The Rev. Allama Barakat Ullah, M.A

Fellow of the Royal Asiatic Society, London

1891-1972


Fatherhood of God & Sonship of Christ

Reply to Objection Mullana Sanaullah Amritsari

अबुव्वत-ए-ख़ुदा और इब्नियत-ए-मसीह

(बजवाबे एतराज़ाते मौलवी सना-उल्लाह साहब मर्हूम अहले-हदीस)

मुसन्निफ़

मर्हूम अल्लामा बरकत-उल्लाह

1966 ई॰

मुसन्निफ़

सेहत-ए-कुतुब-ए-मुक़द्दसा, अनाजील अरबा की क़दामत और अस्लियत कलिमतुल्लाह की तालीम, मसीहिय्यत की आलमगीर, इस्राईल का नबी या जहान का मुनज्जी वग़ैर वग़ैरह


दर याद ग़ारे

वालिद बुजु़र्गवार शेख़ रहमत-उल्लाह मर्हूम व मग़फूर जिनकी इल्म दोस्ती, तलाश-ए-हक़ की तड़प, ईसार नफ़्सी और मक़नातीसी मसीही ज़िंदगी के अनवार की ज़िया पाशियों ने मेरे दिल के ज़ुल्मत-कदा को मुनव्वर कर दिया और मैं

आफताब-ए-सदाक़त के नूर

से फ़ैज़याब हो कर अबदी नजात का वारिस हो गया।

बरकत-उल्लाह

दीबाचा

मौलवी सना-उल्लाह साहब (ख़ुदा उनकी मग़्फिरत करे) ने मेरी चंद किताबों के जवाब में एक ज़ख़ीम किताब “इस्लाम और मसीहिय्यत” लिखी थी। इस किताब की इशाअत के फ़ौरन बाद मैंने अख़्बार उखुव्वत, लाहौर में आँजहानी के एतराज़ात के जवाब मुसलसल मज़ामीन की सूरत में शाएअ किए। ताकि उन पर अपने एतराज़ात की ख़ामी ज़ाहिर हो जाए और वो रहलत करने से पहले हक़ की जानिब रुजू कर सकें।

ये रिसाला उन एतराज़ात के जवाब में लिखा गया है कि जो मौलाना मर्हूम ने अखबार अहले-हदीस में और अपनी किताब “इस्लाम और मसीहिय्यत” में लिखे थे चूँकि अहले इस्लाम बिल-उमूम और अहले हदीस बिल-ख़ुसूस आए दिन इस क़िस्म के एतराज़ात करते रहते हैं, मैंने ये मुनासिब समझा कि उनके माक़ूल जवाब जो अक़्ली और मनकुली दलाईल पर मुश्तमिल हों। फ़ायदा आम की ग़र्ज़ से शाएअ किए जाएं ताकि हमारे मुस्लिम बिरादरान जो हक़ की तलाश में सरगर्दां हैं, इस रिसाले के दलाईल व बुरहान और तोज़िहात को ठंडे दिल से बग़ौर पढ़ें और ख़ुदा की लाज़वाल मुहब्बते बेकरां का एहसास करें जो वो अपने फ़ज़्ल व करम से तमाम गुनेहगार इन्सानों के साथ करता है।

मेरी दुआ है कि इस रिसाले के मुस्लिम नाज़रीन ख़ुदा की बेक़ियास मुहब्बत और अबुव्वत के इंजीली अक़ीदे को सही तौर पर समझ सकें क्योंकि ख़ुदा की मुहब्बत और मसीह की इब्नियत के अक़ीदे बुनियादी तौर पर बाहम्द गिर पैवस्ता हैं और मसीह की इब्नियत का अक़ीदा मोमिनीन की फ़र्ज़न्दियत के अक़ीदे से वाबस्ता है।

मैंने इस मुख़्तसर रिसाले में इन मर्कज़ी इंजीली अक़ाइद को वाज़ेह करने की कोशिश की है ताकि हर शख़्स जो गुनाहों के हाथों लाचार हो कर शैतान-ए-लईन का ग़ुलाम हो चुका है इब्ने-अल्लाह की मुहब्बत का एहसास करे जो फ़हम व इदराक से भी परे है क्योंकि ये मुहब्बत इलाही की मज़हर है और कामिल व अकमल है।

ख़ुदा करे कि किताब के नाज़रीन मुनज्जी आलमीन के मुबारक क़दमों में आकर मेरी तरह निजात-ए-सरमदी हासिल करें।

आमीन सुम्मा आमीन

मेरठ छावनी बरकत-उल्लाह

यक्म मार्च 1966 ई॰


बाब-ए-अव़्वल

अबुव्वत-ए-इलाही का इंजीली मफ़्हूम और इस्लामी मोअतक़िदात

फ़स्ल अव़्वल
जिस्मियत-ए-ख़ुदा का अक़ीदा

हमने अपनी किताब “तौज़ीह-उल-बयान फ़ी उसूल-उल-क़ुर्आन” में लिखा था। इस्लाम में ख़ुदा के निनान्वें (99) नाम हैं। लेकिन इन निनान्वें नामों में “अब्ब” यानी बाप का नाम मौजूद नहीं और ना इस लफ़्ज़ का लतीफ़ और पाकीज़ा मफ़्हूम किसी और नाम से क़ुर्आन में मौजूद है। ख़ुदा के तसव्वुर “अब्ब” या “रब” एक दूसरे से जुदा हैं। पहला तसव्वुर इंजीली है दूसरा तसव्वुर इस्लामी तसव्वुर है। (सफ़ा 16)

इस के जवाब में आँजहानी मौलवी सना-उल्लाह साहब लिखते हैं :-

“बिल्कुल सही फ़रमाया है। अब्ब के मअनी बाप के हैं। बाप के लफ़्ज़ की तश्रीह की ज़रूरत नहीं। अब्ब के मअनी में दो बल्कि तीन मफ़्हूम दाख़िल हैं। मसलन अगर ज़ैद किसी का अब्ब (बाप) है। तो इस का तसव्वुर तीन मफ़हूमों पर मुश्तमिल होगा। (1) ज़ैद ज़ात (बहैसीयत ज़ौ इज़ाफ़त) (2) ज़ैद की बीवी (3) वो तौर जिसका ज़ैद बाप है। जब तक किसी शख़्स की अबुव्वत में इन तीनों मफ़हूमों का तसव्वुर ना हो वो किसी का अब्ब (बाप) नहीं कहला सकता। चुनान्चे इर्शाद है ’’انی یکون لہ ولد ولمہ نکن لہ صاحبة‘‘ (ख़ुदा की औलाद कैसे होगी उस की तो बीवी ही नहीं, कैसी फ़ल्सफ़ियाना और दकी़क़ दलील है। (इस्लाम और मसीहिय्यत सफ़ा 16 ता 17)

(1)

बिचारे मौलवी साहब माज़ूर थे। वो फ़िर्क़ा अहले-हदीस से ताल्लुक़ रखते थे जिसका ख़ुसूसी अक़ीदा ये है कि ख़ुदा जिस्म रखता है। चुनान्चे जहां क़ुर्आन में वारिद है कि ख़ुदा का मुंह है। (बक़रह 109) या ख़ुदा का हाथ है। (माइदा 69) वग़ैरह इनसे वो लफ़्ज़ी मतलब लेते हैं। पस वो मज़्कूर बाला “फ़ल्सफ़ियाना और दक़ीक़ दलील” पेश करते हैं कि ख़ुदा बाप नहीं हो सकता तावक़्ते कि उस की बीवी ना हो।


अहले-हदीस का अक़ीदा ये है कि अल्लाह जिस्म रखता है पस वो सिफ़ात-ए-बारी तआला को बक़ियास हिस्सियात क़ुबूल करते हैं। चुनान्चे अल्लामा शहरस्तानी लिखते हैं कि :-

ومثل مفرو کمش واحمد الجہمی وغیر ھمہ من اھل السنة قالوا معبود ھمہ صورة ذات اعضاء وابعاض ۔۔۔الخ یعنی مضرو کہمش احمد ہجمی

“यानी मज़रू कहमश अहमद हजमी वग़ैरह अहले सुन्नत से इस बात के क़ाइल हैं कि अल्लाह सूरत रखता है जिसके आज़ा भी हैं और अजज़ा भी। ख़्वाह वो रुहानी हों या जिस्मानी। वो इंतिक़ाल (एक जगह से दूसरी जगह जाना) भी कर सकता है कि एक जगह से दूसरी जगह चला जाये। वो बुलंदी पर चढ़ सकता है और नीचे भी उतर सकता है। इस्तिक़रार और तुमकन भी उस को हासिल है। “इस के बाद अल्लामा मज़्कूर लिखते हैं कि क़ुर्आन या हदीस में जो अल्फ़ाज़ इस क़िस्म के वारिद हैं वो सब के लफ़्ज़ी मअनी मुराद लेते हैं” (किताब मिलल व नहल सफ़ा 78) ये मज़र व रकहमश कोई मामूली शख़्स नहीं थे बल्कि इमाम बुख़ारी और इमाम मुस्लिम के उस्ताद थे। अल्लामा ज़हबी मीज़ान-उल-एतिदाल में लिखते हैं कि कहमश सिक़ा हैं, सालिह हैं, हर रोज़ो शब में एक हज़ार रकअत नमाज़ पढ़ा करते थे। इमाम ज़हबी ख़ुद जिस्मियत ख़ुदा के क़ाइल थे।

चुनान्चे लिखा है :-

ولکنہ غلب علیہ مذہب الاثبات ومنافرة التاویل والفضلة عن التنز یہ حتی اشرذ اللک فی طبوہ انحراف شدید اعن اھل التنزیہ ومیلاقویا الی اھل الاثبات

“यानी ज़हबी पर मज़्हब इस्बात ग़ालिब है और तावील से नफ़रत और तंज़िया से ग़फ़लत, जिसने उनकी तबीयत में ऐसा असर किया कि वो अहले तंज़िया (जो अल्लाह को जिस्मियत वग़ैरह से मुनज़्ज़ह (पाक) जानते हैं) से मुनहरिफ़ (खिलाफ) थे और उन लोगों की तरफ़ ज़्यादा माइल थे जो जिस्मियत या लवाज़िम जिस्मियत को ख़ुदा के लिए साबित करते हैं।”


231 हिज्री में ख़लीफ़ा वासिक़ बिल्लाह हारून ने “अहमद बिन नज़्र अन-खज़ाई को जो अहले-हदीस से थे और अमरो नवाही के पाबंद थे बग़दाद में क़ैद करके बुला भेजा और उन से क़ियामत के दिन ख़ुदा की रुयते (दीदार) का सवाल किया। उन्होंने कहा कि रिवायत से रुयते यानी ख़ुदा को आँखों से देखना साबित होती है। और इस की सनद में एक हदीस बयान की, वासिक़ ने कहा कि तू झूट बोलता है। उन्होंने जवाब दिया कि तू झूट बोलता है, वासिक़ ने कहा कि अफ़्सोस है कि ख़ुदा को महदूद और मुजस्सम और मकान का मुक़य्यद और देखने वाले की आँखों में समा जाने वाला समझता है। तू क़तई कुफ़्र कर रहा है और ख़ुदा की सिफ़ात को नहीं समझता। फ़िर्क़ा मोतज़िला के फ़िक़हियों ने जो वहीं बैठे थे उनके क़त्ल का फ़ौरन हुक्म दे दिया। ख़लीफ़ा ने वहीं तल्वार मँगवाई और कहा कि जब मैं उसे मारने के लिए खड़ा हूँ कोई शख़्स मेरी मदद ना करे क्योंकि जो क़दम मैं इस के क़त्ल के लिए उठाऊँगा उनका सवाब मुझे मिलेगा। ये शख़्स एक ऐसे ख़ुदा को मानता है जिसको हम नहीं मानते और ना उस जैसी सिफ़ात के क़ाइल हैं। अहमद तौक़ ज़ंजीर पहुंचे चमड़े के बिछौने पर बिठाए गए और ख़लीफ़ा ने अपने हाथ से उनकी गर्दन मारी और हुक्म दिया कि उनका सर बग़दाद में भेज दिया जाये और उनका जिस्म सराय में सूली दे दिया जाये। उनका सर और जिस्म छः बरस तक लटका रहा। उनके सर के लिए एक चौकीदार मुक़र्रर कर दिया जो उस को नेज़े से क़िबला-रूख होने नहीं देता था।”

(तारीख़-उल-खुलफ़ा सफ़ा 228)

मुम्किन है कि कोई ये कहे कि ये तो अस्लाफ़ के अक़्वाल हैं लिहाज़ा हम दौर-ए-हाज़रा के मौलवी वहीद-उद्दीन साहब हैदराबादी (जिन्हों ने सहाह सित्ता का तर्जुमा किया है) की किताब हदियतुल-महदी से ज़ेल की इबारत हद्या नाज़रीन करते हैं। जगह की क़िल्लत की वजह से अरबी इबारत के तर्जुमे पर इक्तिफ़ा किया गया है। आप लिखते हैं,

“ख़ुदा की बहुत सी सिफ़ात शराअ (शरीअत) में वारिद हैं। हम सब के साथ ख़ुदा को मौसूफ़ जानते हैं, ना इन्कार करते हैं और ना तश्बीह देते हैं। इस की दो किस्में हैं :-

एक ज़ाती हैं जो क़दीम और अज़ली हैं। मसलन हयात, ग़म, क़ुद्रत और इरादा। मशीयत, जलाल, इज़्ज़त सुनना, देखना, बोलने की क़ुव्वत, दूसरी क़िस्म की सिफ़ात फ़अली हैं, जो हादिस हैं। (यानी जो पहले ना थीं, लेकिन अब मौजूद हो गई हैं) मसलन


कलाम, बैठना, हँसना, उतरना, चढ़ना, आना, जाना, दोनों हाथ बुलंद करना, क़दम फेरना, नज़दीकी, दूरी, बिछाना, सांस लेना, हैरान होना, ख़ुश होना, बश्शाश होना, ग़ज़ब, ग़ैरत, किसी की बात पर रंजीदा होना, शर्माना, ठट्ठा करना। मस्ख़रा पन, मक्र, फ़रेब देना, तरद्दुद, फ़ज़्ल, रहमत, हीला करना, आराम करना, इख़्तियार, अम्र, नही, ख़ुश-तबई, मुसाफ़ा करना, इत्तिला (आकर देखना) ऊपर चढ़ कर देखना, इस्तिदराज, हुब्ब, बुग़्ज़, रज़ा, कराहियत, ग़ुस्सा, दुश्मनी, दोस्ती, टहलना, दौड़ना, पैदा करना, वजूद में लाना। इंदीया (पास) तक़लीब क़ुलूब, ख़ुशख़बरी, धमकी, बाअज़ मख़्लूक़ को अपना कलाम सुनाना। अर्श के इलावा बाअज़ जगहों पर आरिज़ी तजल्ली दिखाना और जिस सूरत में चाहे ज़ाहिर होना.... ख़ुदा जिस ज़बान में चाहे कलाम करता है, सौत यानी आवाज़ हर्फ़ सब इस कलाम में होता है। .... ख़ुदा के कलाम की सिफ़त सुकूत की नफ़ी है। ... ख़ुदा ने हज़रत मूसा से कलाम किया। ऐसा कि हज़रत मूसा ने उस की आवाज़ को सुना। ... ख़ुदा एक शेय है लेकिन वो और चीज़ों की मानिंद नहीं है। वो शख़्स है और आदमी लेकिन दीगर अश्ख़ास और आदमियों की तरह नहीं है। ... ख़ुदा ऊपर की जानिब है। और उस का मकान अर्श है। मुतकल्लिमीन का यह कहना कि ख़ुदा किसी जिहत व मकान में नहीं है बातिल है। क्योंकि हर मौजूद के लिए मकान का होना लाज़िम है। और जिहत भी ख़ुदा के लिए साबित है। ... ख़ुदा की सूरत है, मगर उस की शक्ल सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत है, वो इस बात पर क़ादिर है कि वो जिस सूरत में चाहे ज़ाहिर हो कर अपनी तजल्ली दिखाए। ख़ुदा ने आदम को अपनी सूरत पर पैदा किया। ख़ुदा का चेहरा है। और आँख, हाथ, कफ़, मुट्ठी, उंगलियां, बाज़ू, सीना, पहलू, कूल्हा, पांव, पिंडली, कंधा वग़ैरह भी हैं। लेकिन ये सब ऐसी हैं जो उस की शान के शायान हैं इन बातों के होने से ख़ुदा से तश्बीह लाज़िम नहीं आता। क्योंकि तश्बीह तब हो सकती है अगर हम कहें कि उस का हाथ हमारे हाथ जैसा है। ... इसी तरह ख़ुदा का चढ़ना और अर्श पर बैठना और वहां ठहरना, मगर ये बैठना ख़ुदा का ऐसा है जो उस की शान के लायक़ है। ... हमारे शेख़ इब्ने अल-कय्यूम ने कहा कि अज़रूए शरह और इशारा ख़ुदा की तरफ़ हिस्सान साबित है। ... ख़ुदा का नुज़ूल व साइद भी सिफ़ात-ए-अफ़आल से है। क्योंकि ख़ुदा हर शब को दुनिया वाले आस्मान पर बज़ात-ए-ख़ास उतरता है तो क्या अर्श ख़ाली हो जाता है? इस में दो क़ौल हैं। हाफ़िज़ इब्ने मंदा तो इस बात का क़ाइल है कि जब ख़ुदा अर्श से उतरता है तो अर्श ख़ाली हो जाता है। और यही मज़्हब इमाम अहमद बिन हम्बल का भी है। मगर शेख़ इब्ने तैमिया का मसलक ये है कि अर्श बिल्कुल ख़ाली नहीं होता। ख़ुदा इस


तरह अर्श से उतरता है जिस तरह हम मिंबर पर से उतर आते हैं। और हदीस-ए-नुज़ूल है कि फिर ख़ुदा अपनी कुर्सी पर चढ़ जाता है और अल्फ़ाज़ सऊद और नुज़ूल जाना और आना से ऐसे उमूर मुराद हैं जो हरकत और इंतिक़ाल (जगह की तब्दीली) के बग़ैर ना-मुम्किन हैं। ... हाँ ख़ुदा की हरकत और उस का इंतिक़ाल (जगह बदलना) हमारी हरकत और सुकून के मुशाबेह नहीं। ... अगर हम कहें कि ख़ुदा हरकत और सुकून पर क़ादिर नहीं तो ख़ुदा का अजुज़ (कमजोरी, लाचारी) लाज़िम आता है। “

पस अहले-हदीस किया मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) और क्या मुताख्खिर्रीन ख़ुदा की जिस्मानियत के क़ाइल हैं। मौलवी सना-उल्लाह साहब मर्हूम कहने को तो ग़ैर-मुक़ल्लिद थे। लेकिन तक़्लीद के परले दर्जे के हामी हो कर इसी क़िस्म के ख़यालात के पैरौ (मानने वाले) हैं। (देखो उनकी तसानीफ़ हक़ प्रकाश सफ़ा 230 वग़ैरह)

इन्ही ख़यालात की बिना पर मौलवी साहब की मज़्कूर बाला दलील भी क़ायम है बल्कि मौलाना तो अपने उस्तादों पर भी सबक़त ले गए हैं। चुनान्चे दाऊद जुवारबी से हिकायत है :-

انہ تعالیٰ اعفونی عن الفرج اللحیة واسا لونی عمادرا ء ذالکہ وقال ان معبود ہ جسمہ ولحمہ ومعلہ وجوارح راعضہاء من یدرجل وراس ولسان وعینین واذ نین

यानी “वो कहता था कि लहिया और फ़र्ज के सवाल से तो माफ़ रखू (यानी ये ना पूछो कि ख़ुदा की दाढ़ी है या नहीं और अलामत-ए-रजूलियत और अनासियत है कि नहीं) और जो चाहो पूछ लो। उस का ये भी मक़ूला है कि ख़ुदा का जिस्म भी है। गोश्त भी है। ख़ून भी है और आज़ा जवारेह भी हैं। हाथ, पैर, सर, ज़बान, आँखें, कान सभी कुछ हैं।”

पस जहां मौलवी साहब के उस्ताद ने कहा था कि ख़ुदा की रजूलियत और अनासियत के सवाल का जवाब देने से मुझे माफ़ करो, वहां मौलवी साहब की दलील की बुनियाद साफ़ साबित करती है कि मौलवी साहब के ख़याल में ये अलामत भी मौजूद हो सकती है क्योंकि आप फ़र्माते हैं कि “जब तक ख़ुदा की अबुव्वत में ये तसव्वुर ना हो वो


किसी का अब्ब (बाप) नहीं कहला सकता।” इसी क़िस्म की दलील को सुनकर किसी शायर ने कहा होगा :-

अक़्ल हर-चंद फ़ज़ाइल नेस्त

जहल हम-ख़ाली अज़दलाइल नेस्त

(2)

सोर गब्बाशी मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी अपने बुलंद आहंग दआवे से पहले अपने आम अक़ाइद के एतबार से वहाबी थे और ख़ुदा की जिस्मानियत के क़ाइल थे। जब आप पर नबुव्वत का रंग चढ़ा और आप स्वदेशी नबी बने बमिस्दाक़ “एक करेला और दूसरा नीम चढ़ा” आप वहाबियों से भी बढ़-चढ़ कर ख़ुदा की जिस्मानियत के क़ाइल हो गए।

