Injil-i-Daud

The Gospel of David
Bishop Thomas Valpy French
A treatise on the messianic prophesies of Pslams,
With special refrence to Muslim’s Objections.


इंजील-ए-दाऊद

मुसन्निफ़

लार्ड बिशप फ़्रैंच साहब

पंजाब रिलीजस बुक सोसाइटी की तरफ़ से शाएअ हुई

और लूदयाना मिशन प्रेस में पादरी वेरी साहब के एहतिमाम से छपी

1877 ई॰

पादरी डब्ल्यू गोल्डसेक साहब

पंजाब रिलिजस बुक सोसायटी

अनारकली-लाहौर

1952 ईस्वी

इस्लाम में क़ुरआन



Valpy French

(1 January 1825 – 14 May 1891)



दीबाचा

हज़ार हज़ार शुक्र है उस क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा के लिए जिसने अपने हक़ीक़ी दोस्तों और ख़वासों (ख़वास की जमा, बड़े लोग, हम-सोहबत) को ये मर्तबा और शर्फ़ मर्हमत (रहम, मेहरबानी) व इनायत फ़रमाया है कि उनका बदन भी मासिवाए रूह के रूह-ए-हक़ की जाये सुकूनत और ख़ुदा की इबादत-गाह हो। और इस इबादतखाना ईलाही में बाक़ी तमाम आज़ा का इमाम और मुक़तिदा (पेशवा) ज़बान होती है कि बिला-नागा दुआ व सवाल और हम्द व सताइश का नज़राना इन्सान के शफ़तीन से सादिर हो कर रब तआला के हुज़ूर में गुज़राना जाये। बमूजब फ़रमाने दाऊद नबी के कि“मेरी दुआ तेरे हुज़ूर बख़ूर की मानिंद हो और मेरा हाथ उठाना शाम की क़ुर्बानी की मानिंद।” (ज़बूर 141:2) पस कलीसियाए आमा ख़्वाह यहूदीयों की हो, ख़्वाह मसीहीयों की इस इक़रार पर मुत्तफ़िक़ है कि हम्दो सताइश का क़र्ज़ बाल-ग़रज़ अदा करने में गो (हर-चंद, अगरचे, बिल-फ़र्ज़) इमाम इल्ला-ईमा (الا ئیمہ) हज़रत दाऊद हैं। बआनकदर कि अगर कोई शख़्स इस उम्दा और फ़रिश्तगाना ख़िदमत का नमूना और निशान ढूंढे तो मज़ामीर दाऊद में उस का मतलब और मुराद बख़ूबी बर आए। हाँ बल्कि साकिनान आस्मान और ज़मीन की इबादत इसी मज़ामीर दाऊद में मुवाफ़िक़त और मुराफ़िक़त (बाहमी मेल-जोल) और ख़ुश इत्तिफ़ाक़ी से मिलती है और आप दाऊद भी क़ब्ल अज़-वफ़ात और मुंतक़िल होने इस आलम-ए-फ़ानी से इस बात की ख़ास तक़रीर करता है कि हक़-तआला की रूह के इल्हाम से मैं इस ओहदे पर वक़्फ़ और मुतईन किया गया हूँ। समुएल की किताब में यूं मर्क़ूम है :-

“दाऊद की आख़िरी बातें ये हैं, दाऊद बिन यस्सी कहता है, यानी ये उस शख़्स का कलाम है जो सर्फ़राज़ किया गया और याक़ूब के ख़ुदा का ममसोह और इस्राईल का शीरीन नग़मा साज़ है। ख़ुदावंद की रूह ने मेरी माअर्फ़त कलाम किया और उस का सुख़न (कलाम, शेअर, बात) मेरी ज़बान पर था।” (2 समुएल 23:1-2)

“दाऊद की आख़िरी बातें ये हैं, दाऊद बिन यस्सी कहता है, यानी ये उस शख़्स का कलाम है जो सर्फ़राज़ किया गया और याक़ूब के ख़ुदा का ममसोह और इस्राईल का शीरीन नग़मा साज़ है। ख़ुदावंद की रूह ने मेरी माअर्फ़त कलाम किया और उस का सुख़न (कलाम, शेअर, बात) मेरी ज़बान पर था।” (2 समुएल 23:1-2)

“एक भी इल्म ज़रूर नहीं जिसे ख़ल्क़-उल्लाह मज़ामीर दाऊद से नहीं निकाल सकती। जो हयात ख़ुदा में कोताह उम्र और तिफ़्ल (बच्चे) हैं, वह भी इस किताब के अंदर इल्म ईलाही की इब्तिदा और मुक़द्दमात को बाआसानी तमाम हासिल कर सकते हैं और जो ख़ुदा की राह में कुछ आगे चल निकले हैं, उन को बड़ी तरक़्क़ी और तक़वियत दस्तयाब होती है। हाँ बल्कि वो भी जो औरों की निस्बत मूसल (पहुंचाने वाला) बकमाल हैं, यहां बड़ी पुख़्तगी और इस्तिक़ामत के वसाइल पाते हैं। अगर तुम पहलवानों का हौसला या हिम्मत आला तलब करो और ऐसी अदालत और रास्ती जो बग़ावत तमाम पहुंची हो और मिज़ाज संजीदा और मोतदिल और मियानारवी और तमाम वक़्त की दानाई और बेरेब व बेरिया तौबा-कारी और सुबूरी (सब्र) का इस्तिक़रार (क़ायम होना, क़रार पकड़ना) तो मज़ामीर दाऊद से ये सब फ़ज़ाइल मतूबा और औसाफ़ मर्ग़ोबह ग़ायत व निहायत तक मिल सकते हैं। अगर हम और आप ख़ुदा के इसरार ग़ायबा की तरफ़ तवज्जा कर के ख़्वाह उस के हैबतनाक क़हर का ज़िक्र करें, ख़्वाह उस की तसल्ली बख़्श रहमत का बयान करें या उस के फ़ज़्ल और उल्फ़त के हुस्न व जमाल का ऐलान हो। या इस जहान में परवरदिगार के अफ़आल का तजस्सुस और तफ़ह्हुस (जुस्तजू) हो, ख़्वाह मौऊद (वाअदा की हुई) मीरास का जो उस जहान में मुक़द्दस लोगों के लिए तैयार है। हाँ बल्कि सब ख़ुर्रमी और ख़ैरीयत जिस क़द्र इल्म और अमल और क़ब्ज़े के अंदर आ सकतीं, सबकी सब उस मंबा और माअ्दिन (कान) आस्मानी से बेशक हासिल हो सकती हैं। जितने अमराज़ और ग़मोम वहमूम (अफ़्सुर्दगी, रंज) से आदम ज़ाद आजिज़ हैं, इतने ही मरहम और मुआलिजे इस ख़ज़ाना-ए-नफ़ाइस (नफीसा की जमा, नफ़ीस चीज़ें) में से बाआसानी मिल सकते हैं।”

एक मुअल्लिम साहब अज़्ज़ व वक़ार ने किताब मज़ामीर की पेशीनगोइयों की बाबत यूं फ़रमाया है कि :-

“जानना चाहीए कि दाऊद के ज़बूरों में बाअज़ थोड़ी (कुछ) ऐसी पेशीनगोईयां हैं कि बिलावास्ता मसीह की तरफ़ मंसूब हो सकती हैं। बग़ैर अज़ आँ कि ख़ुदावंद मसीह पर इतलाक़ करें तो बिल्कुल और सरासर बेमतलब और बेमाअनी गोया पोस्त बेमग़ज़ हैं। पर वाज़ेह हो कि और बहुत ज़बूरो में ऐसा हाल है कि वो मज़्मून अव़्वल और मज़्मून सानी भी रखते हैं, यानी मज़्मून हक़ीक़ी ओर आली।”

इस अम्र मज़्कूर का जो हमने बयान किया अस्ल और ख़ास मतलब ये है कि अम्बिया, औलिया और सलातीन ज़माना-ए-सलफ़ अपने मुरातिब और मनाज़िल और उम्र के अहम तरीन अहवाल और अमाल में ख़ुसूसुन अपनी औक़ात पस्ती और बुलंदी में तसावीर और तशाबुह (मुशाबहत, मुताबिक़त) की राह से उस आने वाले की तरफ़ इशारा करते थे कि वो ख़ानदान ईलाही का सर है और ओलूल-अज़म (आली हौसला) पैग़म्बर और काहिन हक़ीक़ी और बादशाह जावदानी होगा। इस अम्र में वो शख़्स बाइस हैरत और ताज्जुब का ना पाएगा, जो ग़ौर और ताम्मुल करेगा कि जिस रूह के इल्हाम से ज़बूर तस्नीफ़ किए गए उसी ने अहवाल मज़्कूर-फिया (ऐसी बात जिस पर एतराज़ हो) की, पेश-बीनी और पेश इंतिज़ामी फ़रमाई और बलिहाज़ इस मज़्मून इल्हामी और रुहानी के कुतुब ईलाही कुल आलम के बाक़ी मक्तूबात से इस क़द्र मुतफ़र्रिक़ हैं जिस क़द्र माजरे और वाक़ियात मुंदरजा-फिया बाक़ी हर क़िस्म के वाक़ियात से मुम्ताज़ हैं और उन के मुसन्निफ़ भी बाक़ी सब मुसन्निफ़ों पर सबक़त और तफ़्सील रखते हैं। और इस अम्र यानी मज़्मून अव्वल और सानी के किसी नबुव्वत पर इतलाक़ करने की एक ये शर्त है कि वो आयात मुताअद्दह (متعددہ) के शुमार में हो, जो बाहम सिलसिला बन्दी से क़रीन (नज्दीक, मुल्हिक़) और मुकारिन (क़रीब) हों और सब एक ही हद-ए-नज़र और मंज़र में मुन्तहा (इंतिहा को पहुंचा हुआ, मुकम्मल) हों। चुनान्चे कलाम-उल्लाह से बख़ूबी साफ़ मालूम होता है कि अम्बिया की पेशीनगोइयों में जो तदाबीर बयान होती हैं वो ऐसी कुलि्इई्यतन کُلِّیَّتہً (पूरे तौर पर) हैं कि जिनके अजज़ा ख़ुश मुरत्तिब और मुनज़्ज़म हैं, जैसे कि मीनाकारी में संग रंगीन और जवाहरात सुर्ख़ व सब्ज़ मिलते हैं। इसी तरह जिन मज़ामीर दाऊद में दाऊद के अहवाल और अफ़आल मज़्कूर हैं, उन के लफ़्ज़ी और ज़ाहिरी मअनी में दाऊद ही नज़र आता है, मगर हक़ीक़ी माअनों से ख़ुद मसीह ही मुराद है। मसलन जब दाऊद अपना हाल बताता है कि मैं मुफ़्त मक़हूर (जिस पर ग़ुस्सा हो, जिस पर क़हर हो) और मज़्लूम हूँ और मौरिद लान तअन हूँ और जिन जुर्मों का मैं अस्लन और हरगिज़ मुर्तक़िब ना था, उनका मुजरिम ठहरा और मैं उन के सबब सज़ा भी उठाता हूँ जिनका तसव्वुर तक भी मकरूह जानता हूँ और हर-चंद कि मेरी जान तंगियों और तल्ख़ियों और रंजूरियों (बीमारीयों) में ग़र्क़ होती है, तो भी इस मेरे तवक्कुल और तवक़्क़अ में जो ख़ुदा पर है ज़रा भी ख़लल नहीं आता और ना मैं अपना तयक़्क़न (تیقّن यक़ीन) कलाम ईलाही से छोड़ता हूँ। बल्कि सिर्फ इसी के मुख़्तलिफ़ लज़ाइज़ और नफ़ाइस से मेरी तसल्ली है और कि, किस तरह बिलानागा ग़ुस्सावर और कीना ख़्वाह और ग़नीम मेरे दरपे होकर धावा करते हैं। यहां तक कि मैं सितम और तअद्दी (ज़ुल्म, सितम) से क़दरे भी आराम और तख़फ़ीफ़ (आफ़ाक़ा) नहीं पाता। (जिन सितमगरों के शुमार में मसम्माई दोएग और अबी सलौम व अख़ीतफ़ल मशहूर व मारूफ़ हैं) और ख़िलाफ़ उम्मीद व क़यास उन की ख़िफ़्फ़त (ख़जालत, नदामत) और अपनी सर-बुलंदी और मलकूती (बादशाही, सल्तनत) जलाली की पेशगोईयां फ़रमाता है तो इनमे और इन्ही की मानिंद दीगर उमूरात के आईना में दाऊद हक़ीक़ी यानी ख़ुदावंद मसीह की हक़ीक़त-ए-हाल मुनाकिस होती है। यानी मसीह का इल्म व अंदोह (रंजोग़म) और अपने बाप की इन्क़ियाद (ताबे होना, मुतीअ होना) और फ़र्मांबरदारी करना और अपने क़ातिलों की बे-इंसाफ़ी और ख़ियानत और उन दोनों के अंजाम और आक़िबत की पेशीनगोई, इन में मुतज़म्मिन (متضمِّن मुंदरज, शामिल) है कि वो ग़नीम तो रुस्वा और पशेमान (शर्मिंदा) और आप तख़्त नशीन और मुतजल्ला (आश्कारा) होगा।

फिर ऐसे ज़बूर भी होते हैं जिनके मज़ामीन और ही तरह के हैं कि गोया आस्मान खुल गया। ख़ुदा तआला अपने मज़लूमों की दस्तगीरी और पुश्त पनाही के लिए उतरा है। गोया बाद-ए-समूम (बहुत गर्म हुआ) और ज़लज़ल उल-अर्ज़ और बर्क़ व रअद और अब्रे सियाह बादशाह आला के मरकिबूं (मुरक्कब, वो शए जिस पर सवार हों, सवारी) को घेर लेते हैं और सरकोह (पहाड़ की चोटी) से दुख़ान (धूवां, भाप) अज़ीम उठते हैं। सख़्त-सख़्त कोह सख़्ता (जला हुआ, जाज़िब) गदाख़ता (पिघला हुआ) होते हैं। दरया-ए-अज़ीम मौजज़न और जुंबां (हिलता हुआ, लर्ज़ां) होते हैं। कीना वर और ग़नीमों के मंसूबे ख़स व ख़ाशाक (कूड़ा करकट) की मानिंद उड़ाए जाते हैं। मसीह का पेशदवां और मुशाबेह ख़ास यानी दाऊद तख़्त आला पर जलूस फ़र्मा कर हदूद सल्तनत को बढ़ाता है। अल्लाह के इबादतखाने कूबनी (तैयार, बनी हुई) और मामूर करने की तज्वीज़ करता है और शहर यरूशलीम बादशाह अज़ीम की हुज़ूरी से रौनक पज़ीर और सब क़ौमों और क़बीलों में मारूफ़ हो जाता है।

पस इन सब अहवाल का ताल्लुक़ और इत्तिफ़ाक़ ख़ुदावंद मसीह के बअस व सऊद और मलकूत के साथ इस दीबाचे के अंदर बयान व अयाँ करना क्या ज़रूरी है। इंशा अल्लाह तआला जे़ल में इनको मुफ़स्सिल बयान करेंगे। इल्ला इज्मालन (लेकिन मुख़्तसरन) हम यहां पर इतना कह सकते हैं कि हज़रत दाऊद के ज़बूरो में ख़ुदा तआला आप ही ऐसा साफ़ व सरीह और क़रीब और ज़िंदा नज़र आता है कि हमने गोया बचश्म ख़ुद उस का मुशाहिदा किया है और अपने दुख और रंज व अज़ाब का ऐसा ईलाज और मुआलिजा पाया कि गोया मोहलिक साँप के ज़हर से हम फ़ज़्ल ईलाही से शिफ़ायाब हो गए और ज़ईफ़ी से तक़वियत और तारीकी से रोशनी पाई। ख़ुदा हम पर फ़ज़्ल बख़्शे कि हम इन बातों पर बख़ूबी दिल लगा कर अच्छी तरह उन को फ़हम में लाएं। मसीह के वसीले से आमीन !

बाब अव़्वल

दरबयान आंका जुम्ला कलाम ईलाही दर मसीह मुन्तहा मीशूद व गोया मजमुआ अनाजील अस्त

(د ربیان آنکہ جملہ کلام الہٰی د ر مسیح منتہیٰ میشود وگویا مجموعہ اناجیل است)

बाअज़ अश्ख़ास नाख़्वान्दा और सफ़ाहत (कमीना पन, हमाक़त) वालों का ये ख़ामख़याल है कि दीन ईस्वी के रसाइल अक़ाइद और शारहीन (शारह की जमा, खोल कर बयान करने वाला, शरह लिखने वाला) की किताबों में जितनी बातें तहरीर और तस्तीर (क़लमबंद, सतर बंदी करना, लिखना) होती हैं। मसलन ख़ुदावंद मसीह के मुजस्सम होने की बाबत और आदमजा़द के एवज़ हज़ार-हा रंज उठाने और शैतान से मुम्तहिन होने और मूरिद-ए-मज़ाह (जिसका मज़ाक़ उड़ाया जाये) और मस्ख़रा पन की बाबत और मज़्लूम और मतरूक होने और आलम अर्वाह के दुरूद (सलवात, रहमत, शाबाश, इस्तिग़फ़ार, तारीफ़, दुआ-सलाम) करने की बाबत और मुर्दों से जी उठने और सब आसमानों से बाला-ए-तर सऊद करने और ख़ुदा तआला के दस्त-रास्त पर नशिस्त करने के हक़ में जितनी बातें बसराहत (खुल्लम खुला) तमाम लिखी हुई हैं, ये सब और इन्ही की मानिंद मसीह की उम्र के बाक़ी उमूर वाक़ये सिर्फ इंजील ही में मज़्कूर और मुबय्यन (बयान किया गया) हैं। अज़आनरो कि हज़रत दाऊद, यसअयाह, हज़िक़ीएल, दानीईल, ज़करीयाह और माबिका (बक़ीया) अम्बिया इन वाक़ियात आइंदा के इल्म व फ़हम से महरूम थे और इस क़दीमी अह्द व मीसाक़ से जिसके ज़रीये से ख़ुदा तआला सब कायनात पस्त व बाला पर अपने फ़ज़्ल और हिक्मत गूना-गौं (तरह तरह की) को मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) और नमूदार करना चाहता था, बिल्कुल नावाक़िफ़ और बे-इत्तिला थे? हालाँकि कुल अस्हाब माअर्फ़त और फ़हमीदा पर ज़ाहिर व आश्कारा है कि बमुश्किल एक अम्र इन वाक़ियात से मिलेगा। जो हज़रत मूसा की तौरेत में मुशाबहात से बयाँ व अयाँ नहीं होता। और बाअ्द-अज़-ज़मान मूसा, नबियों और पैग़म्बरों के सहाइफ़ सग़ीर व कबीर में ना बतौर कलिमात मिजाज़ी और तशबीहात के बल्कि बसफ़ाई व सलामत तमाम ये सब अहवाल इस क़द्र मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) और मुब्ययन होते चले आते थे कि अहले ईमान के लिए जो पुश्त दर पुश्त नूर और तारीकी के सख़्त जंग व जदाल पर सिपाह गिरी में मसरूफ़ और मुतय्यन थे। वो पेशीनगोईयां उन शख्सों की दिल जमई के लिए नजात व सलामती का मुक़र्रर (क़रार किया गया, बिलाशुब्हा, यक़ीनन) वसीला और ख़स्ता और शिकस्ता-दिलों का मुआलिजा (معالجہ) थीं।

इसी तरह हज़रत सुलेमान के इस मशहूर क़ौल का सबूत हो गया कि “सादिक़ों की राह नूर सहर की मानिंद है जिसकी रोशनी दोपहर तक बढ़ती ही जाती है।” (अम्साल 4:18) हाँ बल्कि फ़ील-तहक़ीक़ कुल कलाम-उल्लाह एक इंजील है और वो सब वाक़ेआत मुंदरजा-फिया (जूदर्ज किए गए हैं) जिन का बयान जाहिल लोग और बेतमीज़ मह्ज़ क़िस्सा और फ़साना जानते हैं, उन की मिसाल मानिंद खेत के है जिसमें ख़ुदा तआला ने बज़रीये अपने अम्बिया के अपनी आइंदा बादशाहत का तुख़्म बोया है। चुनान्चे ख़ुदा की ममलकत सिर्फ़ आलम-ए-ग़ैब ही में क़रार नहीं पकड़ती, बल्कि आलम-ए-शुहूद और ज़हूर में भी और उस का इश्तिहार सिर्फ ख़ुदा-तआला के कलिमात और अक़्वाल से नहीं, बल्कि उस के अफ़आल और उस की रिआयत और परवरदिगारी से भी जो आँजहानी ममलकत और सियासत में और बाक़ी मुहिम्मात आलम के इंतिज़ाम में नज़र आती है,गोश गुज़ार होता है। अज़-आनरो कि इन्सान के जिस्म में हड्डियां गोश्त, ख़ून और खाल से मुलब्बस होती हैं। इसी तरह ख़ुदा का इल्म उस के अमल और फे़अल में अयाँ व नुमायां होता है और ज़ाहिरी सूरत क़ुबूल करता है और मुफ़ीद मसाइल से साबित और दिल पज़ीर और दिलकश भी हो जाता है। जिस सबब से हज़रत दाऊद बारहा ताकीद और ताईद से ख़ुदा के मुक़द्दसों को ये फ़र्ज़ बताते हैं कि ना सिर्फ ख़ुदा के अक़्वाल मुबारक का तज़्किरा करें, बल्कि उस के अफ़आल और अजाइब का भी। जिनके वक़ूअ पर ख़त्म वसूक़ (यक़ीन) और एतबार कुतुब इल्हामिया मौक़ूफ़ है और जिनकी तरफ़ हज़ार-हा इशारात कुतुब क़दीम से कुतुब अख़ीर तक नक़्ल किए गए हैं। हाँ बल्कि मुहम्मदी भी मजबूरन और बे-अख़्तियारी से आप ही इक़रार करेंगे कि जितने क़िसस उन के फुर्क़ान में मन्क़ूल या इशारतन और कनायतन मज़्कूर हैं, वो सब अह्दे अतीक़ के क़िस्सा जात पर क़ायम और मुन्हसिर हैं। ग़ैर-अज़ (अलावा-अज़ीं, बजुज़ उस के) आंका अदयान यहूद के बे सर-व-पा (जिसका कोई सर पैर ना हो, झूट) फ़सानों से मुंतख़ब हुए। हासिल कलाम कुल कलाम-उल्लाह गोया मजमुआ-ए-अनाजील बल्कि मसीह में मुन्तहा होकर एक इंजील है।

चुनान्चे हज़रत मूसा की किताब ख़ुदा-ए-तआला की हिक्मत बेपायाँ (बेहद) और रूहुल-क़ुद्दुस की तौफ़ीक़ और उस की पेश-दानी से एक ऐसा मिरात (शीशा) है जिसमें हर फ़र्द मोमिन ने अपने नफ़्स का ऐब और सतर बातिनी और मौरूसी तबाह हाली और मौरूसी हाजतों का अक्स देखा और उन हाजतों के रफ़ा करने के मुक़र्ररी ईलाज और तदारुक की थोड़ी बहुत पेश फ़हमी और समझ हासिल की और बीनाई पाई। और अम्बिया की ख़ास रौनक और उन के क़िस्सों का उम्दा नफ़ा ये नहीं है कि अच्छी नसीहतों और नमूनों से हक़ जो यूं को फ़ज़ाइल की तर्ग़ीब और रज़ाइल से इबरत नुमाई और मुमानिअत कुल्ली करते हैं, बल्कि ये कि वो सब ख़ुदा के मलकूत के पेश दवां और पेशगो हैं और इस ख़ाना-ए-ईलाही की जो ख़ुद मसीह है एक बुनियाद हैं। बमूजब इस नविश्ते के कि “और (तुम) रसूलों और नबियों की नीव पर जिसके कोने के सिरे का पत्थर ख़ुद मसीह यसूअ है तामीर किए गए हो। उसी में हर एक इमारत मिल-मिला कर ख़ुदावंद में एक पाक मुक़द्दस बनता जाता है।” (इफ़िसियों 2:20, 21) फिर पतरस रसूल भी इस अस्ल का शाहिद (गवाह) है। “उस के यानी आदमीयों के रद्द किये हुए पर ख़ुदा के चुने हुए और क़ीमती ज़िंदा पत्थर (ख़ुदावंद यसूअ मसीह) के पास आकर, तुम भी ज़िंदा पत्थरों की तरह रुहानी घर बुनते जाते हो।” (1۔पतरस 2:4, 5)

और बमूजब इस इब्तिदाई तफ़्सीर के आप जान लें कि वो हम्दो सताइश जो मज़ामीर दाऊद का गोया नफ़्स और ऐन जान है, वो आम हम्दो सताइश नहीं है। पर इस हम्दो सताइश का मर्कज़ और मदार वो औसाफ़ ईलाही हैं जो गुमराहों के रुजू कराने में और ख़ताकारों के तस्दीक़ करने में और शिकस्ता-हाल लोगों के नजात व सलामत के वारिस करने में ख़ुदावंद मसीह के ज़रीये और तुफ़ैल से ज़ाहिर हुए हैं। चुनान्चे मुकाशफ़ा की किताब में मर्क़ूम है कि, “यसूअ की गवाही नबुव्वत की रूह है।” (मुकाशफ़ा 19:10) यानी गोया कुतुब अम्बिया के बाक़ी मुतालिब और मक़ासिद इन का जिस्म है और मसीह की गवाही उन की रूह है।

इस रिसाले की इब्तिदा में मुसन्निफ़ का ये इरादा है कि बाक़ी कुतुब मंज़िला के दलाईल ख़ुसूसुन मज़ामीर दाऊदी की शहादत (गवाही) को जो ख़ुदावंद मसीह के मनाज़िल और मुरातिब पर और उस की अल्लूवियत (علّویت बुलंदी, रिफ़अत) और ज़िल्लत दोनों पर हज़रत दाऊद की तरफ़ से दी गई है, अलहैदा (अलग) कर के उस की कैफ़ीयत बिल-तख्सीस और बाल-तहक़ीक़ इंशा-अल्लाह बयान करे। यक़ीन है कि ख़ुदावंद ने बार-हा इस शहादत (गवाही) को अपनी तरफ़ आइद और मंसूब किया और अपने महरमान इसरार (महरम-ए-असरार, पोशीदा बातों का जानने वाला) में जैसे हज़रत मूसा और हज़रत इब्राहिम को वैसे ही हज़रत दाऊद को भी शुमार किया। मसलन जब ख़ुदावंद मसीह मुबारक ने यहूद के रईसों और अस्हाब शराअ और फ़क़ीहों के रूबरू अपनी ज़ात और सिफ़ात ईलाही पर दावा करना मुनासिब जाना और उस को कुतुब ईलाही से साबित करना मुनासिब समझा (क्योंकि उस की उम्र मुबारक के हर एक अहवाल का एक मियाद और वक़्त मुईन था जिसमें इन उमूर मज़्कूर का इज़्हार करना ज़रूरी था) तो बतस्दीक़ और बताईद इस दावे के (ज़बूर 110:1) को नक़्ल कर के हज़रत दाऊद की गवाही से उन मोतरिज़ों को ख़जल और लाजवाब किया।

और फिर दूसरे वक़्त का ज़िक्र है जब ख़ुदावंद पहली बार ईद-ए-फ़सह की रसूमात अदा करने के लिए बैतुल-मुक़द्दस की तरफ़ तशरीफ़ फ़र्मा हुआ था और कोह-ए-ज़ैतून की चढ़ाई पर पहुंचा था। जिसकी चोटी से यरूशलेम की सब इमारतें और ख़ुसूसुन हैकल मुक़द्दस की रौनक और उस की जे़ब व ज़ीनत व जमाल यकलख़त नज़र आया तो ये अम्र उस वक़्त वाक़ेअ हुआ कि यहूदीयों की कुल जमाअत बे-इख़्तियार गोया रूहुल-क़ुद्दुस की तहरीक नागहानी से जोश व जुंबिश ज़दा होकर तमाम देखे और सुने हुए अजाइबात के सबब बड़ी बुलंद आवाज़ से शादमानी और शुक्रगुज़ारी के गीत गाने लगी। और मअन (साथ) मज़ामीर दाऊद से बाअज़ ऐसी पेश गोईयां यकदिली से ज़बान पर लाई कि जो उस ज़माने की अहले उम्मत के हरकत दिली के ज़ाहिर और आश्कारा करने के लिए ख़ुदा की इरादत क़दीमी से मुक़र्रर हो गई थीं यानी (ज़बूर 118:25-26) आयात से उन्होंने ये मज़्मून नक़्ल किया कि “इब्न-ए-दाऊद को होशाना।” मुबारक है वो जो ख़ुदावंद के नाम पर आता है। आलम-ए-बाला पर हो शाना।” (मत्ती 21:9) इस माजरे से साबित है कि इस क़ौम यहूद में जो ख़ुदा के वाअदे और मीसाक़ के ख़ास वारिस बर्गुज़ीदा थे, ये उम्मीदावर इंतिज़ारी ब-यक़ीन तमाम ज़मान बाद ज़मान उतरी चली आती थी कि दाऊद की पज़मुर्दा अस्ल से एक ज़माख़ (زماخ) यानी एक अस्ल जदीद और ताज़ा फूट कर शगुफ़्ता होगी। और फिर पेश-अज़-आंका ख़ुदावंद मसीह ने हज़रत आला के तख़्त जलाल की तरफ़ सऊद फ़रमाया।

एक मर्तबा कुल अह्दे अतीक़ को तीन जुज़ों में मुनक़सिम कर के और सब नबियों की पेशीनगोईयां अपने में इन्हिसार कर के यूं फ़रमाया कि “ये मेरी वो बातें हैं जो मैंने तुमसे उस वक़्त कही थीं जब तुम्हारे साथ था, कि ज़रूर है कि जितनी बातें मूसा की तौरेत और नबियों के सहीफ़ों और ज़बूर में मेरी बाबत लिखी हैं पूरी हों।” (लूक़ा 24:44)

तो अब मुसन्निफ़ का ये इरादा है कि इन तीन बुज़ुर्ग और मोअतबर गवाहों में से दोनों की गवाही पर मह्ज़ इशारतन व किनायतन लिहाज़ कर के ज़बूरों के नक़्ली दलाईल को बातशरीह हत्ता-उल-वसीअ पेश करे। जिस मुसद्दर ईलाही यानी रूहुल-क़ुद्दुस ने अम्बिया सलफ़ के ज़रीये से इस तस्वीर को खींचा, वही मुदब्बिर भी था, जिसने अपनी हिक्मत बेपायाँ से उस मुतसव्वर एलिया (ख़्याल किया गया) के अहवाल और अफ़आल का ऐसा इंतिज़ाम और बंदोबस्त किया कि उन में नक़्शा क़दीमी की पूरी मुताबिक़त और मुवाफ़िक़त हो। चुनान्चे अगर हम कुतुब सलासा की गवाही तीन हिस्सों में तक़्सीम करें तो हर एक फ़र्द में साफ़ मुताबिक़त पाई जाएगी। इन तीनों ख़िदमतों और ओहदों से जिनको ख़ुदावंद ने अपने ज़िम्में ले लिया था, ज़बूरों की गवाही में बाला इख़्तिसास (ख़ुसूसीयत रखना) बादशाहत की पेशीनगोई और तौरेत की गवाही में कहानत की ओर शहादत अम्बिया में नबुव्वत की।

पस इन तीनों में से शहादत ज़बूर को हमने अलैहदा (अलग) किया, इस से मुराद है कि मसीह की क़ुदरत व फ़ीरोज़ी (कामयाबी, रतगारी, फ़ीरोज़े के रंग का सब्ज़) और जलाल शाहाना पर जिससे बसबब नादानी और कोताह अंदेशी के अक्सर मुहम्मदी नावाक़िफ़ हैं, ख़ास ग़ौर और मुलाहिज़ा करने वालों को इस किताब की तरफ़ मुतवज्जा करूँ। हर-चंद कि इन्ही ज़बूरों में ख़ुदावंद की कहानत और नबुव्वत के ख़वास और फ़ज़ाइल के बाअज़ साफ़ और मौज़ूं दलाईल नज़र आते हैं और यक़ीन है कि ये सब तीन ओहदे और मुरातिब उस अज़ली वाअदे और मीसाक़ में दर्ज हैं, जिसे ख़ुदाए क़ादिर-ए-मुतलक़ ने हज़रत आदम की अह्द शिकनी और नाफरमानी के वक़्त से लेकर मसीह के तवल्लुद जिस्मी (जिस्मी पैदाइश) तक बज़रीये अम्बिया के आदमजा़द के साथ क़ायम फ़रमाया था। और सब तदाबीर और तजावीज़ ईलाही दरबाब नजात व सलामत आदमजा़द का मदार और मर्कज़ यही था। बानकदर कि जो शख़्स इस अस्ल मबदए (शुरू होने की जगह) तदबीर ईलाही से चूक गया हो, तो वो कलाम ईलाही की सैर करने में ऐसा कोताह शनास और ख़ूर्दा बीन है, जैसे दश्त में कूर चश्म (अंधा) बेराह और ग़म-गश्ता आवारागर्दी करता हो। क़रीब है कि रसूलों और नबियों के आली कलिमात ऐसे आदमीयों के लिए वाहीयात और मुहिम्मात ग़ैर इन्हिलाल (किसी मुरक्कब शैय के अनासिर तर्कीबी का अलग होना) की सूरत दिखाएं। चुनान्चे इस हम्दो सताइश के अंदर जो मज़ामीर दाऊद में बकस्रत व फ़रावानी मिल सकती है, ऐसे कौन से अस्मा व सिफ़ात ईलाही हैं जिनका उतना वक्र (बड़ाई, रुत्बा) होता है, जितना उन सिफ़तों का जो बवकालत और बवसातत ख़ुदावंद मसीह के आदमजा़द की सलामती के लिए ज़ाहिर व आश्कारा हो गईं। और इसी तरह तक़रीबन हर वाज़ व नसीहत और कलाम इबरत आमेज़ अम्बिया की यही मुराद और अंजाम नज़र आता है। और क़ौम यहूद के हर एक अब्र आफ़त और जोरू जफ़ा में उसी आफ़्ताब शिफ़ा की उम्मीद से सब अम्बिया अपने चराग़ रौशन कर के हर एक ख़ुदातरस और तालिब-ए-हक़ की दस्तगीरी और ख़ुदावंद की तरफ़ राहनुमाई फ़रमाया करते थे।

और अ़ला-हाज़ा-उल-क़यास (इसी क़ियास पर) मुबादी (मब्दा की जमा, बुनियादी बातें) मज़्कूर से ये नतीजा साफ़ व सरीह निकलता है कि वो क़दीमी व सीक़ह और वाअदा जिससे हज़रत ख़लील-उल्लाह मुशर्रफ़ थे, ग़ैर मुम्किन है कि हज़रत दाऊद की बिअसत और जलूस के बाद मंसूख़ हो गया हो। हाँ अगर बिलफ़र्ज़ मुम्किन था कि एक मज़्मून कलिमात और अक़्वाल ईलाही से नस्ख़ हो सकता है, तो बहर-ए-हाल मुमानिअत ख़ास तर्दीद और नस्ख़ तौरेत की इस बुरहान क़वी और रासिख़ से साबित होती है कि हज़रत दाऊद बिलानागा ब बलाग़त (फ़सीह कलाम) तमाम तौरेत का नाम लेकर उस के औसाफ़ और फ़ज़ाइल की तारीफ़ करते थे। और तारीकिन और गाफिलीन को मौरिद ग़ज़ब व इताब बताते थे। और जितनी ख़ल्क़त उस की तालिब हक़ीक़ी और ताबे हैं, उन को फ़ज़्ल और बरकत और माअर्फ़त ईलाही का वारिस बताते थे।

अगर कोई शख़्स किसी बात के दलाईल और मसाइल को देखना चाहता है तो वो शख़्स इंशा अल्लाह (19 और 119 ज़बूरों) से पूरी तसल्ली और इर्तिफ़ाअ (बुलंदी) शक पाएगा। और मज़ामीर दाऊद के और बेशुमार मुतालिब इन्ही माअनों से हैं और जिस तरह हज़रत दाऊद तौरेत मूसवी की तहसीन व तारीफ़ करते हैं, उसी तरह उस अहदो व सीक़ह सलफ़े-ईलाही का जो तौरेत में मबय्यन है, बतौर इशारा और तक़रीर मुसफ़्फ़ा (साफ़) के शाहिद भी हैं। मसलन (ज़बूर 74 की 20 वीं आयत) में हज़रत मौसूफ़ बारी तआला से यूं सवाल करते हैं कि “(ऐ ख़ुदावंद तू) अपने अह्द का ख़्याल फ़र्मा क्योंकि ज़मीन के तारीक मुक़ाम ज़ुल्म के मस्कनों से भरे हैं।” और फिर (ज़बूर 50 आयत 5 और 6) में यूं मर्क़ूम है “कि मेरे मुक़द्दसों को मेरे हुज़ूर जमा करो जिन्हों ने क़ुर्बानी के ज़रीये से मेरे साथ अह्द बाँधा है। और आस्मान उस की सदाक़त का बयान करेंगे क्योंकि ख़ुदा आप ही इन्साफ़ करने वाला है।”

शायद कोई मोअतरिज़ बतरीक़ मुनाज़रा के कहे कि मेरी दानिस्त और फ़हमीदा में आयात मज़्कूर में वो अह्द सलफ़ नहीं है जो हक़-तआला ने ख़लील-उल्लाह को मर्हमत व अता फ़रमाया है। बल्कि अह्दे जदीद है, जो इस पहले के मंसूख़ होने के बाद हज़रत दाऊद के साथ मुन्अकिद था।

तो अव्वलन जवाब सरीह और क़तई ये है कि अह्द मज़्कूर हज़रत दाऊद के साथ मख़्सूस ब ज़बाइह व क़ुर्बानी है जो अह्द मूसवी की अलामतें बिल-तख्सीस थीं। चुनान्चे इस में मर्क़ूम है किया“जिन्हों ने क़ुर्बानी के ज़रीये से मेरे साथ अह्द बाँधा है” फ़क़त।

सानियनइस एतराज़ का ये जवाब है कि इस अह्द साबिक़ इब्राहीम पर एक ये शर्त साबित है कि इताअत उन अहकाम और हिफ़ाज़त उन उमूर की हो जो तौरेत मुबारक में मुतज़म्मिन (मुंदरज) थे। बआनक़दर कि जिसने उनका इम्तिसाल (हुक्म मानना) ना किया, बल्कि उन से ग़ाफ़िल रहा, वो शख़्स और वो उम्मत इस मीसाक़ के लुत्फ़ और बरकत मौऊद से साक़ित और महरूम होने वाले थे। बमूजब इस शहादत हज़रत दाऊद के “लेकिन ख़ुदावंद की शफ्क़त उस से डरने वालों पर अज़ल से अबद तक और उस की सदाक़त नस्ल दर नस्ल है। यानी उन पर जो उस के अह्द पर क़ायम रहते हैं और उस के क़वानीन पर अमल करना याद रखते हैं।” (ज़बूर 103:17,18) यानी उन अश्ख़ास पर जो अहकाम तौरेत से उम्दन व क़सदन मुतजाविज़ नहीं होते।

सालिसनजवाब इस एतराज़ का ये है कि हज़रत दाऊद बारहा इस अह्द क़दीमी के अबद-उल-आबाद तक ग़ैर मुतग़य्यर (बदला हुआ) और ग़ैर-फ़ानी होने पर शाहिद (गवाह) हैं। देखो इस अहद की अबदीयत किया ही सरीहन और मुकर्रन मशहूद (ज़ाहिर) है।” उस ने अपने अह्द को हमेशा याद रखा। यानी उस कलाम को जो उस ने हज़ार पुश्तों के लिए फ़रमाया। उसी अह्द को जो उस ने अब्रहाम से बाँधा और उस क़िस्म को जो उस ने इज़्हाक़ से खाई और उसी को उस ने याक़ूब के लिए आइन यानी इस्राईल के लिए अबदी अह्द ठहराया।” (ज़बूर 105:8-10) पस अबदीयत इस अह्द की और अस्नाद और इस्तिक़रार इस अह्द व मीसाक़ पर मुस्तल्ज़िम (लाज़िम) बाईं अम्र है कि अस्ल मीसाक़ इब्राहीमी और मीसाक़ दाऊदी फ़िल-हक़ीक़त दो नहीं, बल्कि एक ही है। अगरचे उन के लफ़्ज़ों और सूरतों में ज़रा सा फ़र्क़ भी मालूम हो, मगर उनका अस्ल मज़्मून मुत्तहिद-उल-माअनी है और दोनों का अंजाम मसीह है और दोनों में उस ख़ुदावंद की विलादत जिस्मिया, वफ़ात और बिअसत व सऊद से इशारा है। और इन दलाईल नक़्लिया के बमूजब मुस्लिम हक़ीक़ी और रोशन ज़मीर के लिए मुस्तहील (मुहाल हीलाजो) है कि वसीक़ा मौऊद हज़रत दाऊद और इब्राहिम को मंसूख़ और रद्द ना जाने बआनकदर कि उन के उसूल का ग़ौर व मुलाहिज़ा और मुद्दत इला-एहकाम का इन्क़ियाद अपने ऊपर लाज़िम ना जाने।

ख़ुलासा कलाम ये है कि कुल जमाअत अम्बिया इस अह्द क़दीम इब्राहीमी के वारिस और शाहिद हाल हैं और ये भी यक़ीन है कि सब मोमिनीन और अहले ईमान जो पाक अम्बिया की रिफ़ाक़त में क़ायम व दाइम रहते हैं, सब इस अहद की रिफ़ाक़त में बफ़ज़्ल ईलाही ख़ुदावंद मसीह की ख़ातिर शामिल होते हैं। चुनान्चे दीन ईलाही के दो फ़राइज़ और ज़रूरी हैं। अव्वल,ये कि ख़ुदा तआला की किब्रियाई को बिलाशुब्हा मंज़ूर करें। दुवम, ख़ुदा की मर्ज़ी मारूफ़ और मशहूद पर क़ुर्बान हो जाएं। क्या ही सआदत-मंद और मुबारक है। वो ईमानदार जो आप ही इस रिफ़ाक़त में शरीक हो कर और रूहुल-क़ुद्दुस के ख़त्म (मुहर) अंदरूनी से मख़तूम (मुहर शुदा) हो कर हज़रत दाऊद को गोया अपना इमाम जान कर बतौर मुक़्तदी के वो इक़रार कर सकता है जिसे उस मुबारक ने क़रीब-उल-इंतिकाल जोश दिली से किया था कि :-

“उस ने (ख़ुदा तआला) ने मेरे साथ एक दाइमी अह्द जिसकी सब बातें मुईन और पाएदार हैं बाँधा है क्योंकि यही मेरी सारी नजात और सारी मुराद है।” (2 समुएल 23:5)

राबिअन क़ाबिल-ए-ग़ौर व लिहाज़ है कि ज़करीयाह अबू अल-यहया (युहन्ना इस्तिबाग़ी का बाप) उस हम्द व सताइश के गीत में जो ख़ुदावंद मसीह के तवल्लुद (पैदा होने) के वक़्त रूह के इल्हाम से फ़रमाया था, साफ़ ताकीद इस बात की करता है कि इस अम्र वाक़ेअ यानी तवल्लुद मसीह में अह्द इब्राहीमी और मीसाक़-ए-दाऊदी पूरा और ईफ़ा (वफ़ा करना) हो गया। और दोनों मीसाक़ों का इत्तिसाल और इत्तिफ़ाक़ ख़ुदावंद मसीह में आकर हुआ। और ये भी कि वो फ़ैज़ और फ़ज़्ल-ए-ईलाही जिनका मजमा और मुन्तहा ख़ुद मसीह ही था, सिर्फ वही बरकात और इनाम थे जो सब अम्बिया ख़सूसुन हज़रत इब्राहिम और दाऊद पर मौऊद हो गए थे। गोया मह्ज़ तामील उस इल्म की थी जो मुक़द्दसीन सलफ़ को मर्हमत फ़रमाया गया। जैसे लूक़ा की इंजील के पहले बाब में लिखा है कि “ख़ुदावंद इस्राईल के ख़ुदा की हम्द हो क्योंकि उस ने अपनी उम्मत पर तवज्जूह कर के उसे छुटकारा दिया। और अपने ख़ादिम दाऊद के घराने में हमारे लिए नजात का सींग निकाला। जैसा उस ने अपने पाक नबियों की ज़बानी कहा था जो कि दुनिया के शुरू से होते आए हैं। यानी हमको हमारे दुश्मनों से और सब कीना रखने वालों के हाथ से नजात बख़्शी। ताकि हमारे बाप दादा पर रहम करे और अपने पाक अह्द को याद फ़रमाए। यानी उस क़िस्म को जो उस ने हमारे बाप अब्रहाम से खाई थी।” (लूक़ा 1:68-73) और इसी सबब से मत्ती अपनी इंजील में मसीह के नसब नामे की फ़हरिस्त के शुरू में ये लिखता है कि “यसूअ मसीह इब्न-ए-दाऊद इब्न-ए-अब्रहाम।” (मत्ती 1:1) गोया तमाम मतलब इन दोनों लफ़्ज़ों पर मौक़ुफ़ है।

बाब दोम

दरबयान आँ इस्तिलाहात-ए-ज़बूर कि बर नजात व ह्यात बख़्श ख़ुदावंद मसीह साफ़ व सरीह दलालत मेकिनंद

دربیان آں اِصطلاحاتِ زبور کہ بر نجات وحیات بخش

خداوند مسیح صاف و صریح دلالت میکنند

पहले बाब से तशरीहन मालूम हो गया कि मज़ामीर दाऊद उसी अह्द क़दीमी की बुनियाद पर जिसके हज़रत इब्राहिम और उस की औलाद हक़ीक़ी वारिस हैं, मबनी और मुन्हसिर है कि वो अह्द व मीसाक़ शराअ मूसवी की रस्मों और सुन्नतों के साथ रासिख़ रिश्तों और राब्तों से वाबस्ता था और उस के मुक़र्ररी ईदों और ओहदों और क़वाइद ख़िदमत व इबादत में सराहतन मशहूर और मुशारु इलैह (مُشارُٗاِلیہ) था। ताआंकदर कि जितने साय उस में पाए जाते हैं, उनका बदन हक़ीक़ी ऐन मसीह है। और मुरादों और मक़्सूदों की तक्मील और ततमीम (मुकम्मल करना) मसीह के अफ़आल और उम्र के अहवाल में नज़र आती है। पर बिल-फ़अल तौरेत और इंजील के बाहमी इत्तिफ़ाक़ और इत्तिसाल (मिलाप) से क़त-ए-नज़र कर के हमारा ये इरादा है कि ग़ौर से लिहाज़ करें और तालिबान हक़ व नजात को मुतवज्जा करें। ज़बूर दाऊदी की उन इस्तिलाहात पर जिनमें सराहतन इस आइंदा नजात और हयात-बख़्श ख़ुदावंद मसीह की तरफ़ इशारा है और जो उस के कमालात के मज़हर और मुअर्रफ़ भी हैं। मसलन जब हज़रत दाऊद चाहते थे कि इज्मालन इन बरकतों और नेअमतों का मजमा जो मसीह की आमद से दस्तयाब होने वाला था, पेश करें तो वो उन्हें दो लफ़्ज़ों में मुन्तहा और मुजतमा करते हैं। यानी सदाक़त और सलामत में। और बिलाशुब्हा इस आइंदा मुनज्जी आलम (दुनिया को नजात देने वाले) के नाम व निशान में से इन्ही दोनों को इख़्तियार करना निहायत वाजिब और मुस्तहसिन (पसंदीदा, बेहतर) था।

अज़ां जिहत (इस सबब से) कि इन्सान की हालत उनके बग़ैर सख़्त-तर और तल्ख़-तर थी और दोनों में बाक़ी सब बरकतों का गोया तुख़्म और ज़ुबदह (किसी चीज़ का बेहतरीन हिस्सा) मब्दा मुतज़म्मिन (शामिल) है। और इन दोनों फ़वाइद का ज़िक्र मुक़र्रर सहकर्रर (बार-बार कई मर्तबा) कलाम में दाख़िल है, मगर हरगिज़ इन का ज़िक्र बईं तौर व तरीक़े नहीं है, जिससे ज़ाहिर हो कि उन हर दो की तहसील पैग़म्बर-ए-ज़माने की शफ़क़्क़त और सिफ़ारिश पर मौक़ूफ़ है। मगर इन का ताल्लुक़ और ईलहाक़ तक़रीबन हमेशा उस अह्द सलफ़ के साथ है जो जन्नत-ए-अदन के वाअदे से शुरू हो कर और मीसाक़ इब्राहीमी में तस्दीक़ और तबसीत (तबस्सुत, फैलाओ, फ़राख़ी) पाकर और सहफ़ अम्बिया में और भी तशरीह और तरक़्क़ी और कुशादगी हासिल कर के आख़िर को नस्ल मौऊद यानी मसीह में ईफ़ा को पहुंचा। इस अम्र के सबूत में हम बाअज़ आयात को सहीफा-ए-ज़बूर से निकाल कर पेश करते हैं जो क़ाबिल मुलाहिज़ा व गौर हैं।

अव्वलन (ज़बूर 71 की 15 वीं आयत) में पाक नबी यूं फ़रमाता है “मेरे मुंह से तेरी सदाक़त का और तेरी नजात का बयान दिन-भर करूँगा।” (अस्ल ज़बान इब्रानी में लफ़्ज़ सदक़ात ((צִדְקָתֶ֗)) और “तशूआत” ((תְּשׁוּעָתֶ֑)) है क्योंकि मुझे उनका शुमार मालूम नहीं।” जानना चाहीए कि लफ़्ज़ “तशूआत” उस मुसद्दिर से मुश्तक़ है जिससे लफ़्ज़ मुबारक “यसूअ” निकला है। पस इस आयत के क़रीने और सियाक़-ए-कलाम से आश्कारा है कि हज़रत दाऊद अपने ग़नीमों और कीनावरों के फ़न फ़रेब से ज़ुल्म और लान-तअन उठा कर बाक़ी सब उम्मीदों और इलाजों से मायूस हो कर सब दोस्तों से जुदा हो जाते हैं और अस्मा और सिफ़ात ईलाही के तज़्किरा और हदो-हिसाब की तरफ़ रुजू होते हैं। चुनान्चे सिर्फ़ इसी से इत्मीनान और दिल-जमई पाते हैं। मगर ख़ुसूसुन इन्हीं दो सिफ़तों की याद करते हैं कि गोया मीसाक़ फ़ज़्ल के सब क़वाइद इन्हीं के अहाते के अंदर मुक़य्यद और मुन्हसिर हैं। और वो मर्द-ए-ख़ुदा इसी ज़बूर में अपने अज़्म-बिल-जज़म (पक्का इरादे) का मअरूज़ (अर्ज़, गुज़ारिश) ख़ल्क़-अल्लाह के रूबरू करता है कि मैं अपनी कुहन साली (बुढ़ापा) और दराज़ी उम्र में अपने अहलेज़बान से इस सलामत और सदाक़त की तशरीह और अशहाद (शहादत देना) करने में मशग़ूल हूँ ताकि पुश्त दर पुश्त वो शहादत (गवाही) मुतवातिर अज़्मिना ख़लफ़ के हवाला की जाये।

सानियन फ़ज़ाइल व फ़वाइद मज़्कूर (ज़बूर 72) के जान व क़ल्ब (दिल) हैं। गोया इसी क़ुतुब और मदार कलाम की तरफ़ बाक़ी सब मअनी रुजू लाते हैं और उन्हीं दो लफ़्ज़ों पर मसीह की बुनियाद क़ायम बताई जाती है और उस की मुमलकत सब आँजहानी मुमलकतों से इस जिहत से मुम्ताज़ है कि उस के फ़ैज़ फ़रावान से वो जो उन्हें बरकात मौसूफ़ा के तालिब और मुहताज हैं सैर व आसूदा होंगे। (ज़बूर 72 की 3,4 आयात) में यूं मर्क़ूम है कि, “इन लोगों के लिए पहाड़ों से सलामती के और पहाड़ीयों से सदाक़त के फल पैदा होंगे। वह उन लोगों के ग़रीबों की अदालत करेगा। वो मुहताजों की औलाद को बचाएगा और ज़ालिम को टुकड़े टुकड़े कर डालेगा।” अस्ल ज़बान यानी इब्रानी में उनका यसूअ होगा। इन से और इन की मानिंद और आयतों से मसलन (ज़बूर 80) से साफ़ मालूम होता है कि फ़ज़ाइल मज़्कूर ना अह्ले इल्म व फ़ज़्ल और ना इस जहान के कबीरून और फ़ख़्र करने वालों के साथ, बल्कि मिस्कीनों और मज़्लूमों और शिकस्ता-दिलों के साथ मख़्सूस हैं। और हर क़ौम और क़बीले का हर शख़्स उन में शामिल है जिस का मिज़ाज ख़ुदावंद के इस क़ौल शफ्क़त आमेज़ और मुबारक के मुवाफ़िक़ है। “मुबारक वो हैं जो दिल के गरीब हैं।” (मत्ती 5:3) और “रास्तबाज़ी के भूके और प्यासे हैं क्योंकि वो आसूदा होंगे।” (मत्ती 5:6)

सालसन (ज़बूर 85 आयत 4) और आख़िरी आयतों में ना सिर्फ ताकीद मज़ीद अल्फ़ाज़ से वो दोनों औसाफ़ मज़्कूर सतूदा (जिसकी तारीफ़ की जाये) और महमूदा हैं, बल्कि कई एक बख़्शिशों का शुक्राना भी है। जिनका ख़ास ताल्लुक़ मुनज्जी आलिमीन (कायनात को नजात देने वाले) के साथ मुतअद्दिद नक़्ली दलाईल से साबित होता है। यानी लफ़्ज़ “तस्दीक़” यानी “सिदक़” मुक़र्रर (बार दीगर) और “यशअ” यानी “नजात” मुक़र्रर सहकर्रर और तीन और इस्तिलाहात भी हैं यानी “शालोम” बमाअनी “सुलह व सलामत”, “हिसिद” बमाअनी “रहमत व शफ्क़त” और “इमित” बमाअनी “अमानत।” ये सलासा अल्फ़ाज़ क़रीन-ए-कलाम में दाख़िल हैं और जो लोग ज़बान इब्रानी से वाक़िफ़ हैं अगर सिर्फ बैक नज़र इस ज़बूर पर नज़र करें तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि ये तमाम ज़बूर यसूअ मुबारक के इस्म मुबारक से मुअत्तर है। और उन सिफ़ात और तजल्लियात ईलाही से जो नजात की तदबीरों में कश्फ़ व नुमायां हैं, अजीब तौर पर खुशबू-दार है। और अगर क़दरे और भी गौर व मुलाहिज़ा करें तो साफ़ ज़ाहिर हो जाएगा कि इस ज़बूर में ना सिर्फ हज़रत दाऊद के ज़माने के किसी अम्र वाक़ई की तरफ़ इशारा है, बल्कि ज़्यादा वुसअत और कुशादगी और वज़न व वक़ार की तरफ़ इशारा है जो एक ही क़ौम, मुल्क और ज़माने की हदों से मुतजाविज़ है। यानी इस सर्र गैब की तरफ़ जिसका मुफ़स्सिल हाल (इफ़िसियों दूसरे बाब) में है। और यक़ीन है कि अगर बिलाताअस्सुब इनाद के ज़बूर की उन पिछली आयतों को हज़रत बीबी मर्यम और ज़करीयाह के उन गीतों के साथ मुक़ाबला करेंगे जो लूक़ा की इंजील के पहले बाब में मज़्कूर हैं, तो गोया बे-इख़्तियार इक़रार करेंगे कि बिलाशुब्हा एक ही नजात व सलामत और एक ही नजातदिहंदा है जिसकी तरफ़ इन तीनों ज़बूरों में इशारा है। मसलन जो सवाल इस (ज़बूर 85 आयत 6) में है यानी “क्या तू हमको फिर ज़िंदा ना करेगा ताकि तेरे लोग तुझमें शादमान हों?” तो इस सवाल का हक़ीक़ी जवाब ज़करीयाह के गीत की पहली दो आयतों में पाया जाता है कि “ख़ुदावंद इस्राईल के ख़ुदा की हम्द हो क्योंकि उस ने अपनी उम्मत पर तवज्जा कर के उसे छुटकारा दिया। और अपने ख़ादिम दाऊद के घराने में हमारे लिए नजात का सींग निकाला।” (लूक़ा 1:68,69) और वो साहब ये भी इक़रार करेंगे कि वह दुआ और सवाल जो (ज़बूर 80 की 7 वीं आयत) में पढ़ा जाता है यानी “ऐ लश्करों के ख़ुदा ! हमको बहाल कर और अपना चेहरा चमका तो हम बच जाऐंगे।” इस का जवाब हज़रत ज़करीयाह की इन आयतों में पाया जाता है कि “जैसा उस ने अपने पाक नबियों की ज़बानी कहा था जो कि दुनिया के शुरू से होते आए हैं। यानी हमको हमारे दुश्मनों से और सब कीना रखने वालों के हाथ से नजात बख़्शी।” (लूक़ा 1:70,71)

इसी तरह वो सिफ़ात करीम और अस्मा जलील जो इस (ज़बूर 85 की 9 वीं,10 वीं आयतों) में मज़्कूर हैं और उन के इज़्हार के क़रीब होने की बशारत बकमाल तयक़्क़ुन की जाती है, यानी सुलह व सलामत व निजात व सदाक़त व जलाल। ये सब इसी वक़्त ज़हूर व शुहूद में आने वाली थीं और अपने नूर ईलाही की शआएं इसी वक़्त दूर क़रीब तक मुंतशिर करने वाली थीं। जब ज़करीयाह मुक़द्दस रूह के इल्हाम की तौफ़ीक़ से ये हम्द व सताइश की बातें अपनी ज़बान पर लाया कि “ये हमारे ख़ुदा की ऐन रहमत से होगा जिसके सबब से आलम-ए-बाला का आफ़्ताब हम पर तलूअ करेगा। ताकि उन को जो अंधेरे और मौत के साये में बैठे हैं रोशनी बख़्शे और हमारे क़दमों को सलामती की राह पर डाले।” (लूक़ा 1:78,79)

ऐसे नक़्ली दलाईल से यक़ीन है कि अहद-ए-नजात और मीसाक़ हयात के इश्तिहार देने में एक बड़ा हिस्सा कलां और बख़राह गिरां हज़रत दाऊद को सपुर्द और मर्हमत हुआ। और कौन सा हिस्सा ख़ल्क़-उल्लाह के लिए इस आलम-ए-फ़ानी में इस से बढ़कर हो सकता है कि उस की तमाम उम्र तश्बीह और तस्वीर की राह से ख़ुदावंद मसीह की सल्तनत के फ़राइज़ का इज़्हार और इश्तिहार करे। इलावा बरीं वो ख़ुदा तआला के बाअज़ कमालात बुज़ुर्ग और जलाली को जो मसीह के मुजस्सम होने के वक़्त मिन वर्राऐ (مِن وَّرَآءِ) हिजाब शुहूद (पर्दा में हाज़िर होना) में आ गए। उन्हें अपने ख़ास विरसा के लिए हासिल कर के उन के इर्फ़ान व तअर्रूफ़ (शनाख़्त करना, जताना) से मुशर्रफ हो (इज़्ज़त बख़्शना) और नबियों की पाक जमाअत में निहायत आली रुत्बा तक सर्फ़राज़ हो। यहां तक कि और नामी गिरामी नबियों ने अपने चराग़ों और मशालों का इक़्तिबास किया। इस बात की उम्दा मिसाल हज़रत यसअयाह हैं, जिसे बाअज़ मुफ़स्सिरों ने बसबब सराहत इन पेश ख़बरियों के जिन्हें उस मुक़द्दस ने ख़ुदावंद मसीह के ज़हूर की बाबत तहरीर फ़रमाई, इंजीलों के शुमार में दाख़िल किया है। चुनान्चे(यसअयाह बाब 45 आयात 22,24,25) में औसाफ़ मज़्कूर की बाबत यूं लिखा है कि “ऐ इंतिहाई ज़मीन के सब रहने वालो तुम मेरी तरफ़ मुतवज्जा हो और नजात पाओ।” (यसअयाह 45:22) “मेंरे हक़ में हर एक कहेगा कि यक़ीनन ख़ुदावंद ही में रास्तबाज़ी और तवानाई है।” (यसअयाह 45:24) “इस्राईल की कुल नस्ल ख़ुदावंद में सादिक़ ठहरेगी।” (यसअयाह 45:25) और फिर (ज़बूर 96)में हज़रत दाऊद ना सिर्फ अस्मा और सिफ़ात मज़्कूर की बशारत देते हैं, यानी ना सिर्फ ख़ुदा तआला की सदाक़त और अमानत की ताज़ीम करते हैं, बल्कि उम्मत यहूद और कुल आलम की क़ौमों और क़बीलों से बहस्ब फ़र्ज़ रिसालत ललकार कर दावे करते हैं कि तुम सब लोग इस शाह जलील के दबदबे और किब्रियाई (अज़मत) के ख़ौफ़ के मारे ख़ाकसारी से उस की परस्तिश करो और उस की नजात की ख़बरें शहरह-ए-आफ़ाक़ करो। और सिर्फ यही नहीं बल्कि इस मौक़े पर और मुक़ामों की तरह ये भी बयान करता है कि इस नजात व सलामत में ख़ुदा तआला की अदालत भी रौनक अफ़्ज़ा (जलवा फ़रमा) और मुतजल्ला (متجلیّٰ) हो जाती है।

हाँ ऐ साहिबो कलाम-उल्लाह की भारी से भारी तालीमों में ये भी बाल-ज़रूर शामिल है कि जिस वक़्त रब तआला अपनी रहमत और फ़ज़्ल को ज़हूर में लाता है तो इन्साफ़ और अदालत भी फ़ौरन शुहूद में आते हैं। क्योंकि बारी तआला इस तौर पर रहीम और फ़ैज़ और लुत्फ़ फ़र्मा नहीं हो सकता कि आदिल और सादिक़ुल-क़ौल होने से बाज़ आए, यानी उस के एक ख़ास इस्म व सिफ़त की रौनक और जलाल इस वज़अ से बढ़कर नहीं हो सकती कि सानी में ख़लल आ जाए। और ना एक की ऐसी तफ़ज़ील (फ़ज़ीलत देना) जायज़ है जिससे दूसरे की तज़लील (बेइज़्ज़ती) हो जाये। देखो इस ज़बूर में ये तीन बड़ी सिफ़तें क्या ही अजीब तौर पर बाहम पैवस्ता हैं और हर एक इन में से ऐसी पाक और सरीह (साफ़) मालूम होती है कि गोया हर वाहिद बाक़ी सबकी हिमायत और हिरासत का ज़मादार है। अज़ां वजह( इस वजह से) कि रहमत और फ़ज़्ल का वअज़ और बशारत और सदाक़त और अदालत की मुनादी भी है और इन दोनों की जुदाई व तलाक़ क़यासन भी मतरूक (तर्क किया गया) और मंसूख़ है।

चुनान्चे सबूत व वसूक़ (यक़ीन) इस बात का ख़ुदावंद मसीह के मस्लूब होने ओर सलीब बर्दारी और अज़ाब कुशी में ऐसा साफ़ और सरीह नज़र आता है कि, और किसी दलील से नहीं हो सकता। और नबी और रसूल इस बात पर निहायत ताकीद करते हैं कि ख़ुदा की पर्वर्दिगारी और उस की रिआयत कलीसिया के हक़ में और अदालत और रहमत अज़-इब्तदा ता-इंतिहा (शुरू से आखरी तक) दस्त-ब-दस्त पैवस्ता चली जाती है। और दोनों का मेल व इत्तिफ़ाक़ मुहब्बत से है। हाँ बिलाशुब्हा इस सलीब बर्दारी और जफ़ाकशी और मौरिद क़हर होने में एक सर-ए-ग़ैब है जो आलिमों और फ़ाज़िलों से अक्सर मख़्फ़ी (छिपी) है, लेकिन मिस्कीनों पर फ़ाश हो जाता है। यानी ख़ुदावंद मसीह जिस वक़्त अपनी सलीब पर से मुज़्दाहयात व सलामत ख़ल्क़ दूर दराज़ तक फैलाता है तो अदालत की राह से भी आदमजा़द की हक़ीक़त-ए-हाल की तमीज़ और तफ़ासुल करता है। और उस अदालत को जिसका अख़ीर और इख़्तताम अख़ीर उल-अय्याम में होगा, शुरू कर के इसी इंजील की हर रोज़ की मुनादी और वाक़ियात आलम की रिआयत में बढ़ाता और बरक़रार करता है।

हासिल कलाम ये है कि वो मुजदह इंजील जो इसी बाब में दरपेश होता है, क़ाबिल-ए-ग़ौर व लिहाज़ है और उस राज़ की तरफ़ इशारा कई एक और मौज़ूं मुक़ामात में मिलता है, मसलन मसीह ख़ुद मोअतरज़ान (एतराज़ करने वाले) यहूद के रू-बरू फ़रमाता है कि “मैं दुनिया में अदालत के लिए आया हूँ ताकि जो नहीं देखते वो देखें और जो देखते हैं वो अंधे हो जाएं।” (युहन्ना 9:39) और इस बात पर (मुकाशफ़ा बाब 14 की 6,7 वीं आयात) मुत्तफ़िक़ हैं “फिर मैंने एक और फ़रिश्ते को आस्मान के बीच में उड़ते देखा जिसके पास ज़मीन के रहने वालों की हर कौम और क़बीला और अहले ज़बान और उम्मत के सुनाने के लिए अबदी ख़ुशख़बरी थी। और उस ने बड़ी आवाज़ से कहा कि ख़ुदा से डरो और उस की तम्जीद करो क्योंकि उस की अदालत का वक़्त आ पहुंचा है।” इस ज़बूर के मज़्मून में एक और बात क़ाबिले लिहाज़ है जो इस राज़ का वज़न और मदार है कि ना कोई फ़रिश्ता और नबी, बल्कि ख़ुदावंद आप ही तशरीफ़ फ़र्मा हो कर अपनी नजात और सलामत व सदाक़त का इन्किशाफ़ करेगा। (ज़बूर 96:12-13) में लिखा है कि “मैदान और जो कुछ उस में है बाग़-बाग़ हों, तब जंगल के सब दरख़्त ख़ुशी से गाने लगेंगे, ख़ुदावंद के हुज़ूर, क्योंकि वो आ रहा है, वो ज़मीन की अदालत करने को आ रहा है, वो सदाक़त से जहान की और अपनी सच्चाई से क़ौमों की अदालत करेगा।” और ख़ुदावंद मसीह की जितनी निशानीयां और पेश-गोईआं अह्दे अतीक़ में हैं, उनका जो ऐन क़ल्ब (दिल) और क़ुतुब और वो रिश्ता और राबिता है जिससे वो बाहम मुंतज़िम और मरबूत हैं। ख़ुदावंद ख़ुदा ही की इमदाद से उस की हुज़ूरी का वाअदा है यानी ये कि वो आने वाला और मौऊद नजात का बख़्शने वाला कोई दुनियवी बादशाह या नबी नहीं है, बल्कि ख़ुदावंद बईना और बनफ़्सिही अपनी सूरत जलाल वाली और नूरानी दिखाएगा, पर तो भी उस की क़ुदरत हलीम आमेज़ और फ़ज़्ल पज़ीर होगी। चुनान्चे यसअयाह इंजीली की बाअज़-बाअज़ आयतों से अज़हर-मिन-अश्शम्स (रोज़-ए-रौशन की तरह अयाँ) है, यानी (यसअयाह बाब 40 आयात 5,9,11) में यूं बयान हुआ है कि “ख़ुदावंद का जलाल आश्कारा होगा और तमाम बशर (इंसान) उस को देखेगा क्योंकि ख़ुदावंद ने अपने मुँह से फ़रमाया है।” (यसअयाह 40:5) “ऐ सियोन को ख़ुशख़बरी सुनाने वाली ऊंचे पहाड़ पर चढ़ जा और ऐ यरूशलेम को बशारत देने वाली ज़ोर से अपनी आवाज़ बुलंद कर! ख़ूब पुकार और मत डर। यहूदाह की बस्तीयों से कह ! देखो अपना ख़ुदा ! देखो ख़ुदावंद ख़ुदा बड़ी क़ुदरत के साथ आएगा और उस का बाज़ू उस के लिए सल्तनत करेगा। देखो उस का सिला उस के साथ है और उस का अज्र उस के सामने। वो चौपान की मानिंद अपना गल्ला चराएगा। वो बर्रों को अपने बाज़ुओं में जमा करेगा और अपनी बग़ल में लेकर चलेगा और उन को जो दूध पिलाती हैं आहिस्ता-आहिस्ता ले जाएगा।” (यसअयाह 40:9-11) मलाकी और ज़करीयाह नबी इस अजीब और नादिर क़ौल पर तशरीहन और तक़रीरन शाहिद हैं। चुनान्चे उस अव्वल क़ियामत और अदालत की बाबत जो मसीह की ऐन पहली आमद है, हज़रत मलाकी ने अपनी किताब में यूं फ़रमाया है, “ख़ुदावंद जिसके तुम तालिब हो नागहाँ अपनी हैकल में आ मौजूद होगा, हाँ अह्द का रसूल जिसके तुम आर्ज़ूमंद हो आएगा रब्बुल-अफ़वाज फ़रमाता है।” (मलाकी 3:1) फिर क़ियामत और अदालत अख़ीर के हक़ में जो मसीह की आमद सानी से मुराद है, हज़रत ज़करीयाह बयान करते हैं कि,“क्योंकि ख़ुदावंद मेरा ख़ुदा आएगा और सब कुद्दुसी तेरे साथ। और उस रोज़ रोशनी ना होगी और अजराम-ए-फ़लक छिप जाऐंगे।” (ज़करीयाह 14:5,6)

ऐ साहिबो ये मज़ामीन निहायत आली और वज़नी और दिल तराश हैं और शाहदान ईलाही इस गवाही में बहुत इत्तिफ़ाक़ रखते हैं। मसलन आख़िर-उल-अम्बिया हज़रत यहयाह (युहन्ना) बिन ज़करीयाह ने मसीह की आमद और सदूर अव्वल की इस ख़ासीयत और कलिमात सलामत का नतीजा बड़ी क़ुदरत और बलाग़त से बयान किया है। मसलन (मत्ती 3:10-11) में जिसका दिल चाहे देख सकता है। यानी“और अब दरख़्तों की जड़ पर कुलहाड़ा रखा हुआ है, पस जो दरख़्त अच्छा फल नहीं लाता वो काटा और आग में डाला जाता है।” ” पर आप लोगों के लिए एक और शाहिद (गवाह) दरकार है जिसने शहादत बातिनी पाई हो। इन आली माअनों का ना सिर्फ मसामा बल्कि मुशाहिद भी होता है। जिस कश्फ़ अंदरूनी के हक़ में पतरस रसूल ने यहूद के सदर मजलिस दीनयात के रूबरू ये गवाही उम्दा क़ाबिल-ए-ग़ौर फ़रमाई है। रसूलों के (आमाल 5:32) में यूं लिखा है “और हम इन बातों के गवाह हैं और रूह-उल-क़ुद्दुस भी जिसे ख़ुदा ने उन्हें बख़्शा है जो उस का हुक्म मानते हैं।”

पस ऐ साहिबो जितने तालिबान हक़ीक़त हो इस बात पर यक़ीन करो कि बनी-आदम में से जो कोई शख़्स हो, कि ख़ुदा तआला का कलाम हक़ीक़ी यानी तौरेत और ज़बूर और अम्बिया और इंजील उस को दस्तयाब होता है, तो लाबुद (यक़ीनन, बेशक) और बाल-ज़रूर वो कलाम उस को नहीं छोड़ता और उस से दर गुज़र नहीं करता। ग़ैर अज़ आंका उस की हालत हक़ीक़ी और अंदरूनी की आज़माईश ना करे कि वो ख़ुदा के रूबरू और उस की दरगाह में कैसा है। अगर शायद वो शख़्स ख़ुदा की इस मुलाक़ात से जो कलाम के बग़ौर व लिहाज़ पढ़ने से होती है, ख़ौफ़ व तरस करे और इस बशीर और नज़ीरो नासेह (नसीहत) से मुँह ना फेरे, तो कलाम फिर भी उसे फ़िरौ-गुज़ाश्त (दरगुजर भूल) ना करेगा। जब तक कि इस अंदरूनी हालत पर नूर ईलाही की शआओं को फैला कर ऐसी साफ़ रोशनी ना डालेगा कि वो हज़रत अय्यूब का वो मशहूर इक़रार ज़बान पर ला कर जो तौबा कारी की बाबत है, इक़रार ना कर ले“मैंने तेरी ख़बर कान से सुनी थी पर अब मेरी आँख तुझे देखती है इसलिए मुझे अपने आपसे नफ़रत है और मैं ख़ाक और राख में तौबा करता हूँ।” (अय्यूब 42:5,6)वही मेल और इत्तिफ़ाक़, सलामत व अदालत (ज़बूर 98) का भी अस्ल मज़्मून है। इस से ये ताअलीम मिलती है कि जितनी सिफ़ात कहरीयह और जमालिया कलाम-उल्लाह में मारूफ़ हैं, मसलन क़ुदरत और क़ुद्दुसियत और रहमत और सदाक़त और जलाल शाहाना और शफ्क़त पिदराना सब इस इज्तिमा अदालत व सलामत में ज़ाहिर व नुमायां होती हैं। बल्कि इस ज़बूर से मिन कुल अल-वजूह मालूम होता है कि सब क़ौमों और क़बीलों के आगे इन सिफ़तों की रौनक इस तरह से मूतआली (बुलंद) व मुतजल्ला (रोशन) होगी कि कुल आलम की जितनी कायनात है, वो सब गोया ख़ुश सरवदियों (सरूद, गीत, राग) का एक ताइफ़ा (गिरोह, जमाअत) बनेगी, जिसकी हज़ार-हा आवाज़ों से हम्द और शुक्रगुज़ारी बिलानागा दरगाह आला में गुज़रानी जाएगी। हर दो मज़ामीर बाला में ये बात माक़बिल (जो पहले हो) है कि इस इत्तिसाल अदालत व नजात में ख़ुदा तआला के मुख़्तलिफ़ कमालात का इज्तिमाअ देखकर ग़ैर क़ौमों के बुतपरस्त, ख़ुदातरस और मुतीअ व मनक़ाद (फ़र्मांबरदार) होंगे। और क़ुदरत और किब्रियाई और हुस्न व जमाल ईलाही के मुक़र्रीर (इक़रारी) हो कर अपने-अपने बुतलान और वाहीयात को तर्क करेंगे।

मगर दोनों ज़बूरों में इस बात पर ताकीद है कि ये सब अजीब वाक़ियात ख़ुद बादशाह की हुज़ूरी के बग़ैर ज़ाहिर ना होंगे। इसी सबब से हर दो ज़बूर मुसम्मा (مسمیّٰ) बज़बूर हादिस हैं। (यानी नए गीत) जो कोई चाहे कि इस सर नामा के रम्ज़ व राज़ का शनासा हो तो उस को लाज़िम है कि इन दो ज़बूरों को (मुकाशफ़ा की किताब के 5 और 14 बाब से) मुक़ाबला करे, जिनसे साफ़ मालूम होगा कि वस्फ़ हदासत (नयापन, शुरू) का जो मख़्सूस है। इन ज़बूरों के साथ तो इस मुराद से है कि उनमें ईलची-गिरी की राह से नजात का इश्तिहार और इज़्हार है। और इस नजात में ना सलामत जुज़ई (कुछ, बहुत थोड़ी सी चीज़) और चंद रोज़ा से इशारा है, बल्कि इस नजात कुल और कामिल और जावेद से जिस पर इब्न-ए-आदम के ज़रीया से हर आदमजा़द बफ़ज़्ल ईलाही मुद्दई हो सकता है। और जिसे अपना हक़ और मीरास और उम्दा से उम्दा मुग़तनमात (मुग़तनमा की जमा, ग़नीमत चीज़ें) जानता है, “और वो ये नया गीत गाने लगे कि तू ही इस किताब को लेने और उस की मोहरें खोलने के लायक़ है क्योंकि तूने ज़ब्ह हो कर अपने ख़ून से हर एक क़बीले और अहले ज़बान और उम्मत और क़ौम में से ख़ुदा के वास्ते लोगों को ख़रीद लिया। और उन को हमारे ख़ुदा के लिए एक बादशाही और काहिन बना दिया और वो ज़मीन पर बादशाही करते हैं।” (मुकाशफ़ा 5:9-10)

मुकाशफ़ा के मन्क़ूल बाला से साबित होता है कि अर्वाह मुतक़द्दिमें (मुतक़द्दिम की जमा, अगले ज़माने के) की ज़बानों पर जो दुनिया के शर्र से ख़लास किए गए हैं, इस नए गीत से कोई शीरीं और लज़ीज़ तर नहीं आता। अज़-बस कि (चूँकि) इस जहान के मुग़न्नियों (मुग़न्नी की जमा, गवय्या) के हुनर और हिक्मत से सीखा नहीं जाता। मगर इस्तिदाद (सलाहियत) इस नए गीत की मसीह के हर पैरौ हक़ीक़ी को फ़ील-फ़ौर मिलती है। जिस दिन से गोया नबियों और रसूलों और बाक़ी मशाइख़ ईलाही का मुरीद हो कर इस क़ौल रसूल का बदल व जान इक़रार करना सीखे“लेकिन ख़ुदा ना करे कि मैं किसी चीज़ पर फ़ख़्र करूँ सिवा अपने ख़ुदावंद यसूअ मसीह की सलीब के जिस दुनिया मेरे एतबार से मस्लूब हुई और मैं दुनिया के एतबार से।” (ग़लतीयों 6:14)

यक़ीन है कि जिसके सीने के अंदर इस नए गीत का मज़्मून ना सिर्फ बनफ़्सिही बल्कि बईंही नक़्श होगा। वो बाआसानी तमाम इस बात का मउतरफ़ होगा कि जिस तरह सेना पहाड़ यानी कोहे तूर के ब्याबान के ख़ेमा इबादत की क़ुर्बान-गाह पर (जो तख़्त फ़ज़्ल भी कहलाता है) अल्लाह का नूर बनी-इस्राईल के लिए नाज़िल होता था। अज़ आनरो कि वही ख़ुदा की हुज़ूरी और मुलाक़ात का जाये इज़्हार मुक़र्रर था। इसी तरह कुल जमाअत आम्मा के लिए ख़्वाह यहूदी हों, ख़्वाह ग़ैर क़ौम, मसीह की सलीब मुबारक एक वही मर्कज़ है जिसमें रब तआला के कमालात और नूरानी तजल्लियात मिलतीं और वाबस्ता होती हैं। हाँ इसी सलीब में ये औसाफ़ कामिल तौर पर अहले बीनाई और बसारत रुहानी पर अयाँ व नुमायां होते चले आते हैं। चुनान्चे इसी सलीब पर से ख़ुदावंद गोया अपने हाथ खोल कर एक से मौत और दूसरे से हयात बख़्शता है।अज़ आनरो कि नफ़्स और दुनिया और अफ़आल शैतानी के मौत को और हयात ईलाही को बफ़याज़ी तमाम बख्शता है।

ऐ साहिबो हम इस अपने सफ़र की मंज़िल पर ज़रा मुक़ीम हो कर दुआ उस दोस्त जांनिसार से करें किकि “ऐ ख़ुदावंद हमारे लिए अपने दोनों हाथों को खोल कर और वो मौत और हयात हमें दे और हमें ये फ़ज़्ल इनायत कर कि मसीह की इस मुहब्बत को जो सुनने से बाहर है, जानें, ताकि हम ख़ुदा की सारी भर पूरी तक भर जाएं।” आमीन

एक और बात उन मज़ामीर बाला से क़ाबिल-ए-ग़ौर निकलती है कि ख़ुदा तआला का फ़रमान और इर्शाद बताकीद और बताईद इस अम्र पर है कि इस नए गीत के मज़्मून का शुन्वा (सुनने वाला) और शनासा (जानने वाला) हो जाये। हाँ बल्कि इस नजात के हर एक वारिस पर फ़र्ज़ भी है कि इस सलामत और अदालत की दिल तराश ख़बरें ताबमक़्दूर रुबअ मस्कून (تابمقدور رُبع مسکوُن) में मुंतशिर करे। बरअक्स इस के लज्जा (शर्म, हया) दरेग़ में कितने अश्ख़ास हैं मुसम्मा बमुस्लिमीन व मशाइख़ीन व मुर्शदीन जो सिर्फ इसी बात पर जद्दो जहद करते हैं कि इस इर्शाद को मर्दूद और मंसूख़ ठहराएँ और उस लानत के मौरिद हो जाते हैं जो ख़ुदावंद रहीम व हलीम ने भी अपने हम-अस्र फ़रीसीयों पर पढ़ी कि“ऐ शरअ़ के आलिमो तुम पर अफ़्सोस ! कि तुमने माअर्फ़त की कुंजी छीन ली। तुम आप भी दाख़िल ना हुए और दाख़िल होने वालों को भी रोका।” (लूक़ा 11:52) और बिल-इत्तिफ़ाक़ उन दो ज़बूरो के (ज़बूर 111) का फ़हवा-ए-कलाम (गुफ़्तगु का अंदाज़) यही है, बल्कि हम ये कह सकते हैं कि वो तीन ज़बूर ज़रूफ़ की मानिंद इस अह्द के आसारों और यादगारों से लबरेज़ हैं। चुनान्चे दो आयतों में इस अह्द व मीसाक़ की अबदीयत व मुदावमत की शहादत दी जाती है।

अज़-आनरो कि ख़ुदाए क़ादिर-ए-मुतलक़ के हुज़ूर में उस की याददाश्त ता अबद रहती है और उस की तदबीर व रिआयत से वो अह्द अहले ईमान से फ़रामोश और मंसूख़ हरगिज़ नहीं होने पाता। और ताअलीम इस ज़बूर की ये भी है कि ख़ुदा के बाअज़ औसाफ़ व कमालात इस अह्द के ईफ़ा होने से अबद-उल-आबाद तक मुतजल्ली रहते हैं। और अगर शायद ये सवाल करो कि इस अहद के क़ियाम और इजरा का उम्दा मूजिब और बाइस कौन है तो इस ज़बूर में इस सवाल का जवाब आपसे आप मिल जाता है कि नजात और फ़िद्या उस पाक और मख़्सूस का जिसे रब तआला ने आदमजा़द में से इख़्तियार कर लिया। सो इस अह्द के क़ियाम का उम्दा और अव्वल बाईस है। “उस ने अपने लोगों के लिए फ़िद्या दिया, उस ने अपना अह्द हमेशा के लिए ठहराया है। उस का नाम क़ुद्दुस और मुहीब है।” (ज़बूर111:9)और ये तल्क़ीन भी मिलती है कि ख़ुदा के नादिर मोअजज़ात इस अह्द के उमूर् में इस सूरत और वज़ाअ से आश्कारा हो गए कि उन की तमीज़ और गौर करने वालों में पाक ख़ौफ़ और हैबत पैदा होती है और इस का अमल में लाना उम्दा से उम्दा अफ़्ज़ल दानाई है।

मज़ामीर दाऊद की पेश-गोइयों में (ज़बूर 118) बड़े बुज़ुर्ग रुत्बे और वज़न का है और निहायत इल्तिफ़ात व फ़िक्र के क़ाबिल है। देखो मुसन्निफ़ ज़बूर बऊज़ कुल मजलिस मोमिनीन के अपने अमल व आदत के मूजिब उस रंज व ईज़ा व सितम का जिसे मुफसिदों और मुतकब्बिरों की तरफ़ से बल्कि सब क़ौम और मुल्क की तरफ़ से उठाया था, बयान करता और अज़ जानिब इन्सान अपनी पूरी नाउम्मीदी और ला ईलाजी का मक्क़र होकर अपनी इआनत और कुमक के लिए सिर्फ ख़ुदा ही के नाम में अपना क़िलअ और जाएपनाह मांगता और लेता है। मगर ख़ुसूसुन इस यक़ीन को बे-ख़ौफ़ी और ख़ातिर जमुई का मूजिब जानता है कि सदाक़त के दरवाज़े इस के लिए खुल गए हैं और ये कि ख़ुदावंद दुआ व सवाल क़ुबूल करके उस का नजात व सलामत बख़्श हो गया “सदाक़त के फाटकों को मेरे लिए खोल दो, मैं उन से दाख़िल हो कर ख़ुदावंद का शुक्र करूँगा। मैं तेरा शुक्र करूँगा क्योंकि तू ने मुझे जवाब दिया और ख़ुद मेरी नजात बना।” (ज़बूर 118:19,21 आयात) यानी इन्ही दो औसाफ़ पर अपनी उम्मीद की क़वी और मज़्बूत बिना डालता है और इस तयक़्क़ुन की वसाक़त (मज़बूती) से अपना क़दम नहीं उठाता कि जब ख़ुदा सादिक़ है तो अपने अह्द व मीसाक़ का क़ौल तोड़ना उस की ऐन ज़ात से बईद है। वो अपनी ज़ात का इन्कार नहीं कर सकता और जब कि नजात व सलामत बख़्श होना उस की शान है, तू शैतान और इन्सान के किसी मज़्लूम को जो फ़र्याद ख़वाँ हो बे इमदाद और बे तदारुक (सज़ा के बग़ैर, मुरम्मत के बग़ैर) छोड़ना ख़िलाफ़-ए-क़ियास है और अम्र मुहाल।

(ज़बूर 130) का मुतकल्लिम भी आपको एक ऐसा ही मज़्लूम और ज़ेर-ए-बार जान कर अपनी जान ख़ुदा के हुज़ूर में डालता है। चुनान्चे अपनी जान ही का डालना हक़ीक़ी दुआ व सवाल की शर्त बल्कि ऐन अस्ल है। पस ख़ालिस फ़र्याद ख़वाँ का हाल उस ख़राज गीर की मानिंद है जिसकी ख़ाकसारी और शिकस्ता दिली की तारीफ़ (लूक़ा 18 बाब) में है। यानी ख़ुदा तआला के रूबरू जो मह्ज़ रास्त और पाक और आदिल है। बसबब ख़जालत और पशेमानी के खड़ा होने की भी जुर्रत नहीं रखता, और जिस तरह इस ख़राज-गीर ने आपको हर तरह के आमाल हुसना और सवाब और लियाक़त से बरहना जान कर अर्ज़ की कि क़ुर्बानी और कफ़्फ़ारा के तवस्सुत से मेरी दुआ और दरख़्वास्त क़ुबूल हो। इसी तरह इस ज़बूर का फ़रियाद-कुनाँ बाक़ी सब उम्मीद और तवक़्क़ो से दस्त-बरदार हो कर उन्हें ईलाही नामों और अफ़आलों पर जो मीसाक़ फ़ज़्ल के अंदर शुहूद में आए हैं, तकिया लगाता है। कि गोया इस अह्द के अहाते के बैरून कहीं कुछ पनाह और अमन व अमान नहीं देखता।

अब ग़ौर करना चाहीए कि इस ज़बूर मज़्कूर में कैसा साफ़ ईमा और इशारा ख़ुदावंद यसूअ मसीह की तरफ़ है। अज़ानरो कि जिस तरह सड़कों के बीच एक निशान नसब होता है, जिससे मुसाफ़िरों को बख़ूबी मालूम हो कि कौन सा रास्ता अमृतसर और कौन सा मुल्तान वग़ैरह को जाता है। इसी तरह ये अल्फ़ाज़ जे़ल माअरूफ़ जहां-जहां मिलते हैं, वहां निशान के तौर पर मसीह की तरफ़ रुजू कराते हैं और दिलों को उधर माइल करते हैं। पस ये लफ़्ज़ इस्नीन (दो) यानी अव्वल “सलेहा” (लूक़ा 18:4) में जिसके मअनी हफ़तादी मुतर्जिमें यहूद यूनानी ज़बान में “तकफ़ीर या कफ़्फ़ारा” बताते हैं और “फ़िद्या” सातवीं और आठवीं आयतों में बाइत्तफ़ाक उस गवाही के जो (ज़बूर 130:3-4) में मिलती है कि “अगर तू बदकारी को हिसाब में लाए तो ऐ ख़ुदावंद! कौन क़ायम रह सकेगा? पर मग़फ़िरत तेरे हाथ में है (यानी कफ़्फ़ारा फ़ी अस्ल अलमतन) ताकि लोग तुझसे डरें।” देखो इन दो आयतों में गुनाह की महसूबी और ग़ैर महसूबी की हालतें क्या ही सरीहन मतमीज़ा (जुदा) होती हैं और बाहम मुक़ाबला की जाती हैं और वह नामहसूबी की हालत अदब और ख़ुदातरसी का मूजिब बताई जाती है।

पस पूछता हूँ कि अज़रूए तौरेत मूसवी कौन सा फ़िद्या और कफ़्फ़ारा ग़ैर अज़ मसीह मुक़र्रर हो गया और इस कफ़्फ़ारे का पता निशान बजुज़ कुतुब समावी कहाँ मिलेगा। शायद आप ये ख़ाम तसव्वुर करते हैं कि फ़िद्या और कफ़्फ़ारे का क़ियाम एक ख़ास क़ौम और ज़माने के लिए मुनासिब और मुफ़ीद था, मगर हर क़ौम और ज़माने पर लाज़िम और मुक़तज़ी नहीं था। या अगर आप अज़राह-ए-इन्साफ़ और इन्क़ियाद इस अम्र के क़ाइल और मुक्क़र हो कि लाबुद सभों पर हर वक़्त बजुज़ शामिल होने फ़िद्या और क़ुर्बानी के गुनाह की क़ैद और हब्स (बंद, घुटन) से रहा और ख़ल्लास होना मुहाल है तो मेरी अर्ज़ ये है कि बग़ैर मसीह के कौन दूसरा इस फ़िद्या और कफ़्फ़ारे के मुक़र्रर होने पर मुद्दई था। या शायद अगर मुद्दई भी होता तो कौन दूसरा शख़्स इस अपने दावे को नसुस और बराहैं क़तई से साबित कर सकता है। उस के सिवाए जिस पर हज़रत दानीईल ने (दानीईल 9:24-26) में शहादत दी कि वही मसीह पेशवा हो कर मुन्क़ते (यानी आलम-ए-शुहूद में मुन्क़ते होगा) और इसी मुद्दत में शरारत ख़त्म होगी और ख़ताकारियों का आख़िर हो जाएगा और बदकारियों का कफ़्फ़ारा दिया जाएगा और अबदी रास्तबाज़ी क़ायम की जाएगी और उस पर जो ज़्यादा क़ुद्दूस है मसह किया जाएगा। यानी ततिम्मा एहसान और तक्फ़ीर ख़ता का सदाक़त जावेद दाख़िल करने की मीयाद मसीह के इन्क़िता (कट जाना) की मीयाद भी होगी। अगर आप बनज़र इन्साफ़ और बतौफिक़ रूहुल-क़ुद्दुस इस मज़्मून पर ग़ौर करेंगे तो उम्मीद क़वी है कि ऐसा नूर इर्फ़ान और आतिश-ए-मोहब्बत दिल में नुमायां होगी कि ख़बाइस दुनिया की तुग़्यानी और अन्फ़ास नफ़्स की बाद-ए-समूम और वसाविस शैतानी के तूफ़ानों से हरगिज़ ना बुझेगी।

बाब सोम

दरबयान हक़ीक़त गुनाह व क़बीह व मज़मूम बोदनश

د ربیان حقیقت گناہ و قبیح و مذموم بودنش

हर साहब तमीज़ पर ये अम्र ब-हिदायत अक़्ल रोशन है कि इल्म नजात बग़ैर अज़ शऊर शर्र ख़ता बेमतलब व बेबुनियाद है। चुनान्चे बिला-तशनगी (प्यास) के कोई शख़्स जो (नदी सोता) की तरफ़ आब-जो (नदी, चशमा) नहीं होता। हाँ अगर रुजू भी लाए तो कुछ तफ़रीह और तस्कीन नहीं पाता। बमूजब इस मुबतदा (इब्तिदा) के जितने अम्बिया पर आइंदा मुनज्जी अल-आलमीन की ख़बरें कस्रत और सफ़ाई से उतरी थीं, उन्हीं के ज़रीये से गुनाह की कैफ़ीयत और हक़ीक़त-ए-हाल ऐसी फ़ाश और अयाँ हो गई कि उन्होंने उस की क़बाहत को बिफर-अस्त तमाम पर्दा चाक कर के ऐसा उरयां (नंगा) किया कि हैरत और ख़ौफ़ ख़ताकारों के क़ुलूब में पैदा हुआ। चुनान्चे दाऊद मा-हज़ा (इलावा बरीं, साथ उस के) कि ख़ुदा तआला की उल्फ़त और रहमत व शफ्क़त का निहायत वाज़ेह व लायह (कोई वाज़ेह चीज़) करने वाला था। तो भी उस ने निहायत इबरत नुमा और दिल तराश अल्फ़ाज़ से आदम ज़ाद की शरारत और ज़लालत और ख़ुबस का हिजाब खोल कर उसे ख़ुदा की कमाल रास्तबाज़ी और नूर शरईया के मुक़ाबिल दिखाया। ताकि वो ख़ताकार क़हर ईलाही के दरयाए मोहलिक पर से सफ़ीना (कशती) नजात व लामत पर चढ़ कर मख़लिसी हासिल करें।

और यक़ीन है कि जिस क़द्र तक कलाम ईलाही की मलामातों और इब्रतों और सरज़निशो से हमने अपनी तमीज़ और शऊर बातिनी के मिरात (शीशा, दर्पण) से ज़ंग साफ़ किया है, उसी क़द्र हम दरगाह ईलाही में मुल्ज़िम और ख़ताकार और क़ह्हार आदिल के इताब और ग़ज़ब जावेद के मुस्तहिक़ ठहरते हैं। और इस मुनज्जी आलमीन की दावत की शफ्क़त आमेज़ आवाज़ शीरीं तर मालूम होती है, जो(यसअयाह 1:18) में पढ़ी जाती है। “अब ख़ुदावंद फ़रमाता है आओ हम बाहम हुज्जत करें। अगरचे तुम्हारे गुनाह क़िरमिज़ी (सुर्ख़) हों वो बर्फ़ की मानिंद सफ़ैद हो जाऐंगे और हर-चंद वो अरग़वानी (निहायत सुरख़) हों तो भी ऊन की मानिंद उजले होंगे।”और जो साहब अदल व फ़कर ज़बूरों और अम्बियाओं की कुतुब समावी को ग़ौर व लिहाज़ से पढ़ने में क़ायम रहता है, बतौफ़ीक़ रूह हक़ के। उस ने मालूम किया होगा कि मतलब और मक़्सद उन सहफ़ ईलाही का ये है कि इन्सान अपनी लाइलाजी और नाचारी की हक़ीक़त-ए-हाल दर्याफ़्त कर के बीख़ व बुन (जड़ और बुनियाद) से क्या ही ज़िश्त (बुरा, बद-शक्ल) और ज़बून है। और वो रजा (आसरा, उम्मीद) और भरोसा जो अपनी ख़ास रास्ती और अस्ल सलाहीयत और फ़ज़ाइल तबइयह (फ़ितरी खूबियां) पर रखता है, क्या ही बातिल और अबस और बे-बुनियाद है। अपने नफ़्स की सब उम्मीदों से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) और मुनहरिफ़ (सरकश, बाग़ी) हो कर सिर्फ़ ख़ुदा ही की दस्त-गीरी को क़ुबूल करे। और उस की मुतय्यन जाएपनाह में अमन व अमान से पोशीदा रहे।

पस तस्दीक़ इस अम्र की बीसों बल्कि सैकड़ों आयतों से हासिल है, जिन्हें हज़रत दाऊद ने बल्कि और ज़बूर नवीसों ने भी सिर्फ अपने ही हम-अस्र और हम वतनों के लिए नहीं बल्कि हर ज़माने के क़ौम व क़बीले के लिए ज़बान ज़द (मशहूर, मारूफ़) तहरीर किया है। चुनान्चे रोमीयों के ख़त के तीसरे बाब में मज़ामीर दाऊद से इस के सबूत में बाअज़ मुबय्यन और मुस्तक़ीम आयतों को इंतिख्व़ाब कर के तमाम आदमजा़द की शरारत और ज़लालत आम्मा को रोशन किया है। ता आँ कि (वहां तक कि) वो सब मायूसी और तबाह हाली में ग़र्क़ और निहायत बे-तदारुक और आप ही से बे वसीला हो कर अपनी चश्म नाबीना को इस मुनव्वर आलम और आफ़्ताब सदाक़त यानी मसीह की तरफ़ रुजू करें। और नंग व ज़इफ़ और तही-दस्ती और ख़स्ता-हाली इसी मख़लिसी बख़्श रब्बानी के रूबरू दिखा कर इतने फ़ज़्ल को हासिल करें जिससे मसीह के साथ मज़बह पर ज़िंदा क़ुर्बानियां और नज़राना होने की इजाज़त और इस्तिदाद (सलाहियत) पायें। और ख़िज़ाँ-ए-लुत्फ़ व मुहब्बत से अज़रा-ए-दूर अंदेशी और गदाई कुछ बख़्शिश और इनाम अता फ़रमाया जाये। देखो रोमीयों के इस बाब माअरूफ़ में रसूल ने कितनी-कितनी आयतों को बयान किया है, ताकि मालूम हो कि ना सिर्फ ख़ूनी और चोर और ज़िनाकार और ज़ालिम और नशा बाज़ और क़िस्म क़िस्म के मुजरिम और मकरूह अन्नास (लोग) वग़ैरह ख़ुदा की दरगाह में आसी और मुल्ज़िम ठहरते हैं, बल्कि बिला-इस्तिस्ना सब आदमजा़द मौरिद क़हर और हयात ईलाही से महरूम और क़ातेअ अल-शराअ (शरा तोड़ने वाले) और राह-ए-रास्त से ज़ाल (गुमराह, भटका हुआ) और शयातीन के ज़रख़रीद और असीर (क़ैदी) और गुनाहों के ज़ेर-ए-बार हैं।

सुनो यह तबाह हाली और ज़िल्लत आम्मा व कुल्लिया हज़रत दाऊद के कलाम मंज़िला में गोया दो धारी तल्वार के सख़्त क़ातिल गुज़ारों के मुवाफ़िक़ क्या ही मज़्बूत बातों में बयान होती है, ताकि सब क़ारी उन आयतों से इस मरज़ुल-मौत के सरायत मोहलिक का शऊर पाकर तबीब हक़ीक़ी के पास रवां दवां (भागता हुआ) हो कर शिफ़ा से मुस्तफ़ीज़ हो जाएं। रोमीयों के ख़त में यूं लिखा है“कोई रास्तबाज़ नहीं एक भी नहीं, कोई समझदार नहीं, कोई ख़ुदा का तालिब नहीं, सब गुमराह हैं और सब के सब निकम्मे बन गए। कोई भलाई करने वाला नहीं, एक भी नहीं, उनका गला खुली हुई क़ब्र है। उन्हों ने अपनी ज़बानों से फ़रेब दिया। उन के होंटों में साँपों का ज़हर है। उनका मुँह लानत और कड़वाहट से भरा है। उन के क़दम ख़ून बहाने के लिए तेज़ रो हैं। उन की राहों में तबाही और बदहाली है। और वो सलामती की राह से वाक़िफ़ ना हुए। उन की आँखों में ख़ुदा का ख़ौफ़ नहीं।” (रोमीयों 3:10-18)

हज़रत सुलेमान इब्ने दाऊद की मिसालों में एक मक़ूला महमूद है कि“जो ज़ख़्म दोस्त के हाथ से लगें पर वफ़ा हैं लेकिन दुश्मन के बो से बा इफ़रात हैं।” (अम्साल 27:6)और यक़ीन है कि जो शख़्स कलाम ईलाही के तेग़ (तल्वार) गुज़ारों से घायल निकला। वो दिलो-जान से इक़रार करेगा कि वो दोस्त वफ़ादार था जिसने ज़र्ब कारी से मेरे नफ़्स और शैतान को मारते-मारते ख़ाक में पटक दिया। और इस ख़ाइन (ख़ियानत करने वाला) और खु़फ़ीया मुफ़सिद को जो मेरे ख़ुदा के ख़िलाफ़ था, पर्दा कश किया और उस के फ़न व फ़रेब के पेचों को हल व बातिल किया। इस अम्र में दोनों ओहदों के अक़ाइद दीनी और मज़हबी ग़ैर क़ौमों के मज़्हबों से निहायत मुतफ़र्रिक़ हैं। इन सभों में ये ऐब और क़बाहत लाहक़ है कि गुनाह पर पर्दा डाल कर हज़ार-हा उज़्र ख़्वाहीयाँ और बहाना जोईआं बना कर, बल्कि उस पर जे़ब व ज़ीनत देकर उस के इल्ज़ाम को मुख़फ़्फ़फ़ करते हैं और आफ़त या क़िस्मत या जब्र या ज़रूरत बशरियह पर महमूल (लादा गया) करते हैं। जिससे ख़ता हक़ीक़ी और ख़ुदा-ए-हक़ीक़ी की फ़हमीदा और पहचान में ख़लल वाक़ेअ होता है।

बरअक्स इस कलाम ईलाही के साफ़ आईने में हर शख़्स अपने क़ल्ब (दिल) और बातिन की गंदी और स्याह सूरत को देखकर ख़ुदा के मुक़ाबिल मुल्ज़िम और परेशान खड़ा रहता है। और उस की शराअ का कमाल रास्ती और सफ़ाई से लर्ज़ां और तरसाँ हो कर गाह-गाह (कभी कभी) इस क़द्र आतिश अज़ाब व इताब में आपको मुब्तला जानता है कि गोया जहन्नम से बाहर वो क़हर ईलाही का अज़ाब ऐन दोज़ख़ ही है। मिस्ल और नमूना इस ताअलीम का (ज़बूर 32) में देखना चाहीए। जिसमें अगरचे गुनाह के महू (फ़ना, मिटा) नेस्त होने के लिए इक़रार दिली और ज़बानी और हक़ीक़ी तौबा शर्त हो। लेकिन तो भी इस गुनाह की बख़्शिश अपने इक़रार व शिकस्ता दिली की बुनियाद पर क़ायम नहीं है और ना किसी इन्सानी ज़ईफ़ बुनियाद पर मब्नी है, बल्कि ख़ुदा के इस एन फ़ज़्ल और फ़ैज़ पर जिससे गुनाह पोशिश कफ़्फ़ारा से मह्जूब (हिजाब किया हुआ, पोशीदा) है। और उस कफ़्फ़ारा की ख़ातिर ना मेह्सूब है।

अज़-आनरू कि वो ख़ताकार रास्ती और सदाक़त ईलाही के जामा से मुलब्बस हो कर अल्लाह की दरगाह में हर ऐब व दाग़ के इल्ज़ाम से मुबर्रा व मुनज़्ज़ा ठहरा है। और गुनाह के ज़ुल्म व जफ़ा से ख़लास (आज़ाद) हो कर कुशादगी और आज़ादी से बतौफिक़ रूहुल-क़ुद्दुस के अहकाम ईलाही की राह में रोज़-बरोज़ तरक़्क़ी पाता चला जाता है। शायद तुम पूछो कि कौन से हिजाब से वो गुनाह मह्जूब है, तो बिलाशुब्हा ये हिजाब उस कफ़्फ़ारे ही पर सादिक़ आता है जिसकी सब क़ुर्बानियां और कफ़्फ़ारा जात मूसवी निशानीयां थीं और जिसकी तरफ़ इशारा (ज़बूर 65:3) में पाया जाता है।“हमारी ख़ताओं का कफ़्फ़ारा तू ही देगा।” इस (ज़बूर 32) मज़्कूर की तफ़्सीर रोमीयों के ख़त के (रोमीयों 4: 1-2) में तफ़्सील वार पाई जाती है जिस मुक़ाम से गुनाह के ना मह्सूब होने का राज़ ऐसी क़वी और क़तई दलीलों से साबित हो गया कि लाखों ख़ुदा के बंदे वहां से मग़फ़िरत और कफ़्फ़ारा गुनाह की कैफ़ीयत हाल सीख कर उस के तयक़्क़ुन के इत्माम (कमाल, तक्मील) से मुस्तफ़ीज़ हो गए और फ़र्ज़ंदीयत और रूह आज़ादगी के दर्जा तक सर्फ़राज़ और मुम्ताज़ हो गए।

गुनाह और तौबा की बाबत ये एक और भी उम्दा वज़नी ताअलीम मज़ामीर दाऊद से हर ख़ुदातरस शख़्स को हासिल हो गई और दिल पर नक़्श होने के क़ाबिल है। यानी ये कि शिकस्ता दिल की मुरम्मत और बहाली और दिली ख़ुबस व नजासत का तस्फ़ीया (फ़ैसला, वाज़ेह करना) सिर्फ़ ख़ुदा के रूह हक़ की शनाख़्त और सनअत है। चुनान्चे नव-मख़्लूक़ करने की राह से इन्क़िलाब क़ल्ब (दिल) बख़्शना सिर्फ इसी का कारख़ाना है। चुनान्चे (ज़बूर 51:10-12) में बयान है कि “ऐ ख़ुदा मेरे अंदर पाक दिल पैदा कर और मेरे बातिन में अज सर-ए-नौ मुस्तक़ीम रूह डाल। मुझे अपने हुज़ूर से ख़ारिज ना कर और अपनी पाक रूह को मुझसे जुदा ना कर। अपनी नजात की शादमानी मुझे फिर इनायत कर और मुस्तइद रूह से मुझे सँभाल।” और (ज़बूर 19)के अंदर हज़रत दाऊद इसी नई ख़ल्क़त का बाइस और आला-ए-मुईन तौरेत की तदरीस को बताता है। चुनान्चे वो मर्द-ए-ख़ुदा इस मौक़े पर तौरेत की ताअलीम के फ़वाइद में ये उम्दा फ़ायदा बताता है कि गुनाह खु़फ़ीया ख़्वाह ज़ातीया और जौहरिया हो, ख़्वाह अमली हो तौरेत की इब्रतों और नसीहतों से अलानिया ज़ाहिर हो कर क़रीहा (क़ाबिल-ए-नफ़रत) क़बीह मालूम होता है। और इस शर की अस्ल बे-हिजाब और नुमायां होने से ख़ौफ़ भी पैदा होता है। और बमुज्जर्रद ख़ुदा की हिमायत और दस्तगीरी पर भरोसा करने के एक ईलाज शाफ़ी बाक़ी छोड़ा गया है। “नीज़ उन से (यानी कलिमात ईलाही) से तेरे बन्दे को आगाही मिलती है। उन को मानने का अज्र बड़ा है। कौन अपनी भूल चूक को जान सकता है? तू मुझे पोशीदा ऐबों से पाक कर, तू अपने बंदे को बेबाकी के गुनाहों से भी बाज़ रख, वो मुझ पर ग़ालिब ना आएं तो मैं कामिल होंउगा। और बड़े गुनाह से बचा रहूँगा।” (ज़बूर 19:11-13)

