसी तरह बाईसवां (22) ज़बूर एक शिकवा है जो एक पुर-दर्द दिल से निकलता है। मज़मूर नवीस अपनी क़ौम इस्राईल की ज़िंदगी को चारों तरफ़ से बुत-परस्त अक़्वाम के हलाकत आफ़रीन हाथों में पड़ा देखकर ख़ुदा से शिकवा करता है कि “ऐ क़ौम बनी-इस्राईल के ख़ुदा, तूने अपनी क़ौम बनी-इस्राईल को क्यों छोड़ दिया है? उस के नाला और फ़र्याद से तू क्यों दूर रहता है? “ऐ इस्राईल के ख़ुदा तेरी क़ौम शब व रोज़ तेरे हुज़ूर गिर्ये वज़ारी करती है तू उस की मदद क्यों नहीं करता? तू इस क़ौम का वाहिद ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस है और इस क़ौम की हम्दो सना तेरा तख़्त है। जिस पर तू तख़्त नशीन है। अगर ये हम्द व सना की आवाज़ ख़ामोश हो गई तो तू किस तख़्त पर बैठेगा और तेरी परस्तिश कौन करेगा? ऐ इस्राईल की क़ौम के चारासाज़ अपनी क़ौम की मदद के लिए जल्दी कर।” (ज़बूर 22 1, 3, 19)

पस ये आयत “शिकवा अरबाब-ए-वफ़ा” (شکوہ ارباب ِ وفا) है। ये राज़ो नयाज़ की बातें हैं। जो मुहिब सादिक़ और महबूब के दर्मियान और क़ैद दस्तूर से बाला होती हैं। ये आशिक़ का गिला है जो वो माशूक़ से करता है। क्योंकि आशिक़ सादिक़ और माशूक़े हक़ीक़ी में इश्क़ व मुहब्बत का रिश्ता है इन राज़ व नयाज़ की बातों को मोअतरिज़ की सी ज़हनीयत रखने वाला क्या जानें जिनकी उल्टी समझ इस इश्क़ व मुहब्बत के रिश्ते को जुदाई और इन्फ़ाक़ से ताबीर करती है? इन बेचारों को क्या मालूम कि ये जुदाई मंतक़ीयाना इन्फ़िकाक की जुदाई नहीं बल्कि ने की जुदाई है। जिसकी निस्बत मोलानाए रुम फ़र्माते हैं :-

بشنواز نے چُوں حکایت میکند

وزجدائی ہاشکایت میکند

हज़रत मौलाना मर्हूम सच्च फ़र्माते हैं कि :-

محرم ایں ہوش جُز بے ہوش نیست

مرزباں رامشتری چوُں گوش نیست

आशिक़ के गले की आवाज़ माशूक़े हक़ीक़ी के कानों तक पहुंच जाती है।

बअल्फ़ाज़ मर्हूम इक़बाल :-

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है

पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है

क़ुदसी-उल-अस्ल है रिफ़अत पे नज़र रखती है

ख़ाक से उठती है गर्दों पे गुज़र रखती है

उड़के आवाज़ मरी ताबफ़लक जा पहुंची

यानी इस गुल की महक अर्श तलक जा पहुंची

जब आशिक़ की ये फ़र्याद अर्श मुअल्ला तक जा पहुंची तो अल्लाह की रहमत ने अपनी क़ौम इस्राईल की “सुन ली” और उस को रिहाई बख़्शी। जिसकी वजह से इस्राईल की क़ौम उस की मदाह ख्वाँ हो कर ये मुसम्मम (मज्बूत) इरादा कर लेती है कि वो अक़्वाम आलम को अपने माबूद हक़ीक़ी की बशारत देकर रहेगी। (ज़बूर 22:21 ता 31) पस ज़बूर का दूसरा हिस्सा माशूक़े हक़ीक़ी की हम्दो सताइश पर मुश्तमिल है।

हम मोअतरज़ीन को तफ़्सीर का वही सबक़ याद दिलाते हैं जो मर्हूम मौलवी साहब ने मिर्ज़ाईयों, नेचरी मुसलमानों वग़ैरह को पढ़ाया था। आपने उनको ये सबक़ दिया था “क़ुरआन मजीद अरबी ज़बान में आया है इसलिए उस के सही माअने और सही तफ़्सीर वही होगी जो अरबी ज़बान में आया है इसलिए उस के सही मअनी और सही तफ़्सीर वही होगी जो अरबी ज़बान (सर्फ़ व नहो, लुग़त वग़ैरह) के मुवाफ़िक़ हो। ये क़ुरआन मजीद की ख़ुसूसीयत नहीं। हर ज़बान का सही तर्जुमा और सही मतलब वही होता है जो उस ज़बान के सही मुहावरात के मुताबिक़ हो। इस उसूल में अरबी, फ़ारसी, अंग्रेज़ी वग़ैरह सब मुसावी (बराबर) हैं। इस के ख़िलाफ़ का नाम है तफ़्सीर बिल-राए यानी जिस तफ़्सीर में मह्ज़ अटकल पच्चो बातें की जाएं। ऐसी तफ़्सीर ग़लत और बिल-राए कहलाती है।” (तफ़्सीर बिल-राए सफ़ा 2) तफ़्सीर बिल-राए ना सिर्फ ग़ैर-सही बल्कि हराम है। (सफ़ा 5) नाज़रीन से दरख़्वास्त है कि वो मर्हूम मौलवी साहब का ये फ़त्वा याद रखें।

नाज़रीन ने देख लिया होगा कि हमारी तफ़्सीर की बुनियाद अहद-ए-अतीक़ और अम्बिया-ए-साबक़ीन की ज़बान और मुहावरात पर क़ायम है लिहाज़ा वो सही है। लेकिन मर्हूम मौलवी साहब की तफ़्सीर मह्ज़ तफ़्सीर बिल-राए है। पस वो अटकल पच्चो बातें करते हैं। लिहाज़ा उनके अपने फ़तवे के मुताबिक़ मर्हूम की तफ़्सीर ना सिर्फ सही बल्कि हराम है।

फ़स्ल दोम
आया ज़ेरे बह्स और इब्ने-अल्लाह
सय्यदना मसीह ने इस आयत की तिलावत क्यों की?

सुतूर बाला में हम ज़िक्र कर चुके हैं कि (22) ज़बूर में एक ऐसे शख़्स का शिकवा है जो ये ख़याल करता है कि हमारे आमाल की सज़ा और जज़ा हमको इसी दुनिया में मिलती है। पस वो मुतअज्जिब हो कर ये पूछता है कि एक क़ौम जो रास्तबाज़ और ख़ुदा-ए-वाहिद की अकेली परस्तिश करने वाली है क्यों पस्ती और ज़िल्लत की हालत में मुब्तला है और बुत-परस्त अक़्वाम क्यों ख़ुशहाल हैं। हालाँकि पस्ती और ज़बूनी (कमज़ोरी) बुत-परस्ती की सज़ा होनी चाहिए और उरूज और इक़बाल ख़ुदा-परस्ती की जज़ा होनी चाहिए।

ये ज़ाहिर है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) इस क़िस्म के एतिक़ादात के क़ाइल नहीं थे हमारे नेक व बद आमाल की जज़ा और सज़ा हम को फ़क़त इसी दुनिया में मिल जाती है। (यूहन्ना 9:3 वग़ैरह) पस जैसा हम ऊपर साबित भी कर चुके हैं। (22) ज़बूर आपके अपने रुहानी तजुर्बे और ज़ाती रुहानी हालत का इज़्हार नहीं करता पस सवाल ये पैदा होता है कि आँख़ुदावंद ने सलीब पर से आया (आयत) ज़ेरे बह्स की तिलावत क्यों फ़रमाई?

