FOOD FOR REFLECTION

BEING AN
HISTORICAL COMPARISON
BETWEEN
MUHAMMADANISM AND CHRISTIANITY
BY
'ABD 'ISA

ख़्वान-ए-अक़्ल

अज़

अब्द-ए-ईसा

मुतर्जमा

प्रोफ़ैसर मुहम्मद इस्माईल ख़ां एम॰ ए॰

क्रिस्चन लिट्रेचर सोसाइटी पंजाब ब्रांच लुधियाना ने

बएहतमाम डाक्टर ई॰ ऐम॰ वेरी साहब शाएअ किया

1918 ई॰

Sigismund Wilhelm Koelle
or
Kölle

Pseudonym Abd Isa

(July 14, 1823 – February 18, 1902)

Was a German missionary working on behalf of the London-based Church Missionary Society, at first in Sierra Leone, where he became a pioneer scholar of the languages of Africa, and later in Constantinople. He published a major study in 1854, Polyglotta Africana, marking the beginning of serious study by Europeans of African languages.

यहूदी मज़्हब का मसीही मज़्हब से मग़्लूब होना जैसा कि मसीही मज़्हब की अजीब ताक़त और गहरे असर और बावजूद मुश्किलात के ज़माना-ब-ज़माना तरक़्क़ी पाने से ज़ाहिर है

यहूदी मज़्हब मसीही और इस्लाम से क़दीम तर है। अगरचे हम हज़रत मूसा के ज़माने से जबकि उसे कोहे सीना पर शरीअत दी गई बरसों का शुमार करें तो ये मसीही मज़्हब से 1400 बरस और इस्लाम से 2000 बरस से ज़्यादा क़दीम तर है। शरीअत के नुज़ूल से सय्यदना ईसा मसीह के आने तक बनी-इस्राईल या यहूदी एक ऐसी क़ौम थे जो एक वाहिद और ज़िंदा ख़ुदा की परस्तिश करते थे। दुनिया की और सब कौमें जहालत में गुमराह और बुतों की पुजारी थीं। उस वक़्त दुनिया में बनी-इस्राईल ही का मज़्हब एक सच्चा मज़्हब था। अगर ये बात सच्च है यानी अगर बनी-इस्राईल ही का मज़्हब सच्चा और बरहक़ मज़्हब था जिसका ख़ुदा की तरफ़ से हज़रत मूसा पर कोहे-तूर पर मुकाशफ़ा हुआ। (तौरेत शरीफ़ किताब-ए-ख़ुरूज 19 बाब) तो क्या ये लाज़िम नहीं ठहरता कि सब मुहम्मदी और मसीही यहूदी हो जाएं? हरगिज़ नहीं। क्योंकि जो तालीम ख़ुदा की तरफ़ से एक ज़माने में नाज़िल हुई वो सब ज़मानों के लिए काफ़ी ना थी बल्कि वही तालीम ज़माना ब-ज़माना में मुकम्मल होती हो गई। जिस तरह हर चीज़ बढ़ती और तरक़्क़ी पाती है। यहां तक कि कमाल के दर्जे पर पहुंच जाती है जैसा कि ख़ुदा ने दुनिया को एक ही दिन में पैदा ना किया बल्कि कई दिनों के अर्से में। इसी तरह उसने अपनी नजात की तालीम को रफ़्ता-रफ़्ता नाज़िल किया। जब हज़रत इब्राहिम यहूदी क़ौम के बाप को बुलाहट हुई उस वक़्त तूफान-ए-नूह को कई सौ साल हो चुके थे। फिर उस ज़माने से मूसवी शरीअत के ज़माने तक चार सौ (400) साल गुज़र गए थे। इस से मालूम होता है कि ख़ुदा पर वक़्त की क़ैद आइद नहीं होती बल्कि बरअक्स इस के वक़्त उस के वसीले से क़ायम है। वो अपने रहम और इन्साफ़ को ज़ाहिर करने के लिए बख़ूबी उस वक़्त तक ठहर सकता है जब तक कि इन्सान तैयार हो या जब तक कि ठीक मौक़ा आ जाए। पेश्तर इस से कि ख़ुदा ने हज़रत इब्राहिम के ख़ानदान को कोहे-तूर से शरीअत दी उसने उनको मिस्र की तकालीफ़ में डाल कर और बादअज़ां फ़िरऔन के चंगुल से छुड़ाकर इस बड़ी नेअमत के लिए तैयार किया। इसी तौर से लाज़िम था कि मसीह के नाज़िल होने के वक़्त से पेश्तर बहुत सा ज़माना गुज़रे। इसी ज़माने के सिलसिले पर ग़ौर करो। मसीह के ज़माने से अब तक कई पुश्तें गुज़र चुकी हैं लेकिन तो भी रोज़ क़ियामत अभी तक नहीं आया क्योंकि अब तक ख़ुदा की निगाह में दुनिया उस रोज़ अज़ीम के लिए जिससे कुल कायनात का मौजूदा सिलसिला ख़त्म हो जाएगा तैयार नहीं। इन सब बातों से साबित हो गया कि ये बहुत ही मुनासिब बात है कि कुल सच्चाई एक ही दफ़ाअ नाज़िल नहीं की जाती और ना ही वो दुनिया के शुरू में यकलख़त (एक साथ) नाज़िल हुई बल्कि आहिस्ता-आहिस्ता जैसे बनी-आदम तैयार होते गए वैसे ही ये सदाक़त नाज़िल होती रही। ये क़रीन-ए-क़ियास है कि अगर अब फिर ख़ुदा की तरफ़ से कोई और नई सदाक़त नाज़िल हो तो बहुत से इन्सान ये समझ कर कि पुरानी तालीम सच्ची और बरहक़ है उसे रद्द कर देंगे यही ख़ास गुनाह यहूदी क़ौम का था कि उन्होंने समझा कि वो तालीम जो कि उनको क़दीम से मूसा के ज़माने से दी गई रास्त और बरहक़ है और उस तालीम को जो मसीह ने उनको दी और जो उसने अपने काम और कलाम से उनके सामने रास्त साबित कर दिया। यहां तक कि फ़रीसियों ने जो कि उनके मज़्हबी सरपरस्त थे ये कहा हम जानते हैं कि “ख़ुदा ने मूसा से कलाम किया लेकिन इस मर्द की बाबत हम नहीं जानते कि कहाँ से है।” (इन्जील शरीफ़, यूहन्ना 9 बाब 29 आयत) यहूदियों ने जब इस तौर से मसीह को रद्द किया जिसने अपना कलाम नहीं बल्कि आस्मानी बाप (परवरदिगार) का कलाम जिसने उसे भेजा था पेश किया तो गोया उन्होंने अपने आपको रास्त व बरहक़ मज़्हब से हटा लिया और ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम होने के बजाए रद्द किए गए मुल्क से निकाले गए और अब दुनिया की क़ौमों के दर्मियान अपने गुनाह की सज़ा के बाइस तितर-बितर हैं पस ये ज़ाहिर है कि अगरचे यहूदी बिल्कुल सच्चे मज़्हब के पैरौ थे और अगरचे अब तक वो एक वाहिद ज़िंदा ख़ुदा की तालीम को मानते हैं लेकिन तो भी उनकी तालीम में बड़ी भारी ग़लती और उन के मज़्हब में कमी पाई जाती है।

उनका मसीह को और उस की आस्मानी तालीम को रद्द करना एक गुनाह-ए-अज़ीम था। इसलिए ख़ुदा ने कुल क़ौम को इस की सज़ा दी। मसीह के आस्मान पर जाने के चालीस बरस ही के बाद ख़ुदा की तरफ़ से एक ऐसी लानत उन पर पड़ी कि उनके गांव और शहर बर्बाद किए गए हैकल (बैत-उल्लाह) जलाई गई। यरूशलेम तबाह किया गया। मर्द क़त्ल किए गए और जो बच रहे वो औरतों और बच्चों के हमराह सफ़ा हस्ती पर तितर-बितर किए गए। ये मसीहियों ने नहीं किया मगर एक ग़ैर-मसीही सल्तनत यानी रूमा (रोम) के ज़रीये हुआ जिसके ज़रीये ख़ुदा ने यहूदियों को सज़ा दी। उस वक़्त से आज तक क़ौम यहूद बग़ैर अपनी सल्तनत और मुल्क के हैं वो क़ौमों का नंग हैं उन सभों से जिनके दर्मियान वो रहते हैं ज़लील किए जाते हैं।

इसी अस्ना में मसीही बढ़ते गए। उन पर यहूदियों ने पेश्तर इस से कि यरूशलेम तबाह हुआ सख़्त ज़ुल्म किए और उनके बाद कई सदियों तक रोमियों ने तरह-तरह की अज़ीयतें पहुंचाईँ क्योंकि मसीही मज़्हब को दिन-ब-दिन तरक़्क़ी पाते देखकर उन को अपने क़ौमी मज़्हब के ज़ाइल हो जाने का निहायत अंदेशा पैदा हुआ।

अब हमारे सामने एक वाहिद ख़ुदा को मानने वाले दो मज़्हब पेश हैं एक यहूदी और दूसरे मसीही। यहूदी मज़्हब एक मुर्दा बे-जान मज़्हब था जिसने ज़ाहिरदारी पर ज़ोर दिया और बातिनी सच्चे ज़िंदा ईमान को बरतरफ़ कर दिया। गो पुरानी तालीम नई तालीम से बदल गई और कहानत जाती रही तो भी यहूदियों ने ना जाना कि इस तालीम और इस परस्तिश का वक़्त ना रहा। चंद एक इस मज़्हब के पैरौ (मानने वाले) रहे मगर वो अपने पुराने ख़यालात में डूबे रहे और कभी भी सैकड़ों सालों में किसी को अपना गरवीदा ना कर सके। दूसरी तरफ़ मसीही मज़्हब है जो कि ज़िंदा और पुर-ज़ोर मज़्हब साबित है। देखो किस तौर से इस के ज़रीये सदहा शख़्स गुनाह की गु़लामी से रिहा किए जाते और पाक ज़िंदगी की तरफ़ राग़िब किए जाते हैं। ख़ुद-पसंद फ़रीसी जैसे आदमी फ़रोतन और आजिज़ ईमानदार आदमी बन जाते खुदगर्ज़ अपनी ख़ुदी को भूल कर दूसरों की मदद के लिए आमादा किए जाते। जाहिल इल्म-ए-इलाही से मामूर किए जाते और कमज़ोर ज़ोर-आवर बनाए जाते हैं ग़ौर करो कि किस तरह ये शहर बशहर फैलता जाता और मुल्क ब-मुल्क बढ़ता जाता है मंदिरों को पाक इबादतगाहैं बनाता आतिश कदाओं को ज़िंदा क़ुर्बानी की जगह बनाता है ग़रीबों अमीरों और जाहिलों दानाओं से लाखों को अपनी तरफ़ राग़िब करता है। तीन ही सदियों में इतना उरूज पा गया कि दुनिया की सबसे बड़ी सल्तनत के बादशाह को भी अपना पैरौ (मानने वाला) बना लिया। जिन दिनों में क़ौमे यहूद को उरूज था और ताक़त उनके हाथ में थी उन्होंने मसीहियों को बहुत दुख दिया और सताया और जब मसीही ताक़तवर हुए तो उन्होंने बजाए दूसरों को सताने के ख़ुद सब तकालीफ़ बर्दाश्त कीं। मुअर्रिख़ बयान करते हैं कि उन्होंने सख़्त से सख़्त क़िस्म की मुसीबत भी बड़ी बुर्दबारी से सही। वो तल्वार से क़त्ल किए गए आग में जलाए गए, दरिंदों से फड़वाए गए और तरह-तरह की अज़ियतों में डाले गए मगर सब कुछ ख़ुशी से सहा। बाअज़ दफ़ाअ फ़तहयाबी के नारे बुलंद करते गोया कि बड़े भारी जलसे में शामिल होने पर हैं। अपने आपको ऐसा ज़ाहिर करते जैसा कि कोई बहादुर मर्द सब चीज़ों पर फ़त्ह पाके ताज हासिल करने को आगे बढ़े। इन सब बातों से हर एक खुले दिल इंसान पर रोशन है कि बिलाशक मसीही मज़्हब एक ऐसा मज़्हब है जो गुमराह को राह-ए-रास्त पर लाता है और गुनेहगार को सादिक़ बनाता है। ये मज़्हब एक आस्मानी नूर है और ख़ुदा की ख़ास बख़्शिश है। यही दुनिया को अपने रुहानी ज़ोर से मग़्लूब करता और बिला किसी हथियार के सब पर फ़त्ह पाता है। इसी बाइस ये निहायत मुनासिब हुआ कि ये ही मज़्हब ख़ुदा का सच्चा मज़्हब कहलाए और कुल बनी नूअ इन्सान के वास्ते नजात का ज़रीया ठहरे।

दूसरी फ़स्ल

पुराने अहदनामे में मसीह और मसीही मज़्हब की बाबत पेशीनगोईयां

अगर इस नए मज़्हब की मज़्कूर बाला सदाक़त इस की कामयाबी और ज़द व तर तरक़्क़ी और मक़ुबूल-ए-हर ख़ास व आम होने से ज़ाहिर है तो ये भी साफ़ रोशन हो जाएगा कि ये मज़्हब मूसवी शरीअत से बेहतर और बालातर मज़्हब है।

ग़ौर कीजिए कि मसीह और मसीही मज़्हब आनन-फ़ानन सफ़ा हस्ती पर ज़ाहिर ना हुए लेकिन बरअक्स इस के क़ौम यहूद के नविश्तों में बहुत से इशारे और पेशीनगोईयां थीं जो कि एक नबी काहिन (इमाम) और बादशाह के आने की और क़ौमी मज़्हब में बड़ी भारी तब्दीली पैदा करने की शाहिद (गवाह) थीं।

मुन्दरिजा ज़ैल पेशीनगोइयों पर ग़ौर कीजिए। बमुताबिक़ इस्तस्ना 18:18, 19 ख़ुदा ने मूसा से कहा, “मैं उनके लिए उनके भाईयों में से तुझसे एक नबी बरपा करूँगा और अपना कलाम उस के मुँह में डालूँगा और जो कुछ मैं उसे फ़रमाउंगा वो सब उनसे कहेगा और एसा होगा कि जो कोई मेरी बातों को जिन्हें वो मेरा नाम लेके कहेगा ना सुनेगा तो मैं इस का हिसाब उस से लूंगा।” इस पेशीनगोई का पूरा होना मुफ़स्सला-ज़ैल हवालों से साबित होता है। (आमाल 3:22, 26, लूक़ा 24:19, यूहन्ना 4:24, व 26:8, 28, 12:49 व 50, 15:15, इब्रानियों 2:3, 3:1 व 2:12, 25)

फिर ज़बूर 110 आयत 4 में बड़े साफ़ व सरीह तौर से एक आने वाले की तरफ़ इशारा है जो कि ना सिर्फ दाऊद का बेटा होने को था बल्कि उस का ख़ुदावंद (देखो मत्ती 22:42 ता 45, “ख़ुदावंद ने क़सम खाई है और वो ना पछताएगा। तू मलिके-सिदक़ के तौर पर अबद तक काहिन (इमाम) होगा। इस पेशीनगोई का पूरा होना इन हवालों से ज़ाहिर है। इब्रानियों 5:6, 6:20, 7:1 से 24

मसीह के शाहाना जलूस के बारे में जिसके लिए यहूदी खासतौर से मुंतज़िर थे और हम दानीएल नबी की पेशीनगोई मन्क़ूल करते हैं। दानीएल 7:13 व 14 मैंने रात की रवैय्यतों के वसीले देखा और क्या देखता हूँ कि एक शख़्स आदमज़ाद की मानिंद आस्मान के बादलों के साथ आया और क़दीम-उल-अय्याम तक पहुंचा। वो उसे उस के आगे लाए और तसल्लुत और हश्मत और सल्तनत उसे दी गई कि सब कौमें और उम्मतें और मुख़्तलिफ ज़बान बोलने वाले उस की ख़िदमतगुज़ारी करें। उस की सल्तनत अबदी सल्तनत है जो जाती ना रहेगी और उस की ममलकत ऐसी जो ज़ाइल ना होगी। इस पेशीनगोई का पूरा होना इस आयत से रोशन है, मत्ती 24:30, 28:18, इफ़िसियों 1:20 ता 22, मुकाशफ़ात 1:7, 11:15, 14:14, 19:11-16,

यर्मियाह नबी की किताब 31 बाब और इस की आयत 31 से 34 आयात से साफ़ ज़ाहिर होता है कि ये सच्चा मज़्हब हमेशा एक ही सूरत में ना रहेगा बल्कि बदलता तरक़्क़ी पाता और कामिल होता चला जाएगा। “देखो वो दिन आते हैं ख़ुदावंद कहता है कि मैं इस्राईल के घर में और यहूदाह के घर में इन्सान का बीज और हैवान का बीज बोऊंगा और ऐसा होगा कि जिस तरह मैंने उनकी घात में बैठ के उन्हें उखाड़ा और ढाया और उल्टा दिया और बर्बाद किया और दुख दिया इसी तरह मैं चौकी देके उन्हें बनाऊंगा और लगाउंगा। ख़ुदावंद कहता है उन दिनों में ये फिर ना कहा जाएगा कि बाप दादों ने कच्चे अंगूर खाए और लड़कों के दाँत खट्टे हुए क्योंकि हर एक अपनी बदकारी के सबब मरेगा और हर एक जो कच्चे अंगूर खाता है उस के दाँत खट्टे होंगे।”

अगर ऐसी ऐसी पेशीनगोईयां यहूदियों की मुक़द्दस किताबों में ना होतीं तो वो सय्यदना ईसा मसीह के इंकारी होने का कुछ उज़्र (बहाना) पेश कर सकते थे और वो ये कह सकते थे कि जबकि हमारा मज़्हब ख़ुदा से है और मूसा उस का बर्गुज़ीदा ख़ादिम था तो क्योंकर हम एक ऐसे शख़्स की पैरवी करें जो अपने आपको मूसा से बड़ा ठहराता है और जिसकी बाबत ख़ुदा के कलाम में हमको बिल्कुल आगाही नहीं दी गई ये जतलाया गया कि मूसवी शरीअत एक और बेहतर तालीम से जो कि इन्सान की ज़रूरत को पूरा करेगी तब्दील की जाएगी? मगर जिस हाल कि मुन्दरिजा बाला पेशीनगोईयां सरीह तौर से उनके नविश्तों में दर्ज हैं उनके पास कोई उज़्र (बहाना) नहीं जिस कि रू से वो सय्यदना ईसा मसीह को जिसमें पेशीनगोईयां पूरी हुईं और जिसने कामिल नजात की राह तैयार की रद्द कर सकें।

तीसरी फ़स्ल

सय्यदना मसीह और मसीही मज़्हब बनी-इस्राईल के दर्मियान यानी उस जगह ज़ाहिर हुए जहां इनकी बुनियाद रखी गई

जैसे दरख़्त से उस का तना और तने से शाख़ें फूट निकलती हैं इसी तरह से मसीही मज़्हब यहूदी मज़्हब से निकला और या सिर्फ उसी का एक आला दर्जा है। जब तक कि लोग शरीअत के ज़रीये तैयार ना हुए तब तक ख़ुदा ने इन्जील की बरकत को नाज़िल ना किया और जूंही कि उसने देखा कि लोग तैयार हैं ख़ुसूसुन यहूदी जिनके दर्मियान ज़माना ब-ज़माना ख़ुदा ने अपने आपको ज़ाहिर किया तो ये बरकत आस्मान से नाज़िल हुई। बाअज़ शायद एतराज़ करें कि क्यों ख़ुदा ने इस बरकत को यहूदियों पर नाज़िल किया? आओ इस पर ग़ौर करें। गो कि हम पूरे तौर से ख़ुदा के भेदों से वाक़िफ़ ना हो सकें तो भी ये बात रोशन हो जाएगी अगर बिला तास्सुब इस पर सोचें। ये बात सब मान लेंगे कि इस बड़ी बरकत का नाज़िल होना उसी जगह लाज़िम और मुनासिब है जहां पहले इस के नुज़ूल की तैयारी हो चुकी हो और जहां लोग इस के हासिल करने के लिए (अपने) आपको तैयार कर चुके हों। यहूदी क़ौम पर ग़ौर करने से मालूम होता है कि वही एक ऐसी क़ौम थी जिसने अपने आपको इस के लिए तैयार किया था जैसा कि इन्जील से ज़ाहिर है कि मसीह बैत-लहम में जो कि दाऊद का शहर है पैदा हुआ। मत्ती 2:1 लूक़ा 2:1 ता 7 नासरत में उस की परवरिश हुई। लूक़ा 2:39 ता 51 और उसने अपनी ख़िदमत के अय्याम में साफ़ तौर से कहा कि नजात पहले यहूदियों के लिए है। मत्ती 10:5 ता 6 में लिखा है कि उसने पहले अपने बारह रसूलों को मुनादी करने और चंगा करने के लिए ये कहकर भेजा, “मुश्रिकीन की किसी बस्ती में ना जाओ और ना सामरियों कि शहरों में दाख़िल हो बल्कि इस्राईल की खोई हुई भेड़ों के दर्मियान जाओ।” और फिर एक मुक़ाम पर जबकि उस के शागिर्दों ने एक फेनकी औरत की लड़की को चंगा करने के लिए कहा तो मसीह ने यूं जवाब दिया “मैं इस्राईल की गुमराह भेड़ों के सिवा किसी के पास नहीं भेजा गया।” मत्ती 15:24 जब तक कि बनी-इस्राईल में से एक ख़ास तादाद शागिर्दों की जमा ना हुई और जब तक वो शागिर्द रूह-उल-क़ुद्स से मामूर ना किए गए तब तक ज़िंदा सय्यदना मसीह ने उनको यहूदिया की सरहदों से बाहर जाने की इजाज़त ना दी मगर जब वो रूह-उल-क़ुद्स से मामूर हुए तो ज़मीन के किनारों तक भेजे गए। आमाल 1:3 ता 8, मसीही मज़्हब की तवारीख़ साफ़ तौर से बतलाती है कि अगरचे क़ौम यहूद ने मसीह को रद्द किया मगर तो भी मसीह ने उन्हीं के दर्मियान अपनी कलीसिया (जमाअत) की एक पाएदार बुनियाद डाली जिस पर कि एक आलीशान इमारत बनाई जा रही है।

चौथी फ़स्ल

मसीह के इलाही काम और नए अहद के शुरू का मोअजज़ाना सबूत

क़ौम यहूद के लिए मसीह के मोअजिज़ों का ख़ास ये मक़्सद था कि वो उस के पैरौ (मानने वाले) हों और इस तरह ख़ुदा की मर्ज़ी को पूरा करें। जिस तौर से मूसा को ख़ुदा ने मोअजज़ाना क़ुद्रत दी ताकि वो बनी-इस्राईल का नबी और रिहाई देने वाला साबित हो इसी तौर से मसीह को भी ये क़ुद्रत मिली ताकि वो ख़ुदा का पैग़म्बर साबित हो ताकि उस की तालीम ख़ुदा की तालीम और मुकाशफ़ा माना जाये। ये बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि मूसा को कोई ख़ास ख़ुसूसियत हासिल ना थी बल्कि वो मौक़ा ब मौक़ा ख़ुदा की क़ुद्रत को ज़ाहिर करता था जिससे ये ज़ाहिर है कि बग़ैर इस क़ुद्रत के वो बज़ात-ए-ख़ुद कुछ ना कर सकता था। बहुत से कामों और इस मोअजज़ाना क़ुद्रत की हिदायत के लिए मुफ़स्सला-ए-ज़ैल मुक़ामात गौरतलब हैं। ख़ुरूज 4:2 ता 9, 8:5 व 16, 20, 21, 3:8, 9, 22, 10:12, 21, 14:16, 26, 18:6

इन मोअजज़ात के सबब से लोगों ने मूसा को ख़ुदा का नबी मान लिया ख़ुरूज 4:31, 14:31 और फिर इसी क़ुद्रत के बाइस और बसबब इस के ख़ुदा ने बालमशाफ़ा उस से कलाम किया बनी-इस्राईल में कोई और नबी उस के बराबर ना हुआ। इस्तस्ना 34:10, 21 हासिल कलाम ये है कि अगर नबी इस्राईल ने मूसा को बलिहाज़ उस के मोअजिज़ों के नबी क़ुबूल किया तो कितना ज़्यादा लाज़िम था कि वो मसीह को क़ुबूल करते जिसने अपनी ख़िदमत का यूं बयान किया कि अंधे देखते, लंगड़े चलते, कौड़ी पाक साफ़ किए जाते, बहरे सुनते और मुर्दे जिलाए जाते और ग़रीबों को ख़ुशख़बरी सुनाई जाती है। मत्ती 11:5 और जिसकी बाबत मर्क़ुस 3:10 व 11 में यूं लिखा है कि उसने बहुतों को चंगा किया यहां तक कि जो सख़्त बीमारियों में गिरफ़्तार थे उस पर गिरे पड़ते थे कि उसे छूलें और नापाक रूहें जब उसे देखतीं तो उस के आगे गिर पड़तीं थीं और पुकार कर कहती थीं कि तू ख़ुदा का बेटा है। मसीह ने अपनी मौत के चंद ही रोज़ पहले लाज़र को जोकि चार दिन से मरा हुआ था और जबकि उसका जिस्म इस मुल्क की आबो हवा के लिहाज़ से ज़रूर ही सड़ गल गया होगा, ज़िंदा किया। (यूहन्ना 11:39) पतरस की गवाही पर ग़ौर कीजिए जो उसने हज़ारहा यहूदियों के आगे इन अल्फ़ाज़ में दी “सय्यदना मसीह एक मर्द था जिसका ख़ुदा की तरफ़ से होना तुम पर साबित हुआ उन मोअजिज़ों निशानों और अचंभों से जो ख़ुदा ने उस की मार्फ़त तुम्हारे बीच में दिखाए जैसा कि तुम आप जानते हो।” (आमाल 2:22) ये मुबालग़ा ना होगा अगर मसीह के हक़ में ये कहा जाये कि ना पहले ना उस वक़्त ना उस के बाद कोई ऐसा आदमी हुआ जिसने इस क़द्र बड़ी क़ुद्रत और मुहब्बत ज़ाहिर की हो। लिहाज़ा उस का यहूदियों को जतलाना बजा और बरहक़ था जैसा कि यूहन्ना 10:37, 38 आयात से ज़ाहिर है “अगर मैं अपने बाप (परवरदिगार) का काम नहीं करता तो मुझ पर ईमान मत लाओ लेकिन अगर मैं करता हूँ तो अगरचे मुझ पर ईमान ना लाओ तो भी कामों पर ईमान लाओ ताकि तुम जानो और यक़ीन करो कि बाप (परवरदिगार) मुझमें है और मैं उस में हूँ।”

पांचवीं फ़स्ल

सय्यदना मसीह का इलाही मुकाशफ़ा और उस की इन्जील यहूदी मज़्हब का दर हक़ीक़त एक आला दर्जा है

ये मज़्मून सदहा मिसालों से साबित किया जा सकता है मगर हम बिलख़ुसूस छः (6) बातों को पेश करेंगे जिनमें से पहली तीन हमारा ताल्लुक़ ख़ुदा से और रुहानी चीज़ों से बतलाती हैं और दूसरी तीन हमारा रिश्ता हमारे हम-जिंस इन्सानों से।

(1) ख़ुदा की बाबत

हम में से हर एक जो कि बातवज्जोह बाइबल का मुतालआ करता है ये बख़ूबी जानता है कि ख़ुदा की बाबत जो पुराने अहदनामे में बयान किया गया है वो उस बयान से जो नए अहदनामे में है मुख़्तलिफ़ है। उस में ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़, ख़ुदावंद क़ुद्दूस, आदिल, मुंसिफ़ और महरबान और रहीम, हाकिम और बिल-ख़ुसूस बनी-इस्राईल का ख़ुदावंद ज़ाहिर किया गया है। ख़ुरूज 30:5, 6 में ख़ुदावंद यूं फ़रमाता है, “मैं ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा ग़य्यूर ख़ुदा हूँ और बाप दादों की बदकारियाँ उनकी औलाद पर जो मुझसे अदावत रखते हैं तीसरी और चौथी पुश्त तक पहुँचाता हूँ पर उनमें से हज़ारों पर जो मुझे प्यार करते हैं और मेरे हुक्मों को हिफ़्ज़ करते हैं रहम करता हूँ।” इसी बाब की उन्नीसवीं आयत में यूं लिखा है कि “लोग चूँकि ख़ुदा से डरते थे इसलिए उन्होंने मूसा से कहा तूही हमसे बोल और हम सुनें लेकिन ख़ुदा हमसे ना बोले ऐसा ना हो कि हम मर जाएं।” ज़बूर 95:6, 7 में यूं लिखा है कि “आ उठ हम सज्दा करें और झुकें हम अपने ख़ालिक़ और ख़ुदावंद के हुज़ूर घुटने टैकें कि वो हमारा ख़ुदावंद है और हम उस की चरागाह के लोग और उस के हाथ की भेड़ें हैं।”

ये बात सच्च है कि मूसवी शरीअत ख़ुदा की सिफ़ात पर बहुत कुछ रोशनी डालती है और अम्बिया के सहीफ़ों में मसीह के कफ़्फ़ारे की बाबत और ख़ुदा के बेहद प्यार की बाबत जतलाया है लेकिन यहूदी क़ौम ने इन रुहानी सिफ़ात पर लिहाज़ ना किया जो खासतौर से शरीअत और नबियों की किताबों में पाई जाती हैं बल्कि उन्होंने सिर्फ उन्ही सिफ़ात को मद्दे-नज़र रखा जो कि आम तौर से बतलाई गईं।

नए अहदनामे में ख़ुदा बिलख़ुसूस मुहब्बत के लिबास में पेश किया गया जो कि सय्यदना मसीह के ज़रीये हमारा बाप है और ये हक़ीक़तन एक आला तरक़्क़ी का दर्जा है बिल-मुक़ाबिल उन सिफ़ात के जिनसे ख़ुदा सिर्फ एक ख़ालिक़ या अख़्लाक़ी हाकिम या मुंसिफ़ जतलाया जाये। दुआ-ए-रब्बानी में सय्यदना मसीह ने सिखाया कि ख़ुदा को “ऐ हमारे बाप जो आस्मान पर है।” के नाम से पुकारा जाये (मत्ती 6:9) इसी तौर पर मुक़द्दस पौलुस ने गलतियो के मसीहियों को लिखा कि तुम सब सय्यदना मसीह पर ईमान लाने की रु से ख़ुदा के फ़र्ज़न्द हो कि तुम सबने जितनों ने मसीह में बपतिस्मा पाया मसीह को पहन लिया। ना यहूदी है ना यूनानी, ना ग़ुलाम ना आज़ाद, ना मर्द ना औरत क्योंकि तुम सब मसीह ईसा में एक हो और अगर तुम मसीह के हो तो इब्राहिम की नस्ल और वाअदे के मुताबिक़ वारिस हो।” (ग़लतियों 3:26, 29) मुक़द्दस यूहन्ना ने भी अपने ज़माने के मसीहियों को यूं लिखा “ऐ प्यारो आओ हम एक दूसरे से मुहब्बत रखें क्योंकि मुहब्बत ख़ुदा से है और हर एक जो मुहब्बत रखता है सो ख़ुदा से पैदा हुआ है और ख़ुदा को पहचानता है। जिसमें मुहब्बत नहीं सो ख़ुदा को नहीं जानता क्योंकि ख़ुदा मुहब्बत है।.... और वो जो मुहब्बत में रहता है ख़ुदा में रहता है और ख़ुदा उसमेँ।” (1 यूहन्ना 4:7, 8, 16)

इलावा इस के इन्जील ख़ुदा की वहदत को बड़ी सफ़ाई से ज़ाहिर करती है जो कुछ उस की बाबत मूसवी शरीअत में बयान किया गया था वो ऐसा साफ़ व सरीह ना था। इन्जील बयान करती है कि जिस तरह कामिल ख़ुदा एक बेनज़ीर वहदत है। इसी तरह वो अपने कमाल को एक मुकम्मल हस्ती में ज़ाहिर करता है जिससे कि ख़ुदा बज़ात-ए-ख़ुद एक पुर-जलाल और निहायत आला और ख़ुशी से भरपूर हस्ती साबित होता है और इस हस्ती को वो तीन अक़ानीम में यानी बाप बेटे और रूह-उल-क़ुद्स में ज़ाहिर करता है और जिस तरह इन तीन अक़ानीम ने जो कि बलिहाज़ अपने जोहर के एक हैं कुल आलम को और हर शैय को जो उस में है पैदा किया इसी तरह से यही तमाम इन्सानों की शैतान गुनाह और मौत से नजात का सबब ऊला हैं।

इलाही ज़ात के इन तीन अक़ानीम का ज़िक्र ख़ुदा की वहदत में शामिल हैं और जिसको मसीही आलिमों ने लफ्ज़ तस्लीस से बयान किया है इन्जील के कई मुक़ामात में पाया जाता है जहां पर बाअज़ दफ़ाअ बेटे को और बाअज़ दफ़ाअ रूह-उल-क़ुद्स को इलाही सिफ़ात से मलबूस किया गया है। बेटे की बाबत यूहन्ना 1:1 को देखिए “इब्तिदा में कलाम था और कलाम ख़ुदा के साथ था और कलाम ख़ुदा था।” आयात 14 ता 17 देखिए फिर यूहन्ना 5:20,23 में यूं लिखा है कि “इसलिए कि बाप बेटे को प्यार करता है और सब कुछ जो ख़ुद करता है उसे दिखाता है और वो उनसे बड़े काम से दिखाऐगा कि तुम ताज्जुब करोगे। इसलिए कि जिस तरह बाप मुर्दों को उठाता है और जिलाता है बेटा भी जिन्हें चाहता है जिलाता है क्योंकि बाप किसी शख़्स की अदालत नहीं करता बल्कि उसने सारी अदालत बेटे को सौंप दी ताकि सब बेटे की इज़्ज़त करें जिस तरह से कि बाप की इज़्ज़त करते हैं। जो बेटे की इज़्ज़त नहीं करता बाप की जिसने उसे भेजा है इज़्ज़त नहीं करता।” बाअज़ दफ़ाअ रूह-उल-क़ुद्स की बाबत कहा जाता है कि वो बाप की तरफ़ से ईमानदारों पर नाज़िल होता है जैसे कि यूहन्ना 14:26 में लिखा है “लेकिन वो तसल्ली देने वाला जो रूह-उल-क़ुद्स है जिसे बाप मेरे नाम से भेजगा वही तुम्हें सब चीज़ें सिखाऐगा और सब बातें जो कुछ कि मैंने तुमसे कहीं तुम्हें याद दिलाऐगा।” (देखो यूहन्ना 14:26, 16:7, 20:22) इसी रूह-उल-क़ुद्स की बाबत ख़त-ए-अव्वल कुरिन्थियों 2:10, 11 में यूं लिखा है कि “रूह सारी चीज़ों को बल्कि ख़ुदा की गहरी बातों को भी दर्याफ़्त कर लेती है कि आदमियों में से कौन आदमी का हाल जानता है मगर आदमी की रूह जो उस में है।” इसी तरह ख़ुदा की रूह के सिवा ख़ुदा की बातों को भी कोई नहीं जानता इलाही ज़ात के तीन अक़ानीम का ज़िक्र मत्ती 28:19, 2 कुरिन्थियों 13:14, 1 यूहन्ना 5:7 में पाया जाता है। इन्सान की नजात के लिए इन तीनों में से हर एक का ख़ास हिस्सा है। ख़त इफ़िसियों 1:4 में बाप की बाबत यूं लिखा है “ख़ुदा ने हमको सय्यदना मसीह में दुनिया की पैदाइश से पेश्तर चुन लिया।” और यूहन्ना 3:16 में यूं लिखा है “ख़ुदा ने जहान को ऐसा प्यार किया कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्शा ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” बेटे की बाबत ये लिखा है कि “वो हमारे गुनाहों के बदले क़ुर्बान हुआ ताकि वो हमको गुनाह की सज़ा और गिरफ़्तारी से बचा कर ख़ुदा के साथ मिलादे।” (मुक़ाबला करो मत्ती 20:28, 1 तिमुथियुस 2:6, ग़लतियों 3:13, 1 पतरस 2:24, कुलस्सियों 1:19, 22) रूह-उल-क़ुद्स की बाबत ये लिखा है कि वो ईमानदारों को पाक करता है और उनको ख़ुदा की हैकल (बैत-उल्लाह) बनाता है। देखो रोमियों 15:16, 2 थिस्सलुनीकियों 2:13, 1 कुरिन्थियों 3:26 और 6:19, 20 ये सारी तालीम का 1 पतरस 1:2 में खुलासतन यूँ बयान है “जहां ईमानदारों को बर्गुज़ीदा कहा है और जो ख़ुदा बाप के उस इल्म के मुवाफ़िक़ जो वो पहले से रखता था चुने हुए हैं ताकि रूह की पाकीज़गी बख़्श तासीर से फ़रमांबर्दार हों और सय्यदना मसीह का ख़ून उन पर छिड़का जाये।”