कुतुब समावी की इस अम्र पर मुत्तफ़िक़ गवाही है कि वो तुख़्म जो हयात जदीद और ख़ल्क़त सानी की अस्ल है, सो यही ख़ुदा का कलाम है। चुनान्चे (ज़बूर 119:93,150) में यूं मन्क़ूल है कि“मैं तेरे क़वानीन को कभी ना भूलूँगा, क्योंकि तू ने उन ही के वसीले से मुझे ज़िंदा किया है।” (ज़बूर 119:93) जिस बात में पूरी मुताबिक़त इस क़ौल तम्सीली ख़ुदावंद मसीह के साथ है। (मत्ती 13:37-38) में यूं लिखा है कि “उस ने जवाब में कहा कि अच्छे बीज का बोने वाला इब्न-ए-आदम है। और खेत दुनिया है और अच्छे बीज बादशाही के फ़र्ज़ंद और कड़वे दाने उस शरीर के फ़र्ज़ंद हैं।” फिर ये और भी नसीहत-आमेज़ ताअलीम व तल्क़ीन हज़रत दाऊद के नविश्तों से मिलती है कि वो अपने गुनाहों की कुछ तसग़ीर और तख़्फ़ीफ़ और तलईन (नर्मी) नहीं करता, उस को बग़फ़लत व ग़लती व लग़्ज़िश वग़ैरह के मुसम्मय्या (मौसूम करना, नाम रखना) नहीं करता। मगर उस के मंबा और चशमा को अस्ल तबीयत और सर रिश्ता बताता है। और ना उनको इन्सान की मीज़ान काज़िब और तराजू-ए-दग़ाबाज़ पर तौलता है, पर ख़ुदा तआला के तराजू-ए-रास्त और सादिक़ पर तौल कर उसे निहायत गिरां व संजीदा कहता है। देखो (ज़बूर 143:2, ज़बूर 119:96) में इस मीज़ान हक़ीक़ी की तक्मील और वक़अत और सेहत तमाम पर कैसी साफ़ दलील और शहादत दी जाती है “और अपने बंदे को अदालत में ना ला क्योंकि तेरी नज़र में कोई आदमी रास्तबाज़ नहीं ठहर सकता।” (ज़बूर 143:2) “मैंने देखा कि हर कमाल की इंतिहा है लेकिन तेरा हुक्म निहायत वसीअ है।” (ज़बूर 119:96)और इस मीज़ान ईलाही की वक़अत के सिवाए चशम ईलाही की तेज़ बीनी और वक़अत बसारत और नज़ारा-ए-हक़ीक़त की हैरत अंगेज़ सफ़ाई फ़साहत से बयान करता है कि उस के वजूद ज़ाहिरी और बातिनी के ज़र्रात और निकात और दक़ाइक़ (अच्छी बुरी बात के वह पहलु जो गौर करने से समझ कर आएं, दक़ीक़ा की जमा, बारीकियां) और अमाइक (उमुक़ से बमाअनी गहराई) इस हमा बीन और हमा दान ख़ालिक़ व मालिक के आगे हर वक़्त और हर जा सब नंगे और बेपर्दा खुले रहते हैं। जिस जिहत से वो आपको ग़ायत तक सरासीमा और परेशान ख़ातिर दिखाई देता है और अज़्म-बिल्-जज़्म (पक्का इरादे) व क़सद मुसम्मम और हर एक शुरू शरारत और शरीर से कीनावरी और अदावत कुल्लिया का अपने ख़ुदा के हुज़ूर में क़ौल क़रार देता है। और ऐन सिद्क़ दिल और ख़ुलूस ख़ातिर की ये अलामत ज़ाहिर करता है कि अपनी ही तमीज़ से तफ़्तीश बातिनी के हासिलात काफ़ी व वाफ़ी ना जान कर अपने ख़ुदा से अर्ज़ करता है। अज़जू-फिक्र हक़ीक़ी की राह से कि“ऐ ख़ुदा तू मुझे जांच और मेरे दिल को पहचान। मुझे आज़मा और मेरे ख़यालों को जान ले और देख कि मुझमें कोई बुरी रविश तो नहीं और मुझको अबदी राह में ले चल।” (ज़बूर 139:23-24)

पस ये ताअलीम शाज़ व नादिर है। सिर्फ उन्हीं नबियों में जो रूह वही से मुस्तफ़ीज़ हुए, मुश्तर्क है और उन्हीं के साथ मख़्सूस है और ये भी यक़ीन है कि जिन जिन अश्ख़ास को इस तबाह हाली ज़ातीया और जौहरिया की बेशऊरी और नाफ़हमी है तो नजात ईलाही की तदबीर और वसाइल मुअय्यना अच्छी तरह समझने और पहचानने की क़ाबिलीयत हक़ीक़ी और दाइमी नहीं हो सकती। अज़ां जिहत (इस सबब से) कि मन तदाबीर बाला एक ये भी तदबीर है कि हज़रत इल्यास (एलियाह) और हज़रत युहन्ना मुसम्मा बह बपतिस्मा दहिंदा की वो मुनादी दिल तराश और क़ल्ब (दिल) शिकन जिससे ग़ाफ़िलों और सुस्त दिलों के लिए तंबीया और तर्ग़ीब तौबाकारी की तरफ़ है। सो ख़ुदावंद की बशारत फ़ज़्ल की पेशरवी और पेशक़दमी करती है। जिस अम्र का बयान इंशा-अल्लाह आगे बमजीद तफ़्सील होगा। बिल-फ़अल इस बात के सबूत में सलाह है कि बाअज़ ख़यालात और ताअलीमात इंतिख्व़ाब करूँ, उन हक़ायक़ मुख़्तलिफ़ा और मुताद्दह में से जो गुनाह के बाब में हज़रत दाऊद के ज़बूरों में मस्तूर हैं।

अव्वलन बाअज़ ज़बूर गोया सूरतन व तशबिहन मर्सियों की मानिंद हैं, जिनमें कुल आदमजा़द की ज़िल्लत और ज़बूनी और हमाक़त और ख़ुसूसुन इस जहान के मनाज़िल और मुरातिब वालों और शरीफ़ों और नाम वालों की ख़ुदी और नफ़्स पर्वरी और हुब्ब दुनिया और वुहूश (वहश की जमा, जंगली जानवर) मिज़ाजी इस तरह मअयूब (ऐब वाला) और मकरूह होती हैं कि बह बदाहत अक़्ल सूरत और हक़ीक़त-ए-हाल से साफ़ मालूम व ज़ाहिर है कि अपने या अपने क़बाइल और नाते रिश्ते वालों के लिए ऐसा कफ़्फ़ारा मयस्सर करना जो ख़ता के एवज़ गुज़राना जाये और जो तस्दीक़ और तक़ब्बुल का बाइस और विरसा हयात-ए-अबदी पर दावे करने का सही मूजिब हो, बिल्कुल मुहाल है और ऐसी सब उम्मीदें बे-बुनियाद और बेअस्ल हैं। बसबब इस बात के कि जान इन्सान की निहायत बेश-बहा और गिरां क़ीमत है और इस का फ़िद्या बे-हिसाब।

“उन में से कोई किसी तरह अपने भाई का फ़िद्या नहीं दे सकता ना ख़ुदा को इस का मुआवज़ा दे सकता है। क्योंकि उनकी जान का फ़िद्या गिराँ-बहा है वो अबद तक अदा ना होगा।” (ज़बूर 49:8,9) पस अस्ल मज़्मून इस ज़बूर का साफ़ है कि कुल आदम ज़ाद बुतलान और ख़ता के ज़िंदाँ (क़ैदख़ाना) में इस क़द्र मुक़य्यद (क़ैद) हैं कि कलिद (कुनजी) उम्मीद से इस ज़िंदान का हल अक़्फ़ाल करना (ताला का खोलना) ख़िलाफ़-ए-क़ियास और ख़िलाफ़ तजुर्बा है। तो आदम ज़ाद का हाल ये है कि सवाब व फ़ख़्र के अहाते से अबद-उल-आबाद तक महरूम व मायूस होकर अहात-ए-फ़ज़्ल और आजिज़ी को ग़नीमत जान कर उस में मुदाख़िलत होने की मारूज़ ब-मिन्नत करे। यही चारा व ईलाज है, वाहिद व मुजर्रिद बाक़ी रहा। चुनान्चे इसी ज़बूर की 15 वीं आयत में लिखा है “लेकिन ख़ुदा मेरी जान को पाताल के इख़्तियार से छुड़ा लेगा क्योंकि वही मुझे क़ुबूल करेगा।” यानी ख़ुदा आप ही फ़िद्या और कफ़्फ़ारा मयस्सर करता है। और फिर भी पूछना वाजिब है कि वो फ़िद्या और कफ़्फ़ारा जो आदम की नस्ल मुजर्रद से ना हो सका और ख़ुदा की क़ज़ा और ऐन फ़ज़्ल से मुक़द्दर और मुक़र्रर था, सो कौन है। वो कफ़्फ़ारा और फ़िद्या क़दीम जिस पर नबियों और रसूलों की पूरी मुवाफ़िक़त और मुराफ़िक़त (इत्तिहाद, बाहमी मेल-जोल) थी। बमूजब इस क़ौल ईलाही के जो रसूलों के आमाल में है “इस शख़्स (ख़ुदावंद यसूअ मसीह) की सब नबी गवाही देते हैं कि जो कोई उस पर ईमान लाएगा उस के नाम से गुनाहों की माफ़ी हासिल करेगा।” (आमाल 10:44)

बिलाशुब्हा उन सब और उन की मानिंद और सब नक़्ली दलीलों को बनज़र अदल व तमीज़ देखने से सिर्फ एक ही नतीजा निकलता है कि जब चारों अतराफ़ के मद्द-ए-नज़र मह्ज़ घने-घने बादलों और ज़ुलमात की झूमती हुई स्याही है, तो आलम-ए-बाला और दरगाह-ए-ख़ुदा पर से एक सितारा-ए-सुबह यानी फ़ज़्ल ईलाही का अहदो मीसाक़ सलफ़ अपनी शआओ का फ़र्हत अंगेज़ नूर तलूअ करता है। उसी सितारे की तरफ़ वो ख़ुदा का बंदा निगाह कर के सवाल करता है कि,“अपने अह्द का ख़्याल फ़र्मा क्योंकि ज़मीन के तारीक मुक़ाम ज़ुल्म के मस्कनों से भरे हैं मज़्लूम शर्मिंदा हो कर ना लोटे।” (ज़बूर 74:20) और इस अपने सवाल का जवाब (ज़बूर 89:34-35) से पकड़ता है कि “मैं अपने अह्द को ना तोडूँगा और अपने मुँह की बात ना बदलूँगा। मैं एक-बार अपनी क़ुद्दूसी की क़सम खा चुका हूँ। मैं दाऊद से झूट ना बोलूँगा।” फिर (ज़बूर 75:3) में लिखा है कि, “ज़मीन और उस के सब बाशिंदे गुदाज़ हो गए हैं। मैं ने उस के सतूनों को क़ायम कर दिया है।”

सानियन कैफ़ीयत और हक़ीक़त गुनाह की बाबत ये ताअलीम ज़बूरी के मबद्इ अहवाल से है कि ना सिर्फ वो क़ौम जो हद शराअ और क़ैद सुन्नत से ख़ारिज है, बल्कि ख़ास अहले शराअ और अहले सुन्नत भी दरगाह-ए-ख़ुदा में मुल्ज़िम और क़हर रब्बानी के मुस्तहिक़ हैं। बावजूद इस बात के कि अहले सुन्नत इस ताअलीम दिल-शिकन को निहायत मकरूह जानते थे। यहां तक कि उस की बर्दाश्त के क़ाबिल ना थे। ताहम जैसा कुतुब अम्बिया-ए-सलफ़, वैसा ही ज़बूरों में सख़्त तरीन सरज़निशें और इताब और चश्मनुमाई की बातें उन अहले शराअ के साथ जो मुसम्मा बुशहर अमीन और ख़ुदा के फ़र्ज़ंद अज़ीज़ और नुख़सत ज़ादे (पहलूटे) थे, मख़्सूस पाई जाती हैं। मसलन (ज़बूर 90) में जिसके सरनामे से ऐसा मालूम होता है कि मुहक़्क़िक़ीन यहूद ने इस का मुसन्निफ़ हज़रत मूसा जो बताया है। वो मर्द-ए-ख़ुदा एक मर्ज़-ए-मोह्लिक और आफ़त शदीद का इशारतन बयान करता है जिसके सदमे से हर उम्र और हर रुत्बे के हज़ार-हा यहूद जैसे मर्ग ज़ार (सब्ज़ा-ज़ार) के फूल बाद-ए-समूम के मुक़ाबिल नागहाँ पज़मुर्दा गिरते हैं। वैसे ही मलक-उल-मौत के नफ़ख़ (फूंकना) क़ातिल से मैदान में मरे पड़े थे। फिर इस सख़्त आफ़त में क़हर उस बादशाह और मुंसिफ़ तआला की साफ़ अलामात पहचानने की तल्ख़ और तुरश नदामत की बातों में अपने और अपनी क़ौमों के गुनाहों का मक्क़र (इक़रार) है और गोया अपने जिगर का ख़ून बून्द बून्द बहाता है। (ज़बूर 90:7-12) में यूं लिखा है, “क्योंकि हम तेरे क़हर से फ़ना हो गए और तेरे ग़ज़ब से परेशान हुए। तू ने हमारी बदकिर्दारी को अपने सामने रखा और हमारे पोशीदा गुनाहों को अपने चेहरे की रोशनी में। क्योंकि हमारे तमाम दिन तेरे क़हर में गुज़रे। हमारी उम्र ख़्याल की तरह जाती रहती है। हमारी उम्र की मियाद सत्तर बरस है या क़ुव्वत हो तो अस्सी बरस। तेरे क़हर की शिद्दत को कौन जानता है और तेरे ख़ौफ़ के मुताबिक़ तेरे ग़ज़ब को? हमको अपने दिन गिनना सिखा। ऐसा कि हम दाना दिल हासिल करें।” इस कलाम में वो मर्द-ए-ख़ुदा इतना बईद है, इस ख़्वाहिश से कि अपनी स्याही पर रोग़न लगाकर और शर्र मौरूसी और अमली से चश्मपोशी करके कि वो ऐन इसी बात पर मारूज़ व मिन्नत करता है कि जिस क़हर से हम आफ़त ज़दाह और ज़हमत आलूद हैं, उस की किब्रियाई और हैबत नाकी की मिक़्दार को जानें। ता आँ कि (वहां तक कि) चंद रोज़ इन्सानी उम्र के ख़ुश्क वीरान दश्त से बदस्त तौबा कारी व ईमानदारी फ़हमीदा और हिक्मत की फ़स्ल काटें।

क़ाबिल-ए-ग़ौर व लिहाज़ है कि कैसी आजिज़ी और इन्किसारी से इस बर्गुज़ीदा क़ौम के लिए जो ख़वास मिनन्नास कहलाते थे, इस्तिग़फ़ार करता है। बाअदअज़ां कुल बनी-आदम ज़ाद की हालत आम्मा की तरफ़ इशारा और ईमा कर के पुश्त दर पुश्त के तसलसुल के फ़ना व ज़वाल से और ख़ुसूसुन उन की इबरत नुमाई से जो नागहानी ज़रब-उल-मौत से अजल गिरफ्ता हो गए थे। ये नतीजा हासिल करता है कि ख़ुदा-ए-रास्त और क़ादिर ने उन की बद फ़ालियों बल्कि दिल की गुमराहियों को जो मख़्फ़ी (छिपी) थीं, अपने चेहरे के जलवा-ए-बुराक़ और अब्यज़ (उजला, सफ़ैद) के रूबरू रखा था।

आख़िर को दस्त-बस्त और सर बह गिरेबान हो कर ख़ुदा-ए-तआला के फ़ज़्ल व रहम की दरख़्वास्त करता है और इस क़ादिर-ए-मुतलक़ के अफ़आलों और आमालों का कश्फ़ राज़ मांग कर सिर्फ इन्हीं की ख़ातिर अपने अम्लों की क़बूलीयत और मंज़ूरी का साइल होता है। और बिलाशुब्हा ऐन इंजील और ईमान-ए-इंजीली की अस्ल रौनक यही है कि अपने सवाब और जाये तफ़ख़्ख़र को हीच जान कर और अपनी अस्ल नस्ल की और अपने इल्म व अमल की तफ़ज़ीलात को नाक़िस और मअयूब (एब वाला) जान कर अपनी उम्मीद का इक़रार और अपने कमाल और भरोसे का मूजिब व बाइस सिर्फ़ ख़ुदा ही के अमल से दस्तयाब करें।

सालसन जानना चाहीए कि इस किताब समावी में ना सिर्फ ख़ास क़ौम और बर्गुज़ीदा उम्मत यहूद की शर्र व ज़लालत से मअयूब (एब वाला) और मज़मूम होती है, बल्कि उसी उम्मत बर्गुज़ीदा के दर्मियान जो शख़्स हक़ और अदालत की मीज़ान के मुवक्किल हो गए थे। और मिस्कीनों और मज़लूमों की दाद रस्सी उन के ओहदे का ज़िम्मा थी, उनका बयान भी (ज़बूर 82) में है कि वो ज़ुलमात में आवारा गुमराह फिरते रहते हैं और क़िस्म-क़िस्म की बेवफ़ाई और ख़ियानत और ज़मानासाज़ी के सबब ख़ुदा से मर्दूद और उस के इताब व इक़ाब (सज़ा, अज़ाब) व इंतिक़ाम के सज़ावार ठहरते हैं। और हर चंद रुक्न आलम और इमादा अल-दौला (भरोसे की दौलत) और असातीन (उस्तवाना की जमा, सतून, खंबा) अल-मुल्क वग़ैरह की रौनक व ख़िताब से बहरावर रहीं। बल्कि रब-उल-आलमीन के वकील और क़ाइम मक़ाम होने के सबब ईलाहों के ख़िताब से मुज़य्यन और मुशर्रफ हो गए हैं और उन की मजलिस शरफ़ में गोया पेशवा और मीर मजलिस ख़ुदा-ए-तआला आप ही है। ताहम वो अरकान दौलत आप ही मुतज़लज़ल हो गए हैं।

बआनकदर कि क़ाज़ी व मुफ़्ती व मंसफ़ व बाक़ी मुस्नद नशीन रूदारी और किज़्ब (झूट) और रिश्वतखोरी से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) नहीं हैं। चुनान्चे मुल्कगीरी और रब्त व इंतिज़ाम बिलाद (बलदा की जमा, शहर) में ख़लल आ गया है। चुनान्चे जब अशराफ़ों और ख़वासों का अहवाल इस क़द्र बदतर हो गया है तो बतरीक़ उला रईयत व अवाम मुज़्तरिब व परेशान हो गए। और गोया ज़मीन के अस्फ़ल की बुनियादें दरहम-बरहम हो गईं। और जिस हाल में कि हक़ और अदल क़रीब है कि ज़ालिमों के ग़िनाइम और लूट का माल हो जाएं तो क्या ईलाज इस हाल में बाक़ी है, मगर वही सवाल व दुआ कि पाक नबी और उस के हम दिल रफ़ीक़ों की ज़बान से निकला है। (ज़बूर 82:5-8) में यूं मर्क़ूम है, “वो ना तो कुछ जानते हैं ना समझते हैं। वो अंधेरे में इधर-उधर चलते हैं। ज़मीन की सब बुनियादें हिल गईं हैं। मैंने कहा था कि तुम आला हो और तुम सब हक़ तआला के फ़र्ज़ंद हो। तो भी तुम आदमीयों की तरह मरोगे और उम्रा में से किसी की तरह गिर जाओगे। ऐ ख़ुदा ! उठ ज़मीन की अदालत कर। क्योंकि तू ही सब क़ौमों का मालिक होगा।”

जवाब इस सवाल का साफ़ व सरीह (ज़बूर 75:1-2) में मयस्सर होता है, “जब मेरा मुईन वक़्त आएगा तो मैं रास्ती से अदालत करूँगा।” पस हम सवाल करते हैं कि ज़मीन की अदालतें करने वाला और उसे अपने क़ब्ज़े और मीरास में लाने वाला कौन है, मगर वो जो आप ही कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) हो कर अपनी बाबत तयक़्क़ुन और इख़्तियार ईलाही से फ़रमाता है,, “क्योंकि बाप किसी की अदालत भी नहीं करता बल्कि उस ने अदालत का सारा काम बेटे के सपुर्द किया है। ताकि सब लोग बेटे की इज़्ज़त करें जिस तरह बाप की इज़्ज़त करते हैं। जो बेटे की इज़्ज़त नहीं करता वो बाप की जिसने उसे भेजा इज़्ज़त नहीं करता।” (युहन्ना 5:22,23)

राबिअन इस फ़साद और ज़लालत आम्मा व कुल्लीयह की इस से कौन क़वा (قویٰ) और अकमल दलील हो सकती कि पाक नबी आप ही को और ज़मनन अपने सब हम वज़नों और हम रुत्बों यानी अम्बिया और रसूलों को भी इस शिकस्ता और तबाह हाली में शामिल-ए-हाल बताता है। और तमाम आजिज़ी और ग़मख़्वारी से बहज़ूर ख़ुदा-ए-तआला अंदरूनी ख़ुबस और गंदगी का मक्कर होता है। और इस अहले जहल की पूरी मुमानिअत और मराफ़ात (निगरानी) करता है कि जिसकी राय और दानिस्त में अम्बिया व औलिया शरीफ़ गुनाह की हर सूरत की क़बाहत से मुबर्रा व मासूम हैं। हालाँकि गुनाह से तज़किया (पाकी, सफ़ाई) और तबरीयता का कोई नबी या पैग़म्बर किसी सहीफ़े मुक़द्दस में हरगिज़ दाई नहीं होता है। किसी की ज़बान पर ये कब्रो फ़ख़्र ख्व़ाब तक भी नहीं आया। चुनान्चे ये रुत्बा बर्रियत (रिहाई, बेक़सूर होना) और मासूमियत का कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) यानी ख़ुदावंद मसीह के साथ मख़्सूस जिस्म और रूह में है। इस अम्र में नबी मुबारक की गवाही पर क़दरे लिहाज़ करना चाहीए कि “देख ! मैंने बदी में सूरत पकड़ी और मैं गुनाह की हालत में माँ के पेट में पड़ा। देख तू बातिन की सच्चाई को पसंद करता है और बातिन ही में मुझे दानाई सिखाएगा। ज़ोफ़े से मुझे साफ़ कर तो पाक होउंगा मुझे धो और मैं बर्फ़ से ज़्यादा सफ़ैद होंउंगा। ऐ ख़ुदा, मेरे अंदर पाक-दिल पैदा कर और मेरे बातिन में अज सर-ए-नौ मुस्तक़ीम रूह डाल।” (ज़बूर 51:5-7,10)

इन आयात बाला से वाज़ेह व लाईह है कि पाक हज़रत ये बात काफ़ी व वाफ़ी नहीं जानता कि नुक़्स क़लील और लग़्ज़िश सग़ीर का मक्क़र और मुस्तग़फ़िर हो और राह-ए-हक़ के तजावुज़ात को ज़ोफ़ बशरीयह पर या शयातीन के बुग़्ज़ व मक्र पर इतलाक़ करे और ना ये कहता है कि इत्तिफ़ाक़न या सहवन या क़रहन व जबरन मैं इस जुर्म का मुर्तक़िब हो गया था। बल्कि इस गुनाह की बीख़ व बुन (जड़ और बुनियाद) तक जो मौरूसी हैं, खोद खोद कर इस ज़िया-ए-शम्स-उल्लाह के मुक़ाबिल ख़ारिज व उरयां करता था ताकि ना शाख़ ब शाख़ पर हत्ता-उल-मक़्दूर अस्ल व बीख़ तौरात ज़बानी की कुल्हाड़ी से उसे काट डाले। इसी तरह वो आमाल बद्दू क़रीहा (क़ाबिल-ए-नफ़रत) जो इस अस्ल से मुश्तक़ और नशव व नुमा हो गए हैं, बिलादिरेग़ मग़्लूब और ज़ेर पा करे। और निहायत बईद है ऐसे क़ियास से कि कलमा-ए-इस्तिग़फ़ार पढ़ना बमुक़ाम कमाल सिद्क़ दिली और ख़ुदा-ए-तआला की रहमत और कफ़्फ़ारा मुक़र्ररा की काफ़ी व मक़्बूल ठहरेगा।

बरअक्स इस बात के तमाम आजिज़ी और मिन्नत से दरख़्वास्त और इक़्तिज़ा (ख़्वाहिश करना, तक़ाज़ा) करता है, शिकस्ता दिली और रूह जदीद का और बातिन रास्त का और इस यक़ीन में तमाम क़ायम व मुस्तक़र (ठहरने की जगह, ठिकाना) है कि ये सब फ़वाइद व ग़नाइम (लूट का माल, माल-ए-ग़नीमत) सिर्फ रूह हक़ के तोवस्सुल (वसीले) से और उस की हुज़ूरी और हुलुल से हासिल हो सकते हैं। और बदल व जान इस बात का क़ाइल भी है कि जितने रंजों और तक़्लीफों में मुब्तला हो गया हूँ, उन में हर वाहिद का मैं निहायत मुस्तहिक़ और सज़ावार हूँ। तो ऐ ख़ुदा रास्त है, मैं और मेरी क़ौम ख़ताकार हैं। कस्रत गुनाह से कस्रत शदायद (शदीदा की जमा, तक़्लीफ़ें) बढ़कर नहीं। लिहाज़ा इन सब अक़्ली और नक़्ली दलीलों से ज़ाहिर व रोशन है कि मज़ामीर दाऊदी के अस्ल मज़्मून और मफ़्हूम में ये भी दाख़िल है कि जमी-उन्नास अवाम व ख़वास हक़-तआला के हुज़ूर में गुनाहों के ज़िंदान में महबूस (असीर, क़ैदी, मुक़य्यद) और गुनाह में मौलूद (पैदा, जना हुआ) भी हैं। और अमल व आदत से भी इब्नाअ (इब्न की जमा, बेटे) क़हर व ग़ज़ब हैं और इस तआला के फ़ज़्ल व लुत्फ़ से आजिज़ और ख़ुसूसुन इस अह्द क़दीमी से जो फ़ज़्ल ईलाही का गंज (ख़ज़ाना) मस्तूर (पोशीदा) और मुतय्यन है, बग़ायत तमाम हाजतमंद हैं। वो बारी तआला हम सभों पर इनायत करे कि उस की शराअ के तल्ख़ प्याले को पीने से हमें कुछ उज़्र ना हो, बल्कि रजामंदी और ख़ुशनुदी हो, ताकि तल्ख़ी के बाद उस के फ़ज़्ल के शीरीं प्याले के पीने के लायक़ और मुस्तहिक़ गिने जाएं, आमीन।

यह अरबी इस्म मज्कुरह है, इस के माअनी हैं एक चीज़ का दूसरी चीज़ में इस तरह दाखिल होना की दोनों में तमीज़ न हो सके।

बाब चहारुम

दरबयान-आँ मुख़्लिस आलमीन व सुल्तान-उल-सलातीन कि अज़ नस्ल दाऊदी मुज्जस्सम शदनी बोद

د ربیان آں مخلص عالمین و سلطان السلاطین کہ از نسل داؤدی مجّسم شدنی بود

जितने अस्हाब कलाम-उल्लाह के बसिद्क़ दिल ख्वानिंदे (ख़वांदा, पढ़ा लिखा, हर्फ़-शनास) हैं, उन्हें याद होगा कि हज़रत दाऊद ने बाअदअज़ां (इस के बाद) कि बाहर के जंग व जदाल व यल्ग़ारों से और अंदर के फ़ित्ने व फ़साद से मोहलत व फ़राग़त पा कर तख़्त मौऊद इस्राईल पर क़ियाम व क़रार पकड़ा, तो इस मर्द-ए-ख़ुदा के दिल में ये इश्तियाक़ और आरज़ू पैदा हुई कि ख़ुदावंद अपने ख़ुदा की इबादत आम्मा के लिए और उन रसूमात और फ़राइज़ के जो ख़ुदा-तरस लोगों पर लाज़िम हैं बजा लाने और अदा करने के लिए एक ऐसा घर तामीर करे जिसका जमाल व रौनक व ज़ीबाइश कुल आलम में मारूफ़ व महमूद व सतूदह हो। और ये भी कि वो हैकल याददाश्त व शहादत का वसीला और शुक्राने की अलामत हो, जिसके ज़रीये से इस्राईल पुश्त दर पुश्त इस बात का इक़रार और एतराफ़ करेंगे ईफ़ा-ए-अहद और इफ़ाज़त करम व फ़ज़्ल बेक़ियास से हम अपने ख़ुदा के निहायत एहसानमंद और मर्हूने मिन्नत हैं। और हर-चंद कि वो मुराद बादशाह करीम-उल-शान की बिल-फ़अल बर ना आने पाई और इस मुक़द्दस की बिना डालनी पाक हज़रत दाऊद को ममनू थी। यानी उस की दरख़्वास्त व सवाल का हर्फ़ व ज़ाहिर मंज़ूर ना था, पर तो भी इस सवाल के मअनी बफ़याज़ी व इज़दियादी (इज़दियाद बमाअनी ज़्यादा होना) तमाम क़ुबूल हो गए।

अज़-आनरो कि उस की नस्ल में से एक शहज़ादा का तव्वुलुद (पैदाइश) और उस की मलकूत (बादशाही) की मुदावमत (क़ियाम) और बरक़रारी और उस की शान की अज़मत व अलवियत का क़ौल व क़रार तख़्त एज़द तआला से सादिर हुआ कि वो वलद दाऊद ख़ुदा के घर में मुशर्रफ़ होगा और वो बजाय जंगी औज़ारों और ख़ूँ-रेज़ी और आलमगीरी की सुलह और हुलुम व मुहब्बत का झंडा खड़ा करके दूर व क़रीब की मुमलकतों को अपनी तरफ़ रुजूअ करके उन्हें मुल्क में मिला लेगा। जैसेजैसे (2 समुएल बाब 7 की 12,13,14 आयात और ज़बूर 72 की 9,10,11 आयात) से साबित व मालूम होता है। “और जब तेरे दिन पूरे हो जाऐंगे और तू अपने बाप दादा के साथ सो जायेगा तो मैं तेरे बाद तेरी नस्ल को जो तेरे सुल्ब से होगी खड़ा कर के उस की सल्तनत को क़ायम करूँगा। वही मेरे नाम का एक घर बनाएगा और मैं उस की सल्तनत का तख़्त हमेशा के लिए क़ायम करूँगा। और मैं उस का बाप होंउंगा और वो मेरा बेटा होगा.....। (2 समुएल 7:12-14) उस की सल्तनत समुंद्र से समुंद्र तक और दरियाई-ए-फुरात से ज़मीन की इंतिहा तक होगी। ब्याबान के रहने वाले उस के आगे झुकेंगे और उस के दुश्मन ख़ाक चाटेंगे। तरसीस के और जज़ीरों के बादशाह नज़रें गुज़रानेंगे। सबा और सीबा के बादशाह हदिए लाएँगे। बल्कि सब बादशाह उस के सामने सरगूँ होंगे। कुल कौमें उस की मुतीअ (फर्माबरदार) होंगी।” (ज़बूर 72:8-11)

इस अम्र में अगर शायद कोई साहब ज़हन व तमीज़ कहे कि लाबुद् (यक़ीनन, बेशक) एक मिस्दाक़ उम्दा इस पेश ख़बरी का हज़रत सुलेमान है, तो हम भी बसरो चशम उस की राय पर हैं। पर अगर शायद वो ये और भी कहे कि इस वाअदे की कुल कैफ़ीयत हम लफ़्ज़ व हम-मअनी हज़रत सुलेमान से पूरी मुवाफ़िक़त व मुताबक़त रखती हैं। ग़ैर अज़ां कोई दूसरा मिस्दाक़ लाज़िम व ज़रूर नहीं या अगर मुक़्तज़ा-ए-अदल (तक़ाज़ा करने वाला) व इन्साफ़ से मुन्हरिफ़ हो कर ख़ुदावंद मसीह के सिवाए किसी दूसरे को इस वाअदे का उम्दा मिस्दाक़ जाने मआज़ अल्लाह (ख़ुदा की पनाह, अल्लाह महफ़ूज़ रखे ! तौबा तौबा !) हाशा व कल्ला (ख़ुदा ना करे, हरगिज़ नहीं) कि हम उस की राय से मुत्तफ़िक़ हो जाएं।

अव्वलनइस सबब से कि इब्रानियों के ख़त के मुसन्निफ़ इल्हामी ने माअरूफ़न इस वाअदे के ऐन तलफ़्फ़ुज़ को ख़ुदावंद मसीह पर महमूल किया है। “क्योंकि फ़रिश्तों में से उस ने कब किसी से कहा कि तू मेरा बेटा है, आज तू मुझसे पैदा हुआ? और फिर ये कि मैं उस का बाप हूँगा और वो मेरा बेटा होगा? और जब पहलौठे को दुनिया में फिर लाता है तो कहता है कि ख़ुदा के सब फ़रिश्ते उसे सज्दा करें।” (इब्रानियों 1:5,6)

सानियन ख़ुदावंद ही की शहादत (गवाही) संजीदा और दिल-सोज़ जो अपने इख़्तताम मुकाशफ़ा में यानी कलाम-उल्लाह की आख़िरी आयात में अपनी शान-ए-हक़ीक़ी के हक़ में फ़रमाई, यानी मुकाशफ़ा की किताब में यूं फ़रमाया कि, “मैं दाऊद की अस्ल व नस्ल और सुबह का चमकता हुआ सितारा हूँ।” (मुकाशफ़ा 22:16) जो बाक़ी सबब और मूजिब ग़ैर अज़ मसीह किसी दूसरे मिस्दाक़ आला के मानेअ हैं, वो सब के सब (ज़बूर 89) की तफ़्सीर में जे़ल में पेश किए जाऐंगे। चुनान्चे इस शहनशाह के तव्वुलुद और उस की सल्तनत के ख़वास और अलामात हर-चंद कि समुएल की दूसरी किताब में इज्मालन मस्तूर हुई हैं, पर इस (ज़बूर 89) में तफ़्सील व बिसातत से नुमायां व माअरूफ़ होती हैं। चुनान्चे मशहूर है कि तस्वीर कलां (बड़ा, वसीअ) में तस्वीर ख़ुर्द (छोटा) की निस्बत अलामात क़ियाफ़ा (शनाख़्त, समझ, अंदाज़ा) ज़्यादा ब-आसानी और ब-सफ़ाई उम्दा पहचानी जाती हैं। इसी तरह (ज़बूर 89) के इशारात और इबारात को हज़रत समुएल की नबुव्वत बाला के साथ मुक़ाबला करने से मालूम व मफ़्हूम होगा कि वो नबुव्वत अगरचे बलिहाज़ सतह व सूरत हर्फ़ ज़ाहिरी के जूज़्यन इब्ने दाऊद सुलेमान की तरफ़ बकमाल वजूब आइद होती हैं। लेकिन ताहम जो अस्हाब तमीज़ उस की कुल्लियत और बतन पर ज़रा ग़ौर करें और यहूद व नसारा की जमाअत आम्मा की गवाही मुत्तफ़िक़ पर इल्तिफ़ात करें तो यक़ीन होगा कि कुल्लियतन मज़्मून इस नबुव्वत का हज़रत सुलेमान की निस्बत एक अफ़्ज़ल और बुज़ुर्ग तर शख़्स का मुस्तलज़ीम (कोई काम अपने ऊपर लाज़िम करने वाला) है और बनिस्बत आँजहानी बादशाहों के अकमल औसाफ़ का मुक़्तज़ी है।

हाँ साहिबो यक़ीन है कि इस नबुव्वत के खेत में एक गंज दफ़ीना (क़ीमती ख़ज़ाना) बेश क़द्र मख़्फ़ी (छिपी) है और ज़ाहिरी हर्फ़ में एक राज़ो रम्ज़ है, जिससे ख़ुद मसीह ही का मक़ूला मुत्तफ़िक़ है कि यहां सुलेमान से एक बुज़ुर्ग तर मौजूद है। सोचना चाहीए कि अम्बिया-ए-क़दीम इस मज़्मून की निस्बत किसी दूसरे मज़्मून के बयान में ज़्यादा फ़साहत व बलाग़त से नहीं बोलते। अज़-आनरू कि इस अस्ल व नस्ल दाऊदी अज़ीमुश्शान की इंतिज़ारी को कम हिम्मत व दिल-गीर की ऐन तसल्ली व तश्फ़ी का बाइस बताते हैं। मसलन हज़रत यर्मियाह उन्हीं अय्याम के इज़्हार और इश्तिहार की राह से यूं फ़रमाते हैं कि “देख वो दिन आते हैं ख़ुदावंद फ़रमाता है कि मैं दाऊद के लिए एक सादिक़ शाख़ पैदा करूँगा और उस की बादशाही मुल्क में इक़्बालमंदी और अदालत और सदाक़त के साथ होगी। उस के अय्याम में यहूदाह नजात पाएगा और इस्राईल सलामती से सुकूनत करेगा और उस का नाम ये रखा जाएगा ख़ुदावंद हमारी सदाक़त।” (यर्मियाह 23:5,6) और फिर हज़िक़ीएल नबी भी यूं रक़म तराज़ है कि, “और मैं उन के लिए एक चौपान (चरवाहा) मुक़र्रर करूँगा और वो उन को चराएगा यानी मेरा बंदा दाऊद वो उन को चराएगा और वही उनका चौपान होगा, और मैं ख़ुदावंद उनका ख़ुदा हूँगा और मेरा बंदा उन के दर्मियान फ़रमां-रवा होगा। मेरे ख़ुदावंद ने यूं फ़रमाया है।” (हज़िक़ीएल 34:23-24)

एक और बात ग़ौर व लिहाज़ के क़ाबिल है कि जितनी पेशीनगोईयां हज़रत दाऊद पर नाज़िल व सादिर हुई थीं कि उन से मुराद वो वलद मौऊद था जिसकी सल्तनत तमाम आलम में मुन्तशिर (मशहूर) होने वाली थी। उन नबूव्वतों का मजमूआ दाऊद की यक़ीनों रहमतों या दाऊद के लुत्फ़ हाय अमीन से (अस्ल ज़बान यानी इब्रानी में हसदी दावेद हीनमानीम حسدی داوید حینٔمانیم) से ख़िताब किया गया है। ये इबारत ख़ास इस्तिलाही है और उस वाअदे और मीसाक़ से मुक़य्यद (क़ैद) है जिसका मिस्दाक़ वो अस्ल व नस्ल मौऊद है यानी ख़ुदावंद मसीह।

इस इबारत का मंशा साफ़ व सरीह है कि बाल-इख़्तसास ये दो औसाफ़ ख़ुदा-ए-क़ादिर-ए-मुतलक़ के यानी लुत्फ़ व रहमत व अमानत इस वाअदे के ईफ़ा और इत्माम के गोया ज़िम्मेदार हैं और इस अम्र में बतौर ज़मानत के मुक़य्यद हैं, ता आंक़द्र कि अगर अह्द व मीसाक़ के ईफ़ा में कुछ नुक़्स या क़सूर पड़ेगा तो रब तआला के उन औसाफ़ में ज़रूर ख़लल आएगा। और ये अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि कुल कुतुब मुक़द्दसा में कोई दूसरा मीसाक़ मारूफ़ नहीं है कि जिसकी दवाम और अबदीयत पर अस्माअ् और ओसाफ़ पाक ख़ुदा के मरहून हैं। बजुज़ इस मीसाक़ के जिसके वादों का मजमा और माख़ज़ और मदार मज़ामीन तव्वुलुद जिस्मी इस इब्ने इब्राहिम और इब्ने दाऊद का है, जिसमें ये दो सिफ़ात ईलाही गोया जिस्म इन्सानी में सूरत-पज़ीर हो गए हैं। और वो इबारत इस्तिलाही फ़ील-तहक़ीक़ सात मर्तबा इस ज़बूर में पढ़ी जाती है। ये बात उन को साफ़ मालूम होगी जो अस्ल मतन से वाक़िफ़ हैं। हर-चंद कि तर्जुमें के लफ़्ज़ों में ये क़वी और वज़नी दलील मफ़्क़ूद (नहीं) है।

ये मुतालिब अगरचे सफ़ाहत (कमीना पन, हमाक़त) वालों को ज़रा दकी़क़ (नाज़ुक, मुश्किल) और बारीक मालूम हों तो भी हक़ीक़त में बहुत मुफ़ीद और मुतय्यन (मज़्बूत, संजीदा) हैं। क्योंकि उनका इल्म कलाम ईलाही की बहुत पेश ख़बरियों के तौर व तरीक़ का मज़हर और कश्शाफ़-उल-मुश्कलात है और अस्हाब ईमान और अहले फ़िरासत के लिए ज़मीर ईलाही का हिजाब कश है। जो साहब इस मिज़ाज का होतो देखे कि इस ज़बूर की पहली दो आयतों में ये दो सिफ़ात किस तरह महमूद और सतूदा हैं और फिर पांचवीं आयत में वो दोनों तो नहीं, लेकिन एक इन दोनों में से यानी “हसद” (כִּסְאֲך) और इस के साथ एक और भी सिफ़त इलहाक़ की जाती है, यानी “पीला” (פִּלְאֲ) जिससे मुराद है वो सिफ़त ईलाही जिससे ख़वारिक़ आदत (ख़िलाफ़ आदत बातें) और उस तआला की माहीयत (असलियत) व कमालात के ग़ैर-मामूली और नादिर ज़ाहरात और ख़ुसूसुन ख़ुदा के लुत्फ़ और रहमत व हिक्मत के वो ज़हूर हैरत-अंगेज़ जिनका हासिल ख़ल्क़-उल्लाह की नजात व सलामत है, सादिर होते हैं।

और क़ाबिल-ए-ग़ौर व लिहाज़ है कि इस नाम से ख़ुदावंद मसीह बाल- इख़्तसास मुख़ातब (यसअयाह 9:6) में है कि सल्तनत उस के कंधे पर होगी और उस का नाम “अजीब” इब्रानी ज़बान में “पीला” (פֶּלֶא) और फिर इस के बाद “मुशीर” फिर “खुदा-ए-क़ादिर” और फिर “सलामती का शहज़ादा” पस इस (ज़बूर 89:5) से जो मानिंद दीबाचा व मुक़द्दमा के है। ज़बूर ख़वाँ इस अम्र से मुत्लअ (बाख़बर) हो जाते हैं कि मज़्मून इस ज़बूर का इस वज़न व वक़ार का है कि साकिनान बहिश्त भी साकिनान ज़मीन के साथ इस सरोद पुर सरवर में रफ़ीक़ हैं और कि उस इब्ने दाऊद और शहनशाह मौऊद की हुक्मरानी मामूली सूरत पर नहीं। पर वो अलामत व वाक़ियात जो उस के पसोपेश (आगे पीछे) होंगे, ऐसे इसरार व ग़ैब और ख़वारिक़ आदात भी होंगे कि जिनसे लुत्फ़ और क़ुदरत ईलाही आश्कारा बेनज़ीर और बेमिसाल वज़अ से होंगे। “ऐ ख़ुदावंद! आस्मान तेरे अजाइब की तारीफ़ करेगा। मुक़द्दसों के मजमा में तेरी वफ़ादारी की तारीफ़ होगी।” (ज़बूर 89:5)

हासिल कलाम :- मज़्मून और मफ़्हूम इस ज़बूर का कोई दूसरा नहीं है, मगर वो सलामत जलील (बुलंद) व जमील जो हज़रत इब्राहिम और दाऊद की ज़ुर्रियत मौऊद पर सादिर हो कर ग़ैर क़ौमों का नूर और बनी-इस्राइल का शर्फ़ व रौनक होने के लिए मुक़र्रर था। इसी (ज़बूर 89:15) में ऐसे बादशाह की तश्बीह और तम्सील नज़र आती है कि वो हशमत शहंशाहाना से अपनी रईयत के बाअज़ असीरों (क़ैदियों) को ज़ालिमों के क़ब्ज़े से छुड़ाने के लिए अपने महल से नहज़त (कूच, रुख़सत) फ़रमाता है और उस कुचे में इस के पेश रवां और पेश दवां सिद्क़ व अदल और रहमत व लुत्फ़ और अमानत व वफ़ा हैं। और उन के मुँह से गोया तुरई की सी आवाज़ से मख़्लिसी और रिहाई का इश्तिहार आता है। इस बुलंद आवाज़ के सुनने वालों और पहचानने वालों के लिए मुबारकबादी भी होती है। अज़ां जिहत कि वो सब दिन-भर बादशाह अज़ीमुश्शान के चेहरे के नूर में चलते हैं और उस की क़ुदरत व सदाक़त उन की विरासत अज़ीज़ व फ़ख़्र का बाइस है। “सदाक़त और अदल तेरे तख़्त की बुनियाद हैं, शफ़क़्क़त और वफ़ादारी तेरे आगे-आगे चलती हैं। मुबारक है वो क़ौम जो ख़ुशी की ललकार को पहचानती है। वो ऐ ख़ुदावंद! जो तेरे चेहरे के नूर में चलते हैं। वो दिन-भर तेरे नाम से ख़ुशी मनाते हैं और तेरी सदाक़त से सर्फ़राज़ होते हैं।” (ज़बूर 89:14-16)

वो ख़ुश आवाज़ी तुरई मज़्कूर अस्ल ज़बान यानी इब्रानी में वो “तरवाह” (תְרוּעָ֑ה) है, जिसे बनी-इस्राईल बमूजब शराअ मूसवी के पचास-पचास बरस के बाद शुन्वा हो कर जितने उन के भाईयों से ग़ुलाम व ज़र ख़रीद हो गए थे उसी दम आज़ादगी और हुर्रियत की हालत में दाख़िल हो जाते थे और जितनों ने जागीर और जायदाद ग़ैर अज़ अस्ल मालिक किसी दूसरे के हाथ फ़रोख़्त की थी, उसी “तरूआह” (تروعاہ) के सुनते ही अपने तसर्रुफ़ व तसल्लुत में कर लेते थे। तो जानना चाहीए कि ये लफ़्ज़ “तरूआह” (تروعاہ) उन इस्तिलाहात में से है जिनमें इशारा साफ़ व मशहूर इस बशारत इंजील से और इस पूरी रिहाई और आज़ादगी मुज़्दा बख़्श से है, जो शैतान व गुनाह के जकड़ बंदों व मज़्लूमों को उस ख़ुदावंद मुख़लिस मस्लूब के ज़रीये से हासिल व वासिल है। जिसका एक बयान दिल सोज़ो फ़र्हत अंदोज़ यसअयाह नबी की किताब में से पढ़ने और हिफ़्ज़ करने के लायक़ मिलता है कि :-

“उस के पांव पहाड़ों पर क्या ही ख़ुशनुमा हैं जो ख़ुश-ख़बरी लाता है और सलामती की मुनादी करता है और ख़ैरीयत की ख़बर और नजात का इश्तिहार देता है। जो सियोन से कहता है तेरा ख़ुदा सल्तनत करता है।” (यसअयाह 52:7)

एक और मुफ़ीद और भारी ताअलीम भी इस ज़बूर से मिलती है कि अगरचे हज़रत सुलेमान की जिस हैसियत से वो शाह सुलह व सलामत था, बड़ी मुताबिक़त और मुशाबहत ख़ुदावंद मसीह के साथ थी और अह्द इब्राहीमी और दाऊदी की नामात और बरकात का एक वारिस हक़ीक़ी, बिलाशुब्हा वो भी था तो भी इस अह्द का नुज़ूल ब ख़ुसूसीयत उसी पर ना था, बल्कि उस के बाप दाऊद पर था और अव्वल वारिस और बहरावर इस वसीयत फ़ज़्ल का बाद अज़ ख़ुदावंद मसीह जो अव्वल से आख़िर तक उस का दर्मयानी और अस्ल व हक़ीक़ी मज़्मून था, हज़रत दाऊद ही ठहरा, ना उस का वल्द हज़रत सुलेमान। चुनान्चे ख़ुदावंद मसीह ब इस्म दाऊद मुख़ातब है, लेकिन ब इस्म सुलेमान हरगिज़ नहीं। मसलन होसीअ की किताब में इस की साफ़ दलील है कि, “इस के बाद बनी-इस्राइल रुजू लाएँगे और ख़ुदावंद अपने ख़ुदा को और अपने बादशाह दाऊद को ढूँडेंगे और आख़िरी दिनों में डरते हुए ख़ुदावंद और उस की मेहरबानी के तालिब होंगे।” (होसीअ 3:5) और बमूजब इस क़ौल के जिब्राईल फ़रिश्ते ने हज़रत मर्यम को ना सिर्फ तख़्त सुलेमान पर बल्कि तख़्त दाऊद पर मसीह के जलूस करने के बारे में मुत्ला`अ (बाख़बर) किया, “वो बुज़ुर्ग होगा और ख़ुदा तआला का बेटा कहलाएगा और ख़ुदावंद ख़ुदा उस के बाप दाऊद का तख़्त उसे देगा ओर वह याक़ूब के घराने पर अबद तक बादशाही करेगा और उस की बादशाही का आख़िर ना होगा।” (लूक़ा 1:32,33) और फ़रिश्ता करीम व जलील के पैग़ाम में अनक़रीब (ज़बूर 89:20,21) बलफ़्ज़ मन्क़ूल हैं कि “मेरा बंदा दाऊद मुझे मिल गया है। अपने मुक़द्दस तेल से मैं ने उसे मस्ह किया है।” “उस की नस्ल हमेशा क़ायम रहेगी और उस का तख़्त आफ़्ताब की मानिंद मेरे हुज़ूर क़ायम रहेगा। वो हमेशा चांद की तरह और आस्मान के सच्चे गवाह की मानिंद क़ायम रहेगा।” (ज़बूर 89:36,37 आयात) अला हज़-उल-क़यास (इसी क़ियास पर) ख़ुदा की दरगाह में फर्ज़न्दियत और नख़्सत ज़ादगी (पहलौठा होने) का रुत्बा और रौनक बाद अज़ मसीह जिसके बग़ैर फर्ज़न्दियत हक़ीक़ी के शर्फ़ से ख़ुदा के घर में मुशर्रफ़ होना नामुम्किन है, हज़रत दाऊद का विर्सा ख़ास है और लियाक़त और इस्तिदाद (सलाहियत) इस मीरास की उसी को बख़्शी गई है, ना हज़रत सुलेमान को। पर तो भी इस एतबार से नस्ल मौऊद बतौर मुशाबहत के वही था तो फर्ज़न्दियत का दर्जा उस को मिला और मर्हमत हुआ पर नुख़सत ज़ादगी का दर्जा बाद अज़ मसीह सिर्फ़ हज़रत दाऊद को। चुनान्चे इसी (ज़बूर 89: 26,27) में ये राज़ साफ़ मुबय्यन है कि “वो मुझे पुकार कर कहेगा तू मेरा बाप मेरा ख़ुदा और मेरी नजात की चट्टान है और मैं उस को पहलौठा बनाऊँगा और दुनिया का शहनशाह।” इन आयात बाला से मालूम होता है कि ये ज़बूर निहायत अज़ीम वज़न और रुत्बे का है और रम्ज़ों और इसरारों से भरा है और यक़ीन है कि इस वाअदे और वसीक़े दाऊदी की कैफ़ीयत में मसीह की तश्बीहात मुसफ्फा और मुतअद्दा रोशन ज़मीरों को नज़र आती हैं।

अव्वलन : सबूत इस अम्र का ये है कि दाऊद मसीह भी कहलाता है और मसीह भी बारहा दाऊद कहलाता है।

सानियन : ये कि आग़ाज़ और इब्तिदा इस अम्र का दाऊद भी है और मसीह भी। मसीह तो असालतन और हक़ीक़तन और दाऊद मिजाज़न व रआ़रीयतन यानी अज़राह शिरकत फ़ज़लियह और इसी तरह से।

सालसन : नुख़सत ज़ादा ज़ातीया और जौहरिया मसीह है, लेकिन तताबक़न व तशबिहन हज़रत दाऊद है।

राबिअन : अला-हज़-उल-राए (बाला राए है कि) हज़रत दाऊद अपने मुल्क की सरहदों को तवील व बसीत करने में और बहर से बहर तक अपनी हुक्मरानी के इंतिशार और तरक़्क़ी करने में इस सुल्तान-उल-सलातीन का निशान है। जिसका जलाल तमाम आलम में दरयाए अज़ीम की मानिंद फैलेगा और जिसने अपनी ही शान-ए-ईलाही की बाबत दस्त रास्त तआला पर सऊद करते वक़्त ये शहादत फ़रमाई कि सारी क़ुदरत आस्मान और ज़मीन पर मुझे दे गई। चुनान्चे वो सल्तनत कुशादा व फ़राख़ जो हज़रत सुलेमान को दस्तयाब हो गई तो वो इन फ़ौजों की फ़ुतूहात पर मुन्हसिर थी, जिनका सर लश्कर ख़ुद दाऊद ही था और गाह-गाह (कभी-कभी) अम्रा आज़मूदा जंग जिन्हों ने अपने जान व माल को इस के तख़्त के क़ियाम और अजरा-ए-अहकाम पर निसार किया था।

ख़ामसन : एक और बड़े अम्र में निशान और मिस्ल ख़ुदावंद मसीह की हज़रत दाऊद में नज़र आती है कि इस्तिक़लाल व इस्तिक़ामत वसीक़ा फ़ज़्ल इस अस्ल व नस्ल के लिए बेक़ैद और बे-शर्त और बाल-ईस्तिक़लाल ना थी। बसबब इस के कि दाऊद की औलाद और ज़ुर्रियत का इस अह्द व मीसाक़ से उदूल कर के इनाम मौऊदाह से महरूम होना मुम्किन था, पर तो भी नुस्ख़ होना इस वाअदे का नामुम्किन था। बसबब इस लुत्फ़ व रहमत यक़ीन और अमीन के जो मुजर्रिद हज़रत दाऊद ही के दस्त में इस अह्द के ईफ़ा और तत्मीम के लिए बतरीक़ ज़मानत व क़बालत दी गई। जिसका हासिल व नतीजा ये था कि हर-चंद इस मीसाक़ के पूरा करने के लिए कुछ ताख़ीर व मोहलत हो सकती थी, पर तो भी मुतल्लिक़न नुस्ख़ व रद्द ना हो सका। अगर होता तो उन सिफ़ात ईलाही में ख़लल वाक़ेअ होता, पर ये बइत्तफ़ाक हुक्माअ व अम्बिया मुहाल है। इसी तरह ख़ुदावंद मसीह की नस्ल हक़ीक़ी में से मोअतबर तरीन अहकर (बंदा, बाअज़ लोग इन्किसार से अपनी बाबत ये लफ़्ज़ इस्तिमाल करते हैं) को जो ब रूह व जान व बदन अज़राह हयात जदीद ख़ुदावंद से वाबस्ता है, पूरी बे-ख़ौफ़ी से इस अम्र का यक़ीन हो सकता है कि मसीह जो अल्लाह का इब्ने वहीद और महबूब है। मेरे लिए और उस की नस्ल की सब औलाद के लिए इस अह्द के इस्तिक़रार (क़रार पकड़ना, क़ायम होना) का ज़ामिन है। अज़ां क़द्र कि इन्हिलाल (किसी मुरक्कब शैय के अनासिर तर्कीबी का अलग-अलग होना) इस रिश्ता-ए-उल्फ़त व राबिता रहमत का मुनाफ़ी (खिलाफ) व खिलाफ़ यक़ीन व क़ियास है। “लेकिन मैं अपनी शफ़क़्क़त उस पर से हटा ना लूँगा और अपनी वफ़ादारी को बातिल होने ना दूंगा।” (ज़बूर 89:33)

बावजूद इन सब दलीलों के अगर शायद कोई मोअतरिज़ अज़-राह ज़िद्दियत (मुतअस्सिब होना) इस राय पर मुस्तक़िल हो कि ये पेशगोईयां माअरूफ़ किसी दूसरे की तरफ़ आइद व इत्लाक़ नहीं हो सकतीं, मगर हज़रत दाऊद और सुलेमान पर, तो उम्मीद क़वी है कि (यसअयाह 55:2) पढ़ कर इस (ज़बूर 89) के मिस्दाक़ हक़ीक़ी यानी मसीह का क़ाइल हो जाएगा। चुनान्चे वो पाक नबी यसअयाह जिसका ज़माना तख़्मीनन (250) बरस बाद हज़रत सुलेमान के था, उन नेअमात मौऊद ब दाऊद को ना माज़ी्यह (गुज़रा हुआ) में गिनता है, बल्कि उमूर मुस्तक़बला में, जैसे लिखा कि, “कान लगाओ और मेरे पास आओ, सुनो और तुम्हारी जान ज़िंदा रहेगी और मैं तुमको अबदी अह्द यानी दाऊद की सच्ची नेअमतें बख़्शुंगा।” फिर अगर वो मोअतरिज़ कोई और मअनी बना कर कहे कि मिस्दाक़ इस आयत के मुहम्मदﷺ हैं, फिर भी उम्मीद है कि पोलुस की तफ़्सीर इल्हामी पर ग़ौर व तामिल कर के बिला-तास्सुब हाँ, बल्कि शुक्रगुज़ारी से इक़रार करेगा कि लाबुद (बेशक) इस अह्द की बरकात व इनाम मौऊद का ज़ामिन फ़क़त ख़ुदावंद मसीह ही है।” और उस के इस तरह मुर्दों में से जिलाने की बाबत कि फिर कभी ना मरे उस ने यूं कहा कि “मैं दाऊद की पाक और सच्ची नेअमतें तुम्हें दूंगा।” (आमाल 13:34)

दो तीन और मूजिब हैं उस कामिल इत्तिफ़ाक़ के जो अहले कुतुब अर्बा यानी अहले तौरेत व ज़बूर व अम्बिया व इंजील में पाया जाता है कि ग़ैर-अज़ मसीह कोई दूसरा मिस्दाक़ इस अम्र का नहीं हो सकता। एक ये है कि इस “तरूआह” (تروعاہ) यानी इस इश्तिहार ख़लासी के जो नताइज और हासिलात (ज़बूर 89:17,18) आयतों में बयान हुए हैं, वो सब बग़ैर ज़ाहिरी मुबालग़ा के, हाँ बल्कि बग़ैर क़बाहत कुफ़्र के किसी दूसरे की तरफ़ मंसूब नहीं हो सकते। मगर आदम-ए-सानी की तरफ़ जिसकी आँजहानी उम्र के अहवाल चार इंजीलों के बीच गोया नूरानी हुरूफ़ में मुसव्विर और मुबय्यन होते हैं।

साहिबो सुनो कि इस इश्तिहार और मुज़्दे के शुन्वा और शनासाओं को किन-किन बरकतों की तहसील इन आयात में मौऊद है कि “वो दिन-भर तेरे नाम से ख़ुशी मनाते हैं और तेरी सदाक़त से सर्फ़राज़ होते हैं, क्योंकि उनकी क़ुव्वत की शान तू ही है और तेरे करम से हमारा सींग बुलंद होगा।” (ज़बूर 89:16,17)दूसरा मूजिब इस यक़ीन मुत्तफ़िक़ का कि इस ज़बूर का मदार कलाम मसीह पर सादिक़ आता है, किसी दूसरे पर नहीं। सो ये है कि ज़बूर के दीबाचा और मुक़द्दमा से साफ़ मालूम होता है कि नादिर और बे मामूली और आँजहानी वारदात मुहिम तरीन वाक़ियात का बयान होने वाला है और सिर्फ यही नहीं बल्कि इस ज़ामिन अह्द की क़ुदरत व जलाल और क़ुव्वत व हुकूमत जावेद और बाक़ी कमालात ज़ाहिरन इन्सान से ज़ाइद और फ़ाइक़ हैं, मसलन (ज़बूर 89:20) में लिखा है (बमूजब अस्ल इब्रानी मतन के) कि “मैंने ऐसे जब्बार को इख़्तियार किया है जो इम्दाद और कुमक देने के मुसावी यानी बराबर है।” पस ग़ौर के क़ाबिल है कि इब्रानी में “एल-जब्बार” यानी (עַל־גִּבֹּ֑ור) “ख़ुदाए जब्बार” (यसअयाह 9:2) में मसीह के खिताबों पर मुश्तमिल है। और फिर ये सिफ़त भी कि इसी के सबब से अह्द के उदूल करने वालों के लिए ग़ैर-अज़-अअ्ताब व क़हर चंद रोज़ा (क़त-ए-नज़र अज़ नस्ख़ अह्द) ख़लल व जुंबिश भी उस में दाख़िल नहीं हो सकती, तो कमाल दर्जा तक किस दूसरे पर आइद और सादिक़ हो सकती है और ज़मानत के इतने बार-ए-गराँ पर क़ादिर कौन है? मगर वो जिस पर युहन्ना रसूल ये शहादत अपने पहले ख़त के दूसरे बाब की पहली दो आयात में देता है कि, “अगर कोई गुनाह करे तो बाप के पास हमारा एक मददगार मौजूद है यानी यसूअ मसीह रास्तबाज़। और वही हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा है और ना सिर्फ हमारे ही गुनाहों का बल्कि तमाम दुनिया के गुनाहों का भी।”

हासिल कलाम इस ज़बूर में ख़ुत्बा ना सिर्फ हज़रत दाऊद व सुलेमान के नाम से पढ़ा जाता है, बल्कि उस बादशाह मुबारक के नाम से जो उन दोनों का मुनज्जी (नजात देने वाला) और ख़ुदावंद है और ये भी है कि वो उम्दा नेअमतें और बरकतें जो उन दो नबियों और उनकी औलादों का बख़राह और विरसा जलाली होने वाला था, ना उन दो के इंतिक़ाल से मंसूख़ और मफ़्क़ूद हो गया, बल्कि आख़िर-उल-अय्याम तक हर वाहिद मोमिन और अहले यक़ीन के लिए जिसका यक़ीन और इंतिज़ार मसीह की तरफ़ माइल और मुतवज्जा है। वो वाअदा नजात का कलिमतुल्लाह (کلمتہ ُاللہ) की सिक़ा (मोअतबर, मोअतमद) ज़मानत से और ख़ुदा तआला की क़िस्म हरीम से क़ियाम आलम से क़ायम तर और नय्यर आस्मानी से रोशन तर और अज़हर, हाँ बल्कि रब तआला के फ़ज़्ल व लुत्फ़ व अमानत का इफ़ाज़ा (फ़ैज़ पहुंचाना) अबद-उल-आबाद तक इस अह्द पर मब्नी और मुन्हसिर है।और साकिनान बहिश्त (बहिश्त में रहने वाले) में से जो ख़ुदा तआला के अक़रब-उल-मुक़र्रबिन हैं, हिक्मत और शफ्क़त और क़ुदरत ईलाही के बुरहानों में भी बुरहान ग़ालबा और बालिग़ा जान कर इस मज़्मून आला की बिलानागा सना-ख़्वानी और सताइश करेंगे। और बतरीक़ ऊला लाज़िम व वाजिब है कि साकिनान ज़मीन (ज़मीन पर रहने वाले) इस अपने बिरादर नख़सत ज़ादा की शुक्रगुज़ारी करें। जो इन्सान अव्वल और आदम-ए-सानी इस मुराद से बन गया कि ख़ल्क़त जदीद का आप ही बीख़ और अस्ल हो कर आदमजा़द के लिए सब कमालात का मंबा और नमूना भी हो। ताकि वो सब उस की हयात और सिफ़ात और हसनात में शरीक हो कर गोया मुर्दों में से नव ज़ादे हो जाएं और फर्ज़न्दियत हक़ीक़ी के दर्जे तक और उस के हुक़ूक़ तक सर्फ़राज़ हो जाएं। बमूजब क़ौल मत्ती पोलुस रसूल के जो इब्रानियों के ख़त में है कि, “पस जिस सूरत में कि लड़के ख़ून और गोश्त में शरीक हैं तो वो ख़ुद भी उन की तरह उन में शरीक हुए ताकि मौत के वसीले से उस को जिसे मौत पर क़ुदरत हासिल थी यानी इब्लीस को तबाह कर दे। और जो उम्र-भर मौत के डर से गु़लामी में गिरफ़्तार रहे उन्हें छुड़ा ले।” (इब्रानियों 2:14,15)

बाब पंजुम

दरबयानआँ मज़्मून कि बादशाहत मज़्कूर कि इजराईश अज़्जानिब दाऊद बसूए ख़ुदावंद मसीह अस्त बग़ायत शर्फ़ व जलाल ख़्वाहिद रसीद व ताम्मुद्दते दर हालत ख़्वारी व ज़िल्लत व क़िल्लत ख़्वाहिद कर्द

د ربیان آں مضمون کہ بادشاہت مذکور کہ اِجرایش ازجانب داؤد بسوئے خداوند مسیح است بغایت شرف و جلال خواہد رسیدو تامدّ تے د رحالت خوار ی و ذلّت و قلّت وردو خواہد کرد

अगर कोई साहब तमीज़ व बीनाई कुतुब दाऊदी में जद्दो जहद से तजस्सुस करे तो सैंकड़ों इशारों से इस अम्र की इत्तिला पाएगा कि अगरचे अंजाम और मंज़िल-ए-मक़्सूद इस राह का जिस सबील से ख़ुदावंद मसीह अपनों को हिदायत करता है, ख़ुदा तआला की मुशाहदत और रिफ़ाक़त और मुक़द्दसों के साथ क़ियामत नूरानी और जलाली है। पर तो भी दर अस्ना राह ख्वारी व ज़िल्लत व आजिज़ी और क़िस्म-क़िस्म की तक्लीफ़ात व शदाइद मिलते हैं। जैसे ग़रीब-उल-वतन और मुसाफ़िरों के लिए जो जहांदीद और आलम पैमा हैं कोहे-ए-सअब (दुशवार, तक्लीफ़देह) गुज़ार और ब्याबान सुन्सान और वादी अमीक़ और करख़त और कातआ़न (क़ातेअ़, काटने वाला, जमा कुताअ़) सबील और ग़ैर-वतनों से ज़ुल्म और ताद्दी और हज़ार-हा ख़ौफ़ व ख़तरे के बाइस हैं और ना सिर्फ वक़ूअ और दुरूद उन तंगियों और तक़्लीफों की शहादत अम्बिया से मुसद्दिक़ व मुसबत है। पर ताअलीमात ज़बूरी से मालूम होता है कि ये दो बातें जिनकी सूरत मुतनाक़िज़ है, यानी मसीह का बादशाह होना भी और मौरिद अहानत व हक़ारत होना भी, इस क़द्र आपस में पूरा इत्तिफ़ाक़ और पूरी वाबस्तगी रखती हैं कि वो दोनों लाज़िम व मल्ज़ूम के तौर पर आपस में मुताल्लिक़ हैं। और जज़आँ (جزآں)राह जिसमें सलीब और सलीब बर्दारी है, कोई दूसरी राह मसीह के शाहाना ताजोतख़्त तक नहीं पहुंचाती। हाँ बल्कि यक़ीन है कि इस राह में अजीब और नादिर इज्तिमा शर्फ़ बशर्म है। और इज्तिमा ज़िल्लत व क़िल्लत ब चश्मत व अज़मत और फ़ुतूहात बादशाही ब ज़ेर बारी व इन्किसारी। और जो शख़्स मोअतरिज़ ऐसा जानता है कि इन दो हालतों से दो शख़्स मुराद हैं, एक शख़्स की दो सूरतें नहीं। तो वो इन्क़ियाद हक़ से बिल्कुल चूक गया है और रिफ़ाक़त अम्बिया के हुक़ूक़ को नहीं पहचानता।

चुनाचे ज़बूर और अम्बिया भी और इंजील ऐसे यसूअ मसीह की शहादत पर मुत्तफ़िक़ हैं जिसने अज़ल से और अस्ल ज़ात व वजूद से दर्जे और हक़ माबूदियत (ख़ुदा मालिक) का रखकर हालत उबूदीयत (बंदगी, इबादत) और बंदगी की क़ुबूल फ़रमाई। और बाअज़-बाअज़ मुक़ामों में हवादिस (हादसा की जमा, वाक़ियात) इन्सानियत और अवारिज़ (आरिज़ा की जमा, पेश आने वाली चीज़ें) मकान व ज़मान से मुबर्रा और मअर्रा (पाक, आज़ाद) बताया जाता है। और बाअज़ और मुख़्तलिफ़ मुक़ामों में ज़रूरीयात और हाजात और अमराज़ और सख़्त-सख़्त तजारिब (तजुर्बा की जमा) आदमजा़द से मुलब्बिस (मकरू ऐब छिपाने वाला) हो कर हमको मर्द अलम और आश्नाए ग़म नज़र आता है। हर-चंद ना कोई क़ुव्वत मुद्रिका (قوت مُدر ِکَۂ) आँजहानी और ना कोई तमीज़ ज़हनी और फ़िरासत इन्सानी अक़्ल के नूर मुजर्रिद से इस राज़ की फ़हमीदा तक पहुंच सके और हर दोनों यहूद के करामत परस्त और अहले यूनान के हिक्मत परस्त इस करामत और हिक्मत नादिर ईलाही के क़ाबिल-ए-फ़हम नहीं हो सके।

चुनान्चे युहन्ना रसूल से इस मक़ूला के नए-नए सबूत पदीद (वाज़ेह, साफ़) होते चले आए हैं कि एक शख़्स भी बग़ैर तौफ़ीक़ रूहुल-क़ुद्दुस यसूअ मसीह को ख़ुदावंद नहीं कह सकता। पर तो भी ख़ुदा के फ़ज़्ल व हिदायत पर इस बंदे का पूरा भरोसा और यक़ीनी उम्मीद है कि जो कोई शख़्स बअजज़ व अदल व तमीज़ रुहानी कलाम-उल्लाह की सैर व मुतालआ करता है और माअर्फ़त और हक़ीक़त ईलाही को ना जुज़ीयतन (टुकड़ों में) बल्कि गोया उस का कुल साँचा और क़ालिब और सूरत साबित को सीखना चाहता है तो वो इंशा-अल्लाह बख़ूश दिली व शुक्रगुज़ारी इक़रार करेगा कि इस इज्तिमा शरफ़ व शर्म और क़िल्लत व किब्र और ज़िल्लत व अल्वियत का सिर्फ वही ऐन इज्तिमा है। जिसका वाअदा औलिया अव्वलीन यानी आदम व हव्वा जन्नत-ए-अदन में से इस वीराना तन्हा तारीक आलम में गोया अपना दोस्त वाहिद और यगाना नूर रजा अपने साथ-साथ ले गए। यानी इज्तिमा कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ब यसूअ इब्ने दाऊद ना अज़ां तौर कि इख़्तिलात (मेल-जोल) ख़ालिक़ बह मख़्लूक़ हो गया। या ये कि ज़ात-ए-पाक व हरीम ईलाही में कुछ नुक़्स दाख़िल हो गया। फिर ये ख़ुदा का ऐन सर्र हिक्मत और उस की मर्ज़ी और मुहब्बत के सर्र ग़ैब का सबसे उम्दा इश्तिहार और इज़्हार है। अज़ आनरो कि जिस जिस शख़्स में ईमान और एक़ान (यक़ीन) इस राज़ का पैदा होता है और वो शख़्स आप अपने अमल व आदत व सीरत को क़ुर्बान करता है। तो वो मसीह के साथ चस्पीदा (चिपका हुआ) हो कर और उस के नूर व हयात में रवां हो कर ख़ुदा तआला की रिफ़ाक़त जावेद की लियाक़त व इस्तिदाद (सलाहियत) का वारिस हो जाता है।

साहिबो चाहीए कि आप और हम दोनों इस मुज़्दा हयात व निजात पर हम्दो सताइश और शुक्रगुज़ारी करें कि हक़ तआला का कलिमा-ए-वहीद और इब्ने महबूब-ए-आलम बाला और तख़्त आला पर से इस हमारे अदना और हक़ीर तरीन ज़ात तक सरनिगूँ और पस्त हो गया। और दार-उल-मुल्क जलाल आलमीन में से इस ज़श्त व ज़बून सराय ज़मीन में उतरा ताकि आदमजा़द को अपना बिरादर अज़ीज़ बना कर उन्हें अपना रिश्तेदार क़रीब बल्कि अपने कुनार (आग़ोश, गोद) लुत्फ़ में ले लिया करे। और फर्ज़न्दियत के इस दर्जे में जो फ़रिश्तों की शान व नज़िलत से आली तर है, सर्फ़राज़ करे। और ये क़ौल ना सिर्फ रसूलों और नबियों की तारीफों से साबित व मुबर्हन है, बल्कि इस मर्द ग़म व अलम की जिसकी कैफ़ीयत व हक़ीक़त ज़बूरों के मफ़्हूमात आज़म में से है ग़म ज़दगी और अंदोह गेन (रंजीदा, मग़्मूम) की नादिर और बे मिसाल सूरत से अयाँ व नुमायां होता है। यानी उन दुखों की हिद्दत व शिद्दत से जो इस पर वारिद होने वाले थे और उन की वुसअत बेहद हिसाब से बाअज़ इन दुखों की ख़सुसीआत और अजाइबात से जिनकी निस्बत किसी इब्न-ए-आदम का दुख उस के दुखों के बराबर और मुताबिक़ ना था।

चुनान्चे कामिल इन्सान होने को वाजिब था कि ग़म व अलम और क़हर ईलाही के दरयाए बेपायाँ के अंदर अपनी बर्दाश्त और सुबूरी (सब्र) से अपने कमाल की तस्दीक़ करे और उन रंजूरियों और तक़्लीफों को जो जुज़्अन-जुज़्अन उस के बदन मिजाज़ी यानी मुक़द्दसों की जमाअत आम्मा पर वारिद होने वाले थे, आप ही अपने सर पर तहम्मुल करे। हाँ आप ही ने उन्हें ब- तस्क़ील उठाया ताकि वो सब उन्हें ब तख़्फ़ीफ़ (कमी, हल्का करना) उठाएं। अज़ां जहत कि जैसा जलाल और शर्फ़ व शान में अफ़्ज़ल था, इसी तरह शदाइद और तक्लीफ़ात में भी सबक़त और फ़ौक़ियत ले जाता है और रज़ा व क़ज़ा ईलाही से लज़ूम व इक़्तज़ा-ए-कमाल इस अम्र और हुक्म में था कि वो काहिन अल-कुहनह (کاہن ُالکُہَنَہ कुह्ना, पुराना) और रसूल-उल-रस्ल इम्तहानों में तजूर्बाकार और ग़म आज़मूदा हो कर ख़ल्क़-उल्लाह के हम दर्द और ग़म व अलम में उनके रफ़ीक़ होने के क़ाबिल ठहरे। और जो शख़्स इस पेशवाए नजात के दुख-दर्द पर तानाज़नी करता है तो वो अपनी जहालत से नहीं जानता कि अपने दुखों और अंदोहों पर मस्ख़रा पन करता है, जिन्हें इस इन्सान अव्वल ने गोया मज्मअ ज़ात जिन्स इन्सानी को आप ही में मुन्तहा कर के बतौर वकालत और ख़िलाफ़त के उठाया था। जिस राज़ पर इशारतन दलील देता है, वो सीना बंद जिससे काहिन यहूद बमूजब रसूम और अहकाम तौरेत अपनी ख़िदमत व ख़िलाफ़त के फ़राइज़ बजा लाते वक़्त मुतलबस हो कर ख़ुदा के हुज़ूर में क़ायम रहता था कि इस सीना बंद का क़ल्ब (दिल) गोया बारह जवाहर का गुलदस्ता बतौर मीनाकारी (चांदी सोने पर मुरस्सा साज़ी नगीने का काम बारीकी) के था। और हर एक जोहर पर एक फ़िर्क़ा यहूद का नाम इस वज़अ से मुनक़्क़श था कि वो काहिन उन्हीं पर नज़र कर के इन बारह फ़िर्क़ों की हाजतों से ग़ाफ़िल और फ़रामोश ना हो सके, ना उनके लिए सिफ़ारिश करने से ज़बान बंद हो सके। चुनान्चे जो इस ब्याबान के बीच कलीसिया का हादी व मुहाफ़िज़ था, उस के हक़ में यसअयाह नबी ने फ़रमाया है कि “उन की तमाम मुसीबतों में वो मुसीबतज़दा हुआ और उस के हुज़ूर के फ़रिश्ते ने उन को बचाया।” (यसअयाह 63:9) और इस रम्ज़ को पोलुस रसूल ने इब्रानियों के ख़त में और भी फ़ाश और ज़ाहिर कर के फ़रमाया है कि “पस उस को सब बातों में अपने भाईयों की मानिंद बनना लाज़िम हुआ ताकि उम्मत के गुनाहों का कफ़्फ़ारा देने के वास्ते इन बातों में जो ख़ुदा से इलाक़ा रखती हैं एक रहम-दिल और दियानतदार सरदार काहिन बने।” (इब्रानियों 2:17)

पस इस अम्र में एक राज़ और भी ग़ौर के लायक़ है कि अगरचे अज़-मुक़द्दसीन हर वाहिद थोड़ी बहुत रिफ़ाक़त और इत्तिफ़ाक़ की सूरत और हक़ीक़त से मुशर्रफ़ हो कर मसीह के उस अलम व अंदोह के साथ जो ज़बूरों में माअरूफ़ है, शरीक हो। तो भी बिलाशुब्हा हज़रत दाऊद मसीह के हम सूरत होने के शर्फ़ और रौनक में उनसे ज़्यादा फ़ौक़ियत ले जाता है। चुनान्चे इस पाक हज़रत की उम्र के वाक़ियात में इतनी इज्मा मेहनत व तल्ख़ी और इतनी कस्रत शदाइद और तक्लीफ़ात इसाइर इस के लिए मक़्दूर व मुक़र्रर थे कि ग़ैर अज़ ख़ुदावंद मसीह किसी दूसरे के हाल में सरज़द ना हुए। अज़बस कि (चूँकि) इस मर्द-ए-ख़ुदा ने इस क़द्र अपनी कुल उम्र तंगियों और तक़्लीफों में काटी कि जिस वक़्त से भेड़ों की चरागाहों से मुर्रख़स (रुख़स्त, रवाना) हो कर बनी-इस्राईल की शहनशाही और पेशवाई पर मसह किया गया। बमुश्किल उस की तमाम उम्र में एक भी ऐसे बरस का ज़िक्र होता है जिसमें उस ने आराम पाया हो, बल्कि यक़ीन है कि दुखों का सेलाब और तुग़्यान मौज बाद मौज के बिला-तफ़ावत व फ़राग़त इस सद्मा-ए-शदाइद से इस के सर पर चढ़ आया कि गोया ख़ुदा के क़हर के तीरों का वही तन्हा हदफ़ व निशान किया गया था। और बाक़ी नबियों में मुम्ताज़ और सर्फ़राज़ था, इस तनासुब और तताबुक़ में जिसे मसीह के ज़ख़्मों और अलम व अंदोह के साथ अपने मुख़्तलिफ़ अहवाल में दिखाया करता था। ख़ुसूसुन इस अम्र में कि अपने मुल्क मौऊद को तसर्रुफ़ में लेने ना पाया। ग़ैर अज़ आंका जंग व जिदाल की सख़्त मुतवातिर आज़माईशें उठाएं और तंग-दस्ती और तानाज़नी और ज़हमत और अज़ीयत की तल्ख़ी से लबरेज़ प्याले को नविश कर के खाली किया।

और फिर उस मिसलियत (मुशाबहत) के सबब से जो दाऊद को मसीह के साथ थी, वो मर्द-ए-ख़ुदा ज़बूरों में “यख़ीद” (याख़ीद) और उस की जान “यख़ीदाह” (יְחִידָ) इब्रानी में कही जाती है, जैसे (ज़बूर 22:20) में लिखा हुआ है कि “मेरी जान को तल्वार से बचा, मेरी जान को कुत्ते के क़ाबू से।” मगर क़ारियाँ कलाम को मालूम होगा कि पैदाइश की किताब से लेकर अख़ीर इंजील तक वो लफ़्ज़ “यख़ीद” (याख़ीद) यानी वाहिद और मुख़तस के माअनों से ख़ुदावंद मसीह की उलूहियत इशारतन व किनायतन महमूल है।

अव्वलन : इसलिए कि अल्लाह तआला की वहदानियत में मसीह की इब्नीयत का एक ऐसा सर्र गैब है और इस पाक महमूद के इन उसूल वजूदी में से है जिनकी मिसाल व नज़ीर कायनात व मस्नूआत के बीच नायाब है। अज़ां जिहत कि वो इब्ने वहीद व फ़रीद है और आलम-ए-शुहूद के हर क़िस्म की इब्नीयत से बईदो बाला है, तो वहदानीयत ईलाही में “अब” (اَب) और “इब्न” (اِبن) इस क़द्र यक-जान बाहम पैवस्ता और वाबस्ता और रिश्ता-ए-मुहब्बत व यगानगत से बाहम मरबूत हैं कि इस आलम-ए-फ़ानी में जो मुहब्बत और दिल-चस्पीदगी की अकमल और अहसुन सूरतें हो सकती हैं। सो इस ऐन मुहब्बत के मह्ज़ साया जात और अम्साल कुदूरत आमेज़ हैं। और कलाम रब्बानी के क़िस्सों में सिर्फ एक मिसाल शाज़ोनादीर इस रिश्ते और उक़द-ए-लाअनीहल (जो हल ना हो सके, पेचीदा) की दी जाती है। जिनकी यगानगत में “अब” (اَب) और “इब्न” (اِبن) क़ब्ल अज़ आफ़रीनश (पैदाईश) आलम उल्फ़त के राब्ते में दिल बस्ता और मुतवस्सिल (मिला हुआ) है।

वो मिसाल नादिर वाजीब हज़रत इब्राहिम की उल्फ़त उस के इब्ने इस्हाक़ की तरफ़ है जो बलक़ब इब्ने वहीद मुलक़्क़ब है। अज़ां जिहत कि उस की माँ हज़रत इब्राहिम की औरतों में से हर्रा (पथरीली ज़मीन, बाँझ) थी। उस ने पीरज़न हो कर बतौर करामत के इस लड़के को जना और क़ाबिले लिहाज़ है कि पैदाइश की किताब के बाब 22 में तीन मर्तबा ये लफ़्ज़ यख़ीद (याख़ीद) बमाअनी वाहिद इस्हाक़ इब्ने इब्राहिम पर आइद होता है। मसलन दूसरी आयत में लिखा कि “तब उस ने कहा कि तू अपने बेटे इज़्हाक को जो तेरा इकलौता है और जिसे तू प्यार करता है, सोख़्तनी क़ुर्बानी के तौर पर चढ़ा।” और फिर 16 वीं आयत में लिखा है कि “ख़ुदावंद फ़रमाता है चूँकि तू ने ये काम किया कि अपने बेटे को भी जो तेरा इकलौता है दरेग़ ना रखा।”

इस माजरे की तरफ़ इशारा कर के इस क़ुर्बान अज़ीमुश्शान का ज़िक्र जो अख़ीर-उल-अय्याम में हुआ, पोलुस ने रूह इल्हाम की कशिश से इस तरह किया “जिसने अपने बेटे ही को दरेग़ ना किया बल्कि हम सबकी ख़ातिर उसे हवाले कर दिया वो उस के साथ और सब चीज़ें भी हमें किस तरह ना बख़्शेगा।” (रोमीयों 8:32) ये बात लाइक़-ए-दीद और क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि इस उल्फ़त बेनज़ीर और वस्ल लासानी की जिसके रिश्ते राब्ते से अज़ अय्याम अज़ल “अब” (اَب) और “इब्न” (اِبن) ज़ात और मर्ज़ी और अमल में वाबस्ता रहे, क्या ही साफ़ और दिल-सोज़ तारीफ़ ख़ुदावंद ही के कलिमात से मिलती है। ख़ासकर हज़रत युहन्ना की इंजील में जिस रसूल की रूहानियत और दक़ाइक़ (अच्छी बुरी बात के वह पहलु जो गौर करने से समझ में आएं) रुहानी की तेज़ बीनी बसारत की तम्सील दी जाती है। मसलन (युहन्ना 15:9,10:14, 15, 17:24) में लिखा है कि “जैसे बाप ने मुझसे मुहब्बत रखी वैसे ही मैं ने तुमसे मुहब्बत रखी तुम मेरी मुहब्बत में क़ायम रहो।” (युहन्ना 9:15) “अच्छा चरवाहा मैं हूँ, जिस तरह बाप मुझे जानता है और मैं बाप को जानता हूँ। इसी तरह मैं अपनी भेड़ों को जानता हूँ और मेरी भेड़ें मुझे जानती हैं और मैं भेड़ों के लिए अपनी जान देता हूँ।” (युहन्ना 10:14,15) तू ने बनाए आलम से पेशतर मुझसे मुहब्बत रखी।” (युहन्ना 17:24)

सानियन : उस लफ़्ज़ “यख़ीद” से ख़ुदावंद मुसम्मा है, बसबब उस के दुखों व ज़हमतों की बे नज़ीरी व तन्हाई के। चुनान्चे जिस तरह वो अपने रुत्बे और मंजिलत में तन्हा और वकालत और फ़अलियत और इख़्तताम नजात में तन्हा और ग़ैर-रफ़ीक़ था। इसी तरह जिस मुद्दत-ए-मदीद तक वो ग़म आज़मूदा और क़हर ईलाही का बुर्दबार था तो इस अलम व अंदोह में उस की तन्हाई और ला-शरीकी के बराबर व मानिंद कोई तन्हाई नहीं हो सकती थी। चुनान्चे बज़बान यसअयाह नबी ख़ुदावंद फ़रमाता है कि “मैंने तन-ए-तन्हा अंगूर हौज़ में रौंदे और लोगों में से मेरे साथ कोई ना था।” (यसअयाह 63:3)और लाबुद इस दरिया-ए-ग़म से पायाबी तक वाक़िफ़ और आगाह होने की एक शर्त और ज़ाब्ता ये था कि सिर्फ दोस्तों और रफ़ीक़ों में से अक़रब-उल-मुक़र्रिबिन से जुदा व अलैहदा (अलग) ना हो, पर दिली कुदूरत के इस अब्र-ए-सियाह से भी मुज़ल्ल (साया डालने वाला) हो जो रब तआला की वजह से महरूम और उस के हुज़ूर से मतरूक होने से पैदा होता है। अज़ीं जिहत कि ऐन तन्हाई और मजर्दी और मुहाजरत यही है और लज्जा (शर्म, ग़ैरत) अलम व रंज का उमुक़ अमीक़ तरीन यही है कि तबस्सुम पिदराना इब्ने वहीद महबूब की तरफ़ से पस अज़ निक़ाब क़हर मह्जूब हो गया।

और अगर वो काहिन अज़ीम इस तल्ख़ आज़माईश में तजुर्बेकार ना होता तो किस तरह दर्द-मंदी के क़ाबिल होता कि आप ही इस अम्र में क़ाज़ी हो जाओ कि ये कैसी मतरुकियत है। जो शायद कोई शख़्स माँ बाप और ख़ानदान और तिबार (घराना, क़ौम) और दोस्त व रफ़ीक़ से मतरूक हो, पर ख़ुदा की रिफ़ाक़त और मस्लिहत में रहे। सिर्फ ऐसी सूरत की मतरुकियत से वाक़िफ़ हो कर कौन काहिन आदमजा़द के मतरूकों से कह सकता है कि मैं ही तुम्हारे ग़मों को पहचानता हूँ। हाँ बल्कि बाल-इख़्तसास तमाम उस की अंदोहगीनी और ग़मगीनी का सर और निहायत यही तन्हाई थी और इसी बात में हमने कामिल नमूना पाया, उस इम्तिसाल (हुक्म मानना) और इन्क़ियाद (फ़र्मांबरदार) का जिससे वो अपने बाप की क़ज़ा व रज़ा पर राज़ी व ख़ुश था। चुनान्चे बतौर रम्ज़ व मिसाल के हज़रत ख़लील-उल्लाह क़ायम ईमान के इस के इब्ने अज़ीज़ इस्हाक़ के ख़ुशी से ज़बीहा होने के बयान में दुबारा मर्क़ूम है कि “सो वो दोनों आगे चलते गए।” (पैदाइश 22:8)

पस हमारे ख़ुदावंद के ग़म और रंज की वो मुतअद्दिद और अजीब सूरतें जो ज़बूरों में मारूफ़ हैं कौन कलमा-ए-अयाँ व नुमायां कर सकता है। देखो वो गल्ला अज़ीज़ और मर्ग़ूब जिसकी रिहाई के लिए आँ अज़ीज़-उल-शान आलम-ए-बाला से उतरा था और जिसकी रिआयत और निगहदाशत में शब व रोज़ सिर्फ़ अवक़ात किया करता था। गोया इस अपने चौपान को नफ़रती और मकरूह जान कर उस को रूगर्दान और बर्गशता बताता है। पर ज़रा सोच और ग़ौर इस बात में चाहीए कि जिन अहवाल का अब बयान होता है, उनकी सूरत ऐन ख़िलाफ़ है। इस ज़ात जलवा-गर और नूरानी से जिससे मुतलबस हो कर अय्याम अज़ल से सिना-ए-पिदर में नशिस्त बक़याम व दवाम फ़रमाता था। पर ये इस पस्ती और ख़्वारी व आजिज़ी की सूरत नज़र आती है जिसका मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हो कर अपने लुत्फ़ बे-हिसाब से जिस्म इन्सानी में साकिन हो गया। और जाम-ए-फ़ुक़्र व गदाई और लबाद-ए-इताअत व उबूदीयत पहन कर हर एक अपने हक़ीक़ी पैरौ के लिए ये क़ायदा और हुक्म वसीयतन छोड़ गया है कि “और जो कोई अपनी सलीब ना उठाए और मेरे पीछे ना चले वो मेरे लायक़ नहीं, जो कोई अपनी जान बचाता है उसे खोएगा और जो कोई मेरी ख़ातिर अपनी जान खोता है उसे बचाएगा।” (मत्ती 10:38, 39) और इस ख़ुदावंद मुबारक के आसार क़दम पर जो ख़ुर्द बीनी और बारीकबीनी से नज़र करेगा, सो मालूम कर लेगा कि हर दो बातों में यानी फ़ुक़्र व दूरवेशी और इताअत व बंदगी में वो यगाना और कुल्लीयह होने को आया।

अज़ आनरो कि एक ही माहूद अस्ल व नस्ल हज़रत दाऊद का गाह-गाह मसनद-ए-अदालत व शहनशाही जलाल पुर तख़्त नशीन नज़र आता है। और कभी बंदगी और फ़र्रमाँबर्दारी की राह में हुलुम और सुबूरी में हमें अपने हमराह ले चलता है। अब ख़ुदावंद मसीह की अजुज़ व फ़रमाँबिरादरी की नसीहत-आमेज़ निशानीयों पर लिहाज़ कर के सलाह है कि ज़रा तफ़्सील वार और तशख़ीस से बयान करें कि रूहुल-क़ुद्दुस ने बज़बान दाऊद मसीह के दुख और आज़ार की कैफ़ीयत और ख़ुसूसीयत की कैसी ख़बरें दी हैं। और तफ़्तीश व तहक़ीक़ भी करें कि ताबज़हूर किन-किन मक़ासिद व मुतालिब से ये सब उमूरात वाक़ई ख़ुदा तआला के दफ़्तर क़ज़ा व कद्र में मुतज़म्मिन हो गए तो इस तशख़ीस में एक अलामत बसलाहियत सभों पर ज़ाहिर है कि इस ग़म व रंज की जाये उरूज व सदूर ना उतना नफ़्स व जिस्म बल्कि क़ल्ब (दिल) और दिल ही था। चुनान्चे सूरी (माअनवी की ज़िद ज़ाहिरी) और नफ़्सी दुख के सबब रुहानी ग़मख़्वारी ज़्यादा-तर दिल तराश और सीना शिकन है और ज़्यादा तबाही और ज़वाल का बाइस है।

सालसन : ज़बूरों के मवाज़े मुख़्तलिफ़ से ये भी साबित है कि रूह और क़ल्ब-ए-इंसानी जितने बोझों और तक़्लीफों के ज़ेर-ए-बार हो सकते हैं, उनमें से किसी की इतनी सक़ालत (बोझल होना, भारीपन) नहीं जिस क़द्र उस ग़म की जो गुनाह की याद और शऊर से पैदा होता है। चुनान्चे हज़रत सुलेमान फ़रमाते हैं कि “बाक़ी सब बोझों और ज़ोफ़ की बर्दाश्त हौसला मंदों से हो सकती है, लेकिन शिकस्ता-दिल की बर्दाश्त के कौन क़ाबिल है।” (अम्साल 18:14)पस इन सब ज़बूरों में जिनमें दिली क़बाहत और कुदूरत और शिकस्तगी का बयान है, एक शख़्स इस क़द्र ग़मज़दा और अन्दूहगीन (रंजीदा) ख़ुदा के हुज़ूर में मुतकल्लिम और गोया दिखाई देता है कि उस का नाला और गिरयह ये सुनने से गुमान ग़ालिब और यक़ीनी पैदा होता है कि ये शख़्स या तो बाक़ी सब आदमजा़द से बेहतर या सबसे बदतर होगा। चुनान्चे वो इक़रार करता है कि “मेरे गुनाह ने तोदाह-तोदाह बन कर मुझे यूं दबा डाला है। जैसा कि वहां क़ब्र पर मन-मन भर का पत्थर ऐसा लगा है जो सरकाने के लायक़ नहीं और मिसाल इस बाद-ए-मुख़ालिफ़ की एक दरयाए मुतलातिम है, जिसकी मौज पै-दरपै बड़े जोर व जफ़ा से उस की जान पर सदमा मार रही है।

ताआंकद्र कि क़अर (बड़ा घड़ा, गहराई) बे पायाब में यारेगे-रवां (उड़ने वाली रेत, सेराब) के अंदर ग़र्क़ होने वाला है, गोया उस ने जान से भी हाथ धो लिए। हाँ बल्कि नाज़रीन उसे ख़ुदा का मकरूह व मतरूक जान कर और अंगुश्तनुमा कर के ठट्ठों में उड़ाते हैं। और दूर-दूर गोया किसी आफ़त व बला से गुरेज़ां होते हैं। इसी मुवाफ़िक़ इस ग़मखार और बारबुर्दार की हालत जिसकी जान के अंदर सख़्त मुसीबत और ज़हमत घुस गई हो और अंबार ख़ता उसे घेर लेता है और ख़ुदा के हाथ ने छुवा और मज़रूब (ज़रब खाया हुआ) किया है। सो तफ़्सील वार (ज़बूर 38,69,88) में बयान होती है, यानी गुनाह के मुहीत से महसूर हो कर और मुजरिम-उल-मज्र में ठहर कर और ग़ुबार बरसर हो कर सिर्फ़ ख़ुदा ही की रहमत में पनाह लेता है।

ये तीन ज़बूर उन सात मशहूर ज़बूरों के गुलदस्ता में हैं, जिन्हें हज़ार-हा बरसों से पुश्त दर पुश्त जितने शख़्स ख़स्ता व शिकस्ता व तौबा-कार हो गए और अपनी ज़बान पर लाए हैं और उन्ही की इबारत के वसीले अपने अंदरूनी ग़म व रन्ज की तारीफ़ और इज़्हार करते हैं। बतौर मिसाल बाअज़ इन आयात से हम नक़्ल करते हैं, “तेरे क़हर के सबब से मेरे जिस्म में सेहत नहीं और मेरे गुनाह के बाइस मेरी हड्डीयों को आराम नहीं, क्योंकि मेरी बदी मेरे सर से गुज़र गई और वो बड़े बोझ की मानिंद मेरे लिए निहायत भारी है, मैं पुर दर्द और बहुत झुका हुआ हूँ, मैं दिन-भर मातम करता फिरता हूँ।” (ज़बूर 38:3-8) फिर (ज़बूर 88) में यूं लिखा है, “तू ने मुझे गहराओ में, अँधेरी जगह में, पाताल की तह में रखा है, मुझ पर तेरा क़हर भारी है, तू ने अपनी सब मौजों से मुझे दुख दिया है, तू ने मेरे जान पहचानों को मुझसे दूर कर दिया, तू ने मुझे उन के नज़्दीक घिनौना बना दिया, मैं बंद हूँ और निकल नहीं सकता, मेरी आँखें दुख से धुँदला चली।” (ज़बूर 88:6-9) “पर ऐ ख़ुदावंद! मैंने तो तेरी दुहाई दी है और सुबह को मेरी दुआ तेरे हज़ूर पहुँचेगी। ऐ ख़ुदावंद तू क्यों मेरी जान को तर्क करता है? तू अपना चेहरा मुझसे क्यों छुपाता है?” (ज़बूर 88:13,14) “तूने दोस्त व अहबाब को मुझसे दूर किया और मेरे जान पहचानों को अंधेरे में डाल दिया है।” (ज़बूर 88:18)

पस अगर कोई शख़्स कम सोच और बे समझ इन ज़बूरों की बाअज़ बाअज़ इबारतें अलैहदा (अलग) कर के ताकीद से फ़र्माए कि बिलाशुब्हा ये ज़बूर सिर्फ ऐसे लोगों के साथ मुनासबत रखती हैं, जो शरारत और बदफ़ेअली में सब बनी-आदम ज़ाद से बढ़कर हैं और गुनाह के ख़ुबस और गंदगी तमाम में मुस्तग़र्क़ हैं। तो उन की इस राय पर कुछ जाये ताज्जुब व तहीर नहीं, क्योंकि लाबुद ये राज़ इन्सान की अक़्ल और तमीज़ मुजर्रिद से बाला है और इल्म ईलाही के काशिफ़-उल-इसरार सिर्फ़ ख़ुदा के रूह हक़ के कलिमात हैं। सिर्फ ऐसे शख़्स से हम इस राज़ की बाबत अर्ज़ करते हैं कि ऐ साहब अगर आप ज़रा भी सोच समझ रखोगे और बारीकबीनी की ग़र्बाल (छलनी) में लफ़्ज़ छानकर निकालोगे तो मालूम हो जाएगा कि वो मुजरिम जो इन ज़बूरों में मारूफ़ है, सिर्फ शरीरों और ज़बूनों और नेकी के कीनावरों की दानिस्त में मुजरिम ठहरा, पर ख़ुदा तआला और ख़ुदा तरसों के नज़्दीक गुनाह से मुबर्रा व मुअ़र्रा है। और उस के दुश्मन और ग़नीम ख़ुदा के मुख़ालिफ़ हैं और हर सूरत की सलाहियत और फ़ज़ीलत से ख़ुसूसीयत रखते हैं। और वो सब इस ग़मज़दा को ना किसी बदी के सबब, बल्कि ऐन नेकी और क़ुद्दुसियत के सबब मअयूब (ऐब वाला) व मकरूह जानते हैं। और हर-चंद कि ख़ुदा के ग़ज़ब के तेज़ो तल्ख़ तीरों से छिद जाता है और अपने ज़ख़्मों की हरारत व सोज़ो गुदाज़ से कुछ ख़िफ़्फ़त व फ़राग़त नहीं पाता तो भी उस तआला को अपने दिल की सफ़ाई और पूरी तहारत के लिए शाहिद कर लिया है। और बे-ख़ौफ़ी से उस तआला के हुज़ूर कहता है, “जो नेकी के बदले बदी करते हैं वो भी मेरे मुख़ालिफ़ हैं क्योंकि मैं नेकी की पैरवी करता हूँ।” (ज़बूर 38:20)

देखो इस बाब में क्या ही अजीब और हैरत-अंगेज़ राज़ हमें नज़र आता है कि एक ही शख़्स निहायत दर्जे तक ख़ुदा तआला के ज़ेर क़हर है और बेश अज़ बर्दाश्त गुनाह के अंबार तले दबा भी जाता है और तो भी पूरे तौर पर सीना की हिजाब-कशी कर के अपने दिली इसरार को इस नाज़िर व रास्त व आदिल के हुज़ूर में इन्किशाफ़ करने से उज़्र नहीं करता। अज़ां-जिहत कि अपने अंदरून का यक़ीनी शऊर रखता है कि मैं मह्ज़ ख़ैर व खूब का तलब करने वाला हूँ। और ख़ुदा ही के लिए अहले शर व ख़िलाफ़ से ईज़ा व अज़िय्यत उठाने से बाज़ नहीं आता, तो इस हासिल नतीजे से कौन चारा व ईलाज बाक़ी है कि वह बेहतर भी और बदतर भी सब आदमजा़द में से हो, इस इज्तिमा-ए-नक़ीज़ैन को कौन साहब हिक्मत मह्ज़ अक़्ल ही के ज़ोर से हल कर सकता है और इस मुश्किल के सख़्त क़ुफ़ुल को किस कलीद अक़्ल से खोल सकता है। और (ज़बूर 69) के राज़ इतनी ही दुशवार और जिगर तराश सर गरदानी के बाईस हैं।

चुनान्चे इस ज़बूर का मुतकल्लिम भी एक ग़मज़दा और ख़ताकार और रुस्वा और मज़मूम ख़ुदा के रूबरू अपनी तबाह हाली को दिखाता है और आयत 5 में अपने आप को मुल्ज़िम ठहरा कर गुनाहगारों के शुमार में मह्सूब होने का मुक़र है। और बावजूद मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) होने इस इल्ज़ाम और इक़रार ख़तीय्यत के इस अम्र पर मुद्दई है कि ख़ुदा की कमाल रिफ़ाक़त और उस की मर्ज़ी के ऐन इत्तिफ़ाक़ और तसावी (बराबरी) में रहता है। अज़ आनरो कि ख़ुदा के दोस्त व दुश्मन मेरे भी हैं और मेरी मज़म्मत व मदह दरअस्ल उसी की है। हाँ बल्कि जो कुछ शैय ख़ुदा के घर की शान व शौकत के मुख़िल व मुज़िर है तो उस का दिल उस की तरफ़ ग़ीवरी की हरारत से जल जाता है, तो फिर भी वो मसअला पेश आता है कि ये इज्तिमा ख़ैर व शर कौन व अजबीयत और-और मुम्किनीयत रखता है।

चुनान्चे जो अहले शरारत से भी मुजरिम ठहरा तो इस रास्त व पाक तआला के आस्ताने में कब पाक, बेऐब और बे गुनाह ठहरेगा। ऐसे राज़ और मुश्किल का इर्तिफ़ा और इन्हिलाल ना तो उलूयात समावी से और ना सिफ़लियात ज़मीनी से हो सकता है। इस क़ुफ़ुल की पेचिश सिर्फ एक ही किलीद से हल हो सकती है जो क़ारियाँ अनाजील (अनाजील को पढ़ने वाले) को हासिल व मौजूद है। जिससे मालूम होता है कि वही शख़्स जो राफ़ेअ और क़ातेअ-उल-ख़ता और ख़ुदा की तरफ़ से रहमत अता करने आया। उस ने आप ख़्वारों और ख़ताकारों में गिना जाना, हतक-ए-इज़्ज़त और क़ुद्दुसियत और तहारत अपनी क़ुद्दुसियत असलीया व ज़ातीया का ना जाना, जिस राज़ व ईमा व इशारा से पतरस रसूल अपने पहले ख़त में फ़रमाता है, “वो आप हमारे गुनाहों को अपने बदन पर लिए हुए सलीब पर चढ़ गया ताकि हम गुनाहों के एतबार से मर कर रास्तबाज़ी के एतबार से जिएँ और उसी के मार खाने से तुमने शिफ़ा पाई।” (1 पतरस 2:24) तो मिस्दाक़ इन सब आयात बाला मज़्कूर ज़बूरों का वो ख़ुदावंद मुबारक है, जो फ़ी ज़ात रूह और बदन में गुनाह की हर सूरत व रंग व बू से मुबर्रा था। सिर्फ उस परवरदिगार और मुदब्बिर नजात की रिआयत हिक्मत आमेज़ के बमूजब अपने ही सर पर आदमजा़द के बेहद और बेशुमार गुनाहों का तहम्मुल किया। आयात मज़्कूर से लाइह है।

अव्वलन : ये कि इस आलम-ए-फ़ानी के हर ज़माने के इंदूहगीन और ग़मख्वारों में ज़ाइद और फ़ाइक़ ग़मज़दा वही है, जिसके अहवाल इन मज़ामीर बाला में सूरत पज़ीर हैं।

सानियन : ये कि इस ग़मख्वारी में ख़ुदावंद मसीह हर वज़अ़ की रिफ़ाक़त और सोहबत से पूरी मुहाजरत और तजर्रुद रखते हैं। चुनान्चे ये तन्हाई और यतीमी उस के दर्द व अलम की शर्त व ज़ाब्ता ज़रूरी थी और सिर्फ हज़रत यूसुफ़ के अहवाल में एक बईद और धुँदली सी मुशाबहत उस हिज्रत और तजर्रुद की पाई जाती है।

सालसन : ये कि ख़ुदावंद ने सिर्फ वही दुख और रंज उठाया जो रब तआला के इरादे मुक़र्रर और रजामंदी से मुईन और मुक़द्दर था। और ख़ुदावंद मुबारक आप मर्ज़ी पिदराना से पूरा इत्तिफ़ाक़ और मुराफ़िक़त रखता है। और उस ने बसर व चश्म और इस बारबुर्दारी से अपना नफ़्स नज़राना और क़ुर्बान किया। जिस इक़ाब व अज़ाब के गुनाहगार व खताकार मुस्तहिक़ थे, उस को आप बतौर मुतवस्सित (दरमयानी) व एवज़ी बन कर उठाया।

राबिअन : हालाँकि कुल मख़्लूक़ात में गुनाह का इतना अंबारगिरां किसी पर हरगिज़ नहीं लदा था जिस क़द्र ख़ुदावंद मसीह के सर पर फ़राहम हुआ। तो भी ये अम्र अज़हर मिन अश्शम्स और हज़ार-हा दलाईल से साबित और मंसूस (ज़ाहिर किया गया) है कि वो आप हर दाग़ व गुनाह के साये से भी मुबर्रा था। और बराबर दोनों बातों पर दावा करता है कि मैं मजमा ख़त्यात का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) भी हूँ और ब एतबार ज़ात व वजूद के गुनाह की कोई मज़म्मत, बल्कि एहतिमाल मुझे मस नहीं करता।

साहिबो यक़ीन करना चाहीए कि मज़ामीर दाऊद की किताब में गोया एक ही बहर मरवारीद (मोती, गौहर) और माअदन अल-मास (हीरे की कान) है, यानी रुहानी दौलत का पंजगंज (ख़ज़ाना) है। अगर कोई तालिब इर्फ़ान इस माअदन से खुदवाई करे इस बहर में ग़ोता बाज़ी करे तो हज़ार-हा जवाहर बेश क़द्र फ़राहम करके इक़रार करेगा कि मेरी जद्दो-जहद अबस व बातिल ना हुई बल्कि इस मजमा सौग़ात के तजस्सुस करने ये उम्दा और ख़ातिर-ख़्वाह अम्र मिला कि एक बिरादर और दोस्त अज़ीज़ है। जो आप ही ज़ोफ़ और ज़हमत और मिस्कीनी और हाजतमंदी और मौत और बाक़ी शराइत बशरीयह से तजुर्बा कार हो कर शिकस्ता-दिलों और ग़म-ज़दों पर तरस खाने के क़ाबिल है और हर-चंद कि गुनाह से ख़ाली थे। ताहम गुनाहगारों के मुक़ाम पर क़ायम हो कर दर्द मंदी की राह से उनकी मुलाक़ात और रिफ़ाक़त तक झुका है। और आप आलम-ए-सिफ़्ली में ना सदर मुक़ाम में नशिस्त का दावा किया, बल्कि पस्त नशीनों में पस्त तरीन हो कर और उनके अज़ाब और दुख के दरया-ए-मवाज (मौजें मारने वाला, तूफ़ान ख़ेज़) में वरूद (पहुंचना, उतरना, होना) कर के उन की सब रंजूरियों और दर्दों को जान लिया। और जैसा हकीम और तबीब मरीज़ों और ज़ख़्म आलूदों के दर्मियान आकर उन के ख़ुबस व सरायत मर्ज़ और ख़ून और पीप ज़हर-आमेज़ आप तो नहीं लेता, मगर ले जाता है। इसी तरह ख़ुदावंद ने गुनाह और इस की ख़ुबस व लानत व उफ़ूनत को आप तो नहीं लिया, पर ले गया। इसी तरह ख़ुद मलऊन तो ना था, पर लानत को उठाया। जैसे आफ़्ताब अपनी शुआओं से और हुआ अपनी तासीर से ख़ुबस व न जासत को बुख़ारात कर के काफ़ूर कर देते हैं, पर आप मौरिद ख़ुबस व नजासत नहीं हैं।

इसी सबब से वह इन तीन ज़बूरों में मुतकल्लिम हो कर जो मुजरिम और लईन तर और क़बीह तर (बुरा, बदसूरत, क़बाहत वाला) मिनन्नास हैं, उनके शुरू जुर्म व लअ़न इस क़द्र अपने नफ़्स की तरफ़ मह्सूब करता है कि गोया आप ही उन्हीं में शुमार हो गया। और उन के क़रीब रिफ़ाक़त में आकर उन के दरिया-ए-ग़म और रुस्वाई और क़हर ईलाही के उमुक़ में से गोया होता है और गोया अपनी ज़बान से उनके वास्ते कलमा-ए-इस्तिग़फ़ार बनाता है और उनके लिए आजिज़ी और तौबा-कारी का नमूना बनता है। चुनान्चे ख़ुदावंद के अय्याम जिस्मियत में अहले ख़िलाफ़ ने इस पर ये मलामत की थी कि ये शख़्स गुनाहगारों को क़ुबूल करता है और उनके साथ खाता पीता है। चुनान्चे लूक़ा की इंजील में बयान है कि “उस की दावत करने वाला फ़रीसी ये देखकर अपने जी में कहने लगा कि अगर ये शख़्स नबी होता तो जानता कि जो उसे छूती है वो कौन और कैसी औरत है क्योंकि बद चलन है।” (लूक़ा 7:39) जैसे अब भी अहले मुहम्मदﷺ मसलन साहब इस्तिफ़सार फ़ुहश आमेज़ एहतिमालों और फ़िस्क़ अंगेज़ ख़लिशों को अपने दिल में जगह देकर हर-चंद कि साफ़ व सरीह शिकायत करने से उनको भी उज़्र है, ताहम इस चशमह-ए-क़ुद्दुसियत में अपने तसुव्वरों के मेल डालने की जुर्रत करते हैं। और इस पर जो कामिल सफ़ाई और ख़ैर और सलाहीयत का नमूना है, अपनी फ़साहत की कफ-ए-दस्त (हाथ की हथेली) से छींट देकर उसे आलूदा करने की उम्मीद रखते हैं। ख़ुदा फ़ज़्ल कर के इन नादानों और अपनी नजात और फ़ज़्ल ईलाही के ख़िलाफ़ करने वालों की रूह तन्वीर से ऐसी रोशन करे कि चश्म तमीज़ की साफ़ बीनाई पाकर इस राज़ की फ़हमीदा लें, जिसकी यसअयाह नबी ने कश्फ़ कुशाई की है कि, “वो ख़ताकारों के साथ शुमार किया गया तो भी उस ने बहुतों के गुनाह उठा लिए और ख़ताकारों की शफ़ाअत की।” (यसअयाह 53:12) तो इस फ़हम में क़रार और क़ियाम पाकर हरगिज़ उनके ख्व़ाब व ख़्याल में ऐसा तसव्वुर ख़िलाफ़-ए-क़ियास ना आएगा कि “खोए हुओं का ढ़ूढ़ने वाला।” (लूक़ा 19:10) आप ही खो गया। पर इंशा-अल्लाह वो आप अपनी गुमराही और आवारगी पर से बाहम फ़राहम हो कर और अपनी जान के गल्लाबान और निगहदार हक़ीक़ी के पास रुजू लाकर इस्तिराहत (सुख, चैन) और इत्मीनान ख़ातिर हासिल करेंगे।

बाअज़ बेख़र्द और बे-तमीज़ों का मूजिब एतराज़ ये है कि वो ग़मज़दा और अंदोह गीन जो कि ब तजर्रुद व तन्हाई व यतीमी तमाम अस्हाब नजात की लानत और अज़ाब का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) है ब-तौर नियाज़ी मंदी व तज़र्रे व ज़ारी ज़बूरों में ख़ुदा तआला से मिन्नत करता है कि इस अलम व अंदोह व दर्द दुख व मज़म्मत से खुलासा किया जाये और फ़राग़त व तख़्फ़ीफ़ पाए और इस दरगाह आला में नाला व गिर्ये व फ़र्याद करता है। पस वो ये सवाल करते हैं कि इस हाल से क्या सबूत तुम्हारी तक़रीर का है कि उस हज़रत ने बड़ी रजामंदी और ख़ुशनुदी से अपनी गर्दन इस जोए और ग़म के बोझ तले दबाई और कि वो सुबूरी और बराश्त और तहम्मुल का कामिल नमूना था। दर हालीका ताब व बेताबी और अर्क़ रेज़ि और फ़र्याद और इस्तिआनत (मदद माँगना) से ज़ोफ़ व अजुज़ और बेसब्री की अलामतें बक़ौल व फे़अल कस्रत से नज़र आएं। चुनान्चे (ज़बूर 22:11,19) इस पर दाल हैं कि“मुझसे दूर ना रह क्योंकि मुसीबत क़रीब है। इसलिए कि कोई मददगार नहीं।” (ज़बूर 22:11,19) “लेकिन तू ऐ ख़ुदावंद दूर ना रह, ऐ मेरे चारासाज़ ! मेरी मदद के लिए जल्दी कर।” (ज़बूर 22:19) और फिर (ज़बूर 88:13,14) आयात का मज़्मून उस के ठीक मुत्तफ़िक़ है। “पर ऐ ख़ुदावंद मैंने तो तेरी दुहाई दी है और सुबह को मेरी दुआ तेरे हज़ूर पहुँचेगी। ऐ ख़ुदावंद तू क्यों मेरी जान को तर्क करता है? तू अपना चेहरा मुझसे क्यों छुपाता है?”

