Samuel Marinus Zwemer

April 12, 1867 – April 2, 1952
The Apostle to Islam

THE

GLORY OF THE CROSS

(BY REV S.M. ZWEMER)

शाने सलीब

मुसन्निफ़

रेवरेंट-एस-एम-ज़्वेयमर

पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी

अनारकली लाहौर

1951 ईस्वी

चूँकि ख़ुदा एक है लिहाज़ा इंजील भी एक है। अगर ख़ुदा ने वाक़ई मसीह के वसीला से कोई ऐसा काम किया है। जिस पर दुनिया की नजात मुनहसिर है और अगर उसने उसे ज़ाहिर भी कर दिया है तो फिर मसीहीयों पर फ़र्ज़ है कि हर एक ऐसी शैय को दूर करें जो उसे बिगाड़ती। उस की तर्दीद करती और उस को नज़रअंदाज करती है। वो जो उस ख़ुश-ख़बरी में बिगाड़ पैदा करता है ख़ुदा और इन्सान का बदतरीन दुश्मन है । ग़लतीयों 1:8 के सख़्त व तुन्द अल्फ़ाज़ पर पौलुस की शुद खोई और उस की तंग-ख़याली का नतीजा ना थे। बल्कि उनका सबब ख़ुदा की वो ग़ैरत है जो मसीह के ख़ून से नजात याफताह रूह में नजातदिहंदा के लिए वैसी ही ग़ैरत की आग मुश्तइल कर देती है। उस क़िस्म की ग़ैर रवादारी दीन-ए-हक़्क़ा का एक ज़रूरी अंसर है और उन मआनी में ग़ैर रवादारी की फ़हम की मुसन्ना है।

बाब अव़्वल

"सबसे पहले मसीह मस्लूब हुआ"

मुक़द्दस पौलुस कुरन्थियो की कलीसिया के पहले ख़त में यूं रक़म तराज़ है:-

"मैंने सबसे पहले तुमको वही बात पहुंचा दी जो मुझे पहुंची थी कि मसीह किताब-ए-मुक़द्दस के बमूजब हमारे गुनाहों के लिए मुआ।

ग़ौर व तवज्जोह से मुताला करने वाला क़रीने से मालूम करेगा (जैसे डाक्टर माफ़ट ने अपने तर्जुमें में बख़ूबी ज़ाहिर कर दिया है) ये हक़ीक़त पौलुस रसूल के पैग़ाम का लब्बे-लुबाब उसकी तालीम का मर्कज़ और उस की ख़ुशख़बरी का ख़ास मौज़ू थी।

उस के तर्जुमा में"ख़ुशख़बरी"का लफ़्ज़ चार मर्तबा इस्तिमाल किया गया है ताकि उस बशारत के मआनी को रोशन करे। पौलुस रसूल फ़रमाता है कि उस ने ये ख़ुशख़बरी फ़क़त क़दीमी कलीसिया के शुरका से ना सुनी थी। बल्कि उसका इल्हाम उस पर बराह-ए-रास्त हुआ। (ग़लतीयों 1: 15 ता 19)

पस कलीसिया और ख़ुद मुक़द्दस पौलुस का ये एतिक़ाद था कि मसीह का हमारे गुनाहों के लिए अपनी जान देना मसीही दीन की असल बुनियाद है। पौलुस रसूल ने मसीह की मौत के बाद सात साल के अरसा के अंदर ही अंदर उस हक़ीक़त का एहसास क्या होगा। और उस की मुनादी की होगी। बल्कि बाअज़ बयानात के मुताबिक़ तो शायद उस से भी पेशतर।

जिस यूनानी लफ़्ज़ का तर्जुमा "सबसे पहले" किया गया है उस का मतलब"इब्तिदा में" या तमाम सच्चाई का“शुरू” भी किया जा सकता है। यही अल्फ़ाज़ सीपटवाजनट में भी मुस्तअमल हैं। जहां याक़ूब ने दो लौंडियों और उन के बेटों को"सबसे आगे" रखा (पैदाइश 23:2) और उस मुक़ाम पर भी जहां दाऊद ने उस शख़्स के लिए भारी इनाम का वाअदा किया जो यबोसीयों को "सबसे पहले" मारे (2 सामुएल 5:8)

मुक़द्दस पौलुस के नज़दीक मसीह की सलीबी मौत सबसे अहम तरीन वाक़ेया उसके ईमान का सबसे अफ़्ज़ल वगरानक़दर अक़ीदा और उसका बुनियादी उसूल है और सच्चाई की हैकल के महिराब का दर्मयानी पत्थर और कोने के सिरे का पत्थर है।

इस अम्र की तस्दीक़ इससे भी होती है कि कुतुब-ए-मुक़द्दसा पैग़ाम रसुल और जुमला कलीसियाओं में हर दो साकरीमन्टों के अदा करने के क़वाइद व क़वानीन और पुराने और नए गीतों की किताब में इस हक़ीक़त को सबसे अफ़्ज़ल व आला-तरीन जगह हासिल है।

इस हक़ीक़त के इस कदर सबूत मौजूद हैं कि हैरत होती है। सलीब मसीहीयत का फ़क़त आलमगीर निशान ही नहीं बल्कि लारेब और पुरुज़ोर कलाम है जो दोधारी तल्वार से ज़्यादा तेज़ है। क्योंकि फ़क़त सलीब यही है जो लोगों को गुनाह से क़ाइल कर सकती है। सलीब के पास आकर हम मसीह के चेहरे के जल्वे में अपने पोशीदा गुनाहों को देख सकते हैं जिसकी आँख आग के शोला की मानिंद रोशन हैं।

ज़रा आप ग़ौर तवज्जा से सुनिए कि बिशप लीनसी लाट एंड्र्यूज़ (Lancelot Andrews) अपनी शख़्सी इबादत के वक़्त सलीब के पास आकर किस रिक़्क़त और दिल सोज़ी के साथ अपने दिली जज़्बात का इज़्हार करता है:-

"ऐ तू कि जिसने अपने जलाली सर को मेरी ख़ातिर ज़ख़्मी किया जाना गवारा किया। जो गुनाह मेरे सिर के हवास के ज़रीया से सरज़द हुए हैं। उन्हें अपने उस मुबारक सर की ख़ातिर माफ़ फ़र्मा।"

"ऐ तू कि जिसने अपने पाक हाथों को मेरी ख़ातिर ज़ख़्मी किया जाना क़बूल किया। जो गुनाह मेरे इन हाथों से नापाक अश्या को छूने से सरज़द हुए हैं उन्हें अपने पाक हाथों की ख़ातिर बख़्श दे।"

"ऐ तू कि जिसने अपने क़ीमती और मुक़द्दस पहलू में भाला खाना मेरी ख़ातिर मंज़ूर किया। मेरे तमाम गुनाह जो नफ़्सानी ख़ाहिशात और ख़्यालात के ज़रीया से सरज़द हुए हैं इसे अपने ज़ख़्मी पहलू की ख़ातिर माफ़ फ़र्मा।"

"ऐ तू कि जिसने अपने मुबारक पांव का मेरी ख़ातिर तोड़ा जाना गवारा किया जो गुनाह मेरे पांव के बदी की जानिब तेज़ रफ़्तारी से जाने के बाईस सरज़द हुए हैं उन्हें अपने इन पाक पांव की ख़ातिर माफ़ फ़र्मा।”

"ऐ तू कि जिसने अपने तमाम बदन का मेरी ख़ातिर घायल किया जाना क़बूल किया। जो गुनाह मेरे आज़ा से सरज़द हुए हैं उन्हें अपने उस जिस्म अतहर की ख़ातिर माफ़ फ़र्मा।”

"ऐ मेरे ख़ुदा ! मेरी रूह निहायत ही ज़ख़्मी और बे हाल है। तू मेरे ज़ख़्मों की ज़्यादती और उन के तूल व अर्ज़ और उन की गहराई पर नज़र कर और अपने ज़ख़्मों की ख़ातिर मेरे ज़ख़्मों का इंदिमाल कर।”

मसीह की सलीब ख़ुदा का वो ज़बरदस्त नूर है जो ख़ुदा की मुहब्बत और इन्सान के गुनाह को ख़ुदा की क़ुदरत और इन्सान की आजिज़ी को ख़ुदा की पाकीज़गी और इन्सान की नजासत को ज़ाहिर करता है।

जिस तरह अहद-ए-अतीक़ में मज़बह और क़ुर्बानी "सबसे पहले" हैं। इसी तरह सलीब और कफ़्फ़ारा अह्दे-जदीद में"सबसे पहले"हैं। जिस तरह दायरा के हर एक नुक़्ता से मर्कज़ की जानिब एक ख़त-ए-मुस्तक़ीम खींचा जा सकता है। बईना अहद-ए-अतीक़ व जदीद के अक़ाइद व तालीम नजात और तमाम ऐसी अश्या जो उन से मुताल्लिक़ हैं मसलन एक नया दिल एक नई जमात और एक नया आस्मान के वसीअ दायरे से एक ख़त-ए-मुस्तक़ीम मर्कज़ की जानिब खींचा जा सकता है। यानी उस बर्रे की जानिब जो बनाए आलम से पहले ज़बह किया गया।

ज़रा ग़ौर कीजिए कि अहद-ए-जदीद में मसीह की सलीबी मौत के बयान को कैसी अहमीयत हासिल है। ये बयान तीन मुख़्तसर ख़ुतूत के सिवा इंजील जलील की तमाम कतुब में मर्क़ूम है। यानी सिर्फ फ़लीमोन और यूहन्ना के दूसरे और तीसरे ख़ुतूत में इसका ज़िक्र नहीं।

इजमाली अनाजील मसीह की तालीम और उस की ज़िंदगी के इस पहलू पर बमुक़ाबला दीगर पहलूओं के कहीं ज़्यादा ज़ोर देती हैं। मुक़द्दस मत्ती (उन मुक़ामात के इलावा जहां मसीह की मौत की पेशीनगोई की गई है) उस अफ़सोसनाक और अंदोहनाक बयान को दो तुल तवील अबवाब में तहरीर करता है जिनकी आयात शुमार में एक सौ इक्तालीस 141 हैं।

मुक़द्दस मरकुस इसको 119 आयात में बयान करता है। यानी 16 सोलह अबवाब की किताब में से दो बड़े अबवाब में।

मुक़द्दस लूक़ा ने भी मसीह की गिरफ़्तारी और उसकी सलीबी मौत के बयान के लिए दो बड़े अबवाब वक़्फ़ कर दिए हैं।

मुक़द्दस यूहन्ना की किताब का नस्फ़ से ज़्यादा हिस्सा मसीह के दुख उठाने और सलीब पर खींचे जाने के हाल से पर है।

आमाल की किताब में मुनादी और बशारत का मर्कज़ मसीह की मौत और उसका ज़िंदा होना है "यही ख़ुशख़बरी" है उसने अपने दुख सहने के बाद अपने आपको ज़ाहिर किया (आमाल1:3) पिन्तिकोस्त के दिन मुक़द्दस पतरस के वाअज़ का लब्बे-लुबाब ये था कि :-

"जब वो ख़ुदा के मुक़र्ररा इंतिज़ाम और इल्मे साबिक़ के मुवाफ़िक़ पकड़वाया गया तो तुमने बे-शरा लोगों के हाथ से उसे सलीब दिलवाकर मार डाला।”

"ख़ुदा ने उसी येसु को जिसे तुमने सलीब दी ख़ुदावंद भी किया और मसीह भी" (आमाल 2:36) फिर हैकल में भी पतरस वही पैग़ाम देता है। "तुमने दरख़्वास्त की कि एक ख़ूनी तुम्हारी ख़ातिर छोड़ा जाये मगर ज़िंदगी के मालिक को क़त्ल किया।”

पतरस का दावा ये था कि "ख़ुदा ने सब नबियों की ज़बानी पेशतर ख़बर दी थी कि उसका मसीह दुख उठाएगा" लेकिन "ख़ुदा ने अपने ख़ादिम को उठाकर पहले तुम्हारे पास भेजा। ताकि तुम में से हर एक को उस की बदियों से फेर कर बरकत दे" (आमाल 3:18, 26) दूसरे दिन फिर उसने उसी मज़मून पर वाअज़ किया यानी "येसु नासरी जिसे तुमने सलीब दी" (आमाल 4:10)

कलीसयाए साबिक़ की पहली रस्मी दुआ में "तेरे सादिक़ बंदे येसु"की मौत और उस के दुख उठाने का हवाला है (आमाल 4:27) ऐसे पैग़ाम का नतीजा ऐसे सरीह अल्फ़ाज़ में बयान किया जाता है जिनसे उस के मतलब और मआनी के मुताल्लिक़ कोई शक व शुब्हा बाक़ी नहीं रहता।

यानी"तुमने तमाम यरूशलेम में अपनी तालीम फैलादी और उस शख़्स का ख़ून हमारी गर्दन पर रखना चाहते हो"(आमाल 5:28) रसूलों ने इस के जवाब में यूं फ़रमाया "जिसे तुमने सलीब पर लटका कर मार डाला था। उसी को ख़ुदा ने मालिक और मुनज्जी ठहरा कर अपने दहने हाथ से सर-बुलंद किया......I"

इस्तफ्नस की तक़रीर का ख़ुलासा मसीह की सलीबी मौत का बयान था जिसका नतीजा उस की शहादत हुई (आमाल 7:51 ता 54) फिलिप्पुस ने अपनी ज़बान खोल कर हब्शी ख़ोजा को यशायाह नबी के 53 बाब में से येसु की मौत की ख़ुशख़बरी दी (आमाल 8:35) कुर्लिनियुस को भी इसी का पैग़ाम पहुंचाया गया।"जिसे उन्होंने सलीब पर लटका कर मार डाला। उस को ख़ुदा ने तीसरे दिन जिलाया और ज़ाहिर भी कर दिया।”(आमाल 10:40) मुक़द्दस पौलुस ने आन्ताकिया में वाअज़ करते हुए ख़ुदावंद मसीह की ख़बर मुंदरजा जे़ल अल्फ़ाज़ में दी :-

"उन्होंने पिलातुस से उस के क़त्ल की दरख़्वास्त की और जो कुछ उस के हक़ में लिखा था जब उस को तमाम कर चुके तो उसे सलीब पर से उतार कर क़ब्र में रखा लेकिन ख़ुदा ने उसे मुर्दों में से जिलाया" (आमाल 13:28 ता 29)

थिस्सलुनी में पौलुस मुतवातिर तीन सबतों तक किताब-ए-मुक़द्दस के हवाले देकर उन के साथ बेहस करता रहा । और दलीलें पेश करता रहा कि"मसीह को दुख उठाना और मुर्दों में से जी उठना ज़रूर था" (आमाल 17:3)

अथने में पौलुस ने मसीह की मौत और उस के जी उठने की मुनादी की । (आमाल 17:31) करंथियुस में पौलुस ने ये इरादा कर लिया था कि उनके दरमियान येसु मसीह बल्कि मसीह मस्लूब के सिवा और कुछ ना जानूंगा"...वह “खुशखबरी”मेरे एतबार से मस्लूब हुई और और मैं दुनिया के एतबार से” मसीह वो "अज़ीज़" है जिसके ज़रीये से "हमको उसके ख़ून के वसीले से मख़लिसी यानी क़ुसूरों की माफ़ी...हासिल है।”

येह ज़मानों का भेद और ख़ुदा की चंद-दर-चन्द और गौना गौन हिक्मत है। जो रियासतों और हुकूमतों और इख़्तयारात पर कलीसिया के ज़रीया से ज़ाहिर हुई। पौलुस रसूल हमें रो-रो कर बताता है कि वो जो "मसीह की सलीब के दुश्मन हैं" वो अपनी शर्म की बातों पर फ़ख़र करते हैं और उनका अंजाम हलाकत है।

सब बातों में मसीह का अव़्वल दर्जा होना चाहिए। क्योंकि "वो अपने उस ख़ून के सबब से जो सलीब पर बहा।” हमारे गुनाहों की माफ़ी और हमारी नजात है। (कुलुस्सियों 1:18)

सलीब दुनिया और उस की तारीख़ का मर्कज़ है। वो वक़्त ज़रूर आएगा जब ख़ुदा उस के ख़ून के सबब से जो सलीब पर बहा सब चीज़ों का अपने साथ मेल करेगा ख़्वाह वो ज़मीन की हों ख़्वाह आस्मान की (कुलुस्सियों 1:2)

इब्रानियों के ख़ुतूत में मसीह (जो ख़ुद काहिन, क़ुर्बानी और कुर्बानगाह है) की मौत का ऐसा वाज़िह और रोशन बयान पाया जाता है कि हवाले पेश करने की कोई ज़रूरत नहीं। वो एक ऐसा आला सरदार काहिन है जो ज़मानों के आख़िर में"एक-बार ज़ाहिर हुआ ताकि अपने आपको क़ुर्बान करने से गुनाह को मिटा दे ।"

मसीह का ख़ून अह्द का ख़ून है। मसीह हमारे ईमान का बानी और उस का कामिल करने वाला है। क्योंकि उस ने सलीब पर दुख उठाया। उस का छिड़काओ का ख़ून हाबिल के ख़ून की निस्बत ज़्यादा बेहतर बातें कहता है। वो एक अज़ली अह्द का ख़ून है जो उस बुज़ुर्ग चरवाहे ने अपनी भेड़ों के लिए बहाया।

मुक़द्दस पतरस के ख़ुतूत में उस की इब्तिदा तालीम की सदा गूंजती हुई सुनाई देती है और वो मसीह के दुख उठाने के हवालों से भरपूर है :-

“वो आप हमारे गुनाहों को अपने बदन पर लिए हुए सलीब पर चढ़ गया...और उस के मार खाने से तुमने शिफ़ा पाई” (1पतरस 2:24)

आख़िर में जब हम मुक़द्दस यूहन्ना के ख़ुतूत और मुकाशफ़ात तक पहुंचते हैं तो हमको मालूम होता है कि वहां भी सलीब को सबसे आला और अफ़्ज़ल दर्जा हासिल है। उसके ज़रीये से मसीह येसु“हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा है और ना सिर्फ हमारे गुनाहों का बल्कि तमाम दुनिया के गुनाहों का भी” उसने हमारे वास्ते अपनी जान दी और हम पर भी भाईयों के वास्ते जान देनी फ़र्ज़ है।” जिसने अपने ख़ून के वसीले से हम को गुनाहों से ख़लासी बख़्शी......उसका जलाल और सल्तनत अबदालाबाद रहे।” देखो वो बादलों के साथ आने वाला है और हर एक आँख उसे देखेगी और जिन्होंने उसे छेदा था वो भी देखेंगे।

इन दोनों साकरीमन्टों में जो मशरिक़ी और मग़रिबी हर दो कलीसियाओं में मक़्बूल हैं इस अम्र के मुताल्लिक़ साफ़-ओ-सरीह इशारात मौजूद हैं कि मसीह की मौत हमारे गुनाहों के लिए लाज़िमी थी ये ना सिर्फ उन क़वानीन और उस तालीम से ज़ाहिर होता है जो इंजील शरीफ़ में उन के मुताल्लिक़ दर्ज है बल्कि उन मुख़्तलिफ़ आदाब नमाज़ से भी अयाँ है जो उन से इलाक़ा रखते हैं यहां भी हम ये कह सकते हैं कि "सबसे पहले" वो मसीह की मौत और कफ़्फ़ारा की तालीम देते हैं।

बपतिस्मा और इस्तिबाग़ मसीही कलीसिया में शामिल होने की एक रस्म है। अहद-ए-जदीद में ग़ैर इस्तिबाग़ याफताह मसीहीयों का ज़िक्र कहीं नहीं पाया जाता और उन अव्वलीन मसीहीयों को बख़ूबी मालूम था कि मुक़द्दस पौलुस की क्या मुराद थी। जब उसने फ़रमाया :-

"जितनों ने.....बपतिस्मा लिया तो उस की मौत में शामिल होने का बपतिस्मा लिया ।

वो उस से ख़ूब वाक़िफ़ थे कि गुनाहों की माफ़ी और इस्तिबाग़ और उस आब और ख़ून में बहुत क़रीबी मुनासबत और ताल्लुक़ था जो मसीह के ज़ख़्मी पहलू से बहे थे।

दोनों साकरीमन्टों की मुराद ये थी कि इंजील का पैग़ाम सही अलामात व निशानात के ज़रीये से पहुंचाया जाये। जब तक वो कलीसिया में मौजूद रहेंगी तो बावजूद इन रसूम और तुहम्मात के जिनका इज़ाफ़ा उन पर किया गया है वो हमेशा मसीह की मौत की नजात बख़्श तासीर उसकी तिब्बी रास्ती, उस की ज़रूरत और उस की मर्कज़ी ख़ासीयत की शहादत देती रहेंगी।

इब्तिदाई कलीसिया के शुरका "रोटी तोड़ने में मशग़ूल रहे क्योंकि उस के ज़रीये से वो मसीह की मौत और उस के ख़ून के सबब गुनाहों की माफ़ी का इज़्हार करना चाहते थे। ये जिस्म और ख़ून की शराकत (1 कुरन्थियो 10:16) उस की रूह में शरीक होना (1 कुरन्थियो 12:13) गुनाहों की माफ़ी (मत्ती 26:28) क़र्ज़ की दस्तावेज़ मिटा डालना (कुलुस्सियों 2:14) और दिलों को मुर्दा कामों से पाक करना है (इब्रानियों 9:14) उसी ने इब्तिदाई कलीसिया और उस के माबाद की कलीसियाओं के लिए रोटी तोड़ने को उन्नीस सदीयों तक इस क़दर गिरां बहा और अहम बना दिया।

जब हम रस्मियात से ग़ज़लियात की तरफ़ मुतवज्जा होते हैं तो वहां भी हम इस की तस्दीक़ पाते हैं। अगर हम इब्तिदाई लातीनी और यूनानी ग़ज़लों और अर्मनी और क़िबती कलीसियाओं बल्कि उस के इलावा इस्लाह दीन के ज़माना की कलीसियाओं के गीतों को देखें तो मालूम हो जाएगा कि वहां सलीब को सबसे अफ़्ज़ल और आला दर्जा हासिल है।

और हमारे ख़ुदावंद की मौत और रूहों को तहरीक देने वाली है। हम कलीसिया के गीतों में वो यगानगी पाते हैं और अल-हयात के उस उमुक़ का मुलाहिज़ा करते हैं जो बाज़-औक़ात हमें अक़ाइद में भी नज़र नहीं आता।

"ज़बह किया हुआ बर्रा ही क़ुदरत और दौलत और हिकमत और ताक़त और इज़्ज़त और तम्जीद और हम्द के लायक़ है"

बर्रा तख़्त के दरमियान है। हर एक मख़्लूक़ हल्लेलुयाह के नारे बुलंद करने में मशग़ूल होती है। हर एक सर-ज़मीन और हर एक मुल्क के बच्चे मुख़्तलिफ़ ज़बानों में निहायत ख़ुश अलहाफ़ी से इंजील की मर्कज़ी तालीम के गीत गाते हैं।”

येसु मुझको करता प्यार


वो गुनाह मिटाता है

मुझ पर हुआ जान-निसार


बच्चों को बुलाता हे


कलीसिया के गीतों और ग़ज़लों का ज़्यादातर हिस्सा मसीह की मौत के बयान से मुताल्लिक़ है या सलीब पर मसीह के कफ़्फ़ारा होने के ख़्याल को ज़ाहिर करता है । कौन उस ख़ूबसूरत गीत के अल्फ़ाज़ को Haupt Voll Blut and Wunden भूल सकता है जो मुख़्तलिफ़ ज़बानों में तर्जुमा हो चुका है या कौन है जिसने जर्मन मसीहीयों को ये गीत एक मर्तबा गाते सुना हो और उस के सुरों की दिलसोज़ी और दिल गुदाज़ी को भूल जाये।

इसी मज़मून का एक और गीत Stabat Mater Doloros है जो लातीनी ज़बान में है। लेकिन वो फ़क़त लातीनी कलीसिया ही की मिल्कियत नहीं बल्कि तमाम ईमानदारों को मर्यम के हमराह मसीह की सलीब के पास आते हैं। इसी क़िस्म के ये गीत हैं :-

“मैं जैसा हूँ , ना उज़्र कर”


“एक चशमा शाफ़ी जारी है”

“सलीब पर जब मैं करूँ ध्यान”


और “येसु तू है मेरी आस”


वग़ैरा वग़ैरा सब के सब जिनसे क़रीबन तमाम मसीही जमात वाक़िफ़ है। मसीह की मौत के बयान से मुताल्लिक़ हैं। इसी तरह के और गीत भी हैं मसलन :-

दाग़ दिल के धोए कौन


"ख़ाली हाथ मैं आता हूँ


नंगा हूँ फ़क़ीर बदहाल


दे तू मुझे साफ़ पोशाक

लहू जो क्रूस से जारी" और


क्रूस पर तकिया करता हूँ


मुझ नाचार को कर निहाल


कर तू मेरे दिल को पाक"


अगर येसु नासरी हमारे ईमान के मुताबिक़ इब्नुल्लाह और हमारा मुनज्जी होने के बरअक्स फ़क़त एक इन्सान ही होता तो भी उस की होलनाक मौत तारीख-ए-इन्सानी में एक सबसे अहम वाक़ेअ होती उस के मस्लूब होने और दुख उठाने के मुताल्लिक़ उस के हम-अस्रों के बयानात की कसरत। निज़ाम-ए- क़ुदरत में ख़ौफ़नाक और अजीब वाक़ियात का ज़हूर में आना। सलीब पर के हफ़्त कलिमात और देखने वालों और अज़्मिना व अक़वामें आलम पर उस का हैरत-अंगेज़ असर ये सब के सब उस की आलमगीर एहमीयत का एक बय्यन और ज़बरदस्त सबूत हैं। चाहिए कि हम उस की एहमीयत को उस से जुदा ना करें।

मसीह की ज़िंदगी का सबसे आला और अफ़्ज़ल वाक़ेअ हमारे गुनाहों के लिए उसका सलीब पर मारा जाना था। जमीस डैनी के मुंदरजा ज़ैल अल्फ़ाज़ उस की एहमीयत को यूं ज़ाहिर करते हैं :-

"अगर कफ़्फ़ारा का मतलब उस की मुख़्तलिफ़ तारीफों के इलावा इन्सान के नज़दीक कुछ भी मअनी रखता है तो फ़िल-हक़ीक़त वही सब कुछ है। वो तमाम हक़ीक़तों में सबसे आला और अफ़्ज़ल है और तमाम बातों का मूजिद है। वो सबसे ज़्यादा हमारे ज़हन में ख़ुदा का इन्सान का तारीख़ का हत्ता कि क़ुदरत का तसव्वुर पैदा करता है। वह उनका ताय्युन करता है क्योंकि हमें ऐसी तर्कीब और तर्तीब से उन की तख़्सीस करनी है। कि इन में बाहमी मुताबिक़त और मुवाफ़िक़त पाई जाये। वह हमारे तमाम ख़्यालात को तहरीक देने वाला है और आख़िरकार मुसीबत और ग़म के वक़्त चारा-जुई करने में हमारी हिदायत व रहनुमाई करता है। कफ़्फ़ारा एक ऐसी हक़ीक़त है जिसमें बाहमी समझौता की मुतल्लिक़न गुंजाइश नहीं पस इन्सानी अक़्ल ख़्वाह ज़माना साबिक़ की ख़्वाह दौर-ए-हाज़रा की हो हर दौर के लिए मसीहीयत की कशिश या उस की शिकस्त दोनों इसी एक नुक़्ता पर मर्कूज़ हैं। मसीह की सलीब या तो इन्सान की अज़मत या आख़िर-कार उस की गुमराही का बाईस ठहरती है।”

मसीही मज़्हब फ़क़त एक दिमाग़ी या अक़्ली तसव्वुर ही नहीं बल्कि इन्सानी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ है । “और रास्तबाज़ ईमान से जीता रहेगा”लेकिन ये ख़ाली अज़ फ़ायदा ना होगा। कि इन वाबस्ता हालात का इज़्हार किया जाये। याद रखना चाहिए कि मसीहीयत का आग़ाज़ किज़्ब-ओ-दरोग़ से नहीं हुआ। और हम पर वाजिब है कि इस अम्र को ज़ाहिर करें क्योंकि ऐसा करना हमारे लिए मुम्किन भी है ।

अपने आग़ाज़ के मुताल्लिक़ मसीहीयत का अपना बयान तारीख़ी मुताला के उसूल से परखा जा सकता है। और मज़ीद दर्याफ़्त के ज़रीये से इस बयान की सदाक़त साबित हो सकती है बल्कि हो चुकी है। लेकिन तो भी अभी बहुत कुछ करना बाक़ी है। अगर हम देखना चाहें तो सबूत मौजूद है। इक़तिबास अज़"जदीद दर्याफ़्त और अह्देजदीद का मोतबर किताब साबित होना" मन तस्नीफ़ सर विलियम ऐम रामसे।

(Sir William M. Ramsay in Recent Discovery and the Trustworthiness of the New Testament.)

बाब दोम

"हमने दग़ा-बाज़ी की घड़ी हुई कहानीयों की पैरवी नहीं की"

वो जो ख़ुदा के इन बयानात पर यक़ीन लाते हैं जो उस ने अपने बेटे के मुताल्लिक़ अनाजील में रूह की हिदायत से लिखवाए हैं। इन की सदाक़त के मुताल्लिक़ अपने दिलों में किसी क़िस्म के शक व शुबहा को जगह नहीं देते। इन के पास रूह की गवाही मौजूद है कि जो कुछ लिखा है वो वाक़ई सच्च है। वह मुक़द्दस पतरस के साथ उस बात पर ईमान लाते हैं कि मसीह की मौत और उस के दुख उठाने के तमाम वाक़ियात और उस का जलाली तौर से ज़िंदा होना“दग़ाबाज़ी की घड़ी हुई कहानियां नहीं हैं”

पतरस मसीह की मुसीबत और उस के दुख उठाने का चशम-दीद गवाह था और मरकुस उस का शागिर्द था। मुक़द्दस यूहन्ना ने उस का बयान किया जो उस ने ख़ुद सुना। अपनी आँखों से देखा। बल्कि ग़ौर से देखा और अपने हाथों से छुवा था। (1 यूहन्ना 1:1)

मुक़द्दस मत्ती बारह शागिर्दों में से एक था। मुक़द्दस लूक़ा बताता है कि किस तरह उस ने अपने बयान के लिए निहायत एहतियात के साथ चशमदीद गवाहों की तलाश की ताकि "हमें असल हक़ीक़त मालूम हो जाएगी।”

उस पुर-तज़बज़्ब, शक व शुबहा और नुक्ता चीनी के ज़माने में ऐसे लोगों से वास्ता पड़ता है जो ना सिर्फ इन्जीली बयानात का बल्कि उन के मोतबर होने और उनकी सदाक़त का भी इन्कार करते हैं । बाअज़ हमें अलैहिदह बताते हैं कि येसु मसीह महिज़ एक फ़र्ज़ी और ख़्याली शख़्सियत है और उसकी ज़िंदगी की दास्तान दरहक़ीक़त "दग़ाबाज़ी की घड़ी हुई कहानियां हैं।” जिनकी इब्तिदा-ए-इब्तिदाई और वक़्ती रूमी, यूनानी और मिस्री तुहमात से हुई थी। क़दीमी मुल्हिदीन ने अपने अक़ाइद की बिना पर मसीह की मौत का इन्कार किया है। क़ुरआन में बह मुफ़स्सील यह बयान पाया जाता है कि :-

मसीह ना तो क़त्ल किया गया और ना मस्लूब हुआ "अल्लाह ने उन पर (यानी अहले यहूद पर) उन की बेईमानी की मुहर लगा दी उस वजह से कि उन्होंने कहा था यक़ीनन हमने मसीह येसु इब्ने मर्यम और ख़ुदा के रसूल को क़त्ल किया। लेकिन फ़िल-हक़ीक़त ना तो उन्होंने उसे क़त्ल किया और ना इसे सलीब दी। बल्कि उन की ख़ातिर उस का हम-शक्ल भेजा गया था" (4:156)

रासिख़-उल-एतक़ाद मुसलमान महिज़ उलमाए दीन और मुफ़स्सिरीन के इस बयान से मुताल्लिक़ तशरीहों और तफ़सीरों को अपनी बेएतिक़ादी की बिना क़रार देकर हमेशा मसीह की तसलीब की तर्दीद करते रहे हैं। इनके दरमियान उमूमन ये ख़्याल राइज है कि ख़ुदा ने उसके सताने वालों पर जादू डाल कर मसीह को इस होलनाक मौत से बचा लिया और उसके इव्ज़ यहूदा इस्करियुती को ये सज़ा उठानी पड़ी।

इसके मुताल्लिक़ मुख़्तलिफ़ तशरीहात मौजूद हैं। लेकिन इस अम्र पर सब मुसलमान मुत्तफ़िक़ हैं कि मसीह सलीब पर नहीं मारा गया। उसने हमारे गुनाहों की ख़ातिर अपनी जान फ़िद्या में नहीं दी। वो मुर्दों में से हरगिज़ ज़िंदा नहीं हुआ। और उसने इस जहान से दूसरे जहान की जानिब सलीब की राह से इंतिक़ाल ना किया।

स्टरास (Strauss) और दीगर अक़्ल परस्तों के इस नज़रिया को कि ऐन मौत से पेशतर मसीह का जिस्म सलीब पर से उतार लिया गया था। और कि वो क़ब्र में मुख़्तलिफ़ मसालों के ज़ेर-ए-असर ज़िंदा और ताज़ा-दम हो गया था। पंजाब के अहमदिया फ़िर्क़ा ने फ़ौरन तस्लीम कर लिया और उस फ़िर्क़ा के बानी मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादयानी ने भी नज़रिया मज़कूर को एक रुसी क़िस्सा नवीस नोनोविच (Nonovitch) की किताब"मसीह की नामालूम ज़िंदगी" से अख़ज़ किया। इस किताब के बयान के मुताबिक़ मसीह सफ़र करता हुआ हिन्दुस्तान में आया और यहां तालीम देता रहा। कुछ अरसा बाद मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने कश्मीर में मसीह की क़ब्र दर्याफ़्त की और अपने आपको मसीह-ए-सानी मशहूर किया।

इस जमात ने निहायत चालाकी और सरगर्मी से तमाम इस्लामी दुनिया को इस नए मुख़ालिफ़-ए-मसीह की तालीम से भर दिया है। मुल्क आयरलैंड का फ़सानानिगार जॉर्ज मोर (George Moore) तो अपनी किताब "दी ब्रूक केरीथ" (The Brook Kerith) में यहां तक कह जाता है कि मसीह फ़िल-हक़ीक़त सलीब पर नहीं मरा बल्कि बेहोश हो गया था और बादअज़ां वो होश में आकर और ताज़ा-दम हो कर अपनी सोशियल ख़िदमत को ज़्यादा वसीअ पैमाना पर अंजाम देता रहा। पस मग़रिब में इस नज़रिये के पेश करने वाले और मशरिक़ में आँहज़रत के सैंकड़ों मोअतक़िद कि जिनके एतिक़ाद की बुनियाद ईलाही मुकाशफ़ा पर क़ायम है हमारे पैग़ाम की सबसे आला तरीं और अफ़्ज़ल हक़ीक़त का इन्कार करते हैं।

लिहाज़ा हम अपने इस ईमान और उम्मीद के मुताल्लिक़ जिसके हम क़ाइल हैं क्या जवाब दे सकते हैं? क्योंकि हम उस के चशमदीद गवाह नहीं हैं। ज़बान अंग्रेज़ी में एक गीत है जिस के एक बंद का तर्जुमा कुछ यूं किया जा सकता है:-

"हमने ग़ौग़ाइयों और वहशी लोगों के दरमियान तुझे सलीब पर चढ़ाए जाते हुए। बचश्म ख़ुद नहीं देखा। ना हमने वो तेरी हलीम और पुर-मिन्नत सदा अपने कानों से सुनी कि ऐ बाप ! उन्हें माफ़ कर क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या करते हैं। ताहम इतना ज़रूर मानते हैं कि ये शर्मनाक फे़अल फ़िल-हक़ीक़त ज़हूर में आया कि जिससे कुल ज़मीन मुतज़लज़ल हुई और सूरज पर पर्दा ज़ुल्मत छा गया।”

हम क्यों इस के मोतक़िद हैं? ईमान सबूत पर मबनी होता है और यहां हैरत-अंगेज़ सबूत मौजूद हैं। अगर हम इस का बग़ौर मुताला करें तो इस से हमारा ईमान और भी ज़्यादा पुख़्ता और मज़बूत हो जाएगा।

सबसे पेशतर अगर हम ग़ौर करें तो ये मालूम हो जाएगा कि मसीह की मौत कोई ग़ैर मुतवक़्क़े बात ना थी। बल्कि इस का ज़िक्र वाज़िह तौर पर यहूदी पेशीनगोइयों के ज़रीया से किया गया था। और"एक ऐसे रास्तबाज़ आदमी" की क़िस्मत का बयान अफ़लातून ने भी इशारतन किया था। यशायाह नबी के सहीफ़ा का "यहोवाह का मुसीबतज़दा बंदा"दाऊद का ज़बूर जिसमें मसीह की मौत का नक़्शा खिचा है और दीगर मुक़ामात जहां मसीह की गिरफ़्तारी और उस की मौत के मुताल्लिक़ पेशीनगोई मर्क़ूम हैं। ये सब किताब मुक़द्दस के मुताअला करने वाले के लिए आम बातें हैं। इस आने वाले अहम वाक़ेअ की ख़बर मुद्दतदराज़ से दी जा रही थी।