(2) परस्तिश की बाबत

जैसी इबादत या परस्तिश नए अहदनामे में बयान की गई है वो पुराने अहदनामे की परस्तिश से ज़्यादा आला और रूहानियत की तरफ़ माइल करने वाली है अहबार और इस्तस्ना की किताबों से मालूम होता है कि मूसवी शरीअत ज़्यादातर रसूमात के पूरा करने ज़ाहिरी पाकीज़गी बजा लाने वक़्तों और मौसमों को मद्दे-नज़र रखने और मुख़्तलिफ़ क़िस्म की क़ुर्बानियों पर ज़ोर देती है। बरअक्स इस के बजाऐ इस के सय्यदना ईसा कोई नई क़िब्लागाह मुक़र्रर करता या और रसूमात जारी करता सामरिया की औरत को यूं कहता है “ऐ औरत यक़ीन जान कि वो घड़ी आती है जबकि ना इस पहाड़ पर ना यरूशलेम में बाप की परस्तिश करोगे लेकिन सच्चे परस्तार बाप की रूह और रास्ती से परस्तिश करेंगे। क्योंकि बाप यही चाहता है कि उस के परस्तार ऐसे ही हों।” (यूहन्ना 4:21, 23) मुक़द्दस याक़ूब अपने ख़त के पहले बाब की 27 आयत में यूं लिखता है “वो दीनदारी जो ख़ुदा और बाप के आगे पाक और बेऐब है सो यही है कि यतीमों और बेवाओं की मुसीबत के वक़्त उनकी ख़बरगीरी करनी और (अपने) आपको दुनिया से बेदाग़ बचा रखना।” इन्जील की तालीम के मुताबिक़ ख़ुदा हमसे ये नहीं चाहता कि हम ज़ाहिरी रसूमात को मसलन हाथ पांव धोना (वुज़ू करना) जमाअत से नमाज़ पढ़ना रोज़े रखना। ख़ास ख़ास इबादत-गाहों में जाना और ऐसी-ऐसी बातों को करना। लेकिन वो ये चाहता है कि हम सबसे पहले गुनाह से तौबा करें। मसीह पर जो कि गुनेहगारों का बचाने वाला है ईमान लाएं। अपने दिल को बदल दें और गुनाह से पाकीज़गी की तरफ़ इस तौर से फिरें कि वो ज़िंदगी नई ज़िंदगी कहला सके और इस के बाद अपनी सारी ज़िंदगी उस की मर्ज़ी के मुताबिक़ और उस के जलाल के लिए बसर करें। इसलिए हम पढ़ते हैं कि यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले और मसीह ने अपनी ख़िदमत तौबा की तालीम से शुरू की “वक़्त आ पहुंचा और ख़ुदा की बादशाहत नज़्दीक है। तौबा करो और इस ख़ुशख़बरी पर ईमान लाओ क्योंकि आस्मान की बादशाहत नज़्दीक है।” (मर्क़ुस 1:15, मत्ती 3:2, 4:17) रसूल भी इसी तौर से भेजे गए कि वो लोगों को तौबा के लिए आगाह करें। देखो, मर्क़ुस 6:12 और आमाल 2:38, 3:19, 17:30 एक दफ़ाअ मसीह ने यहूदियों के सामने ये कहा “मेरे बाप (परवरदिगार) की मर्ज़ी ये है कि हर एक जो बेटे को देखे उस पर ईमान ला के हमेशा की ज़िंदगी पाए और कि मैं उसे आख़िरी दिन में उठाऊं।” (यूहन्ना 6:40) एक और मौक़े पर ये कहा “मैं तुझसे सच्च-सच्च कहता हूँ कि जब तक आदमी अज़ सर-ए-नौ पैदा ना हो वो ख़ुदा की बादशाहत को देख नहीं सकता।” (यूहन्ना 3:3) मुक़द्दस यूहन्ना अपने पहले ख़त के 5:4 में यूं लिखता है “जो कि ख़ुदा से पैदा हुआ दुनिया पर ग़ालिब होता है और वो ग़लबा जिससे हम दुनिया पर ग़ालिब आते हैं हमारा ईमान है हमको बतलाया जाता है कि सिर्फ ऐसा ही ईमान हमको नजात दिला सकता है और कोई इन्सान ज़ाहिरी रसूमात के अदा करने से और ज़ाहिरी शरीअत की पाबंदी से बच नहीं सकता।” ग़लतियों 2:16 में यूं लिखा है, “ये जानकर कि आदमी ना शरीअत के कामों से पर सय्यदना मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ गिना जाता है हम भी सय्यदना मसीह पर ईमान लाए ताकि हम मसीह पर ईमान लाने से ना कि शरीअत के कामों से रास्तबाज़ गिने जाएं क्योंकि कोई बशर (इंसान) शरीअत के कामों से रास्तबाज़ ना गिना जाएगा।” ये नजात देने वाला ईमान फ़ुज़ूल और बेफ़ाइदा नहीं और ना ही ऐसा ईमान गुनाह की हालत में रह सकता हैं क्योंकि बहुत से मुक़ामात से साफ़ ज़ाहिर है। 2 पतरस 1:5, 8 में यूं लिखा है, “पस इस वास्ते तुम अपनी तरफ़ से कमाल कोशिश करके अपने ईमान पर नेकी और नेकी पर इर्फ़ान, इर्फ़ान पर परहेज़गारी, परहेज़गारी पर सब्र, सब्र पर दीनदारी और दीनदारी पर बिरादराना उल्फ़त और बिरादराना उल्फ़त पर मुहब्बत बढ़ाओ कि ये चीज़ें अगर तुम में हों और बढ़ती भी जाएं तो तुमको हमारे सय्यदना मसीह की कामिल पहचान हासिल करने के लिए ग़ाफ़िल और बे फल ना होने देंगी।” मुक़द्दस पौलुस रोमियों 12:1 में यूं लिखता है, “पस ऐ भाइयो मैं ख़ुदा की रहमतों का वास्ता दे के तुमसे इल्तिमास करता हूँ कि तुम अपने बदनों को गुज़रानों ताकि एक ज़िंदा क़ुर्बानी मुक़द्दस और ख़ुदा के लिए पसंदीदा हों कि ये तुम्हारी अक़्ली इबादत है।” और कुरिन्थियों को 1 कुरिन्थियों 10:31 में यूं लिखता है पस तुम खाते-पीते या जो कुछ करते हो सब ख़ुदा के जलाल के लिए करो।” बजाए इस के कि मुक़द्दस पौलुस दुआ का वक़्त और इस के लिए कोई ख़ास जगह बतलाए वो मसीहियों को दुआइया ज़िंदगी बसर करने के लिए आमादा करता हुआ कहता है, “नित दुआ माँगो।” (देखो 1 थिस्सलुनीकियों 5:17 और रोमियों 12:12) इब्रानियों 10:1, 14 में मसीही क़ुर्बानी के तरीक़े को यूं बयान करता है “क्योंकि शरीअत जो आने वाली नेअमतों की परछाईं है और उन चीज़ों की हक़ीक़ी सूरत नहीं साल बसाल इन्ही क़ुर्बानियों से जो वो हमेशा गुज़रानते हैं उनको जो पास आते हैं कभी कामिल नहीं कर सकती।....क्योंकि हो नहीं सकता कि बैलों और बकरों का लहू गुनाहों को मिटाए। इसलिए वो (सय्यदना मसीह) दुनिया में आते हुए कहता है।.... देखिए ख़ुदावंद मैं आता हूँ कि तेरी मर्ज़ी बजा लाऊँ।....क्योंकि उसने एक ही क़ुर्बानी से मुक़द्दसों को हमेशा के लिए कामिल किया।” इस से हम को मालूम होता है कि वो रसूमात जो अहबार की किताब में दर्ज हैं सिर्फ मसीह के कफ़्फ़ारे की मौत को और उन बरकतों को जो उस से हासिल होती हैं जतलाती थीं और जब हक़ीक़त ज़ाहिर हुई तो नक़्ल की ज़रूरत ना रही। (देखो कुलस्सियों 2:16, 17)

(3) ख़ुदा की बादशाहत की बाबत

ख़ुदा की बादशाहत से मुराद एक ऐसा ज़रीया है जिसको ख़ुदा ने ख़ुद बनी-आदम को गुनाह और शैतान के फंदे से बचाने के लिए और उस को अपने साथ फिर बहाल करने के लिए और आस्मान के लिए तैयार करने के लिए अपनी बड़ी कमाल रहमत से इस्तिमाल किया। मूसवी शरीअत में ये ख़ुदा की बादशाहत सिर्फ एक ख़ास क़ौम के लिए ज़ाहिर की गई है। बनी-इस्राईल ही ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम थे। ख़ुरूज 19:5, इस्तस्ना 10:5 जो कि काहिनों की सल्तनत और पाक क़ौम कहलाते थे। ख़ुरूज 19:6 और ख़ुदा भी उनको अपना पलोठा बेटा कहकर पुकारता है। ख़ुरूज 4:22 बनी-इस्राईल ही बादशाहत के फ़र्ज़न्द थे। मत्ती 8:12, 21:43 और उन्हीं की यरूशलेम की हैकल (बैत-अल्लाह) में ख़ुदा बूद व बाश करता हुआ बतलाया गया और रुए-ए-ज़मीन पर उस का ठिकाना कहीं ना था। (देखो इस्तस्ना 14:5, 11 और मुक़ाबला करो 2 कुरिन्थियों 7:16 और नहमियाह 1:9) दुनिया की और क़ौमें जहालत में ज़िंदगी बसर करती थीं। आमाल 17:30 और अपने-अपने तरीक़ों पर चल कर हलाक होती थीं। आमाल 16:16 और अगर कोई ग़ैर-क़ौम ख़ुदा की बादशाहत में दाख़िल होना चाहता था तो उस को पहले खतना करवाना और क़ौम यहूद में शराकत पैदा करवानी पड़ती। ख़ुरूज 12:48 अगर कोई इन रसूमात को अदा ना करता तो यहूदी जो कि इनमें अपना फ़ख़्र समझते थे। (रोमियों 2:16, 20) उस आदमी को हक़ीर जानते और किसी बात में शामिल ना करते थे। (1 समुएल 31:4, इफ़िसियों 2:11) मसीह के आने पर ख़ुदा की बादशाहत का ये क़ौमी पहलू जाता रहा जोकि सिर्फ़ यहूदियों के लिए ख़याल की जाती थी और बरअक्स इस के एक आम रुहानी बादशाहत हो गई जो कि सभों के लिए खुली है। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने साफ़ यहूदियों को कहा “ये ख़याल ना करो कि इब्राहिम तुम्हारा बाप है क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ कि खदा इन पत्थरों से इब्राहिम के लिए औलाद पैदा कर सकता है।” (मत्ती 9:2, 3, 9) मुक़द्दस पौलुस रोमियों 2:28 व 29 में यूं लिखता है, “वो यहूदी नहीं जो ज़ाहिर में है और वो खतना नहीं जो ज़ाहिरी जिस्म में है। मगर यहूदी वही जो बातिन से हो और खतना वही जो दिल से हो। रुहानी ना कि लफ़्ज़ी जिसकी तारीफ़ आदमियों से नहीं बल्कि ख़ुदा की तरफ़ से हो।” खतना जो कि मज़्हबी रस्म ख़याल की जाती थी इन्जील की रु से बिल्कुल मिटा दी गई है, जैसा कि ग़लतियों 5:2 से ज़ाहिर है “देखो मैं पौलुस तुम से कहता हूँ कि अगर तुम खतना की पैरवी करो तो मसीह से तुम्हें कोई नफ़ा नहीं।” और फिर कुलस्सियों 2:11 में मसीहियों को ये कहता है “इसी में तुम्हारा ऐसा खतना हुआ जो हाथ से नहीं यानी मसीही खतना जो जिस्मानी गुनाहों का बदन उतार फेंकना है।” सय्यदना मसीह ने ख़ुद भी ये कहा “ख़ुदा की बादशाहत नमूद के साथ नहीं आती और वो ना कहेंगे कि देखो यहां है या देखो वहां है क्योंकि ख़ुदा की बादशाहत तुम्हारे दर्मियान है।” और फिर उसने एक और मौक़े पर ये कहा “मेरी बादशाहत इस जहान की नहीं। अगर होती तो मेरे नौकर लड़ते ताकि मैं यहूदियों के हाथ हवाले ना किया जाता। लेकिन मेरी बादशाहत यहां की नहीं.... मैं इसी लिए पैदा हुआ और इसी की ख़ातिर मैं इस दुनिया में आया ताकि मैं हक़ पर गवाही दूं। हर एक जो हक़ पर है मेरी आवाज़ सुनता है।” (यूहन्ना 18:36, 37) इसी तरह मुक़द्दस पौलुस भी कहता है “क्योंकि मसीह में ना मख़्तूनी ना ना-मख़्तूनी का कुछ फ़ायदा है लेकिन ईमान जोकि मुहब्बत से हो।” (ग़लतियों 5:6) और फिर यूं लिखता है “ख़ुदा की बादशाहत खाना पीना नहीं बल्कि रास्तबाज़ी सलामती और ख़ुशी है जो कि रूह-ए-पाक से हासिल होती है।” (रोमियों 4:17)

(4) बदले की बाबत

मूसवी शरीअत में बदला लेने की तालीम है। जब कोई शख़्स नाजायज़ तौर से क़त्ल किया जाता तो मक़्तूल के रिश्तेदार ख़ून का बदला लेने वाले कहलाते और ये उनका फ़र्ज़ गिना जाता था कि क़ातिल को मार डालें। गिनती 35:19 में यूं लिखा है “वो शख़्स जो मक़्तूल का वली है ख़ूनी को आप ही क़त्ल करे। जब वो उसे पाए उसे मार डाले।” अगर क़ातिल पनाह के शहरों में भाग कर पनाह ले तो इस्तस्ना 19:12 में शहर के सरदारोँ को यूं हुक्म दिया है कि क़ातिल वहां पकड़वा मंगवाया जाये और मक़्तूल के वारिस के हाथ में हवाले किया जाये ताकि वो मार डाला जाये। दूसरे क़ुसूरों के बारे में भी बदले ही की तालीम दी गई है जैसा कि अहबार 24:19, 20 में लिखा है “अगर कोई अपने हमसाये को चोट लगाए सो जैसा करेगा वैसा पायगा। तोड़ने के बदले तोड़ना, आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत, जैसा कोई किसी का नुक़्सान करे उस से वैसा ही किया जाये।” ये साफ़ ज़ाहिर है कि ये हुक्म मुल्की कार-गुज़ारी के लिए दिए गए थे और बिलाशक ये उस मौक़े ज़मान और मकान के मौज़ू थे लेकिन तवारीख़ से मालूम होता है कि यहूदी ज़्यादा तर हुक्मों की लफ़्ज़ी पैरवी करते थे और इन हुक्मों को उन्होंने हर जगह आइद कर लिया मसलन अपने ज़ाती और ख़ानगी कारोबार में इन्हीं पर लफ़्ज़ बलफ़्ज़ अमल करते थे, लिहाज़ा मसीह के लिए ये लाज़िम हुआ कि उन अल्फ़ाज़ को कहे जोकि मत्ती 5:38, 39 में पाए जाते हैं “तुम सुन चुके हो कि अगलों से कहा गया कि आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत है लेकिन मैं तुम्हें कहता हूँ कि शरीर का मुक़ाबला ना कर लेकिन जो तेरे दहने गाल पर तमांचा मारे बायां भी उस की तरफ़ फेर दे।” इन अल्फ़ाज़ का मतलब उसने अपनी ज़िंदगी से ज़ाहिर किया। 1 पतरस 2:23 में यूं लिखा है “वो गालियां ख़ाके गाली ना देता था और दुख पाके धमकाता ना था। लेकिन अपने त्यों उस के जो रास्ती से अदालत करता है सपुर्द करता था।” उस के रसूलों की तालीम से भी वही फ़िरोतनी और हलीमी की तालीम ज़ाहिर होती है देखो रोमियों 12:19 “ऐ अज़ीज़ो अपना इंतिक़ाम मत लो बल्कि ग़ुस्से की राह छोड़ दो क्योंकि ये लिखा है कि ख़ुदावंद कहता है इंतिक़ाम लेना मेरा काम है।” और मुक़द्दस पतरस अपने पहले ख़त के 2:19, 21 में ये कहता है कि “अगर कोई ख़ुदा के लिहाज़ के सबब से बे इंसाफ़ी से दुख उठाकर ऐसी तक़्लीफों की बर्दाश्त करे तो ये फ़ज़ीलत है क्योंकि अगर तुमने गुनाह करके तमांचे खाए और सब्र किया तो कौनसी फ़ख़्र की बात है पर अगर नेकी करके दुख पाते और सब्र करते हो तो इस में ख़ुदा के नज़्दीक तुम्हारी फ़ज़ीलत है क्योंकि तुम इसी के लिए बुलाए गए हो कि मसीह भी हमारे साथ दुख पाके एक नमूना हमारे लिए छोड़ गया ताकि तुम उस के नक़्श-ए-क़दम पर चले जाओ।” अब अगर ये पूछा जाये कि यही हिदायत मूसवी शरीअत में क्यों इस सफ़ाई से ना दी गई तो हम ये बिला-ताम्मुल मान लें कि हम इलाही भेदों को नहीं जान सकते। लेकिन तो भी ये कहा जा सकता है कि पेश्तर मसीह की मौत से जो कि सभों का कफ़्फ़ारा है किसी साफ़ और वाज़ेह सूरत में गुनाह की गंदगी को दूर करके गुनेहगार पर रहम करने की हालत को ज़ाहिर ना किया था और अगर इसी हालत में ऐसी गुनाहों की माफ़ी पेश की जाती तो मुम्किन था कि आदमी अख़्लाक़ी और रुहानी बुराई की हक़ीक़त को ना पहचानते। इस का सब कुछ ही तो भी ये साफ़ ज़ाहिर है कि नए अहद में बनिस्बत पुराने अहद के आला रुहानी दर्जा पेश किया जाता है।

(5) गु़लामी की बाबत

ये कई वजूहात से साबित है कि वो ग़ुलाम जोकि बनी-इस्राईल में थे बनिस्बत उनके जो ग़ैर-अक़्वाम के पास थे बदर्जा बेहतर हालत में थे। क्योंकि एक तो उनको सबत के रोज़ ना सिर्फ काम करने की इजाज़त ना थी बल्कि ख़ास मुमानिअत थी। (इस्तस्ना 5:14) और फिर वो क़ौमी ईदों में शामिल होते थे। (ख़ुरूज 12:44, इस्तस्ना 16:10, 11) अगर कोई ग़ुलाम को क़त्ल करता तो क़ानूनन सज़ा पाता। (ख़ुरूज 21:10) और अगर कोई मालिक ऐसे तौर से ग़ुलाम को सज़ा देता कि उस के बदन के आज़ा को नुक़्सान पहुंचता तो उस को आज़ाद करना पड़ता है। (ख़ुरूज 21:26, 27) आम तौर पर बनी-इस्राईल को ये हुक्म था कि ग़ुलामों के साथ अपनी मिस्र की गु़लामी को याद करके सुलूक करो। (इस्तस्ना 15:12) बावजूद इन बातों के मूसवी शरीअत ने गु़लामी की रस्म को दूर ना किया बल्कि जारी रखा और ग़ैर क़ौमों में से जो ग़ुलाम थे उनको बनी-इस्राईल का ख़िदमतगुज़ार माना। (अहबार 25:39, 46) लेकिन बरअक्स इस के इन्जील में गु़लामी की सख़्त मुमानिअत है। क्योंकि जिस तरह मसीही मज़्हब इन्सान को आला रुहानी आज़ादगी की तरफ़ माइल करता है जैसा कि मसीह ने यहूदियों से कहा “अगर बेटा तुमको आज़ाद करता है तो तुम तहक़ीक़ आज़ाद होगे।” इसी तरह ये हुक्म भी देता है “पस जो कुछ तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें वैसा तुम भी उनके साथ करो।” (मत्ती 7:12) कोई दर्जा या रुत्बा किसी इन्सान को इन्जील की बरकत से जुदा नहीं कर सकता क्योंकि ये बरकत हर एक जो ईमान लाता और बपतिस्मा पाता है मिलती है जैसा कि ग़लतियों 3:26, 28 में लिखा है “तुम सब के सब उस ईमान के सबब से जो सय्यदना मसीह पर है ख़ुदा के फ़र्ज़न्द हो कि तुम सब जितनों ने मसीह में बपतिस्मा पाया मसीह को पहन लिया ना यहूदी ना यूनानी है ना ग़ुलाम ना आज़ाद ना मर्द ना औरत क्योंकि तुम सब मसीह में एक हो।” मसीह ने ये ना चाहा कि यकलख़त (एकदम) उस की तालीम से गु़लामी बंद हो जाए और दुनिया में एक हलचल मच जाये लेकिन उस की तालीम की रु से आहिस्ता-आहिस्ता ये बुरी रस्म बंद होती हो गई। गुनाह और शैतान से आज़ादगी इतनी बड़ी ख़याल की जाती है कि मुक़द्दस पौलुस कहता है कि इन्सान की गु़लामी क़ाबिल-ए-बर्दाश्त है बनिस्बत गुनाह और शैतान की गु़लामी के लेकिन तो भी वो हर एक मसीही ग़ुलाम को कहता है कि वो अपनी आज़ादगी हासिल करने के लिए कोशिश करे क्योंकि सय्यदना मसीह में आज़ाद शख़्स के लिए गु़लामी मौज़ू नहीं। ये तालीम हमको 1 कुरिन्थियों 7:2, 23 में मिलती है “अगर तू ग़ुलाम की हालत में बुलाया गया तो अंदेशा ना कर पर अगर तू आज़ाद हो सकता है तो उसे इख़्तियार कर क्योंकि वो ग़ुलाम जो ख़ुदावंद में हो के बुलाया गया ख़ुदावंद का आज़ाद किया हुआ है और इसी तरह वो जो आज़ाद की हालत में बुलाया गया मसीह का ग़ुलाम है। तुम दामों से ख़रीदे गए हो आदमियों के ग़ुलाम ना बनो।” मसीही मज़्हब का ये मीलान उस की तवारीख़ से साबित है क्योंकि जिस-जिस मुल्क में इन्जील की तालीम गई पहले वहां ग़ुलामों की हालत बेहतर बनाई गई और फिर रफ़्ता-रफ़्ता गु़लामी बिल्कुल मौक़ूफ़ हुई।

(6) एक से ज़्यादा निकाह और तलाक़ के बारे में

अगरचे मूसवी शरीअत में औरतों के हुक़ूक़ बनिस्बत ग़ैर क़ौम औरतों के हुक़ूक़ के अच्छे हैं मगर तो भी तलाक़ देना बिल्कुल मर्द के हाथ में था जो कि जब चाहे उस को अपने हाँ से निकाल सकता था जैसा कि हम इस्तस्ना 24:1, 2 में पढ़ते हैं “अगर कोई मर्द कोई औरत ले के ब्याह करे और बाद उस के ऐसा हो कि वो उस की निगाह में अज़ीज़ ना हो इस सबब से कि उसने उस में कुछ पलीद (गन्दी) बात पाई तो वो उस का तलाक़ नामा लिख के उस के हाथों में दे और उसे अपने घर से बाहर करे और जब वो उस के घर से बाहर निकल गई तो जाके दूसरे मर्द की हो।” मूसवी शरीअत के हक़ में ये कहा जा सकता है कि उस में ख़ावंद के इख्तियारात को ज़रा रोक दिया है क्योंकि वो अपनी तलाक़ दी हुई जोरू को जो कि दूसरे की जोरू हो चुकी है किसी सूरत से वापिस नहीं ला सकता। (देखो इस्तस्ना 24:3, 4) और मलाकी 2:16 में ये साफ़ तौर से लिखा है कि “तलाक़ देना ख़ुदा की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ है।” इसी तरह से पैदाइश की किताब में लिखा है कि ख़ुदा की पाक मर्ज़ी ये है कि “जब आदमी शादी करे तो वो अपने माँ बाप को छोड़ेगा और उसी से मिला रहेगा और वो एक बदन होंगे।” पैदाइश 2:24 लेकिन शरीअत में कोई ऐसे ख़ास क़ानून ना थे जिनसे ये तरीक़े माने जाते और निकाह की पाकीज़गी को ख़राब ना किया जाता। इस शादी की रस्म से ख़ुदा ने एक मर्द और एक औरत को जोड़ा बनाया। (देखो पैदाइश 1:27 और 2:21, 25) मगर शरीअत में अगरचे एक औरत से शादी करने की पाक रस्म को ज़ाहिर किया गया है और उस को सबसे बेहतर भी क़रार दिया है पर तो भी एक से ज़्यादा के साथ शादी करने और लौंडियां रखने की मुमानिअत नहीं की और बरअक्स उस के इस को जायज़ क़रार दिया जैसा कि मुफ़स्सला-ए-ज़ैल हवालों से मालूम होता है। (इस्तस्ना 21:15, ख़ुरूज 21:8, 10:1 समुएल 3:7 और 12:5)

लेकिन सय्यदना मसीह ने इस बात पर ख़ुदा की मर्ज़ी को ऐसे साफ़ तौर से ज़ाहिर किया कि उस के समझने में हरगिज़ ग़लती नहीं हो सकती। मत्ती 19:2, 9 में एक दफ़ाअ का ज़िक्र है जबकि उस के दुश्मनों ने उस को फँसाने की ग़र्ज़ से ये सवाल पूछा “क्या ये रवा है कि मर्द हर एक सबब से अपनी जोरू (बीवी) को छोड़ दे? उसने उनको जवाब दिया क्या तुमने नहीं पढ़ा कि उसने जिसने उन्हें शुरू में बनाया एक ही मर्द और एक ही औरत बनाया और फ़रमाया इसलिए मर्द अपने माँ बाप को छोड़ेगा और अपनी जोरू से मिला रहेगा और वो दोनों एक तन होंगे। इसलिए अब वो दो नहीं पर एक तन हैं। पस जिसे ख़ुदा ने जोड़ा इन्सान ना तोड़े। और उसने बतलाया कि उनका ख़याल बिल्कुल ग़लत था और कि वो मूसवी शरीअत के मुताबिक़ रास्त नहीं ठहर सकता मूसा ने तुम्हारी सख़्त दिली के सबब तुमको अपनी जौरओं (बीवियों) को छोड़ देने की इजाज़त दी पर शुरू से ऐसा ना था और मैं तुमसे कहता हूँ कि जो कोई अपनी जोरू (बीवी) को सिवाय ज़िना के और सबब से छोड़ दे और दूसरी से ब्याह करे ज़िना करता है और जो कोई इस छोड़ी हुई औरत को ब्याहे ज़िना करता है।”

इन मुक़ामात से मालूम होता है कि सय्यदना मसीह शादी के वही मअनी लेता है जिसकी रु से ये मेल एक औरत और एक मर्द में ज़िंदगी-भर का मेल हो। एक से ज़्यादा के साथ शादी करना उस की निगाह में ज़िनाकारी का जुर्म था क्योंकि जबकि वो उस आदमी को जो छोड़ी हुई औरत से शादी करे ज़िनाकार कहता है तो इस इस का ये भी मतलब है कि वो भी दूसरी औरत से शादी करता है जबकि एक उस के हाँ है ज़िनाकार है। दूसरी शादी से ज़िनाकारी इस तौर से ठहरती है कि जबकि पहली जोरू (बीवी) ज़िंदा है तो दूसरी शादी करना गोया ज़िना करना है। इसलिए रसूलों ने भी एक ही बीवी रखने की तालीम दी है और जब-जब उन्हों ने अपने ज़माने की मसीही शादीशुदा ज़िंदगी का ज़िक्र किया है तो हमेशा एक शादी वाली ज़िंदगी का ज़िक्र किया मुक़द्दस पौलुस 1 कुरिन्थियों 7:2 में यूं लिखता है “लेकिन हरामकारी से बच रहने को हर मर्द अपनी जोरू (बीवी) और हर औरत अपना शौहर रखे।” और फिर 7:12, 13 में यूं लिखता है “अगर किसी भाई की जोरू (बीवी) बेईमान हो और वो उस के साथ रहने को राज़ी हो तो वो उस को ना छोड़े या किसी औरत का शौहर बेईमान हो और वो उस के साथ रहने को राज़ी हो तो वो उस को ना छोड़े।” फिर इफ़िसियों 5:33 में यूं लिखता है “बहर-हाल हर एक तुम में अपनी-अपनी जोरू (बीवी) को ऐसा प्यार करे जैसा कि (अपने) आपको और औरत अपने शौहर का अदब करे।” मसीही मज़्हब जबकि निकाह की पाकीज़े और पाएदार रस्म को इस मुस्तहकम और साफ़ तौर से जतलाता है तो इस की ग़र्ज़ ये है कि वो औरत की उस गिरी हुई हालत को बहाल करे जो कि ग़ैर अक़्वाम के मज़ाहिब में पाई जाती है और नीज़ उस जगह से ऊपर उठाए जहां मूसवी शरीअत ने इस को अधूरी हालत में छोड़ दिया और इस तौर से औरत को ख़ुदा की एक आज़ाद फ़र्ज़न्द उस की बादशाहत की मुस्तहिक़ और आने वाले जलाल की वारिस बनाता है। (1 पतरस 3:7)

दूसरा बाब

इस्लाम और मसीही मज़्हब का बाहमी ताल्लुक़
या
क्या वो मज़्हब जिसका ज़िक्र इन्जील में है क़ुर्आन के मज़्हब में तब्दील हो सकता है

पहली फ़स्ल

क्या इस्लाम ने बहैसियत मज़्हब कभी दीनी व दुनियावी बरकात फैलाने और बनी-आदम को अपनी तरफ़ माइल करने में मसीहिय्यत पर फ़ौक़ियत हासिल की है?

पहले हिस्से से ये साफ़ ज़ाहिर है कि जैसा हमने मसीही तालीम और मूसवी शरीअत का मुक़ाबला करके देखा कि मसीही मज़्हब बनिस्बत यहूदी के ख़ुदा के मुकाशफे का एक आला दर्जा है। अगर कोई इस बात को समझ कर फिर उसी पुरानी तालीम पर चले तो ख़ुदा का गुनेहगार ठहरता है। अब इस हिस्से में हम ग़ौर करेंगे कि आया इस्लाम बिल-मुक़ाबिल मसीही मज़्हब के उस रिश्ते में है जैसा कि मसीही मज़्हब यहूदी मज़्हब के रिश्ते में था या कि आया ये ख़ुदा के मुकाशफ़ा का एक बालातर दर्जा है? और अगर बिला-तास्सूब इस पर ग़ौर करते हुए हमको मालूम हो जाए कि ये वाक़ई ऐसा है तो एक मसीही का फ़र्ज़ है कि मुहम्मदी हो जाए। और बरअक्स इस के अगर ये ऐसा साबित ना हो तो हर एक रोशन ज़मीर मुहम्मदी पर ज़ाहिर होगा कि उस का फ़र्ज़ इस बड़े अहम मसअले में क्या है। इस बात पर बिला-रिआयत ग़ौर करने के लिए हम मसीही और इस्लाम का मुक़ाबला इसी तरह करेंगे जिस तरह मसीही और यहूदी मज़्हब का किया गया और उन्ही ताअलीमात पर ग़ौर करेंगे जिन पर ग़ौर किया गया है। इस तरह मुक़ाबला करते हुए हम ये दर्याफ़्त करने की कोशिश करेंगे कि आया इस्लाम बिल-मुक़ाबिल मसीही मज़्हब ख़ुदा के मुकाशफे का एक बालातर दर्जा है या नहीं?

मसीही मज़्हब की बाबत हम ऊपर बयान कर चुके हैं कि ये मज़्हब एक पुर-ज़ोर और दुनिया को मग़्लूब करने वाला मज़्हब था जो कि बनी-आदम के दर्मियान बहुत जल्द फैल गया और जिसकी रु से ये साबित हो गया कि ये ख़ुदा की तरफ़ से एक सच्चा और हक़ीक़ी मज़्हब बनी नूअ इन्सान को पेश किया गया। इसी तौर से हमने यहूदी मज़्हब में देखा कि क्योंकर वो ज़ाइल हो गया जबकि क़ौम यहूद ने ख़ुदावंद क़ादिर-ए-मुतलक़ के नए ज़रीया नजात को जो मसीह और उस की तालीम में पेश किया गया था रद्द किया जिससे ये साबित हुआ कि पुराना मज़्हब इस नए मज़्हब में तब्दील हो कर जाता रहा। अब ये कहा जाता है कि जबकि इस्लाम नाज़िल हुआ तो मसीही मज़्हब इस में तब्दील हो कर जाता रहा मगर पेश्तर इस से कि हम इस को क़ुबूल करने के लायक़ समझें हम ये दर्याफ़्त करेंगे कि आया मुहम्मदी मज़्हब बनिस्बत मसीह के मज़्हब के ज़्यादा पुर असर और लोगों को मफ़तूह करने वाला है या नहीं और इस के साथ ये भी दर्याफ़्त करेंगे जैसा कि दाअवा है कि इस्लाम ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल हुआ और क्या ख़ुदा के इंतिज़ामात-ए-दुनिया में ये देखा जाता है कि मसीही मज़्हब से रूहानियत ज़ाइल हो गई और मसीही क़ौम से सब बरकतें ले ली गईं और कि इस का असर दुनिया की अक़्वाम पर ना पड़ा?

इस्लाम में बहुत सदाक़तें हैं और कुछ ताज्जुब नहीं कि उनका असर लोगों पर पड़े। जबकि मुहम्मद साहब ने तालीम देनी शुरू की तो अहले-अरब बुत-परस्त थे और काअबे में तीन सौ से ज़्यादा बुत थे लिहाज़ा ये वाहिद ख़ुदा की तालीम जो कि ला इलाहा इल्लल्लाह में ज़ाहिर है बड़ा गहरा असर उन लोगों पर हुआ जो बुत-परस्ती को हीच और ना चीज़ समझते थे लेकिन जो सवाल दरपेश है वो ये है कि आया इस्लाम मसीही मज़्हब से ज़्यादा पुर-असर और दिलों को मग़्लूब करने वाला मज़्हब है या नहीं?

दोनों मज़ाहिब के असरात पर ग़ौर करते हुए ये बात ज़रा मुश्किल से फ़ैसला होगी कि कौन सा मज़्हब किस वजह से जल्द फैल गया क्योंकि मसीही मज़्हब को तीन सौ बरस तक मुल्की उरूज हासिल ना हुआ जबकि इस्लाम हिज्रत के वक़्त से ना सिर्फ एक मज़्हब ही रहा बल्कि ज़्यादा हुकूमत में तब्दील हो गया। इस हालत ये नहीं कहा जा सकता कि कौन से असरात मज़्हबी थे और कौन से मुल्की। लेकिन अगर मुल्की इख्तियारात के ज़माने को बरतरफ़ कर दिया जाये और उस ज़माने की मज़्हबी तालीम पर ग़ौर किया जाये जबकि मदीना जाने से पेश्तर मुहम्मद साहब ने मक्का में सिर्फ मज़्हबी तालीम दी तो मुक़ाबला सफ़ाई से हो सकता है। उस ज़माने में जो कि क़रीबन तेराह (13) साल का था इस मज़्हब की बाबत तालीम देने वाले सिर्फ़ मुहम्मद साहब ही थे मसीही मज़्हब के शुरू में भी सिर्फ मसीह ही ने तालीम दी जो कि सिर्फ तीन (3) साल में तमाम हुई। अब हम ग़ौर करें कि इन दो ज़मानों की ताअलीमात का क्या-क्या असर हुआ यानी मसीह की तालीम ने क्या असर पैदा किया और मुहम्मद साहब की तालीम ने क्या असर पैदा किया? लूक़ा 6:13 में हम पढ़ते हैं कि मसीह ने बहुत से शागिर्दों में से सिर्फ बारह रसूलों को चुना और फिर लूक़ा 10:1 में पढ़ते हैं कि उसने और सत्तर (70) को मुनादी करने के लिए भेजा। मत्ती 21:46 में लिखा है कि उसके दुश्मन सरदार काहिन और फ़रीसियों ने इस वास्ते उस पर हाथ ना डाले कि वो अवाम से डरते थे क्योंकि वो उस को (मसीह को) नबी जानते थे। यूहन्ना 7:40, 41 से मालूम होता है कि लोगों ने उस की तालीम सुनकर कहा कि “ये सच-मुच एक नबी है” और औरों ने कहा “ये मसीह है।” आमाल 1:15 में उस के 120 शागिर्दों की जमाअत का ज़िक्र है और फिर 1 कुरिन्थियों 15:6 से ज़ाहिर है कि वो (मसीह) अपने जी उठने के बाद चालीस (40) दिन तक जब तक कि आस्मान को ना गया वो पाँच सौ (500) से ज़्यादा भाईयों को और ईमानदार मसीहियों को दिखाई देता रहा।

बरअक्स इस के जब हम अरबी तारीख़ नवीसों मसलन कातिब अल-वकदी, इब्ने हाशिम तबरी, इब्ने-साद की तरफ़ रुजू होते हैं तो हमें मालूम होता है कि मुहम्मद साहब के पहले पैरौ (मानने वाले) उन्ही की बीवी ख़दीजा उनका मुतबन्ना बेटा ज़ैद उस का भाई अली और उस का दोस्त अबू बक्र और चंद एक और ग़ुलाम जोकि अबू बक्र की दौलत से फ़ैज़याब हुए थे। उमर जो कि अर्क़म ख़ानदान से था उस के इस्लाम क़ुबूल करने के वक़्त या उस ज़माने तक जब मुहम्मद साहब ने छः या सात बरस तक इस मज़्हब की मुनादी की उनके पैरौ (मानने वाले) सिर्फ पचास थे जिनमें से 45 मर्द और क़रीबन 10 औरतें थीं और जबकि वो उस ज़ुल्म के बाइस जो मक्का में हुआ अबीसीनिया को भाग गए तो उनका शुमार 101 था यानी 83 मर्द और 18 औरतें। यही शुमार हिज्रत के वक़्त तक मुहम्मद साहब के पैरों (मानने वालों) का था क्योंकि कातिब अल-वकदी लिखता है कि वो जो कि जंग बद्र में मुहम्मद साहब की तरफ़ से लड़े क़रीबन 83 थे और ये भी ज़िक्र है कि हिज्रत के वक़्त उन पैरौओं (मानने वालों) का शुमार जो मदीना में हुए 75 था जिनमें से 73 मर्द और 2 औरतें थीं। इस शुमार से मालूम हो जाता है कि मसीह और मुहम्मद साहब की कामयाबी मह्ज़ मज़्हबी बुनियाद डालने वालों की हैसियत में और बिला-दुनियावी ताक़त और मदद के कहाँ तक हुई। मुहम्मद साहब के पैरौओं (मानने वालों) का शुमार मर्द और औरत मिला के तेराह साल के काम के बाद 180 था और बरअक्स इस के मसीह के पैरौओं (मानने वालों) का शुमार सिर्फ तीन साल की ख़िदमत के बाद पाँच सौ (500) सिवाए औरतों के था।

इस ज़माने के बाद मसीही और इस्लाम के पैरौओं (मानने वालों) के शुमार में बड़ा फ़र्क़ हो गया लेकिन याद रखना चाहिए कि ये फ़र्क़ सिर्फ उसी लिहाज़ से हुआ कि मुसलमान बहादुर और जंगजु लोग थे ना इस लिहाज़ से कि बिल-मुक़ाबिल मसीही मज़हब के इस्लाम लोगों के दिलों पर ज़्यादा असर डाल कर तब्दील कर सका।

