पहला लैक्चर : सच्चे ख़ुदा की सही शनाख़्त की ज़रूरत
तम्हीद
भाईयों मैं एक आजिज़ और कम इस्तिताअत शख़्स हूँ। मैं कुछ अर्से के लिए फिर 20 बरस के बाद पंजाब से इस शहर आगरा में आ गया हूँ।
पहले जब मैं यहां था तब मैं मुसलमान था मगर मेरे ख़यालात में एक बड़ी तब्दीली वाक़े’ हुई जिसके सबब से अब मैं दस बरस से मसीही हूँ।
मेरा इरादा है कि गाहे-बा-गाहे इस मुक़ाम पर ख़ुदा-शनासी के मुत’अल्लिक़ चंद बातें अर्ज़ करूँ लेकिन ना तो मुबाहिसे के तौर पर और ना तअन व तशनी के तौर पर (क्योंकि मुद्दत हुई कि मैंने मुबाहिसा से किनारा-कशी इख़्तियार करली है इसलिए कि इस के मुत’अल्लिक़ मेरी तरफ़ से जो कुछ लिखा गया है वो काफ़ी है) सिर्फ याद दहानी और इज़्हार ख़यालात के तौर पर अर्ज़ करना चाहता हूँ जिससे उम्मीद है कि मुझे भी और सामईन को भी रुहानी फ़ायदा हासिल होगा।
सही शनाख़्त की सबको बड़ी ज़रूरत है
दुनिया में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो इस ज़रूरत से कमा-हक़्क़ा वाक़िफ़ हों अगरचे ज़बान से तो सब के सब इस ज़रूरत का इक़रार करते हैं लेकिन अपने तर्ज़-ए-'अमल से ये ज़ाहिर करते हैं कि वो इस से अब तक नावाक़िफ़ हैं क्योंकि उनकी सारी कोशिश नफ़्स पर्वरी, ऐश-तलबी व इशरत नवाज़ी और जल्ब-ए-मंफ़'अत में सिर्फ होती है। जब ख़ुदा-शनासी के मुत’अल्लिक़ उनसे कहा जाता है कि तो अदीम-उल-फुर्सती का उज़्र पेश करते हैं जिससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि वो इस ज़रूरत से अब तक नावाक़िफ़ हैं।
मैंने इस बह्स को ख़ुदा की हस्ती के सबूत से शुरू नहीं किया क्योंकि ख़ुदा की हस्ती तो अक़्लन व नक़्लन सबको मुसल्लम है ख़्वाह वो मसीही हो या मुसलमान, यहूदी हो या हिंदू किसी को इस से इन्कार नहीं है। ताहम ख़ुदा की हस्ती के मुत’अल्लिक़ बतरीक़ इख़्तिसार इस क़द्र लिखना काफ़ी है कि :-
(2) इन्सानी ज़मीर भी ख़ुदा की हस्ती पर गवाही देता है ख़ल्वत में और जलवत में क़ादिर-ए-मुतलक़ की हस्ती का दबदबा इन्सानी ज़मीर पर नुमायां नज़र आता है।
(3) इस सतह ज़मीन पर तमाम बनी नू’अ इन्सान की मुख़्तलिफ़ शाख़ें किसी ना किसी माअबूद की परस्तिश करती हैं जिससे ख़ुदा की हस्ती साफ़ साबित होती है।
हाँ बा’ज़ ऐसे भी हैं जो उस की हस्ती का इन्कार करते हैं लेकिन ऐसा कम्बख़्त इन्सान बहुत ही कम-नज़र आता है जिसकी तर्दीद में तमाम मज़ाहिब के उलमा अपने ज़बरदस्त दलाईल के साथ हर वक़्त तैयार रहते हैं।
इस पर भी अगर इस मुन्किर की अंदरूनी हालत पर ग़ौर किया जाये तो मालूम हो सकता है कि अगरचे वो अपने ख़यालात के एतबार से मुन्किर मालूम होता है मगर उस की ज़मीर में ख़ुदा की हस्ती का सबूत नुमायां तौर पर महसूस होता है। लेकिन अपनी ख़्वाहिशात नफ़्सानी को पूरा करने की ग़र्ज़ से अपने आपको धोका देकर ख़ुदा की हस्ती से इन्कार करता है और बतौर ख़ुद समझने लगता है कि मेरे अफ़’आल का कोई बाज़पुर्स करने वाला नहीं।
ऐसे नफ़रती शख़्स की बातों से वो कौनसा दाना है जो मौजूदात और ज़मीर की इस संजीदा गवाही को छोड़कर और अपने ज़मीर का ख़ून करके अपने ख़ालिक़ की हस्ती का इन्कार करे।
सवाल : क्या झूटे ख़ुदा भी कहीं मौजूद हैं?
जवाब : फ़िल-हक़ीक़त तो कहीं मौजूद नहीं लेकिन अक्सरों ने फ़िक्र की ग़लती के सबब से अपने हाथों से या अपने ख़यालों से अपने ज़हनों या अपनी इबादत-गाहों में फ़र्ज़ी या ज़हनी ख़ुदा बना रखे हैं और अपनी रूहों को उनके सपुर्द करके बड़ी ख़तरनाक हालत में पड़े हैं। और बा’ज़ ऐसे भी हैं जो सच्चे ख़ुदा की हस्ती से किसी क़द्र वाक़िफ़ तो हैं लेकिन सही शनाख़्त की कोताही के सबब से क़ुर्बत इलाही से महरूम हैं।
इसलिए हम कहते हैं कि सच्चे ख़ुदा की सही शनाख़्त की सबको निहायत ज़रूरत है।
अगरचे इस ज़रूरत के इस्बात पर बहुत सी दलीलें पेश की जा सकती हैं लेकिन इस वक़्त सिर्फ पाँच बातें पेश करता हूँ।
यक़ीनन तमाम मौजूदात सच्चे ख़ुदा की मिल्कियत है। और हम ज़ी-रूह और ज़ी अक़्ल मौजूदात में शामिल हैं। लिहाज़ा अज़बस ज़रूरी है कि सच्चा ख़ुदा अपनी शनाख़्त के वसीले से हमारी रूहों में सुकूनत करे। वर्ना हम बाग़ी होके हलाकत के फ़रज़न्दों में शामिल होंगे।
ये हम पर फ़र्ज़ है कि ख़ुदा की फ़रमांबर्दारी और इता’अत करें मगर ये इता’अत और फ़रमांबर्दारी हो नहीं सकती जब तक कि ख़ुदा को सही तौर से ना पहचानें। आक़ा की ख़िदमत वही नौकर कर सकता है जो अपने आक़ा की इज़्ज़त और मेअराज और इरादे से वाक़िफ़ है।
ये साफ़ ज़ाहिर है कि ये दुनिया गुज़िश्तनी और गज़ाशतनी है। इन्सानी रूह किसी किसी वक़्त इस के छोड़ने पर मज्बूर होगी और मौत का मज़ा चख लेगी पस इस ख़तरनाक हालत में क्या करे। पाओ पसार के मर जाये या عروة الوثقیٰको पकड़े पस सच्चे ख़ुदा की सही शनाख़्त के सिवा वो कौनसी चीज़ ज़मीन व आस्मान में है जिसको अज़रुए अक़्ल हम थाम लें।
अगरचे हम में से बा’ज़ की अक़्ल तालीम उलूम और इज्तिमा ख़यालात सलफ़ और क़दरे वक़ूफ़ हालात दुनियावी की वजह से किसी क़द्र रोशन है लेकिन दिल बिल्कुल काले हैं।
क्योंकि सब ख़्वाहिशें और इरादे दिलों में उठते हैं और आज़ा के ज़रीये ज़ाहिर हो जाते हैं और ख़ुद हमारी ज़मीर गवाही देती है कि हमारे सब हरकात और सकनात और ख़यालात दुरुस्त ही नहीं हैं अगरचे कुछ-कुछ दुरुस्त भी नज़र आए मगर ज़्यादातर हिस्सा बुराई का हमसे ज़ाहिर होता है और ये सबूत है इस बात का कि हमारे दिल तारीक हैं।
और ये भी ज़ाहिर है कि अक़्ली रोशनी से ना कभी दिल रोशन हुआ है और ना हो सकता है। पस दिल की रोशनी की बड़ी ज़रूरत है लेकिन वो कहाँ से आए? मौजूदात की मा’र्फ़त सिर्फ़ अक़्ल में कुछ रोशनी पैदा होती है ना दिल में चुनान्चे ये बात दुनिया के ‘उक़ला (अक़्लमंदों) की तहरीर व तक़रीर और चाल-चलन से साबित है। तो भी दुनिया के लोगों में से चंद ऐसे भी हैं जिनके दिल ज़रूर रोशन हैं और अगरचे उनमें माद्दी रोशनी नहीं है मगर ख़ुदा-शनासी से भरे हुए नज़र आते हैं जिसका नतीजा ये है कि सिर्फ ख़ुदा-शनासी से दिल रोशन होता है पस दिल की रोशनी हासिल करने के लिए ताकि हमारे क़दम सलामती की राह पर चलें ख़ुदा-शनासी की बड़ी और निहायत ज़रूरत मालूम होती है।
यहां तक कि अगर माद्दी उलूम की रोशनी हमारे अंदर ना हो तो हमारा चंदाँ नुक़्सान नहीं है लेकिन ख़ुदा-शनासी की रोशनी अगर हमारे दिलों में ना आए तो ज़रूर हम हलाक होंगे। लेकिन अफ़्सोस है कि जिसकी बड़ी ज़रूरत है उस पर लोग कम तवज्जोह करते हैं।
ख़ुशी और ग़म और दुनियावी तग़य्युरात के देखने से और हम पर वक़्तन फ़-वक़्तन इन हालात के तारी होने से हमारे दिलों में ऊपर हमारी अक़्लों में भी किस क़द्र हैरानी और बेक़रारी पैदा होती है। दुनियावी ख़ुश-वक़्ती की हालत में हम बच्चों की मानिंद कैसे बेहल जाते हैं और मसाइब के वक़्त कैसी बे-क़रारियाँ ज़ाहिर होती हैं। ग़र्ज़ दुनिया के दुख-सुख की मौजों में हमारी कश्ती कैसी डांवां डोल चलती है लेकिन ख़ुदा-शनास लोगों को जब हम देखते हैं तो वो इन हालात यानी दुनिया के दुख-सुख में ऐसे साबित-क़दम और पुर तसल्ली नज़र आते हैं गोया वो एक दूसरे ही क़िस्म के लोग हैं। ना तो दुनियावी ख़ुशी में ख़ुश हो जाते हैं और ना दुखों में बेक़रार नज़र आते हैं। पस ये अजीब ने’अमत उन्हें कहाँ से हासिल है? सच्चे ख़ुदा की सही शनाख़्त से।
(1) ख़ुदा की सही शनाख़्त की बड़ी ज़रूरत है और बग़ैर इसके साफ़ हलाकत नज़र आती है।
(2) सच्चे ख़ुदा की सही शनाख़्त एक मोअस्सर चीज़ है जो दिल को रोशन करती है और इत्मीनान क़ल्बी इस से हासिल होता है।
(3) बग़ैर इस शनाख़्त के ना तो ख़ुदा के हुक़ूक़ हमसे अदा हो सकते हैं और ना बंदों के हुक़ूक़। और सलामती की राह पर हम किसी तरह नहीं चल सकते।
एक बड़ी ग़लती और है जो हलाकत का बाइस है वो ये है कि अक्सर अहले इस्लाम यूं कहते हैं कि शनाख़्त इलाही हमें क़ुर्आन व हदीस से हासिल हो गई है और हनूद कहते हैं कि शास्त्रों से हासिल हो गई है और मसीही कहते हैं कि हमें बाइबल से हासिल हो गई है और इसलिए हम किसी और की बात इस बारे में नहीं सुनते हैं। नहीं ये बेजा बात है हमें ज़रूर सबकी बातें ख़ुदा-शनासी के बारे में सुनना वाजिब है इस में ज़रूर तरक़्क़ी होगी अगर हमारे ख़यालात फ़ासिद हैं तो ज़रूर क़वी ख़यालात उन्हें उड़ा देंगे और ये तो अच्छा है कि बातिल ख़यालात उड़ जाएं और अगर हमारे ख़यालात क़वी हैं तो दूसरों की बात सुनने से और भी ज़्यादा मज़्बूत होंगे और क़ाबिल-ए-एतिमाद ठहरेंगे ना सुनना या तो जहल मुरक्कब की वजह से है या इसलिए कि दूसरे के ख़यालात से डरते हैं क्योंकि वो क़वी नज़र आते हैं। इस हालत में बातिल ख़यालात को दबाकर बैठना ख़ुदकुशी का मुर्तक़िब होना है और ये कहना कि वो हीच और पोच बकता है ये मग़रूरी की बात है जो तारीक दिल से निकलती है ख़ुदा हम सबको तौफ़ीक़ दे कि ख़ुदा-शनासी पर मुतवज्जोह हों। मसीह के वसीले से आमीन फ़क़त।
दूसरा लैक्चर : ख़ुदा-शनासी का वसीला
गुज़श्ता लैक्चर में इस शनाख़्त की ज़रूरत उन पाँच बातों से जो इस में मज़्कूर हैं दिखलाई गई थी लेकिन ज़्यादा ग़ौर करने से ये भी मालूम होता है कि ये ज़रूरत इन्सान की रूह में मर्कूज़ है और ये रूह की एक ख़्वाहिश या इक़तिज़ा (ताक़ाज़ा) है।
अगरचे इस ख़्वाहिश को जो सब की रूहों में मौजूद है। बा’ज़ों ने दुनियावी लज़ाईज़ के हुसूल में मसरूफ़ रखा है। तो भी बनी-आदम का एक अंबोह कसीर (भीड़) अपने रियाज़ात व मुजाहदात व ख़यालात से इस का सबूत देता है और हर दो फ़रीक़ की हालत का बग़ौर मु’आयना करना इस इलाही शनाख़्त की ज़रूरत को इन्सानी रूहों में मर्कूज़ दिखलाता है।
अगर कोई कहे कि दीवानों में और उन बच्चों में जो हैवानों के साथ जंगल में पलते हैं ख़ुदा का ख़याल भी नहीं है पस क्योंकर कुल बनी-आदम की रूह में इस का होना यक़ीन कर सकते हैं। जवाब ये है कि इन्सान जब तक इन्सानी दर्जे में है उस वक़्त तक ये ख़्वाहिश ज़रूर उस में पाई जाती है और जब वो अपने दर्जे से ख़ारिज हो कर हैवान के दर्जे में पहुंच जाता है तब उस में उस के हक़ीक़ी इक़तिज़ा (तक़ाज़े) की तलाश करना फ़ुज़ूल है। देखो अंधा आदमी देख नहीं सकता गूँगा बोल नहीं सकता बहरा सुन नहीं सकता लंगड़ा चल नहीं सकता बेवक़ूफ़ समझ नहीं सकता तो भी जो इन्सान सही व सालिम हैं उनमें ये सिफ़ात पाई जाती हैं पस बा’ज़ माज़ूरों के सबब से जिनसे ख़ासों की कुल्लियत में फ़र्क़ नहीं आ सकता है।
जब ये ज़रूरत रूह में जागज़ीन है तो इस की तक्मील भी मुम्किन होगी। क्योंकि जिसने रूह में ख़ुदा-शनासी की ख़्वाहिश रखी है वो इस ख़्वाहिश के पूरा करने पर भी क़ादिर है। वर्ना हकीम-उली अल-इत्लाक़ का फ़ेअले अबस ठहरेगा और ये मुहाल है।
देखो जिस्म में पैदा करने वाले ने जो ख़्वाहिशें रखी हैं मसलन कपड़े की ख़्वाहिश खाने पीने की ख़्वाहिश वग़ैरह उसी ने ये इंतिज़ाम भी किया है। कि सबको ख़ुराक और पोशाक बतौर मुनासिब पहुंचे। इसी तरह रूह में जो जो ख़्वाहिशें उसने पैदा की हैं क्या उनके इंतिज़ाम पर वो क़ादिर ना होगा ज़रूर होगा रूह की ख़्वाहिशें भी वो पूरी करेगा और करता है।
पस ये ख़्वाहिश कि मैं अपने ख़ुदा को पहचानूं लोगों में ज़रूरी पाई जाती है लेकिन इस की तक्मील के तरीक़े मुख़्तलिफ़ आदमियों के ईजाद किए हुए मालूम होते हैं। मसलन :-
बहुत से लोग हैं जो ख़ुदा-शनासी के लिए तहसील उलूम की तरफ़ ज़्यादा मुतवज्जोह होते हैं लेकिन इस से बजुज़ इस के कि अक़्ल ज़्यादा रोशन हो जाए और कोई ख़ातिर-ख़्वाह नतीजा नहीं निकल सकता है और बहुत से ऐसे हैं जो बुज़ुर्गों के पास जाते हैं ताकि उनसे ख़ुदा-शनासी सीखें चुनान्चे वो उन्हें रियाज़तें और मुजाहिदात और ज़िक्र फ़िक्र और कुछ दीगर वज़ाइफ़ सिखलाते हैं लेकिन इनसे बजुज़ नफ़्स-कुशी और वहम चीज़े दीगर हासिल नहीं होती।
और बा’ज़ ऐसे हैं जो क़ियासात पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं मगर ये सिर्फ़ अक़्ली बर्गश्तगी है जिससे या तो यास या दीवानगी या सर असमीगी पैदा होती है और रूह की तिश्नगी हरगिज़ नहीं बुझती। जिन्हों ने इन सब बातों का तजुर्बा किया है वो जानते हैं कि ये सब बातें सच हैं और यूँही हैं।
हमारे ज़माने में अब अक्सर लोग दलाईल पर बहुत ज़ोर देते हैं पहले इस मुल्क में रियाज़त पर बहुत ज़ोर था मगर जब से इल्म में तरक़्क़ी हुई और बाइबल आई उस वक़्त से ये हाल हुआ है कि तसादुम ख़यालात इल्मिया और इल्हामियाह के सबब अक्सर लोग दलाईल अक़्लिय्या के ज़ेरे साय पनाह लेने को दौड़ते हैं और अक़्ल को सहीह शनाख्त का काफ़ी वसीला जानते हैं जिससे बड़ी गड़बड़ी मची है।
हम ये कहते हैं कि अक़्ल ख़ुदा-शनासी का एक वसीला ज़रूर है क्योंकि वो इन्सान में मूजिब शराफ़त और मौजिब-ए-तक्लीफ़ शरई है बल्कि एक बातिनी आँख से मगर वो कामिल और काफ़ी वसीला हरगिज़ नहीं है पस हम ना इसे रद्द करते हैं और ना सिर्फ इस की हिदायत ही को काफ़ी जानते हैं जिसका सबब ये है कि हमारे सब आज़ा और हवास अगरचे हमारी इस ज़िंदगी के रफ़ा हाजात के लिए पैदा किए गए हैं मगर बैरूनी ताक़त के बग़ैर वो काफ़ी नहीं हैं। मसलन जब तक बैरूनी ग़िज़ा से ताक़त आज़ा में ना आए वो सब बेकार हैं। आँख अगरचे देखने का आला है लेकिन बैरूनी रोशनी की सख़्त मुहताज है रूह अगरचे बदन को ज़िंदा रखती है लेकिन सरचश्मा हयात से क़ुव्वत हासिल करने की मुहताज है। ख़यालात अगरचे जोलानी दिखलाते हैं मगर ग़िज़ाई और आला ताक़त से बगैरह वो कुछ नहीं कर सकते।
तो क्या सिर्फ अक़्ल ही ऐसा जोहर है जिसको बैरूनी ताक़त के बग़ैर काफ़ी समझा जाये और वो तो घटती भी है और बढ़ती भी है और अपने फ़ैसलों की हमेशा तर्मीम भी किया करती है और सारे इख़्तिलाफ़ की बुनियाद भी यही है पस अक़्ल किस तरह ख़ुदा-शनासी का काफ़ी वसीला हो सकती है इसलिए हम कहते हैं कि अक़्ल उम्दा चीज़ तो है मगर काफ़ी नहीं है पस इसी पर भरोसा करके बैठे रहना कोताह-अंदेश आदमी का काम है जो आख़िर में पछताएगा।
देखिए तो कि अक़्ल हमारी बा’ज़ ज़रूरियात के दर्याफ़्त करने में कैसी लाचार और बेबस हो जाती है। मसलन इन्सान की इब्तिदाई हालत का बयान कुछ नहीं बतला सकती कि इन्सान क्योंकर पैदा हुआ। इसी तरह हमारी इंतिहा का हाल नहीं बतला सकती कि हम क्या होंगे। वो तो इस शरी’अत के समझाने में भी ग़लती करती है जो हमारे दिलों पर लिखी हुई है। मसलन हिंदूओं की अक़्ल के एतबार से जो बातें अच्छी मालूम होती हैं दूसरों की अक़्ल के एतबार से वही बातें बुरी मालूम होती हैं। यहां तक कि ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात का बयान भी तसल्ली बख़्श नहीं कर सकती अगरचे ख़ुदा की हस्ती पर गवाही देती है। लेकिन ये गवाही हमारी तसल्ली के लिए काफ़ी नहीं हो सकती है।
ये चार बातें यानी इन्सान की इब्तिदा और इंतिहा। नेकी और बदी ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात ऐसी हैं कि जब तक हमें तसल्ली बख़्श तौर पर ना समझाई जाएं तब तक हमारी रूहों की प्यास बुझ नहीं सकती और ये बात अक़्ल से ना-मुम्किन है इसलिए हम कहते हैं कि सिर्फ अक़्ल से ना ख़ुद-शनासी हमें हासिल हो सकती है और ना ख़ुदा-शनासी।
पस जब अक़्ल की ये कैफ़ीयत है कि उमूर बाला के मुत’अल्लिक़ कुछ नहीं बतला सकती है तो फिर बतलाओ कि अक्तज़ाए शनाख़्त इलाही जिसकी बड़ी ज़रूरत है किस तरह तक्मील तक पहुंच सकेगा।
क्या हमारा पैदा करने वाला हमारी इस ज़रूरत और इस लाचारी से वाक़िफ़ नहीं है या इस की तक्मील पर वो क़ादिर नहीं है या ये ख़्वाहिश बेजा है और सिर्फ वहम से हम में पैदा हो गई है? हरगिज़ नहीं।
बेशक ख़ुदा ने ये ख़्वाहिश हमारे दिलों में रखी है और वो ख़ूब जानता है कि हमारे दिलों में ये ख़्वाहिश बेचैनी का बाइस होगी और हम इस को पूरा कर नहीं सकते हैं हम तो जिस्मानी ख़्वाहिशों यानी भूक प्यास वग़ैरह को भी पूरा नहीं कर सकते हैं चह जायके कि इस आला ख़्वाहिश को पूरा कर सकें।
हमारी क्या ताक़त है कि क़हत सालों में वबाई बीमारियों में जबकि लाखों इन्सान मर जाते हैं अपनी अक़्ल से और अपने इंतिज़ाम से ख़ुराक पैदा कर सकें या उन अमराज़ को दफ़ा’ कर सकें। जब जिस्मानी ख़्वाहिशों के जिस्मानी तक्मील के दर्मियान एक ग़ैबी ताक़त मसरूफ़ नज़र आई है तो रुहानी ख़्वाहिशों की तक्मील के लिए ग़ैबी और आस्मानी मदद क्योंकर काम कर सकती है। शनाख़्त इलाही के लिए ख़ुदा से मदद आनी चाहिए और ये मदद वही है जिसका नाम इल्हाम है।
पस शनाख़्त इलाही के लिए इल्हाम की बेहद ज़रूरत है इस तौर पर कि अक़्ल जो एक नाकाफ़ी वसीला है और इल्हाम से क़ुव्वत पाके पूरा और काफ़ी वसीला बन जाये।
आँख जिस्मानी चीज़ों के देखने का वसीला है मगर सूरज से रोशनी हासिल करके। इसी तरह अक़्ल ख़ुदा-शनासी और ख़ुद-शनासी का वसीला है मगर आफ़्ताब सदाक़त यानी इलाही किरनों या इल्हाम से रोशनी हासिल करके इसी तरह रूह की ख़्वाहिश भी पूरी हो सकती है लेकिन इल्हाम इलाही की मदद से।
अब मैं साफ़ कहता हूँ कि जिस तरह हमारी रूह में ख़ुदा-शनासी का इक़तिज़ा (तक़ाज़ा) मौजूद है उसी तरह हमारे ख़ालिक़ की उलूहियत में इस इक़तिज़ा (तक़ाज़े) की तक्मील की उम्मीद होनी चाहिए।
अगर हम अपनी परवरिश और अपने दीगर हालात पर ग़ौर करें तो हमें ख़ूब मालूम हो सकता है कि हमेशा हमारी कमज़ोरी और लाचारी में उस की क़ौम और उस की ताक़त और उस की हिक्मत और उस की मसबब अल-अस्याबी हमारे शामिल-ए-हाल रही है तो क्या अब हम ऐसे हो गए कि इल्हाम की ज़रूरत से बेनियाज़ हो गए हालाँकि वही अक़्ल जो हमारी ज़रूरियात मज़्कूर बाला में लाचार है अब भी हम मौजूद है पस ये बड़ी मग़रूरी और बड़ी नादानी की बात है कि इन्सान इल्हाम की तरफ़ से बेपरवाह हो और सिर्फ अपनी अक़्ल पर तकिया करके हलाक हो।
जो शख़्स ये कहता है कि इल्हाम की ज़रूरत नहीं है जैसे कि ब्रहमो समाजी कहते हैं गोया वो ये कहता है कि आँख के लिए आफ़्ताब की ज़रूरत नहीं या ज़िंदगी के लिए हवा की ज़रूरत नहीं है।
शनाख़्त इलाही के लिए अक़्ल-ए-इंसानी को इल्हाम इलाही से मुनव्वर होने की बड़ी ज़रूरत है बग़ैर इस के इर्फ़ान इलाही ना-मुम्किन है। नबी के इस क़ौल को याद कीजिए जहां लिखा है कि “तेरे सब फ़र्ज़न्द ख़ुदा से तालीम पाएंगे।” ख़ुदा से तालीम पाना यही है कि हमारी अक़्लें इल्हाम या अनवार इलाही से मुनव्वर हो कर ख़ुदा-शनासी हासिल करें।
अब तक इस बात का ज़िक्र नहीं हुआ है कि सही इल्हाम किस किताब में है अगरचे मैं ख़ूब मैं जानता हूँ कि सिर्फ बाइबल में सही इल्हाम है लेकिन इस का ज़िक्र फिर आएगा इस वक़्त इस अम्र का ज़िक्र है शनाख़्त इलाही का वसीला अक़्ल मए इल्हाम है ना तन्हा अक़्ल और तन्हा इल्हाम क्योंकि जब हमारी आँखें खुली हों और सूरज भी निकला हो तब हम अच्छी तरह देख सकते हैं और जब आँखें ना हों और रात हो तो अंधेरे में टटोलते फिरेंगे इसलिए अक़्ल व इल्हाम दोनों की ज़रूरत है।
और ये हिदायत अक़्ल ही की है कि इन्सान इल्हाम का मुहताज है और बंदों में अख़ज़ करने का इक़तिज़ा और ख़ुदा में अता करने का इक़तिज़ा मौजूद है पस ख़ुदा-शनासी के लिए सही इल्हाम की तलाश सब पर वाजिब है जो कोई इस तरीक़े से हट जाता है वो अबद तक भलाई का मुँह ना देखे सकेगा।
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तीसरा लैक्चर : इल्हाम और ख़ुदा शनासी
गुज़श्ता लेक्चर में इस बात का बयान हुआ था कि इर्फ़ान इलाही के इक़्तिज़ा की तक्मील जो हर एक की रूह में मौजूद है सिर्फ अक़्ल से नहीं हो सकती बल्कि इस की तक्मील ख़ालिक़ से होती है और इसलिए हम इल्हाम के मुहताज हैं ताकि अक़्ल-ए-इंसानी इलाही नूर से मुनव्वर हो कर अपने ख़ालिक़ को अच्छे और सच्चे तौर पर जान सके इस पर अक्सर ये एतराज़ करते हैं कि जो बातें अक़्ल से दर्याफ़्त नहीं हो सकती हैं वो इल्हाम से भी दर्याफ़्त नहीं हो सकती हैं।
दर-हक़ीक़त ये एतराज़ बेतवज्जोही की वजह से पैदा होता है। शायद मो’तरिज़ ने ये समझा कि इल्हाम एक ऐसी चीज़ है जिससे ला-इंतिहा मा’र्फ़त हासिल हो सकती है और हर एक शै की हक़ीक़त और दुनिया व माफ़ीहा के रमूज़ इस के वसीले से इस तरह होते हैं जिस तरह बा’ज़ बातें अक़्ल से हल होती हैं।
इसलिए मुनासिब मालूम हुआ कि ये तीसरा लैक्चर इल्हाम के मुत’अल्लिक़ दिया जाये कि इल्हाम के लिए भी एक हद है जहां तक इस हद का ताल्लुक़ है वहां तक वो ला-रैब (बेशक) हमारी रहबरी करता है। और जो बातें इस की हद में दाख़िल नहीं वो उनसे ता’र्रुज़ नहीं करता। इल्हाम की हद अज़रूए अक़्ल अज़ क़रार-ज़ेल है :-
