The Holy Spirit
In Qur’an & Bible
Rev. C. J. Mylrea & Sheikh Iskandar Abdul Mashi
By Kind Permission of the C.L.S
Approved by C.L.M.C
Examines the 20 references to the Spirit in Quran and shows how ideas, though borrowed, are misused and misunderstand; a final section leads from the” unknown” to the Holy Spirit of Christian faith and experience.
रूह-उल-क़ुद्दुस
अज़रूए क़ुरआन व बाइबल
मुसन्निफ़
अल्लामा पादरी सी॰ जे॰ मिलर व शेख़ सिकंदर अब्दुल मसीह साहिबान
क्रिस्चन लिट्रेचर सोसाइटी की इजाज़त से
पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी, अनारकली, लाहौर
1924 ई॰
रूहुल-क़ुद्दुस अज़रूए क़ुरआन व बाइबल
दीबाचा
وَيَسْأَلُونَكَ عَنِ الرُّوحِ قُلِ الرُّوحُ مِنْ أَمْرِ رَبِّي وَمَا أُوتِيتُم مِّن الْعِلْمِ إِلاَّ قَلِيلاً
“तुझसे रूह की हक़ीक़त दर्याफ़्त करते हैं तू उन से कह दे, कि रूह मेरे परवरदिगार का एक हुक्म है और तुम लोगों को सिर्फ थोड़ा ही सा इल्म दिया गया है।”
(सूरह बनी-इस्राईल आयत 85)
जिन्हों ने क़ुरआन पढ़ा है उन को याद होगा कि ये सारे इन्सानों के लिए नूर हिदायत होने का मुद्दई (दावेदार) है। और नीज़ इस अम्र का कि जो इल्म आदमीयों के लिए ज़रूरी है वो सब इस में पाया जाता है। चुनान्चे एक आयत में ये लिखा है कि “हमने अपनी किताबों में किसी बात की कसर नहीं रखी।” इसलिए ईमानदार बादियुन्नज़र (इब्तिदाई नज़र में) में ये मानने लग जाता है कि इन्सानी रूह की तश्फ़ी के लिए जो कुछ दरकार है वो सब क़ुरआन में मुंदर्ज है। तो भी मुस्लिम मुफ़स्सिरीन ने हज़रत मुहम्मद के ज़माने से लेकर आज तक इस दावे को परखने की जुर्आत नहीं की और ना इस अम्र की तहक़ीक़ की कोशिश की, या तो शायद इस ख़ौफ़ से कि कहीं ये दावा बे-बुनियाद ना निकले या मह्ज़ ना-आक़ेबत अंदेशी से चूँकि इस मज़्मून के मुताल्लिक़ वो इस्लामी क़ियासात के दायरे से कभी बाहर क़दम नहीं मारते इसलिए पूरी सदाक़त की दर्याफ़्त में वो कभी तरक़्क़ी नहीं करते।
अब इस अम्र से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि क़ुरआन में बाअज़ ऐसे मज़ामीन पाए जाते हैं जिनका बहुत सरसरी ज़िक्र है और जो समझ में नहीं आते।
इनमें से अक्सरों की वजह ग़ालिबन ये होगी कि वो मज़ामीन दीगर चश्मों से लापरवाई के साथ ले लिए गए और इस बात का कुछ लिहाज़ ना किया गया कि असली मुसन्निफ़ का हक़ीक़ी मंशा किया था और ना उस के मक़्सद को ठीक तौर से समझा। लायक़ से लायक़ मुफ़स्सिरीन को इन मुतशाबेह आयात की तफ़्सीर करने में लाएख़ल मुश्किलात पेश आईं क्योंकि वो ख़ुद उन दीगर अक़ाइद की इस्तिलाहात से नावाक़िफ़ थे जिनसे उन की तश्रीह हो सकती थी। उन्हों ने इस्लामी ज़राए से बाहर उन के मअनी दर्याफ़्त करने की कोशिश ना की। ये भी मुम्किन है कि हज़रत मुहम्मद ने इरादतन इन मज़ामीन को इसलिए दाख़िल किया हो कि इन बातों से उन पर गहरा असर किया था। लेकिन उन के हक़ीक़ी मअनी ख़ुद उन को मालूम ना थे और मुफ़स्सिरीन ने भी नादानिस्ता इस असली मुश्किल को ज़्यादा बढ़ा दिया।
इस की एक मिसाल क़ुरआन में रूह का मसअला है। ये लफ़्ज़ तो लाकलाम उन यहूदीयों या मसीहीयों से लिया होगा जो अहदे-अतीक़ और अहदे-जदीद के ज़रीये से इस लफ़्ज़ से आश्ना थे। लेकिन इस का मतलब समझे बग़ैर लफ़्ज़ ले लिया गया। बाइबल में तो इस मज़्मून का बहुत ज़िक्र पाया जाता है क्योंकि वहां ये एक अहम मसअला है। लेकिन क़ुरआन ने इन से बहुत पीछे (बाद में) तैयार हुआ इस मसअले को बहुत मुश्किल और मुबहम (यानी छिपे हुए) बना दिया। शायद इन अल्फ़ाज़ को पढ़ कर मुसलमान साहिबान ताज्जुब करें लेकिन जब हम इस मज़्मून की पूरी तश्रीह कर देंगे तो इस का मतलब उन की समझ में आ जाएगा और वो अपनी राय बदल डालेंगे। इसलिए हमारी उन से ये दरख़्वास्त है कि जो सबूत इस किताब में दिए गए हैं उन पर तवज्जोह किए बग़ैर इस को फेंक ना देंगे
इसलिए जो आयात रूह के बारे में आई हैं हम उन को नक़्ल करेंगे और मुसलमान मुफ़स्सिरीन ने जो उन की तफ़्सीरें की हैं वो भी मुन्दरज करेंगे जिससे ज़ाहिर हो जाएगा कि हज़रत मुहम्मद और मुफ़स्सिरीन-ए-क़ुरआन इस की ठीक तश्रीह ना कर सकते थे। इस अम्र से ये साफ़ ज़ाहिर है कि उन के ख़यालात व तसव्वुरात में कुछ परेशानी थी। चूँकि ख़ुदा ने हमको बाइबल में रूह का साफ़ तसव्वुर दिया है इसलिए हमारा ये हक़ है कि हम अपने मुसलमान भाईयों से इसी तरह मुख़ातब हों जैसे मुक़द्दस पौलुस अहले-अथेने से मुख़ातब हुआ था। “ऐ अथेने वालो, मैं देखता हूँ कि तुम हर बात में देवताओं के बड़े मानने वाले हो। चुनान्चे मैंने सैर करते और तुम्हारे माबूदों पर ग़ौर करते वक़्त एक ऐसी क़ुर्बान गाह भी पाई जिस पर लिखा था कि नामालूम ख़ुदा के लिए। पस जिसको तुम बग़ैर मालूम किए पूजते हो, मैं तुमको उसी की ख़बर देता हूँ।” (आमाल 17:23) इसी तरह हम ये कहेंगे कि “ऐ मुसलमान साहिबान रूह का मसअला जिसे तुम ना मालूम समझते हो ऐन वही मसअला है जिसे हम आपको मालूम कराया चाहते हैं।”
क़ुरआन की तक़रीबन बीस (20) आयतों में ये लफ़्ज़ रूह आया है और इनमें से हर आयत की तफ़्सीर में मुफ़स्सिरीन को हैरत का मुँह देखना पड़ा जैसा कि हम आगे चल कर बयान करेंगे। इस मज़्मून के मुताल्लिक़ इन सारी आयतों में उन्हों ने कई एक मुख़्तलिफ़ तशरीहें पेश की हैं। इसी एक अम्र से ज़ाहिर है कि असली माअनों के बारे में वो किस क़द्र शुब्हा (शक) में थे।
हम ये कहने के तो हरगिज़ मजाज़ नहीं कि हज़रत मुहम्मद को ये हक़ हासिल ना था कि रूह को मुख़्तलिफ़ माअनों में इस्तिमाल करते। या ये कि क़ुरआन में ऐसा पाया नहीं जाता। मसीही मुक़द्दस नविश्तों में लफ़्ज़ रूह हमेशा ना तो इन्सानी रूह के लिए आया है और ना रूहुल-क़ुद्दुस के मअनी हैं। लेकिन सियाक़ इबारत से बख़ूबी वाज़ेह हो जाता है कि वहां उस से क्या मुराद है।”
मगर क़ुरआन की तफ़्सीरों में इस अम्र की कोशिश नहीं की गई कि इस के मअनी साफ़ कर दिए जाएं और फिर बताया जाये कि इस क़रीने (तर्तीब) मैं कौन से मअनी ठीक चस्पाँ होंगे। ख़ासकर लफ़्ज़ रूहुल-क़ुद्दुस के इस्तिमाल के बारे में ये क़ाबिल-ए-ग़ौर है। ये तो बिल्कुल अयाँ है कि ये लफ़्ज़ नए अहदनामे से लिया गया तो भी इस का कुछ पता नहीं लगता कि “मख़्लूक़ रूह” से ये कोई मुतफ़र्रिक़ वजूद था। और ना इस अम्र का कि असली इबारत में ये लफ़्ज़ ख़ुद ख़ुदा के लिए मुस्तअमल था।
इस की एक उम्दा मिसाल (सूरह बक़रा आयत 81) जिसका ये तर्जुमा है, “और मर्यम के बेटे ईसा को हमने खुले खुले मोअजिज़े अता फ़रमाए और रूह-उल-क़ुद्दुस से उन की ताईद की” तफ़्सीर बैज़ावी में इस लफ़्ज़ रूहुल-क़ुद्दुस के चार मुख़्तलिफ़ मअनी दिए हैं :-
“(1) फ़रिश्ता जिब्राईल (2) जनाब मसीह की रूह (3) जनाब मसीह की इन्जील (4) वो इस्म-ए-आज़म जिसके वसीले जनाब मसीह मुर्दों को जिलाया करते थे।”
नाज़रीन बाआसानी मालूम कर लेंगे कि बैज़ावी साहब को ख़ुद मालूम ना था कि इस के ठीक मअनी क्या हैं और इस की ये वजह थी कि उन्होंने इस्लामी चश्मों के बाहर किसी दूसरे चश्मे से मदद ना ली। इस का नतीजा ये हुआ कि मुसलमानों को हमेशा के लिए ये हैरानगी हासिल हुई कि इस आयत के ठीक मअनी क्या होंगे। आया हज़रत मुहम्मद को इस लफ़्ज़ रूहुल-क़ुद्दुस के ठीक मअनी मालूम थे या नहीं। अलबत्ता उन में ऐसा ईमान पाया जाता है कि उन को मालूम ना थे।
इस आयत की जो तफ़्सीर अल-तिबरी ने की वो और भी हैर-अफ़्ज़ा है। (देखो जिल्द तीस सफ़ा 13)
ऐसा मालूम होता है कि इस्लाम के बानी रूह की अहमियत के बारे में बतद्रीज ज़्यादा ज़्यादा आगाह होते गए। लेकिन उन्हों ने ये मालूम किया कि इस में कोई बैरून अज़ क़ियास सर था। इसलिए जब लोगों ने इस की निस्बत सवाल किया तो उन्हों ने ये जवाब दिया कि ये “मेरे परवरदिगार का एक हुक्म है।” (सूरह बनी-इस्राईल 85) हम अब इसी सर को कश्फ करना चाहते हैं।
बैज़ावी ने (सूरह अल-हिज्र आयत 29 और सूरह अल-सज्दा आयत 8) की तफ़्सीर करते वक़्त ये ज़ाहिर कर दिया कि ख़ुदा ए क़ादिर मुतलक़ की निस्बत जो ताअलीम इस्लाम में पाई जाती है उस को इस ताअलीम से तत्बीक़ (मुताबिक़त) दुनिया मुहाल है कि ख़ुदा का कोई रिश्ता उस की मख़्लूक़ के साथ हो। (नीज़ देखो राज़ी जिल्द पंजुम सफ़ा 447) इस की वजह ये है कि बैज़ावी और राज़ी इस मज़्मून के मुताल्लिक़ माद्दी और रुहानी पहलूओं के दर्मियान इम्तियाज़ ना कर सके और ऐसे इम्तियाज़ के बग़ैर इन दो बातों को तत्बीक़ देना मुहाल था कि ख़ुदा आदम को ज़मीन की मिट्टी से पैदा करे और अपनी रूह उस में फूंके। ये भी क़ाबिले लिहाज़ है कि मुसलमान मुफ़स्सिरीन इन इस्लामी तंग आराए (राय) के हलक़े से जिस क़द्र बाहर निकल कर क़दम मारते हैं उसी क़द्र ज़्यादा वो सदाक़त के क़रीब आ जाते हैं।
मगर ये तो अजीब बात है कि बानि-ए-इस्लाम को खुद यह तहक़ीक़ मालूम ना था कि सय्यदना ईसा ख़ुद रूह था या उसे रूह के ज़रीये से क़ुव्वत दी गई थी। और इस से भी बढ़कर ये ताज्जुब है कि क़ुरआन के मुफ़स्सिरीन को ये पता ना लगाया कि आया खुद यह रूह माद्दी था या रुहानी।
इस के इलावा ये निहायत क़ाबिल-ए-ग़ौर व अयां अम्र है कि क़ुरआन में सय्यदना ईसा का गहरा ताल्लुक़ इस रूह के साथ पाया जाता है। इस अम्र वाहिद ही से मसीह का दर्जा बाक़ी सारे अम्बिया से आला ठहरता है और मसीह की ज़ात के बारे में जो मसीही तसव्वुर है उस के बहुत क़रीब जा पहुंचते हैं।
सूरतों की शाने नुज़ूल का ताल्लुक़ इस मज़्मून से
हम ये अम्र मुसल्लमा समझते हैं कि क़ुरआन की सूरतों की तर्तीब उन के नुज़ूल के मुताबिक़ मुक़र्रर हो चुकी है। इस तर्तीब के ज़रीये हमको हज़रत मुहम्मद के तसव्वुरात व ख़यालात के नश्वो नुमा पर ग़ौर करने में मदद मिलती है और ख़ास मज़्मून ज़ेर-ए-बहस के मुताअले में वो रूह का ज़िक्र जिन सूरतों में हुआ है उन की तर्तीब नुज़ूल को हम मुफ़स्सला ज़ैल हिस्सों में तक़्सीम कर सकते हैं :-