मसीह की मौत के तीन सौ बरस बाद तक मसीही मज़्हब पर सख़्त ज़ुल्म पहले यहूदियों की तरफ़ से फिर ग़ैर-मसीही ज़बरदस्त सल्तनत रोम की तरफ़ से हुए। ये सल्तनत उस वक़्त की तमाम दुनिया पर फैली हुई थी और उस के सलातीन जज़ाइर बर्तानिया से हिन्दुस्तान तक और सकेंडीनियुया से अफ़्रीक़ा के सहराए आज़म तक हुक्मराँ थे। इस सल्तनत की तरफ़ से मसीही मज़्हब की सख़्त मुमानिअत थी जिससे मालूम होता है कि मसीही मज़्हब के मुख़ालिफ़ एक कैसी ज़बरदस्त ताक़त थी। मसीही कलीसिया की तवारीख़ से मालूम होता है कि सल्तनत रोमा (रोम) की तरफ़ से मसीह के पैरौओं (मानने वालों) के बरख़िलाफ़ दस खूँरेज़ ईज़ा-रसानीयाँ हुईं लेकिन बावजूद उन तकालीफ़ और मसाइब के जिनमें हज़ारहा बूढ़े और जवान मर्द औरतें शहीद हुए मसीही मज़्हब फैलता चला गया यहां तक सुनने में आया है कि इन शहीदों की बुर्दबारी को देखकर उनकी सरगर्म दुआओं को सुनकर बहादुरी और फ़तहयाब ख़ुशी को देखकर कई मर्तबा जल्लाद भी मसीही हो गए। यहां तक कि ये ज़रब-उल-मसल (मिसाल) हो गया कि शहीदों का ख़ून कलीसिया की बुनियाद है। मसीही ईमान और सब्र दुनियावी ज़बरदस्त सल्तनत रोमा से कहीं ज़्यादा फ़तहमंद ख़याल किया गया। तीन सदियों के बाद बग़ैर इस के कि तल्वार या दुनियावी ताक़त या क़ुव्वत को नाजायज़ तौर से इस्तिमाल किया हो मसीही मज़्हब अपनी ही रुहानी ताक़त व क़ुद्रत से इस कस्रत से फैल गया कि हज़ारहा मसीही सल्तनत रोमा की फ़ौजों और महल सराओं में भी पाए गए। उनका शुमार उस वक़्त जबकि कांस्टेंटेटीन बादशाह जिसने शहर इस्तंबुल बनाया मसीही हुआ इतना बढ़ गया था कि उसने महसूस किया कि मसीहियों का ज़ोर जिन पर तरह-तरह के ज़ुल्म होते आए बनिस्बत ग़ैर-क़ौमों के ज़ोर के ज़्यादा और क़वी-तर है। कांस्टेंटीन बादशाह के अहद के शुरू में जबकि ये ईज़ा-रसानियाँ ख़त्म हो गईं तो मसीहियों का शुमार कई लाख था और तवारीख़ से मालूम होता है कि मसीही हिन्दुस्तान फ़ारस पार्थिया बक्तर या मेडीया आरमीनिया मेसोपोटामिया सीरिया अरब मिस्र अफ़्रीक़ा एशिया कोचक तुर्की यूनान इटली फ़्रांस स्पेन और इंग्लिस्तान में बकस्रत पाए जाते थे।

ये बात सच्च है कि मुहम्मद साहब के मदीना जाने के बाद उस के पैरौ (मानने वाले) अरब में बहुत हो गए और उनकी मौत के बाद ये मज़्हब बहुत से ममालिक में फैल गया ऐसा कि मुसलमानों का शुमार हज़ारों और लाखों तक पहुंचा। लेकिन कोई शख़्स भी जो कि इस वक़्त की तवारीख़ से वाक़िफ़ है ये ना कहेगा कि मुसलमानों की तरक़्क़ी का सबब उनका रुहानी ज़ोर था जिसके बाइस लोग उस की तरफ़ माइल हुए। बरअक्स इस के कोई फ़िर्क़ा या क़ौम ऐसी ना थी जो इस्लाम क़ुबूल करने से पहले मग़्लूब ना की गई हो और फिर मुल्की ताक़त और असर की वजह से तब्दील ना की गई हो। मुहम्मद साहब ने मदीना में वारिद होने पर अपने मज़्हबी काम के साथ मुल्की ख़िदमात को बहैसियत एक अरबी अमीर या हुक्मरान के शामिल किया क्योंकि तवारीख़ से मालूम होता है कि उन अठारह महीनों के दर्मियान जो कि हिज्रत और जंगे बद्र के दर्मियान पड़े मुहम्मद साहब ने अपने हम-राहियों के साथ सात धावे (हमले) किए जिनमें उन्होंने उन सौदागरों को जो मक्का को तिजारत के लिए जाते थे लूटा उनमें से तीन धाओं (हमलों) में मुहम्मद साहब बज़ात ख़ुद शामिल थे। अगर हम इस क़दीम ज़माने के तरीक़ों को मद्दे-नज़र रखें कि क्योंकर मुख़्तलिफ़ अरबी फ़िर्क़े लूट और मारधाड़ करते थे तो ये भी रोशन हो जाएगा कि जब मुहम्मद साहब के धावे (हमले) कामयाब हुए ख़ुसूसुन जब उनको जंगे बद्र के बाद बहुत सा माल व मताअ मिल गया तो बहुत से लोग बखु़शी इस नए मज़्हब की तरफ़ रुजू हुए और लोगों को यक़ीन हो गया कि ना सिर्फ ये नबी हमको आने वाली बहिश्त अता करवाएगा बल्कि इस जहान में भी माल व दौलत बख़्शेगा। मुहम्मद साहब की वफ़ात तक जो कि हिज्रत से नौ बरस के बाद वक़ूअ में आई सारा अरब मुसलमानों का मुतीअ हुआ और लोग इस नए मज़्हब के पैरौ हुए और वो तमाम फ़िर्क़ेजो आपस की ख़ाना-जंगी में हमेशा मुब्तला रहते और लौट मार करते थे अब एक सरदार के मातहत होईआवर उस को देनी और दुनियावी हाकिम क़ुबूल किया। कोई ताज्जुब की बात नहीं कि ये सब इस नए मज़्हब के पैरौ हुए जबकि इस क़िस्म की लूट मार के ज़रीये से ना सिर्फ उनका इफ़्लास (ग़रीबी) दूर हुआ बल्कि यही तरीक़ (लूट मार करना) बमूजब उनके क़दीम दस्तूर और आदात के इस नए मज़्हब में जारी रखा गया और चूँकि सल्तनत रोमा और फ़ारस अपनी ख़ाना जंगियों के बाइस तबाह हो कर ज़ाइल हो रही थीं इसलिए इन लोगों को और भी ज़्यादा मौक़ा मिला कि एक साथ हो कर क़ुर्ब व जुवार (आसपास) के मुल्कों पर धावे (हमले) करें और माल व दौलत जमा करें। लिहाज़ा ख़ुलफ़ा के मातहत हो कर अरब की फ़ौजें अपनी सरहदों से बड़े क़रोफ़र से निकलें और गर्द व नवाह (आसपास) के सारे मुल़्क फ़त्ह कर लिए। जहां तक ये फ़ौजें कामयाब हुईं इस्लाम सल्तनत का मज़्हब ठहराया गया और अगरचे लोगों पर ज़बरदस्ती ना की गई कि वो इस मज़्हब को जबरन क़ुबूल करें लेकिन तो भी ऐसी ऐसी मुश्किलात लोगों के सामने रखी गईं और बाअज़ दफ़ाअ ऐसे ऐसे ज़ुल्म उन पर किए गए कि वो अपने-अपने मज़्हब पर क़ायम ना रह सके ख़लीफ़ा उमर के वक़्त का ज़िक्र है कि चार हज़ार इबादतगाहें (गिरजे) मिस्मार किए गए। इन बातों को देखकर वो लोग जो अपने ईमान और दीन में कमज़ोर थे और जो कि इस रद्दो-बदल के ज़माने में ना समझ सके कि दीन हक़ क्या है और जिन्हों ने चाहा कि हाकिमान-ए-वक़्त के हुक़ूक़ को हासिल करें फ़ौरन अपने बुज़ुर्गों के मज़्हब को तर्क करके मुसलमान हो गए। पस इस से मालूम हुआ कि मुसलमान फ़ौजें ना सिर्फ लड़ाई का काम ही करतीं बल्कि अपने साथ साथ अपने मज़्हब को भी फैलाती गईं यहां तक कि जब बहुत से मुल्क फ़त्ह हो गए तो लाखों करोड़ों लोग इस मज़्हब के पैरौ (मानने वाले) हो गए।

लेकिन ये फ़ुतूहात और इस्लाम का इस तौर से फैल जाना हरगिज़ साबित नहीं करता कि क़ुर्आन का मज़्हब एक बड़ा रुहानी मज़्हब है। ऐसी ऐसी फ़ुतूहात मोअजज़ाना वाक़ियात नहीं कहला सकते क्योंकि हमको तवारीख़ से मालूम होता है कि और जगहों में भी बड़ी-बड़ी फ़ुतूहात हुईं मसलन सिकंदर आज़म ने जो कि एक बुत-परस्त आदमी था सिर्फ 9 साल के अंदर एक छोटे से मुल्क से उठकर जो कि अरब से बदर्जा छोटा था एक इतना बड़ा मुल्क फ़त्ह किया जो ख़ुलफ़ा ने नव्वे (90) साल में फ़त्ह किया और जहां-जहां वो गया यूनानी ज़बान और मुल्क-ए-यूनान के तरीक़ मुआशरत को बड़ी कामयाबी के साथ फैलाया।

एक और बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि गो कई सदियों तक मुसलमानों ने अपने मज़्हब के फैलाने में हमा-तन कोशिश की मगर तो भी वो अपने मज़्हब को फैलाने की कामयाबी में उन मसीही लोगों के दर्मियान जो उनकी ज़ेर हुकूमत थे इतने कामयाब ना हुए जिस तरह मसीही मज़्हब ग़ैर-अक़्वाम में कामयाब हुआ क्योंकि ये देखा जाता है कि यूरोप में कोई भी क़ौम ऐसी ना रही जो अपने क़दीम मज़्हब पर क़ायम रही हो पर बरअक्स इस के मसीही बहुत से ममालिक मसलन तुर्की सीरिया फ़ारस और मिस्र में लाखों पाए जाते हैं लिहाज़ा ये एक क़ाबिल-ए-क़ुबूल अम्र है कि मसीही बिल-मुक़ाबिल यहूदियों के बहुत बढ़ गए पर मुसलमान बिल-मुक़ाबिल मसीहियों के ना बढ़े बल्कि उनसे शुमार में बहुत ही कम हैं।

ये भी तवारीख़ से साबित है कि जूं ही क़ौम-ए-यहूद ने मसीही मज़्हब को रद्द किया फ़ौरन उनकी क़ौम पर वो लानतें टूट पड़ीं जिनकी वजह से वो ना सिर्फ अपने मुल्क से निकाले गए बल्कि कुल रु-ए-ज़मीन पर परागंदाह हो गए। लेकिन अगर तवारीख़ में मसीहियों की बाबत देखा जाये कि आया उन पर भी लानतें पड़ें जबकि उन्हों ने मुहम्मद मज़्हब को रद्द किया तो साफ़-साफ़ मालूम होता है कि वो मसीही मुल्क जिन्हों ने क़ुर्आन के मज़्हब को रद्द किया और जिन में से बाअज़ ने मुसलमानों की फ़ौजों को मग़्लूब भी किया ना सिर्फ लानत से बच गए बल्कि पहले से बदर्जा ज़्यादा तरक़्क़ी कर गए। सिर्फ चंद एक दुनिया पसंद नाम के मसीहियों ने अपने दुनियावी फ़ायदे की ग़र्ज़ से इस्लाम को इख़्तियार किया मगर बहुतों ने अपने ईमान की ख़ातिर बहुत से नुक़्सानात भी उठाए मगर तो भी वो किसी रुहानी बरकत से महरूम ना हुए ख़याल कीजिए कि क़ौम-ए-यहूद जब से उन्होंने मसीह को रद्द किया फिर अपना मुल्क हासिल ना कर सकी लेकिन मसीही क़ौमों ने इस्लाम को रद्द करके ना सिर्फ अपनी ख़ुद-मुख्तारी क़ायम रखी बल्कि बावजूद बड़ी-बड़ी मुसलमान फ़ौजों के जो उन के तबाह करने के लिए भेजी गई थीं उन्ही को शिकस्त दी। मसीहियों की ताक़त और आबादी ख़ुदा की बरकत से बढ़ती गई यहां तक कि अब आधी दुनिया का सबसे बड़ा हिस्सा इन्ही से आबाद है और हर एक फ़िर्क़ा और मिल्लत पर कुछ ना कुछ रोब दाब है। ये अब बिला-मुबालग़ा कहा जा सकता है कि मसीही दुनिया की और सब क़ौमों से बहुत आला हैं और ख़ुदा तआला ने उनको सफ़ा हस्ती पर ताक़त और क़ुद्रत अता की है। ये क़ाबिल-ए-ग़ौर बात है कि मसीही मज़्हब चंद ग़रीब आदमियों के ज़रीये से शुरू हुआ जिनके पास ना दुनियावी माल था ना ताक़त थी। अगर कोई ताक़त थी तो उनका अपना ईमान था। तीन सौ (300) बरस तक मसीहियों ने सख़्त तकालीफ़ का सामना करके अपने मज़्हब की ईमान और दुआ से इशाअत की और इस कोशिश में सैकड़ों शहीद हो गए मगर बावजूद इन सब के अब मसीही मज़्हब ज़बरदस्त से ज़बरदस्त तख़्त का मालिक है। बरअक्स इस के इस्लाम पहले-पहल बहुत फैल गया क्योंकि उस के पैरौओं (मानने वालों) ने दुनियावी फ़ुतूहात को मद्दे-नज़र रखा मगर अब रफ़्ता-रफ़्ता उस की ताक़त ज़ाइल होती जाती है।

अगर मसीही और मुहम्मदी मुल्कों के अंदरूनी हालात का मुक़ाबला किया जाये तो इनकी सदाक़त और भी ज़्यादा रोशन हो जाएगी। सच्चा मज़्हब वो है जो कि सच्चाई को फैलाए ईमानदारी इन्साफ़ ख़ुदा के साथ रिफ़ाक़त ज़िंदा ईमान और सच्ची परस्तारी के साथ बढ़ाए जो कि लोगों को बेहतर बनाए और जिससे क़ौम की ख़ुशहाली बढ़ जाये। अब अगर ये मेयार दोनों मज़ाहिब पर आइद किया जाये तो इनकी सदाक़त ज़ाहिर हो जाएगी अगर मसीही मज़्हब सच्चा मज़्हब ना रहा जैसा कि मुसलमान ख़याल करते हैं तो ये बात ज़ाहिर होनी चाहिए कि मुसलमानों के मुल्क ख़ुशहाल और बहुत बेहतर हैं और मसीही मुल्क ख़राब और ख़स्ता हालत में हैं मगर अस्ल हालत ये नहीं। अरब के मुल्क पर ग़ौर करो कि मुहम्मद साहब की जाय-ए-विलादत है। इस मुल्क की हालत क़रीबन यकसाँ रही पहले-पहल बहुत माल व दौलत ख़ुलफ़ा की फ़तहमंद फ़ौजों के ज़रीये पहुंचाई गई और कुछ अर्से तक अरब के बदवी दुनिया की सबसे मालदार क़ौमों पर हुक्मराँ रहे लेकिन ये सब दौलत और ताक़त जाती रही और अहले-अरब ख़ुशहाल और बातह़जीब इन्सान होने के बजाए नीम-वहशी जाहिल और वैसे ही लूट मार करने वाले बदवी रहे जैसा कि मुहम्मद साहब की पैदाइश से पहले थे 12 सौ साल तक ये इस्लाम के ज़ेर-ए-साये रहे मगर तो भी उनमें तब्दीली ना पैदा हुई और ये अब इतने भी मुहज़्ज़ब नहीं जैसी बाअज़ और ग़ैर कौमें हैं। और मुल्कों पर ग़ौर करो जहां मुहम्मदी सल्तनत फैली और जहां मुहम्मद साहब की वफ़ात के बाद इस्लाम फैला और अब तक क़ायम है मसलन सीरिया फ़ारस एशिया कोचक मिस्र और शुमाली अफ़्रीक़ा। जबकि इन मुल्कों पर मुसलमानों ने क़ब्ज़ा किया और तो वो बहुत आबाद थे सदहा गांव और क़स्बात उनमें थे ज़मीन काश्त की जाती थी और लोग ख़ुशहाल और दुनिया की मुहज़्ज़ब क़ौमों में शुमार किए जाते थे मगर जूं ही कि इस्लाम के ज़ेर हुकूमत आए उनकी ख़ुशहाली और तहज़ीब बजाए इस के कि तरक़्क़ी करती तनज़्ज़ुल करती गई और अब ये मुल़्क सहरा और बियाबान बन गए हैं और अगर कोई इनमें सफ़र करे तो दिनों बग़ैर गांव और कस्बों के रेगिस्तान में तन्हा मारा फिरे। ना ज़मीन काश्त होती है ना खेती बाड़ी और ज़राअत कोई करता है। इन अज़ला में जो कस्रत से आबाद थे अब सिवाय-ए-ख़ाना-बदोश बदवियों के और कोई ना रहा। आबादी ना सिर्फ घट गई बल्कि लोगों की हालत इफ़्लास (ग़रीबी) की है और क़रीब-क़रीब वहशी अक़्वाम की मानिंद हैं। बरअक्स इस के मसीही मज़्हब का असर कैसा अजीब है अगर यूरोप पर नज़र डाली जाये तो मालूम होगा कि सिवाए इटली और यूनान के जहां एक क़िस्म की शाइस्तगी फैली हुई थी और तमाम मुल्क मसीही मज़्हब से पहले नीम-वहशी और जाहिल थे। इंग्लिस्तान में तो लोग जानवरों की खालों से अपने बदन को ढाँकते और जर्मन ऐसे जंगली थे कि लड़ाई पर अपनी औरतों को भी साथ ले जाते जोकि उनको शिकस्त के वक़्त लान तअन करतीं और अगर भागने की नौबत पहुँचती तो उनको बुरा भला कह कर फिर लड़ने को वापिस लाती थीं। लोग बिल्कुल वहशयाना हालत में थे। मगर इन्जील की क़ुद्रत ने उन जंगली मर्दों और औरतों को सुधारा। ख़ुदा की मुहब्बत ने जो मसीह में ज़ाहिर होती है उनको मुतीअ किया। यहां तक कि यूरोप की सब क़ौमों ने अपने बुतों को फेंक दिया और एक सच्चे और ज़िंदा ख़ुदा की परस्तिश जो अपने बेटे दुनिया के नजात देने वाले सय्यदना मसीह में ज़ाहिर हुआ करने लगे। ये ईमान उनके लिए बरकतों का सरचश्मा हो गया जिनसे उनकी रुहानी और जिस्मानी तरक़्क़ी हुई और उस इलाही कलाम की सदाक़त जो 1 तमथीस 4:8 में पाया जाता है पूरी हुई “दीनदारी सब बातों के लिए फ़ायदेमंद है कि अबकी और आइन्दा की ज़िंदगी का वाअदा इस के लिए है।”

मसीही मज़्हब के फ़ाइदेबख्श और पाक असर के ज़रीये से ना सिर्फ यूरोप के मुल्को की आबादी बढ़ गई बल्कि यूरोप की सब कौमें पहले की बनिस्बत ज़्यादा शाइस्ता ज़्यादा तालीम-ए-याफ़्ता और ज़्यादा दौलतमंद हैं और ये बात अयाँ है कि कई पुश्तों से यूरोप के मसीही ममालिक दुनिया की और सब क़ौमों से सर्फ़राज़ हैं और उनकी तहज़ीब इल्म ताक़त और लियाक़त भी ज़्यादा है। पस तवारीख़ से ये साबित हुआ कि इस्लाम ना सिर्फ क़ौमों को तरक़्क़ी देने में नाकामयाब हुआ बल्कि इस में कोई ऐसी ताक़त भी ना पाई गई जिससे वो गिरती हुई क़ौमों को सँभाल सकता और बरअक्स इस के वो मसीही मुल्क जिन्हों ने इस्लाम को रद्द किया बजाए इस के कि ख़ुदा उनको सज़ा देता ज़्यादा बढ़े और तरक़्क़ी की यहां तक कि अब तमाम इस्लामी ममालिक तहज़ीब दौलत और ताक़त में इन से कहीं कम हैं।

अब अगर ये दावा सच्च होता कि इस्लाम के नाज़िल होने से मसीही मज़्हब सच्चा मज़्हब ना रहा और कि अब ख़ुदा की ये मर्ज़ी है कि मसीही और यहूदी और ग़ैर क़ौम क़ुर्आन की तालीम को इख़्तियार करें तो ये देखने में आता कि मसीही मज़्हब रफ़्ता-रफ़्ता कमज़ोर होता जाता उस की रुहानी क़ुव्वत और असर ज़ाइल होता जाता और ख़ुदा की बरकतों से महरूम हो जाता और बरअक्स इस के साथ ही साथ ये भी देखने में आता कि मुहम्मदी मज़्हब अपने असर और ताक़त को बहाल रखता और महज़ब क़ौमों में फैलता जाता और ख़ुदा की बरकतों से माला-माल हो कर या पहली तरह फ़तहमंद फ़ौजों के ज़रीये से फैलता या ख़ुशहाल अमन व अमान और तरक़्क़ी के तरीक़ों को दुनिया के सामने पेश करके इस को अपना गरवीदा बनाता। लेकिन हालात पर ग़ौर करने से मालूम होता है कि हालत बिल्कुल दगरगों है। ये सच्च है कि वसती अफ़्रीक़ा में जहां बोर्नियोज़ मैन डेंगा और फूलास कौमें आबाद हैं इस्लाम कुछ कामयाब नज़र आता है मगर ये इसलिए है कि वहां की कौमें निहायत कमज़ोर और बे जान थीं। पर अगर कुल ममालिक पर जो मुसलमान हैं ग़ौर किया जाये तो इस क़िस्म की तरक़्क़ी चंद रोज़ा ज़ाहिरा तरक़्क़ी मालूम होगी क्योंकि जिस तरह एक सब्ज़ शाख़ जिसकी जड़ ख़राब हो गई हो थोड़े अर्से के लिए लहलहाती है इसी तरह से ये कौमें गो थोड़े अर्से के लिए बेहतर नज़र आएँ मगर चूँकि इनकी बुनियाद ख़राब है जल्द जाती रहेंगी। वो ममालिक जोकि इस्लाम की जान ख़याल किए जाते हैं और जो मुल्की हुकूमत के लिहाज़ से मर्कज़ समझे जाते हैं मसलन तुर्की, फ़ारस और शुमाली अफ़्रीक़ा कब से ख़ामोश बैठे हैं और बिल्कुल कोशिश नहीं करते कि और क़ौमों को अपनी तालीम से मुतीअ (फर्माबरदार) करें। अब ना सिर्फ मुसलमानों की फ़ुतूहात बंद हो गईं बल्कि जो जो मुल़्क फ़त्ह भी किए थे वो भी अब रफ़्ता-रफ़्ता उनके हाथों से निकले जाते हैं तवारीख़ से ये मालूम होता है कि बहुत से मुल्क जोकि एक ज़माने में मुसलमानों के मातहत थे मसलन स्पेन, शुमाली अफ़्रीक़ा, यूनान और हिन्दुस्तान अब सब मसीही सल्तनतों के मातहत हैं। ये भी बात रोशन है बल्कि बाअज़ मुसलमानों का ख़ुद ये इक़रार भी है कि सकड़ों नहीं बल्कि हज़ारों जो कि मुसलमान कहलाते हैं ख़ुसूसुन तालीम-याफ़्ता और बड़े लोग सिर्फ नाम के मुसलमान हैं और उनका ईमान जाता रहा है। या तो वो मसीही मज़्हब की तरफ़ राग़िब हैं या दहरियत की तरफ़ रुजू हैं।

अगर हम उन लोगों की हालत पर ग़ौर करें जो कि क़ुर्आन की तालीम को मानते हैं तो क्या उनकी ज़िंदगियों और आमाल से ये साबित होता है कि उनका मज़्हब ज़्यादा रुहानी है और ज़्यादा पाकीज़गी सदाक़त और मुहब्बत को लोगों के दर्मियान पैदा करता है? बरअक्स इस के एक मुसलमान मसीही मज़्हब के नताइज को देखकर क्या कहेगा? मसलन हर क़िस्म के मर्ज़ के लिए सैकड़ों हस्पताल हैं हर उम्र के लड़कों और लड़कियों के लिए मुफ़ीद मदरसे हैं अँधों और बहरों गूंगों के लिए भी मदरसे हैं और उन मुहताजों के लिए जो किसी क़िस्म का काम नहीं कर सकते मुसाफ़िर ख़ाने ख़ुराक और पोशाक गांव और कस्बों में मुहय्या की जाती है। इलावा इस के और बहुत सी अंजुमनें हैं जो ग़रीब ग़ुरबा की मदद के लिए क़ायम हैं जो बीमारों यतीमों और बेवाओं की हम्दर्दी और ख़बर-गीरी करती हैं और बेपर्वा और दुनिया-दारों को नसीहत-आमेज़ कलाम सुनाती हैं।

अगर ये मान भी लिया जाये कि इस्लाम ही सच्चा मज़्हब है और इसी पर सब ख़ुदा की बरकतें नाज़िल हैं तो क्या सबब है कि ये मसीही मुल्कों में नहीं फैलता? क्या वजह है कि सच्चे और सरगर्म मुसलमान अपना रुपया सर्फ़ नहीं करते कि क़ुर्आन आम लोगों में बाँटे जाएं और इमाम खोजे और उलमा मसीही मुल्कों में भेजे जाएं ताकि औरों को इस्लाम की बाबत मालूम हो जाए? और अगर मसीही मज़्हब सच्चा नहीं और ख़ुदा की बरकत उस के साथ नहीं तो क्यों ये ज़ाइल नहीं हो जाता? क्यों ये अब तक दुनिया के हर मुल्क में फैलता जाता है? बुत-परस्तों में यहूदियों में और मुसलमानों में यहां तक कि अब सैकड़ों नहीं बल्कि हज़ारों मसीही ऐसे पाए जाएंगे जो और मज़्हबों से मसीही हुए हों।

इन तमाम मज़्कूर बाला दलाईल से ये साफ़ और सरीह तौर पर साबित हो गया कि अगरचे मसीही मज़्हब इस्लाम से छः सौ (600) साल पहले से है मगर तो भी बड़े शुद्दो मद से फैल रहा है हालाँकि मुहम्मदी मज़्हब कमज़ोर होता जाता और रोज़ बरोज़ अपनी ताक़त और असर को खोता जाता है।

दूसरी फ़स्ल

क्या जैसे मसीह और मसीही मज़्हब की बाबत पुराने अहदनामे में पेशीनगोईयां हैं इसी तरह मुहम्मद साहब और इस्लाम की बाबत नए अहदनामे में पेशीनगोई है?

हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं कि मसीही मज़्हब एक इलाही मज़्हब है जिसके नाज़िल होने से पहले एक ज़माने के लिए मूसवी शरीअत बनी नूअ इन्सान को आरिज़ी तौर पर अता की गई और जिसमें और पुराने अहदनामे के और हिस्सों में मसीह और मसीही मज़्हब की बाबत साफ़ और सरीह तौर से जतलाया गया था। अब इस्लाम के इलाही साबित होने के लिए ये लाज़िम है कि नए अहदनामे में बहुत से मुक़ामात ऐसे हों जो उस की सदाक़त को ज़ाहिर करें और मसीही मज़्हब को एक आरिज़ी मज़्हब ठहराएँ और इलावा इस के एक और पैग़म्बर और नजात-दहिंदा की ख़बर दें। ये तरीक़ सबूत ऐसा साफ़ है कि मुसलमानों ने भी मुहम्मदी मज़्हब की सदाक़त के लिए और मुहम्मद साहब के आने की आगाही के लिए नए अहदनामे से चंद मुक़ामात को पेश किया गया है। अगर हम इस दलील को परखें तो मालूम हो जाएगा कि उनका इन्जील से ये साबित करना ग़लत है। क़ुर्आन में इस का यूं ज़िक्र है “मैं ये उनके लिए लिखता हूँ।....जो रसूल उम्मी नबी की पैरवी करेंगे जिसकी बाबत मूसवी शरीअत और इंजील में पेशख़बरी है।” देखो सूरह आराफ़ आयात 156, 157 और एक जगह साफ़ तौर से आया है “ईसा इब्ने मर्यम ने कहा ऐ बनी-इस्राईल मैं ख़ुदा का एक रसूल हूँ जो कि तौरेत की जो मुझसे पहले नाज़िल हुई ताईद करने और एक रसूल की जो मेरे बाद आने वाला है जिसका नाम अहमद है ख़बर देने आया हूँ।” सूरह सफ़ आयत 6 पहले हवाले की बाबत जिसमें दावा है कि मुहम्मद साहब के आने की ख़बर पुराने अहदनामे में दर्ज है ये कहना काफ़ी है कि वाक़ई एक पैग़म्बर के आने की पेशख़बरी पाई जाती है मगर वो पैग़म्बर बनी-इस्राईल ही के दर्मियान से ज़ाहिर होने को था और कोई शख़्स भी जो बिला-तास्सुब पुराने अहदनामे का मुतालआ करे ये नहीं कह सकेगा कि वो पैग़म्बर मुल्क-ए-अरब से पैदा होने वाला बताया गया है। दूसरे हवाले के मुताबिक़ सय्यदना मसीह ने एक और पैग़म्बर या रसूल के आने की हरगिज़ ख़बर ना दी बल्कि इस आने वाले का ख़ास नाम बता दिया है। अब अगर हम नए अहदनामे को शुरू से आख़िर तक पढ़ें तो कोई भी आयत ऐसी ना मिलेगी जिसमें किसी ऐसे रसूल के आने की ख़बर हो। अब ख़याल पैदा होता है कि जब क़ुर्आन में इस आने वाले के ज़िक्र को इन्जील से मन्सूब किया गया तो वो इन्जील कोई और किताब होगी मगर वो किताब हरगिज़ ये असली इन्जील नहीं हो सकती गो बाअज़ इन्जील के नाम से नामज़द करें। बाअज़ दफ़ाअ मुहम्मदी उलमा मुहम्मद साहब की पेशख़बरी को इस आयत से साबित करते हैं जो कि मसीह ने रूह-उल-क़ुद्स की बाबत कही कि “मैं एक तसल्ली देने वाला अपने बाप की तरफ़ से जो आस्मान पर है भेजूँगा।” (यूहन्ना 14:16, 26, 15:26, 16:7) मगर वो यूनानी लफ़्ज़ जिसका तर्जुमा तसल्ली देने वाला किया गया है वो एक ऐसे फ़ेअल से मुश्तक़ है जिसके मअनी हम इन अल्फ़ाज़ में कर सकते हैं किसी की मुलाक़ात करने जाना या किसी को मदद के लिए तलब करने जाना या किसी को रंज व तकलीफ़ में दिलासा देकर ख़ुश करना और इस लफ़्ज़ का ज़बान-ए-अरबी के लफ़्ज़ हम्द या हमिदह से जिसके मअनी तारीफ़ के हैं कोई ताल्लुक़ नहीं। अगर मुहम्मद साहब के ज़माने में एक अरबी ज़बान में इन्जील पाई गई (मगर ये बात करीन-ए-क़ियास नहीं) जिसमें लफ़्ज़ फ़ारक़लीत (فارقلیط) का तर्जुमा लफ़्ज़ अहमद से किया गया हो तो ये तर्जुमा बिलाशुब्हा ग़लत था और ग़लती की वजह कम फ़ह्मी और लाइल्मी क़रार दी जा सकती है।

इलावा इस के एक और बात से ज़ाहिर हो जाएगा कि मज़्कूर बाला हवालाजात मुहम्मद साहब से हरगिज़ मन्सूब नहीं हो सकते क्योंकि आमाल 1:4, 5 से मालूम होता है कि रूह-उल-क़ुद्स या फ़ारक़लीत (فارقلیط) रसूलों पर थोड़े ही दिनों के बाद नाज़िल होने वाला था और उस वक़्त तक उनको इजाज़त ना थी कि यरूशलेम से बाहर जाएं। अब इन्जील के हर एक पढ़ने वाले पर रोशन है कि रूह-उल-क़ुद्स मसीह के आस्मान पर जाने के दस रोज़ बाद ही रसूलों पर नाज़िल हुआ और जब मुहम्मद साहब छः सौ (600) बरस के बाद पैदा हुए तो ये सब रसूल और शागिर्द तह-ए-ख़ाक थे।

इन्जील में ना सिर्फ एक अहमद के आने की या किसी ऐसे और के आने की पेशीनगोई से इन्कार है बल्कि इस में साफ़-साफ़ तौर से बताया जाता है कि सच्ची राह बताने वाली और ख़ुदा तक राह हक़ दिखाने वाली यही एक किताब है और कोई ऐसी हिदायत या तालीम नहीं मिलती जिससे ये समझा जाये कि मसीह की तालीम से एक और आला तालीम और एक ज़्यादा आला मज़्हब नाज़िल होने को है। इन्जील में यहां तक साफ़-साफ़ लिखा है कि एक मौक़े पर जबकि यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने अपने चंद शागिर्दों को मसीह के पास ये कहकर भेजा कि आया “जो आने वाला है तू ही है या हम दूसरे की राह तकें?” तो सय्यदना मसीह ने बजाए इस के कि उनको किसी आने वाले नबी की ख़बर देते ये कहा “जाओ और यूहन्ना से जो कुछ तुम सुनते और देखते हो बयान करो कि अंधे देखते, लंगड़े चलते, कौड़ी पाक साफ़ होते, बहरे सुनते और मुर्दे जी उठते हैं और ग़रीबों को ख़ुशख़बरी सुनाई जाती है। मुबारक है वो जो मेरे सबब से ठोकर ना खाए।” (मत्ती 11:4, 6) और इस के बाद ही ये कहा “मेरे बाप से सब कुछ मुझे सौंपा गया और कोई बेटे को नहीं जानता मगर बाप और कोई बाप को नहीं जानता मगर बेटा और जिस पर बेटा उसे ज़ाहिर किया चाहे। ऐ तुम लोगो जो थके और बड़े बोझ से दबे हो सब मेरे पास आओ कि मैं तुम्हें आराम दूंगा।” (मत्ती 11:27, 28) और एक और मौक़े पर उसने यूं कहा, “क्योंकि ख़ुदा ने जहान को ऐसा प्यार किया कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्शा ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए क्योंकि ख़ुदा ने अपने बेटे को जहान में इसलिए नहीं भेजा कि जहान पर सज़ा का हुक्म करे बल्कि इसलिए कि जहान उस के सबब से नजात पाए। जो उस पर ईमान लाता है उस पर सज़ा का हुक्म नहीं लेकिन जो उस पर ईमान नहीं लाता उसके वास्ते सज़ा का हुक्म हो चुका क्योंकि वो ख़ुदा के इकलौते बेटे के नाम पर ईमान ना लाया और सज़ा के हुक्म का सबब ये है कि नूर जहाँ में आया और इन्सान ने तारीकी को नूर से ज़्यादा प्यार किया क्योंकि उनके काम बुरे थे।” (यूहन्ना 3:16, 19) और फिर उसने कहा “मैं जहान का नूर हूँ वो जो मेरी पैरवी करता है अंधेरे में ना चलेगा बल्कि ज़िंदगी का नूर पायगा।” (यूहन्ना 8:12) और फिर कहा, “मैं हूँ वो जीती रोटी जो आस्मान से उतरी अगर कोई शख़्स उस को खाए तो अबद तक जीता रहेगा और रोटी जो मैं दूंगा मेरा गोश्त है जो मैं जहान की ज़िंदगी के लिए दूंगा।.... जो कोई मेरा गोश्त खाता है और मेरा लहू पीता है हमेशा की ज़िंदगी उसी की है और मैं उसे आख़िरी दिन उठाऊंगा क्योंकि मेरा गोश्त फ़िल-हक़ीक़त खाने और मेरा लहू फ़िल-हक़ीक़त पीने की चीज़ है। वो जो मेरा गोश्त खाता है और मेरा लहू पीता है मुझमें रहता है और मैं उस में। जिस तरह से कि ज़िंदा बाप ने मुझे भेजा है और मैं बाप से ज़िंदा हूँ इसी तरह वो भी जो मुझे खाता है मुझसे ज़िंदा होगा।” (यूहन्ना 6:51, 54, 57) इसी तरह मुक़द्दस पौलुस भी 1 तमथीस 2:5, 6 में यूं लिखता है “ख़ुदा एक है और ख़ुदा और आदमियों के बीच एक आदमी दर्मियानी भी है वो सय्यदना मसीह है जिसने अपने त्यों सब के कफ़्फ़ारे में दिया कि बरवक़्त उस की गवाही दी जाये।” और फिर 2 कुरिन्थियों 5:17, 19 में यूं लिखता है “इसलिए अगर कोई मसीह में है तो वो नया मख़्लूक़ है पुरानी चीज़ें गुज़र गईं। देखो सारी चीज़ें नई हुईं और ये सारी चीज़ें ख़ुदा की तरफ़ से हैं जिसने सय्यदना मसीह के वसीले से हमको आपसे मिलाया और मिलाप की ख़िदमत हमें दी यानी ख़ुदा ने मसीह में होके दुनिया को अपने साथ यूं मिला लिया कि उसने उनकी तक़सीरों को उनके हुक्में महसूस ना किया और मेल का कलाम हमें सौंपा।” मुक़द्दस पतरस भी यहूदियों के सामने ये गवाही पेश करता है “ये वही पत्थर है जिसे तुम मुअम्मारों ने नाचीज़ जाना जोकि कोने का सिरा हो गया और किसी दूसरे से नजात नहीं क्योंकि आस्मान के तले आदमियों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया जिससे हम नजात पा सकें।” (आमाल 4:11, 12)

