Jesus answered, “I am the way and the truth and the life. (John 14:6)
have the same mindset as Christ Jesus, (Philippians 2:5)
IMAGO CHRISTI
THE EXAMPLE OF JESUS CHRIST
BY
REV.JAMES STALKER, M.A
ATHORE OF
“THE LIFE OF JESUS CHRIST’ AND THE LIFE OF ST.PAUL”
यसूअ ने फ़रमाया “राह और हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ।” (युहन्ना 14:6) “वैसा ही मिज़ाज रखो जैसा मसीह यसूअ का था।” (फिलिप्पियों 2:5)
मसीह का नमूना
डाक्टर सटाकर साहब की किताब से तर्जुमा
किया गया
पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी
अनारकली लाहौर
1905 ई॰
Rev. James Stalker, D.D
1848-1927
मसीह का नमूना
पहला बाब
तम्हीद
मसीह की पैरवी मुसन्निफ़ टॉमस ए कम्पस
बाइबल को छोड़कर मसीही कलीसिया में और किसी किताब ने टॉमस ए कम्पस की मसीह की पैरवी के बराबर शौहरत व इशाअत हासिल नहीं की। सिर्फ एक और किताब है जो इस शौहरत व हर दिल-अज़ीज़ी (हर दिल को अज़ीज़) में किसी क़द्र उस की बराबरी का दअवा कर सकती है और वो बनइन साहब की किताब मसीही मुसाफ़िर है। मगर मसीहीयों के दिलों में जो जगह क़दीमी (पुरानी) किताब को हासिल है। वो मसीही मुसाफ़िर से कहीं बढ़कर है। क्योंकि जब दिव यूप की तस्वीर बहुत से मुताअस्सब (हसद करने वाला या हसद रखने वाला) रूमी कलीसिया वालों को मसीही मुसाफ़िर के मुतालआ से बाज़ रखती है। मसीह की पैरवी को तमाम मसीहीयों की नज़र में ख़्वाह वो किसी कलीसिया से ताल्लुक़ रखते या दुनिया के किसी हिस्से के रहने वाले हों यकसाँ (एक जैसी) इज़्ज़त हासिल है।
प्रोटैस्टैंट लोगों के लिए ख़ास इस वजह से भी ये किताब दिलचस्पी रखती है कि वो एक प्रोटैस्टैंट के हाथ की लिखी हुई नहीं। ये किताब पंद्रहवीं सदी ईस्वी में तस्नीफ़ हुई। और इस का मुस्सनिफ लुथर से एक सदी के क़रीब पहले गुज़रा। इसलिए ये उस ज़माने से ताल्लुक़ रखती है जो मसीही कलीसिया की तारीख़ में निहायत ही तारीक ज़माना शुमार किया जाता है। जब कि इन्सानी तशख़्ख़ुस के सामने ख़ुदा की रोशनी गुल होने के क़रीब मालूम होती थी। प्रोटैस्टैंट लोग इस्लाह से पहले ज़माने की निस्बत मुश्किल से ये ख़्याल करते हैं कि उस वक़्त मसीही मज़्हब ज़िंदा था। क्योंकि उस अह्द पर नज़र करने से इस क़द्र बेशुमार गलतीयां और ख़राबियां आँखों के सामने आती हैं कि ख़्याल गुज़रता है कि उस ज़माने में मसीह का मज़्हब सफ़ा दुनिया से गोया बिल्कुल नेस्त (मिट) हो गया। मगर ये अकेली किताब ही इस ग़लती को रफ़अ करने के लिए काफ़ी है। मसीह की पैरवी एक ऐसी आवाज़ की मानिंद है जो तारीकी में से निकल कर हमको ये याद दिलाती है कि मसीह की कलीसिया कभी बिल्कुल मादूम (ग़ायब) नहीं हुई। बल्कि बड़े से बड़े ज़वाल के ज़माने में भी ख़ुदा के शाहिद (गवाही देने वाले) और मसीह के इश्शाक (आशिक़ की जमा, इश्क़ करने वाले) दुनिया में बराबर मौजूद थे।
ख़ुद मसीह की पैरवी में भी उस बुरे ज़माने के जिसमें वो लिखी गई कई एक निशान मिलते हैं। उस में बाअज़ ऐसे तवहमात-ए-बातिला (झूटे वहमी ख़यालात) का ज़िक्र है जो ज़माना-ए-हाल में बिल्कुल मर्दूद (रद्द किए हुए, मलऊन, लानती, निकम्मे) हैं। मगर उस ख़राब ज़माने की इन यादगारों को देखकर इस किताब की निहायत अमीक़ (गहिरी) मसीही रूहानियत और भी ताज्जुबअंगेज़ मालूम होती है। इस के हर सफ़ा में मसीह की मुहब्बत और अक़ीदत के ऐसे पुरजोश बयानात मिलते हैं जो हर ज़माने के मसीही लोगों के दिल में घर करने वाले हैं।
तमाम किताब मुन्नजी (नजात देने वाले) की मुहब्बत के इस क़िस्म के पुर जोश इक़रारात से पुर है। और उस में फ़िल-जुम्ला (हासिल कलाम) एक बड़ी अजीब बात ये है कि रूह सीधी मसीह के पास जाती है और फ़ज़्ल के उन वसाइल पर कभी नहीं ठहरती जो उस ज़माने में उमूमन मुन्नजी (नजात देने वाले मसीहा) के क़ाइम मक़ाम समझे जाते थे और ना वह मुक़द्दस कुँवारी या दीगर मुक़द्दसीन की तोस्सल (वसीला) या सिफ़ारिश की। जिस पर रूमी कलीसिया की इबादती किताबों में इस क़द्र ज़ोर दिया जाता है कुछ हाजत मालूम करती है। ये बात कुल किताब में सबसे ज़्यादा सही और तसल्ली बख़्श अंसर है और हर एक ऐसे शख़्स के लिए ख़ुशी का बाइस है। जो ये यक़ीन करना चाहता है कि उस ज़माने में भी जब हक़ीक़ी दीनदारी की रूह इबादत के ज़ाहिरी दस्तुरात (उसूलों) के नीचे दब रही थी। बहुत ऐसी रूहें भी थीं जो उन तमाम रुकावटों के बावजूद ज़िंदा मुन्नजी (नजात देने वाले) की मुवासलत (मुलाक़ात) में ख़ुश थीं।
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अगरचे इस किताब के मुसन्निफ़ के हालात बहुत कम मालूम हैं मगर जो शख़्स इस का मुतालआ करता है वो उस की तबीयत से निहायत गाढ़ी वाफ़कीयत हासिल कर लेता है। मोअर्रिख की नज़र में तो उसी की हस्ती........ ……..साया की मानिंद मालूम होती है मगर ज़ाहिद व आबिद (परहेज़गार और इबादत करने वाले) शख़्स के लिए उस की शख़्सियत निहायत साफ़ व वाज़ेह है। उस की शख़्सियत सबसे जुदा और बाआसानी पहचानी जा सकती है और बावजूद ये कि उस की अक़ीदत व इख़्लास निहायत आला और जोश आमेज़ है तो भी उस में एक क़िस्म की सादगी और लताफ़त (उम्दगी) पाई जाती है। जिससे हमारे दिल ख़ुद बख़ुद उस की तरफ़ खिंचे जाते हैं। इलावा बरीं (इस के सिवा, इस के इलावा) जब हम किताब को खोलते हैं तो ऐसा महसूस करते हैं कि गोया हम ऐसे शख़्स की सोहबत में बैठे हैं। जिसने फ़िल-हक़ीक़त (हक़ीक़त में) ज़िंदगी का राज़ दर्याफ़्त कर लिया है। हम जान लेते हैं कि वो एक ऐसा शख़्स है। जिसने ज़िंदगी की थका देने वाली आवारागर्दी के बाद जिसमें शायद हम भी इस वक़्त फंसे हुए हैं। और बहुत सी जद्दो जहद (भाग दौड़, दौड़ धूप) के बाद जिसमें हम मशग़ूल हैं। आख़िरकार ख़ुदा के इत्मीनान को हासिल कर लिया है।
फिर वह हमें अलग ले जाता और हाथ पकड़ कर हमारी रहनुमाई करता है कि हम आराम के मुल्क को मुलाहिज़ा करें। इस किताब में यही ख़ूबी है जो सबसे बढ़कर है और जिसको कभी ज़वाल नहीं होगा। हम सब के दिलों में एक क़िस्म का खु़फ़ीया एतिक़ाद (अक़ीदा) है कि दुनिया में ज़रूर किसी ना किसी जगह कोई ऐसा बहिश्त (जन्नत) मौजूद है जो इस क़िस्म के दुख और तकालीफ़ से जिनमें हम गिरफ़्तार हैं। पाक है और जिसे ख़ुदा के फ़ज़्ल के दरिया सेराब करते हैं। और जब कभी कोई ऐसा शख़्स ज़ाहिर होता है, जिसके तौरो तरीक़ों और ख़ूबीयों से ऐसा मालूम होता है कि वो ख़ुदा के इस बाग-ए-अदन में रह चुका और इस दरिया के पानी से सेराब हुआ है तो हम उस को बड़ी ख़ुशी से क़ुबूल करते और बड़े शौक़ से उस की बातें सुनते हैं।
मगर ये ख़ुशनुमा ज़मीन कहाँ है? ये बहुत दूर नहीं। ये ख़ुद हमारे अंदर ही है क्योंकि लिखा है कि, “ख़ुदा की बादशाहत तुम में है।” लोग अपने से बाहर ख़ुशी तलाश करते हैं। यानी माल व दौलत में, इल्म में, शौहरत व नामूरी में, दोस्तों और रिश्तेदारों में, औरों का ज़िक्र तज़्किरा करने या नई नई ख़बरें सुनने में, वो अजाइबात की तलाश में दुनिया के हिस्सों में इधर उधर मारे मारे फिरते हैं। वो समुंद्र की तह में जाते और दौलत की तलाश में कार-ए-ज़मीन (ज़मीन की गहराई) तक पहुंचते हैं। उन के शोर अंगेज़ जज़्बात उन्हें ऐश व इशरत की अजीब व ग़रीब अश्या की जुस्तजू पर मज्बूर करते हैं वो एक दूसरे से जंग करते हैं, क्योंकि उन में से हर एक अपनी दिली बे इत्मीनानी से ये यक़ीन करता है कि उस का भाई उस ख़ुशी को जो उस का हिस्सा थी उस से छीन ले गया है। मगर इस तमाम अरसा में उन के पांव ख़ुशी से बराबर टक्कर खाते रहते हैं। क्योंकि वो दर हक़ीक़त संग-ए-राह (रास्ते का पत्थर) की तरह उन के पांव ही में पड़ी है। वो उस की तलाश में ज़मीन की हदूद तक भाग जाते हैं। हालाँकि वो घर ही में मौजूद है।
ये नसाएह (नसीहतें) भी सुनने में वैसी ही मालूम होती हैं जैसे दुनिया अक्सर अपने मुअल्लिमों की ज़बान से सुनती रहती है। वो सुनने में सतूएकी फील्सूफियों (एक ख़ास फ़ल्सफ़े के मानने वाले जो इल्म से इर्फ़ान तलाश करते हैं) के मसाइल की मानिंद मालूम होते हैं। जिन्होंने आख़िरकार को एक छोटा सा शेखीबाज़ ख़ुदा बना लिया। वह ज़माना-ए-हाल के बाअज़ मुअल्लिमों की ताअलीम की मानिंद सुनाई देती हैं जो अपनी हस्ती के मीनार को तामीर करना अपनी ज़िंदगी का हक़ीक़ी मक़्सद समझ कर दूसरों के हुक़ूक़ और अख़्लाक़ के निहायत पाक अहकाम को अपनी तहज़ीब नफ़्स के वास्ते क़ुर्बान कर देते हैं। हो सकता है कि ये मसअला कि बातिनी इन्सान की ख़बरदारी सबसे बढ़कर हम पर फ़र्ज़ है रफ़्ता-रफ़्ता मग़रूराना ख़ुदग़रज़ी के मसअले में तब्दील हो जाये। मगर टॉमस ए कम्पस ने इस बिगाड़ का पहले ही से बंदोबस्त कर लिया है। उस के अक़्वाल में कोई ऐसे करारे या चुभते हूए क़ौल नहीं जैसे वह जो उस ने ख़ुदी की सर्फ़राज़ी के बरख़िलाफ़ लिखे हैं। जब वो हमको ये नसीहत करता है कि हम बैरूनी अश्या से मुँह फेरकर अंदरूनी दौलत और ख़ुशी की तरफ़ मुतवज्जा हों तो वो ये भी साथ ही कहता है कि ये ख़ुशी व इत्मीनान हमको अपने आपे से हासिल नहीं हो सकती। अगरचे वह हमारे ही अंदर मौजूद है। मगर हमको अपने अंदर जगह ख़ाली करनी चाहीए ताकि वो ख़ुदा से मामूर हो जाये। क्योंकि रूह का हक़ीक़ी इत्मीनान सिर्फ उसी से है।
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मसीह की पैरवी की खूबियां बेमिस्ल और लाज़वाल हैं। मगर फिर भी ये किताब उन नक़ाइस से ख़ाली नहीं जो कि कम व बेश उस ज़माने और हालात से मुल्हिक़ थे।
मसीह की पैरवी
मसीह की पैरवी में एक नुक़्स है
जो साफ़ ज़ाहिर है और जिसका उमूमन ज़िक्र किया जाता है। इस का मुसन्निफ़ एक राहिब था। और उस को राहिब ख़ाने की दीवारों के अंदर ज़िंदगी बसर करने के लिए फ़क़त चंद ही क़वाइद की ज़रूरत थी। मगर हम आज़ाद हैं और आज़माईश व ख़तरात से भरी दुनिया के दर्मियान रहते हैं। जिसके लिए हमको एक बहुत आम और वसीअ नमूने की ज़रूरत है। ए कम्पस और उस के भाईयों के नज़्दीक ये दुनिया शरीर (शैतान) की ममल्कत है जिसमें से वो भाग कर निकल गए। वह नहीं चाहते थे कि उस से किसी क़िस्म का लेन-देन रखें। वो उस की हालत के बेहतर व दुरुस्त बनने की उम्मीद को छोड़ चुके थे। चुनान्चे वो लिखता है कि :-
“तुम्हें चाहीए कि आदमीयों की मुहब्बत व उल्फ़त की निस्बत ऐसे मुर्दा हो जाओ कि जहां तक हो सके, इन्सानी सोहबत के बग़ैर रहने के ख़्वाहिशमंद हो।”
ख़ुद ज़िंदगी भी उस के लिए एक मुसीबत थी। चुनान्चे वो अपनी किताब के एक निहायत तारीक और पुरदर्द सफ़ा में साफ़ लिखता है। “सचमुच इस ज़मीन पर जीना भी एक मुसीबत है।” ये ख़ुशी की बात है कि हमारा ये एतिक़ाद नहीं, क्योंकि दुनिया हमारे नज़्दीक ना तो वर्क़ सादा की तरह है, ना वर्क़ दागदार की तरह, बल्कि निहायत गहरे माअनों से पुर है और उस का अंजाम नेक है।
हमारे नज़्दीक वो ख़ुदा की दुनिया है। और हमारा काम ये है कि इस ज़िंदगी के तमाम हिस्सों में उसी की मर्ज़ी को पूरा करें और उसी के कलाम को तमाम शाह राहों और कूचों में फेलाएं। रहबानीयत गोया मसीही मज़्हब की तरफ़ से इस अम्र का इक़रार था कि दुनिया ने उस को पसपा कर दिया है। लेकिन इमरोज़ (आजकल) मसीही मज़्हब अपना झंडा हर एक साहिल पर क़ायम कर रहा है और फ़त्ह करते हुए और फ़त्ह करने को आगे आगे क़दम मार रहा है।
एक दूसरा नुक़्स
जो इस में है सो ये है कि इस में उस रुहानी इत्तिहाद का जो ईमानदारों को मसीह के साथ हासिल होता है कुछ ज़िक्र नहीं। मुक़द्दस पौलुस की तमाम ताअलीम के दो बुनियादी मसाइल हैं यानी मसीह की मौत के वसीले हमारा रास्तबाज़ ठहरना और हमारे अंदर मसीह की ज़िंदगी पैदा होने से हमारा मुक़द्दस होना। मोअख्ख़र उल ज़िक्र सच्चाई अगरचे इस किताब के सफ़्हों में बराबर पाई जाती है। मगर उस की अज़मत पूरे तौर पर जैसा कि उस का हक़ था, ज़ाहिर नहीं की गई।
अगरचे मसीह की पैरवी का नाम निहायत ख़ूबसूरत मालूम होता है। ताहम ये नाम उस गहरे और पोशीदा तरीक़े को पूरे तौर पर ज़ाहिर नहीं करता। जिसके मुताबिक़ मसीह के लोग उस की मानिंद बनते जाते हैं। पैरवी या नक़्ल एक बैरूनी अमल है। जिससे एक शख़्स किसी की सीरत व आदत को अपने अंदर लेने की कोशिश करता है। मगर ये ज़्यादा-तर फ़क़त बैरूनी नक़्ल के ज़रीये नहीं हो ताकि मसीही मसीह की मानिंद बनता जाता है बल्कि उस के साथ एक बातिनी इत्तिहाद होने के ज़रीये से। अगर इस अम्र के लिए लफ़्ज़ नक़्ल व तक़्लीद या पैरवी को इस्तिमाल भी करें तो ये एक ऐसी नक़्ल व तक़्लीद या पैरवी होगी जैसे बच्चा अपनी माँ की करता है। जिसको एक निहायत कामिल नक़्ल कह सकते हैं। बच्चा माँ की आवाज़, उस की हरकात व सकनात, उस की वज़अ व अंदाज़ की ज़रा ज़रा सी बात की अजीब व ग़रीब तौर से नक़्ल उतारता है। मगर ये नक़्ल किस लिए ऐसी कामिल है? शायद कोई कहे कि इस की ये वजह है कि बच्चे को अपनी माँ के देखने के बेशुमार मौके मिलते हैं या ये कि बच्चे की क़ुव्वत-ए-मुशाहिदा बहुत तेज़ होती है। मगर हर एक शख़्स जानता है कि इस में इस के इलावा कुछ और बात भी है। माँ बच्चे में मौजूद है। उस की विलादत के वक़्त उस ने अपनी तबीयत उस में डाल दी और ये उसी पोशीदा तासीर के सबब से है जो बच्चे में काम कर रही है कि इस नक़्ल में इस क़द्र कामयाबी हुई है। इसी तरह हम भी मसीह को ख़ूद से अलग देखकर उस के ख़साइल व आदात (ख़सलतें और आदतें) की नक़्ल उतार सकते हैं। जैसे एक मुस्सवर (तस्वीर बनाने वाला) अस्ल को देखकर उस की तस्वीर उतारता है। बल्कि इस से भी बढ़कर ये कर सकते हैं कि दुआ और मुतालआ कलाम-उल्लाह के वसीले रोज़ बरोज़ उस की रिफ़ाक़त में रहें और उस की तासीर का नक़्श क़ुबूल करें। लेकिन अगर हम चाहें कि उस की नक़्ल या तक़्लीद ज़्यादा गहिरी और कामिल हो तो उस के इलावा किसी और चीज़ की ज़रूरत है। ज़रूर है कि वो नई पैदाइश में अपनी फ़ित्रत हम में डालने के सबब हम में उसी तरह मौजूद हो जैसे माँ बच्चे में मौजूद होती है।