(1) वो आयात जिनमें लफ़्ज़ रूह को उमूमन फ़रिश्तों से मन्सूब किया और ख़ास कर जिब्राईल से।
(2) जिन आयात में रूह को ख़ल्क़त से और ख़ास कर इन्सान से मन्सूब किया है।
(3) जिन आयात में रूह को उमूमन इल्हाम या वही से मन्सूब किया।
(4) जिन आयात में रूह को उमूमन सय्यदना मसीह से मन्सूब किया
सूरह | तर्तीब (राडवेल साहब) |
सूरह अलक़द्र (4) | 21 |
सूरह अल-नबा (38) | 37 |
सूरह अल-मआरिज (4) | 47 |
सूरह अल-शुअरा (193) | 56 |
सूरह अल-नहल (105) | 73 |
2 सूरह अल-हिज्र (29) | 57 |
सूरह अल-सज्दा (8) | 70 |
सूरह अल-साद (72) | 59 |
3 सूरह अल-नहल (2) | 73 |
सूरह बनी-इस्राईल (87) | 67 |
सूरह अल-मोमिन (15) | 78 |
सूरह अल-शूरा (52) | 83 |
सूरह अल-मुजादला (22) | 106 |
4 सूरह अल-बक़र (81, 254) | 91 |
सूरह अल-निसा (168) | 100 |
सूरह अल-मायदा (109) | 114 |
सूरह अल-अम्बिया (91) | 65 |
सूरह अल-तहरीम (12) | 109 |
ये बहुत मुफ़ीद है कि हम इन आयात को ऐसी तर्तीब से जमा कर सकते हैं और जिन हिस्सों में हमने उन को तक़्सीम किया है वो अक्सर उलमा की राय के मुताबिक़ सूरतों की तर्तीब नुज़ूल है। इन दोनों उमूर वाक़ई से साफ़ तौर पर ज़ाहिर होगा कि हस्बे वक़्त हज़रत मुहम्मद के दिल में इस मज़्मून ने कैसे नश्वो नुमा हासिल किया।
उन्हों ने इस मज़्मून को ज़्यादा अह्मिय्यत दी लेकिन वज़ाहत के साथ नहीं। इसलिए वो अपने ताबईन (ताबेदारों) से अगर ज़्यादा से ज़्यादा कुछ कह सकते थे तो ये कह सकते थे :-
“वो तुझसे रूह की हक़ीक़त दर्याफ़्त करते हैं तू कह दे कि रूह मेरे परवरदिगार का एक हुक्म है। और तुम लोगों को बस थोड़ा ही सा इल्म दिया गया है।” (सूरह बनी-इस्राईल 85)
हमारा मंशा ये है कि इन चार हिस्सों को हम सिलसिले-वार लें और उस हिस्से की जिन आयात में रूह का ज़िक्र हो उन को नक़्ल करें और मुफ़स्सिरों ने जो तफ़्सीरें उन मुक़ामात की की हैं इन को पेश करें। हर हिस्से के आख़िर में हम अपनी तश्रीह भी दर्ज करेंगे। और पांचवें फ़स्ल में हम मुसलमान अहबाब की ख़ातिर इस मज़्मून के मुताल्लिक़ तौरेत और इन्जील की ताअलीम का बयान करेंगे
फ़स्ल अव़्वल
रूह और जिब्राईल
تَنَزَّلُ الْمَلَائِكَةُ وَالرُّوحُ فِيهَا بِإِذْنِ رَبِّهِم مِّن كُلِّ أَمْرٍ
(तर्जुमा) “इस रात हर एक इंतिज़ाम के लिए फ़रिश्ते और रूह अपने परवरदिगार के हुक्म से उतरते हैं।” (सूरह अल-क़द्र 4)
इस आयत की तफ़्सीर बैज़ावी ने यूं की है :-
“इस आयत में इस अम्र की तश्रीह है कि शबे क़द्र को एक हज़ार महीनों पर क्यों फ़ौक़ (तर्जीह) दिया। और क्यों फ़रिश्ते और रूह सबसे निचले आस्मान पर या ज़मीन पर उतरे ताकि वो ईमानदारों के ज़्यादा क़रीब हो जाएं।”
जलालैन ने इस रूह को जिब्राईल फ़रिश्ता समझा। और इस तफ़्सीर में ज़महशरी का भी उस से इत्तिफ़ाक़ है क्योंकि उसने लिखा है कि :-
“इस आयत में रूह से जिब्राईल या फ़रिश्तों का गिरोह मुराद है जो आम फ़रिश्तों को सिवाए शब-ए-क़द्र के कभी दिखाई नहीं देते।”
अल-तिबरी ने ये बयान किया कि :-
“मुफ़स्सिरीन को इस आयत के ठीक मअनी मालूम नहीं। अक्सरों की ये राय है कि शब-ए-क़द्र को जो रूह फ़रिश्तों के साथ उतरता है वो जिब्राईल है।”
(देखो बैज़ावी, जलालैन जिल्द दोम सफ़ा 378, कश्शाफ़ जिल्द दोम सफ़ा 555, तिबरी 30, 144)
ये वाज़ेह हो गया कि मुताख्खिरीन (बाद में आने वाले) मुफ़स्सिर इस आयत में रूह से जिब्राईल फ़रिश्ता मुराद लेते हैं ग़ालिबन इस वजह से कि ये तश्रीह सबसे आसान है और इन की मुश्किल को हल कर देती है।
(ب) يَوْمَ يَقُومُ الرُّوحُ وَالْمَلَائِكَةُ صَفًّا لَّا يَتَكَلَّمُونَ إِلَّا مَنْ أَذِنَ لَهُ الرحْمَنُ وَقَالَ صَوَابًا۔
तर्जुमा : “जब रूह (الروح) और फ़रिश्ते सफ़ बस्ता खड़े होंगे किसी के मुँह से बात तो निकलने ही की नहीं मगर जिस को रहमान इजाज़त दे और वो बात भी माक़ूल कहे।”
(सूरह अल-नबा 38)
इस की तफ़्सीर में बैज़ावी यूं रक़म तराज़ है :-
“अल-रूह (الروح) वो फ़रिश्ता है जिसके सुपुर्द ख़ुदा ने रूहों का इंतिज़ाम किया है। इस से मुराद जिब्राईल भी हो सकता है या फ़रिश्तों से कोई बुज़ुर्ग तर वजूद।”
जलालैन ने ये बयान किया कि :-
“इस लफ़्ज़ (الروح) से यहां या तो जिब्राईल मुराद है या आस्मानी लश्कर।”
ज़महशरी की तफ़्सीर इस मुक़ाम में तक़रीबन बैज़ावी से मुशाबेह है। चुनान्चे उस ने ये लिखा कि :-
“अल-रूह (الروح) फ़रिश्तों से कोई बुज़ुर्ग तर और मुअज़्ज़िज़ तर वजूद है जो उन सबसे ज़्यादा का मुक़र्रब है। या कोई ऐसा बुज़ुर्ग फ़रिश्ता है जिससे बढ़कर ख़ुदा ने सिवाए अपने अर्श के और किसी को ख़ल्क़ नहीं किया। या इस से कोई ऐसा फ़रिश्ता मुराद नहीं जो ख़ुराक खाता हो। या इस से ख़ुद जिब्राईल मुराद है।”
नीशा पूरी का ये बयान है :-
“अल-रूह (الروح) दर्जे में सबसे आला मख़्लूक़ है और लफ़्ज़ सफ़न (صفاً) मजमूई तौर पर यहां इस्तिमाल हुआ और इसलिए इस से ऐसा दर्जा मुराद हो सकता है जिसमें अल-रूह और फ़रिश्ते सब के सब शामिल हों।”
अल-तिबरी ने इस आयत में लफ़्ज़ अल-रूह के मुख़्तलिफ़ मअनी दिए हैं। वो लिखते हैं :-
“बाअज़ ये मानते हैं कि अल-रूह (الروح) से इस आयत में कोई ऐसा वजूद मुराद है जो दर्जे में फ़रिश्तों से बहुत आला व अफ़्ज़ल था।”
मसऊद से रिवायत है कि अल-रूह (الروح) चौथे आस्मान में एक फ़रिश्ता है जो आस्मानी सारे लश्करों से बुज़ुर्ग-तर है। और आस्मान के सारे पहाड़ों और फ़रिश्तों से आला है। वो हर रोज़ बारह हज़ार दफ़ाअ ख़ुदा की तस्बीह करता है और उस के हर कलिमा तस्बीह में से ख़ुदा ऐसे फ़रिश्तों को पैदा करता है जो बढ़ते बढ़ते फ़रिश्तों की सफ़ बन जाता है। (इस मुश्किल को हल करने की यही एक फ़ल्सफ़ाना कोशिश है)
इब्ने अब्बास से रिवायत है, “ख़ल्क़त में अल-रूह (الروح) सारे फ़रिश्तों से आला और अफ़्ज़ल है।” और बाअज़ ये कहते हैं “वो जिब्राईल है।” और अल-ज़हाक का बयान है “अल-रूह (الروح) जिब्राईल है।” अल-शअबी ने भी इसी क़िस्म की रिवायत की है। बाअज़ ये कहते हैं, “ख़ुदा की ख़ल्क़त का ये मख़्लूक़ इन्सानी सूरत में है।” मुजाहिद ने ये भी बयान किया कि “रूहें इन्सानी सूरत की मख़्लूक़ हैं। वो खाती और पीती हैं। उन के हाथ पांव और सर भी हैं। वो ख़ुराक खाती हैं इसलिए वो फ़रिश्ते नहीं” इब्ने ख़ल्दून ने ये कहा, “रूहें इन्सानों से मुशाबेह हैं। लेकिन वो इन्सान नहीं” बाज़ों की ये राय है। “रूहें आदमी हैं।” सईद इब्ने क़तादा ने लिखा है, “जिस दिन रूहें खड़ी होंगी, यानी बनी इन्सान” और इमाम हसन बर्दार इमाम हुसैन से रिवायत है और सईद इब्ने क़तादा ने इस का ज़िक्र किया है कि इब्ने अब्बास ने ये रिवायत छुपा ली रिवायत है कि इब्ने अब्बास ने भी ये कहा, “जिस दिन रूहें खड़ी होंगी” यानी जिस रोज़ आदमीयों की रूहें फ़रिश्तों के साथ उस अर्से में खड़ी होंगी जो रूहों के बदनों के साथ खड़े होने से पेश्तर दो सूरों के फूंके जाने के माबैन (बीच) होगा।” बाज़ों की ये राय है कि “अल-रूह क़ुरआन है।”
फिर उसने अपनी तश्रीह पेश की और यह कहा ! “अल-रूह (الروح) ख़ुदा की मख़्लूक़ात में से एक है और मज़्कूर बाला बयानात में से कोई एक मुराद ली जा सकती है।” (देखो बैज़ावी जिल्द दोम सफ़ा 357, कश्शाफ़ जिल्द दोम सफ़ा 520, नीशापूरी सोमम जिल्द सफ़ा 2, तिबरी के हाशिये को और तिबरी जिल्द सोम सफ़ा 13, 14 को)
(ج۔) تَعۡرُجُ الۡمَلٰٓئِکَۃُ وَ الرُّوۡحُ اِلَیۡہِ
“फ़रिश्ते और रूह (الروح) उस की तरफ़ चढ़ते हैं।”
(सूरह अल-मआरिज आयत 4)
बैज़ावी ने इस आयत की ये तफ़्सीर की :-
“रूह से यहां जिब्राईल मुराद है। इस का ज़िक्र अलैहदा इसलिए हुआ क्योंकि वो दीगर फ़रिश्तों पर फ़ौक़ (ऊँचा दर्जा) रखता था।”
मुम्किन है कि इस लफ़्ज़ से ऐसा मख़्लूक़ मुराद हो जो फ़रिश्तों से आला व अशरफ़ हो।
जलालैन ने भी अल-रूह (الروح) से यहां जिब्राईल ही मुराद ली और अल-कश्शाफ़ ने भी इस की ताईद करते हुए ये ईज़ाद (इज़ाफ़ा) किया :-
“जिब्राईल का ज़िक्र अलग इसलिए किया गया क्योंकि वो अपनी अज़मत में ख़ास तौर से मुम्ताज़ था। बाअज़ कहते हैं कि यहां अल-रूह (الروح) से फ़रिश्तों का मुवक्किल मुराद है। जैसे फ़रिश्ते आदमीयों के मुवक्किल हैं वैसे अल-रूह (الروح) फ़रिश्तों का मुवक्किल है।”
अल-तिबरी ने साफ़ तौर से ये कह दिया कि इस आयत में अल-रूह (الروح) से जिब्राईल मुराद है। नीशापूरी ने ये रक़म किया कि, “अल-रूह (الروح) से आला दर्जे का फ़रिश्ता मुराद है। ख़ुदा के नूर की शआअ पहले उस को पहुँचती है फिर वहां से वो अदना दर्जे के फ़रिश्तों में तक़्सीम होती है इन्सान “रूहों की सीढ़ी” के नीचे के ज़ीने (चड़ाव) पर हैं। इस सीढ़ी की चोटी और ज़ीरीन ज़ीनों के माबैन दीगर ज़ीने या फ़रिश्तों की रूहों और आस्मानी लश्करों के मुख़्तलिफ़ दर्जे हैं जो सिर्फ ख़ुदा ही को मालूम हैं।” (देखो बैज़ावी, जलालैन जिल्द दोम सफ़ा 336, कश्शाफ़ जिल्द दोम सफ़ा 438, नीशा पूरी, तबरी के हाशिए में जिल्द 29, सफ़ा 42 और तिबरी जिल्द 29, सफ़ा 39)
(द) (د) “कुछ शक नहीं कि ये परवरदिगार आलम का उतारा हुआ है इस को रूह-उल-अमीन ने सलीस अरबी ज़बान में तुम्हारे दिल पर इलक़ा किया।”
(सूरह अल-शुअरा आयत 192-193)
इस आयत की तफ़्सीर बैज़ावी ने ये की :-
“रूह-उल-अमीन जिब्राईल फ़रिश्ता है क्योंकि वही (पैग़ाम) देने के लिए यही अमीन फ़रिश्ता है।”
जलालैन ने सिर्फ इतना लिखा है :-
“रूह-उल-अमीन जिब्राईल है।”
कश्शाफ़ में इस लफ़्ज़ के हक़ीक़ी मअनी पर कोई तफ़्सीर नहीं। (देखो बैज़ावी, जलालैन जिल्द दोम सफ़ा 112, कश्शाफ़ जिल्द दोम सफ़ा 134)