मौलवी सना-उल्लाह साहब भी अपने अख़्बार अहले-हदीस में यही सवाल पूछते हैं और फ़र्माते हैं :-

“सवाल ये है कि मसीह ने सलीब पर जान देते हुए इसे क्यों पढ़ा? क़ायदा ये है कि कोई कलाम-ए-साबिक़ उस वक़्त पढ़ा जाता है जब कोई शख़्स अपनी हालत को उस के मुताबिक़ समझे। जब तक किसी वाक़िये को गुज़श्ता वाक़िया के मुमासिल ना क़रार दिया जाये पहले वाक़िये पर बोला हुआ कलाम दूसरे वाक़िये में नक़्ल नहीं हो सकता। हज़रत मसीह का तक्लीफ़ के वक़्त ज़ेर-ए-बहस इंजीली फ़िक़्रह अपने हाल पर चस्पाँ किए बग़ैर पढ़ना बिल्कुल ग़ैर मौज़ूं होगा।”

(अहले-हदीस 5 जून 1942 ई॰)

जवाबन अर्ज़ है कि :-

हम अपने रिसाले “इस्राईल का नबी या जहान का मुनज्जी?” में ये साबित कर चुके हैं कि अहले यहूद की सुहफे मुक़द्दसा के मुतालआ से हम पर अयाँ हो जाता है कि ख़ुदा ने क़ौम इस्राईल को इस ग़र्ज़ से चुन लिया था कि वो अक़्वाम-ए-आलम में ख़ुदा के इल्म और नजात की तब्लीग़ करे।

क़िस्मत क्या हर एक को क़स्साम-ए-अज़ल ने

जो शख़्स कि जिस चीज़ के क़ाबिल नज़र आया

पस ख़ुदा ने क़ौम-ए-यहूद में इस उसूल के तहत खासतौर पर अपना इल्म वदीअत कर रखा था और इस के सपुर्द ये ख़िदमत की थी कि वो दुनिया की तमाम क़ौमों को ख़ुदा की मार्फ़त बख़्शने और नजात का पैग़ाम देने का वसीला हो। ताकि तमाम दुनिया की जुम्ला अक़्वाम अहले यहूद के ज़रीये एक हक़ीक़ी वाहिद ख़ुदा के नूर से मुनव्वर हो जाएं (यसअयाह 42:6 वग़ैरह) क़ौम इस्राईल के इस नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) की वजह से मुनज्जी आलमीन (मसीह) ने अपने काम और पैग़ाम को एक हद तक अहले यहूद में ही महदूद रखा। आँख़ुदावंद की हमेशा यही कोशिश रही कि इस ख़ुफ़ता (सोई हुई) क़ौम को बेदार करें ताकि उस को अपनी मिल्ली हयात के असली नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) का एहसास हो जाये और वो आपकी इन्जील पर ईमान ला कर दीगर अक़्वामे आलम को आपकी नजात की ख़ुश-ख़बरी देने का वसीला बने। अनाजील अरबा के मुतालआ से ज़ाहिर है कि शुरू शुरू में आँख़ुदावंद को बड़ी उम्मीद थी कि क़ौम इस्राईल आप पर ईमान ले आएगी। (लूक़ा 10 बाब, यूहन्ना 6:1, 5 वग़ैरह) लेकिन तल्ख़ तजुर्बे ने आपकी तमाम उम्मीदों पर पानी फेर दिया। (मर्क़ुस 2:20, 8:27 ता 28, 9:30, 32, 10:32 ता 34, मत्ती 23:29 ता 36 वग़ैरह) आप महसूस करते थे कि बनी-इस्राईल आपके हक़ीक़ी शागिर्द हो सकते हैं। (यूहन्ना 8:31 ता 32) और ख़ुद सच्चाई से वाक़िफ़ हो कर और नजात हासिल करके अक़्वाम आलम की नजात का बाइस बन सकते हैं। (यूहन्ना 4:22) लेकिन इस नजात से फ़ैज़याब होने के बजाय अहले-यहूद की बे एतिक़ादी और बेईमानगी रोज़ बरोज़ तरक़्क़ी करती गई। (यूहन्ना 8:27, 46, 10:25, 26 वग़ैरह) और चूँकि ख़ुदा की मुहब्बत उनमें नहीं थी। (यूहन्ना 5:42) वो ख़ुदा के फ़र्ज़न्द होने के बजाय शैतान के फ़र्ज़न्द हो गए। (यूहन्ना 8:42) मुनज्जी आलमीन (मसीह) की क़ौम ने आपको रद्द कर दिया। (मत्ती 21:33, 45, 22:5 ता 8, मर्क़ुस 12:1 ता 10, लूक़ा 14:16, 24, 20:9, 17 यूहन्ना 1:11, 8:19, 18:45 ता 47 वग़ैरह) और वो आँख़ुदावंद को क़त्ल करने के दरपे हो गए। (यूहन्ना 5:16 ता 18, 8:37, 11:47 ता 53)

कलिमतुल्लाह (मसीह) के दिल में अपनी क़ौम के लिए तड़प थी। क्योंकि आपकी मुहब्बत अहले-यहूद के लिए ग़ैर-फ़ानी थी। (मत्ती 23:37, लूक़ा 13:34) आप के दिल में इस गर्दनकश क़ौम के लिए जो ख़ुदा से बाग़ी थे एक दर्द था जो आपको चेन लेने नहीं देता था। आप इस क़ौम की बेईमानी पर बार-बार नौहा-ख़्वाँ हुए। (मत्ती 17:17, 8:12, 1:15, 12:41, 43 लूक़ा 11 बाब वग़ैरह) आप की निगाह हमेशा बनी-इस्राईल के उन गुमराह लोगों पर थी जो आपके ख़याल में “उन भेड़ों की मानिंद जिनका कोई चरवाहा ना हो ख़स्ता-हाल और परागंदा थे।” (मत्ती 9:36) बिलख़ुसूस अपनी ज़िंदगी के आख़िर में यहूदी क़ौम का ख़याल आपको हर वक़्त सताता था। (मत्ती 20:32, 21:12 ता 14, 21:28 ता 32, 21:33, 46, 22:1-12, 23:13, 36, 23:37 ता 39 और 24 बाब वग़ैरह) ज़रा ख़याल करो कि रुए-ज़मीन की तारीख़ में ज़ेल के हसरतनाक अल्फ़ाज़ अपना सानी कहीं रखते हैं? मुनज्जी आलमीन (मसीह) यहूदी क़ौम को मुख़ातिब करके फ़र्माते हैं, “ऐ यरूशलेम, ऐ यरूशलेम, तू जो नबियों को क़त्ल करता और जो तेरे पास भेजे गए उन को संगसार करता है। कितनी बार मैंने चाहा कि जिस तरह मुर्ग़ी अपने बच्चों को परों तले जमा कर लेती है उसी तरह मैं भी तेरे लड़कों को जमा करलूं। मगर तुमने ना चाहा। देखो तुम्हारा घर तुम्हारे लिए वीरान छोड़ा जाता है। क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ कि अब से मुझे फिर हरगिज़ ना देखोगे जब तक ना कहोगे कि मुबारक है वो जो ख़ुदावंद के नाम से आता है।” (मत्ती 23:37 ता 39) “जब वो (मसीह) हैकल (बैत-उल्लाह) से बाहर जा रहा था तो उस के शागिर्दों में से एक ने उस से कहा, ऐ उस्ताद, देख ये कैसे कैसे पत्थर और कैसी कैसी इमारतें हैं। येसू ने उस से कहा, तू इन बड़ी-बड़ी इमारतों को देखता है? यहां किसी पत्थर पर पत्थर बाक़ी ना रहेगा, जो गिराया ना जाये।” (मर्क़ुस 13:1 ता 2) “जब उस (येसू) ने नज़्दीक आकर शहर को देखा तो उस पर रोया और कहा काश कि तू अपने (8) उसी दिन में सलामती की बातें जानता। मगर अब वो तेरी आँखों से छिप गई हैं। क्योंकि वो दिन तुझ पर आएँगे कि तेरे दुश्मन तेरे गर्द मोरचा बांध कर तुझे घेर लेंगे और हर तरफ़ से तंग करेंगे और तुझ में किसी पत्थर पर पत्थर ना छोड़ेंगे इसलिए कि तूने उस वक़्त को ना पहचाना जब तुझ पर निगाह की गई।” (लूक़ा 19:41 ता 44)

ख़ंजर चले किसी पर तड़पते हैं हम अमीर

सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है

मुनज्जी आलमीन (मसीह) अपनी ज़िंदगी के आख़िरी हफ़्ते में अहले-यहूद की बर्गश्तगी पर बार-बार इज़हार-ए-तास्सुफ़ करते। (मत्ती 23 बाब) और क़ौम इस्राईल की क़िस्मत पर रोते थे। इस आख़िरी हफ़्ते के शुरू में जब आप यरूशलेम तशरीफ़ ले गए तो आपने हैकल को देखा जो यहूद की इबादत-गाह होनी चाहिए थी लेकिन इस बदबख्त क़ौम के क़ाइदीन की रूहानियत का ये आलम था कि :-

ترک دنیا بمرود آموزند

خویشتن سیم وغلہ اندوزند


(7) नाज़रीन नोट करें कि इन आयात में भी क़ौम यहूद के लिए सीगा वाहिद इस्तिमाल किया गया है। (बरकत-उल्लाह)
(8) इस मुक़ाम में भी क़ौम यहूद के लिए सीगा वाहिद इस्तिमाल किया गया है।