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अलबत्ता इन नक़ाइस से बढ़कर एक और नुक़्स (कसर, बुराई) भी इस किताब में मौजूद है जो ज़माना-ए-हाल के नाज़रीन को ज़्यादा सख़्त मालूम होता है और वह ये है कि इस में तारीख़ी तर्तीब नहीं पाई जाती जो इस ज़माने में हर क़िस्म की तहक़ीक़ात में बतौर-ए-रहबर माअनी गई है। अगरचे मसीही रूह तमाम किताब पर हावी है और उस के बहुत से अबवाब (बाब की जमा) मसीह की ताअलीम के जोहर से इस क़द्र मामूर हैं कि उन को उस के अक़्वाल के साथ बतौर-ए-ज़मीमा शारह (ज़्यादा वज़ाहत के साथ खोल कर बयान करने वाले) के लगा सकते हैं ताहम उस में मसीह की एक साफ़ साफ़ तारीख़ी तस्वीर नहीं पाई जाती।
लेकिन अगर हम पूरी कामयाबी के साथ तक़्लीद व नक़्ल करना चाहें, तो उस के लिए ये एक निहायत ज़रूरी अम्र है। अगर हम मसीह की मानिंद बनने की कोशिश करते हैं। तो हमें ये जानना ज़रूर है कि वो कैसा था? कोई मुसव्विर (तस्वीर बनाने वाला) ऐसी तस्वीर की एक उम्दा नक़्ल नहीं उतार सकता, जिसका तसव्वुर ख़ूद उस के अपने ज़हन में धुँदला सा हो। इसलिए मसीह की पैरवी में मसीह की ठीक ठीक तस्वीर नहीं मिलती। उस के नज़्दीक मसीह तमाम मुम्किन-उल-वुजूद ख़ूबीयों का मजमूआ है। मगर वह मसीह की तस्वीर इन ख़ूबीयों के लिहाज़ से जिनका ख़्याल ख़ूद उस के ज़हन में जा गुजरे (रहता, मौजूद) है खींचता है। बजाय उस के कि इस की ज़िंदगी के मर्क़ूमा (रक़म शूदा, तहरीर कर्दा) तज़्किरात (तज़्किरा की जमा, ज़िक्र अज़कार) को लेकर इन रंगों से जो उन से हासिल होते हैं। उस की तस्वीर बनाए। ताहम इस में कुछ शक नहीं कि वो हमारे मुन्नजी (नजात देने वाले) की तारीख़ की बड़ी बड़ी बातों को खासतौर से बयान कर के इन से हमको अमली सबक़ सिखाता है। मसलन ये कि इन्सान बनने से उस ने अपने आपको पस्त किया और इसलिए हमको भी पस्त बनना चाहीए। या ये कि उस ने मुसीबत में ज़िंदगी बसर की इसलिए हमको भी मुसीबत उठाने पर रज़ामंद रहना चाहीए। मगर वह उन तअमीमात (तअमीम की जमा, आम करना, हर एक को शामिल करना) से आगे एक क़दम भी नहीं रखता।
लेकिन वाज़ेह हो कि अनाजील में से मसीह की पैरवी की निस्बत मसीह से ज़्यादा पूरी मुशाबहत रखने वाली तस्वीर खींचनी मुम्किन है, और इस का इम्कान बनिस्बत किसी और ज़माने के इस ज़माना में ज़्यादा है। हमारी सदी पहली सदी की मानिंद मसीही मज़्हब की तारीख़ में हमेशा यादगार रहेगी। क्योंकि इस में भी सबकी तवज्जा मसीह की ज़िंदगी के तफ़्सीली हालात पर जम रही है। जो किताबें उस ज़माना में इस मज़्मून पर लिखी गईं वो शुमार से बाहर हैं और उन से लोगों के दिल पर निहायत गहिरी तासीर पैदा हुई है। मसीह की ज़मीनी ज़िंदगी का सिलसिला क़दम ब क़दम निहायत सब्र व इस्तक़लाल से दर्याफ़्त किया गया है और उलूम के हर एक पहलू से उस को जाँचा गया है और हर एक वाक़िया निहायत वज़ाहत व सफ़ाई से पेश किया गया है। इसलिए हम ज़िंदगी के हर एक सीग़ा में उस की पैरवी कर सकते हैं जो पहले किसी ज़माने में मुम्किन ना थी। मसलन कुंबा और रियासत और कलीसिया। नमाज़ गुज़ारी और दोस्त-दारी वग़ैरह वग़ैरह उमूर हैं और हम सही तौर से देख सकते हैं कि हर एक अम्र में उस ने कैसा वतीरा (तौर तरीक़ा) इख़्तियार किया। मसीह को इस तौर से जानने का तरीक़ सिर्फ इसी ज़माने को अता हुआ है। क्योंकि मसीह को फ़क़त इस तौर से जानना कि गोया वो तमाम मुमकिन-उल-हुसूल इन्सानी ख़ूबीयों की एक धुंदली सी तस्वीर है। ऐसे होगा जैसे कोई मुसव्विर अपने घर में बैठ कर किसी क़ुदरती नज़ारे की तस्वीर पहाड़ों, दरियाओं और खेतों की एक आम तस्वीर के मुताबिक़ खींच दे। ना ठीक ठीक उस कुदरती नज़ारे के मुताबिक़।
अलबत्ता ये मुम्किन है कि किसी तरीक़े की क़द्रो क़ीमत में हद से बढ़कर मुबालग़ा करने लग जाएं। दिल व दिमाग़ जो किसी तरीक़े को काम में लाते हैं। हमेशा इस तरीक़े की निस्बत बहुत अहम और ज़रूरी होते हैं। गरम-जोश मुहब्बत, बूलंद परवाज़ अदब और ख़्याल की वुसअत और अज़मत से जो मसीह की पैरवी में नज़र आती हैं। मुसन्निफ़ का मुद्दा ऐसी सफ़ाई और हक़ीक़त से उस पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) हो गया है कि हर एक हमदर्द नाज़िर (निगहबान) के दिल में उस को देखकर एक क़िस्म का पाक रश्क सा पैदा होता है। जो हर एक ज़माने के मसीहीयों के दिल को अपना गरवीदा करता रहेगा। ताहम अगरचे एक इस्लाह व तरक़्क़ी याफ्ताह तरीक़ा सब कुछ नहीं हो सकता तो भी वो बहुत कुछ तो है। अगर हम अपने अदब व न्याज़ को औरों की निस्बत सर्द और अपने ख़्याल के बाज़ुओं को कमज़ोर ख़्याल करते हैं तो इस वजह से हमें और भी ज़्यादा उन फ़वाइद को जो उस से मिल सकते हैं, हासिल करने की सई (कोशिश) करनी चाहीए। मसीह की पैरवी एक ऐसा मज़्मून है जो हमेशा ग़ौर मुकर्रसह (दुबारा, कई मर्तबा) का तालिब है। क्योंकि तारीख़ का इन्क़िलाब व तसाइद (चढ़ आना, मुश्किल होना) और इल्म की तरक़्क़ी लोगों को मसीह के मुशाहिदे के लिए नए नए मंज़रों पर खड़ा करती है। हर एक नस्ल उस पर अपने अपने ख़ास ढंग से नज़र करती है और उस की निस्बत ये कभी नहीं कहा जा सकता, कि अब इस अम्र का क़तई फ़ैसला हो गया है। इस मज़्मून पर फ़िक्र करने का तारीख़ी क़ायदा ग़ौर व फ़िक्र की इन आदात से ज़्यादा मुनासबत रखता है जो उन फ़ुतूहात के सबब से जो इस क़ायदे ने दूसरी बातों में हासिल की हैं। हमारे अहले ज़माने के ज़हनों में तबीयत सानी बन गई हैं और अगरचे वो ईमान व मुहब्बत की कमी को पूरा नहीं कर सकता ताहम वो एक क़िस्म का मस्ह है। जिसको इस्तिमाल करना कलीसिया का फ़र्ज़ है और जिसके इस्तिमाल पर ख़ुदा अपनी बरकात नाज़िल करेगा।
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गो हमारे दिल इस मज़्मून की तरफ़ बहुत माइल रहे हैं। तो भी हम मुश्किल से कह सकते हैं कि हमने अब तक इस मज़्मून पर जैसा कि इस का हक़ है तवज्जा की है। मुझे अक्सर ये ख़्याल आता है कि मसीह की पैरवी की हर दिल अज़ीज़ी की बड़ी वजूहात में से एक बड़ी वजह ख़ूद उस का नाम है। मसीह की पैरवी ! इस नाम की आवाज़ ही ऐसी है कि उस को सुन कर हर एक मसीही का दिल धक्कड़ पकड़ (बेक़रारी) करने लगता है और इस से उस की रूह में बेशुमार जज़्बों व वलवलों को तहरीक होती है। इस की आवाज़ ऐसी दिलकश है कि मालूम होता है कि गोया कोई महबूब निहायत सुरीली आवाज़ों से गुल-गश्त (बाग़ की सैर के) लिए हमें बुला रहा है। ये अल्फ़ाज़ उन तमाम अश्या का मजमूआ हैं जिनकी हम अपनी निहायत उम्दा घड़ीयों और अपने दिल की गहराईयों में ख़्वाहिश व आरज़ू कर सकते हैं।
लेकिन अगरचे मसीहीयों के रुहानी तजुर्बात में मसीह की पैरवी हमेशा बेपायाँ (बेहद, बे-इंतिहा) क़द्रोक़ीमत रखती है ताहम उमूमन किताबों में उस को एक मुस्तक़िल और वाज़ेह मुक़ाम व रुतबा हासिल नहीं हुआ। एक ख़्याल के लोगों ने अगरचे मसीह के नमूने पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया मगर उस से अपने मालिक के मज़्हब को बहुत सदमा पहुंचाया। क्योंकि उन्हों ने इस को मसीह के कफ़्फ़ारे से जुदा कर दिया और ये तर्ग़ीब और ताअलीम दी कि फ़क़त मसीह के नमूने की पैरवी करना काफ़ी है और इस अम्र के तस्लीम करने कि की, वो हमको पहले हमारे गुज़श्ता गुनाहों से नजात देता है कुछ ज़रूरत नहीं। इस के बरअक्स दूसरे ख़्याल के लोगों ने मसीह के कफ़्फ़ारे को अपनी शहादत व पैग़ाम का माहसल (हुसूल) ठहरा लिया। और जब कभी उस के नमूने का ज़िक्र होता है तो वो बिला तकल्लुफ़ ये जवाब देते हैं कि, हाँ ये तो सही है। मगर उस की मौत ज़्यादा अहम चीज़ है। इस तौर से दो फ़रीक़ों ने सच्चाई को बाहम तक़्सीम कर लिया। एक ने तो मसीह की तक़्लीद को और दूसरे ने उस की कफ़्फ़ारा देने वाली मौत को अपनी अपनी ताअलीम का मुद्दा ठहरा लिया। इसी तरह जब योनेटेरीयन (यानी तौहीदी मसीही) लोगों ने कुछ अरसा के लिए चीनिंग साहब की अजीब व ग़रीब फ़साहत व बलाग़त (ख़ुशकलामी) के सबब ज़ोर पकड़ा तो उन की तमाम दिल-कशी उन शाइस्ता तक़रीरों में थी। जिनमें वो मसीह की पाक और ख़ुद इन्कार इन्सानियत का ज़िक्र करते थे। इस के बरअक्स मसीही कलीसिया मसीह की उलुहिय्यत को साबित करती थी। जो अगरचे नविश्तों के मुताबिक़ और लाजवाब और माक़ूल दलाईल पर मबनी है ताहम हमेशा ऐसी दिलफ़रेब मालूम नहीं होती। इस तौर से फिर एक क़िस्म की तक़्सीम वाक़ेअ हो गई, जिससे गोया मसीह की इन्सानियत तो एक फ़रीक़ के हिस्से में आ गई और उस की उलुहिय्यत दूसरी के।
अब वक़्त आ गया है कि इस क़िस्म की तक़्सीम व तफ़रीक़ पर एतराज़ किया जाये। सच्चाई के दोनों हिस्से हमारे हैं और इसलिए हम कुल के दावेदार हैं। मसीह की मौत हमारी है और ख़ुदा के नज़्दीक मक़्बूलियत हासिल करने की हमारी तमाम उम्मीदें ज़मान (ज़माना) और अबदीयत (दाइमी, हमेश्गी) में उसी पर मुन्हसिर हैं। उसी से हम आग़ाज़ करते हैं, मगर उसी पर अंजाम नहीं करते। हम उस की मौत से उस की ज़िंदगी की तरफ़ रुजू करते हैं और उस मुहब्बत से जो नजात पाने के सबब हम में पैदा हुई है। उस की पाक ज़िंदगी को अपनी ज़ात में फिर नुमायां करने की कोशिश करते हैं। इसी तरह जब हम उस की उलुहिय्यत पर फ़ख़्र करते हैं तो भी हम ये कभी रवा नहीं रखेंगे, कि कोई शख़्स हमको उस की इन्सानियत की मिसाल व नमूने और उस की दिलकश ख़ूबसूरती से महरूम कर दे। क्योंकि फ़िल-हक़ीक़त उस की इन्सानियत का कमाल और उस की अपनी निस्बत शहादत की वक़अत (क़द्र) जो उस से मुस्तंबित (चुना गया) होती है। यही दोनों बातें हमारे इस एतिक़ाद की सबसे बड़ी मुहकम बुनियाद हैं कि वह इन्सान से बरतर व बाला है।
2
मसीह का नमूना ख़ानदानी ताल्लुक़ात में
(मत्ती 8:14,15 मत्ती 9:18-۔26 मत्ती 17:18 मत्ती 18:1-6 मत्ती 19:13-15 मत्ती 1 बाब, मत्ती 2 बाब, मत्ती 13:55-57 मत्ती 12:46-50)
(लूक़ा 1:26-56 लूक़ा 2 बाब, लूक़ा 3:23-38 लूक़ा 7:11-15 लूक़ा 27,18 लूक़ा 4:16, 24, लूक़ा 9:57-62)
(मरक़ुस 5:18, 19, मरक़ुस 12:18-25, मरक़ुस 5:18,19 मरक़ुस 12:18-25 मरक़ुस 3:21)
(युहन्ना 8:1-11 युहन्ना 19:25-27 युहन्ना 6:42 युहन्ना 7:3-9)
दूसरा बाब
मसीह का नमूना ख़ानदानी ताल्लुक़ात में
1
दस्तूर-ए-ख़ाना-दारी इन्सानी ज़िंदगी के उन दो बड़े अजज़ा की जिनको हम पाबंदी और आज़ादी के नाम से पुकार सकते हैं एक निहायत उम्दा मिसाल है।
इस में पाबंदी का एक पुर राज़ अंसर है। हर एक शख़्स एक ख़ास कुंबे में पैदा होता है जो अपनी ख़ास तारीख़ और ख़ास मिज़ाज रखता है। ये तारीख़ और मिज़ाज उस के आने से पहले बन चुके होते हैं। उस का इस मुआमले में कुछ इख़्तियार नहीं। मगर ये ताल्लुक़ ऐसा है जो उस की तमाम ज़िंदगी पर-असर डालता है। ख़्वाह तो वो ऐसे घर में पैदा हो जो बड़ा मुअज़्ज़िज़ समझा जाता है या बरअक्स उस के ऐसे घर में जो निहायत ज़लील और बेइज़्ज़त है। ख़्वाह दिल उभारने वाली यादगारें और शाइस्ता अत्वार (तौर की जमा, तरीक़े) उस के विरसा में आएं। ख़्वाह जिस्मानी और अख़्लाक़ी बीमारी का बोझ उस की गर्दन पर रखा जाये। आदमी को कुछ इख़्तियार नहीं होता कि वो अपने बाप और माँ भाई और बहनों, चचा और चचेरे भाईयों को इंतिखाब करे। लेकिन उन्हीं रिश्तों पर जिन को वो कभी नहीं तोड़ सकता। उस की आइन्दा उम्र की तीन चौथाई ख़ुशी या रंज का मदार होता है। रात को दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आती है और बाहर जा कर दहलीज़ पर तुम एक शख़्स को पड़ा देखते हो। जो ज़ाहिरन एक अजनबी और ग़ैर मुल्क का बाशिंदा मालूम होता है। तुम उसे नहीं जानते ना उस से तुमको कुछ काम है बल्कि वो तुम्हारे दिल से हज़ारहा मील दूर है। लेकिन अगर वो ये अल्फ़ाज़ कह सकता है कि क्या तुम मुझे नहीं जानते? मैं तो तुम्हारा भाई हूँ? तो वो कैसा दम-भर में बिल्कुल क़रीब आ जाता है। गोया हज़ारहा मील का फ़ासिला एक क़दम में तय हो गया। तुम्हारे और उस के दर्मियान एक ऐसा रिश्ता है जो कभी टूट नहीं सकता और हो सकता है कि ये रिश्ता या तो एक सोने की कड़ी की मानिंद हो जो ज़ेवर के तौर पर पहनी जाती है। या एक लोहे का तौक़ हो जो तुम्हारे जिस्म को काटता और जलाता है। ख़ाना-दारी के दस्तूर में यही मज्बूरी का अंसर है।