और इसी तरह ख़ुदावंद मसीह के और मसीही दीन के मुख़ालिफ़ों ने जाये तार्रुज़ (मुज़ाहमत, रोकना) व ताख़ज़ (अंधेरा) पाया इस ज़ारी व फ़र्याद और अश्क रेज़ी में जो ख़ुदावंद की जानिब से ज़ैतून के बाग़ में बर्पा और वाक़ेअ हुई कि सन ईस्वी की दूसरी सदी से आज तक बराबर अहले ख़िलाफ़ के लिए तानाज़नी और मज़ाह का बाइस और मौक़ा होता चला आया है। बाअज़ क़ारियाँ इस रिसाले पर पोशीदा ना होगा कि इस मुक़ाम पर उस गिर्ये व ज़ारी से इशारा है जिसका मुफ़स्सिल बयान सलासा ऊला इंजीलों में पाया जाता है और इब्रानियों के ख़त में भी इज्मालन निहायत दिल-सोज़ बयान होता है, “उस ने अपनी बशरीयत के दिनों में ज़ोर-ज़ोर से पुकार कर और आँसू बहा-बहा कर उसी से दुआएं और इल्तिजाएँ कीं जो उस को मौत से बचा सकता था और ख़ुदातरसी के सबब से उस की सुनी गई।” (इब्रानियों 5:7) बाअज़ लोग बेतमीज़ और बे सोच जो ये ज़न ख़िलाफ़-ए-क़ियास और ग़ैर वाजिबी इस आयत मज़्कूर से निकालते हैं कि मसीह ने जो रो-रो कर और आँसू बहा-बहा कर ब इन्किसार व तज़्ज़रअ व मिन्नत व समाजत अपने बाप के हुज़ूर में दुआएं कीं तो सिर्फ एक ही सवाल व दरख़्वास्त करता था और एक ही ग़नीमत और फ़ायदा इतनी शिद्दत व जोश व जुंबिश से तलब कर रहा था, यानी कि उस की जान इस तल्ख़ सलीबी मौत से बच जाये।

अगर वो साहब एतराज़ इस माजरे की तमाम हक़ीक़त और कैफ़ीयत पर ज़रा ग़ौर और क़दरे सोच करते और इल्म अख़्लाक़ के क़वाइद की ज़रा तहक़ीक़ व तजस्सुस कर के मालूम करते कि आली हिम्मत और हौसला मंदों और ख़ुसूसुन मर्दान-ए-ख़ुदा और मशाइख़ व अम्बिया के दिलों में तरद्ददात (तरद्दुद की जमा, सोच, तज़बज़ब, परेशानी, मेहनत) किस तरह पैदा होते हैं, तो यक़ीन करते कि इतनी शिद्दत की अंदरूनी कुश्ती बाज़ी और सख़्त तंगी और जिगर-सोज़ी एक ख़्वाहिश और रग़बत की तेज़ी से पैदा नहीं होती इस क़द्र कि जिस क़द्र दो ख़्वाहिशों और रग़बतों के जंग व जदाल बातिनी से जो बाहम तनाकुज़ व तनाज़अ़ रखते हैं।

और अगर वो साहब एतराज़ इस माजरे का वो मुफ़स्सिल बयान जो (मत्ती 27 बाब) में पाया जाता है, ग़ौर से मुलाज़ा करें तो साफ़ देखेंगे कि जिस वक़्त ख़ुदावंद ज़ैतून के बाग़ में जान कुंदनी (नज़ा की हालत, अज़ाब) के से तल्ख़ आज़ार व अलम में था तो दो फ़िक्र और दरख़्वास्त मुतफ़र्रिक़ उस के पाक-दिल में पैदा हुईं कि तरफ़ैन के कश्मकश और जद्दो-जहद से वो कुश्ती हैबतअंगेज़ मुद्दत तक जारी रही। एक उन दोनों में से उस तल्ख़ मौत से रिहाई पाने की उम्मीद और ख़्वाहिश जो हर एक हैवान क़त-ए-नज़र अज़ इन्सान के ख़वास व शराइत वजूद में से है। यहां तक कि उस के मौजूद ना होने से इन्सान के कमाल और हक़ीक़त वजूद में ख़लल आ जाता और दूसरी ख़्वाहिश पिदराना मर्ज़ी की तक्मील थी और तामील थी और जो शायद पूछा जाये कि पिदराना मर्ज़ी कौन और किस तरह और किस बात की थी, तो साफ़ जवाब इस सवाल का युहन्ना रसूल अपनी इंजील में बताता है कि “और मेरे भेजने वाले की मर्ज़ी ये है कि जो कुछ उस ने मुझे दिया है मैं उस में से कुछ खो ना दूं बल्कि उसे आख़िरी दिन फिर ज़िंदा करूँ। क्योंकि मेरे बाप की मर्ज़ी ये है कि जो कोई बेटे को देखे और उस पर ईमान लाए हमेशा की ज़िंदगी पाए और मैं उसे आख़िरी दिन फिर ज़िंदा करूँ।” (युहन्ना 6:39,40)

पस इस होलनाक और सहमनाक साअत में ये दोनों गोया मैदान-ए-जंग में उतर के मुक़ाबिल खड़े हैं। एक तरफ़ से इस तल्ख़ मौत का अंदेशा जिसकी तल्ख़ी मह्ज़ दर्द ही के तरस व लरज़श से नहीं हुई, बल्कि इस अम्र से कि गुनाह का अज्र ओर फल मौत है और क़ियास लाज़िम है कि जिस क़द्र वो ख़ुदा का बेदाग बर्रा सफ़ाई और पाकी के सबब गुनाह की हिस्स ख़ुबस से गुजरां था, उसी क़द्र उस के फल और अज्र से भी, यानी मौत से भी गुरेज़ और नफ़रत और ग़ैरत बे-इख़्तियारी से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) था। पर देखो दूसरी तरफ़ से वो कमाल इत्तिफ़ाक़ और इन्क़ियाद और इम्तिसाल (तामीले-ए-हुक्म) ख़ुदा की मर्ज़ी की जिस मर्ज़ी के हक़ में उस ने फ़रमाया था कि उसी को पूरा करना मेरी ख़ुर्द नोश है। और ये भी कहा था कि मैं हर-दम वही बातें किया करता हूँ जो उस को ख़ुश आती हैं तो ख़ुदावंद उस पाक मर्ज़ी के पूरा करने और अमल में लाने का निहायत हिद्दत व शिद्दत से आर्ज़ूमंद था। इसी मर्ज़ी पर क़ुर्बान होने के लिए वो निहायत तंगी से दिल बस्ता और पाबंद था। हाँ बल्कि इस मुहब्बत से जो उस के दिल में भरी थी, उस के बाप की तरफ़ जिसकी क़ज़ा व क़द्र के बमूजब इस मैदान-ए-जंग में उतरा था। और इस जमाअत आम्मा मुक़द्दसा की तरफ़ जिसकी जान के एवज़ अपनी जान फ़िद्या और ज़बीहा के तौर पर सपुर्द करने वाला था। ऐसी नहर फ़रावान और मौजज़न और पुर जोश उमंड़ती चढ़ती आई थी, जिसकी बर्दाश्त व गुंजाइश ना हो सके।

और अगर शायद कोई साहब ये जाने कि इस रिसाले का मुसन्निफ़ अपने जोश से मुबालग़ा की बातें बोल रहा है, ना सही होश व एतिदाल के साथ तो उस से ये अर्ज़ है कि वो इंजील (मत्ती 26:39,42,44) आयात को पढ़ ले और उन आयात की शहादत से मुकर्रर सहिकरर (बार-बार, दुबारा-तबारा) उन भारी बातों का इन्फ़िसाल और फ़ैसला करे कि मौत का अंदेशा कहाँ और अपने आस्मानी बाप की मर्ज़ी को पूरा करने की ख़्वाहिश और अज़्मबिल् जज़्म (पक्का इरादा) कहाँ। तो इन आयतों में से हर वाहिद में हक़ीक़त-ए-हाल उस माजरे की साफ़ दर्याफ़्त और ज़ाहिर होती है कि अगरचे वो मौत का अंदेशा नफ़रत आमेज़ ख़ुदा की पाक मर्ज़ी बजा लाने और अदा करने के ख़िलाफ़ अपना सर उठा सकता था तो भी हक़ीक़त में वो इम्कान मुजादला (जंग) किसी वक़्त वजूद और अमल में नहीं आया पर हर वक़्त एक ही आक़िबत और निजाम दिखाई देता है। यानी वो अंदेशा मौत का कामिल तस्लीम से और गोया अपनी मर्ज़ी की ख़ुदकुशी से क़ुर्बान हो गया और ज़ेर व मुतीअ भी हुआ। मत्ती रसूल यसूअ मसीह की इस दुआ के हवाले से यूं बयान करता है, “फिर ज़रा आगे बढ़ा और मुँह के बल गिर कर यूं दुआ की कि ऐ बाप! अगर हो सके तो ये पियाला मुझसे टल जाये। तो भी ना जैसा मैं चाहता हूँ बल्कि जैसा तू चाहता है वैसा ही हो।” (मत्ती 26:44) फिर दुबारा उस ने जाकर यूं दुआ की कि ऐ मेरे बाप अगर ये मेरे पिए बग़ैर नहीं टल सकता तो तेरी मर्ज़ी पूरी हो।” (मत्ती 26 42) और उन को छोड़कर फिर चला गया और फिर वही बात कह कर तीसरी बार दुआ की।” (मत्ती 26:44)

पस इन सलासा आयात बाला मत्ती की इंजील से साबित है कि इस दिली मुजादिला और दुआ व सवाल के जोश व हिद्दत की तीन बड़ी नौबतें थीं। और इन तीन नौबतों का एक ही अंजाम था यानी ये कि अंदेशा मौत का मफ़्तूह हुआ, लेकिन ख़ुदा की मर्ज़ी की इताअत और फ़रमांबर्दारी बिल्कुल ग़ालिब हो गई। आफ़्ताब नीम रोज़ (दोपहर) की तरह हर साहब अदल व तमीज़ पर साफ़ रोशन है और बुरहान क़तई इस बात की (इब्रानियों 5:7) से सादिर होती है। चुनान्चे वहां लिखा है कि “जिस अम्र को हैबत आमेज़ तस्लीम करता था उसी अम्र के बाब में इस की दुआ सुनी गई और मंज़ूर हुई।”

पस ऐ साहिबो मैं आपसे एक सवाल करता हूँ कि मसीह की दुआ किस बात के हक़ में सुनी गई और मक़्बूल हुई, आया मौत के अंदेशा के हक़ में या कि अपने बाप की अदाए रज़ा के हक़ में। आप ही तूहन व क़रहन (ख़्वामख़्वाह खबरन) इस बात के मुक़र होंगे कि अदा-ए-रज़ा व क़ज़ा और तस्लीम हक़ में सुना और मंज़ूर किया गया। पस हासिल कलाम कि जो तक़रीर इस आयत में पेश आती है कि रो-रो कर और आँसू बहा-बहा कर मसीह ने दुआएं और मिन्नतें कीं। सो मुराद इस तक़रीर की ख़ुसूसुन व फ़ज़लन ना मौत का नफ़रत आमेज़ अंदेशा था, बल्कि वो मुजादिला अंदरूनी जिसमें वो अंदेशा और लर्ज़िश तल्ख़ मौत के रूबरू जो इन्सान हक़ीक़ी की शराइत वजूद जिन्सियह में से तस्लीम व इन्क़ियाद की बरक़रारी से दबाया गया, यहां तक कि नेस्त व नाबूद हो गया।

इन ख़यालात पर लिहाज़ और सोच करने के बाद ज़्यादा सफ़ाई और आसानी से इस मसअले मज़्कूर का जवाब हो सकता है कि वो ग़मगीं बार बर्दार जो बहुत ज़बूरों में मुतकल्लिम है, क्यों इतनी मिन्नत व ख़ुज़ू व ख़ुशू (आजिज़ी, गिड़गिड़ाना) से अपने दुखों और दर्दों के रद्द रफ़ा होने के लिए दुआ व सवाल करता है। चुनान्चे अब मालूम हो गया है इन दलाईल क़ब्ल से कि मसीह अपनी जान के ख़ौफ़ व ख़तरे से मुतरद्दिद व मुज़्तरिब नहीं था। पर इस की पेश-बीनी और दूर अंदेशी उस के बर्गुज़ीदा व रहानीदा (नजात याफ्ताह) क़ौम के आइंदा अहवाल की तरफ़ इल्तिफ़ात करती थी जिनको जलाल वह्यात पहुंचाने के लिए पिदराना मर्ज़ी के बमूजब वो मुजस्सम भी हो गया था। और बहस्ब मुक़्तज़ा (तक़ाज़ा करने वाला) ए कहानत और बहस्ब शराइत अह्द व मिसाक़ अपनी जान को नज़राना व क़ुर्बान भी करने वाला था। तो इसी ख़ास क़ौम का नाम लेकर और बड़ी मुहब्बत व दर्दमंदी से उनकी याददाश्त कर के उनके दुखों के सबब अस्फ़ल गहराई पर से और ऐन ग़ायत से ज़ारी व फ़र्याद करता है। और उन का वकील व एवज़ी हो कर इनकी तरफ़ से मारूज़ बाप के हुज़ूर में पहुँचाता है और उन्हीं के लिए इज़्हार मलामत और इक़रार ख़ता बतौर इस्तिग़फ़ार के उनकी हक़ीक़त-ए-हाल की पूरी वाक़फ़ीयत से ज़बान पर लाता है। और ये अम्र उतना जाये ताज्जुब व तहय्युर नहीं जितना कि बड़ी तसल्ली और तक़वियत का बाइस है। उन अस्हाब ईमान और इर्फ़ान के लिए जिन्हों ने कुछ इस राज़ की फ़हमीदा में दख़ल पाया है कि मसीह ने अपनों यानी अपने मिजाज़ी बदन के उज़ूओं को कैसी पूरी मुराफ़िक़त व यगानगत में अपने साथ मिलाया है। और उनके लिए उस की दुआओं और शफ़ाअत की क्या ही कामलीयत और मंज़ूरी होती है। ख़ासकर उस शफ़ाअत की जो मज़ामीर बाला के मज़्मून में दर्ज है कि “ऐ मेरे बाप मेरी ख़ताओं और गुनाहों को यानी मेरी जमाअत बर्गुज़ीदा की जो तमाम जहान में मुंतशिर है शुरू ख़ता को उफ़क़ कर और इस शर व खता के सबब इक़ाब व अज़ाब को यानी मलामत व ज़ुलमात और अंदेशा मर्ग और उनकी मानिंद ग़म व अन्दह को ख़फ़ीफ़ कर और शिकस्ता-दिलों पर मरहम लगा और घाइलों के ज़ख़्मों को बांध और इतना उनका दर्द दुख जिस्मानी जितना कि रूह व जान की ग़मख़्वारी और अन्दोह को मह्व कर” और बिलाशुब्हा हर एक शख़्स के लिए जो रूह और क़ौल व फे़अल में ख़ुदा-ए-हक़ीक़ी का और इस बादशाहत रब्बानी का जो अहले ईमान के क़ुलूब अंदरून में क़रार पाती है, ढ़ूढ़ने वाला है। लाज़िम व मुनासिब है कि ख़्याल और यक़ीन दिल नशीन रखे कि ऐ मेरी जान ये शिकवा व फ़र्याद व नाला व गिर्ये जो मज़ामीर बाला में इस बार बर्दार के हक़ में मारूफ़ हैं, चाहीए कि तू अपने ही हुज़ूर में लाए। और वो इक़रारो इज़्हार गुनाह अपनी तरफ़ मंसूब करे और सोच व ग़ौर भी करे कि तेरी ही ख़ातिर तेरे शफ़ी और दरम्यानी ख़ुदावंद मसीह ने ये ख़ुशूअ व खुज़ूअ (आजिज़ी व फ़िरोतनी) की बातें अपनी ज़बान पर लाकर अफ़व व मग़्फिरत की बातें माअरूज़ (अर्ज़, गुज़ारिश) कीं कि यक़ीन कर कि वो अहब अल-महबीन (احب المحبین दोस्त से मुहब्बत करने वाला) तेरी ही ख़ातिर इस बार-ए-गराँ का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हुआ। और दरेग़ व दिल फ़िगारी (ग़मगीनी, ज़ख़्मीदिल) की तल्ख़ आवाज़ें निकालें और तेरे लिए वो लअ़न तअन उठाए। और इस रंज वा ज़ार की ना बतौर क़यासी व सूरी बुर्दबारी की पर इस जिस्म हक़ीक़ी अंसरी में जो हज़रत मर्यम से मौलूद और ख़ुसूमत (अदावत, दुश्मनी) शरारत मस्लूब भी था। और यूसुफ़ की क़ब्र में मदफ़ून और ख़ुदा बाप से मुल्तजी हो कर मुर्दों में से नख़सत ज़ादा और सुमराह अव्वल हो कर क़ब्र से उसे बर्ख़ास्त किया। ऐ मेरी जान इसी बदन में ख़ुदावंद मुबारक ने तिश्नगी और गिरसंगी (भूक) और ताब व मेहनत और मांदगी और संग सारी की बर्दाश्त की। और तेरी ख़ातिर बे ख़्वान व तोशाह और बे-ख़ाना व सराय और क़ाबिले फ़साद व ज़वाल हो गया। और हर सूरत से मिस्कीनी और उबूदीयत (इबादत, इताअत) के लवाज़म को ग़ैर अज़ गुनाह उठाया। वो नफ़्स कि इन्सान कामिल की जहल ज़ात से ताल्लुक़ नहीं रखता था, उसे क़ुबूल फ़रमाया। तो जब ये सब उमूर वाक़ई ना सिर्फ इन्जीलों से बल्कि ज़बूरों और नबीयों की शहादत से वाजिब-उल-तस्लीम हैं तो तुझ पर क्या फ़र्ज़ व लाज़िम है कि इन ख़ताओं से जिनके ज़ुल्म व जफ़ा से इस मुख़्लिस आलम ने इतने भारी दामों से तुझे ख़रीद लिया है, मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) और दस्त बिरादर रहे। तुझे चाहीए कि उस की क़ुदरत माहूद पर तकिया लगा कर उनके सब आसारों और अलामतों पर ग़ालिब और फ़त्हयाब निकले और अज़्म-बिल-जज़्म (पक्का इरादे) में क़ायम व दाइम रहे कि तो कभी इस जानी दोस्त और बिरादर अज़ीज़ को अपने तजर्रुद और बग़ावत और ख़यानत से ग़मगीन ना करे।

इस अम्र में जानना चाहिए कि इस अहब उन्नास ने वक़्त-ब-वक़्त अपने हवारियों को बक़द्र उनकी बर्दाश्त और इस्तिदाद (सलाहियत) के अपने दुखों की ग़ायत और इंतिहा से आगाह और मुत्ला`अ (बाख़बर) किया। और इस से कि किस तरह अपनी रहलत और इंतिक़ाल से क़ब्ल वो अपनी ख़ास क़ौम से रद्द और मज़्लूम होगा। और ग़ैर क़ौमों के हाथ में हवाले किया जाएगा। और हर-चंद कि वो रसूल अपने ज़अ़फ़ और ज़लालत ईमान के सबब इस आख़री रंज व इल्म की इत्तिला से मुज़्तर और सरासीमा हो गए। ताहम ख़ुदावंद मसीह ने बताकीद तमाम इस बात को उन के दिलों पर मुनक़्क़श किया कि शुरफा और उलमाए यहूद और अहले रुम बमूजब अपने मिज़ाज और तिश्नगी ख़ून बेरहम के मेरे क़त्ल के मंसूबे बाँधने में बाहम मुत्तफ़िक़ होंगे। और सिर्फ यही नहीं बल्कि अपने सब मन्सूबों से मह्ज़ इतना ही हासिल करेंगे कि ख़ुदा तआला के मुक़र्रर इरादा और अम्बिया-ए-सल्फ़ की पेश ख़बरियों को अमल में लाएँगे और सरअंजाम देंगे। और ख़ुसूसुन हज़रत दाऊद की किताब मुक़द्दस खोल कर इसी के अस्ल मज़्मून की तशरीह और तफ़्सीर कर के अपने नज़राना और ज़बीहा होने की कैफ़ीयत हाल को उन पर रोशन किया ताकि उन पर और सभों पर मालूम हो जाये कि बईद अज़ां कि ख़ुदा की रज़ा व क़ज़ा मेरे दुख और मौत के सबब बातिल ठहरी। इस मेरी मौत मस्लूबी के दर्मियान वो क़दीमी मश्वरा और मस्लिहत ख़ुदा की ऐन सरअंजाम होती है और मेरे बाप के जलाल का इज़्हार और अशआर है और-और तुख़्म नई हयात का जिससे अस्हाब नजात की फ़स्ल-ए-मुराद काटी जाएगी। इस पज़मुर्दा आलम के खेत में बोया जाता है और बाद मरने के अजीब तौर पर बारआवर होगा।

अब चाहीए कि सहीफ़-ए-ज़बूर से बाअज़ आयतों को निकालें जिनसे वो ख़ास उमूर मुराद हैं जो मसीह की सलीबी मौत में वाक़ेअ हो गए। बाअज़ ऐसी हैं कि उन में उन वाक़ियात का ख़ुलासा इज्मालन मज़्कूर है और बाअज़ ऐसी हैं जो उन वारदात को मुफ़स्सिल बयान करती हैं। इंशा-अल्लाह हम हर दो सूरत की आयात को बतौर नक़्ल बातर्तीब निकालेंगे।

अव्वलन : इस अम्र पर कि ख़ुदावंद मसीह अपनी ही ख़ास क़ौम से रद्द और हक़ीर होगा और हीच जाना जाएगा। (ज़बूर118:22) बसराहत तमाम दाल (दलालत करने वाला, पुर मअनी) है। “जिस पत्थर को मेअमारों ने रद्द किया वही कोने के सिरे का पत्थर हो गया।”

सानियन : (ज़बूर 2:1-2) ) से ये बात साबित है कि रद्द होना ख़ुदावंद मसीह का ना सिर्फ यहूद की बर्गुज़ीदा क़ौम से वक़ूअ में आने को था, बल्कि अज़्जानिब मुलूक ग़ैर क़ोम और उन के बादशाहों और लश्करों से कि वो “इब्ने ख़ुदा” के हल्क़ा-ब-गोश और मुतीअ होने का दावा सुनकर हुजूम व शोरिश व जोश व जुंबिश की हालत में निहायत ग़ुस्सा करेंगे और ख़ुदा की इस बादशाहत और हैकल को जिसकी अस्ल व बुनियाद नबी व रसूल हैं और कोने का पत्थर ख़ुद मसीह है, शिकस्ता और ख़ाक-आलूदा करने का मन्सूबा बाँधेंगे। “कौमें किस लिए तैश में हैं और लोग क्यों बातिल ख़्याल बाँधते हैं? ख़ुदावंद और उस के मसीह के ख़िलाफ़ ज़मीन के बादशाह सफ़-आराई कर के और हाकिम आपस में मश्वरा करके कहते हैं आओ हम उन के बंधन तोड़ डालें और उन की रस्सियाँ अपने ऊपर से उतार फेकें।”

सालुसन : एक ख़ासीयत इस ज़ुल्म व सितम की जिसे ख़ुदावंद और उस का बदन मिजाज़ी अहले ख़िलाफ़ की तरफ़ से उठाने वाला था, सो ये है कि वो ज़ालिम जिस क़द्र तक इस मुनज्जी-उल-आलम को मज़रूब और मग़्मूम करेंगे, उसी क़द्र जानेंगे कि ख़ुदा तआला हमारी इबादत और बंदगी को मंज़ूर करता और हक़ ठहराता है और वो अपनी दानिस्त में निहायत सवाब (रास्त, ख़ूब) और फ़ारिक़ (फ़र्क़ करने वाला) हक़ीक़त और हर फ़ज़ीलत व सलाहीयत में फ़ाइक़ (फ़ौक़ियत रखने वाला) और ख़ुदा के घर में अपने आमाल हसना पर मुतकब्बिर और फ़ख़्ख़ार होंगे। मसलन (ज़बूर 35) में यूं लिखा है, “जो नाहक़ मेरे दुश्मन हैं मुझ पर शादियाना ना बजाएँ और जो मुझसे बेसबब अदावत रखते हैं चश्मकज़नी ना करें।” (ज़बूर 35:19) यहां तक कि उन्होंने ख़ूब मुँह फाड़ा और कहा हा..हा..हा..! हमने अपनी आँख से देख लिया है।” (ज़बूर 35:21) वो अपने दिल में ये ना कहने पाएँ आहा हम तो यही चाहते थे। वो ये ना कहें कि हम उसे निगल गए।” (ज़बूर 35:25) जो मेरे नुक़्सान से ख़ुश होते हैं वो बाहम शर्मिंदा और परेशान हों। जो मेरे मुक़ाबले में तकब्बुर करते हैं वो शर्मिंदगी और रुस्वाई से मुलब्बुस हों।” (ज़बूर 35:26) इस मज़्मून से मुत्तफ़िक़ और भी कलिमात हज़रत दाऊद के (ज़बूर 16,18,69) में हैं :- “जब मैंने टाट ओढ़ा तो उन के लिए ज़र्ब-उल-मसल ठहरा। फाटक पर बैठने वालों में मेरा ही ज़िक्र रहता है और मैं नशा बाज़ों का गीत हूँ।” (ज़बूर 69:11,12) इसी तरह (ज़बूर 38) में है, “क्योंकि मैंने कहा कि कहीं वो मुझ पर शादियाना ना बजाएँ। जब मेरा पांव फिसलता है तो वो मेरे ख़िलाफ़ तकब्बुर करते हैं।” (ज़बूर 38:16) और ख़ुदावंद मसीह के दुखों के उस वज़न वो साक़त (पुख़्तगी, मज़बूती) की सूरत पर साफ़ दलील हज़रत यसअयाह की किताब के बाब 53 में पढ़ी जाती है, “वो आदमीयों में हक़ीर व मर्दूद, मर्द ग़मनाक और रंज का आश्ना था। लोग उस से गोया रू पोश थे उस की तहक़ीर की गई और हमने उस की कुछ क़द्र ना जानी। तो भी उस ने हमारी मशक़्क़तें उठा लीं और हमारे ग़मों को बर्दाश्त किया। पर हमने उसे ख़ुदा का मारा-कूटा और सताया हुआ समझा।” (यसअयाह 53:3,4) और (मत्ती 27:43) से मालूम होता है कि यहूद के कुह्ना (पुराना) रऊसा ने ख़ुदावंद मसीह पर ताना ज़नीयाँ और तोहमतें लगाईं, तो इस बदगोई में वही तलफ़ज़ात और इबारात दाख़िल कर लिए जिनकी ख़बर पेश अज़-वक़ूअ हज़रत पर उतरी थी और उस के (ज़बूर 22:7,8) में मर्क़ूम है। और मुवाफ़िक़ इस क़ौल के यहूद की वो किज़्ब और मक्र आमेज़ उज़्र-ख़्वाही थी, बजवाब उस सवाल के जो ख़ुदावंद ने उनसे फ़रमाया था कि, “मैंने तुमको बाप की तरफ़ से बहुतेरे अच्छे काम दिखाए हैं। इन में से किस काम के सबब से मुझे संगसार करते हो? यहूदीयों ने उसे जवाब दिया कि अच्छे काम के सबब से नहीं बल्कि कुफ़्र के सबब से तुझे संगसार करते हैं और इसलिए कि तू आदमी हो कर अपने आपको ख़ुदा बताता है।” (युहन्ना 10:32,33) और यक़ीन है कि हज़रत के अहवाल को इस मुसीबत के अम्र में बड़ी मुराफ़िक़त ख़ुदावंद मसीह के साथ थी। चुनान्चे वो मक्कार अपने मुहिब व ख़ैर-ख़्वाह का मजरूह और मज़्लूम होना ऐन अपने फ़ख़्र का बाइस और बदज़बानी को अपने हसनात और औसाफ़ के शुमार में हिसाब कर रहे थे। हाँ बल्कि अपनी वहशत मिज़ाजी और सीरत और तनेत शैतानी और ख़ूँख्वारी को इसी बात में अयाँ व बयां करते थे कि नई-नई तोहमतें और रुस्वाइयाँ हवादिस की सख़्ती और अशद जालसाज़ी में हर हिक्मत व हीला को हलाल और रूह बल्कि मुस्तहसिन (नेक, पसंदीदा) भी जानते थे। ताआं साअत कि उस ख़ून-ए-नाहक़ की नशा बाज़ी से मस्त हो कर एक दिल और एक ज़बान से चिल्ला-चिल्ला कर इस लानत आमेज़ दरख़्वास्त व सवाल पर मुद्दई हो गए, जिसका ज़हर हला-हल (ज़हर-ए-क़ातिल) का सा फल आज तक चखते चले आए हैं कि इस का ख़ून हम पर और हमारी औलादों पर लगा रहे। (मत्ती 27:25) पर इस अम्र में हज़ार-हा शुक्रगुज़ारियों के लायक़ है कि अस्हाब शरारत व ख़सोमत से गो कितनी ही हिकमतें और हीला बाज़ीयां और जद्दो-जहद मन्सूबा जात वग़ैरह हुए, मगर इन सभों से एक ही नतीजा हो रहा कि ख़ुदावंद मसीह वो बर्रा बेऐब और बेदाग़ और हर फे़अल व क़ौल व ख़्याल की ख़ता से मुबर्रा ठहरा। और तब से आज तक पुश्त दर पुश्त हज़ार-हा झूटे गवाह इस अम्र के सबूत के वास्ते गाँठे गए और हज़ार हा मजलिसों के बीच हज़ार-हा क़ाज़ी इसी मुक़द्दमें के फ़ैसले करने के लिए मुस्नद नशीन हो गए हैं कि ख़ुदा तआला ने इस अक़्दस-उल-मुक़द्दसीन को ना ख़ताकारों का बोझ बर्दार किया, बल्कि ख़ुद मुजरिम और ख़ताकार इसी को ठहरा।

बावजूद इस के भी उन की मुराद बर ना आई और इतनी-इतनी कोशिशों और हुनर और हिक्मत की पेचिशों से सिर्फ यही एक बात निकली है कि वो ख़ुदावंद सर और नमूना क़ुद्दुसियत का और अकेला चश्मा-ए-सफ़ाई का उनके लिए है जो ख़्वाहां और आरज़ूमंद हैं कि इस क़ौल वज़नी और संजीदगी तौरेत के शुन्वा होकर ताबे भी हों कि, “तुम पाक रहो क्योंकि मैं जो ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा हूँ पाक हूँ।” (ख़ुरूज 19:2)) और अगर शायद मुम्किन भी होता कि किसी क़ाज़ी, आदिल और रास्त की मुस्नद से कोई मसअला मुख़ालिफ़ सादिर होता तो भी कौन ऐसा फ़त्वा हो सकता कि जम्हूर आलम के मुत्तफ़िक़ शहादत के मुक़ाबिल क़ायम रह सकता। कौन शर्मिंदा और लाजवाब ना खड़ा होगा, जब ख़ुदावंद आप ही इस मोअतरिज़ के रूबरू वो क़ौल फ़रमाएगा जैसे यहूद से मुतकल्लिम हो कर फ़रमाया था, “तुम में कौन मुझ पर गुनाह साबित करता है? अगर मैं सच बोलता हूँ तो मेरा यक़ीन क्यों नहीं करते? जो ख़ुदा से होता है वो ख़ुदा की बातें सुनता है तुम इसलिए नहीं सुनते कि ख़ुदा से नहीं हो।” (युहन्ना 8:46, 47) और (ज़बूर 35) की भी वैसी ही गवाही है, “झूटे गवाह उठते हैं और जो बातें मैं नहीं जानता वो मुझसे पूछते हैं। वो मुझसे नेकी के बदले बदी करते हैं। यहां तक कि मेरी जान बेकस हो जाती है।” (ज़बूर 35:11,12)

ऐ साहिबो ज़रा सोच कर देखो कि मसीह के हुलुम और बर्दाश्त का मिज़ाज क्या ही बरअक्स था, मुहम्मद ﷺ के मिज़ाज से। जिस शख़्स की बात रावयान मोअतबर से तस्लीम हो चुकी कि सौ-सौ और हज़ार-हज़ार यहूद के ख़ून व क़त्ल के तमाशबीन इतनी ना हम्दर्दी और लापरवाई से थे कि उन की रूह और रंग में कुछ तब्दीली ना हुई और ख़ुदावंद मसीह की जाँ-फ़िशानी और ख़ुद निसारी की कौन मुराफ़िक़त बईद भी हो सकती थी। इस साहब के साथ जिसने शहरों के तसल्लुत और तस्ख़र के जंग व जिदाल के ग़िनाइम में से एक चौथाई अपने हिस्से की अलैहदा (अलग) कराई। और फिर ये जुर्रत कौन साहब तास्सुब कर के अपने ख्व़ाब व ख़्याल में भी ऐसा जाने कि पाकी और सफ़ाई और नफ्स अम्मारा से कमाल परहेज़ के अम्र में ख़ुदावंद मसीह के साथ मुहम्मदﷺ जाये तफ़ज़्ज़ुल और रुत्बा किब्रियाई हो। दरहालीका (इस हाल में) वो इस जसारत की ग़ायत तक पहुंच गया कि क़ौल व कलाम-अल्लाह को अपना ही क़बील करना चाहा। अज़ आनरूका ख़ुसूसुन इसी के लिए दरबाब तज़व्वुज (शादी) के शरीअत अल्लाह की तख़्फ़ीफ़ और तलियएन (नर्मी) हो जाएगी। बआनकद्र कि जो बाक़ी ख़ल्क़-उल्लाह के लिए ममनू व हराम था, सिर्फ उस के लिए हलाल हो जाए। ये जाये ताज्जुब है, पर तो भी अगरचे इस अम्र में मफ़रूक़ और मुतमय्यज़ होना ऐसा आसान मालूम देता है कि तिफ़्ल शेर-ख़्वार बमुश्किल इस में मुतालआ कर सकता है तो भी अस्हाब अक़्ल व फ़िरासत इस बात से ज़ाल (गुमराह) और फ़रेब कश हैं।

बाअज़ नाम के अस्हाब अक़्ल व फ़रास्त इस अम्र में ऐसे ख़ाल ख़्याल और जाहिल मुतलक़ रहते हैं कि दरबाब सफ़ाई व पाकीज़गी दिल मुहम्मदﷺ को ख़ुदावंद मसीह का हम-रुत्बा और तबक़ा बताते हैं। बिलाशुब्हा बाइस इस ज़लालत और कोर-चश्मी उन की का ये है कि जो इंजील युहन्ना में मर्क़ूम है कि, “नूर दुनिया में आया है और आदमीयों ने तारीकी को नूर से ज़्यादा पसंद किया। इसलिए कि उन के काम बुरे थे।” (युहन्ना 3:19)यानी अक्सर उन्नास (लोग) ऐसा मज़्हब और मिल्लत चाहते हैं जिसमें तख़्फ़ीफ़ शराअ हो और ख़ुदा के सख़्त अम्र और नही की कुछ तलइन (नर्मी) हो और हवाए नफ़्स की कुछ इजाज़त हो और अस्हाब बद-मिज़ाज और बदमाश रसूमात दुनियवी को बजा लाने से अपने अख़्लाक़ और खोए व ख़सलत की मओबी और ख़राबी का कुछ मुबादला कर सकें। और कलमा-ए-इस्तिग़फ़ार बऊज़ इन्क़िताअ बद शहवतों के मक़्बूल हो जाए। और इस से मालूम और साबित है कि मह्ज़ जहालत ही से और उसूल और हक़ायक़ दीन की नाबीनाई से वो ख़ाम तसव्वुर पैदा होता है जो डेविन पोर्ट साहब की किताब में लिखा है। अज़ां जिहत कि तालिबान हक़ीक़त की आँखों में गुर्दो ग़ुबार डाले यानी ये तसव्वुर कि बाअज़ मसीही फ़िर्क़े के बादशाह बहुत ख़ूँ-ख़्वार और ज़ालिम और अहद-शिकन हो गए हैं। इसलिए उन का दीन क़ाबिले ईजाब (क़ुबूल करना) नहीं है। अज़-बराए आंका इस क़द्र अस्ल सवाल ये नहीं है कि अस्हाब मज़्हब कैसे यानी दीन के कलिमा ख़्वां कौन-कौन रविश व रफ़्तार इत्तिफ़ाक़न इख़्तियार करते हैं, पर ये कि ख़ुद दीन ही अपने उसूल और हक़ायक़ में कैसा है। और वो मिज़ाज और तबीयत ख़ास जो इन हक़ायक़ और अहकाम पर मब्नी है और उन पर मुस्तक़र है, सो कैसी है। अज़ानरो कि जिस क़द्र नेक सूरत बातिनी व बेरोनी उस के नक़्शे पर मुनक़्क़श है और उस की ऐन रूह और जान, उन की रूह और आदत और अमल में हलूल और तहलल करती है। इसी क़द्र वो मिज़ाज तहारत और सफ़ाई में पहुंचते और उस में तरक़्क़ी और तक्मील पाते हैं। तो अगर शायद कोई शख़्स ज़ाहिरन ख़ुदावंद मसीह की बिरादरी से हो, पर दर-बातिन नशा बाज़ या, रंडी बाज़ या ज़ालिम और लुटेरा या दो ज़नों का कमबख़्त शौहर हो, साहब मज़्हब तो शायद हो सके पर अहले दीन से महरूम है और विरसा-ए-अह्द की बरकतों से बे-बहरा है। चुनान्चे युहन्ना रसूल के पहले आम ख़त में है कि, “उस से सुन कर जो पैग़ाम हम तुम्हें देते हैं वो ये है कि ख़ुदा नूर है और उस में ज़रा तारीकी नहीं। अगर हम कहें कि हमारी उस के साथ शराकत है और फिर तारीकी में चलें तो हम झूटे हैं और हक़ पर अमल नहीं करते।” (1 युहन्ना 1:5,6)

राबिअन : ख़ुदावंद मसीह के दुखों और ग़मों की एक ख़ासीयत ये है कि अपने अस्हाब ख़ुसूमत ज़ाहिरी की निस्बत अपने दोस्तों और रफ़ीक़ों की तरफ़ से ज़्यादा आज़ार और तक्लीफ़ खींची। और बनिस्बत कीना-वर दुश्मनों के ऐन मुक़र्रिबों की ख़ियानत और बेवफ़ाई से ज़्यादा मजरूह और मज़रूब था। चुनान्चे ज़करीयाह नबी ने अपनी किताब में माअरफ़न बाबत इस अम्र के लिखा है :-

“और जब कोई इस से पूछेगा कि तेरी छाती पर ये ज़ख़्म कैसे हैं? तो वो जवाब देगा ये वो ज़ख़्म हैं जो मेरे दोस्तों के घर में लगे।” (ज़करीयाह 13:6) और ख़ास इशारा इस अम्र से हज़रत दाऊद के (ज़बूर 41:9) में पाया जाता है, “बल्कि मेरे दिली दोस्त ने जिस पर मुझे भरोसा था और जो मेरी रोटी खाता था मुझ पर लात उठाई है।” और ख़ुद ख़ुदावंद मसीह ने इस आयत को अपनी हक़ीक़त-ए-हाल की तरफ़ महमूल किया, “मैं तुम सबकी बाबत नहीं कहता, जिनको मैंने चुना उन्हें मैं जानता हूँ लेकिन ये इसलिए है कि ये नविश्ता पूरा हो कि जो मेरी रोटी खाता है उस ने मुझ पर लात उठाई।” (युहन्ना 13:18)

और सिवाए इस के दो और औसाफ़ व सरीह पेशगोईयां इस बेवफ़ा की शरारत और उस की आक़िबत की तबाह हाली इबरत आमेज़ अल्फ़ाज़ में अंगुश्तनुमा करती हैं यानी (ज़बूर 109) में यूं लिखा है कि, “उन्हों ने नेकी के बदले मुझसे बदी की है और मेरी मुहब्बत के बदले अदावत। तू किसी शरीर आदमी को उस पर मुक़र्रर कर दे और कोई मुख़ालिफ़ उस के दहने हाथ खड़ा रहे। जब उस की अदालत हो तो वो मुजरिम ठहरे और उस की दुआ भी गुनाह गिनी जाये। उस की उम्र कोताह हो जाएगी और उस का मन्सब कोई दूसरा ले-ले।” (ज़बूर 109:5-8) वाज़ेह हो कि इसी आयत को पतरस रसूल ने रसूलों के आमाल के पहले बाब में यहूदाह इस्किरियोती की ख़ियानत की तरफ़ मंसूब किया और ज़करीयाह नबी का क़ौल भी इस के मुवाफ़िक़ है, “और मैं ने उन से कहा कि अगर तुम्हारी नज़र में ठीक हो तो मेरी मज़्दूरी मुझे दो नहीं तो मत दो और उन्हों ने मेरी मज़्दूरी के लिए तीस रूपये तौल कर दिए।” (ज़करीयाह 11:12)

और इसी मर्दूद और ख़ुदावंद मसीह के मुख़ालिफ़ को पतरस रसूल ने (ज़बूर 69) की बाअज़ आयतों का मिस्दाक़ बताया था यानी (ज़बूर 69:26-28) और शक व शुब्हा नहीं कि इसी यहूदाह इस्किरियोती पर (ज़बूर 55:12,13) आइद और सादिक़ हैं “जिसने मुझे मलामत की वो दुश्मन ना था वर्ना में इस की बर्दाश्त कर लेता और जिसने मेरे ख़िलाफ़ तकब्बुर किया वो मुझसे अदावत रखने वाला ना था नहीं तो मैं उस से छिप जाता। बल्कि वो तो तू ही था मेरा हम-सर, मेरा रफ़ीक़ और दिली दोस्त था।” और अगर कोई शख़्स ये जाये ताज्जुब और तहय्युर जाने कि उस एक शरीर फ़ित्ना अंग़ेज़ और अहद-शिकन के अहवाल की इतनी इतनी पेश-ख़बरियाँ कम से कम चार या पाँच पेशीनगोईयां बज़बान अम्बिया सादिर हो गईं तो इस शुब्हा का इर्तिफ़ा व अजबी और माकूली ये मालूम होता है। दरहालिका ऐसे शख़्स के मुर्तद और बर्गशता होने से जो ख़ुदावंद मसीह के मुम्ताज़ और मुख़्तस रफ़ीक़ों में से था। बाअज़ ज़ईफ़ और नीम ख़ाम नौ मुरीद मुतरद्दिद और ईमान में मुतज़लज़ल हो सकते थे तो ख़ुदा की ये मर्ज़ी थी कि इस माजरे की बड़ी पेश ख़बरी और इबरत नुमाई हो। गोया कि ज़िया अश्शम्स के रूबरू ज़ाहिर और रोशन हो जाएगी। शायद ना हो कि कोई मोअतरिज़ क़ाबू पाकर ख़ुदा की हिक्मत या ख़ुदावंद मसीह की पेश फ़हमी में कुछ इशतिबाह या ऐब चीनी का बाइस पाए। या उस को ख़ुदा की मश्वरत क़दीमी के मुख़िल व मुज़िर जाने, इसलिए यहूदाह इस्किरियोती दज्जालों यानी मसीह के मुख़ालिफ़ों के सिलसिला में अव्वल और उन सब का पेशवा गिना जाता है और सहफ़ अम्बिया और मज़ामीर दाऊद में यही लईन मिनन्नास है, जैसा कि शैतान लईन मिन-उल-अर्वाह है और वो लानतें जो मज़ामीर बाला में उस पर वारिद हुई थीं, ऐसी हैरत-अफ़्ज़ा और हैबत-अंगेज़ हैं कि कुल कलाम-उल्लाह में उन से तल्ख़ी और शिद्दत में बढ़कर कोई नहीं। और इस बद्दुआ़ की ये ख़ासीयत है कि किसी पर हरगिज़ नहीं कही गई, मगर यहूदाह इस्किरियोती और उस की मानिंद दज्जाल आख़िरी मसीह के मुख़ालिफ़ों पर कि वो सब अश्ख़ास बाक़ी सब अहले ख़िलाफ़ और आबा फ़ित्ना व फ़साद से ये तफ़रीक़ रखते हैं कि हर-चंद बाल-इख़्तसास तमाम मुरातिब फ़ज़्ल और मदारिज क़ुर्ब व रिफ़ाकत में अफ़्ज़ल और आला दर्जे तक सर्फ़राज़ हो गए थे। मगर फिर ख़ियानत व तज़्वीर (फरेब, धोका) की तरफ़ रुजू लाकर अव्वल कीना व फ़साद के सर लश्कर हुए और गोया शैतान के हाथ में आपसे आप बिक गए। और इस के फ़ासिद और फ़ासिक़ मन्सूबों की इल्लतें और वसाइल हो कर आतिशी-ए-जहन्नम से अपनी हरारत ग़ुस्सा व अदावत को सुलगाया।

ख़ामसन : फिर ज़करीयाह नबी की किताब के 11 वें बाब से साबित है कि वो तर्दीद और ख़ियानत ख़ास जिसके सबब यहूदाह अपने उस्ताद और ख़ुदावंद के ख़ून व क़त्ल के मंसूबे में सर गिरोह हो गया। सिर्फ उस ख़ियानत और नाशुक्री आम्मा व कुल्लिया की मिसाल और तश्बीह था जिसके सबब तमाम क़ौम यहूद आज तक मुजरिम ठहरी और मुल्क ब मुल्क आवारा और परागंदा हो कर मुबादला और जुर्माने उठा रही है। चुनान्चे बददुआ का तौक़ आहनी अपनी गर्दनों में लगाए हुए हैं। बाअन्क़द्र कि ये क़ौम मुतल्लिक़न बेचारा और लाइलाज और आवारा हो गई है। लेकिन अज़ां बाइस कि अह्द सलफ़ इब्राहीमी मंसूख़ होने के क़ाबिल नहीं और वो उम्दा गडरिया (चरवाहा) जो इस अह्द का ज़ामिन और मक़ब्ल (हक़ का फ़रमान क़ुबूल करने वाला) और रहें अल-कौल है अपने इक़रार मुस्तहकम से हट नहीं सकता।

पस हर-चंद कि उन्हों ने अपने वकील और औज़ी को यहूदाह इस्किरियोती के हाथ से जिसने बतौर बेवफ़ाई और नमक-हरामी के अपने चौपान को फ़रोख़्त किया, ख़रीदा। तो भी इसी ज़करीयाह नबी की किताब में (ज़करीयाह 12:10) से यक़ीन है कि आख़िर-उल-अय्याम में वो क़ौम बेवफ़ा अपनी मुद्दत-ए-मदीद के मर्दूद और मक़हूर किए हुए गडरीए की तरफ़ बड़ी पशे-माअनी से रुजू लाएँगी। चुनान्चे मर्क़ूम है, “और मैं दाऊद के घराने और यरूशलीम के बाशिंदों पर फ़ज़्ल और मुनाजात की रूह नाज़िल करूँगा और वो उस पर जिसको उन्होंने छेदा है नज़र करेंगे और उस के लिए मातम करेंगे जैसा कोई अपने इकलौते के लिए करता है और उस के लिए तल्ख़ काम होंगे जैसे कोई अपने पहलूठे के लिए होता है।”

इसलिए कोई साहब दीद व दानिश ये ख़्याल ना करे कि यहूद की रुगिरदानी और सरकशी के सबब ख़ुदावंद मसीह की रिसालत बातिल और नाकारा निकली, हरगिज़ नहीं। बल्कि वो इस बात से बे-लिहाज़ और बे सोच ना रहे कि शहादत अम्बिया और मज़ामीर दाऊद इस अम्र पर ऐन मुत्तफ़िक़ हैं कि ऐन ख़ुदा तआला की हिक्मत और पर्वर्दिगारी की मश्वरत इस तर्दीद और बेवफ़ाई के सरबराह और सर-अंजाम होने से ज़रा भी नहीं रुकी और ना रुक सकती थी, बल्कि यहूद और अहले रोम के इरादत (ख़्वाहिश) मुतय्यना (मुक़र्रर की हुई) से ख़ुदा की मर्ज़ी का पूरा इफ़्तिताह हो सकता था, चुनान्चे सुलेमान फ़रमाता है कि, “आदमी के दिल में बहुत से मंसूबे बदलते हैं लेकिन सिर्फ ख़ुदावंद का इरादा ही क़ायम रहेगा।” (अम्साल 19:21) इसी सबब से जब ख़ुदावंद मसीह की साअत इंतिक़ाल क़रीब आ पहुंची थी और ग़म व अलम निहायत दर्जे तक पहुंच गया था। तब उस के हवारियों ने हर-चंद कि साबिक़ में कोताह बीन और सुस्त एतिक़ाद थे, ज़्यादा तसल्ली और तयक़्क़ुन क़ुबूल किया। अज़ बराए आंका वो पूरी मुताबिक़त और मुवाफ़िक़त जो पेश गोईयों को उमूर वाक़ई के साथ थी, ज़्यादा सराहत से रोशन और मफ़्हूम हो गई। चुनान्चे हज़रत दाऊद के नविश्तों की बहुत सी नहानी पेशगोईयां आश्कारा और नुमायां हो गईं।

सादसन : एक और ख़ासीयत नादिर और बेमिसाल ख़ुदावंद मसीह के अलम व अंदोह की ये भी थी कि अल्लाह-तआला के इब्ने वहीद और कलिमा-ए-रब्बानी होने पर दावा करना सिर्फ उसी पर लाज़िम व वाजिब था। किसी ग़ैर को वो दावा इब्नीयत और कलमियत का रूह और जायज़ ना था। अगर कोई करता तो कुफ़्र होता। सच है कि हर एक ज़माना-ए-सल्फ़ में हर साहब रिसालत व नबूवत को बाक़ी हम-अस्रों की निस्बत तजर्रुद और तन्हाई और यतीमी हासिल हुई है और बतरीक़ ऊला उस को जो नबियों के दर्मियान ब यकताई व तन्हाई तमाम इब्नीयत अस्लीया और कलमियत जोहरिया पर बरहक़ मुद्दई था और अपने आपको ख़ुदा की बादशाहत और बारगाह का मुख़्तार और ख़ुदा के फे़अलों का फ़ाइल और कारसाज़ और सब आलिमों का वारिस और परवरदिगार बता सकता था। वो बसबब उस अलवियत ख़ास व बेनज़ीर के इस क़द्र मौरिद हसदो कीना व अदावत था कि दूसरे का होना ग़ैर मुम्किन है। मसबत इस बात का (युहन्ना 10:37-38) का मज़्मून है, “अगर मैं अपने बाप के काम नहीं करता तो मेरा यक़ीन ना करो। लेकिन अगर मैं करता हूँ तो गो मेरा यक़ीन ना करो मगर उन कामों का तो यक़ीन करो ताकि तुम जानो और समझो कि बाप मुझमें है और मैं बाप में।”

इस आयत के मअनी निहायत बारीक और आली हैं। चुनान्चे ख़ुदावंद मसीह इस में ऐसी क़ुदरत और मंजिलत का मुद्दई नहीं, जिस पर हर कोई साहिबे मोअजज़ात यानी हर एक नबी या रसूल दावे कर सकता, पर अपने बाप के क़ुदरत आमेज़ अफ़आल की क़ाबिलीयत और फ़अ़लियत की ये बुनियाद और अस्ल बाइस फ़रमाता है कि, “बाप मुझमें है और मैं बाप में रहता हूँ।” फिर इस बात की तरफ़ भी इल्तिफ़ात करना चाहीए कि जब कि ख़ुदावंद की ये मर्ज़ी थी कि उस का हर क़ौल व फे़अल बर मौक़ा और ब-वक़्त मुनासिब और मुतय्यन होतो वो आला दावा ना हर वक़्त और ना बतौर नख़वत (ख़ुद-बीनी, तकब्बुर) और शेख़ी बाज़ी के ज़बान पर लाया। लेकिन बलिहाज़ मुक़र्ररी औक़ात के बाअज़ वक़्त ख़ामोश रहा और बाअज़ वक़्त गोया और हिजाब कश। चुनान्चे मत्ती की इंजील में अपनी आइंदा सलीबी मौत की साफ़ पेश ख़बरीयाँ दीं और उस ख़ास जुर्म मज़ऊम की जिसके बाइस सलीब के फ़तवे का मुस्तहिक़ समझा गया, “जब बाग़बानों ने बेटे को देखा तो आपस में कहा यही वारिस है। आओ उसे क़त्ल कर के इस की मीरास पर क़ब्ज़ा कर लें।” (मत्ती 21:38) और बिलाशुब्हा ये उसी ख़ास मज़म्मत की तरफ़ इशारा है जो दूसरे ज़बूर में है कि, “ख़ुदावंद और उस के मसीह के ख़िलाफ़ ज़मीन के बादशाह सफ़-आराई कर के और हाकिम आपस में मश्वरा कर के कहते हैं आओ हम उन के बंधन तोड़ डाले...।” (ज़बूर 2:2,3) और इसी तानाज़नी से खु़फ़ीया इशारा (ज़बूर 22) में है कि, “वो सर हिला हिला कर कहते हैं अपने को ख़ुदा के सपुर्द कर दे। वही उसे छुड़ाए, जब कि वो उस से ख़ुश है तो वही उसे छुड़ाए।” (ज़बूर 22:7,8) और ऐन वही कलाम उलमा और रउसा यहूद ने ज़बान ज़द किया, मसीह मस्लूब के मुक़ाबिल। चुनान्चे (मत्ती 27:43) आयत इस बात पर शाहिद है। और इसी तरह (ज़बूर 40) में ख़ुदावंद मसीह निहायत वज़नी और संजीदा क़ौल से सराहतन तो नहीं, मगर ज़मनन व किनायतन इस आली मर्तबा पर मुशारू ईलय्ह (वो जिसकी तरफ़ इशारा किया गया हो) है, “क़ुर्बानी और नज़र को तू पसंद नहीं करता, तू ने मेरे कान खोल दिए हैं। सोख़्तनी क़ुर्बानी और ख़ता की क़ुर्बानी तू ने तलब नहीं की। तब मैं ने कहा देख मैं आया हूँ। किताब के तूमार में मेरी बाबत लिखा है। ऐ मेरे ख़ुदा ! मेरी ख़ुशी तेरी मर्ज़ी पूरी करने में है बल्कि तेरी शरीअत मेरे दिल में है।” (ज़बूर 40:6-8) इस इशारे को बईद व मुबहम (यानी छिपे हुए) जान कर बईद अज़ बह्स ना जानना चाहीए।

अज़ां जहत कि हफ्ता-दी मुतर्जिम जो अहले ख़िलाफ़ हैं, इस इबारत को (यानी तू ने मेरे कान खोल दीए हैं) बतौर सराहत व वज़ाहत के और बतरीक़ तबद्दुल हर्फ़ बमाअनी तावील कर के इस के ये मअनी बताते हैं कि, “तू ने मेरे लिए एक बदन तैयार किया।” जिस अम्र में वो मुतर्जमीन यहूदया तू अपने नुस्ख़ों में एक इख़्तिलाफ़ नक़्ली के क़ाइल हैं, जो उन की दानिस्त में मोअतबर और सही था या वो हफ़ताद उलमा इस राय पर मुत्तफ़िक़ हैं कि हमारे नज़्दीक वो दो इस्तिलाहात एक ही माअनों से हैं।

अव्वलन :ये कि ख़ुदा की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ उस की तरफ़ से गोश (कान) की कुशादगी हो।

सानियन : ये कि रब तआला की तरफ़ से एक जिस्म मुरत्तिब और मुकम्मल किया जाये। ये अम्र किसी तरह हो मगर यक़ीन है कि शारहीन यहूद की इस तावील और तफ़्सीर को रूहुल-क़ुद्दुस ने मंज़ूर किया और (इब्रानियों 10:5) आयत ख़त्म सबूत इल्हामी से इस तर्जुमे को मख़्तूम (महर शूदा, बंद किया हुआ) कर के इस मज़्मून की सेहत और अस्लीयत का मक़ब्ल वर हैं हो गई। “इसी लिए वो दुनिया में आते वक़्त कहता है कि तू ने क़ुर्बानी और नज़र को पसंद ना किया बल्कि मेरे लिए एक बदन तैयार किया।”

हासिल कलाम : ख़ुसूसीयत इस गिला व शिक्वे की यही है कि ख़ुदावंद ने जो कुछ अपने अस्ल वजूद की हक़ीक़त के बाब में और अपने इस आलम-ए-शुहूद में मुजस्सम होने के मक़ासिद और मुतालिब के बाब में फ़रमाया था, इस बयान कुल्ली में रब तआला के नाम पर यानी उस की ज़ात व सिफ़ात पर मुद्दई होता चला आया, ना बतौर अदना और मिजाज़ी, बल्कि बतरीक़ आला और हक़ीक़ी जैसा ख़ुदा तआला ने उस के रुतबे और वजूद कार अज़ हज़रत मूसा पर ज़ाहिर और कश्फ़ फ़रमाया था, “तुम उस के आगे होशयार रहना और उस की बात मानना। उसे नाराज़ ना करना क्योंकि वो तुम्हारी ख़ता नहीं बख़्शेगा इसलिए कि मेरा नाम उस में रहता है।” (ख़ुरूज 23:21)

ऐ साहिबो इस आयत पर ख़ूब ग़ौर व लिहाज़ करना मुस्तहब (पसंदीदा) बल्कि वाजिब है कि वह मालिक मीसाक़ और ज़ामिन अह्द कौन है कि ख़ताओं का हल व अक़्द (निकाह) उस के इख़्तियार में है। और जो अपने क़ौल व कलाम के उदूल करने वालों के लिए बमुक़ाम मलके मीसाक़, मलके क़हर और मलक-उल-मौत बन जाता है। आप ही क़ाज़ी और मुफ़्ती हो कर इस बड़े मुक़द्दमे का इन्फ़िसाल कर के इस बात के क़ाइल हो जाओगे कि ये ख़ता का अक़द व हल करने वाला कोई दूसरा नहीं, मगर वही जिसने अपने हवारियों को भी इख़्तियार बख़्शा कि मेरा नाम लेकर ख़ता-कारों को अता व अफ़ु-ए-गुनाह से बहरावर या बे-बहरा करें। जैसे मत्ती की इंजील में लिखा है :- “मैं तुमसे सच कहता हूँ कि जो कुछ तुम ज़मीन पर बाँधोगे वो आस्मान पर बंधेगा और जो कुछ तुम ज़मीन पर खोलोगे वो आस्मान पर खुलेगा।” (मत्ती 18:18)

अब ज़रा और भी उस अजीब इत्तिफ़ाक़ पर जो ज़बूर की पेशीनगोइयों और वाक़ियात इंजील में साबित है, तफ़्सील वार दलील दीनी, सलाह है। ख़ुसूसुन उन सवानिह के हक़ में जो मसीह की उम्र अंजहानी के आख़िरी औक़ात में सरज़द हुए। ये जे़ल में बयान हैं।


वाज़ेह हो कि इस आख़िरी अम्र से एक आदत मशहूर और माअरूफ़ यहूद पर इशारा है। चुनान्चे जो शख़्स दिन-भर मस्लूब रह कर इस क़द्र बदन की तक़वियत रखते थे कि उनकी जान बईना साबित व कायम रहती थी और क़रीबु-उल-वफ़ात होने की साफ़ अलामतें दिखाई नहीं देती थीं, तो उन मस्लूबों को ऐसा सख़्त मज़रूब करते थे कि बदन से फ़ौरन जान निकल जाती थी। इस तरह जल्लादों का काम भी जल्दी से तमाम होता था और वो मुजरिम मुद्दत की जान कुंदनी के दर्द से मख़्लिसी पाकर जान देता था। इलावा अज़ां ईद फ़स्ह के एक क़ायदा मूसवी पर भी इशारा है, जिसका इशारा बतकरीर व ताकीद तमाम तौरेत में मिलता है, “ना तुम उस (बर्रा) की कोई हड्डी तोड़ना।” (ख़ुरूज 12:46) ) इस हड्डी के तोड़ने की मुमानिअत एक तम्सील नसीहत-आमेज़ ब-आँ मअनी थी कि फ़र्ज़ है जितने-जितने शख़्स एक एक घर में इस पाक ईद के दस्तर ख़्वान पर बैठे थे उन की रिफ़ाक़त में कुछ फूट और शिगाफ़ ना हो। और फिर भी इस रिफ़ाक़त की यगानगत और इस्तिक़रार का ख़ुद ज़बीहा भी निशान था और इस अंदरूनी और बाहम चस्पीदगी का जो ख़ुदावंद मसीह के बदन मिजाज़ी के उज़ूओं के साथ मामूर है। और उस रिआयत व मुहाफ़िज़त का भी जिससे ख़ुदावंद उन्हें ख़ौफ़ व ख़तरे से रिहाई व खुलासी देता है।

चुनान्चे बाला ज़बूर में मर्क़ूम है कि वो उस की सारी हड्डीयों का निगहबान है। और ये बात यक़ीनन क़ाबिले लिहाज़ है कि रूहुल-क़ुद्दुस ने जिस क़द्र बज़बान अम्बिया इन आख़िरी दुखों और आज़ारों के वाक़ियात को कश्फ़ और ज़ाहिर किया। सो उनमें एक भी क़लील व ज़लील ना जाना, सभों में राज़ व रम्ज़ इबरतन नसीहत-आमेज़ पोशीदा रहे। जिस बात का ये अम्र बुरहान और निशान है कि चारों कुतुब समावी में से तीन किताबों के बीच जो इस इस्तिख़्वान के तोड़ने की मुमानिअत माअरुफ़न व मशहूर न पाई जाती है। तो इस अम्र क़लील में भी क़वी सबूत और दलील है उस क़रीब इत्तिफ़ाक़ और इत्तिसाल और रिश्ता व राब्तादारी पर जिससे कुल कलाम-उल्लाह अज़ इब्तिदा ता इंतिहा तबक़ा ब तबक़ा बाहम मिलता जाता है।

और उन आयतों से एक और वज़नी और दिल-सोज़ ताअलीम मिलती है कि ख़ुदावंद मसीह के बदन हक़ीक़ी और मिजाज़ी में क्या ही पूरी मुवाफ़िक़त है। और बिलाशुब्हा इस इत्तिहाद और इत्तिफ़ाक़ पर जो शख़्स ब तयक़्क़ुन तमाम इस्तिक़रार पाए तो कलाम-उल्लाह की तशरीह और तफ़्सीर में हज़ार-हा मुश्किलात और मसाइल हल हो जाएंगे। चुनान्चे मुदब्बिर आला के इस ख़ास ईलाज और तदारुक के जो वसीलात नजात हैं। उन के ऐन मुबादी (मब्दाअ की जमा, इब्तिदा) और हक़ायक़ में से एक यही अम्र है, मसलन अगर ज़रा भी सोच व ग़ौर हो तो साफ़ मालूम होगा कि ख़ुदावंद मसीह के दोनों बदन यानी हक़ीक़ी व मिजाज़ी मज़्लूम और मज़रूब होने और मौरिद लअ़न व तअन व मज़ाह व शमातत (किसी के नुक़्सान पर ख़ुश होना) होने से बराबर नसीबवर रहे। और हर दोनों के लिए ख़ैर ख़्वाही का मुबादला सिर्फ़ कीना-परवरी और ख़ुसूमत उठानी पड़ती है और दोनों के लिए ज़िल्लत और पस्त हाली और ज़ाहिरी शिकस्त व तबाही और मौत की राह आख़िर को फ़त्हयाबी और फ़ीरोज़मंदी और जलाल रसां है। सबसे स्याह ग़माम और घने बादलों में से नियम रोज़ी का आफ़्ताब तमोज़ पदीद (वाज़ेह गर्मी) व रोशन होता है। सबूत इस तक़रीर का वो शख़्स आसानी से पा लेगा जो (ज़बूर 44 को ज़बूर 45) के साथ मुक़ाबला करेगा। अज़बस कि (ज़बूर 44) में मुतकल्लिम निहायत ग़म व रन्ज में ग़र्क़ होने और ज़ालिमों की तल्वार से मक़्तूल होने वाले की आवाज़ें निकालता और फ़र्याद-रसी करता है। और वही शख़्स (ज़बूर 45) में रौनक अफ़्ज़ा और मुतजल्ली व मिताली होकर शुक्र व शादयाने के गीत गाता है और उस का रुत्बा फ़त्हयाब और महमूद और सतूदा बादशाह का रुत्बा हो गया। और इस गवाही की मानिंद सैकड़ों और शहादतें मज़ामीर के अहाते के अंदर इस हुज्जत व तक़रीर को क़ैद रखती हैं। इंशा-अल्लाह तआला ख़ुदा की तदाबीर कुल्लिया के जिन हिस्सों से अम्बिया मुस्तफ़ीज़ और उन के इज़्हार इल्हामी से मुतवक्किल हो गए हैं, किसी दूसरी किताब में मुफ़स्सिलन बयान हो जाएगा।

बाब शश्म

दर बयान पेशगोई हाय मज़ामीर शरीफ़ दरबाब बर्ख़ास्तन ख़ुदावंद मसीह अज़ मुर्द-गान व सऊद करदनश अज़ हमगी आस्मानहा

د ربیان پیش گوئی ہائے مزامیر شریف درباب برخاستن خداوند مسیح از مُرد گان و صعود کردنش از ہمگی آسما نہا

अगर बावजूद हुज्जत व दलालत बाला शायद कोई मोअतरिज़ इस बात की ताईद करे कि वो मर्द-ए-गम व अलम जिसकी कैफ़ीयत व ख़ुसूसीयत ज़बूरों में माअरूफ़ है, सो वो एक शख़्स है और साहब फ़ुतूहात और ख़ुदावंद जलाल कोई दूसरा है। और जमा होना उन नक़ीज़ैन सूरी (ज़ाहिरी) और ज़िद्दीन ज़ाहिरी का यानी सूरत, तजल्ली और फ़िरोतनी और मदह व ज़म (बुराई, मज़म्मत) का एक शख़्स के अंदर एक वक़्त में मुहाल है। तो उस और इस की मानिंद सवालात और एतराज़ात का एक जवाब काफ़ी व वाफ़ी ये है कि ये सब तदाबीर व तजाविज़ ईलाही जो आदमजा़द की नजात से मुताल्लिक़ हैं, इस लायक़ नहीं कि फ़क़त मुजर्रिद अक़्ल-ए-इंसानी ही की जरीब से उनकी पैमाइश की जाये। अज़ीं जहत कि इस तरह सिर्फ ऐसी बातें इदराक में आ सकती हैं जिन्हें अपने तंग दायरे और अहाते के अंदर रखता है और जिनकी आज़माईशें अपनी तजुर्बेकारी से की हैं ओर जिन्हें आप ही से मौजूद और पैदा कर सकता है। बरअक्स इस के कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के वजूद और अहवाल और कमालात और अफ़आल के राज़ बिल्कुल बे मिसाल व बेमानिंद हैं। और अक्सर मुद्दआत आलम ग़ैर मुरई (यानी जिसका वजूद हो लेकिन दिखाई ना दे, जिसको देखा ना जा सके) में से हैं और मज़ामीन एतिक़ाद ये में दाखिल हैं।

ये जवाब आम अगरचे काफ़ी है, लेकिन इस के सिवाए एक और जवाब रासिख़ व मूजिब यक़ीन है कि मर्तन-कर्तनकर्तन एक ही ज़बूर में वही एक मुतकल्लिम हर दो हालात और मुरातिब को अपनी तरफ़ महमूल करता है, यानी फ़ना व ज़वाल और बक़ा व हय्युल-क़य्यूम व वजूद मुतलक़ की शान। यक़ीन है कि ये इसरार ब-आसानी तमाम इन्किशाफ़ व इन्हिलाल के क़ाबिल हैं। लेकिन ऐसे शख्सों के लिए जो रूह हक़ की तौफ़ीक़ व तन्वीर से इस अव्वल और अस्ल राज़ की मुमय्यज़ और मुद्रिक (समझने वाला, दाना) हो गए कि जो कामिल इन्सान सानी है, वही ख़ुदावंद आस्मान पर से भी है। है। और ज़अफ़ व मांदगी व तिश्नगी और बाक़ी सब हवादिस और अवारिज़ इन्सानी में जो इंजील के अंदर बयान होते हैं, सिर्फ इन्सान पर इतलाक़ है। ये उमूर उस की उलूहियत पर क़ाबिले इतलाक़ नहीं हैं, बल्कि इस जिस्मियत और बशरीयत पर, जिसके सब लवाज़मात और मुल्हिक़ात ग़ैर अज़ गुनाह तहम्मुल किए थे। और वारा (पीछे) हिजाब इस जिस्मियत के अपने नूर रब्बानी की तजल्लियात को अक्सर औक़ात पोशीदा किया और ख़ुदा तआला की मर्ज़ी और मुक़र्ररी इरादत ये थी कि इस ख़ुदावंद की उम्र के अहवालों में और कलीसिया की अन्जहानी मुसाफ़िरी तवारीख़ के दर्मियान ये ज़ाहिरी नक़ीज़ैन यानी ज़अ़फ़ इन्सानी और क़ुदरत यज़्दानी बाहम मुक़ारिब किए जाएं और इस तक़ारुब ही के ज़रीये से उनका साफ़ इज़्हार हो। मसलन मौत व फ़ना व ह्यात व बक़ा के मुक़ाबिल आख़िरुल-अम्र उन में ऐसा क़ुर्ब हो कि मौत हयात में और फ़ना बक़ा में मुस्तग़र्क़ व माअदूम हो जाएगी। पोलुस रसूल का ये बयान कि “फ़त्ह ने मौत को निगल लिया।” (1 कुरंथियो 15:57)

पुर अफ़्सोस है कि बाअज़ मोअतरिज़ अपना इनाद व तास्सुब ख़ुसूसुन इसी अम्र में साफ़ ज़ाहिर व आश्कारा करते हैं कि इस सूरी और ज़ाहिरी शिकस्त की तरफ़ बसरो चश्म निगाह करते हैं। और ब होशयारी तमाम उस की तरफ़ अपने रफ़ीक़ों और मोअतक़िदों को मुतवज्जा करते हैं, पर हर एक आयत से जो उस ख़ुदावंद के बर्ख़ास्त और सऊद जलाली और उस की फ़ीरोज़ी और फ़त्हयाबी और हुक्मरानी पर दाल व शाहिद है, गोया चश्मपोशी या तज़लील व तक़्ज़ीब करते हैं या ये कि उन आयात को ग़ैर सही और ग़ैर मोअतबर जानते हैं। और लोग उस और इस की मानिंद और शहरा आफ़ाक़ इलाजों से मुन्क़तेअ हो कर और पेचिशों और रूबाह बाज़ीयों (फ़रेब) की तरफ़ रुजू लाकर एक क़िस्म की आयात यानी ख्वारी व ज़िल्लत के इज़्हार करने वालों का मिस्दाक़ ख़ुदावंद मसीह को बताते हैं और आयात दीगर को जो फ़त्हयाबी व हुक्मरानी और शहनशाह आलम पर मुश्तमिल हैं, अपने मतलब के लिए तास्सुब की राह से मुहम्मदﷺ की तरफ़ आइद करते हैं।

चुनान्चे इस तरह अक्सर बातों में ख़ुदा तआला के मुख़ालिफ़ और मुक़ाबिल गोया दस्त ब क़ब्ज़ा खड़े हो कर उस रब तआला की हिक्मत आमेज़ रिआयत को हीच व बातिल जान कर रद्द व नेस्त करना चाहते हैं। इस बहाने को पेश कर के कि हमारा मज़्हब अक़्ल में महदूद नहीं, बल्कि ऐसी अजाइब व ग़राइब हिक्मत और आली मआनी और इसरार ग़ैब पर मुश्तमिल है जो इन्सान की क़ुव्वत और क़ियास मुजर्रिद से बैरून व बरतर हैं। हर-चंद कोई बात वाजिब और माअक़ूल इस से बढ़कर नहीं कि ख़ुदा के इरादात और हक़ायक़ वजूद को ख़ुदा आप ही सबसे बेहतर जानता है और क़ौल हक़ीक़ी से उनका बयान करता है। और जब कि ख़ुदा ख़ुद ही बोले तो हमको ख़ामोश और आजिज़ रहना फ़र्ज़ है और यक़ीन है कि ख़ुदा तआला अपनी अश्या के हक़ में हमारी नाक़िस अक़्लों से हरगिज़ सलाह लेने का हाजतमंद नहीं, मगर हम निहायत हाजतमंद उस के हैं कि वो अपने फ़ज़्ल से हमको हिदायत करे और बीना और मुनव्वर फ़रमाए।

अब ज़रा इन बातों से फ़ारिग़ हो कर उन आयतों के ग़ौर व मुलाहज़ा से जो ख़ुदावंद मसीह की ज़िल्लत व ख़्वारी की मज़हर व माअरफ़ हैं, फ़ैज़याब हों, और उन की तरफ़ माइल हो कर इल्तिफ़ात करें, जो उस की बर्ख़ास्त और सऊद जलाली और तख़्तनशीनी दस्त रास्त पर और उस की सल्तनत के फ़ज़ाइल व रौनक व फ़वाइद के तमाम आलम में मुंतशिर होने पर दाल और शाहिद हैं। ख़ुसूसुन उन की तरफ़ जिनकी तशरीह सहफ़ इंजील में पाई जाती है। चुनान्चे पोलुस तीन मुख़्तलिफ़ ज़बूरों में से मसीह की बर्ख़ास्त अज़ मुर्दगान की ख़ास शहादत रसूलों के आमाल की किताब में पेश करता है, “और हम तुम को उस वाअदे के बारे में जो बाप दादा से किया गया था ये ख़ुशख़बरी देते हैं। कि ख़ुदा ने यसूअ को जिला कर हमारी औलाद के लिए इसी वाअदे को पूरा किया। चुनान्चे दूसरे मज़मूर् में लिखा है कि तू मेरा बेटा है। आज तू मुझसे पैदा हुआ। और उस के इस तरह मुर्दों में से जिलाने की बाबत कि फिर कभी ना मरे उस ने यूं कहा कि मैं दाऊद की पाक और सच्ची नेअमतें तुम्हें दूंगा। चुनान्चे वो एक और मज़मूर् में भी कहता है कि तू अपने मुक़द्दस के सड़ने की नौबत पहुंचने ना देगा।” (आमाल 13:32-35) देखो कैसी दिल तराश हुज्जतों और शाफ़ी बुरहानों से पतरस ने मसीह की क़ियामत अज़ मुर्दगाँ को साबित किया। और इनमें उस पेशीनगोई को जो दाऊद के (ज़बूर 16) में शामिल है, नक़्ल कर के यहूद की मजलिस कलां के अस्हाब में ऐसा ख़ातिर नशीन किया कि वो मज्बूर और लाजवाब हो कर निहायत छिद गए और इस अम्र वाक़ई के जो मदार ईमान है, क़ाइल हो गए। चुनान्चे इस मुक़द्दस ने अपनी तक़रीर में फ़रमाया कि, “ऐ भाईओ ! मैं क़ौम के बुज़ुर्ग दाऊद के हक़ में तुमसे दिलेरी के साथ कह सकता हूँ कि वो मरा और दफ़न भी हुआ और उस की क़ब्र आज तक हम में मौजूद है। पस नबी हो कर और ये जान कर कि ख़ुदा ने मुझसे क़सम खाई है कि तेरी नस्ल से एक शख़्स को तेरे तख़्त पर बिठाऊँगा। उस ने पेशीनगोई के तौर पर मसीह के जी उठने का ज़िक्र किया कि ना वो आलम-ए-अर्वाह में छोड़ा गया ना उस के जिस्म के सड़ने की नौबत पहुंची।” (आमाल 2:29-31)

शायद किसी के दिल में ये इश्तिबाह और सवाल पैदा हो कि वो वाअदा दाऊदी जिसकी ख़ास इस्तिक़ामत और ज़मानत ख़ुदा की रहमत और अमानतदारी है। क्यों इस मज़ीद इख़्तिसास से मसीह की बर्ख़ास्त पर सादिक़ आता है और उस में ईफ़ा होता है। तो इस बात का बाइस बदाहत अक़्ल से बईद नहीं। चुनान्चे में ये अर्ज़ करता हूँ कि ख़ुदा की कलीसिया के औक़ात सल्फ़ व ख़ल्फ़ में कौन से वक्त इस वाअदे के फ़रामोश और नस्ख़ व नाबूद होने की इतनी दहश्त हो सकती थी, जैसे कि ख़ुदावंद मसीह की वफ़ात व तद्फ़ीन के वक़्त हुई। और किस वक़्त ख़ुदा की रहमत व अमानतदारी का इतना क़वी वसूक़ (यक़ीन) और ईक़ान (यक़ीन होना) और इज़्हार हो गया, जैसा उस साअत जलाली में था। जब क़ब्र का फ़त्हुल्बाब (लुब की जमा, अक़्लें) हो गया और ख़ुदावंद मसीह ने मौत की ज़ंजीरों को काट कर और मुद्दत-ए-मदीद के क़ैदीयों को ख़लास कर के आलम में शम्स नूर अफ़्ज़ तुलूअ किया और ममलकत ख़ुदा को अलल-दवाम (हमेशा हमेशा के लिए) क़रार व क़ियाम बख़्शा।

और अगर हम दूसरे ज़बूर के मज़्मून पर ज़रा ग़ौर करें तो देखें कि उस का मंशा और फ़हवा-ए-कलाम (बात का मतलब, गुफ़्तगु का अंदाज़) मुजम्मलन वही है, जो मंशा कुल किताब मज़ामीर का है। यानी बाद ज़ाहिरी शिकस्त के हक़ीक़ी फ़त्हयाबी और बाद ज़ाहिरी मौत व इंतिक़ाल के बर्ख़ास्त और बाद शोरिश व हुजूम के वो राहत व आराम जो मुल्कों में अक्सर दाइम व मुस्तक़र हुआ करता है। बादअज़ां कि सब मुफ़सिद और बद-ख़्वाह सरनिगों होकर हल्क़ा-बगोश हो जाते हैं। और लाबुद इस दूसरे ज़बूर से साफ़ मफ़्हूम होता है कि बाइस और मूजिब और मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) इस हालत इस्तिराहत और आराम का एक इर्शाद शरीफ़ ख़ुदा-ए-हुमायूँ है, जो ख़ुदा तआला की तरफ़ से सादिर हुआ। इस के इब्ने वहीद यसूअ मसीह की बाबत “मैं उस फ़रमान को बयान करूँगा, ख़ुदावंद ने मुझसे कहा तू मेरा बेटा है, आज तू मुझसे पैदा हुआ।” (ज़बूर 2:7) जिसमें इशारा ना उस तव्वुलुद बेनज़ीर और बेमिसाल की तरफ़ है जो क़ब्ल अज़ ज़मान और बईद अज़ मुक़ाम था। और जिसकी निस्बत हज़रत मीकाह नबी फ़रमाता है कि, “उस (मसीह) का मुसद्दिर ज़माना-ए-साबिक़ हाँ क़दीम-उल-अय्याम से है।” (मीकाह 5:2)

पर उसी तव्वुलुद सानी की तरफ़ जिससे तव्वुलुद अव्वल पर ख़त्म व सौक़ (यक़ीन) लगा है, यानी वो तव्वुलुद कि रहम अर्ज़ से था जो बर्ख़ास्त अज़ मुर्दगान है। बमूजब इस क़ौल के जो रसूलों के आमाल के 13 वें बाब में मज़्कूर है और जा-ब-जा कलाम-ए-ख़ुदा में बताकीद और बकस्रत इस बात पर शहादत सरीह है कि क़ियामत और हयात ख़ुदा की जितनी सूरतें हैं, सबकी सब ख़ुदावंद मसीह की इस क़ियामत अज़ मुर्दगान पर मुन्हसिर हैं। चुनान्चे आप ही फ़रमाया कि, “क़ियामत और ज़िंदगी तो मैं हूँ।” (युहन्ना 11:25)और कुतुब अम्बिया के मुतालआ करने वालों पर मशहूद है कि जिन-जन मुक़ामों में ख़ुदा की कलीसिया के हाल या इस्तिक़बाल की तबाह हाली और पज़मुर्दगी का बयान है, उन्हीं मुक़ामों के माक़ब्ल और माबअ़द एक नए तव्वुलुद और क़ियामत का ज़िक्र-ए-दिल पज़ीर है, ताकि उम्मीद यक़ीनी और क़वी पैदा हो कि आक़िबत इस तबाही और मौत की बेफ़ाइदा नहीं है, बल्कि सआदत व बक़ा है।

और वो तव्वुलुद और क़ियामत इस वजह से बताई गई कि वो कलीसिया आम्मा की भी है और एक शख़्स ख़ास की भी, जिसके साथ वो पाक जमाअत वाबस्ता और निहायत मुत्तसिल (मिला हुआ, नज़दीक) होकर उस की क़ुर्बत (नज़दिकी) में क़ायम और उस की हयात से ज़िंदा रहती है और उस की क़ियामत में शामिल-ए-हाल हो कर अलि-उल-दवाम बाक़ी और मुस्तक़ीम रहती है। यानी ख़ुदावंद मसीह ही की क़ियामत में क़ायम होती है। कोई तालिब ख़ुदा ऐसा ना जाने कि बग़ैर ख़ुदा की हिक्मत व रिआयत के यहूद के मुहक़्क़िक़ीन की तरफ़ से नज़्म व नस्क़ बा क़रीना (बहमी ताल्लुक़) उसी तौर पर था, जिस तौर पर कि मसीह के तव्वुलुद का ज़िक्र उस सहीफे शरीफ़ के शुरू में बड़े संजीदा और दिल तराश अक़्वालों में दर-पेश आता है, ताकि ग़ाफ़िल और सुस्त दिल आदमी गोया बर्क़ व रअ़द (बिजली और कड़क) की सी आवाज़ से मुतहय्यर हो कर और इस इर्शाद ईलाही के क़ौल की तरफ़ इल्तिफ़ात कर के मालूम करें कि ख़ुदा की ममलकत का वो सबूत और पुख़्ता बुनियाद कौन सी है, जिसके सबब हर-चंद चारों तरफ़ से डाह (कीना, दुश्मनी) और मख़्फ़ी (छिपी) कीनावरी और ख़ुसूमत ज़ाहिरी की वो मुख़्तलिफ़ा और मतअ़द्दा सूरतें जो बाक़ी ज़बूरों में बयान होती हैं, उस पर सदमा और हमला करें, तो भी वो कलीसिया जब तक क़ियामत मसीह के ईमान से मुन्हरिफ़ ना हो इस पर क़ायम व दाइम रहे। हर एक मौत पर नई क़ियामत से नसीब-वर हो जाएगी और ख़ालिक़ व परवरदिगार आलम के वाअदे रासिख़ और वासिक़ में पनाह लेकर हज़ार-हा सदमों और ज़र्बों को खाए, लेकिन जन्बीदह और मुतज़लज़ल ना हो, चेह (किया) ज़िक्र नेस्त और नाबूद होने का।

सच तो ये है कि बाज़-औक़ात और ज़मानों में इस तव्वुलुद और इब्नीयत अज़ली की ख़बर और बयान मुदब्बिर आला और हमा दान के मख़्फ़ी (छिपी) इसरारों में पोशीदा और मख़ज़ून (ख़ज़ाना में रखा गया, शामिल ख़ज़ाना) रहती है। पर बाअज़ ऐसे वज़नी औक़ात भी हुए हैं जिनमें उस की ख़बर या तो अफ़्वाज समावी या बनी-आदम के रूबरू कश्फ़ और ज़ाहिर की गई है। मसलन आफ़रीनश आलम के वक़्त जब अजराम-ए-फल्की और अजसाम सिफ्ली नेस्त से हस्त व वजूद में आए तो क़ियास ग़ालिब है कि तब इस सर्र ग़ैब का कुछ ख़ास इन्किशाफ़ हो गया। चुनान्चे हज़रत सुलेमान के अम्साल में रक़मज़द (लिखा) है,, “कौन आस्मान पर चढ़ा और फिर नीचे उतरा? किस ने हवा को अपनी मुट्ठी में जमा कर लिया? किस ने पानी को चादर में बाँधा? किस ने ज़मीन की हदूद ठहराई? अगर तू जानता है तो बता उस का क्या नाम है और उस के बेटे का क्या नाम है? ख़ुदा का हर एक सुख़न (कलाम, शेअर, बात) पाक है। वो उन की सिपर है जिनका तवक्कुल उस पर है।” (अम्साल 30:4,5) सानियन, मसीह के बर्ख़ास्त का वक़्त उन मवाक़ेअ़ और औक़ात में से था, जिनमें वो इब्नीयत का राज़ ज़्यादा फ़ाश और लाहिजाब हो गया। चुनान्चे रसूल रोमीयों के ख़त में फ़रमाता है, “अपने बेटे हमारे ख़ुदावंद यसूअ मसीह की निस्बत वाअदा किया था जो जिस्म के एतबार से तो दाऊद की नस्ल से पैदा हुआ। लेकिन पाकीज़गी की रूह के एतबार से मुर्दों में से जी उठने के सबब से क़ुदरत के साथ ख़ुदा का बेटा ठहरा।” (रोमीयों 1:3,4) और वो दलील दूसरे ज़बूर की तक़रीर बाला से क़वी और मुईद (ताईद किया गया) है।

अज़ानरो कि अगर हम इस ज़बूर के शुरू पर ज़रा ग़ौर करें तो क़रीनह-ए-कलाम और सिलसिला ख़यालात से साफ़ मालूम होता है कि मिस्दाक़ इस पेशगोई का सिवाए ख़ुदावंद मसीह के कोई दूसरा नहीं हो सकता। क्योंकि वो मन्सूबा बांधना बिल-इत्तिफ़ाक़ ग़ैर क़ौमों और बनी-इस्राईल का, जिसका जोश व ख़रोश और शोर व गुल ख़ुदा तआला और उस के मसीह पर सदमा करते हुए बताया जाता है, ये कब वक़ूअ में आया, मगर उस वक़्त जब इन दोनों यानी मख़्सूस क़ौम और ग़ैर क़ौम ने मिलकर शरीर हाथों से इस हयात के पेशवा को क़त्ल किया और इस जोशो व ख़रोश के मुक़ाबिल और इस शोर व गुल की आड़ में कब वो अम्र शरीफ़ रब तआला की तरफ़ से सादिर हुआ कि “मैं तो अपने बादशाह को अपने कोहे-ए-मुक़द्दस सीय्योन पर बिठा चुका हूँ।” (ज़बूर 2:6) मगर उस सुबह मुबारक को जब दो फ़रिश्तों बर्क़ लिबास ने तरसाँ व हिरासाँ औरतों से जिन्हों ने ख़ुदावंद की क़ब्र खुली और ख़ाली पाई थी, मुतकल्लिम हो कर फ़रमाया कि, “ज़िंदा को मुर्दों में क्यों ढूंढती हो? वो यहां नहीं बल्कि जी उठा है।” (लूक़ा 24:5,6)

चुनान्चे उसी वक़्त से लेकर कलाम के मुनाद और बशीर बे-ख़ौफ़ी और पहलवानी से ममलकत ख़ुदा और ख़ुदावंद मसीह का इश्तिहार और इंतिशार मुल्क ब मुल्क करते हुए चले आए। और कुछ हसरत और दरेग़ इस बात में है कि अक्सर मुनाद इंजील इस हिन्दुस्तान के बीच ख़ुदावंद मसीह की कहानत और रुत्बा नबुव्वत और फ़वाइद के बहुत इज़्हार और बशारत देते हैं, पर उस के जलाल और बादशाहत की तशहीर कम करते हैं। अगर ये क़सूर और ग़लती उन की ख़ादमिय्यत में ना होती, यानी अगर वो ख़ुदावंद मसीह की सल्तनत के हक़ीक़ी हाल को ज़्यादा सफ़ाई और दिलेरी और फ़साहत से ज़ाहिर करते और उन पेशगोइयों का भी जो उस पर दाल और मज़हर हैं, ज़्यादा तजस्सुस जद्दो जहद से करते तो बमुश्किल ऐसा ख़्याल और क़ियास कुफ़्र आमेज़ बाअज़ अहले मुहम्मद की ख़ातिर में दाख़िल होता कि तख़्त ईलाही और दस्त रास्त की नशिस्त-गाह पर से इस जलाल के ख़ुदावंद को माअज़ूल कर के अपने नबी साहब को क़रीब इस मकान के तख़्त नशीन और ताजदार करें।

बादअज़ां इस ज़बूर के अवाइल में एक फ़रमान क़ुदरत व कब्रियाई इस क़ादिर-ए-मुतलक़ और बादशाह आला की तरफ़ से सब आलमों में जारी किया जाता है। उस शहनशाह के हक़ में जिसने कोहे-सियोन के तख़्त जलाल पर जलूस फ़रमाया है, , “मैं उस फ़रमान को बयान करूँगा।” (ज़बूर 2:7)) वग़ैरह। इन सब वाक़ियात मज़्कूर में साफ़ और सिलसिले-वार तर्तीब नज़र आती है। बाद बयान इस इत्तिहाद और इत्तिसाल मश्वरा के जो अहले रुम और अहले यहूद में ख़ुदावंद मसीह के मुक़ाबिल और मुख़ालिफ़ था, उन के मक्तुलों के इब्ताल (गलत साबित करना) का और ख़ुदावंद मसीह की सल्तनत के क़ियाम और इस्बात का ज़िक्र दर्मियान आता है और फिर बमूजब सियाक़ कलाम के इस सल्तनत के साथ इब्नीयत के इज़्हार और इंतिशार का क़रीब ताल्लुक़ बताया जाता है। चुनान्चे रोमीयों के नाम ख़त से मालूम हुआ कि इस्तिदलाल क़ियामत ब इब्नीयत यानी क़ियामत के सबूत से इब्नीयत का साबित और मुबर्हन होना, कलाम-ए-ख़ुदा के उसूल ज़रुरीया में से है। और अक्सर मुक़ामात में मुफ़स्सिरों की राय के बमूजब एक तीसरा वक़्त बाल-इख़्तसास इस इब्नीयत और तव्वुलुद अज़लियत का मुसद्दिक़ व मज़हर है और इस कलाम ख़ुदा “मशारु” एलियह है जो पोलुस रसूल के इब्रानियों के नाम ख़त में मर्क़ूम है, यानी मसीह के दूसरे ज़हूर और आमद का वक़्त जो क़ब्ल अज़ रोज़-ए-क़यामत होगा। “और जब पहलौठे को दुनिया में फिर लाता है तो कहता है कि ख़ुदा के सब फ़रिश्ते उसे सज्दा करें।” (इब्रानियों 1:6)

हम इस रिसाले के पांचवें बाब में बाअज़ नक़्ली दलाईल (ज़बूर 118) में से इस बात के सबूत में लाए हैं कि ख़ुदावंद मसीह की तज़लील और तसलीब ना बनी-इस्राईल सादिक़ और हक़ीक़ी की तरफ़ से हुई थी, बल्कि काज़िब (झूठे) की तरफ़ से, यानी इस्राईल बशरीयह से। चुनान्चे नस्ल काज़िब और सादिक़ की तफ़्सील कुल कलाम-ए-ख़ुदा में बहुत ताकीद व शदीद से है। और इस राज़ का बयान मुफ़स्सिल पोलुस रसूल के रोमीयों के नाम ख़त में मिलता है। जिसका दिल चाहे बाब 9 ग़ौर से पढ़ ले। और जैसी तज़लील और तसलीब वैसी ही क़ियामत जलाली और सऊद ब फ़ीरोज़ी पर दलालत वाज़ेह व सरीह (ज़बूर 118) में है। मसलन (ज़बूर 118:22,23) में लिखा है, “जिस पत्थर को मेअमारों ने रद्द किया वही कोने के सिरे का पत्थर हो गया। ये ख़ुदावंद की तरफ़ से हुआ और हमारी नज़र में अजीब है।” जिन आयतों का ख़ुलासा अज़हर-मिन-अश्शम्स है, ना ये कि वो मेअमारों का मर्दूद पत्थर मसीह और सरज़ावीया मुहम्मदﷺ है।

बमूजब ख़ाम ज़नीत (फ़ुज़ूल ख़्याल) बाअज़ अश्ख़ास के जो इस्लाम हक़ीक़ी से नहीं, पर ये ऐन एक ही शख़्स है जिसका शुरू मर्दूद और आख़िर को सर ज़ावीया भी होना। हर दो बातें बराबर ख़ुदा तआला के क़ज़ा व क़द्र के मज़ामीन से हैं। और मुबारक हैं वो ख़ल्क़ जो हज़रत इब्राहिम और दाऊद की माहूद बरकतों से नसीब-वर हैं। वो ख़ल्क़ जो अपने तजुर्बे से जानते कि ख़ुदावंद मसीह की इस मौत व हयात में उम्र-भर शराकत और रिफ़ाक़त क्या चीज़ है, जिसके ख़वास और फ़राइज़ रोमीयों के ख़त के छटे बाब में तशरीहन व तफ़्सीलन रोशन व मुबय्यन हैं। और वो मौत और हयात (ज़बूर 118) में पेशगोई की राह से बयान होती है। अज़-आनरो कि जमाअत अक़्दस जो ख़ुदावंद मसीह का बदन और मलकूत भी कहलाता है, क़ब्र की ख़ुबस व ज़िल्लत व स्याही से बर्ख़ास्त कर के इस ज़बूर के अंदर उसी गीत के ऐन तलफ़्फ़ुज़ को आरियतन (कर्जे़ के तौर पर, मांग कर) लेता है जिससे बहर-ए-कुल्जुम के उबूर करने के बाद मुसा और बनी-इस्राईल ने ख़ुदा तआला की अजीब क़ुदरतों की सताइशों और सना को ज़बान ज़द किया, “ख़ुदावंद मेरी क़ुव्वत और मेरा गीत है, वही मेरी नजात हुआ।” (ज़बूर 118:14)और बिलाशुब्हा जिस दिन से कोई ग़रीब, नाचार, ख़ताकार अपनी जान पर तरस खाकर और ख़ुदावंद मसीह की क़ियामत का तयक़्क़ुन पाकर उसी का हमराह होकर अपनी उम्र-ए-गुज़िश्ता की साल ख़ुर्दगी के सबब पज़मर्दगी से नई और जीते राह से ताज़ा हयात के लिए जी उठता है, तो इसी हाल में इस (ज़बूर 118:15,16) आयतें क्या ही ख़ूब पूरी हो जाती हैं, “सादिक़ों के ख़ेमों में शादमानी और नजात की रागनी है, ख़ुदावंद का दहिना हाथ दिलावरी करता है, ख़ुदावंद का दहिना हाथ बुलंद हुआ है।” कि गोया मुक़द्दसों के मिस्कनों में उस फ़ीरोज़ी और फ़त्हयाबी के सबब जो अफ़्वाज शयातीन और मौत के अंदेशों और क़ब्र के होलों पर है, शादयाने की सदा सुनाई देती है। और आस्मानी और ज़मीनी पाक सरवदियों की आवाज़ बड़ी हम साज़ी और ख़ुश इत्तिफ़ाक़ी से उस ज़बूर शरीफ़ के तहलीलों में मिलती है। और वो अपने इमाम और पेशवाए मुबारक के पसरू और मुक़्तदी हो कर दरवाज़ा सदाक़त व सलामत में उस के पीछे हो लेते हैं। और चलते हुए ये कलिमा और इक़रार शुक्र पढतें हैं, , “मैं मरूँगा नहीं बल्कि जीता रहूँगा और ख़ुदावंद के कामों का बयान करूँगा। ख़ुदावंद ने मुझे सख़्त तंबीया तो की लेकिन मौत के हवाले नहीं किया। सदाक़त के फाटकों को मेरे लिए खोल दो। मैं उन से दाख़िल हो कर ख़ुदावंद का शुक्र करूँगा। ख़ुदावंद का फाटक यही है, सादिक़ इस से दाख़िल होंगे।” (ज़बूर 118:17-20) देखो वो दरवाज़ा बहिश्त और बाब हयात है कि जिसकी हिरासत और ज़ीनहार (ताकीद के लिए, ख़बरदारी) के लिए इस तआला के इर्शाद से चलती तल्वार मुक़र्रर की गई, ताकि कोई ख़ुबस आलूदा ख़ल्क़ इस में मुदाख़िलत ना पाए। अब वह दरवाज़ा क्या ही ख़ूब मफ़तूह हो गया।

अज़ां जिहत कि सब मुक़द्दस उस के तवस्सुत से उस पर क़वी यक़ीन कर के जो क़ब्र के क़ुफ़ुल तोड़ कर फ़रमाता है, “मैं मर गया था और देख अबद-उल-आबाद ज़िंदा रहूँगा और मौत और आलम-ए-अर्वाह की कुंजियां मेरे पास हैं।” (मुकाशफ़ा 1:18) गोया उस की हशमत रब्बानी हो कर इस महल और हिसार रब्बानी के मुलाज़िमों से वो इर्शाद कर सकते जो 19 वीं आयत में मर्क़ूम है। “सदाक़त के फाटकों को मेरे लिए खोल दो, मैं उन से दाख़िल हो कर ख़ुदावंद का शुक्र करूँगा।” (ज़बूर 118:19) इस जुर्रत और बेख़ौफ़ी का सबब ये है कि ख़ुदावंद ने आप ही अपनी क़ुदरत ईलाही के बमूजब यसअयाह की किताब में फ़र्मा दिया, “तुम दरवाज़े खोलो ताकि सादिक़ क़ौम जो वफ़ादार रही दाख़िल हो।” (यसअयाह 46:2)

ये भी ज़रा ग़ौर व लिहाज़ के क़ाबिल है कि जब ख़ुदावंद मसीह सर ज़ावीया से इस ज़बूर में मुलक़्क़ब है, तो इस से मालूम होता है कि ये कलीसिया जो कुल आलम की सब अक़्वाम और क़बाइल में मुंतशिर फ़िरावाँ होती चली जाती है, एक इमारत बुज़ुर्ग और आलीशान से तश्बीह रखती है। और जैसे ओर सब का हाल है वैसे ही इस इमारत में भी तीन पत्थर मख़्सूस और मुम्ताज़ ज़रूर चाहीऐं, जिनकी इज़्ज़त और रौनक और क़द्र उम्दा और अफ़्ज़ल और अशर्फ़ है, यानी :-

(अव्वल) संग बिना (बुनियाद का पत्थर) जिससे इस्तिक़रार और मज़बूती इमारत को मिलती है

(दोम) संग ज़ावीया (कोने का पत्थर) जिससे उस के अजज़ा-ए-मुख़्तलिफ़ा वाबस्ता और मरबूत होते हैं।

(सोम) संग क़ल्लिता (छोटे पत्थर) उल-मीनार जिससे ज़ेबाइश और तक्मील और ततमीम ज़ाहिर व अयाँ हो।

पस हमको जानना चाहीए किकि मज्लिस ख़ास मोमिनीन की इमारत के इन तीन संगों के मजमा औसाफ़ व ख़वास के बयान में ख़ुदावंद मसीह मशारु इलेयह है, यानी कलीसिया की बिना (बुनियाद) मसीह पर। ख़ुसूसुन उस की इब्नीयत और उलूहियत के इक़रार पर क़ियाम और बाअद-अज़ां उस की मौत और क़ियामत अज़ मुर्दगान पर मब्नी है। और इसी इक़रार पर क़ियाम और क़रार पाकर मरबूत और बाहम पैवस्ता भी है और उस की रूह के ख़साइल व फ़ज़ाइल से मामूर हो कर अपनी ज़ीनत व जमाल और तमाम व इख़्तताम इस से लेती है। हाँ शहादत रसूल व अम्बिया से ये साफ़ व सरीह है कि पाक कलीसिया के सब कमालात इसी से मुस्तआर और मुस्तफ़ाद हैं। और वो जो पोलुस रसूल इफ़िसियों के ख़त में फ़रमाता है कि, “और रसूलों और नबियों की नींव पर जिसके कोने के सिरे का पत्थर ख़ुद मसीह यसूअ है तामीर किए गए हो।” (इफ़िसियों 2:20) तो फ़हवा-ए-कलाम ये नहीं कि रसूल व अम्बिया नफ़्सिही बज़ातिह जमाअत मोमिनीन की बुनियाद हैं, बल्कि पेशतर वो इक़रार और शहादत बुनियाद है जो मसीह की ज़िल्लत व क़िल्लत इन्सानी की और जलाल व अज़मत व क़ुदरत रब्बानी की नेअमत फ़ैज़ से उनको तफ़वीज़ व मर्हमत की गई। जिसका सबूत वो मशहूर इक़रार और कलिमा है जिसे पतरस रसूल ने बाक़ी हवारियों के एवज़ ख़ुदावंद के हुज़ूर पढ़ा कि, “तू ज़िंदा ख़ुदा का बेटा मसीह है।” (मत्ती 16:16) कि वो क़ौल कबीर और बुज़ुर्ग जिस वक़्त उस मुक़द्दस की ज़बान से सादिर हुआ। ख़ुदावंद ने उसे उस रुत्बे मुम्ताज़ से मुशर्रफ़ किया जिसका ज़िक्र मत्ती की इंजील में मुंदरज है, “मुबारक है तू शमाउन बरयूनाह क्योंकि ये बात गोश्त और ख़ून ने नहीं बल्कि मेरे बाप ने जो आस्मान पर है तुझ पर ज़ाहिर की है, और मैं भी तुझसे कहता हूँ कि तू पतरस है और मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊँगा और आलम-ए-अर्वाह के दरवाज़े उस पर ग़ालिब ना आएँगे।” (मत्ती 16:17,18)