यूहन्ना इस्तबाग़ी फ़रमाता है"देखो ख़ुदा का बर्रा" ये चंद अल्फ़ाज़ अह्देअतीक़ की तमाम तालीम का मजमूआ हैं। यानी बग़ैर ख़ून बहाए गुनाह की माफ़ी नहीं हो सकती । पस ज़रूर था कि ख़ुदा का बर्रा ज़बह किया जाये ताकि दुनिया के गुनाहों की माफ़ी हो। अगर हम इस हक़ीक़त से इन्कार करें कि "किताब मुक़द्दस के बमूजब मसीह हमारे गुनाहों के लिए मरा" तो अहदे अतीक़ एक मुअम्मा सा मालूम होगा जिसका हल मुम्किन नहीं।

बल्कि ख़ून की क़ुर्बानियां जो हर एक ज़माना और क़ौम में इन्सान के गुनाह की माफ़ी के लिए लाज़िमी तसव्वुर की जाती हैं एक ऐसा राज़ बन जाती हैं जिसके मआनी और मक़ासिद इन्सानी अक़्ल से बईद हो जाते हैं :-

"वो हमारे गुनाहों के सबब घायल किया गया और हमारी ही बदकारियों के बाईस कुचला गया। हमारी ही सलामती के लिए उस पर सियासत हुई ताकि उस के मार खाने से हम चंगे हों"

अल्फ़ाज़ माफ़ौक़ मसीह से 429 बरस पहले अफ़लातून के ज़माना से ज़रा पेशतर लिखे गए । अफ़लातून अपनी किताब पोलीशीह (Plitia) जिल्द चहारुम में एक ऐसे क़ुर्बान होने वाले नजातदिहंदा का ज़िक्र करता है जिसकी अज़हद ज़रूरत थी ताकि दुनिया की रास्तबाज़ी को अज़ सर नो बहाल करे।”

एक कामिल रास्तबाज़ बंदा जिसके साथ निहायत बे इंसाफ़ी का सुलूक रवा रखा जाये बल्कि जो कोड़े खाए सताया जाये बाँधा जाये जिसकी आँखों की बसारत भी जाती रही और उन तमाम मुसीबतों के बर्दाश्त करने के बाद सतून से बाँधा जाये वही इस दुनिया की असली और हक़ीक़ी रास्तबाज़ी को बहाल कर सकता है हमें उस से कुछ सरोकार नहीं कि अफ़लातून ने एक बेगुनाह शख़्स का गुनाहगारों के लिए दुख उठाने और ख़ुदा से फिर उनका मेल कराने का ख़्याल कहाँ से लिया। हमारे मतलब के लिए यही काफ़ी है कि ये ख़्याल मौजूद है। और क़रीब क़रीब इसी क़दर वाज़िह और रोशन है जिस तरह यशायाह नबी की किताब में ईलाही पैग़ाम ।

ये मुम्किन ही नहीं कि कोई “मर्दे ग़मनाक” और ज़लील व ख्वार हुए बग़ैर या मस्लूब हुए बग़ैर कामिल रास्तबाज़ी की ज़िंदगी बसर कर सके।

सलीबी मौत खुद ख़ुदावंद मसीह के लिए भी कोई नागहानी और ग़ैर मुतवक़्क़े आफ़त ना थी इस से उस की उम्मीदें शिकस्ता व मादोम ना हुई थीं। बल्कि बरअक्स इस के उसे ये ख़ूब मालूम था कि ये बात अटल है । उसने इस होलनाक वाक़ेअ का यक़ीनी तौर से वक़ूअ में आने का बारहा ज़िक्र किया था। अपनी ख़िदमत के आग़ाज़ ही में उस ने इस मुसीबत के अक्स को देख लिया था। अपने बपतिस्मा के वक़्त उसने जो गुनाह से बिल्कुल नावाक़िफ़ था अपने आपको गुनेहगारों के साथ शुमार किया। अपनी ख़िदमत के आग़ाज़ ही में उस ने शागिर्दी की तारीफ़ करते हुए इस की मिसाल सलीब बर्दारी से दी थी।

अपनी मसीहाई का इक़रार करने के बाद "येसु अपने शागिर्दों पर ज़ाहिर करने लगा कि मुझे ज़रूर है कि यरूशलेम को जाऊं..........और क़त्ल किया जाऊं चुनांचे आपने फ़रमाया कि :-

"इब्ने आदम आदमीयों के हाथ में हवाले किया जाएगा और वो उसे क़त्ल करेंगे और तीसरे दिन वो ज़िंदा हो जाएगा"

इजमाली इंजील के बयान के मुताबिक़ हमारे ख़ुदावंद कि ज़िंदगी के आख़िरी अय्याम बिलख़सूस अपने कम फ़ह्म शागिर्दों को अपनी होलनाक मौत की ख़बर देने और उन्हें उसका यक़ीन दिलाने में सर्फ़ हुए ।

मसीह के सलीब पर खींचे जाने का मुफ़स्सिल बयान जो अक्सर औक़ात चशमदीद गवाहों की शहादत पर मबनी है। ऐसा साफ़ और सरीह है कि इस में शक व शुबहा की हरगिज़ गुंजाइश नहीं रहती। उन्होंने उसकी शहादत ऐसे संजीदा और साफ़ अल्फ़ाज़ में दी है कि गोया उन्हें पहले ही से ये ख़्याल मद्द-ए-नज़र था कि इस हक़ीक़त के मुताल्लिक़ किसी क़िस्म के शक की कोई गुंजाइश बाक़ी ना रहे"येसु बड़ी आवाज़ से चिल्लाया और दम दे दिया......और जो सूबादार उस के सामने खड़ा था उसने उसे यूं दम देते हुए देखकर कहा ये आदमी बे-शक ख़ुदा का बेटा था" (मरकुस 15:37

मुक़द्दस यूहन्ना बयान करता है “उन में से एक सिपाही ने भाले से उस की पसली छेदी और फ़ील-फ़ौर उस से ख़ून और पानी बह निकला” फिर आगे चल कर यूं फ़रमाता है :-

जिसने ये देखा उसने गवाही दी है और उस की गवाही सच्ची है और वो जानता है कि सच्च कहता है ताकि तुम भी ईमान लाओ।”

ये अल्फ़ाज़ किसी ऐसे शख़्स के नहीं जो सादा-लौह और ज़ूद एतिक़ाद हो या जिसने धोका खाया हो। उस सूबादार ने बाक़ायदा अपनी मंसबी हैसियत में पिलातुस को इस अम्र की ख़बर दी और उसे मसीह की मौत का यक़ीन दिलाया। (मरकुस 15:44)

अरमतीयह के यूसुफ़ ने मसीह की लाश को क़ब्र में दफ़न किया जहां मर्यम मगदलीनी और मसीह की वालिदा ने उसे क़ब्र में मुर्दा देखा।(मरकुस 15:47)

अहद-ए-जदीद के तमाम मुसन्निफ़ीन ने मसीह की मौत का असल वाक़ेअ सुपुर्द-ए-क़लम किया है। आमाल की किताब में किसी मुक़ाम पर भी कोई आवाज़ मसीह के मस्लूब होने का इन्कार करती हुई सुनाई नहीं देती । बहुत सी सदीयां बीत जाने के बाद हज़रत-ए-इन्सान को ये जसारत और दिलेरी होती है कि उस तारीख़ी वाक़ेअ के मुताल्लिक़ शक को जगह दे और अपनी दग़ाबाज़ी की घड़ी हुई कहानीयों को मुश्तहिर करे।

क़दीम तहरीरात का ज़बरदस्त मुताअला करने वाला और नुक्ता संज जोज़फ़ कलासनर अपनी जदीद तस्नीफ़"नासरत का येसु" में लिखता है कि इजमाली अनाजील मोतबर हैं और येसु उन के बयान के मुताबिक़ दुनिया में पैदा हुआ और मर गया चंद साल का अरसा गुज़रा कि सामुएल ई स्टोक्स (Samuel, E, Stokes) ने मसीही बयानात की सदाक़त का इज़्हार करने के लिए यहूदी और बुतपरस्त मुसन्निफ़ीन की शहादतों को फ़राहम किया।

मुम्किन है कि बहुत से लोग इस इंजील की ताईद व तस्दीक़ के मुताल्लिक़ जिस पर वो शक करते हैं । प्लीनी Pliny, टेकीटस (Tacitus), लोशीयन (Lucian) , युसिफस (Jesephus) बल्कि सेल्सस (Celsus) की अरा को सुनना चाहें क्योंकि ये लोग मसीही जमात के दायरे से बाहर थे। टेकीटस रुम की आतिशज़दगी का ज़िक्र करते हुए बताता है कि किस तरह नीरू ने अपने ऊपर से शुबा मिटाने की कोशिश की और लिखता है कि :-

"पस इस ख़बर को फुर्र करने के लिए नीरू ने अपने इव्ज़ उन लोगों को मुजरिम ठहराया जिनसे अवामुन्नास उन के पोशीदा जराइम के बाईस नफ़रत करते हैं। उन्हें मसीही कह कर पुकारते हैं मसीह जिसके नाम से वो नामज़द हैं क़ैसर तबरईयास के अह्द में पनतुस पिलातुस हाकिम के हुक्म से मारा गया था। और वो मुज़िर तुहमात कुछ अरसा के लिए दब गए थे फिर कुछ अरसा के बाद वो अज़-सर-नूं सिर्फ़ यहुदियाह में जहां उस बिद्दत का आग़ाज़ हुआ था बल्कि रुम में फूट निकले जहां हर क़िस्म के क़त्ल और नजिस बेशर्मियाँ और क़बायह बाहम मिलकर राइज हो जाते हैं पस सबसे पहले उन में से बाअज़ को गिरफ़्तार किया और उन से जबरन इक़रार कराया फिर उन के इत्तिला देने पर एक अनबोह-ए-कसीर मुजरिम क़रार दिया गया। महिज़ इसलिए नहीं कि उन पर जुर्म-ए-आतशज़दगी साबित हुआ था बल्कि ज़्यादा-तर इस लिए कि वो इन्सानी नसल से नफ़रत रखने जुर्म के मुर्तक़िब थे वो ना सिर्फ क़त्ल ही किए गए। बल्कि निहायत बेइज़्ज़ती के साथ मारे गए यानी उन में से बाअज़ को जंगली दरिंदों की पोस्तीनें पहनाई गईं और फाड़ डालने वाले कुत्तों से फड़वाए गए। या सलीब पर लटकाए गए और फिर उन को आग लगादी गई। अक्सर औक़ात ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब के बाद उन के जिस्मों को जलाया गया ताकि रात के वक़्त रोशनी का काम दें (अनलिज़ 15:44) (Annales 15:44)

सामोसटा कालूशैन lucuan of Samosata जो 100 ई. में पैदा हुआ था। अपनी किताब "परीगरीयन्स की वफ़ात" (Death of Perigrius) में यूं कहता है :-

मसीही अब तक उस बुज़ुर्ग शख़्स की परस्तिस करते हैं जो मुल़्के फ़लस्तीन में मस्लूब किया गया था। इसलिए कि वही दुनिया में इस नए मज़्हब का बानी था। इन कमबख़्तों को ये यक़ीन-ए-वासिक़ है कि वो ग़ैर-फ़ानी हैं और ताअबद ज़िंदा रहेंगे। चुनांचे इसी सबब से वो मौत की चंदाँ परवाह नहीं करते। बल्कि बहुत से उन में से ख़ुशी के साथ अपने आपको मौत के हवाले कर देते हैं। इन के पहले शरीयत दहिंदा ने उन्हें यक़ीन दिलाया है कि जब वो एक मर्तबा यूनानी देवताओं का इन्कार कर देते हैं और अपने उस मस्लूब सोफ़सती पर ईमान ले आते हैं और उस के अहकाम वफ़र अमीन के मुताबिक़ अपनी ज़िंदगीयां गुज़ारते हैं तो वो एक दूसरे के भाई बन जाते हैं ।

युसीफ़स की किताब एनटीकोटीज़ (Antiquities.) के दो मशहूर मुक़ामात से सब वाक़िफ़ हैं और ग़ालिबन वो असली और सही हैं। बहर-ए-हाल युसीफ़स की तमाम तारीख़ इंजील की ताईद करती है। हेरोदेस आज़म, उस का बेटा आरकैलास, हेरोदेस अनतीपास, हेरोदियास और उस की बेटी सलोमी, यूहन्ना इस्तबाग़ी, हन्ना काइफ़ा, पनतूस पिलातुस, फेलिक्स और उस की बीवी ड्रोसला जो यहुदन थी। हेरोदेस अगरपा, बरनीकी, फ़रीसी और सदुती येह तमाम युसीफ़स की तारीख़ में मज़कूर हैं। बल्कि उनका ज़िक्र और उन का बाहमी ताल्लुक़ भी बईना वही है जो अहद-ए-जदीद में मर्क़ूम है।

सेल्सस 170 ई. में एक एपीकीवरीन फिलासफर गुज़रा है जो मसीहीयत का एक निहायत ज़बरदस्त मुख़ालिफ़ था। उस की तस्नीफ़ "दी ट्रू डिस्कोर्स" The True Discourse के जवाब में ओरीजन लिखता है कि सेल्सस मसीह की जानकनी की तरफ़ इशारा करते हुए उस का मुज़हका उड़ाता है और उस के सबूत में मसीह का ये कलिमा पेश करता है "ए बाप अगर मुम्किन हो तो ये पियाला मुझसे टल जाये" वो मसीह "मस्लूब मसीह" कहता है और उन की बाबत जिन्होंने उसे सलीब दी थी यूं कहता है "तुम जिन्होंने अपने ख़ुदा को सलीब पर खींचा" वो मसीही अक़ीदा यानी उस पर कि “मसीह ने ये मुसीबत बनीनौ इन्सान के फ़ायदे के लिए उठाई” हमला करता है और मसीह के ज़िंदा होने की हक़ीक़त को ग़लत साबित करने की कोशिश करता है। वो फ़रिश्तों की तरफ़ इशारा करता है जो मसीह की क़ब्र पर ज़ाहिर हुए और जिन्होंने क़ब्र पर से पत्थर लुढ़काया था। वो जिस्म के ज़िंदा होने के मुताल्लिक़ मसीहीयों के ईमान की बेवक़ूफ़ी ज़ाहिर करने की कोशिश करता है और उन की तज़हीक करता है। इसलिए कि उन्होंने कहा कि "दुनिया मेरे एतबार से मस्लूब हुई और मैं दुनिया के एतबार से।”हमारे ख़ुदावंद की मौत और ज़िंदा होने के मुताल्लिक़ इंजील के एक मुख़ालिफ़ की ये शहादत एक निहायत अहम बात है।

इक़तिबास"यहूदीयों और बुतपरस्तों के मुताबिक़" सामुएल स्टोक्स सफ़ा 48 Samuel. E. Stokes The Gospel according to Jews and Pagans.

हमें ये तस्लीम करना पड़ता है कि अगर इन्सानी तारीख़ में कोई ऐसा वाक़ेया है जिसका सबूत मौजूद है तो वो ख़ुदावंद मसीह की मौत का बयान है। अशाए रब्बानी के मुक़र्रर किए जाने और ख़ुदावंद के पाक दिन के माने जाने से भी इस अम्र की ताईद व तस्दीक़ होती है।

रोटी का तोड़ना और पियाले में से पीना उसी रात से शुरू होता है। जिस रात येसु पकड़वाया गया था। उस ने ख़ुद उस साकरीमन्ट को मुक़र्रर किया और मसीही कलीसिया में आम तौर पर मक़बूलियत हासिल करना भी एक क़िस्म से मसीह की मौत का यक़ीनी और माक़ूल सबूत है ख़्वाह इस रस्म के मुताल्लिक़ मुख़्तलिफ़ तशरीहात क्यों ना की जाएं या तरीक़ इबादत एक दूसरे से मुतफ़र्रिक़ क्यों ना हो। ऐसी मुसलसल रिवायत एक क़िस्म का तारीख़ी सबूत है जिससे इन्कार करना नामुम्किन है। बईना जिस तरह दीन इस्लाम में मुहर्रम के होलनाक वाक़ेअ की रसूम को तारीख़ी तहरीरात की अदमे मौजूदगी में हज़रत इमाम हुसैन शहीद कर्बला की शहादत का सबूत तस्लीम करते हैं।

येसु मसीह ने फ़रमाया था कि "वो सबत का मालिक"है। और उस ने इस हक़ीक़त का सबूत यूं दिया कि उस की मौत और उस के फिर ज़िंदा होने के बाद कलीसिया ने फ़ौरन यहूदीयों के सातवें रोज़ के बजाय हफ़्ता के पहले दिन को पाक मानना शुरू कर दिया। पस ख़ुदावंद का दिन बज़ात-ए-ख़ुद मसीह की मौत और उस के जी उठने का सबूत है। ग़ैर-मसीही मज़ाहिब में से हर एक का जुदागाना निशान है मसलन कनुल की कली, स्वास्टीका और हिलाल के निशानात वग़ैरा। सलीब मसीही मज़्हब का निशान है। पस वो जो पहले ज़िल्लत, शर्म रुस्वाई जुर्म व खता और इंतिहाई बेचारगी और दरमांदगी का निशान थी अब क्योंकर अज़मत विस्र फ़राज़ी, शुजाअत, शफ़क़त और रहमत का निशान बन गई । इस का जवाब बजुज़ इस के और कुछ नहीं कि ये उस के ज़रीये से हुआ जो सलीब पर खींचा गया था। उस ने हमें और सलीब दोनो को उस लानत से मख़लिसी बख़्शी।

आख़िर में अगर अब भी कोई अस्हाब ऐसे हों जिन्हें अह्दे-जदीद की तालीम की मर्कज़ी हक़ीक़त के तारीख़ी बयान के मुताल्लिक़ कुछ शक व शुबहा हो तो हनूज़ इब्तिदाई मसीही यादगारें और आसार और तहखाने मौजूद हैं जो ज़बाने हाल से अपने मख़्सूस निशानात और सलीब की जानिब अपने इशारात से ये सदा बुलंद कर रहे हैं कि मसीह किताब मुक़द्दस के मुताबिक़ हमारे गुनाहों के वास्ते क़ुर्बान हुआ।

कार्लाइल (Carlyle) और एमर्सन (Emerson) की बाहमी ख़त-ओ-किताबत में हम देखते हैं कि आख़िर-उल-ज़िक्र ने एक मर्तबा कार्लाइल के वो अल्फ़ाज़ याद किए जो उस ने अपनी मुलाक़ात के मौक़ा पर कहे थे। यानी "मसीह ने सलीब पर अपनी जान दी और उस के उस फे़अल से इस सामने के गिरजाघर यानी डनसर कोरकिर्क की बुनियाद रखी गई और उस ने हम दोनों को बाहम मिला दिया। इमत्तीदाद-ए-ज़माना तो फ़क़त बाहम मिलाने वाला रिश्ता है।”

हमें ईमान के सबूत के लिए और किस शहादत की ज़रूरत है? बे-एतिक़ादी की हद इस से ज़्यादा और क्या हो सकती है कि उसने ऐसे नज़रीए पेश किए हैं जो मसीह की ज़िंदगी और उस की मौत और उस के जी उठने की तारीख़ी हक़ीक़त की तर्दीद करते हैं !

मसीह किताब-ए-मुक़द्दस के बमूजब मरा और दुबारा जी उठा। अम्बिया ने उस की मौत की पेशीनगोई की। रसूलों ने उसे क़लम-बंद किया । तमाम दीनी कुतुब कफ़्फ़ारा पर मर्कूज़ हैं और मस्लूब और ज़िंदा नजातदिहंदा की गवाही देती हैं वो बुनियादी और आलमगीर मौज़ूअ जो बाइबल शरीफ़ के पैग़ाम का मर्कज़ है इस सवाल का जवाब है कि गुनहगार इन्सान फिर ख़ुदा के हुज़ूर क्योंकर रास्तबाज़ ठहर सकता है। यानी मसीह की मौत के ज़रीये से जो हमारा कफ़्फ़ारा है बजुज़ उस के कोई दूसरा तरीक़ा नहीं। कोई और ख़ुश-ख़बरी नहीं। अगर ये बातिल है तो हमारा ईमान भी जिस पर मसीहीयत का दार-ओ-मदार है। बेफ़ाइदा है क्योंकि हमारे पास मासिवाए उस के और कोई ख़ुशख़बरी नहीं कि मसीह हमारे लिए मरा और हमारी अदालत के लिए फिर ज़िंदा हुआ।

"ना तो हम तेरी ख़ाली गुर के पास खड़े हुए कि जिसमें तेरा जिस्म अतहर रखा गया। ना हम उस बालाखाना में बैठे ना राह चलते में कहीं हमने तुझे देखा। लेकिन हम जो फ़रिश्तों ने कहा सर आँखों से मानते हैं कि ज़िंदा को मुर्दों में क्यों ढूंडते हो?

ख़ुदावंद! तू अपने गाड़े ख़ूनी पसीने की ख़ातिर

अपनी रुहानी जान कुंदनी की ख़ातिर

अपने ख़ारदार और ज़ख़्मी सर की ख़ातिर

अपनी अशक बार आँखों की ख़ातिर

अपने तौहीन और तन्ज़ आमेज़ कलिमात से पुर कानों की ख़ातिर

अपने पित और सिरका से नम दहन की ख़ातिर

अपने उस चेहरे की ख़ातिर जिस पर थूका गया था

अपनी उस गर्दन की ख़ातिर जो सलीब के बार से ख़म हो रही थी

अपनी उस कमर की ख़ातिर जो कोड़ों की मार से ज़ख़्मी हो रही थी

अपने मजरूह हाथ और पांव की ख़ातिर

अपने छेदे हुए पहलू की ख़ातिर जिससे आब व खून रवां थे

और अपने ज़ख़्मी बदन की ख़ातिर जिससे जोय ख़ून जारी थी

अपने बंदे की बदी को माफ़ फ़र्मा और उसके तमाम गुनाहों की पर्दापोशी कर

बाब सोम

"और उन्होंने उस की आँखें बंद कीं"

(लूक़ा 22:64 + मरकुस 14:65 + मत्ती 26:68)

तारीख़ के मुताबिक़ मसीह का दुख उठाना एक देरीना वाक़ेया है। वो एक मर्तबा गुनाहों की ख़ातिर मर चुका और हर रोज़ नहीं मरता। मौत का अब उस पर कोई इख़्तियार नहीं। लेकिन रूहानी तौर से उस का दुख बराबर बरक़रार है। रुहानी तौर से वो इन्सान की माहीयत में हर-रोज़ दुख उठाता है। हम उसे अज़सर नौ सलीब पर खींचते हैं । हम मुतवातिर मसीह से सरकशी व रुगरदानी करते हैं। उसे फ़रामोश करते उस का इन्कार करते । उस की आँखें बंद करके उस पर थूकते हैं। उसे कोड़े मारते । उस का मुज़हका उड़ाते और उसे सलीब देते हैं।

साथ मस्लूब हुआ हूँ। होरशीयश बोनर (Horatius Bonar) ने हम सबकी तरफ़ से किया ख़ूब और सच्च कहा है :-

"मैं ही तो था जिसने मसीह का खून-ए-पाक बहाया और उसे सलीब पर कीलें जड़ीं।

हाँ मैं ही तो था जिसने ख़ुदा के मसीह को सलीब दी। और उस के ठठा करने वालों में शामिल हुआ I

मैं महसूस करता हूँ कि उस ग़ौग़ाई अबनोह कसीर मैं भी एक हूँ और उन नाशाइस्ता और करख़त आवाज़ों के दरमियान में अपनी आवाज़ ख़ूब पहचानता हूँ।

सलीब के चौगिर्द में एक बड़ा मजमा देखता हूँ जो उस सितम-रसीदा शख़्स की आह-ए-पुर दर्द का तमस्खर करता है। लेकिन वो मुझे अपनी ही आवाज़ मालूम पड़ती है गोया अकेला मैं ही हूँ जो उस का मुज़हका उड़ा रहा हूँ।”

"और जो आदमी येसु को गिरफ़्तार किए हुए थे। उसको ठट्ठे में उड़ाते और मारते थे और उस की आँखें बंद करके उसे ये कह कर पूछते थे नबुव्वत से बता तुझे किस ने मारा"?

तब बाअज़ उस पर थूकते और उस का मुँह ढाँकने और उस के मुक्के मारने और उसे कहने लगे नबुव्वत की बातें सुना ! और प्यादों ने उसे तमांचे मार मार के अपने क़ब्ज़े में ले लिया।”

दुनिया के मश्हूर और नामवर मुसव्विरों ने बजुज़ इस ख़ास वाक़ेया के मसीह के दुख उठाने के दीगर तमाम वाक़ियात की तस्वीर खींची है। लेकिन ये नज़ारा इस क़दर होलनाक और पुरमाअनी है कि हैरत होती है कि किसी मुसव्विर के मोए क़लम ने क्यों उस अजीबो गरीब नज़ारा के मआनी गहराई का नक़्शा नहीं खींचा।

सुब्ह-ए-सादिक़ से पेशतर का आलम है और काइफ़ा के महल का सेहन तमाम जगह माहताब की रोशनी से मुनव्वर हो रहा है और आग जो हाज़िरीन को गर्म रखने के लिए रोशन की गई है सेहन में चहार सो अपने शोलों का अक्स फेंक रही है। ऐन दरमियान में चशम बस्ता मसीह को बिठाया गया है। उस के चौगिर्द ऐसे लोगों का मजमा है जो अपनी नफ़रत के बाईस बिल्कुल अंधे हो रहे हैं। इस मजमें के बाअज़ शुरका ग़ालिबन सनहीडर्न के ख़िदमत गुज़ार और सरदार काहिन के भाड़े के टट्टू थे। और ग़ालिबन सब मसीह के हम क़ौम ही होंगे। बाअज़ ने इन में से ज़रूर मसीह को देखा होगा और उस का कलाम भी सुना होगा और शायद उस के मोजज़ात का भी मुशाहिदा किया होगा। बाग़ गतसमनी में वो उस की निगाह से गुरेज़ करते रहे लेकिन यहां वो उस की आँखें बंद करके उस का मुज़हका उड़ा रहे हैं।

आह! उन के दिलों पर किस क़दर ज़ुल्मत तारी हो गई होगी जो उन्होंने ऐसा किया और मसीह के साथ ऐसा सुलूक जायज़ क़रार दिया ! आह ! क्या यह मुहब्बत और सदाक़त का इन्तिहाई अदम-ए-एहसास नहीं? और क्या ये पाकीज़गी के हुस्न व जमाल की तरफ़ कोरचशमी और अंधापन नहीं मुक़ाम-ए-सद-अफ़्सोस है कि ये शर्मनाक सुलूक उन्होंने उस येसु नासरी के साथ किया जिसने यरूशलेम में एक नाबीना शख़्स को बीनाई बख़्शी थी। उन्होंने उस की आँखों पर पट्टी बाँधी ! क्या मलख़ूस भी उन के दरमियान था और क्या काइफ़ा ने उस में हिस्सा लिया था ! क्या पतरस ने बाहर जाकर ज़ारज़ार रोने से पेशतर इस नज़ारे को देखा था?

बाद में उसने इस ख़ौफ़नाक रात का हाल बयान किया जब वो आग ताप रहा था लेकिन उस की रूह काँप रही थी :-

"क्योंकि मसीह भी तुम्हारे वास्ते दुख उठाकर तुम्हें एक नमूना दे गया है.......................और ना उस के मुँह से कोई मक्र की बात निकली। ना वो गालियां ख़ा कर गाली देता था और ना दुख पाकर किसी को धमकाता था। बल्कि अपने आपको सच्चे इन्साफ़ करने वाले के सपुर्द करता था.............और उसी के मार खाने से तुमने शिफ़ा पाई"

हाँ पतरस ने कुछ फ़ासले पर से ज़रूर उस का मुशाहिदा क्या होगा क्योंकि उस वाकिया की शर्मिंदगी और जानकनी से उस का दिल निहायत अफ़्सुर्दा व बेक़रार था। येसु की आख़िरी निगाह पेशतर इससे कि उस की आँखें बाँधी गईं। पतरस पर थी जिसने मुलाज़मीन के रूबरू अपने ख़ुदावंद का इन्कार किया था।

ख़्वाह मसीह की मौत और उस के दुख उठाने का बयान कितना ही मुख़्तसर क्यों ना हो हम इस बुज़दिली, ज़ुल्म और बईद-उज़-अक़्ल और गैरवाजिब हसद का अंदाज़ा लगा सकते हैं जो हमारे नजातदिहंदा के साथ रवा रखे गए। क्या वजह थी कि उन्होंने उस की आँखों पर पट्टी बाँधी? क्या इस की ये वजह ना थी कि उस की आँखों में उनकी बे-एतिक़ादी के बाईस एक पाकीज़ा इस्तिजाब और उन की जहालत के सबब तरस मौजूद था लेकिन बावजूद इस के इन से एक ऐसा नूर रोशन था जो शोला नाज़ बन कर उन के ज़मीरों को जला रहा था। वो उस को रूबरू देखने की ताब ना ला सके।

पस बाक़ौल मुक़द्दस मरकुस"बाअज़ ने उस पर थूकना शुरू किया।” बाअज़ ने "जब उसे ठट्ठों में उड़ा चुके तो उस पर से अर्ग़वानी चोग़ा उतार कर उसी के कपड़े उसे पहनाए"उनकी बुज़दिली का मुक़ाबला फ़क़त उनका हसद कर सकता था। उन्होंने उसे मारा और उन्होंने उसे ठट्ठों में उड़ाया और "उन्होंने ताने और बहुत सी बातें उस के ख़िलाफ़ कीं।”

उनका हसद बईद अज़ अक़्ल और ग़ैर वाजिब था। उन्होंने ऐसे मौक़े पर सबूत के लिए इसरार किया। जहां सबूत की कुछ ज़रूरत ही ना थी। उन्होंने नबुव्वत का फ़ालगोई से मुक़ाबला किया। और चशम बस्ता क़ैदी और आजिज़ येसु मसीह को पत्थर मार मार कर चाहा कि वो उन की मुत्तफ़िक़ा तकफ़ीर के मुताल्लिक़ जुदागाना तौर पर बताए और इस तरीक़ से उन्होंने नबुव्वत की कसर-ए-शान की। उन्होंने कहा"नबुव्वत से हमें बता कि तुझे किस ने मारा।” किसी एक शख़्स ने उसे नहीं मारा था बल्कि एक क़ौम और तमाम इन्सानी नसल ने उसे मारा था।”

“वोह मर्द-ए-ग़मनाक और रंज-आशना हुआ और वो लोग गोया उस से रुपोश थे।” या गोया जब हम आप उस से रुपोश ना हो सके तो हम ने उस की आँखों पर पट्टी बाँधी और उस के चेहरे को छुपा दिया।

ज़मानों की बे-एतिक़ादी और कुफ्र इस वाक़िये से वाबस्ता है बाअज़ हमेशा से डरते रहे हैं और इस वजह से उन्होंने मसीह के चेहरे को देखना ना चाहा तारीख़ से ज़ाहिर होता है कि लोग मसीह का इक़रार करने से ये कह कर गुरेज़ करते रहे हैं कि वो महिज़ एक अफ़साने की हैसियत रखता है। पस इसलिए उन्होंने उस के चेहरे पर निगाह करने से इन्कार किया।

किस क़दर मशहूर तारीखें और मदारिस की दर्सी कुतुब महिज़ एक ना-मुकम्मल और सरसरी से बयान से मसीह की आँखों पर पट्टी बांधती हैं !

बे-एतिक़ादी बाइबल के औराक़ को बंद करके आँखों पर पट्टी बांधती है और इस तौर से उस के मुबारक पैग़ाम को बच्चों तक पहुंचने से रोकती है। या ये कह कर उसे अलमारी के तख़्ते पर पड़ा रहने देती है कि "ये एक मुस्तनद तस्नीफ़ है जिसके मुताल्लिक़ सबको इल्म है लेकिन कोई इसका मुताला नहीं करता।” लोग मिंब्बरों पर से और अपने बिद्दत आमेज़ ख़्यालात की नशरो इशाअत से मसीह की आँखों पर पट्टी बाँधते हैं और बाद अज़ां उस के नबुव्वती मन्सब और उस के मसीहयाई जलाल का मुज़हका उड़ाते हैं जब कुफ़्र और अल्हाद मुनज्जी आलमयान की आँखों पर पट्टी बांध चुकते हैं तब वो उस के मुँह पर थप्पड़ मारते हैं"

वालटीयर (Voltaire), नीटशे (Nietzsehe), और रीनान (Renan), बेबल (Babel), पेन (Paine), इंगरसोल (Ingersoll) और इसी क़ुमाश के दीगर अश्ख़ास ने जो हालाँकि मज़कूरा बाला मुल्हदीन की मानिंद मशहूर ना थे लेकिन तो भी अक़ाइद उन के हम ज़बान और हम ख़्याल थे। इस अम्र पर इत्तिफ़ाक़ किया है कि पहले मसीह की आँख पर पट्टी बांधे और फिर उस की उलूहियत का इन्कार करें। यानी इस से पेशतर कि वो उस के जलाल और उस की अज़मत पर हमला करें उस के चेहरा को छुपा दें।

शहर थीगीयुर (Theguir) रमेन का ज़ाद बोम है और एक ख़ानक़ाह से मुताल्लिक़ क़दीम शहर है। उस के बाशिंदे निहायत नेक और दीन-दार हैं। वो जो दी दरिया के साहिल पर एक कोह पर वाक़ेअ है। ऐन लब-ए-दरया एक ऐसे मुक़ाम पर जिस पर हर राह गुज़रने वाले की नज़र यक-दम पड़ती है सफ़ैद पत्थर की एक मोरी बनी है जिसमें पूरे क़द के तीन सलीब नस्ब हैं और दर्मयानी सलीब के नीचे तीन ज़बानों में ये अल्फ़ाज़ कुंदा हैं :-

"ये आदमी बेशक ख़ुदा का बेटा था" इस कलवरी के मुताल्लिक़ क़िस्सा मशहूर है कि जब रेनन की शान में उस का बुत शहर के कैथडर्ल के क़रुब में नस्ब किया गया तो बाअज़ ने अपने इज़्हार-ए-नाराज़गी के लिए उस कलवरी को बनवाया था।

इस चशम बस्ता मसीह की तसलीब का इन्जीली बयान निहायत दर्दनाक है और उस का मुताला करते हुए दिल को बहुत रंज और सदमा होता है। लेकिन जब इस बात पर ग़ौर करते हैं कि किस तरह उन्नीस सदीयों तक बराबर लोग उसे चशम बस्ता करके ठट्ठों में उड़ाते रहे हैं। तो हमारे ग़म व अलम की कोई इंतिहा नहीं रहती।

नीटशे के मुंदरजा ज़ैल अल्फ़ाज़ से बढ़कर कुफ़्र आमेज़ और रंज आलूद अल्फ़ाज़ और क्या हो सकते हैं "इंजील या ख़ुशख़बरी" का ख़ातमा सलीब पर हो गया। वो जो उस के बाद इंजील कहलाई वो उस इंजील के बरअक्स थी जो मसीह की ज़िंदगी से वाबस्ता थी। दरहक़ीक़त वो बद और मनहूस ख़बर थी।” हालाँकि नटीशे बाज़-औक़ात ख़ुद मसीह की ज़ात के मुताल्लिक़ निहायत मुशफ़िक़ाना तरीक़ से इशारा करता है और शाज़ोनादर ही "यहूदीयों के इस मुख़्तसर से फ़िर्क़ा के बानी" की मज़म्मत करता है लेकिन तो भी वो मसीहीयत के नाम से और पौलुस रसूल के नाम से जो इंजील जलील का मुबश्शिर था सख़्त मुतनफ़्फ़िर था।

कुफ़्र व बेदीनी का हसद अस्र हाज़िरह में भी ठीक वैसे ही नुमायां है जैसे काइफ़ा के कमरा अदालत में था। लोग मसीह से गुरेज़ नहीं कर सकते। उस का चेहरा अज़बस जाज़िब-ए-तवज्जोह है। उस की आँखें शोला आतिश की मानिंद हैं। या तो वो इन्सान को अपनी जानिब खींच लेता है या वो उस से बिल्कुल दूर हो जाता है। मसीह का ये वस्फ़ ख़ुसूसी ज़माना गुज़श्ता की तरह अब तक बरक़रार है।

"क्या यही वह चेहरा है जिसकी दहश्त से सराफ़ीम आलम-ए-बाला पर अपना मुँह छिपा लेते हैं ? क्या यही वो चेहरा है जिस पर कोई दाग़ या झुर्री नहीं। हाँ वो चेहरा जो मुहब्बत का चेहरा है? बिलाशक यही वह चेहरा है जो गो अब बदनुमा और बे जान है ताहम तमाम मख़्लूक़ात की मुहब्बत के लिए मुकतफ़ी है। जिससे मुहब्बत ईलाही का इक़तिज़ा पूरा हो गया है। हाँ वो चेहरा येसु मसीह का चेहरा पाक है।”

अह्देअतीक़ के मुक़द्दसिन अज़बस आर्ज़ूमंद थे कि ख़ुदा के जलाल का दीदार उस के मसीह के चेहरे से हासिल करें यही मूसा की दुआ थी। यही दाऊद की उम्मीद थी। यही यशायाह की तमन्ना थी"कब तक तू अपना मुँह मुझसे छुपाएगा?” अपने बंदे को अपने चेहरा का जलवा दिखला।” अपने ममसोह के चेहरे को मत फिरा।” मुझे से मुँह ना मोड़ नहीं तो मैं इन की मानिंद हो जाऊंगा जो गढ़े में गिरते हैं। “जब यशायाह ने उस का जलाल देखा और उस की मुसीबत का बयान किया तो उसने उस ख़ौफ़नाक दिन की पेशीनगोई इन अल्फ़ाज़ में की” :-

“मैं अपनी पीठ मारने वालों को देता और अपने गाल उन को जो बाल को नोचते । मैं अपना मुँह रुस्वाई और थूक से नहीं छुपाता" “वह मर्द-ए-ग़मनाक और रंज का आश्ना हुआ लोग उस से गोया रुपोश थे।” “बल्कि तुम्हारी बदकारीयाँ तुम्हारे और तुम्हारे ख़ुदा के दरमियान जुदाई करती हैं और तुम्हारे गुनाहों ने उसे तुमसे रुपोश किया।” इन्होंने इस की आँखों पर पट्टी बाँधी।”

और शायद यशायाह की पेशीनगोई यूं पूरी हुई :-

“अंधा कौन है मगर मेरा बन्दा ? और कौन ऐसा बहरा है जैसे मेरा रसूल जिसे मैं भेजूँगा। अंधा कौन है जैसा कि वो जो कामिल है और ख़ुदावंद के ख़ादिम की मानिंद अंधा कौन है?”

