Life of St. Paul

Dr. James Stalker


हयात-ए-पौलूस रसूल

मुसन्निफ़ डाक्टर जेम्स स्टाकर साहब



Christian Literature Society for India,

Punjab Branch, Lahore

1884

पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी

अनार कली, लाहौरी



James Stalker

1848-1927



पहला बाब

मुक़द्दस पौलूस की ज़िंदगी का हाल, तारीख़ में इस की जगह

1. बाअज़ शख़्स ऐसे गुज़रे हैं कि जिनकी ज़िंदगी का मुतालआ करने से ये असर दिल पर होता है, कि वो अपने ज़माने में एक ख़ास बड़ी ज़रूरत को पूरा करने के लिए दुनिया में भेजे गए थे। मसलन अगर कोई दीनदार ज़माना इस्लाह की तारीख़ को पड़ेगा तो फ़ौरन वो महसूस करेगा कि ख़ुदा की क़ुदरत-ए-कामला ने लूथर, ज़दआंगली, केल्वीन और फॉक्स जैसे अश्ख़ास को एक ही ज़माना यूरोप के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में बरपा किया ताकि पोपियत के जुए (बोझ) को तोड़ें और फ़ज़्ल की इन्जील की अज़सर-ए-नौ (नए सिरे से) इशाअत करें। ऐसा ही जब इंग्लिस्तान को बरकत देने के बाद (Evangelical Revival) यानी इंजीली सरगर्मी स्कॉटलैंड में शुरू हो कर बरा-ए-नाम एतिदाल पसंद (Modernism) फ़िर्क़े की तालीम को तबाह करने पर थी तो टॉमस चालरर (Thomas Chalerers) जैसा वसीअ ख़याल मर्द बरपा हुआ जिसने अपनी हम्दर्दी और तासीर से इस इंजीली तहरीक को अपने मुल्क की हदों तक फ़रोग़ हुआ।

2. पौलूस रसूल की ज़िंदगी का हाल पढ़ने से ये असर सबसे बढ़कर दिल पर पड़ता है जिस वक़्त मसीही दीन अभी शुरू हुआ ही था। उस वक़्त पौलूस रसूल बरपा हुआ। हम ये तो नहीं कहते, कि मसीही दीन कमज़ोर था हरगिज़ नहीं और ना ये कहते हैं कि कोई फ़ानी इन्सान इस के लिए लाज़िमी था। क्योंकि इस में इलाही और ग़ैर-फ़ानी हस्ती का ज़ोर व ताक़त मौजूद थी और वो अपने वक़्त पर ज़रूर ज़ाहिर हो जाती। लेकिन अगर हम इस अम्र को तस्लीम करें कि ख़ुदा वसीलों को इस्तिमाल करता है। जो हमारी नज़र में भी अग़राज़ मतलूबा के लिए मुनासिब मालूम होते हैं। तो हम ये कह सकते हैं, कि मसीही दीन की तहरीक के लिए जिस वक़्त कि पौलूस ज़ाहिर हुआ एक ऐसे लायक़ शख़्स की ज़रूरत थी। ताकि ये तहरीक उस की लियाक़त को इस्तिमाल कर के जहान की तारीख़ में इस को पैवंद (जोड़) कर दे चुनान्चे इस तहरीक को पौलूस में ऐसा मतलूबा शख़्स मिल गया।

3. मसीही दीन ने पौलूस में मसीही सीरत का एक लासानी नमूना पाया। अलबत्ता बानी दीन के वजूद में इन्सानी सीरत का कामिल नमूना मौजूद था। लेकिन वो तो दीगर आदमियों की तरह ना था। क्योंकि शुरू से उस में कोई गुनाह आलूदा नुक़्स ना था। जिसके साथ उसे मुक़ाबला करना पड़ता और मसीही दीन को अब तक ये ज़ाहिर करने की ज़रूरत थी। कि ये नाक़िस इन्सानी ज़ात को क्या कुछ बना सकती है पौलूस की ज़िंदगी से ये ज़रूरत पूरी हो गई। फ़ित्रतन उस की तबीयत और लियाक़त निहायत आला थी। अगर वो मसीही ना भी होता तो भी एक मशहूर शख़्स होता। दीगर रसूलों का ये हाल ना था। अगर मसीही दीन उन को ये सर्फ़राज़ी ना बख़्शता तो गलील में उन को कोई ना जानता और वो गुमनाम रहते। लेकिन तरसुस के साऊल का नाम ख़्वाह मसीही दीन मौजूद भी ना होता किसी ना किसी सूरत में क़ाबिल-ए-याद रहता। मसीही दीन को उस के ज़रीये ये मौक़ा मिला कि जहान पर इस के ज़ोर तबीयत को ज़ाहिर करे। ख़ुद पौलूस भी इस से आगाह था। अगरचे बड़ी फ़िरोतनी से उसने इस का ज़िक्र किया है। “मुझ पर रहम इसलिए हुआ कि येसू मसीह मुझ बड़े गुनेहगार की वजह से अपना कमाल-ए-सब्र ज़ाहिर करे ताकि जो लोग हमेशा की ज़िंदगी के लिए उस पर ईमान लाएँगे। उन के लिए मैं नमूना बनूँ।”

4. पौलूस के रुजू लाने से मसीही दीन की ये क़ुद्रत साबित हुई कि वो परले दर्जे के सख़्त तास्सुब पर ग़ालिब आ सकता और ज़बरदस्त शख़्स में एक यकायक और मुस्तक़िल इन्क़िलाब पैदा कर के अपना नक़्शा उस पर जमा सकता है। उस की शख़्सियत ऐसी ज़बरदस्त और अनोखी थी, कि कोई उस से ये तवक़्क़ो नहीं कर सकता था, कि वो दूसरे की शख़्सियत में ग़र्क़ हो जाएँगी। लेकिन जब से मसीह के साथ उस का वास्ता पड़ा वो उस के असर से ऐसा मग़्लूब हो गया, कि इस के बाद अगर उस की कोई आरज़ू थी, तो यही थी कि वो दुनिया में उस का अक्स और उस की सदाए बाज़गश्त (वापिस होना, पलटना) हो। मसीही दीन की ताक़त ना सिर्फ इस से ज़ाहिर हुई कि उस ने पौलूस जैसे शख़्स को फ़त्ह कर लिया बल्कि इस से भी कि जब पौलूस ने अपने तईं उसे दे दिया तो उस ने उसे कैसा बना दिया। मसीही दीन ने इस अजीब भूकी रूह को सैर कर दिया। और उस की ज़िंदगी के आख़िर तक उस का इशारा तक पाया नहीं जाता कि इस सेरी और आसूदगी को कभी ज़वाल हुआ। फ़ित्रतन उस का वजूद लैस अजज़ा से मुरक्कब था। लेकिन मसीह की रूह ने उन को ऐसा कमाल दिया कि वो बिल्कुल लासानी बन गया ना पौलूस को इस का शक हुआ और ना किसी दूसरे को कि जो कुछ वो बन गया वो मसीह की तासीर से था। उस की ज़िंदगी का ठीक मक़ूला ये था जो उस ने ख़ुद बयान किया है, “मैं ज़िंदा हूँ। तो भी मैं नहीं बल्कि मसीह मुझमें ज़िंदा है।” ला कलाम मसीह ने ऐसे कामिल तौर से उस में सूरत पकड़ी थी, कि अब हम मसीह की सीरत का मुतालआ उस की सीरत के ज़रीये कर सकते हैं बल्कि मुबतदी (शुरू करने वाला) पौलूस की ज़िंदगी से मसीह की बाबत जिस क़द्र सीख सकते हैं। इस क़द्र शायद ख़ुद मसीह की ज़िंदगी से नहीं सीख सकते। ख़ुद मसीह में सारी खूबियां ऐसे तौर से आमेज़िश रखती थीं, कि मुबतदी इनकी अज़मत को दर्याफ़्त नहीं कर सकता। जैसे रफ़ाईल की मुसव्विरी का कमाल ना तजुर्बाकार आँख के लिए मायूसी का बाइस है हालाँकि पौलूस में मसीह की सीरत की खूबियों से चंद ऐसी दरख़शां (रोशन) और होवेदा (ज़ाहिर, अयाँ) हैं कि कोई इनकी बाबत ग़लती नहीं कर सकता है। रोबिन की मुसव्विरी में बड़े-बड़े ख़ाल व ख़त (शक्ल व सूरत)

5. दोम पौलूस दीन को एक बड़ा सोचने वाला मिला। उस वक़्त उस की बड़ी ज़रूरत थी। मसीह इस जहान से रुख़्सत हो गया था। और जिसको वो पीछे अपना क़ाइम मक़ाम होने के लिए छोड़ गया था। वो ना ख़वांदा मछेरे थे। और उमूमन सब साहिबे अक़्ल ना थे। एक तरह से तो इस अम्र से मसीही दीन की ख़ास बुजु़र्गी ज़ाहिर होती है। कि उस की आला तासीर उस के हामियों की लियाक़त पर मुन्हसिर ना थी। “ना ज़ोर से ना ताक़त से लेकिन ख़ुदा की रूह से मसीही दीन दुनिया में क़ायम हुआ।” और अब जो हम पीछे नज़र डालते हैं तो हम साफ़ देख सकते हैं कि एक मुख़्तलिफ़ क़िस्म और तर्बियत के रसूल का बरपा होना कैसा ज़रूर था।

6. मसीह ने कामिल तौर पर बाप का जलाल ज़ाहिर किया और अपने कफ़्फ़ारे के काम को पूरा किया। लेकिन ये काफ़ी ना था। बल्कि ये भी ज़रूर था। कि उस के ज़ाहिर होने का मक़्सद भी जहान पर आशकार किया जाये ये कौन था जो यहां आया था? और ठीक तौर से उस ने कौन सा काम अंजाम दिया? पहले बारह रसूल इन सवालों के आम मुख़्तसर जवाब दे सकते थे। लेकिन उनमें से कोई ऐसा ना था। जो अपनी तालीम व तर्बियत के ज़रीये जहान के अक़्ल मंदों की तश्फ़ी (तसल्ली) कर सकता। शुक्र की बात है कि नजात के लिए ये ज़रूर नहीं कि ऐसे सवालों के जवाब इल्मी मन्तिक़ी दलाईल से दे सकें। हज़ारों लाखों ऐसे हैं जो जानते और ईमान लाते हैं कि येसू ख़ुदा का बेटा था। और उनके गुनाह दूर करने के लिए मुआ और उस को वो अपना नजातदिहंदा समझते हैं और ईमान से पाक बनते हैं लेकिन अगर वो इन बातों का मुफ़स्सिल (तफ़्सीलवार बयान) बयान करना चाहें तो हर जुम्ले में ग़लती करेंगे। लेकिन मसीही दीन को ना सिर्फ अख़्लाक़ी जहान को बल्कि ज़ी अक़्ल जहान को भी फ़त्ह करना था तो कलीसिया के लिए ज़रूर था कि साफ़-साफ़ ख़ुदावंद के पूरे जलाल और उस के नजात बख़्श काम के मअनी उसे बताए जाएं। ख़ुद येसू के दिल में इस अम्र का पूरा तसव्वुर था कि मैं क्या हूँ और मैं क्या कर रहा हूँ। और ये सब रोज़-ए-रौशन की तरह रोशन था। लेकिन जो काम उस ने ज़मीन पर किया उस में ये कुछ दर्द अंगेज़ (दर्द से भरा हुआ) सा ख़याल है कि जो कुछ उस के दिल में था वो सब कुछ अपने पैरओं पर खोल ना सकता था। वो उन सारी बातों की बर्दाश्त के क़ाबिल ना थे। वो कुछ अखड़ जैसे और तंग-ख़याल थे। उन सबको गिरिफ्त ना कर सकते थे। इसलिए येसू अपने दिल के गहरे ख़यालात बे बताए अपने साथ ही ले गया। और उसे पूरा यक़ीन था कि रूह-उल-क़ुद्स आन कर कलीसिया की ऐसी रहनुमाई करेगा। कि ये सारी बातें बतद्रीज (आहिस्ता-आहिस्ता) उस पर खुल जाएँगी। और जो कुछ येसू ने शागिर्दों से बयान किया था। उस को भी वो पूरे तौर से नहीं समझे थे। ये तो सच्च है कि पहले शागिर्दों की तबीयत इस क़ाबिल तो थी। कि आला दर्जे तक तरक़्क़ी कर सके। मसीह के अल्फ़ाज़ यूहन्ना के दिल में ऐसे नक़्श का लजजर हो गए। कि तक़रीबन निस्फ़ सदी तक वहां पड़े रहने के बाद वो फल लाए जिसका जलवा उस की इन्जील और ख़तों में आज तक झलक मारता था। लेकिन यूहन्ना की तबइयत भी कलीसिया की ज़रूरत को रफ़ा ना कर सकती थी। वो तो कुछ ऐसी लतीफ़ रुहानी और ग़ैर-मामूली थी कि आज तक उस के ख़यालात चंद चीदा शख्सों ही की समझ में आ सकते हैं। कलीसिया के लिए तो एक ज़्यादा वसीअ ख़याल और महवर (फ़िक्र) की ज़रूरत थी। कि वो मसीही तालीम का ख़ाका खींच कर कलीसिया को दिखाए। पौलूस ऐसा शख़्स मिल गया।

7. पौलूस तो मादर-ज़ाद साहिबे फ़िक्र शख़्स था। इउस की हिद्दत (तबीयत की तेज़ी) और वुसअत तबा (मिज़ाज) क़ाबिल-ए-तारीफ़ थी। वो बड़ी चंचल और मसरूफ़ रहने वाली थी। जिस शैय से उस को वास्ता पड़ता उस के माक़ब्ल अस्बाब और माबाअ्द नताइज का सुराग़ लगाए बग़ैर ना छोड़ती इतना जानना उस के लिए काफ़ी ना था, कि मसीह ख़ुदा का बेटा है उस ने मसअले के अजज़ाए मुरक्कबा को मालूम कर के दर्याफ़्त करना था। कि इस का ठीक मतलब क्या है। इतना मानना उस के लिए काफ़ी ना था, कि मसीह गुनाह के लिए मुआ। बल्कि उस ने इस की तह तक पहुंचने की कोशिश की कि क्यों उसे मरना ज़रूर था। और क्योंकर उस की मौत गुनाह को दूर कर सकती है। ना सिर्फ फ़ित्रत ने इस तब-ए-रसा (कामिल तबीयत) से उसे मुज़य्यन किया था। बल्कि तालीम व तर्बियत ने भी उसे जिला बख़्शी थी। दीगर रसूल नाख़्वान्दा थे। लेकिन पौलूस अपने ज़माने का आलिम था। रब्बियों के स्कूल में उस ने ये सीखा था, कि अपने ख़यालात को किस तरह तर्बियत देकर बयान करे और उनकी हिमायत करे। उस के ख़तों में इस तालीम का असर ज़ाहिर है। क्योंकि इन ख़तों में मसीही दीन की आला तश्रीह जो हो सकती है, पाई जाती है। इस को ठीक समझने के लिए ये मुनासिब होगा कि हम इस तालीम को मसीह की तालीम का सिलसिले-वार बयान समझें। पौलूस की तालीम में वो ख़यालात ज़ाहिर हुए हैं जो मसीह बे बताए अपने साथ ले गया। अलबत्ता अगर मसीह उनका बयान करता तो शायद कुछ मुख़्तलिफ़ तौर और बेहतर तरीक़ से करता। पौलूस के ख़यालात में हर जगह उस की अपनी तबई खासियतें ज़ाहिर हैं। लेकिन उन का लुब्बे-लबाब (ख़ुलासा) क़तई है जो मसीह का होता अगर वो ख़ुद इनका बयान करता।

8. एक ख़ास बड़ा मज़्मून था जिसे मसीह ने बिला-तश्रीह छोड़ा यानी उस की अपनी मौत जब तक वो मौत वाक़ेअ ना हो लेती वो उस की तश्रीह ना कर सकता था। पौलूस की तालीम का ख़ास मज़्मून इसी अम्र को ज़ाहिर करता है, कि इस की क्या ज़रूरत थी और इस के मुबारक नतीजे कैसे थे। बल्कि मसीह के ज़हूर का कोई पहलू ऐसा ना था। जिसमें उस की चंचल तबा (मिज़ाज) ने दख़ल ना पाया हो। अगर उस के तेराह ख़ुतूत को तारीख़-वार तर्तीब दें तो इनसे ये ज़ाहिर हो जाता है, कि वो इस मज़्मून की ता तक पहुंचता जाता है। इस के फ़िक्र की तरक़्क़ी की एक वजह तो ये थी कि इस ने मसीह के इल्म में रोज़ बरोज़ ज़्यादा तजुर्बा हासिल किया। क्योंकि वो हमेशा अपने ही तजुर्बा से लिखता है। और एक वजह ये थी। कि इस को अपने ज़माना की मुख़्तलिफ़ ग़लतीयों से मुक़ाबला करना पड़ा। इस के ज़रीये उसे बड़ी तहरीक हुई कि इस तालीम की तह तक पहुंचे। और मसीही कलीसिया का यही तजुर्बा है कि अक्सर ग़लतीयों का मुक़ाबला करने के वक़्त मसीही तालीम का ज़्यादा साफ़ बयान किया गया। लेकिन उस की ज़िंदगी में और इस के गौर व फ़िक्र में जो बड़ी तहरीक थी वो ख़ुद मसीह था। और उम्र-भर वो उसी पर ग़ौर करते-करते मसीही दीन का साहिबे फ़िक्र शख़्स बन गया।

9. सोइम : पौलूस से मसीही दीन को ये फ़ायदा भी हासिल हुआ कि वो उस के लिए ग़ैर क़ौमों का मिशनरी बन गया ऐसा तो शाज़ो नादिर (कभी-कभार) ही इत्तिफ़ाक़ होता है कि एक ही शख़्स में ये दो आला सिफ़ात पाई जाएं यानी आला दर्जे की क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला (ख़याल की क़ुव्वत) और आला दर्जे की कारकुन फ़ैलसूफ़ (आलिम) था बल्कि बहुत बढ़ा चढ़ा कारिंदा भी था। जब पौलूस मसीही जमाअत में शरीक हुआ तो उस वक़्त एक ऐसे साहिबे फ़िक्र की ज़रूरत थी और नीज़ एक बड़ा अहम काम उस के लिए धरा था। यानी ग़ैर-अक़्वाम में मसीही दीन की बशारत देना।

10. मसीह के आने का एक बड़ा मक़्सद ये था कि जो जुदाई की दीवार यहूदी और ग़ैर-अक़्वाम में हाइल थी उस को गिरा दे और नजात की बरकात बिला इम्तियाज़ क़ौम व ज़बान सबकी मिल्कियत बना दे। लेकिन ख़ुद मसीह अपनी ख़िदमत के दौर में इस को सर-अंजाम नहीं दे सकता था। उस की ज़मीनी ख़िदमत पर ये एक अजब तरह की क़ैद लगी हुई थी कि वो सिर्फ़ इस्राईल की खोई हुई भेड़ों की तरफ़ भेजा गया था। ये तो क़रीन-ए-क़ियास (वो बात जिसे अक़्ल क़ुबूल करे) है, कि उसे ये कैसा दिल पसंद होगा कि इन्जील को फ़िलिस्तीन की हदूद के बाहर भी फैलाता और हर क़ौम पर इस को ज़ाहिर करता। और अगर ये कहना गुस्ताख़ी ना हो तो ये कह सकते हैं। कि अगर वो कुछ और देर तक ज़िंदा रहता तो वो अलबत्ता यही काम करता। लेकिन वो तो अपनी उम्र के वस्त में काटा गया। और उसे ये काम अपने पैरौओं पर छोड़ना पड़ा।

11. अलबत्ता पौलूस के रुजू लाने से पेश्तर ये काम शुरू हो गया था। यहूदी तास्सुब किसी क़द्र तोड़ा गया था। मसीही दीन की आलमगीरी किसी क़द्र अपना रंग दिखाने लगी थी। और पतरस ने बपतिस्मे के ज़रीये पहले चंद ग़ैर-अक़्वाम को पहली दफ़ाअ कलीसिया में शामिल किया था। लेकिन बारह रसूलों में से कोई भी इस बड़े मअरका (जंग) के लिए तैयार ना था। इन में से कोई ऐसा वसीअ ख़याल ना था। कि यहूदी और ग़ैर कौम’ की कामिल मुसावात का इदराक करे और ना इनमें से किसी में वो ज़रूरी क़ाबिलियत थी कि एक बड़े दर्जे तक ग़ैर-अक़्वाम को मसीह की तरफ़ फेरने की जुर्आत करे। वो तो गलीली मछेरे थे। और अपने वतन फ़िलिस्तीन उसी की हदूद के अंदर-अंदर सिखाने और बशारत देने के क़ाबिल थे। इस काम के लिए तो ऐसे शख़्स की ज़रूरत थी। जो हर हालत और हर दर्जे के लिए अपने तईं मौज़ूं बना सके। जो साहिब-ए-इल्म और परले दर्जे का हम्दर्द हो और इन्जील के पैग़ाम को हर जगह ले जा सके। एक ऐसा शख़्स जो ना सिर्फ यहूदियों में यहूद हो सके। बल्कि यूनानियों में यूनानी। रोमियों में रोमी। बरबरियों में बरबरी। एक ऐसा शख़्स। जो ना सिर्फ इबादत ख़ानों में रब्बियों का मुँह-बंद कर सके। बल्कि अदालतों में हुक्काम का और दारुल-उलूम में फ़ैलसूफ़ों का मुक़ाबला कर सके। एक ऐसा शख़्स जो ख़ुशकी व तरी के सफ़र के लायक़ हो। और जो हर हालत में होश व हवास से काम ले और किसी तरह से ख़तरात से हिरासाँ (परेशान) ना हो। बारह रसूलों में कोई भी इस पाये का ना था। हालाँकि मसीही दीन को एक ऐसे ही शख़्स की ज़रूरत थी। और ऐसा शख़्स पौलूस में मिल गया।

12. अगरचे तबअन (तबीयत या मिज़ाज) दीगर रसूलों की निस्बत पौलूस यहूदी तास्सुब में और दूसरों से अलैहदगी रखने में ज़्यादा था लेकिन उसे इन तअस्सुबात के जंगल में अपनी राह निकालनी पड़ी और उसने मान लिया कि मसीह में सब आदमी मुसावी (बराबर) हैं और इस उसूल को उस ने अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक वफ़ादारी से बरता। उसने ग़ैर क़ौमों में मसीही दीन की इशाअत का बेड़ा उठाया। और उस की ज़िंदगी की तारीख़ इस अम्र की शाहिद (गवाह) है कि कैसी रास्ती से इस बुलाहट पर अमल किया। बमह दिल व हमा जान वो इस काम में मसरूफ़ हुआ कि मुश्किल से ऐसी नज़ीर मिलेगी। जिस क़द्र मुश्किलात का सामना करके इस लिए फ़त्ह पाई। और जिन मुसीबतों को वो ख़ुशी से झेलता रहा शायद ही किसी को नसीब हुआ हो। इस में येसू मसीह ख़ुद जहान को बशारत देने निकला। और उस ने पौलूस के हाथ, पांव, ज़बान, दिमाग़ और दिल को इस्तिमाल किया और वो काम सरअंजाम दिया जिसे वो अपने ज़मीनी दौरे में पूरा ना कर सका था।

दूसरा बाब

उस का नादानिस्ता अपने काम के लिए

तैयार होना

13. जो शख़्स बालिग़ हो कर ख़ुदा की तरफ़ रुजू लाते हैं। तो अक्सर जब वो अपनी गुज़श्ता ज़िंदगी पर जो उन के रुजू लाने से पेश्तर गुज़री नज़र करते हैं। तो अफ़्सोस व रंज दामनगीर (मदद चाहने वाला) होता है और ये आरज़ू होती है, कि काश इनकी याद सफ़ा हस्ती से मिट जाती तो क्या अच्छा होता। पौलूस ने इस अम्र को भी बशिद्दत महसूस किया। उम्र के आख़िर तक उस को ज़ाए शूदा अय्याम का अफ़्सोस रहा और वो कहा करता था, कि “मैं रसूलों में से सबसे छोटा हूँ बल्कि रसूल कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं क्योंकि मैंने ख़ुदा की कलीसिया को सताया।” अलबत्ता हम ये तो कहने को तैयार नहीं कि उस के वो सारे बरस ज़ाए हो गए। ख़ुदा के मक़ासिद बड़े गहरे हैं और जो ख़ुदा को जानते भी नहीं, शायद वो उन में भी ऐसे बीज बो रहा है, जो उग कर ऐसे वक़्त फलदार होंगे। जब कि उनकी बेदीनी के ज़माने को गुज़रे अर्सा हो गया हो। अगर पौलूस अपने रुजू लाने से पेश्तर ऐसी तैयारी हासिल ना करता जो उस के माबाअ्द ज़माने के मुनासिब थी तो वो हरगिज़ वो शख़्स ना हो सकता जो पीछे हुआ और ना वो काम कर सकता जो उस ने पीछे किया वो जानता ना था कि मैं किस काम के लिए तैयार हो रहा हूँ। जो कुछ वो आइन्दा बनने का इरादा रखता था। वो ख़ुदा के इरादे से मुतफ़र्रिक़ था। लेकिन ख़ुदा हमारे मक़ासिद को अपने ढंग पर ले आता है और इस तरह वो पौलूस को अपने तीर के लिए एक मुसैक़ल (रोशन किया गया) पैकां बना रहा था। अगरचे पौलूस को इस की ख़बर तक ना थी।

14. पौलूस की पैदाइश की तारीख़ तो ठीक तौर पर मालूम नहीं लेकिन तख़मीनन कुछ अंदाज़ा लगा सकते हैं। और हमारे मक़्सद के लिए इतना काफ़ी है। जब 33 ई॰ में स्तिफ़नुस के पथराओ करने वालों ने अपने कपड़े पौलूस के पांव के पास रखे उस वक़्त पौलूस जवान था। अलबत्ता ये लफ़्ज़ जो इन यूनानी और उर्दू दोनों ज़बानों में बहुत कुशादा है। 20 साल की उम्र से लेकर तीस साल से कुछ ऊपर आदमी जवान कहलाता है और उस वक़्त ग़ालिबन पौलूस तीस साल के क़रीब उम्र का होगा। क्योंकि उस वक़्त के क़रीब या इस से थोड़ी देर बाद वो यहूदी सदर मज्लिस का मैंबर हो गया और ये हक़ तीस साल से कम उम्र के शख़्स को ना मिल सकता था और जो इख़्तियार उसे सदर-ए-मज्लिस की तरफ़ से मसीहियों के सताने का मिला वो एक बहुत नौ उम्र शख़्स को मिलना मुश्किल था स्तिफ़नुस के क़त्ल के अफ़्सोस नाक वाक़िये के तक़रीबन तीस साल 62 ई॰ में वो रोम के क़ैदख़ाने में पड़ा था। और इस काम के लिए मौत के फ़त्वे का मुंतज़िर था। जिसके लिए स्तिफ़नुस ने जान दी थी। अपने आख़िरी ख़तों में से एक में यानी फ़िलेमोन की तरफ़ के ख़त में वो अपने तईं “बूढ़ा पौलूस” कहता है। ये लफ़्ज़ बूढ़ा भी बहुत वसीअ है और जो शख़्स इस क़द्र दुखों और मुसीबतों में पड़ा हो वो तो क़ब्ल अज़ वक़्त बूढ़ा हो जाएगा। तो भी वो अपने लिए ये लक़ब “बूढ़ा पौलूस” साठ साल की उम्र से पेश्तर शायद ही इख़्तियार करता। इस अंदाज़े से इतना नतीजा हम निकाल सकते हैं, कि वो तक़रीबन उसी वक़्त पैदा हुआ जब कि येसू पैदा हुआ था जब येसू लड़का नासरत की गलियों में खेल रहा था। उस वक़्त पौलूस लड़का लुबनान के सिलसिले की परली तरफ़ दूर अपने वतन में खेलता था। शुरू में तो इन दोनों के काम बिल्कुल मुख़्तलिफ़ अतराफ़ में मालूम होते हैं। लेकिन ख़ुदा की क़ुद्रत ने ऐसा इंतिज़ाम किया कि ये दो जानें दो दरियाओं की तरह जो मुख़्तलिफ़ अतराफ़ से निकलते हैं एक दिन मिलकर एक दरिया बन जाएं।

15. पौलूस तरसुस में पैदा हुआ। ये सूबा किलकिया का सदर मुक़ाम एशयाए कोचक के जुनूब मशरिक़ में वाक़ेअ था। और साहिल समुंद्र से सिर्फ चंद ही मील के फ़ासले पर था। इस के चारों तरफ़ ज़रख़ेज़ मैदान था। और दरिया-ए-कंदस के दोनों किनारों पर आबाद था। ये दरिया कोह तारस से निकलता था। अय्याम गर्मी में शाम के वक़्त यहां कई बाशिंदे अपने घर की छतों पर चढ़ जाते और इस पहाड़ की बर्फ़ानी चोटियों पर ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब का ख़ूबसूरत नज़ारा उड़ाते। इस शहर के ऊपर की तरफ़ ये दरिया चट्टानों पर आबशार की सूरत में गिरता लेकिन कुछ रास्ता तै करने के बाद इस की रफ़्तार धीमी हो जाती और कश्ती वग़ैरह चलाने के क़ाबिल हो जाता था। और शहर में दरिया के किनारों पर तख्ताबंदी होती थी। और बहुत मुल्कों का तिजारती माल व अस्बाब ढेरों के ढेर वहां धरा रहता था और मुख़्तलिफ़ मुल्कों के ताजिर और मल्लाह अन्वा व अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्मों) के लिबास पहने इस शहर की गलियों में चलते फिरते नज़र आते। इस शहर में लकड़ी की बड़ी तिजारत होती थी। क्योंकि इस इलाक़े में लकड़ी बकस्रत थी और क़ुर्ब व जवार की पहाड़ीयों में हज़ारों बकरीयां लोग पालते और उनकी ऊन से मोटा कपड़ा बनाते और दीगर बहुत सारी चीज़ों की साख़त वहां होती और ख़ेमा दोज़ी का काम भी बकस्रत वहां होता था। और बहीरा ज़ुलमात के साहिल पर इस की बड़ी तिजारत थी और पौलूस ने ग़ालिबन इसी लिए ये पेशा सीखा था। तरसुस से ख़ुशकी की राह से भी तिजारत हुआ करती थी। क्योंकि इस शहर के अक़ब (पीछे) तरसुस से ख़ुशकी की राह से भी तिजारत हुआ करती थी। क्योंकि इस शहर के अक़ब में एक मशहूर दर्राह था जिसे बाब अल-किलकिया कहते हैं। इस राह से एशयाए कोचक के वसती ममालिक की आमद व रफ़्त होती और तरसुस बड़ी मंडी थी जहां उन मुल्कों की पैदावार ला कर जमा करते और वहां से मशरिक़ व मग़रिब की तरफ़ रवाना करते। शहर की आबादी भी बहुत घनी थी। और बाशिंदे दौलतमंद थे। उमूमन तो इलियान किलकिया थे। लेकिन सबसे दौलतमंद सौदागर यूनानी थे। ये सूबा रोमी हुकूमत के मातहत था और रोमियों की तरफ़ से इस सूबे को सेल्फ गर्वनमैंट का हक़ हासिल था तो भी सूबे का सदर मुक़ाम होने की वजह से रोमी सरकार के निशान रखता था। ये शहर तरसुस ना सिर्फ तिजारत का एक बड़ा मर्कज़ था। बल्कि उलूम व फ़नून का भी। इस वजह से मुख़्तलिफ़ क़िस्म के लोग बकस्रत यहां आते थे। उस ज़माने में जो तीन बड़े दार-उल-उलूम थे। उन में से एक तरसुस था। बाक़ी दोएक़ीनी और इसकंदरा थे। लेकिन तरसुस इन पर सबक़त ले गया था। और मुख़्तलिफ़ अक़्वाम व ममालिक के तलबा बकस्रत इस की गलियों में पाए जाते थे। और इसके नौजवानों के दिलों में इल्म की क़द्र और मक़्सद का ख़याल ज़रूर पैदा हुआ होगा।

16. ग़ैर क़ौमों के रसूल के लिए ऐसी जगह में पैदा होना कैसा मुनासिब था जूँ-जूँ पौलूस बढ़ता गया वो नादानिस्ता तैयार होता गया कि हर दर्जे और हर क़ौम के अश्ख़ास का मुक़ाबला कर सके और हर तरह के लोगों के साथ हम्दर्दी रखने के क़ाबिल हो और मुख़्तलिफ़ क़िस्म के आदात व दस्तुरात पर बिला तास्सुब नज़र डाले। इस के बाद वो हमेशा शहरों को प्यार करने वाला मालूम होता है। हालाँकि उस का ख़ुदावंद यरूशलेम से दूर रहता। पहाड़ों पर या झील के किनारों पर तालीम देना पसंद करता था। लेकिन पौलूस यके बाद दीगरे शहर ब शहर जाता था। अन्ताकिया, इफ़िसुस, एथीनी, कुरिन्थुस, रोम जो क़दीम दुनिया के सदर मुक़ाम थे वहां पौलूस ने बहुत काम किया। येसू मसीह के अल्फ़ाज़ से दिहात के फूलों की ख़ुशबू आती है। और दिहात की ख़ूबसूरती और वहां की ख़ानगी ज़िंदगी की तस्वीरों से पुर हैं। मसलन खेत की सोसन, चौपान के पीछे भेड़ों का चलना, किसान का बीज बोना, मछवारों का अपने जाल खींचना वग़ैरह। लेकिन पौलूस की तक़रीरें शहर की कैफ़ीयत ज़ाहिर करती हैं और गलियों का शोर व गुल और हलचल इनमें नज़र आती है। इन्सानी कारोबार और मुहज़्ज़ब ज़िंदगी की यादगारों से उसने अपनी मिसालें ली हैं। मसलन सर से पांव तक मुसल्लह सिपाही, पहलवान, दंगल में, घरों और मंदिरों का बनाना, फ़त्हमंद जरनैल का धूम धाम के साथ निकलना। जो कुछ लड़कपन में उसने देखा था। जवानी में उस की आँखों से ओझल नहीं हुआ।

17. पौलूस को अपनी जाये पैदाइश पर फ़ख़्र था। चुनान्चे एक दफ़ाअ उस ने फ़ख़्रन ये ये कहा था, कि “मैं किसी हक़ीर शहर का बाशिंदा नहीं।” वो तबअन (मिज़ाजन) हुब्ब-उल-वतनी के जोश से भरा था। लेकिन किलकिया और तरसुस के लिए ये आग उस के अंदर शोला-ज़न ना थी वो तो अपने वतन ही में अजनबी था। उस का बाप उन यहूदियों में से था जो बकस्रत ग़ैर क़ौमों के मुल्क में मुंतशिर (बिखर जाना) हो कर तिजारत में मसरूफ़ थे वो मुक़द्दस ज़मीन से तो अलैहदा थे लेकिन उसे भूले नहीं। जिन लोगों में वो बस्ते थे। उन में ख़लत-मलत (गड़बड़) नहीं हुए बल्कि पोशाक ख़ुराक मज़्हब और दीगर बातों में वो एक ख़ास क़ौम रहे। अलबत्ता इतना तो फ़र्क़ था कि फ़िलिस्तीन के यहूदियों की निस्बत दीनी बातों में कुछ मुतअस्सिब (तास्सुब करने वाला) थे। और अजनबी दस्तूरों के ज़्यादा मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाले) थे। लेकिन पौलूस का बाप अपने मज़्हब में बड़ा पक्का था वो अपने मज़्हब के सबसे ज़्यादा पाबंद शराअ फ़िर्क़े से मुताल्लिक़ था। और शायद पौलूस की पैदाइश से बहुत मुद्दत पेश्तर वो यरूशलेम से ना निकला था। क्योंकि पौलूस अपने तईं इब्रानियों का इब्रानी कहता है। और ये नाम सिर्फ फ़िलिस्तीन के यहूदियों ही से मुताल्लिक़ था। पौलूस की वालिदा का मुतलक़ (बिल्कुल) कुछ ज़िक्र नहीं मिलता। लेकिन हम इतना जानते हैं कि ज़रूर ऐसा घर जहां से उमूमन सारे बड़े बड़े दीनी मुअल्लिम निकले हैं। यानी दीनदारी और नेक ख़िसाली (आदत) का घर जहां उसूल की सख़्त पाबंदी होती थी। और जहां दीनदार लोगों के ख़वास की बड़ी फ़िक्र की जाती थी। यही तबीयत पौलूस में पाई जाती है। अगरचे जिस शहर में वो पैदा हुआ था उस के दिल पर नक़्श थी। लेकिन उस के दिल में फ़िलिस्तीन और यरूशलेम की तस्वीर खिंची थी। यूनानी बहादुरों और मशहूर शख्सों का वो शैदाना (आशिक़) था बल्कि इब्राहिम, यूसुफ़, मूसा, दाऊद और एज़्रा का। और जब वो गुज़श्ता ज़माने पर नज़र डालता था तो किलकिया की तारीख़ उस को मद्द-ए-नज़र ना थी। बल्कि वो यहूदी तारीख़ पर नज़र डालता जो क़स्दियों के ऊर से शुरू होती है। और जब वो आइन्दा का ख़याल करता तो मसीह की सल्तनत का समां उस की आँखों के सामने गुज़र जाता जहां मसीह यरूशलेम में तख़्त नशीन है और मूसा के असा से उन पर हुकूमत करता है।

18. जब वो सोचता था कि मैं किस रुहानी गिरोह से मुताल्लिक़ हूँ और जिन लोगों में वो रहता था उन से वो गिरोह कैसा आला था तो गिर्द व नवाह (आसपास) के लोगों की मज़्हबी हालत देखकर उस पर बड़ा असर हुआ होगा। तरसुस में एक क़िस्म की बाअल की परस्तिश होती थी वो दिलकश तो थी लेकिन पस्त करने वाली। और साल के बाअज़ मौसमों पर मेला होता था। और इस मेले में चारों तरफ़ के लोग आते और तरह-तरह की ख़राबियां वक़ूअ में आतीं जिनका बयान हमारे अहाता ख़याल से बाहर है। इस में तो कुछ शक नहीं कि लड़कपन में पौलूस ऐसी बदी की हक़ीक़त को तो मालूम ना कर सकता था लेकिन जो कुछ उस ने देखा होगा उस के ज़रीये वो बुत-परस्ती से तो नफ़रत करने लग गया होगा। जैसा कि उमूमन उस के….….. करते थे। और वो छोटा सा इबादतखाना जहां वो इस्राईल के क़ुद्दूस की इबादत करने जाया करता था। उस की नज़र में आलीशान मंदिरों की ज़रक़-बरक़ (आराइश ज़ेबाइश) से ज़्यादा अज़ीज़ होगा। और जो तालीम उस ने मसीही हो कर दी वो इन नज़ारों से उस के अंदर बहुत गहरी जड़ पकड़ गई होगी।

19. आख़िरकार वो वक़्त आ गया जब ये फ़ैसला करना चाहिए था कि इस लड़के को कौनसा पेशा सिखाना चाहिए और ये फ़ैसला ज़रा मुश्किल था। और शायद सबसे ज़्यादा मुनासिब पेशा उस के लिए तिजारत का होता। क्योंकि उस का बाप भी ताजिर था और इस बारौनक शहर में तिजारत का बड़ा मौक़ा था और लड़का चालाक और होशियार था जिससे ऐसे काम में हर तरह की कामयाबी की उम्मीद थी। और उस का बाप एक और सिफ़त रखता था। जिससे तिजारत को बड़ी मदद मिल सकती थी। यानी अगरचे वो यहूदी था लेकिन रोमी हुक़ूक़ उसे हासिल थे। और इस हक़ से उस के बेटे को ख़्वाह वो सल्तनत के किसी हिस्से में सफ़र करता बड़ी हिफ़ाज़त और पनाह मिल सकती थी। हम ये तो बता नहीं सकते कि उस के बाप को ये हक़ कैसे मिला। ऐसा हक़ रुपया देकर मिल सकता था। या सरकार की बड़ी ख़िदमत करने से या किसी दीगर तरीक़े से बहर-हाल उस का बेटा पैदाइश से आज़ाद था। ये बड़ा क़ीमती हक़ था। और पीछे पौलूस को ये बहुत मुफ़ीद साबित हुआ। अगरचे शायद उसी तरह से पौलूस ने इस से फ़ायद नहीं उठाया जिस तरह से कि उस का बाप चाहता था लेकिन फ़ैसला ये हुआ, कि वो ताजिर तो ना बने। इस फ़ैसले की शायद ये वजह हो कि उस का बाप या माँ उस को मज़्हबी तर्बियत देना चाहते थे। या शायद पौलूस का तबई मीलान (रुझान, तवज्जोह) इस क़िस्म का था। इसलिए ये फ़ैसला हुआ कि वो कॉलेज में जाये और रब्बी बन जाये यानी ख़ादिम, उस्ताद और मुअल्लिम शराअ पौलूस की तबीयत और क़ाबिलियत के लिहाज़ से ये दानाई का फ़ैसला था और नूअ इन्सान के आइन्दा ज़माने के लिए ये निहायत ही अहम साबित हुआ।

20. अगरचे इस दुनियावी पेशे में मसरूफ़ होने से वो इत्तिफ़ाक़न बच गया। तो भी इस दीनी ख़िदमत की तैयारी से पेश्तर उसे कारोबारी ज़िंदगी का कुछ तजुर्बा हासिल करना ज़रूर था। क्योंकि यहूदियों में ये क़ायदा था कि हर लड़का ख़्वाह वो पीछे कोई पेशा इख़्तियार करे उसे किसी ना किसी हिर्फ़त को सीखना ज़रूरी था ताकि ज़रूरत के वक़्त उस के काम आए। ये क़ानून दानाई पर मबनी था। क्योंकि इस से नौजवान को कुछ मशग़ला मिल जाता था। और आवारगी तबीयत का ख़तरा ना रहता। और इस से एक ये फ़ायदा भी होता कि साहिबान दौलत व इल्म को ऐसे लोगों की हालत का तजुर्बा हो जाता था, जिन्हें अपनी रोटी मेहनत और पेशानी के पसीने से कमानी पड़ती है। अल-ग़र्ज़ जो पेशा पौलूस ने सीखा वो तरसुस में बहुत आम था। यानी बकरियों के बालों के कपड़े से ख़ेमा बनाना। क्योंकि ये कपड़ा इस इलाक़े में बहुत बनता था। जब ये नागवार खुर्दरा कपड़ा पौलूस के हाथों में गुज़रने लगा। तो उसे या उस के बाप को क्या ख़बर थी। कि माबाअ्द ज़िंदगी में ये पेशा उस के लिए कैसा मुफ़ीद साबित होगा। जब पौलूस मिशनरी हो कर दूर दराज़ के सफ़रों पर गया तो इसी पेशे से उस ने अपना और अपने साथियों का गुज़ारा किया और जिस वक़्त मुबश्शिरीन इन्जील के लिए ये ज़ाहिर करना ज़रूर था, कि वो ये बशारत किसी ज़ाती नफ़ा के लिए नहीं देते उस वक़्त पौलूस अपनी बेग़र्ज़ी पूरे तौर से साबित कर सकता था।