ये वाज़ेह व लाइह है कि जिस क़द्र रसूल मुबारक अपने इक़रार की सफ़ाई और बे-ख़ौफ़ी और इन्किशाफ़ आम्मा में फ़ौक़ियत रखता था, इसी क़द्र तक रुत्बे और दर्जे में भी फ़ज़ीलत ले गया। चुनान्चे किस शख़्स का इक़रार कभी ऐसा अफ़्ज़ल हुआ, जैसा उस रसूल ने यहूद के रऊसा और ख़वास उम्मत के मुक़ाबिल अपने ख़िताब में दरपेश किया, जिसका बयान रसूलों के आमाल की किताब में लिखा है, “ये वही पत्थर है जिसे तुम मेअमारों ने हक़ीर जाना और वो कोने के सिरे का पत्थर हो गया। और किसी दूसरे के वसीले से नजात नहीं क्योंकि आस्मान के तले आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया जिसके वसीले से हम नजात पा सकें।” (आमाल 4:11)

ऐ यारो ख़ुदा आप पर फ़ज़्ल करके इस ईमान और ईक़ान को आप में ख़ातिर नशीन करे कि हर कोई जो ख़ुदावंद मसीह के वजूद और ज़ीस्त और क़ौल से मुन्क़तेअ और मुन्फ़सिल (जुदा, अलग) है, उस की हयात ख़ुदा की हयात की निस्बत फ़ील-तहक़ीक़ मौत है। और हर-चंद आदमजा़द के नज़्दीक और अपनी दानिस्त में आप लोगों के मुरातिब और मदारिज आली और सतूदा हूँ। मसलन शैख़-जी या हाजी जी या सय्यद जी या पीर-जी या मुर्शिद जी या अहले तक़्वा जी या फ़क़ीर जी या ग़ौस जी और मानिंद इन की वग़ैरह मुरातिब हों, पर तो भी अगर आप ख़ुदा तआला के इस फ़ज़्ल व शफ्क़त व रहमत के अहाते से जो ख़ुद मसीह है बेरून (बाहर) रहें तो ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) और दीदार की उम्मीद बातिल और बेअस्ल है। बरअक्स इस के जो सबसे क़लील और ज़ईफ़ साहिब-ए-ईमान और हक़ीक़त है, उस से इस बंदे का क़ौल बल्कि क़सम तक भी है (क्योंकि ख़ुदा की क़सम शरीफ़ इस अम्र के क़ुबूल करने वाली है) कि तू हरगिज़ किसी सदमें और ईक़ा ग़म से मुतास्सिफ़ (अफ़्सोस करने वाला) और मुतज़लज़ल ना हो, बशर्ते के तू इस फ़ज़्ल व लुत्फ़ के अहाते के अंदर महसूर हो। और कि ये तेरे सब मुआमलात और मुक़द्दमात उस ख़ुदावंद मुबारक के हाथ में सपुर्द हैं कि इस वकील सिक़ह (मोअतबर) और अमानतदार के ज़िम्मे कलीसिया का सब इंतिज़ाम और बंदोबस्त हवाले किया गया है। हाँ बल्कि ख़ुदा बाप तआला ने जो मालिक और ख़ालिक़ और राज़िक़-उल-आलमीन है, बमूजब तक़रीर क़ब्ल अपनी पाक सिफ़ात और कमालात हसना इस अम्र के वसुक़ (यक़ीन) पर कफ़ील कर दिए कि वो उसी के ज़रीये से तुम्हारी सारी ख़ताओं को अफू व महू करेगा। और अपना ख़ौफ़ इस कद्र अमल और असर पज़ीर तुम्हारे दिलों में डालेगा कि तुम कभी उस से रूगर्दान ना होगे। और हज़िक़ीएल की किताब में ये क़ौल ख़ुदा मर्क़ूम है,“और मैं उन के साथ सलामती का अह्द बाँधूंगा जो उन के साथ अबदी अह्द होगा और मैं उन को बसाऊँगा और फ़रावानी बख़्शुंगा और उन के दर्मियान अपने मुक़द्दस को हमेशा के लिए क़ायम करूँगा। मेरा खैमा भी उन के साथ होगा। मैं उनका ख़ुदा होऊंगा और वो मेरे लोग होंगे।” (हज़िक़ीएल 37:26,27)

और जिस शख़्स ने ख़ुदावंद मसीह और उस के रसूलों की गवाही को मंज़ूर किया है कि ज़बूर की किताब उस की पेशीनगोइयों और इशारों से भरी हुई है और मुतकल्लिम मज़ामीर सिर्फ ख़ुद दाऊद हक़ीक़ी नहीं, बल्कि उस की नस्ल मौऊद यानी ख़ुदावंद मसीह को मानता है। वो शक व शुब्हा ना करेगा कि तीसरे और अठारहवें ज़बूरों में ख़ुदावंद मसीह की बर्ख़ास्त अज़ मुर्दगान की पेश ख़बरीयाँ उस रूह हक़ की तरफ़ से फ़रमाई गई हैं, जिसकी आवाज़ और इल्हाम बातिनी से अम्बिया हालत ख़ामोशी से गोया हो गए। और इस कलिमा-ए-रब्बानी से जो ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ का काशिफ़-उल-इसरार है, क़ुव्वत इन्किशाफ़ पाई। और उम्दा से उम्दा मुफ़स्सिरीन ने मुफ़्त और ग़ैर वाजिब नहीं कहा कि तीसरे ज़बूर के सब मज़ामीन ना सिर्फ दाऊद पर सादिक़ आते हैं बल्कि उस की तरफ़ आइद होते हैं, जिसके हुज़ूर में यरीहू शहर का अंधा पुकारता था कि, “इब्ने दाऊद! ऐ यसूअ! मुझ पर रहम कर।” (मरक़ुस 10:47) चुनान्चे ना सिर्फ दोनों कीनावर और ख़ूँख़ार दुश्मनों से मुहासिरा किए गए, बल्कि दोनों पर क़त्ल और तोहमत और ताना और मलामत का बोझ पड़ा कि ये ख़ुदा से मतरूक और उस की कुमक से महरूम हैं। और दोनों इस अज़दहाम (अंबोह, भीड़) और शोरिश के दर्मियान लेट कर सो रहे और जाग भी उठे। देखो वो इब्ने दाऊद बे-ख़ौफ़ी और दिलजमई तमाम हमले ग़नीमों और सदमें तकालीफ़ के बावजूद गोया सलीब के सख़्त बिस्तरे पर पादराज़ कर के इस्तिराहत करता है और क़ियामत की मियाद मुक़र्रर की यक़ीनी इंतिज़ारी से अपनी जान को बाप के हवाले और सपुर्द करता है। और जैसा पहलवान नींद से उठकर ताज़ा-दम निकलता है और हर सूरत की पेशक़दमी और जवाँमर्दी से हर शख़्स के मुक़ाबिल जंग व जिदाल पर मुस्तइद और कमर-बस्ता है। इसी तरह बमूजब क़ौल उस तीसरे ज़बूर के ख़ुदावंद मसीह अपनी सलीबी मौत और क़ब्र की ख्व़ाबगाह से उठ कर आप भी फ़रमाता है और अपने बदन मिजाज़ी यानी जमाअत ख़ास की हर ज़बान पर ये गीत दिलजमई और तयक़्क़ुन का लाता है, “मैं लेट कर सो गया, मैं जाग उठा क्योंकि ख़ुदावंद मुझे सँभालता है। मैं उन दस हज़ार आदमीयों से नहीं डरने का जो गिर्दागिर्द मेरे ख़िलाफ़ सफ़ बस्ता हैं।” (ज़बूर 3:5,6) और ख़ुदावंद मसीह के तसल्लुत की जो मुर्दों से बर्ख़ास्त करने के वक़्त सब शयातीन और कलीसिया के सब ग़नीमों पर था। और उस हुकूमत व क़ुदरत की जिसे वो मुक़द्दसों की जमाअत ख़ास में है (ज़बूर 19) के शुरू में मिसाल दी जाती है। आफ़्ताब के नूर और तजल्लियात के इंतिशार से, जिससे वो रुबा मस्कून को गोया अपनी शआओ की जरीब से पैमाइश कर के आलम को अपने क़ब्ज़े में कर लेता है और अपने रौनक व जलाल के दरयाए मुहीत से उस को घेर लेता है, “उस ने आफ़्ताब के लिए उन में खैमा लगाया है जो दुल्हे की मानिंद अपने ख़ल्वत-ख़ाने से निकलता है और पहलवान की तरह अपनी दौड़ में दौड़ने को ख़ुश है। वो आस्मान की इंतिहा से निकलता है और उस की गश्त उस के किनारों तक होती है और उस की हरारत से कोई चीज़ बे-बहरा नहीं।” (ज़बूर 19:4-6) चुनान्चे पोलुस रसूल ने रोमीयों के ख़त के दसवें बाब में इन्हीं आयतों की तशरीह व तफ़्सीर करके ख़ुदावंद मसीह की तरफ़ और उस के मुज़्दा नजात और बशारत की जानिब मंसूब किया है। यूं मर्क़ूम है,“पस ईमान सुनने से पैदा होता है और सुनना मसीह के कलाम से। लेकिन मैं कहता हूँ क्या उन्हों ने नहीं सुना? बेशक सुना चुनान्चे लिखा है कि उन की आवाज़ तमाम रू-ए-ज़मीन पर और उन की बातें दुनिया की इंतिहा तक पहुंचीं।” (रोमीयों 10:17,18)

और जिस तरह रसूल मुबारक ने (ज़बूर 19) के मज़ामीन का मिस्दाक़ ख़ुदावंद मसीह को बताया अज़-आनरो की, कि फ़ज़ाए समावात का नूर और तजल्लियात मुज़्दा और बशारत इंजीली के मुशाबेह हैं। और ज़मनन व इशारतन ये भी फ़रमाया कि आफ़्ताब फ़लकी की रौनक और हशमत और उस की पेश-क़दमी और मुदावमत मिसाल उस कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की है जिसको नबियों ने आलम-ए-अर्वाह के लिए आफ़्ताब सदाक़त से मुलक़्क़ब किया। इसी तरह उसी रसूल ने (ज़बूर 18:1) के कुल्लियह मज़्मून को ख़ुदावंद मसीह की तरफ़ महमूल किया। चुनान्चे हमने इस रिसाले के बाब बाला में अस्हाब नबुव्वत और पेशीनगोई के उस क़ायदे और दस्तूर पर लिहाज़ और इल्तिफ़ात किया था कि उन्होंने किसी फ़िक़्रह और आयत मुजर्रिद को सिलसिला-ए-कलाम से मुनक़तेअ़ और मुन्फ़सिल (जुदा) कर के आइंदा ज़माने के वाक़ियात के सिर्फ एक निशान बईद और इशारा आरिज़ी को दरपेश नहीं किया, बल्कि ऐसा सिलसिला कलाम व मज़ामीन का नज़र आता है जिसमें क़रीना (बहमी ताल्लुक़) क़ब्ल व बाद की इस आयत या फ़िक़्रे के साथ पूरी मुताबिक़त व मुवाफ़कत हो। पस इस क़ाएदे की एक मिसाल देखने के लायक़ वही आयत “मशारु” इलयहा है, जिसे रसूल ने (ज़बूर 18) के अवाख़िर से नक़्ल किया है। वो आयत मअ़ इस सियाक़ के इस वज़अ मज़्कूर पर है, “मैं कहता हूँ कि मसीह, ख़ुदा की सच्चाई को साबित करने के लिए मख़्तूनों का ख़ादिम बना ताकि उन वाअदों को पूरा करे जो बाप दादा से किए गए थे। और ग़ैर कौमें भी रहम के सबब से ख़ुदा की हम्द करें। चुनान्चे लिखा है कि इस वास्ते मैं ग़ैर क़ौमों में तेरा इक़रार करूँगा और तेरे नाम के गीत गाऊँगा।” (रोमीयों 15:8,9 ज़बूर 18:49)

इस मौज़ेअ़ से साफ़ ज़ाहिर है कि रसूल आयत को नक़्ल करता है, ब इल्लत सबूत इस अम्र के कि ग़ैर क़ौम ज़माने-ख़ल्फ़ में ख़ुदा की सना और सताइश करेंगे। बसबब उस के रहम व फ़ज़्ल के जो यसूअ मसीह में मख़ज़ून था और उस की मौत व क़यामत व सऊद में वक़ूअ व शुहूद में आया। सच तो ये है कि इस आयत मज़्कूर में सबूत वाज़ेह व लाएह है, हज़रत दाऊद की फ़ुतूहात का और उस क़ियामत ख़िलाफ़-ए-क़ियास का जो उस ने ग़म व अलम और शिकस्त व ज़बोनी की ज़ुलमात से हासिल की थी, पर तो भी पोलुस रसूल की शहादत इस बात पर दाल है कि बाल-इख़्तसास तमाम इस ज़बूर 18 के मज़्मून का तुख़्म व अस्ल ख़ुदावंद मसीह के अहवालों का इज़्हार व इश्तहार है कि किस तरह उन के अवाइल में शिकस्तगी और रुस्वाई और ज़िल्लत होगी। और बरअक्स इस के उन के अवाख़िर में क़ियामत व सऊद और दूर-दूर ग़ैर क़ौमों तक तबसीत सल्तनत होगी। और इस आयत बाला का क़रीना (बहमी ताल्लुक़) क़ब्ल व बाद भी अजीब व ग़रीब इत्तिफ़ाक़ हरफ़न व मअ़नन रखता है, बाक़ी नबियों और ख़ुसूसुन यसअयाह नबी की मशहूर पेशीन-गोइयों के साथ, मसलन शिकस्त और मौत के बयान में मर्क़ूम है, “मौत की रस्सियों ने मुझे घेर लिया और बेदीनी के सैलाबों ने मुझे डराया। पाताल की रस्सियाँ मेरे चौगिर्द थीं मौत के फंदे मुझ पर आ पड़े थे।” (ज़बूर 18:4,5)

और फिर क़ियामत व फ़ीरोज़ी और ग़नीमों की शिकस्त की गवाही 43,44,50, आयतों में दी जाती है, “तूने मुझे क़ौम के झगड़ों से भी छुड़ाया, तू ने मुझे क़ौमों का सरदार बनाया है, जिस क़ौम से मैं वाक़िफ़ भी नहीं वो मेरी मुतीअ होगी। मेरा नाम सुनते ही वो मेरी फ़र्मांबरदारी करेंगे। परदेसी मेरे ताबे हो जाएंगे, वो अपने बादशाह को बड़ी नजात इनायत करता है और अपने ममसोह दाऊद और उस की नस्ल पर हमेशा शफ्क़त करता है।” और मिसाल उस हुक्मरानी और क़ुदरत आमेज़ फ़त्हयाबी की जिससे ख़ुदावंद मसीह मुर्दों में से जी उठकर सब शयातीन को और अपनी कलीसिया के सब ग़नीमों को ज़ेर-पा करने वाला था, आफ़्ताब के तुलूअ होने और उस की तजल्लियात के इन्तशार से (ज़बूर 19) के शुरू में दी जाती है। यानी जिस तरह वो शम्स फ़लकिया अपनी शआओं की जरीब से आस्मान की पैमाइश कर के इस पर गोया अपना क़ब्ज़ा कर लेता और अपने रौनक व जलाल के दरयाए मुहीत से घेर लेता है। इसी तरह तमाम आलम क़ौम बाद क़ौम के और अतराफ़ बाद अतराफ़ के ख़ुदावंद का मुतीअ होगा जैसा इस (ज़बूर 19:4-7) में लिखा है :-

“और उनका कलाम दुनिया की इंतिहा तक पहुंचा है। उस ने आफ़्ताब के लिए उन में ख़ेमा लगाया है जो दुल्हे की मानिंद अपने ख़ल्वत-ख़ाने से निकलता है और पहलवान की तरह अपनी दौड़ में दौड़ने को ख़ुश है। वो आस्मान की इंतिहा से निकलता है और उस की गश्त उस के किनारों तक होती है और उस की हरारत से कोई चीज़ बे-बहरा नहीं। ख़ुदावंद की शरीअत कामिल है, वो जान को बहाल करती है। ख़ुदावंद की शरीअत बरहक़ है, नादान को दानिश बख़्शती है।” चुनान्चे पोलुस रसूल ने रोमीयों के ख़त में इस तफ़्सीर और तशरीह को सही और बरहक़ ठहरा कर फ़रमाया है, “पस ईमान सुनने से पैदा होता है और सुनना मसीह के कलाम से (यानी मसीह का कलाम एलची गिरी के तौर पर सुनाने से) लेकिन मैं कहता हूँ क्या उन्हों ने नहीं सुना? बेशक सुना चुनान्चे लिखा है कि उन की आवाज़ तमाम रू-ए-ज़मीन पर और उन की बातें दुनिया की इंतिहा तक पहुंचीं।” (रोमीयों 10:17,18)

और जिस तरह रसूल मुबारक ने ज़बूर 19 के वज़नी मज़्मून का मिस्दाक़ ख़ुदावंद मसीह को बताया है, अज़ आनरो कि इंजील मसीह की बशारत और आफ़्ताब की शआओ के नूर और हरारत का एक ही हाल है और हिदायत मसीह को उतनी ही तासीर है रूहानियत में, जितनी आफ़्ताब को आलम महसूसात में। इस तरह उसी रसूल ने जो ज़बूर 18 की पहली आयत को ख़ुदावंद मसीह की तरफ़ मंसूब व महमूल किया है तो साफ़ मालूम है कि बाक़ी सब मज़्मून जो क़रीनह-ए-कलाम के तौर पर उस आयत से मुताल्लिक़ है, कुल्लीयतन (पूरे पर) मसीह पर सादिक़ आता है। और अहवाल मज़्कूर ज़बूर उस ख़ुदावंद की सल्तनत के अहवाल की गोया तसावीर और तशाबिह के बराबर हैं, बमूजब उस क़ायदे बयान नब्वीयह के जो बाब साबिक़ में मज़्कूर हुआ कि हर पेशीनगोई के क़रीना (बहमी ताल्लुक़) क़ब्ल व बाद का सिलसिले मज़ामीन के साथ ताल्लुक़ और तताबुक़ क़रीब रखता है।

पस इस क़ायदे का नमूना इस आयत “मशारु” इलयह से ख़ूब निकला, जिसे रसूल ने (ज़बूर 18) के अवाख़िर से नक़्ल कर के मसीही सल्तनत की तरफ़ आइद बताया है तो मिस्दाक़ उस आयत का मअ़ सियाक़ कलाम के ख़ुद ख़ुदावंद मसीह है। देखो पोलुस रसूल रोमीयों के ख़त में ये आयत किस तरह नक़्ल करता है :-

“और ग़ैर कौमें भी रहम के सबब से ख़ुदा की हम्द करें। चुनान्चे लिखा है कि इस वास्ते मैं ग़ैर क़ौमों में तेरा इक़रार करूँगा और तेरे नाम के गीत गाऊँगा।” (रोमीयों 15:9)) इस मुक़ाम से साफ़ साबित और ज़ाहिर है कि पोलुस रसूल आयत मज़्कूर को नक़्ल करता है, बइल्लत सबूत इस अम्र के कि ग़ैर क़ौम ज़माने-खल्फ़ में हक़ तआला की सना व सताइश करेंगे। उस ख़ास रहमत और फ़ज़्ल के एहसान के सबब जो हमारे ख़ुदावंद यसूअ मसीह में मख़ज़ून हो रहा है, था। फिर उस की मौत और क़ियामत व सऊद से वक़ूअ और शुहूद में आया। सच तो ये है कि उस ज़बूर में शहादत सरीह और मुस्तनद सबूत है, हज़रत दाऊद की फ़ुतूहात का और उस क़ियामत ख़िलाफ़-ए-क़ियास और ख़ारिक़ आदत का जिसे उस मुबारक ने ग़म व अलम और ख्वारी व ज़िल्लत की ज़ुलमात से पाया था। पर तो भी पोलुस रसूल की साफ़ गवाही इस बात पर दलालत करती है कि ब तमाम तफ़ज़ील व तख़्सीस इस (ज़बूर 18) का अस्ल तुख़्म ख़ुदावंद मसीह के अहवालों का इज़्हार और इश्तिहार है कि किस तरह उस के अवाइल में ख्वारी व रुस्वाई होने वाली थी। और बरअक्स उस के अवाख़िर उस मुनज्जी-उल-आलम के क़ियामत और सऊद और दूर-दूर ग़ैर क़ौमों तक फ़ीरोज़मंदी और सल्तनत की बढ़ाओ होगी।

और इस आयत मशारु इलयहा का क़रीना (बहमी ताल्लुक़) क़ब्ल व बअ़द अजीब और क़रीब इत्तिफ़ाक़ रखता है। हम हरफ़न और हम माअनन बाक़ी नबियों और ख़ुसूसुन यसअयाह नबी की मशहूर पेशीनगोइयों के साथ। मसलन फ़िलहाल शिकस्त और मौत का बयान (ज़बूर 18:5-6) का मफ़्हूम है। “पाताल की रस्सियाँ मेरे चौगिर्द थीं मौत के फंदे मुझ पर आ पड़े थे। अपनी मुसीबत में मैं ने ख़ुदावंद को पुकारा और अपने ख़ुदावंद से फ़रियाद की। उस ने अपनी हैकल में से मेरी आवाज़ सुनी और मेरी फ़र्याद जो उस के हुज़ूर थी उस के कान में पहुंची।” इस के बरअक्स क़ियामत और फ़त्हमंदी और अहले ख़िलाफ़ की परागंदगी व हज़ीमत की गवाही (ज़बूर 18:35,37,43) में तफ़्सील वार दी जाती है। “तूने मुझको अपनी नजात की सिपर बख़्शी और तेरे दहने हाथ ने मुझे सँभाला और तेरी नर्मी ने मुझे बुज़ुर्ग बनाया है, मैं अपने दुश्मनों का पीछा कर के उन को जलाऊंगा और जब तक वो फ़ना ना हो जाएं वापिस नहीं आऊँगा, तू ने मुझे क़ौम के झगड़ों से भी छुड़ाया। तू ने मुझे क़ौमों का सरदार बनाया है। जिस क़ौम से मैं वाक़िफ़ भी नहीं वो मेरी मुतीअ़ होंगी।”

हर एक अम्बिया ख़्वान को मालूम होगा कि क्या ही बेशुमार पेश खबरियां इन दो मज़ामीन की अम्बिया-ए-ख़ल्फ़ के सहफ़ नबुव्वत में पाई जाती हैं, इस वजह से कि वो हज़रत दाऊद की आयात बाला मज़्कूर के ऐन मुशाबेह और मुत्तफ़िक़ हैं। मसलन यसअयाह नबी की किताब में मर्क़ूम है :-

“जिस तरह बहुतेरे तुझको देखकर दंग हो गए उस का चेहरा हर एक बशर से ज़ाइद और उस का जिस्म बनी-आदम से ज़्यादा बिगड़ गया था। उसी तरह वो बहुत सी क़ौमों को पाक करेगा। और बादशाह उस के सामने ख़ामोश होंगे क्योंकि जो कुछ उन से कहा ना गया था वो देखेंगे और जो कुछ उन्हों ने सुना ना था वो समझेंगे।” (यसअयाह 52:14-15)

अब चाहीए कि उन आयतों की तरफ़ ज़रा लिहाज़ करें जिनसे ख़ास मुराद ख़ुदावंद का सऊद और उरूज है। अगरचे शायद लाज़िम और ज़रूरी ना था कि इस के सऊद पर अलैहदा (अलग) शहादत और दलालत दी जाये। अज़ां जिहत कि ख़ुदावंद मसीह का सऊद उस के बर्ख़ास्त अज़ मुर्दगान का इख़्तताम था और हक़ीक़त में ये दो उमूर अम्र वाहिद हैं, सिर्फ ख़्याल में मुतफ़र्रिक़ हो सकते हैं या बहर-ए-हाल लाज़िम व मल्ज़ूम की निस्बत रखते हैं। जिस नजात का काम ख़ुदावंद ने अपने ज़िम्मे लिया उस का कुछ कमतर हासिल और इतमाम इस से ना हो सका कि आप ही क़ब्र से ख़ुरूज कर के आस्मान को भी उरूज करे और अपनों को भी तहत ज़मीन से और पंजे-मौत से ख़ल्लास करके अपने सऊद में शामिल और हम वारिस और अपने जलाल के शाहिद होने से मुशर्रफ़ करे। बमूजब उस की मुराद मुशफ़्फिक़ और मर्ज़ी मुबारक के कि अपने मिजाज़ी बदन के सब अअ़ज़ा को अपनी उम्र के सब अहवालों में बहरावर और शरीक करे। चुनान्चे इंजील की आयात मुतअद्दा से साफ़ मालूम और साबित है कि अहले मसीह का हक़ बल्कि ऐन फ़ख़्र व सवाब यही है कि अपने ख़ुदावंद की तसलीब और तदफ़ीन और बर्ख़ास्त अज़-मुर्दगान और उरूज में रफ़ीक़ हो जाएं। मसलन कुलस्सियों के ख़त में मर्क़ूम है :-

“पस जब तुम मसीह के साथ जिलाए गए तो आलम-ए-बाला की चीज़ों की तलाश में रहो जहां मसीह मौजूद है और ख़ुदा की दहनी तरफ़ बैठा है। आलम-ए-बाला की चीज़ों के ख़्याल में रहो ना कि ज़मीन पर की चीज़ों के। क्योंकि तुम मर गए और तुम्हारी ज़िंदगी मसीह के साथ ख़ुदा में पोशीदा है। जब मसीह जो हमारी ज़िंदगी है ज़ाहिर किया जायेगा तो तुम भी उस के साथ जलाल में ज़ाहिर किए जाओगे।” (कुलस्सियों 3:1-4) पस जब कि ख़ुदावंद मसीह की उम्र के बाक़ी उमूर की निस्बत इस अम्र की यानी उस के उरूज की रौनक और जलवागरी ज़्यादा थी, अज़ां-जिहत कि तब ही से उस का जलूस बादशाहाना और दस्त रास्त पर तख़्त नशीनी शुरू हुई, यानी आप हमारी ख़स्ता शिकस्ता ज़ात का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हो कर और उस के ख़ुबस और गंदगी को उठा कर तब ही से उसे ऐसे आली दर्जे तक सर-बुलंद किया कि कायनात के सब मुरातिब और मनाज़िल में एक भी उस के मुक़ाबले करने के लायक़ नहीं। तो क़ियास वाजिबी था कि बतौर इशारे और पेशीनगोई के इस का ज़िक्र और ख़बर हज़रत दाऊद के ज़बूरों में पाया जाये। चुनान्चे कई मशहूर मुक़ामात से मालूम होता है कि उस मुबारक ने बतौर कश्फ़ और दया के नज़र नबुव्वत से उस उरूज को दूर से देखा और आइंदा ज़मानों के तयक़्क़ुन के लिए उसे मज़्कूर और मफ़्हूम किया मसलन (ज़बूर 8 और ज़बूर 110 और ज़बूर 68) के कई मज़ामीन में पोलुस रसूल ने ख़ुदावंद मसीह के सऊद का इज़्हार और इशतिहार पाया है।

(ज़बूर 8) में बतौर रम्ज़ व कनाईआ के उस शम्स सदाक़त की तरफ़ इशारा है, जिसके आगे बाक़ी सब आफ़्ताब नामी गिरामी अंजहानी रियासत और किबरीयत और इल्म व हिक्मत और वस्फ़ फ़ज़ीलत का जलाल नूरानी कुसूफ़ (सूरज ग्रहन) कहलाता है, जैसे बाक़ी अज्राम फ़लकिया शम्स समाविया के तलूअ के आगे स्याह फ़ाम हो जाते हैं। चुनान्चे इस ज़बूर में ये सवाल पैदा होता है कि बनी-आदम क्या क़द्र और क्या रौनक रखता है? उन जलवागर सय्यारों की निस्बत जिस कासीर गाह और दायरा इज़्ज़त मदार अर्श की फ़िज़ा है। पर तो भी यक़ीन है कि मर्द, बच्चों और शेर ख़्वारों (दूध पीते बच्चे) की ज़बानों से रब तआला हम्द व सना को मंज़ूर कर के मंज़िला तक्मील से उन क़लील ज़लीलों को मुशर्रफ़ करता है, तो ये क्या वाजबीयत रखता है और उस का क्या सबब है?

जानना चाहीए कि इस सवाल का जवाब हज़रत दाऊद अंजहानी हकीमों की मजलिसों से नहीं मांगता, बल्कि उस मुदब्बिर अअ़ला की हिक्मत व रिआयत के दलाईल व अम्साल से जो इस आलम की तदबीर में दरपेश आए हैं। चुनान्चे जवाब हक़ीक़ी ये है कि अगरचे इन्सान के क़द व क़ामत और सूरत जिस्मियह इतनी ज़िल्लत व क़िल्लत की है, मगर फ़ज़्ल ईलाही से उस का रुत्बा और मंजिलत आंकद्र बुज़ुर्ग और शरीफ़ है कि ख़ुदा तआला से थोड़ी कमी और कोताही रखता है। यानी ख़ुदा तआला के एहसानों और इनामों से जो कुछ लेना मुम्किन था और उस के फ़ज़्ल की दौलत अता बख़्श और करम गुस्तर (کرم گُستر) का जो कुछ तनावुल (खाना खाना) हो सकता था उस से थोड़ी ही कमी और कोताही रखता है। हाँ बल्कि उस तआला के साथ वो क़रीब ताल्लुक़ रखता है जो मुशाबहत इश्बा (शुब्हा की जमअ़, सूरतें) अपने अस्ल नक़्शे के साथ रखती है। लेकिन इस अम्र में एक मसअला पैदा होता है जिसका ज़िक्र और इशारा इब्रानियों के ख़त में मिलता है कि जब इन्सान का पैदाइशी हाल ऐसा ही था तो अब बिल-फ़अल उस को क्या हुआ और उस के मफ़्क़ूद होने का क्या सबब? रसूल फ़रमाता है, “तू ने सब चीज़ें ताबेअ कर के उस के पांव तले कर दी हैं, मगर हम अब तक सब चीज़ें उस के ताबे नहीं देखते।” (इब्रानियों 2:8)

फिर रसूल मुबारक इस सवाल का जवाब इस मज़्मून से फ़रमाता है कि“अलबत्ता उस को देखते हैं जो फ़रिश्तों से कुछ ही कम किया गया यानी यसूअ को कि मौत मौत का दुख सहने के सबब से जलाल और इज़्ज़त का ताज उसे पहनाया गया है ताकि ख़ुदा के फ़ज़्ल से वो हर एक आदमी के लिए मौत का मज़ा चखे।” (इब्रानियों 2:9)) यानी कुल जिन्स को तो नहीं, मगर उस को जो कुल जिन्स का सर और पेशवा और हर अव्वल है, जिसने बतौर कफ़ील और वकील के उन की नजात व लामत की मुहिम्मात को अपने ज़िम्मे लिया। आप ही गोया इनका क़ाइम मक़ाम हो कर इस तख़्त जलाल पर चढ़ बैठा जहां उन्हें भी अपने साथ कर लेने और रब तआला के क़ुर्ब व रिफ़ाकत में पहुंचाने के क़ौल वासिक़ की क़बालत से मरहून है। जैसा इफ़िसियों के ख़त में इसी रसूल ने फ़रमाया है :-

“मगर ख़ुदा ने अपने रहम की दौलत से, हमको मसीह के साथ ज़िंदा किया (तुमको फ़ज़्ल ही से नजात मिली है) और मसीह यसूअ में शामिल कर के उस के साथ जिलाया और आस्मानी मुक़ामों पर उस के साथ बिठाया।” (इफ़िसियों 2:4-6)

और दूसरे मुक़ाम में यानी कुरंथिस की कलीसिया के नाम ख़त में रसूल ने इन दो बातों को यानी मसीह के दस्त रास्त पर सऊद व कउ़द (बैठक, नशिस्त) को और आलमगीरी कामिल और जावेद को लाज़िम व मल्ज़ूम बताया है और इन दो अम्रों का लाज़िम व मल्ज़ूम होना इस (ज़बूर 8:6) की गवाही से साबित व मंसूस करता है :-

“क्योंकि जब तक कि वो सब दुश्मनों को अपने पांव तले ना ले आए उस को बादशाही करना ज़रूर है। सबसे पिछ्ला दुश्मन जो नेस्त किया जाएगा वो मौत है।” (1 कुरंथियो 15:25-26)

तो इस अस्ल ज़बूर को और इंजील शरीफ़ के जिन-जिन मवाज़ेअ़ मज़्कूर में इस की इबारतें मन्क़ूल हैं, उन के ख़यालात और मज़ामीन पर ग़ौर करने से यक़ीन है कि ख़ुदावंद मसीह ने इस गुनाह को जो इन्सान के अस्ल हाल के मुज़िर और मुख़िल थे, बीच में से उठा कर सब मुक़द्दसों को आप ही में पैवंद कर के उनकी आक़िबत को इन्सान के अवाइल की निस्बत और भी अकमल और आला जलाल को सर-बुलंद किया। चुनान्चे आप ख़ुदावंद मुकाशफ़ा की किताब में फ़रमाते हैं, “जो ग़ालिब आए मैं उसे अपने साथ अपने तख़्त पर बिठाऊँगा।” (मुकाशफ़ा 3:21) और (ज़बूर 18) में भी दो मुख़्तलिफ़ हालतें कमाल शदीद और तख़्सीस से आपस में मुक़ाबला की जाती हैं यानी क़ैद और तंगी और वफ़ात और बाद-ए-हयात और कुशादगी और आज़ादी बयान होती हैं।

हालाँकि वो शख़्स जिस पर ये दो हालतें आइद व सादिक़ होती हैं अवामुन्नास में से नहीं है, बल्कि निहायत साहब रौनक व दबदबा ओर आली दर्जे पर है। ताआंक़द्र कि इस की उम्र के सब अहवाल से ख़्वाह ज़िल्लत व ख्वारी हो, ख़्वाह अज़मत व अलवियत हो, कुल आलम तबीइयह यानी फ़लकिया और सफलिया हर तरह से असर पज़ीर हैं और उस की सूरत के तग़य्युरात और तक़ल्लुबात से उन की सूरत भी मुतग़य्यर (बदला हुआ) हो जाती है। और ख़ुसूसुन जहान के सब मुल्क और क़बाइल और उन के अस्हाब सियासत व रियासत उस शख़्स के बर्ख़ास्त अज़ मुर्दगान पर और बाद शिकस्त व तबाह हाली के मुतजल्ली होने पर अजीब तौर पर मुन्हसिर होते हैं। और इस ज़बूर मजीद की बहुत सी इबारतों और मिसालों से रोशन और पदीद है कि यहां ऐसे शख़्स की तरफ़ इशारा है जो मुतकल्लिम ब तजर्रुद नहीं है, बल्कि किसी क़ौम क़बीले की पेशवाई और ख़िलाफ़त रखता है। चुनान्चे इस शख़्स मज़्कूर के वाक़ियात अम्र में इतने और ऐसे मोअजज़ात और ख़वारिक़ आदात (ख़िलाफ़ आदत बातें, मोअजज़े) बयान होते हैं जैसे बनी-इस्राईल के मुल्क मिस्र से ख़ुरूज के वक़्त वाक़ेअ हुए थे। जिनके वारिद और वाक़ेअ होने से अशहाद और इज़्हार हो गया, उस विलादत सानी का और इस रुत्बा आलीया का यानी कहानत बादशाहाना होने का और सब अक़्वाम में से क़ौम बर्गुज़ीदा और पसंदीदा होने का, जो उस ज़माने में ख़ल्फ़ इब्राहिम को मिला। पस यहां भी वाजिबी क़ियास और क़रीन यक़ीन है कि इन सब अम्साल और इबारतों से एक ही शख़्स मुफ़र्रद और मुजर्रिद मुराद नहीं, बल्कि ख़ुदावंद मसीह मअ़ क़ौम नोव-मोलूद और नोव-मख़्लूक़ के जिसका तज़्किरा पोलुस रसूल के इब्रानियों के नाम ख़त में पाया जाता है, “पस जिस सूरत में कि लड़के ख़ून और गोश्त में शरीक हैं तो वो ख़ुद भी उन की तरह उन में शरीक हुआ ताकि मौत से वसीले से उस को जिसे मौत पर क़ुदरत हासिल थी यानी इब्लीस को तबाह कर दे।” (इब्रानियों 2:14)

हाँ बिला-शक सही तफ़्सीर और बरहक़ तशरीह इस ज़बूर की तब ही मिलती है जब हमने मान लिया कि इस की अजीब और नादिर इबारतों से मुराद एक शख़्स भी और एक क़ौम भी है। और ये कि वो शख़्स कोई दूसरा नहीं है, मगर वो ख़ुदावंद जलील और मजीद, जिसका तव्वुलुद-अज़-अज़ल उस की क़ियामत अज़मुर्दगान से साफ़ साफ़ मुबर्हन और मंसूस हो गया। और ना वो क़ौम कोई दूसरी है, मगर वो क़ौम मुम्ताज़ और मुख़्तार मुक़द्दसों की जिनके मन्सुबे और मंजिलत के ये औसाफ़ इब्रानियों के ख़त के 12 वें बाब में बयान होते हैं। “बल्कि तुम सिय्योन के पहाड़ और ज़िंदा ख़ुदा के शहर यानी आस्मानी यरूशलेम के पास और लाखों फ़रिश्तों, और उन पहलोठों की आम जमाअत यानी कलीसिया जिनके नाम आस्मान पर लिखे हैं और सब के मुंसिफ़ ख़ुदा और कामिल किए हुए रास्तबाज़ों की रूहें, और नए अह्द के दरम्यानी यसूअ और छिड़काओ के उस ख़ून के पास आए हो जो हाबिल के ख़ून की निस्बत बेहतर बातें कहता है।” (इब्रानियों 12:22-24) और ये अम्र कि वो फ़त्हयाब आलमगीर जिसकी ग़ैर-क़ौम क़दम-बोसी और इताअत करेंगे, सौ मसीह मुनज्जी-उल-आलम है। हाँ वही है जिसके लिबास और जिसकी रान पर वो नाम व खिताब मुनक़्क़श है, “बादशाहों का बादशाह और ख़ुदावन्दों का ख़ुदावंद।” (मुकाशफ़ा 19:16) सो वही रसूल रोमीयों के ख़त के बाब 15 की आयत बाला मज़्कूर को नक़्ल कर के ज़ाहिर और साबित करता है, “और ग़ैर कौमें भी रहम के सबब से ख़ुदा की हम्द करें। चुनान्चे लिखा है कि इस वास्ते में ग़ैर क़ौमों में तेरा इक़रार करूँगा और तेरे नाम के गीत गाऊँगा।” (रोमीयों 15:9)

पस जब कि इस आख़िरी आयत का मिस्दाक़ हक़ीक़ी मसीह है, रोमीयों के ख़त की इल्हामी शहादत के बमूजब, तो नतीजा उन मुक़द्दमात से अज़हर-मिन-अश्शम्स है कि इस ज़बूर की बाक़ी आयतों से मुराद और मुराद उन वाक़ियात से जो उन में मफ़्हूम हैं, सो ख़ुदावंद की उम्र मुबारक के अहवाल हैं। मसलन (18:16-25) में जितनी-जितनी सूरतें ज़िल्लत और ख्वारी की तसलीब और तदफ़ीन उठाने में ख़ुदावंद ने क़ुबूल फ़रमाई सभों के बरतरफ़ होने का और इज़्ज़त व जलाल से मुबद्दल होने का साफ़ व सरीह बयान मिलता है। जिस पर ग़ौर करने से और उस में अपनी रिफ़ाक़त शराकत के तयक़्क़ुन से अहले ईमान को हर तरह के शक व शुब्ह और ख़ौफ़ व ख़लिश से जो उन पर शाक़ होता है, तस्कीन और तश्फ़ी हासिल होती है। अज़-आनरो कि उस पेशवाए मुतआली (बुलंद, ख़ुदा तआला का नाम) ने जो मुशफ़्फिक़ (मेहरबान) अल-आसीन है, उन्हें अपनी वफ़ात और क़ियामत में शामिल-ए-हाल कर के मलक-उल-मौत के ग़िनाइम इस क़द्र तक़्सीम कर दिए हैं कि क़ब्र उन के लिए गोया साँप बिला ज़हर के, पहलवान बुदून (बग़ैर) तल्वार के मुवाफ़िक़ हो गई यानी ठनकने डरने की जगह नहीं, बल्कि शीरीं उम्मीद गाह और बहिश्त का दरवाज़ा बनी है, चुनान्चे (ज़बूर 16:9-11) आयात जिन्हें पतरस रसूल ने तमाम तख़्सीस से ख़ुद मसीह की तरफ़ हवाले किया, सो बतौर रिफ़ाक़त के हर साहब-ए-ईमान पर सादिक़ आती है, “क़ोलुह” (इस का क़ौल है)“मेरा जिस्म भी उम्मीद में बसा रहेगा, इसलिए कि तू मेरी जान को आलम-ए-अर्वाह में ना छोड़ेगा और ना अपने मुक़द्दस के सड़ने की नौबत पहुंचने देगा। तू ने मुझे ज़िंदगी की राहें बताई। तू मुझे अपने दीदार के बाइस खु़शी से भर देगा।” (आमाल 2:26-28)

फिर वाजिब और मुनासिब ये भी था कि बाअद-अज़ां कि (इस के बाद) क़ब्र से ख़ुरूज और बर्ख़ास्त का ज़िक्र दर्मियान आया था, तब आप ख़ुदावंद के और उस की जमाअत आम्मा के अहले ख़िलाफ़ के शिकस्ता और परागंदा होने का इज़्हार हो जाए कि वहा उस के उरूज माक़ब्ल पर और रियासत व सल्तनत की कुर्सी पर तख़्त नशीन होने पर मुन्हसिर हैं और उस के मुसबत (साबित गया) भी हैं। चुनान्चे इस (ज़बूर 18) के आख़िर में उस फ़त्हयाबी के इत्माम और इख़्तताम पर बड़ी ज़ोर-आवर बलाग़त से गवाही दी जाती है (इन आयात 27, 28, 43 को तक्मीली सूरत में पेश किया जाएगा) मैं ने अपने दुश्मनों का पीछा कर के उन को जलाया और जब तक वो फ़ना ना हो गए वापिस ना आया, मैं ने उन को ऐसा छेदा कि वो उठ ना सके। वो मेरे पांव के नीचे गिर पड़े हैं, तू ने मुझे क़ौम के झगड़ों से भी छुड़ाया। तू ने मुझे क़ौमों का सरदार बनाया है। जिस क़ौम से मैं वाक़िफ़ भी नहीं वो मेरी मुतीअ होगी।”

फिर ख़ुदावंद मसीह के उरूज और उस के उम्दा फल और हासिलात पर कोई बालिग़ा शहादत और क़तई दलालत नहीं है। (ज़बूर110) की उस आयत से जिसे जब ख़ुदावंद ने मजलिस उलमा व शरिफा यहूद के बीच मसअले के तौर पर पेश किया, तब उस की ज़बान मुबारक से गोया तल्वार से ज़ख़्म क़ातिल खा कर वो सब ख़ामोश हो गए और शर्मिंदा और लाजवाब हो कर चले गए। “ख़ुदावंद ने मेरे ख़ुदावंद से कहा मेरी दहनी तरफ़ बैठ जब तक मैं तेरे दुश्मनों को तेरे पांव के नीचे ना कर दूँ।” (मत्ती 22:44) इसी क़ौल ख़ुदा के तीर से पतरस रसूल ने जिस दिन रूहुल-क़ुद्दुस आतिशी ज़बानों की सूरत में नाज़िल हुआ उन अजाइबात के नातरीन और शाहिदीन को यूं छेद कर मारा कि बिला इख़्तियार हर ठट्ठे बाज़ और ख़िलाफ़ गो का मुँह-बंद हो गया और बड़ी जमाअत उन वाक़ियात के हक़ीक़त-ए-हाल की मुक़र (इक़रारी) हो कर रसूलों से सवाल करने लगी, “ऐ भाईओ ! हम क्या करें?” (आमाल 2:37) चुनान्चे उस आयत का अस्ल मज़्मून उस दिन की वारदात के साथ इस क़द्र मुत्तफ़िक़ और मुवाफ़िक़ दिखाई देता था कि गोया ख़ुदावंद आप इस मजलिस के रूबरू खड़ा हो कर रूहुल-क़ुद्दुस के हसनात और तीबात को दस्त रास्त पर से इस कस्रत व फ़रावानी से अता फ़रमाता था कि रसूल मज़्कूर की तक़रीर ख़ुश तासीर से किसी में ख़िलाफ़ बात के कहने का ज़ोर ना रहा। “पस ख़ुदा के दहने हाथ से सर-बुलंद हो कर और बाप से वो रूहुल-क़ुद्दुस हासिल कर के जिसका वाअदा किया गया था उस ने ये नाज़िल किया जो तुम देखते और सुनते हो।” (आमाल 2:33)

फिर ख़ुदावंद मसीह के उरूज पर दाल और शाहिद एक और मुक़ाम ज़बूरों का यानी ज़बूर (68:18) मशहूर है जिसे पोलुस रसूल ने अपने इफ़िसियों के नाम ख़त में नक़्ल कर के यूं फ़रमाया है :-

“और हम में से हर एक पर मसीह की बख़्शिश के अंदाज़े के मुवाफ़िक़ फ़ज़्ल हुआ है। इसी वास्ते वो फ़रमाता है कि जब वो आलम पर चढ़ा तो क़ैदीयों को साथ ले गया और आदमीयों को इनाम दिए।” (इफ़िसियों 4:7,8)

यहां एक मिसाल लायक़ लिहाज़ उस क़ायदा मज़्कूर बाला की मिलती है जिससे कलाम-ए-ख़ुदा के मुफ़स्सिरीन ने बहुत ही मदद पाई है। यानी ये कि अम्बिया-ए-ख़ल्फ़ को रूह हक़ की हिक्मत और इल्हाम से अम्बिया-ए-सल्फ़ के मज़ामीन आली और खु़फ़ीया को हल करने की क़ाबिलीयत मिलती थी। चुनान्चे एक ही रूह अल्लाह उन दोनों में साकिन और मुतकल्लिम थी। अज़ आनरो कि अव्वलीन के हाथ में तो क़ुफ़ुल सपुर्द किया और आख़िरीन को क़ुफ़ुल खोलने की किलीद बख़्शी। और अम्बिया-ए-साबिक़ जिन जिन बातों के उम्मीदवार थे अम्बिया-ए-आख़िर बाद अज़ वक़ू अम्र उन्हीं के मज़हर और काशिफ़ मुक़र्रर हो गए और इस सबब से दोनों को एक ही अज्र व सवाब मिला।

मसलन हज़रत दाऊद को इल्हाम से मालूम हो गया कि कोई बादशाह अज़ीम व करीम आलम-ए-बाला को उरूज फ़र्मा कर अपनी दाद गुस्तरी (दादरसी) और सख़ावत से बड़ी नामवरी और रौनक पैदा करेगा। पर कौन और किस ज़माने में कैसी बख़्शिशें अता फ़रमाएगा, ये मसाइल तो ख़ुदा तआला के ख़ज़ाइन खु़फ़ीया में मस्तूर हो रहे। हवारीयिन के ज़माने तक जो रूहुल-क़ुद्दुस की रिआयत से उन ख़बरों के मिस्दाक़ से वाक़िफ़ और आगाह किए गए और उस के इज़्हार करने के मंजिलत से नसीब वर हो गए। और इसी क़ायदे का वो सरीह नमूना बा हुस्न व जा सोच और ग़ौर के लायक़ है जो (ज़बूर 8) की ताबीर व तशरीह बाला में मफ़्हूम हो गया था।

याद होगा कि बनी-आदम की ज़ाहिरी ज़िल्लत व ख़्वारी में उस जलाल के ताज से जो उस ज़बूर में माअरूफ़ और मौऊद है, कुछ इख़्तिलाफ़ और तनाफ़ी (नफ़ी, मना) मुसन्निफ़ ज़बूर को नज़र आती थी। और सच तो ये है कि इब्न-ए-आदम के ज़हूर के अय्याम तक साफ़ जवाब इस मसअले का मफ़्क़ूद और मह्जूब हो रहा। सिर्फ इंजील मुक़द्दस में और ख़ुसूसुन इब्रानियों के ख़त में वो राज़ खुल जाता है। इस ख़त के दूसरे बाब से मालूम हो गया कि आदमियत की अस्लीयत हसना और हक़ीक़त कामिल को इस की कैफ़ीयत हाल में जो इस क़द्र शिकस्ता और ज़बूँ है, तलब करना बिल्कुल बेजा और बे मुनासिब है। ज़िंदों को मुर्दों में ढूंढना कौन वाजबीयत रखता है। फिर जो कोई तालिब हक़ पूछे कि वो हक़ीक़त और अस्लीयत मुतजल्ली इन्सान की किस चीज़ पर या किस शख़्स पर क़रार पाती और कौन-कौन से ज़वाबत से मशरूअत है, तो उसी बाब की (इब्रानियों 2:8,9) आयतों में राज़ मज़्कूर का कश्फ़ इल्हामी मिलता है। “तू ने सब चीज़ें ताबेअ कर के उस के पांव तले कर दी हैं... मगर हम अब तक सब चीज़ें उस के ताबेअ नहीं देखते। अलबत्ता उस को देखते हैं जो फ़रिश्तों से कुछ ही कम किया गया यानी यसूअ को कि मौत का दुख सहने के सबब से जलाल और इज़्ज़त का ताज उसे पहनाया गया है ताकि ख़ुदा के फ़ज़्ल से वो हर एक आदमी के लिए मौत का मज़ा चखे।” (इब्रानियों 2:8,9) यानी बऐतबार अपनी जिस्मियत और इन्सानियत के भी उस ने उस जलाल के ताज को जो बऐतबार उस की कलमियत और इब्नीयत अज़ली के इब्तिदा से उस का हक़ और मीरास ज़ातीया था, पहन लिया। बमूजब मज़्मून उस सवाल के जो क़ब्ल मस्लूब होने के अपने बाप तआला से मुख़ातब हो कर फ़रमाया था, “और अब ऐ बाप ! तू उस जलाल से जो मैं दुनिया की पैदाईश से पेशतर तेरे साथ रखता था मुझे अपने साथ जलाली बना दे।” (युहन्ना 17:5) पस ख़ुदावंद मसीह ने इन्सानियत का ऐन अस्ल और मब्दा आप ही में मुन्तहा कर के और अपने नफ़्स में उसे तख़्त जलाल पर जलूस करा के ज़िल्लत व ज़बूनी की हालत पर से मुतालआ और मुतजल्ली किया है। ताआंक़द्र कि जितने अश्ख़ास ईमान क़ल्बी और इताअत की राह से उस के साथ वाबस्ता और चस्पीदा होते हैं, वो उस जलाल से बहरावर हो जाते हैं, बाक़ी मर्दूद हैं।

ऐ साहिबो आपसे इस बयान में अजीब तवालत से माफ़ी मांगता हूँ, चूँकि यक़ीन है कि इन बातों के बयान में दीन मुस्तक़ीम के उन उसूल और उय्यून (ऐन की जमअ़, आँखें) में दर्ज व दख़ल होता जिनके इशारा किनाया तक का क़ुरआन मजीद में कुछ ज़िक्र नहीं। हज़ार शुक्र उस राज़िक़ और परवरदिगार जल्लेशानहु का जिसने औक़ात क़दीम से ये तज्वीज़ निकाली कि ख़ुद कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) जो मसीह है, मौत का तल्ख़ मज़ा चखने तक अपने आपको फ़रिश्तों से पस्त कर के आदमियत की ज़िल्लत और ख्वारी के लिबास से अपनी शान हक़ीक़ी और रब्बानी को मह्जूब कर के और ग़ैर अज़गनाह हर सूरत से अपने बिरादरों के शामिल-ए-हाल हो कर उन्हें अपने साथ मुक़ामात आलीया तक सर-बुलंद करे और ऐसी मंजिलत और मन्सब से जो फर्ज़न्दियत के रुत्बे से अफ़्ज़ल है, मुशर्रफ़ करे। बमूजब क़ौल हज़रत यसअयाह के :-

“मैं उन को अपने घर में और अपनी चार-दीवारी के अंदर ऐसा नाम व निशान बख़़्शुंगा जो बेटों और बेटीयों से भी बढ़कर होगा। मैं हर एक को एक अबदी नाम दूंगा जो मिटाया ना जाएगा।” (यसअयाह 56:5)) जिस मज़्मून का ऐन इत्तिफ़ाक़ है। रसूल मुबारक के उस क़ौल से जो रोमीयों के ख़त के 8 वें बाब में है :- “और अगर फ़र्ज़ंद हैं तो वारिस भी हैं यानी ख़ुदा के वारिस और मसीह के हम मीरास बशर्ते के हम उस के साथ दुख उठाएं ताकि उस के साथ जलाल भी पाएं।” (रोमीयों 8:17) जो कोई शख़्स अज़-राह ईमान व मुहब्बत व इताअत मसीह के साथ वाबस्ता और उस के जलाल का हम वारिस हो कर गुनाह की हक़ सज़ा और उस के ज़ुल्मो-सितम से ख़ल्लास हो गया, वही ख़ुदा और मसीह की सल्तनत में दाख़िल किया गया और ख़ुदा तआला की ऐन बादशाही इस जहान में भी है। यानी वो वाबस्तगी दिलों की ख़ुदा के साथ फ़िलहाल ब वास्ता-ए-खुदावंद मसीह के जो तक़ल्लुब क़ल्बी और नई ख़ल्क़त और विलादत सानी कहलाती है। और कुल कलाम-ए-ख़ुदा में अज़ शुरू ता-आख़िर रब तआला की उस सल्तनत का जो ज़माने हाल में है, सिर्फ यही बयान मिलता है। अगरचे हज़ार-हा अम्साल और मुशाबेहात अंजहानी बादशाहों की लश्कर कुशी और शम्शीर ज़नी और क़वाइद जंगी और सियासत मदाइन से आरियतन माख़ूज़ हैं। और ग़ौर व तामिल के लायक़ है कि यहूद ने जो कनआनी क़ौमों के नेस्त व नाबूद और इस्तीसाल करने की ताकीद बताइद पाई तो मुराद और मक़्सद उस हुक्म का ये हरगिज़ बताया नहीं जाता कि ख़ुदा की बादशाहत जारी और सारी करें। मगर ये कि रब तआला के उस फ़तवाए लानत व हलाकत को जो उन शरीरों के बुग़्ज़ व बग़ावत और लामसाल मकरूहात के सबब ख़लील-उल्लाह के ज़माने से लेकर पुश्त दर पुश्त उन पर वारिद हुआ सर-अंजाम देना, उन के हवाले किया गया था, तो वो मुल्क उस क़दीम क़ौल और अह्द के बमूजब मौरिद लईन हो गया था।

और बनी-इस्राईल उस मुल्क मलऊन को हर सूरत ख़ुबस और गंदगी से साफ़ करने की ख़िदमत के लिए बर्गुज़ीदा और कमर-बस्ता हो गए। उस अपनी क़ुद्दूस मन्सबदारी से उज़्र करना मम्नू बल्कि जुर्म मौत के बराबर जाना जाता था, तो भी ये अम्र हज़रत मूसा और उस के ख़लीफ़ा यशुआ के तसव्वुर से बईद था कि बाद फ़त्हयाब होने और मुल्क कन्आन पर अपना क़ब्ज़ा कर लेने के यहूद की मिल्कियत मौऊद को ख़ुदा की बादशाहत कहते। दरहालिका ख़ुदा की सल्तनत दुनियवी जंग व जिहाद और अक़्ल व हिकमत-ए-जिस्मानी की मदद से फैलती नहीं। अगर शायद फैल भी जाये तो बाक़ी मुनाफ़ा और इस्तिक़ामत हक़ीक़ी उस तरक़्क़ी से हासिल नहीं होते। चुनान्चे ख़ुद मसीह ने इंजील लूक़ा में फ़रमाया था, “ख़ुदा की बादशाही ज़ाहिरी तौर पर ना आएगी। और लोग ये ना कहेंगे कि देखो यहां है या वहां क्योंकि देखो ख़ुदा की बादशाही तुम्हारे दर्मियान है।” (लूक़ा 17:20,21) यानी इन्सान की बसारत जिस्मियह के मुदआत में से नहीं है, पर अंदरून क़ल्ब (दिल) के क़रार व क़याम पाती है और ग़ौर व लिहाज़ के लायक़ ये भी है कि परवरदिगार ने कोह-ए-सिना पर से बनी-इस्राईल से ये इर्शाद बताकिद फ़रमाया कि तुम्हारे लिए क़ैद और शर्त बादशाहत की पाकीज़गी और क़ुद्दुसियत है। और कि अहले यहूद सिर्फ उस क़द्र तक बादशाह हो सकते जिस क़द्र दुनिया की बाक़ी सब क़ौमों की निस्बत और उन के मुक़ाम में वो इमामत और कहानत के अमल और अदाए फ़र्ज़ में मशग़ूल और मुम्ताज़ भी रहते हैं।

इसी तरह जो हम हज़रत दाऊद की सल्तनत के अवाइल और इब्तिदा पर लिहाज़ करें कि क़त्ल व खून और ज़ोर व ज़ब्र उनका तुख़्म व बुनियाद था, तो साफ़ मालूम होता है कि वो ब ख़िताब सल्तनत ईलाही के मुशर्रफ़ होने के फ़िलहाल क़ाबिल व मुस्तहिक़ नहीं ठहरे। चुनान्चे ख़ुदा की सल्तनत में मरने का इल्म दाख़िल होता है, मारने का नहीं। ये तो दुनियवी सब बादशाहतें पर मुश्तर्क है पर वो ख़ुदा की सल्तनत के साथ मख़्सूस है और उन दोनों सूरतों के तनाक़ुज़ असली और ज़रूरी को हज़रत यसअयाह ने बड़ी फ़साहत और सराहत से बयान किया है। “क्योंकि जंग में मुस्लह मर्दों के तमाम सलाह और ख़ून-आलूदा कपड़े जलाने के लिए आग का ईंधन होंगे। इसलिए हमारे लिए एक लड़का तव्वुलुद हुआ और हमको एक बेटा बख़्शा गया और सल्तनत उस के कंधे पर होगी और उस का नाम अजीब मुशीर ख़ुदा-ए-क़ादिर अबदीयत का बाप सलामती का शाहज़ादा होगा।” (यसअयाह 9:5,6)) पस तख़्त दाऊद तब ही से आनक़द्र मुतजल्ली होने लगा जब रब तआला के तख़्त और बर्रे के तख़्त से मुलक़्क़ब होने के लायक़ और क़ाबिल ठहरा। जब से शाह सलामत अपने कलाम सुलह और बशारत-ए-नजात के वसीले से आस्मान की बादशाहत को रूए ज़मीन पर इज़्हार व इश्तिहार करने लगा। चुनान्चे अम्बिया और रसूलों दोनों ने एक ही आवाज़ से साफ़-साफ़ पुकारा कि तुम अपने दिलों में नए बनो कि आस्मान की बादशाहत क़रीब है। इंशा-अल्लाह बाब जे़ल में इस बादशाहत के औसाफ़ और फ़ज़ाइल की कैफ़ीयत का बयान तफ़्सील वार मिलेगा।

बाब हफ़्तुम

दरबयान आँ मअनी कि बादशाहत रब तआला फ़िलहाल दर आलम शुहूद कुदाम अस्त वचा सूरत में बंदद व दरआलिम मुस्तक़बिल चह हाल व कदाम सूर्तश ख्वाहिद्शद

د ربیان آں معنی کہ بادشاہت رب تعالیٰ فی الحال د ر عالم شہود کدام است وچہ صورت مے بندد ودر عالم مستقبل چہ حال و کدام صورتش خواہد شد

कुतुब अम्बिया के मआनी और मुबादी अंदरूनी से वाक़िफ़ होने की एक शर्त ज़रूरी ये है कि सोच व ग़ौर से तजस्सुस कर के मालूम करें कि कलाम ख़ुदा में ख़ुदा की और आस्मान की बादशाहत से क्या मुराद और मअनी है, यानी रब तआला की सल्तनत और बाक़ी सल्तनतों की निस्बत कौन सी और कैसी ख़सुसीयात रखती है। इस बात से नावाक़िफ़ होने की जिहत से मौलवी रहमत उल्लाह साहब और उन के ताबईन लाहौरी हज़ार हा ग़लतीयों और जहल आमेज़ क़यासों वहमों में फंस गए हैं। और बाल-इख़्तसास बाअज़ ज़बूरों और इन्जील मजीद के बाअज़ मुक़ामों का बहुत ही उल्टा और ग़ैर वाजिबी बयान किया है। मसलन सयानत (हिफाज़त, बचाओ) अल-इन्सान के मुसन्निफ़ ने ये नाक़िस समझ और ख़ामख़्याल किया है कि आस्मान की बादशाहत से मुराद आस्मान यानी बहिश्त है, हालाँकि ख़ुदावन्द मसीह की तम्सीलों पर ज़रा भी ग़ौर व तामिल करने से साफ़ साबित और वाज़ेह है कि वो बादशाहत माअरूफ़ इस जहान के दर्मियान फैलती और बढ़ती है। और कि इस जहान के सब मुआमलात और उमूर और वाक़ियात उस से असर पज़ीर होते हैं। और ये कि वो सल्तनत अपनी इब्तिदा में निहायत कोताह और कम क़द्र हो कर ऐसी तरक़्क़ी और क़ुदरत और बलाग़त और कुल आलम में इंतिशार से नसीब वर होगी, जैसे हज़रत दानीएल ने अपनी नबुव्वत के दूसरे बाब में साफ़ बयान किया है, “तू उसे देखता रहा यहां तक कि एक पत्थर हाथ लगाए बग़ैर ही काटा गया और उस मूरत के पांव पर जो लोहे और मिट्टी के थे लगा और उन को टुकड़े टुकड़े कर दिया... और वो पत्थर जिसने उस मूरत को तोड़ा एक बड़ा पहाड़ बन गया और तमाम ज़मीन में फैल गया।” (दानीएल 2:34-35) जाये तहीय्यर है कि इस अम्र में ज़रा भी शक और एहतिमाल किसी साहब अक़्ल व तमीज़ के दिल में क्यों बाक़ी रहता है। दर-हालिका इस बयान मज़्कूर पर बेशुमार गवाहियाँ और दलाईल क़वी व क़तई अम्बिया और इन्जील में दर-पेश आती हैं कि इस आलम-ए-फ़ानी में तक़ल्लुबात और तग़य्युरात के बावजूद वो सल्तनत मौजूद भी है और बमूजब अम्र ईलाही के मुनादों की बशारत से मुन्तशिर और माअरूफ़ होती रहती है। और कि वो पुरानी ख़ल्क़त की बदी व ज़बूनी और ख़ुबस व पलीदी को नेस्त करती और उस के मुक़ाम में एक ख़ल्क़त पाक और जदीद और क़ायम व दाइम सर-अंजाम करती चली जाती है। जिससे इस कौल-ए-क़दीम और इर्शाद-ए-मुबारक की ततमीम हो जाएगी। “फिर ख़ुदा ने कहा कि हम इन्सान को अपनी सूरत पर अपनी शबिया की मानिंद बनाएँ।” (पैदाइश 1:26)पोलुस रसूल ने मुजम्मलन इस बादशाहत के बयान में कहा, “मगर जहां गुनाह ज़्यादा हुआ वहां फ़ज़्ल उस से भी निहायत ज़्यादा हुआ। ताकि जिस तरह गुनाह ने मौत के सबब से बादशाही की उसी तरह फ़ज़्ल भी हमारे ख़ुदावन्द यसूअ मसीह के वसीले से हमेशा की ज़िंदगी के लिए रास्तबाज़ी के ज़रीये से बादशाही करे।” (रोमीयों 5:20,21) मतलब इस आयत का जैसा साफ़ व सरीह है, वैसा ही दिल पज़ीर और तक़्वियत और तसल्ली बख़्श है कि ख़ुदा की बादशाहत फ़ज़्ल की हुकूमत और तसल्लुत है और कि इस हुकूमत की फ़अलियत और कार्रवाई बतोसित ख़ुदावन्द मसीह के रास्तबाज़ी है। जिसका अंजाम आलम जलाल और हयात यानी सआदत आस्मानी और रब तआला की पूरी क़ुर्बत (नज़दिकी) और दीदार होगा।

आयात बाला मज़्कूर से मुसन्निफ़ ने इस अम्र को ज़ाहिर और साबित किया था कि जब तक इस्राईल की हुकूमत और हज़रत दाऊद की सल्तनत जंग व जिदाल व क़त्ल पर क़याम व क़रार पा रही थी और ईनजहानी धूम-धाम और तुमतराक़ (शानो-शौकत) से रौनकदार और मुज़य्यन ठहरी। तो हालाँकि वो ख़ुदा की बादशाहत की तम्सील और तश्बीह हो सकती थी, पर अपने अस्ल वजूद और हक़ीक़त में उस से अलैहदा (अलग) और जुदागाना थी। सिर्फ बाद इज़्हार ख़ुदावन्द मसीह के और उस के कलाम शरीफ़ के इश्तिहार के, वो दोनों सल्तनतें यानी ख़ुदावन्द मसीह की और दाऊद की इस क़द्र मुत्तफ़िक़ और बाहम पैवस्ता और वाबस्ता हो गईं कि लफ़्ज़ व इबारत तक कुछ फ़र्क़ ना रहा। दोनों से अज़राह हक़ीक़त व इन्साफ़ मुराद थी, वो बादशाहत फ़ज़्ल व करम की जिसे ख़ुदावन्द इस जहान में जारी और दाइम क़ायम करने आया था। दोनों बुदून (बग़ैर) तफ़र्रुक़ व तमीज़ उसी की तरफ़ इतलाक़ की जाती हैं। चुनान्चे इन्जील मरक़ुस में ख़ुदावन्द मसीह की अव्वल मुनादी का ये बयान मिलता है,“यसूअ ने गलील में आकर ख़ुदा की ख़ुशख़बरी की मुनादी की। और कहा कि वक़्त पूरा हो गया है और ख़ुदा की बादशाही नज़्दीक आ गई है। तौबा करो और ख़ुशख़बरी पर ईमान लाओ।” (मरक़ुस 1:14,15)और फिर इसी इन्जील में लिखा है कि, “मुबारक है वो जो ख़ुदावन्द के नाम से आता है। मुबारक है हमारे बाप दाऊद की बादशाही जो आ रही है। आलम-ए-बाला पर होशाना।” (मरक़ुस 11:9) जिसमें इत्तिफ़ाक़ साफ़ और कुल्लिया है अम्बिया-ए-सलफ़ के सहीफ़ों से मसलन बज़बान हज़िकीएल नबी के, “मेरा बंदा दाऊद उन के दर्मियान फ़रमां-रवा होगा।” (हज़िकीएल 34:24) और होसीअ नबी की किताब इसी बात पर गवाह है, “इस के बाद बनी-इस्राईल रुजू लाएँगे और ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा को और अपने बादशाह को ढूँडेंगे।” (होसीअ 3:5)

और ये अम्र भी कलाम ईलाही का एक अस्ल ताअलीम और मुलाहिज़ा के लायक़ है कि ख़ुदा तआला की ममलकत औक़ात अज़ली से क़रीब ताल्लुक़ रखती थी। यहूदीयों की उस ख़ास और मुख़्तार क़ौम से जिससे तौरेत में मुख़ातब हो कर उस रब तआला ने फ़रमाया था, , “और तुम मेरे लिए काहिनों की एक ममलकत और एक मुक़द्दस क़ौम होगे।” (इस्तिस्ना 19:6)और उस ताल्लुक़ के सबब जो रिश्ता राबिता बनी-इस्राईल का ख़ुदा की बादशाहत के साथ था अगरचे मुद्दत-ए-मदीद तक अज़ जिहत बग़ावत और रुगिरदानी के उस में ख़लल आ गया तो भी आख़िर अय्याम में उस अम्र मुज़िर और मुख़िल की पूरी मराफ़अ़त हो जाएगी। और कुल इस्राईल अपने बादशाह हक़ीक़ी के मुक़र (इक़रारी) हो कर ख़ुदा की बादशाहत में शामिल होंगे। बइत्तफ़ाक पोलुस रसूल की इस साफ़ गवाही के जो रोमीयों के नाम ख़त में मिलती है, “और इस सूरत से तमाम इस्राईल नजात पाएगा। चुनान्चे लिखा है कि छुड़ाने वाला सीय्योन से निकलेगा और बेदीनी को याक़ूब से दफ़ाअ करेगा।” (रोमीयों 11:26)और करतन-मरतन आप ख़ुदावन्द मसीह ख़ुसूसुन जिस वक़्त कहना (کَہنَہ) (काहिन की जमा) और रूसा यहूद और रूमी हाकिमों की मुस्नद अदालत के मुक़ाबिल हाज़िर किया गया। इसी अम्र मज़्कूर का क़ाइल और मक़र हुआ था कि बेशक मैं बादशाह हूँ, ना अज़ां हैसियत कि ईनजहानी ममलकत मुझे मन्ज़ूर और मतलूब है।

अज़बस कि तलब रिफ़अत और इंजहानी तख़्त व ताज की हिर्स मुझसे दूर व बईद है, मगर ऐन हक़ीक़त और सलाहीयत और फ़ज़्ल ईलाही की ममलकत जिससे तहज़ीब आदत व अमल और इस्लाह इल्म व फ़हम और इन्क़िलाब क़ुलूब और बनी-आदम की ख़ल्क़त जदीद हर ज़माने व ज़मीन में मुताल्लिक़ है। सो मेरे ख़ास नाम यानी कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के नाम से और ज़ात व माहीयत (असलियत) से मुक़य्यद और मेरी ख़िदमत और ज़म्मत (फ़र्ज़) से मख़्सूस है। और युहन्ना रसूल की (मुकाशफ़ा 19:11) और आयात मुक़ारिन (नज़्दीक, दर्मियान) से साफ़ साबित और मालूम है कि सल्तनत ख़ुदा की जितनी सियासत और रियासत और रिआयत व तदबीर है, वो सब उसी कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) यानी ख़ुदावन्द मसीह के तवस्सुत से अमल में आती और उसी को हवाले की गई है। और कि बादशाहों का बादशाह उस का ख़ास नाम है यानी सुल्तान-उल-सलातीन होना उस की ऐन कलमियत के अस्ल ख़वास और हुक़ूक़ में से है। तो बिलाशुब्हा अक़्ल और नक़्ल दोनों इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि जिस ख़ुदावन्द का नाम ज़ाती और मौरूसी अज़ल से कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) है, सो ख़ुदा की सल्तनत की तमाम कार्रवाई और दस्तगीरी उसी से है। और कि वही कुल आलम के बार सल्तनत के मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) होने का मुस्तूजिब है, पर तो भी कुछ ताज्जुब की बात नहीं कि जितने अश्ख़ास उस की अज़ली और ज़ाती कलिमियत के मुन्किर होते हैं और रसूल मुक़द्दस की इस गवाही को मन्ज़ूर नहीं करते कि उसी के तवस्सुत से रब तआला ने आलम को मख़्लूक़ किया। सो उस के बादशाह आलम के नाम व खिताब से मुशर्रफ़ होने में कुछ मुनासबत और वाजबीयत नहीं पाते।

औरमौलवी रहमत-उल्लाह साहब के मुवाफ़िक़ :-

इन ज़बूरों से जिनमें सल्तनत ख़ुदा के ख़ुदावन्द मसीह को ज़िम्मे और हवाले होने का बयान है, ठोकर खाकर मुहम्मदﷺ की तरफ़ या किसी ईनजहानी पहलवान की तरफ़ मन्सूब करते हैं। और बो-फ़ौर तकब्बुर व तफ़ख़्र अम्बिया-ए-सलफ़ और ख़ुद मसीह और उस के रसूलों की साफ़ मुत्तफ़िक़ गवाही को इस हक़ में हीच और पोच (हक़ीर) जान कर ये दावे करते हैं कि हम लोगों ने हज़ार-हा बरसों के बाद अज़ जिहत अपनी तेज़ बीनी और इदराक नाफ़िज़ के अस्हाब इल्हाम की गवाही को रद्द किया है और किज़्ब ठहराया है, बल्कि वो राज़ हक़ीक़ी जो कुतुब और रसूल और अम्बिया का ऐन माख़ज़ और मुब्तदा और बुनियाद है यानी ख़ुदावन्द मसीह की वो कलिमियत ईलाही जिस पर उस की इब्नीयत अज़ली का राज़ भी मुन्हसिर है और उस के शाह-आलमीन होने का हक़ व ताअल्लुक़ ग़ैर इन्हिलाल की राह से उन दोनों पर मौक़ूफ़ है, हमने सफ़ीना-ए-वजूद से मिटाया है।

ख़िलाफ़ इस के जिन-जिन शख्सों ने रूहुल-क़ुद्दुस की तौफ़ीक़ से इस राज़ का कश्फ़ पाया और यक़ीन किया है कि इन दोनों (ज़बूर 45 और 72) ज़बूरों को ख़ुदावन्द मसीह के सिवाए किसी दूसरे की तरफ़ इत्तलाक़ करना ऐन नादानी और ज़लालत है। वो सब ना सिर्फ इस अम्र से बड़ी ख़ातिर जमई लेते हैं कि शुरू से इज्माअ यहूद और इज्माअ मसीहयान इस बात पर मुत्तफ़िक़ हुआ है, बल्कि इस यक़ीन क़वी पर भी उस ने क़ियाम पाया है कि कुतुब अरबअ़ (चारों किताब) यानी तौरेत, ज़बूर, अम्बिया और इन्जील इस अम्र की तबईन (पैरवी) में बाहम पैवस्ता और हर सूरत से मुवाफ़िक़ और मुत्तफ़िक़ हैं और इलावा इस बात के अपने ही दिल में बड़ी तश्फ़ी और आराम पाया है। इस तजुर्बा और ख़्याल से कि जो हम गुनाहगार, बदख़्वाह और अस्हाब बग़ावत व क़हर थे तो इस बादशाह करीम व मेहरबान ने हमें रब तआला के साथ मिलाया। जैसा पोलुस रसूल ने कुलस्सियों के नाम ख़त में लिखा है, “उसी ने हमको तारीकी के क़ब्ज़े से छुड़ा कर अपने अज़ीज़ बेटे की बादशाही में दाख़िल किया।” (कुलस्सियों 1:13)

पर तो भी कोई शख़्स ना समझे कि ख़ुदावन्द मसीह ने सिर्फ तहज़ीब क़ुलूब और अपनी रूह की क़ुदरत वाली तासीरों से और अपने कलाम के इश्तिहार से अपनी बादशाहान शान को फ़ाश और ज़ाहिर किया, बल्कि ये भी मालूम कर ले कि उस आली मर्तबा तक उस का जलाल लहलहाया कि इस जहान-ए-फ़ानी के रंगा-रंग अहवालों और वाक़ियात को उस तरीक़े पर तदबीर और इन्तिज़ाम करता है। जिससे इज्माअ क़ुद्दूसयान की तरक़्क़ी और बेहतरी हो और सब औक़ात और ज़मानों के सरों को आप ही में मुन्तहा करता है। यानी आप अपने दूसरे ज़हूर के वक़्त जामेंअ औक़ात और जामेअ वाक़ियात आलम इस क़द्र होगा कि उन के सब मुतालिब का अव्वल और अस्ल मतलब आप ही निकलेगा। चुनान्चे पोलुस रसूल ने इफ़सस की कलीसिया के नाम ख़त में साफ़ बताया कि, “ताकि ज़मानों के पूरे होने का ऐसा इन्तिज़ाम हो कि मसीह में सब चीज़ों का मजमूआ हो जाए। ख़्वाह आस्मान की हों ख़्वाह ज़मीन की।” (इफ़िसियों 1:10) जिस आयत पर और इस की मानिंद और आयात पर ग़ौर कर के कोई मुंसिफ़ हक़ीक़त ख़्वाह और ख़ुश तमीज़ कुछ जाये तनाक़ुज़ इस क़ौल से ना निकाले जो ख़ुदावन्द मसीह ने ख़ुद फ़रमाया कि, “मेरी बादशाही इस दुनिया की नहीं।” (युहन्ना 18:36) क्योंकि इसी वक़्त और इसी जगह पर रूमी हाकिम के रूबरू ये दूसरा क़ौल भी फ़रमाया “मैं बादशाह हूँ, जो कोई हक़्क़ानी है मेरी आवाज़ सुनता है।” (युहन्ना 18:37) इन आयतों को पढ़ कर समझ लीजीए कि आप ही ने तनाक़ुज़ की हर सूरत को रफ़अ़-दफ़अ़ किया। क्योंकि आप ही ने आँजहानी और ईनजहानी बादशाहतों का फ़र्क़ साफ़ मुबय्यन और फ़ैसला किया जिससे मालूम और साबित हो कि कौन और कैसी बादशाहत का मुद्दई और मुक़र्रर और कौन और कैसी का मुन्किर व मानेअ है। मुन्कर तो उसी का है जिसके बाब में फ़रमाया, “अगर मेरी बादशाही दुनिया की होती तो मेरे ख़ादिम लड़ते ताकि मैं यहूदीयों के हवाले ना किया जाता।” (युहन्ना 18:36) जिससे साफ़ इशारा (मुकाशफ़ा 11:15) में मिलता है, “और जब सातवें फ़रिश्ते ने नर्सिंगा फूँका तो आस्मान पर बड़ी आवाज़ें इस मज़्मून की पैदा हुईं कि दुनिया की बादशाही हमारे ख़ुदावन्द और उस के मसीह की हो गई और वो अबद-उल-आबाद बादशाही करेगा।” और मक़र और मक़ब्ल इसी का है जिसकी ये अस्ल ख़ासीयत और दावा बताया जाता है, “जो कोई हक़्क़ानी है मेरी आवाज़ सुनता है।” और फिर वही बादशाहत मसीही क्या ही ख़ूब बयान होती (मुकाशफ़ा 18:14) में “और वो दस सींग जो तूने देखे दस बादशाह हैं। वो बर्रे से लड़ेंगे और बर्रा उन पर ग़ालिब आएगा क्योंकि वो ख़ुदावन्दों का ख़ुदावन्द और बादशाहों का बादशाह है और जो बुलाए हुए और बर्गुज़ीदा और वफ़ादार उस के साथ हैं वो भी ग़ालिब आएँगे।” (मुकाशफ़ा 17:12-14)

साहिबो इस सलामत बख़्श हक़ीक़त को ज़ाए ना करो कि वो कुतुब अरबअ माअरूफ़ जो एन कलाम-ए-ख़ुदा हैं यानी तौरेत, ज़बूर, अम्बिया और इन्जील। इन शख्सों के लिए ग़ैर मफ़्हूम और सरासर मख़्तूम और मह्जूब हैं जो ख़ुदावन्द मसीह की नबुव्वत के क़ाइल तो हैं, पर उस की कहानत जावेद और बादशाहत मुदाम के राज़ से कि ये दोनों उस की कलिमियत अज़ली और इब्नीयत ईलाही पर मौक़ूफ़ हैं, हर सूरत से नावाक़िफ़ और जाहिल और बिला-तजुर्बा रहते हैं। जाये ताज्जुब नहीं कि ऐसे जाहिलों के लिए हज़रत मूसा की तौरेत मअ़मात की मानिंद है जो क़ाबिल इन्हिलाल नहीं और ज़बूरों की वो तफ़्सीर इल्हामी जो अम्बिया और इन्जील में पढ़ी जाती है, मह्ज़ वाहीयात और अस्हाब तास्सुब के ख़ाली तसव्वुरात हैं। हाँ ताज्जुब की बात नहीं कि इस मुबारक को बादशाह आलमीन और अनस व मलाइक का मुंसिफ़ और मुहतसिब ना जान कर उस के कलाम को रद्द और मतरूक और मंसूख़ बताते हैं और उस के हुक्मों को नामंज़ूर और मुनक़तेअ करना आसान बात और बेखटके जानते हैं और बड़ी ला-परवाई और बे-ख़ौफ़ी से ख़ुदा तआला के अहदो मीसाक़ व क़दीमी से बैरून रहने से ख़ूब राज़ी हैं। यानी ये ख़ामख़याल करते हैं कि इस की सिफ़ात जमाली को यानी हसन और रहमत और फ़ज़्ल व मुहब्बत को हीच जान कर आक़िबत में उस की सिफ़ात जलाली को यानी उस के क़हर और रास्ती और पाकी और अदल व इन्साफ़ के ज़हूर को बर्दाश्त कर सकेंगे और अपने बर्गुज़ीदा नबी की वकालत में पनाह पकड़ कर ख़ुदावन्द मसीह के हिसाब और आतिशी इम्तिहान के उस बड़े दिन से अमन व अमान में रहेंगे। ख़ुदा चाहे कि वो अस्हाब इहानत मलाकी नबी की दिल तराश पेशगोई जे़ल ज़हन नशीन करें, ताकि ग़फ़लत और ज़लालत की नींद से बेदार हो कर ख़ुदा तआला की उस तदबीर क़दीम और अम्बिया के पेश नविश्ते शहादत को मन्ज़ूर करें और इताअत भी करें। यूं लिखा है, “ख़ुदावन्द जिसके तुम तालिब हो नागहाँ अपनी हैकल में आ मौजूद होगा। हाँ अह्द का रसूल जिसके तुम आर्ज़ूमंद हो आएगा रब्ब-उल-अफ़्वाज फ़रमाता है, पर उस के आने के दिन की किस में ताब है? और जब उस का ज़हूर होगा तो कौन खड़ा रह सकेगा? क्योंकि वो सुनार की आग और धोबी के साबून की मानिंद है।” (मलाकी 3:1,2)

बाब हश्तम

दर बयान आँ मज़ामीर कि बइख़्तसास तमाम बर मलकूत रब तआला व ख़ुदावन्द मसीह शहादत साफ़ व सरीह दर याफ्ताह मेशोद

دربیان آں مزامیر کہ باختصاص تمام بر ملکوت رب تعالیٰ و خداوند مسیح شہادت صاف و صریح د ر آنہا یافتہ مےشود

मज़ामीर गुज़श्ता से मसीह की बर्ख़ास्त अज़ मुर्दगान और बहिश्त में सऊद और ख़ुदा-ए-क़ादिर-ए-मुतलक़ के दस्त-रास्त पर तख़्तनशीनी साफ़ पेश-गोइयों से साबित ठहरी और बाअज़ उन (ज़बूरों में से मसलन ज़बूर 8 और 22 और 69) इस राज़ पर दाल हैं। जिसे अक़्ल-ए-इंसानी बावजूद येकि उसे अपनी हद और अहाते से बाहर और अपने मर्तबा से बाला जानता है, तो भी आजिज़ी और ख़ाकसारी से उसे क़ुबूल कर के फ़िल-हक़ीक़त मुतजल्ली हाँ बल्कि अपनी क़ाबिलीयत के दर्जे कमाल तक सर्फ़राज़ हो जाती है। यानी इस अम्र पर कि वो जो ग़म-ज़दा और हक़ीर और बेईमानों की दानिस्त में नाचार मलऊन था, सो बादशाह आलमीन भी और अक़सा-ए-ज़मीन तक माअबूदियत का मुस्तहिक़ और तमाम जहान के बादशाहों का पेशवा और फ़रमांरवा है। इस ताअलीम नब्वी और लातर्दीद की बाबत (ज़बूर 22:27-28) में (मुकाशफ़ा 5:1) के साथ ऐन मुताबिक़त और मुवाफ़िक़त है। आन्क़द्र कि मुक़द्दस युहन्ना की शहादत मज़्कूर इस (ज़बूर 22) की किलीद क़ुफ़ुल कुशा है और ये कलीद इस ज़बूर की और इस की मानिंद हज़ार-हा मुश्किलात की रफ़अ़ और हल करने वाली है। और इस से हम बख़ूबी नमूना ले सकते हैं, इस बात का कि कुतुब साबिक़ ईलाही की जो तफ़्सीर और तशरीह इन्जील शरीफ़ में मिलती है, वो मुख़्तलिफ़ फ़ज़ाइल और बराहीन रखती है। पर उम्दा और फ़ाज़िल तर उन फ़ज़ाइल से और क़वीतर उन बराहीन से ये है कि वो तशरीह इस तरह की है कि इस में हज़ार-हा क़ुफ़्लों के खोलने के लिए एक किलीद है और हज़ार-हा गुत्थियों और अकिदों के हल करने के लिए एक अंगुश्त और कलाम-ए-ख़ुदा के साइरिन (साइर, सैर करने वाला) के वास्ते एक क़ुतबनुमा है यानी वो मुरातिब सलासा जो ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ मन्सूब हैं।

(अव्वल) कहानत (दोम) बादशाहत (सोम) नबुव्वत

और अगर कोई शख़्स पूछे कि कहानत से किया मुराद है, तो वो ज़रा भी तजस्सुस कर के मालूम कर सकता है कि कहानत से मुराद है वो मर्तबा ख़ुदावन्द मसीह का जिसके बमूजब वो साहिबे इमामत और साहिबे शफ़ाअत और साहिबे वकालत है। और इत्वार व अक़्साम वकालत से ख़ुसूसुन वो सूरत वकालत की इस जगह माअरूफ़ है जिसका ये मुक़्तज़ी था कि वो अपनी जान मुबारक को इन्सान के एवज़ गुज़राने और अपने आपको सदक़ा कर के ता अबद-उल-आबाद सब मोमिनीन के लिए सलामत बख़्श हो जाए। और यक़ीन है अक़्ल और नक़्ल और रोज़मर्रा की तजुर्बाकारी से कि जब ख़ुदावन्द मसीह के इन तीन मर्तबों में उस की इन्सानियत और उलूहियत के ख़वास दोनों दर्ज होते हैं और उन की अमलियत और वफ़ा-ए-अहूद में मददगार हैं तो इन दोनों ज़ातों की इस वाबस्तगी और मिलाप में इतनी वुसअत और दौलत वसीलात की है कि इन्सान की हर हाजत रुहानी की मराफ़अ़त हासिल होती है और उस की उम्र ईनजहानी की हर हालत और सूरत की पूरी मुनासबत पाई जाती है, ता आंकि रब तआला की हिक्मत बेपायाँ और मुहब्बत बे बयान कश्फ़ और नमूदार हो जाए।

अब यहां कुछ जवाब और तर्दीद तफ़्सील-वार चाहीए उस क़यास और दावा बे-हया की जो रहमत उल्लाह साहब ने पेश किया है कि वो दोनों ज़बूर मज़्कूर यानी (ज़बूर 45 और 72) ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ किसी वजह से हवाले करने के लायक़ नहीं हैं, बल्कि मुहम्मदﷺ की तरफ़ बा-इस्तहक़ाक तमाम उनके हवाले करना चाहीए। मौलवी साहब मज़्कूर ने इस उन्नीसवीं सदी में औक़ात सलफ़ के मुअल्लिमों की सब तफ़सीलात और तशरीहात को रद्द करके उन की हक़ीक़ी तफ़्सीर और तारीफ़ निकाली है जिससे ये ग़ैर वाजिबी नतीजा अव्वल हासिल होता है कि यहूद मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) का इज्माअ़ शरीफ़ जिसने इन मज़ामीर को ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ मन्सूब व महमूल किया, बिल्कुल उन के हक़ीक़ी मअनी के फ़हम व तमीज़ से ज़ाल और ज़ाए हुआ और मह्ज़ ग़लत के ज़ोअम में फंस गया। हर-चंद कि वो पैंतालीसवां (45) ज़बूर ख़ुद आप ही हर आक़िल और पढ़ने वाले पर साफ़ शाहिद है कि उस का मिस्दाक़ एक ऐसे शख़्स के साथ मुक़य्यद है जो इलोहीम यानी ख़ुदा तआला के नाम से मुख़ातब होने के क़ाबिल है और मुख़ातब होता भी है और जो दाऊद बादशाह का बेटा भी है। बग़ैर तावील ज़ाहिरी और सरीह के कोई मुफ़स्सिर इस तारीफ़ और बयान से जिससे वो शख़्स जो इस ज़बूर का मिस्दाक़ है बाल-इख़्तसास मुतअय्यन और मुतमय्यज़ होता बच नहीं सकता।

और दूसरा ग़ैर वाजिबी नतीजा ये निकला कि ख़ुदावन्द मसीह ख़ुद और-आवर उस के रसूलों ने जो हज़रत दाऊद की पेशगोइयों का दरबाब सल्तनत सिर्फ़ मसीह को ऐन मिस्दाक़ और मुराद जाना, सो वो भी अपने आपको और अपने ताबईन को क़सदन या सहु-अन धोका देते थे। मसलन जिस दिन ख़ुदावन्द मसीह कोहे-ज़ैतून पर चढ़ा और अवाम यहूद का बड़ा हुजूम उस के साथ-साथ चला जाता था तो इस यक़ीन से कि यही हमारा पेश गुफ़्ता और मौऊद दाऊदी बादशाह है, उन के दिल इस क़द्र जोश व निशात से निहाल हो गए कि नागहां आगे और पीछे जाने वालों के मुँह से एक आवाज़ ज़बान ज़द हो गई कि, “मुबारक है हमारे बाप दाऊद की बादशाही जो आ रही है। आलम-ए-बाला पर होशाना।” (मरक़ुस 11:10) और इस हम्द और शुक्र की आवाज़ की जब बाअज़ हासिद और कीना-वर फ़रीसीयों ने मुमानिअत की और उन चिल्लाने वालों को डाँट कर उन का जोश दबाना चाहते थे तो ख़ुदावन्द मसीह ने ताकीद और तहदीद से उन हासिदों को सख़्त सरज़निश कर के कहा, “मैं तुमसे कहता हूँ कि अगर ये चुप रहें तो पत्थर चिल्ला उठेंगे।” (लूक़ा 19:40)पस रहमत-उल्लाह साहब के फ़ख़्र आमेज़ दावे के बमूजब ख़ल्क़ यहूद ने बेमाअनी और लाहासिल शुक्र की आवाज़ निकाली और मुबारक मसीह ने इन हासिदों को मुफ़्त और बेइंसाफ़ी से डाँटा और कुल इज्माअ मसीहयान ने जो इब्तिदा इन्जील से लेकर आज तक ख़ुदावन्द और उस के रसूल की गवाही मन्ज़ूर की और जीते मरते उस उम्मीद और यक़ीन क़वी पर अपने ईमान को मबनी किया, सो (क्या) अपने तास्सुब और जहालत और ज़लालत के सबब इस एतिक़ाद में जीते रहे और वफ़ात पा गए? और इस अम्र में कोई शख़्स ना समझे कि हमारी हुज्जत मर्दूद हो गई और बातिल ठहरी। इस वजह से कि ख़ुदावन्द मसीह ग़म-ज़दा और हक़ीर को अक्सर यहूद नहीं मानते, मगर सिर्फ ख़ुदावन्द मसीह आलमगीर और सल्तनत पज़ीर और फ़त्हयाब को। अज़बस कि यहूद और मसीही दोनों कमाल मुत्तफ़िक़-उल-राए हैं इस अम्र में कि इन दोनों ज़बूरों का मिस्दाक़ सिवाए मसीह के कोई दूसरा नहीं है। अल-हासिल कुछ डरने का बाइस नहीं कि कोई हक़ीक़त ख़्वाह और मोअतदल मिज़ाज और साहिबे तमीज़ इस वज़न की इल्हामी शहादत पर ग़ौर कर के हरगिज़ ऐसा दावा बर्दाश्त कर सके।

अब ज़रा बेतास्सुबी और इन्साफ़ की राह से हम ग़ौर करें कि कौन-कौन सी अलामतों से मालूम और साबित है कि ये दोनों ज़बूर मज़्कूर और उनकी मानिंद और ज़बूर दाऊदी बकमाल वाजबीयत बल्कि बह लज़ूमियत तमाम ख़ुदावन्द की तरफ़ आइद और सादिक़ आते हैं और सिर्फ इसी साहब जलाल में इन शराइत और तअयिनात का जो उनमें माअरूफ़ हैं, इज्तिमा मिल सकता है। अगर सिर्फ तलवारों और तीर कमान और बाक़ी जंगी औज़ारों का और अफ़्वाज और जहांगीरी और क़हर रेज़ी और क़ताल का ज़िक्र व बयान होता तो उन ज़बूरों को दारा या ख़ुसरो या सिकंदर-ए-आज़म याﷺ मुहम्मद की तरफ़ या किसी दूसरे सुल्तान आलम-अफ़रोज़ की तरफ़ हवाले करना मुम्किन, बल्कि माअक़ूल भी होता। लेकिन इन दो ज़बूरों के मुसन्निफ़ मुबारक ने इस क़द्र सराहतन और मुफ़स्सिलन गोया रूह इल्हाम की अंगश्त से ख़ुदावन्द मसीह और उस के ख़वासों को बयान किया और इस बयान को उस के वजूद और अहवालों के इतने-इतने तअयिनात से मुक़य्यद किया है कि जो शख़्स इस तस्वीर के क़याफ़ै पर लिहाज़ करता है, अगरचे नाबीना और ग़ाफ़िल भी होता है, मगर बमुशकिल मसीह की ऐन मुशाबहत और हम सूरती के पहचानने से बच सकता है।

ऐ साहिबो आप ग़ौर करोगे तो देखोगे कि इन मुनव्वर ज़बूरों में जो निशानीयां ख़ुदावन्द मसीह पर और इस जहान के आम पहलवानों और बादशाहों पर मुश्तर्क हैं, सो निहायत थोड़ी हैं। फिर जो अलामतें ख़ुदावन्द मसीह के साथ मख़्सूस और मुक़य्यद हैं आम भी हैं और ख़ास भी। पोलुस रसूल इब्रानियों के ख़त के पहले बाब में जब नक़लियात से ख़ुदावन्द मसीह की मंजिलत और मर्तबा साफ़ दिखाना चाहता है कि फ़रिश्तों से कितनी तफ़ज़ील और तर्जीह रखता है तो मअ़आवर नक़्ली (नक़्ल उतारना, किसी तहरीर को नक़्ल करना) दलीलों के (ज़बूर 45:8) आयत पेश करता और उस पर माअक़ूलन और वाजिबन ज़ोर और ताकीद करता है। अज़-बस कि ऐसी साफ़ व सरीह गवाही को जो नाख़ल्फ़ों और मुन्किरों बल्कि ग़नीमों की किताबों में मुन्दर्ज है। और यहूद अपने अम्बिया-ए-सलफ़ की तिलावत में रोज़ उसे ज़बान ज़द करके अपने नफ़्सों पर इल्ज़ाम लगाते हैं, रद्द और नामंज़ूर करना मह्ज़ बुतलान और बेहूदगी है।

पस उस ज़बूर का मुसन्निफ़ इस बादशाह के ख़िताब में जो अज़ शुरू ता आख़िर माअरूफ़ और महमूद है, बड़ी संजीदगी और उबूदीयत की राह से फ़रमाता है,“ऐ ख़ुदा ! तेरा तख़्त।” (ज़बूर 45:6) और यक़ीनन हर ज़बान शनास जो इब्रानी लुग़त से आश्ना है, नाचार हो कर इक़रार करेगा इस अम्र का कि ग़ैर अज़ तावील इब्रानी लुग़त से सही क़वाइद के बमूजब दूसरे मअनी इस आयत पर लगाने मुहाल हैं। सच तो ये है कि (ज़बूर 82:6) में इस जहान के सदर दीवानों और मुस्नद अदालत नशीनों वग़ैरह से मुख़ातब होकर रूहुल-क़ुद्दुस फ़रमाता है, “मैं ने कहा था कि तुम इलाह हो और तुम सब हक़-तआला के फ़र्ज़न्द हो।”पर इस जगह इस लक़ब का मजाज़ी होना और मुताल्लिक़ होना ना ज़वात (ज़ात की जमा) और अश्ख़ास से, बल्कि उन की ख़ास ख़िदमत और ख़िलाफ़त और जानशीनी से, यानी उस नशिस्त मुक़ाम से जो बाला-इस्तहकाक़ व इख़्तिसास ख़ुदा तआला का है। सो क़रीना (बहमी ताल्लुक़) क़ब्ल व ख़ल्फ़ से साफ़ व सरीह, बल्कि अज़हर-मिन-अश्शम्स है। पर (ज़बूर 45:7) में हर्फ़-ए-निदा का इस्तिमाल यानी “ऐ ख़ुदा” ग़ैर अल्लाह के ख़िताब में साफ़ कुफ़्र होगा और रूह इल्हाम के तरीक़े और इबारत से बईद। तो इस दलील क़तई से साबित है कि वह बादशाह जो इस ज़बूर का मिस्दाक़ है, ख़ुदा हक़ीक़ी के ख़िताब से मुशर्रफ़ और मुतआली है। पस जब मुख़ातब हक़ीक़ी ख़ुदा है तो वो मुख़ातब सिवाए हमारे ख़ुदावन्द मसीह के जो मुनज्जी अल-ख़ातबीन है, कोई दूसरा नहीं हो सकता।

यसअयाह नबी की एक मशहूर आयत इस अम्र की मवीय्यद और मुसद्दिक़ है कि वो बादशाह जो हज़रत दाऊद के तख़्त पर बैठने वाला और बऊज़ क़ताल अजनास और मुलूक को ज़ेर-ए-पा करने के सुलह व सलामत और अदल व इन्साफ़ की सल्तनत जारी करेगा “ऐल” यानी “एलोहीम” ख़ुदा होगा। और ज़बूर मज़्कूर को (यसअयाह 9:6) के साथ मुक़ाबला करने से बहुत रोशनी और ख़ातिर जमुई पैदा होती है कि, “इसलिए हमारे लिए एक लड़का तव्वुलुद हुआ और हमको एक बेटा बख़्शा गया और सल्तनत उस के कंधे पर होगी और उस का नाम अजीब मुशीर ख़ुदा-ए-क़ादिर अबदीयत का बाप सलामती का शाहज़ादा होगा। उस की सल्तनत के इक़बाल और सलामती की कुछ इंतिहा ना होगी। वो दाऊद के तख़्त और उस की ममल्कत पर आज से अबद तक हुक्मरान रहेगा और अदालत और सदाक़त से उसे क़याम बख़्शेगा रब्ब-उल-अफ़वाज की गय्युरी ये करेगी।” अब इस में तीन बातें फ़िलहाल गौर व ताम्मुल के लायक़ हैं।

अव़्वल : ये कि (ज़बूर 45) में और इस आयत में “ऐल” या “ईलोहीम” यानी ख़ुदा का नाम उस बादशाह पर सादिक़ आता है जो नस्ल दाऊद से तव्वुलुद हो कर उस का ख़लीफ़ा और क़ाइम मक़ाम ता-अबद-उल-आबाद होगा।

दोम : ये कि लफ़्ज़ “क़ादिर” या “जब्बार” (גִּבֹּ֑ור) उस बादशाह आलीक़द्र या मुतजल्ली पर महमूल है, हर दो मुक़ामों में, यानी (ज़बूर 45:4) में और यसअयाह नबी की आयत माअरूफ़ में।

सोम : यह कि हर हालीका दोनों मवाज़ेअ में “जब्बार” का ख़िताब इब्रानी इबारत में उस बादशाह अबदी के साथ मुल्हिक़ है तो भी हर दो मुक़ामों के मज़्मून का मदार कलाम वो सुलह सलामत है, जो उस की सल्तनत के ज़माने में और इस के वसीले से मुरव्वज और मुन्तशिर होगी।

और ख़ुसूसुन सोच व ग़ौर के लायक़ है कि (ज़बूर 45 और 72) में सल्तनत माअरूफ़ की इसी ख़ासीयत पर बहुत सी सूरतों और इबारतों में ताकीद और ताईद की जाती है, मसलन (ज़बूर 72:7) का नविश्ता है, “उस के अय्याम में सादिक़ बरूमंद होंगे और जब तक चांद क़ायम है ख़ूब अमन रहेगा।” अज़बस कि इब्रानी इबारत इस्तिलाही “शालोम” से मुराद सिर्फ सलामती नहीं, बल्कि सुलह व सलामती दोनों का मिलाप है।

हासिल कलाम : ये है कि बादशाह माअरूफ़ की वो तशख़ीस और तख़्सीस कि वो “जब्बार” है और तल्वार से कमर-बस्ता और मुरक्कब सवार और दस्त रास्त से दहशतनाक क़ुदरतें दिखाता है और अपने नाफ़िज़ तीरों से मुख़ालिफ़ों के क़ुलूब तक छेदता है, मुस्तलज़्म और मुस्तदल नहीं। ऐसी बादशाहत पर जो ख़ूँरेज़ी और जोरू जफ़ा और लश्कर शिकनी और कशुरगीरी पर मरबूत है, बल्कि बरअक्स उस के हर दो मज़ामीर मज़्कूर का मज़्मून आइद है, ऐसे बादशाह के जलूस और रौनक पर जो किब्रीयत और जबरूत में सबसे बेशतर और मुक़द्दम हो कर हर-चंद कि सब वसाइत (वास्ता की जमा, ताल्लुक़ात) और वसाइल जंग से ताकमाल आरास्ता हो और ज़ायदाज़ हद्दो अंदाज़ा साहब अफ़्वाज व ख़ज़ाइन होता हम ये बेशतर और अपनी शान सल्तनत और जलाल और फ़ज़्ल ईलाही के लायक़-तर जानता कि ज़ुल्म व सितम व दस्त दराज़ी को मकरूह जान कर सुलह और मेल मिलाप व करम व रहम व अदल व इन्साफ़ व महरो ख़ैर ख़्वाही की मज़्बूत बुनियादों पर अपनी ममलकत को मबनी करे ताकि दूर व क़रीब की मुख़्तलिफ़ अक़्वाम इस बादशाह अज़ीम के फ़ज़ाइल की ख़बर सुनकर ख़ुद इख़्तियारी क़ुर्बानीयों की राह से उस की इताअत क़ुबूल करें और वो उन्हें अपनी मुल्कगीरी और रिआयत और सियासत रियासत से मामूर करे और इस के बाक़ी सब मुनाफ़ा सआदत और रौनक और अमन व अमान और फ़वाइद और बरकतों में शामिल करे।

इलावा इस के अगर आप गौर व तामिल से इन दो मज़ामीर बाला मज़्कूर की सैर करेंगे तो साफ़ दलाईल से यक़ीन होगा कि वो तल्वार जिससे कमर-बस्ता हो कर वो बादशाह फ़ीरोज़मंद और दुश्मनों पर फ़त्हयाब बताया जाता है, सो आलम रूहानियत के मैदानों में चलाई जाती है, ना इस आलम-ए-फ़ानी के मैदानों में। बिलाशुब्हा वो तल्वार कलाम-ए-ख़ुदा है, चुनान्चे (ज़बूर 45:2) में नविश्ता है कि, “तेरे होंटों में लताफ़त भरी है।” और फिर (ज़बूर 45:4-5) में कौन साहिब-ए-इल्म व अक्ल जो ज़रा भी कुतुब समाविया के मग़ज़ और क़ल्ब (दिल) अंदरूनी से आश्ना हो इस क़द्र मुद्रिक और रोशन ज़मीर ना होगा कि बे-इख़्तियारी से मालूम करे कि लफ़्ज़ों का मतलब मजाज़ी है, हक़ीक़ी नहीं। “और सच्चाई और हुलुम और सदाक़त की ख़ातिर अपनी शान व शौक़त में इक़्बालमंदी से सवार हो और तेरा दहना हाथ तुझे मुहीब काम दिखाएगा। तेरे तीर तेज़ हैं, वो बादशाह के दुश्मनों के दिल में लगे हैं, उम्मतें तेरे सामने ज़ेर होती हैं।” जिस क़ौल पर मुत्तफ़िक़ है पोलुस रसूल का क़ौल (इफ़िसियों 6:17) में “रूह की तल्वार जो ख़ुदा का कलाम है ले लो।” और फिर (इब्रानियों 4:12) में “क्योंकि ख़ुदा का कलाम ज़िंदा और मोअस्सर और हर एक दो-धारी तल्वार से ज़्यादा तेज़ है और जान और रूह और बंद-बंद और गूदे को जुदा कर के गुज़र जाता है और दिल के ख़यालों और इरादों को जाँचता है।” और फिर “इसलिए कि हमारी लड़ाई के हथियार जिस्मानी नहीं बल्कि ख़ुदा के नज़्दीक क़लओं को ढा देने के क़ाबिल हैं।” (2 कुरंथियो 10:4)

इन सब आयतों का एक ही अस्ल मज़्मून और एक ही जान है। हज़रत दाऊद और हज़रत पोलुस एक ही बात एक ही रूह के इल्हाम से बोलते हैं। इन ज़बूरों में तल्वार ख़ूँख़ार से कुछ इशारा जैसा मुहम्मदﷺ और उस के ख़लीफों की तल्वार। और हज़ार अफ़्सोस है कि बाअज़ ईसाई पहलवानों और सुल्तानों ने भी अपने ख़ुदावन्द मुबारक के हक़ायक़ और मुबादी से ग़ाफ़िल व नादान हो कर इसी तरह की ख़ूँख़ार शमशीरज़नी औक़ात ख़ल्फ़ में की जो लअ़न-तअ़न का मूजिब और बाइस हो गए। बरअक्स उस के वो जो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और हक़-तआला का इब्ने मुबारक है, उस तेग़ कलाम से जिसमें हुलुम और अदल और सदाक़त के हक़ायक़ और मुबादी मुन्दर्ज हैं, क़ुलूब के ग़रूर को मज़रूब व मग़लूब करता है, ना ये कि ज़ुल्म से मज्बूर कर के दबाता है। पर कलाम शरीफ़ की नरम और शीरीं कशिशों से अह्द फ़ज़्ल आमेज़ के अहाते के अंदर पहुँचाता और मुहब्बत की गोद में खींचता है।

इन्जील और क़ुरआन की फ़साहत और बलाग़त की बाबत मौलवियान और मुज्तहिदिन मुहम्मदी बड़े मुबालग़े और ज़बान दराज़ी करते हैं। मगर इस तरह की हुज्जत से उज़्र करते हैं और ऐसे मुतालिब बह्स में इस अम्र कोताह को मसरूफ़ करना बातिल और लाहासिल जानते हैं। ऐसी मुफ़ाज़लत और मुबारदत हुकमा-ए-यूनान और शोअरा-ए-अरब और उलमा रूमी के लिए मुनासिब और बजा होगी, मगर हम इस क़िस्म के फ़ज़ाइल ईनजहानी जिनमें फ़ज़लाए फ़नून व उलूम बुत परस्तान निहायत माअरूफ़ और महमूद और आलीक़द्र हो सकते थे, इस आलम के महतज्जों के लिए छोड़ देते हैं। बमूजब इस क़ौल आली मज़्मून ख़ुदावन्द मसीह के कि, “तू मेरे पीछे चल और मुर्दों को अपने मुर्दे दफ़न करने दे।” (मत्ती 8:22) ना इसलिए हम ये फ़ज़ाइल छोड़ते हैं कि कुतुब सलफ़ व ख़ल्फ़ ईलाही में सहफ़ मूसा से लेकर इन्जील शरीफ़ के आख़िर तक कुछ बलाग़त व फ़साहत व जमाल व जलाल की कमी व कोताही है।