चुनान्चे आपके चंद कश्फ़ और इल्हाम मुलाहिज़ा हों :-

“मैंने ख्व़ाब में देखा कि बईना अल्लाह हूँ। मैंने यक़ीन कर लिया कि मैं वही हूँ। और ना मेरा इरादा बाक़ी रहा और ना ख़तरा। अल्लाह तआला मेरे वजूद में दाख़िल हो गया तो मेरा ग़ुस्सा उस का ग़ुस्सा हो गया। मेरा हुलुम उस का हुलुम हो गया। मेरी हलावत और तल्ख़ी उस की हलावत और तल्ख़ी हो गई। और मेरी हरकत व सकून उसी की हरकत व सकून हो गई और जब मैं इस हालत में मुसतग़र्क़ था तो मैं यूं कह रहा था कि अब हमें अपना निज़ाम-ए-जदीद पैदा करना चाहिए और नई ज़मीन बनानी चाहिए तो मैंने आस्मान व ज़मीन बिला इज्माल पैदा किए जिनमें कोई तर्तीब व तफ़रीक़ ना थी। ... इस तरह से मैं ख़ालिक़ हो गया।” (आईना कमालात-ए-इस्लाम सफ़ा 564 ता 565)

शायद कोई कहे कि ये तो मह्ज़ ख्व़ाब था लेकिन मोअतरिज़ को जानना चाहिए, कि सोर गब्बाशी मिर्ज़ा जी के ख्व़ाब भी अपने अंदर ज़ाहिरी और माद्दी वाक़इयत का रंग रखते थे। चुनान्चे आप अपनी माया नाज़ किताब हक़ीक़त-उल-वही में लिखते हैं :-

एक दफ़ाअ तम्सीली तौर पर मुझे ख़ुदा तआला की ज़ियारत हुई और मैंने अपने हाथ से कई पेशनगोईयाँ लिखीं जिनका ये मतलब था कि ऐसे वाक़ियात होने चाहिऐं। तब मैंने वो काग़ज़ दस्तख़त कराने के लिए ख़ुदा तआला के सामने पेश किया और अल्लाह तआला ने बग़ैर किसी ताम्मुल के सुर्ख़ी की कलम से इस पर दस्तख़त किए और दस्तख़त करने के वक़्त क़लम को छिड़का जैसा कि जब क़लम पर ज़्यादा स्याही आ जाती है तो इसी तरह पर झाड़ देते हैं और फिर दस्तख़त कर दिए और मेरे पर इस वक़्त निहायत रिक़्क़त का आलम था इस ख़याल से कि किस तरह ख़ुदा तआला का मेरे पर फ़ज़्ल और करम है कि जो कुछ मैंने चाहा बिला-तवक़्कुफ़ अल्लाह तआला ने इस पर दस्तख़त कर दिए और उसी वक़्त मेरी आँख खुल गई। और इस वक़्त मियां अब्दुल्लाह संवरी मस्जिद के हुजरे में मेरे पैर दबा रहा था कि उसके रूबरू ग़ैब से सुर्ख़ी के क़तरे मेरे कुरते और उसकी टोपी पर भी गिरे और अजीब बात ये है कि इस सुर्ख़ी के क़तरे गिरने और क़लम के झाड़ने का एक ही वक़्त था। एक सैकिण्ड का भी फ़र्क़ ना था। ... मैंने ये सारा क़िस्सा मियां अब्दुल्लाह को सुनाया और उस वक़्त मेरी आँखों से आँसू जारी थे। अब्दुल्लाह जो इस रुयते (दीदार) का गवाह है उस पर बहुत असर हुआ और उसने मेरा कुरता बतौरे तबर्रुक अपने पास रख लिया जो अब तक उस के पास मौजूद है।” (हक़ीक़त-उल-वही सफ़ा 255) इस इबारत से ज़ाहिर है कि मिर्ज़ा जी ख़ुदा की जिस्मानियत के क़ाइल थे। चुनान्चे गो आप ख्व़ाब देख रहे हैं। लेकिन हक़ीक़ी तौर पर यहां काग़ज़ भी है। सुर्ख़ रोशनाई भी है। क़लम भी है। ख़ुदा क़लम को हाथ से छिड़कता भी है। ख़ुदा के दस्तख़त भी हैं और गूरू जी के कुरते और चेले की टोपी पर सुर्ख़-रंग के माद्दी धब्बे भी वाक़ई और हक़ीक़ी ज़ाहिरी तौर पर मौजूद हैं।

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1नाज़रीन सोर गब्बाशी “सुल्तान-उल-क़लम” की उर्दू मुलाहिज़ा फरमाएं। क़ादिर-उल-कलाम साहिबे वही ने मुज़क्कर को मुअन्नस बना दिया है। (बरकत उल्लाह)

एक और ख्व़ाब में आँजहानी फ़र्माते हैं :-

“एक ख्व़ाब में क्या देखता हूँ कि ख़ुदा तआला की अदालत में हूँ। मैं मुंतज़िर हूँ कि मेरा मुक़द्दमा भी है। इतने में जवाब मिला कि ऐ मिर्ज़ा सब्र कर हम अनक़रीब फ़ारिग़ होते हैं। फिर एक दफ़ाअ क्या देखता हूँ कि कचहरी में गया हूँ तो अल्लाह तआला एक हाकिम की सूरत पर कुर्सी पर बैठा हुआ है और एक तरफ़ एक सर रिश्तेदार है कि हाथ में एक मसिल लिए हुए पेश कर रहा है। हाकिम ने मसिल उठा कर कहा कि मिर्ज़ा हाज़िर है तो मैंने बारीक नज़र से देखा कि एक कुर्सी उस के एक तरफ़ ख़ाली पड़ी हुई मालूम हुई। उसने मुझे कहा कि इस पर बैठो और उस ने मसिल हाथ में ली हुई है इतने में, मैं बेदार हो गया।” (अल-बद्र जिल्द दोम नम्बर 6 1903 ई॰ व मुकाशफ़ात सफ़ा 28 ता 29)

इस से ज़ाहिर है कि सोर गब्बाश (मिर्ज़ा जी) के ख़याल में ख़ुदा जिस्म रखता है और कुर्सी पर बैठ कर क्लरकों की इमदाद से अदालत करता है और मुक़द्दमात के झमेलों में इस क़द्र फंसा हुआ है कि ब-सद मुश्किल उस को बात करने की फ़ुर्सत मिलती है।

शायद कोई फिर कहे कि ये भी ख्व़ाब ही था। पस हम मिर्ज़ा जी के अल्फ़ाज़ से साबित करते हैं कि मिर्ज़ा जी आइन्दा जहान के हालात और बाशिंदगान को माद्दी और जिस्मानी समझते थे। चुनान्चे आप एक जगह लिखते हैं : (नक़्ल कुफ़्र कुफ़्र नबाशिद)

“मैं उसे (यानी हज़रत मसीह को) अपना एक भाई समझता हूँ। अगरचे ख़ुदा तआला का फ़ज़्ल मुझ पर उस से बहुत ही ज़्यादा है और वो काम जो मेरे सपुर्द किया गया है उस के काम से बहुत ही बढ़कर है ताहम मैं उस को अपना भाई समझता हूँ और मैंने उसे बार-बार देखा है। चुनान्चे एक बार मैंने और हज़रत मसीह ने एक ही पियाले में गाय का गोश्त खाया था। इसलिए मैं और वो एक ही जोहर के दो टुकड़े हैं।” (मलफ़ूज़ात-ए-अहमदिया हिस्सा चहारुम सफ़ा 199 मर्तबा मुहम्मद मंज़ूर इलाही)

इस अम्र का मज़ीद सबूत कि मिर्ज़ा जी ख़ुदा की जिस्मानियत के क़ाइल थे इस से मिलता है कि आप ख़ुदा की ज़बान के भी क़ाइल थे। चुनान्चे मुसलमानों के एतिक़ाद (कि वही रिसालत मुनक़ते हो गई है) के ख़िलाफ़ आप ये दलील लाते हैं “कोई अक़्लमंद इस बात को क़ुबूल कर सकता है कि इस ज़माने में ख़ुदा सुनता तो है मगर बोलता नहीं? फिर बाद इस के सवाल होगा कि क्यों नहीं बोलता? क्या ज़बान पर कोई मर्ज़ लाहक़ हो गई है?”

(सफ़ा 145 ज़मीमा नस्र-उल-हक़)


ख़ुदा की ज़बान तो अलग रही मिर्ज़ा जी के ख़याल में ख़ुदा तआला रजूलियत की क़ुव्वत का इज़्हार भी करता है। चुनान्चे मिर्ज़ा जी के एक मुरीद-ए-ख़ास क़ाज़ी यार मुहम्मद साहब बी॰ ओ॰ एल प्लेडर अपने ट्रेक्ट नम्बर 34 मौसूम ये इस्लामी क़ुर्बानी (मत्बूआ रियाज़ हिंद प्रैस, अमृतसर) में लिखते हैं :-

“जैसा कि हज़रत मसीह मौऊद ने एक मौक़े पर अपनी हालत ये फ़रमाई है कि कश्फ़ की हालत आप पर इस तरह तारी हुई कि गोया आप औरत हैं और अल्लाह तआला ने रजूलियत की ताक़त का इज़्हार फ़रमाया। समझने वाले के वास्ते इशारा काफ़ी है।”

अस्तग़फिरुल्लाह पस मिर्ज़ा जी “ख़ुदा का बेटा” होने का दावा करते हैं। (तौज़ीह-उल-मराम सफ़ा 27 वग़ैरह) तो वो जिस्मानी माअनों में ही करते हैं। आपका मशहूर इल्हाम है, انت منی بمنزلہ ولدی यानी ख़ुदा कहता है कि “ऐ मिर्ज़ा तू मुझसे वलद के तौर पर है।” यानी तू मुझसे ऐसा रिश्ता रखता है जो मेरे जिस्मानी बेटे की मानिंद है। (हक़ीक़त-उल-वही सफ़ा 86) एक और इल्हाम है, انت منی بمنزلہ اولادی यानी ख़ुदा कहता है कि “तू मेरे नज़्दीक बमंज़िला मेरी औलाद के है।” (अल-बुशरा जिल्द दोम सफ़ा 65) इसी तरह का एक और इल्हाम है “ऐ मिर्ज़ा, तुझमें हैज़ नहीं बल्कि वो बच्चा हो गया है। ऐसा बच्चा जो बमंज़िला इतफ़ाल अल्लाह के है।” (ततिम्मा हक़ीक़त-उल-वही सफ़ा 143) आपका एक और मशहूर इल्हाम है, انت منی وانا منک (हक़ीक़त-उल-वही सफ़ा 74) यानी “ऐ मिर्ज़ा तू मुझसे है और मैं तुझसे हूँ।” (मआज़ अल्लाह) एक इश्तिहार 20 फरवरी 1886 ई॰ में एक लड़के के पैदा होने की पेशगोई करते हुए मिर्ज़ा जी लिखते हैं कि, فرزند دلبند ، گرامی ارجمند مظہر الاول وآخر مظہر الحق والعلا کان نزل من السماء यानी “वो लड़का ऐसा होगा जैसा कि ख़ुद ख़ुदा आस्मान से उतर आया।” एक और दिलचस्प इल्हाम में आप लिखते हैं, انت منی بمنزل اولادی کقو لہ علیہ السلام الخلق عیال الله کقولہ تعد فاذکرو والله کذ کرابا ء کمہ यानी “ख़ुदा को बाप कह कर पुकार सकते हो।” (तफ़हीमात सफ़ा 64)


मज़्कूर बाला चंद इक़्तिबासात इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी हैं कि सोर गब्बाश मिर्ज़ा जी ना सिर्फ ख़ुदा की जिस्मानियत के क़ाइल थे बल्कि मुश्रिकीन व कुफ्फार अरब की तरह ख़ुदा के जिस्मानी बेटों और औलाद के क़ाइल थे।

(3)

आमद बरसर मतलब, आँजहानी मौलवी सना-उल्लाह साहब अपने अक़ीदे जिस्मानियत-ए-ख़ुदा की वजह से हक़ीक़त से कोसों दूर चले गए हैं। अगर क़ुर्आन ऐसी किताब है जो हिक्मत से पुर है। जैसा उस का दावा है (यस आयत) तो ज़ाहिर है कि इस की दलील ऐसी होनी चाहिए जो मुख़ातिब की पोज़ीशन की क़ातेअ हो। पस वाजिब तो ये था कि क़ुर्आन की “फ़ल्सफ़ियाना और दकी़क़ दलाईल” (कि ख़ुदा की औलाद कैसे होगी उस की तो बीवी ही नहीं) लाने से पहले मर्हूम ये साबित करते कि इन्जील जलील में मुक़द्दसा मर्यम बतूल को किसी मुक़ाम पर नाऊजू-बिल्लाह ख़ुदा की बीवी कहा गया है। या जम्हूर कलीसाए जामा का किसी ज़माने में इस क़िस्म का अक़ीदा था। अगर आप ये शहादत पेश करके फ़र्माते कि इन्जील के फ़ुलां मुक़ाम में लिखा है, कि ख़ुदा की बीवी है इसलिए उस की औलाद है। लेकिन क़ुर्आन में लिखा है कि ख़ुदा की औलाद कैसे होगी जब उस की बीवी ही नहीं तो हम इस दलील की पुख़्तगी को मान भी सकते। क्योंकि इज्तिमा-उल-ज़िद्देन (खिलाफ बात का एक बात पर इज्मा होना) अम्र मुहाल (नामुम्किन) है। लेकिन राक़िम-उल-सुतूर को तो ज़्यादा वजूद तलाश बसियार कलीसिया-ए-जामा में इस क़िस्म के ख़याल का सुराग़ भी कहीं नहीं मिला। और ना जनाब मौलवी साहब का फ़र्ज़ था कि अपनी इस क़ुरआनी दलील को क़ायम रखने की ख़ातिर साबित करते कि फ़ुलां इन्जील की आयत या फ़ुलां वक़्त की कलीसिया इस क़िस्म के मर्दूद ख़याल की हिमायत करती है और अगर वो ये नहीं कर सकते तो वो इस दलील की ख़ामी को मुख़लिस मुनाज़िर बन कर मान लेते।

इख़्फ़ा-ए-हक़ीक़त से काम लेकर आँजहानी मौलवी सना-उल्लाह साहब मर्हूम पादरी अली बख़्श साहब पर बोहतान लगा कर कहते हैं कि “पादरी अली बख़्श साहब लिखते हैं कि बाअज़ मसीहियों ने मर्यम को मलिका आस्मानी और ख़ुदा की जोरू कहा है।” (तफ़्सीर जिल्द अव्वल सफ़ा 132, सफ़ा 17)


जब हमने मर्हूम की तफ़्सीर को देखा तो इस में बिपास ख़ातिर क़ुर्आन ये लिखा पाया। “बाअज़ मसीहियों ने मुक़द्दसा मर्यम को मलिका आस्मानी कहा और इस के आगे सोटयां चढ़ाया करते थे। जिससे बाअज़ जाहिल मसीहियों में वही ग़लत ख़याल पैदा हो गया होगा जिसकी तर्दीद क़ुर्आन में की गई है कि ख़ुदा की कोई जोरू है और वो उलूहियत रखती है। इसलिए तस्लीस का जुज़्व है। मुक़द्दस इन्जील भी ग़लतीयों की तर्दीद करती है।” कहाँ मौलवी साहब का ये यक़ीनी क़ौल कि मर्हूम के मुताबिक़ “बाअज़ मसीहियों ने मर्यम को ख़ुदा की जोरू कहा है।” और मर्हूम का अस्ल क़ौल कि शायद “बाअज़ जाहिल मसीहियों में वही ग़लत ख़याल पैदा हो गया होगा कि ख़ुदा की कोई जोरू है।” जिसकी तर्दीद मुक़द्दस इन्जील में मौजूद है कुजा मौलवी साहब का इस ज़न (ख्याल) बातिल को एक तारीख़ी अम्र वाक़िया क़रार देना और कुजा मर्हूम का इस को ज़्यादा से ज़्यादा इम्कान की हद समझना, और फिर मौलवी साहब का इस सफ़ैद झूट को अपनी “फ़ल्सफ़ियाना और दकी़क़ दलील” की हिमायत में पेश करना।

ع۔ چہ دلاور است دزدے کہ بکف چراغ دارد

हमें इस्लामी मुनाज़िरीन की हालत पर तरस आता है कि इन्जील की तालीम के मुक़ाबले में उनके पास क़ुर्आन की दलील साबित करने के लिए इत्तिहाम (तोहमत, इल्ज़ाम) तराज़ी और इख़्फ़ा-ए-हक़ के ओछे हथियारों के सिवा अब और कुछ नहीं रहा।

फ़स्ल दोम

अबुव्वत-ए-इलाही का मफ़्हूम और क़ुर्आन

हक़ तो ये है कि मौलवी साहब आँजहानी ने क़ुरआनी आयत أَنَّى يَكُونُ لَهُ وَلَدٌ وَلَمْ تَكُن لَّهُ صَاحِبَةٌ (अनआम 101) को इस सिलसिले में पेश करके क़ुर्आन पर ज़ुल्म किया है और दीदा दानिस्ता ख़ियानत का इर्तिकाब किया है। क़ुर्आन मजीद ने ये दलील मसीही तसव्वुर-ए-ख़ुदा के ख़िलाफ़ कभी पेश ही नहीं की थी। मर्हूम मौलाना-ए-अमृतसरी को क़ुर्आन दानी और तफ़्सीर नवीसी पर इस क़द्र नाज़ था कि आए दिन बिचारे ख़लीफ़ा क़ादियान को ललकारते रहते थे। लेकिन आपकी क़ाबिलीयत का ये हाल है कि आपको इतना भी इल्म नहीं कि आया (आयत) ज़ेर-ए-बहस किस मौक़ा और महल पर नाज़िल हुई थी और इस का क्या मतलब है।

गर तू क़ुरआँ बदीं कुमत ख़वानी

बब्बरी रौनक मुसलमानी

हक़ीक़त ये है कि इस आयत में क़ुर्आन बुत-परस्त कुफ़्फ़ार मक्का के मुश्रिकाना ख़यालात की तर्दीद करता है। जिस तरह हिंदूओं के पुराणों और दीगर मुश्रिकाना किताबों में देवताओं और देवियों के इख़तिलात, सोहबत, मुजामअत, औलाद वग़ैरह का ज़िक्र पाया जाता है। इसी तरह अरब के मुश्रिकीन जो लात, मनात और उज़्ज़ा वग़ैरह देवी और देवताओं को मानते थे ये ख़याल करते थे कि उनके देवताओं की बीवीयां, बेटे और बेटियां थीं और यह औलाद जिस्मानी तौर पर उनसे पैदा हुई थी। पस इन मुश्रिकाना ख़यालात के ख़िलाफ़ सूरह अनआम में क़ुर्आन मजीद कहता है, “ये (मुश्रिकीन) जिन्नात को अल्लाह का शरीक ठहराते हैं। हालाँकि उसी ने उनको पैदा किया है। और बे-समझे उस के लिए बेटे और बेटियां तराशते हैं। वो पाक है उन बातों से जो वो बनाते हैं। बहुत दूर है। वो आस्मान व ज़मीन का मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) है। उस के बेटा क्यूँ-कर हो गया। हालाँकि उस के कोई जोरू नहीं है और उसने हर शैय को पैदा किया। और वो हर शैय से वाक़िफ़ है। ये है अल्लाह तुम्हारा रब उस के सिवा कोई माबूद नहीं है।” (आयात 100, 102)

जब मौलाना की क़ुर्आन फ़हमी का ये हाल था तो मालूम नहीं आप क़लम उठाने की तक्लीफ़ ही क्यों करते थे।

सीना गर्म नदारी मतलब सोहबत इश्क़

आतिशते नेस्त चौदर महमरा अत ऊद मख़र

आपने इस आयत को जो वाज़ेह अल्फ़ाज़ में बुत व बुत-परस्ती के ख़िलाफ़ है मसीही तसव्वुर ख़ुदा के ख़िलाफ़ पेश करके अपनी कोताह ग़लती और कोताह इल्मी का सबूत दिया है क्योंकि ना तो इन्जील जलील और ना मसीही कलीसिया कभी इस क़िस्म के मुश्रिकाना ख़यालात के नज़्दीक फटकी जिनकी तर्दीद मुन्दरिजा बाला आयात क़ुरआनी में की गई है। इंसाफ़ पसंद नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि मौलवी साहब का इस आयत को पेश करना या तो आपकी अदम वाक़फ़ियत क़ुर्आन पर दलालत करता है और या फिर आप की दीदा व दानिस्ता ख़ियानत का खुला सबूत है। और आपने इब्ने यहूद के नक़्शे क़दम पर चल कर क़ुरआनी आयात को “उनके ठिकाने से बे-ठिकाना” कर दिया है। یحرفون الکلمہ من مواضعہ (निसा आयत 48, माइदा 45)


(2)

मौलवी सना-उल्लाह साहब फ़र्माते हैं कि अल्फ़ाज़ बाप बीवी और बेटा इज़ाफ़ी हैं। पस इनमें से किसी एक के तसव्वुर के लिए दूसरे दो का वजूद लाज़िम आता है लेकिन क़ुर्आन आपकी इस “फ़ल्सफ़ियाना और दकी़क़ दलाईल” की हिमायत नहीं करता देखिए जब उम्मुल मोमिनीन मुक़द्दसा मर्यम बतूल के पास ख़ुदा ने फ़रिश्ता भेजा। और उसने आपको ख़ुशख़बरी सुनाई कि हज़रत कलिमतुल्लाह आपके बतन से पैदा होंगे तो आपने फ़रमाया कि “ऐ मेरे रब। मेरे लड़का क्योंकर होगा, हालाँकि मुझे किसी बशर ने नहीं छुवा।” फ़रमाया ये काम मुझ पर आसान है। इसी तरह अल्लाह जो चाहे पैदा कर सकता है। वो जब कोई काम ठहराता है तो सिर्फ इतना कह देता है कि होजा। सो वो हो जाता है।” (सूरह मरियम रुकुअ 2, आले-इमरान रुकूअ 5) यहां क़ुर्आन मजीद निहायत वाज़ेह तौर पर मौलवी साहब की दलील को काट कर बतलाता है कि बेटे के तसव्वुर के लिए बाप का वजूद लाज़िम नहीं है। और इंजीली अक़ीदा तो ये मानता ही नहीं कि ख़ुदा इस आस्मानी माअनों में किसी का बाप है। क्या मोअतरिज़ की क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला इस क़द्र गिरी हुई है कि वो ख़ुदा के अब्ब (बाप) का तसव्वुर बग़ैर जिस्मानी मतलब के समझ ही नहीं सकते।

