बफ़ज़्ल ख़ालिक़ ज़मीन व ज़मान व यमन बानी कून व मकान
नुस्ख़ा बेनज़ीर जिसमें आदम की बर्गशतगी और उस की बहाली का तज़्किरा
है मौसूम-बह
The Key of Adam
A Treastise on the fall and Redemption of Man
Written By
Rev. Baboo Younis Singh
To the Requested by
Sir William Muir
कलीद-ए-आदम
मुसन्निफ़
अल्लामा पादरी बाबू यूनुस सिंघ
जिसके लिए जनाब सर विलियम म्यूर साहब बहादुर सी॰ ऐस॰ आई॰ लफ़टेंट गवर्नर ममालिक मग़रिबी व शुमाली ने इनाम अता फ़रमाया।
नॉर्थ इंडिया ट्रेक्ट सोसाइटी के लिए
ब-मतबाअ अमरीकन मिशन बएहतमाम पादरी क्रियो साहब तबाअ हुआ
1885 ई॰
بسم الاب والابن والروح القدس
बिस्मिल-अब्ब-वल-इब्न-व-र्रुहुल-क़ुद्दुस
पहला अव्वल
ख़ल्क़त की पैदाइश
हम्द
हम्द व सिपास व सना बे क़ियास उस ख़ालिक़ बेमिसाल को वाजिब व सज़ा है कि जिसने अपनी क़ुदरत कामिला और हिक्मत नादिरा (अजीब) से इस आब व गुल को नेस्त से हस्त किया और इस को ऐसे सामान से आरास्ता और अस्बाब से पैरासना (सजा हुआ) किया।
मदह अब्ब
जिसमें कुल बाशिंदागान अर्ज़ी कमाल इत्मीनान के साथ ज़िंदगी बसर करते हैं और ना सिर्फ अपने ख़ालिक़ की क़ुदरत को मुशाहिदा करते हैं पर ज़बूर के मुअल्लफ़ (तर्तीब दिया गया) के साथ ये कह सकते हैं कि ऐ मेरी जान ख़ुदावंद को मुबारकबाद कह और उस की नेअमतों को फ़रामोश ना कर कि जो तुझको जीते जान देता और लुत्फ़ कामिल और अलताफ़ (लुत्फ़ की जमा, मेहरबानीयां) शामिल का ताज तेरे सर पर रखता है।
मदह इब्ने
और सताइश व अफ़र और हम्द अखरास मुंजी पाक को कि जिसने ख़ल्क़त के अबतरी को देख के उस पर तरस खाया और उस की सलामती के लिए (अपने) आपको ख़ाली किया बंदे की सूरत पकड़ी और सलीब के दर्द-नाक और रुस्वा मौत का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हो कर बनी-आदम को क़हर और ग़ज़ब इलाही से बचा के हयात जाविदानी का वारिस बनाया और अपनी भरपूरी से फ़ज़्ल पर फ़ज़्ल इनायत कर के इन्सान को नूर के फ़रज़न्दों के साथ मीरास में हिस्सा देता है।
मदह रूहुल-क़ुद्दुस
और तारीफ़ हो रूह पाक की कि जो इब्न-अल्लाह का क़ाइम मक़ाम होके गुनेहगारों की हिदायत मसीह की तरफ़ करता है और उनकी कमज़ोरीयों में उनकी मदद करता और ईमान मोअस्सर की ताक़त व तौफ़ीक़ बख़्शता है कि जिसके बाइस से उनकी नजात कामिल होती है।
पैदाइश की हक़ीक़त
अलहम्दु लिल्लाह (الحمداللہ) क्या सानेअ (ख़ालिक़) है कि जिसने ना सिर्फ अदम (नीस्ती) से एक वजूद को क़ायम किया और बग़ैर माद्दा के एक आलम माद्दी को बिला सतून इस्तादा किया लेकिन अन्वाअ व अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) के मौजूदात को अपने कलिमा कुन (کن) की तासीर से हस्त किया और छः दिन के अरसे में अला-उल-तर्तीब एक ख़ल्क़त को मुरत्तिब किया बशर (इंसान) को एक मुश्त-ए-ख़ाक से पैदा कर के ना सिर्फ उस को अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात क़रार दिया बल्कि उस को इस आलम का सरताज बनाया।
अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) मौजूदात
ये ख़ल्क़त उस ख़ालिक़ बेचूं व चरा की क़ुदरत कामला व मुतलक़ का गोया इक शमा (थोड़ी सी चीज़) है। ये उस की मख़्लूक़ात का कुल नहीं है बल्कि और बेशुमार मख़्लूक़ात व आलम भी मौजूद किए गए हैं जिनकी हक़ीक़त से गो इन्सान अब वाक़फ़ीयत नहीं रखता है ताहम एक वक़्त आता है। कि जैसा फ़लक की रोशन हस्तियाँ इस ख़ल्क़त की कार जलील और इस के बाशिंदागान आली की तफ़्तीश से शाद हैं इसी तौर पर इन्सान भी उनकी जलाली हस्तीयों से वाक़फ़ीयत हासिल कर के ख़ुदावंद का मद्हसरा होगा और उस के जलाल को बतौर कमाल मुशाहिदा करेगा।
उन्वान ख़ल्क़त
हम ख़ुदावंद तआला की ख़ल्क़त को तीन क़िस्म पर तसव्वुर कर सकते हैं। जिनकी कैफ़ीयत कलाम पाक से बख़ूबी मुबर्हन (दलील से साबित किया गया, मज़्बूत) व आशकारा है :-
अव्वल, हस्ती रुहानी या नूरानी जो बनाम मलाइका (फ़रिश्ते) मशहूर हैं।
दोम, ख़ल्क़त माद्दी जिससे कि ये आलम अस्फ़ल (नीचे की दुनिया) बना है।
सोम, इन्सान, कि जिसमें रुहानी और माद्दी दोनों अख़्लात (ख़लत की जमा, चारों खलतें यानी सौदा, सुफ़रा, बलग़म, ख़ून) बाहम पैवस्ता पाई जाते हैं।
हस्ती रुहानी या नूरानी जो बनाम मलाइका (फ़रिश्ते) मशहूर हैं।
गो अज़ रूए कलाम इलाही मलाइका यानी फ़रिश्तों के वजूद में किसी तरह का शक नहीं है। ताहम उनकी माहीयत (असलियत) और पैदाइश की तौर और वक़्त का हाल बख़ूबी मालूम नहीं है। इतना तो बेशक ज़ाहिर है कि वो आला दर्जे की हस्तियाँ हैं कि और इस ख़ल्क़त की पैदाइश के वक़्त वो मारे ख़ुशी के ख़ुदावंद के क़ुदरत की मदह-सराई करते थे जिससे ये गुमान ग़ालिब होता है कि वो तो इस ख़ल्क़त के वजूद के क़ब्ल या शायद उस के अव्वल रोज़ में मौजूद किए गए हों तो अजीब नहीं। पर अज़-बस कि ये राज़ हम पर अफ़्शां (ज़ाहिर) नहीं किया गया है इस की ज़्यादा तफ़्तीश ला-हासिल है।
उनका शुरू
उनका शुमार भी कसीर है चुनान्चे कलाम में ये मज़्कूर है कि ख़ुदावंद का फ़रिश्ता उनकी चारों तरफ़ जो उस से डरते हैं ख़ेमा खड़ा करता है और उन्हें बचाता रहता है। (ज़बूर 34:7) जो उनकी शुमार की कस्रत के ऊपर दाल (दलालत करने वाला, पुर मअनी) है। और पौलुस रसूल ने भी यूं रक़म फ़रमाया है कि हमें ख़ून और जिस्म से कुश्ती करना नहीं है बल्कि हुकूमतों और रियास्तों और इस दुनिया की तारीकी के इक़्तिदार वालों और शरारत की रूहों से जो अफ़्लाकी (आस्मानी) मकानों में हैं (इफ़िसियों 6 बाब 13 आयत) इस आयत से उनकी कस्रत मुबर्हन है। पर उनकी शुमार की कैफ़ीयत (मुकाशफ़ात 5 बाब 11) से बख़ूबी अयाँ है। चुनान्चे लिखा है “फिर मैंने निगाह की और तख़्त और जानदारों और बुज़ुर्गों ने गिर्दागिर्द बहुत से फ़रिश्तों की आवाज़ सुनी जिनका शुमार लाखों लाख और हज़ार-हा हज़ार था।
उनके दर्जे
ये भी ज़ाहिर है कि उनमें दर्जे हैं चुनान्चे चंद हैं जो मुक़र्रब इलाही कहलाते हैं। उनमें मीकाईल, इस्राफ़ील और जिब्रईल वग़ैरह हैं जिनके वसीले ख़ुदावंद की मर्ज़ी नबियों और उस के मुक़द्दस लोगों पर आश्कारा की जाती थी।
उनके फ़राइज़ और मन्सब
इन फ़रिश्तों का काम दो तौर पर है। अव्वलन, ख़ुदा के निस्बत, दोम, इन्सान की निस्बत ख़ुदा की निस्बत उनका ये काम है कि वो उस की बुजु़र्गी के आगे अपने मुँह अपनी दो परों से छुपाते और दो से अपने जिस्म पर पर्दा डालते और दो से उड़ते हुए क़ुद्दूस क़ुद्दूस क़ुद्दूस कह कर उस के तख़्त के गर्द मदह-सराई करते हैं और बनी-आदम की निस्बत वो ख़िदमतगुज़ार रूहें हैं जो नजात के वारिसों की ख़िदमत के लिए भेजे जाते हैं। (इब्रानियों 1 बाब 14 आयत)
नुअ दोम ख़ल्क़त माद्दी
गो उनका मन्सब और मर्तबा सिलसिले में इन्सान से आला है ताहम अज़-बस कि उनका वजूद इस आलम अस्फ़ल से कुछ ताल्लुक़ नहीं रखता है हम उनका बयान इस मुक़ाम पर ख़त्म करते हैं। अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) दोम में ख़ल्क़त माद्दी है। अज़ रोय तवारीख़ सही इस ख़ल्क़त माद्दी को वजूद में आए हुए यानी जिस हईयत में वो अब मौजूद है। छः हज़ार (6000) बरस का अरसा गुज़रता है। फ़ी ज़माना आलिमों ने यानी चंद दहरियों ने ये ठहराया है कि ये बात दुरुस्त नहीं है लेकिन वो इस अम्र में ग़लती करते हैं और उनकी इल्लत-ए-ग़ाई (नतीजा, फ़ायदा, वजह) सिर्फ ये है कि वो किसी ना किसी तरह से जहला (जाहिल की जमा) पर ग़ालिब आए और कलाम को बातिल कीए लेकिन आफ़्ताब के ऊपर ख़ाक डालने से उस को छुपाना मुहाल है और इसी लंगड़ी लूली बातों से कलाम का इब्ताल (गलत साबित करना) ग़ैर मुम्किन है। इस माद्दा के बेवले के वजूद की तादाद बे मालूम है और कोई नहीं कह सकता कि वो कब मौजूद किया गया पर ज़ाहिर है कि इस के सर्द सत (फ़िलहाल) की हेईयत (बाइस, मुहब्बत) बहुत क़दीम नहीं है।
माद्दा के वजूद का मक़्सद ख़ास
इस माद्दी के वजूद में मह्ज़ मतलब व मक़्सद ये मालूम होते हैं :-
1) अव्वलन अस्कनाए अर्ज़ी के सुकूनत के लिए जाये इस्तिक़ामत हो।
2) सानियन कि सारे जानदार अर्ज़ी (ज़मीनी) इस से अपनी ग़िज़ा और ख़ुराक पाएं।
3) सालसुन कि उस के वसीले से आदमजा़द अपने ख़ालिक़ की हिक्मत व दानिश और जलाल व किब्रियाई और उस की रहमत की बेपायाँ (बेहद, बे-इंतिहा) दौलत की पहचान हासिल कर के ख़ल्क़त के वसीले से उस के बानी व मुबानी अला की बकमाल इत्मीनान शनाख़्त करे और उस का ममनून व मशकूर रहे कि जिसने उस को ये नेअमतें अता फरमाईं और उस की याद में क़ायम और उस की इताअत में मुस्तइद हो कर अपनी हस्ती की अव्वल ग़रज़ को पूरी करे और ज़मीन और आस्मान की तरफ़ सऊद कर के उस के जलाल को आशकार करते हुए आख़िर को उस की सोहबत में अबद-उल-आबाद तक ख़ुश व मुतमत्ते (फ़ायदा उठाने वाला) रहने की क़ाबिलीयत को पैदा करे। शेख़ सादी ने किया ख़ूब फ़रमाया है :-
ابرباددمہ و خورشید و فلک درکاراند
تاتو نا نے بکف آری و بغفلت نخوری
ہمہ راز بھر تو سرگشتہ و فرمان بردار
شرط انصاف نباشد کہ تو فرمان نبری
पस जिस हाल में कि कुल ख़ल्क़त उस के शान-ए-किब्रियाई की मद्दाह थी तो मुम्किन ना था कि इन्सान ही अकेला ख़ामोश रहता।
ख़ल्क़त की सताइश खु़फ़ीया
हर-चंद कि इश्याअ ग़ैर ज़ी-रूह बेज़बान हैं और उनकी आवाज़ सुनने में नहीं आती ताहम इस में किसी तरह का शक नहीं कि वो खु़फ़ीया अपने ख़ालिक़ व मालिक की सना-ख़्वानी करती हैं। चुनान्चे ज़बूर के मोअल्लिफ ने इल्हाम इलाही से इस मुक़द्दमे में ये रक़म फ़रमाया है :-
“आस्मान ख़ुदा का जलाल ज़ाहिर करते हैं और फ़िज़ा उस की दस्तकारी दिखलाती है। एक दिन दूसरे दिन से बातें करता है और एक रात दूसरी रात को मार्फ़त बख़्शती है। उनकी कोई लब और ज़बान नहीं उनकी आवाज़ सुनी नहीं जाती पर सारी ज़मीन में उनकी तार गूँजती है और दुनिया के किनारों तक उनका कलाम पहुंचा है।” (ज़बूर 19:1-4)
और फिर ये कि ऐ ख़ुदावंद तेरी सारी दस्तकारीयां तेरी सना-ख़्वानी करती हैं और तेरे मुक़द्दस लोग तुझे मुबारकबाद कहते। वो तेरी सल्तनत के जलील (ऊँचे) कामों का बयान करते और तेरी क़ुदरत का चर्चा करते हैं ताकि आदमजादों पर उस की क़ुदरतें और उस की सल्तनत की जलील (ऊँचीं) शौकतें ज़ाहिर करें। (ज़बूर 145:10-12)
इस ख़ल्क़त के वजूद का अरसा
इस ख़ल्क़त माद्दी का वजूद छः रोज़ के अर्से में अला-उल-तर्तीब यूं ज़हूर में आया कि पहला दिन क़ादिर-ए-मुतलक़ ने रोशनी को वजूद किया। हनूज़ माद्दे का हयूला (हर चीज़ का माद्दा, माहीयत, अस्ल) बे-तर्तीब था और तारीकी इस हयूला के ऊपर तारी थी पस् ज़रूर था कि इस हयूले की हैसियत आश्कारा हो। चुनान्चे उस माबूद हक़ीक़ी ने अपने कलिमा क़ुदरत की तासीर से रोशनी को वजूद में लाके माद्दे की हक़ीक़त को बिल्कुल हुवैदा (वाज़ेह) और आश्कारा कर दिया। रोशनी हाजत इब्तिदाई थी लिहाज़ा ये हाजत इब्तिदा ही में रफ़ा की गई। दूसरे रोज़ रक़ीअ यानी फ़लक की सतह नीलगूँ (नीला, नीले रंग का) इस ग़रज़ से क़ायम की गई कि वो आब तहतानी (नीचे वाला या नीचे वाली) को आब फ़ौक़ानी (ऊपर का) से मुनफ़सिल (जुदा किया गया) कर के इस आलम को सकुंए अर्ज़ी आसाइश के लिए मौज़ूं बनाए। इसी रकेअ की सतह नीलगूँ के ऊपर के हिस्से को आस्मान कहते हैं जहां रब-उल-आलमीन का तख़्त क़ायम है और इस को बुलंदी के ऊपर इसलिए क़ायम किया है कि इन्सान की निगाह ज़मीनी चीज़ों पर नहीं बल्कि फ़ौक़ानी (ऊँचीं) चीज़ों की तरफ़ कशीदा रहे और अपने ख़ालिक़ के दीदार का तलबगार रहे। तीसरे रोज़ ख़ुशकी जो अब तक पानी की तह में और उस के साथ मख़लूत (मिला-जुला) थी पानी से जुदा की गई और यूं अर्ज़ मुस्तहकम का वजूद हुआ। और हालाँकि इन्सान और हैवान के लिए ना सिर्फ जाये इस्तिक़ामत ही मद्द-ए-नज़र थी बल्कि उस का एक ख़ास मक़्सद ये था कि इस के वसीले से हर जानदार वज़ी रूह मख़्लूक़ के लिए ख़ुराक बहम पहुंचाई जाये इस नज़र से उस ख़ालिक़ ने जो अपनी ख़ल्क़त की बेहतरी हमेशा मक़्सूद रखता है इस ज़मीन को क़ुब्बा (बुर्ज) इस्तबरक़ (सब्ज़ा तुलस की क़िस्म का एक रेशमी कीड़ा) मुज़य्यन (आरास्ता) किया और इस पर फ़र्श ज़मुर्रदी (सब्ज़-रंग का) बिछा के इस को ना सिर्फ खुशनुमाई का मंज़र क़रार दिया बल्कि कुल जानदार की हाजात कुल्ली के रफ़ा करने के लिए इस को वसीला बनाया जिसमें इस तरह की शीरीनी और हज़ पाया जाता है कि नापाक इन्सान इस बरकत के दाता को फ़रामोश कर के इस ही ज़मीन में ग़लताँ (गोल, गिरता पड़ता) व पेचां (बल खाया हुआ) रहता है और अपनी सआदत मंदी के नक़द (पूँजी) को अपने हाथ से खो देता है। चौथा रोज़ वो रोशनी जो कि अव्वल रोज़ वजूद में लाई गई थी ख़ास ख़ास चश्मों में यानी आफ़्ताब व माहताब और कोएकब (सितारे) में मुजतमा (इकट्ठा) कर दी गई ताकि उनके वसीले से इंतिहाए आलिम तक रोशनी इस ज़मीन पर अपना असर करती रहे और इन्सान अपने कारोबार मामूली में बह तमाअनीयत (तसल्ली) व आराम मशग़ूल रहे और ताकि दिनों और बरसों और मौसमों का इंतिज़ाम क़ायम रहे और मख़्लूक़ात को हर आफ़त से अमान मिले। इन चारों के अरसा में ख़ल्क़त बे-जान और ग़ैर ज़ी के रूह मख़्लूक़ का वजूद ज़हूर में आया। पांचवां रोज़ से ज़ी-रूह मख़्लूक़ नमूद होने लगे चुनान्चे पांचवें रोज़ बेशुमार अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्मों) के जानदार आबी व बादी ज़िंदगी और हरकत की ताक़त और अपनी अपनी जिन्स के क़ायम रखने और उनको अफ़्ज़ाइश देने की क़ुव्वत के साथ आरास्ता व मौजूद किए गए। छटे रोज़ बहाइम (हैवान, मवेशी) अर्ज़ी हत्ता के उनसे इस मख़्लूक़ात का ख़ातिमा अनक़रीब तमामी को पहुंचा। इन बहाइम और जानदार अर्ज़ी के मौजूद किए जाने का मक़्सद ये मालूम होता है कि उनके वसीले से इन्सान को अपने कारोबार की निस्बत आसानी हासिल हो और ख़ुदावंद तआला की क़ुदरत की बहुताएत और कस्रत आश्कारा हो। यूं हम इस ख़ल्क़त की सनअत को देख के बतदरीज कमाल तक पहुंचते हैं और उस की दानिश की फ़रावानी को दर्याफ़्त कर सकते हैं जिनसे इन सब इश्याअ को हिक्मत से बना कर अपनी क़ुदरत कामिला का शाइद किया।
तकमिल-ए-ख़ल्क़त
जब कि यूं ख़ल्क़त और इस की मामूरी ज़हूर में आई तब लिखा है कि “ख़ुदावंद तआला ने इस पर नज़र की और ये फ़रमाया कि सब कुछ अच्छा है।” जिससे हम ये मुराद लेते हैं कि इस ख़ल्क़त में किसी तरह का नुक़्स या किसी नुअ की कमी ना थी बल्कि जिस मंशा से इस का वजूद मुतसव्वर हुआ उस की तक्मील की माहीयत (असलियत) कुल्ली की हैसियत इस में पाई गई और ख़ालिक़ की बुजु़र्गी करने के लिए वो हर तरह से मुनासिब और मौज़ूं थी।
ये ख़ुदावंद के जलील (अज़ीम) कामों में से चंद हैं। लेकिन उस क़ादिर-ए-मुतलक़ व बेपायाँ माबूद हक़ीक़ी का जलाल इन्सान की पैदाइश और इस की राज़-दार तर्कीब जिस्मानी और रुहानी में दर्जा ब दर्जा ऊला आश्कारा है ना इस वजह से कि वो सबसे आला हस्ती है क्योंकि उस का दर्जा फ़रिश्तों से कमतर है पर इस वजह से कि वो इस ख़ल्क़त अस्फ़ल का सरताज और इस की रौनक और इस ज़मीन पर ख़ुदावंद का क़ाइम मक़ाम व नायब है और इस की फज़ीलत ख़ास इस बात में है कि वो ज़िल्ल-ए-सुबहानी (ख़ुदावंद पाक का नायब) और सूरत यज़्दानी (नेकी व खेर ख़्वाही) पर ख़ल्क़ किया गया और ऐसा साहब-ए-इख़्तियार व हुकूमत और दबदबा पैदा हुआ कि जिसमें उस के क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ालिक़ की खूबियां बदर्जा उत्तम हुवैदा हैं और इस की ज़ात में एक ऐसी बात पाई जाती है कि जो किसी ज़ी-रूह मख़्लूक़ में ज़हूर में ना आई यानी कि जैसा वो ख़ल्क़त की अख़ीर सनअत था वैसा ही वही अकेला इस हैसियत के साथ ख़ल्क़ हुआ कि अपने ख़ालिक़ से रिफ़ाक़त व सोहबत रखे। यहां तक कि जब हम देखते हैं कि इन्सान कैसा अजाइब व ग़रीब बना है तो हम ख़ुदावंद की मदह-सराई में इस ग़ज़ल की बातों को अपनी ज़बान पर ला के उस की हम्द सना-ख़्वानी की तरफ़ यूं मुख़ातब हो सकते हैं कि “माबूदों में ऐ ख़ुदावंद तुझ सा कौन है, पाकीज़गी में कौन है तेरा से जलाल वाला, डरने वाला, साहब बड़ाईयों का, अजाइबात का बनाने वाला।
इस्म इन्सान अव्वल और इस की वजह तस्मीया
(नाम रखने की वजह)
वह मख़्लूक़ जो इस हैसियत और हैइयत के साथ वजूद में लाया गया आदम के नाम से मौसूम हुआ जिसके मअनी मिट्टी या ख़ाक के हैं। ये नाम अव्वल इन्सान को इस ग़रज़ से दिया गया ताकि उस की याद से इस में इताअत की तबीयत क़ायम है, और वो अफ़आल बेजा का मुर्तक़िब होने से महफ़ूज़ रह कर अपने ख़ालिक़ की रहमत और शफ़क़त और इनायत का जोयाँ (तलाश करने वाला) और उस के दीदार का तालिब रहे चुनान्चे बंदगान मक़्बूल ख़ुदा में अब तक यही वस्फ़ पाया जाता है और इस की ग़ज़ल शब व रोज़ यही होती है :-
“मैं अपनी आँखें तेरी तरफ़ उठाता हूँ, आस्मान पर बैठने वाले, देख जिस तरह से कि ग़ुलाम अपने मालिकों की दस्त-ए-निगर रहते हैं जिस तरह से कि लौंडी अपनी बीबी की दस्त-ए-निगर है इसी तरह हमारी आँखें ख़ुदावंद अपने ख़ुदा की तरफ़ हैं जब तक कि वो हम पर रहम ना फ़रमाए। (ज़बूर 123:1-2)
आदम की पैदाइश का दिन और इस का मक़्सद
अज़-बस कि आदम इस ख़ल्क़त अस्फ़ल का तकमिला था ख़ुदावंद ने अपने इरादों में ये मुनासिब समझा कि इस को पैदाइश के सिलसिले की अख़ीर दिन में वजूद में लाए। ग़रज़ कि छटे रोज़ जब कि कुल हैवानात ख़ल्क़ हो चुके और दूसरी कोई शैय बाक़ी ना रह गई थी कि जो वजूद में लाई जा सकती उसी रोज़ ख़ुदावंद आलम ने तकमिला ख़ल्क़त को मौजूद और क़ायम किया और यूं इस ख़ल्क़त का काम ख़त्म और तमाम हुआ। और इस दिन आदम का पैदा किया जाना इस जिहत से ज़रूर था क्योंकि उस की माहीयत जिस्मी इन हैवानात से मुशाबेह थी जो कि इस रोज़ ख़ल्क़ हुए और इसलिए कि जब तक वो इस जिस्म में था तब तक इस को उनकी मानिंद और उनके साथ इसी ख़ल्क़त को आबाद रखना था।
मक़्सद अव्वल
लेकिन इस की वजह हम ये भी गुमान कर सकते हैं कि इस का ख़्याल उस के ख़यालों को ख़ुदा के ताबेअ और मुतीअ रखता, ना हो कि वो अपने दिल में किब्र (अज़मत, ग़रूर) को जगह देने और ये कहने का मौक़ा पाले कि मैं भी उस वक़्त मौजूद था जब कि तू ने ज़मीन की बुनियाद डाली और समा-उल-समवात (आसमानों) को ख़ल्क़ किया। ऐ आदमजा़द इस से दो तालीमें ले। अव्वल ये कि तू एक मख़्लूक़ हस्ती है और दोयम ये कि तेरे ख़यालात शुक्रगुज़ारी और इताअत के साथ तेरे ख़ालिक़ व सानेअ की तरफ़ उठे और कि तू अबद-उल-आबाद उस की हम्द व सना-ख़्वानी में पाया जाये।
मक़्सद सानी
इस का मक़्सद ये मालूम होता है कि आदम को इस अम्र से इज़्ज़त बख़्शी जाये जैसा उस ख़ल्क़त की पैदाइश के इंतिज़ाम में ये बात मद्द-ए-नज़र थी कि ख़ल्क़त नाकामलीयत से कामलीयत की तरफ़ उरूज करे वैसा ही इन्सान की ख़ल्क़त का ख़ातिमा होने में उस के सर पर कमाल का ताज रखा गया और ये उस के लिए ऐसी इज़्ज़त का बाइस हुआ कि जो किसी मख़्लूक़ को हासिल ना हो सकता था।
मक़्सद सालिस
इस के तीसरे मक़्सद में ख़ुदा की रहमत और मेहरबानी आदमजा़द के ऊपर यूं आश्कारा की जाती है कि उसने आदम की तक्लीफ़ की रफ़ाहियत (ख़ुशी) का ख़्याल कर के ना चाह कर वो ऐसे वक़्त पर मौजूद किया जाये कि इस को कामिल आसाइश हासिल ना हो सके चुनान्चे सब चीज़ों को कामिल कर के और उस को फ़िर्दोस बरीन को नमूना बना के आदम को ऐसे मकान में रखा कि जिसमें सारी चीज़ें उस के आराम के लिए मौजूद थीं और ताकि उस का नफ़्स यकलख़त (फ़ौरन) उनसे मुतमत्ते (फ़ायदा उठाने वाला) होकर अपने ख़ालिक़ से बस्ता हो जाये जो कि मअदन (खान) करम मौजूद है।
आदम और कुल मख़्लूक़ात का इत्तिहाद
लेकिन हर-चंद कि ख़ुदा ने आदम को ऐसी इज़्ज़त व फज़ीलत बख़्शी और उन को अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात बनाया और उनकी और ग़ैर ज़ी-रूह मख़्लूक़ के दर्मियान आस्मान और ज़मीन का फ़र्क़ नज़र आता है, ताहम ये ना समझना चाहिए कि इन मुतफ़र्रिक़ ख़ल्क़तों में किसी तरह का रब्त व इत्तिहाद ना था। ख़ुदा ने आदम और ख़ल्क़त दोनों को मौजूद किया और अपनी मशीयत अज़ली से इन दोनों के दर्मियान में मेल व मुवाफ़िक़त और रब्त व इत्तिहाद भी क़ायम किया। ये ज़मीन मह्ज़ इस वास्ते नहीं बनाई गई कि इस से आदम के सिर्फ हाजात नफ़्सानी रफ़अ हो, लेकिन ताकि इस के वसीले से इस की अक़्ल व अख़्लाक़ दोनों तर्बीयत व नशव व नुमा पायें। अल-ग़र्ज़ ये दुनिया आदमजा़द के लिए ना सिर्फ सुकूनत गाह है बल्कि एक बड़ा मक्तबख़ाना है जिसके वसीले से ख़ुदा ख़ुद बनी-आदम की ताअलीम व तर्बीयत का इंतिज़ाम व बंद व बस्त करता है। चुनान्चे रसूल ने आदमीयों को ख़त में इस ताअलीम ख़ल्क़ती की निस्बत यूं रक़म फ़रमाया है कि इस की सिफ़तें जो देखने में नहीं आतीं यानी उस की अज़ली क़ुदरत और ख़ुदाई दुनिया की पैदाइश के वक़्त से ख़ल्क़त की चीज़ों पर ग़ौर करने में साफ़ मालूम होती हैं।
दूसरा बाब
आदम की ख़ल्क़त की कैफ़ीयत
इन्सान मजमूआ आलम
आदमजा़द की हस्ती एक मजमूआ यानी ख़ुलास-तुल-आलम है। इस की तर्कीब में पस्ती और बुलंदी उम्दगी व संजीदगी बारीकी व पेचीदगी लज़्ज़ात आस्मानी और हनिर्यात जिस्मानी इस दर्जे तक मख़्लूत है कि जिसकी तफ़्तीश में इन्सान की महदूद अक़्ल आजिज़ व आरी है और इस का मुरक्कब तसव्वुर इस क़द्र तेज़-गाम नहीं है कि अपनी कुल माहीयत (असलियत) की पहचान के साथ बराबरी कर सके।
इस की हैइयत रूही इन नूरानी हस्तीयों से मुशाबहत रखती है जो समा व समावत (आस्मानों) की जे़ब व ज़ीनत हैं और इस की तर्कीब जिस्मी माद्दा तहतानी से जो इस ख़ल्क़त अस्फ़ल को ज़ेबाई बख़्शती हैं मुतवस्सिल है। यूं उलूहियत और असफ़लियत (पस्ती) दोनों की माहीयतें इस में आमेज़ और दोनों की ख़ुशनुदी और खुशनुमाई इस में पैवस्ता नज़र आते हैं। ग़रज़ कि ये अम्र लारेब (बेशक) हुवैदा व आश्कारा है कि इन्सान का वजूद निहायत ही राज़-दार है हकमाए यूनान ने इस ख़्याल में ग़लताँ व पेचाँ होके इन्सान को “मुक्र का ज़मास” यानी आलिम कोचक (छोटा जहान) क़रार दिया। उनकी तुयूर (तीर की जमा, परिंदे) अक़्ल की बाज़ू इस से ज़्यादा-तर बूलंद परवाज़ी की सकत व क़ुव्वत ना रखती थी क्योंकि इन्सान की अक़्ल महदूद की क्या मजाल है कि ख़ुदा की बेहद दानिश के राज़ को तमामन दकमालन फ़हमाइश (नसीहत) कर सके। इस बात की हक़ीक़त के ऊपर फ़िक्र व ताम्मुल कर के ज़बूर के मोअल्लिफ़ इल्हामी व बंदा मक़्बूल यज़्दानी यानी हज़रत दाऊद ने ये रक़म फ़रमाया है कि :-
“मैं तेरी सताइश ही करता रहूँगा क्योंकि मैं दहशतनाक तौर से अजीब व ग़रीब बना हूँ। तेरे काम हैरत अफ़ज़ा हैं उस से मेरे जी को बड़ा यक़ीन है।” (ज़बूर 139:14)
आदम की पैदाइश का तौर
अज़-बस कि आदम की ख़ल्क़त ऐसे अजब तौर पर लाई वजूद में आई। इस की पैदाइश भी कमाल संजीदगी के साथ हुई। ख़ल्क़त की पैदाइश का तौर जो और अश्या-ए-ज़ी-रूह या ग़ैर ज़ी-रूह की निस्बत मुस्तअमल था वो अब मौक़ूफ़ हो गया और वो जो ख़ल्क़त की अज़मत और बुजु़र्गी था एक संजीदा मश्वरत के साथ ज़हूर में लाया जाता है। अब एक ये हाल था कि ख़ुदा ने कहा कि हो और हो गया पर जब आदम को बनाना मंज़ूर हुआ तब लिखा है कि “ख़ुदा ने कहा हमने आदम को अपनी सूरत पर और अपनी मानिंद बनायां” जिससे मुफ़स्सिरीन व मुहक़्क़िक़ीन ने तस्लीस की ताअलीम की बुनियाद पर ये नतीजा निकाला कि गोया आस्मान में तस्लीस की मुबारक जमाअत में ये मश्वरा दरपेश हुआ कि आओ हम मिल के आदम की पैदाइश में हाथ लगाऐं चुनान्चे हसब-ए-मंशा कलाम रब्बानी कलाम इलाही यानी मसीह और रूहुल-क़ुद्दुस मुबारक दोनों से ख़ल्क़त के काम शराकत उक़नूम अव्वल मंसूब (क़ायम) हैं जैसा लिखा है कि “इब्तिदा में कलाम था और कलाम ख़ुदा के साथ था और कलाम ख़ुदा था। सब चीज़ें इस से मौजूद हुईं और कोई चीज़ मौजूद ना थी जो बग़ैर उस के हुई। ज़िंदगी उस में थी और वो ज़िंदगी इन्सान का नूर थी।” (युहन्ना 1:1-4)
फिर वो अनदेखी ख़ुदा की सूरत है और वो सारी ख़ल्क़त का पहलौठा है क्योंकि उस से सारी चीज़ें जो आस्मान और ज़मीन पर हैं देखी और अनदेखी क्या तख़्त क्या ख़ावंदीयाँ (मालिक) क्या रियासतें किया मुख़्तारियाँ पैदा की गईं सारी चीज़ें उस से और उस के लिए पैदा हुईं और वो सबसे आगे है और उस से सारी चीज़ें बहाल रहती हैं।” (कुलिस्सियों 1:15-17) और (अय्यूब 26:13) में आया है कि उसे अपनी रूह से आसमानों को आराइश दी आयात बाला से वाज़ेह व अयाँ है कि इन्सान की पैदाइश की निस्बत इत्तिहाद तस्लीसी हुआ पर चाहे हम इस माअने में इस बात को लें चाहे ना लें इतना बेशक ज़ाहिर है कि इन्सान फ़िक्र व ताम्मुल (सोच बिचार) का मख़्लूक़ है बला-रैब उस की ज़ात में कोई ना कोई बात फ़ौक़-उल-आदी (फ़ज़ीलत का आदी) मतलूब थी। वर्ना इतनी संजीदगी और तरदू और फ़िक्र की ज़रूरत ना होती। एक बुज़ुर्ग ने ये लिखा है कि :-
ख़ल्क़त की सारी इश्याअ के ऊपर आदमजा़द को फज़ीलत और फ़ौक़ियत और बुजु़र्गी व फ़रोग़ इस बात में आश्कारा है कि और सारी मख़्लूक़ ख़ुदा के कलिमे की तासीर से बरपा हुए लेकिन इन्सान एक तदाबीर और फ़िक्र ताम्मुल का नतीजा है। क्योंकि लिखा है कि ख़ुदावंद ने फ़रमाया कि आओ हम इन्सान को बनाएँ।
इन्सान एक गुल क़ुदरत ख़ालिक़
ऐ बनी इन्सान तू क्या कोई गुल है या बूटा है। कि तेरी पैदाइश में समा और समावात (आस्मानों) में फ़िक्र और ग़ौर और तास नज़र आता है और क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा तेरा पैदाइश में ताख़ीर कर के तेरी ख़ल्क़त को फ़ज़िलत बख़्शना चाहता है। फ़िल-हक़ीक़त तू अपने ख़ालिक़ की क़ुदरत का एक गुल मक़्बूल है लेकिन ऐ बशर (इन्सान) तू काँपते हुए ख़ुशी कर क्योंकि तूने अपने तईं इस हैसियत में अपनी किसी ज़ाती ख़ूबी की वजह से नहीं पहुंचाया पर तेरे ख़ालिक़ को पसंद आया कि तुझे फ़ौक़ियत व फज़ीलत बख़्शे।
सअदी शीराज़ी ने अपनी किताब (गुलिस्तान सअदी) के दीबाचे में कैसी माअ्क़ूल बात कही है जो इस मुक़ाम पर बहुत मुनासिब मालूम होती है। जिसका ख़ुलासा ये है कि :-
एक रोज़ हमाम (नहाने की जगह) में किसी दोस्त के वसीले से गुल खुशबू-दार मेरे हाना आई ऐसा कि उस की ख़ुशबू से दिमाग़ मुअत्तर हो गया। ये कैफ़ीयत मालूम कर के मैंने इस मिट्टी से सवाल किया कि तू बेशक है या अंबर (समुंद्र की एक क़िस्म की सूखी झाग जिसको जलाने से ख़ुशबू पैदा होती है) है कि तेरी दिल-आवेज़ (दिल लुभाने वाली) बू से मेरा दिमाग़ मुअत्तर हो रहा है। इस गुल ने बकमाल अजुज़ व इन्किसार ये जवाब दिया कि मैं तो नाचीज़ व हक़ीर मिट्टी थी लेकिन एक मुद्दत से कल की हमनशीनी का साबिक़ा पड़ा पस हमनशीनी की सोहबत ने मुझमें ये वस्फ़ पैदा किया है। वगरना मैं वही ख़ाक हूँ जो कि अस्ल में थी।
हासिल कलाम : ख़ुदावंद के जमाल ने तुझको ये हुस्न कमाल इनायत किया है कि तू कुल ख़ालिक़ का मंज़ूरे नज़र हो सकता है।
ऐ आदमजा़द ये तदबीर व बन्दो बस्त जो तेरी पैदाइश में नुमायां है। किस लिए है जो अब ख़ुदा ने तुझको अपनी सूरत पर बनाया चाहा। तू बेशक ख़ाक है पर ख़ुदा-ए-अज़ली व क़ादिर मुतलक़ तेरा बनाने वाला है पस जैसा तू उस की अख़ीर सनअत और दस्तकारी आला है वैसे ही तू उस की सूरत का नक़्श है और ऐ तेरे हाल पर अगर तू इस सूरत की सीरत को आप में आशकारा ना करे और अपने ख़ालिक़ समावी और आबाए हक़ीक़ी के ऊपर हर्फ़ लाए।
ख़ुदा की सूरत से मुराद
लेकिन इन्सान के ख़ुदा की सूरत पर पैदा होने से क्या मुराद है? क्या इस से ये मतलब लिया जाएगा कि ख़ुदा की कोई शक्ल है कि जिसकी सूरत पर इन्सान पैदा किया गया। हरगिज़ नहीं ऐसा ख़्याल करना मह्ज़ कुफ़्र का कलिमा होगा इसी ख़्याल के रफ़अ करने और इस की माहीयत (असलियत) की शनाख़्त हक़ीक़ी अता करने के लिए कलाम में साफ़ आया है कि ख़ुदा रूह है। ग़रज़ कि ख़ुदा की सूरत की निस्बत जिसके नक़्श की ऊपर इन्सान बना है ये तसव्वुर करना कि वो किसी तरह की जिस्मियत से ताल्लुक़ रखता है निहायत बेजा और नामुनासिब है। लेकिन ये कि जैसा ख़ुदा रूह है वैसा ही ये सूरत भी सिफ़त रूही के ऊपर मबनी है।
इस सूरत की माहीयत (असलियत)
पर बावजूद उस के इस मुक़ाम पर ये भी दर्याफ़्त करना लाज़िम आता है कि इस सूरत की कैफ़ीयत व माहीयत क्या है। क्या इस से ये मअनी हो सकते हैं कि ख़ुदा की कुल्लियत की सूरत तमामन व कमालन इन्सान की ज़ात में मुजतमअ है आया ये कि वह ऐसी है कि जैसे किसी माहीयत आला का पर तो किसी शए में साया डाले कि जिसके बाइस से उस की हईयत को आरास्तगी व ज़ीबाइश व ज़ीनत हासिल हो सकती है। इस मुक़ाम पर पोलुस रसूल की वो बात याद आती है कि अभी हम आईने में धुँदला सा देखते हैं। इस सवाल की माहीयत (असलियत) के बयान में दो बातों के ऊपर लिहाज़ रखना लाज़िम है यानी कि ख़ुदावंद तआला की माहीयत (असलियत) से दो या तीन मुताल्लिक़ हैं। अव्वल सिफ़ात जलाली जिनको सिफ़ात ज़ाती ख़ास या माहीती कहना चाहिए। दूसरे सिफ़ात जमाली जिनको तशरीकी या तश्बीह कह सकते हैं।
सिफ़ात जलाली
सिफ़ात जलाली यानी सिफ़त ज़ाती ख़ास या माहीती से ख़ुदा की वो सिफ़त मुराद हैं जो उस की माहीयत (असलियत) ख़ास से मुताल्लिक़ महीन। ये सिफ़ात माहीती उस कि जलील (बुलंद) सनअतें हैं कि जिसकी निस्बत वो बेमिस्ल है और वो ग़ैर मुम्किन अल्तशारक वला तश्बीह (التشارک ولاتشبیہ) हैं। चुनान्चे इस की निस्बत ख़ुदावंद तआला ने ख़ुद अपने कलाम मुबारक में ये फ़रमाया कि “मैं ख़ुदा हूँ, ये मेरा नाम है मेरे सिवा कोई दूसरा नहीं है और मैं अपना जलाल दूसरे को नहीं दूँगा।” पस उनकी क्या हक़ीक़त है कि उस बेमिस्ल और ग़ैर मुम्किन अल्तशबेह जलाल की माहीयत (असलियत) के ऊपर दावा कर सके। जैसा कि ख़ुदा अपनी ज़ात में जलाली और लातशरिक है वैसा ही उस की माहीयत (असलियत) की तशरीह या तश्बीह भी नामुम्किन है। वो अपनी माहीयत (असलियत) की निस्बत लामफ़्हूम और ग़ैर मुद्रिक (غیرمدرک) है और इन्सान की नज़र से ग़ायब है जबकि वो नादीदा है तो उस की माहीयत की सूरत भी नामुम्किन है। ग़रज़ ख़ुदा की वो सूरत जिस पर इन्सान पैदा किया गया था उस की इस जलाली सिफ़ात से कुछ ताल्लुक़ नहीं रखती है और उस की हैइयत तर्कीबी और उस की इस्तिदाद (सलाहियत) महदूदी दोनों इस अम्र में होते हैं।
ख़ुदावंद तआला ने अपना जलाली ज़हूर बनी-आदम के ऊपर आश्कारा नहीं किया है। चुनान्चे कलाम मुक़द्दस में आया है कि मख़्फ़ी (छिपी) चीज़ें ख़ुदावंद हमारे ख़ुदा की हैं क्योंकि मुम्किन नहीं है कि इन्सान उस की जलील सूरत की ताब ला सके। जब हज़रत मूसा ने ख़ुदावंद का जलाल देखना चाहा तो उन हज़रत को ये जवाब मिला कि कोई इन्सान नहीं है जो मेरा जलाल देखे और ज़िंदा रहे बल्कि उस की जलील (अज़ीम) हुज़ूरी की पुश्त ही ने आँहज़रत को सरासीमा और परेशान कर डाला और जब वो बनी-इस्राईल के लश्कर में पहाड़ पर से वारिद हुए तो उनका चेहरा इस क़द्र दरख़शां (चमकदार) था कि इस्राईलीयों के दिल हैबत से मर गए और उनको मज्बूरी से अपने चेहरे के ऊपर निक़ाब डालना लाज़िम आया। बल्कि और बुज़ुर्ग भी ये कलिमा अपनी ज़बान पर लाए कि हम मरे क्योंकि हमने जलाल के ख़ुदावंद को देखा।
हासिल कलाम : ख़ुदा की वो सूरत जिस पर इन्सान पैदा किया गया था इस माहीयत (असलियत) से बिल्कुल बे-तअल्लुक़ है।
सिफ़ात जमाली यानी सिफ़ात तशरीकी या तशबही
लेकिन उस ख़ालिक़ को जो अपनी माहीयत (असलियत) हक़ीक़ी में इस क़द्र जलाली है ये पसंद आया है कि अपने तईं बनी-आदम पर आश्कारा करे और ये उसने अपने जमाली सिफ़तों के वसीले से किया है। इन सिफ़ात का ज़हूर पहली बार उस वक़्त हुआ कि जब बनी-इस्राईल दश्त सीना में ख़ेमा-ज़न थे वो ये है तब ख़ुदावंद बदली में होके उतरा और उसके यानी अपने बंदे मूसा के साथ वहां ठहरा रहा और ख़ुदावंद के नाम की मुनादी की और ख़ुदावंद उस के आगे से गुज़रा और पुकारा, “ख़ुदावंद ख़ुदावंद ख़ुदावंद (ذوالطول رب الفضل ووفا) ज़वालतोल रब-उल-फ़ज़्ल दोफ़ा। हज़ार पुश्तों के लिए फ़ज़्ल रखने वाला गुनाह और तक़सीर और ख़ता का बख़्शने वाला।” (ख़ुरूज 36:6-7) ये सिफ़ात ऐसे हैं कि जिनकी मुशाबहत बनी-आदम में एक दर्जा तक पाई जाती रही और इस दुनिया की मुसाफ़िरत में यही सिफ़तें उस की तसल्ली और ख़ुशी व बरकत के चश्मे होते हैं। और ईमान व उम्मीद के पैदा करने में मुमिद (मददगार) होते हैं। उन्हीं सिफ़तों के वसीले से बनी-आदम ख़ुदा की पहचान की शनाख़्त रखती हैं और बर्गशता इन्सान अपनी नोज़ादगी की पहचान में भी इसी क़िस्म की सिफ़तों के तालिब होते हैं। पस अज़-बस कि ख़ुदावंद तआला की ये सिफ़तें तशरीकी (हिस्सादारी) व तशबही (मानिंद होना) हैं। इन्सान में ख़ुदा की सूरत उन्हीं सिफ़तों में पाई जा सकती है। और उन्ही में पाई भी जाती है। चुनान्चे उस की मंशा के मुताबिक़ पौलुस रसूल ने कुलिस्सियों जमाअत को आस्मानी चीज़ों से दिल लगाने की निस्बत नसीहत कर के उनको तहरीक दिलाने की नीयत से ये दलील पेश की है, “क्योंकि तुमने पुरानी इन्सानियत को इस के फअलों समेत उतार फेंका और नई इन्सानियत को जो मार्फ़त में अपने पैदा करने वाले की सूरत के मुवाफ़िक़ नई बन रही है पहना है।” (कुलिसीयों 3:9-10) और फिर (1कुरंथियो 1:30) में यूं आया है कि “लेकिन तुम जैसे मसीह में होके उस के हो के, वो हमारे लिए ख़ुदा की तरफ़ से हिक्मत और रास्तबाज़ी और पाकीज़गी और ख़लासी है।”
माहीयत (असलियत) बयान मुतज़क्किरा बाला
बयान मुतज़क्किरा बाला की कुल माहीयत (असलियत) ये है कि इन्सान ख़ुदा की जमाली सिफ़ात के नमूने पर उस की सूरत में पैदा किया गया और यूं उस को एक ऐसा जलाल बख़्शा गया जो कि फ़रिश्तों को भी ना मयस्सर हुआ। बल्कि अगर हम अहले हनूद (हिंदू की जमाअ) के क़ौल को यहां दर्ज कर सकते हैं तो ऐसा मालूम होता है कि द्यूतों ने भी बह तमन्ना रखी कि काश हमको इन्सानियत का जामा इनायत होता पर उनको भी नसीब ना हुआ यूं हम कलाम की इस आयत की तस्दीक़ इस मुक़द्दमा में पाते हैं जो (इब्रानी 2:7) में आई है कि तू ने जलाल व इज़्ज़त का ताज इस पर रखा और अपने हाथ के कामों पर उसे इख़्तियार बख़्शा तू ने सब कुछ उस के क़दमों के नीचे किया है।
तीसरा बाब
पहले आदम का ख़ुदा की सूरत पर ख़ल्क़ किया जाना
माहीयत (असलियत) जिस्मी
दूसरे बाब में इस का इशारा हो चुका है कि इन्सान का जिस्म दो हिस्सों के ऊपर मुश्तमिल है, एक जिस्मानी और दूसरा रुहानी। जिस्म की माहीयत (असलियत) ये है कि वो ख़ाकी और फ़ानी है और ताएर-ए-रूह के लिए मिस्ल एक क़फ़स (पिंजरे) या मकान की है और इस को उसी वक़्त तक जे़ब व ज़ीनत है कि जब तक ये ताएर-ए-रूह उस का लबद (मुँह) ख़ाकी के अंदर मुक़य्यद है। और जब वो इस में से निकल जाता है तो इस जिस्म की हैइयत भी मुतग़य्यर (बदला हुई) हो जाती है और इस में ज़वाल आ जाता है हत्ता कि वो नेस्त व नाबूद हो जाता है।
माहीयत (असलियत) रूही
रूह की माहीयत (असलियत) ये है कि नातिक़ व ग़ैर-फ़ानी है और इस जिस्म से आज़ाद होकर फ़लक अफ़्लाक पर पहुंची और अपनी हस्ती के अंजाम का हज़ उठाती और अपने किरदार के मुताबिक़ अपनी सज़ा या जज़ा अबद-उल-आबाद के लिए पाती है।
ख़ुदा की सूरत का इलाक़ा
ग़रज़ कि ख़ुदा की इस सूरत को जिसके ऊपर इन्सान पैदा किया गया था उस की हैइयत जिस्मी से कुछ इलाक़ा नहीं है पर उस की रूह से मुताल्लिक़ है और वो इन बातों के ऊपर मुश्तमिल है।
ख़ुदा की सूरत के इलाक़ा की हक़ीक़त की तशरीह
1- इन्सान साहिबे अर्वाह है।
2- इन्सान साहिबे बक़ा है।
3- इन्सान साहिबे इदराक व फ़हम व ज़का है।
4- इन्सान साहिबे ज़मीर है।
5- इन्सान साहिबे इरफ़ान व दानिश है।
6- इन्सान साहिबे सदाक़त है।
7- इन्सान साहिबे तक़्दीस है।
8- इन्सान साहिबे इक़तिदार व हुकूमत है।
पहली हक़ीक़त का तज़्किरा
पहले, ख़ुदा की सूरत इस बात में पाई जाती है कि इन्सान साहिबे अर्वाह है। इस दुनिया में सद-हा चीज़ें ऐसी हैं कि जिनकी माहीयत (असलियत) से हम मह्ज़ ना-आश्ना हैं लेकिन उनकी तासीरात से उनके वजूस का ऐसा तयक़्क़ुन (एतबार) हासिल करते हैं कि जिसमें शक को मुदाख़िलत मुहाल है।
रूह की माहीयत (असलियत) का भी यही हाल है कि अगरचे हम उस की माहीयत (असलियत) के ऊपर कलाम नहीं कर सकते हैं तो भी इस के वजूद की निस्बत यक़ीन कुल्ली रखते हैं। जब हम किसी शैय को देखते हैं तो इस में चंद सिफ़तें ऐसी पाते हैं कि जिसके देखने से हम उस की हैइयत या वजूद के क़ाइल होते हैं गो उस हैइयत की कुल माहीयत (असलियत) समझ में ना आ सके। इसी तरह पर जब हम इन्सान के अंदर अक़्ल व इदराक और फ़हम व ज़कावत (ज़हानत) और तसव्वुर व ख़्वाहिश वग़ैरह वग़ैरह सिफ़ात के ऊपर ग़ौर व फ़िक्र करते हैं तो फ़ौरन एक माहीयत (असलियत) का ख़्याल पैदा होता है कि जिसमें से ये सिफ़तें और खूबियां सादिर होती हैं। ऐसी माहीयत को हम रूह क़रार देते हैं। कलाम में इस माहीयत (असलियत) की निस्बत ये लिखा है कि “ख़ुदावंद ख़ुदा ने ज़मीन की ख़ाक से आदम को बनाया और उस के नथनों में ज़िंदगी का दम फूँका। सो आदम जीती जान हुआ।” जिससे उस की अलैहदा हैइयत मुदल्लिल है। ख़ुदावंद तआला की हैइयत के ज़हूर की निस्बत भी कलाम में यूं आया है कि ख़ुदा रूह है पस उसी क़ादिर-ए-मुतलक़ और रूह अज़ली ने इन्सान में ज़िंदगी का दम फूंक के इस को रूह नातिक़ अता की। फ़र्क़ अलबत्ता इतना है कि ख़ुदावंद जल्ले जलाल कि एक रूह बसीत (वसीअ) व ग़ैर मख़्लूक़ व क़य्यूम है पर इन्सान की रूह मख़्लूक़ है। पस जैसा कि सानेअ और मसनूअ में हमेशा फ़र्क़ होता है वैसा ही ख़ालिक़ व मख़्लूक़ रूह में भी इम्तियाज़ हक़ीक़ी और तफ़रीक़ तहक़ीक़ी लाज़िम व सज़ावार (लायक़, मुनासिब) है। अब हम इस दुनिया में ये क़ायेदा पाते हैं कि लड़का अपने वालदैन की मुशाबहत आप में इस क़द्र कहता है कि लोगों को ये तमीज़ हो जाती है कि ये लड़का फ़लां शख़्स का बेटा है इसी तरह इन्सान की रूह में ख़ुदा की शबाहत नमूदार है और इस के वसीले से सिफ़त इलाही का पर तो इस में साया-अफ़गन (हिफ़ाज़त या मदद करने वाला) होता है इलावा उस के फ़र्ज़ंद हैं ना सिर्फ ज़ाहिरी है मुशाबहत पाई जाती है पर इस का आज भी अपनी अस्ल यानी अपनी हक़ीक़ी वालदैन की तरफ़ होता है। बमूजब उस के हम देखते हैं कि बनी-आदम की कुल ख़्वाहिशें उस के ख़ालिक़ मुंजी ही की तरफ़ को लगी रहती हैं और जिस क़द्र ज़्यादा ख़ुदा की पहचान में तरक़्क़ी होती है उसी क़द्र वो अपने आस्मानी बाप की सी ख़ूबीयों को आप में आश्कारा करता है। पस अगर हम इस बात को इस माहीयत (असलियत) से मिलाएं जो कि लोगों में एक बाक़ायदा कुल्लिया हो रहा है कि कुल शैय यर्जा अला असला (یرجع الی اصلہ) और फिर उस को कलाम की इस आयत से मुक़ाबिल करें जहां लिखा है कि “तुम सब इस ईमान के सबब जो मसीह ईसा पर है ख़ुदा के फ़र्ज़ंद हो और इसलिए कि तुम बेटे हो ख़ुदा ने अपने बेटे की रूह तुम्हारे दिलों में भेजी जो अब्बा यानी ऐ बाप पुकारती है।” तो साफ़ अयाँ होता है कि रूह इन्सान रूह ख़ालिक़ की शबिया व सूरत पर ख़ल्क़ होती है। (अम्साल 20:27) में आया है कि “आदमी की रूह ख़ुदावंद का चिराग़ है।” और पौलुस रसूल ने फ़रमाया है कि “हमने दुनिया की रूह नहीं बल्कि वो रूह जो ख़ुदा की तरफ़ से पाई है।”