सैंकड़ों मुवाज़ेअ सहफ़ रसुल व अम्बिया से मसलन मज़ामीर मज़्कूर 45,72 को हम इस क़द्र मुक़व्वी और हसीन और फ़सीह और कलाम के सब फ़ज़ाइल और ख़ूबीयों से इस दर्जे कमाल तक आरास्ता जानते और बताते हैं कि अनक़रीब है कि बमुश्किल क़ुरआन मजीद की एक भी सूरत को उस के साथ मुक़ाबला होने के क़ाबिल जानते हैं। क़त-ए-नज़र अज़ दावा तफ़ज़ील और ताज़ीम के जिसे मौलवी साहिबों ने बड़ी लाफ़-ज़नी से निकाला है या तो इनाद और तास्सुब से और या अज़जहत आंका वो अस्ल इब्रानी और यूनानी ज़बानों से आगाह नहीं हैं। लेकिन ख़ुदा तआला ने अपने कलाम मजीद का सबूत ऐसे दलाईल और अलामतों पर मुन्हसिर नहीं छोड़ा जिनके इन्फ़िसाल और इम्तियाज़ करने के लिए एक ऐसा सालिस चाहीए था जो इब्रानी, अरबी, सुर्यानी, वग़ैरह ज़बानों से कामिल और पुख़्ता वाक़फ़ीयत रखता और इलावा उस के जो सर्फ व नहू व क़वाइद इल्म बलाग़त से ख़ूब आश्ना होता और जोश दीनी और तास्सुब की बू से ख़ाली होता, बल्कि अफ़्ज़ल और उम्दा सबूत और ताईद अपने कलाम की वो क़ुदरत ईलाही बताता है जिससे वो आतिश सोज़ां के मुवाफ़िक़ जिस्मानी शहवतों और नफ़्स-ए-अम्मारा वग़ैरह को भस्म करता और हथौड़े के मुवाफ़िक़ संग-दिलों को रेज़ा-रेज़ा करता और दो-धारी तल्वार के मुवाफ़िक़ तेज़ और ज़िंदा और जान और रूह की जाये तफ़ज़ील तक नाफ़िज़ और दिल की नीयतों और तसव्वुरों का मुमय्यज़ है। बमूजब इस क़ौल ख़ुदा बज़बान यर्मियाह नबी के, “क्या मेरा कलाम आग की मानिंद नहीं है? ख़ुदावन्द फ़रमाता है और हथौड़े की मानिंद जो चट्टान को चकना-चूर कर डालता है?” (यर्मियाह 23:29)

वही कलामे-हयात ईलाही के लाज़वाल तुख़्म के मुवाफ़िक़ पुरानी ख़ल्क़त की ज़बूनी और क़बाहत और ख़राबी को बेख़ व बिन से उखाड़ कर नई ख़ल्क़त और विलादत सानी का अस्ल बाइस और मूजिब और वसीला होता है और रअ़दो बर्क़ से ख़ौफ़नाक तर आवाज़ से ग़फ़लत की नींद तोड़ता और रुहानी ख़ुबस और फ़साद से भरी हुई क़ब्रों का दरवाज़ा खौलता और गुनाह के ज़हर मोहलिक से मक़्तूलों और मुर्दों का जिलाता है। जैसा ख़ुदावन्द मसीह ने आप फ़रमाया, “मैं तुमसे सच कहता हूँ कि वो वक़्त आता है बल्कि अभी है कि मुर्दे ख़ुदा के बेटे की आवाज़ सुनेंगे और जो सुनेंगे वो जिएँगे।” (युहन्ना 5:25) और वही कलाम क़ाज़ी साहिब-ए-इख़्तियार के मुवाफ़िक़ इस शख़्स पर जो क़ौल ख़ुदा को सुनकर पुनबा बगोश (कान में रूई डाले हुए, बेख़बर) और ग़ाफ़िल रहता है, बल्कि बाअज़ मुलायान लाहौरी के तौर पर मह्ज़ एतराज़ और ऐब चीनी और मज़हका और ख़यालात फ़ुहश की तहरीस के लिए आयात मुबारक का मज़्मून बिगाड़ता है और तावीलात किज़्ब से शहद से ज़हर बनाने के वास्ते आयात को नक़्ल करता है। अज़ाब का फ़त्वा मुंसिफ़ आज़म के हुज़ूर में साफ़ मुश्तहिर (ऐलान) करेगा जिस अम्र का शाहिद ख़ुद ख़ुदावन्द मसीह का क़ौल है, “अगर कोई मेरी बातें सुन कर उन पर अमल ना करे तो मैं उस को मुजरिम नहीं ठहराता। उस का एक मुजरिम ठहराने वाला है यानी जो कलाम मैंने किया है आख़िरी दिन वही उसे मुजरिम ठहराएगा।” (युहन्ना 4:47,48) जो चाहे सौ मिसालें इस तहरीस फ़ुहश की जिसका इशारतन ज़िक्र करने से भी हर नाफ़ाहश आदमी के दिल में नफ़रत आती है, उस क़ज़फ़ क़बाहत आमेज़ में पाए जिसे मौलवी लाहौरी ऐन आफ़्ताब सदाक़त यानी इब्ने ख़ुदा मुबारक पर लगाना चाहता है। उन मुक़द्दस औरतों के बाब में जो ख़ुदावन्द की सैर व सफ़र के वक़्त उस के नक़्श-ए-क़दम पर चल कर और उस का वाअज़ शरीफ़ सुन सुनकर उस की ख़िदमत करती थीं और उस के फ़ुक़्र वफ़ाक़ा की तख़फ़ीफ़ अपने वसाइल से किया करती थीं और फिर उस औरत की बाबत जिसने ख़ुदावन्द के सर पर और पैरों पर बेशक़ीमत इत्र को नज़र व न्याज़ की राह से उंडेला।

हासिल कलाम : ये है कि हम ख़ुदा तआला के क़ौल व कलाम के हतक इज़्ज़त के इल्ज़ाम से किस तरह बचेंगे, जो हम इस कलाम की नाफ़िज़ और दिल-सोज़ दिल-शिकन क़ुदरत को मह्ज़ इस दुनिया के हुकमा और फ़सहा की बलाग़त की तासीरों के साथ मुक़ाबला करेंगे और इस क़द्र अजीब तक़वियत और किब्रियाई और वज़न के अक़्वाल को ईनजहानी फुक़हा के ख़ार व ज़लील तराज़ू पर तौलेंगे। बिलाशुब्हा तासीर इस कलाम की जिसकी धमकीयां सुनकर शयातीन अपने-अपने मज़्लूमों से निकल भागे और समुंद्र का तमूज और तलातुम फ़ील-फ़ौर थम गया और ख़ामोश हो गया, लाचार आजिज़ इन्सान के अंदाज़े और मिक़दार पर आज़माईश और पैमाइश में नहीं आती। इस बात पर रसूलों और इन्जीलों की बाअज़ गवाहियाँ ग़ौर से सुनो, मसलन मत्ती की इन्जील में मर्क़ूम है, “और अपने वतन में आकर उन के इबादतखाने में उन को ऐसी ताअलीम देने लगा कि वो हैरान हो कर कहने लगे इस में ये हिक्मत और मोअजज़े कहाँ से आए?” (मत्ती 13:54) और फिर लिखा है :- “और कोई उस के जवाब में एक हर्फ़ ना कह सका और ना उस दिन से फिर किसी ने उस से सवाल करने की जुर्रत की।” (मत्ती 22:46) और फिर लूक़ा की इन्जील में यूं लिखा है, “और सब हैरान होकर आपस में कहने लगे कि ये कैसा कलाम है? क्योंकि वो इख़्तियार और क़ुदरत से नापाक रूहों को हुक्म देता है और वो निकल जाती हैं।” (लूक़ा 4:36) और फिर युहन्ना हबीब की इन्जील में क़लम-बंद है :- “प्यादों ने जवाब दिया कि इन्सान ने कभी ऐसा कलाम नहीं किया।” (युहन्ना 7:46) और उम्दा तश्बीह मसीही क़ौल के इस अजीब और बेक़ियास क़ुदरत की वो आतिश आस्मानी मालूम होती है जिसका बयान अव्वल सहीफ़ा सलातीन में है कि वो हज़रत एलियाह की क़ुर्बानी पर उतरी, जिससे वो भारी मुक़द्दमा ख़ुदा-ए-हक़ीक़ी और फ़ासिद व क़बीह माबूदों के दर्मियान फ़ैसला हुआ और रब तआला ने आस्मान और ज़मीन की मौजूदात के मुक़ाबिल गोया उन बुत परस्तों पर सख़्त इल्ज़ाम और फ़त्वा अज़ाब को इस आतिश के दुरूद से इश्तिहार कराया, क्योंकि नबी मुबारक ने इस हुज्जत के इन्फ़िसाल के लिए तजुर्बे की ये सूरत बताई थी “तुम अपने देवता से दुआ करना और मैं ख़ुदावन्द से दुआ करूँगा और वो ख़ुदा जो आग से जवाब दे वही खुदा ठहरे।” (2 सलातीन 18:24)) और नतीजा इस तजुर्बे का मशहूर है कि किस तरह “ख़ुदावन्द की आग नाज़िल हुई और उस ने उस सोख़्तनी क़ुर्बानी की लकड़ीयों और पत्थरों और मिट्टी समेत भस्म कर दिया। जब सब लोगों ने ये देखा तो मुँह के बल गिरे और कहने लगे ख़ुदावन्द वही ख़ुदा है ! ख़ुदावन्द वही ख़ुदा है !” (2 सलातीन 18:38,39) जो साहब तमीज़ इन ज़बूरों पर ज़रा भी ग़ौर से लिहाज़ करेगा, वो इस अम्र का क़ाइल होगा कि जिस बादशाही ईलाही को नबियों ने अपनी पेशगोइयों में ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ मन्सूब किया और उस के औसाफ़ व फ़ज़ाइल का बयान किया वही है जिसके उसूल व हक़ायक़ इन ज़बूरों में फ़ाश और नमूदार होते हैं यानी हुलुम और अदल और सदाक़त और सुलह और दाद ख़्वाहों और मज़्लूमों की पुश्तीबानी वग़ैरह। और ये भी शहर-ए-आलम और ज़बान ज़द हो गया कि जिस क़द्र तक रब तआला और ख़ुदावन्द मसीह की सल्तनत उस रुबा मस्कून में मुन्तशिर होती जाती है, उसी क़द्र ख़वास और फ़ज़ाइल क़वाइद मदाइन और क़वानीन मुलूक मजालिस मक़्बूल होते जाते हैं और उनकी तामील और तरक़्क़ी और क़ियाम ज़ाइद होते चले जाते हैं और ये क़वाइद और हक़ायक़ ख़िलाफ़ के सब क़ाईदों पर ग़ालिब होना चाहते हैं और हज़रत सुलेमान इब्ने दाऊद ने अपनी अम्साल के बाब 8 में इन्हीं उसूल और हक़ायक़ की तक़रीर की कि वो इस हिक्मत-ए-इलाही के ख़ास औसाफ़ हैं, बल्कि उसी के साथ मुल्हिक़ और मुक़य्यद हैं जो इब्तिदा से ख़ुदा के साथ मौजूद होती चली आई है और जो ख़ुदावन्द मसीह के आस्मानी अल्क़ाब में से है और अनक़रीब है कि वो हिक्मत उस की कलिमियत का लफ़्ज़ मुतरादिफ़ हो और उन्हें उसूल और फ़ज़ाइल की तश्बीह और तम्सील ज़ईफ़ हज़रत सुलेमान की सल्तनत में दरपेश आई, यानी उस की बड़ी मद्दाही और नामवरी थी। अज़ां जिहत कि उसने बुदून ख़ूँरेज़ी और क़ताल के पहलवानी की तारीफ़ हासिल की और क़ुदरत और किब्रीयत की तारीफ़ बग़ैर जोर व जफ़ा और आलमगीरी के और बग़ैर हिर्स और दस्त अंदाज़ी के और बदून गज़ा (जंग) और जिदाल के इन्साफ़ और ग़ैरत अल्लाह से मौसूफ़ और ममदूह हो गया।

पस इस लामिसाल सल्तनत की सीरत और सूरत हज़रत सुलेमान में देखो और सूरत हक़ीक़ी और बेदाग़ व बेऐब ख़ुदावन्द मसीह पर नज़र करो। इस बादशाह मुबारक और महमूद का झंडा और इल्म मुराद है (ज़बूर 60:4) में है, “जो तुझसे डरते हैं तू ने उन को एक झंडा दिया है ताकि वो हक़ की ख़ातिर बुलंद किया जाये।” चुनान्चे हज़रत यसअयाह ने नज़र नबुव्वत से इस झंडे को दूर से देखकर फ़रमाया, “और उस वक़्त यूं होगा कि लोग यस्सी की उस जड़ के तालिब होंगे जो लोगों के लिए एक निशान (झंडा) है और उस की आरामगाह जलाली होगी।” (यसअयाह 11:10) पर तो भी ऐ साहिबो ऐसा ना समझो कि मेरी तक़रीर उस दाअवे पर है कि हर मसीही हाकिम और बादशाह का हर हुक्म व अमल व क़ानून शरअ़ उन फ़ज़ाइल और हक़ायक़ बाला मौसूफ़ पर क़रार पाता है, जैसा पोलुस रसूल का मक़ूला है,, “इसलिए कि जो इस्राईल की औलाद हैं वो सब इस्राईली नहीं।” (रोमीयों 9:6)) वैसा ही क़ौल वाजिबी ये भी है कि वो सब मसीही नहीं जो मसीह का नाम लेते हैं, लेकिन इतना दाअवा हम लापरवाई से कर सकते हैं कि जिस क़द्र मसीह की तक़वियत बख़्श रूह और उस की मुहब्बत का जोश और उस के अहकाम की इताअत और उस की सूरत हक़ीक़ी और तिब्बी की मुशाबहत किसी के क़ल्ब (दिल) और मिज़ाज को क़ब्ज़ कर लेती है तो उसी क़द्र फ़ज़ाइल और ख़साइल माअरूफ़ उस के तमाम अफ़आल और आमाल में हाइल और आमिल हो जाते हैं। और अगर शायद मुल्क की रियासत और रिआयत उस के ज़िम्में हो तो उस की तमाम हुक्मरानी और मुल्कगीरी पर ख़ुदावन्द मसीह का नक़्श व तबाअ साफ़ व सरीह छपेगा। क्योंकि अगरचे मसीह की सल्तनत मज़्कूर क़ल्ब (दिल) नशीन और अंदरूनी हो पर उस के नताइज और अलामात रफ़्ता-रफ़्ता अंदरून से बैरून आते और उनसे क़वाइद मुल्की की इस्लाह और जो कुछ ज़िल्लत व क़बाहत हो, उस की तख़्फ़ीफ़ हो जाती है और ख़ुदग़रज़ी और ख़ुद-परस्ती पर क़ैद व लगाम दी जाती है और मुहताजों और मज़्लूमों और क़ैदीयों पर तरस खाना और बीमार पर्सी और ज़ेर बारियों की बार-बरदारी और बे लिखे-पढ़ों और जाहिलों को दर्स देना और गुमराहों को राह रस्त की हिदायत और ग़मगींनों को दिलासा देना और मातम ज़दों की हम्दर्दी और तमाम ख़ल्क़-उल्लाह बल्कि अपने ग़नीमों और बदख़्वाहों के हक़ में ख़ैर-ख़्वाह होना, लअ़न-तअन करने वालों को बरकत देना और जिनकी रविश और रफ़्तार ज़बून व अबतर हो उन की इस्लाह और बेहतरी के लिए मेहनत मशक़्क़त करने पर मुस्तइद होना, बादशाहत मसीही के ये और इनकी मानिंद और औसाफ़ सहफ़ अम्बिया में माअरूफ़ हैं। मसलन यसअयाह नबी बाब 32में ये ख़वास और हवासिल सल्तनत क्या ही दिल तराश और शीरीं इबारतों में मुतसव्वुर होते हैं।

फिर जो हम इन्जील शरीफ़ की रिवायतों की तरफ़ मुतवज्जा हो कर मुलाहिज़ा करें तो तताबुक़ सलफ़ व ख़ल्फ़ यानी साबिक़ की पेशीनगोइयों का तताबुक़ ख़ुद ख़ुदावन्द मसीह और उस के हवारियों के वाक़ियात के साथ साफ़ मालूम और ज़ाहिर होता है और जिस बात की शबिया और साया को अम्बिया और मज़ामीर दाऊदी में देखकर हम ख़ुश हो गए थे। उस की हक़ीक़त बिला साया व हजाब व तश्बीह इन्जील में नमूदार हो जाती है और हर साहिब-ए-इंसाफ़ पर बिलाशुब्हा रोशन है कि जिस तरह ख़ुदावन्द मसीह की एक ही रूह इल्हाम से वो पेशख़बरीयाँ एक सूरत और एक-रंग निकलीं, इसी तरह मौरिद और मिस्दाक़ इन पेशख़बरियों का एक ही बादशाह मुतजल्ली और मितआली यानी ख़ुदावन्द मसीह है और उस की बादशाहत के ख़वास माअरूफ़। जैसा आप ख़ुदावन्द की कुल गुफ़्तार और रसूलों के कुल वाअज़ और अफ़्आल और अहकाम में ज़ाहिर हुए, वैसा ही उस के इज्माअ़ आम्मा के इन रिवाजों रस्मों में और कलीसिया-ए-जामेअ की कुल तदबीर व रिआयत में जो इब्तिदा में मुरव्वज और मुतदाविल हो गई और नव-मुरीदों से लेकर असाकीफ़ तक ख़ल्क़ मसीही की तबईयतों और मिज़ाजों में सल्तनत ख़ुदा की ऐन कैफ़ीयत और ख़ास तरीक़ा गोया हज़ार गवाहों की एक ज़बान से मुबय्यन और मंशूर हो गया और अंजाम व हासिल उन फ़ज़ाइल व ख़साइल का सिवाए सुलह और आराम के कौन दूसरा मुम्किन था? बमूजब (ज़बूर 72:7) में है कि, “उस के अय्याम में सादिक़ बरूमंद होंगे और जब तक चांद क़ायम है ख़ूब अमन रहेगा।” और मुसद्दिक़ उस क़ौल रूह ख़ुदा बज़बान (यसअयाह 32:17) में मज़्कूर है :-

“और सदाक़त का अंजाम सुलह होगा और सदाक़त का फल अबदी आराम व इत्मीनान होगा।” और अनक़रीब है कि अम्साल और तसावीर जो कुतुब साबिक़ा समाविया में नज़र आती हैं जिनमें मसीह “मुशारु” इलयहा है, सब के सब इसी मतलब और मज़्मून में मिलती हैं यानी हुस्न व जमाल और मलामत व तहमिल और सैराबी व ज़र ख़ेज़ी और फ़र्हत व निशात और शीरीनी और नज़ाकत और ख़ुलूस व आज़ादगी और इत्मीनान व ख़ातिर जमुई और हिदायत और तन्वीर और मानिंद उनकी हज़ार-हा हसनात और बरकात का वाअदा मोमिनीन को हासिल होता है। जब हक़ीक़त-ए-हाल यूं है तो कौन साहब सुख़न-संज और अम्साल (मिसाल की जमा) गंज और माक़ूल फ़हम ये ख़ामख़याल रखने की जुर्रत करेगा कि इन सब तमासील और तशाबहु (मुशाबहत) से ख़ूँरेज़ी और जंग ख़ेज़ी और मज़्लूमों की आह और चीख़ मारना और हुजूम वेलग़ार और मुल्कों की तख़रीब और शहरों का इस्तीसाल ज़रा भी ख़ुश इत्तिफ़ाक़ी दिखाते हैं। ऐ साहिबो ! मैं लापरवाई से हर शख़्स जो बेतास्सुब और तजुर्बाकार हो कर अज़्मिना क़दीम व अख़ीर के सब रावियों और मोअर्रिखों से आश्ना और वाक़िफ़ हो, इस अम्र का गवाह कर लेता हूँ कि ममालिक ईनजहानी में से एक भी सल्तनत ना हुई और हरगिज़ ना होगी जिस पर ये मिसालें वाजिबन आइद और सादिक़ आ सकें। सिर्फ एक बादशाह में और उस की सल्तनत के वाक़ियात और हक़ायक़ में ये सब मिसालें मुजतमा हो कर अपनी जज़ा व जवाब पाती हैं, सिर्फ ख़ुदावन्द मसीह ही में और उस सल्तनत ख़ुदा में जिसे उस ने इस दुनिया में जारी करना अपने ज़िम्में लिया था, ये सब पेश-ख़बरीयाँ वक़ूअ और ज़हूर में आती हैं। फिर ज़रा सोच व ग़ोर करने से साफ़ मालूम होगा कि क्या सबब है इस बात का कि दश्त के बाशिंदे और ख़ुसूसुन अरब और हब्शी मअ तरसीस वालों के अक़्वाम और क़बाइल के ख़ुद इस बादशाह के ताबईन और पेशकश पहुंचाने वालों में शुमार किए जातें हैं।

पहले इस अम्र की याद और ज़िक्र मुफ़ीद है जो (2 तवारीख़ 9:14,28) से साफ़ मालूम और साबित है कि उन्हें मुल्कों और क़ौमों में से मुलूक और सलातीन हज़रत सुलेमान के हुज़ूर में पेशकश और नज़र व नियाज़ ले आए और बयानात बाला से रोशन हुआ कि मुराद और मिस्दाक़ इन ज़बूरों का अज़रूए मिजाज़ी ना बतौर हक़ीक़ी, हज़रत सुलेमान है। चुनान्चे इस हज़रत ने अपनी उम्र के ख़ुसूसुन तीन उमूर और वाक़ियात में ये फ़ज़ीलत पाई कि सल्तनत मसीही की पेश-नुमाई करे।

अव्वलन : इस में कि शाह सुलह व सलामत होना उस का ख़ास ख़िताब इल्हाम से बताया गया। गोया मुरातिब अम्बिया में ये मर्तबा इसी का था कि मसीह की इस मिसलियत में मुक़द्दम हो जाए।

दोम : ये कि अपने ज़माने के सब सलातीन से उस हज़रत ने हिक्मत और ख़िरदमंदी और तेज़ फ़हमी की सबक़त उठाई।

सोम : कि उसने ऐसी इबादत-गाह तामीर करने की इजाज़त पाई जो कुल ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़ुदा-परस्ती का क़ुतुब और मर्कज़ हो जाये।

बावजूद ये कि ये रौनक और ज़ीनत बेमिसाल उस के बाप दाऊद से ममनू थी और ज़करीयाह नबी के मुवाफ़िक़ राज़ व रम्ज़ के तौर पर ख़ुदावन्द मसीह पर सादिक़ आती है, “और उस से कह कि रब्ब-उल-अफ़वाज यूं फ़रमाता है कि देख वो शख़्स जिसका नाम शाख़ है उस के ज़ेर-ए-साया ख़ुशहाली होगी और वो ख़ुदावन्द की हैकल को तामीर करेगा। हाँ वही ख़ुदावन्द की हैकल को बनाएगा और वो साहिबे शौकत होगा और तख़्त नशीन हो कर हुकूमत करेगा और उस के साथ काहिन भी तख़्त नशीन होगा और दोनों में सुलह सलामती की मश्वरत होगी।” (ज़करीयाह 6:12,13)

हासिल कलाम : जब हज़रत सुलेमान कम से कम अपनी उम्र व सल्तनत की तीन ख़सुसीआत में ख़ुदावन्द मसीह मुबारक की मशहूर तश्बीह और तम्सील ठहरे, तो ये वाजिबी और हक़ था कि इन क़ौमों और कबीलों का जो ना जबरन बल्कि तूअन उस के मुतीअ हो गए, ख़ास और साफ़ ज़िक्र दर्मियान में आए।

इस अम्र में दूसरी बात सोच व ग़ौर के लायक़ ये है कि बादशाह माअरूफ़ के मताबईन और इन्क़ियाद करने वालों का बयान अरबों और तुर्कों और मुगलों से मख़्सूस और मुक़य्यद इन ज़बूरों में जानना अज़ जिहत आंका इन मुल्कों में मुहम्मद ﷺ के तव्वुलुद और उनके मज़्हब की बीख़ व बुनियाद थी, हर सूरत से बेजा और बेअस्ल है।है। अज़-बस कि हक़ीक़त-ए-हाल इस वजह पर है ख़्वाह ख़्याल व रोया में, ख़्वाह सच-मुच कोहे सीय्योन पर खड़ा हो कर चारों एतराफ़ की तरफ़ बार-बार मुँह फेर कर फुरात नदी को मशरिक़ की तरफ़ अपना हद-ए-नज़र करता और जुनूब की तरफ़ अहले अरब व हब्श और मग़रिब की तरफ़ तरसीस और बहर-ए-रुम और जज़ीरों को ताकि मालूम हो कि कितनी कुशादगी और इमतीदाद ता बर व बहर मसीह की हुक्मरानी की होगी। ख़ुसूसुन उन्हीं मुल्कों और हुक्मरानों की ख़ुद इख़्तियारी इताअत और ताबेअ फ़र्मानियों को बताता है जो बनी-इस्राईल के क़दीमी और मौरूसी ग़नीम और बद ख़्वाही में तल्ख़ व सरगर्म थे कि ये सब इस शाह सुलह व सलामत के जो हज़रत दाऊद के ख़ानदान से होगा, क़दम बोस और हल्क़ा-ब-गोश हो जाऐंगे। अगर शायद आप पूछें कि ये सब किस उम्मीद पर और कौन-कौन सी कशिशों से इस शाह सुलह की रईयत और रफ़ीक़ हो जाऐंगे तो इस सवाल का साफ़ व सही जवाब (ज़बूर 87) में मिलता है, “मैं रहब (मिस्र) और बाबुल का यूं ज़िक्र करूँगा कि वो मेरे जानने वालों में हैं। फिलस्तीन और सूर और कूश को देखो। ये वहां पैदा हुआ था। बल्कि सिय्योन के बारे में कहा जाएगा कि फ़ुलां-फ़ुलां आदमी उस में पैदा हुए और हक़-तआला ख़ुद उस को क़ियाम बख़्शेगा। ख़ुदावन्द क़ौमों के शुमार के वक़्त दर्ज करेगा कि ये शख़्स वहां पैदा हुआ था।” (ज़बूर 87:4-6)इस से ये राज़ हासिल और मालूम हुआ कि विलादत सानी की राह से यानी इस नव पैदाईश की राह से जो अंदरूनी और रुहानी तव्वुलुद का राज़ है, उन ख़ुद निसार रअ़तियों के नाम सीहोन शहर यानी इज्माअ आम्मा की फ़हरिस्त में दाख़िल किए जाऐंगे। वो जिनकी विलादत अव्वल का इत्तिफ़ाक़ मुख़्तलिफ़ और मुतअद्दिद मुल्कों और क़ौमों में हुआ था, उनका तव्वुलुद जदीद सीहोन में जो बैतुल-मुक़द्दस आस्मानी कहा जाता है, वाक़ेअ होगा। चुनान्चे युहन्ना रसूल ने अपनी इन्जील में फ़रमाया,“वो ना ख़ून से ना जिस्म की ख़्वाहिश से ना इन्सान के इरादे से बल्कि ख़ुदा से पैदा हुए।” (युहन्ना 1:13)

यहां भी मज़्मून की बड़ी ख़ुश इत्तिफ़ाक़ी उन दूसरे मज़्मूनों के साथ है यानी सीहोन के मौरूसी दुश्मनों और तशनह-ए-ख़ून कीनावरों की हालत उस विलादत सानी के सबब से इस क़द्र बदलेगी कि फ़िलिस्तीन और बाबुल और मिस्र व सूर अपनी अदावत तवील को मौक़ूफ़ कर के हुक़ूक़ फर्ज़न्दियत के ख़्वाहां होंगे। यही अपना ऐन फ़ख़्र और मनाफ़त जानेंगे कि तूमार नवीसी के वक़्त वो आप भी इज्माअ क़ुद्दूस की रौनक और सआदत से मुशर्रफ़ हो जाएं। यही वो क़ौम नव-मख़्लूक़ और मुक़द्दसों की जमाअत है, जिसका ये बयान (ज़बूर 102) में पाया जाता है “और क़ौमों को ख़ुदावन्द के नाम का, और ज़मीन के सब बादशाहों को तेरे जलाल का ख़ौफ़ होगा। क्योंकि ख़ुदावन्द ने सिय्योन को बनाया है। वो अपने जलाल में ज़ाहिर हुआ है। उस ने बेकसों की दुआ पर तवज्जा की और उन की दुआ को हक़ीर ना जाना। ये आइन्दा पुश्त के लिखा जाएगा और एक क़ौम पैदा होगी जो ख़ुदावन्द की सताइश करेगी।” (ज़बूर 102:15-18)

पस कुतुब पाक और समाविया की सदाक़त के निशानों और दलीलों से ये कमतरीन और हक़ीर तरीन नहीं कि ये और उनकी मानिंद दीगर अल्फ़ाज़ इस्तिलाही जो आली माअनों और निहां राज़ों के मुअर्रिफ़ हैं, मसलन नव-मख़्लूक़ और नव-मौलूद वग़ैरह, ज़बूर और अम्बिया और इन्जील में मज़्मून के वफ़क़ और तताबुक़ अजीब से दरपेश आती हैं और ये अम्र साबित और ज़ाहिर करते हैं कि जब इतने मुतफ़र्रिक़ ज़मानों में इन किताबों के इतने मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ थे तो ख़्याल वाजिबी बल्कि लाज़िम है कि वो सब एक ही रूहुल-क़ुद्दुस की हिदायत और इल्हाम से बोलते और लिखते थे। ये अम्र और भी ग़ौर व लिहाज़ के लायक़ है कि इस विलादत जदीद मज़्कूर का तुख़्म जब कलाम-ए-ख़ुदा है और रूह-ए-ख़ुदा की हुज़ूरी और तहरीक और क़ुदरत वाली तासीर के बग़ैर वो तुख़्म लाहासिल और मुर्दा और बे-ज़ोर व ज़ीस्त रहता है और उस उम्दा बीज का बोने वाला बमूजब इन्जील (मत्ती 13:37) आयत के “इब्न-ए-आदम” है यानी “ख़ुदावन्द यसूअ मसीह” है तो इन सब बातों पर जो सोच करे, बमुश्किल इस यक़ीन से चूक जाएगा कि वो नव-मोलूदों की पाक जमाअत जो ख़ुदा तआला का घर और ख़ानदान कहलाता है ना तो ख़ास यहूद, ना अंग्रेज़, ना तुर्क, ना मुग़ल हैं और ना बाप बेटे को वसीयत और तर्के की राह से उसे सपुर्द कर सकता है। आंतोर कि वो रुत्बा और आली दर्जा फर्ज़न्दियत का दुनियवी विरसा के मुवाफ़िक़ मौरूसी बन जाये, बल्कि ये अम्र ख़ुदावन्द मसीह के बादशाहाना इक़्तिदार और इख़्तियार पर मौक़ूफ़ है, वो जिसको चाहता है बल्कि हर मांगने वाले को इनआम बख़्शता है और इस काम में ख़ुदावन्द ने अपने घर और ख़ानदान का बड़ा इन्तज़ाम और बन्दोबस्त किया है, यानी अपने रसूलों के बहुत से ख़लीफों और अपने राज़ों के ख़ास वली ओहदों और कारख़ाना दारों को पुश्त दर पुश्त पसंदीदा और बर्गुज़ीदा कर के जिनको उसक़फ़ (पादरीयों का सरदार, लार्ड बिशप) और क़िस्सीस (मसीही दीन का आलिम) कहते हैं, उन्हीं के वसीले से नव-मोलूदों को अपने फ़र्ज़न्दों के शुमार में और घर की ख़िदमतों और मंसबों में दाख़िल कराता है। सिर्फ ये शर्त ज़रूरी है कि दिलोजान से तौबाकार हो कर और सेहत आदात व आमाल रूह ख़ुदा की तौफ़ीक़ से पा कर और दीन हक़ीक़ी की रिवायतों और इक़रारों में जो उमूर वाक़ई मुंदर्ज हैं, उन के मोअतरिफ़ और मक़र (इक़रारी) हो कर ग़ुस्ल इस्तिबाग़ यानी बपतिस्मा की पाक रस्म मन्ज़ूर करें।

ख़ुदा करे कि हिन्दुस्तान की तमाम ख़ल्क़ को मालूम और मफ़्हूम हो जाये कि अम्बिया और रसूलों और ख़ुदावन्द मसीह की राह में दाख़िल होना यानी मसीही होना ना अंग्रेज़ बन जाने की बात है, ना किरानी (नस्रानी) होने की जैसा दीन ख़ुदा के मुख़ालिफ़ों और मुत्तहिमों (तोहमत लगाने वाले) में ज़बां-ज़द है, मगर मुक़द्दसों की जमाअत बर्गुज़ीदा में शामिल होना है। जैसा रसूल इब्रानियों के ख़त (इब्रानियों 12:22,23) में फ़रमाता है। नुख़सत ज़ादों यानी नव-मख़्लूक़ों के शुमार में आना जिनकी हालत सआदत आमेज़ और दर्जा ख़ास ये है कि बजाय ख़ल्फ़ महरूम या ज़र-ख़रीद ग़ुलाम होने के जो हर-दम घर से महरूम होने के ख़ौफ़ व ख़तरे के सबब बेचैन और बेआराम रहते हैं, वो इस फर्ज़न्दियत तक सर्फ़राज़ हैं जिसकी बाबत ख़ुदावन्द मसीह ने फ़रमाया है, “और ग़ुलाम अबद तक घर में नहीं रहता बेटा अबद तक रहता है। पस अगर बेटा तुम्हें आज़ाद करेगा तो तुम वाक़ई आज़ाद होगे।” (युहन्ना 8:35,36) और रूह ख़ुदा पोलुस रसूल के तवस्सुत से ग़लतीयों के नाम ख़त में फ़रमाता है, “मगर किताब मुक़द्दस क्या कहती है? ये कि लौंडी और उस के बेटे को निकाल दे क्योंकि लौंडी का बेटा आज़ाद के बेटे के साथ हरगिज़ वारिस ना होगा। पस ऐ भाईओ हम लौंडी के फ़र्ज़न्द नहीं बल्कि आज़ाद के हैं।” (ग़लतियों 4:30,31)

शुक्र हज़ार शुक्र ख़ुदा तआला का कि ये दरवाज़ा बादशाहत का यसअयाह नबी के अक़्वाल इल्हामी के बमूजब दिन रात बराबर खुला रहता है और इस खुले हुए दरवाज़े की राहनुमाई करना और गुमराहों को इस की तरफ़ रशद व हिदायत करना ख़ुसूसुन दीन के खादिमों और उस्तादों का ओहदा मुबारक और उमूमन सब मुक़द्दसों का फ़र्ज़ यही है। अगर ऐसा हो कि दीन मुहम्मदी में शामिल हो कर तुमने ख़ुदा की दारुल-सल्तनत को दूर से देखा तो यक़ीन करो कि दरवाज़े के अंदर सिर्फ दीन ख़ुदा जो अम्बिया और ख़ुदावन्द मसीह का दीन है, आप लोगों को पहुंचा सकता है। हमारी मिन्नत है आपसे रब तआला के एवज़ और मुहब्बत की राह से कि बहिश्त के दरवाज़े के बाहर मत पड़े रहो, बल्कि इसी के तवस्सुत से जो फ़रमाता है, “मैं दरवाज़ा हूँ”, “मैं राह हूँ”, “मैं हयात हूँ”, दाख़िल हो कर ख़ुदा के पास जो मुंसिफ़-उल-आलमीन है, आ जाओ। जैसा हज़रत दाऊद फ़रमाता है, “आज़मा कर देखो कि ख़ुदावन्द कैसा मेहरबान है। मुबारक है वो आदमी जो उस पर तवक्कुल करता है।” (ज़बूर 34:8) दो-चंद बल्कि दह-चंद तल्ख़ अज़ाब का हुक्म और फ़त्वा उन शख्सों पर सादिर होगा जो सिर्फ क़रीब दरवाज़े ही तक पहुंच कर और वहां से मुँह फेर कर या ख़ूँख़ार शेर और भेड़ीए का शिकार हो गए या चोरों डकैतों की रिफ़ाक़त में जा मिले। अज़बस कि युहन्ना रसूल के दसवें बाब में ख़ुदावन्द मसीह उनको चोर और डाकू कह कर अंगुश्त नुमाई करता है जो आप इस दरवाज़ा हक़ीक़ी में दाख़िल नहीं होते और दाख़िल होने वालों को रोकते हैं।

बरअक्स इस के हक़-तआला के सब नबियों और पैग़म्बरों को चूँकि वो सब ख़ुदावन्द मसीह के शाहिद (गवाह) और पेशवा और इस एक दरवाज़े की तरफ़ मुर्शिद और हादी थे भेड़ों का गल्लाबान हक़ीक़ी बताता है, जिनकी बहुत बड़ी शान फ़ज़ीलत और शर्फ़ है और उन की सोहबत से महरूम और बे-बहरा होना सबसे बदतर लानत और कमबख़्ती का निशान बताता है। चुनान्चे इन्जील लूक़ा में लिखा है, “वहां रोना और दाँत पीसना होगा जब तुम अब्रहाम और इज़्हाक़ और याक़ूब और सब नबियों को ख़ुदा की बादशाही में शामिल और अपने आपको बाहर निकाला हुआ देखोगे।” (लूक़ा 13:28)

बाब नहुम

दरबाब आँ अलामतहा कि दरवक्त आक़िबत यानी दर वक़्त इख़्तताम व तक्मील सल्तनत हक़-तआला पदीद व नमूदार ख्वाहिंदशद

د رباب آں علامتہا کہ دروقت عاقبت یعنی د ر وقت اختتام و تکمیل سلطنت حق تعالیٰ پدید و نمودار خواہند شد

ख़ुदा की बादशाही की वो सूरत जो फ़िलहाल है, कुतुब रसुल और अम्बिया की तारीफों और तक़रीरों के बमूजब बयान हो चुकी। अब ये क़र्ज़ व फ़र्ज़ बाक़ी है कि वो सूरत उस बादशाही की जो अख़ीर-उल-अय्याम में होने वाली है, कौन और कैसी होगी, उन्हीं किताबों से तहक़ीक़ाना दर्याफ़्त करें। पस ये अम्र साफ़ मालूम होता है कि तौरेत की बनिस्बत हज़रत दाऊद ने उस आइन्दा सल्तनत की कैफ़ीयत और हक़ीक़त-ए-हाल को ज़्यादा तफ़्सील और तसरीह से बयान किया, पर अम्बिया की निस्बत कुछ कम। लेकिन बाअज़ ख़वास उस सल्तनत पर और उस की वजूद व तरक़्क़ी की सूरतों पर ख़्वाह ख़ौफ़नाक, ख़्वाह तसल्ली बख़्श हों, ज़रा सा मुलाहिज़ा करना इंशा-अल्लाह मुफ़ीद भी और मुतालिब बाला का मुक़ारिन भी होगा।

फ़िलहाल की, बादशाही का बयान जो ज़बूर में मिलता है कुछ तो वाक़ियात साबिक़ा और उमूरात गुज़श्ता का बयान था और कुछ उन उमूर वाक़ई का जो हज़रत दाऊद के अस्र से आज तक तामील और तक्मील होते चले आए हैं और जो बादशाही आइन्दा का बयान ज़बूर में मिलता है वो तो वाक़ियात शुदनी (इत्तफाकी बात) का बयान है जिसकी वसाक़त (पुख़्तगी, मज़बूती) और सबूत ख़ुदा तआला के क़ौल व क़रार के सिवाए कोई दूसरी नहीं हो सकती थी। पस हर साहब अक़्ल को साफ़ मालूम है कि उमूरात वाक़ई मंसूख़ नहीं हो सकते और अहले ईमान को भी बराबर साफ़ मालूम होता है कि वो मुराद और मक़्सद ईलाही जिसकी तामील और तक्मील के लिए वो वाक़ियात पेश आए और मुतअय्यन हुए, वो भी मंसूख़ नहीं हो सकता, नहीं तो ख़ुदा तआला ग़ैर मुतबद्दल और लामुतय्यर ना होगा, बल्कि उस की पाक ज़ात और सिफ़ात में ख़लल आजाएगा। जिस हाल में कुल आलम मज़्हब हनूद के बमूजब माया (ख़ुदा की क़ुदरत, रूह) और पर पंच (फ़रेब) बना है, वास्तविक (जड़ी बूटी) नहीं है। फिर ना तो रब तआला होगा, ना आलम दर-हक़ीक़त वजूद में होगा और ये भी हर मोमिन पर साफ़ ज़ाहिर है कि वो पेशीनगोईयां जिनकी वफ़ा और कामिल होने का यक़ीन और इंतिज़ार मुक़द्दसों की जमाअत में क़ायम और नाजनबीदा रहता जो शायद किसी की दानिस्त में मंसूख़ हों तो रब तआला की सिफ़ात जलाली, मसलन उस की हिक्मत और क़ुदरत और इन्साफ़ का वो शख़्स इस क़द्र मुख़िल ठहरेगा कि उस की राय और मज़्हब को दहरियों के मज़्हब से थोड़ा ही फ़र्क़ होगा।

या अगर शायद कोई शख़्स ये भी कहे कि रब तआला की वो हम्द और सताइश जो मज़ामीर दाऊदी में नादिर और मुम्ताज़ है और उस तआला की अजीब साख़त व सनअत की तारीफ़ जो आलम की आफ़रीनश और ख़ुश-इंतज़ामी में और इज्माअ मुक़द्दस की रिआयत और तामीर में नज़र आती है और वो दुआएं और नसीहतें जो मज़ामीर में हैं और जो बातें उम्मीद और ईमान और मुहब्बत की तहरीक करने वाली और ग़ाफ़िलों और शरीरों की तंबीया करने वाली और निशात रुहानी की उभार ने वाली हैं, वो सबकी सब हमारे मज़्हब की शराइत और इक़रार के बमूजब मंसूख़ जानना मुस्तहब या लाज़िम भी है, तो कौन साहब हक़ीक़त व अदालत इतनी कुदरत और रू पोशी की पर्दा अंदाज़ी हक़-तआला की तजल्लियात और अस्मा-ए-जलाली पर बर्दाश्त कर सकेगा? कौन साहब इंसाफ़ ना कहेगा कि दर हालिका ज़बूर नुस्ख़ हो जाएं तो दुआ और सवाल और इस्तिग़फ़ार और हम्द व ममदोह और हसनात व औसाफ़ का ज़िक्र और एहसानों और नेअमतों की शुक्रगुज़ारी का नमूना महव व नेस्त हो गया, जो इस आलम-ए-फ़ानी में लामिसाल और लासानी है, हाँ जिससे फ़रिश्तों के मिज़ाज की मुताबिक़त बनी-आदम में पैदा हो सकती और हुआ भी करती है और मोमिनीन और मुक़द्दसीन उन के पाक तवाइफ़ (पाक बादशाहत) की रिफ़ाक़त में दाख़िल हो जाते हैं।

बाद इस जुम्ला मोअतरिज़ा के जो यान हक़ीक़त को मालूम हो कि ख़ुदा तआला की आइन्दा सल्तनत की तीन चार ख़सुसियात और लवाज़मात मुतय्यना मज़ामीर में ज़ाहिर की जाती हैं। अव्वल ये कि ख़ुदावन्द मसीह आप ही अपनी हज़रत पुर जलाल और क़ुदरत आमेज़ ज़ाहिर कर के अपनी मुस्नद अदालत के हुज़ूर में कुल आलम के साकिनान को बुलवाएगा। देखो (ज़बूर 50) में वो सदर अदालत किस तरह जारी होगा, “रब ख़ुदावन्द ख़ुदा ने कलाम किया और मशरिक़ से मग़रिब तक दुनिया को बुलाया। सिय्योन से जो हुस्न का कमाल है ख़ुदा जलवागर हुआ है। हमारा ख़ुदा आएगा और ख़ामोश नहीं रहेगा। आग उस के आगे आगे भस्म करती जाएगी और उस की चारों तरफ़ बड़ी आंधी चलेगी। अपनी उम्मत की अदालत करने के लिए वो आस्मान व ज़मीन को तलब करेगा।” (50:1-4)जो इस बयान के मुतफ़र्रिक़ात और मुफ़र्रिदात पर ग़ौर व तामिल करे सो यक़ीनन जाने कि इस सदर अदालत का जो आफ़ियत में होगी, तशरीह अहवाल व हक़ायक़ ज़बूर और इन्जील में असालतन (बज़ात-ए-ख़ुद, ख़ुद आप, ब नफ़्स-ए-नफ़ीस) एक ही है, मसलन वो आवाज़ जिसे सुन कर साकिनान क़ब्र अपनी ख्व़ाब मौत से जागेंगे ख़ुदा ही की आवाज़ है। वो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) जो ख़ुदावन्द मसीह है जिसके जिस्म मुतजल्ली में उलूहियत की कुल भर पूरी रहती है, अपने फ़रिश्तों से इर्शाद करेगा कि ज़िंदों मुर्दों, ख़वास व अवाम को मेरे हुज़ूर में हाज़िर करो, पर अव्वलन मेरे मुक़द्दसों को। इस अम्र में ज़बूर और इन्जील की शहादत में इत्तिफ़ाक़ कामिल है। चुनान्चे कुरंथियो के पहले ख़त में मशहूद (मौजूद, ज़ाहिर) है। “लेकिन हर एक अपनी-अपनी बारी से, पहला फल मसीह, फिर मसीह के आने पर उस के लोग।” (1 कुरंथियो 15:23) और थिस्सलुनीकियों के नाम ख़त में लिखा है, “पहले तो वो जो मसीह में (मुए) मरें जी उठेंगे'' (1 थिस्सलुनीकियों 4:16) और वही रसूल (इब्रानियों 12:19-26)में हमें जताता है कि ये आवाज़ उसी मुतकल्लिम की है जिसकी आवाज़ कोह-ए-सीना यानी कोह-ए-तूर पर सुनकर हज़रत मूसा ने भी लर्ज़िश व ख़ौफ़ खाया और बनी-इस्राईल मिन्नत से अर्ज़ व माअरोज़ करने लगे कि जो हम इस आवाज़ को फिर सुनेंगें तो मर जाऐंगे और इसी अपनी आवाज़ की क़ुदरत के बयान में ख़ुदावन्द मसीह ने ना मुबालग़ा और मुफ़ाज़िला की राह से, बल्कि ख़ूब साख़ता और संजीदा इबारतों में और क़सम खाने वालों की ताईद और तश्दीद शहादत से फ़रमाया “इस से ताज्जुब ना करो क्योंकि वो वक़्त आता कि जितने क़ब्रों में हैं उस की आवाज़ सुन कर निकलेंगे, जिन्हों ने नेकी की है ज़िंदगी की क़ियामत के वास्ते और जिन्हों ने बदी की है सज़ा की क़ियामत के वास्ते।” (युहन्ना 5:28,29) और इब्रानियों के नाम ख़त के इसी बाब मज़्कूर में रसूल मुक़द्दस ने रूह इल्हाम की हिदायत से हज्जी नबी के अक़्वाल इल्हामी को मए तारीफ़ और तशरीह नक़्ल करके फ़रमाया है, “ख़बरदार ! उस कहने वाले का इन्कार ना करना क्योंकि जब वो लोग ज़मीन पर हिदायत करने वाले का इन्कार कर के ना बच सके तो हम आस्मान पर के हिदायत करने वाले से मुँह मोड़ कर क्योंकर बच सकेंगे? उस की आवाज़ ने उस वक़्त तो ज़मीन को हिला दिया मगर अब उस ने ये वाअदा किया है कि एक बार फिर मैं ना फ़क़त ज़मीन ही को, नहीं ! बल्कि आस्मान को भी हिला दूंगा।” (इब्रानियों 12:25-26)

इसी कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने जैसा तौरेत के मुक़द्दमे में बयान होता है अज्राम फ़लकिया और अजसाम अर्ज़िया को आलमे नेस्त से हस्त में दाख़िल कराया। जिस वक़्त “ख़ुदा ने कहा (यानी कलाम किया) कि रोशनी हो जा और रोशनी हो गई।” (पैदाईश 1:3)और वही कलिमा आख़िर ज़माने में उसी आलम के नज़्म व नुस्क़ को और ताल्लुक़ात व सिलसिले जात को जिन्हें आप ही ने ताअय्युन किया था, तोड़ कर हल करेगा और वो नया आस्मान और ज़मीन जो कामिल रास्ती का जाये सुकूनत और क़रार होगा, दरपेश करेगा। फिर ज़बूर मज़्कूर को इन्जील पेशीनगोइयों के साथ मिलाने और मुक़ाबला करने से साफ़ मालूम होता है कि उस मुस्नद अदालत पर जिसके हुज़ूर में हर शख़्स घुटना टेकेगा और हर ज़बान उस मुंसिफ़ अज़ीम की ईलाही क़ुदरत व किब्रियत की क़ाइल होगी, मुक़द्दसों की जमाअत हम नशीन और हम-जलीस होगी। सच तो ये है कि ख़ुदावन्द मसीह के हक़ीक़ी दोस्तों में से एक भी नहीं जो रुत्बा आली और दर्जा जलाली की उम्मीद पर ख़ुदावन्द की सिपहगरी की मेहनतें नहीं उठाता और ख़ुशी से मौरिद ज़िल्लत व हक़ारत व रुस्वाई नहीं हो जाता, बल्कि वो तो इस नाम-ए-मुबारक और महमूद के लिए बेइज़्ज़ती उठानी ऐन इज़्ज़त जानते हैं।

अज़ां जिहत कि उसी में रब तआला की माहीयत (असलियत) का नक़्श और जलाल के नूर का ज़हूर पहचान कर उस की क़ुर्बत (नज़दिकी) और दीदार व ख़िदमत को बहिश्त की ऐन निशात जानते हैं, पर जब उस की मुहब्बत इस क़द्र बे दरेग़ और फ़य्याज़ है कि मताबईन और रफ़ीक़ों और खादिमों को अपनी चीज़ों में यानी अपनी तजल्लियात व फ़ज़ाइल व हसनात में शामिल व शरीक करना अपनी शान जानता है, बक़द्र उन की इस्तिदाद (सलाहियत) के तो कुछ भी चीज़ अपने वास्ते नहीं छोड़ता और उस की मर्ज़ी ये भी है कि इस आलम की आक़िबत और बाज़पुर्स के वक़्त उस की बर्गुज़ीदा ख़ल्क़ अज़राह ख़िलाफ़त व वकालत उस की हम नशीन हो जाये। चुनान्चे लूक़ा की इन्जील में ये वाअदा हवारियीन के साथ मख़्सूस व मुक़य्यद बताया जाता है,“और जैसे मेरे बाप ने मेरे लिए एक बादशाही मुक़र्रर की है मैं भी तुम्हारे लिए मुक़र्रर करता हूँ। ताकि मेरी बादशाही में मेरी मेज़ पर खाओ पियो बल्कि तुम तख़्तों पर बैठ कर इस्राईल के बारह क़बीलों का इन्साफ़ करोगे।” (लूक़ा 22:29,30)

और क़रीब इतनी ही वुसअत का और फ़य्याज़ी का एक वाअदा आम और बेक़ैद सब खादिमों के लिए मुकाशफ़ा की किताब में इस शाहिद हक़ीक़ी और मोतमन ज़बान पर आता है, “जो ग़ालिब आए मैं उसे अपने साथ अपने तख़्त पर बिठाऊँगा। जिस तरह मैं ग़ालिब आकर अपने बाप के साथ उस के तख़्त पर गया।” (मुकाशफ़ा 3:21) और फिर दानीयेल भी अपनी नबुव्वत में इसी तक़रीर पर गवाह है, “लेकिन हक़ तआला के मुक़द्दस लोग सल्तनत ले लेंगे और अबद तक हाँ अबद-उल-आबाद तक उस सल्तनत के मालिक रहेंगे, और तमाम आस्मान के नीचे सब मुल्कों की सल्तनत और ममलकत और सल्तनत की हशमत हक़-तआला के मुक़द्दस लोगों को बख़्शी जाएगी।” (दानीयल 7:18,27)) इब्न-ए-ख़ुदा यानी नख़सत ज़ादे मुक़द्दसों की तमाम ख़ल्क़ का वो ज़हूर होगा जिसका तज़्किरा रसूल मुबारक ने रोमीयों के नाम ख़त में उम्मीदो मुहब्बत के बड़े जोश से इशारतन किया है कि, “क्योंकि मख़्लूक़ात कमाल आरज़ू से ख़ुदा के बेटों के ज़ाहिर होने की राह देखती है।” (रोमीयों 8:19) ये बात और भी आक़िबत अंदेशों के मुलाहिज़े के लायक़ है जो ज़बूर में इज्मालन पर तफ़्सील-वार मुकाशफ़ात युहन्ना में साफ़ नमूदार होती है कि उस नए आस्मान और नई ज़मीन पर से जो उस वक़्त पुरानों और रद्द किए हुंवो के क़ाइम मक़ाम होंगे, हर ख़ताकार और अहले शर नेस्त हो जाएगा।

ज़बूरों में ये उम्दा नतीजा दो तरहों और तदबीरों से हासिल बताया जाता है। एक तो ये कि कलाम-ए-ख़ुदा की उस दिल तराश शमशीर ज़नी से जो मुक़द्दसों के मुँह से निकलेगी, अहले ख़िलाफ़ में से लाखों आदमी अपने कीना और फ़ित्ना व फ़साद और बग़ावत की निस्बत क़त्ल हो कर और मर कर ख़ुदा की और उस के इब्ने महबूब की निस्बत जिएँगे और यही कलाम-ए-ख़ुदा वो आहनी सलाख और तौक़ व ज़ंजीर और बेड़ियाँ और क़ैद-ख़ानों के क़ुफ़ुल हैं, जिनसे ख़ुदा के बंदगान हक़ीर व मज़्लूम उस वक़्त मुहब्बत आमेज़ इंतिक़ाम की राह से अपने तिश्ना ख़ून ज़ालिमों को क़ैद कर लेंगे। हाँ ना अज़ाब व हलाकत के लिए बल्कि हयात व सआदत बहिश्त के लिए बाँधेंगे। जिस बात की तारीफ़ व तक़रीर (ज़बूर 149) में पढ़ी जाती है, “मुक़द्दस लोग जलाल पर फ़ख़्र करें। वो अपने बिस्तरों पर ख़ुशी से नग़मा सराई करें। उन के मुँह में ख़ुदा की तम्जीद और हाथ में दो-धारी तल्वार हो ताकि क़ौमों से इंतिक़ाम लें और उम्मतों को सज़ा दें। उन के बादशाहों को ज़ंजीरों से जकड़ें और उन के सरदारोँ को लोहे की बेड़ियाँ पहनाएं ताकि उन को वो सज़ा दें जो मर्क़ूम है। उस के सब मुक़द्दसों को ये शर्फ़ हासिल है। ख़ुदावन्द की हम्द हो।” (ज़बूर 149:5-9) बरअक्स उस के जो बाक़ी शैतानी तबीयत वाले हैं, जिनकी दानिस्त में ज़ुल्म व तअद्दी व शरारत ऐन फ़ख़्र व ज़ीनत है और वो अपने बुग़्ज़ से ख़ुदा की तरफ़ मुराजअत करना मकरूह जानते हैं। उनका होलनाक अंजाम बताया जाता है। चुनान्चे दूसरे ज़बूर में लिखा है कि, “तू उन को लोहे के असा से तोड़ेगा। कुम्हार के बर्तन की तरह तू उन को चकना चूर कर डालेगा।” (ज़बूर 2:9) और मुकाशफ़ा की किताब में उन की शिद्दत अज़ाब बयान होती है, “वो पाक फ़रिश्तों के सामने और बर्रा के सामने आग और गंधक के अज़ाब में मुब्तला होगा।” (मुकाशफ़ा 14:10) तक्मील सल्तनत के क़रीब होने की एक और अलामत ज़बूरों में बल्कि कुल कलाम-ए-ख़ुदा में माअरूफ़ व मशहूर है कि कौम मतरूक इस्राईल की और सीहोन का कोह मर्दूद दुबारा हक़ तआला के हुज़ूर में मुख़्तार और मुख़तस और मन्ज़ूर होगा। चुनान्चे यर्मियाह नबी की किताब में है,“ख़ुदावन्द फ़रमाता है उन दिनों में और उसी वक़्त इस्राईल की बद-किर्दारी ढ़ूंढ़े ना मिलेगी और यहूदाह के गुनाहों का पता ना मिलेगा क्योंकि जिनको मैं बाक़ी रखूँगा उन को माफ़ करूँगा।” (यर्मियाह 14:20) और रुसुल व अम्बिया की हज़ार-हा गवाहियों से ये बात साबित और अज़हर-मिन-अश्शम्स है कि रब तआला ने जिस नस्ल यहूद को इस अह्द व मीसाक़ के सबब जिसे इब्राहिम और बाक़ी औलिया-ए-क़दीम के साथ मुतअय्यन किया था, अज़ीज़ और बर्गुज़ीदा किया। सो उन्हीं आख़िर अय्याम में अस्ल दर्जे की निस्बत और उम्दा और अफ़्ज़ल दर्जे में बहाल करेगा और अहले ईमान में से कौन शख़्स ऐसी ग़ैर-वाजिबी बात मानेगा कि ख़ुदा तआला वफ़ा व ईद में ईमानदार पर वादों की तक्मील में बेवफ़ा हो और पोलुस रसूल के रोमीयों के नाम ख़त में (रोमीयों 11:15) ये ताअलीम मिलती है कि जब उस महबूब क़ौम की अह्द शिकनी और बग़ावत गुज़श्ता अल्लाह तआला के फ़ज़्ल व वफ़ादारी से बख़्शी जाएगी और अपनी फ़ज़ीलत और शराफ़त क़दीम पर उन की बहालियत पूरी होगी। तब इस क़द्र चशमा-ए-बरकत व खेरियत फ़रावान कुल आलम के लिए फूट निकलेगा कि उस का हाल ऐसा बदलेगा, जैसा मुर्दा उठकर ज़िंदा हो गया। और यक़ीन है कि उस वक़्त रब तआला की और उस के ख़ुदावन्द मसीह की सल्तनत जो मुद्दत से पोशीदा और खु़फ़ीया बढ़ती और जड़ पकडती चली आई थी, अलानिया फ़ाश व कश्फ़ हो जाएगी।

ऐ साहिबो इस मलकूत के इन्किशाफ़ पुर जलाल को इस रूह ख़ुदा ने जो रूह इल्हाम और काशिफ़-ए-इसरार है, इशारतन और मुजम्मलन तो हज़रत दाऊद के ज़रीये से और मुफ़स्सिलन अम्बिया-ए-सलफ़ और मुसन्निफ़ मुकाशफ़ा के ज़रीये से मुबय्यन और क़लम-बंद कराया है और ये अम्र भी साफ़ दिखाया है कि बैतुल-मुक़द्दस और कोह सीहोन उस सल्तनत का दार-उल-ख़िलाफ़त होगा। चुनान्चे (ज़बूर 102) में वो रूहुल-क़ुद्दुस हमें सिखाता है,“तू उठेगा और सिय्योन पर रहम करेगा क्योंकि उस पर तरस खाने का वक़्त है, हाँ उस का मुईन वक़्त आ गया है, क्योंकि ख़ुदावन्द ने सिय्योन को बनाया है। वो अपने जलाल में ज़ाहिर हुआ है।” (ज़बूर 102:13,16) इस कश्फ़ व ज़हूर की सरीह शहादत यसअयाह नबी की किताब में मिलती है, “और जब रब्ब-उल-अफ्वाज़ कोह सिय्योन पर और यरूशलेम में अपने बुज़ुर्ग बंदों के सामने हशमत के साथ सल्तनत करेगा तो चांद मुज़्तरिब और सूरज शर्मिंदा होगा।” (यसअयाह 24:23) और इसी तरह इस इन्किशाफ़ सल्तनत मज़्कूर के सब मुक़द्दमात यानी वाक़ियात क़ब्ल और हवासिल और नताइज बाद की कैफ़ीयत हाल सिर्फ़ इशारतन और मुजम्मलन मुन्दर्ज ज़बूर हुई। यानी क़ब्ल अज़ क़ियाम सल्तनत, किस तरह वो हरीफ़ ख़ुदा तआला का और ख़ुदावन्द मसीह का जिसको अहले मुहम्मद “दज्जाल” कहते हैं, पर ख़ुदावन्द मसीह और हवारीयीन क़ुद्दूस उसे “साहिब-ए-शर” और “मसीह काज़िब” और “मसीह” का ऐन मुख़ालिफ़” वग़ैरह कहते हैं। हर-चंद कि वो कुछ अरसे तक इज्माअ मोमिनीन की सख़्त और मुफ़ीद आज़माईशों के लिए अबना-ए-ममलकत की ख़राब हाली और दिक़्क़त शदीद और दिली जुंबिश व इज़तिराब का मूजिब व बाइस हो, पर तो भी मौसम मुईन पर ख़ुदावन्द के ज़हूर के शोला-ए-बराक़ से भस्म होगा, बल्कि अबद तक नेस्त व नाबूद होगा और किस तरह ख़ुदावन्द उन और उनकी मानिंद दीगर तेज़ इम्तहानों के ज़रीये से इज्माअ क़ुद्दूस में से सब क़बायह और हर क़िस्म का किज़्ब व ख़ुबस व फ़साद और जो कुछ बात पलीदो नफ़रत-अंगेज़ और ठोकर खिलाने वाली इस में मख़्लूत हो गई, उस की कमाल मराफ़ात बे दरेग़ और तस्फ़ीया करेगा। बमूजब उस क़ौल के जो उस की ज़बान मुबारक से निकला “इब्न-ए-आदम अपने फ़रिश्तों को भेजेगा और वो सब ठोकर खिलाने वाली चीज़ों और बदकारों को उस की बादशाही में से जमा करेंगे। और उन को आग की भट्टी में डाल देंगे। वहां रोना और दाँत पीसना होगा। उस वक़्त रास्तबाज़ अपने बाप की बादशाही में आफ़्ताब की मानिंद चमकेंगे।” (मत्ती 13:41-43) और बेशक ये बात अव्वल ज़बूर में मुशारु-इलयहा है, इसलिए “शरीर अदालत में क़ायम ना रहेंगे ना ख़ताकार सादिक़ों की जमाअत में, क्योंकि ख़ुदावन्द सादिक़ों की राह जानता है पर शरीरों की राह नाबूद हो जाएगी।” (ज़बूर 1:5-6)

साहिबो मेरी मिन्नत और अर्ज़ है आप से ख़्वाह मसीही हो, ख़्वाह मुहम्मदी इस बात पर गौर व तामिल करो जिससे एक भी बात कुल कलाम-ए-ख़ुदा में अज़हर और सरीह तर नहीं है कि ख़ुदावन्द मसीह तब ही यानी क़ब्ल अज़ कश्फ़ व क़ियाम सल्तनत सब मक्कारों और रियाकारों को जितने-जितने ख़ल्क़ ने ख़ल्क़त जदीद का भेस पहन कर पुरानी इन्सानियत की गंदी पोशाक तहक़ीक़ नहीं उतारी, उन्हें जमाअत मोमिनीन हक़ीक़ी में से रूह अदालत और रूह सोज़िश से साफ़ कर के भेड़ों से बकरीयों को और उम्दा गेहूँ से भूसी जुदा कर के अपनी कलीसिया को पाक, बेऐब दुल्हन की मानिंद अपने बाप के रूबरू हाज़िर करेगा। चुनान्चे रसूल कुलस्सियों के नाम ख़त (कुलस्सियों 3:11) में फ़रमाता है, “सिर्फ मसीह सब कुछ और सब में है।” और (1 कुरंथियो 15:28) में मशहूद है, “सब में ख़ुदा ही सब कुछ हो।”

अज़ां जिहत कि जहां नूर है, वहां नूर की तजल्लियात और जहां माहीयत (असलियत) है, वहां माहीयत (असलियत) का नक़्श है। अगरचे वो ख़ास “दज्जाल” जो अख़ीर-उल-अय्याम में होगा किसी ज़बूर दाऊदी का साफ़ और यक़ीनी मिस्दाक़ नहीं है, पर तो भी उस के बाअज़ पेशरूंवों और तमसीलों का ज़िक्र और इशारा है। चुनान्चे युहन्ना रसूल ने कहा कि, “जैसा तुमने सुना है कि मुख़ालिफ़ मसीह आने वाला है, उस के मुवाफ़िक़ अब भी बहुत से मुख़ालिफ़ मसीह पैदा हो गए हैं।” (1 युहन्ना 2:18) जिससे वो रसूल हमें मालूम कराता है कि पुश्त दर पुश्त बाअज़ शख़्स ख़ाइन और दग़ाबाज़ उठा करते हैं जो ख़ुदा की रिफ़ाक़त क़रीब से अपना हाल बदल कर तल्ख़ तरीन हासिद और हीला-साज़ दुश्मन बनते हैं और जिनसे दज्जाल की बदबू निकलती है और उस की मकरूह सूरत नज़र आती है। हाँ इस क़द्र ख़ुदा की तरफ़ से कीना और नफ़रत उनके दिलों में जम जाता है कि अगर मक़्दूर (ताक़त) हो तो ख़ुदा तआला का नाम व निशान और औसाफ़ व जोद आलम-ए-हस्ती से महव कर दें।

अबवाब-बाला से मालूम हो गया कि ग़ालिबन एक ऐसा शख़्स अख़ीतफ़ल नाम हज़रत दाऊद के मुशीरों और हबीब रफ़ीक़ों में से था और इसी तरह ख़ुदावन्द मसीह के हवारियों में से भी यहूदाह इस्किरियोती नाम एक मशहूर ख़ाइन निकला। पस सिर्फ ऐसे ही शख्सों और क़ौमों के साथ (ज़बूर 69 और 109) की सख़्त और वहश्त-अंगेज़ लानतें मुक़य्यद हैं। हरगिज़ कोई साहब ऐसा बेजा और नारवा ख़्याल ना करे कि जो लानतें और बद दुआएं इन ज़बूरों में मुन्दर्ज हैं किसी नबी या बंदे ख़ुदा ने अपनी जान या घर या क़बीले के किसी दुश्मन की निस्बत उन्हें ज़बांज़द या क़लम-बंद किया और ना ख़ुदा तआला के आम दुश्मनों की निस्बत। मगर सिर्फ ख़ुद शैतान ही की निस्बत और उस के ख़लीफों की निस्बत जिनकी अमलियत उसी की फ़अलियत पर मौक़ूफ़ है और जो जो रब तआला और मसीह के मुख़ालिफ़ शुरू से उस अशर्र (बहुत शरीर) और अशद्द (शदीद तरीन) और लइन (लानती) तरीन तक जो आक़िबत में होने वाला है, बराबर होते चले आएँगे। बाक़ी ज़रा सा ज़िक्र चाहीए एक और अम्र का जो आलम उक़्बा के वाक़ियात और अलामात मौऊद में शुमार होता है कि कलाम-ए-ख़ुदा के इस वक़्त मुल्क़ ब मुल्क और क़ौम ब क़ौम इशतिहार व इंतिशार होने के सबब (ज़बूर 22) का वो भारी ख़ुश मज़्मून पूरा होगा। “सारी दुनिया ख़ुदावन्द को याद करेगी और उस की तरफ़ रुजू लाएगी और क़ौमों के सब घराने तेरे हुज़ूर सज्दा करेंगे। क्योंकि सल्तनत ख़ुदावन्द की है वही क़ौमों पर हाकिम है।” (ज़बूर 22:27,28) इस मतलब मतलूब के जल्द सरज़द और बर-पा होने के लिए काश हम सब दिलोजान से वो उम्दा सिफ़ारिश (ज़बूर 82:8) से निकाल कर अर्ज़ करें। “ऐ ख़ुदा ! उठ ज़मीन की अदालत कर। क्योंकि तू ही सब क़ौमों का मालिक होगा।” आमीन

बाब दहुम

दरबाब फ़ज़ाइल शराअ व ख़ुसूसुन दर जवाब आँ मसअला कि चहतौर आन शराअ क़ाबिल मत्रोकियत अस्त व बकदाम हैसियत व एतबार मत्रोकीतिश अली अलद्दवाम मुहाल व बईद अज़्कियास अस्त

د رباب فضائل شرع و خصوصاً د ر جواب آں مسئلہ کہ چہ طور آن شرع قابل متروکیت است و بکدام حیثیت و اعتبار متروکیتش علی الدّوام محال و بعید ازقیاس است

इस रिसाले के अक्सर पढ़ने वालों को मालूम होगा कि बाअज़ शख्सों ने ये ख़ाम तसव्वुर किया और उसे हवाले क़लम भी किया कि पोलुस रसूल ने उस शरअ मूसवी में जिसको तौरेत कहते हैं तरह-तरह के रज़ाइल निकाले हैं, कुछ फ़ज़ाइल इस में नहीं पाए। जिससे उन्हों ने ये बेजा और नाहक़ नतीजा निकाला है कि रसूल मज़्कूर ने हज़रत मूसा की शरअ को रद्द और मंसूख़ बताया और उसे हर सूरत से बातिल और बेमाअनी, बल्कि ख़ुदावन्द मसीह का ऐन मुख़ालिफ़ जाना। और बेशक कुछ ताज्जुब नहीं कि जो अश्ख़ास बिला ग़ौर व तामिल और रूहुल-क़ुद्दुस से हिदायत और तौफ़ीक़ मांगे बग़ैर तास्सुब व हट धर्मी से रसूल मुबारक के ख़ुतूत का मुतालआ करते हैं, कुछ एहतिमाल और इश्तिबाह करें कि इस मसअले की बाबत उस की ताअलीम की अस्ल मुराद और मुतालिब क्या हैं और कि वो लोग बाअज़ मुहीन और बारीक मज़ामीन में ठोकर भी खाएं। चुनान्चे पतरस रसूल ने ख़ुद अपने दूसरे ख़त में (2 पतरस 3:15) में फ़रमाया “हमारे प्यारे भाई पोलुस ने भी सारे ख़तों में इन बातों का ज़िक्र किया है, उनमें कितनी बातें हैं जिनका समझना मुश्किल है और वो जो जाहिल और बे-क़याम हैं, उनके माअनों को भी अपनी हलाकत के लिए फेरते हैं।”

पस बाब जे़ल में रूह हिक्मत व फ़हमीदा से मदद व तौफ़ीक़ मांग कर मुसन्निफ़ रिसाले इस बात को मुजम्मलन अहले इन्साफ़ और मुहक़्क़िक़ीन के लिए साबित किया चाहता है कि पोलुस रसूल के ख़ुतूत में जितनी तक़रीरें इस बू और मज़ा की हैं कि उन से रब तआला की शरअ मूसवी मअ़यूब (एब वाला) और हक़ीर और मज़मूम मालूम देती है। सो वो ऐब व ज़म सिर्फ़ सूरतन और ज़ाहिरन है, हक़ीक़तन नहीं। बल्कि वो हज़रत शरअ के फ़ज़ाइल और फ़वाइद पर बहुत ज़ोर और ताकीद फ़रमाता है और जैसा ख़ुदावन्द मसीह ने आप किया, वैसा ही उस के रसूलों ने भी शरअ और तौरेत की ताज़ीम व तकरीम फ़रमाई और अपने आपको और कुल जमाअत मसीही को इस शरअ का निहायत एहसानमंद और मर्हूने मिन्नत जाना। इंशाअल्लाह रसूल मुबारक का हक़ीक़ी मतलब और मुराद ज़्यादा सफ़ाई और आसानी से फ़ाश और रोशन होगा। पहले ही पहल लफ़्ज़न-लफ़्ज़न वो नक़लियात पेश करेंगे जिन की ज़ाहिरी सूरत और ख़ाली इबारत में शरअ की ज़रा सी तज़लील और तहक़ीर मालूम होती है। यानी उस की इज़्ज़त और शराफ़त कुछ घटती और इस की बतालत और कम कद़्री और कम कोफ़ी की तारीफ़ व तस्दीक़ होती हुई मालूम होती है। अगर रिसाले ख्वानान होशयारी और सुबूरी से उन नक़लियात पर ग़ौर करेंगे तो शायद शरअ मूसवी की निस्बत व ताल्लुक़ शरअ इन्जीली के साथ थोड़ा बहुत वाज़ेह और रोशन हो जाएगा।

जानना चाहीए कि ख़ुसूसुन तीन ख़त पोलुस रसूल के ख़ुतूत में से हैं जिनमें ज़ाहिरन और सूरतन शरअ की तज़लील दिखाई देती है, यानी रोमीयों के नाम ख़त और इब्रानियों और ग़लतीयों के नाम ख़त। अव्वलन, रोमीयों के नाम ख़त (रोमीयों 4:14) का मज़्मून है, “क्योंकि अगर शरीअत वाले ही वारिस हों तो ईमान बेफ़ाइदा रहा और वाअदा ला हासिल ठहरा।” सानियन, (रोमीयों 7:6) में है, “लेकिन जिस चीज़ की कैद में थे उस के एतबार से मर कर अब हम शरीअत से ऐसे छूट गए कि रूह के नए तौर पर ना कि लफ़्ज़ों के पुराने तौर पर ख़िदमत करते हैं।” फिर ग़लतीयों के नाम ख़त में है, “और ये बात ज़ाहिर है कि शरीअत के वसीले से कोई शख़्स ख़ुदा के नज़्दीक रास्तबाज़ नहीं ठहरता क्योंकि लिखा है कि रास्तबाज़ ईमान से जीता रहेगा।” (ग़लतीयों 3:11) और इसी ख़त में है, “तुम जो शरीअत के वसीले से रास्तबाज़ ठहरना चाहते हो मसीह से अलग हो गए और फ़ज़्ल से महरूम।” (ग़लतीयों 5:4) उनके साथ अगर (इफ़िसियों 2:15) आयत मिलाई जाएगी तो ये अम्र और भी रोशन और मुबय्यन होगा “चुनांचे उस ने अपने जिस्म के ज़रीये से दुश्मनी यानी वो शरीअत जिस के हुक्म ज़ाबतों के तौर पर थे मौक़ूफ़ कर दी ताकि दोनों से अपने आप में एक नया इन्सान पैदा करके सुलह करा दे।” फिर इब्रानियों के ख़त में है, “क्योंकि अगर पहला अह्द बे नुक्स होता तो दूसरे के लिए मौका ना ढून्डा जाता, जब उस ने नया अह्द कहा तो पहले को पुराना ठहराया और जो चीज़ पुरानी और मुद्दत की हो जाती है वो मिटने के करीब होती है।” (इब्रानियों 8:7,13) और इसी ख़त में है, ग़रज़ पहला हुक्म कमज़ोर और बेफ़ाइदा होने के सबब से मन्सूख़ हो गया, क्योंकि शरीअत ने किसी चीज़ को कामिल नहीं किया और उस की जगह एक बेहतर उम्मीद रखी गई जिस के वसीले से हम ख़ुदा के नज़्दीक जा सकते हैं।” (इब्रानियों 7:18,19)

अब इनके मुक़ाबिल की बाअज़ और आयतों पर भी ग़ौर व मुलाहिज़ा करना चाहीए जिनकी मुराद और मअनी इन आयात मज़्कूर के बरअक्स और मतनाक़िज़ मालूम देते हैं, यानी शरअ की तारीफ़ और तहरीम व तहसीन उन से साफ़ व सरीह निकलती है। चुनान्चे वही रसूल (रोमीयों 7 बाब) की कितनी ही आयतों में इस तौर से शरअ को ममदूह करता है, “पस शरीअत पाक है और हुक्म भी पाक और रास्त और अच्छा है।” (रोमीयों 7:12) क्योंकि हम जानते हैं कि शरीअत तो रूहानी है मगर मैं जिस्मानी और गुनाह के हाथ बिका हुआ हूँ।” (रोमीयों 7:14) पस हम क्या कहें? क्या शरीअत गुनाह है? हरगिज़ नहीं बल्कि बगैर शरीअत के मैं गुनाह को ना पहचानता मसलन अगर शरीअत ये ना कहती कि तू लालच ना कर तो मैं लालच को ना जानता।” (रोमीयों 7:7) मगर गुनाह ने मौक़ा पाकर हुक्म के ज़रीये से मुझ में हर तरह का लालच पैदा कर दिया क्योंकि शरीअत के बगैर गुनाह मुर्दा है।” (रोमीयों 7:8) क्योंकि बातिनी इन्सानीयत की रू से तो मैं ख़ुदा की शरीअत को बुहत पसंद करता हूँ।” (रोमीयों 7:22) ग़रज़ मैं ख़ूद अपनी अक़्ल से तो ख़ुदा की शरीअत का मगर जिस्म से गुनाह की शरीअत का महकूम हूँ।” (रोमीयों 7:25)

अब इन सब आयतों को ज़रा होशयारी और इदराक से बाहम मिलाने वालों पर ये रोशन और नमूदार है किइस एक लफ़्ज़ यानी “शरअ” या “शरीअत” के तीन मआनी पोलुस रसूल के ख़तों में दरपेश आते हैं, जिनकी तमीज़ बख़ूबी और ब-आसानी हो सकती है।

अव्वल : शरअ के पहले और उम्दा मआनी वो मुबादी और हक़ायक़ व उसूल हैं जिनमें शरअ़ का ख़ुलासा-ए-लाज़वाल और ला मुतग़य्यर (बदला हुआ) दर्ज है कि ये मआनी उस का क़ल्ब (दिल) अंदरूनी और बातिनी मग़ज़ हैं, मसलन “तुम पाक रहो क्योंकि मैं जो ख़ुदावन्द तुम्हारा ख़ुदा हूँ पाक हूँ।” (ख़ुरूज 19:2) पर तो भी इस हर्फ़ का बे मतरूक और महफ़ूज़ रहना अख़ीर ज़माने तक मुफ़्त और लाहासिल नहीं। अज़ां-जिहत कि वो हर्फ़ रुहानी मिज़ाज के लिए आली मज़ामीन का मुअर्रिक़ है और मोमिनीन और मुहक़्क़िक़ीन शरअ रूह ख़ुदा की तौफ़ीक़ से उस पर ग़ौर कर के उस के मज़्मून अंदरूनी से रुहानी रिज़्क़ को जज़्ब कर के हज़म कर लेते हैं, जिस तरह जिस्मानी ग़िज़ा से जिस्म की क़ुव्वत और क़दो-क़ामत बढ़ता जाता है। ये शरअ निहायत पाक और मुहतरम है, अज़-बस कि रब तआला के ज़मीर ग़ैब का मज़हर और उस के मह्जूब ख़यालात और मुहासिबों का मुबय्यन है।

दोम :दूसरे मअनी इस शरअ के ज़ाहिरी अहकाम और तअयिनात हैं, मसलन वो जो रसूम इबादत और इबादत-गाह की आराइश व ज़ेबाइश से इलाक़ा रखते हैं और जो फ़राइज़ कहानत और वसाइल तहारत और उनकी ज़ीनत व हशमत व लिबास से और ज़बाएह और बाक़ी सब क़ुर्बानीयों की तर्तीब व इन्तिज़ाम से और ईदों और मीयादों और पाक मजलिसों के क़वाइद से और ग़ुस्ल व वुज़ू ख़ास व आम के क़वानीन से मुल्हिक़ व मुताल्लिक़ थे। पस सब अस्हाब इदराक व तमीज़ को मालूम बाल-बदाहत (बदाहत, फ़ी-अल-बदीहा बात कहना, सरीही) है कि ये सब क़वाइद व रसूम एक ज़माने और एक क़ौम के साथ मख़्सूस और मुक़य्यद होना चाहते हैं और तुफुलिय्यत (बचपन) के हाल से मुनासबत रखते हैं, यानी इस हाल और दर्जे से जब जिस्म रूह पर ग़ालिब होता और हर्फ़ मअनी पर और अम्साल व साया जात अश्या व जवाहर पर तो वाजिबी हासिल है कि जब वो तिफ़्ल ख़्वाह शख़्स हो, ख़्वाह क़ौम हो उम्र बलूग़ (जवानी) तक पहुंच गया हो तो कस्रत रसूमात के पुख़्ता मेवा के मुवाफ़िक़ आपसे आप कमाल रसीदा हो कर गिर जाएगी या नर्म व मुलाइम हाथ से बनाई जाएगी।

सोम : शरअ के तीसरे मअनी एक ख़ास मिज़ाज और दिल का मीलान है जिसकी अस्ल हर्फ़ परस्ती और ज़ाहिर परस्ती है और इस का भरोसा और लापरवाई ख़ुदा की तरफ़ और इस के रूबरू अमल व कसब व रसम की कस्रत से पैदा होती है और हलाल व हराम का अंदाज़ा व हिसाब ना क़ल्ब (दिल) की ख़ैर व बद् नीयतों और रग़बतों और ख़यालों पर मुन्हसिर जानती है, बल्कि क़िस्म क़िस्म की ख़ुराक के परहेज़ पर और नमाज़ व दुआ का सवाब (नेकी) ना उतना दिली सफ़ाई और पाकीज़गी पर और अपने कुल वजूद के नव-मख़्लूक़ होने पर और रुहानी मिज़ाज और ख़ुद निसारी और गुफ़तार व रफ़तार की दुरुस्ती पर, मगर उन क़वाइद शरइया पर जो रुकूअ व सुजूद और क़ियाम व क़ऊद (बैठक, नशिस्त) और पाँच औक़ात के हदूद से इलाक़ा रखते हैं, मौक़ूफ़ बताती है। पस इस मीलान का मिज़ाज शरअ़ यानी शरअ की गु़लामी और शरअ परस्ती कहलाती है। अज़ींजिहत कि जिसको आला और वसीला और तवस्सुत जानना चाहिए था उसी को इंतिहा और मंज़िल-ए-मक़्सूद जानते हैं।

अब सोच बिचार करना चाहीए कि इस अव्वल मअनी में जो शरअ का ज़िक्र है तो रसूल माअरूफ़ उस की बे-इंतिहा तारीफ़ करता है और हर सूरत से उसे मुतजल्ली और रौनकदार और बुजु़र्गवार ठहराता है और इस का ओहदा और ख़िदमत निहायत उम्दा और मुफ़ीद बताता है, बल्कि उस दूसरे मअनी की शरअ को मुद्दत मुईन तक बड़ी मनाफ़त (नफ़ा) का बाइस और वसीला हिदायत और मूजिब शुक्र बताता है। अज़ां जिहत कि वो अस्ल व अव्वल शरअ मज़्कूर उसी की रसूम और आईन के ज़रीये से बंदगान-ए-ख़ुदा को तंबीया और तादीब दिया करता था और सिर्फ यही नहीं बल्कि जाहिलों का मुदर्रिस और ज़ालों (बेकार) का मुअल्लिम हो गया था और ख़ुदा तआला की ये मर्ज़ी थी कि इस शरअ रसमिया को नूर और हिदायत के बाअज़ उसूल व मुबादी से मामूर कर के इनके वसीले से अपनी उम्मत की दस्तगीरी कर के उन्हें ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ ले जाये और दर्जा फर्ज़न्दियत को पहुंचाए।

साहिबो शराअ तौरेत के लिए कोई शुक्रगुज़ार पोलुस रसूल से बढ़कर हरगिज़ नहीं मिलता। कोई अपने आपको उस का ज़्यादा एहसानमंद नहीं जानता। चूँकि उसी के ज़रीये से गुनाह के तुख़्म मोहलिक और ज़हर-ए-क़ातिल का पर्दा खुल गया था और उसी तुर्श मुर्शद की हिदायत व तादीब से अपनी हक़ीक़त-ए-हाल जान कर कि मुहताज, नाचार, ज़ेर-ए-बार गुनाहगार मैं हूँ, ख़ुदा के उस मह्ज़ फ़ज़्ल का जिसकी दौलत मुफ़्त व बेनिहायत ख़ुदावन्द मसीह में है, उम्मीदवार हो गया था और दरया-ए-क़हर से शाह बंदर नजात व सलामत में पनाह लेकर इस्तिराहत कुल्लिया और आराम पाया था। ये वो अस्ल शरअ और मजमा मुबादी और हक़ायक़ है जिसके हक़ में ख़ुदावन्द ने फ़रमाया, “क्योंकि मैं तुम से सच कहता हूँ कि जब तक आस्मान और ज़मीन टल ना जाएं एक नुक्ता या एक शोशा तौरेत से हरगिज़ ना टलेगा जब तक सब कुछ पूरा ना हो जाये।” (मत्ती5:18)वो शरअ आप ही आप कामिल और ख़ैर और रास्त और जिस ख़ास ओहदे और ख़िदमत के लिए ख़ुदा तआला से मुबय्यन हो गई, उस की मुहिम्मात और ज़वाबत को इस क़द्र कमाल तौर पर वफ़ा करने के क़ाबिल और लायक़ थी कि हर ऐब व कोताही से मुबर्रा थी और जितने नफ़र (अदना खादिम, नौकर) रूह-उल-क़ुद्दुस से रोशन ज़मीर और ग़ैब दान हो गए, वो हद व हिसाब से ज़्यादा उसे लज़ीज़ व नफ़ीस व अज़ीज़ जानते हैं। जैसा हज़रत दाऊद (ज़बूर 119) में ईमान व मुहब्बत व निशात के जोश से फ़रमाता है, “आह! मैं तेरी शरीअत से कैसी मुहब्बत रखता हूँ। मुझे दिन-भर उसी का ध्यान रहता है।” (ज़बूर 119:97)) और (ज़बूर 19) में उस अस्ल शरअ को जो मदार तौरेत है, शहद और शहद के टपकने वाले छत्ते से शीरींतर बताता है। (ज़बूर 19:10) और इस की अज़लियत और अबदीयत की उसी (ज़बूर 119) की बीस तीस गवाहियों से तक़रीर और तस्दीक़ करता है और इस के बातिनी मज़्मून की क़द्रो-क़ीमत ज़र व सीम के हज़ार-हा ख़ज़ानों से बढ़कर जानता है, ना कि उसे मतरूक और मंसूख़ जानता। और ऐसा ना हो कि किसी के दिल में जोश व मुबालग़ा का एतराज़ इतनी मदह व सताइश से पैदा हो तो वो हज़रत शरअ रब्बानी के ज़ातीया और बातिनी औसाफ़ व फ़ज़ाइल को सिल-सिलादारी से शुमार कर के (ज़बूर 119) में ख़ुसूसुन इस फ़ायदे ख़ास का तज़्किरा करता है जो शरअ की अमानत व ज़मानत में दिया गया है, यानी गुनाह खु़फ़ीया को बे-हिजाब और नंगा कर के और उस के इसरारों को कश्फ़ कर के ख़ुदा तआला की क़हर रेज़ी और सख़्त मुहासिबा व इताब का ख़ौफ़ दिल में पैदा करता है, “कौन अपनी भूल चूक को जान सकता है? तू मुझे पोशीदा ऐबों से पाक कर। तू अपने बंदे को बेबाकी के गुनाहों से भी बाज़ रख वो मुझ पर ग़ालिब ना आएं तो मैं कामिल होऊंगा और बड़े गुनाह से बचा रहूँगा।” (ज़बूर 19:12,13)

साहिबो इबारत और तलफ़्फ़ुज़ इन दो आयात बाला मन्क़ूल का निहायत क़वी और नाफ़िज़ और दिल सोज़ है। चूँकि आँहज़रत (दुरुस्त तलफ़्फ़ुज़ आँ हज़रत है) मुजम्मलन ख़ुदा की शराअ के उस उम्दा फ़ायदे को बयान करता है कि ख़ुदा की शरीअत गुनाह के उस मौरूसी तुख़्म और तासीर के जो जम्हूर बनी-आदम में सूरत-पज़ीर है और फ़ाइल व आमिल शरारत है, मुख़ालिफ़ और मुक़ाबिल होती है। तो वो दोनों रूबरू खड़े होते हैं और सख़्त जंग और कुश्ती जारी होती है। फिर इस जंग का जोश व जुंबिश बढ़ाना और मबऊस करना और इस कुश्ती की आतिश सोज़ां पर हैज़ुम (ईंधन, सूखी लकड़ी) का अंबार डालना। शरअ का पहला नतीजा और इस की फ़अलियत मुतअय्यन व मोअस्सर है। हाँ बेचारे गुनाहगार को मायूसी के ज़िंदान में जकड़ बंद करना जिससे मौत क़ब्ल अज़ मौत हो इस शरअ के ज़ख़्मों और ज़र्बों का हासिल हक़ीक़ी और ख़ास्सा है। हाँ इस कुश्ती की तख़्फ़ीफ़ और इस जंग में कुमक देना उस की मंजिलत और कार्रवाई के अहाते से बेरून (बाहर) है। इस तख़फ़ीफ़ और कुमक के काम में आप ही अपनी कम क़ुव्वती और क़सूर का मुक़र्र व क़ाइल है। इस नाचार गुनाहगार को ख़ुदा के फ़ज़्ल व रहमत के खुले हुए दरवाज़े पर जो ख़ुदावन्द मसीह है, पड़ा हुआ छोड़ा जाता है। ख़ुदावन्द मसीह के हुज़ूर में पहुंचा कर फिर आप पीछे हट जाता है। और इस अम्र में कुछ हतक-ए-इज़्ज़त नहीं उठाता बल्कि शर्फ़ व इज़्ज़त का इज़दियाद पाता है। तनज़्ज़ुल नहीं, बल्कि तफ़ज़्ज़ुल मिलता है। हाँ जैसा इस कोहे-ताबूर (Mount Tabor) में जहां ख़ुदावन्द मसीह ने नक़्ल सूरत (तब्दीली सूरत) हो कर अपने अस्ल जलाल और आइन्दा सल्तनत की रौनक कश्फ़ की। हज़रत मूसा और हज़रत एलियाह जो दोनों के दोनों शरीअत के उम्दा सतून और मज़्बूत पुश्तीबान थे, मसीह के साथ मुतजल्ली और मुनव्वर तीन मुख़तस रसूलों को नज़र आए। इसी तरह वो शरअ ख़ुद तालिबान नजात और मुंतज़िर इन ख़ुदावन्द मसीह को ख़ुदावन्द के हुज़ूर और ख़िदमत में हाज़िर कर के उस की तजल्लियात में जलवागर और इस की जे़ब व ज़ीनत से नसीब वर करती है। इसी तरह ख़ुदावन्द मसीह की शरअ मूसवी और कुल शरीअत ईलाही का मंज़िल-ए-मक़्सूद और इस की सब मुरादों की तक्मील और सब वादों का मूफ़ी बना और इस जिहत से शरअ ख़ुदावन्द यसूअ मसीह में बड़ी ताज़ीम और तकरीम पाती है। और जो शरअ की ताबेअ फ़रमानी और तामील अहकाम बंदगान-ए-ख़ुदा से नामुम्किन थी जब तक वो शरअ की गु़लामी में थे, अब ख़ुदावन्द मसीह में पैवस्ता हो कर फ़र्ज़न्द बनने पर उनसे बख़ूबी और आसानी से हो सकती है। जिस राज़ पर रसूल मुबारक साफ़ शहादत देता है,“इसलिए कि जो काम शरीअत जिस्म के सबब से कमज़ोर हो कर ना कर सकी वो ख़ुदा ने किया यानी उस ने अपने बेटे को गुनाह आलूदा जिस्म की सूरत में और गुनाह की कुर्बानी के लिए भेज कर जिस्म में गुनाह की सज़ा का हुक्म दिया ताकि शरीअत का तक़ाज़ा हम में पूरा हो जो जिस्म के मुताबिक नहीं बल्कि रूह के मुताबिक चलते हैं।” (रोमीयों 8:3,4)

पस जब इस अव्वल और अशर्फ़ मअनी वाली शरअ की ये हालत है कि अपने ओहदे और अहाते के अंदर की ख़ास ख़िदमत और कार्रवाई को दर्जा कमाल तक पूरा कर सकती है, पर नजात व सलामत के तयक़्क़ुन पैदा करने में आजिज़ और कम क़ुव्वत हो कर अज़ाब गिरफ़्ता ख़ताकारों को अह्द व मिसाक़ फ़ज़्ल की उम्मीद में क़ैद और पाबंद छोड़ती है तो बतरीक़ ऊला उस शरअ का जिसका मदार कलाम, अहकाम और रसूम हैं, वही अजुज़ का हाल होगा। उन्हीं ज़ाहिरी रस्मों और क़ाईदों की तरफ़ इशारा कर के पोलुस रसूल फ़रमाता है, “पस अगर तुम मसीह के साथ दुनियवी इब्तिदाई बातों की तरफ़ से मर गए तो फिर उन की मानिंद जो दुनिया में ज़िंदगी गुज़ारते हैं इंसानी अहकाम और ताअलीम के मुवाफ़िक़ ऐसे क़ाईदों के क्यों पाबंद होते हो, कि उसे ना छूना, उसे ना चखना, उसे हाथ ना लगाना, क्योंकि ये सब चीज़ें काम में लाते-लाते फ़ना हो जाएँगी?” (कुलस्सियों 2:20,21) “पस जब तुम मसीह के साथ जिलाए गए तो आलम-ए-बाला की चीज़ों की तलाश में रहो जहां मसीह मौजूद है और ख़ुदा की दहनी तरफ़ बैठा है।” (कुलस्सियों 3:1)

पस इस के मुवाफ़िक़ जो शरअ परस्त है तो शरअ रब्बानी के ऐन मतलब व मुराद से चूक गया है और अपनी ही रास्ती शरइया पर जब क़ायम और मब्नी होता है और उसे पुख़्ता और कामिल और बेऐब व बे चीन दिखाना चाहता है, तब ख़ुदा की हक़ीक़ी रास्ती से बे-बहरा रहता है और चूँकि इस मलऊन मेहमान की मानिंद जिसका ज़िक्र इन्जीली तम्सील में इबरत के लिए दर्ज है, ये जुर्रत करता है कि बादशाह की मुहय्या की हुई पोशाक रद्द कर के बादशाह के दस्तर ख़्वान पर हाज़िर होने का अपने आप को मुस्तइद समझना है। इस वास्ते हर-चंद कि रस्म व रिवाज के हर हर्फ़ और शोशे का बारीक बीन और नुक्ता चीन हो, मगर फिर भी शरअ की रूह और हक़ीक़त मज़ामीन से महरूम रहता है और हज़ार-हा तकालीफ़ शदीदा और लाज़रूरी का ज़ेर-ए-बार होता है। जो बंदगान इस तरह की गु़लामी को फर्ज़न्दियत की आज़ादी और कुशादा दिली से अफ़्ज़ल जानते हैं, उनका अंजाम क्या ही सख़्त दुशवार और मलामत आमेज़ है। बमूजब इस क़ौल मसीह के, “और ग़ुलाम अबद तक घर में नहीं रहता बेटा अबद तक रहता है। पस अगर बेटा तुम्हें आज़ाद करेगा तो तुम वाक़ई आज़ाद होगे।” (युहन्ना 8:35,36) और पोलुस रसूल की इबरत नुमाई वैसी ही है, “मगर किताब मुक़द्दस क्या कहती है? ये कि लौंडी और उस के बेटे को निकाल दे क्योंकि लौंडी का बेटा आज़ाद के बेटे के साथ हरगिज़ वारिस ना होगा। पस ऐ भाईओ हम लौंडी के फ़र्ज़न्द नहीं बल्कि आज़ाद के हैं।” (ग़लतीयों 4:30,31)

वो तमाम मसअला जिसका माख़ज़ व मदार शरअ और शरअ परस्ती है, रूहुल-क़ुद्दुस ने हज़रत पोलुस के ग़लतीयों के नाम ख़त के ज़रीये से इस क़द्र क़तई दलीलों और साफ़ तक़रीरों और मुफ़ीद सलाहों से इन्फ़िसाल व इन्क़िताअ़् किया है कि ज़्यादा कील व क़ाल और मुबाहिसा मह्ज़ तवालत लाहासिल और बातिल फ़ुज़ूलगो मालूम देती है। बिलाशुब्हा कलाम-ए-ख़ुदा की शमशीर ज़नी उस ख़त में निहायत तेज़ और दिल तराश है। इस से यक़ीन है कि हर शरअ परस्त ख़ुदावन्द मसीह के इस ओहदा जलीला और मंज़िला ला-शरीक पर नाहक़ दस्त अंदाज़ी करता है। जिस से वह ख़ुदावन्द मसीह आप मौरिद लानत हो कर क़ातिल और क़ातेअ लानत शरइया सब मोमिनों के लिए हो गया और इलावा अज़ां वो शरअ परस्त ख़ुदा तआला की इस मश्वरत क़दीम को जो क़ब्ल अज़ आलमीन पुख़्ता और साबित थी, ख़्वारो ज़लील जान कर ता-बमक़दूर ज़ेरो ज़बर और नेस्त व नाबूद करता है। अज़ां सबब कि अपनी क़लील व नाक़िस शरअ पर्वरी और हिफ़ाज़त अहकाम का सवाब बमुक़ाम मसीह की वकालत व क़फ्फारे के मूजिब क़बूलीयत और बाइस नजात का बताता है। पस हर तालिब हक़ीक़त से अर्ज़ व माअरूज़ है कि बड़ी सोच व ग़ौर से इस ख़त की सैर व मुतआला कीजीए और लौह ख़ातिर पर नक़्श व हिफ़्ज़ कीजिए।

हासिल कलाम : : अगर कोई मोअतरिज़ या जो यान हक़ीक़त फिर दुबारा ये सवाल करे कि ताअलीम इल्हामी रसूलिया और दर्स मसीही शरअ पर्वरी और रिआयत तौरेत के साथ कौन ताल्लुक़ रखता है तो इंशाअल्लाह इन ख़यालों पर ग़ौर कर के ज़रा सी ख़ातिर जमुई हासिल होगी और हक़ीक़त-ए-हाल दर्याफ़्त होगी। अगर वो मुहक़्क़िक़ बऐतबार उस तीसरे मअनी वाली शरअ के ये सवाल करे तो रसूलों का जवाब सादा और सरीह आयात मज़्कूर बाला से निकल चुका है। रसूल हर हाल और सूरत की शरअ परस्ती की ताकीद से तर्दीद करता है, बल्कि मिन्नत से इस की मुमानिअत करता है। अगर उस दूसरे की निस्बत सवाल हो जिससे मुराद रसूमात ईनजहानी और अहकाम जिस्मानी हैं कि तावक्त मुईन मामूर हो गए थे तो जवाब उस का बराबर सीधा और सादा और बे पस व पेश है। उस मीयाद तक उन की हिफ़ाज़त रिआयत बहुत ही सही व मुस्तहब बल्कि फ़र्ज़ व लाज़िम भी थी, बाद अज़ां आज़ादी के वक़्त उन की गु़लामी और क़ैद में रहना बेजा है और मह्ज़ नाशुक्री और ख़ुद-पसंदी, बल्कि फ़साद और ना-फ़रमानी जो मूजिब इल्ज़ाम है। और अव्वल और आली मअनी वाली शरअ की हिफ़ाज़त व इल्तफ़ात रसूल इस क़द्र फ़र्ज़ व लाज़िम जानता है कि लज़ूमियत (ज़रूरत) इस की अब हज़ार गुनी बढ़कर बताता है।

इस वजह से कि ख़ुदावन्द मसीह ने उस अस्ल शरअ का मए बाअज़ मुल्हिक़ात मुक़र्ररा की तक्मील व तामील करना और कराना अपने ज़िम्मे लिया है, बल्कि अपनी ही मुहब्बत की ख़ातिर अपनी रूह की तौफ़ीक़ से उस शरअ की रिआयत और तकरीम का दावा अपने सब बंदों से करता है और उस तामील की रग़बत और क़ुदरत भी उन के अंदरून में पैदा करना है और अपनी तक्मील शरअ और कफ़्फ़ारे के सवाब से उनकी तामील का नुक़्स व क़सूर बख़्शता है और पूरा भी करता है। बमूजब क़ौल बाला माअरूफ़ के, “इसलिए कि जो काम शरीअत जिस्म के सबब से कमज़ोर हो कर ना कर सकी वो ख़ुदा ने किया यानी उस ने अपने बेटे को गुनाह आलूदा जिस्म की सूरत में और गुनाह की कुर्बानी के लिए भेज कर जिस्म में गुनाह की सज़ा का हुक्म दिया ताकि शरीअत का तक़ाज़ा हम में पूरा हो जो जिस्म के मुताबिक नहीं बल्कि रूह के मुताबिक चलते हैं।” (रोमीयों 8:3,4)और इसी शरअ की हिफ़ाज़त की बाबत पोलुस रसूल कुरिन्थियों के नाम ख़त में ये तक़रीर और तारीफ़ करता है, “ख़ुदा के नज़्दीक बे शरअ ना था बल्कि मसीह की शरीअत के ताबे था।” (1 कुरंथियो 9:21)

बाब याज़ दहुम

दर बाअज़ अम्साल व इबारात व मज़ामीन कलाम-उल्लाह व ख़ुसूसुन दर बाअज़ हवास व ख़वास कि दर कुतुब ईलाही सोए रब तआला इतलाक़ कर्दा शूदा इंदि कि अज़ आंहा निज़द बाअज़ मुअतरज़ान नुक़्स व क़सूर दर शान ओ तआला मे आयद

در بعض امثال و عبار ات و مضامین کلام اللہ و خصو صاً د ر بعض حواس وخواص کہ د ر کتب الہٰی سوئے رب تعالیٰ اطلاق کردہ شدہ اندکہ از آنہا نزد بعض معترضان نقص و قصور در شان او تعالیٰ لازم مے آید

क़रीब है कि हर क़ौम व मुल्क में बाअज़ अश्ख़ास ऐसे मिलते हैं जो अम्साल और तशबीहात की राह से मुतकल्लिम होना ख़ुदा का मूजिब तख़फ़ीफ़ व तन्क़ीस (नुक़्सान, कमी) बताते हैं और उस की ज़ात मुबर्रा व मुअ़र्रा के औसाफ़ से बईद। और उन में से भी जो अम्साल और तशबीहात से नफ़रत नहीं करते बाअज़ ऐसे हैं कि अम्बिया की कोई कोई मिसालें कुतुब समाविया के नालायक़ और ना सज़ावार बल्कि ज़िश्त (बदशक्ल) और ज़बूँ (आजिज़, ज़लील) भी जानते हैं। अज़बस कि वो लोग अपनी नाक़िस अक़्लों को कलाम-ए-ख़ुदा के तराज़ू और महक (कसौटी, वह स्याह पत्थर जिस पर सोना चांदी परखा जाता है) ठहरा कर अपने अपने ज़ोअम व क़ियास के क़वानीन को बनाते हैं। जिससे अगर ज़रा भी इख़्तिलाफ़ किसी मौज़अ़ में हो तो उसे क़ौल ख़ुदा से मुन्क़तेअ़ करना चाहते हैं और दर-हालिका ख़ालिक़ व परवरदिगार आलम ने अपने दस्त की सनअत-गरी से जो बनी-आदम हैं, मुख़ातब और मुतकल्लिम होने के कई कई तरीक़ों को पसंद किया है। वह उस रब तआला पर क़ैद लगाने के वास्ते एक तरीक़ा ख़ास जिस की ﷺ मुहम्मद ने तक़्लीद की है, मन्ज़ूर कर के सिर्फ उसी को शान-ए-ख़ुदा और क़ौल इल्हामी का मुस्तहिक़ बताते हैं और बाक़ी सब अत्वार से वो सुलूक करते हैं जो यहवीक़ीम शाह यहूद ने बाअज़ वईदों और तहदीदों से किया, जिन्हें इस तआला ने यर्मियाह नबी पर नाज़िल फ़रमाया यानी चाक़ू लेकर उन वर्क़ों को चाक-चाक कर के अँगीठी में डाल कर भस्म कर दिया। इसी तरह वो नीम अक़्ल और गुस्ताख ख़ुदा तआला के अम्बिया पर बल्कि ख़ुदा तआला पुर-तकब्बुराना ये दावा करते हैं कि रूहुल-क़ुद्दुस की इल्हामियत को हमारे क़ाईदों की हदूद के अंदर मुक़य्यद और महसूर करना ज़रूर चाहीए और अगर शायद वो रूह अपनी आज़ादगी के बमूजब इन हदूद मौज़ूअ़ से कुछ तजावुज़ करे तो अंगुश्त बगोश हो कर गोया ख़ुदा के वज़ीर व मुशीर बन कर ख़ुदा के मुक़द्दसों में अपने फतावी जारी करते हैं। हर-चंदकि हज़रत सुलेमान ने जो कुल जहान के उम्दा से उम्दा हकीमों से सबक़त ले गया, कलाम-उल्लाह की कमालियत और बे मुत्तरूकी पर ये साफ़ शहादत दी, “और मुझको यक़ीन है कि सब कुछ जो ख़ुदा करता है हमेशा के लिए है। उस में कुछ कमी बेशी नहीं हो सकती और ख़ुदा ने ये इसलिए किया है कि लोग उस के हुज़ूर डरते रहें।” (वाइज़ 3:14)

ग़ालिबन इन मज़्कूर बाला मुतकब्बिरों ने इस अम्र मशहूर को फ़रामोश किया कि जब साहिब-ए-इल्म व फ़ज़्ल अपने लड़कों को दर्स देना चाहता है तो उन्हें ना इतना बारीक इल्म ना इतनी लतीफ़ और ज़रीफ़ इबारतों में जितना उम्र रसीदों और अस्हाब इस्तिदाद (सलाहियत) के लिए चाहीए, ताअलीम देता है वर्ना हकीम क़द्रशनास हरगिज़ ना जाना जाएगा। अब सोच कर और होश से इस बात को समझ लो कि बादशाह और पर्द आलमीन की ये मर्ज़ी और रईयत पर्वरी और हिक्मत आमेज़ बन्दोबस्त था कि किताब क़ुद्दूस व समाविया ना सिर्फ यहूद की मीरास हो बल्कि कुल जिन्स इन्सान के सब क़बीलों और लुग़तों पर, मसलन बाबुल और नैनवा और ईरान और यूनान और रोम वग़ैरह। पर रफ़्ता-रफ़्ता मुन्क़सिम और मुश्तर्क हो जाये और ये भी कि वो किताब ना एक ज़माने या पुश्त के साथ मुख़तस हो, बल्कि पुश्त दर पुश्त नस्ल इब्राहिम के तव्वुलुद और तिफ़्लेत ही से लेकर उस नस्ल की उम्र दराज़ी और पीरी तक फैलती और अपनी तासीर बढ़ाती चली जाये यहां तक कि कोह सीहोन पर से चश्मा लबरेज़ उमंड़ कर दरिया-ए-नूर और हयात बन कर रुबअ़ मस्कून की बरकत व सेहत का बाइस हो जाये।

पस जब ख़ुदा तआला की ये मर्ज़ी थी तो गुमान ग़ालिब और वाजिब था कि इल्हाम का तर्ज़ तरीक़ रंगा-रंग और मुतफ़र्रिक़ हो और कि रूह इल्हाम मुख़्तलिफ़ अम्बिया और मर्दान-ए-ख़ुदा को इख़्तियार और तैयार कर के रब तआला के पैग़ाम के मज़ामीन बांट-बांट कर सपुर्द करे और ये भी कि जिस-जिस ज़माने में वो इल्हाम नाज़िल हुआ तो अहले ज़माने की फ़हमीदा और इस्तिदाद (सलाहियत) के कुछ मुवाफ़िक़ और मुनासिब हो। आंतोर कि दर-हालिका अस्ल मतलब तो एक ही हो, पर नबी-उल-ज़मान तिफ़्लों से तिफ़लाना और बालिग़ों से बालिग़ाना बोले और ये सिर्फ़ वाजिबी गुमान नहीं बल्कि साफ़ नक़्ली दलीलों से साबित और मफ़्हूम है कि ख़ुदा की ये ऐन मर्ज़ी थी कि मआनी तो सब के सब अल्लाह जल्जलालहू के मुस्तूजिब, मगर इबारत और तरीक़ा तफ़हीम व ताअलीम में फ़र्क़ बलिहाज़ व अंदाज़ा तफ़रीक़ हाल व बर्दाश्त सामईन के मुक़र्रर हो।