(ह) (ہ) “हक़ तो ये है कि इस को तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से रूहुल-क़ुद्दुस ले कर आए हैं।”
बैज़ावी ने इस आयत की निस्बत ये लिखा कि :-
“रूहुल-क़ुद्दुस जिब्राईल है। और वो क़ुद्दुस यानी पाक कहलाया।”
जलालैन और कश्शाफ़ दोनों में ये जिब्राईल बयान हुआ।
बैज़ावी और जलालैन का फ़िर इस अम्र में इत्तिफ़ाक़ है कि लफ़्ज़ रूह से जिब्राईल मुराद है। कश्शाफ़ ने रूहुल-क़ुद्दुस की सरफी तर्कीब का ज़िक्र किया। (बैज़ावी जिल्द अव्वल सफ़ा 3, जलालैन और कश्शाफ़ जिल्द अव्वल सफ़ा 537)
इस आयत में पहली दफ़ाअ ये नाम रूहुल-क़ुद्दुस आया है जो बाइबल मुक़द्दस का ख़ास मुहावरा है। मुफ़स्सिरों ने इस नाम में कोई ख़ुसूसीयत नहीं देखी। बैज़ावी ने सिर्फ इतना कहा कि लफ़्ज़ क़ुद्दुस के बढ़ाने से उसकी पाकीज़गी को ज़ाहिर किया। इस नाम के ठीक मअनी ये हैं। “क़ुद्दुसियत का रूह” जिसकी निस्बत कश्शाफ़ ने बयान किया कि इस ज़ोर के बाइस ये नाम रूहुल-क़ुद्दुस हो गया।
फ़स्ल अव़्वल पर चंद ख़याल
मज़्कूर बाला तफ़ासीर से ये नतीजा निकला कि ये मुताख्खिरीन (बाद के) मुफ़स्सिर बैज़ावी जलालैन और कश्शाफ़ का इत्तिफ़ाक़ राय इस पर है कि अल-रूह (الروح) से जिब्राईल मुराद है। ग़ालिबन इस वजह से उन्हों ने ये मअनी पसंद किए क्योंकि इस से वो बहुत तक्लीफ़ और बह्स से बच जाते हैं। मगर तिबरी ने इस से कुछ ज़्यादा तफ़्सीर की। और उस ने एक मअनी के बजाय कई एक मअनी बताए हैं और उस ने अपने दस्तूर के मुवाफ़िक़ हर माअनी की ताईद में किसी ना किसी हदीस को पेश किया है और हज़रत मुहम्मद के सहाबा और उन के बेटों के अक़्वाल से इक़तिबासात दिए हैं। इस अम्र का ये क़तई सबूत है कि हज़रत मुहम्मद और उन के अस्हाब को लफ़्ज़ “अल-रूह” (الروح) के ठीक मअनी मालूम ना थे। और यह सदाक़त के ख़िलाफ़ ना होगा। अगर हम ये कहें कि उन के ग़ौरो-फ़िक्र की ग़ायत सिर्फ़ यहां तक ही पहुंची कि अल-रूह (الروح) एक अलग हस्ती थी जो दर्जे में सारे फ़रिश्तों से अशरफ़ व आला थी। और ऐसी मख़्लूक़ थी जो ख़ुदा के मकाशफ़े को आदमीयों तक पहुंचा दे। मज़्कूर बाला आयात में अल-रूह (الروح) का जो ज़िक्र आया उस की निस्बत मुफ़स्सिरों को ये कहना ज़्यादा आसान मालूम हुआ कि इस से जिब्राईल मुराद लें या कोई दूसरा फ़रिश्ता। लेकिन ख़्वाह वो कुछ ही कहें ये अम्र तो छुप नहीं सकता कि उन की तश्रीहें ना सिर्फ नाक़िस हैं बल्कि बहैसीयत मजमूई बातिल हैं। उन की ये मुश्किल और भी बढ़ जाती और यह मसअला और भी पेचीदा हो जाता है। इसलिए हम मुसलमान साहिबान से ये दरख़्वास्त करते हैं और ये जायज़ दरख़्वास्त है कि वो हमें इस लफ़्ज़ अल-रूह (الروح) की ठीक तश्रीह बताएं कि किन मुख़्तलिफ़ माअनों में ये लफ़्ज़ क़ुरआन में मुस्तअमल (इस्तिमाल) हुआ है। और जब तक इस अम्र में वो हमारी तश्फ़ी (तसल्ली) ना करें तब तक हम यही मानेंगे कि ना तो हज़रत मुहम्मद को अल-रूह (الروح) के मअनी मालूम थे ना उन के पैरौओं (मानने वालों) को।”
फ़स्ल दोम
रूह और इन्सान
(۱۔) فَاِذَا سَوَّیۡتُہٗ وَ نَفَخۡتُ فِیۡہِ مِنۡ رُّوۡحِیۡ فَقَعُوۡا لَہٗ سٰجِدِیۡنَ
“जब मैं इस को पूरा बना चुकूं और उस में अपनी रूह फूंक दूं।”
(सूरह अल-हिज्र 29)
इस आयत की तफ़्सीर बैज़ावी में यूं आई है :-
“मैंने अपनी रूह उस में फूंक दी हत्ता कि वो उस के बदन के आज़ा में सरायत कर गई और वो ज़िंदा हो गया। चूँकि रूह का हिस्र (अहाता) अपनी हस्ती के लिए हुई बुख़ार पर है जो दिल से निकलता है और ज़िंदा ताक़त हासिल करने के बाद आसाब में सरायत कर जाता है ख़ुदा ने इस का ताल्लुक़ बदन के साथ सांस के वसीले से क़ायम कर दिया।”
जलालैन में ये तफ़्सीर पाई जाती है :-
“उस में अपनी रूह फूंक दूं” के ये मअनी हैं कि “मैं ऐसा करूँगा कि मेरी रूह आदमी के बदन में सरायत कर जाये ताकि वो ज़िंदा मख़्लूक़ हो जाए। रूह के साथ उस का ताल्लुक़ आदम के लिए इज़्ज़त का बाइस था।”
कश्शाफ़ में इस से मुख़्तलिफ़ तश्रीह मिलती है। चुनान्चे वहां लिखा है :-
“फ़िल-हक़ीक़त कोई सांस फूंकना ना था और ना कोई शैय किसी में फूंकी गई ये सारा जुम्ला एक तरह का इस्तिआरा है जिसमें बयान किया गया कि इन्सान में ज़िंदगी किस तरह पैदा हुई।”
(बैज़ावी, जलालैन जिल्द अव्वल सफ़ा 376, और कश्शाफ़ जिल्द अव्वल सफ़ा 515)
(۲۔) ثُمَّ سَوّٰىہُ وَ نَفَخَ فِیۡہِ مِنۡ رُّوۡحِہٖ وَ جَعَلَ لَکُمُ
“और उस में अपनी रूह फूंकी।” (सूरह अल-सज्दा 9)
बैज़ावी कहता है :-
“उस ने उस को अपने साथ रिश्ता दिया और बतौर इज़्ज़त व इम्तियाज़ के। ऐसा करने से ख़ुदा ने ये ज़ाहिर कर दिया कि इन्सान एक अजीब मख़्लूक़ था और किसी ना किसी तरह ख़ुदा तआला के साथ उस का रिश्ता था। जो अपने तईं जानता है वो अपने ख़ुदावंद को जानता है।”
जलालैन ने ये तहरीर किया :-
“इस आयत से ये ज़ाहिर है कि इन्सान मह्ज़ एक बेनिज़ाम माद्दा था। लेकिन ख़ुदा ने उसे ज़िंदगी अता की और उसे ज़ी फ़हम और ज़ी अक़्ल बना दिया।”
कश्शाफ़ ने ये बयान किया :-
“रूह का इलाही ज़ात के साथ रिश्ता होने के ज़रीये इस आयत से ये साबित होता है कि इन्सान एक अजीब मख़्लूक़ है जिसके वजूद को ख़ुदा के सिवाए कोई इदराक नहीं कर सकता। क्योंकि ये लिखा है कि वो तुझसे रूह के बारे में सवाल करेंगे तू कह दे कि रूह मेरे ख़ुदावंद की बात है।”
(बैज़ावी जलालैन जिल्द दोम, सफ़ा 157, कश्शाफ़ जिल्द दोम सफ़ा 419)
(۳۔) فَاِذَا سَوَّیۡتُہٗ وَ نَفَخۡتُ فِیۡہِ مِنۡ رُّوۡحِیۡ
“जब मैं उस को पूरा कर लूं और अपनी रूह उस में फूंक दूं।” (सूरह साद 72)
इस आयत पर बैज़ावी ने ये लिखा :-
“इस से मुराद ये है कि मैं उस में रूह फूंक कर उस में ज़िंदगी डाल दूँगा...वग़ैरह। इस जुम्ले “अपनी रूह” से आदमी का मुअज़्ज़िज़ दर्जा और पाकीज़गी ज़ाहिर की गई।”
जलालैन में ये तफ़्सीर आई है :-
“इस आयत के ये मअनी हैं कि जब मैं अपनी रूह को भेजूँगा कि उस में सरायत कर जाये ताकि वो ज़िंदा हो जाए। ये अम्र कि ये रूह ख़ुदा का रूह है, आदम के लिए इज़्ज़त व फ़ख़्र है। रूह तो एक लतीफ़ माद्दा है जिसके ज़रीये से आदमी ज़िंदा रहता है।”
कश्शाफ़ ने ये रक़म किया कि इन अल्फ़ाज़ से कि :-
“मैंने अपनी रूह उस में फूंक दी।” ये मुराद है कि “आदमी में उस ने ज़िंदगी डाली और उसे साहिब-ए-एहसास मुतनफ़्फ़िस मख़्लूक़ बना दिया।”
(बैज़ावी जलालैन जिल्द दोम सफ़ा 211, कश्शाफ़ जिल्द दोम सफ़ा 289)
फ़स्ल दोम पर चंद ख़यालात
ये जुम्ला आयात ख़ासकर क़ाबिल लिहाज़ हैं और इन से लफ़्ज़ अल-रूह (الروح) के दूसरे मअनी में इस्तिमाल का पता लगता है। इन जुमलों के ऐन अल्फ़ाज़ से ही बिला-शक ये साबित होता है कि वो बाइबल से लिए गए हैं, क्योंकि सब जानते हैं कि क़ुरआन से सदीयों पेशतर व मुरव्वज थे। लेकिन जैसे पहली क़िस्म की आयात में रूहुल-क़ुद्दुस को बिला-समझे इस्तिमाल किया वैसे ही इन आयात में लफ़्ज़ रूह के मअनी समझे बग़ैर उस को इस्तिमाल किया और इन्सान की ख़ल्क़त के साथ रूह का जो ताल्लुक़ था उस की जो तश्रीहें इन तफ़ासीर में पाई जाती हैं उन से ये साफ़ ज़ाहिर है कि ख़ुदा के साथ इन्सान के रुहानी रिश्ते के मुताल्लिक़ गहरी सदाक़त थी उसे भी उन्हों ने नहीं समझा। बाइबल में ये लिखा है कि, “ख़ुदावंद ख़ुदा ने ज़मीन की ख़ाक से आदम को बनाया और उस के नथनों में ज़िंदगी का दम फूँका सो आदम जीती जान हुआ।” (पैदाइश 2:7) और फिर (यूहन्ना 3:6) में आया है, “जो जिस्म से पैदा हुआ है जिस्म है और जो रूह से पैदा हुआ है रूह है।” माद्दी और रुहानी दोनों का साफ़ ख़याल हज़रत मुहम्मद के दिल में पाया नहीं जाता। नफ़्स और रूह के दर्मियान जो इम्तियाज़ (फ़र्क़) है उस का या तो ख़याल ही नहीं गुज़रा और या उस को नज़र-अंदाज कर दिया। जिससे इन्सान की मुरक्कब ज़ात का इदराक नामुम्किन हो गया।
इन आयात की तश्रीह करते वक़्त मुफ़स्सिरों ने जिब्राईल की तरफ़ कोई इशारा नहीं किया। लाकलाम यहां रूह से ना जिब्राईल मुराद हो सकती थी ना कोई दूसरा फ़रिश्ता। फिर इस लफ़्ज़ से क्या मुराद होगी? और क्यों ख़ुदा ने उसे अपनी रूह कहा है? ये आख़िरी सवाल मुश्किल सवाल है क्यों ख़ुदा ने इस ख़ास तरीक़े से रूह को अपने से मन्सूब किया? इस के जो जवाब दिए गए वो निहायत कमज़ोर और ना तसल्ली बख़्श हैं। इन में तो सिर्फ तबई और माद्दी सांस ही का ज़िक्र है गोया ख़ुदा को ये ज़रूरत पड़ी कि इस मुआमले में इस खासतौर से इस को अपना कहे।
इन आयात की तश्रीह करते वक़्त मुफ़स्सिरों ने जिब्राईल की तरफ़ कोई इशारा नहीं किया। लाकलाम यहां रूह से ना जिब्राईल मुराद हो सकती थी ना कोई दूसरा फ़रिश्ता। फिर इस लफ़्ज़ से क्या मुराद होगी? और क्यों ख़ुदा ने उसे अपनी रूह कहा है? ये आख़िरी सवाल मुश्किल सवाल है क्यों ख़ुदा ने इस ख़ास तरीक़े से रूह को अपने से मन्सूब किया? इस के जो जवाब दिए गए वो निहायत कमज़ोर और ना तसल्ली बख़्श हैं। इन में तो सिर्फ तबई और माद्दी सांस ही का ज़िक्र है गोया ख़ुदा को ये ज़रूरत पड़ी कि इस मुआमले में इस खासतौर से इस को अपना कहे।
ये हैरत-अंगेज़ सवालात हैं। जैसे दुनिया में एक क़ुफ़ुल हैरत-अंगेज़ शैय है। जब ग़लत कुंजियों (चाबियों) से उस को खोलने की कोशिश की जाये। अगरचे कुंजियों (चाबियों) का बड़ा गुच्छा भी इस्तिमाल में लाएं। लेकिन दुरुस्त कुंजी (चाबी) से इस को खोलो तो वो आसानी से खुल जाएगा। “अब इस ज़ेर-ए-बहस सवाल में जो किलीद रूह के मसअले के मुताल्लिक़ मसीही पेश करते हैं, वो सही किलीद है।”