हासिल कलाम
इन आयात और दलाईल बाला से साफ़ आश्कारा है कि इन्सान की वो सूरत जिस पर वो ख़ल्क़ किया गया था अव्वलन इस बात के ऊपर मबनी है कि इन्सान साहिबे अर्वाह है क्योंकि जिस्म की निस्बत ऐसे अल्फ़ाज़ जैसे कि कलाम में मुस्तअमल हैं हरगिज़ कार-आमद नहीं हुए और ना हो सकते हैं और रूह के बग़ैर जिस्म ख़ाक और मह्ज़ बे-हक़ीक़त शैय है और इस निस्बत में वो हैवानों से बेहतर नहीं हो सकता है।
दूसरी हक़ीक़त
दोमन, ख़ुदा की सूरत जो इन्सान में पाई जाती है इस बात में है कि वो साहिबे बक़ा है। बक़ा सिर्फ़ ख़ुदावंद ही की ज़ात को मह्सूब है चुनान्चे (1 तीमुथियुस 1:1) में लिखा है कि “अब अज़ली बादशाह ग़ैर-फ़ानी की इज़्ज़त और जलाल हमेशा को हो। आमीन” और फिर (1 तीमुथियुस 6:16) में आया है जो मुबारक और अकेला क़ुदरत वाला बादशाहों का बादशाह और ख़ुदावंदों का ख़ुदावंद है बक़ा फ़क़त उसी को है बलिहाज़ इस अम्र के सारी कौमें बाला इत्तिफ़ाक़ इस सिफ़त को तस्लीम करती और ख़ुदावंद से ख़ाइफ़ रहती हैं और उस की सदाक़त के ऊपर गवाह हैं।
इन्सान की बक़ा का सबूत अक़्ली और इस की नूएं
अक़्ल की रू से इस हक़ीक़त को साबित करना कुछ मुश्किल नहीं है और इस के सबूत में चार बातें क़ाबिल-ए-ग़ौर व लिहाज़ कि हैं यानी :-
1- रूह की माहीयत (असलियत) ऐसी है कि नीस्ती के ख़्याल को बातिल करती है।
2- ये दुनिया एक इम्तिहान की हालत है।
3- रूए ज़मीन की कुल कौमें इस राय के ऊपर इत्तिफ़ाक़ रखती हैं।
4- तशबीहात की रू से भी इस की तस्दीक़ होती है।
1- रूह की माहीयत (असलियत) अजज़ा तरकिबी से ख़ाली है चुनान्चे हमारे मुंजी ने अपने जी उठने के बाद अपने शागिर्दों से फ़रमाया कि अपने हाथ यहां लाओ और टटोलो और मालूम करो कि मैं ही हूँ क्योंकि रूह में हड्डी और गोश्त नहीं होता है।
1- कैफ़ीयत नूअ अव्वल
जिस्म का नेस्त होना एक अम्र मुतलक़ और बदीही है इसलिए कि इस की तर्कीब में माद्दा को मुदाख़िलत व आमेज़िश है और माद्दा के ऊपर हवादिस (हादिसा की जमा, मुसीबत, तक्लीफ़) अपना असर कर के इस में तब्दीली पैदा करते हैं जो तब्दीलात इस आलम माद्दी में हर हाल में ज़हूर में आती हैं लेकिन रूह की हैइयत में माद्दा को दख़ल नहीं है चुनान्चे हवादिस व तब्दीलात ज़माना से इस के ऊपर असर नामुम्किन बल्कि मुहाल है और जब कि इस में तब्दील व तग़य्युर ना-मुम्किन है तो वो बेशक बाक़ी होगी यानी मंतिक़ के क़ायदे की बमूजब इस का ख़ुलासा यूं कर सकते हैं कि जो ग़ैर माद्दी है वो फ़ना से मुबर्रा व मुनज़्ज़ह (पाक) है। रूह माद्दी शैय नहीं है पस रूह फ़ना से मुबर्रा व मुनज़्ज़ह है।
2- कैफ़ीयत नूअ दोम
ये बात ज़बान ज़द अवाम है कि दुनिया मज़रआ (खेत) आक़िबत है। जो जैसा बोएगा वैसा ही आक़िबत में काटेगा। जिससे ये मुराद ली जाती है कि जब जान इस जिस्म से अलग होगी तब अपने किरदार का एवज़ अपने आक़ा है। हक़ीक़ी और मालिक तहक़ीक़ी के हाथ से पाएगी इस आइंदा सज़ा और जज़ा का ख़्याल लोगों के अंदेशों में यहां तक समाया हुआ है कि गोया उनके वजूद का एक हिस्सा हो रहा है। साअदी ने कहा है :-
خیرے کن اے فلاں و غنیمت شمار عمر زان پیشتر کہ بانگ بر آید فلاں نماند
फिर यह कहता है :-
خجل آنکس کہ رفت و کار نساخت کو س رحلت زد ندو بار نساخت
अगर सच्च है कि ये नयाज़ मज़रआ आक़िबत है और ये कि हम इस आलम अस्फ़ल में इम्तिहानन रखे गए हैं तो इस ज़राअत के नफ़ा और इम्तिहान के समरा की इंतिज़ारी ख़्वाह नख़्वाह (ज़बरदस्ती) होगी क्योंकि मेहनत का एक अंजाम और किरदार का एक समरा (फल) होता है। अब अगर मेहनत और किरदार का अंजाम और समरा नीस्ती मुतसव्वर हो तो कलाम बाला बे-माहीयत हो जाता है। इसलिए कि जब कोई मेहनत करने वाला है तो उस के अंजाम का हासिल करने वाला भी ज़रूर ही होगा। मक़ाम-ए-ग़ौर का है कि हर किरदार अस्फ़ल कमा-हक़्क़ा (जैसा उस का हक़ है) अंजाम इस दुनिया में ज़हूर में नहीं आता है और हम अक्सर लोगों को ये कहते सुनते हैं कि हमने इस का अंजाम ख़ुदा के ऊपर छोड़ा जिसका ये मतलब है कि वो जो कि हाकिम-उल-आलम है इस काम का एवज़ उस के फ़ाइल को ऐसे अंदाज़ा पर देगा जिसकी माहीयत (असलियत) से वो इस आलम में बे-ख़बर है। इलावा इस के ये भी देखने में आता है कि अक्सर बातें उल्टी पलटी होती हैं। पस अगर यही हाल रहे तो अजीब तरह की तारीकी नज़र आएगी और ख़ल्क़त के मज़्लूम मह्ज़ मज़्लूम ही रहे और अपनी सब्र के समरा से बेफ़ैज़ व महरूम गए। क्या ऐसी मुहमल (बेमतलब, बेकार, बेहूदा) बात को अक़्ल तस्लीम कर सकती है? हरगिज़ नहीं अक़्ल साफ़ बतलाती है।
कि सज़ा और जज़ा के लिए एक वक़्त है और वो वक़्त जब ही आएगा कि जब रूह इस जिस्म के पर्दे को फाड़ के अपने ख़ालिक़ व मालिक के हुज़ूर में होगी जिससे किसी दिल का हाल पोशीदा नहीं खड़ी की जाएगी। तब वो बात पूरी होगी जो (1 कुरंत्थी 4:5) में आई है जब तक ख़ुदावंद ना आए तुम वक़्त से पहले अदालत ना करो वो तारीकी के पोशीदा बातों को रोशन कर देगा और दिलों के मंसूबे ज़ाहिर करेगा। तब ख़ुदा की तरफ़ से हर एक की तारीफ़ होगी।
3- कैफ़ीयत नौअ सोम
तीसरी दलील इस अम्र के सबूत की रूए ज़मीन की क़ौमों के इत्तिफ़ाक़ में पाई जाती है। कस्रत की राय हमेशा हर ख़्याल को पाएदारी और इस्तिहकाम बख़्शती है और कस्रत को हमेशा ग़लबा हासिल होता है। पस जब हम ये देखते हैं कि फ़ी अलिफ़ (999) आदमी रूह की बक़ा के क़ाइल हैं तो क्या हम ये समझ सकते हैं कि ये सिर्फ़ लोगों की बंदिश है। हरगिज़ नहीं बल्कि इस कस्रत राय से ये नतीजा निकलता है कि ये ख़्याल इन्सान की सरिशत का गोया एक जुज़ (हिस्सा) है और क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा की तरफ़ से दिलपर नक़्श कर दिया गया है। ताकि लोग फ़रेब ना खाऐं, बल्कि अपनी हक़ीक़त-ए-हाल के ऊपर निगाह रख के ख़ुदावंद के मुलाक़ात करने के लिए आपको तैयार रखें। ये ख़्याल कि लोगों को ना सिर्फ आक़िबत की तरफ़ रुजू रखता है पर अख़्लाक़ की दुरुस्ती और हुसूल ख़ूबी की निस्बत भी मुतहर्रिक होता है और इस दुनिया को बह हमा वजूह (वजह की जमा) मज़रआ आक़िबत बना देता है। ग़रज़ ये कि हम इस इत्तिफ़ाक़ आम में बक़ा का सबूत हासिल करते हैं। और रूह की बक़ा को क़ायम रखने के लिए हिदायत व ताअलीम पाते हैं।
4- कैफ़ीयत नौ चहारुम
चौथी दलील हम अक़्लन रूह की बक़ा को तशबीहात के ज़रीये से साबित कर सकते हैं। इस दुनिया में अक्सर औक़ात ऐसा देखने में आता है कि बाअज़ बाअज़ चीज़ें अपनी असली हैइयत (ताल्लुक़) को तब्दील कर के एक नई और शानदार हैइयत पाती हैं। मसलन तितली जिसमें हद दर्जे की खुशनुमाई और उम्दगी नज़र आती है। एक कीड़े से पैदा होती है। जो पत्ती के ऊपर गुज़रान करते करते एक अजीब हैइयत में मुबद्दल (तब्दील शूदा) हो जाता है और बज़ाहिर नीस्ती की हालत तक पहुंच जाता है पर एक अरसे तक हालत में रह के अपनी नीस्ती में से मिस्ल कुक्नुस (एक रिवायती ख़ुश-रंग और ख़ुश-आवाज़ परिंद कहते हैं कि इस की चोंच में 360 सुराख़ होते हैं और हर सुराख़ से एक राग निकलता है) की एक नए अंदाज़ की हस्ती की माहीयत (असलियत) को इख़्तियार करता और अपनी हयूले (अस्ल) के पर्दे को तोड़ कर एक शानदार सूरत पकड़ता है और पत्तों को छोड़ के गल्लों के ऊपर अपना बसेरा लेता है। और एक मजहूल (काहिल) और बे-हक़ीक़त कीड़े से एक ख़ुशनुमा और दिल पसंद ब-रंग गुलगूँ तितली का वजूद ज़हूर में आता है। पस जब कि अदना दर्जे के जानदारों में ऐसे अजीब व ग़रीब तब्दील ज़हूर में आते हैं तो इन्सान की आला हस्ती में इस तरह का तबद्दुल वाक़ेअ होना और इस का अबद-उल-आबाद क़ायम रहना बईद अज़ अक़्ल (अक़्ल से दूर) नहीं है बल्कि एक अम्र मुम्किन अल्तशबीह है और क़रीन-ए-क़ियास (वो बात जिसे अक़्ल क़ुबूल करे) मुतसव्वर हो सकता है।
इस नूअ के इलावा सबूत
फिर इन्सान की हैइयत की तब्दीलात के ऊपर फ़िक्र करने से भी ये अम्र पाया सबूत को पहुंच सकता है। इन्सान की हालत पर जब से कि इस के वजूद की बुनियाद उस की माँ के शिकम में पड़ती है और इस की मौत तक में कैसी अजाइब व ग़रीब तब्दीलात ज़हूर में आते हैं इस की हैइयत मादरी और पैदाइशी में इस के माबअद ज़िंदगी से किस क़द्र फ़र्क़ होता है कि अगर उल्फ़त वालदैन दर्मियान में ना हो तो इस बेचारे बच्चे का पता ना लगे। पर जब कुछ सियाना हुआ तो ना सिर्फ क़वी होता है पर रफ़्ता-रफ़्ता समझ और अक़्ल व शऊर की दौलत को हासिल करता जाता है। और जब अय्याम बलूग़त को पहुंचा तो इस में कैसी पुख़्तगी आती है कि बज़म इन्सानी की जे़ब व ज़ीनत होता है और इस दुनिया के ख़्याल को तर्क करके आलम-ए-बाला की तरफ़ को परवाज़ करने लगता है। पस क्या उस का मुरक्कब तसव्वुर यहीं पर आजिज़ व मानदाह होके ख़ाक पर बैठ रहेगा और तसव्वुर की बाज़ू यहीं टूट जाएगी और उस की उम्मीद मुनक़ते हो (टूटना) जाएगी। हरगिज़ नहीं बल्कि अग़्लब (यक़ीनी, मुम्किन, ग़ालिबन) है कि अपने जिस्म की क़फ़स से आज़ाद हो कर वो जो इस आलम में चीज़ों को गोया धुँदला सा देखता है रूहों के वतन में परवाज़ करके हर शैय की माहीयत (असलियत) हक़ीक़ी को दर्याफ़्त करेगा और ज़बूर के मुअल्लफ़ के साथ ये कि “मैं जो हूँ सदाक़त में तेरा मुँह देखूँगा और जब मैं तेरी सूरत पर होके जागूँगा तो मैं सैर हूँगा।” (ज़बूर 17 और 15) और अपने मुंजी के साथ ये कि “मैं तुमसे सच्च सच्च कहता हूँ कि गेहूं का दाना अगर ज़मीन में गिर के मर ना जाये तो अकेला रहता है पर अगर मरे तो बहुत सा फल लाता है।” (युहन्ना 12:24)
इस नूअ का सबूत नक़्ली
यहां तक तो दलाईल अक़्ली से रूह की बक़ा का सबूत हासिल हुआ पर शुक्र का मुक़ाम है कि हम सिर्फ अपनी अक़्ल ही के ऊपर बिल्कुल एतिमाद नहीं रख सकते हैं पर अक़्ल की तस्दीक़ नक़्ल से भी पाते हैं और कलाम पाक दर्मियान में आता है। जिसके वसीले से ख़ुदावंद ने हमारी माहीयत (असलियत) को हम पर ऐसी सफ़ाई के साथ आश्कारा कर दिया है कि हम इस अम्र की तस्दीक़ से मुतमत्ते (फ़ायदा उठाने वाला) और मतमीन होते और अपनी रूह को आरास्तगी बख़्शने के लिए हिदायत पाते हैं। चुनान्चे अब हम कलाम की निस्बत रुजू करते हैं ताकि रूह की बक़ा को साबित करें। (ज़बूर 16:8-11, 49:15) में यूं आया है :-
“मेरी निगाह हमेशा ख़ुदावंद पर है इसलिए कि वो मेरे दहने हाथ है मुझको कभी जुंबिश ना होगी। इसी सबब से मेरा दिल ख़ुश है और मेरी ज़बान शाद मेरा जिस्म भी उम्मीद में चेन करेगा कि तू मेरी जान को क़ब्र में रहने ना देगा और तू अपने क़ुद्दूस को सड़ने ना देगा तू मुझ को ज़िंदगानी की राह दिखाएगा। तेरे हुज़ूर ख़ुशीयों से सेरी है। तेरे दहने हाथ में अबद तक अशरतें (ख़ुशीयां) हैं लेकिन ख़ुदावंद मेरी जान पाताल के क़ाबू से छुड़ाएगा।”
फिर (अय्यूब 19:26) में यूं आया है और “हर-चंद मेरे पोस्त के बाद ये जिस्म भी नेस्त किया जाये लेकिन मैं अपने गोश्त में से ख़ुदावंद को देखूँगा।” और (वाइज़ 12:7) में दर्ज है “उस वक़्त ख़ाक ख़ाक से मिल जाएगी जिस तरह आगे मिली हुई थी और रूह ख़ुदा के पास फिर जाएगी जिसने उसे दिया।” फिर (1 कुरंथी 15:51-54) आयात के मज़्मून में ये लिखा है कि :-
“देख मैं तुम्हें एक भेद की बात कहता हूँ कि हम सब सोएँगे नहीं पर हम सब बदल जाऐंगे एक दम में एक पल में पिछ्ला नर्सिंगा फूँकते वक़्त कि नर्सिंगा तो फूँका जाएगा और मुर्दे उठ के ग़ैर-फ़ानी होंगे और हम भी बदल जाऐंगे क्योंकि ज़रूर है कि ये फ़ानी बक़ा को पहने और ये मरने वाला हमेशा की ज़िंदगी को पहने और जब ये फ़ानी ग़ैर-फ़ानी को और ये मरने वाला हमेश्गी को पहन चुकेगा तब वो बात जो लिखी है पूरी होगी कि फ़त्ह ने मौत को निगल लिया।” फिर (2 कुरंथी 5:10) पर रुजू करो “क्योंकि हम सबको ज़रूर है कि मसीह की मसनद-ए-अदालत के आगे हाज़िर हों, ताकि हर एक जो कुछ उसने बदन में होके किया क्या भला क्या बुरा मुवाफ़िक़ उस के पा ले।” और (1 युहन्ना 3:2) में ये लिखा है “प्यारो ! अब हम ख़ुदा के फ़र्ज़ंद हैं और हनूज़ ज़ाहिर नहीं होता कि हम क्या कुछ होंगे पर हम जानते हैं कि जब वो ज़ाहिर होगा हम उस की मानिंद होंगे।”
ख़ुलासा अल-कलाम
अज़-बस कि ख़ुदावंद तआला बाक़ी व क़ायम वजूद आला है और उसने इन्सान की रूह को भी ग़ैर-फ़ानी व बाक़ी बनाया है ज़ाहिर है कि ये बकाए रूही एक शबाहत है कि जिसमें इन्सान ख़ुदा की सूरत पर पैदा किया गया है।
तीसरी हक़ीक़त का तज़्किरा
तीसरे ख़ुदा की सूरत जो इन्सान में पाई जाती है इस बात में है कि इन्सान साहब-ए-इदराक व फ़हम व ज़का है। इदराक से मुराद वो क़ुव्वत और इस्तिदाद (सलाहियत) और रूह है कि जिसके वसीले से इन्सान हर बात की माहीयत (असलियत) तक पहुंचता और उनका एक दूसरे से मुक़ाबला कर के इस की असलीयत व हक़ीक़त और लग़्वियत व बतालत की शनाख़्त हासिल करता है और अपनी फ़हम व ज़कावत को काम में ला के बात की माहीयत (असलियत) को पहुंच जाता है। यही ताक़त व इस्तिदाद (सलाहियत) है कि जो इस को हैवानात के ऊपर शर्फ़ बख़्शती है। हैवानात हर-चंद कि अपनी अक़्ल हैवानी के ज़रीये से एक तरह का वक़ूफ़ आश्कारा करते हैं पर अक़्ल-ए-सलीम की माहीयत (असलियत) और राज़ रूए मुक़ाबले के असलयात व लग़वयात (लग़्वियत की जमा, बेहूदा बातें या अफ़आल) में इम्तियाज़ करने और इस से मुस्तफ़ीद होने की सिफ़त से आजिज़ व आरी हैं। किसी बात को जानना और इस की शनाख़्त को हासिल करना एक शये है और इस बात पर ख़ूज़ (ग़ौर) कर के इस की माहीयत (असलियत) तक पहुंचना और इस के हुस्न व क़ुब्ह (ऐब, बुराई) को मालूम करना और इस की हिदायत के मुताबिक़ अमल करना शैय दीगर है इस माहीयत (असलियत) की ख़ूबी क़ुव्वत इदराक के ऊपर मौक़ूफ़ है और इस के वजूद में दानिश व फ़िरासत और फ़हम व ज़कावत की हाजत है। सो अज़-बस कि इन्सान में ये सिफ़त बदर्जा ऊला पाई जाती है हम इस में अपने ख़ालिक़ की दानिश बेहद का अक्स पाते हैं। लिहाज़ा हम ये नतीजा निकालते हैं कि इन्सान में ख़ुदा की सूरत इस बात में पाई जाती है कि इन्सान साहब-ए-इदराक और फ़हम व ज़का है इस अम्र की तस्दीक़ में हम कलाम के वो आयात पेश कर सकते हैं जो (ख़ुरूज 31:1-3,6) में आई हैं “फिर ख़ुदावंद ने मूसा से हमकलाम होके कहा देख मैंने बज़िल्ली ईल बिन ओरी (بضلی ایل بن اوری) को यहूदाह के फ़िर्क़े में से बुलाया और मैंने उस को हिक्मत और फ़हमीदा और इल्म और हर तरह की हुनरमंदी में रूह अल्लाह से भर दिया और देख मैंने ईलियाब को जो अख़ी समक का बेटा और दान के फ़िर्क़े में से है इस का साथी कर दिया और “मैंने सब रोशन ज़मीरों के दिल में हिक्मत रखी कि सब कुछ जो तुझे फ़रमाया है बना दें।” फिर हज़रत सुलेमान के हक़ में लिखा है कि “आँहज़रत के इन्साफ़ को सुनके बादशाह से डरे क्योंकि उन्होंने देखा कि ख़ुदा की दानिश अदालत करने के लिए उस के दिल में है।” (1सलातीन 3:28)
चौथी हक़ीक़त तज़्किरा
ख़ुदा की सूरत जिसमें इन्सान पैदा किया गया था इस बात में भी पाई जाती है कि इन्सान साहिबे ज़मीर है। जैसा कि इदराक इन्सान की इस्तिदाद (सलाहियत) और रूह को जोहर है जिसके बाइस से इस को कुल हैवानात पर शर्फ़ हासिल है वैसा ही इस्तिदाद (सलाहियत) अख़्लाक़ी का जोहर और इस का सँभालने और सुधारने वाला ज़मीर है। हर इन्सान के दिल में एक तिब्बी और ज़ाती पहचान है कि जिसके बाइस से वो नेक और बद में इम्तियाज़ करने की ताक़त पाता है और बाअज़ बाअज़ बातों को बे-जा और नारवा और नाज़ेबा तसव्वुर कर के उस से गुरेज़ करता है। और चंद बातों को वाजिब और मुनासिब समझ कर उस की रोशनी में चलना फ़र्ज़ियात से समझता है और और दिन में भी उनकी कशफ़ उम्मीदवार होता है पस इस इस्तिदाद (सलाहियत) को जिसमें इस इम्तियाज़ का वस्फ़ पाया जाता है ज़मीर कहते हैं ज़मीर अक़्ल का चिराग़ है और ना सिर्फ अक़्ल का चिराग़ है पर कोया शमा नूर इलाही है जिन लोगों के पास कलाम पाक की रोशनी नहीं है वो नेकी व बदी में इम्तियाज़ ज़मीर ही रखते हैं और उसी की हिदायत के मुताबिक़ अपनी तबीयत को राज़ी रखते और अपनी ज़िंदगी गुज़ारते हैं चुनान्चे (रोमियो 2:14-15) में आया है “इसलिए जब ग़ैर कौमें जिन्हें शरीअत नहीं मिली अगर तबीयत से शरीअत के काम करते हैं सो वो शरीअत ना पाके अपने लिए आप ही अपनी शरीअत हैं। वो शरीअत का ख़ुलासा अपने दिलों में लिखा हुआ दिखलाते हैं उनकी तमीज़ यानी ज़मीर भी गवाही देती और उनके ख़्याल आपस में इल्ज़ाम देते हैं या उज़्र करते हैं।” फिर उस कनआनी औरत के ज़िमन में जिसको लोग मसीह के पास इम्तिहानन लाए थे लिखा है कि “जब फ़क़ीहिया और फ़रीसी मसीह से इस के इल्ज़ाम की निस्बत सवाल करते जाते थे और इस मुंजी आरिफ़-उल-क़ू (عارف القو) ने कहा कि तुम में जो बेगुनाह है वही पहला पत्थर मारे तो वो ये सुनकर दिल ही दिल में अपने आपको गुनाहगार समझ कर बड़ों से लेकर छोटों तक एक एक कर के चले गए। (युहन्ना 8:9) ये ज़मीर क़ाज़ी तहज़ीब व अख्लाक है और हादी पेशवा और काशिफ़ (ज़ाहिर करने वाला) जुर्म आदम है और इस में फ़र्क़ सिर्फ इतना है कि वो ख़ुदा तआला की पहचान की माहीयत (असलियत) की वुसअत को पहुंच नहीं सकता है। इन्सान ने इस इम्तियाज़ को हद दर्जा तक पहुंचाने के लिए कोई कोशिश दरेग़ नहीं रखी हत्ता कि इसी हौसले में आपको ख़राब व तबाह किया। इस सदा ने कि तुम ख़ुदा की मानिंद नेक व बद को जानने वाले होगे उस को ऐसा फ़रेफ़्ता कर डाला कि इस के फ़िराक़ में हुक्म इलाही को भी पामाल कर डाला और अपनी हद एतिदाल (दरम्यानी दर्जा) से गुज़र के वो नादानी की कि आपको और अपनी औलाद को भी ज़लील व ख़ार किया। लिहाज़ा नतीजा इस कलाम का ये है कि इन्सान साहब ज़मीर और फ़हम होने के बाइस से अपने ख़ालिक़ और आबए समावी की सूरत व सीरत को आप में आश्कारा और अपनी अलवेत और अफ़्ज़लीयत को साबित व हवेदा करता है।
पांचवीं हक़ीक़त का तज़्किरा
पांचवें, हम ख़ुदा की सूरत को इन्सान में इस बात में भी देखते हैं कि इन्सान साहिबे इर्फ़ान है। इर्फ़ान ब मअनी पहचान के है और पहचान में इल्म की माहीयत (असलियत) मुस्तअमल है। अब अज़-बस कि इल्म के मअनी जानने के हैं इस से ये मुराद है कि इन्सान सिर्फ़ बुत की मानिंद नहीं बनाया गया था कि सिर्फ खाने पीने और लज़्ज़त नफ़्सी से वाक़िफ़ हो के इस में ग़लत व पेच खाता रहे पर इसलिए कि वो इस आलम का सरदार बनाया गया और ताकि अपने आस्मानी बाप की सोहबत में अबद तक ख़ुश व ख़ुर्रम रहे इस नज़र से इस को आला दर्जे की पहचान ज़रूर थी कि इस की हस्ती की ग़रज़ का मक़्सद बुराई और वो ख़ुदा और मलाइका बल्कि कुल ख़ल्क़त का मक़्बूल और मंज़ूरे नज़र रहे लिहाज़ा इन्सान की इर्फ़ान की माहीयत (असलियत) को हम तीन नूअ के ऊपर मुनक़सिम कर सकते हैं :-
1- ख़ुदा की पहचान
2- अपनी माहीयत (असलियत) की हक़ीक़त की पहचान
3- ख़ल्क़त की इश्याअ मुतफ़र्रिक़ की पहचान
1- ख़ुदा की पहचान
ज़ाहिर है कि जब तक हम जैसों में एक दूसरे की सोहबत की क़ाबिलीयत है तब तक वो एक दूसरे की संगत से महफ़ूज़ नहीं रह सकते। इसी तौर पर अगर इन्सान को ख़ुदा तआला की ऐसी पहचान हासिल ना होती कि जो उस की ख़िदमत गुज़ारी के लायक़ हो सके तब तक ये बात रास्त ना आ सकती थी कि ख़ुदा की सूरत पर पैदा किया गया था। इस से ये नतीजा निकलता है कि जिससे उस की बुजु़र्गी और अज़मत उस के दिल के ऊपर नक़्श हो गई। और वो अपने ख़ालिक़ के दबदबे की शनाख़्त और उस से अपने लिए तसल्ली हासिल कर के महफ़ूज़ हुआ मिस्ल उन फ़रिश्तों के जो उस की जलील (बुलंद) हुज़ूरी में रहते और शब व रोज़ उस की किब्रियाई (बड़ाई) की शहादत देती हैं ख़ुदावंद की इसी जलील और अज़ीमुश्शान माहीयत (असलियत) की शनाख़्त हासिल कर के ज़बूर का मुअल्लफ़ ये कलिमा अपनी ज़बान के ऊपर लाया “माबूदों के दर्मियान ऐ ख़ुदावंद तुझ सा कोई नहीं और तेरी सी सुनअतें कहीं नहीं। ऐ ख़ुदावंद सारी कौमें जिन्हें तूने खल्क़ किया आयेंगी और तेरे आगे सज्दा करेंगी और तेरे नाम की बुजु़र्गी करेंगी कि तू बुज़ुर्ग है और अजाइब काम करता है तू ही अकेला ख़ुदा है।” (ज़बूर 86:8-10) हमें इस से ये नहीं समझना चाहीए कि इन्सान ख़ुदा की पहचान के कमाल तक पहुंच गया इस से सिर्फ ये मुराद लेना चाहिये कि आदम ने ख़ुदा की पहचान की शनाख़्त इस दर्जे ही तक हासिल की कि जहां तक उस की महदूद अक़्ल को रसाई और गुंजाइश थी और इस की तसल्ली और ख़ुशी के लिए ज़रूर और दरकार थी क्योंकि कोई मख़्लूक़ नहीं है कि जो ख़ुदावंद के कमाल को पहुंच सके। चुनान्चे हज़रत अय्यूब इस मुक़द्दमे में फ़रमाते हैं :-
“क्या तू अपनी तलाश से ख़ुदा का भेद पा सकता है या क़ादिर-ए-मुतलक़ के कमाल को पहुंच सकता है। वो तो आस्मान से ऊंचा है। तू क्या कर सकता है? पाताल से नीचा है तू क्या जान सकता है? इस का अंदाज़ा ज़मीन से लंबा और समुंद्र से चौड़ा है।” (अय्यूब 11:7-9)
हज़रत दाऊद ने ख़ुदावंद की पहचान की अज़मत और उस की शनाख़्त को हत्त-उल-मकान हासिल कर के जो तसल्ली पाई उस का तजुर्बा यूं मज़्कूर है, “ख़ुदाया तेरे अंदेशे मेरे हक़ में क्या ही क़ीमती हैं, उनकी कुल जमा क्या ही बड़ी है, मैं उन्हें क्या गिनुं वो तो शुमार में रेत से ज़्यादा हैं जब मैं जागता हूँ तो फिर भी तेरे साथ हूँI” (ज़बूर 139:17-18) इन आयात से साफ़ ज़ाहिर व बाहर है कि ख़ुदा के वजूद की पहचान इन्सान की समझ और उस के इदराक के अहाते से बाहर हैं पर जहां तक मुम्किन है वहां तक उस की शनाख़्त हासिल कर के बनी-आदम उस से तसल्ली पाता है और ख़ुदा में अपनी सलामती देखता और उस में शाद रहता है। आदम की इब्तिदा ए शनासाई (जानने) की कैफ़ीयत हम इन बातों में पा सकते हैं जो कि मसीह की बादशाहत की तरक़्क़ी के हक़ में कलाम पाक में आई हैं कि जिस तरह पानी से समुंद्र भरा है इसी तरह ज़मीन ऐ ख़ुदावंद के जलाल की शनासाई से मामूर होगी पस इन्सान की हस्ती की इब्तिदा और इंतिहा दोनों का लुब्ब-ए-लुबाब यही पहचान हैI
ख़ुलासा कलाम
बहरहाल सारी बातों से ये नतीजा निकलता है कि जब आदम ने अपनी आँखें ज़िंदगी में खोली और अजाइब व ग़रीब ख़ल्क़त और इस की मामूरी का मुशाहिदा किया तो उनके इर्फ़ान तबाज़ाद (अपनी ईजाद, तबीयत से निकला हुआ) ने उनमें ख़ुदा की पहचान की एक कान अमीक़ पाई और अपने ख़ालिक़ की माहीयत (असलियत) और मक़्सूद और उस के जलाल और शान की ख़ूबीयों को ऐसे अंदाज़ के साथ देखकर हैरत में आके उस की पहचान की अज़मत की वजह से सुकूत खींचा और अजब नहीं कि जैसा हवा ने बमूजब क़ौल मिल्टन साहब :-
आदम से कहा कि जब मैं तुझसे गुफ़्तगु करने में मशग़ूल रहती हूँ तो वक़्त का ख़्याल मेरे दिल से बिल्कुल महव (गुम) हो जाता है।
वो भी इस तरह का कलिमा अपनी ज़बान पर लाए हैं कि ऐ ख़ुदावंद तेरी बुजु़र्गी और जलाल के ऊपर मेरे सारे ख़याल दुनिया से उठ जाते हैं और मैं अज़ ख़ुद फ़रामोश होके तेरी शनाख़्त में महव (गुम) हो जाता हूँ और अग़्लब (यक़ीनी, मुम्किन) है कि आँहज़रत ने ख़ुदावंद की तारीफ़ में इस क़िस्म की ग़ज़ल गाई :-
और मुम्किन है कि ना सिर्फ आप ही मुतहय्यर (हैरत-ज़दा, हैरान) हो के अकेले ही सना-ख़्वानी की हो पर मलाइका (फरिश्तों) व कुल ख़लाइक़ यानी आफ़्ताब व महताब (सूरज और चाँद) कोवाकब (सीतारे) बल्कि अर्बा इनासिर्फ को भी यूं तर्ग़ीब दी हो कि अपने ख़ालिक़ को बुजु़र्गी दो, उस की मदह-सराई करो, उस को ख़ुदाए कुल जानो और अदब व ताज़ीम के साथ उस की हम्द में ख़म हो जो कि तुमको जीती जान देता है और तुम्हारे सर दिन पुर-लुत्फ़ शामिल और अलताफ़ कामिल का ताज रखता है। इसी तरह हिदायत हमको कलाम में यही मिलती है। और ज़बूर के मुअल्लफ़ ने ये तर्ग़ीब दी है “ख़ुदावंद की सताइश करो ! ऐ ख़ुदावंद के बंदों उस की सताइश करो ! ख़ुदावंद के नाम की मदह करो, ख़ुदावंद का नाम इस दम से अबद तक मुबारक हो आफ़्ताब के मुत्लाअ से उस के ग़ुरूब तक ख़ुदावंद का नाम ममदूह हो। ख़ुदावंद सारी उम्मतों पऱ बुलंद व बाला है। उस का जलाल आसमानों पर है ख़ुदावंद हमारे ख़ुदा की मानिंद कौन है जो बुलंदी पर रहता हैI (ज़बूर 113:1-5)
2- अपनी हक़ीक़त की पहचान और इस की ज़रूरत
अपनी माहीयत (असलियत) और हक़ीक़त की पहचान। जैसा कि ख़ुदावंद के वजूद और उस की पहचान की शनाख़्त इन्सान की तसल्ली के लिए ज़रूर और दरकार है। ऐसा ही अपने फर्ज़ियात को मुनासिब तौर पर अदा करने के लिए भी ज़रूर है कि इन्सान अपने तईं बख़ूबी पहचाने अब हर शख़्स के ऊपर आशकार है कि ताबेदारी की माहीयत (असलियत) अपनी हक़ीक़त की पहचान के ऊपर मौक़ूफ़ है। ग़ुलामाना ताबेदारी और फ़र्ज़ंदाना ताबेदारी में आस्मान और ज़मीन का फ़र्क़ है क्योंकि दोनों की पहचान की माहीयत (असलियत) में फ़र्क़ होता है। ग़ुलाम की पहचान मह्ज़ ख़ौफ़ के साथ है इसलिए कि वो आप में और अपने आक़ा में किसी तरह की मुनासबत नहीं देखता है। पर फ़र्ज़ंद की माहीयत ग़ुलाम की माहीयत से अफ़्ज़ल है चुनान्चे इस पहचान से एक तरह का इत्मीनान सादिर होता है जिसके बाइस से अपने वालदैन की निस्बत अपने फ़राइज़ के अदा करने में इस को एक तरह की आला तहरीक हासिल होती है और वो दिल से डर को दूर कर के दिलजमई के साथ अपने फ़राइज़ को मक़्बूल तौर पर अदा करता है। अब इन्सान को ऐसे मक़्बूल तौर पर अपने फ़राइज़ अदा करने के लिए इस क़द्र पहचान हासिल करना ज़रूर है कि जिसके बाइस से वो अपने हद-ए-एतिदाल से तजावुज़ ना करे और अपनी ख़िदमत के समरा को अपने हक़ में मुफ़ीद मतलब पाए। इस बात की हक़ीक़त के सबूत में एक नज़र याद आती है।
नक़्ल करते हैं कि किसी बादशाह के दरबार में एक वज़ीर था जो अपनी सर्फ़राज़ी की पेशतर नहाईए ही मफ़्लूक-उल-हाल (तबाह-हाल) हो गया था नान (रोटी) शबिया को मुहताज और कपड़ों की तरफ़ से ऐसा तंग हो गया था कि वाक़ई चिथड़ों की नौबत आ रही थी पर जब इस हालत में बादशाह की इस पर मद्द-ए-नज़र हुई तो उसने अपनी अगली हालत का फ़िरौ गुज़ाश्त करना (चशमपोशी करना, भूलना) मुनासिब ना समझा बल्कि अपनी ख़िदमत को ज़्यादा-तर मक़्बूल तौर पर अदा करने और अपनी हालत को हर वक़्त अपनी याद में ताज़ा रखने की नीयत से उसने उन चिथड़ों व एक गठरी में बांदा के तोशा ख़ानी में एहतियातन कह छोड़ा और हर रोज़ ये मामूल रखता कि जब कार (काम) शाही से फ़राग़त पाता (फ़ुर्सत हासिल होना) तो इस कमरे के अंदर जा के लिबास फ़ाखिरा उतार डालता और उन चिथड़ों से अपने तईं मलबूस कर के अपनी अस्ल कैफ़ीयत को रोज़मर्रा अपनी याद में ताज़ा करता और हर तरह के आफ़ात से जो आला मन्सब को लाहक़ हैं अपने तईं बचाता। रफ़्ता-रफ़्ता उस के हासिद इस पर हसद ले गए और बादशाह के आगे उस की मनिश ज़नी की और इस को दज़वी दौलत शाही का मुत्तहिम (बदनाम) किया। जब बादशाह ने इस अम्र की जुस्तजू की तो इस अक़ील व फ़हीम व दाना और वफ़ादार शख़्स को बऊज़ ख़ियानत के इसी पोशाक में मलबूस पाया। इंद-अल-इस्तफ़सारीयह (عند الاستفساریہ) राज़ कहला कि वो अपनी असली हालत की पहचान से किनारा करना नामुनासिब समझ के ये काम रोज़मर्रा करता था। पस उस की अदु नादिम हुए और इस के बाइस से इस की ख़िदमत बनिस्बत साबिक़ के कई गुना ज़्यादा पसंदीदा हो गई।
ख़ुलासा अल-कलाम
ख़ुलासा ये कि इसी शख़्स की मानिंद अपने फ़राइज़ को वाजिबी तौर पर अदा करने के लिए अपने तईं बहर-ए-हाल पहचानना वाजिब व लाज़िम था और इसी पहचान के मुताबिक़ इन्सान का फ़र्ज़ वाजिब और मक़्बूल हुआ। सुलेमान बादशाह के क़ौल से इस मुक़द्दमे में हमको ये हिदायत मिलती है कि ये अच्छा नहीं है कि रूह या तमीज़ दानिश से ख़ाली रहे (अम्साल 19:30) जिससे ये नतीजा निकलता है कि आदम को ख़ुदा की और अपनी माहीयत (असलियत) की पहचान यहां तक हासिल थी कि उस की इताअत दानिश के साथ और बह हमा वजूह पसंदीदा था और कि उस में मक़्बूलियत की क़ाबिलीयत मौजूद थी।
3- इश्या-ए-मुतफ़र्रिक़ की पहचान
ख़ल्क़त की इश्या-ए-मुतफ़र्रिक़ की पहचान। आदम के पैदा किए जाने का तीसरा मक़्सद ये था कि वो ख़ल्क़त के ऊपर हुक्मरान हो, चुनान्चे इस मक़्सद के बर आने के लिए ज़रूर था कि वो अपने मातहत इश्या-ए-ज़ी-रूह या ग़ैर ज़ी की हक़ीक़त से बख़ूबी वाक़िफ़ हो। इस नज़र से ख़ुदावंद को पसंद आया कि उस को उनकी मुख़्तलिफ़ माहीयत (असलियत) की पहचान के साथ पैदा करे। आदम का इस सिफ़त की साथ पैदा किया जाना इस से आश्कारा है कि जब सब जानदार ज़ी-रूह उनकी आगे लाए गए ताकि वो उनके नाम रखे उसने उनके हसब-ए-हाल हर एक को नाम दिया और जो नाम आदम ने दिया वही उस का नाम हुआ। यूं इस से साफ़ ज़ाहिर होता है, कि वो ख़ल्क़त की इश्याय मुतफ़र्रिक़ की पहचान व शनाख़्त में माहिर थे।
हासिल कलाम
जब हम इस सह चंद पहचान की तरफ़ रुजू होते और इस के ऊपर फ़िक्र करते हैं तो भी ताम्मुल यही नतीजा निकालने की हिदायत पाते हैं कि इस इर्फ़ान या पहचान में ख़ुदा की दानिश बेहद का आसार पाया जाता है। जिससे साबित है कि इस अम्र की निस्बत भी इन्सान ख़ुदा की सूरत पर पैदा किया गया था क्योंकि ख़ुदा ने जो दानिश और इर्फ़ान का चशमा है इन्सान को भी इसी हैसियत की साथ बनाया।
छठी हक़ीक़त का तज़्किरा
ख़ुदा की वो सूरत जिसके ऊपर इन्सान पैदा किया गया था इस अम्र से भी आश्कारा है कि इन्सान साहिब-ए-तस्दीक़ या सदाक़त है। इन्सान की ख़ल्क़त व नूअ के ऊपर मबनी है एक जिस्मानी दूसरा रुहानी और इन दोनों की इस्तिदाद (सलाहियत) और औसाफ़ भी मुतफ़र्रिक़ व मुख़्तलिफ़ हैं। गो दिल ही से सारे हरकात पैदा होते हैं ताहम जिस्म के कामों में और रूह के कामों में बड़ा फ़र्क़ होता है। जिस्म के कामों की रग़बत अख़्लाक़ से मुताल्लिक़ है और जब ये कहा जाता है कि इन्सान साहिब-ए-तस्दीक़ है तो इस से ये मुराद है कि इन्सान के अफ़आल जिस्मानी हर तरह से मुनासिब व पसंदीदा और ख़ालिस व बेलगाओ थे। उस की हरकात शाइस्ता और उस के अत्वार अख़्लाक़ी बायस्ता और ज़मीन बंदा थे। इस के मक्र व फ़रेब और हीलाबाज़ी का माद्दा जो अब बनी-आदम में ज़ाहिर होता है उस की पैदाइश के वक़्त इस में मौजूद ना था। पर वो इन सारी बातों से मुबर्रा और मुस्तग़नी (आज़ाद) था। उस की चाल में ना-फ़र्मानी और शमा तक ना था और कोई अम्र मुख़्तलिफ़ ऐसा ना था जो उस की ताबेदारी में फ़ुतूर बर्पा करता या उस को ऐसे फे़अल का मुर्तक़िब बनाता जिसको ख़ुदा की मर्ज़ी से मुख़ालिफ़त या ज़िद होती यानी रास्त और सीधा और साबित-क़दम था और उस में किसी तरह की ख़ामी व कजी नाम तक को ना थी। वो अपनी ख़ालिक़ से और उस की निस्बत अपने फ़राइज़ से इस क़द्र वाक़िफ़ था कि अपने अख़्लाक़ को ख़ुदा की मर्ज़ी से मिला देना उस के पसंद ख़ातिर था और उस को इस बात का इल्म हासिल था कि हम पर फ़र्ज़ है कि अपने तन व मन से ख़ुदावंद की इताअत व फ़रमांबर्दारी वाजिबी तौर पर बजा लाएं। इस चलन की रास्ती की निस्बत कलाम से ये गवाही मिलती है कि सौ मैंने सिर्फ इतना पाया कि ख़ुदा ने इन्सान को सीधा बनाया। (वाइज़ 7:29) और कि सादिक़ की राह रास्ती ही (यसअयाह 5-26) ख़ुदावंद जो कि भला और सीधा सादिक़ है सदाक़त को चाहता है और उस का मुँह सीधे लोगों की तरफ़ मुतवज्जा है। (ज़बूर 11:7) और (ज़बूर 25:8) अब हमको इस बात का ख़ूब ख़्याल रखना चाहिए कि जितनी सिफ़तों को ख़ुदा इन्सान से तलब करता है उन सारी सिफ़तों से इन्सान इब्तिदा-ए-मामूर ममलू (लबरेज़) बनाया गया था वर्ना इन्सान अपनी हस्ती के मक़ासिद के पूरा करने की इस्तिदाद (सलाहियत) ना रख सकता और अगर ये नुक़्स इस में इब्तिदा से पाया जाता तो इस में नाकामिलीयत होती और ख़ुदावंद के कमाल पर हर्फ़ आता। पस हम इस से ये नतीजा निकालते हैं कि ख़ुदावंद की दस्तकारी में नारास्ती को मुदाख़िलत मुहाल है या ये कि जिस हस्ती में ख़ुदावंद की रास्ती का ख़्याल पाया जाये उस को ख़ुदा की शबिया तसव्वुर करना चाहिए। इन्सान ही अकेला कह सकता है कि मिसराअ (एक किवाड़) रास्ती मूजिब रिज़ए ख़ुदासत। अब चूँकि रास्ती की सिफ़त सिफ़ात बारी में से एक है इस से ये नतीजा निकलता है कि ख़ुदा की वो सूरत जिस पर इन्सान ख़ल्क़ किया गया था इस बात में भी आश्कारा है कि इन्सान साहिबे सदाक़त था।
सातवीं हक़ीक़त का तज़्किरा
जैसा कि पाकी ख़ुदावंद तआला की जनाब जलील (बुलंदी) का सरताज था वैसा ही तक़द्दुस या पाकी की सिफ़त इन्सान की कुल जिस्मी ताक़तों और रुहानी इस्तिदाद (सलाहियत) का भी सरताज था। यही सिफ़त थी जो इन्सान के सारे ख़यालात के ऊपर फ़रमान रवा होके उस को ख़ुदा के अहकाम के मुतीअ (ताबेअ) बनाती और इस को गुनाह और मौत की शरीअत पर ग़लबा बख़्शती थी और इस को ऐसी हैसियत बख़्शती थी कि जो कुल मख़्लूक़ात के ऊपर आला व बाला थी और इस को ख़ुदा और ख़ल्क़ का मंज़ूरे नज़र बनाती थी। आदम की इब्तिदाई पाकी और उस के ख़ालिक़ की बेहद पाकी का एक हिस्सा थी उसी नज़र से वो बेदाग़ और बेऐब थी उस की मर्ज़ी और ख़्वाहिश व कुल तबीयत इसी सिफ़त के आगे ख़म होने और ताज़ीम के साथ उस की क़दम बोस होते और उस की हिदायत के ताबेअ थी। ख़ुदा का प्यार उस की ख़्वाहिश यकता थी। और उस के दिल का मेल इसी एक ख़ूबी की तरफ़ रुजू था जिसकी तहरीक से सिवा उन ख़यालों की जिनमें ख़ालिक़ की रज़ा थी और उस की ख़िदमत के बारे में बेहद सरगर्मी और उस को बेज़ार करने की निस्बत एक संजीदा ख़ौफ़ ग़ालिब रहने के सिवा और किसी अम्र का सादिर होना मुम्किन ही ना था। जैसा (रोमीयों 7:22) में आया है कि “मैं बातिनी इन्सानियत से ख़ुदा की शरीअत में मगन हूँ और इस सबब से कि इन्सान ख़ुदावंद के ख़ौफ़ में अपनी पाकीज़गी को कामिल करता था ख़ुदा की भी ख़ुशनुदी बनी-आदम में थी।” जैसा कि (यसअयाह 62:4 अम्साल 11:2) में आया है “ख़ुदावंद तुझसे ख़ुश है। और जिन लोगों के दिल में बुराई है उनसे ख़ुदावंद को नफ़रत है पर जिनकी रविशें सीधी हैं, उनसे वो ख़ुश है।” और फिर (मत्ती 5:8) में लिखा है कि “मुबारक है वो जो पाक-दिल हैं क्योंकि वो ख़ुदावंद को देखेंगे।”
पाकी की सिफ़त की ज़रूरत
ये पाकी आदम की शरीअत के साथ ऐसी वाबस्ता थी कि जो उस की हक़ीक़त के ऊपर ग़ौर करेगा सो इस बात को भी क़ुबूल कर लेगा कि आदम था। आदम फ़ाइल ख़ुद-मुख़्तार और एक क़ानून का पाबंद बनाया गया था अब फ़ाइल ख़ुद-मुख़्तार की ख़ूबी इसी बात के ऊपर मौक़ूफ़ है कि उस की मर्ज़ी क़ानून तबीई और शराअ अख़्लाक़ी की पाबंदी के लिए हर तरह से मुनासिब व मुवाफ़िक़ हो और इस को इस क़द्र कमाल हासिल हो कि वो इताअत उस को बार (भारी) ना गुज़रे बल्कि ताकि उस का दिल इस में महफ़ूज़ रहे और उस का मेल उसी तरफ़ का हो और ये बग़ैर दिली पाकी के मुहाल था और इस के अदम वजूद की वजह से ये कर सकती हैं कि ख़ुदा इन्सान से वो बात तलब करता था कि जिसके वफ़ा करने की इस को ताक़त ना मिली और यूं इन्सान की बर्गशतगी का इल्ज़ाम ख़ुदा की तरफ़ आइद होता और ये आयत कलाम में हरगिज़ ना मिलती कि तुम पाक बनो क्योंकि मैं पाक हूँ ख़ल्क़त की पैदाइश के वक़्त जब सब कुछ ख़त्म हो चुका तो लिखा है कि ख़ुदा ने सब पर जो उसने बनाया था नज़र की और देखा कि बहुत अच्छा है जिससे साफ़ आश्कारा है कि सब कुछ उस की मर्ज़ी की मानिंद था और कोई शैय ख़िलाफ़ किसी ख़ल्क़त में पाई ना जाती थी। फिर उस माहीयत की हक़ीक़त इन्सान की नई पैदाइश की माहीयत (असलियत) से अला-उल-ख़ुसूस मुबर हिन् व आश्कारा होती है।
नई पैदाइश इस माहीयत की दलील
रसूल यूं रक़म फ़रमाते हैं कि तुम अगले चलन की बाबत इस पुरानी इन्सानियत को जो फ़रेब देने वाली शहवतों के सबब से ख़राब हुई उतार दो और अपनी समझ और तबईत की निस्बत नए बनो। और नई इन्सानियत को जो ख़ुदा के मुवाफ़िक़ रास्तबाज़ी और हक़ीक़ी पाकीज़गी में पैदा हुई पहनो। (इफ़िसियों 4:22-24) ज़ाहिर है कि ये नौ ज़ादगी उस क़दीम असली पैदाइश की बिगड़ी हुई हालत का बहाल करना है। पस ज़रूर है कि ये पिछली पैदाइश उस पहली पैदाइश की हम अस्ल व हम-माहीयत हो और अगर ये अम्र क़ाबिल-ए-तस्लीम के है तो ज़रूर है कि पाकी उस की सिफ़त थी।
नतीजा कलाम
बयान बाला से ये नतीजा निकलता है कि ख़ुदाए क़ादिर-ए-मुतलक़ ने जो अपनी ज़ात में सरापा पाकी है इन्सान को जो कि इस आलम अस्फ़ल में उस का नायब है पाक और बेलौस और रास्ती की मीलान (रुजहान) के साथ पैदा किया और यूं अपनी सूरत को इस के ऊपर नक़्श कर दिया।
आठवीं हक़ीक़त का तज़्किरा
ख़ुदा की सूरत का नक़्श इस हुकूमत और सरदारी में भी है जो कि इब्तिदा में खुदा ने आदम को अता की थी। वो इस आलम अस्फ़ल में ख़ुदा का नायब मुक़र्रर हुआ। चुनान्चे उस के ताज अक़्दस का एक गुल उस की ज़ेबाइश के लिए उस के सर पर रखा गया जिसके सबब से उस में यहां तक दबदबा और शिकवा पाया गया कि जिस वक़्त हैवानात उस के आगे ख़ुदा की तरफ़ से भेजे गए तो सबसे उनकी ताबेदारी में सुकूत किया और सब्र के साथ उनकी मह्कूम (जिन पर हुकूमत की जाये) रहे और उनकी सरदारी को यूं तस्लीम किया कि जो नाम आदम ने उनको दिया उस को उन्होंने ख़ुशी के साथ क़ुबूल कर लिया। इस हुकूमत और सरदारी की निस्बत कलाम में यूं आया है “तूने उस को (आदम को) फ़रिश्तों से थोड़ा ही कम किया और शान व शौकत का ताज उस के सर पर रखा है तू ने उस को अपने हाथ के कामों पर हुकूमत बख़्शी। तूने सब कुछ उस के क़दमों के नीचे किया है। सारी भेड़, बकरीयां और गाय, बैल और जंगली चौपाए और आस्मान के परिंदे और दरिया की मछलियाँ और हर एक चीज़ जो दरिया की राहों में गुज़रती है।” (ज़बूर 8:5-8)
मुबारक हो ख़ुदावंद जिसने इन्सान को अपनी ज़ुल (पनाह, साया) पर और अपनी मानिंद बनाया और मुबारक है आदम जो ऐसी उम्दा तरीन जे़ब व ज़ीनत के साथ आरास्ता पैरास्ता किया के इस ख़ल्क़त अस्फ़ल का सरताज क़ायम किया गया।
चौथा बाब
आदम की पैदाइश के हमराह ख़ुदा की ख़ास पर्वर्दिगारी का तज़्किरा
आदम के साथ पर्वरदिगारी इलाही का अव्वल सुलूक यानी जोहर मासूमियत अता होना।
ख़ुदावंद तआला ने आदम व हव्वा को अपनी सूरत पर पैदा कर के अपनी पर्वर्दिगारी में अव्वल सुलूक उनके साथ ये किया कि उनको जोहर मासूमियत का अता किया और यूं उनकी ख़ुशनुदी को कमाल के दर्जे तक पहुंचा दिया। वो मासूम हो के आप में ख़ुदावंद की ताबेदारी की माहीयत रखते थे ऐसा कि अपने ख़ालिक़ की ख़ुशनुदी और रजामंदी के सिवा कोई शए उनकी पसंद ख़ातिर ना हो सकती थी।