चुनान्चे होसीअ की किताब में है, “मैं ने तो नबियों से कलाम किया और रोया पर रोया (कश्फ़) दिखाई और नबियों के वसीले से तश्बीहात इस्तिमाल कीं।” (होसीअ 12:10) और इसी अम्र का मुसद्दिक़ है वो क़ौल ख़ुदा जिसमें हज़रत मूसा की सबक़त और तर्जीह बाक़ी सब नबियों की निस्बत बयान होती है। देखो गिनती की किताब में मर्क़ूम है, “तब उस (ख़ुदा) ने कहा मेरी सुनो! अगर तुम में कोई नबी हो तो मैं जो ख़ुदावन्द हूँ उसे रोया (कश्फ़) में दिखाई दूँगा और ख्व़ाब में उस से बातें करूँगा। पर मेरा ख़ादिम मूसा ऐसा नहीं है, वो मेरे सारे ख़ानदान में अमानतदार है। मैं उस से मअ़मों में नहीं बल्कि रूबरू और सरीह तौर पर बातें करता हूँ और उसे ख़ुदावन्द का दीदार भी नसीब होता है।” (गिनती 12:6-8)और ग़ालिबन कलाम ईलाही के तर्ज़ व तरीक़े की ये तफ़रीक़ व सूरत रंगा-रंग इशारतन एक दूसरे मुक़ाम में बताई जाती है, यानी यसअयाह की किताब में, “वो किस को दानिश सिखाएगा? किस को वाअज़ कर के समझाएगा? क्या उन को जिनका दूध छुड़ाया गया जो छातीयों से जुदा किए गए? क्योंकि हुक्म पर हुक्म, हुक्म पर हुक्म। क़ानून पर क़ानून, क़ानून पर क़ानून है। थोड़ा यहां थोड़ा वहां। लेकिन वो बेगाना लबों और अजनबी ज़बान से उन लोगों से कलाम करेगा।” (यसअयाह 28:9-11)

इलावा बरां कलाम-ए-ख़ुदा की कुल्लियत ताअ्लीम और मुतअ़द्दा ख़ास शहादतों से (मसलन हज़रत सुलेमान के अम्साल की किताब के आठ अव्वल अबवाब पर ग़ौर व लिहाज़ करने से) साफ़ मालूम होता है कि अस्ल और उम्दा मुराद रब तआला की तमाम जिन्स की मस्लिहत और तसहीह अवाम है। बाअद-अज़ां तफ़हीम व ताअलीम उलमा व हुकमा और वो हुक्म मुकर्रर ताकीद न हज़रत मूसा पर उतरा कि तिफ़्लाँ कम फ़ह्म और नाख़्वान्दा भी तौरेत में रोज़-रोज़ सुनने सुनाने से पुख़्ता हो जाएं। पस ऐसे-ऐसे हुक्मों से क्या नतीजा निकलता है? मगर ये कि जैसा कोताह बीनों (नज़र की कमज़ोरी) के लिए ऐनक और सुस्त क़दमों के लिए असा और तिफ़्लों के लिए अबजद ख़ानी मुफ़ीद है और ब-कार (मर्ज़) है, इसी तरह कलाम-ए-ख़ुदा के मज़ामीन आली और हिकमतें और हक़ीक़तें बे पायाब ना वाहीयात और पोच गोइयों (फ़ुज़ूल बकवास) और दून (शेख़ी) और अदना अक़्वाल में, बल्कि रोज़मर्रा की तश्बीहों और तमसीलों में और मन्क़ूलात ज़बान ज़द में सुस्त फ़हमों के लिए माअरूफ़ हो जाएं।

हाँ रब तआला ने जिसके औसाफ़ और खिताबों में बनी-आदम का मुहिब और मुहाफ़िज़ मशहूर है गोया तवाज़ो की राह से अपनी किब्रीयत (गंधक, उम्दा सोना, ज़र-ए-ख़ालिस) को गुदाज़ व मुलाइम कर के और अपनी अलवियत व बुजु़र्गी को पस्त व ख़ुर्द कर के ऐसे दिलासा और नरम व सहल ज़बान से इन्सान से तकल्लुम फ़रमाया कि गोया आप ही हवास इन्सानी और रग़बतों और दिली हरकतों और जुम्बिशों में शरीक था। मसलन हज़रत नूह के ज़माने का ज़िक्र है कि तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की शरारत कुल्लिया और ज़लालत आम्मा के सबब उसे नेस्त से हस्त में लाने से रब तआला तवाब (तौबा करने वाला) था। और यर्मियाह नबी में इस क़ादिर-ए-मुतलक़ का बयान है कि जिस किसी नाचार ख़ताकार के क़ल्ब (दिल) व बातिन से ग़म व पशेमानी व नदामत की साफ़ अलामतें दिखाई देती हैं, उस पर आँ तआला सोख़्ता व गदाख़ता (जला हुआ, अफ़्सुर्दा, पिघला हुआ) हो कर तरस खाता है और तौरेत के दूसरे मुक़ाम में मज़्कूर है कि क़ादिर-ए-मुतलक़ ने ग़ज़ब के जोश और सख़्त क़हर रेज़ी से हज़रत मूसा की सिफ़ारिश की मुमानिअत की, इस मुराद से कि कुल क़ौम बनी-इस्राईल को बेख़ व बिन से महव कर डाले। सच तो ये है कि ऐसे-ऐसे जोश व जुंबिश दिली से ख़ुदा तहकीक़न मुबर्रा व मुअर्रा है, पर जब कि ये भी सच है कि ख़ुदा ने आदम को अपनी मुशाबहत में अपनी मानिंद ख़ल्क़ किया जिससे हमारे हवास की मज़्कूर बाला जुन्बिशें बाअज़ अश्या और हक़ायक़ की जो उस आली मुआली की ज़ात में मौजूद हैं, ज़ईफ़ साया और शबिया हैं, मगर ना जैसी वो अब इस हमारी ख़स्ता शिकस्ता हालत में झलझलाहट से जोशाँ हैं। पर जैसी तब थीं जब ख़ुदा तआला की उस अस्ल मुशाबहत और इनअ़कास (अक्स) में कुछ ख़लल ना आया था और अब भी उन जुम्बिशों के आसार और तसावीर व तशाबा (मुशाबहत) आदिल व रास्त मुस्नद नशीन क़ाज़ीयों और बादशाहों के मिज़ाजों और फतावे में नज़र आते हैं।

बहरहाल कोई साहब-ए-होश व मुदरक इस अम्र पर ताज्जुब ना करे कि फ़ुलां-फ़ुलां आमाल जिन-जिन जुम्बिशों और दिली हरकात इन्सानी का मज़हर और मुअर्रिफ़ हैं, जब उन या उन की मानिंद दीगर अमलों का फ़ाइल हक़-तआला है तो उन्हीं हरकतों और दिली जुम्बिशों को कुतुब इल्हामी के मुसन्निफ़ों ने उस तआला पर इतलाक़ किया है। बरोफ़िक मुबतदा-ए-इलमिया और हिकमियह के जो शरअ फ़िसोस में इन लफ़्ज़ों में हवाला क़लम है। इज़हार-ए-अस्मा कि कमाल ज़ात तआला अस्त अज़ फ़आल औसत बाईं मअनी कि अस्मा मख़्फ़ी (छिपी) अज़ आलमयान व ज़हूर अस्मा हासिल नमेशोद मगर बआसार व अफ़आल ना बां मअनी कि अफ़आल सबब अस्मा अंद ज़ीरा कि अस्मा सबब व अलल अफ़आल अंद वग़ैरह।

और इलावा बरां जिस तरह दरहाल ज़हूर व वक़ूअ अफ़आल नबियों ने उन दिली जुम्बिशों को जिन पर वो आमाल बनी-आदम के बीच मुस्तलज़िम हैं, उस क़ादिर-ए-मुतलक़ पर इतलाक़ किया इसी तरह उन इबारतों को जो ऐसी जुम्बिशों की मुअर्रिफ़ हैं। ख़ुदा तआला की गुफ़तार इस्तिमाली से बईद नहीं बताया। चुनान्चे हज़रत सुलेमान की अम्साल में ठट्ठे बाज़ अहले शर के हक़ में यूं लिखा है, “इसलिए मैं भी तुम्हारी मुसीबत के दिन हँसूँगी और जब तुम पर दहश्त छा जाएगी तो ठट्ठा मारूंगी, तब वो मुझे पुकारेंगे लेकिन मैं जवाब ना दूंगी और दिलो-जान से मुझे ढूँडेंगे पर ना पाएँगे।” (अम्साल 1:26,28)इन दो आयतों का मज़्मून तो एक ही है, सिर्फ तारीफ़ का तर्ज़ तरीक़ा मुतफ़र्रिक़ है। पहली में अम्साल और तशबिहयात और दूसरी में साफ़ सादा तक़रीर है। इतना फ़र्क़ है कि अम्साल में क़ुव्वत और लुत्फ़ और तासीर ख़वास व अवाम पर बढ़कर है, जो शायद कोई मोअतरिज़ इस पहली आयत की इबारत में ऐब चीनी करे तो दूसरी आयत से जब तशरीह मिली तो कौन साहब क़बाहत व एतराज़ बाक़ी रहा।

इसी क़िस्म के इस्तिमाल का एक और नमूना (ज़बूर 18) में देखो जहां बाअज़ मोअतरिज़ों ने शायद जाये ऐब व क़बाहत पकड़ी है “रहम दिल के साथ तू रहीम होगा और कामिल आदमी के साथ कामिल। नेकोकार के साथ नेक होगा और कजरो के साथ टेढ़ा।” (ज़बूर 18:25,26) यक़ीन है कि ख़ुदा तआला के अफ़आल से वाक़िफ़ और आश्ना हज़रत दाऊद से बढ़कर कभी कोई आलम-ए-वुजूद में नहीं आया, पर तो भी वो मर्द-ए-ख़ुदा रब तआला की उस फ़अ़लियत और सुलूक की तरफ़ नज़र व लिहाज़ कर के जिसे वो तआला कजरूवों की तरफ़ दिखाया करता था कज-रवी की सूरत और इज़्हार ख़ुदा पर इतलाक़ करता है। यही जा-ए-ऐतराज़ है बाअज़ अहले ख़िलाफ़ के नज़्दीक। पस वो लोग ग़ौर करें कि वो कलिमात जो क़बीह और मअ़य्यूब (एब वाला) मालूम होते हैं, सरासर तशबिहाना तरीक़े पर हैं।

अब फ़र्ज़ करो कि बजाय अम्साल व इश्बाह के इस जुम्ले में सिर्फ सीधी तक़रीर होती या अम्साल और साफ़ तक़रीर दोनों मौजूद होतीं और कि उस की इबारत इस तौर पर होती कि कोई कज-रौ ख़ुदा के घर से बे-सज़ा रवाना नहीं होगा तो बमुश्किल तल्ख़ तरीन और सख़्त तरीन ऐब-जोयों में कोई इस तक़रीर में एतराज़ पकड़ता। पस जब इस मज़्मून की सादा तक़रीर में ऐब नहीं तो उसी मज़्मून की अम्साल की ऐब चीनी कैसा अक़्ल व इन्साफ़ है। यही मोअतरिज़ ख़ुदा तआला के कलाम की और अम्साल पर ऐब लगाते हैं और उन्हें क़बीह जानते हैं जिनमें परवरदिगार आलम की फ़अलियत का बयान है और ख़ुसूसुन उस इताब व अज़ाब व इंतिक़ाम पर जो बाग़ीयों और मुफसिदों पर सादिर वारिद हुआ करता है। पस इन अम्साल में से बाअज़-बाअज़ ऐसी हैं जिन्हें बाअज़ मौलवियान लाहौरी अपने मुरीदों समेत ज़िश्त व ज़बूं और फ़ाहिश बताते हैं।

ऐ साहिबो ख़ुदा के हुज़ूर में हमें यक़ीन है कि जिस किसी शख़्स के दिल में फ़ुहश की जड़ और अस्ल ना हो वो ख़ुदा के पाक कलाम पर फ़ुहश का इल्ज़ाम लगाने का मौक़ा किसी आयत या जुम्ला से नहीं निकालेगा, बल्कि फ़िस्क़ व फ़ुजूर के अफ़आल का ज़िक्र इशारतन भी नहीं आता। मगर इस मुराद से कि वो उन्हें जो शर के मुर्तक़िब हुए हैं, मुल्ज़िम और मुजरिम ठहराए और उन के दिलों में ख़ौफ़ और इबरत डाले और हर साहब अदल व अक़्ल इस क़ाएदे का क़ाइल होगा किमुसन्निफ़ की नीयत और इरादे पर लफ़्ज़ की निस्बत ज़्यादा लिहाज़ करना चाहीए। जो इस क़ाएदे के तराज़ू पर मज़ामीन को तोलेगा, वो हरगिज़ ठोकर ना खाएगा। (यसअयाह 47:1-3)पर बाअज़ मौलवियों ने गंदगी और पलीदी का ऐब व दाग़ सादिक़ करने के लिए बहुत बेजा सई और कोशिश की है और ख़ुदा तआला के सख़्त तंबीया वाले और वज़नी कलिमात पर जबरन ऐसे उलटे मअनी डाले हैं कि बाज़ारों में हर बच्चा और जवान उस पर मेल फेंक कर अपने आपको ख़ुदा-परस्त और मुसल्लम हक़ीक़ी जानता है और हैरत-अंगेज़ कुफ़्र की बातें चिल्ला-चिल्ला कर ख़ुदा की मस्लिहत आमेज़ इबारतें अपनी हलाकत की तरफ़ पल्टाता है।

अब ज़रा सोच करने से मालूम होगा कि इन आयात मज़्कूरह में “बाबुल की बेटी, दुख़्तर-ए-बाबुल” से मुराद अहले बाबुल यानी बाबुल शहर के बाशिंदे हैं और मिसाल उस शहर की एक बाद-शाहज़ादी से दी जाती है जो मुद्दत से बादशाही महल में नाज़नीन व नाज़ुक पर्दा-नशीन हो कर एश व इशरत में रहा करती थी और शर्फ़ व ज़ीनत में सब हम-असर शाहज़ादियों से मुम्ताज़ और मुख़्तार थी, पर तो भी मग़रूरी और तकब्बुर और जोर व जफ़ा और ख़ुदग़र्ज़ी और बुत-परस्ती में बाक़ी सब क़बाइल जहान में बेमिसाल और शहरा-आलम हो गई थी। इसलिए ख़ुदा तआला के हुज़ूर से ये फ़त्वा निकला कि उस की शिकस्त और ख़ाक-नशीनी और फ़ज़ीहत उतनी ही हैबतनाक और इबरत नुमा होगी जिस क़द्र औक़ात साबिक़ में वो फ़ख़्र व ग़रूर में सबक़त ले गई थी। उस की पर्दा-नशीनी का हिजाब खुल जाएगा। आइन्दा ज़र-ख़रीद लौंडी के मुवाफ़िक़ वो चक्की पिसेगी और बरहना-पा फरात नदी के पायाब की राह से पार उतरेगी। इतनी बेचारगी और बे-हुरमती की हालत होगी कि वो अंजाम जिससे ज़नान शर्मसार और राज़ परवर मौत को हज़ार गुनाह मुस्तहसिन (बेहतर) जानती हैं, उस पर सरज़द होगा यानी नंग व नामूस की पर्दा कुशाई। जब कि वो बिंत बाबुल अपनी नहानी (नहाने की ज़रूरत, एहतिलाम) शरारतों में ऐसी बेचूं और बे-हया थी तो बतौर क़िसास (ख़ून का एवज़ ख़ून) और मिजाज़ात के ख़ुदा-ए-बरहक़ के रास्त फ़त्वे से वो अपनी रुस्वाई और रू-स्याही में भी ला मिसाल और बे-चूं होगी। और इस की मानिंद और भी आयात हैं जिनमें बयान उस होलनाक अज़ाब और इताब का जो सरकशों और मुफसिदों पर उतरने वाला है, इस सूरत पर है कि सबसे सहम नाक उमूरात ईनजहानी अम्साल और तशबीहात की राह से इस्तिमाल हुआ करते हैं ताकि दीदनी मालूमात के ज़रीये से मजहूल चीज़ों का फ़हम और यक़ीन ख़ुदा तरसूँ में सीना नशीन हो जाये। मसलन क़हर ईलाही के इस मोहलिक और बे-बर्दाश्त सदमें की जो बेवफ़ा और बेईमान उम्मत पर वारिद हुआ चाहता था क्या ही मुक़व्वी और दिल तराश मिसाल (होसीअ 13:7,8) में मिलती है, क्योंकि ख़ुदा तआला की मर्ज़ी थी कि आलम-ए-शुहूद के वाक़ियात में आलम रूहानियत की ऐसी साफ़ मुताबिक़त नज़र आए, जैसा कि आईना में मुँह मुनाकिस हो कर दिखाई देता है “इसलिए मैं उन के लिए शेर बब्बर की मानिंद हुआ। चीते की मानिंद राह में उन की घात में बैठूँगा। मैं उस रीछनी की मानिंद जिसके बच्चे छिन गए हों उन से दो-चार हूँगा और उन के दिल का पर्दा चाक कर के शेर बब्बर की तरह उन को वहीं निगल जाऊँगा। दश्ती दरिंदे उन को फाड़ डालेंगे।”यहां भी उन बाला-मज़्कूर आयात के मुवाफ़िक़ एक मुशब्बेह एक मुशब्बेह बह मौजूद है। एक हक़ीक़ी शैय और एक तम्सीली।

अब जो मौलवी साहिबों ने तम्सील से जाये तार्रुज़ और ताख़ज़ निकाला है तो अफ़्सोस है कि वो हक़ीक़ी शैय से जो इस मौज़ेअ़ की मुराद है, चूक गए। अगर इस मुक़ाम की अस्ल इब्रानी इबारत पर ज़रा सी सबूरी से लिहाज़ व ग़ौर होता तो आसानी से मालूम होता कि इस (यसअयाह 13:6) से लेकर मिसाल गल्ला और गल्लाबानी के दरम्यान में आई है। बनी-इस्राईल मिस्ल गल्ला के है जो सब्ज़ा-ज़ार की शादाबी और चराई की फ़रवानी से सैर व फ़रबा हो गए और सिर्फ यही नहीं बल्कि अपने चौपान से ग़ाफ़िल और बे शुक्र और उस की महर व मुहब्बत को फ़रामोश कर गए तो ग़ालिबन और वाजबन् उस की चौपानी और गल्लाबानी की सूरत बदल जाती। ख़ुदा तआला चरवाहा होने से बाज़ तो नहीं आता मगर इन ग़ाफ़िलों और दो दिलों को अपनी तरफ़ रुजू कराने के लिए तादीब व तंबीया के वसाइल और तदाबीर अपनी पर्वर्दिगारी से तैयार करता। जिस अर्से तक ये तादीब और रंजूरी बरपा होती और उस से गम व अलम और आह दरेग़ पैदा होता तो इस्राईल का दोस्त गोया दुश्मन के भेस में होता। दिल तो चरवाहे का पर सूरत और आवाज़ शेर बब्बर की। जब इस तरह की सियासत और रिआयत का कमाल फ़ायदा हासिल होगा, तब अंजाम क्या ही ख़ूब होगा और ख़ुदा की दाइमी मुहब्बत की दलील क्या ही पुख़्ता और क़वी हो जाएगी, चुनान्चे लिखा है, “ऐ इस्राईल यही तेरी हलाकत है कि तू मेरा यानी अपने मददगार का मुखालिफ़ बना।” और इस नबी ने (यसअयाह 6:1-2) इस इबारत ईलाही के अंजाम और हासिल का और भी साफ़ व सरीह बयान मिलता है, “आओ हम ख़ुदावन्द की तरफ़ रुजू करें क्योंकि उसी ने फाड़ा है और वही हमको शिफ़ा बख़्शेगा। उसी ने मारा है और वही हमारी मरहम पट्टी करेगा। वो दो रोज़ के बाद हमको हयात ताज़ा बख़्शेगा और तीसरे रोज़ उठा खड़ा करेगा और हम उस के हुज़ूर ज़िंदगी बसर करेंगे।” जानना चाहीए कि ये सब बातें रूह ख़ुदा की हरकतों और आसारों में से हैं और ख़ुदा के राज़ों और फ़न व हिकमत ईलाही की पोशीदा अलामतों से हैं।

अज़ां जिहत जिस्मानी मिज़ाज और क़ुव्वत-ए-मुद्रिका (दर्याफ़्त करने और मालूम करने की क़ुव्वत) की समझ और फ़हम में दाख़िल नहीं हो सकतीं। बमूजब इस क़ौल रसूल के,“मगर नफ़्सानी आदमी ख़ुदा के रूह की बातें क़बूल नहीं करता क्योंकि वो उस के नज़्दीक बेवकूफ़ियों की बातें हैं और ना वो उन्हें समझ सकता है क्योंकि वो रूहानी तौर पर परखी जाती हैं।” (1 कुरंथियो 2:14) महफ़िल हुकमा में इस तरह के मसाइल की हुज्जत व बह्स बातिल है जब तक रूह ख़ुदा के नूरू हिदायत से हिजाब ना उठ गया हो और चश्म-रुहानी पर से जाला ना उतर गया हो और इस आलम नूरानी में जिसका शम्स ख़ुदावन्द मसीह है, क़ुर्बत (नज़दिकी) और मुदाख़िलत का हक़ दस्तयाब ना हुआ हो।

हासिल कलाम : इन सब आयात मज़्कूर में और जितनी और उनकी मानिंद बतौर तार्रुज़ मुवाख़िज़ा के पेश की जाती हैं, सादिक़ों और साफ़ दिलों के नज़्दीक ज़श्ती ज़बूनी के सबब मअ़य्युब (एब वाला) होने का ज़रा भी मौक़ा और मूजिब बाक़ी ना रहा। ऐन मुराद और मतलब हक़ीक़ी उस रूह इल्हाम का जिसके ज़मीर मुक़द्दस के वो मुअर्रिफ़ और मज़हर हैं, यही है कि सबसे क़वी तर और असर पज़ीर और दिल तराश अम्साल के ज़रीये से वो हर शख़्स को हर तरह की ज़श्ती ज़बूनी से बरतरफ़ करें और तौबा कराएं, ज़िश्त और ज़बून बिलाशुब्हा बाअज़ इबारतें पर फ़ुहश हैं जिन्हें ज़बान पर ला कर मौलवियान लाहौरी कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के जो ख़ुदावन्द मसीह है, तव्वुलुद जिस्मियाह के हवादिस को ना इशारतन बल्कि सराहतन ठट्ठे में उड़ाते और ख़ुदा के पाक नाम के साथ ऐसे ज़िश्त ख़यालों को मुल्हिक़ करते हैं कि हवाला क़लम करने से भी हैबत के सबब उज़्र है। और इलावा बरां यक़ीन है कि जितने मवाज़ेअ़ में मुल्ला साहब इन ख़ाम हुज्जतों और तक़रीरों को दर्मियान लाए हैं तो इस बड़े किज़्ब और ग़लती में और उस के हक़ सज़ा व जज़ा में अपनी जान फंसाते हैं। जो वो कहते हैं कि मसीही तमाम ज़ात रब्बानी की तरफ़ ऐसे हवादिस को हमल करते हैं जिनको कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) यानी ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ भी सिर्फ इस हैसियत और एतबार से हवाला करना जायज़ व रूह है कि उस की कलिमियत और इब्नीयत ईलाही जिस्मियत ईस्वी के साथ इस क़द्र क़रीब वस्ल और वाबस्तगी में पहुंची कि कोई वस्ल उस के बराबर ना तो आलम-ए-शुहूद में नज़र आता है और ना ऐसा वस्ल बनी-आदम या मलाइक बहिश्त की ख़ातिर ख़ातरा (किसी का लिहाज़ करते हुए) में आ सकता है। इस ग़लती में मौलवी ने मुहम्मदﷺ की तक़्लीद की है जिसने नाहक़ मसीहीयों की तरफ़ ये बेअस्ल तोहमत लगाई कि उन के अक़ाइद के बमूजब ख़ुदा मसीह है। हर-चंद कि ऐसी तक़रीर उन के अक़ाइद से बईद है, मगर अक्स इस बात का हज़ार हा नक़्ली दलीलों से साबित है कि मसीह ख़ुदा है, यानी उस की पाक ज़ात के अंदर हमेशा मौजूद रहता है। कोई वक़्त या ज़माना क़ब्ल अज़ औक़ात हरगिज़ ना था जब ख़ुदा था पर उस का कलिमा जो इस का इब्ने महबूब है इस की माहीयत (असलियत) में दर्ज व मौजूद ना था।

लेकिन मौलवी साहब इस से और भी बे मौक़ा और हैरत अंगेज़ ग़लत व कज़्ब के क़ाइल हैं, जो वो मसीहीयों को ना सिर्फ हवादिस के ज़ात ईलाही की तरफ़ मन्सूब करने के मुल्ज़िम ठहराते हैं, बल्कि ऐसी नजासत व ख़ुबस के हवादिस को कि सिर्फ वही लसान ऐसी बातों को बता सकती है जिसका याक़ूब रसूल बयान करता है कि, “ज़बान भी एक आग है, और जहन्नम की आग से जलती रहती है।” (याक़ूब 3:6)) फिर क़तअ़-नज़र-अज़-उलूहियत जब मौलवी साहब जिस्मियत ईस्वी की तरफ़ उन हवादिस को हमल करते हैं ताकि उसे ख़ार व ज़लील बताकर उस की फ़ज़ीलत व शर्फ़ व शान को घटाऐं तो क्या वो इस बात को जानते और मानते हैं जो हर मुल्ला साहब बल्कि हर मर्द-ए-ख़ुदा को मालूम और मफ़्हूम होनी चाहीए कि हक़ीक़त में गुनाह और शरारत के सिवाए कोई चीज़ ज़िश्त व ज़बून नहीं, ख़ुदा की दरगाह में। सिर्फ वही ख़ुबस और पलीदी है जो उम्दन ख़ुदा तआला के किसी अम्र व नुही का उदूल व तजावुज़ है। सच-मुच तो बहुत जाये ताज्जुब नहीं है कि वो साहब जिनकी राय के बमूजब दीन और बेदीनी की तमीज़ ख़ुसूसुन ख़ुर्द नोश के हलाल व हराम से मुताल्लिक़ है, वो इस चीज़ को ज़िश्त व ज़बून जानें जिसे ज़ाहिरी हवास मकरूह जानते हैं, ना उस ख़ता व शरारत को जिससे बंदगान की इन्क़ियाद और दिली सफ़ाई में और उस पाक सूरत बातिनी में जो ख़ुदा की मुशाबहत में नव-मख़्लूक़ है, ख़लल व क़सूर आता है।

इस ग़लती मज़्कूर की मराफ़अत अगरचे अक़्ली दलीलों से भी हो सकती है, मगर इसे रफ़ा-दफ़ाअ करने का सबसे उम्दा तरीक़ा ये है कि आप ही एक ही रूह की यगानगत में एक ही मसीही बदन के अअ़ज़ा में शामिल हो कर और उस के इज्माअ क़ुद्दूस में मिलकर सिर्फ और ज़ाहिर परस्ती की ज़लालत में से रूह की आज़ादी और नूर और कामलीयत में आ जाऐं। अगर आप लोगों का हाल ऐसा हो तो वो सख़्त हुक्म जो (हिज़िक़ीएल 4:12) में उस नबी पर उतरा पहले तो गूह (फुज़ला, नजासत) इन्सान से और पीछे (हज़िकीएल 4:15) में गोह इन्सान के बदले गोबर से रोटी पकाने की बाबत ठट्ठों में उड़ाया नहीं जाएगा। ताकि हर नव-मख़्लूक़ और रूहुल-क़ुद्दुस का नव-मुरीद इन दो क़ाईदों को बेतरद्दुद और बे-हैरत मन्ज़ूर करेगा।

अव्वलन :ये कि दीनयात में ज़श्ती फ़ील-तहक़ीक़ वही ज़श्ती है जो अख़्लाक़ी और रुहानी ख़ुबस है।

सानियन : ये कि ख़ुदा की सियासत आलम और रिआयत कलीसिया में कोई चीज़ छोटी और कोई वसीला ज़लील जानना जायज़ व रवा नहीं, जिसके अंजाम में ख़ुदा तआला की हिक्मत और पर्वर्दिगारी के बाइस बड़े भारी फ़वाइद हासिल होने वाले हैं।

चुनान्चे रसूल फ़रमाता है, “क्योंकि ख़ुदा की बेवकूफियां आदमियों की हिकमत से ज्यादा हिकमत वाली है और ख़ुदा की कमज़ोरी आदमियों के ज़ोर से ज़्यादा ज़ोरावर है।” (1 कुरंथियो 1:20) मसलन तम्सील जिसमें होसीअ नबी के हम-अस्र यहूद रब तआला के क़हर और रंजूरी और आइन्दा तंगी और क़हत की नफ़रत-अंगेज़ तश्बीह देखकर आप अपने शर से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) और किनारा-कश हो जाएं तो कौन साहब-ए-होश व अदल इस को इस क़द्र मकरूह और तर्दीद के लायक़ जाएगा कि अपने दिल में कहे ये मिस्ल मेरे ख़ास ज़माने के अहले लुत्फ़ व फ़ज़्ल की दानिस्त में बेमज़ा और बे मौक़ा और ख़िलाफ़ सलीक़ा मालूम देती है, तो उसे कलाम-ए-ख़ुदा से मुन्क़तेअ़ करना ज़रूर चाहीए। इस के बरअक्स ऐसे साहब तमीज़ ने रोज़मर्रा के तजुर्बे और बड़े-बड़े औक़ात सलफ़ व ख़ल्फ़ के मुसन्निफ़ों की कुतुब के सैर करने से ये क़ायदा मन्ज़ूर किया होगा कि अगर शायद किसी किताब आली मज़्मून के दर्मियान कोई बाब या फ़रीक़ ज़वाबत ज़र्राफ़त व लताफ़त से ज़रा अबतर मालूम दे तो पढ़ने वाला ज़रूर दो उमूर से एक को यक़ीन करेगा या ये कि मेरे ज़ायक़ा और ख़ुश तमेज़ी में क़सूर या हद से ज़्यादा इक़्तिज़ा दक़ाइक़ (अच्छी बुरी बात के वह पहलु जो गौर करने से समझ कर आएं) है। या अहले-ज़माने की जहालत और संग-दिली और वहूश मिज़ाजी के सबब नबी ने उम्दन क़सदन शीरीं ज़बानी और ख़ुशगोई छोड़कर उन सख़्त दिलों को तुरश और दिल-शिकन और दुरुश्त (करख़त) लफ़्ज़ों में तंबीया की।

जैसा पहले भी मुसन्निफ़ रिसाले ने कहा था कि हकीम महमूद जब तिफ़लाना बोलता और अपने दस्तूर से बईद हो तो हर शख़्स कहेगा कि ये कम कोफ़ी से नहीं और ना कम ज़हनी से और ना इस सूरत का कलाम बे मुराद और बेमतलब मुफ़्त बोलता है। अगरचे मतलब खु़फ़ीया है। और बतरीक़ ऊला अग़्लब (यक़ीनी, मुम्किन) है कि अम्बिया की कुतुब इल्हामिया में ये क़ायदा इस्तिमाल और लायक़ क़बूलीयत हो। ब-ईं वजह कि उन के मआनी आली और बारीक और उन के मक़ासिद व मुतालिब इन्सान की क़ुव्वत-ए-मुद्रिका से बढ़कर हैं और अगर कोई शख़्स कहे कि चाहीए था कि कलाम-ए-ख़ुदा का हर लफ़्ज़ और फ़िक़्रह हुकमा और फुज़ला और शाएयक़ीन ज़र्राफ़त के नज़्दीक बेऐब और बे अख़ज़ हो तो जवाब वाजिबी ये है कि कौन जानता है कि इस हाल में ख़ुदा को क्या चाहीए था और क्या फ़र्ज़ था? चुनान्चे यसअयाह नबी फ़रमाता है, “किस ने ख़ुदावन्द की रूह की हिदायत की या उस का मुशीर हो कर उसे सिखाया?” (यसअयाह 40:13)

और दूसरा जवाब वाजिबी ये है कि आया ख़ुदा सिर्फ़ हकीमों का ख़ुदा है या कुल आलम का। अगर कुल आलम का है तो इस कुल्लियत और जम्हूर आलम में हुकमा कितने और हिक्मत में नाक़िस और क़सीर (पस्तक़द) कितने हैं? फिर हमारी अर्ज़ ये भी है कि इस सवाल का जवाब दो कि क्या ख़ुदा हकीमों की हिक्मत से आजिज़ है? क्या जाने कि उम्दा से उम्दा हकीमों की निहायत हिक्मत कुछ और चीज़ ख़ुदा की हिक्मत मुतलक़ के आगे ना हो, मगर तिफ़लाना और बातिल पोचगोई? होसीअ नबी की किताब के बाब अव्वल में जो अहकाम ख़ुदा तआला की तरफ़ से नबी पर नाज़िल हुए, ज़न हरामकार को ब्याह में लाने की बाबत, शायद कोई ख़ुदा-तरस और हक़-जू नज़र अव्वल से देखकर कुछ ठोकर खाए और हैरान व परेशान हो जाये। लेकिन नज़र-ए-सानी से देखकर और अम्साल की कुल सिलसिला बंदी पर ग़ौर कर के इस मौज़अ़ की पूरी उक़्दा कुशाई होगी। और सिर्फ ये नहीं बल्कि एक क़ायदा और क़ानून मुफ़ीद तफ़्सील और तशरीह कलाम के लिए हासिल होगा जिससे और भी इस की मानिंद मुश्किलात हल हो जाएँगी और वो मोअतरिज़ अंजाम में तसल्ली पज़ीर और शुक्रगुज़ार भी निकलेगा।

सच तो ये है कि अगर बिल-फ़अल इस आलम इश्बा और अम्साल में तादर्जा कमाल इस मौज़अ़ में हल मुश्किलात नक़्ली दलीलों से नहीं हो सकता तो भी ब मुक़्तज़ा-ए-अक्ल (तक़ाज़ा करने वाला) हर रोशन ज़मीर और ज़हीन आदमी पर ज़ाहिर और बाल-बदायत (आग़ाज़ करना) वाज़ेह होगा कि जब रुहानी और नफ़्सानी ज़िनाकारों की तंबीया और तादीब होसीअ नबी की नबुव्वतों की अस्ल मुराद और मज़्मून है, तो अगर इस तादीब और सरज़निश के शुरू ही में ज़िनाकारी का हुक्म दिया जाता तो इस क़द्र बे-हूदगी और बे-ठिकाने ज़िद्दीय्त क़ौल और फे़अल की उस पर सादिक़ आएगी कि क़त-ए-नज़र अज़ अस्हाब नबुव्वत कोई शख़्स जो हवास-बाख़्ता ना होता, हरगिज़ ऐसा ना-मुवाफ़िक़ हुक्म ज़बान ज़द ना करता। लेकिन ऐसी ख़ामख़याली की नक़्ली मुमानिअत उसी नबी (होसीअ 2:2) में दरपेश आती है। इस दूसरे बाब में ख़ुदावन्द ने इस सिलसिले अम्साल की साफ़ तफ़्सील अता फ़रमाई है। चुनान्चे बतौर मअमात और अमीक़ रम्ज़ों के इर्शाद है कि उस ज़न हरामकार का शौहर ख़ुदावन्द आप ही है, यानी वो ज़न हरामकार कुल जमाअत बनी-इस्राईल है जिसे ख़ुदा तआला अपने अह्द व मीसाक़ शरईया से अक़द व रिश्ते मुहब्बत में बांध कर अपनी क़ुर्बत (नज़दिकी) व वस्ल में लाया था। पर जब वो क़ौम मुख़्तार और मुम्ताज़ इतनी मुद्दत-ए-मदीद से गुमराह और बेवफ़ा और नमक-हराम ठहरी तो इस अम्र से कौन सा इलाज और चारा बाक़ी रहा कि वो उम्मत ज़न बेवफ़ा की मानिंद अपने ख़ावंद से मरूदू और मतरूक हो। चुनान्चे लिखा है, “तुम अपनी माँ से हुज्जत करो क्योंकि ना वो मेरी बीवी है और ना मैं उस का शौहर हूँ कि वो अपनी बदकारी अपने सामने से और अपनी ज़िनाकारी अपने पिस्तानों से दूर करे।” (होसीअ 2:2) जिससे यक़ीनन और सराहतन ये नतीजा निकला है कि इस नबी के अव्वल बाब का मज़्मून उमूर वाक़ईयह का बयान करने वाला नहीं, बल्कि उस में अम्साल हैं।

बाब दो अज़ दहुम

दरबाब नुस्ख़ व तहरीफ़

در باب نسخ و تحریف

अगरचे वो दावा जो मौलवी साहिबों ने कुतुब साबिक़ा इल्हामिया की तंसीख़ व तहरीफ़ पर हवाला क़लम व ज़बान किया है, सैकड़ों मर्तबा हज़ार-हा हुज्जतों और दलीलों से उस की तर्दीद व तक़्ज़ीब हो गई और उन हज़ार-हा दलीलों को मुजम्मलन भी इस रिसाले में तालीफ़ करना मुहाल और मक़्सद मुसन्निफ़ से बईद है तो भी हक़ जोयों की तसल्ली और ख़ातिर जमुई के लिए बाअज़-बाअज़ उन दलीलों को जो हमारी दानिस्त में क़वी और क़तई और लाजवाब हैं, ताब-मक़्दूर तवालत के ऐब से बच कर पेश करूँगा।

नुस्ख़ की बाबत ये पहला सवाल बे-इख़्तियारी पैदा होता है कि इन चारों किताबों से जिन्हें आप मंसूख़ जानते हैं यानी तौरेत, ज़बूर, अम्बिया और इन्जील। इनमें से कौन-सी है और उन के अजज़ा में से कौन सा जुज़ है जिसे मंसूख़ कहना वाजिबी और माअ़्क़ूल बात है?

शरीअत मूसवी के हक़ में बाब गुज़श्ता में ख़ुद ख़ुदावन्द मसीह की और उस के रसूलों की गवाहियों से मालूम और साबित हो गया कि इस शरअ की बाअज़ रसूमात आरिज़ी और चंद रोज़ा फ़ुलानी क़ौम और ज़माने के साथ मुक़य्यद थीं जिन्हें इस शरअ के उसूल और हक़ायक़ से अलैहदा करना चाहीए और उनका बरतरफ़ होना और लाहासिल ठहरना, बाद उन की तक्मील की मयाद के ऐन शरअ के बरतरफ़ होने और लाहासिल ठहरने के बराबर जानना ना चाहीए, बल्कि उन रसूमात को भी सरासर लाहासिल किसी ज़माने में जानना ना चाहीए। अज़ां सबब कि उन की ख़बरें और तअ़यिनात और क़वाइद के बयानात कलाम-ए-ख़ुदा में पैवस्ता हो कर अपने अपने हक़ायक़ और उसूल शरअ पर गवाही देने से अख़ीर ज़माने तक बाज़ नहीं आते। हर-चंद कि वो ऐन अस्ल शरअ तो नहीं पर उस के मुल्हिक़ात ब तअय्युन ज़मीन व क़ैद ज़माना हैं। बहर-ए-हाल ऐन शरअ का मंसूख़ जानना और बताना ज़बूर और अम्बिया और इन्जील की साफ़ शहादतों और तक़रीरों के बरअक्स और बर-ख़िलाफ़ है।

फिर वो उमूर वाक़ई जो अम्बिया-ए-सलफ़ की कही हुई किताबों में यानी यशू़अ़ और क़ाज़ीयों की और हज़रत समुएल और सलातीन की किताबों में मुन्दर्ज हैं, सो कुल आलम के सब वाक़ियात और वारदात से चुन लिए गए हैं। इस इल्लत से कि ख़ुदा तआला की सल्तनत की तैयारी और तरक़्क़ी और तदाबीर तामीर ज़ाहिर की जाएं तो उन्हें कौन साहिबे अक़्ल व होश मंसूख़ जान सकता है। अगर शदनी (इत्तिफ़ाक़ी बात) वाक़ियात भी ग़ैर शदनी हो सकते हैं तो भी उमूर वाक़ई कब ग़ैर वाक़ई हो सकते हैं और जब कि वाक़ियात सलफ़ का ग़ैर वाक़ेअ ठहरना जाये तनाक़ुज़ और इज्तिमा-ए-ज़िद्दियीन है, तो वो किताबें जिनमें वो वाक़ियात बयान होते हैं उतनी तफ़्सील और तशरीह से जितनी और किसी रिवायत में नहीं मिलती, बल्कि ख़ुद क़ुरआन मजीद में अक्सर वाक़ियात सिर्फ़ इशारतन मज़्कूर हैं, कौन साहब ज़हन मंसूख़ ठहराएगा। ग़रज़ कि जो किताबें ख़ुदा की सल्तनत की तवारीख़ बल्कि कुल आलम की तवारीख़ की क़ुतुब और मर्कज़ हैं, उन्हें कोई साहब-ए-होश मंसूख़ नहीं ठहरा सकता।

फिर कलाम-ए-ख़ुदा के कोई वज़नी वाक़ियात बयान नहीं होते ग़ैर अज़ आंका उनका मक़्सद और इल्लत वक़ूअ भी बयान हो और बिलाशुब्हा उन उमूर की इल्लत व मक़सद (इरादा) रब तआला की कामिल मस्लिहत और ग़ैर मुतनाही हिक्मत से सादिर है। मसलन हज़रत युहन्ना बिन ज़करीयाह कुल आलम के एवज़ क़ुर्बान और कफ़्फ़ारा होना मसीह की सलीबी मौत की इल्लत बताता है। जिस सलीबी मौत पर मौलवियान लाहौरी जा-ब-जा बड़ी तल्खगोई से ठट्ठा मारते हैं। युहन्ना ने ख़ुदावन्द यसूअ को अपने पास आते देखा और कहा, “देखो ये ख़ुदा का बर्रा है जो दुनिया का गुनाह उठा ले जाता है।” (युहन्ना 1:29) और ख़ुदावंद यसूअ अपने हक़ में मर्रतन ये गवाही देता है, “और मैं अगर ज़मीन से ऊँचे पर चढ़ाया जाऊँगा तो सबको अपने पास खींचूँगा।” (युहन्ना 12:32) और फिर ख़ुदावन्द मसीह के मौरिद लानत होने की जिस पर वो मौलवियान बेदीनों और दहरियों के तौर पर लहू व लाब करते हैं। पोलुस रसूल ग़लतीयों के ख़त में ये उम्दा इल्लत बताता है,“मसीह जो हमारे लिए लअ़नती बना उस ने हमें मोल लेकर शरीअत की लअ़नत से छुड़ाया क्योंकि लिखा है कि, “जो कोई लकड़ी पर लटकाया गया वो लानती है।” (ग़लतीयों 3:13)

मुल्ला साहिबान मज़्कूर उसी रसूल मुबारक की इस हैबतनाक तादीब को भूल गए होंगे जो कुरंथस के नाम पहले ख़त में दर्ज है, “पस मैं तुम्हें जताता हूँ कि जो कोई ख़ुदा के रूह की हिदायत से बोलता है वो नहीं कहता कि यसूअ मलऊन है और ना कोई रूहु-उल-क़ुद्दुस के बगैर कह सकता है कि यसूअ ख़ुदावन्द है।” (1 कुरंथियो 12:3) और अगर आप पूछते हो कि क्या सबब है इस बात का कि रूह ख़ुदा के मुहतदों (मुहतदी, हिदायत पाने वाला) में से एक भी नहीं जो यसूअ को मलऊन कहता तो सबब साफ़ है कि ख़ुदावन्द मसीह ना उस लानत को अपने ही सर पर क़ायम रखने के लिए मौरिद लानत हो गया बल्कि उड़ा देने और नेस्त करने के लिए। तो ग़ौर करना चाहीए कि जिस तरह उमूर वाक़ईह मंसूख़ नहीं हो सकते, अज़ां जिहत कि ग़ैर वाक़ेअ नहीं हो सकते इसी तरह उन वाक़ियात की इल्लतों और मक़ासिद का नस्ख़ होना भी मुहाल है, जैसा ऐन अस्ल शरअ। चूँकि वो ख़ुदा की मर्ज़ी और मुहासिबों का मज़हर व मुअर्रिफ़ है, हरगिज़ मंसूख़ होने के क़ाबिल नहीं। इसी तरह वाक़ियात मज़्कूर की उन इल्लतों को जो कलाम-ए-ख़ुदा में सफ़ाई और लापरवाई से माअरूफ़ हैं, कौन शख़्स मंसूख़ बताने की जुर्रत कर सके कि वो कामिल और अंजाम रसीदा ना हों और ख़ुदा के वईद व वाअदे वफ़ा ना हों।

पर एक और अम्र पर भी मुलाहिज़ा करना चाहिए कि जैसा उमूर वाक़ईयह के बयान में उन के सबबों और इल्लतों का बयान भी जो मह्ज़ ख़ुदा की मर्ज़ी और पर्वर्दिगारी पर मौक़ूफ़ हैं, दर्मियान में आता है। इसी तरह उन इल्लतों के साथ रवा इल्हाम व क़ुद्दुसियत की हिदायत से बाअज़ ख़ास ताअलीमात मुल्हिक़ और मुताल्लिक़ हैं कि उनका उनसे फ़िराक़ और इन्क़िताअ और जुदाई मुहाल है। मसलन उन ख़ुतूत में जिन्हें रसूल ने इफ़्सस और कुलिसीयो की कलीसिया को लिख भेजा ख़ुदावन्द मसीह की सलीबी मौत की एक इल्लत और मक़्सद यही तस्लीम किया जाता है कि ख़ुदावन्द मसीह की सलीब में यानी उस के मस्लूब बदन में वो दोनों पुराने इन्सान जो यहूद और यूनान हैं, पैवस्ता वाबस्ता हो कर एक हो जाएं। उनकी सब जुदाइयों का मेल-मिलाप हो जाये। और इलावा बरां दोनों से एक हो कर एक नई ख़ल्क़त बनें और नई ख़ल्क़त बन कर ख़ुदा तआला के साथ मेल मिलाप कराए जाएं।

देखो कि इस अम्र वाक़ेअ यानी मसीह की सलीबी मौत की उस इल्लत “मुशारु एलियह” से यानी इन्सान के फ़रीक़ैन के मेल-मिलाप से क्या ही भारी ताअलीमात इस ख़ल्क़त जदीद और विलादत सानी की बाबत रोशन व ज़ाहिर हो गईं। फिर इस से ये नतीजा वाजिब व लाज़िम निकला है कि जैसा अम्र वाक़ेअ मंसूख़ नहीं हो सकता जब तक कि ग़ैर वाक़ेअ ना होने पाए, वैसा ही उस के वक़ूअ की इल्लतें और अस्बाब नस्ख़ नहीं हो सकतीं। फिर जिस तरह उनका नस्ख़ मुहाल है, वैसी ही वो ताअलीमात भी जो उन के साथ वाबस्ता हैं मुम्तना-उल-नस्ख़ (मंसूख़ करने से बाज़ रखा गया) हैं। और यही नहीं बल्कि वो अहकाम अख़्लाक़ी और अम्र व नफ़ी जो उस ख़ल्क़त जदीद के साथ मुल्हिक़ और मुक़य्यद हैं, किसी सूरत से क़ाबिले नस्ख़ नहीं हैं।

फिर बमुश्किल अहले मुहम्मद दावा करेंगे इस बात पर कि क़ुरआन मजीद को कुछ तर्जीह और तफ़ज़ील है, इस हम्दो सताइश और इबादत व तौबा कारी और शुक्रगुज़ारी और रसूमात पर जो हज़रत दाऊद के मज़ामीर में और जाबजा बाक़ी कुतुब मंज़िला में दरपेश आती हैं, जिनसे ख़ुदा के ख़ास दोस्त और बंदे तीन हज़ार बरस से रुहानी तर्बीयत और परवरिश और तादीब व ताअलीम निकालते हैं और दुखों और मेहनतों और मुतअद्दिद आज़्माईशों में तस्कीन व तश्फ़ी पाते हैं। इस से और उनकी मानिंद और अक़्ली दलीलों के सिवाए बेशुमार नक़्ली दलीलों से भी कुतुब मंज़िला साबिक़ा के नस्ख़ होने की मुमानिअत क़तई और कामिल है, तो यक़ीन है कि वो शख़्स ख़ुदा तआला के और उस के कलिमे और इब्ने महबूब के जो ख़ुदावन्द मसीह है, जाह जलाल में ता बमक़्दूर ख़लल डालता और उस तआला की हैरत-अंगेज़ तहक़ीर और तज़लील करता है, जो ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात की अबदीयत का तो मुक़र है, पर उस के कलाम समाविया की बक़ा का मुन्किर है। अज़ आनरो कि जैसा ज़वी-उल-हयात होना उस तआला की मशहूर सिफ़त है, इसी तरह ज़वी-उल-हयात होना कलाम रब्बानी का भी एक वस्फ़ माअरूफ़ और मशहूर है।

और साफ़ रोशन है कि वो कलाम-ए-ख़ुदा जो ज़वी-उल-हयात कहलाता है, उस शख़्स की मौत व ज़वाल में शरीक नहीं जो मौरिद कलाम है। चुनान्चे रूहुल-क़ुद्दुस ने बज़बान ज़करीयाह नबी फ़रमाया, “तुम्हारे बाप दादा कहाँ हैं? क्या अम्बिया हमेशा ज़िंदा रहते हैं? लेकिन मेरा कलाम और मेरे आईन जो मैंने अपने ख़िदमत गुज़ार नबियों को फ़रमाए थे क्या वो तुम्हारे बाप दादा पर पूरे नहीं हुए।” (ज़करीयाह 1:5,6) जिससे मालूम होता है कि वो कलाम और क़ौल ख़ुदा मौरिद कलाम की मौत में शामिल हो कर नहीं मरता, पर उस रब ज़वी-उल-हयात की हयात में शामिल हो कर जीता है। और जैसा अहले ईमान को हरगिज़ ना मरने का वाअदा दिया गया है। ख़ुद ख़ुदावन्द की ज़बान से इसी तरह मौज़ूअ-उल-ईमान जो क़ौल ख़ुदा है हरगिज़ मरने और ज़ाइल और ज़ाए होने वाला नहीं है। तो हमारी मिन्नत है ख़ुदा के लिए उन सभों से जो ना ख़ादिम और नियम पुख़्ता बल्कि कामिल और हक़ीक़ी और पुख़्ता मुसलमान होना चाहते हैं कि वो ख़ुदा के कलाम साबिक़ की उस ख़ास वस्फ़ पर जो मुक़र्रर रसाह करर्र उस की तरफ़ इतलाक़ किया जाता है, सोच और ग़ौर करें और उस के रूबरू हिरासाँ और तरसाँ भी हों। ख़ुसूसुन मसीह के उस संजीदा और दिल-सोज़ क़ौल से हैबतज़दा हों जो इन्जील युहन्ना में क़लम-बंद है “जो मुझे नहीं मानता और मेरी बातों को क़बूल नहीं करता उस का एक मुजरिम ठहराने वाला है यानी जो कलाम मैं ने किया है आख़िरी दिन वही उसे मुजरिम ठहराएगा।” (युहन्ना 12:48)

हज़रत दाऊद भी कलाम-ए-ख़ुदा की बक़ा और बरक़रारी पर साफ़ दाल और शाहिद हैं, मसलन (119 ज़बूर की 89,90 आयात) में वो फ़रमाते हैं, “ऐ ख़ुदावन्द ! तेरा कलाम आस्मान पर अबद तक क़ायम है। तेरी वफ़ादारी पुश्त दर पुश्त है। तू ने ज़मीन को क़ियाम बख़्शा और वह क़ायम है।” जिन आयतों से वाज़ेह और रोशन हुआ कि जैसा उन क़वानीन में जिनसे आलम मशहूद का इन्तिज़ाम और इर्तिबात (मिलाप) हुआ कुछ जुंबिश और ख़लल व ज़वाल नहीं आता, इसी तरह कलिमात समाविया ईलाही हरगिज़ ज़ाए और ज़वाल पज़ीर होने के लायक़ नहीं हैं और इसी अम्र पर हज़रत यसअयाह में मुक़व्वी दलालत हवाला क़लम है, “घास मुरझाती है, फूल कुमलाता है क्योंकि ख़ुदावन्द की हवा उस पर चलती है। यक़ीनन लोग घास हैं, हाँ घास मुरझाती है। फूल कुमलाता है पर हमारे ख़ुदावन्द का कलाम अबद तक क़ायम है।” (यसअयाह 40:7,8)

और जाये ग़ौर है कि पतरस रसूल अपने अव्वल ख़त के पहले बाब में साफ़ तक़रीर करता है कि वो कलाम जिसकी बक़ा और अबदीयत नशो व नुमा की फ़ना पज़ीरी के साथ मुक़ाबला की जाती है, वो कलाम है जिसकी बशारत व वाअज़ इन्जील में सुनी जाती है, पर इस वजह की नक़्ल दलीलों को बढ़ाना फ़ुज़ूल और लाज़रूरी है। दर-हालिका ख़ुदा शनासों और ख़ुदा तरसों पर ये अम्र बाल-बदाहत (नागहानी वाक़िया, यक़ीनी होना) ज़ाहिर है कि कलाम-ए-ख़ुदा फ़ी नफ़्सिहा और फ़ी ज़ातहा क़ाबिल तग़य्युर व तबदिल नहीं। और हर शख़्स को जो ग़ौर और बेतास्सुबी से क़ुरआन मजीद की सैर व मुतालआ करने वाला है, मालूम और मुबय्यन है कि वही शहादत जो कुतुब मंज़िला में कलाम-ए-ख़ुदा के क़ियाम व बक़ा पर दी जाती है, क़ुरआन से मुक़र्रर सह करर्र हासिल होती है। जो चाहे विलियम म्यूर साहब की तस्नीफ़ की हुई “शहादत क़ुरआनी” में और मौलवी सफ़दर अली साहब के “नयाज़ नामा” में इस अम्र की बाबत हर शक व शुबह की मराफ़ात करे और तहक़ीक़ है कि क़ुरआन मजीद में कुतुब साबिक़ा की तन्सीख़ का इशारतन और किनायतन भी कुछ ज़िक्र पाया नहीं जाता। और ये भी साबित है कि हिज्रत के बाद दो सदीयों के अर्से तक किसी कलाम-ए-ख़ुदा के नस्ख़ होने की हुज्जत व बह्स किसी के सुनने में नहीं आई। इतनी मुद्दत के बाद बाअज़ मुहम्मदी मुज्तहिदों (जद्दो जहद करने वालों) ने अल्लाह तआला के दीन हक़ीक़ी यानी दीन ईस्वी के वज़न व कस्रत दलाईल से हैरान हो कर ये नई हिक्मत निकाली। हर-चंद कि मुज्तहिद ख़ल्फ़ व सलफ इस अपने इफ़्तिरा (बोहतान, झुटा इल्ज़ाम) के अम्र में बाहम इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते कि कौन सा कलाम किस क़द्र तक मन्सूख है और वो तन्सीख़ कौन-कौन सी शराइत व ज़वाबत से महदूद है।

हाँ हज़ार अफ़्सोस की बात है कि ये बह्स लफ़्ज़ी और नुक्ता-चीनी हकीमों के लिए मह्ज़ क़िमारबाज़ी (जुआ खेलना) है, पर इस खेल में जो हार जाता है ना सिर्फ अपनी ही जान की, बल्कि शायद लिखो-खा (लाखों, लातादाद) और जानों की हार खाता है। यहां तक कि इस भारी मुक़द्दमा के इन्फ़िसाल पर मौत और हयात-ए-अबदी मौक़ूफ़ है और बेशुमार ख़ल्क़-उल्लाह की ज़लालत इसी ग़लती से ख़ुरूज करती है और दर-हालिका ख़ुदावन्द मसीह फ़रमाता है, “दरवाज़ा बहिश्त का मैं हूँ।” (युहन्ना 10:9) और रस्ता मैं हूँ।” (युहन्ना 14:6) और हयात व क़ियामत मैं हूँ।” (युहन्ना 11:25) और कुल आलम की ख़लासी और नजात के लिए अपनी जान का कफ़्फ़ारा अता करता हूँ। तो वो लोग जो ख़ल्क़-उल्लाह की राहनुमाई और मुर्शदी के दावेदार हैं उन पर फ़र्ज़ था कि उस मुनज्जी अल-आसीन की तरफ़ इशारा करें और मिन्नत से भी गुमराहों से अर्ज़ माअ़रूज़ करें कि उस दरवाज़ा हक़ के अंदर मौजूद हो कर जियो। बरअक्स इस के वो सिर्फ़ ठट्ठे बाज़ी और मुबाहिसा और पसोपेश करने में उम्र-ए-अज़ीज़ को काटते हैं और मसीह के हम-अस्र यहूद फ़रीसयों के मुवाफ़िक़ इल्म हक़ की किलीद ले गए और ख़ुदा की दरगाह में दाख़िल होने वालों को दिक़ करते और सताते हैं।

ऐ साहिबो ये तुम्हारी हुज्जत और बह्स ना पादरीयों के साथ और ना अंग्रेज़ों के साथ बल्कि ख़ुदा तआला रब-उल-आलमीन के साथ है। आपसे हमारा ये सवाल नहीं है कि हमें बड़ी ईनजहानी शान और क़द्र के लायक़ जानो ओर बुज़ुर्ग ओहदे दारों के शुमार में हिसाब करो या अपनी मजलिसों में सदर मुस्नद पर बैठाओ। बरहक़ जानो उस तक़रीर को जो तौरेत में हज़रत मूसा ने और इन्जील में हज़रत पोलुस ने तस्लीम की कि वो कलाम नजात बख़्श जिसकी बशारत अब हिन्दुस्तान में फ़ज़्ल ईलाही से हुआ करती है, ना तो आस्मान पर है, ना दरिया पार है, ना हकीमों, ना ज़ाहिदों, ना हाजियों का है, ना ऐसी बात है कि मुल्की बह्स और कीना और मज़्हबी ताअस्सुब और हट धर्मी का बाइस और गुंजाइश हो। पर इस अम्र में ग़रीब आदमजा़द की मुलाक़ात ख़ुदा के साथ है। उसी की दरगाह में इस अम्र का जवाब व सवाल और इस हुज्जत का फ़त्वा दिया जाता है, ख़ुदावन्द मसीह की मुस्नद अदालत के हुज़ूर में हिसाब लिया जाएगा। अगर शायद विलायती उस्तादों की ताअलीम लेने से उज़्र और हर्ज हो तो हमसे अलैहदा (अलग) हो कर अपनी मजालिस बिरादराना में बाहम हो कर रूह नूर व हिदायत से तौफ़ीक़ मांग कर इस कलाम को जो ख़ल्क़त जदीद का तुख़्म है, ग़ौर से मुतालआ करो। चुनान्चे हज़रत मूसा के मौज़अ़ मज़्कूर में लिखा है, “क्योंकि वो हुक्म जो आज के दिन मैं तुझको देता हूँ तेरे लिए बहुत मुश्किल नहीं और ना वो दूर है। बल्कि वो कलाम तेरे बहुत नज़्दीक है। वो तेरे मुँह में और तेरे दिल में है ताकि तू उस पर अमल करे।” (इस्तिस्ना 30:11-14)

अपने ही नबी की शहादत रद्द ना करो बल्कि अपने दिल में नक़्श करो।

(لَسۡتُمۡ عَلٰی شَیۡءٍ حَتّٰی تُقِیۡمُوا التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡکُمۡ مِّنۡ رَّبِّکُمۡ)

(सूरह अल-मायदा 68)

और फिर दूसरी सूरह के इस मज़्मून पर लिहाज़ फ़रमाओ।

(وَ لَوۡ اَنَّہُمۡ اَقَامُوا التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡہِمۡ مِّنۡ رَّبِّہِمۡ لَاَکَلُوۡا مِنۡ فَوۡقِہِمۡ وَ مِنۡ تَحۡتِ اَرۡجُلِہِمۡ)

(सूरत अल-मायदा 66)

और फिर मुहम्मदﷺ का एक साफ़ व सरीह क़ौल आपके लिए ग़ौर व सोच के लायक़ है, کَلَا مِی لَایُنسِخُ کَلَامَ اللّٰہِ तो आप के इज्माअ़ उम्मत को कहाँ से हक़ीक़त मिल सकती है, इस इख़्तियार और इक़्तिदार की कि नासिख़ और मन्सूख की बाबत नए-नए अक़ीदों को बना कर क़ौल ख़ुदा की कमी बेशी करें और भूके प्यासे बनी-आदम को चशमह-ए-आबेहयात से जो साफ़-शफ़्फ़ाफ़ और सेहत बख़्श है, ममनू कर के रिवायत इन्सानी के गदले पानी के हौज़ों की तरफ़ लल्कार कर और तर्ग़ीब देकर ना क़ातिल अजसाम बल्कि क़ातिल अर्वाह हो जाएं। जिस क़त्ल और ख़ून से कौन ज़िश्त तर और ज़बून तर और अज़ाब जहन्नम का लायक़ तर हो सकता है। ख़ुसूसुन बलिहाज़ इस अम्र के कि वही तुम्हारा नबी जिसके लिए आपने अम्बिया-ए-ख़ुदा को तर्क और रद्द किया है। अज़ आनरो कि कि उन की मीयाद ख़िलाफ़त और उन के अहकाम की तामील का वक़्त मोवक़्क़त (किसी ख़ास वक़्त पर ठहराया हुआ) और मुन्तहा और गुज़श्ता है। तो आप ही ने इर्शाद किया कि जो फुर्क़ान मुझ पर नाज़िल हुआ सो कुतुब सलफ़ का मुहैमिन और मुसद्दिक़ है और वो उन्हें गोया मुस्तजमा जमी फ़ज़ाइल बताता है। चुनान्चे ये शहादत क़ुरआनी कुतुब मूसवी पर मिलती है। ’’تَمَا مَا عَلَی کُلِ الَّذِی اَحَسَنَ‘‘۔

साहिबो जाये फ़िक्र व तामिल है कि रोज़-ए-क़यामत जो हिसाब और क़हर ईलाही के इज़्हार का दिन होगा मुद्दआ-अलैह और मुद्दई दोनों मुन्सिफ-उल-आलमीन के तख़्त सफ़ैद के रूबरू हाज़िर किए जाऐंगे। मुद्दई तो शरअ व कलाम-ए-ख़ुदा होगा मुद्दआ-अलैह कुल ख़ल्क़ ख़ुदा होगी। पर इस मुद्दई आज़म व आला के दावा से कौन बच सकता है। इस उज़्र-ख़्वाही पर तकिया कर के कि मैंने ना अपनी ख़्वाहिश और यक़ीन पर बल्कि इज्माअ उम्मत के फ़त्वा पर भूल कर कुतुब समाविया की तिलावत और खोज छोड़ दी और हज़रत नूह के हम-अस्रों के मुवाफ़िक़ अपनी कश्ती पर सवार होना इस से बेहतर जाना कि ख़ुदा की बनवाई हुई कश्ती पर चढ़ कर तूफ़ान क़हर से भागों। इज्माअ़ उम्मत अगरचे कलाम-उल्लाह की शहादत जावेद व बाकी को मुद्दत ज़माने में महदूद करने की ग़रज़ से हुक्म जारी कर सके, पर तो भी कौन उस हिसाब आतिशी की आज़्माईश को बर्दाश्त कर सकेगा, जो किज़्ब की सब बुनियादों को उड़ा ले जाएगी।

बमूजब इस तक़रीर के जो यसअयाह नबी की किताब में मर्क़ूम है, “पस ऐ ठट्ठा करने वालो ! जो यरूशलेम के इन बाशिंदों पर हुक्मरानी करते हो ख़ुदावन्द का कलाम सुनो। चूँकि तुम कहा करते हो कि हमने मौत से अह्द बाँधा और पाताल से पैमान कर लिया है। जब सज़ा का सेलाब आएगा तो हम तक नहीं पहुँचेगा क्योंकि हमने झूट को अपनी पनाह-गाह बनाया है और दारोग़-गोई की आड़ में छिप गए हैं। इसलिए ख़ुदावन्द ख़ुदा यूं फ़रमाता है। देखो मैं सियोन में बुनियाद के लिए एक पत्थर रखूँगा। आज़मूदाह पत्थर, मुहक्कम बुनियाद के लिए कोने के सिरे का क़ीमती पत्थर जो कोई ईमान लाता है क़ायम रहेगा। ओले झूट की पनाह-गाह को साफ़ कर देंगे। जब सज़ा का सेलाब आएगा तो तुमको पामाल करेगा। सो अब तुम ठट्ठा ना करो, ऐसा ना हो कि तुम्हारे बंद सख़्त हो जाएं।” (यसअयाह 28:14-22)

कुतुब समाविया सलफ़ की तहरीफ़ की बाबत जो एतराज़ात और हुज्जतें अहले ख़िलाफ़ के ताअस्सुब शदीद से मबऊस और शहर-ए-आलम हो गई हैं, उन के जवाब में इतनी पुख़्ता और क़वी दलीलें मसीही क़सीसों यानी इमामों की कुतुब बह्स में हवाला क़लम हो गईं कि सिर्फ मुजम्मलन और इशारतन उनका ज़िक्र मुसन्निफ़ रिसाले को दरकार है। मुफ़स्सिल बयान इस अम्र का दो रसाइल मज़्कूर बाला से हक़ीक़त-ए-हाल के हर तालिब व जोयायाँ को आसानी से मिल सकता है। और इस मसले के हक़ में भी बड़ी ख़ातिर जमुई और तयक़्क़ुन हासिल हो जाएगा। अज़ आनरो कि इस क़िस्म के एतराज़ों का जवाब बह्स और हुज्जत अक़्लीया पर इतना मुन्हसिर नहीं, जितना कि सही और मुस्तनद रिवायतों पर और उमूर वाक़ईयह पर और ऐसे शख्सों की शहादत पर जिनसे कोई ज़्यादा मोअतबर गवाह क़ियास में नहीं आ सकता। आन्क़द्र कि अगर शायद ऐसे शख्सों के क़ौल और गवाही पर एतिक़ाद करने से उज़्र हो तो ज़मान साबिक़ की शहादतों और सनदों का ईमान सरासर आलम से सफ़ा और महव हो जाता।

अव्वलन वो अम्र अहले मुहम्मद के ख़ास गौर व लिहाज़ के लायक़ है जो दो रसाइल मज़्कूर में साबित व नुमायां हो गया कि,कुल फुर्क़ान में एक भी जुम्ला या आयत मौजूद नहीं कि जिसमें किसी किताब मुक़द्दस की तहरीफ़ का इल्ज़ाम किसी मसीही पर लगाया गया हो या ख़ास इन्जील की किसी आयत की तहरीफ़ का ज़िक्र व बयान दरपेश हो। ऐसे मुवाख़िज़ा और शिकायत से कुल अहले मसीह मुबर्रा हैं। ऐसा ख़लल और नुक़्सान उठाने से कुल इन्जील शरीफ़ भी मुबर्रा है। इन्जील की तहरीफ़ पर क़ुरआन मजीद में ज़रा भी शहादत व दाअवा नहीं, बल्कि जिन मवाज़ेअ में तहरीफ़ इन्जील की तक़रीर बताकीद से या ख़ुद इन्जील के ज़ोर घटाने या अपनी शहादत का वज़न बढ़ाने और मुईद करने वास्ते महमुदﷺ को बड़ा फ़ायदा और मदद हो सकती थी, इनमें वो साहब इस तरह के ऐब व इल्ज़ाम की बाबत बिल्कुल ख़ामोश रहता और अदना से अदना इशारा तक का तज़्किरा नहीं करता।

सानियनसानियन जाये गौर व ताम्मुल है कि जब उम्मत यहूद के बाअज़ साकिनान मदीना पर तौरेत के मुहर्रिफ़ करने का इल्ज़ाम क़ुरआन मजीद में इतलाक़ किया जाता तो उन यहूद की तहरीफ़ के बयान में ये अम्र साफ़ मालूम और नमूदार है कि तहरीफ़ मज़्कूर से वो तहरीफ़ मुराद नहीं जिसे अक्सर मुज्तहिद और मौलवी साहिबान समझते हैं और कुतुब समाविया के रद्द और मतरूक करने का हक़ और वाजिबी बाइस बताते हैं। यानी तहरीफ़ मज़्कूर से ये मुराद नहीं कि कलाम ख़ुदा में कुछ कमी बेशी आ गई। अज़ आनरो कि अस्ल मतन में सहीफ़ा या बाब या फ़स्ल या आयत या जुम्ला का नुक़्सान उम्दन व क़सदन मुरूविर (गुज़रना, चला जाना, मुन्क़ज़ी होना) ज़माने में दर्ज हो गया। दोनों अस्हाब मज़्कूर ने दो जे़ल माअरूफ़ आयतों से ये अम्र अयाँ और नुमायां किया है कि तहरीफ़ से मुराद है कलाम अल्लाह का नक़्ल मवाज़ेअ़ करना और क़रीनह-ए-कलाम से अलैहदा (अलग) कर के उन के उल्टे मअनी बताना और मुख़्तलिफ़ मआनी और मज़ामीन के फ़िक्रात और आयात जाबजा से चुन कर जो पैवंद के लायक़ नहीं, पैवस्ता करना और जिन-जिन शहादतों को फ़ाश व पदीद करना हक़ व लाज़िम था, उन्हें दग़ा और फ़ित्ना व फ़साद से मख़्फ़ी (छिपी) और मह्जूब करना। जिससे शहादत अल्लाह की कामलीयत और कुल्लीयत में नुक़्स व ख़लल आ जाए और कम-अक़्ल, कम-इल्म जो यान हक़ फ़रेब खाएं। इस मअ़नी की हक़ीक़त की एक दलील (सूरह फुर्क़ान आयत 13) से ले लीजिये :-

َبِمَا نَقۡضِہِمۡ مِّیۡثَاقَہُمۡ لَعَنّٰہُمۡ وَ جَعَلۡنَا قُلُوۡبَہُمۡ قٰسِیَۃً ۚ یُحَرِّفُوۡنَ الۡکَلِمَ عَنۡ مَّوَاضِعِہٖ ۙ وَ نَسُوۡا حَظًّا مِّمَّا ذُکِّرُوۡا بِہٖ ۚ وَ لَا تَزَالُ تَطَّلِعُ عَلٰی خَآئِنَۃٍ مِّنۡہُمۡ اِلَّا قَلِیۡلًا مِّنۡہُمۡ فَاعۡفُ عَنۡہُمۡ وَ اصۡفَحۡ اِنَّ اللّٰہَ یُحِبُّ الۡمُحۡسِنِیۡنَ

(सूर मायदा आयत 13)

मज़ीदबराँ बयान है :-

وَ مِنَ الَّذِیۡنَ ہَادُوۡا ۚ سَمّٰعُوۡنَ لِلۡکَذِبِ سَمّٰعُوۡنَ لِقَوۡمٍ اٰخَرِیۡنَ ۙ لَمۡ یَاۡتُوۡکَ یُحَرِّفُوۡنَ الۡکَلِمَ مِنۡۢ بَعۡدِ مَوَاضِعِہٖ ۚ یَقُوۡلُوۡنَ اِنۡ اُوۡتِیۡتُمۡ ہٰذَا فَخُذُوۡہُ

(सूरत माइदा आयत 41)

अम्र सालिस ग़ौर के लायक़ इस मसअले में ये है जिसके बाअज़ उलमा-ए-मुहम्मदी लापरवाई से मुक़र और क़ाइल हैं कि हर-चंद फ़र्दन-फ़र्दन और जुदा-जुदा नुस्खे-जात में सहवन या क़सदन अज़ राह नुक़्स मज़ीद ख़लल आ सकता था और आ भी गया और ज़माने-साबिक़ की हर सनद में ज़रा सी कमी बेशी का ऐब इल्लत व ख़िफ़्फ़त इन्सानी के शराइत ज़रूरी में से है और बेशक नक़्ली सहववों (भूल) की कुल तादाद बढ़ जाएगी। बक़द्र शुमार नुस्खे-जात के और भी हैं। क़द्र कि हर शख़्स को किताबत और तिलावत कुतुब की इजाज़त बे रोक-टोक दी जाये तो भी ख़ुद इन्जील के अस्ल मतन में और अस्ल मआनी और मज़ामीन में इस क़द्र ख़लल डालना जिससे वो ग़ैर-मुस्तनद और ग़ैर सही और ग़ैर-मोअतबर हो जाये, हर सूरत से मुहाल है। अज़ां जिहत कि ज़माने ईस्वी के शुरू ही से यानी अव़्वल सदी से मुतवातिर पुश्त दर पुश्त कलाम ख़ुदा की दस्तयाबी की आरज़ू और उस की क़लम नवीसी और तिलावत का अजीब व नादिर इश्तियाक़ शहर शहर और मुल्क-मुल्क मुन्तशिर हो गया और जहां-जहां मसीही जमाअतों की रक़ाबत और महीमनियत में किताब शरीफ़ का कोई जुज़ मख़ज़ून और महफ़ूज़ रहा, वहां-वहां मकतूबात इन्जीली मअ़ अस्नाद पसमांदा अम्बिया नक़्ल होने के वास्ते और मुहक़्क़िक़ीन की ख़ातिर जमुई के वास्ते ढ़ूंढ़े भी गए और बेशुमार नुस्खे-जात क़रीब व बईद सब अतराफ़ और अकनाफ़ रुबा मस्कून में मुतदाविल और मुरव्वज हो गए। यक़ीन है कि ख़ुदा तआला जिसने बाफ़ज़्ल रूहुल-क़ुद्दुस की क़ुदरतों और ख़वारिक़ आदत (ख़िलाफ़ आदत बातें मोअजज़े) के आफ़्ताब सदाक़त की शआओ से आलम को मुनव्वर किया। उस ने ऐसी ख़ाम तदबीर और बन्दोबस्त नहीं किया कि उस नूर की बशारत और मुज़्दा का निहाल (ताज़ा लगाया हुआ पोदा) खुलते हैं और उनके निकलते ही उसी दम इन्सान के ज़ुल्म व फ़रेब से घट कर फ़ौत हो जाए और उस की अज़ली तक़्दीर व मस्लिहत जो पेश अज़ बनाए आलम हिक्मत बेक़ियास से ईजाद हुई थी, अमल में आते ही बे-इख़्तियार अहले ख़िलाफ़ की ख़्वाहिश और इख़्तियार में तर्क की जाये। जिस ख़ुदा तआला ने अपनी बर्गुज़ीदा क़ौम इस्राईल की विलादत व तिफ़्लियत ही से इतनी लुत्फ़ व पेश-बीनी से उस की रिआयत और निगहबानी कर के मिस्र के तनूर से छुड़ाया था और हेरोदेस बादशाह की बद मश्वरतों से क़ौम इस्राईल का वो उम्दा मौलूद और कुल ख़ल्क़त का नख़सत ज़ादा (पहला फल) यानी अपने कलिमे और इब्ने महबूब को ख़लास किया था, सो अपने वसाइल में ऐसा तंग और ला तदारुक नहीं था कि अपने लुत्फ़ व फ़ज़्ल का इज़्हार और इश्तिहार जो कलाम इन्जीली है, उसे दो एक गोशा-नशीनों की अमानत में हवाला कर दे। जिनके हक़ में अगर कोई ख़तरा भी बेवफ़ाई और साज़िश का ना होता, बहर-ए-हाल ख़दशा और ख़लिश बाज़ों के दिल में पैदा हो सकता और मोअतरिज़ों की शिकायतों और इशतिबाहों में कुछ सूरत इन्साफ़ और वाजबीयत की दिखाई देती। हरगिज़ हरगिज़ नहीं बल्कि क़िस्म-क़िस्म के अहले ख़िलाफ़ के रूबरू ख़्वाह यहूद, ख़्वाह यूनान उलमा व हुकमा, ख़्वाह अवाम का अज़दहाम (भीड़, अंबोह) ख़्वाह कीना-वर फ़रीक़ों के हरीफ़ सभों के मुक़ाबिल खुल्लम-खुल्ला ख़ुदा तआला ने अपना कलाम रोशन और मुबय्यन कश्फ़ किया। अज़ आनरो कि ना अश्ख़ास मुफ़रद बल्कि बुज़ुर्ग जमाअतें मुतअद्दिद उन पाक नविश्तों की महीमनियत के मुतवल्ली (इन्तिज़ाम करने वाला) हो कर उन की शाहिद और बशीर हो जाएं। चुनान्चे (ज़बूर 68:11) में लिखा है, “ख़ुदावन्द हुक्म देता है, ख़ुशख़बरी देने वालियाँ फ़ौज की फ़ौज हैं।”

और अगर शायद एक शख़्स या एक जमाअत के नुस्ख़ों में या एक उस्क़ुफ़ (यानी पाक जमाअतों के रक़ीब व निगहबान) की अमल-दारी के हलक़े और दायरे के अंदर नुस्खे-जात कलाम में कुछ ख़लल या कमी व बेशी पड़ जाये तो जब वो नुस्खे-जात नाक़िस व क़बीह बाक़ी एतराफ़ों और अमल दारीयों के नुस्खे-जात के साथ मुक़ाबला किए जाएं, ताकि नए पुराने, ग़ैर सही और सही तरीन, वो जो जाये नुज़ूल कुतुब से दूर बईद शहरों में मिले और वो जो क़रीब शहरों में मिले, वो जो जाहिलों के हाथ से कलम बंद थे और वो जो आलिमों और ख़ुश नवीसों के हाथ से क़लम-बंद थे, ये सब जब बाहम मिलाए जाएं तो बा क़द्र व वुसअत इन्सानी असली सेहत में महफ़ूज़ हो कर ब तौफ़ीक ख़ुदा-ए-क़ादिर वह कुतुब मोअतबर और मुस्तनद और लायक़ तस्लीम के हो जाएं। जे़ल के अबवाब में इंशा-अल्लाह इस अम्र का बयान ब मज़ीद तफ़्सील व ततवील हो जाएगा। इतना यक़ीन है कि रब तआला की मर्ज़ी थी कि वो वाक़िया नादिर और सलामत बख़्श यानी शाह सुलह व नजात का ज़हूर ऐसा साफ़, रोशन और नमूदार और मफ़्हूम हो जाये कि जम्हूर-उन-नास (बहुत से लोग) उस की तन्क़ीह और तहक़ीक़ात कर सकें। किसी मोअतरिज़ को जा-ए-शिकायत ना हो कि सनदें ज़मीन के गोश-ए-पिनहां में दराए हिजाब मस्तूर हो गईं, सिर्फ थोड़े ही पहुंचे हुओं का ख़ास माल और हिस्सा मुक़य्यद हैं।

राबिअनअरस्ता-तालीस (अरस्तू) हकीम साहब ने कहा है कि :-

ना सिर्फ पुख़्ता नसूस ओर हुज्जत क़तई से मुतकल्लिम लायक़ एतबार व एतिमाद जाना जाता है, व लेकिन (मगर, लेकिन) इस से भी मोअस्सर और वज़नी क़ौल का मालूम होता है कि उस का मिज़ाज ख़ैर व सादिक़ और सलीम दिखाई देता है। इस हाल में हाज़िरीन व सामईन मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) होना चाहते हैं और उन के दिल तयक़्क़ुन पज़ीर होते हैं। इसी तरह की तासीर और ख़ातिर जमुई और तयक़्क़ुन हक़ जोयों के ज़मीर में पैदा होती है। जब मसीही मुहक़्क़िक़ीन का मिज़ाज और इरादा दर्याफ़्त करते और मुद्दत तवील के तजुर्बे से मालूम करते हैं कि उन के मिज़ाज में कितनी सिदक़ दिली और बेग़र्ज़ी और हक़ विरासत की मुहब्बत मह्ज़ व सादा और हर एक अम्र में हक़ीक़त-ए-हाल की जुस्तजू और दर्याफ़्त का इश्तियाक़ था और सिर्फ यही नहीं बल्कि हर एक हक़-जो का तयक़्क़ुन और ख़ातिर जमुई और भी बढ़कर हो जाती है, जब वो इन मुहक़्क़िक़ीन मज़्कूर की तन्क़ीह हक़ायक़ और क़वाइद तहक़ीक़ व तफ़्तीश पर लिहाज़ करता और उन से ख़ूब वाक़िफ़ हो जाता है कि क़त-ए-नज़र अज़ तास्सुब वो हर सूरत की ख़ुद-ग़र्ज़ी और तरफ़-दारी और रिआयत से बईद और मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) हैं, बल्कि इस मिज़ाज की इतनी सख़्ती और शदोमद से मुक़्तज़ी हैं कि बाअज़ इनादि और मुतअस्सिब उन पर गिला और मुवाख़िज़ा करें, इस अम्र में, यूं कह कर कि तुम्हारे क़वाइद तहक़ीक़ इस क़द्र शदीद और जबर आमेज़ हैं कि बाअज़ आयतें बऐतबार अस्नाद क़दीम की सेहत व कस्रत के महफ़ूज़ व मन्ज़ूर होने के लायक़ हैं। आप ने अस्ल मतन से मतरूक जाना और बताया। इसी तरह मुहक़्क़िक़ीन मसीही ने दूर व बईद के मशरिक़ व मग़रिब से नए पुराने नुस्खे जात अह्दे अतीक़ व जदीद जमा कर के उन्हें बाहम मुक़ाबला किया, जैसे मौलवियान और मुज्तहिदिन मुहम्मद आप भी जानते हैं और तोअन क़रहन इस अम्र का मुक़र होना, उन पर फ़र्ज़ व लाज़िम है और सिर्फ अस्ल मतन के नुस्खे जात नहीं बल्कि निहायत क़दीम ज़मानों की तफ़्सीरों और तशरीहों और तर्जुमों को जुज़ियतन व कुल्लियतन जो सन् ईस्वी की दूसरी सदी से छठी सदी तक कलाम ख़ुदा के शौक़ व ज़ौक़ के सबब तैयार होते और मन्क़ूल होते चले जाते थे, उन मुहक़्क़िक़ीन ने इतनी कोशिश और सबूरी और ख़र्च ज़र और मुदावमत से जमा कर लिया है, जितनी इन ग़ोता बाज़ों की है जो अमीक़ बहर से मर्वारीदों (मोती, गौहर) को निकालते हैं और सिर्फ यही नहीं, बल्कि जो आयात मुफ़रद उन अव्वल सदीयों की कुतुब पसमांदा में मौजूद हैं, ख़ुसूसुन उन्हीं जो बह्स और हुज्जत के मुतालिब की बाबत हवाला क़लम हो गईं और इख़्तिलाफ़ राय के मूजिब व बाइस ठहरीं, बड़ी दिक़्क़त और ख़बरदारी से छान-बीन कर रोशन कर लिया। जिससे हत्त-उल-वसीअ़ ता दर्जा कमाल हर सिद्दीक़ और हक़ जोओ और मुमय्यज़ निकात को मालूम और दर्याफ़्त हो कि अस्ल मतन मोतमिद और मुस्तनद कौन है जिसकी बाबत तख़रीब व तब्दील व सहव नक़्ली का कोई ख़दशा या इशतिबाह व अजबन् और मअ़क़ूलन पैदा नहीं हो सकता। इस तहक़ीक़ात के बाद जो शक करे सिर्फ़ महालात का मुक़तज़ी ठहराया जाएगा। अज़ां जिहत कि इश्या ओर वाक़ियात क़दीम-उल-अय्याम के ऐसे दलाईल मांगता है, जैसे हाल की बातों के और इल्म अख़्लाक़ व ईलाहीयत में ऐसी हुज्जतें और नुसूस तलब करता है, जैसे इल्म-ए-हिंदिसयह व हेइय्यत व नुजूम और बाक़ी उलूम तबीआत से मुताबिक़त रखते हैं। पस ये इल्म व हिकमत के ख़िलाफ़ क़वाइद है।

ख़ैर साहिबो मुहक़्क़िक़ीन मज़्कूर की तन्क़ीह और तहक़ीक़ात के तरीक़े को इस रिसाले के मुसन्निफ़ ने ख़ुद अपने तजुर्बे से मालूम व दर्याफ़्त किया है, यानी जाबजा और मुल्क ब मुल्क सैर व सफ़र कर के और कुतुब ख़ानों में दख़ल पा के इस तफ़्तीश के नतीजों को साबित किया। पस इस तन्क़ीह और तहक़ीक़ के हासिलात में से एक बात यक़ीनी ये है कि छः सात वज़नी आयात में ख़ुद अस्ल इन्जील की तो नहीं मगर ज़मानों में बाअज़ मुल्कों के नुस्खे-जात की तख़रीब या तब्दील यानी कमी बेशी हो गई। अब मुहक़्क़िक़ीन ने उन ग़ैर-मोअतबर नक़्लों को बड़ी मेहनत व मशक़्क़त से उन सही और मुस्तनद और लायक़-उल-तस्लीम नुस्ख़ों के साथ मुक़ाबला कर के हक़ीक़त-ए-हाल को सराहतन पेश-ए-नज़र रोशन और वाज़ेह किया और जिन-जिन आयतों की सनदों के वसूक़ (यक़ीन) में कुछ ख़लल व क़सूर दाख़िल हुआ था, उन पर बाद इम्तिहान के महरूम करने का फ़त्वा दे कर बाक़ी आयतों की वसाक़त और सनदियत ऐसी क़वी शहादतों और मज़्बूत दलीलों से साबित की कि ख़ुदा का बंदा बड़ी शुक्रगुज़ारी और ख़ातिर जमुई से कह सकता है। ख़ुदा की हम्द है कि ख़ुद अस्ल इन्जील बे तख़रीब व तब्दील मुझे दस्तयाब है और हर सूरत से क़बूलीयत और एतिक़ाद और इताअत अहकाम के लायक़ है।

अगर कोई शख़्स सिदक़ दिल या तलब दिक़्क़त से उन छः सात आयात मज़्कूर के बाब में सवाल करे कि उनका वज़न किस क़द्र था तो बड़ी तसल्ली का जवाब हक़ ये है कि जब मतरूक भी हुईं, तब भी दीन हक़ के अक़ीदों में ज़रा भी नुक़्स व क़सूर नहीं आता। एतिक़ादात के हर जुज़्व और नुक़्ते की बुनियाद काफ़ी व वाफ़ी सबूत से मज़्बूत और पुख़्ता बाक़ी रहती। दरवाज़ा बहिश्त का जो इन्जील व तौरेत में बताया जाता है, ज़रा भी नहीं हिलता। रास्ता नजात अपने असली सीधे पन से ज़रा भी फेरो पेचिश नहीं खाता। फिर एक मदद इस तहक़ीक़ात में ये बहुत भारी है कि दूसरी तीसरी सदीयों में क़रीब उन्हीं अक़ीदों की बाबत बह्स व मुनाज़रा हुआ करता था, जो अब अहले मसीह और अहले मुहम्मद के दर्मियान मशहूर हैं और तब भी मसीही उस्क़ुफ़ और कशीश और मुअल्लिम अपने-अपने ज़माने की मुरव्वज ओर माअरूफ़ किताबों से अक्सर उन्हीं नक़लियात से दीन के अक़ीदों और सब एतिक़ादात को तस्दीक़ किया करते थे, जो अब किताबों में मौजूद हैं और जिनसे इज्माअ़-मोमिनीन का ईमान और अमल मरबूत है।

अगर शायद कोई मोअतरिज़ कहे कि बिलाशुब्हा तुम्हारे मसह्हीन (मुसह्हे की जमा, सही करने वाला) और मुहक़्क़िक़ीन की नीयत और इरादा ख़ैर व दुरुस्त और तारीफ़ के लायक़ है, पर इतनी मुद्दत-ए-मदीद के बाद उनकी मेहनतों का क्या हासिल। इतनी दूर और क़दामत की बातों की तहक़ीक़ में कहाँ से कोई मोअतबर मदद मिल सकती है और इतनी अमीक़ और मव्वाज बहरों में से दुर्र (मोती, गौहर) हक़ीक़त के खोज निकालने की कौन-सी उम्मीद क़रीन-ए-क़ियास या इम्कान हो सकती है। इस एतराज़ के जवाब में मेरी अर्ज़ है कि ना सिर्फ उन पिछली सदीयों में मुहक़्क़िक़ीन इस क़द्र सिदक़ दिल और साबिर और साई और जमाअत मोमिनीन व राशेदीन में रौनक अफ़्ज़ा रहे हैं, बल्कि दूसरी सदी की इन्तिहा से लेकर ऐसे मुहक़्क़िक़ीन की पक्की ख़बर और साफ़ पता मिलता है और उन की तस्नीफ़ात कुल्लियतन तो नहीं पर जुज़्यतन महफ़ूज़ और मौजूद हैं और इनकी तारीफ़ और तन्क़ीर सब जमाआत रसूलियह में आज तक शुरू से सुनी जाती है। मसलन अर-जिन साहब जो मिस्र के दार-उल-ख़लीफ़ा यानी सिकंदरिया आज़म में जमाअत ईस्वी का बड़ा ओहदेदार और मअदिन इल्म व मअ़रिफ़त था और उस के मुरीद और ताबईन ख़ुसूसुन पमफ़लूस नाम एक मुसन्निफ़ और मुअल्लिम सही तरीन नुस्खे इन्जील व तूरीत वग़ैरह के बटोरने और मुक़ाबला करने में जवानी से लेकर बुढ़ापे तक मशग़ूल व मसरूफ़ रहे। और बेशक दूसरी सदी के अख़ीर में जो नुस्खे जात जाने जाते थे, तहक़ीक़ बड़े पुराने हों गए और जब कि अर-जिन साहब ने अपने अस्र के पुराने नुस्खे जात से अक़ाइद हक़ीक़ी का वही अस्ल और तुख़्म निकाला जिनके वाअज़ व बशारत के सबब अब भी इज्माअ मसीही के क़िस्सीस और पादरी साहिबान बाअज़ मौलवी साहिबों के क़लम व ज़बान से तम्सख़र बर्दार और तअन पज़ीर हैं। तो क्या जाये ताज्जुब है कि और मसहहीन (सही) और हक़ जोयों की इतनी जुस्तजू और तफ़्तीश की सख़्त मेहनतों के बाद इंशा अल्लाह हमारी बड़ी ख़ातिर जमुई और तसल्ली और मुज़्दा सलामत की बशारत में बड़ी लापरवाई पैदा होती है।

अब ज़ाहिर और वाज़ेह हो गया कि मसहहीन हक़ीक़त अंदेश की कोशिश और सई से ये नतीजा हासिल हुआ कि बेश से बेश 6 या 7 वज़नी आयतें मिन-जुम्ला आयात के जो अक़ाइद ईस्वी के सबूत में मुफ़ीद तो हो सकतीं, पर सरासर ज़रूरी और लाज़िमी नहीं हैं, हमने मतरूक और ग़ैर-सही मान लीं। पर तो भी कुल्लियत अक़ाइद से एक शोशा या नुक़्ता तक भी नहीं खो दिया और ख़ुसूसुन एक बड़ा भारी फ़ायदा इस तहक़ीक़ात से हासिल हुआ जो गौर व ताम्मुल के लायक़ है कि बाक़ी सब आयतों की सेहत और अस्लीयत और ग़ैर-मतरूकियत उन्हें मसहहीन की मेहनतों से और तहक़ीक़ के उसी तरीक़ा और शराइत पर इतनी ही मज़्बूती से वासिक़ और मोअतबर और लायक़ तस्लीम बताई गई, जिससे उन थोड़ी आयतों का रद्द करना या लाज़िम या मुस्तजब मालूम होता है।

तोहासिल कलाम ये है कि जो कुछ मतरूक हो गया, उस से अक़ीदों की किफ़ायत दलाईल में कुछ नुक़्सान नहीं आया और जो बाक़ी रहा तो तहक़ीक़ और तन्क़ीह से इतनी मज़्बूत और बेतरद्दुद और ला जनबीदह बुनियादों पर मबनी ठहरा कि ता-वुसअत इन्सान कोई शैय मज़्बूत तर नहीं हो सकती। दर-हालिका ना सिर्फ इतनी बात साफ़ व ज़ाहिर है कि दूसरी सदी के अख़ीर से लेकर मुहक़्क़िक़ीन और मसहहीन की सिलसिला बंदी मुतवातिर है, बल्कि ये भी कि उन की तफ़्तीशों और तहक़ीक़ात के बड़े फ़वाइद और नताइज और हासिलात उन की तस्नीफ़ात में मर्क़ूम और मौजूद हैं। और वो गवाह ऐसे थे जिनकी उम्र के अहवाल और उन की लियाक़त और इस्तिदाद (सलाहियत) और मिज़ाज अख़्लाक़ी और रुहानी तवारीख़-ए-कलीसिया यानी इज्माअ मुक़द्दस की कुतुब से ना अज़-राह मुबालग़ा बल्कि ब तमीज़ व क़द्र-दानी साफ़ मालूम हो सकते हैं। और अगर शायद कोई मुन्सिफ मिज़ाज और रोशन ज़मीर उनका बयान पढ़े तो लापरवाई से कहेगा कि लामुहाल जितनी अलामतें वफ़ादारी और मोअतबरी की इस आलम-ए-फ़ानी से मिल सकतीं और रास्त क़ाज़ीयों और अदालत नशीनों के हुज़ूर मन्ज़ूर होतीं, इतनी ही उन मुहक़्क़िक़ीन में बड़े कमाल से पाई जाती हैं।

इस सबब से जितने मोअतरिज़ हक़ गो और रास्त जू हैं, उन के रूबरू हमारी पूरी ख़ातिर जमुई है, बलिहाज़ इस यक़ीन के कि उस ख़ास इल्म व फ़न में जो कुतुब सलफ़ का इल्म व फ़न माअरूफ़ है, जितने दलाईल सेहत वो साकित (मज़बूती) अस्हाब तमीज़ो अदल की राय के बमूजब काफ़ी वाफ़ी ठहरते हैं, इतने ही दलाईल कुतुब इल्हामिया की हिफ़ाज़त व रिआयत की बाबत हासिल व मौजूद हैं। जैसा एक जे़ल के बाब में ज़्यादा तफ़्सील से बयान होगा, इंशा-अल्लाह। पर ख़ुदावन्द मसीह के मुतअस्सिब और कीना-वर मुख़ालिफ़ जो महालात के मुक़्तज़ी हैं, हरगिज़ किसी दलील से राज़ी और ख़ातिरजमा और ख़ूब मुसद्दिक़ बातों के क़ाइल ना होंगे। उन के हक़ में क्या ईलाज बाक़ी है। मगर ये कि ख़ुदा तआला की अदालत और सदूर फतावे (हुक्म ईलाही का सादिर किया जाना) की उस बड़ी मुस्नद के हवाले किए जाएं। बमूजब इस इर्शाद के जो पोलुस रसूल के ख़त (1 कुरंथियो 4:5) में है “पस जब तक ख़ुदावन्द ना आए वक़्त से पहले किसी बात का फैसला ना करो। वोही तारीकी की पोशीदा बातें रोशन कर देगा और दिलों के मन्सूबे ज़ाहिर कर देगा और उस वक़्त हर एक की तारीफ़ ख़ुदा की तरफ़ से होगी।”

बाब सीज़ दहुम

दरबाब आँ शहादत कि इज्माअ़ अम्मा मोमिनीन व मुज्तहिद अंश कि खल़िफ़ा व रसुल अंदबर मोअतबरी व सेहत व वसाक़त कुतुब मुक़द्दसा अज़ आमाल व अक़्वाल व तस्नीफ़ात ख़ुद दर पेश गुज़र अनीदह अंद

د ر باب آ ں شہاد ت کہ اجماع عامہ مومنین و مجتہدانش کہ خلفاء و رسل اند بر معتبری و صحت و وثاقت کتب مقدسہ از اعمال و اقوال و تصنیفات خود در پیش گزر انیدہ اند

बाब गुज़श्ता के मज़्मून से मुताल्लिक़ दो और उमूर हैं जिनके मुलाहिज़ा के बग़ैर कुतुब समाविया की हिफ़ाज़त व रिआयत का हाल ख़ूबतरीन तौर पर मालूम नहीं हो सकता। उस बाब के हवासिल कलाम से साबित और रोशन हुआ कि अव्वल ज़मान से ता ज़माना-हाल बाअज़ मशहूर और क़ाबिल और मोअतबर मुअल्लिमों ने ये भारी मुहिम अपने ज़िम्में ली कि कुतुब समाविया मंज़िला यानी तौरेत, अम्बिया, इन्जील वग़ैरह के नुस्खे-जात सही व सलीम और मुस्तनद व सक़ा सब्र और सिर्फ कसीर से इकट्ठा कर के और बाहम मुक़ाबला कर के ऐन अस्ल मतन की हक़ीक़ी सूरत दिखाएं। इस ग़रज़ से कि वो नक़्ल मुसह्हे और मुहकम आइन्दा ज़मानों के लिए एक साफ़ पुख़्ता और पेशनिहाद नमूना और मीज़ान हो जाए। ये सब मुज्तहिद और मुअल्लिम मज़्कूर सिर्फ अपने मिज़ाज की सलाहीयत व रूहानियत से इज्माअ आम्मा के सितारा गान नूर-अफ़्शाँ की मानिंद ना थे, बल्कि इल्म व हिक्मत व माअर्फ़त से शहर-ए-आलम भी थे। लेकिन ख़ुसूसुन ये अम्र ग़ौर व लिहाज़ के लायक़ है कि ना सिर्फ अपनी ख़ास राय और ख़्याल व क़ियास पर गवाही दिया करते थे, बल्कि जिन-जिन जमाअतों की पेशवाई और कार व ख़िदमत रवाई और मुर्शदी उन को सपुर्द हुई।

उन जमाअतों के ख़लीफ़ और वकील और गोया क़ाइम मक़ाम और एलची और मुतर्जिम थे। मसलन अरजिन साहब जो सिकंदरिया मिस्री का पेशवा था। ता आन्क़द्र कि उस शहर के मदरसा जात शहरह-आलम के मदरसों का मुदर्रिस था और जेरोम साहब जो बैतूलहम यहूद में ज़ाहिद ख़ाने का पेशवा था और बड़े रोम में भी बड़ा ओहदेदार और वहां की जमाअत ईस्वी में निहायत आलीक़द्र और अज़ीमुश्शान था और वाइज़ीन व शारहीन में नादिर व मुम्ताज़। ये और उन की मानिंद बाक़ी असातीन इज्माअ मोमिनीन अपनी-अपनी जमाअतों के मुअल्लिम और ख़लीफ़ा थे और उस के मफ़्हूम व ज़मीर के इज़्हार करने से मुतवक्किल (तवक्कुल करने वाला) और मुतवल्ली (इन्तिज़ाम करने वाला) थे।

यक़ीन है कि ख़ुदावन्द मसीह ने तरह-तरह के ओहदों और मन्सुबों (ओहदा) को अपनी कलीसिया यानी इज्माअ-आम्मा मोमिनीन के सपुर्द किया और उस ख़िदमत गुज़ारी के फ़राइज़ और लवाज़म (लाज़िम की जमा, ज़रूरी चीज़ें) में ये भी शामिल था कि कलाम-उल्लाह की कुतुब मंज़िला को उन के अवाइल की सेहत और अस्लीयत में महफ़ूज़ व महरूस (ज़ेर-ए-निगरानी) रखें। ख़ुसूसुन ये भारी काम इज्माअ मुक़द्दस के ओहदेदारों और मन्सुबदारों के ज़िम्में और हवाले किया गया। यानी उस्क़ुफ़ों और क़िस्सीसों और उस्तादों और सब अस्हाबों के जो बसबब औसाफ़ अख़्लाक़ी और फ़ज़ाइल अक़्लीया और मदारिज रुहानी कलीसिया की पेशवाई और निगहबानी के मुस्तहिक़ और मुस्तइद गिने जाते थे। तो यही अश्ख़ास कमाहक़ुह, (बख़ूबी) इस ख़िदमत आली और सकील यानी रक़ाबत कुतुब समाविया के ज़िम्मेदार हो गए और जो कुछ उन्हों ने इस बात के हक़ में किया, सो ना अपने फ़ायदे और नामवरी के वास्ते और ना अपनी ख़्वाहिश और इख़्तियार और तहरीक दिली से किया, बल्कि ख़ुद ख़ुदावन्द मसीह और उस की कलीसिया की ख़ाद्मियत और अबदीयत के तौर पर और कलीसिया के एवज़ और उस के रूबरू और उस के फ़ायदे और तामीर के लिए और उस का वजूब व हक़ उस से अदा व वफ़ा कराने के लिए और रूहुल-क़ुद्दुस मौऊद की तक़्वियत और तौफ़ीक़ के लापरवाई से उम्मीदवार हो कर जो ख़ुदावन्द मसीह के वसीयत नामें के मुवाफ़िक़ आक़िबत तक उनका गोया माल मतरूक और विरसा अज़ीज़ और ला-मुतग़य्यर (बदला हुआ नहीं) होने वाला था। चुनान्चे ख़ुदावन्द मसीह का क़ौल रसूलों के आमाल की किताब के पहले बाब में मर्क़ूम है, “लेकिन जब रूह-उल-क़ुद्दुस तुम पर नाज़िल होगा तो तुम क़ुव्वत पाओगे और यरूशलेम और तमाम यहूद और सामरिया में बल्कि ज़मीन की इंतिहा तक मेरे गवाह होगे।” (आमाल 1:8)तो जब मुक़द्दस रसूलों की तरफ़ से कोई ख़त व मुरासला किसी ख़ास जमाअत के पास पहुंचाया गया तो वो जमाअत मुशर्रफ़ कुल कलीसिया के एवज़ उस ख़त की हिफ़ाज़त व रक़ाबत की अमानतदार और ज़मानतदार हो गई। अज़ आनरो कि फ़ील-तहक़ीक़ वो मुरासला रूहुल-क़ुद्दुस की तरफ़ से अता व इनायत फ़रमाया गया था। पस रूह ख़ुदा की बख़्शिशें और नेअमतें आम मनाफ़त (फ़ायदा) की बरकतें हैं, तन-ए-तन्हा की नहीं हैं। ख़्वाह शख़्स हो, ख़्वाह जमाअत हो और उस ख़ास जमाअत के इसाकीफ़ (उसक़फ़ की जमा) यानी पेशवा और क़िस्सीस इस गंज-ए-ज़र (दौलत का ख़ज़ाना) के रक़ीब व निगहबान थे।

ग़रज़ जिस तरह कुल कलीसिया यानी इज्माअ-आम्मा मोमिनीन ख़ुद ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ से अमानतदार और ज़मानतदार ठहरी और हर ख़ास जमाअत दोनों यानी ख़ुदावन्द मसीह और कुल कलीसिया से ज़िम्मेदार हो गई। इसी तरह इस जमाअत के जो ओहदेदार आली मन्सुब थे, अपनी तमाम बिरादरी मसीही की महर व परवानगी से इस हक़ में उन के ओवज़ी थे और बाद ख़ुदावन्द मसीह के उन्हीं के रूबरू उन की जवाबदेही थी। मसलन जेरोम साहब के चौथी सदी के अख़ीर में अपने उन ख़ुतूत के जवाब में मौजूद हैं। 27 वीं ख़त में फ़रमाता है, कौल :-

“जब मुझे मालूम हुआ कि मेरे अस्र के सब कुतुब ईलाही के तर्जुमे क़बीह और नाक़िस हो गए तो मैं ने बड़ी मेहनत व मशक़्क़त से उम्दा यूनानी नुस्ख़ों के साथ उन्हें मुक़ाबला कर के सही किया।”

देखो साहब मज़्कूर ने जो कुछ किया, खुफ़ीयतन नहीं किया, बल्कि एलानियतन। चूँकि अपनी सब मेहनतों के हवासिल व फ़वाइद कुल कलीसिया का आम फ़ायदा जान कर रसाइल के ज़रीये से उसे अपनी इस ख़ादमियत और उस के फल और हासिल से आश्ना किया और बड़ी-बड़ी जमाअतों यानी रोम, यरूशलेम, कार्थेज वग़ैरह के इसाकीफ़ से सलाह ली। चुनान्चे उस मुअल्लिम माअरूफ़ ने ख़ुद ख़ुदावन्द मसीह और उस के रसूलों के इस मक़ूला को निहायत अज़ीज़ व मन्ज़ूर किया कि कुल इज्माअ़ मोमिनीन एक बदन है, जिसका सर ख़ुदावन्द मसीह है और एक दरख़्त है, जिसकी जड़ और तना ख़ुदावन्द मसीह है। पस बाद ख़ुदावन्द मसीह के कुल कलाम-ए-ख़ुदा की महीमनियत तमाम इज्माअ़ की अमानत और विलायत (किसी काम की ज़िम्मेदारी) में सौंप दी गई और अलैहदा-अलैहदा (अलग-अलग) अजज़ा उन जमाअतों के ज़िम्में हुए जो शुरू में उन के जाये दुरूद व वसूल होने से मुशर्रफ़ हो गई थीं। मसलन जमाअत कुरिंथिस, कुरिंथिस के नाम ख़त की और जमाअत रोम, रोमीयों के नाम ख़त की निगहबान और गोया ख़ज़ानची ठहरी। और बेशक ये बन्दोबस्त उम्दा और वाजिबी था कि बड़ी भारी जमाअतें और बाल-इख़्तसास वो जो रसूलों और उन के ताबईन के हाथ से मबनी और मामूर हो गई थीं, उन किताबों के अस्ल मतन की सेहत और मोअतबरी की रिआयत से मुतवल्ली हो गईं।