इन हवालेजात को पढ़ कर मालूम होता है कि मसीह ने क्या किया कहा और नीज़ मत्ती 24:11 की सदाक़त भी ज़ाहिर है “बहुत से झूटे नबी उठेंगे और बहुतों को गुमराह करेंगे।” और ये भी ज़ाहिर है कि कोई और नबी मसीह के मुवाफ़िक़ या मसीह के बदले में नहीं हो सकता क्योंकि जबकि बेटे ने ख़ुद ख़ुदा बाप को ज़ाहिर किया तो ये साफ़ ज़ाहिर है कि किसी और ख़ादिम के ज़रीये इस से बढ़कर ख़ुदा का मुकाशफ़ा नहीं हो सकता। चूँकि सय्यदना मसीह को अनाजील में रुहानी आफताब-ए-सदाक़त, जहान का नूर और अकेला नजातदिहंदा कहा गया है लिहाज़ा उस के बाद कोई और मुकाशफ़ा नहीं हो सकता और इस मसीही तालीम के ज़माने यानी मसीह के वक़्त से उसके दुबारा आने तक के ज़माने को आख़िरी ज़माना और दुनिया का आख़िर कहा गया है जैसा कि हम 1 कुरिन्थियों 10:11 में पढ़ते हैं “ये सब कुछ लिखा गया ताकि हम जो आख़िरी ज़माने में हैं नसीहत पज़ीर हों और फिर 1 यूहन्ना 2:18 में यूं लिखा है “ऐ बच्चो ये आख़िरी ज़माना है और जैसा तुमने सुना है मसीह का मुख़ालिफ़ आता है सिवा भी बहुत से मुख़ालिफ़ हुए हैं।” और इब्रानियों 1:1, 2 में लिखा है, ख़ुदा जिसने अगले ज़माने में नबियों के वसीले बाप दादाओं से बार-बार और तरह ब-तरह कलाम किया इन आख़िरी दिनों में हमसे बेटे के वसीले से बोला जिसको उसने सारी चीज़ों का वारिस ठहराया और जिसके वसीले से उसने आलम बनाए।” और मुक़द्दस पतरस भी ईमानदारों को यूं लिखता है “तुम बचाए गए मसीह के बेशक़ीमत लहू के सबब जो बेदाग़ और बेऐब बर्रे की मानिंद है जो दुनिया की पैदाइश से पेश्तर मुक़र्रर हुआ था लेकिन इस आख़िरी ज़माना में तुम्हारे लिए ज़ाहिर हुआ।” 1 पतरस 1:19, 20 लिहाज़ा ये बिलाशुब्हा साफ़ व सरीह यह है कि जो भी इस्लाम की बुनियाद हो वो हरगिज़ इन्जील की किसी पेशीनगोई पर रखी नहीं जा सकती क्योंकि ना मुहम्मद साहब की बाबत और ना उस की तालीम की बाबत कोई पेशीनगोई है और ना ही ये कह सकते हैं कि इस्लाम मसीही मज़्हब की कमी को पूरा करने के लिए इंतिज़ाम इलाही के बमूजब बनी नूअ इन्सान पर नाज़िल किया गया।

अब अगर कोई मुसलमान जो कि नए अहदनामे की तवारीख़ से नावाक़िफ़ हो इन नताइज से बचने के लिए ये कहे कि ये इन्जील असली इन्जील नहीं बल्कि मुहम्मद साहब के वारिद होने के बाद मसीहियों ने तब्दील कर दी ताकि वो उन बड़ी इलाही ख़बरों को जोकि मुहम्मद साहब की बाबत दी गई थीं छुपा लेवें तो ये कहना काफ़ी होगा कि बहुत से मुहम्मदी आलिम मसलन इमाम मुहम्मद इस्माईल बुख़ारी, शाह वली-उल्लाह, इमाम फ़ख़्र उद्दीन राज़ी और और बहुत से और हमारे ज़माने के आलिम सय्यद अहमद साहब भी इस बात के शाहिद (गवाह) हैं कि इन्जील जोकि अब राइज है वही है जोकि मुहम्मद साहब के ज़माने में थी और जोकि उनसे पहले थी इलावा इस इंजीली क़दीम नुस्ख़ों से जोकि मसीही मुल्कों के कुतुब ख़ानों में हैं ये साबित है कि ये इन्जील असली और हक़ीक़ी इन्जील है लिहाज़ा ये एक फ़ुज़ूल और बे-बुनियाद दलील है। अगर अब भी मुसलमान ये कहें कि ये मुक़द्दस किताबें बदल गईं और जब तक वो कोई सबूत ना पेश करेंगे कि हक़ीक़तन इस में रद्दो-बदल हुआ हम इस एतराज़ के शुन्वा (सुनने वाले) ना होंगे बल्कि इस को एक बे-बुनियाद एतराज़ समझ कर बरतरफ़ कर देंगे।

तीसरी फ़स्ल

मुहम्मद साहब और इस्लाम बजाए इस के कि मसीही मुल्क से निकलते जैसा कि मसीही मज़्हब बनी-इस्राईल के दर्मियान बरपा हुआ वो अरब के बुत परस्तों के दर्मियान ज़ाहिर हुए

इस में कुछ शक नहीं कि सारी ज़मीन-ए-ख़ुदा की है। (ज़बूर 34:1) और वो जो चाहे कर सकता है। (ज़बूर 115:30) लेकिन इस में भी कुछ शक नहीं कि जो कुछ वो करता है एक निहायत आला तौर से और अक़्ल-ए-सलीम से करता है। हमने ये देख लिया है कि बमक़्तज़ा-ए-अक़्ल इलाही पहले मूसवी शरीअत नाज़िल हुई जिसके ज़रीये से मसीह के रुहानी मज़्हब की तैयारी ख़ातिर-ख़्वाह हुई और ये भी ख़ुदा की कामिल दानाई के मुताबिक़ हुआ कि उसने एक नजातदिहंदा को जब ठीक मौक़ा आया भेजा और उसी जगह उसने अपनी कलीसिया की बुनियाद डाली जहां इस की पहले से तैयारी हो चुकी थी। अब हम ये क़ियास कर सकते हैं कि अगर ख़ुदा की मर्ज़ी होती कि मसीही मज़्हब से एक और बालातर मज़्हब नाज़िल करे तो ज़रूर इन हालात से मालूम हो जाता है कि इस आला मज़्हब की आगाही मसीही मज़्हब में पाई जाये क्योंकि यही मज़्हब था जहां पर रुहानी तरक़्क़ी का इज़्हार होना लाज़िम था। मगर तवारीख़ में शायद इस से बढ़ कर कोई और बात मुहक्कम तौर से साबित नहीं जैसा कि इस्लाम के बानी की बाबत है कि वो ना तो मसीही मुल्क में पैदा हुआ ना उस की वहां परवरिश हुई और ना ही यहूदियों में ज़ाहिर हुआ बल्कि जाहिल बुत-परस्त अरबों में पैदा हुआ जिन्हों ने क़रीबन 360 बुत अपने क़ौमी बुत खाने यानी काअबे में जमा किए हुए थे। ये भी उन लोगों को जो अरब की तवारीख़ से वाक़िफ़ हैं मालूम होगा कि जब मुहम्मद साहब ने पैग़म्बरी का दावा किया और अपने नए मज़्हब का चर्चा किया तो अहले मक्का उस के क़ुबूल करने के लिए बिल्कुल तैयार ना थे बल्कि बरअक्स इस के मुहम्मद साहब पर तम्सख़र (हंसी) करते और यहां तक उस की मुख़ालिफ़त कि ये नया मज़्हब जाता रहता अगर अबू तालिब और उस के ख़ानदान की मदद हर वक़्त ना पहुँचती। थोड़े ही अर्से में एक और चाल इख़्तियार की जिसकी वजह से ये मज़्हब बच रहा यानी मुहम्मद साहब ने ख़ानदानी तनाज़आत को मद्द-ए-नज़र रखकर एक को दूसरे से मग़्लूब करवा दिया और मक्का और मदीना के लोगों से जंग करवा के मक्का को आख़िरकार फ़त्ह किया और इस तौर से दुनियावी ज़ोर को हासिल करके अपने मज़्हब को फैलाया। अपने नए मज़्हब की मदद के लिए दुनियावी ताक़त को इस्तिमाल करना साबित करता है कि इस्लाम बिल-मुक़ाबिल मसीही मज़्हब के इतना ही रुहानी मज़्हब नहीं है और अगर है तो भी अहले-अरब पहले-पहल इस के क़ुबूल करने के लिए हरगिज़ तैयार ना थे अगर हक़ीक़तन ये रुहानी मज़्हब होता तो दुनियावी ताक़त और क़ुव्वत का इस्तिमाल फ़ुज़ूल साबित होता क्योंकि ये भी मसीही मज़्हब की तरह आहिस्ता-आहिस्ता ख़ुद बख़ुद फैल जाता। इन सब बातों पर ग़ौर करके ये नतीजा निकला कि ये अम्र ख़ुदा की अक़्ल और दानाई के बरख़िलाफ़ है कि वो आख़िरी और सबसे बड़े पैग़म्बर को बुत-परस्त अरबों के दर्मियान बरपा करता जबकि इस से दो हज़ार बरस पहले से यानी इब्राहिम के ज़माने से उसने अपने सब नबियों को बनी-इस्राईल के दर्मियान से उठाया यहां तक कि मसीह भी इब्राहिम की अस्ल और नस्ल से था।

क्या सिर्फ यही एक बात कि मुहम्मद साहब ही एक ऐसे पैग़म्बर हैं (अगर वो पैग़म्बर कहलाए जाएं) जो कि बहुत देवताओं की परस्तिश करने वाले लोगों में ज़ाहिर हुए काफ़ी नहीं कि उनके इलाही काम में शक पैदा करे? क्या कोई ताज्जुब की बात है कि अगर हम बेतास्सुब और समझदार मुसलमानों को ये कहते सुनें कि अगर मुहम्मद साहब को मसीह से बाला-तर मुकाशफ़ा बनी नूअ इन्सान को पेश करना था तो क्यों वो किसी मसीही मुल्क में ज़ाहिर ना हुए जहां पर उनको उन क़ौमों में रुहानी तैयारी पहले ही से मिलती? क्यों वो बुत-परस्त अरबों के दर्मियान ज़ाहिर हुए जहां उन लोगों को मुतीअ करने के लिए दुनियावी ज़ोर और ताक़त इस्तिमाल करना पड़ा? और अगर ये मान भी लिया जाये कि सबसे आला मुकाशफ़ा पहले बुत-परस्तों ही पर बग़ैर उनको शरीअत और इन्जील के ज़रीये से तैयार किए नाज़िल करना था तो क्यों उस रहीम ख़ुदावंद ने इस्लाम को मसीही मज़्हब के बदले छः सौ (600) बरस पहले ना ज़ाहिर किया? या क्यों दो हज़ार बरस पहले उस को शरीअत के बदले नाज़िल ना किया? क्यों ख़ुदावंद तआला ने इस मज़्हब को बनी नूअ इन्सान से दूर रखा जबकि इस की बेहतर और आला तालीम किसी वक़्त किसी क़ौम पर नाज़िल हो सकती थी? अगर ऐसे ऐसे सवालात दिल में आएं तो मालूम होता है कि इस मज़्हब का और इस मज़्हब के बानी का ख़ुदा की तरफ़ से होना साबित करना एक अम्र दुशवार होगा।

चौथी फ़स्ल

क्या मुहम्मद साहब के दाअवे बहैसियत एक नए मज़्हब के बानी के मोअजज़ात से साबित हो सकते हैं?

अब अगर हम मोअजज़ात की तरफ़ माइल हों तो ये मालूम हो जाएगा कि हज़रत मुहम्मद के ख़ुदा की तरफ़ से मामूर होने के दाअवे बिल्कुल कमज़ोर हैं। हम ऊपर बयान कर आए हैं कि मूसा और मसीह ने मोअजज़ात दिखाए ताकि लोगों को यक़ीन दिलाएँ कि उनका आना ख़ुदा की तरफ़ से मुक़र्रर किया गया है क्योंकि ये ज़ाहिर है कि बग़ैर ऐसे निशान के आम लोगों के लिए निहायत दुशवार हो जाएगा कि ख़ुदा के भेजे हुए और ना भेजे हुए में फ़र्क़ कर सकें। अगर अब हम इस तरीक़ से मुहम्मद साहब को जांचें तो ये ग़ैर-मुम्किन होगा कि उनका पैग़म्बर होना सय्यदना ईसा या मूसा की तरह साफ़ और सरीह तौर से साबित हो। ये सच्च है कि अगर हम मुसलमानों की रिवायतों को यक़ीन करें तो सदहा मोअजिज़े बयान किए जाएंगे जिनसे मुहम्मद साहब की पैग़म्बरी साबित हो। लेकिन उनको भी मान कर पूरा यक़ीन और तसल्ली नहीं होती क्योंकि इन मोअजज़ात और मसीह के मोअजज़ात में आस्मान व ज़मीन का फ़र्क़ नज़र आता है और ये यक़ीन करना दुशवार होता है कि ऐसे-ऐसे मोअजज़ात ख़ुदा की तरफ़ से ख़याल किए जाएं। मसलन हमें बताया जाता है कि एक दफ़ाअ मुहम्मद साहब ने एक दरख़्त को तलब किया और वो ज़मीन को चीरता हुआ उनके सामने आया और ब-आवाज़-ए-बुलंद कहा मैं गवाही देता हूँ कि ख़ुदा एक और तू उस का नबी है। एक दफ़ाअ जानवरों पहाड़ों, पत्थरों और खजूर के गुच्छों ने ऐसी गवाही दी। और ये भी बतलाया जाता है कि जो लिबास छोटा या बड़ा पहन लेते थे उनके बदन पर ठीक आ जाता था। ऐसी-ऐसी बातों से मालूम होता है कि ये निशानात बमुक़ाबला मसीह के मोअजिज़ों के कुछ हक़ीक़त नहीं रखते बल्कि दिल में तरह तरह के शक पैदा करते हैं। बरअक्स इस के मसीह के मोअजज़ात कैसा गहरा असर पैदा करते हैं जो सब इन्सानों को दुख मुसीबत और गुनाह से नजात देने के लिए दिखाए गए। मत्ती 4:1 ता 11 से मालूम होता है कि मसीह ने अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए हरगिज़ किसी ताक़त का इज़्हार ना किया बल्कि पत्थर को रोटी बनाने से इन्कार किया और जब शैतान की तरफ़ से उस को तर्ग़ीब दी गई कि वो अपनी क़ुद्रत का इज़्हार लोगों पर हैकल (बैत-उल्लाह) के कंगरे से कूद कर करे तो उसने साफ़ जवाब दिया “ये लिखा है कि तू ख़ुदावंद अपने ख़ुदा को मत आज़मा।”

इलावा इस के और बहुत से शुक़ूक़ हैं जो कि मुहम्मद साहब के मोअजिज़ों पर आइद होते हैं और या बहुत कुछ ठीक है कि उन्होंने कभी कोई मोअजिज़ा ना दिखाया। वो बात जो कि हर एक रोशन ज़मीर मुसलमान को इस बात का क़ाइल करेगी ये है कि मुहम्मद साहब ने कभी अपनी नबुव्वत के सबूत में मोअजिज़ों की दलील को पेश ना किया, लेकिन बरअक्स इस के क़ुर्आन में सरीह तौर से इस बात का इक़रार है कि उनके पास कोई ऐसी मोअजज़ाना क़ुद्रत ना थी जो कुछ हमको मुहम्मद साहब की बाबत मालूम है इस से ज़ाहिर है कि उन्होंने मोअजिज़ों को अक़्ली तौर से साबित करने की कोशिश ना की और ना ही उनसे इन्कार किया बल्कि जो मोअजिज़ा होता वो इस को माजिज़े क़रार देते और जो आम क़ुदरती बात होती उस को वैसा समझते। उन्होंने बारहा क़ुर्आन की ज़बान को मोअजज़ाना ज़बान क़रार दिया जोकि आम फहम लोगों की ज़बान से कहीं उम्दा और बेहतर थी। (सूरह यूनुस आयात 38, 39) जब उन्हों ने इसी तौर से मोअजिज़ों की हक़ीक़त का इक़रार किया तो ये बिला-शुब्हा सच्च है कि अगर उन्होंने कोई भी मोअजिज़ा दिखाया होता तो वो ज़रूर उस को अपनी नबुव्वत के सबूत में पेश करते क्योंकि बहुत मुद्दत तक अरब के बड़े-बड़े लोग उनके नबी होने को क़ुबूल ना करते और मुतवातिर मुहम्मद साहब से कहते थे कि अपने दाअवा-ए-नुबूव्वत को मोअजिज़ों से साबित करो। क़ुर्आन में इनका ज़िक्र बड़ी सफ़ाई से इन अल्फ़ाज़ में आया है “काफ़िरों ने कहा हम कभी उस का यक़ीन ना करेंगे। जब तक कि वो हमारे लिए ज़मीन से चशमा ना फूट निकलवाये या जब तक कि वो एक ख़जूरों और अंगूरों का बाग़ ना लगाए और इस के दर्मियान एक बहता हुआ दरिया ना जारी करे या जब तक वो आस्मान को हम पर ना गिराए या जब तक ख़ुदा और फ़रिश्तों को अपनी गवाही में पेश ना करे।” सूरह बनी-इस्राईल आयात 92, 94 और सूरह रअद आयात 30 से भी मुक़ाबला करो। मुहम्मद साहब इन एतराज़ात का क्या जवाब देते हैं? क्या वो ये कहते हैं कि यही जो कुछ तुमने कहा तुम्हारे लिए करूंगा या क्या वो कहते हैं कि जो कुछ तुमने कहा फ़ुज़ूल और बेफ़ाइदा है और चूँकि मैंने और बहुत से मोअजिज़े किए लिहाज़ा वही मेरी गवाही के लिए काफ़ी हैं? उन्होंने ये हरगिज़ ना कहा लेकिन जो कुछ कहा इस से हर एक बेतास्सुब शख़्स मालूम कर लेगा कि उन्होंने इक़रार किया कि मेरे पास कोई ऐसा मोअजिज़ा दिखाने वाली ताक़त नहीं क़ुर्आन से मज़्कूर बाला एतराज़ात का जवाब यूं मिलता है “सब तारीफ़ ख़ुदा को है। क्या मैं जो रसूल हूँ एक आदमी से ज़्यादा क़ुद्रत रखता हूँ? लेकिन आदमियों को ईमान लाने से क्या चीज़ रोकती है जबकि उन पर हिदायत नाज़िल हो चुकी है कि ख़ुदा ने एक बशर (इंसान) को रसूल मुक़र्रर करके भेजा।” (सूरह बनी-इस्राईल आयात 95, 96) इसी के मुवाफ़िक़ हम सूरह अनआम आयत 209 में यूं लिखा हुआ पाते हैं कि हज़रत मुहम्मद ने उन लोगों को जिन्हों ने ख़ुदा की क़सम खाकर कहा था कि अगर तू मोअजिज़े दिखाऐगा तो हम तुझ पर ईमान ले आएंगे यूं जवाब दिया “निशान दिखाना ख़ुदा ही के हाथ में है लेकिन वो तुमको उनके ज़रीये से नहीं सिखाता है क्योंकि अगर वो दिखाए भी जाएं तो तो भी तुम ईमान ना लाओगे।” फिर सूरह रअद आयत 8 में यूं आया है कि “जब काफ़िरों ने कहा कि अगर कोई निशान ख़ुदा की तरफ़ से हम पर ना ज़ाहिर किया गया तो हम ईमान ना लाएंगे” तो मुहम्मद साहब को इन अल्फ़ाज़ से तसल्ली दी गई “तू कह कि मैं एक ख़बर देने वाला और डराने वाला हूँ।” (मुक़ाबला करो सूरह हिज्र आयत 89 से)

इन हवालेजात से और ऐसे-ऐसे और मकामात से मालूम होता है कि अगर मुहम्मद साहब ने कोई मोअजिज़ा दिखाया भी हो तो कम अज़ कम क़ुर्आन में इस का ज़िक्र नहीं पर बरअक्स इस के क़ुर्आन ये ज़ाहिर करता है कि उनके पास कोई मोअजज़ाना क़ुद्रत ना थी अब ये बात ख़याल करके कि अहले-अरब के समझदार लोगों ने भी उस के ख़ुदा की तरफ़ से मामूर होने से इस बिना पर इन्कार किया और इस बात को मद्द-ए-नज़र रखकर कि उस के दाअवों के सबूत में कोई मोअजिज़ा क़ुर्आन की रु से पेश ना किया गया हालाँकि उस को आख़िरी और सबसे बड़ा नबी ठहराया। इस से ये साफ़ नतीजा निकलता है कि जैसा उनको कहा गया कि वो फ़क़त एक ख़बर देने वाले और डराने वाले थे और कुछ ना थे। अब अगर क़ुर्आन का ये कहना सच्च है (और कोई इस की सदाक़त से इन्कार ना करेगा) तो ये लामुहाला नतीजा पैदा होता है कि जितने मोअजज़ात रिवायती तौर पर उन पर आइद किए गए उनके हक़ में सच्च नहीं और ना ही तवारीख़ी तौर पर ठीक हो सकते हैं। मोअजिज़ों का इस तौर पर उनके हक़ में आइद करना मह्ज़ एक ज़ाती मुहब्बत थी क्योंकि आम तौर पर लोग अक्सर बड़े-बड़े आदमियों को इस तरह याद रखना पसंद करते हैं जैसा कि सब सच्चे मुसलमान मुहम्मद साहब को सबसे बड़ा नबी मानते हैं। ये जानकर कि पहले सब नबियों ने अपनी नबुव्वत के सबूत में मोअजिज़े और निशान दिखाए। ये ख़याल उनके दिलों में ख़्वाह-मख़्वाह पैदा हुआ कि मुहम्मद साहब ने भी ज़रूर मोअजिज़े दिखाए होंगे लिहाज़ा जिस तरीक़ से उनकी बड़ाई करनी मंज़ूर हुई उसी तरह कर दी और जो कुछ तवारीख़ में पाया ना गया उन्होंने अपने क़ियास वो हम से पूरा कर दिया। इसी एक तरीक़े से हम क़ुर्आन और हादीस के जुदागाना मज़ामीन को जो मुहम्मद साहब के मोअजज़ात के बारे में हैं सुलझा सकते हैं। अब अगर इस किताब यानी क़ुर्आन की शहादत (गवाही) ऐसी वाज़ेह व ज़ाहिर है जो कुल मुसलमानों में पाक व मुक़द्दस ख़याल की जाती है तो ये नतीजा लाज़िम आता है कि मुहम्मद साहब को मोअजिज़ा करने की क़ुद्रत ना थी लिहाज़ा जिस सबूत से मूसा और सय्यदना मसीह का ख़ुदा की तरफ़ से होना सबूत होता है वो मुहम्मद साहब के हक़ में किसी तौर से पाया नहीं जा सकता और अब मुहम्मद साहब का जो अरब के पैग़म्बर कहलाते हैं ख़ुदा की तरफ़ से होना सरीहन शक व शुबहा हक़ पसंद आदमियों के दिलों में पैदा करता है और ये शुक़ूक़ उन मुसलमानों की सरगर्मी के सबब जो किसी ना किसी तरह से रिवायतों के ज़ोर पर मुहम्मद साहब को साहिब-ए-मोअजिज़ा क़रार देकर उनकी नबुव्वत को साबित करना चाहते हैं और भी ज़्यादा क़वी हो जाते हैं।

पांचवेंवीं फ़स्ल

क्या इस्लाम की तालीम मसीही तालीम से वैसी ही आला है जैसे कि मसीही तालीम मूसवी तालीम से आला है?

इस्लाम के सबसे आख़िरी और आला दर्जे के मज़्हब के दाअवे के बरख़िलाफ़ जो कुछ पेश हो चुका है इस से काफ़ी सबूत मिलता है कि ये हक़ीक़तन सबसे आला मज़्हब नहीं मगर वो दलाईल जिन पर अब हम ग़ौर करेंगे इस बात को ज़्यादा साफ़ तौर से साबित कर देंगे कि इस मज़्हब की अस्लियत और हक़ीक़त क्या है। आओ हम इस्लाम के मुकाशफ़ा व तालीम को जांचें और इस का मज़्हब की तालीम से मुक़ाबला करें जिसकी जगह ये लेने का दाअवा करता है ताकि हमको मालूम हो जाए कि आया हक़ीक़तन ये इस से बेहतर और आला मुकाशफ़ा है या नहीं।

हर एक इस बात को जानता है कि दाअवे की सदाक़त उस के साबित करने के ज़ोर पर मबनी होती है। हर एक मर्द अपनी रोज़मर्रा ज़िंदगी में इस तरीक़ को इस्तिमाल करता है फ़र्ज़ करो कि अगर कोई आदमी दाअवा करे कि उसने एक ऐसी बंदूक़ ईजाद की है जो मौजूदा बंदूक़ से बदर्जा बेहतर है तो सरकार जिसकी मंशा ये है कि उस के सिपाही हमेशा बेहतर से बेहतर हथियार से मुसल्लह हों क्या करेगी? क्या वो बग़ैर आज़माऐ इस नई ईजाद की हुई बंदूक़ को सिर्फ ईजाद करने वाले के अल्फ़ाज़ को सुनकर इस्तिमाल करने लगेगी और अपनी पुरानी बंदूक़ो को दूर कर देगी? कभी नहीं। हम सब जानते हैं कि ऐसी हालत में सरकार कहेगी कि आओ तुम्हारी नई बंदूक़ को आज़माऐं और उन पुरानी बंदूक़ो से जो मुरव्वज हैं मुक़ाबला करके देखें और यही तरीक़ा क़ाबिल-ए-क़ुबूल है। अगर आज़मा कर सरकार को मालूम हो जाए कि फ़िल-हक़ीक़त नई बंदूक़ का कुंदा ख़ूबसूरत है और नली लचकदार है मगर वो सिर्फ एक मामूली तमंचा है जिससे कि थोड़े फ़ासिले पर भी अच्छी तरह निशाना नहीं लगा सकते जैसा कि अंग्रेज़ी एनफ़ील्ड बंदूक़ से लगा सकते हैं तो क्या वो मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) से ये ना कहेगी कि तुम्हारी ईजाद की हुई बंदूक़ हम किसी तौर से इस्तिमाल नहीं कर सकते क्योंकि जो हमारे पास है तुम्हारी बंदूक़ से बेहतर है। इसी तरह से अगर इस्लाम के बारे में ये कहा जाये कि ये एक आला मज़्हब है और मसीही मज़्हब से ज़्यादा रुहानी है तो ये बिल्कुल नाजायज़ होगा अगर इस दाअवे को बिला-जांचे क़ुबूल कर लिया जाये। हमारा पहला फ़र्ज़ ये है कि हम देखें कि आया वाक़ई क़ुर्आन की तालीम बाइबल की तालीम से आला ज़्यादा रुहानी और बेहतर है या नहीं और अगर ऐसा हम पाएं तो ये बिल्कुल वाजिब होगा कि हम मसीही मज़्हब को तर्क करके इस्लाम को क़ुबूल करलें। पर अगर ये साबित हो जाए कि मसीही मज़्हब ज़्यादा बेहतर और आला है तो ये सख़्त ग़लती होगी अगर हम इस्लाम को क़ुबूल करलें क्योंकि ये ग़लती उस सिपाही की ग़लती की मानिंद होगी जो कि मौजूदा बंदूक़ को छोड़कर पुराने ज़माने की तोड़ेदार बंदूक़ को इस्तिमाल करने लगे। लेकिन अब अगर कोई मुसलमान कहे कि चूँकि हम इस्लाम के पैरौ (मानने वाले) इतने सदहा सालों से हैं लिहाज़ा ये हमारे लिए मुनासिब नहीं कि हम इस को छोड़ें तो ये कहना बिल्कुल बेजा है क्योंकि अगर किसी ज़माने में क़ुर्आन के बदले इन्जील को क़ुबूल करना दुरुस्त है तो अब भी ये दुरुस्त होगा कि क़ुर्आन को छोड़कर इन्जील को क़ुबूल किया जाये। रोज़मर्रा के तरीक़ भी हमको साफ़ तौर से यही जतलाते हैं। ग़ौर करो कि जब तुर्की सल्तनत को मालूम हुआ कि यूरोप के लोग अब तोड़ेदार बंदूक़ इस्तिमाल नहीं करते तो उसने ये ना कहा कि चूँकि हम सालहा साल से तोड़ेदार बंदूक़ इस्तिमाल करते आए जोकि क़दीम ज़माने के हथियार तीर कमान से बदर्जा बेहतर थी इसलिए हम इस को बदल नहीं सकते पर उसने क्या किया? हर एक जानता है कि जब उस को मालूम हो गया कि मसीही हथियार उन पुराने हथियारों से बेहतर हैं तो हर तरह से कोशिश की कि उनको तर्क कर दे और उनकी जगह मसीही सल्तनतों के हथियारों को क़ुबूल करे। हर एक समझदार उस्मानी तुर्की सल्तनत के इस तरीक़ का क़ाइल है। इसी तरह से अगर ग़ौर व ख़ोज़ के बाद मुसलमानों को मालूम हो जाए कि इन्जील का मज़्हब इस्लाम से बालातर है और ज़्यादा रुहानी है तो उनका ये फ़र्ज़ है कि इस्लाम को छोड़कर मसीही मज़्हब को इख़्तियार करें अगरचे उनके आबा व अजदाद ने ब-वजह कम इल्मी और ना तजुर्बेकारी से सदहा साल तक इस्लाम की पैरवी की हो और ये उनकी नादानी थी कि उन्होंने इस आला फ़र्ज़ को ना पहचाना। ज़माना-ए-हाल के मुसलमानों के लिए ये एक निहायत बड़ा फ़र्ज़ है कि वो अच्छी तरह जांच लें कि आया वाक़ई क़ुर्आन मसीही मज़्हब से ज़्यादा आला और बेहतर और ज़्यादा रुहानी तालीम देता है या नहीं। जब तक वो मह्ज़ क़ुर्आन ही को पढ़ें या सिर्फ उन किताबों को पढ़ें जो मुसलमानों ने लिखीं तो इस बात को पहचान नहीं सकेंगे पर अगर वो जानना चाहते हैं तो उनको बहर-सूरत इन्जील का मुतालआ करना चाहिए और किताबें जो मसीहियों ने लिखीं पढ़नी चाहिए ताकि वो इस बड़े अम्र को मालूम करलें। जो मुक़ाबला हम करने वाले हैं इस से भी हक़पसंद मुसलमानों को मालूम हो जाएगा कि क़ुर्आन की तालीम और इन्जील की तालीम में क्या फ़र्क़ है। जिस तरह हमने ऊपर मूसवी शरीअत और इंजीली तालीम का मुक़ाबला करके बताया कि कौन आला है इसी तरह इन दो मज़ाहिब की तालीम के मुक़ाबले से एक का दुसरे से आला तर और बेहतर होना साबित हो जाएगा।

(1) ख़ुदा की बाबत

हम ऊपर बयान कर आए हैं जहां मूसवी शरीअत और इन्जील का मुक़ाबला किया था कि मुसलमानों और मसीहियों का ये एतिक़ाद कि इन्जील की तालीम ख़ुदा की निस्बत मूसवी शरीअत की तालीम से आलातर है दुरुस्त है। और ये एतिक़ाद बख़ूबी साबित कर दिया गया था जबकि बहुत से हवालेजात ख़ुदा की तालीम की निस्बत इन्जील और मूसवी शरीअत से पेश किए गए। इनमें दो ख़ास बातों पर ग़ौर किया गया था जिससे मज़्हब की फ़ौक़ियत मूसवी शरीअत की तालीम पर साबित की गई। पहली बात ये थी कि मूसवी शरीअत में ख़ुदावंद अल-क़ादिर दुनिया का पैदा करने वाला सादिक़ और रहीम ख़ुदा बनी-इस्राईल का आस्मानी बादशाह माना गया है मगर इन्जील में ख़ुदावंद एक मेहरबान बाप की हैसियत में जो कि अपने फ़रज़न्दों बनी-आदम को सच्चाई और ख़ुशहाली की राह पर चलने की हिदायत और रहनुमाई करता है ज़ाहिर किया गया। दूसरी बात ये थी कि मूसवी शरीअत में ख़ुदा की हस्ती और ज़ात की बाबत कम तालीम दी गई जबकि इन्जील में बताया गया कि उस की ज़ात वाहिद में ये मुक़द्दस तस्लीस के तीन अक़ानीम यानी बाप बेटा और रूह-उल-क़ुद्स शामिल हैं। जोकि ना सिर्फ बनी नूअ इन्सान की नजात का ख़्वाहां है बल्कि उस को पूरा किया है अब अगर क़ुर्आन हक़ीक़तन इन्जील से आला मुकाशफ़ा पेश करता है तो ये बिलाशक इन उमूर पर ज़्यादा रोशनी डालेगा पर जब हम इस को पढ़ते हैं तो ये अफ़्सोस से हमको कहना पड़ता है कि ये तालीम कहीं नहीं मिलती।

बजाए इस के कि ख़ुदा की पिदराना मुहब्बत व शफ़क़त को बनी-आदम की तरफ़ बड़े खुले तौर से पेश किया जाये इस निहायत शीरीन दिल-आवेज़ और तसल्ली बख़्श नाम का ज़िक्र तक नहीं पाया जाता यानी 99 नामों में जो ख़ुदा के लिए क़ुर्आन में आए हैं उनमें बाप का नाम आया तक नहीं। हमको ये बार-बार बतलाया जाता है कि ख़ुदा बड़ा ज़बरदस्त आदिल है जोकि हर एक को उस के हक़ के मुताबिक़ देता है कि वो मख़्लूक़ात से बुलंद और बाला है और क़रीबन हर सफ़ा पर ये बताया जाता है कि वो अल-क़ादिर है, हर चीज़ का इल्म रखता है गुर्दों और दिलों का जांचने वाला है। हाँ उस की मेहरबानी और रहम का ज़िक्र भी किया गया मगर ना इस दर्जे तक जैसा कि चाहिए ये सब ताअलीमात जो क़ुर्आन में ख़ुदा की बाबत पाई जाती हैं सच्च व बरहक़ तो हैं पर उनमें नया क्या है? कोई भी ऐसी तालीम नहीं जो इन्जील में ना हो। हाँ कोई भी ऐसी बात नहीं जो ज़बूर और शरीअत में ना पाई जाये। अब एक का ज़िक्र करें। ख़ुदा का हर जा (जगह) हाज़िर होना और उस की आलिम-उल-गैबी 119 वें ज़बूर में ऐसी ख़ूबसूरती और दिल आवेज़ी से बयान की गई है कि क़ुर्आन में वैसा बयान कहीं नहीं पाया जाता। हक़ीक़त-ए-हाल ये है कि क़ुर्आन बजाए इस के कि ख़ुदा के पिदराना प्यारो मुहब्बत को ऐसा ज़ाहिर करे जैसा कि इन्जील में है वो इस को पूरे तौर से ज़ाहिर भी नहीं करता पर बरअक्स इस के ख़ुदा के नाम बाप को बनज़र-ए-हिक़ारत देखता है लिहाज़ा ये हो नहीं सकता कि ख़ुदा इस के ज़रीये एक बाला और बेहतर मुकाशफ़ा जो कि इन्जील से बढ़कर हो ज़ाहिर करता और क़ुर्आन का नाज़िल होना जबकि इस से पहले इन्जील नाज़िल हो चुकी थी। एक अजीब वाक़िया मालूम देता है जिसकी ज़रूरत भी महसूस नहीं होती।

ऐसा ही तस्लीस-फ़ील-तौहीद की तालीम के बारे में है क़ुर्आन बजाय इस के कि इस को इन्जील से ज़्यादा वाज़ेह तौर से बयान करे इस को रद्द करता है और ये ख़याल इलाही ज़ात के मुतज़ाद ख़याल किया जाता है नतीजतन इस्लाम फिर उसी पुराने नेचरी मज़्हब पर वापिस जाता है। पुराने अहदनामे में तो तस्लीस फ़ील-तौहीद के इशारात पाए जाते हैं पर क़ुर्आन की तालीम उस को छोड़ कर एक नेचरी मज़्हब पेश करती है जोकि ख़ुदा की ज़ात से नावाक़िफ़ है पर फ़क़त कुछ-कुछ उस की बाबत उस के कामों को देखकर या उस को परवरदिगार ख़ालिक़ हाकिम और मुंसिफ़ समझ कर बतलाता है। अगर क़ुर्आन ख़ुदा की वहदत पर ऐसा ज़ोर देता है जैसा कि इस के हर सफे से मालूम होता है तो ये एक ख़ास एतिक़ादी बात है जो कि हर एक सच्चा इस्लाम का पैरौ (मानने वाला) बमुक़ाबिल बहुत से ख़ुदाओं के मानने वालों की तालीम के रखता है। पर ये तालीम नई नहीं और ना ही इन्सान बिला-क़ुर्आन के इस से महरूम रहेंगे क्योंकि यही तालीम पुराने और नए अहदनामे में इस सफ़ाई से पेश की गई है कि क़ुर्आन हरगिज़ इस पर कुछ इज़ाफ़ा नहीं कर सकता। पस क़ुर्आन में इस तालीम का आना कि कोई माबूद नहीं सिवाए अल्लाह के सिर्फ उस को तौरेत और नए अहदनामे के बराबर इस लिहाज़ से ले आता है। पर तस्लीस के इन्कार से जो पुराने अहदनामे में जतलाई गई और जिसका साफ़ बयान नए अहदनामे में हुआ ये उस बड़े और आला मुकाशफ़ा से जो कि अरब के पैग़म्बर से पेश्तर नाज़िल हो चुका था दूर हो जाता है। ये एक अम्र वाज़ेह है कि हर एक समझदार मुसलमान जो इन्जील और क़ुर्आन को ग़ौर से पढ़ता है इस की पैरवी किए बग़ैर रह नहीं सकता। लेकिन चूँकि इस का क़ुबूल करना क़ुर्आन की तालीम के ख़िलाफ़ है और इस के मिनजानिब-ए-ख़ुदा होने को शक में लाया गया है लिहाज़ा मुसलमान इस को क़ुबूल नहीं कर सकते। ये बात क़ाबिल-ए-क़ुबूल है कि ख़ुदा पहले-पहल अपना मुकाशफ़ा बहैसियत बनी-आदम थोड़ा करे और फिर रफ़्ता-रफ़्ता जूँ-जूँ रुहानी तरक़्क़ी हो वो अपने आपको बित्तमाम व कमाल सफ़ाई से ज़ाहिर करे मगर ये बात तस्लीम नहीं कर सकते कि जब एक दफ़ाअ उसने अपना कामिल मुकाशफ़ा नाज़िल किया हो तो फिर वो लोगों पर किसी और जगह थोड़ा और कम नाज़िल करे। ये अम्र एसा ही अबस (फ़िज़ूल) है जैसा कि किसी उस्ताद का काम जबकि वो अपने तालिब-ए-इल्मों को सब कुछ कामिल तौर से पढ़ाकर उनको फिर अलिफ़, बे, ते पढ़ाने लगे। ख़ुदा चूँकि मुअल्लिमों का मुअल्लिम है लिहाज़ा हम ये अम्र मुसलमान साहिबान की रोशन ज़मीरी पर छोड़ देते हैं कि वो ख़ुद फ़ैसला करें कि आया क़ुर्आन ख़ुदा का मुकाशफ़ा हो सकता है जबकि इस में ख़ुदा की ज़ात और हस्ती की बाबत उस से कहीं कम बतलाया गया जैसा कि पहले इन्जील में बयान हो चुका था?