इस हालत में वो बदी से और इस के नताइज से मह्ज़ ना-आश्ना थे इस सबब से उनकी इताअत भी बेलौस थी और अज़-बस कि वो इख़्तिलाफ़ के माद्दा से बे-ख़बर थे ख़ुदावंद की मर्ज़ी की मुख़ालिफ़त का शमा तक उनकी सलामती में ख़लल-अंदाज़ होने को मौजूद ना था तारीफ़ व सताइश और पाकी की तहसीन व आफ़रीन करना उनका काम था और उनकी ज़िंदगी ज़िंदगी इलाही की हम सिफ़त थी पस नतीजा ये हुआ कि जैसा ख़ुदावंद अपनी ज़ात में पाकी और सलामती व कमाल का चशमा था वैसा ही हमारे अव्वल वालदैन भी पाक और सालिम व कामिल थे सारी ख़ल्क़त उनमें सूरत इलाही की माहीयत (असलियत) को देखकर और मालूम कर के इताअत और उल्फ़त के साथ उस के सरंगुं होती और उनकी ख़िदमत करने और उनकी ख़ुशी को बढ़ाने में बदिल (दिल से) मसरूफ़ और उनकी ख़िदमतगुज़ारी और फ़रमांबर्दारी से फलूती करने की जैसा कि अब हाल है रग़बत ना रखती थी। वो अपने सरदार अस्फ़ल के दस्त-ए-क़ुदरत की निगरान थे और आदम मए अपनी ज़ौजा (बीवी) के ख़ुदावंद अर्ज़ और समा अल-समावात की क़ुदरत आलीया का दस्त-ए-निगर था। ख़ुदा को जलाल देना उनका ऐन शेवा था। और ख़ल्क़त से इत्मीनान ढूंढना उनका काम था और ये दोनों काम दिल की हुब्ब से बे मुक़ाबरा व मुजादिला (मुक़ाबला के बग़ैर) उनसे ज़ाहिर आश्कारा होते थे। उनकी समझ शम्मा नूर थी उनकी मर्ज़ी ख़ुदावंद की मर्ज़ी से मुत्तहिद थी। उनकी मुहब्बत ख़ालिस व पाक और हर तरह की बे इंतिज़ामी से बरी और बे ग़ुबार (बग़ैर किसी मलाल के) थी। चुनान्चे इसी मअनी में वो ख़ुदा और मलाइका व कुल ज़ी-रूह मख़्लूक़ात की ख़ुशनुदी थी और उन की सदा हम्द में फ़रिश्तों की ग़ज़ल आस्मानी की हमदम थी और उनकी ग़ज़ल ये थी। दो, ख़ुदावंद को उस की सारी ख़ल्क़त, दो, ख़ुदावंद को इज़्ज़त और जलाल व बुजु़र्गी, क्योंकि उस के काम अजाइब हैं और उस की रहमत सारे आलम पर है।
पर्वर्दिगारी इलाही का दूसरा सुलूक यानी बाग़-ए-अदन में रखा जाना
ताकि उनकी ख़ुशी बे गज़ मुज़िर है और उनकी तबीयत पर कुदूरत (नफ़रत) का ग़ुबार (धुआँ) किसी तरह पर ग़लबा न करने पाए ख़ुदावंद की पर्वर्दिगारी का दूसरा सुलूक उनके साथ ये था कि उसने उनको बाग़-ए-अदन में रखा। अदन बमअनी इशरत और ख़ुशी व ऐश के हैं और चूँकि ये नाम इस्म बामसमे था वाज़ेह है कि ये जगह मअदन खुशनुमाई थी यानी जितनी चीज़ें ज़रूरत के लिए दरकार या ख़ुशी की अफ़्ज़ाइश के लिए मुमिद थीं वो इस कमाल के साथ वहां पर मौजूद थीं कि उनमें किसी तरह की कमी ना थी और ना कोई ऐसी एहतियाज थी कि जिसके रफ़ा करने की गुंजाइश इस में ना होती। वो फ़िल-हक़ीक़त बहिश्त बरिन का नमूना था अर्श था और ख़ुदावंद का जलाल उस के वसीले से यहां तक मुबरहिन् व आश्कारा था कि जब आदम अपनी अश्ग़ाल दस्ती (हाथ के काम, मश्ग़ले) में मशग़ूल होता तो ख़ुदावंद की क़ुदरत की शगूफ़ा कारीयां हर-दम निगाहों के तले हाज़िर रहतीं और इताअत व मुहब्बत और सलामती की तबीयत को मुश्तइल (भड़कता हुआ) करके उस को जोलानी (तेज़ फ़हमी, फिरती) बख़्शें और उस के ख़यालात ख़ुसूसन इस बाग़ की खुशनुमाई के वसीले से इस के ख़ालिक़ व बानी की तरफ़ को सऊद कर के (ऊपर चढ़ना) इसी जानिब को रुजू रहते। इस से साफ़ मालूम होता है कि ख़ुदावंद बनी-आदम की सिर्फ भलाई का ख़्वाहां रहता है और इन्सान मासूम को ख़ुशी व राहत से ऐसा घेरता है जो ना सिर्फ उस की रहमत के ऊपर दाल हो बल्कि सुलूक पिदराना (बाप की मुहब्बत) को हर हाल में आश्कारा करे हत्ता कि इन्सान अपने ख़ालिक़ की तरफ़ सिवा मुहब्बत के और किसी तरह पर निगाह कर भी नहीं सकता और जो कुछ नुक़्स देखता तो उस को अपनी ही ज़ात में पाता और ख़ुदावंद की हम्द में यूं नग़मासराई करता खड़े हो जा और ख़ुदावंद अपने ख़ुदा को अबाद-उल-आबाद तक मुबारक कहो। बल्कि तेरा जलाली नाम-ए-मुबारक हो जो सारी मुबारकबादी और हम्द पर बाला है। तो हाँ तू ही अकेला ख़ुदा है। तू ने आस्मान को और आसमानों के आस्मान को और उनकी सारी ज़मीन को और जो कुछ उनमें है बनाया और तू सभी का पर्वरदिगार है और आसमानों का लश्कर तेरा सज्दा करता है। (नहमियाह 5:5, 9:6)
बाग़-ए-अदन में रखे जाने की इल्लत-ए-ग़ाई
आदम के बाग़-ए-अदन में रखे जाने की इल्लत-ए-ग़ाई (वजह, मक़सद) ये है कि वो बाग़ की हिफ़ाज़त में मशग़ूल रह कर हाथ के साथ अपने दिल को भी सालिम व महफ़ूज़ रखे और बे शग़ली व बेकारी के इम्तिहानात से बच के अपने मालिक से लो लगाए और उसी की ख़िदमत में शाद व बश्शाश रहे और अपने ख़ालिक़ को फ़रामोश करने की तरफ़ से इत्मीनान में रहे। यूं उस की राह में गुल इत्मीनान बहतेरा दिए गए और सलामती उस का बैरक़ (इल्म) हुआ जैसा कि पाकी उस का सरताज थी।
पर्वरदीगारी इलाही का तेरा सुलूक आदम का साहब शरअ व अख़्लाक़ होना
ख़ुदावंद तआला ने अपनी रहमत की बे पायानी से ना सिर्फ उस की सलामती के लिए सामान ज़ाहिरी ही बहम पहुंचाए कि जिसके बाइस से वो गुमराही से महफ़ूज़ रहे बल्कि उस को इत्मीनान कलबी भी बख़्शा था और जिस दिल को अपनी सूरत की सिफ़त से आरास्ता कर के पैदा किया था इस दल के ऊपर अपनी इंतिज़ाम पर्वर्दिगारी से शराअ अख़्लाक़ी को ऐसे तौर पर मुनक़्क़श कर दिया था कि वो गोया एक क़ायदा ताबेदारी का हो गया जो ख़ुदा की निरी मुहब्बत में मुनासिब मालूम हुआ कि उस की शर्त भी ऐसी तस्लीस तौर के ऊपर क़ायम की जाये कि जिस पर अमल करना आदम कोशाक़ (दुशवार) ना गुज़रे और ना उनको ये कहने का मौक़ा मिले कि तू ने ऐसा सख़्त बार (बोझ) मेरे ऊपर रखा कि इस की बर्दाश्त की मुझमें ताक़त ना थी और ताकि आदम ख़ुशी बखु़शी और जब दिल से इस के पूरा करने में हमा-तन मसरूफ़ व मशग़ूल रह सके इस से और क्या आसान हो सकता था कि तू ये कर तो ज़िंदा रहेगा और ये बात ज़्यादा-तर आसान इस वजह से थी कि ख़ुदावंद ने उनकी तबीयत को ऐसे अंदाज़ के ऊपर ख़ल्क़ किया था कि उनमें ना सिर्फ ताबेदारी की रग़बत मौजूद थी पर वो ताबेदारी ख़ुद आसान थी क्योंकि वो इसी बात के हासिल करने के लिए मुमिद बनाई गई थी। गो उनमें उस के बरअक्स काम करने की रग़बत की आज़ादी भी मौजूद थी। देखिए ख़ुदावंद की रहमत कि वो इन्सान पर ऐसे बोझ नहीं रखता है जिसका वो मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) ना हो सके। पर जैसा बाप बेटे के साथ कमाल मुहब्बत और मुलाइमत व नर्मी से पेश आता है वैसा ही ख़ुदावंद भी कमाल मुहब्बत से उस की भलाई के लिए पेश आता है और ऐसी सादा तौर पर उस के साथ मअहद (अह्द करना) होता है कि जिसमें आदम को उज़्र करने का मौक़ा ना मिले और अपनी ना-फ़र्मानी को अपनी ही ज़ाती कम ताक़ती से मह्सूब (हिसाब किया गया) कर सके ताकि ख़ुदावंद की रास्ती बे-ख़ता रहे और आदम की अपनी ज़ात इस फे़अल की वजह से आप उस की इक़तिदार की ताज़ीम की जिहत (कोशिश) से इस्तिमाल में आया यानी उस की ताबेदारी की माहीयत फ़र्ज़ंदाना थी जो सिर्फ मुहब्बत की राह से कारगर होती और अपने फ़राइज़ की तक्मील में ख़ुश व ख़ुर्रम और शाद व मुतमत्ते रहती है। चूँकि ये उस के लिए एक हालत तबीई थी। कोह-ए-सिना की सी शरोमद उस के ज़हूर के लिए आश्कारा होना मुनासिब ना था। लेकिन जैसा कि बसहूलियत ख़ुदा की रहमत की फ़रावानी से आदम नीस्ती से हस्ती में लाया गया वैसा ही उस के दिल की लहूँ पर आलम ख़ामोशी में ये शरह कुंदा होगी गोया उस की सरिश्त का एक हिस्सा हो गया। इसी वजह से तावक़्त ये कि उस में फ़ुतूर (ख़राबी) ना था तब तक उस की इताअत दिल की हुब्ब से और बोज़अ (वाज़ेह) कामिल ज़हूर में आती रही और इसी अख़्लाक़ी पाकी की वजह से ख़ुदा भी उस के साथ सुकूनत इख़्तियार करना दरेग़ ना रखता था। वो हालत ऐसी ना थी कि जिसमें ये कह सकते कि जिस्मानी मिज़ाज ख़ुदा का दुश्मन है क्योंकि ख़ुदा की शरीअत के ताबेअ नहीं और ना हो सकता है और जो जिस्मानी हैं ख़ुदा को पसंद नहीं आ सकते। (रोमीयों 8:7-8) बल्कि ये वो हालत थी कि जिसकी निस्बत में ख़ुदावंद ने ख़ुद फ़रमाया है कि मेरी ख़ुशी बनी-आदम में थी।
ख़ुदा की पर्वरदीगारी का चौथा सुलूक आदम के साथ मअहद होना
आदम की पैदाइश के हमराह ख़ुदा की पर्वर्दिगारी के सुलूक बाला के शामिल-ए-हाल एक अम्र ये भी ज़हूर में आया कि ख़ुदा जिसको इन्सान की भलाई और ख़ुशनुदी व सलामती मद्द-ए-नज़र थी आदम की ख़ुशी को अफ़्ज़ूँ करने के लिए उस के साथ माद हुआ और एक शर्त के साथ आला दर्जे की ज़िंदगी अता करने का वाअदा किया लेकिन यहां शायद ये सवाल किया जाएगा कि अब तक तो आदम ने गुनाह ना किया था चुनान्चे अब तक मर्ग की हक़ीक़त से नावाक़िफ़ थे। पस वो ज़िंदगी के मालिक थे तो फिर ज़िंदगी का अह्द करने से क्या मुराद है। इस के जवाब में हम ये कहते हैं कि जो ज़िंदगी आदम को उस वक़्त तक हासिल थी वो सिर्फ़ यक तरफ़ी थी और चूँकि वो इम्तिहानन इस आलम अस्फ़ल में रखे गए थी ज़रूर था कि उन पर इस बात की माहीयत (असलियत) आश्कारा कर दी जाये कि आदम सिर्फ़ बाशिंदाहे ज़मीन ही नहीं पर कि वो साकिन कनआन बाला भी है और कि उनकी जिस्मानी ज़िंदगी इस ज़िंदगी रुहानी व आला का एमाऐ अलामत थी और कि जैसा उनकी हस्ती का कुल ये जिस्म नहीं था वैसा ही उनकी ये ज़िंदगी जिस्मी भी उनकी ज़िंदगी कुल्ली ना थी पर कि रुहानी ज़िंदगी उनकी मीरास ख़ास थी। बदीन नज़र मुनासिब था कि उस की कुल माहीयत और ख़ुदावंद की सलामती व ख़ुशी की बेहद दौलत उस के ऊपर आश्कारा की जाये चुनान्चे इस अह्द का मंशा यही था कि वो आप इस बात की माहीयत (असलियत) को समझ रखें कि ख़ुदा ने उनके लिए कैसी अज़ीम नेअमतें अपने पर्वरदीगारी के इंतिज़ाम में मुहय्या की हैं और कि उनके हुसूल के लिए कौन सी तदबीर अमल में लानी ज़रूर है इन वजूहात से इस अह्द की ज़रूरत साबित होती है।
इस अह्द की बुनियाद
दूसरी बात जो इस अह्द की ज़िमन में काबिल-ए लिहाज़ के है सो ये है कि इस की बिना किस माहीयत के ऊपर थी। या आया उस की बुनियाद आदम की किसी ज़ाती ख़ूबी के ऊपर थी या आया कि वो सिर्फ़ रज़ा इलाही के ऊपर मबनी थी। इस की बनिस्बत हम ये कहते हैं कि ये माहीयत आदम की ज़ाती ख़ूबी के ऊपर हरगिज़ मबनी नहीं हो सकती थी क्योंकि अगर आदम में ऐसी ख़ूबी होती कि किसी तरह उनके ऊपर इम्तिहान का असर ना हो सकता तो ये उनके लिए गोया कमाल तक पहुंचता होता और इस हालत में उनके साथ अह्द करने की ज़रूरत ना होती अह्द में इस की तक्मील के बरअक्स सिफ़त का पाया जाना मशमूल है। और ना जहान बरअक्स अमल का इर्तिकअब मुम्किन नहीं है वहां वो भी मअनी से ठहरेगा। मसलन फ़रिश्ते जो अब ख़ुदावंद की हुज़ूरी में रहते हैं उनके साथ किसी तरह के अह्द का तज़्किरा पाया नहीं जाता इसलिए कि उनका अपनी असली हालत से बहक जाना मुहाल-ए-मुत्लक़ है तो जब कि ये आश्कारा है कि ये अह्द आदम की ज़ाती ख़ूबी के ऊपर मबनी हैं हो सकता है। तो इस का एक ही जवाब बाक़ी है कि इस की बुनियाद ख़ुदा की बड़ी रहमत के ऊपर मौक़ूफ़ थी। उस को पसंद आया कि अपनी मख़्लूक़ को दो-चंद ज़िंदगी अता करे पस ये दूसरी ज़िंदगी जो कि इस ज़िंदगी अस्फ़ल का सरताज थी उन पर एक अह्द के साथ आश्कारा की गई। और यही सुलूक हम इस ज़माने तक मुशाहिदा करते हैं ऐसा कि हम पौलुस रसूल के क़ौल के मुताबिक़ अपनी ज़बान पर इस तौर का कलिमा ला सकते हैं कि हम जो कुछ हैं सो ख़ुदा ही के फ़ज़्ल से हैं। जो बात कि निज़ाम इंजीली में रास्त साबित हुई है यानी कि उसने अपनी इरादे के मुवाफ़िक़ हमें सच्चाई के कलाम से पैदा किया वग़ैरह। उस को हम आदम के हक़ में भी यूं मुस्तअमल कर सकते हैं कि ख़ुदा ने अपनी ही मर्ज़ी के इरादे के मुताबिक़ आदम के साथ ये अह्द किया ताकि उस को आस्मान की ख़ुशीयों में मिरास दे।
इस अह्द की माहीयत
ये अह्द जो ख़ुदा ने अपने पर्वरदीगारी के इंतिज़ाम में आदम के साथ बाँधा वजह उस के कि आदम की ताबेदारी के ऊपर मशरूअत था।
अव्वलन :-
अह्द आमाल कहलाता था, जिससे मुराद ये है कि अगर आदम अपने इम्तिहानी ज़माने तक इस काम के करने तक साबित-क़दम रहते जो उनका इस अह्द की ख़ूबीयों और बरकतों में शामिल करने के लिए क़ायम की गई थीं तो आदम इस अह्द के तुफ़ैल से उस अबदी इलाही शादमानी को हासिल करते जो उनको ना सिर्फ सारी ख़ल्क़त के ऊपर शर्फ़ देता बल्कि उनकी शादमानी भी इस दर्जे तक पहुंच जाती जो कि किसी मख़्लूक़ को हरगिज़ हासिल ना हो सकती जैसा कि (1 कुरंथी 2:9) में आया है कि “ख़ुदा ने अपने प्यार करने वालों के लिए वो चीज़ें तैयार की हैं जो ना आँखों ने देखी ना कानों ने सुनीं और ना आदमी के दिल में आईं।”
द्वेमन :-
वह ज़िंदगी का अह्द भी कहलाता है इस वजह से कि इस अह्द की तक्मील का अंजाम ज़िंदगी होता। वो ना सिर्फ उसी ज़िंदगी की मर्ग अख़्लाक़ी या तिब्बी से नजात पाते बल्कि दूसरी मौत का उनके ऊपर किसी तरह का असर ना होता। यूं उनकी ज़िंदगी दो-चंद होती और कुछ अजब नहीं कि वो इसी आलम अस्फ़ल में अपनी बहिश्त को इस तौर पर पाते कि किसी तरह की या ना-कामिलीयत इस में नज़र ना आती बल्कि ख़ुदावंद उनकी रोशनी और ज़िंदगी का नूर होता और उनकी ख़ुशी और शादमानी अदीमुल्मिसाल (عدیم المثال) होती हाँ वो ख़ुदावंद ही की शादमानी से शाद होते और ज़मीन के साथ आस्मान यानी बहिश्त को मिला लेते और यहां पर ना सिर्फ ख़ुदा के नायब ही बने रहते बल्कि अव्वल दर्जे की क़ुर्बत (नज़दिकी) ख़ुदा से हासिल करते और अबदी बादशाही में बड़ी इज़्ज़त और जलाल के साथ मीरास पाते ऐसी मीरास जो कि लाज़वाल और ना-आलूदा है और पज़मुर्दा नहीं होती और यूं उनके ईमान की आज़माईश ख़ुदावंद के दिन में तारीफ़ और इज़्ज़त व जलाल के लिए होती।
इस अह्द की शर्त की माहीयत (असलियत)
ख़ुदावंद की इस पर्वरदीगारी के सुलूक की अज़मत इस बात से बख़ूबी आश्कारा होती है कि जैसा इस अह्द से आदम की शादमानी मक़्सूद थी वैसा ही उस की रहमत बेहद में वो अपनी ना-कामलीयत के ऊपर मातम करने की वजह पाए।
इस अह्द की शर्त यानी कामिल ताबेदारी
ये अह्द कामिल ताबेदारी के ऊपर मशरूत था यानी उस की शर्त यही थी कि आदम सिर्फ़ बज़रीये कामिल ताबेदारी के इस अह्द की नेअमतों में शिर्कत हासिल कर सकता था। उमूरात दीनवी में हम ताबेदारी को गोया सलामती की जान पाते हैं। जहान ताबेदारी है वहां अक्सर सर्फ़राज़ी ज़हूर में आती है। और इस की वजह से लोग ज़माना बड़ी बूलंद मर्तबे तक पहुंच गए हैं। सबब उस का ये है कि इस सिफ़त से अजुज़ व इन्किसार और फ़िरोतनी आश्कारा होती है। और जहां ये सिफ़तें तमामन व कमालन पाई जाएं वहां सर्फ़राज़ी का ना होना मुहाल है। चुनान्चे बुज़ुर्गों के हालात पर ग़ौर करने से इस बात की माहीयत (असलियत) बख़ूबी साबित होती है। हज़रत इब्राहिम ने ख़ुदा के हुक्मों की ताबेदारी कर के अपने बेटे को दुबारा अह्द के साथ पाया और यूं उनकी ख़ुशी अफ़्ज़ूँ हुई। हज़रत लुत ने ख़ुदावंद के हुक्मों की ताबेदारी को ग़नीमत समझ के अपनी जान को सदोम की हलाक से बचाया और आपको सालिम व महफ़ूज़ रखा। हज़रत यूसुफ़ ने ख़ुदावंद के हुक्मों की ताबेदारी से रुगरदानी ना की और नतीजा ये हुआ कि उनको ऐसी सर्फ़राज़ी हासिल हुई कि मर्तबा में फ़िरऔन से सिर्फ एक ही दर्जा कम थी। हज़रत दानयाल और सदरक, मीसक और अबद नजू ने ख़ुदावंद के हुक्मों पर अमल करने से फ़ज़ीलत पर फ़ज़ीलत और ख़ुशनुदी पर ख़ुशनुदी और मर्तबे पर मर्तबा हासिल किया। हमारे ख़ुदावंद की वालिदा मतबर कि अपनी ग़ज़ल में अपनी मुबारकबादी की निस्बत ये कलिमा अपनी ज़बान पर लाएं “ख़ुदावंद ने अपने बंदे की आजिज़ी पर नज़र की इसलिए देख इस वक़्त से हर ज़माने के लोग मुझको मुबारक कहेंगे।” जैसा समुएल ने साउल को ताकीद की कि ख़ुदावंद क़ुर्बानी और मेंढों की चर्बी से ख़ुश नहीं पर इस में कि उस का हुक्म माना जाये वैसा ही इस सर्फ़राज़ी की निस्बत जो हज़रत आदम के हक़ में बद नज़र थी उस की शर्त भी ताबेदारी ही ठहराई गई।
इस हुक्म की वुसअत
जो हुक्म कि आदम की ताबेदारी के लिए शर्त ठहराया गया था वो सिर्फ एक ही हुक्म के ऊपर मौक़ूफ़ था यानी कि तवक्कुल बाग़ के दरख़्तों का फल खाना पर इस दरख़्त से जो बाग़ के बीचो बीच है तू इस से ना खाना और ना उसे छूना गो ज़ाहिर में ये हुक्म बहुत ही छोटा था लेकिन इस की बड़ी वुसअत थी और वो आदम की कुल इस्तिदाद (सलाहियत) के ऊपर हावी था। ये भी ख़ुदा के फ़ज़्ल का एक इंतिज़ाम है कि वो छोटी छोटी बातों से बड़े बड़े नतीजे निकालता है ऐसा कि लोग देख के सुकूत (बे-हिस हो जाना) करते और ख़ुदावंद की अज़मत और किब्र या (अज़मत) की शान के लिए दम मारने की जगह नहीं पाते। पस कैसी अफ़्सोस की बात है कि कोई इन छोटे वसीलों को हक़ीर समझे। जो उस की तहक़ीर करता है गोया ख़ुदा की तहक़ीर करता है। इस मुक़ाम पर नोमान सूर्यानी का हाल याद आता है कि जब उसने बंदा ख़ुदा की ज़बानी ये कलिमा सुना कि “जा और यर्दन में सात ग़ोते लगा तो तू साफ़ हो जाएगा।” वो रंजीदा होके लौटा जाता था। पर जब अपनी खादिमों की तहरीक से इस सादा हुक्म की तामील की तो कैसी अज़ीम शिफ़ा पाई कि वैसी ना सुनी गई थी ना देखने में आई थी। अफ़्सोस कि आदम से भी इस सादा हुक्म की तामील ना हो सकी और उस की तहदीद (धमकी) ने भी उन के ऊपर असर ना किया। हुक्म तो छोटा था पर अगर उस की इल्लत-ए-ग़ाई की तरफ़ लिहाज़ किया जाये तो कैसा अज़ीम नतीजा इस से निकलना मतलुब था और जब उस के नुक़्सान के ऊपर लिहाज़ किया जाता है। तो इस नुक़्सान की अज़मत का कौन बशर बयान कर सकता है। जितनी बरकतें उस की तक्मील पर मबनी थीं उतनी ही बल्कि इस से भी ज़्यादा लानतें उस की ना-फ़र्मानी से सादिर हुईं और दुनिया आज तक इस ना-फ़र्मानी के नतीजे के तले दबी हुई आहें और चीख़ें मारती है हत्ता कि अगर ख़ुदा ही अपनी रहमत की बे पाया नी से नजात के लिए एक नई और ज़िंदा व मोअस्सर राह ना निकालता तो इन्सान की बर्बादी में बाक़ी क्या रह गया था और इस का और इस की औलाद दोनों का काम तमाम था अपनी हासिद (हसद करने वाला) और बर्गशता सरदार के साथ वह अबदी तारीकी में पड़े रहते और उसी की मानिंद उनकी ईज़ा भी हरगिज़ कम ना हुई।
इस हुक्म की ज़बूनी की बुनियाद
अक़्ल-ए-सलीम इस बात को क़ुबूल नहीं कर सकती है कि इस दरख़्त में कोई ऐसी ज़ाती बुराई थी कि जिसके सबब से इस का खाना बाइस गुनाह का हुआ क्योंकि ये अम्र कलाम की माहीयत के बरअक्स होगा। लिखा है कि ख़ुदा ने जब अपनी बनाई हुई ख़ल्क़त पर निगाह की तो कहा कि सब अच्छा है ख़ुदा तआला की पाक ज़ात का तक़ाज़ा भी ऐसा है कि ऐसी ना-कामलीयत के ख़्याल का मानेअ (मना किया गया) होता है। पस इस ख़्याल से हम इस अम्र की सदाक़त का इल्म हासिल कर सकते हैं और ये नतीजा निकाल सकते हैं कि उस दरख़्त में या उस के फल में बिलज़ात किसी तरह की बुराई ना थी बल्कि हम ये कह सकते हैं कि ये दरख़्त किसी ख़ास और बड़े मक़्सद से ना आदम के बिगाड़ ने बल्कि उस को सधाने के लिए इस ख़ुशनुमा बाग़ में जिसमें किसी नूअ की ज़बोनेत (ख़राबी) ना थी रखा गया था। और अगर आदम अपने अय्याम इम्तिहान को सलामती के साथ तै करते तो यक़ीन है कि ये दरख़्त भी मिस्ल और दरख़्तों की उनकी सलामती में मुमिद होता और यूं वो ख़ुदा की बुजु़र्गी का वसीला हो जाता। हुक्म था कि इस का फल ना खाना। पस यही मुमानिअत थी जिसकी अदमे तामील उनके लिए गुनाह मह्सूब हुआ यानी गो फल का खाना मना था पर गुनाह इस हुक्म के टालने में था ना कि पहल में। ख़ुदा ने हज़ार-हा नेअमतें आदम को दी थीं और उनसे सिर्फ एक का तारिक (तर्क करने वाला) होना तलब किया था पस ऐसी हालत में कौन कहेगा कि ख़ुदा ने एक एक बुरी चीज़ को बना के आदम के आगे इम्तिहानन पेश किया। चुनान्चे कलाम में आदम की ना-फ़र्मानी ही का ज़िक्र उस बड़ी आफ़त के ज़िमन में हुआ है। और यूं लिखा है कि एक की ना-फ़र्मानी से ना कि फल के खाने से बहुत गुनाहगार हुए।
इस अह्द के क़ियाम की तहदीद
जो अह्द ख़ुदा ने आदम के साथ किया था इस को संजीदगी बख़्शी और इस में इक़ामत (क़ियाम) के लिए इश्तिआला (शोला उठाना, जोश) देने की ग़रज़ से ये अह्द एक तहदीद (धमकी) के साथ क़ायम किया गया। और ख़ुदावंद ख़ुदा ने आदम को हुक्म देकर कहा कि तू बाग़ के हर दरख़्त का फल खाना लेकिन नेक व बद की पहचान के दरख़्त से ना खाना क्योंकि जिस दिन तू इस से खाएगा तू मरेगा। जिस अह्द में संजीदगी ना हो वो अह्द फ़ुज़ूल है और जहां तहदीद नहीं वहां संजीदगी नहीं और ख़ुदा का अह्द बग़ैर संजीदगी के मुहाल है। जहां अह्द में संजीदगी की तहदीद नहीं वहां उस अह्द की तक्मील में इश्तिआला क्योंकर हो सकता है। लिहाज़ा ज़रूर था कि ये अह्द इस अंदाज़ के ऊपर बाँधा जाये कि इस पर क़ायम रहने और इस की शरात (शर्त) के पूरा करने के लिए इस में रग़बत व मीलान हो। इतनी बड़ी और सख़्त तहदीद के बावजूद आदम ने इस पर लिहाज़ ही ना किया तो अगर ये अह्द बिला तहदीद होता तो क्या हाल होता। अग़्लब (यक़ीनी, मुम्किन) है कि जितने दिन वो अपनी मासूमियत में क़ायम रहे इतने दिन भी क़ायम रहना दुशवार होता। इस से हम ये नतीजा निकालते हैं कि ख़ुदा ने आदम की बेहतरीन भलाई को मद्द-ए-नज़र रखकर ऐसी संजीदगी के साथ आदम से अह्द किया कि जिसके ऊपर लिहाज़ कर के आदम अपने इम्तिहान को ख़ुदावंद के ख़ौफ़ के साथ पूरा करने के लिए हिदायत व तहरीक पाए।
ख़ातिम-उल-कलाम
यूं हम देखते हैं कि आदम के साथ जिस हाल में कि वो पैदा हुए थे निरी रहमत को काम में ला के और उनकी बेहतरीन भलाई को मद्द-ए-नज़र रख के ख़ुदावंद तआला ने मह्ज़ अपनी मर्ज़ी के नेक मश्वरे और इरादे के मुताबिक़ उनको ज़िंदगी की बरकतों में हिस्सा देने के लिए अपनी पर्वर्दिगारी के इंतिज़ाम में अपनी रहमत के उम्दा तरीन सुलूक से उनके साथ पेश आया। बार-ए-खु़दा या तेरी रहमतें कैसी गौना गों (रंग-बिरंगी) हैं और तेरी लतीफ़ रहमतें तेरी सारी ख़ल्क़त के ऊपर हैं और तेरे सारे काम हिक्मत के साथ हैं काश कि लोग ख़ुदावंद के जलील (अज़ीम) कामों के सबब उस की मदह-सराई करते और नजात के नग़मों से उसे घेरते तो उनकी सलामती दरिया की मानिंद बेहती और उनकी इक़्बालमंदी बेहद होती।
ऐ लोगों ख़ुदावंद के नाम की सताइश करो कि उस का नाम अकेला आलीशान है। उसी का जलाल ज़मीन और आस्मान पर मुक़द्दम है। वही अपने लोगों के सींग को बुलंद करता है ये उस के पाक लोगों की इस क़ौम की जो उस से नज़्दीक है शौकत है। (ज़बूर 148:14)
पांचवां बाब
आदम की बर्गशतगी और उनके जुर्म की सक़ालत का तज़्किरा
आदम की बर्गशतगी
ये निहायत ही तास्सुफ़ (अफ़्सोस) का मुक़ाम है कि आदम ने अपनी इस आज़ादी की हालत की जिसमें ख़ुदा ने अपनी पर्वर्दिगारी के इंतिज़ाम से उनको रखा था क़द्र ना की और ना उस को ग़नीमत समझा पर अपने दामन-ए-सब्र को हाथ से छोड़कर इस आज़ादी की हालत में फ़ुतूर डाला बल्कि उस के साथ अपनी नक़द-ए-जान को भी ज़ाए व बर्बाद कर डाला और जिस रूह को ख़ुदावंद तआला ने अपने मुसाहबत (हमनशीनी) से मुशर्रफ़ (मुअज़्ज़िज़) किया था इस को उस की रिफ़ाक़त से जुदा कर के मौरिद-ए-इताब (ग़ुस्सा या कहर के ठहरने की जगह) बनाया। उनके इम्तिहान के लिए अग़्लब (यक़ीनी, मुम्किन) है कि थोड़ी ही रोज़ मुक़र्रर किए गए थे पर इस क़लील अर्से तक भी उनसे सब्र ना हो सका और जल्द-बाज़ी कर के अपनी हालत से गिर गए और अपनी रास्ती से बहक गए। बुरे वक़्त में हज़रत ने अपने हम-जलीस (पास बैठने उठने वाला) व हमदम ज़ौजा (बीवी) माशूक़ा के हाथ से इस समर (फल) मम्नूआ को लेकर खाया और आपको मअ अपनी औलाद के तबाह कर डाला जब हुक्म टूटा तो कुल ख़ूबीयों की गिरहें खुल गईं और वो जादा (रास्ता, तरीक़ा) उल्फ़त भी जिससे हज़रत आदम ख़ुदा के साथ बंधे है खुल गया और कुल अक़्दह (क़ौल व क़रार) बे अक़्दह हो गया। यूं गुनाह का सब्ज़ और मनहूस व तबाह करने वाला क़दम इस दुनिया में आया और साथ उस के जितनी आफ़तें इस में मशमूल (शामिल) थीं सब ज़हूर में आईं और ये ज़मीन जो बहिश्त-ए-बरीँ का नमूना थी एक वीराना ख़ार-दार बन गई। और बाग़-ए-अदन की ख़ुशीयों से ख़ारिज किए जा के ख़ुदा की हुज़ूरी की ख़ुशीयों से भी दूर और उस की रिफ़ाक़त से महरूम कर दीए गए।
इस बर्गशतगी का इल्ज़ाम ख़ुद आदम ही के ऊपर आइद होता है
जानना चाहीए कि जिस हालत में ख़ुदा ने आदम को पैदा किया था इस हाल में उनको वो सारी सिफ़तें जो उनकी ख़ुशी की हालत में क़ायम रखने के लिए अता कर दी गईं थीं उनकी समझ बख़ूबी रोशन और मुनव्वर थी इस में किसी तरह का नुक़्स ना था जिसके बाइस से इस फे़अल के मुर्तक़िब होने में उनके लिए हीला होता और वो ख़ुद अपनी इस हालत से बख़ूबी वाक़िफ़ थे ऐसा कि वो ला-इल्मी का हीला या उज़्र पेश ना कर सकते थे। उनको मर्ज़ी की आज़ादी और नेकी के मीलान की ताक़त भी इनायत हुई थी। चुनान्चे इस मर्ज़ी को बिगाड़ना और इस की आज़ादी को ख़फ़ीफ़ (कम, थोड़ा) समझना उनका अपना ही काम था क्योंकि बावजूद उस के कि उनको बरअक्स काम के करने का इख़्तियार भी हासिल था ताहम उनकी तबीयत ऐसे अंदाज़ पर बनाई गई थी कि उनको नेकी की रग़बत की तरफ़ ज़्यादा-तर मेल था और इस हालत में क़ायम रहने की ताक़त भी मौजूद थी और आज़ादी के ये मअनी नहीं हैं कि हमेशा बरअक्स काम करने में मुतहर्रिक हो।
इस इल्ज़ाम की वजह
फिर आदम को दिली और बेदाग़ पाकी भी हासिल थी और ये एक ऐसी हालत थी जो बरअक्स काम कर के इस पाकी में धब्बा लगाने से रोकती थी। अगर इस से ये नतीजा ना निकल सकता तो वो सिफ़त ला-हासिल होती और गोया ख़ुदा के ऊपर हर्फ़ आता। ये पाकी उनके लिए एहमीय्यत की हामिल थी कि जिसके बाइस से वो अपनी मीरास और अपने इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) के क़ायम रखने के लिए इश्तिआल (जोश) और तक़वियत हासिल कर सकते थे। अगर इस कलाम के माहीयत के ऊपर कि खुदा ने इन्सान को रास्त बनाया। बग़ौर मुलाहिज़ा किया जाये तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि ख़ुदा ने अपनी रहमत से सारे सामान ऐसे अंदाज़ पर आदम को अता किए थे कि जो उनके ईमान की इस्तिक़ामत के लिए मुमिद व मुआवन थे और अगर एक बरअक्स काम की तरफ़ रुजू करने की लो (लगन) उनमें पाई जा सकती थी तो बीसियों तहरीकें उनको रास्ती की मीलान अता करने के लिए मौजूद थीं। जो आदम को फ़रमांबर्दारी की हालत में पाएदारी बख़्शने के लिए बहमा वजूह (वजूहात के साथ) कारगर और बे-ख़ता इश्तिआली थे यूं इतनी रोशनी के ख़िलाफ़ हुक्मउदूली करने में आदम अज़ ख़ुद मुल्ज़िम होते हैं। और गो उन्होंने उसे टाल देना चाहा मगर वो कब टलता था और सिवा सुकूत के कुछ चारा ना था।
आदम का बहकाने या वरग़लाने वाला
पर बावजूद ये कि इस ना-फ़र्मानी का इल्ज़ाम ख़ुद हमारे वालदैन की तरफ़ आइद होता है। लेकिन ये भी काबिल याद रखने के है कि ये ख़्वाहिश उनकी अपनी ज़ाती ख़्वाहिश ना थी पर एक और ही इश्तिआला देने वाला था जिसने ऐसे अंदाज़ के साथ इस अम्र के इंतिज़ाम की निस्बत अपनी कीनाकशी (दुश्मनी रखने वाला) से तहरीक की और गो वो हासिद साँप की सूरत में नज़र आया लेकिन वो आप किसी ज़माने में एक आला दर्जा हस्ती था कि जिसके दिल में किब्र (ग़रूर, घमंड) दाख़िल हुआ और अपनी असली ख़ुशी और बरकत की हालत में रहना पसंद ना कर के अपनी हालत को बेहतर बनाने की नीयत से अपने ख़ालिक़ व आक़ाए बुज़ुर्ग व बरतर से हमसरी (बराबरी) करने का मुतक़ाज़ी (तक़ाज़ा करने वाला) हुआ और जब अपनी शरारत का ये मज़ा चखा कि मुर्द लईन (लानत का चशमा) हुआ। तब अपनी ना-उम्मीदी के दर्मियान में से बैठे-बैठे ख़ुदा की ख़ल्क़त के इस हिस्से की सैर करता हुआ उस को ख़राब करने के लिए बुरे मक़्सद से ममलू (लबरेज़) हो कर इस बाग़ की तरफ़ को निकल आया और इस जोड़े की आस्मानी ख़ुशी का मंज़र उस के जी पर खटका और अपने पर फ़ित्ना दिल से ये चाहा कि अगर किसी हिक्मत से ये मासूम ख़ल्क़त मेरे साथ ना-फ़र्मानी में शरीक हो तो मेरा मतलब बख़ूबी निकलेगा और ख़ुदा की ख़ल्क़त के बेहतरीन हिस्से में फ़ुतूर (ख़राबी) बरपा होने से में अपने कीनाकश नैश अक़्रब (बिच्छू का डंग, दुश्मन की शरारत) को काम में ला के इस पर ग़ालिब आने में गोया ख़ुदा ही पर ग़ालिब आऊँगा। यूं इस मक़्सद के भर लाने की नीयत से सोचते सोचते साँप को अपने मतलब के लिए चुस्त, चालाक, फ़रेबी अलिफ़ व र्मतज़ी देखकर उस के जिस्म के अंदर दाख़िल हुआ और आपको इस सूरत के पर्दे में इस दरख़्त मम्नूआ के तले पहुंचाया जहां कि बहस्ब इत्तिफ़ाक़ हव्वा उस वक़्त अपने यार हमदम से अलैहदा होके मौजूद थीं।
इस मुम्तहिन की उज्लत (जल्दबाजी) और इस का सबब
जैसे ही शैतान ने उनकी मासूमियत और ख़ुशहाली को देखा तो फ़ौरन उसने अपने दाम के बिछाने की तदबीर की और इस में देर करना बईद अज़ मस्लिहत समझा। और जो ही उस को पहला ही मौक़ा मिला वो अपने तीर के चलाने और ज़हर-ए-हलाहल (मोहलिक ज़हर, ज़हर-ए-क़ातिल) की तासीर के फैलाने के ऊपर आमादा हुआ और अपनी फ़ितरत को बड़े ही चालाकी और फुर्ती के साथ काम में ला के हमारी इन वालदैन को मजरूह (ज़ख़्मी) किया। वो ऐसा ही फ़ितरती और शरीर है कि मौक़ा पा कर चूकता है।
इस की वजहीन हव्वा की तन्हाई
अगर कोई पूछे कि शैतान ने इतनी उज्लत (जल्दबाजी) (जल्दी, शताबी) क्यों की, तो उस के जवाब में अव्वलन मैं ये कहता हूँ कि हव्वा की तन्हाई को उसने ग़नीमत समझा। उसने ये दर्याफ़्त कर लिया कि इस में आदम की सी दिलेरी और मुस्तइद्दी (कमरबस्ता, होशयार) नहीं है इसलिए जब तक वो इस से अलग है तब तक इस पर ग़ालिब आने की हर तरह से उम्मीद होगी। इस की फ़ित्रत ने आदम की कमज़ोरी की ख़ास हालत को उस के ऊपर आश्कारा कर दिया और जैसा कि जब दुश्मन अपने मुख़ालिफ़ को ग़ाफ़िल और तन्हा पाता है तब इस पर ग़ालिब आने के ख़्याल से फ़ौरन उस पर अपना हमला करने से बाज़ नहीं आता वैसा ही उसने अपने इस मौक़े को ग़नीमत समझ के देरी ना की पर बिला-तामिल (बग़ैर सोचे, बग़ैर वक़्फ़ा के) अपना हाथ साफ़ किया और उस के ग़लबे से हम उस की होशयारी और फ़ित्रती व कीनाकश तबीयत को जोलानी (तेज़ फ़हमी, फुर्ती) को साफ़ साफ़ देख सकते हैं। जैसा उस रोज़ ये साहिबे फ़ित्रत अपने मौक़े को ग़नीमत समझ कर अपना काम कर गया वैसा ही आज के दिन तक करता है। जब तक इन्सान ख़ुदा की क़ुव्वत-ए-बाज़ू के ज़ेर-ए-साया ज़िंदगी बसर करता है और उस की सोहबत से अलग होना पसंद नहीं करता है बल्कि रोज़ा और नमाज़ व दुआ और ज़ारी और हम्द तारीफ़ के ज़रीये से अपने ख़ुदावंद का तालिब रहता है तब शैतान दूर दूर रहता है लेकिन जब इन्सान उन फ़ज़्ल के वसीलों से किनारा-कशी करता है और ख़ुदावंद की क़ुव्वत-ए-बाज़ू पर भरोसा करने से पहलू-तही करता है। तब शैतान को मौक़ा मिलता है और इन्सान इस शेर गिराँ (दहाड़ते हुए शेर) का सैद (शिकार) होता है। इस मुक़द्दमे में हमको बेदारी बख़्शने के लिए कलाम में ये नसीहत आई है कि शैतान को दिल में जगह ना दो उस का मुक़ाबला करो तो वो भाग निकलेगा।
हव्वा का पहले गुनाह में फँसना
शैतान ने यूं मौक़ा पाके हव्वा के ऊपर जो अपना दाम छोड़ा और मीठी मीठी बातों से उस के दिल को फ़रेफ़्ता कर लिया तो नतीजा ये हुआ कि उनमें उस के मुक़ाबले की सकत ना रही। उनकी निगाह उन मुझआवेजां (पलकों पर) की खुशनुमाई के ऊपर घड़ गई इस दरख़्त ने उनको दीवाना कर दिया और वो अपनी हद एतिदाल से बाहर हो गईं। वो इम्तिहान उनकी हद से ज़्यादा हो गया उनके हौसले ने तबीयत में आग लगाई। देखो उनका हाथ बढ़ता है इस शजर (दरख़्त) का समर (फल) उनको ख़ुशगवार मालूम होता है। वो टूट के उनके हाथ तक पहुंचा है। वो उनके होंटों से क्या लगता है, कि गोया क़ियामत बरपा होती है। और एक आन की आन में (ज़रा सी देर में) काम तमाम होता है। काश उस वक़्त तक भी उनको होश आता लेकिन हाल बेहाल था। सिवा होसले और ज़्यादा जलाल और बुजु़र्गी के ख़्याल के सब कुछ निगाह से गिरा हुआ था। जिस तरह कि भूका ग़लबा इशतिहा (ख़्वाहिश, भूक) से खाने के ऊपर टूटता है वैसा ही उनको यही एक मुँह मार लेने का इश्तिहाला (जोश) मिलता है। ये इश्तिआला तो क्या था कि गोया सम (ज़हर) अफ़ई का फैलना था। उसने उनकी रग-रग और बंद बंद में बल्कि उनकी कुल इन्सानियत में सरायत की (जज़्ब हो जाना, रच जाना) और यूं पियाला नामूस (शर्म, इज़्ज़त) का पाश पाश हुआ तब तो आँखें खोलीं लेकिन अब क्या था बंदा तो अपना मतलब कर के चल ही दिया था। अब सिवा हसरत के और कुछ बाक़ी ना रह गया। अब सिर्फ एक ही बात रह गई थी कि उनका हमदम व हमराज़ भी उनकी हम्दर्दी के लिए उनकी मुसीबत में उनका साथ देता सो वो भी बर आया वो इस फल को लिए हुए अपनी शौहर के पास आईं। हज़रत आदम ने भी इस वजह के शायद उनको अपने हम-जिंस का रंज-ए-जुदाई गवारा ना था या कि और किसी वजह से मुतलक़ इस्तिफ़सार (पूछ गुछ) ना किया और ना ये सोचा कि इस समर ममनूआ की कहानी से क्या कुछ सितम ना बरपा होगा। हज़रत ने भी अपनी माशूक़ा के हाथ से लेकर उस को खा तो लिया। वो क़ियामत यक नशद व दशद दोनों की दोनों बिगड़ी। तब तो एक और ही मंज़र पेश आया। सब कुछ तह व बाला हो गया तिलस्म टूट गया आँखें खुल गईं छक्के छूट गए। क्या था क्या हो गया चले थे बनने को बेहतर और जलाली। हो गए बदतर और नारी। जहन्नम ने मुँह खोल दिया और उनके ख़ून का प्यासा उनके इश्तियाक़ में बैठा। क़ब्र ने भी मुँह फैलाया और अपनी ग़िज़ा तलब की बमूजब इस इर्शाद के कि “जिस दिन तू उसे खाएगा तो मरते मरेगा।” ऐ यारो अब तो मंज़र दगरगूँ (मुख़्तलिफ़) हो गया। ये आलम सब्ज़ा-ज़ार वादी मर्ग ज़ार (मौत की वादी) हुआ उस की खुशनुमाई के बदले में जान वबाल में पड़ गई। तन उर्यानी (नंगे बदन) का लिबास बेदाग ख़ुश्क होने वाली पत्तियों के मलबूस से बदल गया। ख़ुदा की रिफ़ाक़त दूर हो गई और उस की शीरीं (मीठी) आवाज़ ख़ौफ़ का मादिन बन गई।
आदम का इस फल के खाने की हमाक़त
गो ये बात दुरुस्त है कि शैतान ने अपना तीर हवा के ऊपर चलाना मुनासिब समझा और उन का अपने ख़ालिक़ की इताअत से मुनहरिफ़ करवाया पर आदम का उनकी ख़ता में शरीक होना बड़ी हमाक़त की बात थी। उनकी तबीयत में तो ज़्यादा-तर इस्तिक़लाल था पस हज़रत ने बेताम्मुल ऐसा काम क्यों किया? क्या उनको इस फल की शनाख़्त ना थी? मुम्किन था कि हज़रत इस बात से नावाक़िफ़ होते क्योंकि वो तो हर रोज़ इस को देखते थे और अज़-बस कि उनकी पहचान कामिल थी उनसे ख़ता का होना और अपनी बीबी के साथ अपने ख़ालिक़ की ना-फ़र्मानी में शरीक होना ना सिर्फ उनकी हमाक़त को ज़ाहिर करता है बल्कि उनके जुर्म को भी सख़्त-तर बना देता है यूं हर-चंद कि आँहज़रत ने अपनी माअज़िरत में ये कहा कि इस औरत ने जिसे तू ने मेरे साथ कर दिया मुझे इस दरख़्त से दिया और मैंने खाया ताहम ये उज़्र ऐसा ना था कि जिसके बाइस वो सज़ा से बरी हो सकते। चुनान्चे जब उनकी सज़ा का हुक्मनामा उन को सुनाया गया तो उनको इस बात के कहने की जुर्अत ना हुई कि मैं इस अम्र में बेक़सूर हूँ। हज़रत ने क़सदन और दीदा व दानिस्ता अपने को बला में फंसाया और अब कोई चारा उनकी हमाक़त का बाक़ी ना रहा बजुज़ इस के कि वो अपनी ख़ताकारी के तले सुकूत करते और अपने किए का फल पाते। अगर आदम अपनी ज़ौजा (बीवी) दिल बंद व जिगर पैवंद की आवाज़ के शुन्वा होने के एवज़ में बमूजब अपने फ़र्ज़ के अपनी ख़ालिक़ की आवाज़ कर शुन्वा होते और अपने दिल में ये अह्द करते कि जो हो सो हो मैं अपने ख़ुदावंद के हुक्म से हरगिज़ तजावुज़ ना करूँगा। और अपने और अपने ख़ालिक़ के दर्मियान में किसी शैय को वो कैसी ही अज़ीज़ क्यों ना हो मुन्फ़सिल (अलैहदा किया हुआ) करने या ख़लल-अंदाज़ होने ना दूँगा तो किस लिए इस बला में मुब्तला होते और उन्होंने कहीं ऐसा नहीं फ़रमाया कि मैंने ला-इल्मी से ये काम किया। शर्त इताअत थी। आदम ने इस शर्त को किसी वजह से क्यों ना हो उदूल किया। और यूं ना सिर्फ हव्वा की ना-फ़र्मानी में शरीक हुए पर आप भी फ़ीनफ़्स (ख़्वाहिश) ना-फ़र्मानी के मुर्तक़िब होने में अपनी हमाक़त और क़सूरवारी दोनों को बख़ूबी अयाँ व आश्कारा कर दिया।
उनके जुर्म की सक़ालत
इस ना-फ़र्मानी की ख़ता में कई वजूहात ऐसी थीं कि जिनके बाइस से आदम ना सिर्फ कसुरवार ठहरे लेकिन उनका जुर्म निहायत ही शदीद और संगीन व सक़ील (नाक़ाबिल हज़म, भारी) हो गया।
इस सक़ालत के दर्जा अव्वल
उनके जुर्म की सक़ालत (भारीपन) की वजह ये थी कि वो एक ऐसी जगह में सरज़द हुआ कि जहां सब सामान इताअत और ताबेदारी की तबीयत के पैदा करने में मुमिद थे। फ़ज़्ल जिस क़द्र ज़्यादा होता है। इसी क़द्र जवाबदेही भी ज़्यादा होती है। चुनान्चे ये बात हमेशा देखने में आती है कि जब किसी बे-हक़ीक़त शख़्स से कोई बेजा हरकत सादिर हो जाती है तो लोगों को चंदाँ उस का ख़्याल भी होता है क्योंकि वो ये सोचते हैं कि अबला (नादान) से किसी फेअले नाशाइस्ता का ज़ाहिर होना उस की ज़ात और हालत से बईद नहीं हो सकता है। और कि शायद बे सामानी की वजह से इस को इश्तिआला हुआ हो। लेकिन जिस क़द्र आदमी साहिबे इज़्ज़त व तौफ़ीक़ और अहले मर्तबत हो उसी क़द्र उस की बेवफाई लोगों को शाक़ (दुशवार, दूभर) गुज़रती है और इस को सज़ा भी अक्सर शदीद दी जाती है ताकि औरों के लिए इबरत हो। इसी तौर पर जब आँहज़रत के पास और उनके सामने हर तरह के सामान ख़ुशी व शादमानी और इताअत की तहरीक पैदा करने के लिए मौजूद और ममदू मुआविन थे तो उनकी ना-फ़र्मानी गोया इन सारे मुआमलों को पामाल कर के अपनी तबीयत की ख़राबी को उनके ऊपर फ़ौक़ियत देती थी। तो क्या ऐसी हालत में उनका जुर्म हल्का मुतसव्वर हो सकता है। पस क़सदन ख़्वाह इम्तिहानन एक ममनू अम्र का करना जिसमें ख़ुदा की किब्रियाई (अज़मत) ज़लील व ख़फ़ीफ़ होती थी। उनके जुर्म की सख़्ती को हद दर्जे तक आश्कारा करती और उनको सज़ावार अज़ाब बना देती है। ख़ुदा का हुक्म मानना उनका फ़र्ज़ अव्वल और एक उम्र-भर का काम था और उस की भी एन ख़ुशी इसी बात में थी कि मेरा हुक्म माना जाये और इसी ग़रज़ से ये हुक्म सादिर भी फ़रमाया गया था। ख़ुदा का हुक्म मानना मैंढो की फ़र्बा चिकनाई की क़ुर्बानी गुज़राने से बेहतर है। और उस से ग़ाफ़िल रहना या उसे मुनहरिफ़ होना सख़्त तरीन जुर्म है और कोई उज़्र उस के मुआवज़े में ना पेश आ सकता है। ना क़ाबिल पज़ीराई के हो सकता है। हमारे मुबारक मुंजी ने भी इस मुक़द्दमे में ख़ुद अपनी ज़बान मुबारक से ये इर्शाद फ़रमाया है कि वो नौकर जिसने अपने आक़ा की मर्ज़ी जानने पर अपने तईं तैयार ना रखा और उनकी मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ ना किया बहुत मार खाएगा। पर जिसने ना जाना और मार खाने का काम किया थोड़ी मार खाएगा। सो जिसे बहुत दिया गया है उस से बहुत हिसाब लेंगे और जिसे बहुत ज़्यादा सौंपा गया है उस से ज़्यादा माँगेंगे (लूक़ा 12:47- 48)
इस सक़ालत की वजह दोम