इन नाम निहाद रूहानी पेशवाओं की हिर्स वाज़ (लालच) ने बैत-उल्लाह को दुआ का घर होने के बजाय “डाकूओं की खोह बना रखा था। (मर्क़ुस 11:15 ता 18) मुनज्जी आलमीन (मसीह) की ग़ैरत की आग शोला-ज़न हुई और आपने “हैकल में दाख़िल हो कर उन सबको निकाल दिया जो हैकल में ख़रीद व फ़रोख़्त कर रहे थे और सर्राफों के तख़्ते और कबूतर फ़रोशों की चौकियां उलट दीं और उनसे कहा, लिखा है कि मेरा घर अक़्वाम आलम के लिए दुआ का घर कहलाएगा मगर तुम उसे डाकूओं की खो बनाते हो।” (मर्क़ुस 11:15) क़सी-उल-क़ल्ब (قسی القلب ) सरदार काहिन ख़ुदा से इस क़द्र बाग़ी हो गए थे कि अपनी इस्लाह करने के बजाय उल्टा “इब्ने-अल्लाह (मसीह) को हलाक करने का मौक़ा ढ़ूढ़ने लगे।” (मर्क़ुस 11:18) क़ौम यहूद और उस के बाग़ी पेशवाओं की रूहानियत इस क़द्र गिर चुकी थी कि वो चोरों, डाकूओं और भेड़ीयों की तरह हो गए थे। (यूहन्ना 10 बाब) उनकी हालत बेफल इंजीर के दरख़्त की मानिंद हो गई थी। (मत्ती 21:19) जिसका मुक़ाबला हज़रत मीकाह ने अपने ज़माने के क़ौम यहूद के रुहानी इफ़्लास (ग़रीबी) से करके फ़रमाया था। कि इस क़ौम में रास्त बाज़ शख़्स शाज़ो नादिर (कम) ही मिलता है जिस तरह बे फल इंजीर में कोई “गुच्छा नहीं होता।” (7:1 ता 6, मत्ती 23 बाब) आप अपनी क़ौम की बड़ी भीड़ देखते थे और आपको लोगों पर तरस आता था क्योंकि वो उन भेड़ों की मानिंद जिनका चरवाहा ना हो ख़स्ता-हाल और परागंदा (बिखरे) थे। (मत्ती 9:36) इसी क़िस्म के ख़यालात इब्ने-अल्लाह (मसीह) के आख़िरी अय्याम में आपके दिल में मुकज़्ज़िब और मुकफ़्फ़िर क़ौम यहूद के रऊसा की बाबत लगातार आ रहे थे जब आप कोहे कलवारी को मस्लूब होने के लिए जा रहे थे तो “लोगों की एक बड़ी भीड़ और बहुत सी औरतें जो उस के वास्ते रोती पीटती थीं उस के पीछे पीछे चलीं” मुनज्जी आलमीन (मसीह) ने जो अल्फ़ाज़ अपनी ज़बान सदाक़त बयान से फ़रमाए वो साफ़ ज़ाहिर करते हैं कि गो यह सब गिर्ये वज़ारी, आह व नाला, बकाह व फ़ग़ां आपकी ख़ातिर हो रहा था ताहम इस नाज़ुक वक़्त में भी जब आप सलीब के बोझ के नीचे लढ़ खड़ा रहे थे आपको अपना ख़याल मुतलक़ नहीं था बल्कि क़ौम इस्राईल के हश्र का ख़याल आपको सता रहा था चुनान्चे आपने उन औरतों को इर्शाद फ़रमाया, “ऐ यरूशलेम की बेटीयों मेरे लिए ना रोओ बल्कि अपने और अपने बच्चों के लिए रोओ। क्योंकि देखो वो दिन आते हैं जिनमें कहेंगे मुबारक हैं वो बाँझें और वो रहम जो बारवर ना हुए और वो छातियां जिन्हों ने दूध ना पिलाया। उस वक़्त वो पहाड़ों से कहना शुरू करेंगे, कि हम पर गिर पड़ो और टीलों से कि हमें छिपा लो। क्योंकि जब हरे दरख़्त के साथ ऐसा करते हैं तो सूखे के साथ क्या कुछ ना किया जाएगा। (लूक़ा 23:27 ता 31) मुनज्जी आलमीन (मसीह) के ये अल्फ़ाज़ हज़रत होसेअ नबी के सहीफ़े में वारिद हुए हैं। जहां ये रसूल क़ौम यहूद की रुहानी पस्ती और ज़िल्लत का हाल बयान करके इस्राईल की क़ौम की हालत पर वावेला करता है। (12:1 ता 8) ये अल्फ़ाज़ साबित करते हैं कि ऐसे नाज़ुक वक़्त में भी जब लोगों की नज़र उनके अपने दुखों और मुसीबतों पर क़ुदरती तौर पर लगी होती है इब्ने-अल्लाह (मसीह) की निगाह अपने मसाइब और अज़ीयत पर नहीं बल्कि अपनी क़ौम के रुहानी इफ़्लास (रूहानी ग़रीबी) और पस्ती पर थी। और आप क़ौम की हालत देखकर मुतास्सिफ़ (अफ़्सोस करने वाले) थे।

जब हम कोह कल्वरी के बाक़ी दो मस्लूबों की हालत का मुनज्जी आलमीन (मसीह) की हालत के साथ मुक़ाबला करते हैं तो ये नुमायां फ़र्क़ हम पर फ़ौरन ज़ाहिर हो जाता है। उनकी नज़र उनके जिस्मानी अज़ाब और सज़ा की जानिब लगी है लिहाज़ा वो सलीब पर कराह कराह कर और दूसरों पर लानत करके जान तोड़ रहे हैं। (मत्ती 27:24) लेकिन मुनज्जी आलमीन (मसीह) की नज़र आपके जिस्मानी दुखों पर नहीं थी बल्कि क़ौम इस्राईल की सरकशी और बर्गश्तगी पर लगी थी। जब आपके हाथों में कील ठोंके जा रहे थे। आपने क़ौम इस्राईल के लिए दुआए मग़्फिरत मांगी। (लूक़ा 23:34) जब आप मस्लूब हुए तो आपको सलीब के जिस्मानी अज़ाब और शर्म की परवाना थी (इब्रानियों 12:2) बल्कि सलीब पर आपकी निगाह अपनी क़ौम बनी-इस्राईल के हसरतनाक अंजाम और उस के ख़ौफ़नाक मुस्तक़बिल पर लगी थी। आप अपने दिल में ख़याल फ़र्मा रहे थे कि इस क़ौम का क्या हश्र होगा जो ख़ुदा के “अम्बिया को कोड़े मारती। शहर बशहर सताती, संगसार करती और मस्लूब और क़त्ल करती चली आई है।” (मत्ती 23:29 ता 37) क़ौम उस की रुहानी पस्ती, और ज़बूनी की हालत को देखकर इब्ने-अल्लाह (मसीह) को बाईसवां (22) ज़बूर याद आया। क्योंकि क़ौम यहूद की मौजूदा हालत मज़मूर नवीस के ज़माने की हालत जैसी हो गई थी। पस आपने दोनों ज़मानों के क़ौमी ज़वाल में मुमासिलत देखकर अपनी ज़बान-ए-सदाक़त बयान से बड़ी आवाज़ से चिल्ला कर कहा, एली, एली, लिमा शबक़तनी, यानी ऐ क़ौम इस्राईल के ख़ुदा, ऐ क़ौम इस्राईल के ख़ुदा, तूने अपनी क़ौम को क्यों छोड़ दिया? तूने इस क़ौम के सपुर्द ये काम किया था कि तेरे नाम और नजात को दुनिया की कुल अक़्वाम तक पहुंचाए। लेकिन ये क़ौम ना सिर्फ अपने फ़र्ज़ अदा नहीं करती बल्कि तेरे मसीह को भी मस्लूब कर रही है। ऐ बाप तू इस क़ौम को माफ़ कर क्योंकि इस क़ौम के लोग नहीं जानते कि वो क्या कर रहे हैं? (लूक़ा 23:34, मत्ती 27:46 वग़ैरह)