लेकिन हम खासतौर से नाज़रीन की तवज्जोह बैज़ावी के इन क़ाबिले लिहाज़ अल्फ़ाज़ की तरफ़ फेरना चाहते हैं कि ख़ुदा ने अपना रूह इन्सान में फूँकने से उस को अपने साथ रिश्ता दिया और इस तरह से ज़ाहिर कर दिया कि वो ख़ल्क़त का सह ताज था और ख़ुदा तआला से ख़ास रिश्ता रखता था। पस जो कोई अपने आपको जान लेता है वो अपने रब को जान लेता है। शायद ये लफ़्ज़ किसी सूफ़ी ने लिखे हों। फिर भी सुन्नी मुफ़स्सिरों के ख़यालात के लिहाज़ से वो कुछ क़दम आगे बढ़े हुए हैं और मसीहिय्यत की तरफ़ दूर तक ले जाते हैं। क्योंकि मसीहिय्यत की ये ताअलीम है कि ख़ुदा ने इन्सान को अपनी सूरत पर ख़ल्क़ किया और यही वो रिश्ता था जिसकी तरफ़ बैज़ावी ने इशारा किया था और कि ख़ुदा इन्सान के दिल में सुकूनत कर सकता था। और कि इन्सान का ख़ुदा के साथ एक ऐसा गहरा रिश्ता था कि ख़ुदा के अज़ली कलाम ने जो फ़ील-ज़ात ख़ुदा है आदमी में बसने और जिस्म इन्सानी को क़ुबूल करने से नफ़रत ना की। पस जब बैज़ावी ने मज़्कूर बाला तफ़्सीर की तो उसी ने ऐसे अल्फ़ाज़ इस्तिमाल किए जो उस के इल्म की रसाई से भी परे थे।
फ़स्ल सोम
रूह और इल्हाम
(۱۔) یُنَزِّلُ الۡمَلٰٓئِکَۃَ بِالرُّوۡحِ مِنۡ اَمۡرِہٖ عَلٰی مَنۡ یَّشَآءُ مِنۡ عِبَادِہٖۤ اَنۡ اَنۡذِرُوۡۤا اَنَّہٗ لَاۤ اِلٰہَ اِلَّاۤ اَنَا فَاتَّقُوۡنِ
“वही अपने हुक्म से फ़रिश्तों को बिल-रूह (रूह के साथ वही देकर) अपने बंदों में से जिस तरफ़ चाहता है भेजता है।” अलीख (सूरह अल-नहल आयत 2)
इस पर बैज़ावी ने ये लिखा :-
“रूह से ये यहां मुराद मुकाशफ़ा या क़ुरआन है जिसके वसीले से मुर्दा रूहें जहालत की हालत से बेदार की जाती हैं या दीन से उस को वही निस्बत है जो रूह को बदन से है।”
(बैज़ावी जिल्द अव्वल सफ़ा 381, कश्शाफ़ जिल्द अव्वल सफ़ा 521)
जलालैन में ये आया है :-
“जो फ़रिश्तों को भेजता है वो जिब्राईल है और रूह इल्हाम या मुकाशफ़ा है।”
अल-कश्शाफ़ में यूं मुन्दरज हैं :-
“यहां रूह वो है जो मुकाशफ़े के ज़रीये मुर्दा दिलों को जिलाती है और दीन के साथ उस का वही ताल्लुक़ है जो रूह का बदन के साथ है।”
(۲۔) وَ یَسۡـَٔلُوۡنَکَ عَنِ الرُّوۡحِ ؕ قُلِ الرُّوۡحُ مِنۡ اَمۡرِ رَبِّیۡ وَ مَاۤ اُوۡتِیۡتُمۡ مِّنَ الۡعِلۡمِ اِلَّا قَلِیۡلًا
“वो तुझसे रूह के बारे में पूछते हैं तू कह दे कि रूह मेरे परवरदिगार का एक हुक्म है।” (सूरह बनी-इस्राईल 85)
बैज़ावी ने इस की ये तफ़्सीर की :-
“वो तुझसे रूह के बारे में पूछेंगे जिसके वसीले आदमी जीते और अपने मक़ासिद पूरे करते हैं, तू कह कि रूह मेरे परवरदिगार का एक हुक्म है यानी ये कि वो उस इब्तिदाई ज़ात से मख़्लूक़ हुई जो इस हुक्म कून (کنُ) के ज़रीये से हस्त (वजूद) हो गई थी। ये ज़ात माद्दा के ग़ैर थी। और ना इस का कोई माद्दा चश्मा था जैसे कि बदन के आज़ा का होता है। पस सवाल ये रहा कि आया ये अज़ली है या मख़्लूक़ (ना कि इस की हक़ीक़त क्या है) क्योंकि बाज़ों की ये राय है कि ये उन उमूर में से है जिनका इल्म ख़ुदा ने सिर्फ अपने लिए ही महफ़ूज़ रखा है। यहूदीयों ने अहले-क़ुरैश को ये पट्टी पढ़ाई कि वो हज़रत मुहम्मद से तीन सवाल पूछें। एक अस्हाबे कह्फ़ के बारे में। एक सिकंदर-ए-आज़म ज़ुलक़ुरनैन के मुताल्लिक़ और एक रूह के बारे में। अगर उन्हों ने इन सवालों का जवाब दे दिया या उन में से किसी का भी जवाब ना दिया तो वो मह्ज़ नबी ना ठहरेगा। (क्योंकि वो तो इस अम्र का मुद्दई हो गया कि उसे उन सब उमूरात का इल्म हासिल है जो ख़ुदा ही से मख़्सूस है) अगर उस ने पहले दो सवालों का जवाब दे दिया और तीसरे के बारे में ख़ामोश रहा तब वो नबी ठहरेगा। इसलिए इनसे दो क़िस्से बयान कर दिए और रूह के बारे में कोई वाज़ेह जवाब ना दिया। और यह तौरेत में भी वाज़ेह तौर से बयान नहीं हुआ। बाज़ों की राय है कि यहां रूह से मुराद जिब्राईल है या फ़रिश्तों से कोई अशरफ़ मख़्लूक़। बाअज़ ये कहते हैं कि इस से क़ुरआन मुराद है और इस जुम्ले “मेरे परवरदिगार का एक हुक्म” से इल्हाम मुराद है।”
जलालैन में ये बयान है :-
“वो यानी यहूदी तुझसे रूह के बारे में पूछेंगे जिसके ज़रीये से कि बदन ज़िंदा रहता है। तो तूने उन को ये जवाब देना “रूह वो शैय है जो मेरे परवरदिगार से सादिर होती है। यानी उस के इर्फ़ान से और यह तुम को हासिल नहीं और तुम को तो सिर्फ थोड़ा ही इल्म दिया गया है बमुक़ाबला ख़ुदा तआला के इल्म के।”
अल-कश्शाफ़ में ये लिखा है :-
“ज़न (गुमान) ग़ालिब ये है कि रूह से वो शैय मुराद है जो हैवानात में पाई जाती है। जिसकी हक़ीक़त के बारे में उन्हों ने उस से सवाल किया और उस ने उन्हें ये जवाब दिया कि ये मुआमला ख़ुदा से इलाक़ा रखता है। इस का इल्म सिर्फ़ ख़ुदा ही को हासिल है और इब्ने अबू बुरीदा से रिवायत है कि “हज़रत नबी ने वफ़ात पाई और उन को ये इल्म हासिल ना हुआ कि रूह क्या है।” बाअज़ आलिम ये भी कहते हैं कि रूह एक मुक़तदिर रुहानी मख़्लूक़ है जो फ़रिश्तों से अशरफ़ है। बाअज़ उस से जिब्राईल मुराद लेते हैं और बाअज़ क़ुरआन के इस जुम्ले “मेरे परवरदिगार का एक हुक्म” से उस का (ख़ुदा का) मुकाशफ़ा मुराद लेते है और इस की ज़बान आदमीयों की ज़बान नहीं।”
यहूदीयों ने क़ुरैश को ये तर्ग़ीब दी कि तीन सवालों के ज़रीये वो हज़रत मुहम्मद का इम्तिहान लें। अस्हाबे कह्फ़, सिकंदर आज़म और रूह के बारे में। अगर हज़रत मुहम्मद ने तीनों सवालों का जवाब दे दिया या उनका जवाब देने से इन्कार कर दिया वो नबी ना ठहरेंगे लेकिन अगर उन्हों ने पहले दो सवालों का जवाब दे दिया और तीसरे के बारे में वो ख़ामोश रहे तो वो फ़िल-हक़ीक़त नबी ठहरेंगे। इसलिए हज़रत मुहम्मद ने सिर्फ पहले दो सवालों का जवाब दे दिया और तीसरे को मौहूम (फ़र्ज़ी, क़यासी) सा ही रहने दिया जैसा कि बाइबल में था। इस से क़ुरैश को अफ़्सोस हुआ कि उन्होंने ये सवाल क्यों पूछे।
अब हम इस आयत पर राज़ी की तफ़्सीर से इक़्तिबास करेंगे।
इस आयत में चंद उमूर क़ाबिले गौर हैं अव़्वल, मुफ़स्सिरों ने इस आयत में लफ़्ज़ रूह की कई तश्रीहें की हैं। उन में से सबसे सही ये है कि, “जिसके ज़रीये से ज़िंदगी बहाल रहती है।” कहते हैं कि यहूदीयों ने अहले क़ुरैश को तर्ग़ीब दी कि तीन सवालों के ज़रीये हज़रत मुहम्मद का इम्तिहान करें। अगर वह इनमें से दो का जवाब दें और तीसरे के बारे में ख़ामोश रहें तो, तो वो फ़िल-हक़ीक़त नबी होंगे वो तीन सवाल यही थे। अस्हाबे कह्फ़, सिकंदर आज़म और रूह की बाबत पस जब अहले क़ुरैश ने हज़रत मुहम्मद से ये सवाल पूछे तो उन्हों ने ये कहा कि, “मैं कल जवाब दूँगा लेकिन उन्हों ने “इंशाअल्लाह” ना कहा था। इसलिए चालीस दिन तक उन पर कोई वही नाज़िल ना हुई। और इस के बाद जब वही आई तो उन्हों ने अस्हाबे कह्फ़ और सिकंदर आज़म का क़िस्सा बयान किया लेकिन रूह का मज़्मून मुबहम (यानी छिपे हुए) सा छोड़ा। इस वक़्त ये आयत नाज़िल हुई, “वो तुझसे रूह की हक़ीक़त के बारे में पूछेंगे” वग़ैरह यूं उन्हों ने ज़ाहिर किया कि इन्सानी अक़्ल कैसी महदूद थी और इस की इदराक की रसाई से परे था कि रूह क्या है। ख़ुदा ने ये ख़ूब कहा कि हमको सिर्फ़ थोड़ा ही इल्म दिया गया है।”
उलमा जरह ने इस आयत पर कई एक जरह की हैं :-
अव़्वल : ये कि अल-रूह (الروح) इज़्ज़त व अज़मत में ख़ुदा से बुज़ुर्ग तर नहीं। ख़्वाह उस की अज़मत कैसी ही बड़ी क्यों ना हो। इसी वजह से ख़ुदा का इल्म ना सिर्फ मुम्किन हो गया बल्कि तहसील के क़ाबिल। फिर अल-रूह का इल्म हासिल करने में कौन सी शैय मानेअ (रुकावट) हुई?
दोम : यहूदीयों का ये नतीजा निकालना कि अगर वह अस्हाबे कह्फ़ या सिकंदर आज़म के बारे में जवाब देंगे तो वो नबी होंगे? मन्तिक़ी नतीजा नहीं क्योंकि ये क़िस्से तो मह्ज़ तारीख़ी वाक़ियात हैं और ऐसे वाक़ियात का इल्म किसी नबियाना क़ुव्वत का सबूत नहीं। फिर बरअक्स इस के जो क़िस्सा उन्होंने बयान किया अगर उस का वक़ूअ हज़रत मुहम्मद के नबी तस्लीम किए जाने से पेश्तर हुआ था तो साइल उसे झूटा समझते। (यानी ऐसे क़िस्सों का इल्म नबियाना ताक़त के सबूत के लिए पेश करने से) और अगर इनके नबी तस्लीम किए जाने के बाद उन का वक़ूअ हुआ तो तहसील माहसल के लिहाज़ से ऐसे क़िस्से का बयान करना फ़ुज़ूल था। बरअक्स इस के अल-रूह (الروح) के बारे में उनका जवाब ना देना दावा-ए-नुबूव्वत के सबूत के तौर पर पेश नहीं हो सकता।
सोम : रूह का मसअला अदना से अदना फिलासफर और छोटे से छोटे आलिमाँ इलाहियात को मालूम है इसलिए अगर हज़रत मुहम्मद कहते हैं कि मैं इसे नहीं जानता तो लोग हिक़ारत और नफ़रत की निगाह से उन को देखने लग जाते। क्योंकि इस क़िस्म के मसअले की निस्बत लाइल्मी ख़्वाह किसी शख़्स को हो लोगों की नज़र हिक़ारत से बचा नहीं सकती। कुजा एक नबी को जो फ़ाज़िलों का फ़ाज़िल और आला से आला समझा जाता हो।
चहारुम : ख़ुदा ने अपनी किताब में फ़रमाया कि, “रहमत के ख़ुदा ने तुझे क़ुरआन सिखाया” (सूरह रहमान 1) “तुझको ऐसी बातें सिखा दी हैं जो तुझ को मालूम ना थीं। और तुझ पर अल्लाह का बड़ा फ़ज़्ल है।” (सूरह अल-निसा 113) “ऐ मेरे रब मेरा इल्म बढ़ा।” (सूरह ताहा आयत 113) “ज़मीन के अंधेरों में जो दाना हो और तर व खुश्क किताब वाज़ेह में हैं।” (सूरह अनआम 59) और हज़रत मुहम्मदिय यह दुआ किया करते थे। फिर यह कैसे ठीक होता कि जिस शख़्स की ऐसी हालत हो और जिस की ये सिफ़ात हों वो ये कहे कि, “मुझे इस का इल्म नहीं।” जब कि ये सवालात सभों को मालूम थे?
बादअज़ां राज़ी ने इन दलाईल की तर्दीद की। वो लिखता है :-
“हम ये तस्लीम कर लेते हैं कि रूह के बारे में लोगों ने हज़रत मुहम्मद से सवाल किया हो। लेकिन ये कहेंगे कि उन्हों ने इन सवालों का जो बेहतर से बेहतर जवाब हो सकता था वही दिया। रूह की निस्बत इस सवाल को मुख़्तलिफ़ पहलूओं से सोच सकते हैं।”
अव़्वल : क्या रूह मकान घेरती है? क्या ये मकान में महदूद हैं? क्या मकान घेरे बग़ैर ये वजूद रख सकती है या मकान में ग़ैर-महदूद है?
दोम : क्या ये अज़ली है या मख़्लूक़?
सोम : क्या मौत के बाद रूहें ज़िंदा रहती हैं या नेस्त हो जाती हैं?