और ये अम्र कि अव्वल ज़बान की सनदें और नुस्खे-जात उन जमाअतों और उन के पेशवाओं की निगहबानी और ख़बरगीरी में सपुर्द हुए, रसूलों के आमाल की किताब से साफ़ व सरीह साबित है, “और वो जिन-जिन शहरों में से गुज़रे थे वहां के लोगों को वो अहकाम अमल करने के लिए पहुंचाते जाते थे जो यरूशलीम के रसूलों और बुज़ुर्गों ने जारी किए थे पस कलीसियाएं ईमान में मज़बूत और शुमार में रोज़ बरोज़ ज़्यादा होती गईं।” (आमाल 16:4,5)और बेशक ये भी उन इल्लतों और ग़रज़ों में से थी जिनके लिए रूहुल-क़ुद्दुस की हुज़ूरी के दवाम और क़ियाम का वाअदा इज्माअ आम्मा के बीच इनायत हो और तक़वियत व तरक़्क़ी और ख़ातिर जमुई का बाइस था। जैसा युहन्ना रसूल ने अपने पहले ख़त के दूसरे बाब में फ़रमाया, “और तुम्हारा वो मसह जो उस की तरफ़ से किया गया तुम में क़ाइम रहता है और तुम उस के मुहताज नहीं कि कोई तुम्हें सिखाए बल्कि जिस तरह वो मसह जो उस की तरफ़ से किया गया तुम्हें सब बातें सिखाता है और सच्चा है और झूटा नहीं और जिस तरह उस ने तुम्हें सिखाया उसी तरह तुम उस में क़ाइम रहते हो।” (1 युहन्ना 2:27)और जाये शुक्र व हम्द है कि जो अश्ख़ास पुश्त दर पुश्त इल्म व अक़्ल और सदाक़त व सलाहीयत के हक़ में माअरूफ़ व ममदूह थे और सबसे ख़ुश आबाद और शरीफ़ और रौनकदार जमाअतों के पेशवा थे। उन्होंने रिआयत और मुहाफ़िज़त कुतुब मुक़द्दसा से कोई मुहिम, मुहिम तरीन ना जानी और मेहनत का फल ज़ाहिर व वाज़ेह किया। ता आंकि कोई मोअतरिज़ और बिद्दती फ़रेबी जाये अख़ज़ व ताअरुज़ ना पाए, बल्कि इब्ने ख़ुदा के हुज़ूर में ख़ामोश और शिकस्ता-दिल और क़ाइल हक़ीक़त हो कर उस के ताबईन के शुमार में हिसाब किया जाये। जो साहब औक़ात गुज़श्ता की मसीही कलीसिया की ख़बरों और रिवायतों से वाक़िफ़ हैं, वो ख़ुद जानते हैं कि उन मुहक़्क़िक़ीन ने जो इतनी सई और कोशिश से नक़्लों की तसहीह की, सो अक्सर मह्ज़ हक़ीक़त ख़्वाही और हुब सदाक़त से की, ना कि मौलवी साहिबान से मज्बूर हो कर और उन के डर के मारे ये काम किया। चुनान्चे मुसन्निफ़ रिसाले ने अकबर आबाद की मजलिस बह्स में ये अर्ज़ की कि ऐसे सिदक़ दिलों और हक़ीक़त अंदेशों की तक़रीरों पर ग़ौर कर के मौलवी साहिबान को ना चाहिए कि इन तक़रीरों से मूजिब लाफ़ ज़नी और ज़बान दराज़ी और तर्दीद कलाम का बाइस निकालें, बल्कि लाज़िम है कि उन की शहादत बेग़र्ज़ से मज्ज़ूब (मस्त) हो कर आफ़्ताब रहमत व सलामत की तरफ़ मुतवज्जा हों और तास्सुब की बे-होशी और ग़फ़लत की नींद से जागें। जब तक रहमत का वक़्त है और क़हर का दिन तुलूअ़ नहीं हुआ।

और इस ख़्याल को मज़बूती और ताकीद से पकड़ना और हरगिज़ फ़रामोश ना करना चाहीए कि ख़ुदावन्द मसीह ने साफ़ ज़ाहिर फ़रमाया कि मैं ने अपनी कलीसिया यानी इज्माअ-आम्मा मोमिनीन को अपना मुहतमिम और मुख़्तार-ए-कार और वली ज़वी-उल-इक़्तदार इस आलम में मुक़र्रर किया है और ये क़ौल व क़रार भी किया कि मैं ज़माने के तमाम होने तक हर रोज़ तुम्हारे साथ हूँ और मैं साफ़ व ताज़ा रीज़श रोग़न के मुवाफ़िक़ अपनी रूह की तन्वीर व तक़वियत व तक़द्दुस की तासीरों को उंडेलूंगा और ये भी कहा कि उस रूह क़ुद्दुस की कलीसिया के अंदर बड़ी कार्रवाई और बरकत अफ़्ज़ाई होगी और उस कार और ख़िदमत का माख़ज़ व मदार यही होगा कि वो मेरा कलाम ख़ातिर नशीन करेगा और याद दिलाएगा और सारी हक़ीक़त में हिदायत करेगा और तुम्हें इस क़द्र क़ाबिलीयत और इस्तिदाद (सलाहियत) से मामूर करेगा कि हक़ीक़ी कलाम की तमीज़ और उस की हिफ़ाज़त व रिआयत करने की ताक़त हासिल होगी। मसलन मत्ती इन्जीली ने ख़ुदावन्द मसीह के एक वज़नी मक़ूला की ख़बर (मत्ती 18 बाब) में कलीसिया के हक़ में क़लम-बंद की है, “मैं तुम से सच कहता हूँ कि जो कुछ तुम ज़मीन पर बाँधोगे वो आस्मान पर बंध जाएगा और जो कुछ तुम ज़मीन पर खोलोगे वो आस्मान पर खुलेगा।” (मत्ती 18:18)

ख़ुदावन्द मसीह ने ये वाअदा हल व अक़द करने का ब तोसित रसूलों के ज़ाहिरन कुल कलीसिया से फ़रमाया और वाजिबन इस क़ौल के मुख़्तलिफ़ मज़ामीन में से एक मज़्मून हक़ ये है कि एक किताब मुरव्वज को कुतुब मंज़िला समाविया के शुमार में दाख़िल करना और दूसरी को बाद तहक़ीक़ात के मतरूक करना, कलीसिया के ख़वास और मुरातिब से है। फिर रूहुल-क़ुद्दुस ने पोलुस रसूल की ज़बान से इज्माअ़ क़ुद्दूस की क्या ही उम्दा फ़ज़ीलत दिखाई। पहले तिमीथियुस के ख़त में बयान है, “कि अगर मुझे आने में देर हो तो तुझे मालूम हो जाये कि ख़ुदा के घर यानी ज़िंदा ख़ुदा की कलीसिया में जो हक़ का सुतून और बुनियाद है क्योंकर बर्ताव करना चाहीए।” (तिमीथियुस 3:15) फिर जब कि कलीसिया लाखों करोड़ों आदमीयों की है तो चाहिए कि कुल इज्माअ़ का इख़्तियार और इक़्तिदार बाअज़ मुख़्तार अश्ख़ास को तफ़वीज़ हो जाएगी। चुनान्चे ख़ुदावन्द मसीह ने अपनी कलीसिया की ये तर्तीब और बन्दोबस्त किया है और अपनी मर्ज़ी साफ़ अलामतों से दिखाई है और ख़ुसूसुन इस तरह से मालूम कराई कि अगरचे हर एक हक़ीक़ी मोमिन रूहुल-क़ुद्दुस के फ़ज़्ल व लुत्फ़ से बहरावर और हिस्सेदार ठहरा और उस की बरकात मौऊदा फ़र्दन-फ़र्दन तमाम नस्ल रुहानी पर मुश्तर्क और मुन्क़सिम थीं, तो भी ख़ास मौरिद उस तन्वीर और तक़वियत के बाअज़ ओहदेदारों और मन्सुबदारों को उस ने अपनी कलीसिया में मबऊस किया और उसी रूह के ख़ास वस्फ़ों से मुशर्रफ़ व मौसूफ़ किया। इस नीयत से कि तमाम इज्माअ-मोमिनीन की इल्मीयत और फ़अलियत भारी मुक़द्दमों के बजा और बरपा होने के वक़्त उन्हीं के तवस्सुत से हो।

सच तो ये है कि क़ुदरत व इख़्तियार कुल कलीसिया के तसर्रुफ़ में है। पर वही अश्ख़ास मुख़्तार व मुम्ताज़ और ख़ास फ़ज़ाइल से मौसूफ़ उस के वकील व मुतवस्सित मुक़र्रर थे ताकि इज्माअ़-कलीसिया की आवाज़ और फ़तवे उन्हीं की ज़बान से सुनाई दें और जब ख़ास मुहिम्मात का इन्फ़िसाल और मसाइल व मुश्किलात का इन्हिलाल जिनसे तमाम इज्माअ़ की बेहतरी और तरक़्क़ी का कुछ ताल्लुक़ था, दरकार और लाज़िम हो। तब इज्माअ़ मुक़द्दस की मजालिस आम्मा बादशाह ज़माने के इक़बाल से किसी मुईन वक़्त व मौक़े पर मुजतमा हो सके और ऐसा ही हुआ। चुनान्चे पाँच पहली सदीयों के अरसे में चार मज्लिस आम्मा माअरूफ़ और शहर-ए-आलम हो गईं। इस क़िस्म की मजालिस आम्मा में चारों एतराफ़ से मसीही, मुख़्तलिफ़ जमाअतों के उस्क़ुफ़ बरू बहर और दूर-दूर मुल्कों की सैर व सफ़र करके तशरीफ़ लाए और अदयान क़दीम की ख़बरों से मालूम और यक़ीन है कि रूहुल-क़ुद्दुस की हुज़ूरी मौऊद की बड़ी इल्तिजा और इस्तिदा भी थी और उस अर्ज़ माअरूज़ की इजाबत और क़बूलीयत की बड़ी इंतिज़ारी थी। और अगरचे अक़्लियात की क़द्र और रिआयत हक़्क़ीयाह वो मजलिस नशीन किया करते थे, तो भी बाल-इख़्तसास नक़्लियात से हुज्जतें और दलीलें निकाल कर उन शरीफ़ों ने मुक़द्दमात को फ़ैसल किया।

फिर एक और अम्र सराहतन वाज़ेह है कि अगरचे क़ौल व क़रार मसीही के बमूजब रूहुल-क़ुद्दुस की हुज़ूरी बराबर हर वक़्त इज्माअ़-मोमिनीन में क़ायम व दायम रही, मगर बाज़-औक़ात मसलन एतिक़ादात के मआनी और हदूद को मुतअय्यन करने के वक़्त या इज्माअ़-आम्मा के ख़ुश मुरत्तिब व मुनज़्ज़म करने के वक़्त ता तक़वियत ईमान और तर्ग़ीब व तहरीक मुहब्बत और हिक्मत व महारत व तमीज़ रुहानी की तरक़्क़ी के वक़्त उसी रूह ख़ुदा का दुरूद व नुज़ूल बड़ी अफ़्ज़ाइश और फ़रावानी से हुआ। जिस बात से ये दो बड़े मुनाफ़े हासिल हुए।

अव्वल, ये कि अहले कलीसिया में बड़ी ख़ातिर जमुई और इत्मीनान रहा। इस यक़ीन से कि इस की ख़ास हाजतों और ख़तरों और तक़्लीफों के वक़्त ख़ुदावन्द मसीह के ख़ज़ाने फ़ज़ाइल में कुमक व मदद की बड़ी दौलत महफ़ूज़ और मुहय्या है।

दोम, ये फ़ायदा कि उन के मिज़ाज में ग़रीबी और हया और फ़िरोतनी की हालत बढ़कर हो गई। इस शऊर अंदरूनी से कि हर सूरत से मुझे क़ियाम व दवाम सिर्फ़ ख़ुदावन्द मसीह ही में है। इसी के क़ौल व वादे पर मेरी उम्मीद मुन्हसिर है।

उन मजालिस आम्मा मज़्कूर का पहला नमूना रसूलों के आमाल के 15 वें बाब में मुफ़स्सिलन बयान होता है। जो चाहे सो इस तरह की मजालिस अइम्मा के शराइत वुज़वाबत को इस पेशनिहाद आज़म की रिवायत से सीख सकेगा। और उन सब उमूर में ख़ुदावन्द मसीह ने अपनी कलीसिया की तर्तीब व तंज़ीम के लिए कैसी उम्दा ख़बरदारी और पेश-बीनी और मुराआत से बन्दोबस्त किया। इस की यक़ीनी और पूरी ख़बर इफ़िसियों के ख़त में मिलती है, “और ये उतरने वाला वोही है जो सब आस्मानों से भी ऊपर चढ़ गया ताकि सब चीज़ों को मामूर करे। और उसी ने बाअज़ को रसूल और बाअज़ को नबी और बाअज़ को मुबश्शर और बाअज़ को चरवाहा और उस्ताद बना कर दे दिया। ताकि मुक़द्दस लोग कामिल बनें और ख़िदमतगुज़ारी का काम किया जाये और मसीह का बदन तरक्क़ी पाए। जब तक हम सब के सब ख़ुदा के बेटे के ईमान और उस की पहचान में एक ना हो जाएं और कामिल इन्सान ना बनें यानी मसीह के पूरे क़द के अंदाज़े तक ना पुहंच जाएं।” (इफ़िसियों 4:10-13) बल्कि अज़राह मुहब्बत हक़ के मोअतरिफ़ हो कर उस में जो सर है यानी ख़ुदावन्द मसीह में हर तरह से बढ़ते जाएं।

अब इन सब बयानात से मालूम हुआ कि वो इज्माअ़-मोमिनीन जो ज़िंदा ख़ुदा की दरगाह ईनजहानी है, हर-चंद कि वो असालतन और बातिनन ख़ुदा के मुख़्तार बंदों और नव-मौलूद फ़रज़न्दों की ऐन यगानगत और फ़राहम आवरी है, तो भी ज़ाहिरन ऐसी शराकत और रिफ़ाक़त है जिसमें जो लोग शामिल हैं उन पर बहुत अदाए हुक़ूक़ व वफ़ाए फ़राइज़ लाज़िम आता है और अहले जहान के मुक़ाबिल ख़ुदावन्द मसीह के गवाह और एलची और वकील हैं और उस के नूर से आप मुनव्वर हो कर दुनिया की तन्वीर के लिए मुक़र्रर हैं और ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ से सदूर अहकाम व क़वाइद से मुशर्रफ़ हो कर उन्होंने क़िस्म-क़िस्म के दर्जात और मुरातिब पर मुस्तइदों को वक़्फ़ व तक़्दीस करने का इख़्तियार पाया है। जिनके ज़रीये से और भी ख़िदमत गुज़ारीयाँ पूरी हों और एक उनमें से निहायत भारी और उम्दा कुतुब मुक़द्दसा की मुहाफ़िज़त है।

बयान बाला से ये अम्र ज़ाहिर और नक़्ली दलाईल से साबित हुआ कि कलाम-ए-ख़ुदा के अस्नाद (सनदों) की मुहाफ़िज़त इज्माअ आम्मा के ख़ास ओहदों में से थी और उन मन्क़ूलात के मुवाफ़िक़ (इफ़िसियों 1:22,23) नादिर मज़्मून की इफ़्सस के नाम ख़त के पहले बाब में हैं,“और (खुदा ने) सब कुछ उस के पांव तले कर दिया और उस को सब चीज़ों का सरदार बना कर कलीसिया को दे दिया। ये उस का बदन है और उसी की मामूरी जो हर तरह से सब का मामूर करने वाला है।”जिस आयत में वफ़क़ (मुताबिक़त) व मुनासबत तमाम है, इस क़ौल बाला मन्क़ूल तिमीथियुस के नाम ख़त से “ख़ुदा के घर यानी ज़िंदा ख़ुदा की कलीसिया में जो हक़ का सतून और बुनियाद है।” (1 तिमीथियुस 3:15) ) कुतुब मुक़द्दसा की रिआयत और रक़ाबत करने के क़ाबिल और मुस्तइद कौन इस से बढ़कर, बल्कि इस के बराबर हो सकता है जो हक़ीक़त यानी हक़ कलाम ख़ुदा का सतून और ख़ुदावन्द मसीह की मामूरी या भरपूरी है। गोया वो ख़ुदावन्द मसीह अपने सब औसाफ़ और फ़ज़ाइल को अपने बदन मिजाज़ी यानी कलीसिया के उज़ूओं पर मुन्क़सिम करता है। पस ख़ुदा की कलीसिया के सिवाए कौन दूसरा मुहाफ़िज़ कुतुब उन और उनकी मानिंद और जमाली सिफ़तों से मौसूफ़ मिल सकता है, हरगिज़ हरगिज़ कोई नहीं।

ये बात मशहूर है कि इज्माअ़-आम्मा की शाख़ें मुख़्तलिफ़ और मुतअद्दिद हैं और ये भी उलमा-ए-दीनयात को मालूम होगा कि अक्सर कुतुब इन्जीली यानी चार इन्जीलों और आमाल रुसूल और पोलुस रसूल के 13 ख़ुतूत और मुक़द्दस पतरस और युहन्ना के अव्वल ख़ुतूत की जितनी कलीसिया की शाख़ें कुल आलम में नूर-अफ़्शाँ हैं, सबकी सब बराबर शाहिद और बशीर शुरू ही से हो रही हैं और उन के ओहदेदार और मुज्तहिद उन की ख़ुशख़बरियों के मुनाद और वाइज़ होने से बाज़ नहीं आए। चौधवां ख़त पोलुस रसूल का यानी इब्रानियों के नाम ख़त हर-चंद कि अव्वल सदी यानी रसूलों की ख़ास सदी में क़ब्ल अज़ इंतिक़ाल हज़रत युहन्ना हबीब, जारी और माअरूफ़ था और मुस्तनद जाना जाता था। तो भी मग़रिबी जमाअतों में मुरव्वज और मुतदाविल (दस्त ब दस्त पहुंची हुई चीज़, मुरव्वज) ना था और उन के गिरजाओं यानी इबादत-गाहों के विर्दों के इस्तिमाली तिलावत में शामिल भी ना था। यानी कलीसिया के एक जुज़्व में वो ख़त कम मालूम था। बसबब आंकि (इस की वजह ये है कि) इस का सरनामा बाअहले यहूद मख़्सूस था और मदार मज़्मून उनके मरासिम शरईयह से बहुत ताल्लुक़ रखता है। पर तो भी वो ख़त जम्हूर कलीसिया में यानी उस की जुनूबी और मशरिक़ी जमाअतों में मालूम और मन्ज़ूर था। और यक़ीन है कि चौथी सदी के अख़ीर में इज्माअ मग़रिब की मजालिस मसीहीयह ने बाद तहक़ीक़ और तफ़्तीश दलाईल उस ख़त को मोअतमिद और मुस्तनद जान कर कुतुब इल्हामिया के क़ानून मग़रिबी में दर्ज और शामिल किया। चुनान्चे जेरोम साहब ख़त 129 में फ़रमाता है :-

“इब्रानियों का ख़त मन्ज़ूर करना रोमी कलीसिया का अमल व आदत क़दीमी ना था और इसी तरह मुकाशफ़ा की किताब यूनान की कलीसिया (यानी शाम व सवेर की जमाअतों में, मसलन आन्ताकिया और यरूशलेम और इस्तंबोल की जमाअतों) में मुरव्वज नहीं। पर तो भी हम इन दोनों को मन्ज़ूर करते हैं, यानी क़ानून कुतुब इल्हामिया में हिसाब कर लेते हैं। चुनान्चे हम ना मुताख़रीन, बल्कि मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) की आदत व अमल की पैरवी करते हैं।”

ये शहादत जेरोम साहब की जो अन्वार आलम और असातीन इज्माअ आम्मा में शुमार किया जाता है और जिसने अपनी उम्र कुछ तो बैतुल-मुक़द्दस और कुछ सिकंदरिया मिस्री में और कुछ रोम आज़म में बसर की और मदरसों और मजलिसों और रहबान ख़ानों में उस की बड़ी शान शरफ़ और क़दरो मंजिलत थी, सो निहायत वज़नी और ग़ौर के लायक़ है, क्योंकि इस से दो बातें साफ़ साबित और मालूम होती हैं।

पहली, ये कि ज़माने सलफ़ व ख़ल्फ़ दोनों में इन दो किताबों की शहादत जम्हूर कलीसिया के बीच मुत्तफ़िक़ और एक ज़बान हो रही थी।

दूसरीये कि सिर्फ वस्त के ज़मानों में जम्हूर कलीसिया के एक-एक हिस्से में इन किताबों की बाबत शक व शुब्ह दर्मियान में आया था, यानी रोम की कलीसिया में इब्रानियों के ख़त और यूनान की कलीसिया में मुकाशफ़ा की किताब की बाबत।

हर साहब दानिश व बीनिश पर वाज़ेह और नुमायां होगा कि इस थोड़ी ही इबारत में जेरोम साहब ने इस बह्स को जो इब्रानियों के ख़त और मुकाशफ़ा की बाबत जारी हो गई थी, अंजाम व इख़्तताम अज़रूए इख़्तिसार किया। यक़ीन है कि बाअज़ ज़मानों की बाअज़ जमाअतों में जो-जो शुब्हात और शकूक इन किताबों के हक़ में दिल नशीन हो गए थे, उन्हें रद्द और रफ़ा करना मुनासिब ना समझा। ताआं वक़्त कि क़वी दलील और उन के अस्नाद की सेहत और वसाक़त का सबूत ना हो। फिर इन शुब्हात को जेरोम साहब के हम-अस्र मुअल्लिमों और मुहक़्क़िक़ों ने बेअस्ल और बे-बुनियाद ठहरा कर रद्द व बरतरफ़ किया। कौन साहब अक़्ल व तमीज़ ये अम्र जाये लिहाज़ और जाये शुक्र ना समझेगा कि कुतुब मंज़िला की रक़ाबत और मुहाफ़िज़त ना फ़र्दन-फ़र्दन तन-ए-तन्हा मुअल्लिमों के ज़िम्मे और हवाले कर दी गई, बल्कि कलीसिया जम्हूर के सपुर्द की गई। जिससे ख़ुदावन्द मसीह ने अपनी हमेशा की हुज़ूरी और रूहुल-क़ुद्दुस की तन्वीर का वाअदा किया था। और इलावा बरां रसूलों और मुनादों और बाक़ी उस्तादों और मुअल्लिमों और ओहदेदारों को अपनी कलीसिया से इनआम बख़्शा और उन खादिमों को बक़द्र मुक़्तज़ाए (तक़ाज़ा करने वाला) औक़ात औसाफ़ और फ़ज़ाइल मुताअद्दा से मौसूफ़ किया और उन्हें इख़्तियार और इक़्तिदार और हुक़ूक़ ज़रूरी अता फ़रमाए, बमूजब इस क़ौल ख़ुदावन्द मसीह के जो इन्जील मरक़ुस में क़लम-बंद है, “ख़बरदार जागते और दुआ करते रहो क्योंकि तुम नहीं जानते कि वो वक़्त कब आएगा। ये उस आदमी का सा हाल है जो परदेस गया और उस ने घर से रुख़्सत होते वक़्त अपने नौकरों को इख़्तियार दिया यानी हर एक को उस का काम बता दिया और दरबान को हुक्म दिया कि जागता रहे।” (मरक़ुस 13:33,34)

चुनान्चे हर एक सदी की कलीसिया ने अपने-अपने मुअल्लिमों और मुसन्निफ़ों और ओहदेदार उस्क़ुफ़ों को ख़ुदावन्द मसीह के दस्त फ़ज़्ल से ले लिया, यानी इस क़द्र सन्जीदगी और इस्तिदाद (सलाहियत) और मोअतबरी के शख्सों को जो उनकी खादमियत के लिए हक़ और दरकार थी और बर मौक़ा चारों एतराफ़ वाली जमाअतों के वकीलों और खादिमों ज़वी-उल-इस्तक़लाल को जमा कर के और हर एक बिद्दती और मुख़ालिफ़ मसीह के किज़्ब व कुफ़्र व फ़साद के क़ज़यों को पेश-ए-नज़र कर के और बाद मुबाहिसा तरफ़ैन के, उन्हें मीज़ान हक़ीक़त में तौल के, रूबरू आलम के इस मुक़द्दमा का फ़त्वा जारी किया और मजलिस आम्मा की मुहर इत्तिफ़ाक़ से, उस को पुख़्ता किया और मख़्तूम (महर शूदा, बंद किया हुआ) किया। हो सकता था कि बाअज़ मुफ़रदों, ख़्वाह मुसन्निफ़ों, ख़्वाह मुअल्लिमों की राएं मुख़्तलिफ़ होतीं या ख़ास-ख़ास जमाअतों में शक व शुब्ह पैदा होता। और अगर शायद ख़ुदावन्द मसीह ने उन क़ज़यों और इशतिबाहों के हल व फैसल करने का कोई वसीला मुक़र्रर और मुतअय्यन ना किया होता, तो कुछ जाये जुंबिश व तज़लज़ुल दिलों में बाक़ी रहती। मगर फ़िल-वाक़ेअ़ जाये इस्तिराहत व तयक़्क़ुन व दिलासाई जाये जुंबिश व इशतिबाह से हज़ारचंद बढ़कर है। अज़ आनरो कि कुल कलीसिया जिसने तमाम आलम में शाख़दार दरख़्त की तरह अपना साया और पनाह फैलाई थी, इस मुहाफ़िज़त और रिआयत कुतुब के ओहदे पर मुहतमिम हो कर ख़ुदावन्द मसीह और उस के हवारीन के कलिमात की मुसबत और मुसद्दिक़ और मज़हर ठहरी।

जेरोम साहब जो मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) को इन दो कुतुब मज़्कूर की सेहत और इस्तिनाद (सनद में पेश करना, सनद लाना) व साक़त का मक़र और शाहिद बताता है, सो वो बात अव्वल ज़माने के उन आसारों से जो अब मौजूद हैं, मुईद हो सकती है। मसलन कलीमन्स नामे रोम का उस्क़ुफ़ शरीफ़ तख़्मीनन तीस (30) बरस पेशतर अज़ इंतिक़ाल युहन्ना रसूल, अपने ख़ुतूत में कई आयतें इब्रानियों के ख़त से नक़्ल करता है और उन मन्क़ूलात पर अक़ाइद दीनी की बाअज़ ताअलीमात और अख़्लाक़ी नसीहतों को मबनी करता है और साठ बरस मुबारक युहन्ना की वफ़ात के बाद फ़्रांसीसी दो जमाअतों के क़िस्सीस एशयाए कोचक की जमाअतों के पास अपने शहीदों की दिलेरी और जवाँमर्दी और अपने ज़ालिमों की कीनापरवरी और ख़ूँरेज़ी की मुफ़स्सिल ख़बर भेजने में इत्तिफ़ाक़न मुकाशफ़ा की किताब पर साफ़ व सरीह गवाही देते हैं कि वो मुरव्वज भी थी और उस के कुतुब इल्हामी के शुमार में गिने जाने पर दोनों जमाअतें मुत्तफ़िक़-उल-राए थीं। अज़ आनरो कि उन की ख़बरों में ये बयान आता है। शहीदों की मज़्बूती और बरक़रारी देखकर वहूश की मानिंद अवाम व ख़वास की आतिश-ए-ग़ज़ब और ज़्यादा तेज़ी से भड़क गई, ताकि कुतुब मुक़द्दसा का कलाम पूरा हो“जो बुराई करता है वो बुराई ही करता जाये और जो नजिस है वो नजिस ही होता जाये और जो रास्तबाज़ है वो रास्तबाज़ी ही करता जाये और जो पाक है वो पाक ही होता जाये।” (मुकाशफ़ा 22:11)

इस अम्र में ग़ौर करना चाहिए कि तख़्मीनन पच्चास (50) बरस ज़माने रसूलियह के बाद इन मग़रिबी जमाअतों के शफ्क़त नामें में जो मशरिक़ी जमाअतों के पास भारी मुहिम्मात के बयान में पहुंचाया गया और अब भी यूसीबीस (Eusebius) की तवारीख़ में मौजूद है, युहन्ना के मुकाशफ़ा पर वही नाम और वही इज़्ज़त व शराफ़त व क़द्र की अलामतें इतलाक़ की जाती हैं, जो वक़्त साबिक़ नबियों और औलिया के साथ मख़्सूस थीं और इस ख़त के राक़िम इस यक़ीन से लिखते हैं कि मुतकल्लिम की जमाअत और मुख़ातब की जमाअत जो कलीसिया की दो बड़ी शाख़ें थीं, दोनों बिला-तवक़्कुफ़ व ताअ़रुज़ इस इक़रार व शहादत में ब वफ़क़ तमाम मिलेंगी। साहिबो मसीहीयों ने कलाम-ए-ख़ुदा से क्या ही उम्दा और तसल्ली बख़्श क़ायदा सीखा है कि मुसन्निफ़ों की गवाही को इसी क़द्र और अंदाज़े पर वज़नी मानते हैं जिस क़द्र बड़ी-बड़ी जमाअतों के मुअल्लिम माअरूफ़ और ममदूह और शहरा-ए-आलम हो कर गोया अपनी ज़बान और अपने ख़ास इख़्तियार से नहीं, पर कलीसिया की ज़बान और इख़्तियार से बोलते थे। क्योंकि वो ख़ुदावन्द मसीह की ऐसी शुन्वा और ताबेअ फ़रमान है जैसे ज़न अपने ख़ास शौहर की।

रसूलों ज़वी-उल-इल्हाम के ज़माने के बाद निस्फ़ सदी के फ़ासिले पर एक और शाहिद गिरामी और मशहूर मुकाशफ़ा युहन्ना की वसाक़त और लियाक़त पर दाल है, यानी योस्तीन शहीद (Justin Martyr) जिसमें बाअज़-बाअज़ मुन्फ़सिल जमाअतों की शहादतें मिलती हैं। चुनान्चे वो नाब्लूस से जो बैतुल-मुक़द्दस के एतराफ़ में है, एशयाए कोचक में ख़ुसूसुन इफ़्सस शहर में आया और वहां से रोम आज़म की तरफ़ रवाना हो कर उस दार-उल-ख़िलाफत में मुद्दत तक रहा और इल्म ईलाहीयत का मुदर्रिस हो कर अपनी हिक्मत व इल्म व माअर्फ़त की बड़ी नेक-नामी ले गया और बिद्दतीयों और यहूद और बुत-परस्तों पर ता दर्जा कमाल बह्स में फ़त्हयाब निकला और ख़ुदा तआला के इज्माअ-आम्मा को और फ़वाइद में भी अपना एहसानमंद किया और इस में भी बिल-ख़सूस कि मुकाशफ़ा युहन्ना की तफ़्सीर तैयार की और इसी निस्फ़ सदी के फ़ासिला पर सारडीस शहर के उस्क़ुफ़ मलेतो नाम ने मुकाशफ़ा के बयान में एक रिसाला तस्नीफ़ किया। ग़ौर करो कि अभी तीन साफ़ गवाहियाँ इस अम्र पर हम दे चुके हैं कि एशया-ए-कोचक में यानी जिस मुल्क में रसूल मुबारक बुढ़ापे बल्कि मौत तक ताअलीम व तदरीस देता रहा था और अंदर बाहर चलता फिरता रहा था, उसी मुल्क में ये अम्र मशहूर और मशहूद था कि मुकाशफ़ा का मुसन्निफ़ वही युहन्ना है।

साहिबो अब हम ज़रा सा सवाल करें और अज़ राह तफ़्तीश दर्याफ़्त करें, इन मुअल्लिमों और मुसन्निफ़ों से जो दूसरी सदी के अख़ीर में यानी बाद इंतिक़ाल हज़रत युहन्ना के पहली सदी के अख़ीर में थे कि ख़ुदा की इज्माअ आम्मा की उस ज़माने में क्या राय और फ़त्वा था, इन दो किताबों के हक़ में यानी दरबाब मुकाशफ़ा और इब्रानियों के नाम ख़त के बारे में अहले कलीसिया क्या जानते थे? ये बात याद रहे कि ज़माना मज़्कूर के मुसन्निफ़ों का ये दस्तूर है कि जम्हूर कलीसिया के फ़तवे और इन्फ़िसाल का एलानिया तन-ए-तन्हा उलमा की मुख़्तलिफ़ राइयों (राय की जमा) के साथ मुक़ाबला किया करते हैं और उन मसीही मुअल्लिमों की सिदक़ दिली और लापरवाई और अपने ईमान की मज़्बूत बुनियाद और पुश्त-पनाह पर भरोसा और तयक़्क़ुन रखते हैं। इस से साफ़ रोशन है कि हर एक बात की हक़ीक़त-ए-हाल को बरहना और बे-हिजाब करते हैं। और जम्हूर कलीसिया के इन्फ़िसाल मसाइल के बाद कुछ उज़्र इस से नहीं करते कि राय मुतफ़र्रिक़ और ख़िलाफ़ फतवों को जो जुदा-जुदा मुअल्लिमों के मशहूर हो गए, आमने-सामने करें। हर-चंद कि कलीसिया आम्मा ने उन शख्सों के ज़ईफ़ दलाईल और फ़हमीदा की कोताही के सबब और उन की हुज्जतों की नासाज़ी और नाइत्तिफ़ाक़ी से उन की तक़रीरों को बे-सबात और मन्ज़ूर ठहराया है।

पस युहन्ना रसूल के इंतिक़ाल के बाद दूसरी सदी ईस्वी के अख़ीर में चार शख़्स बाक़ी मुअल्लिमों में आलीक़द्र और रौनकदार और इल्म ईलाहीयत में ता वुसअत बशरीयत पुख़्ता और कामिल मशहूर थे, यानी योस्तीन शहीद (Justin Martyr) और लियोनेस एक फ़्रांसीसी शहर का उसक़फ़, अरेनीयस (Irenaeus) और सिकंदरिया मिस्री का क़िस्सीस और मुदर्रिस कलेमन्स और कार्थेज का क़िस्सीस तर्तलियान (Tertullian) फ़ील-तहक़ीक़ ये मुअल्लिम ख़ुद निसार और फ़रिश्ता मिज़ाज (75) बरस ज़माने रसूलियह के बाद और तर्तलियान एक सदी के फ़ासिले पर ज़िंदा कलीसिया के ख़ादिम और उस की औलादों के मुरब्बी और ख़ुदावन्द मसीह के गल्ले के चौपान थे। अरीनियस तो मशरिक़ी जमाअतों की पेशवाई करता था, मगर एशाए कोचक में युहन्ना रसूल के मुरीदों और रफ़ीक़ों से दर्स व ताअलीम पाई थी। जिनमें मशहूर और आलीक़द्र पोलीकार्प (Polycarp) उसक़फ़ और शहीद था और वह युहन्ना रसूल के ख़ास मुरीदों में से था।

अब मालूम हो कि ये मुक़द्दस और मुबारक जिसका ऐसा क़रीब ताल्लुक़ रसूलों के उस आख़िरी पस मांदे के साथ था और उस का ज़माना रसूल के ज़माने से ऐसा थोड़ा बईद था, मुकाशफ़ा की किताब से अपने दर्स व ताअलीम की नक़्ली दलीलों को इसी तरह तलब किया करता था जिस तरह बाक़ी कुतुब इल्हामी से। और युहन्ना रसूल को इस का मुसन्निफ़ साफ़ बताता है, बल्कि मुकाशफ़ा के जो बाईस अबवाब हैं इनमें से ग्यारह से नक़्लियात निकालता है। चुनान्चे इस आलम फ़ासिद की आइन्दा बहालियत के बयान में फरमाता है :-

“और यही वो क़ियामत है जिसे युहन्ना अपने मुकाशफ़ा में दिखाता है, “मुबारक और मुक़द्दस है वो जो पहली क़ियामत में शरीक है।” (मुकाशफ़ा 20:6)

इसी तरह मुक़द्दस अरेनियस अपनी किताब 4 की 25 वीं फ़स्ल में इर्शाद करता है :-

“बल्कि युहन्ना भी ख़ुदावन्द मसीह का शागिर्द उस की पुर जलाल कहानत और बादशाही की पेश-ख़बरियों में ये गवाही देता है, “फिर सोने के सात चिरागदान देखे और उन सात चिरागदानों के बीच एक शख़्स आदमज़ाद सा देखा।” वग़ैरह (मुकाशफ़ा 1:12,13)

और जितनी मर्तबा वो मुक़द्दस मुकाशफ़ा से मन्क़ूलात निकालता है, उतनी ही मर्तबा उस के मुसन्निफ़ का नाम बतकरीम व ताज़ीम लेता है कि गोया इस अम्र की बाबत उस ज़माने में कोई शुब्हा किसी के दिल में हरगिज़ ना आया था। बावजूद एक वो किताब जिसमें ये नक़्लियात मौजूद हैं, उसक़फ़ मज़्कूर ने बह्स की राह से मारक्यून की बिद्दत व गलत को रद्द करने के लिए तस्नीफ़ की थी और इस हाल में हर साहब दानिश को मालूम है कि इन किताबों के सिवाए जिन्हें दोनों यानी बिद्दती और मुस्लिमीन हक़ कलाम-ए-ख़ुदा मानते थे, किसी किताब की गवाही इस हुज्जत में मन्ज़ूर ना होगी।

कार्थेज की कलीसिया के क़िस्सीस तर्तलियान की गवाही से उसी किताब की सेहत और असलीयत और मोअतबरी और उस की मुसन्नफ़ी का हाल साफ़ मालूम व रोशन हो जाता है। वो मुक़द्दस क़ायदा मज़्कूर-बाला के बमूजब हर-चंद कि बिद्दती मारक्यून या मारसीवन (मारसी अन) की राय और हुज्जत मुख़्तलिफ़ा का तज़्किरा करता तो भी उस के मुक़ाबिल कलीसिया का फ़त्वा साफ़ बयान करता और यूं फ़रमाता है :-

“ऐशयाए कोचक की जमाअतें ख़ुद युहन्ना रसूल की सिखाई हुई और तामीर की हुई हैं और उन्हीं जमाअतों के उसक़फ़ की गवाही मुतसलसल और मुतवातिर से किताब मुकाशफ़ा की मुसन्नफी बड़े भारी सबूत से युहन्ना रसूल पर सादिक़ आती है।”

उसी ज़माने के बाअज़ और मशहूर मुसन्निफ़ हैं जिनके कई मक्तूबात मौजूद हैं। उनमें कलीमनस बड़ा मुफ़ीद और मोअतबर गवाह और साहब ख़यालात है। चुनान्चे इल्म ईलाहीयत के मदरसों में जो उस वक़्त उम्दा और अफ़्ज़ल और रौनकदार था, वो मर्द उस की पेशवाई पर मुहतमिम (एहतिमाम करने वाला) हो गया था और चूँकि ऐसा भारी ओहदेदार और साहब-ए-इख़्तियार इब्रानियों के नाम ख़त को पोलुस रसूल की तरफ़ हवाले करता है और मुकाशफ़ा को युहन्ना रसूल की तरफ़ तो यक़ीन क़वी और दलील क़तई इस अम्र पर हासिल हुई कि इज्माअ आम्मा का इन्फ़िसाल व फ़त्वा बहर-ए-हाल मशरिक़ी और जुनूबी जमाअतों का फ़त्वा इस मसअले के हक़ में मुद्दत से क़ायम और बरक़रार रहा और ज़रा तफ़ह्हुस (जुस्तजू, तलाश) से मालूम होगा कि कलीमनस के मुक्तुबात मौजूदा में बहुत से मन्क़ूलात इब्रानियों के ख़त से हैं और अक्सर जब उस ख़त के मज़ामीन से कुछ नक़्ली दलील गुज़रानता है तो इबारत मन्क़ूल के साथ मुसन्निफ़ का नाम भी पेश करके कहता है कि, रसूल यूं फ़रमाता है या “रसूल-ए-ख़ूदा” या “पोलुस रसूल” वग़ैरह।

इसी तरह मुकाशफ़ा से भी वही मुदर्रिस और क़िस्सीस बाअज़ आयतें नक़्ल करता है और उस की मुसन्नफ़ी (लिखारी) की बाबत उस की गवाही बाक़ी मोअल्लमीन मज़्कूर के साथ मिलती हैं और उस रौनकदार मदरसे की पेशवाई में जो उस का क़ाइम मक़ाम और ख़लीफ़ था और जिसकी ज़्यादा इस्तिदाद (सलाहियत) बल्कि मजमा उलूम होने की तारीफ़ शहरह-ए-आलम थी, यानी अरजिन साहब की शहादत उस ख़त की मोअतबरी और वसाक़त और हक़ीक़ी मुसन्नफ़ी पर निहायत भारी और मूजिब ख़ातिर जमुई की है। वो मुअल्लिम बाअज़ शख्सों के इश्तिबाहात और सवालात का ज़िक्र कर के कि आया इब्रानियों का कहा हुआ ख़त ख़ुद पोलुस की तस्नीफ़ात में से है या उस के रफ़ीक़ों में से किसी की तस्नीफ़ है यानी कलीमनस रोमी या लूक़ा इन्जीली की। और कई इबारतों से साफ़ ज़ाहिर और वाज़ेह कर के कि कितनी सिदक़ दिली और सुबूरी से हक़ीक़त हाल की जुस्तजू करता था, बाअद-अज़ां अपनी तहक़ीक़ का हासिल और नतीजा ज़ाहिर करता है और फ़रमाता है कि :-

“मैं एक ख़ास रिसाले भी इस मुराद से मुहय्या और तैयार करने पर मुस्तइद हूँ कि ख़त इब्रानियों की मुसन्नफ़ी (लिखारी) सिर्फ पोलुस ही के लिए साबित और मुतअय्यन करूँ।”

और इसी राय के बमूजब जाबजा बाक़ी तस्नीफ़ात में ख़्वाह कलीसिया-ए-मसीही की तामीर और तरक़्क़ी के वास्ते, ख़्वाह मोअतरिज़ों की तर्दीद के लिए अक़ाइद दीनी का बयान व तशरीह करता है। मगर इब्रानियों के ख़त के मुतफ़र्रिक़ बाबों की शहादतें नक़्ल कर के पोलुस रसूल की मुसन्नफ़ी पर ताकीद व तश्दीद करता है कि गोया जम्हूर कलीसिया और बड़ी कस्रत बिद्दतीयों और मोअतरिज़ों की इस अम्र के इक़रार व एतराफ़ पर मुत्तफ़िक़ हैं। और इसी ख़त की तफ़्सीर और तशरीह में अरजिन साहब के वाअज़ व मुनादी की किताब मुअर्रिख़ यूसीबीस (Eusebius) साहब के पास मौजूद थी, जिसे साहब मज़्कूर मसीही जमाअतों के हुज़ूर मुक़र्ररी दिनों में सुनाया करता था। जिस बात से दलील क़वी और रासिख़ ना सिर्फ इस अम्र पर है कि वो किताब बाक़ी कुतुब मुक़द्दसा की बराबर मसीही जमाअतों में पढ़ी जाती थी, बल्कि इस पर भी कि वो इस क़द्र वज़नी और सनदी भी जानी जाती थी कि वाइज़ और मुनाद उस की तहरीर और बेशक़ीमत मज़ामीन से अवाम व ख़वास के लिए मुफ़ीद नसीहतें निकालते थे। और मसीही कलीसिया के इस फ़तवे के मुत्तफ़िक़ एक और शहादत अरजिन साहब की इस मुराद से ज़िक्र के लायक़ है कि :-

“दर-हालिका बाअज़ मुसन्निफ़ ख़िलाफ़ राय पर थे तो भी मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) यानी जम्हूर कलीसिया-ए-सलफ़ से ये फ़त्वा तवात्तुर से चला आया कि मुसन्निफ़ इस ख़त का पोलुस रसूल ही था।”

इन अक़्ली और नक़्ली दलीलों से अस्हाब दानिश व बीनिश को हमारी तक़रीर के मतलब की ज़रा फ़हम और समझ आ जाएगी कि कितना फ़र्क़ और तफ़ावुत है, जम्हूर कलीसिया के फतवों और तन-ए-तन्हा मुसन्निफ़ों के कयासों और रायों में। चुनान्चे जमाअत आम्मा कुतुब समाविया की रक़ाबत व मुहाफ़िज़त पर मुहतमिम और मुतफ़ूस हो गई थी। अज़आनरो कि अक्सर किताबें तवक्कुले कलीसिया के हाथ ज़िम्मे और हवाले की गई थीं, सिर्फ थोड़ी ही थीं जो कुल इज्माअ-आम्मा को नहीं व लेकिन या तो मशरिक़ी या मग़रिबी एतराफ़ों की जमाअतों को सपुर्द हुईं। इन्जील के इतने-इतने अबवाब से सिर्फ छः ही थे जो शुरू में तो कम मशहूर और मुतदाविल हुए थे, पर चौथी सदी की कलीसिया ने बड़ी तहक़ीक़ात के बाद उन की सनदें काफ़ी और वाजिब-उल-तस्लीम ठहरा कर और उन के शाहिद भी मोअतबर और उन का मज़्मून भी कुतुब ईलाही की कुल्लियत मज़ामीन के मुत्तफ़िक़ पा कर उस इख़्तियार के बमूजब जिसे ख़ुदावन्द मसीह से लिया था, उस ने उन को यानी पतरस रसूल का दूसरा ख़त वग़ैरह क़ानूनी किताबों की फ़हरिस्त में दाख़िल किया।

हमें इस तवालत बयान के सबब मअ़यूब (एब वाला) होने का डर है तो भी इस अम्र पर ज़ोर व ताकिद करना फ़र्ज़ और लाज़िम था, क्योंकि इस अम्र की हक़ीक़त-ए-हाल से नावाक़िफ़ होने के सबब हज़ार-हा नाहक़ शिकायतें और एहतिमालात पैदा हुए। और अफ़्सोस है कि बाअज़ मौलवी इस से क़ाबू पाकर इन्जील शरीफ़ की किताबों का हाल बिल्कुल मुशव्विस (परेशान कर देने वाला) और मुश्तबा और बे-मीज़ान व मुहक और मख़्लूत जानते हैं कि गोया कलीसिया का जहाज़ इब्तिदा से पतवार और नाख़ुदा और क़ुतबनुमा से बे-बहरा हो कर मव्वाज दरिया पर बड़ी लाचारी से झूटी ताअलीम की हवा जिधर उसे फेरती है, उधर फिर जाता है। चुनान्चे सब कुछ उन की दानिस्त में ख़ाली ज़ोअम और मिज़न्ना (गुमान, ख़्याल) और तोह्हुम (वहम, शक) है, ज़रा भी यक़ीन और ख़ातिर जमुई नहीं। हाँ बल्कि वो मुतकब्बिर ख़ुदावन्द मुबारक को जो सब बातों में कलीसिया का सर है, मुफ़्त मस्लिहत देने पर मुस्तइद हैं कि यूं या यूं करना उस की शान के लायक़-तर और मुनासिब-तर था और कि करामत की राह से ऐसा बन्दोबस्त करना चाहीए था, जिससे कुतुब रसूलियह का कोई तक़्लीद करने वाला ना होने पाता।

सच तो ये है कि कुतुब समाविया की तक़्लीद हो सकती है और ज़र क़ल्ब (दिल) ज़र-ए-ख़ालिस की सूरत थोड़ी बहुत पकड़ सकता है। पर तो भी ख़ुदा तआला ऐसा लाचार और लाइलाज और बे-वसीला नहीं कि इन्सान के ज़ुल्म व फ़रेब से आजिज़ हो कर अपनी हिक्मत बेपायाँ और अज़ली सलामत बख़्श तदबीर को अबस और साक़ित होने दे। चुनान्चे उस तआला ने अपनी पेश-बीनी और रिआयत से एक ज़िंदा गवाह यानी इज्माअ-आम्मा ज़ाहिरन ताअयिनात किया जिसके वजूद कुल्लिया में रूहुल-क़ुद्दुस की हुज़ूरी अख़ीर अय्याम तक क़ायम व दाइम रहे और उस का नूर बुझने ना पाए। हालाँकि बाअज़ मौक़े और जमाअतों में उस की आवाज़ की ख़ामोशी और उस के नूर की धुंदलाहट वाक़ेअ हुई भी है और आइन्दा हो भी सकती है।

ऊपर बयान हो चुका है कि जिस किसी कलीसिया के पास कोई ख़त रसूलियह पहुंचाया गया था, उस ने जमाअत और उस हलक़े और इलाक़े के बाक़ी सब जमाअत वालों ने उस ख़त की मुहाफ़िज़त और रक़ाबत को अपना फ़र्ज़ और हक़ जाना, ना अपने ख़ास फ़ायदे और तरक़्क़ी के लिए, बल्कि इज्माअ-आम्मा के लिए। बमूजब उस क़ौल मसीह के जो मुकाशफ़ा की किताब के बाब 2 और 3 में मुक़र्रर-सइ-करर्र सुनाई देता है “जिसके कान हों वो सुने कि रूह कलीसियाओं से क्या फ़रमाता है।”ये भी ऊपर बयान हो चुका है कि ख़ुसूसुन वो ख़ुतूत उन जमाअतों के उसकफ़ों और क़िस्सीसों और मुअल्लिमों की अमानत और ज़मानत में महफ़ूज़ रहे, जिस सबब से उसक़फ़ों के अस्मा-ए-शरीफ़ की फ़हरिस्त मुसलसल शुरू ही से बाअज़ आलीक़द्र जमाअतों में बड़ी ख़बरदारी और दिक़्क़त से सही व सलामत रखी जाती थी। और ये भी साफ़ यक़ीन है उन रिवायतों की गवाही से जो ज़मान रुसूल के मुक़ारिन ज़माने से आज तक मशहूर होती चली आई हैं और हर चाहने वाले साहब-ए-इल्म को दस्तयाब हो सकती हैं कि दूर-दूर जमाअतों और उन मुशर्रफ़ जमाअतों के दर्मियान बहुत आमद व रफ़्त हुआ करती थी, उन ख़ुतूत रसूलियह की तादीब व ताअलीम से मामूर होने के लिए, क्योंकि कलीसिया के तमाम बदन की यगानगत और ख़ुश इत्तिफ़ाक़ी के सबब और अज़ आनरू कि वो ख़ुदावन्द मसीह में ख़ुश मुरत्तिब और महफ़ूज़ थी। वो ख़ज़ाना जो जुज़ को मिला, सो कुल इज्माअ का भी ख़ज़ाना था और कलाम इल्हाम का जो कुछ हिस्सा किसी ख़ास जमाअत के हवाले में मख़ज़ून हो रहा। उस की निगहदाश्त और हिरासत इसी तरह कल कलीसिया के ज़िम्में थी। मसलन हेगीसीपस नाम अव्वल मुअर्रिख़ कलीसिया का इसी मुराद से बरू बहर की बहुत दराज़ मुसाफ़िरी और मेहनत कुशी में कई बरस तक मशग़ूल रहा कि हर जमाअत की दस्तावेज़ों ख़्वाह नक़्लों, ख़्वाह अस्ली सनदों को बनज़र ख़ुद देखकर ख़ातिर जमुई और तसल्ली पाए।

अरेनियस साहब इस तरह के दलाईल बहुत क़दरो वज़न के जान कर कई भारी जमाअतों के उसक़फ़ों की फ़हरिस्त बकमाल तर्तीब और सिलसिला बन्दी से हमें तफ़वीज़ फ़रमाते हैं और कलाम हक़ीक़ी की उस निगहदाश्त और मुहाफ़िज़त का जो उन के तवस्सुत से कुल कलीसिया का ओहदा और फ़र्ज़ है, पूरा बयान करते हैं और वसूक़ (यक़ीन) कुतुब की उस किफ़ालत पर बहुत ताकीद करते हैं। चुनान्चे ये सब बातें उमूर वाक़ई हैं, ख़्याली नहीं। मसलन उस की तीसरी किताब की तीसरी फ़स्ल में मर्क़ूम है :-

“इसलिए वो कलाम जिसे रसूल ने (अपने ख़लीफों को) सपुर्द किया, तमाम कलीसिया में मौजूद और हाज़िर रहता है। जो शख़्स हक़ीक़त-ए-हाल की जुस्तजू की तरफ़ माइल है, उस पर मुलाहिज़ा करे। चूँकि हम अपने ही हम-अस्रों तक तशरीहन व सराहतन नामों का हिसाब दे सकते हैं, जिन्हें रसूलों ने मुतअद्दिद जमाअतों में अपने क़ाइम मक़ाम मुक़र्रर किए और उन के नाम भी जो उन के ख़लीफ़ हो गए। पर जब कि इस हमारे सहीफ़ा में सब कलीसियाओं के उसक़फ़ों के सलासिल (सिलसिला की जमा, ज़ंजीरीं) अस्मा का गिनना और हवाले क़लम करना मूजिब ततवील (लंबा करना) होगा। लिहाज़ा एक जमाअत को पसंद करता हूँ जिसकी शर्फ़ और रौनक अफ़्ज़ल और सबसे क़दीम है और दो रसूलों यानी पतरस और पोलुस मुबारक ने उस की बिना भी डाली और उसे रब्त व नज़्म किया। उन्हीं रसूलों ने जो-जो ख़बरें और ईमान के अक़ाइद हमें सपुर्द किए थे, सो कुल आलम में मुन्तशिर हो गए, बज़रीया तसलसुल इसाकिफ़ जो इस ज़माना तक होते चले आए।”

उन रूमी उसक़फ़ों में चौथा कलीमन्स मज़्कूर को बताता है जो अव्वल सदी के अख़ीर से पहले इंतिक़ाल कर गया था और उस के ख़त मशहूर और मुतदाविल का तज़्किरा करता है कि किस तरह रोमी जमाअत ने उस उसक़फ़ के ज़रीये से जमाअत कुरिंथिस के पास शफ्क़त नामा बिरादराना पहुंचाया था। जिसमें वो उन्हें उन के ज़िम्में सपुर्द की हुई ताअलीमात याद दिलाता है और उन्हें अदाए शुक्र और हम्द की तरफ़ तर्ग़ीब देता है और सिर्फ यही नहीं बल्कि ताकीद से उन्हें जताता और समझाता है कि तुम ज़रूर दिलो-जान से मुतवज्जा रहो, पोलुस रसूल के उस ख़त की तरफ़ जो तुम्हारे पास भेजा गया यानी अहले कुरिंथिस के पास और अब तक तुम्हारे पास मौजूद है। फिर वही मुक़द्दस पालीकार्प (Polycarp) नाम सिमर्ना के उसक़फ़ की शहादत पेश करता है जिसने बहुत अश्ख़ास की जो ख़ुदावन्द मसीह के हम-अस्र और बचश्म ख़ुद उस के अफ़आल के नाज़रीन और हाज़िरीन और बगोश ख़ुद उस के अक़्वाल के सामईन (सुनने वाले) थे, रिफ़ाक़त की थी और उस के हक़ में ये फ़रमाता है कि :-

“मैंने आप भी छोटी उम्र में उसे देखा और गवाह हूँ कि उस ने वही ख़बरें सिखाईं जो रसूलों से सीखीं और जिनका शाहिद व मुअल्लिम इज्माअ़-आम्मा है और जिनके बग़ैर कोई हक़ीक़त नहीं है और इन्हीं बातों के एशयाए कोचक की सारी जमाअतें और पालीकार्प (Polycarp) उसक़फ़ के सब ख़लीफ़ शाहिद हैं।”

फिर ये भी सलाह देता है और सवाल करता है, मारसियोन और बाक़ी बिद्दतीयों से जिनकी ग़लत तावीलों और तल्बीस (मक्कारी, लिबास पहनाना, फ़रेब) हक़ को रद्द व रफ़ाअ करने के लिए अपनी उन किताबों को तस्नीफ़ किया था कि :-

“आया ये बात फ़र्ज़ व अजब ना थी कि जिस किसी अम्र में तुम्हारे और मुस्लिमीन के दर्मियान बहस व हुज्जत पैदा होती थी, तुम्ह उन क़दीमी जमाअतों की तरफ़ रुजू ला कर जो रसूलों की मुलाक़ात और रिफ़ाक़त और वाअज़ व मुनादी से मुशर्रफ़ थीं, उन्हीं से जो कुछ हर अम्र में वाज़ेह और रोशन और मूजिब तयक़्क़ुन व तसल्ली है, सीख लिया करते। हाँ बल्कि अगर शायद रसूल कुतुब इल्हामी हमारे हवाले किए बग़ैर छोड़ गए होते, तब भी क्या ना चाहिए था कि उस नज़्म व तर्तीब व क़ाएदे की पैरवी व इताअत करते जिसे रसूलों ने उन्हें सौंपा जिन्हें जमाअतों की निगहदाश्त सौंपी गई थी।”

देखो साहिबो किस तरह हम यहां किसी एहतिमाली और मुबहम (यानी छिपे हुए) ख़बरों का ज़िक्र नहीं करते और ना हम-क़दम मारते हैं दलदलाती (कीचड़) और काँपती हुई ज़मीन पर जहां कुछ ठिकाना और जाये क़रार और साबित क़दमी नहीं। पर हम किताबों की मुहाफ़िज़त और बरहक़ व सही अक़ाइद दीनी की निगहदाश्त की बाबत ऐसे इन्तिज़ाम और बन्दोबस्त का बयान करते हैं, जिसे रसूलों ने उस हल व अक़्द के वाअदे मज़्कूर पर और रूहुल-क़ुद्दुस के नुज़ूल पर और अपने ख़ुदावन्द की दाइमी हुज़ूरी पर भरोसा और आसरा कर के मुक़र्रर फ़रमाया था। पस अरेनियस साहब की इस गवाही में दो बातें ख़ास गौर व मुलाहिज़ा के लायक़ हैं :-

पहली बात ये कि उसक़फ़ मज़्कूर दीन मसीही की सबसे उम्दा और अशरफ़ शहादत पाक मक्तूबात की नक़्ली शहादत को बताता है।

दूसरी बातये कि बाद नक़्ली शहादत यानी मक्तूबात की शहादत के जमाआत रसूलियह (रसूलों की जमाअत) की वो शहादत जो ज़िंदा ज़बान और तमाम इत्तिफ़ाक़ से गुज़रानी गई, बड़ी मुराआत और इल्तिफ़ात की मुस्तहिक़ बताता है।

चुनान्चे इस क़िस्म की शहादत एक जमाअत की ज़बानी तक़रीर में पाबंद और मुक़य्यद नहीं, मगर उन सब जमाअतों की गवाहियाँ उस में शुमार और शामिल की गईं जो रसूलों की हुज़ूरी और तालीमों से मुशर्रफ़ हुईं। बिलाशुब्हा एक निहायत मज़्बूत और पाएदार बुनियाद एतिक़ादात की उस वक़्त-ए-ज़रूरत थी, जब मारसियोन और वालेतीनोस और क़िस्म-क़िस्म के बिद्दती अक़ाइद की तल्बीस (मक्कारी) और तख़रीब करने के लिए कुतुब मुक़द्दसा को घटाना बढ़ाना चाहते थे। चुनान्चे इस अम्र में मारसियोन की ग़लती और ज़लालत पर अरेनियस साहब साफ़ व सरीह शाहिद हैं और इस वजह से उसे मुल्ज़िम ठहराते हैं कि मारसियोन और उनका फ़िर्क़ा कलाम-ए-ख़ुदा के टुकड़े-टुकड़े और काटने की, तरफ़ मुतवज्जा होते हैं। चुनान्चे बाअज़ उन में से उसे बिल्कुल ग़ैर-मन्ज़ूर और मतरूक करते हैं। जिज़ाज़ आंकि (सिवाए इस के) लूक़ा की इन्जील और पोलुस रसूल के ख़ुतूत की तसग़ीर (छोटा करना) और तक़ती (टुकड़े-टुकड़े) करना कर के सिर्फ उन किताबों को बरहक़ मानते हैं जो आप ही ने बोला और मक़तूअ़ की हैं। पर हम जो हैं उन्हीं चीज़ों से (यानी उन मक्तूबों के ज़रीये से) जो हमारे पास महरूस (महफ़ूज़, ज़ेर निगरानी) और मख़ज़ून (ख़ज़ाने में रखा गया) हैं, उन्हें क़ाबिल-ए-तर्दीद और तक़्ज़ीब ठहराएँगे। पर बाक़ी सब फ़िर्क़े वाले इल्म दरोग़ के नाम ही से फूलते हुए कुतुब मुक़द्दसा को ज़ाहिरन तो मानते हैं पर तावीलों और फ़ासिद तफ़्सीलों से उनका मज़्मून उल्टा कर देते हैं। इन से और इन की मानिंद सैंकड़ों और साफ़ नक़्लियात क़ातेअ़ (काटने वाला) से वाज़ेह है कि जब कलीसिया का ख़ज़ाना बेश क़द्र बहुत चोरों और डकैतों के फ़रेबी मन्सूबों से सख़्त ख़तरे में पड़ा तो उस के मुतअय्यन निगहबान ग़ाफ़िल ना रहे, बल्कि बड़ी चौकसी और एहतियात से चौकी पहरे पर क़ायम व दाइम रहे और किताबों की मुहाफ़िज़त अपनी जान की रखवाली से अहम तरीन जानते थे और जुज़-जुज़ के काटने वालों और बिगाड़ने वालों को बर सबील वफ़ादारी नज़रबंद किया करते थे और खुल्लम खुल्ला कलाम ख़ुदा की उन्हें मन्क़ूलात से उन्हीं दीनी अक़ीदों का सबूत किया करते थे, जवाब हमारी मजलिसों और जमाअतों में मुरव्वज हैं और इस अम्र की शुक्रगुज़ारी वाजिब है कि जिस वक़्त बिद्दतीयों के मुतअद्दिद फ़िर्क़े आपस में मुहारिबा (लड़ाई, जंग) और मुआरिज़ा और ब-हम्द गिर मुक़ातिला (आपस में ख़ूँरेज़ी करना) भी करते थे, तब कलीसिया-आम्मा की मज़्बूती और बरकरारी बढ़ती चली जाती थी और हर एक उन फ़िर्क़ों में जिस-जिस जुज़ हक़ीक़त का मक़र है, सो इस इक़रार के ज़रीये से इज्माअ़-आम्मा की शहादत को तस्दीक़ करता है और जिस-जिस जुज़ को एक फ़िर्क़ा रद्द या तर्क करता है, दूसरा फ़िर्क़ा मज़्बूती से अख़ज़ करता है और सादिक़ मानता है। तो जिस हक़ीक़त ख़ुदा पर इज्माअ-आम्मा कुल्लियतन दाल और शाहिद हैं उसी पर बिद्दती जुज़अन-जुज़अन गवाही देते हैं। और उन सब उमूर का हासिल रब तआला का जलाल कलीसिया की तरक़्क़ी निकला। चुनान्चे अरेनियस साहब उसी किताब की बारहवीं फ़स्ल में फरमाता है :-

“हमारी इन्जील की गवाही की इतनी तौसीक़ और क़वी तस्दीक़ है कि बिद्दती भी ख़्वाह-मख़्वाह शहादत देते हैं। अज़ आनरो कि वो हमारी जाये ख़ुरूज से चल निकले और हमारी मुस्नद और पुश्ती पर तकिया लगा कर हर एक हमारी किताबों से अपनी-अपनी ताअलीम को सही और मुस्तनद दिखाना चाहता है। चुनान्चे अब्यूवनी (अबूनी) जो इन्जील मत्ती को छोड़कर सब इन्जीलों के मुन्किर हैं, किसी को नहीं मानते हैं। पर उसी अपनी ख़ास इन्जील की नक़लियात से क़ाबिले तक़्ज़ीब व तर्दीद हैं और मॉरिसियोनी भी जो इतने जुर्रत रसीदा हैं कि ख़ाली लूक़ा की इन्जील को लायक़ समझते हैं और उस से भी सिर्फ बाअज़ जज़्ओं को चुन कर बाक़ी मज़्मून को रद्दी बताते हैं। पर तो भी उन जुज़्ईयात से जो बाक़ी छोड़ी गईं, सरीहन काफ़िर ठहरते हैं। इसी तरह वालेन्टनोस के मुरीद और पैरौ ख़ाली युहन्ना रसूल से अपने एतिक़ादात के दलाईल मांगते हैं। हर-चंद कि उन की ख़ास इन्जीली तराज़ू पर तोलकर उन के अक़ाइद और हक़ायक़, बातिल और वाहीयात निकलते हैं।

और वही मुसन्निफ़ इसी तरह सच्चे राशिदीन और मुस्लिमीन के अक़ाइद को इज्मालन बयान करता है :-

“वो कलीसिया जिसके इल्म व माअरफ़त का तुख़्म कुल आलम में बोया गया है, रसूलों और ताबईन रुसूल से उस ईमान को अपने ज़िम्में और सुपुर्दगी में लेती चली आई जो एक ही ख़ुदा-ए-क़ादिर-ए-मुतलक़ पर है और एक ही ख़ुदावन्द यसूअ मसीह इब्ने ख़ुदा पर। जो हमारी नजात व सलामत के लिए मुजस्सम हो गया और एक ही रूहुल-क़ुद्दुस पर जिस ने नबियों के ज़रीये से ख़ुदा तआला के इज्माअ-आम्मा की आइन्दा रिआयत व इन्तिज़ाम व तरक़्क़ी व तामीर का इश्तिहार और इज़्हार कराया और हमारे लिए ख़ुदावन्द मसीह की आमद व तव्वुलुद जिस्मियाह और उस के दर्द व अलम पज़ीर होने और उस के मुर्दों में से बर्ख़ास्त होने और सूरत व हक़ीक़त जिस्मियह में आस्मान पर सऊद करने और उस के आइन्दा ज़हूर रौनकदार और जलाली और नूरानी का, ताकि वो सब औक़ात के सिरों को आप ही में मुन्तहा करे और आदमजा़द के हर बशर को अज़ सर-ए-नौ ज़िंदा करे और ग़ैर मुरई (यानी जिसका वजूद हो लेकिन दिखाई ना दे) बाप तआला की मर्ज़ी के बमूजब ख़ुदावन्द यसूअ मसीह के रूबरू जो हमारा ख़ुदावन्द और ख़ुदा और नजात बख़्श बादशाह है, हर एक घुटना टेके। क्या आस्मानी क्या ख़ाकी मौजूदात और हर ज़बान उस का इक़रार करे। चुनान्चे वो सभों पर रास्ती से अदालत और हुक्म करेगा और मुरतद फ़रिश्तों को और जितने बद-अफ़आल और अहले शरारत व कुफ़्र-मिनन्नास हैं, उन को आतिश-ए-दोज़ख़ में डालेगा। इस के बरअक्स जो शख़्स उस के अहकाम वाजिब-उल-अमल जानते हैं और उस के रिश्ते मुहब्बत में क़ायम व दायम रहते हैं, ख़्वाह अपनी उम्र की इब्तिदा ही से, ख़्वाह बाद गुमराहियों के दिलो-जान से तौबा-कार हों, उन्हें बक़ा और लुत्फ़ और क़ुर्बत (नज़दिकी) ईलाही का इनाम अता फ़रमाया जाएगा।”

इस ईमान को कुल कलीसिया तमाम आलम में मुन्तशिर और मज़रू कर के इस कोशिश व वफ़ादारी और ख़ुश इत्तिफ़ाक़ी से महफ़ूज़ करती है कि गोया एक ही जान और एक ही क़ालिब हो कर एक ही घर में रहती और एक ही ज़बान से गोया हो कर उस की ताअलीम देती और क़ौम-क़ौम के मुनादों को हवाले करती है। लुगात और इबारात तो मुख़्तलिफ़ हैं, पर हवाले किए हुए मआनी और मज़ामीन मुत्तफ़िक़ हैं और कुछ फ़र्क़ नहीं उन जमाअतों के अक़ाइद में जो गलती और हबेरिया के मुल्कों में और अतराफ़ मशरिक़ और लीबिया और अतराफ़ वस्त में, मगर जैसा तमाम आलम एक आफ़्ताब से मुनव्वर होता है इसी तरह रब तआला के एक बरहक़ कलाम के पैग़ाम और एलची गिरी से हर शख़्स जो शावक और तालिब हक़ीक़त है, रोशन ज़मीर और दाना व बीना हो जाता है। इसी मस्लिहत आमेज़ शहादत से पूरी मुताबिक़त रखता था।

तर्तलियान अरेनियस का हम-अस्र जो युहन्ना रसूल के पीछे तख़्मीनन एक सदी के तफ़ावुत पर कार्थेज की जमाअत की पेशवाई और क़िस्सीस तक सर्फ़राज़ हो गया। उस मुअल्लिम के भारी कलिमात सुनो। अगर ये बात क़ाबिल इक़रार है कि जो साबिक़-तर है, सो सादिक़-तर है और वही साबिक़-तर है, जो इब्तिदा से है और इब्तिदा से वही बात है जो रसूलों से है। तो इस बात का भी मक़र और क़ाइल होना चाहीए कि जो कुछ जमाआत रसूलियह में हरीम और नुक़्स व ख़लल से मुबर्रा व महफ़ूज़ हो रहा, वही बेशक रसूली सनद और वाजिब-उल-तस्लीम है। देखो कैसा दूध पोलुस रसूल ने कुरिंथिस की जमाअत को पिलाया और सख़्त तंबीया और सरज़निश से किस क़ानून और क़ाएदे की तरफ़ अहले गलतिया को रुजू कराया। उस पर भी लिहाज़ करो जो फ़िलप्पी और थिसलिनीकी और इफ्सिस की जमाअतों में पढ़ा जाता है और दर्याफ़्त करो कि रोमीयों को जो हमारे क़रीब तरीन वतन है, कौन सी ख़ुशख़बरी हवाले की गई, जिस पर वहां के मुरीदों ने गोया अपनी शहादत के ख़ून से मुहर छपवाई और उस की तस्दीक़ की।

इलावा बरां युहन्ना की तामीर की हुई जमाअतों की गवाही मशहूर है, क्योंकि अगरचे मारसियोन उस रसूल के मुकाशफ़ात सनदी और मोअतबर ना जाने तो भी उन जमाअतों के उसक़फ़ों का सिलसिला मुतवातिर युहन्ना से शुरू हो कर चला आया है, जैसा चश्मे से नहरों का दुरूद (रहमत, तहसीन, आफरीन) है। और इसी तरह बाक़ी सब इन्जीलों की वसाक़त व मोअतबरी और इस्तिनाद पुख़्ता और साबित होती है। पस मेरी तक़रीर ये है कि ना सिर्फ जमाअत रसूलियह बल्कि जितनी-जितनी जमाअतें उन की पाक रिफ़ाक़त में वाबस्ता और पैवस्ता हो गईं, सबकी सब वही लूक़ा की इन्जील जिसे हम महफ़ूज़ रखते हैं जिस दिन से वो अव्वलन मुरव्वज होने लगी, सही और हक़ीक़ी जानते हैं और उन्हीं जमाअतों की शहादत और क़िबाला से बाक़ी अनाजील जिन्हें हम ब-तवात्तुर मुसलसल उनके क़ानून और रविश रिवाज मामूली के बमूजब क़ुबूल कर रहे हैं, मुस्तनद और सक़ह और अपनी अस्ल सेहत में महफ़ूज़ ठहरती हैं, इशारा है मत्ती और युहन्ना की इन्जीलों से और मरक़ुस से। हर-चंद कि वो इन्जील जो मरक़ुस की कहलाती है तहक़ीक़ पतरस की तस्नीफ़ बताई जाये, जिस रसूल का मुतर्जिम मरक़ुस इन्जीली था और इसी तरह वो इन्जील जो लूक़ा इन्जीली ने तालीफ़ की पोलुस की तरफ़ मन्सूब करते हैं। अज़ आनरो कि वाजबन् शेख़ इस किताब का मुसन्निफ़ मालूम होता है जिसे मुरीदों ने मुरव्वज किया है, तो मारसियोन से ये सवाल करना हक़ है कि तू क्या चाहता और तेरा क्या मतलब है जो तू बाक़ी इन्जीलों को तर्क कर के सिर्फ इन्जील लूक़ा को ज़ोर से पकड़ता है। गोया कि इज्माअ़-आम्मा ने बाक़ी किताबों को शुरू ही से मन्ज़ूर व महफ़ूज़ ना किया। उन्हीं बुरहानों से इन्जीलों की तोसीक़ के सबूत को जमाअत मसीही बिद्दतीयों और मोअतरिज़ों के मुक़ाबिल साफ़ दिखाते हैं। चुनान्चे क़रनीया औक़ात में वो जो सादिक़ और हक़ीक़ी और खड़ा है, काज़िब और क़ल्बी से मुक़द्दम है और जमाअतों की शहादत और ज़िम्मेदारी ताअलीमात रसूलियह का मुस्नद और सहारा है। अज़ आनरू कि ये बात बदाहत अक़्ल के मुवाफ़िक़ है कि मुदआत हक़ीक़ी क़ल्बी पर सबक़त ले जाएं और हक़ीक़त का मख़रज कौन, मगर वो जिन्हों ने अवाइल में उसे हवाले किया।

पस अगर हक़ व बातिल और हक़ीक़ी और क़ल्बी की तमीज़ नज़रियात और अक़ल्यात पर मौक़ूफ़ होती, ना एतिक़ादात और अमलीयात पर। तो यक़ीनी उम्मीद हो सकती कि मौलवी साहिबान इन क़दीमी मोअतबर मुअल्लिमों और क़िस्सीसों की तस्नीफ़ात को तय करके और उन हज़ार-हा वज़नी कलाम-ए-ख़ुदा की आयतों पर लिहाज़ कर के जो उन के रिसालों में चार इन्जीलों से मन्क़ूल हो गईं, अपनी वाही बहसों और बातिल हुज्जतों से परहेज़ कर के उस मस्लूब ख़ुदावन्द मसीह के क़दमों पर जो आलम का ख़ालिक़ और बादशाह और मुनज्जी-उल-ख़ातबीन और मुंसिफ़ मुईन है, क़ुर्बान हो जाते और इस विलादत सानी से बहरावर होने का सवाल करते, जिसके बदून कोई बशर ख़ुदा को हरगिज़ ना देखेगा। बहर-हाल इस अम्र के मुक़र होते कि बमुश्किल ज़मान-सलफ़ की एक भी किताब नज़र आती है जो इतनी काफ़ी व वाफ़ी सनदों और रासिख़ दलीलों से सही और मोअतबर साबित की गई है।

इतना यक़ीन और मन्सूस है कि ख़्वाह हम मशरिक़ी जमाअतों, ख़्वाह मग़रिबी, ख़्वाह जुनूबी से सवाल करें कि मत्ती और युहन्ना और मरक़ुस और लूक़ा कौन और कैसे और मसीही कलीसिया के बीच किस क़द्र और रुत्बे के हिसाब किए जाते हैं तो मशरिक़ी कलीसिया से योस्तीन शहीद और पपयास और जुनूबी से कलेमन्स और तर्तलियाँ और मग़रिबी से हीपालेतस और अरेनियस मुत्तफ़िक़ गवाही देते हैं। मसलन निस्फ़ सदी बाद अज़ इन्तकाल युहन्ना योस्तीन ने चार इन्जीलों के बयान में कहा कि :-

“यही वो चार रिवायतें रसूलों की हैं जिन्हें इबादत के वक़्त मसीही लोग अपनी मज्लिसों में ज़ाहिरन पढ़ा करते हैं। जिस तरह कुतुब अम्बिया और औलिया मुक़द्दस की तिलावत करते हैं।”

और जिस किसी साहब की ख़्वाहिश हो तो बैक नज़र उस उम्दा मुअल्लिम की उन तस्नीफ़ात पर जो अब मौजूद हैं, लिहाज़ करे। अनक़रीब है कि वो हर एक इन्जील के हर एक बाब में से दो एक आयतें नक़्ल करता और हर एक आयत का ठीक वही मज़्मून बताता और सिखाता है जो अब ज़मान सलफ़ के पसमान्दा नुस्ख़ों में, मसलन कोह-ए-सिना के कहलाए हुए नुस्खे में पाया जाता है। और जब कि ये सब आयतें यूनानी ज़बान की ख़ुशवज़ा और फ़साहत आमेज़ इबारतों में मन्क़ूल हैं, सिर्फ तीन बाक़ी इन्जीलों से नहीं बल्कि मत्ती की इन्जील से भी। तो साबित और यक़ीन है कि बिलफ़र्ज़ मत्ती की इन्जील का अस्ल मतन इब्रानी था पर मअन यूनानी भी, उस रसूल के जीते जागते और उस की साख़त व सनअ़त से मुहय्या और मौजूद था।

चुनान्चे ये बात ब-ज़न ग़ालिब हक़ीक़त वाक़ई मालूम देती है, बल्कि उस का वाक़ेअ ना होना बईद अज़ अक़्ल और उस ज़माने के सब आसारों और रिवायतों की ज़िद और मुनाफ़ी (खिलाफ) है और बर-तक़्दीर कि ये अम्र वाक़ेअ भी ना हुआ होता तो भी कलीसिया-ए-आम्मा ने जिसकी अमानत और इख़्तियार में अनाजील की मुहीमनी और मुहाफ़िज़त सपुर्द की गई थी, मुहर व साक़त व क़बूलीयत उस के मज़्मून पर छपवाई थी। चुनान्चे ये बात यानी एक तस्नीफ़ का दोनों ज़बानों में मुहय्या होना यानी यूनानी और इब्रानी ज़बानों में मुश्किल या मुस्तहील (बदला हुआ, मुहाल) ना था और उस ज़माने में दोनों ज़बानों के बोलने वाले, ना थोड़े थे बल्कि करोड़ों अवाम और ख़वास यानी अक्सर यहूद आलिम व फ़ाज़िल व शरीफ़ भी और महाजन व साहूकार व सर्राफ वग़ैरह भी, दोनों लुग़तों (ज़बानों) को बराबर सहूलत से बोलते थे और कहीं कोई रिवायत ज़िद नहीं पाई जाती। इस कलीसिया की रिवायत और एतबार और ज़अम-आम्मा से कि मत्ती रसूल की कही हुई इन्जील ख़ुद रसूल ही के सामने दोनों ज़बानों में मोअल्लिफ़ और हवाले क़लम हो गई।

इस के बर-अक्स क्या ही बेहूदा और ताअस्सुब आमेज़ बात है जो कोई कहे कि हर-चंद वो रसूल मुख़्तलिफ़ लुग़त बोलने के इनाम से बतोफीक रूहुल-क़ुद्दुस मुस्तफ़ाद (फ़ायदा हासिल किया हुआ) हो गया तो भी उस ने अपनी ख़ास इन्जील उन दो उम्दा और मशहूर ज़बानों में क़लम-बंद करने की वुसअत और इस्तिदाद (सलाहियत) नहीं पाई और ये अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर व लिहाज़ है कि ना सिर्फ दूसरी सदी के वस्त के मुसन्निफ़ों की कुतुब मौजूदा में बल्कि उस के शुरू ही में, मसलन मुक़द्दस शहीद अगनेशीस के ज़माने में हाँ पहली ही सदी के अख़ीर में मसलन कलेमन्स उसक़फ़ रोम के ख़ुतूत में मत्ती रसूल की इन्जील यूनानी से कई मन्क़ूलात हैं। फिर यूसेबियस मुअर्रिख़ की रिवायतों से यक़ीन है कि मत्ती रसूल के सैर व सफ़र और वाअज़ व मुनादी, क़ौम और लुग़त इब्रानी की हदूद और अहाते के अन्दर मुक़य्यद ना थी। चुनान्चे वो रावी माअरूफ़ अपनी तवारीख़ की किताब 3 की फ़स्ल 24 में यूं फ़रमाता है :-

“मत्ती पहले ही पहल इब्रानियों को वाअज़ व मुनादी कर के जब ग़ैर लोगों के पास कूच करने वाला था, अपनी ख़ास इन्जील को वतनी ज़बान में हवाला क़लम कर के तर्क कर गया था। ताकि उस की हुज़ूरी फ़ी-नफ्सही का नुक़्स व क़सूर उस दस्तावेज़ के ज़रीये से पूरा हो जाये।”

पस जब इस मौज़अ़ से साफ़ मालूम है कि रसूल मुबारक ग़ैर क़ौमों के बीच इन्जील की एलची-गिरी और मुनादी से मुतज़म्मिन किया गया तो ख़्याल वाजिब और क़रीन-ए-क़ियास है कि वहां भी अपने नव-मुरीदों के लिए उस मुनादी का मज़्मून तक़रीरी यूनानी ज़बान में तहरीर कराया। देखो अस्हाब अक़्ल व अदल के लिए और उन के लिए जो इस हक़ीक़त के क़ाइल हैं कि अस्ल मज़्मून हर्फ़ और ज़बान से तर्जीह रखता है, क्या ही उम्दा और पुख़्ता इत्मीनान और तयक़्क़ुन मत्ती रसूल की अस्ल सेहत के हक़ में इस से हासिल हो सकता है कि अव्वल सदी के मुअल्लमीन मसीही की तस्नीफ़ात यूनानी में जितने मन्क़ूलात इस इन्जील से तलब किए जाते हैं, तो वो चौथी और पांचवीं सदी के नुस्ख़ों से जो अब मौजूद हैं, पूरी बराबरी और इत्तिफ़ाक़ रखते हैं। और सिर्फ यही नहीं पर दूसरी सदी में जो वो इन्जील मए बाक़ी अनाजील के सुर्यानी और लातीनी ज़बानों में तर्जुमा की गई, उन तर्जुमों से जितने आसार अब भी बकस्रत मौजूद हैं, यानी उन में से जितनी आयात रसाइल तर्तलियान और अरेनियस और हीलारे और रसाइल मुसन्निफ़ीन सुर्यानी में साफ़ मन्क़ूल हैं, उन के मज़्मून में कुछ नुक़्स और ख़लल और इख़्तिलाफ़ नहीं आता। ख़्वाह उन आयतों का मतलब बईद और बैरून अज़ मुदआत बह्स हो। ख़्वाह उन मुदआत से हो जो बह्स व मुनाज़रे में मुफ़ीद और मतलूब हों। मंशा और ग़ायत कलाम दोनों हालों में जैसा अब नज़र आता है, वैसा ही तब भी था।

बाब चहार दहुम

दरबयान बाअज़ अक़्साम व अन्वाअ इल्हाम रब्बानी कि बर मुसन्नफ़ान कुतुब मुक़द्दसा यानी रुसल व अन्बया बमक़तज़ाए मज़ामीन व मक़ासिद अहकाम वाक़वाल ईलाही नाज़िल शदनद

د ربیان بعض اقسام و انواع الہٰام ربّانی کہ بر مصنفان کتب مقدسہ یعنی رُسل وانبیا بمقتضائے مضامین و مقاصد احکام واقوال الہٰی نازل شد ند

हज़ार शुक्र-ए-ख़ुदा तआला की हिक्मत और रिआयत ग़ैर मुतनाही का जिसने अपनी मूतआली रज़ा व क़ज़ा के बमूजब इज्माअ़-मोमिनीन के लिए एक लुत्फ़ आमेज़ और तसल्ली बख़्श बन्दोबस्त मुक़र्रर किया। जिससे उस के औसाफ़ जलाली व जमाली के तज़किरे और उस की तदबीरों और मश्वरतों और वाअदा वईद की सही और पक्की ख़बरें और माअर्फ़त व फ़हमीदाता अख़ीर-उल-अय्याम उस इज्माअ़ मुक़द्दस के तसर्रुफ़ हिफ़ाज़त में रहीं। और इस बन्दोबस्त में दो भारी ताअयिनात और मज़ाहिर हिक्मत हैं। एक उन में मशहूर यानी ये कि नबियों और रसूलों का पैग़ाम तक़रीरी ख़ुदा के रूहुल-क़ुद्दुस की ऐन वही से निकला। आंतोर कि वो मुतकल्लिम क़ौल ख़ुदा के क़ाइल थे और उन के अफ़आल नब्वीयह ख़ास क़ुदरत ईलाही से वक़ूअ में आए। और दूसरी ये कि उन अक़्वाल के मुख़बिर और हाफ़िज़ और उन अफ़आल के रावी और अहवाल के कातिब आप भी रूहुल-क़ुद्दुस के इल्हाम से बहरावर थे और ये बात मूजिब शुक्र फ़रावान है कि सब तजुर्बाकारों और जहांदीदों को मालूम है कि ख़वारिक़ आदत के हक़ में मोअतबर गवाहों की शहादत भी एहतिमाली और मुश्तबा है। अज़-बस कि बमुश्किल एक भी शेख़ और पीर व मुर्शिद और साहब ज़ोहद व फ़ुक़्र व रियाज़त शहरह-ए-आलम और रौनकदार हो गया। मगर उस के मुरीदों और अस्हाबों ने हज़ार-हा मोअजज़ात और ख़वारिक़ आदात बड़े मुबालग़ा से उस की तरफ़ हमल व मन्सूब किए, बल्कि इतने करामात और मोअजज़ात जितने हज़रत मूसा और ख़ुदावन्द यसूअ मसीह से वक़ूअ और ज़हूर में आए। सिर्फ एक मोअजिज़ा ख़ुदावन्द मसीह का मशहूर है जो सर अजाइब व ग़राइब था। जिसे शायद किसी ना किसी बशर की तरफ़ हरगिज़ मन्सूब नहीं किया कि आप ही ने अपनी जान देकर उस को फिर ले लिया तो कुछ चारा इस से नहीं कि अस्हाब ज़हन व अक़्ल हर सूरत ख़वारिक़ आदत को एहतिमाली और मुबहम (यानी छिपे हुए) जानें और इस तरह की समईयात माज़िया को मन्ज़ूर ना करें। हाँ अगरचे सिलसिला मुतवातिर गवाहियों का ऐसा हो कि इस में कहीं से कुछ इन्क़िताअ ना हो। हाँ अगर उन की क़द्रो मंजिलत ऐसी हो जैसा मुसन्निफ़ इस्तिफ़सार ने दावा किया है कि समईयात के सबूत के फ़न अज़ीमुश्शान में बीसियों बल्कि सैंकड़ों दाना लोग हमारे यहां ऐसे गुज़रे कि उन की वसाक़त और उन के उस फ़न की महारत से उन लोगों का किताबों का लिखना ऐसा साबित है, जैसा उनका होना और ऐसा भी हो कि हज़ार-हा रिवायत मुतसला मरफूअ़ (متصلہ مرفوعہ) सहीहा वग़ैरह हों। तब भी ऐसी समईयात पर एतिक़ाद करने से उज़्र करते हैं। इसलिए अहले दीन व ईमान के लिए ख़ुदा तआला से ये बन्दोबस्त मुक़र्रर व मुतअय्यन था कि अम्बिया ए ख़ुदा क़ुदरत ईलाही से मोअजज़ात फ़अ़ली और कौली दिखाएं और सिर्फ ये नहीं बल्कि उन मोअजज़ों की तहरीरी ख़बरें और तज़किरे ऐसे सक़ा गवाहों से दिए जाएं जिनमें रूह ख़ुदा ने तहल्लल और हलूल फ़रमाया था। चुनान्चे रूह इल्हाम की तौफ़ीक़ से रसूल और इन्जील ख़ुदावन्द मसीह के मुर्दों में से उठने और उस के बाक़ी मोअजज़ात पर शाहिद हैं। और वो अपने उस इल्हाम और तौफ़ीक़ ईलाही को आप भी मोअजज़ात से मुबरहिन और मुबय्यन कर सके।

अब हम ये पूछते हैं कि मुहम्मदﷺ में कौन सी इस मुवाफ़िक़ क़ुदरत ईलाही थी कि अस्हाब को अपने पास बुलवा कर शयातीन को निकालने और मुर्दों को जिलाने का इख़्तियार और मक़्दूर (ताक़त) आप ही से अफ़ाज़ात (अफ़ाज़ा की जमा, फ़ैज़ पहुंचाना) करे और अन्सार पर फूंक कर कह सके, रूहुल-क़ुद्दुस को तुम ले लो, जिसके मुहम्मदﷺ आप भी (सुरह माइदा आयत 111) में क़ाइल और मुअतर्रिफ हैं,’’ وَإِذْ أَوْحَيْتُ إِلَى الْحَوَارِيِّينَ أَنْ آمِنُوا بِي وَبِرَسُولِي قَالُوا آمَنَّا وَاشْهَدْ بِأَنَّنَا مُسْلِمُونَ ‘‘۔ पस जब ख़ुदावन्द मसीह के मोअजज़ात के शाहिद हाल और रावयान मुहम्मदﷺ के इक़रार के बमूजब मौरिद वही ठहरे और उन शाहिदों से दो ख़ास इन्जीली और दो हवारियीन के अस्हाब थे, तो कौन साहब अदल व दानिश क़त-ए-नज़र अज़ सबूत ऐसा तसव्वुर भी कर सकता है कि मुहम्मदﷺ के अस्हाब या ताबईन अस्हाब या अस्हाब के तबाअ ताबईन की गवाही हवारियीन वही पज़ीर की गवाही के साथ मिलाए जाने के लायक़ है।

साहिबो अगर शायद आप हवारियीन के साफ़ सही दावा और पाक नविश्तों की तक़रीर और कुल इज्माअ़-मोमिनीन की शहादत मुत्तफ़िक़ा को क़ाबिल और वाजिब-उल-तस्लीम नहीं जानते बहर-ए-हाल अपने नबी के कलाम को मुश्तबा ना जानो और जो ख़ुदावन्द मसीह के अस्हाब होने के दर्जे और रुत्बे से रूहुल-क़ुद्दुस की वही से मुशर्रफ़ हो गए तो उस के मोअजज़ात के मोअतबर और सक़ा गवाह कौन उन से बढ़कर हो सकते थे। हर-चंद कि मुअल्लीफ़ इस्तिफ़्सार जाहिलों की आँख में ख़ाक डालने के लिए और ऐन बे-हयाई से ये बात कहने की जुर्रत करता है कि मुअल्लिफ़ अनाजील सब मज्हूल-उल-हाल थे, मालूम नहीं कि कब और कौन और कैसे थे। इलावा बरां में इन मोअतरिज़ों से ये अर्ज़ करता हूँ कि बर-तक़्दीर कि वो मुअल्लिफ़ अनाजील और ख़ुदावन्द मसीह के फअ़ली और कौली मोअजज़ात के रावी और ज़ाकिर ना इल्हाम ईलाही से हक़ीक़त-ए-हाल को बयान करते, बल्कि उस के बरअक्स हक़ व बातिल की तल्बीस से मुज़व्विर (झूटा, दरोग़-गो) और क़ल्बी बातें हवाले क़लम करते तो कलीसिया-ए-आम्मा नबियों और हवारियों की बुनियाद पर से उठ कर और अपनी हक़ीक़ी जड़ से उखड़ कर कौन दूसरी बिना पर क़ायम और मब्नी हो कर ऐसी बरक़रार और साबित-क़दम रही, बल्कि हर सदी और ख़ुसूसुन इस उन्नीसवीं (19) सदी में बड़ी तरक़्क़ी और तहसील ज़्यादा से रौनकदार और मुस्तफ़ीज़ हो गई। आन्क़द्र कि साफ़ मालूम व रोशन है कि ख़ुदावन्द मसीह की कलीसिया एक ऐसा दरख़्त है जो क़ाबिल ज़वाल और बुढ़ापे और पज़ मर्दगी के नहीं, बल्कि उस की शाख़ें इस क़िस्म की हैं, जिनकी हज़रत दाऊद (ज़बूर 92) में तारीफ़ करता है, “जो ख़ुदावन्द के घर में लगाए गए हैं वो हमारे ख़ुदा की बारगाहों में सरसब्ज़ होंगे। वो बुढ़ापे में भी बरोमन्द होंगे। वो तरो ताज़ा और सरसब्ज़ रहेंगे ताकि वाज़ेह करें कि ख़ुदावन्द रास्त है। वही मेरी चट्टान है और उस में नारास्ती नहीं।” (ज़बूर 92:13-15)

तो ऐ साहिबो अर्ज़ व सवाल इस मुसन्निफ़ का ये है कि ये इज्माअ़ मोमिनीन की नौजवानी और रतूबत दाइमी और तरो-ताज़गी की उम्मीद व इम्कान किस वजह से और कहाँ से हो सकती थी। ग़ैर अज़ आंका वो अस्ल बीख़ व बुनियाद जिस पर कलीसिया आम्मा ने मबनी हो कर मज़्बूत क़रार पकड़ा, वही बीख़ (जड़) है जिस पर अम्बिया और रसूलों ने दावा किया कि वह रूह ख़ुदा के इल्हाम से मामूर और मम्लू थे। ता आन्क़द्र कि उन के अफ़आल रिसालत व नबुव्वत उसी रूह ख़ुदा से क़ुदरत पज़ीर थे और उन की गवाहियाँ ख़ुदावन्द यसूअ मसीह के मोअजज़ात पर ख़्वाह तक़रीरी, ख़्वाह तहरीरी दोनों उसी रूह के इल्हाम से माला-माल व मोफ़ूर (वाफ़र किया गया, ब इफ़रात) थीं।

फिर इसी इल्हाम रूही तौफ़ीक़ से और रब तआला की तदाबीर और ख़यालात उन्हें मुफ़व्विज़ (सपुर्द करने वाला) होने के सबब हर गाह (हर जगह) कि उन रसूलों ने अह्दे अतीक़ के अस्ल मक्तूबात से बाअज़ जुमलों या आयतों को नक़्ल किया। बइल्लत सबूत उस वफ़क़ व मुताबिक़त के जो दोनों ओहदों को जोड़ कर मिलाती है, तो उन जुमलों और आयतों को गाह-गाह (किसी-किसी वक़्त) हफ्ताद यूनानी मुतर्जिमों के तर्जुमों के मुताबिक़ मन्क़ूल किया और गाह-गाह आप ही अस्हाब इल्हाम हो कर ज़मान साबिक़ के अस्हाब इल्हाम के राज़रों और रम्ज़ों से मिले हुए मज़ामीन और इदराकात मस्तूरा (पर्दा नशीन दर्याफ़्त करना) और सादिका निकाले, जैसे ग़ैर इल्हामों को महारत और फ़िरासत आम्मा से हरगिज़ हासिल ना हो सके। बमूजब इस क़ौल पोलुस रसूल के, “और नबियों की रूहें नबियों के ताबेअ हैं।” (1 कुरंथियो 14:32) और इस के मुवाफ़िक़ एक क़ौल पतरस रसूल का भी है, इस के पहले ख़त में यूं लिखा है, “उन पर ये ज़ाहिर किया गया कि वो ना अपनी बल्कि तुम्हारी ख़िदमत के लिए ये बातें कहा करते थे जिन की ख़बर अब तुम को उन की माअर्फ़त मिली जिन्हों ने रूह-उल-क़ुद्दुस के वसीले से जो आस्मान पर से भेजा गया तुम को खुशखबरी दी और फ़रिश्ते भी इन बातों पर ग़ौर से नज़र करने के मुश्ताक हैं।” (1 पतरस 1:12)

चुनान्चे जब अम्बिया-ए-अतीक़ और अम्बिया-ए-जदीद यानी हवारियीन को कलाम-ए-ख़ुदा का तफ़वीज़ करने वाला एक ही रूह ख़ुदा था तो ना सिर्फ वाजिबी गुमान है, बल्कि बाल-बदाहत अक़्ल और बीसियों (बहुत ज़्यादा) नक़लियात से मालूम होता है कि औक़ात सलफ़ के कलिमात ईलाही ज़माने-खल्फ़ के साहिबान उलू-ल-इल्हाम (अनोखी बात जो ख़ुदावन्द की तरफ़ से हो) को आम मुफ़स्सिरों की निस्बत निहायत कामिल-तर और आली-तर तौर पर रोशन और मुबय्यन हुए, उन के पोशीदा मआनी मफ़्हूम व माअरूफ़ और उन जुमलों और आयतों को हफ्तादी तर्जुमों से नक़्ल करने में बजाय एक लफ़्ज़ या हर्फ़ के दूसरा लफ़्ज़ या हर्फ़ गाह-गाह दाख़िल करना उन के हक़ व इख़्तियार से बैरून ना था। इस तरह कि मअनी और मज़्मून में ज़रा भी ख़लल नहीं आया ताकि उन सभों को तादीब और चश्मनुमाई हो जो हर्फ़ और ज़ाहिर मअनी को बातिन पर मुक़द्दम जानते हैं। मसलन आमोस नबी की एक आयत मशहूर में क़ौल ख़ुदा है, “मैं तुमको दमिशक़ से भी आगे असीरी में भेजूँगा।” (आमोस 5:27इस आयत को स्तफ़नस अव्वल शहीद ने यूं मन्क़ूल किया,, “पस मैं तुम्हें बाबुल के परे ले जा कर बसाऊँगा।” (आमाल 7:43)दोनों बातों के मअनी बरहक़ थे। अज़-आनरो कि बनी-इस्राईल की असीरी और जिला-वतनी दराए दमिशक़ भी और दराए बाबुल भी थी, फ़र्क़ इतना है कि हज़रत स्तफ़नस उस असीरी की कैफ़ीयत हाल से वाक़िफ़ हो कर बाद अज़ वक़ूअ उमूरात मज़्मून और मन्शा और मदार कलाम तो बचाता, मगर हर्फ़ को बदलता है। तो भी उसे साहिबो ऐसा ना जानो कि ख़ुदावन्द मसीह के मुरीद व बन्दगान हर्फ़ व लफ़्ज़ की इहानत और हक़ारत करते हैं। हम इल्म-ए-तसव्वुफ़ वालों की मानिंद नहीं हैं। पर उसूल एतिक़ादिया में से एक ये है कि ना हर्फ़ मज़्मून की पर मज़्मून हर्फ़ की इल्लत है। हर्फ़ व लफ़्ज़ कितने ही बेशक़ीमत और मंज़ूरे नज़र क्यों ना हों तो भी बनिस्बत मज़्मून के वो कमक़द्र हैं। चुनान्चे ख़ुदावन्द ने फ़रमाया, “ज़िंदा करने वाली तो रूह है, जिस्म से कुछ फ़ायदा नहीं। जो बातें मैं ने तुमसे कही हैं वो रूह हैं और ज़िंदगी भी हैं।” (युहन्ना 6:63)

ख़ुदा तआला आप लोगों को अपनी रूह की तन्वीर की फ़रावानी से ममलू करे तो ये बातें आफ़्ताब नीम रोज़ से ज़्यादा फ़ाश व कश्फ़ होंगी, नहीं तो ज़ाहिर परस्ती यानी हर्फ़ व ज़ाहिर परस्ती के ज़ुल्म से जान ख़लास करनी निहायत मुश्किल बात है। तब आपकी फ़हम व समझ में हज़रत मूसा की वो तक़रीर आ जाएगी और ख़ातिर नशीन होगी कि इन्सान हर एक क़ौल व कलाम से, ना हर लफ़्ज़ और हर्फ़ से “बल्कि हर बात से जो ख़ुदावन्द के मुँह से निकलती है।” (इस्तिस्ना 8:3 मत्ती 4:4)) उन्हें क़वाइद मफ़हूमा बाला के मुत्तफ़िक़ एक और अम्र लायक़ गौर व तक़रीर है कि कुतुब मुक़द्दसा के मुसन्निफ़ जिस इल्हाम पर क़ाबिज़ और क़ादिर थे, वो एक क़िस्म का नहीं बल्कि कई अन्वाअ़ व अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) का था। अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) के फ़र्क़ से मुरातिब और दर्जात का फ़र्क़ मुराद नहीं। इल्हाम ईलाही में दर्जों और रुत्बों का फ़र्क़ दर्ज करने से उज़्र है, चूँकि पोलुस रसूल ने साफ़ इर्शाद है, , “हर एक सहीफ़ा जो ख़ुदा के इल्हाम से है ताअलीम और इल्ज़ाम और इस्लाह और रास्तबाज़ी में तर्बियत करने के लिए फ़ाइदेमन्द भी है। ताकि मर्द-ए-ख़ुदा कामिल बने और हर एक नेक काम के लिए बिलकुल तैय्यार हो जाये।” (2 तिमीथियुस 3:16,17) अगर कोई शख़्स मुरातिब और मदारिज इल्हाम का क़ाइल हो तो हम इस बात को मूजिब बह्स शुमार नहीं करते और ना हम मुसन्निफ़ इस्तिफ़सार और उस के पैरौ के साथ उन के इस दावे के हक़ में कि हमारा फुर्क़ान ब-लफ़्ज़ कलाम-ए-ख़ुदा है, बह्स करने का कुछ ख़्याल करते हैं। क्योंकि इस बह्स के इन्फ़िसाल पर एक और बह्स का इन्फ़िसाल (फ़ैसला होना, तै पाना, जुदा होना) मुक़द्दम है और वो बहुत ज़्यादा क़द्र की बह्स है, आया मुहम्मदﷺ की रिसालत अज़ जानिब ख़ुदा-ए-बरहक़ और सादिक़ थी या नहीं। और ना हम आप लोगों से सवाल करने की फ़िक्र करते हैं कि किसी कलाम तहरीरी के कलाम-ए-ख़ुदा होने के लिए आप कौन सी शर्तों और अलामतों को लाज़िम और ज़रूरी जानते हैं। इस अम्र में रूह ख़ुदा के वज़ीर व मुशीर होने पर कौन आदमजा़द दावेदार या अपने ईजाद व तर्तीब किए हुए क़वानीन का मुक़्तज़ी हो सकता है। पर इतना साफ़ व वाज़ेह है हर शख़्स पर जो बनज़र ख़ुद कलाम-ए-ख़ुदा की वज़अ़ और तर्तीब व तर्कीब पर ग़ौर व इल्तिफ़ात करे कि इल्हाम ख़ुदा की कई सूरतों और अन्वाअ़ हैं और रूह की वो ख़ास तौफ़ीक़ जो नबियों और रसूलों को अता की गई, कई सबीलों (सबील की जमा, सूरत, तदबीर) पर थी। मसलन बाअज़ वक़्त ख़ुदा के हुज़ूर ये मन्ज़ूर और पसंदीदा था कि बर सबील तवारीख़ कलीसिया के अहवाल माज़िया (गुज़श्ता) या ममलकात (बादशाहत) ईनजहानी के उमूर वाक़ईयह और माजरे के समईयात (सुन की क़ुव्वत) जिनसे और जिस क़द्र तक कलीसिया का नफ़ा या मुज़र्रत (नुक़्सान) हो सकती थी, नबियों की माअर्फ़त सुनाई और समझाई जाएं। तो उन समईयात और रिवायत को कलाम ईलाही में मुन्दर्ज करना रूह ख़ुदा को मुनासिब और मुफ़ीद मालूम हुआ और वाजिबन् व लाज़िमन अस्हाब इल्हाम को इतनी तौफ़ीक़ इनायत और इफ़ाज़त हुई, जिससे वह मुअल्लिफ़ कुतुब इल्हामी दरबाब वाक़ियात और ताअलीमात के हर ग़लत और ख़ता से ख़्वाह क़सदन हो, ख़्वाह सहवन बच जाएं। ता आन्क़द्र कि इस उम्र में अस्ल मतन की ज़ीनहार (ज़िनहार, हरगिज़, ख़बरदार) और हिमायत पूरी हो।

फिर उस अस्ल मतन की मुहाफ़िज़त ख़ुदावन्द मसीह ने तरीक़ा मज़्कूर बाला के बमूजब अव्वलन इज्माअ़ यहूद को और बाद तर्दीद और मतरुकियत यहूद इज्माअ-आम्मा-मोमिनीन को तफ़वीज़ फ़रमाई। इस क़िस्म की कुतुब इल्हामिया में वो किताबें जो यशूअ और क़ाज़ीयों (कज़ाह) की कहलाती हैं और हज़रत समुएल और सलातीन की कुतुब और वो जिसे रिवायत कहते हैं, शामिल हैं। बाअज़ उलमा-ए-यहूद और ग़ैर-यहूद ने इन किताबों को तवारिख़ और रिवायत नब्वियह की किताब कहा है, सिर्फ इसलिए नहीं कि अफ़आल वा अ़माल अम्बिया और ताबईन अम्बिया के तज़किरे और बयानात मुख़्तलिफ़ा उन में मुन्दर्ज और महफ़ूज़ हुए और ना सिर्फ इसलिए कि बऐतबार उस ख़बर मशहूद के जो उम्मत यहूद के अवाइल से होती चली आई है। मुसन्निफ़ उन किताबों के नबी ही थे, बल्कि इसलिए रिवायत अम्बिया कहलाती हैं कि उन में ख़ुदा की मलकूत मौऊद और उस क़ौम मुख़्तार व मख़्सूस के जो अह्द व मीसाक़ ख़ुदा के वारिस व हक़दार थे, कैफ़ीयत अहवाल व वाक़ियात का बयान होता है और बाल-इख़्तसास उन्हीं अहवालों की ख़बर मिलती है जिनकी आक़िबत यक़ीनी और नतीजा और हासिल हक़ीक़ी ख़ुदा के लुत्फ़ व फ़ज़्ल आमेज़ तदबीरोन की कश्फ़ और सुलह व सलामत की ख़ुशख़बरी का हर मुल्क में इश्तिहार जारी होना था।

चुनान्चे इन किताबों से मालूम होता है कि बावजूद बुग़्ज़ व बग़ावत यहूद के और ग़ैर-क़ौमों के बीच जो अहले ख़िलाफ़ और कीना-वर ग़नीम थे, उन की रोक-टोक और जोरो-जबर के बावजूद ना तो ख़ुदा तआला का क़ौल टल सकता था, ना उस की अजीब दस्तकारीयां रुक सकती थीं। पर उस की क़दीमी मश्वरतें अपने हद व निशान मुतअय्यन तक बढ़ती-बढ़ती बालिग़ हुईं। तो रूहुल-क़ुद्दुस की तरफ़ से वो हिक्मत और बीनाई और तमीज़ रुहानी नबियों को नसीब हुई जिसके ज़रीये से हक़ीक़त नामों और रिवायत मुताअद्दह से सिर्फ इतनों को अलैहदा (अलग) कर के किताब मुक़द्दस को तालीफ़ करें जो मलकूत-अल्लाह की रौनक व बलाग़त रसानी में वज़नी और बेश क़द्र थीं और जिन पर उस मलकूत की तरक़्क़ी की ताख़ीर या तअ़जील (जल्दी) मुन्हसिर थी और उसी इल्हाम के हवासिल व फ़वाइद में ये फ़ायदा भी शामिल था।

सिर्फ यही नहीं कि उन रिवायत नब्वीयह में कोई हिकायत का ज़िबह व फ़ासदा दर्ज ना हुई, बल्कि सभी मुंदरिजात बरहक़ और एतिक़ाद और तस्लीम के लायक़ थे। पर ये भी कि उन बयानात में ना फ़ुज़ूली, ना तख़फ़ीफ़ व इन्क़िताअ् ज़रूरीयात, ना इख़्तिसार, ना तवालत की ज़्यादती थी बल्कि ख़ुदा तआला की राह व रविश और नक़्श-ए-क़दम और उस के अफ़आल व मोअजिज़ात और रज़ा व क़ज़ा और मश्वरतों को अहले दानिश व तमीज़ के रूबरू दिखाने के वास्ते जितने-जितने वाक़ियात के बयानात काफ़ी और वाफ़ी थे, उतने-उतने वाक़ियात इन तालीफ़ात अम्बिया में मुजतमा और मुन्दर्ज हो गए। तो जो मोअजज़ात इन किताबों में मज़्कूर होते हैं, ना उन्हें मुजर्रिद और अलहैदह जुदागाना कर के मुलाहिज़ा करना चाहीए बल्कि उन्हें उन के मुल्हिक़ात और मुताल्लिक़ात के साथ मिला कर, अहले इदराक व माअर्फ़त उन पर इल्तिफ़ात करें, क्योंकि वो ख़ुदा तआला के कश्फ़ ज़मीर व ख़यालात से और आदमजा़द की नजात और क़ुर्बत (नज़दिकी) ईलाही में मुदाख़िलत का हक़ लेने से कमाल तनासुब और तताबुक़ ग़ैर इन्क़िताअ़ रखते हैं और इसी तरह मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील के मुक़द्दमे से हमने ये ख़बर पाई है कि ख़ुदावन्द मसीह के वाक़ियात अम्र के बयान में बहुत समईयात और दस्तावेज़ात तहरीरी शुरू ही में मौजूद और माअरूफ़ थीं। जिनके बाअज़ मुंदरिजात बाहम मुख़्तलिफ़ा और मुतफर्रिका थे। पस कलीसिया के अव्वल-उल-अव्वलीन गवाहों से बराबर और मुत्तफ़िक़ ये ख़बर मुतवातिर हम तक पहुंची कि लूक़ा इन्जीली मुबारक ने जिस वक़्त हज़रत पोलुस की हिदायत व रिफ़ाक़त से मुशर्रफ़ था, जिसे दर्जा कश्फ़ व रिसालत नसीब हुआ, तो रूह हक़ से ये तन्वीर और क़ुव्वत इल्हामी पाई कि अहवाल व अफ़आल ख़ुदावन्द मसीह के सब मज़हरों और दस्तावेज़ों और समईयात को ख़्वाह काज़िब हों, ख़्वाह सादिक़ जमा और बाहम मुक़ाबला कर के और गोया छांट कर हर एक अम्र में हक़ बातिल से जुदा करे। ता आंकि तलबा-ए-हक़ीक़त को इत्मीनान ख़ातिर और तयक़्क़ुन हासिल हो।