अनाजील अरबा का मुतालआ ज़ाहिर कर देता है कि आँख़ुदावंद को मज़ामीर हिफ़्ज़ थे। अगर आपको अपने दुखों और अज़ीयतों ही का ख़याल होता तो आप दीगर ज़बूरों की तिलावत फ़र्मा सकते थे। जो जिस्मानी अज़ीयत और अक़ूबत के वक़्त उनकी अपनी तसल्ली का बाइस हो सकते थे। मसलन आप जांकनी के मौक़े पर ज़बूर 23 के अलफ़ात को दोहरा सकते थे। “ख़ुदावंद मेरा चौपान है।........मुझे कमी ना होगी।.....बल्कि ख़्वाह मौत के साये की वादी में से मेरा गुज़र हो मैं किसी बला से नहीं डरूंगा क्योंकि तू (ऐ ख़ुदावंद मेरे साथ है।.......मैं हमेशा ख़ुदावंद के घर में सुकूनत करूँगा।” लेकिन हज़रत इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने ना तो इस ज़बूर की और ना इस क़िस्म के किसी दूसरे ज़बूर की सलीब पर से तिलावत फ़रमाई क्योंकि मुनज्जी आलमीन (मसीह) को सलीब पर अपने जिस्मानी अज़ाब का ख़याल तक ना था बल्कि आपको अपनी क़ौम के इबरतनाक हश्र का ख़याल दामनगीर था। चूँकि इब्ने-अल्लाह (मसीह) मुजस्सम मुहब्बत थे और मुहब्बत अपनी ख़ुदी पर ध्यान नहीं करती। (1 कुरिन्थियों 13:5) पस इब्ने-अल्लाह (मसीह) सलीब पर अपने दुखों पर नहीं, बल्कि क़ौम इस्राईल के हसरतनाक अंजाम का ख़याल फ़र्मा रहे थे। मुक़द्दस पौलुस रसूल इस अजीब माजरे से मुतास्सिर हो कर फिलिप्पियों की कलीसिया को नसीहत करके फ़रमाता है, “हर एक अपने ही अहवाल पर नहीं बल्कि हर एक दूसरे के अहवाल पर भी नज़र रखे। वैसा ही मिज़ाज रखो जैसा मसीह येसू का भी था।” (फिलिप्पियों 2:4 ता 5) मुनज्जी आलमीन (मसीह) ने मौत की तल्ख़ी और जानकनी की हालत में अपना ख़याल ना किया। (रोमीयों 15:3) और अपने अहवाल पर नज़र ना की बल्कि क़ौम इस्राईल का हश्र और मुस्तक़बिल आपकी नज़रों के सामने था जिस तरह गुज़श्ता ज़माने में वो मज़मूर नवीस के सामने था पस मज़मूर नवीस के हम-ख़याल हो कर आपने उस के अल्फ़ाज़ को दुहराया और आया ज़ेर-ए-बहस की तिलावत करके फ़रमाया “एली, एली, लिमा शबक़तनी” चुनान्चे आबाए कलीसिया में से एक बुज़ुर्ग (9) लिखता है :-

“इस का मतलब ये था कि तूने क़ौम इस्राईल को क्यों छोड़ दिया कि वो तुझसे इस हद तक बर्गश्ता हो गई है कि तेरे बेटे को मस्लूब कर रही है।”

इधर मुनज्जी आलमीन (मसीह) को अहले-यहूद की बर्गश्तगी की वजह से (ज़बूर 22:1) याद आई। और इधर यहूदी क़ौम के ज़अमा और क़ाइदीन इसी ज़बूर के अल्फ़ाज़ (ज़बूर 22:7, 8) में इब्ने-अल्लाह (मसीह) का मज़हका कर रहे थे। चुनान्चे इन्जील मत्ती में वारिद है कि सरदार काहिन भी फ़क़ीहों और बुज़ुर्गों के साथ मिल के ठट्ठे से कहते थे, “उसने औरों को बचाया। अपने तईं नहीं बचा सकता। इस ने ख़ुदा पर भरोसा किया है। अगर वो इसे चाहता है तो अब इस को छुड़ाले।” (ज़बूर 37:41 ता 43, लूक़ा 23:35) इब्ने-अल्लाह (मसीह) का दिल अहले-यहूद की बे-एतिक़ादी के बाइस पहले ही छन्ना पड़ा था। इन अल्फ़ाज़ ने दिल के ज़ख़्म पर नमकपाशी (नमक छिड़कना, तक्लीफ़ देना) का काम किया। क्योंकि अब इस क़ौम के सरदार काहिन तक ख़ुदा पर भरोसा रखने को उल्टा एक ताने का अम्र क़रार दे रहे थे। हालाँकि उनका फ़र्ज़ मन्सबी ये था कि ऐसी हालत में लोगों को ख़ुदा पर भरोसा रखने की तल्क़ीन करते।

بسوخت عقل زحیرت کہ ایں چہ بوالعجبی ست

पस आँख़ुदावंद ने “बड़ी आवाज़ से चिल्ला कर फ़रमाया” ऐ बनी-इस्राईल के ख़ुदा, ऐ बनी-इस्राईल के ख़ुदा, तूने क़ौम इस्राईल को क्यों छोड़ दिया है कि इस के सरदार काहिन तक तुझसे इस क़द्र बाग़ी हो गए हैं कि तुझ पर भरोसा रखना भी मअयूब (एब वाला) बात ख़याल करते हैं और तेरे मसीह को मलऊन गिरादान्ते हैं? मुक़ाबला करो (ज़बूर 69:9 वग़ैरह)


(9) Commentary on St. Mark (Collection of the works of Fathers. By. Thomas Aquinas)

सरदार काहिनों ने सिर्फ ताने देने पर ही इक्तिफ़ा ना की बल्कि उन्होंने (ज़बूर 22) की मुख़्तलिफ़ आयात में जिन मसाइब व अलाम (तकलीफ) का ज़िक्र है उनका आपको निशाना बना कर छोड़ाता कि हदीक़ा सल्ब पर आपकी बैरूनी और ख़ारिजी हालत ऐन इस ज़बूर के मिस्दाक़ हो गई। मसलन सलीब पर आपके मुबारक हाथों और पांव को छेदा गया। (ज़बूर 22 आयत 16, मर्क़ुस 15:13, 14, 24) सलीब पर आपके जिस्म अतहर और हड्डीयों को खींचा और ताना गया। (आयत 14, मत्ती 27:35) आपके कपड़ों पर क़ुरआ डाला गया। (ज़बूर 22:18, व मर्कूस 15:24, यूहन्ना 19:23, 24) आपकी अज़ीयत की हालत में आपको ताका और घूरा गया। (ज़बूर 22:17, मत्ती 27:43, लूक़ा 23:34, 35) आपके दुश्मनों ने आपको दिल-ख़राश ताने सुनाए। (ज़बूर 22:7, 8, मत्ती 27:39 ता 44) वग़ैरह-वग़ैरह। ये सब बातें ऐसी थीं कि क़ुदरती तौर पर आँख़ुदावंद के ज़हन में (ज़बूर 22:1) आई और आप ने इस की तिलावत फ़र्मा कर क़ौम यहूद की बर्गश्तगी पर इज़हार-ए-तास्सुफ़ (अफ़सोस) फ़रमाया और कहा, “ऐ क़ौम इस्राईल के ख़ुदा, ऐ क़ौम इस्राईल के ख़ुदा, तूने क़ौम इस्राईल को क्यों छोड़ दिया?”

मुनज्जी आलमीन (मसीह) की जो बैरूनी हालत सलीब पर थी उस की मुताबिक़त इस ज़बूर के साथ इस हद तक है कि आबाए कलीसिया में से एक बुज़ुर्ग टरटोलेन (10) कहता है कि :-

“ये ज़बूर मसीह के दुखों पर मुश्तमिल है।”

दौर-ए-हाज़रा में भी मसीही कलीसिया इस को मुबारक जुमे के रोज़ पढ़ती है जब वो मुनज्जी आलमीन (मसीह) की मुबारक मौत की यादगारी करती है और इब्रानियों के ख़त का मुसन्निफ़ आयात 22 ताआखिर का इतलाक़ इब्ने-अल्लाह (मसीह) पर करता है। क्योंकि ये ज़बूर उम्मीद और मुहब्बत के अल्फ़ाज़ पर ख़त्म होता है (2 बाब)

ये अम्र याद रखने के क़ाबिल है, कि इस ज़बूर की किसी आयत में भी (ज़बूर 51) की तरह गुनाह का इक़रार मौजूद नहीं। और ना इस की किसी आयत में दुश्मनों पर लानत की गई है पस अगर हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपनी जांकनी की हालत में तमाम के तमाम मज़मूर की तिलावत की भी हो तो जाये ताज्जुब नहीं। क्योंकि आपको ये एहसास था कि इस मज़मूर और यसअयाह नबी के सहीफ़े के ख़ादिम यहोवा और किताब (हिक्मत 12:12 ता 20) आयात में रास्तबाज़ के जिन दुखों का ज़िक्र है वो आपकी ज़ात-ए-क़ुद्सी सिफ़ात में बदर्जा अह्सन पूरे हो रहे हैं।