चहारुम : रूहों के सवाब व अज़ाब की हक़ीक़ी हालत क्या है? अल-ग़र्ज़ रूह के बारे में जो सवाल पैदा होते हैं वो बकस्रत हैं। लेकिन इस जुम्ले में कि “वो रूह के बारे में तुझसे पूछेंगे।” कुछ पाया नहीं जाता कि उन्हों ने सारे सवाल पूछे। क्योंकि ख़ुदा ने जो जवाब दिया, “तू कह दे कि रूह तेरे रब का अम्र (हुक्म) है।” वो मज़्कूर बाला सवालात में से सिर्फ दो पर आइद हो सकता है यानी रूह की हक़ीक़ी ज़ात और उस की अज़ली या मख़्लूक़ ज़ात पर।
इन उमूर में से पहले की निस्बत उन्हों ने कहा, “रूह की हक़ीक़ी ज़ात क्या है? क्या इन्सानी बदन के अन्दर यह कोई माद्दी शैय है जो अनासिर की तर्कीब से बनी हो या बज़ात-ए-ख़ुद मख़लूत मुरक्कब शैय है या ये कोई दीगर मंज़र है जो इस मुरक्कब से इलाक़ा रखता है। या ये मंज़र इन सूरतों और हवादिस से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ है।” इनका जवाब ख़ुदा ने ये दिया है कि रूह इन बदनों और हवादिस से एक मुख़्तलिफ़ मख़्लूक़ है क्योंकि ये बदन और हवादिस तो बाअज़ अनासिर की तर्कीब व इख़तिलात (मेल-जोल) का नतीजा हैं, लेकिन रूह का ये हाल नहीं। वो तो शैय मुफ़रद और मुतलक़ ज़ात है जो मह्ज़ ख़ालिक़ के इस हुक्म कुन फयकुन (کنُ فیکن) से वजूद में आ गई। उस दूसरे सवाल का जवाब कि रूह दीगर माद्दी अज्राम और मुनाज़िर से मुख़्तलिफ़ है ख़ुदा ने ये दिया कि ख़ुदा के हुक्म से एक ख़ास मख़्लूक़ के तौर पर इस की हस्ती है और कि इस की ख़ल्क़त और तासीर इन माद्दी अज्राम के फ़ायदे के लिए है ताकि उन को ज़िंदगी दे। और यह अम्र कि आदमीयों को इस की हक़ीक़ी और ख़ास सीरत का इल्म ना था इस के इन्कार की दलील नहीं हो सकता क्योंकि दुनिया में अक्सर अश्या की हक़ीक़त हम को मालूम नहीं मसलन हमको ये इल्म है कि सकंजबीन (سکنجبین) की तासीर ये है कि सुफ़रा (पित, इग़लात अर्बा में से एक ज़र्द रंग का कड़वा माद्दा) को दूर करे लेकिन इस की इस सिफ़त व ख़ास तासीर की हक़ीक़त हमको मालूम नहीं। इस से साफ़ वाज़ेह है कि बहुत ऐसी अश्या हैं जिनकी अस्लियत और हक़ीक़ी सीरत का इल्म हम को हासिल नहीं लेकिन इस बिना पर उन के वजूद का इन्कार हम नहीं कर सकते। यही हाल रूह का है और इस आयत के यही मअनी हैं “लेकिन इस का थोड़ा इल्म तुम्हें दिया गया है।”
दोम : लफ़्ज़ अम्र हुक्म के मअनी में भी आता है। मसलन फ़िरऔन का अम्र कुछ राह की बात तो था नहीं (सूरह हूद 99) और “जब हमारा हुक्म (अम्र) पहुंचा।” (सूरह हूद 61) अगर ये दुरुस्त हो तो इस जवाब से “तू कह दे कि रूह मेरे ख़ुदा का हुक्म है।” ये ज़ाहिर होगा कि उन लोगों का सवाल रूह की अज़ली या मख़्लूक़ ज़ात के बारे में था। और जवाब ये कि था कि रूह मख़्लूक़ है और ख़ुदा का हुक्म और क़ुव्वत ख़ालिक़ा से ख़ल्क़ हुई। फिर उस आयत का पिछला हिस्सा कि “थोड़ा ही इल्म दिया गया है।” इस बात का सबूत है कि रूह मख़्लूक़ है क्योंकि अर्वाह (रूहें) अपनी हस्ती के पहले तबक़ों में इल्म से मुअर्रा होती हैं लेकिन बतद्रीज उन को इल्म हासिल होता जाता है। और तब्क़ा ब तब्क़ा वो नाक़िस हालत से कामिल हालत की तरफ़ तरक़्क़ी करती जाती हैं। ये तब्दीली मख़्लूक़ होने का निशान है और यूं इस आयत ने ज़ाहिर कर दिया कि उनका सवाल रूह की ख़ल्क़त के मुताल्लिक़ था और ख़ुदा ने जवाब दिया कि वो मख़्लूक़ है और ख़ुदा की क़ुव्वत ख़ालिक़ा के ज़रीये हस्त (वजूद) हो गई। जवाब के अल्फ़ाज़ के हक़ीक़ी मअनी यही हैं। और रूह की ज़ात के मख़्लूक़ होने का मज़ीद सबूत रूह के बतदरीह नश्वो नुमा में पाया जाता है। और इस आयत के दूसरे हिस्से के यही मअनी हैं। और सिर्फ ख़ुदा ही को हक़ीक़त का इल्म है।
आयत ज़ेर-ए-बहस के लिए राज़ी ने दूसरे मुफ़स्सिरों से भी इक़्तिबास किया जिनके ज़िक्र करने की कुछ ज़रूरत नहीं।
(۳۔) رَفِیۡعُ الدَّرَجٰتِ ذُو الۡعَرۡشِ ۚ یُلۡقِی الرُّوۡحَ مِنۡ اَمۡرِہٖ عَلٰی مَنۡ یَّشَآءُ مِنۡ عِبَادِہٖ لِیُنۡذِرَ یَوۡمَ التَّلَاقِ
“और अर्श का मालिक अपने बंदों में से जिस पर चाहता है अपने इख़्तियार (अम्र) से रूह भेजता है।” (सूरह अल-मोमिन 15)
बैज़ावी ने इस पर ये लिखा :-
“रुहानी वजूदों पर अपना असर ज़ाहिर करने के लिए ख़ुदा के हुक्म से इजाज़त मिलती है और तौहीद के मसअले का इक़रार करने के बाद ये इल्हाम और नबुव्वत के लिए तैयारी है। रूह इल्हाम है और “अपने इख़्तियार” उस की तश्रीह है क्योंकि या तो ये रास्तबाज़ी के लिए हुक्म है या उस हुक्म का चश्मा है जो ऐलान करने वाले फ़रिश्ते के ज़रीये दिया जाता है।”
जलालैन में ये शरह है :-
“रूह इल्हाम है।”
कश्शाफ़ में ये है :-
“ख़ुदा के हुक्म के वसीले रूह ज़िंदगी का चश्मा है। इस इल्हाम से उस की मुराद ये है कि वो रास्तबाज़ी के लिए हुक्म और तहरीक है। रूह का ज़िक्र इस आयत में तश्बीही तौर पर आया है। जैसा कि (सूरह अनआम 122) में “क्या मुर्दे जिन को हम ने जिलाया वग़ैरह? (यानी अपनी रूह के वसीले से)”
तिबरी का तफ़्सीर का ख़ुलासा उस के इस जुम्ले में पाया जाता है। इस आयत में रूह से मुराद ख़ुदा का इल्हाम है जो उस के हुक्म से सादिर होता है। रिवायत है कि क़तादा ने ये कहा, कि रूह से इस आयत में मुराद मुकाशफ़ा है। ज़ह्हाक कहता है कि ये “अल-किताब” है इब्ने वहाब से इब्ने ज़ैद ने ये रिवायत की कि :-
“रूह क़ुरआन है जिसे ख़ुदा ने जिब्राईल पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) किया और जिब्राईल उसे हज़रत मुहम्मद के पास लेकर आए। क्योंकि ये लिखा है “यूं हमने तुझे अपने हुक्म से रूह के ज़रीये वही भेजी जो किताबें ख़ुदा ने अपने नबियों पर नाज़िल कीं वो रूह हैं जो उन को आगाही के लिए भेजी गईं।”
रिवायत है कि अल-सिदी ने ये कहा कि मज़्कूर बाला आयत में रूह से “नबुव्वत” मुराद है।
नीशापूरी ने ये लिखा इस आयत से ज़ाहिर है कि ख़ुदा अपने अहकाम की बजा-आवरी के लिए रूहों को काम में लाता है जैसे वो चाहता है उसे भेजता है। (1)
۴۔وَ کَذٰلِکَ اَوۡحَیۡنَاۤ اِلَیۡکَ رُوۡحًا مِّنۡ اَمۡرِنَا
“हमने अपने हुक्म से रूह का मुकाशफ़ा देकर तेरे पास भेजा।”
(सूरह शूरा आयत 52)
बैज़ावी ने ये शरह तहरीर की है कि “ख़ुदा ने इल्हाम को रूह इसलिए कहा क्योंकि उस के ज़रीये दिलों को ज़िंदगी मिलती है।” बाज़ों का ख़याल है कि इस मुक़ाम में रूह से “जिब्राईल” मुराद है। इस सूरत में इस आयत के ये मअनी होंगे “हमने इस को तेरी तरफ़ इल्हाम देकर भेजा है।” बहर-हाल रूह से ख़्वाह इल्हाम मुराद हो या किताब या ईमान ख़ुदा ने उसे नूर ठहराया जिसके वसीले से वो जिसको चाहता है हिदायत करता है।
(1) बैज़ावी जिल्द 2 सफा 223, मए जलालैन, कश्शाफ जिल्द दोम सफा 312, नीशापूरी तिबरी जिल्द 40 सफा 34 के हाशिये में तिबरी 24-30
जलालैन में ये लिखा है :-
“रूह से यहां क़ुरआन मुराद है जिसके वसीले दिलों को ज़िंदगी हासिल होती है।”
कश्शाफ़ में ये मर्क़ूम है :_
“रूह से यहां वो मुराद है जो मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हुआ क्योंकि दीन में इन्सान को ज़िंदगी इसी से मिलती है जैसे बदन को रूह के वसीले से।”
तिबरी में ये मुन्दरज है :-
“इस आयत के ये मअनी हैं, ऐ मुहम्मद हमने क़ुरआन के साथ वही दी जैसे हमने अपने सारी नबियों को रूह के वसीले। यानी अपने हुक्म से इल्हाम और रहमत के ज़रीये।”
इस आयत में रूह के मअनी की निस्बत मुफ़स्सिरों का इख़्तिलाफ़ राय है। क़तादा ने हसन से ये रिवायत इक़्तिबास की कि इस से रहमत मुराद है। हालाँकि अल-सिदी का क़ौल है कि इस से इल्हाम मुराद है। (2)
۵۔ اُولٰٓئِکَ کَتَبَ فِیۡ قُلُوۡبِہِمُ الۡاِیۡمَانَ وَ اَیَّدَہُمۡ بِرُوۡحٍ مِّنۡہُ
“यही हैं जिनके दिलों के अंदर ख़ुदा ने ईमान को नक़्श कर दिया है और अपने रूह से उन की मदद की है।” (सूरह अल-मुजादिल 22)
बैज़ावी ने ये शरह की :-
“इस आयत में रूह से दिलों का नूर” क़ुरआन या दुश्मनों पर फ़त्ह मुराद है। इस्म ज़मीर “अपने” से ईमान की तरफ़ इशारा है जो दिल की ज़िंदगी का बाइस है।” (यानी ईमान की रूह के साथ)
जलालैन में ये लिखा है :-
जलालैन में ये लिखा है :-
जलालैन में ये लिखा है :-
“रूह से यहां मुराद फ़ज़्ल है जिसके वसीले से दिलों को ज़िंदगी मिलती है। लफ़्ज़ “अपने” से ईमान की तरफ़ इशारा है क्योंकि ये दिल की ज़िंदगी है।”
तिबरी कहता है कि :-
“इस आयत के ये मअनी हैं कि ख़ुदा ने उन को अपनी तरफ़ से सरीह निशान के वसीले तक़वियत दी। नूर और हिदायत दोनों से।” (3)
फ़स्ल सोम पर चंद ख़यालात
(2) बैज़ावी जिल्द दोम सफा 234 मए जलालैन, कश्शाफ जिल्द दोम सफा 344, तिबरी जिल्द 25 सफा 25
(3) बैज़ावी जिल्द दोम सफा 310 मए जलालैन, कश्शाफ जिल्द दोम सफा 444, तिबरी जिल्द 27 सफा 18
इस हिस्से की जिन आयात में रूह के ख़ाली मअनी ही दिए गए हैं उन से फ़ौरन उस इल्म इलाहियत का सुराग़ मिलता है जो अज़ हर उलमा के नज़्दीक ऐसी क़द्रो-क़ीमत रखता था। रूह से मह्ज़ एक तासीर मुराद ली गई जो ठीक तौर से ख़ुदा के हम-मअनी नहीं।
अब मसीहीयों का अक़ीदा ये है कि अल-रूह (الروح) मह्ज़ ख़ुदा की तासीर नहीं बल्कि ख़ुद ख़ुदा है। इसलिए कुछ ताज्जुब नहीं कि इन्सान के साथ अल-रूह (الروح) का ताल्लुक़ ऐसा शरिया है जिसे किसी मुसलमान मुफ़स्सिर ने नहीं समझा। लेकिन मसीही ताअलीम के ज़रीये हम इस ताल्लुक़ को समझ सकते हैं। जहां तक कि इन्सानी अक़्ल ख़ल्क़त के साथ ख़ुदा के रिश्ते को समझने के क़ाबिल है। गो यह ताज्जुब की बात है कि अगरचे क़ुरआन ने अल-रूह (الروح) से जो आला रुत्बा मन्सूब किया कि इस को सारी मख़्लूक़ात से अशरफ़ और आला ठहराया। मुहम्मदी मुफ़स्सिरीन इस से इलाही रुत्बा मन्सूब करने से इन्कार करते हैं। और वह इस पर इसरार करते हैं कि गो रूह-उल-क़ुद्दुस फ़रिश्तों और इन्सानों से आला व अशरफ़ है तो भी ख़ुदा नहीं। पस इस से मालूम होता है कि इस्लाम की हस्ती बहुत कुछ इसी पर हिस्र रखती है कि वो बाअज़ मसीही तालीमों का इन्कार करे। और इस के मुफ़स्सिर मौहूम वग़ैर मौहूम तश्रीह पर अड़े रहते हैं कि रूह ना तो ख़ुदा है ना फ़रिश्ता और ना इन्सान बल्कि मह्ज़ एक रुहानी वजूद है। दीगर अल्फ़ाज़ में हम इसे ये मानने पर मज्बूर होते हैं कि क़दीम एथीनियों (अथेने के रहने वाले) के ख़ुदा की तरह ये एक “नामालूम ख़ुदा” है। राज़ी का ये बयान कि (सूरह बनी-इस्राईल 85 आयत) में रूह से मुराद वो शैय है जो आदमी में है ग़लत है। क़ुरैश ने हज़रत मुहम्मद से आम तौर पर अल-रूह के बारे में सवाल किया। इलावा अज़ीं राज़ी का ये इल्ज़ाम कि यहूदीयों ने साज़िश करके अहले-क़ुरैश को तहरीक की कि वो हज़रत मुहम्मद से उन को परेशान करने के लिए अल-रूह, अस्हाबे कह्फ़ और सिकंदर आज़म के मुताल्लिक़ सवाल पूछें बे-बुनियाद है। हम दूसरों की तरह ये कहते हैं कि वफ़ात तक हज़रत मुहम्मद को ये इल्म ना था कि रूह फ़िल-हक़ीक़त क्या थी।
दीगर मिसालों की तरह इस मिसाल में ये नज़र आता है कि तौहीद के मसअले में मुबालग़ा करने से इस्लाम की तौहीद की ताईद होने की बजाय एक ख़ुदा-ए-सानी के वजूद को मानना पड़ता है जो सारी सिफ़ात इलाही से मुत्तसिफ़ (तारीफ़ किया गया, जिसके साथ कोई सिफ़त लगी हो) हो और इन्सान और उस के ख़ालिक़ के दर्मियान दर्मियानी हो। दीगर अल्फ़ाज़ में वहदत मह्ज़ का ख़ुदा इस्लाम का अल्लाह नहीं हो सकता। एक ऐसा वजूद मान लिया गया जो ख़ुदा-ए-सानी के दर्जे तक पहुंचता है और यह तो शिर्क से कुछ कम नहीं। मुस्लिम इस से इन्कार नहीं कर सकता। जब तक कि वो क़ुरआन की बाअज़ आयात का इन्कार ना करे मसलन (सूरह मुजादिला आयत 22) “अपने रूह से उन की ताईद की।” इलाही सालूस की ताअलीम वहदत मह्ज़ के लिहाज़ से इस्लाम की तौहीद से बेहतर है क्योंकि इस के वसीले इन्सान और ख़ुदा के माबैन एक दर्मियानी मिल जाता है। और चूँकि ये दर्मियानी अज़ली है तो ज़रूर ये ख़ुद ख़ुदा होगा जिसकी ज़ात और हक़ीक़त में ये दर्मियानी शरीक है। पस सालूस का मसअला ये सिखाता है कि ख़ुदा वाहिद है बाप बेटे और रूहुल-क़ुद्दुस में। अहले इस्लाम इस से तीन अलग-अलग ख़ुदा ना समझें। वो एक ख़ुदा हैं ज़ात में और वजूद में।”
अक्सर अहले-इस्लाम मशरिक़ जिन्हों ने ज़िंदगी-भर क़ुरआन का मुतालआ किया ये कहते हैं कि लफ़्ज़ अम्र (बमाअनी हुक्म) आरामी लफ़्ज़ “ममरा” (ممرا) की सदा है जिससे “ख़ुदा का अबदी अज़ली कलिमा” मुराद है। हमको तहक़ीक़ मालूम है कि इस्लाम के बानी ने यहूदीयों से बाअज़ दीनी इस्तेलाहें लीं लेकिन उनका ठीक मतलब उन्हों ने नहीं समझा। मसलन उन्हों ने लफ़्ज़ “हक़दश” (حقدش) बमाअनी क़ुद्दूस लिया जिसे उन्हों ने वर्क़ा की ज़बान से सुना होगा। इसी तरह लफ़्ज़ “सकीना” (سکینہ) (सूरह बक़रा 249) “तालूत के बादशाह होने की ये निशानी है कि वो संदूक़ जिसमें तुम्हारे परवरदिगार की तसल्ली है (सकनता سکنتہ) ....और बची खुची चीज़ें हैं।”
एक मुफ़स्सिर ने सकीना (سکینہ) के मअनी दिल की तसल्ली किए देखो (काशिफ़-उल-क़ुरआन) यूं हज़रत मुहम्मद ने यहूदी शकिना के मअनी कुछ और ही के लिए। क्योंकि इस लफ़्ज़ के मअनी तो इलाही नूर हैं लेकिन अरबी लफ़्ज़ सकीना (سکینہ) के मअनी ख़ामोशी के हैं। (4)
अल-ग़र्ज़ अहले-मशरिक़ ने जो नताइज निकाले उनका मुतालआ करने से और जो अल्फ़ाज़ हज़रत मुहम्मद ने अरामी ज़बान से लिए उनका मुक़ाबला करने से ये ज़ाहिर हो जाता है कि बानी इस्लाम ने नादानिस्ता सालूस के मसअले को मान लिया क्योंकि उन्हों ने ये फ़रमाया कि, “ये रब का अम्र” (امر) है।” जिसके मअनी अरामी ज़बान में ख़ुदा का अज़ली कलाम है। पस ये तीन नाम मौजूद हैं। ख़ुदा कलिमा, और अल-रूह और यही वो मसअला सालूस है जिसकी वजह से वो मसीहीयों को तअन किया करते हैं। क्योंकि वाज़ेह रहे कि जिस क़द्र इस आयत में हज़रत मुहम्मद ने तस्लीम कर लिया इस से ज़्यादा सालूस में और कुछ नहीं यानी ये कि रूह ख़ुदा के अम्र से है या अज़ली कलिमा और कि इस कलमे ने शागिर्दों के पास रूह के भेज देने का वाअदा किया क्योंकि इन्जील में लिखा है अगर तुम मुझसे मुहब्बत रखते हो तो मेरे हुक्मों पर अमल करोगे और मैं बाप से दरख़्वास्त करूँगा तो वो तुम्हें दूसरा मददगार बख़्शेगा कि अबद तक तुम्हारे पास रहे। यानी सच्चाई का रूह जिसे दुनिया हासिल नहीं कर सकती क्योंकि ना उसे देखती और ना जानती है। तुम उसे जानते हो क्योंकि वो तुम्हारे साथ रहता है और तुम्हारे अन्दर होगा।” (यूहन्ना 14:15 से 17)
“लेकिन जब वो यानी सच्चाई का रूह आएगा तो तुम को तमाम सच्चाई की राह दिखाएगा। इसलिए कि वो अपनी तरफ़ से ना कहेगा लेकिन जो कुछ सुनेगा वही कहेगा। और तुम्हें आइन्दा की ख़बर देगा वो मेरा जलाल ज़ाहिर करेगा। इसलिए कि मुझ ही से हासिल करके तुम्हें ख़बरें देगा।” (यूहन्ना 16”13)
(4) बाज़ मुफ़स्सिरों की राए हे कि इस से मूसा की जूतियाँ और असा और हारुन की पगड़ी मन का मर्तबान और उन लोहो के टुकड़े जिन को मूसा ने तोड़ डाला था। और मूसा के कपड़े मुराद हैं। यूँ उन्होंने खूदा के मुक़द्दस खेमे को मूसा और हारुन का तोशाखाना बना दिया?