जब हम ऐसे अल्फ़ाज़ पर ग़ौर करते हैं तो उस वक़्त हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि येसु मसीह कैसी सख़्त मुसीबत और तक्लीफ़ की हालत में से गुज़रा होगा। जब उसने चशम बस्ता हो कर उम्दन व क़सदन कुफ़्र व बेदीनी व जहालत का शख़्सी तजुर्बा हासिल क्या होगा। बेदीनी और कुफ्र की बे-एतिक़ादी कोई नई बात नहीं। ज़मानों के शुरू से लोग अम्बिया किराम से जिन्होंने ख़ुदा की शहादत दी है ऐसे सबूत तलब करते रहे हैं जो आज तक उस चर्ख़-ए-कुहन के नीचे कभी किसी बात के लिए तलब नहीं किए गए जब कभी ये कहा गया है कि मसीह पर ईमान लाओ तो इस क़िस्म के सवालात का अंबार लग जाता है। मसलन उस के मोजज़ात कहाँ हैं? क्या वो कोई निशानात ज़ाहिर करता था? हम क्यों उस के कलाम पर ईमान लाएं ? क्या उस की कोई पेशीनगोई पूरी हुई है? “हमारे पैग़ाम पर कौन एतिक़ाद लाया और ख़ुदावंद का बाज़ू किस पर ज़ाहिर हुआ?”

हम या तो मसीह से मुँह फेर लेते हैं या ख़ुद उसे चशम बस्ता कर देते हैं और यूं क़ाइल हुए बग़ैर या इत्मीनान-ए-कुल्ली हासिल किए बग़ैर रह जाते हैं। सरदार काहिन के मुलाज़िमों ने कुछ ना देखा था। लेकिन इस की एक निगाह ने पतरस की ज़मीर पर ऐसा असर किया था कि वो निहायत रंजीदा और नादिम हो गया था। उस के लिए तौबा मुम्किन हुई क्योंकि उसने मसीह की आँखों पर पट्टी ना बाँधी थी और इसी तरह बराबर होता चला आया है जेरेमी टेलर (Jeremy Taylor) ने भी अपने वाअज़ में जो मुक़द्दसिन के ईमान और सब्र के मुताल्लिक़ है इसी ख़्याल को मद्द-ए-नज़र रखा है।

"उस की मौत दफ़अतन और यक-बारगी ना हुई । बल्कि वो एक बर्रा था जो दुनिया के शुरू से ज़बह किया गया था। क्योंकि वो बक़ौल मुक़द्दस पविलियनस हाबील में क़त्ल किया गया था। वो नूह की सूरत में समन्दर कि रुकी लहरों से टकराया गया था। जब इब्राहीम अपने शहर से बुलाया गया और वहां से निकल कर आवारा फिरा तो मसीह ही उस की ज़ात में फिरता रहा । इज़्हाक़ की सूरत में क़ुर्बानी के लिए नज़्र किया गया । याक़ूब की सूरत में सताया गया । यूसुफ़ की सूरत में बेचा गया। सम्सून की सूरत में अंधा किया गया। मूसा की सूरत में उस की तौहीन हुई । यशायाह की सूरत में आरे से चीरा गया। यर्मियाह नबी की सूरत में कुवें में डाला गया क्योंकि ये सब मसीह की मुसीबत के नमूने और निशान थे। फिर उस का दुख उस के ज़िंदा होने के बाद जारी रहा। क्योंकि वही अपने बंदों की ज़ात में सताया जाता है।

वही तमाम बदकारों के इन्कार की बर्दाश्त करता है वही ज़िंदगी का मालिक है जो अपने खादिमों की मुसीबत और तक्लीफ़, सरकशों की बग़ावत, मुनहरिफ़ों और मुनकिरों के इन्कार और ज़ालिमों के ज़ुल्म, ग़ासिबों की बे इंसाफ़ी और कलीसिया की इज़ारसानी के वक़्त बेइज़्ज़त किया जाता और दुबारा सलीब पर खींचा जाता है। मुक़द्दस स्तिफनुस में वही पथराओ किया गया। मुक़द्दस बरतलमाई की सूरत में उसी कि जिल्द खींची गई। मुक़द्दस लौरंस की सूरत में वही आग के शोलों पर बरीयां किया गया मुक़द्दस इग्नतियुस (Ignatius) की ज़ात में वही शेरों के आगे डाला गया। पोली कॉर्प की सूरत में जलाया गया और वही उस झील में सर्दी के बाईस यख़ हो गया जहां कपदोकीयह के चालीस शहीद खड़े किए गए ।

मुक़द्दस हिलेरी (St. Hilary.) का क़ौल है कि मसीह की मौत की साकरीमन्ट हरगिज़ पूरी नहीं हो सकती जब तक इन्सानियत की तमाम मसाइब बर्दाश्त ना की जाएं।

पस अगर हमारे ज़माना में भी लोग हमारे मुनज्जी को रुपोश करते या उस को बेइज़्ज़त करते और उस का मुज़हका उड़ाते हैं तो हमें ये देखकर हैरत-ज़दा नहीं होना चाहिए । ख़्वाह हज़रत मुहम्मद का मक़्सद कुछ भी हो और ख़्वाह उसने और कुछ किया हो या ना किया हो उसने मसीह को रुपोश ज़रूर किया है। गोया मसीह यानी आफ्ताब-ए-सदाक़त पर मुहम्मद स. यानी माह-ए-मक्का का गरहन लगा है।

हर नया मज़्हब या फ़लसफ़ा जदीद लोगों को इंजील से मुनहरिफ़ करता है तब ही कामयाब होता है जब पहले मसीह को रुपोश कर ले। वो जो उस की आँखों में एक बार देख लेते हैं उन्हें किसी और नूर की ज़रूरत नहीं रहती वो जिन्होंने उस के चेहरे का दीदार हासिल कर लिया किसी और हादी और रहनुमा की पैरवी करना पसंद नहीं करते।”

अगर हमारी ख़बरी पर पर्दा पड़ा है तो हलाक होने वालों ही के वास्ते पड़ा है यानी उन बेईमानों के वास्ते जिनकी अक़्लों को इस जहान के ख़ुदा ने अंधा कर दिया है ताकि मसीह जो ख़ुदा की सूरत है। उसके जलाल की सूरत की रोशनी उन पर ना पड़े। क्योंकि हम अपनी नहीं बल्कि येसु मसीह की तब्लीग़ करते हैं कि वो ख़ुदावंद है। और अपने हक़ में ये कहते हैं कि येसु की ख़ातिर तुम्हारे ग़ुलाम हैं इसलिए कि ख़ुदा ही है जिसने फ़रमाया कि तारीकी में से नूर चमके और वोही हमारे दिलों में चमकाता कि ख़ुदा के जलाल की पहचान का नूर येसु मसीह के चेहरे से जलवागर हो।”

वोह जो अक़्ल की आँखें बंद करके तारीकी में चलते हैं अक्सर औक़ात ख़ुद पहले मसीह को रुपोश करने से रोशनी को छुपा देते हैं। ख़्वाह इन अल्फ़ाज़ "यानी दुनिया के सरदार"का मतलब कुछ ही हो लेकिन उस में यक़ीनन वो शैतानी इख़्तियार ज़रूर शामिल है जो लोगों को हमारे नजातदिहंदा के जलाल का मुशाहिदा करने से बाज़ रखता है और वो ज़माना की उस रूह से मुताल्लिक़ है जो बिद्दती ख़्यालात दुनियादारी के मसाइल और अक़ीदे अय्याराना चालें और फ़ित्ना साज़ियाँ, नजिस और नापाक तहरीकें और मुरव्वजा अक़ाइद जो ज़माना में शक व शुबहा और कुफ़्र व बेदीनी का माहौल पैदा करके ईमान की बेख़कुनी करती है।

कोर बातिनी बेदीनी की पेशरू बल्कि उस का मूजिब है। कोरबातिनी इंजील पर पर्दा डालने, ख़ुदा के सरीह और रोशन कलाम को पेचीदा बनाने और सदाक़त की जानिब से आँखें मूंद लेने का नतीजा है। मसीह ने फ़रमाया है :-

"मैं दुनिया में अदालत के लिए आया हूँ ताकि जो नहीं देखते वो देखें और जो देखते हैं वो अंधे हो जाएं"

फिर एक मर्तबा चशम बस्ता मसीह की उस दर्दनाक तस्वीर पर ग़ौर करो जो सनहीडर्न के बदमआशों के दरमियान खींची गई है। इस चेहरे पर नज़र करो जो सुब्ह-ए-सादिक़ और उलूहियत के नूर से मुनव्वर है। लेकिन चशम बस्ता है और थप्पड़ों की मार से उस के सुर्ख़ रुखसारों से जोवे ख़ून जारी है। ज़बूर नवीस फ़रमाता है अपने मसीह के मुँह पर निगाह रख और यहां पर हम उस के चेहरे को मुसीबतज़दा नजातदिहंदा की असली सूरत में देखते हैं :-

देख वो मर्द ग़मनाक जो मारा कुटा, सताया हुआ, ज़लील किया हुआ और बंधा हुआ है लेकिन अपनी ज़बान से एक आवाज़ तक नहीं निकालता और जां निसारी ली ख़ामोशी ने उस के लबों पर मोहर-ए-सुकूत लगा दी है।”

“हमें नबुव्वत से बता कि किस ने तुझे मारा।” इस आयत का जवाब हम अपने दिलों से तलब करें। मसीह ने फ़क़त इस लिए मुसीबत ना उठाई कि हमें गुनाह और इस की लानत से रिहा करे बल्कि वो दुख उठा कर हमें एक नमूना दे गया है ताकि उस के नक़्श-ए-क़दम पर चलें। अपनी मस्लुबियत के एक एक वाक़्ये से दुनिया का सलीब बर्दार हमारे कानों में ये कह रहा है "मेरी पैरवी करो जुरात और दिलेरी के साथ ज़िंदगी गुज़रानौ और हर एक मुसीबत का बग़ैर कुड़-कुड़ाए कमाल आजिज़ी और बुरदबारी के साथ मुक़ाबला करो रंज व अलम और ग़ुस्सा व ग़ज़ब दिल-शिकन ज़जर-ओ-तौबीख़ को ख़ुशी से क़बूल करो अपने ऐब लगाने वालों के सामने ख़ामोश खड़े रहो। इंजील और मेरी दिलेरी से बर्दाश्त करो मेरे साथ नाकामयाबी के पियाले में से पीने से इन्कार ना करो जो अक्सर औक़ात जाम-ए-मौत से भी मलख़तर हौता है यानी तज़हीक की जानकनी जो मौत की जानकनी से भी ज़्यादा पुरदर्द और अलमनाक होती है।”

जब हम अदालत के कमरे और चशम बस्ता मसीह पर नज़र डालते हैं और देखते हैं कि किस तरह उस ने उन गुनाहगारों की मुख़ालिफ़त और तौहीन की बर्दाश्त की तो उस वक़्त हम अपनी मलामत और हक़ारत को बर्दाश्त करने में पस्त-हिम्मत और आज़ुरदा-ख़ातिर नहीं होंगे।” जब मेरे सबब लोग तुम्हें लान-तान करेंगे और हर तरह की बुरी बातें तुम्हारी निस्बत नाहक़ कहेंगे तो तुम मुबारक होगे। ख़ुशी करना और निहायत शादमान होना क्योंकि आस्मान पर तुम्हारा अज्र बड़ा है। इसलिए लोगों ने नबियों को भी जो तुमसे पहले थे इसी तरह सताया था।”

ये आख़िरी और सबसे अज़ीम ख़ुशख़बरी है हाँ ये उन की ख़ुशख़बरी है जो मसीह की अज़ इब्तिदा-ता-इंतिहा पैरवी करते हैं। यानी गतसमनी से लेकर गलगता तक।

ख़ुदा के दोस्तों की खु़फ़ीया जमात में शरीक होने की पहली शर्त ये है कि हम दुनिया की मस्नद अदालत के सामने उस के हमराह खड़े हों और दुनिया के मज़्हब उस की तहज़ीब और उसके इख़्तियार हुकूमत के हाथों कभी तो उस के साथ ठट्ठों में उड़ाए जाएं। कभी उन की ख़ुशनुदी भी हासिल कर लें और कभी बाहमी ग़लत-फ़हमियों का भी शिकार हो जाएं हिक़मतों के हाथों जिनको दुनिया ने हक़ीक़त को मोरीद-ए-इल्ज़ाम ठहराने के लिए मयार मुक़र्रर कर रखा है।

जब हम ये ऐलान करते हैं कि दुनिया इस क़ाबिल नहीं कि वो हमें वो हक़ीक़ी बादशाहत दे सके जिसकी हम तलाश कर रहे हैं उस वक़्त हम दुनिया की हम्दर्दी खो बैठे हैं और उस की हिस्स-ए-मुश्तरक की तौहीन करते हैं। वो मस्नद अदालत के रुबरु इस ख़्याल के साथ दाख़िल होती है कि हमारी तबीयत के सरकश अंसर के साथ अक्लमंदी से पेश आएगी और हमारी बेवक़ूफ़ी की बर्दाश्त करेगी। फिर जहालत, काहिली और बुज़दिली बड़ी तस्कीन से हमें मलामत करती हैं जिस तरह से कि उन्होंने अव्वल और वाहिद बेऐब हस्ती की की थी। (इक़तिबास अज़ "दी पाथ औफ़ इटर्नल विज़डम" मन तस्नीफ़ जान करडीलियर)।

बाब चहारुम

"उन्होंने येसु को बाँधा, उन्होंने उसके मुँह पर थूका"

येसु मसीह अपनी सलीब उठा कर ऐन इसी तरह ले गया जिस तरह इज़्हाक़ पहाड़ पर लकड़ियाँ ले गया। येसु इसी तरह बाँधा गया जिस तरह इज़्हाक़ बाँधा जाकर मज़बह पर रखा गया।” और जब वो उस मुक़ाम पर जिसकी बाबत ख़ुदा ने उससे कहा था पहुंचे। तब वहां इब्राहीम ने एक क़ुर्बान-गाह बनाई और लकड़ियाँ चुनी और अपने बेटे इज़्हाक़ को बाँधा और उसे क़ुर्बान-गाह पर लकड़ी के ऊपर धर दिया" (पैदाइश 22:9)

पस अहले यहूद का इज़्हाक़ की उस क़ुर्बानी को इस क़दर एहमीयत देना और हर साल निहायत संजीदा तौर से कोह-ए-मौर्या के इस वाक़ये की याद को ताज़ा रखना बिला वजह ना था।

रासिख़ उल-एतक़ाद यहूदीयों का अक़ीदा उनके नए साल की मुक़र्ररा तरतीब-ए-नमाज़ में मर्क़ूम है और वो मुंदरजा ज़ैल है :-

"ए ख़ुदावंद ख़ुदा तू हमारे हक़ में अपना वो वाअदा याद फ़र्मा जो तूने हमारे बाप इब्राहीम से कोह-मौर्या पर किया था। उस की मुहब्बत पर ग़ौर फ़र्मा जो उस से उस वक़्त ज़ाहिर हुई जब उस ने अपने बेटे इज़्हाक़ को बांध कर क़ुर्बान गाह पर रखा। उस ने अपनी महर पिदरीको ज़ब्त किया ताकि तेरी मर्ज़ी अपने तमाम दिल से बजा लाए। इसी तरह तेरी मुहब्बत तेरे उस क़हर को जो हमारे ख़िलाफ़ भड़कता है फ़र्द करे और तेरी बड़ी ख़ूबी के बाईस तेरा ग़ज़ब व अताब तेरी क़ौम तेरे शहर और तेरी मीरास की तरफ़ से हट जाये । आज तू उस की औलाद के हक़ में इज़्हाक़ का बाँधा जाना याद कर ।"

डाक्टर मैक्स लैंड्सबर्ग (Dr. Max Landsberg) फ़रमाते हैं :-

"ज़माना की रफ़्तार के साथ अक़ीदे की एहमीयत भी बहुत बढ़ गई है। हगादीसी (Haggadistie) कुतुब में इस की जानिब बेशुमार इशारात मौजूद हैं उसी की बिना पर मग़फ़िरत के हुक़ूक़ क़ायम करके रोज़ाना नमाज़ सुबह में दर्ज किए गए। जर्मन यहूदीयों के तौबा के अय्याम की नमाज़ों पर एक और हिस्से का इज़ाफ़ा किया गया जो अक़ीदा के नाम से नामज़द है।”

क्या ये दुआ मसीह के ज़माना में राइज थी? अक्सर औक़ात क़ुर्बानियां मज़बह के सींगों से बाँधी जाती थीं और ज़बिहा के बाँधे जाने के मौक़े पर ख़ास रसूम अदा की जाती थीं । हैकल की क़ुर्बानीयों से मुताल्लिक़ ख़्वाह कुछ ही रसूम राइज हूँ लेकिन मुम्किन है जब येसु को बाग़ गतसमनी से बांध कर ले जा रहे थे तो उस के शागिर्दों को ये ख़्याल गुज़रा हो कि"ख़ुदा का बर्रा" उस अज़ीमुश्शान क़ुर्बानी के लिए ले जाया जाता है। इज़्हाक़ की क़ुर्बानी जिसका महिज़ एक नमूना थी।

तीन इंजील नवीस बिलख़ूसूस मसीह के बाग़ में और पिलातुस के रूबरू बाँधे जाने का मुकर्रर बयान करते हैं। यूहन्ना मुक़द्दमा से पेशतर का बयान करते हुए यूं रक़म तराज़ है :-

"तब सिपाहीयों और उन के सूबेदारों और यहूदीयों के प्यादों ने येसु को पकड़ कर बांध लिया। और पहले उसे हन्ना के पास ले गए क्योंकि वो उस बरस के सरदार काहिन काइफ़ा का सुसर था....पस हन्ना ने उसे बाँधा हुआ सरदार काहिन के पास भेज दिया "वहां उन्होंने येसु को ठट्ठों में उड़ाया और उस के मुँह पर थूका फिर "जब सुबह हुई तो सब सरदार काहिनों और क़ौम के बुज़ुर्गों ने येसु के ख़िलाफ़ मश्वरा किया कि उसे मार डालें और उसे बांध कर ले गए और पिलातुस हाकिम के हवाला किया" (मत्ती 27: 1 ता 2)

मरकुस फ़रमाता है "सरदार काहिनों ने बुज़ुर्गों और फ़क़ीहों और सारे अदालत वालों समेत सलाह करके येसु को बंधवाया और ले जाकर पिलातुस के हवाले किया।”

पस हमारे ख़ुदावंद ने सबसे पेशतर बाग़ गतसमनी में ज़ैतून के दरख़्त के नीचे अपने हाथ फैलाए ताकि उसे बांध लें। पतरस का बे-निशाना तल्वार चलाना ही सिपाहीयों के डराने के लिए काफ़ी था । उन्होंने उस के हाथ बांध लिए जिस का आख़िरी काम ये था कि अपने हाथ बाँधे जाने से पेशतर मलख़स के कान को चंगा कर ले। शायद दुश्मनों ने पसे पुश्त उस के हाथ रस्सियों से बाँधे हों बादअज़ां उस के शागिर्द उसे अकेला छोड़कर फ़रार हो गए । इस तरह उस रात के होलनाक खेल का पहला सीन तमाम हुआ।

उसे यानी बंधे हुए येसु को कोई बड़ा फ़ासिला ना तै करना पड़ा वो उसे उसी दरावज़े से बाहर ले गए जिससे वो ईद फ़सह की इशा के बाद अपने शागिर्दों के हमराह बाग़ के अंदर दाख़िल हुआ था। वो उसे हन्ना के महल में ले गए जो गुज़शता साल सरदार काहिन था वहां सिपाहीयों ने उस के हाथ खोल दीए और अपने अपने घर चले गए। क्योंकि उस के बाद रूमी सिपाहीयों का कुछ ज़िक्र नहीं पाया जाता। यहां मसीह ने हन्ना और काइफ़ा के रूबरू उन के खु़फ़ीया और दिली बुग़्ज़ और हसद का तजुर्बा किया जिनके मुताल्लिक़ कहा गया है "हारून की औलाद निहायत गुस्ताख कमीने और शहवत-परस्त" जिनके नाम उन के हमअसरीन लानत के साथ दबी आवाज़ से अपनी ज़बान पर लाते थे। यहां हमारे ख़ुदावंद को मुँह पर पहला थप्पड़ लगाया गया। शायद वो किसी मुलाज़िम के हाथ से हो या छड़ी से हो।

लूक़ा के बयान के मुताबिक़ इस मुक़द्दमा की झूटी समाअत के बाद जो उन झूटे गवाहों के सामने हुई और मौत के फ़तवा के बाद कि जिसका फ़ैसला पहले ही हो चुका था। काइफ़ा के मुलाज़िमों और सिपाहीयों ने उस बेकस व लाचार क़ैदी येसु का मुज़हका उड़ाया उसे बेइज़्ज़त व ज़लील करके सख़्त बेरहमी से उस के साथ पेश आए । लेकिन इन तमाम तानाज़नी और ज़िल्लत व ख़वारी और ज़र्बों ने जो उस बेचारे तन्हा मुसीबतज़दा पर लगाई गईं।” जो दरहक़ीक़त बेकस व लाचार ना था बल्कि ख़ुद ही इरादतन मुक़ाबला ना करता था। जो वाक़ई शिकस्त ख़ूर्दा ना था। बल्कि बरअक्स उस के फ़क़त फ़साद से गुरेज़ करता था। जो दरअसल आजिज़ ना था बल्कि फ़क़त अपनी मर्ज़ी से आपको दुश्मनों के हवाले किए हुए था।”

ना फ़क़त इन्सानियत के सुफ़्लापन और उस की लानत को आलम आश्कारा किया बल्कि उन्हें मसीह इब्नुल्लाह पर डाल कर उन्हें बेख़-ओ-बिन से उखाड़ फेंका उस अस्ना में जब कि वो अपनी क़ौम के ज़रीया से ठुकराया जा रहा था और उन की नफ़रत और कीना का इज़्हार हो रहा था येसु बंधा खड़ा था।

दुनिया के आग़ाज़ से लेकर अब तक ऐसे हाथ पहले नहीं बाँधे गए थे। अहद-ए-अतीक़ के बंधे हुए हाथों का बयान येसु के ज़हन में रोशन था। क्या वो उस के सताने वालों को भी याद था ? क्या शमाउन ने अपने हाथों को अपनी रजामंदी से पेश किया। जब यूसुफ़ ने उसे ज़ामिन क़रार देकर क़ैद कर लिया। ताकि वो यानी यूसुफ़ अपने भाई बनीयामीन को फिर एक मर्तबा देख सके ? सूरमा सम्सून कई बार बाँधा गया। लेकिन उस ने उन के मुज़हका उड़ाया जिन्होंने उसे रस्सियों और बेद की छालों से बाँधा था। उस ने अपने बंधनों को इस तरह तोड़ा "जिस तरह सनके तार जिसमें आग से झुलसने की बू आए" तोड़े जाते हैं और ख़ुदा ने उसे उस वक़्त तक ना छोड़ा जब तक उस ने ख़ुदा को ना छोड़ा।

यर्मियाह रस्सियों से बाँधा हुआ ऐसे कुवें में फेंका गया था। जिसमें पानी के इव्ज़ कीचड़ था। लेकिन ख़ुदा ने उसे रिहाई बख़्शी। ख़ुदा ने दानियल के तीनों रफ़ीक़ों को बचाया जो बाँधे हुए आग की भट्टी में डाल दीए गए थे। इन सब के हाथ बाँधे गए लेकिन ये फ़क़त उन के जिस्मानी हाथ थे।

मसीह आग की भट्टी में उस चौथे शख़्स की मानिंद था जिसकी सूरत देवताओं के बेटे की सी थी। नहीं नहीं ख़ुदा के बेटे की सी । मसीह के हाथों पर नज़र करो ! चार्ल्स बेल (Charles Bell.) अपने मशहूर-ओ-मारूफ़ मज़मून यानी "ख़ुतबा बर्दस्ते इन्सानी" (Eassy on the Human Hand.) में क़ुदरत में अजीबो-गरीब तर्कीब की मौजूदगी का सबूत देते हुए हाथों की बनावट का बयान करते हुए लिखता है कि :-

दस्त-ए-इन्सानी की तर्कीब व साख़त में बड़े से बड़े हैवान के पंजों के मुक़ाबले में कैसी अजीब व ज़बर्दस्त ताक़त मौजूद होती है कि वो इन्सानी हुनरमंदी और दस्त कारी के किस क़दर मुनासिब ए-हाल है लेकिन येसु के हाथों का बयान कौन कर सकता है जो दीगर इन्सानी हाथों की तरह पढ़े जा सकते हैं और जिनसे ना फ़क़त उस के एक कामिल शख़्सियत बल्कि कामिल औसाफ़ और चाल चलन के मालिक होने का पता चलता है। ये बंधे हुए हाथ कभी मासूम बच्चों के नन्हे नन्हे हाथों की मानिंद मुक़द्दसा मर्यम की छातीयों पर रखे जाते होंगे ये हाथ बढ़ई के काम को मेहनत व जफ़ा कुशी से अंजाम देते होंगे और शहर नासरत के दहक़ानों के लिए हलों को हल्का बना कर बैलों के लिए उनके बार को कम करते होंगे। हाँ ये हाथ कोढ़ीयों, लंगड़ों लुंजों और अँधों को शिफ़ा बख़्शने के लिए फैलाए जाते थे ये हाथ पुर मुहब्बत ओ पुर शफ़क़त थे। जब माएं अपने बच्चों को उस के पास लाती होंगी तो वो उन्हें गोद में लेकर उन्हीं हाथों को उन के सरों पर रख कर उन्हें बरकत देता होगा। उस की उंगलियां उन के नरम नरम रुख़्सारों और उन के ख़ूबसूरत बालों को मुहब्बत से छूती होंगी । यही हाथ थे जिन्होंने हैकल में मिट्टी गूँध कर एक मादरज़ाद नाबीना शख़्स की आँखों पर लगा कर उसे बीनाई बख़्शी थी। जिसके बाईस उन अक़्ल के अँधों का ग़ज़ब और कीना और भड़का और जिनकी कोर बातिनी येसु के अजीबो-गरीब कामों और उस के मोजज़ाना कलाम के बावजूद भी बराबर क़ायम रही। यही वो हाथ थे जिन्होंने रस्सियों को कूड़ा बनाया और जायज़ और वाजिब ग़ज़ब के साथ उन के लगाया जिन्होंने उस के बाप के घर को तिजारत का घर और चोरों का खोह बना लिया था। ये वो हाथ थे जिन्होंने मशरिक़ी मेहमान-नवाज़ी के दस्तूर के मुताबिक़ आख़िरी इशा के मौक़ा पर यहुदाह इस्क्रियुती को जिसने उसे पकड़वाया था निवाला दिया था। इन्ही हाथों से येसु ने ये जान कर कि बाप ने सब चीज़ें मेरे हाथ में कर दी हैं और मैं बाप के पास से आया हूँ और ख़ुदा ही के पास जाता हूँ तौलिया लिया और अपनी कमर बांध कर अपने शागिर्दों के पांव धोए थे बल्कि यहुदाह इस्क्रियुती के भी। यही वो हाथ थे जो सुनसान पहाड़ों की चोटियों पर दामें उठते थे। और आख़िरकार यही हाथ बाग़ गतसमनी में जानकनी की हालत में दुआ व शफ़ाअत के लिए जोड़े जाते थे। इस वक़्त ये बंधे हैं और कुछ अरसे के बाद इन में मेख़ें ठोंकी जाएँगी । इन्ही हाथों से शुक्र करते हुए येसु ने रोटी तोड़ी और पियाला उठाया जबकि उसने फ़रमाया "लो खाओ ये मेरा बदन है.......तुम सब इस में से पी लो क्योंकि अह्द का मेरा वो ख़ून है जो बहुतेरों के गुनाहों की माफ़ी के लिए बहाया जाता है।”

अब उस आख़िरी पेशीनगोई की तक्मील का वक़्त आ पहुंचा । उस का बदन जल्द तोड़े जाने को है और उस का अह्द का ख़ून गुनाहगारों के लिए बहाए जाने को है "और उन्हों ने येसु को बाँधा।” ऐ बाप उनको माफ़ कर कि ये जानते नहीं कि क्या करते हैं।”

जब पौलुस के बरख़िलाफ़ लोगों ने शोर मचाया कि उसे कोड़े लगाए जाएं तो रूमी पलटन के सरदार को मालूम था कि एक रूमी आदमी को बग़ैर फ़तवा लगाए कोड़े लगवाना खिलाफ-ए-क़ानून है "और पलटन का सरदार भी ये मालूम करके डर गया।” लेकिन ये लोग ना डरे।

इब्रानियों के ख़त के राक़िम ने मसीह के बाँधे जाने का बयान चशमदीद गवाहों से लिया था और उस ने अपने ज़माने के मर्दो ज़न का हाल लिखते हुए जो उन दिनों में अपने ईमान के बाईस क़ैद किए जाते थे यूं फ़रमाता है :-

"क़ैदीयों को इस तरह याद रखो कि गोया तुम उन के साथ क़ैद हो।”

लेकिन मसीह को याद करने वाला कोई ना था यहां तक कि पतरस ने भी उस की क़ैद से शर्मा कर ये कहा "मैं इस आदमी को नहीं जानता।”

वो कौन था जिसने हमारे नजातदिहंदा के हाथों को पहले बाग़ गतसमनी और फिर कमरा अदालत में बाँधा? क्या रूमी सिपाहीयों ने उस के हाथ बाँधे? हाँ उन्होंने ऐसा किया महिज़ सिपाहीयों की हैसियत में अपना फ़र्ज़ अदा कर रहे थे। क्या यहुदाह ने अपनी क़बीह और शर्म नाक हरकत पर उस अलामत-ए-ख़ौफ़ का इज़ाफ़ा किया? हम ये पढ़ते हैं कि बाद में "हन्ना ने उसे बंधा हुआ काइफ़ा सरदार काहिन के पास भेज दिया" क्या पिलातुस उस जुर्म का मुर्तक़िब ना ठहरा जब उसने क़ैदी को बंधा हुआ रहने दिया और उस को कोड़े लगवाने का हुक्म दिया। जिसका अभी मुक़द्दमा भी ना हुआ था और ना जिस पर हनूज़ फ़तवा लगा था और जिस में उसने कोई क़सूर ना पाया था।

देखो देखो उस मर्द-ए-ग़मनाक को ! यहां एक और प्रोमेथियुस (Promotheus) क़ैद है ये वो है जो बग़ैर धोका और फ़रेब दिए आस्मान से आग, ज़िंदगी और नूर लाता है। ये वो है जो इन्सान को अज़सर नो पैदाइश और उसे आस्मान की बेहतरीन और बीश बहा नेअमतें इनायत करता है। प्रोमेथियुस को तो तीस साल की सख़्त क़ैद के बाद हेर्कियुलिज़ (Hercules) ने रिहा किया था। मसीह को हन्ना, काइफ़ा, यहुदाह और मैंने और आपने बंधवाया था। वो अब तक क़ैदोबंद में मुब्तला है और उन्नीस सदीयों से बराबर अज़सर नौ सलीब पर खींचा जाता है। दस्त-बस्ता मसीह इस वक़्त हमारे पास मौजूद है राबर्ट किबल (Robert Keable) कहता है कि दस्त-बस्ता येसु नासरी अब तक क़रीब क़रीब नसफ़ दुनिया के गली कूचों में फिरता रहता है । जब कभी किसी जगह कोई बे-दस्त व पह लंगड़ा लुंजा बच्चा अपने वालदैन के गुनाह के बाईस इस रंज आलूद दुनिया में पैदा होता है तो मसीह को उस वक़्त फिर वो पियाला पीना पड़ता है जो टल नहीं सकता। हालाँकि उस के ऐसा करने से आख़िरकार बाप की मर्ज़ी कि "इन छोटों में से एक भी हलाक ना हो" पूरी होती है।

जहां कहीं कोई गुमराह और मस्लूल रूह भटकती फिरती है वहां ज़रूर कोई यहुदाह अपने ख़ुदावंद को चंद नफ़रती दिरहमों के इव्ज़ पकड़वाता है। जब कभी मसीह का कोई लाफ़ ज़न शागिर्द यारों और दोस्तों की मजलिस में बैठ कर अपनी कम हिम्मती और कम एतिक़ादी की वजह से आज़माईश के वक़्त अपने ख़ुदावंद का इन्कार करता है तो उस वक़्त मसीह फिर दुबारा अपने साथीयों और दोस्तों के दरमियान ज़लील व रुसवा किया जाता है।

बल्कि ये ज़रबें रूमी सिपाहीयों की ज़र्बों से शदीद तर होती हैं। लेकिन जहां कहीं क़सदन और इरादातन गुनाह किया जाता है वहां पर तो गोया मसीह को सलीब पर लटकाकर उस का दिल बिरछी से छेदा जाता है।

(2)

"उन्होंने उस के मुँह फिर थूका" उसके जिस्म पर नहीं बल्कि उस के मुँह पर थूका । यूनानी में जो लफ़्ज़ इस्तिमाल हुआ है वो बिलख़सूस उस हरकत की कमीनगी पर-ज़ोर देता है । मरकुस और यूहन्ना ने जहां मसीह के थूक कर मिट्टी सानने और उस नाबीना शख़्स की आँखों पर लगाने और उस को बीनाई बख़्शने का ज़िक्र किया है वहां एक और यूनानी लफ़्ज़ इस्तिमाल किया है (मरकुस 7:33, व 8:23, व यूहन्ना 9:6) थूकना ज़माना-ए-क़दीम से लेकर उस वक़्त तक दुनिया में बेइज़्ज़त करने के तरीक़ों में से एक तसव्वुर किया जाता है बाअज़ ऐसे जानवर हैं मसलन मेंढ़क बिल्ली और ज़हरीले फनीर साँप जिन्होंने शायद वहशी इन्सान को ये बेहूदा हरकत सिखाई हो।

मेरा एक हम ख़िदमत था जो मुद्दत दराज़ से मुल्क-ए-अरब में मिशनरी डाक्टर की हैसियत में ख़िदमत करके वहां के बाशिंदों के नज़दीक हर दिल-अज़ीज़ बन गया था। वो उस की इज़्ज़त व तोक़ीर भी करने लगे थे। एक रोज़ वो एक मकान में बैठा था कि सहरा से एक मुतअस्सिब वहाबी अंदर दाख़िल हुआ। वो ईलाज की ख़ातिर ना आया था बल्कि महिज़ इस लिए कि डाक्टर के मुँह पर थूके। मिशनरी ने फ़ौरन रास्त व वाजिब ग़ुस्सा और तमाम मरीज़ों की रजामंदी के साथ उस शख़्स को अपने जिस्मानी ज़ोर का ऐसा मज़ा चखाया जिसका वो बजा तौर पर मुस्तहिक़ था अहले-ए-मशरिक़ के नज़दीक उस से बढ़कर और कोई बेइज़्ज़ती नहीं। अह्देअतीक़ में इस की मिसालें मौजूद हैं "तब ख़ुदा ने मूसा को फ़रमाया कि अगर उस के बाप ने उस के मुँह पर थूका होता तो क्या वो सात दिन तक भी शर्मिंदा ना रहती ? (गिनती 12:14)। तो उस के भाई की जोरू बुज़ुर्गों के सामने उस के नज़्दीक आए और उस के पांव से जूती निकाले और उस के मुँह पर थूक दे और जवाब देकर और कहे कि उस शख़्स के साथ जो अपने भाई का घर ना बनाए यही किया जाएगा" (इस्तिसना 25:9) वो मुझसे घिन खाते वो मुझसे दूर भागते हैं और मेरे मुँह पर थूकने से बाज़ नहीं रहते" (अय्यूब 30:10)

इस पर हमें यशायाह नबी की पेशीनगोई का इज़ाफ़ा करना चाहिए जो उस ने मसीह के मुताल्लिक़ की थी जो सच्चाई और ख़ूबी से मामूर हो कर अपनी क़ौम की ज़िल्लत और बे इज़्ज़ती की बर्दाश्त करता है "ख़ुदावंद यहोवा ने मुझको उल्मा की ज़बान बख़्शी ताकि मैं जानूं कि उस की जो थकामाँदा है कलाम ही से कुमक करूँ। वो मुझे हर सुबह जगाता है और मेरा कान उभारता है कि आलिमों की तरह सुनूँ। ख़ुदावंद यहोवा मेरे कान खोलता है और मैं बाग़ी नहीं हूँ और ना बर्गशता होता । मैं अपनी पीठ मारने वालों को देता और अपने गाल उन को जो बाल को नोचते। मैं अपना मुँह रुस्वाई और थूक से नहीं छुपाता" (यशायाह 50: 4 ता 6)

क्या मसीह ने अपनी होलनाक मौत की पेशीनगोई करते हुए ख़ुद इस पेशीनगोई का हवाला ना दिया था ? देखो हम यरूशलेम को जाते हैं और इब्ने आदम सरदार काहिनों और फ़क़ीहों के हवाले किया जाएगा......और वो उसे ठट्ठों में उड़ाएंगे और उस पर थूकेंगे और उसे कोड़े मारेंगे और क़त्ल करेंगे" (मरकुस 10:33-34)

यहां पर हम उस इंतिहाई बेइज़्ज़ती को देखते हैं जो हमारे नजातदिहंदा के साथ रवा रखी गई । सटाकर का क़ौल है कि इन्सान की फ़ित्रत में निहायत मकरूह और क़बीह सिफ़ात पाई जाती हैं। जिन पर नज़र डालना ही ख़तरनाक होता है। मसीह की सिफ़ात-ए-कामला व हसना के मुक़ाबला में ही उस के मुख़ालिफ़ीन की सबसे क़बीह-ओ-बदतरीन ख़साइल ज़हूर में आएं। अब चूँकि वो इस दुश्मन के क़ब्जे में आ जाता है। जिसको वो बर्बाद करने आया था तो दुश्मन की तमाम क़बाहत व बदसुरती ज़ाहिर होती है और वो अपना तमाम ज़हर उगुल देता है ख़ूँख़ार दरिंदे की मानिंद दुश्मन अपने फाड़ डालने वाले पंजे से उस के गोश्त को नोचता है और अपनी नजिस और ग़लीज़ सांस उस के दहन मुबारक में फेंकता है।

इस का अंदाज़ा लगाना हमारे तसव्वुर व क़यास से बईद है कि उसके शाहाना मिज़ाज और उस की नाज़ुक तबीयत पर उस बे-हुरमती और रुस्वाई का क्या असर हुआ होगा। वो कौन लोग थे जो बार-बार उस ख़ौफ़नाक हरकत के मुर्तक़िब हुए ?