चूँकि क़ुर्आन में तस्लीस-फ़ील-तौहीद की बाबत कुछ नहीं पाया जाता लिहाज़ा इस का इन्सान की नजात के बारे में बयान जोकि मुक़द्दस सालूस के तीन अक़ानीम के ज़रीये से है इन्जील के बयान से गिरा हुआ है। हम इन्जील में बहुत सी जगह इस की बाबत पाते हैं बिलख़ुसूस तितुस 3:5, 7 में यूं लिखा है “उसने हमको रास्तबाज़ी के कामों से नहीं जो हम ने किए बल्कि अपनी रहमत के मुताबिक़ नए जन्म से ग़ुस्ल और रूह-उल-क़ुद्स के सर-ए-नौ बनाने के सबब बचाया जिसे उस ने हमारे बचाने वाले सय्यदना मसीह की मार्फ़त हम पर कस्रत से डाला ताकि हम उस के फ़ज़्ल से रास्तबाज़ ठहर कर उम्मीद के मुताबिक़ हमेशा की ज़िंदगी के वारिस हों।” यहां पर हम वो सदाक़त पाते हैं जो कभी किसी इन्सानी दिमाग़ में समा नहीं सकती पर जो कि सिर्फ इलाही मुकाशफ़े से हासिल हो सकती है। यानी इन्सान अपने आमाल से नहीं बचा बल्कि ख़ुदा के रहम से और कि सय्यदना मसीह हमारा नजातदिहंदा है और उस की मौत और हुक़ूक़ से हमको गुनाहों की माफ़ी मिलती है और हम ख़ुदा के सामने रास्तबाज़ ठहरते हैं और कि ज़रूर है कि हम रूह-उल-क़ुद्स के ज़रीये से अज़ सर-ए-नौ पैदा हों क्योंकि इन्ही वसाइल से हमको हमेशा की ज़िंदगी और जलाल की उम्मीद हो सकती है। इस जगह ज़ाहिरन मुतज़ाद सदाक़तें आपस में निहायत उम्दगी से एक करके पेश की गई हैं यानी एक तरफ़ तो ये है कि इन्सान अपने आमाल से नहीं बचता लेकिन ख़ुदावंद बाप बेटे और रूह-उल-क़ुद्स में इन्सान को बचाता है और उस को हमेशा की ज़िंदगी अता करता है और दूसरी तरफ़ ये है कि इन्सान जो कि यूं फ़ज़्ल से बच गया अब आगे को लापरवाई और गुनाह की ज़िंदगी बसर नहीं कर सकता क्योंकि पाकीज़गी सच्चाई मुहब्बत और सब नेक बातें ख़ुद बख़ुद रूह-उल-क़ुद्स की हुज़ूरी के बाइस पैदा होती हैं जैसा कि अच्छे दरख़्त से अच्छा फल ही पैदा होता है। अब अगर ये पूछा जाये कि क़ुर्आन इनसे बढ़कर और क्या सिखाता है तो जवाब ये मिलता है कि क़ुर्आन उस आस्मानी बाप से वाक़िफ़ ही नहीं जिसने जहान को ऐसा प्यार किया कि अपना इकलौता बेटा बख़्शा ताकि जो कोई इस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए। और ना ऐसे नजातदिहंदा से आगाह है जिसने हमारे लिए इन्सानी सूरत इख़्तियार की ताकि वो इस सूरत में हो कर शैतान और उस की सब आज़माईशों को मग़्लूब करे ताकि वो अपनी पाकीज़ा ज़िंदगी और कफ़्फ़ारे वाली मौत से हमारे गुनाहों को दूर करे और उनको रिहा करे जो मौत और हिलाकत के ख़ौफ़ से हमेशा गुनाह की गु़लामी में रहे। और यह हमेशा रहने वाले और तसल्ली बख्श रूह-उल-क़ुद्स से बिल्कुल बे-ख़बर है जो कि ईमानदार के दिल को नूर ख़ुशी और सलामती से मामूर करता है और उनको इस लायक़ बनाता है कि आइन्दा को एक पाकीज़ा और फ़ाइदेमंद ज़िंदगी बसर करें ताकि वो आने वाली बरकत और जलाल के लिए तैयार हो जाएं बजाए इस के कि इस इलाही नजात के तरीक़े के लोगों के सामने पेश करे वो उनको फिर मायूसी की दलदल में गिराता है और जतलाता है कि हर एक अपने-अपने आमाल से नजात हासिल करे। दुआ, ख़ैरात, रोज़ा और हज को पेश करता है जिसके ज़रीये से लोग कुछ कर सकें और इस तरह बजाए इस के कि वो एक आला मुकाशफ़ा को पेश करे दीगर मज़ाहिब की मानिंद मसलन हिंदू मज़्हब और बुद्ध मज़्हब की मानिंद हो जाता है जोकि अबदी आराम के हासिल करने के लिए बिल्कुल वही तरीक़े बतलाते हैं। लिहाज़ा ये अम्र साबित हुआ कि ख़ुदा की बाबत और उस के ताल्लुक़ात इन्सान से ख़ुसूसुन उस की नजात की बाबत जो जो कुछ क़ुर्आन में आया है वो ना सिर्फ इस आला तालीम और ताल्लुक़ को नहीं बताता है जो इन्जील में दर्ज है बल्कि इस से कहीं थोड़ा बयान करता है और ऐसा बयान सदहा साल मसीह से पहले मुख़्तलिफ़ मुल्कों में हो चुका था। इस से सब पर रोशन है जो तास्सुब को काम में नहीं लाते कि और कोई तालीम हो तो हो जिससे इस्लाम सबसे आला और बेहतर क़रार दिया जाये मगर ये ख़ुदा की बाबत तालीम नहीं हो सकती।

(2) ख़ुदा की इबादत और परस्तिश की बाबत

पहले हिस्सों में जहां हमने यहूदी और मसीही मज़्हब का मुक़ाबला किया हमने ये साबित किया था कि मसीही मज़्हब यहूदी मज़्हब से आला और बरतर है क्योंकि उसने बहुत सी ज़ाहिरी रस्मों को जो वक़्त और जगह के साथ मख़्सूस थीं दूर करके ख़ुदा की परस्तिश को रूह और रास्ती से करने को पेश किया है और ये ज़िंदा ईमान को बनिस्बत चंद ज़ाहिरी रसूमात के मानने के तर्जीह देता है और बतलाता है कि हम उस आस्मान से मुक़र्रर किए हुए नजातदिहंदा पर ईमान लाएं ताकि बातिनी रुहानी ज़िंदगी को हासिल करें। अब हमारा ये फ़र्ज़ है कि दर्याफ़्त करें कि इस्लाम की तालीम इस के बारे में क्या है और किस तरह मुसलमानों का ये दाअवा कि उनका मज़्हब सय्यदना मसीह के मज़्हब से आला और बेहतर है साबित होता है? क़ुर्आन किस पहलू से उस ईमान पर जोकि गुनेहगार नजातदिहंदा पर रखें ज़्यादा रोशनी डालता है? और कौन से बेहतर वसाइल बयान करता है जिनसे ऐसा नई ज़िंदगी पैदा करने वाला ईमान पैदा हो? हमको बड़े अफ़्सोस से इनका जवाब देना पड़ता है क्योंकि क़ुर्आन इस की बाबत ना सिर्फ ख़ामोश है बल्कि कुछ और ही कहता है क्योंकि इन्जील में यूं लिखा है कि मसीह की पैदाइश से पहले ख़ुदावंद का फ़रिश्ता यूसुफ़ पर नाज़िल हुआ और उसे कहा कि “तू उस का नाम ईसा रखेगा क्योंकि वो अपने लोगों को उनके गुनाहों से बचाएगा।” (मत्ती 1:21) पर क़ुर्आन सय्यदना ईसा मसीह के गुनेहगारों का नजातदिहंदा होने पर ना सिर्फ बिल्कुल ख़ामोश है बल्कि एक जगह आया है कि वो सिर्फ एक पैग़म्बर है और कुछ नहीं। (सूरह माइदा आयत 79) और यूं भी आया है कि “मसीह इब्ने मर्यम सिर्फ एक रसूल है जैसे और रसूल इस से पहले हुए।”

अब अगर आदमियों की मौजूदा हालत सिर्फ़ लाइल्मी और गुमराही की होती तो शायद एक रसूल या नबी उनको सीधी राह पर लाने के लिए काफ़ी होता लेकिन इन्सान ना सिर्फ गुमराह और लाइल्म था बल्कि वो शैतान और गुनाह का ग़ुलाम हो चुका था और मह्ज़ एक सिखाने वाला काफ़ी ना था क्योंकि अगर इन्सान को बचना था तो एक नजातदिहंदा की ज़रूरत थी और ये ज़रूरत इन्जील से मालूम होती है कि सय्यदना मसीह में पूरी होती है जोकि नबी और ख़ुदा की तरफ़ से भेजा हुआ नजातदिहंदा था लेकिन चूँकि क़ुर्आन में सिर्फ नबियों ही का ज़िक्र आता है और किसी नजातदिहंदा का बयान तक नहीं लिहाज़ा ये नतीजा निकालना ग़लत ना होगा कि क़ुर्आन या तो इन्सान की हाजत से बख़ूबी वाक़िफ़ ना था या अगर वाक़िफ़ था तो उसने इस ज़रूरत को रफ़ा करने के लिए कोई तदबीर पेश ना की इन हर दो सूरतों से यही साबित है कि इस की तालीम इन्जील की तालीम से कम दर्जा की है।

ऐसा ही अज़ सर-ए-नौ पैदा होने और रूह-उल-क़ुद्स की नई पैदाइश की तालीम के बारे में है क्योंकि इन्जील में तो इन पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। मसीह ने बल्कि यहां तक कहा है कि “जब तक आदमी अज़-सर-नौ पैदा ना हो ख़ुदा की बादशाहत को देख नहीं सकता।” (यूहन्ना 3:3) पर क़ुर्आन ना सिर्फ इस पर कुछ रोशनी नहीं डालता बल्कि इस की बाबत ज़िक्र तक नहीं करता। हर एक रुहानी इन्सान समझ सकता है कि ऐसी नई पैदाइश और दिली तब्दीली जो कि ख़ुदा की मर्ज़ी के मुताबिक़ हो उस को ज़्यादा मक़्बूल होगी बनिस्बत ज़ाहिरी रसूमात के बजा लाने से जबकि दिल किसी और तरफ़ राग़िब है। हम ख़ुदा के कलाम से जानते हैं कि वो इस हालत में दुआ और ज़ाहिरी परस्तिश को हरगिज़ क़ुबूल नहीं करता जबकि दिल गुनाह में फंसा हुआ हो क्योंकि वो क़ौम यहूद को यसअयाह नबी के ज़रीये से यूं कहता है “अब आगे को झूटे हदिये मत लाओ लुबान से मुझे नफ़रत है नए चांद और सबत और ईदी जमाअत से भी कि मैं ईद और बेदीनी दोनों की बर्दाश्त नहीं कर सकता हूँ मेरा जी तुम्हारे नए चाँदों और तुम्हारी ईदों से बेज़ार है। वो मुझ पर एक बोझ हैं। मैं उनके उठाने से थक गया। जब तुम अपने हाथ फैलाओगे तो मैं तुमसे चश्मपोशी करूंगा। हाँ जब तुम दुआ पर दुआ माँगोगे तो मैं तुम्हारी ना सुनूंगा। तुम्हारे हाथ तो लहू से भरे हैं। अपने तईं धो के (अपने) आपको पाक करो अपने बुरे कामों को मेरी आँखों के सामने से दूर करो। बद फ़अली से बाज़ आओ। नेको कारी को सीखो, इन्साफ़ के पैरौ (मानने वाले) हो मज़लूमों की मदद करो। यतीमों की फ़र्याद रसी करो। बेवा औरतों के हामी हो।” (यसअयाह 15:12, 17) पर तो भी हम देखते हैं कि क़ुर्आन वहदत के मानने और बहुत से मज़्हबी रसूमात को पूरा करने पर ज़ोर देता है गोया कि ऐसे मानने और उन रसूमात को पूरा करने से इन्सान हलाकत से बच सकता और अबदी आराम को हासिल कर सकता है। ये रोशन ज़मीर अस्हाब से पोशीदा नहीं कि ये मुम्किनात में से है कि कोई वहदत का इक़रार करे और ज़ाहिरी रसूमात को भी पूरा करे पर तो भी बातिनी तौर से ख़ुदा से दूर रहे और गुनाह में मुब्तला रहे।

इन्जील खासतौर से ये हिदायत करती है कि हम ख़ुदा का जलाल सच्ची तौबा से और गुनेहगारों के नजातदिहंदा पर ईमान लाने से ज़ाहिर करें और साथ ही रूह-उल-क़ुद्स के पाकीज़ा असर से मोअस्सर हो कर एक सच्चे और ज़िंदा ख़ुदा की परस्तिश रूह और रास्ती से करें अब जबकि इन्जील ईमानदारों को उन ज़ाहिरी रसूमात से छुटकारा देती है जिन्हें सय्यदना ईसा के दिनों में यहूदी लोग मानते थे और ख़ुदा की परस्तिश को एक रुहानी परस्तिश बनाती है तो क़ुर्आन फिर उन्ही इब्तिदाई रसूमात की तरफ़ ले जाता है जिससे साफ़ मालूम हो जाता है कि ये रुहानी तौर पर कोई बड़ा आला मज़्हब नहीं बतलाता।

ये ज़ाहिरी रसूमात मुसलमानों के नमाज़ के तरीक़ों से बख़ूबी समझ में आ सकती हैं। मसलन मुसलमान उलमा ये कहते हैं कि सच्ची दुआ की मक़बूलियत के लिए कम अज़ कम बारह बातों का होना लाज़िम है और अगर उनमें से कोई भी ना हो तो दुआ लाहासिल और बे फ़ायदा ठहरती है अब अगर हम इन ज़ाहिरी हिदायात पर ग़ौर करें तो ये मालूम हो जाएगा कि बजाए इस के कि रुहानी हिदायात नए अहदनामे की मानिंद की जातीं मसलन दुआ का सादा और आम फहम ज़बान में कहना फ़िरोतनी आजिज़ी और सरगर्मी और ईमानदारी से माँगना। इनके बजाए फ़ुज़ूल ज़ाहिरी बातों पर ज़ोर दिया गया है।

इन ज़ाहिरी बातों पर ग़ौर करना शायद बेजा ना होगा। ये बारह फ़र्ज़ दो हिस्सों में मुनक़सिम (बटते) हैं यानी सात ज़ाहिरी रुक्न और पाँच बातिनी रुक्न सात ज़ाहिरी रुक्न ये हैं क़िब्ला की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ना, वुज़ू, जाऐ नमाज़ का साफ़ करना, ख़ास वक़्त, ख़ास तैयारी, जिस्म का बख़ूबी ढकना और नमाज़ को अल्लाहु अकबर की पुकार से शुरू करना।

नमाज़ पढ़ते वक़्त क़िब्ला की तरफ़ मुँह करके पढ़ने के लिए सूरह बक़रह में ये हिदायत हुई है “हमने तुझे देखा है कि नमाज़ पढ़ते वक़्त तू चारों तरफ़ मुँह करके पढ़ लेता है लेकिन अब हम तुझे एक क़िब्ले की तरफ़ मुँह करके पढ़ना बताएंगे जो तुझे अच्छा लगेगा। तू अपना मुँह पाक मस्जिद की तरफ़ करके नमाज़ पढ़ और जहां तुम हो इस तरफ़ रुख करके नमाड़ पढ़ो।” (सूरह बक़रह आयत 139) इस आयत से ना सिर्फ ये मालूम होता है कि क़िब्ला की तरफ़ मुँह करके पढ़ना मज़्हब-ए-इस्लाम का एक फ़र्ज़ है बल्कि ये भी ज़ाहिर होता है कि अब तक मक्का की मस्जिद अहले-अरब की नज़र में कोई बड़ी वक़अत ना रखती थी और जब तक मुहम्मद साहब ने नबी होने के दाअवे को बड़े ज़ोर से पेश ना किया किसी ने इस बात की पैरवी ना की। ये रस्म एक अरब की रस्म ना थी बल्कि गुमान ग़ालिब है कि मुहम्मद साहब ने इस को यहूदियों से लिया था। क्योंकि यहूदियों ने बहुत क़दीम ज़माने से यरूशलेम की हैकल (बैत-उल्लाह) को अपना क़िब्ला माना हुआ था जैसा कि हम ज़बूर 5:7, यसअयाह 2:4, और दानीएल 6:1 से मालूम होता है। इस बात का सबूत एक ये भी है कि मुहम्मद साहब ख़ुद कई साल तक यरूशलेम को अपना क़िब्ला मानते रहे जैसा कि अरबी मोअर्रिखों ने लिखा है कि मसलन तबरी ने और फिर सूरह बक़रह आयत 136 में भी यूं लिखा है “बेवक़ूफ़ कहेंगे कि किस बात ने उनको इस क़िब्ले से जिस को वो पहले मानते थे फेर दिया।” लिहाज़ा ये बात बिलाशक मानने के क़ाबिल है कि मुहम्मद साहब ने ये रस्म यहूदियों से ली और बहुत मुद्दत तक उनके साथ यरूशलेम की हैकल को अपना क़िब्ला मानता रहा गो आख़िरकार उसने मक्का की मस्जिद को क़िब्ला तस्लीम किया। इस रस्म की बिना ख़्वाह कुछ ही हो मगर एक बात इस से साबित होती है कि इस क़िब्ला परस्ती की रस्म की रु से मुसलमानों का मज़्हब बिल्कुल यहूदियों के मज़्हब के बराबर हो जाता है और कि मसीही मज़्हब इन दोनों से आला और बेहतर नज़र आता है क्योंकि उसने क़िब्ला परस्ती को जो ख़ुदा की रुहानी परस्तिश के ख़िलाफ़ है रद्द कर दिया और फिर इस से ख़ुदा की परस्तिश में कोई मदद भी नहीं मिलती। मसीही क़िब्ला परस्ती नहीं करते बल्कि उस सदाक़त की जो इस से निकलती है पैरवी करते हैं क्योंकि क़ुर्आन में भी लिखा है “मशरिक़ और मग़रिब अल्लाह का है तुम चाहे किसी तरफ़ मुँह करो उस तरफ़ ख़ुदा है।” (सूरह बक़रह आयत 109) मसीहियों का क़िब्ला परस्ती को रद्द करना यसअयाह 57:15 से बख़ूबी ज़ाहिर हो जाता है “क्योंकि वो जो आली और बुलंद है और अबद-उल-आबाद सुकूनत करता है। जिसका नाम क़ुद्दूस है यूं फ़रमाता है मैं बुलंद और मुक़द्दस मकान में रहता हूँ और उस के साथ भी जो शिकस्ता दिल और फ़रोतन है कि आजिज़ों की रूह को जलाऊँ और ख़ाकसारों के दिल को ज़िंदा करूँ।”

दूसरा रुक्न वुज़ू करना है जोकि उन मुसलमानों के लिए करना निहायत ज़रूरी है जो अपनी दुआओं को मंज़ूर करवाना चाहते हैं। इन के लिए क़ुर्आन में यूं हुक्म आया है “ऐ ईमानदारों जब तुम नमाज़ पढ़ने के लिए तैयार हो तो अपने चेहरे धो हाथ कोहनियों तक धो अपने सर को साफ़ करो और पांव को भी अच्छी तरह धो अगर पानी ना मिले तो साफ़ रेत से अपने हाथ और चेहरे मलो।” (सूरह माइदा आयत 8, 9) अगर ये हुक्म सिर्फ़ सफ़ाई के लिए होता तो हम उस के बारे में कुछ ना कहते मगर चूँकि ये दुआ के मंज़ूर होने की एक ख़ास शर्त है लिहाज़ा इस को ज़ाहिर परस्ती का एक निशान कहना पड़ता है और साथ ही हमको 1 समुएल 16:7 की आगाही याद आती है, “ख़ुदावंद आदमियों की मानिंद नहीं देखता क्योंकि आदमी तो ज़ाहिर पर नज़र करता है पर ख़ुदा दिल को देखता है।” अब हर एक समझदार इन्सान समझ सकता है कि अगर वुज़ू की कुछ हक़ीक़त है तो ये सिर्फ एक ज़ाहिरी निशान हो सकता है पर ये ना तो दुआ में असर पैदा करता है और ना ही दुआ को मंज़ूर कराने में मदद देता है। ये हम यक़ीन से नहीं कह सकते कि आया यहूदियों में ये दस्तूर था या नहीं पर उनमें कामिल पाकीज़गी को हासिल करने के लिए बहुत से तरीक़े पाए जाते थे जैसा कि मुन्दरिजा ज़ैल हवालेजात से मालूम होता है। गिनती 19 बाब, अहबार 15 बाब और मर्क़ुस 7:1, 4 मसीह ने कभी अपने शागिर्दों को दुआ माँगना सिखाते हुए ऐसी रस्म ना सिखलाई बल्कि जिस नज़र से वो ऐसी ऐसी रस्मों को देखता है वो मत्ती 23:25, 26 से बख़ूबी मालूम हो जाएगा “ऐ मक्कार और रियाकार फ़क़ीहो और फ़रीसियोँ तुम पर अफ़्सोस कि तुम पियाला और रकाबी को बाहर से साफ़ करते हो मगर अन्दर वह गंदगी से भरे हैं। ऐ अंधो फ़रीसियोँ पहले प्याले और रकाबी को अंदर से साफ़ करो ताकि वो बाहर से भी साफ़ हो जाएं।” (और फिर मर्क़ुस 7:6, 13 से मुक़ाबला करो) पस ये ज़ाहिर हुआ कि हाथ पांव धोने से दुआ मांगने के असर में जो कि सिर्फ एक रुहानी और अक़्ली काम है कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता और क़ुर्आन चूँकि वुज़ू को एक बड़ा फ़र्ज़ क़रार देता है लिहाज़ा सिर्फ एक ज़ाहिरी बात पर ज़ोर देता है जिससे परस्तिश में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। ये ख़याल करने की बात है कि अगरचे हाथ और पांव धोने की रस्म अरबों के लिए जो ज़्यादा नंगे पाँव रहते हैं आसान और आरामदेह भी है। मगर उन लोगों के लिए जोकि मोज़ा और जूती पहनने के आदी हैं कैसी तक्लीफ़-देह होगी और ख़ुसूसुन उन लोगों के लिए जो शुमाली कुर्राह की जानिब जहां बर्फ़ कभी नहीं पिघलती और जहां लोग जम जाने के ख़ौफ़ के मारे मजबूरन भारी-भारी कपड़ों से अपने आपको ढाँके रखते हैं। ये रस्म निहायत ही नुक़्सानदेह साबित होगी क्योंकर इस के पूरा करने से उनकी सेहत में ख़लल आएगा और ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ेगी। मज़्कूर बाला बयान से मालूम हुआ कि इस वुज़ू की रस्म पर दो एतराज़ आइद होते हैं पहला ये कि ये एक ज़ाहिरी रस्म है जोकि इस हुक्म के बाद जो ख़ुदा ने इन्जील में दिया कि परस्तिश रूह और रास्ती से होनी चाहिए एक लाहासिल रस्म मालूम देती है दूसरा ये कि ये रस्म उन ममालिक में जिनकी आबो हवा अरब के आबो हवा से मुख़्तलिफ़ है मुनासिब नहीं हो सकती।

नमाज़ से पहले जगह का साफ़ करना आम तौर पर आम तौर से एक अच्छी बात है जैसा कि हर एक पाक शैय को साफ़ सुथरा रखना लाज़िम है लेकिन इस का असर दुआ पर बिल्कुल नहीं हो सकता जैसा कि जिस्म के धोने का असर नहीं होता। वो जोकि ख़ुदा को रूह समझता है जो हाथ से बनाई हुई जगहों में नहीं रहता ऐसे शख़्स के लिए ये समझना कि इन ज़ाहिरी रसूमात से दुआ पर असर पड़ेगा एक निहायत दुशवार अम्र है। क्या कोई उन ईमानदारों की दुआओं की सरगर्मी सच्चाई और मंज़ूरी में शक कर सकता है जोकि तारीक ग़ारों में या पहाड़ों की चोटियों पर ख़ुदा की परस्तिश के लिए जमा होते थे? क्या उन की दुआएं उन लोगों को दुआओं से जो सुथरी से सुथरी मस्जिद या गिरजाघर में दुआ करते हैं जबकि उनका दिल साफ़ नहीं बदर्जा बेहतर नहीं और क्या वो ख़ुदा को मंज़ूर नहीं?

चूँकि मज़्कूर बाला बातों से ये साफ़ रोशन है कि क़ुर्आन की तालीम कहाँ तक इन्जील से आला साबित होती है लिहाज़ा हम अब पाँच बातिनी अरकान की तरफ़ रुजू होते हैं जोकि सच्ची दुआ के लिए ज़रूरी समझे गए हैं। पाँच रुक्न ये हैं दुआ मांगते वक़्त सीधे खड़े होना, क़ुर्आन के बाअज़ हिस्सों को पढ़ना, सारे जिस्म को आगे झुकाना, ज़मीन पर सज्दा करना ऐसा कि पेशानी ज़मीन पर लगे, और दुआ के बाद दो ज़ानू हो कर बैठना। ये पढ़ कर क्या कोई सच्चा ख़ुदा का परस्तार बग़ैर ये अफ़्सोस के साथ कहे रह सकता है कि अफ़्सोस उस मज़्हब पर जो कि ऐसी ज़ाहिरी हरकतों को दुआ के लिए बातिनी शराइत बनाए। इस में शक नहीं कि इन का ज़िक्र क़ुर्आन में नहीं आया मगर चूँकि ये हदीसों में पेश किया गया और चूँकि गुमान ग़ालिब है कि मुहम्मद साहब ने भी इन पर अमल किया और लोगों को करने को कहा तो ये अब तक मुसलमानों में राइज हैं। इनमें से चार तो बिल्कुल ज़ाहिरी हरकतें हैं लिहाज़ा उनके ग़ैर-रुहानी होने में शक नहीं पर शायद पांचवां रुक्न यानी क़ुर्आन की आयतों का पढ़ना कुछ ना कुछ दुआ को रुहानी बनाता हो पर अफ़्सोस देखने से मालूम होता है कि ऐसा बिल्कुल नहीं क्योंकि मह्ज़ आयतों का दोहराना बजाए इस के कि रूहानियत पैदा करे एक मह्ज़ ज़ाहिरी रस्म हो गई है। इस बात को ज़्यादा रोशन करने के लिए ये काफ़ी होगा अगर हम ये जान लें कि पांचों वक़्त की नमाज़ में जो कि हर एक मुसलमान पर फ़र्ज़ है क़ुर्आन की पहली सूरह और कई हिस्से चालीस दफ़ाअ और अल्फ़ाज़ “सुबहान रब्बी आला” (यानी ख़ुदावंद बुज़ुर्ग की तारीफ़ हो) एक सौ बीस और नदाए “अल्लाहु अकबर” (यानी ख़ुदा बुज़ुर्ग है) दो सौ इक्कीस दफ़ाअ और अल्फ़ाज़ सुब्हान रब्बील-अज़ीम (यानी निहायत बड़े ख़ुदा की तारीफ़ हो) दो सौ चालीस दफ़ाअ दोहराए जाते हैं। ऐसे तरीक़ों से नमाज़ पढ़ना सिवाए इस के कि रस्म परस्ती और ज़ाहिर परस्ती को बढ़ाए और क्या कर सकता है। इन्सानी तबइयत का तक़ाज़ा है कि अगर कोई बात एक तरह से बार-बार हफ़्ता ब हफ़्ता और साल ब साल दुहराई जाये तो सिवाए बद-असरी के और कुछ नहीं करती और सय्यदना मसीह की बात सादिक़ ठहरती है जोकि उसने मत्ती 6:7, 8 में फ़रमाई “दुआ मांगते वक़्त ग़ैर-क़ौमों (मुश्रिकीन) की मानिंद बेफ़ाइदा बक-बक ना करो क्योंकि वो समझते हैं कि उनकी ज़्यादा गोई से सुनी जाएगी। तुम उनकी मानिंद मत हो क्योंकि तुम्हारा बाप तुम्हारे मांगने से पहले जानता है कि तुम्हें किन-किन चीज़ों की ज़रूरत है।”

दुआ के इलावा मक्का का हज मुसलमानों के लिए इलाही इबादत में शामिल है क्योंकि इस आयत से मालूम होता है कि “पहली मस्जिद जोकि इन्सान के लिए बनाई गई वो मक्का में थी जो मुबारक है और लोगों के लिए बरकत और रहनुमाई का बाइस है। इस में काफ़ी निशान हैं ये इब्राहिम के उठने और बैठने की जगह थी और जो इस में दाख़िल होता है वो महफ़ूज़ है और जो सफ़र करने के लायक़ है और जो इस मस्जिद को हज के लिए जाता है वो ख़ुदा की गोया इबादत करता है।” (सूरह आले-इमरान आयात 90, 91) मुसलमानों के ये फ़र्ज़ बईना उन यहूदी दस्तूरों से मिलते हैं जो कि किसी वक़्त उन पर आइद थे यानी अहद के संदूक़ के ज़ियारत करने जाना और यरूशलेम की हैकल (बैत-उल्लाह) में साल में तीन दफ़ाअ जाना (ख़ुरूज 23:17, इस्तस्ना 16:16) यहूदियों का हैकल में जाना ख़ास ख़ुदा की तरफ़ से मुक़र्रर किया गया था क्योंकि ख़ुदा ने उनसे वाअदा किया था कि उस की हुज़ूरी वहां होगी और वहीं से वो अपना मुकाशफ़ा नाज़िल किया करेगा। (ख़ुरूज 25:22, गिनती 7:89, इस्तस्ना 12:5, 12) मगर जब क़ौम यहूद अपने गुनाहों के सबब ख़ुदा से दूर हो गई। (तवारीख़ 36:13, 19) तो उसने सय्यदना मसीह के जिस्म को एक ख़ास हैकल बनाया जिसमें उसने अपने आपको ज़ाहिर किया। (यूहन्ना 2:19, 21, 4:6, 9, इब्रानियों 1:2, 3) और ईमानदारों के दिलों में उसने रूह-उल-क़ुद्स को नाज़िल किया कि वो भी सय्यदना मसीह की तरह ख़ुदा की ज़िंदा हैकल बनें (आमाल 2 बाब, 1 कुरिन्थियों 3:16, 17, 2 कुरिन्थियों 6:16) ये उस बड़े वाअदे का पूरा होना है जिसकी यहूदियों की हैकल एक सिर्फ मिसाल थी। इस के बाद ये फिर हो नहीं सकता कि वो अज़ सर नौ एक और जगह को चुने और उस को अपने ज़हूर की एक ख़ास जगह ठहराए। इसलिए इन्जील में किसी जगह की ज़ियारत करने के लिए नहीं लिखा और सय्यदना मसीह के अल्फ़ाज़ हर ज़माने के लिए सच्चे और बरहक़ हैं जो यूहन्ना 4:21, 22 में पाए जाते हैं, “वो घड़ी आती है कि ना तो इस पहाड़ पर (गिराज़ीम के पहाड़) पर ना यरूशलेम में तुम ख़ुदा बाप की परस्तिश करोगे।...पर ख़ुदा के सच्चे परस्तार बाप की रूह और रास्ती से परस्तिश करेंगे क्योंकि ख़ुदा अपने परस्तारों को ऐसा ही चाहता है।” अब अगर मज़्हब इस्लाम फिर किसी मस्जिद की तरफ़ जो पत्थरों से बनाई गई हो लोगों को राग़िब करे और उनसे कहे कि वहां का हज करें ताकि वो उन बरकतों को जो और किसी तरह से हासिल नहीं हो सकतीं हासिल करें तो वो इस रुहानी दर्जे से गिर पड़ता है जो मसीही मज़्हब को हासिल है और ऐसी जगह आ ठहरता है जोकि मुद्दत से छोड़ दी गई है।

मुसलमानों पर माह-ए-रमज़ान में रोज़ा रखना भी एक फ़र्ज़ है इस का मानना इन अल्फ़ाज़ में पेश किया गया है “ऐ ईमानदारो तुम्हारे लिए ऐसे रोज़े जो तुमसे अगलों के लिए भी मुक़र्रर किए गए थे मुक़र्रर किए जाते हैं ताकि तुम ख़ुदा से डरो। माह रमज़ान में जिसमें कि क़ुर्आन लोगों की रहनुमाई के लिए नाज़िल किया गया था जब तुम पहला चांद देखो तो रोज़ा रखना शुरू कर दो लेकिन जो बीमार हैं या सफ़र में हैं वो इतने ही रोज़े फिर किसी और वक़्त रखें।” (सूरह बक़रह आयात 179, 183) ये अल्फ़ाज़ जैसा कि “तुमसे अगलों के लिए मुक़र्रर किए थे”, ज़ाहिर करते हैं कि ये रस्म बनी-इस्राईल से ली गई है। हमको अरबी मुअर्रिख़ तबारी से मालूम होता है कि मुहम्मद साहब ने बरसों तक कफ़्फ़ारे के रोज़े को माना जो कि इब्रानी ज़बान में अशूर (यानी दसवाँ) कहलाता था क्योंकि ये हमेशा यहूदियों के सातवें महीने की दसवीं तारीख़ को आता था। (अहबार 23:37) पर जब मुहम्मद साहब की ताक़त मदीना में बढ़ गई और यहूदियों से निफ़ाक़ भी ज़्यादा हो गया तो इस के बजाए माह-ए-रमज़ान के रोज़े मुक़र्रर हुए। ख़याल कीजिए कि नए अहदनामे में रोज़े की मुमानिअत नहीं पर बरअक्स इस के ये हर एक पर मुन्हसिर है कि अगर वो समझे कि रोज़े रखने से वो गुनाह करने से बचता है या अगर रुहानी फ़राइज़ को ज़्यादा अच्छी तरह अदा कर सकता है तो ज़रूर रोज़ा रखे जैसा कि इन हवालेजात से ज़ाहिर है मत्ती 4:2, 6:16, 17, 19:15, आमाल 13:2, 3 लेकिन किसी पर ये फ़र्ज़ नहीं ठहराया कि वो किसी ख़ास दिन का रोज़ा रखे जैसे यहूदी रखते थे या एक ख़ास महीने तक रोज़े रखे जैसे मुसलमान रखते हैं। अगर बाअज़ मुल्कों के मसीही मसलन लातीनी, यूनानी या आर्मीनी कलीसियाओं के शरीक अब तक रोज़ा रखते हैं तो वो इसलिए नहीं रखते कि उनको बाइबल में ख़ास हुक्म है पर इसलिए कि वो दस्तूर के मुताबिक़ रखते चले आए हैं लेकिन इंग्लिस्तान की कलीसियाएं और प्रोटैस्टैंट कलीसियाएं किसी पर ये बोझ हुक्मन नहीं लगातीं बल्कि सिर्फ़ परहेज़गारी पर ज़ोर देती हैं। अगर कोई चाहे कि रोज़ा रखे तो वो बखु़शी रख सकता है। अब अगर फिर मसीही मज़्हब और इस्लाम का मुक़ाबला इस लिहाज़ से किया जाये तो मालूम होगा कि मसीही मज़्हब जो ऐसी-ऐसी ज़ाहिरदारियों को मजबूरन आइद नहीं करता पर हर एक पैरौ (मानने वालों) की मर्ज़ी पर छोड़ देता है बमुक़ाबिल इस्लाम के जो हुक्मन इन को लोगों के लिए मुक़र्रर करता है बदर्जा बेहतर है क्योंकि जो कुछ ख़ुद बख़ुद किया जाये या ख़ुदा की मुहब्बत के सबब किया जाये वो उस बच्चे के काम की मानिंद है जो वालदैन की ताबेदारी बखु़शी करता है लेकिन वो जो हुक्मन किया जाये एक ग़ुलाम के काम की मानिंद है। मसीही मज़्हब की बुजु़र्गी इस सबब से नहीं कि इस्लाम रमज़ान के रोज़ों को हुक्मन मुक़र्रर करता है जबकि मसीही मज़्हब ऐसी ज़ाहिरी बातों को क़ानूनन मुक़र्रर करना जायज़ नहीं समझता पर और भी वजूहात हैं जिनकी रु से ऐसी रस्म का मुक़र्रर करना ख़ुदा की रजामंदी इन्साफ़ और दानाई के बरख़िलाफ़ है लिहाज़ा ये नतीजा निकलता है कि ये ना उस की तरफ़ से और ना उस की ख़्वाहिश से दुबारा ठहराए गए। ये बात सच्च है कि रमज़ान के महीने में रोज़ा रखना बहुतों को कोई नुक़्सान नहीं पहुँचाता मगर बड़े-बड़े डाक्टरों की ये राय है कि बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो चूँकि दिन को खाना पीना बिल्कुल बंद कर देते और रात को एक पूरे महीना भर ख़ूब खाते पीते हैं ख़ुसूसुन जबकि रमज़ान का महीना गर्मियों के मौसम में पड़े अपनी सेहत को सख़्त नुक़्सान पहुंचाते हैं और बसा-औक़ात इसी सबब से मोहलक बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। तो क्या ये ख़ुदा की रजामंदी और दानाई के मुताबिक़ होगा कि रोज़ों को मजबूरन लोगों के लिए मुक़र्रर करे जबकि सेहत को जो कि सबसे बड़ी बरकत है ऐसा सख़्त नुक़्सान पहुंचने का ख़तरा हो? क्या जो रुहानी फ़ायदा रोज़ों के ज़रीये से हो सकता है और वसीलों से नहीं हो सकता?