21. यहां ये सवाल पेश आता है कि रब्बी की तर्बियत पाए और वतन छोड़ने से पेश्तर क्या पौलूस ने तरसुस के दार-उल-उलूम में भी तालीम पाई या नहीं? क्या उस ने हिक्मत के इस चशमें से जो कोह हेलिकन (Helicon) से जारी है। पानी पिया था पेश्तर इस से कि उस ने कोह ज़ैतून से बहते चशमें से अपनी प्यास बुझाई? यूनानी शाइरों से दो तीन इक़्तिबासात उस ने किए हैं। और इनसे अक्सरों ने ये नतीजा निकाला है, कि वो यूनान के कुल इल्म-ए-अदब से वाक़िफ़ था। लेकिन बाज़ों का ख़याल है कि ये इक़्तिबासात मामूली हैं और जिसे आम यूनानी बोलने वाले अश्ख़ास इस्तिमाल कर सकते थे। और जो अल्फ़ाज़ व तर्ज़-ए-कलाम उस की तहरीरों और तक़रीरों में पाए जाते हैं। वो यूनानी इल्म-ए-अदब के नमूने पर जो इब्रानी बाइबल का यूनानी ज़बान में हुआ है। और जो यहूदी दीगर ममालिक में मुंतशिर (बिखरे) थे। वो उमूमन इस तर्जुमें को इस्तिमाल करते थे। शायद उस के बाप ने अपने बेटे को एक ग़ैर क़ौम दार-उल-उलूम में भेजना मुनासिब ना समझा हो। तो भी ये क़रीन-ए-क़ियास (वो बात जिसको अक़्ल क़ुबूल करे) नहीं कि वो ऐसे इल्म व हुनर के शहर में रहे और उस पर इस की कुछ तासीर ना हो। जो तक़रीर उस ने आथीनी शहर में की इस से ज़ाहिर है कि वो अपनी आम तहरीर से ज़्यादा आला फ़साहत (ख़ुश-कलामी) से कलाम कर सकता था और वो यूनानी ज़बान की शुस्तगी (दुरुस्ती) और ख़ूबी से बिल्कुल नावाक़िफ़ ना था।

22. तरसुस जैसे मर्कज़ इल्म व हुनर ने उस पर और भी कई तरह की तासीरें की होंगी। ये दार-उल-उलूम इल्म बह्स व मुनाज़रे में भी शौहरत रखता था और शायद इनकी आवाज़ें पौलूस के कानों तक पहुँचीं और खोखले फ़ैलसूफ़ों और मह्ज़ लफ्फ़ाज़ी के मुबाहिसों से उस के दिल में नफ़रत हो गई जैसा कि उस की तस्नीफ़ात से ज़ाहिर है। और उस ने लड़कपन ही से ये तो महसूस कर लिया होगा, कि अगरचे ज़बान से लोग बड़ी फ़साहत व बलाग़त (ख़ुश-बयानी) ज़ाहिर करें तो भी उनकी ज़िंदगी और चाल की फ़ज़ीलत का ये सबूत नहीं बल्कि इस के बरअक्स।

23. यहूदी रब्बियों की तालीम का कॉलेज यरूशलम में था और पौलूस तेराह साल की उम्र में वहां भेजा गया और शायद इसी वक़्त के क़रीब जब बारह साल की उम्र में नासरत से यरूशलम को गया। और शायद इसी क़िस्म का असर उस पर हुआ जो उस वक़्त येसू पर हुआ था। जब उसने पहली दफ़ाअ यरूशलम और हैकल को देखा। हर यहूदी लड़के लड़की के लिए जो दीनदारी की तरफ़ माइल थे। यरूशलम सब चीज़ों का मर्कज़ था और इस की गलियों में नबियों और बादशाहों के नक़्शे क़दम की सदाएँ अब तक गूंज रही थीं। मुक़द्दस और आला यादगारें गोया इस की दीवारों और इमारतों पर नक़्श थीं। और बड़ी उम्मीदें इस जगह से पैदा हो रही थीं।

24. ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ कि इस वक़्त यरूशलम के कॉलेज का प्रिंसिपल एक निहायत मशहूर मुअल्लिम था कि ऐसा यहूदियों में कोई नहीं गुज़रा ये गमटिएल नामी शख़्स था जिसके पांव पास पौलूस ने तालीम पाई थी। और उसे उस के हम-अस्र शरीअत का हुस्न कहते थे और आज तक यहूदियों में वो रब्बी अकबर कहलाता है इस की सीरत बहुत आला थी और रोशन ज़मीर शख़्स था। एक फ़रीसी बुज़ुर्गों की रिवायत का बड़ा मानने वाला। लेकिन यूनानी तालीम व तादीब का मुख़ालिफ़ या उस की तरफ़ से मुतअस्सिब (तास्सुब करने वाला) ना था। ऐसे शख़्स की तासीर पौलूस जैसे नौजवान के दिल पर कैसी पड़ी होगी। अगरचे कुछ अर्से तक ये शागिर्द बड़ा मुतअस्सिब (तास्सुब करने वाला) ज़ीलोती बन गया। लेकिन माबाअ्द ज़िंदगी में उस ने अपने तास्सुब पर ग़लबा पाने में अपने इस बड़े उस्ताद के नमूने से बहुत मदद हासिल की होगी।

25. रब्बी की तालीम का अर्सा दराज़ होता था। उसे ना सिर्फ शरीअत का मुतालआ करना पड़ता था। बल्कि बुज़ुर्गों और मुअल्लिमों की शरहें भी जो शरीअत पर लिखी गई थीं। ज़बानी सीखनी पड़ती थीं। और बाअज़ ज़ेर-ए-बहस उमूर पर बराबर तकरार होती रहती और तालिब-ए-इल्मों को भी सवालात पूछने की इजाज़त होती और उस्ताद भी सवाल पूछा करते थे। इसलिए तलबा के ज़हन तेज़ और उनके ख़यालात वसीअ हो जाते थे। पौलूस की दिमाग़ी क़ुव्वत जो उस की माबाअ्द ज़िंदगी से आश्कारा है यानी उस का क़ाबिल-ए-तारीफ़ हाफ़िज़ा। उस की दक़ीक़ा (राज़ की बात) रस मन्तिक़। उस के ख़यालात की वुसअत। और हर एक मज़्मून को अपने निराले ढंग से बयान करना। ये सारी बातें पहले-पहल इसी स्कूल में ज़ाहिर हुई होंगी। और उस के उस्ताद को ये बातें मुलाहिज़ा कर के अपने शागिर्द से कैसा उन्स (लगाओ) पैदा हो गया होगा।

26. जो कुछ पौलूस की माबाअ्द ज़िंदगी के लिए ज़रूर था उस में से बहुत कुछ उस ने यहां सीखा। अगरचे पीछे उस का ख़ास काम ये हो गया, कि ग़ैर क़ौमों का मिशनरी हो लेकिन वो अपनी क़ौम के लिए भी बड़ा मिशनरी हुआ है। जिस शहर में जाता पहले यहूदियों की तलाश करता और अगर यहूदी वहां होते तो वो सबसे पहले उनके इबादतखाने में जाता था। रब्बी होने के लिए जो तर्बियत उस ने हासिल की थी। उस के ज़रीये उसे बोलने का मौक़ा मिलता। और यहूदी ख़याल व इल्म के मुताबिक़ उन से कलाम कर के उन की तवज्जोह अपनी तरफ़ फेर सकता था। और मुक़द्दस नविश्तों से ऐसे सबूत पेश कर सकता था। जो यहूदियों के नज़्दीक तस्लीम व क़बूलियत के लायक़ थे। इलावा अज़ीं उसे तो मसीही दीन का आलिम-उल-हयात और नए अहदनामें का बड़ा मुसन्निफ़ होना था। और हम सब जानते हैं, कि नया अहदनामा पुराने से निकला है। पुराना तो बतौर नबुव्वत के लिए और नया उस की तक्मील है। ऐसे काम के लिए ना सिर्फ मसीही दीन से वाक़फ़ियत दरकार थी। बल्कि पुराने अहदनामें से भी। और उम्र के जिस हिस्से में याद्दाश्त बहुत ताज़ा और तेज़ होती है। पौलूस ने अह्दे-अतीक़ का इल्म हासिल कर लिया था। उस के अल्फ़ाज़ व मुहावरात उस की ज़बान पर थे। लफ़्ज़ बलफ़्ज़ वो इक़्तिबासात कर सकता था। और अह्दे-अतीक़ के हर हिस्से से वो बिला-दिक़्क़त हवाला दे सकता था। यानी शरीअत अम्बिया और ज़बूर से। अल-ग़र्ज़ यूं ये जंगी बहादुर रूह के औज़ारों और अस्लहों से मुसल्लह हो गया। पेश्तर इस से कि उस को ये इल्म भी हो कि मैं उन को किस काम के लिए इस्तिमाल करूँगा।

27. अब ज़रा हम ये देखें कि उस वक़्त उस की अख़्लाक़ी और दीनी हालत कैसी थी? वो दीनी मुअल्लिम होने के लिए तालीम पा रहा था। क्या वो ख़ुद भी दीनदार था? क्योंकि जिनको वालदैन कॉलिजों में दीनी तालीम और दीनी ओहदे की तैयारी के लिए भेजते हैं वो सारे के सारे दीनदार ही तो नहीं होते। और दुनिया में हर जगह नौजवानों के रास्ते में बेशुमार आज़माईशें होती हैं। जो उन की सारी ज़िंदगी को आनन फ़ानन (फ़ौरन) तबाह कर सकती हैं। कलीसिया के बड़े-बड़े मुअल्लिम आगस्तीन जैसे जब अपनी अवाइल ज़िंदगी पर नज़र डालते तो हर तरह की बदी और ख़राबी से उसे दागदार पाते हैं। लेकिन पौलूस की अवाइल ज़िंदगी पर इस क़िस्म का कोई धब्बा ना था। उस के दिल में जज़्बात-ए-इन्सानी ने ख़्वाह कैसा ही जोश मारा हो पर उस का चलन हमेशा रास्त व पाक रहा। उस ज़माने में यरूशलम भी नेकी के लिए कुछ मशहूर ना था। इसी यरूशलम के ख़िलाफ़ जो ज़ाहिर में तो मुक़द्दस लेकिन बातिन में बिगड़ा हुआ था। चंद साल बाद हमारे ख़ुदावंद ने सख़्त मलामत की ये रियाकारी की जगह थी। जहां एक लायक़ नौजवान सीख सकता था। कि किस तरह से दीन का सिला आसानी से बिला तक्लीफ़ हासिल कर सकते हैं। लेकिन पौलूस इन ख़तरों से बचा रहा और वो बादहा ये दावा कर सकता था, कि वो यरूशलम में अव्वल से आख़िर तक अपने कान्शियन्स (ज़मीर) के मुताबिक़ पूरे तौर से चलता रहा।

28. उस ने अपने घर में ये सबक़ बख़ूबी सीख लिया था, कि जो इनाम ज़िंदगी के लायक़ है वह ख़ुदा की मुहब्बत और मेहरबानी है। जूं जूं उम्र में बढ़ता गया ये यक़ीन भी तरक़्क़ी करता गया। और उसने अपने उस्ताद से दर्याफ़्त किया कि ये इनाम कैसे हासिल हो सकता है। उन्होंने यक ज़बान हो कर ये जवाब दिया कि शरीअत पर चलने से। ये ख़ौफ़नाक जवाब था क्योंकि शरीअत से मह्ज़ अख़्लाक़ी शरीअत ही मुराद ना थी। बल्कि मूसवी शरीअत मए बेशुमार रस्मियात (रसूमात) के। और एक हज़ार एक दीगर क़वानीन जो यहूदी मुअल्लिमों ने शरीअत के इलावा मुक़र्रर किए हुए थे। जिनका मानना एक नर्म-दिल आदमी के लिए सख़्त अज़ाब था। लेकिन पौलूस ऐसा शख़्स ना था जो इन मुश्किलात से झजके। उस ने तो दिल में ठान ली थी। कि ख़ुदा की मेहरबानी हासिल कर के। जिसके बग़ैर उस के नज़्दीक ज़िंदगी खोखली और अज़लियत एक तारीक ज़ुलमात थी। अगर इस अंजाम को हासिल करने का यही तरीक़ा था। तो वो इस पर चलने के लिए ख़ुश था। मगर ना सिर्फ उस की अपनी उम्मीद इस पर मौक़ूफ़ थी बल्कि उस की क़ौम की उम्मीद का इन्हिसार भी इसी पर था। क्योंकि उस वक़्त सारी यहूदी उम्मत ये मानती थी, कि मसीह सिर्फ उसी क़ौम के पास आएगा। जो शरीअत पर चलती होगी। और इस में यहां तक मुबालग़ा (बढ़ा-चढ़ा कर बयान करना) करते थे, कि अगर कोई शख़्स एक दिन भी कामिल तौर से शरीअत पर चलेगा। तो जिस मसीह के वो मुंतज़िर थे। वो ज़मीन पर आ जाएगा। पौलूस ने जो दीनी तालीम रब्बी होने के लिए पाई थी। इस से उस में ये ख़्वाहिश पैदा हो गई थी, कि रास्तबाज़ी का ये इनाम हासिल करे। और जब से वो इस दीनी मक्तब की चार दीवारी से निकला। इसी को अपनी ज़िंदगी का मक़्सद उस ने समझा। इस तालिबे इल्म का ये मक़्सद जहान के लिए अहम साबित हुआ। क्योंकि इस शख़्स ने पहली दफ़ाअ दिल की ज़ारी के साथ इस को साबित कर दिखाया कि नजात का ये तरीक़ा ग़लत है और जो नजात का तरीक़ा उसने दर्याफ़्त किया था। वो दुनिया पर ज़ाहिर किया।

29. हम ये तो नहीं कह सकते कि यरूशलम के कॉलेज में पौलूस की तालीम सब ख़त्म हुई या तालीम पाने के बाद वो फ़ौरन कहाँ गया। नौजवान रब्बी अपनी तालीम सब ख़त्म करने के बाद इधर-उधर चले जाते थे। जैसा कि आज काडोंटी के तालिबे इल्म चले जाते हैं। जहां कहीं मुल्क में यहूदी आबाद थे। ऐसे तालिबे इल्म वहां जा कर काम करते। ग़ालिबन पौलूस अपने वतन किलकिया और फ़िलिस्तीन से दूर रहा। क्योंकि इन ही सालों में यूहन्ना इस्तिबाग़ी का चर्चा फैला और येसू काम करने लगा। अगर पौलूस नज़्दीक होता तो इन दोनों तहरीकों में बतौर दोस्त या दुश्मन के ज़रूर कुछ ना कुछ हिस्सा लेता।

30. कुछ अर्से के बाद पौलूस यरूशलम को वापिस आया। और ये क़ुदरती बात है, कि बड़े-बड़े आलिम और ताजिर बड़े-बड़े शहरों का रुख लेते हैं। ऐसा ही बड़े-बड़े रब्बी यरूशलम में चले आते थे। येसू की वफ़ात से थोड़ी ही देर बाद पौलूस यहूदियों के दार-उल-ख़िलाफ़ा में पहुंचा। और उस ने अपने फ़रीसी दोस्तों से इस बड़े माजरे का हाल सुना होगा। उस वक़्त उस के दिल में अपने मज़्हब के बारे में तो कोई शक व शुब्हा पैदा नहीं हुआ होगा। अलबत्ता उस की तस्नीफ़ात से इतना पता तो लगता है, कि उसे दिली कश्मकश उठानी पड़ी थी। लेकिन एक अम्र का तो उसे यक़ीन था कि ज़िंदगी की ख़ुशहाली सिर्फ़ ख़ुदाई मेहरबानी से हासिल हो सकती है। मगर इस रुत्बे को हासिल करने के लिए शरीअत पर चलने की जो कोशिशें उस ने कीं उन से उस की तसल्ली ना हुई। बल्कि बरअक्स इस के जिस क़द्र वो शरीअत पर अमल करने की जद्दो-जहद करता उतना ही ज़्यादा गुनाह उस के दिल में जोश मारता और उस की ज़मीर गुनाह की क़सूर वारी के बारे में उस के दिल में ज़्यादा चक्कीयां लेती। और रूह को जो इत्मीनान ख़ुदा में हासिल होता है वो उस की रसाई से परे था। फिर भी इबादतखाने की तालीम पर उसने कुछ शक नहीं किया क्योंकि ये तालीम अह्दे-अतीक़ की तारीख़ का एक जुज़ थी। जिसके ज़रीये मुक़द्दसों और नबियों की सूरतें उस की आँखों के सामने फिर जाएं और उस के दिल को यक़ीन दिलाएँ कि जो तालीम इस में मिलती है, वो ज़रूर मिंजानिब अल्लाह होगी। और इस पर्दे के पीछे वो इस्राईल के ख़ुदा को महसूस करता जिसने शरीअत के देने में अपने तईं मुन्कश्फ़ (ज़ाहिर) किया था। उस ने गुमान किया कि अगर ये इत्मीनान ख़ुदा की शराकत से हासिल नहीं हुआ। तो इस की ये वजह होगी, कि मैंने अपनी ज़ात की बदी के साथ पूरी-पूरी जंग नहीं की और ना शरीअत के अहकाम की पूरी ताज़ीम की है। कोई ऐसी ख़िदमत नहीं हो सकती कि जिसके ज़रीये इन सारे नुक़्सों की तलाफ़ी हो सके और वो फ़ज़्ल आख़िरकार मिल जाये जिसकी आरज़ू उस के दिल में थी। जब वो यरूशलम को वापिस आया तो उस के ख़याल कुछ इसी क़िस्म के थे। और जब उस ने इस फ़िर्क़े के बरपा होने का हाल सुना जो मस्लूब येसू को यहूदी उम्मत का मसीह मानते थे। तो उस के दिल में सख़्त हैरत और ग़ुस्सा पैदा हुआ।

31. मसीही दीन उस वक़्त तक सिर्फ दो या तीन साल का बच्चा और चुप-चाप यरूशलेम में अपने पैरो बाज़ू निकाल रहा था। अलबत्ता जिन लोगों ने इस की मुनादी पंतीकोस्त के दिन सुनी थी। वो इस की ख़बर दूर-दूर तक मुख़्तलिफ़ मुल्कों में ले गए थे। लेकिन शागिर्द और रसूल अब तक यरूशलम ही में क़ियाम रखते थे। शुरू में हुक्काम (हाकिम की जमा) ने इस दीन को ईज़ा पहुंचाने का इरादा किया और बरमला मुनादी करने से मसीही मुअल्लिमों को मना किया। लेकिन पीछे उनका इरादा बदल गया और ग़मलीएल की नसीहत पर अमल कर के ये ठाना कि इस को नज़र-अंदाज करें और यूं ये ख़ुद बख़ुद मालिया-मेट हो जाएगा। और मसीहियों ने हत्ता-उल-इम्कान किसी को नाराज़गी का मौक़ा ना दिया। दीनी रस्मों में वो पक्के यहूदी बने रहे और शरीअत के लिए ग़ैरत मंद थे। हैकल की इबादत में शरीक होते। यहूदी रसूम को मानते और कलीसियाई अहकाम की इज़्ज़त करते थे। ये एक तरह की आरिज़ी सुलह थी। और इस से मसीही दीन को मौक़ा मिला कि वो पोशीदा पोशीदा तरक़्क़ी कर जाये। बाला ख़ानों में ये भाई जमा हो कर रोटी तोड़ते और सऊद कर्दा ख़ुदावंद से दुआएं मांगा करते थे। ये क़ाएल दीद नज़ारा था और ये नया अक़ीदा फ़रिश्ते की तरह उनके दर्मियान जलवा दिखा रहा था और उनके दिलों में पाकीज़गी की शुवाएं डाल रहा था। और उनके छोटे-छोटे मजमाओं में अपने परों का फ़र्हत इक़रा साया इत्मीनान की रूह उनमें फूंक रहा था। उनकी बाहमी मुहब्बत का हद व हिसाब ना था। उनके दिलों में ऐसी ख़ुशी भरी थी। जैसे किसी बड़ी नई दर्याफ़्त के वक़्त इन्सान को होती है और जब कभी वो जमा होते उनका ग़ैर मुरई (महसूसाती) ख़ुदावंद उनके दर्मियान मौजूद होता। ये तो ऐसा था। जैसे आस्मान ज़मीन पर उतर आए जब चारों तरफ़ यरूशलम में दुनिया दारी का तूफ़ान जोश मार रहा था। और दीनी हुक्काम बड़ी-बड़ी डींग मारते थे। ये चंद ग़रीब लोग इस राज़ में ख़ुशी से मगन थे जिस पर उनके नज़्दीक नूअ इन्सान की ख़ुशहाली और जहान की आइन्दा बहबूदी मौकूफ थी।

32. लेकिन ये आरिज़ी सुलह तो देर तक क़ायम ना रह सकती थी। और अमन चैन के ज़माने पर ख़ौफ़ व ख़ूँरेज़ी का हमला होने वाला था। मसीही दीन इस तरह चुप-चाप ना रह सकता था क्योंकि इस में तो आलमगीर क़ुव्वत व ताक़त है। और ये अपनी इशाअत चाहता है और इसे कुछ मज़ाइक़ा (डर) नहीं कि किस क़िस्म का ख़तरा पेश आएगा। और ज़रूर था कि इंजीली आज़ादी की नई मै जोश मारे और यहूदी शरीअत की मश्कों को फाड़ कर निकल आए आख़िरकार एक ऐसा शख़्स बरपा हुआ जिसमें इशाअत-ए-दीन का जोश कूट-कूट कर भरा हुआ था। उस का नाम स्तिफ़नुस था और सात डेक्कनों में से था जिन्हें मसीही सोसाइटी ने रुपये पैसे के इंतिज़ाम के लिए मुक़र्रर किया था। ये रूह-उल-क़ुद्स के नशे में सरशार था और ऐसी क़ाबिलियत रखता था। कि उस की ख़िदमत के क़लील अर्से में इस की सिर्फ झलक नज़र आ सकती थी। लेकिन पूरा जलवा दिखाने का मौक़ा ना था। वो जा-ब-जा इबादत ख़ानों में ये मुनादी करता था, कि येसू ही मसीह है और इस अम्र का ऐलान देता था। कि शरीअत के जोय से आज़ादी पाने का वक़्त आ गया है। यहूदी मज़्हब के उलमा ने उस का मुक़ाबला किया लेकिन उस की फ़साहत (ख़ुश-बयानी) और मुक़द्दस ग़ैरत के सामने खड़े ना रह सके। तंग आईज़ बजंग आयेद का मुआमला हुआ। दलाईल से मग़्लूब हो कर एक दूसरे क़िस्म के औज़ार से काम लिया हुक्काम और अवामुन्नास को ऐसा उभारा कि वो स्तिफ़नुस के क़त्ल पर आमादा हो गए।

33. जिन इबादत ख़ानों में ये मुबाहिसे हुए उन में से एक अहले किलकिया का इबादतखाना था यानी पौलूस के हम वतनों का शायद पौलूस इस इबादतखाने का रब्बी हो जिसने स्तिफ़नुस के साथ मुबाहिसा करने में हिस्सा लिया हो। बहर-हाल कुछ भी हो जब मन्तिक़ी दलाईल की जगह जौरो ज़ुल्म (जोश या वलवला) ने ली तो पौलूस आगे की सफ़ में था। जब गवाह स्तिफ़नुस पर पहले पत्थर मारने के लिए अपने कपड़े उतार रहे थे। तो उन्होंने वो कपड़े पौलूस के पांव पास रखे। इस मुत्तसिल (क़रीब) पर नज़र मारते हुए पौलूस की शक्ल नज़र आती है। जो अवामुन्नास से कुछ अलैहदा खड़ा है। और कपड़ों का ढेर उस के पांव के पास धरा है और उस की आँखें इस मुक़द्दस शहीद पर लगी हैं जो एन मौत के मुँह में घुटने टेक कर ये दुआ मांग रहा है, “ऐ ख़ुदावंद ये गुनाह उन के हिसाब में शुमार ना कर।”

34. पौलूस की सरगर्मी जो इस मौक़े पर ज़ाहिर हुई इस से वो हुक्काम (हाकिम की जमा) की नज़र में चढ़ गया। शायद इसी ख़िदमत के लिए उस को सदर मज्लिस में जगह मिल गई क्योंकि थोड़ी देर बाद वो सदर मज्लिस में बैठा मसीहियों की पूरी बनीह कनी की ख़िदमत जिसका हुक्काम ने पूरा इरादा कर लिया था। इसी लिए उस के सपुर्द हुई। पौलूस ने इस तज्वीज़ को मंज़ूर कर लिया। क्योंकि वो उसे ख़ुदा का काम समझता था। औरों की निस्बत उसने ज़्यादा सफ़ाई से इस अम्र को मालूम कर लिया कि इस मसीही दीन का मक़्सद क्या है। और उसने ये जान लिया था, कि अगर इस मज़्हब को इसी वक़्त ना रोकेंगे। तो ये हमारे सारे दीन को पामाल कर देगा। उस के नज़्दीक शरीअत का मतरूक करना नजात के अकेले वसीले को पसे-पुश्त डाल देता है। और मसीह मस्लूब पर ईमान लाना इस्राईल की मुक़द्दस उम्मीद पर गोया कुफ़्र बांधना है। इलावा अज़ीं उस की ज़ाती ग़र्ज़ भी इस में थी। अब तक तो वो ख़ुदा को ख़ुश करने के लिए कोशिश करता रहा था। लेकिन हमेशा उस ने महसूस किया कि मेरी ये सारी ख़िदमतें नाक़िस हैं। अब उस के ख़याल में ऐसा मौक़ा था कि आला ख़िदमत के ज़रीये तलाफ़ी माफ़ात कर सकेगा। उस के दिल में जो ये सख़्त आरज़ू थी इस से उस की सर गर्मी और भी तरक़्क़ी कर गई। और वो ऐसा शख़्स भी ना था। कि कोई काम अधुरा करे उस ने जान व तन से इस काम का बेड़ा उठा लिया।

35. जो हालात इस के बाद गुज़रे उनका ख़याल करने से बदन पर रौंगटे खड़े होते हैं। वो एक इबादतखाने से दूसरे की तरफ़ उड़ा चला जाता। घर-घर में घुसता। मर्दों और औरतों को बाहर निकाल लाता। उनको क़ैद में डालता और तरह-तरह की सज़ा देता। मालूम होता है, कि बाज़ों को उस ने मरवा डाला और सबसे बदतर ये था, कि कितनों को उस ने मज्बूर किया कि नजातदिहंदा के नाम पर कुफ़्र बकें। यरूशलम की कलीसिया दरहम-बरहम हो गई और जो मसीही इस मूज़ी के ग़ज़ब से बच निकले। वो गिर दो नवाह (आसपास) के इलाक़ों में फ़रार हो गए।

36. शायद ये कहना मुनासिब ना हो कि रसूली ख़िदमत के लिए नादानिस्ता तैयारी की ये आख़िरी मंज़िल थी। लेकिन बात तो यही है ईज़ा दहिंदा की ख़िदमत इख़्तियार करना ऐन उस अक़ीदे के मुताबिक़ था जिसमें उस ने तालीम पाई थी और अब वो बहबूदगी के दर्जे तक पहुंच गई। इलावा इस के जिस ख़ुदा का आला जलाल उस से ज़ाहिर होता है, कि बदी में से भी वो कुछ नेकी निकाल लेता है। उसी ख़ुदा ने अपने बड़े फ़ज़्ल से पौलूस के दिल में ऐसे अफ़्सोस नाक वाक़ियात के ज़रीये पर ले दर्जे की फ़िरोतनी पैदा कर दी। कि वो आइन्दा को कमज़ोर से कमज़ोर भाई की ख़िदमत के लिए भी तैयार था। जिन पर उस ने पहले इस क़द्र ज़ुल्म किया था। और ऐसी सर गर्मी उस में आ गई थी कि जो वक़्त ज़ाए हो गया था। उस की कमी पूरी करने के लिए बाक़ीमांदा वक़्त को बड़ी किफ़ायत-शिआरी बल्कि कंजूसी से इस्तिमाल करता था। इसलिए ये ख़याल उस के समुंद्र नाज़ पर गोया ताज़ियाना (कूड़ा) का काम देता था।

तीसरा बाब

पौलूस का रुजू लाना

37. इस ईज़ा दहिंदा का सारा मंशा ये था कि मसीही दीन को बिल्कुल मलिया-मेट कर डाले। लेकिन उसे इस दीन का ख़ास्सा मालूम ना था कि ये ऐन ईज़ा के वसीले पनपता (नश्वो नुमा पाना, बढ़ना) है फ़ारिगुलबाली (ख़ुशहाली) अक्सर इस के लिए ज़हर-ए-क़ातिल साबित हुई है। लेकिन ईज़ा रसानी कभी नहीं। जो परागंदा हो गए थे। वो हर जगह जा कर कलाम की ख़ुशख़बरी देते थे। अब तक तो कलीसिया यरूशलेम की चार दीवारी ही में महदूद रही थी। लेकिन अब सारे यहूदिया सामरिया और दूर दराज़ मुल्कों फ़नीका और सोरिया में इन्जील की शुवाएं तारीकी के दर्मियान बहुत क़स्बात और दिहात में चमकने लगीं। दो-दो तीन-तीन बला ख़ानों में जमा हो कर जो ख़ुशी उन्हें रूह-उल-क़ुद्स में हासिल थी वो एक दूसरे को देने लगे।

38. जब पौलूस को ये ख़बर लगी होगी कि ये मसीही जोश कैसे जा-ब-जा बढ़ता जाता है हालाँकि उस के फ़िरौ (नीचे या कम रुत्बा) करने की कोशिश बलीग़ (पूरा, कामिल) होती है। तो उस का दिल कैसा भड़क उठा होगा। लेकिन वो हिम्मत हारने और मायूस होने वाली जिन्स ना था। उस ने अज़्मबिल जज़्म (पक्का इरादा) किया कि जहां कहीं मसीही छिपे हों वहां से उनको ढूंढ कर निकाल लाए वो अपने इख़्तियार व इक़्तिदार के निशा से सरशार था। और क़त्ल व ख़ून और ज़ुल्म पर तुलुअ हुआ था। और इसी धुन में शहर ब शहर जाता। अब उसे ख़बर लगी कि सीरिया के दार-उल-ख़िलाफ़ा दमिश्क़ में ये मसीही भाग कर पनाह गज़ीं हुए हैं। और इस शहर के कसीर-उल-तादाद यहूदियों में अपने दीन की इशाअत कर रहे हैं। ये सुन कर वो सीधा सरदार काहिन के पास गया जिसे ना सिर्फ फ़िलिस्तीन के यहूदियों पर बल्कि बैरूनजात के यहूदियों पर भी इख़्तियार हासिल था। और इस अम्र के ख़ुतूत हासिल किए कि नए तरीक़े के लोगों को जहां कहीं पाए पकड़ कर दस्त व बाबस्ता (हाथ बाँधे हुए) यरूशलम को लाए।

39. जब पौलूस इस सफ़र पर रवाना हुआ तो ये ख़याल पैदा होता है कि इस वक़्त उस के दिल की हालत क्या होगी। वो शरीफ़ ज़ात और नेक दिल शख़्स था। लेकिन जिस क़िस्म के काम में वो मसरूफ़ था वो किसी ज़ालिम क़स्साब की हसब तबा (मिज़ाज के मुताबिक़) था। क्या इस सारे काम में उस के दिल में कुछ तरस या अफ़्सोस पैदा ना हुआ होगा। सरसरी नज़र से तो यही मालूम होता है, कि नहीं। क्योंकि ये ज़िक्र आया है कि जब वो अपने शिकार की तलाश में शहर ब शहर जाता था। तो वो दीवाना दार जोश से भरा था। और जब वो दमिश्क़ की तरफ़ रवाना हुआ उस वक़्त भी वो धमकाने और क़त्ल करने की धुन में था। और ये बिद्अत उस के नज़्दीक ऐसी अश्या के लिए ख़तरनाक थी जिसको वो इज़्ज़त की निगाह से देखता था। इसलिए उसे अपने इस वतीरा (रविश) के बारे में कुछ शक पैदा ना हुआ। और अगर इस ख़ूनी काम में उस की तबीयत में कुछ कराहत भी पैदा हुई होगी। तो सवाब की उम्मीद से वो उसे नज़र-अंदाज कर देता होगा।

40. लेकिन इस सफ़र में आख़िरकार शक ने उस के दिल पर हमला किया। ये दराज़ सफ़र एक सौ साठ मील से ज़्यादा का था। और चूँकि आमद व रफ़्त का सामान ज़माना-ए-हाल की तरह मुहय्या ना था इसलिए ये कम से कम छः दिन की मंज़िल थी। और एक लुक़ दोक़ (सुनसान जगह) ब्याबान में से उस का गुज़र था। जहां आदमी अपने दिल के ख़यालों में ग़लताँ व पेचाँ (उलझा हुआ, परेशान) बे रोक-टोक मीलों निकल जाता है। इस नागुज़ेर फ़ुर्सत के वक़्त शक के बुख़ारात उठने शुरू हुए। जिन अल्फ़ाज़ से ख़ुदावंद उस से मुख़ातिब हुआ उन से और क्या मुतरश्शेह (टपकने वाला) हो सकता है। पीने की कील पर लात मारना तेरे लिए मुश्किल है। ये तश्बीह मशरिक़ी ममालिक के दस्तूर से ली गई है। बेल हाँकने वाले के हाथ में एक लंबी लकड़ी होती है। जिसके सर पर लोहे की एक तेज़ कील लगी होती है और बैल को चलाने या ठहराने या इधर-उधर फेरने के लिए उसे इस्तिमाल करता है लेकिन अगर बैल ज़रा कड़वा होता है तो वो इस पीने पर लात चिलाने लगता है और कील के ज़रीये उस का पांव ख़ून ख़ून हो जाता है। और इस से और भी ग़ुस्से में भर जाता है। क्या ये ऐसे शख़्स की तस्वीर नहीं जिसके अंदर कान्शियंस (इन्सानी ज़मीर) ने कांटे की तरह छेद कर दिल को ज़ख़्मी कर दिया है? जिस बेरहमी के काम में वो मसरूफ़ था उस से उस की तबीयत बर्गश्ता और बर्दाश्ता हो रही थी। और गोया ये कह रही थी, कि तू ख़ुदा से जंग कर रहा है।

41. इस का पता लगा ना कुछ मुश्किल नहीं कि ये शुक़ूक़ कहाँ से पैदा हुए। ये ग़मलीएल का शागिर्द है जो इन्सानियत और आज़ादी मज़्हब का हामी व मददगार था जिसने सदर मज्लिस को ये सलाह दी थी, कि मसीहियों को उनके हाल पर छोड़ दो और पौलूस ख़ुद इस वक़्त तक नौ उम्र है। ऐसे नफ़रत-अंगेज़ काम के लिए अभी तक उस का दिल सख़्त नहीं हुआ है ख़्वाह दीनी सरगर्मी का जोश कितना ही ज़्यादा क्यों ना हो तबीयत इन्सानी अपना रंग दिखाए बग़ैर नहीं रहती और मसीहियों की सीरत और रविश का जो मुशाहिदा पौलूस को हुआ उस से ग़ालिबन ये तरस पैदा हुआ। मुक़द्दस स्तिफ़नुस ने जो उज़्र पेश किया था। उसे पौलूस ने सुना था। और उस के चेहरे को फ़रिश्ते की तरह चमकते देखा था। और ये भी मुलाहिज़ा किया था कि किस तरह ऐन क़त्ल के वक़्त घुटने टेक वो अपने क़ातिलों के लिए दुआ मांग रहा था। वो उस की आँखों के सामने था और इज़ार सानी में जो हिस्सा उस ने लिया इस में इस क़िस्म के कई नज़ारे उस ने मुशाहिदा किए होंगे। क्या ऐसे लोग ख़ुदा के दुश्मन होंगे? जब उन के घरों में घुस कर उनको घसीट लाता था तो इनसे मसीहियों की ख़ानगी ज़िंदगी का भी कुछ तजुर्बा हुआ। क्या ऐसे पाकीज़ा और मुहब्बत करने वाले लोग तारीकी के सरदार के ग़ुलाम होंगे? और जब उस ने मालूम किया कि वो कैसे इत्मीनान ख़ातिर से अपनी जान देते थे। तो उस के दिल में रश्क होगा कि काश ऐसा इत्मीनान मुझे हासिल होता। क्योंकि वो इसी इत्मीनान का मुतलाशी था। लेकिन उसे अब तक नसीब ना हुआ था। और उन मज़लूमों ने अपने दीन व ईमान की ताईद में जो दलाईल पेश की होंगी। उनका भी कुछ ना कुछ असर उस के दिल पर ज़रूर हुआ होगा। उसने सुना था, कि किस तरह स्तिफ़नुस मुक़द्दस नविश्तों से साबित करता था कि मसीह को दुख उठाना ज़रूर था। और जैसा कि क़दीम ज़माने के मसीही माअज़रत नामों से ज़ाहिर है। ज़रूर अक्सर मसीही जिन पर उनके दीन के बाइस इल्ज़ाम लगाए जाते थे। वो यसअयाह 53 बाब की तरफ़ अपने मुद्दियों की तवज्जोह फेरते होंगे। जहां मसीह का ऐसा नक़्शा खिंचा हुआ है जो येसू नासरी की ज़िंदगी से अजीब तरह मुशाबेह है। इन मसीहियों से उसने मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात का हाल भी सुना होगा। और वो अहवाल उस से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ होगा जो उस के दोस्त फ़रीसी उस से बयान करते होंगे। और मसीह के जो मक़ूले ये मसीही बयान करते होंगे। वो एक मुतअस्सिब (तास्सुब करने वाले) के अल्फ़ाज़ ना थे। हालाँकि फ़रीसी मसीह की निस्बत कुछ इसी क़िस्म का ख़याल रखते थे।

42. जब ये मुसाफ़िर हालत उदासी में डूबा हुआ आगे बढ़ा चला जाता था। तो उस के दिल में कुछ इसी क़िस्म के उतार चढ़ाव हो रहे होंगे। लेकिन शायद उस ने ये समझा होगा, कि ये शैतानी वस्वसे (शुब्हात) मालूम होते हैं या राह की तकान (झटका) का नतीजा हैं या कोई बदरुह आस्मानी राह से भटकाने की कोशिश कर रही है। लेकिन जब दमिश्क़ उसे नज़र पड़ा जो इस लक़ व दक़ (सख़्त और हमवार) ज़मीन ब्याबान में मोती की तरह चमक रहा था। तो उस को होश आया। और उसने समझा कि अब हम-ख़याल रब्बियों की सोहबत से और इस कार ख़ैर की सई (कोशिश) में ये परेशान और परागंदा ख़यालात जो ग़ोल ब्याबानी की तरह उस के पीछे पड़ गए थे। उस से अलैहदा हो जाऐंगे इसी धुन में वो आगे बढ़ा। और दोपहर का वो सूरज, वो झुलसती हुई धूप जिससे डर कर हर मुसाफ़िर किसी गुलिस्तान में जा कर पनाह लेता है उस को आगे शहर के फाटक की तरफ़ धकेले लिए जार थी।

43. लेकिन उस के पहुंचने से पेश्तर उस की आमद की ख़बर दमिश्क़ में फैल गई थी। और मसीह का छोटा झुण्ड दुआ मांग रहा था कि अगर मुम्किन हो तो ख़ुदा उस भेड़िए को जो गल्ले को तबाह करने आ रहा है गिरफ़्तार कर ले। वो शहर के नज़्दीक पहुंचता गया। और सफ़र की आख़िरी मंज़िल को भी मुकम्मल कर लिया और जब वो उस जगह के नज़्दीक पहुंचा जहां उस का शिकार था फिर तो लहू की चाट ज़्यादा तेज़ हो गई। लेकिन नेक गडरीए ने अपने डरते और थरथराते गल्ले की आह ज़ारी को सुन लिया था और उस की तरफ़ से अब वो इस भेड़ीए के मुक़ाबले को निकला। यका-य़क दोपहर के वक़्त जब पौलूस और उस के रफ़ीक़ सवार आगे बढ़े जा रहे थे। तो सुर्यानी आफ़्ताब की शिद्दत की धूप जिससे कौए की आँख निकलती है। बड़ी तेज़ी से उनके गिर्द चमकने लगी एक सन्नाटा सा सारे आलम में छा गया। और ये सब चिट ज़मीन पर जा गिरे। और जो कुछ उस के बाद गुज़रा वो सिर्फ़ पौलूस पर ज़ाहिर हुआ। एक आवाज़ उस के कानों में गूँजने लगी। “ऐ शाऊल, ऐ शाऊल तू मुझे क्यों सताता है? और नज़र उठाकर इस नूरानी सूरत से इस्तिफ्सार (दर्याफ़्त) किया। ऐ ख़ुदावंद तू कौन है? तो जवाब आया। मैं येसू हूँ जिसे तू सता रहा है।

44. जिन अल्फ़ाज़ में पौलूस ने इस माजरे को अपनी माबाअ्द ज़िंदगी में बयान किया है उस से साफ़ ज़ाहिर है कि पौलूस ने उसे येसू की मह्ज़ रुयते नहीं समझा। बल्कि जैसे मसीह मुर्दों में से जी उठने के बाद अपने शागिर्दों पर ज़ाहिर हुआ वैसे ही पौलूस ने इस ज़हूर को आख़िरी ज़हूर समझा। और ये ज़हूर उस के ख़याल में वही रुत्बा और दर्जा रखता है। जैसा पत्रस, याक़ूब और ग्यारह शागिर्द और पांच सौ पर मसीह का ज़हूर हुआ। फ़िल-हक़ीक़त ये मसीह येसू था। जो अपनी ज़ूलजलाल इन्सानियत का जामा पहने नज़र आया। जो अपनी जगह छोड़कर ख़्वाह वो आलम में किसी जगह हो जहां वो शफ़ी हो के तख़्त पर बैठा है उस जगह पर पहुँचाता कि अपने इस बर्गुज़ीदा शागिर्द पर ज़ाहिर हो। और आफ़्ताब से ज़्यादा मुनव्वर जो नूर उस पर ज़ाहिर हुआ वो उस की इन्सानियत का नूर था। एक इत्तिफ़ाक़ी शहादत इस अम्र की इन अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है। जिनमें वो पौलूस से मुतकल्लिम हुआ। ये इब्रानी या अरामी ज़बान के अल्फ़ाज़ हैं। ये वही ज़बान है। जिसमें येसू उमूमन झील के किनारे अवामुन्नास से कलाम करता या ब्याबान और वीरान मकानों में शागिर्दों से मुतकल्लिम हुआ करता था। और जैसे पहले वो तम्सीलों में कलाम किया करता था। वैसे ही इस वक़्त एक इस्तिआर (मिसाल) के ज़रीये उस ने पौलूस को तम्बीह दी। पैने की आर पर लात मारना तेरे लिए मुश्किल है।

45. जो कुछ पौलूस के दिल में इस वक़्त गुज़र रहा था। उस में मुबालगे की गुंजाइश नहीं। वक़्त का अंदाज़ा एक तो घड़ी के घंटों और मिनटों वग़ैरह से लगाया करते हैं और एक अमली अंदाज़े से। अमली अंदाज़े में ये देखना पड़ता है, कि रूह ने इस अर्से में किस क़द्र तजुर्बा हासिल किया है। और इस लिहाज़ से एक घंटा दूसरे से मुतफ़र्रिक़ है। बल्कि कभी-कभी एक घंटा रुहानी तजुर्बे में महीनों से ज़्यादा लंबा होता है। यूं हमारे ख़याल में पौलूस की ज़िंदगी का ये अर्सा उस की सारी माक़ब्ल ज़िंदगी से ज़्यादा दराज़ था। इस मुकाशफ़े की ज़रक़-बरक़ (शानो-शौकत) ऐसी शिद्दत की थी, कि अक़्ल की आँख झुलस डालती या ऐन ज़िंदगी के पौदे को भस्म कर डालती। जिसकी बैरूनी चमक दमक से उस के बदन की आँख में चकाचोंदी (तेज़ रोशनी) सी आ गई, कि वो देख ना सकता था। जब उस के रफ़ीक़ों (दोस्तों) की जान में जान आई और वो अपने सरदार की तरफ़ मुतवज्जोह हुए तो उन्हें पता लगा कि उस की आँखों की बसारत जाती रही है। और वो उस का हाथ पकड़ कर उस शहर में ले गए अजब तब्दीली वाक़ेअ हुई। या तो वो मग़ुरूर फ़रीसी बड़े करो फ़र्र (शानो-शौकत) से गली कूचे में मसीहियों को गिरफ़्तार करने के लिए फिरता था। और अब उस का ये हाल है कि वो सकता हो कर काँपता और टटोलता हुआ दूसरे का हाथ पकड़े जहां जा के उतरना था। वहां जाता है। और वो सब उस को देखकर हैरान व परेशान हैं और फिर कमरे में जा कर अपने रफ़ीक़ों से ये कहा कि मुझे थोड़ी देर यहां चुप-चाप रहने दो।