आदम का जुर्म इस वजह से संगीन और शदीद हो गया कि वो ख़ुदा के जलील (अज़ीम) हुज़ूरी के बरअक्स सरज़द हुआ। वो तो सारी ख़ुशी और सलामती व बरकत बल्कि जितनी चीज़ें कि काबिले पसंद या ख़्वाहिश के हैं सब का चशमा मम्लूद व अफ़र है तो पस कौन सी बात ऐसी थी कि जो आदम के लिए उस के चशमा फ़ैज़ या गंजीना (ख़ज़ाना) मुहब्बत में ना थी। लिहाज़ा इस सूरत में ना-फ़र्मानी करना गोया उस की जनाब जलील (अज़ीम) की तहक़ीर करना। और उस से आसूदा ना हो कर एक दूसरे को जो उस की क़ाबिलीयत नहीं रखा क़ुबूल करना था। ख़ुदा के कलाम के ऊपर शक करना जिसकी रहमत और मुहब्बत और शफ़क़त और शान व किब्रियाई की अलामत से दुनिया पर थी और एक मख़्लूक़ की बात को मानना गो फ़रिश्ता ही सही गोया ख़ुदा के फ़रमान को ज़लील व ख़फ़ीफ़ करना था। और अज़बस क़ि आदम को इस की पहचान हासिल थी और वो अपने ख़ालिक़ की सिफ़तों से बख़ूबी आगाह थे कोई वजह ऐसी ना थी कि जिससे वो किसी दूसरे के कलाम को उस क़ादिर-ए-मुतलक़ व तसल्ली दह के कलाम के ऊपर फ़ौक़ियत देने और इस ख़ुशी के इलावा जो ख़ुदा के दीदार और उस की सोहबत से उनको हासिल थी किसी दूसरी तरफ़ से अपनी ख़ुशी को अफ़्ज़ूँ करने या अपनी राज़ जोई बेग़र्ज़ से रुजू करने की रग़बत व ख़्वाहिश रखते। ऐसी रहीम व करीम बरकतों के दाता से रुगिरदानी करना मह्ज़ हमाक़त को आश्कारा करना था और दूसरे की आवाज़ का शुन्वा होना ऐन नाशुक्री थी क्योंकि नेअमतों का बख़्शने वाला ख़ुदा ही था शैतान से कब कोई फ़ायदे की बात या सलामती की हक़ीक़त उनके साथ आ सकती थी। हुक्म ख़ुदा का था और उस के हुक्म को ना मानना उस की अज़मत और बुजु़र्गी व जनाब जलील के बरअक्स ख़ता करना था। इस से ज़्यादा सक़ालत और क्या हो सकती है।
इस सक़ालत की वजह सोम
आदम का जुर्म इस वजह से भी सक़ील हो गया कि आँहज़रत ने ना सिर्फ अपने ही को बर्बाद व तबाह कर के ख़ुदकुशी की बल्कि वो अह्द सिर्फ उन्हीं के लिए नहीं बल्कि उनकी औलाद के लिए भी उन्हीं के साथ बाँधा गया था इस अह्द शिकनी के बाइस से उन्होंने अपनी औलाद को भी जो अब तक उनके सल्ब में मख़्फ़ी (छिपी) थी बर्बाद किया और ख़ुदकुशी के साथ अपनी औलाद कुशी की सख़्त-तर जुर्म के भी मुर्तक़िब हुए। जिस हाल में कि ख़ुदा ने आँहज़रत के तईं एक अमानत सौंपी थी तो इस हाल में अगर अपना ख़्याल ना करते तो चाहीए था कि उनके आने वाली औलाद का ख़्याल उनको इस नामुनासिब फे़अल की तरफ़ से रोकने के लिए इश्तिआला और तहरीक देता और उनको ज़्यादा-तर एहतियात की तरफ़ रुजूअ करता। लेकिन इस हुक्म की ना-फ़र्मानी से गोया कि उन्होंने अमानत में ख़ियानत की और इस शराअ अख़्लाक़ी को जो उनके दिल के ऊपर लिख दी गई थी बिल्कुल महो (गायब) कर दिया और अपनी औलाद के सदूर से पेशतर उनके पांव पर कुल्हाड़ी मारी और अपने साथ उनको भी शैतान का मुतीअ और मग़ज़ूब इलाही (जिस पर खुदा का ग़ुस्सा हो) बना दिया। पस इस में उनकी कैसी नादानी ज़ाहिर होती है।
इस सक़ालत की वजह चहारुम
आदम के जुर्म की संगीनी की वजह ये थी कि उनका ये काम उनकी मर्ज़ी की आज़ादी के साथ किया गया था। ख़ुदा ने अपनी बड़ी रहमत से उनको इस बात की निस्बत ये हिदायत कर दी थी कि इस फल से ना खाना वरना तुम्हारी सज़ा निहायत ही सख़्त होगी लेकिन इस ताकिद की तरफ़ से अपने कान को बंद कर के गोया ख़ुदा की याद की सदाक़त का इम्तिहान करना चाहा। शैतान तो सिर्फ इस अम्र कि निस्बत तर्ग़ीब दे सकता था। पर जबरन उस के दिल के ऊपर ग़ालिब ना आ सकता था ऐसी हालत में उनका शैतान की बातों का शुन्वा होना या हव्वा की ख़िलाफ़ बातों के ऊपर अमल करना मह्ज़ उनके अपनी ही तबीयत से था। चाहीए था कि उनका ये ख़्याल होता कि ख़ुदा ही अकेला इस क़ाबिल है कि उस की बात सुने और उनके ऊपर अमल किया जाये क्योंकि जो कुछ था सब उसी के तुफ़ैल और फ़ज़्ल से था और कि किसी दूसरे का वो कैसी ही चिकनी और चुपड़ी बातें क्यों ना करे हक़ नहीं है कि कोई ऐसी बात कहे जो कि शुनवाई के क़ाबिल हो। अगर ये ख़्याल उस वक़्त उनके दिल में आता तो उनको और उनकी औलाद दोनों को कैसी ख़ुशनसीबी हासिल होती लेकिन चूँकि इस अह्द शिकनी ने बे दबदबा और बिला जबर सदूर पाया और ख़ुदा हक़ और उस की बरकत फ़रामोश कर दी गईं और उनका जुर्म भी ज़्यादा सक़ील हो गया।
इस सक़ालत की वजह पंजुम
उनके जुर्म की सक़ालत की पांचवीं वजह ये थी कि उनकी तबीयत में बदी की तरफ़ रुजूअ करने का माद्दा ना था पर पाकी की निस्बत उनको कामिल आज़ादी हासिल थी और इस क़द्र फ़ज़्ल उनके दस्त-ए-क़ुदरत में था अपने मुम्तहिन (इम्तिहान लेने वाला) का मुक़ाबला कर के उस के ऊपर बख़ूबी ग़ालिब आने के लिए काफ़ी और बहर-सूरत कारगर था। ख़ुदा ने आदम को बदी करने की तबीयत नहीं दी थी पर करने और ना करने दोनों की निस्बत उनको आज़ादी हासिल थी। तो ऐसी नेअमत और वसीलत की तरफ़ से बेपर्वा होके बिला रग़बत के एक ग़ासिब (ज़बरदस्ती किसी का हक़ छीनने वाले) की बात का सुनना और उस के ऊपर अमल करना गोया ये कहना था कि हमको पाकी की निस्बत आज़ादी की तबीयत हासिल थी ही नहीं और इस के इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) को हक़ीर समझ कर शैतान के हाथ में इस को बेच डालता था।
इस सक़ालत की वजह शश्म
इस सख़्ती की वजह इस में पाई जाती है कि इस हुक्म के देने में ये मतलब मुतसव्वर था कि ख़ुदा ही अकेला हाकिम-उल-आलामीन समझा जाये और ये कि जितनी मख़्लूक़ हस्तियाँ हैं सब उसी के तहत में हैं। चुनान्चे बतौर नतीजे के ये ख़्याल इस में से पैदा होता है कि उन पर बदर्जा ऊला ये फ़र्ज़ व वाजिब था कि अपने ख़ालिक़ ही की ताबेदारी में क़ायम रहते। पस इस ताबेदारी से रुगिरदानी करने में आदम ने ख़ुदा के इस इस्तह्क़ाक़ की तहक़ीर की और गोया ये कहा कि उस का क्या हक़ है कि वही अकेला हम पर मुतसल्लित (क़ब्ज़ा करने वाला हो)? यूं ये गुनाह ख़ुदा की इज़्ज़त और शान दोनों के बरअक्स हो गया और इन्सान के वजूद की निस्बत जो ख़ुदा की इल्लत-ए-ग़ाई (मक़सद, वजह) थी यानी कि वो ख़ुदा ही की सोहबत में शाद है बिल्कुल बदल गई और आदम की रास्तबाज़ी की आदत इम्तियाज़ी उलट गई। यूं ये ना-फ़र्मानी तो देखने में छोटी मालूम हुई पर इस का नतीजा उस के अंदाज़े से ज़्यादा-तर सबक़त ले गया। आदम के लिए सबसे बेहतर ये बात हुई कि इस ना-फ़र्मानी के अव्वल ख़्याल को अपने दिल में उठने ना देते या ये कि जब ऐसे ख़्याल की रग़बत होती या उस की तहरीक मिलती तब अपने ख़ालिक़ की मुहब्बत और उस के फ़ज़्ल के तालिब हो कर उन ख़यालात को उठने के साथ कुल अदम कर डालते और ना अपनी शफ़ीक़ा (मेहरबान, ग़मख़्वार) को अपने पास से जुदा होने देते। ना आप उस की ना शैतान की बातों की तरफ़ किसी नूअ से मुतवज्जा होते इस के सिवा और कोई बात उनको पाकी की हालत में क़ायम रखने के लिए कारगर ना हो सकती थी। इस से आदमजा़द को भी ताअलीम लेना चाहीए कि जब कोई ऐसा नाशाइस्ता व नाज़ेबा ख़्याल व बरअक्स ख़याल दिल में उठे जो ख़ुदा के और उनके दर्मियान में मुनफ़सिल (जुदा) करने वाला है तो उस ख़्याल को इब्तिदा में रोकें और अपनी फ़िक्र व अंदेशों को ख़ुदा के ऊपर डालें। सअदी ने किया ख़ूब कहा है।, د گرفتن بہ میل چوپر شد نشاید گزشتیں بہ پیل यानी जब कि चशमा छोटा है तो उस को सुलाई से बंद कर सकते हैं पर जब वो भर गया तो हाथी का ज़ोर भी उस को रोक नहीं सकता है। इस मुक़द्दमे में कलाम की हिदायत ये है इसलिए ख़ुदा के ताबेअ हो जाओ। शैतान का सामना करो और वो तुमसे भाग निकलेगा। (याक़ूब 4:7)
ख़ुलासा अल-कलाम
ऊपर के बयान का ख़ुलासा ये है कि दलाईल पेश रफ़्ता से साफ़ अयाँ है कि आदम की गशतगी एक बला ए जांगुदाज़ (दिलपर असर करने वाली) थी और वो क्यों कर बसबब कई सक़ालतों के अज़ीम और शदीद संगीन हो गया और उनकी हालत को ख़तरनाक बना डाला और हसरत के सिवा कोई बात बाक़ी ना रही। याक़ूब हवारी की नसीहत यहां बहुत बरजस्ता (बरवक़्त) साबित होती है। मुबारक वो आदमी जो आज़माईश की बर्दाश्त करता है इस वास्ते कि जब वो आज़माया गया तो ज़िंदगी का ताज जिसका ख़ुदा ने अपने मुहब्बत करने वालों से वाअदा किया पाएगा। (1 याक़ूब 1-12)
छटा बाब
आदम की बर्गशतगी के नतीजों
का तज़्किरा
आदम की ना-फ़र्मानी आफ़त कुल्ली की बुनियाद
अगर किसी का रफ़ीक़ व शफ़ीक़ बल्कि लख़्त-ए-जिगर कोई ऐसा काम करे जो उस के बुज़ुर्गों की शान के बरअक्स हो और जिससे उस की इज़्ज़त में ज़िल्लत व क़बाहत लाज़िम आए तो उस का जी इस अज़ीज़ की तरफ़ से कैसा बरदाशता खातिर और बेज़ार हो जाएगा और फ़ौरन उस की निगाह बदल जाएगी और शफ़क़त के बदले में वो उस के क़हर व इताब में पड़ेगा बल्कि बेज़ार हो कर उस की सोहबत से मुतनफ़्फ़िर (नफ़रत करने वाला) हो जाएगा। वैसी ही कैफ़ीयत हज़रत आदम की ना-फ़र्मानी से ज़हूर में आई। जो निस्बत तिब्बी कि आदम के और ख़ुदा के बीच में थी उस से ना-फ़र्मानी का नतीजा इस के सिवा और क्या हो सकता था कि अव्वल तो ख़ुदावंद आलम के बाइस ना ख़ुशी और जुदाई का हो और दूसरे उस की वजह से इस की रूह में भी ख़राबी व फ़सादर्द आई। फिर उस निस्बत अबदी से जो ख़ुदा ने अपने फ़ज़्ल के इंतिज़ाम में आदम के साथ बाँधा था ये नतीजा निकलता है कि इस अह्द शिकनी की सज़ा उसे से बचना मुहाल था चुनान्चे इस सज़ा में तीन बातें थीं :-
1- जिस्म का फ़ना होना
2- रूह इन्सान की अबतरी
3- अबदी मौत
इस माहीयत के ऊपर सोचने से साफ़ मालूम होता है कि सारी मुसीबतें जो इन्सान को लाहक़ हो सकती हैं उनकी दामनगीर हुईं। और मिस्ल भी मशहूर है कि आफ़त अकेली नहीं आती है पर अपने साथ अन्वा व अक़्साम की ख़राबियां लाती है। हनूद कहते हैं कि :-
जिस वक़्त हनूमान ने लंका में आग लगाई थी उस वक़्त बादिनों हवाएं चलती थीं यानी ना एक ना दो बल्कि आफ़तों का एक ऐसा सिलसिला बंध गया था कि किसी पहलू में ज़िंदगानी की सूरत नज़र ना आती थी।
ज़बूर के मुअल्लफ़ ने (ज़बूर 30:5) में ये लिखा है कि “ख़ुदावंद के करम में ज़िंदगानी है।” तो इस से बतौर नतीजे के हम ये बात निकाल सकते हैं कि जब उस के करम की निगाह उठ गई तो बस छुट्टी है और वो (रोज़े*) क़ियामत जब ज़िंदगी गई तो सब कुछ गया और जहां ख़ुदा की निगाह हटी वहां जो कुछ ना हो सो थोड़ा है। जितनी आफ़तें इस दुनिया में मौजूद हैं ख़्वाह जिस्मानी ख़्वाह रुहानी सब का सदूर इसी ना-फ़र्मानी के माद्दे में पाया जाता है। क्योंकि जब से ये अह्द शिकनी ज़हूर में आई तब ही से हर तरह की ख़राबी और तारीकी के कामों का ज़हूर हुआ चुनान्चे कलाम का मंशा भी ऐसा ही मालूम होता है और उन ख़राबियों के ऊपर लिहाज़ कर के रसूल उनको जो बे-ख़ुदा हैं ये इल्ज़ाम देता है “तुम अपने बाप शैतान से हो और चाहते हो कि अपने बाप की ख़्वाहिश के मुवाफ़िक़ करो वो शुरू से क़ातिल था और सच्चाई पर साबित ना रहा।” (युहन्ना 8:44) और याक़ूब रसूल भी फ़रमाते हैं कि हर शख़्स अपनी ख़्वाहिशों से लुभा कर और हाल में पहन कर इम्तिहान में पड़ता है। सो ख़्वाहिश जब हामिला होती तब गुनाह पैदा करती और गुनाह जब तमामी तक पहुंचा मौत को जनता है।” (याक़ूब 1:14-15) आदम के दिल से आफ़त की शिद्दत को पूछा चाहिए बमूजब इस शेअर के किसी का दर्द-ए-दिल यारो कोई बेदर्द क्या जाने। वही जाने वही समझे मुसीबत जिसने झेली हो। अगर हम आदम के साथ हो कर उनके हमराह बाग़-ए-अदन से निकलें और उनके रंज व ग़म में शरीक हो के उनके क़दम के नक़्श पर अपने क़दम रखें तो साफ़ उस के नताइज से वाक़फ़ीयत हासिल कर लेंगे क्योंकि लिखा है कि “ख़ुदा का ग़ज़ब ना-फ़र्मानी के फ़र्ज़ंद पर पड़ता है।” और इस में सब कुछ शामिल है। यूं आदम की ना-फ़र्मानी आफ़ात कुल्लिया की बुनियाद हो जाती है।
इन आफ़ात की नूएं
जिन आफ़तों और मुसीबतों का बार (बोझ) आदम ने अपने सर के ऊपर पाया उनको हम तीन नूअ पर तक़्सीम करते हैं :-
1- कि रूए ज़मीन के ऊपर उनके सबब से लानत आई
2- कि आदम का जिस्म आफ़तों और कमज़ोर होने का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हुआ और उनकी ताक़तों में लाग़री सराइत कर गई।
3- तीसरी कि उनकी रूह आफ़ात अबदी में पड़ी और उस की सारी इस्तिदादें (सलाहियत) इस क़द्र ज़ईफ़ हो गईं कि हुक्म इलाही के बजा लाने की निस्बत मुर्दा हो गईं और जो ख़्वाहिश किसी क़द्र मौजूद थी भी तो भी इस को बख़ैरीयत अंजाम तक पहुंचाने की उनमें सकत ना रह गई। बमूजब पोलुस रसूल के इस तजुर्बा आमेज़ कलिमा के कि मैं जानता हूँ कि मुझमें यानी मेरे जिस्म में कोई अच्छी चीज़ नहीं बस्ती कि ख़्वाहिश तो मुझमें मौजूद है पर जो कुछ अच्छा ही करने नहीं पाता और कि जब मैं नेकी करना चाहता हूँ तब बदी मेरे पास मौजूद हैI (रोमीयों 8:18-21)
ज़मीन का लानत के तले आना
इन तीनों नूओं (अक़्साम, मुख्तलिफ़ क़िस्में) का चर्चा जिसका ऊपर मज़्कूर हुआ और जो आदम की ना-फ़र्मानी की वजह से ज़हूर में सर्द-सत सिलसिले-वार करना मतलूब है चुनान्चे अव्वलन उस की इस तासीर का बयान करना जो कि उनकी ना-फ़र्मानी के बाइस से रूए ज़मीन के ऊपर हुई। ज़मीन उनके सबब से उमूमन लानत के तले लाई गई जैसा मुअल्लफ़ इल्हामी ने साफ़ फ़रमाया है कि “ख़ुदा ने आदम से कहा इस वास्ते कि तू ने अपनी जोरू की बात सुनी और इस दरख़्त से खाया जिसकी बाबत मैंने तुझको हुक्म किया कि इस से मत खाना ज़मीन तेरे सबब से लानती हुई।” (पैदाइश 3:17) वह ज़मीन जो अब तक उनके लिए मादिन शादमानी व फ़र्हत व बशाशत व राफ़ेअ कुदरत व दाफा उस्रत और जाये इस्तिक़ामत और मतानत फ़लाहत बख़्श थी यानी मुसद्दिर व मंबा बरकत थी उस की हालत अब तब्दील हो गई। उस के सामान मसर्रत बख़्श बिल्कुल मस्दूद (बंद) हो गए उस की ताक़त ज़ाए हो गई। उस की इस्तिक़ामत बे इक़ामत हो गई उस की वो सिफ़त जो अर्फ़ा कुदूरत और दाफा उस्रत थी उस के बरअक्स कुदूरत व उस्रत के ज़्यादा करने के लिए वसीले बन गए। ग़रज़ कि बमूजब इस मिस्ल के बगुले के मारने से सिवाए पर के और क्या हाथ आता है। सिवा हसरत और कुलफ़त (रंज, कुदूरत) के और सारी बातें नादिर (नायाब) हो गईं। वाह ये क्या हुआ और कैसा हुआ। बरकत लानत से मुबद्दल हो गईं और मादिन ख़ुशनुदी मादिन रंज व अलम हो गया। यूं आदम की आसाइश जिस्मी में सूरत इन्क़िलाब की नमूदार गई। ज़मीन ख़ुदावंद की रहमत से मामूर कर दी गई थी। अब वो हालत रह गई कि जैसा यसअयाह नबी ने फ़रमाया है। ज़मीन ग़मगीं होती और मुर्झाती है। जहान बेताब और पज़मुर्दा होता सरज़मीन उनके नीचे जो इस पर बस्ते हैं नजिस हुई कि उन्होंने शरीयतों को उदूल किया क़ानून को बदला अह्द अबदी को तोड़ा इस सबब से लानत ने सरज़मीन को निगल लिया।” वग़ैरह (यसअयाह 44:4-6) इसी कलाम के मंशा के मुताबिक़ इंजील में भी यूं आया है कि “ख़ल्क़त बतालत के तहत में आई क्यूंकि हम जानते हैं कि सारी ख़ल्क़त मिल के अब तक चीख़ें मारती और उसे पेड़ेन लगी हैं।” (रूमी 20:8-22)
इस लानत का नतीजा
जो नतीजा इस लानत की वजह से सादिर हुआ उस का बयान कलाम में यूं हुआ है “वो तेरे लिए कांटे और ऊंट कटारे उगाएगी।” जब ये ज़मीन-ए-ख़ुदा के हाथ से ख़ल्क़ हो कर निकली थी तब मअमूरी और ज़िंदगी से ममलू थी पर अब उस की ज़रख़ेज़ी शोरयदगी (परेशानी, दीवानगी) से बदल गई उस की बरकत उस की माहीयत (असलियत) बार-आवर थी अब वो बरकत और लानत में बदल गई और बार-आवर होने के बदले में वो बंजर हो गई उस की हईयत इब्तिदाई में और इस हैइयत में जो लानत के बाइस से ज़हूर में आई आस्मान और ज़मीन का फ़र्क़ नज़र आता है और हज़रत अय्यूब की वो बात रास्त आती है कि “मैंने ब्याबान को उस का घर मुक़र्रर किया और खारे दश्त को उस का मस्कन।” (अय्यूब 39:6) ये नतीजा कैसा बरअक्स और मुज़िर निकला शादाबी और शगुफ़्तगी के बदले में वीरानी और ख़ार ज़ारी का मंज़र ज़हूर में आ गया और ये हालत इस हालत से कैसी बरअक्स थी कि जिसमें ख़ल्क़त के वक़्त ये ज़मीन रखी गई थी। गुनाह ने कस्रत में क़िल्लत डाली और रोईदगी में से शोरीदगी पैदा की। जहां इन्सान के लिए इफ़रात और कस्रत और बोहतात थी वहां अब ज़्यादा-तर क़िल्लत नज़र आती है। और राहत व फ़र्हत के एवज़ में तक्लीफ़ और रंज का सामना हो गया। यूं ख़ल्क़त गोया हमसे ये कहती है कि इन्सान की ख़राबी ने मुझको ऐसा ताव बाला कर दिया है कि मेरा सिलसिला बरअक्स कर दिया। चुनान्चे जब तुम मुझसे आसाइश के तलबगार रहोगे तब मैं ख़ार और कांटे व ऊंट कटारे दिखला के तुमको शर्मिंदा करूँगी और ख़जालत व रुस्वाई में डालूंगी ताकि तुमको याद रहे कि जैसा तुमने अपनी बे इताअती से मुझको मौरिद लअन बना दिया वैसा ही तुम पर भी ये बात आश्कारा है कि कोई कांटों से इंजीर और ज़ैतून से अंगूर का मुंतज़िर नहीं हो सकता है। ज़िंदा ख़ुदा के हाथ में किसी उन्वान से पड़ना होलनाक है और कोई ऐसा नहीं है जो उस की मुख़ालिफ़त कर के कामयाब हो सके या अपने को उस के हाथ से छुड़ा सके।
आदम का जिस्मानी तक्लीफ़ पड़ना
इस ना-फ़र्मानी का दूसरा नतीजा ये हुआ कि आदम का जिस्म अब नहीफ़ (कमज़ोर, लागिर) के सदमे का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हुआ। अब तक ज़मीन आसानी से क़दरे ही मेहनत में जो उस के ऊपर बार गिराँ ख़ातिर ना हो सकती थी हर तरह के सामान आसाइश बहम पहुंचा देती थी। बाग़-ए-अदन की खूबियां जो उनके जिस्म के लिए राहत बख़्श और उनकी मामूरी शिकम और हलावत (मिठास, राहत) ज़हन के लिए ग़िज़ाए लतीफ़ मुहय्या करने के लिए आप में हैसियत और लियाक़त व गुंजाइश रखती थी अब उनके लिए अपनी ताक़त के अता करने से मुन्किर होती हैं हाँ इन्सान के हाथ से रोटी छिन गई और उनका जिस्म बाइस मेहनत के आजिज़ व परेशान होता है हत्ता कि सर का पसीना माथे पर से टपक के पांव के तलवे तक पहुंचता है तो भी वो अपना ज़ोर उस को नहीं देती है और जो कुछ उस को मिलता है वो फ़िल-हक़ीक़त उस के लिए बड़ी गाढ़ी पसीने की रोटी है उस का आराम के साथ खाना मेहनत की तल्ख़ी में बदल गया और इस लानत में वो बात मफ़्हूम हुई जो ख़ुदावंद ने क़ाइन के हक़ में कहीं “जब तू ज़मीन पर खेती करेगा वो फिर तुझे अपना हासिल ना देगी और ज़मीन पर तू परेशान और आवारा होगाI” (पैदाइश 4:12) ताहम शुक्र का मुक़ाम है कि अगरचे ख़ुदावंद हमारे गुनाहों के सबब से हमसे बेज़ार है लेकिन वो क़हर के दर्मियान अपनी रहमत को याद करता है क्योंकि वो जानता है कि हम ख़ाक हैं और अपने बाक़ी क़हर को रोकता है। ऐसा कि जो कुछ अपनी तबाह और ख़राब व ख़स्ता हालत में हम ज़मीन से पाते हैं। वो भी उसी की ऐन रहमत है। जिससे साबित होता है कि उस का झुंजलाना दाइमी नहीं और वो अब भी अपना फ़ज़्ल देने के लिए तैयार है। ऐ गुनाहगार अपनी परेशानी को अपने गुनाहों का वाजिबी नतीजा समझ पर शुक्र के सज्दे में ख़ुदावंद के आगे फ़िरोतनी और आजिज़ी के साथ ख़म हो क्योंकि उस की लतीफ़ रहमतें और उस के सारे काम आश्कारा हैं और वो अपने अदल में भी सच्चा और रास्त है। बेशक वो अदल के बीच में रहमत को याद करता है और सारी चीज़ों को फिर भी अपने लोगों की भलाई के लिए कारगर बनाता है। अगर वो चाहता तो ज़मीन कवीक लख़्त लोहे का साब ना देता कि इन्सान मेहनत करते करते मर जाता तो भी उस में रोईदगी तक नज़र ना आती लेकिन उस को सिर्फ इतना ही सज़ा देना पसंद आया कि वो अपना फल देने से इन्कार ना करे पर ये कि अपना पूरा हासिल उनकी मेहनत के बमूजब ना दे। “वो कांटे और ऊंट कटारे तेरे लिए उगाएगीI”
ख़्वाहिश की अबतरी
इस के शमुल (शमूलीयत) में उनकी जिस्मानी तक्लीफ़ की ज़्यादती इस बात में पाई जाती है कि उनको ये फ़त्वा सुनाया गया कि तू खेत के साग पात खाएगा। इन्सान का जिस्म ख़ाक से बनाया गया था और इस मुक़द्दमे में इस का माद्दा जिस्मी माद्दा हैवानी से मुशाबहत रखता था और सिर्फ फ़ौक़ियत रुहानी में इस को फ़ज़िलत थी। पस ना फ़रमानी की वजह से वो अपने आला और बूलंद मर्तबे से गिर गए और उनके औक़ात गुज़ारी भी उन्हीं जानवरों की मानिंद जो सिर्फ सब्ज़ी पर ज़िंदगी बसर करते थे आ गई। उनकी ग़िज़ा की माहीयत में तब्दीली आ गई और वो जो बाग़ की लताइफ़ व तहाइफ़ खाते हैं अब ज़मीन का साग पात खाना उनका हिस्सा हुआ। इस आलम की इश्याअ लतीफ़ व तोहफ़ा जात जो उनकी ख़ास ग़िज़ा के लिए मुहय्या किए गए थे अब उनके दस्तर-ख़्वान पर लाए जाने से रोके जाते हैं और वो ही सादा चीज़ें जो ज़मीन पर परवरिश हैवानात के लिए अज़ ख़ुद उगाती है उनका कुल नान व नफ़क़ा (गुज़ारा, कफ़ालत) मुक़र्रर होता है। फ़िर्दोस की बोहतात और उम्दगी क़िल्लत और सादगी में आदम की ना-फ़र्मानी के बाइस से तब्दील हो गई। यूं हज़रत आदम के हक़ में वो बात पूरी हुई जो (अहबार 26:20) में आई है कि “तुम्हारी क़ुव्वत बेफ़ाइदा ख़र्च हो गई क्योंकि तुम्हारी ज़मीन अपना हासिल ना बख़्शेगी और ना ज़मीन के दरख़्त अपना फल देंगे।” और वो भी जो (अय्यूब 20:27-30) तक की मज़्मून में आई है “आस्मान उस की बदकारी को आश्कारा करेगा और ज़मीन उस के बरख़िलाफ़ उठेगे उस की गुहर की बढ़ती जाती रहेगी उस के इंतिज़ाम के दिन में वो बह जाएगी। ख़ुदा की तरफ़ से शरीर इन्सान का यही बख़रेह है।” ये वो मीरास है जो ख़ुदा ने इस के लिए मुक़र्रर की हैI
जिस्मी शादमानी का ग़ायब होना
लेकिन ना सिर्फ आदम की गुज़रान ही में अबतरी आई बल्कि इसी से मुल्हिक़ (पैवस्ता) एक और सख़्त तरीन नतीजा ये निकला कि उनके जिस्मी शादमानी भी मअदूम (नापीद, ग़ायब) हो गई। जब ज़मीन ने अपना हासिल देने से इन्कार किया और उनके मेहनत का समरा बे समरा हो गया तब उनको क्या ख़ुशी हासिल हो सकती थी लेकिन उनकी शादमानी उस वक़्त बिल्कुल मादूम हो गई कि जब वो बाग़-ए-अदन से निकाल दीए गए। तब आदम की नज़रों में वो शादमानी जो कि बवसीला ख़ल्क़त के उनको हासिल थी जब कि वो मिस्ल उन नेअमत के जो एक ख़ालिक़ मुहिब व फ़य्याज़ के हाथ से उनकी आसाइश और इत्मीनान और सरवर कलबी (दिल की ख़ुशी) की हैसियत के साथ बिछाया गया था भी लुत्फ़ हो गई और उन मजमूआ नेअमत के अदम हुसूल ने उनकी ख़ुशनुदी को कुलअदम (मादूम, गोया कि है ही नहीं) कर दिया और इस का तकमिला ये हुआ कि बाग़ की दीद (देखने) से उनका दिल जो कि ग़ालिबन बहलता वो भी मना किया गया और जब कि वो बाग़-ए-अदन से ख़ारिज किए गए तो उस का ग़म मिस्ल-ए-ख़ार हसरत के उनके दिल के ऊपर खटकता गया और ज़्यादातर अलम उस वक़्त हुआ कि जब उन्होंने देखा कि मैं ना सिर्फ बराए चंदा इस से महरूम हुआ हूँ पर अबद तक के लिए इस में मुदाख़िलत पाना मुहाल हुआ क्योंकि उनके इमत्तीना मदाख़िल के लिए ख़ुदावंद ने करूबियों को चमकती तल्वार के साथ जो चारों तरफ़ फिरती थी मुक़र्रर किया और उस वक़्त से आदम के इस बाग़ में दाख़िल होने की फिर ख़बर मुतलक़ नहीं मिलती। वो ख़ारिज किए गए ताकि ज़मीन की खेती करें और अपनी मुँह के पसीने से रोटी खाएं और मुम्किन ना था कि जब उनके मुँह का पसीना मेहनत की शिद्दत से टपक कर उनके पैरों तक पहुंचता और फिर भी उनकी क़ुव्वत का कमा हक़्क़ा समरा (फल) देखने में ना आता तो उस वक़्त की याद उन को सताती कि जब ये तक्लीफ़ उनसे कौसों दूर थी और वो इस बेलुतफ़ी से मह्ज़ ना-आश्ना थे। जहां ऐसी हसरत हो वहां ख़ुशनुदी क्यों कर मुम्किन हो सकती थी। क्योंकि ख़ुशनुदी में इस वबाल से फ़ारिगुलबाली (فارغ البالی) मतलूब व मक़्सूद है। हाय गुनाह ने क्या किया कि ना सिर्फ कमज़ोरी और ताक़त जिस्मी में लाग़री को डाल दिया ऐसा कि बेसबब मेहनत के उनके हाथ ढीले होते और घुटने थरथराते हैं। मज़ीद मातम को भी दुनिया में अपने साथ लाया और दिल इंसान नादान को हदफ़ रंज व अलम का बना दिया। फ़िल-हक़ीक़त नेक-बख़्त और ख़ुशहाल वही शख़्स है जो शरीअत को हिफ़्ज़ करता है। आदम की बल्कि उस की कुल औलाद की शादमानी छिन गई और ख़ुशी हरे खेतों में ना रही। ज़बूर के मोअल्लिफ़ ने कैसी पुर तजुर्बा और ख़ूब बात फ़रमाई है कि सादिक़ों के ख़ेमों में ख़ुशी और नजात की आवाज़ है।
जिस्म की फ़ना
तक्लीफ़ जिस्मी अगर यहीं तक मौक़ूफ़ रहती तो भी शायद कि यक-गो ना ख़ैरीयत रहती लेकिन सबसे बदतर आफ़त ये थी कि ये जिस्म बीमारी और दुख में मुब्तला हुआ बल्कि फ़ानी हो गया। ख़ुदा ने फ़रमाया कि जिस दिन तू इस फल को खाएगा तो मरते मरेगा। जिससे ये नतीजा निकलता है कि अगर ये समर ममनूआ (मना किया फल) (न*) खाया जाता तो ना सिर्फ रूह बल्कि जिस्म भी ना मरता। क्योंकि जिस्म रूह का मस्कन है। और जब ये ग़ैर-फ़ानी रूह उस फ़ानी जिस्म के साथ मुतवस्सिल की गई तो जिसने ये इत्तिसाल बहम पहुंचाया वही इस फ़ानी जिस्म को भी बाइस इस इत्तिसाल (मिलाप) रूह की एक इस तरह की अबदीयत मौजूद करता कि जिसकी ज़िंदगी रूह की ज़िंदगी के बराबर होती और जिस्म व रूह दोनों इस तोसल (मेल) में शादू मसरूर रहते। कलाम में साफ़ आया है कि गुनाह का एवज़ मौत है। अब ज़ाहिर है कि मौत सिर्फ एक जुदाई है जो कि रूह और जिस्म के बीच में ज़हूर में आती है। पस अगर गुनाह ना होता तो अग़्लब (यक़ीनी, मुम्किन) है कि इन दोनों में ऐसा इत्तिहाद होता कि जुदाई का मानेअ (रुकावट) होता। मिस्ल उन तौर पूर सुरूर के जो अपने आब व दाना दहिंदा से इस क़द्र उल्फ़त व मुहब्बत रखते हैं कि हर-चंद दर-ए-क़फ़स उनकी रिहाई के लिए कोशिश की जाये पर किसी नूअ से इस रिहाई को गवारा नहीं करते पर फिर-फिर के इसी क़फ़स के अंदर दाख़िल होते और उसी को अपना आशियाना बनाते हैं।
पर शायद कोई इस मुक़ाम पर ये कहेगा कि माद्दा की माहीयत (असलियत) तब्दील व ज़वाल पज़ीर है। पस मुम्किन ना था कि ये तोस्सल अबदी होता। इस के जवाब में मैं अव्वलन ये कहता हूँ कि बहुतेरे हुकमा (दानिश्वर) का यह क़ौल है कि माद्दा भी अबदी और नीस्ती से ख़ाली है। पस अगर ये राय साइब तसव्वुर हो सकती है तो इस का समझ लेना आसान है कि जिस्म और रूह दोनों का वजूद बराबर हुआ तो जब रूह इर्फ़ानी हुई तो उसी एतबार के साथ ये जिस्म भी ग़ैर-फ़ानी होता। पर अगर कोई शख़्स इस राय की साइब होने पर मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाला) हो तो हम इस दलील को यहीं छोड़ते हैं और अक़्ल साइब की शावक की दिलजमई के लिए ये कहते हैं कि जिस ख़ालिक़ ने जिस्म व रूह दोनों को बनाया और उनकी जुदाई को सिर्फ ना-फ़र्मानी के ऊपर मौक़ूफ़ किया वही ख़ालिक़ बशर्त फ़रमांबर्दारी इस जिस्म को भी बाद अय्याम इम्तिहान ऐसी सिफ़त बख़्शने के ऊपर क़ादिर था कि जिससे इन दोनों के तोसल में जुदाई तहक़ीक़ी को दख़ल मुहाल था। रसूल ने फ़रमाया है कि, गुनाह की मज़दूरी मौत है ख़ुदा की बख़्शिश हमारे ख़ुदावंद ईसा मसीह के वसीले से हमेशा की ज़िंदगी है। पस जैसा कि अब क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा मसीह के वसीले हमेशा की ज़िंदगी देता है वैसा ही तब भी हो सकता था और हम इस जिस्म ही में ख़ुदावंद को उस के कामिल जलाल में देखते जैसा आदम का हाल ना-फ़र्मानी के पेशतर था और इस तरह की जुदाई की ज़रूरत मुतलक़ ना रह जाती।
बहरहाल आदम की मुसीबत जिस्मानी का कमाल इसी अम्र के ऊपर था कि और सारी मुश्किलात के शामिल-ए-हाल उनका जिस्म ना सिर्फ नक़ाहत व ज़ोफ़ व कमज़ोरी के तहत में लाया गया बल्कि उनका जिस्म भी अपनी हैइयत वजूदी की माहीयत (असलियत) को तर्क कर के उनकी ख़ुशी में मुख़िल हुआ कि इर्तिबात (मेल, मिलाप) अबदी का सिलसिला तोड़ के उन पर साबित किया कि मैं भी इस अम्र में ख़ुदावंद का मह्कूम हूँ और तेरी ना-फ़र्मानी मुझको यहां तक नागवार ख़ातिर है कि मैं भी अपने ख़ुदावंद के हुक्म के ताबेअ हो के तुझसे जुदा होना पसंद करता हूँ और अपनी जुदाई से तुझे ये नसीहत देता हूँ कि अगर अब भी तो ना पछताएगा तो ख़ुदावंद की सोहबत से भी अबद तक के लिए जुदा कर दिया जाएगा क्योंकि इन्सान में ख़ुदावंद की रज़ा नहीं है पर सिर्फ इस में है कि उस की ताबेदारी की जाये और उस के हुक्मों के ऊपर अमल किया जाये।
आदम की आफ़त रूही
तीसरा आफ़त ख़ेज़ और हैबतअंगेज़ नतीजा इस ना-फ़र्मानी का ये निकला कि उनकी रूह आफ़त अबदी में पड़ी और उनकी सारी इस्तिदादें (सलाहीयतें) ज़ईफ़ और ख़िदमत इलाही की बजा लाने में क़ासिर हो गईं और यूं रूह की इस सलामती में जो बेगुनाह ही की हालत में उनको हासिल थी ऐसा ख़लल वाक़ेअ हुआ अगर ख़ुदा ही अपनी रहमत से उस के बहाल करने की तदबीर ना करता तो उस की बहाली किसी तरह से मुम्किन ना होती।
पहली आफ़त :-
असली रास्तबाज़ी से ख़ाली होना
जो इस निस्बत में ज़हूर में आई सो ये थी कि उनकी वो रास्ती की हालत जिसमें ख़ुदावंद ने उनको ख़ल्क़ किया था ज़ाए हो गई। इस असली रास्ती की मीलान ये थी कि ख़ुदा की मर्ज़ी और उस की ख़्वाहिशों की ताबेदारी और उन पर अमल करने की तबीयत को क़ायम रखे। इस सिफ़त से ख़ास मक़्सूद ये था कि वो इन्सान के ख़यालात के ऊपर हाकिम हो कि जिसके बाइस से सारे बरअक्स ख़यालात दबा दिए जाएं और ख़ुदा की ताबेदारी के मह्कूम रहें और ताकि वो ख़ुदा को अपना दोस्त हक़ीक़ी तसव्वुर करने के लिए मुहर्रिक हुए। लेकिन जब ना-फ़र्मानी ने दिल के अंदर दाख़िल किया तो नतीजा उलट गया और निस्बत इताअत में तब्दिल के वाक़ेअ होने की वजह से उनकी सिफ़ात अख़्लाक़ी में भी बिल्कुल तब्दीली ज़हूर में आई। ये रास्ती इस इत्तिहाद रुहानी के ऊपर मबनी थी चुनान्चे जब कि अह्द शिकनी की बुनियाद पड़ी तो इस सिफ़त से ख़ाली होने की बिना (बुनियाद) पड़ गई और कामिल ख़ुशी के चश्मे की तरफ़ से मुग़ाइरत (बेगानगी, अजनबीयत) पैदा हुई और उनके कमाल की इल्लत-ए-ग़ाई यूं महव हो गई कि जितने वसाइल उस के क़ायम रखने में मुमिद मुआविन थे वो बरअक्स हो गए और उस के हुसूल का इंतिज़ाम बे इंतिज़ाम हो गया। चुनान्चे बऊज़ ख़लूसीयत दिल के इस में फ़साद मुदामी (हमेशा का झगड़ा) ऐसा आ गया कि उनके दिल ने उनको ख़ुद बख़ुद मुल्ज़िम ठहराया और मीलान अक्स का सिलसिला जारी हो गया यानी ख़ुदा में अपनी कामिल ख़ुशी के हासिल करने और उस की मर्ज़ी के एवज़ में इस की तहक़ीर का इर्तिबात ज़हूर में आया और अपनी ख़्याली ख़ुशी की तौक़ीर (ताज़ीम व तकरीम) को फ़ज़िलत देने का मेल नमूद हुआ। चुनान्चे कलाम की गवाही इस मुक़द्दमे में ये है कि ख़ुदा ने इन्सान को रास्त बनाया पर उसने बहुत सी बंदिशें सोच ली हैं। और जब कि इताअत इलाही के बदले में इन्सान की अपनी बंदिश को मुदाख़िलत हुई तो रज़ाए इलाही कहाँ बाक़ी रही। पस तो यूं ख़ुदाए रास्त और इन्सान नारास्त में जुदाई बरपा हो गई अब अगर रास्ती की हालत की माहीयत (असलियत) और नारास्ती की हालत की ना माहीयती के ऊपर बग़ौर मुलाहिज़ा किया जाये तो इस का हुस्न व क़ुब्ह (ऐब) बख़ूबी आश्कारा हो जाएगा और ये मालूम होगा कि इस असली रास्तबाज़ी से ख़ाली होने में कौन सा अज़ीम ज़ियाँ (ख़सारा) व ख़लल वाक़ेअ हुआ और कि ये आफ़त कैसी बला अंगेज़ हुई। ग़रज़ ये कि बहर-ए-हाल ज़बूर के मोअल्लिफ़ के इस कलाम की ख़ूबी आश्कारा होगी कि “ख़ुदावंद सदाक़त के ज़बीहों से ख़ुश-नूद होगा।” (ज़बूर 51-19) ख़ुदावंद की रज़ा इसी में थी और आदम और उनकी औलाद के लिए सदाक़त की राह में ज़िंदगानी थी और उस की राहगुज़र में हरगिज़ मौत नहीं। (अम्साल 12:28) अब अगर इस बात की सदाक़त को आश्कारा करने और इस की निस्बत कामिल दिलजमई हासिल करने के लिए सबूत कलामी की ज़रूरत मालूम हो तो ये दो आयात काफ़ी होंगी। हज़रत दाऊद ने (ज़बूर 53:3) में ये फ़रमाया है। “कोई नेकोकार नहीं एक भी नहीं।” और पौलुस रसूल (रूमी 3:10) में बतलाते हैं। “कोई रास्तबाज़ नहीं एक भी नहीं।” ताकि हम पर इस सिफ़त की ख़ूबी अयाँ की जाये ख़ुदावंद ने जो रहमत में ग़नी है अपने फ़ज़्ल की बोहतात से उनकी औलाद की सलामती ले ली अपनी रज़ा यूं ज़ाहिर की है, “ऐ सख़्त दिलों जो सदाक़त से दूर हो मेरी सुनो। मैं अपनी सदाक़त को नज़्दीक लाता हूँ वो दूर ना होगी। और मेरी सलामती ताखीर ना करेगी।” (यसअयाह 46:12-13)
दूसरी आफ़त :-
आदम का पाकीज़गी की हालत से गिरना
जो इस निस्बत में ज़हूर में आई सो ये थी कि इस ना-फ़र्मानी के गुनाह से उनकी इस कामिल पाकीज़गी की हालत में जिससे ख़ुदा ने उनकी पैदाइश के वक़्त उनको आरास्ता किया था और उन के और उन की औलाद के लिए मक़्सूद रखा था ख़लल वाक़ेअ हो गया उनकी पाकी जाती रही और इस के एवज़ में वो आसी (गुनाहगार) और दुखी बन गए इस ना-फ़र्मानी ने इर्तिबात व तोसल इलाही की जादह (रास्ता) मुस्तहकम की गिरहें खोल दीं और इस सिलसिले को काट के ख़ाक में मिला दिया ऐसा कि वो जो ख़ुदा और मालिक बल्कि कुल व मख़्लूक़ात की ख़ुशनुदी था अब वो सबकी निगाहों में घटने लगा और सबने अपनी निगाहें उनकी तरफ़ से फेर लीं और जिस वक़्त आदम ने अपने तईं ख़ुदा की हुज़ूरी से बाग़ के दरख़्तों की आड़ में छुपाना चाहा उस वक़्त गोया कि उन्होंने ये साबित किया कि मैं अब ख़ुदा की सोहबत के क़ाबिल ना रहा। पाकी की सिफ़त सारे और सिफ़ात बल्कि इन्सान के कुल सिफ़ात हमीदा और औसाफ़ पसंदीदा का सरताज था। वो इस्तिदाद (सलाहियत) रूह में सबसे आला दर्जा रखते थे और सारी इस्तिदादों को अपने क़ब्ज़े में रखते और उन पर मह्कूम थे और उनको ख़ुदा के जलाल और अपनी भलाई व बेहतरी के लिए मुमिद व मुआविन बनाने की हैसियत व क़ाबिलीयत रखते थे चुनान्चे जब इस सिफ़त में ख़लल वाक़ेअ हुआ तो कुल इन्सानियत में फ़ुतूर लाज़िम आया और कुल इंतिज़ाम ताव बाला हो गया क्योंकि कुल सिलसिला इन्सानियत का इसी के ऊपर मबनी था पर इस से ये मुराद ना लेना चाहिए कि इस सिफ़त से क़ासिर होने में उनकी इस्तिदादें (सलाहियत) मस्दूद हो गईं लेकिन इन इस्तिदादों का कमाल ज़ाए (बर्बाद) हो गया और ख़ुदा की सूरत की रौनक उन्हीं इस्तिदादों के कमाल के ऊपर मौक़ूफ़ थी। इन्सान की दिली पाकीज़ा दानिश और उनकी वो मुहब्बत इलाही जो कि उनकी मर्ज़ी को मुक़द्दस करती थी और ख़ुदा की मर्ज़ी की ताबेदारी की रुहानी ताक़त ये बातें इस पाकी की सिफ़त के ज़ाए होने के बाइस मस्दूद हो गईं। पस नतीजा उस का ये हुआ कि ख़ुदा ने अपने हुज़ूरी को बनी-आदम से जुदा कर लिया और इस से ज़्यादा-तर आफ़त बनी-आदम के लिए और क्या हो सकती थी? इस हक़ीक़त की माहीयत (असलियत) को मालूम कर के ख़ुदा के बंदे दाऊद ने अपनी दुआ में ये इक़रार किया। “देख मैंने बुराई में सूरत पकड़ी और गुनाह की साथ मेरी माँ ने मुझे पेट में लिया। देख तू अंदर की सच्चाई चाहता है सो बातिन में मुझको दानाई सिखा। ज़ोफ़ा से मुझ पाक कर कि मैं साफ़ हो जाऊं मुझको धो कि मैं बर्फ़ से ज़्यादा सफ़ैद हो जाऊं।” और ये दुआ करते हैं। कि “ऐ ख़ुदावंद मेरे अंदर एक पाक-दिल पैदा कर और एक मुस्तक़ीम रूह मेरे बातिन में नए सिरे से डाल मुझको अपने हुज़ूर से मत हाँक और अपनी रूह पाक मुझसे ना निकाल।” (ज़बूर 51:5-7, 18-11) पतरस रसूल इस मुक़द्दमे में ख़ुदा के ईमानदारों को ये नसीहत करते हैं कि “जिस तरह तुम्हारा बुलाने वाला पाक है तुम भी अपने चाल चलन में पाक बनो क्यूंकि लिखा है कि तुम पाक हो (बनो) कि मैं पाक हूँ।” (1 पतरस 15:16) अगर पाकी की सिफ़त इस ना-फ़र्मानी की वजह से ज़ाए ना होती तो कलाम की वो ताकीद कि नक़दुस की पैरवी करो जिसके बग़ैर कोई ख़ुदा को देख नहीं सकता मह्ज़ बेजा बात ठहरती। इन आयात बाला की माहीयत (असलियत) के ऊपर ब नज़र ग़ौर मुलाहिज़ा करने से साफ़ अयाँ होता है कि पाकी का जोहर इन्सान के हाथ से जाता रहा इस के बावजूद इस आफ़त की अब तक यही बात रास्त व सच्च साबित होती है कि वो जो पाक दिल है सो ही ख़ुदा की सोहबत से मुतमत्ते होगा।
इलावा आफ़ात रूही
इस असली रास्तबाज़ी और पाकीज़गी के ज़ाए (बर्बाद) हो जाने से आदमजा़द की कुल हालत मुतग़य्यर (बदला हुई) तब्दील हो गई और अज़-बस कि यही दोनों सिफ़ात कुल इस्तिदाद (सलाहियत) रूह के क़ायम व बहाल रखने के लिए उन पर मुसल्लत थी लिहाज़ा इनके ज़ाए हो जाने से वो ना सिर्फ उनकी रूह ऐसी बरहना हो गई कि जिसकी उर्यानी (नंगेपन) का छुपाना मुहाल हो गया पर उनकी वजह से बाक़ी सारी इस्तिदाद (सलाहियत) में ऐसी लाग़री सरायत कर गई कि गोया उस की हैइयत ही बदल गई और इन्सान पाक बातिन ऐसा नापाक और ज़लील और ख़ार व रुस्वा हो गया कि हैवानों से भी बदतर हो गया और बेईमानी और बेवफाई का बीज उस के दिल में ऐसा पड़ गया कि सिवा ज़रर (नुक़्सान, तक्लीफ़) के और कोई सूरत नज़र नहीं आती जैसा कि आफ़्ताब के ग़ुरूब होने से तारीकी तारी हो जाती है वैसा ही इन दोनों सिफ़ात आला को ज़ाए हो जाने से कुल इन्सानियत में ख़लल वाक़ेअ हो गया और बड़े बड़े ज़रर ज़हूर में आए। इस ज़रर का बयान कलाम में यूं आया है कि “उनकी अक़्ल तारीक हो गई और वो इस जहालत के सबब जो उनमें है और अपने दिलों की सख़्ती के बाइस ख़ुदा की ज़िंदगी से जुदा हैं। उन्होंने सुन्न हो के (अपने) आपको शहवत परस्ती के सपुर्द किया।” वग़ैरह (इफ़िसियों 4:18-19) इन आयात के ऊपर मुलाहिज़ा करने से पाँच 5 बातें निकलती हैं जो कि इन्सान की तबीयत में पाकीज़गी से ख़ाली होने के बाइस ज़हूर में आईं वह ये हैं :-
1- बनी-आदम की अक़्ल तारीक हो गई
2- उनमें जहालत दाख़िल हो गई।
3- उनके दिल सख़्त हो गए।
4- वो सुन्न (बे-हिस या बे हरकत हो जाना) हो गए।
5- वो ख़ुदा की ज़िंदगी से पैदा हुए और बतौर नतीजा के ख़ुदा के ग़ज़ब और लानत के तले पड़ गए हैं।
पस इन सारी बातों का ज़िक्र इस मुक़ाम पर मुसलसल किया जाएगा ताकि मालूम हो जाये कि बर्गशतगी ने इन्सान की हालत में कहाँ तक अबतरी डाल दी है।
1- अक़्ल की तारीकी
इस असली रास्ती और पाकी से ख़ाली होने का अव्वल नतीजा ये निकला कि इन्सान की अक़्ल तारीक हो गई ख़ुदा ने अस्ल में इन्सान की ख़ल्क़त को अपनी पहचान की रोशनी से ऐसा मुनव्वर कर रखा था कि किसी तरह की तारीकी का शमा (क़लील मिक़दार) तक पाया ना जाता था और जब तक कि वो रोशनी बजिन्सा क़ायम रही तब तक अक़्ल भी जोलानी पर थी इसलिए कि इस का मर्कज़ ख़ुदा ही था जो सर तापा रोशनी है और जिसमें तब्दील और ज़वाल का साया नहीं है पर जब तबीयत का मर्कज़ अपने मरज्जा (जाए पनाह, रुजू करने की जगह) ख़ास से हट गया। तब अक़्ल का मरज्जा दिगर-गूँ (उलट-पलट) हो गया और नापाकी के मीलान की वजह से इस के ऊपर तारीकी छा गई जैसा कि जब इन्सान को मर्ज़ लाहक़ होता है तो तंदरुस्ती के सारी अश्ग़ाल (शुग़्ल की जमा, काम) में तब्दीली आती है वैसा ही जब पाकीज़ा इन्सान नापाकी में मुब्तला हुआ तब उस की इस्तिदाद (सलाहियत) अक़्ली के मक़्सद बदल गए और अज़-बस कि वो रोशनी के चश्मे से अलग हट गया इस असली पहचान की ख़ुलू सियत की निस्बत इस में तारीकी ने सरायत की। चुनान्चे अब उस की सदाक़त यूं देखने में आती है कि आदमजा़द ज़िंदा ख़ुदा की ख़ालिस परस्तिश करने के एवज़ में अपनी तिब्बी बंदिशों की तरफ़ रुजू रखता और हय्य-उल-क़य्यूम (حی القیوم) का जलाल फ़ानी इन्सान और ग़ैर ज़ी-रूह मख़्लूक़ को देता है। इस माहीयत के हक़ में पौलुस रसूल ने रूमी को ख़त में ये गवाही दी कि “ख़ुदा की बाबत जो कुछ मालूम हो सकता है। उनमें आश्कारा है क्योंकि ख़ुदा ने इस को उन पर आश्कारा किया।” और आगे बढ़कर ये लिखा है कि “उन्होंने अगरचे ख़ुदा को पहचाना तो भी उस की ख़ुदाई के लायक़ उस की बुजु़र्गी और शुक्रगुज़ारी ना की। बल्कि अपने ख़यालों में बेहूदा हो गए और उनके ना फ़हम दिल तारीक हो गए। वो अपने को दाना ठहरा के नादान हो गए।” वग़ैरह (रूमी 1: 19-21-22) पाकी की हालत में अक़्ल की ये इस्तिदाद (सलाहियत) बाक़ी सारी इस्तिदादों के लिए गोया मिस्ल कुंजी (चाबी) की थी कि जो ख़ुदा की हक़ीक़ी पहचान की रोशनी की वजह से उन सबको अपनी मर्ज़ी की मानिंद ख़ुदा के जलाल की तरफ़ को रुजू रखने के लिए मुतास्सिर थी तो जब कि ये रोशनी तारीकी हो गई। तो वो तारीकी कैसी बड़ी हुई। इसी तारीकी की वजह से ख़ुदा की जलील (बुलंद) इंजील की रोशनी लोगों के दिलों पर असर नहीं करती है और यूं अक़्ल ख़ुदा ही की मुख़ालिफ़त करती है। हालाँकि उस का काम ये था कि सारे ख़यालों को अपनी रोशनी की हिदायत में लाने के लिए और उन पर हावी हो तो ना, ये कि अपनी हक़ीक़त के बरअक्स काम करने के लिए उनके ऊपर मुहर्रिक हो। देखें गुनाह ने क्या सितम बरपा किया कि शम्मा नूर इलाही को गुल कर के इस को तारीक किया और अपनी सारी मातहत इस्तिदाद (सलाहियत) को भी तारीक कर के ज़िंदगी के चश्मे की तरफ़ से सबको बर्गशता किया और आदमजा़द के तईं सारी नेकी और ख़ूबी से ख़ाली कर डाला। जिसमें से एक बात ये थी कि अक़्ल की रोशनी के ऊपर पर्दा पड़ गया और अक़्ल साइब (दुरुस्त) के एवज़ में अक़्ल फ़ासिद (शरीर, तबाह) हो गए और ज़बूनी (तबाही, कमज़ोरी) के तहत में लाई गई। चुनान्चे अब बनी-आदम के हक़ में कलाम की वो बात रास्त आती है। कि “इस जहान की हिक्मत ख़ुदा के आगे बेवक़ूफ़ी है।”