यही एक बात नहीं बल्कि इस रस्म पर एक और तरह ग़ौर करने से भी मालूम हो जाएगा कि किसी हालत में ये इस्लाम को मसीही मज़्हब से आला नहीं ठहरा सकती। मसीही मज़्हब का दाअवा है कि वो हर एक फ़िर्क़ा, मज़्हब, मिल्लत क़ौम व मुल्क के लिए है और कि दुनिया की हर क़ौम के लिए ठीक है। अब चूँकि इस्लाम मसीही मज़्हब पर फ़ौक़ियत ज़ाहिर करता है लिहाज़ा ये हर एक मुल्क और क़ौम के लिए और भी ज़्यादा ठीक और मुनासिब-हाल होना चाहिए लेकिन इस रोज़ा रखने की रस्म से हमको क्या मालूम होता है? हर एक जोकि इल्म-ए-जुग़राफ़िया से वाक़िफ़ है जानता है कि मंतिक़ा हार्रा में दिन और रात तमाम साल बराबर होते हैं लेकिन मंतिक़ा मोतदिल और मुंजमिद में छोटे बड़े होते हैं। बाअज़ बाअज़ जगहों में दिन रात से चार या छः घंटे बड़ा होता है और बाअज़ जगहों में रात-दिन से चार या छः गुनी बड़ी होती है। मुसलमान चूँकि आफ़्ताब के तुलूअ होने से ग़ुरूब होने तक रोज़ा रखते हैं तो ये नतीजा निकला कि मंतिक़ा हार्रा के लोग तो सिर्फ बारह घंटे रोज़ा रखेंगे लेकिन वो जो कि ज़्यादा शुमाल की जानिब रहते हैं मसलन इस्तंबोल जैसी जगह में उनको 16 या 20 घंटे रोज़ा रखना पड़ेगा। लेकिन ये ख़ुदा के अदल व इन्साफ के मुताबिक़ हो सकता है? हम ये भी जानते हैं कि 67 दर्जा शुमाल में दिन क़रीबन एक महीने तक रहता है। 69 दर्जा में दो महीने और 73 दर्जा में तीन महीने का दिन होता है यानी सूरज के तुलूअ होने और ग़ुरूब होने के दर्मियान एक दो या तीन महीना का फ़र्क़ होता है। अब अगर इन जगहों के मुसलमान रमज़ान के रोज़े इस क़ाएदे से रखें यानी सूरज के तुलूअ होने से ग़ुरूब होने तक और इस वक़्त के दर्मियान कुछ ना खाएं पियें तो इस का नतीजा ये होगा कि सब के सब फ़ाक़े से पेश्तर इस से कि वो इस जगह की दोपहेर की नमाज़ पढ़ने के क़ाबिल हों मर जाएंगे। इन बातों से ये साबित हो गया कि रमज़ान के रोज़ों के क़ाएदे कुल बनी नूअ इन्सान के लिए ठीक नहीं। अब इन्ही जगहों में हज़ारों मसीही हैं जो कि किसी ऐसी रस्म से मज्बूर नहीं होते कि भूक से हलाक हों। पस ये ज़ाहिर है कि इस्लाम कम-अज़-कम इस बात में मसीही मज़्हब से हरगिज़ बेहतर नहीं हो सकता क्योंकि इस की पैरवी से शुमाली क़ुतुब के लोग कभी ज़िंदा नहीं रह सकते। क्या ऐसी रस्म ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल हो सकती है जोकि कुल बनी-आदम के लिए ठीक ना हो? क्या हम ये कहें कि ख़ुदा ने ऐसी रस्म मुक़र्रर करने से जिसको कि तमाम कौमें मान नहीं सकती ग़लती की? या ये कहें कि मुहम्मद साहब ने ग़लती की कि उन्होंने लोगों को माह-ए-रमज़ान में सूरज के तुलूअ होने से ग़ुरूब होने तक तमाम दुनिया में रोज़ा रखने को कहा? इसका जवाब हम रोशन ज़मीर मुसलमान साहिबान ही पर छोड़ते हैं।

(3) ख़ुदा की बादशाहत की बाबत

जबकि हमने मसीही मज़्हब और मूसवी शरीअत का मुक़ाबला ख़ुदा की बादशाहत के बारे में किया तो हमने जतलाया था कि सय्यदना मसीह के नाज़िल होने ने ख़ुदा की बादशाहत में एक बड़ी भारी तब्दीली पैदा की क्योंकि उसने ख़ुदा की बादशाहत को क़ौमी बादशाहत से एक आलमगीर बादशाहत क़रार दिया। खतना की रस्म भी उठा दी जिससे ये दर-हक़ीक़त एक रुहानी बादशाहत हो गई और हर एक इन्सान के लिए ख़्वाह वो किसी फ़िर्क़ा व मज़्हब व मिल्लत का क्यों ना हो दरवाज़ा खोल दिया और हर एक जो सच्चाई से इस का ख़्वाहां हो और जो अपने ताल्लुक़ को ख़ुदा से और इन्सान से फिर बहाल करना चाहता हो इस को क़ुबूल करके हासिल कर सके। सय्यदना मसीह की तालीम के बमूजब ख़ुदा की बादशाहत मुल्की ताल्लुक़ात मजलिसी रसूमात और ख़ानदानी तरीक़ों से बिल्कुल जुदा क़ाइम हो सकती है। ये हर एक मुल्क में बग़ैर उस की दुनियावी सल्तनत को रद्दो बदल किए क़ायम हो सकती है। ये इस जहान की नहीं बल्कि सच्चाई और सदाक़त की बादशाहत है। चूँकि ये रुहानी और ख़ुसूसुन मज़्हब ही की बिना पर क़ायम है लिहाज़ा ये हर एक हालत और हर एक मुल्क में जहां-जहां आदमी हैं बग़ैर दुनियावी हाकिमों और बादशाहों की हिमायत के क़ायम हो सकती है इस का मक़्सद किसी ख़ास क़ौम की दुनियावी क़ुव्वत को बढ़ाना नहीं पर ख़ुदा के जलाल को बुजु़र्गी देना और इस की सल्तनत को इन्सान के दिल में ख़ानदान में और हर मुल्क में फैलाना है। जो जो इस को क़ुबूल करते और इस में दाख़िल होते हैं वो सब पाक बिरादराना उल्फ़त और मुहब्बत से एक हो जाते हैं और उनको बेहतर ख़ुशहाल और ज़्यादा दाना आदमी बना देती है और साथ ही साथ उनको आने वाले जहान को जलाली ख़िदमत और ख़ुशी के लिए तैयार करती है। अब अगर ये दाअवा बरहक़ हो कि इस्लाम मसीही मज़्हब से आला है तो क्या उस का ये फ़र्ज़ नहीं कि इस आस्मान की बादशाहत के बारे में कोई बेहतर और ज़्यादा रुहानी तालीम पेश करे जो दुनिया की क़ौमों के लिए ज़्यादा मुनासिब हो और कि इस दुनिया में आदमियों को ज़्यादा ख़ुश दाना और सादिक़ बनाए और जो मौत के बाद इन्सान को अबदी ज़िंदगी और उस के जलाल की बेहतर उम्मीद दे? वो जो कि दोनों मज़ाहिब से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं जानते हैं कि ये बातें इस्लाम में नहीं पाई जातीं।

आओ हम इस उम्मीद के बारे में जो मसीहियों को मौत के बाद हासिल होती है कुछ ज़िक्र करें। हर एक मसीही सय्यदना मसीह के ज़िंदा होने में अपने दुबारा ज़िंदा होने को बख़ूबी समझ लेता है इसलिए मौत उस के लिए कोई ख़ौफ़नाक अंजाम नहीं “बल्कि मरना उस के लिए मसीह में सोना है।” (1 कुरिन्थियों 15 बाब, आमाल 7:60, 1 थिस्सलुनीकियों 4:14) कोई नुक़्सान नहीं बल्कि सरासर फ़ायदा है। (फिलिप्पियों 1:21 मुकाशफ़ात 14:13) हम इस से इन्कार नहीं करते कि गो बहुत से मुसलमान मरने से डरते हैं पर तो भी उनका मज़्हब उनको दूसरी दुनिया के हासिल करने की बाबत बहुत कुछ सिखाता है और बहुत सी मिसालें ऐसी भी हैं कि जब वो मरने को थे तो वो ये कहकर पुकारे मुझे ख़याल है कि मैं स्याह आँख वाली हूरों को देखता हूँ जोकि मुझे आने के लिए इशारा कर रही हैं लेकिन इस ख़ुशी में जो कि उनको मौत के वक़्त होती है एक बात पाई जाती है जिसकी रु से उनका मज़्हब मसीही मज़्हब से रूहानियत में कम-नज़र आता है। मुसलमान की ख़ुशी तो दूसरे जहान की अय्याशी की उम्मीद है मसलन उम्दा व नफ़ीस पोशाक में लज़ीज़ ख़ुराक और दिल-फ़रेब शराब में और बेशुमार हूरों की सोहबत में पर बरअक्स इस के मसीही की ख़ुशी उस के अपने ख़ुदावंद से मिलने में है और नए जिस्म में हो कर ख़ुदा की रिफ़ाक़त में रहने से है तमाम गुनाहों से पाक हो कर कामिल पाकीज़गी में रहने से है। (2 कुरिन्थियों 5:1 ता 9, फिलिप्पियों 1:20 ता 22, रोमियों 8:10 ता 25, मुकाशफ़ात 21:1 ता 7) क़ुर्आन में हम ये पढ़ते हैं “वहां हूरें होंगी स्याह आँखों वाली जैसे कि मोती जो सीप में बंद हो ये सब उनको पिछले कामों के अज्र में मिलेंगी।.... हमने उनको अजीब तरह से ख़ल्क़ किया है वो हमेशा कुंवारियां रहेंगी और अपने आदमियों की अज़ीज़ रहेंगी उन लोगों के लिए जो दहने हाथ पर होंगे उनके लिए हमने हूरों को उनकी बराबर उम्र की बनाया और पहली और पिछली पुश्तों के लिए बेशुमार बनाया।” (सूरह वाक़िया आयात 22, 23, 34, 39) लेकिन इस का बिल्कुल बरअक्स ख़ाका ख़ुदा की बादशाहत का जो आने वाली दुनिया में होगा हम इन्जील में सय्यदना मसीह के इन अल्फ़ाज़ में पाते हैं “क्योंकि वहां ना ब्याह करते ना ब्याहे जाते हैं लेकिन आस्मान में ख़ुदा के फ़रिश्तों की मानिंद हैं।” (मत्ती 22:23, 33) यानी वो जोरु (बीवी) और ख़ावंद (शोहर) की तरह ना रहेंगे जैसा कि इस दुनिया में रहते हैं। ये साबित हुआ कि क़ुर्आन इस बात के लिहाज़ से इन्जील से रुहानी तालीम में बहुत ही कम है बल्कि वो दुनियावी ख़यालात को पेश करता है।

ऐसा ही मुक़ाबला हम खतना की रस्म को मद्दे-नज़र रख कर कर सकते हैं जोकि यहूदियों के लिए मह्ज़ एक निशान था जिसकी रु से वो ख़ुदा के लोग समझे जाते थे। अगरचे क़ुर्आन में इस रस्म पर चलने का हुक्म नहीं मगर तो भी हम जानते हैं कि सब मुसलमान इस को एक मज़्हबी फ़र्ज़ समझ कर करते हैं। मगर इन्जील की मज़्कूर बाला आयात से ये साफ़ ज़ाहिर है कि मसीही मज़्हब जिस्मानी खतने का हरगिज़ तलबगार नहीं बल्कि दिली पाकीज़गी और रुहानी ज़िंदगी का ख़्वास्तगार है। पस साबित हुआ कि मुहम्मदी मज़्हब चूँकि इस रस्म को अब तक जारी रखने का हुक्म देता है लिहाज़ा ये इस बात को जारी रखने की कोशिश कर रहा है जिसको ख़ुदा ने इन्जील में बेफ़ायदा ठहराया।

मुहम्मदी और मसीही मज़्हब में सबसे बड़ा फ़र्क़ ख़ुदा की बादशाहत के बुनियादी उसूल के बारे में है। इन अल्फ़ाज़ यानी ख़ुदा की बादशाहत से वो बादशाहत मुराद है जोकि ख़ुदा ने इस दुनिया में अपने बर्गुज़ीदा बंदों के ज़रीये से जारी की ताकि लोगों को उनके गुनाहों से और उन तमाम नताइज से जो कुल बनी नूअ इन्सान से उनके पहले माँ बाप आदम और हव्वा के गिरने (गुनाह करने) से लाहक़ हुए रिहाई हो और ताकि वो आस्मान में दाख़िल होने के लायक़ ठहरें। बिल-उमूम ये पिन्तिकोस्त के दिन से शुरू होती है। आओ इस बादशाहत के उसूल पर ग़ौर करें। ख़ुदा ने इस को सच्चाई की बादशाहत कहा जो कि रुहानी और बातिनी हो ये ना सिर्फ हम सय्यदना मसीह के अल्फ़ाज़ से सुनते हैं बल्कि उस के रसूलों ने भी इस की बाबत यही कहा है लिहाज़ा ना मसीह ने और ना ही किसी उस के रसूल ने किसी हाकिम या बादशाह को जब उन्होंने इन्जील को ना माना उस की हुकूमत या सल्तनत से बरतरफ़ करने की कोशिश की बल्कि बरअक्स इस के नए अहदनामे में तो हाकिमों और बादशाहों की फ़रमांबर्दारी पर ज़ोर दिया है। ग़ौर कीजिए ये हुक्म उस वक़्त दिया गया जबकि मसीही ईमानदार ग़ैर लोगों के मातहत थे और जब उन पर तरह-तरह के ज़ुल्म होते थे। मुहम्मद साहब ने इस के बरख़िलाफ़ किया यानी वो फ़ौरन उन हुकूमतों पर हमला-आवर हुए जो उनकी फ़रमांबर्दार ना हुईं और ख़ुद दीनी और दुनियावी इख्तियारात की बाग अपने हाथ में ली और इस्लाम यूं शुरू ही से ना सिर्फ मज़्हब ही रहा बल्कि एक दुनियावी सल्तनत भी क़रार पाया। सय्यदना ईसा मसीह ने साफ़ दुनियावी बादशाहत और ख़ुदा की बादशाहत में फ़र्क़ बताया “जो चीज़ें क़ैसर की हैं क़ैसर को और जो ख़ुदा की हैं ख़ुदा को दो।” मगर मुहम्मद साहब ने दुनियावी सल्तनत और मज़्हब में इख़्तियार ना किया और बज़ात ख़ुद एक ख़ुदा के पैग़म्बर के और एक दुनियावी क़ैसर के इख्तियारात ले लिए। एक आम-फहम आदमी ये कह सकता है कि इस्लाम का कमाल इस में है कि इस में दुनियावी बादशाहत और मज़्हब एक साथ रखे गए मगर मसीही मज़्हब में चूँकि ये नहीं है लिहाज़ा वो ना-मुकम्मल है पर दर-हक़ीक़त मज़्हब और सल्तनत का बाहम मिला देना बेशुमार कमज़ोरीयों का और तनज़्ज़ुल का बाइस तवारीख़ से साबित हो चुका है और बरअक्स इस के जहां-जहां मज़्हब और सल्तनत अलैहदह-अलैहदा क़रार दिए गए वहां ताक़त ज़ाहिर हुई और बेशुमार बातों में तरक़्क़ी पैदा हुई। चूँकि इस्लाम में दुनियावी हुकूमत मिलाई गई लिहाज़ा वो लोग जिन्हों ने दौलत और ताक़त को सच्चाई पाकीज़गी और ख़ुदा की रिफ़ाक़त से बेहतर जाना उस की तरफ़ माइल हो गए इस सबब से बहैसियत मज़्हब ये साफ़ व पाक ना रह सका पर चूँकि मसीही मज़्हब ने शुरू ही से दुनियावी हुकूमत को बरतरफ़ किया और ख़ुदा के साथ पूरी रिफ़ाक़त पर ज़ोर दिया और चूँकि इस पर तरह-तरह के ज़ुल्म बरपा हुए लिहाज़ा दुनियादार लोग इस में दाख़िल ना हुए पस ये शुरू ही से अपने बानी मसीह की रुहानी पाकीज़गी और बुजु़र्गी में बढ़ता गया जिसके गवाह दुश्मन भी हैं। इस्लाम की ये बड़ी ग़लती जिसकी रु से मज़्हब और सल्तनत मिलाए गए बहुत सी बातों में ज़ाहिर होती है जिससे ये मज़्हब मसीही मज़्हब की तरह कुल बनी नूअ इन्सान के लिए यकसाँ मौज़ूं नहीं हो सका पर इस से कम ही रहा लिहाज़ा ये रुहानी तरक़्क़ी का आला दर्जा बमुक़ाबला मसीही मज़्हब के पेश नहीं करता। अब हम उन चंद बुराईयों का ज़िक्र करेंगे जो कि सल्तनत और मज़्हब को मिलाने से पैदा होती है।

मज़्हबी रु से पहली ग़लती ये है कि मुहम्मद साहब के बाद ख़लीफों या उस के और जांनशीनों का होना लाज़िमी ठहरा। अगर वो सिर्फ एक मज़्हब ही का बानी होता तो ख़ुलफ़ा की कोई ज़रूरत ना होती पर सिर्फ उस्तादों की ज़रूरत होती जो इस मज़्हब को सिखाते और लोगों की जो इस पर अमल करते जैसा कि सय्यदना मसीह ने अपने बाद कोई ख़लीफ़ा ना मुक़र्रर किया मगर सिर्फ उस्ताद और मुबश्शिरों को ठहराया जिनके वसीले से उस का मज़्हब अपनी ज़ाती रुहानी क़ुद्रत के सबब तमाम बनी-आदम में फैल गया। सय्यदना मसीह ने बहैसियत मसीही मज़्हब के बानी होने के अपने बाद कोई जांनशीन ना मुक़र्रर किया क्योंकि उसने बज़ात-ए-ख़ुद नजात के काम को पूरी तरह कामिल करके ख़त्म किया और कोई ज़रूरत बाक़ी ना छोड़ी सिवाए इस के कि लोग इस को सच्चाई और ईमान से क़ुबूल करें। एक और सबब से उस के जांनशीन होने की ज़रूरत नहीं क्योंकि वो ख़ुद मुर्दों में से ज़िंदा हुआ और अब अपनी कलीसिया में बशख्सियत एक नादीदा सूरत में मौजूद रहता है बल्कि हर एक ईमानदार के दिल में बहैसियत ख़ुदावंद हाज़िर रहता है। बरअक्स इस के चूँकि मुहम्मद साहब ने मज़्हब की जगह एक हुकूमत की बुनियाद डाली लिहाज़ा उस के बाद ख़ुलफ़ा का या जांनशीन का होना लाज़िम ठहरा। मुहम्मद साहब चूँकि ख़ुद नबी और सुल्तान थे लिहाज़ा उनका दूसरा जांनशीन आला अमीर-ऊल-मोमनीन यानी ईमानदारों का हाकिम कहलाया। चूँकि इस्लाम में मज़्हब और हकूमत दोनों मिली हुई थीं इसलिए ख़ुलफ़ा ने उस की तालीम के मुवाफ़िक़ सब मुसलमान रियाया से पूरी इताअत क़ुबूल करवाई और रियाया ने भी ऐसों ही की हुकूमत को क़ुबूल किया जिन्हों ने मज़्हब और सल्तनत दोनों को मिला कर पेश किया। लिहाज़ा ख़ुलफ़ा और मुसलमानों को इस तौर के काम के सबब मज़्हब बहैसियत मज़्हब एक तरफ़ करना पड़ा और इस्लाम ने दुनियावी हुकूमत की शक्ल इख़्तियार की जिसका नतीजा ये हुआ कि वो भी हुकूमतों की तरह ज़वालपज़ीर हुआ। ख़ुलफ़ा चूँकि मज़्हबी उस्तादों के एवज़ दुनियावी हाकिम थे लिहाज़ा तरह तरह की साज़िशों में पड़ गए जैसा कि और दुनिया के हाकिमों का तौर है और यूं मज़्हब के असली मक़्सद से दूर हो गए और ये भी देखने में आया कि बहुत जल्द मुसलमान एक दूसरे से जुदा हो गए जैसा कि जंग नाक़ा से मालूम होता है जहां सिर्फ मुहम्मद साहब की मौत के 25 बरस ही के बाद क़रीबन दस हज़ार मुसलमान अपने ही भाइयों से क़त्ल किए गए। ये बात भी सबको मालूम है चार में से तीन ख़ुलफ़ा का अंजाम कैसा होलनाक हुआ एक तो एक फ़ारसी से मारा गया जिसने अपने मुल्क की ख़ातिर उस को क़त्ल करके बदला लिया और दो मुल्की मुआमलात की वजह से मुसलमानों ही के हाथ से मारे गए और चौथा अली जो कि मुहम्मद साहब का भाई और दामाद था ना तो मुआविया को मग़्लूब कर सका और ना ही सीरिया के मुसलमानों को अपने मातहत ला सका और अली के बाद उस का बेटा हसन इन्ही मुल्की साज़िशों के बाइस अपने बाप का जांनशीन ना हो सका बल्कि सल्तनत को अपने दुश्मन के हवाले करना पड़ा। क़ाबिल-ए-ग़ौर बात ये भी है कि इन चारों ख़ुलफ़ा के हुक़ूक़ पर इतना तनाज़ा है कि मुसलमान दो बड़े फ़िर्क़ों में मुनक़सिम (बटें) हैं यानी शीया और सुन्नी जो कि एक दूसरे से नफ़रत करते लान तअन करते और बसा-औक़ात लड़ते भी हैं। अब ये हर एक पर रोशन है कि ये सब बातें शुरू ही से कमज़ोरी और तनज़्ज़ुली का बाइस हैं और इस की वजह सिर्फ यही है कि क़ुर्आन में मज़्हब और दुनियावी हुकूमत दोनों को मिला दिया गया है ये बात सच्च है कि मसीही क़ौमों में भी मज़्हबी जंग और जदल (लड़ाई, फसाद) हुए मगर ये मसीह के आस्मान पर चले जाने के कई सौ बरस बाद वाक़ेअ हुए मगर इनका सबब लोगों की जहालत और कम इल्मी था ख़ुसूसुन ज़िंदा और सच्चे ईमान की पैरवी ना करना था जो मसीह और उस के शागिर्दों ने अपनी पाक ज़िंदगियों से ज़ाहिर किया था।

एक और बुराई जो इस सबब से ज़ाहिर हुई वो ख़ुसूसुन ग़ैर-मुसलमानों के लिए पैदा हुई। मसीही मज़्हब तो ग़ैर-मसीहियों के लिए ये सिखाता है कि उनको रहम की नज़र से देखा जाये क्योंकि वो राह-ए-रास्त से गुमराह शूदा लोग हैं उनको मुहब्बत से आस्मानी बाप की तरफ़ राग़िब किया जाये ताकि वो सच्ची तौबा करके सय्यदना मसीह पर ज़िंदा ईमान लाकर अपने गुनाहों से बच जाएं मगर मुसलमानों को ग़ैर-मुसलमानों के लिए ये तालीम मिलती है कि वो ना सिर्फ काफ़िर बल्कि मुल्क के दुश्मन समझे जाएं और उनसे जबरन इताअत क़ुबूल करवाई जाये। क़ुर्आन में भी ये तालीम पाई जाती है “काफ़िरों से लड़ो यहां तक कि लड़ाई ख़त्म हो जाए और ख़ुदा का एक ही मज़्हब क़ायम हो जाए।” (सूरह अन्फ़ाल आयत 40 और माइदा आयत 66) में यूं लिखा है “ऐ रसूल तू ईमानदारों को लड़ने के लिए उभार अगर बीस (20) तुम में से कमरबस्ता हो कर लड़ें तो दो सौ (200) को शिकस्त देंगे और अगर सौ (100) होंगे तो हज़ार काफ़िरों को शिकस्त देंगे क्योंकि काफ़िर अक़्ल व दानाई से ख़ाली हैं।” इन आयात का मतलब ये है कि मुसलमानों को इजाज़त थी कि वो मुन्किरों को जबरन रसूल के फ़रमांबर्दार बनाएँ क्योंकि ये उन हुक्मों से साबित होता है जो मुहम्मद साहब ने सातवीं हिज्री में तमाम क़ुर्ब व जुवार (आसपास) के बादशाहों के पास भेजे कि वो सब उस की इताअत व फ़रमांबरदारी करें। और फिर ये उन तबाहकुन लड़ाईयों से साबित होता है जोकि मुसलमानों ने ग़ैरों को रसूल की ताबेदारी में लाने के लिए कीं। इलावा इस के वाक़िदी का मुहर्रिर इस बात को इन अल्फ़ाज़ से साबित करता है जो मुहम्मद साहब ने मरने से पहले कहे “मेरे लोगों में से एक फ़िर्क़ा ऐसा होगा जो हक़ के लिए लड़ने से जब तक कि दज्जाल ना आवे बाज़ ना रहेगा।” ये सब हुक्म बेफ़ाइदा ना रहे। तवारीख़ से मालूम होता है कि मुसलमानों ने निहायत कोशिश और सरगर्मी से इन पर अमल किया और बहुत से मुल्क लड़ाईयों के शोर व गुल से तबाह हो गए जो मज़्हब की आड़ में लड़ी जाती थीं। जब फ़ुतूहात ख़त्म हुईं तब भी मुल्क तबाही और ख़स्तगी में मुब्तला रहे। अगर मफ़तूह कौमें अपने मज़्हब पर रहने में इसरार करतीं तो फ़ातेह फ़ौज बजाए इस के कि ख़ुद इंकारी और मुहब्बत से पेश आए उनको तरह-तरह की तक़्लीफों से दुख पहुंचाती। कोई भी ऐसा मुल्क नहीं जो मुसलमानों ने फ़त्ह किया हो और उस के बाशिंदों को जो दूसरे मज़ाहिब के थे अपने साथ बराबर के हुक़ूक़ दिए हों। बरअक्स इस के उनके साथ मफ़तूह क़ौम का सा सुलूक करते थे जो मजबूरन मुसलमानों को अपना सरदार तस्लीम करते। ये हाल ऐसा बढ़ गया कि सरकारी ख़त व किताबत में भी उनको बुरे-बुरे नामों से मन्सूब किया जाता था पस इन बातों से ज़ाहिर है कि चूँकि इस्लाम में दुनियावी हुकूमत और मज़्हब को बाहम मिलाया गया लिहाज़ा ना सिर्फ इस से मज़्हबी पाकीज़गी और रूहानियत जाती रही बल्कि वो सल्तनत के एक ख़ास फ़र्ज़ को भी ना अंजाम दे सका यानी उसने अपनी रियाया को इन्साफ़ और हक़-पसंदी से ना रखा और एक को दूसरे पर बे-इंसाफ़ी से तर्जीह दी। गो ये ख़ुशी का बाइस है कि हाल ही में मुसलमानों की सबसे बड़ी मौजूदा सल्तनत यानी तुर्की ने ये क़ानूनन नाजायज़ ठहराया कि किसी ग़ैर-मुसलमान को सरकारी ख़त व किताब में बुरा भला कहा जाये और अब इन ग़ैर-मुसलमानों के साथ कम अज़ कम बुरा सुलूक नहीं करते पर मुसलमानों की हुकूमत की ये क़ाबिल-ए-तारीफ़ बात जो कि उन्हों ने ग़ैरों को इन्साफ़ और हक़-पसंदी के साथ सुलूक करने में ज़ाहिर की क़ुर्आन की तालीम के बाइस या मज़्हबी असर के बाइस नहीं बल्कि ये मौजूदा सुल्तान की उस चाल के बमूजब है जो उसने अपने मुल्क में मसीही मुल्कों के मुवाफ़िक़ इस्लाह जारी करने की ग़र्ज़ से इख़्तियार की। हासिल कलाम ये है कि इस मज़्हबी और दुनियावी हुकूमत के मिलाने के सबब खूँरेज़ लड़ाईयों की इब्तिदा हुई जोकि बेशुमार फ़ौजों के रखने के बाइस ख़ुद बख़ुद वाक़ेअ हुईं मुल्कों पर तरह-तरह की तकालीफ़ आईं और लोगों को बदतर और ख़राब हालत में पहुंचाया। मसीही मज़्हब चूँकि सिर्फ एक मज़्हब था लिहाज़ा शुरू ही से सुलह व सलामती के तरीक़ों से और पाक नमूने से फैलाया गया। अगर कोई मसीही मुल्क की सल्तनत अपनी फ़ौजों को मुसलमानों या बुत-परस्तों को जबरन मसीही बनाने के लिए भेजे तो ये मसीह की तालीम के और हर एक मसीही की ख़्वाहिश के बिल्कुल ख़िलाफ़ होगा। गो दोनों मज़ाहिब की इशाअत में इतना बड़ा फ़र्क़ है लेकिन तो भी मसीही मज़्हब बनिस्बत इस्लाम के दुनिया में जल्द और ज़्यादा फैलता जाता है और ये अपनी बरकतें बग़ैर ख़ून बहाए या ज़ुल्म के उन सब पर जो इस को क़ुबूल करते हैं, नाज़िल करता है। जबकि इस्लाम तबई तौर पर ग़ैरों पर जो इस को रद्द करते हैं लड़ाई करने के लिए और उनको अपने ताबे करने पर मज्बूर होता है ताकि वो अपने पैरों (मानने वालों) को किसी तरह के फ़ायदे पहुंचाए। इन दोनों हालतों पर नज़र रखकर हर एक बेतास्सुब शख़्स पर ये रोशन हो जाता है कि इन दोनों मज़ाहिब में से कौनसा बलिहाज़ फ़ायदा पहुंचाने के बेहतर और आला है या कौनसा लोगों की ज़रूरियात के मुताबिक़ अपनी ज़ात में अच्छा है।

चूँकि अब साबित हो गया कि इस्लाम का ये मिलाप यानी मुल्की और मज़्हबी मुसलमानों और ग़ैर मुसलमानों के लिए नुक़्सानदेह मिलाप है लिहाज़ा ये ख़याल भी पैदा होता है कि शायद ये अपनी ही तरक़्क़ी को भी रोकने या उस को नुक़्सान पहुंचाने का सबब हो। ये तवारीख़ से ज़ाहिर होता है कि जूंही मुहम्मद साहब ने मुल्कों के फ़त्ह करने का इरादा किया उस के पैरौ (मानने वाले) बढ़ने लगे और जब उसने लूट के माल से उनको मालदार किया तो और बहुत से अरबी फ़िर्क़ों ने अपने क़ासिद भेजे और मुहम्मद साहब के साथ फ़रमांबर्दारी की शराकत के ख़्वाहां हुए। इस तरह इस्लाम बढ़ता रहा और पहले ख़ुलफ़ा के अहद में जबकि बहुत से मुल्क फ़त्ह हुए ये बहुत फैल गया और उन के बाद बादशाहों और हाकिमों के ज़रीये जो ज़बरदस्त और ताक़तवर थे इस की इशाअत मुल्क ब मुल्क बढ़ती गई। ये एक तबई बात है क्योंकि इसलिए कि इस्लाम सिर्फ एक मज़्हब ही ना था बल्कि मुल्की ताक़त लिहाज़ा ये दुनियावी सल्तनत ज़ोर पकडती गई और बहुतों ने इस तरक़्क़ी को इस्लाम की मज़्हबी सदाक़त के साबित करने के लिए पेश किया। फ़र्ज़ करो कि इस्लाम आला और आख़िरी और ख़ुदा की बादशाहत के मुकाशफे का सब से बेहतर मज़्हब है जोकि अब तक दुनिया के लिए नाज़िल किया गया और कि इस में रुहानी ज़िंदगी का आला मेयार और मुल्की हुकूमत का आला नमूना पाया जाता है तो ये लाज़िमी नतीजा पैदा होगा कि इस में बहैसियत मज़्हब सच्चाई की सबसे आला तालीम और बहैसियत हुकूमत सबसे ज़्यादा मुल्की फ़ुतूहात दुनियावी ताक़त और ख़ुशहाली पाई जाये। लिहाज़ा जब तक मुसलमानों की हुकूमत में अपनी फ़ुतूहात और ताक़त से गर्द व नवाह (आसपास) के मुल्कों को लौट कर अपने आपको माला-माल किया तो हर एक मुसलमान ने अपने मज़्हब की सदाक़त के सबूत में इन फ़ुतूहात को काफ़ी समझा। लेकिन अगर हम इस दलील को इस सूरत में मान लें तो क्या इस दलील की दूसरी सूरत को हम ना तस्लीम करें? क्योंकि अगर कोई मुसलमान मज़्हब इस्लाम की पहली फ़ुतूहात पर नज़र रखकर इस तौर से दलील करे कि हमारा मज़्हब ज़रूर ख़ुदा की तरफ़ से है क्योंकि हम देखते हैं कि हमारी हुकूमत जोकि मज़्हब का एक ख़ास हिस्सा है दुनिया की और सब हुकूमतों से फ़तहमंद है तो क्या वो इसी दलील को इस की दूसरी सूरत में क़ुबूल करने को तैयार होगा? यानी क्या वो ये मानेगा कि चूँकि हमारी हुकूमत जोकि मज़्हब का एक ख़ास हिस्सा है अब ज़ाइल होती जाती और कि बहुत से हमारे मुल्क मसीहियों के क़ब्ज़े में आते-जाते हैं और कि तीन करोड़ से ज़्यादा मुसलमान मसीही सल्तनतों के बाजगुज़ार हैं और कि तुर्की सल्तनत ने भी अपने आपको क़ायम रखने के लिए मुनासिब समझा कि मज़्हब इस्लाम के उसूल के बरख़िलाफ़ चंद ऐसी ज़रूर इस्लाहें करे जिनके बग़ैर सल्तनत का क़ायम रहना दुशवार होगा क्या इन सब बातों को देखकर एक मुसलमान मानने के लिए तैयार होगा कि चूँकि मुल्की हुकूमत दिन-ब-दिन कमज़ोर होती जाती है लिहाज़ा मज़्हब इस्लाम भी अपनी ताक़त और असर में कम होता जाता है? चूँकि इस्लाम में मज़्हब और हकूमत मिला दिए गए हैं लिहाज़ा हर एक समझदार मुसलमान के सामने ऐसी ऐसी दलाईल ज़रूर पेश आएंगी क्योंकि जब जब इन बातों पर ख़याल जाएगा फ़ौरन ये अरब के पैग़म्बर के मज़्हबी उसूल के ख़िलाफ़ नताइज पेश करेगी ख़ुसूसुन उन जगहों को मद्दे-नज़र रखकर जो कि अब मुसलमानों की हुकूमत से निकल कर मसीही या ग़ैर-मसीही लोगों के हाथ आएं मुन्दरिजा ज़ैल नताइज हर एक मुसलमान की अक़्ल-ए-सलीम के सामने पेश आएंगे कि उसूलन इस्लाम शुरू ही से बजाए एक ख़ालिस मज़्हब होने के एक मुल्की हुकूमत रहा है या यूं कहें कि इस में दीनी व दुनियावी मुआमलात इस तरह से मिला दिए गोया एक हो गए और कि अब एक का तनज़्ज़ुल पज़ीर होना दूसरे को भी घटाता है। बरअक्स इस के मसीही मज़्हब ये सरीहन जतलाता है कि उस का मक़्सद ये हरगिज़ नहीं कि एक दुनियावी बादशाहत क़ायम करे बल्कि ये है कि इन्सान को गुनाह और शैतान की हलाक करने वाली ताक़त से बचा कर उस को फिर ख़ुदा की रिफ़ाक़त में पहुंचा दे। लेकिन बावजूद इस के कि इस्लाम एक मुल्की हुकूमत हो गई जिसने दुनिया की क़ौमों को अपने मातहत करना चाहा और बावजूद इस के कि मसीही मज़्हब फ़क़त एक मज़्हब था और तीन सौ (300) बरस तक सख़्त से सख़्त मज़ालिम उठाकर बग़ैर दुनियावी मदद के बढ़ता रहा ख़ुदा ने अपनी अक़्ल और दानाई के बमूजब मुसलमानों की कौमों को घटाया और उन क़ौमों को जो मसीही मज़्हब की पैरौ (मानने वाली) हुईं इस तौर से बरकत दी और उन में ऐसी-ऐसी अजीब ख़ुशहाली पैदा की कि अब बहुत से ममालिक मसीही मज़्हब के पैरौ (मानने वाले) हैं यानी इंग्लिस्तान, अमरीका, फ़्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, इटली और रूस जिनमें से हर एक उस्मानी सल्तनत से जोकि तमाम मौजूदा मुसलमानों की हुकूमतों में सबसे ज़्यादा तालीम-याफ़्ता और ताक़तवर ख़याल की जाती है ज़्यादा मुहज़्ज़ब ज़्यादा तालीम-याफ़्ता और ताक़त और क़ुव्वत में भी ज़्यादा है।

मज़्कूर बाला दलाईल से ये साबित होगा कि इस्लाम बहैसियत मज़्हबी और मुल्की भी बिल-मुक़ाबिल मसीही मज़्हब के ना सिर्फ इस्लामी अक़्वाम ही में कमज़ोर रहा बल्कि दुनिया की और क़ौमों में भी ख़ातिर-ख़्वाह ना फैल सका।

अब हम एक और तरफ़ नाज़रीन की तवज्जोह को लगाना चाहते हैं जिससे इस की कमज़ोरी और भी ज़्यादा रोशन हो जाएगी। इन्जील में ख़ुदा की बादशाहत एक सच्चे ज़िंदा और रुहानी मज़्हब की सूरत में कुल बनी-आदम के लिए पेश की गई है जो किसी क़ौम के लिए कोई ख़ास रुकावट नहीं रखती। लेकिन जो कुछ क़ुर्आन ख़ुदा की बादशाहत के बारे में एक आला तौर पर पेश करता है वो एक ख़ास क़ौमी रंगत में रंगा हुआ और ज़ाहिरी रसूमात के बोझ तले दबा हुआ है जिससे इस की तरक़्क़ी ना सिर्फ रुक जाती है बल्कि इस को तमाम दुनिया में फैलने से रोकती है हमने पहले बता दिया है कि इन ज़ाहिरी रसुमात की वजह से ये तमाम क़ौमों में नहीं फैल सकता क्योंकि दूसरी क़ौमों की आदात और रसूमात में फ़र्क़ है। अब हम दो बातों को वाज़ेह तौर से बयान करेंगे यानी अरबी ज़बान का जहां लोगों का मज़्हब इस्लाम हुआ जारी करना और दूसरे मक्का और मदीना का हज एक मज़्हबी फ़र्ज़ ठहराना।