यसूअ सिवाए इस मज्बूरी की ज़ंजीर में फंसने के बनी नौअ इन्सान में शरीक नहीं हो सकता था। जब वो औरत से पैदा हुआ तो वो ख़्वाह-मख़्वाह इस पुर इसरार दायरे में दाख़िल हुआ। वो एक ऐसे कुंबे में शरीक हुआ जिसकी अपनी क़दीम रिवायत थीं और सोसाइटी में एक ख़ास दर्जा रखता था, और उस के भाई और बहनें भी थीं।
इन हालात का उस की आइन्दा ज़िंदगी के साथ बहुत गहिरा ताल्लुक़ था। इस में कुछ शक नहीं कि उस की माँ ने उस के ज़हनी क़वाअ (क़ुव्वत की जमा) के नशव व नुमा पर बहुत कुछ असर डाला अगरचे हम तफ़्सील के साथ इस असर का खोज नहीं लगा सकते। क्योंकि हमको उस की इब्तिदाई उम्र का बहुत कम हाल मालूम है। मगर तो भी ये बात क़ाबिल लिहाज़ है कि कुँवारी मरियम ने उस गीत में जो उस ने इलेशबअ से मुलाक़ात करते वक़्त सुनाया। जो अपने दिली ख़यालात ज़ाहिर किए हैं उन की गूंज यसूअ की मुनादी में बार-बार सुनाई देती है। इस गीत से यह साबित होता है कि वो ना सिर्फ बड़ी साहब-ए-फ़ज़्ल औरत थी बल्कि ऐसे नादिर तबई औसाफ़ से भी मौसूफ़ (वस्फ़ रखना) थी। जिन्हों ने ख़ुदा के कलाम में नशव व नुमा पाई थी। यहां तक कि ज़माना-ए-साबिक़ के अम्बिया और मुक़द्दस ख़वातीन की ज़बान गोया उस की अपनी ज़बान हो गई थी। गो हम मर्यम और यूसुफ़ की निस्बत बहुत बढ़के ना भी कहें। मगर इतना ज़रूर कह सकते हैं कि यसूअ की पाक तुफुलिय्यत (बचपन) का ज़माना ऐसे घर में गुज़रा जो दीनदारी और ख़ुदातरसी से आरास्ता था और कि जब उस ने उसे छोड़ दिया तो भी इस घर की निशानीयां उस के मिज़ाज व ख़सलत में बराबर नज़र आती थीं। इस असर के इलावा वो एक मशहूर नस्ल से था और ये भी उस के लिए कोई ऐसी वैसी बात ना थी। वो दाऊद की नस्ल से था और इंजील नवीस बड़ी कोशिश से उस के शाहाना नसब नामे को तहरीर करते हैं और ये बात गोया ख़ुद उस के अपने ख़्याल की गूंज समझी जा सकती है। शराफ़त नसब भी शरीफ़ और आली कामों के लिए एक तरह से मेहमेज़ (वो ख़ारदार फिरकी जो घुड़सवारों के जूतों की एड़ी में लगी होती है और जिससे वो घोड़ों को एड़ लगाते हैं) का काम देती है। इंग्लिस्तान का मशहूर शायर मिल्टन भी अपनी मशहूर नज़्म में जब ये बयान करता है, कि नौजवान मुन्नजी (नाजा देने वाले) के दिल में अपने बुज़ुर्गों के कारनामों से आला हौसला की तहरीक होती थी तो उस की ये बात जायज़ इस्तिंबात (नतीजा अख़ज़ करना) की हद से मुतजाविज़ नहीं है :-
“आग के शोले की मानिंद उमंगें मेरे दिल में उठती थीं कि कर फ़त्ह के झंडे को बुलंद क़ौम के सर से उठा फेंकों। ये रूमी जूवा और दुनिया के सभी मुल्कों पे होके क़ाबिज़ ज़ुल्म व बेरहमी की क़ुदरत को मैं कर दूँ नाबूद। तब हो इन्साफ़ व सदाक़त का ज़माने में रिवाज।”
कम से कम इस बात पर यक़ीन करने में कुछ ताम्मुल (सोच विचार, शक) नहीं हो सकता कि उस के शाही नसब ने मसीह के मंसुबी काम की तरफ़ उस की रहनुमाई की ताहम उसे इस मज्बूरी की दर्द-नाक कड़ी का असर भी महसूस करना पड़ा। यानी उस को रज़ील (कमीना) होने के ताने भी झेलना पड़े। क्योंकि अगरचे उस के दौर के आबाओ अज्दाद शरीफ़ थे। मगर उस के क़रीबी रिश्तेदार ग़रीब थे और जब वह लोगों के सामने ज़ाहिर हुआ तो उस को अक्सर ज़बानों से इस क़िस्म के ताने सुनने पड़ते थे कि “क्या ये बढ़ई का बेटा नहीं?” उस की ज़िंदगी ऐसे लोगों के लिए जो सिर्फ इन्सान के ज़ाहिर के मुवाफ़िक़ उस की इज़्ज़त करते हैं। सख़्त मलामत का काम देती है और उस से हक़ीर और ज़ेल-उल-अस्ल अश्ख़ास हमेशा ये सीख सकते हैं कि किस तरह ख़सलत की उम्दगी और ख़ुदा और इन्सान की ख़िदमत की दौलत से वो मुख़ालिफ़ों का मुंह बंद कर सकते और अहले आलम की इज़्ज़त व मुहब्बत हासिल कर सकते हैं।
आज़ादी का अंसर जो इन्सानी ज़िंदगी से ताल्लुक़ रखता है, इस मज्बूरी के अंसर की निस्बत कुछ कम अज़मत के साथ ज़ाहिर नहीं होता और वो भी ऐसा ही पुर राज़ है। आदमी अपनी मर्ज़ी से शादी करता और एक नए कुंबे की बुनियाद डालता है। उस की क़ुव्वत-ए-इरादी के इस फे़अल से एक नया दायरा क़ायम हो जाता है जो आइन्दा नस्ल में और इन्सानों को रिश्तेदारी के उन्ही ताल्लुक़ात में जिनमें वो ख़ूद पैदा हुआ था, घेरता रहेगा।
अलबत्ता उस के काम की सूरत ने यसूअ को अयाल दार (बच्चों वाला) बनने से बाज़ रखा और इस बात की तरफ़ बाज़ औक़ात इशारा किया जाता है कि ये कोताही उस नमूने में जो उस ने हमारे लिए छोड़ा एक क़िस्म का नुक़्स है और इस बिना पर कहा जाता है कि ज़िंदगी के इस निहायत ही मुक़द्दस रिश्ते में हमारी पैरवी के लिए उस का नमूना मौजूद नहीं है। इस से इन्कार नहीं हो सकता कि इस एतराज़ में किस क़द्र जान मालूम होती है। लेकिन ये एक अजीब बात है कि इस रिश्ते की निस्बत जो सबसे उम्दा नसीहत दर्ज है वो बराह-ए-रस्त उसी के नमूने से ली गई है। निकाह के रिश्ते की निस्बत जो निहायत ही गहरे और पाक अल्फ़ाज़ आज तक लिखे गए हैं, ये हैं :-
“ऐ शोहरो ! अपनी बीवीयों से मुहब्बत रखो जैसे कि मसीह ने कलीसिया से मुहब्बत कर के अपने आपको उस की ख़ातिर मौत के हवाले कर दिया ताकि उस को कलाम के साथ पानी से ग़ुस्ल देकर और साफ़ कर के मुक़द्दस बनाया और एक ऐसी जलाल वाली कलीसिया बना के अपने पास हाज़िर करे जिसके बदन में दाग़ या झुर्रियाँ या कोई और ऐसी चीज़ ना हो बल्कि पाक और बेऐब हो।” (इफ़िसियों 5:25-27)
2
यसूअ अपनी तमाम ज़िंदगी-भर कुंबे के तमद्दनी इंतिज़ाम व दस्तूर की इज़्ज़त करता रहा। उस के ज़माने में ख़ानगी (घरेलू रिश्ते) के तोड़ने की शर्मनाक रस्म का बहुत रिवाज था। तलाक़ बहुत आम थी और ज़रा ज़रा सी बात पर दी जाती थी। क़ुर्बानी की रस्म से औलाद हैकल में कुछ नज़राना देने के बाद अपने वालदैन की ख़बर-गीरी से बिल्कुल आज़ाद हो जाते थे। यसूअ ने निहायत ग़ुस्से के साथ इन ख़राबियों को ज़ाहिर किया और मसीही कलीसिया के तमाम आइन्दा ज़मानों के लिए निकाह का एक ऐसा क़ानून बांध दिया जिसके मुताबिक़ लोग दूर अंदेशी के साथ इस रिश्ते में दाख़िल होते हैं और फिर जब ये रिश्ता क़ायम हो जाता है तो इन्सान के दिल की निहायत अमीक़ (गहिरी) उल्फ़त व मुहब्बत के वलवले (जज़्बात) इसी पाक ताल्लुक़ के ज़रीये से ज़ाहिर होते हैं।
बच्चों के साथ जो मुहब्बत उसे थी और वो इलाही अल्फ़ाज़ जो उस ने उन के हक़ में कहे, अगर उन की निस्बत ये नहीं कह सकते कि उन अल्फ़ाज़ ने वालदैन के दिल में बच्चों की मुहब्बत का बीज बो दिया ताहम इतना तो ज़रूर कहेंगे कि उन से ये मुहब्बत ज़्यादा गहिरी और शाइस्ता हो गई। वो मुहब्बत जो ग़ैर मसीही माँ बाप को अपनी औलाद से है मह्ज़ एक वहशयाना और हैवानी मीलान या रग़बत की मानिंद है। बमुक़ाबला उस मुहब्बत के जो मसीही घरों में राज करती है। उस ने बच्चों को अदनी हालत से उठाया (जैसा कि उस ने और बहुत सी ऐसी ही कमज़ोर और ज़लील चीज़ों को उठाया) और उन्हें वस्त में इज़्ज़त के सदर मुक़ाम पर खड़ा कर दिया। अगर ज़ीनों पर नन्हें नन्हें पाओं की आहट और घरों में तोतली आवाज़ों की सदा हमें राग के शीरीं और दिल लुभाने वाले नग़मे की मानिंद मालूम होती है। अगर छोटी छोटी उंगलीयों के एहसास और प्यारे प्यारे बारीक होंटों के बोसे हमारे दिलों में दुआ और शुक्रगुज़ारी के बहाव को हरकत देते हैं तो हमें यक़ीन रखना चाहिए, कि ज़िंदगी के नूअ व फ़र्हत के लिए हम यसूअ मसीह के ममनून एहसान हैं। ये कह कर कि “छोटे बच्चों को मेरे पास आने दो।” उस ने घर को गोया कलीसिया में और वालदैन को ख़ादिमान-ए-दीन में बदल दिया। बल्कि ये भी कहा जा सकता है कि मसीही तारीख़ में उस ने इस ज़रीये से उसी क़द्र शागिर्द किए हैं जिस क़द्र कि ख़ुद इंतिज़ाम कलीसिया क़ायम करने से। हम कह सकते हैं कि यसूअ के अक़्वाल की ताअलीम देने वाली माओं की नसीहतों और मसीही बुज़ुर्गों की पाक ज़िंदगीयों ने मसीही मज़्हब की तरक़्क़ी में उसी क़द्र मदद दी है जिस क़द्र फ़सीहुल-बयान (मीठी बोली वाले) वाइज़ों और बड़े बड़े मजमाओं की इबादात ने। कई दफ़ाअ ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ है कि जब बेवफ़ा खादिमों और दुनिया परस्त अहले कलीसिया की शरारतों से, जिन्हों ने कलीसिया को शैतान की जमाअत बना दिया। मसीह का मज़्हब कलीसिया में से निकाल दिया गया तो उस को मसीही घर में पनाह मिली। बड़े बड़े मसीही उलमा व फुज़ला में से शायद ही कोई ऐसा होगा। जिसके दिल में मज़हबी ख़यालात ने बचपन के ख़ानगी हालात के असर से गहरी जगह हासिल ना की हो।
यसूअ के बहुत से मोअजज़ों पर जब नज़र करते हैं तो मालूम होता है कि वो ख़ानगी मुहब्बत की तहरीक से सादिर हुए। जब उस ने सूरोफ़ेने की औरत की लड़की को शिफ़ा बख़्शी या याइरस (याएर) की बेटी को ज़िंदा कर के उस की माँ को सौंपा या बेवा के बेटे को नाइन शहर के दरवाज़े पर जिलाया (ज़िंदा किया), या लाज़र को मुर्दों में से बुला कर उस के कुंबे में बहाल किया। तो क्या इस में शुब्हा हो सकता है कि मुन्नजी (नजात देने वाले मसीह) को इन ख़ानगी उल्फ़तों के तक़ाज़ाओं की ख़िदमत करने में एक ख़ास ख़ुशी हासिल होती थी? उस ने मुसरफ़ बेटे की तम्सील से ज़ाहिर कर दिया कि इन उल्फ़तों की गहराई और मज़बूती की उस के दिल में कैसी क़द्र व इज़्ज़त जागज़ीं है।
लेकिन जो इज़्ज़त इस दस्तूर की निस्बत उस के दिल में थी। उस का सबसे बड़ा सबूत उस ने अपने चाल चलन से दिया जो उस ने ख़ूद अपने कुंबे में बरता (इस्तिमाल किया) अगरचे उन अय्याम का जो उस ने मर्यम के घर में बसर किए हमें मुफस्सिल (तफ़्सील के साथ) हाल मालूम नहीं तो भी उस की ज़िंदगी के हर एक वाक़िये से ये मालूम होता है कि वो एक कामिल और बेऐब फ़र्ज़ंद था।
वालदैन को इस से बढ़कर और कोई ख़ुशी नहीं कि वो अपने बच्चों को हिक्मत, शर्म व हया और शराफ़त में तरक़्क़ी करते देखें और इंजील में हम पढ़ते हैं कि “यसूअ हिक्मत और क़द और ख़ुदा और इन्सान के नज़्दीक मक़्बूलियत में तरक़्क़ी करता गया।” अगर ये भी मान लें कि वो पहले ही से अपनी ज़िंदगी के अज़ीमुश्शान काम से वाक़िफ़ था। तो भी बावजूद इस इल्म के वो वालदैन की इताअत से बाज़ ना रहा जो ज़माना बचपन में उस को करना वाजिब थी। क्योंकि हम उस ज़माने की निस्बत जब वो बारह बरस का था पढ़ते हैं कि वो अपने वालदैन के साथ नासरत को गया और उन के ताबेअ रहा। उमूमन ये ख़्याल किया जाता है कि इस वाक़िये के थोड़े अरसा बाद यूसुफ़ ने वफ़ात पाई और बड़ा बेटा होने के सबब कुंबे की परवरिश का बोझ उस के सर पर आ पड़ा। ये बात तहक़ीक़ नहीं, मगर ख़ुद उस की अपनी ज़िंदगी के ख़ातमे पर हम उस का एक काम देखते हैं, जिससे उस की ज़िंदगी के उस ज़माने पर जिसका तहरीरी हाल मौजूद नहीं रोशनी पड़ती है। क्योंकि इस से ज़ाहिर होता है कि उस के दिल में अपनी माँ की निस्बत कैसी गहरी और लाज़वाल मुहब्बत भरी थी। जब वो सलीब पर लटक रहा था तो उस ने अपनी माँ को देखा और उस से बातचीत की। इस वक़्त उस की सख़्त जानकनी की हालत (जान निकलने के वक़्त) थी और उस का हर एक रग व रेशा दर्द के मारे तड़प रहा था। मौत सर पर खड़ी थी और बिलाशुब्हा उस वक़्त उस को यही फ़िक्र होगी कि अपनी तवज्जा को दुनियावी बातों से बिल्कुल हटा कर ख़ुदा की तरफ़ मसरूफ़ कर दे। वो उस वक़्त जहान का गुनाह उठाए हुए था। जिसका दर्द-नाक बोझ उस के दिल को कुचल रहा था। तो भी बावजूद इस हालत के वो अपनी माँ की तरफ़ मुतवज्जा हुआ और उस की आइन्दा ज़िंदगी की परवरिश का ख़्याल किया, इसलिए अपने एक शागिर्द से कहा कि उसे अपने घर में ले जाये और उस के बेटे की जगह हो। जिस शागिर्द को उस ने इस ख़िदमत के लिए मुंतख़ब किया वो उस के और शागिर्दों से ज़्यादा नरम मिज़ाज और हलीम था। ना तो जल्दबाज़ पतरस को ना उदास और मग़्मूम तबअ (ग़मगीं, तबीयत) थोमा को बल्कि युहन्ना को चुना जो ज़्यादा मुलाइम और नर्मी के साथ उस दर्द-नाक मज़्मून पर जिस पर उन दोनों के दिल लगे थे, गुफ़्तगु कर सकता था। और जो शायद औरों की निस्बत बा सबब अपनी मुरफ़्फ़ल हाली (ख़ुशहाली, आसूदगी) के मर्यम की परवरिश का बोझ बाआसानी उठा सकता था इसलिए उस ख़िदमत की बजा आवरी (अंजाम देही) के ज़्यादा लायक़ था।
3