46. अगरचे बाहर अंधेरा था लेकिन बाहर नूर चमक रहा था। और इस बेबसी का यही मक़्सद था कि इधर-उधर के शोर व गुल से अलैहदा हो कर उन बातों पर जी लगा सके जो उस की बातिनी आँख के सामने हाज़िर थीं। इसी वजह से उस ने तीन दिन तक ना कुछ खाया ना पिया। और अपने ख़यालात में जो परा बांध कर उसे घेरे थे। ग़लताँ व पेचां (परेशान) था।

47. और ग़ालिबन इन तीन दिनों में तक़रीबन वो सारी तालीम जिसका उस ने पीछे ऐलान देना था। उस पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हो गई। क्योंकि जो तालीम उस की तस्नीफ़ात में पाई जाती है। वो उस के रुजू लाने की गोया तफ़्सीर है। अव़्वल तो उस की सारी पहली ज़िंदगी चूर चार (चूर चोर) हो के उस के पांव पर गिर पड़ी। ये बिल्कुल मुताबिक़ और मुकम्मल थी। और जो आला से आला मुकाशफ़ा उसे हासिल था उस का ये मुनासिब नतीजा थी और बावजूद नुक़्सों के ये ज़िंदगी ख़ुदा की मर्ज़ी के मुताबिक़ थी। लेकिन बावजूद इस के ये ज़िंदगी ख़ुदा के मुकाशफ़े और मर्ज़ी के ऐन बरख़िलाफ़ थी। और इस मुक़ाबले में वो टकरा कर पाश-पाश (टुकड़े-टुकड़े) हो गई जिसे वो पहले कमाल ख़िदमत और फ़रमांबर्दारी समझता था। इस ने उस के दिल को कुफ़्र और मासूमों की ख़ूँरेज़ी की तरफ़ माइल किया। और शरीअत के कामों से रास्तबाज़ी तलाश करने का ये नतीजा निकला। और ऐन जिस वक़्त ये रास्तबाज़ी गोया सिम्त अल-रास (तरक़्क़ी की इंतिहा) पर पहुँचती मालूम होती थी। इस मुकाशफ़े की चमक दमक ने उस की ज़ुल्मत को ज़ाहिर कर दिया। शुरू से आख़िर तक ये एक ग़लती थी। शरीअत से रास्तबाज़ी हासिल नहीं हो सकती। बल्कि सिर्फ़ क़सूरवारी और लानत ला कलाम ये नतीजा उस को हासिल हुआ। और उस की तालीम का एक बड़ा जुज़ यही है।

48. लेकिन जब उस की माक़ब्ल ज़िंदगी का ये अंजाम हुआ ऐन उसी वक़्त उसे एक और तजुर्बा अता हुआ। येसू नासरी ग़ुस्सा व ग़ज़ब से भरा हुआ उस पर ज़ाहिर नहीं हुआ जैसी कि उम्मीद हो सकती थी। कि वो अपने जानी दुश्मन पर ज़ाहिर होता। और उस का पहला सवाल इंतिक़ाम के बारे में होता और इंतिक़ाम लेना पौलूस को नेस्त कर देता। लेकिन इस की बजाए उस का चेहरा इलाही रहम से मुनव्वर था। और उस के अल्फ़ाज़ इस ईज़ा दहिंदा के लिए बड़े तहम्मुल और एतिदाल के अल्फ़ाज़ थे। जिस वक़्त इलाही ताक़त ने उसे चिट ज़मीन पर गिरा दिया। ऐन उसी वक़्त उस ने महसूस किया कि इलाही मुहब्बत ने मुझे अपनी गोद में उठा लिया है। इसी इनाम के हासिल करने के लिए वो ये सारी जद्दो-जहद कर रहा था। लेकिन कुछ हासिल ना हुआ था। और जिस वक़्त उस ने दर्याफ़्त कर लिया। उस के गिरते ही ख़ुदा की मुहब्बत ने उसे उठा लिया। अब उस का मिलाप हो गया। और हमेशा के लिए मक़्बूल ठहरा। जूँ-जूँ वक़्त गुज़रता गया। उस को इस का ज़्यादा यक़ीन होता गया। जिस इत्मीनान और रुहानी क़ुव्वत हासिल करने के लिए उस की सारी पहली मेहनत रायगां (बेकार) गुज़री थी। वो उसे अब बिला मेहनत मसीह में मिल गई। और ये उस की तालीम का दूसरा जुज़ है। यानी ये कि मह्ज़ ख़ुदा के फ़ज़्ल पर ईमान लाए और उस के इनाम के क़ुबूल कर लेने के ज़रीये बिला इन्सानी कोशिश मसीह में वो रास्तबाज़ी और क़ुव्वत मिल जाती है। इन दो में और सैंकड़ों बातें दाख़िल थीं जिनको ज़ाहिर करने और समझने के लिए वक़्त दरकार था। लेकिन पौलूस की तालीम की बुनियाद ये दोनों बातें हैं।

49. अभी ये तीन तारीक रोज़ ख़त्म ना होने पाए थे, कि उस ने एक और बात सीख ली कि मुझे अपनी सारी उम्र उन मालूम शूदा उमूर के मशहतर (मुनादी करने वाला) करने के लिए मख़्सूस कर देना है। बहर-हाल ये तो ज़रूर होना था। पौलूस तो फ़ित्रत ही से इशाअत कनिंदा था और ऐसी इन्क़िलाब पैदा करने वाली तालीम को हासिल कर के वो उसे फैलाए बग़ैर कैसे रह सकता था। इलावा अज़ीं वो सर्द-मेहर (सुस्त) ना था। उस का दिल एहसान की काफ़ी क़द्र जानता था। इसलिए वो शुक्रगुज़ारी महसूस किए बग़ैर ना रह सकता था और जब उस ने देखा कि जिस येसू पर उसने कुफ़्र बोला था। और जिसका नाम सफ़ा हस्ती से वो मिटाने की कोशिश करता था। उस ने ऐसी मुरव्वत (बहादुरी) और नर्मी से सुलूक किया और जिस ज़िंदगी के छिन जाने का वो मुस्तहिक़ था उसे फिर अता की और उसे वो रुत्बा अता किया जो ज़िंदगी का कमाल व जलाल था तो अगर दिल व जान से अपने तईं उस की ख़िदमत के लिए निसार ना कर देता तो क्या करता? पौलूस बड़ा मुहिब-उल-वतन था और मसीह के आने की उम्मीद में वो सरशार था और जब उस ने मालूम किया कि येसू नासरी उस क़ौम का मसीह और जहान का नजातदिहंदा है तो ये क़ुदरती बात थी कि वो उस के मशहतर (मुनादी करने वाला) करने में अपनी ज़िंदगी सर्फ कर दे।

50. और उस की ज़िंदगी की इस ख़िदमत की ख़बर भी उसे एक दूसरे शख़्स ने दी। हननियाह को जो ग़ालिबन दमिश्क़ की मसीही जमाअत में सरकर्दा था। रुयते में ये ख़बर ली कि पौलूस में एक बड़ा तग़य्युर (इन्किलाब) वाक़ेअ हुआ है। और उसे हुक्म मिला कि पौलूस की बसारत अव़्वल करे और उसे बपतिस्मा के ज़रीये मसीह कलीसिया में शामिल करे। हननियाह ये ख़बर पाकर उस शख़्स की तलाश को निकला जो उस की जान लेने आया था। और पौलूस का हाल मुशाहिदा कर के उस ने क़ुसूरों को माफ़ किया है और अपने दुश्मन के सारे जराइम को फ़रामोश किया। और आगे हो कर उस को अपनी बग़ल में ले लिया। पौलूस को इन तीन दिनों में अपनी माफ़ी का यक़ीन हो गया था। लेकिन जब इस की तस्दीक़ इस तौर से हुई तो उस का दिल और भी बाग़ (ख़ुश) हो गया होगा। और बीनाई हासिल करने के बाद जो पहली शक्ल उसे नज़र पड़ी वो एक इन्सान की थी जो माफ़ी भरी और कामिल मुहब्बत की नज़रों से उसे देख रहा था। और इसी हनानियाह से उस को ख़बर लगी कि नजातदिहंदा ने उस के लिए कौन सी ख़िदमत मुक़र्रर की है। मसीह ने उसे इस लिए पकड़ा कि वो ग़ैर क़ौमों और बादशाहों और बनी-इस्राईल के पास उस का नाम ले जाने का बर्तन बने। उस ने सारे दिल से इस ख़िदमत को क़ुबूल कर लिया। और उस वक़्त से लेकर आख़िरी दम तक उस की जो एक बड़ी ख़्वाहिश थी, कि जिस येसू मसीह ने मुझे पकड़ा है में उसे जा पकड़ूं।

चौथा बाब

उस की इन्जील

51. जब कोई शख़्स यकलख़त (अचानक) रुजू लाता है जैसा कि पौलूस लाया था तो उसे उमूमन बड़ा जोश होता है, कि जो कुछ उस पर गुज़रा है उस को दूसरों पर ज़ाहिर करे ऐसी शहादत (गवाही) बड़ी मोअस्सर है। क्योंकि ये ऐसी रूह की शहादत (गवाही) है जिसे ग़ैर मुरई (अनदेखे) जहां की हक़ीक़तों की झलक पहली दफ़ाअ मिली है और जो शहादत एसी हक़ीक़तों की इस तरह मिलती है वो भी बहुत मोअस्सर होती है। आया पौलूस की ज़िंदगी में यही वाक़ेअ हुआ या नहीं हम पुख़्ता तौर से नहीं कह सकते। आमाल की किताब की इस इबारत से कि फ़ौरन इबादतख़ाने में येसू नासरी की मुनादी करने लगा। कुछ ऐसा ही ख़याल पैदा होता है। लेकिन उस की अपनी तस्नीफ़ात से ये पता लगता है, कि एक और ज़बरदस्त तहरीक को पहले क़ुबूल किया कुछ ताज्जुब नहीं कि उस ने उसे एक अशद ज़रूरत समझा। वो अपने पहले अक़ीदे पर बड़ा पुख़्ता था। और हर शैय उस पर फ़िदा करने को तैयार था। और जब ये अक़ीदा नागहां (अचानक) पाश-पाश (टुकड़े-टुकड़े) हो गया। तो उस की सारी हस्ती को बेख़ व बिन (जड़ से हिला) दिया होगा। और नई तालीम जो उस पर अब मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हुई ऐसी गहरी और इन्क़िलाब अंगेज़ थी, कि उस के हर पहलू को यकलख़त (फ़ौरन) गिरिफ्त कर लेना मुश्किल था। पौलूस पैदाइश ही से साहिबे फ़िक्र था। किसी अम्र का मह्ज़ तजुर्बा करना उस के लिए काफ़ी ना था वो उस की कुनह (हक़ीक़त) को दर्याफ़्त करना चाहता था। और अपने बाक़ी तयक़नात (एतबार या यक़ीन) के साथ उस का मुक़ाबला करना चाहता था। इसलिए वो ख़ुद ज़िक्र करता है कि अपने रुजू लाने के बाद वो अरब को निकल गया। अलबत्ता उस ने ये तो नहीं बताया कि वहां जाने से उस की क्या ग़र्ज़ थी। और चूँकि इस इलाक़े में उस के इन्जील सुनाने और मुनादी करने का ज़िक्र नहीं और ये वाक़िया वो ऐसे मौक़े पर बयान करता है। जहां वो अपनी इन्जील की अस्लियत को ज़ोर से साबित कर रहा है। तो ये गुमान ग़ालिब मालूम होता है, कि जो मुकाशफ़ा उसे मिला था। इस की बाबत गौर व फ़िक्र करने के लिए आलम-ए-तन्हाई में चला गया। और ख़ल्वत में उस ने इन बातों पर ग़ौर किया और जब वो वहां से निकल कर अपने हम-जिंसों में आया तो वो मसीही दीन के उस पहलू से पूरे तौर पर माहिर हो चुका था। जो सिर्फ पौलूस से मख़्सूस है और जो उस की माबाअ्द ज़िंदगी में उस की मुनादी का ख़ास पैग़ाम था।

52. पौलूस के छिपने की ख़ास जगह तो हमें मालूम नहीं क्योंकि अरब एक आम नाम है और इस का इतलाक़ कई तरह से हुआ है उमूमन इस से वो हिस्सा मुराद है जहां बनी-इस्राईल चालीस साल तक फिरते रहे यानी कोह-ए-सिना का इलाक़ा और इस का क़ुर्ब व जवार। ये एक मशहूर जगह थी। और कई मशहूर मर्द-ए-ख़ुदा जिनको मुकाशफ़ा मिला था इस जगह से ताल्लुक़ रखते थे। यहां मूसा ने जलती झाड़ी का नज़ारा देखा था। और यहां ही पहाड़ की चोटी पर्दा ख़ुदा से हम-कलाम हुआ था। और एलियाह ने मायूस हो कर यहां कुछ वक़्त गुज़ारा था और यहां ही इल्हाम के चशमें से उस की प्यास रफ़ा (दूर) हुई। पौलूस जो उन मर्दाने ख़ुदा का जांनशीन था उस के लिए इस से बढ़कर और कौनसी जगह ज़्यादा मुनासिब ध्यान के लिए हो सकती थी। जिन वादियों में बनी-इस्राईल पर मन नाज़िल हुआ था। और जिन दरख़्तों में ख़ुदा के क़दम से शोले निकले थे। उन ही के साये तले वो अपनी ज़िंदगी के मसअले पर ग़ौर कर रहा था। ये एक बड़ी मिसाल है। सदाक़त की मुनादी बहुत कुछ इस अम्र पर मौक़ूफ़ है कि कहाँ तक आलम-ए-तन्हाई में वो हम पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हुई है पौलूस को रूह-उल-क़ुद्स का ख़ास इल्हाम हासिल था। लेकिन उस का ये मंशा ना था कि पौलूस के क़वाए ख़याल और दीगर क़वाए अक़्ली को मुअत्तल (बेकार) कर दे। बल्कि इस से तो ये क़वाए (क़ुव्वत) और भी तेज़ होते हैं। जिस सफ़ाई और यक़ीन से पौलूस ने अपनी इन्जील की मुनादी की वो बहुत कुछ इन्ही चंद तन्हाई के महीनों की तुफ़ैल (बदौलत) थी। इस तन्हाई का ज़माना शायद एक साल या इस से कुछ ज़्यादा होगा। क्योंकि उस के रुजू लाने के वक़्त से और दमिश्क़ से निकलने तक जहां वह अरब में रहने के बाद गया तीन साल का अर्सा गुज़रा था। और शायद कम से कम एक साल उस ने अरब में काटा होगा।

53. इस से कुछ अर्से बाद तक हमको मुफ़स्सिल (वाज़ेह) पता नहीं लगता कि जो इन्जील वो सुनाता था इस में ख़ास बड़ी-बड़ी बातें क्या थीं। लेकिन जब पहले-पहल उस का ज़िक्र आता है तो वो उस के रुजू लाने ही का ज़िक्र है और जो बातें इस रुजू लाने से मुताल्लिक़ हैं और चूँकि वो उस वक़्त इसी बड़े माजरे की हक़ीक़त दर्याफ़्त किया चाहता था। इसलिए यक़ीन है कि रोमियों और ग़लतियों की तरफ़ के ख़तों में जिस इन्जील का नक़्शा दिया गया है बहैसियत मजमूई वही इन्जील थी जिसको वो शुरू से सुनाता रहा और इन्ही ख़तों से उस के अरब में जाने का हाल मालूम होता है।

54. बचपन से पौलूस के दिल में ये नक़्श हो चुका था, कि इन्सान की ज़िंदगी का हक़ीक़ी मक़्सद और उस की ख़ुशी यही है कि ख़ुदा के फ़ज़्ल का ख़त उठाए और ये मक़्सद रास्तबाज़ी के ज़रीये हासिल हो सकता है। और सिर्फ रास्तबाज़ ही को ख़ुदा अपने से मिला सकता और उस से मुहब्बत कर सकता है। पस रास्तबाज़ी को हासिल करना इन्सान की ज़िंदगी का बड़ा मक़्सद होना चाहिए।

55. लेकिन इन्सान इस रास्तबाज़ी के हासिल करने में क़ासिर रहा और ख़ुदा की मेहरबानी हासिल ना कर सका बल्कि उस के मुस्तूजिब हो गया। पौलूस ने मसीही ज़माने से पेश्तर ग़ैर क़ौमों और यहूदियों की तवारीख़ से उनकी हालतों को दिखा कर इस अम्र को साबित किया।

56. ग़ैर क़ौम क़ासिर रहे चूँकि उनको कोई ख़ास मुकाशफ़ा अता नहीं हुआ था इसलिए वो तो रास्तबाज़ी की तलाश करने लिए तैयार ही ना थे। लेकिन पौलूस ये ज़ाहिर करता है कि ये ग़ैर क़ौम भी ख़ुदा के बारे में इतना तो जानते थे, कि ख़ुदा की तलाश करना हमारा फ़र्ज़ है क्योंकि ख़ुदा के कामों में और इन्सान के कान्शियंस (ज़मीर) में जो ख़ुदा का तबई मुकाशफ़ा है इस से इस फ़र्ज़ के बारे में काफ़ी रोशनी मिल सकती है। लेकिन इन क़ौमों ने इस रोशनी से फ़ायदा उठाने की बजाए उसे बुझा दिया। वो ख़ुदा को अपने इल्म में रखना ना चाहते थे। और ना इस बात के लिए राज़ी थे कि ख़ुदा का ख़ालिस इल्म जो क़ुयूद (पाबंदियां) उन पर लगाता है। उन के वो पाबंद होते। उन्होंने ख़ुदा के तसव्वुर को बिगाड़ दिया ताकि अपनी नापाक ज़िंदगी में उन को किसी तरह की तक्लीफ़ ना हो लेकिन फ़ित्रत ने अपना इंतिक़ाम ले ही लिया उनके दिल तारीक हो गए और उनकी अक़्लें परेशान। और ऐसे अहमक़ बन गए कि ज़ूलजलाल और ग़ैर-फ़ानी ज़ात-ए-ख़ुदा को इन्सानों हैवानों परिंदों और कीड़े मकोड़ों की शक्लों से बदल डाला ना सिर्फ उनकी अक़्लें ही बिगड़ गईं। बल्कि उनके दिल भी ख़राब हो गए। जब उन्होंने ख़ुदा को छोड़ा तो ख़ुदा ने भी उन्हें छोड़ दिया और जब उस का क़ाबू रखने वाला फ़ज़्ल उन से छिन गया तो वो सुरीत (दाश्ता) बदी और नापाकी के गढ़े में जा पड़े। रोमियों की तरफ़ के ख़त के पहले बाब के आख़िर में इनकी हालत का ऐसा नक़्शा खिंचा है जो शयातीन की हालत पर सादिक़ आ सकता है। लेकिन दरअस्ल वो नक़्शा उस वक़्त के रोमियों का था। ग़ैर क़ौम मुअर्रिख़ इस की तस्दीक़ करते हैं और उस वक़्त की मुहज़्ज़ब अक़्वाम इस बात की शाहिद (गवाह) हैं। पस नूअ इन्सान के निस्फ़ हिस्से का ये हाल था कि वो रास्तबाज़ी की हालत से बिल्कुल गिर गए थे। और मोरदे (ठहरने की जगह) ग़ज़ब इलाही बन गए थे। जो आस्मान से सारे नारास्तों के बरख़िलाफ़ मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हुआ है।

57. यहूदी जहान का बाक़ी निस्फ़ हिस्सा था। क्या जहां ग़ैर-अक़्वाम क़ासिर रहे यहूदियों को कामयाबी हुई अलबत्ता वो कई बातों में ग़ैर-अक़्वाम पर फ़ौक़ियत रखते थे। क्योंकि ख़ुदा का कलाम उन के पास था जिसमें इलाही ज़ात का ऐसे तरीक़े से बयान हुआ था। जिसको इन्सान बिगाड़ नहीं सकता और इलाही शराअ भी इसी सूरत में बड़ी सफ़ाई से लिखी गई थी। लेकिन क्या उन्होंने इन सारे हुक़ूक़ से फ़ायदा उठाया? क्योंकि शरीअत को जानना अलग बात है और इस पर अमल करना अलग। और रास्तबाज़ी शरीअत का जानना ही नहीं बल्कि उस पर अमल करना है। क्या जिस मर्ज़ी इलाही से वो वाक़िफ़ थे उस पर अमल किया? जिस यरूशलम में येसू ने फ़क़ीहों और फ़रीसियों की ख़राबी और रियाकारी को तश्त-अज़-बाम (मशहूर) किया था। पौलूस वहीं रहता था उसने अपनी क़ौम के चीदा चीदा अश्ख़ास के रंग-ढंग को ख़ूब ग़ौर से मुशाहिदा किया था। इसलिए जिन गुनाहों का इल्ज़ाम वो ग़ैर-अक़्वाम पर लगाता है वही गुनाह उस ने यहूदियों से बिला-ताम्मुल (बिला-शुब्हा) मन्सूब किए बल्कि यहां तक कहा कि तुम्हारे सबब से ग़ैर-अक़्वाम में ख़ुदा के नाम की बदनामी होती है।

उनको अपने इल्म पर फ़ख़्र था और हक़ के मशाल बर्दार थे। जिसकी रोशनी से ग़ैर-अक़्वाम के गुनाह आश्कारा हो जाते। ये लोग दूसरों के चाल चलन पर बड़ी नुक्ता-चीनी करते थे। लेकिन अपने चलन का ख़ुदा की रोशनी से मुक़ाबला नहीं करते थे। और ये मिस्ल उन पर सादिक़ आती है कि चिराग़ तले अंधेरा। उनकी ज़बान पर तो ये अहकाम थे तू चोरी ना कर तो ज़ीना ना कर वगैरह। लेकिन मुर्तक़िब इन्ही गुनाहों के थे। पस इस सूरत में उनके इस इल्म से उन को क्या फ़ायदा हुआ? इस से तो वो और भी मुजरिम ठहरे क्योंकि उनका गुनाह नूर के ख़िलाफ़ था हालाँकि ग़ैर-अक़्वाम जो कुछ करते थे। नादानी से करते थे। इसलिए उनके गुनाह बमुक़ाबला यहूदियों के बहुत हल्के थे लेकिन यहूदियों के गुनाह दानिस्ता और उम्दन (जानबूझ कर) होते थे। पस उनकी ये फ़ौक़ियत जिस पर वो नाज़ाँ थे। पस्ती साबित हुई इसलिए जिन ग़ैर-अक़्वाम को वो हक़ीर जानते थे। उन से ज़्यादा मुजरिम ठहरे और ज़्यादा लानत के मुस्तूजिब। (लायक़)

58. अस्ल बात ये है, कि ग़ैर क़ौम और यहूदी दोनों एक ही वजह से क़ासिर रहे। इन्सानी ज़िंदगी की इन दो नदियों का सुराग़ लगाते लगाते अगर उनके चशमें तक पहुंचें तो मालूम हो जाएगा, कि वो अस्ल में दो नदियाँ नहीं बल्कि एक नदी है और इनके दो शाख़ों में तक़्सीम होने से पेश्तर कुछ ऐसा अम्र वाक़ेअ हुआ जिससे ये दोनों नदियाँ मंज़िल-ए-मक़्सूद तक ना पहुंच सकीं। आदम में नूअ इन्सान गिर पड़ी और उस के ज़रीये यहूदी और ग़ैर-यहूदी सभों को ऐसी कमज़ोर ज़ात मीरास में मिल गई। जो रास्तबाज़ी की तहसील में कामयाब नहीं हो सकती थी। इसलिए अब इन्सानी ज़ात रुहानी नहीं बल्कि जिस्मानी है और इसलिए इस आला रुहानी तहसील के नाक़ाबिल है शरीअत भी इस ज़ात को बदल ना सकी। क्योंकि उस में कोई ऐसी क़ुव्वत ख़ुदा तो ना थी। जिससे जिस्मानी ज़ात रुहानी बन जाये बल्कि बरअक्स इस के ज़रीये बदी की शिद्दत बढ़ गई। फ़िल-हक़ीक़त इस से गुनाहों की कस्रत हो गई। और जिस बिनाई सफ़ाई से शरीअत ने गुनाह का बयान किया वो एक सही सालिम ज़ात इन्सानी के लिए एक लासानी रहनुमा होता लेकिन ऐसी बिगड़ी ज़ात के लिए वो फंदा बन गया। क्योंकि गुनाह का इल्म ही उस के इर्तिकाब की तहरीस (लालच) दिलाता है। और बिगड़े दिल के लिए किसी चीज़ की मुमानिअत उस के करने पर माइल कर देती है। शरीअत का यही नतीजा हुआ इस के ज़रीये ख़ताओं की कस्रत और शिद्दत ज़ाहिर हुई और ये ख़ुदा का मंशा भी था। इस से ये मुराद नहीं कि ख़ुदा गुनाह का बानी है। लेकिन एक हकीम हाज़िक़ की तरह जो किसी दुंबल को चंगा करने से पहले उस को पका देता है उस ने ग़ैर क़ौमों को अपनी-अपनी राह पर चलने दिया और यहूदियों को शरीअत दे दी ताकि इन्सानी ज़ात का गुनाह अपनी अस्लियत को बख़ूबी नमूदार करे और फिर ख़ुदा दख़ल देकर उस का ईलाज करे। और बराबर उस का मंशा यही था कि शिफ़ा दे उस ने सबको गुनाह के तहत शुमार किया ताकि सब पर रहम करे।

59. जब इन्सान हार जाता है तो ख़ुदा अपना काम शुरू करता है। इस का ये मतलब नहीं कि जब नजात के एक तरीक़े में नाकामयाबी हुई तो ख़ुदा ने एक दूसरे ईलाज की तज्वीज़ की। उस के इरादे में हरगिज़ ना था कि शरीअत नजात का एक तरीक़ा है। बल्कि ये तो नजात की ज़रूरत को ज़ाहिर करने का एक वसीला था। और जिस घड़ी ये ग़र्ज़ हासिल हुई उसने फ़ौरन नजात के तरीक़े का आशकार कर दिया। जिसे उसने इन्सान की आज़माईश के ज़माने में पोशीदा रखा था। क्योंकि ख़ुदा की ये मर्ज़ी हरगिज़ ना थी कि आदमी अपने हक़ीक़ी मक़्सद से महरूम रहे। सिर्फ इस अम्र के दिखाने के लिए वक़्त दरकार था, कि गिरा हुआ इन्सान अपनी ही कोशिशों से कभी रास्तबाज़ी हासिल नहीं कर सकता। और जब ये साबित हो गया कि इन्सानी रास्तबाज़ी नाकाम हुई तो ख़ुदा ने अपनी पोशीदा इलाही रास्तबाज़ी को ज़ाहिर किया यही मसीहिय्यत है और मसीह की रिसालत का यही लुब्ब-ए-लुबाब (ख़ुलासा) और नतीजा है कि इन्सान को मुफ़्त वो इनाम अता करे जो उस की ख़ुशहाली के लिए लाज़िमी है लेकिन जिसे वो ख़ुद हासिल करने में क़ासिर रहा था। ये कार-ए-इलाही है ये फ़ज़्ल है और आदमी को उस वक़्त हासिल होता है जब वो तस्लीम कर लेता है कि मैं अब बेकस व लाचार हूँ और ख़ुदा की तरफ़ से इस को क़ुबूल कर लेता है। ये सिर्फ़ ईमान के ज़रीये हासिल होता है। ख़ुदा की वो रास्तबाज़ी जो येसू पर ईमान लाने से सब ईमान लाने वालों को हासिल होती है।

60 जो लोग इस तरह से उसे क़ुबूल करते हैं। उनको फ़ौरन वो इलाही इत्मीनान और रज़ा मंदी हासिल हो जाती है जो इन्सान ख़ुशी की ग़ायत (ग़र्ज़) है और जैसा पौलूस शरीअत के ज़रीये रास्तबाज़ी हासिल करने की तलाश कर रहा था। तो इस की ग़र्ज़ यही थी। जिसके वसीले से ईमान के सबब उस फ़ज़्ल तक हमारी रसाई भी हुई जिस पर क़ायम हैं और ख़ुदा के जलाल की उम्मीद पर फ़ख़्र करें। (रोमियों 2:5) जो लोग इस इन्जील का इल्म हासिल कर लेते हैं। वो ख़ुशी इत्मीनान और उम्मीद की फ़हर्त बख्श ज़िंदगी से ख़त उठाते हैं इस में आज़माईशें हों तो हों लेकिन जब इन्सान को ज़िंदगी का हक़ीक़ी मक़्सद हासिल हो गया तो ये तक्लीफ़ात उसे हीच (कम) मालूम होती हैं। और सारी चीज़ें मिल मिला कर उस की भलाई का बाइस ठहरती हैं।

61. ख़ुदा की ये रास्तबाज़ी सारे बनी-आदम के लिए है। ना मह्ज़ यहूदियों या ग़ैर क़ौमों के लिए। इस रास्तबाज़ी की तहसील में इन्सान का यानी यहूदियों और ग़ैर क़ौमों दोनों का नाकारा साबित होना भी इलाही मंशा के मुताबिक़ था ताकि ख़ुदा का फ़ज़्ल दोनों पर यकसाँ हों। येसू मह्ज़ औलाद इब्राहिम के लिए ना आया था। बल्कि औलाद-ए-आदम के लिए जैसे आदम में सब मर गए वैसे ही मसीह में सब जिलाए जाऐंगे। अब ये ज़रूर ना रहा कि ग़ैर-अक़्वाम नजात हासिल करने के लिए खतना और शरीअत नजात की लाज़िमी शर्त नहीं। इस से तो इन्सान की कमज़ोरी ही ज़ाहिर होती है और जब उस ने इन्सान पर इस अम्र को ज़ाहिर कर दिया तो उस का काम पूरा हो गया। ख़ुदा की रास्तबाज़ी हासिल करने के लिए इन्सान के वास्ते सिर्फ एक ही लाज़िमी शर्त है और वो ईमान है और इस के लिए यहूदियों और ग़ैर क़ौमों दोनों को यकसाँ आसानी है पौलूस ने अपने तजुर्बे से यही नतीजा निकाला था उस के रुजू लाने के वक़्त उस से बहैसियत यहूदी सुलूक नहीं हुआ बल्कि बहैसियत इन्सान अगर आमाल पर नजात मौक़ूफ़ होती तो पौलूस और ग़ैर-अक़्वाम दोनों के लिए होती। पौलूस का कोई ज़्यादा हक़ ना था। पस जब शरीअत से एक क़दम भी वो नजात के नज़्दीक ना पहुंचा बल्कि ग़ैर क़ौमों की निस्बत अहले शरीअत को शरीअत ने ख़ुदा से ज़्यादा दूर कर दिया। तो ग़ैर क़ौमों को यहूदी शरीअत पर अमल करने से क्या फ़ायदा हो सकता था? और जो रास्तबाज़ी अब उसे हासिल हुई और जिसमें अब वो ख़ुशी मना रहा था। इस के लिए उस ने एक उंगली भी ना हिलाई थी।

62. इन्जील में ख़ुदा की जो आलमगीर मुहब्बत उस पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हुई इस के बाइस वो मसीही दीन का अज़-हद मद्दाह हो गया। पहले उस की हम्दर्दी और ख़ुदा के बारे में उस का तसव्वुर बहुत महदूद था। इस नए ईमान ने उस के तायरोल को क़फ़स (जाल या फंदा) तास्सुब से आज़ाद कर दिया। ख़ुदा उस के लिए एक नया ख़ुदा हो गया। वो ऐसा राज़ कहता है। जो ज़मानों और पुश्तों से पोशीदा चला आता था लेकिन अब वो इस पर और उस के रफ़ीक़ों पर खुल गया। ये सदियों का राज़ था और एक नया ज़माना इस से शुरू होने वाला था। जो कभी जहां पर मुशाहिदा ना हुआ था। जो बादशाहों और नबियों पर छिपा रहा वो अब इस पर इफ़शा (ज़ाहिर) हो गया। ये तो गोया एक नई ख़ल्क़त का ज़माना उस पर तुलूअ हो गया। अब ख़ुदा हर इन्सान को आला दर्जे की ख़ुशी की दावत दे रहा है यानी ऐसी रास्तबाज़ी की दावत जो सदहा सालों की कोशिश के बावजूद भी लोगों को हासिल ना हुई थी।

63. हम ये तो नहीं कह सकते कि इस नए ज़माने की कोई इत्तिला गुज़श्ता ज़माना में दी ना गई थी। शरीअत और अम्बिया ने इस की गवाही दी थी। शरीअत की गवाही तो मन्फ़ी थी कि इन्सान की नाकामयाबी को ज़ाहिर कर के इस की ज़रूरत को पेश कर दे। लेकिन अम्बिया में असबाती तौर पर इस की शहादत दी गई है। मसलन दाऊद ने ऐसे शख़्स की मुबारक हाली का यूं ज़िक्र किया है। मुबारक वो हैं जिनकी बदकारियां माफ़ होतीं और जिन के गुनाह ढाँके गए मुबारक वो शख़्स है जिस के गुनाह ख़ुदावंद मह्सूब (हिसाब) ना करेगा।

(रोमियों 4:7,8) लेकिन इस से भी वाज़ेह तौर पर इब्राहिम ने इस की गवाही दी थी। वो रास्तबाज़ ठहराया गया और ईमान के वसीले रास्तबाज़ ठहराया गया ना कामों के वसीले से। वो ख़ुदा पर ईमान लाया और ये उस के लिए रास्तबाज़ी गिना गया। उस के रास्तबाज़ ठहराने में शरीअत को कोई दख़ल ना था। क्योंकि शरीअत तो चार सौ (400) बरस बाद दी गई थी। और ना खतना को इस से सरोकार था। क्योंकि रस्म भी रास्तबाज़ ठहरने के पीछे (बाद) अमल में आई। पस इन्सान की हैसियत से ना यहूदी की हैसियत से इब्राहिम के साथ ख़ुदा ने सुलूक किया। और यूंही ख़ुदा औरों के साथ सुलूक कर सकता है। पहले-पहल तो शरीअत की रास्तबाज़ी पौलूस के लिए मुक़द्दस लेकिन ख़ार-दार (काँटेदार) शाह राह थी। और वो समझता था। कि इब्राहिम और अम्बिया इसी सड़क पर चल कर रास्तबाज़ी के वारिस हुए। लेकिन अब उसे मालूम हुआ कि वहां तो मुआमला बिल्कुल बरअक्स था और अब वही तजुर्बा ख़ुद उसे हासिल हो गया था। अलबत्ता शरीअत और अम्बिया ने तो इस तुलू-ए-आफ़्ताब की किरनों का बयान किया था। और अब तो पौलूस पर रोज़-ए-रौशन चढ़ आया था।

64. नजात का ये तरीक़ा पौलूस का एक ज़ाती अमली तजुर्बे से मालूम हुआ। उस ने ये महसूस किया कि मसीह ने आनन फ़ानन (झटपट) उसे इलाही इत्मीनान और रजामंदी की हालत में पहुंचा दिया जिसके लिए वो बेसूद जाँ-फ़िशानी कर रहा था। बतद्रीज वो मालूम करता गया, कि ज़िंदगी की कैसी मुबारक हाली उसे हासिल थी। अब उस के पैग़ाम और रिसालत का मुद्आ (मक़्सद) ये था कि अपनी इस नई दर्याफ़्त को जिसे वो ख़ुदा की रास्तबाज़ी कहता है सारे लोगों पर ज़ाहिर करे। लेकिन पौलूस जैसे शख़्स की तबीयत ये दर्याफ़्त किए बग़ैर ना रह सकती थी, कि किस तरह मसीह के दिल में आने से ये सब कुछ उसे हासिल हो गया अरब के ब्याबान में वो इस सवाल पर ग़ौर करता रहा और जिस इंजील की उस ने पीछे इशाअत की उस में इस का साफ़ जवाब पाया जाता है।

65. बाबा आदम से उस की औलाद ने अफ़्सोस नाक दोहरी मीरास हासिल की। एक तो क़र्ज़ क़सूरदारी जिसको वो किसी तरह घटा नहीं सकती बल्कि जो रोज़ बरोज़ बढ़ता जाता है दोम जिस्मानी नफ़्सानी ज़ात जो रास्तबाज़ी के क़ाबिल नहीं गुनेहगार इन्सान की दीनी हालत के ये दो पहलू हैं और इन ही से उस के सारे रंज व ग़म सादिर होते हैं। अब मसीह आदम तो है और इन्सानियत का नया सर है और जो ईमान के ज़रीये उस के साथ ताल्लुक़ पैदा करते हैं। वो दोहरी मीरास के वारिस हो जाते हैं। लेकिन ये मीरास पहली से बिल्कुल मुतफ़र्रिक़ (अलग) है। एक तरफ़ तो ठीक जिस तरह आदम अव़्वल के सिलसिले में पैदा होने के ज़रीये हम ख़्वाह-मख़्वाह उस की क़सूरवारी में शरीक हो जाते हैं। जैसे अगर कोई बच्चा ऐसे ख़ानदान में पैदा हो जो क़र्ज़ में डूबा है। ऐसा ही आदम-ए-सानी के सिलसिले में पैदाइश पाने से उस के सवाब की ग़ैर महदूद मीरास में शरीक हो जाते हैं। और मसीह जो अपने ख़ानदान का सर है ऐसे हर एक अहले-ख़ानदान की जायदाद मुश्तर्क बना देता है इस से हमारी क़सूरवारी का क़र्ज़ दूर हो जाता है और हम मसीह रास्तबाज़ी में दौलत मंद बन जाते हैं। जैसे एक आदमी की ना-फ़र्मानी से बहुत गुनेहगार हो गए वैसे ही एक की फ़रमांबर्दारी से बहुत से रास्तबाज़ बन जाऐंगे। दूसरी तरफ़ ठीक जैसे आदम से हम जिस्मानी नफ़्सानी ज़ात विरसा में पाते हैं। जो खुद उसे जुदा और रास्तबाज़ी के नाक़ाबिल है वैसे ही ये नया आदम अपनी नस्ल को जिसका ये सर है एक रुहानी ज़ात अता करता है जो ख़ुदा से रिश्ता रखती और रास्तबाज़ी में ख़ुश होती है। पौलूस के मुताबिक़ इन्सान की ज़ात तीन अजज़ा पर मुश्तमिल है। यानी बदन, नफ़्स, और रूह, उनकी आपस में ऐसी तर्कीब दी गई है कि एक आला है और एक अदना मसलन रूह इन तीनों में आला है और बदन अदना और नफ़्स इन दोनों में दर्मियानी दर्जा रखता है गुनेहगार इन्सान में आदम के गिरने के वक़्त से इस तर्कीब में कुछ अबतरी पैदा हो गई। और गुनाह अब ये है कि बदन या नफ़्स ने रूह की जगह ग़सब कर ली है। ये बदन और नफ़्स मिलकर पौलूस के मुहावरे में जिस्म कहलाता है यानी इन्सानी ज़ात का वो पहलू जिसका रुख जहान और ज़माने की तरफ़ है। और अब ये तख़्त के मालिक हैं और ज़िंदगी पर पूरे हुक्मरान हैं। हालाँकि रूह यानी इन्सान का वो हिस्सा जिसका रुख ख़ुदा और अबदियत की तरफ़ है तख़्त से उतारी गई है। और कमज़ोरी और मौत की हालत में धकेल दी गई है। अब मसीह आन कर इन्सान की रूह पर अपनी ही रूह से क़ब्ज़ा कर के उसे पहली हालत में बहाल कर देता है उस की रूह इन्सानी रूह में बस्ती है उसे तरो ताज़ा करती है और उसे ऐसी रोज़-अफ़्ज़ूँ (तेज़ी तरक़्क़ी) क़ुव्वत बख़्शती जाती है, जिससे इन्सानी ज़ात में उस का इख़्तियार और ग़लबा रोज़ बरोज़ बढ़ता जाता है इन्सान जिस्मानी नहीं रहता और रुहानी बन जाता है ख़ुदा की रूह उस की हिदायत करती है और सारे मुक़द्दस और इलाही उमूर में उस की तरक़्क़ी होती जाती है। अलबत्ता ये तो दुरुस्त है कि जिस्म आसानी से अपनी हुकूमत छीनने नहीं देता। बल्कि रूह के रास्ते में तरह-तरह की रुकावटें डाल देता है और इस तख़्त को हासिल करने के लिए जान तोड़ कर लड़ता है पौलूस ने इस जंग का हाल बड़ी सफ़ाई से बयान किया है। और हर ज़माने के मसीहियों ने अपने तजुर्बे से इस की तस्दीक़ की है। इस जंग का अंजाम मुश्तबा (मशुक़ूक़) नहीं। गुनाह फिर उन पर हुकूमत ना कर सकेगा। जिनमें मसीह की रूह बस्ती है। और ना उन को ख़ुदा की नज़रों से गिरा सकेगा। मुझको यक़ीन है कि ख़ुदा की जो मुहब्बत हमारे ख़ुदावंद मसीह येसू में है उस से हमको ना मौत जुदा कर सकेगी, ना ज़िंदगी, ना फ़रिश्ते ना हुकूमतें, ना हाल की ना इस्तिक़बाल की चीज़ें, ना क़ुदरतें, ना बुलंदी, ना पस्ती, ना कोई और मख़्लूक़।

66. जो इन्जील पौलूस अरब के ब्याबान से अपने साथ वापिस लाया और जिसकी उस ने पीछे बड़ी सर गर्मी से मुनादी की उस का सादा ख़ाका हमने ऊपर खींच कर दिखा दिया है। चूँकि वो ख़ुद यहूदी था इसलिए उस क़ौम के ख़वास उस के तसव्वुरात और तस्नीफ़ात में इस इन्जील के बयान करने में मिले हुए हैं और इसी वजह से उस के बयान की बाअज़ तफ़सीलों का समझना मुश्किल है। जिस अक़ीदे में उस ने तर्बियत पाई थी कि किसी शख़्स को बिला यहूदी नबी नजात नहीं मिल सकती। और ख़यालात मुताल्लिक़ा शरीअत जिनसे उसे क़त-ए-तअल्लुक़ (वास्ता तोड़ देना) करना पड़ा उन से आजकल हमें हम्दर्दी करना कुछ बईद (दूर) नज़र आता है। लेकिन पौलूस की तालीम उन ग़लत रायों को मद्द-ए-नज़र रखकर उस के दिल में सूरत पकडती गई। उस की माबाअ्द ज़िंदगी में ये अम्र और भी साफ़ तौर से नज़र आता है। क्योंकि उसे अपनी उन पुरानी ग़लतियों से ख़ुद मसीही कलीसिया में मुक़ाबला करना पड़ता। क्योंकि एक मसीही फ़रीक़ बरपा हो गया था। जो मसीही दीन के साथ यहूदी शरीअत की तफ़्सील को नजात के लिए ज़रूरी समझता था। और इस फ़रीक़ से मुद्दत तक पौलूस का सख़्त मुक़ाबला रहा। अगरचे इस मुक़ाबले से उस को अपनी तालीम ज़्यादा सफ़ाई से बयान करनी पड़ी लेकिन साथ ही उसे ऐसे इशारे और इस्तिआरे इस्तिमाल करने पड़े जो आजकल नूअ इन्सान के लिए कुछ दिलचस्पी नहीं रखते। लेकिन बावजूद इन कमज़ोरियों के पौलूस की इन्जील इन्सान के लिए एक बेश-बहा ख़ज़ाना है मसलन नूअ इन्सान की नाकामयाबी और जरूरतों की तहक़ीक़ात और क़ब्ल अज़ मसीह दुनिया की तालीम में ख़ुदा का अजीब इन्किशाफ़ और इलाही मुहब्बत का अमिक़ (गहराई) और उस की आलमगीरी का ज़हूर मकाशफ़े के बड़े भारी जुज़ हैं।