मक्का के हज पर ग़ौर करने से मालूम होगा कि ये दस्तूर अहले-अरब में क़ौमी रस्म के तौर पर मुहम्मद साहब के आने के कई सौ साल पहले से माना जाता था। मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़े जबकि बुत-परस्त ही थे साल में एक दफ़ा मक्का की इबादत-गाह में जमा होते और इस अर्से में वो अपने सारे ज़ाती लड़ाई झगड़ों को बरतरफ़ करके आपस में भाईयों की तरह एक क़ौम के मिलते थे। ये क़ौमी नुक़्ता ख़याल से अच्छी बात थी क्योंकि बद क़ौमों के लिए जो जगह ब-जगह फिरते थे ये एक बड़ी ख़ुद इंकारी का बाइस होती और उनको एक दूसरे से मिलाती थी। पर जब ये दस्तूर मुहम्मद साहब ने भी इख़्तियार किया और इस को कुल क़ौमों के लिए फ़र्ज़ ठहराया तो इस के ज़रीये से दो बड़े नुक़्सान पैदा हुए अव्वल ये सब मान लेंगे कि अगरचे इस दस्तूर पर अमल करना अहले-अरब के लिए मुश्किल ना था क्योंकि उनके पास ऊंट और घोड़े बकस्रत पाए जाते थे पर चूँकि अब मुसलमान तुर्की, फ़ारस, अफ़्ग़ानिस्तान, हिन्दुस्तान, अल्जीरिया, मोराको और अफ़्रीक़ा के दूर दराज़ मुल्कों में पाए जाते हैं लिहाज़ा ये उनके लिए ख़ुसूसुन ग़रीबों के लिए निहायत मुश्किल हो गया कि वक़्त और रुपये को सर्फ करके इस दूर दराज़ हज को करें और इस तरह अगर इस्लाम दुनिया की और भी दूर जगहों में फैल जाये तो उन बाशिंदों के लिए ये ग़ैर-मुम्किन होगा कि वहां से आकर इस फ़र्ज़ को अदा करें और इस के अज्र से फ़ैज़याब हों। अब इस मज़्हब के कुल बनी-आदम के लिए होने के लिए कौनसी दानाई और बेहतरी ख़याल की जाएगी जबकि इस के पैरौओं (मानने वालों) में से बहुत से इस फ़र्ज़ के अदा करने में क़ासिर होंगे। दूसरा नुक़्सान ये है कि मक्का और मदीना का हज करना चूँकि फ़र्ज़ ठहराया गया लिहाज़ा ये शहर गोया मुसलमानों के लिए मर्कज़ क़रार दिए गए जिस जगह जाकर वो ज़ियारत करें और इस के असर से मोअस्सर हों यानी ये बात ज़ाहिर करती है कि मज़्हब इस्लाम में जहां तक अरब के तौर और तरीक़े क़ायम रखने की कोशिश की गई है। इसके क़ायम रखने में कोई नुक़्सान पैदा ना होता अगर मज़्हब सिर्फ़ अरबी फ़िर्क़ों के लिए होता पर चूँकि ये दुनिया की और सब क़ौमों के लिए भी पेश किया जाता है लिहाज़ा ख़ास अरबी तौर व तरीक़ का क़ायम रखना दूसरी क़ौमों के लिए मुश्किलात पैदा करता है क्योंकि जबकि अरबी क़ौम को इतनी बड़ी बुजु़र्गी दी लिहाज़ा दूसरी क़ौमों को उनकी नज़र में हीच और ना चीज़ जाना। ये बयान मौजूदा हालत पर ग़ौर करने से साफ़ हो जाएगा। अहले-अरब को आजकल ख़ुद-मुख्तारी हासिल नहीं बल्कि सल्तनत उस्मानिया के मातहत है पर चूँकि वो मुसलमान हैं लिहाज़ा उनसे तलब किया जाता है कि वो अरब के दूर दराज़ मुल्क का सफ़र करें और अपने दार-उल-ख़िलाफ़ा इस्तम्बोल को छोड़कर मक्का व मदीना को ज़्यादा इज़्ज़त की निगाह से देखें क्योंकि मज़्हबी रू से ये ख़ुदा की नज़र में ज़्यादा पसंदीदा हैं। क्या ऐसे करने से एक क़ौम को दूसरी क़ौम पर बेजा बड़ाई नहीं हासिल होती? ख़याल करो कि मसीही मज़्हब इस से कैसा मुख़्तलिफ़ है इस की रू से किसी शहर या मुल्क की ज़ियारत दरकार नहीं बल्कि हर एक शहर या मुल्क अपनी-अपनी जगह बलिहाज़ मज़्हब की बातिनी पाकीज़गी और रूहानियत के अच्छा है।

दूसरी वजह जिसकी रु से इस्लाम क़ौमी रंग-ढंग को अलैहदा नहीं कर सकता और कुल दुनिया के लिए मक़ुबूल आम नहीं क़रार दिया जाता इस का अरबी ज़बान पर ज़ोर देना है। इस बात को वाज़ेह करने के लिए आओ हम मुसलमान अक़्वाम की ज़बानों पर ग़ौर करें मसलन तुर्की, फ़ारसी और उर्दू जिन सब में कुछ ना कुछ अरबी अल्फ़ाज़ शामिल हैं। पर इस्लाम की सबसे बड़ी ज़बरदस्ती इस बात में है कि वो अपने पैरौओं (मानने वालों) को ख़्वाह वो किसी क़ौम या मुल्क के हों क़ुर्आन को सिर्फ अरबी ही ज़बान में पढ़ने पर मज्बूर कर रहा है बजाए इस के कि वो अपनी-अपनी ज़बानों में सहूलियत से इस को पढ़ें और समझें ये ज़बरदस्ती बेजा तौर से अरबी ज़बान को बुजु़र्गी देती और इसको एक खासतौर से पाकीज़े शुमार करती और इस के मुक़ाबले में दूसरी ज़बानों को हक़ीर समझती और कम व बेश नापाक, लिहाज़ा जहां-जहां मुहम्मदी मज़्हब फैला वहां इल्म इलाहियात को हासिल करने और इबादत व परस्तिश करने के लिए अरबी ज़बान लाज़िम ठहरी और कोई सच्चा पैरौ (मानने वाला) शुमार नहीं किया जाता जो कम अज़ कम आम दुआओं को अरबी ज़बान में जमाअत के साथ ना पढ़ सके। और कोई अपने मज़्हब की बाबत जान भी नहीं सकता जब तक कि वो इस को अरबी ज़बान में ना पढ़े। अब ये रोशन है कि कम अज़ कम ज़बान के लिहाज़ से इस्लाम फ़क़त एक क़ौमी रंगत यानी अहले-अरब की रंगत रखता है। जिसका नतीजा ये हुआ कि जहां-जहां इस्लाम की इशाअत हो वहां अरबी ज़बान भी सिखाई जाये। क्या ये मज़्हब की इशाअत में एक बड़ी सद-ए-राह (रुकावट) ना होगी? और क्या इस की वजह से इस्लाम बजाए इस के कुल दुनिया का मज़्हब माना जाये एक क़ौमी मज़्हब ना ठहरा? ये किस तरह हो सकता है कि दुनिया की मौजूदा कौमें जो कि अब ख़ुदा से अंग्रेज़ी, जर्मनी, फ़्रांसीसी और रूसी ज़बान में दुआ माँगती हैं वो अरबी ज़बान को सीखने की रज़ामंद हों जबकि वो इस ज़बान में अपनी दुआ एक बिल्कुल ना-मुकम्मल तौर से ख़ुदा के सामने पेश करने के क़ाबिल होंगी? ये हर एक क़ौम जिसने अरब का मज़्हब इख़्तियार किया है जान सकती है कि ग़ैर-मुल्क की ज़बान का सीखना और इस को इबादत और परस्तिश के लिए इस्तिमाल करना बजाए तरक़्क़ी के तनज़्ज़ुली का बाइस होगा। मिसाल के तौर पर हम ये कह सकते हैं कि हज़ारों उस्मानी सल्तनत में मुसलमान होंगे जो इन दुआओं को बग़ैर समझे पढ़ते होंगे और क़ुर्आन की सूरतों को बग़ैर मतलब जाने सुनते होंगे और हज़ारों ऐसे होंगे जो इन को सिर्फ थोड़ा समझते हैं और जोकि बहुत ज़्यादा फ़ायदा उठाते अगर इन ही दुआओं को अपनी तुर्की ज़बान में पढ़ते कोई आदमी इस में शक ना करेगा कि सबसे फ़ाइदेमंद और तबई दुआ मांगने का और कलाम पढ़ने का तरीक़ा अपनी ज़बान में माँगना और पढ़ना है बनिस्बत इस ज़बान के ज़रीये से जिसको सिर्फ थोड़े समझें और बहुत से बिल्कुल ना समझें और ये भी हर एक फ़ैसला कर सकता है कि किस तरीक़े से मज़्हब बलिहाज़ ज़बान कुल दुनिया के लिए हो सकता है। क्या मसीही मज़्हब हो सकता है जिसकी किताब यानी इन्जील हर एक ज़बान में तर्जुमा हो कर दुनिया के कोने-कोने में पहुंचाई जाती है? या क़ुर्आन जो सिर्फ अरबों ही की ज़बान में पेश किया जाता है? कौनसा मज़्हब इस सूरत में ख़ुदा की मर्ज़ी और दानाई के मुताबिक़ हो सकता है? क्या इन्जील का मज़्हब जो कि हर एक क़ौम को उस की ज़बान में पहुंचाया जाता है या अरबी क़ुर्आन का जो कि बहुत सालों की मेहनत के बग़ैर अरब के बाहर समझा नहीं जा सकता? क्या कोई ये क़ियास कर सकता है कि कुल दुनिया (कुल दुनिया क्यों सिर्फ़ यूरोप ही को ले लो) एक वक़्त इस क़द्र अरबी ज़बान में महारत पैदा कर लेगी कि सब दुआएं इसी ज़बान में मांग सके और ख़ुदा का कलाम भी इसी ज़बान में पढ़ सके? कभी कोई ग़ैर-आदमी या मुसलमान जो कि दुनिया के हालात से वाक़िफ़ है ये ख़याल करेगा शायद ही इस को कोई यक़ीन करे पर अगर कोई करे तो वो आदमी वही होगा जोकि अरबी ज़बान को आस्मानी ज़बान ख़याल करे। जब इस तरह इस्लाम को एक क़ौमी मज़्हब के पैराए में और मसीही मज़्हब को एक मक़्बूल आम रुहानी मज़्हब के पैराए में कोई मुक़ाबला करे तो वो बिलाशुब्हा इस नतीजे पर आएगा कि इस्लाम बजाए आला और बेहतर मज़्हब होने के इस बुलंद रुहानी और मक़ुबूल-ए-आम मज़्हब के मुक़ाबले में कहीं कमतर और कम-असर है।

(4) बदला लेने के बारे में

हम पहले ज़िक्र कर आए हैं कि इन्जील मुहब्बत सब्र और बरदुबारी की तालीम में बमुक़ाबिल मूसवी शरीअत के बहुत ही आला और बेहतर है। इस तालीम से बढ़कर तालीम रूहानियत और सच्चाई में हम ख़याल भी नहीं कर सकते पर ये देखकर ताज्जुब आता है कि इस्लाम बजाए इस के कि मसीही मज़्हब से आला रुहानी तालीम पेश करता है वो फिर उसी पुरानी तालीम को जो कि मूसवी शरीअत के ज़रीये से दी गई और जिस को यहूदियों ने अच्छी तरह ना समझा बड़े ज़ोर शोर से पेश करता है। मुहम्मद साहब ने जो बदला लेने की तालीम दी वो क़ुर्आन के इन अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है “वो जो कि ज़ुल्म से क़त्ल किया जाये उस के वारिसों को हमने ग़लबा दे दिया फिर वो क़त्ल करने में ज़्यादती ना करें क्योंकि उनसे भी फिर बदला लिया जाएगा।” सूरह बनी-इस्राईल आयत 35 और फिर यूं आया है “ऐ ईमानदारों तुम्हारे लिए मक़्तूलों का क़िसास (बदला) लेने का हुक्म लिखा गया है। आज़ाद के बदले आज़ाद ग़ुलाम के बदले ग़ुलाम औरत के बदले औरत पस जिसको उस के भाई की तरफ़ से कुछ माफ़ किया जाये वो दस्तूर का पाबंद हो कर एहसान को मानते हुए उस को अदा करे।” सूरह बक़रह आयत 173, ये बात सोचने के क़ाबिल है कि क़ुर्आन ने तौरेत की मानिंद इस बुराई को रोकने की कोई बहुत कोशिश नहीं की। बहुत से मुसलमान फ़िर्क़े क़ुर्आन की रु से ये ख़याल करते हैं कि उनको मक़्तूल का बदला लेने का हक़ है चाहे वो क़ातिल के ख़ानदान और क़बीले में से किसी को मार दें लिहाज़ा वो मज़्हब की आड़ में बेगुनाह को मुजरिम के बदले मारते हैं। बदला लेने के ऐसे उसूलों के बरख़िलाफ़ तौरेत में साफ़-साफ़ आया है बाप बच्चों के बदले मारा ना जाये और ना बच्चे बाप के बदले। हर एक आदमी अपने ही गुनाह के लिए मारा जाये।” इस्तस्ना 24:16 ख़ून के बदले के इलावा क़ुर्आन में ज़ाती नुक़्सान के एवज़ में भी बदला लेना जायज़ ठहराया है।

“और जिस ने इसी क़द्र बदला लिया जितनी उस को तक्लीफ़ दी तो अल्लाह ज़रूर मदद करेगा।” (सूरह हज आयत 59) ऐसी तालीम एक सख़्त बदला लेने की तबइयत लोगों के दिलों में पैदा करेगी जोकि इन्जील की बुर्दबारी, सब्र और हलीमी की तालीम के सरासर ख़िलाफ़ होगी फ़राइज़ मन्सबी को अदा करने के लिए इन्जील की तालीम मुहब्बत के उसूल को पेश करती है तौरेत अदल को और क़ुर्आन की तालीम ऐसी है कि उस पर बेइंसाफ़ी और ज़ुल्म का इल्ज़ाम आइद होता है। ये मुसलमान भी क़ुबूल करते हैं कि क्योंकि सल्तनत उस्मानिया जैसी हुकूमत क़ुर्आन के इन बेरहम अहकाम पर नहीं चलती “वो जो अल्लाह से और उस के रसूल से मुक़ाबला करते हैं और मुल्क में फ़साद मचाने की कोशिश करते हैं उनकी यही सज़ा है कि वो मार डाले जाएं या सलीब पर खीचने जाएं या उनके हाथ और पांव मुख़्तलिफ़ जानिब से काट डाले जाएं या मुल्क से निकाल दिए जाएं।” (सूरह माइदा आयत 39) और फिर 42 आयत में यूं आया है “चोर के लिए ख़्वाह वो मर्द हो या औरत ये सज़ा है कि उस के हाथ चोरी के एवज़ में काट डाले जाएं।”

(5) गु़लामी के बारे में

हमने ऊपर बयान किया है कि पुराने अहदनामे की रू से गु़लामी जायज़ थी मगर तो भी ग़ुलामों की सख़्तियों को हल्का कर दिया था और उनको क़ानून की रु से बहुत कुछ बचाया था मसीही मज़्हब में ग़ुलाम रखना जायज़ क़रार दिया गया इसलिए रफ़्ता-रफ़्ता इस के असर से गु़लामी मसीही मुल्कों से बिल्कुल जाती रही। अब यहां एक सवाल पैदा होता है कि क्या इस्लाम बमुक़ाबला मसीही मज़्हब के ग़ुलामों के हक़ में ज़्यादा बेहतर और आला पेश करता है? तवारीख़ से मालूम होता है कि ये बात हरगिज़ नहीं साबित हुई। बल्कि ये मालूम होता है कि हर एक मुहम्मदी मुल्क में ग़ुलामों की ख़रीद व फ़रोख़्त होती है मुसलमान ग़ैर-मुसलमानों को बल्कि बाअज़ दफ़ाअ मुसलमानों ही को ख़रीदते या बेचते हैं ख़ुसूसुन हब्शियों को तो जानवरों की तरह मोल लेते हैं। कहीं किसी जगह इस्लाम ने ग़ुलामों की आज़ादी के लिए नर्मी या फ़राख़ हौसलगी इस क़द्र नहीं दिखाई कि जिससे उनकी हालत बेहतर हो जाए। बरअक्स इस के यूरोप की मसीही सल्तनतों में कहीं ऐसी गु़लामी पाई नहीं जाती और कहीं इन्सान वहशियों की तरह ख़रीदा या बेचा नहीं जाता। इंग्लिस्तान की बड़ी सल्तनत में जो कि कुल आबादी का 1/5 हिस्सा है ये क़ानून है कि जो कोई ग़ुलाम इस सल्तनत की किसी जगह अपना पांव धरे वो इस घड़ी से आज़ाद शख़्स किया जाएगा। देखो गु़लामी के बारे में इस्लाम और मसीही मज़्हब में कितना बड़ा फ़र्क़ है और यह फ़र्क़ इस तालीम के लिहाज़ से है कि इन दोनों मज़ाहिब में इन्सान के बाहमी ताल्लुक़ात में पाई जाती है गो क़ुर्आन में ऐसे हवालेजात पाए जाते हैं जैसे कि पुराने अहदनामे में जिनमें ग़ुलामों के हक़ में नर्मी को इख़्तियार करना पेश किया गया है मगर तो भी क़ुर्आन की तालीम में दो एक ऐसी बातें हैं जिनकी रु से ये नर्मी बमुक़ाबला तौरेत की तालीम के कुछ हक़ीक़त नहीं रखती। क़ुर्आन में ग़ुलाम औरतों के हुक़ूक़ पर कुछ नहीं कहा गया बल्कि उनको सरासर मालिकों के इख़्तियार में छोड़ दिया जबकि तौरेत में आदमी और औरत दोनों का हक़ बराबर रखा गया है। ये सिवाए इस के ज़ुल्म हो और क्या हो सकता है क्योंकि औरतों की पाकीज़गी का जो एक निहायत आला ख़ूबी है कुछ लिहाज़ नहीं रखा गया। क़ुर्आन की इस आयत से इस अम्र की सदाक़त ज़ाहिर होगी, “ईमानदारों को परहेज़गार होना चाहिए बजुज़ अपनी बीवियों के और पने हाथ के माल के (लौंडियों के) क्योंकि उनके लिहाज़ से उन पर कुछ मलामत नहीं।” (सूरह मआरिज आयात 29, 30) और फिर ग़ौर करो “तुम पर हराम हैं हुर्मत वाली बीवियां मगर हाँ तुम्हारे हाथ की मलिक हो जाएं।” (सूरह अन्निसा आयत 28) इसी तरह से और हवालेजात दिए जा सकते हैं पर ये काफ़ी तौर से ज़ाहिर करते हैं कि औरतों का ख़ुसूसुन ग़ुलाम औरतों का क्या दर्जा था। मगर तौरेत में ये आया है कि हर एक ग़ुलाम अपने आक़ा की छः साल तक ख़िदमत करे और सातवें साल आज़ाद किया जाये। ख़ुरूज 21:2 और जो आक़ा अपने ग़ुलाम को जान से मारे वो सज़ा पाए। ख़ुरूज 21:26, 27 पर क़ुर्आन में ऐसी तालीम कहीं नहीं मिलती जिसका नतीजा ये हुआ कि आक़ा अपने ग़ुलामों से मुसलमान मुल्कों में जो चाहें बदसुलूकी कर सकते हैं जिसके लिए तौरेत की रु से वो कभी सज़ा से बच ना सकते थे। लिहाज़ा ये साफ़-साफ़ साबित हो गया कि ग़ुलाम तौरेत की रु से बमुक़ाबला क़ुर्आन के ज़्यादा महफ़ूज़ और बेहतर हालत में हैं। ये एक मानी हुई बात है कि गु़लामी हर एक मुसलमान मुल्क में जायज़ है और किसी मुसलमान मुल्क से ये अभी तक ख़ारिज नहीं की गई। बरख़िलाफ़ इस के कि यूरोप के तमाम मसीही मुल्कों में गु़लामी का सिर्फ नाम ही बाक़ी रह गया और हर एक इन्सान आज़ाद है। इंग्लिस्तान ने तो यहां तक किया कि उसने उन तमाम ग़ुलामों को जो उसकी सल्तनत के नीचे आए बिल्कुल आज़ाद कर दिया और हज़ारों नहीं बल्कि लाखों को इस बुरी हालत से रिहाई दी पस अब ये हर एक फ़ैसला कर सकता है कि इस्लाम ग़ुलामों और गु़लामी की रु से बजाए इस के कि मसीही मज़्हब से ज़्यादा इंसाफ़ पसंद, मेहरबान और बेहतर होता इस से कहीं गिरा हुआ है बल्कि मूसवी शरीअत से भी गया गुज़रा साबित होता है।

(6) कस्रत-ए-इज़्दवाजी और तलाक़ के बारे में

ये आख़िरी बात थी जिसकी रु से हमने नए और पुराने अहदनामे का मुक़ाबला किया था और ये ज़ाहिर किया था कि नए अहदनामे की तालीम पुराने अहदनामे से बेहतर और आला है। क्योंकि मूसवी शरीअत में कस्रत-ए-इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवी से रखना) की मुख़ालिफ़त नहीं और तलाक़ की इजाज़त है पर बरअक्स इस के सय्यदना ईसा मसीह की इन्जील तलाक़ और कस्रत-ए-इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवी रखना) दोनों के बरख़िलाफ़ है और औरत को इन तमाम बंदिशों से जो कि उस की आज़ादी में ख़लल-अंदाज़ हैं छुटकारा देती है। अब हम यहां ग़ौर करेंगे कि आया इस्लाम इस लिहाज़ से मसीही मज़्हब से बेहतर और आला तालीम पेश करता है या कि इस से कम।

कस्रत-ए-इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवी रखने) की क़ुर्आन में ना सिर्फ मसीही मज़्हब से बढ़कर मुमानिअत की गई बल्कि मूसवी शरीअत की मानिंद इस की किसी सूरत में बंदिश भी नहीं। बिल-मुक़ाबिल पहली तालीम के इस तालीम के लिहाज़ से क़ुर्आन बिल्कुल पीछे रह जाता है क्योंकि कस्रत इज़्दवाजी (ज्यादा बीवी रखने) को जारी रखने के लिए सूरह निसा आयत 3 में यूं आया है “अगर तुमको इस बात का डर हो कि हम यतीम लड़कियों के हक़ में इन्साफ़ ना कर सकेंगे तो उन औरतों में से जो तुम्हें अच्छी मालूम हों निकाह करो दो-दो, तीन-तीन, चार-चार और अगर तुमको डर हो कि अदल ना कर सकोगे तो सिर्फ एक ही या वो जिनके तुम्हारे हाथ मालिक हो चुके हों।” अब जबकि हर एक मुसलमान जो चाहे और जो ताक़त रखता हो चार बीवियों से एक ही वक़्त निकाह कर सकता है और जितनी लौंडियों से चाहे बग़ैर निकाह के मुबाशरत (हम-बिस्तरी) कर सके तो इस का नतीजा क्या होगा? मुहम्मद साहब को ख़ुद देखो कि उन्होंने अपने हक़ में ये कहाँ तक जायज़ रखा? उनकी दस से ज़्यादा बीवियां थीं और सिवा लौंडियों के और इसकी मंज़ूरी बहैसियत-ए-नबी क़ुर्आन में यूं आई है “ऐ नबी बेशक हमने तुझको तेरी वो बीवियां हलाल कीं जिनके तू महर दे चुका और जो तेरे हाथ का माल हो (यानी लौंडियां) जो अल्लाह तेरी तरफ़ लाया तेरे चचा की बेटियां तेरी फूफी की बेटियां तेरे मामूं की बेटियां और तेरी ख़ालाओं की बेटियां जिन्हों ने तेरे साथ हिज्रत की और हर ईमानदार औरत जो अपना नफ़्स नबी को बख़्श दे बशर्ते के नबी उस से निकाह करना चाहे। ये ख़ास तेरे ही लिए हैं ना और ईमानदारों के लिए।” (सूरह अह्ज़ाब आयत 49) जबकि क़ुर्आन की तालीम ऐसी और नबी का नमूना ऐसा हो तो ताज्जुब की क्या बात है कि सब मुसलमान मुल्कों में बावजूद ख़ानगी मुश्किलात के अब तक कस्रत इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवीयां) पाई जाये? इसलिए औरतों की गु़लामी खासतौर से जायज़ है ना इसलिए कि उनसे ख़िदमत करवाई जाये पर सिर्फ शहवत-परस्ती के लिहाज़ से। लेकिन ये हालत नेक और आदिल ख़ुदा की निगाह में हरगिज़ मुनासिब नहीं हो सकती क्योंकि ये शादी की पाकीज़गी को रद्द करती है जिसकी रु से औरत का वो रिश्ता जो ख़ुदा ने ठहराया टूट जाता है यानी औरत एक ज़ी अक़्ल साथी और मददगार नहीं रहती बल्कि सिर्फ एक ख़ादिमा की मानिंद हो जाती है जो सिर्फ इन्सान की शहवत को दूर करे। कस्रत इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवीयां रखना) चूँकि ख़ावंद और जोरू (मियाँ और बीवी) में यगानगी को दूर करती है और ख़ानदानी ख़ुशी को मिटा देती है लिहाज़ा ये ख़ुदा के उस बड़े इरादे को तोड़ देती है जो उसने एक ख़ावंद (शौहर) एक जोरू (बीवी) के रिश्ते में रखा। शादी के आम मअनी ये हैं कि ख़ावंद और जोरू (मियाँ और बीवी) में यगानगी और मिलाप हो ऐसा कि वो ख़ुशी से ज़िंदगी बसर कर सकें अब अगर आदमी की कई बीवियां हो जोकि सिर्फ अपना ख़ावंद समझें और उस से वफ़ादार रहें तो वो अकेला आदमी क्योंकर हर एक को एक ही समझ कर प्यार कर सकता है जबकि वो ख़ुद एक ही शख़्स है? कस्रत इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवीयां रखना) में शादी की असली हालत की यगानगी नहीं हो सकती और ख़ावंद और जोरू एक दूसरे पर पूरे तौर से भरोसा नहीं रख सकते क्योंकि जबकि हर एक बीवी तो ख़ावंद को पूरे तौर से प्यार करे लिहाज़ा इस प्यार की रु से वो आदमी किसी का भी सच्चा और हक़ीक़ी ख़ावंद (शौहर) ना हुआ। जबकि ख़ावंद और जोरू में ये हाल हो तो क्योंकर ख़ानदान में अमन व खुशी हो सकती है? उन लोगों का घर जो कि कस्रत इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवीयां रखना) पर अमल करते हैं कभी एक जगह और एक दिल हो कर नहीं रह सकता बल्कि अगर रहे भी तो उनकी हालत ऐसी होगी जैसे बहुत से और जुदा-जुदा घर। हर एक अपने बच्चों के साथ अपने ही ज़ाती फ़ायदे को निगाह में रखेगी वो दूसरी औरतों से अपने ख़ावंद से भी जुदा ख़यालात रखेगी। लिहाज़ा इस का नतीजा वही होता है जो कि अरब के पैग़म्बर के ख़ानदान का हुआ (मुक़ाबला करो सूरह मर्यम आयत 5) यानी जहां एक से ज़्यादा बीवियां होंगी वहां बेशुमार झगड़े और जुदाइयाँ होंगी। इस बात को मद्दे-नज़र रखकर ये ताज्जुब-अंगेज़ ना होगा अगर हम देखें कि बावजूद कस्रत इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवीयां रखने) की इजाज़त के सिवाए तुर्की के चंद अमीर मुसलमानों के और कोई इस रस्म की पैरवी नहीं करता ख़ुसूसुन ग़रीब तो बिल्कुल नहीं करते। जिससे ये साबित होता है कि कस्रत इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवीयां रखना) एक ग़ैर तबई रस्म है जो कि इन्सान के लिए हरगिज़ मौज़ूं नहीं। और इस से औरत का मर्तबा भी गिर जाता है क्योंकि इस से ये नतीजा निकलता है कि चूँकि एक औरत शादी की हालत के फ़राइज़ और मुनासिब को पूरा नहीं कर सकती लिहाज़ा आदमी को अपने लिए दो या तीन या चार औरतें करनी पड़ती हैं। अगर मुसलमान मुल्कों की औरतें लिख पढ़ जाएं तो वो कभी इस ज़लील रस्म को गवारा ना करेंगी। लिहाज़ा इस से इन्कार नहीं हो सकता कि इस्लाम ने कस्रत-ए-इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवीयां रखने) को राइज करने से अपने आपको आस्मानी ख़ालिक़ के उस बड़े क़ानून से दूर कर दिया जिस पर मसीही छः सौ (600) बरस पहले से अमल करते चले आए थे। ख़ालिक़ का क़ानून जो उसने एक मर्द और एक औरत के निकाह की पाक हालत में दाख़िल होने से ज़ाहिर किया वो मौजूदा ज़माने की साईंस की तहक़ीक़ात से बख़ूबी ज़ाहिर है क्योंकि कुल कुर्रा-ए-ज़मीन पर आदमियों और औरतों की पैदाइश क़रीबन क़रीबन औसत हालत पर है। लिहाज़ा मुहम्मद साहब का कस्रत-ए-इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवीयां रखने) का क़ानून किसी ऐसी हालत पर मबनी ना ठहरा जो ख़ुदा ने अपनी ख़ल्क़त में पैदा की हो बल्कि बरअक्स इस के उस की तालीम और उस का नमूना तबई और ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल की हुई तालीम के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। इन बातों से ये ज़ाहिर हुआ कि जबकि एक मुसलमान दो या तीन या चार से निकाह करता है तो कई और मुसलमान ज़रूर होंगे जो औरतों के ना होने से शादी नहीं कर सकते। शायद मुसलमान ये कहें कि इस हाजत को पूरा करने के लिए ख़ुदा ने मुसलमानों को फ़ातेह किया और, और क़ौमों को मग़्लूब करके उनकी औरतों से शादी ब्याह किया पर ये हरगिज़ नहीं हो सकता कि ख़ुदा ने मुसलमानों को इसलिए फ़त्ह बख़्शी ताकि वो और मुल्कों के मर्दों को क़त्ल करके अपनी हरम सराएं उनकी औरतों और बेटियों से भरें। गुज़श्ता ज़माने में ये बहुत दफ़ाअ हुआ कि मुसलमान ग़ैर-मुल्कों को फ़त्ह करके वहां की औरतों को बीवियां या लौंडियां बनाने के लिए ग़ुलाम करके ले गए लेकिन अब ख़ुदा के अहकाम इस तौर से बनी-आदम में जारी हुए हैं कि मुसलमानों की फ़ौजें ग़रीब औरतों को फ़त्ह करके अपने लिए नहीं ले जा सकतीं ये तब्दीली जो कि ख़ुदा की तरफ़ से हुई ज़ाहिर करती है कि ख़ुदा की क़ुद्रत मुसलमानों को कस्रत-ए-इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवीयां रखने) की इजाज़त नहीं देती जैसा कि उनका मज़्हब उन को देता है। लिहाज़ा ये ज़ाहिर है कि ख़ुदा की मर्ज़ी और मुसलमानों का क़ानून कस्रत-ए-इज़्दवाजी के बारे में एक दूसरे से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ हैं।

तलाक़ देना मूसवी शरीअत में जायज़ रखा गया मगर सय्यदना मसीह की इन्जील में इस की सख़्त मुमानिअत है पर फिर मुहम्मद साहब के क़ुर्आन ने इस की इजाज़त दी। सूरह तलाक़ (65) का क़ुर्आन में होना ही तलाक़ को ज़ाहिर करता है वहां हम ये पढ़ते हैं “ऐ नबी जब तुम अपनी बीवियों को तलाक़ देने लगो तो उनकी इद्दत की हालत में तलाक़ दो और इद्दत को शुमार करो और अल्लाह से डरो जो तुम्हारा रब है।..... तुम्हारी बीवियों में से जो हैज़ के आने से ना उम्मीद हो चुकी हों अगर तुम्हें शुब्हा हो तो उनकी इद्दत तीन माह की है। और ऐसी ही जिनको हैज़ आने की नौबत ना आई हो उनकी जो हामिला हों इद्दत ये है कि वो अपना बच्चा जन लें और जो अल्लाह से डरता है वो उस के काम में आसानी पैदा कर देता है।” (सूरह तलाक़ आयात 1, 4) फिर सूरह बक़रह आयात 229, 232 में हम यूं पढ़ते हैं तलाक़ सिर्फ़ दुबारा देना वाजिब है फिर या तो इज़्ज़त से उनको रखना या ख़ुश सुलूकी से रुख़्सत करना, और तुम पर ये हलाल नहीं कि उस में से जो कुछ तुमने उनको दिया है कुछ भी वापिस लो जब तक कि तुम दोनों को इस बात का ख़ौफ़ ना हो कि तुम ख़ुदा की मुक़र्ररा हद में क़ायम नहीं रह सकते और अगर तुमको ख़ौफ़ हो कि वो ख़ुदा के अहकाम पर नहीं चल सकतीं तो दोनों पर कुछ गुनाह नहीं इस बात में कि औरत इस को अपने बदले में दे।.....जब तुम अपनी औरतों को तलाक़ दे चुको और वो अपनी इद्दत को पहुंच जाएं उनको ना रोको कि और खाविंदों से निकाह करें जो बाहम दस्तूर के मुवाफ़िक़ इस बात पर राज़ी हों। इस बात से उस शख़्स को नसीहत है जो तुम में अल्लाह पर और आख़िरी दिन पर ईमान लाया है और इस में तुम्हारे लिए ज़्यादा पाकीज़गी और सफ़ाई है अल्लाह जानता है जो तुम नहीं जानते।” हम क़ुर्आन से एक और हवाला पेश करेंगे यानी सूरह निसा आयत 24 “अगर तुम्हारा दिल चाहे कि एक जोरू (बीवी) को दूसरी से बदल लो और उस को बहुत सा माल दे चुके हो तो फिर उस में से कुछ वापिस ना लो।” इन हवालेजात से ज़ाहिर है कि क़ुर्आन तलाक़ को क़ानूनन जायज़ ठहराता है और तलाक़ दी हुई औरत से फिर शादी करने की इजाज़त देता है। आदमी सिर्फ इस बिना पर कि वो अपनी बीवी को जुदा करने की ख़्वाहिश रखता है तलाक़ दे सकता है और औरत के लिए और कोई हक़ नहीं सिवाए इस के कि वो माल तलब करे जो शादी के मौक़े पर महर के तौर पर देने को ठहराया था। अगर हम इस तौर से खुले तौर पर तलाक़ देने की रस्म को सय्यदना मसीह की मुमानिअत से मुक़ाबला करें जब उसने मत्ती 19:6 में फ़रमाया कि “जिसको ख़ुदा ने मिलाया आदमी जुदा ना करे।” तो ये साफ़ हो जाता है कि आया क़ुर्आन अरब के पैग़म्बर की तालीम के ज़रीये से जो तलाक़ के बारे में मसीह की तालीम के बरख़िलाफ़ है इन्जील से बेहतर और आला मुकाशफ़ा पेश करता है या नहीं। क्या ये बात सच्च नहीं कि जब ख़ुदा ने आदम और हव्वा को पैदा किया तो उन्हें एक पाक शराकत में जोड़ा? क्या उसने उस वक़्त कोई इशारा दिया जिससे ये समझा जाये कि आदमी जब चाहे इस पाक शराकत को तोड़ दे? फिर क्या सय्यदना मसीह ने जो कि क़रीबन 4000 बरस के बाद आया और जिसको हर एक मुसलमान ख़ुदा का नबी मानता है सरीहन ये मना नहीं किया कि कोई शादी के जोड़े को ना तोड़े? अब अगर 690 साल के बाद एक और क़ानून जारी किया जाये जिसकी रु से हर एक शादी शूदा आदमी को पूरी इजाज़त हो कि जब चाहे अपनी बीवी को तलाक़ दे जैसा कि मुसलमानों की तवारीख़ से ज़ाहिर है कि बाअज़ दफ़ाअ एक ही आदमी ने 20 या 30 तलाक़ दिए और दूसरी शादियां कीं तो क्या इस क़ानून के ख़ुदा की तरफ़ से होने में शक नहीं होता? क्या इस से लातब्दील ख़ुदा की दानाई और अक़्ल पर धब्बा नहीं लगता?