अगरचे वालदैन की इताअत औलाद पर फ़र्ज़ है। तो भी उस की एक हद है। वालदैन का ये काम है कि अपने बच्चों को ऐसे तौर से तर्बीयत दें कि वो आज़ादी और ख़ुद-मुख़्तारी सीखें। जैसा कि मालुम का मुद्दआ ये होना चाहीए कि वो अपने शागिर्दों की उस दर्जा तक तर्बीयत करे कि वो उस की मदद के बग़ैर अपनी ज़िंदगी के कारोबार का ख़ुद इंतिज़ाम करने के लायक़ हो जाएं। इसी तरह वालदैन को भी ये अम्र बख़ूबी ज़हन नशीन कर लेना ज़रूर है कि एक हद है जहां उन की हुकूमत का ख़ातिमा होता है और बच्चों को ये इख़्तियार होना चाहीए कि अपनी पसंद और मर्ज़ी के मुताबिक़ अपना कारोबार करें। इस से मुहब्बत दूर नहीं हो जाती। अदब व इज़्ज़त भी दूर नहीं होनी चाहीए। मगर ये ज़रूर है कि पिदराना इख़्तियार व हुकूमत का ख़ातिमा हो जाये। अलबत्ता ये कहना मुश्किल है कि बच्चे की ज़िंदगी में ये हद किस वक़्त वाक़ेअ होती है। क्योंकि हो सकता है कि हर एक बच्चे की ज़िंदगी में उस का ज़माना मुख़्तलिफ़ हो। लेकिन सबकी ज़िंदगी में ये ज़माना ज़रूर आता है। अफ़्सोस है उस बच्चे पर जो वक़्त से पहले इस आज़ादी पर हाथ मारना चाहे ये बात अक्सर नौजवानों की तबाही व बर्बादी का बाइस होती है और ख़ुद हमारे ज़माने में इस से बढ़कर और कोई अफ़्सोसनाक बात नहीं कि उमूमन हमारे नौजवानों के दिमाग़ में ये बात समा गई है कि पेश अज़ वक़्त (वक़्त से पहले) वालदैन की हुकूमत की लगाम को निकाल फैंकें और अपनी मर्ज़ी के सिवा और किसी क़ानून की पाबंदी ना करें। मगर बाज़ औक़ात वालदैन भी इस अम्र में ग़लती करते हैं कि वो अपनी हुकूमत को मीयाद अमिना सब से ज़्यादा अर्से तक क़ायम रखना चाहते हैं। बाज़ औक़ात बाप अपने बेटे को अपने घर में रखना चाहता है। जबकि उस के लिए बेहतर होता कि वो शादी करके अपना घर अलग बसाए। या माँ अपनी शादीशुदा लड़की के ख़ानगी मुआमलात (घरेलू मुआमलात) में दस्त अंदाज़ी (दख़ल, अंदाज़ी) कर बैठती है जो शायद बेहतर ज़ौजा (बीवी) बन जाती। अगर उस को अपनी अक़्ल व दानिश पर छोड़ा जाता।
यसूअ की माँ मर्यम ने भी इस अम्र में ग़लती की। उस ने बार बार कोशिश कि नावाजिब तौर से उस के काम में दस्त अंदाज़ी करे। बल्कि उस वक़्त के बाद जब उस ने अपना पब्लिक काम शुरू कर दिया। उस को अपने बेटे पर एक क़िस्म का बड़ा फ़ख़्र व नाज़ था और ये उसी फ़ख़्र की वजह से था, कि कानाए गलील की शादी के मौक़े पर उस ने शराब के ख़त्म हो जाने का उस से ज़िक्र किया और मौक़ों पर उस की सेहत व तंदरुस्ती का ख़्याल कर के उस ने उस को अपने काम से रोकना चाहा। वो दुनिया में अकेली माँ नहीं जिसने ना वाजिब तौर से अपने बेटे को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ चलाना चाहा। लेकिन अगर कोई ऐसी बात थी जिससे उस का ग़ज़ब भड़क उठे तो यही उस के कामों में दख़ल बेजा था। इसी वजह से वो एक दफ़ाअ पतरस की तरफ़ फिरा और उस से कहा, “ऐ शैतान मेरे सामने से दूर हो” और इसी वजह से एक से ज़्यादा मौक़ों पर उस का सुलूक ख़ुद अपनी माँ के साथ भी ज़ाहिरा कुछ सख़्त सा मालूम होता है। क्योंकि जिस क़द्र मोहब्बत भरे दिल से उस के दोस्त और रिश्तेदार उस को इस के काम से बाज़ रखने की ख़्वाहिश और कोशिश करते थे उसी क़द्र उस को एक सख़्त-तर आज़माईश का सामना करना पड़ता था। क्योंकि अगर ये उस के इख़्तियार में होता तो उन को ख़ुश करने में कभी दरेग़ ना करता। लेकिन अगर वो उन की बात मान लेता तो उस काम से जिसके करने का उस ने ज़िम्मा लिया था, किनारा-कश होना पड़ता। इसलिए इस क़िस्म की आज़माईश को रोकने के लिए उसे ग़ुस्सा जैसे जज़बे को अपनी तबीयत में उकसाना पड़ता था।
और किसी मौक़े पर उस के चलन में इस क़द्र ना पिसराना (बेटा होने के बरख़िलाफ़) सख़्ती ज़ाहिर नहीं होती। जिस क़द्र कि उस वक़्त जब उस की माँ और भाईयों ने काम की अस्ना (दौरान) आकर उस से बातचीत करने की ख़्वाहिश की। उस ने पैग़ाम लाने वाले को जवाब दिया, “कौन है मेरी माँ और कौन हैं मेरे भाई?” और तब अपने शागिर्दों पर जो उस के सामने बैठे थे नज़र कर के कहा “ये हैं मेरी माँ और मेरे भाई क्योंकि जो कोई ख़ुदा की मर्ज़ी पर चलता है वही मेरा भाई और बहन और माँ है।” इस से इन्कार नहीं हो सकता कि ये अल्फ़ाज़ ज़ाहिरा सख़्त मालूम होते है, मगर ग़ालिबन इन अल्फ़ाज़ को उस इबारत से जो इंजील-ए-मरक़ुस में इस वाक़िये से पहले दर्ज है, मिलाकर पढ़ना चाहीए। जहां ये लिखा है कि “उस के दोस्तों ने उस को पकड़ने की कोशिश की ये कह कर वो बे-ख़ुद है।” उन दिनों यसूअ अपने काम में ऐसा महव (खोया) था कि वो खाना खाना भी भूल जाता था। आदमीयों को बचाने के पाक जज़बे में ऐसा मज्ज़ूब (जज़ब) हो रहा था कि उस के रिश्तेदारों को ख़्याल गुज़रा कि वो दीवाना हो गया है और उन्हों ने अपना फ़र्ज़ समझा कि उस को पकड़ कर नज़रबंद कर रखें। अगर मर्यम भी इस नाजायज़ और बेदीनी के काम में शरीक हुई तो कुछ ताज्जुब नहीं कि उस को ऐसी सख़्त मलामत उठाना पड़ी। बहर-सूरत ये मालूम होता है कि वो ये ख़्याल कर के उस के पास आई थी कि वो फ़ील-फ़ौर सब कारोबार छोड़कर उस के साथ हम-कलाम होगा। इसलिए यसूअ को उसे ये सबक़ सिखाना पड़ा कि ख़ानगी उल्फ़त के सिवा और भी ऐसी बातें हैं जो उस से बढ़कर हक़ रखती हैं। क्योंकि ख़ुदा का काम करने में वो ख़ुदा के सिवा और किसी के इख़्तियार को तस्लीम नहीं कर सकता था।
हाँ एक ऐसा दायरा है जिस के अंदर वालदैन के इख़्तियार को भी कुछ दख़ल नहीं और वो दायरा ज़मीर है। यसूअ ना सिर्फ ख़ुद इस दायरे को पाक रखता था। बल्कि उन को भी जो उस के पैरवी करते थे ऐसा ही करने को कहता था। उस ने पेशगोई की कि किस तरह आइन्दा ज़माने में उस के सबब से ख़ानगी रिश्ते तोड़ने पड़ेंगे। ग़ौर का मुक़ाम है कि उस शख़्स के लिए जो अपने दिल में ख़ानगी ताल्लुक़ात की इस क़द्र आला इज़्ज़त करता था। ये ख़्याल किस क़द्र सख़्त दर्द-नाक होगा। वो फ़रमाता है कि “ये मत समझो कि मैं ज़मीन पर सुलह करवाने आया। सुलह करवाने नहीं बल्कि तल्वार चलाने को आया हूँ। क्योंकि मैं आया हूँ कि मर्द को उस के बाप और बेटे को उस की माँ और बहू को उस की सास से जुदा करूँ। और आदमी के दुश्मन उस के घर ही के लोग होंगे।” बिलाशुब्हा उस के लिए एक दर्द-नाक अंदेशा होगा। मगर उस ने इस से पहलू-तही (किनारा-कशी करना) ना की। उस के नज़्दीक ख़ानगी रिश्तों से भी बढ़कर ऐसे उमूर थे। जिनकी बजा आवरी (अंजाम दही) हम पर सब बातों से ज़्यादा फ़र्ज़ है। “जो कोई बाप या माँ को मुझसे ज़्यादा अज़ीज़ रखता है वो मेरे लायक़ नहीं और जो कोई बेटे या बेटी को मुझसे ज़्यादा अज़ीज़ रखता है वो मेरे लायक़ नहीं।”
ये तल्वार अब भी काटती है। ग़ैर मसीही मुल्कों में जहां मसीही मज़्हब रिवाज पकड़ता जाता है। ख़ासकर हिन्दुस्तान जैसे मुल्क में जहां ख़ानगी इंतिज़ाम बहुत ज़्यादा तरक़्क़ी याफ्ताह है। मसीह का इक़रार करने में सबसे बड़ी मुश्किल ये पेश आती है कि इस से ख़ानदानी ताल्लुक़ात मुनक़ते (टूट) हो जाते हैं और अक्सर ऐसा करना जानकनी से कुछ कम दर्द-नाक नही होता। मसीही मुल्कों में भी दुनिया परस्त वालदैन की मुख़ालिफ़त उन के फ़रज़न्दों के मज़हबी फ़ैसलों के बरख़िलाफ़ निहायत सख़्त होती है और जिनको इस क़िस्म की सलीब उठाना पड़ती है। उन के लिए बेहद इज़तिराब (बेक़रारी) व परेशानी होती है। ये एक निहायत नाज़ुक मुआमला है जिस के लिए पहले दर्जे की मसीही हिक्मत व दानाई (अक़्लमंदी) दानिशमंदी और सब्रो तहम्मुल (बर्दाश्त) की हाजत (ज़रूरत) है। लेकिन जब दिल और ज़मीर के सामने बिल्कुल साफ़ साफ़ नज़र आए तो इस में कुछ शुब्हा नहीं हो सकता कि वालदैन की रजामंदी और अपने ख़्याल की पैरवी के दर्मियान कौन सी बात मसीह की मर्ज़ी के मुताबिक़ है। कैसे ख़ुश-क़िस्मत हैं वो लोग जिनकी ऐसी हालत नहीं, और जो जानते हैं कि अगर वो मसीह को सच्चे दिल से क़ुबूल कर लेंगे और साफ़ तौर पर उस का इक़रार करेंगे तो उन के रिश्तेदारों के दिल एक नाक़ाबिल-ए-बयान ख़ुशी व खुरर्मी से भर जाऐंगे।
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उमूमन कहा जाता है कि हर एक घर में एक क़ब्र है। जिसका ये मतलब है कि कोई कुंबा ज़ाहिरन कैसा ही कामिल और बाहमी उल्फ़त व मुहब्बत से बसर करता मालूम क्यों ना हो। तो भी हमेशा उस के अंदर कुछ ना कुछ नाचाक़ी या ख़ौफ़ या राज़ होता है जो उस के नूर को तारीक करता रहता है।
मुम्किन है कि ये ख़्याल आम तौर पर सही ना हो, बल्कि उस में बहुत से मुस्तसनियात (अलग की हुईं, छूटी हुईं चीज़े) भी पाए जाएं ताहम इस से इन्कार भी नहीं हो सकता कि घर में जहां बहुत सी ख़ुशीयां हैं वहां बहुत से रंज भी हैं। ख़ुद कुंबे के लोगों के निहायत क़रीबी बाहमी ताल्लुक़ की वजह से उन में से हर एक को। जो ऐसा करना चाहीए। बाक़ीयों के दिल छेदने को बहुत मौक़ा मिलता है। रिश्तेदारी के पर्दे में बिला ख़ौफ़-ए-सज़ा ऐसी तक्लीफ़ दी जा सकती है। जो तक्लीफ़ देने वाला किसी ग़ैर शख़्स को पहुंचाने की जुरर्अत ना करता।
यसूअ ने ये तक्लीफ़ भी उठाई। जो रंज उस को कुंबे के लोगों की तरफ़ से था। एक ख़ास क़िस्म का था। वो ये था कि उस के भाई उस पर ईमान नहीं रखते थे। उन को यक़ीन नहीं आता था, कि वो जो उन में से एक है और जिसने उन्ही के दर्मियान परवरिश पाई है उन की निस्बत इस क़द्र बुज़ुर्ग किस तरह हो सकता है? उस की शुहरत को देखकर उन्हें रश्क (हसद) आता था। उस की ज़िंदगी में जहां कहीं उनका ज़िक्र है फ़क़त उस को तक्लीफ़ देने ही का है।
वही लोग जिन्हों ने ख़ुद इस क़िस्म की तक्लीफ़ उठाई है अच्छी तरह समझ सकते हैं कि यसूअ को इस से किस क़द्र रंज होता होगा। ख़ुदा के बहुत से मुक़द्दस लोग हैं जिनको बेदीन और दुनिया परस्त घरों में तन-ए-तन्हा खड़े हो कर गवाही देना पड़ती है। ऐसे बहुत से लोगों को हर रोज़ एक तरह से शहीदों की सी जानकनी बर्दाश्त करना पड़ती है, जिसका उठाना शायद आम लोगों की ईज़ादही की निस्बत ज़्यादा सख़्त है। क्योंकि जब बाहर के लोग हमें तक्लीफ़ देते तो बाआसानी बहुत से हमदर्द पैदा हो जाते हैं। मगर दूसरी सूरत में भी ईमानदार जानते हैं कि उन की मुसीबत में कम से कम उस शख़्स की हमदर्दी उन के साथ है, जिसने इन अल्फ़ाज़ में अपने ज़ाती तजुर्बे का ज़िक्र किया कि, “नबी अपने वतन और घर के सिवा कहीं बे इज़्ज़त नहीं है।” (मत्ती 13:57)
हम नहीं कह सकते कि उस ने अपने भाईयों की बे एतिक़ादी का किस तौर से मुक़ाबला किया। आया उस ने उन के साथ बह्स व मुनाज़रा किया या ख़ामोश रह कर इस बात को अपनी पाक ज़िंदगी की ज़िंदा गवाही पर छोड़ दिया। लेकिन ये तहक़ीक़ी तौर पर कह सकते हैं कि वो उन के लिए हमेशा दुआ मांगता रहा, और ख़ुश-क़िस्मती से हमको ये भी मालूम है कि उस की इन कोशिशों का नतीजा क्या हुआ।
मालूम होता है कि उस के भाई उस की वफ़ात के वक़्त तक बराबर बे एतिक़ाद रहे। मगर उस की वफ़ात के बाद ही (आमाल की किताब के पहले बाब की 14 आयत) में हम ये देखते हैं कि वो उस के रुसूलों के साथ ईमानदारों की जमाअत में शरीक थे।
ये एक अजीब वाक़िया है, क्योंकि ठीक उसी वक़्त ऐसा मालूम होता था कि गोया एक तरह से उस की ज़िंदगी के मक़्सद में बिल्कुल नाकामी हुई। वाक़ियात से ज़ाहिरन ऐसा नज़र आता है कि उस का मसीह होने का दावा झूट है। ताहम ये एक अजीब बात है कि वो लोग जो उस की आला शौहरत के दिनों में उस से बे एतिक़ाद रहे उस वक़्त उस के ईमानदारों के दर्मियान देखे जाते हैं। जब कि बज़ाहिर उस का मुआमला बिल्कुल शिकस्ता व बर्बाद मालूम होता है। भला इस की क्या वजह है? मुझे यक़ीन है कि इस का जवाब पौलुस रसुल के एक ख़त (1-कुरंथियो 15-7) में मिलता है।
मेरे नज़्दीक यसूअ के भाईयों का ऐसे नाज़ुक मौक़े पर उस के ईमानदारों के दर्मियान मौजूद होना उस की क़ियामत के वाक़ई होने का भी एक निहायत मज़्बूत सबूत है। लेकिन फ़िलहाल हम इस को सिर्फ इस अथक (ना थकने वाला) इस्तिक़लाल (क़ियाम, मज़बूती, क़रार, इस्तिहकाम, मुस्तक़िल मिज़ाजी, आज़ादी) का जिससे उस ने उन की नजात के लिए कोशिश की एक उम्दा सबूत ख़्याल करते हैं। निज़ ये हमारे लिए एक नमूना है कि हम भी उन लोगों के लिए जो हमारे जिस्म व ख़ून हैं और अभी तक मसीह के गले से बाहर हैं दुआ माँगना, उम्मीद रखना और कोशिश करना ना छोड़ें।
3
मसीह का नमूना मुल्की तअल्लुक़ात में
(मत्ती 9:1 मत्ती 13:54 मत्ती 17:24۔27 मत्ती 20:17۔19 मत्ती 23:37-39 मत्ती 26:32 मत्ती 18:1-3 मत्ती 19:28, मत्ती 20:20-28 मत्ती 2 बाब;
मत्ती 4:3-10 मत्ती 9:27 मत्ती 21:1-11 मत्ती 22:15-21 मत्ती 26:47-68 मत्ती 27 बाब)
(लूक़ा 4:16-20 लूक़ा 13:16 व 34 लूक़ा 19:9 लूक़ा 2:11, 29, 32, 38, लूक़ा 13:31-33, लूक़ा 23:7-12)
(युहन्ना 6:15 युहन्ना 11:48 युहन्ना 18:36-37 युहन्ना 19:14-19, 20)
तीसरा बाब
मसीह का नमूना मुल्की तअल्लुक़ात में
ज़माना-ए-हाल के मामूली हैसियत वाले मसीही के ज़हन में ग़ालिबन सल्तनत के ख़्याल को कोई बड़ी जगह हासिल नहीं। उस के नज़्दीक उन फ़राइज़ की निस्बत जो वो एक शहरी होने की हैसियत से रखता है और बहुत से फ़राइज़ हैं जो ज़्यादा अहम और ज़रूरी मालूम होते हैं। वह ग़ालिबन ये ख़्याल करता है कि सबसे बड़ा सवाल जो उस से उस की हालत की निस्बत किया जा सकता है, ये है कि वो अपने आप में क्या है? यानी पोशीदा रूह और बातिनी मिज़ाज में? और ग़ालिबन इस से दूसरे दर्जे पर वो इस सवाल को समझता है कि उस कलीसिया का मैंबर होने की हैसियत से कैसा है? जिसकी इज़्ज़त को बरक़रार रखना और जिसके काम में शरीक होना उस का फ़र्ज़ है? और तीसरे दर्जे पर वो शायद इस सवाल को जगह दे कि वो अपने कुंबे में बेटा या ख़ावंद या बाप होने की हैसियत से कैसा है? मगर इन बातों की निस्बत उस के नज़्दीक उस चौथे सवाल को बहुत ही कम वक़अत (क़ीमत, दर्जा, मुक़ाम, रुत्बा) है कि वो सल्तनत की रिआया या शहरी होने की हैसियत से कैसा है?