67. लेकिन मसीह का जो तसव्वुर पौलूस की इन्जील में पाया जाता है। वो उस की तालीम का एक ग़ैर-फ़ानी सरताज है। इन्जील नवीसों ने बड़ी सादगी और अजीब ख़ूबसूरती से सैंकड़ों तरह से मसीह येसू की इन्सानी ज़िंदगी का नक़्शा खींचा है। और इन्सानी रविश का आला नमूना इस तरीक़े से बयान हो सकता है। लेकिन ये पौलूस ही का हिस्सा था, कि इब्ने ख़ुदा ने जो काम इन्सान का नजातदिहंदा होने की हैसियत से किया उस की ऊँचाई गहराई को मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) करे। उस ने मसीह की ज़मीनी ज़िंदगी के वाक़ियात का बहुत ही कम ज़िक्र किया है। लेकिन चंद इत्तिफ़ाक़ी इशारों से मालूम होता है, कि उसने उनका ज़िक्र करना बहुत ज़्यादा ज़रूरी नहीं समझा हालाँकि वो उन वाक़ियात से बख़ूबी वाक़िफ़ था। उस के लिए मसीह हमेशा वो जलाली मसीह था जो आस्मानी शान व शौकत के साथ चमकता हुआ दमिश्क़ की राह में उस पर ज़ाहिर हुआ था। और ऐसा नजातदिहंदा जिसने उसे ज़मीन से उठा कर आस्मानी इत्मीनान और नई ज़िंदगी की ख़ुशी में जा बिठाया था। जब मसीह की कलीसिया अपने सर का ख़याल करती है, कि वो गुनाह और मौत से रूह का मख़लिसी (नजात) देने वाला है। और जिसकी रुहानी हुज़ूरी हमेशा कलीसिया के साथ है और हर ईमानदार के दिल में असर कर रही है। और जो सारी चीज़ों का ख़ुदावंद है और बिला गुनाह के नजात देने के लिए फिर आएगा। इन सारी बातों को रूह-उल्लाह ने इस रसूल के वसीले ये लिबास पहनाया।

पांचवां बाब

इस कारिंदा के लिए काम

68. अब पौलूस अपनी इन्जील से पूरा वाक़िफ़ है और जानता है कि अब मेरी ज़िंदगी का यही काम है, कि मैं उसे ग़ैर क़ौमों को सुनाऊँ लेकिन ख़ास ख़िदमत के शुरू करने से पेश्तर उसे कुछ देर इंतिज़ार करना ज़रूर था। आइन्दा सात या आठ साल तक मुश्किल से उस का कुछ भी ज़िक्र आता है सिर्फ क़ियास कर सकते हैं कि क्यों ख़ुदा ने अपने ख़ादिम को तवक़्क़ुफ़ (देर वक़्फ़ा) में डाला।

69. शायद पौलूस की रुहानी तारीख़ में कुछ ऐसी वजूहात हों जिनके बाइस उस का इंतिज़ार करना मुनासिब ना था। क्योंकि जिनको किसी ख़ास काम पर मुक़र्रर करते हैं उनके लिए इंतिज़ार करना उनकी तैयारी का ज़रूरी जुज़ है। आम वजह शायद ये होगी, कि यहूदी हुक्काम ऐसे नव मसीही शख़्स की बर्दाश्त ना कर सकते थे। और जहां मसीही दीन की इशाअत ज़रूर थी। वहां उसे काम करना मुश्किल था उस ने दमिश्क़ में जहां वो मसीही हुआ था। इन्जील सुनाने की कोशिश की थी लेकिन यहूदियों के जोश व ख़रोश के बाइस उसे फ़ौरन भागना पड़ा। फिर यरूशलम में जा कर मसीही दीन की शहादत (गवाही) देना शुरू किया। लेकिन दो तीन हफ़्ते के अंदर ही उस का वहां रहना दुभर (मुश्किल) हो गया और ये जाये ताज्जुब नहीं कि यहूदी ऐसे शख़्स को जो अभी उन के मज़्हब का बड़ा हामी था ऐसे दीन की इशाअत करने देते थे। जिसे वो नेस्त करना चाहते थे। जब वो यरूशलम से भाग गया तो वो अपने वतन तरसुस को गया और चंद साल तक गुमनाम रहा। अलबत्ता वो अपने ख़ानदान को तो मसीह की ख़बर सुनाता रहता होगा। और कुछ इस अम्र का भी पता मिलता है कि किलकिया के इलाक़े में भी उस ने इन्जील सुनाई और अगर उस ने ऐसा किया तो ऐसे तौर पर किया जैसे कोई आदमी पोशीदगी में कुछ करता है। बरमला वो कुछ नहीं कर सका जैसा कि इस नए मज़्हब का तक़ाज़ा है।

70. इन चंद सालों के बारे में ये सिर्फ़ क़यासी वजूहात हैं। लेकिन एक बड़ी अहम वजह भी थी। इस अर्से में एक बड़ा इन्क़िलाब वाक़ेअ हुआ था। जो नूअ इन्सान की तारीख़ में बड़ा मशहूर गुज़रा है जिसके ज़रीये से ग़ैर क़ौमों को भी मसीह की कलीसिया में दाख़िल होने के लिए यहूदियों के बराबर हुक़ूक़ मिले। ये तब्दीली यरूशलम में रसूलों के गिरोह से शुरू हुई। और पतरस के वसीले जो रसूलों में बड़ा था ये तग़य्युर (इन्क़िलाब) या तब्दीली वक़ूअ में आया। याफ़ा में उसे एक रुयते नज़र आई जिसमें उस ने पाक और नापाक जानवरों को एक चादर में आस्मान से उतरते देखा। जिसके ज़रीये वो इस नए काम के लिए तैयार हो गया। और उस ने क़ैसरिया के ग़ैर क़ौम कुर्लेनियुस और उस के ख़ानदान को बपतिस्मे के ज़रीये बिला खतना कलीसिया में दाख़िल किया। ये एक नई बात थी जिसका असर दूर तक पहुंचने वाला था। और पौलूस के काम के लिए ये गोया तम्हीद थी और माबाअ्द के वाक़ियात से साबित हो गया, कि ये इंतिज़ाम कैसी हिक्मत पर मबनी था, कि ग़ैर क़ौम पहले-पहल पौलूस के हाथ से नहीं बल्कि पतरस के हाथ से हों।

71. जूं ही ये अम्र वाक़ेअ हुआ पौलूस के काम के लिए मैदान साफ़ हो गया। और काम का दरवाज़ा खुल गया। जिन दिनों में क़ैसरिया के ख़ानदान ने बपतिस्मा पाया तक़रीबन उन्हीं दिनों में सोरिया के दर-उल-खिलाफ़ा अन्ताकिया शहर के ग़ैर क़ौम मसीहियों में एक बड़ी रुहानी तरक़्क़ी ज़ाहिर हुई जो मसीही इज़ार सानी के बाइस भाग कर यरूशलम से अन्ताकिया को गए थे। उनकी तासीर से ये अमल में आया और रसूलों ने भी इस को मंज़ूर किया और अपने मोअतबर शख़्स बर्नबास को यरूशलम से इस काम की निगरानी के लिए रवाना किया। बर्नबास पौलूस से वाक़िफ़ था। जब पौलूस पहली दफ़ाअ यरूशलम को गया था। और मसीहियों से मिल जाना चाहता था, तो मसीही उस से डरते थे। और उन्हें अंदेशा था कि कि कहीं ये भेड़ों के भेस में भेड़िया ना हो। लेकिन बर्नबास ने ऐसे शक व शुब्हात की पर्वाह ना की। बल्कि इस नव मुरीद का हाल सुना उस का यक़ीन किया और दूसरों को यक़ीन दिलाया। ये मुलाक़ात सिर्फ दो या तीन हफ़्ते तक ही रही। क्योंकि पौलूस को जल्द यरूशलम छोड़ना पड़ा और जब बर्नबास अन्ताकिया को गया तो वहां की रुहानी तहरीक की वुसअत से ज़रा घबराया और मददगार की ज़रूरत महसूस की। और उसे ख़याल गुज़रा कि पौलूस इस काम में उस का हाथ बटा सकेगा। और तरसुस दूर ना था इसलिए उस की तलाश में वहां गया। पौलूस ने इस अम्र को मंज़ूर किया और उस के साथ अन्ताकिया को गया।

72. जिस वक़्त का पौलूस मुंतज़िर था वो आ पहुंचा और बहुत बड़ी मज़ही और सर गर्मी से ग़ैर क़ौमों को इन्जील सुनाने लगा। और नतीजा ये हुआ कि बहुत ग़ैर क़ौम मसीही हो गए और उनको नया नाम क्रिस्टियान यानी मसीही दिया गया जो आज तक चला आता है। और शहर अन्ताकिया जहां तक़रीबन पाँच लाख बाशिंदे थे। यरूशलम की बजाए। मसीही दीन का मर्कज़वार सदर मक़ाम हो गया बहुत जल्द एक बड़ी कलीसिया पैदा हो गई। और उनकी सरगर्मी का ये नतीजा हुआ कि ग़ैर-अक़्वाम में इन्जील सुनाने के लिए मिशनरी रवाना करने पड़े और पौलूस इस काम के लिए चुना गया।

73. अब चूँकि पौलूस के सामने वो काम आया जिसके लिए वो तैयार हो रहा था। इसलिए मुनासिब है कि उस वक़्त की मुल्की हालत का कुछ ज़िक्र किया जाये जिस मुल्क को फ़त्ह करने के वास्ते वो रवाना होने पर था। पौलूस के दिनों में मालूमा दुनिया ऐसी वसीअ ना थी जिसे एक आदमी फ़त्ह ना कर सकता हो। और जो नई ताक़त इस दुनिया पर हमला-आवर होने वाली थी। उस के लिए ये तैयार था।

74. इस में वो सारा मुल़्क दाख़िल था जो बहीरा ज़ुलमात को मुहीत है इस समुंद्र का नाम वसती समुंद्र था क्योंकि उस वक़्त ये गोया जहान का मर्कज़ था। यूरोप के जुनूबी ममालिक में तिजारत की गर्म-बाज़ारी थी। एशिया का मग़रिबी हिस्सा और अफ़्रीक़ा का शुमाली इलाक़ा इस में दाख़िल था और इस छोटी दुनिया में तीन बड़े शहर थे। यानी रोम, आईनी और यरूशलम यानी तीन क़ौमों रोमियों, यूनानियों और यहूदियों के सदर मुक़ाम। और ये तीनों कौमें इस दुनिया पर हुक्मरान थीं। यानी इन तीनों क़ौमों की तासीर हर जगह नमूदार थी।

75 पहले-पहल यूनानी मालिक हुए ये लोग बड़े ज़हीन और होशियार, फ़न तिजारत और दीगर उलूम व फ़नून में पूरे माहिर थे। क़दीम ज़माने से उनको दीगर ममालिक में अपनी बस्तीयां क़ायम करने का शौक़ था। चुनान्चे ये लोग इस मक़्सद के लिए मशरिक़ व मग़रिब को अपने वतन से दूर दूर निकल गए। आख़िरकार उस क़ौम में एक ऐसा शख़्स बरपा हुआ जो अपने ज़ोर-ए-बाज़ू से हिन्दुस्तान तक फ़त्ह करता चला आया। लेकिन सिकन्दर की वफ़ात के बाद उस की सल्तनत कई हिस्सों में तक़्सीम हो गई। लेकिन यूनान की तासीर बहुत देर तक दुनिया पर रही। यूनानी शहर मसलन अन्ताकिया वाक़ेअ सोरिया और सिकंदरिया वाक़ेअ मिस्र मशरिक़ में बड़े सरसब्ज़ और बारौनक थे यूनानी ताजिर हर तिजारतगाह में कस्रत से पाए जाते थे। और यूनानी मुअल्लिम अपने मुल्क का इल्म-ए-अदब बहुत मुल्कों में सिखाते थे। और इन सबसे बढ़कर यूनानी ज़बान आम हो गई थी। जिसके ज़रीये क़ौम क़ौम के साथ अपने ख़यालात का तबादला कर सकती थी। यहां तक कि नए अहदनामें के दिनों में यहूदी भी यूनानी तर्जुमें में अपने नविश्तों को पढ़ते थे क्योंकि उनकी असली ज़बान इब्रानी मुर्दा हो गई थी। और शायद दुनिया भर की ज़बानों में यूनानी सबसे कामिल ज़बान है और शायद ये भी ख़ुदा की हिक्मत थी, कि मसीही दीन से पेश्तर यूनानी ज़बान सब जगह फैल जाये ताकि इन्जील की इशाअत में एक बड़ा वसीला हो। नया अहदनामा यूनानी में लिखा गया था। और जहां कहीं मसीही दीन के रसूल गए वो यूनानी ज़बान के ज़रीये अपने ख़यालात हर जगह ज़ाहिर कर सकते थे।

76. यूनानियों के बाद रोमियों की बारी आई कि हाकिम हों। ये एक छोटा सा फ़िर्क़ा क़बीला रोम के नज़्दीक रहता था। और इन्हीं के सबब से इस शहर का नाम रोम हो गया। लेकिन बादअज़ां रफ़्ता-रफ़्ता वो ऐसी ताक़त पकड़ते गए और फ़न-ए-जंग और हुकूमत में ऐसी महारत हासिल की कि जहां कहीं गए फ़त्ह पाई और दुनिया के किनारों तक मालिक बन गए जहां सिकन्दर ने अपना सिक्का बिठाया था वहां अब रोमियों का झंडा लहराने लगा। ख़ाक साये जबल-उल-तारिक़ से लेकर मशरिक़ की इंतिहा तक लोग उनका लोहा मानने लगे। लेकिन ज़हानत में वो यूनानियों के बराबर ना थे। इनकी ख़ास सिफ़त थी ताक़त और अदल। और इनके फ़नून शायरी और मुसव्विरीना थे। बल्कि फ़न-ए-जंग व फ़न-ए-इन्साफ़। मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़ों के दर्मियान जो जुदाई की दीवारें थीं। उन को तोड़ डाला और उनको मज्बूर किया कि एक दूसरे के साथ दोस्ताना बर्ताव करें। क्योंकि वो सब इनके मातहत थे। इन्होंने जाबजा सड़कों को बनाया और आमद व रफ़्त के रास्ते खोल दिए और इनको रोम की शाही सड़क से जा मिलाया। और फ़न अंजेज़ी का कमाल इनमें नज़र आता है। और इन सड़कों में से बाअज़ आज तक मौजूद हैं। इन सड़कों के ज़रीये इशाअत इन्जील में बड़ी मदद मिली। और एक तरह से रोमी हुकूमत मसीही दीन के लिए राह तैयार करने वाली थी। ना सिर्फ मसीही मिशनरियों को आमद व रफ़्त में आसानी हो गई थी बल्कि बाअज़ मुख़्तलिफ़ मुक़ामों में बाअज़ हुक्काम (हाकिम जमा) के ज़ुल्म से हिफ़ाज़त भी हुई।

77. इसी अस्ना में तीसरी क़दीम क़ौम ने भी अपना असर जहान पर डाला था। यहूदी सारे जहान में फैल गए लेकिन रोमियों और यूनानियों की तरह तीर व तफ़ंग (हवाई बंदूक़) से नहीं। ये क़ौम सदियों से एक जंगी बहादुर की आमद के ख्व़ाब देख रही थी। जिसकी बहादुरी के सामने इनके ख़याल में बड़े-बड़े मशहूर फ़ातेह मांद पड़ जाऐंगे। लेकिन वो अब तक बावजूद इंतिज़ार के ज़ाहिर ना हुआ था। लेकिन यकताई और अमन के तरीक़े से वो तहज़ीब के बड़े-बड़े शहरों के मालिक हो गए थे। मलाकी नबी और मत्ती के ज़माने के दर्मियान जो चार सदहा गुज़री हैं जिनका ज़िक्र मुक़द्दस नविश्तों में पाया नहीं जाता यहूदी नस्ल में एक ऐसा अजीब तग़य्युर (तब्दीली या इन्क़िलाब) वाक़ेअ हुआ है, कि किसी दूसरी क़ौम की तारीख़ में इस की नज़ीर नहीं मिलती। अह्दे-अतीक़ के ज़माने में तो वो फ़िलिस्तीन की चार-दीवारी के अंदर ही बंद नज़र आते हैं और उमूमन ज़राअत के काम में मशग़ूल हैं और दीगर अक़्वाम के साथ मिलने से बड़ा परहेज़ करते हैं। अह्दे-जदीद में भी यही नज़र आता है, कि वो यरूशलम पर गरवीदा हैं और ये ख़याल इनके दिल में नक़्श है कि बाक़ी लोगों से अलैहदा रहें लफ़्ज़ फ़रीसी से यही मुराद थी लेकिन अब इनकी आदत और रिहाइश में बड़ा फ़र्क़ पैदा हो गया था। ज़राअत को इन्होंने बालाए ताक़ रख दिया और दिल व जान से तिजारत के काम में मसरूफ़ हो गए और इस में बड़ी कामयाबी हासिल की। और इसी ग़र्ज़ से वो सारे जहान में फैल गए। अफ़्रीक़ा, एशिया और यूरोप में कोई ऐसी बड़ी जगह ना थी। जहां यहूदी ना पहुंचे हों। ये तो इस वक़्त बताना मुश्किल और बाइस तवालत (तूल या दराज़ी) है, कि किस तरह से ये अजीब तब्दीली उन में वाक़ेअ हुई लेकिन ये वाक़ेअ ज़रूर हुई और मसीही दीन की इब्तिदाई तारीख़ में ये वाक़िया बड़ा मददगार साबित हुआ। जहां कहीं यहूदी आबाद थे। वहां उनका इबादतखाना भी था। वहां उनके मुक़द्दस नविश्तों की तिलावत होती थी। और ख़ुदा-ए-वाहिद पर वो पुख़्ता ईमान रखते थे। सिर्फ इतना ही ना था। बल्कि इन इबादत ख़ानों के ज़रीये ग़ैर-अक़्वाम में से बाअज़ लोग यहूदी दीन में दाख़िल भी होते थे। ग़ैर मज़ाहिब उन दिनों में ज़वाल की हालत में थे। छोटी क़ौमों ने अपने देवताओं को मानना छोड़ दिया था। क्योंकि देवताओं ने यूनानियों और रोमियों के मुक़ाबला में उनकी मदद ना की थी। लेकिन फ़ातेह कौमें भी बाअज़ दीगर वजूहात से अपने देवताओं पर ईमान ना रखती थीं। ये ज़माना उमूमन बेईमानी का ज़माना था। लेकिन फिर भी कोई ज़माना ख़ाली नहीं जिसमें कुछ ना कुछ लोग हक़ीक़ी ख़ुदा के मुतलाशी ना हों। जिस पर वो भरोसा कर सकें। ऐसे तालिबाने हक़ में से बाअज़ ने अपने मज़्हबी क़िस्से कहानियों से यहूदी दीन की पाक तौहीद में पनाह ली थी। इस यहूदी दीन की उसूली बातें मसीह अक़ीदे की भी बुनियाद हैं। जहां कहीं मसीही दीन के एलची गए वहां उनको ऐसे लोग मिले जिन के अक़ीदे के साथ उनका अक़ीदा बहुत कुछ मिलता था। ये मिशनरी पहले-पहल यहूदियों ही के इबादत ख़ानों में वाअज़ करते थे। इनके पहले मुरीद भी यहूदियों और यहूदी मुरीदों से थे। इबादतखाने ने पुल का काम दिया जिस पर उबूर कर के मसीही दीन ग़ैर-अक़्वाम के पास पहुंचा।

78. पस जिस जहान को फ़त्ह करने के लिए पौलूस निकलने को था। उस की ये हालत थी। इस जहान पर ये तिहरी तासीर थी। लेकिन इनके सिवाए और दो क़िस्म के लोग भी आबाद थे। जिनमें से बहुत मसीही दीन पर ईमान लाए। उनको भी याद रखना ज़रूर है यानी मुख़्तलिफ़ ममालिक के असली बाशिंदे और ग़ुलाम जो या तो लड़ाई में पकड़े गए थे। या ऐसे असीरों (क़ैदियों) की औलाद थे। और जिनको जाबजा जाना पड़ता था। क्योंकि इनके मालिक हस्ब-ए-ज़रूरत इनको बेच दिया करते थे। जिस मज़्हब का ख़ास फ़ख़्र ये हो कि वो ग़रीबों के लिए ख़ुशख़बरी है। वो इस ज़लील शूदा फ़िर्क़े को नज़र-अंदाज नहीं कर सकता। और अगरचे मसीही दीन का मुक़ाबला उस ज़माने की हुक्मरान क़ौमों से हुआ तो भी ये फ़रामोश ना करें कि इस की ख़ास ख़ूबी ये है कि ग़रीबों और फ़रोतनों को शाद व ख़ुश करे।

छटा बाब

मिशनरी सफ़र

पहला मिशनरी सफ़र

79. शुरू से मसीही वाइज़ों का ये दस्तूर रहा है, कि वो इस ख़िदमत के लिए अकेले नहीं बल्कि दो दो कर के जाया करते थे। पौलूस ने इस पर ये ज़्यादा किया कि एक की बजाए दो राफ़िकों को अपने हमराह लिया इनमें से एक तो नव् उम्र शख़्स था। ग़ालिबन इस के सपुर्द सफ़र का इंतिज़ाम किया गया था। पहले सफ़र के वक़्त बर्नबास और यूहन्ना मर्क़ुस बर्नबास का ख़ालाज़ाद भाई उस के साथ गया।

80. इस अम्र का ज़िक्र पेश्तर हो चुका है कि बर्नबास ने पौलूस को ढूंढ कर कलीसियाई ख़िदमत की तरफ़ उस की तवज्जोह दिलाई और ग़ालिबन शुरू शुरू में वो पौलूस का मुरब्बी (तर्बियत या परवरिश करने वाला) समझा जाता था। और मसीही जमाअत में उस की बड़ी इज़्ज़त थी। वो शायद पिन्त्कोस्त के दिन ईमान लाया। और माबाअ्द वाक़ियात में बड़ा हिस्सा लिया और अच्छा ख़ानदानी शख़्स और साहिबे जायदाद कप्रस का बाशिंदा था। और इस नए मज़्हब के लिए उस ने अपना सब कुछ क़ुर्बान किया। मज़्हबी जोश में जब मसीही अपनी जायदाद बेच कर रसूलों के क़दमों पर ला कर रख देते थे। उस वक़्त बर्नबास ने भी अपनी ज़मीन फ़रोख़्त कर के रसूलों के सपुर्द की। इस के बाद वो बराबर वाअज़ व नसीहत के काम में लगा रहा। उसे ख़ुदा ने फ़साहत की नेअमत भी दी थी। जिसके बाइस उस का लक़ब बर्नबास यानी नसीहत का बेटा पड़ गया। लुस्तरा ने उनको देवता ख़याल किया तो उन्होंने बर्नबास को जो पीटर (ज़ुहरा) और पौलूस को मरकरी (अतादर) कहा। क़दीम क़िस्सों में जो पीटर का हुल्या ये आया है, कि वो दराज़ क़द और शकील था और मरकरी पस्तक़द और इन्सान और देवताओं के बाप का तेज़-रफ़्तार एलची था। इसलिए ग़ालिबन बर्नबास की बुजु़र्गाना क़ता वज़ा (तौर तरीक़ा) से ये टपकता था कि ये सरदार है और पौलूस पस्तक़द सरगर्म मुलाज़िम है। और जिस रुख़ वो रवाना हुए उस से भी ये ज़ाहिर है कि बर्नबास की मर्ज़ी से ये सिम्त इख़्तियार की गई। पहले वो कप्रस को गए जहां बर्नबास की जायदाद थी। और जहां अब तक उस के बहुत दोस्त होंगे। ये जगह सलूकिया से जो अन्ताकिया का बंदरगाह था। इसी मेल जुनूब मग़रिब को वाक़ेअ थी। और शायद एक ही दिन में वहां पहुंच गए।

81. अगरचे बर्नबास सरदार मालूम होता था। तो भी ये नेक शख़्स ग़ालिबन अभी से महसूस करने लग गया था कि यूहन्ना इस्तिबाग़ी के फ़िरोतनी के अल्फ़ाज़ उस के रफ़ीक़ के हक़ में सादिक़ आएँगे, कि ज़रूर है कि वो बढ़े और मैं घटूं। और सच्च मुच जूं ही उनका काम शुरू हुआ इस की सदाक़त भी ज़ाहिर होने लग गई। इस जज़ीरे में एक सिरे से दूसरे सिरे तक काम करके यहां के सदर मुक़ाम पाफ़ुस में पहुंचे और जिन मुश्किलात का वो सामना करने को निकले उन की काफ़ी शिद्दत यहां उनके सामने आई। पाफ़ुस में वीनस यानी मुहब्बत की देवी की परस्तिश होती थी। और रिवायत है कि ये देवी इसी मुक़ाम पर समुंद्र की झाग से पैदा हुई थी। और इस की परस्तिश के साथ हदूद दर्जे की अय्याशी मुल्हिक़ थी। या ये कहो कि ये अख़्लाक़ी बदी में डूबे हुए यूनान की एक तस्वीर थी। पाफ़ुस रोमी हुकूमत का भी सदर मुक़ाम था और वहां का हाकिम सर्जियोस पौलूस नामी शख़्स था। ये बड़ा शरीफ़ शख़्स था। लेकिन ईमान की कमी थी और यही हाल रोम का था कि अपने बच्चों की आला रुहानी ज़रूरियात को वो पूरा ना कर सकता था। इस के दरबार में अल्मास नामी एक यहूदी जादूगर का बड़ा रसूख़ था। जिससे यहूदी सीरत की पस्त हाली की शहादत मिलती है। सारे जहान का यही हाल था। और इसी क़िस्म की बुराईयों के ईलाज के लिए मिशनरी रवाना हुए थे। इस मौक़े पर पौलूस की ख़ुदादाद क़ुव्वतें पहली दफ़ाअ ज़ाहिर हुई। रूह ने उसे ऐसी क़ुव्वत अता की कि वो इन सारी मुश्किलात पर ग़ालिब आए उसने यहूदी जादूगर को सब के सामने शर्मिंदा किया और रोमी हाकिम को ख़ुदा की तरफ़ फेरा और यूनानी मंदिर के मुक़ाबले में मसीही कलीसिया की बुनियाद डाली। इस वक़्त से बर्नबास ने नीचा देखा और पौलूस सरदार हो गया। अब से लेकर उनके नामों की तर्तीब ये नहीं रही कि बर्नबास और साऊल। बल्कि ये हो गई। पौलूस और बर्नबास। जो अदना था वो आला हो गया। गोया अब से पौलूस एक नया शख़्स बन गया और नया दर्जा उस को मिल गया अब से लेकर वो अपने यहूदी नाम साऊल से नहीं कहलाया बल्कि पौलूस कहलाने लगा और इसी नाम से वो अब तक मसीहियों में मशहूर है।

82. परगामें जहां से वो आगे की तरफ़ सफ़र करने वाले थे। एक मुसीबत उन पर पड़ी। यूहन्ना मर्क़ुस अपने रफ़ीक़ों को छोड़ जहाज़ पर सवार हो कर वतन को रवाना हुआ। शायद पौलूस का ये नया दर्जा उसे नागवार मालूम हुआ। अगरचे उस के फ़राख़ दिल मामूंर को।……ना लगा और उस को एक मामूली क़ुदरती बात मिंजानिब अल्लाह समझा। या शायद राह के ख़तरात से डर गया जो आगे चल कर उन को पेश आने वाले थे। क्योंकि वो राह ऐसी ख़तरनाक थी कि मज़्बूत दिल वालों के छक्के छूट जाते थे। परगा के क़रीब से कोह तारस की बरफ़पोश सफ़ैद चोटियां शुरू हो जाती थीं। और जिनको तंग दरों की राह से उबूर करना पड़ता था। और जहां झूलने वाले पुल नदी नालों पर बने हुए थे। और डाकूओं के क़िले क़वी हैकल देव की तरह खड़े थे। और बेचारे मुसाफ़िरों पर ये डाकू चील की तरह आ झपटते थे। और रोमी सल्तनत भी इन डाकूओं की सरगोबी में क़ासिर रही थी। इन दरों से गुज़र कर जो इलाक़ा था वो भी दिलकश ना था। कोह तारस की शुमाल की तरफ़ एक वसीअ सतह मुर्तफ़े जो इस इलाक़े की पहाड़ीयों से भी बुलंद था। कहीं झील थी कहीं पहाड़ी और कहीं-कहीं आबादी भी पाई जाती थी। और बोलियाँ भी मुख़्तलिफ़ बोली जाती थीं इन सब बातों ने मर्क़ुस को डरा दिया। और वो वापिस चला गया। लेकिन ये रफ़ीक़ अपनी जानों को हथेली पर रखकर आगे की तरफ़ रवाना हुए। उनके लिए इतना जानना काफ़ी था कि यहां सैंकड़ों रूहें तबाह हो रही हैं और उन्हें नजात की ख़बर की ज़रूरत है। और पौलूस को ये भी इल्म था कि थोड़े बहुत यहूदी इस इलाक़े में ग़ैर-अक़्वाम के दर्मियान पाए हैं।

84. इन इलाक़ों में जा कर उन्होंने किस तरह से अपना काम किया होगा। इस का नक़्शा खींचना ज़रा मुश्किल है। ये दोनों चुप-चाप शहर या गांव में जाते जैसे आम मुसाफ़िर जाते हैं। और शायद किसी को इनके आने की परवाह भी ना होती थी। जैसा कि आजकल हाल है। बहुतेरे मुसाफ़िर आते हैं। बहुतेरे चले जाते हैं। पहले-पहल वो किसी जगह जा कर अपने टिकने की जगह तलाश करते। बादअज़ां काम की। क्योंकि वो जहां कहीं जाते अपने हाथों की मेहनत से अपना गुज़ारा करते थे। और ये आम बात थी। किस को ख़याल था, कि ये गर्द-आलूद मुसाफ़िर कभी इस ख़ैमादोज़ के पास जाता है कभी उस ख़ैमादोज़ के पास और काम की दरख़्वास्त उनसे करता है वो जहान की काया पलट देने वाला शख़्स है। सबत के रोज़ा आम यहूदियों की तरह अपना काम बंद करते और इबादतखाना को जाते दूसरे इबादत करने वालों के साथ ज़बूर और दुआओं के पढ़ने में हिस्सा लेते और ख़ुदा का कलाम सुनते और इस के बाद सरदार हाज़िरीन से दरख़्वास्त करता कि अगर कोई नसीहत का कलमा सुनाना चाहता है, तो सुनाए। अब पौलूस को मौक़ा मिलता है। वो खड़ा होता और हाथ फैला कर बोलने लगता। फिर तो हाज़िरीन पौलूस के लब व लहजा से जान लेते कि ये कोई आलिम रब्बी है और बड़ी तवज्जोह से सुनते। जो मुक़ाम पढ़ा गया था उस से शुरू कर के वो यहूदी तवारीख़ को पेश करता। और बताता कि जिस मसीह का इंतिज़ार बाप दादा करते थे। और जिसका वाअदा उनके नबियों ने किया था। वो आ गया है और कि मैं उस की तरफ़ से रसूल हो कर आया हूँ। फिर येसू का हाल सुनाता कि ये सच्च है कि यरूशलम के सरदारोँ ने उस को रद्द कर के उसे सलीब दी। लेकिन ये सब कुछ नबियों के कलाम के मुताबिक़ उस पर वाक़ेअ हुआ और उस का मुर्दों में से जी उठना क़तई साबित है कि वो ख़ुदा की तरफ़ से भेजा गया था। अब वो सरफ़राज़ शूदा सरदार और नजातदिहंदा है कि इस्राईल को तौबा और गुनाहों की माफ़ी बख़्शे। फिर तो जिस क़िस्म की बह्स और गुफ़्तगु छिड़ जाती होगी। इस को ख़याल कर सकते हो। हफ़्ते के अय्याम में तो शहर में इस का चर्चा होता होगा। और पौलूस अपने काम करते वक़्त या शाम को फ़राग़त पाके इस मज़्मून पर ज़्यादा आगाही देता होगा। अगले सबत को इबादतखाना भर जाता ना सिर्फ यहूदियों से बल्कि ग़ैर-अक़्वाम के लोगों से भी जो इन अजनबियों को देखना चाहते थे। और पौलूस अब इस भेद को ज़ाहिर करता कि जो नजात येसू मसीह के वसीले पेश की जाती है। वो ना सिर्फ यहूदियों के लिए मुफ़्त है बल्कि ग़ैर क़ौमों के लिए भी और जहां पौलूस की ज़बान से ये निकला और यहूदियों ने इस की मुख़ालिफ़त करनी और कुफ़्र कहना शुरू किया। और पौलूस उनकी तरफ़ से मुँह फेर कर ग़ैर क़ौमों से मुख़ातिब होता। फिर तो क्या था यहूदी भड़क उठते और हंगामा बरपा करते या हुक्काम (हाकिम जमा) के हाथ में गिरफ़्तार करा देते। और उनको शहर से निकलवा देते थे। अन्ताकिया वाक़ेअ पिसदिया में यही वाक़िया हुआ। ये एशाए कोचक में उनका पहला मुक़ाम था और पौलूस की माबाअ्द ज़िंदगी में ये सैंकड़ों दफ़ाअ वाक़ेअ हुआ।

85. बाज़ औक़ात उनको जल्दी भागना भी ना मिला मसलन लुस्तरा में वो गंवार बुत परस्तों के दर्मियान घिर गए। पहले तो वो इन वाइज़ों के कलाम और शक्ल से मुतास्सिर हो के उनको देवता समझने लगे और उनके आगे क़ुर्बानी चढ़ाने को तैयार थे। इन मिशनरियों ने जल्दी से उनको इस फ़ेअल से रोका। और उन लोगों के दिलों में एक इन्क़िलाब पैदा हो गया और पौलूस पर पथराओ किया और उसे मुर्दा समझ कर शहर के बाहर आए।

86. इस क़िस्म के जोश व ख़रोश और ख़तरों के दर्मियान से इस दूर दराज़ इलाक़े में उनको गुज़रना पड़ा। लेकिन उनकी सरगर्मी में ज़रा फ़र्क़ ना आया। ना उन्होंने वापिस आने का नाम लिया बल्कि जब उनको एक शहर से निकाल दिया तो वो आगे दूसरे शहर को चल दिए। अगरचे ज़ाहिरन कुछ नाकामयाबी कभी मालूम हुई लेकिन जब वो किसी जगह से रवाना हुए तो कुछ ना कुछ तो मुरीद वहां छोड़े। शायद कुछ यहूदी मसीही या यहूदी मुरीदों में से कुछ मसीही और बाअज़ ग़ैर क़ौमों में से मसीही मुरीद जिनके लिए इन्जील का पैग़ाम भेजा गया था। उन्होंने उसे क़ुबूल किया। यानी वो ताइब जो अपने गुनाहों के बोझ को महसूस कर के पछता रहे थे। जो रूहें जहान से और अपने आबाई मज़ाहिब से ग़ैर मुत्मइन थीं। जो दिल इलाही मुहब्बत और हम्दर्दी के आर्ज़ूमंद थे। यानी जितने अबदी ज़िंदगी के लिए मुक़र्रर किए गए थे। ईमान लाए। और शहर में इस क़िस्म के लोग मसीही कलीसिया का मर्कज़ बन गए। ऐन लुस्तरा में जहां रसूलों को ज़ाहिरन शिकस्त-ए-फ़ाश मिली थी। और ईमानदारों का एक छोटा सा झुण्ड शहर के फाटक के बाहर ज़ख़्म-ख़ुर्दा रसूल के गिर्द जमा था यूनीकी और लूइस दो ईमानदार औरतें उनकी ख़िदमत करती थीं और इसी जगह नौजवान तीमुथियुस ने रसूल के ख़ून-आलूदा चेहरे को देखकर उस को प्यार करना शुरू किया क्योंकि वो अपने ईमान के लिए जान देने को था।

87. इन दुख और बे इंसाफ़ी के अय्याम में ऐसे अश्ख़ास की हम्दर्दी पौलूस के ज़ख़्म पर गोया मरहम का काम कर रही थी। बाज़ों का ख़याल है कि इन्हीं लोगों में से बाअज़ गलाती कलीसियाएं बन गईं। अगर ये दुरुस्त हो तो गलाएतों की तरफ़ के ख़त से हम दर्याफ़्त कर सकते हैं कि किस क़िस्म की मुहब्बत इन लोगों ने पौलूस से दिखाई रसूल ख़ुद कहता है कि ख़ुदा के फ़रिश्ते की तरह उन्होंने मुझे क़ुबूल किया। बल्कि ख़ुद येसू मसीह की तरह वो तो अपनी आँखें निकाल कर पौलूस को देने के लिए तैयार थे ये लोग बड़े मेहरबान और बड़े पुर जोश थे। और ये उन के मज़्हब का ख़ास्सा था और जब वो मसीही हो गए तो उसी क़िस्म का मिज़ाज उनमें चला आया। वो ख़ुशी और रूह क़ुद्दूस से भर गए और बड़ी तेज़ी से ये मज़्हबी तासीर चारों तरफ़ फैल गई। यहां तक कि इन छोटी मसीही जमाअतों से मसीही दीन की सदा कोह तारस के नशेबों और सेस्तरस (Cestrus) और हालीस (Halys) के मर्ग़-ज़ारों तक गूंज उठी मुहब्बत के ऐसे जज़बे को देखकर पौलूस का दिल-ख़ुशी मनाए बग़ैर ना रह सकता था। और ख़ुद बड़ी मुहब्बत उनसे करने लग गया। इन शहरों का ज़िक्र आता है अन्ताकिया (वाक़ेअ पिसदिया) इकोनियुम, लुसतर और दिर्बे। लेकिन जब वो दिर्बे में काम ख़त्म कर चुका और उस के लिए राह खुल गई कि किलकिया से तरसुस को उतर जाये और वहां से अन्ताकिया को वापिस हो तो जिस राह से वो गया था। उसी राह से वापिस आना उस ने पसंद किया। बावजूद सख़्त ख़तरों के उस ने उन सारी जगहों को फिर देखा ता कि नव् मुरीदों को तसल्ली दे और ख़ुशी से दुख उठाने की तर्ग़ीब दे और उस ने हर शहर में बुज़ुर्गों को मुक़र्रर किया ताकि उस की गैर-हाज़िर में कलीसियाओं की निगरानी करें।

88. आख़िर मिशनरी जुनूबी साहिल की तरफ़ वापिस आए और जहाज़ लेकर अन्ताकिया को चले जहां से वो इस काम के लिए निकले थे। बदन तो दुख और मेहनत से थका था। लेकिन दिल कामयाबी से ख़ुश था। इसी हालत में वो उन लोगों में पहुंचे जिन्हों ने उन को रवाना किया। और जो ग़ालिबन उनके लिए बराबर दुआ मांग रहे थे। और जो अजीब अजीब काम और फ़ज़्ल के मोअजिज़े ग़ैर क़ौमों में ख़ुदावंद ने उन को दिखाये और इनके ज़रीये किए उन सब का हाल उनको सुनाया।

दूसरा मिशनरी सफ़र

89. पहले सफ़र में तो पौलूस गोया अपने परो बाज़ू का तजुर्बा कर रहा था। क्योंकि अगरचे इस दौरे में बड़े-बड़े उमूर से सामना पड़ा तो भी ये एक महदूद हलक़े का यानी अपने ही सूबे के हदूद में दौरा था। लेकिन दूसरे सफ़र में वो बहुत दूर तक परवाज़ कर गया। और बहुत बड़े ख़तरे उसे पेश आए। ये सफ़र ना सिर्फ उस के सफ़रों में सबसे बड़ा था। बल्कि नूअ इन्सान की तारीख़ में ये निहायत अहम गुज़रा है बलिहाज़ नताइज के ये सिकंदर-ए-आज़म की मुहिमों पर फ़ौक़ रखता है जिनमें वो यूनानी तहज़ीब को एशीया के ऐन सदर में ले गया। और क़ैसर की मुहिमों से आला जब कि उस ने बर्तानिया के साहिल पर झंडा खड़ा किया। और कोलंबस के बहरी सफ़र से अफ़्ज़ल जब कि उस ने एक नए जहान को दर्याफ़्त किया। लेकिन जब पौलूस इस सफ़र के लिए रवाना हुआ तो उस को इस सफ़र की हक़ीक़त और वुसअत से पूरी आगाही ना थी। और ना वो ये जानता था कि मुझे किस सिम्त में जाना है पहले सफ़र के बाद थोड़ा आराम कर के उस ने अपने रफ़ीक़ को कहा कि जिन-जिन शहरों में हमने ख़ुदा का कलाम सुनाया था। आओ फिर उन में चल कर भाईयों को देखें कि कैसे हैं। ये पिदराना मुहब्बत की कशिश थी कि अपने रुहानी बच्चों को देखें लेकिन ख़ुदा ने एक वसीअ तज्वीज़ सोची थी और जो उस पर असनाए राह में मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) गई।

90. लेकिन इस सफ़र के शुरू में नागवार झगड़ा इन दोनों दोस्तों में बरपा हुआ जो इस सफ़र पर निकले थे। वजह ये हुई कि यूहन्ना मर्क़ुस उनके हमराह जाना चाहता था। जब इस नौजवान ने मालूम किया कि पौलूस और बर्नबास इस सफ़र से सही सलामत वापिस आ गए तो उस ने अपनी ग़लती को दर्याफ़्त किया। और तलाफ़ी माफ़ात के लिए अब उन के हमराह जाने को तैयार है बर्नबास तो तबई रिश्ते के लिहाज़ से अपने ख़ालाज़ाद को साथ ले जाना चाहता था। लेकिन पौलूस ने बिल्कुल इन्कार किया। बर्नबास तो ये पेश करता था कि माफ़ करना मुनासिब है और इन्कार करने से इस नव मुरीद शख़्स पर बुरा असर होगा। लेकिन पौलूस जो ख़ुदा के लिए सर गर्मी से भरा था। ये पेश करता था कि ऐसे मुक़द्दस काम में ऐसे शख़्स पर किसी तरह भरोसा नहीं कर सकते। जो क़ाबिल-ए-एतिमाद नहीं। क्योंकि मुसीबत के वक़्त बेवफ़ा शख़्स पर भरोसा करना इसी क़िस्म का है जैसे टूटे दाँत या मुड़े हुए पांव पर। इतने अर्से के बाद अब ये नहीं कह सकते कि इनमें रास्ती पर कौन था या ये कि दोनों का कुछ ना कुछ क़सूर था इस में कुछ शक नहीं कि इस से दोनों को नुक़्सान हुआ। पौलूस ग़ुस्से में ऐसे शख़्स से जुदा हुआ जिसने इन्सानों में ग़ालिबन सबसे ज़्यादा इस पर एहसान किया था। और बर्नबास को उस ज़माने के सबसे बड़े शख़्स से जुदा होना पड़ा।

91. ये दोनों दोस्त फिर कभी नहीं मिले। इस से कोई ये ना समझे कि इनके दिल में कीना रहा। जिसके बाइस वो फिर मिल ना सकते थे। ये ग़ुस्सा तो जल्द फ़िरौ (ख़त्म) हो गया और पहली मुहब्बत फिर ऊद (लौटना) कर आई। पौलूस अपनी तहरीरों में बर्नबास का इज़्ज़त से ज़िक्र करता है। और अपने आख़िरी ख़त में वो मर्क़ुस को अपने पास रोम में बुला भेजता है और साफ़ कहता है कि वो इस ख़िदमत में मेरे काम का है ये वही बात है जिसका पेश्तर उसे यक़ीन ना था। मगर इस वक़्त इस झगड़े ने उन को जुदा कर दिया। और इस अम्र पर मुत्तफ़िक़ हुए कि जिन इलाक़ों में उन्होंने पेश्तर इन्जील सुनाई थी। इस को आपस में बांट लें। बर्नबास और मर्क़ुस तो क़बरस को चले गए। और पौलूस दूसरी तरफ़ कलीसियाओं को देखने गया और बर्नबास की जगह उस ने सीलास या सलवानस को अपने साथ लिया। और अपने इस नए सफ़र में दूर नहीं गया था, कि मर्क़ुस का क़ाइम मक़ाम भी उस को दस्तयाब हो गया। ये तिमथियुस था जो पौलूस के ज़रीये पहले सफ़र के वक़्त लुस्तरा में मसीही हो गया था। वो नौजवान और हलीम था और ज़िंदगी के आख़िर तक पौलूस का वफ़ादार रफ़ीक़ (साथी) और बाइस तसल्ली रहा।