क़ुर्आन मजीद से ज़ाहिर है कि अल्फ़ाज़ “अब्ब”, “इब्न”, “उम्म” (बाप, बेटा, माँ) के तसव्वुर के लिए हक़ीक़ी जिस्मानी ताल्लुक़ की ज़रूरत ही नहीं।

चुनान्चे क़ुर्आन साफ़ फ़रमाता है कि “अल्लाह ने तुम्हारी बीवीयों को जिनको तुम माँ कह बैठे हो तुम्हारी सच्ची माँ नहीं बनाया और ना तुम्हारे लेपालक बेटों को तुम्हारा हक़ीक़ी बेटा ठहराया। ये तो तुम्हारे अपने मुँह की बातें हैं और अल्लाह सच्च फ़रमाता है।... नबी की बीवीयां मुसलमानों की माएं हैं।” (अह्ज़ाब रुकूअ 1) क्या इन आयात की मौजूदगी आप के क़ियास के “ख़्याली क़िले पर बम का असर” नहीं करती? आप तो माशा-अल्लाह मुफ़्ती हैं आपको तो मालूम ही होगा, कि इन आयात की रू से इस्लाम में सुल्बी (सगा) बेटे की बीवी हराम है। लेकिन लेपालक की बीवी हराम नहीं बल्कि लेपालक तो किसी का वारिस भी नहीं है।

क़ुर्आन में हज़रत रसूल अरबी के चचा को जिसका असली नाम अब्दुल उज्ज़ा था। “अबू लहब” यानी शोले (आग) का बाप कहा गया है। क्या शोला (आग) की कोई बीवी या बेटा होता है? अगर नहीं तो आप के दावे का क्या हश्र हुआ कि ख़ुदा किसी का बाप नहीं क्योंकि “जब तक किसी शख़्स की अबुव्वत में इन तीनों मफ़हूमों का तसव्वुर ना हो वो किसी का अब्ब नहीं कहला सकता” सच्च है قولکمہ بانوا ھکمہ والله یقول الحق


क़ुर्आन में आठ मुक़ामात में रास्ते के मुसाफ़िर के लिए लफ़्ज़ “इब्न-अल-सबील” यानी सड़क का बेटा वारिद हुआ है। (बक़रह 172 वग़ैरह) अब नाज़रीन इन्साफ़ फ़रमाएं कि क्या कोई मुसाफ़िर लफ़्ज़ी माअनों में सड़क का बेटा हो सकता है और क्या सड़क की कोई जोरू भी होती है?

इसी तरह क़ुर्आन ने अपने वास्ते लफ़्ज़ “उम्मुल किताब” तज्वीज़ किया है (आले-इमरान 5, अनआम 92) और मक्का के शहर को “उम्मूल क़ुरा” कहा है। अब नाज़रीन इन्साफ़ फ़रमाएं कि क्या यहां कोई जिन्सी पहलू मुराद हो सकता है?

बुख़ारी ने सहल बिन सअद से रिवायत की है कि हज़रत अली को अपना नाम “अबू तुराब” बहुत पसंद था और अगर कोई शख़्स आपको इस नाम से पुकारता तो आप बहुत ख़ुश होते थे। वजह तस्मीया (नाम रखने की वजह) ये है कि एक रोज़ आप हज़रत फ़ातिमा से कुछ नाख़ुश हो कर मस्जिद में तशरीफ़ ले आए, और वहीं सो गए, रसूल अल्लाह तशरीफ़ लाए और ख़ुद ब-नफ़्स नफ़ीस आपके बदन मुबारक से मिट्टी पोंछते जाते थे कि उट्ठो “अबू तुराब” (यानी मिट्टी के बाप)

दुनिया-भर के मुसलमान हज़रत रसूल अरबी के मशहूर सहाबी हज़रत अबू हुरैरा के नाम से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं क्योंकि उनसे इतनी हदीसें मर्वी हैं कि किसी दूसरे शख़्स ने इस कस्रत से रिवायत बयान नहीं कीं। चूँकि आप बिल्ली से मुहब्बत रखते थे आपका नाम अबू हुरैरा पड़ गया और ऐसा मशहूर हो गया कि अवामुन्नास उनका असली नाम भी नहीं जानते। क्या आप बिल्ली के हक़ीक़ी बाप किसी तरह हो सकते थे? और क्या बिल्ली की माँ आपकी बीवी हो सकती थी? अला-हाज़ा-उल-क़यास अरबी फ़ारसी उर्दू ज़बानों में इस क़िस्म के बीसियों अल्फ़ाज़ मुस्तअमल होते हैं। मसलन इब्ने लानब, बिंत अल-नअब (बमाअनी अंगूरी शराब) दुख़्त-ए-रज़, अबू लमंहा, (शराब) इबनुल-वक़्त (ज़मानासाज़), अब्ना-ए-ज़माना, अबू-अल-शिफ़ा (शुक्र) बिंत अल-हिजर (जल-परी) वग़ैरह जो इस्तिआरों के तौर पर इस्तिमाल किए जाते हैं लेकिन किसी सही-उल-अक़्ल शख़्स के ख्व़ाब व ख़्याल में भी नहीं आता कि इन अल्फ़ाज़ के लफ़्ज़ी मअनी लें।

सच्च तो ये है कि अर्बाब दानिश ऐसे मज़हकाख़ेज़ दलाईल से अपनी रोज़ाना ज़िंदगी में क़ाइल नहीं हो सकते। हर फ़िर्क़े के बुज़ुर्ग रोज़ाना बातचीत में बीसियों को प्यार की रु से बेटा कहते हैं। और इस लफ़्ज़ से उनकी मुराद हरगिज़ नहीं होती कि वो


सब के सब उनके सुल्बी (सगा) बेटे और शरअन उनकी जायदाद के वारिस हैं। फिर मालूम नहीं कि मोअतरिज़ इन्जील जलील की तालीम पर एतराज़ करते वक़्त मामूली अक़्ल को भी इस्तिमाल क्यों नहीं करते? काश कि आँजहानी अपने क़दीम हरीफ़ सोर गब्बाश दयानंद जी के क़ौल पर ही ध्यान देते कि “जहां मअनी में ग़ैर-इम्कान हो वहां मजाज़ होता है।” (रिग वेद आदि भाष्य भूमिका सफ़ा 100)

आपने ये दलील देते वक़्त क़ुर्आन को क्यों बालाए ताक़ रख दिया। जिसमें लिखा है कि لیس کمثلہ شی कि ख़ुदा की मिस्ल कोई चीज़ नहीं। मुसलमान मुनाज़िरों को याद रखना चाहिए कि :-

अल्फ़ाज़ के पेचों में उलझते नहीं दाना

गोवास को मतलब है गहरे से ना सदफ़ से

किसी ने हज़रत मौलाना रुम की मसनवी की निस्बत कहा है :-

हसत क़ुर्आन दर ज़बां पहलवी

मौलवी सना-उल्लाह साहब ने मसनवी शरीफ़ को देखा होगा आपने इस मशहूर आलम किताब में ये शेअर भी पढ़ा होगा :-

औलिया-ए-इतफ़ाल हक़ अंदाए पिसर
दर हुज़ूर व ग़ैबत आगाह बाख़बर

आप इस पर ग़ौर करके अपनी दलील की बुनियादी ग़लती को जान सकते थे लेकिन जिस शख़्स की अक़्ल मस्जिद के मक्तब की चार-दीवारी से बाहर परवाज़ करने की ताक़त नहीं रखती। वो इन रमूज़ की रूहानियत की बुलंदीयों को कब पहुंच सकता है?

(3)

इस में कुछ शक नहीं कि क़ुर्आन शरीफ़ में मुतअद्दिद आयात मौजूद हैं जिनमें इस बात का बारहा इआदा किया गया है कि ख़ुदा की कोई औलाद नहीं। सूरह इख़्लास में

बताकीद आया है कि, لَمْ يَلِدْ وَلَمْ يُولَدْ यानी ख़ुदा ने ना तो किसी को जना है और ना वो ख़ुद किसी से जना गया है। इन तमाम आयात में लफ़्ज़ वलद इस्तिमाल हुआ है पस ये सबकी सब आयात कुफ़्फ़ारे मक्का के मुश्रिकाना बातिल अक़ीदे के ख़िलाफ़ हैं और इन सब का रू-ए-सुख़न (मुखातब) कुफ़्फ़ार अरब की तरफ़ है जो ये मानते थे कि आम इन्सानों की मानिंद उनके माबूदों के हाँ भी बेटे बेटियां जिस्मानी तौर पर पैदा हुईं। (सूरह साफ़्फ़ात 149, तूर 39, ज़ुखरूफ 15 वग़ैरह) इन बुत परस्तों के ख़िलाफ़ क़ुरआनी आयात में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि ख़ुदा ने किसी को नहीं जना और उस की कोई औलाद नहीं और ना हो सकती है।

नाज़रीन पर आगे चल कर वाज़ेह हो जाएगा कि इन्जील जलील की भी यही तालीम है कि ख़ुदा के हाँ कोई औलाद नहीं हो सकती और उस की ज़ात ऐसे उमूर से पाक मुनज़्ज़ह और बाला है पस ये आयात मसीही अक़ीदे के ख़िलाफ़ पेश नहीं की जा सकतीं। वो सिर्फ़ मुश्रिकाना अक़ीदे के ख़िलाफ़ दलील हो सकती हैं लेकिन मुश्रिकाना अक़ीदा और इंजीली तालीम में बाद-उल-मशरक़ीन है। हाँ ये आयत मिर्ज़ाई अक़ीदे के ख़िलाफ़ पेश की जा सकती हैं क्योंकि जैसा हम ऊपर बतला चुके हैं। सोर गब्बाश मिर्ज़ा जी इस मुश्रिकाना अक़ीदा के पैरू नज़र आते हैं और अपने इल्हामात में जाबजा वही लफ़्ज़ (वलद) इस्तिमाल करते हैं जिसके ख़िलाफ़ क़ुर्आन जिहाद करता है।

क़ुर्आन तीन मुक़ामात में हज़रत मसीह का ज़िक्र करके कहता है कि मसीह ख़ुदा का बेटा नहीं। (मर्यम 7, तौबा 31, निसा 169), लेकिन ये मुक़ामात ख़ुद ज़ाहिर करते हैं कि क़ुर्आन हज़रत मसीह के लिए ये लफ़्ज़ “ख़ुदा का बेटा” इस वास्ते पसंद नहीं करता क्योंकि उस को ये ख़दशा दामनगीर था कि मबादा कुफ़्फ़ारे अरब इस लफ़्ज़ को जिस्मानी माअनों में समझ कर ख़याल करें कि जिस तरह उनके माबूदों के हाँ बेटे हैं इसी तरह ख़ुदा का भी कोई बेटा मसीह है पस क़ुर्आन इस्तिलाह “इब्ने-अल्लाह” को तर्क करके एक और इस्तिलाह वज़ा करता है जो उस के ख़याल में इंजीली मफ़्हूम को बदर्जा अह्सन अदा करती है यानी रूह-उल्लाह की इस्तिलाह चुनान्चे क़ुर्आन ईसाइयों को मुख़ातिब करके कहता है “ऐ अहले-किताब।... मसीह ईसा इब्ने मर्यम अल्लाह का रसूल

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2यहाँ पर अम्र क़ाबिल-ए-ज़िक्र है कि अनाजील अरबा के अरबी, फ़ारसी, और उर्दू तर्जुमों में जहाँ कहीं खुदावंद मसीह की इब्नियत का ज़िक्र आता है वहां लफ्ज़ वलद वगैरह का इस्तिमाल नहीं किया गया। जिस से जिस्मानियत की बू आती है। बरकत-उल्लाह

हैं और ख़ुदा का कलमा हैं जो उसने मर्यम की तरफ़ डाला। वो रूह हैं जो ख़ास ख़ुदा की तरफ़ से इस दुनिया में आए।” (सूरह निसा 169)

यहां क़ुर्आन का रूह-उल्लाह से वही मतलब है जो इन्जील में रूह-उल्लाह से है। दोनों का मतलब वाहिद है। सिर्फ इस्तिलाहात दो हैं गो क़ुर्आन लफ़्ज़ इब्न का इस्तिमाल नहीं करता लेकिन इसके मअनी को सरोक नहीं गर्दानता। दोनों सहफ़-ए-समावी का वाहिद मतलब ये है कि मसीह को फ़र्क़-उल-बशरा मुक़ाम हासिल है गो आप बशर थे। कोई दूसरा ख़ाकी बशर इस मुक़ाबले तक नहीं पहुंचा और ना पहुंच सकता है। (देखो मेरा रिसाला “मसीह इब्ने मर्यम की शान”)

पस अगरचे क़ुर्आन इंजीली इस्तिलाह इब्ने-अल्लाह से गुरेज़ करता है लेकिन वो किसी मुक़ाम में भी इस इस्तिलाह के उस असली और हक़ीक़ी मफ़्हूम की मुख़ालिफ़त नहीं करता जो इन्जील जलील में पाया जाता है। जिसको आगे चल कर हम इंशा-अल्लाह वज़ाहत के साथ बयान करेंगे। इस नुक्ते को वाज़ेह करने के लिए हम एक क़ुरआनी आयत को पेश करते हैं जो सूरह माइदा में है :-

وَقَالَتِ الْيَهُودُ وَالنَّصَارَى نَحْنُ أَبْنَاء اللّهِ وَأَحِبَّاؤُهُ قُلْ فَلِمَ يُعَذِّبُكُم بِذُنُوبِكُم بَلْ أَنتُم بَشَرٌ مِّمَّنْ خَلَقَ يَغْفِرُ لِمَن يَشَاء وَيُعَذِّبُ مَن يَشَاء وَلِلّهِ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ وَمَا بَيْنَهُمَا وَإِل َيْهِ الْمَصِيرُ

यानी “यहूद और नसारा कहते हैं कि हम ख़ुदा के बेटे और उस के चहेते प्यारे हैं। तो ऐ मुहम्मद उनसे कह कि फिर वो तुम्हारे गुनाहों के सबब तुमको अज़ाब क्यों करता है? नहीं। तुम इन्सान हो और ख़ुदा ने जो और बशर पैदा किए हैं उनमें से बशर तुम भी हो। ख़ुदा जिसे चाहे अज़ाब देता है। आसमानों और ज़मीन और जो कुछ इन दोनों में है सब पर अल्लाह ही सल्तनत करता है और सबको उसी की तरफ़ लौट जाना है।” (अल-मायदा आयत 18)

देखिए इस मुक़ाम में क़ुर्आन मसीही इस्तिलाह “ख़ुदा के बेटे” के असली मफ़्हूम पर एतराज़ नहीं करता और ना दलील लाता है कि “ख़ुदा की औलाद कैसे होगी? उस की तो बीवी ही नहीं।” अगर उस को इस इस्तिलाह के मफ़्हूम पर एतराज़ करना मक़्सूद होता तो ये मुक़ाम था जब वो सरीह और वाज़ेह अल्फ़ाज़ में इस के असली मफ़्हूम के


जवाज़ का इन्कार ऐसे अल्फ़ाज़ में कर सकता था कि जिनमें किसी क़िस्म के शक शुबहा की गुंजाइश ही ना रहती। क्योंकि उस का ये दावा है कि वो एक वाज़ेह किताब है। (हिज्र आयत 1 वग़ैरह) और कि वो हक़ाइक़ की निस्बत तफ़्सील से काम लेता है। (हामीम सज्दा आयत 2) लेकिन वो इस मुक़ाम पर इस मफ़्हूम की सदाक़त का ना इन्कार करता है और ना इस की मज़म्मत करता है। हक़ तो ये है कि इस को इंजीली मफ़्हूम (यूहन्ना बाब 1, आयत 12, इफ़िसियों बाब 1, आयत 5, 2-पतरस बाब 1, आयत 4 वग़ैरह) पर एतराज़ करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। क्योंकि वो बार-बार एतराफ़ करता है कि वो इन्जील जलील का मुसद्दिक़ है। (माइदा रुकूअ 7, 10, बक़रह 5, 11, अनआम रुकूअ 11 निसा रुकूअ 6 वग़ैरह)

इस मुक़ाम पर इंजीली इस्तिलाह से जो मतलब आप अख़ज़ करते हैं वो भी क़ुर्आन मजीद नहीं लेता। वो यहां यहूद व नसारा को ये नहीं कहता कि तुम समझते हो कि तुम ख़ुदा के बेटे देवता हो या देवता सिफ़त हो और उलूहियत में शरीक हो लेकिन तुम मह्ज़ बशर हो। अगर वो इस क़िस्म की मज़हकाख़ेज़ बातें करता तो यहूद व नसारा भी कुफ़्फ़ारे क़ुरैश की मानिंद “क़ुर्आन को झक-झक” ठहराते। (फुर्क़ान रुकूअ 3 क्योंकि दोनों मज़ाहिब के पैरू कट्टर मवाहिद थे।

हक़ीक़त ये है कि क़ुर्आन मजीद भी यहूद व नसारा को इस मुक़ाम में बईना वही बात कहता है जो सहाइफ़-ए-अम्बिया और इन्जील में लिखी है। अहले-यहूद ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम थे। (पैदाइश बाब 12, आयत 13, यिरमियाह बाब 31, आयत 9 वग़ैरह) इस बर्गुज़ीदगी का असली मतलब ये है कि ख़ुदा ने उनको अक़्वाम-ए-आलम में से चुन लिया था। ताकि वो ज़ात व सिफ़ात इलाही के इल्म को तमाम दुनिया में फैलाने का वसीला हों (यसअयाह बाब 49, आयत 1 ता 13, व बाब 61 वग़ैरह) लेकिन जब इस क़ौम में रुहानी ज़वाल आया तो यहूद अपनी बर्गुज़ीदगी का मतलब ये समझने लगे कि वो ख़ुदा के ख़ास मंज़ूर-ए-नज़र हैं और चूँकि ख़ुदा उनका तरफ़दार है उनसे किसी क़िस्म की कोई बाज़पुर्स ना होगी (यर्मियाह बाब 26 वग़ैरह) लेकिन ख़ुदा वक़्तन फ़-वक़्तन अम्बिया के ज़रीये उन पर ये ज़ाहिर करता रहा कि उनका ये ख़याल बातिल है। (हिज़्क़ीएल 15, आयत 6 ता 7, इस्तिस्ना बाब 10, आयत 17, यर्मियाह वग़ैरह) इन्जील जलील में भी आया है कि हज़रत यूहन्ना इस्तिबाग़ी (हज़रत यहया) ने अहले-यहूद से फ़रमाया “तुम तौबा के मुवाफ़िक़ फल लाओ और अपने दिलों में ये मत कहो कि इब्राहिम


हमारा बाप है (हमको क्या ख़दशा हो सकता है) ख़बरदार हो जाओ। अब दरख़्तों की जड़ पर कुलहाड़ा रखा हुआ है। पस जो दरख़्त अच्छा फल नहीं लाता वो काटा और आग में डाला जाता है।” (मत्ती 3 बाब आयत 8) हज़रत कलिमतुल्लाह ने भी उनके ख़याल व अफ़आल पर मलामत करके उनको उनकी बर्गुज़ीदगी का सही मफ़्हूम बतलाया और उनके गुनाहों का और उनकी सज़ा का ज़िक्र फ़रमाया और बार-बार उनको उनके होलनाक अंजाम पर मुत्लाअ (खबरदार) फ़रमाया। (यूहन्ना 8 बाब, मत्ती 23 बाब, लूक़ा 13, आयत 17, बाब 21 वग़ैरह) जनाब मसीह के रसूल भी मसीहियों को अहले-यहूद के हसरतनाक अंजाम को याद दिलाकर उनको इबरत दिया करते थे और कहते थे कि “ख़ुदा किसी का तरफ़दार नहीं बल्कि हर क़ौम में जो उस से डरता और रास्तबाज़ी करता है वो उस को पसंद है।” (आमाल बाब 10, आयत 35, 1-पतरस 1 बाब आयत 17 वग़ैरह) मुक़द्दस पौलुस रसूल भी मसीहियों पर इस अम्र को बार-बार वाज़ेह करते हैं। (रोमीयों बाब 12, आयत 11, बाब 10, इफ़िसियों बाब 6, आयत 9, कुलस्सियों बाब 3, आयत 11 ता 15 वग़ैरह) और अहले-यहूद की सज़ा को मुक़ाम-ए-इबरत बतलाते हैं। (रोमीयों बाब 11, आयत 17, 24 वग़ैरह)