अक़्ल के इस नातिक़ हुक्म को हमेशा याद रखना चाहिए कि इस बेमिस्ल और लाशरीक ख़ुदा की ना इल्म में ना क़ुद्रत में, और ना किसी और बात में कोई मख़्लूक़ हरगिज़ बराबरी नहीं कर सकता है क्योंकि ये बात नामुम्किन और मुहाल है।
मा’र्फ़त का लुब्बे-लुबाब ये है कि ख़ुदा की निस्बत हमारे ज़हन में सही ख़यालात पैदा हूँ और हमारी हालत और कैफियत हम पर आईना हो जिससे हमारी रूहों में ताज़गी और तसल्ली पैदा हो जाए अब ज़ाहिर है कि वो सब ख़यालात ख़्वाह अक़्ल की वसातत से पैदा हो जाएं या ख़ारिजी दलाईल हमें इनकी तस्लीम पर मज्बूर करें हर हालत में इल्हाम इन्सान को अक़्ल की निस्बत कुछ ज़्यादा रोशनी और कुछ ज़्यादा इल्म और कुछ ज़्यादा इज़्ज़त बख़्शता है। वहां ख़ुदा की मानिंद हमें आलिम हक़ाइक़ नहीं बना सकता ना ग़ैर-मुम्किनात को हमारे लिए मुम्किनात कह सकता है।
उन्हें सफ़ाई के साथ बतलाता है
मसलन ख़ुदा की क़ुद्रत और हिक्मत और उस के इकराम और जिन को हम इस दुनिया में अक़्ल की आँख से देखते हैं इस क़द्र साफ़ और वाज़ेह मालूम नहीं होते हैं जिस क़द्र इल्हाम इलाही के ज़रिये से वो रोशन-तर और शफ़्फ़ाफ़-तर मालूम होते हैं यही वजह है कि इन लोगों का दिल जो मह्ज़ अक़्ल के पैरौ (पैरोकार) होते हैं ख़ुदा की हिक्मत और क़ुद्रत से ज़्यादा मुतास्सिर नहीं होता है जिस क़द्र कि इल्हाम के पैरों (पैरोकार) का दिल मुतास्सिर और मुतशक़्क़िर होता है।
इस के सिवा ख़ुदा की बहुत सी ऐसी अजीबो-गरीब क़ुदरतें और हिकमतें और बख़्शिशें हैं जो सिर्फ इल्हाम ही के ज़रीये से ज़ाहिर होती हैं और अक़्ल की वहां तक कभी रसाई नहीं होती है। मसलन नजात की हिक्मत और ख़ुदा की सोहबत और गुनाहों की मग़्फिरत और रुहानी इनाम और दिलों की तब्दील और बरकात के फ़ैज़ान वग़ैरह ज़ालिक ऐसे उमूर हैं जहां तक अक़्ल की रसाई मुम्किन नहीं लेकिन इल्हाम से कुछ भी बईद नहीं है।
दोम : ये कि इस इलाही शरी’अत को जो दिलों पर मुनक़्क़श (नक़्श) है और जिसको अक़्ल ने धुंदला सा देखा था और इस के मतलब के समझने में गलतियां करके आदमियों को गुमराह किया था निहायत साफ़ और ग़ैर-मुबहम (यानी छिपे हुए) तौर पर बतलाता है कि दिली शरी’अत का क्या मतलब है इन्साफ़, रहम, पाकीज़गी, फ़ज़्ल, ख़ुश-अख़्लाक़ी और फ़िरोतनी वग़ैरह के क्या मा’नी हैं।
सोम : ये कि इल्हाम ने हमारी हालत को हम पर यहां तक ज़ाहिर किया है कि अब हम ख़ूब जानते हैं कि हम कैसी ख़्वाहिशात नफ़्सानी और मोहलिकात रुहानी में फंसे हुए हैं ये काम ना तो अक़्ल से हो सकता था और ना उसने किया। इल्हाम के वसीले से हम अपनी तमाम अंदरूनी और बैरूनी बीमारी और ख़तरों को सफ़ाई के साथ देख सकते हैं और उनके मुआलिजा और दफ़ईया के लिए उस के कलाम से इमदाद (मदद) ले सकते हैं। गोया कि इल्हाम एक शीशे का हौज़ है जिस पर हम वुज़ू करते हैं जहां हम अपने चेहरे के दाग़ को ख़ूब देख देखकर धोते हैं। या एक ख़ुर्दबीन है जो हमारी अक़्ल के हाथ आ गई है जिसके ज़रीये से बारीक से बारीक चीज़ को देख सकते है।
या जिनके मुत’अल्लिक़ तज़बज़ब रहती है
और ये इसलिए है कि पहले इल्हाम ने दो बातें हमें दिखला के हमारी अक़्लों को अपना गरवीदा बना लिया है जिनका इन्कार हमारी अक़्लें हरगिज़ नहीं कर सकतीं।
अव्वल ये कि इल्हाम ने उन उमूर अक़्लिय्या को जिनका ज़िक्र ऊपर हो गया है ज़्यादा साफ़ दिखला के हमें अपना बेहद मु’तक़िद (अक़ीदतमंद) बना लिया है दोम ये कि क़ुद्रत और हिक्मत इलाही के साथ ज़ाहिर हो कर हमें यक़ीन दिलाता है कि वो उस ख़ुदा की तरफ़ से है जिसको अक़्ल क़ादिर-ए-मुतलक़ और हकीम-अला अल-इत्लाक़ कहती है।
इसलिए इन दो ख़ारिजी दलीलों के सबब से जो कुछ इल्हाम बतलाता है अक़्ल मजबूरन उस को क़ुबूल कर लेती है। पस जो कुछ इल्हाम कहता है वो ज़रूर सच है क्योंकि इस की सच्चाई के बरख़िलाफ़ हमारे पास कोई मुस्तहकम दलील नहीं है लिहाज़ा जो कुछ वो कहता है उस का मानना हम पर फ़र्ज़ है या तख़्सीस इन उमूर के मुत’अल्लिक़ जिनका ताल्लुक़ ज़ात व सिफ़ात इलाही के साथ है क्योंकि इन उमूर के मुत’अल्लिक़ अक़्ल बिल्कुल गूंगी है पस ऐसे मुक़ामात में इल्हाम हमारी अक़्लों के लिए मिस्ल दूरबीन के होगा। यानी इल्हाम अक़्ल की हद में अक़्ल के लिए मिस्ल ख़ुर्दबीन के है और अक़्ल की हद के बाहर उस के लिए मिस्ल दूरबीन के होगा और पहले मुक़ाम में अक़्ल यूं गवाही देगी कि जो कुछ मैं धुँदला सा देखती थी अब इस ख़ुर्दबीन के वसीले से साफ़ देखती हूँ और दूसरे मुक़ाम में यूं बोलेगी कि अब मैं आईने में धुँदला सा याद रख़ती हूँ।
जो अक़्ल अपने दिखलाने और बतलाने में हरगिज़ नहीं बख़्श सकती थी इसलिए इन्सानी रूह अक़्ल की यावर ही के बावजूद भूकी और प्यासी रहती थी।
इल्हाम क्या बख़्शता है? वो ऐसे आला तासीरात रूह में पैदा करता है जो ग़लत और सिर्फ अक़्ली ख़यालात से कभी पैदा नहीं हो सकते हैं मसलन :-
बातिनी पाकीज़गी, ख़ुदा की हुज़ूरी, हक़ीक़ी तसल्ली, ज़िंदा ईमान और उम्मीद हक़ीक़ी ख़ुशी का बैयाना जो सही इर्फ़ान का पहला फल है। दिलावरी जो चर्ख़ कज रफ़्तार के दुख सुख की मौजों में अबदी सफ़र की बंदरगाह में हमारी मदद करे। पस इल्हाम यहां तक हमारी मदद कर सकता है और ये मदद हमारी हालत मौजूदा के लिए काफ़ी और वाफ़ी है इस से ज़्यादा तवक़्क़ो रखना तमअ (लालच) बे-जा है। हाँ इस ज़िंदगी के बाद हम बहुत कुछ देखेंगे लेकिन वहां भी ख़ुदा की मानिंद आलिम हक़ाइक़ हरगिज़ ना होंगे ख़्वाह कितना ही तक़र्रुब क्यों ना हासिल हो क्योंकि मख़्लूक़ ख़ालिक़ के बराबर हरगिज़ नहीं हो सकता।
जब इल्हाम की मदद की हद मालूम हो गई तो अब याद कीजिए कि वो पाँच बातें जो पहले लैक्चर में शनाख़्त इलाही की ज़रूरत दिखलाती हैं इल्हाम ही के वसीले से तक्मील पा सकती हैं।
मसलन
(1) ख़ुदा की शनाख़्त इस क़द्र इर्फ़ान के वसीले से हमारी रूहों में काफ़ी है।
(2) ख़ुदा की दुरुस्त इता’अत इस क़द्र शनाख़्त से हो सकती है।
(3) ख़तरनाक हालत में इस क़द्र शनाख़्त हमारे लिए عروة الوثقی ٰ है।
(4) दिल की रोशनी के लिए ये शनाख़्त एक काफ़ी चिराग़ है।
(5) ज़माने की रंगा-रंगी में सबात हासिल करने को ये शनाख़्त जो इल्हाम से पैदा होती है बस है।
अगर हम इल्हाम को क़ुबूल ना करें और सिर्फ अक़्ल की पैरवी को काफ़ी समझें तो यक़ीनन हम ऐसे उमूर से दो-चार होंगे जिनका अंजाम बजुज़ तुहमात और तख़य्युलात और यास व हिरमाँ के और कुछ ना होगा बक़ौल शायर कि :-
आसूदगी हर्फ़ी सत यहां है ना वहां है
लेकिन जिन्हों ने अक़्ल व इल्हाम से मा’र्फ़त हासिल की है वो लोग यहां मा’र्फ़त इलाही से आसूदा हैं और वहां सोहबत इलाही से कामिल आसूदगी में दाख़िल होंगे सय्यदना मसीह के वसीले से आमीन। फ़क़त
चौथा लैक्चर : इल्हाम की शनाख़्त
जब इल्हाम अक़्ल के साथ मा’र्फ़त इलाही का वसीला ठहरा तो अब ये दर्याफ़्त बाक़ी रह जाती है कि सही इल्हाम कहाँ है क्योंकि कई एक किताबें ऐसी हैं जिनकी निस्बत इल्हामी होने का दा’वा किया जाता है और चूँकि उनकी बा’ज़ तालीमें आपस में मुख़्तलिफ़ हैं लिहाज़ा इस अम्र का दर्याफ़्त करना अज़-बस ज़रूरी है कि इनमें से कौनसी किताब इल्हामी हो सकती है।
चूँकि दुनिया में फ़रेब और धोका भी बकस्रत नज़र आता है। इसलिए सही इल्हाम बड़ी फ़िक्र व गौर के बाद मालूम हो सकेगा। हर फ़िक्र भी सही नहीं होती है क्योंकि अहले किज़्ब और धोकेबाज़ और फ़रेबी लोग भी कुछ फ़िक्र रखते हैं पस तालिब हक़ को चाहिए कि पहले पूरी ताक़त फ़िक्री के साथ फ़िक्र की सूरत पर ग़ौर करे।
फ़िक्र करना और बात है और फ़िक्र की सूरत पर कि मैं किस तरह से फ़िक्र करता हूँ ग़ौर करना और बात है।
फ़िक्र की सेहत के लिए यही काफ़ी नहीं है कि अक़्ली या नक़्ली ख़यालात या गुज़श्ता वाक़ियात के मुक़द्दमात को ज़हन में तर्तीब देकर नतीजा अख़्ज़ करें बल्कि मुनासिब ये है कि हम उन ग़लतियों को ज़ेर-ए-नज़र रखें जो अक्सर मुक़द्दमात के तर्तीब देने में वाक़े’ होती हैं वर्ना मुक़द्दमात की तर्तीब से जो नतीजा निकलेगा वो ग़लत होगा और रूह के लिए बाइस-ए-हलाकत।
पस मंबा ख़यालात यानी हिस रुहानी का ख़ुलूस इस मु’आमले में तलाश करना वाजिब है ताकि इस में तास्सुब और हिमायत और नफ़्सानी अग़राज़ की आमेज़िश ना हो क्योंकि अग़राज़ नफ़्सानी और बेजा जोश हमेशा सेहत फ़िक्र में माने’ (रुकावट) होते हैं। चुनान्चे तारीख़ इस पर गवाह है कि दुनिया में इसी क़िस्म के लोग कलायन जज़न सच्चाई से अलग रहे हैं।
हिस रुहानी में ना सिर्फ ख़ुलूस-ए-नीयत काफ़ी है बल्कि इन्सान की दिली तमन्ना यही होनी चाहिए कि मेरा मुसम्मम इरादा है कि मैं ख़ुदा की मर्ज़ी पर चलूंगा। वो ये कि मैं ज़मीन पर मुसाफ़िर हूँ कुछ अर्से के बाद यहां से बिल्कुल चला जाऊंगा यहां की सब चीज़ें इसी जगह छोड़ने वाला हों सब लज़्ज़तों से ज़्यादा मुझे अपना ख़ालिक़ प्यारा है मैं उस की मर्ज़ी पर चलना चाहता हूँ और इसलिए उस की मर्ज़ी को तलाश करता हूँ ताकि उस पर चलूं ये इरादा मेरे दिल में ज़िंदा इरादा है गोया एक चिल्लाहट है उस नव पैदा बच्चे की जो शेर मादर के लिए चिल्ला रहा है।
मैं ना इल्म दिखलाने को झगड़ता फिरता हूँ ना किसी बाप दादा की नाजायज़ बात की हिमायत करता हूँ ना किसी की तहक़ीर और बदनामी का ख़्वाहां हूँ और ना मैं ऐसी बातें करके दुनिया कमाना चाहता हूँ मैं सिर्फ अपने ख़ालिक़ की मर्ज़ी को तलाश करता हूँ ताकि बाक़ी उम्र में उस की ख़िदमत करूँ।
मैं इसलिए फ़िक्र करता हूँ कि ताकि सही इल्हाम को दर्याफ़्त करूँ कि कहाँ है और उस की रोशनी से मैं भी मुनव्वर हो जाऊं।
इस के इलावा मुक़द्दमात पेश आइन्दा के दरमियान इनके मदिराज की भी रिआयत करनी होगी। मसलन उमूर अक़्ली के मुत’अल्लिक़ अक़्ल की तरफ़ और तजुर्बे की बातों के मुत’अल्लिक़ तजुर्बे की तरफ़ और क़ुद्रत की बातों में क़ुद्रत की तरफ़ रुजू’ करना होगा और हिक्मत की बातों के मुत’अल्लिक़ हिक्मत की तह तक पहुंचना होगा और अंधी ऊंटनी की तरह दरख़्तों में मुँह मारते फिरना ना होगा।
पस सेहत फ़िक्री के लिए इन तमाम उमूर बाला पर ग़ौर करना और इनका लिहाज़ रखना अज़बस ज़रूरी और लाबुदी (लाज़मी) है।
ख़ुदा के मदरसे में दाख़िल होने वालों के लिए ये बातें बतौर अबजद के हैं वो शख़्स जो इल्हाम की रोशनी में आ जाता है उसइस का मु’अल्लिम (उस्ताद) ख़ुदा होता है क्या हर सुस्त और शरीर और ठठ बाज़ और मुतकब्बिर व मु’अतस्सिब और खुदगर्ज़ और मग़रूर भी वहां दख़ल पा सकता है हरगिज़ नहीं मगर संजीदगी और इख़्लास के साथ हर शख़्स हाज़िर हो सकता है।
दुनियावी हिक्मत से इलाही हिक्मत ज़रूर बड़ी चीज़ है लेकिन दुनियावी हिक्मत मेहनत व तंदही के बग़ैर हरगिज़ हासिल नहीं हो सकती इसलिए इलाही हिक्मत के लिए बेहद तनदही बल्कि मन वही दरकार है।
देखिए कि दुनियावी लोग उलूम दुनियावी को कैसी सख़्त जाँ-फ़िशानी के साथ हासिल करके दुनियावी मदारिज हासिल करते हैं मगर इल्म इलाही के बारे में कोई किताब बतौर तफ़रीह देखकर कहते हैं कि मज़्हब कोई चीज़ नहीं। हासिल कलाम ये है कि इल्हामी किताब के दर्याफ़्त करने के लिए सबसे पहले और ज़रूरी बात ये है कि नेक नीयती और ख़ुलूस के साथ तनदही करके फ़िक्र करें
सानियन सही इल्हाम की शनाख़्त के लिए इल्हाम की ता’रीफ़ और इल्हाम की ग़र्ज़ को हमेशा मद्द-ए-नज़र रखना चाहिए।
इल्हाम एक रोशनी है उस की तरफ़ से जो क़ादिर-ए-मुतलक़ और हकीम-उल अल-इत्लाक़ बल्कि जामे’ जमी’ सिफ़ात कमाल है।
अक़्ल को ज़्यादा बसीरत दे और रूह की प्यास को बुझाए कुछ बतलाए और कुछ इनायत करे।
पस इल्हाम की शनाख़्त के लिए ख़ुलूस-ए-नीयत के बाद सबसे बड़ी और मो’तबर अलामात यही हैं कि ता’रीफ़ और ग़र्ज़ की शर्तें इस में पाई जाती हैं।
पस जहां वो होगा वहां सब कुछ उस के वसीले से साफ़ नज़र आएगा जहां आफ़्ताब है वहां रोशनी है और जहां वो नहीं है वहां अंधेरा है जिस मुल्क में जिस मुक़ाम में और जिस ख़ानदान में और जिस आदमी के दिल में इल्हामी ख़यालात होंगे वहां ज़रूर रोशनी होगी रोशनी में सब कुछ साफ़ नज़र आएगा पस वहां बदी और नेकी हर दो साफ़-साफ़ ज़ाहिर होंगी।
हमारा दा’वा है कि इल्हाम सिर्फ़ बाइबल मुक़द्दस ही में है जिसकी तारीख़ की दलील ये है कि जिन ममालिक और शहरों और क़ौमों में बाइबल पहुंच गई है वहां अजीब तब्दीली और ज़िंदगी तहज़ीब और शाईस्तगी की पाई जाती है। अब इन हालात को उन ममालिक और शहरों और क़ौमों के ख़यालात से मुक़ाबला करो जहां बाइबल नहीं पहुंची है कि वो किस हालत में हैं और मसीही ममालिक किस हालत में हैं। अफ़्ग़ानिस्तान, ईरान, अरबिस्तान, तुर्किस्तान और हिन्दुस्तान के रजवाड़ों को देखो कि किस हालत में हैं। इन तमाम खूबियों का बाइस जो मसीही ममालिक में पैदा हुई हैं सिर्फ बाइबल मुक़द्दस ही है और दीगर ममालिक में जो क़बाहतें हैं इनकी जड़ उनकी इल्हामी किताबें हैं।
पस लाज़िम है कि इल्हाम के साथ भी एक आला क़ुद्रत हो क्योंकि इल्हाम क़ादिर-ए-मुतलक़ की रोशनी है।
इस दुनिया व माफ़ीहा को क़ादिर-ए-मुतलक़ ने बनाया है जब उसने बनाया होगा तो उस वक़्त कैसी क़ुद्रत नुमायां हुई होगी अगरचे हम उस वक़्त मौजूद ना थे कि इस अज़ीमुश्शान क़ुद्रत को अपनी आँखों से देखते कि उसने कहा हो जा और हो गया। लेकिन जब हम ग़ौर करते हैं कि तो गोया इस लासानी क़ुद्रत को हम अपनी आँखों से निहायत हैरत के साथ देखते हैं। और ख़ुद दुनिया का निज़ाम और तर्तीब इस की गवाही देती है कि इस का ख़ालिक़ वो ख़ुदा है जो अपनी ज़ात और सिफ़ात में बेमिस्ल और लाशरीक है।
पस इल्हाम में भी ये सिफ़त होनी चाहिए क्योंकि इल्हाम उस का क़ौल है और जहान उस का फ़े’ल क़ौल और फ़े’ल में मुताबिक़त अज़बस ज़रूरी है।
अगर कोई शख़्स बाइबल पर ग़ौर करे तो जानेगा कि आदम से लेकर मूसा तक ख़ुदा ने खासतौर पर अपने ख़ास-उल-ख़ास बंदों को अपने इल्हाम से सर्फ़राज़ फ़रमाया जो अजीब क़ुद्रत के साथ ज़ाहिर होता है रहा। फिर मूसा से लेकर मसीह तक ख़ुदा की सारी मर्ज़ी सारे जहान के लिए जो ज़ाहिर की गई है इस के अव्वल और आख़िर और दर्मियान में भी वही क़ुद्रत नुमायां थी जिसका ज़िक्र मुख़्तसर तौर पर करना ख़ाली अज़ फ़ायदा ना होगा।
तौरेत शरीफ़ की किताब ख़ुरूज का रुकू’ 8 आयत 19 में ये है कि तब जादूगरों ने फ़िरऔन से कहा ये ख़ुदा की क़ुद्रत है। और इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत लूक़ा के रुकू’ 11 आयत 20 में है कि अगर मैं ख़ुदा की क़ुद्रत से देवओं को निकालता हूँ तो बेशक ख़ुदा की बादशाहत तुम्हारे पास आ गई है। ये इशारा है उस क़ुद्रत की तरफ़ जो ज़हूर इल्हाम के वक़्त ज़ाहिर हुई थी।
लेकिन आज भी बाइबल के साथ एक ग़ैबी ताक़त और इलाही हिमायत साफ़-साफ़ नज़र आती है बावजूद इस के कि लोग मुख़ालिफ़ीन इस की मुख़ालिफ़त में कोई कसर उठा नहीं रखते इस पर भी ये इलाही किताब फ़तेहयाब होती चली जा रही है और कोई बातिल ख़याल इस के सामने ठहर नहीं सकता। इस किताब की निस्बत शुरू से आज तक कहा जाता है कि इसने जहान को उलट दिया और सच है कि उलट दिया और उलटी चली जाती है। दुश्मनों की दुश्मनी उस के साथ चली जाती है और ख़ुद मिटते जाते हैं लेकिन बाइबल तरक़्क़ी करती जाती है। देखिए कि यहूदियों की मुख़ालिफ़त कहाँ गई और रोमियों की दुश्मनी किधर गई और यूनानियों का त’स्सुब कहाँ गया? अब भी जिस मुल्क में बाइबल जाती है वहां के लोग मुख़ालिफ़त करते हैं लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता ख़ुद बख़ुद मग़्लूब होते जाते हैं बाइबल का ये दा’वा निहायत सच्चा है कि मैं सारे जहान को फ़त्ह करूंगी।
सच पूछो तो दुनिया में कोई ऐसी किताब नहीं है जो बाइबल का मुक़ाबला कर सके इस की रोशनी और क़ुद्रत के सामने कोई और किताब ठहर नहीं सकती। बाइबल अपने पैरौओं (मानने वालों) के दिलों में ऐसी तासीर करती है जिससे और ममालिक और अक़्वाम और ख़ानदान और हर आदमी मुनव्वर हो कर ख़ुदा की क़ुद्रत ज़ाहिर करते हैं। पस ये लाज़वाल और अजीब क़ुद्रत जो बाइबल के साथ है गवाही देती है कि ये किताब क़ादिर-ए-मुतलक़ की तरफ़ से है।
जिसने इस जहान को हिक्मत के साथ पैदा किया क्योंकि तमाम मौजूदात में एक अजीब हिक्मत और तर्तीब नज़र आती है। अगरचे इन्सानों ने अला क़द्र इन हिक़मतों में से चंदे को कुछ-कुछ समझ भी लिया है तो भी बहुत सी ऐसी हिकमतें इस जहान में हैं जो इन्सान के फ़हम से बाहर हैं लेकिन उनके ना समझने से हम हरगिज़ नहीं कह सकते कि जहान का बनाने वाला ख़ुदा जो हकीम अला अल-इत्लाक़ है नहीं है हमारी ये हालत कि बा’ज़ बातों को समझते हैं और बा’ज़ को नहीं समझते हैं दलील है इस बात की कि जहान हकीम अला अल-इत्लाक़ का बनाया हुआ है।
यही हाल उस के इल्हाम को भी होना चाहिए बाइबल में बहुत सी बातें ऐसी हैं जिन्हें हम ख़ूब समझते हैं और उस की हिक्मत की बुजु़र्गी देखते हैं लेकिन बा’ज़ बातें ऐसी गहरी हैं जो फ़हम से बाहर हैं पस अगर जहान की हालत मज़्कूर दलील है इस बात की कि ये जहान हकीम अला अल-इत्लाक़ बनाया हुआ है तो इल्हाम की ये हालत भी दलील है इस बात की कि ये उसी का क़ोल है जिसका ये जहान फ़े’ल है।
अगर इल्हाम की सारी बातें हमारी अक़्ल में आ सकतीं तो हम साफ़ इन्कार करते और कहते कि ये इल्हाम नहीं है किसी आदमी की अक़्ल में से निकली हुई बातें हैं क्योंकि हमारी अक़्लों में इस की गुंजाइश है ये अजीब बात है कि जो दलील बाइबल के सबूत की है उसी को लोगों ने इस की तर्दीद की दलील बनाया है और जो बात कुतुब ग़ैर-इल्हामियाह की तर्दीद की है उसे सबूत की दलील बनाया है और ये ग़लती इसलिए वाक़े’ होती कि उन्होंने अपनी सूरत फ़िक्री पर फ़िक्र नहीं किया जिसका ज़िक्र मैंने इस लैक्चर के शुरू में कर दिया है।
इसलिए लाज़िम है कि इस से ख़ुदा की बुजु़र्गी कमाल के तौर पर ज़ाहिर हो। हम दुनिया में कोई तालीम ऐसी नहीं देखते कि बाइबल से ज़्यादा ख़ुदा की इज़्ज़त दिखला सके और उस की सिफ़ात कमाल का इन्किशाफ़ बख़्शे। हाँ जिन मुक़ामात पर नावाक़िफ़ लोग एतराज़ करते हैं हम उन्हीं मुक़ामात में उस की ज़्यादातर बुजु़र्गी देखते हैं और दिखला भी सकते हैं। चुनान्चे आइन्दा लैक्चरों में इनका ज़िक्र वक़्तन-फ़-वक़्तन आएगा। इस क़िस्म के लोगों का नशा ये है कि वो ना तो बाइबल की इस्तलाहों से वाक़िफ़ हैं और ना उन इसरार से जो बाइबल में हैं। चूँकि बाइबल के सिर्फ काग़ज़ और जिल्द उनके हाथ में हैं इसलिए वो अपनी इस्तलाहों और अपने ख़यालात फ़ासिदा की बिना पर एतराज़ घड़ लेते हैं। लेकिन चूँकि अब बाइबल का इल्म वसीअ-तर होता जाता है उनके एतराज़ ख़ुद बख़ुद उड़ते जाते हैं जब शुरू-शुरू में बाइबल आती थी उस वक़्त लोगों के कुछ और ही एतराज़ थे और अब कुछ और ही एतराज़ हैं।
पस वो कौन सी किताब है जो बाइबल से ज़्यादा हमारी हालत को और नेकी व बदी को और ख़ुदा की ख़ुदाई को दिखला सके अगर कोई ऐसी किताब दुनिया में मौजूद है तो किसी आलिम बाइबल के पास लेकर आना चाहे तो खरे और खोटे में तमीज़ हो जाए।
बाइबल में यही ख़ूबी है कि वो अक़्ल की मदद करती है और उसे रोशन तर बनाती है।
मुजर्रिद अक़्ल ने और दूसरों मु’अल्लिमों की किताबों ने तो कमा-हक़्क़ा रूह की ख़्वाहिश को भी नहीं समझा चह जायके वो इस की तक्मील करते सिर्फ बाइबल ही ने इस ख़्वाहिश को आदमियों में दिखलाया है और इस के पूरा करने का ईलाज भी बतलाया है अगर कुछ-कुछ अक़्ल ने और इन मुअल्लिमों ने समझा भी था तो तक्मील के एवज़ हिर्मान (नाउम्मीदी) की राह दिखलाई थी और अबदी ख़ुशी से रूह को ना उम्मीद कर दिया था या बातिल उम्मीद में फंसा रखा था।
गुनाह से और गुनाह के अज़ाब से रिहाई रूह को इस वक़्त दरकार है और अबदी ख़ुशी की उम्मीद यक़ीन के साथ रूह को इसी वक़्त मतलूब है सो ये बात सिवाए बाइबल के कोई किताब ऐसी नहीं है कि रूह को इनायत कर सके।
लेकिन इन दो इन्’आमों का यक़ीन वही शख़्स कर सकता है जिसने बाइबल से ये यक़ीन हासिल किया हो। लेकिन जिन्हों ने यक़ीन का ये दर्जा हासिल नहीं किया है ग़ौर करें तो बाइबल के पैरों (मानने वालों) के अफ़’आल व अक़वाल और हरकात व सकनात को ग़ैर-लोगों के अफ़’आल अक़वाल और हरकात व सकनात के साथ मुक़ाबला करके किसी क़द्र दर्याफ़्त कर सकते हैं लेकिन ये मुक़ाबला हमेशा ख़वास में किया जा सकता है ना कि अवाम में। क्योंकि जैसे जिस्म में और अक़्ल में लोग मुख़्तलिफ़ होते हैं वैसे ही रूह में भी मुख़्तलिफ़ होते हैं।
पांचवां लैक्चर : रूह क्या है?