2- जहालत का दख़ल
जब अक़्ल की सदाक़त का नक़द (सरमाया) उस के हाथ से गया। तब उस की मर्ज़ी ने भी बग़ावत पर कमर बाँधे और जब मर्ज़ ने अक़्ल के साथ इत्तिफ़ाक़ कर के ख़ुदावंद की रोशनी की अकेली हिदायत और सलाह व मशूरत के मुताबिक़ अमल करने से पहलू-तही की तब रोशनी का चशमा भी बंद हो गया और जहां रोशनी नहीं वहां तारीकी के सिवा और क्या हो सकता है? और जहां तारीकी है वहां ही जहालत होगी। क्योंकि माहीयत (असलियत) हक़ीक़ी की पहचान तारीकी को दफ़अ करती है और जिस क़द्र इस पहचान से किनाराकसी होगी और उसी क़द्र जहालत अपना ज़ोर दिखलाएगी। इस जहालत की नज़र हम इस ख़ल्क़त में बख़ूबी पाते हैं। ये बात अयाँ है कि दुनिया के वास्ते ख़ुदा की सच्ची दानिश के बरअक्स है उसी सबब से जब हम इन्सान की फ़ासिद अक़्ल को कलाम की साइब ताअलीम से जो रोशनी का चशमा है मुक़ाबला करते हैं तो इलाही बातों की निस्बत उस को बिल्कुल मुर्दा सा पाते हैं। कलाम का दख़ल रोशनी बख़्शता है पर बिगड़ा हुआ आदमी आपनी जहालत में इस रोशनी के दख़ल का दुश्मन हो जाता है जिससे नतीजा ये निकलता है कि उनके ना फ़हम दिल तारीक हो गए हैं और उनका ज़मीर ऐसा कुंद पड़ गया है कि इल्ज़ाम देने की ताक़त और सकत उस में बाक़ी नहीं है और ना अपनी ज़ात से अपनी हक़ीक़त की शनाख़्त को हासिल कर सकता है। पस जैसा कि इल्म के बग़ैर आदमी जाहिल कहलाता है वैसा ही ख़ुदा की पहचान की शनाख़्त हक़ीक़ी के बग़ैर जिसको बिगड़ी हुई अक़्ल क़ुबूल नहीं करती है, इलाही बातों की निस्बत एक तरह का अंधापन छाया हुआ है और इन्सान ख़ुदा से दूर दूर भागता फिरता है और नहीं चाहता है कि ख़ुदावंद की रोशनी में चले। चुनान्चे हम बख़ूबी समझ सकते हैं कि इस कलाम के क्या मअनी हैं कि, “अहमक़ अपने दिल में कहता है कि ख़ुदा नहीं।” ये क्यों कर है कि इन्सान अपने ख़ालिक़ से किनारा करता और अपने बाप से शर्मिंदा होता है। यही अम्र है कि जिससे आदमजा़द की जहालत आश्कारा होती है। सुलेमान बादशाह ने क्या ख़ूब फ़रमाया है कि “वह जो सादिक़ है अपने हमसाये की रहनुमाई करता है पर शरीरों की राह उन्हें भटकाती है।” और कि आदमी की जहालत उसे गुमराह करती है और उस का ख़ुदावंद इस से बेज़ार होता है। और कि नादानी का मन्सूबा भी गुनाह है। ख़ुदा ने अस्ल में इन्सान को साहब दानिश व फ़हम बनाया था। पस जहां दानिश है वहां से जहालत सैंकड़ों कोस भागती है और अगरचे इन्सान बिगड़ गया है और ख़ुदा की रोशनी का दुश्मन हो रहा है। तो भी ख़ुदावंद जो रहमत में ग़नी है इस जहालत के दफ़ाअ करने की निस्बत अपनी मर्ज़ी को अपने कलाम के वसीले से यूं आश्कारा करता है कि “ख़ुदा की मर्ज़ी यूं है कि तुम नेक काम करके अहमक़ों की नादानी का मुंह बंद कर रखो।” इसलिए कि वो चाहता है कि कुल आदमजा़द सच्चाई की पहचान तक पहुंचें।
आयात बाला से साफ़ ज़ाहिर है कि इन्सान के दिल में जहालत का दख़ल हो गया है और अगर कोई पूछे कि इस का क्या सबब है तो मैं वही जवाब दूँगा जिसका ज़िक्र मक़्सद दोम में हुआ है यानी कि वो गुनाह की तारीकी का नतीजा है।
3- दिल की सख़्ती
तीसरा नतीजा इस बर्गशतगी का ये हुआ है कि इन्सान के दिल भी सख़्त हो गए हैं। दिल की सख़्ती निहायत है बुरी बला है। वो इन्सान को बेहतरीन नेअमतों के हासिल करने से बाज़ रखती है। सख़्त दिली सारी शरारत की बुनियाद हुई है और कजरवी (उलटे रास्ते पर चलना, टेढ़ी चाल) और अफ़आल बेजा की मुहर्रिक होती है। चुनान्चे कलाम पाक में भी यूं आया है कि “वो जो अपने दिल को सख़्त करता है ज़ियाँ (ज़रर, ख़सारा) में गिरेगा।” (अम्साल 28:14) “वह जो बावजूद बार-बार तंबीया पाने के ग़र्दनकशी करता है नागहां बर्बाद किया जाएगा और उस का कोई चारा ना होगा।” (अम्साल 29:1) सख्ती ऐसी शैय है कि ख़ूबी के असर को बे-तासीर करती और इस को बे हरकत बना देती है। और जब रास्ती की तहरीक की मानेअ हुई। तब जो ना हो सो थोड़ा है। वो तौबा की तबीयत की दुश्मन होती है और जब गुनाहगार दिल ख़ुदावंद की तरफ़ फिरने की मीलान को नहीं पाता तब इस पर सिवा ग़ज़ब के और क्या नाज़िल हो सकता है। ख़ुदा अपनी मेहरबानी और रहमत व शफ़क़त को गुनाहगार इन्सान की सलामती के लिए आश्कारा करता है पर वो अपने दिल की हमाक़त में उस की बरकतों को क़ुबूल नहीं करता है और अपने गुनाहों में मरने को बेहतर समझता है। कलाम पाक ऐसे शख़्स से यूं कलाम करता है “ऐ इन्सान तू उस की मेहरबानी और बर्दाश्त और मुहब्बत की कस्रत को हक़ीर जानता है और नहीं समझता कि ख़ुदा की मेहरबानी इसी मक़्सद से है कि तू तौबा की तरफ़ माइल हो जाये बल्कि तू अपने सख़्त और बे तौबा किए दिल से उस दिन की ख़ातिर जिसमें क़हर और ख़ुदा की अदालत हक़ ज़ाहिर होगी अपने लिए ग़ज़ब जमा करता है।” (रूमी 2:4-5) कि ये नतीजा बर्गशतगी का है इस आयत से साफ़ ज़ाहिर है, जिस हाल, कि उन्होंने पसंद ना किया कि ख़ुदा की पहचान को हिफ़्ज़ कर रखें ख़ुदा ने भी उन्हें अक़्ल की बेतमीज़ी पर छोड़ दिया। चुनान्चे इस से हर तरह की नारास्ती और बे इम्तियाज़ी बदअहदी, बेदर्दी, कीना रवी और बेरहमी सादिर हुईं। क्या बर्गशतगी के पेशतर इस तरह की ख़बासत इन्सानियत की ज़ात में पाई जा सकती थी। जब उन्होंने ख़ुदा की पहचान से किनारा किया तब ही उनमें ये सारी बद सिफ़तें जिनमें दिल की सख़्ती मुश्तमिल है पैदा हुईं। इस ख़राबी से महफ़ूज़ रखने के लिए ख़ुदा तआला अपने कलाम में ये हिदायत करता है कि अगर आज तुम उस की आवाज़ को सुनो तो अपने दिलों को सख़्त ना करो। जब इन्सान का दिल तारीक हुआ। तब इस में जहालत आई और जहालत ने दिल की सख़्ती को पैदा किया जिससे बनी हुई बात बिगड़ी। पस ये कैसी बुरी बला है। ख़ुदा हर बशर को इस मोहलिक नतीजे से नजात बख़्शे।
4- इन्सान का सुन्न पड़ जाना
चौथा नतीजा जो दिल की सख़्ती से भी होलनाक हुआ सो ये है कि इन्सान का दिल ना सिर्फ सख़्त हुआ बल्कि सुन्न पड़ गया। यानी बे-हिस्स व हरकत व बिल्कुल बे-तासीर हो गया। गोया इलाही बातों की तरफ़ से मुर्दा हो गया। दिल की सख़्ती की मुज़ावलत (किसी काम को हमेशा करना, रोज़मर्रा की मश्क़) का यही अंजाम होता है कि बुरी आदत का आदी होते होते बिल्कुल सुन्न हो जाता है। यानी किसी बात का उस के ऊपर असर नहीं होने पाता सारी इस्तिदादें (सलाहियत) मौजूद रहतीं, ख़्वाहिश भी क़ायम रहती है लेकिन दिल की कोरी (कोरा की तानीस, अहमक़, बेवफ़ा, ग़रीब) तबीयत को मुर्दा बना डालती है। मिस्ल उस शख़्स के जिसको सुन्न का मर्ज़ हो जाता है। उस के होश व हवास दुरुस्त रहते हैं लेकिन एक तरह की बे-ख़बरी में ज़िंदगी बसर करता है और जिस्मानी आराम व रंज दोनों से ना-आश्ना हो जाता है। बल्कि वाक़ई इन्सानियत से ख़ारिज हो जाता है। जैसा कि ये हालत उस शख़्स के लिए ज़ाती नहीं बल्कि आरिज़ी होती है वैसा ही वो इन्सान जो ख़ुदा की पहचान की रोशनी को दाख़िल देने से मुन्किर होता है अपने तईं ना सिर्फ सख़्त करता है पर सख़्ती को यहां तक तरक़्क़ी करने का मौक़ा देता है कि उस की आदतें बिगड़ के बिल्कुल बे-हिस व हरकत हो जाती हैं। यही सबब है कि आदमजा़द ख़ुदा के ख़्याल तक को अपने दिल में आने नहीं देता बल्कि अपनी ज़िंदगी के लिए ये मक़ूला क़ायम कर रखा है कि दुनिया मह्ज़ ग़फ़लत से क़ायम है। कौन साहब फ़हम इन्सान है जो इस हालत को नहीं देखता और इस के ऊपर मातम नहीं करता है। अला-उल-ख़ुसूस (ख़ास तौर पर) वो जिनके दिल कलाम इलाही की रोशनी से मुनव्वर हैं। इस फ़ज़्ल से गिरी हुई हालत को ख़ुदा की रोशनी में देखकर इस पर दिली मातम व रंज करते हैं। और उनकी दुआ दिन रात यही रहती है, कि ख़ुदावंद अपनी रहमत से उनकी हालत को बदले ताकि वो शैतान की गु़लामी से छुट के ख़ुदा की फ़रज़न्दों की आज़ादगी में चलें और ख़ुदा के फ़ज़्ल और उस की रहमत के इंतिज़ाम से लड़ने वाले ना हो बल्कि ख़ुदा की नजात में शिरकत हासिल कर के नजात पायें। ये वो बुरी हालत है कि जिसमें समझ और मर्ज़ी ख़ुदा की शरीअत और उस की इंजील की मुख़ालिफ़त कर के नेकी की तरफ़ से बिल्कुल किनारा-कश होती और बदी से हम-आग़ोशी करती है और इन्सान की मुहब्बत को ख़ुदा की तरफ़ से फेर के बेहूदा और गुनाह आलूदा ख़ुशीयों में मुब्तला करती और इसी में उस को गिरफ़्तार कर डालती है। ये वो हालत है कि जिसमें ज़मीर अपने ख़ास मन्सब से तजावुज़ कर के नेकी को बदी और बदी को नेकी क़रार देता है और यूं कलाम की रोशनी को बे-तासीर करने के लिए असर दिखलाती है। ये वो हालत है कि जिसमें इन्सान की तबीयत मिस्ल उस छलनी के हो जाती है कि जिसमें से उम्दा व बारीक व मुहकम चीज़ें गिर जाती हैं और सिर्फ फुज़ला ही फुज़ला बाक़ी रह जाता है जो सलामती के लिए मह्ज़ बेकार हैं। इस के बाइस से जिस्म भी ख़राब हो जाता है और वह जो रास्ती के लिए वसीला बनाया गया है अपने उज़ू को गुनाह के लिए नारास्ती का औज़ार बनाता है। हाँ ये ऐसी हालत है कि बावजूद उस के कि मदद पेश की जाती है। पर इस ख़राबी की हालत से निकलने की रग़बत और मेल तक इस में बाक़ी नहीं रह जाता। यूं इन्सान अपने आज़ाद मर्ज़ी को बेजा इस्तिमाल में लाके अपने तईं ख़ुद हलाक करता है और अपनी हलाकत के ऊपर फ़ख़्र करता है।
5- ख़ुदावंद की ज़िंदगी से जुदा होना
पांचवां नतीजा बर्गशतगी का जो सारी आफ़तों से बदतर और अफ़्ज़ल तर है सो ये हुआ कि इन्सान ख़ुदा की रोशनी से जुदा हो गया। ज़िंदगी की शर्त कामिल ताबेदारी मुक़र्रर की गई थी। ऐसी ताबेदारी कि जिसमें ख़्याल के इख़्तिलाफ़ और तबीयत की मुख़ालिफ़त और चाल चलन की ग़ैरियत और दिल की पाकी में ख़लल को मुदाख़िलत ना थी। ज़िंदगी की हालत रोशनी की हालत कहलाती है और गुनाह तारीकी से मुशाबेह किया जाता है। पस जैसा कि रोशनी को तारीकी से मुनासबत नहीं है और तारीकी को रोशनी से कुछ इलाक़ा नहीं है और तारीकी रोशनी को गुम कर देती है इसी तौर पर जब गुनाह की तारीकी दिल में दर आई तो ज़िंदगी की रोशनी को तारीक कर के उस की माहीयत (असलियत) को छुपा लेती है। और जब इन्सान तारीकी को पसंद करने लगता है। तब रोशनी से बर्गशता होता है और जहां कामिल बर्गशतगी हो और कुल शैय की कैफ़ीयत उलट जाये तो वहां ख़ुदा अपने चेहरे की रोशनी को छुपा लेता है और अज़-बस कि उस के चेहरे की रोशनी में ज़िंदगी है। जब वो खींच जाये तो सिवा तारीकी के और क्या रह जाएगा। यूं इन्सान की बर्गशतगी उस को ख़ुदा की हक़ीक़ी ज़िंदगी से बर्गशता कर के उस से जुदा कर देती है। बर्गशतगी के कुल मदारिज की इल्लत-ए-ग़ाई यही है कि ख़ुदा से जो ज़िंदगी का चशमा है जुदा कर देती है और ख़ुदावंद की हुज़ूरी से महरूम होना यही जहन्नम है। इसी तारीकी को रफ़अ करने और ख़ुदा की ज़िंदगी बर्गशता इन्सान को फिर अता करने के लिए इंजील दर्मियान में आई है। और ख़ुदावंद की ज़िंदगी को अज़ सर-नो यूँ ज़ाहिर करती है। कि “जो बेटे पर ईमान लाता है हमेशा की ज़िंदगी उस की है पर जो बेटे पर ईमान नहीं लाता हयात को ना देखेगा बल्कि ख़ुदावंद का क़हर उस पर रहता है।” (युहन्ना 3:36) और यूं इंजील गुनाहगार को हमेशा की ज़िंदगी यानी ख़ुदावंद की ज़िंदगी अता करने के लिए ख़ुदा की क़ुदरत साबित होती है।
ख़ुलासा कलाम
बर्गशतगी के नताइज में से चंद ये हैं जिनके ऊपर बनज़र ग़ौर मुलाहिज़ा करने से मालूम होता है कि इस की वजह से कैसा अज़ीम ज़ियाँ हुआ है। इस की कुल हक़ीक़त ऐसी बदल गई है कि वो ख़ुदा की पहचान की रोशनी से मुनव्वर किया गया था और उस की मर्ज़ी के ताबेअ था अब उस की पहचान से किनारा-कशी करता है और उस की मर्ज़ी से बग़ावत रखता है। ऐसा कि वो काम जो उस की जे़ब व ज़ैनब थे अब इस को शाक़ गुज़रती हैं और उनसे किनारा-कश होने की मीलान आप में पाता है और बर्गशतगी के नताइज का ख़ुलासा यूं हो सकता है कि वो इन्सान को गुनाह और मुसीबत के हालत में लाई है यानी कि सारे इन्सानों ने अपने बर्गशतगी से ख़ुदा की सोहबत को खो दिया उस के ग़ज़ब और लानत के नीचे हैं। और यूं इस ज़िंदगी की सारी मुसीबतों के और मौत के बल्कि जहन्नम के अज़ाब अबदी के ख़तरे में पड़ गए हैं।
सातवाँ बाब
इन्सान की अदम तसहीह का तज़्किरह
तसहीह के बारे में इन्सान की अदम कौती
आदम की बर्गशतगी के नतीजों के ऊपर ग़ौर करने से साफ़ ज़ाहिर हुआ कि उस की उन आला सिफ़ात में जो उस की जे़ब व ज़ीनत और फ़ज़्ल की हालत में इस्तिहकाम बख़्शने के लिए वसीले थे कहाँ तक अबतरी आ गई कि उस की गोया हैइयत ही दिगर-गूँ हो गई और ख़ुदा की वो सूरत जो इर्फ़ान और तक़द्दुस में उस की ख़ालिक़ की मानिंद बनाई गई थी कहाँ तक महव हो गई। पर इन आफ़ात के शमुल में जिसमें इन्सान बर्गशतगी के बाइस से मुब्तिला हो गया था सब से बड़ी आफ़त ये हुई कि इन्सान में अपनी हालत के सुधारने के लिए ज़ाती क़ुव्वत बाक़ी ना रह गई। जितने औसाफ़ कि तसहीह (दुरुस्त करना) के लिए ज़रूरी और दरकार थे। उन सब में लाग़री सरायत कर गई और कोई माद्दा सेहत का बाक़ी ना रह गया कि जिसके बाइस से उस को अपनी हालत-ए-असली के बहाल करने में मदद मिलती। चुनान्चे लिखा है कि “हर बशर ने अपने अपने तरीक़ को ज़मीन पर बिगाड़ा था।” (पैदाइश 6:12) वह ख़राब हुए उनके काम मकरूह हैं कोई नेको कार हो जो ख़ुदावंद आस्मान पर से बनी-आदम पर निगाह करे देखे कि उनमें कोई दानिशमंद ख़ुदा का तालिब है या नहीं। “वो सब गुमराह हुए वो एक साथ बिगड़ गए।” (ज़बूर14:1-3)। अगर इन्सान में कोई शैय ऐसी थी कि जो उस की असली हालत वहीयत में रखने के लिए कारगर हो सकती थी तो वो ही सिफ़ात थी जो बेसबब गुनाह करने के वबाला हो गए और ख़ुदा की पाकीज़ा सूरत को नापाकी में बदल डाला। पस जिस शैय में इतना बड़ा फ़ुतूर पड़ गया। उसी शैय में फिर उस की बहाली का माद्दा या ताब (नूर, चमक) की उम्मीद रखना बिल्कुल बरअक्स बात होती है और गोया इस बिगाड़ से मुन्किर बनाने की मीलान रखती है। बिगड़ी हुई चीज़ में अपने आपको सुधारने की माहीयत (असलियत) का पाया जाना मुहाल-ए-मुतलक़ (नामुम्किन) है। इस दुनिया में ये बात रोज़मर्रा देखने में आती है। कि जोशे बिगड़ी और तावक्त ये कि कोई शैय ऊपर से इस के नक़्श इमजारीह (जारी शूदा क़ानून) की दफा दूर करने वाली, ग़िज़ा के फुज़ला को दूर करने वाली क़ुव्वत इस में दाख़िल हो के मुतास्सिर ना हो तब तक उस का दफ़ईया (दफ़ाअ) करने की तदबीर ग़ैर मुम्किन है। मुसल्लस व मसलन जब इन्सान के जिस्म में मर्ज़ का माद्दा पैदा हुआ तो तावक़्त ये कि कोई ऐसी दवा ऊपर से ना दी जाये कि जो इस मर्ज़ के माद्दे के ऊपर असर कर के इस को कुलअदम कर दे। तब तक मर्ज़ फ़ना नहीं हो सकेगा। यही क़ायदा दुनिया के कुल उमूर में पाया जाता है और इस शैय की माहीयत (असलियत) में जिसमें नुक़्स दर आया हरगिज़ उस के दफ़ईया की ताक़त देखने में नहीं आती और कोई साहब तेज़ व तजुर्बा ऐसा नहीं है कि जो इस माहीयत (असलियत) से नावाक़िफ़ हो या उसे बातिल साबित कर सके। अब ये भी ज़ाहिर है कि जिस्म और रूह में एक तरह का तोवसल (वसीला ढूंढना, वसीला) है और अक्सर जिस्म की हालतें रूह की हालत के ऊपर दाल हैं और तश्बीह रूही को तश्बीह जिस्मी से मुनासिब करते हैं। अब गुनाह रूह का मर्ज़ कहलाता है चुनान्चे (यसअयाह 1:5) में लिखा है। “तमाम सर बीमार है और दिल बिल्कुल सुस्त है।” अब इस की दफ़ईया की निस्बत (यर्मियाह 8:22) में ये आयत आई है। “क्या जलआद में रोग़न बिलसान नहीं है? क्या वहां कोई तबीब नहीं? मेरी क़ौम की बेटी क्यों चंगी नहीं होती और फिर ये कि अपनी राह निकालना इन्सान के क़ाबू में नहीं है।” (यर्मियाह 10:23) इन तीनों आयात से बयान बाला की माहीयत (असलियत) बख़ूबी आश्कारा हो जाती है और इस हक़ीक़त के ऊपर दाल है कि अपनी तसहीह के बारे में इन्सान मह्ज़ नाताक़त है।
इस नाताक़ती की वजह अव्वल पाकी से ख़ाली होना
अगर कोई पूछे कि इस का क्या सबब है कि इन्सान में अपनी तसहीह की ताक़त बाक़ी नहीं है तो इस की ये वजह मालूम करनी चाहीए। पाकी की सिफ़त फ़िर्दोस की सिफ़त आला व ख़ास है। चुनान्चे लिखा है कि “तक़द्दुस की पैरवी करो जिसके बग़ैर कोई ख़ुदावंद को देख नहीं सकता।” जब आदम ने ख़ुदा के हुक्मउदूली (नाफर्मानी) की, तो उनकी पाकी जाती रही और यूं फ़िर्दोस के औसाफ़ ख़ास से महरूम हुए। अब अगर तक़द्दुस ख़ुदा के दीदार के हासिल करने का ज़रीया है तो हम उस की तश्बीह आँख से दी सकते हैं। बदन का चिराग़ आँख है पस अगर आँख अँधेरी हो तो तमाम जिस्म अंधेरा हो जाएगा और जब कि आँख के ऊपर पर्दा नाबीनाई का छा गया तो क्या मुम्किन है कि आँख में ऐसी ताक़त ज़ाती पैदा हो कि इस झिल्ली को जो आँख के ऊपर पड़ गई है, तोड़ के उस के तारीकी के ऊपर ग़ालिब आए। पर तावक़्त ये कि वो झिल्ली को बाहरी वसीलों से आँख के ऊपर से हटाई ना जाये तब तक देखना मुहाल है। इसी तरह से जब चशम रूही के ऊपर नापाकी का पर्दा छा गया तब ख़ुदा का दीदार मुहाल है। अब अगर ख़्याल बाला के मुताबिक़ इन्सान चाहे कि अपनी ज़ात से इस पर्दे को उठा के पाक तरीन मकान के अंदर देखे तो उस की नापाकी इस में मानेअ (रुकावट) होती है बल्कि अगरचे इस में ख़्वाहिश भी हो ताहम वो इस मुक़द्दमे में मजबूर व आरी है इस मुक़द्दमे में ख़्वाहिश का होना ऐसा होगा कि जैसा बीज जो सख़्त ज़मीन के ऊपर जिसमें तरावत (ताज़गी) नाम को नहीं है पड़ी, वो कभी फलदार नहीं हो सकता बल्कि इस में पड़े पड़े ख़ुश्क हो जाएगा या आंका किसी चिड़िया का जिसकी निगाह उस के ऊपर पड़ जाये लुक़मा बन के अपने मतलब मक़्सूद से बे-तअल्लुक़ हो जाएगा। लिहाज़ा पाकी की सिफ़त से ख़ाली हो के इन्सान अपनी ज़ात से अपनी तसहीह और बहाली की निस्बत बिल्कुल आजिज़ व आरी है जिस अक़्ल ने ख़राबी का बीज बोया उस अक़्ल से फिर गया, उम्मीद हो सकती है और इस से उम्मीद रखना बड़ी हमाक़त है बल्कि लिखा भी है कि “ना ज़ोर से ना क़ुव्वत से पर मेरी रूह से ख़ुदावंद फ़रमाता है।”
वजह दोम तक़द्दुस की निस्बत अदम तवज्जही
पाकी की सिफ़त के क़ायम रखने की निस्बत दो बातें मुतास्सिर और कारगर होती हैं। अव्वल ये कि पाकी का हुस्न हर वक़्त मद्द-ए-नज़र रहे अब बर्गशतगी के बाइस से इन्सान की ताक़त इम्तियाज़ी मस्दूद हो गई है और क़ायदे की बात है कि जिस क़द्र इम्तियाज़ की कमी होगी, उसी क़द्र मतलूब शैय की निस्बत ग़फ़लत भी ज़रूर है, आश्कारा होगी। चुनान्चे जिन लोगों का ज़मीर कुंद हो गया है वो लोग हमेशा इलाही बातों की तरफ़ से बे परवाह रहते हैं। पाकी की ख़ूबसूरती या उस के हुस्न को देखने के लिए पाकी की निगाह चाहीए नापाकी माद्दा की नफ़्सानियत है और नफ़्सानियत की निस्बत कलाम में ये आया है कि “जिस्मानी मिज़ाज ख़ुदा का दुश्मन है।” (रूमी 8:7) और कि वो जो जिस्मानी हैं ख़ुदा को पसंद नहीं आ सकते इस की निस्बत यर्मियाह नबी की नोहा की वो बातें रास्त आती हैं जो (यर्मियाह 1:6) में ये आई हैं कि “इस की सारी रौनक सेहोन की बेटी से जाती रही।” और यसअयाह नबी की वो बातें भी सादिक़ ठहरती हैं जो (यसअयाह 38:1-4) में लिखी हैं “वावेला उनकी शानदार शौकत जो कुमलाया हुआ फूल है, और इस शानदार शौकत का मुरझाया हुआ फूल जो इस शादाब नदी के सिरे पर है। इंजीर के पहले फल की मानिंद होगा जो गर्मी के अय्याम से पेशतर लगे जिस पर किसी की निगाह पड़े और वो उसे देखते ही और हाथ में लेते ही जल्दी से खा जाता है।” यर्मियाह की किताब में ये मज़्मुन आया है, “क्या कोशी आदमी अपने चमड़े का या तेंदुवा अपने दाग़ों को बदल सकता है। तब ही तुम नेकी कर सकोगे जिनमें बदी करने की आदत हो रही है।” (यर्मियाह 13:23) इस हालत की तश्बीह इस ख़ूक (सुवर, ख़िंज़ीर) से दी जा सकती है जो हर-चंद बार-बार साफ़ किया जाये पर सफ़ाई की ख़ूबी से नावाक़िफ़ हो के कीचड़ में लौटना पसंद करता है। इन आयात बाला की हक़ीक़त के ऊपर ग़ौर करने से साहब फ़हम पर साफ़ आश्कारा हो सकता है कि पाकी के जोहर को हाथ से दे के वो उस के फिर हासिल करने की निस्बत मह्ज़ ना ताक़त है। जैसा कि नाबीना आदमी रोशनी की माहीयत (असलियत) और उस के हुस्न से बे-बहरा रहता है। इसी तरह नापाक आदमी भी पाकी के हुस्न की शनाख़्त से ख़ाली और बे बहरा है, और जैसा कि ऊपर ज़िक्र हो चुका है वो अपनी ज़ात से इस ताक़त को हासिल नहीं कर सकता है। इसी वजह से मसीह ने अपनी ज़बान मुबारक से ये इर्शाद फ़रमाया है कि “जब तक आदमी पानी और रूह से सर-ए-नौ पैदा ना हो तब तक वो आस्मान की बादशाहत को देख नहीं सकता है।” और पौलुस रसूल इस नई ज़िंदगी के बारे में ये हिदायत फ़रमाते हैं कि “अब हमने दुनिया की रूह नहीं बल्कि वो रूह को ख़ुदा की तरफ़ से है पाई, ताकि उन चीज़ों को जो ख़ुदा ने हमें बख़्शी हैं जानें और यही चीज़ें हम इन्सान की हिक्मत की सिखाई हुई बातों से नहीं बल्कि रूहुल-क़ुद्दुस की सिखाई हुई बातों से ग़रज़ रुहानी बातें रुहानी लोगों से बयान करते हैं। मगर नफ़्सानी आदमी ख़ुदा की रूह की बातें क़ुबूल नहीं करता कि वो उस के आगे बेवक़ूफ़ीयाँ हैं।” (1 कुरंथियो 2:12-14) में हज़रत अय्यूब ने अपनी किताब में ये फ़रमाया है कि “कौन है जो नापाक से पाक निकाले।” (अय्युब 14:4) जैसे कि जब आँखों में ख़लल आ जाता है और एक अरसे तक सख़्त तारीकी में रहने का इत्तिफ़ाक़ होता है। तब बसारत में ऐसी कमज़ोरी आ जाती है कि आँख रोशनी की ज़्यादती की ताब नहीं ला सकती है वैसा ही नापाक इन्सान अपनी नापाकी की वजह से पाकी के हुस्न की ताब नहीं ला सकता है और ये हालत उस वक़्त तक रहती है कि जब तक ख़ुदा जिसने हमें इब्तिदा में ख़ल्क़ किया है उसी क़ुदरत कामला से हमको अज़ सर-ए-नौ पैदा ना करे।
हुस्न तक़द्दुस के अज्र की निस्बत पहलू-तही
दूसरी बात जो पाकी में इस्तिक़ामत बख़्शने के लिए कारगर होती है सो उस के अज्र को मल्हूज़ ख़ातिर कहा है, पर उस की निस्बत भी इन्सान बे परवाह है। नापाक इन्सान सिर्फ़ बीनाई से ज़िंदगी करता है और चूँकि पाकी का अंजाम मौत के दरिया के उस पार ज़हूर में आने वाला देखता है ईमान की इस्तिमाल में लाने का माद्दा ग़ायब रहता है। वो उस को सफ़ाई के साथ इस आलम अस्फ़ल में पस्त-हिम्मत हो जाता है और कहता है कि किस ने देखा है कि वहां क्या है और क्या होगा? पस जैसा कि जो शैय जिस क़द्र दूर होती है उसी क़द्र उस का मंज़र धुँदला नज़र आता है। और उस का हुस्न व क़ुब्ह नहीं खुलता इसी तरह से बहिश्त की ख़ूबीयों का नादीदा होना उस के लिए एक तरह का पर्दा हो जाता है। जिसके उस पार्वा ना बख़ूबी देख सकता है ना अपनी फ़िक्र से उस की माहीयत (असलियत) तक पहुंच सकता है। और यूं दामन-ए-सब्र को हाथ से छोड़कर ख़ुद को बला में गिरफ़्तार करता है। अज़-बस कि पाकी का अज्र नादीदा है और ईमान का मुतक़ाज़ी होता है और ईमान की माहीयत (असलियत) रुहानी है। पस उस के हुसूल की क़ाबिलीयत मुहाल है जब तक कि इन्सान का दिल ऐसा मुबद्दल ना हो जाये कि बीनाई और ईमान की ज़िंदगी के बीच में इम्तियाज़ हक़ीक़ी जारी ना हो। लिहाज़ा उस का कलाम ऐसा ही होता है जैसा ख़ुदावंद ने अपनी बंदे यर्मियाह की मार्फ़त यरूशलेम के बाशिंदों के हक़ में कहा जब कि उन पर उनकी रविष की अबतरी की वजह से आफ़तें लाने की तदबीर की और उनको उस से फेरने की हिदायत की। “उन्होंने कहा कि ना-उम्मीदी की बात है कि इसलिए कि हम अपने ख़यालों की पैरवी करेंगे और हर एक अपने अपने दिल की कजरवी पर अमल करेगा।” (यर्मियाह 18:12)
वजह चहारुम अक़्ल-ए-सलीम में फ़ुतूर का लाज़िम आना
फिर तसहीह के बारे में इन्सान की अदम क़ुव्वती इस अम्र से भी मशीयत (ख़्वाहिश, तक़्दीर) है कि उस की अक़्ल-ए-सलीम में फ़ुतूर वाक़ेअ हो गया है। जब इन्सान किसी तरह के मर्ज़ में मुब्तला होता है तो एक ना दो ना तीन बल्कि जिस्म के कुल आज़ा पर उस का असर होता है। इसी तरह रूह के मरज़-ए-मोह्लिक और मुज़िर असर कुल इस्तिदाद (सलाहियत) रूही के ऊपर हावी हो जाता है। अब पाकी की हालत रोशनी की हालत है और जहां रोशनी है। वहां अक़्ल भी मुनव्वर है लिहाज़ा सलीम। पस जैसा कि पाकी की हालत रोशनी की हालत है वैसा ही नापाकी की हालत तारीकी हालत है। चुनान्चे कलाम में अक़्ल की तारीकी का तज़्किरा पाया जाता है। अब गुनाह के दख़ल ने पाकी को नापाकी से बदल डाला है और गुनाह की बुनियाद व दिल की तारीकी से पड़ी। पस उस का नतीजा यही हुआ कि वो तारीकी तरक़्क़ी पज़ीर हुई।
अल-ग़र्ज़ जैसा कि आँख जिस्म की हादी (हिदायत करने वाली) है वैसा ही दिल रूह के हादी है। और जैसा कि आँख की कोरी (अंधापन) जिस्म की तारीकी को कामिल कर देती है वैसा ही दिल की कोरी रूह की इस्तिदादों को तारीक कर देती है। ये भी ज़ाहिर है कि अक़्ल एक इस्तिदाद (सलाहियत) और रईसा (सरदार) है। लिहाज़ा जैसा कि दुश्मन सरदार अज़ीम के ऊपर अपना वार ज़्यादा-तर करता है दिल की तारीकी का ये नतीजा होता है कि इस्तिदाद (सलाहियत) अक़्ली को तारीकी में डाल दे और जब अक़्ल में फ़ुतूर आया तब उस में सलामती कहाँ रही कि जिसके बाइस से उस की तारीकी रफ़ा हो। जैसा कि रात की तारीकी सौ आफ़्ताब की तमाज़त गर्मी कि सी शैय से रफ़ा नहीं हो सकती है। वैसा ही अक़्ल की तारीकी सिवा उष्मा नूर इलाही के किसी शैय से रफ़ा नहीं हो सकती है। नफ़्सानी तबीयत अक़्ल की सलामती की दुश्मन है। पस जब तक कि नफ़्सानियत क़ायम है तब तक अक़्ल का सलामती की तरफ़ रुजू करना मुहाल है। चुनान्चे लिखा है कि “हिक्मत इन्सानी ख़ुदा का दुश्मन है।” और ये भी कि “ग़ैर कौमें अपनी बातिल अक़्ल के मुवाफ़िक़ चलती हैं। कि उनकी अक़्ल तारीक हो गई है। और वो उस जहालत के सबब से जो उनमें है और अपने दिलों की सख़्ती के बाइस ख़ुदा की ज़िंदगी से जुदा हैं। उन्होंने सुन हो के (अपने) आपको शहवत परस्ती के सपुर्द किया।” वग़ैरह (इफ़िसियों 4:17-19) अब दिल ही सारी अख़्लाक़ी ख़ूबीयों का मर्कज़ है और अक़्ल उनकी हादी है लिहाज़ा अगर अक़्ल तारीक हो तो सारी खूबियां ज़रूर ही मस्दूद हो जाएँगी।
वजह पंजुम मुसीबत की अदम वाक़फ़ीयत
इन्सान अपनी तसहीह के बारे में इस सबब से भी नाक़ाबिल है कि वो अपनी मुसीबत कमा हक़्क़ा आगाही नहीं रखता है। शिनाख्त-ए-हाल हक़ीक़ी तसहीह की जान है क्योंकि बग़ैर इस पहचान के हरगिज़ ऐसा इश्तिआला हासिल नहीं हो सकता है कि जो दुरुस्ती के लिए कारगर हो। मरीज़ जब तक कि अपनी मर्ज़ी शिद्दत व सख़्ती और उस के मोहलिक असर को दर्याफ़्त ना करे तब तक इस मर्ज़ के ईलाज की तरफ़ कम दिल लगाता है और वो मर्ज़ जो ख़राबी की ज़ाहिरी अलामतों से ख़ाली हो सबसे बदतर होता है क्योंकि उस की ना वाक़फ़ीयत जान की गाहक हो जाती है और तंदरुस्ती के मौक़े को ज़ाए कर देती है ऐसा कि सिवा हसरत के और कुछ रह नहीं जाता है। बर्गशता इन्सान रोशनी से ख़ाली और ज़िंदगी से दूर हो गया है। इस सबब से नफ़्सानियत उस के ऊपर ग़ालिब है और नफ़्सानियत की तारीकी पाकी की आँखों को जिसकी रोशनी की हिदायत में इन्सान अपने हाल से बख़ूबी वाक़िफ़ हो के और इस नज़र से उस पर निगाह करता है कि जिससे ख़ुदा उस को देखता है अंधा कर देता है। पस ना उन्हें उस में से बरी होने की रग़बत होती है ना वो उस की परवाह करता है, इसलिए कि नफ़्स की पैरवी से मुन्किर होना उस को नागवार गुज़रता है। नफ़्सानियत की शीरीनी उस को महव कर देती है और उस के ख़्याल को हलाकत की सोच से हटा देती है। किसी ने इन्सान की हालत की निस्बत की क्या दुरुस्त रिवायत की है कि :-
इत्तिफ़ाक़न एक शख़्स के ऊपर शेर ने वार किया उस की निगाह जो उस के ऊपर पड़ी तो वो जान ले के भागा पर जो एक कुआं सद्द-ए-राह (कुँआं हाइल होना) था वो उस में गिरा। क़ज़ारा (इत्तिफ़ाक़न, अचानक) उस के बीच में एक लकड़ी लगी हुई थी वो उसी के ऊपर जा पड़ा और सलामत उस पर रुक गया। जो नीचे की तरफ़ निगाह की तो एक बड़ा अज़दहा मुँह फैलाए हुए बैठा देखा तब तो और भी परेशान हुआ कि दूसरी बला बदतर गले पड़ी एक के नीचे से तो रिहाई पाई पर दूसरी से क्योंकर जान बर (सही सलामत) हूँगा। लकड़ी जब टूट गई फ़ौरन नीचे गिर के इस मूज़ी का लुक़मा दहन (मुँह) हूँगा। पर इसी हैस व बीस (तकरार) में इस लकड़ी पर बैठे-बैठे अपनी उंगली इस में डालने लगा और हस्ब-ए-इत्तिफ़ाक जो इस को मुँह से लगाया तो इस में एक तरह की शीरीनी पाई। इस शीरीनी को बार-बार चाटते चाटते वो हर दो तरफ़ का ख़तरा भूल गया और वहां से निकलने का ख़्याल भी फ़रामोश किया।
नफ़्सानी इन्सान के बजिन्सा (ऐसा) यही कैफ़ीयत है कि नफ़्सानियत की शीरीनी ने उस की मुसीबत को फ़रामोश करा दिया है और वो अपनी हालत को भूल बैठा है। बनी-इस्राईल की इसी नफ़्सानियत की तबीयत के ऊपर मातम करते हुए हमारे मुबारक मुंजी ने ये कहा। “ऐ यरूशलम ऐ यरूशलम कई बार मैंने चाहा कि तेरे लड़कों को जमा करूँ जिस तरह मुर्ग़ी अपने बच्चों को अपने परों तले जमा करती है। पर तुमने ना चाहा।” (लूक़ा 13:34)
“काश कि तू अपने इसी दिन में इन बातों को जो तेरी सलामती की हैं जानता पर अब वो तेरी आँखों से छिपी हैं।” (लूक़ा 19:42) किसी बुज़ुर्ग ने ये नसहीत की है कि अपने तईं पहचान पर इन्सान अपने तईं पहचाने क्यों कर? अंधा कहाँ से रोशनी पा सकता है। उस की ज़ात तो तारीकी हो गई है ये काम तो रूह पाक का है। पर इन्सान उस की आवाज़ का शुन्वा नहीं हो सकता है। लिहाज़ा वो ज्यूँ का त्यूँ (वैसे का वैसा) अपने गुनाहों में मरता है ना इसलिए कि ख़ुदावंद उस की हलाकत चाहता है पर इसलिए कि वो अपनी हालत से वाक़िफ़ होना अपने लिए ऐन मुसीबत समझता है और उस की ग़फ़लत में अपनी सलामती तसव्वुर करता है। ख़ुदा उस सख़्ती और अदम तवज्जही से हर नफ़्स को बचाए और अपने अमान में रखे।
वजह शश्म दुनिया से इत्मीनान हासिल करने की रग़बत
इन्सान अपनी तसहीह के बारे में इस वजह से भी नाक़ाबिल है कि उस का दिल इत्मीनान और सलामती की अस्ल चश्मी की तरफ़ बसबब अपनी अबतरी के रुजू करने के बरअक्स दुनिया से इत्मीनान हासिल करने की रग़बत रखता है। जो धुँदली रोशनी तारीकी के दर्मियान में से उस के दिल के अंदर वक़्त ब-वक़्त अपना असर दिखलाती है और उस के ख़यालों को बुलंद परवाज़ी के लिए तहरीक दिलाती है वह बाआसानी अपने ख़यालों के मुताबिक़ अपने मक़्सद को हासिल करने के बाइस से इस बुलंदी के नीचे की तरफ़ को उतरती है और ज़मीनी चीज़ों से इत्मीनान ढूँढने की रग़बत आश्कारा करती है। इस मुक़ाम पर मसीह की वो ताअलीम याद आती है जो (मत्ती12:43-45) में आई है जब नापाक रूह आदमी से बाहर निकलती है तो सूखी जगहों में आराम ढूंढती फिरती है और जब नहीं पाते तो कहती है कि मैं अपने घर में जिससे मैं निकली हूँ फिर जाऊँगी और आ के उसी ख़ाली और झाड़ा और लैस पाती है तब वो जा के और सात रूहें जो उस से बदतर हैं, अपने साथ लाती और उस में दाख़िल हो कर वहां बस्ती हैं। सो उस आदमी का पिछ्ला हाल आगे से बुरा होता है।” इस ज़माने के लोगों का हाल भी ऐसा होगा। ईमान की निगाह की बसारत कम हो जाने के सबब से वो सिर्फ एक हद तक बुलंदी के ऊपर चढ़ता है पर हज़रत मूसा के साथ नबियों की चोटी के ऊपर नहीं चढ़ता है। कि जहां से ज़मीन मौऊद की बरकतें और ख़ुदा के जलाल की रौनक नज़र आए और वहीं क़ायम हो जाने के लिए कारगर हो। यूं ईमान के बाज़ू थक कर नीचे को अपने आशियाने की तरफ़ रुजू करते हैं और वो उतर के ख़ामोश बैठ जाता है। और इस बात को भूल जाता है कि ख़ुदावंद का ये क़ौल है कि “जो आख़िर तक साबित-क़दम रहे और पायदार रहता है सो ही नजात पाएगा।” बर्गशता इन्सान नफ़्सानियत के हाथ में बिक गया है और उसी का ग़ुलाम हो गया है और साँप की इस लानत में शरीक हो रहा है कि “तू ज़मीन पर अपने पेट के बल चलेगा।” लिहाज़ा उस की हैसियत इसी बात के ऊपर आ रही है। कि सिर्फ नफ़्सानियत की आसूदगी में इत्मीनान ढूंढे। नफ़्सानी आदमी ख़ुदा की रूह की बातों को समझ नहीं सकता है। क्योंकि वो रुहानी तौर पर बूझी (समझी) जाती हैं। पस इस बोझ व समझ के हासिल करने के लिए रुहानी तबीयत का पैदा होना दरकार है। और ये इन्सान अपनी ज़ात से हासिल नहीं कर सकता है। पौलुस रसूल ने (तीतुस 3:3-5) में इन्सान की इस बर्गशतगी की हालत की निस्बत ये लिखा है कि “हम भी आगे नादान, ना फ़रमांबर्दार, फ़रेब खाने वाले और रंग बिरंग की शहवतों और इशरतों के बस में थे पर जब हमारे बचाने वाले ख़ुदा की मेहरबानी और आदमीयों पर रग़बत ज़ाहिर हुई उसने हमको रास्तबाज़ी के कामों से नहीं जो हमने किए बल्कि अपनी रहमत के मुताबिक़ नए जन्म के ग़ुस्ल और रूहुल-क़ुद्दुस के सर-ए-नौ बनाने के सबब बचाए गए।
ख़ुलासा उल-कलाम
वजूहात मतज़कुरा बाला से अयाँ है कि बर्गशतगी के बाइस आदमजा़द ना सिर्फ ख़ुदा की रहमत से दूर हो गए बल्कि यहां तक अबतरी में पड़ गए हैं। उस आफ़त से बरी होने या उस से रिहाई पाने की ताक़त व सकत उनमें मुतलक़ बाक़ी नहीं रह गई है कि उस की अक़्ल और समझ और ख़्वाहिश व मर्ज़ी बल्कि सारी इस्तिदाद (सलाहियत) रूही में ऐसी लाग़री और पज़मुर्दगी और नाक़ुव्वती सरायत कर गई है कि वो नेकी की तरफ़ से बिल्कुल मुर्दा हो रहा है और कि अगर कोई आला क़ुदरत या ताक़त बैरूनी उस के ऊपर मुतास्सिर हो के उस की कमज़ोरी को ज़ोर से और उस की नाताक़ती को क़ुव्वत से और उस की तारीक अक़्ल और समझ को रोशनी से और उस की ख़्वाहिश व मर्ज़ी को नया बना के बदल ना डाले तो इन्सान के लिए अपनी ज़ाती तारीकी में अबद तक के लिए मुब्तला रहने के सिवा और कुछ बाक़ी नहीं रह जाता है। चुनान्चे कलाम की वो आयत रास्त व सादिक़ आती है कि “ख़ुदा ने हमें बचाया और पाक बुलाहट से बुलाया ना हमारे कामों के सबब से बल्कि अपने इरादे ही और उस नेअमत से जो मसीह ईसा के वास्ते अज़ल में हमें दी गई।” (2 तिमथी 1-9) और वो बात भी जो (1 पतरस 1: 3-4) में आई है, “हमारे ख़ुदावंद ईसा मसीह का ख़ुदा और बाप मुबारक हो जिसने हमको बड़ी रहमत से ईसा मसीह के मुर्दों में जी उठने के बाइस ज़िंदा उम्मीद के लिए सर-ए-नौ पैदा किया ताकि हम वो बेज़वाल और ना आलूदा और ग़ैर-फ़ानी मीरास जो आस्मान पर तुम्हारे लिए रखी गई है पांए। और फिर ये कि ख़ुदा ही है जो तुम में असर करता है कि तुम उस की नेक मर्ज़ी के मुताबिक़ चलो और काम भी करो।” (फ़िलपी 2:13)
आठवां बाब
इन्सान की बहाली की तदबीर और उस के वसीले का तज़्किरा
इन्सान की बेहतरी के लिए उम्मीद
बयानात पेश रफ़्ता हैं इन्सान की उस तारीकी और अबतरी का मंज़र देखने में आया जिसमें कि वो बाइस गुनाह के गिरफ़्तार हो गया है और जो कि उस की ख़ता का वाजिबी नतीजा है ये हालत कैसी करीहा (क़ाबिल-ए-नफ़रत) और हैबतनाक है और कोई इन्सान ऐसा नहीं है जिसके दिल में उस का सोच वक़्त ब-वक़्त ना आता हो और उस से पनाह ना मांगता हो। मुसीबत में पड़ के ना कभी कोई ख़ुश हुआ है ना हरगिज़ ख़ुश रह सकता है। और इस से बढ़के मुसीबत व आफ़त और क्या होगी कि इन्सान ख़ुदा की तजल्ली से महरूम और उस की सलामती बख़्श बुज़ुरगी से ख़ारिज हो के अन्दर आ जाए जाये। और अज़-बस कि इन्सान ने दीदा व दानिस्ता अपने तेईं इस बला के दाम में फंसा दिया है अगर वो अबद तक के लिए इसी तारीकी और अबतरी की हालत में छोड़ दिया जाता तो ये उस का मुनासिब बदला होता और गुनाहगार की सज़ा में ख़ुदा रास्त ठहरता और इन्सान अपनी उज़्र-ख़्वाही की निस्बत ख़ामोशी की लगाम अपने मुँह में लगाता और इस के लिए यही ख़ास शुग़्ल मुनासिब व ज़ेबा होता कि अबद-उल-आबाद अपनी परेशानी में आप नादिम (शर्मिंदा) रहता। जैसा कि फ़रिश्तों का हाल है। लेकिन ख़ुदावंद को पसंद आया कि इन्सान को इस तारीकी और अबतरी की हालत में ना छोड़े चुनान्चे उसने अपनी रहमत की बे पायां से तारीकी में से रोशनी और अबतरी में से बेहतरी और कुलफ़त (रंज ,तक्लीफ़) में से राहत की सूरत निकाली और उनकी सलामती की निस्बत अपनी मर्ज़ी को बज़रीये यूं आश्कारा किया है कि “मुझे अपनी हयात की क़सम है कि शरीर (बेदीन) के मरने में मुझे कुछ ख़ुशी नहीं बल्कि इस में है कि शरीर (बेदीन) अपनी राह से बाज़ आए और जीए। बाज़ आओ अपनी बूरी राहों से बाज़ आओ तुम काहे को (किसलिए) मरोगे।” (हज़िकीइल 38:11)
ख़ुदा की रहमत इन्सान की उम्मीद की बुनियाद
ये बात भी क़ाबिले लिहाज़ के है कि इन्सान किसी तरह ख़ुदा की रहमत के ऊपर अपनी सलामती की बहाली के लिए दावा नहीं कर सकता था। क्योंकि जब रहमत को पामाल किया और उस की तक्फ़ीर की तो इस पर उसी का उम्मीदवार होना मुहाल है। चुनान्चे इन्सान को सिवाए तारीकी की अबदी स्याही की और किसी बात की इंतिज़ारी ना थी। बमूजब उस क़ौल के कि शरीर (बेदीन) जहन्नम में डाले जाएँगे और वो सारी कौमें जो ख़ुदा को फ़रामोश करती हैं। ऐसी हालत में ख़ुदावंद ने जो रहमत में ग़नी है उस की कम्बख़्त हालत के ऊपर तरस खाया और अपनी रहमत की बेपायाँ से उस की मख़्लिसी के लिए अपने दस्त-ए-क़ुदरत को दराज़ किया और उस की रिहाई व मख़लिसी के लिए उस का दामन-गीर हुआ। क्योंकि रहमत का माद्दा मुहब्बत का मुत्कामी होता है। यूं ख़ुदा ने अपनी बड़ी रहमत से इन्सान की नादानी और ख़राबियों के ऊपर अफ़व का पर्दा डाला और उस के गुनाहों से चश्मपोशी कर के आस्मानी मकानों की मीरास फिर हासिल करने की लियाक़त अता की और उस का इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) बख़्शा। लिहाज़ा कलाम में ये आया है कि “जब हमारे बचाने वाले ख़ुदा की मेहरबानी आदमीयों पर ज़ाहिर हुई उसने हमको रास्तबाज़ी के कामों से नहीं जो हमने किए बल्कि अपनी रहमत के मुताबिक़ नए जन्म के ग़ुस्ल और रूहुल-क़ुद्दुस के सर-ए-नौ बनाने के सबब बचाया जिसे उसने हमारे बचाने वाले ईसा मसीह की मार्फ़त हम पर बोहतात से डालाता कि हम उस के फ़ज़्ल से रास्तबाज़ ठहर कर उम्मीद के मुताबिक़ हमेशा की ज़िंदगी के वारिस हो।” (तीतुस 4:3-7)
इस नजात के हुसूल का वसीला फ़ज़्ल है!