पस इस मुक़ाम में क़ुर्आन शरीफ़ भी इन्जील जलील की तरह यहूद व नसारा को उनकी बर्गुज़ीदगी और बुलावे का सही मफ़्हूम बतला कर उनको कहलाता है कि “तुम ख़ुदा के बेटे और उस के बर्गुज़ीदा तो हो लेकिन इस का हरगिज़ ये मतलब नहीं कि तुम उस के मंज़ूरे नज़र हो, याद रखो कि तुम भी ख़ुदा की दीगर मख़्लूक़ की मानिंद इन्सान हो। जब तुम गुनाह करते हो तो वो तुमको अज़ाब देता है। क्योंकि उस के अख़्लाक़ी क़वानीन आस्मान और ज़मीन और माफिहा पर हुक्मरान हैं। और अगर तुम तौबा करो तो ख़ुदा बख़्शनहार है।” (अल-माइदा आयत 21)

बाब दोम

अबुव्वत-ए-इलाही का मफ़्हूम और यहूदी ख़यालात
अहदे-अतीक़ और अबुव्वत-ए-इलाही

कुतुब अह्दे-अतीक़ में जाबजा आया है कि क़ौम बनी-इस्राईल ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम है और बनी-इस्राईल ख़ुदा की अबुव्वत से मुराद अपनी क़ौमी बर्गुज़ीदगी लेते थे। ख़ुदा बनी-इस्राईल का मन-हैस-उल-क़ौम बाप था।


(ख़ुरूज बाब 4, आयत 22, होसेअ बाब 11, आयत 1, बाब 1 आयत 10) क्योंकि ख़ुदा ने अपने फ़ज़्ल की वजह से इस को अक़्वाम आलम में से चुन कर एक ऐसी क़ौम बना दिया था जिसने औराक़ तारीख़-ए-आलम में अपने लिए नाम पैदा कर लिया था। (इस्तिस्ना बाब 32, आयत 6, यसअयाह बाब 64, 7 ता 8, यर्मियाह बाब 31, आयत 9, मलाकी 1, आयत 6, बाब 2, आयत 10 वग़ैरह) बनी-इस्राईल के ख़याल के मुताबिक़ ख़ुदा दीगर अक़्वामे आलम का हुक्मरान और ख़ालिक़ था। लेकिन वो उनका बाप नहीं था। वो सिर्फ अपनी ख़ास बर्गुज़ीदा क़ौम बनी-इस्राईल का हुक्मरान ख़ालिक़ और बाप भी था।

अहले-यहूद की इस ज़हनियत को हम मुल्क-ए-चीन के ख़यालात की रोशनी में अच्छी तरह समझ सकते हैं। बीसवीं सदी से पहले मुल्क-ए-चीन के बादशाह और लोग अपने आपको बुलंद तरीन और आला तरीन क़ौम और बर्गुज़ीदा नस्ल तसव्वुर करते थे और कुल दुनिया के ममालिक व अक़्वाम को ब-नज़र हिक़ारत देखते थे। वो चीन को ख़ुदादाद मुल्क तसव्वुर करते थे और चीन की हदूद के बाहर दुनिया को वहशी और ग़ैर-मुहज़्ज़ब ख़याल करके उनसे किसी क़िस्म का सरोकार नहीं रखते थे। चूँकि वो इन अक़्वाम को अछूतों का दर्जा देते थे लिहाज़ा वो उनके ख़यालात, निसा और मोअतक़िदात वग़ैरह से किनारा करते थे।

यहूद की इस ज़हनियत का नतीजा ये हुआ कि वो बैरूनी ममालिक व अक़्वाम के हालात से कुल्लियतन नावाक़िफ़ थे और मग़रिबी और एशियाई अक़्वाम व ममालक के उलूम व फ़नून, आलात हर्ब वग़ैरह से बे-बहरा और ना-बलद थे। और अपनी खाल ही में मस्त रहते थे। पस जब कभी ये ममालिक व अक़्वाम पर चढ़ाई करते तो और शिकस्त पर शिकस्त खाते थे।


(2)

हमें ये अम्र फ़रामोश नहीं करना चाहिए कि अह्दे-अतीक़ की कुतुब मुक़द्दसा में जिस मुक़ामात में ख़ुदा की पिदराना शफ़क़त का ज़िक्र आया है। (ज़बूर 68:6, 103:13, यर्मियाह 31:9) वो मह्ज़ तम्सीली और तशबीही तौर पर कहा गया है। (इस्तिस्ना बाब 1, आयत 31 बाब 8 आयत 5) इन मुक़ामात का ये मतलब नहीं कि ख़ुदा बनी-इस्राईल के हर फर्द का बाप था। वो फ़क़त क़ौम बनी-इस्राईल को मन-हैस-उल-क़ौम बाप था। यहूदी कुतुब मुक़द्दसा में दो मुक़ामों में ख़ुदा को बनी-इस्राईल के बादशाह का बाप कहा गया है। (2 शमुएल 7, आयत 14, ज़बूर 89, आयत 26 ता 27) लेकिन ये मह्ज़ इसलिए कहा गया है क्योंकि उनका बादशाह क़ौम का सर और नुमाइंदा होने की हैसियत रखता था लिहाज़ा इन कुतुब में ख़ुदा की अबुव्वत का मफ़्हूम सिर्फ़ यहूद की बर्गुज़ीदा क़ौम या उस क़ौम के सरदार और बादशाह तक ही महदूद था।

पस ये ज़ाहिर है कि यहूदी कुतुब मुक़द्दसा ख़ुदा की आलमगीर अबुव्वत की क़ाइल नहीं थीं जिसका नतीजा ये था कि वो इन्सानी उखुव्वत की भी क़ाइल ना थीं। अहले-यहूद को हुक्म था कि “तू अपने पड़ोसी से अपने बराबर मुहब्बत रख।” (अहबार बाब 19, आयत 18) लेकिन वो फ़क़त “पड़ोसी” से मुराद सिर्फ क़ौम बनी-इस्राईल के अफ़राद लेते थे या वो “परदेसी जो उन के दर्मियान रहता हो।” (आयत 34) यानी जो ग़ैर-यहूदी मज़ाहिब को तर्क करके यहूदी मज़्हब का पैरौ हो गया हो। तमाम यहूदी लिट्रेचर में ये कहीं नहीं पाया जाता, कि अक़्वाम आलम के लोग इस्राईल की मानिंद ख़ुदा के फ़र्ज़न्द हैं या हो सकते हैं। हमको इस बात का निशान भी नहीं मिलता कि ख़ुदा रुए-ज़मीन की क़ौमों का बाप है और दुनिया के अफ़राद से बच्चों की तरह मुहब्बत करता है। जो रोज़ाना नमाज़ अहले-यहूद पढ़ते हैं। वो ख़ुदा का शुक्र करते हैं कि उसने उनको “ग़ैर अक़्वाम” मैं पैदा नहीं किया है। हर तहवार के दिन नमाज़ के दौरान में वो ख़ुदा का शुक्र करते हैं कि उस ने क़ौम इस्राईल को अक़्वाम-ए-आलम से ऐसा लग कर लिया है जिस तरह तारीकी नूर से अलग है और पलीदगी पाकीज़गी से जुदा है और इस क़ौम को रुए-ज़मीन की अक़्वाम में बर्गुज़ीदा करके सर्फ़राज़ फ़रमाया है। उनकी नमाज़ में एक लफ़्ज़ भी नहीं पाया जाता जिसमें वो ख़ुदा से ये तौफ़ीक़ मांगी जाये कि वो उनको अक़्वाम आलम की ख़िदमत करने की ताक़त अता फ़रमाए या उनको दुनिया के हर गोशे में ख़ुदा की अबुव्वत की मुनादी करने की तौफ़ीक़ मिले।


(3)

गोटनजन यूनीवर्सिटी के प्रोफ़ैसर जरीमाइस की शहर आफ़ाक़ किताब “इन्जील का मर्कज़ी पैग़ाम” के पहले लैक्चर का उन्वान “अब्बा” है। इस में ये आलिम बेबदिल लिखता है कि अह्दे-अतीक़ के किसी एक मुक़ाम में भी ख़ुदा को किसी फ़र्द का बाप नहीं कहा गया। हाँ ख़ुदा को कुल क़ौम इस्राईल का बाप कहा गया है (जैसा हम ऊपर ज़िक्र कर आए हैं) आँख़ुदावंद के मुआसिर मुसन्निफ़ ख़ुदा को क़ौम इस्राईल का बाप भी लिखने से झिजकते थे और जब कभी उनको लिखना पड़ जाता था तो वो लफ़्ज़ बादशाह को लफ़्ज़ बाप से मिलाकर “ख़ुदा हमारा बाप और बादशाह” लिखा करते थे प्रोफ़ैसर मज़्कूर लिखता है कि “कोई आलिम कनआन के यहूदी मुसन्निफ़ों की किसी किताब से एक मुक़ाम भी पेश नहीं कर सकता जहां किसी एक फ़र्द ने भी ख़ुदा को “मेरा बाप” कहा हो।

ये हक़ीक़त सिर्फ अहले-यहूद की कुतुब मुक़द्दसा तक ही महदूद नहीं बल्कि दुनिया के तमाम ममालिक अक़वाम के मज़ाहिब की तारीख़ में किसी एक वाहिद फ़र्द ने ख़ुदा को मुख़ातिब करके “मेरा बाप” नहीं कहा। हज़रत कलिमतुल्लाह तारीख़-ए-आलम में पहले और अव्वलीन फ़र्द थे जिन्हों ने ख़ुदा को “मेरा बाप” कहा। इब्ने-अल्लाह ने अपनी तमाम दुआओं में हमेशा बग़ैर किसी इस्तिस्ना के ख़ुदा को “मेरा बाप” के लतीफ़ अल्फ़ाज़ से मुख़ातिब फ़रमाया।” (मर्क़ुस बाब 14, आयत 36 वग़ैरह)

इलावा अज़ीं ये हक़ीक़त याद रखने के क़ाबिल है कि जब कभी आपने ख़ुदा को “मेरा बाप” कहा आप कभी इब्रानी ज़बान के ख़ास रस्मी लफ़्ज़ को (जो यहूदी किताब सलवात में था) अपनी ज़बान मुबारक पर ना लाए बल्कि आपने वही अरामी लफ़्ज़ “अब्बा” इस्तिमाल किया जो यहूदी बेटे अपने बाप के लिए रोज़मर्रा की गुफ़्तगु में इस्तिमाल किया करते थे। चुनान्चे तलमुद में लिखा है कि “पहले अल्फ़ाज़ जो बच्चा बोलना सीखता है वो “अब्बा” और “अम्मां” हैं। हज़रत कलिमतुल्लाह ने अपने हवारीयिन और मताबियीन से भी फ़रमाया कि जब तुम दुआ करो तो कहो “ऐ हमारे बाप” क्योंकि जितनों ने इब्ने-अल्लाह को क़ुबूल किया उसने उनको ख़ुदा के फ़र्ज़न्द बनने का हक़ बख़्शा। (यूहन्ना बाब 1, आयत 12) पस मसीही कलीसिया इब्तिदा ही से आप के नमूने और हुक्म के मुताबिक़ अपनी रोज़ाना दुआओं में ख़ुदा के लिए लफ़्ज़ “बाप” इस्तिमाल करती चली आई है। (रोमीयों बाब 8, आयत 15, ग़लतीयों बाब 4, आयत 6 वग़ैरह)


अनाजील अरबा में लफ़्ज़ “बाप” (170) एक सौ सत्तर दफ़ाअ ख़ुदा के लिए वारिद हुआ है। इन मुक़ामात का बनज़र ग़ाइर मुतालआ करने से ये अम्र साफ़ वाज़ेह हो जाता है कि इब्ने-अल्लाह इस ख़िताब के ज़रीये आलम व अलमियान पर इस लासानी रिश्ते का मुकाशफ़ा ज़ाहिर कर देते हैं जो ख़ुदा बाप और उस के इब्ने वहीद महबूब रब्बानी के दरम्यान रहा इंशा-अल्लाह हम आगे चल कर इस रिश्ते पर रोशनी डालेंगे। यहां हम सिर्फ एक मुक़ाम का इक़्तिबास करने पर इक्तिफ़ा करते हैं। इब्ने-अल्लाह फ़र्माते हैं “मेरे बाप की तरफ़ से सब कुछ मुझे सौंपा गया और कोई बेटे को नहीं जानता सिवा बाप के और कोई बाप को नहीं जानता सिवा बेटे के और उस के जिस पर बेटा उसे ज़ाहिर करना चाहे।” (मत्ती 11:27, 28, लूक़ा 10:22) ये अल्फ़ाज़ इब्ने-अल्लाह के सही और असली मुक़ाम को साफ़ तौर पर वाज़ेह कर देते हैं और हम पर ज़ाहिर हो जाता है कि ख़ुदा बाप और इब्ने-अल्लाह का बाहमी रिश्ता ऐसा है जिसका एहसास और इल्म पहले किसी इन्सान ज़ईफ़-उल-बयान के शान व गुमान में भी ना आया था। इब्ने-अल्लाह के मुबारक अल्फ़ाज़ यहूदियत की तमाम शरई क़ुयूद की बाड़ों को फाँद कर पार हो जाते हैं क्योंकि इब्ने-अल्लाह की ज़िंदगी उलूहियत की ज़िंदगी थी। अहले-यहूद “ख़ुदा का बेटा” और “ख़ुदा के बेटे” के मुहावरों से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। (यर्मियाह 31:9 वग़ैरह) और इस मुहावरे को शिर्क से ताबीर नहीं करते थे। ख़ुदा उनकी क़ौम का बाप था क्योंकि यहूद उस के बर्गुज़ीदा बेटे थे। वो इब्नियत से क़ौमी बर्गुज़ीदगी मुराद लेते थे। लेकिन इब्ने-अल्लाह इस मुहावरे से ये नहीं समझते थे बल्कि इस मुहावरे को इस्तिमाल करके उस ख़ास बाहमी रिश्ता को जतलाते थे जो आप ख़ुदा बाप के साथ रखते थे। चुनान्चे मुक़द्दस यूहन्ना लिखते हैं कि “इस सबब से यहूदी उसे (ख़ुदावंद मसीह) को क़त्ल करने की कोशिश करने लगे कि वो.... ख़ुदा को ख़ास अपना बाप कह कर अपने आपको ख़ुदा के बराबर बनाता था।” (यूहन्ना 5:18, 10:30 ता 38 वग़ैरह)

अहले-यहूद की कुतुब मुक़द्दसा में लफ़्ज़ “बाप” ख़ुदा की मह्ज़ एक सिफ़त है। जिससे वो रिश्ता और ताल्लुक़ मुराद है जो ख़ुदा अपनी बर्गुज़ीदा क़ौम इस्राईल से रखता था। पस कुतुब अह्दे-अतीक़ में ये लफ़्ज़ अस्मा-उल-सिफात में से एक सिफ़त को ज़ाहिर करता है वो इस्म-उल-ज़ात उन्हें जो ख़ुदा की ज़ात की इम्तियाज़ी ख़ासियत को ज़ाहिर करे।

कलिमतुल्लाह के हम-अस्र यहूद के ख़यालात

अहद-ए-अतीक़ की कुतुब में एक तरफ़ तो ख़ुदा को रहीम करीम ग़फ़्फ़ार वग़ैरह सिफ़ात से मुत्तसिफ़ किया गया है जो आला तरीन और बुलंद तरीन क़िस्म की हैं। लेकिन दीगर मुक़ामात में ख़ुदा की तरफ़ ऐसी बातें मन्सूब की गई हैं जिनसे वो एक क़ह्हार, जब्बार, मुतलक़-उल-अनान ज़ालिम हस्ती नज़र आती है। यहोवा बज़ाहिर ख़फ़ीफ़ बातों पर ग़ेय्ज़ (गुस्सा) व ग़ज़ब में आ जाता है। उस की ग़ैरत, रक़ाबत और हसद वग़ैरह के जज़बे बनी-इस्राईल और ग़ैर अक़्वाम दोनों के हक़ में निहायत ज़रर रसां साबित होते हैं। मसलन गो साऊल उस का ममसूह बादशाह है। लेकिन दुश्मन क़बाइल को बेरहमी और बेदर्दी से क़त्ल और ग़ारत ना करने और जानवरों तक को हलाक करने से इन्कार करने की बिना पर यहोवा उस का मुख़ालिफ़ हो जाता है। यहोवा के नथनों की हवा रेगिस्तानी की बाद मौसम की तरह तबाहकारी और ग़ारतगरी पैदा करती है। (होसेअ 13:15 हिज़्क़ीएल 20:8 वग़ैरह) उस का दीदार मौत की निशानी है। (ख़ुरूज 20:19 वग़ैरह) ग़रज़ कि यहोवा का तसव्वुर एक जाबिर, ज़ालिम, जफ़ा कार, मुतलक़-उल-अनान शहनशाह का सा है। जिसके मह्ज़ ख़याल से इन्सान पर कपकपी छा जाती है। यही वजह है कि ख़ुदावंद के हम-अस्र यहोवा अपने माबूद यहोवा का नाम लेने से भी ख़ाइफ़ व तरसाँ रहते थे। पस उन्होंने चंद अल्फ़ाज़ मख़्सूस कर रखे थे जो वो ख़ुदा के नाम (याहवे) की बजाए इस्तिमाल करते थे मसलन “सतूदा” (मर्क़ुस 14:61), “अल-अला” (मर्क़ुस 5:7), “आस्मान” (मर्क़ुस 11:3, यूहन्ना 3:27), “क़ुद्रत” (मर्क़ुस 26:64) “ख़ुदावंद” वग़ैरह। बाज़ औक़ात वो ख़ुदा के लिए सिर्फ लफ़्ज़ नाम इस्तिमाल करते थे। मसअला जब सरदार काहिन (इमाम-ए-आज़म) अपने गुनाहों का इक़रार करता था वो ख़ुदा को यूं मुख़ातिब करता था। ऐ नाम, मैं और मेरे घराने ने तेरे हुज़ूर गुनाह किया है। ऐ नाम ! तू ही मेरा कफ़्फ़ारा कर।” (किताब जूमा 3:8)

पस जनाबे मसीह के हम-अस्र वजूद मुतलक़ की मावराए इदराक ज़ात और लामहदूद माफ़ौक़, दरा-आल-वरा सिफ़ात पुर खास तौर पर ज़ोर देते थे। इस का क़ुदरती नतीजा ये हुआ कि जब फ़रीसी फ़िर्क़े ने ज़ोर पकड़ा तो उन्होंने मरासिम व शायर ज़ाहिरी की अदना तरीन तफ़ासील की अदायगी को फ़र्ज़ क़रार दे दिया। जो एक बुलंद व बाला, क़ादिर-ए-मुतलक़, ख़ालिक़ और मुतलक़-उल-अनान शहनशाह के हुज़ूर में हाज़िर होने के


लिए लाज़िम ख़याल की गईं। चुनान्चे इसी बिना पर यहूद के अहले फ़िक़्ह हर क़िस्म की रस्मी पाकीज़गी पर ज़ोर देने पर ग़ायत इसरार करते थे।” (मर्क़ुस 7:3 अलीख वग़ैरह)

कलिमतुल्लाह और अहद-ए-अतीक़ का तसव्वुर

हज़रत कलिमतुल्लाह की बिअसत के ज़माने में आप के हम-अस्रों के दिलों में ज़ात इलाही की निस्बत परवरदिगारी को अमलन फ़रामोश कर चुके थे। उन्होंने ख़ुदा को अर्श-ए-बरीं पर बिठा कर उस को दुनिया से इस क़द्र बुलंद व बाला कर दिया था कि उस में और उस की ख़ल्क़त में इंतिहाई दूरी पैदा हो गई थी। ख़ुदा ख़ल्क़त का मालिक था जिसके क़ब्ज़े क़ुद्रत में बनी नूअ इन्सान की जान थी जो उस के अब्द और ग़ुलाम थे। (अहबार 25:55, यूहन्ना 15:15 वगैरा) जनाब मसीह ने ख़ुदा के तसव्वुर को इस हद दर्जे के मुबालगे से नजात दी। आपने फ़रमाया था कि आप तौरेत और सहाइफ़ अम्बिया को मन्सूख़ करने नहीं आए थे बल्कि आपकी आमद का मक़्सद उनको कामिल करना था। (मत्ती 5:17) पस आप ने लफ़्ज़ “बाप” को जो (इन किताबों के चंद मुक़ामात में ख़ुदा के लिए वारिद हुआ था) लिया और उस को हर क़िस्म के क़ौमी तास्सुब, नसली इम्तियाज़ और हर ऐसे मुश्रिकाना अंसर से पाक कर दिया जिसकी वजह से किसी को ज़ात इलाही की निस्बत ग़लतफ़हमी का गुमान भी ना हो सके। आपने अबुव्वत के तसव्वुर में इस क़िस्म के मुतालिब और माफ़ी पैदा करके उस को एक ऐसा कामिल और अकमल तसव्वुर बना दिया कि लफ़्ज़ ख़ुदा की ज़ात की निस्बत एक नया मुकाशफ़ा हो गया।

इन्जील जलील के मुतालए से ज़ाहिर होता है कि हज़रत कलिमतुल्लाह दीगर रब्बियों की मानिंद एक रब्बी नहीं थे। आप अपने मवाइज़ व नसाइह में ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात पर कभी फ़ल्सफ़ियाना बह्स नहीं करते और ना आप ख़ुदा के तसव्वुर की किसी मुन्तक़ीयाना इस्तिलाह में तारीफ़ बयान फ़र्माते। बल्कि आप अपने सामईन के सामने ख़ुदा की उस अबदी मुहब्बत को बयान फ़र्माते हैं जो फ़हम व इदराक से भी बाला है। आपकी हमेशा यही कोशिश रही कि लोगों के दिलों में ख़ुदा की बे-कराँ और लाज़वाल मुहब्बत का एहसास पैदा हो। पस आप ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात पर फ़ल्सफ़ियाना बह्स करने की बजाए ख़ुदा की अख़्लाक़ी फ़ित्रत की शौकत, इलाही अबुव्वत की हश्मत और उस की अज़ली मुहब्बत की वुसअत और महमक को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा के सामने रोज़मर्रा की ज़िंदगी के वाक़ियात की मिसालें और तम्सीलें देकर सीधे सादे अल्फ़ाज़ में खोल कर