ये बात बख़ूबी रोशन है कि चूँकि क़ानूनन तलाक़ इस क़द्र खुल्लम-खुल्ला रवा है और चूँकि ये आसानी से दी जा सकती है लिहाज़ा मुसलमानों के दर्मियान इस का रिवाज कस्रत-ए-इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवियां रखने) से भी ज़्यादा है। और जो ख़राबियां इस से ज़ाहिर होती हैं उनसे मुसलमानों की क़ौम को बड़ा सख़्त नुक़्सान पहुंचता है। हर एक आदमी जो मुसलमानों के मुल्क में रहा हो जानता है कि तलाक़ से किस क़द्र बेरहमी और सख़्त तक्लीफ़ औरतों पर होती है। आओ हम एक मिसाल पर ग़ौर करें। मेरे हमसाया में एक मुसलमान रहता है जो कि तीस साल से एक औरत से ब्याहा हुआ था और उस के दो बड़े-बड़े बेटे थे थोड़े अर्से के बाद वो एक जवान औरत से शादी करने के इरादे से उस को बुरी नज़र से देखने लगा और इसे हक़ीर ख़याल किया आख़िरकार इसने उस को तलाक़ देदी और एक जवान औरत से जो उस के बड़े बेटे से कमसिन (छोटी) थी निकाह किया। चूँकि ये आदमी सरकारी मुलाज़मत में था और माक़ूल आमदनी थी उस की बीवी आराम से रहती थी पर जब तलाक़ के बाद इस को सिर्फ थोड़ा सा रुपया गुज़रान के लिए मिलने लगा और वह अपने बुढ़ापे के सबब कोई और ख़ावंद ना कर सकी और ना कोई काम उठा सकी तो वो रुपया जल्द ख़त्म हो गया और किसी ने उस की मदद ना की लिहाज़ा वो निहायत तंगहाल हो गई और बाअज़ दफ़ाअ कई दिन फ़ाक़ों में गुज़रे ऐसे-ऐसे हालात से कौन वाक़िफ़ नहीं? हर जगह जहां-जहां मुसलमान हैं सदहा ऐसी मिसालें पाई जाती हैं। इस का नतीजा ये होता है कि तलाक़ याफ्ताह औरतें गुनाह में मुब्तला हो जाती हैं और बाज़ारी औरतों में जा मिलती हैं ताकि अपने को भूक की हलाकत से बचाएं और आदमी इस आज़ादी से अपनी शहवत को पूरा करने के लिए बे-इंतिहा ख़राब हो जाते हैं। कुछ अर्सा हुआ कि मुझे एक तुर्क की बाबत जो कि पचास (50) साल का था बतलाया गया कि उसने सत्तर (70) औरतों को तलाक़ दी और अब दो और जवान औरतों के साथ ज़िंदगी बसर कर रहा है। अगर औसत लगाई जाये तो ये मालूम होगा कि अगर उसने पहली शादी बीसवें बरस की तो औसतन दो औरतों को हर साल उसने तलाक़ दी ख़याल कीजिए कि इस मुहम्मदी क़ानून ने कहा तक ख़राबी पैदा की। क्या ऐसी ख़राबियां पाक ख़ुदा की निगाह में और हर एक सच्चे और पाकीज़े इन्सान की नज़र में गुनाह और ज़िनाकारी ना ख़याल की जाएंगी।

इस्लाम के इस क़ानून के रु से इलावा औरतों की सख़्त तकालीफ़ और मसाइब के और आदमियों की हरामकारी और शहवत परस्ती के कुल मुहम्मदी जमाअत का निहायत सख़्त नुक़्सान होता है। हर एक मुसलमान जब शादी करने लगता है जानता है कि वो जब चाहे उस औरत को छोड़ सकता है। उस को कोई ख़ौफ़ और ख़दशा नहीं सिवाए इस के कि कुछ रुपया जो शादी के मौक़े पर ठहराया गया था बतौर परवरिश के औरत को दे। और ये हर एक मुसलमान औरत भी जानती है कि जब वो अपने शौहर को ख़ुश ना कर सकेगी या जब उस का शौहर किसी और से राज़ी हो जाएगा तो उस आदमी को इख़्तियार है कि इस औरत को छोड़कर किसी और से निकाह कराले। जब ये बात दोनों मर्द और औरत जानते हैं तो भला शादी की वो पाक और ख़ुशनुमा हालत जो मसीही मज़्हब के ज़रीये पेश की जाती है कब पैदा हो सकती है? हाँ मुसलमानों के लिए तो शादी एक थोड़े अर्से के लिए है इस की अख़्लाक़ी बंदिश कोई बड़ी बंदिश नहीं पर अगर कोई बंदिश है तो वो सिर्फ अपनी ख़ुशी को पूरा करना है। क्या इस से तरह-तरह की बुराईयां पैदा ना होंगी? ये हर हालत में ख़ानदान के उस बड़े क़ानून को तोड़ देगी जिसकी रु से ख़ावंद और बीवी अपने घर के सरदार ख़याल किए जाते हैं क्योंकि बीवी को शुरू ही से डर रहेगा कि शायद उस का ख़ावंद उस से किसी हालत में नाख़ुश हो कर तलाक़ देदे लिहाज़ा बजाए इस के कि ख़ानदान की बहबूदी को मद्दे-नज़र रखे वो अपने आइन्दा के आराम का ख़याल रखेगी। ताकि अगर वो किसी वक़्त तलाक़ के ज़रीये से छोड़ दी जाये तो कुछ ना कुछ सरमाया और पूँजी उस के पास हो। इसी तरह से ख़ावंद चूँकि अपनी बीवी पर पूरा भरोसा नहीं रख सकता ये जान कर कि जब वो औरत को छोड़ देगा तो उसके भेद ज़ाहिर हो जाएंगे लिहाज़ा वो भी ख़ानदानी पूरी ख़ुशी को हासिल नहीं कर सकता। ये अक्सर मुसलमानों से सुना जाता है कि ख़ानदान की नाकामयाबी ज़्यादातर बीवी के सबब से होती है क्योंकि बजाए इस के कि वो ख़ावंद की बातों की ताईद करे और उस के मुताबिक़ चले वो हमेशा रुपये पैसे पर निगाह रखती और जितना हो सके ख़ावंद की आमदनी में से अपने और अपने रिश्तेदारों के लिए हासिल करती है। जहां ख़ानदान की ये हालत हो यक़ीन जानो वहां घर-बार की ख़ुशहाली नाबूद हो जाती है।

ये रस्म और क़ानून बच्चों की बहबूदी पर भी गहरा असर डालते हैं। बसा-औक़ात माँ बच्चों को अपनी तरफ राग़िब करने के लिए ताकि वो तलाक़ की हालत में भी उस के साथ रहें ज़्यादा आसाइश में रखती है और बाप भी बच्चों की माँ को तलाक़ देकर एक सख़्त ग़लती और ज़ुल्म उन पर करता है क्योंकि अब चूँकि बाप ना सिर्फ उस से बे परवाह हो जाता है बल्कि उस का एक तरह का दुश्मन और चूँकि वो घर नहीं आ सकती लिहाज़ा बच्चे माँ से जुदा हो जाते हैं गोया वो मर गई है। शायद कभी ना कभी उस से मिल सकें मगर ये बाप को मंज़ूर नहीं होता बल्कि बाअज़ दफ़ाअ वो मना कर देता है। इस तरह वो अपनी माँ से बिल्कुल दूर किए जाते हैं। पस तलाक़ की रु से वो मुहब्बत और प्यार जो क़ुदरती तौर से हर एक के दिल में ख़ुदा ने पैदा किया है यकलख़त बच्चों के दिल से मिटाया जाता है और उस के दूर होने से जिस क़द्र सदमा और नुक़्सान तरफ़ैन को पहुंचता है हर एक समझ सकता है।

तलाक़ को इस खुले तौर से राइज करने से शादी शूदा शख्सों में हसद पैदा होता है और तबई मेल मिलाप में ऐसी अख़्लाक़ी मुश्किलात पैदा होती हैं जिनसे क़ौम की मजलिसी हालत जैसा कि मसीही मुल्कों में है क़ायम नहीं रह सकती क्योंकि मसीहियों में तो ये यक़ीन होता है कि जब तक ज़िनाकारी या हरामकारी का गुनाह सरज़द ना हो तब तक तलाक़ देना नामुम्किन है लिहाज़ा इनमें एक क़िस्म की तसल्ली और सलामती पाई जाती है और बरअक्स इस के मुसलमानों में ख़ुसूसुन औरत की तरफ़ से तरह-तरह के हसद आमेज़ शुक़ूक़ पैदा होते हैं क्योंकि उस को हमेशा ये ख़याल रहता है कि कहीं किसी हरकत से उस का ख़ावंद (शौहर) उस को ना छोड़ दे या शायद किसी बेपर्वाई की वजह से वो रद्द ना कर दी जाये। जब ये हालत शादीशुदा हालत में हो तो कैसे ख़ुशहाल ज़िंदगी हो सकती है? मसीहियों में ना तो कोई दूसरी बीवी रख सकता है और ना ही एक को दूसरी से बदल सकता है जैसे कि मुसलमानों में है लिहाज़ा मर्द व ज़न का आम मसीही रिश्ता एक पाक व मुक़द्दस रिश्ता है जो बमंज़िला भाई और बहन के होता है इस तरीक़ से वो औरतों की मज्लिस में शरीक हो कर उनकी हम्दर्दी मेहरबाना बर्ताव नेक मिज़ाजी और आज़ादी से फ़ैज़याब हो सकता है जैसा कि वो अपनी बहनों की रिफ़ाक़त से या अपने भाईयों की सोहबत से फ़ैज़याब होता है। हर एक शादीशुदा मुसलमान ये जानता है कि उस के एक औरत के साथ निकाह करने से ख़्वाह वो इस को रखे या छोड़ दे ये क़ानूनन जायज़ नहीं कि वो दूसरी औरतों से रिफ़ाक़त रखे और उनसे निकाह करे और ये भी जानता है कि अगर कोई औरत शादीशुदा भी हो तो भी वो उस को अगर चाहे ख़्वाह उस के ख़ावंद (शौहर) को रुपया देकर या फुसला कर या किसी और तरीक़ से तलाक़ दिलवा कर अपनी बीवी कर सकता है बाअज़ दफ़ाअ शादीशुदा औरत अपने ख़ावंद (शौहर) से बचने के लिए उस को तक्लीफ़ देना शुरू करती है ताकि उस से तलाक़ हासिल करके दूसरे से ब्याह करे। चूँकि मुसलमान औरत और मर्द अपने मज़्हब की रु से शादी की हालत को एक पाएदार हालत जो कि मौत तक क़ायम रहे नहीं समझते बल्कि ये जानते हैं कि ये सिर्फ़ ऐश और आराम तलबी के लिए है तो ये मर्द के लिए ख़याल करना कोई बड़ी बात नहीं कि वो जब वो चाहे अपनी बीवी को छोड़ दे और दूसरी से शादी करे जो कि अगर किसी और की बीवी भी हो वो उसे तलाक़ दिलवा कर अपनी बीवी करले और इसी तरह ये मुसलमान औरत के लिए कोई बड़ी बात नहीं कि अगर वो चाहे तो अपने ख़ावंद (शौहर) से बदसुलूकी करके तलाक़-नामा ले लेवे और यूं दूसरे की बीवी हो जाए। लिहाज़ा इस का सबसे बड़ा नतीजा ये हुआ कि शादी की इस रस्म को बचाने के लिए ताकि कहीं ऐसा ना हो कि बिल्कुल हलाकत और तबाही बरपा हो और नाजायज़ लौंडी बाज़ी फैल जाये मुसलमानों में मर्दों और औरतों के बाहम उठने बैठने की रस्म बिल्कुल उठा दी गई और न उनमें किसी क़िस्म का दोस्ताना बर्ताव ना रखा ऐसा कि सोसाइटी मर्दों और औरतों की ना रही जैसा कि ख़ुदा ने इब्तिदा में मुक़र्रर की और जिस तरह मसीही मुल्कों में अब है बल्कि सिर्फ़ मर्दों ही मर्दों की रही और बीचारी औरतों को पर्दे के पीछे छिपा रखा दरवाज़े से निकलने की इजाज़त भी ना दी बल्कि अगर निकलें भी तो मुँह हाथ बुर्क़े से छिपा कर, चूँकि औरतों को मजबूरन तलाक़ और निकाह के क़ानून और रस्मों की रु से मज्लिस (सोसाइटी) से बिल्कुल ख़ारिज कर दिया लिहाज़ा इस से बड़े नतीजे पैदा हुए यानी आदमियों की सोसाइटी से वो पाक और आला असर दूर हो गया जिससे के उठने बैठने के कुल दस्तूर मोतदिल रहे हैं। सोसाइटी बज़ात-ए-ख़ुद आधी रह गई और दूसरे आधे हिस्से को हरमसरा की नाख़ुशगवार सुस्त हालत में छोड़ दिया और उस को ज़िंदगी के आला दर्जा से गिरा दिया और मर्दों की अक़्ली रोशनी और तरक़्क़ी से ख़ारिज कर दिया अगर तलाक़ की ये रस्म दूर कर दी जाये तो पर्दे की रस्म भी हटा दी जा सकती है औरतों को सोसाइटी में दख़ल दिया जा सकता है ताकि वो अपने ज़ाती फ़ायदे को हासिल करें और आदमियों की दुनियावी कारोबार में मददगार हों।

ये बयान करना ख़ाली अज़ फ़ायदा ना होगा कि चूँकि तलाक़ खुले तौर पर राइज है और मर्दों और औरतों में बिल्कुल अलैहदगी है लिहाज़ा जब तक शौहर ना हो मर्द और औरत बिल्कुल नहीं मिल सकते और किसी क़िस्म की दोस्ती और मुहब्बत पैदा नहीं कर सकते वो सिर्फ़ क़रीबी रिश्तेदारों और दोस्तों के ज़रीये से शादी से पहले कुछ कह सुन सकते हैं। इसलिए ये बिल्कुल मुश्किल है कि वो एक दूसरे की हालत और मिज़ाज से या आदात और ज़िंदगी की बाबत और ख़यालात से वाक़िफ़ हों वो एक दूसरे की शक्ल से भी वाक़िफ़ रहते हैं क्या जबकि कोई आदमी किसी घर या घोड़े को नहीं ख़रीदता जब तक कि बख़ूबी उस को देख ना ले और जबकि कोई औरत अपने ज़ेवर और लिबास को नहीं खरीदती जब तक अच्छी तरह उस को जांच ना ले तो क्या इस रस्म का मुसलमानों में जारी रहना एक निहायत बुरी हालत को ज़ाहिर नहीं करता कि मर्द और औरत शादी से पहले एक दूसरे से बिल्कुल ना मिलें और कि ज़िंदगी के सबसे बड़े अहम मुआमले में वो दूसरों की राय पर मुन्हसिर रहें? लिहाज़ा ये ताज्जुब की बात ना होगी कि बहुत से ऐसे निकाह हो जाते हैं कि मर्द और औरत बिल्कुल एक दूसरे से नावाक़िफ़ और उनका चाल-चलन आदात व अतवार ज़िंदगी की बाबत ख़यालात बिल्कुल मुख़्तलिफ़ होते हैं उनकी शक्ल व सूरत वैसी नहीं होती जैसी कि वो दोनों एक दूसरे में चाहते थे जिसका नतीजा ये होता है कि शादी के दिन ही से उनमें जुदाई के ख़यालात पैदा हो जाते हैं। ये बाअज़ दफ़ाअ सुनने में आया है कि चालाकी से बुरे चाल की लड़कियां आदमियों से निकाह पढ़वा लेती हैं ताकि सिर्फ़ वो इस रुपये को हासिल करें जो बतौर महर के निकाह के वक़्त लिखा जाता है और वो शुरू ही में ऐसा सताना शुरू करती हैं कि ख़ावंद (शौहर) तलाक़ देने पर मज्बूर हो जाता है। तलाक़ की इस रस्म से निकाह की हालत में कुदूरत (नफरत) पैदा होती है और निकाह भी ऐसा होता है कि चूँकि हम्दर्दी और मुहब्बत ना थी लिहाज़ा फ़ौरन तलाक़ देने की नौबत पहुँचती है। ऐसी रस्म किसी सूरत से सोसाइटी या शख़्सी बेहतरी और बहूदी के लिए ठीक और वाजिब नहीं हो सकती।

मज़्कूर बाला दलाईल से ये ज़ाहिर है कि क़ुर्आन शादी और तलाक़ के बारे में ना सिर्फ इन्जील से बेहतर तालीम नहीं पेश करता बल्कि मूसवी शरीअत से भी गिर जाता है। लेकिन क़ुर्आन में एक और ख़ास हुक्म है जो उस की गिरी हुई और तनज़्ज़ुल कनिंदा तालीम को वाज़ेह तौर से पेश करता है। मूसवी शरीअत में तो ये बिल्कुल मना है कि छोड़ी हुई औरत किसी हालत में फिर उसी आदमी से ब्याही जाये पर क़ुर्आन में ना सिर्फ एक बल्कि दो यहां तक कि बाअज़ हालतों में तीन दफ़ाअ तलाक़ देकर फिर भी इजाज़त है कि वही आदमी उसी औरत से निकाह करले। सूरह बक़रह आयत 230 में यूं लिखा है “अगर ख़ावंद अपनी बीवी को तीसरी दफ़ाअ तलाक़ दे तो ये उस को लाज़िम नहीं कि फिर उस से निकाह करे। पर अगर वो दूसरे से निकाह करे और वो मर्द उस को छोड़ दे इस हालत में पहला आदमी फिर उस औरत से निकाह कर सकता है और उस पर कोई जुर्म नहीं क्योंकि वो ख़ुदा की ठहराई हुई हदों में रहता है और ख़ुदा उस को उन पर जो इल्म रखते हैं रोशन करता है।” इस आयत से मालूम होता है कि मुसलमानों की ये रस्म नए पुराने अहदनामे की पाक तालीम के बिल्कुल ख़िलाफ़ है और ये हर शख़्स की ज़मीर के भी बिल्कुल ख़िलाफ़ है। इस रस्म के मअनी हक़ीक़त में ये हैं कि अगर कोई आदमी अपनी बीवी को तीन बार तलाक़ देकर फिर उस से ब्याह करना चाहे तो वो इस तौर से कर सकता है कि पहले उस का निकाह ऐसे शख़्स से कराए जो आम तौर से बुरे अख़्लाक़, बुरी आदत का और बदशक्ल हो ख़ुसूसुन ऐसा आदमी रुपया देकर मुक़र्रर किया जाता है और उस के साथ निकाह सिर्फ नाम को पढ़ाया जाता है जो एक रात के लिए क़ायम रहता है दूसरे दिन उस से तलाक़ दिलवाकर पहला आदमी फिर उसी औरत से निकाह कर लेता है। इस रस्म की इब्तिदा ख़्वाह कुछ ही हो ये किसी सूरत से ठीक नहीं ख़याल की जाती और हर एक फ़हीम आदमी इस को शादी की पाक रस्म को ख़राब करने वाली ख़याल करता है और ये सरासर औरत पर जो कि पाकदामन है सिर्फ ख़ावंद के शहवती जज़्बों को पूरा करने के लिए ज़ुल्म करवाती है।

औरत का ऐसा कम और शर्मनाक दर्जा क़ुर्आन में आरिज़ी तौर से पेश नहीं किया गया बल्कि ये क़ुर्आन की ख़ास आयात पर मबनी है जिनमें मर्द को औरत पर ज़ाइद बुजु़र्गी दी गई है। ज़ेल की आयत को ग़ौर से पढ़ो “मर्द औरतों पर फ़ज़ीलत रखने वाले हैं बलिहाज़ इस के कि अल्लाह ने इन्सानों में से एक को दूसरे पर फ़ज़ीलत दी और इसलिए भी कि वो अपने माल से ख़र्च करते हैं। पाक-बाज़ औरतें फ़रमांबर्दार रहती हैं और ख़ावंद की पीठ पीछे निगहबानी करती हैं जैसा कि अल्लाह ने उनकी निगहबानी की और जिन औरतों में से तुमको सरकशी का डर हो तो उन्हें समझा दो और उनको ख़्वाबगाह में छोड़ दो और उनको मारो फिर अगर वो ताबे हो जाएं तो उन पर और कोई बात मत ढूंढ़ो बेशक अल्लाह बड़े मर्तबे वाला है।” (सूरह निसा आयत 38) औरत का कम और ज़लील दाद ने दर्जा क़ुर्आन की आयत से साबित हुआ। हमने ऊपर बयान किया है कि दो, तीन, चार बीवियां एक ही वक़्त एक ख़ावंद की हो सकती हैं और ये भी बतलाया कि तलाक़ देने की ताक़त ख़ुसूसुन आदमी के वहम पर मुन्हसिर है और औरत से कोई मश्वरा नहीं किया जाता और औरत को उस के बराबर तलाक़ हासिल करने का कोई हक़ नहीं बताया गया। हमने ये भी बताया कि औरत मजलिसी कारोबार से बिल्कुल बरतरफ़ कर दी गई गोया कि वो इस काम के लिए किसी सूरत से मुफ़ीद नहीं हो सकती और पर्दे की रस्म यहां तक बढ़ाई गई कि औरत को बिल्कुल आम जगह में बाहर आने की बंदिश हो गई। सिवाए इस के कि अगर वो आएं तो अपने आपको चारों तरफ़ से ढांक कर आएं और कि वो अपने घरों में हरमसरा में बंद रहें ऐसा कि अगर कोई किसी मुसलमान के घर मिलने जाये तो यही मालूम होता है कि वो और उस के बेटे ही घर में रहने वाले हैं क्योंकि उस की बीवी और बेटियां हर दम छिपी रहती हैं गोया उनका दूसरों से मिलना ख़ावंद के लिए बाइस-ए-शर्म है। ये रिवाज हद तक बढ़ा हुआ है कि अगर कोई बीवी से मुलाक़ात की ख़्वाहिश भी ज़ाहिर करे तो ये उनकी निगाह में निहायत बुरा और बे-जा मालूम होता है। एक और बात अरब के पैग़म्बर की तालीम की बाबत कही जा सकती है कि बाप की मौत के बाद बेटी का हिस्सा बेटे के हिस्से से सिर्फ आधा है। (सूरह निसा आयत 12) और चूँकि ये क़ानूनन जायज़ है तो ये ताज्जुब की बात नहीं कि गो लड़के की तालीम बहुत बेहतर और आला नहीं तो भी लड़की के लिहाज़ से बिल्कुल बे-बहरा रहती है। पाशाओं या और बड़े लोगों की बीवियां आम तौर से अनपढ़ होती हैं और जो अपनी पढ़ाई पर कुछ फ़ख़्र भी कर सकती हैं वो सिर्फ़ क़ुर्आन की लफ़्ज़ी तौर पर दोहराने के लायक़ होती हैं और बड़े शहरों की सिर्फ चंद औरतें उस के साथ कुछ बाजा या अंग्रेज़ी या फ़्रांसीसी ज़बान के चंद अल्फ़ाज़ जानती हैं। अगर माँ की तालीम अच्छी ना हो तो वो किस तरह बच्चों की तालीम को उम्दा तौर से शुरू कर सकती है? और अगर औरतों को इल्म और साईंस से अलैहदा रखा जाये तो वो किस तरह जहालत और गुमराही के फंदे से निकल सकती हैं? मज़्हबी फ़राइज़ के अदा करने में और दूसरी दुनिया (बहिश्त) की खूशबू को हासिल करने में भी औरत का दर्जा निहायत कम है। ये सब जानते हैं कि मुसलमानों का ये रिवाज है कि मस्जिदों में नमाज़ सिर्फ़ मर्द ही आकर पढ़ें और औरतों पर ये ठहराया गया है कि या तो वो घर ही पर पढ़ें या अगर ना चाहें तो ना पढ़ें और अगर औरतों को मस्जिद में आने की इजाज़त भी हुई तो वो आम जगह में सब के साथ नमाज़ नहीं पढ़ सकतीं बल्कि बरअक्स इस के एक किनारे हुज्रे में जहां से उनको कोई देख ना सके नमाज़ पढ़ने की इजाज़त है। औरतों को इस तरह से नमाज़ में भी मर्दों से अलैहदा रखना बड़ा ताज्जुब पैदा करता है क्योंकि क़ुर्आन में ये साफ़ आया है कि दूसरी दुनिया में औरतें अपने शौहरों के साथ बहिश्त में दाख़िल होंगी। सूरह रअद आयत 23, सूरह अल-शुआरा आयत 56, सूरह अल-मोमिन आयत 8, सूरह अल-ज़ुखरूफ आयत 7 पर हम इन हवालेजात से ज़्यादा नहीं अख़ज़ कर सकते क्योंकि क़ुर्आन में ये साफ़ तौर से कहीं नहीं आया कि औरतों का रुत्बा बहिश्त में आदमियों के बराबर होगा, पर बरअक्स इस के सिर्फ आदमियों के अज्र और ख़ुशियों का बयान मुतवातिर (बहुत, बार-बार) मिलता है। सूरह वाक़िया आयत 23, 24, सूरह रहमान आयात 56, 70, 78 मगर औरतों की बाबत कहीं ऐसा ज़िक्र ना मिलेगा।

इन सब बातों पर ग़ौर करके ये बड़ा ताज्जुब मालूम होता है कि कोई फिर भी इस मज़्हब को आला और बेहतर ख़याल करे जिसमें औरतों का दर्जा निहायत कम और ज़लील ना सिर्फ इस दुनिया में बल्कि आने वाली दुनिया में भी ठहराया है। ये बात और भी ताज्जुब-अंगेज़ होती अगर औरतें अपनी मर्ज़ी से इस हालत में रहना पसंद करतीं पर अब तो मौजूदा हालत को देखकर मालूम होता है कि कम इल्मी की वजह से औरतें इस बात पर सोच नहीं सकतीं क्योंकि हो नहीं सकता कि अगर रोशनी उनके दिमाग़ पर पड़े तो वो इस दुनिया में ऐसा ज़लील व हकीर रहना पसंद करें और आने वाले जहान में भी ख़ार व लाचार रहें जैसा कि वो इस्लाम की रु से मानी और समझी गई हैं।

ख़ातिमा

जितना इस मौक़े के लिए मुनासिब था उतना हम ने इस मज़्मून पर ग़ौर किया। हमने मुसलमानों और मसीही उलमा के ख़याल को क़ुबूल करके ख़ुदा ने एक ही दम अपना मुकाशफ़ा ज़ाहिर नहीं किया बल्कि आहिस्ता-आहिस्ता मुख़्तलिफ़ ज़मानों में इस को बनी-आदम पर नाज़िल किया तीनों मज़ाहिब को जाँचा यानी यहूदी मसीही और इस्लाम को। इन तीनों मज़ाहिब के पैरौ (मानने वाले) मानते हैं कि वो मज़्हब जो कि मूसा के ज़रीये और उस के बाद और नबियों के ज़रीये यहूदियों को दिया गया ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल हुआ था और कि वो सच्चा मज़्हब था। इसलिए इस की सदाक़त के लिए कोई दलाईल पेश ना किए गए। इस के बाद जब ख़ुदा ने कई सौ साल तक नबी ना भेजे तो अपने आपको एक नए तरीक़ से यहूदिया के मुल्क में ज़ाहिर किया और इस मज़्हब ने दाअवा किया कि वो सब मज़्हब से आला और बेहतर और कामिल है। ये नया मज़्हब यानी मसीही मज़्हब ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल हुआ और यहूदियों के मज़्हब से बेहतर था और ये अम्र मुहम्मदी और मसीही दोनों मानते हैं गो यहूदी इस से इन्कार करते हैं। लिहाज़ा हम ने मसीही और मुहम्मदी दलाईल को पेश करके ज़ाहिर किया कि किस रु से मसीही मज़्हब यहूदी मज़्हब से आला है हमने जितना ज़रूर और मुनासिब था इस से तजावुज़ नहीं किया क्योंकि इस रिसाले में इस की गुंजाइश ना थी। इस वास्ते हमने सिर्फ मसीहिय्यत की अंदरूनी ताक़त और असर को बयान किया और बताया कि इस वक़्त के वसीले ये मज़्हब दुनिया में बावजूद सख़्त तकालीफ़ और रुकावटों के और बग़ैर दुनियावी मदद या सल्तनत के फैल गया। दूसरे हमने पुराने अहदनामे से उन पेशीनगोइयों को भी पेश किया जो मसीह के आने को बतलाती थीं और एक आला रुहानी दर्जे को ज़ाहिर करती हैं। तीसरे हमने ये जतलाया कि मसीही मज़्हब यहूदी मज़्हब के दर्मियान ही से जहां उस की तैयारी ख़ुदा की तरफ़ से पहले हो चुकी थी उठा। चौथे हमने मसीही मज़्हब के बानी को ख़ुदा की तरफ़ से मुक़र्रर किया हुआ साबित करने के लिए उस के मोअजज़ाना कामों का बयान किया। पांचवें हमने नए और पुराने अहदनामे की तालीम का मुक़ाबला करके बताया कि नए अहदनामे की तालीम पुराने से बेहतर और ज़िंदगी का आला मेयार पेश करती है। ये पांचवां हिस्सा हमने छः (6) ख़ास बातों से साबित किया जिनमें से तीन ख़ुदा की बाबत और इलाही मुकाशफ़े की बाबत तालीम पेश करती हैं मसलन (1) ख़ुदा का अपने आपको बनी-आदम पर ज़ाहिर करना (2) उस की परस्तिश (3) उस की बादशाहत और बाक़ी तीन इन्सानों के बाहमी ताल्लुक़ात की बाबत पेश करती हैं मसलन (1) बदला लेना (2) गु़लामी (3) औरतों के साथ सुलूक ख़ुसूसुन कस्रत इज़्दवाजी (एक से ज्यादा बीवी से निकाह) और तलाक़ के बारे में। इन छः (6) बातों पर बह्स करते हुए मालूम हुआ कि मसीही की इन्जील की तालीम इन्सान की ज़रूरियात के मुताबिक़ है ज़िंदगी का आला दर्जा पेश करती है और ऐसी रुहानी और मुकम्मल है कि बमुक़ाबला मूसवी तालीम के ये अपने आप में मुसलमानों और मसीहियों के नज़्दीक काफ़ी सबूत रखती है कि इस से बेहतर और आला तर है और ख़ुदा के सच्चे मज़्हब का सबसे बुज़ुर्ग रुहानी और हक़ीक़ी मेयार बनी नूअ इन्सान के लिए बनिस्बत क़दीम यहूदी मज़्हब के पेश करती है।

फिर हमने मसीही मज़्हब और इस्लाम का मुक़ाबला किया और जतलाया कि आया क़ुर्आन इन्जील की तालीम से ऐसा ही बाला और बरतर नहीं है जैसे कि इन्जील मूसवी शरीअत से साबित हुई। अब जबकि यहूदी मसीही और मुहम्मदी इस बात को मानते हैं कि बनी-इस्राईल का मज़्हब ख़ुदा की बख़्शिश थी और जबकि मसीही और मुसलमान दोनों मानते हैं कि मसीही मज़्हब यहूदी मज़्हब से बेहतर और आला मज़्हब है तो अब मुसलमान ही एक तरफ़ हैं जो कि इस्लाम को बमुक़ाबला मसीही और यहूदी मज़्हब के ख़ुदा की सबसे बड़ी बख़्शिश मानते हैं हालाँकि मसीही और यहूदी दोनों इस बात से इन्कार करते हैं। इलावा इस लफ़्ज़ी इन्कार के हमने दोनों मज़ाहिब की तालीम पर ग़ौर किया क्योंकि हम यूंही रद्द करना नहीं चाहते पर दर्याफ़्त करना चाहते थे कि आया फ़िल-हक़ीक़त मुहम्मदी मज़्हब इस तरह बेहतर और आला है या नहीं। इस वास्ते किसी की तरफ़दारी ना करते हुए हमने मसीही और इस्लाम का इन्ही छः (6) बातों में मुक़ाबला किया जिनसे हमने मसीही मज़्हब और यहूदी मज़्हब का मुक़ाबला किया था यानी हमने आम लोगों की राय पर या किसी ख़ास आलिम की राय पर फ़ैसला नहीं छोड़ा बल्कि क़ुर्आन और इन्जील की तालीम पर जो कि तवारीख़ से ज़ाहिर है और जिसकी बाबत कोई शक व शुब्हा नहीं पस जो नताइज पैदा हुए वो बिल-ख़ुसूस क़ुर्आन और इन्जील की तालीम से पैदा हुए। इन सब नताइज ने ये फ़ैसला क़रार दिया कि इस्लाम का दाअवा सही नहीं और कि किसी एक तालीम के लिहाज़ से भी इस्लाम मसीही मज़्हब पर फ़ौक़ियत नहीं रखता और ना ही वो मुकाशफे का आला मेयार पेश करता है बल्कि बहुत सी बातों में मसीही मज़्हब की तालीम से बहुत गिरा हुआ है। अब अगर हम इन मन्तिक़ी दलाईल को मंज़ूर करें तो बिलाशुब्हा ये नतीजा पैदा होगा कि इस्लाम आला और बेहतर मज़्हब नहीं और अगर हम अब भी यही कहते जाएं कि इस्लाम ही सबसे बेहतर है तो ये एक बेमाअनी बात होगी क्योंकि इस के सबूत में कोई बड़ी दलील नहीं है। लिहाज़ा ये निहायत मुनासिब और वाजिब है बल्कि हर एक का फ़र्ज़ है जैसा कि हर एक खुले दिल वाला और बेतास्सुब आदमी करता है कि इस मन्तिक़ी नतीजे को क़ुबूल करे यानी मुहम्मदी मज़्हब गो चंद उसूल मसीही और यहूदी मज़्हब के रखता है मगर बहुत सी बातों में इनसे कम और मसीही मज़्हब से तो कहीं कम है।

जबकि हम इस्लाम को इस तरह अक़्ल और ज़मीर से जांच के क़ुबूल करने को तैयार हैं तो हम इस की सब बातों को बेफ़ाइदा रद्द नहीं करते। ये ख़याल रखना चाहिए कि हमने इस्लाम को मह्ज़ एक मज़्हब की हैसियत से जाँचा है पर अगर इस की दुनियावी हुकूमत का ख़याल किया जाये तो हर एक शख़्स ख़्वाह मुसलमान हो या ग़ैर-मुसलमान हो फिर नए सिरे से ग़ौर कर सकता है कि आया इस्लाम बहैसियत सल्तनत के जिसमें मज़्हब के उसूल शामिल कर दिए गए हैं दुनिया की और सल्तनतों से गो सबक़त ले गया है या नहीं?

ये चंद ख़यालात हद्या नाज़रीन हैं और मुसन्निफ़ इस मज़्मून को ख़त्म करते हुए अपने इस फ़र्ज़ से सबकदोश होता है अब चाहे मुसलमान इन दलाईल को इस तरह क़ुबूल करें या ना करें ये उनके ज़िम्मे है अगर वो फ़िल-हक़ीक़त सोचें और जुस्तजू करें तो वो इन दलाईल को यकलख़त रद्द नहीं कर सकते। और अगर क़ुबूल करें तो वो ज़रूर ये सोचने लगेंगे कि अगर इस्लाम मसीही मज़्हब से आला और बेहतर मज़्हब नहीं तो क्या वो ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल किया हुआ मज़्हब हो सकता है? क्या ये ख़ुदा की दानाई और अक़्ल के बमूजब हो सकता है कि जब उसने सय्यदना मसीह के ज़रीये इन्सान को एक मज़्हब का आला मुकाशफ़ा दिया हो तो उस के छः सौ (600) बरस के बाद एक अदना मुकाशफ़ा फिर मुहम्मद साहब के ज़रीये दे? क्या ये हो सकता है कि ख़ुदा फिर अपने एक ख़ास फ़रिश्ते जिब्राईल को आस्मान से वही बातें नाज़िल करने को भेजे जो उसने हज़ारों बरस पहले अपने बंदों पर नाज़िल कीं? या ये हुआ हो कि मुहम्मद साहब ने मसीही और यहूदी मज़्हब से चंद ताअलीमात लेकर एक नया मज़्हब बनाया ताकि ये तालीम आस्मान से उतरी हुई उन जाहिल अरबों के सामने पेश करे जोकि इन बातों की बाबत कुछ नहीं जानते थे। कोई समझदार मुसलमान इन बातों से सिवाए इस इरादे के और कुछ नहीं कर सकता कि मैं अब ज़्यादा देर तक शक की हालत में ना रहूँगा बल्कि चूँकि ये ज़ाहिर हो गया कि इस्लाम मसीही मज़्हब से बेहतर और आला नहीं लिहाज़ा मैं कोशिश से इस बात की और जुस्तजू करूंगा और अपने दिल को तस्कीन दूंगा ये मान कर कि मसीही मज़्हब एक पाकीज़ा और आला मज़्हब है। हज़ारहा मुसलमान अब ख़ुदा के शुक्रगुज़ार हैं कि उन्होंने ख़ुदा से हिदायत पाई और मसीही हैं वो इस बात के गवाह हैं कि उनका मौजूदा मज़्हब पुराने मज़्हब से बेहतर और ज़्यादा ज़िंदगी बख़्श है। वो अपने मुसलमान भाईयों के लिए दुआ करते हैं कि वो भी दिली तस्कीन और अक़्ली रोशनी को हासिल करें जोकि उनको हासिल है और जो उनको सिवाए सय्यदना मसीह के मज़्हब के और कहीं नहीं मिल सकती। इस किताब का मुसन्निफ़ जो कि मह्ज़ पैदाइशी मसीही नहीं बल्कि जिसने मसीही मज़्हब को एक मुहब्बत आमेज़ आला और बेहतर ख़ुदा का मुकाशफ़ा पाया दुआ मांगता है और इस के साथ हज़ारहा हज़ार ईमानदार दुआ करते हैं कि ख़ुदा मुसलमानों को जल्द वही नूर और तसल्ली बख़्शे कि वो सब मसीहियों के साथ ख़ुदा के इस मुहब्बत आमेज़ नजात देने वाले मज़्हब में आकर ख़ुश हों और आराम पाएं। इस में हमारा ना कोई ज़ाती फ़ायदा है और ना कोई दुनियावी फ़ायदा क्योंकि अगर तुर्की मुसर्रिफ़ फ़ारस सीरिया और हिन्दुस्तान के हज़ारों मुसलमान ईसाई हो जाएं तो इस से हमारा दुनियावी फ़ायदा क्या होगा सिर्फ उन्ही को ज़्यादा ख़ुशहाल और बेहतर बनाएगा मौत की हालत में उम्मीदवार और अबदियत की ख़ुशहाली इनायत करेगा। अगर हमारी कोई ख़्वाहिश है तो यही है कि वो भी हमारी तरह नजात को हासिल करें। हम ये जानते हैं कि हम आख़िरी ज़माने के नज़्दीक हैं और बहुत जल्द इस किताब का लिखने वाला और पढ़ने वाला ख़ुदा के तख़्त अदालत के सामने बुलाए जाएंगे जहां सभों के दिल के हालात और भेद फ़ाश किए जाएंगे। इस हालत में हम किसी को धोका नहीं दे सकते पर बरअक्स इस के हम सभों को मसीह और उस के मज़्हब के पास ले आते हैं ये यक़ीन करके कि इस से दिल में ऐसा इत्मीनान और चैन पैदा होता है और ये इस तौर से इन्सान को ख़ुदा की हुज़ूरी से मामूर करता है जिसको हर एक इन्सान जाने या ना जाने ढूंढता है। हमें यक़ीन है कि सय्यदना मसीह अब भी इन मुबारक अल्फ़ाज़ को जो उसने गुनाह के बोझ से दबे हुए लोगों को कहे अपनी ज़ात से पूरा करता है यानी “ऐ तुम लोगो जो थके और बोझ से दबे हुए सब मेरे पास आओ। मैं तुम्हें आराम दूंगा।” (मत्ती 11:28) हम जानते हैं कि उस के अल्फ़ाज़ सच्च और बरहक़ हैं गोया उन पर ख़ुदा की तरफ़ से सदाक़त की मुहर लगाई गई है और ये अल्फ़ाज़ वही हैं जो उसने इन्सान और ख़ुदा के दर्मियान मेल कराने वाले की हैसियत में कहे हैं। वो फ़रमाता है “राह और हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ। कोई बाप के पास बग़ैर मेरे वसीले के आ नहीं सकता।” (यूहन्ना 14:6) लिहाज़ा हम हर एक इन्सान को ख़ुदावंद के इन अल्फ़ाज़ की तरफ़ मुतवज्जोह करते हैं जो उसने एक मर्तबा अपने शागिर्दों से कहे ताकि हर एक इन्सान ख़ुद इनको जांचे और आज़माऐ और बरकत हासिल करे। चुनान्चे उसने फ़रमाया था “हर एक जो मेरी इन बातों को सुनता और उन पर अमल करता है उस अक़्लमंद आदमी की मानिंद है जिसने अपना घर चट्टान पर बनाया और मेह बरसा और बाड़ें आईं और आंधियां चलीं और उस घर पर ज़ोर मारा पर वो ना गिरा क्योंकि उस की न्यू चट्टान पर थी।” (मत्ती 7:24, 25)

तमत