इन्सानी रूह के मुत’अल्लिक़ भी लोगों ने बहुत ही ग़ौर व फ़िक्र किया है और अब तक कर रहे हैं लेकिन अक़्ल के लिए ये बहुत ही मुश्किल है कि तन्हा इस की हक़ीक़त को दर्याफ़्त कर सके ताहम इसकी निस्बत सही ख़याल पैदा करना वाजिब है क्योंकि इन्सान की तमाम तर कोशिश इसी के लिए है। अगर रूह एक आला हक़ीक़त रखती है और नाक़ाबिल फ़ना है तो इस से ज़्यादा बेहतर कौन सी चीज़ है जिसके हम तालिब हों और अगर ये कोई बे-हक़ीक़त चीज़ है और फ़ानी है तो नाहक़ हम इस के लिए इस क़द्र तक्लीफ़ उठा रहे हैं और हमारी सारी जाँ-फ़िशानी बर्बाद है पस इस के मुत’अल्लिक़ हम भी अपना ख़याल पेश करते हैं।
रूह के मुत’अल्लिक़ तीन क़िस्म के ख़यालात पाए जाते हैं। अव्वल ये कि वो ख़ुदा का अम्र (हुक्म) है इस से ज़्यादा हमें कुछ मालूम नहीं है। ये क़ौल क़ुर्आन शरीफ़ से माख़ूज़ है। दोम ये कि वो ख़ालिक़ की जिन्स में से है जैसे यूनान के किसी शायर ने कहा कि हम ख़ुदा की नस्ल हैं अगर कहा जाये कि ये ख़याल पुराने तसव्वुफ़ का है तो बजा है। सोम ये कि वो एक क़िस्म के अबख़रे (भाप, धुंए) हैं जो जिस्म की तर्कीब से मुतवल्लिद होते हैं ये ख़याल जिस्मानी हकीमों का है।
देखो इन्सानी अक़्ल की लाचारी अपने क़रीब की चीज़ के दर्याफ़्त करने में इस क़द्र आजिज़ है تا بدورچہ رسد۔
क्या वो ख़ुदा जिसने हमें ग़ौर व ख़ोज़ करने का माद्दा इनायत किया और ताक़त फ़िक्री बख़्शी और इन्सानी ज़हन को किसी क़द्र रसाई अता की है और अस्बाब हुसूल उलूम रुहानी और जिस्मानी हमें दिए वो हमारी ज़ात ही के इल्म से हमें महरूम रखेगा हरगिज़ नहीं।
इल्हाम इलाही हमें बतलाता है कि रूह इन्सानी एक हवा है मगर ना दुनियावी हवा बल्कि किसी दूसरे जहान की हवा है इस का नाम ज़िंदगी का दम है जो ख़ास ख़ालिक़ मौजूदात से निकला है और बराह-ए-रास्त ख़ुदा से निकल कर आदमी में आया है। सब हैवानात की जानें उसने आलम-ए-अज्साम में से बवसीला हकीम के पैदा कराईं हैं मगर इन्सान में उसने आप ज़िंदगी का दम फूँका है इसी का नाम रूह है।
ये एक अलैहदा ख़याल है जिसे चौथा ख़याल कहना चाहिए। ये ख़याल तीसरे ख़याल का बिल्कुल मुख़ालिफ़ है और उसे रद्द करता है और उसकी तर्दीद की दलील भी अपने अंदर रखता है क्योंकि बतलाता है कि वो एक ख़ास हवा है जो ख़ालिक़ से निकली है वो नादीदनी चीज़ है इसलिए हकीमों को नज़र नहीं आई इसलिए उन्होंने कहा कि वो फ़ानी अबख़रा (भाप, धुआँ) है।
ये ख़याल पहले ख़याल की तर्दीद नहीं करता मगर ये बतलाता है कि पहला ख़याल मोटा ख़याल है और आम बात है जिससे कुछ रोशनी ज़हन में नहीं आ सकती।
लेकिन दूसरे ख़याल में और इस में एक बड़ा नाज़ुक फ़र्क़ है जो निहायत ख़तरनाक भी है क्योंकि ज़िंदगी का दम जो ख़ुदा से निकला वो ख़ुदा की जिन्स और उलूहियत का एक जुज़्व (हिस्सा) नहीं है तो भी ख़ुदा के साथ एक ख़ास निस्बत रखता है जो दीगर मख़्लूक़ात की निस्बत से ज़्यादा ख़ास है।
ख़ुदा की ज़िंदगी का दम जो इन्सान में फूँका गया वो क्या चीज़ है कोई इन्सान इसे बतला नहीं सकता जैसे ख़ुदा के समी’ व बसीर वग़ैरह कुछ और ही चीज़ है ऐसे ही उस का दम भी कुछ और ही चीज़ है।
इस इल्हामी तालीम का ख़ुलासा ये है कि रूह इन्सानी मख़्लूक़ात से बालातर चीज़ है और जिस्म इन्सानी दुनियावी चीज़ है और इन के मेल से इन्सान बना है। हकीमों ने कहा है कि जिस्म घटता व बढ़ता है और रूह भी इस के साथ घटती और बढ़ती है इसलिए हम कहते हैं कि वो फ़ानी जिस्म से मुतवल्लिद है।
लेकिन ये तसल्ली बख़्श क़ियास नहीं है क्योंकि जिस्म आलम-ए-अज्साम के इंतिज़ाम के मुवाफ़िक़ ज़रूर घटेगा और बढ़ेगा लेकिन आस्मानी मख़्लूक़ जो रूह है वो अपने मज़हर या मस्कन यानी जिस्म की गुंजाइश या ताक़त और ज़र्फ़ के मुवाफ़िक़ उस में जलवागर होगी क्योंकि उस का ज़हूर इंतिज़ाम जहान के मुवाफ़िक़ जिस्म में हुआ है लेकिन वो एक मुस्तक़िल मख़्लूक़ है बमूजब इन फ़ज़ाइल सित्ता के जो ज़ेल में आते हैं। और जो रूह का घटना बढ़ना जिस्म के घटने बढ़ने के साथ देखकर कहते हैं कि रूह कोई मुस्तक़िल जोहर नहीं है उन्हें इस बात के इम्कान पर भी ख़याल करना चाहिए कि मज़हर रूह यानी जिस्म आलम-ए-अज्साम के इंतिज़ाम का ज़रूर मुक़य्यद है और ज़हूर रूह ज़रूर मज़हर पर मौक़ूफ़ है लेकिन वो शख़्स जो रूह का ज़हूर जिस्म की हर हालत में कामिल तौर पर मानता है गोया वो ये चाहता है कि रूह इस आलम इंतिज़ाम में इंतिज़ाम शिकन होके ज़ाहिर हो तब मैं इसे मुस्तक़िल जोहर जानूंगा लेकिन ये बात मुहाल ‘आदी है।
इस बात को दियाद रखना चाहिए कि रूह तरक़्क़ी और तनज़्ज़ुल जो बदन की क़ुव्वत और ज़ोफ़ के लिहाज़ से होता रहता है देखकर हम इसे अनासिर की तर्कीब से पैदा शूदा हरगिज़ नहीं कह सकते हैं क्योंकि रूह में कुछ फ़ज़ाइल नज़र आए हैं जिनका जिस्म और वहम से पैदा होना मुम्किन नहीं।
रूह इन्सानी का मस्कन यानी तमाम माद्दी अश्या से निहायत अफ़्ज़ल और अज़ीमुश्शान मस्कन मकीन की शान को ज़ाहिर करता है और यह भी एक दलील है इस बात की कि इन्सान के बदन में एक ऐसी इज़्ज़तदार चीज़ रहती है जो तमाम दीदनी मौजूदात में बेनज़ीर (बेमिसाल) है गोया ये हाकिम का महल है और बाक़ी रईयत और नौकरों के झोंपड़े हैं।
रूह में तमाम मरातिब उल्या के हासिल करने की एक ऐसी इस्तिदाद (सलाहियत) है जो तमाम दीदनी मौजूदात पर एक अजीब फ़ौक़ियत और ग़लबा इस में मालूम होती है।
तमाम हैवानी अर्वाह में सिफ्ली सिफ़ात बशिद्दत नज़र आती हैं यानी शहवत, अदावत, ग़ज़ब, ख़ुदगर्ज़ी, बे-हयाई, बेरहमी वग़ैरह। मगर रूह इन्सान में फ़ज़ाइल उल्विया की किरनें बकस्रत चमकती हैं मसलन मुहब्बत, ख़ुशी, सुलह, ख़ैर ख़्वाही, फ़िरोतनी, परहेज़गारी, वग़ैरह की ख़्वाहिशें। अब इस बात पर ग़ौर करने से साफ़-साफ़ ज़ाहिर होता है कि जिस्म की ख़्वाहिशें और हैं और रूह की ख़्वाहिशें और हैं और इनमें तबाईन है और ये इसलिए है कि जिस्म इस जहान का है लेकिन रूह आलम-ए-बाला का मख़्लूक़ है।
रूह में अजीब दो मक़्सद नज़र आते हैं अबदियत की ख़्वाहिश, और हक़ीक़ी ख़ुशी की उमंग, और ये बातें उलुविय्यत (बड़ाई, बुज़ुर्गी) की अलामतें हैं। चूँकि रूह में ये अलामतें मौजूद हैं लिहाज़ा रूह को आलम-ए-बाला से एक ख़ास निस्बत है।
जो ख़्वाहिशें रूह में मौजूद हैं इस जहान की चीज़ों से कभी पूरी नहीं हो सकतीं मगर ख़ालिक़ ही से पूरी हो सकती हैं अगर सारे जहान की चीज़ें और हश्मत और ख़ुशी रूह को दी जाये तो भी रूह सैर नहीं हो सकती। लेकिन जब ख़ुदा से एक लफ़्ज़ भी सुन लेती है तो बड़ी सेरी इस में आ जाती है। इस से ख़ूब ज़ाहिर है कि रूह इस सिफ्ली कुर्राह (ज़मीन) की नहीं है इस का कुर्राह (जगह) अलवी (बुलंदी) है क्योंकि हर चीज़ अपने कुर्राह (जगह) की तरफ़ माइल है।
वो रूहें जिन्हें इस जहान की आलूदगियों ने कमतर दबा दिया है अपनी नक़्ल-ए-मकानी के लिए कुछ जमा करती हैं जो आलम-ए-अज्साम में नज़र नहीं आती है और बहुत सी रूहें ऐसी हैं जो थरथराती हैं और इंतिक़ाल के वक़्त कुछ क़वी आसुर तलाश करती हैं। पस इन सब बातों से ज़ाहिर होता है कि इन्सानी रूह इस जहान की चीज़ ही नहीं है ज़रूर वो आलम-ए-बाला से एक ख़ास निस्बत रखती है।
इसलिए हमें यक़ीन होता है कि इल्हामी बयान जो इस की निस्बत है। सही है और हम इल्हाम के ज़्यादा मुतशक्किर (शुक्रगुज़ार) हैं कि उसने रूह की बाबत अक़्ल की निस्बत ज़्यादा कुछ बतलाया कि रूह एक आस्मानी जोहर है और ना हम हक़ीर और ना-चीज़ हैं और ना मिस्ल और हैवानों (जानवरों) के ज़लील हैं बल्कि ख़ुदा के फ़ज़्ल से कुछ उम्दा चीज़ हैं लेकिन अफ़्सोस कि हम अपनी रूह की क़द्र नहीं जानते।
अब बाक़ी रही ये बात कि रूह किस हालत में है जिसका मतलब ये है कि आया वो फ़ानी है या ग़ैर फ़ानी। कोई कहता है कि वो फ़ानी है जिस्म के साथ फ़ना हो जाएगी मगर ये बात क़ाबिल पज़ीराई नहीं है क्योंकि बदन के एतबार से जो रूह का मस्कन है ये हुक्म लगाया गया है ना कि नफ़्स रूह के एतबार से। हम तो ये कहते हैं कि जिस्म इस जहान का है और रूह उस जहान की है और दोनों की ख़्वाहिशों में तबायुन (इख्तिलाफ, फर्क़) है अलबत्ता कुछ अर्से के लिए बदन में जो इस का मस्कन है रहती है। लेकिन मस्कन की बर्बादी से रूह की बर्बादी का हुक्म नहीं लगाया जा सकता है।
इस के सिवा अक़्ल के रू से ना तो हम इन्सान की इब्तिदा मालूम कर सकते हैं और ना इंतिहा और ना रूह की माहियत (असलियत) दर्याफ़्त कर सकते हैं पस इन मजहूलों से एक मालूम का निकालना कि वो फ़ानी है किस तरह मुम्किन है हाँ जिस्म के इलाक़े से मुम्किन है लेकिन इस के साथ तो जिस्म का हक़ीक़ी इलाक़ा साबित नहीं होता है। पस फ़ना का नतीजा निकालना ऐसी हालत में सही मालूम नहीं होता है।
हम ऊपर इस अम्र का बयान कर चुके हैं कि रूह को एक ख़ास निस्बत है उस से जो ग़ैर-फ़ानी है लिहाज़ा रूह भी ग़ैर-फ़ानी है।
फिर देखो कि आलम का इंतिज़ाम यानी इस जहान का बंदो-बस्त अगरचे बज़ाहिर इन्सान के हाथ में है लेकिन हक़ीक़त में मुदब्बिर आला के हाथ में है और ये इंतिज़ाम मौक़ूफ़ है इस बात पर कि रूह ग़ैर-फ़ानी है और उसी आलिमुल-ग़ैब के सामने जवाबदेह होगी। अगर ये एतिक़ाद कि रूह फ़ानी है आलमगीर हो जाए तो जहान का इंतिज़ाम बिल्कुल बर्बाद हो जाए और सब हलाक हो जाएंगे या कुत्तों और गधों की तरह ज़िंदगी बसर करेंगे पस हमारे ख़ालिक़ की तरफ़ से हमारे इंतिज़ाम की सूरत ज़ाहिर करती है कि हम ग़ैर-फ़ानी हैं और ना-मुम्किन है कि वो फ़रेब दे।
अगर रूह फ़ानी है तो फिर नेकी का अज्र और बदी की सज़ा की तवक़्क़ो रखना अबस है और मुंतज़िम बल्कि ख़ुदा के वजूद का इक़रार करना इस से अबस-तर होगा।
सय्यदना मसीह ने सबसे ज़्यादा रूह के ग़ैर-फ़ानी होने का सबूत दिया है। मसलन जब मुन्किर उन क़ियामत और रूह के फ़ना के क़ाइल लोग उनके पास आए तो आपने उन्हें जवाब दिया कि क्या तुमने मूसा की किताब में झाड़ी के मुक़ाम पर नहीं पढ़ा कि ख़ुदा ने उसे क्योंकर कहा कि मैं इब्राहिम का ख़ुदा और इज़्हाक़ का ख़ुदा और याक़ूब का ख़ुदा हूँ मैं मुर्दों का ख़ुदा नहीं बल्कि ज़िंदों का ख़ुदा हूँ।
आपने ख़ुदा की हस्ती को साबित करके ये तालीम दी कि रूहें ग़ैर-फ़ानी हैं क्योंकि जब ख़ुदा है और उस की हस्ती में कुछ शक नहीं है तो ज़रूर रूह ग़ैर-फ़ानी है क्योंकि जब रूहों का ख़ालिक़ ज़िंदा अबद तक मौजूद है तो फिर रूहें भी मौजूद हो सकती हैं और जब उस में वो क़ुद्रत है जिस पर जहान क़ायम है तो और भी ज़्यादा सबूत है कि ख़ुदा क़ायम रख सकता है क्योंकि उस में क़ुद्रत है और मूजिब अदम फ़ना हो सकती है। और मसीह ने ये भी बतलाया कि इब्राहिम इस्हाक़ याक़ूब अगरचे मर गए तो भी मौजूद हैं वो ख़ुदा की तरफ़ मुज़ाफ़ हैं ज़िंदा ख़ुदा मादूम शै को अपनी तरफ़ मुज़ाफ़ नहीं करता है पस ये लोग अगरचे मर गए तो भी कहीं मौजूद हैं। और झाड़ी के इशारे में ये भी बतलाया कि अगरचे मौत की आग में फंस जाते हैं तो भी नहीं मरते हैं जैसे वो बूटा आग में ना जलता था क्योंकि क़ादिर-ए-मुतलक़ उनकी हिफ़ाज़त करता है।
इस के सिवा लाज़र को जिला के और याइर सरदार की लड़की को ज़िंदा करके और शहर नाईन के बेवा के बच्चे को जाते हुए जनाज़ा से खड़ा करके मसीह ने अमलन साबित किया कि रूहें मौत के बाद फ़ना नहीं हो जाती हैं बल्कि वो ज़िंदा रहती हैं।
और फिर आख़िर को उसने अपनी मौत और ज़िंदगी से इस अम्र का ऐसा सबूत दिया कि जिसमें किसी तरह का शक ही बाक़ी ना रहा और जैसा दीन मसीही बहुत सी बातों में मुम्ताज़ है इसी तरह मुर्दों की क़ियामत के सबूत में भी सबसे ज़्यादा मुम्ताज़ है। यहूदियों और मुसलमानों में इस का ज़िक्र है कि क़ियामत होगी और रूहें ग़ैर-फ़ानी हैं मगर इस का यक़ीनी सिर्फ़ मसीही मज़्हब में है।
छटा लैक्चर : रूह की मौजूदा हालत
गुज़श्ता लैक्चर में इस बात का ज़िक्र हुआ है कि इन्सानी रूह कोई मामूली मख़्लूक़ नहीं है बल्कि इस में आलम-ए-बाला की खूबियां टिमटिमाती हैं और उस की ख़्वाहिशें सिर्फ़ ख़ुदा में पूरी होती हैं और ये कि वो ग़ैर-फ़ानी शै है।
आज रूह की एक दूसरी ख़तरनाक हालत बयान करेंगे जो हालत मज़्कूर बाला की निस्बत ज़्यादातर वाज़ेह है।
अगर रूह फ़ानी होती तो कुछ ख़ौफ़ ना था मगर ये हालत जिसका ज़िक्र किया जाता है फ़ना की बनिस्बत ज़्यादा ख़ौफ़नाक है। इस की इस ख़तरनाक हालत का बयान तो बहुत बड़ा है लेकिन मुख़्तसरन कुछ ज़िक्र करता हूँ।
ये तारीकी तीन तरीक़ों से साबित की जा सकती है :-
(1) रुहानी बातों से सख़्त बे-ख़बरी जो बा’ज़ आदमियों में साफ़ ज़ाहिर है कि उनकी रूह अपने ख़ालिक़ व मालिक की निस्बत किस क़द्र बे-ख़बर है और उस की मर्ज़ी पर चलने से कैसी ग़ाफ़िल है और अपनी निस्बत कि मैं कौन हूँ और किस हालत में हूँ और किस हालत में मुझे होना चाहिए कुछ भी नहीं जानती है ये सब बातें ज़ाहिर करती हैं कि रूह पर सख़्त तारीकी छाई हुई है अगर रूह में कुछ भी रोशनी होती तो वो सब बातें जानती होती।
(2) बुरे कामों में मुन्हमिक (मसरूफ) रहना इस तारीकी को ज़ाहिर करता है यानी झूट, कीना, बुग़्ज़, ख़ुदगर्ज़ी, हसद, लालच, कुफ़्र, ग़ुरूर, वग़ैरह जो आदमियों के अंदर से निकलते हैं ये सब बातें ज़ाहिर करते हैं कि रूह तारीकी में है।
(3) मकरूहात और ख़्वाहिशात नफ़्सानी का हुजूम जो रूहों पर ग़ालिब है ये भी इस बात का सबूत है कि रूहों पर एक तारीकी छाई हुई है। रूहों की इस तारीकी से तो हम वाक़िफ़ हैं मगर ये नहीं बतला सकते हैं कि ये तारीकी कहाँ से आ गई है। हाँ रूह की बेचैनी ज़ाहिर करती है कि ये उस की असली हालत नहीं है आरिज़ी हालत है लेकिन ये कि ये मर्ज़ उसे कहाँ से लग गया। अक़्ल कुछ नहीं बतला सकती है लेकिन इल्हाम बतलाता है कि ये तवज्जोह इलाही के ना होने का नतीजा है या बाद इलाही का अंधेरा है या ख़ुदा से निस्बत-ए-ख़ास में ये गुनाह के सबब फ़र्क़ आ जाने का अंधेरा है।
और ये भी हम देखते हैं कि तारीकी ना तो सूरज की रोशनी से और ना उलूम दुनियावी की रोशनी से और ना बदनी व रूहानी रियाज़त से दूर हो सकती है क्योंकि सब अहले-इल्म और अहले रियाज़त में भी और सब लोगों की तरह ये अंधेरा पाया जाता है कि अगरचे वो बहुत कोशिश करते हैं लेकिन दफ़ा’ नहीं होता।
लेकिन क़ुर्बत (नज़दिकी) इलाही ज़रूर इस तारीकी के दफ़ा’ का मूजिब हो सकती है क्योंकि जिस क़द्र रूह ख़ुदा के नज़्दीक होती जाती है उसी क़द्र रोशनी आती जाती है और तारीकी दफ़ा’ होती जाती है।
और ये गुनूदगी (नींद) तीन बातों से साबित होती है :-
(1) बावजूद इस के कि रूह जानती है कि मैं मुसाफ़िर और सफ़र में हूँ तब भी इस इक़रार सफ़र और हालत सफ़री के रूहें हालत कियामी की दुनिया को अपनी क़ियामगाह जान कर उस की तरफ़ माइल होती हैं जैसे चलते हुए मुसाफ़िर नींद के सबब से ठंडी हवा में दरख़्तों के नीचे सोने की तरफ़ माइल हुआ करते हैं।
(2) इबरत और दानाई और तम्बीह के ताज़ियाने बार-बार रूहों को बेदार करते हैं लेकिन वो और ग़फ़लत की नींद सोती जाती हैं सर उठाती हैं और फिर सो जाती हैं ग़रज़ कि ग़ज़ब की गुनूदगी (नींद) में गिरफ़्तार हैं।
(3) यक़ीनी ख़तरे में भी एक अजीब बेपर्वाई और बेफ़िक्री रूहों में देखी जाती है ये भी ग़फ़लत और गुनूदगी (नींद) का कामिल सबूत है।
ये ग़फ़लत (बेपर्वाई) और गुनूदगी ऐसी है जैसे आदमी नशे की हालत में हो या जैसे साँप के डसे हुए पर ज़हर चढ़ा हुआ जो बजुज़ सोने के और किसी चीज़ का नाम तक नहीं लेता है।
अक़्ल नहीं बतला सकती कि ये गुनूदगी (नींद) कहाँ से आ गई अगरचे रूह के फ़ज़ाइल मज़्कूराह के तो ये ज़रूर ख़िलाफ़ है तो भी पैदाइश ही से रूहों में ये पाई जाती है।
इल्हाम बतलाता है कि ये ऐब इन्सान की जड़ में आ गया है जो पहलों में ज़ाहिर होता है जैसे कोढ़ या तप-ए-दिक़ (पुँराना बुखार) नस्ल में जारी हो जाता है इसी तरह गुनाह-ए-आदम के सबब से रूहों में पाया जाता है जिसको हम ग़फ़लत या गुनूदगी (नींद, बेहोशी) कहते हैं।
इस का ईलाज ना कोई तबीब कर सकता है ना कोई जादूगर ना आमिल ना आलिम ना अमीर ना फ़क़ीर लेकिन ख़ुदा में क़ुद्रत है कि वो इस का मु’आलिजा (इलाज) कर दे।
रूहों को नेकी अपनी तरफ़ खींचती है और बदी अपनी तरफ़। आज़ादगी एक तरफ़ खींचती है और क़ैद एक तरफ़ तंग राह अपनी तरफ़ खींचती है और बज़ु-कुशादा राह अपनी तरफ़ ये दोनों कशिशें बावजूद सख़्त गिरिफ्त के रूह पर जबरीदस्त अंदाज़ी नहीं कर सकती हैं और ना अपनी तरफ़ माइल कर सकती हैं तावक़्ते के रूह इस पर राज़ी ना हो और ये एक सख़्त ख़तरनाक हालत है क्योंकि जैसे अबदी ख़ुशी में दाख़िल होने की उम्मीद है वैसे ही अबदी हलाकत में फंस जाने का भी ख़ौफ़ है।
रूह एक ख़ादिम की तरह है जिसे वो आक़ा अपनी अपनी ख़िदमत के लिए बुलाते हैं। ख़ुदा उस को इल्हाम के वसीले से अपनी ख़िदमत के लिए बुलाता है। शैतान या दुनिया उसे अपनी ख़िदमत के लिए बुलाती है। और ये तो ना-मुम्किन है कि इन दोनों में से वो किसी की भी ख़िदमत ना करे। वो कभी बेकार रह नहीं सकती क्योंकि ख़िदमत के लिए पैदा की गई है और हर वक़्त कुछ ना कुछ काम में लगी रहती है ख़्वाह शैतान का हो या रहमान का और चूँकि आक़ा मुख़ालिफ़ हैं इसलिए अज्र भी मुख़ालिफ़ होंगे जब तक कामिल तसल्ली ना हो कि मैं किसी की तरफ़ हूँ और किस की ख़िदमत करता हूँ उस वक़्त तक बेहद तशवीशनाक बात है।
रूह ना सिर्फ इंतिक़ाल के मातहत है कि उसे इस दुनिया से नक़्ल-ए-मकानी करना होगा बल्कि अबदी मौत भी इस पर साया फिगन नज़र आती है।
और इस का सबूत ज़रा गौर-तलब है जो दो तरह पर है :-
(1) रूहों में इलाही तबइयत से जुदाई पाई जाती है मगर सबकी रूहों में नहीं बल्कि उन लोगों की रूहों में जहां ना मुहब्बत है ना पाकीज़गी ना ख़ैर-अंदेशी है और ना रिफ़ाह-ए-आम। क्योंकि जहान पर नज़र करने से ख़ालिक़ की तबइयत में ये बातें पाई जाती हैं। लेकिन जिस रूह में ये बातें नहीं हैं ज़रूर वो इलाही तबइयत से जुदा है और ये जुदाई है मूजिब ग़ज़ब इलाही का।
(2) जिस्मानी मिज़ाज यानी वो मिज़ाज जो जिस्मानियत का ग़लबा रूहानियत पर ज़ाहिर करता है और जिसकी अलामत ग़ुस्सा, ख़ुदगर्ज़ी, और शहवत परस्ती है। ये निशान है अबदी मौत के साया का।
इन सब ख़तरनाक बातों में इन्सान ऐसा मुक़य्यद (क़ैद) नज़र आता है कि अगर वो चाहे कि निकले तो अपनी ताक़त से निकल नहीं सकता है गोया जाल में फंसा हुआ है।
वो ना आप निकल सकता है और ना कोई चीज़ सिवाए ख़ुदा के उसे निकाल सकती है वो ऐसा है जैसे जेलख़ाने में क़ैदी होते हैं या जैसे चिड़िया लोहे कि पिंजरे में बंद होती है।
हज़ार फड़फड़ाए और रियाज़त की चोंच मारे और ज़िक्र फ़िक्र मुजाहिदा, मुराक़बा शुग़्ल अश्ग़ाल वग़ैरह की तदबीरें निकाले इस क़ैद से निकलना मुहाल है ये उस वक़्त निकल सकता है जब कोई बाहर से आए और क़फ़स (पिंजरे) का दरवाज़ा खोल दे।
अगर रूह की अस्लियत और फ़ज़ाइल पर सोचें और इस ख़तरनाक हालत पर भी ग़ौर करें तब नजात की एहतियाज मालूम होती है बल्कि नजात के मा’नी भी यही हैं। कि कोई हमें इस हालत से निकाले और इसी ज़िंदगी में निकाले। ये भी कोई बात है कि मरने के बाद तुम माफ़ किए जाओगे और बहिश्त में दाख़िल होगे और अब हमारा ये मज़्हब क़ुबूल करलो?
सही मज़्हब के क़ुबूल करने का मतलब यही है कि वो हमें इस बुरी हालत से अभी निकाले और इलाही तबइयत में दाख़िल करे तब तो ज़रूर हमारी नजात होगी।
और अगर हम अपने गुनाहों में और इस बुरी हालत में फंसे हुए मर गए तो ज़रूर अबदी हलाकत में फंस जाएंगे और ये ना-मुम्किन है कि वहां बख़्शिश हो जहां एक ज़बरदस्त आदिल तख़्त-ए-अदालत पर बैठा हो।
पस मुनासिब तो ये है कि जो कोई नजातदिहंदा होने का दा’वा करे या आमाल हसना को मूजिब नजात बतलाए इसी दुनिया में हमें इस से मुस्तफ़ीद करे।
सिर्फ सय्यदना मसीह इस हालत से नजात देने का मुद्दई हैं और कोई नहीं बल्कि और लोगों ने तो इस बद हालत को अच्छी तरह मालूम भी नहीं किया है।
हज़ार-हा रूहें जिन्हों ने मसीह के तुफ़ैल से ख़लासी पाई है। पुकार पुकार के कहती हैं कि हमें मसीह ने इस बुरी हालत से निकाला है। और उनके अक़्वाल व अफ़’आल और ज़िंदगी ज़ाहिर करती हैं कि सच-मुच वो बद हालत से निकल गई हैं पस इस नक़द बख़्शिश के बिल-मुक़ाबिल हमें और क्या चाहिए?
पस जब हम ये महसूस करते हैं कि हम इस बुरी हालत में हैं। और इस से निकलना भी मुम्किन है। और अगर इस पर भी हम इस बुरी हालत से निकलने की कोशिश ना करें तो यक़ीनन हम ख़ुदकुशी के मुर्तक़िब होंगे।
और जो लोग ये कहते हैं कि हम नेकी के वसीले से इस हालत से निकलेंगे वो ग़लती पर हैं क्योंकि नेकी मौक़ूफ़ है नजात पर। नजात हो जाए तब नेकी होना, ये कि नजात मौक़ूफ़ है नेकी पर क्योंकि ये बद हालत अक़्लन व नक़्लन माने’ (रुकावट) नेकी है पस चाहिए कि सब लोग पहले इस हालत से निकलने की फ़िक्र करें और फ़िक्र इतनी ही दरकार है कि बाक़ी वसाइल को छोड़कर उसे पुकारें जो मह्ज़ रहम करके आदमियों को मख़लिसी देता है फ़क़त।
सातवाँ लैक्चर : इस मक़्सद पर कि इन्सानी रूह मज़्कूरह ख़तरनाक हालत से क्योंकर ख़लासी पा सकती है?