(10) Ad Marcion iii

हमने मर्हूम मौलवी साहब के सवाल का तश्फ़ी बख़्श जवाब सही उसूल-ए-तफ़्सीर के मुताबिक़ देने की कोशिश की है। हमें उम्मीद है कि तमाम मुत्लाश्याने हक़ (हक़ की तलाश करने वाले) पर अब वाज़ेह हो गया होगा कि मुनज्जी कौनैन (मसीह) ने सलीब पर जान देते हुए आया ज़ेर-ए-बहस को क्यों पढ़ा? इस आया शरीफा की मुन्दरिजा बाला तावील सिर्फ सही उसूल तफ़्सीर पर मबनी है। ये तफ़्सीर मज़मूर नवीस के ख़यालात का सही नक़्शा है और 22वीं ज़बूर के क़राइन और सबाक़ व स्याक़ उस के हामी हैं। ये तफ़्सीर आँख़ुदावंद के ख़यालात, कलिमात और जज़्बात और मोतक़िदात के मुताबिक़ है और आपकी रुहानी हालत और तजुर्बा, आपका हक़ीक़ी मंशा और मतलब आपका प्रोग्राम और तर्ज़े अमल सब इस तफ़्सीर की तस्दीक़ करते हैं। कुतुब मुक़द्दसा की ज़बान, अल्फ़ाज़ और मुहावरात से इस की ताईद होती है और इन्जील जलील की आयात-ए-मुहकमात जिनका फ़िक्र बाब दोम में किया गया है इस तफ़्सीर की मुअय्यिद (मुआविन, मदद करने वाला) हैं। पस हमारी मर्हूम की तावील की तरह तफ़्सीर बिल-राए नहीं है, बल्कि सही तफ़्सीर है जो सिर्फ सही उसूल पर मबनी है।

इख़्तिलाफ-ए-क़िरआत

मौलवी सना-उल्लाह साहब बावजूद दावा हमादानी (सफ़ा 38) मसीहिय्यत की कुतुब मुक़द्दसा से इस दर्जा ना-बलद (नावाक़िफ़) हैं कि उनको ये भी मालूम नहीं कि ये कुतुब किस ज़बान में लिखी गईं थीं। और मुनाज़िर होने के बावजूद वो बिचारे इन ज़बानों से भी आश्ना नहीं। पस हम उनसे ये उम्मीद नहीं कर सकते कि वो इन्जील की मुख़्तलिफ़ क़िरआतों और तर्जुमों से वाक़िफ़ हों। हम नाज़रीन की वाक़फ़ीयत की ख़ातिर आयत ज़ेरे बह्स की मुख़्तलिफ़ क़िरआतों का ज़िक्र करते हैं।

(अलिफ़) आरामी क़िरआत, हम बाब दोम में बतला चुके हैं, कि आँख़ुदावंद की मादरी ज़बान आरामी थी। पस अस्ल इन्जील जो इस ज़बान में लिखी गई थी वो कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलिमात तय्यिबात पर खासतौर पर रोशनी डालती है। इस इन्जील में ये आया शरीफा यूं है (11) :-

“ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा, मैं इस घड़ी के लिए पैदा हुआ था।”

ये ज़ाहिर है कि मौलवी साहब का एतराज़ इस क़िरआत पर सिरे से वारिद नहीं हो सकता। इस क़िरआत के साथ (यूहन्ना 12:27) के अल्फ़ाज़ का मुक़ाबला करो।

(ब) “ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा, तूने मुझे कैसा जलाल बख़्शा।”

(ज) “ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा, तूने मुझे क्यों रुस्वा होने दिया।”

मज़्कूर बाला दोनों क़िरआतें किताब Mission and Message of Jesus के सफ़ा 196 पर दर्ज हैं आपका एतराज़ इन दोनों क़िरआतों पर भी वारिद नहीं हो सकता।

(द) एक और क़िरआत है जो यहूदी आलिम डाक्टर मोंटी फ़ेअरी मर्हूम (Montefiore) ने अपनी तफ़्सीर अनाजील सलासा पर लिखी है और वो ये है :-

“ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा, तूने मुझे क्यों तअन और तशनीअ का निशाना होने दिया।”

मर्हूम लिखते हैं कि इस क़िरआत को जर्मन नक़्क़ाद डाक्टर हारनेक दुरुस्त तस्लीम करता है। ये ज़ाहिर है कि मौलवी साहब का एतराज़ इस क़िरआत पर वारिद नहीं होता।

(ह) “ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा, तूने मुझे क्यों छोड़ दिया?” हमने सुतूर बाला में साबित कर दिया है कि मौलवी साहब का एतराज़ जो आप इस क़िरआत पर करते हैं बातिल है क्यों कि आपने इस एतराज़ करने में हर सही उसूल-ए-तफ़्सीर को ताक़-ए-निस्याँ (भूल जाना) पर रख दिया है।

چوں بشنوی سخن اہل ِ دل مگوکہ خطاست

سخن شناس نہ دلبرا خطا ایں جاست


(11) See Lam sa, the Four Gospels.

आया ज़ेरे बह्स और मसअला कफ़्फ़ारा

मर्हूम सना-उल्लाह ने अपने एतराज़ में जो इस रिसाले के बाब अव्वल में नक़्ल किया गया है। आया ज़ेर-ए-बहस “एली, एली, लमाशबक़तनी” को मसअला कफ़्फ़ारा से मुताल्लिक़ किया है।

हमें इस बात पर ताज्जुब आता है कि आप जैसे कहुना मश्क़ और साल ख़ूर्दा मुसन्निफ़ ने किस मन्तिक़ की रु से ये नतीजा निकाला कि ये आयत मसअला कफ़्फ़ारे से ताल्लुक़ रखती है। इस आयत में बल्कि सियाक़ व सबाक़ की पूरी इबारत और बाब में गुनाह या गुनाह के बोझ का या कफ़्फ़ारे का ज़िक्र तक नहीं मिलता। अगर या बिलफ़र्ज़ मुहाल मौलवी साहब के एतराज़ को एक लम्हे के लिए तस्लीम भी कर लिया जाये कि “ख़ुदा ने मसीह को तर्क कर दिया था।” तो भी हमको कहीं इस बात का नामोनिशान नज़र नहीं आता कि उस के तर्क कर देने का बाइस दुनिया की ना-फ़र्मानी और गुनाह था और कि ख़ुदा बाप ने अपने बेटे को जहान के गुनाह की सज़ा यूँ दी कि उस को छोड़ दिया अगर आपका ये ख़याल है तो आप मसीही कफ़्फ़ारे का मफ़्हूम सिरे से नहीं समझे। मसीही अक़ीदा ये नहीं है कि मसीह को सलीब पर दुनिया के गुनाहों की सज़ा मिली बल्कि कफ़्फ़ारे का अक़ीदा ये है कि “मसीह हमारे गुनाहों के लिए मुआ।” (1 कुरिन्थियों 15:3) “मसीह बेदीनों की ख़ातिर मुआ।” जब हम गुनेहगार ही थे। मसीह हमारी ख़ातिर “मुआ” ख़ुदा से उस के बेटे की मौत के वसीले से हमारा मेल हो गया। (रोमीयों 5:6, 8, 10 वग़ैरह) इन दोनों बातों में ज़मीन आस्मान का फ़र्क़ है। लेकिन मोअतरिज़ दुनिया के नूर की दुश्मनी में रोशनी से दूर जा पड़े हैं।

अगर इस आया शरीफा का ताल्लुक़ मसअला कफ़्फ़ारे से होता तो मुक़द्दस पौलुस या मुक़द्दस पतरस या मुक़द्दस यूहन्ना या इंजीली मजमूआ में से कोई मुसन्निफ़ तो इस को अपनी मुख़्तलिफ़ तहरीरों या तक़रीरों में मसअला कफ़्फ़ारे के सबूत में पेश करता। इन्जील जलील की कुतुब मुक़द्दसा में से किताब आमाल अल-रसूल और मक्तुबात की एक एक सतर पढ़ लो तुमको इस क़िस्म का कोई फ़िक़्रह या कलिमा नहीं मिलेगा। जिससे इस बातिल नतीजे को तक़वियत मिल सके। इन सबकी माअनी-ख़ेज़ ख़ामोशी ये साबित कर रही है कि आया ज़ेर-ए-बहस का मसअला कफ़्फ़ारा के साथ दौर का वास्ता भी नहीं है। जब मोअतरिज़ के इस्तिदलाल की बुनियाद इन्जील जलील की किसी एक आयत पर भी नहीं तो उनकी ज़िद और हट धर्मी में क्या शक रह गया। ھاتو برھا نکمہ ان کنتمہ صادقین

आया ज़ेर-ए-बहस और मसअला तजस्सुम

हमने बाब अव्वल में मौलवी साहब के एतराज़ात को नक़्ल किया है कि जो आपने इस आया शरीफा पर किए हैं। आप अपनी किताब “इस्लाम और मसीहिय्यत” में बड़े तुमतराक़ (शानो-शौकत, ग़ुरूर) के साथ कहते हैं :-

“हम पादरी बरकत-उल्लाह साहब ऐंड पार्टी और उन की मार्फ़त कुल मसीही दुनिया से सवाल करते हैं कि इन्जील मत्ती का ये फ़िक़्रह कि “मसीह ने सलीब पर चिल्ला कर जान दी।” इस चिल्ला कर जान देने के वक़्त भी मसीह मुजस्सम ख़ुदा था या नहीं और उस में और ख़ुदा में कोई मुग़ाइरत तो ना थी फिर चिल्ला कर जान किस ने दी? यहां पहुंच कर हम तो रुक जाते हैं आप ही बताईए कि वो कौन था?”