पर-ताकि इस की वजह से फ़ख़्र बेजा व नाज़ेबा से बचाए जा कर सिर्फ़ ख़ुदा की रहमत के ऊपर तकिया करने के लिए हिदायत मिली। चाहिए कि हमारी निगाह हमेशा इस अम्र के ऊपर लगी रहे कि जैसा ख़ुदा की रहमत ने राह-ए-नजात खोल दी है वैसा ही इस रिहाई का हुसूल भी उसी के फ़ज़्ल के ऊपर मौक़ूफ़ है। वो मह्ज़ बख़्शिश है। हक़ का ज़िक्र नाम तक नहीं आ सकता है और सिवा शुक्र व तवक्कुल के और कुछ चारा नहीं है कलाम की गवाही इस मुक़द्दमे में ये है, “तुम फ़ज़्ल के सबब ईमान ला के बच गए हो और ये तुमसे नहीं ख़ुदा की बख़्शिश है और ये आमाल के सबब से नहीं ना हो कि कोई फ़ख़्र करे।” (इफ़िसियों 2: 8-9)
इस के हुसूल का शर्त क़ुबूल करना है!
लेकिन हर-चंद कि ख़ुदा ने अपनी रहमत के बेपायाँ से गुनाहगार इन्सान के लिए बेहतरी की सूरत निकाली है और उस की दावत भी करता है ताकि उस की सलामती बख़्श नेअमतों में शरीक हो और अपने मुफ़्त फ़ज़्ल से इन्सान को इस में शिरकत देता है तो भी याद रखना चाहीए कि उस का हुसूल बजानिब इन्सान एक शर्त के ऊपर मौक़ूफ़ है और वो शर्त उस को क़ुबूल करने की है। अगर किसी ज़र्फ़ (बर्तन) में अमृत (आब-ए-हयात) रखा हो तो उस के देखने से उस के फ़वाइद में शिरकत हासिल ना होगी या आँख कहीं गंज (ख़ज़ाना) फ़िरावाँ हो तो उस के ऊपर निगाह डालने से उस का हासिल होना मुम्किन नहीं बल्कि जब तक कि वो हासिल ना हुआ वर इस से हमारे दस्त ममलू ना हों तब तक वो हमारी ख़ुशी को अफ़्ज़ूद (ज़्यादा) करने के लिए ना कारगर होगा और ना उस से मतलब बरारी (मतलब पूरा होना) होगी। इसी तरह जब तक कि ख़ुदा का फ़ज़्ल हासिल ना हो तब तक वो हमारे लिए फ़ाइदामंद नहीं हो सकता है। जानना चाहीए कि कोई माहीयत निरे ख़्याल से हासिल नहीं हो सकती है। बल्कि उस में जद्दो जहद दरकार है और जब कोशिश से हाथ आए तो सारे दिल से क़ुबूल करना लाज़िम है ताकि उस से मुस्तफ़ीद हूँ इसी तरह पर ख़ुदा की रहमत का हुसूल उस की मक़्बूलियत के ऊपर मशरूअत है यानी अगर सारे दिल से ख़ुदावंद की नजात बतौर बख़्शिश के क़ुबूल ना की जाये तो हरगिज़ हासिल ना होगी। इस अम्र की निस्बत हमको कलाम की वो आयत याद रखनी चाहीए जो (युहन्ना 1:12) में आई है कि “जितनों ने उसे क़ुबूल किया उसने उन्हें इक़्तिदार बख़्शा कि ख़ुदा के फ़र्ज़ंद हो।” क़बूलीयत हुसूल की जान है, ये दोनों लाज़िम वमलज़ुम हैं। जहां क़बूलीयत है वहां ही हुसूल है और जहां क़बूलीयत नहीं वहां हुसूल मुहाल है। जो कलाम को सुनता और उसे क़ुबूल करता है वही तीस और साठ और सौ गुनाह मेवे लाता है। पर जो क़ुबूल नहीं करता वो बे फल रहता है।
इस हुसूल का शर्त दोम ईमान है
लेकिन इस हुसूल के शर्त में सिर्फ मक़्बूलियत बा ईमान भी मशरूअत है। ईमान क़बूलीयत का दस्त-ए-शिफ़ा है और हुसूल का माए-ए-इंबिसात (शादमानी) है। ये वो जोहर है कि जिसके बग़ैर ख़ुदा को राज़ी करना मुहाल है ये वो वसीला है कि जिससे बख़्शिश समावी (आस्मानी) सतह अर्शी (ज़मीन) के ऊपर अपना असर दिखलाता है। और ख़ुदा की नजात क़ुबूल करने के लिए क़वी वसीला बन जाता है। गो कलाम में चार अक़्साम (क़िस्मों) के ईमान का तज़्किरा आया है।
यानी तवारीख़ी और आरिज़ी और मोअजज़ाना या मुरई (रिआयत किया गया, आइद किया गया) और नजात बख़्शिश। पर पहले तीन अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) सिर्फ़ बतौर मददगार के हैं और अमान-ए-नजात बख़्शिश की माहीयत (असलियत) को पहुंच नहीं सकते हैं। इस नज़र से हम उनसे किनारा कर के ये कहते हैं कि अमान-ए-नजात बख़्शिश ही इस शर्त दोम के ऊपर हादी है और इस हुसूल की माहीयत से मुताल्लिक़ है चुनान्चे लिखा है कि “हम तो रूह के सबब ईमान की राह से रास्तबाज़ी की उम्मीद के बर आने की मुंतज़िर हैं। इसलिए कि मसीह ईसा में मख़्तूनी और ना मख़्तूनी से कुछ ग़रज़ नहीं मगर ईमान से जो मुहब्बत की राह से है असर करता है।” (ग़लतीयों 5: 5-6)
ये राह नई और ज़िंदा
अज़-बस कि ये तदबीर ख़ुदा के फ़ज़्ल के ऊपर मबनी है और इन्सान की कोशिश व तदबीर से कुछ सरोकार नहीं रखती। क्योंकि उस की कोशिश में इन्सान आजिज़ है और उस की निस्बत में उस की अक़्ल क़ासिर और उस का ख़्याल बंद और ज़बान चुप है ये राह उस पुरानी राह से जो आमाल की बुनियाद के ऊपर क़ायम की गई थी बिल्कुल बे-तअल्लुक़ है। वो एक नई राह दिखलाती है और अज़-बस कि इन्सान की निस्बत ख़ुदा के मक़्सद के बर लाने में कारगर है वो सिर्फ़ नई बल्कि एक ज़िंदा राह भी कहलाती है।
पर इस नई और जीती राह से क्या मुराद है। ये नई और जीती राह मसीह है जिसने अपनी फ़रमांबर्दारी से इन्सान को अबतरी की हालत से निकाल के अबदी सर्फ़राज़ी बख़्शती है जैसा लिखा है कि “जैसे एक शख़्स की ना-फ़रमानी से बहुत लोग गुनाहगार ठहरे वैसे एक की फ़रमांबर्दारी के सबब सब आदमी रास्तबाज़ ठहराएँ गए।” (रूमी 5:19) और मसीह ने ख़ुद भी अपनी ज़बान मुबारक से फ़रमाया है कि “राह हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ कोई बग़ैर मेरे वसीले के बाप के पास आ नहीं सकता है।”
दूसरा आदम
जिस तरह से कि आदम की पैदाइश की रू से अपनी सारी औलाद का जानिबदार था इसी तरह से मसीह भी उस नए अह्द फ़ज़्ल का दर्मियानी हो के अपनी बर्गुज़ीदा लोगों का जानिबदार हुआ। पस जिस तरह से कि पहला आदम अपनी हुक्मउदूली से अपनी औलाद के लिए मौत का बाइस हुआ वैसा ही मसीह अपनी फ़रमांबर्दारी से सब ईमानदारों के लिए रास्तबाज़ी और ज़िंदगी का बानी हुआ। लिहाज़ा बाएतिबार इस काम के जिसमें इन्सान की सलामती मद्द-ए-नज़र थी वो दूसरा आदम के ख़िताब से मुलक़्क़ब हुआ। चुनान्चे कलाम पाक में आया है कि “पहला आदमी यानी आदम जीती जान हुआ और पिछ्ला आदम जिलाने वाली रूह हुआ। पहला आदमी ज़मीन से ख़ाकी है दूसरा आदमी ख़ुदावंद आस्मान से है।” (1 कुरंत्थी 15:45-47) बेशक ये राह जिससे इतनी बड़ी नेअमत फिर हाथ आई निहायत ही मुबारक और क़ाबिल-ए-तस्लीम के होगी और मुबारक वो इन्सान जो इस राह में चलता और यूं हमेशा की ज़िंदगी की रोशनी को देखता है।
दूसरे आदम की फ़ौक़ियत व अफ़्ज़लीयत
जैसा कि कुल अज्राम समावी में आफ़्ताब सबसे ज़्यादा-तर रोशन और फ़लक की जे़ब व ज़ीनत और उस का जलाल है वैसा ही ये ख़ुदा और इन्सान का महमूद ना सिर्फ आलिम बल्कि समाइल-समवात की जानिब की भी जे़ब व ज़ीनत है और ना इस दुनिया में ना आलम-ए-बाला में कोई ऐसा है जो इस पाक नाम की ख़ूबीयों और फ़ज़ीलातों के साथ बराबरी या हमसरी का दावा कर सके चुनान्चे कलाम में यूं आया है कि “ख़ुदावंद ही ने उसे बहुत सर्फ़राज़ किया और उस को ऐसा नाम जो सब नामों से निराग है बख़्शा ताकि ईसा का नाम ले के हर एक क्या या आस्मानी क्या या ज़मीनी क्या वो जो ज़मीन के तले हैं घुटना टेके और हर एक ज़बान इक़रार करे कि ईसा मसीह ख़ुदा है ताकि ख़ुदा बाप का जलाल हो।” (फ़िलपी 2:9-11) फिर उस की फज़ीलत की निस्बत ये भी लिखा है कि “और सारी हुकूमत और इख़्तियार और रियासत और ख़ावंदी पर और हर एक नाम पर जो ना सिर्फ इस जहान में बल्कि आने वाले जहान में भी लिया जाता है बुलंद किया और सब कुछ उस के पांव तले कर दिया।” (इफसी 1:12-22)
नए अह्द का दर्मियानी
अज़-बस कि बनी-आदम की नजात के बारे में इस दूसरे आदम को एक नया और आला इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) बख़्शा गया जो इसी क़द्र अफ़्ज़ल था कि जिस क़द्र वो ख़ुद इस आलम अस्फ़ल से अफ़्ज़ल था और ख़ुदा ने अपनी रहमत की फ़रावानी से उस के वसीले बाइस टूट जाने उस पुराने अह्द के बनी-आदम के साथ एक नया अह्द फ़ज़्ल बाँधा जो कि हरगिज़ टूट ना सकता था ये दूसरा आदम ब-एतबार इस इस्तिदाद (सलाहियत) आला के नए अह्द का दर्मियानी भी कहलाता है। सुनिए कि कलाम इस मुक़द्दमे में क्या फ़रमाता है, “पर अब उसने इस क़द्र बेहतर ख़िदमत पाई जिस क़द्र बेहतर अह्द का दर्मियानी ठहरा जो बेहतर वादों से बाँधा गया और इसी सबब से यानी इस सबब से कि उसने अबदी रूह के वसीले (अपने) आपको ख़ुदा के सामने क़ुर्बानी गुज़राना। वो नए अह्द का दर्मियानी है।” (इब्रानियों 8:6, 9:14-15)
अदोनाए सिद्दकियों ख़ुदा हमारी सदाक़त
और हालाँकि मसीह की बदौलत ख़ुदावंद की सदाक़त ज़मीन के ऊपर आश्कारा हुई और उस के ख़ून की बदौलत बनी-आदम को हासिल हुई नबी ने बहुक्म इलाही उस को ये नाम अता किया, “अदोनाए सिद्दक़ीयों यानी ख़ुदा हमारी सदाक़त।” रसूल ने भी उस की निस्बत ये फ़रमाया है कि “तुम ईसा मसीह में हो के उस के हो कि वो हमारे लिए ख़ुदा की तरफ़ से हिक्मत और रास्तबाज़ी या सदाक़त और पाकीज़गी और ख़लासी है।” (1 कुरनत्थी 1:3)
सुबह का नूरानी सितारा
फिर इस नज़र से कि मसीह के बाइस से हमेशा की ज़िंदगी की उम्मीद-बंदी है और मिस्ल सुबह के तारे की जो मुसाफ़िर को दिन के निकलने की ख़बर देकर ख़ुशी बख़्शता है। इन्सान के पज़मुर्दा-दिल हरे कर दीए गए इस मुंजी आलम को सुबह का नूरानी सितारा लक़ब दिया है। देखो (2-पतरस 1:19) वो एक चिराग़ है जो अँधेरी जगह में जब तक पौ ना फटे और सुबह का तारा तुम्हारे दिलों में ज़ाहिर ना हो रोशनी बख़्शता है। “फिर मैं उसे सुबह का सितारा दूँगा।” (मुकाशफ़ा 2:28) और इस के ज़िमन में मसीह ने ख़ुद फ़रमाया कि “मैं दाऊद की अस्ल और नस्ल और सुबह का नूरानी सितारा हूँ।” (मुकाशफ़ा 22:16)
शाह सलामत
गो हमारे मुंजी को उस के मुख़्तलिफ़ मन्सब के मुताबिक़ मुख़्तलिफ़ नाम दीए गए हैं जो गुनाहगार के हस्ब-ए-हाल होने से इसलिए निहायत क़ीमती हो जाते हैं और इत्र की मानिंद उस के सर पर उढेले जाने से उस के दिमाग़ को मुअत्तर कर देते हैं हत्ता कि वो शख़्स जो उस के मुबारक लहू से ख़रीदा गया है इस गीत को अपनी ज़बान पर लाने से शाद होता है, “ईसा नाम तेरा दिल पसंद, कान चाहते सुनने को, ज़मीन तमाम आस्मान बुलंद। सब उस की हम्द करो ! जिस बात का मैं हूँ आर्ज़ूमंद, सो तुझमें ही मौजूद, रोशनी बिन तेरे नापसंद, और दोस्ती ना मक़्सूद, ताहम एक नाम है जो सबसे ज़्यादा-तर दिल पसंद और मर्ग़ूब है। ये नाम शाह सलामत है और इस नाम से उस के इस दुनिया में आने की इल्लत-ए-ग़ाई साबित होती है। वो ख़ुदा और इन्सान के बीच में सलामती और सुलह जारी करवाने के लिए आया नबी ने ख़ुदा की हिदायत से मसीह की अजीब व ग़रीब नामों को शामिल-ए-हाल किया उस को “सलामती का शाहज़ादा” कहा है। (यसअयाह 9:6) और जब हम मसीह की सल्तनत की तासीर और अपने दिलों में उस के असर के ऊपर ग़ौर व फ़िक्र करते हैं तो हमारे दिल बे-इख़्तियार उनकी सलामती के क़ाइल हो कर ख़ुदा का शुक्र करने की तर्ग़ीब पाते हैं। कि आस्मानी सलामती ज़मीन के ऊपर आ गई है। और सदाक़त और सलामती बाहम बोस व कनार (मुहब्बत और प्यार करना) करती हैं। फ़रिश्तों की भी गवाही ये थी। ख़ुदा को आस्मान पर तारीफ़ ज़मीन पर सलामती और आदमीयों में रजामंदी हो। इसी नज़र से फ़रिश्ते ने उस का ये नाम बतलाया कि “तू उस का नाम ईसा रखना क्योंकि वो अपने लोगों को उनके गुनाहों से बचाएगा।” चुनान्चे गुनाहों से रिहाई पाना हक़ीक़ी सलामती है जो सिर्फ मसीह के वसीले से जो दूसरा आदम कहलाता है हासिल होती है।
दूसरे आदम का इन्सान के हसब-ए-हाल होना
ये दूसरा आदम यूँ बहर (किसी, कोई) नौ (नए) हसब-ए-हाल था और जब कि ख़ुदा ने इन्सान की सलामती के लिए उस की वसातत को क़ुबूल किया तो अपनी ऐन मुहब्बत को ज़ाहिर किया क्योंकि मसीह के सिवा किसी में ये ताक़त ना थी कि जन्नत के उस दरवाज़े को जो आदम के गुनाह के सबब से बंद हो गया था फिर खोल देने की सकत या क़ाबिलीयत होती। अल-ग़र्ज़ ये दियानत की बात और बिल्कुल पसंद के लायक़ है कि ईसा मसीह गुनाहगारों के बचाने के लिए इस दुनिया में आया। और मुबारक वो हैं जो अपनी सलामती के लिए उस पर भरोसा रखते हैं।
नवां बाब
कैफ़ीयत आदम-ए-सानी
मसीह का अजाइब और नादिर होना
इस आलम का सारा इंतिज़ाम निहायत अजीबो-गरीब है। ज़मीन के अंदर से एक ख़ोशे के निकलने से आफ़्ताब के तलूअ होने तक अजाइब है और कोई इन्सान ऐसा नहीं है जो उस के कुल मदारिज को हल कर के ऐसा साफ़ कर दे कि ये दुनिया मरज्जा (जाए-पनाह) अजाइबात ना रहे। इलावा उस के ख़ुदा के फ़ज़्ल के इंतिज़ाम में उस की क़ुदरत ऐसे अजाइब तौर पर आश्कारा हुई है कि जिसके समझने में इन्सान की अक़्ल क़ासिर है। हत्ता कि सख़्त से सख़्त मुख़ालिफ़ों की ज़बान भी बंद हुई है और उन्होंने सुकूत किया और इक़रार किया कि ये ख़ुदावंद का हाथ है चुनान्चे जब ख़ुदावंद ने अपनी रहमत की फ़रावानी से अपने बंदे अब्रहाम और इस्हाक़ व याक़ूब की क़दीम और यक़ीनी वादों को वफ़ा किया और उनकी औलाद को मिस्र की ज़मीन से बाला-ए-दस्ती के साथ निकाला उस वक़्त ख़ुदावंद के मक़्बूल बंदे हज़रत मूसा ने अपनी फ़त्ह की ग़ज़ल में ये जुम्ला उस की किब्रियाई की शान में गाया, “माबूदों में ख़ुदावंद तुझ सा कौन है? पाकीज़गी में कौन है? तेरा सा जलाल वाला, डराने वाला, साहब बड़ाइयों का अजाइबात का बनाने वाला।” (ख़ुरूज 15-11)
लेकिन बावजूद उस के कि ये आलम ख़ुद एक अजाइब-उल-आलम है और इस में निहायत ही नादिर अजाइबात ज़हूर में आए हैं बल्कि रोज़मर्रा देखने में आते हैं। ताहम ख़ल्क़त के अजाइबात में से सबसे अजीब व नादर ये है कि ख़ुदा ने मसीह को जो उसी की पाक ज़ात की माहीयत (असलियत) का नक़्श था इस आलम अस्फ़ल में भेजा ताकि वो बनी-आदम का एवज़ (बदला, तावान) हो के उनके लिए (अपने) आपको ख़ाली करे और बंदे की सूरत पकड़ के (अपने) आपको उस की बहाली और सर्फ़राज़ी की मंशा से ऐसा पस्त कर डाले कि उस की हालत पर पस्ती गोया ख़त्म हो गई। क्या दुनिया में इस से ज़्यादा-तर अजीब कोई अम्र ज़हूर में आया है कि वो जो ख़ल्क़त का ख़ालिक़ है इन्सान बना और ऐसी फ़िरोतनी का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हुआ कि जिसके मुक़ाबिल में बनी-आदम की सारी पस्ती गिरोही। अगर कोई शख़्स इस का सबूत चाहे तो (यसअयाह 55 बाब) को पढ़के और बग़ौर मुतालआ कर के बतलाए कि क्या इस से बढ़के पस्ती की नज़र बनी-आदम के बीच में देखने में आई है या आती है या आ सकती है? ये वो अजाइब है कि इन्सान क्या फ़रिश्तों की भी अक़्ल दंग है और वो इस राज़ की माहीयत (असलियत) जानने के मुश्ताक़ हैं। इस अम्र की निस्बत (1-पतरस1:12) में इल्हाम से यूं रक़म फ़रमाया है कि “इस नजात के तलाश व तहक़ीक़ ना सिर्फ अम्बिया ही ने कि बल्कि इन बातों के दर्याफ़्त करने के फ़रिश्तगान मुश्ताक़ हैं।” इंजील का राज़ अज़ीम यही है चुनान्चे कलाम में यूं आया है, “बिल-इत्तिफ़ाक़ दीनदारी का राज़ अज़ीम है। ख़ुदा जिस्म में ज़ाहिर हुआ रूह से रास्त ठहराया गया फ़रिश्तों को नज़र आया ग़ैर क़ौमों में उस की मुनादी हुई दुनिया में उस पर ईमान लाए जलाल में उठाया गया।” (1-तिमथी 3:12)
इस राज़ का महर इलाही
ये राज़ सर्फ़राज़ अज़ीम है इदराक राज़ इलाही है पर इस के ऊपर ख़ुदावंद का अपना ही मुहर व दस्तख़त पाया जाता है और इस बात का सबूत यूं होता है कि ख़ुदा ने अपने बंदों अम्बियाओं के वसीले से पुश्त दर पुश्त इस बात के भेद को आश्कारा किया और उनके वसीले अपने फ़ज़्ल की बोहतात और अपने जलाल की अज़मत को बनी-आदम की निस्बत ज़ाहिर कर के उनके ख़यालों और ख़्वाहिशों को इसी राज़ की तरफ़ रुजू रखा और इस के वसीले से उनको तसल्ली अता की हत्ता कि सारे सच्चे ईमानदार इसी नजात की इंतिज़ारी में ज़िंदगी बसर करते आए और फ़ी ज़माना ख़ुदा के सारे मक़्बूल बंदे इसी राज़ मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) से ख़ुदा के फ़ज़्ल के हुसूल के उम्मीदवार रहते हैं।
इस राज़ का अव्वल ज़हूर
ये राज़ अव्वल उसी वक़्त आश्कारा किया गया कि जब हज़रत आदम ने अपने ख़ुदावंद के हुक्मों को टाल के अपने तेईं मए अपनी औलाद के मौरुद लअन बनाया। वो वक़्त आदम के लिए बड़ी तारीकी का था इस सबब से ख़ुदावंद जो रहमत में ग़नी है। उस की हाजत को पहचान के उनकी तसल्ली यूं करता है कि “तुम अबद तक के लिए सरोद ना होगे। पर मैं अपनी नजात तुमको अता करूँगा चुनान्चे इस बात को याद रख कि मेरी रहमत ने तुम्हारे लिए एक राह मख़लिसी (निजात) की तैयार की है और वो ये है कि एक तेरी ही नस्ल से पैदा होगा जो साँप यानी शैतान के सर को कुचलेगा।” इस तसल्ली से उनके दिल को ऐसा आराम हासिल हुआ कि जिस वक़्त उनसे एक फ़र्ज़ंद नरीना (लड़का) पैदा हुआ उसी वक़्त उन्होंने ख़ुदावंद के वाअदे को मुकम्मल समझ के मारे ख़ुशी के कहा कि “मैंने ख़ुदावंद से एक मर्द पाया।” गो ये उस वाअदे की तक्मील ना थी और हज़ार-हा बरस का अरसा गुज़र ने वाला था क़ब्ल उस के कि इस वाअदे का तकमिला क़रार वाक़ई ज़हूर में आया।
इस का इन्किशाफ़ माबअ्द
अगरचे ये अव्वल ज़हूर इस राज़ का एक झलक सा नमूदार होता हम उस वक़्त से बराबर उस की निस्बत ज़्यादा-तर सफ़ाई ज़हूर में आती गई और हर अम्बिया मताख़रीन पर यहां तक सफ़ाई के साथ आश्कारा होती गई कि वो और उन के सहाइफ़ के मुतालआ करने वाले इस अम्र के क़ाइल हो गए कि ख़ुदावंद की नजात आस्मान से ज़मीन के ऊपर आने वाली है और इस से शाद हुए और ईमान ला के सर बह सुजूद हुए और वाअदे के वारिस नबी ऐसा कि हज़रत आदम के ज़माने से ले के उस वक़्त तक कि मर्द-ए-ख़ुदा शमाउन ने जो रास्तबाज़ और दीनदार इस्राईल की तसल्ली की राह देखता था जिसने इस पाक फ़र्ज़ंद माऊद (वाअदा किया गया) को अपनी गोद में ले के बरकत दी सबने ख़ुदावंद के दिन को देखा और उस की नजात से ईमान ला के शाद हुए। यूं कलाम की वो बात रास्त आती है कि “गवाही जो ईसा पर है नबुव्वत की रूह है।” (मुकाशफ़ा 19:10) और इंतिहाए आलम तक ये बात रास्त रहेगी कि “ख़ुदावंद ईसा मसीह इस दुनिया में गुनाहगारों को बचाने के लिए आया।” (1 तिमथी 1:15)
इस नजात की बुनियाद
ख़ुदावंद ने जिसको उस के सारे काम आग़ाज़ ऑफ़र नैश (पैदाइश, मख़्लूक़, दुनिया) से मालूम हैं, अपनी पेश-बीनी से दर्याफ़्त कर के कि इन्सान अपनी पाकी की हालत में क़ायम ना रहेगा। अपनी मशीयत अज़ली से अज़ल में इस नजात की बुनियाद डाले। लिहाज़ा पौलुस रसूल अपनी ख़िदमतगुज़ारी के ज़िमन में इफसी, कलीसिया के आगे ये बयान करते हैं “मुझे जो, सारे हक़ीरतरीन मुक़द्दसों से हक़ीर हूँ ये फ़ज़्ल इनायत हुआ कि मैं ग़ैर क़ौमों के दर्मियान मसीह की बेक़ियास दौलत की ख़ुशख़बरी दूं और सब पर ये बात रोशन करूँ कि इस भेद में शिरकत क्यों कर होती है जो अज़ल से ख़ुदा में जिसने सब कुछ ईसा मसीह के वसीले से पैदा किया पोशीदा था।” (इफसी 3:8-9) और अज़-बस कि ये अज़ली नजात अबदी बरकत इस जहान में लाई है कलीसिया भी इस नजात की शादमानी में अपनी नजात के पेशवा को अबदी जलाल ये कहते हुए देती है, “उसी को जिसने हमें प्यार किया और अपने लहू से हमारे गुनाह धो डाले और हमको बादशाह और काहिन ख़ुदा और बाप के बनाया, जलाल और क़ुदरत अबद तक उसी का है।” (मुकाशफ़ा 1:5-6)
मसीह का अपनी सारी मुहब्बत से इस नजात की बरकत के लिए अपने को वसीला बनाना
अगरचे इस नजात की तदबीर ख़ुदा के अज़ली इरादों में हुई तो भी उस को ये पसंद आया कि ये नजात मसीह ही के वसीले से ज़हूर में आए क्योंकि उस के सिवा कोई ना था जो इस बड़े काम के अंजाम देने के क़ाबिल होता। लिहाज़ा मसीह ने भी अपनी सारी मुहब्बत से इन्सान की हालत के ऊपर तरस खा के ये काम अपने ऊपर लिया गो वो इस बात से वाक़िफ़ थे कि ये सख़्त काम किस क़द्र गिर अंबार (परेशानकुन) होगा। बमूजब (वजह ये है) इस के हम ये देखते हैं कि जिस वक़्त ख़ुदावंद आलम ने अपने दरबार समावी में ये सवाल पेश किया कि मैं किसे भेजूँ और मेरे लिए कौन जाएगा उसी वक़्त बेटे ने ये जवाब दिया, देख मैं आता हूँ। किताब की दफ़्तर में मेरे हक़ में लिखा है। “ऐ मेरे ख़ुदा मैं तेरी मर्ज़ी बजा लाने पर ख़ुश हूँ।” (ज़बूर 40:7-8) और हर-चंद कि उनको इस का इल्म था कि मुझे इस प्याले के तलछट (वो चीज़ जो माए की ता में बैठ जाती है, गाद) तक निचोड़ के पीना होगा। और इस में इस क़द्र तल्ख़ी थी कि उसने ये दुआ की कि “अगर मुम्किन हो तो ये पियाला मुझसे टल जाये”, तो भी साथ ही ये कलिमा ज़बान पर आया कि “मेरी नहीं बल्कि तेरी मर्ज़ी पूरी हो।” और जिस वक़्त कि मसीह ने अपने दुखों और मौत की ख़बर अपने शागिर्दों को दी और पतरस ने कहा कि “ऐ ख़ुदावंद तेरी सलामती हो ये तुझ पर कभी ना होगा। मसीह ने फिर कर पतरस से कहा। “ऐ शैतान मेरे सामने से दूर हो। तू मेरे लिए ठोकर खिलाने वाला पत्थर है। क्योंकि तू ख़ुदा की बातों का नहीं बल्कि इन्सान की बातों का ख़्याल रखता है।” (मत्ती 16:22- 23) और यूं इस बात को साबित किया कि मेरे इस दुनिया में आने की ग़रज़ यही थी और है कि बनी-आदम को बचाऊं। पस वो काम किसी तरह से रह ना जाएगा ओर जो हो सो हो, पर नजात का काम ना तमाम ना रहेगा बिलफ़र्ज़ ऐसा है। मुंजी इन्सान की ज़रूरत के लिए दरकार था वर्ना इन्सान की नजात ग़ैर मुम्किन थी।
मसीह का मुंजी मौऊद होना
अगर कोई यहां पर ये सवाल करे कि क्यों कर साबित है कि फ़िल वाक़ेअ ईसा वही मसीह है जिसका वाअदा किया गया था तो जवाब ये है कि अम्र इस वजह से पाय-ए-सबूत को पहुंचता है कि जितनी बातें उस के हक़ में तौरेत और सहाइफ़ अम्बिया में इस के ज़िमन में लिखी थीं सब ईसा नासरी में जिसका ज़िक्र इंजील में पाया जाता है पूरी हुईं। इलावा उस के जो शख़्स कि उनकी ज़िंदगी के हालात के ऊपर बग़ौर मुलाहिज़ा करे गो वह भी साफ़ साफ़ यही नतीजा निकालेगा कि बेशक ख़ुदा की नजात ने उस के हाथ में उरूज पकडा है। इस दुनिया में जो बेहतर से बेहतर हादी व पेशवा हो गए हैं वो मसीह के मुक़ाबले में ऐसे हैं जैसे आफ़्ताब की रूबरू चिराग़। इसी अम्र की तस्दीक़ में मसीह को आफ़्ताब सदाक़त का ख़िताब मिला है जिससे उस का आला मर्तबा और नजात के काम की क़ाबिलीयत मबर हिन् (दलील से साबित, मज़्बूत) व आश्कारा है और मुख़ालिफ़ का मुँह-बंद करने के लिए एक ईलाज शाफ़ई है।
मसीह की मक़्बूलियत के दलाईल
इस बात के सबूत में कि मसीह नजात के मुक़द्दमे में ख़ुदा का पसंदीदा व मक़्बूल था हम ये कहते हैं कि उस के इस दुनिया में आने के तौर के ऊपर ग़ौर कीजिए, वो और बनी-आदम की मानिंद मर्द की ख़्वाहिश से पैदा नहीं हुआ, क्योंकि अगर ऐसा होता तो एक गोना (उस्लूब, किसी क़द्र) ना कामलीयत का भी एहतिमाल (शक व शुबा, वहम) जायज़ था और जितने आदमी कि ज़ाती तव्वुलुद के सिलसिले में आदम के सल्ब से निकले इन सब में वो कामलीयत जो ख़ुदा के हुज़ूर में पसंदीदा और मक़्बूल है पाई नहीं जाती। बल्कि कलाम की वो बात रास्त आती है जो (वाइज़ 20:7) में रक़म है, “कोई इन्सान ज़मीन पर ऐसा सादिक़ नहीं कि नेकी करे और गुनाह ना करे।” पर इस सबब से कि मसीह इस दुनिया का ना था और ना उस की पैदाइश का ताल्लुक़ ज़ाती आदम से मुताल्लिक़ थी उस के हक़ में ये गवाही है कि “वो पाक और बे बद और बेऐब, गुनेहगारों से जुदा और आसमानों से बुलंद है।” (इब्रानी 7:26)
इलावा उस के मसीह के शफ़ी व मुंजी होने की दलीलें उस की ज़िंदगी के हालात से आश्कारा हैं चुनान्चे अब हम उस की तरफ़ रुजू करेंगे।
मसीह की पैदाइश
इस नज़र से कि वो एक नए अह्द का दर्मियानी हुआ जिसका टूटना किसी तौर पर मुम्किन नहीं ज़रूर है कि वो इस तौर पर इस दुनिया में ना पैदा हो कि जिस तौर पर पहला आदम पैदा हुआ। जिसमें बावजूद ये कि नेकी की सिफ़त थी ताहम ख़ता में गिरफ़्तार होना मुम्किन था। मसीह ना सिर्फ अह्द आस्मानी को दुनिया में लाया पर आप भी आस्मान से आया और ख़ुदा के कमाल से भरपूर हो के आया ताकि इन्सान उस के कमाल से फ़ज़्ल पर फ़ज़्ल पायें। इसी सबब से उस की पैदाइश भी फ़ौक़ आदी तौर पर हुई लिहाज़ा जिस वक़्त जिब्राईल फ़रिश्ता मर्यम के ऊपर मुज़्दा आस्मानी ले के नाज़िल हुआ उस वक़्त उनसे यूं मुख़ातब हुआ, “ऐ पसंदीदा सलाम ख़ुदावंद तेरे साथ तू औरतों में मुबारक है ना इस वजह से कि तुम्हारे बतन से कोई ऐसा इन्सान पैदा होने वाला है जो लासानी और बेनज़ीर होगा पर इसलिए कि ख़ुदा की क़ुदरत का तुझ पर साया होगा और साथ ही उस के ये भी कहा कि इस सबब से वो पाक लड़का जो तुझसे पैदा होगा। ख़ुदावंद तआला का फ़र्ज़ंद कहलाएगा।” चुनान्चे उनकी पैदाइश के वक़्त गो ख़ल्क़त की आवाज़ बंद थी, क्योंकि उन्होंने उस वक़्त जलाल के ख़ुदावंद और अपने मुंजी को नहीं पहचाना फ़रिश्तों ने वो बेमिस्ल ग़ज़ल गाई कि, “ख़ुदा की आस्मान पर तारीफ़ और ज़मीन पर सलामती और आदमीयों से रजामंदी हो।” और यूं आस्मान से राज़-ए-आस्मानी का कशफ़ हुआ। क्या बनी-आदम में से कोई ऐसी हैसियत के साथ इस दुनिया में कभी आया। अक्सर लड़कों में बुजु़र्गी की अलामात ज़हूर में तो आई हैं लेकिन ये पैदाइश और ज़हूर बेमिस्ल और लासानी था।
मसीह की इंतिज़ारी का आम होना
बल्कि हर-चंद कि उस वक़्त दुनिया ने अपनी सलामती के बानी और चश्मे को ना पहचाना ताहम वो भी उस की हक़ीक़त से नावाक़िफ़ ना था और गो कि वो उस में सिर्फ एक आला दर्जे के इन्सान ही की अलामत ढूँढते थे तो भी उस के ख़ुदा से होने के ऊपर किसी तरह का शक ना रखते थे। क्योंकि नबियों की गवाही ने उनकी आँखें खोल रखी थीं और ख़ल्क़त की कुल सूरत उस के सदाक़त के ऊपर मुस्तनद हो रही थी। यहूदीयों क्या उम्मीद के नख़ल (दरख़्त) में उस वक़्त गुल लग चले थे। हत्ता कि उनको इस उम्दा फल की जो उनकी तसल्ली के लिए था एक आम इंतिज़ारी थी। चुनान्चे शमाउन नामी एक बुज़ुर्ग के ज़िमन में जब वो हैकल में जिस वक़्त कि मसीह को उस के अंदर ले गए थे रूह की हिदायत से लाया गया। लिखा है कि “यरूशलम में शमाउन नाम एक शख़्स था जो रास्तबाज़ और दीनदार और इस्राईल की तसल्ली की राह देखता था और रूहुल-क़ुद्दुस इस पर था। इस को रूहुल-क़ुद्दुस ने ख़बर दी थी कि जब तक ख़ुदावंद के मसीह को ना देख ले मौत को ना देखेगा। उसने उसे अपने हाथों पर उठा लिया और ख़ुदा की तारीफ़ कर के कहा कि “ऐ ख़ुदावंद अब तू अपने बंदे को अपने कलाम के मुताबिक़ सलामती से रुख़स्त करता है। क्योंकि मेरी आँखों ने तेरी नजात देखी जो तू ने सब लोगों के आगे तैयार की है। क़ौमों को रोशन करने के लिए एक नूर और अपने लोग इस्राईल के लिए जलाल।” (लूक़ा 4:25, 6:28-32) शमाउन की ये अजीब बातें क़ाबिल-ए-ग़ौर के हैं। जब से दुनिया मौजूद हुई तब से किसी बच्चे के हक़ में इस क़िस्म की बातें ना किसी ने कही, और ना ज़माना-ए-आख़िर तक कोई कहेगा। ये पिसर (लड़का, बेटा) फ़ौक़-उल-आदी था। लिहाज़ा रूह की हिदायत से फ़ौक़-उल-आदी कलिमात भी उस के हक़ में मुस्तअमल हुए। और ये भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि ना सिर्फ यहूदीयों ही में इस अम्र की इंतिज़ारी आम थी बल्कि कुल ज़मीन के ऊपर एक अजीब व ग़रीब माजरे के वाक़ेअ होने की इंतिज़ारी हो रही थी। मिस्ल है कि कि एक मास रुत आगे रहा वो। वैसा ही ख़ल्क़त में इस के ऐसे आसार नमूद हो रहे थे कि सारी ख़ल्क़त की टिकटिकी उस के ऊपर लग रही थी। वो मजूसी जिन पर मसीह की पैदाइश के वक़्त वो सितारा जो यहूदीयों की उम्मीद का बाँग समावी था नमूद हुआ गो उन को यहूदीयों से कुछ इलाक़ा ना था। ताहम उस को देखते ही उन लोगों ने ये सवाल करना शुरू किया कि यहूदीयों का नव पैदा बादशाह कहाँ है क्योंकि हमने पूरब में उस का सितारा देखा और उसे सज्दा करने को आए हैं। और जब इस पाक फ़र्ज़ंद के यरूशलम में होने की ख़बर पाई और और इसी सितारे की रहबरी से उस की हुज़ूरी में पहुंचाए गए तो फ़ौरन उन्होंने इसे झुक कर सज्दा किया और अपनी झोलियाँ खोल कर उसे सोना और लोबान और मर नज़र गुज़राना और यूं उस के नब्वी और कहाँती और बादशाही से चंद ओहदों को इस में मुश्तमिल पा के अपने फे़अल से इस पिसर (लड़के) को वो जलाल दिया जो किसी फ़ानी इन्सान को आज तक हासिल नहीं हुआ। फ़रिश्तों ने भी आस्मान से उन पर नाज़िल हो के उस के अजीब बशारत को इस हरदा के साथ दिया कि “मत डरो मैं तुम्हें बड़ी ख़ुशख़बरी सुनाता हूँ। जो सब लोगों के वास्ते है कि दाऊद के शहर में आज तुम्हारे लिए एक नजात देने वाला पैदा हुआ वो मसीह ख़ुदावंद है और यूं ख़ुदावंद का वो वाअदा भी पूरा हुआ जो वसीला नबियों के किया गया था कि सारी क़ौमों का मतलब बरआए (पूरा होना) होगा और ख़ुदावंद का जलाल आश्कारा होगा और दुनिया की सारे किनारे ख़ुदावंद की नजात को देखेंगे।”
मसीह की आमद के ज़माने की मुवाफ़िक़त और मुनासबत
ना सिर्फ मज़्कूरह हालात ही से साबित होता है कि, ये नजात जो मसीह के वसीले से गुनाहगार इन्सान को मिली ख़ुदा की तरफ़ से थी लेकिन और माजरे भी इस की पैदाइश के वक़्त ऐसे अजीब ज़हूर में आए कि दुनिया और उस की आमद की खूबियां आश्कारा हो गईं और गोया कि कुल आलम ख़ुदा की नजात को तस्लीम करने के ऊपर आमादा व रुजू था। मसीह की पैदाइश का ज़माना हर तरह से मुनासिब व मुवाफ़िक़ था और ना उन मतन बातों से वाज़ेह है।
अव्वल
रोमीयों की सल्तनत की तरक़्क़ी और यूनानी ज़बान के रिवाज आम से इंजील की ख़ुशख़बरी की ब-आसानी मुश्तहिर होने की बुनियाद डाली गई।
दोम
इसी ज़माने के क़रीब क़रीब रुए ज़मीन की क़ौमों में सुलह आम जारी थी।
सोम
इस आलम की दीनी और दुनयवी हालतें ऐसी अबतरी में पड़ गई थीं कि अगर उनमें सेहत ना दर आती तो दुरुस्ती की उम्मीद बिल्कुल जाती रहती। हाँ इस ज़माने की निस्बत हम ये कह सकते हैं कि जैसा पौ फटने और आफ़्ताब के तूलूअ करने के दर्मियान में हद दर्जे की तारीकी हो जाती है और जो गोया कि आफ़्ताब की आमद के ख़ौफ़ से सिद्द-ए-राह हो जाती है और इस की ताबिंदगी को रोकना चाहता है पर ऐन उसी वक़्त के ऊपर आफ़्ताब उनके हिजाब के पर्दा निक़ाब को उनके ऊपर से उठा के अपना पूरा असर दिखला कर उनको नादिम करता है।
इस की सबूत की अव्वल हक़ीक़त
रोमीयों की सल्तनत उस ज़माने में ऐसी तरक़्क़ी के ऊपर थी कि जहां तक रुए ज़मीन का हाल उनके ऊपर आश्कारा था वो सब जगह उनके तहत में थीं और जितने इक़लीम (विलायत, मुल्क) कि इस रियासत से दूर थे उनमें से अक्सर उस के मुतीअ हो कर उसे बग़ल बंदी देते और यूं रोमीयों की सल्तनत का रोब और दबदबा कुल रुए ज़मीन के ऊपर छा गया था कि जैसा सरकार अंग्रेज़ का रोब व दबदबा फ़ी ज़माना मुल्क हिंद में बल्कि और दलायलों में भी छाया हुआ है ऐसा मुल्क मुअज़्ज़मा की रियाया हर मुल्क की सैर व गशत बे गज़ंद (बग़ैर तक्लीफ़ के) कर सकती है। ये उसी तौर पर इस ज़माने में मसीह के शागिर्द इंजील की ख़ुशख़बरी को दुनिया के दौर दराज़ मुल्कों में भी बेखटके ले गए और सबको मसीह की बशारत दे के अक्सर मुल्कों और शहरों में मसीही कलीसिया की बुनियाद डाली। इस में हम साफ़ साफ़ ख़ुदावंद के दस्त-ए-क़ुदरत को देख सकते हैं और ऐसे अम्र का होना ख़ाली अज़ हिक्मत ना था और वो हिक्मत ये थी कि ख़ुदावंद का ममसोह (मस्ह किया हुआ, मख़्सूस किया हुआ) इस दुनिया के ऊपर अपनी सल्तनत क़ायम करने के लिए आने वाला था। लिहाज़ा राह पहले ही से तैयार हो गई ताकि इंजील की बशारत में किसी तरह का ख़लल वाक़ेअ ना हो जैसा कि फ़ी ज़माना ख़ुदावंद के इस वाअदे को पूरा होने की निस्बत की, कि इस बादशाहत की ख़ुशख़बरी तमाम दुनिया में सुनाई जाएगी। हम ये देखते हैं कि अंग्रेज़ों की सल्तनत के रोब के बाइस सारी कौमें इंजील को दख़ल देने के लिए मुस्तइद हैं। हत्ता कि चीनी और जापानी भी जो अजनबी अक़्वाम से अदावत दिली रखते और उनको अपने मुल्क में आने देने के रवादार ना होते क़ासिद इंजील के लिए बंद नहीं हैं और उन मुल्कों में भी मसीही कलीसियाएं क़ायम हैं। यूं अनक़रीब सारी दुनिया में हाँ मुहम्मदियों की रियास्तों और सल्तनतों में भी इंजील की बशारत बख़ूबी दी जाती है वैसा ही उस वक़्त भी रूमी सल्तनत के बाइस से मसीह की आमद के लिए राह तैयार हो गई और उस की तशहीर (तब्लीग) के लिए हर तरह से मदद हासिल हुई यूनानी ज़बान का रिवाज भी इसी मशीयत से था और इस अम्र से सारी तर्बीयत याफ्ताह अक़्वाम में इंजील की बशारत देने में बड़ी मदद मिली। यूनानी ज़बान का इस ज़माने में ऐसा रिवाज हो गया था कि यहूदी भी अपनी इब्रानी का बहुत कुछ भूल गए थे। हत्ता कि मसीह के ज़माने से अनक़रीब दो सौ बरस पेशतर बाइबल के यूनानी ज़बान में तर्जुमा करने की नौबत आ गई थी। पस रुए ज़मीन के ऊपर एक ही सल्तनत और एक ही ज़बान के मुरव्वज हो जाने की वजह से मसीही दीन को सारे आलम में फैलने के लिए राह खुल गई और इस सबब से कि ये ज़बान आम-फहम हुई इंजील भी इसी ज़बान में क़लम-बंद हुई।
इस के सबूत की हक़ीक़त दोम
रुम के बादशाह बड़े साहब हौसला थे। और रुए ज़मीन के ऊपर क़ाबिज़ होने का दम भरते थे। चुनान्चे उनकी तल्वार हमेशा मियान के बाहर ही रही है और कोई मुल़्क ऐसा ना था कि जिसके ऊपर उन्होंने दस्त अंदाज़ी (मुदाख़िलत करना) ना की हो। लिहाज़ा उनके हाथ ख़ून ही में तर रहते थे और चूँकि उनका हाथ हर एक के बरख़िलाफ़ था, हर क़ौम का भी हाथ उनके मुख़ालिफ़त में उठा रहता था। यूं उनको शरारतों और बग़ावतों की वजह से चेन तक ना लेने देते थे। इसी तरह से एक सिलसिला लड़ाईयों का जारी रहा और उनके सिपाह जंग की आफ़त से बरी ना हो सकते थे। लेकिन ये ज़माना ऐसा था कि लड़ाई से एक गो ना अमन हासिल था। अक्सर मोअर्रिखों का ये क़ौल है कि :-
जानोस की मंदिर का दरवाज़ा बेसबब लड़ाईयों के वो से हमेशा खुला ही रहता था और सिर्फ सुलह के वक़्त में बंद होता था। इस मंदिर का दरवाज़ा उस वक़्त बंद हुआ और यूं वो ज़माना अमन व अमान का मुतसव्वर होता था।
मोशएम साहब अपनी तवारीख़ कलीसिया में गो इस अम्र के ऊपर शक करते हैं ताहम उनका भी यही इक़रार है कि :-
उस ज़माने में लड़ाईयां मौक़ूफ़ (बंद) थीं। और सुलह की वजह से लोगों और क़ौमों और मुमल्कतों में इत्मीनान जारी था।
ये हालत मसीह की आमद के लिए ऐसी मुनासिब थी कि जैसा रात की तारीकी के दफ़ाअ करने के लिए आफ़्ताब एक ज़रूरत से है। नबियों ने इल्हाम इलाही से हिदायत पा के मसीह को शाह सलामत के ख़िताब से मुलक़्क़ब किया था लिहाज़ा ज़रूर था कि उस की आमद की सलामती के आसार रुए ज़मीन के ऊपर नमूदार हों। हाँ जैसा कि सुबह का सितारा मुसाफ़िर के लिए पौ फटने की ख़बर ला के उस के दिल को बश्शाश करता है। वैसा ही शाह सलामत ने अपने आने के क़ब्ल दुनिया में एक ऐसा अमन जारी किया कि सबने उस में ख़ुदावंद की क़ुदरत को देखा और यूं ख़ल्क़त ने मा बनी-आदम की सलामती की नेअमत हासिल की। इस में किसी तरह का शक नहीं कि सलामती ने ज़मीन के ऊपर क़दम डाला था पस फ़रिश्तों ने भी मसीह की पैदाइश के वक़्त अपने ग़ज़ल यूं छेड़ी कि ज़मीन पर सलामती हो।
अब अगर हम इस माहीयत (असलियत) के ऊपर ग़ौर करें कि कोई चीज़ ज़मीन के ऊपर इत्तिफ़ाक़ से नहीं होती है पर ख़ुदा अपने नेक इरादे के मुताबिक़ सारे कामों को अंजाम देता है और बमूजब कलाम के इस आयत को जो (ज़बूर 46:8-9) आयत में आई है, “अब ख़ुदावंद के कामों को देख कि ज़मीन की सारी तरफ़ों तक लड़ाईयां थाम ता वो कमान तोड़ता और नेज़े दो टुकड़े करता और गाड़ी को आग से जलाता है।” और उस को इस बात से मिलाएं जो नबी ने मसीह के हक़ में कही कि “मैं ख़ुदावंद ने तुझे सदाक़त के लिए बुलाया मैं तेरा हाथ पकड़ूंगा और तेरी हिफ़ाज़त करूँगा और लोगों के अह्द और क़ौमों के नूर के लिए तुझे दूँगा कि तू अँधों की आँखें खोले और बंदों को क़ैद से छुड़ा दे और हमको एक बेटा बख़्शा गया और सल्तनत उस के कंधे पर होगी और वो इस नाम से कहलाता है, सलामती का शहज़ादा उस की सल्तनत के इक़्बाल और सलामती की कुछ इंतिहा ना होगी और ख़ुदावंद की रूह मुझ पर है, क्योंकि उसने मुझे मसह किया।” वग़ैरह तो कौन इस बात के ऊपर शक ला सकता है। कि ये ख़ुदावंद का काम नहीं है। हाँ फ़िल-हक़ीक़त ये ख़ुदावंद का काम है और हमारी नज़रों में अजूबा है। ये ख़ुदावंद का काम है और हम इस से शाद हैं कि ख़ुदा ने आपको बे गवाह नहीं छोड़ा बल्कि सलामती को दुनिया में ला के अपनी मक़्बूलियत की मुहर उस के ऊपर लगाता है। पस दो ऐ लोगों के घरानें दो ख़ुदावंद को इज़्ज़त व जलाल और उस की नजात में शाद हो क्योंकि ये सलामती तुम्हारे लिए है।
इस के सबूत की हक़ीक़त सोम