फ़स्ल चहारुम
अल-रूह (الروح) और जनाब मसीह
۱۔تِلۡکَ الرُّسُلُ فَضَّلۡنَا بَعۡضَہُمۡ عَلٰی بَعۡضٍ مِنۡہُمۡ مَّنۡ کَلَّمَ اللّٰہُ وَ رَفَعَ بَعۡضَہُمۡ دَرَجٰتٍ ؕ وَ اٰتَیۡنَا عِیۡسَی ابۡنَ مَرۡیَمَ الۡبَیِّنٰتِ وَ اَیَّدۡنٰہُ بِرُوۡحِ الۡقُدُسِ
“और मर्यम के बेटे ईसा को हमने खुले मोअजिज़े अता फ़रमाए और रूह-उल-क़ुद्दुस से उन की ताईद की।” (सूरह बक़रह आयत 87)
बैज़ावी ने ये तफ़्सीर की :-
“रूहुल-क़ुद्दुस से यहां मुराद जिब्राईल है। बाअज़ मुफ़स्सिरों की राए में ये जनाब मसीह का रूह है जो क़ुद्दुस है क्योंकि शैतान ने उसे आलूदा नहीं किया।”
(काश कि सारे मुहम्मदी साहिबान ये मान लेते !) इसलिए कि ख़ुदा ने अपने ख़ास फ़ज़्ल से उसे इज़्ज़त बख़्शी या इसलिए कि वो इन्सानी तुख़्म से पैदा ना हुआ था। (5) इस आयत में रूह से मुराद इन्जील भी हो सकती है या ख़ुदा का इस्म-ए-आज़म जिसके वसीले मुर्दे ज़िंदा किए जाते थे।
जलालैन में ये तफ़्सीर है :-
“यहां रूहुल-क़ुद्दुस से जिब्राईल मुराद है। जहां कहीं वो जाते थे जिब्राईल भी जाते थे।”
कश्शाफ़ में ये लिखा है :-
“इस आयत में अल-रूह क़ुद्दुस कहलाया ताकि ज़ाहिर हो कि ख़ुदा और सय्यदना ईसा के माबैन ख़ास रिश्ता था और इसी रिश्ते की वजह से वो आला इज़्ज़त के मुस्तहिक़ थे। ये भी मुम्किन है कि रूह इसलिए क़ुद्दुस कहलाया कि जिस तरीक़े से सय्यदना मसीह हमल में आए और पैदा हुए वो पाक है। (6) यहां रूह से जिब्राईल, या इन्जील या ख़ुदा का इस्म-ए-आज़म भी मुराद हो सकती है जिसके वसीले से वो मुर्दों को ज़िंदा किया करते थे।”
۲۔اِنَّمَا الۡمَسِیۡحُ عِیۡسَی ابۡنُ مَرۡیَمَ رَسُوۡلُ اللّٰہِ وَ کَلِمَتُہٗ ۚ اَلۡقٰہَاۤ اِلٰی مَرۡیَمَ وَ رُوۡحٌ مِّنۡہُ ۫ فَاٰمِنُوۡا بِاللّٰہِ وَ رُسُلِہٖ
(5) मख्फी ना रहे हज़रत मुहम्मद इंसानी तुख्म से थे। (6) यहाँ अरबी लफ्ज़ का तर्जुमा करना चंदा मुनासिब नहीं क्योंकि उससे इंसानी नुत्फा और औरत का माहवारी हैज़ भी मुराद है।
“मर्यम के बेटे ईसा बस अल्लाह के रसूल हैं और उस का कलमा जो उस ने मर्यम की तरफ़ भेजा और रूह उस में से।” (सूरह निसा आयत 171)
बैज़ावी ने ये शरह की :-
“ऐसी रूह उन को मिली जो ख़ुदा से सादिर हुई और मामूली तरीक़े से ना मिली थी। ये इसलिए रूह कहलाई क्योंकि ये इन्सानों के दिलों की ज़िंदगी का चश्मा है।”
जलालैन ने ये बयान किया :-
“ऐसी रूह हासिल करना मुराद है जिसको उस ने अपने से रिश्ता देकर मसीह को इज़्ज़त बख़्शी लेकिन ना जिस तरह से कि ईसाई मानते हैं। यानी ये कि वो इब्ने ख़ुदा हो। या ख़ुदा के इलावा दूसरा ख़ुदा या तीसरा ख़ुदा जो हुक्मरानी में ख़ुदा के साथ शरीक हो। क्योंकि जिसमें रूह है वो मुरक्कब है और ख़ुदा मुरक्कब नहीं और ना किसी मुरक्कब शैय से उस का रिश्ता है।”
कश्शाफ़ में ये तफ़्सीर है या लिखा है कि :-
“जनाब मसीह को ख़ुदा की रूह हासिल थी या उस की रूह में से रूह क्योंकि साहिबे रूह उस वजूद के फ़ेअल से वजूद में ना आया जिसमें कि रूह हो जैसे ज़िंदा बाप से नुत्फ़ा पैदा होता है। बल्कि ख़ुदा ने उस को अपनी क़ुद्रत मुतल्लक़ा से ख़ास तौर पर पैदा किया।”
(बैज़ावी, जलालैन जिल्द अव्वल सफ़ा 182, कश्शाफ़ जिल्द अव्वल सफ़ा 241)
۳۔اِذۡ قَالَ اللّٰہُ یٰعِیۡسَی ابۡنَ مَرۡیَمَ اذۡکُرۡ نِعۡمَتِیۡ عَلَیۡکَ وَ عَلٰی وَالِدَتِکَ ۘ اِذۡ اَیَّدۡتُّکَ بِرُوۡحِ الۡقُدُسِ
“जब कि हमने रूहुल-क़ुद्दुस से तुम्हारी मदद की।” अलीख (सूरह माइदा 109)
बैज़ावी के मुताबिक़ इस जुम्ले में :-
“रूहुल-क़ुद्दुस से” के ये मअनी हैं जिब्राईल से या उन की बातों से जिनसे कि ईमान ज़िंदा होता और रूह हमेशा के लिए गुनाह से पाक हो कर रहती है।”
जलालैन के मुताबिक़ :-
“रूह से मुराद यहां जिब्राईल है।”
कश्शाफ़ के मुताबिक़ :-
“इस आयत में रूह से मुराद वो बातें हैं जिनके ज़रीये से ईमान ज़िंदा होता है। ये क़ुद्दुस इसलिए कहलाई क्योंकि हर तरह के गुनाह के दाग़ से पाक-साफ़ हो जाने का ये वसीला है।” (7)
۴۔فَاَرۡسَلۡنَاۤ اِلَیۡہَا رُوۡحَنَا فَتَمَثَّلَ لَہَا بَشَرًا سَوِیًّا
“हमने अपनी रूह को उन की तरफ़ भेजा तो वो आदमी की शक्ल बन कर उन के रूबरू आ खड़ा हुआ।” (सूरह मर्यम आयत 17)
इस आयत की जो तश्रीह बैज़ावी ने की है वो ऐसी माद्दी और नफ़रत-अंगेज़ है कि इस का इक़्तिबास करने को हमारा जी नहीं चाहता। उस ने मर्यम और जिब्राईल के ख़ूबसूरत क़िस्से को बिगाड़ कर एक आदमी और औरत का क़िस्सा बना दिया है जो उस औरत को फिसलाना चाहता है। जिस रूह या सांस से मर्यम हामिला हुई वो आदमी की सूरत में फ़रिश्ते का माद्दी सांस से जो मर्यम तक पहुंचाया गया। वैसी ही गंदी और माद्दी सूरत में इस के साथ इन्जील के बयान की आस्मानी और ग़ैर-अर्ज़ी पाकीज़गी के लहजे का मुक़ाबला करो।
जलालैन में ये शरह है :-
“रूह से यहां मुराद जिब्राईल मुराद है। क्योंकि ईमान उस के और उस के इल्हाम के वसीले ज़िंदा रहता है। ख़ुदा इस्तिआरे के तौर पर उस को रूह कहता है क्योंकि ख़ुदा उसे प्यार करता और उस को अपने ज़्यादा क़रीब लाया चाहता है जैसे कोई अपने महबूब को अपनी जान या अपनी रूह कहता है।” (8)
۵۔وَ الَّتِیۡۤ اَحۡصَنَتۡ فَرۡجَہَا فَنَفَخۡنَا فِیۡہَا مِنۡ رُّوۡحِنَا وَ جَعَلۡنٰہَا وَ ابۡنَہَاۤ اٰیَۃً لِّلۡعٰلَمِیۡنَ
“हमने उस में अपनी रूह फूंक दी।” अलीख (सूरह अम्बिया 91)
बैज़ावी की तफ़्सीर के मुताबिक़ :-
“रूह जो हमारा हुक्म मुतलक़ या हमारी रूह की बज़ात से है वो जिब्राईल है।”
“रूह जो हमारा हुक्म मुतलक़ या हमारी रूह की बज़ात से है वो जिब्राईल है।”
“रूह जो हमारा हुक्म मुतलक़ या हमारी रूह की बज़ात से है वो जिब्राईल है।”
कश्शाफ़ में ये बयान किया गया है :-
“यहां एक सरीह मशअल है क्योंकि इस आयत के ये मअनी नहीं कि मर्यम को उस वक़्त ज़िंदगी दी गई थी। इस के ये मअनी हैं कि हमने उस के अंदर जनाब मसीह में रूह फूंक दी। यानी हमने उस के शिकम में जनाब मसीह को ज़िंदा किया। “ये ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि मैंने फ़ुलां या फ़ुलां घर में बाँसुरी में फूंक मारी।” इस के ये मअनी भी हो सकते हैं कि जिब्राईल को ये हुक्म मिला था कि फ़िल-हक़ीक़त उस में फूंक मारे। क्योंकि उस ने फ़ील-वाक़ेअ उस में फूंक मारी और उस की फूंक उस के बदन के अंदर गई।” (9)
۶۔وَ مَرۡیَمَ ابۡنَتَ عِمۡرٰنَ الَّتِیۡۤ اَحۡصَنَتۡ فَرۡجَہَا فَنَفَخۡنَا فِیۡہِ مِنۡ رُّوۡحِنَا وَ صَدَّقَتۡ بِکَلِمٰتِ رَبِّہَا وَ کُتُبِہٖ وَ کَانَتۡ مِنَ الۡقٰنِتِیۡنَ
“इमरान की बेटी मर्यम की जिन्हों ने अपनी इस्मत को महफ़ूज़ रखा तो हम ने उन के पेट में अपनी रूह फूंक दी।” (सूरह तहरीम 12)
बैज़ावी ने इस की तफ़्सीर यूं की है :-
“ख़ुदा ने उस रूह को नीस्ती (कुछ नहीं) से पैदा किया। मर्यम ने अपने रब की बातों का यक़ीन किया। यानी जनाबे मसीह में और इन्जील में।”
जलालैन की तफ़्सीर में कुछ यूं बयान है :-
“इस आयत में रूह से जिब्राईल मुराद है जिसने मर्यम के लिबादे की तह में फूंक मारी और ख़ुदा की तज्वीज़ के मुताबिक़ वो हामिला हो गई।”
कश्शाफ़ ने सिर्फ सरफी नहवी तफ़्सीर इस आयत की की है। जिसको यहां लिखने की ज़रूरत नहीं।
(9) जलालैन जिल्द दोम सफा 54, कश्शाफ जिल्द दोम सफा 52
फ़स्ल चहारुम पर चंद ख़यालात
इन आयतों को पढ़ कर जिनमें सय्यदना मसीह की ज़ात। पैदाइश और ज़िंदगी के मुताल्लिक़ ऐसे पूर-माअनी और पुर-इसरार ख़यालात बयान हुए हैं हम ताज्जुब किए बग़ैर नहीं रह सकते कि हज़रत मुहम्मद और मुसलमान उलमा को अल-रूह (الروح) के हक़ीक़ी मअनी का गुमान तक नहीं गुज़रा। मसअला सालूस उन के लिए ऐसा हव्वा बन गया कि मसीही तश्रीह के नज़्दीक आते भी उन को ख़ौफ़ आता था। इस का नतीजा ये हुआ कि ना तो सय्यदना मसीह के अल्क़ाब के सही मअनी समझ सके और ना उस की ज़ात का माक़ूल और मुनासिब बयान कर सके।
इसी वजह से वो कोई ऐसी तसल्ली बख़्श राए ना निकाल सके जिसके ज़रीये अल-रूह (الروح) के मुताल्लिक़ उमूर की तश्रीह कर सकते। इस मुश्किल से किनारे रहने की ग़र्ज़ से उन्होंने रूह के तश्बीही मअनी लिए। और तरह-तरह के मुख़्तलिफ़ क़ियास पेश किए। मसलन किसी ने अल-रूह (الروح) को जिब्राईल कहा, किसी ने आला फ़रिश्ता, सदर फ़रिश्ता, सांस, इल्हाम, नूर, ईमान, क़ुरआन, नबुव्वत, इन्जील, जनाब मसीह, इन्सानी वजूद, ख़ालिस इन्सानी अर्वाह, एक तासीर, फ़त्ह, फ़रिश्तों से कोई अशरफ़ वजूद, ख़ुदा का इस्म-ए-आज़म समझा !