“अगर तुम ज़बान सोज़”

(सफ़ा 66)

इन अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है कि मौलवी साहब ये ख़याल करते हैं कि मसीही अक़ीदा ये है कि नाउज़ु-बिल्लाह ख़ुदा मस्लूब किया गया। एतराज़ ज़ाहिर करता है कि ये बेचारे निरे मौलवी ही हैं और मसीही अक़ाइद के इल्म और तारीख़ से बिल्कुल कोरे हैं। उनको क्या मालूम कि उन्नीस सौ साल से जम्हूर कलीसिया-ए-जामा ने इस क़िस्म के नज़रिये को कुफ़्र क़रार दे दिया हुआ है। मौलाना ने मसअला तजस्सुम और उलूहियत मसीह को समझा ही नहीं। हमने माना कि आप इन मसाइल को नहीं मानते लेकिन आपको उन मसाइल (जिन पर आप एतराज़ करते हैं) के समझने की कम अज़ कम कोशिश तो करनी चाहिए। आप मेरी किताबों को जहां इस मसाइल का ज़िक्र किया गया है ग़ौर से दुबारा पढ़ें तब आप पर वाज़ेह हो जाएगा कि ये एतराज़ मसीहिय्यत पर सिरे से वारिद ही नहीं होता। इस सिलसिले में हम मोअतरज़ीन की तवज्जोह बिलख़ुसूस अपनी किताब “तौज़ीह-उल-अक़ाइद” के पहले चंद अबवाब की जानिब मबज़ूल करते हैं।

अगर मर्हूम ने मेरी किताब “दीन फ़ित्रत, इस्लाम या मसीहिय्यत” और रिसाला “मसीहिय्यत की आलमगीरी” (जिनका जवाब वो लिखने बैठे थे) बग़ौर मुतालआ किया होता तो उनको मालूम हो जाता है कि हम किस मअनी में ख़ुदा को “ग़ालिब-अला-अल-कुल (غالب علی الکل ) या क़ुदरतों और ताक़तों का मालिक मानते हैं। वो ख़ुद देख लेते कि उनका ये माया नाज़ एतराज़ (जिसका बतकरार इआदा किया जाता है) बिल्कुल बेमाअनी रह जाता है लिहाज़ा हम आपकी तवज्जोह फिर अव्वल-उल-ज़िक्र किताब के सफ़ा 34 और मोख्ख़र-उल-ज़िक्र किताब के सफ़ा 31 की तरफ़ मबज़ूल करने पर ही इक्तिफ़ा करते हैं। عاقل را اشارہ کافی است हमने उनकी किताब में बहतेरा ढ़ूंडा कि कहीं उन्होंने इन सफ़्हों के मज़्मून पर कुछ लिखा हो। लेकिन आपने हर जगह इस अहम और बुनियादी नुक्ते को नज़र-अंदाज कर दिया है। जिसका मतलब ये है कि उनसे इस का कोई जवाब बन नहीं पड़ा और या “तबइयत की कमज़ोरी और अवारिज़ (बीमारीयां, दुख, मर्ज़) की कस्रत” ने उनको अपने मुख़ातिब के नज़रिये को ये समझने की फ़ुर्सत नहीं दी थी।

अगर किताब “इस्लाम और मसीहिय्यत” ख़ाकसार की किताबों के जवाब में लिखी गई थी तो फिर क्या वजह है कि मौलवी साहब ने इन अहम मसाइल कफ़्फ़ारा और तजस्सुम का ज़िक्र करते वक़्त हमारी तस्नीफ़ कर्दा किताबों को नज़र-अंदाज करके दीगर मुनाज़िरीन की कुतुब को लेकर उन पर मुफ़स्सिल बह्स की है? मसलन उलूहियत मसीह की बह्स में आपने एक क़दीम मसीही गीत पर (जो डेढ़ हज़ार साल हुए लिखा गया था और जिसका ज़िक्र तक मेरी कुतुब में नहीं आता) बह्स की है। (सफ़ा 56 ता 57) और पादरी फ़ंडर की किताब मीज़ान-उल-हक़ मत्बूआ 1892 ई॰ का (सफ़ा 59) पादरी हेइरस की किताब का (सफ़ा 56 ता 57) रईस-उल-मुनाज़रिन पादरी अब्दुल हक़ साहब के रिसाले “इस्बात-उल-तस्लीस का (सफ़ा 61 ता 63, 201 वग़ैरह) रिसाला उखुव्वत का (सफ़ा 65) मर्हूम डिप्टी अब्दुल्लाह आथम साहब की जंग मुक़द्दस का (सफ़ा 67) इक़्तिबास करके इनकी इबारतों पर एतराज़ किए हैं। इसी तरह कफ़्फ़ारे की बह्स में आपने पादरी गोल्ड सेक की किताब (सफ़ा 120 ता 121) रिसाला अल-मायदा का (सफ़ा 123) मर्हूम पादरी टॉमस हाइल की किताब का (सफ़ा 123 ता 124) का ज़िक्र के उन पर एतराज़ किए हैं और फिर ख़ाकसार से इनके जवाब का मुतालिबा करते और मुझे मुख़ातिब हो कर कहते हैं कि :-

“पादरी बरकत-उल्लाह साहब, बक़ौल गूँगे की बोली गूँगे की माँ समझे आप ही बतलाईए वग़ैरह वग़ैरह।”

“सफ़ा 124”

“पादरी गोल्ड सेक का ये क़ौल पादरी बरकत-उल्लाह साहब को भी मुसल्लम होना चाहिए। इसलिए अब पादरी साहब हमारे सवालात ठंडे दिल से सुनकर उन पर ग़ौर करें वग़ैरह-वग़ैरह (सफ़ा 120) पादरी अब्दुल हक़ साहब चूँकि मन्तिक़ी तक़रीर किया करते हैं। इसलिए हम उनसे पूछना चाहते हैं वग़ैरह वग़ैरह।” (सफ़ा 61)

नाज़रीन ख़ुदारा आप ही बतलाईए मौलवी साहब इन अस्हाब का जवाब लिखने बैठे थे या ख़ाकसार की किताबों का जिनको आपने कफ़्फ़ारे और तजस्सुम की बह्स के दौरान में बिल्कुल नज़र-अंदाज कर दिया है? आप तो हमको आदाब-ए-मुनाज़रा सिखाने चले थे। (सफ़ा 12, 14, 15) क्या मुनाज़रा और मुबाहिसे के आदाब यही हैं? अगर आप हमारी कुतुब को नज़र-अंदाज ना करते तो हमको आपसे उनको दुबारा बग़ौर मुतालआ करने की नागवार दरख़्वास्त ना करना पड़ती। और अगर आपने मेरी दीगर कुतुब को भी देख लिया होता तो आपको अपनी उम्र की आख़िरी मंज़िल में चंद एक बोसीदा एतराज़ात को अपनी किताब में बार-बार दोहराने की ज़रूरत ना पड़ती। मसलन अगर आप ने मेरा रिसाला “इस्राईल का नबी या जहान का मुनज्जी?” (जिसका ज़िक्र मैंने “मसीहिय्यत की आलमगीरी” के दीबाचे में किया था) देखा होता तो आप (मर्क़ुस 7:24 ता 30 और मत्ती 15:21 ता 28) पर एतराज़ करने की बार-बार ज़हमत ना उठाते। (सफ़ा 22, 157 व 205 वग़ैरह) फिर अगर आपने मेरी किताब “कलिमतुल्लाह की ताअलीम” (जिसका ज़िक्र “मसीहिय्यत आलमगीरी” के दीबाचे (सफ़ा 6) में किया गया है) पढ़ा होता। तो आपको मसीहिय्यत और शरीअत पर बार-बार बह्स ना करना पड़ती। (सफ़ा 13, 88 ता 92, 137 वग़ैरह)