ये मुश्किल और ज़रूरी सवाल कई तरह अदा हो सकता है। मसलन इन्सान की नजात क्योंकर हो सकती है। या ऐ भाईयों हम क्या करें कि नजात पाएं। वग़ैर ज़ालिक
जिस तरह ये सवाल मुख़्तलिफ़ तौर पर अदा हो सकता है उसी तरह इस के जवाबात भी मुख़्तलिफ़ पैराये में दिए जाते हैं।
लेकिन इस प्यारे सवाल का सही जवाब सुनने को हर अक़्लमंद का दिल ज़रूर चाहता है कि क्योंकि इस का सही जवाब ज़िंदगी का मर्कज़ है इसे ना पाना ज़िंदगी से मुतलक़ ना उम्मीद होना है।
बा’ज़ दुनियावी अक़्लमंद ये जवाब देते हैं कि इस हालत से आदमी निकल ही नहीं सकता है इसलिए इस की फ़िक्र ही नामुनासिब है लेकिन ये इंदिया कई वजूह से ग़लत है।
(1) रूह के फ़ज़ाइल मज़्कूरह और इस की क़द्र की इस में कुछ रिआयत नहीं है।
(2) ख़ुदा की क़ुद्रत का इस में इन्कार है।
(3) सरासर जिस्मानियत पर मबनी है।
(4) ख़ुदा का वो क़ानून इंतिज़ाम जो इस्लाह मफ़ासिद के लिए है इस में मफ़्क़ूद (गायब) है।
(5) रूह के तमन्ना-ए-ख़ुशी की तक्मील इस में नहीं है। जो अक़्लन नाजायज़ है वग़ैरह।
बा’ज़ अहले-मज़ाहिब ये जवाब देते हैं कि इन्सानी रास्तबाज़ी उस को मौत के बाद रिहाई देगी।
ये जवाब आम तौर पर पसंद किया जाता है और आम लोग फ़ौरन यही जवाब देते हैं लेकिन ये जवाब कई तौर पर बातिल है।
(1) जो तल्वार इस वक़्त काट नहीं करती वो जंग में क्योंकर काम देगी?
(2) ज़ोर-आवर के क़ब्ज़े से कमज़ोर नहीं बल्कि ज़ोर-आवरतर छुड़ा सकता है। हालाँकि हम इस हालत में नेकी को मग़्लूब और बदी को ग़ालिब देख रहे हैं फिर क्योंकर उस इंदिया पर इख़्तियार करें।
(3) क्या क़ुव्वत ग़ालिबा के बावजूद हम मग़्लूब हैं या अदम क़ुव्वत के सबब से?
(4) आज तक किसी आदमी में क़ुव्वत-ए-मख़फिया क्यों ज़ाहिर नहीं हुई?
(5) अगर हम रोशनी रखते हुए तारीकी में फंसे हैं तो हमारी ख़तरनाक हालत कुछ बात ही नहीं?
(6) इन्सानी रास्तबाज़ी का लादम है टटोलने से इस में से कुछ भी नहीं निकल सकता है।
(7) जो कोई कहता है कि नेकी के ज़रीये से बचेंगे इस का मतलब ये है कि पूरा क़र्ज़ अदा करके जेलख़ाने से छूट जाएंगे लेकिन ये अनहोनी बात है दर-हक़ीक़त इस के मा’नी ये हैं कि नजात नहीं हो सकती है।
ये ख़याल शरी’अत क़ल्बी और तहरीरी की नाफ़हमी से पैदा हुआ है ना शरी’अत से क्योंकि शरी’अत में रास्तबाज़ी करने का ज़िक्र और इस के करने की बड़ी ताकीद इस ग़र्ज़ से है कि इन्सान अपनी हालत लाचारी को मालूम करे ना इसलिए कि वो रास्तबाज़ी करेगा और इस के वसीले से नजात पाएगा पस वो हालत नुमाई है।
पुराने जाहिलों का ख़याल है कि हम जिस हाल में पैदा हुए हैं उसी हाल में पड़े रहेंगे ख़ुदा अपने फ़ज़्ल से आप ही निकालेगा। इस जवाब में कुछ रास्ती और कुछ नारास्ती मिली हुई है।
ख़ालिक़ के फ़ज़्ल पर तकिया करना रास्ती की बात और मुनासिब भी है और अक़्ल भी इसे क़ुबूल करती है। मगर नारास्ती इस जवाब में ये है कि :-
(1) बद हालत में बे-ख़ौफ़ पड़े रहना बदहाली को पसंद करना और सज़ा की हालत को हक़ीर समझना है।
(2) इस जवाब को पसंद करना उस फ़ज़ली कशिश की तड़प को जो रूह में मर्कूज़ है मुंदफ़े करता है।
(3) आलम-ए-अस्बाब में रह कर वसाइल रहम से क़त-ए-नज़र करके रहम का उम्मीदवार रहना बेवक़ूफ़ी है।
(4) ख़ालिक़ में ना सिर्फ रहम ही है मगर और सिफ़ात भी हैं पस क्योंकर यक़ीन हो सकता है कि हमारी तरफ़ सिर्फ़ सिफ़त रहम ही मर’ई (दिखने वाली) होगी। हालाँकि आसार ग़ज़ब ब गवाही हालत बद हम पर बशिद्दत तारी हैं।
(5) ऐसा ना हो कि झोंपड़े में रह कर महलों के ख्व़ाब देखते रहें।
(1) ये तीनों जवाब क्या हैं ना फ़हमी और ग़फ़लत का नतीजा हैं और अंजाम मौत है।
(2) अब ये भी देख लो कि इस लाचारी की हालत में इन्सानी अक़्ल कोई मुफ़ीद नुस्ख़ा नहीं निकाल सकती जिससे इन्सान इस बद हालत से निकले।
(3) ये भी मालूम हुआ कि ये सारे मज़ाहिब जिनमें ये तक़रीरें लिखी हैं ख़ुदा से नहीं हैं क्योंकि ये सब मख़लिसी की राह नहीं दिखला सकते उनके ख़याल में भी मख़लिसी (छुटकारे) की राह नहीं आई है।
वो है जो इल्हाम की किताबों से मिलता है और वो इन सबसे निराला है और इसी से इन्सान की तसल्ली होती है वो ये है :-
कि इस बद हालत से मख़लिसी (छुटकारा, नजात) इसी ज़िंदगी में उस इलाही हिक्मत से हो सकती है जो बड़ी गहराई के साथ सय्यदना मसीह में ज़ाहिर हुई है बशर्ते के तालिबान नजात (नजात के तलबगार) के दिल इस के लिए उसी हिक्मत की मुनासबत पर मुस्तइद व तैयार हों।
इस का हासिल ये है कि नजात सिर्फ़ ख़ुदा की ताक़त से है। मगर इस की ख़्वाहिश इन्सान की तरफ़ से चाहिए। यानी अगर वो चाहे कि मैं नजात पाऊं तब ख़ुदा उसे नजात देता है।
पस चाहिए कि आदमी बदहाली पर और लाचारी पर और रूह की पाक ख़्वाहिशों पर और शरी’अत की तक्मील पर जो मतलूब है ग़ौर करके इस (दबाव ख़स्तगी) जो हक़ीक़त में उस के अंदर है और वो नहीं जानता ख़ूब मालूम करे ऐसा कि ना सिर्फ उस की ज़बान बल्कि उस की रूह यूं चिल्लाए कि गुनाह और ग़म के ग़ार में से। मैं करता हूँ कि फ़र्याद ख़ुदाया मेरी सुन आवाज़। और फ़र्मा तू मुझे याद। उसी का नाम दरवाज़ा खटखटाना है इसी को ख़ालिस तलब कहते हैं यही मौक़ा कशिश रहमत का है या अख़ज़ ज़िया (اخذ ضیاء) का आफ़्ताब सदाक़त से मौक़ा है।
ये हालत एक मुहताज रूह के हाथ फैलाने की है उस सच्चे ग़नी और सख़ी के सामने जिसके दरवाज़ा से कोई ना उम्मीद नहीं फिर सकता और जिसका दरवाज़ा छोड़कर किसी दरवाज़े से कुछ फ़ायदा नहीं पा सकते।
अक़्ल भी कहती है कि क़ादिर-ए-मुतलक़ का फ़ज़्ल इस हालत के साथ मुतवाज़ी होना चाहिए।
क्या रुकावट व मुज़ाहमत के साथ कोई कशिश पूरी क़ुव्वत दिखला सकती है हरगिज़ नहीं।
या का बदों तन्क़ीह के सेहत हो सकती है और दवा कारगर हो सकती है हरगिज़ नहीं।
क्या जहल-ए-मुरक्कब लेकर हम उलूम में तरक़्क़ी कर सकते हैं कभी नहीं। पस इस हालत से निकलने के लिए इस क़िस्म की तैयारी की ज़रूरत है।
तब इलाही क़ुव्वत इस हालत से निकालने के लिए जो हर वक़्त मौजूद है अपनी तासीर दिखलाएगी और रूह के बंधन खुल जाएंगे और पहले रूह पर पौ फटने की रोशनी चमकेगी।
अगरचे हज़ारों पर जो उस के इर्द अगरद हैं रात रहे लेकिन इस शख़्स पर ज़रूर पौ फटेगी।
देखो सय्यदना मसीह के सहाबा किराम चिल्लाते हैं (इन्जील शरीफ़ ख़त दोम अहले कुरिन्थियों रुकू’ 4 आयत 6) “ख़ुदा जिसके हुक्म के मुताबिक़ तारीकी से रोशनी चमकी उसने हमारे दिलों को रोशन कर दिया।
वो कहते हैं कि हमारे दिलों में रोशनी आ गई ना ये कि हम रोशनी के उम्मीदवार हैं। और ज़रूर उनमें रोशनी थी। उनके अक़्वाल और उनकी ज़िंदगी से ज़ाहिर है कि उनके दिल ज़रूर रोशन थे और इस में क्या शक है कि जब मोहलिकात रुहानिया दिल से निकल गईं यानी हसद, ग़ज़ब, कीना, बदी वग़ैरह और बातिल ख़यालात भी दिमाग़ से दूर हुए और इस के एवज़ सही ख़यालात अपने और ख़ुदा के और जहान की निस्बत क़ायम हुए और मुहब्बत, व खलक़ व खैर अंदेशी और हम्दर्दी और रहम से भरपूर हो गए तो फिर क्योंकर ना कहें कि अंधेरा जाता रहा और रोशनी आ गई और ये ऐसी रोशनी है कि इस के लिए अहले-रियाज़त सर पटक कर मर गए लेकिन उनको मयस्सर ना हुई और ना अहले-इल्म को कभी ये बात हासिल हुई। इसलिए कि मसीह के शागिर्द ये भी बतलाते हैं कि ये रोशनी हम में कहाँ से आई सरचश्मा रोशनी कहाँ है।
ख़ुदा रोशनी का सरचश्मा है जिसने सब कुछ नेस्त (कुछ नहीं) से हस्त (सब कुछ पैदा) किया उधर से रोशनी आ गई। पस वो रोशनी का सरचश्मा भी दुरुस्त बतलाते हैं और ज़रूर उनमें रोशनी भी ज़ाहिर है। लिहाज़ा छटे लैक्चर की पहली बात दफ़ा’ हुई।
और जब दिल में दिन हो गया तो फिर गुनूदगी (नींद) कहाँ अब देखो उनकी सरगर्मी को कि दुनिया ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में बुड़बुड़ाती है और वह कैसी पुर मुहब्बत बातों से जगाते हैं और जागते हैं उन्होंने ख़ुदा को पसंद किया और दुनिया को छोड़ दिया। वो ख़ुदा की ख़िदमत करते हैं पर अहले-दुनिया अपनी नफ़्स पर्वरी में मशग़ूल हैं उनके सर पर से मौत की घटा हट गई है फ़ज़्ल और बरकात-ए-समावी (आसमानी बरकतों) की औस उन पर साफ़ पड़ती हुई नज़र आती है उनके सारे दुनियावी बंधन टूट गए लिहाज़ा वो आज़ाद हैं।
कि इस बद हालत से इन्सान निकल सकता है क्योंकि अगरचे वो जिस्मानी तवल्लुद (पैदाइश) के एतबार से इस हालत में पैदा हुआ है मगर रुहानी तवल्लुद (पैदाइश) के एतबार से पैदा नहीं हुआ है।
हाँ हमारी कोशिश और हमारी रास्तबाज़ी इस हालत से हरगिज़ नहीं निकाल सकती लेकिन ख़ुदा की क़ुद्रत जो सय्यदना ईसा मसीह में ज़ाहिर हुई है इस से मख़लिसी (छुटकारा) पा सकते हैं।
ख़ुदा पर बेहूदा भरोसा रखना भी नहीं निकाल सकता क्योंकि शान-ए-उलूहियत और इंतिज़ाम आलम के ख़िलाफ़ है।
लेकिन एक ही नाम है जिससे नजात पा सकते हैं और वो सय्यदना ईसा मसीह है फ़क़त।
आठवां लैक्चर : ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात
लफ़्ज़ “क्या” ज़ात पर दलालत करता है और “कैसा” सिफ़ात पर। मगर ये निहायत मुश्किल सवाल होता है। ख़ुदा हमें ग़लती से बचाए और अपने सही इर्फ़ान हमें इनायत करे।
ये सवाल अगरचे निहायत ही मुश्किल है मगर इस क़द्र नहीं कि समझ में ना आ सके क्योंकि अगर वो हमारी समझ में नहीं आ सकता है तो गोया कि हम एक वहमी ख़ुदा की परस्तिश करते हैं और अगर ये कहें कि हम ख़ूब जानते हैं तब वो ख़ुदा ख़ुदा ना रहेगा जो हमारे ज़हन में समाया है मगर जिस क़द्र जानने की ताक़त ख़ुदा ने बंदों को बख़्शी है उतना जानते हैं। हाँ कहा हो जानना मुहाल है इसलिए सब कहते हैं कि ماَ عرَ فناکَ حقِ معرفتک َ लेकिन एक माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत शख़्स जो उलूहियत में ख़ुदा के बराबर है वो फ़रमाता है कि ऐ बाप (यानी परवरदिगार) मैंने तुझे जाना है और दुनिया ने तुझे नहीं जाना और उस का फ़रमाना बजा है क्योंकि वो ऊपर से है।
इस की बाबत अक़्ल सिर्फ इतना कह सकती है कि वो एक वाजिब हस्ती जो क़ायम बि-ज़ातिही व ग़ैर-मरई (जो दिखाई ना दे) है।
क्योंकि हर शैय क़ाइम बिल-ग़ैर नज़र आती है और एक दूसरे पर मौक़ूफ़ है और दौर व तसलसुल तो बातिल ही हैं। इसलिए चाहिए कि कोई हस्ती क़ायम बिल-ज़ात हो जिस पर तमाम सिलसिला मुन्तहा (ख़त्म) हो जाए।
लेकिन उस की निस्बत ये सवाल करना कि वो क्या है और कैसा है और कहाँ है कोई कुछ नहीं जान सकता और ना बतला सकता है आदमी की अक़्ल ने सिर्फ उस की हस्ती पर गवाही दी है और इस से ज़्यादा कुछ नहीं बतला सकती है पस इस सवाल के जवाब में कि ख़ुदा क्या है हम कुछ नहीं कह सकते बजुज़ इस के कि ख़ुदा एक हस्ती है जिसका होना ज़रूरी है। और वही मदार मौक़ूफ़ अलैह है सब मौजूदात का और कोई बिल-किनाया (इशारा) नहीं जानता कि वो कहाँ है और कैसा है।
अगरचे हम उस की माहियत (असलियत) के मुत’अल्लिक़ कुछ नहीं कह सकते हैं लेकिन मन वजह किसी क़द्र बयान कर सकते हैं। मगर पहले ज़ेल के फ़िक़्रों पर ग़ौर कर लेना चाहिए वो ये हैं :-
(1) कि हक़ाइक़ अश्या ज़रूर साबित हैं यानी चीज़ों की हक़ीक़तें जहां तक इन्सान की अक़्ल ने दर्याफ़्त की हैं ज़रूर साबित हैं वो वहमी या फ़र्ज़ी नहीं हैं। मसलन आग एक हक़ीक़ी चीज़ है जिसे जलाने की ताक़त है ना एक फ़र्ज़ी या वहमी चीज़।
(2) हमारे हवास और हमारी क़ुव्वत फ़िक्री बेकार शैय नहीं है और हमारे सही तजुर्बात यक़ीनी हैं।
पस जबकि ये बात है तो अब ख़ुदा की निस्बत भी कुछ फ़िक्र कर सकते हैं कि वो कैसा है।
बा’ज़ कहते हैं कि वो नरिगन यानी बे-सिफ़ात है लेकिन ये बात तसल्ली बख़्श नहीं है क्योंकि दुनिया की हर एक चीज़ में कोई ना कोई सिफ़त होती है और हर एक चीज़ में नई सिफ़त नज़र आती है पस जबकि मख़्लूक़ात में सिफ़ात मौजूद हैं तो इस के क्या मा’नी हैं कि ख़ालिक़ में सिफ़ात ना हों इसलिए ये ख़याल कि ख़ुदा में कोई सिफ़ात नहीं है बातिल है।
इस ख़याल-ए-फ़ासिद का हासिल ये है कि गोया ख़ुदा एक बे-जान माद्दा है और दुनिया का कारख़ाना अबस।
इस ख़याल में इल्हाम की रोशनी की ज़रा सी भी आमेज़िश नहीं है इसलिए ये ख़याल निहायत बेहूदा और हलाक कुन है।
ख़ुदा वाजिब उल-वजूद है और जामे’ जमी’ सिफ़ात कमाल है यानी क़दम, हयात, क़ुद्रत, इल्म, सम’ (कान), बसर (आँख), इरादा उस में है और वो तमाम उयूब से पाक है मकान ज़मान जो हर अर्ज़ जिहात वग़ैरह से मुबर्रा (पाक) है।
ये सारा बयान दुरुस्त और अच्छा मालूम होता है कि ख़ुदा ज़रूर ऐसा ही है मगर ये ख़याल अक़्ल और इल्हाम की आमेज़िश से निकला है ना सिर्फ अक़्ल से। जिससे ये साबित होता है कि जब अक़्ल इल्हाम की पैरवी करती है तो बाइस फ़लाहत दारीन बनती है। और जब इल्हाम से अलैहदा हो जाती है तो दोनों दुनिया में बर्बाद करती है अहले-इस्लाम यहां तक तो हमारे साथ मुत्तफ़िक़ हैं मगर आगे चल कर अल्लाह बेली (बचाए) है।
बयान बाला में जो ख़ुदा की निस्बत है अगरचे अल्फ़ाज़ मुनासिब इस्तिमाल हुए हैं लेकिन ता’रीफ़ का मफ़्हूम अदा नहीं करते हैं। पस इक़्तिज़ा-ए-रूह क्योंकर पूरा हो सकता है और मा’र्फ़त जिससे तसल्ली हो कहाँ किस तरह हासिल हो सकता है।
इक़्तिज़ा-ए-रूह सिर्फ इसी से पूरा नहीं हो सकता है कि हम ख़ुदा की निस्बत ये अल्फ़ाज़ सुनें बल्कि इस से ज़्यादा वज़ाहत की ज़रूरत है पस न तो अक़्ल की आँख से कुछ देखा ना जिस्म की आँख से मगर यही सुना कि कुछ है। अब रूह की सेरी क्योंकर हो रूह तो दीदार की मुश्ताक़ है और उन बातों से जो ऊपर मज़्कूर हैं दीदार तो कहाँ कुछ मफ़्हूम भी तसल्ली बख़्श ख़याल की आँख के सामने नहीं गुज़र सकता।
पहले इस बात को मालूम करना चाहिए कि इन्सान की रूह ख़ुदा के दीदार की मुश्ताक़ है और ये उस की एक ख़्वाहिश है जो ख़ालिक़ की तरफ़ से उस में रखी गई है और ये उम्दा और पाक और अच्छी ख़्वाहिश है मगर लोगों ने बेजा तौर पर इस की तक्मील अपनी मर्ज़ी से करने का इरादा करके क्या-क्या कुछ नहीं किया।
बहुतों ने अवतार होने का झूटा दा’वा किया या लोगों ने उन्हें अवतार फ़र्ज़ करके चाहा कि अपनी इस ख़्वाहिश को बुझाएं और बहुतों ने बुत-परस्ती इसी मंशा से निकाली कि अपने ख़ालिक़ को सामने देखें।
हमा औसत वालों ने चाहा कि मौजूदात पर नज़र डाल के समझें कि ख़ुदा सब कुछ है और यूं रूह की प्यास बुझाएं और मुन्किराने ख़ुदा ने भी इसी लिए इन्कार किया कि ना अक़्ल की आँख से ना जिस्म की आँख से किसी तरह उसे नहीं देख सकते जिसे देखना चाहते हैं।
और अहले इस्लाम ने भी अपनी इस ख़्वाहिश के सबब कि रूह कुछ देखना चाहती है मुराक़बा और हुज़ूरी की क़ल्ब (दिल), क़ियामत में दीदार इलाही की उम्मीद और क़िब्ला साज़ी या फ़नानी अल-शेख़ और फ़नानी अल-रसूल और बा’ज़ ने हुस्न-परस्ती वग़ैरह हियलों से इस प्यास को बुझाना चाहा पर किसी की कुछ तसल्ली नहीं हो सकती है।
हासिल तक़रीर आँख ज़रूर रूह में इक़तिज़ा है कि हम अपने ख़ुदा को देखें और आदमी अपनी तज्वीज़ से इस ख़्वाहिश के पूरा करने में सब तरह से हाथ पांव मारते हैं और ज़हनी फ़र्ज़ी ख़ुदा अपने ख़यालात में जमा कर लेते हैं इसलिए उनका दिल नापाक हो जाता है और रफ़्ता-रफ़्ता मुर्दा लेकिन ख़ुदा इस इक़तिज़ा से वाक़िफ़ है और पूरा करने पर भी क़ादिर है।
अगर कोई कहे कि अक़्लन हलूल मना है यानी उलूहियत का इन्सानियत में आजाना अक़्लन नाजायज़ है। ये तो सच है मगर क़ुबूल मना नहीं है और वो ये है कि इन्सानियत को उलूहियत अपने अंदर ले-ले और ये इसलिए है कि इन्सानियत में इतनी ताक़त नहीं है कि ग़ैर-मुतनाही ख़ुदा को अपने अंदर ले। मगर ग़ैर मुतनाही ख़ुदा में ये ताक़त है कि इन्सानियत को जो मुतनाही है क़ुबूल करले देखो अथनासीस के अक़ीदे का ये फ़िक़्रह कि ना उलूहियत इन्सानियत से बदल गई मगर इन्सानियत को उलूहियत ने ले लिया। पस इस मुक़ाम पर हलूल की बात जमाना ही नाजायज़ है। यहां हलूल नहीं है यहां क़ुबूल है और इस क़ुबूल में या किसी सूरत में जब ख़ुदा ज़ाहिर हो तो उस की सिफ़ात कामिला में हरगिज़ कुछ नुक़्सान लाज़िम नहीं आता मगर उस की इज़्ज़त और भी ज़्यादा ज़ाहिर होती है।
इस भेद को भी कमा-हक़्क़ा सिर्फ़ बाइबल ही ने दिखलाया या बाइबल ने ख़ुदा की सिफ़ात और ता’रीफ़ मज़्कूर की नफ़ी नहीं की बल्कि सबसे ज़्यादा ताकीदा के साथ जलाल और कुद्दूसी व गय्युरी और हमादानी वग़ैरह सिफ़ात के साथ ख़ुदा और तशख़ीस को भी ख़ूब दिखलाया है। (मसलन तौरेत शरीफ़ किताब पैदाइश रुकू’ 3 आयत 8) ख़ुदा आदम पर फिरता हुआ ज़ाहिर हुआ। (रुकू’ 17 आयत 1) और जब इब्राहिम निनान्वें बरस का हुआ तब परवरदिगार इब्राहिम को नज़र आया और उस से कहा कि मैं ख़ुदा-ए-क़ादिर हूँ तो मेरे हुज़ूर में चल और कामिल हो। (रुकू’ 26 आयत 2) फिर परवरदिगार ने इस्हाक़ पर ज़ाहिर हो के कहा मिस्री को मत जाना। (रुकू’ 32 आयत 30) याक़ूब ने कहा कि मैंने ख़ुदा को रूबरू देखा और मेरी जान बच रही। (किताब ख़ुरूज रुकू’ 3 आयत 6) बूटे में से ख़ुदा बोला कि मैं इब्राहिम इस्हाक़ याक़ूब का ख़ुदा हूँ। (यशूअ रुकू’ 5 आयत 15) यशू’ से कहा ये मकान जहां तू खड़ा है मुक़द्दस है। (क़ाज़ी रुकू’ 13 आयत 8) मनूहा से कहा कि मेरा नाम अजीब है। (1 समुएल रुकू’ 3 आयत 10) समुएल को बैत-अल्लाह में आकर पुकारा (अय्यूब रुकू’ 42 आयत 5) अय्यूब से कहता है कि मैंने तेरी ख़बर अपने कानों से सुनी थी पर अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं। (यस’याह रुकू’ 6 आयत 10) में कहता है कि मैंने ख़ुदावंद को एक बड़ी बुलंदी पर ऊंचे तख़्त पर बैठे देखा। (दानियाल रुकू’ 3 आयत 25) नबूकद-नसर कहता है कि चौथे की सूरत ख़ुदा के बेटे की सी है। ये हाल तो पुराने अहद नामे का है लेकिन नए अहदनामे में एक शख़्स ज़ाहिर हुआ है जो (अपने) आपको इब्ने-अल्लाह और अल्लाह बतलाता है और सारी सिफ़ात कामला जो उलूहियत में हैं अपने अंदर साफ़ दिखलाता है जिसका नतीजा ये है कि ख़ुदा इन्सान की सूरत में है।
ख़ुदा कोई क़ुव्वत नहीं है मिस्ल हरारत, युबूसत, रतूबत, बुरूदत वग़ैरह के मगर वो एक शख़्स है जिसमें तमाम सिफ़ात कमाल मौजूद हैं और वो मख़्लूक़ात से अलग है और हाज़िर व नाज़िर और हर जगह अपने इल्म और क़ुद्रत से मौजूद है मगर अपनी ज़ात-ए-पाक से मुम्ताज़ है और वो ज़ूल-जलाल व अल-किराम है उस की सताइश और बुजु़र्गी अबद तक हो मसीह ख़ुदावंद के वसीले से आमीन। फ़क़त।
नवां लैक्चर तस्लीस-फ़ील-तौहीद
वाज़ेह हो कि ख़ुदा की ज़ात के मुत’अल्लिक़ तस्लीस-फ़ील-तौहीद और तौहीद फ़ील-तस्लीस का ज़िक्र इल्हामी किताबों के दर्मियान पाया जाता है।
बा’ज़ लोग इस से ख़फ़ा होते हैं और कलाम की तहक़ीर करते हैं। अगरचे ऐसी बात पर चौंकना तो मुनासिब है ताकि हम शिर्क की तरफ़ ना खिच जाये लेकिन ग़ौर ना करना कि ये क्या बात है और मतलब है कि ये भी बेवक़ूफ़ी है।
इस मुआमले में दो बातों पर सोचना मुनासिब है अव्वल आंका बाइबल ने तस्लीस को किस तरह पेश किया है बहुत से ऐसे लोग हैं जो तस्लीस के पेश किए जाने के तौर पर ज़रा भी नहीं सोचते। तस्लीस के नाम से घबराते हैं और यही सबब है कि उनके बयान में भी गलतियां होती हैं और ये बहुत नामुनासिब बात है कि किसी अक़ीदे को ख़ूब दर्याफ़्त किए बग़ैर उस को रद्द किया जाये लिहाज़ा पहले हम ये दिखलाते हैं कि तस्लीस क्योंकर और किस सूरत में हमारे सामने पेश की गई है इस के बाद अपने दलाईल भी हम पेश करेंगे बाइबल में तस्लीस का ज़िक्र है इस का ख़ुलासा अगर कोई देखना चाहे तो अथानासीस के अक़ीदे का पहला हिस्सा देख ले जो ये है :-
अक़ीदा जामे’ ये है कि हम तस्लीस में वाहिद ख़ुदा की और तौहीद में तस्लीस की परस्तिश करें।
ना अक़ानीम को मिलाएँ और ना माहियत (असलियत) को तक़्सीम करें।
क्योंकि बाप एक उक़नूम बेटा एक उक़नूम और रूह-उल-क़ुद्स एक उक़नूम है मगर बाप बेटे और रूह की उलूहियत एक ही है जलाल बराबर अज़मत यकसाँ।
जैसा बाप है वैसा ही बेटा और वैसा ही रूह-उल-क़ुद्स है। बाप ग़ैर-मख़्लूक़, बेटा ग़ैर-मख़्लूक़ और रूह-उल-क़ुद्स ग़ैर-मख़्लूक़ है बाप ग़ैर-महदूद, बेटा ग़ैर-महदूद और रूह-उल-क़ुद्स ग़ैर-महदूद है।
बाप अज़ली, बेटा अज़ली और रूह-उल-क़ुद्स अज़ली है।
ताहम तीन अज़ली नहीं बल्कि एक अज़ली इसी तरह तीन ग़ैर-महदूद नहीं और ना तीन ग़ैर-मख़्लूक़ बल्कि एक ग़ैर-मख़्लूक़ और एक ग़ैर-महदूद है।
यूँही बाप क़ादिर-ए-मुतलक़, बेटा क़ादिर-ए-मुतलक़ और रूह-उल-क़ुद्स क़ादिर-ए-मुतलक़, तो भी तीन क़ादिर-ए-मुतलक़ नहीं बल्कि एक क़ादिर-ए-मुतलक़ है।
वैसे ही बाप ख़ुदा, बेटा रूह-उल-क़ुद्स ख़ुदा, तिस पर भी तीन ख़ुदा नहीं बल्कि एक ख़ुदा है।
इसी तरह बाप ख़ुदावंद, बेटा ख़ुदावंद और रूह-उल-क़ुद्स ख़ुदावंद तो भी तीन ख़ुदावंद नहीं बल्कि एक ही ख़ुदावंद है।
क्योंकि जिस तरह मसीही अक़ीदे से हम पर फ़र्ज़ है कि हर एक उक़नूम को जुदागाना ख़ुदा और ख़ुदावंद मानें इसी तरह देन जामे’ से हमें ये कहना मना है कि तीन ख़ुदा या तीन ख़ुदावंद हैं।
बाप किसी से मसनू’ (बनाया हुआ) नहीं ना मख़्लूक़ ना मौलूद है।
बेटा अकेले बाप से है मसनू’ (बनाया हुआ) नहीं ना मख़्लूक़ लेकिन मौलूद है।
रूह-उल-क़ुद्स बाप और बेटे से है ना मसनू’ (बनाया हुआ) ना मख़्लूक़ ना मौलूद लेकिन सादिर है पस एक बाप है ना तीन बाप एक बेटा है ना तीन बेटे एक रूह-उल-क़ुद्स है ना तीन रूह-उल-क़ुद्स।
और इस तस्लीस में एक दूसरे से पहले या पीछे नहीं एक दूसरे से बड़ा या छोटा नहीं बल्कि बिल्कुल तीनों अक़ानीम अज़ल से बराबर यकसाँ हैं इसलिए सब बातों में जैसा कि ऊपर बयान हुआ तस्लीस में तौहीद की और तौहीद में तस्लीस की परस्तिश की जाये।
ये पहला हिस्सा है मुक़द्दस अथानासीस के अक़ीदे का जो हमारे ईमान का एक बड़ा हिस्सा है और बाइबल के मुख़्तलिफ़ मुक़ामों से चुन कर जमा किया गया है।
पहला फ़िक्र इस एतिक़ाद पर बलिहाज़ बाइबल और कलीसिया के किया जाता है और इस फ़िक्र में चार बातें सोचना है।
(1) ये मज़्मून जो ऊपर बयान हुआ मुत्तफ़िक़ अलैह है सब मसीहियों का कोई ऐसी बात नहीं है जो फ़रुआत की बात होता कि जिसका जी चाहे इस को क़ुबूल करे और जिस का जी चाहे क़ुबूल ना करे बल्कि ये एक ऐसी उसूली बात है जिसको सब मानते हैं यानी सब फ़िर्क़े तस्लीस के क़ाइल हैं लिहाज़ा मसीही दीन की बुनियाद ये है और तस्लीस के नाम पर सब बपतिस्मा पाते हैं।
(2) ये बात भी ज़ाहिर है कि यक़ीनन बाइबल यूँही सिखलाती है यानी किसी आदमी के ज़हन का इख़्तिरा (बनावट) नहीं है जिसे हम एक छोटी सी बात समझ कर छोड़ दें।
(3) यक़ीनन बाइबल के जितने वा’दे हैं इसी अक़ीदे पर मौक़ूफ़ हैं। अगर ये हमारे हाथ से जाता रहे तो फिर हम उन बरकात की उम्मीद नहीं रख सकते जो बाइबल में मज़्कूर हैं।
(4) इस अक़ीदे का इन्कार बाइबल और अहले-बाइबल से जुदाई का मूजिब है। अगर हम इस को नहीं मानते तब बाइबल से बिल्कुल जुदाई होती है और उनसे भी जिनके वसीले से ये बाइबल दी गई है।
(1) इस अक़ीदे में तस्लीस का इलाक़ा उलूहियत की ज़ात में दिखलाया गया है ना सिर्फ सिफ़ात में। यानी ये बात नहीं है कि ज़ात इलाही का नाम बाप से और बेटा व रूह-उल-क़ुद्स सिफ़ात हैं।
(2) तीन उक़नूम बयान हुए हैं एक ही माहियत (असलियत) के दर्मियान ना तीन माहियतें लेकिन तीन शख़्स हैं माहियत (असलियत) वाहिद के और अगरचे इनमें तशख़ीस है तो भी तीन जुदागाना ख़ुदा नहीं हैं।
(3) ये तीनों शख़्स मख्लूक़ियत और मस्नू’इयत और तक़द्दुम व ताखिर और ख़ुदी और बुजु़र्गी से अलग हैं और ग़ैर-महदूद होके क़ुद्रत व अज़लियत व अबदियत में यकसाँ हैं।
(4) बेटा बाप से बतलाया गया है मसनू’ व मख़्लूक़ नहीं मगर मौलूद है और मा’नी विलादत के ना उर्फ़ी हैं लेकिन फ़हम से बालातर हैं और तक़द्दुम व ताखिर से अलग हैं।
(5) रूह-उल-क़ुद्स बाप और बेटे से बतलाया गया है मगर मस्नू’इयत, मख़्लूक़ियत और मौलूदियत के तौर पर नहीं बल्कि इस्दार के तौर पर है।
(6) और इस तस्लीस की परस्तिश में ऐन वाहिद ख़ुदा की परस्तिश बतलाई गई है और तीन ख़ुदा बतलाने वाले पर मलामत है जैसे मुन्किर तस्लीस पर भी मलामत है।
पस क्या ये बयान जो ऊपर हुआ अक़्ली है कोई बशरी से इसे समझ सकता है हरगिज़ नहीं तब यू यक़ीनन किसी आदमी की अक़्ल से नहीं निकला अगर अक़्ल से निकलता तो अक़्ल में आ सकता ये ख़ुदा से है जो अक़्ल से बाला है।
मु’अल्लिम की हिदायत के लिहाज़ से
इस वक़्त ये सवाल है कि ये अक़ीदा हमें समझा दो और ये सवाल ना अपनी अक़्ल से पैदा हुआ है ना उक़ला-ए-जहान के ज़हन से ना किसी पादरी के इल्म से बल्कि उस की तरफ़ से पैदा हुआ है जिसने ये अक़ीदा सिखलाया है।
कि ये मसअला इदराक की नहीं है बल्कि वजदानी है और इदराक व वजदान में बहुत बड़ा फ़र्क़ है। इदराक से मुराद वो तसव्वुरात हैं जो अहाता अक़्ल में समा कर ज़हन इन्सान में मुनक़्क़श हो सकते हैं लेकिन ये तस्लीस का बयान उस ज़ात का बयान है जो अहाता अक़्ल से निहायत बुलंद व बाला है। सो इस का इदराक ज़हन में तलब करना ही ख़िलाफ़ अक़्ल है। देखो अय्यूब पैग़म्बर क्या कहता है (अय्यूब रुकू’ 11 आयत 7) क्या तू अपनी तलाश से ख़ुदा का भेद पा सकता है या क़ादिर-ए-मुतलक़ के कमाल को पहुंच सकता है वो तो आस्मान सा ऊंचा है तू क्या कर सकता है पाताल सा नीचा है तू क्या जान सकता है?