इन्जीली बयान से मालूम होता है कि सबसे पहले यहूदी उल्मा और हादियान ए दीन और उन के बाद उन के मुलाज़िम और रूमी पलटन के सिपाही थे। जिन्होंने उसे बेइज़्ज़त किया" (मत्ती 26:67, व 27:30)

क्या अहले एशिया ! क्या अहले यूरोप और क्या अहले शाम सबने अपने ग़ज़ब और हक़ारत को उस के पाक और मुबारक चेहरे पर थूक की सूरत में उगल दिया "ताकि हर एक का मुँह-बंद हो जाए और सारी दुनिया ख़ुदा के नज़दीक सज़ा के लायक़ ठहरे "लेकिन सबसे पहले ये उस की अपनी क़ौम ने किया और वो जो उसे बख़ूबी जानते थे बल्कि अपनी कुतुब-ए-मुक़द्दसा के पेश-ए-नज़र उस बेइज़्ज़ती के मआनी से भी ख़ूब वाक़िफ़ थे।

ये इस अम्र का क्या ही उम्दा सबूत है कि गुनाह और बे-दीनी निहायत ही बुरी तरह इन्सानी अक़्ल और इन्सानी ख़्यालात के तनज़्ज़ुल और पस्ती का बाईस होते हैं। किसी पर थूकना हक़ारत का इज़्हार है। उन के हसद और कीना का ज़हर उन के तारीक दिलों से बाहर निकला। इस नज़ारे की कैफ़ीयत जो नाक़ाबिल-ए-बयान है किसी मशहूर मुसव्विर मसलन रीमबरनट (Rembrandt) की तसावीर की तारीक पाईन से मुशाबेह है यानी उस नज़ारा की तारीक पाईन निगाह इन्सानी दिल की ज़ुल्मत और स्याही। उस की इंतिहाई शीतनीत और नेक और मुक़द्दस लोगों के ख़िलाफ़ उस की बुज़दिलाना हक़ारत के मुतरादिफ़ है।

जब तक उन्होंने उसे गिरफ़्तार करके बांध ना लिया और उस के चेहरे को छिपा ना लिया वो उस पर थूक ना सके उस वक़्त से लेकर अब तक बराबर इसी तरह होता चला आया है। तारीख़ में ऐसी बेशुमार मिसालें मौजूद हैं जहां लोगों ने मसीह और उस के शागिर्दों के चेहरों पर थूका। शहीदों के बयान की ख़ूनी दास्तान के एक एक वर्क़ पर ना फ़क़त ज़ुल्म बल्कि हक़ारत और बेइज़्ज़ती की अलामात मर्क़ूम हैं।

मुक़द्दस पौलुस ने भी इस का एहसास करते हुए कहा :-

"हम दुनिया के कोड़े और सारी चीज़ों की झड़न की मांद रहे"

जिस वक़्त कलईर वो का बर्नार्ड ये गा रहा था :-

इब्न ख़ुदा का जिस-दम आया ख़याल दिल में

बाक़ी रहा ना कुछ भी रंज व मलाल दिल में

तो बाअज़ लोग सलीबी जंगों और इन्क़ुइज़िशन (Inquisition) यानी मज़हबी अदालतों की सख़्ती और ज़ुल्म के बाईस लोगों को मसीह के नाम पर कुफ़्र बकने पर मजबूर कर रहे थे। कितने मुन्किरों, काफ़िरों और दहरियों ने अपनी दिली हक़ारत और नफ़रत का ग़ुबार येसु नासरी पर निकाला है। यहुदाह इस्क्रियुती के ज़माना से लेकर एक मुन्किर मसीह की अदावत से बढ़ी हुई किसी और मुख़ालिफ़ की अदावत अब तक देखने में नहीं आई।

नीरू ने मसीहीयों का ख़ून बहा कर सख़्त ज़ुल्म किया। लेकिन ये उस ग़ैज़ व ग़ज़ब की शिद्दत के मुक़ाबला में बिल्कुल हीच है जिसका मुज़ाहरा मुनहरिफ़ जूलियन ने मसीह के पैरौओं के बरख़िलाफ़ किया।” उसने पहले ख़ुद मसीह को क़बूल किया लेकिन बादअज़ां मुर्तद हो गया। गिब्बन जो पहले प्रोटेस्टेंट और रोमन कैथोलिक था और आख़िर कार दोनों से फिर गया उस की एक और मिसाल है I

नीटशे (Nietzseche) तो यहां तक गिर गया कि उसने मसीह ख़ुदावंद के ख़िलाफ़ जो हर्ज़ा-सराई की है वो थूकने के मुतरादिफ़ है।"

मसीहीयत का तसव्वुरे ख़ुदा कि वो बीमारों का देवता और मिस्ल एक अन्कबूत है या ये कि वो रूह है ख़ुदा के तसव्वुरात में सबसे अर्ज़ल तसव्वुर है जिसका ख़्याल भी शायद ही किसी के दिल में आया हो। शायद वो ख़ुदा के हम-सूरत इन्सान का पस्ततरीं दर्जा का तसव्वुर हो।

बरअक्स इस के का ख़ुदा ज़िंदगी को ग़ैर-फ़ानी बनाए या उसे अज़सर नौ तब्दील करे वो ज़िंदगी की मतना क़ुज़ात की गहराइयों में ग़र्क़ हो गया। मैं मसीहीयत को एक सख़्त लानत समझता हूँ और उसे इंतिक़ाम लेने की बदख़ू और एक अज़ीम कलबी बर्गशतगी से ताबीर करता हूँ। जिस के लिए कोई तदाबीर काफ़ी मुज़िर, मकरूह और फ़रेबदह साबित नहीं हो सकतीं।

मैं उसे इन्सानियत का दाइमी बदनुमा दाग़ तसव्वुर करता हूँ क्या इन्सानी हसद व कीना इस से तजावुज़ कर सकता है?

लेकिन हम देखते हैं कि उस मंज़र में जहां मसीह ज़लील और बे-इज़्ज़त किया गया। ऐसा शैतानी बुग़्ज़ व किना कैसा बे-तासीर ठहरा। वहां उस ईलाही नजातदिहंदा की फ़तहमंदो ज़फ़रमंद ख़ुद-आगही का इज़्हार होता है। फ़तह का यक़ीन उस के मुबारक चेहरे से अयाँ है। उस ने फ़रमाया :-

"जब मेरे सबब से लोग तुम्हें लान-तान करेंगे और सताएँगे और हर तरह की बुरी बातें तुम्हारी निस्बत नाहक़ कहेंगे तो तुम मुबारक होगे। ख़ुशी करना और निहायत शादमान होना क्योंकि आस्मान पर तुम्हारा बड़ा अज्र है इसलिए कि लोगों ने उन नबियों को भी जो तुमसे पहले थे इसी तरह सताया था।”

उस शख़्स को देखो ! उसने हमारी ख़ातिर दुख उठाया और हमारे लिए नमूना छोड़ गया ताकि हम उस के नक़्शे क़दम पर चलें तुमने अब तक गुनाह के मुक़ाबला करने में अपनी जान नहीं लड़ाई । ज़रा उस पर ग़ौर करो जिसने मलामत किए जाने पर ख़ुद मलामत ना की।

एक लातीनी गीत का मज़मून मुंदरजा ज़ैल है :-

"वह कौन है जो मुसीबतज़दा है ? मसीह जो कलाम-ए-ख़ुदा और बाप की हिक्मत है। वो किस मुसीबत में मुब्तला है? कांटे, कोड़े, थूक और सलीब की बेइज़्ज़ती में जब ख़ुदा इस तौर से दुख उठा सकता है तो तू भी दुख उठाना सीख"

जान कारडीलियर अपनी किताब अल-मारूफ़ ग़ैर-फ़ानी हिक्मत की राह (The Path of Eternal Wisdom) में यूं लिखता है :-

"जो कुछ हम यहां देखते हैं वो ग़ैर-फ़ानी और दाइमी हिक्मत का लब्बे-लुबाब और उसकी माहीयत है। ये वो राज़ है जो ज़िंदगी में पिनहां है। ये वो कलाम है जो सब चीज़ों के दरमियान अबद तक क़ायम रहेगा। फ़ित्रत और इल्म दफ़न और मज़्हब । इल्म-ए-हुस्न-ओ-जमाल और मुहब्बत की मुख़्तलिफ़ अन्वा व अक़्साम की पुश्त में आख़िरकार उस ख़ल्क़ करने वाली बहादुरी और अलवालग़र्मी का मुलाहिज़ा करते हैं जो आख़िर दम तक बर्दाश्त करती है।

जब हमारी ख़ातिर जानकनी और ज़ईफ़ की हालत में से गुज़री । उसने किसी बात से गुरेज़ ना किया। फ़क़त इसलिए कि हमारी गुमराह रूहें ज़्यादा रोशनी हासिल करें। वो वाजिब-उल-वजूद और नाक़ाबिल तलाश उलूहियत जिसके तसव्वुर में हम बसते हैं बरहना की गई और अपनी इस मख़्लूक़ की कोर आँखों के सामने पेश की गई जो मुहब्बत करने या ना करने और नेकी व बदी दोनों के काबिल थी।”

बाब पंजुम

"और उन्होंने.......उसके कपड़े क़ुरआ डाल कर बांट लिए"

उन्होंने मसीह के कपड़े उतारे ! हमारे ख़ुदावंद येसु मसीह के इस ख़ौफ़नाक तजुर्बा का बयान तमाम इंजील नवीसों ने किया है। मरकुस जो ख़ुद बाग़ गतसमनी से बरहना भाग गया था इस का बयान करता है। मत्ती इस वाक़िये को मसीहाई ज़बूर की पेशीनगोई का तक्मिला तसव्वुर करता है ।

यूहन्ना भी उस ज़बूर की तरफ़ इशारा करता है जिसमें दीगर तमाम तहरीरों की निस्बत मसीह की मौत और उस के दुख उठाने का बिल्कुल सही और दुर्रुस्त बयान दर्ज है:-

"वो मेरे हाथ और पांव छेदते । मैं अपनी सब हड्डीयों को गिन सकता हूँ। वो मुझे ताकते और घूरते हैं।”

ये तजुर्बा मसीह के दीगर तजुर्बात की निस्बत उस को ज़्यादा तक्लीफ़दह मालूम हुआ होगा। ख़ुसूसन इसलिए कि वो पाक ज़ात था और एक शानदार और बुज़ुर्ग शख़्सियत का मालिक था। मुक़द्दस यूहन्ना फ़रमाता है कि :-

"उन्होंने उसके कपड़े उतारे"

वो अपनी माँ के पेट से बरहना बाहर आया और बरहना सलीब पर लटक रहा है!

पहले आदम ने अपने गुनाह के बाईस बाग-ए-अदन में जिस्मानी व अख़्लाक़ी बर्हेनगी का तजुर्बा हासिल किया। दूसरे आदम ने गुनाह आलूद जिस्म की सूरत इख़्तियार की और उस की वजह से हमारी बर्हेनगी की शर्मिंदगी का तजुर्बा किया।

कलाम मुजस्सम हुआ और लोगों ने उस का जलाल देखा। उस की रुस्वाई और उस के नंग का मुलाहिज़ा किया लेकिन ये फ़िल-हक़ीक़त उस का जलाल था । मसीह येसु के कपड़े उतारे गए। यह उस की ज़िल्लत और बेइज़्ज़ती की हद थी। उसे बरहना किया गया ताकि उस की रास्तबाज़ी के सबब हम सफ़ैद पोशाक से मुलब्बस हों और जिस वक़्त मौत हमें बरहना कर दे तो उस वक़्त हम अपनी बर्हेनगी के बाईस शर्मिंदा ना हूँ।

तमाम रूमी मुसन्निफ़ इस अम्र पर मुत्तफ़िक़ हैं कि सलीब पर लटकाते वक़्त मुजरिम के कपड़े उतार लिए जाते थे। हमें बताया जाता है कि अहले यहूद अपने मुजरिमों को एक लँगोट बाँधने की इजाज़त देते थे। इस हैबतनाक नज़ारे की तस्वीर उस ज़माना के मसुव्वारिन ने भी यूं ही खींची है। लेकिन इस दर्द अंगेज़ तस्वीर पर हमें इस आख़िरी और इंतिहाई बेइज़्ज़ती का इज़ाफ़ा करना चाहिए। अपने पर्दा हया व शर्म को उस बेदर्दी से चाक होते देखकर कुल शुहदाए किराम भी ख़ौफ़-ज़दा होते थे बल्कि बाअज़ तो दिम सलीब उसके ख़्याल ही से काँपते और घबराते थे। लेकिन मसीह ने उसे हमारी ख़ातिर गवारा किया।

अरमीनीयों के क़त्ल-ए-आम में मसीही ख़्वातीन को ये शर्मिंदगी भी बर्दाश्त करनी पड़ी जो मौत की तक्लीफ़ की निस्बत तल्ख़-तर थी। कोवनीटरी की गोडीवा हालाँकि इफ़्फ़त की चादर ओढ़े थी लेकिन तो भी उसने महसूस किया कि गोया दीवार के तमाम शिगाफ़ उस पर नज़र जमाए हुए हैं। इसी तरह मसीह ने भी दुख उठाया। हम जो ख़ुद अब उस तस्वीर में फीके रंगों का इज़ाफ़ा कर रहे हैं चाहिए कि हम बे-एअतिनाई से उसे नज़र-अंदाज ना करें।

गलगता में जब सलीब अपनी ले आया येसु

तब उन्होंने उस को ख़ुद मस्लूब कर के लटका दिया

उस के हाथों और पाओं में भी मेख़ें ठोकीं

कलवरी उसे बनादी उस के कीलें ठोंक कर

ख़ारदार एक ताज उन्होंने उस के सर पर रख दिया

ज़ख़्म थे उन के शदीद उन से लहू जारी हुआ

उस ज़माना के थे कैसे वहशी और ज़ालिम बशर

गोश्त-ए-इन्सानी की इन दिनों में कुछ क़ीमत नहीं थी

जब येसु आया था बर्मिंघम पर ऐसे हाल में

लोग उस के सामने से सब जा रहे थे गुज़र

गो कि लोगों ने उसे तक्लीफ़ मुतलक़ ना दी

लेकिन ऐसे तन्हा उसे मरने दिया

इस क़दर बेरहम वहशी थे गो तब के लोग

इसलिए ईज़ा उसे पहुंचाने से बाज़ ना आए

भागे वो बारिश में तन्हा भीगता उस को फ़क़त

अपने अपने रास्तों पर उस तरीक़ा से गए

फिर भी चिल्लाता रहा येसु उन को कर माफ़

क्योंकि वाक़िफ़ ही नहीं उस से कि क्या करते हैं वो

हो रही थी मूसलाधार एक तो बारिश उधर

दूसरे है सख़्ततर सर्दी का आलम उस तरफ़

हो रहे हैं कपड़े भी येसु के बिल्कुल तर-बतर

बारिश-ए-बाराँ से कोई भी ना थी उस की पनाह

लोगों के अंबोह के अंबोह उस के पास से

बे किए परवाह कुछ उस की यूंही जाते हैं गुज़र

बल्कि उसको छोड़ जाते हैं तन-ए-तन्हा ही वो

और येसु ऐसी हालत में लगा दीवार से

कलवरी के वास्ते रोता है चिल्लाता है

सलीबी दुख के दो पहलू हैं यानी जिस्मानी दर्द और ज़हनी तक्लीफ़ जिस्म व रूह हर दो की जानकनी बेरहमी से कोड़े लगाना। हाथ और पांव में मेख़ें ठोंकना । आतिश-ए-प्यास का भड़कना। ख़स्ता व ज़ख़्मी आज़ा का बार जिस्म को उठाना और मख़लिसी की तमन्ना ये तमाम जिस्मानी तकालीफ़ हैं।

अपनी क़ौम से रद्द किया जाना। गुनाहगारों में शुमार होना साथीयों से ठट्ठों में उड़ाया जाना बरहना किया जाना। हदफ़ लानत व मलामत बनना फ़ौक़उल-फ़ितरत ज़ुल्मत का तारी होना। ये सब रुहानी आज़ार हैं।

मसीह की निहायत दर्दनाक आवाज़ ने साफ़ ज़ाहिर कर दिया कि उस की रुहानी तक्लीफ़ दरअसल उस की तमाम मुसीबत की जड़ थी।

जब हम मसीह की मौत के इस पहलू पर नज़र ग़ाइर डालते हैं तो हमारी तवज्जा तीन ख़्यालात की जानिब मुल्तफ़ित होती है । सलीब पर उस के हया व हिजाब को बे-नक़ाब किया गया। दुनिया अब तक उसे बरहना करती और फिर क़ुरआ डाल कर उस की पोशाक बांट लेती है। हर मसीही को भी इसी तरह सलीब पर बरहना होना है।

एक निहायत ही दक़ीक़-रस मुसन्निफ़ का क़ौल है कि :-

"आप तक्लीफ़ उठाए बग़ैर मसीह से मुहब्बत कर नहीं सकते। ना ही रंज व अलम कि बर्दाश्त किए बग़ैर सलीब से आपका विसाल हो सकता है। ख़्वाह आप चाहें या ना चाहें विसाल सलीब की कोशिश में आपके ज़रूर कोई ना कोई ज़ख़्म आही जाएगा । और यक़ीनन ये मसीह के बे-हिजाब किए जाने पर ग़ौर व फ़िक्र करने का नतीजा है।

तजस्सुम के मआनी की गहराई का मुलाहिज़ा कलवरी पर ही होता है।

मुक़द्दस पौलुस के नज़दीक ये मसीह के रंज और उस की पस्ती की इंतिहाई मंज़िल थी। वो फ़रमाता है :-

और "इन्सानी शक्ल में ज़ाहिर हो कर अपने आपको पस्त कर दिया और यहां तक फ़रमांबर्दार रहा कि मौत बल्कि सलीबी मौत गवारा की।”

रोज़ अदालत में रास्त बाज़ों के सवाल का कि "ए मेरे ख़ुदा हमने तुझे कब नंगा देखा?" एक जवाब ये है। वो कुछ भी छिपा नहीं रखता। अय्यूब ने अपनी मुसीबत के वक़्त कहा "देख वो मुझे मार डालता है तो भी मुझे उसका भरोसा है।” और मसीह फ़रमाता है ख़्वाह वो मुझे

सलीब भी दे दें तो भी मैं उन्हें अपने हाथ और पांव और अपना ज़ख़्मी पहलू दिखाऊँगा।” मैं अपनी सब हड्डीयों को गिन सकता हूँ। वो मुझे ताकते और घूरते हैं।”

यहां पर शाह ज़ूलजलाल मौजूद है लेकिन अपनी शानो-शौकत के साथ नहीं बल्कि बर्हेनगी की हालत में ख़ुदा मुजस्सम हुआ और सिपाहीयों काहिनों, अवाम के हुजूम, मुहब्बत करने वाले शागिर्दों औरतों बल्कि अपनी माँ पर भी यकसाँ ज़ाहिर हुआ। लेकिन अपने जलाल और अपनी हशमत के साथ नहीं। फ़क़त वो जिसने उसे देखा हो वहां वही ये अल्फ़ाज़ कह सकता है कि जो इब्रानियों के ख़त में मर्क़ूम हैं :-

"इसलिए कि वो ख़ुदा के बेटे को.......सलीब देकर अलानिया ज़लील करते हैं "

ये कोई अजीब बात नहीं कि ऐसे ख़ौफ़नाक आलम के वक़्त पर्दा बीच में से फट गया ! मसीह ने अपनी जान आजिज़ी और जानकनी के वक़्त ना सिर्फ सलीबी मौत पर गवारा की बल्कि उस ख़ुशी के सबब जो उस की आँखों के सामने थी उस ने उस ज़िल्लत व रुसवाई को हीच समझा।

मुक़द्दस लूक़ा की इंजील के मुताबिक़ उस मौक़ा पर हमारे ख़ुदावंद ने फ़रमाया :-

"ऐ बाप इनको माफ़ कर क्योंकि ये जानते नहीं कि किया करते हैं"

उसके सर के ऊपर पिलातुस ने ये मज़हकाख़ेज़ नविश्ता लगाया यहूदीयों का बादशाहबादशाह बग़ैर अर्ग़वानी पोशाक और उसका तख़्त क्या ? सलीब ! सलीब के नीचे सिपाही उस के कपड़ों के हिस्से करते और उस की पोशाक पर क़ुरआ डालते हैं। इन सब बातों के बाद किस तरह मुम्किन है कि कोई मसीह से शर्माए या दुबारा सलीब देकर अलानिया उसे ज़लील करे। वो नज़ारा आने वाले हालात का मज़हर था। क्योंकि इन उन्नीस सदीयों में बराबर मसीह को अज़सर-ए-नौ सलीब पर खींचा जाता और उसे अलानिया ज़लील किया जाता है।

मसीह का लिबास क्या है? ऐ ख़ुदावंद मेरे ख़ुदा तू निहायत बुज़ुर्ग है। तू हशमत और जलाल का लिबास पहने है। वो नूर को पोशाक की मानिंद पहनता है।” कायनात ख़ुदा की हशमत का लिबास है। आस्मान एक पर्दा है जो उस के जलाल पर छाया हुआ है। अबर उस के रथ हैं। चूँकि मसीह ख़ुदा से ख़ुदा है इसलिए मुक़द्दस यूहन्ना ये कहने से नहीं झिझकता "जो कुछ पैदा हुआ उस में से कोई चीज़ भी उस के बग़ैर पैदा नहीं हुई ।

क़ुदरत का तमाम हुस्न व जमाल उसका ख़ल्क़ किया हुआ है। वो उस का हशमत व जलाल का बिन सिला लिबास है । हिक्मत व साइंस फ़क़त उस ख़ूबसूरती और तर्तीब को दर्याफ़्त या उस की नक़ल ही कर सकती है जो अज़ल से क़ुदरत में पिनहां है क्योंकि मसीह के मुबारक हाथों ने उन्हें वहां रखा है। शफ़क़ "उस मुक़द्दस हस्ती का रंगीन लिबास है जो फ़क़त एक घंटा हुआ क़त्ल किया गया।”

तमाम फ़ुनून-ए-लतीफ़ मसलन मुसव्विरी, संग तराशी, मौसीक़ी और फ़ने इमारत वग़ैरा सबकी लताफ़त और नफ़ासत का सबब मसीह की ज़िंदगी की मुबारक तासीर और उस की मौत ही है। कई बार मुसव्विरों और माहिरीन मौसीक़ी ने अपने फ़ायदे और अपनी तलक़ीन की ख़ातिर उस की पोशाक उतार ली और फिर उसे बरहना और ज़लील करके लटका रहने दिया। डार्विन अपने नज़रिया दरबाब "माहीयत अजनास" में इन्सान की माहीयत और क़ुदरत में उस का दर्जा दिखाने की कोशिश करता है लेकिन वो इब्ने आदम को बिल्कुल नज़र-अंदाज कर देता है।

मसीह की माहीयत क्या थी ? आलमे मौजूदात के पार एक ऐसा आलिम और भी है जो साईंस के फ़हम व इदराक से बाला-ए-तर है जब हम मख़्लूक़ को उस के ख़ालिक़ से जुदा कर देते हैं और मख़्लूक़ के तमाम क़वानीन और क़वाइद को ख़ालिक़ की हस्ती के बग़ैर समझना चाहते हैं तो क्या ऐसा करने से हमारा मुबल्लिग़-ए-इल्म बढ़ जाता है या कम हो जाता है। शायद लोगों ने यरूशलेम में मसीह को देखकर ये कहा हो कि देखो वो नासरत का रहने वाला जाता है जिसकी पोशाक बिन सिली है। लेकिन क्या ऐसे लोगों की रसाई उसके दिल तक हुई ?

महिज़ साईंस में अख़्लाक़ी ख़ूबीयों को कोई क़दरो मर्तबा हासिल नहीं जिसमें टी. एडमीज़ कहता है कि "अगर हम साईंस के मुरव्वजा तसव्वुरात को कामिल तौर से क़बूल कर लें तो हम इन्सानी ज़िंदगी की तमाम ख़ूबीयों को ज़ाए कर देते हैं ।

अन्वाअ व अक़्साम के हुनर मुज़िर असर को ज़ाहिर कर रहे हैं। मसलन आजकल के क़िस्सा कहानीयों और अफ़्सानों ही को ले लो । अगर इन्सानी चल-चलन कुछ हक़ीक़त ही नहीं रखता और शख़्सियत फ़क़त एक फ़र्ज़ी शैय है और आज़ादी आमाल फ़क़त एक ख्व़ाब है और हम महिज़ दिमाग़ की तब्दीलीयों का एक सिलसिला हैं और बस इतनी ही वक़्त-ओ-मंज़िलत रखते हैं जितनी एक बेचारे जुगनू को लकड़ी के ख़ुश्क कुंदे पर हासिल हो तो फिर कोई बताए कि इन के मुताल्लिक़ लिखने लिखाने से किया फ़ायदा ?

फ़लसफ़ा ने भी मसीह को बरहना कर रखा है और फ़लसफ़ादां अक्लमंदी से कहीं या बे-अक़्ली से कुछ ऐसे मसाइल पर बेहस करते हैं जिनका जवाब देने के लिए मसीह ना फ़क़त आप आया था बल्कि जिनका जवाब वो बज़ात-ए-ख़ुद है। लेकिन बादअज़ां ये लोग अपने बेहस व मुबाहिसा से उसे ख़ारिज कर देते हैं। हाल ही में एक नई किताब"फ़लसफ़ा जदीद से मुताल्लिक़ मसाइल" शाया हो कर अमरीका के कॉलिजों में उमूमन इस्तिमाल हो रही है । उस ज़खीम किताब के 575 सफहों में एक जगह भी मसीह की जानिब कोई इशारा नहीं पाया जाता। हालाँकि वो फ़लसफ़ा के बुनियादी सवालात का जवाब देने आया था। मसलन हम कहाँ से आए हैं ? और हम यहां क्यों मौजूद हैं ? हमारी सही फ़ित्रत क्या है ? हमारा अंजाम क्या है ? ज़िंदगी क्या है ? मौत क्या है ? रंज व अलम का राज़ क्या है और इन्सानियत की उम्मीद क्या है ?

क्या स्पिनोज़ा (Spinoza), हीगल (Hegel), शोपनहोर (Sehopenhauer), काण्ट (Kant), हक्सले (Huxley), स्पनसर (Spencer), बर्गसन (Bergson) और इसी क़िस्म के दीगर फ़लसफ़ी मसीह की पोशाक पर क़ुरआ नहीं डाल रहे?

जदीद इल्मे अख़्लाक़ मसीह से पहाड़ी वाअज़ तो ले लेता है। लेकिन कलवरी पर चढ़ने से उसे साफ़ इन्कार है। वो जो बाग़ गतसमनी में कभी दाख़िल ही नहीं हुए और मसीह की जानकनी से वाक़िफ़ नहीं वो आलमगीर इखुवत और ख़ुदा की अब्बूवीयत के मुताल्लिक़ चर्ब ज़बानी तो बहुत दिखाते हैं । लेकिन वो उसकी असल क़द्रो-क़ीमत से वाक़िफ़ नहीं।

जदीद मसीही इलाहिय्यात, जदीद हिन्दूधर्म, जदीद दीने इस्लाम और जदीद यहूदियत सब के सब मसीह के अख़्लाक़ को तो लेना चाहते हैं । लेकिन उस की उलूहियत का इन्कार करते हैं जो कुछ सच्चाई है। ख़ूबसूरती और शराफ़त इन जदीद मज़ाहिब और फ़लसफ़ों में मौजूद है वो ऐसी पोशाक है जो मुस्तआर ली हुई है। "जब सिपाही येसु को सलीब दे चुके तो उसके कपड़े उतार कर चार हिस्से किए, हर सिपाही के लिए एक हिस्सा ।”

अरबाब-ए-मईशत एक मुआशरी इंजील की मुनादी करते हैं। लेकिन ये भूल जाते हैं कि मुआशरी इंजील बैत-लहम में पैदा हुई थी। और इन्सानियत के हुक़ूक़ पर गलगता में मसीह के ख़ून से मुहर लगाई गई। सलीब जो पहले ज़िल्लत व रुसवाई का निशान थी अब मसीह के ख़ून के बाईस रहम, सुलह व सलामती और मुहब्बत, दिलेरी ,शहादत व उबुदियत का निशान बन गई। पस ये बिल्कुल नामुम्किन है कि हम मुआशरी ख़िदमत का ज़िक्र करें और मसीह को नज़र-अंदाज कर दें।

जब कभी हम सलीब अह्मर के शिफ़ा ख़ानों और ख़ैरात ख़ानों में जाते हैं वहां मसीही रूह तो मौजूद होती है। लेकिन मसीह और उस के पैग़ाम का कोई निशान नहीं पाते । ये देखकर हम फ़ौरन मर्यम के हम नवा हो कर पुकार उठते हैं "मेरे ख़ुदावंद को उठा ले गए और मालूम नहीं उसे कहाँ रखा।” निशान तो बिलाशक मौजूद है लेकिन मसीह को नज़र-अंदाज कर दिया जाता है । उस के लिए अंदर कोई जगह नहीं। हम ईद विलादत की मुबारकबादियां भेजने का एहतिमाम तो बड़े वसीअ पैमाना पर किया करते हैं। लेकिन इन रोक़ओं पर जो उस की विलादत की ख़बर देते हैं उस की आमद का कोई पैग़ाम मौजूद नहीं होता। पोशाक तो मौजूद होती है लेकिन ख़ुद मसीह ग़ायब होता है। जब कि हनूज़ मसीह सलीब पर बरहना और तन्हा लटका होता है तो लोग उस की पोशाक पर क़ुरआ डालते हैं। और "जब उस का ठट्ठा उड़ा चुके तो उस की पोशाक उस पर से उतार ली" (मत्ती 27:31)

पस ये कोई ताज्जुब की बात नहीं कि आबाए कलीसया-ए-यूनान ने मसीह के दुख उठाने की नमाज़ की तर्तीब में हमारे नजातदिहंदा के तमाम मसाइब को जुदागाना शुमार करने और उन के ज़रीये से रहम की इल्तिजा करने के बाद ये इज़ाफ़ा किया है "तू अपनी नामालूम तकलीफों और मुसीबतों की ख़ातिर जो तूने सलीब पर उठाई और जिनका हमें साफ़ व सरीहयह इल्म नहीं हम पर रहम कर और हमें बचा।”

हमें भी इसी दुआ की ज़रूरत है। मसीही भी मसीह की मानिंद सलीब पर बरहना किया जाता है। शागिर्द अपने उस्ताद से बड़ा नहीं होता। हमारी अस्लीयत हमारी सलीब पर ही ज़ाहिर होती है। मुसीबत के बर्दाश्त करने से ही तजुर्बा हासिल होता है। मौत के उस होलनाक पुल पर से बरहना शख़्सियत के सिवा और किसी चीज़ का गुज़र नामुम्किन है । कार्लाइल इन्सानियत का नक़्शा खींच कर दिखाता है जब बनी-नौ इन्सान को बरहना किया जाता है और उस की पोशाक की ज़ीनत उन से जुदा कर ली जाती है तो तमाम इन्सान एक दूसरे के हम-शक्ल होते हैं। यानी जब मर्तबा व मनसब-ओ-मंज़िलत की बुजु़र्गी और हशमत इन्सान से दूर हो जाती है तो उन में बाहम कोई फ़र्क़ बाक़ी नहीं रहता। इन्सान की असली तबीयत व माहीयत का इन्किशाफ़ फ़क़त रंज वालम के ज़रीये से होता है । आग में ताए जाने और सलीब पर खींचे जाने से ही इन्सान की हक़ीक़त ज़ाहिर होती है। येसु मसीह, गेस्टेस (Gestas), और डसीमस (Desmas) तीनों सलीब पर लटक रहे हैं। एक गुनाह में मरा, एक गुनाह के एतबार से मुर्दा है और तीसरे के ज़रीये से गुनाह की मौत वाक़े हुई । एक काफ़िर है, एक ईमानदार है और तीसरा नजातदिहंदा है। एक ने मरकर अपनी ज़िंदगी ज़ाए की दूसरे ने ज़िंदगी हासिल की। तीसरे ने अपनी ज़िन्दगी को फ़िद्ये में दे दिया।

सलीब पर हम ख़ुदा और उसकी मख़्लूक़ को उनकी हक़ीक़ी सूरत में देखते हैं। मौत हमारी रूह के सिवा और सब कुछ हमसे जुदा कर डालती है। हमारी ज़ात पर पर्दा डालने वाली तमाम अश्या हमसे दूर हो जाती हैं। जब हम ख़ुदा के हुज़ूर अदालत में हाज़िर होंगे। तब हम बर्हेनगी की हालत में होंगे। अय्यूब कहता है कि "अपनी माँ के पेट से मैं नंगा बाहर निकल आया और फिर नंगा वहां जाऊंगा।” जब हम मौत के दरिया से उबूर करते हैं तो जे़ल की आयत की तस्दीक़ होती है। और उस से मख़्लूक़ात की कोई चीज़ छिपी नहीं बल्कि जिससे हमको काम है। उस की नज़रों में सब चीज़ें खुली और बेपर्दा हैं।”

लिहाज़ा मसीह को सलीब पर लटके हुए देख कर हम ये आरज़ू रखते हैं कि हम भी "अपने आस्मानी घर से मुलब्बस हो जाएं ताकि मुलब्बस होने के बाईस नंगे ना पाए जाएं।" मुबारक वो है जो जागता है और अपनी पोशाक की हिफ़ाज़त करता है ताकि नंगा ना फिरे। लोग उसकी बर्हेनगी ना देखें "मुकाशफ़ात की किताब की सात मुबारकबादियों में से इस मुबारकबादी की तरफ़ बहुत कम तवज्जा दी जाती है।

आस्मान में "पाना" मुसद्दिर के लिए कोई जगह नहीं क्योंकि वहां "बनना" मुसद्दिर उस की जगह ले लेता है। हम वहां पर कुछ पाएँगे नहीं बल्कि ख़ुद एक ग़ैर-फ़ानी मीरास बिन जाऐंगे। ये कौन हैं जो सफ़ैद जामे पहने खड़े हैं? ये अपनी रास्तबाज़ी में मुलब्बस नहीं हैं और उन सफ़ैद लिबास वालों की अंबोह कसीर के ऐन दरमियान वो खड़ा है। जो सलीब पर बरहना किया गया था। लेकिन "अब पांव तक का जामा पहने और सोने का सीना बंद सीने पर बाँधे हुए था।”

जी टी वाट्स (G.T. Watts) ने जो एक मशहूर मुसव्विर गुज़रा है । फ्रेडरिक शील्डज़ (Frederick Sheilds) से दर्याफ़्त किया कि :-

"फ़ेथ" यानी ईमान की पोशाक के लिए कौन से रंग मुनासिब हैं। उस ने जवाब दिया "ईमान इन्सान के लिए जो हिस्सी अश्या से महसूर है आस्मानी चीज़ों का यक़ीन है। इसलिए नीलगूं आस्मान का रंग उस के लिए मौज़ूं है यानी उसके बाज़ू और उस के चोग़ा के लिए। लेकिन उस का बाक़ी लिबास बेदाग़ और सफ़ैद होना चाहिए और या इसलिए कि वो जो आमाल हसना के ज़रीये से रास्तबाज़ी को हासिल करना चाहते हैं। नाकामयाब होते हैं। क्योंकि ये "फ़ेथ" यानी ईमान का इनाम है "बादशाह के सफ़ैद लिबास से मुलब्बस हो कर हम आख़िर-ए-कार मुंदरजा ज़ैल अल्फ़ाज़ के रुहानी और ग़ैबी माअनी को समझेंगे यानी "उन्होंने उस के कपड़े आपस में बांट लिए..........................