बयान कर देते थे। हज़रत कलिमतुल्लाह ने अपनी रोज़ाना ज़िंदगी के हर पहलू में ख़ुदा की बेक़ियास और बेकरां मुहब्बत और अबुव्वत को मुजम्मलन और तफ़सीलन अपने बेहद यल नमूने से हर ख़ास व आम पर आफताब-ए-निस्फ़-उल-नहार की तरह ज़ाहिर कर दिया और अपनी तालीम में आपने अबुव्वत-ए-इलाही का इतलाक़ वाज़ेह तौर पर दुनियावी और इन्सानी ताल्लुक़ात के हर पहलू पर कर के इस तसव्वुर में नई जान डाल दी ऐसा कि ये लफ़्ज़ मिस्ले साबिक़ मह्ज़ एक मुजर्रिद, ज़हनी और ख़्याली तसव्वुर ना रहा बल्कि एक ज़िंदा चलती फिरती ठोस हक़ीक़त का मुजस्समा बन गया।


बाब-ए-सोम

अबुव्वत-ए-इलाही का मफ़्हूम और इन्जील जलील
फ़स्ल अव़्वल
हज़रत कलिमतुल्लाह की तालीम

हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं कि हज़रत कलिमतुल्लाह ने ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात को बयान करते वक़्त ऐसे अल्फ़ाज़ को इस्तिमाल करने से अहितराज़ फ़रमाया जिनसे उस की ज़ात की अस्ल हक़ीक़त पर किसी क़िस्म का पर्दा पड़ सके या किसी क़िस्म की ग़लतफ़हमी पैदा होने का इम्कान भी हो सके। मिसाल के तौर पर लफ़्ज़ “बादशाह” ले लो। कुतुब अहद-ए-अतीक़ में जाबजा मुतअद्दिद मुक़ामात में ख़ुदा को “बादशाह” कहा गया है। चुनान्चे सिर्फ एक किताब यानी ज़बूर की किताब में ख़ुदा के लिए ये लफ़्ज़ बीसियों जगह इस्तिमाल हुआ है और बनी नूअ इन्सान को ख़ुदा का ग़ुलाम कहा गया है (5:2, 24:10, 27:9, 31:16 वग़ैरह) पर ये बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है, कि अगरचे जनाब मसीह की ज़बाने मुबारक पर अल्फ़ाज़ “ख़ुदा की बादशाहत” हर वक़्त जारी थे। (मत्ती 6:33, मत्ती 1:14, मर्क़ुस 12:31, लूक़ा 13 बाब वगैरा) लेकिन आपने ख़ुदा के लिए लफ़्ज़ “बादशाह” शाज़ो नादिर ही इस्तिमाल फ़रमाया और अगर आम्मतुन्नास को किसी तम्सील के ज़रीये कोई हक़ीक़त समझाने की ख़ातिर इस लफ़्ज़ की ज़रूरत लाहक़ हुई तो आपने उस को सिर्फ किनायतन ज़िमनी तौर पर ही इस्तिमाल किया ताकि एक मुतलक़-उल-अनान हस्ती का तसव्वुर बनी-आदम के ज़हीन से निकल जाये।

इन्जील जलील का सतही मुतालआ भी ये ज़ाहिर कर देता है कि जनाब मसीह की तालीम में ख़ुदा के नाम यानी लफ़्ज़ “बाप” को वही जगह हासिल है जो तौरेत और सहाइफ़ अम्बिया में ख़ुदा के नाम लफ़्ज़ “यहोवा” को हासिल थी। बअल्फ़ाज़े दीगर लफ़्ज़ “याहवे” और “रब” की जगह लफ़्ज़ “अब्बा” और लफ़्ज़ “बाप” इस्म-ए-ज़ात बन गया। जिस तरह ख़ुदा ने हज़रत मूसा के ज़रीये लफ़्ज़ “यहवाह” का नया मुकाशफ़ा अता किया था। (ख़ुरूज 6:13 ता 16) इसी तरह इन्जील जलील में हज़रत कलिमतुल्लाह के ज़रीये लफ़्ज़ “बाप” से हमको कामिल और अकमल मुकाशफ़ा अता किया गया है। (यूहन्ना 1:17 ता 18) इन्जील जलील में अलिफ़ से ये तक अबुव्वत इलाही का ज़िक्र है और इलाही अबुव्वत के तसव्वुर को मरकज़ी जगह हासिल है ऐसा कि दीगर तमाम सिफ़ात-ए-इलाही का महवर यही एक तसव्वुर हो गया है।


(2)

हज़रत कलिमतुल्लाह की तालीम के मुताबिक़ ख़ुदा को बाप इस वजह से नहीं कहा गया कि वो हमारा ख़ालिक़ है। अनाजील अर्बा का एक एक वर्क़ छान मारो तुमको आँख़ुदावंद की ज़बान-ए-हक़ीक़त तर्जुमान पर लफ़्ज़ ख़ालिक़ कहीं नहीं मिलेगा। इस की वजह ये है कि अगरचे आपका ये ईमान था कि हमको ख़ुदा ने पैदा किया है। (मर्क़ुस 10:6) लेकिन वो आम्मतुन्नास के दिलों से उन तमाम बातिल ख़यालात को निकाल देना चाहते थे जो लफ़्ज़ ख़ालिक़ के तसव्वुर के साथ वाबस्ता थे यानी ये कि हम ख़ुदा के हाथ में कुम्हार की मिट्टी की मानिंद हैं। (यर्मियाह 18:6 ता 7, यसअयाह 45:9, 64:8 अय्यूब 10:9, यसअयाह 29:16, 30:14, 41:25 वग़ैरह) आपकी तालीम ये थी कि ख़ुदा हमारा बाप है जिसकी ज़ात मुहब्बत है पस कायनात ख़ुदा की तलव्वुन मिज़ाजी या लहरी पन या लीला की वजह से वजूद में नहीं आई। ख़ुदा कोई मनमौजी हस्ती नहीं जो कुम्हार की तरह हो कि जो चाहे अपने मख़्लूक़ के साथ करे इस के बरअक्स कलिमतुल्लाह ने ये तालीम दी कि उस वजूद मुतलक़ की ज़ात मुहब्बत मुतलक़ है और मुहब्बत का ये तक़ाज़ा है कि वो ख़ल्क़ करे और अपने आपको ज़ाहिर करे। पस ख़ल्क़ करना उस की ज़ात यानी मुहब्बत का ज़हूर है। लेकिन अगरचे उस की ज़ात इस बात की मुतक़ाज़ी है कि वो ख़ल्क़ करे ताहम वो ज़ात ख़ुद वजूद-ए-मुतलक़ और वाजिब-उल-वजूद हस्ती है।

पस ख़ुदा और कायनात का बाहमी ताल्लुक़ कुम्हार और मिट्टी का सा नहीं। ये ताल्लुक़ ऐसा भी नहीं कि पहले का दूसरे पर और दूसरे का पहले पर इन्हिसार हो। क्योंकि जिस तौर से ख़ुदा का वजूद कायनात के लिए लाज़िमी है उसी मअनी में कायनात का वजूद ख़ुदा के लिए लाज़िमी नहीं। ख़ुदा का वजूद कायनात के लिए लाज़िमी है क्योंकि ख़ुदा के बग़ैर कायनात का वजूद क़ायम नहीं रहता लेकिन ख़ुदा क़ायम बिल-ज़ात है वो वाजिब-उल-वजूद हस्ती मुतलक़ है और उस के लिए कायनात का वजूद सिर्फ इसी मअनी में ज़रूरी है कि उस की ज़ात इस बात का तक़ाज़ा करती है कि उस का ज़हूर ख़ल्क़त और तख़्लीक़ के ज़रीये हो। ख़ुदा के तख़लीक़ी इरादे ने हम को ख़ल्क़ किया है लेकिन ख़ालिक़ होने की वजह से वो ख़ुद ख़ल्क़त से बुलंदो बाला है। पस ख़ल्क़त ख़ुदा का ना जोहर है और ना उस की ज़ात में शामिल है जिस तरह हमा ओसती कहते हैं। इस के बरअक्स ख़ल्क़त ख़ल्लाक़ की मुहब्बत और इलाही इरादा और मंशा से सादिर हुई है और उस का ज़हूर है। अगर ख़ुदा का वजूद मिट जाये तो कायनात भी मिट जाएगी। लेकिन अगर कायनात का वजूद मिट जाये तो ख़ुदा का वजूद नहीं मिट सकता। क्योंकि वो वाजिब-उल-वजूद हस्ती मुतलक़ है जिसकी ज़ात का ज़हूर कायनात के इलावा दीगर ज़राए से भी हो सकता है।


मज़्कूर बाला दो मिसालों से ज़ाहिर है कि हज़रत कलिमतुल्लाह ने ख़ुदा के लिए लफ़्ज़ “अब्बा” यानी “बाप” का इस्तिमाल करके बनी नूअ इन्सान के दिलों से वो दहश्त और हैबत दूर कर दी जो ख़ुदा के मह्ज़ तसव्वुर से लोगों के दिलों और दिमाग़ों पर तारी हो जाती थी। इस का ये मतलब नहीं कि आप की तालीम में ख़ुदा के बुलंद व बाला होने और मावरा इदराक होने की नफ़ी की गई है या वजूद मुतलक़ की बरतरी और मुतलक़ियत को कहीं नज़र-अंदाज किया गया है। आप एक ऐसे ख़ुदा की अबुव्वत की तालीम देते हैं जिसकी मुहब्बत की मावराई इदराक है ताहम वो अपनी मुहब्बत की वजह से हमारे दिलों में सुकूनत करता है। (यूहन्ना 1:14) उसकी मुहब्बत की ख़ूबी फ़हम व इदराक से भी बाला और बुलंद है और उस की मुहब्बत और वुसअत और उमुक़ ऐसी वरा-उल-वरा है कि इन्सानी अक़्ल इस का तसव्वुर करने से क़ासिर है।

(3)

अगर हम इस ख़लीज का अंदाज़ा लगाना चाहते हैं जो जनाब मसीह और आपके हम-अस्रों के ख़यालात (वजूद इलाही के मुताल्लिक़ रखते थे) के दर्मियान हाइल थी तो मुस्रिफ़ बेटे की तम्सील (लूक़ा 15 बाब) से हमको मदद मिल सकती है। इस तम्सील में बड़ा बेटा हुक़ूक़-उल्लाह को ग़ुलाम की मानिंद निहायत फ़रमांबर्दारी से बजा लाता है (आयत 29) वो ख़याल करता है कि बाप मह्ज़ एक आदिल मुंसिफ़ है और रास्तबाज़ों और नारास्तों को उनके आमाल के मुताबिक़ बदला देता है। उस की ग़ैरत इस बात की इजाज़त नहीं देती कि गुनेहगार मुस्रिफ़ भाई ख़ुदा के नज़्दीक भी फटके। ये ज़ावीया निगाह आँख़ुदावंद के हम-अस्र फ़रीसियों और फ़क़ीहियों का था। वो ये ख़याल करते थे कि ख़ुदा एक मुतलक़-उल-अनान बादशाह है जिसके अदना तरीन अहकाम को ग़ुलाम की तरह फ़रमांबर्दारी से मानना हमारा अव्वलीन और बुनियादी फ़र्ज़ है। वो एक आदिल बादशाह है जिसके नज़्दीक गुनेहगार फटक नहीं सकता। हर गुनेहगार अपने गुनाहों के मुताबिक़ सज़ा पाएगा। और हर नेको-कार अपने आमाल सालिह के मुताबिक़ जज़ा पाएगा। लेकिन हज़रत कलिमतुल्लाह का तसव्वुर ख़ुदा इस से कोसों दौर था। आपने इस तम्सील के ज़रीये आलम-व-अलमियान को ये सबक़ दिया कि ख़ुदा हमारा आस्मानी बाप है जो नेकों और बदों दोनों से अबदी मुहब्बत रखता है। और उस की मुहब्बत का इन्हिसार दोनों क़िस्म के लोगों की हुस्न-ए-ख़िदमत और इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) पर मबनी नहीं है। वो आमाल की उम्दगी और ख़ूबी के मुताबिक़ बनी नूअ इन्सान से


मुहब्बत नहीं रखता बल्कि उस की मुहब्बत की ख़ूबी इस बात में ज़ाहिर होती है कि जब गुनेहगार इन्सान अपने गुनाहों के हाथों बेबस व लाचार हो कर उस की मुहब्बत की तरफ़ नज़र करके और उस से मुतास्सिर हो कर उस की तरफ़ रुजू करता है तो ख़ुदा की मुहब्बत बेताब हो कर उस को सीने से लगा लेती है। ख़ुदा की लाज़वाल शाहाना मुहब्बत गुनेहगार बेटे की हाजत और दरमांदगी को देखकर तड़प उठती है ख़ुदा की बे-कराँ मुहब्बत हर गुनेहगार को तलाश करती है और मौक़े की ताक में रहती है कि हर गुनेहगार को “दौड़ कर गले लगाले” और उस के बोसे ले। “हर तौबा करने वाले गुनेहगार की बाबत आस्मान पर ख़ुदा के फ़रिश्तों के सामने ख़ुशी होती है।” क्योंकि पहले “वो मुर्दा था अब ज़िंदा हुआ। वो खोया हुआ था अब मिला है।”

दौड़ा ज़ाहिद कि क़ियामत पे क़ियामत आई

दाख़िल ख़ुलद गुनेहगार हुए जाते हैं

इलाही अबुव्वत की मुहब्बत इस क़िस्म की नहीं जो किसी मुतलक़-उल-अनान बादशाह को अपनी रईयत से होती है। क्योंकि इस क़िस्म की मुहब्बत का इन्हिसार रईयत की ताबेदारी और फ़रमांबर्दारी पर होता है। बग़ावत और ग़दर इस रिश्ता मुहब्बत को क़ता कर देती है। क्योंकि बादशाह अपनी बाग़ी रियाया से मुहब्बत नहीं रखता बल्कि उस की बेखुकनी कर देता है। उस को चेन नहीं आता जब तक बाग़ीयों का कुल्लियतन नास ना हो जाए। लेकिन बाप की मुहब्बत और अज़ क़िस्म दीगर है। ख़्वाह बेटा बाप से मुहब्बत रखे या ना रखे बाप हमेशा बेटे से मुहब्बत रखता है। माँ की ममता और बाप की मुहब्बत अपने ना-फ़र्मान बेटे का इस्तीसाल नहीं चाहती और नहीं करती बल्कि इस के बरअक्स इस बात का तक़ाज़ा करती है कि ना फ़र्मान बेटे को उसकी ना फ़रमानी के बावजूद प्यार करे। ख़ुदा की लाज़वाल मुहब्बत गुनेहगार को अज़ सर-ए-नौ बहाल कर देती है। वो दुनिया-ए-रूहानियत में अज़ सर-ए-नौ पैदा हो जाता है। जिस तरह ख़ुदा बाप ख़ुद फ़ित्रत से बुलंद व बाला है इसी तरह वो अपने ताइब बहाल शूदा बेटे को माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत ज़िंदगी अता फ़रमाता है जो इस को गुनाह, दुनिया और शैतान पर ग़ालिब आने की तौफ़ीक़ बख़्शती है हमारा बाप आस्मान पर है लेकिन वो ईमानदार के दिल में भी सुकूनत करता है। वो जो वरा-उल-वरा है उस की मुहब्बत मुहीत कुल हो जाती है। ख़ुदा ना सिर्फ बुलंद व बाला अज़ीम और आला है बल्कि वो हमारा बाप भी है जो हमको अज़ली मुहब्बत से चारों तरफ़ घेरे हुए है। पस कलिमतुल्लाह ने अहले-यहूद के ख़यालात


की तसहीह फ़र्मा कर इलाही ज़ात के सही तसव्वुर को कामिल करके अहले आलम के रूबरू पेश कर दिया है।

मुस्रिफ़ बेटे की तम्सील के ज़रीये हज़रत कलिमतुल्लाह ने ख़ुदा की क़ुद्दुसियत का सही तसव्वुर भी हम पर ज़ाहिर कर दिया है। ख़ुदा तआला की क़ुद्दुसियत की एक और मिसाल है जिसकी निस्बत इब्ने-अल्लाह के हम-अस्र ग़लत ख़याल रखते थे। वो ख़ुदा की इस सिफ़त की तावील व तश्रीह इस तौर पर करते थे कि ख़ुदा की क़ुद्दुसियत इन्सान के लिए एक हैबतनाक मअनी रखती थी और किसी गुनेहगार को ये हौसला ना पड़ता था कि ख़ुदा के नज़्दीक फटकने की जुर्आत भी कर सके। लेकिन हज़रत कलिमतुल्लाह ने फ़रमाया कि ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस गुनाह और बदी से नफ़रत करता है। लेकिन वो गुनेहगार से मुहब्बत रखता है। आपने ये तालीम दी कि ख़ुदा की मुहब्बत की क़ुद्दुसियत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि वो ख़ुद गुनेहगार की तलाश में निकले और हर मुम्किन तरीक़े से ये जद्दो-जहद करती है कि गुनेहगार तौबा की तरफ़ राग़िब हों और जब वो उस के फ़ज़्ल व करम से तौफ़ीक़ हासिल करके तौबा करते हैं तो ख़ुदा ऐसा क़ुद्दूस बाप है कि वो ना सिर्फ ताइब गुनेहगारों को माफ़ करके क़ुबूल करता है बल्कि उन को अपने बेहद फ़ज़्ल से पाक भी करता है। “ख़ुदा ने दुनिया से ऐसी मुहब्बत रखी कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (यूहन्ना 3:16) आँख़ुदावंद की तालीम और नमूना बदतरीन से बदतरीन गुनेहगार पर भी उस की ग़ैर-फ़ानी रूह की एहमीय्यत वाज़ेह कर दी और उस को इस बात का इल्म हो गया कि उस की रूह ऐसी बेशक़ीमत है कि ख़ुदा ए दो जहान ख़ुद उस के गुनाह के बावजूद उस से अज़ली और अबदी मुहब्बत रखता है और हर बदकार नई पैदाइश हासिल करके पाक बन सकता है। कलिमतुल्लाह ने ख़ुदा की मुहब्बत और क़ुद्दुसियत को (जिनको आपके हम-अस्र मुतज़ाद सिफ़ात समझे बैठे थे) इलाही अबुव्वत के तसव्वुर में बाहम पैवस्ता कर दिया। जिस हस्ती की क़ुद्दुसियत के ख़याल से पहले ख़ौफ़ और दहश्त टपकती थी कलिमतुल्लाह के तसव्वुर-ए-अबुव्वत इलाही ने उस हस्ती की पाकीज़गी और क़ुद्दुसियत के तसव्वुर को अब एक निहायत दिल-आवेज़ तसव्वुर बना दिया।

पस अनाजील अरबा का मुतालआ हम पर ज़ाहिर कर देता है कि सय्यदना मसीह ने एक तरफ़ इलाही क़ुद्रत व अज़मत व जलालत और दीगर सिफ़ात-ए-जलाली को क़ायम


रखा और दूसरी तरफ़ इलाही अबुव्वत को तमाम सिफ़ाते इलाही का मर्कज़ और सरचश्मा बनाकर ख़ुदा को एक मुहब्बत करने वाली और मुहब्बत कराने वाली दिला-वेज़ हस्ती बना दिया। (मत्ती 6:26, 32, 10:29, 31 वग़ैरह) आपने ख़ुदा की रिफ़अत और बुलंदी को अहले-यहूद के मुबालग़ा आमेज़ इफ़रात से नजात दिला कर अबुव्वत के तसव्वुर के ज़रीये ख़ुदा की ज़ात का नया मुकाशफ़ा दुनिया पर रोशन कर दिया और फ़रमाया कि ख़ुदा जो आस्मान पर है वो “हमारा बाप है और हमारी रिफ़ाक़त उस के साथ है जो आली और बुलंद है और अबदीयत जिसका मस्कन है जिस का नाम क़ुद्दूस है।” (यसअयाह 57:15) हज़रत इब्ने-अल्लाह ने हर इन्सान को फ़र्ज़न्दियत का दर्जा अता करके उस को एक ऐसा मुक़ाम बख़्शा जहां ख़ुदा और इन्सान के बाहमी ताल्लुक़ात अज़ सर-ए-नौ उस्तिवार हो गए। गोया रिफ़ाक़त निहायत गहरी और क़ल्बी है ताहम इस में बे-तकल्लुफ़ी को मुतल्लिक़न दख़ल नहीं होता। ये रिफ़ाक़त प्रेम और प्यार से पुर होती है लेकिन इस में बेपर्वाई और बे-एतिनाई का शाइबा तक नहीं होता। क्योंकि जब हम ख़ुदा बाप के हुज़ूर हाज़िर होते हैं तो हमको अपनी कम माइगी बेबसी और बे बज़ाअती का पुख़्ता एहसास होता है। हमको ये इल्म होता है कि हम जो कुछ हैं मह्ज़ उस की मुहब्बत के तक़ाज़े और फ़ज़्ल की वजह से हैं। पस ये रिफ़ाक़त किसी जज़्बाती मुहब्बत या फुसफुसे जज़्बात की इफ़रात का नाम नहीं है। जब ख़ुदा की कामिल मुहब्बत हमारे दिलों से दहश्त को निकाल देती है। (1 यूहन्ना 4:18) तो वो हमारी नाचीज़गी और फ़िरौ माइगी के एहसास को बेश-अज़-बेश तेज़ कर देती है। इलाही मुहब्बत का तसव्वुर हमारे दिलों में हैबत और दहश्त की बजाए इलाही अबुव्वत की बे-कराँ मुहब्बत के जलाली रोब और पाकीज़ा एहतिराम के जज़्बात पैदा कर देता है। (1 पतरस 1:17) और हम को इस तसव्वुर की नई और ज़िंदा राह से इलाही क़ुर्बत (नज़दिकी) के मुक़द्दस और पाक मकान में दाख़िल होने की दिलेरी हासिल हो जाती है। (इब्रानी 10:19)