लेकिन वजदान ख़ुदा की तरफ़ से एक इन्किशाफ़ है इन्सान की रूह पर जिससे रूह तस्कीन और यक़ीन और एक गोना इल्म भी पैदा हो जाता है यानी ये एतिक़ाद उसी इन्किशाफ़ से रूह पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) होता है तब रूह इसे क़ुबूल करती है और ज़हन सज्दा करता है यही सबब है कि सब ख़ादिमान दीन इस एतिक़ाद के तालिबान फ़हम को दुआओं के लिए ताकीद करते हैं ताकि उस हक़ीक़ी मु’अल्लिम की तरफ़ रुजू’ करें जो अपने ख़ास बंदों पर ज़ाहिर होने की ताक़त रखता है।
देखो जब पतरस ने दूसरे उक़नूम का इक़रार किया कि “तू मसीह ज़िंदा ख़ुदा का बेटा है” तो मसीह ने यूं फ़रमाया (इन्जील शरीफ़ ब-मुताबिक़ हज़रत मत्ती रुकू’ 16 आयत 17) “मेरे बाप ने जो आस्मान पर है तुझ पर ज़ाहिर किया।”
रसूल मक़्बूल कहता है कि “जो बातें आँख और कान और अक़्ल के अहाते से बाहर हैं उनको ख़ुदा ने अपनी रूह के वसीले से हम पर ज़ाहिर किया।” (ख़त-ए-अव्वल अहले कुरिन्थियों रुकू’ 2 आयत 10)
और दूसरे मुक़ाम पर ख़ुदावंद ने साफ़ कह दिया है (हज़रत मत्ती रुकू’ 11 आयत 25) कि “ऐ बाप आस्मान और ज़मीन के ख़ुदावंद मैं तेरी ता’रीफ़ करता हूँ कि तू ने इन चीज़ों को दानाओं और अक़्लमंदों से छुपाया और बच्चों पर ज़ाहिर कर दिया।”
दानाओं और अक़्लमंदों से वो लोग मुराद हैं जो अक़्ल पर नाज़ाँ हैं और मग़ुरूर हैं और इल्हाम की बनिस्बत अक़्ल पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं। वो गोया अपने हाथ से ख़ज़ाना शाही पर दस्त-अंदाज़ी करना चाहते हैं, कि ख़ुदा के इसरार मख़्फ़ी (छिपी) में भी अक़्ल का हाथ डाल कर जो चाहें उठा लें। वो गदाई (मांगने वालों) के तौर पर ख़ुदा से इर्फ़ान नहीं मांगते हैं लेकिन घर के मालिक बनना चाहते हैं। ऐसे लोगों से ख़ुदा ने बतौर सज़ा के इन अमीक़ बातों को पोशीदा रखा है।
जब मसीह ने याइर सरदार की बेटी को ज़िंदा किया तो ठट्ठे बाज़ों को बाहर निकाला जो अक़्ल के मुवाफ़िक़ सिर्फ आदत के पैरौ थे और क़ुद्रत पर ज़रा भी ख़याल ना करते थे। चुनान्चे उन्होंने ठट्ठा मार के कहा था कि लड़की तो मर चुकी है उस्ताद को तक्लीफ़ ना दे तब मसीह ने उन्हें बाहर निकाला ताकि इलाही जलाल ना देखें ये बेईमानी की सज़ा के सबब से था।
उसने तो ख़ुद फ़रमाया कि अपने मोती सूअरों के आगे मत फेंको। पस जिसने अपने शागिर्दों को शरीरों के सामने मोती फेंकने से मना किया क्या वो ख़ुद शरीरों पर अपने पाक भेद ज़ाहिर करेगा? हरगिज़ नहीं।
हाँ उस ने बच्चों पर ज़ाहिर कर दिया अब ख़्वाह वो बच्चे आलिम थे या जाहिल मगर वो ख़ुदा की हिदायत के मुहताज थे वो ख़ुदा की मर्ज़ी के ताबे और फ़िरोतन थे ना ख़ुदा के सलाहकार और उस के कारख़ाने के हिस्सेदार।
ये बच्चे इनाम के सज़ावार थे क्योंकि उन्होंने ख़ुदा की इज़्ज़त की और अपने मर्तबा ‘उबूदियत से आगे ना बढ़े और सातवें लैक्चर के मुवाफ़िक़ उनकी रूहें बचने के लिए तैयार थीं इसलिए ख़ुदा ने उन पर फ़ज़्ल किया और ये क़ायदे की बात है कि अहले जहल-ए-बसीत हमेशा तरक़्क़ी कर जाते हैं और अहले जहल-ए-मुरक्कब नादानी में मरते जाते हैं और हमेशा पस्त हाल लोग सर-बुलंदी हासिल करते हैं लेकिन मग़ुरूर शिकस्त खाते हैं।
पस तीसरे फ़िक्र का हासिल ये है कि :-
तस्लीस-फ़ील-तौहीद इदराक ज़हन से बिल-किनाया बुलंद व बाला है लेकिन ख़ुदा इसे आदमियों की रूहों पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) करता है और ये इन्किशाफ़ तसव्वुर अक़्ली से ज़्यादातर मुफ़ीद है और ख़ुदा आप फ़िरोतनों को ये इन्किशाफ़ बख़्शता है और मग़ुरूर इस के मुस्तहिक़ नहीं होते हैं जब तक फ़िरोतनी इख़्तियार ना करें।
(1) तस्लीस-फ़ील-तौहीद पर रसूलों और मुक़द्दसों का सारा सिलसिला मुत्तफ़िक़ है इस का इन्कार इस सिलसिले से जुदाई का बाइस है।
(2) इस का इन्कार दलाईल अक़्लिय्या व नक़्लिया से जिस तरह पर कि किया जाये तो वो सब दलाईल तस्लीस पेश शूदा की किसी ना किसी मुक़द्दमे की अदम रिआयत के सबब बातिल ठहरते हैं।
(3) तस्लीस-फ़ील-तौहीद अगरचे अक़्ल से बुलंद और इदराक (समझ) से बाला है तो भी इस का इन्किशाफ़ रूह पर होता है अगर ये बात अक़्ल से ज़हन में आ सकती तो भी इस की बाबत हरगिज़ कामिल तस्कीन ना हो सकती थी लेकिन वो इन्किशाफ़ात जो अल्लाह की तरफ़ से बख़्शा जाता है वही इस बारे में कामिल तसल्ली का बाइस हो सकता है पस ये कहना कि तस्लीस को हम नहीं समझते सच है और ये कहना कि हम इसे जानते और मानते हैं सच है फ़क़त।
दसवाँ लैक्चर : तस्लीस की तौज़ीह
उन लोगों का जो अक़्ल पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं इल्हाम की निस्बत उनकी सारी तक़रीरों का हासिल हस्बे-ज़ैल है :-
वो कहते हैं कि तस्लीस का एतिक़ाद बातिल है और ख़िलाफ़ अक़्ल है जिसको कोई अक़्लमंद शख़्स क़ुबूल नहीं कर सकता है क्योंकि तौहीद नफ़ी तअद्दुद (एक से ज्यादा, के इन्कार) पर दलालत करती है और तस्लीस इस्बात तअद्दुद (एक से ज्यादा साबित होने) पर और ये दो नक़ीज़ैन (टकराव) हैं इनका इज्तिमा (जमा होना) शख़्स वाहिद में आन वाहिद के दर्मियान हक़ीक़ी तौर पर मुहाल (नामुम्कीन) है।
और अगर कोई कहे कि ये अक़ीदा इल्हामी है तो याद रखना चाहिए कि इल्हाम अक़्ल का मह्कूम है। ना अक़्ल का हाकिम क्योंकि सबूत इल्हाम अक़्ल पर मौक़ूफ़ है और तक्लीफ़ शरई अह्ल-ए-अक़्ल को है पस जो बात अक़्ल के ख़िलाफ़ हो वो बात इल्हामी नहीं हो सकती है।
इन लोगों का ये एतराज़ तीन वजह से क़ाबिल पज़ीराई नहीं हो सकता है।
पहली वजह हम पूछते हैं कि आया कुल बनी-आदम की अक़्ल इस को ख़िलाफ़ और बातिल बतलाती है या ख़ास एक दो क़ौम की अक़्ल पस अक़्ल ख़ास से अक़्ल आम पर फ़त्वा देना कौनसी अक़्लमंदी है।
अगरचे सैंकड़ों की अक़्ल ने इस को क़ुबूल नहीं किया तो चंदाँ मज़ाइक़ा नहीं क्योंकि करोड़ों की अक़्ल ने इसे क़ुबूल किया है।
मसलन अगरचे बा’ज़ की अक़्ल ने ख़ुदा के वजूद का इन्कार किया है तो करोड़ों की अक़्ल ने ख़ुदा को क़ुबूल भी किया है अब कोई मुन्किर-ए-ख़ुदा ये नहीं कह सकता कि मुतलक़ अक़्ल ख़ुदा को क़ुबूल नहीं कर सकती है अगर ऐसा कहे तो यक़ीनन बेवक़ूफ़ है हाँ वो कह सकता है कि मेरी अक़्ल ख़ुदा को क़ुबूल नहीं कर सकती है।
और अगर उनकी मुराद ये है कि अक़्ल-ए-सलीम इस अक़ीदे को नहीं मान सकती है तो लाज़िम है कि हमें दिखलाएँ कि अक़्ल-ए-सलीम कहाँ से आया आम तौर पर दुनिया के लोगों में पाई जाती है या किसी ख़ास क़ौम में या मुन्किरों ही को वो इनायत हुई है।
बरख़िलाफ़ इस के और क़ौमों के बिल-मुक़ाबिल अहले-तस्लीस के दर्मियान ज़्यादातर अक़्ली रोशनी व खूबी पाई जाती है हम क्योंकर कहें कि अक़्ल-ए-सलीम सिर्फ़ मुन्किरों में है और मसीहियों में नहीं है।
पस ये कहना चाहिए कि मेरी अक़्ल में तस्लीस का भेद नहीं आता ना ये कि कोई अक़्लमंद इस को क़ुबूल नहीं कर सकता है।
दूसरी वजह मुन्किरों ने जो दलील पेश की है वो ना-कामिल दलील है क़बूलियत के लायक़ नहीं है क्योंकि इस्बात तादाद और नफ़ी तअद्दुद (एक से ज्यादा) का इज्तिमा अगरचे अक़्लन मुहाल है तो ये माद्दियत का क़ायदा है अगर माहियत (असलियत) इलाही पर भी ये क़ायदा जारी हो जाए तो सब पर इस क़िस्म के क़ाएदे जारी होंगे इस सूरत में मुख़ालिफ़ीन को बेहद मुश्किलात का सामना होगा।
मसलन उस साने’ का वजूद जो माद्दी ना हो अक़्लन मुहाल है ये बात क़ियास में हरगिज़ नहीं आ सकती है कि ग़ैर-माद्दी ख़ुदा ने इस माद्दी जहान को क्योंकर पैदा कर दिया। नज्जार (कारपेंटर) कभी मेज़ नहीं बना सकता जब तक लकड़ी और औज़ार उस के पास ना हों देखिए हमारा ये क़ायदा ख़ुदा पर हरगिज़ जारी नहीं हो सकता इसी तरह वजूद बग़ैर मकान के किस तरह ख़याल में आ सकता है लेकिन हम ख़ुदा को मौजूद और मकान से मुनज़्ज़ह (पाक) मानते हैं।
इसी तरह किसी मौजूद को जो जिहात सत्ता से मुबर्रा हो अक़्ल क़ुबूल नहीं कर सकती है हालाँकि ख़ुदा जिहात सत्ता से पाक है और ना ज़माने की क़ैद से आज़ाद है। इसी तरह ख़ुदा की सिफ़ात ना ऐन ज़ात हैं ना ग़ैर-ज़ात अगर ख़ुदा की सिफ़तों को ऐन ज़ात मानो तो मौजूदात भी उलूहियत के दर्जे में होंगे और इस सूरत में मसअला हमा औसत भी दुरुस्त होगा जो अक़्लन बातिल है और अगर ख़ुदा की सिफ़ात ग़ैर-ज़ात हैं तो उन का इन्फ़िकाक जायज़ होगा मिस्ल सब दीदनी सिफ़ात के इस सूरत में ख़ुदा नाक़िस ठहरेगा लिहाज़ा मजबूरन ये बात मानी जाती है कि उस की सिफ़ात ना ऐन ज़ात हैं ना ग़ैर-ज़ात बल्कि बैन-बैन कोई और दर्जा है जो क़ियास से बाहर है।
पस या तो सब अक़्ली क़ाएदे इस पर जारी करो और ख़ुदा को हाथ से खो बैठो और या सब अक़्ली क़ाईदों से उसे बुलंद और बाला जानो और चूँ व चरा को इस में दख़ल ना दो और मावरा-उल-अक़्ल ख़ुदा का इक़रार करो।
तादाद का नफ़ी ये लोग लफ़्ज़ वहदत से निकालते हैं अगरचे ये बात सच है मगर किस हैसियत से इस पर कुछ ग़ौर नहीं करते हैं।
इस का मतलब ये है कि उलूहियत की माहियत (असलियत) वाहिद है उस की माहियत (असलियत) में कोई दूसरी माहियत (असलियत) शरीक नहीं है वो एक माहियत (असलियत) है जो सारे मौजूदात पर ख़ुदाई करती है।
और इस्बात तअद्दुद (एक से ज्यादा) लफ़्ज़ तस्लीस से निकालते हैं मगर ये नहीं सोचते कि ये तअद्दुद (एक से ज्यादा) किस हैसियत से है तस्लीस का तो ये मतलब है कि वही एक माहियत (असलियत) है जिसमें तीन शख़्स हैं अगरचे वो तीन शख़्स हैं तो भी उन्हें तीन ख़ुदा कहना कुफ़्र है क्योंकि माहियत (असलियत) वाहिद है ना कि तीन माहियतें। अगर हम यूं कहते कि ख़ुदा एक माहियत (असलियत) है और वही ख़ुदा तीन माहियतें हैं तो अलबत्ता तनाक़ुज़ (तज़ाद, टकराओ) हो सकता था। ये तो तनाक़ुज़ (इख्तिलाफ) ही नहीं यहां तो मन वजह की क़ैद है यानी ख़ुदा एक माहियत (असलियत) है वही एक माहियत (असलियत) तशख़ीस के एतबार से तीन उक़नूम रखती है पस इस तक़रीर का मफ़्हूम जहां तक इदराक में आ सकता है तनाक़ुज़ (इख्तिलाफ) से पाक है क्योंकि दो बातें हैं जुदा-जुदा जो अक़ीदा मज़्कूर से निकलती हैं।
इलाही वहदत, और इलाही तस्लीस इन दोनों बातों के मफ़्हूम अक़्लन ज़हन से बाला हैं।
वहदत इलाही का मफ़्हूम हरगिज़ ज़हन में नहीं आ सकता है क्योंकि ख़ुदा में ना तो वहदत-उल-वजूद है और ना वहदत उर्फ़ी या हक़ीक़ी है और उन दो वहदतों के सिवा कोई तीसरी वहदत ख़याल में नहीं आ सकती है।
वहदत-उल-वजूद हमा औसत का बयान है जो बातिल है वहदत उर्फ़ी को जिहात और मकान लाज़िम है जिससे ख़ुदा को अक़्लन बरी और पाक जानते हैं। पस वो कौनसी वहदत है जो ख़ुदा में है इसलिए यूं कहा जाता है कि वहदत ग़ैर-मुद्रिक उस में है यानी ऐसी वहदत है जो क़ियास से बाहर है।
इसी तरह तस्लीस का मफ़्हूम ज़हन से ख़ारिज है अगरचे मिन-वज्ह (एक मफ्हुम में) ज़ाहिर है लेकिन बिला-किनाया इस का समझना मुश्किल है।
पस दो मुद्रिक मफ़्हूम में से इब्ताल (गलत साबित करना) या इस्बात का नतीजा तुम किस इल्म के क़ाएदे से निकालते हो तुम्हारे पास तो एक भी मालूम नहीं है जिसके वसीले से मफ़्हूम को दर्याफ़्त कर सको इसलिए तुम्हारा ख़याल-ए-बातिल है।
अगर ये कहो कि अगरचे इदराक बिला-किनाया तो नहीं है मगर इदराक मिन-वज्ह (एक मफ्हुम में) तो है तो हमारा जवाब ये है कि इदराक मिन-वज्ही (एक मफ्हुम में) से ऊपर दिखलाया गया है कि इनमें तनाक़ुज़ (टकराओ) नहीं है वो मज़्मून ही जुदा हैं वहदत माहियत (असलियत) को दिखलाती है तस्लीस इसी माहियत (असलियत) वाहिद में तीन शख़्स बतलाती है फिर तनाक़ुज़ (इख्तिलाफ, ताज़ाद) कहाँ है।
हाँ लफ़्ज़ वहदत और लफ़्ज़ तस्लीस में बज़ाहिर तनाक़ुज़ (इख्तिलाफ, ताज़ाद) है मगर इनकी मफ़्हूम में जो जुदागाना हैं तनाक़ुज़ नहीं है पस ऐसी दलील ही पेश करना अक़्ली हिदायत के ख़िलाफ़ है इसलिए तुम्हारी दलील बातिल है।
ये है कि इल्हाम अक़्ल को मह्कूम है क्योंकि इस का सबूत अक़्ल पर मौक़ूफ़ है चुनान्चे ये भी बातिल है।
लैक्चर दोम में दिखलाया गया है कि अक़्ल बहुत बातों में लाचार है और इसलिए हम इल्हाम के मुहताज हैं और ये कि अक़्ल से इल्हाम साबित होता है इस का नतीजा ये नहीं है कि अक़्ल इल्हाम का हाकिम हो जाए हमने ख़ुदा को अक़्ल से जाना है तो भी ख़ुदा अक़्ल का मह्कूम नहीं। जो चीज़ें अक़्ल से पहचानी जाती हैं वो अक़्ल की मह्कूम नहीं हुआ करतीं बल्कि अक़्ल उनकी ख़ादिम होती है। देखो आँख के वसीले से सूरज को और उस की रोशनी को हमने देखा है तो भी सूरज हमारी आँख का मह्कूम नहीं है मगर आँख इस से फ़ायदा उठाती है गोया वो आँख का हाकिम है।
उन लोगों का है जो इल्हाम के क़ाइल हैं और कहते हैं कि अगर इल्हामी किताबों में तस्लीस का ज़िक्र है तो यहूदी इस के क्यों मुन्किर हैं लिहाज़ा ये सिर्फ़ इन्जील का अक़ीदा है ना कुतुब साबिक़ा का।
ये फ़िक्र भी बातिल है जिसका जवाब ये है कि :-
हमारा भरोसा ना सिर्फ आदमियों के ख़यालों पर है बल्कि ख़ुदा की किताबों पर है हाँ ये मुम्किन है कि अपनी मुसल्लमा किताब के ख़िलाफ़ कभी धोके के सबब आदमियों का ख़याल कुछ और हो जाए।
देखो इस्मत अम्बिया की निस्बत बा’ज़ लोगों का ख़याल है कि वो मासूम होते हैं हालाँकि कुतुब इल्हामियाह और क़ुर्आन भी इस के ख़िलाफ़ गवाही देते हैं पस आदमियों के ख़याल ही क़ाबिल तमस्सुक नहीं हैं यहूदी तो इस मसीह को भी नहीं मानते तो क्या उनके ना मानने से हमारे सारे क़ौमी दलाईल जो इस मसीह के सबूत में हैं रद्द हो सकते हैं?
यहूदी तो कलाम के रुहानी मा’नी भी नहीं समझते तो क्या उनके जिस्मानी बेहूदा मा’नी कुछ चीज़ ठहरेंगे याद रखना चाहिए कि बाइबल ने मा’र्फ़त इलाही के बारे में बतद्रीज तरक़्क़ी बख़्शी है ना दफ’अतन (फ़ौरन), जैसे सूरज दर्जा बदर्जा चढ़ता है या तिफ़्ल (बच्चे) तर्तीब के साथ तालीम पाते हैं या दरख़्त बतद्रीज बढ़ते हैं।
इब्राहिम व इस्हाक़ व याक़ूब पर ख़ुदा ने (अपने) आपको क़ादिर-ए-मुतलक़ के नाम से ज़ाहिर किया और मूसा पर यहोवा के नाम से ज़ाहिर हुआ (तौरेत शरीफ़ किताब ख़ुरूज रुकू’ 6 आयत 3) “मैंने इब्राहिम व इस्हाक़ व याक़ूब पर ख़ुदाए क़ादिर-ए-मुतलक़ के नाम से अपने त्यों ज़ाहिर किया। और यहोवा के नाम से उन पर ज़ाहिर ना हुआ। शैतान का ज़िक्र अह्दे-अतीक़ में निहायत मुजम्मल (थोड़ा) सा मिलता है लेकिन अह्दे-जदीद में उस का साफ़-साफ़ बयान है तो क्या अब हम कह सकते हैं कि इब्राहिम व इस्हाक़ व याक़ूब ने ख़ुदा का नाम यहोवा नहीं बतलाया अब मूसा का बतलाया हुआ हम क्योंकर मानें या पूराने अहदनामे ने शैतान का मुफ़स्सिल हाल नहीं सुनाया अब हम इन्जील का ज़्यादा बयान क्यों क़ुबूल करें।
देखो तो अह्दे-अतीक़ तो आप हमें किसी आला हिदायत का उम्मीदवार बनाता है और (अपने) आपको तक्मील तलब ज़ाहिर करता है चुनान्चे ये बात बहुत से मुक़ामों से साबित है इस वक़्त अह्दे-अतीक़ के अव्वल व आखिर व वस्त में ख़ुदा की तीन मोहरें इस बात पर मुलाहिज़ा हूँ।
(तौरेत शरीफ़ किताब इस्तसना रुकू’ 18 आयत 15) तुम इस तरफ़ कान धरो, अगर उस की ना सुनोगे तो मुतालिबा है।
(बाइबल मुक़द्दस सहीफ़ा हज़रत यस’याह रुकू’ 2 आयत 3) ख़ुदावंद का कलाम यरूशलम से निकलेगा।
(सहीफ़ा हज़रत मलाकी रुकू’ 4 आयत 2) लेकिन तुम पर जो मेरे नाम से डरते हो आफ़्ताब सदाक़त तुलू’ होगा।
और ये बात यक़ीनन सही और दुरुस्त है कि अह्दे-जदीद, ही अह्दे-अतीक़ का तकमिला है बग़ैर अह्दे-जदीद के अह्दे-अतीक़ एक बदन है जिसमें रूह ना हो। अह्दे-अतीक़ की सब बातें अह्दे-जदीद में हल होती हैं ऐसा कि जिससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि अह्दे-अतीक़ यक़ीनन अह्दे-जदीद का साया था लेकिन ये बात उन पर ज़ाहिर है जो इन किताबों से वाक़िफ़ हैं।
मुम्किन है कि तस्वीर में कोई दक़ीक़ा क़ाबिल तश्रीह बाक़ी रह जाये मगर जब इस तस्वीर का ऐन ज़ाहिर हुए तो वो दक़ीक़ा ख़ुद बख़ुद समझ में आ जाएगा और जबकि तस्वीर शम्सी है जिसमें ग़लती ही नहीं हो सकती है तो ऐन के तमाम दक़ाइक़ इस में बराबर मिलेंगे। अब कि इन्जील ने तस्लीस को ख़ूब दिखलाया तो चाहिए कि इन्जील के साये या तस्वीर में तलाश करें कि तस्लीस के निशान हैं या नहीं वहां तो कस्रत से ये इसरार बयान हुए हैं।
(तौरेत शरीफ़ किताब पैदाइश रुकू’ 1 आयत 1 व 2) में ख़ुदावंद ख़ुदा की रूह और कलमे पर इशारा है। (रुकू’ 1 आयत 28) लफ़्ज़ “हम बनाएँ” हरगिज़ ताज़ीम के लिए नहीं है जो हिन्दुस्तान वग़ैरह का मुहावरा है मगर कस्रत-फ़ील-वहदत को दिखलाता है जो तस्लीस है और ना फ़रिश्ते मुख़ातिब हैं।
(रुकू’ 3 आयत 22) “आदम हम में से एक की मानिंद हो गया” साफ़ ज़ाहिर करता है कि उलूहियत में अक़ानीम हैं जो बराबर का रुत्बा रखते हैं। (रुकू’ 11 आयत 7) “हम उतरें उनकी बोली में इख़्तिलाफ़ डालें” (सहीफ़ा हज़रत होसे’ रुकू’ 1 आयत 7) “यहूदा के घराने पर रहम करूंगा और उन्हें यहोवा ख़ुदा के वसीले से नजात दूंगा।”
देखो एक उक़नूम दूसरे उक़नूम के वसीले से नजात का वा’दा करता है। (पैदाइश रुकू’ 19 आयत 24) यहोवा ने दूसरे यहोवा की तरफ़ से सदोम व ग़मोरा पर आग बरसाई यानी बेटे ने बाप की तरफ़ से (ज़बूर शरीफ़ रुकू’ 110 आयत 1) “खुदा ने मेरे ख़ुदा से कहा कि मेरे दहने हाथ बैठ।” बाप ने बेटे को दहने बिठला या।
(सहीफ़ा हज़रत ज़करिया रुकू’ 13 आयत 7) एक शख़्स का ज़िक्र है जो ख़ुदा का हमता है वो सय्यदना मसीह है जिसने ख़ुद इस ख़बर को अपनी निस्बत इन्जील में बतलाया।
इनके सिवा बहुत से दकी़क़ और गहरे मुक़ाम हैं जो बहुत ग़ौर से ज़ाहिर होते हैं।
और ख़ुदा की रूह का ज़िक्र तो जगह-जगह अह्दे-अतीक़ में है। पस यहूदियों का ना मानना कुछ हक़ीक़त नहीं रखता है हम तो साबित कर चुके हैं कि यहूदी लोग बहुत से भेदों को यक़ीनन नहीं जानते। तो भी जितने उनमें से ग़ौर करते हैं मान जाते हैं और दीन मसीही का शुरू उन्हें यहूदियों से हुआ है पस न सब यहूदी नहीं मानते मगर वो नहीं मानते जो सब कुछ नहीं मानते और यक़ीनन वो गुमराह हैं।
ईमान की बुनियाद समझते हैं
वो कहते हैं कि अक़्ल बेशक उम्दा चीज़ है मगर अपनी हद के अंदर कौन इस क़ायदे को रद्द कर सकता है?