सलीब से मुताल्लिक़ जो ज़बूर है वो"ऐ मेरे ख़ुदा ! ऐ मेरे ख़ुदा ! तूने मुझे क्यों छोड़ा है" से शुरू होता है और बाअज़ तर्जुमों के मुताबिक़ "पूरा हुआ" से ख़त्म होता है। हम ये कह सकते हैं कि रंज व अलम की बईद अज़ क़यास गहिराईयों के इज़्हार के एतबार से इस ज़बूर से बढ़कर और कोई ज़बूर नहीं ये हमारे ख़ुदावंद की जानकनी और हालत-ए-नज़ा की दर्दनाक तस्वीर है। उसके आख़िरी कलिमात का बयान उसके आख़िरी आँसूओं का अश्कदान और उसकी ख़ुशी के इख़्तताम की यादगार है। शायद दाऊद और उसकी मुसीबत भी इस में किसी क़दर पोशीदा हों । लेकिन जिस तरह सितारे आफ़्ताब की रोशनी में मादूम हो जाते हैं। इसी तरह जो उस में येसु को देख लेता है दाऊद उसके लिए ग़ायब हो जाता है बल्कि दाऊद की जानिब उसका ख़्याल तक भी नहीं जाता। यहां हमारे सामने सलीब के जलाल और उस की तारीकी हर दो के बयानात मौजूद हैं। यानी मसीह की मुसीबत और उसका जलाल जो उस की मुसीबत का नतीजा है।

ए काश हमें फ़ज़्ल इनायत हो कि हम उस अज़ीमुश्शान नज़ारा को देख सकें ! चाहे कि हम मूसा की मानिंद अपनी जूतीयां उतार कर कमाल आजिज़ी और ख़ाकसारी से उस मज्मुर का मुताला करें क्योंकि हमारी कुतुब-ए-मुक़द्दसा में सबसे पाकतरीन मुक़ाम यही है (चार्ल्स. ऐच.सरजन)

बाब शुशम

"ऐ मेरे ख़ुदा ! ऐ मेरे ख़ुदा तूने मुझे क्यों छोड़ दिया है ?"

मसीह के हफ़्त सलीबी कलिमात में फ़क़त एक यही कलिमा है । जिसे मरकुस, मत्ती हर दो ने अपनी अनाजील में लिखा है। बाईसवीं ज़बूर का आग़ाज़ इन्ही अल्फ़ाज़ से होता है। लेकिन दोनों मुबश्शिरों में से एक ने ये भी ज़िक्र नहीं किया कि किसी पेशीनगोई की तक्मील है। सलीब पर कामिल छः घंटे सख़्त मुसीबत और अज़ाब उठाने के बाद हमारे नजातदिहंदा के लब हाय मुबारक से ये अल्फ़ाज़ निकले। उस का पहला कलिमा ये था"ऐ बाप इनको माफ़ कर क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या करते हैं।” यानी माफ़ी के लिए दुआ। उसका दूसरा कलिमा सलामती और इत्मीनान का वाअदा है। "मैं तुझसे सच्च कहता हूँ कि आज ही तू मेरे साथ फ़िर्दोस में होगा।” उस का तीसरा कलिमा अपनी माँ को तसल्ली देने और उसके लिए फ़िक्रमंद होने से मुताल्लिक़ है "ऐ औरत देख तेरा बेटा........देख तेरी माँ" उस के बाद तारीकी तारी हो गई । फिर तीन आख़िरी कलिमात से पेशतर चंद लम्हों के अरसा में यकेबाद दीगरे कहे गए उस ने निहायत दर्दनाक आवाज़ से चिल्ला कर कहा "ऐ मेरे ख़ुदा ! ऐ मेरे ख़ुदा तूने मुझे क्यों छोड़ दिया है?

इन अल्फ़ाज़ में ज़रूर कोई ख़ास ताक़त और जज़्बा मख़्फ़ी है इसका सबूत ये है कि दोनों मुबश्शिरों ने निहायत ग़ौर व ख़ोज़ के बाद मसीह के अल्फ़ाज़ ऐन उसी ज़बान में जिसमें मसीह ने फ़रमाए कलमबंद किए "एली एली लमा शबक़तनी" पाक कलाम में मसीहाई ज़बूर के इलावा ये अल्फ़ाज़ और कहीं नहीं पाए जाते। ये चिल्लाने की आवाज़ ऐसी भारी तक्लीफ़ का इज़्हार करती है जो ना तो उस से पेश्तर कभी दुनिया में देखी गई और ना ही उस की मिसाल फिर कभी देखने में आएगी।

कारथोसीयह के लुडोल्फ (Ludolf) से चौधवीं सदी की एक रिवायत है मंसूब की जाती है कि हमारे मौला ने सलीब पर लटके हुए बाईसवीं ज़बूर की आयात को दोहराना शुरू किया और बराबर यही करता रहा यहां तक कि वो इकत्तीसवीं बाब की पांचवीं आयत तक पहुंचे।"मैं अपनी रूह को तेरे हाथ में सौंपता हूँ।” इस में कुछ शक नहीं कि इस ख़्याल के इलावा हम मसीह की ज़िंदगी उसके मसीहाई इल्म और उस की आगही की तशरीह दीगर कुतुब की निस्बत मज़ामीर में सबसे ज़्यादा वाज़िह और रोशन पाते हैं।

ये बिल्कुल सही है कि बाईसवें ज़बूर में मसीह की सलीबी मौत का बयान ऐसे अल्फ़ाज़ में मर्क़ूम है और हम सवाल करते हैं कि आया ये तारीख़ है या पेशीनगोई ? अलबत्ता स्टरास और इसी क़िस्म के दीगर लोग कहते हैं कि इस वाक़्ये का इन्जीली बयान महिज़ फ़र्ज़ी है और दरहक़ीक़त वक़ूअ में नहीं आया । बल्कि फ़क़त इसलिए लिखा गया कि अहद-ए-अतीक़ के और एक मुक़ाम का बहतरीक़ नबुव्वत पूरा होना साबित किया जाये।

लेकिन ईमानदार के लिए उस के नजातदिहंदा का ये कलिमा इन मसाइब का मज़हर है जो उसे बर्दाश्त करने पढ़ें और गुनाहगारों के लिए उसकी मुहब्बत का सबूत है। पस ये आवाज़ हमको और जुमला मुक़द्दसिन को ललकार ललकार कर कह रही है कि ज़ोरआवर बनो और जे़ल के अल्फ़ाज़ के मआनी को बख़ूबी समझो यानी उस की चौड़ाई और लंबाई और ऊंचाई और गहराई कितनी है और मसीह की उस मुहब्बत को जान सको जो जानने से बाहर है।”

अगर सलीब अहद-ए-जदीद की मर्कज़ी सदाक़त है तो ये आवाज़ इस सदाक़त की असल है और इसका ज़बरदस्त इज़्हार । मसीह के दुख के वाक़ियात का बाअदब मुताला करने वालों के नज़दीक ये पाक तरीन मुक़ाम है।

सुपरजन ने किया ख़ूब कहा है "चाहिए कि हम उस निहायत अल्मनाक कलिमा के हर एक लफ़्ज़ पर जुदागाना ग़ौर ना करें । "तूने" मैं समझ सकता हूँ कि क्यों सरकश यहुदाह और बुज़दिल पतरस मुझे छोड़ गए। लेकिन तू ऐ ख़ुदावंद मेरे ख़ुदा ! मेरे वफ़ादार शफ़ीक़ तू मुझे किस तरह छोड़ सकता है?" ये उस के मसाइब में से बदतरीन मुसीबत थी। दोज़ख़ की आतिश शोला-ज़न ख़ुदा और रूह की बाहमी जुदाई है। "मुझे" यानी अपने बेऐब, फ़र्मांबरदार और मुसीबतज़दा बेटे को । तूने मुझे क्यों हलाक होने के लिए छोड़ दिया?"

अगर हम ताइब और मनफ़अल दिल से सलीब पर लटके हुए मसीह को देखें तो हम उस ज़बरदस्त मसले को समझ सकेंगे। मसीह इसलिए छोड़ा जाता है कि हमारे गुनाहों ने ख़ुदा और उसके दरमियान जुदाई पैदा कर दी ।"क्यों?" इस अजीबो-गरीब हक़ीक़त का क्या सबब है कि ख़ुदा ने अपने बेटे को ऐसी हालत और ऐसे नाज़ुक वक़्त में छोड़ दिया?

इसका सबब मसीह में मौजूद नहीं तो फिर वो छोड़ा गया" "छोड़" अगर तू मुझे तंबीह करता तो शायद मैं इस की बर्दाश्त कर लेता। क्योंकि तेरे चेहरे का जलवा मुझे नज़र आता रहता। लेकिन आह ! तूने मुझे बिल्कुल छोड़ दिया। क्यों तूने ऐसा किया ? "दिया" यानी फ़िल-हक़ीक़त ऐसा हो गया। हमारा नजातदिहंदा उसके ख़ौफ़नाक असर को महसूस करते हुए ये सवाल पूछता है यक़ीनन ये बिल्कुल सच्च है लेकिन कैसा पुरइसरार है। ये महिज़ छोड़ देने की धमकी ना थी जिसके बाईस हक़ तआला ने बुलंद आवाज़ से चिल्ला कर ये अल्फ़ाज़ कहे बल्कि उसने वाक़ई छोड़ जाने का तजुर्बा किया।

इस जिस्मानी, रुहानी और दिमाग़ी तक्लीफ़ का अंदाज़ा लगाने के लिए जो उस आवाज़ से आश्कारा है। हमें उन तमाम वाक़ियात पर दुबारा ग़ौर करना चाहिए । सलीब दिया जाना ज़माना -ए-क़दीम के ईज़ा पहुंचाने के तरीक़ों में से सबसे ज़्यादा हैबतनाक तरीक़ा था। और रूमी अदालत में ये जराइम की इंतिहाई सज़ा मुतसव्वर होती थी। उसमें जिस्मानी बेइज़्ज़ती और जानकनी शामिल थी। जानकनी इसलिए कि जिस्म को ग़ैर मामूली तौर से रखते और हाथ पांव में मेख़ें ठोंकने के बाईस सख़्त दर्द होता। प्यास की आग भड़क उठती और आख़िर कार ताक़त बतदरीज ज़ाइल हो जाती और मौत की नौबत आ पहुँचती।

इस क़िस्म की बेइज़्ज़ती बिलख़सूस क़ौम यहूद के नज़दीक बहुत ज़्यादा समझी जाती थी । क्योंकि वो सलीब को निहायत नफ़रत व हक़ारत की नज़र से देखते थे और उसको ख़ुदा की लानत तसव्वुर करते थे (ग़लतीयों 3:13, व इस्तसना 21:22) इसके साथ ही वो तक़ाबुल भी मलहूज़ रखना चाहिए जो मसीह की पाकीज़गी, उस की बेगुनाही और उसकी ईलाही शान और उस वहशयाना तम्सख़र, मुज़हका और नफ़रत के तीरों की बोछार के दरमियान है जो तमाशाबिन ज़ेरे सलीब खड़े हो कर उस पर चिल्ला रहे थे बल्कि वो भी जो उस के दाएं और बाएं सलीब पर लटके थे। सरदार काहिन उस का ठट्ठा करते हुए उसे ले गए। "उसने औरों को बचाया अपने तईं नहीं बचा सकता...........उसने ख़ुदा पर भरोसा रखा है। अगर वो उसे चाहता है तो अब उसको छुड़ा ले।" इस के जवाब में एक मोजज़ाना तारीकी इस तमाम नज़ारा पर छटे घंटे से लेकर नौवें घंटे तक छाई रही कामिल तीन घंटों की तारीकी के बाद अपनी जानकनी और अज़ाब और मुसीबत की ज़ुल्मत के बाईस येसु बुलंद आवाज़ से चलाया"ऐ मेरे ख़ुदा ! ऐ मेरे ख़ुदा ! तूने मुझे क्यों छोड़ दिया?"

मेलनकथन और दीगर मुस्लिहीन इस आवाज़ का मतलब यूं बयान करते हैं कि ये आवाज़ इस अम्र का बाईस है कि मसीह ने अपनी इन्सानी रूह में गुनाह के बरख़िलाफ़ ग़ज़ब व क़हर का एहसास किया था। बाअज़ का ये ख़्याल है कि ये आवाज़ उसकी सियासी तदाबीर की नाकामयाबी का इज़्हार थी। यानी एक मायूस हुब्बुल वतन की नाउम्मीदी की आवाज़।

बाअज़ दीगर अश्ख़ास जिनमें शलईरमीचर (Schleirmacher) भी शामिल है का ये ख़्याल है कि ये अल्फ़ाज़ उस मातमी ज़बूर का इफ़्तिताही कलिमा में जिसका इख़्तताम भी निहायत आला है और मसीह ने उसे अपने दावा मसीहाई के सबूत में दोहराया था।

मावर कहता है कि लोगों से रद्द किए जाने की वजह से "ख़ुदा के" साथ उसकी यगानगी व रफ़ाक़त का एहसास एक लम्हा के लिए किसी क़दर कम हो गया था।" ओल्हाउसन (Olhausen) कहता है कि ये "फ़िल-हक़ीक़त ख़ुदा का उसे एक लम्हा के लिए क़सदन छोड़ना था।”

डाक्टर फ़लीब शाप (Philip Schaff) मसीह के इस तजुर्बा को बाग-ए-गतसमनी की जानकनी का उस पर निहायत शिद्दत से हमला-आवर होना और उस की कफ़्फ़ारा दही की मुसीबतों का इख़्तताम कहता है। ये गुनाह और मौत का ईलाही तजुर्बा था। यानी नस्ल-ए-इन्सानी के लिए गुनाह और मौत के अंदरूनी बाहमी ताल्लुक़ और उनकी आलमगीर हक़ीक़त को एक शख़्स ने दर्याफ़्त किया जो बिल्कुल बेऐब और पाक ज़ात था। ये तजुर्बा एक ऐसी पुर-इसरार और नाक़ाबिल-ए-बयान जिस्मानी रुहानी तक्लीफ़ थी जो क़रीब-अल-वक़ूअ मौत के ख़्याल बल्कि दरअसल मौत ही से कश्मकश करने के बाईस थी।

मौत गुनाह की मज़दूरी और तमाम इन्सानी तकलीफों का इख़्तताम है हालाँकि मसीह उस से बिल्कुल आज़ाद था तो भी उसने उस बेमिसाल मुहब्बत के बाईस जो उसे इन्सान से है उसे इरादतन इख्तियार कर लिया था।

यक़ीनन हम उसे अहले इस्लाम के ख़्याल के मुताबिक़ मसीह का मौत से ख़ौफ़-ज़दा होना और अंजाम और नतीजा की बर्दाश्त करने में अख़्लाक़ी दिलेरी की कमी नहीं कह सकते ।

जैन जीकोउस रूसो (Jean Jecques Roussean) जैसा काफ़िर भी ये कहता है कि "अगर सुक़रात ने एक फिलासफर की मानिंद अपनी जान दी तो मसीह नासरी की मौत तो एक ख़ुदा की मौत थी।"

हम मसीह के सलीब पर बुलंद आवाज़ से चिल्लाने के मआनी उस वक़्त तक हरगिज़ नहीं समझ सकते जब तक हम ये ईमान ना ले आएं कि वो हमारे गुनाहों को लेकर सलीब पर चढ़ गया। और जब तक हम उस की मौत में अपने गुनाहों के फ़िद्या के क़ाइल ना हो जाएं। लेकिन अगर हम ये मान लें कि मसीह ख़ुदा का बर्रा था और ख़ुदा ने उस पर हम सबकी बदकारीयाँ लादीं) तो हम उस तक्लीफ़ के सरबस्ता राज़ को मालूम नहीं कर सकते हैं।

अगर मसीह की मौत फ़क़त एक शहीद की मौत थी जिसने किसी अज़ीमुश्शान हक़ीक़त के लिए अपनी जान दी तो ये आवाज़ बे मौक़ा और बेमहल ठहरती है । लेकिन अगर उसका मरना एक बेऐब का गुनाहगारों के लिए मरना था और अगर वो हमारे लिए गुनाह बना तो हमारे और तमाम दुनिया के गुनाह हमारे नजातदिहंदा के दहन-ए-मुबारक से ये तक्लीफ़ और तन्हाई की आवाज़ निकलवाते हैं।

कफ़्फ़ारा किया है? कफ़्फ़ारा इन्सान के गुनाह के इव्ज़ ख़ुदा के प्यारे बेटे की सज़ा है जो उस ने इन्सान का क़ाइम मक़ाम हो कर ख़ुदा के अदल व इन्साफ़ के तक़ाज़ा को बरक़रार रखने के लिए उठाई।

अगर हम कफ़्फ़ारा की मज़कूरा बाला तारीफ़ को नापसंद करते हैं तो हम अज़ीमुश्शान हक़ीक़त को अशाए रब्बानी की नमाज़ों में जिसको हम मसीह की मौत की यादगारी के लिए बरक़रार रखते हैं और जो कलीसिया में राइज हैं देख सकते हैं। बलीजीयम और हॉलैंड की इस्लाह याफ्ताह कलीसियाओं ने जो मसला कफ़्फ़ारा की तशरीह व तौज़ीह की है भला उस से ज़्यादा ख़ूबसूरत तशरीह और क्या हो सकती है। यानी हम ईमान रखते हैं कि उसने अपने मुबारक बदन का सलीब पर ठोंका जाना इसलिए गवारा किया ताकि उस पर वो हमारे गुनाहों की तहरीर को सब्त करे। और कि उसने उस लानत को जो हमारा हिस्सा थी अपने ऊपर उठा लिया ताकि हमको अपनी बरकतों से मामूर कर दे। और कि उसने अपने आपको जिस्मानी और रुहानी तौर से दोज़ख़ी आज़ार और मलामत के मातहत कर दिया। जब उसने सलीब पर लटके हुए बुलंद आवाज़ से चला कर कहा "ऐ मेरे ख़ुदा ! ऐ मेरे ख़ुदा ! तूने मुझे क्यों छोड़ दिया?" ताकि ख़ुदा हमें ना छोड़े और हम ख़ुदा के हुज़ूर मक़बूलियत हासिल करें।

मिसिज़ बर्रेउनिंग (Mrs Browning) की नज़म के आख़िरी अल्फ़ाज़ में जो काओपर (Cowper) की क़ब्र पर कुंदा हैं यही ख़्याल ज़ाहिर होता है :-

एक मर्तबा इम्मानुएल के तन्हाई की हालत में "ऐ मेरे ख़ुदा ऐ मेरे ख़ुदा तूने मुझे क्यों छोड़ दिया" चिल्लाने की आवाज़ ने इस दुनिया को ता व बाला कर दिया। वो सदा गूँजे बग़ैर आस्मान पर पहुंची। वह उस गुमराह शूदा मख़्लूक़ के दरमियान से उसके मुबारक लबों से निकली। वो इसलिए बाद अज़ां उस गुमराह शूदा मख़्लूक़ के किसी फ़र्द को फिर ऐसे दर्दनाक अल्फ़ाज़ निकालने की ज़रूरत ना महसूस हो।"

"उसने हम सबकी बदकारीयाँ उस पर लादीं" यानी हमारे गुनाह, हमारे बदनुमा दाग़, हमारी ज़बरमीं, हमारी पीशमानी, हमारी कोताहियों, हमारे क़सूर, हमारी लग़्ज़िशें, हमारे जुर्म, हमारी ख़ताएँ, हमारी ख़िलाफ़ वरज़ीयां, हमारी तक्सीरें, हमारी जहालत, हमारी नजासत और हमारी बदकारीयाँ, हमको उस हक़ीक़त के ख़ौफ़नाक एहसास से घबराना नहीं चाहिए। हम कभी अपने ग़रूर और अपने तकब्बुर को नज़र-ए-हक़ारत से नहीं देख सकते। जब तक हम पहले ये महसूस ना करलें कि ख़ुदा के साथ हमारा मेल फ़क़त इस सबब से मुम्किन है कि "वो जो गुनाह से वाक़िफ़ ना था।" उसी को उसने हमारे वास्ते गुनाह ठहराया ताकि हम उसमें हो कर ख़ुदा की रास्तबाज़ी हो जाएं। मसीह जो हमारे वास्ते लानती बना उस ने हमें मोल लेकर शरीयत की लानत से छुड़ाया।” वो फ़क़त हमारे ही गुनाह की ख़ातिर नहीं बल्कि तमाम दुनिया के गुनाह की ख़ातिर ख़ुदा से छोड़ा गया। गोया ज़मानों के गुनाह और उन की शर्मिंदगी एक बहर-ए-बे-कराँ व मोजज़न पानियों की मानिंद उस पर से गुज़री। गहराइयाँ गहिराईयों को पुकारती हैं। वहशी इन्सान की तमाम ना-मुकम्मल नफ़्सानी ख़ाहिशात और उन की जहालत की तारीकी, बनी इस्राइल की ख़ुदपसंदी और खुदअराई नैनवा और सूर की शेख़ी, मिस्र और बाबुल के ज़ुल्मो सितम, फ़िर्क़ों और गिरोहों की बे-इंसाफ़ी, बाज़ारों के जुर्म व गुनाह क़हबा ख़ाने और जंग के मैदान यहुदाह का पकड़वाना, पतरस का इन्कार और मसीह के दीगर शागिर्दों की फ़रारी, पिलातुस, हेरोदेस, और काइफ़ा की तक्सीरें, बल्कि ज़माना गुज़शता, हाल व मुस्तक़बिल की बदकारीयाँ ये तमाम बातें उस की रूह को पस्त कर रही थीं जिसका नतीजा ये दर्दनाक सदा थी उस दिल को जो ख़ुदा का मुक़द्दस था गुनाह आलूदा दुनिया का तसव्वुर बाग-ए-गतसमनी में एक घिनौनी सूरत बन कर सता रहा था। सलीबी दुख निहायत तारीक और हक़ीक़ी था। मसीह की रूह का दुख फ़िल-हक़ीक़त उस का असल दुख था।

फोरसिथ (Forsyth) कहता है कि मसीह का दुख उठाना और उस की मौत दरहक़ीक़त मामूली दुख और मुसीबत से कहीं बढ़कर है क्योंकि वो अमल कफ़्फ़ारा था। तारीख़ कलीसिया (हर दौर रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट) के मुख़्तलिफ़ मदारिज पर मसीह के दुखों पर किसी क़दर मुबालग़ा के साथ ज़ोर दिया जाता है । लेकिन असल में मसीह के दुख पर इतना जोर नहीं देना चाहिए जितना इस अम्र पर कि उसने "क्या किया" मसीह का दुख उठाना एक ईलाही फे़अल है। क्योंकि उसने ब-आसानी उस को कार-ए-अज़ीम में तब्दील कर दिया।

ये मुसीबत ख़ुशी से गवारा की गई और पाक और मुक़द्दस इताअत व फ़रमांबर्दारी के ज़रीये से इन माहौल के तहत जो गुनाह और लानत के बाईस ख़ुदा की पाकीज़गी के बमूजब इन्सान पर वारिद हुए तब्दील की गई । ये मुसीबत ख़ुदा की पाकीज़गी और उसके हुस्न-ए-तक़द्दुस के सामने एक क़ुर्बानी थी। यहां तक तो ये सज़ा ठहरी लेकिन उस मुसीबत की शिद्दत और उस की इंतिहा नहीं बल्कि उस की इताअत और उस की पाकीज़गी ही इन्सान के लिए कफ़्फ़ारा ठहरी।"

इन्सान को उस आवाज़ की तशरीह करने से किसी क़दर ख़ौफ़ आता है। इन तमाम बातों के बावजूद जो इन्सान ने इस के मआनी को रोशन करने के लिए कही हैं ये एक चीसतान ही है। यानी कफ़्फ़ारा एक नाक़ाबिल-ए-हल हक़ीक़त है। ख़ुदा जो क़ादिर-ए-मुतलक़ और मुहब्बत करने वाला बाप है उसने क्यों अपने इकलौते बेटे को इस इंतिहाई तक्लीफ़ की तारीकी मैं अकेला छोड़ दिया ? बाअज़ लोग निहायत जुरात और दिलेरी से ये कहते हैं कि मसीह ख़ुदा के ग़ज़ब व क़हर का तख़्ता मश्क़ बना। अगर इस ख़्याल की निहायत एहतियात से तरमीम ना की गई तो ये तसव्वुर बहुत ही तक्लीफ़-दह साबित होगा। मुम्किन नहीं कि ईलाही सितम-रसीदा शख़्स एक लम्हे के लिए भी बाप के ग़ज़ब का तख़्ता मश्क़ बना हो । वो आस्मान से फ़क़त इसी लिए आया ताकि बाप की मर्ज़ी बजा लाए और उस लाइंतिहा मुहब्बत के मक़्सद को तबाह शूदा दुनिया को नजात बख़्शने के कारे अहम के ज़रीये से अंजाम दे। ख़्वाह ऐसा करने से उसकी पाक ज़ात को कितना ही दुख क्यों ना पहुंचे बल्कि बरअक्स इसके उससे पेशतर बाप की तवज्जा और उसकी मुहब्बत बेटे पर कभी इस से ज़्यादा मर्कूज़ ना थी ।"

"बाप मुझसे इसलिए मुहब्बत रखता है कि मैं अपनी जान देता हूँ ताकि उसे फिर ले लूं"

मसीह ने ख़ुद पेश अज़ीं वक़्त इस क़दर ये महसूस ना क्या होगा कि वो बाप की मर्ज़ी बजा ला रहा है और इसलिए बाप उस से ख़ुश होगा और उसे कभी अकेला ना छोड़ेगा।

इस दर्दनाक सदा में मसीह की तन्हाई का वो एहसास पिनहां है जो मुजस्सम होने के अय्याम में उस ने महसूस किया था और जिस का ख़ातमा सलीब पर ही हुवा I

"मैंने तन-ए-तन्हा अंगूर को कोल्हों में कुचला।” वो अपनी पैदाइश के वक़्त तन्हा था। नासरत में उसने अपने अय्यामें ज़िंदगी तन्हाई में बसर किए। बादअज़ां सहराओं और पहाड़ों की बुलंद चोटियों पर उस ने तन्हाई के लम्हे गुज़ारे। उस के मुताल्लिक़ अवाम की ग़लतफ़हमी । उसकी पीशीवाई, उस की आज़माईश और उस की दुआएं ये सब उसकी तन्हाई का सबब थीं। वो अवाम के दरमियान रह कर तन्हा रहा पहाड़ पर अपनी सूरत के तब्दील होने के वक़्त वो अकेला ही था। यरूशलेम पर मातम करते और उस पर आँसू बहाते वक़्त वो अकेला ही था। बाग़ गतसमनी और कोह कलवरी पर वो अकेला ही रहा। "सारे शागिर्द उसे छोड़कर भाग गए।" "उन्होंने मुझसे मुफ़्त अदावत की ।" क्योंकि उसने किसी तरह का ज़ुल्म ना किया और उस के मुँह में हरगिज़ छल ना था। लेकिन ख़ुदावंद को पसंद आया कि उसे कुचले । उसने उसे ग़मगींन किया ।"

सलीब की तन्हाई का बयान करते हुए राबर्ट किबल कहता है :-

"मेरा ख़्याल है कि वो यक़ीनी तौर पर अपने तजुर्बात-ए-ज़िंदगी को ज़ाहिर कर रहा था। ऐसे तजुर्बे जो उस वक़्त तक उस मर्द-ए-ग़मनाक ने ख़ामोशी के साथ हासिल किए होंगे। इसमें कुछ शक नहीं कि सलीब पर वो ज़्यादा शदीद मालूम हुए होंगे । वो तन्हा मर्द जो दुनिया से इसलिए रद्द किया गया क्योंकि वो गुनाह से मुबर्रा था। ख़ुदा से इसलिए रद्द किया जाता है क्योंकि वो गुनाह बना। आह ! ये कैसी मुहब्बत है जो क़ियास से बालातर है।

आह ! उस की तन्हाई की फ़तह कैसी अजीबो-गरीब है ! उस नौवें घंटे में येसु हमारा ख़ुदावंद दुनिया में ऐसी तन्हाई की हालत में था जो इन्सान के इदराक व फ़हम से बाहर है !"

“मुल्क-ए-मिस्र के बादशाही मक़बरों के कुतबों और मनक़ोशात पर जगह जगह ज़िंदगी की कुंजी (मिफ़्ताह-उल-हयात) का निशान देखा जाता है। अजीब बात है कि वो निशान सलीब की शक्ल में है। जब हम अपनी गोल मेज़ों के चौगिर्द बैठे थे तो यकायक हमारे दिलों में ये ख़्याल गुज़रा कि सलीब ही मिफ़्ताह-उल-हयात है और यहां ज़ेरे सलीब हमने तमाम अश्या की माहीयत पर ग़ौर किया। हमने ये महसूस किया कि इसमें यानी सलीब ही में आलम मौजूदात की हक़ीक़त हम पर रोशन होती है और अगर हमारी रसाई उस दुख और तक्लीफ़ तक हो जाएगी जो सलीब में मख़्फ़ी है तो हम ज़िंदगी के मआनी को समझ सकेंगे।

बला-रैब मसीह एक राज़ है और इस का हल उस की क़ुर्बान होने वाली रूह में मौजूद है और वो राज़ हल भी कहाँ होता है ? सलीब पर ! इसका समझना मसीह को समझना है। मसीह को समझना ख़ुदा को समझना है। और ख़ुदा को समझना आलम-ए-मौजूदात और ज़िंदगी के मआनी को समझना है। पस सलीब ही वो वाहिद कुंजी है जिसको अगर मैं अपने हाथ से जाने दूं तो पशेमान हो जाता हूँ और कायनात का राज़ मुझ पर नहीं खुलता। लेकिन इस कुंजी को अपने क़ब्जे और अपने दिल में रखते हुए में उस राज़ को मालूम करने पर क़ादिर हूँ।"

"क्राइस्ट ऐट दी राउंड टेबल" मिन तस्नीफ़ ई स्टैनली जोन्स)

बाब हफ़तुम

"देखो ख़ुदा का बर्रा !"

वस्त एशिया से मसीह की एक जिला-वतन ख़ादिमा जिसने अहले-ए-इस्लाम के दरम्यान निहायत तन वही से तवील ख़िदमत की है यूं कहती है :-

"हम यहां इब्तिदाई बातों को सबसे आगे रखना सीखते हैं और फिर बतदरीज निहायत अक्लमंदी और इस्तिक़लाल के साथ अपने वाहिद मक़्सद तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। मेरी राय ये है कि हमें बैरूनी दुनिया को दिखाये बग़ैर ख़ामोशी के साथ ऐसा करना चाहिए। ताकि हम उस अंदरूनी दुनिया में जहां हमारे ख़ुदावंद ने हमें रखा है वाक़ई कुछ ख़िदमत अंजाम दे सकें। आजकल मसीह के नाम की गवाही देने के लिए हमें आज़ादी हासिल है लेकिन अंदेशा ये है कि किसी वक़्त भी ये आज़ादी हमसे छिन ना जाये। लिहाज़ा हमें निहायत दानिशमंदी के साथ वक़्त को ग़नीमतजान कर इसका मुनासिब व वाजिब इस्तिमाल करना चाहिए"

क्या हम मसीह के गवाह होने की हैसियत में ये सवाल नहीं पूछ सकते कि ये मक़्सद किया है? हमारे पैग़ाम का मर्कज़ किया है ? वो कौनसी हक़ीक़त है जिसे हमें ज़रूर ज़ाहिर करना है ? वो कौनसा ऐसा सरीह, आला व बरतर और मुतहर्रिक पैग़ाम है जो हमें ग़ैर-मसीही दुनिया को पहुंचाना है ? क्या वो पैग़ाम यूहन्ना इस्तबाग़ी के अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर नहीं होता जो बनी इस्राइल के लिए एक नए पैग़ाम का पहुंचाने वाला था ? बनी इस्राइल और अहले इस्लाम में बहुत सी बातें मुशतर्का हैं । ब्याबान में पुकारने वाली एक आवाज़ ही पैग़ाम सुना रही है :-

"यानी देखो ख़ुदा का बर्रा !"

हेरोदेस की तेग़े आबदार ने यूहन्ना को जल्द जाम-ए-शहादत पिलाया और यूं उस से मसीह के पाक नाम की शहादत देने की आज़ादी ले ली गई । लेकिन जब तक उसे ये आज़ादी हासिल थी उसने इब्तिदाई बातों को पेश रखा।

ये क़ैसर तबरयास के अह्द का पंद्रहवां साल था। पिन्तुस पिलातुस यहुदियाह का हाकिम था। हेरोदेस गलील पर हुकमरान था और फिलिप्स और लाईसीयस (Lysias) चौथाई मुल्क के हाकिम थे। हन्ना और काइफ़ा के सपुर्द हैकल की इबादत और क़ुर्बानीयों का इंतिज़ाम था।

रूमी सल्तनत में बग़ावत के आसार नमूदार थे। बहुत नए फ़िरक़े और जमातें बन गई थीं जो अपने अपने फ़लसफ़े पेश कर रही थीं। लेकिन उनमें से एक में भी कोई ज़िंदा जावेद उम्मीद ना थी। लिहाज़ा ख़ुदा का कलाम ब्याबान में यूहन्ना पर ज़ाहिर हुआ और उसने जो कुछ सुना उस की मुनादी की यानी"देखो ख़ुदा का बर्रा !"