मौलवी साहिबान से अपील

हमने मौलवी सना-उल्लाह साहब और उन के हम-ख़यालों को आया ज़ेर-ए-बहस की सही तफ़्सीर सुना कर उन पर इतमाम-ए-हुज्जत कर दी है पस हम अपना फ़र्ज़ समझते हैं कि हम उनसे फिर एक बार अपील करें कि वो इस अदबी, तज़हीक और तौहीन के लिए और उन नासेज़ा कलिमात के लिए जो उन्हों ने हज़रत कलिमतुल्लाह व रूह-अल्लाह (मसीह) के हक़ में अपनी मन घड़त तावील के ज़ेर-ए-असर रवा रखते हैं बारगाहे-ए-एज़दी में ख़ुशू व खुज़ूअ (आजिज़ी) के साथ तौबा करके ख़ुदा से माफ़ी के तलबगार हों। रोज़ हश्र जिस ख़ुदा के सामने वो जाऐंगे वो उनको मुख़ातिब करके तंबीया करता है :-

أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ يُجَادِلُونَ فِي آيَاتِ اللَّهِ أَنَّى يُصْرَفُونَ الَّذِينَ كَذَّبُوا بِالْكِتَابِ وَبِمَا أَرْسَلْنَا بِهِ رُسُلَنَا فَسَوْفَ يَعْلَمُونَ إِذِ الْأَغْلَالُ فِي أَعْنَاقِهِمْ وَالسَّلَاسِلُ يُسْحَبُونَ فِي الْحَمِيمِ ثُمَّ فِي النَّارِ يُسْجَرُونَ

तर्जुमा : यानी क्या तुमने उन लोगों के हाल पर नज़र नहीं की जो ख़ुदा की आयतों में झगड़े निकाला करते हैं किधर को बहके चले जा रहे हैं? ये वो लोग हैं जो किताब को झुटलाते हैं और उन किताबों और सहीफ़ों को भी झुटलाते हैं जो हमने अपने रसूलों और नबियों की मार्फ़त भेजे हैं। सो आख़िरकार उनको इस झुटलाने का नतीजा मालूम हो जाएगा। जब कि तौक़ उनकी गर्दनों में होंगे। और तौक़ के इलावा ज़ंजीरें, पानी पिलाने के लिए घसीटते हुए उनको जलते पानी में ले जाऐंगे। फिर आग में झोंकें जाऐंगे। (सूरह मोमिन आयात 73 ता 75)

मौलवी साहब ने फ़रमाया है “यहूदी मसीह के हक़ में अपनी नाराज़गी का इज़्हार ऐसे संगीन लफ़्ज़ों में करते थे कि :-

" اگر گوئم زباں سوزہ "

सफ़ा 39

लेकिन इस पर भी आपने नाशाइस्ता अल्फ़ाज़ अपने क़लम से निकाले। आप ना सिर्फ यहूद के संगीन लफ़्ज़ों को बल्कि मिर्ज़ाए क़ादियानी को भी जो बक़ौल आपके “दुरुश्त कलामी में महारत नामा रखते थे।” अहले-हदीस 15 मई 1942 ई॰ मात कर गए। क्योंकि जहां तक हमको उनकी तस्नीफ़ात पढ़ने का नागवार इत्तिफ़ाक़ हुआ है सबने अपने एतराज़ात को अल्फ़ाज़ की शक्ल (सफ़ा 107) तक ही महदूद रखा था। किसी के हज़यान ने आपकी तरह इस से तजावुज़ करके एक घिनौनी “तस्वीर की शक्ल” (सफ़ा 107) इख़्तियार ना की थी।

हम पैरवी क़ैस ना फ़र्हाद करेंगे

हम तर्ज़-ए-जिन्नों और ही ईजाद करेंगे

मौलवी साहब ने अपनी किताब “इस्लाम और मसीहिय्यत” में मसीह मस्लूब की एक निहायत भोंडी और दिल आज़ार तस्वीर शाएअ की थी। (सफ़ा 109) जिस पर हमने अख़्बार उख़ूवत लाहौर में सदाए एहतिजाज बुलंद की थी। लेकिन मौलवी सना-उल्लाह साहब अपने शर्मनाक फ़ेअल पर नादिम होने के बजाय,

“उज़्र गुनाह और बदतर अज़गना” निहायत बेबाकी से फ़ख्रिया कहते हैं “इस तस्वीर में मसीह को मौलवियाना शक्ल में दिखाया गया है। मसलन दाढ़ी घनी, मूँछें शरई और सर पर बाल रखे हुए अच्छी सालेहाना (नेक) शक्ल नज़र आती है।”

(अहले-हदीस 26 फरवरी जून 1942 ई॰)

क़ादियानीयों ने बदीं ख़याल कि मबादा मौलवी सना-उल्लाह मसीह की तौहीन में हमसे सबक़त ले जाये क़ादियान के सरकारी गजेट अल-फ़ज़ल में इस को शाएअ कर दिया क्योंकि بحکم اھل بیت اعرف فی البیت (घर वाले घर की बात जानते हैं) ये दोनों एक दूसरे के बातिन से वाक़िफ़ हैं। इस तर्ज़-ए-अमल से दोनों अख़बारों के एडीटरों ने इस मकरूह हरकत से अपना और दीगर नाम निहाद मुसलमानों का दिल ख़ुश करके हज़रत रूह-अल्लाह से क़सावत (बेरहमी) क़ल्बी का सबूत दे दिया।

मौलवी सना-उल्लाह साहब भूल गए कि अंग्रेज़ी हफ़्ता-वार अख़्बार पीर्सन ने अपनी 10 फरवरी 1934 ई॰ की इशाअत में रसूल अरबी, बीबी आईशा और बिलाल की तसावीर शाएअ की थीं जिस पर हिन्दुस्तान के तूल व अर्ज़ में कुहराम मच गया था। तमाम इस्लामी जराइद ने (जिसमें आप भी शामिल थे) क़ियामत सुग़रा बरपा कर दी थी। इस वावेला का नतीजा ये हुआ था कि गर्वनमैंट ने इस अख़्बार के मज़्मून को ज़ब्त (क़ाबू) कर लिया था। क्योंकि इस से मुसलमानों के दिल मजरूह हुए थे। लेकिन मसीही कलीसिया अवामुन्नास में ज़बरदस्त हैजान और बेचैनी पैदा करके गर्वनमैंट से सज़ा का मुतालिबा करने का वतीरा इख़्तियार नहीं करती।

लतीफ़ तबा को लाज़िम है सोज़-ए-ग़म भी लतीफ़

बुलंद आतिश कल का कभी धुवां ना रहा

हम अपने आक़ा और मौला रब्बना अल-मसीह के उस्वा हसना पर चल कर मर्हूम मौलवी सना-उल्लाह साहब और आँजहानी मिर्ज़ाए क़ादियानी की ज़ियारत के हक़ में ख़ुदा-ए-ग़फ़ूरुर-रहीम की बारगाह में दस्त बदुआ हैं कि ख़ुदा इन सबको माफ़ फ़रमाए और वो कअर-ए-मज़िल्लत से निकल कर नजात अबदी हासिल करें। आमीन सुम्मा आमीन।