जहां अक़्ल का हाथ नहीं पहुंचता वहां अक़्ल ही की सलाह से हम इल्हाम की पैरवी करते हैं।
क्योंकि इल्हाम ने इन इन्सान की इस्लाह के बारे में अक़्ल से ज़्यादा हमें तालीम दे के और पेशगोइयों के वसीले से अपनी बसारत बेहद दिखला के और मा’र्फ़त इलाही के इसरार बकस्रत ज़ाहिर करके हमें अपना गरवीदा बना लिया है।
पस मा’र्फ़त ज़ात इलाही के बारे में जो कुछ वो बतलाता है हम बे चूँ व चरा मानते हैं और अक़्ल ही हमें यूं सिखलाती है कि इल्हाम से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) करना हलाकत में जाना है। फ़क़त
ग्यारहवाँ लैक्चर : बरहक़ ख़ुदा
(1) हर एक किताब जो मुद्दई हिदायत है अपनी सब हिदायतों के साथ एक ख़ुदा को भी पेश करती है।
अगर वो किताब ख़ुदा की तरफ़ से है तो उस में ख़ुदा ने अपने आपको ज़रूर ज़ाहिर क्या होगा।
और अगर वो किताब इन्सान की अक़्ल से है तो वो ख़ुदा भी जो उस में मज़्कूर है अक़्ल का ईजाद होगा।
(2) अगरचे फ़िल-हक़ीक़त सब का ख़ालिक़ एक ही ख़ुदा है मगर सब के ज़हन में एक ही ख़ुदा नहीं बस्ता है।
अहले हमा औसत के ज़हन में वहदत-उल-वजूद का ख़ुदा बस्ता है।
अहले इस्लाम के ज़हन में वो ख़ुदा है जो लम यलीद वलम यूलद (لم یلد ولم یولد) बग़ैर तस्लीस और मुक़द्दर ख़ैर व शर है। बा’ज़ हुनूद के ज़हन में निर्गुण ख़ुदा है। और बा’ज़ के ख़याल में सतोगुण ख़ुदा है। मसीहियों के ख़याल में तस्लीस-फ़ील-तौहीद का ख़ुदा है जिसका अज़ली हक़ीक़ी बेटा सय्यदना ईसा मसीह है और सिर्फ ख़ैर का ख़ुदा है मुक़द्दर शर नहीं है।
इसी तरह के फ़र्क़ लोगों के ज़हन में इन ख़ुदाओं की निस्बत पाए जाते हैं जिससे मालूम होता है कि हर एक का ख़ुदा जुदा है।
(3) जैसे कि पेश शूदा किताब की सब हिदायत पर और पेश-कुनिंदा की हालत पर मुहक़्क़िक़ को फ़िक्र करना वाजिब है ऐसे ही बल्कि इस से ज़्यादा पेश शूदा ख़ुदा की निस्बत फ़िक्र करना वाजिब है।
(4) आज के रोज़ बाइबल वाले ख़ुदा की निस्बत फ़िक्र किया जाता है कि वो कैसा है अभी इतनी फ़ुर्सत नहीं है कि हर पेश शूदा ख़ुदा पर फ़िक्र करके दिखलाऊँ कि वो कैसे हैं। मगर हम जानते हैं कि इन ख़ुदाओं में बाइबल वाले ख़ुदा की सिफ़तें हरगिज़ नहीं इसलिए वो सब ख़्याली ख़ुदा हैं जो अक़्ल के ईजाद हैं।
(5) बाइबल वाला ख़ुदा हम उस ख़ुदा को कहते हैं जिसका ज़िक्र बाइबल में है और जो बाइबल में आदमियों को हिदायत करता है। उसी ख़ुदा की निस्बत फ़ख़्र के साथ हमारा दा’वा है कि यही सब ख़ुदाओं में सच्चा और बरहक़ और परस्तिश के लायक़ ख़ुदा है इस को क़ुबूल ना करना सच्चे ख़ुदा से बिल्कुल अलग होना है।
(6) इस बात को अक़्ल ने भी तस्लीम कर लिया है कि ख़ुदा में बेहद खूबियां हैं। लेकिन अक़्ल में हरगिज़ ये ताक़त नहीं है कि इन बेहद खूबियों का ज़िक्र जैसा कि मुनासिब है बयान कर सके इसलिए वो किताब जो आदमी के ख़याल से निकली है इस ख़ूबी से ज़रूर ख़ाली होगी और वो किताब जो ख़ुदा की तरफ़ से है इस ख़ूबी से भरपूर होगी।
(7) हमको इस बात से हरगिज़ फ़रेब ना खाना चाहिए कि कोई मु’अल्लिम हमें अपनी अक़्ल की हद तक ख़ुदा की खूबियां सुना के कहे कि हमारी किताब में ख़ुदा को करीम, रहीम, ग़फ़ूर, हलीम, हकीम, क़ुद्दूस, क़ादिर वग़ैरह कहा गया है इसलिए ये किताब ख़ुदा की तरफ़ से है। क्योंकि मुम्किन है कि कोई आदमी ख़ुदा की बा’ज़ खूबियां कहीं से सुनकर सुनाए।
मगर इस बारे में तसल्ली का मूजिब दो बातें होंगी।
(1) वो किताब खूबियों का मख़ज़न हो ऐसा कि हर अक़्लमंद और हक़-जो आदमी को इस के देखने से कामिल इत्मीनान हासिल हो और उस की ज़मीर इस के मिन-जानिब अल्लाह होने पर गवाही दे।
(2) ये खूबियां ना सिर्फ चंद अल्फ़ाज़ में मुन्हसिर हों बल्कि इस ख़ुदा की अवामिर व नवाही और वाक़ियात व अख्बाबारात गवाही दें कि ये किताब ख़ुदा की तरफ़ से है।
हम कहते हैं कि सिर्फ बाइबल ही में ख़ुदाए बरहक़ ज़ाहिर हुआ है और दुनिया की किसी किताब में नहीं हुआ क्योंकि :-
अगर कोई आदमी उम्र भर ख़ुदा के औसाफ़ बाइबल में से निकाले तो उम्रें तमाम हो जाएंगी मगर ख़ुदा के औसाफ़ बाइबल में से ख़त्म ना होंगे।
और इस बात पर इलावा इस गवाही के जो हमारी तमीज़ देती है। कलीसिया का इलाही कुतुब ख़ाना जो 18 सौ बरस में तैयार हुआ है दूसरा गवाह है।
इस वक़्त बाइबल में से ख़ुदा के सिर्फ वही औसाफ़ बयान किए जाएंगे जो निहायत बदीही और वाज़ेह हैं बाक़ी औसाफ़ नाज़रीन की तजस्सुस पर छोड़ दिए जाते हैं।
बाइबल के अवामिर व नवाही ऐसे उम्दा और पुर-मग़्ज़ हैं कि दुनिया की कोई किताब उनका मुक़ाबला नहीं कर सकती है। जहां कहीं ये किताब पहुँचती है वहां ख़ैर और बरकत उस के हम अनान जाती हैं।
बाइबल का ख़ुदा ना तो दोज़ख़ का दहशतनाक मंज़र दिखाकर और ना ही जन्नत के हूर व गिलमान का लालच दिलाकर लोगों को अपनी तरफ़ माइल करता है।
बाइबल का ख़ुदा इन्सान को जहां तक उस का हक़ है जायज़ आज़ादी देता है और जहां तक इन्सान की बेहतरी है वहां तक उस को मुफ़ीद रखता है वो कहता है कि ईमान और उम्मीद के साथ जो चाहो सो करो मगर ख़ुदा का जलाल हर हाल में मद्द-ए-नज़र रहे।
बाइबल का ख़ुदा चाहता है कि लोग उस की इता’अत ख़ुशी से करें वो भारी बोझ जबरन किसी के सर पर नहीं रखता है। वो कहता है कि अगर ये करो तो तुम्हारी बेहतरी है अगर ना करो तो हलाकत है। अब तुम्हें इख़्तियार है जिसको चाहो पसंद करो।
बाइबल का ख़ुदा इन्सान को हर तरह से क़ाइल करके ऐसी हिदायत करता है कि अगर आदमी उस की हिदायत से ना सुधरे तो फिर ना-मुम्किन है कि कोई और हिदायत दुनिया में उस की इस्लाह कर सके।
बाइबल का ख़ुदा बाक़ी ख़ुद-साख़्ता ख़ुदाओं से ज़्यादातर हमारी रूहों का क़द्र-दान है। उस के नज़्दीक सारे जहान की क़ीमत से ज़्यादा एक रूह की क़ीमत है इसलिए वो नहीं चाहता है कि किसी की रूह हलाक हो।
बाइबल का ख़ुदा चाहता है कि हम लोग गुनाह से और गुनाह के अज़ाब से बिल्कुल छूट जाएं यहां तक कि गुनाह और इस का नतीजा जिसमें हम अब मुब्तला हैं बिल्कुल मफ़्क़ूद हो जाए और इस मक़्सद के लिए उसने ज़ेल के इंतिज़ाम बतलाए हैं :-
(1) वो अपने कलाम की रोशनी में गुनाह की क़बाहतें दिखला के गुनाह से नफ़रत दिलाता है।
(2) वो रूह की एक क़ुव्वत ग़ैबी अता करके हमारी रूहों को गुनाह की क़ैद से छुड़ाता है।
(3) इस के बाद वो एक नए बदन का वा’दा करता है ताकि ख़ुदा की सूरत में हो कर गुनाह और इस के नतीजे से बिल्कुल अलैहदा रहे।
जो कोई इस ख़ुदा पर ईमान लाता है तो वो उस का मु’अल्लिम और मुअद्दब और बादशाह और क़ुव्वत बन कर उस के दिल में सुकूनत करने लगता है ताकि उस आदमी को बचाए और उसे अबदी मकानों के लायक़ बनाए और उस के वसीले से अपना जलाल ज़ाहिर कराए और फिर उस आदमी की बातिनी तरक़्क़ी होनी शुरू हो जाती है और दुनिया कहती है कि ये शख़्स क्या से क्या होगा।
बाइबल का ख़ुदा (अपने) आपको अपने बंदों का बाप बतलाता है। और तीन क़िस्म की पैदाइश इनायत करता है।
पहले इस जहान में नेस्त से हस्त करने की पैदाइश। जो आम है। दूसरे इलाही मिज़ाज में दाख़िल होने की पैदाइश। जो ईमान से है। तीसरे क़ियामत के फ़र्ज़न्द होने की पैदाइश। जो घर में जाने का वक़्त है और जब उस का मिज़ाज दर्जा बदर्जा हम में पैदा होना शुरू हो जाता है तब वो हमें फ़र्ज़न्द कहता है।
और शैतानी मिज़ाज वाले लोगों को इब्लीस के फ़र्ज़न्द या दुनिया के लड़के या साँप के बच्चे कहता है।
क्योंकि जिसका तुख़्म इन्सान में है वो उस का फ़र्ज़न्द है जब हम इलाही मिज़ाज में दाख़िल होते हैं। तब मुहब्बत व खैर ख़्वाही, पाकीज़गी, हुलुम, दियानत और इलाही ज़िंदगी और इलाही रास्तबाज़ी हम में आ जाती है और यूं उसकी सिफ़तें हमारे दर्मियान जलवागर हो कर ज़ाहिर करती हैं कि वो ज़रूर हमारा बाप है और शैतानी व नफ़्सानी सिफ़तें आदमी में आकर ज़ाहिर करती हैं कि वो शैतान का फ़र्ज़न्द है।
उस के शुऊन सलासा जिनका ज़िक्र नौवें व दसवें लैक्चर में हुआ साफ़-साफ़ बाइबल में और वाक़ियात में हमें नज़र आते हैं कि ज़रूर बाप ने जो पहला उक़नूम है हमें पैदा किया है।
और ज़रूर बेटे ने जो दूसरा उक़नूम है ख़ुदा के साथ हमें मिलाया है और ज़रूर रूह-उल-क़ुद्स जो तीसरा उक़नूम है हमें ख़ुदा से मिलने के लिए तैयारी कर रही है।
बाइबल का ख़ुदा हमें इस क़द्र प्यार करता है कि उसने अपने इकलौते बेटे को दुनिया में भेजा ताकि हम गुनेहगारों की ख़ातिर तरह-तरह की तकलीफ़ें सहे और बिल-आख़िर अपनी जान देकर हमें गुनाहों की क़ैद से रास्तकारी बख़्शे ये एक ऐसी मुहब्बत है जिसकी मिस्ल दुनिया पेश नहीं कर सकती है।
बाइबल का ख़ुदा ना सिर्फ ज़िंदा ख़ुदा है बल्कि वो आलिमुल-गै़ब ख़ुदा है जिसने अपने मुक़द्दस बंदों की तस्कीन की ख़ातिर तमाम आइन्दा वाक़ियात को साफ़-साफ़ बयान किया है ताकि किसी वाक़ि’ए के वाक़े’अ होते हैं उस के बंदों को परेशानी ना हो। क्या ये ख़ूबी किसी और ख़ुदा में भी है? पस बाइबल के ख़ुदा को ना मानना ख़ुदकुशी का मुरादिफ़ है।
बाइबल का ख़ुदा अपने बंदों की लाचारी की हालत में मदद करता है जिससे साबित होता है कि बाइबल का ख़ुदा वाहिद ख़ुदा है जो सादिक़ुल-क़ौल और वफ़ादार है उस की वफ़ादारी उन वाक़ियात से ज़ाहिर है जो कलीसिया में गुज़रते हैं।
वो ज़ाहिरी सूरत पर नज़र नहीं करता बल्कि ग़रीब कमीनों और हक़ीरों को जो उस से डरते हैं सर-बुलंदी बख़्शता है और शरीरों को पटक देता है।
बाइबल के ख़ुदा ने बहुत से वा’दे किए हैं बा’ज़ इस जहान में आइन्दा पुश्तों के लिए और बा’ज़ आइन्दा जहान के लिए वो जो इस जहान के वा’दे थे उनमें से इस क़द्र पूरे हुए हैं कि बाक़ी वा’दों के पूरा होने का कामिल यक़ीन है किसी ख़्याली ख़ुदा की जुर्आत ही नहीं जो ऐसे वा’दे करे जो बाइबल के ख़ुदा ने करके पूरे कर दिखलाए और ये भी एक कामिल दलील है कि ये ख़ुदाए बरहक़ है।
इस ख़ुदा ने अपनी क़ुद्रत उन मो’जिज़ों और पेश गोइयों के वसीले से दिखलाई है जिसका हमसे इन्कार नहीं हो सकता और हमें यक़ीन होता है कि बाइबल का ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा है।
बाइबल वाले ख़ुदा ने अपनी पाकीज़गी और इज़्ज़त और बुजु़र्गी यहां तक दिखलाई है कि इन्सान के ख़याल से भी बाहर है। पस ये ख़ुदा इन्सान के ख़याल से निकला हुआ नहीं है।
ना तो उस की ज़ात में बदी है और न उस का ख़ालिक़ है और ना अपने लोगों में बदी देख सकता है।
बाइबल के ख़ुदा की राहें पाक-साफ़ और सीधी हैं लेकिन इन्सानी राहें गुनाह आलूदा और टेढ़ी हैं जिस पर इन्सान बसहुलत चल कर मंज़िल-ए-मक़्सूद तक नहीं पहुंच सकता है।
इस ख़ुदा ने अपना मुआमला ना जोश व ग़ज़ब से ना ख़ुदगर्ज़ी से ना तहरीस से बल्कि हुलुम व बूर्दबारी व खैर ख़्वाही से बे रु रिआयत हर एक शख़्स पर अपनी मर्ज़ी को ज़ाहिर किया है और ये दलील है कि वो बरहक़ ख़ुदा है।
ये बाइबल का ख़ुदा ना सिर्फ मुहब्बत ही ज़ाहिर करता है बल्कि वो उन लोगों को जो उस के हुक्मों पर नहीं चलते हैं ख़ौफ़ भी दिलाता है।
उसने नजात का हुसूल सिर्फ़ मसीह के कफ़्फ़ारे पर मुन्हसिर रखा है। अब कहो कि ये तस्लीस-फ़ील-तौहीद वाला ख़ुदा जो बाइबल का ख़ुदा है सच्चा ख़ुदा है या कोई और ख़ुदा जो इस ख़ुदा से ज़्यादा ख़ूबी रखता है अगर कोई ऐसा ख़ुदा है तो उसे पेश करना चाहिए।
(बाइबल मुक़द्दस 1 समुएल रुकू’ 17 आयत 46) “ताकि सारा जहान जाने कि इस्राईल में एक ही ख़ुदा है।”
(बाइबल मुक़द्दस 1 सलातीन रुकू’ 10 आयत 9) “ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा मुबारक हो और ये कि ख़ुदावंद ने इस्राईलियों को सदा प्यार किया।”
कि “हक़ीक़त में तेरा ख़ुदा इलाहों का इलाह और बादशाहों का ख़ुदावंद है जो भेदों का फ़ाश करने वाला है। (दानियाल रुकू’ 3 आयत 29) “मैं हुक्म करता हूँ कि जो क़ौम या गिरोह या अहले नाअत सिदरक और मिसक और अबद नजो के ख़ुदा के हक़ में कोई नालायक़ सुख़न (कलाम, बात) कहे तो उन के टुकड़े टुकड़े किए जाएंगे और उनके घर घूरे बन जाएंगे क्योंकि कोई दूसरा ख़ुदा नहीं जो इस तरह छुड़ा सके।” (दानियाल रुकू’ 2 आयत 47)
“ऐ ख़ुदावंद इब्राहिम व इस्हाक़ व इस्राईल के ख़ुदा आज के दिन मालूम हो जाएगी कि तू इस्राईल का ख़ुदा है और मैं तेरा बंदा हूँ।” (1 सलातीन रुकू’ 18 आयत 36)
“देख अब मैं जाना कि सारी ज़मीन पर कोई ख़ुदा नहीं मगर इस्राईल में।” (2 सलातीन रुकू’ 5 आयत 15)
हासिल कलाम यही बाइबल वाला ख़ुदा जिसकी ज़ात में तीन उक़नूम हैं यही बरहक़ ख़ुदा है और ऐसी खूबियां सिर्फ इसी में हैं इस का क़ुबूल करने वाला ख़ुदा का जानने और मानने वाला है और जिसने इसे नहीं माना वो अब तक ख़ुदा को जानता भी नहीं मानना तो दूर रहा। फ़क़त
बाराहवां लैक्चर : बदी का चशमा
ये बयान इसलिए किया जाता है कि ताकि हम सब अपनी बर्बादी का बाइस दर्याफ़्त करके इस से बचने की तदबीर करें। वाज़ेह रहे कि बदी के बानी-म-बानी के दर्याफ़्त करने में भी सब लोग बाहम मुत्तफ़िक़ नहीं हैं बल्कि तीन मुख़्तलिफ़ ख़यालात में मुनक़सिम होते हैं।
नेकी और बदी सब कुछ ख़ुदा की तरफ़ से है उसने आप आदमियों की तक़्दीर में लिखा कि वो फ़ुलां काम करें और फ़ुलां काम ना करें। पस दुनिया में जो काम होते हैं सब ख़ुदा के इरादे और उस की तज्वीज़ से होते हैं लिहाज़ा इन्सान मज्बूर है।
अगर कहो कि ख़ुदा बदी का ख़ालिक़ नहीं है तो इस का कोई और ख़ालिक़ होगा और ख़ुदा हर शैय का ख़ालिक़ ना रहेगा बल्कि बदी और नेकी के दो ख़ालिक़ होंगे हालाँकि हर चीज़ का ख़ालिक़ एक ही ख़ुदा है। इसलिए बदी भी ख़ुदा से है। हक़ीक़त तो ये है मगर अदब के तौर पर बदी को अपनी तरफ़ और नेकी को ख़ुदा की तरफ़ मन्सूब करना चाहिए।
گناہ اگرچہ نبود اختیار ماحافظ دو در طریق ادب کوش کو گناہ نست
हम कहते हैं कि ना तो बदी का ख़ालिक़ ख़ुदा है और इस का ख़ालिक़ कोई दूसरा ख़ुदा हो सकता है। ख़ुदा एक ही है मगर बदी उस से हरगिज़ सरज़द नहीं हो सकती क्योंकि :-
(1) ख़ुदा जामे’ जमी’ सिफ़ात कमाल है यानी सारी नापाकी से मुबर्रा (पाक) है और उस को बदी से नफ़रत है ना वो बदी आप में रखता है ना अपने लोगों में देख सकता है।
(2) इन्सान अपने उन अफ़’आल की निस्बत जिन पर सज़ा व जज़ा मुरत्तिब होती है। मज्बूर नहीं है हाँ इन उमूर में मज्बूर है जिन पर सज़ा व जज़ा मुरत्तिब नहीं होती है। मसलन उम्र रंग-रूप औलाद ग़रीबी अमीरी वग़ैरह।
(3) अगर वह अपने अफ़’आल में मज्बूर होता तो बदी पर ना तो उस की तमीज़ उसे मलामत करती ना इल्हाम।
(4) इन्सान दो मुख़ालिफ़ कशिशों में फंसा हुआ है। और बग़ैर उस की मर्ज़ी के कोई कशिश उस पर मोअस्सर नहीं हो सकती है जिससे उस के फ़ा’इल मुख़्तार होना ज़ाहिर है पस फ़ा’इल हरगिज़ मज्बूर नहीं हो सकता है।
(5) ख़ुदा का जलाल और इन्सान की फ़ा’इल मुख्तारी से साफ़ ज़ाहिर है कि बदी ख़ुदा से नहीं है।
(6) बदी और उस की सज़ा अगर ख़ुदा से है तो ये इलाही मुहब्बत और इन्साफ़ के बर-ख़िलाफ़ है और सारे गुनेहगार मज़्लूम और ख़ुदा ज़ालिम ठहरता है।
(7) ये अक़ीदा निहायत बर्बाद कुन अक़ीदा है। और सब बदकारों को बदी पर ऐसा उभारता है कि गोया वो बदी में ख़ुदा की मर्ज़ी बजा लाते हैं और तमाम नसहीत कुनिंदों को बेनियाज़ करता है।
उस की ये दलील कि अगर बदी का कोई और ख़ालिक़ है तो वो ख़ुदा साबित होंगे दो वजह से बातिल है :-
(1) नेकी और बदी कोई शै मो’तदबिहा ख़ारिज में मौजूद नहीं हैं मगर वोह अम्र नेस्ती हैं उमूर मुनासिबा को नेकी कहते हैं उमूर ग़ैर मुनासिबा को बदी। पस जबकि वो इस क़िस्म की शै हैं तो इनका मुर्तक़िब ख़ुदा का सानी क्योंकर हो सकता है?
(2) बिलफ़र्ज़ अगर वो ख़याल में कोई शै मो’तदबिहा हैं तो उनका फ़ा’इल ना अपनी ज़ाती क़ुव्वत से उनका मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) है बल्कि इसी क़ुव्वत अता-कर्दा इलाही के बेजा इस्तिमाल से उनका फ़ा’इल हो जाता है पस वो क्योंकर शरीक-ए-बारी हो सकता है। मसलन एक बाप ने अपने बेटे को कुछ रूपये दिए ताकि वो उस के वसीले से इज़्ज़त व आराम हासिल करे मगर लड़का इन रूपयों को ज़िनाकारी अय्याशी में सर्फ करता है तो अब क्या बाप बदकार है या बेटा और क़ुव्वत ज़िनाकारी किस की है बेटे की या बाप की ज़ाहिर है कि बेटा बदकार है क्योंकि बाप की अता कर्दा क़ुव्वत को बेजा इस्तिमाल करता है।
पस ख़ुदा हरगिज़ बदी का बानी-म-बानी नहीं है बदी को उस की तरफ़ मन्सूब करना बड़ा गुनाह है।
ख़ुदा हरगिज़ बदी का बानी नहीं है और शैतान कुछ चीज़ है जिसकी तरफ़ बदी को मन्सूब करते हैं बल्कि आदमी का शैतान आदमी है। आदमी में शरारत करने की क़ुव्वत मौजूद है इस से बदी पैदा होती है।
इस क़ौल में कुछ-कुछ सच्चाई भी है और कुछ-कुछ ग़लती भी ख़ुदा में बदी नहीं और आदमी बदी करता है ये सच है मगर शैतान के वजूद का इन्कार ग़लती है चुनान्चे तीसरे ख़याल में इस का ज़िक्र आएगा।
ये तो सच है कि आदमी में ऐसी ताक़त मौजूद है कि अगर वो चाहे नेकी करे और अगर चाहे बदी करे लेकिन इन्सान अपनी क़ुव्वत के इस्तिमाल करने में एक रहबर का मुहताज है जिसकी हिदायत पर वो नेकी या बदी करता है।
अब सवाल ये है कि अगर आदमी दूसरे को बदी सिखलाए तो ये सिलसिल किस पर मुंतहा (ख़त्म) होगा। आज हम इसी पर बह्स करेंगे।
ख़ुदा तो बदी से पाक है। और आदमी इस बारे में दूसरे मु’अल्लिम का मुहताज है लेकिन दूसरा मु’अल्लिम कौन है अक़्ल इस के मुत’अल्लिक़ कुछ नहीं बतला सकती है और ना ये कि आदमी ने शरारत कहाँ से सीखी।
बदी के लिए एक ऐसे मु’अल्लिम की ज़रूरत है जो ज़्यादा होशियार और क़ुव्वत-दार हो ताकि इन्सान को बदी की तरफ़ ज़्यादा तर्ग़ीब व तहरीस दे सके और उस की क़ुव्वत बेजा तौर पर सर्फ कराए।
इस बात पर भी फ़िक्र करना चाहिए कि जैसे नेकी और बदी उमूर नेस्ती हैं मुनासबत और ग़ैर मुनासबत सिर्फ अम्र अक़्ली नहीं हैं क्योंकि अक़्ल हिदायत का काफ़ी वसीला नहीं है मगर अक़्ल व इल्हाम दोनो मिलकर काफ़ी वसीला हैं इसलिए मुनासबत वग़ैर मुनासबत भी अक़्ल व इल्हाम से साबित होगी ना सिर्फ अक़्ल से।
पस जबकि नेकी व बदी का सबूत अक़्ल व इल्हाम पर मौक़ूफ़ है तो मब्दा-ए- शरारत भी अक़्ल व इल्हाम से साबित होना चाहिए ना सिर्फ अक़्ल से।
मब्दा-ए-शरारत शैतान है वही शरीर अव्वल है और वह एक ज़ोर-आवर और होशियार रूह है। जो इन्सान की जिन्स से नहीं है उसी के बहकाने से इन्सान ने अपनी क़ुव्वत का बेजा इस्तिमाल किया है और अब भी करते हैं।
ये क़ौल उसी इल्हाम का है जिसने हमारी तमाम मुश्किलात में हमारी मदद की है और जिसके कुल इन्सान मुहताज हैं।
लेकिन बहुत लोग ऐसे हैं जो इस की बाबत शक करते हैं और इस का अक़्ली सबूत मांगते हैं इसलिए चंद दलाईल इस की बाबत पेश करना मुनासिब है।
(1) क्या ना-मुम्किन है कि इस आलम माद्दी के इलावा ऐसा आलम भी हो जो ग़ैर-माद्दी और ग़ैर मुरई (यानी जिसका वजूद हो लेकिन दिखाई ना दे) हो। हरगिज़ नहीं पस जब इस क़िस्म का आलम ग़ैर-मुम्किन नहीं है तो कोई वजह नहीं कि हम वजूद मलायकी (फरिश्तों) और अर्वाह ख़बीसा (बदरूहों) से इन्कार करें।
(2) ख़ुदा का सबूत और हमारी रूहों की हस्ती का सबूत सिर्फ हमारे और ख़ुदा के कामों से मिलता है तो क्या शैतान की रूह के सबूत के लिए शैतानी काम काफ़ी ना होंगे।
(3) इन्सान के अंदर दो मुख़्तलिफ़ तर्ग़ीबों की आवाज़ सुनाई देती है एक तो ये कि तंग रास्ते पर चलो दूसरी ये कि कुशादा रास्ते पर चलो। पस गिरां बहिकमत वर्ज़ां बइल्लत पर सोचने से हमको ख़ुदा और शैतान साफ़ दिखाई देते हैं।
(4) ख़ुदा की रूह जिनमें आती है उनकी हरकात और सकनात से उनके मुख़्तलिफ़ ज़बानें दफ’अतन (फ़ौरन) बोलने से और उनकी अजीब क़ुव्वत व दलेरी व पाकीज़गी के हुसूल से साफ़ साबित होता है कि उनमें इलाही रूह है पस जब इलाही रूह का दूख़ूल मुम्किन है तो क्या नापाक रूह का दाख़िल होना ना-मुम्किन है?