फिर इल्हाम रूह ख़ुदा के कई अन्वाअ़ और अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) हज़रत युहन्ना को मर्हमत हुए। चुनान्चे उस रसूल मुहिब व हबीब ने बाअज़ बातें तो वही की राह से ख़ुद कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) यानी ख़ुदावन्द मसीह की ज़बानी सुनीं और उन्हें हवाले-क़लम करने का हुक्म उस से पाया। मसलन मुकाशफ़ा की किताब में है, “पस जो बातें तू देखें और जो हैं और जो उन के बाद होने वाली हैं उन सबको लिख ले।” (मुकाशफ़ा 1:19)और वो रसूल मुबारक इस क़द्र शर्फ़ व शान व फ़ज़ीलत तक फ़ैज़ रसीदा था कि रूह ख़ुदा की क़ुदरत से मुतलब्बस हो कर बर सबील रुयते-आलम रूहानियत और दरगाह ख़ुदा में मुंतक़िल-उल-मुक़ाम और मुसाइद हो गया और बहिश्त का दरवाज़ा खुला हुआ देखा और उस दरवाज़े के अंदर तख़्त नशीन ख़ुदावन्द का दीदार और मुकाशफ़ा पाया और उस के दस्त मुबारक में एक किताब मस्तूर और मख़्तूम देखी, जिसकी फ़त्ह ख़त्म पर कोई शख़्स ख़ाकी या बहिश्ती ग़ालिब व क़ादिर ना था, मासिवा उस बर्रा के जो ज़ब्ह हुआ था। (मुकाशफ़ा बाब 4,5)

पस जब उसी की क़ुदरत व ग़लबा से वो महुर खुल गई तो वो रसूल उस के हैरत-अंगेज़ मज़ामीन का शुन्वा और उस के कश्फ़ इसरार से नसीब वर हो गया। फिर उसी रसूल ने बाअज़ बातें जिस तरह हज़रत मूसा पर रसूमात और अहकाम शरईयह नाज़िल हुए, इसी तौर से बतोसित फ़रिश्तगान सुनीं और तहरीर भी कीं। ख़ुसूसुन तशबीहात और तसावीर की राह से इज्माअ़-आम्मा मोमिनीन की आइन्दा कुश्तियां और शदायद और फ़ुतूहात और बाद तज़लील व पस्त हाली के रौनक व जलाल ख़ुदावन्द मसीह के साथ और दीगर मज़ाहिर आजूबा बर सबील मुकाशफ़ा उसे नज़र आए। चुनान्चे रसूल ने रूह ख़ुदा के क़ाबू और तस्ख़ीर में हो कर और उस की पाक कुव्वतों और तासीरों के हलूल से मौरिद इल्हाम हो कर उसी रूह की तौफ़ीक़ व हिदायत से अपने लफ़्ज़ों और इबारतों में उन तसावीर और अम्साल को मअ़ कई ताबीरों और तशरीहों के मुबय्यन किया। और इसी तौर पर पोलुस रसूल अपने कलाम इल्हामी के दो अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) व अन्वाअ़ बताता है। एक क़िस्म के वो साफ़ व सरीह मुकाशफ़ात जिनका दीदार वज्द रुहानी की हालत में हो कर पाया था और मरतन (नीम जान) अपने ख़ुतूत में उन पर इशारा करता और उन्हें अपनी रिसालत हक़ीक़ी की क़वी तर दलीलों में शुमार करता है और लापरवाई से दावा करता है कि जितनी बातें उस कश्फ़ की कलिमात में दर्ज हुईं, सब बरहक़ क़ौल ख़ुदा हैं। मसलन ग़लतीयों के ख़त में अपने वाअज़ व मुनादी के अस्ल मुतालिब के हक़ में ये निहायत भारी बातें हवाला क़लम करता है,“ऐ भाइयो ! मैं तुम्हें जताए देता हूँ कि जो खुशखबरी मैं ने सुनाई वो इन्सान की सी नहीं। क्योंकि वो मुझे इन्सान की तरफ़ से नहीं पहुंची और ना मुझे सिखाई गई बल्कि यसूअ मसीह की तरफ़ से मुझे उस का मुकाशफ़ा हुआ।” (ग़लतीयों 1:11,12)

वो कश्फ़ जिसका ज़िक्र इस आयत में आया ऐन ख़ास वही है और ख़ुदा तआला का कश्फ़ बाल-इख़्तसास उस पर सादिक़ आता है जिसमें इस मितआली और मुतजल्ली की ज़ात व सिफ़ात का इज़्हार और उस के अहकाम व मुशावरात और उहूद व मवासीक़ और ताईनात औक़ात का इश्तिहार और आइन्दा उमूरात की पेश ख़बरीयाँ और एतिक़ादात की तक़रीर व तशरीह हवाले क़लम होती हैं। जब वो मुज्हुलात पर्दा फ़ाश होने से मालूम हो गए, तब बर सबील इस्तिलाह कश्फ़ होता है। चूँकि ज़ातयन व फ़ाअलियन ख़ुदावन्द मसीह जो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) है, रब तआला का काशिफ़-उल-इसरार है तो वो वही और कश्फ़ मज़्कूर उसी के तवस्सुत से हुसूल व वसूल हो जाता है। चुनान्चे पैग़म्बर व रसूल इस हालत में हो कर आप तो फ़ाइल व क़ाइल ना थे, पर ख़ुदावन्द मसीह और उस की रूह की फ़अलियत के मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) थे और अपनी ख़ास आवाज़ की निस्बत ख़ामोश हो कर उन की ज़बान उस अंदरूनी मुतकल्लिम के क़ौल पर फ़िदा हो गई, जिस तरह बरबत ख़ुद तो ख़ामोश रहता है पर मज़रूब हो कर शीरीं आवाज़ देता है, इसी तरह वो पैग़म्बर हर-चंद कि बेहोश और लाइदराक व शऊर तो नहीं, तो भी अपने क़ाबू से बाहर हो कर नादीदनी और नाशनीदनी और बईद अज़ क़ियास मुतालिब के मज़हर और पर्दा कश हो गए। पस अलामत इस्तिलाही उस हालत कश्फ़ की वो ख़ास इबारत है,“और ख़ुदावन्द ने अब्रहाम या यशूअ या मूसा से कहा”वग़ैरह।

और बाज़-औक़ात ये अलामत ज़ाहिरन तो मफ़्क़ूद पर हक़ीक़तन मौजूद होती है। अज़-बस कि ख़ुदा-ए-तआला हमारी अलामात से मुस्तग़नी है और हमारे शराइत व ज़वाबत में मुक़य्यद नहीं। फिर उस कश्फ़ और वही की क़िस्म से मुतफ़र्रिक़ एक कलाम इल्हामी मज़्कूर बाला था, जिसका मुतकल्लिम ज़ाहिरन अपनी आवाज़ से अपनी बातें बोलता था, पर रूह ख़ुदा की तहरीक व तन्वीर बातिनी से और उस के हलूल व तख़लल का मंज़िला हो कर कलाम तक़रीरी और तहरीरी की क़ाबिलीयत और इस्तिदाद (सलाहियत) पाता था। सिर्फ इस इल्हाम की एक शर्त और अलामत ये थी कि हर मुतकल्लिम की तशख़ीस और उस के शमाइल (आदतें) और औसाफ़ की ख़सुसीयात मफ़्क़ूद और ज़ाए ना होती थीं, बल्कि अपने-अपने निशानों और खोजों से पहचानी जाती थीं। जैसा क़ियाफ़ा शनासों को जुदा-जुदा सूरतों के नुक़ूश साफ़ मुतमय्यज़ होते हैं जो हम उस अव्वल हालत पर मुलाहिज़ा करें तो ख़ुदा तआला बे तवस्सुत फ़ीनफ्सिही (दरअस्ल, अपनी ज़ात में) मुतकल्लिम और फ़ाइल मालूम होता है। पर दूसरी हालत में बतोसित क़ुव्वत व फ़अ़लियत और खादमियत इन्सानी के अपनी मर्ज़ी का इज़्हार करता है। कश्फ़ की हालत में मुसन्निफ़ अनक़रीब जैसा क़लम बदस्त मुहर्रिर, वैसा ही एक आला बे-जान की मानिंद नज़र आता है। उस दूसरी हालत में मुसन्निफ़ किताब ख़ुद मुहर्रिर ही की सूरत पकड़ता है।

पस जब इस में रूह ख़ुदा की तहरीक और तर्ग़ीब और तन्वीर भी है और रसूल की तारीफ़ लफ़्ज़ियह और तहरीर है, तो दो फ़अ़लियतीन एक अम्र में मिलें और मुजतमाअ़ हो गईं। ज़ाहिरन वो रसूल अपनी ख़्वाहिश और ज़मीर बातिनी के ख़यालात से बोलता और लिखता है, पर हक़ीक़तन रूहुल-क़ुद्दुस की तासीरों का क़ाइल व मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हो कर तक़रीर व तहरीर करता है। ज़ाहिरन तो आप अपने इख़्तियार से जो ख़बरें और रिवायतें मौजूद हैं, उन से बाअज़ इंतिखाब कर लेता है और बाअज़ को छोड़ता है, हक़ीक़तन उसी रूह के क़वी दस्त से मज्बूर या मीठी कशिशों से मज्ज़ूब (मस्त) हो कर हक़ व बातिल का ख़ूब मुतमय्यज़ होता और हर ग़लत व ख़ता से बचाया जाता है। और ये भी कहना हक़ और वाजिब है कि मौरिद कश्फ़ की हालत साफ़ और ज़ंग से ख़ालिस आईने के मुवाफ़िक़ है। जिससे नूर इलाही की सब शआएं मुन्अकिस होती हैं। दूसरी हालत की मिस्ल गवाह की मिस्ल है कि वो जिन बातों का बनज़र ख़ुद शाहिद था, ठीक-ठीक अपनी मामूली इबारतों में बाअद-अज़ा वज़न व क़द्र पैग़ाम के हाज़िरीन व सामईन को समझा देता है, पर तो भी रक़ाबत और हिदायत इल्हामी से किसी सूरत में ग़नी और बेनियाज़ नहीं, बल्कि उस से चारा नहीं है कि वो रूह जो इस मर्द-ए-ख़ुदा में साकिन है और उस की जान में मुतख़ल्लिल की गई है, उस के कलाम का मज़मून व मंशा उस के बदले इन्तिखाब करे और उस की इबारतें भी ख़ता से बाज़ रखे। चुनान्चे कुरिंथिस के नाम पहले ख़त में पोलुस रसूल इल्हाम की इन दो जुदा किस्मों पर इशारा करके फ़रमाता है, “बाक़ीयों से मैं ही कहता हूँ ना ख़ुदावन्द (यानी इस अम्र में मुझे ख़ुदावन्द से जो काशिफ़–उल-इसरार है, कश्फ़ नहीं मिला। सिर्फ उस इल्हाम बातिनी की माअर्फ़त में मुतकल्लिम होता हूँ जिसमें ख़ुदा की रूह इन्सान की रूह के साथ मुख़ालतत (मेल-जोल, इख़्तिलात) होती है।” (1 कुरंथियो 7:12) “कुँवारियों के हक़ में मेरे पास ख़ुदावन्द का कोई हुक्म नहीं लेकिन दियानतदार होने के लिए जैसा ख़ुदावन्द की तरफ़ से मुझ पर रहम हुआ उस के मुवाफ़िक़ अपनी राय देता हूँ।” (1 कुरंथियो 1:25)इस से साफ़ रोशन हुआ कि जिस तरह ख़ुदा तआला के ज़हूरात और ज़ात व सिफ़ात की तजल्लियात मुतअद्दिद इतवारों और मुख़्तलिफ़ सूरतों से ज़माने-साबिक़ के अम्बिया को नज़र आईं। इसी तरह ज़माने-मुताख्ख़र (आख़िर) में रूह ख़ुदा ज़वी-उल-इख़्तयार हो कर अपनी तन्वीर ईलाही को क़िस्म-क़िस्म कर के मुख़्तलिफ़ सूरतों और तरीक़ों में इफ़ाज़त करता है और अपने फ़ज़ाइल ख़ास्सा और अज़ीमुश्शान जिसको जिस क़द्र चाहता है, बख़्शता है और अपनी पाक तासीरों और तहरीकों की तक़्सीम में आज़ाद और बेक़ैद है। ख़्वाह वो तहरीक उस की मानिंद नरम और मुलाइम हो, ख़्वाह बर्क़ व रअ़द और बारिश तेज़ रू के मुवाफ़िक़ ज़ोर-आवर ज़बरदस्त हो।

ऐ साहिबो इन गिरामी बातों पर सोच और ग़ौर करो जो कश्फ़ और इल्हाम के हैबतनाक राज़ों से क़रीब ताल्लुक़ रखती हैं, क्योंकि निहायत इबरत नुमा और क़ाबिल-ए-इल्तिफ़ात वो क़ौल ख़ुदा हज़रत यसअयाह की ज़बान से है, “लेकिन वो बाग़ी हुए और उन्हों ने उस की रूह-क़ुद्दुस को ग़मगीं किया, इसलिए वो उनका दुश्मन हो गया और उन से लड़ा।” (यसअयाह 63:10)

बाब पानज़ दहुम

दरबाब बाअज़ वज़नी नक़लियात कि मुस्तलज़्म व मस्तिदल बर उलुहियत व माअ़बूदियत ख़ुदावन्द मसीह मेबाशन्द

د رباب بعض و زنی نقلیات کہ مستلزم و مستدل بر اُلوہیت و معبودیت خداوند مسیح میبا شند

जितने सवालात एक आदमजा़द अपने दोस्त और भाई या अपनी ही जान से कर सकता है, उन में एक भी इस सवाल से गिरामी और आलीक़द्र नहीं कि तू ख़ुदावन्द मसीह के हक़ में क्या जानता है? वो किस का इब्ने मुबारक है? बिल-फ़र्ज़ कि वो कलाम-ए-ख़ुदा की तरह-तरह की तक़रीरों के बमूजब अल्लाह तआला का इब्ने वाहिद व महबूब हो तो हक़ीक़ी मोमिनीन और मुस्लिमीन का क्या फ़त्वा और राय होगी? बाअज़ हदीसों के हक़, मसलन उस हदीस में जिसमें उस ख़ुदावन्द मसीह की ये तख़्फ़ीफ़ शान और हतक इज़्ज़त दर्ज है, ’’فَحَانَتِ الصَّلوٰۃ ُوَ اَمَمتُہُم‘‘ यानी नमाज़ का वक़्त आया तो मैंने उन पैग़म्बरों की इमामत की। क़रीनह-ए-कलाम से मालूम होता है कि पैग़म्बरों से मुतकल्लिम ने हज़रत मूसा और ख़ुदावन्द मसीह और इब्राहिम (अब्रहाम) से मुराद रखी। आप लोग जानते हैं कि वो सवाल मज़्कूर बाला ख़ुदावन्द मसीह ने उम्मत यहूद से किया और हर-चंद कि इन का जवाब यानी इब्ने दाऊद हक़ीक़त की ज़िद ना था, बल्कि हक़ीक़त जुज़ईया उस में शामिल थी तो भी ख़ुदावन्द मसीह ने नक़लियात बालिग़ा से उन्हें वाक़ई क़द्र-दानी में नाक़िस और क़सूरवार ठहराया। ख़सूसन उस दलील नक़्ली से कि इब्नीयत दाऊदी की निस्बत ज़रूरतन ज़्यादा आलीशान और जलाली होगी। उस “इब्न” की वो “इब्नीयत” जिसका ख़ुदावन्द हक़ लक़ब हज़रत दाऊद ने फ़रमाया “यहोवा ने मेरे ख़ुदावन्द से कहा तू मेरे दहने हाथ बैठ जब तक कि मैं तेरे दुश्मनों को तेरे पांव की चौकी ना कर दूं।” (ज़बूर 110:1)

अब साहिबो यक़ीन करो कि ख़ुदा तआला आप लोगों से भी बिल-फ़अल इसी सवाल का जवाब तलब करता है, ख़ुदावन्द मसीह कौन है और इब्न किस का? शायद आप इस सवाल के जवाब में कहें कि इब्नीयत और उलुहियत मसीह का मुक़र और क़ाइल होना हम ऐन कुफ़्र जानते हैं। अगरचे हम इस इक़रार को अपने ऊपर फ़र्ज़ और लाज़िम जानें। तो भी आप उस के कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) होने के क़ाइल हैं और कलिमियत ईलाही का राज़ इतना ही बारीक और दकी़क़ और इदराक अक़्लीया से बैरून व बाला है, जितना इब्नीयत ईलाही का राज़। ख़ुद मुहम्मदﷺ भी ख़ुदावन्द मसीह के बाअज़ ऐसे मोअजज़ात पर शाहिद हैं, जिनकी मुराफ़िक़त और हमसरी (बराबरी) किसी दूसरे नबी की हक़ीक़त-ए-हाल में पाई नहीं जाती और ना उस बेमिस्ल ख़रक़-ए-आदत और बेनज़ीर क़ुदरत की कोई ज़िद रिवायत मौजूद है और ना किसी सूरत की मुमानिअत ग़ैर अज़-आंकि बाअज़ अक़्ल परस्त या अस्हाब तास्सुब जिनकी नशिस्त व बर्ख़ास्त व मुख़ालतत दहरियों की मजालिस में होती रहती है। अपनी मह्ज़ ख़्वाहिश से बर सबील बे-सबात एतराज़ के दाअवा करते हैं कि जितना मेरा तजुर्बा ही कुछ ऐसा अम्र वक़ूअ में नहीं आया और ग़ैर अज़ मज़ाहिर मामूली और महसूसात और रोज़-मर्रा के वाक़ियात के किसी बात पर मेरा यक़ीन नहीं। फुर्क़ान में बाअज़ उस तरह के मोअजज़ात इशारतन या माअरूफ़न नुमायां और मुबय्यन होते हैं, मसलन इस आयत में :-

’’اِنِّی عَبدُاللّٰہِ اَتَانِی الکِتَابَ وَجَعَلَنِی نَبِیّاً وَالسَّلَامُ عَلَی یَومَ وُلِذتُّ وَ یَومَ اَمُوتُ وَیَومَ اُبعَث حَیَّاً और दूसरी आयत में उस बेनज़ीर विलादत जिस्मी की बाबत जो हज़रत मर्यम से हुई :- ’’وَ اَرسَلنَا عَلَیہَا رُوحَنا وَتَمَثّلَ لَھَا بَشَراً سَوِیًّا ‘‘ और फिर सुरह नबीन में ’’وَنَفَخنَا فِیھَا مِن رُّوحِنَا‘‘۔

अब इस बाब में मुसन्निफ़ रिसाले का इरादा है कि ख़ुदा की तौफ़ीक़ से ख़ुदावन्द मसीह की कलिमियत और इब्नीयत और उलूहियत के बाअज़ मुक़व्वी दलाईल अनाजील और कुतुब अम्बिया व रुसल से गुज़राने, लेकिन बाल-इख़्तसास ना वो दलाईल जिनका मब्दा और मंशा हैं, वो लक़ब और अस्मा जो ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ मन्सूब हैं, बल्कि वो दलाईल जिनकी तस्दीक़ उन मतालिब व मकासद से होती है, जिनके भरपूर और सर-अंजाम करने के लिए ख़ुदावन्द मसीह सूरत और हक़ीक़त बशर में जिस्म पज़ीर हो गया और उस ख़िदमत और सनअ़त व फ़अ़लियत से जिसे वफ़ा-ए-अहद और अदाए मशीयत (ख़्वाहिश) ख़ुदा के लिए इस ख़स्ता शिकस्ता आलम में बजा लाने आया। यानी अस्ल सवाल ये होगा कि ख़ुदावन्द ने कौन से ऐसे आमाल व अफ़आल दिखाए और कौन सी ऐसी क़ुदरतों और ज़ात व सिफ़ात की ख़सुसियात पर दाअवा किया और अपनी खो-ख़सलत व सीरत में कौन सी ऐसी तफ़ज़ील और तर्जीह बाक़ी सब आदमजा़द से ले गया कि वो ज़ात ख़ुदा पर मुस्तलज़्म और उस के इब्ने ख़ुदा होने के दावे की मुसद्दिक़ थी। इतना यक़ीन है कि जो शायद क़सदन या सहवन हम उस तक़रीर और तशह्हुद को कलाम-ए-ख़ुदा और दीनी एतिक़ादात से काट लेंगे तो कलाम-ए-ख़ुदा बेअस्ल और बातिल और बेजान ठहरेगा। गोया वो रिश्ता-ए-ज़रीन और नूरानी जो कुतुब समाविया के कुल ज़रबफ़्त (एक कपड़ा जो सोने और रेशम के तारों से बूनते हैं) के दर्मियान कशीदा हो गया, मफ़्क़ूद और ज़ाए होगा और वो जो सब पेशख़बरियों का मिस्दाक़ था और गोया उनका जामेअ-उल-आसार और राफ़अ़-श्शुब्हात था, इस क़द्र जाता रहेगा कि आइन्दा वो बेमतलब और मख़बूत (सोदाई, ख़बती) मुशव्वश (परेशान करने वाला) हो जाएंगी। पस मेहरबानी कर के इस बात पर इल्तिफ़ात करो कि इस बाब में उन मोअजज़ों का ज़िक्र ना होगा जो नबियों और रसूलों और ख़ुदावन्द मसीह पर मुश्तर्क थे। पर सिर्फ उनका जो कुल्लियतन या एक जिहत से मख़्सूस थे। अज़-आनरो कि ना अम्बिया ने आप हरगिज़ उन पर दावा किया और ना उन के मुरीदों और पैरौ से किसी ने उन फ़ज़ाइल व तजल्लियात रब्बानी को उन पर इत्तलाक़ किया।

अव्वलन क़ाबिल-ए-ग़ौर व ताम्मुल है कि अम्बिया-ए-सलफ़ की पेश ख़बरियों की सिलसिला-वारी में दो असातीर मुस्ततिर बराबर तफ़्तीश होती और बढ़ती चली आती हैं कि वो दोनों आख़िरश ख़ुदावन्द मसीह में मुन्तहा होती हैं और मिलती हैं।

एक इन स्तरों में इस मंशा और मज़्मून से थी कि इब्ने दाऊद अपने तख़्त मौरूसी पर जलूस फ़रमाएगा और दाऊद के ख़ानदान के लिए बाप और मुरब्बी होगा और उस के घर की कुंजियों से कमर-बस्ता होगा।

दूसरी ये कि ख़ुदा-ए-क़ादिर-ए-मुतलक़ आप नमूदार और कुल बशर के मुक़ाबिल मुतजल्ली होगा।

अहद-ए-अतीक़ में बहुत से इस तरह के मुक़ामात हैं जिनमें मोमिनों और आक़िबत अंदेशों के लिए वाअदा साफ़ और रासिख़ अता किया गया है कि उस आख़िरी दिन जो अदालत और सलामत और नजात के इख़्तताम का दिन होगा, ख़ुदा तआला की हुज़ूरी इस आलम-ए-शुहूद में नमूद होगी, बल्कि उस की हुज़ूरी फ़ीनफ्सिही (दरअस्ल, अपनी ज़ात में) और फ़ी ज़ात इस क़द्र अलानियतन और सरीहन नमूदार होगी कि बमूजब क़ौल युहन्ना रसूल के, “हर एक आँख उसे देखेगी और जिन्हों ने उसे छेदा था वो भी देखेंगे।” (मुकाशफ़ा 1:7)

और क़ब्ल अज़ां ज़करीयाह नबी का वह कलाम पूरा होगा,“क्योंकि ख़ुदावन्द मेरा ख़ुदा आएगा और सब क़ुद्दुसी तेरे साथ... और ख़ुदावन्द सारी दुनिया का बादशाह होगा। उस रोज़ एक ही ख़ुदावन्द होगा और उस का नाम वाहिद होगा।” (ज़करीयाह 14:5-9) तब मालूम और साबित होगा कि रब तआला मज़्लूमों और असीरों (क़ैदियों) और शहीदों की फ़र्याद व फ़ग़ां से ग़ाफ़िल और फ़रामोश ना था। हर-चंद कि बड़ी देर की सुबूरी और मदद व अआनत की ताख़ीर थी, पर तहक़ीक़न उस क़ह्हार व सिद्दीक़ की दरगाह में वो सवाल गोश गुज़ार हो गया जिसकी इबारत हज़रत दाऊद और हज़रत युहन्ना से तशरीहन हवाला क़लम हो गई, “ऐ ख़ुदा उठ ! ज़मीन की अदालत कर। क्योंकि तू ही सब क़ौमों का मालिक होगा।” (ज़बूर 82:8) “और वो (शहीदों की रूहें) बड़ी आवाज़ से चिल्लाकर बोलीं कि ऐ मालिक ! ऐ क़ुद्दुस बरहक़ ! तू कब तक इन्साफ़ ना करेगा और ज़मीन के रहने वालों से हमारे ख़ून का बदला ना लेगा?” (मुकाशफ़ा 6:10)

इन सब और इन की मानिंद सैंकड़ों और मुक़ामात पर जो नज़र इन्साफ़ और बेताअस्सुबी से ग़ौर करे, वो लापरवाई से इक़रार करेगा कि बेशक वो बादशाह हक़ गुस्तर और आफ़्ताब नूर-अफ़शाँ जो तख़्त दाऊदी को अपनी नशिस्त मितआली से रौनकदार करेगा, सो इब्ने ख़ुदा वहीद मसीह है। अगर इस अम्र की मुसद्दिक़ और भी नक़लियात तलब करो तो यसअयाह नबी के अबवाब 45 और 65 और मलाकी नबी के अबवाब 3 और 4 का मुतालआ कर के रूह हिक्मत व माअर्फ़त की तौफ़ीक़ से शक ना करो कि ये राज़ अज़-दराए हिजाब कश्फ़ होगा। चुनान्चे ये राज़ वो रिश्ता मज़्बूत व मुहकम है जिससे दोनों अह्द यानी अतीक़ और जदीद मरबूत और बाहम पैवस्ता हैं और दोनों ओहदों के क़ुद्दुसी और औलिया ने इस क़वी उम्मीद में अपनी औक़ात उम्र को बसर किया और अपनी जान को तस्लीम किया उन के रक़ूब व रग़बत और इंतिज़ार का मुद्दा ना कोई फ़रिश्ता, ना नबी था, मगर ख़ुदावन्द मसीह ही की हुज़ूरी और ज़हूर था। बआन-हालत व सूरत व ज़ात व सिफ़ात जिनकी कैफ़ीयत और तश्ख़ीस अम्बिया की मुत्तफ़िक़ गवाही से मालूम और माअरूफ़ हो गई।

अब हम ज़रा ग़ौर कर के कलाम-ए-ख़ुदा से बाअज़ मसाइल का हल व जवाब तलब करें। ख़ासकर ये बात ताबमक़्दूर उस से दर्याफ़्त करें कि उस ख़ुदावन्द की आमद व ज़हूर जिस्मियाह के कौन से और कैसे मुतालिब और मक़ासिद थे और तीन आलिमों के साथ उस के कौन से और कैसे ताल्लुक़ात थे जिससे उस की ज़ात व वजूद की हक़ीक़त-ए-हाल हत्त-उल-वसीअ़ हम पर रोशन और वाज़ेह हो जाये।

पहला इन मसाइल में से ये कि ख़ुदावन्द मसीह का कौन और कैसा ताल्लुक़ आलिम-ए-ग़ैब और उस के साकिनों से है। पस इस में उस का इख़्तियार और इक़्तिदार बाल-ईस्तिक़लाल बहुत साफ़ नक़लियात और दलाईल बालिग़ा से साबित होता है। मसलन मुकाशफ़ा की किताब में क्या ही सरीह और नादिर तक़रीरों से अपनी उस क़ुदरत ईलाही पर जिसका आलिम-ए-ग़ैब ताबेअ और मुतीअ है, गवाही देता है,, “जब मैं (युहन्ना) ने उसे देखा तो उस के पांव में मुर्दा सा गिर पड़ा तब उस ने अपना दहना हाथ मुझ पर रखा और कहा कि ख़ौफ़ ना कर, मैं अव़्वल और आखिर हूँ, और ज़िंदा हूँ। मैं मर गया था और देख अबद-उल-आबाद ज़िंदा रहूँगा और मौत और आलम अर्वाह की कुंजियां मेरे पास हैं।” (मुकाशफ़ा 1:17,18) और ख़ुदावन्द मसीह आलम-ए-ग़ैब का साहिब-ए-इख़्तियार व तसर्रुफ़ तब ही दिखाई दिया जब उन दो डकैतों में से जो उस के किनारे-किनारे मस्लूब हुए थे, एक की अर्ज़ व माअरूज़ को क़ुबूल कर के क़ुदरत और मुहब्बत आमेज़ आवाज़ से वो क़ौल फ़रमाया, “मैं तुझसे सच कहता हूँ कि आज ही तू मेरे साथ फ़िरदौस में होगा।” (लूक़ा 23:43) “मैं तुझसे सच कहता हूँ कि आज ही तू मेरे साथ फ़िरदौस में होगा।” (लूक़ा 23:43) फिर बर-तक़्दीर कि वो ख़ुदावन्द सिर्फ़ ज़मीन और आलम-ए-फ़ना में क़ुदरत बाल-ईस्तिक़लाल और इख़्तियार मुतलक़ रखता, पर आसमानों में ये उस का मौरूसी और ज़ातीया हक़ ना होता तो वो दावा जो जे़ल की आयतों से मुस्तफ़ाद है, क्या ही बातिल बेहूदा-गोई और हवाए मुबालग़ा होता (यानी मुकाशफ़ा के 2 और 3 अबवाब से) “जान देने तक भी वफ़ादार रह तो मैं तुझे ज़िंदगी का ताज दूगा।” (मुकाशफ़ा 2:10) “जो ग़ालिब आए उसे इसी तरह सफ़ैद पोशाक पहनाई जाएगी और मैं उस का नाम किताब-ए-हयात से हरगिज़ ना काटूंगा बल्कि अपने बाप और उस के फ़रिश्तों के सामने उस के नाम का इक़रार करूंगा।” (मुकाशफ़ा 3:5) “जो ग़ालिब आए मैं उसे अपने ख़ुदा के मुक़द्दस में एक सुतून बनाऊँगा। वो फिर कभी बाहर ना निकलेगा और मैं अपने ख़ुदा का नाम और अपने ख़ुदा के शहर यानी उस नए यरूशलीम का नाम जो मेरे ख़ुदा के पास से आस्मान से उतरने वाला है और अपना नया नाम उस पर लिखूंगा।” (मुकाशफ़ा 3:12) ये और इन की मानिंद और आयतें उस पैग़ाम संजीदा कलाम से हैं, जो हज़रत युहन्ना की माअर्फ़त एशयाए कोचक की सात जमाअतों के पास पहुंचाया गया और मसबत और मुसद्दिक़ है, ख़ुदावन्द के उस रुत्बा आली और ज़ातीया का जिसे किसी मख़्लूक़ और ग़ैर अज़ ख़ुदा की तरफ़ मन्सूब करना, ऐन शिर्क और कुफ़्र है। क्योंकि वो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और इब्ने-अल्लाह के साथ मख़्सूस और मुक़य्यद है और उस की असली व अज़ली माहीयत (असलियत) के इसरार में से है।चुनान्चे पतरस रसूल रूह हक़ के इल्हाम से अपने अव्वल ख़त के तीसरे बाब में इसी अम्र पर अजीब वज़न व वक़ार की गवाही देता है, “वो आस्मान पर जाकर ख़ुदा की दहनी तरफ़ बैठा है और फ़रिश्ते और इख़्तयारात और कुदरतें उस के ताबेअ़ की गई हैं।” (1 पतरस 3:22)

ऐ साहिबो कौन ख़ुदातरस और आक़िबत अंदेश ये बातें सुन कर और उस बादशाह आलमीन की अलवियत और उस के ख़िलाफ़ करने के ख़ौफ़ व ख़तरे का मुहासिबा मुलाहिज़ा कर के, ये सलाह ना जानेगा कि अपने ख़वेश व अक़्रिबा से और अहले रिश्ते व रिफ़ाकत से वो सवाल करे जो अहले यहूद भी बाद नुज़ूल रूहुल-क़ुद्दुस के दिलों में छेद कर आपस में करने लगे, “ऐ भाईओ हम क्या करें?” (आमाल 2:37) जिस सवाल के जवाब में ये वाअज़ व नसीहत पतरस रसूल से मिली, “तौबा करो और तुम में से हर एक गुनाहों की मुआफ़ी के लिए यसूअ मसीह के नाम पर बपतिस्मा ले तो तुम रूह-उल-क़ुद्दुस इनाम में पाओगे।” (आमाल 2:38)

फिर जो ताल्लुक़ ख़ुदावन्द मसीह का कलाम-ए-ख़ुदा के साथ है, उस की ज़रा सी तसरीह और तशरीह चाहीए। अज़-बस कि मौलवी साहिबों का मामूली एतराज़ और मुवाख़िज़ा ये है कि जैसा हमारे मुहम्मदﷺ पर नुज़ूल किताब हुआ, वैसा हज़रत ईसा पर ना था। हर-चंद कि कुल क़ुरआन में बमुश्किल एक भी गवाही फ़साहत और तौज़ीह में इस से बढ़कर मिलेगी, मसलन ’’اٰتینَاہُ الِانجِیلَ فِیہِ ھُدًی وَنُورًا وَّمَوعِظَتہً وَلیحَکُم اَہلُ الِانِجیل بِمَا اُنزِل اللّٰہُ فِیہِ‘‘ कुछ चारा नहीं कि अहले मुहम्मद अपने ही नबी की ऐसी साफ़ व सरीह गवाहियों से शश व पंज में और मुतरद्दिद हो जाएं और उन तक़रीरों के टालने के लिए जो-जो हिकमतें और पेचिशें और पसोपेश बना रहे हैं, सब अहले दानिश पर रोशन और वाज़ेह हैं। मअ़ हज़ा (इलावा बरीं, साथ इस के) मुहम्मदﷺ इस अम्र की हक़ीक़त-ए-हाल से वाक़िफ़ ना थे और ना उन को फ़हमीदा सही और दुरुस्त इस उम्र की हासिल हुई कि कलाम-ए-ख़ुदा के साथ ख़ुदावन्द मसीह का ताल्लुक़ क्या ही ख़ास और नादिर है। फ़ील-तहक़ीक़ वो ताल्लुक़ अक़्रब ताल्लुक़ात से क़रीब तरीन है। आन्क़द्र कि वो ख़ुदा तआला की ज़ात मुतजल्ली के उन इसरार ग़ैब में से है जिस तक अक़्ल और रूह इन्सान बग़ैर नुसरत और तौफ़ीक़ रूहुल-क़ुद्दुस के हरगिज़ नहीं पहुंच सकती। चुनान्चे ख़ुदावन्द मसीह का हाल इस उम्र में नबियों और पैग़म्बरों के हाल से ताग़ायत निहायत दूर व बईद है। अज़-आनरो कि वो सब रब तआला के कश्फ़ इसरार के मुख़्तलिफ़ दर्जात व मुरातिब से बमूजब इस्तिदाद (सलाहियत) के मुशर्रफ़ हो सकते थे, पर ख़ुदावन्द मसीह अपने और अपने रसूलों की साफ़ तक़रीरों के बमूजब आप ही फ़ी नफ़्स-ए-ख़ुदा की पाक ज़ात और उस के कलाम खु़फ़ीया और पनहां का ऐन कश्फ़ और काशिफ़ है। तो ऐसा ख़ाम-ख़्याल करना ना चाहीए कि आलम-ए-बाला से आली तआला का कलाम उन पर नाज़िल हुआ। पर सच और बरहक़ ख़बर ये है कि आप ही कलाम ईलाही अज़ल से हो कर उतरा, ना ये कि इल्म हक़ीक़त और माअर्फ़त ईलाही से नादिर और बेमिसाल तौर पर बहरावर और सर्फ़राज़ हो गया। चुनान्चे आप ही अपनी माहीयत (असलियत) के हक़ में फ़रमाता है, “हक़ और ज़िंदगी (यानी ऐन हक़ और ऐन ज़िंदगी) मैं हूँ।” (युहन्ना 14:6), और फिर “कोई बेटे को नहीं जानता सिवा बाप के और कोई बाप को नहीं जानता सिवा बेटे के और उस के जिस पर बेटा उसे ज़ाहिर करना चाहे।” (मत्ती 11:27)

देखो ऐ साहिबो कैसा बेअस्ल और नाजायज़ और बे मौक़ा आपका सवाल है कि हज़रत मसीह यसूअ पर कलाम और किताब क्यों नहीं उतरी, जैसा हज़रत मूसा और दाऊद और यसअयाह वग़ैरह पर। वो जिसका नाम कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) है और वो लक़ब उस की माहीयत (असलियत) का मुअर्रिफ़ और मज़हर है, उस की इब्नीयत ईलाही के मजमाअ़ तफ़ाज़ील से उम्दा और आली-तर ख़ुसूसीयत उस की कलिमियत है और ख़वास कलिमियत में से रब तआला का ऐन कश्फ़ इसरार होना, वहा फ़ज़्ल ख़ासीयत है जो बाक़ी नबियों की निस्बत ख़ुदावन्द मसीह यसूअ की तर्जीह और तफ़ज़ील ज़ातीया का बाइस है। हाँ बल्कि ये ख़ुदावन्द मसीह की वो तर्जीह और तफ़ज़ील है जो अज़-अज़ल सब मख़्लूक़ात और मौजूदात पर है, ख़्वाह वो ख़ाकी हो, ख़्वाह आस्मानी और उस का वो जलाल मौरूसी है, जो “मशारु इलियह है (युहन्ना 17:5) में है “और अब ऐ बाप ! तू उस जलाल से जो मैं दुनिया की पैदाइश से पेशतर तेरे साथ रखता था मुझे अपने साथ जलाली बना दे।”तो ख़ुदावन्द मसीह का ये रुत्बा ख़ास यानी कश्फ़-उल-इसरार होना, बां हैसियत रखता है कि उस की ज़ात और लक़ब कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) है, बइत्तफ़ाक उस तक़रीर के जो युहन्ना 1:18 में मिलती है, “ख़ुदा को किसी ने कभी नहीं देखा इकलौता बेटा जो बाप की गोद में है उसी ने ज़ाहिर किया।” या अगर ठीक अस्ल ज़बान का तर्जुमा कीजिए तो “उस की ज़ात की तशरीह की है।” फिर ख़ुदावन्द ने कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) होने का रुत्बा पाया, बां हैसियत कि वो इब्ने ख़ुदा है। चुनान्चे मुकाशफ़ा की किताब के पहले बाब की पहली आयत में लिखा है, “यसूअ मसीह का मुकाशफ़ा जो उसे ख़ुदा की तरफ़ से इसलिए हुआ कि अपने बंदों को वो बातें दिखाए जिन का जल्द होना ज़रूर है।”पस बख़ूबी मालूम और साबित है कि जिस तरह ख़ुदावन्द मसीह मुनज्जी अलासीन और शफ़ी उल-आलमीन वाहिद व तन्हा है, अब भी और हशर व नशर के दिन भी।

इसी तरह अह्दे अतीक़ और अह्दे जदीद में ये मर्तबा ख़ुदावन्द मसीह के साथ मख़्सूस है, यानी ज़ात और क़ौल और फअ़ल में अल्लाह तआला का ऐन कश्फ़ होना और उस के जलाल और नूर मह्जूब का फ़ाश करना, तो उस काशिफ़ अल्लाह पर बचश्म ख़ुद निगाह कर के उस का मुबय्यन करना और गवाही की राह से तक़रीरी और तहरीरी ख़बरों का इज़्हार और इश्तिहार करना, रसूलों का ओहदा मुईन था, जैसे युहन्ना रसूल ने भी कहा :-

“उस ज़िंदगी के कलाम की बाबत जो इब्तिदा से था और जिसे हमने सुना और अपनी आँखों से देखा बल्कि गौर से देखा और अपने हाथों से छुवा। ये ज़िंदगी ज़ाहिर हुई और हमने उसे देखा और उस की गवाही देते हैं और इसी हमेशा की ज़िंदगी की तुम्हें ख़बर देते हैं जो बाप के साथ थी और हम पर ज़ाहिर हुई। जो कुछ हमने देखा और सुना है तुम्हें भी उस की ख़बर देते हैं ताकि तुम भी हमारे शरीक हो और हमारी शराकत बाप के साथ और उस के बेटे यसूअ मसीह के साथ है।” (1 युहन्ना 1:1-3) ये तो जायज़ और मुम्किन था कि उस हमादानी और हिक्मत मुतल्लक़ा को जो उस की इब्नीयत और कलिमियत के ख़वास में से थी, दराए हिजाब जिस्मियत पर्दापोश करे और अर्सा क़लील तक अपनी मर्ज़ी मुजर्रिद के बाइस बाअज़ वाक़ियात आइन्दा की कैफ़ीयत हाल की फ़हमीदा से बे बहरा रहे। जिस अम्र से बज़न ग़ालिब इशारा है मरक़ुस की इन्जील के 13 वें बाब की इस आयत माअरूफ़ में, “लेकिन उस दिन या उस घड़ी की बाबत कोई नहीं जानता, ना आस्मान के फ़रिश्ते ना बेटा मगर बाप।” (मरक़ुस 13:32)

अगर कोई शख़्स बेटे की इस नाफ़हमी को मूजिब इश्तिबाह जाने तो चाहीए कि वो ज़रा ग़ौर करे इस बात पर कि जब ख़ुदावन्द मुबारक ने अपनी ग़ैर मुतनाही शफ्क़त और मुहब्बत हम ग़रीब ख़ताकारों की तरफ़ इतनी-इतनी बातों और तरहों से ज़ाहिर की कि बाला से पस्त और आली से अदना और ग़नी से आजिज़ और दौलतमंद से मुहताज हुआ और भरपूरी के बदले तही-दस्ती इख़्तियार की। तो ये एक और अम्र क्या मुश्किल या मुहाल था कि वो अपने ख़ास रोज़ के जो हश्र का दिन है, नाक़िस इल्म का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हो जाये, ना असली और अज़ली कलिमियत की हैसियत से जिसमें किसी सूरत की क़िल्लत और ख़िफ़्फ़त की मुदाख़िलत ख़िलाफ़-ए-क़ियास है। मगर बऐतबार उस हालत और सूरत जिस्मियाह के जिसके अहाते के अंदर उस का जलाल नूरानी मौरूसी मह्जूब हुआ। हाशा-लिल्लाह (ख़ुदा ना करे, हरगिज़ नहीं) कि ख़ुदा की मुहब्बत आमेज़ क़ुदरत और हिक्मत और ख़ास उम्मत की रिआयत क़ादिर इस उम्र पर ना थी और इस के ज़ाहिरी मवाक़आत पर ग़ालिब ना हो सकी। सच तो ये है कि ख़ुदावन्द मसीह कलिमियत ईलाही की हैसियत से बहक और बसदक़ तमाम कह सकता था। उस की शहादत हमें (मत्ती 11:27) में मिलती है, “मेरे बाप की तरफ़ से सब कुछ मुझे सौंपा गया।” और फिर वो भी जो युहन्ना रसूल की इन्जील में तस्लीम है, “इसलिए कि बाप बेटे को अज़ीज़ रखता है और जितने काम ख़ूद करता है उसे दिखाता है बल्कि उन से भी बड़े काम उसे दिखाएगा ताकि तुम ताज्जुब करो।” (युहन्ना 5:20)

पर ये गुमान भी ग़ालिब और वाजिबी है कि दर-हालिका इल्म मुतलक़ और फ़हमीदा कामिल पर इख़्तियार रखता था और ये भी अपने अज़ली तव्वुलुद का हक़ बताता था, तो भी जिस इल्म नाक़िद या नाक़िस से उस की कलीसिया महबूब की कुछ मुन्अ़फ़त हो सकती, बल्कि फ़िलहाल उस के लाहिजाब और फ़ाश होने से कुछ मुज़र्रत भी हो सकती थी, उस के हुसूल से अपने ही क़सद और ख़्वाहिश और अपने बाप की मर्ज़ी और तईनात रिआयत से दस्त बर्दारी और दरेग़ फ़रमाया। लेकिन शर्त उस दरेग़ और दस्तबर्दारी की ये थी कि ख़ुदावन्द के असली और ज़ातीया इल्म में नुक़्स व ख़लल का तहम्मुल किसी सूरत ना हो सके। सिर्फ ये ख़ुद तौहीन यानी आपको पस्त करना इस क़द्र जायज़ था कि उस दौलत और जमईयत उलूम व मआरुफ़ से जो उस ने बहस्ब तवस्सुत व वकालत अपनी कलीसिया के वास्ते ले ली थी, ये ख़ास ख़बर यानी रोज़-ए-हश्र की ख़बर मुस्तसना और महरूम रह गई।

हासिल कलाम ये है कि ख़ुदावन्द मसीह ने कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) हो कर बाअज़-औक़ात ख़ुदा तआला की ज़ात व वजूद और ख़यालात ज़मीर को कश्फ़ किया और बाअज़-औक़ात अपने रूहुल-क़ुद्दुस की तौफ़ीक़ और माअर्फ़त से वो कलाम मुतअय्यन गवाहों को तस्लीम किया और हवाला क़लम कराया। पस दो बड़ी भारी बातों में ख़ुदावन्द मसीह के मुतअय्यन गवाह मुहम्मदﷺ के गवाहों की निस्बत शर्फ़ व वज़न व रौनक के हक़ में हद से ज़्यादा तर्जीह रखते थे।

अव्वल ये कि वो गवाह मसीही अस्हाब इल्हाम रूहुल-क़ुद्दुस के थे, जैसा ऊपर मुफस्सिल बयान हो चुका।

दूसरा ये कि ख़ुद कलाम-उल्लाह से इन लोगों के फ़ज़ाइल और औसाफ़ के बयानात मिलते हैं, जिनसे बख़ूबी मालूम होता है कि वो कौन और कैसे अश्ख़ास थे।

एक तीसरा सवाल वाजिबन मोअजज़ात की बाबत पैदा होता है कि ख़ुदावन्द मसीह ने मोअजज़ों के अम्र में कौन सी ऐसी तर्जीह और सबक़त की जो ज़ात और क़ुदरत ईलाही पर मुस्तलज़्म थी। हर हक़ीक़त अंदेश पर वाज़ेह हो कि इस फ़स्ल में मोअजज़ात से मुराद वो करामात नहीं हैं जो ख़ुदावन्द मसीह और बाक़ी नबियों पर मुश्तमिल हैं। ऐसी दलीलों से ज़ात ईलाही पर दाअवा की तस्दीक़ मुहकम हरगिज़ ना हो सकेगी। पस मादर कलाम और सर बह्स ये सवाल है कि आया वो क़ुदरत जिससे इज़्हार मोअजज़ात व ख़्वारक़ आदात ख़ुदावन्द मसीह से रोज़ हुआ करता था, उस की माहीयत (असलियत) से ख़ारिज हो कर बाहर से उस को इफ़ाज़त और इनायत हुई या अंदरून से उस की ज़ात ही की अस्ल फ़अ़लियत थी। इस उम्र में आप ख़ुदावन्द की सादा और ख़ालिस गवाही पर ग़ौर करो। “लेकिन अगर मैं ख़ुदा की रूह की मदद से बदरूहों को निकालता हूँ तो ख़ुदा की बादशाही तुम्हारे पास आ पहुंची।” (मत्ती 12:28) इसी तरह से और इन्जीली मुसन्निफ़ीन और रसूल सिर्फ इसी बात पर ताकीद और तश्दीद नहीं करते कि ख़ुदावन्द मसीह ने शयातीन के मज़्लूमों और असीरों (क़ैदियों) को आज़ाद किया है, बल्कि इस बात पर कि उस ने इख़्तियार वाले हुकमरानों के मुवाफ़िक़ बादशाहाना इर्शाद फ़र्मा कर शयातीन को ज़ेरदस्त और मुतीअ़ किया। जिस बात पर मुद्दई होना हर किसी शख़्स का जो शहनशाह जहां ना था, सरासर बे मौक़ा और नाजायज़ होता। सिर्फ़ ख़ुदावन्द यसूअ मसीह की ऐन हक़ीक़त और रुतबा ला-मुतग़य्यर (बदला हुआ नहीं) था जिस अम्र पर मत्ती अपनी इन्जील में शाहिद है, “जब शाम हुई तो उस के पास बुहत से लोगों को लाए जिन में बदरूहें थीं। उस ने रूहों को ज़ुबान ही से कह कर निकाल दिया और सब बीमारों को अच्छा कर दिया। ताकि जो यसअयाह नबी की माअर्फ़त कहा गया था वो पूरा हो कि उस ने आप हमारी कमज़ोरियों ले लीं और बीमारियों उठा लीं।” (मत्ती 8:16,17) और लूक़ा की इन्जील की एक मशहूर मिसाल का मज़्मून उस शहादत से ऐन इत्तिफ़ाक़ रखता है, “जब ज़ोर-आवर आदमी हथियार बाँधे हुए अपनी हवेली की रखवाली करता है तो उस का माल महफ़ूज़ रहता है। लेकिन जब उस से कोई ज़ोर-आवर हमला करके उस पर ग़ालिब आता है तो उस के सब हथियार जिन पर उस का भरोसा था छीन लेता और उस का माल लूट कर बांट देता है।” (लूक़ा 11:21,22)

क़रीन-ए-कलाम से साफ़ व सरीह है कि वो हथियारबंद इब्लीस है और वो पहलवान ज़ोरावर तर वही पहलवान है जिससे मुख़ातब हो कर रूहुल-क़ुद्दुस ने बज़बान दाऊद फ़रमाया था,“ऐ ज़बरदस्त ! तू अपनी तल्वार को जो तेरी हशमत व शौकत है अपनी कमर से हमाइल कर।” (ज़बूर 45:3) यानी ख़ुदावन्द यसूअ मसीह है। चुनान्चे मौज़अ मज़्कूर में कातिबान व फ़रीसियान यहूद और ख़ुदावन्द मसीह के दर्मियान सर बह्स यही था कि ख़ुदावन्द मसीह किस की इमदाद और इक़तिदार से शयातीन को निकालता है। ऐ साहिबो इन साफ़ दलीलों से जो ख़ुदावन्द मसीह की क़ुदरत और किब्रीयत ईलाही पर मुस्तलज़्म हैं, कौन मोअतरिज़ साहब-ए-इंसाफ़ हैरान और सरासीमा ना होगा। कौन मुक़िर ना होगा कि दीन ईस्वी के अक़ाइद का सबूत निहायत क़वी और मुहकम और ग़ालिब है। पर ऐ साहिबो फ़त्ह और ग़लबा और नुसरत ले जाने से क्या पर्वा और क्या तसल्ली। रब तआला की ऐन हक़ीक़त की बाबत ये हुज्जत और बह्स है कि तुम्हारी ही जानें और तुम्हारे ख़वेश व अक़्रिबा की जानें कुल आलमीन के ख़ज़ानों के आगे बेश क़द्र और गिराँ-बहा जान कर ख़ुदावन्द मसीह ने अपने ही ख़ून के दामों से ख़रीद लीं। इन ख़ुदावन्द मसीह की ख़रीदी हुई जानों को आप जोखों में क्यों डालते हैं। इन जानों में से अगर एक भी जान इस रिसाले के ज़रीये से उस ज़ालिम की क़ैद और असीरी से आज़ाद हो कर नूर हक़ीक़त ख़ुदा में दाख़िल होगी तो मेरा अज्र और मूजिब शुक्र-ए-ख़ुदा की दरगाह में क्या ही बुज़ुर्ग होगा। काश हम सभों की आरज़ू मंदी और इंतिज़ारी ऐसी ही होती, जैसी लुथर साहब की थी। जिस वक़्त उस ने अस्हाब ख़िलाफ़ के साथ दीन की बड़ी सख़्त कुश्ती बाज़ी में अपनी जान का बड़ा ख़ौफ़ व ख़तरा खाकर यूँ फ़रमाया :-

“मार्टिन लूथर तो मर जाये, मगर ख़ुदावन्द मसीह जीता रहे। जब तक वो जीता मैं जीता रहता हूँ, जो शायद वो मरता तो मेरे जीते रहने से क्या हासिल।”

एक और अम्र में ख़ुदावन्द मसीह के मोअजज़ात नबियों और रसूलों के मोअजज़ात से इतनी तर्जीह और तक़दीम रखते थे, जितनी ख़ुदा की दस्तकारियों को इन्सान की दस्तकारियों की निस्बत हो। यानी इस अम्र में कि ना सिर्फ आप ही ने उनगश्त ईलाही से अजीब क़ुदरतें ज़ाहिर और नमूदार कीं, बल्कि ये हक़ और इख़्तियार भी रखता था कि औरों को भी इस ताक़त और क़ाबिलीयत से मौसूफ़ और मुशर्रफ़ करे। चुनान्चे हमने कई मर्तबा अस्हाब अनाजील से साफ़ व सही ख़बर इस बात की पाई है कि ना सिर्फ आप ही मोअजज़ात करने बल्कि औरों से कराने पर भी क़ादिर था। मसलन मत्ती की इन्जील में ये ख़बर है, “फिर उस ने अपने बारह शागिर्दों को पास बुलाकर उन को नापाक रूहों पर इख़्तियार बख़्शा कि उन को निकालें और हर तरह की बीमारी और हर तरह की कमज़ोरी को दूर करें।” (मत्ती 10:1) और बाअद-अज़ां कि वो फै़ज़रसानी बारह रसूलों पर हुई थी। सत्तर और शागिर्दों को बुलाकर और मुनादों के ओहदों पर तइयनात कर के उन्हें अपने फ़ैज़ की फ़रावानी से अस्हाब मोअजिज़ा होने का हक़ अता फ़रमाया और ये भी कहा, “जिस शहर में दाखिल हो। वहां के बीमारों को अच्छा करो और उन से कहो कि ख़ुदा की बादशाही तुम्हारे नज़्दीक आ पहुंची है।” (लूक़ा 10:8,9) “देखो मैं ने तुम को इख़्तियार दिया कि साँपों और बिच्छूओं को कुचलो और दुश्मन की सारी कुदरत पर ग़ालिब आओ और तुम को हरगिज़ किसी चीज़ से ज़रर ना पहुंचेगा।” (लूक़ा 10:19)

सब मोअतरिज़ों से मेरा सवाल ये है कि इन मोअजज़ों के करने और कराने की क़ुदरत ख़ुदावन्द मसीह के साथ मख़्सूस और मुक़य्यद थी या किसी दूसरे शख़्स के साथ भी मुश्तर्क थी। इस अम्र में बेताअस्सुबों और हक़ीक़त जो यूं कि सिर्फ एक जवाब हो सकता है कि इस ऐन क़ुदरत ईलाही के ज़हूर और सदूर में ख़ुदावन्द मसीह बेनज़ीर और बेमिसाल था। और फिर हम पूछते हैं कि इस बात में उस के बेनज़ीर होने का क्या सबब था? इस सवाल के जवाब में ख़ुदावन्द मसीह आप बड़ी सराहत से फ़रमाते हैं, “क्योंकि जिस तरह बाप मुर्दों को उठाता और ज़िंदा करता है उसी तरह बेटा भी जिन्हें चाहता है ज़िंदा करता है, क्योंकि जिस तरह बाप अपने आप में ज़िंदगी रखता है उसी तरह उस ने बेटे को भी ये बख़्शा कि अपने आप में ज़िंदगी रखे।” (युहन्ना 5:21,26) और इसी इन्जील में ख़ुदावन्द फ़रमाते हैं कि, “क़ियामत और ज़िंदगी तो मैं हूँ, जो मुझ पर ईमान लाता है गो वो मर जाये तो भी ज़िंदा रहेगा।” (युहन्ना 11:25) तो जब कि ख़ुदावन्द हयात की क़य्युमियत (क़य्यूम, क़ायम रहने वाला) बईना अपने में रखता है, बऐतबार उस इब्नीयत के कि अज़ाज़ल ता-अबद बे तग़य्युर रहती है, तो अफ़आल एजाज़ी की क़ुव्वत और लियाक़त इस तरह रसूलों को मर्हमत फ़रमाता है कि गोया चशमा हयात से शिफ़ा बख़्श नहरों को रवां कर के मौत की सल्तनत को घटाता है और फ़ैज़ फ़ज़्ल व महब्बत ईलाही की सल्तनत को बढ़ाता है। तआन्क़द्र कि ना सिर्फ अपने रसूलों को बल्कि उन के मुरीदों और ताबईन को भी इस क़ुदरत एजाज़ नुमा को अता फ़रमाता है। चुनान्चे ज़रा भी सोच व ग़ौर कर के मालूम होगा और बदाहत अक़्लीया से वाज़ेह कि किन-किन शख्सों से मुख़ातब हो कर ख़ुदावन्द ने मुख़्तलिफ़ ज़बानों के बोलने और शयातीन के निकालने और मोअजज़ात के दिखाने की लियाक़त और इस्तिदाद (सलाहियत) का वाअदा किया। यानी ना हर पुश्त के सारे इज्माअ़-मोमिनीन को ता आक़िबत बल्कि ख़ुसूसुन उन्हीं को वाअदा नसीब है जो ख़ुद ख़ुदावन्द मसीह के भेजे हुए रसूल और कलीसिया की बिना डालने की ख़िदमत पर मुवक्किल हुए। पर जिन्हें ख़ुदावन्द मसीह ने तो नहीं, बल्कि उस के रसूलों ने कलीसिया की ओहदेदारी पर वक़्फ़ व तक़्दीस किया और बशीरों और मुनादों की ख़िदमत पर सर्फ़राज़ किया, उन के मुरीदों के वास्ते कोई ऐसा क़ौल व क़रार ख़ुदावन्द की ज़बान मुबारक से नहीं निकला। आइन्दा जो बशारत व मुनादी के काम पर भेजे गए हर-चंद कि ख़ुदावन्द मसीह ने अपनी रूह-क़ुद्दुस की माअर्फ़त उऩ्हें औसाफ़ और इस्तिदाद (सलाहियत) ज़रूरी से आरास्ता पैरास्ता किया, पर ज़ाहिरन उनका भेजने वाला ख़ुद ख़ुदावन्द मसीह ना था, बल्कि अज़ राह वकालत उस के इज्माअ़-मोमिनीन अपने पेशवाओं के तवस्सुत से भेजने वाले थे। बमूजब क़ौल पोलुस रसूल के, “अगर हमारे भाईयों की बाबत पूछा जाये तो वो कलीसियाओं के क़ासिद और मसीह का जलाल हैं।” (2 कुरंथियो 8:23)फ़िर उस क़य्युमीयत हयात के साथ क़ुव्वत ख़ल्क़त भी बईना मुल्हिक़ और मुक़ारिन है, तो मोअजज़ात का ख़्वाह करना ख़्वाह कराना क्या मुहाल और मुश्किल था उस के लिए जो आप ही ऐन-हयात था और अपने अस्ल वजूद में ख़ालक़ीयत और राज़क़ियत की सिफ़ात रखता था। इस अम्र पर बहुत सी नक़्ली दलीलों को गुज़ारने की क्या ज़रूरत, दर हालिका मौलवी साहब आप इक़रार करेंगे कि ये सिफ़तें बकमाल तसरीह व तक़र्रुर अनाजील और ख़ुतूत मुक़द्दस में ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ इतलाक़ की जाती हैं, मसअला कुलस्सियों के ख़त में साफ़ मशहूद है, “क्योंकि उसी में सब चीज़ें पैदा की गईं, आस्मान की हों या ज़मीन की, देखी हों या अनदेखी, तख़्त हों या रियासतें या हुकूमतें या इख़्तयारात। सब चीज़ें उसी के वसीले से और उसी के वास्ते पैदा हुई हैं, और वो सब चीज़ों से पहले है और उसी में सब चीज़ें क़ाइम रहती हैं।” (कुलस्सियों 1:16,17)और जैसा आलम की आफ़रीनश अव्वल वैसी ही ख़ल्क़त सानी और जदीद जो नव-पैदाइश भी कहलाती है और तरह-तरह की और इस्तिलाहात से माअरूफ़ है, वो भी ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ मुजरदन मन्सूब है, जैसा कुरिंथिस की कलीसिया के नाम दूसरे ख़त में मर्क़ूम है, “इसलिए अगर कोई मसीह में है तो वो नया मख़्लूक़ है। पुरानी चीज़ें जाती रहीं, देखो वो नई हो गईं।” (2 कुरंथियो 5:17)

और अगर किसी साहब की ख़्वाहिश हो कि बह तसरीह तमाम मालूम करे कि कौन-सी और कैसी वो पुरानी इन्सानियत की मौत और नेस्ती है जो ख़ुदावन्द मसीह की सलीब की मुक़व्वी तासीरों से होती है और कैसी वो नई इन्सानियत की पैदाइश है जो ख़ुदावन्द मसीह की क़ियामत की क़ुदरत वाली फ़अलियत से हासिल होती है। तो वो पौलुस रसूल के रोमीयों की कलीसिया के नाम ख़त के बाब 6 में उस का पूरा और मुफ़स्सिल बयान पढ़े। पस ज़रूर रूह ख़ुदा की तौफ़ीक़ से बहुत तसल्ली और फ़हमीदा और दिलजमई उस भारी मसअले की बाबत नसीब होगी और मूजिब शुक्र व हम्द होगा और ज़्यादा ये भी है कि हर तालिब हक़ उस नव पैदाइश और ख़ल्क़त जदीद का तजुर्बाकार हो सकता है। चुनान्चे रसूल मज़्कूर बड़ी दिल सोज़ी से ये दावत और नसीहत रब-उल-आलमीन की तरफ़ से हर आदमजा़द को पहुँचाता है, “और नई इन्सानीयत को पहन लिया है जो माअर्फ़त हासिल करने के लिए अपने ख़ालिक़ की सूरत पर नई बनती जाती है। वहां ना यूनानी रहा ना यहूदी, ना ख़तना ना नामख़्तूनी, ना वहशी ना सकूती, ना ग़ुलाम ना आज़ाद, सिर्फ मसीह सब कुछ और सब में है।” (कुलस्सियों 3:10,11) और देखो कि युहन्ना रसूल अपने पहले ख़त के आख़िरी बाब में अपनी सारी ताअलीमात को इस अस्ल ताअ़लीम में मुन्तहा बताकर फ़रमाता है, “हम जानते हैं कि हम ख़ुदा से हैं और सारी दुनिया उस शरीर के क़ब्ज़े में पड़ी हुई है। और ये भी जानते हैं कि ख़ुदा का बेटा आ गया है और उस ने हमें समझ बख़्शी है ताकि उस को जो हक़ीक़ी है जानें और हम उस में जो हक़ीक़ी है यानी उस के बेटे यसूअ मसीह में हैं। हक़ीक़ी ख़ुदा और हमेशा की ज़िंदगी यही है।” (1 युहन्ना 5:19,20)और इसी ताअ़लीम पर मुन्हसिर वो दलील है जिससे रसूल इब्रानियों के ख़त में ख़ुदावन्द मसीह की कहानत की इस्तिदामत (ख़्वाहिश) और कमालियत की तस्दीक़ करता है। चुनान्चे उस हुज्जत का अस्ल मज़्मून ये है कि वो कहानत मसीही और जितने फ़वाइद और फ़ज़ाइल उस से हासिल होते हैं यानी उस का कफ़्फ़ारा होना और बदर्जा कमाल दुखीयों के साथ हम्दर्द होना और अज़राह इमामत ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की दुआओं और सवालों को पहुंचाना और शफ़ाअ़त व सिफ़ारिश करना सब उस की हयात बाक़ी और लाज़वाल और मुम्तनअ़-उल-इन्हलाल होने पर मौक़ूफ़ हैं। यानी इस अम्र पर कि अल्लाह तआला का इब्ने वाहिद व महबूब अज़-अज़ल ता अबद लाजीम-उल-वजूद है, ना इब्तदा-ए-अय्याम, ना इंतिहाए हयात रखता है। चुनान्चे (इब्रानियों 7:5)और आइन्दा आयतों में इस राज़ की मिसाल व शुब्ह जो बादशाह क़दीम मलिक सिदक़ में दिखाई दी, सराहतन बयान होती है।

फिर एक और अम्र पर ग़ौरो-फ़िक्र करना चाहीए कि वो ख़ुदावन्द मसीह के साथ सरासर मख़्सूस था, बल्कि उस के मोअजज़ात का सर और ग़ायत निहायत था और वो ख़ुदावन्द का मोअजिज़ा इस क़द्र बेमिसाल और बेनज़ीर था कि कोई फ़रिश्ता भी मअ़-हज़ा (इलावा बरीं साथ इस के) कि अक़्रब-उल-मुक़र्रीबीन होता और कोई नबी भी हर-चंद कि बफ़र्ज़ मुहाल ख़ातिम-उन-नबीय्यीन होता, इतनी जुर्रत ना करता कि ऐसी नादिर ख़रक़-ए-आदत पर दावा करता, यानी ख़ुदावन्द मसीह अपने वजूद इन्सानी की निस्बत मौत का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हो कर अपनी क़ुदरत ईलाही से फिर मुर्दों में से जी उठा। इस अम्र की बाबत ख़ुदावन्द मसीह ही की साफ़ तक़रीर सुनो, जिसे युहन्ना रसूल ने ख़ुदावन्द मसीह की ज़बान से क़ुबूल कर के हवाला क़लम किया है, “बाप मुझसे इसलिए मुहब्बत रखता है कि मैं अपनी जान देता हूँ ताकि उसे फिर ले लूं। कोई उसे मुझसे छीनता नहीं बल्कि मैं उसे आप ही देता हूँ। मुझे उस के देने का भी इख़्तियार है और उसे फिर लेने का भी इख़्तियार है। ये हुक्म मेरे बाप से मुझे मिला।” (युहन्ना 10:17,18) और मुक़ामात मुतअद्दह में रुसल मुक़द्दस ताकीद और ताईद तमाम से इस बात पर शाहिद हैं कि हर-चंद ख़ुदावन्द बहस्ब ज़ाहिरी और ख़ारिजी सूरत के मुहक़्क़िर और ख़वार और ख़ताकारों में मह्सूब और मुलज़म था, तो भी फ़िल-हक़ीक़त बइख़्तयार व कुदरत शाहाना मस्लूब होते वक़्त भी लवाज़िम कहानत को अदा व वफ़ा फ़रमाता था। लेकिन उन नक़लियात में से बिल-फ़अल दो ही इस अम्र की तस्दीक़ पर काफ़ी व वाफ़ी होंगे। पहली इब्रानियों के ख़त से मुंतख़ब है “चुनान्चे ऐसा ही सरदार काहिन हमारे लाइक भी था जो पाक और बेरिया और बेदाग़ हो और गुनाहगारों से जुदा और आस्मानों से बुलंद किया गया हो। और उन सरदार काहिनों की मानिंद उस का मुहताज ना हो कि हर रोज़ पहले अपने गुनाहों और फिर उम्मत के गुनाहों के वास्ते कुर्बानियां चढ़ाए क्योंकि इसे वो एक ही बार कर गुज़रा जिस वक़्त अपने आपको कुर्बान किया।” (इब्रानियों 7:26,27) और उस के मुवाफ़िक़ एक और भारी कलिमा कुलस्सियों के ख़त में मर्क़ूम है,“और हुक्मों की वो दस्तावेज़ मिटा डाली जो हमारे नाम पर और हमारे खिलाफ थी और उस को सलीब पर कीलों से जड़ कर सामने से हटा दिया। उस ने हुकूमतों और इख़्तयारों को अपने ऊपर से उतार कर उनका बरमला तमाशा बनाया और सलीब के सबब से उन पर फ़त्हयाबी का शादियाना बजाया।” (कुलस्सियों 2:14,15)

सच तो ये है कि और बहुत से मवाज़ेअ़ हैं जिनमें ख़ुदावन्द मसीह के मुर्दों में से मबऊस होने की क़ुदरत ख़ुद ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ नहीं, बल्कि रब-उल-आलमीन यानी ख़ुदा बाप की तरफ़ और उस की रूह क़ुद्दुस की तरफ़ मन्सूब है और फ़ील-तहक़ीक़ ये बात ख़ुदा तआला की पाक वहदानियत के इसरार ग़ैब में से है और उन तअय्यिनात और तफ़ाज़ील में से है जो उस पाक ज़ात के उमुक़ में मख़्फ़ी (छिपी) हैं, जिनका राज़ और रम्ज़ युहन्ना रसूल की मुख़्तलिफ़ आयतों में मशारु इलयह है, मसलन “यसूअ ने उन से कहा मैं तुम से सच कहता हूँ कि बेटा आपसे कुछ नहीं कर सकता सिवा उस के जो बाप को करते देखता है क्योंकि जिन कामों को वो करता है उन्हें बेटा भी इसी तरह करता है।” (युहन्ना 5:19) ये उस नादिर और बेमिसाल इब्नीयत के हुक़ूक़ और लवाज़मात से है, जिसकी ना इब्तिदा थी ना इन्तिहा होगी और जिसके रूबरू इन्सान की अक़्ल नज़रिया जब बारीक-बीनी और फ़िरासत में भी सबक़त ले जाये, तब भी हैरान और ख़ामोश और आजिज़ खड़ी रहती है। हाँ बल्कि अपनी कोताहबीनी और जहालत के शऊर से शर्म के मारे मुँह ख़ाक-आलूदा कर के अपने आपको मकरूह जानती है तो बिला-शक वो शख़्स निहायत तास्सुब और ग़ायत नादानी का मुल्ज़िम होगा जो उस दरोग़ और बातिल तक़रीर को मन्ज़ूर करे, जिसे बाअज़ मौलवी साहिबों ने दीन बरहक़ को मअयूब (एब वाला) और मज़मूम ठहराने के लिए कमाल लाफ़ ज़नी और इफ़्तिख़ार से गुज़राना है कि तस्लीस का अक़ीदा अक़ाइद ईस्वी का अस्ल मब्दा और मंशा और मख़रज है। हालाँकि वो दीन की ऐन इंतिहा है और उस के उसूल अव्वल से ताअलीम फ़रुईयह और ज़रूरी नतीजों की राह से मुश्तक़ है और तहक़ीक़ तस्लीस पाक व मबारक की ताअलीम दीन बरहक़ के अबजद के दर्स में नहीं आती, पर उस के इसरारों की ग़ायत है। बाद अज़ आंकि कोई साहिब-ए-ईमान कुल्लियतन ख़ुदा तआला की उन तजावीज़ और तदाबीर से वाक़िफ़ और आश्ना हो जाएगी जो आलम ज़ाद की सेहत व लामत के लिए मुतअय्यन व मयस्सर हुई हैं और उन की वुसअत व तवालत व अ़लवियत का कुछ शऊर हक़ीक़ी नसीब हो जाए, तब इसरार ग़ैब ईलाही के उस क़ल्ब (दिल) व बातिन और गोया क़अ़र (गहराई) दरिया में जो तस्लीस फ़ील-तौहीद कहलाता है, बशर्त सफ़ाई और पाक दिली के मुदाख़िलत करने की उम्मीद पर क़ादिर होगा।

एक और भारी मसअला का भी जवाब इज्माली चाहीए कि ख़ुदावन्द मसीह की ख़िदमत और ओहदे की क्या और कैसी निस्बत व ताल्लुक़ है, इस आलम-ए-फ़ानी की हालत मौजूद की तसहीह और इस्लाह के साथ। यानी उस के नुक़्सों और क़ुसूरों के पूरा करने और उस के दुखों और हाजतों के रफ़अ़ करने का किस क़द्र ज़िम्मेदार है और किस क़द्र उस के बोझों के तहम्मुल पर क़ादिर है। इस सवाल का जवाब ख़ुदावन्द मसीह और उस के रसूलों ने बहुत साफ़ दिया है और इस अम्र में तआंक़द्र ख़ुदावन्द मसीह ने इख़्तियार और इक़्तिदार मुतलक़ का दाअवा किया कि वो सरासर उलुहियत और माअबूदियत पर मुस्तलज़्म है। चाहे शैतान की हीलाबाज़ी और ज़ुल्म और वस्वसों का ज़िक्र हो, चाहे उस कुश्ती का जो नफ़्स व गुनाह और इस आलमे फ़ानी के लज़ाइज़ व नफ़ाइस व इशरत व शहवत के साथ करनी होती है, चाहे फ़िक्र व तर्दिद और दर्द व अलम का ज़िक्र हो, चाहे उस ईज़ा और लअ़न व तअ़न व मज़ाह का जो अस्हाब ख़िलाफ़ व बुग़्ज़ से है, चाहे उस आख़िरी दुश्मन का जो मौत है, ज़िक्र हो। वो उन सभों की तख़्फ़ीफ़ और तश्फ़ी या पूरी ख़लासी और रिहाई का क़ौल व क़रार देता है। ना हर शख़्स को जो सिर्फ उस के नाम का लेने वाला और कलाम का पढ़ने वाला और मुनादी करने वाला है, बल्कि हर क़ौम के हर शख़्स को जो ख़ुदा तआला की मर्ज़ी पर अपनी ख़्वाहिश और मर्ज़ी को क़ुर्बान करता और उस के फ़ज़्ल के वो ख़ास और ओहदा ज़हूर जो उस के इब्ने वहीद में हैं, बदल व जान मन्ज़ूर करता है और वह अपने चश्मा हयात से हर सूरत की मौत को नेस्त करने का वाअ़दा भी बख़्शता है। मसलन (यसअयाह 55:1) में ख़ुदावन्द क्या ही ख़ालिस सरीह बातों में इस दुनिया के सब प्यासों और हाजतमंदों से मुख़ातब हो कर पूरी आसूदगी और फै़ज़-रसी और दौलत फ़ज़ाइल व नफ़ाइस रुहानी के तयक़्क़ुन से दिलों को निहाल करता है और ख़ुदावन्द मसीह उसी बाब का अस्ल मज़्मून अपनी तरफ़ मन्सूब कर के युहन्ना रसूल की इन्जील में यूं फ़रमाता है, “अगर कोई प्यासा हो तो मेरे पास आकर पिए।” (युहन्ना 7:37)और दूसरी आयत में इस वाअ़दे की वुसअत और गुंजाइश और भी ज़्यादा बढ़ाकर फ़रमाता है, “जो मुझ पर ईमान लाएगा उस के अंदर से जैसा कि किताब-ए-मुक़द्दस में आया है ज़िंदगी के पानी की नदियाँ जारी होंगी।” (युहन्ना 7:38)और इन आयतों में बहुत सी मुवाफ़िक़त और मसलियत है, इस मशहूर आयत से जिससे लाखों करोड़ों लोगों ने इस आलम के शदाइद और तक़्लीफों और तल्ख़ियों और तरद्दुदों और जुँबिशों के बीच पूरी तसल्ली और तस्कीन पाई है, “ऐ मेहनत उठाने वालो और बोझ से दबे हुए लोगो सब मेरे पास आओ, मैं तुम को आराम दूंगा।” (मत्ती 11:28) और मुजम्मलन हम वाजिबन कह सकते हैं कि आदम जादों के साथ जितनी-जितनी निस्बतों और ताल्लुक़ात पर ख़ुदावन्द मसीह आप दावा करता है या रसूलों ने उन्हें उस की तरफ़ महमूल किया है, उन सब ताल्लुक़ात से उस की अज़ली कलिमियत और क़ुदरत रब्बानी लाज़िम आती है, मसलन उस वज़नी और दिलचस्प क़ौल से जो युहन्ना की इन्जील में मर्क़ूम है, “क्योंकि ख़ुदा की रोटी वो है जो आस्मान से उतर कर दुनिया को ज़िंदगी बख़्शती है।” (युहन्ना 6:33) और मुत्तफ़िक़ इस मज़्मून से (इब्रानियों 2:14,15) आयतें हैं “पस जिस सूरत में कि लड़के ख़ून और गोश्त में शरीक हैं तो वो ख़ूद भी उन की तरह उन में शरीक हुआ ताकि मौत के वसीले से उस को जिसे मौत पर कुदरत हासिल थी यानी इब्लीस को तबाह कर दे। और जो उम्र भर मौत के डर से ग़ुलामी में गिरफ्तार रहे उन्हें छुड़ा ले।” पस जिसकी क़ुदरत और फ़अ़लियत और तक़वियत और तहम्मुल पर सब आदम का मआश व मुआद के लिए भरोसा और तवक़्क़ो मुन्हसिर है, कौन शख़्स उस की ज़ात ईलाही से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) और इन्कार कर के ख़ुदा के ग़ज़ब से अमन व अमान में रह सके। चूँकि शर्र व शद्द की जितनी नाबूदी और ख़ैर व ख़ूब की जितनी फ़य्याज़ी ख़ुदावन्द मसीह की तरफ़ से हमें दस्तयाब होती है, सब ख़ुदा की मर्ज़ी और मह्ज़ फ़ज़्ल और उस की मश्वरत और क़ज़ा व क़द्र की तरफ़ इतलाक़ की जाती हैं, तो वाही हुज्जतें और मुबाहसात ऐसी बालिग़ा दलीलों और मुहकम मुक़व्वी तक़र्रुरों के मुक़ाबिल किस क़द्र और किस वज़न के हैं। क्या आप जानते हैं कि ऐसे सुबुक और ख़फ़ीफ़ तार अन्कबूत (मकड़ी) उस क़ह्हार ज़वी-उल-इंतिकाम के ग़ज़ब के दरयाए मव्वाज से पनाह दे सकते हैं जो ख़ुदा तआला ऐसा सही और सलीम ख़ौफ़ आपके दिलों में डाले कि आप ख़ुदावन्द मसीह की बरहक़ और कामिल उलुहियत और ख़ुदावन्द यसूअ मसीह की पूरी इन्सानियत के मेल-मिलाप के राज़ पर लिहाज़ कर के कि एक से दूसरे में ज़रा भी ख़लल और नुक़्स नहीं आता। ख़ूब इस उम्र को समझ लें कि उन दो ज़ातों के ओज़ान और ख़वास अज़ अज़लता अबद ना मख़्लूत व मुतफ़र्रिक़ रहते हैं। मअ़हज़ा वह ऐसे क़रीब रिश्ते राब्ते से बाहम वाबस्ता और चस्पीदा हैं (जिस दिन से वो कलिमा मुजस्सम हो कर हमारे आलम मख़्लूक़ के बीच साकिन हो गया) कि उन की जुदाई व फ़िराक़ या अ़मल या क़सद बमुश्किल क़ियास में आ सकता है।

ये मसअला भी बाइस हुज्जत व बहस हो जाता है कि ख़ुदावन्द मसीह का ताल्लुक़ गुनाह की बख़्शिश और अताए ख़ता के साथ और उस के जोर व जफ़ा पर ग़लबा और क़ाबू देने के साथ कौन और किस क़द्र का है। इन्जीलों से मालूम होता है कि यहूदीयों ने गुनाह का बख़्शना और अता फ़रमाना मुतल्लिक़न ख़ुदा का कारख़ाना जाना और कि ग़ैर अज़ ख़ुदा हर शख़्स कि इस इख़्तियार अली-उल-इत्लाक़ पर दावेदार था, उन की दानिस्त में ऐन काफ़िर था और वो इन्जीली भी आप इस अम्र के मुक़र और मोअतरिफ़ थे और तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा उस इक़रार पर सरासर मुत्तफ़िक़ होगी कि गुनाह की बख़्शिश ख़ुदा के साथ मख़्सूस है और जिस तरह गुज़श्ता और माज़िया गुनाह की बख़्शिश, इसी तरह हाल व इस्तिक़बाल के गुनाह का दबा डालना और जड़ से उखाड़ना मह्ज़ ख़ुदा की फ़अलियत मुजर्रिद और सनअ़त ला शरीक है। पर तो भी इन्जीली मुसन्निफ़ीन और सब रसूल वो दावा ख़ुदावन्द मसीह का बरहक़ और मोअतमिद और सादिक़, बल्कि मूजिब शुक्र व हम्द जानते और बताते थे, जो वो बारहा फ़रमाता था कि मैं ख़ता को अता करने पर क़ादिर हूँ और ये मेरा हक़ बे रद्द व बदल है और उस की शिकस्त व तसख़ीर और उस को मग़्लूब करना मेरे क़ाबू और इख़्तियार में है।

कुतुब इन्जीली के जितने मुअल्लिफ़ हैं सभों ने दीन और ईमान की यही बुनियाद डाली। आन्क़द्र कि अगर कोई शख़्स सच्चे ईमान और हक़ीक़ी इबादत की कोई और बुनियाद डालनी चाहे तो कलाम-ए-ख़ुदा के बमूजब उस की बे-हूदगी और हिमाक़त उस मेअमार की मानिंद है जो कहे कि घर की तामीर ना बुनियाद डालने से, बल्कि छत बनाने से शुरू करनी वाजिब है। बेशुमार शहादतें इस ताअलीम पर हैं जिन्हें तफ़्सील-वार नक़्ल करना मूजिब तवालत होगा। सिर्फ दो एक का बतौर नमूना जात के नक़्ल करना, सलाह है। युहन्ना रसूल अपने पहले ख़त में यूं फ़रमाता है,“अगर कोई गुनाह करे तो बाप के पास हमारा एक मददगार मौजूद है यानी यसूअ मसीह रास्तबाज़, और वो ही हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा है और ना सिर्फ हमारे ही गुनाहों का बल्कि तमाम दुनिया के गुनाहों का भी।” (1 युहन्ना 2:1,2)

उसी रूहुल-क़ुद्दुस के इल्हाम से पोलुस रसूल के इब्रानियों के नाम ख़त में ये क़ौल हवाला क़लम है, , “मगर अब ज़मानों के आखिर में एक बार ज़ाहिर हुआ ताकि अपने आपको कुर्बान करने से गुनाह को मिटा दे।” (इब्रानियों 9:26) और पतरस रसूल ने रूह के इल्हाम से ये क़ौल ईलाही हमें सुनाया है कि, “इसलिए कि मसीह ने भी यानी रास्तबाज़ ने नारास्तों के लिए गुनाहों के बाइस एक-बार दुख उठाया ताकि हमको ख़ुदा के पास पुहंचाए। वो जिस्म के ऐतबार से तो मारा गया लेकिन रूह के ऐतबार से ज़िंदा किया गया।” (1 पतरस 3:18) अफ़्सोस है कि मौलवी साहिबान अपने बहुत मुक़्तदियाँ अज़-अहले मुहम्मद समेत ख़ुदावन्द के ज़बिहे और क़ुर्बान होने की उस ख़ास सूरत और तरीक़े पर बिलानागा तम्सख़र और ठिठोलीयां करते हैं, पर तो भी नबियों और रसूलों की और आप ख़ुदावन्द की ये साफ़ मुत्तफ़िक़ गवाही उन के टालने से नहीं टलती कि ख़ुदा की क़ज़ा व क़दर और मशीयत किसी दूसरी तरह से अमल में नहीं आ सकती थी। चुनान्चे उस की मर्ज़ी थी कि उस का कलमा-ए-रब्बानी जो उस का इब्ने वहीद है, ग़ायत जलाल से निहायत ख्वारी व ज़िल्लत तक पस्त हो जाए। हाँ तख़्त मालिकियत से अबदीयत और गु़लामी की ख़ाक-नशीनी तक झुक कर और मुहताजों में मुहताज हो कर उन्हें जो आपसे आप ख़ुदा तआला के क़रीब नहीं आ सकते थे, अपने साथ पैवंद कर के उस ख़ाक व ग़ुबार से तख़्त जलाल को सर्फ़राज़ करे। इसलिए ख़ुदावन्द मसीह ने अपने ही जिस्म इन्सानी के साथ अपनी कलिमियत अज़ली और नूरानी वाबस्ता कर के उस काहिन कामिल और मजमुअ़-अल-फ़ज़ाइल और गुनाह से मुबर्रा का नमूना दिखाया। जिसकी मुशाबहत ख़ाम व नाक़िस हज़रत हारून और उस के ख़लीफों में ज़ाहिर होती चली आई थी और उस में वो बर्रा बेऐब व बेदाग़ और साफ़ व सफ़ेद नज़र आया, जिसकी तौरेत मूसवी के ज़बाइह की गुज़रानने वाली ख़ल्क़ ज़मान दर ज़मान इंतिज़ारी करती थी और जिसको अपने हर एक ज़बीहा में बर सबील पेश ख़बरी के हाज़िरीन के रूबरू दिखाया करती थी।

फिर ग़ौर के लायक़ एक और अम्र है जिसका ज़िक्र व बयान फ़स्ल बाला में दरपेश आया था और वो रसूलों की मशहूर ताअलीमात में से है कि जिस तरह ख़ुदा की अव्वल ख़ल्क़त की इब्तिदा मसीह था कि गोया सब आलमों की मख़्लूक़ात के अयान उसी में मौजूद थे और उस के ज़रीये से आलम-ए-शुहूद में आ गए, इसी तरह ख़ल्क़त जदीद और विलादत सानी उसी में और उस के ज़रीये से वक़ूअ में आई और इस हयात रुहानी का बचाने वाला और बढ़ाने वाला वही है। अज़-आनरो कि पुरानी इन्सानियत को अपनी ही मौत में शामिल करता और अपने ही ज़ब्ह और मक़्तूल होने में उस की हर सूरत की बातिनी और ज़ाहिरी शरारत और नफ़्स-ए-अम्मारा को उस की बुरी रग़बतों समेत मक़्तूल व मग़लूब करता और अपनी बर्ख़ास्त और क़ियामत अज़ मुर्दगान में भी उन्हें आन्क़द्र रफ़ीक़ व शरीक कर देता है कि उन की हयात बासला ताज़ा व जदीद बन कर ख़ालिक़ की पाक सूरत में अज सर-ए-नव-मख़्लूक़ हो जाती है, जिससे ये राज़ निकला कि ख़ुदावन्द मसीह अज़ीज़ सब हक़ीक़ी मोमिनों का वारिस होता है और आप भी उन की मीरास है और यक़ीनन जिसने ये मीरास पाई है, निहायत बेशक़ीमत खज़ाने का मालिक है, क्योंकि ख़ुदावन्द मसीह अपने सब दिली दोस्तों और पैरौं को जो अहले क़ुद्दुसियत और ईमान हैं अपने ही दुख-दर्द के सवाब और अपने आमाल व फ़ज़ाइल में और आख़िरश अपनी जान व जलाल में शामिल कर लेता है।

साहिबो अगर ज़रा सा ताअम्मुल और सोच करोगे और हक़ीक़त-ए-हाल पर बनज़र तमीज़ व इन्साफ़ देख कर फ़त्वा दोगे तो इक़रार करोगे कि ये नेअमतें और क़ुव्वतें जिनकी माअर्फ़त वो शख़्स जो अभी शैतान का ऐन सैद व शिकार था, उस के क़ाबू और क़ब्ज़े से छोटा और उस की क़ैद तोड़कर और सख़्त जो पैर तले कुचल कर ख़ुदा की ख़िदमत और अबदीयत के लिए आज़ाद निकला है। अज़ आनरो कि ख़ुदावन्द मसीह की मौत माज़िया और हयात हाल और आइन्दा जलाल की उम्मीद क़वी में शामिल हो कर गुनाह की निस्बत मरा है, पर ख़ुदा की निस्बत ज़िंदा है। ये सब ज़रूर ख़ुदावन्द मसीह की रबुनियत और मअ़बूदियत पर दाल और मुस्तलज़्म हैं।

एक और ज़रूरी सवाल इन मसअलों के शुमार में दर्ज करना चाहिए कि ख़ुदावन्द मसीह का ताल्लुक़ कुल आलम की आक़िबत से, बल्कि हमारी तुम्हारी आक़िबत के साथ क्या होगा। पहली सनदों और दलीलों से मालूम हुआ कि आलम नफ़्सानियात से आलम रूहानियत में लाना और गुनाह के मक़्तूलों और शैतान के मज़्लूमों को ज़िंदा और वारिस बहिश्त बल्कि वारिस ख़ुदा करना, सिर्फ ख़ुदावन्द मसीह का काम है, किसी दूसरे की इस ख़िदमत में ज़रा भी शिर्कत नहीं। इसी फ़िलहाल की क़ियामत के हक़ में ख़ुदावन्द मसीह ने आयत मज़्कूर बाला में फ़रमाया था, “मैं तुम से सच कहता हूँ कि वो वक़्त आता है बल्कि अभी है कि मुर्दे ख़ुदा के बेटे की आवाज़ सुनेंगे और जो सुनेंगे वो जिएँगे।” (युहन्ना 5:25) इस आयत में ज़ाहिरन अव्वल मौत और अव्वल क़ियामत का ज़िक्र है। फिर उन आयतों में जो इसी बाब में आयत मज़्कूर के मुक़ारिन हैं, दूसरी हयात और दूसरी मौत से इशारा है और ख़ुदावन्द मसीह का क़रीब और ज़रूरी ताल्लुक़ उस आक़िबत के साथ नुमायां व मुबय्यन होता है, “इस से ताज्जुब ना करो क्योंकि वो वक़्त आता है कि जितने क़ब्रों में हैं उस की आवाज़ सुनेंगे। और निकलेंगे जिन्हों ने नेकी की है ज़िंदगी की क़ियामत के वास्ते और जिन्हों ने बदी की है सज़ा की क़ियामत के वास्ते।” (युहन्ना 5:28,29) और अगर कोई शख़्स इस बात में शक व शुब्ह कर के सवाल करे कि आया इस ताल्लुक़ के अहाते में कुल आलम के सब अक़्वाम और क़बाइल और मज़ाहिब शामिल होते हैं या शायद एक ख़ास उम्मत और अस्ल नस्ल? तो जवाब इस सवाल का और हक़ीक़त-ए-हाल की हुज्जत-ए-बालिग़ा युहन्ना रसूल के इन्जीली बयान में मन्क़ूल है, “चुनांचे तू ने उसे (यानी इब्ने ख़ुदा को) हर बशर पर इख़्तियार दिया है ताकि जिन्हें तू ने उसे बख़्शा है उन सबको हमेशा की ज़िंदगी दे।” (युहन्ना 17:2) और इन्जील मत्ती में यूं मर्क़ूम है :- “जब इब्न-ए-आदम अपने जलाल में आएगा और सब पाक फ़रिश्ते उस के साथ आएँगे तब वो अपने जलाल के तख़्त पर बैठेगा। और सब कौमें उस के सामने जमा की जाएँगी और वो एक को दूसरे से जुदा करेगा जैसे चरवाहा भेड़ों को बकरीयों से जुदा करता है।” (मत्ती 25:31,32)और मुकाशफ़ा की किताब के 20 वें बाब की आख़िरी आयतों में उसी मुस्नद मसीही की निहायत हैबतनाक ख़बर बयान की जाती है, “फिर मैं ने एक बड़ा सफ़ैद तख़्त और उस को जो उस पर बैठा हुआ था देखा जिस के सामने से ज़मीन और आस्मान भाग गए और उन्हें कहीं जगह ना मिली। फिर मैं ने छोटे बड़े सब मुर्दों को ख़ुदा के तख़्त के सामने खड़े हुए देखा और किताबें खोली गईं। फिर एक और किताब खोली गई यानी किताब-ए-हयात और जिस तरह उन किताबों में लिखा हुआ था उन के अमाल के मुताबिक मुर्दों का इंसाफ़ किया गया। और समुंद्र ने अपने अंदर के मुर्दों को दे दिया और मौत और आलम-अर्वाह ने अपने अंदर के मुर्दों को दे दिया और उन में से हर एक के अ़माल के मुवाफ़िक़ उस का इंसाफ़ किया गया। फिर मौत और आलम-अर्वाह आग की झील में डाले गए। ये आग की झील दूसरी मौत है। और जिस किसी का नाम किताब-ए-हयात में लिखा हुआ ना मिला वो आग की झील में डाला गया।” (मुकाशफ़ा 20:11-15)

ऐ साहिबो ये साफ़ व सरीह शहादतें क्या वफ़क़ व तताबुक़ रखती हैं, आप लोगों के नबी साहब की बाअज़ रिवायतों और हदीसों से, मसलन उस हदीस से जिसमें ये मज़्मून दर्ज है :-

’’وَلاُٰ خِرَۃُ الثَّالِثَہۃُ لِیومٍ یَرغَبُ اِلَیَّ الخَلقُ کُلُّہُم حَتَّی اِبَراہِیمُ صَلَّی اللّٰہ عَلَیہِ‘‘ वग़ैरह।

जिसकी एक शारह ने ये शरह की है कि, “तीसरा सवाल क़ियामत के दिन के वास्ते रख छोड़ा कि जब तमाम पैग़म्बर ख़ौफ़नाक होंगे और किसी के वास्ते कुछ ना कह सकेंगे, तब हमारे हज़रत शफ़ाअत पर मुस्तइद होंगे।” मालूम हुआ कि क़ियामत में पैग़म्बर लोग भी हज़रत से अपने वास्ते कुछ सई सिफ़ारिश चाहेंगे। यहां तक कि इब्राहिम से पैग़म्बर भी दामन मुहम्मद ﷺ पकड़ेंगे। और मज़्कूर बाला शहादतें क्या ही इत्तिफ़ाक़ रखती हैं, उस क़िस्से मेअ़राज मुहम्मदी से भी यानी उस हदीस से जिसमें मुहम्मदﷺ के उस सऊद मज़ऊम और हफ़्त समावात में सैर करने की रिवायत मिलती है :-

’’ثُمَّ صَعَدَ بِی حَتّٰی اَلَیّ السَّماءُ الثانِیَہۃ ُ فَاستَفتَح فَلَمّاَ خَلَصتُ اِذَا یَحییٰ وَعیِسیٰ فَسَلّمتُ فَرداً वग़ैरह। देखो साहिबो वो ख़ुदावन्द जो ख़ुदा बाप की मर्ज़ी और अपनी अस्ली कलिमियत और इब्नीयत की हक़ीक़त से ज़मीन और आस्मान का मालिक और ख़ालिक़ और मुंसिफ़-उल-आलमीन है किस क़द्र अपने तख़्त जलाल से उतार दिया गया और माअबूद-आलमीन होने की जगह क़रीब है कि ताबेअ़ आबिद मुहम्मदﷺ हो जाये। अफ़्सोस हज़ार अफ़्सोस कि आप लोगों के रावी और शारहीन पर वो क़ौल मसीही बईनह आइद होता है, जो मरक़ुस की इन्जील में यूं मन्क़ूल है, “तुम ख़ुदा के कलाम को अपनी रिवायत से जो तुम ने जारी की है बातिल कर देते हो। और ऐसे बुहतेरे काम करते हो, और ये बेफ़ाइदा मेरी परस्तिश करते हैं क्योंकि इंसानी अहकाम की ताअलीम देते हैं।” (मरक़ुस 7:13,7) फिर ज़रा ग़ौर करो उन औसाफ़ और दिल-सोज़ तक़रीरों पर जो इब्रानियों के ख़त और ग़ैर मुक़ामों में शफ़ाअत मसीही के हक़ में मर्क़ूम हैं कि वो शफ़ाअत ता-अबद कुल मोमिनीन के लिए तादर्जा कमाल मक़्बूल और मन्ज़ूर है, मसलन ख़त मज़्कूर में क्या ही करीम व नईम कलाम नज़र आता है, “इसी लिए जो उस के वसीले से ख़ुदा के पास आते हैं वो उन्हें पूरी-पूरी नजात दे सकता है क्योंकि वो उन की शफ़ाअत के लिए हमेशा ज़िंदा है।” (इब्रानियों 7:25)और फिर इसी बाब की 24,23 वीं आयात वग़ैरह में है कि,“और चूँकि मौत के सबब से क़ाइम ना रह सकते थे इसलिए वो तो बहुत से काहिन मुक़र्रर हुए। मगर चूँकि ये अबद तक क़ाइम रहने वाला है इसलिए उस की कहानत लाज़वाल है।, पस आओ हम फ़ज़्ल के तख़्त के पास दिलेरी से चलें ताकि हम पर रहम हो और वो फ़ज़्ल हासिल करें जो ज़रूरत के वक़्त हमारी मदद करे।” (इब्रानियों 4:16) तो जब इन और इन की मानिंद और आयतों से साफ़ मालूम हुआ कि ख़ुदावन्द मसीह यानी इमामत व शफ़ाअत दाइम क़ायम ता-अबद सभी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा के लिए है तो ये मज़्मून क्या ही कमाल ज़िद है, उस हदीस की जिसमें कैफ़ीयत मेअ़राज की बाबत ये रिवायत तस्लीम होती है :-

’رَاَیَتُنِی فِی جَمَاعَۃٍ مِّنَ الاَ نبِیَآ ءِ۔وَاذَا عِیسَی ابنُ مَریَمَ قَائیِمٌ فَحَانَتِ الصّلوِٰ ۃ ُفَاَ حَمتُہُم‘‘

तर्जुमा : “नागाह ईसा बिन मर्यम को देखा कि खड़ा नमाज़ पढ़ता है। फिर नमाज़ का वक़्त आया सो मैं ने पैग़म्बरों की इमामत कीं।”

इन्जील के अक़्वाल बाला के मुत्तफ़िक़ और भी सैकड़ों नक़लियात आक़िबत अंदेशों की ख़ातिर जमुई के लिए हवाला क़लम हो गईं, मसलन रोमीयों के नाम ख़त के (रोमीयों 2:12-16) आयतों से और कुरंथियो के ख़त (1 कुरंथियो 4:5) से इस अम्र की सरीह ख़बर दी जाती है कि दार-उल-खिलाफ़त्त और मुस्नद इन्साफ़ की मालिकियत और मुख़्तारी ख़ुदावन्द मसीह को सपुर्द हो गई और जिसकी नशिस्त और सूरत नूरानी उस सफ़ैद तख़्त पर ज़ाहिर व नमूदार होगी और जिसके रूबरू सब मुर्दे क्या छोटे क्या बड़े, खड़े किए जाऐंगे, सो ख़ुदावन्द मसीह है। पर कौन ऐसा कोताह बीन और इल्म व अदल से बे-बहरा है कि इन दो क़यामतों की क़ुदरत और इख़्तियार को ग़ैर अज़ ख़ुदा किसी दूसरे की तरफ़ मन्सूब करे, ख़्वाह उस क़ियामत अव्वल का ज़िक्र हो जो इस उम्र चंद रोज़ा के वक़्त होती है। दर-हालिका रूह इन्सान की हालत ज़लालत व फ़साद और ज़िल्लत व ज़बूनी से ख़लास हो कर और दरगाह-ए-ख़ुदा में दर्जा-ए-फर्ज़न्दियत से मुशर्रफ़ हो कर सूरत ख़ुदा पर अज सर-ए-नौ मसनू और मख़्लूक़ होती है। ख़्वाह क़ियामत सानी का ज़िक्र हो जो ख़ुदावन्द मसीह की दूसरी आमद व ज़हूर के वक़्त बर्पा होगी, जब मोमिनीन का ख़ाकी और ज़लील बदन उस क़ुदरत की तासीर के मुताबिक़ जिससे वो सबको अपने ताबेअ़ कर सकता है, उस के नूरानी जलाली बदन के वफ़क़ व मुशाबहत में मुतबद्दल होगा। क्या वो आदमजा़द और फ़रिश्तों के रुत्बे से ज़ात और वजूद में आला और अफ़्ज़ल ना होगा। जिसकी मुस्नद अदालत के हुज़ूर में हम सबको ज़रूर हाज़िर होना होगा या उस का जलाल और किब्रीयत सब मख़्लूक़ात की ज़ात और मंजिलत और मुक़ाम से बढ़कर ना होगा। जिसने बग़ैर तकब्बुर और तफ़ख़्ख़र के आक़िबत के सब मुहिम तरीन उमूर व वाक़ियात का सरअंजाम और इन्तिज़ाम अपनी तरफ़ मन्सूब कर के वो क़ौल फ़रमाया जो मत्ती की इन्जील में मर्क़ूम है, “पस जैसे कड़वे दाने जमा किए जाते और आग में जलाए जाते हैं वैसे ही दुनिया के आखिर में होगा। इब्न-ए-आदम अपने फ़रिश्तों को भेजेगा और वो सब ठोकर खिलाने वाली चीज़ों और बदकारों को उस की बादशाही में से जमा करेंगे। और उन को आग की भट्टी में डाल देंगे। वहां रोना और दाँत पीसना होगा। उस वक़्त रास्तबाज़ अपने बाप की बादशाही में आफ़्ताब की मानिंद चमकेंगे। जिस के कान हों वो सुन ले।” (मत्ती 13:40-43)

क़ाबिल-ए-ग़ौर ये अम्र भी है जो मुकाशफ़ा की किताब और दानीयल नबी की किताब के आख़िरी अबवाब से रोशन और वाज़ेह है कि कैसी और कितनी कुश्तीयों और जंग व जिदालों में से इज्माअ़-आम्मा हक़ीक़ी जो ख़ुदा की ख़ल्क़ नव-मख़्लूक़ है, अपने सब दुश्मनों पर ग़ालिब व फ़त्हयाब निकलेगा। ख़ुसूसुन उस अजदहे के पंजे से जो शैतान है और उस हैवान से जिसको अजदहे ने अपनी क़ुदरत और इख़्तियार सपुर्द और तफ़वीज़ और तवकील (वकील करना) किया है और जिससे मुराद हैं इस दुनिया की वो सल्तनतें जो बेदीन व बेदियानत और बे-ख़ुदा हैं। और उस कसबी के फ़न व फ़रेब से जो हैवान पर सवार हुई अपनी जादूगरी के पियालों से सब क़ौमों को नशे से बेहोश करती है। जिससे मुराद है वो गिरोह जो अज़रूए दग़ाबाज़ी और ख़ियानत के इज्माअ़-मोमिनीन और अक़ाइद हक़ से हट गया और ख़ुदा की निस्बत ज़ानिया की तरह फ़िस्क़ व फ़जोर में ग़र्क़ हो गया। और झूटे नबी की हीला बाज़ीयों से भी जो हैवान का वकील और मुतर्जिम है, इन सभों के जोरू जफ़ा और क़बीह हिक़मतों से रिहाई पाकर कमाल सफ़ाई के पैराहन से मुतलब्बस हो कर वो कलीसिया ख़ुदावन्द मसीह की सल्तनत की ख़ूबीयों और फ़ज़ीलतों की हम वारिस होगी। आंतोर कि दुल्हन अपने दुल्हे की हशमत और रौनक और दबदबा की शरीक और रफ़ीक़ होती है।

चुनान्चे मज़्कूर बाला आयतों से साफ़ मालूम और साबित हुआ कि उस सल्तनत का आफ़्ताब ख्वारी और कुदरत और ज़िल्लत के घने-घने बादलों से फूट निकल कर तुलूअ़ होगा, मसलन यसअयाह नबी ने फ़रमाया, “इसलिए मैं उसे बुज़ुर्गों के साथ हिस्सा दूंगा और वो लूट का माल ज़ोर-आवरों के साथ बांट लेगा क्योंकि उस ने अपनी जान मौत के लिए उंडेल दी और वो ख़ताकारों के साथ शुमार किया गया तो भी उस ने बहुतों के गुनाह उठा लिए और ख़ताकारों की शफ़ाअत की।” (यसअयाह 53:12) ये गवाही बरहक़ है और अहवाल जहान और ख़ल्क़-ए-ख़ुदा के तजुर्बे से नित नए सबूत पाती रहती है और ख़ुदावन्द मसीह की ख़ुदावंदी और सल्तनत का जो लोग इन्कार करते हैं, वो सिर्फ इतना ही फ़ायदा हासिल करते हैं कि उस सल्तनत से आप ही महरूम हो जाते हैं। चूँकि उस दुख और दर्दो रंज में शिर्कत और रिफ़ाक़त रखने की जगह जो सल्तनत की तरफ़ चलने वालों की मुतअय्यन राह है, वो उस की सूरत फिरोतन और आजिज़ पर ठोकर खाते हैं, जिसकी बाबत ख़ुदावन्द मसीह ने कहा, “मुबारक है वो जो मेरे सबब से ठोकर ना खाए।” (मत्ती 11:6) और वो ठट्ठा भी मारते हैं और लानत के मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाले) को मलऊन जान कर यहूद के मज़ाह और तमस्सख़र की तक़्लीद करते हैं और पीने की आर पर लात मारते हैं।

हासिल कलाम : ये है कि ख़ुदावन्द मसीह की उस सल्तनत से जो फ़िलहाल और फ़िल-वाक़ेअ़ जारी होती है, मुराद है वो नई ख़ल्क़त जिसकी सरायत मुल्क ब मुल्क और क़ल्ब (दिल) ब क़ल्ब (दिल) फैलती जाती है और बहुत ही सख़्त, सरकश दिलों और बाग़ी मुफसिदों के तल्ख़ और शदीद मिज़ाजों को उस मुनज्जी-उल-आसीन के नरम जोई तले दबाती है। अज़ आनरो कि ख़ुदा के फ़ज़्ल को मन्ज़ूर कर के और उस के अहदो मीसाक़ के अहाते अन्दर आके वो उस की मर्ज़ी और ख़िदमत पर सदक़े और क़ुर्बान हो जाते हैं। और इख़्तताम व तक्मील उस ख़ल्क़त जदीद की वो बादशाही उमूम और ग़ैर-महदूद होगी, जिसका दिल-सोज़ और फ़र्हत आमेज़ बयान मुकाशफ़ा की किताब में मिलता है, “और जब सातवें फ़रिश्ते ने नरसिंगा फूंका तो आस्मान पर बड़ी आवाज़ें इस मज़्मून की पैदा हुईं कि दुनिया की बादशाही हमारे ख़ुदावन्द और उस के मसीह की हो गई और वो अबद-उल-आबाद बादशाही करेगा। और चौबीसों बुज़ुर्गों ने जो ख़ुदा के सामने अपने-अपने तख़्त पर बैठे थे मुंह के बल गिर कर ख़ुदा को सज्दा किया, और ये कहा कि :-

ऐ ख़ुदावन्द ख़ुदा ! क़ादिर-ए-मुत्तलिक़ ! जो है, और जो था, और जो आने वाला है। हम तेरा शुक्र करते हैं क्योंकि तूने अपनी बड़ी कुदरत को हाथ में लेकर बादशाही की। और क़ौमों को ग़ुस्सा आया और तेरा ग़ज़ब नाज़िल हुआ और वो वक़्त आ पुहंचा है कि मुर्दों का इंसाफ़ किया जाये और तेरे बंदों नबियों और मुक़द्दसों और उन छोटे बड़ों को जो तेरे नाम से डरते हैं अज्र दिया जाए और ज़मीन के तबाह करने वालों को तबाह किया जाये।” (मुकाशफ़ा 11:15-18) और फिर इसी सहीफ़े के (मुकाशफ़ा 17:14) में उसी इख़्तताम जलाली का ये ज़िक्र है, “वो बर्रे से लड़ेंगे और बर्रा उन पर ग़ालिब आएगा क्योंकि वो ख़ुदावन्दों का ख़ुदावन्द और बादशाहों का बादशाह है और जो बुलाए हुए और बरगुज़ीदा और वफ़ादार उस के साथ हैं वो भी ग़ालिब आएँगे।” (मुकाशफ़ा 17:14) आमीन !

तम्मत