फ़िल-जुम्ला (फ़िलहाल) इस मसअले के तसफ़ए (वाज़ेह करने) का यही सही तरीक़ा है और ग़ालिबन मसीही तरीक़ा भी यही है। मगर ये बात तमाम क़दीम दुनिया के ख़्याल के बिल्कुल बरअक्स है। मसलन यूनान के बड़े बड़े अहले अर्राए (राय देने वाले, राय बयान करने वाले, राय रखने वाले) सल्तनत को शख़्स, कुंबा और कलीसिया से मुक़द्दम जानते थे। उन के नज़्दीक हर एक शख़्स की निस्बत सबसे आला सवाल ये था कि वो शहरी होने की हैसियत से कैसा है? उनका ख़्याल था कि इन्सान की ज़िंदगी का सब से आला ग़रज़ व मक़्सद ये है कि सल्तनत को ज़्यादा ताक़त और सरसब्ज़ी बख़्शे। इसलिए सल्तनत की बेहतरी के लिए वो दूसरी हर एक चीज़ को क़ुर्बान कर देते थे। उन के नज़्दीक सबसे पहला सवाल ये नहीं था कि आया फ़र्दे वाहिद नेक और ख़ुश व ख़ुर्रम है। या ख़ानदान बेऐब और मुत्तहिद है। बल्कि ये कि आया सल्तनत मज़्बूत है?
picहक़ ये है कि सल्तनत और कलीसिया और ख़ानदान मह्ज़ फ़र्द-ए-वाहिद की भलाई के वसाइल के तौर पर हैं। और उन की ख़ूबी का पैमाना यही है। कि वो किस क़िस्म के आदमी बनाते हैं। इस अम्र में और बहुत से उमूर् में भी मसीही मज़्हब ने सारी दुनिया को ऊपर तले कर दिया है और बहुत सी बातों में पहले को पिछ्ला और पिछले को पहला बना दिया।
लेकिन अगरचे सल्तनत को मसीही ताअलीम में वो जगह हासिल नहीं जो क़दीम फ़लसफ़े में थी तो भी ये ख़्याल करना सख़्त ग़लती है कि मसीहीय्यत के नज़्दीक सल्तनत को कुछ भी वक़अत हासिल नहीं। अगरचे मसीही मज़्हब की पहली ग़रज़ नेक आदमी बनाना है। मगर उस के साथ ये भी ज़रूर है कि जो नेक आदमी होगा वो नेक शहरी भी होगा।
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एक सही मिज़ाज इन्सान के लिए ये एक तिब्बी अम्र है कि वो उस मुल्क को जहां वो पैदा हुआ। उस नज़ारे को जिस पर इब्तिदाई उम्र से उस की आँखें पड़ती रहीं। उस शहर को जिसमें वह रहता है मुहब्बत की नज़र से देखे, और ये भी ख़ुदा के इंतिज़ाम का एक जुज़्व है, कि वो इन उल्फ़तों को इन्सान की तरक़्क़ी और ज़मीन की पाएदारी के लिए जो उस का मस्कन है इस्तिमाल करता है। हर एक शहर के बाशिंदे को ये ख़्वाहिश रखनी चाहीए कि अपने शहर की बेहतरी में सही (कोशिश) करे और उस को हर तरह के हुस्न व ख़ूबसूरती से आरास्ता करे। एक नौजवान के दिल के लिए इस ख़्वाहिश की निस्बत और कोई ज़्यादा उम्दा ख़्वाहिश नहीं कि वो कुछ ना कुछ मुफ़ीद काम करने की कोशिश करे। मसलन ये कि वो कोई उम्दा तदबीर सोचे। या एक अच्छी किताब लिखे, या शरीफ़ गीत गाऐ, या किसी क़ौमी दाग़ को दूर करे, जिससे उस के वतन की नेक-नामी में तरक़्क़ी हो।
बाअज़ मुल्कों को ऐसी ऐसी उमंगें लोगों के दिलों में पैदा करने और अहले मुल्क को अपने मुल्क की ख़िदमत के साथ वाबस्ता करने में एक ख़ास क़िस्म की क़ुदरत हासिल है। कनआन भी इसी क़िस्म के मुल्कों में से था। उस के बाशिंदे अपने मुल्क को निहायत गर्म-जोशी से प्यार करते थे। उस की दिलफ़रेबी कुछ तो उस की ख़ूबसूरती में और कुछ शायद इस बात में होगी कि वो एक छोटा सा मुल्क था। क्योंकि जैसे कोहिसतानी नाले तंग चटानी नालीयों में से गुज़रने के सबब से बड़े तेज़ और पुर ज़ोर हो जाते हैं इसी तरह मुहब्बत के ख़्याल जब तंग हदूद में महदूद हो तो एक क़िस्म की ज़बरदस्त ताक़त हासिल कर लेते हैं। लेकिन ख़ासकर बुज़ुर्ग और ना-ख़ुद-ग़र्ज़ (जो ख़ुद-ग़रज़ ना हो) लोगों की जो उस मुल्क में ज़िंदा रह चुके हों यादगार हैं। जो किसी मुल्क के बाशिंदों के दिल में मुल्की मुहब्बत के ख़यालात को सबसे बढ़ के जोश ज़न (जोशीला, जोश वाला) करती हैं। कनआन को ये उभारने वाली ताक़त दीगर ममालिक से बढ़कर हासिल थी। क्योंकि उस की तारीख़ निहायत ही जोश अंगेज़ (जोश दिलाने वाले) कारनामों से भरी थी।
यसूअ ने भी इस दिलफ़रेब असर को महसूस किया। कौन है जो उस के कलाम में क़ुदरती ख़ूबसूरती की तसावीर का जो उस ने गलील के खेतों से जमा कीं मुतालआ करे और उस बात का क़ाइल ना हो जाये कि वो इन तमाम नज़ारों को मुहब्बत की नज़र से देखता था। उस गांव का नाम जिसमें उस ने परवरिश पाई आज के दिन तक उस के नाम से मंसूब है, क्योंकि वो अब भी यसूअ नासरी कहलाता है। उस ने एक औरत को सबत के दिन चंगा (तंदुरुस्त) करने के लिए ये वजह पेश की कि वो अब्रहाम की बेटी है और महसूल लेने वाले और गुनाहगार उस को इसलिए प्यारे थे कि वो इस्राईल की घराने की खोई हुई भेड़ें हैं। यरूशलेम जो मुल्क का सदर मुक़ाम था हमेशा से यहूदीयों के दिलों पर मज़्बूत गिरफ़्त रखता था। क़ौम के शायर इन अल्फ़ाज़ में उस का गीत गाया करते थे कि “बुलंदी से ख़ूबसूरत तमाम ज़मीन की ख़ुशी कोहे सिहोन है। “ऐ यरूशलेम ! अगर मैं तुझे भूल जाऊं तो मेरी ज़बान तालू से चिपक जाये।” मगर इस दिली मुहब्बत के ये सब इज़्हार यसूअ के इस कलाम के सामने हीच हैं, जो उस ने उस को मुख़ातब करके कहा कि, “ऐ यरूशलेम ! ऐ यरूशलेम ! मैंने कई बार चाहा कि तेरे लड़कों को जमा करूँ जिस तरह मुर्ग़ी अपने बच्चों को अपने परों तले जमा करती है।” ये उल्फ़त क़ब्र की तब्दील करने वाली हाजत में से गुज़रने के बाद तक भी बराबर क़ायम रही। क्योंकि मुर्दों में से जी उठने के बाद जब वो दुनिया में इंजील की मुनादी करने की बाबत अपने शागिर्दों को हिदायात दे रहा था तो उस ने कहा कि “यरूशलेम से शुरू करो।” उस को अपने मुल्क के गुज़श्ता ज़माने के उलूल-अज़्म (पक्का इरादा) बुज़ुर्गों नेज़ उन कारनामों के साथ जो उन से सरज़द हुए दिली हमदर्दी थी। अब्रहाम और मूसा दाउद और यसअयाह का नाम हमेशा उस की ज़बान पर था। और उस ने उन कामों को जिन्हें वो ना तमाम (अधुरा) छोड़ गए थे हाथ में लेकर तक्मील तक पहुंचाया। यही मुल्क की हमदर्दी का निहायत हक़ीक़ी काम था। ख़ुशनसीब है वो मुल्क जिसके बाशिंदों की ज़िंदगी की उम्दा से उम्दा कोशिशें किसी आली तसव्वुर की अंजाम देही में ख़र्च हुई हों, और जिसके सबसे बुज़ुर्ग नामों की फ़हरिस्त में ऐसे अश्ख़ास के नाम पाए जाएं। जिन्हों ने अपनी सारी ताक़त इसी मुद्दा के हुसूल में सर्फ कर दी हो। चाहिए कि ऐसे बहादुरों के अक़्वाल व अफ़आल बाइबल के बाद हर एक मुल्क के बच्चों की सबसे बड़ी रूहानी ख़ुराक हों। और उस के इंतिख्व़ाबे ज़माना आली दिमाग़ अश्ख़ास की हिम्मत सर्फ इस बात पर होनी चाहीए कि उन बीजों को जो वो बो गए हैं पानी दें और उन कामों को जिनकी उन्होंने बुनियाद रखी पूरा करें।
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मसीह के ज़माने और मुल्क में मुल्की हमदर्दी का एक ख़ास काम था। जिसको हर एक शख़्स जिसमें कुछ भी मुल्की हमदर्दी की रूह हो, इख़्तियार कर सकता है। कनआन उस ज़माने में दूसरी क़ौम की गु़लामी में था। फ़िल-हक़ीक़त वो एक तरह से दो गुना गु़लामी के बोझ के नीचे दब रहा था। क्योंकि अगरचे उस के चंद एक सूबे हेरोदियों के ज़ालिम ख़ानदानों के ज़ेर हुक्म थे। कुल मुल्क रूमी हुकूमत के ताबेअ था।
क्या ये यसूअ का फ़र्ज़ ना था कि अपने मुल्क को इस दोगुना ज़ुल्म से रिहा कर के उस की आज़ादी को बहाल करे? या इस से भी बढ़कर ये कि उसे क़ौमों के दर्मियान एक आला सल्तनत के रुतबे तक बुलंद करे? बहुत से लोग बड़ी ख़ुशी से एक रिहाई दहिंदा को क़ुबूल करने और क़ौमी आज़ादी के लिए हर तरह की क़ुर्बानी करने को तैयार व आमादा होते हैं। फ़रीसयों की सारी जमाअत मुल्की मुहब्बत के ख़्याल में सरशार थी। बल्कि उनका एक फ़िर्क़ा भी ज़ीलोत्स यानी सरगर्म के नाम से कहलाता था। क्योंकि वो मुल्की ख़िदमत के लिए हर तरह की दिलेरी और जफ़ाकशी को तैयार था।
मालूम होता है कि यसूअ भी इसी ख़िदमत के लिए मुक़र्रर किया गया है। वो शाही सिलसिले के ज़रीये दाऊद की नस्ल से था। जब वो पैदा हुआ तो मजूसी या दाना लोग पूरब से पच्छिम को ये पूछते हुए आए कि “यहूदीयों का बादशाह जो पैदा हुआ वो कहाँ है?” उस के पहले शागिर्दों में से एक शख़्स ने जब उस के सामने पेश हुआ उस को शाह-ए-इस्राईल कह कर सलाम किया और जिस दिन वो फ़त्हमंदों की तरह सवार होकर यरूशलेम में दाख़िल हुआ तो उसी के हम-राहियों (हम-सफ़रों) ने उस को इसी नाम से पुकारा। जिससे बिलाशुब्हा उन की ये मुराद थी कि उन्हें उम्मीद है कि वो फ़िल-हक़ीक़त मुल्क का बादशाह होगा। ये और और बहुत से हालात जो इंजील में मुंदरज हैं इस का निशान देते हैं कि उस की तक़्दीर में एक पराईयोट (आम) आदमी की हैसियत में रहना नहीं था। बल्कि एक आज़ाद शूदा और शानदार सल्तनत का सरदार होना था।
मगर ये तक़्दीर क्यों पूरी ना हुई? इस सवाल का जवाब निहायत मुश्किल है। ये सवाल हर एक शख़्स के दिल में जो ग़ौर से इंजील का मुतालआ करे अक्सर पैदा होता है। लेकिन जब कभी हम ये सवाल पूछते हैं, तो इसरार (पोशीदा, भेद की बातें) व मुश्किलात के समुंद्र में जा पड़ते हैं। क्या कभी उस के दिल में अपने मुल्क का बादशाह बनने की ख़्वाहिश हुई? क्या शैतान जब उस ने दुनिया की तमाम बादशाहतें और उन की शान व शौकत उस को दिखाई तो फ़िल-हक़ीक़त उस की जवानी के दिल पसंद ख़यालात को याद दिला रहा था? अगर यहूदी लोग इन्कार करने के बजाय उस को क़ुबूल कर लेते तो फिर क्या होता? क्या वो यरूशलेम में अपना तख़्त क़ायम कर के सारी दुनिया को अपने जे़रे फ़रमान करता? क्या सिर्फ उसी वक़्त जबकि उन्हों ने उस के लिए उनका बादशाह बनना नामुम्किन कर दिया तो वो इस बात से जो उस के मुक़द्दर में लिखी मालूम होती थी। हट गया और एक ऐसी बादशाहत पर जो इस दुनिया की नहीं अपने काम को महदूद किया?
मुम्किन नहीं कि कोई शख़्स सोच समझ कर मसीह की ज़िंदगी का मुतालआ करे और उस के दिल में इस क़िस्म के सवालात पैदा ना हों। मगर इन सवालात से कुछ फ़ायदा नहीं। क्योंकि कोई शख़्स इन का जवाब नहीं दे सकता। हम गोया ये दर्याफ़्त करना चाहते हैं कि अगर बाअज़ चीज़ें जो वाक़ेअ हुईं वाक़ेअ ना होतीं तो फिर क्या होता? मगर सिर्फ वही जो आलिमुलगै़ब और हमा दान (सब कुछ जानने वाला, अलीम कुल) है इस अ़क़दे (गाँठ, गुथी) के हल करने पर क़ादिर है।
तो भी हम यक़ीनी तौर पर ये कह सकते हैं कि ये इन्सान का गुनाह था जिसने यसूअ को अपने बाप दाऊद के तख़्त पर बैठने से बाज़ रखा। उस का अपने आपको अपने मुल्क का मसीह होने के लिए पेश करना बिल्कुल सही था। मगर उस के साथ एक ऐसी शर्त लगी थी, जिससे वो क़तई नज़र नहीं कर सकता था। यानी वो सिर्फ़ रास्तबाज़ क़ौम का बादशाह हो सकता था। लेकिन यहूदीयों की हालत तो बिल्कुल इस के बरअक्स थी। उन्होंने एक दफ़ाअ कोशिश की कि उसे पकड़ कर ज़बरदस्ती बादशाह बना लें। मगर उन की ये सरगर्मी नापाक थी और इसलिए वो इस बात को क़ुबूल नहीं कर सकता था।
उस वक़्त उसकी ज़िंदगी के दरिया का रु (रुख़) गोया उलट कर उसी पर आ पड़ा। बजाय इस के कि वह ज़ालिमों को दफ़ाअ करने वाला हो। वह ख़ुद ज़ुल्म का शिकार हो गया। उस की अपनी क़ौम जिसे चाहिए था कि उसे अपना पेशवा समझ कर अपनी सिपरों (ढालों) पर उठाती एक बैरूनी हुकूमत की अदालत में उस की मुद्दई बन गई। और उसे रोमीयों और मुल्क के हीरोदेसी हुक्काम के सामने बतौर-ए-मुजरिम के खड़ा होना पड़ा। मुल्की रईयत होने की हैसियत में उसने कामिल इताअत के साथ अपने आपको उन के हवाले कर दिया और अपने पीरों (शागिर्दों) को हुक्म दिया कि तल्वारें मियान में करें। सल्तनत की आला अदालत ने उस को तक़्सीर-वार (क़सूरवार) ठहरा कर दो चोरों के दर्मियान सलीब पर खींच दिया। उस का ख़ून मुल्क के सदर मुक़ाम पर लानत के तौर पर पड़ा और उस के क़त्ल को आधी सदी भी ना गुज़री थी कि यहूदी सल्तनत का नाम व निशान सफ़ा-ए-दुनिया पर से मिट गया।
इस वाक़िये से निहायत साफ़ तौर पर मौजूदा तरीक़ा-ए-सल्तनत का नुक़्स ज़ाहिर होता है। सल्तनत जान व माल और इज़्ज़त की हिफ़ाज़त के लिए है ताकि बदकारों को सज़ा दे और नेकोकारों को इनाम। तमाम तारीख़ में एक दफ़ाअ और सिर्फ एक ही दफ़ाअ उस एक शख़्स से मुआमला (वास्ता) पड़ा जो कामिल नेक था और जो कुछ उस से सुलूक हुआ वो ये था कि सल्तनत ने उस को बदतरीन मुजरिमों के ज़ुमरे में जगह दी और मार डाला। अगर ये बात क़ानून की मामूली अमल दर-आमद का एक नमूना है तो सल्तनत बजाय एक इलाही इंतिज़ाम होने के एक निहायत सख़्त आफ़त और दुनिया के लिए एक लानत समझी जानी चाहीए। जो लोग उस की बे इंसाफ़ी का शिकार हुए हैं बाज़ औक़ात उसे ऐसा ही समझते हैं। मगर ख़ुशक़िस्मती से ऐसी बातें सिर्फ़ मादूद-ए-चंद (गिनती के, बहुत थोड़ी तादाद में) अश्ख़ास के मुबालग़ा आमेज़ (किसी बात को बहुत बढ़ा चढ़ाकर बयान करना) ख़यालात ही में हैं। फ़िल-जुम्ला जो क़वानीन सल्तनत मुक़र्रर करती है वो और उनका अमल दर-आमद गुनाह की रोक और बेगुनाही की हिफ़ाज़त का बाइस हैं। लेकिन हर एक ज़माने में इस क़ाएदे की बेशुमार और अफ़्सोसनाक मुस्तसनियात पाई जाती हैं। ना हर एक चीज़ जिसको मुल्क का क़ानून जायज़ ठहराता है रास्त है। ना वो सब जिन पर क़ानून को जारी करने वाले फ़तवे लगाते हैं नारास्त हैं। इस ज़माने में इस बात को याद रखना निहायत ज़रूरी है। क्योंकि ज़माना-ए-हाल में सल्तनत के तब्दील शूदा इंतिज़ामात के लिहाज़ से हम ना सिर्फ सल्तनत की रिआया हैं बल्कि बालावास्ता या बिलावास्ता क़ानून बनाने वाले और जारी करने वाले भी हैं। और इसलिए हम भी अपने क़वानीन को इलाही अदल के पैमाने तक पहुंचाने और दाना और नेक अश्ख़ास को कुर्सी अदालत पर बिठाने की ज़िम्मेदारी में शरीक हैं।
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ज़ाहिर में ऐसा मालूम होता था कि मसीह की ज़िंदगी-भर का काम ज़ाए (बर्बाद) हो गया। वो जो इसलिए पैदा हुआ था कि बादशाह बने अब रईयत बनने के भी लायक़ ना ठहरा। महल में सुकूनत करने के बजाय क़ैद-ख़ाने में डाला गया। तख़्त पर बैठने के बजाय सलीब पर खींचा गया।