(5) पाक और नापाक रूहों का दूख़ूल व खुरुज तो साफ़ ज़ाहिर है मगर हमारी अनानियत दोनों से साफ़ जुदा मालूम होती है ये सबूत है इस अम्र का कि ग़ैर रूह हमारी रूहों में असर-अंदाज़ है।
(6) इन्सानी तजुर्बा इस पर गवाह है कि लोग अपनी बद ख़्वाहिशों के ऐसे मग़्लूब हैं कि बावजूद सख़्त कोशिश करने के भी उस से नहीं निकल सकते हैं तो क्या इन्सान अपनी ताक़त से आप ही मग़्लूब हैं और अपनी ताक़त को अपने इख़्तियार में नहीं रख सकते पस साफ़ ज़ाहिर है कि ज़रूर कोई दूसरी ख़ारिजी क़ुव्वत है जो उनकी क़ुव्वत से ज़्यादा है और उनको मग़्लूब रखती है और ये भी हम देखते हैं कि दूसरी ख़ारिजी क़ुव्वत उन्हें छुड़ा भी सकती है।
(7) “जब मैं नेकी करना चाहता हूँ तो बदी मुझसे सरज़द होती है। हालाँकि मैं तो हरगिज़ बदी का ख़्वाहां नहीं हूँ।” पस ज़रूर कोई ख़ारिजी तासीर मेरी रूह की बर्बादी के दरपे है।
(8) अगर बनज़र ग़ौर देखा जाये तो साफ़ साबित होता है कि हमारी जिस्मानी और रुहानी नेक और बद ख़्वाहिशें बग़ैर दो बाला ख़ारिजी तासीरात के हरगिज़ बरू-ए-कार नहीं आ सकते हैं।
पस ये सारी बातें इन्सान के अंदरूनी हालत पर ग़ौर करने से पाक रूह और बदरुह व नापाक रूह के वजूद पर दलालत करती हैं।
पस अगर शैतान कोई ज़ोर-आवर रूह नहीं है तो वो कौन है जिसने इन्सानी रूह को इस बुरी तरह से मग़्लूब कर रखा है और तरह-तरह के मकरो फरेब से ख़ुदा के विसाल से दूर रखा है।
पस ये मुक़द्दमात ज़ाहिर करते हैं कि ज़रूर कोई रूह जो इंसान की रूह से ज़ोर-आवर है और ख़ुदा की मुख़ालिफ़ है आदमियों को वरग़ला रही है।
इस के बाद जब हम इल्हाम पर नज़र करते हैं तो देखते हैं कि शैतान ख़ास-ख़ास मौक़ों पर ज़ाहिर हुआ है। अव्वल आदम पर जो ख़ुदा के ख़लीफ़ा होने की हैसियत से इस दुनिया में पैदा हुआ और उस की शानो-शौकत इस बदरुह के मक्रो फरेब से बर्बाद हुई।
दूसरे मसीह के वक़्त में जो आदमियों को नजात देने के लिए आया था शैतान की अजब मुख़ालिफ़त नज़र आती है।
उस के काम के शुरू ही में शैतान का एक बड़ा हमला उस पर हुआ लेकिन उसने फ़त्ह ना पाई।
फिर मसीह के काम के आख़िर में उस की इंतिहा मुख़ालिफ़त ज़ाहिर हुई लेकिन मसीह ने उस के सर को कुचल कर उस पर फ़त्ह पाई।
हालाँकि इस वक़्त यूं मालूम होता था कि शैतान बड़ी ताक़त वाला है और बड़ा मक्कार है और उस के पास बहुत फ़ौज है जो मसीह की मुख़ालिफ़त पर मुल्क यहूदिया में ज़ाहिर हुई।
इस के सिवा ख़ुदा की बादशाहत जहां जाती है वहां शैतान का बड़ा ज़ोर नज़र आता है कि आदमी कुछ हो जाए दुनिया परवाह नहीं करती मगर मसीही हो जाये तो उस पर चारों तरफ़ से शैतान के शागिर्दों का हुजूम और बलवा होता है इस से ज़ाहिर है कि ज़रूर मसीही दीन ख़ुदा का दीन है और इस की मुख़ालिफ़ कोई रूह है जो इन्सानों को उभारती है और वही शैतान है।
शरीर अव्वल और मब्दा-ए-शरारत शैतान है लेकिन उस की शरारत आदमी की मर्ज़ी से आदमी में तासीर करती है।
आदमी को चाहिए कि अपनी हिफ़ाज़त करे और इस से बचने के लिए ख़ुदा से पनाह मांगे।
जवाब : शैतान भी एक मख़्लूक़ है और वो भी मज्बूर नहीं बल्कि फ़ा’इल मुख़्तार पैदा किया गया था उसने अपने इख़्तियार को बेजा इस्तिमाल किया और मब्दा-ए-शरारत हो कर अबदी सज़ा का सज़ावार हुआ और अपनी नजात से मुतलक़ मायूस हुआ क्योंकि ख़ुदा की दरगाह से उस पर क़तई सज़ा का फ़त्वा लग चुका है। इसलिए वो नेकी का दुश्मन और बदी का दोस्त हो गया है। अब उस का मज़ा इसी में है कि बहुत सी रूहों को अपने साथ जहन्नम में ले जाने के بمصدق مرگ انبوہ جشنے وارد۔ उसने क़िस्म-क़िस्म के जाल दुनिया में फैलाए हैं और आदमियों को अपनी बदी पर नेकी का मुलम्मा’ (सोने चांदी का पानी) लगा के लुभाता है और यूं फंसा के बर्बाद करता है।
जो लोग उस के मुन्किर हैं वो ज़्यादातर ख़तरे में हैं क्योंकि उनके दिल में उस का ख़ौफ़ नहीं रहता और ना वो उस से बचने की कोशिश करते हैं लिहाज़ा इस क़िस्म के लोग निहायत आसानी के साथ उस के दाम में फंस जाते हैं।
और वो ख़ुदा की सिफ़ात मुतज़ाद वाला जान कर अपनी बद ख़्वाहिशों को भी सिफ़ात मुतज़ाद का मज़हर क़रार दिया करते हैं और फिर गुनाह को गुनाह नहीं जानते और बदी में ख़ूब खेलते हैं।
पस भाइयों यक़ीन जानो कि तुम्हारी जानों का दुश्मन एक शख़्स है जिसका नाम शैतान है और वो बहुत ही ज़ोर-आवर रूह है और बहुतों को उसने अपना मग़्लूब किया है उस से बचने की और कोई राह नहीं है मगर एक ही राह है और वो सिर्फ़ मसीह है। जो लोग मसीह के पास शैतान (के शर) से पनाह लेने को आते हैं वो बचाए जाते हैं। फ़क़त
तेराहवां लैक्चर : बदी क्या है?
गुज़श्ता लैक्चर में इस अम्र का ज़िक्र हुआ कि उमूर ना मुनासिब बदी हैं और ये कि मुनासबत व ग़ैर-मुनासबत के दर्याफ़्त करने के लिए अक़्ल काफ़ी नहीं है लेकिन अक़्ल व इल्हाम हर दो से मुनासबत व ग़ैर-मुनासबत ख़ूब मालूम हो सकती है।
गुनाह या बदी की ता’रीफ़ यूहन्ना रसूल ने यूं की है कि “गुनाह शरा’ (शरीअत) की मुख़ालिफ़त है।” (इन्जील शरीफ़ ख़त अव्वल हज़रत यूहन्ना रुकू’ 3 आयत 4)
शरा’ (शरीअत) का लफ़्ज़ शामिल है शरा’ मकतूब फ़ील-क़ुलूब पर व शरा’ मकतूब फ़ील-किताब पर क्योंकि ख़ुलासा व तफ़सील दोनों एक बात है।
शरा’ (शरीअत) वो राह है जिसको ख़ुदा ने आदमी के लिए तज्वीज़ की है इसी पर ज़मीर दलालत करती है और बाइबल इसी पर आदमियों को चलाना चाहती है पस आदमी के लिए जो राह-ए-ख़ुदा की तरफ़ से मुक़र्रर है इस से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी करना) गुनाह या बदी है।
शैतान ने जब मसीह की इन्सानियत का इम्तिहान किया तो यही चाहता था कि उस को इन्सानियत की राहों से हटादे इन्सानियत की राहों में से एक ये है कि उस का भरोसा कामिल ख़ुदा पर हो ना ज़राए पर लेकिन शैतान ने पत्थर रखकर कहा कि इनको रोटी बना और क्यों भूका रहता है? मसीह ने जवाब दिया कि इन्सान ख़ुदा के हुक्म से जीता है ना रोटी से।
शैतान ने कहा कि कंगरे (ऊंचाई) से नीचे गिर कर ख़ुदा को आज़मा। मसीह ने कहा मैं बेईमान नहीं हूँ कि ख़ुदा को आज़माऊं। और ख़ुदा का वा’दा हिफ़ाज़त इन्सान के राह-ए-रास्त पर चलने में है ना उस की बेराही में। इन्सान की राह ये है कि सीढ़ी से उतरे ना ये कि कंगरे (ऊँचाई) पर से कूदता फिरे।
शैतान ने कहा कि मुझे सज्दा कर और सब दुनिया की शानो-शौक़त ले। मसीह ने कहा इन्सान का फ़र्ज़ ये है कि ख़ुदा को सज्दा करे ना किसी मख़्लूक़ को इसलिए दूर हो ऐ मलऊन।
पस जब आदमी अपनी राह को जो ख़ुदा की तरफ़ से उस के लिए मुक़र्रर है छोड़ता है तो यही बदी है।
आदम के लिए ख़ुदा ने एक राह मुक़र्रर की थी कि हर दरख़्त से खाना मगर इस दरख़्त से ना खाना उसने अपनी राह को छोड़ा तब पहला गुनेहगार हुआ। कोई कहता है कि मर्ज़ी इलाही के ख़िलाफ़ काम करना गुनाह है। मगर जो राहें ख़ुदा ने हमारे लिए मुक़र्रर की हैं उन्हीं का इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) ख़ुदा की मर्ज़ी का भी इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) है।
जो राहें ख़ुदा ने आदमी के लिए मुजम्मलन उस के ज़मीर में और मुफ़स्सिलन बाइबल में दिखलाई हैं उन पर आदमी चल कर हुक़ूक़-उल्लाह और हुक़ूक़-उल-ईबाद को पूरा करता है तो सलामती की राह पर उस के क़दम रहते हैं और वह इन राहों से ख़ुदा के नज़्दीक पहुंच सकता है।
लेकिन जब हम ख़ुदा के हक़ बर्बाद करते हैं और हम-साइयों के हक़ में ख़ियानत करते हैं तो बदी करते हैं क्योंकि अपनी राहों को छोड़ देना ही बदी है।
ख़ुदा की शरा’ (शरीअत) और इन्सान का ज़मीर दोनों हमेशा बराबर हैं और इन्सान की बनाई हुई शरा’ (शरीअत) हरगिज़ ज़मीर की तहरीकात के मुवाफ़िक़ नहीं होती है लिहाज़ा जो कोई गुनाह से बचना चाहता है तो चाहिए कि इस शरा’ (शरीअत) के इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) से बचे जो ज़मीर की मुवाफ़िक़ होती है ना सिर्फ इस शरा’ (शरीअत) के इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) से जिसे ज़मीर ही झुटलाती है।
ख़ुदा का कलाम बतलाता है और इन्सान बिल-बदाहत (बगैर सोचे समझे) देखता है कि कुल इन्सान गुनाह में फंसे हुए हैं कोई इस काजल की कोठड़ी यानी दुनिया में सिवा सय्यदना मसीह के बेगुनाह नज़र नहीं आता कुछ ना कुछ दाग़ सबको लगा हुआ है इक्तिसाबी और मौरूसी गुनाह में सब फंसे हुए हैं सबने अपनी राहों को छोड़ा है और सबने ख़ुदा की शरी’अत को तोड़ा है।
ख़ुदा के कलाम में गुनाह को कोढ़ से तशबहीह दी गई है और इस की वजह ये है कि कोढ़ का मर्ज़ अंदर से शुरू होता है गूदे और हड्डी से फिर जिस्म पर नुमायां होता है इसी तरह गुनाह दिल से जो मब्दा-ए-ख़यालात है और पुख़्ता हो कर फ़े’ल आमद क़ौल में ज़ाहिर होता है।
कोढ़ लाइलाज मर्ज़ है। इसी तरह गुनाह का ईलाज बशर (इंसान) से ना-मुम्किन है। कोढ़ एक मुतअद्दी बीमारी है गुनाह भी सख़्त मुतअद्दी है फ़ौरन एक को दूसरे से लगता है।
कोढ़ ऐसी नफ़रती बीमारी है कि लोग ऐसे बीमारों को निकाल देते हैं गुनाह इस से ज़्यादातर नफ़रती चीज़ है कि ख़ुदा को और ख़ुदा के बंदों को इस से सख़्त नफ़रत होती है।
कोढ़ नस्ल में जारी हो जाता है जैसे गुनाह आज तक आदम की औलाद में चला आता है। पौलुस रसूल गुनाह को मौत का डंग या नैश बतलाता है जैसे साँप या बिच्छू का डंग होता है वैसे ही मौत का डंग गुनाह है जिस ने गुनाह किया वो जाने कि मौत ने मुझे डंग मारा है अगर मैं जल्दी ईलाज ना करूँ तो मर जाऊँगा।
लोग बड़े मज़े के साथ गुनाह पर गुनाह किया करते हैं क्योंकि गुनाह में जिस्मानी लज़्ज़त मिलती है और ना सिर्फ जाहिल, बाज़ारी लोग ये काम करते हैं बल्कि बा’ज़ ऐसे लोग भी ख़ूब गुनाह करते हैं जो (अपने) आपको शरी’अत का मु’अल्लिम या साहिब-ए-इल्म और मुम्ताज़ शख़्स जानते हैं। रिश्वत लेते हैं। बद मंसूबे बाँधते हैं। झूट बोलते हैं। बद-नज़री करते हैं नाच रंग में शरीक होते हैं और शराब पीते हैं। पराए का हक़ खा जाते हैं वग़ैरह।
इस दुनिया को गुनाह और बदकारों ने पूरी दोज़ख़ की हम-शक्ल बना दिया है। उन्हें कुछ परवाह नहीं कि ख़ुदा की हक़-तल्फी होती है या बंदों की लेकिन वो अपनी नफ़्स-परस्ती में मगन रहते हैं अपने अंजाम नहीं सोचते हैं और दुनिया में मशग़ूल रहते हैं।
(1) गुनाह ख़ुदा की ग़ैरत को उभारता है और उस के ग़ज़ब को बर-अंगेख़्ता करता है।
चुनान्चे अज़-मिन्हु साबिक़ा की तवारीख़ इस पर गवाह हैं कि किस क़द्र क़ौमें और सल्तनतें और ख़ानदान इसी गुनाह के सबब बर्बाद हुए।
और इस ज़माने में हम भी देखते हैं कि दुनिया में क्या से क्या हो जाता है। जहां बदी है वहां बर्बादी खड़ी है हमारे देखते देखते कितने ख़ानदान क्या से क्या हो गए। देखो बहादुर शाह के क़िले में क्या होता था और अब क्या हो रहा है। लखनऊ के बादशाह के घर में क्या होता था और अब क्या हाल है? इन शहरों में और उन घरों में जहां बदी होती है ख़ुदा का ग़ज़ब नाज़िल होता है और वो अपनी मुराद को नहीं पहुंचते बल्कि जल्दी बर्बाद हो जाते हैं बल्कि उनकी औलाद पर भी उनके बाप दादों की बदियों की सज़ा नाज़िल होती है।
(2) ख़ुदा की आस्मानी बरकात का नुज़ूल गुनाह के सबब से बंद हो जाता है। चुनान्चे यर्मियाह नबी कहता है कि “तुम्हारी बदकारियों ने ये चीज़ें तुमसे फिराईं हाँ तुम्हारी ख़ताकारियों ने इन अच्छी चीज़ों को तुमसे बाज़ रखा।” (बाइबल मुक़द्दस सहीफ़ा हज़रत यर्मियाह रुकू’ 5 आयत 25) और बा’ज़ औक़ात बरकात बिल्कुल मुनक़ते’ हो जाती हैं और कहतसाली मरी और तंगी और बेबरकती का ज़हूर होता है और यूं ख़ुदा त’आला आदमियों को उनके गुनाहों पर मुतनब्बाह (आगाह) करता है।
ये तो आम गुनाहों की तासीर का ज़िक्र है जो लोगों पर होती है। मगर ख़ास गुनाहों के सबब से ख़ास लोगों की ख़ाना ख़राबियाँ और दिल की सख़्तियां ज़ाहिर होती हैं जिसकी वजह से बरकात रुक जाती हैं और आक़ा की नज़रे रहमत मातहतों की शरारत के सबब से फिर जाती है।
(3) एक और नतीजा गुनाहों का जिसको थोड़ी सी फ़िक्र करने के बाद जल्द दर्याफ़्त कर सकते हैं दिल की बेचैनी है। बदकार आदमी कैसा ही बेवक़ूफ़ और शरारत में मगन क्यों ना रहता हो तब भी उस के गुनाह उस के ज़मीर को काटा करते हैं। शायद वो तरह तरह की तावीलें करके (अपने) आपको मा’अज़िरत साबित करे लेकिन ये मौत का नैश उस की ज़मीर में टीसें पैदा कर देता है जब वो अपनी मदमस्ती और शरारत से ज़रा भी बाज़ आता है फ़ौरन गुनाह उस के दिल में चुभक मारता है और उस को मौत के घाट उतार देता है।
(4) इल्हाम जो अक़्ल का मु’अल्लिम और उस्ताद है वो ज़्यादातर गुनाह के नादीदनी नाक़िस नतीजा दिखलाता है और जब कि हमें इस के दो तीन जानकाह नतीजों का इल्म है तो हम इल्हाम के बतलाए हुए बुरे नताइज का क्योंकर यक़ीन ना करें।
गुनाह का पहला नतीजा जो इल्हाम बतलाता है ये कि सारी मुसीबतें का मुँह ना देखते अगर कोई अपनी ज़मीर से पूछे कि ख़ुदा जो सारी खूबियों का सरचश्मा है और जिसकी मुहब्बत और उल्फ़त उस बद हालत में भी हम पर ख़ूब रोशन है तो उसने ये दुनियावी मसाइब और मौत हम पर क्यों नाज़िल की है तो इस का सबब बजुज़ इस के और क्या हो सकता है कि हमसे वो नाराज़ है और नाराज़गी का कोई और सबब नहीं हो सकता है बजुज़ गुनाह के जिसकी वजह से बतौर सज़ा के हम पर ये आफ़तें नाज़िल होती हैं।
(5) इल्हाम हमें ये भी बतलाता है कि महदूद गुनाह का अज़ाब ग़ैर-महदूद है और इस का सबब ये बतलाता है कि गुनाह ख़ुदा के सामने मिस्ल क़र्ज़े के है जब तक कोड़ी कोड़ी अदा ना करोगे सज़ा में मुब्तला रहोगे लेकिन इस का अदा करना इन्सान की ताक़त से ख़ारिज है इसलिए मुंसिफ़ सादिक़ की कामिल अदालत अबद तक सज़ा में रखेगी पस सज़ा की अबदियत भी हमारी वजह से है कि हम क़र्ज़ा अदा नहीं कर सकते हैं। पस इस अबदी अज़ाब से छूट जाने की उम्मीद तो है मगर हमसे मुम्किन नहीं अगर ज़मीन व आस्मान में कोई और शफ़ीक़ रहीम ग़नी सख़ी हो और हमारा क़र्ज़ा अदा करके मेहरबानी से हमें छुड़ाए तो हम छूट सकते हैं।
(6) इल्हाम हमें ये भी बतलाता है कि इसी ज़िंदगी में इस का इदराक हो सकता है क्योंकि तख़्त अदालत के सामने जाने से पहले हम अपने मुद्दई के साथ सुलह कर सकते हैं लेकिन जब अदालत में हाज़िर हो जाएं तब मुम्किन नहीं क्योंकि अदालत में रहम और सिफ़ारिश और किसी की मदद कारगर नहीं हो सकती है। हाँ अदालत से पहले ही सुलह करके अपना नाम मुजरिमों की फ़ेहरिस्त में से कटवा डालना चाहिए कि हमारा हिसाब ही ना लिया जाये जब हिसाब लिया गया और हुक्म सज़ा का जारी हो गया तब उम्मीद ख़लासी की नहीं रही।
पस ऐ भाइयो अगरचे गुनाह निहायत बुरा है और इस का अज़ाब बहुत ही सख़्त है तो भी इस से मख़लिसी की उम्मीद इस ज़िंदगी में है इस वक़्त को ग़नीमत जानो और ज़रा सोचो जब तक कि ख़ुदा मिल सकता है मिलने की कोशिश करो टटोलो और ढूंढ़ो और सब बातों को परखो देखो कोई बचाने वाला तुम्हें नज़र आता है या नहीं।
भाइयो अरबी ज़बान में एक मिस्ल मशहूर है कि مَن عرَف َ نفسہ فَقدَ عرَف َ ربہ यानी “जिसने अपने आपको पहचाना उसने अपने रब को भी पहचाना” अगरचे इस मिस्ल के मा’नी लोगों ने तरह-तरह बताए हैं लेकिन इस का हक़ीक़ी मतलब ये है कि आदमी को चाहिए कि पहले अपनी हालत पर सोचे कि मैं कौन हूँ और किस हालत में हूँ जब वो अपनी हालत पर कुछ वाक़िफ़ हो जाता है तो उस में इस्ति’दाद (सलाहियत) पैदा हो जाती है कि अपने रब को भी पहचाने और ये इस तरह से होता है कि हमारी अस्ल तो निहायत ख़ूब है क्योंकि हमारे दर्मियान एक रूह है जो आलम-ए-बाला का एक जोहर है मगर निहायत तबाह हाली में हमें गुनाह लज़ीज़ मालूम होता है और बद ख़्वाहिशों के हम मग़्लूब हो गए हैं और गुनाह का अज़ाब हमें घेरे हुए है जिससे ख़लासी पाना हमारी ताक़त से ना-मुम्किन है तब हमारी नज़र ख़ुदा की तरफ़ उठती है और हमारे कान उस की आवाज़ को सुनते हैं। जब दाऊद पैग़म्बर पर उस के गुनाह ज़ाहिर हुए तो वो यूं बोला, “बेशुमार बुराईयों ने मुझे घेर लिया मेरे गुनाहों ने मुझे पकड़ा ऐसा कि मैं आँख ऊपर नहीं कर सकता वो मेरे सर के बालों से शुमार में ज़्यादा हैं सो मैंने दिल छोड़ दिया।” (ज़बूर शरीफ़ रुकू’ 40 आयत 12)
भाईयों जब तक हम गुनाह को एक हल्की बात जानते हैं और इस से घबराते हैं तो ना-मुम्किन है कि हम ख़ुदा को जानें और सच्चाई को पहचानें और मख़लिसी के मुस्तहिक़ हों। ये पहली मंज़िल है जो ख़ुदा-शनास लोगों में पैदा होती है कि वो आपको गुनेहगार जानते हैं और हम जानते हैं कि ये ख़ुदा के फ़ज़्ल का बड़ा निशान है कि आदमी (अपने) आपको सख़्त गुनाह की हालत में पहचान ले उस वक़्त ख़ुदा का हाथ उस की इमदाद के लिए आगे बढ़ेगा।
यही सबब है कि बहुत से लोग हक़-शनासी के मुद्दई हो कर भी हक़ को नहीं पहचानते क्योंकि वो अपनी हालत से नावाक़िफ़ हैं जब हम अपनी बीमारी से नावाक़िफ़ हैं तो उस का मुनासिब ईलाज कब कर सकते हैं। लेकिन जब बीमारी की तशख़ीस हो जाए कि क्या है और कैसी है तब हम मुनासिब दवा तज्वीज़ करके यक़ीन कर सकते हैं कि इस से फ़ायदा होगा और अगर फ़ायदा ना हो तब दूसरी दवा तलाश करेंगे जिस दवा से फ़ायदा होगा हम उस को अपनी बीमारी के मुनासिब जानेंगे।
पस भाइयो यही गुनाह की बीमारी कुल बनी-आदम में है जो मज़्हब इस का ईलाज कर सके वही ख़ुदा का सच्चा दीन है उसी को जल्दी क़ुबूल करना चाहिए ऐसा ना हो कि हलाक हो जाओ। फ़क़त।
चौधवां लैक्चर : तरीक़-ए-नजात अज़रूए
अक़्ल व बाइबल
अगरचे अज़रूए अक़्ल रियाज़त व नफ़्स कुशी और आमाल हसना नजात के वसाइल समझे गए हैं और क़िस्म क़िस्म के ख़यालात इस मक़्सद के हुसूल के लिए ईजाद हुए हैं मगर वो सब एक सरसरी नज़र से नाक़ाबिल एतबार साबित होते हैं।
अक़्ल सिर्फ इतना कह सकती है कि ख़ुदा अपने फ़ज़्ल ऐ अगर कोई सूरत हमारी नजात के लिए निकाले तो हम बच सकते हैं वर्ना इन्सानी तदबीर इन्सान को नजात नहीं दिला सकती है।
इस बारे में अक़्ली तदाबीर का यही लुब्ब-ए-लुबाब है जो बयान हुआ मगर इस से अगरचे रूह की नज़र एक नादीदनी ग़ैर-मालूम सच्चाई पर तो क़ायम हो जाती है लेकिन तस्कीन नहीं हो सकती है क्योंकि बातिनी आँख के सामने से अंधेरा नहीं हट सकता जब तक कि उस के फ़ज़्ल ख़ास का कुछ इल्म हासिल ना किया जाये।
बाइबल के दो हिस्से हैं। अह्दे-अतीक़ व अहदे-जदीद मसीही हर दो हिस्सों पर ईमान रखते हैं मगर यहूदी सिर्फ़ अह्दे-अतीक़ को मानते हैं।
अह्दे-अतीक़ में नजात की राह यूं मज़्कूर है कि मसीह जो एक अजीब क़ुद्रत का शख़्स है और ज़माना आइन्दा में ज़ाहिर होने वाला है वो अपनी क़ुर्बानी के वसीले से सब क़ौमों के लिए नजात की राह तैयार करेगा और नीज़ ये भी बतला दिया है कि ये शख़्स फ़ुलां क़ौम से फ़ुलां ज़माने में फ़ुलां बस्ती के अंदर इन सिफ़तों के साथ ज़ाहिर होगा।
अह्दे-अतीक़ का यही लुब्ब-ए-लुबाब है और इसी आइन्दा शख़्स पर सब अगले लोगों की नज़र लगी हुई मालूम होती है।
शुरू में आदम और हवा की नज़र भी इसी शख़्स पर लगाई गई थी कि वो तेरे सर को कुचलेगी और तू उस की एड़ी को काटेगा। (तौरेत शरीफ़ किताब पैदाइश रुकू’ 3 आयत 15) यानी औरत की नस्ल से एक शख़्स ज़ाहिर होगा जो मर्द के नुत्फे से ना होगा वही शैतान का सिर कुचलेगा और शैतान उस की सख़्त मुख़ालिफ़त करेगा। फिर पैदाइश रुकू’ 22 आयत 15 में है कि “तेरी नस्ल से ज़मीन की सारी कौमें बरकत पाएंगी।” यानी इब्राहिम के ख़ानदान से वो शख़्स ज़ाहिर होगा और तमाम जहान की कौमें उस से बरकत पाएंगी और लानत जो तमाम जहान पर पड़ी है इस शख़्स के सबब से दफ़ा’ होगी और वो शख़्स अपनी क़ुर्बानी के वसीले से ये बरकत जारी करेगा क्योंकि इस्हाक़ की क़ुर्बानी की तम्सील की तश्रीह में ये कहा जाता है और पैदाइश रुकू’ 21 आयत 12 में है कि “तेरी नस्ल इस्हाक़ से कहलाएगी। ना इस्माईल से।” पस वो शख़्स मौऊद इस्हाक़ से निकलेगा नीज़ पैदाइश रुकू’ 49 आयत 10 में है कि “यहूदा से रियासत का आसा जुदा ना होगा और ना हुकूमत उस के पांव से जाती रहेगी जब तक कि शेलवा ना आए और कौमें उस के पास इकट्ठी होंगी।” यानी वो सब क़ौमों को बरकत देने वाला है और अब तक पर्दा ग़ैब में है। “यहूदा के फ़िर्क़े से निकलेगा।” (तौरेत शरीफ़ किताब गिनती रुकू’ 24 आयत 15 ता 17) में है कि “फिर उसने अपनी मिस्ल कहनी शुरू की और बोला बओर का बेटा बल’आम कहता है कि हाँ वो शख़्स जिसकी आँखें खुल गई हैं कहता है कि वो जिसने ख़ुदा की बातें सुनीं और हक़ त’आला का इल्म पाया जिसने क़ादिर-ए-मुतलक़ की रोया देखी जो पड़ा था पर उस की आँखें खुली थीं कहता है कि मैं उसे देखूंगा पर अभी नहीं मैं उस पर नज़र करूंगा पर ना नज़्दीक से याक़ूब से एक सितारा निकलेगा और इस्राईल से एक असा उठेगा और मूआब के नवाही को मारेगा और सब हंगामा करने वालों को मारेगा।” फिर देखो इस्तसना रुकू’ 18 आयत 18 में है कि “उनके लिए उनके भाईयों में से तुझ सा एक नबी बरपा करूंगा और अपना कलाम उस के मुँह में डालूंगा।”