92. जिस मक़्सद के लिए वो निकला था। जिन कलीसियाओं के क़ायम करने में उसने हिस्सा लिया था। पहले उन्हीं को जा कर देखा। अन्ताकिया से शुरू कर के और शुमाल मग़रिब की तरफ़ जा कर उसने सूरिया, किलकिया और दूसरे इलाक़ों में काम किया। और आख़िरकार एशीया के मर्कज़ में पहुंचा और वहां उस के सफ़र का ख़ास मक़्सद पूरा हुआ क़ायदे की बात है कि जब इन्सान राह-ए-रास्त पर चलता है तो हर क़िस्म के मौक़े उसे मिल जाते हैं और जब वो इन इलाक़ों में दौरा कर चुका तो उस के दिल में जोश पैदा हुआ कि वो दूसरे इलाक़े में भी जाये और ख़ुदा ने इस काम के लिए भी राह खोल दी। वो उसी सिम्त में फिर गया और गलातिया में गुज़र गया। बुतूनिया का इलाक़ा जो बहीरा अस्वद के किनारे वाक़ेअ था। और जो एशयाई इलाक़ा मग़रिब में वाक़ेअ था वो उस को अपनी तरफ़ खींच रहा था। और पौलूस वहां जाना चाहता था लेकिन जो रूह उस की रहनुमाई कर रहा था उस ने उसे वहां जाने से रोका। ना मालूम किस तरीक़े से ये ज़ाहिर किया गया कि ये इलाक़ा तुम्हारे लिए बंद है। और आगे बढ़कर रूह की हिदायत से वो त्रोआस पहुंचा जो एशिया कोचक के शुमाल मग़रिब में एक है।

93. अल-ग़र्ज़ पौलूस ने अन्ताकिया से जो एशिया कोचक के जुनूब मशरिक़ में था त्रोआस तक सफ़र किया जो शुमाल मग़रिब में था। और राह में बराबर इन्जील की बशारत देता गया कई माह और शायद कई साल इस सफ़र में लगे। लेकिन इस दूर दराज़ सफ़र की कुछ तफ़्सील हम तक नहीं पहुंची सिवाए गलातियों के साथ ताल्लुक़ की जिसका ज़िक्र गलातियों की तरफ़ के ख़त में पाया जाता है। अस्ल बात ये है कि गो वा आमाल की किताब में पौलूस के काम का बड़ा दिलचस्प बयान हुआ है। लेकिन दरअस्ल वो पूरा बयान नहीं है। पौलूस की ज़िंदगी के बहुत माजरे। बहुत वाक़ियात और मसीह के लिए उस की मेहनत और दुख इस में मज़्कूर नहीं हुए। आमाल की किताब का मक़्सद तो ये है, कि हर सफ़र में जो अजीब और ख़ास वाक़ियात वक़ूअ में आए उन को क़लमबंद करे और हमेशा दीगर वाक़ियात को नज़र-अंदाज कर दे मसलन उस का बार-बार एक ही जगह को जाना वग़ैरह। इस से ज़ाहिर है कि पौलूस की तारीख़ में से बहुत जगह ख़ाली छूट गई है। हालाँकि हमें पूरा यक़ीन है कि उस की ख़िदमत और ज़िंदगी का कोई हिस्सा दिलचस्प उमूर से ख़ाली नहीं रहा। चुनान्चे इस का बड़ा सबूत उस के एक ख़त में पाया जाता है जो उस ने उसी अर्से में लिखा था, जिस अर्से का बयान आमाल की किताब में है एक दफ़ाअ दलील के लिए उसे अपनी ज़िंदगी के वाक़ियात को बताना पड़ा। वो पूछता है क्या वो मसीह के ख़ादिम हैं। मैं ज़्यादा हूँ। मेहनतों में बहुत ज़्यादा। क़ैद में ज़्यादा। कोड़े खाने में से ज़्यादा। बारहा मौत के ख़तरों में रहा हूँ। मैंने यहूदियों से पाँच बार एक कम चालीस कोड़े खाए तीन बार बेदें खाईं। एक बार संगसार किया गया तीन मर्तबा जहाज़ टूटने की बला में पड़ा। एक रात-दिन समुंद्र में काटा। मैं बारहा सफ़रों में दरियाओं के ख़तरों में। डाकूओं के ख़तरे में। मैं अपनी क़ौम से ख़तरों में। ग़ैर क़ौमों के ख़तरे में। शहर के ख़तरों में। ब्याबान के ख़तरों में। समुंद्र के ख़तरों में। झूटे भाईयों के ख़तरों में। मेहनत और मशक़्क़त में। बारहा बेदी की हालत में। भूक और प्यास की मुसीबत में। बारहा फ़ाक़ाकशी में। सर्दी और नंगे-पन की हालत में रहा हूँ। इस अजीब फ़ेहरिस्त में से बहुत थोड़े वाक़ियात का ज़िक्र आमाल की किताब में है। यहूदियों में से पाँच दफ़ाअ कोड़े खाने के बारे में आमाल की किताब में कुछ ज़िक्र नहीं। तीन दफ़ाअ रोमियों से बेद खाने में से सिर्फ एक दफ़ाअ का ज़िक्र है। एक दफ़ाअ पथराओ का ज़िक्र है। लेकिन तीन दफ़ाअ जहाज़ के तबाह होने में से एक का ज़िक्र भी नहीं। और जिसके तबाह होने का ज़िक्र आमाल की किताब में है वो इस से बहुत बाद वाक़ेअ हुआ। लूक़ा का ये मंशा ना था कि पौलूस की ज़िंदगी में कुछ मुबालग़ा करे बल्कि इस में तो सारा बयान भी नहीं है। वो महीनों और सालों की तारीख़ को बहुत ही इख़्तिसार (ख़ुलासा) से बयान करता है। और सिर्फ क़ियास से हम उस की बाक़ी ज़िंदगी का कुछ अंदाज़ा लगा हैं।

94. ये मालूम होता है कि पौलूस रूह की हिदायत से त्रोआस में पहुंचा और उसे कुछ ख़बर ना थी, कि आगे कहाँ जाना है। लेकिन जब आबनाए हील्स पांट के पार ज़मीन नज़र आई तो उस को क्या शक हो सकता था कि ख़ुदा का मंशा क्या है। अब वो इस अजीब इलाक़े की हदूद में था जहां सदियों से तहज़ीब और शाइस्तगी ने अपना घर बना रखा था। ग़ालिबन इस जंग और मुहिम की कहानी उसे याद आई होगी जिसको नूअ इन्सान ऐसी दिलचस्पी से पढ़ते हैं। यहां से चार मील के फ़ासिले पर ट्रॉय का मैदान था जहां यूरोप और एशिया में वो मशहूर लड़ाई हुई जिसका ज़िक्र होमर्द की किताब में है यहां से रुख़सोवेरस का तख़्त संगमरमर दूर ना था। जिस पर बैठ कर वो अपनी तीस लाख एशियाई फ़ौज की मौजूदात ले रहा था। जिसके ज़रीये वो यूरोप को पामाल करना चाहता था। उस तंग आबना की की परली तरफ़ यूनान और रोम वाक़ेअ थे। जहां से इल्म-ए-तिजारत और फ़ौजें निकल कर जहां पर हुकूमत करती थीं। पौलूस का दिल जो मसीह का जलाल ज़ाहिर करने के लिए ऐसा आर्ज़ूमंद था। क्या इस में ये शौक़ ना भड़क उठा होगा, कि इन बड़े शहरों पर हमला करे। क्या उस के दिल में कुछ शक रहा होगा कि रूह उस को इसी क़िस्म की मुहिम के लिए बुला रही है वो बख़ूबी जानता था, कि यूनान बावजूद हिक्मत के उस इर्फ़ान का मुहताज था। जो इन्सान को नजात के लिए दाना बना सकता है। और रोमी जो इस जहान के फ़त्ह करने वाले थे। उस मीरास के हासिल करने की राह ना जानते थे। जो आइन्दा जहान में मिलती है। इस के सीने में ये राज़ छिपा था। जिसकी इन दोनों को ज़रूरत थी।

95. इसी क़िस्म के ख़यालात जो उस के दिल में जोश मार रहे थे। उस रोया की सूरत में ज़ाहिर हुए जो उस ने त्रोआस में देखी या ये वह रोया थी। जिसने पहली दफ़ाअ उस के दिल में यूरोप को निकल जाने का ख़याल डाला? जब वो सो रहा था। समुंद्र का ख़ुरोश उस के कानों में गूंज रहा था उस ने एक शख़्स को दूसरे मुक़ाबिल साहिल पर खड़े देखा जिसका ख़याल सोने से पेश्तर उस के दिल में था वो उस को इशारे से बुला रहा और ये कह रहा था। मुक़दुनिया में आकर हमारी मदद कर। वो सूरत यूरोप की थी। और मदद के लिए फ़र्याद ये थी, कि यूरोप मसीह का मुहताज है। पौलूस ने इस में इलाही हिदायत महसूस की। और दूसरे ही दिन शाम को ये जहाज़ में बैठ कर मक़िदूनिया के साहिल की तरफ़ रवाना हुआ।

96. पौलूस ने एशिया से यूरोप की तरफ़ जो सफ़र उस वक़्त किया वो इलाही इंतिज़ाम के मुताबिक़ था जिसका नतीजा अहले यूरोप के लिए बड़ा अहम था और जिसके लिए वो लोग अब तक निहायत शुक्रगुज़ार हैं। मसीही दीन का आग़ाज़ एशिया में हुआ और मशरिक़ी लोगों के दर्मियान। और ये क़रीन-ए-क़ियास (वो बात जिसे अक़्ल क़ुबूल करे) था कि ये दीन पहले उन लोगों में फैल जाता जो यहूदियों से क़रीबी रिश्ता रखते थे। मग़रिब की तरफ़ आने की बजाए ये मशरिक़ की तरफ़ फैलता जाता। ग़ालिबन ये अरब में दाख़िल होता और इस इलाक़ों को फ़त्ह कर लेता जहां अब मुहम्मद अरबी का इल्म लहरा रहा है। शायद ये वस्त एशीया के ख़ाना-बदोश क़बीलों में जा घुसता और फिर जुनूब की तरफ़ मुड़ कर कोह-ए-हिमालया के दरों में से दरिया-ए-गंगा। अटक और गोदावरी के किनारों पर अपने मंदिर बनाता। शायद और मशरिक़ की तरफ़ बढ़कर चीन की घनी आबादी में दाख़िल हो कर उन लोगों को कनफ़ीयुस की सर्द-मेहर दीनवी तालीम से नजात देता। अगर ऐसा होता तो हिन्दुस्तान और जापान से इस वक़्त मिशनरी इंग्लिस्तान में आन कर सलीब की दास्तान सुनाते। लेकिन ख़ुदा ने यूरोप को ये मुबारक फ़ौक़ियत बख़्शी। और जब पौलूस युरोप को गया तो इस बर्रे आज़म की क़िस्मत ने पलटा खाया।

97. चूँकि रोम की निस्बत यूनान साहिल एशिया से ज़्यादा क़रीब था। इसलिए इस दूसरे मिशनरी सफ़र के वक़्त ये बड़ी फ़त्ह मसीह के लिए हासिल हुई। बाक़ी जहान की तरह उस वक़्त ये भी रोम की अमलदारी में था और रोमियों ने इस को दो ज़िलों पर तक़्सीम कर दिया था यानी शुमाल में मक़िदूनिया था। मशरिक़ से मगरिब की तरफ़ एक बड़ी रोमी सड़क के ज़रीये यहां आमद व रफ़्त होती थी। इसी सिट्रिक की राह से ये मिशनरी गए। और इस इलाक़े के जिन जिन मुक़ामात में उन्होंने ख़िदमत की वो ये हैं। फिलिप्पी और थिलोनीकी और बरिया।

98. इस शुमाली इलाक़े में यूनानी सीरत जुनूबी इलाक़े की सीरत की निस्बत ज़्यादा ख़ालिस और पाकीज़ा थी। अहले मक़िदूनिया में अब तक कुछ इस हिम्मत और दिलेरी का बक़ीया बाक़ी था जिसने चार सदी पहले इनको जहान का फ़ातेह बना दिया था। जो कलीसियाईन पौलूस के ज़रीये यहां क़ायम हुईं उन से पौलूस को दीगर जगह की कलीसियाओं से ज़्यादा इत्मीनान हासिल हुआ जैसी ख़ुशी और दिली मुहब्बत थिस्सलुनीकियों और फिलिप्पियों की तरफ़ के ख़तों में पाई जाती है। इस के दूसरे ख़त में इस क़द्र नहीं मिलती। और चूँकि फिलिप्पियों का ख़त पौलूस ने अपनी ज़िंदगी के आख़िर के क़रीब लिखा इस से ज़ाहिर है कि ये लोग अपने ईमान पर वैसे ही मज़्बूत रहे जैसे कि इन्जील क़ुबूल करने के वक़्त थे। बरिया में यहूदियों का एक कुशादा-दिल इबादतखाना भी उसे मिला जहां लोगों ने उस से अच्छी तरह से इन्जील सुनी और ऐसा मौक़ा पौलूस की ज़िंदगी में शाज़ ही गुज़रा है।

99. मक़िदूनिया के काम में ख़ास बात ये थी, कि औरतों ने एक बड़ा हिस्सा लिया। चूँकि उस ज़माने में तक़रीबन सारे जहान में मज़ाहिब का असर बड़ा घट गया था बाअज़ औरतें इबादतखाने के ख़ालिस अक़ीदे में मज़्हबी इत्मीनान हासिल करती थीं। मक़िदूनिया में शायद वहां के उम्दा अख़्लाक़ की वजह से यहूदी मुरीद औरतें दूसरी जगहों की निस्बत ज़्यादा थीं। और उनमें से बहुत मसीही कलीसिया में दाख़िल हो गईं। ये नेक शुगून था। ये गोया उस आला तब्दीली का पेश-ख़ेमा था। जो मसीही दीन मग़रिब की औरतों के दर्मियान पैदा करने वाला था। अगर मर्द मसीह के एहसानमंद हैं। तो औरतें उनसे भी ज़्यादा एहसानमंद हैं क्योंकि मसीह ने औरतों को मर्दों की गु़लामी से और उनकी मह्ज़ खेल होने की हालत से छुड़ाया और उस को दर्जे पर मुम्ताज़ किया कि ख़ुदा के सामने वो मर्द की दोस्त और हम-पल्ला हो इलावा इस के मसीह के दीन में वो लताफ़त और अज़मत भी पैदा हुई। जो औरतों की सीरत का ख़ास्सा है जब मसीही दीन यूरोप में दाख़िल हुआ तो इन बातों की पूरी तस्दीक़ हुई। और यूरोप में से पहले एक औरत ईमान लाई। और यूरोप की सर-ज़मीन में जो पहली मसीही इबादत हुई उस में ख़ुदा ने एक औरत के दिल को सच्चाई क़ुबूल करने के लिए खोला। और जो तब्दीली उस औरत में वाक़ेअ हुई वो इस अम्र का निशान थी। कि मसीही दीन के क़ुबूल कर लेने से यूरोपियन औरतें कहाँ तक तरक़्क़ी कर सकती है। और फिलिप्पी शहर ही मसीही दीन के पहुंचने से पेश्तर यूरोप की औरतों की हालत का क़दीम नक़्शा भी मुशाहिदे में गुज़रा। जब एक लड़की मिली जिसमें ग़ैब गोई की रूह थी। और मर्दों ने इस को अपना नफ़ा कमाने के लिए ग़ुलाम बना रखा था। पौलूस ने उस में से इस रूह को निकाल दिया। इस लड़की की पस्ती और ज़िल्लत उस वक़्त की औरतों की पस्ती व ज़िल्लत का निशान थी और लुदिया की हम्दर्द और पुर मुहब्बत सीरत इस तब्दीली का निशान थी। जो मसीही दीन की तासीर से औरतों में हो सकती है।

100. मक़िदूनिया कलीसियाओं की एक और बुरी सिफ़त उनकी फ़य्याज़ी थी। वो इस पर ज़ोर देते थे, कि मिशनरियों की जिस्मानी हाजतों को पूरा करें और जब पौलूस वहां से रवाना भी हो गया। तब भी दीगर शहरों में उस की हाजतों को रफ़ा करने के लिए उन्होंने कुछ मदद भेजी। मुद्दत बाद जब पौलूस रोम में क़ैद था। तो उन्होंने अपने एक मुअल्लिम अपफ्रोलयतस को कुछ रुपया पैसा देकर भेजा कि पौलूस की ख़िदमत करे। इन वफ़ादार मसीहियों की फ़य्याज़ी को पौलूस ने क़ुबूल कर लिया। अगरचे दूसरी जगहों में उस ने अपने हाथों से मेहनत कर के गुज़ारा किया और इस क़िस्म की मदद लेना मंज़ूर ना किया। ये फ़य्याज़ी उन लोगों की दौलत-मंदी की वजह से ना थी। बल्कि बरअक्स इस के अपनी ग़रीबी की पूँजी में से दिया। वो शुरू से ग़रीब लोग थे। और इज़ार सानियों ने उनको और भी ग़रीब बना दिया था। पौलूस के रवाना होने के बाद उनको ज़्यादा तक्लीफ़ उठानी पड़ी। और मुद्दत तक यही हाल रहा। ये तकलीफ़ें पहले-पहल पौलूस पर भी टूट पड़ी थीं। अगरचे वो मक़िदूनिया में ऐसा कामयाब हुआ लेकिन उस को हर शहर से ऐसे तौर पर निकाला जैसे कूड़े क्रकट को निकाल कर फेंक देते हैं और उमूमन ये मुसीबतें यहूदियों के ज़रीये आईं। ये लोग या तो अंबोह आम को पौलूस के ख़िलाफ़ भड़का देते थे। या रोमी हुक्काम के पास जा कर उस पर इल्ज़ाम लगाते थे। कि ये नया दीन शुरू करना चाहता है या मुल्क में खलबली डालना चाहता है। या ये एक दूसरे बादशाह का इश्तिहार देता है। जो क़ैसर का हरीफ़ होगा। वो ना तो ख़ुद आस्मान की बादशाहत में जाना चाहते थे। ना दूसरों को जाने देना चाहते थे।

101. लेकिन ख़ुदा ने अपने ख़ादिम की हिफ़ाज़त की। फिलिप्पी में ख़ुदा ने एक अजीब मोअजिज़े के ज़रीये उस को क़ैदख़ाने से रिहाई बख़्शी। और फ़ज़्ल के मोअजिज़े के ज़रीये दारोगा जेल के दिल पर तासीर की। और दूसरे शहरों में उसे मामूली वसीलों से ख़ुदा ने बचा लिया। बावजूद ऐसी सख़्त मुख़ालिफ़त के शहर ब शहर कलीसियाएं क़ायम होती चली गईं। और इनके ज़रीये मक़िदूनिया के सारे इलाक़ा में इन्जील की सदा गूंज उठी।

102. मक़िदूनिया से रवाना हो कर जब पौलूस जुनूब की तरफ़ अखाया में गया तो वो हक़ीक़ी यूनान में दाख़िल हुआ जो अक़्ल व शौहरत का गोया फ़िर्दोस था। असनाए राह में इस मुल्क की अज़मत के निशान और यादगारें चारों तरफ़ उस की नज़र पड़ती थीं। बरिया छोड़कर कोह ओलम्पस की बर्फ़ानी चोटियां पीछे नज़र आती थीं। जहां कहते हैं, कि यूनानी देवताओं का मस्कन था थर्मापोली के पास से उस का जहाज़ गुज़रा जहां ग़ैर-फ़ानी तीन सौ ने लाखों वहशियों का मुक़ाबला किया था। और जब उस का बहरी सफ़र ख़त्म होने पर था। तो उस के सामने जज़ीरा सलमीस नज़र पड़ता था। जहां अहले यूनान ने जान तोड़ कर लड़ाई की और अपने मुल्क को तबाह होने से बचाया।

103. उस की मंज़िल-ए-मक़्सूद आईनी थी जो इस इलाक़े का दार-उल-ख़िलाफ़ा था। जूंही वो शहर में दाख़िल हुआ तो जो वाक़ियात उस की गलियों और यादगारों से मुल्हिक़ थे। उनसे वो नावाक़िफ़ ना रह सकता था। यहां इन्सानी तबीयत की दरख़शानी और शान ऐसे दर्जे तक नज़र आती थी. कि कहीं इस की नज़ीर नहीं मिलती। इस की तारीख़ के सुनहरी ज़माने में आईनी में आला ज़ी अक़्ल व फ़हीम लोगों का इस क़द्र शुमार था कि किसी दूसरे शहर में पाया ना जाता था। आज तक आईनी की शौहरत इनके बाइस बाक़ी है। लेकिन पौलूस के दिनों से पेश्तर ही ये सब कुछ गुज़र चुका था। उस के सुनहरी ज़माने को चार सदियां हो चुकी थीं और इस असना में एक अफ़्सोस नाक ज़वाल इस पर छाता चला गया फ़ल्सफ़ा बिगड़ कर सूफ़ताई तालीम से बदल गया फ़साहत (ख़ुश-बयानी) मह्ज़ इल्म नहव से बदल गई। नज़्म की जगह सिर्फ शेअर बनाना रह गया। ये शहर अपनी गुज़श्ता तारीख़ पर गोया ज़िंदा शहादत थी। तो भी अब तक ये मशहूर जगह थी। और एक क़िस्म का इल्म व तर्बियत यहां पाया जाता था। मुख़्तलिफ़ क़िस्म के फ़लसफ़ों के लोग यहां बकस्रत थे। और हर तरह के इल्म के मालूम और प्रोफ़ैसर यहां दिखाई देते थे। और हज़ारों दौलतमंद परदेसी जहान के हर हिस्से से यहां आन कर रहते और तालीम व तर्बियत पाते थे। अब तक ये ज़ी अक़्ल सय्याहों की नज़र में एक अहम जगह थी।

104. पौलूस में एक अजीब सिफ़त थी जिसके बाइस वो सब आदमियों के लिए सब कुछ बन सकता था। इसलिए उस ने अपने तईं उन लोगों के हस्बे-हाल भी बनाया। चौक में जहां उलमा जमा हुआ करते थे। वो तलबा और फ़ैलसूफ़ों से गुफ़्तगु करता जैसा कि सुक़रात पांच सौ बरस पेश्तर उसी जगह किया करता था। लेकिन बहुत थोड़े लोग उसे मिले जो हक़ के तालिब थे। हक़ की ख़्वाहिश की बजाए वहां के बाशिंदे मह्ज़ अनोखी या नई बातों के सुनने के आर्ज़ूमंद थे। इसलिए जो कोई नई तालीम लेकर आता उस के लिए वो ख़ुशी से मौक़ा देते कि अपनी तालीम सुनाए और जब तक पौलूस अक़्ली तौर पर अपने पैग़ाम को पेश करता रहा वो ग़ौर से सुनते रहे। और शौक़ के मारे उसे अर्योंपगस की चोटी पर ले गए जो उनके शहर की शान व शौकत का गोया मर्कज़ था। और वहां उस से दरख़्वास्त की कि अपने अक़ीदे का मुफ़स्सिल बयान करे। पौलूस ने उनकी दरख़्वास्त मंज़ूर की और बड़ी फ़सीह (कलाम) तक़रीर में उस ने ख़ुदा की तौहीद और इन्सान की बाहमी यगानगत या बिरादरी को उनके सामने पेश किया और वो लोग बहुत महफ़ूज़ हुए और ये दो मसले मसीही दीन की बुनियाद हैं। लेकिन जिस वक़्त पौलूस ने उन की नजात के मसअले को छेड़ा तो वो यकलख़त (फ़ौरन) उसे बोलता ही छोड़कर चले गए।

105. पौलूस आईनी से चला गया और वो फिर कभी वहां वापिस ना गया जैसी सख़्त नाकामयाबी यहां हुई उसे और किसी जगह नहीं हुई। वो सख़्त से सख़्त इज़ार सानी की बर्दाश्त कर सकता था। और फिर फ़ौरन हिम्मत बांध कर काम करने लग जाता था। लेकिन यहां पौलूस को इज़ार सानी की निस्बत एक ज़्यादा मुश्किल का सामना पड़ा। उस के पैग़ाम की ना तो उन लोगों ने मुख़ालिफ़त की और ना कुछ परवाह ही की। अहले आईनी के दिल में ख़याल भी नहीं गुज़रा होगा, कि पौलूस को ईज़ा पहुंचाएं। उन्होंने तो मह्ज़ उसे बकवास समझ कर छोड़ दिया और उस की तालीम की तरफ़ कुछ तवज्जोह की। इस सर्द-मेहरी (बेरहमी, संगदिली) ने पौलूस के दिल को पत्थरों और औज़ारों की निस्बत ज़्यादा ज़ख़्मी किया और शायद ऐसा मायूस भी वो कभी ना हुआ था। आईनी से रवाना हो कर वो करंतुस को गया जो अखाया का दूसरा बड़ा शहर था। और उस ने ख़ुद बताया है कि मैं कमज़ोरी और ख़ौफ़ और कपकपी की हालत में वहां पहुंचा। करंतुस और आईनी का हाल कुछ इसी क़िस्म का था। जो अमृतसर और लाहौर का है। अमृतसर तो बड़ी भारी तिजारती मंडी है और लाहौर तालीम का बड़ा मर्कज़ है। अहले कुरंथ भी बड़े झगड़ालू और तकरारी थे। और पौलूस को अंदेशा था कि आईनी की तरह यहां भी इसी क़िस्म का अफ़्सोसनाक नतीजा ना निकले शायद इन लोगों के लिए भी इन्जील में कोई पैग़ाम ना हो? इस क़िस्म के सवाल पर ग़ौर करने से पौलूस काँप उठता था। कोई ऐसी बुनियाद उनमें नज़र ना आती थी जिस पर कि इन्जील कुछ गिरफ्त हासिल कर सके। और कोई उनकी ऐसी हाजत मालूम ना होती थी। जिसको इन्जील पूरा करे।

107. कुरंतुस में की दीगर उमूर भी हौसला गिराने वाले थे। ये क़दीम ज़माने का पैरिस था। बदी का आम रिवाज था और कोई उस से शर्माता ना था। और इस क़िस्म की बदी थी। जिसके सुनने से पौलूस को सख़्त मायूसी हुई। क्या इन्सान ऐसी होलनाक बदी के पंजे से रिहाई पा सकता है। इलावा अज़ीं यहूदियों ने मामूली से ज़्यादा यहां मुख़ालिफ़त की और उसे इबादतखाना बिल्कुल छोड़ना पड़ा। इस से पौलूस के दिल में बड़ा रंज था। क्या मसीह का सिपाही इस मैदान से भटका दिया जाएगा। क्या ये मजबूरन मानना पड़ेगा, कि इन्जील तालीम या फ़तह यूनान के मज़ाक़ के मुवाफ़िक़ ना थी।

108. लेकिन पाँसे ने पल्टा खाया। ऐन ज़रूरत के वक़्त पौलूस को एक रोया नज़र आई और अक्सर जब पौलूस ऐसी तंगी और मायूसी में था ख़ुदा ने उस को इस क़िस्म की रोया दिखाई। रात को ख़ुदावंद ने उस पर ज़ाहिर हो कर कहा। मत डर। बोलता जा। चुप ना रह। क्योंकि मैं तेरे साथ हूँ क्योंकि मेरे बहुत लोग इस शहर में हैं। इस से पौलूस की फिर हिम्मत बंध गई और मायूसी के अस्बाब काफूर होने लगे। जब यहूदियों ने हंगामा कर के उस को रोमी हाकिम गालियो के सामने पेश किया और उस हाकिम ने उन्हें बुरी तरह से रुख़्सत कर दिया तो यहूदियों की मुख़ालिफ़त की पुश्त टूट गई ऐन इबादतखाने का सरदार मसीही हो गया। और अहले कुरंतुस में से बहुत लोग ईमान लाने लगे पौलूस दो दोस्तों के घर में मेहमान था जो उस के हम क़ौम और हमपेशा थे। यानी अक़ूला और हरसक़ीला। वो डेढ़ साल वहां रहा और कलीसिया की बुनियाद डाली और सलीब का झंडा अखाया में गाढ़ा गया। और ये साबित किया कि इन्जील जहान को हिक्मत के सदर मुक़ामों में भी नजात के लिए ख़ुदा की क़ुद्रत है।

तीसरा मिशनरी सफ़र

109. पौलूस ने दूसरे सफ़र से वापिस आकर यरूशलम और अन्ताकिया में ये दिलचस्प हाल सुनाया लेकिन बहुत दिन तक आराम करना उस ने पसंद ना किया बल्कि थोड़ी देर बाद ही वो तीसरे सफ़र पर रवाना हुआ।

110. ये गुमान हो सकता था, कि जब दूसरे सफ़र में यूनान में इन्जील सुनाई गई तो अब रोम की बारी थी। लेकिन नक्शे पर एक नज़र डालें तो मालूम होगा, कि एशयाए कोचक के जिस इलाक़े में उस ने पहले सफ़र में इन्जील सुनाई और यूनान के जिन इलाक़ों में उस ने दूसरे सफ़र के वक़्त इन्जील सुनाई उन के दर्मियान एशयाए कोचक के मग़रिब में एशिया का बड़ा इलाक़ा आबाद था। पौलूस ने तीसरे सफ़र में इस इलाक़े को बशारत इन्जील के लिए चुना। यहां का सदर मुक़ाम इफ़िसुस था। वहां पौलूस ने तीन साल तक मुक़ाम किया। और जिन कलीसियाओं को उस ने क़ायम किया था। उनको फिर देखा और सफ़र के आख़िर के क़रीब यूनान की कलीसियाओं का मुआइना किया। और चूँकि आमाल की किताब का ये ख़ास्सा है कि जो हर सफ़र में नया काम था उस का ज़िक्र करे इसलिए इफ़िसुस के काम का मुफ़स्सल ज़िक्र है।

111. ये शहर उस इलाक़े का बड़ा बंदरगाह था। और दूर दूर की तिजारत इस बंदरगाह के ज़रीये होती थी। और बहुत शहर इस के इर्द गर्द थे। जिनका ज़िक्र सात कलीसियाओं की तरफ़ के ख़तों में मुकाशफ़े की किताब में आया है। मसलन सिमर्ना, पुरग़मस, सकोत्रा, सरवेस, फिलाडलफिया, और लादूकिया, ये बड़ा दौलतमंद शहर था। और हर तरह की ऐश व इश्रत यहां होती थी। यहां के तमाशा गाह और दौड़ोंकी शौहरत सारे जहान में फैली हुई थी।

112. लेकिन इफ़िसुस वहां के लोगों का मुक़द्दस शहर होने की वजह से ख़ासकर मशहूर था। अर्तमस की देवी की परस्तिशगाह था। इस देवी का मंदिर क़दीम ज़माने के निहायत मशहूर मंदिरों में गिना गया था। ये मंदिर दौलत से माला-माल और पूजारियों से पुर था। इर्द गर्द के इलाक़ों से हर साल बहुत लोग जात्रा (ज़ियारत) के लिए यहां आते थे। और इफ़िसुस के लोग भी तरह-तरह से इस परस्तिश के तुफ़ैल फ़ायदा उठाते थे। यहां रिवायत थी कि मूर्त आस्मान से गिरी थी और जो अजीब हुरूफ़ इस मूर्त पर कुंदा थे उस की नक़्लें बतौर जादू और तावीज़ के इस्तिमाल होती थीं। इस शहर में जादूगरों, फ़ालगीरों और ख्व़ाब के ताबीर करने वालों वग़ैरह की बहुत कस्रत थी और जो लोग जात्रा या तिजारत के लिए या इस बंदरगाह में किसी और मक़्सद से आते थे। उन से ख़ूब रुपया छुड़ाते थे।

113. इसलिए पौलूस का ख़ास काम ये था कि इस बातिल परस्ती की मुख़ालिफ़त करे पौलूस ने यहां येसू के नाम से बहुत मोअजिज़े किए जिनको देखकर लोग बहुत हैरान थे। और बाअज़ यहूदी झाड़ फूंक करने वालों ने ये कह कर बदरूहों को निकालने की कोशिश की, कि हम तुमको येसू के नाम से हुक्म देते हैं। जिसकी मुनादी पौलूस करता है। और इस से उनको शर्मिंदगी भी हासिल हुई। बाअज़ जादू पेशा लोग मसीही हो गए और उन्होंने अपनी किताबें जला दीं इन सुनारों को फ़िक्र लगी कि अब हमारी तिजारत जाती रहेगी। चुनान्चे इस देवी के एक तहवार के रोज़ इन लोगों ने हंगामा बरपा कर दिया और लोगों को पौलूस के ख़िलाफ़ भड़का दिया यहां तक कि पौलूस को शहर से निकलना पड़ा।

114. लेकिन मसीह दीन के पुख़्ता तौर पुर क़ायम होने से पेश्तर वो इस शहर से नहीं निकला और इन्जील की शुवाएं एशीया के साहिल पर चमकने लगीं। जिन कलीसियाओं का ज़िक्र यूहन्ना ने मुकाशफ़े की किताब में किया है। वो पौलूस की कामयाबी की यादगार है। लेकिन इस से भी बढ़कर यादगार इफ़िसियों की तरफ़ का ख़त है। जो पौलूस ने इस कलीसिया को लिखा। ये निहायत ही गहरा रिसाला है तो भी मुसन्निफ़ को उम्मीद है कि एफसी मसीही इस को समझ लेंगे।

अगर डेमा स्थनीज़ की फ़सीह तक़रीरें जो ऐसी मुदल्लिल और ऐसी पैवस्ता हैं कि एक बाल की गुंजाइश उन में नहीं। यूनान के इस आलिम शख़्स की यादगारें जिनको अहले यूनान शौक़ से सुनते थे। अगर शेक्सपियर के नाटक जिनमें ज़िंदगी और ज़बान के पेचीदा उमूर पर गहरी नज़र डाली गई है। मलिका एलीज़बैथ के ज़माने की यादगार हो। तो इफ़िसियों की तरफ़ का ख़त जिसमें मसीही तालीम की अमीक़ बातों का और मसीही तजुर्बे की आला और बुलंद चोटियों का नज़ारा नज़र आता है उस कमाल का गवाह है जो पौलूस की मुनादी से इफ़िसुस में मसीहियों ने हासिल किया था।

सातवाँ बाब

उस की तस्नीफ़ात और उस की सीरत

115. इस का ज़िक्र हो चुका है कि तीसरे मिशनरी सफ़र के आख़िर में पौलूस ने यूनान की कलीसियाओं को सरसरी तौर से देखा। इस काम पर उस के सात महीने लग गए। लेकिन आमाल की किताब में सिर्फ दो या तीन आयतों में इस की तरफ़ इशारा है बाक़ी सारा बयान छोड़ दिया गया है। ग़ालिबन इस की वजह ये होगी कि कोई मशहूर वाक़िया इस अर्से में नहीं गुज़रा। इसलिए मुसन्निफ़ ने इस वक़्त के वाक़ियात की तरफ़ चंदाँ तवज्जोह नहीं की। तो भी दूसरे वसाइल से हमको मालूम हो गया है, कि पौलूस की ज़िंदगी में ये हिस्सा तक़रीबन सबसे ज़्यादा अहम था। क्योंकि इस निस्फ़ साल के अर्से में उसने सबसे बड़ा ख़त लिखा। यानी रोमियों की तरफ़ का ख़त इस के इलावा दो दीगर ख़ुतूत भी लिखे। यानी गलातियों और कुरिन्थियों को ख़त।

116. अब हम पौलूस की ज़िंदगी के उस हिस्से तक पहुंच गए हैं, जो ज़्यादा उस की तस्नीफ़ात से मुताल्लिक़ है। ये अजीब शख़्स है। एक तरफ़ तो ये नज़र आता है, कि वो एक सूबे से दूसरे सूबे की तरफ़। एक बर्र-ए-आज़म से दूसरे बर्र-ए-आज़म की तरफ़। कभी ख़ुशकी कभी तरी का सफ़र करता है। ताकि अपने मक़्सद को हासिल करे। लेकिन दूसरी तरफ़ उस की तस्नीफ़ात से ये मालूम होता है, कि वो अपने ज़माने में सबसे बड़ा साहिबे फ़िक्र व ग़ौर था। अपनी मेहनतों और मशक़्क़तों के बावजूद ऐसी तस्नीफ़ात पैदा कर रहा है। जो जहान में अक़्ल व ख़िर्द के लिहाज़ से बड़ी पुरज़ोर हैं। और जिनकी तासीर रोज़ बरोज़ बढ़ती चली जाती है। इस लिहाज़ से वो दूसरे मुबश्शिरों और मिशनरियों पर फ़ौक़ रखता है। बाअज़ अश्ख़ास शायद बाअज़ उमूर में उस के लगभग हों तो हों मसलन डेब्रिया लौंग स्टोन, आलमगीर इदराक में, मुक़द्दस बर्नार्ड यावट फ़ील्ड सरगर्मी और मेहनत में, लेकिन इनमें से किसी ने अक़ीदे के खज़ाने में एक भी नया ख़याल मज़ीद नहीं किया। हालाँकि पौलूस ने अगरचे वो ख़ास ख़ास उमूर में कम से कम उनके बराबर था। उसने इन्सान को ख़यालात का एक जहान बख़्श दिया। अगर उस के ख़ुतूत सफ़ा हस्ती से महू हो जाते तो दुनिया में इल्म का सबसे बड़ा नुक़्सान होता। अगर हम इस में किसी को मुतसन्ने कर सकते हैं, तो वो अनाजील हैं जिनमें मसीह की ज़िंदगी, उस के अक़्वाल और उस की मौत का बयान है। जैसा पौलूस की तहरीरों ने कलीसिया की तबीयत पर ज़िंदगी बख़्श असर किया शायद किसी और तहरीर ने नहीं किया और दुनिया के खेत में जो बीच उनके ज़रीये से बोले गए। उनके फल से नूअ इन्सान अब तक ख़त उठा रही है। कलीसिया में जब कभी इस्लाह हुई तो इस की तहरीक इन्हें तहरीरों से हुई। और जब लूथर ने यूरोप को सदियों की नींद के बाद जगा दिया तो उस ने सिर्फ एक ही घंटी बजाई जिसकी गूंज चारों तरफ़ गूंज उठी। ये पौलूस का एक ख़ास लफ़्ज़ था। और एक सदी गुज़री है, कि हमारी कलीसिया जो रुहानी तौर पर तक़रीबन मुर्दा थी जाग उठी और ये उन लोगों की कोशिशों का नतीजा था जिन्हों ने पौलूस की तहरीरों में सच्चाई का नूर हासिल किया था।

117. और जब पौलूस ये ख़ुतूत क़लमबंद कर रहा था। तो उस को शायद शान व गुमान भी ना था कि आइन्दा ज़माने में इनका ऐसा आलमगीर असर होगा। ये ख़त उसे उस वक़्त की जरूरतों के लिहाज़ से लिखने पड़े किसी तस्नीफ़ की ग़र्ज़ से ना थे। और ना किसी शौहरत या आइन्दा के इस्तिमाल की ग़र्ज़ से सही क़िस्म के ख़ुतूत दिल की हालत का इज़्हार होते हैं। पौलूस की दिली आरज़ू थी, कि उस के रुहानी बच्चे फलें और फूलें और जिन ख़तरों से वो घिरे थे। उनसे उनको आगाह करे इस दिली आरज़ू का इज़्हार इन ख़ुतूत में पाया जाता है। ये उस के रोज़ाना काम का जुज़ थे। जैसा कि वो अपने शागिर्दों को देखने के लिए तरी और ख़ुशकी का सफ़र करता था। या तिमताऊस और तीतुस जैसे अश्ख़ास को सलाह मश्वरत और उनकी ख़बर लाने के लिए भेजना था वैसे ही जब ये मसअले बहम ना पहुंचते वो ख़त भेज कर इस ग़र्ज़ को पूरा करता था।

118. शायद इस से कोई ख़याल करेगा कि इन ख़ुतूत की क़द्र घट जाती है। और हम शायद चाहते हों कि अगर ऐसी मज्बूरी और ऐसी जल्दी में लिखने की बजाए उस को मौक़ा मिलता कि अपने ख़यालात को फ़राहम कर के ख़तर जमुई से इन आला मज़ामीन को क़लमबंद करता तो बहुत अच्छा होता। हम ये तो नहीं कहते कि तर्ज़ इबारत के लिहाज़ से पौलूस की तहरीरात बेनज़ीर और आला नमूना हैं। उस को ऐसा लिखने की फ़ुर्सत ही कहाँ थी। और ऐसी फ़साहत (ख़ुश-बयानी) का उसे ख़याल भी ना आया होगा। लेकिन तो भी अक्सर ये पता लगता है, कि ख़यालात अपनी ख़ूबी और उम्दगी ही के ज़ोर से बड़ी फ़साहत से ज़ाहिर होते हैं। लेकिन अक्सर उस की इबारत चंदाँ फ़सीह (ख़ुश-बयानी) और शुस्ता (साफ़) नहीं जो कुछ वो कहना चाहता था। उस को वो कह गुज़रता था और कुछ मज़ाइक़ा (तंगी, दुशवारी) नहीं कि किस क़िस्म की इबारत और अल्फ़ाज़ में वो कहता है बाअज़ औक़ात उस ने कुछ कहना शुरू किया और बिला इख़्तताम तक पहुंचाए उसे छोड़ दिया कभी-कभी वो अपने असली मज़्मून को छोड़कर जुम्ला मोअतरिज़ा (जो बात काट कर कही जाये) की तरह इधर-उधर चला जाता है। और सिलसिला ख़याल क़ायम नहीं रहता। वो अपने ख़यालात को बिला बाहमी ताल्लुक़ दिए पेश कर देता है। अगर इस अम्र में कोई नज़ीर जो पौलूस की तहरीरात से मुशाबेह हो सकते हैं। तो वो आलीवर क्रोमवेल (Crornwell Oliver) के ख़ुतूत और तहरीरें हैं। इस शख़्स के दिमाग़ में इंग्लिस्तान के और उस के पेचीदा मुआमलात के बारे में आला ख़यालात भरे थे। लेकिन जब वो बज़रीये तहरीर या तक़रीर उनको ज़ाहिर करने लगता है। तो उस के दिल से अजीब सवालात और दलाईल निकलते हैं लेकिन वो फ़ौरन अल्फ़ाज़ के रेगिस्तान में फंस कर राह गुम करते हैं। मोअतरिज़ा जुमलों का तूमार और जोश दिली की भरमार इन की हक़ीक़त को भुला देती है। और शायद आग़ाज़ में ये ग़ैर शुस्तगी (ज़बान की उम्दगी या सफ़ाई) और बे सूरती नेचर का तक़ाज़ा भी है। ख़यालात की शुस्तगी और कमाल इनका तर्तीबवार इज़्हार पीछे शुरू होता है। लेकिन जब बड़े-बड़े आला ख़यालात पहली दफ़ाअ अदम से वजूद में आते हैं। तो एक क़िस्म की असली इब्तिदाई बेडोली उनकी रफ़ीक़ होती है। जिस ज़मीन से वो निकले थे। उस की ख़ाक धूल अब तक उनमें चिमट रही थी। चौखा खरा सोना पीछे निकलता है। उस से पेश्तर कान में से एक मिला-जुला माद्दा निकलता है। इसी तरह पौलूस सच्चाई की कान में से ये मिला सोना बाहर निकाल रहा है। और ऐसे सैंकड़ों ख़यालात उस ने हम पर ज़ाहिर किए जो पहले किसी ने ज़ाहिर ना किए थे। और जब ये ख़यालात एक दफ़ाअ ज़ाहिर हो गए तो एक मामूली मुंशी इनको उम्दा और बेहतर इबारत में बयान कर सकता है। लेकिन वो इन ख़यालात को कभी पैदा ना कर सकता। अल-ग़र्ज़ पौलूस की तहरीरात में ऐसा सामान मुहय्या कर दिया गया है। जिससे उलमा इल्म-ए-इलाहीयात का मुसलसल व बातर्तीब बयान कर सकते हैं। और कलीसिया का फ़र्ज़ भी है कि ऐसा करे लेकिन उस के ख़तों में हमें मुकाशफे की ऐन पैदाइश के वक़्त का नज़ारा नज़र आता है। जिस क़द्र ग़ौर से हम उन्हें पढ़ते हैं। उसी क़द्र सच्चाई से जहान की पैदाइश का जलवा दिखाई देता है। जैसे फ़रिश्तों को तारीकी से रोशनी में आते देखा और हैरान हुए।