इस आलम की दीनी और दुनियावी हालत में अला-उल-ख़ुसूस बड़ी अबतरी हो रही थी। उस ज़माने के उलमा हुकमा अपनी अक़्ल की कोशिश और सई को हद दर्जा तक पहुंचा चुके तो थे तो भी इस ख़राबी और अबतरी के दफ़ाअ करने के लिए जिसके ऊपर उनकी निगाह ना-उम्मीदी के साथ पड़ी थी उनकी कोशिश कारगर ना हुई। उनके हुकमा में से जो अफ़्ज़ल तरीन थे इस अबतरी से इस क़द्र वाक़िफ़ और इस के दफ़ईए के लिए बहमा तन मुश्ताक़ और आर्ज़ूमंद थे बल्कि उनमें से अक्सर कह मरे कि अगर ख़ुदा आप अपनी मर्ज़ी को हम पर आश्कारा ना करे तो हम किसी नूअ से इस बात को दर्याफ़्त नहीं कर सकते कि इन्सान की हालत क्या होगी? और कि मशीयत इलाही हमारे अंजाम के निस्बत में क्या है? आइंदा सज़ा और जज़ा की निस्बत भी बड़ी तारीकी में पड़े थे और तमन्ना में ज़िंदगी करते थी कि काश ये राज़ किसी तरह से खुल जाता और ये अक़ीदा हल हो जाता। इल्म व दानिश इन्सानी अपनी उरूज की माद-उल-नहार तक पहुंच गए थे। लेकिन कोई तदबीर उस तीरगी के रफ़ा करने और शक को उनके दिल में से दूर करने और लोगों को उन उमूरात क़बीहा (बुरी) की जो उस वक़्त राइज हो गई थी तारिक बनाने के लिए ना तो बहम पहुँचती थी और ना कोई वसीला कारगर था। इन्सानी दानिश से कमाल के होते हुए वो बात रास्त आती थी कि दुनिया ने अपनी दानिश से ख़ुदा को ना पहचाना। बल्कि बातिल ख़यालों में पड़ गए और उनके नाफ़हम दिल तारीक हो गए वो (अपने) आपको दाना ठहरा के नादान हो गए। और ये तारीकी सिवाए यहूदीयों के रुए ज़मीन की कुल क़ौमों के ऊपर छाई थी बल्कि मर्दुमाँ रोशन ज़मीर इस से पनाह भी मांगती थी। और अज़-बस के सालिक (राह चलने वाला, जो ख़ुदा का क़ुर्ब भी चाहे और शुग़्ल मआश भी रखता हो) से नहीं है कि अपनी राह को सुधारे। ख़ुदा ने ऐन उस तारीकी हालत में मसीह को इस आलम-ए-फ़ानी में भेज कर आफ़्ताब सदाक़त की रोशनी को ताबे किया और दुनिया की अबतरी ने इस कलाम की माहीयत (असलियत) को आश्कारा किया कि ना ज़ोर से ना क़ुव्वत से पर मेरी रूह से ख़ुदावंद फ़रमाता है। यूं हम साफ़ देखते हैं कि ये नजात ख़ुदावंद की थी जो ये चाहता था कि इन्सान रास्ती की पहचान को हासिल करे और ख़ुद दर्याफ़्त करे कि सिर्फ ख़ुदा ही की रहमत से इन्सान की मग़फ़िरत है। बहरहाल इन अम्रों (फे़अल, काम) से जिनका ऊपर अख़्तसान तज़्किरा (मुख़्तसर) बयान हुआ साफ़ मालूम होता है कि मसीह की आमद का वक़्त निहायत मुनासिब व मुवाफिक था और अगर इन्सान को नजात देना मतलूब था तो इस से बेहतर वक़्त उस के ज़हूर के लिए हो नहीं सकता था। पस इस मुनासिब व मुवाफ़िक़त में हम इस नजात के ऊपर जो मसीह के बाइस से इस दुनिया में लाई गई ख़ुदावंद की मक़्बूलियत की मुहर पाते हैं।
मसीह की पैदाइश की हक़ीक़त और कैफ़ीयत
मसीह के मक़्बूल होने की दलील उस की पैदाइश की हक़ीक़त और कैफ़ीयत से ज़ाहिर है। जो बात फ़ौक़-उल-आदी होती है उस के कुल आसार भी फ़ौक़-उल-आदी होते हैं और बावजूद ये कि अक्सर माजरे इस दुनिया में अजीब व ग़रीब और नादिर ज़माना वक़ूअ में आए हैं। लेकिन मसीह की पैदाइश के ज़माने में ऐसी बातें ज़हूर में आईं कि जो अदमुल्मिसाल (बेमिस्ल, जिसके बराबर कोई ना हो) और लासानी हैं। हत्ता कि रसूल की वो बात सादिक़ ठहरती है कि, “जो हम ख़ुदा की वो पोशीदा हिक्मत बयान करते हैं जो राज़ के साथ थी जिसे ख़ुदा ने ज़मानों से पहले हमारे जलाल के लिए मुक़र्रर किया।” (1 कुरंथी 7-2) गो दुनिया एक अजीब व नादिर शख़्स के आने और सारी चीज़ों को बहाल करने की मुंतज़िर थी ता हम हनूज़ किसी पर ये आश्कारा इंतिहा कि कब और क्यूँकर ये ज़हूर में आएगा? लेकिन ख़ुदा ने अपनी मशीयत (ख़्वाहिश) से इन्सान की नजात की निस्बत अपनी असली इरादे की तक्मील की ये तदबीर निकाली कि अपने एक मुक़र्रब फ़रिश्ते को एक पाक दामन बतूल (कुँवारी) के पास भेज के उनको ये बशारत दी कि “ऐ मर्यम मत डर कि तू ने ख़ुदा के हुज़ूर फ़ज़्ल पाया और देख तू हामिला होगी और बेटा जनेगी और उस का नाम ईसा रखेगी। वो बुज़ुर्ग होगा और ख़ुदा तआला का बेटा कहलाएगा और ख़ुदावंद उस के बाप दाऊद का तख़्त उसे देगा। और वो सदा याक़ूब के घराने पर बादशाहत करेगा और उस की बादशाही का आख़िर ना होगा।” (लूक़ा 1:3-33 आयत) और जब इस ज़न पसंदीदा और मुबारक ने बेनज़ीर जिस्मानी इस अम्र के मुहाल होने की निस्बत अपने इसरार का इज़्हार किया तो फ़रिश्ते ने ये तसल्ली बख़्श राज़ उनके ऊपर यूं ज़ाहिर किया कि “रूहुल-क़ुद्दुस तुझ पर उतरेगा और ख़ुदा तआला की क़ुदरत का तुझ पर साया होगा। इस सबब से वो क़ुद्दूस भी जो पैदा होगा ख़ुदा का बेटा कहलाएगा।” (लूक़ा 1:35) और यह अम्र यहीं तक मौक़ूफ़ ना रहा बल्कि रूह पाक का नुज़ूल उनकी बहन इलीशिबा के ऊपर भी हुआ और रूह से मामूर हो के उनके मुलाक़ात के वक़्त ज़ोर से पुकार के कहा कि “तू औरतों में मुबारक है तेरे पेट का फल मुबारक है। मेरे लिए ये क्योंकर हुआ कि मेरे ख़ुदावंद की माँ मेरे पास आई कि देख तेरे सलाम की आवाज़ जुंही मेरे कान तक पहुंची लड़का मेरे पेट में ख़ुशी से उछल पड़ा। और मुबारक है वो जो ईमान लाए कि ये बातें जो ख़ुदावंद की तरफ़ से कही गईं पूरी होंगी।” (लूक़ा 1:41-45) जब इस दो-चंद शहादत ग़ैबी से मर्यम के ऊपर इस का राज़ अफ़्शां हो गया तो उसने भी ख़ुदा के इरादे को तस्लीम कर के उस की इताअत का जुवा अपने गले में डाला और सब्र और अजुज़ व इन्किसार के साथ ख़ुदावंद की हम्द यूं की, “मेरी जान ख़ुदा की बड़ाई करती है। और मेरी रूह मेरे नजात देने वाले ख़ुदा से ख़ुश हुई।” वग़ैरह (लूक़ा 1:46-55) ۔जो पुश्त दर पुश्त उस की कलीसिया के लिए तसल्ली का बाइस हुआ है और अगर एक और भी शहादत इस अम्र लासानी की निस्बत ज़रूर है तो हज़रत ज़करीया की इन बातों के ऊपर जो (लूक़ा 1:47-79) के बीच में आई हैं। गोश-ए-दिल से लिहाज़ करो।
इलावा बरीं (उस के इलावा) जब कि इस अम्र के नवें महीने के क़रीब क़रीब क़ैसर अगस्तस शाह रुम का फ़रमान मर्दुम-शुमारी की निस्बत जारी हुआ तो क्या हम इस अम्र को इत्तिफ़ाक़ से समझ सकते हैं कि इसी हालत में मसीह की पैदाइश हुई? आया हम इस को एक बात ऐसी मुसद्दिक़ पाते हैं कि जिसमें ख़ुदा का फ़ज़्ल इन्सान की नजात की निस्बत पूरा होने वाला था जिसके बाइस से ख़ुदा ने अपनी पर्वरदीगारी के इंतिज़ाम में ऐसा बन्दों बस्त किया कि उस की नजात ज़मीन के ऊपर नमूदार हो और वो अक़्दह (गिरह, अह्द) जो अब तक ला-हल था। यानी कि ख़ुदा इन्सान पर अपनी नजात को ज़ाहिर करेगा या नहीं हल हो गया और वो दिन आया कि जिस पर ईमान से निगाह कर के अब्रहाम का दिल शाद हुआ। फिर क्या मसीह की पैदाइश के वक़्त फ़रिश्तों का आस्मान पर से महामिद (उम्दा औसाफ़) होना अम्र इत्तिफ़ाक़ी था। आया कि वो ख़ुदावंद की नजात की बशारत थी जो ज़मीन के ऊपर नमूद हुई और उनकी ग़ज़ल के मुद्दा के मुताबिक़ ज़मीन पर आस्मानी सलामती आई। इस के सिवा मजूसियों का इस लड़के की तलाश में निकलना और इस को पा के उस के आगे सोना और लोबान और मर नज़र गुज़राँना और शमाउन और हिना की नबुव्वत जो इस पाक फ़र्ज़ंद की निस्बत की गईं अम्र इत्तिफ़ाक़ी थी? आया कि वो मुसद्दिक़ राज़ इलाही थे जिससे एक सिलसिला शहादत का क़ायम हुआ और मसीह और उस की नजात की मक़्बूलियत के ऊपर दाल (दलील) हुआ। क्या किसी और लड़के की पैदाइश की ज़िमन में ऐसी ऐसी अजीब व ग़रीब बातें कभी वाक़ेअ हुई या ऐसी अजीब व ग़रीब शहादतें सुनी गईं। ये वही बात है कि जो ख़ुदा ने अपनी बंदे की मार्फ़त फ़रमाई थी। ख़ुदा जिसने अगले ज़माने में नबियों के वसीले बाप दादों से बार-बार और तरह ब-तरह कलाम किया। इन आख़िरी दिनों में हमसे बेटे के वसीले बोला जिसको उसने सारी चीज़ों का वारिस ठहराया वग़ैरह और इस सबब से कि वो ख़ुदा का मसीह था ख़ुदा ने ख़ुशी के तेल से उस को ज़्यादा ममसोह किया ताकि बाप का जलाल ज़ाहिर हो।
मसीह की तुफुलिय्यत (बचपन) का कमाल उस की मक़्बूलियत की दलील
अगर हम मसीह की पैदाइश के वक़्त की हक़ीक़त व कैफ़ीयत से दर गुज़र कर के उस की तुफुलिय्यत (बचपन) के ऊपर लिहाज़ करें तो इस अय्याम में भी हम बहुत सी ऐसी बातें उस की ज़ात में पाते हैं कि जिससे उस में ख़ुदा की सूरत का नक़्श पाया जाता और उस की मक़्बूलियत की काफ़ी दलील होता है तुफुलिय्यत (बचपन) की पाकी और इस का कमाल मसीह की ज़ात के ऊपर ख़त्म है। वो ना सिर्फ क़ौमों की उम्मीद गाह बल्कि उनको रोशन करने के लिए एक नूर और इस्राईल के लिए जलाल था। अज्राम समावी में बहुत से सय्यारे व सितारे ताबदार (चमकदार) तो हैं लेकिन आफ़्ताब को सब के ऊपर एक ज़ाती फ़ौक़ियत है। इस दुनिया में बहुत अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्मों) के गुल हैं लेकिन हर गुल एक दूसरी से फ़र्क़ रखता है और गुलाब की आब व ताब और ख़ुशबू के आगे सब दब जाते हैं। लड़के भी बहुतेरे (बहुत से) इस दुनिया में पैदा हुए हैं। जिनकी खुशनुमाई और पेशानी की कुशादगी और ज़ेर की (अक़्लमंदी, दानाई) में गोया आइंदा इन्सानियत छिपी हुई नज़र आई। लेकिन जैसा आफ़्ताब के आगे किसी रोशन शैय की कुछ हक़ीक़त नहीं है वैसा ही मसीह के मुक़ाबले में वो सब इतफ़ाल (तिफ़्ल की जमा, बच्चे) गुम-नाम हो जाते हैं। उस के चेहरे के ऊपर वो शान थी कि फ़रिश्तों ने उस की मदह-सराई की और ऐसी पाकी थी कि जिस पर ख़ुदा ही की मुहर पाई जाती है। जिस हाल में उस के मुक़र्रब फ़रिश्ते ने उस को पाक लड़के के लक़ब से नामज़द किया और इस को ख़ुदा तआला का फ़र्ज़ंद क़रार दिया छोटे छोटे लड़के मासूम तो होते हैं। लेकिन इस पाक लड़के की मासूमियत फ़ौक़-उल-आदी थी और जिस क़द्र ज़्यादा-तर उस के ऊपर ग़ौर किया जाये उसी क़द्र ज़्यादा-तर दरख़शां (रोशन) पाया जाएगा। हत्ता कि कलाम की इस आयत की बख़ूबी तस्दीक़ हो जाती है। कि कलाम मुजस्सम हुआ और फ़ज़्ल और रास्ती से भरपूर हो के हमारे दर्मियान रहा और हमने उस का ऐसा जलाल देखा जैसा बाप के इकलौते का जलाल। (युहन्ना 14:1)
मसीह की तुफुलिय्यत (बचपन) की पाकी की ज़रूरत
हाँ वो फ़िल-हक़ीक़त हमारे बदले में ख़ुदा की तरफ़ से पाकीज़गी हुआ ताकि बनी-आदम उस की पाकी से पाकीज़गी हासिल करें और ख़ुदा के मक़्बूल हो जाएं। जिस माहीयत (असलियत) की वजह से मसीह की तुफुलिय्यत (बचपन) में कमाल पाया गया उसी माहीयत (असलियत) से उस की तुफुलिय्यत (बचपन) की पाकी भी आश्कारा है। ये पाक तिफ़्ल इम्मानुएल यानी ख़ुदा हमारे साथ था। लिहाज़ा मुम्किन था कि सिवा पाकी के वो और किसी तौर के ऊपर ज़ाहिर होता। ख़ुदा पाक है और अज़-बस कि मसीह माहीयत (असलियत) इलाही का नक़्श और अनदेखे ख़ुदा की सूरत था ज़रूर है कि पाकी का उस के ऊपर इत्लाक़ मुतलक़ होता कि उस का जलाल बाप के इकलौते के जलाल सा मुबर्हन और इन्सान के ऊपर उलूहियत का राज़ अज़ीम ग़ैब से मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) हो। कुछ ताज्जुब नहीं कि हवारी ने ये शहादत दी कि वो पाक और बेऐब और गुनाह से ना मुलव्वस था जैसा कि गुलाब कली ही में ख़ुशबू देने लगता है वैसा ही मसीह में बचपन ही में ख़ुदा के जलाल की रौनक नमूद हुई और यूं उस की शफ़ाअत की क़ाबिलीयत मुदल्लिल हुई।
मसीह के कूदकी (तिफ़्ल) के ज़माना की कैफ़ीयत
गो मसीह की तुफुलिय्यत (बचपन) का ज़माना हर तरह से पसंदीदा और मर्ग़ूब था ताहम इस वजह से कि कलाम में इस का बहुत ज़्यादा बयान नहीं हुआ हम इस से किनारा कर के इस की कूदकी (तिफ़्ल, लड़का, बचपन) के उस ज़माने का ज़िक्र करते हैं। कि जब उस का सन (उम्र) बारह बरस का हुआ और वो शराअ के मामूल के बमूजब यरूशलम में लाया गया ताकि वालदैन से इस को ख़ुदा की नयाज़ करें। हर-चंद कि इस अम्र की कैफ़ीयत भी इख़्तिसार के साथ कलाम में दर्ज है। ताहम जितना कुछ इस में आया है वो मसीह की फ़ौक़-उल-आदी हक़ीक़त को साबित करने के लिए काफ़ी है। बारह बरस का सन (उम्र) ऐसा नहीं है कि जिसमें कोई लड़का कैसा ही ज़ीरक व तबीयतदार क्यों ना हो किसी मज़्हब के कुल दक़ाईक़ में ऐसा माहिर हो कि इन बुज़ुर्गों के दाँत खट्टे करे जिनकी तमाम उम्र शराअ की दकी़क़ बातों के सीखने और अमीक़ राज़ों को हल करने में सर्फ हुई। तो भी इस सन (उम्र) में वो हैकल के अंदर दाख़िल हो के फ़िक़हियों और शराअ के मुअल्लिमों के बीच में बैठा हुआ उनकी सुनते और उनसे सवालात करते हुए मिला और ऐसे होश और समझ के साथ बातचीत करता था कि सब जो उस की सुनते थे उस की समझ और उस के जवाबों दंग थे। इस गुफ़्तगु के शमुल में ये बात भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि, उस की बातों में ना लड़कपन पाया गया और ना ऐसी सुबकी (ज़िल्लत) ज़हूर में आई कि जिससे वो रब्बी और मुअल्लिम शराअ का समझ के उसे डाँटते या कि गुस्ताख़ी से चीन बचीन होते लेकिन ख़ुद हैरत में थे कि इतने से छोटे लड़के ने ऐसी दानिश कहाँ से हासिल की कि इतने बड़े बड़े आलिम व फ़ाज़िल भी इस के आगे गर्द (ख़ाक) हैं। और उस की दानिश के आगे बेज़बान हैं। जब उस की माँ ने तलाश करते करते उस को हैकल में पाया और उस से कहा “ऐ बेटा किस लिए तू ने हमसे ऐसा किया देख मैं और तेरा बाप कड़ाते हुए तुझे ढूंडते हैं।” तो देखें कैसा सलीम-उल-तबाअ जवाब इस मुक़द्दस लड़के ने दिया, “क्यों तुम मुझे ढूंडते थे? क्या तुमने ना जाना कि मुझे अपने बाप के यहां रहना ज़रूर है?” क्या ये आम लड़कों की बातें हैं? हरगिज़ नहीं ! इस में पेश ख़बरी की तक्मील पाई जाती है। कि “हमारे लिए एक लड़का तव्वुलुद हुआ और हमको एक बेटा बख़्शा गया और सल्तनत उस के कंधे पर होगी और वो इस नाम से कहलाता है अजीब मुशीर।” वग़ैरह। ये यस्सी के तने की वो कोपल और इस के जड़ों की वो फलदार शाख़ थी जिसकी निस्बत लिखा था कि “ख़ुदा की रूह इस पर ठहरेगी हिक्मत और ख़िर्द की रूह, मस्लिहत और क़ुदरत की रूह, मार्फ़त और ख़ुदा के ख़ौफ़ की रूह और वो ख़ुदा के ख़ौफ़ की बाबत तेज़ फ़हम होगा।” (यसअयाह 11:5, 3:2) अगर आदमी ग़ैर मुतास्सुब हो कर मसीह की इस अजीब दानिश के ऊपर ग़ौर करे तो साफ़ मालूम कर लेगा कि मसीह ख़ुदा की तरफ़ से उस्ताद और मुंजी (नजात देने वाला) हो के आया है क्योंकि जो हिक्मत और ख़िर्द की बातें उस की ज़बान से टपकतीं वो फ़ौक़-उल-आदी थीं और ख़ुदा की दानिश के ऊपर दाल थीं।
उस की तुफुलिय्यत (बचपन) और कूदकी के अय्याम का ख़ुलासा
मसीह की तुफुलिय्यत (बचपन) और कूदकी का ज़माना हर तरह से मक़्बूल और पसंदीदा व मुकम्मल था बल्कि उस में एक तरह का फ़ौक़-उल-आदी कमाल था जिस पर उस के मिंजानिब अल्लाह होने की लहर थी और साफ़ साबित करती थी कि ख़ुदावंद की नजात इस आलम अस्फ़ल पर बनज़र रहम आश्कारा है और कि मसीह वही है जो कि जहां के गुनाहों को उठा ले जाने के लिए नमूद (ज़ाहिर) हुआ। पर अगर इस अय्याम के कमाल की निस्बत और कुछ कहा जा सकता है तो नाज़रीन के ख़्याल इन आयात की तरफ़ रुजू करना लाज़िम है कि जहां लिखा है कि “ईसा हिक्मत और क़द ख़ुदा के और इन्सान के प्यार में बढ़ता गया।” देखो (लूक़ा 2:52) पढ़ने वाला इस आयत के ऊपर ग़ौर करे। पर अगर ये काफ़ी नहीं है कि मसीह की मक़्बूलियत को साबित कर दे तो हज़रत ज़करीयाह की इस नबुव्वत का मुतालआ करना लाज़िम आता है कि जो उस वक़्त कही गई कि जब ख़ुदावंद ने अपना वाअदा अपने इस बन्दे की निस्बत पूरा किया और उनकी ज़बान खुली और वो रूहुल-क़ुद्दुस से भर गए। देखो (लूक़ा 1:68-75) बमुक़ाबला (युहन्ना 1:1-5)
मसीह की तुफुलिय्यत (बचपन) की
पाकी व बेबाकी
बारह बरस के सन (उम्र) का हाल तीस बरस के सन (उम्र) तक बिल्कुल मालूम नहीं है। कलाम में इस ज़माना की हालत का ज़िक्र तक नहीं हुआ है सिवा इस के कि वो अपने वालदैन के साथ और उनके ताबे और हमपेशा हो के रहे और अपनी ताबेदारी में अपनी क़नाअत (जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) और तबीयत राज़ी बी रज़ा ए इलाही रहने के आश्कारा की और ज़ाहिर है कि कोई अम्र मर्ज़ी इलाही के ख़िलाफ़ या इन्सानियत आला के बरअक्स उस से सादिर नहीं हुआ। क्योंकि अगर ऐसा होता तो ज़रूर उस का मज़्कूर (ज़िक्र) होता। पर इस ख़ामोशी ही में उस का हुस्न पाया जाता है। लेकिन तीस बरस के सन (उम्र) से तो आँहज़रत की पाकी और बेबाकी ऐसे तौर के ऊपर ज़हूर में आई कि वो इस दुनिया में यकता व लासानी साबित हुआ। इस के सबूत में इस से बढ़के और क्या बात साबित हो सकती है कि उसने ख़ुद दावा कर के चाहा कि लोग मेरी ज़ात में किसी तरह का ऐब बतलाएं। लेकिन हर शख़्स का मुँह बंद हुआ और किसी में जुर्आत ना थी कि इस के बेऐब पाकी में किसी नूअ (क़िस्म) का नुक़्स बतला सकता। उस की पाकी आफ़्ताब की मानिंद ताबदार थी और क्या मजाल थी कि उस में किसी क़िस्म का इल्ज़ाम पाया जाता। इन्सान बल्कि बेहतर इन्सान में भी किसी ना किसी तरह का नुक़्स हो सकता है। लेकिन मसीह की ज़ात ज़ात इलाही की हम माहीयत (असलियत) थी। लिहाज़ा नामुम्किन था कि वो जो पाकी का मंबा और सोता था नापाकी का मुर्तक़िब हो सके। फ़िल-हक़ीक़त वो ख़ुदा की तरफ़ से उस्ताद हो के आया था उसी सबब से उस की उस्तादी का सिलसिला हर नूअ से मक़्बूल था। जैसा कि एक ही चशमे से मीठा और खारा पानी निकलना ग़ैर मुम्किन है। वैसा ही मसीह की ज़ात से जो मादिन पाकी था ये बात बईद थी कि नापाकी उस की ज़ात में दर आ सके और जैसा कि तारीकी को रोशनी से कुछ सरकारो नहीं है वैसा ही नापाकी को मसीह की ज़ात-ए-रोशन से कुछ भी सरोकार ना था उस में कुद्दूसी की रूह थी और ईमानदारों की कुद्दूसी और पाकी का भी यही राज़ है। मसीह ख़ुदा की तरफ़ से बनी-आदम के लिए पाकीज़गी हुआ है और ईमानदारों से में हो के उस की पाकी में हिस्सा पाते और ख़ुदा के मक़्बूल होते हैं। मसीह की पाकी मिस्ल सोने के इम्तिहान की भट्टी में ताई गई। लेकिन उस में से ख़ालिस और बेदाग़ निकली। वो ज़िंदा ख़ुदा की रूह है। लिहाज़ा उस में सारे कमाल की भर पूरी मौजूद थी। अगर ये भर पूरी इस में ना होती तो वो हरगिज़ शफ़ी-उल-मज़बैंन होने की लियाक़त ना रख सकता और ना उस की शफ़ाअत कारगर होती।
मसीह की मक़्बूलियत की दलील आस्मान पर से आवाज़ का आना
जब हमारे मुबारक नजातदिहंदा का सन (उम्र) तीस (30) बरस का हुआ। जिस सन (उम्र) में कि हैकल की ख़िदमतगुज़ारी अपने मन्सब के ऊपर मुक़र्रर किए जाते थे तो वो जिसको शरीअत की सारी बातें पूरी करना लाज़िम था अपने काम के ऊपर हाज़िर हुआ पर क़ब्ल काम करने के उनकी मक़्बूलियत की अलामतें अमल में आनी ज़रूर थी। पर अज़-बस कि वही काहिन समावी थी उनका मसह भी समावी होना लाज़िम था। नबी ने भी ग़ैब से इस की ख़बर पा के इल्हाम से यूं लिखा, “ख़ुदावंद की रूह मुझ पर है क्योंकि ख़ुदा ने मुझे मसह किया ताकि मुसीबत ज़दों को ख़ुशख़बरीयाँ दूं। उसने मुझे भेजा है कि मैं टूटे दिलों को दुरुस्त और क़ैदीयों के लिए छूटने और बन्दे हुओ के लिए क़ैद से निकलने की मुनादी करूँ ख़ुदा के साल मक़्बूल का और हमारे ख़ुदा के इंतिक़ाम के रोज़ का इश्तिहार दूं और उन सबको जो ग़म-ज़दा हैं तसल्ली बख्शुं कि सेहोन के ग़म-ज़दों के लिए ठिकाना कर दूँ कि उनको राख के बदले पगड़ी और नोहा की जगह ख़ुशी का रोग़न और उदासी के बदले सताइश की ख़िलअत बख्शुं, ताकि वो सदाक़त के दरख़्त और ख़ुदा के लगाए हुए पौधे कहलाएँ कि उस का जलाल ज़ाहिर हो।” (यसअयाह 61:1-3) इस पेश ख़बरी की तक्मील का वक़्त अब आया और ईसा जलील से यर्दन के किनारे युहन्ना के पास जो उस का पेश-रू था आया ताकि यहूदीयों की रस्म के मुताबिक़ बपतिस्मा पाए और युहन्ना इस अम्र में मोअतरिज़ हुए। क्योंकि हर-चंद ये एहतिमाल है कि उन्होंने आँहज़रत को ना देखा था ताहम उनकी आँखें खुल गईं थीं और उनको ये तश्फ़ी हासिल हो गई थी कि ये वही है, कि जिसके लिए मैं राह तैयार करता हूँ और मसीह ने भी उनसे फ़रमाया कि अब होने दे कि यूँही सब रास्तबाज़ी पूरी करूँ। चुनान्चे जब ये अम्र ज़हूर में आया तो ऐसा अजीबो-गरीब माजरा वाक़ेअ हुआ कि दुनिया ने आज तक ना ऐसा कभी देखा ना सुना यानी जो हैं हमारा मुंजी (नजात देने वाला) बपतिस्मा पा के पानी से निकल आया “वहीं आस्मान खुल गया और उसने ख़ुदा की रूह को कबूतर की मानिंद उतरते और अपनी ऊपर आते देखा और देखो कि आस्मान से एक आवाज़ आई कि ये मेरा प्यारा बेटा है जिससे में ख़ुश हूँ।” इस से बढ़ के मसीह की मक़्बूलियत की दलील और क्या हो सकती है? बल्कि मक़्बूलियत का कमाल यहां पर देखने में आया है।
मसीह का इम्तिहान किया जाना
जब पहला आदम इस दुनिया में आया तो शैतान ने मौक़ा पा कर उनके ऊपर अपने इम्तिहान का वार किया और ग़ालिब भी आया। अब चूँकि ये दूसरा आदम भी मिस्ल पहले आदम के अपने बर्गज़ीदों का जानिबदार था। ज़रूर था कि वो भी शैतान से आज़माया जाये ताकि शैतान को भी मालूम हो कि अब मेरे सर-कोबी (ख़ातिमा) का वक़्त आया और ख़ुदा की नजात बे-ख़ता है और गुनाहगार भी अपनी नजात के पेशवा का कमाल और जमाल देखें और सज्दे में झुकें और अपनी नजात का जलाल ख़ुदावंद को देखे ये कह सकें कि गो ये हमारा मुंजी (नजात देने वाला) सारी बातों में हमारी मानिंद आज़माया गया ताहम गुनाह से मुबर्रा निकला और ये तसल्ली हासिल करें कि मसीह हमारा हम्दर्द हो के हमारी तक़्लीफों में हमारी मदद करने के ऊपर क़वी और क़ादिर और राज़ी व तैयार है। अल-ग़र्ज़ बाद बपतिस्मा पाने के वही रूह जो मिस्ल फ़रिश्ते के उस के सर के ऊपर नाज़िल हुई थी अब ब्याबान की तरफ़ उस की हिदायत करती है ताकि शैतान से आज़माया जाये और जब वो शबाना रोज़ (दिन रात) रोज़ा रख चुका तो शैतान अपनी रज़मगाह (मैदान-ए-जंग) में मौजूद हुआ और ये मौक़ा पाया कि उस के ऊपर ग़ालिब आने की कोशिश करे। जैसा कि हव्वा के ऊपर मौक़ा पा के उसने अपना हमला करने में पहलू-तही की, वैसा ही मसीह की हालत को भी अपने मुफ़ीद मतलब पा के कोशिश दरेग़ ना की और उस को भूका पा के उस की कमज़ोरी के ऊपर ऐसे अंदाज़ के साथ हमला किया कि किसी आम इन्सान में ताक़त ना थी कि उस के मुक़ाबले में ठहर सकता। मसीह का भूका रहना ग़ालिबन इसी ग़रज़ से था कि शैतान को मौक़ा देता कि उस के हज़ीमत (शिकस्त) कामिल हो। शैतान तो मसीह की माहीयत (असलियत) से बख़ूबी वाक़िफ़ था और उस में मजाल ना थी कि अपनी फ़ित्रत से उस पर ग़ालिब आता, लेकिन तीनो बातें ऐसी थीं कि उनकी निस्बत उस को ये एहतिमाल था कि मबादा (बाद में) वो किसी तरह लग़्ज़िश कहा जाये और ये तीनों बातें ऐसी थीं कि इन्सान का पेश जाना निहायत ही दुशवार था। पहले उसने ये दर्याफ़्त करना चाहा कि आया अपने आबाए समावी की मेहरबानी और ख़बर-गीरी की निस्बत उस का दिल पूरा है या नहीं या ये कि और आदमजा़द की मिस्ल उस में भी ख़ामी पाई जा सकती है। क्योंकि अगर ऐसा होता तो इस का मतलब ख़ूब होता, और इस तरह के इम्तिहान का बेहतरीन मौक़ा यही था कि जिसका मंज़र अब पेश आता है। भूक की शिद्दत बड़े इम्तिहान का वक़्त है। कलाम इलाही का मुतालआ कनंद गान को बख़ूबी याद होगा कि भूक के ग़लबे की हालत में ऐसो ने अपने पहलौठे होने की नेअमत की तहक़ीर की और कहा देख मैं तो मरने पर हूँ सो पहलौठे होने का हक़ मेरे किस काम आएगा। सो ऐसो ने अपने पहलौठे होने का हक़ ना चीज़ जाना। अज़-बस कि शैतान ने बार हा अपने इस अंदाज़ की फ़ित्रत में कामयाबी हासिल की थी। वो अपने हमले से बाज़ ना रहा और हमारे मुंजी के पास आ के कहा, “अगर तू ख़ुदा का बेटा है तो फ़र्मा के ये पत्थर रोटी बन जाए।” पर गो ज़रूर था कि हमारे ईमान का पेशवा तक़्लीफों से आज़माया जाये लेकिन उस का गुनाह में फँसना नामुम्किन था और जब उसने शैतान से कहा कि “आदमी सिर्फ रोटी से नहीं बल्कि हर एक बात से जो ख़ुदा के मुँह से निकलनी है जीता है।” तो शैतान ने कामिल हज़ीमत (हार) पाई और मसीह के दिल को ख़ुदा की मेहरबानी की निस्बत पूरा पाया और कुछ अजब नहीं कि वो इस ही एक हमले के ऊपर क़नाअत (सब्र) करता लेकिन उसने ना चाहा कि बाज़ आए तावक़्त ये कि अपना कुल ज़ोर उस के ऊपर आज़माना ले। इस नज़र से ख़ुदा की ख़बर-गीरी की निस्बत भी उस को टटोला। इस इम्तिहान के बारे में कलाम में यूं आया है, “तब शैतान उसे मुक़द्दस शहर में अपने साथ ले गया। और हैकल के कंगरे पर खड़ा कर के उस से कहा अगर तू ख़ुदा का बेटा है तो अपने तेईं नीचे गिरा दे क्योंकि लिखा है कि वो तेरे लिए अपने फ़रिश्तों को हुक्म करेगा और वो “तुझे अपने हाथों पर उठा लेंगे ऐसा ना हो कि तेरे पांव को पत्थर से ठेस लगे।” लेकिन मसीह एक बेहतर अहद का दर्मियानी होने की वजह से ऐसी ताक़त व क़ुव्वत से आरास्ता था कि जिसमें तज़लज़ुल को दख़ल मुहाल था। लिहाज़ा जब उसने इस मुंजी (नजात देने वाले) पाक की ज़बान मुबारक से ये कलिमा सुना कि “तू ख़ुदावंद अपने ख़ुदा को मत आज़मा” तो उस के इस्तिक़लाल से हैरान और शर्मिंदा हुआ। यूं शैतान ने ख़ुदा की ख़बर-गीरी की निस्बत भी उस को पूरा पाया और उस को दर्याफ़्त हो गया कि ये वही है कि जिसकी निस्बत ख़ुदा ने फ़रमाया है “देखो मेरा बंदा जिसे मैं सँभालता मेरा बर्गुज़ीदा जिससे मेरा दिल राज़ी है मैंने अपनी रूह उस के ऊपर रखी। वो ना घटेगा और ना थकेगा जब तक कि रास्ती को ज़मीन पर क़ायम ना कर ले।” (यसअयाह 42:1-4) इन दोनों से फ़राग़त कर के तीसरे और सबसे बदतर हमले की फ़िक्र होती है बुलंद पहाड़ के ऊपर से दुनिया की सारी शान व शौकत को दिखला के शैतान ये कहता है कि “अगर तू गिर के मुझे सज्दा करे तो ये सब कुछ तुझे दूँगा।” देखें शैतान की फ़ित्रत वहेला बाज़ी। उस को इल्म है कि इन्सान साहिबे हौसला है और अपने हौसले को पूरा करने के लिए वो कोई बात दरेग़ नहीं रखता है। लिहाज़ा उसने चाहा कि इस बात को आज़माऐ कि सारी दुनिया की हशमत और शान व शौकत की मुख़्तारी उस के ऊपर कहाँ तक असर पैदा कर सकती है। लेकिन ऐ शैतान तू तो ख़ुद जानता है कि मैं किस के रू बर (सामने) खड़ा हूँ और तू ख़ुद वाक़िफ़ है कि किस से गुफ़्तगु कर रहा हूँ वो ख़ुद ही सारी ख़ल्क़त का ख़ालिक़ और मौजूदात का मालिक है। पस तू उसे क्या दे सकता है। हाँ तू अपने चेहरे पर शर्मिंदगी का निक़ाब डाल और अपने किरदार से बाज़ आ इसलिए कि तेरी कोशिश रायगां (बेकार) है। वो तेरे दाम (जाल) अजल में कब आता है। सिकन्दर इस ख़्याल से कि अब कोई मुल़्क ऐसा बाक़ी नहीं है कि जिसके ऊपर में क़ाबिज़ हो सकूं रुइ तो रुइ लेकिन जिसका तू अब मुम्तहिन (जांचने वाला) है उस को क्या ग़म है कि सारी ख़ल्क़त की मामूरी उसी की है और नतीजा यही हुआ कि जब शैतान ने देखा कि अब मेरे सारे तीर साफ़ हो चुके और उस को मजरूह (ज़ख़्मी) करने में कुंद (सुस्त) हैं तो चुप-चाप वहां से चल दिया। यूं हम देखते हैं कि गो हमारा सरदार और पेशवा सारी बातों में आज़माया गया तो भी गुनाह का दाग़ उस के ऊपर ना आया। उस में गुनाहगारों के लिए कहीं तसल्ली है। क्योंकि ये इसलिए हुआ कि वो उनके जो इम्तिहान में पड़ते हैं मदद कर सके इसलिए ऐसा बुज़ुर्ग सरदार काहिन पाकी चाहीए कि हम अपने ईमान के इक़रार को मज़बूती से थामें रहें। क्योंकि हमारा ऐसा सरदार काहिन नहीं है जो हमारी सुस्तीयों में हमारा हमदर्द ना हो सके बल्कि सारी बातों में हमारी मानिंद आज़माया गया पर उसने गुनाह ना किया और अज़-बस कि वो इम्तिहान में पड़ के साबित-क़दम रहा ख़ुदा ने अपनी रहमी को यूं आश्कारा किया कि लश्कर समावी ने उस की ख़िदमत की। “ऐ गुनाहगार ! यही तेरा निजात देने वाला है, उस को देख।” और इर्शाद हुआ और उस के वसीले से तख़्त फ़ज़्ल के पास जाता कि तुझ पर रहम हुआ और फ़ज़्ल जो वक़्त पर मददगार हो हासिल हो।
मसीह की मक़्बूलियत की दलील और उस के अय्याम रिसालत की पाकी व सरापा दानिश व बीनिश
जब हमारा मुबारक मुंजी (नजात देने वाला) ख़ुदा की तरफ़ से ममसोह हो के और शैतान के ऊपर ग़लबा पा के उस पर फ़त्हयाब हुआ। उस वक़्त से उस की ज़िंदगी का हर लहज़ा मज़हर क़ुदरत इलाही था। दुनिया में बड़े बड़े नामी व गिरामी लोग हो गए हैं जिनका आवाज़ा तश्त अज़ बाम (मशहूर होना, आम) होना बुलंद हुआ लेकिन मसीह की ज़ात बाबरकत गोया बशर के बीच में आफ़्ताब रुपोश था और उनके कुल ज़िंदगी के हालात उनके गर्द आफ़्ताब की सी रोशनी देते थे। ये उस की माहीयत (असलियत) व फज़ीलत को बिला-तकरार साबित करते हैं। कलाम की गवाही ये है। “उनमें से जो औरतों से पैदा हुए युहन्ना बपतिस्मा देने वाले से कोई बढ़ के नहीं हुआ लेकिन मैं तुमसे कहता हूँ कि, यहां एक युहन्ना से भी अफ़्ज़ल तर है।” उनकी पाकी ज़रब-उल-मसल थी। नापाक रूहों ने भी उसे कलाम करते वक़्त ख़ुदावंद के क़ुद्दूस के नाम से ख़िताब किया। हवारियों ने उसे ख़ुदा के क़ुद्दूस बेटे का लक़ब दिया। पतरस रसूल ने मसीह के पैरों (मानने वालों) को ये हिदायत की है कि “जिस तरह तुम्हारा बुलाने वाला पाक है तुम अपने सब चाल में पाक बनो क्योंकि मैं पाक हूँ।” (1-पतरस 1:15-16) ख़ुलासा ये कि मसीह की दानिश बेमिस्ल उस की हिक्मत लासानी उस की समझ बेबदल और उस की पाकी अदीमुल्मिसाल थी। और इस का राज़ ये है कि वो जिस्म की ख़्वाहिश से पैदा नहीं हुआ, बल्कि ख़ुदा से है। और मसीह की ज़ात में पाकी के कमाल का पाया जाना एक अम्र ज़रूरी वला बदी था। क्योंकि अव्वल तो उलूहियत ने उस के जामा इन्सानी को पसंद कर के उस में सुकूनत करना मुनासिब समझा। अब ज़ाहिर है कि पाक ख़ुदा नापाक हैकल के बीच में रह नहीं सकता है इसलिए कि उस की आँखें नापाकी के ऊपर सिवा नफ़रत व हक़ारत और कराहीयत के और इसी तरह से निगाह कर ही नहीं सकतीं चूँकि ये जिस्म एक जिस्म ख़ास था और ख़ुदा की सुकूनत के लिए हैकल था। मसीह की इन्सानियत के जामा का पाक होना ज़रूर था। दूसरे वो इन्सान का ज़ामिन हो के आया। पस उस के जामा की पाकी गुनाहगार इन्सान के जामा नापाक को पाकीज़ा करने का वसीला थी। इसी नज़र से लाज़िम था कि वो पाक और बेऐब हो ताकि इन्सान की नजात में किसी तरह का ख़लल वाक़ेअ ना हो और इन्सान को ये कहने का मौक़ा ना मिले कि “ऐ हकीम अपने को चंगा कर।” लेकिन उस की कामिल पाकी में इन्सान अपने नापाकी के दफ़ाअ के लिए तफ़्तीह (बहुत गर्म, आशिक़) पाए औरता कि वो ख़ुदा की नजात को हासिल कर के उस की पाक ज़ात की शादमानी का वारिस हो। फिर वो गुनाहगारों के लिए कफ़्फ़ारा होने को आया पस ज़रूर था कि वो पाक हो। क्योंकि नापाक क़ुर्बानी ख़ुदा को ना मक़्बूल और नापसंद है। देखो (इब्रानी 26:7-28)
दसवाँ बाब
मसीह की मौत और उस के फ़वाइद का तज़्किरा
मसीह की मौत
मसीह के इस दुनिया में आने का एक ख़ास मक़्सद था। उनको एक काम करना था जो ख़ुदा ने उनके लिए ठहराया और उन्होंने अज़ ख़ुद उस की तामील मंज़ूर की थी। वो इसी काम के अंजाम देने को आस्मान से उतरे थे। चूँकि इन्सान की नजाते लिए उनके एवज़ में बतौर ज़ामिन के आई। लाज़िम था कि मुजरिम की सज़ा ज़ामिन पर पड़े। अब इन्सान की ना-फ़रमानी की सज़ा मौत थी। क्योंकि शरीअत उस के क़िसास (बदला, ख़ून के एवज़ ख़ून) के बारे में ये कहती थी कि बग़ैर लहू बहाने के नजात नहीं और ना ख़ुदा की अदालत के दावे बग़ैर उस के राज़ी हो सकते थे। इस नज़र से आँहज़रत का मरना एक अम्र ला बदी था। क्योंकि कुल बनी-आदम की बदकारियाँ उस के ऊपर लादी गईं। लेकिन हाँ इस बात को बख़ूबी याद रखना चाहीए। कि वो सिर्फ़ हमारी ख़ताओं के लिए कुचले गए और हमारी ही बदकारियों की वजह से उन पर सियासत हुई।
अगर वो अपनी ख़ुशी से गुनाहगारों के बदले में अपने जाँ-निसार कर देते तो उनका मरना ग़ैर नामुम्किन होता और और तारीकी के कुल इख़्तयार वालों का ज़ोर उस के ऊपर ग़लबा पाने में मजबूर व मह्जूब (पोशीदा, नादिम) होता। क्योंकि ख़ुदावंद के मसीह को कौन छू सकता था। ज़ाहिर है कि मौत गुनाह का नतीजा है। पौलुस रसूल फ़रमाते हैं कि “गुनाह का एवज़ मौत है।” लेकिन हमारे ख़ुदावंद की शान में लिखा है “उसने गुनाह ना किया ना उस की ज़बान में छलबल (झूट) पाया गया।” इसी नज़र से ज़बूर के मोअल्लिफ़ ने इल्हाम से यूं लिखा कि “तू अपने क़ुद्दूस को सड़ने ना देगा।” हमारा मुबारक नजातदिहंदा गुनाह से ना मुलव्वस होने के सबब से उस के नतीजे का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हरगिज़ ना हो सकता था और मौत की क्या मजाल थी कि उस के ऊपर वार कर के शादयाने बजाती क्योंकि ये वो था जो अपनी निस्बत ये कह सकता था कि मौत और दोज़ख़ की कुंजी मेरे इख़्तियार में है। पस याद रहे कि मसीह की मौत मह्ज़ गुनाहगारों के बदले में थी उसी सबब से ख़ुदा को पसंद आया कि उसे ज़ख़्मी करे ताकि उस के मार खाने से हम चंगे हो। कलाम में इस मुक़द्दमे में यूं आया कि “मसीह हमारे गुनाहों के वास्ते मरा।” ग़रज़ ये कि मसीह की मौत की हक़ीक़त ये है कि वो एक ऐसी तदबीर है कि जिसको ख़ुदा ने अपनी दानिश व मुहब्बत से इन्सान की नजात के वास्ते मुईन किया इसी सबब से मिस्ल ख़ुदा के और इंतज़ामों की वो एक राज़ माला यंहल है और इस सबब से कि ख़ुदा का कलाम है वो इन्सान की नज़रों में अजूबा है।
मसीह की मौत की खूबियां
ख़ुदा ने जो रहमत में ग़नी है अपने मुहब्बत अज़ली और रहमत ला बदी से ये मुनासिब समझा कि बनी-आदम हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी का वारिस हो। लिहाज़ा उसने अपना प्यार यूं ज़ाहिर किया कि जब हम गुनाह करते चले जाते थे तब मसीह को भेजा कि हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा हो। ख़ुदा के फ़ज़्ल और पर्वर्दगारी का अक्सर ऐसा इंतिज़ाम देखने में आया है कि बहुतों के एवज़ में एक की शफ़ाअत मक़्बूल हुई और ख़ुदा का ग़ज़ब टल गया। कलीसिया क़दीम की तवारीख़ के हालात मुलाहिज़ा करने से ये अम्र बख़ूबी पाया सबूत को पहुंचता है और ख़ुदा की मुहब्बत की बोहतात और फ़ज़्ल की गुंजाइश को बतौर कामिल हुवैदा व आश्कारा कर देता है। बनी-इस्राईल की सरकशी और शरारत अज़हर-मिन-शम्स (रोज़-ए-रौशन की तरह अयां) है। हत्ता कि बाअ्ज़ बाअ्ज़ औक़ात ख़ुदा का ग़ज़ब यहां तक मुश्तइल हुआ कि उसने अपने बंदा मूसा से फ़रमाया कि “हट जा और छोड़ दे कि मैं इन लोगों को हलाक करूँ।” लेकिन अज़-बस कि ख़ुदा ने ख़ुद उनके तेईं उनकी राहनुमाई के लिए मुक़र्रर किया था उनकी शफ़ाअत और वसातत इस्राईलों के हक़ में कारगर हुई। ख़ुदा ने अपने क़हर को रोका और इस बला को जो उन पर लाना चाहता था नाज़िल करने से बाज़ रहा। यूं ही एक की ताबेदारी से बहुतेरे रास्तबाज़ ठहरे। और ना सिर्फ कलीसिया क़दीम में हम इस बात की नज़ीर पाते हैं बल्कि दुनिया की तवारीख़ के हालात से भी इस बात की तस्दीक़ होती है कि मसीह से तीन सौ साठ (360) बरस पहले शहर रुम के आम मजमागाह में जो फ़ोर्म के नाम से मशहूर था ज़मीन दफ़अतन शक़ हो गई। और देहातियों की तरफ़ से ये आगाही हुई कि ये ग़ार ना बंद होगा तावक़्त ये कि वो शैय इस ग़ार में ना डाली जाएगी जो रोमीयों की नज़र में निहायत दर्जे की बेश-बहा मुतसव्वर है। इस आफ़त जानग़दाज़ के बाइस से सब के छक्के छूट गए और सब इसी फ़िक्र में ग़लताँ व पेचाँ थे कि देखें ये बला क्योंकर इस शहर पर से टलती है। रउसा शहर इसी हैसबैस और तग व दौ में थे पर कोई तदबीर बनाए बन ना पड़ती थी कि इस सना में एक रईस आज़म मार्क्स क्रिशइस नामी हाज़िर आया और ये इस्तिफ़सार कर के आप लोगों के रूबरू अपनी हिम्मत को काम में लाके पांचों हथियार से अपने तईं मुसल्लह कर घोड़े पर सवार हो अपने मुरक्कब को एड़ी लगा बेताम्मुल उस ग़ार के अंदर कूद पड़ा और यूं अपने तईं इस शहर की बहबूदी की नज़र से तसद्दुक़ कर दिया। ज़मीन ने भी फ़ौरन दोनों तरफ़ से उसे दबा लिया और वो बलाए अज़ीम कि जिसके बाइस से कुल क़ौम मुतरद्दिद (सोच में पड़ जाने वाला, परेशान) हो रही थी टल गई। लोगों की जान में जान पड़ गई। देहातों की रजामंदी हो गई और शहर-वालों ने अमन पाया। मसीह की मौत भी इसी तरीक़ से थी। वो मह्ज़ औरों की रफ़ाहेतु (भलाई) और जान बख़्शी की निस्बत जाँनिसारी थी और ख़ूबी इस में ये थी कि वो ना तो नदकरहा और जबरन बल्कि मह्ज़ हुब्ब दिली से की गई इसी वजह से ख़ुदा की मक़्बूलियत की मुहर हमारी नजात की निस्बत उस की मौत के ऊपर लगाई गई कि जिसके बाइस वो कारगर हुई। एक और नज़ीर बेबदल लीजिए। जब सरदार काहिनों और फ़रीसयों ने सदर मजलिस जमा कर ली और इस फ़िक्र में हुए कि मसीह से क्या करें क्योंकि लोग उस पर ईमान लाते चले जाते थे और लोगों पर ये ख़ौफ़ ग़ालिब हो रहा था कि हमारा मुल़्क रूमी बिल्कुल छीन लेंगे उस वक़्त काइफ़ा नामी एक सरदार काहिन ने इल्हाम से ये ख़बर दी कि तुम कुछ नहीं जानते और ना अंदेशा करते हो कि “हमारे लिए ये बेहतर है कि एक आदमी क़ौम के बदले में मरे और ना कि सारी क़ौम हलाक हो।” (युहन्ना 11:50) वग़ैरह। यूं मसीह की मौत एक ज़रूरत ख़ास और इन्सान की नजात की माहीयत (असलियत) का लुब्बे लुबाब (जिस्म ,ढांचा) साबित होती है और इस सबब से कि ख़ुदा की मुहर उस के ऊपर है यही अकेली व काफ़ी तदबीर है जिसकी बुनियाद पर गुनाहगार इन्सान ख़ुदा की रहमत के ऊपर दावा कर सकता है और उस के हुज़ूर में मक़्बूल ठहर सकता है। अल-ग़र्ज़ मसीह की मौत ने बहिश्त (जन्नत) का दरवाज़ा गुनेहगारों के वास्ते खोल दिया है और ज़मीन के ऊपर एक अजाइब तब्दीली लाया है ऐसा कि ख़ुदा रास्त रहता है और उसे जो मसीह पर ईमान लाए रास्तबाज़ ठहराता है और ला रहीमा को रहमतदार बनाता है।