ये अल्फ़ाज़ यानी "ख़ुदा का बर्रा" हमारे ख़ुदावंद के लक़ब की सूरत में दो मर्तबा मुक़द्दस यूहन्ना और एक मर्तबा पतरस के पहले ख़त में मज़कूर हैं। मुक़द्दस यूहन्ना इस लक़ब को तसग़ीर की सूरत में मुकाशफ़ा की किताब में अट्ठाईस मर्तबा इस्तिमाल करता है । अगर हम इन मुक़ामात का मुताला करें तो हमें मालूम हो जाएगा कि उस शागिर्द के नज़दीक जो ख़ुदावंद मसीह के सीने पर सर रखकर तकिया करता था और जो दीगर शागिर्दों की निस्बत उसकी नजात बख़्श मुहब्बत के राज़ से बेशतर वाक़िफ़ था इन अल्फ़ाज़ को किस क़दर एहमीयत हासिल थी। ये अल्फ़ाज़ सबसे पेशतर यूहन्ना इस्तबाग़ी की गवाही में मज़कूर हैं जो उसने मसीह की निस्बत दी। "दूसरे दिन उसने येसु को अपनी तरफ़ आते देखकर कहा देखो ये ख़ुदा का बर्रा है जो दुनिया के गुनाह उठा ले जाता है" उसके अगले दिन फिर यरदन के उस पार शायद बैत- अन्या बैत उबारा में यूहन्ना और उस के शागिर्दों में से दो शख़्स खड़े थे उसने खुदावंद मसीह पर जो जा रहा था निगाह करके कहा "देखो ये ख़ुदा का बर्रा है।"

पतरस इस लक़ब को बिल्कुल इसी तरह तो नहीं इस्तिमाल करता लेकिन गुनाहों से ख़लासी हासिल करने के मुताल्लिक़ ज़िक्र करते हुए यूं कहता है कि :-

"ये फ़ानी सोने और चांदी के ज़रीया से नहीं हो सकती बल्कि एक बेऐब और बेदाग़ बर्रे यानी येसु के बेशक़ीमत ख़ून से।"

पतमस के जज़ीरे में यूहन्ना के मुकाशफ़ा के ज़रीया से दफअतन हमारी मुलाक़ात यहुदाह के क़बीले के इस बब्बर से होती है जो "ख़ुदा का बर्रा भी है" और मैंने उस तख़्त और चारों जानदारों और उन बुज़ुर्गों के बीच में गोया ज़बह किया हुआ एक बर्रा देखा" चौबीस बुज़ुर्ग उस बर्रे के सामने गिर पड़े (मुकाशफ़ा 5:8) और एक नया गीत गाने लगे और फ़रिश्ते जो शुमार में लाखों करोड़ों थे बुलंद आवाज़ से ये कहते सुनाई दिए "ज़बह किया हुआ बर्रा ही क़ुदरत और दौलत और हिक्मत और ताक़त और इज़्ज़त और तम्जीद के लायक़ है"तमाम मख़्लूक़ात भी जवाब में बर्रा की हम्दो इज़्ज़त के गीत गाती है।

फिर हम पढ़ते हैं कि बर्रा ख़ुदा की सात मुहरों में से एक को खौलता है और ख़ुदा का ग़ज़ब पे-दर-पे ज़ाहिर होता है। यहां तक कि लोग ख़ौफ़-ज़दा हो कर चिल्ला कर "पहाड़ों और चटानों से कहने लगे कि हम पर गिर पड़ो और हमें उस की नज़र से जो तख़्त पर बैठा हुआ है और बर्रा के ग़ज़ब से छिपा लो" (मुकाशफ़ा 6: 16)

नजात याफताह लोगों की एक बड़ी जमात सफ़ैद जामे पहने तख़्त और बर्रा के आगे खड़ी बड़ी आवाज़ से चिल्ला चिल्ला कर उस की तम्जीद के गीत गाती है। क्योंकि बर्रा जो तख़्त के बीच में है वो उन की गल्लाबानी करेगा और ख़ुदा उनकी आँखों के सब आँसू पोंछ देगा (मुकाशफ़ा 7: 10 व 17)

आगे चल कर हम देखते हैं कि किस तरह वो बर्रे के ख़ून के बाईस भाईयों पर इल्ज़ाम लगाने वाले पर ग़ालिब आए (12:11) और इसलिए भी कि इनके नाम बर्रे की किताब हयात में लिखे गए थे (13:8) फिर हम बर्रे को कोहे सिय्योन पर खड़ा देखते हैं (14:1) और वो जो औरतों के साथ आलूदा नहीं हुए बर्रे के पीछे पीछे चलते हैं क्योंकि वो ख़ुदा और बर्रे के लिए पहले फल होने के वास्ते आदमीयों में से ख़रीद लिए गए (14:4)

लेकिन वो जो उस हैवान की परस्तिस करते हैं बर्रे के सामने आगे और गंधक के अज़ाब में मुब्तला होते हैं (14:10) वो जो ग़ालिब आए थे बर्रे का गीत गाते हैं (15:3) वो जो उस हैवान के साथ हैं बर्रे से लड़ते हैं। लेकिन बर्रा उन पर ग़ालिब आता है क्योंकि वो ख़ुदावन्दों का ख़ुदावंद और बादशाहों का बादशाह है (17:13) इसके बाद आस्मान पर एक बड़ी भेड़ की आवाज़ ये कहते हुए सुनाई दी "हल्लेलुयाह इसलिए कि बर्रे की शादी आ पहुंची (19:7) "मुबारक हैं वो जो बर्रे की शादी में बुलाए गए हैं।" आख़िरी अबवाब में तमाम जलाल और बुजु़र्गी ख़ुदा के बर्रे को दी गई है जो दुनिया के गुनाह उठा ले जाता है ।मुक़द्दस शहर बर्रे की दुल्हन है।

कुल रसूल बर्रे के रसूल हैं उस में कोई मुक़द्दस नहीं क्योंकि ख़ुदावंद ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ और बर्रा उसका मुक़द्दस में (21:22) उस शहर में सूरज और चांद की कोई हाजत नहीं। क्योंकि ख़ुदा के जलाल ने उसे रोशन कर रखा है और बर्रा उस का चिराग़ है (21:23) उसमें कोई दाख़िल नहीं हो सकता मगर वो जिसके नाम बर्रे की किताब-ए-हयात में लिखे हैं (21:27) आब-ए-हयात का दरिया बर्रे के तख़्त से निकल कर सड़क के बीच में बहता है क्योंकि ख़ुदा का तख़्त बर्रे का तख़्त है और उस के बंदे उस का मुँह देखेंगे और उस का नाम (यानी येसु का नाम) उन के हाथों पर लिखा हुआ होगा (22: 1-3) "तू उसका नाम येसु रखना, क्योंकि वही अपने लोगों को उनके गुनाहों से नजात देगा।”

पस कौन इन मुतअद्दिद मुक़ामात की दलायल और उनके बेशुमार सबूतों के बावजूद कह सकता है कि येसु मसीह ख़ुदा का बर्रा हो कर गुनाहगारों का नजातदिहंदा, दुनिया का बचाने वाला, जलाल का बादशाह, आदिल मुंसिफ़ और क़ौमों का एक ही जोहर है और बाप की और उसकी एक ही सिफ़ात हैं और उसकी और बाप की एक ही शान, बुजु़र्गी और इख़्तियार है।

यह तमाम बातें यूहन्ना इस्तबाग़ी के अल्फ़ाज़ में मख़्फ़ी थीं जो उसने उस बेऐब येसु नासरी को देखकर यरदन के किनारे कहीं हालाँकि येसु अपने बपतिस्मा के वक़्त गुनाहगारों के साथ शुमार किया गया था। लेकिन बादअज़ां आस्मान पर से उस आवाज़ के आने के ज़रिये से कि"ये मेरा प्यार बेटा है जिससे में ख़ुश हूँ।” उस को जलाल बख़्शा गया (मत्ती 3:17)

यक़ीनन यूहन्ना ने यह अल्फ़ाज़ इस ख़्याल से कहे होंगे कि लोगों के उनके हक़ीक़ी मआनी समझ में आ जाऐं। उसने यह अल्फ़ाज़ चीसतान के तौर पर ना कहे बल्कि उसकी मुराद इन अल्फ़ाज़ से मसीह मौऊद को ज़ाहिर करना था। ग़ालिबन उसका मतलब यशायाह के 53 तिरेपनवें बाब के यहोवाह के सादिक़ बंदे से होगा जो हमारी बदकारीयाँ उठाता है और बर्रे की मानिंद ज़बह करने को ले जाया जाता है।

अगर इन अल्फ़ाज़ से महज़ येसु के हलीम और उसकी फ़िरोतनी की जानिब इशारा हो (जैसा कि जदीद-इलाहिय्यात के बाअज़ मोअतक़िद अपनी तहरीरों में दिखाने की कोशिश करते हैं) और उन में उस के कफ़्फ़ारा और क़ुर्बानी का अंसर शामिल ना किया जाये तो उससे इसी क़िस्म के दीगर मुक़ामात का ख़ून होता है।

गोडेट (Godet) अपनी राय ज़ाहिर करते हुए कहता है :-

"इसमें कुछ शक नहीं कि यूहन्ना को उस फ़र्क़ ने जो उसने येसु और अपने दरमियान देख लिया था राग़िब किया हो कि अह्दे-अतीक़ के जुमला अलक़ाब पर इस लक़ब को तर्जीह दे यानी "ख़ुदा का बर्रा" जो जहान के गुनाह उठाले जाता है।”

ये हैरानी की बात है कि ये लक़ब "बर्रा" जिससे उस मुबश्शिर ने येसु को सबसे पहले जाना वही है जिसको किताब-ए-मुकाशफ़ात में तर्जीह दी गई है। वो उस सुर को जो एक मर्तबा उसके सुर में समा गया तादमे-मर्ग अलापता रहा।"

ये शीरीं राग ख़ुद मसीह की अपनी और अव्वलीन तालीम में सुनाई देता है यानी उसने फ़रमाया कि वो इसलिए आया कि अपनी जान औरों के लिए फ़िद्या में दे और जिस तरह मूसा ने पीतल का साँप ब्याबान में लकड़ी पर उठाया इसी तरह इब्ने आदम भी हमारी नजात की ख़ातिर सलीब पर चढ़ाया जाएगा।

मसीह का कोई लक़ब या नाम मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं की नमाज़ की किताब में इतनी मर्तबा नहीं आया जितनी दफ़ा ये नाम :-

"ऐ ख़ुदा के बर्रे जो जहान के गुनाह उठा ले जाता है अपना इत्मीनान हमें बख़्श। ऐ ख़ुदा के बर्रे जो जहान के गुनाह उठाले जाता है हम पर रहम कर"

डेंटे (Dante) की तस्नीफ़ परगटूरियो (Purgatorio) में भी आवाज़ें यक ज़बाँ हो कर माफ़ी के लिए यही दुआ माँगती हुई सुनाई देती हैं "ख़ुदा का बर्रा" यही उन की तम्हीद है और फ़क़त इसी नाम को वो हम-आवाज़ हो कर गाती हैं।"

यूहन्ना इस्तबाग़ी मसीह की शख़्सियत पर अपनी तवज्जा मर्कूज़ रखता है। वो सीग़ा वाहिद इस्तिमाल करता है और कहता है "देख" हालाँकि मसीह तमाम दुनिया के गुनाह उठा ले जाता है तो भी हम में से हर एक को अपने ज़ाती गुनाह के दूर करने के लिए शख़्सी तौर पर मसीह को देखना है। "वही हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा है और ना सिर्फ हमारे गुनाहों का बल्कि तमाम दुनिया के गुनाहों का भी।"

येसु नासरी कोई शाहाना लिबास और शाही ताज पहने हुए ना था। वो नज्जार का बेटा था। लेकिन यूहन्ना रसूल ने उसमें वो जलाल देखा जो बाप के इकलौते का था। उसने उसे फ़ज़्ल व सच्चाई से मामूर देखा। वो ख़ुदा का बर्रा है। उसके वसीले से सब चीज़ें बनीं और कुल पर उस का इख़्तियार है। ख़ुदा ने अपने बेटे को दुनिया में भेजा और वो उसे प्यार करता है। उस क़ुर्बानी में इन्सान का कुछ ख़र्च नहीं होता। क्योंकि ख़ुदा ही अपनी सबसे बेहतरीन चीज़ देता है।

"देखो उस मर्द को !"ये अल्फ़ाज़ पिलातुस ने येसु की जानिब इशारा करते हुए कहे जब उसने उसे कांटों का ताज सर पर रखे हुए ज़ख़्मी और घायल और अर्ग़वानी चोग़ा पहने हुए देखा। यूहन्ना इस्तबाग़ी ने मसीह की ख़िदमत के आग़ाज़ ही में उसके बपतिस्मा के बाद कहा "देखो ख़ुदा का बर्रा ।"

दुनिया उस वक़्त से लेकर अब तक उसे देख रही है। क्योंकि वो तमाम तारीख़ उफ़ुक़ पर मुहीत है। वो छुप नहीं सकता। लोग तो उस पर नज़र करते और कन्नी कतरा कर गुज़र जाते हैं या उसे देख कर आख़िर दम तक उस की पैरवी करते हैं। सटडरट कैंडी (Studdert Kennedy) येसु का बयान करते हुए उस का नक़्शा बईना वैसे खींचता है जैसे मौजूदा दुनिया उसे देखती है। और कहता है :-

“वह अब भी अपनी ख़स्ता-हाल कलीसिया के साथ इसी तरह ज़लील व ख़्वार नज़र आता है जो सब्त के रोज़ तो होशाना के नारे बुलंद करती है लेकिन जुमा के दिन बाग़ गतसमनी में उसे अकेला छोड़कर फ़रार हो जाती है जो बड़े होने के मुताल्लिक़ बेहस तो करती है लेकिन थे मांदों के पांव धोने से अहितराज़ करती है जो पतरस की मानिंद पहले इक़रार तो करती है। लेकिन बाद में उसे पकड़वा देती है यानी अपने बेकस व लाचार ख़ादिमान-ए-दीन के एक गिरोह अज़ीम के साथ जिसमें मेरे जैसे कम अक़्ल बेवक़ूफ़ लोग शामिल हैं। जो इंजील की मुनादी तो करते हैं लेकिन उस की तालीम का असर अपनी ज़िंदगीयों में दिखाने से क़ासिर हैं। जो मुहब्बत करने की कोशिश तो करते हैं लेकिन दरअसल अवाम के दिल पसंद नहीं हो सकते। वो अब भी वैसा ही काबिल-ए-तज़हीक मालूम होता है जैसा उस वक़्त था कि जब उस के सर पर कांटों का ताज धरा था और उस की ज़ख़्मी पीठ पर जिससे सेल ख़ून जारी था एक ग़लीज़ अर्ग़वानी चोग़ा पहनाया गया था जब उस के हाथ में तम्सख़र के तौर पर असा के बजाय लाठी पकड़ाई गई थी। और उस के मुबारक चेहरे पर एक शराबी सिपाही का थूक बह रहा था। हाँ बईना वही मसीह जो तब था अब भी है। लेकिन मैं उससे ख़ौफ़ खाता हूँ क्योंकि मुझे ख़्याल है कि नई रोशनी का इन्सान अपने इंतिहाई वहशीपन और बरबरीयत के बावजूद अपने दिल में उस से डरता है इसलिए येसु इन्सान के दिल में एक क़िस्म की बेचैनी और इज़तिराब पैदा करता है वो इन्सान की ख़ुद-एतिमादी को दूर करता और उस के ग़रूर और तकब्बुर की बेख़कुनी करता है उसमें कुछ ऐसी क़ुदरत है कि साहिबे इक़तिदार भी उसे सज्दा करने को अपने तईं मजबूर पाते हैं हालाँकि सज्दा का सज़ावार फ़क़त ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ है।"

मसीह वो बर्रा है जो ख़ुदा कफ़्फ़ारे के लिए मुहय्या करता है ताकि वो कफ़्फ़ारे की क़ुर्बानी ठहरे। इब्रानियों के ख़त की सरीह तालीम के मुताबिक़ हम मसीह में अह्देअतीक़ की तमाम तालीम की तक्मील देखते हैं। जो गुनाह के कफ़्फ़ारे के लिए ख़ून की क़ुर्बानी को लाज़िम क़रार देती है यहां पर तमाम इन्सानी रसूम और क़ुर्बानी से मुताल्लिक़ जुमला अहकाम का बुज़ुर्ग वाज़े और बानी मौजूद है यानी ख़ुदा का बर्रा जो तमाम अक़्वाम की आरज़ू और तमन्ना है।

इब्रानियों के ख़त का राक़िम कोह-ए-सीना के जलाल और कोह-ए-सिय्योन पर अख़्लाक़ी उसूल और क़वाइद देते वक़्त मज़ीद जलाल का मुक़ाबला करते हुए एक हैरत-अंगेज़ मेराज को पहुंचता है और यूं फ़रमाता है :-

"तुम ज़िंदा ख़ुदा के शहर यानी यरूशलेम के पास और लाखों फ़रिश्तों और उन पहलोठों की आम जमात यानी कलीसिया जिनके नाम आस्मान पर लिखे हैं और सब के मुंसिफ़ ख़ुदा और कामिल किए हुए रास्तबाज़ों की रूहों और नए अह्द के दर्मयानी येसु और छिड़काओ के उस ख़ून के पास आए हो जो हाबील की निस्बत बेहतर बातें करता है।”

ख़ून के बहाए जाने से गुनाहों की माफ़ी किस तरह होती है? क़ुर्बानी की रस्म शुरू क्योंकर हुई ? इसके आलमगीर होने की क्या वजह है ? ना फ़क़त मुल्क-ए-शाम के मज़्हब में बल्कि तमाम अक़्वाम की क़ुर्बानी से मुताल्लिक़ रसूमात में हम कफ़्फ़ारे के तीन बुनियादी उसूल पाते हैं यानी फ़िद्या इत्मीनान व दिल जमुई और आसूदगी व कफ़ाएत । ये सब सलीब पर मसीह की क़ुर्बानी में मौजूद हैं। मसीह इन ही मआनी में हमारे लिए मरा जिस तरह कोह-ए-मौर्या पर बेल इज़्हाक़ के इव्ज़ क़ुर्बानी चढ़ा मसीह की मौत से कामिल तसल्ली और ख़ातिर जमुई हो गई यानी अदल व इन्साफ़ का तक़ाज़ा पूरा हुआ माफ़ी हासिल हुई । उससे भी कहीं ज़्यादा जितनी चौखट पर ख़ून का निशान लगाने से हुई जब कि मलक-उल-मौत के मिस्र के पहलोठों को मारता हुआ गुज़र रहा था। मसीह की मौत काफ़ी है। वो दुबारा नहीं मरने का । उसने एक बार सलीब पर क़ुर्बान होने से"एक कामिल और काफ़ी क़ुर्बानी गुज़रानी और तमाम दुनिया के गुनाहों के लिए तसल्ली बख़्श ज़बीहा पेश कर दिया।”

टरमबल (Trumbell) "ख़ून के अह्द" के दिलचस्प मुताअले के दौरान में मुल्क-ए-शाम व रोम की इब्तिदाई तालीम का एक निहायत उम्दा ख़ुलासा पेश करता है जो अहद-ए-अतीक़ की तालीम से बहुत कुछ मुताबिक़त रखता है और वो कहता है कि "इन लोगों के नज़दीक ख़ून बहाए जाने के बग़ैर गुनाहों की माफ़ी और ख़ुदा से रिफ़ाक़त और इत्मीनान कलबी हासिल करना मुम्किन नहीं" यूहन्ना इस्तबाग़ी के मसीह को ख़ुदा का बर्रा कहने के मअनी को समझने के लिए हमें चाहिए कि अहद-ए-अतीक़ के सहाइफ़ का बग़ौर मुताला करें क्योंकि यही अहद-ए-जदीद के मौज़ू की बिना और असल हैं।

मुल्क-ए-शाम के इस वसीअ मज़हबी तसव्वुर को हम इस्लाम की क़दीम रस्म यानी अक़ीक़ा की क़ुर्बानी में पाते हैं। जिसको आँहज़रत ने जायज़ क़रार दिया। वो अनक़रीब आलमगीर रस्म है जो रासिख़-उल-एतक़ाद व रिवायात पर मबनी है और मराको से लेकर मुल्क-ए-चीन तक राइज है। रिवायात से मालूम होता है कि आँहज़रत ने ना फ़क़त अपने दोनो नवासों इमाम हसन और इमाम हुसैन के लिए ही अक़ीक़ा की क़ुर्बानी गुज़रानी बल्कि ख़ुद अपने लिए भी (इन नफ्सिही) वो दुआ जो सात दिन के बच्चे के गुनाहों की मग़फ़िरत के लिए बर्रा या बक्री के बच्चे कि क़ुर्बानी चढ़ाए जाने के मौक़ा पर मांगी जाती है मुंदरजा ज़ैल है :-

"ऐ ख़ुदा मेरे बच्चे फ़ुलां फ़ुलां नामी के लिए ये अक़ीक़ा की क़ुर्बानी गुज़रानी जाती है। उसका ख़ून उसके ख़ून के इव्ज़, उसका गोश्त उसके गोश्त के इव्ज़, उसकी हड्डी उसकी हड्डी के इव्ज़, उस का चमड़ा उसके चमड़े के इव्ज़ और उसके बाल उसके बाल के इव्ज़ ऐ ख़ुदा इसे मेरे बच्चे को दोज़ख़ की आग से बचाने का फ़िद्या बना क्योंकि फ़िल-हक़ीक़त मैंने उस की तरफ़ जिसने आस्मान व ज़मीन पैदा किए रुजू किया और मैं तुझ पर ईमान रखता हूँ। मैं इनमें से नहीं जो तेरी ज़ात वाहिद में दूसरों को तेरा शरीक ठहराते हैं। वाक़ई मेरी नमाज़ और मेरा नज़राना बल्कि मेरी ज़िंदगी और मौत ख़ुदा के लिए है जो मालिक-ए-हर दो-जहाँ है और लाशरीक है। मैंने यही तालीम पाई और मैं अहले इस्लाम में से हूँ।"

अहले इस्लाम में भी फ़सह की मानिंद उस ज़बीहा की कोई हड्डी नहीं तोड़ी जाती। मुक़द्दस यूहन्ना इस ख़ास अम्र पर इशारा करता है जो नबुव्वत के तौर पर लफ़्ज़ बह लफ़्ज़ पूरा हुआ (यूहन्ना 19:36)क्योंकि उस ने कलवरी पर ख़ुदा के बर्रे को देखा जो जहान के गुनाह उठा ले जाता है।"

अहले-इस्लाम और दीगर ग़ैर-मसीही अक़्वाम के लिए इंजील का पैग़ाम इसी मुख़्तसर से जुमला में पाया जाता है। मसीह की सलीब इस्लामी अक़ीदे की ज़ंजीर की ग़ाईबी कड़ी है। मसीह की सलीबी मौत, उसकी ज़रूरत, उसके तारीख़ी वाक़या होने की हक़ीक़त उसके मआनी व मक़ासद, उसके नताइज, उसकी क़ुदरत और उसकी रिक़्क़त व दिलसोज़ी ये तमाम हक़ायक़ इस्लाम के अरबाब-ए-फ़िक्र व दानिश की चश्म-ए-बसीरत से पोशीदा रहे हैं। लेकिन ख़ुदा उन्हें बच्चों पर ज़ाहिर करता है।

जिस वक़्त मुतलाशी हक़ मसीह की सलीब के पास जाकर मस्लूब मसीह पर नज़र करता है तो उस वक़्त उस की तमाम मुश्किलात हल हो जाती हैं। इस्लाम में अफ्आल तसव्वुफ़ भी बावजूद अपनी कमालियत के सलीब के राज़ को ज़ाहिर करने में क़ासिर रहे हैं। बहुत सी रूहों के होलनाक अंजाम का यही सबब है जो मंज़िल-ए-मक़्सूद पर पहुंचे बग़ैर मुतवातिर भटकती रहती हैं। ग़ज़ाली, शोअरानी, जलाल उद्दीन अलरोमी, इब्न अलअरबी और इसी क़िस्म के बहुत से मुतलाश्यान-ए-हक़ एक तवील और ख़तरनाक राह पर सफ़र करते रहे हैं। गुनाह और तौबा मग़फ़िरत और ख़ुदा का दीदार हासिल करने के मुताल्लिक़ उनकी जो तालीम है अज़बस कि वो इंजील की तैयारी के लिए मुफ़ीद तो है । ताहम वो कलवरी की बुलंदीयों तक हरगिज़ हरगिज़ नहीं पहुँचती । यही वो मुक़ाम है जहां मुल्क अरब का "मुस्रिफ़ बेटा" ख़ुद भी राह से बिल्कुल गुमराह हो गया और बहुत से लोगों को गुमराह कर गया। अगर हम पैदाइश की किताब के अह्द से लेकर कोह कलवरी के दामन तक तमाम राह ख़ून के निशानों की पैरवी ना करेंगे तो ज़रूर गुमराह हो जाएंगे।

प्रिंसिपल फोरसिथ कहता है कि "रसूलों ने ख़ुदा से दुबारा मेल और सुलह का इन्हिसार हमेशा सलीब और येसु मसीह के ख़ून पर रखा है। अगर कभी हम ऐसा नहीं करते (जैसा कि मौजूदा ज़माना में बहुत से लोग कर रहे हैं) तो अहद-ए-जदीद की ख़ौफ़नाक तौहीन का इर्तिकाब करते हैं । ज़माना हाज़रा के बहुत से क़बीह और मज़मूम ख़्यालात और उनके हज़रत रसां असर की वजह ये है कि वो असल रुहानी मज़्हब होने का दावा करते हुए फ़क़त अहद-ए-जदीद ही को सिरे से नज़र-अंदाज करते हैं बल्कि उस के साथ ही तारीख़ी मसीहीयत को भी वो नाम निहाद नक़्क़ाद आला कि जिनका इन्हिसार एक उसूल या अंसर पर है या अपनी ज़ात माक़ूलात पर है या रुहानी तास्सुरात पर । हाँ यही वो हैं जो अहद-ए-जदीद को उस की मुकम्मल सूरत में तो नहीं मानते लेकिन उसके बाअज़ मुक़ामात की बहुत क़दरो एहतिराम करते हैं।

जब लोग मसीह की "सलीब के बग़ैर" इन्सानी जमात या इन्सानी ज़िंदगी की नजासत को पाकीज़गी में तब्दील करना चाहते हैं तो वो एक लाहासिल शैय के दर पे होते हैं । जब हम दुनिया के हक़ में ख़ुदा के फ़ज़्ल को पूरा होते हुए देखते हैं तो हम फ़ौरन ये कह सकते हैं कि तमाम हवादिस-ए-ज़माना बेहतरी के लिए हैं। ख़ुसूसन जब हम नए ख़्यालात और नए मवाक़े से दो-चार होते हैं । लेकिन जब यूहन्ना तौबा की मुनादी करता हुआ आया तो उस वक़्त पेशीन- गोइयों की तक्मील का वक़्त था। रूमी सल्तनत और यहूदी कलीसिया में बग़ावत के आसार नुमायां थे। बहुत तैयारीयां हो चुकी थीं। निहायत इंतिज़ार की साअत थी। साबिक़ नज़म व नसक़ के मुताल्लिक़ निहायत ना-उम्मीदी थी तो भी यूहन्ना ने उस नए ज़माना को एक जदीद तरीक़ नजात की मुनादी से शुरू किया। यानी"देखो ख़ुदा का बर्रा जो जहान के गुनाह उठाले जाता है।"हम साबिक़ा निज़ाम की नजात के आर्ज़ूमंद हैं। लेकिन निहायत लाज़िम है कि ये नजात मसीह के ख़ून के ज़रीये से हो।

मसीह की सलीब ही दुनिया की उम्मीद है लेकिन मुतवातिर ख़तरा जो हमें दरपेश है ये है कि हम अपनी तजावीज़ पर बेशतर एतिमाद करते हैं और निहायत तकुब्बुराना अंदाज़ में उनका ज़िक्र किया करते हैं लोगों से हम ये कहना तो भूल जाते हैं ।"देखो ख़ुदा का बर्रा !"पर दिखाते क्या हैं? अपनी बर्दारी ! नई तदबीरें ! नया मौक़ा !

एक अजीबो-गरीब तस्वीर जिसमें मसीह सलीब पर लटक रहा है और जो ये ज़ाहिर करती है कि उम्मीद फ़क़त इसी में है ऐसे हैरत-अंगेज़ तरीक़ पर और ख़ूबसूरत रंगों में कफ़्फ़ारा की आलमगीरी और उस की क़ुदरत का इज़्हार करती है कि मुम्किन नहीं कि उसका नक़्श ज़हन से मिट जाये । उस तस्वीर का क़िस्सा यूं है कि बलटीर हिरोनी (Blater Herone) जो मुल़्क अबीसीनिया के शहर अदीस अबाबा मैं दरबार-ए-ख़ास व आम का सदर था उस ने सवीटज़रलेंड के एक मिशन स्कूल में तालीम पाई थी और अहदे जदीद का तर्जुमा भी अमहरी ज़बान में किया था दौरान जंग उसने बड़ी इज़्ज़त व मर्तबा हासिल किया था। अक़्वाम-ए-आलम के बाहमी अमन व सुलह के मुताल्लिक़ ग़ौर करते हुए उसे ख़्याल गुज़रा कि ये महिज़ मसीह की क़ुर्बानी के ज़रीये से मुम्किन है। फिर उसने चाहा कि अपनी अक़्ल के मुताबिक़ अपने तसव्वुर को ख़त व खाल की सूरत में ज़ाहिर करे चुनांचे उसने अपने ख़्यालात शहर पैरिस के एक मशहूर मुसव्विर के सपुर्द कर दिए जिसका नतीजा वो मशहूर-ओ-मारूफ़ सलीब की तस्वीर है जो ख़्यालात के एतबार से तो निहायत मुहीब है। लेकिन उस के मआनी बिल्कुल साफ़ व रोशन हैं।

तस्वीर मज़कूर निहायत दिलफ़रेब है और उसका पैग़ाम भी एक क़ाइल करने वाला पैग़ाम है हमारा नजात-दिहंदा दुनिया के मशरिक़ी व मग़रबी नसफ़ कुर्राह-ए-अर्ज़ के दरमियान सलीब पर लटक रहा है। उस की पाईन में बादलों से घिरा हुआ धुँदला आस्मान है। मुसीबतज़दा मस्लूब के सर पर ताज ख़ारदार के चौगिर्द आने वाली फ़तह का हाला है। और वो दुनिया के दोनों हिस्सों पर नज़र कर रहा है जिनकी ख़ातिर उसने अपनी जान दी। उस के ज़ख़्मी हाथों से ख़ून बह रहा है जिससे दुनिया के तमाम बर्र-ए-आज़म और जज़ीरे सुर्ख़ हो रहे हैं ये मसीह के ख़ून के वसीले से तमाम दुनिया की नजात की तस्वीर है जिसके नीचे तीन ज़बानों में ये आयत मर्क़ूम है :-

"ख़ुदा ने जहान को ऐसा प्यार किया कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।"

"सबसे आला और उम्दा ख़िदमत ये है कि हम मसीह मस्लूब की मुनादी करें। ख़्वाह वो मुनादी ख़ामोश मजमा में की जाये या मुनाज़राना रंग में। मगर वो इस यक़ीन के साथ कि फ़क़त यही ज़ख़्मी व फ़गारदिलों को शिफ़ा और ईमानदार को उसके रहे-सहे गुनाहों से मख़लिसी देने की एक राह है और फ़तह उसी कलीसिया की है चाहे वो दुनिया के किसी गोशा पर हो या उन घरों में हो जो जहां मसीहीयत अपने उरूज व कमाल पर है। हत्ता कि हमारी मिशनों के दूर-दराज़ और पुरतार यक ख़तों में ही क्यों ना हो जो निहायत संजीदगी और अक़ीदत के साथ उस क़दीम एतिक़ाद की तजदीद करे कि "ख़ुदा ने हम सबकी बदकारीयाँ उस पर लाद दीं" और वो ख़ुद उन अल्फ़ाज़ को ख़ुशी और ख़ुर्रमी के उस नग़मा में कि जिसकी सदाए बाज़गश्त से ज़मीन वा आस्मान गूंज उठेंगे । तब्दील कर देगा ।

"जिसने हमसे मुहब्बत रखी। जिसने अपने ख़ून के वसीले से हमको हमारे गुनाहों से मख़लिसी बख़्शी और हम को एक बादशाहत भी और अपने ख़ुदा और बाप के लिए काहिन भी बनाया। उसका जलाल और सल्तनत अबदलआबाद रहे" आमीन।

प्रिंसिपल जान कईरन्ज़। (John Cairns)

बाब हशतुम

"उन्होंने……….जलाल के ख़ुदावंद को सलीब दी"

हालाँकि मुक़द्दस पौलुस ने ये बात महसूस कर ली थी कि मसीह मस्लूब का पैग़ाम हलाक होने वालों के नज़दीक बेवक़ूफ़ी है (1 कुरन्थियो 1:17) यहूदीयों के नज़दीक ठोकर और ग़ैर क़ौमों के नज़दीक बेवक़ूफ़ी है। (1 कुरन्थियो 1:23) लेकिन तो भी उसने ये मुसम्मम इरादा कर लिया कि मसीह मस्लूब के सिवा और कोई पैग़ाम ना दे। गो इसके बाईस उसे बहुत कमज़वी ख़ौफ़ और तज़बज़ब की हालत में से गुज़रना पड़ा। (1 कुरन्थियो 2:3) सलीब का पैग़ाम एक राज़े अज़ीम है। हालाँकि पौलुस ने ख़ुदा की हिक्मत और उस की क़ुदरत को ज़ाहिर किया लेकिन ये फ़क़त रूह के ज़रीये से हुआ जो ख़ुदा की तह की बातें भी दर्याफ़्त कर लेता है (1 कुरन्थियो 4: 10) इसी ख़्याल के ज़िमन में पौलुस ने इस जहान के सरदारोँ की निस्बत जिन्होंने ख़ुदा की हिक्मत के भेद को ना समझा। निहायत बेबाकी से अपनी राय का इज़्हार किया है। यानी

"अगर समझते तो जलाल के ख़ुदावंद को सलीब ना देते" (1 कुरन्थियो 2:8)

एफ़सस की कलीसिया के बुज़ुर्गों को ख़िताब करते हुए मुक़द्दस पौलुस उनसे भी बढ़कर दिलेराना और दिलकश अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करता है "पस अपनी और उस सारे गिला की ख़बरदारी करो। जिसका रूहुल-क़ुद्दुस ने तुम्हें निगहबान ठहराया ताकि ख़ुदा की कलीसिया की गल्लाबानी करो जिसे उसने अपने ख़ास ख़ून से मौल लिया" (आमाल 20:28) हम ऐसे दिलेराना इशारात यानी जलाल के ख़ुदावंद का सलीब दिया जाना और ख़ुदा का ख़ून वग़ैराको सुनकर ज़रा झिझकते हैं। लेकिन जब हम इन अल्फ़ाज़ की सख़्ती को किसी क़दर दूर करने की कोशिश करते हैं तो हम देखते हैं कि यूनानी ज़बान की इस इबारत का बजुज़ उसके और कोई मतलब नहीं।

इस में कुछ शक नहीं कि अमरीका के नए तर्जुमा में (आमाल 20:28) बजाय ख़ुदा के लफ़्ज़ ख़ुदावंदआया है। जो बिल्कुल ग़ैर-ज़रूरी है । एक्सपोज़ीटरज़ बाइबल (Expositor’s Bible) में स्टोक्स कहता है "बाअज़ लोगों ने ख़ुदा के इव्ज़ उसको ख़ुदावंद बाअज़ ने उसके मसीह का लफ़्ज़ पढ़ा है। लेकिन नज़र-ए-सानी शूदा तर्जुमा में वीसटकट हार्ट (औरनील) के तराजिम को सही तस्लीम करते हुए महिज़ नक़्क़ादाना वजूह के पेश-ए-नज़र उस की ज़ोरदार सूरत को क़ायम रखा गया है। अगनेशीएस (Ignatius) ने मुक़द्दस पौलुस के ख़त लिखे जाने के पच्चास साल बाद अहले इफ्सुस को यूं लिखा "ईमानदार ख़ुदा के ख़ून के बाईस एक ज़िंदा आग की मानिंद भड़क उठते हैं।"इसके सौ साल बाद तरतोलियान भी यही अल्फ़ाज़ यानी "ख़ुदा का ख़ून"इस्तिमाल करता है। दूसरे मुक़ाम में भी यूनानी मतन यक़ीनन सही है और यह अल्फ़ाज़ मुक़द्दस पौलुस ने इस वाक़ये के सत्ताईस साल बाद लिखे यानी अनाजील के राइज होने से भी पेशतर "अगर वो जानते तो जलाल के ख़ुदावंद को सलीब ना देते।”

"ये जलाल का बादशाह कौन है ? लश्करों का ख़ुदावंद ही जलाल का बादशाह है" (ज़बूर 24:10)

अहद-ए-अतीक़ और अहद-ए-जदीद दोनो में जलाल के ख़ुदावंद से मुराद वही है जिसकी सिफ़ात में जलाल बादशाह है (ज़बूर 29:1+आमाल 7:2+इफ्सियों 1:17 और याक़ूब 2:1) यानी वो ख़ुदावंद जो अपने ज़ाती व तबई हक़ के मुताबिक़ जलाल का मालिक है ये ख़्याल इलाहिय्यत की रु से बड़ी एहमीयत रखता है क्योंकि ये हमारे ख़ुदावंद की उलूहियत पर इशारा करता है। इसी क़िस्म के दीगर मुक़ामात मसलन (1 कुरन्थियो 11:20 व 1 कुरन्थियो 11:27) जहां "ख़ुदावंद की मौत" और "ख़ुदा का ख़ून और उसका बदन" मज़कूर हैं एहमीयत तो वैसी ही रखते हैं । लेकिन उनके अल्फ़ाज़ इस क़दर मुहीब नहीं। अपनी ज़मीनी ज़िंदगी के अय्याम में भी हमारा नजातदिहंदा पौलुस रसूल के नज़दीक वही ख़ुदावंद था जो अपने ज़ाती और तिब्बी हक़ के मुताबिक़ कामिल जलाल का मालिक है जैसे यूहन्ना के नज़दीक वैसे ही पौलुस के नज़दीक भी कलाम जो मुजस्सम हुआ "इब्तिदा में ख़ुदा के साथ और कलाम ख़ुदा था।"

बिला-रैब एक ईलाही हस्ती एक क़ादिर-ए-मुतलक़ मुनज्जी का सलीब पर कीलों से जकड़ा जाना एक राज़ है जिससे बढ़कर ज़मीन व आस्मान पर और कोई राज़ नहीं। लेकिन इबारत माफ़ौक़ से यही मआनी निकलते हैं। सलीब पर ही हम मसीह में ख़ुदा की मुहब्बत व शफ़क़त को मुजस्सम सूरत में देखते हैं । उस मुक़ाम पर पहुंच कर और आख़िरी तदबीर को पूरा होते देखकर हम सूबादार की मानिंद उस की उलूहियत के क़ाइल हो जाते हैं । ये वो कार-ए-अज़ीम है जो फ़क़त ख़ुदा ही की शान के शायां है लेकिन मसीह ने उसे सलीब पर अंजाम दिया। और हर एक रूह जो उस के ज़रीये से जीत ली जाती है वो मसीह में हो कर ख़ुदा के लिए जीती जाती है।

मसीह अपनी मौत और ज़िंदा होने के ज़रीये से पौलुस पर आलम-ए-मौजूदात का ऐन मर्कज़ साबित होता है वो तमाम मख़्लूक़ात का मब्दा उनके बाहमी यगानगत व रफ़ाक़त का असल उसूल है। उनका अंजाम और उनके तमाम इसरार काहिल है (कुलुस्सियों 1:13 ता 18) इस मुक़ाम को पढ़ कर कोई शख़्स इस अम्र से इन्कार नहीं कर सकता कि मसीह ख़ुदा के जलाल में बराबर का हिस्सादार है।

इसी मुक़ाम के मुताल्लिक़ जहां ख़ुदा के बेटे की उलूहियत पर इशारा है कि जिसकी मुहब्बत में हमारी नजात है। जान कारडीलईर रोमन कैथोलिक सूफ़ी यूं गोया है "अगर सलीब की कुछ हक़ीक़त है तो ये कि वो दुनिया के वजूद की बुनियाद है वो आलम-ए-मौजूदात में एक हयूला से लेकर दूसरे हयूला तक जाती है और दुनिया की हदूद को बाहम मिलाती है और उन्हें अपनी ज़ख़्मी हाथ दिखाती है ज़िंदगी के शोबा जात में तमाम तरक़्क़ी मुहब्बत और रंज-वालम की उस बाहमी टक्कर से पैदा होती है जो उस की असलीयत का राज़ है।

मसीह की पुर-इसरार सऊबत हमारी मुसर्रत व ख़ुशी की बीना है। ये बात निहायत हैरत-अंगेज़ मालूम होती है कि किस तरह कोई माहिर इल्म-उल-हयात मसीही मज़्हब के बजाय किसी दूसरे मज़्हब का पैरौ हो। जिस हाल कि आलम-ए-मौजूदात के हर एक तबक़ा में मसीहीयत का ज़बरदस्त और गहिरा निशान यानी सलीब मौजूद पाता है और वो हर जगह देखता है कि दुख जद्द-ओ-जहद और क़ुर्बानी का उसूल नई पैदाइश के यौमिया अमल में भी वैसे ही कारफ़रमा है जैसे कि जिन्स के बतदरीज कमाल को पहुंचने के लिए उनका होना शर्त है।

बुलंदीयों और पस्तियों में, अंदर, बाहर जिधर नज़र दौड़ाओ हर जगह सलीब मौजूद है। हम मसीह की मौत में फ़क़त ख़ुदा की बेहद मुहब्बत ही को नहीं देखते बल्कि उसके बेहद रंज-वालम और उस की रहमत का भी मुलाहिज़ा करते हैं। एक सौ तीसरे ज़बूर में ये अल्फ़ाज़ मर्क़ूम हैं :-

"जिस तरह बाप बेटों पर तरस करता है ।"और ऐसी मुक़ाम में जे़ल के अल्फ़ाज़ भी दर्ज हैं "पूरब पच्छम से जितना दूर है। उतनी दूर तक उसने हमारी ख़ताओं को हमसे दूर किया।"

सलीब पर ग़म से और मुहब्बत बाहम मिलकर बहते हैं यानी ख़ुदा का रंज-वालम और उसकी की मुहब्बत।

मसीह की उलूहियत की तालीम की जड़ में कफ़्फ़ारा की तमाम मसीही तालीम मौजूद है । अव़्वल-उल-ज़िक्र के मुताल्लिक़ हमारे एतिक़ाद ही से आख़िर-उल-ज़िक्र के मुताल्लिक़ हमारे ईमान का अंदाज़ा लगाया जाता है । महिज़ इन्सान दूसरे इन्सान के गुनाह की सज़ा नहीं उठा सकता । मसीह की शख़्सियत की बुजु़र्गी व शान की अज़ीम हक़ीक़त के मुक़ाबले में उसके फ़िद्या कफ़्फ़ारा होने के मुताल्लिक़ तमाम एतराज़ात यक क़लम व माद्दुम हो जाते हैं।

डाक्टर ग्रेशिम मीचन रक़म तराज़ हैं कि "ये बात बिल्कुल सही है कि मौजूदा उलमाए तिब्बयात के तसव्वुर का मसीह हरगिज़ दूसरों के गुनाहों की सज़ा उठाने के काबिल नहीं हो सकता। लेकिन इसमें और जलाल के ख़ुदावंद में आस्मान व ज़मीन का फ़र्क़ ही अगर मौजूदा मुख़ालिफ़त के मुताबिक़ क़ाइम मक़ाम क़ुर्बानी का ख़्याल बिल्कुल फ़िज़ूल है तो मसीही तजुर्बा के क्या मअनी जो उस पर मबनी है ? मौजूदा आज़ाद ख़्याल कलीसिया के नज़दीक तजुर्बा की बहुत क़दर-ओ-मंज़िलत है।

फिर वो हक़ीक़ी मसीही तजुर्बा जो फ़क़त उस ईमान का नतीजा है। जो कलवरी के पास मिलता है कहाँ से मयस्सर होगा? वो इत्मीनान फ़क़त उस वक़्त हासिल होता है जब इन्सान ये महसूस कर लेता है कि ख़ुदा से मेल पैदा करने में उसकी तमाम कश्मकश और नजात हासिल करने से पेशतर शरीयत के अहकाम की तामील करने में उस की वसई व कोशिश बिल्कुल बेकार व बेसूद ठहरती है और यह जान लेता है कि ख़ुदावंद मसीह ने सलीब पर उस के इव्ज़ जान देकर उस दस्तावेज़ के नक़्श को जो उस के बरख़िलाफ़ सब्त हो चुकी थी मिटा दिया। कौन उस तसल्ली और ख़ुशी के उमुक़ का अंदाज़ा लगा सकता है जो उस मुबारक इल्म से हासिल होती है ! क्या कफ़्फ़ारा फ़क़त एक नज़रिया ही नज़रिया है या इन्सान के तसव्वुरात की फ़रेबख़ुर्दगी ? या क्या ये वाक़ई एक ईलाही सदाक़त है?"