फ़स्ल दोम

अबुव्वत-ए-इलाही का मफ़्हूम और ख़ुदा की
ख़ालिक़ीयत

और परिवर्दगारी की सिफ़ात

जहां तक ख़ुदा के तसव्वुर का ताल्लुक़ है। यहूदी ख़यालात और क़ुरआनी तालीम में चंदाँ फ़र्क़ नहीं। लिहाज़ा हज़रत कलिमतुल्लाह ने यहूदी तसव्वुरात की जो तन्क़ीह व तनक़ीद की वो बहुत कुछ क़ुरआनी अक़ाइद और इस्लामी तालीम पर भी सादिक़ आती है।

हम गुज़श्ता बाब में ज़िक्र कर चुके हैं कि अहले-यहूद के ख़याल में उबुव्वुते इलाही की हद निहायत तंग और उस का दायरा निहायत महदूद था। क्योंकि उनके ज़ोअम में ख़ुदा कुल बनी नूअ इन्सान का बाप ना था बल्कि सिर्फ़ क़ौम बर्गुज़ीदा यानी बनी-इस्राईल का बाप था और वो भी उस का मन-हैस-उल-क़ौम बाप था पर इस क़ौम के लखो लखहा अफ़राद का बाप ना था हमारे मुबारक ख़ुदावंद ने इस तसव्वुर को कामिल किया और फ़रमाया कि ख़ुदा अक़्वाम आलम के अफ़राद का बाप है। ख़्वाह वो यहूदीयों या ग़ैर-यहूद, ख़ुदा की अबुव्वत एक आलमगीर तसव्वुर है जिसमें रंग नस्ल, क़ौम या मुल्क वग़ैरह जैसे आरिज़ी उमूर का रत्ती भर दख़ल नहीं। (यूहन्ना 3:16, 4:10, 21, 23, 34, 6:37, 46, 12:20, 24, मत्ती 23, 1 व 9 वग़ैरह) पस अबुव्वत-ए-इलाही का तसव्वुर कुल अक़्वाम-ए-आलम के कुल अफ़राद पर हावी है। ख़ुदा दुनिया के तमाम अफ़राद का बाप है ख़्वाह वो नेक हों या बद ख़्वाह वो दूसरे के शुक्रगुज़ार बंदे हों या ना शुक्रे एहसान फ़रामोश और सब्र आज़मा लोग हों। (मत्ती 5:45 ता 48) उस की अबुव्वत उस की परवरदिगारी की इल्लत है। ख़ुदा बाप होने की हैसियत से सबको प्यार करता है और सबको बरकत देता है। ख़ुदा ने दुनिया के कुल अफ़राद को अपनी सूरत पर बनाया है ताकि वो उस के साथ ऐसा अख़्लाक़ी और रुहानी ताल्लुक़ और रिश्ता रख सकें जो बाप और बेटों के दरमियान होता है। पस कुल बनी नूअ इन्सान इस बात की अहलियत और सलाहियत रखते हैं कि वो ख़ुदा के फ़रज़न्दों की सिफ़ात अपने अंदर रखें और इन


सिफ़ात को उस की मुहब्बत की शान के मुताबिक़ ब-रू-ए-कार लाकर उनमें वाक़ईयत का रंग पैदा कर दें। और इम्कान को हक़ीक़त कर दिखलाएँ।

ख़ुदा की ख़ालिक़ियत और अबुव्वत इलाही

यहां एक ग़लतफ़हमी का इज़ाला करना ज़रूरी मालूम होता है। आँजहानी मौलवी सना-उल्लाह साहब ये ख़याल करते हैं कि इन्जील जलील में ख़ुदा को अक़्वाम-ए-आलम का बाप इसलिए कहा गया है क्योंकि वो कुल बनी नूअ इन्सान का ख़ालिक़ है। (इस्लाम और मसीहिय्यत सफ़ा 17) लेकिन इस क़िस्म की मन घड़त बातें सिर्फ ये साबित करती हैं कि मौलवी साहब इन्जील जलील की तालीम से क़तअन नावाक़िफ़ थे। हज़रत कलिमतुल्लाह की तमाम तालीम में तुमको एक लफ़्ज़ भी ऐसा ना मिलेगा जिससे ये साबित हो सके कि आप ख़ुदा को मह्ज़ ख़ालिक़ होने की वजह से कुल बनी-आदम का बाप ख़याल फ़र्माते थे। आपने ख़ुदा को “बाप” इस बिना पर नहीं कहा था कि उसने दुनिया के लोगों को ख़ल्क़ किया है या कि वो उनका हुक्मरान बादशाह है। और ना आपने ख़ुदा को क़ौम यहूद का कभी इस वजह से “बाप” कहा कि उसने हज़रत अब्राहम से अहद बाँधा था बल्कि आपने ख़ुदा को बाप इसलिए कहा क्योंकि ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है। ख़ुदा इस अख़्लाक़ी ताल्लुक़ और रुहानी रिश्ते की वजह से बनी-आदम का बाप है जो उस के और इन्सान के दर्मियान हज़रत कलिमतुल्लाह के तुफ़ैल क़ायम हो गया है।

ये अम्र सिर्फ अनाजील अरबा से ही वाज़ेह नहीं है। अह्दे-जदीद की तमाम कुतुब और मुक्तुबात का एक एक वर्क़ छान मारो तुमको ये कहीं नहीं मिलेगा कि ख़ुदा ख़ालिक़ होने की वजह से बनी नूअ इन्सान का बाप है। ख़ुदा की अबुव्वत का तसव्वुर ख़ुदा की ख़ालिक़ियत की सिफ़त से कुल्लियतन जुदा है। यही वजह है कि इन्जील की कुतुब के मुसन्निफ़ीन किसी जगह भी इलाही मुहब्बत और तख़्लीक़ का ज़िक्र इकट्ठा नहीं करते और ना इन्जील का कोई फ़िक़्रह या आयत इलाही अबुव्वत को तख़्लीक़ के साथ मुताल्लिक़ करती है। मसलन मुक़द्दस पौलुस एक मुक़ाम में बुत परस्तों को मुख़ातिब करके फ़र्माते हैं कि “और उस ने एक ही अस्ल से आदमियों की हर क़ौम को तमाम रू-ए-ज़मीन पर रहने के लिए पैदा की....।” (आमाल 17:26) यहां वो उन बुत परस्तों को उखुव्वत-ए-इन्सानी और ख़ुदा की तौहीद का सबक़ देते हैं और अबुव्वत इलाही का इस


मुक़ाम पर ज़िक्र नहीं फ़र्माते। ये निहायत पुर-माअनी बात है। और ज़ेर ग़ोर है कि वो इस तक़रीर में फ़ित्री हम सरिश्ती का ज़िक्र करते हैं लेकिन इस फ़ित्री और क़ुदरती क़राबतदारी के साथ इन्सानी फ़र्ज़न्दियत का ज़िक्र कहीं नहीं करते। और इस मुक़ाम में तख़्लीक़ के साथ लफ़्ज़ “ख़ुदा” इस्तिमाल करते हैं लेकिन लफ़्ज़ “अब्बा” यानी “ऐ बाप” (रोमीयों 8:15) “बाप” इस्तिमाल नहीं करते पस इन्जीले जलील की तालीम के मुताबिक़ ख़ुदा मह्ज़ ख़ल्क़ करने की वजह से “बाप” नहीं हो सकता वो सिर्फ़ “ख़ालिक़” हो सकता है। फ़ित्री पैदाइश इन्सान को रुहानी माअनों में ख़ुदा का फ़र्ज़न्द नहीं बना सकती। इन्सान की रुहानी फ़र्ज़न्दियत का ताल्लुक़ उस के जिस्म की क़ुदरती और फ़ित्री पैदाइश से नहीं बल्कि उस की रुहानी पैदाइश के साथ है। चुनान्चे ख़ुदावंद मसीह फ़र्माते हैं “जो जिस्म से पैदा हुआ है वो जिस्म है और जो रूह से पैदा हुआ है रूह है ताज्जुब ना कर कि मैंने तुझसे कहा तुम्हें नए सिरे से पैदा होना ज़रूर है।” (यूहन्ना 3:6 ता 7) ख़ुदा हमारा बाप इसलिए नहीं कि वो हमारा ख़ालिक़ है और ना मह्ज़ जिस्मानी जिस्म की वजह से हम उस के बेटे हैं। (यूहन्ना 1:13) अबुव्वत और इब्नियत का ताल्लुक़ जन्म से नहीं बल्कि नए जन्म से है जैसा हम बाब अव्वल की फ़स्ल दोम में वाज़ेह कर आए हैं कि इब्नियत के रिश्ते से जिस्मानी ज़िंदगी मुराद नहीं बल्कि रुहानी ज़िंदगी मुराद है। इलाही अबुव्वत का ताल्लुक़ जिस्म की फ़ित्री बुनियाद पर नहीं बल्कि अख़्लाक़ी और रुहानी असास पर है।

अबुव्वत और परवरदिगारी

आँजहानी मौलवी सना-उल्लाह साहब पादरी ऐस॰ ऐम॰ पाल साहब मर्हूम के किसी मज़्मून के अल्फ़ाज़ को तोड़-मरोड़ कर अपने बातिल ख़यालात की हिमायत में पेश करके फ़र्माते हैं कि “इन्जील में ख़ुदा के लिए लफ़्ज़ “अब्ब” इस वास्ते आया है कि वो हमारा ख़ालिक़, मालिक और परवरदिगार है वो तमाम कायनात का हक़ीक़ी बादशाह और फ़रमांरवा है।” मौलवी साहब मौसूफ़ लफ़्ज़ “अब्ब” की ये मन-माअनी तश्रीह करके हमसे पूछते हैं कि वो “कौनसी ज़रूरत दाई है कि आप अब्ब का लफ़्ज़ इस्तिमाल करें जो मूहिम ग़लती है और रब का लफ़्ज़ छोड़ दें जो बिल्कुल साफ़ है।” (इस्लाम और मसीहिय्यत सफ़ा 17)


हमने सुतूर बाला में वाज़ेह तौर पर बतला दिया है कि हज़रत कलिमतुल्लाह ने ख़ुदा की ऐसी तमाम सिफ़ात को (ख़्वाह वो तौरेत और सहाइफ़ अम्बिया में ही वारिद क्यों ना हुई हों) अपनी तालीम में इस्तिमाल करने से अहितराज़ फ़रमाया है जिनसे ग़लतफ़हमी का इम्कान भी हो सकता था। मिसाल के तौर पर आपने ख़ुदा के लिए लफ़्ज़ “ख़ालिक़” और “बादशाए” को कभी इस्तिमाल ना किया। अगरचे आप ख़ुदा को ख़ालिक़ मानते थे। (मर्क़ुस 10:6) और ख़ुदा की बादशाही को इस दुनिया में क़ायम करने आए थे (मत्ती 4:17, और 13 बाब वग़ैरह) पस अगर लफ़्ज़ “अब्ब” मूहिम ग़लती होता तो आप इस लफ़्ज़ को कभी इस्तिमाल ना फ़र्माते। हक़ीक़त तो ये है कि मर्हूम मौलवी साहब जैसा हम अर्ज़ कर चुके हैं, जिस्मियत ख़ुदा के लगू अक़ीदे के क़ाइल हैं। इसलिए उनके लिए लफ़्ज़ “अब्ब” मूहिम ग़लती बन जाता है और आप वहम में मुब्तला हो गए हैं। पस वाजिब है कि मोअतरज़ीन इंजीली इस्तिलाहात पर एतराज़ करने की बजाए ख़ुद अपने ग़लत और बातिल अक़ीदों की तन्क़ीद करके उनकी इस्लाह करे।

(2)

ये मफ़रूज़ा क़तई ग़लत है कि इन्जील जलील में ख़ुदा के लिए लफ़्ज़ “अब्ब” इस वास्ते आया है कि वो हमारा ख़ालिक़, मालिक और परवरदिगार है और तमाम कायनात का हक़ीक़ी बादशाह और फ़रमांरवा है “बल्कि हक़ तो ये है कि ये लफ़्ज़ इस वास्ते वारिद हुआ है क्योंकि वो ख़ुदा की मुहब्बत और उस की मुहब्बत की ज़ात को अह्सन तौर पर अदा करता है और ख़ुदा का इस्म-ए-ज़ात होने की वजह से तमाम इलाही सिफ़ात का सरचश्मा है। ख़ुदा हमारा बाप इस लिहाज़ से नहीं कि वो हमारा ख़ालिक़ है बल्कि इस के बरअक्स वो हमारा ख़ालिक़ है क्योंकि वो हमारा बाप है। ख़ुदा हमारा बाप इस वास्ते नहीं कि वो हमारा परवरदिगार है बल्कि वो हमारा परवरदिगार बाप होने की वजह से है। वो हमारा बाप है लिहाज़ा वो हमारा परवरदिगार है। ख़ुदा हमारा बाप इस वास्ते नहीं कि वो हमारा मालिक बादशाह और फ़रमांरवा है बल्कि इस के बरअक्स चूँकि वो बाप है इसलिए हम उस की मुहब्बत के क़ब्ज़े क़ुद्रत में हैं और ये इलाही मुहब्बत कुल कायनात पर हुक्मरान है पस अबुव्वत इलाही ख़ुदा की इस्म-ए-ज़ात है और तमाम सिफ़ाते इलाही और माफ़ीहा इसी एक ज़ात की मज़हर हैं क्योंकि लफ़्ज़ “अब्ब” से ख़ुदा की अख़्लाक़ी माहीयत और अस्लियत का इज़्हार मक़्सूद है। ख़ुदा की ज़ात उस की सिफ़ात का मजमूआ नहीं है बल्कि इन सिफ़ात का इन्हिसार उस की ज़ात यानी मुहब्बत पर है। पस उबुव्वते इलाही का तसव्वुर सिफ़ात परवरदिगारी रहम और फ़ज़्ल वग़ैरह को अपने अंदर लिए हुए है और उनसे बुलंद व बाला और अर्फ़ा है क्योंकि वो उन का मंबा और सरचश्मा है।


जैसा कि हम सुतूर बाला में कह चुके हैं ख़ुदा तमाम कायनात का ख़ालिक़ है लेकिन वो कायनात का बाप नहीं है वो मौजूदात में से सिर्फ बनी नूअ इन्सान का बाप है। यहूदियत और इस्लाम ख़ुदा को बनी-आदम का ख़ालिक़ मानते हैं। लेकिन कुल अफ़राद आलम का बाप नहीं मानते। मोअतरिज़ को ख़ुद इक़रार है कि “ख़ालिक़” और “अब्ब” में फ़र्क़ है। पस उम्मीद है कि अब उनको मालूम हो गया होगा कि वो “कौनसी ज़रूरत दाई” है जो हमको लफ़्ज़ “अब्ब” का इस्तिमाल करने पर मज्बूर करती है। क्या हमारे मुख़ातिब इस्लामी फ़ल्सफे से इस क़द्र ना-बलद हैं कि इतना भी नहीं जानते कि शरीअत इस्लाम में तौहीद अल-रुबुबिया को मानने वाला भी सच्चा मुसलमान नहीं होता अगरचे वो इस बात का क़ाइल होता है कि ख़ुदा एक है जिसने सबको ख़ल्क़ किया है और सब का परवरदिगार और रब है बल्कि सिर्फ़ तौहीद अल-उलूहिया का क़ाइल ही मुसलमान कहलाया जा सकता है। जब हम इस्लामी मुनाज़िरीन की इस्लाम व क़ुर्आन दानी से लाइल्मी की तरफ़ नज़र करते हैं तो हम उनको इस क़ाबिल नहीं पाते कि उनकी किसी बात का भी जवाब दिया जाये लेकिन :-

चह तवाँ किर्द कि बूए तू ख़ुश अस्त

(3)

ख़ुदा की परवरदिगारी और इंतज़ाम-ए-कायनात उबुव्वते इलाही की हम-मअनी और मुतरादिफ़ नहीं है। ख़ुदा तमाम आफ़्रनीश और ख़ल्क़त का परवरदिगार है लेकिन तमाम मख़्लूक़ में से वो सिर्फ़ बनी नूअ इन्सान का बाप है। चुनान्चे हज़रत कलिमतुल्लाह ख़ुदा की परवरदिगारी का ज़िक्र करके फ़र्माते हैं “हवा के परिंदों को देखो कि ना बोते हैं ना काटते हैं ना कोठियों में जमा करते हैं तो भी तुम्हारा आस्मानी बाप उनको खिलाता है। जंगली सोसन के दरख़्तों को ग़ौर से देखो कि वो किस तरह बढ़ते हैं वो ना मेहनत करते हैं ना कातते हैं तो भी मैं तुमसे कहता हूँ कि सुलेमान भी बावजूद अपनी सारी शानो-शौकत के इनमें से किसी एक की मानिंद पोशाक पहने हुए ना था। क्या पैसे की दो चिड़ियां नहीं बिकतीं? इनमें से एक भी तुम्हारे बाप की मर्ज़ी के बग़ैर ज़मीन पर नहीं


गिर सकती।” (मत्ती 6, लूक़ा 11 बाब) पस ख़ुदा तमाम ख़ल्क़त का मेहरबान परवरदिगार क़ाज़ी-उल-हाजात और रोज़ी रसां है। लेकिन वो सिर्फ़ बनी नूअ इन्सान के करोड़ों अफ़राद का बाप है जिन में से हर एक की क़द्र और वक़अत और मंज़िलत दीगर कायनात से कहीं बढ़-चढ़ कर है। (मत्ती 6:26 ता 30) क्योंकि इन्सान ख़ुदा की सूरत पर पैदा किया गया है। (पैदाइश 1:26 ता 27 वग़ैरह) अक़्वाम-ए-आलम के कुल अफ़राद की ज़िंदगी का ख़फ़ीफ़ से ख़फ़ीफ़ वाक़िया भी ख़ुदा की अबुव्वत व मुहब्बत के दायरे से बाहर नहीं है (मत्ती 10:30, लूक़ा 21:14 ता 18, यूहन्ना 10:27 ता 29 वग़ैरह) ख़ुदा बाप की अबुव्वत का ये तक़ाज़ा है कि वो ना सिर्फ अपने बेटों की दुनियावी हाजतों को पूरा करे और उन को बेहतरीन चीज़ें अता फ़रमाए। (मत्ती 6:32, 7:11 वग़ैरह) बल्कि उनको जो दिल के ग़रीब हैं अपनी बादशाही बख़्शे और अपना दीदार उनको दे जो दिल के पाक हैं। (मत्ती 5:2 ता 8) और रूह-उल-क़ुद्स जैसी अज़ीम तरीन नेअमत उनको अता फ़रमाए। (लूक़ा 11:9 ता 13) ख़ुदा बाप अपने फ़रज़न्दों को अपनी क़ुर्बत (नज़दिकी) और रिफ़ाक़त बख़्शता है जिस तरह कोई बेटा बग़ैर किसी शर्त या क़ैद के या हिचकिचाहट महसूस किए अपने बाप के पास आ जा सकता है। ये ताल्लुक़ कोई रस्मी या क़ानूनी या ग़ुलामाना ताल्लुक़ नहीं बल्कि फ़र्ज़न्दाना ताल्लुक़ है जिसमें ख़ुदा की पिदराना मुहब्बत पर ईमान और भरोसे का अंसर ग़ालिब है। (रोमीयों 8:15, 1 यूहन्ना 4:18 ता 19, 2 तीमुथियुस 1:2 वग़ैरह)

(4)

लेकिन ख़ुदा की अबुव्वत उस के रहमो करम और परवरदिगारी वग़ैरह सिफ़ात के मजमूए का नाम नहीं बल्कि उनसे भी बढ़कर वो उस बे-कराँ मुहब्बत से ज़ाहिर होती है जो ख़ुदा बाप अपने गुनेहगार फ़र्ज़न्द के साथ करता है जिसके वो किसी तरह भी मुस्तहिक़ नहीं होते अबुव्वत-ए-इलाही इस बात की मुतक़ाज़ी है कि वो खोए हुओं को तलाश करे और उनको बचाए। ख़ुदा की मुहब्बत अपने नाफ़र्मान बेटों के साथ अदल और इंतिक़ाम से काम नहीं लेती। क्योंकि ख़ुदा ज़ोला इंतिक़ाम नहीं है ना वो कोई जब्बार और क़ह्हार हस्ती है बल्कि अबुव्वत इलाही अपने फ़ैज़ व फ़ज़्ल की बख़्शिश से काम लेकर हमेशा उस की कोशिश में रहती है कि कुल बनी-आदम जो ख़ुदा बाप के साथ अख़्लाक़ी और रुहानी ताल्लुक़ रखने की अहलियत रखते हैं उस के फ़ैज़-ए-वजूद से तौफ़ीक़ हासिल करके इस सलाहियत में वाक़ईत का रंग पैदा कर दें। इस मक़्सद को पूरा


करने के लिए इलाही अबुव्वत व मुहब्बत हर तरह के ईसार को काम में लाती है। (यूहन्ना 3:16) क्योंकि मुहब्बत और ईसार एक ही तस्वीर के दो रुख हैं। (लूक़ा 15 बाब) क्या इस्लाम में ख़ुदा के लिए कोई ऐसा लफ़्ज़ मौजूद है जो इस क़िस्म की अबुव्वत और मुहब्बत के हम-मअनी हो कर इस का बतर्ज़ अह्सन इज़्हार कर सके?