इस फ़स्ल में क़ुरआन की ताअलीम की तफ़्सीर निहायत मशहूर मुफ़स्सिरों ने जो कि, इस का ख़ुलासा ये है :-
1. अल-रूह बिला-वसातत ख़ुदा से सादिर होती है और सिवाए ख़ुदा के और किसी को इस का इदराक हासिल नहीं।
2. अल-रूह एक लासानी वसीला था जिससे कुँवारी मर्यम हामिला हुई।
3. अल-रूह ने इन्जील में ख़ुदा के कलाम का इल्हाम दिया।
4. अल-रूह जनाब मसीह का मददगार यानी फ़ारक़लीत (فارقلیط) था।
इन आयात का मजमूई ज़ोर अटल है और हम को दो नतीजे निकालने पर मज्बूर करती हैं। या तो हम ये मानें कि एक लासानी और इलाही रिश्ता ख़ुदा और मसीह के माबैन क़ायम था और वो रिश्ता बाक़ी सारे रिश्तों से कहीं आला था। और इस रिश्ते में रूह का दर्मियानी रिश्ता था। या ये मानना पड़ेगा कि ख़ुदा और सारी ख़ल्क़त के माबैन एक और आला मख़्लूक़ था जो सारी ख़ल्क़त से आला लेकिन ख़ुदा से कम-तर था। इस के मुताबिक़ हमको ये मानना पड़ेगा कि ये वजूद हमेशा मसीह के साथ मौजूद रहता था। उस में इलाही सिफ़ात थीं और वह जनाबे मसीह को तक़वियत व तसल्ली देता था। लेकिन इन दो कयासों में से एक को भी मुसलमान नहीं मानते। पहला ख़याल तो मसीही ख़याल है और दूसरा ख़याल बिद्अती है लेकिन दोनों ख़याल इस्लाम के मुग़ाइर (ना-मुवाफ़िक़, बरख़िलाफ़) हैं।
इस मसअले का मह्ज़ मन्फ़ी पहलू ही पेश करना दुरुस्त ना होगा। इसलिए इस का मस्बत पहलू अगली फ़स्ल में पेश किया जाता है।
फ़स्ल पंजुम
अल-रूह (الروح) के बारे में बाइबल की ताअलीम
शायद अहले-इस्लाम ये कह कर अपने दिल को तसल्ली दे लें कि चूँकि अल-रूह का मसअला तौरेत में मुबहम (यानी छिपे हुए) था इसलिए इस्लाम में भी ये मुबहम (यानी छिपे हुए) ही रखा गया। अगर मसीहीयों को जनाबे मसीह का मुकाशफ़ा ना मिलता तो हम भी वैसे ही हैरान व परेशान रहते। लेकिन ख़ुदा का शुक्र है कि ये हाल नहीं। इन्जील ने अल-रूह की ज़ात और ओहदे के मुताल्लिक़ हमको शक में नहीं छोड़ा।
अल-रूह (الروح) के मुताल्लिक़ सारी मसीही ताअलीम का बयान इस छोटे रिसाले में नहीं हो सकता। बहुत दूसरी किताबों में वो मुफ़स्सिल बयान हो चुका है। हम सिर्फ इतना बयान करेंगे जिससे कि अहले इस्लाम क़ुरआन की मज़्कूर बाला-आयात और मसीही अक़ीदे को किसी क़द्र समझ सकें। जो लोग ग़ौर से बाइबल का मुतालआ करते हैं वो ये मालूम किए बग़ैर नहीं रह सकते कि ये लफ़्ज़ रूह कितनी दफ़ाअ बाइबल में आया है और वो ये भी मालूम करेगा कि गो हमेशा वो एक ही मअनी में मुस्तअमल नहीं हुआ लेकिन अक्सर उस से ख़ुदा का रूह मुराद है और कई जगह फ़रिश्ते और बाज़-औक़ात तश्बीही तौर पर। लेकिन सियाक़ इबारत से बख़ूबी वाज़ेह है कि वहां इस के क्या मअनी हैं। लेकिन क़ुरआन में क़रीने से भी कुछ पता नहीं लगता। जैसा कि मज़्कूर है।
इसलिए बाइबल में जब ये लफ़्ज़ सीग़ा वाहिद में हर्फ़ तारीफ़ के साथ मुस्तअमल हुआ वहां उस के मअनी कभी जिब्राईल या कोई फ़रिश्ता नहीं। (10)
लुग़त के लिहाज़ से इब्रानी, अरबी, यूनानी और लातीनी में जो लफ़्ज़ रूह के लिए आए हैं उनका ताल्लुक़ सांस या हवा से है। लेकिन इलाही सांस को हम माद्दी ना समझें। इन्सानी ख़याल और ज़बान की तंगी के बाइस ये लफ़्ज़ जिसके मअनी ग़ैर-मुरई (वो जो देखाई ना दे) लेकिन ज़बरदस्त क़ुव्वत थी इस ग़ैर-मुरई (ना दिखने वाली शय) मज्बूर करने वाली दिलों का हाल जानने वाली और ज़िंदा करने वाली रूह के लिए मुस्तअमल हुआ। ये तो शक नहीं कि बाज़ औक़ात बाइबल की बाअज़ आयात में ऐसे अल्फ़ाज़ इस्तिमाल हुए जिनसे मालूम होता है कि रुहानी ज़िंदगी और हैवानी ज़िंदगी ख़ुदा के रूह के फूंके जाने से पैदा हुई हैं। लेकिन क्या इस की वजह ये नहीं कि ख़ुदा का रूह सारी ज़िंदगी का सरचश्मा है ख़्वाह वो रुहानी हो या अक़्ली और तब्ई। और इसलिए कि इन्सान नफ़्स और रूह दोनों है?
(10) ज़बूर 104:4 में रूह फ़रिश्ते के मअनी में आया है, लेकिन वहाँ सीगा जमा है और हर्फ़ तारीफ़ नहीं।
अहले-इस्लाम से हमारी ये दरख़्वास्त है कि रूहुल-क़ुद्दुस कि तीन सिफ़ात पर वो ज़रा ग़ौर करें। ये अल-रूह अज़ली है शख़्स है और वो ख़ुदा के साथ एक है।
1. पैदाइश की किताब पर सरसरी नज़र डालने से ये मालूम हो सकता है कि अल-रूह अज़ली है। (पैदाइश 1:1, 2) में लिखा है, “इब्तिदा में ख़ुदा ने आस्मान को और ज़मीन को पैदा किया।....और ख़ुदा की रूह पानियों पर जुंबिश करती थी।” फिर इब्रानियों के ख़त में अल-रूह ग़ैर-मख़्लूक़ बयान हुआ है, “तो मसीह का ख़ून जिसने अपने आपको अज़ली रूह के वसीले ख़ुदा के सामने बेऐब क़ुर्बान कर दिया। तुम्हारे दिलों को मुर्दा कामों से क्यों ना पाक करेगा ताकि वो ज़िंदा ख़ुदा की इबादत करें?” (इब्रानियों 9:14) अहले इस्लाम व मसीहियों का इस पर इत्तिफ़ाक़ है कि ख़ुदा अज़ली है। पस अज़ली रूह ख़ुद ख़ुदा है।
2. बाइबल की कई आयात से अल-रूह (الروح) की शख़्सियत साबित है मसलन (यसअयाह 63:10) “उन्हों ने उस के रूह क़ुद्दुस को ग़मगीं किया। इसलिए वो उनका दुश्मन हो गया।”
(इफ़िसियों 4:30) “ख़ुदा के पाक रूह को रंजीदा ना करो जिससे तुम पर मख़लिसी के दिन के लिए मुहर हुई।”
(यूहन्ना 14:26) “मददगार यानी रूहुल-क़ुद्दुस।....वो तुम्हें सब बातें सिखाएगा।”
(लूक़ा 3:22) “रूहुल-क़ुद्दुस जिस्मानी सूरत में कबूतर की मानिंद उस पर उतरा।”
(आमाल 20:4) “वो सब रूहुल-क़ुद्दुस से भर गए।”
(आमाल 13:2) “रूहुल-क़ुद्दुस ने कहा कि मेरे लिए बर्नबास और शाऊल को इस काम के वास्ते मख़्सूस करो।”
इस तशख़्ख़ुस (इम्तियाज़, मुम्ताज़ होना) के बग़ैर ना कोई रंजीदा हो सकता है। ना तसल्ली दे सकता है ना सिखा सकता। ना उतर सकता और ना आदमी के दिल को भर सकता और ना ये कह सकता है कि मेरे लिए फ़ुलां-फ़ुलां अश्ख़ास को अलग करो ताकि जो काम मैंने उन के लिए मुक़र्रर किया उस को वो सरअंजाम दें। फ़िल-हक़ीक़त किताबे मुक़द्दस ऐसी आयात से भरी है जिनसे बख़ूबी साबित होता है कि रूह शख़्स है। बख़ोफ़ तवालत (लंबाई, ज़्यादती) ज़्यादा आयात पेश नहीं की जातीं।
3. अल-रूह (الروح) का और ख़ुदा का एक होना। मसलन ये कि वो हमा-जा (हर जगह) हाज़िर व नाज़िर (मौजूद) है। (ज़बूर 139:7 से 10) “तेरी रूह से मैं किधर जाऊं? और तेरी हुज़ूरी से मैं किधर भागूं? अगर मैं आस्मान के ऊपर चढ़ जाऊं तो तू वहां है अगर मैं पाताल में अपना बिस्तर बिछाऊं तो देख तू वहां भी है। अगर सुबह के पंख ले के मैं समुंद्र की इंतिहा में जा रहूँ तो वहां भी तेरा हाथ मुझे ले चलेगा।” दूसरे लफ़्ज़ों में ये अल-रूह (الروح) अज़ली हमा जा (हर जगह) हाज़िर व नाज़िर (मौजूद) शख़्सियत है। और यह क़तई सबूत है कि ये शख़्सियत इलाही है और ख़ुद ख़ुदा है।
लेकिन यहां पर ही ख़ातिमा नहीं बल्कि ऐसी आयात भी हैं जिनसे अल-रूह (الروح) की हमादानी (हर काम की वाक़फ़ीयत) साबित होती है। मुक़द्दस पौलुस ने (1 कुरिन्थियों 2:7 से 13) में ये लिखा, “बल्कि हम परवरदिगार की पोशीदा हिक्मत राज़ के तौर पर बयान करते हैं जो परवरदिगार ने जहान के शुरू से पेश्तर हमारी अज़मत के वास्ते मुक़र्रर की थी। जिसे इस जहान के सरदारोँ में से किसी ने ना समझा क्योंकि अगर समझते तो अज़मत के मौला को मस्लूब ना करते। बल्कि जैसा लिखा है वैसा ही हुआ कि जो चीज़ें ना आँखों ने देखीं ना कानों ना सुनीं ना आदमी के दिल में आईं। वो सब परवरदिगार-ए-आलम ने अपने मुहब्बत रखने वालों के लिए तैयार कर दीं।”
“लेकिन हम पर परवरदिगार ने इनको रूह-ए-पाक के वसीले से ज़ाहिर किया क्योंकि रूह-ए-पाक सब बातें बल्कि परवरदिगार की तह की बातें भी दर्याफ़्त कर लेता है। क्योंकि इन्सानों में से कौन किसी इन्सान की बातें जानता है सिवा इन्सान की अपनी रूह के जो उस में है? इसी तरह परवरदिगार के रूह के सिवा कोई परवरदिगार की बातें नहीं जानता। मगर हमने ना दुनिया की रूह बल्कि वो रूह पाया जो परवरदिगार-ए-आलम की तरफ़ से है ताकि उन बातों को जानें जो परवरदिगार ने हमें इनायत की हैं। और हम उन बातों को उन अल्फ़ाज़ में नहीं बयान करते जो इन्सानी हिक्मत ने हमको सिखाए हों बल्कि उन अल्फ़ाज़ में जो रूह-ए-इलाही ने सिखाए हैं और रुहानी बातों का रुहानी बातों से मुक़ाबला करते हैं।”
अब इस इबारत में ये साफ़ बयान है कि अल-रूह (الروح) ख़ुदा है और उन में तश्बीहन इन्सान की रूह का ज़िक्र है कि वो और इन्सान एक है इसी तरह ख़ुदा का रूह और ख़ुदा एक ही हैं। इस अजीब इबारत का लुब्ब-ए-लुबाब यही है।
अब बाप बेटे और अल-रूह (الروح) का एक ही ख़ुदा होना। मसीह के इन अल्फ़ाज़ से भी साबित है, “तुम जाकर सब क़ौमों को शागिर्द बनाओ और उन्हें बाप और बेटे और रूह-उल-क़ुद्दुस के नाम पर बपतिस्मा दो।” यहां ये क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि लफ़्ज़ वाहिद “नाम” आया है ना “नामों” जिससे इन तीनों शख्सों की यगानगत (वाहिद यानी एक होना) साबित है।
हमारे मक़्सद के लिए ये चंद आयात किफ़ायत करेंगी ताकि ज़ाहिर हो जाए कि बाइबल में जो सिफ़ात रूह की बयान हुई हैं वही ख़ुदा की बयान हुई हैं। ख़ुदा की एक मज़ीद मशहूर सिफ़त का भी नए अहदनामे में ज़िक्र हुआ और उस का ताल्लुक़ खासतौर से अल-रूह के साथ है और इस अहद में वो बिल-ख़ुसूस उस का अपना है। किताब मुक़द्दस में बार-बार मज़्कूर है कि ख़ुदा ने फ़रिश्तों को बाज़ औक़ात ख़ास ख़ास पैग़ाम देकर भेजा और अपनी तज्वीज़ को इन्सान पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) किया। मगर ये फ़रिश्ते उन तजावीज़ में कुछ दख़ल नहीं देते क्योंकि उन की रिसालत हुक्म देना नहीं बल्कि इताअत करना है। ख़ुदा ही हुक्म देता है। ख़ुदा ही अदालत करता है। ख़ुदा ही तारीफ़ करता और ख़ुदा ही मुजरिम ठहराता है। अब इन्जील में ये मुन्दरज है, “और वो आकर (रूहुल-क़ुद्दुस, फ़ारक़ीलित) दुनिया को गुनाह और रास्तबाज़ी और अदालत के बारे में क़सूरवार ठहराएगा।” (यूहन्ना 16:8) गुनाह के बारे में दुनिया को इसलिए क़सूरवार ठहराएगा क्योंकि उन्हों ने नजातदिहंदा को नहीं माना। और रास्तबाज़ी के बारे में दुनिया में लोगों को अपनी तरफ़ दावत देकर आस्मान पर तशरीफ़ ले गया और अदालत के बारे में इसलिए कि शैतान पर फ़त्वा दिया गया लेकिन दुनिया अब तक उस को तर्क नहीं करती। लेकिन अल-रूह का दुनिया को क़सूरवार ठहराना ख़ास ख़ुदा ही का हक़ है। पस ये अल-रूह ख़ुदा ठहरा। फ़रिश्ते, अम्बिया या आदमी इस कलाम के ज़ोर को जो सुनाया गया बढ़ा नहीं सकते क्योंकि वो तो सिर्फ ख़ुदा के एलची या औज़ार ही हैं। लेकिन अल-रूह की ये ख़ास तासीर है। थिस्सलुनिके के पहले ख़त में पौलुस ने ये लिखा, “हमारी ख़ुशख़बरी तुम्हारे पास ना फ़क़त लफ़्ज़ी तौर पर पहुंची बल्कि क़ुद्रत और रूहुल-क़ुद्दुस में।” (1 थिस्सलुनीकियों) 1:5 और फिर (1 पतरस 1:2) में ये लिखा है, “ख़ुदा बाप के इल्म साबिक़ के मुवाफ़िक़ रूह के पाक करने से: इस से साफ़ वाज़ेह है कि अल-रूह की तासीर कलाम की इशाअत और लोगों के दिलों को इस की मुनादी करने की तहरीक देने में ज़ाहिर हुई। बेचूं व चरा ये काम सिवाए ख़ुदा के कोई दूसरा नहीं कर सकता। पस नतीजा यही निकला कि अल-रूह ख़ुदा है। फिर (यूहन्ना 6:63) में यूं मर्क़ूम है, “ज़िंदा करने वाली रूह है।” और (रोमीयों 8:11) में ये आया है, “उसी का रूह तुम में बसा हुआ है जिसने जनाब मसीह को मुर्दा में से जिलाया तो वो तुम्हारे फ़ानी बदनों को भी उस रूह के वसीले से ज़िंदा करेगा जो तुम में बसा हुआ है।” पस इस से ज़ाहिर है कि अल-रूह ही जिलाने वाला और ज़िंदगी देने वाला है। इसलिए वो ख़ुद ख़ुदा है। फिर (रोमीयों 5:5) में लिखा है, “क्योंकि रूहुल-क़ुद्दुस जो हम को बख़्शा गया है उस के वसीले से ख़ुदा की मुहब्बत हमारे दिलों में डाली गई है।” ज़रा सोचिए कि ख़ुदा की मुहब्बत आदमीयों के दिल में ख़ुदा के सिवा कौन दूसरा डाल सकता है? इस से भी साबित हुआ कि अल-रूह ख़ुद ख़ुदा है।
इला-आखिर हम बाइबल की इन आयात की रोशनी उन चार हिस्सों पर डाल सकते हैं जिनमें कि हमने क़ुरआन की आयात को तक़्सीम किया था। उस वक़्त और भी वाज़ेह तौर से ज़ाहिर कर सकेंगे कि अगरचे हज़रत मुहम्मद ने ज़ाहिरी लफ़्ज़ को तो ले लिया लेकिन उस की हक़ीक़त को नज़र-अंदाज कर दिया। इसलिए अहले-इस्लाम के नज़्दीक जो कुछ मुबहम (यानी छिपे हुए) और ग़ैर-मालूम है वो मसीहीयों के नज़्दीक नूर और जलाल का रास्ता है।
हमने ऊपर ज़िक्र किया कि अल-रूह (الروح) से कोई फ़रिश्ता मुराद नहीं इसलिए इस ग़लती को हम तर्क करते हैं।
अब हम मुख़्तसर तौर से इन उमूर पर ग़ौर करें कि :-
1. अल-रूह का ताल्लुक़ ख़ल्क़त से और ख़ास कर इन्सान से क्या है?