लेकिन अगरचे उस हद तक जहां तक इन्सानी शरारत को दख़ल था। उस की ज़िंदगी ज़ाए (बर्बाद) हो गई तो भी ख़ुदा की हिक्मत में ऐसा ना था। इन्सानी पहलू से देखें तो मालूम होता है कि मसीह की मौत इन्सानी तारीख़ पर निहायत स्याह धब्बा है। बल्कि एक ऐसी ख़ता और जुर्म है जिसका कोई सानी नहीं मालूम होता। लेकिन इलाही पहलू से नज़र डालने पर ये वाक़िया तारीख-ए-आलम में एक निहायत अज़ीमुश्शान नज़ारा मालूम होता है। क्योंकि इस से इन्सान का गुनाह मिटाया गया। इलाही मुहब्बत की गहराई मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर हुई, वाज़ेह हुई, खुली) और बनी-आदम के लिए कामिलियत का रास्ता खुल गया। यसूअ कभी ऐसे कामिल तौर पर बादशाह ना था जैसा उस वक़्त जब उस का दावा-ए-बादशाही ठट्ठे में उड़ाया गया। ये वहशयाना (जंगली क़िस्म का) मस्ख़रा (मज़ाक़) था कि ये ख़िताब उस की सलीब पर लिख कर लगाया कि “ये मसीह यहूदीयों का बादशाह है।” पिलातूस ने तो ये अल्फ़ाज़ तंज़न (मज़हकाख़ेज़) लिखे थे लेकिन इस वक़्त जब हम पीछे नज़र दौड़ाते हैं तो क्या वो अल्फ़ाज़ तनज़ी (मज़हका) मालूम होते हैं। हरगिज़ नहीं ! बल्कि बरअक्स इस के क्या वो अल्फ़ाज़ इन गुज़श्ता सदीयों के परे से लाज़वाल शान व शौकत के साथ चमकते हुए नज़र नहीं आते? हाँ। वो उस बेहद शर्म व बेइज़्ज़ती की घड़ी में अपने आपको बादशाहों का बादशाह और ख़ुदावंद का ख़ुदावंद साबित कर रहा था।
यसूअ के दिल में हर वक़्त बराबर अपने बादशाह होने की निस्बत एक साफ़ और नादिर ख़्याल जागज़ीं था और उस ने कई दफ़ाअ इस का ज़िक्र भी किया। उस का ये अक़ीदा था कि हक़ीक़ी बादशाह होना अवाम का ख़ादिम होना है और वही शख़्स सबसे बढ़कर बादशाह कहलाने का मुस्तहिक़ है जो सबसे ज़्यादा बनी नौअ इन्सान की आला से आला क़ीमती ख़िदमत बजा ला सके। वो ख़ूब जानता था कि दुनिया का जो ख़्याल बादशाह की निस्बत है वो ऐसा नहीं। बल्कि ठीक इस के बरअक्स है। दुनिया का ख़्याल ये है कि बादशाह होना ये है कि लोगों की जमाअतें उस की ख़िदमतगुज़ार हों और जिस क़द्र ज़्यादा लोग उस की शान व शौकत और ऐश व आराम के लिए उस के ताबेअ फ़रमान हों उसी क़द्र बड़ा बादशाह समझा जाता है। चुनान्चे उस ने भी फ़रमाया कि “ग़ैर क़ौमों के हाकिम उन पर हुकूमत जताते और इख़्तियार वाले उन पर अपना इख़्तियार दिखाते हैं।” लेकिन साथ ही ये भी कहा “पर तुम लोगों में ऐसा ना होगा। बल्कि जो तुम में बड़ा होना चाहे तुम्हारा ख़ादिम हो और जो तुम में सरदार बनना चाहे तुम्हारा ग़ुलाम (ख़ादिम) बने।” यसूअ के ख़्याल के मुताबिक़ बुजु़र्गी इसी बात में थी और अगर ये ख़्याल सही है तो वो कभी ऐसा बुज़ुर्ग ना था। जैसा उस वक़्त जब खुद अपनी क़ुर्बानी के ज़रीये वो तमाम दुनिया को निजात की नेअमत अता कर रहा था।
मगर यसूअ का हरगिज़ ये मतलब नहीं था कि बुजु़र्गी और बादशाही का ये ख़्याल सिर्फ उस की अपनी ही ज़ात से इलाक़ा (ताल्लुक़) रखे बल्कि ये निस्बत-ए-कुल्ली (मुकम्मल निस्बत) रखता है। ये मसीही पैमाना है जिससे सल्तनत के तमाम मुरातिब (मर्तबे, रुतबे) व मदारिज (दर्जे) का अंदाज़ा लगाया जाता है। मसीह के ख़्याल के मुताबिक़ सबसे बड़ा वो है जो सबसे बढ़कर औरों की ख़िदमत बजा लाए।
लेकिन अफ़्सोस। ये बात अभी बहुत कम लोगों की समझ में आई है। ये उसूल लोगों के दिलों में बहुत आहिस्ता-आहिस्ता तरक़्क़ी कर रहा है। हुकूमत की निस्बत जो क़दीमी ख़्याल है वो अभी तक राज करता है, कि बड़ा होना बहुत ख़िदमत करवाना है ना कि ख़िदमत करना। अब तक हुकूमत का सीग़ा हवा व हवस (लालच) का खेल। बल्कि तमअ (लालच) व ग़ारत (लालच व तबाही) की शिकार गाह रहा है ना कि ख़िदमतगुज़ारी का हलक़ा। अहले हुकूमत की ग़रज़ व मक़्सद इस वक़्त तक यही रहा है, कि जहां तक हो सके मह्कूम (जिन पर हुकूमत की जाती है) लोगों से अपने मुनफ़अत (नफ़ा, फ़ायदा) हासिल करें और ये देखना अभी बाक़ी है कि अहले हुकूमत की नई जमाअत इस से बेहतर रूह के ताबेअ है कि नहीं।
ताहम इन्सानी कारोबार के सीगे (साँचे में ढले हुए, तरीक़त) में भी ये मसीही ख़्याल तरक़्क़ी पकड़ता जाता है। आम तौर पर इन्सान का दिल मसीह की इस ताअलीम को मानता है कि सबसे बढ़कर शाहाना मिज़ाज वो शख़्स है जो अपने आपको दिली रजामंदी से दूसरों के लिए क़ुर्बान करता है। उन के लिए सख़्त मेहनत करता और ऐसे काम सरअंजाम देता है कि जिसमें सबकी बहबूदी (तरक़्क़ी) हो। अगरचे ज़बूर नवीस का ये क़दीम और दिलचस्प क़ौल अब भी बिल्कुल सही है कि “जब तू अपनी भलाई करे लोग तेरी तारीफ़ करेंगे।” लेकिन उन अश्ख़ास की तादाद दिन-ब-दिन बढ़ती जाती है। जो ये ख़्याल करते हैं कि हाकिम की बुजु़र्गी का पैमाना (नापने का आला) ये नहीं कि वह रिआया से किस क़द्र ख़राज (महसूल, चूंगी) वसूल करता है। बल्कि ये कि उस ने उन की बहबूदी के लिए कितनी बड़ी बड़ी ख़िदमात सरअंजाम दी हैं।
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मसीह का नमूना कलीसिया की शराकत में
(मत्ती 3:13-15 मत्ती 8:4 मत्ती 9:35 मत्ती 13:54 मत्ती 21:12,13
मत्ती 9:10-17 मत्ती 12:1-14 मत्ती 15:1۔-9 मत्ती 16:6 मत्ती 23 बाब मत्ती 24:1,2
मत्ती 26:17-30 मत्ती 28:19-20)
(लूक़ा 10:31-32 लूक़ा 2:21 ता 24 व 39 व 41-49 लूक़ा 4:16-32 व 44
लूक़ा 22:53)
(युहन्ना 4:22 युहन्ना 5:1 युहन्ना 8:20 युहन्ना 10:22-23 युहन्ना 2:13-22 युहन्ना 20:22 व 23)
(मरक़ुस 3:1-6, मरकुस 2:6, मरकुस 12:41-44)
चौथा बाब
मसीह का नमूना कलीसिया की शराकत में
बाअज़ उमूर् के लिहाज़ से तो कलीसिया कुंबे की निस्बत भी ज़्यादा तंग और महदूद जमाअत है। हो सकता है कि किसी कुंबे का एक आदमी तो इस में से लिया जाये और दूसरा छोड़ा जाये। लेकिन दीगर उमूर् में वो सल्तनत की निस्बत भी ज़्यादा वसीअ है क्योंकि मुख़्तलिफ़ अक़्वाम के लोग एक ही कलीसिया के मैंबर हो सकते हैं।
कुंबा और सल्तनत ऐसी जमाअतें हैं जो अपनी ही जुबली (फ़ितरी, तिब्बी, पैदाइशी, हक़ीक़ी, ख़लक़ी) ताक़त के ज़रीये और अपने ही जुबली क़वानीन के मुताबिक़ फ़ितरत-ए-इन्सानी में से पैदा हुई हैं। लेकिन कलीसिया एक इलाही इंतिज़ाम है जो बनी-आदम के दर्मियान इस ग़रज़ से क़ायम किया गया है कि मुंतख़ब (चुने हुए) अश्ख़ास को अपने अंदर जमा कर के बाला–ए-फ़ित्रत (क़ुदरत से ऊपर, क़ुदरत से बढ़कर) नेअमतें अता करे। अलबत्ता वो फ़ितरत-ए-इन्सानी में तिब्बी लिहाज़ से भी कुछ जुड़ रखता है। लेकिन ये जड़ इन्सान की उन हस्सात (हिस की जमा, महसूस करने की ताक़त) पर मुश्तमिल है जो उस के बाअज़ हज़ाइज़ (लुत्फ़) और हवाइज (हाजत की जमा, ज़रूरतें) के हुसूल की तहरीक दिलाती हैं जो इस दुनिया में जिसका वो ख़ुदावंद है नहीं पाई जातीं। बल्कि सिर्फ़ आस्मान से अतीया और बख़्शिश के तौर पर मिल सकती हैं। इल्हाम के बग़ैर कोई कलीसिया नहीं हो सकती। जैसा कि गिरजे की इमारत लोगों के घरों के बीच में से जहां वो क़ायम है ऊंची नज़र आती है और उस का मीनार उंगली की मानिंद आस्मान की तरफ़ इशारा करता है। इसी तरह कलीसिया अपनी इंतिज़ामी हैसियत के लिहाज़ से इन्सान की उस आला आरज़ूओ और तमन्ना का इज़्हार है जो वो आस्मानी ज़िंदगी के वास्ते रखता है। यानी उस ज़िंदगी के लिए जो ख़ुदा में शामिल और अबदी है और मह्ज़ ख़ुदा के फ़ज़्ल और मेहरबानी से दस्तयाब होती है।
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• यसूअ ऐसे मुल्क में पैदा हुआ जहां पहले ही से एक हक़ीक़ी कलीसिया मौजूद थी। जिसकी बुनियाद इल्हाम पर थी और जो ख़ुदा के फ़ज़्ल को लोगों तक पहुंचाती थी। वो उस क़ौम का फ़र्ज़ंद था जिसकी निस्बत रसूल फ़रमाता है कि “फ़र्ज़ंदी और जलाल और अह्द और शरीअत और इबादत की रस्में और वाअदे उन ही के हैं।” वो ख़तने के मामूली दरवाज़े के ज़रीये कलीसिया की रिफ़ाक़त में लिया गया और इस के चंद हफ़्ते बाद और यहूदी बच्चों की मानिंद हैकल में पेश किया गया। जो गोया इस अम्र का इक़रार था। कि वो ख़ुदावंद का है। इस तौर पर पेशतर उस के कि वो ख़ुद इस बात से आगाह हुआ। वो अपने ज़मीनी वालदैन की मर्ज़ी से पाक रस्मों के ज़रीये ख़ुदा की ज़ाहिरी कलीसिया में दाख़िल किया गया। यही बात बपतिस्मे में हमारे साथ भी हुई है। लेकिन बहुत से लोग जिन्हों ने बचपन में बपतिस्मा पाया बड़े होकर इस अम्र की तरफ़ कुछ भी मीलान ज़ाहिर नहीं करते कि अपने आपको ख़ुदा के घराने के साथ शामिल करें। बरअक्स इस के यसूअ जों ही पूरे तौर पर खुद आगाही के साथ काम करने के क़ाबिल हुआ उस ने अपने वालदैन की नेक मर्ज़ी को अपनी मर्ज़ी बना लिया और उस के दिल में ख़ुदा के घर के लिए निहायत पुरजोश उल्फ़त पैदा हो गई। बारह बरस की उम्र में जब वो अपने वालदैन की हम-राही (साथ होते हुए) से यरूशलेम में अलग हो गया तो उन्होंने बहुत सी तलाश के बाद उस को हैकल में पाया और जब उन्होंने उसे कहा कि वो कितनी देर से और किस क़द्र और दूर दूर उस को ढूंडते फिरे हैं। तो वह बड़ी हैरत से उन से बोला, गोया कि उस के नज़्दीक उस जगह के सिवा और कहीं उस की तलाश का ख़्याल करना ही एक नामुम्किन सी बात थी। वो बिलाशुब्हा अपनी उम्र के उन दिनों में जब कि वो चुप-चाप नासरत में रहता था इबादत ख़ाने में हमेशा जाता होगा और उस की निस्बत ये ख़्याल करना अजीब मालूम होता है कि वो किस तरह हर सबत को इस क़द्र अर्से तक वअज़ व नसीहत सुनता रहा। जब उस ने नासरत के कुंज (ज़ावीया, गोशा, किनारा, कोना) उज़लत (ख़ल्वत, तन्हाई) को छोड़ा और अपना पब्लिक काम शुरू किया तो उस वक़्त भी वो बराबर बिला नागा इबादत ख़ाने में जाया करता था। बल्कि फ़िल-हक़ीक़त (हक़ीक़त में) इबादतखाना एक मर्कज़ के तौर पर था। जहां से उस के काम ने नशव व नुमा पाई। “उस ने गलील के इबादत ख़ानों में मोअजज़े उस के दस्तुरात को बजा लाता। बल्कि गर्म-जोशी से उन्हें प्यार करता रहा। शायद नासरत की शरीर जमाअत से बढ़ कर मुश्किल से कोई ऐसी जमाअत होगी जो अपने रुतबे से इस क़द्र गिरी हुई हो और बहुत कम वाअज़ ऐसे नाक़िस होंगे जैसे वो वाअज़ जो वहां सुनने में आते थे, लेकिन जब वो इस छोटे से इबादत ख़ाने में जाता था तो गोया अपने आपको मुल्क के तमाम दीनदार लोगों के साथ मुत्तहिद महसूस करता था। जब पाक नविश्ते पढ़े जाते थे तो गोया गुज़श्ता ज़मानों के नेक और बुज़ुर्ग लोग उस के गर्द जमा हो जाते थे, नहीं बल्कि उस के लिए ख़ुद आस्मान भी उसी तंग व तारीक जगह में मौजूद था।
इन्सानी ज़िंदगी के घर में कलीसिया बतौर एक खिड़की के हैं जिसमें से बाहर नज़र करके आस्मान को देख सकते हैं। सितारों के देखने के लिए किसी बड़ी नक़्श व निगार की हुई खिड़की की ज़रूरत भी नहीं। बाइबल से बाहर जो निहायत उम्दा नाम कलीसिया को दिया गया है वह ख़ुशनुमा महल है। ये नाम बनिएन साहब की मशहूर किताब “मसीही के सफ़र” में मिलता है। लेकिन कलीसियाएं जिनसे वो वाक़िफ़ था सिर्फ बैप्टिस्ट लोगों की मामूली छोटी छोटी मजमअगाहैं (हुजूम गाहैं, लोगों के इकट्ठे होने की जगहें) थीं और उस ज़माने में जब लोग मज़्हब के लिए सताए जाते थे उन की हैसियत मामूली क़िस्म की टूटी फूटी झोंपड़ियों से कुछ भी बढ़कर ना थी। देखने वाले को मामूली ख़ता (ज़ख़ीरा, ढेर) सा नज़र आता था मगर बनिएन साहब की नज़र में हर एक ऐसी झोंपड़ी एक ख़ुशनुमा महल थी। क्योंकि जब वह उस की भद्दी (बेरौनक, बेकशिश, बे लुत्फ़) से बेंच पर बैठता था तो वो अपने आपको “तमाम जमाअत और पहलोठों की कलीसिया” में शामिल समझता था और उस की क़ुव्वत-ए-वाहिमा (तसव्वुर की ताक़त, गुमान की ताक़त) की आँख उस के मेले कुचैले टूटे फूटे शहतीरों में से पार हो कर कलीसियाए जामा की शानदार छत और मुनव्वर दीवारों को देख सकती थी। ये पाक शूदा क़ुव्वत-ए-वाहिमा की आँख है जो कलीसिया की इमारत को ख़्वाह वो ईंट की बनी हो या आलीशान उसकफ़ी गिरजा हो। सच्ची अज़मत व जलाल से मुलब्बस करती है और ख़ुदा की मुहब्बत जिसका वो घर है। एक अदना से अदना झोंपड़ी को भी रूह के लिए एक उम्दा आरामगाह बना देती है।
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अगरचे मसीह के ज़माने की कलीसिया की बुनियाद ख़ुदा की रखी हुई थी और वह भी उस को ख़ुदा का घर मानता था। ताहम वो ख़ौफ़नाक ख़राबियों से भरी थी। कोई इंतिज़ाम ख़्वाह ख़ुदा ही की तरफ़ से क्यों ना हो, आदमी उस में अपनी बातें मिला सकता है और रफ़्ता-रफ़्ता इन्सानी मिलावट इलाही इंतिज़ाम के साथ मिल-जुल कर ऐसी एक बन जाती है, कि दोनों बातें एक तन मालूम होतीं हैं और यकसाँ तौर पर ख़ुदा की तरफ़ से समझी जाने लगती हैं। इन्सानी ईज़ादीयाँ (ज़्यादती) बढ़ती जाती हैं। यहां तक कि उस में से जो इन्सानी आमेज़िश है गुज़र कर इलाही बातों तक पहुंचना क़रीबन नामुम्किन हो जाता है। फ़िल-हक़ीक़त बाअज़ कामगार (ख़ुशनसीब, इक़्बालमंद) रूहें उस वक़्त भी उस में से हक़ीक़त तक पहुंच जाती हैं। जैसे दरख़्त की जड़ें अपनी ख़ुराक हासिल करने के लिए सख़्त चट्टान की दराड़ों के बीच में से भी ज़मीन तक रास्ता निकाल लेती हैं। लेकिन अवामुन्नास अपना रास्ता नहीं पा सकते। बल्कि अपनी रूहों को उन बातों से सेराब करने की कोशिश में जो मह्ज़ इन्सानी हैं और जिनको वो ग़लती से इलाही समझ बैठे हैं, तबाह हो जाते हैं। आख़िरकार एक ताक़तवर आदमी बरपा होता है। जो अस्ल इमारत और इन्सानी ईजादों में फ़र्क़ मालूम कर लेता है और वो आख़िर-उल-ज़िक्र को तोड़ कर चकना चूर कर देता है। गो कि तमाम उलू और तारीकी के जानवर जिन्होंने उस में अपने घोंसले बना रखे थे बहुत शोर व ग़ौग़ा (शोरोगुल) मचाते हैं तो भी वो अज़ सर-ए-नौ ख़ुदा की बनाई हुई असली बुनियादों को दुबारा ज़ाहिर कर देता है।