119. ख़ुदा ने अपनी रूह के ज़रीये ये मुकाशफ़ा पौलूस को बख़्शा। इस मुकाशफे की अज़मत और फ़ज़ीलत ही इस अम्र का सबूत है कि इस का दूसरा कोई चशमा ना होगा। लेकिन जब पौलूस पर ये ज़ाहिर हुआ तो इस से उस की क़ाबिलियत व लियाक़त मुअत्तल (अलैहदा या नाकारा) ना हो गई। उस के तजुर्बे के ज़रीये उस को ये हासिल हुआ और उस की अक़्ल और ख़यालात सरासर इस मुकाशफ़े से तर-ब-तर (बिल्कुल गीला) हो गए और जिन अल्फ़ाज़ में उस की तहरीरात में ये ज़ाहिर होगा। वो पौलूस की ख़ास ज़हानत और हालत के मुताबिक़ थे।

120. जिस तर्ज़ में पौलूस की तस्नीफ़ात पाई जाती हैं। उस तर्ज़ ही से फ़साहत व बलाग़त की कमी की तलाफ़ी हो जाती है। क्योंकि ये तो सब पर रोशन है कि ख़तों ही में मुसन्निफ़ की अपनी शख़्सियत बख़ूबी ज़ाहिर हो सकती है। दीगर तसानीफ़ में ख़्वाह वो किताब या रिसाला वग़ैरह की सूरत में हों मुसन्निफ़ अपनी शख़्सियत छिपा सकता है। लेकिन ख़तों की वक़अत बिला ख़त नवीस की शख़्सियत के कुछ भी नहीं। यही हाल पौलूस के ख़तों का है वो अपने ख़तों में बराबर नमूदार है। हर मुक़ाम पर जो उस ने क़लमबंद किया है। उस के दिल की हरकात को आप महसूस कर सकते हैं। उस ने ख़ुद अपनी तस्वीर अपने ख़तों में खींच दी है ना ज़ाहिरी जिस्मानी सूरत की तस्वीर बल्कि अपनी बातिनी और अंदरूनी हालत की तस्वीर। कि कोई दूसरा शख़्स इस की ऐसी तस्वीर ना खींच सकता। अगरचे लूक़ा ने आमाल की किताब में इस का बहुत ज़िक्र किया है। लेकिन ये बातिनी हक़ीक़ी पौलूसी तस्वीर लूक़ा के हाथ की नहीं बल्कि ख़ुद पौलूस के हाथ की खींची हुई है और उस के ख़तों में जो आला नज़ारा नज़र आता है। वो ख़ुद पौलूस ही का है या ख़ुदा के फ़ज़्ल का जो उस में काम कर रहा था।

121. उस की सीरत में तबई और वहानी अनासिर की अजीब तर्कीब नज़र आती है फ़ित्रत ने तो उसे अजीब शख़्सियत व दीयअत हासिल की थी। लेकिन मसीही दीन ने जो तब्दीली उस में कर दी वो भी अज़हर मिन अश्शम्स है किसी मख़लिसी या फ़तह शख़्स की ज़िंदगी में इन दो उमूर को अलग करना मुम्किन है कि कौनसी बात उसे फ़ित्रत से मिली है और कौनसी फ़ज़्ल इलाही से क्योंकि नजात याफ्ता शख़्स में ये दोनो शेरो शुक्र की तरह मिल जाते हैं। पौलूस में इन दोनों का ये इत्तिहाद अजीब तौर पर कमाल को पहुंच गया। उस की ज़ात में हमेशा साफ़ तौर ये अयाँ था कि उस में दो मुख़्तलिफ़ अनासिर ने तर्कीब पाई है और इसी अम्र का लिहाज़ करने से उस की सीरत का काफ़ी अंदाज़ा लगा सकते हैं।

122. उस के दौर दौरा में उस की जिस्मानी सूरत को भी नज़र-अंदाज नहीं कर सकते। जैसे कान ना होने से मौसीक़ी की ख़िदमत नामुम्किन है या नज़र के फ़ुतूर के बाइस मुसव्विर तरक़्क़ी नहीं कर सकता। वैसे ही मिशनरी ज़िंदगी भी एक ख़ास जिस्मानी सूरत व हालत के बग़ैर नामुम्किन है। जो लोग पौलूस की मुसीबतों और दुखों की तफ़्सील पर नज़र करते और देखते हैं, कि बाअज़ सख़्त से सख़्त आफ़तों के बाद वो कैसी जल्दी अपनी ख़िदमत व मेहनत में फिर मसरूफ़ हो गया। वो ये ख़याल किए बग़ैर ना रह सकते होंगे, कि वो कोई ज़रूर रुस्तम (बहादुर) ज़मान था। हालाँकि वो पस्तक़द और हक़ीर सूरत था। और तुर्रा (अनोखी बात) इस पर ये था कि बाज़ औक़ात एक सख़्त मकरूह बीमारी भी उसे आ सताती थी। और उस को वो महसूस भी करता था, कि जब मैं अजनबी लोगों में जा कर ख़िदमत करूँगा। तो वो लोग मेरी क्या पर्वाह और क़द्र करेंगे। क्योंकि जो वाइज़ अपने काम को प्यार करता है। वो यही चाहता है कि मैं इन्जील को ऐसे तौर पर सुनाऊँ और सामईन (सुनने वालों) के सामने ऐसे तौर पर ज़ाहिर हूँ जिससे उनके दिल पर असर हो और वाइज़ की तरफ़ से अच्छा ख़याल पैदा हो जाये। लेकिन ख़ुदा ने पौलूस की बदनी कमज़ोरी को भी उस की उम्मीदों से बढ़कर इस्तिमाल किया क्योंकि जो लोग उस के ज़रीये ईमान लाए वो उसे बहुत प्यार करने लग गए और ये सच्च था कि जब वो कमज़ोर था। तब ही वो मज़्बूत था। और अपनी कमज़ोरियों ही में वो ख़ुदा का जलाल ज़ाहिर कर सका। ये राय बहुत फैल गई है, कि जिस बीमारी में वो मुब्तला था वो आँख की बीमारी थी जिससे आँख बहुत सुर्ख़ हो जाती है। लेकिन इस राय की बहुत बुनियाद नहीं क्योंकि बरअक्स इस के ये पाया जाता है, कि उस की नज़र में बड़ी तासीर थी। और बाज़ औक़ात उस की नज़र ही ने दुश्मन का शिकंजा ढीला कर दिया। मसलन अलिमास जादूगर का ये वाक़िया लूथर को याद लाता है कि जिसके बारे में ये रिवायत है कि उस की आँखें बाज़ औक़ात ऐसी शिद्दत से चमकती थीं कि नाज़रीन उस की तरफ़ ताक नहीं सकते थे। आजकल बाज़ों ने ये भी समझा कि शायद उस को दीगर बदनी बीमारी थी। लेकिन जो मेहनत उस ने उठाई। जिस पथराओ की बर्दाश्त की जिस क़द्र कोड़े उसने खाए वो किसी कमज़ोर और नातवां हबसा का काम ना था। इस में तो कुछ कलाम नहीं कि वो कभी कभी बीमारी में मुब्तला हो जाता था। और सख़्त मर्ज़ के फंदे में फंस जाता था। लेकिन बदनी तौर पर वो कमज़ोर और नातवां ना होगा। जब वो मुहब्बत भरे चेहरे से मिन्नत करता था, कि ख़ुदा से मेल कर लो या अपने पैग़ाम के पहुंचाने के जोश में उस का चेहरा रोशन हो जाता तो ज़रूर वो ख़ूबसूरत होगा और ये ख़ूबसूरती मह्ज़ ख़त व ख़ाल की ख़ूबसूरती से है।

123. उस की सीरत में एक और बात भी पाई जाती है। जिसने उस की ख़िदमत में बहुत हिस्सा लिया यानी उलूल-अजमी (बुलंद इरादा या हौसला) बहुत लोगों का तो ये हाल है कि जहां वो पैदा हुए वहां ही ज़िंदगी बसर करना चाहते हैं। अपनी चार-दीवारी से बाहर क़दम निकालना और नए लोगों से आश्नाई पैदा करना वो जानते ही नहीं। लेकिन बाअज़ ऐसे हैं कि आवारगी गोया उनकी सरिशत में गूंधी गई है। उनको फ़ित्रत ने सयाहत (सफ़र) और फलदारी के काम के लिए पैदा किया है। और जब ऐसे लोग दीनी ख़िदमत को इख़्तियार करते हैं। तो वो आला दर्जे के मिशनरी बन जाते हैं। आजकल किसी मिशनरी में ऐसी उलूल-अजमी (बुलंद इरादा या हौसला) पाई नहीं जाती जैसे कि लिविंग स्टोन (Livingstone) वग़ैरह में ज़ाहिर हुई। जब वो पहली दफ़ाअ अफ़्रीक़ा को गया तो उस ने क्या देखा कि मिशनरी इस बर्र-ए-आज़म के जुनूब में चंद ही मीलों के अंदर गोया मुक़य्यद (क़ैद) हैं। अपने और घर बनाते हैं बाग़ लगाते हैं और अपने बाल बच्चों में रहते हैं। देसियों की छोटी-छोटी जमाअतों की निगरानी करते हैं। और इसी पर किफ़ायत करते हैं। ये हाल देखकर वो उनको छोड़कर बाशिंदों के ऐन दर्मियान घुस गया और हमेशा आगे आगे बढ़ने की धुन में लगा रहा। और हज़ारों मील की मंज़िलें काट कर ऐसे इलाक़ों में गया। जहां किसी मिशनरी का गुज़रना होता था। और जब मौत ने उस को आ लिया तो वो आगे ही बढ़ा जा रहा था। पौलूस का मज़ाह भी इसी क़िस्म का था। वो बड़ा बाहिम्मत और आली हौसला और उलूल-अजम (बुलंद इरादे रखने वाला) था जो दूर दराज़ का इलाक़ा नामालूम था उस के लिए घबराने की बजाए एक अजीब कशिश रखता था। जहां दूसरों ने बुनियाद डाली थी। वहां वो इमारत खड़ी करना ना चाहता था। बल्कि जिन इलाक़ों में किसी ने पेश्तर इन्जील ना सुनाई थी वहां इन्जील सुनाने का आर्ज़ूमंद था। कलीसियाएं क़ायम कर के वो दूसरों के सपुर्द कर के वो दूसरी जगह चला जाता था। उसे पूरा यक़ीन था कि इन्जील का जो चिराग़ उस ने रोशन किया है। वो अपनी ज़ाती तासीर से उस की ग़ैर हाज़िरी में भी अपनी रोशनी फैलाएगा। जिन मंज़िलों को वो तै कर चुका था उनका ख़याल तो किया करता था। लेकिन उस का तमाम शौक़ और इश्तियाक़ (तमन्ना आरज़ू) यही था। आगे बढ़ो। ख़्वाबों में भी उस को यही नज़र आता है कि कोई शख़्स उसे नए मुल्कों की तरफ़ बुला रहा है। उस के दिल में काम का एक तवील नक़्शा खीचा था। जिसे वो पूरा ना कर सका और जब मौत का वक़्त क़रीब आया उस वक़्त भी दूर दराज़ सफ़र का ख़याल उस के दिल में था।

124. उस की सीरत में उस की एक और सिफ़त भी पाई जाती है आदमियों पर उस की तासीर और रसूख़। बाअज़ लोगों की तो ऐसी तबीयत होती है, कि अगर किसी अजनबी से सख़्त मुआमला भी पड़ जाये तो भी सलाम करने पर राज़ी नहीं होते। और बाज़ों का ये हाल है कि अपने ही मिज़ाज और अपने हम-पेशा लोगों से मिलते-जुलते हैं। लेकिन पौलूस का वास्ता हर क़िस्म के लोगों से पड़ा और जिस काम में वो लगा हुआ था। अजनबियों को भी वो इस में शरीक करता है। एक वक़्त तो बादशाहों और हाकिमों के सामने तक़रीर कर रहा है। और एक वक़्त चंद ग़ुलामों या सिपाहियों से मुतकल्लिम (कलाम करने वाला) है एक दिन तो उसे यहूदियों के इबादतखाने में वाज़ करना पड़ता है। और दूसरे रोज़ आईनी के फ़ैलसूफ़ों के सामने और किसी रोज़ दिहात में जा कर गँवार अनपढ़ लोगों के सामने नसीहत करने का इत्तिफ़ाक़ होता है। और ख़ुदा ने उसे ऐसी क़ाबिलियत अता की थी, कि वो हर हालत और हर मौक़े के मुनासिब ख़िदमत कर सकता था। यहूदियों के सामने तो वो एक रब्बी के तौर पर जो मुक़द्दस नविश्तों से बख़ूबी माहिर है। कलाम करता यूनानियों के सामने तक़रीर करते हुए उन्ही के शाइरों की तस्नीफ़ात से इक़्तिबास करता। और वहशी लोगों के सामने सिर्फ इस क़िस्म की दलील देता कि जो ख़ुदा आस्मान से बारिश नाज़िल करता है। और मौसम पर फल देता है। और हमारे दिलों को ख़ुराक और ख़ुशी से सैर कर देता है। जब कोई कमज़ोर या बदनीयत शख़्स सब आदमियों के लिए सब कुछ बनने का दावा करता है। तो आख़िर में साबित हो जाता है, कि इस से किसी को कुछ फ़ायदा हासिल ना हुआ। लेकिन पौलूस जो इस उसूल पर कारबंद रहा उस के ज़रीये इन्जील हर जगह फैल गई और लोग उस की इज़्ज़त व क़द्र करने लग गए अगरचे दुश्मन उस से सख़्त दुश्मनी रखते थे। लेकिन दोस्त उस को बहुत प्यार करते थे। उन्होंने उसे ख़ुदा के फ़रिश्ते बल्कि ख़ुद ख़ुदावंद येसू मसीह की तरह क़ुबूल किया और यहां तक उस के साथ हम्दर्द थे कि अगर हो सकता तो अपनी आँखें निकाल कर उस को देते। हर कलीसिया ये चाहती थी, कि मैं दूसरों से बढ़कर इस में ख़ास हिस्सा लूं। और जब किसी जगह वो ना जा सका जहां उस ने जाने का वाअदा किया था फिर तो उन की मायूसी की कुछ हद ना थी। उसे वो अपना सख़्त नुक़्सान समझते थे। जब वो उन से रुख़्सत होता है तो ज़ार-ज़ार रोते उस के गले लिपटते और उसे बोसे देते हैं। कई नौजवान उस की ख़िदमत में हाज़िर रहते ताकि उस के पैग़ाम इधर-उधर ले जाएं। ये उस की आली हौसलगी और आला मर्दी का सबूत था क्योंकि बड़े लोगों के पास सब जाते हैं और वो जानते हैं कि इस साये तले रहना सलामती का बाइस है।

125 लेकिन उस की हर-दिल अज़ीज़ी का बाइस एक और अम्र भी था। पौलूस खुदगर्ज़ शख़्स ना था। इस अदम ख़ुद-ग़र्ज़ी ने उस की सीरत को अजीब जिला बख़्शी। इन्सानी ज़ात में ऐसी सिफ़त शाज़ो नादिर ही नज़र आती है। लेकिन दूसरों पर असर करते हैं ये जादू का हुक्म रखती है। ये क़ाएदे की बात है, कि हर शख़्स अपने ही पर दूसरों का क़ियास (जांच) करता है। الناس یقیس علیٰ نفس अगर कोई शख़्स ऐसा नज़र आए कि वो अपने फ़वाइद से क़त-ए-नज़र कर के दूसरों की बहबूदी में कोशां है तो पहले-पहल तो वो शक की निगाह से देखा जाता है कि शायद दर-पर्दा उस की कोई ग़र्ज़ है। लेकिन जब कसौटी इम्तिहान पर वो पूरा उतरता है। फिर तो उस की ताज़ीम हद दर्जे की होने लग जाती है। पौलूस मुल्क ब मुल्क और शहर ब शहर जाता था। पहले-पहल तो लोगों के सामने वो एक मुअम्मा की सूरत में ज़ाहिर हुआ और उस की हक़ीक़ी ग़र्ज़ और मंशा के बारे में बहुतेरे क़ियास के घोड़े दौड़ाए गए। शायद किसी ने समझा कि ये रुपया कमाने की धुन में है। कोई ये ख़याल करता होगा, कि ये इख़्तियार व हुकूमत हासिल करने का ख़्वाहाँ है। बाज़ों ने कुछ दीगर अदना अग़राज़ उस से मन्सूब किए होंगे। क्योंकि उस के दुश्मन तो इसी ताक में रहते थे, कि कुछ इस क़िस्म की बात निकाल कर इस क़िस्म की बात निकाल कर उस की सीरत पर बट (ऐब) लगाऐं। लेकिन जब लोगों ने देखा कि वो दूसरों से अपने लिए रुपया तलब नहीं करता बल्कि हाथों से दिन रात मेहनत कर के अपनी और अपने रफ़ीक़ों की ज़रूरियात रफ़ा करता तो रुपये पैसे के लालच का इल्ज़ाम उस पर ना लगा सकते थे। ख़ुद तो शादी निकाह के बंद से आज़ाद रहा लेकिन जो मुहब्बत वो बीवी और बच्चों पर सर्फ कर सकता था। वो उस ने अपने काम में लगा दी। अपने शागिर्दों से उस को ऐसी मुहब्बत थी जैसी वालिदा को अपने बच्चों से होती है। वो उन को कई बार याद दिलाता है कि मैं तुम्हारा बाप हूँ और इन्जील में तुम मुझसे पैदा हुए। उन्हें वो अपना जलाल और ताज। अपनी उम्मीद और ख़ुशी कहता है। अगरचे वो दूसरी जगहों में इन्जील फैलाने और मसीह के लिए लोगों को फ़त्ह करने का मुश्ताक़ था लेकिन जिनको उस ने मसीह के लिए फ़त्ह किया था। उन से कभी ग़फ़लत नहीं की। वो अपनी क़ायम कर्दा कलीसियाओं को यक़ीन से कहता है, कि मैं दिन रात तुम्हारे लिए दुआ मांगता और शुक्र अदा करता हूँ। और फ़ज़्ल के तख़्त के आगे उनका नाम लेकर याद किया करता था। फिर कौन ख़ुदगर्ज़ी का इल्ज़ाम उस पर लगा सकता था। अगर हम ये कहें कि पौलूस ने जहान को फ़त्ह किया तो हम ये भी कहेंगे, कि उस ने मुहब्बत के ज़ोर से उस को फतह किया।

126. पौलूस की दो ख़ास मसीही सिफ़ात का ज़िक्र करना भी ज़रूर है। एक तो ये सिफ़त उस की ख़िदमत में नमूदार थी कि वो ये समझता था, कि ख़ुदा ने मुझे मसीह की मुनादी करने के लिए मुक़र्रर किया है। और इस ख़िदमत का बजा लाना वो अपना फ़र्ज़ लाज़िमी जानता था अक्सर लोगों का ये हाल नहीं होता उनका काम इत्तिफ़ाक़ी होता है। वो बिला इम्तियाज़ और बिला लिहाज़ ये या वो काम इख़्तियार कर लेते हैं। और अगर हो सकता तो ये काम छोड़कर कोई दूसरा काम इख़्तियार कर लेते या कुछ भी ना करते। लेकिन पौलूस का ये हाल ना था। जब से वो मसीही हो गया उस ने जान लिया कि मुझे एक ख़ास काम करना है और इस काम के लिए जो बुलाहट उसे मिली वो उस के दिल में ब-आवाज़-ए-बुलंद ये चिल्ला रही थी। वावेला मुझ पर अगर मैं इन्जील की मुनादी ना करूँ। इसी यक़ीन और तहरीक ने उसे जाबजा फिराया। उस को इस अम्र का यक़ीन हो गया था, कि मुझे ये नई तालीम ज़रूर सुनानी चाहिए क्योंकि नूअ इन्सान की नजात इसी तालीम पर मौक़ूफ़ है उस ने ये जान लिया था कि मैं इसी लिए बुलाया गया हूँ कि मैं मसीह को उन सब पर ज़ाहिर कर दूँ जिन तक मैं सई बलीग़ (कोशिश कामिल) से पहुंच सकता हूँ। इसी लिए वो शताबी (जल्दी) कर रहा था। और इसी धुन में व ख़तरों और मुसीबतों को हीच (अदना) समझता था। मैं अपनी जान को अज़ीज़ नहीं समझता कि इस की कुछ क़द्र करूँ बमुक़ाबला इस के कि अपना दौर और वो ख़िदमत जो ख़ुदावंद येसू से पाई है, पूरी करूँ। यानी ख़ुदा के फ़ज़्ल की ख़ुशख़बरी की गवाही दूं। वो दिन हमेशा उस की आँखों के सामने था जब उसे मसीह के तख़्त अदालत के आगे खड़ा हो कर हिसाब देना होगा। और मायूसी की हालत में ज़िंदगी के उस ताज की उम्मीद उसे हिम्मत दिलाती थी। जिसका वाअदा ख़ुदावंद हाकिम आदिल ने उन सबसे किया है जो वफ़ादार साबित होते हैं।

127. दूसरी ख़ास सिफ़त जिसने उस की ख़िदमत पर असर किया वो मसीह की मुहब्बत थी वो मसीह पर ज़रा था। और जहां मसीह ले जाता वहां वो ख़ुशी से जाता जब से उस की मसीह से मुलाक़ात हुई वो दिल से उस पर निसार हो गया। और सारी उम्र इस मुहब्बत का शोला मुश्तइल (भड़क) रहा बल्कि जूं जूं मौत का वक़्त क़रीब आता गया। ये मुहब्बत ज़्यादा बढ़ती गई। और उस को ये मुहावरा बहुत पसंद था, कि मैं मसीह का ग़ुलाम हूँ। और उसे बड़ी आरज़ू यही रही कि मसीह के ख़यालात को सब पर ज़ाहिर करे और उस की तासीर को जारी रखे। और बड़ी दिलेरी से उस ने इस पर ज़ोर दिया कि मैं मसीह का एलची हूँ। वो ये कहता था, कि मुझे अपने शागिर्दों से मसीह ईसा मुहब्बत है कि मसीह की अक़्ल मेरे दिमाग़ में काम कर रही है और कि मैं मसीह के काम को अंजाम दे रहा हूँ। और उस के दुखों की कमियां अपने बदन से पूरी कर रहा हूँ। वो मसीह के ज़ख़्मों को अपने बदन में दिखा रहा है वो ये भी कहता है कि मैं मरता हूँ ताकि दूसरे ज़िंदगी हासिल करें जैसे मसीह ने जान दी ताकि जहान ज़िंदगी हासिल करे। इन फ़ख्रिया जुमलों की तह में फ़िल-हक़ीक़त फ़िरोतनी थी। वो ये जान गया था कि मसीह ने सब कुछ मेरे लिए किया है। वो मेरे अंदर दाख़िल हो गया है। उस ने पुराने पौलूस को निकाल दिया है। पुरानी ज़िंदगी और पुराने आदम को मार डाला है और नया इन्सान मेरे अंदर पैदा कर दिया है जिसके इरादे नए हैं ख़यालात और काम की ताक़तें सब नई हैं। और उस की तमन्ना यही थी, कि ये काम उस के अंदर ही जारी रहे और कमाल तक पहुंच जाये कि पुराना इन्सान बिल्कुल मादूम (नेस्त) हो जाये और नया इन्सान मसीह के क़द के पूरे अंदाज़े तक पहुंच जाये ताकि उस के ख़याल मसीह के ख़याल और उस के अल्फ़ाज़ मसीह के अल्फ़ाज़ हों। उस के काम मसीह के काम उस की सीरत मसीह की सीरत और वह ये कह सके कि मैं ज़िंदा हूँ। तो भी नहीं बल्कि मसीह मुझमें ज़िंदा है।

आठवां बाब

पौलूसी कलीसिया की तस्वीर

128. जब कोई सय्याह किसी नए शहर में जाता है तो वहां का नक़्शा और किताब रहनुमा अपने साथ लेकर वहां के मक़बरों, क़दीम यादगारों, इमारतों वग़ैरह पर नज़र मारता जाता है। और यूं वो अपने ज़ोअम में उस शहर से वाक़िफ़ हो जाता है। लेकिन ज़रा ग़ौर करने से वो जान लेगा कि मैंने शहर के बारे में कुछ मालूम किया ही नहीं क्योंकि मैंने वहां के घरों के अंदर क़दम तक नहीं धरा। उसे इस का इल्म ही नहीं कि वहां के लोगों का तर्ज़-ए-ज़िदंगी क्या है। या किसी क़िस्म का सामान आराइश भी उनके घरों में है। या उनकी ख़ुराक पोशाक किस क़िस्म की है। दीगर गहरी बातों से तो भला उस को क्या ही आगाही होगी। वो क्या जानता है?

कि उनकी मुहब्बत कैसी है कैसी चीज़ें पसंद करते और किन की तलाश करते हैं। आया वो अपनी हालत पर क़नाअत (जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) करते हैं। या नहीं तारीख़ के पढ़ते वक़्त भी इस क़िस्म की हैरत पैदा होती है। क्योंकि ये तो ज़िंदगी का बैरूनी पहलू ही दिखाती है। दरबार की शान व शौकत। जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) का बरपा होना। फ़ुतूहात का हासिल होना। इंतिज़ाम सल्तनत का इन्क़िलाब। हुकूमतों का क़ायम होना। और ज़वाल पकड़ना वग़ैरह तो सब ठीक तौर से तारीख़ बताती है। लेकिन तारीख़ पढ़ने के बाद ये आरज़ू रह जाती है, कि काश मैं एक घंटे के लिए उन बातों को देख सकता कि इस किसान, दुकानदार, ख़ादिम दीन और रईस-ए-शहर के घरों में क्या हो रहा है। मुक़द्दस नविश्तों की तारीख़ में भी यही मुश्किल पेश आती है। रसूलों के आमाल की किताब में पौलूस तारीख़ की दिल हिला देने वाली बातें क़लमबंद हैं। एक शहर से दूसरे शहर में जल्द जल्द जा पहुंचते हैं और मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं को क़ायम करते वक़्त जो वाक़ियात हुए वो भी मुन्दरज हैं लेकिन ये तमन्ना बाकी रहती है कि काश इन कलीसियाओं में से एक की अंदरूनी हालत का नक़्शा भी हम देख सकते। पाफ़ुस, या अक्युनोम, थिस्लुनीकी, या बरीया या कुरुन्तुस में पौलूस के जाने के बाद क्या वाक़ेअ हुआ। वो मसीही किस क़िस्म के थे। और उनकी इबादत किस क़िस्म की थी?

129. ख़ुशी की बात है कि इस अंदरूनी हालत का नज़ारा किसी क़द्र हमको हासिल हो सकता है जैसे लूक़ा ने पौलूस के दौर दौरा के बैरूनी पहलू को दिखाया है। वैसे ही पौलूस के ख़ुतूत उस के अंदरूनी पहलू को दिखाते हैं। ये दो मुसन्निफ़ दो मुख़्तलिफ़ मुक़ामात या ख़यालात से लिखते हैं। और ये बात ख़ासकर पौलूस के उन ख़तों पर सादिक़ आती है। जो उस ने अपने तीसरे सफ़र के आख़िर के क़रीब लिखे। इनसे पहले सफ़रों के वाक़ियात पर बड़ी रोशनी पड़ती है इन तीन ख़तों के इलावा जो उस वक़्त के क़रीब लिखे गए एक और ख़त भी उसी ज़माने का है यानी कुरिन्थियों का पहला ख़त जिसके ज़रीये हम गोया जादू के ज़ोर से आँखें बंद करते ही दो हज़ार बरस पहले के ज़माने में जा पहुंचते हैं और एक बड़े यूनानी शहर को देखते हैं। जिसमें एक मसीही कलीसिया है। और हम एक घर की छत उतार कर ज़रा अन्दर झांकें।

130. हम अंदर क्या देखते हैं। ये सबत की शाम है हालाँकि ग़ैर क़ौम अहले-शहर बहुत से नावाक़िफ़ हैं। सामने बंदरगाह है दिन का काम ख़त्म हो गया है। गलियों में तमाशाइयों का हुजूम है जो रात ऐश व इशरत में काटना चाहते हैं क्योंकि ये क़दीम ज़माने का निहायत बदकार शहर है। ग़ैर ममालिक के सैंकड़ों सौदागर और जहाज़ रान गली कूचों में घूमते फिरते हैं। रोमी जवान बांके (बहादुर सिपाही) जो इस पैरिस सानी में शहवात नफ़्सानी को पूरा करने आते हैं गाड़ीयों में सवार इधर-उधर उड़े फिरते हैं। अगर ये सालाना खेलों का वक़्त है तो कश्ती गीरों, दौड़ने वालों, गाड़ी बानों वग़ैरह की टोलियां इधर-उधर मंडला रही हैं। गिरोह गिरोह के मद्दाह शर्तें बंद रहे हैं, कि वो जीतेगा, वो सहरा हासिल करेगा, वो लताड़ मारेगा। मौसम ख़ूब है कि खूर्दो कलां घर से बाहर नसीम शाम का लुत्फ़ उठा रहे हैं। और ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब अपनी सुनहरी शुवाओं से इस दौलतमंद शहर के महलों और मंदिरों को लिबास ज़रीं पहना रहा है।

131. इसी अस्ना में मसीहियों का एक छोटा झुण्ड इधर-उधर से निकल कर अपनी इबादत की जगह की तरफ़ जा रहा है। क्योंकि ये उनके जमा होने का वक़्त है। ये इबादत की जगह तो बहुत नुमायां व नमूदार नहीं। जो बड़े-बड़े आलीशान मंदिर शहर में पाए जाते हैं। उनके पासिंग (बराबर) भी नहीं। ये तो यहूदी इबादतखाने से भी अदना है किसी मसीही के घर का ये वसीअ कमरा है या किसी सौदागर ने अपने अस्बाब के कमरे को इस मौक़े के लिए ख़ाली कर दिया है।

132. अब ज़रा हाज़िरीन पर नज़र मार कर उन चेहरों को देखो उन चेहरों में बड़ा फ़र्क़ मालूम होता है। बाज़ों के ख़त व ख़ाल तो बता रहे हैं, कि ये यहूदी हैं। और दीगर ग़ैर क़ौमों में से हैं। और उन्ही की कस्रत है। ज़रा गहरी नज़र डालने से एक और फ़र्क़ भी मालूम होता है बाअज़ तो अँगूठी पहने हैं। जिससे ज़ाहिर है कि वो आज़ाद हैं। लेकिन दूसरे ग़ुलाम हैं और उनका शुमार आज़ादों से बढ़ा हुआ है। उन यूनानी मसीहियों में एक तो हसब नसब से यूनानी है और फ़ैलसूफ़ों की तरह बड़ी संजीदगी उस के चेहरे से टपक रही है। दूसरा कुछ साहिबे माल है। लेकिन ना तो उन में बहुत दौलतमंद हैं ना अहले सर्वत ना आला ख़ानदानी बल्कि अक्सर ऐसे लोग हैं जो अहले-शहर की नज़र में नादान, कमज़ोर, कमीनावर (अदना) हक़ीर हैं। बाअज़ ग़ुलाम हैं जिनके आबा व अजदाद यूनान की आबोहवा से नाआशना थे। बल्कि दरिया-ए-डीनोट या दरिया-ए-डान के किनारों पर वहशियों के तौर पर रहते थे।

133. इन सब के चेहरों पर उनकी गुज़श्ता ज़िंदगी के ख़ौफ़नाक आसार नमूदार हैं। पौलूस ने उन्हें ये लिखा था, क्या तुम नहीं जानते कि बदकार ख़ुदा की बादशाही के वारिस ना होंगे। फ़रेब ना खाओ। ना हरामकार ख़ुदा की बादशाहत के वारिस होंगे। ना बुत-परस्त ना ज़िनाकार। ना अय्याश। ना लौंडे बाज़। ना चोर। ना लालची। ना शराबी। ना गालियां बकने वाले। ना ज़ालिम। और बाअज़ तुम में ऐसे भी हैं। वो जो सामने दराज़ क़द यूनानी शख़्स बैठा है वो हर तरह की अय्याशी की दलदल में लौट-पोट रहा था। वो जो सुकवती ग़ुलाम उस के क़रीब है वो एक वक़्त जेब-कतरा था और मुद्दतों तक जेल-ख़ाने की हवा खाता रहा। वो पतली नाक और तेज़ चश्म यहूदी सूद ख़ोरी के ज़रीये कुरुन्तुस के जवानों का शाए लाक की तरह गोश्त काट रहा था। लेकिन इन सब में अजीब तब्दीली वाक़ेअ हुई। गुनाह की दास्तान के इलावा एक और कहानी भी उनके चेहरों पर लिखी मालूम होती है। मगर तुम ख़ुदावंद येसू मसीह के नाम से और हमारे ख़ुदा की रूह से धुल गए और पाक हुए और रास्तबाज़ भी ठहरे। ज़रा सुनो वो गार है हैं। ये चालीसवां मज़मूर है वो मुझे होलनाक गढ़े और दलदल की कैच से बाहर निकाल लाया। कैसे जोश से गा रहे हैं। कैसी ख़ुशी उनके चेहरों से आशकार है वो मुफ़्त फ़ज़्ल और जांनिसार मुहब्बत की यादगार हैं।

134. अब ज़रा ये तसव्वुर बाँधे कि वो सब एक जगह जमा हैं। और देखिए कि उनकी इबादत किस तरह की है हमारी नमाज़ के तरीक़े में और उनकी नमाज़ के तरीक़े में ये एक बड़ा फ़र्क़ नज़र आएगा, कि हमारी इबादत में एक शख़्स इमाम होता है जो दुआएं पेश करता। वाअज़ सुनाता। और मज़ामीर वग़ैरह बताता है। हालाँकि उस वक़्त हाज़िरीन में से सबको इबादत में हिस्सा लेने का हक़ था। अलबत्ता एक मीर मज्लिस तो हुआ करता था। लेकिन फिर भी एक शख़्स तो मुक़द्दस नविश्तों में से विर्द पड़ रहा है। दूसरा शख़्स दुआ मांगता। एक और शख़्स वाअज़ सुनाता। गोई गीत उठाता और कोई दीगर हिस्सा लेता। उनके दर्मियान कोई मुक़र्रा तर्तीब भी नज़र नहीं आती जिससे ज़ाहिर हो कि फ़ुलां फ़ुलां हिस्सा फ़ुलां फ़ुलां मौक़े पर आना चाहिए। जमाअत में से जो शख़्स चाहता उठ कर हम्द के गीत गाने याद दुआ मांगने और ध्यान की तरफ़ जमाअत की तवज्जोह दिलाने लगता। हर शख़्स अपनी रुहानी तहरीक के मुताबिक़ नमाज़ में हिस्सा लिया करता था।

135. इस की वजह ख़ास ये मालूम होती है, कि ख़ास-ख़ास अश्ख़ास को ख़ास-ख़ास इनाम ख़ुदा की तरफ़ से मिले थे। बाअज़ों को मोअजिज़ा करने की क़ुव्वत हासिल थी मसलन बीमारों को शिफ़ा देना वग़ैरह बाअज़ों को ज़बान बोलने का इनाम मिला था। ये तो साफ़ मालूम नहीं, कि ये इनाम किस क़िस्म का था। ग़ालिबन ऐसा होता होगा कि ऐसा शख़्स कुछ वज्द की सी हालत में आ जाता और कुछ मौज़ूं फ़िक्रात उस की ज़बान से सरज़द होते और कभी ख़ुद बोलने वालों को इनके मअनी मालूम ना होते थे। बाअज़ दीगर अश्ख़ास को ये ताक़त अता हुई थी कि ऐसे जुमलों का मतलब जमाअत पर ज़ाहिर करें बाअज़ों को नबुव्वत की रूह मिली थी। और ये बेश-बहा इनाम था। इस से मह्ज़ आइन्दा वाक़ियात की ख़बर देना ही मुराद ना था। बल्कि ये ऐसे पुर जोश और फ़सीह तरीक़े से सरज़द होती कि अगर उस वक़्त कोई ग़ैर-मसीही भी आ जाता और उन नबियों का कलाम सुनता तो उस की गुज़श्ता ज़िंदगी के गुनाह उस के सामने आ खड़े होते और मुँह के बल गिर कर इक़रार करता कि सच-मुच ख़ुदा उनके दर्मियान है। बाअज़ों को तालीम देने और बाअज़ों को इंतिज़ाम करने का मलिका हासिल हो गया था। ये सब कुछ इल्हाम इलाही का नतीजा था ना किसी तैयार या अटकल नतीजा।

136. ये उमूर ऐसे अजीब हैं कि अगर तारीख़ में इनका बयान किया जाता तो शायद कोई मुश्किल से इनको मानता। लेकिन इनके बारे में जो शहादत (गवाही) है इस में किसी को कुछ कलाम नहीं हो सकता। क्योंकि ये तो क़ायदे की बात है कि अगर कोई शख़्स किसी जमाअत या गिरोह पर उनकी हालत को ज़ाहिर किया चाहे वो एक फ़र्ज़ी या क़यासी हालत को उनके सामने पेश नहीं किया करता बल्कि असली और हक़ीक़ी। और पौलूस तो ऐसे उमूर को कुछ रोकना चाहता है उन की ज़्यादा इशाअत का मुश्ताक़ नहीं। इस से ज़ाहिर होता है, कि जब मसीही दीन ने पहले-पहल इस दुनिया में क़दम रखा तो जिन लोगों के साथ उस को वास्ता पड़ा उन पर उस ने कैसी तासीर की। हर ईमानदार को उमूमन उस के बपतिस्मे के वक़्त जब कि बपतिस्मा देने वाला उस पर अपने हाथ रखता एक ख़ास इनाम मिलता और अगर वो अपनी बुलाहट में वफ़ादार रहता तो ये इनाम भी तादम ज़िंदगी उस को हासिल रहता। ये रूह-उल-क़ुद्स का काम था। जब रूह-उल-क़ुद्स कस्रत से शागिर्दों पर नाज़िल हुआ तो वो उनके दिलों में जागज़ीं हो गया और जैसा चाहा हर एक को एक इनाम अता किया। और अब ऐसे शख़्स का फ़र्ज़ था कि दूसरों के फ़ायदे के लिए इस बरकत को काम में लाता।

137. जिस इबादत का ज़िक्र ऊपर हुआ है इस के बाद ये लोग मुहब्बत की ज़ियाफ़त के बाद एक दूसरे को बिरादराना बोसा देकर अपने घरों को रुख़्सत हुए। ये दिलचस्प नज़ारा बिरादारना उल्फ़त और रुहानी क़ुव्वत का इज़्हार था जब इस बुत-परस्त शहर की गलियों में से गुज़रते हुए अपने घरों को जा रहे थे। तो वो जानते थे, कि हमें ऐसी नेअमतों का मज़ा हासिल हो गया है। जो आँखों ने देखी नहीं और कानों ने सुनी नहीं।

138. रास्ती का ये तक़ाज़ा है कि वो तस्वीर के दोनों पहलूओं को दिखाना चाहती है। ना सिर्फ दरख़शां चमक-दमक का पहलू बल्कि तारीक पहलू भी। अफ़्सोस की बात है कि कलीसिया में कुछ बेक़ाईदगीयाँ भी नज़र आती हैं। ये ख़राबियां दो वजूहात से थीं। जिन मज़ाहिब और फ़िर्क़ों से ये लोग निकल कर मसीही गल्ला (गिरोह) में शरीक होते थे। जिस हालत और चाल-चलन को छोड़कर आए थे। उस का कुछ बक़ाया उनके साथ लगा चला आया था। इलावा अज़ीं मसीही कलीसिया में यहूदी और ग़ैर क़ौम अश्ख़ास के बाहम इकट्ठा होने से कुछ इस क़िस्म का नतीजा निकला। और सच-मुच ये बड़ा इन्क़िलाब था। ग़ैर क़ौम मंदिरों की परस्तिश से ख़ालिस मसीही सादा इबादत की तरफ़ आता कोई ख़फ़ीफ़ अम्र ना था। ग़ैर क़ौम मंदिरों की परस्तिश से ख़ालिस मसीही सादा इबादत की तरफ़ आता कोई ख़फ़ीफ़ अम्र ना था। पुरानी ज़िंदगी के चीथड़े अभी पूरे तौर से उतरे ना थे। बल्कि अक्सर वो लोग ख़ुद हैरान थे कि किन बातों को तर्क करना और बदलना चाहिए। और किन को जारी और रखना।

139. शायद हम सुन कर हैरान होंगे कि इनमें से बाअज़ ख़्वाहिशात नफ़्सानी और शहवानी में ग़लताँ व यपचां (मुब्तिला) रहते थे। और इनके फ़ैलसूफ़ इस क़िस्म की ख़राबी को अपना एक उसूल समझते थे। इनका ख़याल था कि जिस ख़्वाहिशों को पूरा करते करते गोया घटा जाता है और ऐसी ख़्वाहिशों के पूरा करने के नाक़ाबिल हो जाता है और बा-तबेअ (फ़ित्री तौर पर) उनको छोड़ देता है इनमें से एक शख़्स जो बज़ाहिर कुछ मालदार और साहिबे दर्जा मालूम होता है इस क़िस्म के नाजायज़ ताल्लुक़ात में फंसा है कि ग़ैर-अक़्वाम में भी इस की नज़र मुश्किल से मिलेगी। अगरचे पौलूस ने बड़े नाराज़ हो कर ये हुक्म दिया था। कि ऐसा शख़्स ख़ारिज कर दिया जाये लेकिन कलीसिया ने इस पर अमल करने में ताम्मुल (तवक़्क़ुफ़) किया और ये उज़्र पेश किया कि हमने आपके हुक्म का मतलब नहीं समझा। बाअज़ दीगर मसीही थे जो बुतों की ज़ियाफ़तों में शरीक हो जाते थे। हालाँकि उनको बख़ूबी मालूम था, कि इन ज़ियाफ़तों में बड़ी नशे बाज़ी होती है। और इस के मुताल्लिक़ वो ये बहाना करते थे, कि हम बुतों की इज़्ज़त व ताज़ीम करने के लिए शरीक नहीं हुए बल्कि एक मामूली खाना समझ कर शरीक होते हैं। और अगर हम ऐसा ना करें तो हमको दुनिया से निकलना पड़ेगा।

140 इस क़िस्म की ख़राबियां कलीसिया के अक्सर उस हिस्सा में थीं, जो ग़ैर-अक़्वाम पर ज़्यादातर मुश्तमिल था। लेकिन जिस जमाअत में यहूदियों की कस्रत थी। उस में इन उमूर के बारे में बहुत शक व शुक़ूक़ पाए जाते थे। मसलन बाअज़ अश्ख़ास जो अपने ग़ैर कोम भाईयों के बेलगाम चलन से नफ़रत करते थे। वो दूसरी इंतिहा तक जा पहुंचे और शादी ही को बुरा समझा। और ये सवाल उठाया कि क्या बेवा को दुबारा शादी करना चाहिए। या अगर किसी मसीही की शादी ग़ैर-मसीही से हुई हो तो उसे रखना या छोड़ना चाहिए वग़ैरह-वग़ैरह जो मसीही ग़ैर-अक़्वाम से आए थे। वो तो बुतों की ज़ियाफ़तों में हिस्सा लेते थे। और जो यहूदियों में से आए थे। वो बाज़ार में से एसा गोश्त भी ख़रीदना ना चाहते थे। जो बुतों के लिए क़ुर्बानी चढ़ाया गया हो और जो लोग ऐसी आज़ादी काम में लाते थे। उनको मलामत करते और नज़र हिक़ारत से देखते थे।