2. अल-रूह का ताल्लुक़ इल्हाम से क्या है?
3. अल-रूह का ताल्लुक़ मसीह के तजस्सुम से क्या है?
1. क़ुरआन में सिर्फ इतना ज़िक्र है कि अल-रूह (الروح) इन्सानी ज़िंदगी का चश्मा है और इस की तश्रीह भी वहां पूरे तौर से नहीं हुई।
लेकिन अल-रूह का ये काम ख़ल्क़त में इस से कहीं ज़्यादा वसीअ है और सारी ख़ल्क़त पर हावी है।
हमने (पैदाइश 1:1, 2) में देख लिया कि अल-रूह (الروح) ने अपनी ज़िंदगी बख़्श क़ुद्रत से अबतरी में से एक तर्तीब पैदा कर दी और ख़ुदा के सांस से इन्सान जीती जान हो गया। इसी तरह (अय्यूब 33:4) में लिखा है, “ख़ुदा की रूह ने मुझको बनाया है और क़ादिर-ए-मुतलक़ के दम ने मुझको ज़िंदगी बख़्शी है।” अल-रूह (الروح) की उलूहियत का ये मज़ीद सबूत क़ातेअ (काटने वाला) है क्योंकि ख़ल्क़त का काम इस से मन्सूब है ठीक जिस तरह से कि कलमा या कलाम से और ख़ुद बाप से मन्सूब हुआ। और मसअला सालूस का भी ये मज़ीद सबूत है इसलिए ख़ुद ख़ुदा ही ने अल-रूह की सूरत में आदमी को ज़िंदगी अता की। वो रुहानी ज़िंदगी जो इन्सान को हैवानात से मुमय्यज़ (मुम्ताज़) करती है और जिस के वसीले से इन्सान का रिश्ता ख़ुद ख़ुदा से हो जाता है।
2. अल-रूह (الروح) इल्हाम का वसीला है। (2 पतरस 1:21) “नबुव्वत की कोई बात आदमी की ख़्वाहिश से कभी नहीं हुई बल्कि आदमी रूहुल-क़ुद्दुस की तहरीक के सबब ख़ुदा की तरफ़ से बोलते थे।”
(आमाल 1:16) “इस नविश्ते का पूरा होना ज़रूर था जो रूह-उल-क़ुद्दुस ने दाऊद की ज़बानी....कहा था।”
(आमाल 28:25) “रूहुल-क़ुद्दुस ने यसअयाह नबी की मार्फ़त तुम्हारे बाप दादों से ख़ूब कहा।”
(इब्रानियों 3:7 से 11) “जिस तरह कि रूहुल-क़ुद्दुस फ़रमाता है,....जहां तुम्हारे बाप दादों ने मुझे आज़माया.....इसी लिए मैं इस पुश्त से नाराज़ हुआ। मैंने अपने ग़ज़ब में क़सम खाई कि ये मेरे आराम में दाख़िल ना होने पाएँगे।”
यहां भी यही नज़र आता है कि ये शख़्स अल-रूह (الروح) इलाही इख़्तियार के साथ बोलता और लोगों को तहरीक देता है कि नबुव्वत और आगाही करें। यही आदमीयों के दिलों को सुनने के लिए इल्हाम देता है ताकि ख़ुदा की बातों को क़ुबूल और तहरीर करें। यहां कोई ऐसी राय नहीं कि मशीन (कुल) की तरह कोई पैग़ाम काटना छांटा ग्रामोफोन की तरह नाज़िल हुआ बल्कि ख़ुद ख़ुदा नबियों के दिलों और ज़मीरों में आता है और वो उन के इन्सानी और मुख़्तलिफ़ मिज़ाज व तबाअ के वसीले इन्सान को एक किताब अता करता है जो लासानी और इलाही किताब है गो वोह कई किताबों का मजमूआ है लेकिन वो मक़्सद और रूह में एक हैं, बल्कि इस से भी ज़्यादा। उस ने ना सिर्फ ख़ुदा के कलाम का इल्हाम दिया बल्कि अपनी कलीसिया के साथ अबद-उल-आबाद रहता है। वो ज़िंदा तर्जुमान और हादी है।
(यूहन्ना 14:16, 17) में ये लिखा है, “मैं बाप से दरख़्वास्त करूँगा तो वो तुम्हें दूसरा मददगार बख़्शेगा कि अबद तक तुम्हारे साथ रहे यानी सच्चाई का रूह।” अब ये दावा कि ये रूह अबद तक ईमानदारों के साथ रहेगा। मुहम्मदियों के इस दावे की तर्दीद करता है कि इस मददगार से हज़रत मुहम्मद मुराद हैं। क्योंकि हम सभों को मालूम है कि हज़रत मुहम्मद ने बासठ (62) साल की उम्र में वफ़ात पाई और वो अपने पैरौओं (मानने वालों) के साथ बाईस (22) साल से ज़्यादा ना रहे। लेकिन बरअक्स इस के ये अल-रूह (الروح) अबद तक रहता है और आदमीयों के साथ उस का रिश्ता एक फ़ौक़ुल आदत और इलाही मोअजिज़े के ज़रीये उस की पचौहरी सीरत में क़ायम हो गया।
(1) शागिर्दों ने आस्मान से एक ऐसी आवाज़ सुनी जैसे ज़ोर की आंधी का सन्नाटा जिससे सारा घर जहां वो बैठे थे गूंज गया।
(2) और उन्हें आग के शोले की सी फटती हुई ज़बाने दिखाई दीं और उन में से हर एक पर आ ठहरीं।
(3) वो सब रूहुल-क़ुद्दुस से भर गए और ग़ैर-ज़बानें बोलने लगे जिनको उन्हों ने शायद किसी को बोलते भी ना सुना होगा क्योंकि ये लोग गलील के देहातों से आए थे। और ग़ैर-ज़बानों से वो वाक़िफ़ ना थे।
(4) और पतरस ने खड़े हो कर उन रसूलों की हिमायत में सामईन (सुनने वालों) के सामने एक उम्दा वाज़ किया और ग़ैर-मामूली क़ुद्रत और दिलेरी से मसीह की उलूहियत की गवाही दी अगरचे चंद हफ़्ते पेश्तर वो एक लौंडी से डर गया था और बुरी तरह से मसीह का इन्कार किया था।
(5) पतरस का वाअ्ज़ सुनकर तक़रीबन तीन हज़ार (3000) लोग ईमान लाए और उन्हों ने बपतिस्मा पाया।
रूहुल-क़ुद्दुस ने आग की ज़बानों का ये मोअजिज़ा इसलिए किया ताकि ये ज़ाहिर करे कि मसीही दीन आलमगीर होगा और बाइबल सारी क़ौमों और क़बीलों के लिए अख़्लाक़ी शराअ (शरीअत) की बुनियाद होगी और इसलिए हर ज़बान में इस का तर्जुमा किया जाएगा। इसी हुक्म की इताअत के बाइस अब बाइबल और उस के हिस्सों को आज हम चार सौ से ज़्यादा ज़बानों और बोलियों में पढ़ सकते हैं और इस का तर्जुमा होता रहेगा जब तक कि आस्मान के तले हर बोली में इस का तर्जुमा ना हो ले।
(6) तजस्सुम के साथ रूहुल-क़ुद्दुस का ये रिश्ता है कि सय्यदना मसीह में ये अबद (हमेशा) तक बसता है। और उसी की तरफ़ से इस का इनाम मसीही कलीसिया को मिला है।
(मत्ती 1:20) “जो उस के पेट में है वो रूहुल-क़ुद्दुस की क़ुद्रत से है।”
(लूक़ा 3:22) “रूहुल-क़ुद्दुस जिस्मानी सूरत में कबूतर की मानिंद उस पर (जनाबे मसीह) पर उतरा।”
(आमाल 10:38) “ख़ुदा ने जनाबे मसीह नासरी को रूहुल-क़ुद्दुस और क़ुद्रत से किस तरह मसह किया।”
(लूक़ा 4:1) “जनाबे मसीह रूहुल-क़ुद्दुस से भरा हुआ यर्दन से लौटा।”
(मत्ती 12:28) “अगर मैं ख़ुदा की रूह की मदद से बदरूहों को निकालता हूँ तो ख़ुदा की बादशाहत तुम्हारे पास आ पहुंची।”
(इब्रानियों 9:14) “जिसने अपने आपको अज़ली रूह के वसीले ख़ुदा के सामने बेऐब क़ुर्बान कर दिया।”
(1 पतरस 3:18) “जिस्म के एतबार से तो मारा गया लेकिन रूह के एतबार से ज़िंदा किया गया।”
(यूहन्ना 15:26) “जब वो मददगार आएगा जिसको मैं तुम्हारे पास बाप की तरफ़ से भेजूँगा यानी सच्चाई का रूह।”
(यूहन्ना 20:22) “जनाबे मसीह ने उन से कहा.....रूहुल-क़ुद्दुस और।”
(आमाल 2:38) “तौबा करो तुम में से हर एक अपने गुनाहों की माफ़ी के लिए जनाबे मसीह के नाम पर बपतिस्मा ले तो तुम रूहुल-क़ुद्दुस इनाम में पाओगे।”
ये चंद मशहूर आयात नमूने के तौर पर हैं जिनमें जनाबे मसीह और रूहुल-क़ुद्दुस के दर्मियान रिश्ते का ज़िक्र आया है। लेकिन इनका शुमार बहुत ज़्यादा है और उन में इंतिख़ाब करना भी मुश्किल है।
इस फ़स्ल में जो इक़तिबासात क़ुरआन से किए गए अगर हम उन की तरफ़ तवज्जोह करें तो ऐसे ख़ाली और कमज़ोर जवाबों को देखकर ख़ासकर सय्यदना मसीह की पैदाइश के अहवाल ही हैं। हमें ताज्जुब आता है और अल-रूह के तक़वियत देने के मुताल्लिक़ तो बहुत ही थोड़े हवाले हैं और वो मुबहम (यानी छिपे हुए) से। लेकिन नए अहदनामे में सय्यदना मसीह और रूह-उल-क़ुद्दुस के दर्मियानी रिश्ते के मुताल्लिक़ बेशुमार और मुकम्मल और मुफ़स्सिल हवाले आए हैं।
रूहुल-क़ुद्दुस से वो शिकम मादर में आया। बपतिस्मे के वक़्त उसी रूह का मसह हासिल किया। उसी रूह के वसीले क़ुद्रत के काम किए। उसी अज़ली रूह के वसीले सलीब पर मरा अपने तईं क़ुर्बानी चढ़ाया। उसी रूह के ज़रीये वो मुर्दों में से ज़िंदा किया गया और अपनी पैदाइश से लेकर अपने सऊद तक वो रूहुल-क़ुद्दुस से मामूर था। उसी के वसीले से और उसी में बाप के साथ उस की मुसलसल शराकत थी। यहां तक कि मसीह में रूह की क़ुद्रत के साथ ख़ुदा दुनिया पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हुआ। ये सालूस का राज़ है बेटे के तजस्सुम और रूह-उल-क़ुद्दुस के वसीले जहान के साथ ख़ुदा का वो रिश्ता क़ायम हुआ जिस के लिए सारी ख़ल्क़त आरज़ू से कराह रही और इंतिज़ार कर रही थी। और उस वक़्त तक इस का कमाल ना होगा, जब तक आख़िरी नजात याफ्ता रूह ख़ुदा के ख़ानदान में शामिल ना हो जाए। लेकिन इस से एक और हैरत अंगेज़ अम्र भी ज़ाहिर होता है, सय्यदना मसीह ने बाप के मौऊद रूहुल-क़ुद्दुस को नाज़िल किया जो लोग उस पर ईमान लाते हैं उन को मुनव्वर ज़िंदा और पाक करे।
यही रूह पंतीकोस्त के पहले दिन से लेकर दुनिया में मसीह के काम को सर-अंजाम दे रहा है। और उन लोगों के लिए ये ख़ास वाअदा और मीरास है जो इन्जील को क़ुबूल करके इस पर ईमान लाते हैं। मसीह के पैरौओं (मानने वालों) के दिलों को उन सभों की मुहब्बत और हम्दर्दी से यही रूह भर देता है जिनकी ख़ातिर मसीह ने जान दी और यही रूह उन को तहरीक देता है कि दुनिया की फ़स्ल जमा करने में वो मेहनत करें।
ऐ मुसलमान भाईयों ! क्या आप उस के पास ना आएँगे? और उस के चेयदा पैरौ (मानने वालें) ना बनेंगे? जिसका कुछ मौहूम सा ज़िक्र आपकी किताब में आया है। हमने पूरे और मुफ़स्सिल तौर से इस का बयान कर दिया है। कोई फ़रिश्ता ख़्वाह कैसा ही मुक़तदिर क्यों ना हो, ना कोई सिर्रीया और नाक़ाबिल तलफ़्फ़ुज़ नाम, ना कोई मौहूम तासीर ना माद्दी सांस इस से मुराद है, बल्कि ज़िंदगी का बख़्शने वाला और ख़ुदावंद। वही अब आपके दिलों में दाख़िल होना चाहता है ताकि उन को मुनव्वर और ताज़ा करे। वही तुम पर ज़ाहिर करेगा कि जनाबे मसीह तुम्हारे दिल और रूह की गहरी ज़रूरत को पूरा कर सकता है और इस का तक़ाज़ा ये है कि हर एक दुनियावी चीज़ से बढ़कर तुम उस की आरज़ू रखो। वो तुम्हें ना छोड़ेगा जब तक कि तुमको मसीह में कामिल करके अज़ली बाप के सामने पेश ना करे। और ख़ुदा की हुज़ूरी के बेनकाब नूर में हस्ती के राज़ को इदराक (दर्याफ़्त) कर सकोगे।
“और रूह और दुल्हन कहती हैं कि आ ! और जो प्यासा हो वो आए और जो कोई चाहे आब-ए-हयात मुफ़्त ले।”
आए नाज़रीन आपने सुन लिया है पस इस अल-रूह (الروح) से कहें कि आ ! और वो यक़ीनन आएगा और अबद तक बचाएगा और जनाबे मसीह मसीह के वसीले आपको ख़ुदा के पास पहुंचाएगा।