मसीह का जी उठना
हर-चंद कि मसीह की ज़िंदगी के हालाते कुल्लिया ख़ुदा की मक़्बूलियत की अलामत का एक सिलसिला ज़हूर में आता है, कि जिससे साफ़ मालूम होता है कि मसीह ख़ुदा ही की तरफ़ से मुअल्लिम व मुंजी आलम (दुनिया को नजात देने वाले) होके के आया था कि जिसकी बदौलत इन्सान को मग़फ़िरत हासिल हो। लेकिन जैसा कि गुलाब का फूल बावजूद वले और मसले जा के भी अपनी ख़ुशबू नहीं छोड़ता है वैसा ही मसीह भी अपने मौत में वो चंद मक़्बूल-ए-नज़र आया। मसीह की बातों के ऊपर जो उसने पिछली बार अपनी जान देने के क़ब्ल कहीं ग़ौर करने से उस की माहीयत (असलियत) फ़ौक़-उल-आदी ज़ाहिर होती है। अगर वो ख़ुदा का मक़्बूल ना होता तो उस की मौत अवाम की मौत से बेहतर ना होती। लेकिन उस का मरना भी बेमिस्ल हुआ। आफ़्ताब अपनी रोशनी देने से बाज़ आया और यूं उस की फ़ज़ीलत के ऊपर गवाह हुआ। ज़मीन भी उस की जो उस का बनाने वाला था ताब ना ला सकी और उस के आगे यहां तक सहम गई कि उसने अपना दहन खोल दिया। बल्कि कोह तक तड़क उठे। यूं मसीह के कमाल के ऊपर सारी ख़ल्क़त ने गवाही दी। और उस की रिसालत को क़ायम व साबित कर दिया। लेकिन इतने पर गवाहियाँ ख़त्म ना हुईं बल्कि एक और बात बाक़ी थी और वो ये थी कि वो ना सिर्फ मरे बल्कि जी भी उठे और यूं उनकी क़ुदरत कामिला मुदल्लिल और आश्कारा हो और इन्सान को अपने पेशवा-ए-नजात से कमाल दर्जे की तसल्ली हासिल और मुहर इलाही का ख़ातिमा हो जाये ताकि किसी पहलू में नजात के मुक़द्दमा में इन्सान को शक ना रह जाये। वो ना सिर्फ हमारी नजात के लिए मरा बल्कि हमें रास्तबाज़ ठहराने के लिए जी भी उठा। मुम्किन ना था कि ज़मीन उस को अपना सैद (शिकार) अबदी बनाए। ख़ल्क़त उस को ख़ूब पहचानती थी इस सबब से उस का बार ऐसा गिरां था कि वो भी बे-ताब हो गई। ख़ुदा के क़ुद्दूस का सड़ना महालात से था ग़रज़ कि जबरन व कहरन वो उस का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) क़लील से क़लील अर्से तक भी ना रह सका। तीसरे दिन की रोशनी नमूद होने ना पाई थी कि क़ब्र ने अपनी पाक अमानत को उछाल दिया। और ज़मीन ने उस को निकाल फेंका। जब कि अलस्सबाह (सुबह) तीसरे रोज़ चंद मस्तूरात (औरतें) ख़ुशबू लेकर उस को मस्ह करने के लिए गईं तो उस को वहां ना पाया ख़ुदा का ममसोह उठ गया था। फ़रिश्तों ने उनको ये शीरीं (मीठी) आवाज़ सुनाई कि “वो यहां नहीं है बल्कि जी उठा है।” हाँ मसीह मुर्दों में से जी उठ के बड़ी क़ुदरत के साथ ख़ुदा का बेटा साबित हुआ। क्या इस तौर की मक़्बूलियत इलाही की अलामतें और किसी की निस्बत कभी ज़हूर में आईं? क्या ये सारा माजरा इत्तिफ़ाक़ीया था? हरगिज़ नहीं मसीह इन्सान के लिए ख़ुदा की नजात था लिहाज़ा मुहरे इलाही उस के ऊपर जिते और मरते हर हाल में पाया गया और गुनाहगार इन्सान के दिलपर नजात के हुसूल के बारे में बिल्कुल शक रफ़ा (दूर) हो गया।
मसीह की मौत के फ़वाइद
अज़-बस कि मसीह की क़ुर्बानी व शफ़ाअत ख़ुदा की मुस्नद अदालत के आगे मंज़ूर व मक़्बूल हुई और मसीह ना सिर्फ हमारे गुनाहों के लिए मरा पर हमारी सलामती के लिए जी भी उठा और हमारी शफ़ाअत के लिए ख़ुदा के दहने हाथ बुलंद हुआ। मुम्किन ना था कि उस के बन्दे और पैरौ (मानने वाले) फ़ैज़ मामूर से भी फ़ैज़ रहते और उस पर ईमान लाने के फ़वाइद में शिरकत हासिल ना करते। अगर ऐसा होता तो मसीह का हमारे एवज़ में मरना बेसूद और ला मक़्सूद होता और ख़ुदा के फ़ज़्ल की कुल माहीयत (असलियत) को बेमाहीयत कर देना होता। लेकिन हरगिज़ ऐसा ना होगा। मुम्किन नहीं कि मसीह अपनी जान के दर्द के हासिल ना देखे। क्या नबी की मार्फ़त ये नहीं कहा गया था कि “जब उस की जान गुनाह के लिए गुज़रानी जाये तो वो अपनी नस्ल को देखेगा।” वग़ैरह (यसअयाह 53:10-12) क्या ख़ुदा का ये कलाम बातिल होगा? हो नहीं सकता कि कलाम का एक शोशा भी टले। सब कुछ का पूरा होना तो अलबत्ता वाजिब है और ख़ुदा के कुल इरादे क़ायम रहेंगे, तो हालाँकि मसीह के वसीले से ख़ुदा की नजात बर्गशता इन्सान के लिए मौजूद की गई लिहाज़ा हम ये दर्याफ़्त करेंगे कि मसीह के बाइस से हम क्यों कर इस नेअमत अज़ीम के हासिल करने के लिए तैयार होते हैं।
मसीह की मौत का पहला फ़ायदा
पाकी का हासिल होना
ख़ुदा पाक है। हज़रत आदम भी इब्तिदा में पाक बनाए गए थे और लिखा है कि बग़ैर तक़द्दुस के कोई ख़ुदा को देख नहीं सकता है। जब तक हज़रत आदम पाक थे तब तक ख़ुदा से रिफ़ाक़त व सोहबत रखते थे। चुनान्चे जब हुक्मउदूली (नाफर्मानी) हुई तब भी यही बात रास्त रही बल्कि ख़ुदा ने अपना पाक चेहरा आदम से इसी लिए छिपा लिया कि उन पर आश्कारा करे कि बग़ैर पाकी के उस रब क़दीर व जलील का दीदार मुहाल है। ग़रज़ कि ख़ालिक़ के उसी सोहबत व दीदार के लिए इस नई और जीती राह से जो मसीह के जिस्म के पर्दे को फाड़ के तैयार की गई है। हम मसीह के बाइस से और उस में होकर तैयार होते हैं अगर कोई पूछे कि ये क्यों कर है तो जवाब ये है कि हमारी पुरानी इन्सानियत मसीह के साथ सलीब पर खींचती जाती है, और यूं उस की मौत में शिरकत हासिल कर के हम उस की ज़िंदगी में भी हिस्सा पाते हैं। इस तरह से मसीह की ज़िंदगी हमारी होती है। और चूँकि मसीह की ज़िंदगी पाकीज़ा थी हम भी पाक होते हैं और जैसा कि मसीह ने अपने शागिर्दों के लिए ये दुआ की कि “जैसा कि ऐ बाप मैं तुझ में एक हूँ वैसा ही बख़्श दे कि ये भी मेरे साथ एक हों।” हमारी ज़िंदगी मसीह के साथ मुतवस्सिल हो जाने के सबब से हम में नए तौर पर अपना असर कर के मसीह में नया मख़्लूक़ बना देती है। और जब हम नए मख़्लूक़ हुए तो पुराना नविश्ता गुनाह का मिट जाता है। और मसीह की पाकी का नया नविश्ता हमें इनायत होता है और यूं हम इस पाकी की सनद सबूत दोनों हासिल कर के ख़ुदा के मक़्बूल होने और अपनी हालत इब्तिदाई को फिर बहाल पाते हैं। इसी नज़र से (1-पतरस 1:9) में मसीहीयों की निस्बत यूं कहा है कि “तुम चुने हुए ख़ानदान बादशाही काहिनों का फ़िर्क़ा मुक़द्दस क़ौम और ख़ास लोग हो और इसी पाकी की रूह को हासिल कर के हम अब्बा यानी उसे पुकार के कह सकते हैं।” पस ऐसी रहमत पाके हम पस्त-हिम्मत ना हो बल्कि ये कोशिश करते रहें कि मसीह में पाए जाएं। अपने इस रास्तबाज़ी के साथ नहीं जो शरीअत से है बल्कि उस रास्तबाज़ी के साथ जो मसीह पर ईमान लाने से यानी उस रास्तबाज़ी के साथ जो ख़ुदा की तरफ़ से ईमान की शर्त पर मिलती है और अपनी सारी चाल में पाक बनें। जैसा हमारा बुलाने वाला पाक है।
दूसरा फ़ायदा शैतान के बंद से आज़ादी पाना
ताकि हमारी पाकीज़गी कामिल हो और हम उस की रोशनी की हिदायत में चलते रहें ज़रूर है कि हम शैतान के बंद (बंधन) से रिहाई पाएं क्योंकि ज़ाहिर है कि जब तक हम इस मर्दक (ज़लील आदमी) के बंद (बंधन) में है तब गुनाह से आज़ाद होना मुहाल है। और अगर गुनाह से रिहाई ना हो तो ख़ुदा की मक़्बूल पाकी में क़दम डालना भी ग़ैर मुम्किन है शैतान भी अपने सैद को अपने हाथ से देना गवारा नहीं करता है। और तावक़्त ये कि हम उस पर ग़लबा पायें तब तक हम पाकीज़गी को ख़ुदा के ख़ौफ़ में पूरा नहीं कर सकते हैं पर ख़ुदा का बेटा इसी लिए आया कि शैतान के आमालों को नेस्त व नाबूद करे। हाँ हर-चंद कि उसने मसीह पर भी हमला सख़्त किया लेकिन मसीह ने अपने जी उठने से उसके सर को कुचल डाला और उस के शिकार को उस के हाथ से छीन लिया और यूं हमको इस बंद (बंधन) से आज़ाद कर के अपने फ़रज़न्दों की आज़ादगी बख़्शी है।
तीसरा फ़ायदा रास्तबाज़ ठहरना
तीसरी नेअमत जिसमें हम मसीह के वसीले शिर्कत हासिल करते हैं सो ये है कि हम ख़ुदा के हुज़ूर में रास्तबाज़ ठहरे। गुनाह हम पर ग़ालिब नहीं आ सकता है। इसलिए कि मसीह ने अपनी सदाक़त से इस को खो दिया शरीअत हमको गुनाहगार नहीं ठहरा सकती है। क्योंकि मसीह ने हमारे बदले में शरीअत को पूरा कर दिया और अदालत इलाही का वाजिबी मकानात दे दिया ख़ुदा हमको गुनाह का इल्ज़ाम ना देगा। क्योंकि मसीह हमारे गुनाहों के लिए मरा और हमारी रास्तबाज़ी के लिए फिर जी उठा। ग़रज़ कि जितनी बातें हमारी मुख़ालिफ़त में बर्पा हो सकती हैं वो सब कुल-अदम और मादूम (ख़त्म) हैं क्योंकि मसीह ने पूरी नजात हमारे लिए मुहय्या व मौजूद की है। पस कौन है जो ख़ुदा के चुने हुओं पर दावा कर सकता है ख़ुदा ही है जो उनको रास्तबाज़ ठहराता है कौन सज़ा का हुक्म देगा। मसीह जो मर गया बल्कि जी भी उठा और ख़ुदा की दहनी तरफ़ बैठा है। वो तो हमारी सिफ़ारिश करता है। ग़रज़ ये कि मसीह हमारे गुनाहों को अपने बदन पर उठा के सलीब पर चढ़ गया ताकि हम गुनाहों के हक़ में मर के रास्तबाज़ी में जी उठें। इस अम्र की निस्बत हज़रत यर्मियाह ने इस नजातदिहंदा मौऊद मक़्बूल की सिफ़त के तज़्किरे में इल्हाम से यूं लिखा है कि “उस का नाम ये रखा जाएगा ख़ुदावंद हमारी सदाक़त।” इसी मंशा के मूजिब पौलुस रसूल ने भी यूं लिखा कि “वो हमारे लिए ख़ुदा की तरफ़ से हिक्मत और रास्तबाज़ी है।” और फिर ये क्योंकि उसने उस को जो गुनाह से वाक़िफ़ ना था हमारे बदले गुनाह ठहराया ताकि हम उस में शामिल हो कर रास्तबाज़ ठहरें। इस रास्तबाज़ी के हासिल करने की निस्बत रसूल ने ये नसीहत दी है “तुम रास्ती करने के लिए जागो और गुनाह ना करो।” यूं साफ़ ज़ाहिर व अयां है कि ख़ुदा की मक़्बूल रास्तबाज़ी सिर्फ़ मसीह के वसीले से गुनाहगारों को हासिल होती है। और ईमान के वसीले से उस के हक़ में कारगर होती है और जो इस रास्तबाज़ी से अपने को मलबूस करता है वो ख़ुदा के हुज़ूर में रास्त व सादिक़ ठहर सकता है।
चौथा फ़ायदा ख़ुदा के साथ मेल
जब हम यूं बतदरीज मसीह के वसीले शैतान की गु़लामी से रिहाई पाके रास्ती के लिए जाग उठते हैं और दिलोजान की पाकी हासिल करते हैं। तब उस की रास्ती व पाकी से मलबूस हो के पुरानी इन्सानियत की नापाकी को खो देते हैं और मसीह में नए मख़्लूक़ बनते हैं और जब मसीह में नई मख़्लूक़ बने तब हम में और ख़ुदा के बीच में मसीह के ख़ून की बदौलत मेल व मिलाप होता है। चुनान्चे पौलुस रसूल फ़रमाते हैं कि “अगर मसीह तुम में हों तो बदन गुनाह के सबब मुर्दा है पर रूह रास्तबाज़ी के सबब ज़िंदा है।” (रूमी 8:10) और जब रूह रास्तबाज़ी में ज़िंदा हुई तो सारी मुग़ाइरत जाती रही। क्योंकि मिस्ल मशहूर है रास्ती मूजिब रज़ा-ए-ख़ुदाअस्त। पस अगर रास्तबाज़ी ख़ुदा की रज़ा का मूजिब है तो हम इस से क्या नतीजा निकाल सकते हैं। बजुज़ उस के जो कि पौलुस रसूल ने निकाला जैसा कि (रूमी 5:1) में आया है, “पस जब कि हम ईमान के सबब रास्तबाज़ ठहरे तो हम में और ख़ुदा में हमारे ख़ुदावंद ईसा मसीह के वसीले मेल हुआ।” मसीह की मौत के मक़ासिद आला में से एक ये था। चुनान्चे इफ़्सस की कलीसिया को ये हिदायत दी गई कि “अब मसीह में हो के जो आगे दूर थे मसीह के लहू के सबब से नज़्दीक हो गए। क्योंकि वही हमारी सुलह है जिसने दो को एक किया और आप में दुश्मनी मिटा के सलीब के सबब से दोनों को एक तन बना कर ख़ुदा से मिला दिया।” (इफसी 2:13-18) देखो।
पांचवां फ़ायदा दर्जा इब्नीयत
जब बवसीला मसीह के ख़ुदा के और गुनाहगारों के दर्मियान में मेल हुआ तो इस मेल व मिलाप से एक उम्दा ख़ूबी ये निकली कि ना सिर्फ ख़ुदा का ग़ज़ब गुनाहगार इन्सान पर से टल जाता है और वो मौरिद रहम व फ़ज़्ल होता है बल्कि दर्जा इब्नीयत का हासिल होता है। वो जो ईमान के ख़ानदान के लोग हैं। सो ख़ुदा के ख़ानदान के लोग कहलाते हैं चुनान्चे कलाम पाक में इस नेअमत की माहीयत (असलियत) के हक़ में यूं आया है कि “जितनों ने उसे क़ुबूल किया उसने उन्हें ख़ुदा के फ़र्ज़ंद बनने का इक़्तिदार बख़्शा कि ख़ुदा के फ़र्ज़ंद हों यानी उन्हें जो उस के नाम पर ईमान लाते हैं।” फिर लिखा है कि “जब वक़्त पूरा हुआ तब ख़ुदा ने अपने बेटे को भेजा जो औरत से पैदा होके शरीअत के ताबे हुआ ताकि वो उनको जो शरीअत के ताबे हैं मोल ले और ले पालक होने का दर्जा पायें। पस अब तू ग़ुलाम नहीं बल्कि बेटा है और जब कि बेटा है तो मसीह के सबब ख़ुदा का वारिस है।” (ग़लतीयों 4:4, 5:7 फिर (1-युहन्ना 3-1) में यूं लिखते हैं कि “देखो कैसी मुहब्बत बाप ने हमसे की कि हम ख़ुदा के फ़र्ज़ंद कहलाएँ।” आयात बाला से अयां है कि ताइब (तौबा करने वाला) गुनाहगार जो मुसद्दिक़ दिली और शिकस्ता दिली से ख़ुदा के नए अह्द के बड़े वाअदे के मुताबिक़ उस के मक़्बूल हुए ना सिर्फ माफ़ी को हासिल करते बल्कि इस नई तोसल के रिश्ते से बंध कर ख़ुदा की बरकत समावी के कुल इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) में दख़ल पाते हैं। क्योंकि लिखा है कि “जितने ख़ुदा की रूह की हिदायत से चलते है, वो ही ख़ुदा के फ़र्ज़ंद है, कि तुमने गु़लामी की रूह नहीं पाई कि फिर डरो बल्कि ले-पालक होने की रूह पाई जिससे हम अब्बा यानी ऐ बाप पुकार पुकार कर कह सकते हैं। वही रूह हमारी रूह के साथ गवाही देती है कि हम ख़ुदा के फ़र्ज़ंद हैं। और जब फ़र्ज़ंद हुए तो वारिस भी यानी ख़ुदा के वारिस और मीरास में मसीह के शरीक।” (रूमी 8:14-17) देखें। ख़ुदा के फ़ज़्ल की बोहतात कि उस की रहमत बेपायाँ से हम ना सिर्फ इस ही ज़िंदगी की बरकतों में फिर हिस्सा पाते हैं बल्कि बरकत व इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) समावी पर भी क़ाबिज़ होते हैं और बीनाई की चाल छोड़ के ईमान की ज़िंदगी बसर करने की ताक़त पाते हैं और यूं अपने ईमान की ग़रज़ यानी अपने जानों की नजात को हासिल करते हैं। पस जैसा कि ईमान का नतीजा ये है कि हम में पाकी की सिफ़त को पैदा करे वैसा ही पाकीज़गी का नतीजा ये है कि दर्जा मतबनियत (ले-पालक) का हासिल हुआ और जब दर्जा मतबनित का हासिल हुआ। तब ख़ुदा हमारा बाप हुआ ना अज़रूए हक़ पैदाइश तिब्बी बल्कि अज़रूए हक़ नौ ज़ादगी और इस के ज़रीये से हम फ़िल-हक़ीक़त ख़ुदा को अब्बा यानी बाप पुकार के कहने की लियाक़त पाते हैं और जब हम ख़ुदा की तरफ़ “ऐ हमारे बाप आस्मानी” कह के मुख़ातब होते हैं तो नतीजा ये निकलता है कि हम उस के घर और फ़ज़्ल और बरकात के कुल इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) में हक़ पाते हैं और यूं कितनी बरकतें कि ख़ुदा की तरफ़ से इन्सान को मिल सकती हैं उन सब पर दावेदार होते हैं और यूं कमाल हिफ़ाज़त और सलामती के साथ इत्मीनान से ज़िंदगी बसर करते हैं और जिस्म व रूह में नई क़ुव्वत हासिल कर के मीरास में नूर के फ़रज़न्दों के साथ हिस्सा पाते हैं। लिहाज़ा इस मुक़ाम पर हम इस मुस्नद कलाम की तस्दीक़ बख़ूबी पाते हैं कि “ख़ुदा के बर्गज़ीदों पर कौन दावा करेगा।”
मसीह की क़ुर्बानी और मियांजीगिरी (पय्यामरसानी) की नेअमतों में से ये चंद हैं पर काफ़ी हैं। पस जब कि ख़ुदा की रहमत और मसीह की बरकत व तुफ़ैल से हम यूं बतदरीज फ़ज़्ल में तरक़्क़ी पाते हैं और क़ुव्वत से क़ुव्वत तक बढ़ते जाते हैं। तब उम्र भर के लिए मौत के ख़ौफ़ की गु़लामी से रिहाई पाके और मसीह के साथ एक हो के ख़ुदा से यकताई हासिल करते हैं और यकताई हासिल कर के जलाल की मीरास में शिरकत पाते हैं और इस उम्मीद से शाद होते हैं कि जब मसीह जो हमारी ज़िंदगी है ज़ाहिर होगा तब हम भी उस के साथ जलाल में ज़ाहिर किए जाऐंगे। इसी वजह से कलीसिया दीदनी ब हम-राही कलीसिया नादीदनी ये ग़ज़ल अपना विर्द बनाती है कि उसी को जिसने हमें प्यार किया और अपने लहू से हमको हमारे गुनाहों से धो डाला और हमको बादशाह और काहिन ख़ुदा और अपने बाप के बनाया। जलाल और क़ुदरत अबद तक उसी की है। आमीन ! रूह और दुल्हन कहती हैं आ और जो सुनता है कहे आ। और जो प्यासा है आए और जो कोई चाहे आब-ए-हयात मुफ़्त ले।
जो अपने दिल लगाएँगे, ख़ुदा से हर औक़ात
बुलंद वो उसे करेगा, वो बख़्शेगा नजात
पहचानता वह ख़ुदा का नाम वह उस का है मक़्बूल
वो इस से दुआ माँगेगा, रब करेगा क़ुबूल
ख़ुदा उसे छुड़ाएगा, रहेगा उस के साथ
वो उसे इज़्ज़त देगा भी, रखेगा अपना हाथ
यक़ीनन उस की उम्र को, वो करेगा दराज़
और उस के दिल में खोलेगा, नजात की राह और राज़
ग्यारहवां बाब
मसीह की क़ुर्बानी और शफ़ाअत के फ़वाइद का हुसूल
मसीह की मौत के फ़वाइद के नेअमत
के हुसूल की शक्ल
मसीह का गुनाहगार इन्सान के लिए नजात की नेअमतें मौजूद करना एक बात है लेकिन गुनाहगार इन्सान का उस नेअमत का हासिल करना दूसरी बात है। नेअमत तो मौजूद है, लेकिन उस का हुसूल एक अहम बात है और गो इम्कान से बाहर नहीं है पर उस का हुसूल मशरूअत है और जब तक कि वो शर्त पूरी ना हो जिसकी बुनियाद पर उस का हासिल होना मुम्किन ठहराया गया है। तब तक उस का हासिल करना मुहाल है। गो फ़ज़्ल का सारा इंतिज़ाम मुफ़्त बहम पहुंचा है चुनान्चे कलाम में भी यूं आया है “अरे ऐ सब प्यासों पानी के पास आओ और वो भी जिसके पास नक़दी ना हो आओ मोल लो और खाओ। आओ मए और दूध बे रूपया और बे-क़ीमत ख़रीदो।” ताहम ये भी कलाम में आया है, “माँगो कि तुम्हें दिया जाएगा ढूंढो कि तुम पाओगे खटखटाओ तो तुम्हारे वास्ते खोला जाएगा क्योंकि जो मांगता है, उसे मिलता है और जो कोई ढूँढता सो पाता है। और जो खटखटाता है उस के वास्ते खोला जाएगा।” इन आयात बाला पर ग़ौर व लिहाज़ करने से साफ़ अयाँ है कि नजात की नेअमत तैयार है। और मुफ़्त में अता होगी। जो उस का तालिब है उसी को हक़ है कि उस को पाए। मसीह ने अपने शागिर्दों से फ़रमाया “माँगो कि तुम पाओगे, ताकि तुम्हारी ख़ुशी कामिल हो।” और मुश्किल इस में सिर्फ ये है कि “नफ़्सानी आदमी ख़ुदा की रूह की बातों को नहीं क़ुबूल करता कि वो उस के बेवक़ूफ़ीयाँ हैं।” (1-करंथियो 2:14) जब मुस्रिफ़ बेटा अपने बाप के घर से बाहर हुआ तो बाप के घर तो वाफ़र और मामूर ही रहा लेकिन इस कस्रत और अफ़्ज़ूनी से उस को क्या सरोकार था वो तो निकल भागा था और जब तक ना लोटा तब तक वो अपने हक़ से अलग था और अपनी नादानी के सबब से महरूम था। मसीह की फ़र्ज़न्दियत के इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) हासिल करने की निस्बत कलाम में आया है, कि “जितनों ने उसे क़ुबूल किया उन्हें उसने इक़तिदार बख़्शा कि ख़ुदा के फ़र्ज़ंद कहलाएँ।” ग़रज़ कि इस नेअमत का हुसूल बव्जाह मशरूअत होने के ब-वक़्त हाथ आता है। क्योंकि नफ़्सानी आदमी रुहानी बातों का दुश्मन है। और ना ख़ुदा की शरीअत के ताबे होना चाहता है इसलिए गुनाह ने उस की आँखें अंधी कर रखी हैं और मसीह की जलील इंजील की रोशनी की ख़ूबी इस पर चमकने नहीं पाती है। लिहाज़ा वो ग़फ़लत को पसंद करता है और ये ग़फ़लत सारे कामों को बिगाड़ देती है और इसी वजह से ये काम मुश्किल होता है।
इस के हुसूल की शर्त-ए-अव्वल ईमान
वो शर्त जिसके ऊपर इन नेअमात (नेअमत की जमा) का हुसूल मबनी है सो मसीह वाली नजात की मक़्बूलियत पर मौक़ूफ़ है और ये मक़्बूलियत ईमान को तलब करती है चुनान्चे लिखा है कि “बग़ैर ईमान के ख़ुदा को राज़ी करना मुहाल है ईमान मिस्ल उस हाथ के है जो मसीह के शिफ़ा बख़्श दामन को पकड़ता और उस का दस्त-ए-निगर और उस की शफ़ाअत व इनायत का जोयाँ बनाता है।” ये वो निगाह है जो कोह पसगाह की चोटी की बुलंदी पर गुनाहगार को खड़ा कर के ख़ुदा की नजात और उस के ख़ुशनुमा मंज़र को आँखों के आगे ला के मौजूद कर देता है। और ज़मीन यओला की फ़र्हत से आँखों को सैर कर देता है। यूं मसीह का हुस्न दाद की कुल ज़ाती खूबियां और उस के दस्त-ए-निगर होने की बरकत आमेज़ नतीजा ईमान को मुश्तइल कर के और उस की ख़ूबी को आश्कारा कर देते हैं और यूं ये ईमान एक नेअमत सलामत बख़्श हो जाता है जिससे ये नतीजा निकलता है कि हम मसीह को क़ुबूल करते हैं और सिर्फ उसी पर अपनी नजात के लिए कामिल और काफ़ी भरोसा रखते हैं जब हमारे मुंजी (नजात देने वाले मसीह) ने कहा कि “अब्रहाम तुम्हारे बाप ने हमारे दीन को देखा और ख़ुश हुआ।” इस क़ौल में ईमान मशरूत हुआ क्योंकि बग़ैर ईमान के अब्रहाम को मसीह के दिन का देखना मुहाल था। इस के सबूत में रसूल की उन बातों को सोचना चाहीए जो इब्रानियों के ख़त में फ़रमाई गई हैं कि “ईमान उम्मीद की हुई चीज़ों की माहीयत (असलियत) और अन-देखी चीज़ों का सबूत है, क्योंकि इस ही की बाबत बुज़ुर्गों के लिए गवाही दी गई।” (इब्रानी 11:1-2) फ़ज़्ल के निज़ाम की कुल माहीयत (असलियत) उस ही सिफ़त के ऊपर मबनी है और मक़्बूलियत की जड़ व बुनियाद है। पतरस रसूल अपने पहले ख़त में मसीहीयों के बेज़वाल और ग़ैर-फ़ानी मीरास के हुसूल की निस्बत ये तहरीर फ़रमाते हैं, “तुम ख़ुदा की क़ुदरत से ईमान के वसीले इस नजात तक जो आख़िरी वक़्त में ज़ाहिर होने को तैयार है महफ़ूज़ किए हुए हो और कि उसे तो बिन देखे तुम प्यार करते हो और बावजूद ये कि तुम अब उस को नहीं देखते तो भी उस पर ईमान ला के ऐसी ख़ुशी व ख़ुर्रमी करते हो जो बयान से बाहर और जलाल से भरी है और अपने ईमान की ग़रज़ यानी जानों की नजात हासिल करते हो।” (1-पतरस 1:5 8,9 आयत) अल-हासिल रास्तबाज़ ईमान से जीएगा यूं हम देखते हैं कि बग़ैर ईमान के मसीह की मौत और उस के जी उठने के फ़वाइद में शिरकत हासिल करना मुहाल है।
ईमान एक हासिल की हुई नेअमत है।
ये ईमान जो मसीह की मौत के फ़वाइद में हमको हिस्सा देती है कोई ऐसी शैय नहीं है कि फ़ीनफ्सिही इन्सान की ज़ात में पाई जाये क्योंकि गुनाह के बाइस से इस्तिदाद (सलाहियत) रूही में भी लागरी आ गई है। बल्कि रुहानी तौर पर मुर्दा कहलाता है। कलाम में भी वो गुनाहों और ख़ताओं में मुर्दा कहलाया है। पौलुस रसूल ने अपना तजुर्बा इस मुक़द्दमे में यूं बयान किया है “मैं जानता हूँ कि मुझमें कोई अच्छी चीज़ नहीं बस्ती कि ख़्वाहिश तो मुझमें मौजूद है पर जो कुछ अच्छा है करने नहीं पाता कि जो नेकी मैं चाहता हूँ नहीं करता बल्कि वो बदी जिसे मैं नहीं चाहता सो वही करता हूँ। पस जब कि मैं जिसे नहीं चाहता वह ही करता हूँ तो फिर मैं इस का करने वाला नहीं बल्कि गुनाह जो मुझमें बस्ता है। ग़रज़ में ये शराअ पाता हूँ कि जब मैं नेकी करना चाहता हूँ तो बदी मेरे पास मौजूद है।” (रूमी 7:18-21) बुरे दरख़्त का फल बुरा ही होता है। यूँही बर्गशता इन्सान के ईमान की निगाह अंधी हो गई है और उस का खोलना उस के क़ाबू में नहीं है। देखें कलाम इस मुक़द्दमे में क्या फ़रमाता है। “क्या कोशी आदमी अपने चमड़े को या तेंदवा अपने दाग़ों को बदल सकता है। तब ही तुम नेकी कर सकोगे जिनमें बदी करने की आदत हो रही है।” (यर्मियाह 13:23) बहर-ए-हाल इन्सान के गुनाह आलूदा हालत की अबतरी ऐसी है कि उस को बिल्कुल ही बेसक्त व बेताक़त बना रखा है और इस कलाम की माहीयत (असलियत) की सदाक़त को आश्कारा करता है। जो (ज़करीया 4:2) में आया है। “ना तू ज़ोर से ना तो तवानाई से बल्कि मेरी रूह से ख़ुदावंद कहता है।”, और फिर (याक़ूब 1:17) में भी आया है कि “हर एक अच्छी बख़्शिश और हर एक कामिल इनाम ऊपर ही से है और नूरों के बानी की तरफ़ से उतरता है जिसमें बदलने और फिर जाने का साया भी नहीं है।” पौलुस रसूल ने (इफसी 2:8) में इस बयान की हक़ीक़त को यूं क़तई साबित कर दिया जब फ़रमाया है कि “तुम फ़ज़्ल के सबब ईमान ला के बच गए हो और ये तुमसे नहीं ख़ुदा की बख़्शिश है।” इस माहीयत (असलियत) से साफ़ आश्कारा है कि ईमान की नेअमत इन्सान के लिए एक हासिल की हुई शैय है जो कि ऊपर से आती है और इन्सान में अपना असर कर के उस को इस नेअमत में शिरकत देती है।
इस नेअमत का बानी या उस का ज़रीया
जब हमारे मुबारक मुंजी (नजात देने वाले मसीहा) का वक़्त आया कि इस दुनिया में अपना काम तमाम करके आस्मान पर जाये तो अपने शागिर्दों को ये तसल्ली दी कि “तुम्हारा दिल ना घबराए और ना डरे क्योंकि मेरा जाना तुम्हारे लिए फ़ाइदामंद है। मैं अपने बाप से दरख़्वास्त करूँगा और वो तुम्हें दूसरा तसल्ली देने वाला बख़्शेगा कि हमेशा तुम्हारे साथ रहे वो मेरी बुजु़र्गी करेगा इसलिए कि वो मेरी चीज़ों से पाएगा और तुम्हें दिखाएगा।” (युहन्ना 14:16-17) और ईमान की बाबत रसूल फ़रमाते हैं कि वो रूह के फलों में से है। यूं साफ़ ज़ाहिर है कि ये नेअमतें बग़ैर ईमान के हासिल नहीं होतीं और ईमान बग़ैर रूह की मदद के पैदा नहीं हो सकता है। पस रूह पाक ईमान की नेअमत का बहम पहुंचाने वाला ज़रीया है। और ईमान उस की मदद का हुसूल मोअस्सर है। यूं रूह पाक तस्लीस का उक़नूम सालिस हमारी सलामती की निस्बत हमारी मदद करता है। और ये नेअमत इनायत करता है कि, जो मसीह में क़ायम किए जाने के लिए मुमिद हो जाता है। और उस में क़ायम हो जाने के सबब से ये ईमान वसीला सलामती और उस नजात का हो जाता है, जो मसीह की मौत से बहम पहुंचाई गई है। अब ज़ाहिर है कि ईमान सुन लेने से और सुन लेना ख़ुदा की बात के कहने से आता है जिससे ये नतीजा निकलता है कि रूह पाक बवसीला कलाम के जो कलीसिया में ख़ादिमान दीन के ज़रीये से सुनाया जाता है अपना काम कर के इन्सान को ईमान में क़ायम कर देता है। इसी सबब से ईमान ख़ुदा की बख़्शिश कहलाती है। वो बख़्शिश ज़मीनी नहीं है बल्कि मिस्ल पने बानी समावी के आस्मानी है। रसूल ने (रूमी 4:16) के मज़्मून में इस की निस्बत यूं फ़रमाया है कि “अब्रहाम का रास्तबाज़ ठहराया जाना ईमान के वसीला से हुआ और ना ईमान बेफ़ाइदा होता और कहा है कि इसलिए ईमान से हुआ कि वो फ़ज़्ल का ठहरे ताकि वो अह्द तमाम नस्ल के लिए जो अब्रहाम का सा ईमान रखते क़ायम है।” इस बात की माहीयत (असलियत) (यसअयाह 52:7) में यूं आश्कारा होती है कि “पहाड़ों के ऊपर क्या ही ख़ुशनुमा हैं उनके पांव जो बशारत देता है और सलामती की मुनादी करता है और ख़ैरीयत की ख़बर लाता है। और नजात का इश्तिहार देता है। जो सिहोन को कहता है कि तेरा ख़ुदा सल्तनत करता है।” और ज़बूर के मोअल्लिफ़ ने उस की हक़ीक़त की निस्बत ये कहा है कि “तेरे कलाम का मुकाशफ़ा रोशनी बख़्शता है।” (ज़बूर 119:130) दूसरे मुक़ाम पर कलाम की नजात बख़्शिश तासीर के ज़िमन में इस ही इल्हामी मोअल्लिफ़ ने यूं अपना तजुर्बा बयान किया है कि “ख़ुदावंद की तौरेत कामिल है कि दिल में फिरने वाली है। ख़ुदा की शहादत सच्ची है कि सादा-दिलों को ताअलीम देने वाली है। ख़ुदा की शरीयतें सीधी हैं कि दिल को ख़ुशी बख़्शती हैं। ख़ुदावंद का हुक्म साफ़ है कि आँखों को रोशन करता है कि ख़ुदा का ख़ौफ़ पाक है कि उनको अबद तक पाएदारी है। ख़ुदा की अदालते सच्ची और तमाम व कमाल सीधी हैं वो सोने से बल्कि बहुत कुंद से ज़्यादा नफ़ीस हैं। शहद और उस के छत्ते के टपकों से शीरीं तर है। इस के सिवा तेरा बंदा उनसे तर्बीयत पाता है। उनके याद रखने में बड़ा ही अज्र है।” (ज़बूर 19:7-11) और पौलुस रसूल अपने फ़र्ज़ंद ईमानी तिमुथियुस पर इस कलाम की फज़ीलत को यूं आश्कारा करते हैं “तू लड़काई (बचपन) से मुक़द्दस किताबों से वाक़िफ़ है जो कि तुझे मसीह ईसा पर ईमान लाने से नजात की दानाई बख़्श सकती हैं।” (2۔तिमथी 3:15) हासिल इस कलाम का ये है कि कलाम पाक ख़ुदा की तरफ़ से इन्सान की सलामती के लिए वसीला ठहराया गया है। चुनान्चे जब कलाम ईमान और दुआ के साथ पढ रहा और सुनाया और सुना जाता है तो हमको हमारी ग़फ़लत से बेदार करने के लिए मुमिद होता है। और रूह पाक इस बेदारी की हालत को फ़ज़्ल में क़ायम करने के लिए वसीला बना देता है और यूं इस फ़ौक़-उल-आदी मदद के साथ कलाम हमको मसीह में क़ायम कर देता है। और मसीह की मौत और उस के जी उठने की नेअमत के फ़वाइद में शिरकत देता है।
फ़ज़्ल के वसीलात का इस्तिमाल
इलावा कलाम की तिलावत और उस की मुनादी के जो बद दर्जा उला अला-उल-ख़ुसूस इन्सान को फ़ज़्ल की हालत में क़ायम करने के लिए मुमिद होता है ख़ुदा तआला ने जो रहमत में ग़नी है अपने फ़ज़्ल की बोहतात से कलीसिया में चंद और ज़वाबते क़ायम किए हैं कि जिनका इस्तिमाल फ़ज़्ल में इस्तिक़ामत देने के लिए कारगर होते हैं। ये ज़वाबते अज़-बस कि ताअयिनात इलाही हैं वो उस के फ़ज़्ल के इंतिज़ाम को मुतास्सिर तौर से कर सके। ऊपर बनी-आदम के दिल पर मक़ासिद आला और रूह के बरलाने के लिए अपना काम करते हैं और दिल की मख़्फ़ी (छिपी) ख़्वाहिशों को तहरीक देके उन को ईमान की हेइयत की तरफ़ रुजू करते हैं और इस तौर पर ये ज़वाबते मसीह में और फ़ज़्ल की हालत में क़ायम बनाने के लिए एक वसीला मोअस्सर हो जाते हैं। ख़ुदा तआला ने हज़रत मूसा को बनी-इस्राईल की निस्बत यूं फ़रमाया कि “तू रसूम और शरीअत की बातें उन्हें सिखला।” (ख़ुरूज 18:20) और हज़िकीएल नबी की मार्फ़त ये कहा कि “ऐ आदमजा़द तू दिल लगा और अपनी आँखों से देख और जो कुछ कि ख़ुदा के घर के क़वानीन व आईन की बाबत तुझसे कहता हूँ अपने कानों से सुन और घर की मदख़ल को और मुक़द्दस की सब मख़रजों का लिहाज़ कर।” (हज़िकीएल 44:5) चुनान्चे इन ज़वाबते पर अमल करना दीनदारी और ख़ुदा शनासी की एक ख़ास पहचान है। हज़रत ज़करीया और इलेशबा की दीनदारी की निस्बत कलाम में यूं आया है कि “वो दोनों ख़ुदा के हुज़ूर रास्तबाज़ और ख़ुदा के हुक्मों और क़वानीन पर बेऐब चलने वाले थे।” अगर कलीसिया की रसूम और क़वानीन इस अम्र में कारगुज़र ना होते तो वो हरगिज़ मुक़र्रर ना होते क्योंकि ज़ाहिर है कि ख़ुदा ने अपनी कलीसिया में कोई ऐसी बात जारी नहीं की है कि जिससे पाकी में और ख़ुदा की पहचान में तरक़्क़ी ना हो। ख़ुदा तआला ने इन्सान की हाजत से वाक़िफ़ होके अपनी मशीयत अज़ली में बनी-आदम को दीनदारी और अपनी पहचान में तरक़्क़ी करने के लिए ऐसी बातों का जारी और क़ायम करना मुनासिब जाना है कि जो इस मुक़द्दमे में कारगर हो। इस की तस्दीक़ कलीसिया के तजुर्बे से बख़ूबी होती है और उनके वसीले से वो ईमान पर नेकी और नेकी पर इर्फ़ान और इर्फ़ान पर परहेज़गारी और परहेज़गारी पर सब्र और सब्र पर दीनदारी पर बिरादाराना उल्फ़त और बिरादाराना उल्फ़त पर मुहब्बत में तरक़्क़ी हासिल करते और मसीह के क़द के पूरे अंदाज़े की तरफ़ को ऊद (लौटना, फिरना) करने के लिए हरकत पाते है यूं रूह पाक अपना काम बतदरीज पूरा करता है और दीनदार को ख़ुदा की बादशाही में दख़ल देने का ज़रीया हो जाता है। और यूं हमारे मुंजी की वो बातें रास्त साबित होती हैं जो (युहन्ना 16:14) आयत में आई हैं कि “वो मेरी चीज़ों में से लेगा और तुम्हें दिखलाएगा।”
रूहुल-क़ुद्दुस के काम की इल्लत-ग़ाई
इस सिलसिले और इर्तिबात (मेल, मिलाप) और कुल मुताल्लिक़ात की जो बवसीला रूह पाक के ज़हूर में आतीं और मुमिद हयात हो जाती हैं। इल्लत-ए-ग़ाई ये है कि वो हमको मसीह में मुतवस्सिल कर देती हैं अगर इन सबकी इल्लत-ए-ग़ाई (मक़्सद) ये ना हो तो उन वसीलात से क्या हासिल हो सकता है कि हम बाप के पास सिर्फ बेटे के वसीले से रसाई पैदा करते हैं और बवसीला रूह पाक बतदरीज मसीह में क़ायम किए जाते हैं मसीह ने अपने बाप से अपने शागिर्दों के लिए और अपने ईमानदारों के हक़ में ये दुआ मांगी कि “वो सब एक हो जैसा कि तू ऐ बाप मुझमें और मैं तुझमें कि वो भी हम में एक हो और ऐ बाप मैं चाहता हूँ कि वो भी जिन्हें तूने मुझे बख़्शा है जहां मैं हूँ मेरे साथ हो ताकि वो मेरे जलाल को जो तू ने मुझे बख़्शा है देखें।” (युहन्ना 16:21-24) अब कुल इंतिज़ाम इंजीली का मक़्सद ख़ास यही है कि दीनदार मसीह में क़ायम होके हयात-ए-अबदी के वारिस हों। मसीह ने इस दुनिया से अपने विदा होते वक़्त बाप से रूह पाक के लिए दरख़्वास्त की और उस को अपना क़ाइम मक़ाम इस आलम अस्फ़ल में बनाया तो अब मैं पूछता हूँ कि अगर ये रूह मसीह की बातों में से ले के हमको ना सिखलाए और इस में मुतवस्सिल करने के लिए हमारी मदद ना करे तो इस में मसीह के साथ मुताबिक़त ना होगी।
और जब मुताबिक़त नहीं तो इल्लत-ए-ग़ाई क्योंकर बख़रीत अंजाम को पहुंचेगी बल्कि एक अम्र मुहाल हो जाएगी। ज़ाहिर है कि तस्लीस के अक़ानीम सलासा अपना अपना काम बाहम इत्तिफ़ाक़ व इत्तिहाद और इत्तिसाल के साथ करते हैं। पस जब बाप और बेटा अपना काम करें तो रूहुल-क़ुद्दुस भी अपना काम करने से बाज़ नहीं रह सकता है। और अगर रूह पाक अपना काम ईमानदार में कामिल करे, तो मुम्किन नहीं है कि सिवा मसीह में मुतवस्सिल करा देने के और कोई नतीजा इस से दस्तयाब हो सके क्योंकि वो सिर्फ़ मसीह की बुजु़र्गी करने के लिए इस दुनिया में इंतिहाए आलम तक के लिए रखा गया है। चुनान्चे रसूल फ़रमाते हैं कि वो रूह हमारी कमज़ोरीयों में हमारी मदद करता और हमें अब्बा यानी बाप कह के पुकारने की ताक़त देता है इस कलाम की माहीयत (असलियत) को हम ज़बूर के इल्हामी मोअल्लिफ़ की इस दुआ से जो (ज़बूर 51:11) आयत में आई है बख़ूबी समझ सकते हैं। यानी अपनी रूह पाक को मुझसे निकाल। उस की दुआ की यही वजह थी कि उनको ये पहचान हासिल थी कि फ़ज़्ल में क़ायम रहने का ये एक बे-ख़ता वसीला है। इसलिए मंशा के मुताबिक़ रसूल ने भी मसीहियों को ये नसीहत की है कि रूह को मत बुझाओ। (थस्लीनकीयों 5:19)
हासिल कलाम
हासिल कलाम ये है कि रूहुल-क़ुद्दुस के कुल काम की इल्लत-ए-ग़ाई ये है कि हमको ईमान व फ़ज़्ल में व कायम कर के मसीह में मुतवस्सिल करे और यूं उस की मौत और जी उठने के फ़वाइद में शिरकत कुल्ली बख़्शे और हमको ख़ुदा के फ़र्ज़ंद बनाए यानी ख़ुलासा ये है कि इस मख़लिसी में जो मसीह ने गुनाहगारों के लिए ख़रीदी है हम रूहुल-क़ुद्दुस के वसीले से शिर्कत हासिल करते हैं और वो यूं अमल में आता है, कि रूह पाक हम में ईमान पैदा करता है। और उस के वसीले से हमारे दिल को मसीह की पहचान में रोशन कर के हमारे मीलान को ऐसा नव पैदा बनाता है कि हम दिल व जान से मसीह को अपनी नजात के लिए जैसा कि वो इंजील में पेश किया गया है क़ुबूल करते हैं और यूं रूह के काम की मदद से मसीह के साथ गुनाहों में मर के और उस के साथ रास्तबाज़ी के लिए ज़िंदा होकर अबदी सलामती को हासिल करते हैं। काश ख़ुदा सारे गुनाहगारों की हिदायत करे कि उस रूह पाक के लिए इल्तिजा कर के उस के ज़रीये से मसीह की नजात में शिर्कत हासिल करें और ख़ुदा के फ़रज़न्दों की आज़ादी में मीरास पायें।
नज़्म ईसा की शान में
जज़ाकल्लाह ये ख़ुश-ख़बरी मुझे जिसने सुनाई है।
मसीहा के ही ख़ून से सारे इस्याँ की सफ़ाई है।
हुआ जिसके नगीन दिल पे कुंदा नाम ईसा का
वहां शैतान से मलऊन की फिर कब रसाई है।
बशर क्या है चुने ईसा को अपने वास्ते वो ख़ुद
मसीही जो हुआ ये फ़ज़्ल हक़ की राहनुमाई है।
मिला विरसा में हम सबको गुना है बाप दादों से
यही देखो हमारे बाबा आदम की कमाई है
हज़ारों शुक्र ईसा के उठाया बार इस्याँ का
मुबारक हो तुम्हें, लोगों, मसीहा से रिहाई है
तू ही सच्चा मुंजी है, तू इकलौता ख़ुदा का है
मए ख़ोरसन्दी हक़, तू ही ने हमको पिलाई है
मुबारक फिर मुबारक फिर, मुबारक नाम हो तेरा
दी अपनी जान तूने और हमारी जान बचाई है।
उसी की बंदगी लारेब है आज़ादगी यारो
हमारी रूह तो उसने गु़लामी से छुड़ाई है।
कुचल डालूँगा शैतान, तुझे फ़ज़्ल मसीहा से
नहीं तू जानता शहबाज़ ईसा का सिपाही है
तमाम शुद