जब पौलुस रसूल मसीह के सलीबी दुख का बयान इस तौर पर करता है जिसका हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं तो वो ऐसे बात करता है कि गोया वो आस्मानी हक़ीक़तों का बयान कर रहा है । और "ख़ुदा की तह की बातें" कहता है। (1 कुरन्थियो 2:10) ये इसरार इस क़दर अमीक़ हैं कि इन्सानी फ़लसफ़ा और हिक्मत की उस तक रसाई नहीं। ये इस क़दर बुलंद हैं कि इन्सान का इदराक और उसकी अक़्ल उस तक परवाअज़ नहीं कर सकती।

बहर-ए-काहइल के बाअज़ हिस्से इस क़दर गहरे हैं कि आला से आला आलात भी उसकी तह तक पहुंचने में क़ासिर रह गए। अजराम-ए-फल्की के दरमियान बाअज़ ऐसे सितारे और सय्यारे हैं जहां ज़बरदस्त तरीन दूरबीन के ज़रीये भी चशम इन्सानी की रसाई मुम्किन नहीं। यानी "ऐसी चीज़ें जो ना आँखों ने देखीं ना कानों ने सुनीं ना आदमी के दिल में आईं।"

लेकिन ख़ुदा उन्हें अपने रूह के वसीले से बच्चों पर ज़ाहिर करता है और हालाँकि हम उन्हें समझ नहीं सकते तो भी हम शुक्रगुज़ारी और ख़ाकसारी की रूह से मामूर हो कर ख़ुदा के हुज़ूर सज्दे में गिर पड़ते हैं। सलीब पर हमारे ख़ुदावंद की ज़ात की दोनो फ़ितरतें एक दूसरे से जुदा ना हुईं। उस की हक़ीक़ी इन्सानियत और उसकी ज़ाती उलूहियत बाहम मख़लूतना थीं बल्कि दोनो जुदा जुदा और सरीह तौर पर मौजूद थीं।"ख़ुदा ने मसीह में हो कर अपने साथ दुनिया का मेल मिलाप कर लिया।" उस क़ुर्बानी के ज़रीये से मसीह फ़क़त ख़ुदा की मर्ज़ी को ही नहीं बजा ला रहा था बल्कि ख़ुदा मसीह में हो कर इन्सान का अपने साथ मेल मिलाप कर रहा था ये बह अल्फ़ाज़ दीगर अपना मेल मिलाप इन्सान से कर रहा था।

मसीह की मौत ख़ुदा के हुक्म की तामील के मुताबिक़ किसी बहादुर की मौत ना थी बल्कि वो दुनिया के गुनाहों के लिए ख़ुदा के बेटे की मौत थी। इन्जीली बयान के बमूजब मसीह ने अपनी ज़िंदगी के उस मौक़े पर अपना जलाल साफ़ और बैयन तौर से ज़ाहिर किया। ऐसा जलाल जो बाप के इकलौते का जलाल था और जो फ़ज़्ल और सच्चाई से मामूर था। कफ़्फ़ारा कामिल उलूहियत का फे़अल है। क्योंकि बाप ने दुनिया से इस क़द्र मोहब्बत की कि अपने बेटे को बख़्श दिया। खुदा बेटे ने दूसरों की ख़ातिर अपनी जान फ़िद्या में दी। और ख़ुदा रूहुल-क़ुद्दुस ने मसीह को अपनी हुज़ूरी और अपनी क़ुदरत से मामूर कर दिया ताकि वो मौत की बर्दाश्त कर सके और अपनी मुबारक क़ियामत के ज़रीये से उस पर ग़ालिब आए (रोमीयों 1:4)

ना सिर्फ बैत-लहम में बल्कि कलवरी पर भी हम फ़रिश्तों के हम-नवा हो कर ये गा सकते हैं।"ख़ुदा को आस्मान पर तारीफ़ । ज़मीन पर सलामती और आदमीयों में रजामंदी हो।"

फोरसिथ कहता है पस इसलिए हम जे़ल की इबारत के अमीक़ मआनी को समझने की कोशिश करें।" ख़ुदा मसीह में हो कर मेल मिलाप कर रहा था।” मसीह के ज़रीये से नहीं बल्कि ख़ुद मसीह की सूरत में मौजूद हो कर वो अपने मेल मिलाप के काम को अंजाम दे रहा था। ये काम तीनों अक़ानीम बाहम मिलकर कर रहे थे ना फ़क़त उक़नूम सानी यानी बेटा, क़दीम उलमाए इल्म ईलाही का ख़्याल बिल्कुल दुर्रुस्त था कि नजात का फे़अल तीनों अक़ानीम का फे़अल है यानी बाप, बेटे और रूहुल-क़ुद्दुस का जब हम तीनों अक़ानीम के नाम में बपतिस्मा के ज़रीया से किसी को ख़ुदा के साथ मेल मिलाप की अज़ सर-ए-नौ ज़िंदगी में दाख़िल करते हैं तो हम उस का इक़रार करते हैं।

अगर हम उस राज़ की तह तक पहुंचना चाहते हैं तो चाहिए कि उस पर और ज़्यादा ग़ौर-ओ-ख़ौज़ करें। चाहिए कि ये महिज़ हमारा अक़ीदा ही अक़ीदा ना रहे। बल्कि एक तजुर्बा बन जाये। हमने जलाल के ख़ुदावंद को सलीब दी। हम ही उसके ख़ून से ख़रीदे गए।

मुक़द्दस एनसलम को रात के वक़्त सलीब के पास दुआ व मनाजात करते हुए सुनिये "ऐ मेरे महबूब ! ऐ मेरे मुशफ़िक़ मसीह ! तूने क्या किया है कि इस क़दर तेरी मिन्नत व सिमाजत की जाये?........मैं ही वो ज़र्ब हूँ जो तुझको लगी और जिस ने तुझे दुख पहुंचाया। तेरी मौत का सबब मैं हूँ। मैंने ही तुझे सख़्त ईज़ा पहुंचाने की कोशिश की।" फिर वो हमारी जानिब रुख़ करके वो अल्फ़ाज़ कहता है जिनकी सदा अब तक हमारे कानों में गूंज रही है" उसकी मौत पर कामिल भरोसा कर किसी और चीज़ पर तवक्कुल ना कर। उस की मौत पर कामिल एतिमाद व तकीया कर उस को अपना मजाद मादा बना और उसी में सुकूनत कर"

मुक़द्दस बरनर्ड जैसे आलिम शख़्स को भी सुनिए"आला तरीन फ़लसफ़ा और मेरी इंतिहाई हिक्मत ये है कि मैं मसीह मस्लूब को जानूं क्योंकि कलवरी आशिक़ों के विसाल का मुक़ाम है।"

ज़रा उस दुआ की तरफ़ भी मुतवज्जा हो जाए जो मुक़द्दस फ्रांसीस से मंसूब है "ऐ मेरे ख़ुदावंद येसु मसीह मैं तुझसे बमिन्नत अर्ज़ करता हूँ कि मुझे मेरे मरने से पेशतर दो बरकतें इनायत फ़र्मा। अव़्वल ये कि मैं अपने अय्याम ज़िंदगी में अपने जिस्म और अपनी रूह में तेरे तल्ख़ तरीं रंज वालम का एहसास कर सकूँ । दोम ये कि मैं अपने दिल में उस बेहद मुहब्बत को पाऊं जिसने तुझे इब्ने ख़ुदा को तरग़ीब दी कि इस क़दर तल्ख़ मुसीबत व अज़ाब को हम गुनाहगारों की ख़ातिर बर्दाश्त करे।"

हम जानते हैं कि मसीह कि मौत और अम्बिया महबूबान-ए-वतन और शहीदों की मौत में बहुत फ़र्क़ है। मसीह की मौत के मुताल्लिक़ पेशीनगोईआं की गईं वो गुनाह से ख़लासी बख़्शने के लिए थी जो उस वक़्त ज़हूर में आई उसके ज़रीये से मौत और क़ियामत पर फ़ौक़ उल-फ़ितरत फ़तह हुई । लेकिन असल फ़र्क़ उस शख़्स की ज़ात में पाया जाता है । जिसने अपनी जान दी क्योंकि"वो ख़ुदा का बेटा था ।" उस में कामिल उलूहियत मौजूद थी कलाम मुजस्सम हुआ और हमारी ख़ातिर मस्लूब हुआ।

कलवरी की सलीब पर दुनिया की सबसे अज़ीमुश्शान चीज़ यानी मुहब्बत ज़ाहिर होती है और दुनिया का सबसे तारीक तरीन राज़ यानी गुनाह और ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात का सबसे आला इज़्हार यानी उस की क़ुददुसियतI" इसी को उसने हमारे वास्ते गुनाह ठहराया ताकि हम उसमें हो कर ख़ुदा की रास्तबाज़ी हो जाएं" यही इज़्हार कफ़्फ़ारा है।

डाक्टर काली चरण चैटर्जी जो अड़तालीस साल तक पंजाब में मशहूर-ओ-मारूफ़ मुबश्शिर की हैसियत में ख़िदमत करते रहे और जो कलीसिया ए हिंद में बक़दर शहज़ादा गुज़रे हैं। उनकी सवानिह उमरी में जो कुछ अरसा हुआ शाया हुई हम उनकी जे़ल की गवाही पढ़ते हैं :-

"अक्सर औक़ात मुझसे ये सवाल पूछा गया है कि मैं क्यों हिंदू धर्म को तर्क करके मसीह का शागिर्द हो गया। इसका जवाब ये है कि मसीह की पाक और बे ऐब ज़िंदगी की कशिश ने उसके ख़ुदा की मर्ज़ी के ताबे होने और उस के पुर-मुहब्बत और शफ़क़त आमेज़ आमाल ने मुझे ख़ुद बख़ुद अपनी जानिब खींच लिया। पहाड़ी वाअज़ में उसकी अजीब व गरीब नसीहतों ने और गुनाहगारों के लिए उसकी मुहब्बत ने मुझे उस का गरवीदा बना लिया। मैं उसका बड़ा मद्दाह था और उस से मुहब्बत करता था। राम, कृष्ण, और काली के अवतार जिनकी इज़्ज़त करना मुझे बचपन से सिखाया गया था। महिज़ ज़ोर और ताक़त के अवतार थे। वो बहादुर थे जो हमारी मानिंद गुनहगार थे और हमारे से जज़्बात रखते थे। फ़क़त मसीह ही मुझे पाक और ख़ुदा की मानिंद इज़्ज़त व तारीफ़ के लायक़ मालूम हुआ। वो तालीम जिसकी वजह से मैंने मसीही मज़्हब इख़्तियार करने का फ़ैसला किया मसीह की क़ाइम मक़ाम क़ुर्बानी की तालीम और उसकी अज़ीयत और मौत थी मैंने अपने गुनाहों का एहसास किया और मसीह में एक ऐसे शख़्स को पाया जिसने मेरे गुनाहों की ख़ातिर अपनी जान दी और वो सज़ा जो मेरा हक़ थी उसने ख़ुद उठाई ।"

क्योंकि तुमको ईमान ही के वसीले से फ़ज़्ल और नजात मिली है और यह तुम्हारी तरफ़ से नहीं। ख़ुदा की बख़्शिश ना आमाल के सबब से है ताकि कोई फ़ख़्र ना करे।" मेरे दिल में ये ख़्याल समा गया कि मसीह ने अपनी जान दी और ऐसा करने से वो क़र्ज़ अदा किया जो और कोई शख़्स अदा ना कर सकता था। ये यक़ीन मेरी मसीही ज़िंदगी और तजुर्बा के साथ तरक़्क़ी करता और क़ुव्वत पकड़ता गया और अब मेरी ज़िंदगी का जुज़ु बन गया है । यही मसीहीयत और दीगर मज़ाहिब के दरमियान माबाह-अल-इम्तयाज़ है। जिस वक़्त मैं मसीही हुआ मैंने इस हक़ीक़त को महसूस किया और अब ये मेरे दिल में और भी ज़्यादा पुख़्ता और मुहकम हो गई है।"

गुनाह की ख़ातिर फ़क़त एक नजातदिहंदा का क़ाइम मक़ाम हो कर क़ुर्बान होना ही मसीहीयत और दीगर मज़ाहिब के दरमियान ख़त इम्त्तीयाज़ नहीं बल्कि एक ऐसे नजातदिहंदा की मौत, सब कुछ उस शख़्स की ज़ात व सिफ़ात पर मुनहसिर है जिसने क़ाइम मक़ाम ठहर कर उस सज़ा को कामिल तौर पर उठा लिया।

एनसलम ग्यारहवीं सदी की उस आलिमाना और मनतक़याना रिसाला कर डेविस होमो (Cur Deus Homo) में कहता है :-

"उस ईलाही शख़्स मसीह की ज़िंदगी ऐसी आला अफ़्ज़ल और बीशबहा है कि वो इन गुनाहों से कहीं ज़्यादा वज़नदार है जो उस को सलीब देने के जुर्म से इस क़दर बढ़ गए हैं कि इन्सानी अक़्ल व अंदाज़ा के दायरा से बईद हो गए हैं। मैं तो दुनिया के तमाम गुज़शता, हाल मुस्तक़बिल के मकरूह से मकरूह गुनाहों बल्कि और गुनाहों का भी जो इन्सान की अक़्ल व ख़याल में आ सकते हैं मुर्तक़िब होना कहीं ज़्यादा पसंद करूँ बनिस्बत उस के जलाल के ख़ुदा को सलीब देकर उस एक ख़ौफ़नाक गुनाह-ए-अज़ीम के लिए मुजरिम ठहराया जाऊं" उस की तालीम के मुताबिक़ सिर्फ उलूहियत ही इस काबिल है कि उलूहियत के तक़ाज़ा को कामिल तौर से पूरा कर सके। लेकिन चूँकि इन्सान ने गुनाह किया है इसलिए इन्सान ही को इन्सान के गुनाह की सज़ा उठानी है। लिहाज़ा ये वाजिब बजा और पूरी सज़ा सिर्फ वही उठा सकता है जिसमें उलूहियत और इन्सानियत दोनो पाई जाएं। शायद कोई कहे कि ये तर्ज़-ए-इस्तिदलाल तो अज़्मिना वुसता के उल्मा का है लेकिन आजकल भी हम नमाज़ की किताब में जो आम तौर पर राइज है इन्ही हक़ायक़ का अक़ाइद की सूरत में मुलाहिज़ा करते हैं बल्कि ग़लतीयों से भी उस अक़ीदे का इज़्हार होता है।

औसत दर्जा की अक़्ल का शख़्स। इस क़िस्म के बयानात को सुनकर बड़ा ब्रहम होता है लेकिन फ़क़त उन हक़ीक़तों पर ग़ौर करने ही से हमारी उबूदीयत की रूह को तक़वियत पहुँचती है और हम नमाज़-ओ-याज़त के वक़्त ज़ाहिरदारी के गुनाह से बाज़ रह सकते हैं । अक़ीदों और मतबदीयों के सवाल जवाब की किताबों के मआरिफ़ जब हम पर ख़ूब वाज़िह हो जाते हैं तो ना सिर्फ निहायत पुरलतीफ़ मालूम देते बल्कि हमारे दिलो-दिमाग को फ़र्हत बख़्शते हैं और हमारी अक़्ल व क़यास में भी आ जाते हैं।

कुतुब मुक़द्दसा की "ख़ुदा कि तह की बातों" पर ग़ौर करना अज़-हद मुश्किल है बल्कि शुरू में बाज़-औक़ात उनका मुताला बे-लुत्फ़ सा मालूम होता है। लेकिन ये मौसीक़ी के सुरों के सीखने के मुतरादिफ़ है। कुछ अरसा के बाद अक़ाइद के सुरबाहम मिलकर एक निहायत शीरीं रुहानी राग बन जाते हैं और वो जो इस्तिक़लाल के साथ बराबर उस में मुनहमिक रहता है। आख़िर-कार ख़ुदा की उस दौलत व हिकमत और मुताल्लिक़ मज़ीद तजस्सुस और तफ़तीश में कामयाब होता है जो अज़बस अमीक़ है।

पस हम फिर मुक़द्दस पौलुस के अल्फ़ाज़ की जानिब मुतवज्जा होते हैं । बल्कि उन अल्फ़ाज़ की तरफ़..................जो ख़ुदा की रूह की हिदायत से लिखे गए यानी उन्होंने जलाल के ख़ुदावंद को सलीब दी" ख़ुदा की कलीसिया............जिसे उस ने ख़ास अपने ख़ून से मोल लिया।"

मसीह की शख़्सियत में दो फ़ितरतें मौजूद हैं असली व हक़ीक़ी उलूहियत व इंसानियत उसकी ज़ात में मौजूद हैं लेकिन ये दोनों फ़ितरतें बाहम दीगर मख़लूत नहीं। ख़ुदा ने सलीब पर दुख उठाया। लेकिन अपनी ईलाही फ़ित्रत व ज़ात के एतबार से नहीं बल्कि इन्सान होने की हैसियत में I हुकर (Hooker) कहता है कि जब रसूल फ़रमाता है कि "यहूदीयों ने जलाल के ख़ुदावंद को सलीब दी" (1 कुरन्थियो 2:8) तो हमें जलाल के ख़ुदावंद से मसीह की कामिल ज़ात मुराद लेनी चाहिए । जो जलाल का ख़ुदावंद होते हुए हक़ीक़त में सलीब पर मारा गया। लेकिन इस लिहाज़ से नहीं जिसके एतबार से वो जलाल का ख़ुदावंद कहलाता है। बईना जब इब्ने आदम ज़मीन पर होते हुए ये दावा करता है कि इब्ने आदम उसी वक़्त आस्मान पर भी मौजूद था (यूहन्ना 3:13) तो इब्ने आदम से मसीह की कामिल शख़्सियत मुराद है जो मुजस्सम हो कर ज़मीन पर मौजूद होते हुए आस्मान पर भी जल्वा-अफ़रोज़ था। लेकिन उस एतबार से नहीं जिसकी रु से उसे इन्सान कहा गया है ।

मौत का फ़तवा लगाए जाने से पेशतर मसीह ने ख़ुद सरदार काहिन के सामने अपनी अटल इन्सानियत और उलूहियत का जिस क़दर ज़बरदस्त इक़रार मुम्किन था किया। ये बयान तमाम इजमाली अनाजील में दर्ज है (मत्ती 26:64, मरकुस 14:62+लूक़ा 22:7) "मगर येसु चुप ही रहा। सरदार काहिन ने खड़े हो कर उस से कहा तू जवाब नहीं देता?.......मैं तुझे ज़िंदा ख़ुदा की क़सम देता हूँ कि अगर तू ख़ुदा का बेटा मसीह है तो हम से कह दे येसु ने उससे कहा तूने ख़ुद कह दिया (मरकुस के बयान के मुताबिक़ "मैं हूँ") बल्कि मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि इसके बाद तुम इब्ने आदम को क़ादिर-ए-मुतलक़ की दाहिनी तरफ़ बैठे और आस्मान के बादलों पर आते देखोगेI इस पर सरदार काहिन ने अपने कपड़े फाड़े कि उस ने कुफ़्र बका है। अब हमें गवाहों की क्या हाजत रही? देखो तुमने अभी ये कुफ़्र सुना है। वो क़त्ल के लायक़ है। इस पर उन्होंने उसके मुँह पर थूका।"

मुक़द्दस पौलुस फ़रमाता है कि इनमें से किसी ने ना जाना "क्योंकि अगर जानते तो जलाल के ख़ुदावंद को सलीब ना देते।" लियोअ आज़म जो एक ज़बरदस्त आलिम इलाहियात गुज़रा है कहता है कि "हमारे नजातदिहंदा की ज़ात में दो फ़ितरतें मौजूद थीं। हालाँकि दोनों की ख़ुसूसीयतें जुदागाना बराबर क़रार रहें तो भी दोनो के जवाहर में ऐसी अज़ीम यगानगी थी कि जिस वक़्त से कलाम मुजस्सम हो कर कुँवारी के बतन में आया हम उस की उलूहियत का बग़ैर उसकी इन्सानियत के और उस की इन्सानियत का बग़ैर उस की उलूहियत के ज़िक्र नहीं कर सकते। दोनो फ़ितरतें अपनी असलीयत के अपने मख़्सूस आमाल के ज़रीया से जुदागाना ज़ाहिर करती हैं। लेकिन ऐसा करने से अपना बाहमी रिश्ता व ताल्लुक़ तोड़ती नहीं। दोनो एक दूसरे के तक़ाज़ों को कामिल तौर से पूरा करती हैं। अज़मत व बुज़ुर्गी के साथ कामिल अदनापन मौजूद है और अदनापन के साथ ही कामिल अज़मत व बुज़ुर्गी मौजूद है। यगानगी बे-तरतीबी पर मुंतिज नहीं। ना मौज़ूनियत निफ़ाक़ पैदा करती है एक चीज़ काबिल-ए-गुज़र है।

दूसरी नाक़ाबिल-ए-गुज़र और जलाल का हक़दार है इसी के हिस्से में हक़ारत व रुसवाई भी है जो तवानाई व ताक़त का मालिक है उस के हिस्सा में कमज़ोरी भी है यही शख़्स लायक़ व क़ाबिल और मौत पर ग़ालिब आने वाला है। ख़ुदा ने कामिल इन्सान की सूरत इख़्तियार की और ख़ुद इन्सान की ज़ात में ऐसा मिल गया और उस को अपनी शफ़क़त व ज़ोर में ऐसा मिला लिया कि दोनो ज़ातें एक दूसरे में आ गईं। लेकिन दोनो ने बाहम मिल जाने के बावजूद भी अपनी ख़ासतयों को बरक़रार रखा।

पस मसीह की सलीबी मौत में इन्सानी अज़ीयत व बेहुरमती उलूहियत के बाईस हक़ीक़ी ईलाही मुसीबत में तब्दील हो गई । क्योंकि उलूहियत इन्सानी रूह और जिस्म के साथ ज़ाती एहसास की यगानगी के सबब एक हो गई। चूँकि मुसीबत उठाने वाला शख़्स लामहदूद है । इसलिए मुसीबत भी लामहदूद है। ख़ुदा के बेटे ने मुझसे मुहब्बत रखी और अपने आप को मेरे इव्ज़ फ़िद्या में दे दिया। ख़ुदा ने कलीसिया को अपने ख़ून से ख़रीद लिया।

ख़ुदावंदा थकामाँदा हूँ मैं जब
मुझे तक्लीफ़-दह हूँ तेरे अहकाम
ज़बां बार-ए-गराँ से जब होशा की
दिखा हाथ अपने तब अनेक फ़रख़ाम
दिखादे हाथ ख़ून-आलूदा अपने
जड़े थे काठ पर जूए नकोनाम

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कभी जो पांव मेरे लड़खड़ाएं
करूँ आगे को जाने से मैं इन्कार
अगर हो आबला पाए से दहश्त
हो मेरी राह सुनसान और पुरख़ार
तू अपने पांव वो मुझको दिखादे
कि जिनमें कीलों के अब तक हैं आसार

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ख़ुदावंदा नहीं ये मुझमें जुरात
दिखाऊँ अपने दस्त वपा की हालत
(बिशप बीडली साहिब की नज़म का तर्जुमा)

बाब नहम

"उसने अपने हाथ उन्हें दिखाए"

(यूहन्ना 20:19-29)

फिलिप्पियों के ख़त में मुक़द्दस पौलुस मसीह के साथ अपनी रिफ़ाक़त और दोस्ती पैदा करने में तीन मनाज़िल का ज़िक्र करता है। अव़्वल मसीह का इल्म जो दोस्त व दुश्मन से निहायत तक्लीफ़-दह ज़राए से उसे हासिल हुआ। दोम उसने दमिशक़ को जाते हुए राह में ख़ुद मसीह को देखा और "उसके ज़िंदा होने की क़ुदरत" तजुर्बा किया। क्योंकि ज़िंदगी उसके लिए मसीह थी।

आख़िरकार वो मसीह की मुसीबत में शरीक होने का ज़िक्र करता है और उसको अपनी दोस्ती की आख़िरी मंज़िल कहता है। यानी मसीह के साथ क़ुर्बान होने की ज़िंदगी में शरीक होना और मसीह के सलीबी दुख के पियाले को औरों की ख़ातिर पीना बल्कि उनकी ख़ातिर मौत तक गवारा करना।

मसीह के आशिक़ के नज़दीक सलीब का अक्स एक हमागीर अक्स है जो ज़मानों और दुनिया के ममालिक पर हावी है हत्ता कि रोज़ मह्शर तक पहुंचता है। "तुम्हारी सलामती हो और ये कह कर उस ने अपने हाथ और पसली उन्हें दिखाई।" मसीह ने अपने शागिर्दों को जीत लेने के लिए ज़ख़्मों के दाग़ों को मुतल्लिक़न ना छुपाया। उसके जलाली बदन पर उसके ईज़ा उठाने के निशान मौजूद हैं। वो उसकी शनाख़्त के सबूत हैं। उस के ग़ालिब आने का ऐलान करते हैं और उस के शाहाना इख़्तियार और उसकी नजात बख़्श क़ुदरत की अलामत हैं "पस शागिर्द ख़ुदावंद को देख कर ख़ुश हुए येसु ने फिर उनसे कहा कि तुम्हारी सलामती हो। जिस तरह बाप ने मुझे भेजा है इसी तरह में भी तुम्हें भेजता हूँ।"

थौरवाल्डसन (Thorwaldsen) ने जो मुल़्क हॉलैंड का एक मशहूर संग तराश गुज़रा है इस नज़ारा को संग मरमर में तराशा है। कोपनहेगीन के एक गिर्जाघर में उस का तराशा हुआ ज़िंदा मसीह का बुत खड़ा है। वो अपने हाथ फैलाए अपने शागिर्दों को सुलह व सलामती के पैग़ाम की इशाअत के लिए रवाना कर रहा है । गिरजा के दोनो जानिब बारह शागिर्दों के छः बुत खड़े हैं। यहूदा इस्क्रियुती की जगह पौलुस लिए हुए है ये नज़ारा दिलो-दिमाग पर एक अजीब कैफ़ीयत पैदा करता है । मसीह सलीब पर नहीं बल्कि तख़्त-नशीन होने को तैयार है लेकिन ज़ख़्मों के दाग़ लिए हुए है। मुसव्वर की कारीगरी मसीह के लबों से उस दो गोना पैग़ाम की भी मज़हर है कि जिसका ज़िक्र इंजील यूहन्ना में आया है यानी तुम्हारी हो और जिस तरह बाप ने मुझे भेजा है इसी तरह मैं भी तुम्हें भेजता हूँ ।"

सलीब ना फ़क़त कफ़्फ़ारे की मज़हर है बल्कि वो एक निहायत आला नमूना भी पेश करती है वो हमारी "रूह के लिए इत्मीनान और सलामती का पैग़ाम है और हमें इज्तिहाद की दावत देती है। वो गुनहगार के लिए एक ख़ास मक़्सद के इलावा एक पैग़ाम भी रखती है। वो जिन्होंने एक मर्तबा मसीह के दाग़ों में सलीब का नज़ारा देख लिया है उनमें ज़रूर तब्दीली वाक़े होती है।"

मसीह सब के वास्ते मुआ कि जो जीते हैं वो आगे को अपने लिए ना जिएँ बल्कि उसके लिए जो उन के वास्ते मुआ और फिर जी उठा।" हमको उसी के ख़ून के वसीले से सलामती हासिल होती है और उसके नमूने से रिसालत ।

ये निहायत अजीब बात है कि मसीह ने अपने जी उठने के बाद अपने दाग़ अपने शागिर्दों को दिखाए। उन्होंने अमाउस में से रोटी तोड़ते वक़्त पहचान लिया। हालाँकि वो उसकी शक्ल व शबहात और उस की तर्ज़-ए-गुफ़्तगु से उसे ना पहचान सके। उसने अपने दाग़ दिखाकर अपने दस शागिर्दों को अपनी शनाख़्त कराई और अपने दुबारा ज़िंदा होने का क़ाइल किया उसके दाग़ों की वजह ही से एक हफ़्ता के बाद तोमा अपनी कम एतिक़ादी का क़ाइल हो कर बोल उठा।"ऐ मेरे ख़ुदावंद ऐ मेरा ख़ुदा" उसके हाथ और उस की पसली के दाग़ ही ख़ुदा के साथ हमारे मेल मिलाप की मुहर और निशान हैं और हमें ख़िदमत करने और क़ुर्बान होने की दावत देते हैं।

हेईन (Heine) नामी एक जर्मन शायर क़दीम दुनिया के देवताओं को अपने ज़ियाफ़त के कमरे में दुनिया को तस्ख़ीर और फ़तह किए हुए तख़्त नशीन तसव्वुर करता है । इन के सामने एक मुफ़लिस व ग़रीब दहक़ान सलीब के बोझ से दबा हुआ दाख़िल होता है और सलीब को मेज़ पर दे मारता है। शहवत और जफ़ा के देवता मायूस हो कर फ़ौरन मर जाते हैं। क़दीम दुनिया के देवता मौजूदा दुनिया की बातिल और फ़ानी खूबियां हैं। जब मसीह की सलीब का अक्स किसी शख़्स की ज़िंदगी पर पड़ता है तो उसी वक़्त वो पुरानी बातिल और फ़ानी खूबियां मादूम हो जाती हैं और उनके इव्ज़ एक अजीब नई ज़िंदगी मारज़-ए-वजूद में आती है जो ग़ैर-फ़ानी ख़ूबीयों पर मबनी होती है।

इन्जीली बयानात से मालूम होता है कि हमारे खुदावंद ने अपनी ज़बान-ए-मुबारक से दुनिया के मुताल्लिक़ चार फ़रमान दीए। मुक़द्दस मत्ती दुनिया की तमाम अक़्वाम को शागिर्द बनाने का सबब बताता है। "आस्मान और ज़मीन का कुल इख़्तयार मुझे दिया गया है। पस तुम जाकर" .......मुक़द्दस मरकुस की जगह के मुताल्लिक़ हमारे ख़ुदावंद के ये अल्फ़ाज़ लिखता है "तुम दुनिया में जाकर सारी ख़ल्क़ के सामने इंजील की मुनादी करो।" मुक़द्दस लूक़ा उस ख़िदमत की तर्तीब पर ज़ोर देते हुए मसीह के अल्फ़ाज़ दोहराता है। "और यरूशलेम से शुरू करके सारी क़ौमों में तौबा और गुनाहों की माफ़ी उसके नाम से की जाएगी।" मुक़द्दस यूहन्ना सबसे अहम- तरीन बात पर ज़ोर देता है और उस रूह को ज़ाहिर करता है जो उस ख़िदमत में हमारी हिदायत करती और हम पर हुकूमत और इख़्तियार रखती है "जिस तरह बाप ने मुझे भेजा है। उसी तरह मैं तुम्हें भेजता हूँ।"नौकर अपने मालिक से बड़ा नहीं होता। हमें उसका हम ख़िदमत होना और उसी इख़्तियार के मातहत रहना है।

हमारा पैग़ाम भी वही है और इसी क़िस्म की तक्लीफ़ व मुसीबत हमें भी बर्दाश्त करनी है। यूहन्ना निहायत सादा अल्फ़ाज़ में बाद ताम्मुल ये कहता है। "उसने हमारे वास्ते अपनी जान दी और हम पर भी भाईयों के वास्ते जान देनी फ़र्ज़ है।"

सलीब ख़िदमत के लिए एक ज़बरदस्त मुहर्रिक है। येसु मसीह को अपने मिशन की ख़ातिर शहीदा पैदा करने के लिए फ़क़त अपने दाग़ दिखाने की ज़रूरत है"जब वो जिन्होंने उसे छेदा है उस पर नज़र करेंगे।" तो ख़ुदा हर एक पर क़ुर्बानी की रूह नाज़िल करेगा। और हर एक उससे पूछेगा कि तेरे हाथों पर क्या ज़ख़्म हैं तो वो जवाब देगा ये वो ज़ख़्म हैं जो मुझे अपने दोस्तों के घर से लगे (ज़करीया 12:10 व 13:16) जब येसु मसीह दमिशक़ की राह में साऊल पर ज़ाहिर हुआ तो ज़रूर उसने भी आस्मानी नूर की रोशनी में मेख़ों के निशान उस के हाथों में और भाले के निशान उसकी पसली में देखे होंगे। तू मुझे क्यों सताता है? "मसीह हूँ जिसे तू सताता है".........मैं उसे जता दूंगा कि उसे मेरे नाम की ख़ातिर किस क़दर दुख उठाना पड़ेगा।"

ये कोई ताज्जुब की बात नहीं कि मुक़द्दस पौलुस अपनी रसुली ख़िदमत और मसीह के दुख उठाने का बयान करते हुए एक अजीब लफ़्ज़ का इस्तिमाल करता है। ये लफ़्ज़ उस मुक़ाम के इलावा एक मर्तबा और इस्तिमाल हुआ है। ये एक यूनानी लफ़्ज़ है जिसके मअनी लूक़ा की इंजील में "नादारी किया गया है और कुलुस्सियों के ख़त में"कमी" मुक़द्दस लूक़ा की इंजील में हम उस बेवा का हाल पढ़ते हैं जिसने अपनी नादारी की हालत में जितनी पूँजी उस के पास थी खज़ाने में डाल दी। पौलुस रसूल भी इसी यूनानी लफ़्ज़ का इस्तिमाल करता है जिसके मअनी उस ख़त में "कमी किए गए हैं।" अब में इन दुखों के सबब से ख़ुश हूँ "जो तुम्हारी ख़ातिर उठाता हूँ और मसीह की मुसीबतों की कमी उसके बदन यानी कलीसिया की ख़ातिर अपने जिस्म में पूरी किए देता हूँ" कलवरी की नादारी या कमी !