141. ये मुश्किलात तो मसीहियों की ख़ानगी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ थीं। उनकी बरमला मजलिसों में भी बाअज़ भारी बे-क़ाईदगियाँ पाई जाती थीं। रूह के ऐन इनाम बदी के वसीले और पर्दे बन गए। जिनको मोअजिज़े करने या ज़बान बोलने की ताक़त मिली थी। वो इनके बाइस मुतकब्बिर और शेख़ी बाज़ हो गए। इसलिए कभी-कभी ऐसी मजलिसों में बड़ी अबतरी और शोर गुल हो जाता था। क्योंकि कभी ऐसा इत्तिफ़ाक़ होता था, कि जिनको ज़बान बोलने की नेअमत मिली थी। वो दो दो तीन तीन इकट्ठे बोलने लग जाते और उनके मअनी कुछ समझ में ना आते थे। और अगर उस वक़्त कोई अजनबी आ जाता तो वो यही ख़याल करता कि शायद ये सारे दीवाने हैं और उनमें से जो नबी थे। वो कभी ऐसा तूल तवील बयान करते कि लोग थक जाते। और हर शख़्स ज़ोर मारता कि इबादत में में हिस्सा लूं। इन ख़राबियों के बाइस पौलूस ने उन को सख़्त तम्बीह की और बताया कि नबियों की रूहें नबियों के क़ाबू में होनी चाहीऐं। और रुहानी इनामों को ख़लल-अंदाज़ी और अबतरी का बहाना ना बनाना चाहिए।

142. इलावा अज़ीं कलीसिया के अंदर और भी चंद मकरूह बातें पाई जाती थीं। बाअज़ इशाए रब्बानी की पाक रस्म को बेजा तौर पर अमल में लाने लगे थे। मालूम होता है कि उस वक़्त ये दस्तूर था कि मुख़्तलिफ़ शख़्स रोटी और मे इशाए रब्बानी के लिए अपने साथ ले जाया करते थे। और जो दौलतमंद लोग थे वो कस्रत से उन चीज़ों को साथ ले जाते और वो दूसरों की निस्बत कुछ नफ़ीस अशिया भी थीं। वो ग़रीब मसीहियों की इंतिज़ारी ना करते ताकि उनके ग़रीबाना सामान में कुछ हिस्सा लेते बल्कि अपनी आवारा अश्या को इस्तिमाल करने लगे जाते। और खा पी कर ख़ूब मस्त हो जाते और यूं ख़ुदावंद की मेज़ को शराब ख़ोरी और अय्याशी की मेज़ बना देते थे।

143. इस अफ़्सोसनाक तस्वीर में कुछ और मज़ीद कर सकते हैं। वो ये है कि बिरादराना मुहब्बत के बोसे की बजाए जिसके साथ कि उनकी मज्लिस ख़त्म होती थी उन में रश्क व हसद भी पाया जाता था। और शायद इस की वजह ये थी कि जगह जगह की कोमें इकट्ठी की गई थीं। मुख़्तलिफ़ अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) के लोग कलीसिया में दाख़िल हो गए। जिनकी तबाइअ (तबीयत) मुख़्तलिफ़ और मिज़ाज मुतज़ाद अपना जोहर दिखाए बग़ैर ना रह सकती थी। इस का नतीजा बाज़ औक़ात ये हुआ कि बाहमी मसीही फ़ैसले की बजाए ग़ैर मसीही मुंसिफ़ों के सामने मसीही मसीही पर नालिश करते थे। और कलीसिया में आराए मुख़्तलिफ़ा के बाइस चार फ़िर्क़े हो गए थे। बाअज़ तो अपने तईं पौलूसी कहते थे। और जो लोग गोश्त वग़ैरह के मुताल्लिक़ कुछ वसवास रखते थे। उनको नज़र हिक़ारत से देखते थे। और बाअज़ अपने तईं पौलूस के पैरौ कहते थे। ये पौलूस सिकंदरिया का फ़सीह (ख़ुशबयान) मुअल्लिम था और पौलूस के दूसरे और तीसरे सफ़र के माबैन कुरंतुस में आया। ये कुछ फ़ैलसूफ़ लोग थे। और क़ियामत के मसअले का इन्कार करते थे। क्योंकि उनके नज़्दीक ऐसा मानना दानी (बेमानी) था कि बदन के बिखरे हुए ज़र्रात फिर जमा हो कर एक बदन बन जाऐंगे। तीसरा फ़िर्क़ा पतरस या कैफ़ास के नाम से कहलाता था। ये तंगदिल यहूदी थे। जो पौलूस के आज़ादाना और वसीअ ख़यालात को क़ुबूल ना कर सकते थे। चौथे फ़िर्क़े के लोग इन सबसे अपने तईं बाला-तर ठहराकर मसीह के पैरौ या सिर्फ मसीही कहते थे। ये पौलूस के इख़्तियार को बिल्कुल ना मानते थे। और शायद सबसे ज़्यादा तफ़र्रुक़ा पैदा करने वाले थे।

144. पौलूस ने अपने एक ख़त में उस वक़्त की कलीसिया का ख़ाका कुछ इसी तरह का खींचा और इस ख़ाने में बाअज़ ख़ाल व ख़त ख़ूब नमूदार और आशकार किए हैं। मसलन इस से ज़ाहिर है कि पौलूस अपने ही ज़माने में एक निराली किस़्म और लियाक़त का शख़्स था। नेक नीयती और हम्दर्दी ने मुस्तक़िल मिज़ाजी। शख़्सी पाकीज़गी और तोक़ीर नफ़्सी के साथ तर्कीब पाकर एक माजून (मुरक्कब) (ममअतदिल (एतिदाल पसंद) और फ़हर्त बख्श पैदा कर दिया था। जो कलीसिया की उस तिफ़्ली (तुफुलिय्यत (बचपन), कम उम्री) हालत के लिए निहायत मुफ़ीद और बाइसे बरकत साबित हुआ। इस से ये ज़ाहिर हो जाता है कि कोई ऐसा कलीसियाई इंतिज़ाम ना था। जो हर ज़माने में क़ाबिल-ए-तस्लीम व तक़्लीद हो। ये तो इब्तिदाई हालत थी अलबत्ता जो ख़ुतूत पौलूस ने इस के बाद लिखे उन से पता लगता है कि कलीसियाई इबादत का इंतिज़ाम कुछ मुस्तक़िल सूरत इख़्तियार कर गया था। उस कलीसिया की हालत से उस पर ग़ौर करने के ज़रीये हमेशा एक ताज़ा रूह और रुहानी क़ुव्वत मिलती है और हर ज़माने में मसीही इस के लिए रसूली ज़माने की तरफ़ रुजू करेंगे। हर मसीही में रूह की क़ुव्वत अपना जलवा दिखा रही थी। हर एक सीने में नए ख़याल जोश मार रहे थे। और सभों को यक़ीन था कि एक नए मकाशफ़े का आफ़्ताब उन पर तुलूअ हुआ है। ये ज़िंदगी मुहब्बत और नूर हर जगह ज़ोर मार कर फैल रहे थे। और इस इब्तिदाई कलीसिया की बेक़ाईदगियाँ भी कस्रत ज़िंदगी का नतीजा थीं। माबाअ्द ज़मानों की बेजान तर्तीब और ज़ाबता इस की तलाफ़ी नहीं कर सकता।

नवां बाब

बड़ा मुबाहसा

145. इस रसूल के ख़तों से जो उस की ज़िंदगी का हाल मालूम होता है उस से ज़ाहिर है कि उस का बहुत वक़्त एक ऐसे मुबाहिसों में ख़र्च हुआ जिससे उस को ना सिर्फ बहुत तक्लीफ़ और रंज पहुंचा बल्कि जिसमें उस के बहुत साल लग गए लेकिन लूक़ा ने इस मुबाहिसों का तक़रीबन कुछ भी ज़िक्र नहीं किया। इस की दो वजूहात होंगी। एक तो ये कि जब लूक़ा ने आमाल की किताब लिखी उस वक़्त ये मुबाहिसे तक़रीबन फ़त्ह हो गया था। और दूसरी वजह ग़ालिबन ये थी कि लूक़ा का जो मुद्दआ (मक़्सद) इस रिसाले के लिखने में था। उस से इस मुबाहिसे का बहुत ताल्लुक़ ना था लेकिन जिस वक़्त ये मुबाहिसा अपने ज़ोरों पर था तो इस से पौलूस को ऐसी तक्लीफ़ पहुंची कि समुंद्र के आंधी व तूफ़ान और जहाज़ को मुसीबतें भी इस के मुक़ाबले में हीच (कमतर) नज़र आती हैं। पौलूस के तीसरे मिशनरी सफ़र के इख़्तताम के क़रीब ये अपनी सिम्त अल-रास (नुक़्ता उरूज) पर पहुंचा हुआ था और मज़्कूर बाला ख़ुतूत के लिखे जाने का बाइस यही मुबाहिसा था और ग़लतियों का ख़त पौलूस के मुख़ालिफ़ों के लिए आस्मानी गोले का हुक्म रखता है। उस के जोश भरे अल्फ़ाज़ और मुहावरे ज़ाहिर करते हैं कि पौलूस के दिल में ये मज़्मून कैसा जोश मार रहा था।

146. अम्र ज़ेर-ए-बहस और हल तलब ये था कि क्या ग़ैर-अक़्वाम को मसीह बनने से पेश्तर यहूदी बनना चाहिए या दूसरे अल्फ़ाज़ में यूं कहें कि क्या नजात पाने के लिए खतना कराना ज़रूर है या नहीं।

147. क़दीम ज़माने में ख़ुदा को ये पसंद आया कि दुनिया की क़ौमों में से यहूदी क़ौम को चुन ले। और उसे नजात का मुहाफ़िज़ बना दे। और मसीह की आमद तक ये हाल रहा कि जो लोग ग़ैर-अक़्वाम में से हक़ीक़ी मज़्हब में शरीक होना चाहते वो इस्राईल के मुक़द्दस अहाते में बज़रीये मुरीद होने के दख़ल हासिल करते थे। चूँकि खुदा ने उन को हक़ीक़ी मुकाशफे का अमीन बना दिया था इसलिए ख़ुदा ने उनको दीगर अक़्वाम से बिल्कुल अलैहदा कर दिया था। और सारे दीगर मक़ासिद से जो इस मुद्दत में ख़लल-अंदाज़ होते उनकी तवज्जोह फिरा दी थी। ताकि जो अमानत उनके सपुर्द है उस की हिफ़ाज़त ईमानदारी से कर सकें। इस मक़्सद की तहसील के लिए उनके ऐसे क़ाएदे क़वानीन और रसूम अता किए थे। जिनसे वो एक ख़ास उम्मत बन जाएं और दुनिया की दीगर अक़्वाम से उनका इम्तियाज़ हो जाये। अल-ग़र्ज़ ज़िंदगी के हर तबक़े के लिए ख़्वाह तरीक़ इबादत हो या क़वानीन तमद्दुन। ख़्वाह ख़ुराक हो या पोशाक बिल-तफ़सील क़ानून उनको दीए गए। और ये सारे उमूर उन की किताब में जो शरीअत या तौरेत कहलाती है मुंज़ब्त हो गए। इसलिए ये शरीअत इनके लिए बार-ए-गराँ हो गई। और इनकी तमीज़ के लिए ये सख़्त आज़माईश और तर्बियत थी जिसे उस क़ौम के दीनदार लोग महसूस किए बग़ैर ना रह सकते थे। अलबत्ता बाअज़ इसे बाइस-ए-फ़ख़र जानते थे। और अपने तईं दुनिया की क़ौमों में से चीदा और सबसे आला समझते थे। हालाँकि अगर इनकी तमीज़ तेज़ और साफ़ होती बजाए फ़ख़्र करने और ख़ुश होने के वो इस जुए तले कराहते और चिल्लाते। लेकिन इन्होंने तो इस इम्तियाज़ को चंद दर चंद (बहुत ज़्यादा) कर दिया और क़ानून पर क़ानून रसूम पर रसूम इज़ाद (ज़्यादा) किए और एक तूमार बेहंगाम बना के खड़ा कर दिया। उनकी नज़र में यहूदी होना शाहिद क़ौम में शामिल होने का निशान था और इस हक़ को हासिल करना उनके नज़्दीक सबसे आला इज़्ज़त और इफ़्तिख़ार का बाइस था। जो किसी ग़ैर क़ौम को हासिल हो सकता था। अल-ग़र्ज़ उनके सारे ख़यालात इस क़ौमी घमंड की चार-दीवारी के अंदर मुक़य्यद (क़ैद) थे। मसीह के बारे में उनकी उम्मीद भी इन्हीं तअस्सुबात से तंग व तारीख़ हो गई थी। और वो ये समझने लग गए थे, कि मसीह उनकी क़ौम का एक जंगी बहादुर शख़्स होगा जो दीगर क़ौमों को बज़रीये खतना यहूदी बनाएगा। और यहूदी शरीअत की पाबंदी सारी क़ौमों को लाज़िम होगी।

148. जब मसीह ज़ाहिर हुआ तो फ़िलिस्तीन में यहूदियों के ख़यालात इसी क़िस्म के थे। और जिन लोगों ने येसू को अपना मसीह तस्लीम किया और मसीही कलीसिया में दाख़िल हुए वो भी कुछ इसी क़िस्म की राय रखते थे। वो मसीही तो हो गए थे। लेकिन यहूदियत का जामा अभी ना उतारा था। वो हैकल में इबादत के लिए जाते थे। और मुक़र्ररा औक़ात पर दुआ मांगते मुक़र्ररा दिनों पर रोज़ा रखते। और यहूदी तरीक़े पर पोशाक रखते अगर ना-मख़्तून ग़ैर-अक़्वाम के साथ कोई खाता तो उसे नापाक समझते और उनको यही ख़याल था, कि अगर कोई ग़ैर क़ौम में से मसीही हो तो उसका खतना कराना और यहूदी रसूम को क़ुबूल करना ज़रूर था।

149. क़ैसरिया के सूबेदार कुर्लेनियुस के मुआमले में ख़ुदा ने ख़ुद बराह-ए-रास्त बिला वसातत (बग़ैर किसी वास्ते) के इस अम्र को तै कर दिया जब कि कुर्लेनियुस के एलची पत्रस रसूल की तरफ़ याफ़ा को जा रहे थे। तो ख़ुदा ने रसूलों में से इस सर करदह रसूल पर चादर की रुयते के ज़रीये जिसमें पाक और नापाक दोनों क़िस्म के जानवर थे। ये ज़ाहिर कर दिया कि कलीसिया में मख़्तून और ना मख़्तून दोनों यकसाँ हैं। इस रुयते की हिदायत के मुताबिक़ पत्रस कुर्लेनियुस के एलचियों के हमराह क़ैसरिया को रवाना हुआ और ऐसी शहादत उसे मिली कि कुर्लेनियुस के ख़ानदान को बिला खतना ईमान और रूह-उल-क़ुद्स का ख़ास मसीही इनाम अता हुआ है तो उसे बपतिस्मा देने में कुछ ताम्मुल (तवक़्क़ुफ़, वक़्फ़ा) ना हुआ। क्योंकि वो उस के नज़्दीक मसीही हो चुके थे। लेकिन जब वो यरूशलम को गया तो उस की कार्रवाई से यहूदी मिज़ाज मसीहियों को सख़्त ताज्जुब और ग़ुस्सा पैदा हुआ। पत्रस ने अपनी रुयते का हाल सुनाया और ये ज़ाहिर किया कि जब इन ना-मख़्तून ग़ैर-क़ौम अश्ख़ास को हमारी तरह ईमान और रूह-उल-क़ुद्स का इनाम हासिल हुआ है तो उन के मसीही होने में क्या शक रहा और किस अम्र में वो हमसे अदना रहे।

150. पतरस की ये दलाईल बहुत पुख़्ता थीं और चाहिए था, कि इन्हीं से मुआमला रफ़ा दफ़ाअ हो जाता और तूल ना खींचता लेकिन क़ौमी फ़िक्र और उम्र-भर के तअस्सुबात कब आराम लेने देते थे। वो ऐसी आसानी से कब मान लेते। अगरचे यरूशलम के मसीहियों ने इस ख़ास मुक़द्दमें में पतरस की कार्रवाई को मंज़ूर कर लिया। लेकिन उन्होंने इस आलमगीर उसूल को जो इस मुक़द्दमें में छिपा था गिरिफ्त ना किया और ख़ुद पतरस भी जैसा कि माबाअ्द वाक़ियात से मालूम होता है कुर्लेनियुस के मुआमले की हक़ीक़त और इस रुयते की वुसअत से वाक़िफ़ ना था।

151. इस मसअले को एक दूसरे शख़्स ने साफ़ कर दिया। इस वक़्त के क़रीब पौलूस का रसूली काम अन्ताकिया में शुरू हुआ। और इस से थोड़ी ही देर बाद बर्नबास के हमराह अपने पहले मिशनरी सफ़र पर ग़ैर-क़ौमों की तरफ़ रवाना हुआ। और जहां कहीं वो गए उन्होंने ग़ैर-क़ौमों को बिना खतना किए मसीही कलीसिया में शामिल किया इस काम में पौलूस ने पतरस की तक़्लीद ना की। क्योंकि उसे इन्जील बराह-ए-रास्त ख़ुदा से मिली थी। मसीही होने के बाद ही वो अरब के ब्याबान में चंद सालों तक रहा और वहां ग़ौरो-फ़िक्र के बाद जो कुछ उसे करना था उसे ख़ूब अपने दिल में फ़ैसला कर के ठान लिया। उस के नज़्दीक शरीअत गु़लामी का जुआ था। और जिस क़द्र इस की सख़्ती पौलूस ने महसूस की शायद किसी दूसरे ने नहीं की थी। उसे ख़ूब मालूम हो गया कि शरीअत मसीही दीन का कोई जुज़ (हिस्सा) नहीं सिर्फ उस के लिए एक पुर मशक़्क़त तैयार है एक तरफ़ तो उसे शरीअत की मुसीबत और लानत नज़र आती थी। दूसरी तरफ़ इन्जील की ख़ुशी और आज़ादगी इसलिए उस के नज़्दीक ग़ैर-क़ौमों को शरीअत के जुए तले लाना मसीही दीन की हक़ीक़त को खो देना था। इन्जील में तो नजात की सिर्फ एक ही शर्त बयान हुई है। और शरीअत में जो शराइत नजात हैं वो इस एक शर्त से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ हैं। इन्ही वजूहात से उस ने इस मसअले को अपने दिल में बख़ूबी हल कर लिया। पौलूस तो ग़ैर-क़ौमों को मसीह के झंडे के तले लाने का आर्ज़ूमंद था। लेकिन यरूशलम के यहूदी तंग-ख़याल थे। इसलिए जो शराइत वो ग़ैर-अक़्वाम पर लगाना चाहते थे। वो यहूदिया से बाहर मसीही दीन की इशाअत के लिए सख़्त मुज़िर थीं क्या कभी रोमियों का फ़ख़्र। यूनानियों की बलंद ख़याली खतना कराने पर रज़ामंद हो जाती। और यहूदी रिवायत के दायरे में मुक़य्यद (क़ैद) होने को गवारा करता। हरगिज़ नहीं। जो मज़्हब ऐसे उलझन में फंसा हो वो भला कब आलमगीर मज़्हब बन सकता था।

152. लेकिन जब पौलूस और बर्नबास अपने पहले मिशनरी दौरे से अन्ताकिया को वापिस आए तो उन्हें मालूम हुआ कि इस से भी क़तई फ़ैसला दरकार है क्योंकि यहूदी मिज़ाज के चंद मसीही यरूशलम से अन्ताकिया में जा कर ग़ैर क़ौम मसीहियों को ये कहने लगे कि जब तक तुम खतना ना कराओ तुम नजात नहीं पा सकते। ये सुन कर वो लोग घबराए कि कहीं ऐसा ना हो कि हम किसी ऐसे उसूल को नज़र-अंदाज करते हों। जिससे हमारी रवैय्यतों की बहबूदी में फ़र्क़ आए और उन्हें इन्जील की सादगी पर भी शक होने लगा। ऐसे लोगों की तसल्ली के लिए अन्ताकिया की कलीसिया ने ये इरादा किया कि यरूशलम में रसूलों के सामने इस मुक़द्दमें को पेश करें और उन्होंने पौलूस और बर्नबास को यरूशलम भेजा। यरूशलम में इसी फ़ैसले के लिए मजमा हुआ और रसूलों और बुज़ुर्गों का फ़ैसला पौलूस के दस्तूर-उल-अमल का मुसद्दिक़ था ग़ैर-क़ौमों को खतना कराना ज़रूरी ना समझा गया। अलबत्ता उनको ये कहा गया कि जो गोश्त बुतों के आगे क़ुर्बानी के लिए चढ़ाया जाये उसे ना खाएं और ना हरामकारी में पढ़ें और मेख़ों खाएं। पौलूस ने ये शराइत मंज़ूर कर लीं अलबत्ता वो ये तो नहीं कहता था कि ऐसा गोश्त खाने से नुक़्सान होता है। जो बुतों की क़ुर्बानियों में इस्तिमाल हुआ और फिर बाज़ार में बिकता हो। लेकिन बुतकदों में जहां ऐसी ज़ियाफ़तें होती हैं। और जहां हर तरह की अय्याशी पीछे अमल में आती है। (हरामकारी की मुमानिअत में इसी दस्तूर की तरफ़ इशारा मालूम होता है) वो बड़ी आज़माईश की जगहें थीं जिनके बारे में मसीहियों को आगाह करना ज़रूर था। ख़ून खाने की मुमानिअत यानी ऐसे गोश्त को खाने की मुमानिअत जिसके मारने में ख़ून बहाया ना गया हो यहूदी तास्सुब के बाइस थी और किसी अख़्लाक़ी उसूल पर मबनी ना थी। इसलिए इस की मुख़ालिफ़त पौलूस ने ज़रूरी ना समझी।

153. इस बड़े मजमे ने जिसके इख़्तियार पर किसी को कुछ कलाम ना हो सकता था। इस मुश्किल मसअले का यूं फ़ैसला कर दिया तो उम्मीद थी कि आइन्दा को ये झगड़ा बर-पा ना होगा। क्योंकि जब पतरस, यूहन्ना और याक़ूब जैसे अश्ख़ास जो यरूशलम की कलीसिया के सुतून समझे जाते थे। और पौलूस और बर्नबास ने जो ग़ैर क़ौम मसीहियों के ख़ास वकील थे। मुत्तफ़िक़-उल-राए हो कर ये फ़ैसला कर दिया तो ख़याल था कि इस से सभों की ख़ातिरजमा होगी और मुँह-बंद हो जाएगा।

154. लेकिन थोड़ी ही देर बाद ये पता लगा कि ये उम्मीद पूरी ना हुई और इस फ़ैसले को अक्सरों ने क़तई ना समझा बल्कि जिस मजमे ने ये फ़ैसला किया उसी में चंद ऐसे अश्ख़ास थे जो ऐसे फ़ैसला के सख़्त मुख़ालिफ़ थे। अगरचे रसूली इख़्तियार के ज़ोर पर ये फ़ैसला हो गया और गशती ख़त दूर-दूर की कलीसियाओं के भेजे गए ताकि इस फ़ैसले से वो सब आगाह हो जाएं लेकिन यरूशलम की मसीही जमाअत इस पर मुत्तफ़िक़ ना थी। बल्कि मुख़ालिफ़त पर ज़्यादा आमादा हो गई। और मुद्दत तक यही कश्मकश रही। बल्कि इस की शिद्दत बढ़ती चली गई। कई तरफ़ का मसाले (सामान) भी इस का मुमिद (मददगार) हुआ। मसलन क़ौमी फ़ख़्र और तास्सुब ने इस समुंद्र नाज़ पर ताज़ियाना (कूड़ा) का काम दिया। और ख़ुदगर्ज़ी ने इस मिस्ल की तस्दीक़ कर दी। कि एक तो कड़वा करेला दूसरे नीम चढ़ा। मज़्हबी जोश ने इस को फ़िर्काबंदी की दलदल में धकेल दिया। और मुरीद बनाने की आरज़ू, झूटी सरगर्मीवार शख़्सी अदावत ने इस चिंगारी को पंखा हिला कर एक शोला बना दिया। यहां तक कि इन मुख़ालिफ़ों की तरफ़ से मिशनरी जगह जगह कलीसियाओं की तरफ़ भेजे गए और रसूली फ़ैसला के ख़िलाफ़ ये तालीम देने लगे कि जब तक तुम खतना ना कराओगे हक़ीक़ी मसीही दीन के पूरे हुक़ूक़ हासिल ना कर सकोगे बल्कि अपनी रूहों के नुक़्सान का बाइस होगे।

155. ये तंग-ख़याल मसीही अपने तईं ही हक़ीक़ी मसीही जानते थे। और जहां-जहां पौलूस ने ग़ैर-अक़्वाम के दर्मियान मसीही जमाअतें क़ायम की थीं। उनके दर्मियान बरसों तक उनके एलची पौलूस की मुख़ालिफ़त करते रहे। वो ख़ुद तो ग़ैर-अक़्वाम में जा कर कलीसियाएं क़ायम ना करते थे। और पौलूस की तरह इस अम्र के आर्ज़ूमंद ना थे। कि जहां इन्जील नहीं सुनाई गई वहां जाकर इन्जील सुनाएँ बल्कि उनका काम ये था कि जहां पौलूस ने मसीही जमाअतें क़ायम की हैं उनके दर्मियान चुपके से घुस कर अपनी राय की तरफ़ माइल करने की कोशिश करें। इसलिए साये की तरह ये पौलूस के पीछे लगे रहे और बहुत सालों तक उस को उन्होंने दिक़ किया। वो मसीहियों के कान में ये डालते थे, कि जो इन्जील पौलूस सुनाता है वो सही इन्जील नहीं है और ना पौलूस दीगर रसूलों की तरह मोअतबर (सच्चा) और जायज़ रसूल है। क्या वो बारह रसूलों में से है? क्या वो मसीह के साथ रह चुका है? और अपने हक़ में वो ये कहते थे, कि हम यरूशलम से जो दीन का सदर मुक़ाम है हक़ीक़ी दीन तुम्हारे पास लाते हैं और ये भी बिला-ताम्मुल (बग़ैर देर किए) कहते थे, कि हम रसूलों की तरफ़ से भेजे गए हैं। और पौलूस की रविश में जो फ़ज़ीलत की बातें थीं। उन्हीं को वो बिगाड़ कर पौलूस की मुख़ालिफ़त में पेश करते थे। मसलन पौलूस का अपनी ख़िदमतों के एवज़ में रुपया पैसे का क़ुबूल ना करना उनके नज़्दीक इस वजह से था, क्योंकि वो रसूली इख़्तियार ना रखता था। हालाँकि रसूल हमेशा इस क़िस्म का महताना (मेहनत का मुआवज़ा) क़ुबूल कर लेते थे। और उस का बे ब्याहे रहना भी उनके ख़याल में कोई ख़ूबी में दाख़िल ना था। उन लोगों ने जिस काम का बेड़ा उठाया था। उस की क़ाबिलियत भी रखते थे। शीरीं कलामी और मलाहत (खुशनुमाई) से काम लेते और अपने तईं ज़ी (शान, साहब) रुत्बे ज़ाहिर करते थे। और छोटी-छोटी बातों की परवाह ना करते थे।

156. अफ़्सोस की बात है कि उनको क़दरे कामयाबी भी हासिल हुई। पौलूस के मुरीदों के दिलों को परेशान किया। और पौलूस की तरफ़ से उनको बदज़न कर दिया ख़ासकर गलाती मसीही इनका शिकार हो गए और कुरंथी कलीसिया अपने बानी की मुख़ालिफ़ हो गई। जगह-जगह फ़िर्काबंदी की रूह ज़ाहिर होने लगी। और ऐसा मालूम होता कि जो इमारत पौलूस ने बरसों की मेहनत व मशक़्क़त के बाद तैयार की थी वो अब ज़मीन पर गिरने को थी। पौलूस को ये अंदेशा था। अगर ये लोग अपने तईं मसीही कहते थे। लेकिन पौलूस उनको ऐसा ना समझता था। उनकी इन्जील दूसरी इन्जील ना थी। अगर उस के मुरीदों ने उनकी तालीम क़ुबूल की तो पौलूस ने साफ़ उनको कह दिया कि तुम फिसल से गिर पड़े हो। और उस ने ऐसे शख्सों पर लानत कही जो ख़ुदा की हैकल को गिरा रहे थे। जिसे उस ने तामीर किया था।

157. भला पौलूस जैसा शख़्स अपने मुरीदों की ऐसी बर्बादी देख सकता था। उस ने सारे ज़ोर से उन मुअल्लिमों की मुख़ालिफ़त की। और जहां-जहां उसे ख़याल था, कि इन मुअल्लिमों ने ग़लती का बीज बोया है। वहां ही पौलूस या तो ख़ुद जाता या अपने एलचियों को भेजता ताकि वो मुरीद फिर वापिस आएं और जो लोग ख़तरे में थे। उनको ख़ुतूत भी लिखे। इन ख़ुतूत में उस की तबीयत का ज़ोर ज़ाहिर था और उस की लियाक़त का सबूत पर ले दर्जे का था है। मन्तिक़ और किताब-ए-मुक़द्दस से उस ने दलाईल पेश किए और अपने मुख़ालिफ़ों की ख़ूब धज्जियाँ उड़ाईं और उनकी ग़लतीयों को तश्त-अज़-बाम (ज़ाहिर करना) कर के उन पर हंसी की है और अपने मुरीदों के क़दमों में सर रख के वो उनकी सारे ज़ोर से मिन्नत करता है, कि मसीह और उस के साथ वफादर रहें। पौलूस के इन फ़िकरों और उस की दिल की ज़ारी का सारा हाल हमारे नए अहदनामें में मिलता है। इस के लिए हम पौलूस के शुक्रगुज़ार हैं। और ख़ुद पौलूस के साथ हमारी हम्दर्दी है कि उस के इस ख़स्ता शिकस्ता-दिल (परेशान हाल) से ये क़ीमती मीरास हमको हासिल हुई।

158. ये मालूम कर के हम को बड़ी तश्फ़ी मिलती है, कि वो आख़िरकार कामयाब हुआ। अगरचे उस के हरीफ़ बड़े बाहिम्मत अश्ख़ास थे लेकिन पौलूस के मुक़ाबले की ताब ना ला सके अदावत अगरचे बहुत मज़्बूत होती है। लेकिन मुहब्बत इस से भी ज़्यादा ज़ोर-आवर है उस की माबाअ्द तस्नीफ़ात में इस मुख़ालिफ़त के आसार बहुत ही कम या बिल्कुल मादूम (नापीद) हैं। उस की दलील ने इस मुख़ालिफ़त को बिल्कुल पाश-पाश कर दिया कि कलीसियाओं में फिर मुश्किल से इस का पता मिलता है। अगर मुआमला उल्टा पड़ता है। तो मसीही दीन ऐसे दरिया के मुशाबेह ठहरता जो अपने चशमे के नज़्दीक ही रेगिस्तान में घुस कर जज़्ब और ख़ुश्क हो जाता है। और आज आलमगीर मज़्हब होने की बजाए वो ज़माना-ए-माज़ी का एक गया गुज़रा यहूदी फ़िर्क़ा होता।

159. यहां तक तो इस क़दीम मुबाहिसे का साफ़ पता लग सकता है। लेकिन इस की एक और शाख़ भी है। जिसकी ठीक रफ़्तार का तहक़ीक़ के साथ सुराग़ लगाना आसान नहीं पौलूस की तालीम और मुनादी के मुताबिक़ यहूदी मसीहियों का ताल्लुक़ शरीअत के साथ क्या था? क्या उनका ये फ़र्ज़ था कि जिस शरीअत के अहकाम और रसूम पर वो चलते थे। उनको तर्क कर दें और अपने बच्चों का खतना ना कराएं और उनकी शरीअत पर चलने की तालीम ना दें? सरसरी नज़र से पौलूस के उसूलों में कुछ ऐसा ही पाया जाता है अगर ग़ैर-क़ौम के लोग शरीअत पर अमल किए बग़ैर आस्मान की बादशाहत में दाख़िल हो सकते हैं तो यहूदियों के लिए इस का पाबंद होना क्या ज़रूर? और अगर शरीअत मह्ज़ मसीह तक पहुंचाने के लिए एक उस्ताद या मुलाज़िम के तौर पर थी। तो जब ये मक़्सद हासिल हो गया शरीअत का काम ख़त्म हुआ। और बच्चा सियाना हो के अपनी मीरास का मालिक हो गया तो अतालीक़ (उस्ताद) की पाबंदी जाती रही।

160. मगर इस में कुछ शक नहीं कि दीगर रसूलों और यरूशलम के अक्सर मसीहियों ने बहुत दिनों तक इस हक़ीक़त की तक्लीफ़ को ना जाना। रसूल इस पर इत्तिफ़ाक़ कर गए थे, कि ग़ैर क़ौमों को खतने की और तामील शरीअत की तक्लीफ़ ना दी जाये। लेकिन वो इन दोनों के पाबंद थे और सब यहूदी मसीहियों से इसी अम्र के मुतवक़्क़े थे। यहां ख़यालात व तसव्वुरात का इख़्तिलाफ़ था जिससे पीछे अफ़्सोस नाक नताइज पैदा हुए। अगर ये हाल जारी रहता या पौलूस भी इस अम्र पर इत्तिफ़ाक़ कर जाता तो कलीसिया दो हिस्सों पर मुनक़सिम हो जाती जिनमें से एक हिस्सा दूसरे को नज़र हिक़ारत से देखता। क्योंकि शरीअत की पाबंदी का एक जुज़ (हिस्सा) ये था, कि नामख़्तूनों के साथ ना खाएं। इस के मुताबिक़ यहूदी मसीही भाई कहते थे। चुनान्चे एक मौक़े पर इस की अमली मिसाल वक़ूअ में आई पतरस रसूल एक दफ़ाअ अन्ताकिया शहर में ग़ैर-अक़्वाम के दर्मियान था। और ग़ैर क़ौम मसीहियों के साथ खुल्लम खुल्ला खाता पीता था। लेकिन जब चंद यहूदी मसीही जो शरीअत के बड़े पाबंद थे। यरूशलम से वहां गए तो उनके दबाओ में आकर ग़ैर क़ौम मसीहियों से इज्तिनाब इख़्तियार किया। यहां तक कि बर्नबास भी इस तास्सुब के जाल में फंस गया। पौलूस अकेला इंजीली आज़ादी पर क़ायम रहा। और उस ने पतरस का रूबरू मुक़ाबला किया। और उस की रविश के नुक़्स को तश्त अज़बाम (ज़ाहिर) किया।

161. लेकिन जो लोग यहूदियों में से मसीही गल्ले (झुण्ड) में शरीक हुए पौलूस उनको खतना और शरीअत पर अमल करने से मना ना करता था। उस के दुश्मनों ने इस पर इस क़िस्म का इल्ज़ाम लगाया लेकिन वो इल्ज़ाम ग़लत था। जब तीसरे मिशनरी सफ़र के ख़ातमे पर वो यरूशलम में पहुंचा तो रसूल याक़ूब और बुज़ुर्गों ने उस को इत्तिला दी कि इस ग़लत अफ़्वाह से उस के नेक-नाम की कैसी बदनामी होती है। और उस को सलाह दी कि बरमला उस की तक़्ज़ीब (झुटलाना) करे जिन अल्फ़ाज़ में उन्होंने उस से दरख़्वास्त की वो बहुत क़ाबिल लिहाज़ हैं। ऐ भाई तू देखता है कि यहूदियों में हज़ार-हा आदमी ईमान ले आए हैं। और सब शरीअत के बारे में सरगर्म हैं और उनको तेरे बारे में सिखा दिया गया है, कि तू ग़ैर क़ौमों में रहने वाले सब यहूदियों को ये कह कर मूसा से फिर जाने की तालीम देता है कि ना अपने लड़कों का खतना करो ना मूसवी रस्मों पर चलो। पस क्या किया जाये लोग ज़रूर सुनेंगे कि तू आया है इसलिए जो हम तुझसे कहते हैं वो कि हमारे हाँ चार आदमी ऐसे हैं जिन्हों ने मिन्नत मानी है। उन्हें लेकर अपने आपको उनके साथ पाक कर और उनकी तरफ़ से कुछ ख़र्च कर ताकि वो सर मुंडाएं। तो सब जान लेंगे, कि जो बातें उन्हें तेरे बारे में सिखाई गई हैं। उनकी कुछ अस्ल नहीं बल्कि तू ख़ुद भी शरीअत पर अमल कर के दुरुस्ती से चलता है। पौलूस ने इस सलाह को मंज़ूर कर लिया। और जिस रस्म का याक़ूब ने उस से ज़िक्र किया इस पर पौलूस ने अमल किया इस से साफ़ ज़ाहिर है कि पौलूस ने कभी भी पैदाइशी यहूदियों को यहूदी तरीक़ पर रहने से मना नहीं किया। शायद कोई ये कह सकता है, कि उस को ऐसा करना चाहिए था। क्योंकि उस के उसूलों का ये तक़ाज़ा था कि जो अहद गुज़र चुका है इस के मुताल्लिक़ सारे उमूर् से वो अलैहदा होने पर ज़ोर देता। लेकिन पौलूस का ऐसा ख़याल ना था। बल्कि जो ना-मख़्तूनी में बुलाए गए उनको वो कहता है कि वो मख़्तून ना बनें और इस की वजह ये बयान करता है, कि ना खतना कुछ शैय है ना ना-मख़्तूनी। इस इम्तियाज़ को वो इसी क़िस्म का जानता था। जो नर व मादा में या ग़ुलाम व आक़ा में होता है। अल-ग़र्ज़ उस के नज़्दीक इस में कोई मज़्हबी बात ना थी। अगर कोई कहता कि यहूदी नुमा ज़िंदगी मेरी क़ौमीयत का निशान है तो पौलूस को उस से कुछ झगड़ा ना था बल्कि किसी क़द्र वो ऐसे इम्तियाज़ का तर्कदार था कि मह्ज़ ज़ाहिरी सूरत पर वो ज़ोर ना देता ना उस की ताईद में ना उस की तर्दीद में। अलबत्ता अगर ये इम्तियाज़ किसी को मसीह के पास लाने से रोके या मसीही भाईयों में जुदाई का बाइस हो तो वो उस का सख़्त दुश्मन था। वो ख़ूब जानता था, कि आज़ादगी ज़ुल्म का वसीला भी हो सकती है और गु़लामी का भी। चुनान्चे गोश्त के बारे में जो हिदायात उस ने दीं उनसे ज़ाहिर है कि उस ने ख़ुद-ग़रज़ी से हरगिज़ काम नहीं लिया बल्कि कमज़ोर भाईयों की ख़ातिर हर तरह की ख़ुद-इंकारी की की।

162. अल-ग़र्ज़ पौलूस ऐसे वसीअ ख़याल का शख़्स था कि उस की ठीक तारीफ़ करना आसान नहीं। वोह ज़ाहिर क़ाएदे क़वानीन हर रोज़ ना देता था। और जो लोग उस के साथ इख़्तिलाफ़ राय रखते थे। उनका वो ख़ास लिहाज़ करता। हर तरह की गु़लामी और तअस्सुबात से वो यकलख्त (फ़ौरन) आज़ाद हो गया और ना अपनी आज़ादगी को दूसरों के लिए सद्द-ए-राह (रास्ता रोकने वाला) बनाया।

दसवाँ बाब

अख़ीर

163. तीसरे मिशनरी सफ़र के अख़ीर के क़रीब यूनान में थोड़ी देर रहने के बाद पौलूस यरूशलम को वापिस गया। इस वक़्त उस की उम्र तक़रीबन साठ साल की हुई और बीस साल से वो मामूल से बढ़कर मेहनत कर रहा था। और बराबर सफ़र करने और इन्जील सुनाने में लगा रहा। इलावा अज़ीं कलीसियाओं की ख़बरगीरी की फ़िक्र एक बार गिरां की तरह उस को नीचे कुचल रही थी। एक तरफ़ तो बीमारी ने जिस्म को खा लिया था एक तरफ़ दुश्मनों की तरफ़ से अज़ाब व तक्लीफ़ात ने उस को तोड़ डाला था उस के बाल तो ज़रूर सफ़ैद हो गए होंगे। और चेहरा मुरझा गया होगा। लेकिन मसीह की ख़िदमत करने से ना तो उस का बदन थका था और ना उस की रूह उस की आँखें रोम जाने पर लगी हुई थीं। और रोम को रवाना होने से पेश्तर उस ने रोम में कहला भेजा था, कि मैं जल्द वहां आने वाला हूँ। लेकिन जब कि वो यूनान के साहिल से गुज़रता हुआ यरूशलम को जाने की शताबी कर रहा था। तो उसे इत्तिला मिली कि तेरा काम तक़रीबन ख़त्म हो चुका है और मौत नज़्दीक है मसीही जमाअतों में जहां कहीं ऐसे अश्ख़ास थे जिनको ख़ुदा की तरफ़ से पेशीनगोई करने का इनाम मिला था। वो बराबर पौलूस को जताने लगे कि ज़ंजीर और क़ैद उस के लिए तैयार हैं और जिस क़द्र वो यरूशलम के नज़्दीक पहुंचता उसी क़द्र ये इत्तिला ज़्यादा सफ़ाई से मिलती गई। पौलूस इस इत्तिला की हक़ीक़त से वाक़िफ़ था। लेकिन वो दिलेर इन सब मुसीबतों को झेलने के लिए तैयार था। लेकिन चूँकि बड़ा फ़रोतन और दीनदार था इसलिए मौत और अदालत के ख़याल ने उस पर बड़ा असर किया उस के साथ कई एक रफ़ीक़ थे। लेकिन अब वो ज़्यादा तन्हाई चाहता था। अपने शागिर्दों को अलविदा कहा जैसे कि आदमी मरते वक़्त अपने दोस्तों से रुख़्सत होता है और उन्हें साफ़ बता दिया कि तुम मेरा मुँह फिर ना देखोगे। लेकिन जब वो उस की मिन्नत करने लगे कि अपने इरादे से बाज़ आए और इस अटल ख़तरे से किनारा करे तो उनके प्यारे हाथों को जिनसे वो बग़लगीर हो रहे थे। आहिस्ता से हटा दिया और कहा तुम क्या करते हो क्यों रो-रो के मेरा दिल तोड़ते हो। मैं तो यरूशलम में ख़ुदावंद येसू के नाम पर ना सिर्फ बाँधे जाने बल्कि मरने को भी तैयार हूँ।

164. हमें ये तो ठीक तौर से मालूम नहीं कि यरूशलम में कौनसा ऐसा ज़रूरी काम था जिसके लिए वो वहां जाने के लिए इतना ज़ोर मारता था। इतना तो अलबत्ता मालूम है कि वो यरूशलम के ग़रीब मुक़द्दसों के लिए कुछ चंदा ले जा रहा था जो उस ने ग़ैर क़ौम कलीसियाओं से कोशिश कर के जमा किया था। और शायद उस का ख़ुद चंदा लेकर वहां हाज़िर होना उस के नज़्दीक निहायत ज़रूर था। या शायद रसूलों से ग़ैर क़ौम कलीसियाओं के लिए कोई ख़ास पैग़ाम हासिल किया चाहता था। जिससे कि उस के दुश्मनों का मुँह बंद हो जाये जो उस के रसूली इख़्तियार और उस की इन्जील पर शक करते थे। बहर-हाल एक अटल बुलाहट उसे यरूशलम की तरफ़ धीकने लिए जा रही थी। और मौत के ख़ौफ़ और दोस्तों की ज़ारी के बावजूद अपने अंजाम की तरफ़ बढ़ा जा रहा था।

165. जब वो यरूशलम में पहुंचा तो ईद पंतीकोस्त का मौक़ा था और हस्बे-मामूल दुनिया के सारे अतराफ़ से लाखों यहूदी ईद के लिए यरूशलम में जमा हो रहे थे। और उनमें ज़रूर बाअज़ ऐसे यहूदी भी होंगे। जिन्हों ने पौलूस की मुनादी सुनी थी। और जिनसे शायद उस का मुक़ाबला भी हुआ हो। इन ममालिक में तो वो ग़ैर क़ौम हुक्काम के बाइस उस पर अपने दिल की हवस ना निकाल सकते थे। लेकिन इस यहूदी दार-उल-ख़िलाफ़ा में यहां के बाशिंदों की मदद से वो बहुत कुछ कर सकते थे।