पस हज़रत मूसा की जो बुनियादी किताबें हैं उन्हीं में इस शख़्स का तस्फ़ीया हो चुका है कि फ़िर्क़ा यहूदा से नजात-दिहंदा आएगा और अम्बिया की किताबों में इस से भी ज़्यादा तफ़्सील के साथ उस का हाल लिखा है। (बाइबल मुक़द्दस सहीफ़ा हज़रत अय्यूब रुकू’ 19 आयत 23) में है कि “मेरी बातें अब लिखी जातीं काश कि वो एक दफ़्तर में क़लमबंद होतीं कि वो लोहे कि क़लम से और सीसे से पत्थर पर नक़्श की जातीं जो अबद तक बाक़ी रहतीं क्योंकि मुझको यक़ीन है कि मेरा फ़िद्या देने वाला ज़िंदा है और वो रोज़ आख़िर ज़मीन पर उठ खड़ा होगा और हर चंद कि मेरे पोस्त के बाद मेरा जिस्म करम-ख़ुर्दा होगा लेकिन मैं अपने गोश्त में से ख़ुदा को देखूंगा मैं उसे अपने लिए देखूंगा और मेरी यही आँखें देखेंगी ना कि बेगाना।” अय्यूब पैग़म्बर कहता है कि वो फ़िद्या देने वाला ज़िंदा है और वो आएगा और मैं मुर्दों से ज़िंदा हो कर उसे देखूंगा। ज़बूर शरीफ़ रुकू’ 2 आयत 6 ता 7 में है कि “मैंने अपने बादशाह को कोह मुक़द्दस सीहोन पर बिठाया है मैं हुक्म को आश्कारा करूंगा कि ख़ुदावंद ने मेरे हक़ में फ़रमाया तू मेरा बेटा है मैं आज के दिन तेरा बाप हुआ।” यानी वो आने वाला बादशाह ख़ुदा का बेटा होगा। यस’याह नबी रुकू’ 53 में कहता है कि वो उनकी बदकारियाँ अपने ऊपर उठाएगा। यर्मियाह नबी रुकू’ 23 और आयत 5 व 6 में कहता है कि “देखो वो दिन आते हैं ख़ुदावंद कहता है कि मैं दाऊद के लिए सदाक़त की एक शाख़ निकाल दूंगा और नेक बादशाह बादशाही करेगा और इकबालमंद होगा और अदालत व सदाक़त ज़मीन पर करेगा उस के दिनों में यहूदा नजात पाएगा और इस्राईल सलामती से सुकूनत करेगा और उस का नाम ये रखा जाएगा ख़ुदावंद हमारी सदाक़त।” यानी वो आने वाला दाऊद बादशाह के ख़ानदान से आएगा और लोग उसे अपना फ़िद्या जानेंगे और वो ना सिर्फ इन्सान बल्कि ख़ुदा होगा। दानियाल रुकू’ 9 आयत 24 में है कि “सत्तर हफ़्ते तेरे लोगों और तेरे शहर मुक़द्दस के लिए मुक़र्रर किए गए हैं ताकि इस मुद्दत में शरारत ख़त्म हो और ख़ता कारियां आख़िर हो जाएं और बदकारी की बाबत कफ़्फ़ारा किया जाये और अबदी रास्तबाज़ी पेश की जाये और इस रोया पर और नबुव्वत पर मुहर हो और उस पर जो सबसे ज़्यादा क़ुद्दूस है मसह किया जाये।” सत्तर हफ़्ते मसीह की पैदाइश की तारीख़ बतलाते हैं।
मीकाह रुकू’ 5 आयत 2 से 5 में है कि “ऐ बैत-लहम अफराता हर चंद कि तू यहूदा के हज़ारों में शामिल होने के लिए छोटा है तो भी तुझसे वो शख़्स निकल के मुझ पास आएगा जो इस्राईल में हाकिम होगा और उस का निकलना क़दीम से अय्याम अल-अज़ल से है तिस पर भी वो उन्हें छोड़ देगा उस वक़्त तक कि वो जो जनने का दर्द खाने पर है जन चुके तब उस के बाक़ी भाई बनी-इस्राईल के पास फिर आएंगे और वो क़ायम होगा और ख़ुदावंद की क़ुद्रत से और ख़ुदावंद अपने ख़ुदा के नाम की बुजु़र्गी से रि’आयत करेगा और वो क़ायम रहेंगे क्योंकि अब वो ज़मीन के आस्मानों तक बुज़ुर्ग होगा और यही सलामती का बाइस होगा।” यानी वो जो आने वाला है और जिसके आने का इंतिज़ाम अज़ल से मुक़र्रर हो चुका है। और जिसकी ख़बरें पैग़म्बरों ने दी हैं वो बैत-लहम में पैदा होगा और अपना काम करके फिर दुनिया से सऊद करेगा और जब वो सब होने वाला है हो चुकेगा तब वो फिर आएगा और अबद तक रहेगा और सबकी सलामती का बाइस वही होगा। इस के बाद मलाकी की किताब जो सारे अहदनामे-अतीक़ का ख़ातिमा है इसी आने वाले की पेशगोई पर ख़त्म होती है।
और तमाम कुतुब अम्बिया में इस कस्रत से इस आने वाले का ज़िक्र है कि इस की तफ़्सील से एक बड़ी मुजल्लद किताब बन सकती है।
ख़ुलासा ये है कि पुराना अहदनामा इन्सान की नजात का इन्हिसार एक आने वाले शख़्स पर मौक़ूफ़ करता है और नीज़ इस बात पर कि उस की क़ुर्बानी के वसीले से सब ईमानदार नजात पाएंगे।
अह्दे-अतीक़ नजात का वसीला एक ख़ास क़ुर्बानी को बतलाता है। चुनान्चे आदम के ज़माने से लेकर मसीह के ज़हूर तक क़ुर्बानी ही नजात का वसीला समझी गई है।
क़ुर्बानी के मा’नी हैं वो चीज़ जिस के वसीले से ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) हासिल हो मगर मसीहियों की इस्तिलाह में इस के मा’नी ये हैं कि जान के बदले जान देकर बचना।
गो अक़्ल ये कहती है कि ख़ुदा के फ़ज़्ल से बच सकते हैं लेकिन फ़ज़्ल की तख़्सीस नहीं कर सकती है।
लेकिन बाइबल इस की तख़्सीस करती है कि यही फ़ज़्ल है कि आदमी की जान के बदले ख़ुदा किसी दूसरे की जान को ले-ले और आदमी बच जाये।
जिसकी गहराई पर नज़र करने से मालूम हो जाता है कि वो फ़ज़्ल जिसको अक़्ल चाहती है यही क़ुर्बानी है और बस।
(1) इलाही अदालत का इन्सान पर ये फ़त्वा है कि अपना क़र्ज़ा पूरा अदा कर दे या मारा जाये। लेकिन पूरा क़र्ज़ा अदा करना इन्सान के लिए मुहाल (ना-मुम्कीन) है लिहाज़ा हमेशा तक ग़ज़ब इलाही में रहना उस के लिए ज़रूरी है जिसको हम अपनी इस्तिलाह में मौत कहते हैं। अब बजुज़ इस के कि इन्सान ख़ुदा के रहम पर भरोसा करे और कोई चारा नहीं लेकिन रहम और अदल एक साथ जारी नहीं हो सकते लिहाज़ा अक़्ल इस मसअले में बिल्कुल ख़ामोश है।
(2) लेकिन बाइबल मुक़द्दस इस मुश्किल मसअले को यूं हल करती है कि एक जान के एवज़ में दूसरी जान बतौर कफ़्फ़ारा सज़ा उठा सकती है ताकि रहम और अदल का इक़तिज़ा (तक़ाज़ा) पूरा हो लेकिन शराइत ज़ेल :-
(3) पहली शर्त ये है कि वो दूसरा जो कफ़्फ़ारा देता है। सरासर गुनाहों से पाक साफ़ और मासूम हो।
(4) दूसरी शर्त ये है कि वो क़ुर्बानी मुबादला की सूरत में यानी अपनी नेकी तुझे दे और तेरी बदी आप उठाए और अपनी मर्ज़ी से।
(5) इस क़िस्म की क़ुर्बानी का क़ुबूल हो जाना यक़ीनी है क्योंकि आस्मानी आग जो ख़ुदा का ग़ज़ब है वो इस क़ुर्बानी को भस्म कर डालेगी और गुनेहगार बच जाएगा।
(6) लेकिन अह्दे-अतीक़ के पढ़ने से मालूम होता है कि मसीह के पैदा होने से क़ब्ल आदमी के बदले जानवर ज़ब्ह किए जाते थे हालाँकि मुनासिब ये था कि आदमी के बदले आदमी ज़ब्ह किया जाता इस की वजह ये है कि पहली शर्त के रु से कोई आदमी बे’ऐब ना था इसलिए बे’ऐब जानवर की तलाश होती थी लेकिन जब बे’ऐब इन्सान पैदा हुआ तो बे’ऐब जानवरों की ज़रूरत ना रही। बमिस्दाक़ آنکہ آب آمد تیمم برخاست ۔
(7) बे’ऐब इन्सान के बदले में बे’ऐब जानवर इसलिए ज़ब्ह किया गया था कि जानवरों से इन्सान की परवरिश होती है और जिस तरह कि तमाम रस्मी शरी’अत जिस्मानी थी और रुहानी मतलब पर इशारा करती थी उसी तरह जानवरों की क़ुर्बानी भी हक़ीक़ी क़ुर्बानी पर इशारा करती थी कि इन्सानी रूह की परवरिश इस बे’ऐब इन्सान की क़ुर्बानी से होती है।
(8) यही वजह है कि इन जानवरों की क़ुर्बानी से लोग कामिल सेहत नहीं पा सकते थे क्योंकि वो हक़ीक़ी क़ुर्बानी ना थी बल्कि हक़ीक़ी क़ुर्बानी का अक्स था या ब-इबारत दीगर मजाज़ी क़ुर्बानी हक़ीक़ी क़ुर्बानी के क़ाइम मक़ाम थी।
(9) आदमी और जानवर में क्या बराबरी थी कुछ भी नहीं क्या जानवर इन्सान के मुसावी (बराबर) हो सकता है हरगिज़ नहीं और ना जानवर अपनी मर्ज़ी का इज़्हार कर सकता है कि वो ख़ुशी से इन्सान का फ़िद्या हो रहा है। इस रस्म के मुक़र्रर करने से ख़ुदा की मर्ज़ी यही थी कि इन्सान हक़ीक़ी क़ुर्बानी के लिए तैयार किया जाये लेकिन मा’र्फ़त से बे-बहरा लोग उसी को अस्ल समझते थे और ये उनकी ग़लतफ़हमी थी।
(10) ख़ुदा का मतलब था कि एक नया आदमी गुनाह के सिलसिले से अलग हो कर औरत की नस्ल से पैदा हो जिसमें मौरूसी इक्तिसाबी गुनाह ना हो और कामिल इन्सान हो। ताकि सारे जहान के गुनाह के लिए क़ुर्बान हो और उस की क़ुर्बानी से बाइबल की तमाम गुज़श्ता क़ुर्बानियां तक्मील पाएं और आइन्दा को वही सब के हक़ में कामिल क़ुर्बानी हो और उसी की क़ुर्बानी से बर्गज़ीदों की तमाम रूहें ग़िज़ा हासिल करें।
(11) चूँकि इन्सान में ये ताक़त ना थी कि सारे जहान के गुनाहों का बोझ उठाए और ख़ुदा का सारा क़हर जो तमाम गुनेहगारों पर नाज़िल होने वाला है सहार (सह) सके। इसलिए उसने उस की इन्सानियत के साथ अपनी उलूहियत को भी शामिल किया और उक़नूम सानी ने जिस्म इख़्तियार किया ताकि इस भारी मुहिम को फ़त्ह करे।
(12) जब उक़नूम सानी इस मक़्सद के लिए मुजस्सम हो कर आया तो साफ़ ज़ाहिर है कि वो ईरादतन हमारा फ़िद्या हुआ।
(13) अब हमारी तरफ़ से भी इस इरादे की ज़रूरत है कि हम उस पर ईमान के हाथ रखें ताकि मुबादले की शर्त पूरी हो।
(14) यही कामिल क़ुर्बानी है कि क्योंकि आदमी के बदले में आदमी लिया जाता है ना जानवर और आदमी भी मासूम है मुबादले का इरादा भी है और अब सिर्फ हमारी क़बूलियत की शर्त बाक़ी है।
(15) ये शख़्स अपनी पाकीज़गी और रास्तबाज़ी हमें इनायत करता है और हमारे गुनाहों को लेकर ग़ज़ब इलाही की आग में जला देता है।
(16) एक आदमी के सबब सब पर ग़ज़ब आया था अब एक ही आदमी के सबब से सब पर बरकत आती है।
(17) ये क़ुर्बानी देने वाला शख़्स सय्यदना मसीह है जो क़ुद्दूस है वो सब के गुनाहों के लिए कफ़्फ़ारा हुआ और ख़ुदा के ग़ज़ब से हमें रस्तगारी बख़्शी।
(18) जब से उसने अपनी क़ुर्बानी गुज़रानी है तब से करोड़ों रूहें गुनाहों से सुबुक-बार हो गईं और उस की पाकीज़गी ने ये साबित कर दिया कि उस ने हमारे साथ हक़ीक़ी मुबादला कर लिया है। पस लाज़िम बल्कि फ़र्ज़ है कि आप इस शख़्स के मुत’अल्लिक़ दियानत और सदाक़त के साथ ग़ौर ख़ौज़ करें।
पंद्रहवां लैक्चर : मसीह अह्दे-अतीक़ में
गुज़श्ता लैक्चर में ये बतलाया गया कि पुराना अहदनामा पैग़म्बरों के ज़रिये यूं बतलाता है कि आने वाले ज़माने में एक शख़्स ज़ाहिर होने वाला है जो अपनी क़ुर्बानी के वसीले से सारे जहान के लिए नजात तैयार करेगा और नीज़ ये बयान हुआ कि उस ज़माने के लोग इस शख़्स की तरफ़ ताकते थे जैसे अब हम उस की तरफ़ ताकते हैं पस हमारी और उनकी मतम’ नज़र एक ही शख़्स है आज हम इस अम्र का बयान करेंगे कि वो लोग किस एतिक़ाद से इस की तरफ़ ताकते थे और हम किस एतिक़ाद से इस की तरफ़ देखते हैं।
हमारा जो एतिक़ाद है वो सब लोगों को मालूम है कि ईसा इब्ने मर्यम कामिल ख़ुदा और कामिल इन्सान है और वो अपने कफ़्फ़ारे और जी उठने से हमें नजात देता है। और हमारे इस एतिक़ाद की बुनियाद इन्जील जलील की तालीम पर क़ायम है।
मगर इस वक़्त इस बयान की ज़रूरत है कि उस ज़माने के लोगों का मसीह की निस्बत क्या एतिक़ाद था नजात के एतबार से वो तो जैसा कि बयान हुआ मसीह ही को अपना नजातदिहंदा समझते थे मगर उनका ये अक़ीदा कि मसीह कौन है और क्या है ज़ेल के इक़्तिबासात से वाज़ेह होता है।
अगरचे मसीह की ज़ात व सिफ़ात और कामों और वाक़ियात का बयान पुराने अहदनामे की अक्सर इबारतों के दर्मियान साफ़-साफ़ उसी तरह बयान हुआ है जिस तरह इन्जील में हुआ है। मगर इस मसीह की कैफ़ीयत ख़ुदा ने जो हमा-दान (आलिमुल-गैब) है अगली उम्मत पर उस के अल्क़ाब में बख़ूबी ज़ाहिर कर दी थी और अल्क़ाब का तरीक़ा इसलिए इख़्तियार किया गया था कि अल्क़ाब छोटे छटे लफ़्ज़ होते हैं जिनको सब लोग बाआसानी याद रख सकते हैं। ख़ुदा चाहता है कि वाक़ियात अज़ीमा के वक़ू’ से पेश्तर और उस की ज़ात अक़्दस के ज़हूर से पहले उस की ज़रूरी कैफियत के उसूली मज़ामीन छोटे छोटे अल्फ़ाज़ के अल्क़ाब में लोगों के दिलों पर बतौर अक़ीदा नक़्श का लहजर कर दे। ताकि इन अक़ाइद के सबब से वो हलाकत अबदी से बचें। और वो जो ज़हूर के बाद पैदा होंगे अपने अस्लाफ़ के इन अक़ाइद को देखकर ईमान में ज़्यादा मज़बूती हासिल करें।
मज़्कूर हैं
पहला लक़ब आने वाला अल-मसीह है (दानियाल रुकू’ 9 आयत 25) मसीह और अल-मसीह में बड़ा फ़र्क़ है। बादशाह और काहिन और नबी तेल से मस्ह किए जाते थे और मसीह कहलाते थे। मगर अल-मसीह वो ख़ास मसीह है जिसके वो सब नमूने थे और तीनों ओहदे उस में मुकम्मल हो जाते हैं।
दानियाल रुकू’ 9 आयत 25 “और उस पर जो सबसे ज़्यादा क़ुद्दूस है मस्ह किया जाएगा। (ज़बूर शरीफ़ रुकू’ 45 आयत 6 व 7) “तेरा तख़्त ऐ ख़ुदा अबद-उल-आबाद है तेरी सल्तनत का असा रास्ती का असा है तू सदाक़त का दोस्त और शरारत का दुश्मन है। इस सबब से ख़ुदा तेरे ख़ुदा ने तुझको ख़ुशी के तेल से तेरे मुसाहिबों से ज़्यादा मस्ह किया।”
(बाइबल मुक़द्दस सहीफ़ा हज़रत ज़करिया रुकू’ 3 आयत 8) “अब ऐ यहशू’ सरदार काहिन सुन तू और तेरे रफ़ीक़ जो तेरे आगे बैठे हैं क्योंकि ये अश्ख़ास बतौर निशानी के हैं कि देख मैं अपने बंदे शाख़ नामी को पेश लाऊँगा।”
यहां से साफ़ ज़ाहिर है कि अल-मसीह आने वाला है मगर इन्जील बतलाती है कि जब अल-मसीह आया और 30 बरस का हो कर ममसूह होने को यर्दन नदी पर यूहन्ना के सामने गया तो ख़ुदा ने आप उसे रूह-उल-क़ुद्स से ममसूह किया और कबूतर की शक्ल में उस पर रूह-उल-क़ुद्स नाज़िल हुई और आवाज़ आई कि “ये मेरा प्यारा बेटा है जिससे मेरा दिल ख़ुश है।”
फिर उस शख़्स की ज़िंदगी के वाक़ियात और वो सब मो’जज़ात जो उस से ज़ाहिर हुए बख़ूबी साबित करते हैं कि ये अल-मसीह है।
दूसरा लक़ब अल-मलक है। वो एक ख़ास बादशाह है सुलतानों का सुल्तान ख़ुदावन्दों का ख़ुदावंद। और उन बादशाहों के अय्याम में आस्मान का ख़ुदा एक सल्तनत बरपा करेगा जो ता अबद नेस्त ना होगी और वो सल्तनत दूसरी क़ौम के क़ब्ज़े में ना पड़ेगी वो उन सब मुमलकतों को टुकड़े टुकड़े और नेस्त करेगी और वही ता-अबद क़ायम रहेगी।” (दानियाल रुकू’ 2 आयत 44)
(सहीफ़ा हज़रत ज़करिया रुकू’ 9 आयत 9) “देख तेरा बादशाह तुझ पास आता है वो सादिक़ है और नजात देना उस के ज़िम्मे में है वो फ़िरोतन है और गधे पर बल्कि जवान गधे पर हाँ गधे के बच्चे पर सवार है।” पुराने अहदनामे में इस बादशाह के ज़िक्र में बहुत कुछ लिखा है। और ये भी लिखा है कि वो रुहानी व जिस्मानी दोनों तरह से बादशाह होगा और ये भी साफ़ ज़ाहिर है कि यहूदी जानते थे कि वो बादशाह जो आने वाला है वही अल-मसीह है।
चुनान्चे जब मसीह पैदा हुए और नजूमी आए तो उन्होंने कहा कि यहूदियों का बादशाह जो पैदा हुआ है कहाँ है? तब फ़ौरन हैरोदेस ने कहा कि मसीह कहाँ पैदा होगा क्योंकि वो जानता था कि आने वाला बादशाह मसीह है। और उलमाए यहूद ने यही जवाब दिया कि कि (सहीफ़ा हज़रत मीकाह रुकू’ 5 आयत 2) “ऐ बैत-लहम अफराता हर-चंद कि तू यहूदा के हज़ारों में शामिल होने के लिए छोटा है तो भी तुझमें से वो शख़्स निकल के मुझ पास आएगा जो इस्राईल में हाकिम होगा और उस का निकलना क़दीम से अय्याम अल-अज़ल से है। किस पर भी वो उन्हें छोड़ देगा उस वक़्त तक कि वो जो जनने का दर्द खाने पर है जन चुके तब उस के बाक़ी भाई बनी-इस्राईल के पास फिर आएंगे।” (सहीफ़ा हज़रत मीकाह रुकू’ 5 आयत 2 व 4)
चूँकि ये हक़ीक़ी बादशाह है इसलिए उस की बादशाहत का शुरू इन्सान के दिल में होता है इसलिए उस के नक़ीब यूहन्ना ने तौबा की मुनादी की कि “तौबा करो क्योंकि आस्मान की बादशाहत नज़्दीक है।” इस बादशाह की रईयत बनने के लिए दिल की तैयारी ज़रूरी है ताकि ख़ुशी के साथ इता’अत की जाये और रूहानियत जिस्मानियत पर ग़ालिब आ जाए। यहां तक कि सब कुछ नया हो जाये उसी बादशाह के इंतिज़ाम से जहान कामिल होगा क्योंकि उस का ताल्लुक़ दिल से है। और उस का सब सामान रुहानी है।
तीसरा लक़ब ख़ुदावंद का बाज़ू है। (सहीफ़ा हज़रत यस’याह रुकू’ 51 आयत 9) ये लक़ब उस की क़ुव्वत और क़ुद्रत को ज़ाहिर करता है कि उस में किस क़िस्म की ताक़त होगी।
सय्यदना मसीह के वाक़ियात साफ़ गवाही देते हैं कि वो ख़ुदा का बाज़ू था। इन्सानों और फ़रिश्तों और तमाम मौजूदात में जो ताक़त देखी जाती है उन सबसे निराली ताक़त मसीह ज़ाहिर हुई है।
मसीह की नजातदिहंदा ताक़त से हर मुल्क के आरिफ़ लोग जान सकते हैं कि ख़ुदा का बाज़ू हमारी मदद पर है उस की क़ुद्रत से जो रूहों पर और इन्सानी ख़यालात पर और दरियाओं पर और हवाओं पर ज़ाहिर हुई साफ़ साबित होता है कि वो ख़ुदा का बाज़ू है।
उस की क़ुद्रत जो अपनी जमाअत के बढ़ाने और फैलाने में और मदद करने में देखी जाती है साफ़ गवाही देती है कि वो ख़ुदा का बाज़ू है।
चौथा लक़ब अजीब, मुशीर, ख़ुदा क़ादिर अबदियत का बाप सलामती का शहज़ादा है। (सहीफ़ा हज़रत यस’याह रुकू’ 9 आयत 6) फ़िल-हक़ीक़त ये सारे औसाफ़ सय्यदना मसीह में पाए जाते हैं और इन पांचों लफ़्ज़ों के मफ़्हूम कामिल तौर पर उसी शख़्स में चस्पाँ होते हैं।
(अजीब) उस की पैदाइश से सऊद तक अजीब बातें उस में देखी गईं और आज तक अजीब भेद उस से ज़ाहिर होते हैं
(मुशीर) वो आदमियों को उम्दा सलाह देता है ऐसी सलाह देने वाला एक भी जहान में नज़र नहीं आता। वो ख़ुदा बाप के साथ अज़ल से मुशीर था।
(ख़ुदाए क़ादिर) ज़ाहिर है कि उस में कामिल उलूहियत थी।
(अबदियत का बाप) वो तो मुर्दों में से जी उठा और अबद तक ज़िंदा है।
(सलामती का शहज़ादा) वो ख़ुदा का बेटा हमारी सलामती का बाइस है।
पांचवां लक़ब सारी क़ौमों की आरज़ू है (पैदाइश रुकू’ 49 आयत 10) और (सहीफ़ा हज़रत हज्जी रुकू’ 2 आयत 7) ना सिर्फ यहूदियों की आरज़ू है और एक वक़्त ऐसा आने वाला है कि सब जानेंगे कि वही हमारी आरज़ू है।
छटा लक़ब हिक्मत है। (अम्साल रुकू’ 8 आयत 12) ये मज़्मून ऐसी ख़ूबी के साथ सय्यदना मसीह में पाया जाता है जिसका कोई आदमी इन्कार नहीं कर सकता क्योंकि सय्यदना मसीह की तालीम से सारे जहान के उक़ला हैरान हैं और हर दानाई उस की सफ़ाई के सामने मांद है। चुनान्चे ना उस वक़्त कोई दानाई उस का मुक़ाबला कर सकी और ना आज तक कोई दाना उस से बेहतर तालीम दे सका।
सातवाँ लक़ब ख़ुदावंद ख़ुदा है (सहीफ़ा हज़रत यस’याह रुकू’ 4 आयत 10) “देखो ख़ुदावंद ख़ुदा ज़बरदस्ती के साथ आएगा।” (आयत 5) में है कि “ख़ुदावंद का जलाल आश्कारा होगा।”
हम कह सकते हैं कि ख़ुदा को जिन सिफ़तों के साथ अक़्ल ने दर्याफ़्त किया है वो सब सिफ़तें उस शख़्स में पाई जाती हैं अगर ये शख़्स खुदा ना था तो फिर कौन ख़ुदा है जिसकी हम उम्मीद करें? जितनी सिफ़ात हम ख़ुदा में तस्लीम करते हैं वो सब मसीह में मौजूद हैं फिर क्यों हम ना ये कहें कि वो ख़ुदा है?
आठवां लक़ब “ख़ुदावंद हमारी सदाक़त है।” (यर्मियाह रुकू’ 23 आयत 6) उस का नाम ये रखा जाएगा कि ख़ुदावंद हमारी सदाक़त। सारे मसीही दीन का हासिल ये है कि मसीह हमारी वो नेकी है जिसको हम ख़ुदा के सामने पेश कर सकते हैं हम सिर्फ मसीह के तुफ़ैल से बचेंगे ना अपने नेक आमाल की वजह से चुनान्चे मसीह के सिवा और किसी ने इस अम्र का मुदल्लिल दा’वा नहीं किया है।
नवां लक़ब उस का इम्मानुएल है। (यस’याह रुकू’ 7 आयत 4) यानी ख़ुदा आदमियों के दर्मियान आ गया है।
सय्यदना मसीह जो मुजस्सम ख़ुदा है ये उस की ज़ात का बयान है जिसका सबूत उस की इस्मत क़ुद्रत इल्म हिक्मत और सारे वाक़ियात देते हैं।
दसवाँ लक़ब हमताई ख़ुदा है। (ज़करिया रुकू’ 13 आयत 7) यानी एक इन्सान है जो ख़ुदा है। इसी तरह शाख़ दाऊद की अस्ल, दाऊद की नस्ल इस्राईल का क़ुद्दूस ख़ुदा का फ़रिश्ता अहद का रसूल शरी’अत का दहिंदा शाहिद सितारा शैल्वा ख़ल्क़ का पेशवा और आफ़्ताब सदाक़त वग़ैरह उस के अल्क़ाब हैं और इन अल्क़ाब के मफ़हूमात सिर्फ उसी शख़्स सय्यदना मसीह में अदा हो जाते हैं। हमारा जो कुछ एतिक़ाद मसीह पर है वही एतिक़ाद है जो अगलों पैग़म्बरों का और उनकी उम्मत का था सिर्फ इतना फ़र्क़ है कि वो कहते थे कि एक ऐसा शख़्स आने वाला है और हम कहते हैं कि वो आ गया पस भाइयों ये बेफ़िक्री का वक़्त नहीं है। सय्यदना मसीह के मुत’अल्लिक़ दियानतदारी के साथ ग़ौर करो और उसी को मद्द-ए-नज़र रखो तब तुम्हें ख़ुदा-शनासी की क़ुदरत हासिल हो जाएगी।
वस्सलाम इमाद-उद्दीन लाहिज़