अहले यहूद के नज़दीक दुख उठाना एक ऐसा मसला था जिसका हल करना मुश्किल था। लेकिन मसीही के लिए ये एक ख़ास मन्सब बन गया जिसमें वो अपने मौला का हिस्सादार हो सकता है। शाऊल यहूदी ने दुख उठाने के मसले को अय्यूब और उस के तीन दोस्तों की रूह से हल करना चाहा और वो लाएख़ल साबित हुआ। लेकिन पौलुस मसीही ने मसीह के दाग़ देखे और उस ने महसूस कर लिया कि यहोवाह का सादिक़ बंदा हमारे गुनाहों के लिए घायल किया गया और हमारी ही बदकारियों के बाईस कुचला गया। लिहाज़ा वो फ़रमाता है "इसलिए मसीह की ख़ातिर कमज़ोरीयों में बे अज़िय्यतों में, इहितयाजों में, सताए जाने में और तंगियों में ख़ुश हूँ।"

ज़िंदा मसीह का जलाल ये है कि हम उस के दाग़ों को पहचान लें और तोमा के साथ मिलकर मेख़ों के निशानों में अपनी उंगलियां डालें और कहें"बस काफ़ी है अब तू अपने ग़ुलाम को अपने कलाम के मुवाफ़िक़ सलामती से रुख़स्त देता है क्योंकि मेरी आँखों ने तेरी नजात देख ली है"

"ऐ मेरे ख़ुदावंद ऐ मेरे ख़ुदा ! पुर जलाल मुक़द्दसिन के लिए इससे बढ़कर और क्या ख़ुशी व मसर्रत हो सकती है और इस तजुर्बे से बेहतर तजुर्बा और कौनसा हो सकता है कि मसीह के दाग़ों को देखें और उस के हुज़ूर सरबसजूद हों। मर्यम मगदलेनी को भी मसीह के सर पर तेल मलते वक़्त ये नसीब ना हुआ कि उस के दाग़ों को चूमे, फ़लक पर मलाइक आर्ज़ूमंद हैं कि उनको देखें लेकिन जब वो उस नजात बख़्श मुहब्बत का मुलाहिज़ा करते हैं तो अपने चेहरों को छुपा लेते हैं।

"उस ने अपने हाथ......उन्हें दिखाए" क्या उसने अपने हाथ कभी आपको भी दिखाए! एसीसी के मुक़द्दस फ्रांसीस ने मसीह के दाग़ों पर ग़ौर करते वक़्त इस क़दर वक़्त सर्फ़ किया कि आख़िरकार उसके बदन पर नजातदिहंदा के निशान ज़ाहिर हो गए। लेकिन मसीह के दाग़ों से कहीं ज़्यादा मसीह की सलीब बर्दारी के सबूत उस की रोज़ाना ज़िंदगी में नुमायां थे।

जब एसीसी के बरनरड ने मुक़द्दस फ्रांसीस की पैरवी करने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की तो ये फ़ैसला हुआ कि वो बिशप साहिब के मकान पर जाएं। और वहां मास में शामिल हों । फिर मुक़द्दस फ्रांसीस ने कहा "बाद अज़ नमाज़ हम दुआ में मशग़ूल रहेंगे और ख़ुदा की मिन्नत करेंगे कि तीन मर्तबा नमाज़ की किताब खोलने के ज़रीया से वो अपनी मर्ज़ी हम पर ज़ाहिर करे और हमें बताए कि हम कौनसा राह इख़्तियार करें "पहली मर्तबा किताब खोलने पर वो अल्फ़ाज़ निकले जो हमारे ख़ुदावंद ने उस नौजवान को जो उस से कामलीयत का दर्स लेने आया था फ़रमाए यानी "अगर तू कामिल होना चाहता है तो जा अपना माल व असबाब बेच कर ग़रीबों को दे.............. और आकर मेरे पीछे हो ले" (मत्ती 19:21) दूसरी मर्तबा किताब खोलने पर वो अल्फ़ाज़ निकले जो मसीह ने अपने शागिर्दों को मुनादी के लिए रवाना करते वक़्त फ़रमाए यानी "राह के लिए कुछ ना लेना ना लाठी ना झोली ना रुपया ना दो-दो कुर्ते रखना"(लूक़ा 9:3) तीसरी मर्तबा मरकुस 8:34 आयत निकली "अगर कोई मेरे पीछे आना चाहे तो अपनी ख़ुदी से इन्कार करे और अपनी सलीब उठाए और मेरे पीछे हो ले"फिर मुक़द्दस फ्रांसीस बरनर्ड से मुख़ातब हो कर कहने लगा "मसीह की सलाह को सुनो और उस पर अमल करो। हमारे ख़ुदावंद येसु मसीह का नाम मुबारक हो। जिसने अपनी मर्ज़ी हम पर ज़ाहिर की कि हम उस की मुक़द्दस इंजील के मुताबिक़ ज़िंदगी बसर करें।"

बादअज़ां उस ने और साथ के बाक़ी दरवेशों ने इंतिहाई दरवेशाना ज़िंदगी बसर करनी शुरू की और एक वीरान जज़ाम ख़ाना में सुकूनत इख़्तियार की बीमारों, मुफ़लिसों और बेकसों की इमदाद करते और वसीअ पैमाना पर इंजील जलील की बशारत का काम करते थे और हलक़ा रोज़ बरोज़ बढ़ता गया हत्ता कि उसमें मुल्हिद और अहले इस्लाम भी शामिल होने लगे। मिस्र में सुल्तान कामिल के रूबरू फ्रांसीस ने अपने ईमान की ख़ातिर मुसीबत बर्दाश्त करने के लिए मुस्तइद और रज़ामंद होने का सबूत दिया। दुनयावी फ़िक्रों से बेनयाज़, ख़िदमत में ख़ुश, उस का हुलुम , इसकी फ़िरोतनी और उसका बच्चों का सा ईमान मुनाज़िर क़ुदरत के लिए उसका शौक़, आम्मतुन्नास के लिए उस की बेहद मुहब्बत, यही उसके दाग़ थे यानी उसके जिस्म पर मसीह के ज़ख़्मों के निशान ।

एक मर्तबा एक मुस्लिम सूफ़ी से मेरी मुलाक़ात हुई । वो अहले-तसव्वुफ़ में से था और निहायत मुफ़लिसाना ज़िंदगी बसर करता था। जब में दाख़िल हुआ तो वो तस्बीह पढ़ रहा था जिसके निनानवे दानों से अल्लाह के निनानवे ख़ूबसूरत नाम मुराद हैं जब हम इन निनानवे नामों के ख़वास और एक तालिब-ए-ख़ुदा के नज़दीक इन नामों के मुतालिब पर गुफ़्तगु कर रहे थे और कह रहे थे कि अल-ग़ज़ाली और दीगर सुफ़याए किराम ने तालीम दी है कि हमें हक़ तआला की सिफ़ात पर ख़ूब ग़ौर करना चाहिए ताकि हम उसकी रहमत व शफ़क़त व महरबानी की नक़ल कर सकें । तो उस ने मेरी तरफ़ मुतवज्जा हो कर कहा "ये ज़रूर नहीं कि हम ख़ुदा के नामों को याद करने के लिए तस्बीह करें क्योंकि वो तो हमारे हाथों पर कुंदा हैं" फिर उसने अपने हाथ फैला कर अपनी हथेलियाँ मुझे दिखाई जिनमें अरबी आदाद 81 और 18 बाएं और दाएं हाथों में ख़ूब गहरे खुदे हुए हैं और जिन का मजमूआ निनानवे है। उस ने कहा "यही वजह है कि हम दुआ व इल्तिज़ा करते वक़्त अपने हाथ फैला कर ख़ुदा को उस की पुर-शफ़क़त सिफ़ात याद दिलाते हैं और उस से उस के फ़ज़्ल की इलतिमास करते हैं।"

मैंने मसीह के दाग़ों के मुताल्लिक़ उससे गुफ़्तगु की और उसे बताया कि उसने हमारे गुनाहों को सलीब पर उठा लिया"मैं तुझे ना भूलूँगा....................देख मैंने तेरी तस्वीर अपनी हथेलियों पर खोदी हुई है।"

उन्होंने उसके हाथ और पांव को छेदा वो दाग़ उस के जलाली बदन पर अब तक मौजूद हैं और उन्हें जो उस के नाम से कहलाते हैं उस की शागिर्दी इख़्तियार करने की दावत देते।

उनकी रिसालत के लिए कसौटी का काम देते हैं। मसीह का पैरौ होना कोई आसान काम नहीं। उसके मुतालिबात निहायत सख़्त हैं जब तक कोई सब कुछ तर्क ना कर दे वो उसका शागिर्द नहीं हो सकता। ताज बग़ैर सलीब के हासिल करना ग़ैर-मुमकिन है।

मसीह ने अपने आपको हक़ीक़ी दीवार ज़ैतून या बलूत का दरख़्त नहीं कहा बल्कि हक़ीक़ी अंगूर की बेल कहा है। फ़क़त यही एक बेल है जो खन्बे से बाँधी जाती और दूसरों की ख़ातिर बाग़बान की मिक़राज़ का तख़्ता मश्क़ बना रहता है। हर एक शाख़ तराशी जाती है और जहां शिगाफ़ ज़्यादा गहरे आते हैं वहीं फल ज़्यादा लगने की उम्मीद भी ज़्यादा होती है।

हम मसीह की शराकत में शरीक होने के लिए बुलाए गए हैं। लेकिन ये शराकत तक्लीफ़ व मुसीबत की शराकत है। रोज़ अव़्वल ही से लेकर ये ज़मीन ज़ुल्मत और नूर की ताक़तों की आख़िरी ज़ोर-आज़माई के लिए एक मैदान मुक़र्रर हो चुकी है।

मसीह की शराकत ही असल रसूली तसलसुल है। शहीदों का ख़ून हर एक मुल्क और ज़माने में कलीसिया की बीच रहा है। पौलुस रसूल फ़रमाता है "आगे को कोई मुझे तक्लीफ़ ना दे क्योंकि मैं अपने जिस्म पर मसीह के दाग़ लिए फिरता हूँ।"

डेविड लोन्गसटन, हैनरी मार्टिन, मेरी सलीसर, जेम्स गिलमोर और कैथ फ़ाकज़ की सवानिह उम्रियाँ मेख़ों के दाग़ लिए हुए हैं। हमारी तजावीज़ का मलिया-मेट होना। हमारी उम्मीदों का नाउम्मीदी में तब्दील हो जाना हमारे तसव्वुरात का माज़ोम हो जाना हमारे फ़ैसलों का तक्लीफ़-दह साबित होना। हमारी ख़ुशीयों का रंज-वालम बन जाना और बाग़ गतसमनी में हमारा जांकनी की हालत में रहना ये सब अगर मसीह की सलीब उठाना नहीं तो और क्या हैं? दुआ का जवाब ना पाने पर सब्र करना। पोशीदगी में ख़ुद इंकारी करना। पेशवाई में तन्हा रहना ये सब तंबीहीं हैं और उनका हिस्सा हैं। जो हक़ीक़ी फ़र्ज़ंद हैं और हरामज़ादे नहीं।“हम हर वक़्त अपने बदन में मसीह की मौत लिए फिरते हैं । ख़ुदा के खादिमों की तरह हर बात से अपनी ख़ूबी ज़ाहिर करते हैं । बड़े सब्र से मुसीबतों से, इहितयाजों से, तंगियों से कोड़े खाने से क़ैद से, हंगामों से मेहनतों से बेदारियों से और फ़ाक़ों से ।"

आस्मान के बारह दर हैं और वो जिनके नाम शहर मुक़द्दस की बुनियाद पर कनुंदा हैं सब के सब अपने मालिक के दाग़ लिए हुए हैं। हर एक दर एक गौहर है। यानी गौहर क़ुर्बानी ।

कश्मीर के एक मिशनरी ने उस बदन के लिए जो सरापा ख़ुदा के आगे नज़र किया जा चुका है एक दुआ लिखी है । क्या ये हमारी दुआ नहीं हो सकती? "ऐ मालिक ! हम अपना गोश्त, अपनी हड्डियां, अपने आज़ो अपना बंद तेरी ख़िदमत के लिए पेश करते हैं । हमें उसे अपने जलाल के लिए इस्तिमाल करना सिखा। हमारी हिदायत कर कि हम उसे एक कल की तरह दरुस्त रख सकें जो बतौर एक अमानत किसी ख़ास मक़्सद के लिए हमारे सपुर्द की गई है। हमें सिखा कि हम उसे बलापस व पीश, सख़्ती और इस्तिक़लाल के साथ इस्तिमाल करें लेकिन बजा तौर पर नहीं और जब ये रफ़्ता-रफ़्ता फ़र्सूदा हो जाएगी तो ये बख़्श कि हम उस यक़ीन से ख़ुश हों कि ये तेरे लिए सर्फ़ हो रहा है - आमीन।"

"मसीह हमारा पशीर व मौत पर ग़ालिब आकर अज़लियत के दरवाज़े खोलता है जो हमारे लिए बंद थे और हमारी रूह को उन के अंदर दाख़िल होने देता है। उस हकीम अज़ली ने सलीब और गुर की राह से गुज़र कर और सच्चाई और हक़ की फ़िज़ा में दाख़िल हो कर हमें ये रास्ता दिखाया। ये राज़ बताया और क़ुदरत और इख़्तियार का वो लफ़्ज़ हमें सिखाया कि जिस के मुँह से निकलते ही आलम-ए-रूहानियत के दरवाज़े हम पर यक-दम खुल जाते हैं।

अगर जहान के नूर ने गुर की ज़ुल्मत को नूर में तब्दील ना कर दिया होता और उस घिनौने पन को जो जिस्म की नज़ाकत और क़ब्र की सख़्ती के बाहमी मेल से पैदा होता है। पाकीज़गी में ना बदल दिया होता तो वाक़ई उसने हमारे लिए कुछ भी ना किया होता आओ वो जगह देखो जहां कामिल मुहब्बत रखी गई थी ! (इक़तिबास अज़ पाथ औफ़ इटर्नल विज़डम" (अज़ली हिक्मत की राह) मन तस्नीफ़ जान कौरडीलियर)

बाब दहम

"उसके जी उठने की क़ुदरत"

यूजीन बरननड की एक नादिर किताब है जो "होली स्टर डे" के नाम से कहलाती है। उसमें मसीह के ग्यारह शागिर्द दिखाए हैं जो अहले-यहूद के ख़ौफ़ से दरवाज़े बंद किए बैठे हैं। ना उन के बूशरों से बशाशत का नूर चमक रहा है और ना ख़ुशी का तबस्सुम उन के चेहरों पर नज़र आ रहा है। ये उन की ज़िंदगी की तारीक तरीं शाम है। येसु क़ब्र में मदफ़ून है और उन की उम्मीदें भी उसके साथ ही मदफ़ून हैं वो कह रहे हैं "हमको उम्मीद थी कि इस्राइल को मख़लिसी यही देगा। लेकिन अब हमारा यक़ीन जाता रहा । हमने गलील में झील के क़रीब उस के जलाल, और उस की क़ुदरत को देखा। गलगता में हमने उस का दर्दनाक चिल्लाना सुना और अपनी आँखों से उस की जांकनी भी देखी। फिर अरमतीह का यूसुफ़ उसकी लाश ले गया और हम ने उसे दफ़न किया बिलाशक येसु मर गया !"

पतरस अपने सर को अपने हाथों पर झुकाए बैठा है और यूहन्ना जिसके चेहरे से मुख़्तलिफ़ तबस्सुम के जज़्बात का इज़्हार हो रहा है उसे तसल्ली देने की बेसूद कोशिश कर रहा है। लेकिन जानता नहीं कि किस तरह तसल्ली व तशफ़ी करे उन में से हर एक मुस्तक़बिल के ख़्याल से नाउम्मीद है। मायूस पस्त-हिम्मत, परेशान हाल, सरासीमा व हैरान हो रहा है। हर एक के चेहरे से उन की मुशतर्का तक्लीफ़ और उन के रंज का असर अयाँ है। येसु मर गया है। "हमको उम्मीद थी कि इस्राइल को मख़लिसी यही देगा ।"

ख़ुदा का शुक्र हो कि इन्जीली बयान मसीह की मौत पर ख़त्म नहीं हो जाता वो उस की फ़तह की आवाज़ "पूरा हुआ" फिर भी ख़त्म नहीं होता और ना ही रसूली पैग़ाम का यहां ख़ात्मा होता है। मसीह की मौत के बाद उसकी क़ियामत हुई "मसीह जिस्म के एतबार से दाऊद की नसल से पैदा हुआ। लेकिन मुर्दों में से जी उठने की क़ुदरत के साथ ख़ुदा का बेटा ठहरा।"

मसीह हमारे गुनाहों के लिए मरा और तीसरे दिन किताब मुक़द्दस के बमूजब ज़िंदा किया गया।"मज़कूरा बाला अल्फ़ाज़ मुक़द्दस पौलुस के बयान का ख़ुलासा है। मसीह के ज़िंदा होने के मुताल्लिक़ पौलुस के ईमान की बुनियाद अव़्वल पेशीनगोईआं और वाअदे थे जो ये ज़ाहिर करते हैं कि मसीह जी उठेगा। दोम ज़िंदा नजातदिहंदा का बार-बार अपने आपको मुख़्तलिफ़ तरीक़ से ज़ाहिर करना। क्योंकि वाक़ई वो ज़िंदा हो गया था। पौलुस अपने बयानात में मसीह के ज़हूरों को तरतीबवार लेता है। और दमिशक़ की राह में मसीह के अपने ऊपर ज़ाहिर होने को अपना गवाह क़रार देता है और नतीजा निकालता है। "अगर मसीह नहीं जी उठा तो तुम्हारा ईमान बेफ़ाइदा है तुम अब तक अपने गुनाहों में गिरफ़्तार हो। बल्कि जो मसीह में सो गए हैं वो भी हलाक हुए अगर हम सिर्फ इसी ज़िंदगी में उम्मीद रखते हैं तो सारे आदमीयों से ज़्यादा बदनसीब हैं।"

हुडिनी डोबल तमाम सबूतों और बिलख़सूस उस सबूत की एहमीयत को चश्म-ए-बसीरत से देखकर यूं लिखता है "पौलुस रसूल का मसीह के ज़िंदा होने की हक़ीक़त को अपनी बशारत का बुनियादी उसूल क़रार देने की इंतिहाई फ़िक्र ही एक अज़ीमुश्शान सबूत है। जिसके बाईस पौलुस रसूल का अपना दिमाग़ भी एक सबूत बन जाता है। उसकी गवाही सौ गवाहियों की एक गवाही है और यही हाल दूसरे रसूलों का भी है। इनकी पहली बे-एतिक़ादी के मुक़ाबले में उनका मौजूदा यक़ीन व एतक़ाद और उन का क़ियामत को एक आला व अफ़ज़ल हक़ीक़त तसव्वुर करना ही नामालूम तारीख़ी हक़ीक़तों का एक ज़बरदस्त व बय्यन सबूत है।"

मसीह के ज़िंदा होने के इन्जीली बयान से मुताल्लिक़ एक निहायत अजीब बात ये है कि उन चशमदीद गवाहों के तमाम बयानात में हमारे खुदावंद के पैरौओं के शुकुक का ज़िक्र निहायत ज़ोर से किया जाता है। वो ख़ुद एक वहमी व शक्की हालत के ज़ेर-ए-असर थे इसलिए दूसरों की गवाही को फ़ौरन क़बूल करने के लिए तैयार ना रहे थे। औरतों ने "किसी से कुछ ना कहा" "क्योंकि डरती थीं (मरकुस 16:8) जब मर्यम मगदलीनी ने उन्हें बताया कि उसने मसीह को देखा तो उन्होंने "यक़ीन ना किया" (मरकुस 16:11) जब उन्होंने उसे गलील में पहाड़ पर देखा तो बाअज़ ने उसे सज्दा किया लेकिन "बाअज़ ने शक किया" (मत्ती 28:17) तोमा रसूल एक हफ़्ता तक शक करने के बाद क़ाइल हुआ।

लिहाज़ा मसीह के ज़िंदा होने के मुताल्लिक़ रसूलों का ईमान कुछ अंधा ईमान ना था बल्कि उस की बुनियाद चशमदीद वाक़ियात और ना काबिल-ए-तर्दीद शहादत पर क़ायम थी। उसने अपनी मस्लुबियत के बाद "बहुत से सबूतों से अपने आपको उन पर ज़िंदा ज़ाहिर भी किया। चुनांचे वो चालीस दिन तक उन्हें नज़र आता रहा......."और उन की तादाद जिन्होंने उसे ज़िंदा देखा पाँच सौ से ऊपर थी (आमाल 1:3 व 1 कुरन्थियो 15:6) मसीह के सऊद और पन्तीकोस्त के रोज़-ए-अज़ीम के बाद रसूली जमात के किसी शरीक के दिल में उसके मुताल्लिक़ ज़र्रा भर भी शक बाक़ी ना रहा। मसीह के ताअबद ज़िंदा होने से वो भी सब के सब तब्दील हो गए । उसका ज़िंदा होना उनकी ज़िंदा उम्मीद थी और ना फ़क़त उनके पैग़ाम बशारत में बल्कि उनके रोज़ाना तजुर्बा में भी मूजिब तहरीक I मुक़द्दस पतरस फ़रमाता है कि"उस को ख़ुदा ने तीसरे दिन जिलाया और ज़ाहिर भी कर दिया। ना कि सारी उम्मत पर बल्कि उन गवाहों पर जो आगे से ख़ुदा के चुने हुए थे। यानी हम पर जिन्होंने उसके मुर्दों में से जी उठने के बाद उसके साथ खाया पिया" (आमाल 10:40) पौलुस रसूल फ़रमाता है "वो कमज़ोरी के सबब से सलीब दिया गया लेकिन ख़ुदा की क़ुदरत के सबब से ज़िंदा है" (2 कुरन्थियो 13:4) यूहन्ना कहता है "येसु मसीह......जो सच्चा गवाह और मुर्दों में से जी उठने वालों में से पह्लोठा" है। हाँ वो अबद तक ज़िंदा रहेगा। मौत का अब उस पर कोई इख़्तियार नहीं क्योंकि उस ने मौत को नेस्त व नाबूद कर दिया और अपने दुबारा जी उठने से ज़िंदगी और बक़ा की तालीम दी और यही वो क़ुदरत है जिससे मसीह में नई ज़िंदगी मिलती है वो हर एक ईमानदार के लिए जलाल की उम्मीद और गुनाह पर फ़तह पाने का भेद है। ईमानदार मसीह के साथ सलीब दिया जाता उसके साथ मरता और दफ़न होता है लेकिन फिर उसमें हो कर और उस के बाईस ज़िंदा हो जाता है।

सुब्हे क़यामत एक नई रोशनी यानी बक़ा का नूर सफ़ा आलम पर फैलाती है। चुनांचे हर एक चीज़ और हर एक इन्सान में इस ज़िंदा उम्मीद यानी क़ब्र पर ख़ुदा की क़ुदरत और फ़तहयाबी के ज़हूर के बाईस एक तब्दीली वाक़े होती है जो शख़्स मसीह में क़ायम होता है वो नया मख़्लूक़ बन जाता है। पुरानी चीज़ें जाती रहती हैं और सब कुछ सुबह-ए-क़ियामत की रोशनी में नया हो जाता है।

जब लोग ज़िंदा मसीह की हुज़ूरी को महसूस कर लेते हैं तो ज़िंदगी की क़द्रो क़ीमत का एक नया मेयार क़ायम हो जाता है। डेविड लोनगस्टन कहता है "अब से लेकर मैं अपनी किसी चीज़ पर अगर कोई क़ीमत लगाऊंगा तो उस निस्बत से जो मसीह की बादशाहत के मुक़र्रर मेयार के मुताबिक़ इसे हासिल है" मुक़द्दस यूहन्ना की इंजील में लिखा है कि "जिस जगह उसे सलीब दी गई वो एक बाग़ था और उस बाग़ में एक नई क़ब्र थी ।" वो बाग़ अब तक हमारा इंतिज़ार कर रहा है। रूह के तमाम फल वहां पकते हैं। उसके ज़िंदा होने की क़ुदरत इन्सान को तमाम दुनियावी तकलीफ़ात और ज़रूरीयात का मुक़ाबला करने के क़ाबिल बनाती है। क्योंकि उसके बंदों को ये यक़ीन होता है कि मसीह सब कुछ जानता और उन्हें प्यार करता है और उनकी इहितयाजों को रफ़ा कर सकता है। हज़रत इन्सान का दिल दो बातों का ख़्वाहिशमंद होता है। यानी गुनाह से नजात पाने का और अबदी ज़िंदगी हासिल करने का अगर मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब का बाहमी मुक़ाबला किया जाये तो एक निहायत अजीब बात मालूम होगी कि मौत के बाद ज़िंदा रहने की आलमगीर उम्मीदवार और अन्वा व अक़्साम की क़ुर्बानीयों और ज़िंदों के ज़रीये से देवताओं और ख़ुदाओं को राज़ी रखने की आलमगीरी सई व कोशीश क़रीब क़रीब हर मज़्हब में पाई जाती है। मसीह में इन हर दो कि तक्मील होती है । अगरचे वहशी अक़्वाम के दरमियान आइन्दा ज़िंदगी के मुताल्लिक़ जो ख़्यालात राइज हैं वो निहायत ख़ाम हैं तो भी वो मौजूद ज़रूर हैं और उन के मोतक़िदात में उन्हें ख़ास मर्तबा और फ़ौक़ियत हासिल है। औहाम परस्ती के नाम ही से माद्दी दुनिया पर रूह की फ़ज़ीलत ज़ाहिर होती है ना फ़क़त वहशी अक़्वाम के मज़ाहिब ही बल्कि बुत परस्तों और मुशरिकों के तमाम मज़ाहिब भी बकाए दवाम की तालीम देते हैं और फ़ित्रतन उन की तबीयत में अबदीयत और ग़ैर-फ़ानीयत के अक़ीदे की बहुत क़द्रो क़ीमत पाई जाती है।

लोग महिज़ मौजूदा इन्सानी ज़िंदगी की ज़ाती ख़ामीयों और उस के ग़ैर-मुकम्मल होने की वजह से ग़ैर-फ़ानीयत और बक़ा पर ईमान रखते हैं क्योंकि उन्होंने देख लिया कि बसा औक़ात कवाय इन्सानी में ज़ोफ़ आने के बाद भी हमारे जज़्बात मुहब्बत के पुरज़ोर मुतालिबात के बाईसे अख़्लाक़ व अतवार तरक़्क़ी करते हैं। मुहब्बत मौत से क़वी तर है। हमारे अंदर कायनात की उस आवाज़ की सदाए बाज़गश्त पैदा होती है और रूहें ख़ुद बख़ुद अपने अबदी मस्कन के वाहिद रास्ता पर बे-इख़्तियार खिची चली जाती हैं। तमाम अश्या ख़ुदा के दिल की तरफ़ रुजू करती हैं जो उनका मब्दा और मंबा और उन की इंतिहा भी है।

लोई पासेटोर कहता है "वो जो उस लामहदूद की हस्ती का ऐलान करता है और कोई नहीं जो ऐसा ना करे वो उस ऐलान में जुमला मज़ाहिब की तमाम मोजज़ाना बातों से कहीं ज़्यादा एजाज़ शरीक करता है। क्योंकि लामहदूद हस्ती का तसव्वुर इस दो गुना ख़सलत का इज़्हार करता यानी ये कि वो अपने आपको ज़बरदस्ती हम पर ज़ाहिर भी करती है और साथ ही हमारे फ़हम व इदराक से कहीं बालातर भी है लेकिन जब हमें उसका इदराक हासिल होता है तो हम सर-ए-तस्लीम ख़म करने के सिवा और कोई चारा नहीं पाते। मैं हर जगह दुनिया में इस लामहदूद हस्ती का नागुरेज़ इज़्हार देखता हूँ इसी के बाईस हर शख़्स के दिल की तह में एजाज़ का तसव्वुर मौजूद होता है "साईंस लामहदूद फ़िज़ा, लामहदूद ज़माना, लामहदूद आदाद, लामहदूद ज़िंदगी और लामहदूद हरकत का ज़िक्र करती है" उसने अबदीयत को भी उनके दिल में जागज़ीं किया" (वाइज़ 3:11)

मौत ज़िंदगी की ख़्वाहिश से ज़्यादा आम नहीं। इन्सानी रूह ज़िंदगी बल्कि कसरत के साथ ज़िंदगी की ख़्वाहिशमंद है । ऐसी ज़िंदगी जो मसीह ने अपनी जलाली क़ियामत और अपने सऊद के ज़रीये से ज़ाहिर की।

ये हक़ीक़त एटरोरीयह (इटली के वस्त में एक मुल्क है) के क़दीम बाशिंदों के मोतक़िदात, क़दीम मिस्रियों की मुर्दों की किताब (जो फ़िल-हक़ीक़त किताब-ए-हयात थी) मनु के धर्म शास्त्र की आख़िरी किताब जो मसला तनासुख़ और आख़िरी मुबारकबादी से मुताल्लिक़ है। अहले-इस्लाम की मशहूर-ओ-मारूफ़ किताबें जो मौत और सज़ा व जज़ा से भी मुताल्लिक़ हैं हत्ता कि निरवान के मुताल्लिक़ बुध मज़्हब के आलिमों के ख़्यालात से भी आश्कार होती हैं।

अबदी ज़िंदगी के लिए अक़्वाम-ए-आलम की ख़्वाहिश मसीह और फ़क़त मसीह ही में पूरी होती है इसलिए कि वो अपनी मौत और अपनी क़ियामत के ज़रीये से ज़िंदगी और बक़ा को दुनिया में लाया। उस ने हमें एक नादिर पैग़ाम दिया। हाँ ऐसा पैग़ाम जो बनीनौ इन्सान के मर्ज़ ख़ुसूसी यानी गुनाह और उस के अवाक़िब यानी रंज-वालम के ऐन हसबे-हाल है।

हर मुल़्क व क़ोम के हक़ीक़ी तालिबान-ए-हक़ एक नादीदनी दुनिया को देखते हैं । ख़ामोश आवाज़ें सुनते और ग़ैर महसूस हक़ीक़तों को अपने क़ब्जे में लाना चाहते हैं । इसलिए वो इस मसीही पैग़ाम की तरफ़ कभी राग़िब नहीं होंगे जो आइन्दा जहान के हालात से मुताल्लिक़ ना हो। मसीह ने लाज़र की क़ब्र के पास क़ियामत की ख़ुशख़बरी दी "क़ियामत और ज़िंदगी तो मैं हूँ जो मुझ पर ईमान लाता है गो वह मर जाये तो भी ज़िंदा रहेगा और जो कोई ज़िंदा है और मुझ पर ईमान लाता है वो अबद तक कभी नहीं मरेगा ।"

यही पौलुस की मुनादी की जान थी। वो मसीह और उसके ज़िंदा होने की मुनादी करता था। और किसी और ख़ुशख़बरी से वाक़िफ़ ना था। "अब ए भाईओ मैं तुम्हें वही ख़ुशख़बरी जताए देता हूँ जो पहले दे चुका हूँ जिसे तुमने क़बूल भी कर लिया था। और जिस पर क़ायम भी हो। इसी के वसीले से तुमको नजात भी मिलती है। बशर्ते के वो ख़ुशख़बरी जो मैंने तुम्हें दी थी याद रखते हो। वर्ना तुम्हारा ईमान लाना बेफ़ाइदा हुआ। चुनांचे मैंने सबसे पहले तुमको वही बात पहुंचा दी जो मुझे पहुंची थी कि मसीह किताब-ए-मुक़द्दस के बमूजब हमारे गुनाहों के लिए मुआ और दफ़न हुआ और तीसरे दिन किताब-ए-मुक़द्दस के बमूजब जी उठा...........और अगर मसीह नहीं जी उठा तो हमारी मुनादी भी बेफ़ाइदा और तुम्हारा ईमान भी बेफ़ाइदा। बल्कि हम ख़ुदा के झूटे गवाह ठहरे । क्योंकि हमने ख़ुदा की बाबत ये गवाही दी कि उसने मसीह को जिला दिया। हालाँकि नहीं जिलाया। अगर बिलफ़र्ज़ मुर्दे नहीं जी उठते" (1 कुरन्थियो 15:1-4, व 14,15)

मसीह मौत पर ग़ालिब आया। वो क़ब्र के ख़ौफ़ को दूर करता है। उसने इंजील में ज़िंदगी और बक़ा का दर्स हमें दिया। अगर फ़क़त इसी ज़िंदगी ही में मसीह हमारी उम्मीद है तो हमारा पैग़ाम और हम ख़ुद भी निहायत बदनसीब हैं। लेकिन नहीं हम तो मौत और गुनाह पर ग़ालिब आने वाले और जलाल के अबदी बादशाह के सफ़ीर और एलची हैं। हमारी इंजील फ़क़त इसी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ नहीं बल्कि इसका ताल्लुक़ अबदीयत से है और इसी लिए इसकी क़द्रो क़ीमत भी बे-अंदाज़ा है हमारी तमाम मसीही तालीम गा हैं। हमारा कुल नज़म व मनक़। हमारी मसीही तदाबीर और तजावीज़ सब के सब हुसूल अंजाम के ज़राए हैं ये दरहक़ीक़त मदारिज व मनाज़िल हैं जो हमें उस घर तक पहुंचाते हैं जो हाथों से नहीं बनाया गया बल्कि जो आस्मान पर ग़ैर-फ़ानी मुक़ाम और जाये दवाम है।

मआशरी ख़िदमत भी अपना ज़ोरावर दर्जा रखती है क्योंकि मसीह शिकस्ता-दिलों को शिफ़ा देने और क़ैदीयों को रिहाई बख़्शने आया। गोहम इंजील के अख़्लाक़ी उसूलों और उन के ज़बरदस्त मुतालिबात को हरगिज़ नज़रअंदाज नहीं कर सकते लेकिन मुर्दों में से जी उठने की ख़ुशख़बरी से बढ़कर और कोई पैग़ाम दिलकश और दिलफ़रेब नहीं हो सकता।

बूलशोकों के ख़्याल के मुताबिक़ इंजील मुफ़लिसों और बेकसों के लिए कोई ख्व़ाब-आवर शै नहीं जो दौलतमंद और मुतमव्विल अश्ख़ास उन्हें जबरन पिला देते हैं। बल्कि इंजील उस हक़ीक़त का ऐलान करती है जो चीज़ें हम देखते हैं वो फ़ानी हैं। और उन-देखी अश्या ग़ैर-फ़ानी हैं। अब इस इन्साफ़ से ख़ाली दुनिया में शायद हमें मसीह के दुखों की शराकत में शरीक होना पड़े। लेकिन उस पर ईमान लाने के सबब हम मुर्दों में से जी उठने की नौबत तक पहुंच जाते हैं। "वो अपनी उस क़ुव्वत की तासीर के मुवाफ़िक़ जिससे सब चीज़ें अपने ताबे कर सकता है। हमारी पस्त हाली के बदन की शक्ल बदल कर अपने जलाल के बदन की सूरत पर बनाएगा" (फिलिप्पियों 2: 21)

वो ग़ैर-फ़ानी खूबियां जो उनमें छिपी होती हैं जो मसीह की मौत और उसकी क़ियामत पर ईमान लाते हैं रसूलों, कलीसिया के मुक़द्दसों और शहीदों की ख़ुशी और उनकी रूह की फ़र्हत का बाईस थीं। इसलिए कि वो दुनिया को हक़ीर व नाचीज़ जानते थे। उन्होंने दुनिया को मसीह के लिए जीत लिया और हर एक मुल्क में एक रुहानी बादशाहत की बिना डाली क्योंकि वो आस्मानी हुकूमत का हक़-ए-रईयत रखते थे। उन्होंने हर एक शहर में कलीसिया की बुनियाद रखी क्योंकि वो ख़ुद परदेसी और मुसाफ़िर थे और उस पायदार शहर की तलाश में थे। "जिसका मेअमार और बनाने वाला ख़ुदा है।"

मसीही इलाहिय्यात में अगर किसी सदाक़त पर इन दिनों निस्बतन ज़्यादा ज़ोर देने की ज़रूरत है तो वो क़यामत-ए-मसीह का अक़ीदा है। अगर हम ज़िंदा मसीह और अबदी ज़िंदगी के इस पैग़ाम को ग़ैर मसीही दुनिया में पहुंचा दें तो हम समझेंगे कि हमने फ़िल-हक़ीक़त अपनी इलाहिय्यात की रूह को पा लिया है और अब सही माअनों में राह तरक़्क़ी पर गामज़न हैं।

डाक्टर डीसमन (Dr. Dessiman) फ़रमाते हैं कि क़रीबन गुज़शता तीस साल से येसु की मौत और उनकी क़ियामत की बशारत मुख़्तलिफ़ मसीही अक़्वाम की इलाहिय्यात में एक दिलचस्प मबहस बनी रही और मैं उसे मज़हबी तहक़ीक़ात में एक निहायत मुफ़ीद और अहम क़दम तसव्वुर करता हूँ। आज-कल हमें मौत और क़ियामत की तालीम पर अज़हद ज़ोर देना चाहिए । और इसका ऐलान करना कलीसिया का फ़र्ज़ अव्वलीन होना चाहिए। हम पर फ़र्ज़ है कि हम अपनी तवज्जाह को इस हक़ीक़त पर मर्कूज़ करें कि ख़ुदा की बादशाहत क़रीब है और कि ख़ुदा अदालत व नजात के ज़रीये अपनी कामिल हुकूमत के साथ आने वाला है और हमें अपने आपको रुहानी तौर से उस की आमद के लिए तैयार करना चाहिए क्योंकि "ख़ुदावंद आ रहा है।"

दरअसल यही हमारा मिशनरी पैग़ाम है यानी एक ऐसे शख़्स की ज़िंदा जावेद बशारत देना जो इस दुनिया में आया, सलीब दिया गया, मुर्दों में से जी उठा, आस्मान पर चढ़ गया और वहां से फिर आने वाला है। बैत-लहम, कलवरी ख़ाली क़ब्र बल्कि उन बादलों से भी जिन्होंने उसे छिपा लिया। ग़ैर फ़ानीयत और बक़ा का नूर दरख़शां है।

हम इस अज़ीमुश्शान बैज़वी शक्ल के रकबा को जो दुनिया के लिए हमारे पैग़ाम व ईमान पर मुहीत है। जिस क़दर चाहें वसीअ तसव्वुर कर सकते हैं । लेकिन मसीह की मौत और क़ियामत और इन्सान के अज़ली व अबदी अंजाम से इसका ताल्लुक़ हमेशा यही इसके दो मर्कज़ी नुक़्ते रहेंगे और यही क़ियामत की ख़ुशख़बरी है।

1

उस ने ये कुछ किया हमारे लिए
क्या उसे सज्दा भी करेंगे ना हम
वो है तैयार करने को ये कुछ
पस्त हिम्मत का दम् भरेंगे ना हम
आओ उस के हुज़ूर सज्दा में
करें हासिल सरवर सज्दा में
अपनी तकलीफों का गिरां तरबार
उस के क़दमों पे क्या धरेंगे ना हम

2

और इन आँखों से हमारी काश
शुक्र का उस के नूर रोशन हो
ख़ुश हूँ ताइब हूँ और बह इत्मीनान
तकिया उस पर दिली हमा-तन हो
और हम अपनी ज़िंदगानी भर
बल्कि बाद उसके जब ये हो आख़िर
हम्द के गीत गाने में हर वक़्त
ना थकावट हो और ना उलझन हो

3

ज़िंदगी मौत रंज व ग़म में भी
गुना की हालत अलम में भी
हाँ मेरे वास्ते वो काफ़ी है
है हमेशा हर एक दम में भी
यही अव़्वल है क्योंकि आख़िर है
यही आख़िर और अव्वलीं तर है
अव्वल हसत है मसीह भी
है यही आख़िर अदम में भी