फसल-ए-सोम

इंजीली इस्तिलाहात “ख़ुदा के फ़र्ज़न्द”
“ख़ुदा के ले पालक बेटे” और “ख़ुदा का बेटा”

हमारे ग़ैर-मसीही बिरादरान इंजीली इस्तिलाहात के मुतालिब व मअनी से, बिल-उमूम बे-ख़बर होते हैं। यही वजह है कि वो बे सोचे समझे इन्जील जलील पर बेजा एतराज़ करते हैं। पस इस फ़स्ल में हम उनको चंद ऐसी इस्तिलाहात का सही मफ़्हूम बतलाते हैं। जिनका ताल्लुक़ इलाही अबुव्वत के तसव्वुर के साथ है।

अगरचे अबुव्वत और इब्नियत इज़ाफ़ी लफ़्ज़ हैं लेकिन इलाही अबुव्वत का मफ़्हूम बनी नूअ इन्सान की इब्नियत के मफ़्हूम से जुदागाना है और इन दोनों के माअनों में इम्तियाज़ करना लाज़िम है। ख़ुदा कुल बनी नूअ इन्सान का बाप है क्योंकि उस की ज़ात मुहब्बत है। चूँकि ख़ुदा की ज़ात में तब्दीली वाक़ेअ होनी ना-मुम्किन है लिहाज़ा उस की मुहब्बत अज़ली अबदी लाज़वाल और हमेशा यकसाँ रहने वाली शैय है। पस उस की अबुव्वत का ये तक़ाज़ा है कि वो इन्सान से हमेशा मुहब्बत रखे, लेकिन इन्सानी फ़ित्रत का ये तक़ाज़ा है वो सदा यकसाँ नहीं रहती। उस में हमेशा तब्दीली वाक़ेअ होती रहती है। पस इन्सान ख़ुदा से हमेशा मुहब्बत नहीं रखता। चुनान्चे एक तरफ़ ख़ुदा बाप की मुहब्बत हमेशा यकसाँ रहती है लेकिन दूसरी तरफ़ इन्सान ख़ुदा के साथ अपने ताल्लुक़ात को बरक़रार नहीं रख सकता जो गुनाह की वजह से बिगड़ जाते हैं। लिहाज़ा ज़ाहिर है कि अगरचे हर इन्सान Ideally यानी तसव्वुर के लिहाज़ से ख़ुदा का फ़र्ज़न्द है लेकिन Actually यानी फ़िल-हक़ीक़त वो ख़ुदा बाप से बेवफाई इख़्तियार


करके उस से रूगर्दां हो जाता है और इलाही मुहब्बत से मुँह मोड़ लेता है लेकिन ख़ुदा ना सिर्फ Ideally तसव्वुर के लिहाज़ से बल्कि फ़िल-हक़ीक़त हमेशा बाप है पस हर इन्सान में ख़ुदा के फ़र्ज़न्द होने की सिर्फ सलाहियत और अहलियत मौजूद है और उस का ये फ़र्ज़ है कि इस इम्कान को हक़ीक़त कर दिखाए और फ़िल-वाक़ेअ ख़ुदा का फ़र्ज़न्द बन जाये (यूहन्ना 1:12) ताकि ख़ुदा बाप के साथ उस का अख़्लाक़ी और रुहानी रिश्ता अज़ सर-ए-नूअ क़ायम हो जाए।

ख़ुदा के फ़र्ज़न्द

इस नुक्ते को वाज़ेह करने की ख़ातिर इन्जील जलील में ख़ुदा बाप को ख़ास तौर पर ईमानदारों का बाप कहा गया है। और ईमानदारों को ख़ास तौर पर “ख़ुदा के फ़र्ज़न्द” कहा गया है। (यूहन्ना 1:12 वग़ैरह) कुल बनी नूअ इन्सान में हमेशा इस बात की सलाहियत मौजूद है कि वो इलाही मुहब्बत को महसूस करके तौबा के वसीले ख़ुदा की जानिब रुजू करें और ख़ुदा के फ़र्ज़न्द बन जाएं। लेकिन चूँकि इन्सान ख़ुद-मुख़्तार है वो गुनाह की वजह से इस सलाहियत को खो देता है और इस बात का अहले नहीं रहता कि इम्कान को हक़ीक़त में तब्दील कर सके। पर गो वो गुनाह की पादाश (सिला, बदला) में ख़ुद अपने आपको फ़र्ज़न्दियत के हक़ से महरूम कर देता है लेकिन वो हर वक़्त ईमान के ज़रीये इस हक़ को दुबारा हासिल कर सकता है।

मुस्रिफ़ बेटे की तम्सील। (लूक़ा 15:11 ता 32) इस अम्र को वाज़ेह कर देती है। ख़ुदा फ़रमांबर्दारों और ना फरमानों दोनों क़िस्म के बेटों का बाप है। (आयत 11) लेकिन ना फ़र्मान फ़र्ज़न्द मुहब्बत की अदमे मौजूदगी की वजह से इस रिश्ते को ख़ुद क़ता कर देते हैं जो ख़ुदा और उन के दरम्यान है। (आयत 12, 13) वो इस लायक़ नहीं रहते कि उस के बेटे कहलाएँ।” (आयत 18, 19) रुहानी नुक़्ता निगाह से वो बेटे ना रहे लेकिन बाप की मुहब्बत दोनों क़िस्म के बेटों के लिए लाज़वाल और दाइमी है। (आयात 20, 31, 32) गुनेहगार बेटों में ये सलाहियत बाक़ी रहती है कि वो अज़ सर-ए-नौ हक़ीक़ी फ़र्ज़न्द बन जाएं। पस अगर वो “होश में आकर” ख़ुदा की मुहब्बत की तरफ़ नज़र करें (आयत 17) और उस रिश्ते की तरफ़ निगाह करें जो उन्होंने ख़ुद अपने गुनाहों की वजह से गुमराह हो कर अपने हाथों मुनक़ते कर दिया था। (आयत 18, 19) और इलाही मुहब्बत की तरफ़ रुजू लाएं। (आयत 20) जो हमेशा उनकी तलाश में रहता है। (आयत 4, 8) तो


इलाही अबुव्वत अज़ सर-ए-नौ इस रुहानी ताल्लुक़ को दुबारा क़ायम उस्तिवार कर देती है जो पहले मौजूद था। (आयत 20, 25) क्योंकि अगर हम अपने गुनाहों का इक़रार करें तो इलाही अबुव्वत का ये तक़ाज़ा है कि वो हमारे गुनाहों को माफ़ करे और हम को हर तरह की नारास्ती से पाक करे और इलाही अबुव्वत के इस तक़ाज़े की वजह ये है कि इलाही अबुव्वत सच्ची अज़ली अबदी और दाइमी है और उस की मुहब्बत की वफ़ादारी भी अबदी है। (1 यूहन्ना 1:9)

तड़प के शान-ए-करीमी ने ले लिया बोसा

कहा जो सुरुर को झुका कर गुनेहगार हूँ मैं (इक़बाल)

सुतूरे बाला से ज़ाहिर हो गया होगा कि गो कुल बनी नूअ इन्सान में ये अहलियत मौजूद है कि वो ख़ुदा के फ़र्ज़न्द फ़िल-वाक़ेअ हो जाएं लेकिन ख़ुदा ख़ास तौर पर ईमानदारों का बाप है जो ख़ुदा की मुहब्बत का हक़ीक़ी तजुर्बा करके उस को सच्चे दिल से बाप मानते हैं। (मत्ती 6:9, 7:11, लूक़ा 11:13, 1 तमथीस 4:10 वग़ैरह) क्योंकि क़ुदरती तौर पर सिर्फ वही लोग इलाही मुहब्बत का मज़ा जान सकते हैं। जो बाप के साथ बेटों की तरह रिफ़ाक़त रखते हैं। (रोमीयों 8:15 ता 17, ग़लतीयों 4:6, 1 पतरस 1:17 वग़ैरह) जिन लोगों को इस मुहब्बत का तजुर्बा ही नहीं वो ना तो इलाही अबुव्वत को जान सकते हैं और ना उसकी क़द्र करने के अहले हैं। वो ख़ुदा की फ़र्ज़न्दियत की सलाहियत ख़ुद खो देते हैं। अबुव्वत से मुराद एक ऐसा रिश्ता है जो अख़्लाक़ी और रुहानी है और नई पैदाइश से ताल्लुक़ रखता है इसी वास्ते मुक़द्दस यूहन्ना फ़रमाता है कि “'जो उस के नाम पर ईमान लाते हैं वो ना ख़ून से ना जिस्म की ख़्वाहिश से ना इन्सान के इरादे से बल्कि ख़ुदा से पैदा हुए जितनों ने कलिमतुल्लाह को क़ुबूल किया उसने उनको ख़ुदा के फ़र्ज़न्द बनने का हक़ बख़्शा।” (यूहन्ना 12:1) ईमानदार इस रुहानी ताल्लुक़ का अपनी रोज़ाना अमली ज़िंदगी के हर शोबा में तजुर्बा करते हैं। (मत्ती 5:9, 45) और वो अख़्लाक़ी और रुहानी नश्वो नुमा पाकर क़ुर्बत (नज़दिकी) इलाही हासिल करके ख़ुदा की कामिल मुहब्बत में रोज़ बरोज़ तरक़्क़ी करते चले जाते हैं। पस हुक़ूक़-उल-ईबाद को अह्सन तौर पर पूरा करने का इन्हिसार इलाही मुहब्बत और अबुव्वत पर है। (मत्ती 5:48) जनाबे मसीह ने फ़रमाया है कि ख़ुदा के बेटे वो हैं जो ख़ुदा की सिफ़ात अपने अंदर पैदा करते हैं। (मत्ती 5:48) बअल्फ़ाज़े दीगर उबुव्वते इलाही का तसव्वुर हुक़ूक़-उल-ईबाद पर हावी है। हज़रत कलिमतुल्लाह ने हुक़ूक़-उल्लाह और हुक़ूक़-उल-ईबाद


के मुताल्लिक़ जो तालीम दी है वो सबकी सब इलाही अबुव्वत के तसव्वुर की तफ़्सील, तश्रीह और तौज़ीह है।

मसीह इब्ने-अल्लाह

इन्जील जलील में अल्फ़ाज़ “ख़ुदा का बेटा” सीग़ा वाहिद में ख़ुसूसीयत के साथ हज़रत कलिमतुल्लाह की ज़ात-ए-पाक के लिए वारिद हुए हैं। आपका जो ताल्लुक़ आस्मानी बाप के साथ है वो लासानी और बे-अदील है। इस सिलसिले में आपकी मुबारक ज़िंदगी के दो वाक़ियात खासतौर पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं। यानी जब आपने बपतिस्मा पाया और जब आपकी सूरत बदल गई। (मर्क़ुस 1:11, 9:7) दोनों मौक़ों पर आस्मान पर से ये एक आवाज़ सुनाई दी कि “तू मेरा बेटा है (तेरा नाम) मजबूब (रब्बानी) है जिसमें से ख़ुश हूँ। तुम उस की सुनो।” (मत्ती 17:5) यही वजह है कि हज़रत इब्ने-अल्लाह की ज़बाने हक़ीक़त तर्जुमान पर ख़ुदा के लिए हमेशा लफ़्ज़ “बाप” जारी था। आपने “ख़ुदा” के लिए लफ़्ज़ “बाप” के इलावा कोई और ऐसा लफ़्ज़ इस्तिमाल ना फ़रमाया जो अहले यहूद में मुरव्वज था। चुनान्चे इन्जील लूक़ा में लफ़्ज़ “बाप” 17 दफ़ाअ, और इन्जील मत्ती में 45 दफ़ाअ, इन्जील मर्क़ुस में 5 बार और इन्जील यूहन्ना में 90 बार वारिद हुआ है। इन मुख़्तलिफ़ मुक़ामात का बनज़र-ए-ग़ाइर मुतालआ करने से ये ज़ाहिर हो जाता है कि ख़ुदा बाप और मसीह इब्ने-अल्लाह में जो ताल्लुक़ है इस रिश्ते में कोई मख़्लूक़ आपका हम-सर और शरीक नहीं है। चुनान्चे हज़रत इब्ने-अल्लाह अपने मुताल्लिक़ किसी बात का ज़िक्र करते हैं तो ख़ुदा की निस्बत फ़र्माते हैं “बाप”, “मेरा बाप” लेकिन जब दूसरों के मुताल्लिक़ अबुव्वत इलाही का ज़िक्र करते हैं “तुम्हारा बाप”, “तुम्हारा आस्मानी बाप” और जब दोनों का ज़िक्र करना मक़्सूद होता तो आप “हमारा बाप” कभी नहीं फ़र्माते बल्कि “मेरा बाप और तुम्हारा बाप” फ़र्माते हैं ये तमीज़ हर चहार अनाजील में पाई जाती है। (मत्ती 11:27, 24:36, मर्क़ुस 13:32, लूक़ा 10:22, यूहन्ना 20:17, 2:16, 5:17, 6:32 वग़ैरह) इस हक़ीक़त से ज़ाहिर है कि हज़रत इब्ने-अल्लाह दीगर इन्सानों की मानिंद ख़ुदा के फ़र्ज़न्द नहीं हैं। और ना आप उनके साथ एक ही ज़मुरे और गिरोह में शामिल हैं बल्कि आप इंजीली इस्तिलाह में “इब्ने वहीद” और ख़ुदा के “इकलौते” बेटे हैं और आपका शुमार दीगर ईमानदारों की क़तार में नहीं है। इस हक़ीक़त से आपके रसूल और अहले-यहूद सब बख़ूबी वाक़िफ़ थे। (यूहन्ना 5:18, 10:30, 38 वग़ैरह) आप आस्मानी बाप की अबुव्वत और मुहब्बत को ऐसे तौर पर जानते हैं जिस तरह कोई


दूसरा इन्सान ज़ईफ़-उल-बयान नहीं जानता और ना मान सकता है। (मत्ती 11:27) आपने अपने ख़याल, क़ौल और फ़ेअल से अपनी रफ़्तार और गुफ़तार से ग़रज़ कि एक एक अदा से ख़ुदा की मुहब्बत व अबुव्वत का मुकाशफ़ा आलम-व-अलमियान पर ज़ाहिर कर दिया। (यूहन्ना 1:14, 15:17 अलीख, 14:6 ता 11, 17:4, 25, 26 वग़ैरह) ऐसा कि मुक़द्दस यूहन्ना फ़रमाता है, “ख़ुदा को कभी किसी ने नहीं देखा इकलौता बेटा जो बाप की गोद में है उसी ने उस को ज़ाहिर किया।” (1:18) हज़रत इब्ने-अल्लाह की ज़बान पर सबसे पहला फ़िक़्रह जो इन्जील जलील में दर्ज है वो “मेरा बाप” है। (लूक़ा 2:49) और वो कोई मह्ज़ हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ नहीं है कि मुनज्जी आलमीन के सबसे आख़िरी कलमे में जिसमें आपने अपनी रूह जान आफ़रीं के सपुर्द की थी जो अल्फ़ाज़ आपकी ज़बाने हक़ीक़त तर्जुमान से निकले उनमें “बाप” का लफ़्ज़ ख़ुदा के लिए आया है। (लूक़ा 23:46)

हज़रत इब्ने-अल्लाह ने इस इम्तियाज़ को जो आप में और दीगर इन्सानों में था हमेशा बरक़रार रखा। यही वजह है कि शक़ी अहले-यहूद इस बात के शाकी थे कि आप “ख़ुदा को ख़ास अपना बाप।” कहते थे और आपके क़त्ल के दरपे थे। (यूहन्ना 5:18, 10:30 ता 38) यहां हम बख़ोफ़-ए-तवालत सिर्फ एक हवाले पर ही इक्तिफ़ा करते हैं जिसमें हज़रत इब्ने-अल्लाह की एक दुआ के अल्फ़ाज़ दर्ज हैं। आप फ़र्माते हैं “ऐ बाप आस्मान और ज़मीन के ख़ुदावंद। मैं तेरी हम्द करता हूँ कि तूने ये बातें दानाओं और अक़्लमंदों से छुपाईं और बच्चों (सीधे सादे लोगों) पर ज़ाहिर कीं। हाँ, ऐ बाप क्योंकि ऐसा ही तुझे पसंद आया। मेरे बाप की तरफ़ से सब कुछ मुझे सौंपा गया है और कोई बेटे को नहीं जानता सिवा बाप के और कोई बाप को नहीं जानता सिवा बेटे के और उस के जिस पर बेटा उसे ज़ाहिर करना चाहे।” (मत्ती 11:25, लूक़ा 10:21)

इब्ने-अल्लाह का मफ़्हूम और क़ुर्आन

इन्जील यूहन्ना की इब्तिदा में वारिद हुआ है “इब्तिदा में कलमा था और कलमा ख़ुदा के साथ था और कलमा ख़ुदा था सब मौजूदात कलमे के ज़रीये पैदा हुई। उस में ज़िंदगी थी और वो ज़िंदगी बनी नूअ इन्सान का नूर था। कलमा मुजस्सम हुआ।” क़ुर्आन में भी आया है “यानी ऐ मर्यम अल्लाह तुझको अपने कलमे की बशारत देता है।” (सूरह


आले-इमरान 4) फिर सूरह निसा में वारिद हुआ है, “यानी तहक़ीक़ मसीह ईसा इब्ने मर्यम अल्लाह का रसूल है और उस का कलमा है जो मर्यम की तरफ़ डाल दिया और वो अल्लाह का रूह है।” (आयत 149) हर दो आयात में हज़रत मसीह को कलिमतुल्लाह यानी ख़ुदा का कलाम (کلمتہ منہ) और रूह अल्लाह यानी का रूह (روح منہ) कहा गया है। क़ुर्आन मजीद में इब्ने मर्यम के सिवा किसी दूसरे इन्सान या नबी के लिए अल्फ़ाज़ کلمتہ منہ और روح منہ वारिद नहीं हुए। क्योंकि नूअ इन्सानी (जो कलमे के ज़रीये वजूद में आई) मख़्लूक़ है और ग़ैर-उल्लाह है लेकिन दो आयात बाला में लफ़्ज़ منہ आया है जो इज़ाफ़त तजनीसी (تجنیسی) है। जिस का मतलब ये है कि हज़रत कलिमतुल्लाह व रूह-उल्लाह मसीह ईसा बिन मर्यम उसी जिन्सी से ताल्लुक़ रखते हैं जिस जिन्स का अल्लाह है। बअल्फ़ाज़े दीगर अल्लाह और कलिमतुल्लाह दोनों एक ही जिन्स के हैं और एक ही जिन्स से निस्बत रखते हैं ये इज़ाफ़त और निस्बत ग़ैर-उल्लाह और मख़्लूक़ इन्सान या मौजूदात में से किसी शैय के लिए इस्तिमाल नहीं हो सकती और ना हुई है।

अला-हज़ा-उल-क़ियास सूरह निसा की मज़्कूर बाला आयते शरीफा में अल्फ़ाज़ روح منہ में भी यही इज़ाफ़त बजिन्सी है और इन अल्फ़ाज़ का भी यही मतलब है कि हज़रत रूह-उल्लाह मसीह ईसा इब्ने मर्यम उसी जिन्स के हैं जिस जिन्स का अल्लाह है। ये इज़ाफ़त बजिन्सी साबित करती है कि रूह-ए-इलाही का मतलब ये है कि अल्लाह और रूह-उल्लाह एक वाहिद लाशरीक जिन्स के फ़र्द-ए-वाहिद हैं अगरचे नाम दो हैं। आयात बाला के अल्फ़ाज़ कलमा की शख़्सियत और ज़ातियत को ज़ाहिर करते हैं और साबित करते हैं कि जो मर्यम सिद्दीक़ा से मौलूद हुआ वो ख़ुदा-ए-अज़्ज़ व जल की ज़ात से है। बअल्फ़ाज़-ए-इन्जील “इब्तिदा में कलमा था और कलमा ख़ुदा के साथ था और कलमा ख़ुदा था” पस दोनों कुतुब समावी से साबित है कि जो कलमा मुजस्सम हुआ वो अज़ली है और उस की ज़ात ख़ुदा की ज़ात में से है और उस का जोहर ख़ुदा के जोहर में से है मसीही कलीसिया के अक़ाइद नामे के अल्फ़ाज़ में कलिमतुल्लाह ख़ुदा में से ख़ुदा है। नूर में से नूर है। हक़ीक़ी ख़ुदा में से हक़ीक़ी ख़ुदा है। वो मसनू हैं बल्कि मौलूद है। उस का और बाप का एक ही जोहर है। उस के वसीले से सब चीज़ें ख़ल्क़ हुईं। हकीम क़ानी के अल्फ़ाज़ सिर्फ आपकी क़ुद्दूस ज़ात पर सादिक़ आते हैं :-

نہانی از نظرائے بے نظر از بس عیانستی
عیاں شد سرایں معنی میگفتم نہانستی
گہے گویم عیانستی گہے گوم نہانستی
نہ ایں استی نہ آنستی ہم ایں آستی ہمم آنستیی