166. फ़िल-हक़ीक़त यही ख़तरा उसे पेश आया। इफ़िसुस के बाअज़ यहूदियों ने जहां पौलूस ने तीसरे सफ़र के वक़्त बहुत काम किया था। उसे हैकल में पहचान लिया और चिल्लाने लगे कि ये वो बिद्अती शख़्स है कि जो यहूदी क़ौम, शरीअत और हैकल के ख़िलाफ़ कुफ़्र बकता फिरता है। ये कहना ही था कि लोग जोश में आकर आग बगूला हो गए। और जाये ताज्जुब है कि उन्होंने उसी वक़्त उस को टुकड़े टुकड़े नहीं कर दिया। लेकिन शायद इस पाक मकान में ख़ून बहाने से डरे और जूंही वो उसे ग़ैर क़ौमों के सिहन में खींच कर लाए जहां वो उसे मार ही डालते। रोमी पहरेदारों ने जो ऊपर क़िले में पहरा दे रहे थे। ये हंगामा देख लिया। और फ़ौरन आकर पौलूस को अपनी हिफ़ाज़त में ले लिया और जब उनके कप्तान को मालूम हुआ कि ये रोमी हुक़ूक़ रखता है फिर तो उस की हिफ़ाज़त उनका लाज़िमी फ़र्ज़ गया।

167. अहले यरूशलम का जोश तो समुंद्र की तरह बाँसों उछलने लगा और उस को चारों तरफ़ से आ घेरा। इस पर रोमी कप्तान ने उस की गिरफ़्तारी से दूसरे रोज़ उसे सदर मज्लिस के सामने पेश किया। ताकि उस के ख़िलाफ़ इल्ज़ाम की तहक़ीक़ात करे। लेकिन पौलूस को देखकर लोगों में ऐसा शोर व गुल हुआ कि कप्तान उस को अलैहदा ले गया। ताकि लोग उसे टुकड़े टुकड़े ना कर डालें। सच-मुच इस अजीब शहर के लोग भी अजीब थे। शायद ऐसी कोई क़ौम नहीं गुज़री जिसकी औलाद को ख़ुदा की तरफ़ से ऐसी लियाक़त मिली हो जिसके बाइस उस का नाम ऐसा मशहूर हो गया हो जैसा कि यहूदियों का हुआ है। और ना कोई दुनिया में शहर ऐसा हुआ है जिसको वहां के बाशिंदे ऐसा प्यार करते हों। जैसा कि यहूदी यरूशलम को करते थे। फिर भी दीवानी माँ की तरह उस ने अपने बाअज़ निहायत ही नेक बच्चों को अपने सीने से उठा कर ज़मीन पर पटक कर हलाक कर दिया। अब यरूशलम की बर्बादी को चंद ही साल बाक़ी थे। ये आख़िरी फ़र्ज़न्द साहिबे इल्हाम और साहिबे नबुव्वत ऐसी फ़र्त (कस्रत, बोहतात) मुहब्बत से अपनी माँ को देखने आया है और माँ ने उसे मार ही डाला होता अगर ग़ैर क़ौम हाकिम उस के ग़ज़ब से उसे ना बचाता।

168. ज़ीलोती (सरगर्म) फ़िर्क़े के चालीस शख्सों ने क़सम खा कर अहद कर लिया कि रोमियों के दस्ते में से उसे छीन ले जाऐंगे। जब रोमी कप्तान को इस की ख़बर लगी तो रातों रात उसे अपने दस्ता फ़ौज के हमराह यरूशलम से क़ैसरिया को भेज दिया। क़ैसरिया बहीरा शाम के साहिल पर रोमी शहर था। और फ़िलिस्तीन के रोमी गवर्नर का सदर मुक़ाम और रोमी फ़ौज की छावनी था और यहां पौलूस यहूदियों के ज़ुल्म से बिल्कुल महफ़ूज़ था।

169. यहां पौलूस दो साल तक क़ैद में रहा। यहूदी हुक्काम ने बार-बार ये कोशिश की कि या तो रोमी हाकिम उस के क़त्ल फ़त्वा दे या वो उसे उन के सपुर्द कर दे ताकि वो अपनी शरीअत के मुताबिक़ उस का फ़ैसला करें लेकिन वो रोमी हाकिम पर ये साबित ना कर सके, कि पौलूस का क़सूर सज़ा-ए-मौत का मुस्तहिक़ है या रोमी हुक़ूक़ वाले शख़्स को उनके सपुर्द करना जायज़ है पौलूस तो क़ैद से रिहा हो गया होता लेकिन उस के दुश्मन बड़े ज़ोरे ये कहते रहे कि ये निहायत सख़्त जुर्म का मुर्तक़िब हुआ है और हाकिम इसी इंतिज़ार में रहा कि शायद कोई नया सबूत और शहादत उस के ख़िलाफ़ पैदा हो जाये। और एक बड़ी वजह ये भी थी, कि फेलिक्स हाकिम को उम्मीद थी कि इस मज़्हबी पेशवा के रिहा कराने के लिए उस को ज़र कसीर रिश्वत के तौर पर मिल जाएगा। फेलिक्स पौलूस की बातें शौक़ से सुना करता था। जैसे कि हेरोदेस यूहन्ना इस्तिबाग़ी की बातें।

170. पौलूस क़ैद की हालत में आलम-ए-तन्हाई में ना था कम से कम जिस बारक में वो क़ैद था उस की सब कोठड़ीयों में वो आ जा सकता था। वो इन बार्कों की फ़सील पर खड़े हो कर बहीरा शाम की तरफ़ नज़र मारता होगा। मक़िदूनिया, अख़ीया, इफ़िसुस के इलाक़ों की तरफ़ उस की निगाह जाती होगी जहां उस के रुहानी फ़र्ज़न्द उस के लिए कुढ़ रहे थे। या ऐसे ख़तरों से घिरे थे। जिनसे बचने के लिए पौलूस की मौजूदगी उनके दर्मियान ज़रूरी थी। क्यों ख़ुदा की क़ुद्रत कामिला ने ऐसे शख़्स को काम से रोक कर यूं बेकार कर दिया था। उस की समझ की रसाई से परे था। लेकिन अब हम इस की वजह मालूम कर सकते हैं। पौलूस को आराम की ज़रूरत थी। बीस साल की लगातार मेहनत के बाद उसे फ़ुर्सत दरकार थी कि अपने तजुर्बे की फ़स्ल ख़ित्ते में जमा कर सके। इस सारे अर्से में वह इन्जील के उस पहलू की मुनादी करता रहा। जो उस की मसीही ख़िदमत के शुरू में अरब के ब्याबान में रूह ने उस पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) किया था। लेकिन अब वो ज़िंदगी की उस मंज़िल पर पहुंच गया था। जहां से वो उस हक़ीक़त की जो येसू में है मुख़्तलिफ़ पहलूओं पर नज़र डाल सके और इस के लिए उसे फ़ुर्सत मिलना निहायत ज़रूर था। इसलिए ख़ुदा को पसंद आया कि वो क़ैदख़ाने में बंद जाये।

171. इन दो साल के अर्से में उसने कुछ नहीं लिखा। ये रुहानी गौर व फ़िक्र और अंदरूनी तरक़्क़ी का वक़्त था। लेकिन जब फिर लिखने के लिए क़लम उठाया तो इस गौर व फ़िक्र के नताइज हर क़दम पर आशकार होने लगे। इस असीरी (क़ैद) के बाद जो ख़त उस ने लिखे उनमें पहले की निस्बत ज़्यादा हलावत (लज़्ज़त, राहत) और तालीम का ज़्यादा कमाल पाया जाता है। ऐसा तो नहीं है जो बुनियाद उस ने रोमियों और गलाएतों के ख़तों में डाली थी इफ़िसियों और कुलस्सियों के ख़तों में उसी पर इमारत तामीर की गई है। अलबत्ता ये इमारत पहले की निस्बत ज़्यादा आला और दिलकश है। इनमें वो मसीह के काम पर बहुत ज़ोर नहीं देता बल्कि ख़ुद मसीह पर गुनेहगारों के रास्तबाज़ ठहरने का इतना ज़िक्र नहीं करता जिस क़द्र कि मुक़द्दसों की तक़्दीस का करता है। जो इन्जील उस पर अरब में ज़ाहिर हुई उस में मसीह की ज़मीनी तारीख़ सब से नमूदार थी। और उस की पहली आमद को ऐसा ज़ाहिर किया जिसकी तरफ़ यहूदी और ग़ैर क़ौम दोनों को आना चाहिए लेकिन जो इन्जील केसरिया में उस पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हुई उस में जलाली आस्मानी मसीह की तस्वीर दिखाई गई। सारी चीज़ें मसीह के लिए ख़ल्क़ हुईं। ये मसीह फ़रिश्तों और जहानों का ख़ुदावंद बयान किया गया है। जिसकी दूसरी आमद के लिए सारे आलम तैयारी कर रहे हैं। जिससे जिसके वसीले और जिस के लिए सारी चीज़ें हैं पहले ख़तों में मसीही ज़िंदगी के पहले क़दम यानी आदमी के रास्तबाज़ ठहरने का मुफ़स्सिल ज़िक्र हुआ लेकिन पिछले ख़तों में उस रिश्ते का ख़ास ज़िक्र है जो रास्तबाज़ ठहराए हुए शख़्स और मसीह के दर्मियान है। उस की तालीम के मुताबिक़ मसीही ज़िंदगी का सारा नज़ारा मसीह और रूह के माबैन रिश्ते पर मबनी है और इस रिश्तेदार को ज़ाहिर करने के लिए उस ने चंद तश्बीहें इस्तिमाल की हैं मसलन ईमानदार मसीह में हैं। और मसीह उन में है। उनका इस में वही रिश्ता है जो इमारत के पत्थरों का बुनियाद पत्थरों से होता है या जैसे शाख़ों का दरख़्त से या जैसे आज़ा का सर से। या बीवी का ख़ावंद से ये इत्तिहाद रुहानी है क्योंकि ख़ुदा ने अपने अज़ली इरादे में मसीह और ईमानदार को एक ही धागे में पिरो दिया है। ये शरई भी है क्योंकि उनके क़र्ज़ और नेकियां माल मुशतर्का हैं। ये ज़िंदा है क्योंकि मसीह के साथ ताल्लुक़ रखने से पाक और तरक़्कीकुन ज़िंदगी की क़ुद्रत हासिल होती है। ये अख़्लाक़ी भी है क्योंकि मिज़ाज और दिल में सीरत और चलन में मसीही अश्ख़ास रोज़ बरोज़ मसीह की मानिंद बनते चले जाते हैं।

172. इन पिछले ख़तों की एक ख़ूबी ये भी है कि इस में रुहानी और अख़्लाक़ी तालीम का मुवाज़ना पाया जाता है क्योंकि इन ख़तों में तक़रीबन हमेशा दो हिस्से हैं। पहले हिस्से में उमूमन उसूली तालीम का ज़िक्र है और दूसरे हिस्से में अख़्लाक़ी नसीहतें हैं। पौलूस की अख़्लाक़ी तालीम मसीही ज़िंदगी के हर सीगे (शोबा या सिलसिला) पर हावी है कोई ख़ास बाक़ायदा तर्बियत तो उन फ़राइज़ की पाई नहीं जाती अलबत्ता ख़ानगी फ़राइज़ का कुछ मुफ़स्सिल ज़िक्र है। और उनमें ख़ासकर मसीही चलन की तहरीक और नीयत पर ज़ोर दिया गया है। पौलूस के नज़्दीक मसीही अख़्लाक़ ख़ासकर तहरीक व नीयत के अख़्लाक़ हैं। मसीह की कुल तारीख़ ना ज़मीनी ज़िंदगी की तफ़्सील बल्कि मख़लिसी देने वाला सफ़र जो आस्मान से ज़मीन की तरफ़ और ज़मीन से आस्मान की तरफ़ हुआ एक ऐसा आला नमूना है जिसकी पैरवी हर रोज़ मसीही को करनी लाज़िम है। ख़्वाह फ़र्ज़ कैसा ही ख़फ़ीफ़ क्यों ना हो वो मसीह के अफ़आल के उसूल में से किसी ना किसी की तश्रीह हो सकता है। आम फ़िरोतनी और मेहरबानी के काम उस ख़ाकसारी की नक़्ल है जिसके ज़रीये वो जो ख़ुदा के बराबर था वो इन्सान बना। और ख़ादिम की सूरत पकड़ी और सलीबी मौत तक फ़र्मांबरदार रहा और मसीहियों की बाहमी मुहब्बत के लिए वो आम रिश्ता याद रखना चाहिए जो उन के और मसीह के दर्मियान है।

173. जब पौलूस को क़ैद हुए दो साल गुज़र गए तो फेलिक्स की जगह फेस्तुस फ़िलिस्तीन का हाकिम हो कर आया। यहूदी बराबर इस साज़िश में लगे रहे कि पौलूस उनके हाथों में आ पड़े। और नए हाकिम के आते ही उन्होंने ये ज़िद करनी शुरू की कि पौलूस उनके सपुर्द कर दिया जाये। जब फेस्तुस इसी ताम्मुल में था तो पौलूस ने भी रोमी हुक़ूक़ को जताया कि मैं रोम में भेज दिया जाऊं ताकि क़ैसर के तख़्त अदालत के सामने अपना मुक़द्दमा पेश करूँ। हाकिम इस दरख़्वास्त को नामंज़ूर ना कर सकता था। इसलिए क़ैदी के तौर पर वो फ़ौरन रोम की तरफ़ रवाना कर दिया गया। अल-ग़र्ज़ दीगर क़ैदियों के हमराह रोमी सिपाहियों की ज़ेर-ए-निगरानी वो जहाज़ में रवाना कर दिया गया।

174. इस सफ़र का अहवाल रसूलों के आमाल की किताब में महफ़ूज़ है और क़दीम ज़माने की जहाज़रानी के मुताल्लिक़ एक बेश-बहा ख़ज़ाना है और पौलूस की ज़िंदगी की भी ये एक क़ीमती तारीख़ है। क्योंकि इस किताब से पौलूस की सीरत बख़ूबी ज़ाहिर होती है जहाज़ तो एक जहान ख़ुर्द है ये जज़ीरा रवां है जिसमें हाकिम और मह्कूम दोनों पाए जाते हैं। लेकिन वहां की हुकूमत अमरीका की जमहूरी हुकूमत की मानिंद है जहां तमद्दुनी इन्क़िलाब नागहां पैदा हो जाते हैं। और जो सबसे लायक़ शख़्स होता है वो सर गर्दा बन जाता है ये सफ़र निहायत पुर-ख़तर था। जिसमें बड़ी हिम्मत दरकार थी। ताकि लोग एतबार करें और जो किया जाये उसे मानें सफ़र अभी ख़त्म ना हुआ था कि पौलूस एक तरह से जहाज़ का कप्तान और सिपाहियों का जरनैल ज़ाहिर होता है और जितने जहाज़ पर थे। उनकी ज़िंदगी पौलूस के ज़रीये बच गई।

175. आख़िरकार समुंद्र के ख़तरात का ख़ातिमा हुआ और पौलूस अपोल्लूस के रास्ते से रोमी सल्तनत के दार-उल-ख़िलाफ़ा के क़रीब पहुंचा। और अहले मशरिक़ उमूमन इसी राह से रोम में आया करते थे। जूंही वो रोम के नज़्दीक आया शहर का शोर गुल चारों तरफ़ से उस के कान तक पहुंचने लगा। और रोमी शान व शौकत के निशान हर क़दम पर ज़ाहिर होने लगे बहुत बरसों से पौलूस को रोम जाने की आरज़ू थी। लेकिन उस को कभी ये ख़याल ना था, कि मैं इस तरीक़े से वहां जाऊँगा। जैसे कोई जरनैल किसी मुल्क को फ़त्ह करते वक़्त उस के मज़्बूत क़िले पर धावा करना चाहता है इसी तरह पौलूस रोम पर हमला किया चाहता था पौलूस तो मसीह के लिए जहान को फ़त्ह करने में मसरूफ़ था। और रोम इस जहान का मज़्बूत क़िला था। इसलिए उस को बड़ी आरज़ू थी कि अपने ख़ुदावंद के लिए इस बड़े शहर को भी फ़त्ह करे चंद साल पहले उस ने इस अम्र की इत्तिला लिख भेजी थी मैं तुमको भी जो रोमा में हो। ख़ुश-ख़बरी सुनाने को हत्तलमक़्दूर (पूरी ताक़त से) तैयार हूँ। क्योंकि मैं इन्जील से शर्माता नहीं इस लिए कि वो हर एक ईमान लाने वाले के वास्ते।…. नजात के लिए ख़ुदा की क़ुद्रत है। लेकिन अब जो वो रोम में पहुंचा तो अपनी इस ज़लील हालत को देखकर बहुत अफ़्सुर्दा ख़ातिर हुआ। बुढ़ापे का ज़ोर है बाल सफ़ैद हो गए हैं। मुसीबतों ने चूर कर दिया है। हाथों में ज़ंजीर है जहाज़ को तबाही से बमुश्किल नजात मिली है ये सारे माजरे वो अपने दिल से दूर ना कर सकता था। लेकिन ऐन वक़्त पर एक छोटे से वाक़िये ने उस की हिम्मत बढ़ा दी रोम से कोई चालीस मील के फ़ासले पर एक छोटे से गांव में चंद मसीही भाई उससे मिलने को आए। उनको पौलूस के आने की ख़बर मिली थी। ये उस की मुलाक़ात को निकले थे। और फिर दस मील आगे बढ़कर चंद और मसीही उस की मुलाक़ात को आए। अगरचे पौलूस को अपने पर बहुत भरोसा था फिर भी इन्सानी हम्दर्दी की अज़हद क़द्र करता था। इसलिए इन चंद मसीहियों की मुलाक़ात से उस के दिल की पिसर मुर्दा (मुरझाया हुआ) कली खिल गई और उस ने ख़ुदा का शुक्र किया और हिम्मत बाँधी। और पुराने ख़यालात बड़े शद्व मद (ज़ोर शोर) के साथ ताज़ा हो गए और जब इन दोस्तों के हमराह अलबान पहाड़ी के उस हिस्से पर पहुंचा जहां से शहर का नज़ारा पहली दफ़ाअ नज़र पड़ता है उस का दिल फ़त्ह की उम्मीद से भर गया। ना क़ैदी की हैसियत से बल्कि एक फ़ातेह की हैसियत से वो शहर के फाटक से गुज़रा और इसी राह से उस का गुज़र हुआ जो मुक़द्दस सड़क कहलाती और अक्सर रोमी जरनैल इसी राह से फ़त्हमंदी की गाड़ी पर सवार कर दुश्मनों की ग़नीमत और असीरों (क़ैदियों) को लेकर गुज़रे थे और अहले-शहर आफ़रीन और शाबाश के नारे मारते थे। पौलूस का तो ये हाल ना था। ना तो फ़त्हमंदी की गाड़ी पर वो सवार है बल्कि तकान के मारे क़दम भी जल्दी नहीं उठता। ना तमगे ना दीगर ज़ेवरात ज़ेब-ए-तन हैं। अगर है तो हाथ में ज़ंजीर है और वो भी लोहे की ना अवामुन्नास तारीफ़ व आफ़रीन के नारे बुलंद करते हैं। सिर्फ चंद ग़रीब भाई हमराह हैं। लेकिन ऐसे फ़ातेह का क़दम पहले यहां ना पड़ा था और ना किसी को ऐसी आला फ़त्ह की उम्मीद थी जैसे कि पौलूस को थी।

176. अब पौलूस शहर तरफ़ नहीं जा रहा बल्कि क़ैदख़ाने की तरफ़ और उसे बहुत अर्से तक क़ैदख़ाने में रहना था। क्योंकि उस का मुक़द्दमा दो साल तक पेश ना हुआ क़ानूनी ताख़ीर तो हर मुल्क और हर ज़माने में ज़रब-उल-मसल है। और नीरू के अहद सल्तनत में भी वो इस इल्ज़ाम से मुस्तसना (जुदा या अलैहदा) ना थी। क्योंकि ये तो मशहूर बात थी, कि नीरू मिज़ाज का ऐसा छिछोरा था, कि ज़रा से ऐश के काम के लिए या ज़रा सा चिड़ने से बड़े-बड़े ज़रूरी कामों को मारज़ ताख़ीर (देरी) में डाल देता। अलबत्ता ये तो हम जानते हैं, कि ये क़ैद बहुत ही नर्म क़िस्म की थी। शायद जो कप्तान उसे रोम में लाया था। उस ने पौलूस की कुछ सिफ़ारिश की होगी। कि इस ने जहाज़ पर मेरी जान बचाई थी। या शायद जिस अफ़्सर के वो सपुर्द हुआ वो साहिब-ए-इंसाफ़ व मुरव्वत था और ग़ालिबन पौलूस का हाल सुनकर उस को उस से हम्दर्दी पैदा हो गई हो। बहर-हाल पौलूस को इजाज़त मिल गई थी, कि वो किराये का घर लेकर रहे। वहां उस को पूरी आज़ादी थी सिवाए इस अम्र के कि जिस सिपाही के वो सपुर्द था वो हमेशा साये की तरह उस के साथ था।

177. पौलूस जैसे शख़्स को ऐसी हालत कब गवारा हो सकती थी। वो तो ये चाहता है कि इस बड़े शहर में हर इबादतखाने में जा कर मसीह की ख़ुशख़बरी देता। वहां के गली कूचों में इन्जील की मुनादी करता और यहां के बाशिंदों के दर्मियान कलीसिया और जमाअत क़ायम करता। शायद कोई दूसरा शख़्स ऐसी हालत में पड़ कर सुस्त और काहिल और मायूस बन जाता। लेकिन पौलूस का ये हाल ना था। बल्कि उस की कोशिश से उस के कमरा की तासीर दूर-दूर पहुंच गई। और थोड़े ही फ़ासिले के अंदर उस ने ऐसी क़ुव्वत की बुनियाद डाली जिसने जहान को हिला दिया। और नीरू के दार-उल-ख़िलाफ़ा ही में उस हुकूमत का बुनियादी पत्थर रख दिया जो रोमी सल्तनत से कहीं बढ़कर थी।

178. और इस तक्लीफ़-देह हालत से भी उस ने फ़ायदा उठाया जैसा ऊपर ज़िक्र हुआ। एक सिपाही हर दम उस की निगरानी करता था। पौलूस जैसे मिज़ाज के शख़्स के लिए अक्सर ये तक्लीफ़ का बाइस हुआ होगा। और जो ख़त उस ने क़ैद-ख़ाने से लिखे उन में अक्सर वो अपनी ज़ंजीर का ज़िक्र करता है। जिससे ज़ाहिर है कि वो ज़ंजीर उस के दिल में चुभ गई थी। लेकिन इस तक्लीफ़ के बाइस वो उस फ़ायदे को नज़र-अंदाज ना कर सकता था, जो इस हालत में हासिल हो सकता था। ये सिपाही तो बराबर चंद घंटों के बाद बदलता रहता था। और दूसरा सिपाही पहले की जगह पहरे के लिए आ जाता था यूं चौबीस घंटे के अंदर उस को कम से कम छः या आठ सिपाहियों से वास्ता पड़ता था। और ये सिपाही शाही दस्ते से मुताल्लिक़ थे। और ये शाही दस्ता सारी रोमी फ़ौज का गोया नाक था। भला पौलूस इतने घंटे बिला (बगैर) मसीह का ज़िक्र किए कब रह सकता था। वो उन सिपाहियों से उनकी ग़ैर-फ़ानी रूहों और मसीह के ईमान का ज़िक्र करता था। ये लोग जो रोमी जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) के होलनाक नज़ारों और रोमी छावनी के दस्तूरों के आदी थे। उनके लिए पौलूस की ज़िंदगी और सीरत बिल्कुल अजीब और बेनज़ीर थी। उनके साथ गुफ़्तगु करने का नतीजा ये हुआ कि इनमें से बहुत लोग ईमान लाए और सारी छावनी में ये आग भड़क उठी और शाही ख़ानदान तक जा पहुंची। पौलूस का कमरा इन लोगों से भरा रहता था। पौलूस को इनके साथ हम्दर्दी थी और उनकी हस्बे तबीयत वो उनसे कलाम करता था। बल्कि ख़ुद पौलूस एक जंगी तबीयत का शख़्स था। और उस ने रुहानी शख़्स की तस्वीर का ख़ाका भी एक सिपाही के तौर पर खींचा है चुनान्चे वो कहता है कि ख़ुदा के सारे हथियार बांध लो ताकि तुम इब्लीस के मन्सूबों के मुक़ाबले में क़ायम रह सको। क्योंकि हमें ख़ून और गोश्त से कुश्ती नहीं करनी है बल्कि हुकूमत वालों और इख़्तियार वालों और इस दुनिया की तारीकी के हाकिमों और शरारत की उन रुहानी फ़ौजों से जो आस्मानी मुक़ामों में हैं। इस वास्ते तुम ख़ुदा के सारे हथियार बांध लो ताकि बुरे दिन में मुक़ाबला कर सको और सब कामों को अंजाम देकर क़ायम रह सको। पस सच्चाई से अपनी कमर किस कर और रास्तबाज़ी का बक्तर लगा कर और पांव में ज़िला की ख़ुश-ख़बरी की तैयारी के जूते पहन कर और इन सब के साथ ईमान की सिपर लगा कर क़ायम रहो। जिस से तुम उस शरीर (बेदीन) के सारे जलते हुए तीरों को बुझा सको और नजात का ख़ुर्द और रूह की तल्वार जो ख़ुदा का कलाम है ले लो। ये ख़ाका पौलूस ने उस सिपाही की हालत से लिया जो हर वक़्त उस के कमरे में उस के साथ था। और ग़ालिबन वो अपने सामईन के कानों को इन से मानूस कर चुका था। पेश्तर इस से कि अहाता तहरीर में आएं।

179. इनके इलावा दूसरे लोग भी उस को देखने जाते थे। रोम में जो लोग मसीही दीन से कुछ उन्स (मुहब्बत) रखते थे। ख़्वाह वो यहूदी थे। या ग़ैर क़ौम उस के पास जाया करते थे। और इस दो साल की क़ैद के अर्से में शायद कोई दिन ऐसा गुज़रा होगा। जिसमें कोई ना कोई ऐसे अश्ख़ास में से मिलने गया हो। रोमी मसीही तो ऐसे शौक़ से उस के पास जाते थे। जैसे ख़ुदा का कलाम सुनने के लिए जाया करते हैं। बहुत से मसीही उस्तादों की तलवारें वहां सीतल (क़लई) की गईं। और इस शहर के मसीहियों में एक नई जान पड़ गई। बाअज़ बाप अपने बेटों को उस के पास ले जाते थे। बाअज़ दोस्त अपने दोस्तों को ताकि पौलूस की नसीहत से उनके दिल पर असर हो। और ज़मीर बेदार हो बाअज़ इत्तिफ़ाक़ से वहां जा निकले और नई इन्सानियत का जामा पहने हुए वहां से बाहर आए। चुनान्चे अनियस ऐसा ही एक शख़्स था। ये ग़ुलाम कुलस्से से भाग कर रोम में आ निकला जिसे पौलूस ने वापिस उस के आक़ा फ़िलेमोन के पास भेज दिया। ना ग़ुलाम के तौर पर बल्कि प्यारे भाई के तौर पर।

180. नौजवानों पर पौलूस की तासीर अजीब थी। पौलूस की मर्दाना तबीयत उनको अक्सर अपनी तरफ़ खींच लाती थी। पौलूस को उन से बड़ी हम्दर्दी थी और उनको अपने काम में इस से बड़ी हिम्मत और दिलेरी मिलती थी। ये नौजवान दोस्त जो मसीह की ख़िदमत के लिए सारे जहान में मुंतशिर (बिखरे) थे। रोम में उस के पास आ जमा हुए। तिमातियुस, लूक़ा, मर्क़ुस, वारसतरख़स, तख़कस, और अपफ़रास और बहुत दूसरे दोस्त आन कर हिक्मत और सर गर्मी के इस ताज़ा बहते चशमे से सैर हासिल होते। और वहां से पौलूस ने उनको फिर कलीसियाओं के पास पैग़ाम देकर और उनकी ख़बर लाने के लिए भेज दिया।

181. दूर दराज़ ममालिक में जो लोग उस के ज़रीये ईमान लाते थे। पौलूस उनका बड़ा ख़याल रखता था। हर रोज़ उस का समुंद्र ख़याल गलातिया के मर्ग़-ज़ारों (चरागाहों) और एशीया और यूनान के साहिलों पर दौड़ता फिरता था। और हर रात को वो अन्ताकिया, इफ़िसुस, फिलिप्पी थिस्सलुनीकी और कुरंतुस के मसीहियों के लिए दुआ मांगा करता था। और उस को ये सुनकर बड़ी ख़ुशी हासिल हुई कि वो भी उसे याद रखते हैं। कभी किसी कलीसिया का एलची उस के कमरे में आ मुंह दिखाता और उन मसीहियों की तरफ़ से सलाम पहुँचाता और कभी-कभी चंदा लेकर आता ताकि पौलूस की दुनियावी ज़रूरीयात रफ़ा करें। या किसी ख़ास मसअले या दस्तूर या मुश्किलात के बारे में उस की सलाह व मश्वरत पूछे। ये एलची कभी ख़ाली हाथ ना भेजे जाते। वो मुहब्बत का पैग़ाम या उस रसूल की सुनहरी नसीहत और मश्वरत लेकर जाते। और बाज़ औक़ात कुछ ज़्यादा क़ीमती ख़ज़ाना भी उनके हमराह रवाना किया जाता। चुनान्चे जब फिलिप्पी की कलीसिया की तरफ़ से एपाफ़िरौदेतस मुहब्बत की क़ुर्बानी लेकर पौलूस के पास आया तो उस के हाथ ना सिर्फ उनकी मेहरबानी की रसीद भेजी गई। बल्कि फिलिप्पियों की तरफ़ का ख़त भी और हम जानते हैं कि उस के ख़तों में ये ख़त कैसा आला रुत्बा रखता है। और इस में पौलूस की मुहब्बत का कैसा इज़्हार है बल्कि माँ की मुहब्बत से ज़्यादा पौलूस के दिल में इन मसीहियों की मुहब्बत मालूम होती है। और जब अनियुस को उस ने वापिस भेजा तो वो ख़त फ़िलेमोन के नाम का उस के सपुर्द किया जो हुस्न-ए-अख़लाक़ में बेनज़ीर है इलावा अज़ीं कुलेस्से कलीसिया के लिए भी एक ख़त उस को दिया। पौलूस ने ये ख़त क़ैदख़ाने ही से लिखे जिससे उस की मेहनत और कोशिश का अंदाज़ा लग सकता है। मज़ीदबराँ इफ़िसियों की तरफ़ का ख़त भी यहां ही अहाता तहरीर में आया। जो आला रुहानी तालीम के लिहाज़ से शायद दुनिया भर में अपना सानी नहीं रखता। मसीह की कलीसिया ने ख़ुदा के बंदों की क़ैद के तुफ़ैल बहुत बरकतें हासिल की हैं। चुनान्चे मसीही मुसाफ़िर की किताब जो ग़ैर-इल्हामी किताबों में एक आला किताब है। वो जेल ख़ाने ही में लिखी गई। लेकिन शायद सबसे बढ़कर पौलूस की क़ैद के ज़रीये कलीसिया ने फ़ायदा उठाया। जब उस को क़ैसरिया और रोम में दीगर कामों से फ़ुर्सत मिली और उस ने ये ख़ज़ाना अपने दिल के मख़ज़न से बाहर निकाला।

182. शायद पौलूस को भी ये मश्शाक़ गुज़रा हो कि ख़ुदा ने इस तरह से इस ख़िदमत को जो वो बरसों अंजाम दे रहा था। इस क़ैद के ज़रीये बिल्कुल मुअत्तल (अलैहदा) कर दिया। लेकिन ख़ुदा के ख़यालात इन्सान के ख़यालात से आला हैं और ख़ुदा की राहें इन्सान की राहों से आला हैं और ख़ुदा ने उस को फ़ज़्ल दिया कि वो अपनी इस हालत की आज़माईश पर ग़ालिब आए और इस हालत मज्बूरी में दुनिया की बहबूदी और अपने काम की मज़बूती के लिए ऐसा कुछ कर सके। जो और बीस बरस मिशनरी काम करने से भी ना हो सकता था। इस कमरे में बैठे हुए वो अपने दिल में हज़ारहा मील के फ़ासले की आह ज़ारी को सुन सकता था। और अपने नमूने और नसीहत के ज़रीये हर तरफ़ हिम्मत और दिलेरी पैदा कर रहा था। वो ध्यान में डूब कर उस चट्टान पर चोट मारता था। जिसमें से जीते पानी की नदियाँ फूट निकलती थीं और जो अब तक ख़ुदा के शहर को सेराब कर रही हैं।

183. आमाल की किताब तो पौलूस के दो साल तक रोम में क़ैद रहने पर यकलख़त (फ़ौरन) ख़त्म हो जाती है। क्या और कुछ बयान करने के लिए बाक़ी ना रहा था। और जब पौलूस का मुक़द्दमा पेश हुआ तो मौत का फ़त्वा उस पर जारी हो गया या वो क़ैद से आज़ाद हो कर फिर अपने काम में मशग़ूल हो गया। सवाल के जवाब देने में रिवायत से मदद मिलती है। और ये पता लगता है, कि मुक़द्दमें के पेश होने पर वो बरी हो गया। और दौरा शुरू कर दिया। और हसपानिया वग़ैरह ममालिक को गया। और कुछ देर के बाद वो फिर असीर (क़ैदी) हो कर रोम भेजा गया। और नीरू के जोरो सितम के ख़ंजर से शहीद हुआ।

184. इस की तस्दीक़ मह्ज़ रिवायत पर मुन्हसिर नहीं। बल्कि ख़ुद पौलूस की तहरीरें हमारे पास मौजूद हैं जो पहले दो साल की क़ैद से रिहा होने के बाद उस ने लिखें। यानी चौपानी ख़ुतूत या तिमाताऊस और तितुस की तरफ़ के ख़ुतूत। इन ख़तों से ज़ाहिर है, कि उस को आज़ादगी हासिल हुई और क़ायम कर्दा कलीसियाओं को जा कर उस ने देखा और कई कलीसियाएं क़ायम कीं। अलबत्ता इस दौरे की तफ़्सील तो ठीक तौर पर हमको मालूम नहीं हो सकती। उस के इफ़िसुस और त्राओस में जाने का ज़िक्र है। करनिए को वो गया और यूनान के शुमाली अज़ला का उस ने दौरा किया। और उस ने अपने नौजवान दोस्तों को कलीसियाओं के इंतिज़ाम और निगरानी के लिए मुक़र्रर किया।

185. लेकिन देर तक ये हाल ना रहा। उस की रिहाई के ऐन बाद ही रोम को आग लग गई और वो जल कर ख़ाक-ए-सियाह हो गया। जिसके शोलों की याद से अब तक हमारे बदनों पर रौंगटे खड़े हो जाते हैं। और शायद ख़ुद क़ैसर ही की मुतलव्विन मिज़ाजी (रंग बदलने वाला, जिसके मिज़ाज में इस्तिक़लाल ना हो) का ये एक चोचला हो। लेकिन नीरू ने ये मुनासिब समझा कि इस का इल्ज़ाम मसीहियों पर लगाया जाये। फिर तो क्या था बेचारे मसीही तरह-तरह के अज़ाब में मुब्तला हुए इस की शौहरत सारी सल्तनत में फैल गई। फिर मसीही दीन के रसूल को कहाँ चैन मिल सकता था। और हर गवर्नर ख़ूब जानता था, कि अगर मैं पौलूस को पकड़ कर नीरू के पास भेज दूंगा। तो नीरू बहुत ख़ुश होगा।

186. बहुत अर्सा ना गुज़रा था कि पौलूस फिर गिरफ़्तार हो कर क़ैदख़ाने में आया उस वक़्त ये क़ैद बहुत सख़्त थी। उस की कोठरी दोस्तों से ख़ाली है। मुलाक़ात के लिए लोग बहुत कम वहां आते हैं। क्योंकि रोम के बहुत मसीही तो तह-ए-तेग़ (तलवार से क़त्ल होना) हुए। बहुत रोम छोड़कर भाग गए। बल्कि किसी का अपने तईं मसीही कहना जान को माअरिज़-ए-ख़तर में डालना था। इस क़ैदख़ाने से जो ख़त उसने लिखा वो अब तक हमारे पास मौजूद है। ये उस का आख़िरी ख़त है। यानी तिमताऊस की तरफ़ का दूसरा ख़त। इस ख़त से पौलूस की दर्द-नाक हालत का कुछ पता लगता है। इस में ज़िक्र है कि उस के मुक़द्दमे की एक पेशी तो हो चुकी है। और जब वो तख़्त अदालत के सामने ज़ालिम हाकिम पेश हुआ तो कोई यार ग़मखार उस के साथ ना था। अलबत्ता ख़ुदा उस के साथ था। जिसने उस को तौफ़ीक़ बख़्शी, कि क़ैसर और दीगर तमाशाइयों को इन्जील की बशारत सुनाए। जो इल्ज़ाम उस पर लगाया गया था। वो तो ग़लत साबित हुआ लेकिन फिर भी रिहाई की कोई उम्मीद बाक़ी ना थी। अभी और पेशी भुगतनी थी। और पौलूस जानता था, कि किसी ना किसी तरह से शहादत उस के ख़िलाफ़ तलाश की जाएगी। या घड़ ली जाएगी। इस ख़त में उस के क़ैदख़ाने की मुसीबतों का कुछ ज़िक्र पाया जाता है। उस ने तिमताऊस को ताकीद से कहला भेजा, कि जो चोग़ा मैं त्रोआस में छोड़ आया हूँ। वो अपने साथ लेते आना। इस क़ैदख़ाने की रतूबत और मौसम-ए-सरमा की शिद्दत से बचने के लिए उस की बड़ी ज़रूरत थी। और किताबें और काग़ज़ भी मंगवाए ताकि अपने आलम-ए-तन्हाई में तहरीर व मुतालआ के ज़रीये अपना दिल बहलाए। लेकिन इन सबसे ज़्यादा उस ने ख़ुद तिमताऊस को अपने पास आने की ताकीद की ताकि आख़िरी वक़्त में एक दोस्त अज़ीज़ की मौजूदगी से उस के दिल को ढारस और कलेजे को ठंडक हो। क्या उस वक़्त वो बहादुर शेर दिल मग़्लूब हो गया था। ख़त के पढ़ने से इस का जवाब मिल सकता है चुनान्चे शुरू ख़त ही में ये अल्फ़ाज़ आते हैं। इसी बाइस से मैं ये दुख भी उठाता हूँ। लेकिन शर्माता नहीं। क्योंकि जिसका मैंने यक़ीन किया है उसे जानता हूँ और मुझे यक़ीन है कि वो मेरी अमानत की उस दिन तक हिफ़ाज़त कर सकता है। 2 तिमताऊस 1:12 और इस ख़त के आख़िर में ये बयान है मैं अब क़ुर्बान हो रहा हूँ और मेरे कूच का वक़्त आ पहुंचा है मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका। मैंने दौड़ को ख़त्म कर लिया मैंने ईमान को महफ़ूज़ रखा। आइन्दा के लिए मेरे वास्ते रास्तबाज़ी का वो ताज रखा हुआ है जो आदिल मुंसिफ़ यानी ख़ुदावंद मुझे उस दिन देगा। और सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि उन सबको भी जो उस के ज़हूर के आर्ज़ूमंद हों। 2 तिमताऊस 4:5, 8, ये अल्फ़ाज़ मग़्लूब और मायूस शख़्स के नहीं।

187. कुछ शक नहीं कि नीरू के तख़्त अदालत के सामने वो फिर पेश हुआ और इस वक़्त वो इल्ज़ाम रफ़ा दफ़ाअ (दूर करना) ना हुआ। नैरंगी ज़माने की ये एक अजीब मिसाल है कि इस वक़्त जो शाही अर्ग़वानी लिबास ज़ेब-ए-तन के तख़्त पर बैठा है वो इस ख़राब दुनिया में सबसे ख़राब और कमीना शख़्स है जिसका दामन हर तरह के जुर्म से आलूदा हो चुका है ये वो शख़्स है जिसने अपनी वालिदा माजिदा को क़त्ल किया। जिसने अपनी बीवीयों को मरवा डाला। जिसने मुह्सिनकुश की शौहरत हासिल की। जिसका बदन और रूह हर तरह की गंदगी से ऐसा आलूदा था कि उस के किसी हम-अस्र ने ख़ूब कहा कि वो कीचड़ा और ख़ून से मुरक्कब है और क़ैदख़ाने’ में एक ऐसा शख़्स है। जिसका सानी मिलना दुनिया में मुहाल (मुश्किल) है जो इन्सान और ख़ुदा की ख़िदमत में मेहनत करते-करते सर सफ़ैद हो गया। अल-ग़र्ज़ जो शख़्स तख़्त अदालत पर बैठा और जो उस के सामने खड़ा है उनमें ज़मीन व आस्मान का फर्क है।

188. मुक़द्दमे का फ़ैसला हो गया। पौलूस पर मौत का फ़त्वा दिया गया। और वो जल्लाद के सपुर्द हुआ। उस को गिरफ़्तार कर के शहर के बाहर ले गए और शहर के शहदों की जमाअत उस के पीछे होली। जब मुत्तसिल (नज़दीक) पर पहुंचे तो उस ने घुटने टेक कर दुआ मांगनी शुरू की। उधर ज़ालिम जल्लाद ने तल्वार को हवा में हिला कर इस रसूल के सर को तन से जुदा कर दिया।

189. गुनाह ने अपना सारा ज़ोर लगाया और बज़ाहिर फ़त्हयाबी का नक़्क़ारा (तबल या बड़ा ढोल) ठोंका। लेकिन ख़ाली ढोल की तरह इस की फ़त्ह खोखली साबित हुई। इस शमशीर ने ज़िंदान बदन के क़ुफ़ुल ताला या लॉक) को तोड़ डाला और मर्ग़ रूह इस क़फ़स (क़ैदख़ाने) अंसरी से आज़ाद हो कर आलम-ए-बाला को परवाज़ कर गया। रोम जिसने लाज़वाल का ग़लत लक़ब हासिल किया था। इस मुक़द्दस शख़्स को अपने फाटकों से ख़ारिज कर के ख़ुश हुआ होगा। लेकिन उस आस्मानी शहर ने जो सच-मुच लाज़वाल है हज़ारचंद बेहतर तौर से इस को ख़ैर-मक़्दम और ख़ुश-आमदीद कहा। ज़मीन पर भी पौलूस मर नहीं गया। वो अब भी हमारे दर्मियान मौजूद है और उस की तासीर अब हज़ारहा गुना उस से ज़्यादा है। जब कि वो क़ैद जिस्म में मुक़य्यद (क़ैद) था। और उस की ज़िंदगी का असर कई गुनाह ज़्यादा हो रहा है। जहां कहीं मुबश्शिरों के पांव ख़ुशनुमा पहाड़ों पर पड़ते हैं। पौलूस उनके साथ हो कर उनको हौसला देता और उनकी रहबरी करता है। जिस इन्जील से वह कभी शर्माता ना था। वो अब हज़ारों गिरजाओं में हर सबत को और लाखों घरों में आज तक बराबर सुनाई जाती है। और जहां कहीं इन्सान कुद्दुसियत के सफ़ैद फूल की तलाश में कोशाँ हैं या ख़ुद-इंकारी की दुशवार गुज़ार चोटी पर चढ़ने के लिए जान फ़िशानी कर रहे हैं। वहां पौलूस जो ऐसा पाक और जो मसीह के लिए ऐसा जान-निसार था और जिस ने हमेशा एक ही मक़्सद को मद्द-ए-नज़र रखा सबसे अच्छा रफ़ीक़ और दोस्त समझा जाता है।