उस शख़्स को ज़बान-ए-आम में मुसलह (इस्लाह करने वाला, दुरुस्त करने वाला) के नाम से पुकारते हैं। यसूअ के दिनों में उस मज़्हब पर जो ख़ुदा ने मुक़र्रर किया था। इन्सानी बिद्दतें हद को पहुंच गईं थीं। कोई नहीं जानता था कि ये किस तरह शुरू हुईं? ऐसी बातें अक्सर बग़ैर किसी बद इरादे के शुरू होती हैं। लेकिन ये एक ग़लतफ़हमी के सबब से बहुत ही तरक्क़ी कर गईं जो इस अम्र में पैदा हो गई थी, कि ख़ुदा की इबादत क्या है? “इबादत एक वसीला है जिससे इन्सान की ख़ाली रूह ख़ुदा के नज़्दीक जाती ताकि उस की भरपूरी से भर जाये, और तब ख़ुश व ख़ुर्रम होकर वापिस आती है ताकि उस क़ुव्वत से जो उस को हासिल हुई, ख़ुदा की ख़िदमत में ज़िंदगी बसर करे।” लेकिन हमेशा हम में तबन (तबीयत, फ़ितरत, मिज़ाज) ये मीलान पाया जाता है कि हम इस इबादत को बतौर ऐसे ख़राज के समझने लगते हैं जो हमें ख़ुदा को अदा करना है और जिससे वो ख़ुश होता है और ये ख़्याल करते हैं कि हमको उस के एवज़ कुछ सवाब या अज्र मिलता है। अलबत्ता अगर इबादत बतौर ख़राज के हो तो जिस क़द्र ज़्यादा उस को अदा किया जाये बेहतर है। क्योंकि जिस क़द्र ज़्यादा दिया जायेगा, आबिद को उसी क़द्र ज़्यादा सवाब मिलेगा। पस इस तौर से इबादतों की तादाद बढ़ाई जाती है। नई नई सूरतें ईजाद की जातीं और इन्सानी सवाब के हुसूल के ख़्याल में ख़ुदा के फ़ज़्ल की याद बिल्कुल मिट जाती है।
यही बात कनआन के मुल्क में भी वाक़ेअ हुई। मज़्हब इबादतों का एक ला-इंतिहा (ख़त्म ना होने वाला) सिलसिला बन गया था। जिनकी इस क़द्र कस्रत हो गई कि आख़िरकार वो ज़िंदगी के लिए एक नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त बोझ हो गईं। ख़ादिमान-ए-दीन उन्हीं लोगों की गर्दन पर लादते गए। जिनके ज़मीर अपनी कोताहियों के ख़्याल से ऐसे शिकस्ता व पामाल (टूटे और पांव में रौंदे हुए) हो गए कि मज़हबी अहकाम की पैरवी से जो ख़ुशी हासिल होनी चाहीए वो बिल्कुल ज़ाए व बर्बाद हो गई। ख़ूद ख़ादिमान-ए-दीन भी उन अहकाम की बजा आवरी से जो वो जारी करते थे क़ासिर थे और इस से रियाकारी को दख़ल पाने का मौक़ा मिला। क्योंकि तिब्बी तौर पर उन से उम्मीद की जाती थी कि वो ख़ूद इन तमाम बातों को जिनका औरों को हुक्म करते हैं बजा लाएंगे। मगर वो कहते थे और करते ना थे। “वो भारी बोझ जिनका उठाना मुश्किल है बाँधते और लोगों के काँधों पर रखते थे। पर आप उन्हें अपनी एक उंगली से सरकाने पर राज़ी ना थे।” अब वक़्त आ पहुंचा था कि एक मुस्लह (सुलह करने वाला) ज़ाहिर हो और ये इस्लाह का काम यसूअ के ज़िम्मे लगा।
उस इस्लाह के काम में उस की गर्म-जोशी का पहला इज़्हार उस की मिनिस्ट्री (खिदमत) के शुरू ही में हुआ जब कि उस ने ख़रीदो फ़रोख़्त करने वालों को हैकल के सिहन से निकाल दिया। उन लोगों का कारोबार ग़ालिबन नेक इरादे से शुरू हुआ था। वह क़ुर्बानी के लिए बेल और कबूतर उन लोगों के पास बेचते थे जो ग़ैर ममालिक (गैर मुल्कों) से हज़ारों हज़ार की जमाअतों में ईदों के मौक़े पर इबादत करने के लिए यरूशलेम में आते थे। ऐसे लोगों के लिए इस क़द्र फ़ासले से जानवरों को अपने हमराह लाना मुश्किल था। वो ग़ैर ममालिक के रूपयों को जो वह अपने हमराह लाते थे वहां यरूशलेम के सिक्कों से तब्दील कर लेते थे। क्योंकि ग़ैर मुल्कों का सिक्का नापाक समझा जाता था। इसलिए हैकल के खज़ाने में सिर्फ वहीं का सिक्का लिया जाता था। हक़ीक़त में तो ये एक ज़रूरी और मुफ़ीद बात थी। मगर इस से बड़ी बड़ी ख़राबियां पैदा हो गई थीं। क्योंकि जानवरों के लिए बहुत ज़्यादा क़ीमत मांगी जाती और सिक्के बड़े गिरां नर्ख़ (बहुत ज़्यादा दाम, बहुत ज़्यादा क़ीमत) पर तब्दील किए जाते थे। इस कारोबार से इस क़द्र शोरो-ग़ौग़ा (हल्ला) होता था कि इस से इबादत में भी हर्ज (नुक़्सान, ख़लल) वाक़ेअ होता था। निज़ इस काम के लिए इस क़द्र जगह रोकी गई कि ग़ैर अक़्वाम को हैकल के सिहन में जो उन के लिए मख़्सूस था। इबादत के लिए बिल्कुल जगह ना मिलती थी। क़िस्सा कोताह (क़िस्सा मुख़्तसर) “इबादत का घर चोरों की खोह बन गया था।” यसूअ ने बिलाशुब्हा बहुत दफ़ाअ जब वो ईदों के मौक़ों पर हैकल में आता होगा अफ़्सोस व ग़ुस्से के साथ इन ख़राबियों को देखा होगा और जब नबुव्वत की रूह उस पर उतरी और उस ने अपना पब्लिक काम शुरू किया तो उस के पहले कामों में से ये काम था कि ख़ुदा के घर को इन ख़राबियों से पाक करे। नौजवान नबी को अपना रसय्यों का कूड़ा लोगों के सरों पर घुमाते हुए देखना जो अपने गुनाह से ख़बरदार होकर उलटी हुई मेज़ों और दौड़ते हुए जानवरों के दर्मियान उस के पाक ग़ज़ब (पाक ग़ुस्सा) के सामने से भागते जाते थे। मुस्लह (सुलह करने वाले) की एक कामिल तस्वीर का नज़ारा है। बयान किया जाता है कि सरदार काहिन के ख़ानदान को इस नापाक तिजारत से बहुत आमदनी थी और ज़ाहिर है कि उन लोगों के दिल में उस शख़्स की निस्बत जिसने उन की आमदनी में रख़्ना (नुक़्सान, ख़लल, मुज़ाहमत) डाला बहुत मुहब्बत व सुलूक का ख़्याल पैदा ना हुआ होगा। इसी तरह उस ने उन की लंबी और नमूदी (ज़ाहिरी, दिखावे की दुआओं, व खैरात देते वक़्त अपने सामने तुरहें (बगल, तुर्रम, एक क़िस्म की लंबी नफ़ीरी) बजाने की हंसी उड़ाकर फ़रीसयों की जमाअत को अपना दुश्मन बना लिया। ये तो मुम्किन ना था कि वो इस क़िस्म की बातों की पर्दादरी (ऐब नुमाई, अफ़शाए राज़) से बाज़ रहता। क्योंकि लोग उन बातों को दीनदारी का मग़ज़ समझ कर इज़्ज़त की नज़र से देखते थे। हालाँकि वो नाशाइस्तगी और झूटी शेख़ी का नापाक पोस्त थीं। उस ने इस बात को मंज़ूर किया कि लोग उसे गुनाहगार समझ कर हक़ीर जानें इसलिए कि वह रोज़ों और सब्त मनाने के पुर मुबालग़ा (हद से ज़्यादा बढ़ाना) दस्तूरों से जिनकी निस्बत वो जानता था कि मज़्हब का हिस्सा नहीं हैं बेपर्वाई करता था। निज़ इस लिए भी कि वो महसूल लेने वालों और गुनाहगारों से मिलता था। क्योंकि वो इस को इलाही रहमत के ऐन मुताबिक़ समझता था। आख़िरकार वो इस बात पर मज्बूर हुआ कि उस ज़माने के मज़हबी अश्ख़ास के चेहरे पर से रियाकारी का नक़ाब उठा कर उन की असली सूरत को लोगों पर ज़ाहिर कर दे कि वो अँधों के अंधे हादी (हिदायत करने वाला) और सफ़ेदी फिरी हुई क़ब्रों की मानिंद हैं, जो बाहर से ख़ूबसूरत नज़र आतीं लेकिन अंदर से मुर्दों की हड्डीयों से पूर हैं।
इस तौर से उस ने इन्सानी कूड़े करकट के तूदों (ढेरों, अंबारों) को जो उन्होंने ख़ुदा ने घर के गिर्दागिर्द जमा कर दीए थे, साफ़ कर दिया। और हक़ीक़ी हैकल को अज़सर-ए-नौ उस की ख़ूबसूरत आन बान में फिर एक दफ़ाअ लोगों पर ज़ाहिर कर दिया। लेकिन उसे उस का खामयाज़ा भी उठाना पड़ा। काहिनों ने जिनके नाजायज़ मुनाफ़ों के वसाइल उस ने बंद कर दिए और फ़रीसयों ने जिनकी रियाकारी को उस ने इफ़शा (खोलना, ज़ाहिर करना) कर दिया। ऐसे ग़ज़ब और कीने के साथ उस का तआक़ुब किया कि उस को सलीब पर खींच कर दम लिया और इस तरह मुसलह के नाम के इलावा उस ने शहीद का नाम भी हासिल किया और ख़ुद शुहदा की शरीफ़ फ़ौज का पेशवा बना जो गुज़श्ता सदीयों के सफ़े पर एक बारीक क़तार में सफ़ बस्ता नज़र आती है। इस फ़ौज के कई एक अश्ख़ास मुसलह (सुलह कराने वाले) भी हुए हैं। उन्हों ने अपने अपने ज़माने में कलीसिया के बरख़िलाफ़ सर उठाया और इसी कश्मकश में मारे गए। क्योंकि नए अह्द की कलीसिया पुराने अह्द की कलीसिया की मानिंद ख़राबियों की जौलाँ गाह (घोड़ों का मैदान, घोड़ों को चक्कर देने की जगह) बनने से किसी तरह आज़ाद नहीं। मसीही कलीसिया की हालत उन मर्दान-ए-ख़ुदा के ज़माने में जिनको हम खासतौर से मुसलह (सुलह करने वाले) के ख़िताब से मुख़ातब करते हैं, ठीक वैसी ही थी। जैसी पुराने अह्द की कलीसिया की हालत मसीह के वक़्त में। इन्सान की ईज़ादियों ने ख़ुदा की कारीगरी को बिल्कुल ढाँप लिया था। मज़्हब ख़ुदा के फ़ज़्ल को लोगों तक पहुंचाने के इंतिज़ाम से बदल कर रसूम व दस्तुरात का सिलसिला बन गया था। जिससे इन्सानी सवाब के ज़रीये ख़ुदा की मेहरबानी को तलब किया जाता था। ख़ादिमान-ए-दीन अँधों के अंधे राह दिखाने वाले बन गए थे। इस्लाह के ज़रीये से ख़ुदा ने अपनी कलीसिया को इस हालत से नजात बख़्शी। हम-ख़याल करते हैं कि उस वक़्त के बाद फिर कभी इस्लाह की वैसी ही बड़ी हाजत नहीं पड़ी। ताहम ये ख़्याल करना ला हासिल है कि हमारे ज़माने में या कलीसिया की उस शाख़ में जिससे हम ताल्लुक़ रखते हैं। कोई ख़राबी नहीं है, जिसके लिए मुसलेह के छाज की हाजत नहीं। गोहम उन को महसूस ना करें। मगर ये बात उन की अदमे मौजूदगी (ग़ैर-मौजूदगी) का सबूत नहीं हो सकती। क्योंकि हम तारीख़ से मालूम करते हैं कि कलीसिया अपने बदतरीन दिनों में भी अपने उयूब (ऐब की जमा, बुराई, ग़लती, ख़ता, नुक़्स) से बराबर नावाक़िफ़ रही। जब तक कि मुनासिब शख़्स ने मबऊस (उठाया गया, भेजा गया, पैदा किया गया) होकर उन उयूब को जता ना दिया। और तमाम ज़मानों में ऐसे शख़्स होते रहे हैं। जो सच्चे दिल से ये यक़ीन करते थे कि वो ख़ुदा की ख़िदमत बजा ला रहे हैं। हालाँकि वो अपनी जहालत से फ़िल-हक़ीक़त निहायत ज़रूरी और मुफ़ीद तब्दीलीयों को रोक रहे थे।
3
मुसलह (सुलह करने वाले) का नाम जहां इस का मुख़ातब फ़िल-हक़ीक़त इस नाम का मुस्तहिक़ हो, कलीसिया में बड़ा मुअज़्ज़िज़ समझा जाता है। मगर यसूअ इस से भी एक बड़ा नाम रखता है क्योंकि वो कलीसिया का बानी भी था।
क़दीम कलीसिया जिसमें उस ने परवरिश पाई मादूम (ग़ायब) होने पर थी। उस का काम तमाम हो चुका था और क़रीब था कि वो दुनिया पर से उठा ली जाये। उस ने पहले ये पेशगोई की कि हैकल में पत्थर पर पत्थर ना छुटेगा जो गिराया ना जाये। उस ने सामरी औरत को बताया, कि वो घड़ी आती है। जिसमें तुम ना कोह-ए-गरज़ीम पर ना कोह-ए-सिहोन पर बाप की परस्तिश करोगे। बल्कि सच्चे परस्तार हर एक जगह रूह और रास्ती से उस की परस्तिश करेंगे। जब वो मर गया तो हैकल का पर्दा ऊपर से नीचे तक फट गया।
उस ने नए अह्द की कलीसिया को अपने ही ख़ून में बुनियाद रखी। अपना ख़ून बहाने से उस ने ख़ुदा और इन्सान के बाहमी ना-मुकम्मल रिश्ते को जो बैलों और बकरों के ख़ून के वसीले से था मंसूख़ कर दिया। और एक नया और बेहतर रिश्ता क़ायम किया। चुनान्चे उस ने इशाए रब्बानी की रस्म मुक़्क़रर करते वक़्त फ़रमाया कि “ये मेरे लहू से नया अह्द है।” ख़ुदा का नया घर उस कामिल मुकाशफ़ा से जो उस ने ख़ुदा की बाबत ज़ाहिर किया, मुनव्वर (नूर से भरा) रहे और उस में नई और ज़्यादा क़ीमती बरकतें जो उस की ज़िंदगी और मौत से ख़रीदी गईं, लोगों तक पहुंचाई जाती हैं।
लेकिन ख़ुदा का नया घर तामीर करने में उस के मेअमार (कारीगर) ने क़दीमी सामान को बिल्कुल रद्द नहीं कर दिया। उस ने इशाए रब्बानी की रस्म में उन्ही अश्या का इस्तिमाल मुक़र्रर किया जिनको वो और उस के शागिर्द उसी शाम को फ़स्ह के लिए इस्तिमाल कर रहे थे।
इबादत की सूरत और मसीही कलीसिया के ओहदेदार इबादत ख़ाने के अह्द दारों और इबादतों से मुशाबहत रखते हैं। मज़ीद बरआँ अहद-ए-क़दीम के नविश्ते मअ (साथ, हमराह) अपने मुक़द्दसों और बहादुरों के तज़्किरात के एक ही जिल्द में अहद-ए-जदीद की किताबों के साथ शामिल हैं।
यसूअ ने ख़ूद नए अह्द की कलीसिया के इंतिज़ाम व बंदोबस्त का नक़्शा तफ़्सील के साथ नहीं खींचा। उसने सिर्फ उस की बुनियाद रखने पर इक्तिफ़ा (काफ़ी होना, काफ़ी समझना, किफ़ायत करना) किया जो और किसी शख़्स से ना हो सकता और उस की इमारत का एक आम ख़ाका खींच दिया। उस ने अपनी इंजील कलीसिया के हवाले की और ये हुक्म दिया कि वो हर एक मख़्लूक़ के सामने उस की मुनादी करे। उस ने कलीसिया को बारह रसूल दिए। जिनकी मेहनतें और इल्हामी ताअलीम में उस बुनियाद के ऊपर जो ख़ूद उस ने रखी पत्थरों के दूसरे रद्दे की मानिंद थीं। उस ने उस के अहदेदारों को ये इख़्तियार दिया कि लोगों को उस की रिफ़ाक़त में दाख़िल करें या उस से ख़ारिज करें। उस ने बपतिस्मा और इशाए रब्बानी की रस्में मुक़र्रर कीं और सबसे बढ़कर उस ने अपनी कलीसिया के साथ ये वाअदा छोड़ा, जो हर एक ज़माने में उम्मीद के सितारे की तरह चमकता है कि “देखो मैं दुनिया के आख़िर तक हमेशा तुम्हारे साथ हूँ !” मसीह का ये बुनियाद नहादी (सरिश्त, ख़ल्क़त, तबीयत) का काम एक ही दफ़ाअ पूरे तौर पर किया गया और दुहराया नहीं जा सकता। लोग बाज़ औक़ात मसीही कलीसिया के उठ जाने की निस्बत ख़्याली पुलाव पकाने लगते हैं। मगर बजाय उस के कोई ऐसी चीज़ वाक़ेअ हो जाती है। जो पहले से भी बढ़कर होती है। लेकिन “कोई आदमी दूसरी बुनियाद हरगिज़ नहीं रख सकता।” कलीसिया को इस बुनियाद पर सिर्फ तामीर करने का काम, हम पर छोड़ा गया। ताहम ये भी उसी काम का एक हिस्सा है और उसी रूह के ज़रीये जिसके साथ उस ने इस की बुनियाद रखी, सरअंजाम पाता है। सबसे पहले उन लोगों को जो इस काम को इख़्तियार करते हैं ये देखना ज़रूर है कि वो ठीक ठीक बुनियाद के ऊपर तामीर करें। बहुत सा काम जो मसीही ख़िदमत के नाम से कहलाता है, आख़िर मसीह उस को क़ुबूल नहीं करेगा क्योंकि वो उस बुनियाद पर तामीर नहीं किया गया जो उस ने रखी थी। अगर इस नए अह्द को जो उस के ख़ून से है फ़रामोश कर दिया जाये। जिस पर उस ने अपने काम को मुश्तमिल ठहराया। या अगर वो बुनियादें जो उस के रुसूलों ने उस के नाम से रखीं तस्लीम ना की जाएं तो हो सकता है कि हम अपनी ही एक कलीसिया तामीर कर लें। लेकिन हमारी इस मेहनत को वो कभी क़ुबूल नहीं करेगा।
निज़ उन सबको जो इस काम में हिस्सा लेते हैं ये भी लाज़िम है कि उसी की पाक गर्म-जोशी के साथ उस को तामीर करें। उस ने ये मुनासिब समझा कि आदमीयों की रूहों को नजात देने की ख़ातिर अपनी जान दे। इसलिए हमको भी ये सोचना चाहिए कि हम इस मक़्सद को हासिल करने के लिए क्या-क्या क़ुर्बानियां करने को तैयार हैं? उस ने तो अपनी जान दे दी। क्या हम अपना आराम, अपनी कोशिश और अपना रुपया दे देंगे। ये सब उस ने इस वजह से किया, कि उसे यक़ीन था कि हर एक इन्सानी रूह तमाम आलम की निस्बत भी ज़्यादा क़ीमती है। इसलिए वह इन्सान की रूह बचाने के लिए मरा। क्या वो रूह हमारी नज़र में भी वैसी ही क़ीमती है? क्या उन की बदबख़्ती और बर्बादी का ख़्याल हमको भी बेचैन करता है? क्या उन का गुनाह हमें मग़्मूम (ग़मगीं) करता है? क्या उन की नजात से हमारे दिल में भी इसी क़द्र ख़ुशी पैदा होगी। जो एक गुनाहगार के तौबा करते वक़्त आस्मानी फ़रिश्तों के दिलों को मसरूर करती है ?