ख़ुदा बाप और इब्ने-अल्लाह का बाहमी ताल्लुक़ ना सिर्फ बेनज़ीर और लासानी है बल्कि अज़ली है। चुनान्चे आँख़ुदावंद की एक और दुआ में ये अल्फ़ाज़ आते हैं, “ऐ बाप तूने बनाए आलम से पेश्तर मुझसे मुहब्बत रखी। ऐ आदिल बाप दुनिया ने तो तुझे नहीं जाना मगर मैंने तुझे जाना है।” (यूहन्ना 3:35) “बेटा वही काम करता है जो बाप करता है।” (5:20) आपकी ज़िंदगी का मिशन और प्रोग्राम बाप की अबुव्वत व मुहब्बत के मुताबिक़ है (5:17) इसी वास्ते आपके तमाम मोअजज़ात और अफ़आल से मुहब्बत, रहम और हम्दर्दी टपकती है। और उनका हक़-बजानिब होना ख़ुदा की अबुव्वत और ज़ाते इलाही की मुहब्बत से ज़ाहिर और साबित है। हज़रत इब्ने-अल्लाह की तालीम का एक एक लफ़्ज़ और आपकी ज़िंदगी का एक-एक वाक़िया ख़ुदा की मुहब्बत और अबुव्वत का कामिल और अकमल मज़हर और सबूत है। (यूहन्ना 10:26 ता 38)

ख़ुदा के ले-पालक बेटे

पस हज़रत इब्ने-अल्लाह की इब्नियत एक लासानी और बेनज़ीर रिश्ता है। जिन माअनों में मसीह “ख़ुदा का बेटा” है उन माअनों में दीगर इन्सान “ख़ुदा के बेटे” नहीं हैं। इस इम्तियाज़ को क़ायम रखने के लिए इन्जील जलील की कुतुब को लिखने वाले मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ और इस्तिलाहात का इस्तिमाल करते हैं। चुनान्चे मुक़द्दस यूहन्ना अपनी तहरीरात में सिर्फ आँखुदावंद के लिए ही “ख़ुदा का बेटा” या “इकलौता बेटा” की इस्तेलाहें इस्तिमाल करते हैं। लेकिन दीगर ईमानदारों के लिए एक दूसरी इस्तिलाह “ख़ुदा का फ़र्ज़न्द” इस्तिमाल करते हैं। (1 यूहन्ना 5:2, यूहन्ना 11:52, 1:12, 5:25, 9:35, 20:31, 1:18, 3:16 वग़ैरह)

मुक़द्दस पौलुस सल़्तनत-ए-रूमा की एक क़ानूनी इस्तिलाह का इस्तिमाल करके इस इम्तियाज़ को क़ायम रखते हैं आप सय्यदना मसीह को “खुदा का बेटा” लेकिन बाक़ी ईमानदारों को “ले-पालक बेटे” का नाम देते हैं। (रोमीयों 1:4, ग़लतीयों 2:20, 4:5 इफ़िसियों 1:5, रोमीयों 8:15 ता 22 वग़ैरह) ये इस्तिलाह सिर्फ़ मुक़द्दस पौलुस ही इस्तिमाल करते हैं। इंजीली मजमूआ कुतुब का कोई दूसरा मुसन्निफ़ इस क़ानूनी इस्तिलाह का इस्तिमाल नहीं करता।


लेपालक बेटा बनाने की रस्म रूमी क़ानून में जायज़ थी। रूमी क़ानून के मुताबिक़ बाप ख़ानदान के बच्चों पर ख़ुद-मुख़्तार बादशाह का सा इख़्तियार रखता था यहां तक कि बालिग़ औलाद भी उसके इख़्तियार के क़ाबू में थी। जिस तरह ग़ुलाम या कोई दूसरा माल फ़रोख़्त किया जा सकता था उसी तरह एक ख़ानदान का बेटा किसी दूसरे ख़ानदान का ले-पालक बन सकता था। ये रस्म पाँच गवाहों के सामने अमल में आती थी। इसके बाद ले-पालक बेटे के पुराने ताल्लुक़ात बिल्कुल मुनक़ते हो जाते थे हत्ता कि उस के क़र्ज़ भी मिट जाते थे। क़ानून की नज़र में ले पालक बेटा एक नया मख़्लूक़ बन जाता था और वो एक नए ख़ानदान में अज़ सर-ए-नौ पैदा हो जाता था।

चुनान्चे इस मुरव्वजा इस्तिलाह के ज़रीये मुक़द्दस पौलुस अपने रूमी नव् मुरीदों को ख़ुदा की अबुव्वत, ईमानदारों की फ़र्ज़न्दियत, पुराने गुनाहों की माफ़ी, नए सिरे से पैदा होने और आस्मान की बादशाही के वारिस होने का मफ़्हूम समझाते हैं और फ़र्माते हैं कि “मैं इन्सान के तौर पर कहता हूँ।” (ग़लतीयों 3:15) यानी मैं मसीही नजात की हक़ीक़त को इन्सानी रसूम व रिवाज की तश्बीह देकर तुम पर वाज़ेह कर देता हूँ कि ख़ुदा अपने फ़ज़्ल की वजह से मसीह के वसीले से बनी नूअ इन्सान को अपने ले-पालक बेटे बनाता है और रूह इस बात का गवाह है। (रोमीयों 8:16) जिस तरह रूमी क़ानून में गवाह का होना ज़रूरी है। ले-पालक होने से हमको ना सिर्फ इलाही अबुव्वत और मुहब्बत की बख़्शिश मिलती है बल्कि इब्नियत के तमाम फ़ायदे और हुक़ूक़ मिलते हैं। (8:17) वो हमारे गुनाहों के मिट जाने और हमारी बहाली की बिना है जिस तरह क़ानून में क़र्ज़ मिट जाते हैं और इन्सान अज़ सर-ए-नौ अपने पांव पर खड़ा हो जाता है। ख़ुदा की पुर मुहब्बत फ़ज़्ल की वजह से ये मुहब्बत उन सब के लिए है जो उस के साथ ताल्लुक़ रखते हैं। (इफ़िसियों 1:4 ता 5) जो इन्सान पहले इब्लीस के फ़र्ज़न्द थे। (यूहन्ना 8:41 ता 44) अब ख़ुदा के फ़ज़्ल और मुहब्बत से उस के ख़ानदान में शामिल किए गए हैं। उन्होंने अपने पुराने बाप इब्लीस से हर क़िस्म का ताल्लुक़ क़ता कर लिया है और अब इन नजात याफ्ता ईमान दारों का बाप ख़ुदा है। और ये नजात याफ्ता ईमानदार अज़ सर-ए-नौ पैदा हो जाते हैं।


गो मुक़द्दस पौलुस रसूल इन तमाम रुहानी रमूज़ को समझाने की ख़ातिर एक क़ानूनी इस्तिलाह का इस्तिमाल फ़र्माते हैं लेकिन आपके ख़याल में ईमानदारों की तबनियत और उनका ले-पालक होना मह्ज़ क़ानूनी कार्रवाई या एक रस्मी बात नहीं है बल्कि वो दिल की एक ज़िंदगी बख़्श तब्दीली है जिसका असर ईमानदार की ज़िंदगी के हर शोबे पर पड़ता है।

मौलवी सना-उल्लाह साहब को भी “ख़ुदा के बेटे” की इस्तिलाह पर इन माअनों में एतराज़ नहीं होना चाहिए जो इन्जील जलील में हैं। मुक़द्दस पौलुस इस इस्तिलाह की तौज़ीह करके कहते हैं कि “बेटे” से मुराद “ले-पालक बेटे” से है। चुनान्चे आप फ़र्माते हैं कि “जितने ख़ुदा की रूह की हिदायत से चलते हैं वही ख़ुदा के बेटे हैं। क्योंकि तुमको गु़लामी की रूह नहीं मिली। जिससे फिर डर पैदा हो बल्कि ले-पालक होने की रूह मिली है जिससे हम अब्बा यानी ऐ बाप कहकर पुकारते हैं।” (रोमीयों 8:14, ग़लतीयों 4:5 ता 7 वग़ैरह) और क़ुर्आन भी साफ़ कहता है कि “अल्लाह ने तुम्हारे ले-पालक बेटों को हक़ीक़ी बेटा नहीं ठहराया।” (अह्ज़ाब रुकूअ 1) पस अब क़ुर्आन व इन्जील दोनों की रु से मुआमला साफ़ हो गया कि मसीही इस्तिलाह “ख़ुदा के बेटे” से मुराद ख़ुदा के नाऊजू बिल्लाह सुल्बी (सगा) बेटे नहीं और दोनों आस्मानी सहीफ़ों की रु से आँजहानी मौलवी साहब की पेश कर्दा दलील मर्दूद साबित होती है।

नाज़रीन पर अब ज़ाहिर हो गया होगा कि हज़रत इब्ने-अल्लाह की तालीम से जो अनाजील अर्बा में मुन्दरज है ये ज़ाहिर है कि ख़ुदा जिसकी ज़ात मुहब्बत है कुल बनी नूअ इन्सान का बाप है और अक़्वामे आलम के तमाम अफ़राद यह अहलियत रखते हैं कि ख़ुदा के फ़र्ज़न्द बन सकें जो इन्सान इस सलाहियत को ईमान के ज़रीये बरूए-कार लाकर उस को अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में वाक़ईयत का जाम्आ पहना कर एक हक़ीक़त बना देते हैं वो इलाही अबुव्वत को क़ुबूल करते हैं जनाब मसीह ऐसे ईमानदार इन्सानों को ख़ुदा के फ़र्ज़न्द बनने का हक़ अता फ़रमाता है। क्योंकि सिर्फ वही ख़ुदा का इब्ने-वहीद है जो आलम व अलमियान को ये दावत देता है कि वो उस के क़दमों में आकर उस के मक्तब में अबुव्वत इलाही का हक़ीक़ी मतलब सीखें ताकि वो ख़ुदा के फ़र्ज़न्द बन जाएं और जान सकें कि ख़ुदाए दो जहान ख़ुद उनसे अज़ली और अबदी मुहब्बत रखता है। (यूहन्ना 4:23, 14:6, 24, 15:16 16:27 वग़ैरह)


जनाब मसीह का तवस्सुल लाज़िमी है क्योंकि सिर्फ वही ख़ुदा बाप की मुहब्बत को कमा-हक़्क़ा, जानते हैं। बाप की मर्ज़ी को बजा लाना आपकी ख़ुराक है। (यूहन्ना 4:34) आप ख़ुदा बाप की ज़िंदगी अपने अंदर रखते हैं। (5:26) लिहाज़ा आप मुर्दा रूहों को ज़िंदगी बख़्शते हैं। (5:21) आपके ख़याल, अक़्वाल और अफ़आल बाप के हैं। (5:17) ऐसा कि आपने फ़रमाया कि “जिसने मुझे देखा उसने बाप को देखा।” (यूहन्ना 8:29 फिलिप्पियों 2:7 ता 11, इब्रानियों 5:8 वग़ैरह) लिहाज़ा सिर्फ आप ही उबुव्वते इलाही को बनी नूअ इन्सान पर बेहतरीन और अह्सन तौर पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) कर सकते थे (मत्ती 11:28, यूहन्ना 14:15, 17:6 ता 10 वग़ैरह) इसी लिए आपकी क़ुद्दूस ज़ात ख़ुदा की मुहब्बत की कामिल और अकमल मज़हर है।

इन्जील जलील की दीगर कुतुब भी इसी सह गोना सदाक़त को पेश करती हैं। चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस फ़र्माते हैं कि, “(1) ख़ुदा कुल बनी नूअ इन्सान का बाप है। (इफ़िसियों 2:18, 3:14, 5:20, 6:23 वग़ैरह) लेकिन (2) ईमानदार उस के ख़ास माअनों में फ़र्ज़न्द हैं। (रोमीयों 8:15, ग़लतीयों 3:26, 4:5 अलीख) जो मसीह के वसीले से ख़ुदा के ले-पालक बेटे बन जाते हैं। (इफ़िसियों 1:15) क्योंकि (3) सिर्फ वही हक़ीक़ी माअनों में इब्ने-अल्लाह है। (रोमीयों 1:4, 2 कुरिन्थियों 1:19, इफ़िसियों 4:13, 1 थिस्सलुनीकियों 1:10 वग़ैरह) ख़ुदा असली माअनों में जनाब मसीह का बाप है। (2 कुरिन्थियों 1:3, इफ़िसियों 1:3 वग़ैरह) वो उस का अपना बेटा है। (रोमीयों 8:3 ता 32 वग़ैरह)

पस न तो इंजीली मजमूए का कोई मुसन्निफ़ और ना ही मुक़द्दस पौलुस ख़ुदा बाप और इब्ने-अल्लाह के बाहमी ताल्लुक़ को ख़ुदा और दीगर इन्सानों के बाहमी ताल्लुक़ को मिलाते हैं बल्कि दोनों की तमीज़ को बरक़रार और क़ायम करके उस को उस्तिवार और मुहक्कम कर देते हैं अबुव्वत इलाही इन्जील जलील के तमाम मुसन्निफ़ीन के अक़ाइद की और मुक़द्दस पौलुस की दीनयात की बुनियाद है जिस तरह वो हज़रत कलिमतुल्लाह की तालीम की बुनियाद है और लफ़्ज़ “अब्बा” दोनों की तालीम का बुनियादी पत्थर है। (रोमीयों 8:15, ग़लतीयों 4:6, मर्क़ुस 14:36 वग़ैरह)

उम्मीद है कि अब मोअतरज़ीन समझ गए होंगे कि “वो कौनसी ज़रूरत दाई है” जिसकी वजह से हम ख़ुदा के लिए लफ़्ज़ “रब” की बजाए लफ़्ज़ “अब्ब” इस्तिमाल करते हैं। हमारे ख़याल में उनको भी ग़ालिबन इस बात में इक़बाल करने में ताम्मुल ना होगा


कि ख़ुदा के तसव्वुर में कम अज़ कम वो सिफ़त मौजूद होनी चाहिए जो हमको इन्सानी ताल्लुक़ात में बेहतरीन और पाकीज़ा तरीन नज़र आती है। क्योंकि अगर वो सिफ़त ख़ुदा के तसव्वुर में मौजूद ना हो तो मख़्लूक़ इन्सान अपने ख़ालिक़ से बेहतर होगा। पस इलाही अबुव्वत का तसव्वुर किसी हाल में भी इन्सानी अबुव्वत के तसव्वुर से कम ना होना चाहिए बल्कि इस का मफ़्हूम इस क़द्र बुलंद व बाला होना लाज़िमी है। जिस क़द्र ख़ुदा इन्सान से बुलंद व बाला है।

तौरेत शरीफ़ में वारिद है कि ख़ुदा ने इन्सान को अपनी सूरत पर पैदा किया। (पैदाइश 1:27) हदीस में भी आया है कि خلق آدم علی صورتہ यानी ख़ुदा ने आदम को अपनी सूरत पर पैदा किया। जिसका मतलब ये है कि हम इलाही सिफ़ात व ज़ात का वर्क इन्सान के बेहतरीन औसाफ़ के ज़रीये हासिल कर सकते हैं। चुनान्चे बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत फ़ारूक़ से रिवायत है कि एक दफ़ाअ एक क़ैदी औरत क़ैदीयों में से अपने बच्चे की तलाश में भागी फिरती थी। जब वो उस को मिला तो उसने उस को अपने सीने से लगाया। दूध पिलाया ये देखकर रसूल अरबी ने सहाबा से कहा कि इस औरत के रहम से जो उसने अपने बेटे पर किया ख़ुदा का रहम अपने बंदों पर बहुत ज़्यादा है। (मशारिक़-उल-अनवार नम्बर 1375) इन्सानी ताल्लुक़ात में बेहतरीन शेय’ मुहब्बत है जो इन्सानी अबुव्वत व उखुव्वत के ताल्लुक़ात में हमको नज़र आती है पस ख़ुदा की ज़ात में मुहब्बत का पाकीज़ा तरीन शक्ल में होना एक लाबदी अम्र है। चुनान्चे हज़रत इब्ने-अल्लाह फ़र्माते हैं, “तुम में ऐसा कौन बाप है कि अगर उस का बेटा उस से रोटी मांगे तो वो उस को पत्थर दे? या अगर मछली मांगे तो उसे साँप दे? पस जबकि तुम बुरे हो कर अपने बच्चों को अच्छी चीज़ें देना जानते हो तो तुम्हारा बाप जो आस्मान पर है अपने मांगने वालों को अच्छी चीज़ें क्यों ना देगा?” (मत्ती 7:9, ता 11, लूक़ा 11:11 ता 13) दुनियावी बाप की मुहब्बत ना सिर्फ बेटे की जिस्मानी पैदाइश से ही ज़ाहिर होती है बल्कि उस की जिस्मानी और दिमाग़ी परवरिश, अख़्लाक़ी और रुहानी तालीम व तर्बियत और तमाम हाजतों को ईसार के ज़रीये रफ़ा करने से ज़ाहिर होती है लेकिन वो सबसे ज़्यादा उस मौक़े पर ज़ाहिर होती है जब बेटा अय्यामे बलूग़त को पहुंच कर आवारा हो कर भटक जाता है। तब बाप की मुहब्बत कुढ़ती है और माँ की ममता रोती है और दोनों मुहब्बत के हाथों मज्बूर हो कर हर मुम्किन मौक़े की तलाश में रहते हैं। ताकि उनका आवारा बेटा किसी ना किसी तरह फिर ख़ानदान की गोद में वापिस आ जाए और माँ बाप के साथ दुबारा रिफ़ाक़त रखे। जब हम बुरे हो कर अपने बच्चों की


ख़ातिर हर क़िस्म का ईसार करते हैं तो क्या अबुव्वत इलाही इस बात का तक़ाज़ा नहीं करती कि खोए हुओं को ढ़ूंढ़े और उनको शैतान के पंजे से रिहाई दे? (लूक़ा 19:11, मत्ती 18:10 ता 14, लूक़ा 15 बाब वग़ैरह) और जब इलाही मुहब्बत अपने मिशन में कामयाब हो जाती है तो “एक तौबा करने वाले गुनेहगार की बाबत आस्मान पर ख़ुदा के फ़रिश्तों के सामने ख़ुशी होती है।”

अनाजील अरबा का मुतालआ हम पर ज़ाहिर कर देता है कि हज़रत इब्ने-अल्लाह के सवानिह हयात अबुव्वत इलाही के तसव्वुर की बेहतरीन तफ़्सीर हैं। अहले-यहूद के रब्बी आम्मतुन्नास को सिर्फ तौबा की दावत देने पर ही किफ़ायत किया करते थे। वो ख़ुद गुनेहगारों से किसी क़िस्म का मेल-जोल नहीं रखते थे बल्कि उनको जमाअत से ख़ारिज करके उनसे नफ़रत करते थे ऐसा कि फ़रीसियों और उन लोगों के दर्मियान जिनको वो “गुनेहगार” कहते थे एक वसीअ ख़लीज हाइल थी। लेकिन इब्ने-अल्लाह का वतीरा इस क़िस्म का ना था। आप मुहब्बत मुजस्सम थे। पस आप गुनेहगारों को तौबा की दावत देने पर ही क़नाअत नहीं करते थे। बल्कि उनके साथ मेल मिलाप रखते थे। उनके साथ नशिस्त व बर्ख़ासत करते। उनके साथ खाते पीते और उनकी तलाश व जुस्तजू में रहते थे और ख़ुदा की मुहब्बत और अबुव्वत की ना सिर्फ ज़बान से ही तालीम देते थे बल्कि अपनी तर्ज़-ए-ज़िदंगी और नमूने से उन पर अबुव्वत-ए-इलाही के गहरे रमूज़ का मतलब खोलते थे यहां तक कि फ़रीसी ताना दे कर कहते थे कि ये शख़्स “गुनेहगारों का यार है।” (मत्ती 11:19) आप जवाब में फ़र्माते थे कि तंदरुस्तों को तबीब दरकार नहीं बल्कि बीमारों को इस की हाजत होती है पस मैं रास्तबाज़ों को नहीं बल्कि गुनेहगारों को तौबा के लिए बुलाने आया हूँ।” (मर्क़ुस 2:17, मत्ती 9:13 वग़ैरह) क्योंकि वो भी ख़ुदा के फ़र्ज़न्द हैं और मैं उनको ढूंढता और तलाश करता हूँ। क्योंकि ख़ुदा की मुहब्बत उनकी तलाश करती है। (लूक़ा 19:9 ता 10:15-20 वग़ैरह)

अब मोअतरज़ीन ही ख़ुदारा इन्साफ़ करके बतलाएं कि क्या क़ुरआनी तसव्वुर ख़ुदा और “रब” का लफ़्ज़ “अब्बा” के लतीफ़ और पाकीज़ा मफ़्हूम को अदा कर सकता है? क्या क़ुरआनी तसव्वुर-ए-ख़ुदा में मुहब्बत और ईसार और तलाश-ए-गुनेहगार मौजूद हैं? और अगर नहीं और यक़ीनन इस सवाल का जवाब सिर्फ़ नफ़ी में ही हो सकता है तो किया “अब्ब” का इंजीली तसव्वुर “रब” के क़ुरआनी तसव्वुर से बेहतर और बरतर नहीं? ऐ मेरे मुसलमान भाइयो ख़ुदा बाप की मुहब्बत आपको तलाश करती है काश कि आप मुनज्जी आलमीन की आवाज़ को सुनें जो तमाम आलम के गनेहगारों को ये ख़ुशी की ख़बर देती है,“ऐ सब लोगो जो थके और गुनाह के बोझ से दबे हो मेरे पास आओ। मैं तुमको आराम दूंगा।”(इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत मत्ती 11:37)