मर्हूम मौलवी सना-उल्लाह साहब हदीस की हुज्जियत के क़ाइल और इमाम बुख़ारी के पुजारी थे। इमाम साहब की صح الکتب بعد از کتاب الله (क़ुरआन के बाद सहीह किताब बुखारी) के चौबीसवें पारे किताब-उल-लिबास में चौदह हदीसें मौजूद हैं जिनमें तस्वीरों की मज़म्मत और तस्वीर बनाने वालों की सख़्त सज़ा का ज़िक्र है जिसको पढ़ कर बदन पर रौंगटे खड़े हो जाते हैं। लिखा है कि रसूल-अल्लाह (मुहम्मद स॰) ने इर्शाद फ़रमाया कि “जिस घर में कुत्ता हो या तस्वीरें हों वहां रहमत के फ़रिश्ते नहीं आते।” और कि “जो लोग तस्वीरें बनाते हैं क़ियामत के रोज़ उनको अज़ाब दिया जाएगा।” अब्दुल्लाह बिन मसऊद से रिवायत है कि “मैंने रसूल-अल्लाह (मुहम्मद स॰) से सुना कि सबसे ज़्यादा सख़्त अज़ाब क़ियामत के दिन तस्वीरें बनाने वालों को दिया जाएगा।” मौलवी साहब ने तो ये ख़याल किया था कि ये मकरूह तस्वीर उनकी “नजात का ज़रीया” होगी। (सफ़ा अलिफ़) लेकिन मुन्दरिजा बाला अहादीस की रु से वो जहन्नम के शदीद तरीन अज़ाब के मुस्तहिक़ हो गए। इस क़िस्म के ज़ोव-अल-जहीन (ذووالجہین) क़ुरआन व हदीससे मुनहरिफ़ हो कर ये ख़याल ना करें कि वो मुवाख़िज़ा ख़ुदावंदी से छूट जाऐंगे। चुनान्चे अब्दुल्लाह बिन उमर रिवायत करते हैं कि “एक मर्तबा जिब्राईल ने हज़रत से आने का वाअदा किया और बहुत देर हो गई। रसूल ख़ुदा को बड़ा इंतिज़ार हुआ। आख़िरकार आप घर से बाहर निकले तो वहां जिब्राईल मिले। आपने देर से आने की शिकायत की। जिब्राईल ने कहा मुझे इसलिए घर में आने का ताम्मुल हुआ कि जहां तस्वीर हो या कुत्ता हो वहां हम नहीं आते।” जब रहमत के फ़रिश्ते रसूल-अल्लाह (मुहम्मद स॰) के घर में ना गए तो इन लोगों की क्या हक़ीक़त है कि इनको जहन्नम का शदीद तरीन अज़ाब ना मिलेगा? मौलवी साहब “इस्लाम और क़ुरआन मजीद से मुदाफ़अत।” (सफ़ा अलिफ़) का आक़िबत ना अंदेशी से निराला तरीक़ा ईजाद किया। (सफ़ा 107) और दूसरों का शुगून बिगाड़ने की ख़ातिर अपने लिए आक़िबत का अज़ाब मोल ले लिया। इस में वो आँजहानी मिर्ज़ाए क़ादियानी (ग़फ़रुल्लाह ज़ुनुब غفر الله ذنوبہ) के नक़्शे क़दम पर चले। (रिव्यू आफ़ रिलिजियंस, क़ादियान बाबत फरवरी 1942 ई॰ सफ़ा 55) और क़ुरआन को भूल गए। نَسُواْ اللّهَ فَنَسِيَهُمْ إِنَّ الْمُنَافِقِينَ هُمُ الْفَاسِقُونَ वो ख़ुदा को भूल गए। पस ख़ुदा भी उनको भूल गया। बेशक वो फ़ासिक़ हो गए। (सूरह तौबा आयत 68)

समझाएँ जाऐंगे तुम्हें हर लहज़ा हर घड़ी

मानो ना मानो इस का तुम्हारा इख़्तियार है

मौलवी सना-उल्लाह और मसीह की दुआ-ए-मग़्फ़िरत

मौलवी सना-उल्लाह साहब एक जगह लिखते हैं :-

“मसीह को दुश्मनों ने सताया और आपने ऐसे वक़्त में माफ़ किया जब कि आप बदला ना ले सकते थे। मगर रसूल अरबी (मुहम्मद स॰) ने अपने ज़ालिम दुश्मनों को ऐसी हालत में माफ़ किया जब कि आप अबरोए चश्म के एक इशारे से सब का क़त्ल-ए-आम करा सकते थे।”

تواضع زگردن فرازاں نکوست

گداگر تواضع کند خوئے اوست

(सफ़ा 165)

हम इस बात से क़त-ए-नज़र करते हैं कि आपने हज़रत रूह-अल्लाह (मसीह) की शान में यहां और (सफ़ा 48) और दीगर मुक़ामात में मिर्ज़ाए क़ादियानी की तरह सब व शितम रवा रखा है। मौलाना का मतलब ये है कि सिर्फ उसी शख़्स की दुआ-ए-मग़्फ़िरत ख़ुदा के हुज़ूर क़ाबिल-ए-क़ुबूल और इन्सान के नज़्दीक क़ाबिल-ए-तहसीन है जिसमें बदला लेने की ख़्वाहिश और ताक़त हो। और इस के बावजूद वो बदला ना ले कलिमतुल्लाह (मसीह) में जज़्बा इंतिक़ाम तो नहीं था। क्योंकि आप इस को ना सिर्फ मकरूह बल्कि हराम समझते थे। (मत्ती 5 बाब, 18 बाब, मर्क़ुस 11:25 वग़ैरह) गो आप बदला लेने पर क़ुद्रत और इख्तियार रखते थे। (मत्ती 26:53, यूहन्ना 10:17, फ़िलिप्पियों 2:8 वग़ैरह) पस आपकी ये शर्त भी पूरी हो गई लेकिन आपका मफ़रूज़ा जो इस एतराज़ की बिना है ग़लत है। देखिए जब रसूल-अरबी (मुहम्मद स॰) और मुसलमानों पर मक्की ज़माने में तरह तरह के मज़ालिम ढाए गए तो आप उनको मुनज्जी आलमीन (मसीह) का नमूना दिखला कर तसल्ली देते और फ़र्माते “तुमसे पहले एक नबी थे। उनकी क़ौम ने उस को इस क़द्र मारा कि ख़ून आलूद कर दिया और वो नबी अपने मुँह पर से ख़ून पोंछते जाते और फ़र्माते जाते थे, ऐ अल्लाह मेरी क़ौम की ख़ताओं को बख़्श दे क्योंकि वो नहीं जानते।” (बुख़ारी जिल्द सोम सफ़ा 249) जब आपको जंग उहद में कुफ़्फ़ार के हाथों शिकस्त मिली और आपका सर और चेहरा ज़ख़्मी किया गया और आपके दाँत तोड़ दिए गए क्या आपका सब्रो बर्दाश्त उस ज़माने में आपके फ़ारसी शेअर के मिस्दाक़ था और आपकी तवाज़अ “गदायाना” थी।

मौलवी साहब ग़लत फ़र्माते हैं कि रसूल अरबी (मुहम्मद स॰) ने फ़त्ह मक्का के रोज़ अपने दुश्मनों को माफ़ किया। उस रोज़ आपने सियासी तदबीर और दूर अंदेशी से काम लेकर साकनीन मक्का को पनाह दी थी। हक़ीक़त ये है कि आपने बदतरीन दुश्मनों को माफ़ नहीं किया था बल्कि उन ख़ून हदर कर दिया और हुक्म दिया था कि उनको जहां पाओ मार डालो। इन दुश्मनों में मर्द और औरतें दोनों शामिल थीं। क्या आँहज़रत ने जंग बद्र की फ़त्ह के बाद अबु-जहल, नज़्र बिन हारिस, उक़्बा बिन मईत, वग़ैरह बदतरीन दुश्मनों को माफ़ कर दिया था? क्या कअब बिन अशरफ़, हई बिन अख़्तब, सलाम बिन अबी अलहक़ीक़ वग़ैरह माफ़ किए गए थे? क्या यहूद के क़बीला बनी क़ुरैज़ा के तमाम मर्द क़त्ल नहीं किए गए थे? अगर मौलवी साहब तारीख़ मुहम्मदी से इस दर्जा नावाक़िफ़ हैं तो हम उनकी तवज्जोह मशारिक़-उल-अनवार की अहादीस नंबर 878, 879, 1814, 1891, 1892, वग़ैरह की तरफ़ मबज़ूल करते हैं। मौलवी साहब ज़रूर इन वाक़ियात से वाक़िफ़ हैं। लेकिन अपने फ़तवे को भूल गए कि “मुंसिफ़ मिज़ाज लोग मज़्हबी मबाहिस में ख़ासकर इख़्फ़ाए वाक़ियात करना (वाक़ियात छुपाना) जुर्म अज़ीम समझते हैं।” (सफ़ा 23)

इन्जील जलील और बुख़ारी शरीफ़ दोनों हज़रत इब्ने-अल्लाह (मसीह) की दुआ-ए-मग़्फ़िरत का ज़िक्र करती हैं जो आपने अपने दुश्मनों के हक़ में की थी। हमें यक़ीन है कि वो अब भी आस्मान पर मर्हूम मौलवी साहब जैसे दुश्मनों के लिए दुआ-ए-मग़्फ़िरत करते हैं। हमारी भी यही दुआ है कि ख़ुदा मर्हूम के गुनाहों को माफ़ फ़रमाए और उस पर अपनी रहमत के दरवाज़े खोल दे।

اللھمہ المفتح علیہ ابواب رحمتکہ

हैनरी मार्टिन स्कूल

अलीगढ़

25 मार्च 1957 ई॰

(बरकत-उल्लाह)