मगर इस इमारत को तामीर करने के लिए ना सिर्फ गर्म-जोशी की बल्कि ख़ुदा की पाक की हुई दानिश की भी ज़रूरत है। जैसा कि मैंने पहले कहा, यसूअ ने कलीसिया के इंतिज़ाम के लिए ज़रा ज़रा तफ़्सीली बातों की हिदायत नहीं कर दी। उस ने ज़्यादा-तर उन को इन्सानी ज़कावत व ज़हानत (इंतिहाई काबुल) पर छोड़ दिया। ताकि वो ख़ुद ये दर्याफ़्त करें कि किस तरह ये काम बेहतर तौर पर सरअंजाम दिया जा सकता है। और कलीसिया अभी तक इन बातों को दर्याफ़्त करती जा रही है। नए नए मसाइल हल करने के दरपेश आते हैं। नए नए काम माअरज़े (ज़ाहिर होने की जगह, दौरान) अमल में आते हैं। इसलिए उस को मूजिदों और पेश रोंवों की हाजत है जो उस की नई नई मुहिमों के अंजाम देने के लिए तदाबीर, सोचें और नई नई फ़ुतूहात के लिए रास्ता तैयार करें। मसलन उस बरकत का अंदाज़ा करना जो उस आदमी के वसीले कलीसिया पर नाज़िल हुई। जिसने संडे स्कूल क़ायम किए नामुम्किन है। वो कलीसिया का ज़ी मर्तबा (रुतबे वाला मर्तबे वाला) अहदेदार ना था और ना वो अजीब व ग़रीब लियाक़त (ख़ूबी) व क़ाबिलीयत रखता था। जो ख़ूबी उस में थी सो ये थी कि उस ने देख लिया कि एक बहुत बड़ा काम करने के वास्ते मौजूद है और उस ने उस के सरअंजाम देने के लिए एक उम्दा तरीक़ा दर्याफ़्त कर लिया। उस ने बच्चों की जमाअत तक लोगों की रहनुमाई की और उस वक़्त से वो बेशुमार रज़ामंद काटने वालों के लिए जो पके हुए खेत के इस निहायत दिलकश हिस्से में उस की पैरवी करते हैं। निहायत उम्दा काम मुहय्या करता रहा है और अभी बेशुमार क़िस्म के काम हैं। जो पाक शूदा मसीही जौदत व ज़कावत (इंतिहा की क़ाबिलीयत) के ज़रीये हल किए जाने के मुंतज़िर हैं। मेरे नज़्दीक और कोई तोहफ़ा ऐसा उम्दा नहीं जिसके हुसूल का लालच किया जाये। जैसा कि सबसे पहले हम ये दर्याफ़्त कर सकें कि किस तरह मसीही अहले-उल-राए को रूहानी इल्म की किसी नई कान में काम करना चाहीए। या किस तरह मसीही मिज़ाज रूहानी क़ाबिलीयत के किसी नए ज़ीने पर उठा या जा सकता है। या किस तरह मसीही सरगर्मी जमाअत के किसी ऐसे हिस्से की जो अब तक फ़रामोश रहा है रूहानी ज़रूरीयात को पूरा कर सकती है।
5
मसीह का नमूना दोस्ती में
(मत्ती 10:2-4, मत्ती 11:7-11, मत्ती 17:1-2, मत्ती 18:6۔10, मत्ती 21:17, मत्ती 26:14-16 व 37, 38, 40, 50, मत्ती 27:3-8, व 55-61)
(लूक़ा 8:1-3 लूक़ा 10:38-42 लूक़ा 12:4)
(युहन्ना 1:35۔-51 युहन्ना 11 बाब, युहन्ना 12:1-7 युहन्ना 13:1-5
युहन्ना 15:13۔15 युहन्ना 19:27)
(मरक़ुस 5:37, मरक़ुस 13:3,4)
पांचवां बाब
मसीह का नमूना दोस्ती में
1
कुतब अहद-ए-जदीद पर ये एतराज़ किया जाता है कि उस में कभी दोस्ती तारीफ़ व तहरीक नहीं की गई। हालाँकि उस में जोरू (बीवी) ख़ावंद, बाप, बेटे, और बहन भाई के बाहमी सुलूक की निस्बत हिदायात दर्ज हैं। मगर दोस्त दोस्त के बाहमी ताल्लुक़ का कुछ भी ज़िक्र नहीं पाया जाता।
इस अजीब भूल की वजह ज़ाहिर करने के लिए मुख़्तलिफ़ अस्बाब बयान किए जाते हैं। लेकिन पेशतर इस के कि हम उन पर बह्स करें हमें ये तहक़ीक़ कर लेना चाहिए कि आया फ़िल-हक़ीक़त ये ख़्याल ठीक है? क्या ये सच है कि अह्द-ए-जदीद में दोस्ती का कुछ भी ज़िक्र नहीं हुआ ?
इस के बरअक्स में ये दावा करता हूँ कि अहद-ए-जदीद इस मज़्मून के मुतालआ के लिए निहायत उम्दा किताब है। दोस्त की सबसे आला मिसाल ख़ुद यसूअ में पाई जाती है और उस का सुलूक जो उस ने इस ख़ूबसूरत रिश्ते में दिखाया ख़ुद बतौर एक आईने के है। जिसमें हक़ीक़ी दोस्ती की कामिल तस्वीर नज़र आती है और जिसके मुताबिक़ हर एक दोस्त को अपने तईं जाँचना चाहिए। अलबत्ता इस अम्र पर ये एतराज़ किया जाता है कि दोस्ती की ये मिसाल क़ाबिल-ए-तस्लीम नहीं। क्योंकि यसूअ का उन लोगों के साथ जो उस के दोस्त कहे जा सकते थे। उन के मुन्नजी होने का आला रिश्ता भी है और इस बिना पर ये कहा जाता है कि उन लोगों के दर्मियान जो ऐसी मुख़्तलिफ़ हैसियत और दर्जा रखते हों हक़ीक़ी दोस्ती नामुम्किन है।
लेकिन उस ने ख़ुद बारह को दोस्त कह कर पुकारा कि “इस के बाद मैं तुम्हें ख़ादिम ना कहूँगा, बल्कि दोस्त।” उस ने बारह में से तीन को अपना ख़ास रफ़ीक़ बना लिया। यानी पतरस, याक़ूब और युहन्ना को, और उन तीनों में से युहन्ना ख़ुसूसुन वो शागिर्द था जिसे यसूअ प्यार करता था। हमें ये भी बताया गया है कि “यसूअ मार्था और उस की बहन और लाज़र को प्यार करता था।” इस इबारत से यक़ीनन मालूम होता है कि वो बैतअन्याह के उन लोगों के साथ एक ख़ास तरह का दोस्ताना ताल्लुक़ रखता था। मुन्नजी होने की हैसियत में उस की निस्बत ये ख़्याल करना मुश्किल है कि वो उन लोगों में से जिन्हें उस ने बचाया है एक को दूसरे से ज़्यादा प्यार करता है, क्योंकि वो सबको यकसाँ प्यार करता है। लेकिन इन सूरतों में जिनका ऊपर ज़िक्र हुआ उस ने अपने बाअज़ पैरोकारों को दूसरों पर तर्जीह दी। जिससे ये साबित होता है, कि मुन्नजी और नाजी (निजात पाया हुआ, गुनाह माफ़ किया हुआ, मग़फ़ूर) के वसीअ और बुलंद रिश्ते के दर्मियान दोस्ती के ख़ास इन्सानी रिश्ते के लिए भी जगह थी।
2
उन लोगों के दर्मियान जिन्होंने दोस्ती के मज़्मून पर कुछ लिखा है। इस अम्र पर बहुत ज़्यादा बह्स हुई है कि आया निहायत उम्दा दोस्त वो है जो बहुत प्यार करता है या वो जो सबसे बड़े फ़वाइद पहुँचाता है।
दोनों जानिब से बहुत कुछ कहा जा सकता है, क्योंकि एक तरफ़ तो ये बात है कि निहायत ही आजिज़ दोस्त की सच्ची मुहब्बत से ख़्वाह वो हमारी कोई ख़ास ख़िदमत बजा लाने के कैसा ही नाक़ाबिल क्यों ना हो, एक लामहदूद तस्कीन और इत्मीनान हासिल होता है और दूसरी तरफ़ ज़िंदगी के आफ़ात व मसाइब (आफ़तें और मुसीबतें, तंगीयाँ और मुश्किलें) में जो सब पर वारिद (नाज़िल) होते हैं एक ऐसे शख़्स का होना अज़हद (बेहद) काराआमद (मुफ़ीद, फ़ाइदामंद) मालूम होता है, जो उम्दा सलाह (नेकी, भलाई, बेहतरी, अच्छाई) व मश्वरत (सलाह, मश्वरा, बाहमी तज्वीज़) दे सके। जो मुसीबत में दस्त-गीरी (मदद, मुआवनत, हिमायत) कर सके। जो हमारे मुआमलात में ऐसी दिलचस्पी ले गोया कि वो उस के अपने ही हैं और ये सब सिर्फ इसलिए करे कि वो हमारा दोस्त है। मगर इन दोनों में से कोई भी दोस्ती का आब-दार (वो शख़्स जो अमीरों के हाँ पानी पिलाने पर मुक़र्रर हो) मोती कहलाने का मुस्तहिक़ नहीं, क्योंकि उस में एक और चीज़ है जो उन दोनों से ज़्यादा क़ीमती है।
अगर वो शख़्स जिसने इस मसर्रत (ख़ुशी, शादमाअनी) के चश्मे से दिल खोल कर पिया है। अपनी गुज़श्ता ज़िंदगी पर नज़र करे और सवाल करे कि उस की ज़िंदगी के ऐश व आराम में सबसे मीठी चीज़ कौन सी थी और फिर वो अपने दिली दोस्त को याद करे। जिसकी सूरत उस के तजुर्बात-ए-ज़िंदगी की मुंतख़ब घड़ीयों के साथ वाबस्ता है। तब वो हमको ये बताए कि उसकी इस दिली तस्कीन का भेद और रूह क्या है? अगर तुम्हारी दोस्ती आला दर्जे की थी तो उस तस्कीन की रूह सिर्फ उस शख़्स की लियाक़त है। जिसको अपना दोस्त कहने की इज़्ज़त तुमको मिली। तुमको यक़ीन है कि वो बिल्कुल सच्चा और वफ़ादार है। तुम उस को ख़ूब जानते हो और तुमको उस में कहीं भी शक व शुब्हा या मक्कारी व फरेब नज़र नहीं आता। दुनिया झूटी और फ़रेबी हो तो हो लेकिन तुम कम से कम एक ऐसे दिल से वाक़िफ़ हो। जिसने तुमको कभी धोका नहीं दिया। अगरचे बहुत से वाक़ियात पेश आए हों जिससे बनी-आदम की क़द्र तुम्हारी नज़र से उतर गई हो तो भी अपने दोस्त की सूरत को याद कर के तुम हमेशा इन्सानी फ़ित्रत की सलाहीयत पर एतिमाद करने के क़ाबिल हो। यक़ीनन यही बेमिसाल नफ़ा (फ़ायदा) है। जो दोस्ती से हासिल होता है। यानी एक सादा, ख़ालिस और उलुल-अज़्म रूह से रिफ़ाक़त रखना।
अगर ये बात यूंही है तो यसूअ की दोस्ती में किस क़द्र लुत्फ़ होगा? अगर इन्सानी फ़ित्रत की निस्बत आम और ना-मुकम्मल नमूने जिनसे हम वाक़िफ़ हैं। ऐसा मसर्रत बख़्श असर कर सकते हैं। तो उस से जिसके दिल में हमेशा ख़ुदा और इन्सान की ख़ालिस मुहब्बत जोश ज़न (जोश मारना) थी। क़रीबी ताल्लुक़ रखना क्या कुछ होगा ! उस दिमाग़ के साथ जो ऐसे ख़यालों का जो इंजील में मरक़ूम हैं एक बड़ा और जारी सरचश्मा था। या ऐसी ख़सलत के साथ जिसमें बावजूद बारीक तहक़ीक़ात के एक भी दाग़ या चीन (शिकन, बल, सिलवट) नहीं पाया गया। गहरा ताल्लुक़ रखना क्या कुछ होगा ! जब हम बुज़ुर्ग और नेक अश्ख़ास के हालात पढ़ते हैं तो हमारे दिल में ख़्वाह-मख़्वाह ये तमन्ना पैदा होती है कि काश हमारी क़िस्मत में होता कि हम अफ़्लातून के पीछे पीछे उस के बाग़ में जाते, या लूथर की बातचीत सुनते, या बनिएन के साथ बेडफोर्ड की गलीयों में बैठते, या कोलर्ज को अपने फ़लसफ़े के सुनहरी बादल बनाते देखते। लेकिन ये सब मर्यम की ख़ुश-क़िस्मती के मुक़ाबले में जो यसूअ के पांव में बैठ कर उस की बातें सुनती थी। युहन्ना के मुक़ाबले में जो उस के सीने पर झुक कर उस के दिल की हरकात को महसूस करता था क्या हक़ीक़त रखते हैं?
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अगर वो बात जिसका हमने ऊपर ज़िक्र किया दोस्ती की सबसे पहली ख़ूबी है। तो मुहब्बत उस से दूसरे दर्जे पर है। दोस्ती सिर्फ उस हक़ व दावे का नाम नहीं जो एक शख़्स दूसरे पर रखता है। सिर्फ इसलिए कि वो एक गांव में पैदा हुए और मदरसा (स्कूल) में एक ही बंच पर बैठे। ये मह्ज़ हमसाइयों की वाक़फ़ीयत नहीं है जो रोज़मर्रा एक दूसरे के साथ मिलने जुलने और गपशप मारने के सबब एक दूसरे की सोहबत को पसंद करने लगते हैं। लेकिन अगर जुदा हो जाएं तो एक ही महीने में एक दूसरे को भूल जाएं। ये हम-सफ़रों की इत्तिफ़ाक़ी वाक़फ़ीयत या किसी पोलीटिकल मजमे के मैंबरों की मजालिस्त (बाहम मिलकर बैठना, मिल जुल कर बैठना, हमनशीनी) नहीं है। हक़ीक़ी दोस्ती में रूह का रूह से मिलाप और दिल का दिल से तबादला होता है। अहद-ए-अतीक़ में जो दोस्ती की मिसाल दर्ज है। उस ने उस दोस्ती के शुरू होने का हाल बड़ी ख़ूबी और उम्दगी से दर्ज किया गया है। “और ऐसा हुआ कि जब वो साउल से बात कर चुका यूनातन का जी दाऊद से मिल गया और यूनातन ने उसे अपनी जान के बराबर दोस्त रखा।” इस क़िस्म का इत्तिहाद जो एक दफ़ाअ पैदा हो जाता है, फिर नहीं टूटता। पर अगर टूटता भी है, तो जिस्म के फटने और बहुत सा ख़ून बहने से टूटता है।
ताहम में उन लोगों के साथ इत्तिफ़ाक़ नहीं करता जो इस ख़्याल के मुवय्यद (ताईद किया गया, मदद दिया गया, हिमायत किया गया) हैं, कि हक़ीक़ी दोस्ती ज़ोजी (इज़्दवाजी, शादीशुदा) मुहब्बत की मानिंद एक वक़्त में सिर्फ एक ही शख़्स से रख सकते हैं। इस सदी का एक निहायत ही बारीक बैन (बारीकी से देखना) शख़्स जो इन्सानों के बाहमी ताल्लुक़ात की तमाम बुलंदीयों और पस्तियों से ख़ूब वाक़िफ़ है। बड़े ज़ोर से इस ख़्याल की ताईद और तमाम मोअतरज़ीन (एतराज़ करने वाले) के एतराज़ों की तर्दीद करता है। वो ये कहता है कि “अगर तुम ये ख़्याल करते हो कि तुम्हारे एक से ज़्यादा दोस्त हैं तो यही बात साबित करती है। कि तुमको हक़ीक़ी दोस्त अब तक नहीं मिला।” मगर ऐसा कहना उस उल्फ़त की माहीयत (असलियत, हक़ीक़त, कैफ़ीयत, अस्ल, जोहर, माद्दा, मग़ज़) की ग़लतफ़हमी के सबब से है। क्योंकि उस से उस पर एक ऐसा क़ायदा क़ायम किया जाता है जो बिल्कुल मुख़्तलिफ़ क़िस्म के जज़्बे से ताल्लुक़ रखता है। बहम वजूद (एक दूसरे से मिलती वजूहात) मसीह का नमूना हमारे इस ख़्याल की ताईद करता और ये साबित करता मालूम होता है, कि दोस्ती में मुख़्तलिफ़ मदारिज (दर्जे, रुत्बे, मुक़ामात) हो सकते हैं, कि “दिल एक ही वक़्त में कई अश्ख़ास की दोस्ती से हज़ (मज़ा, लुत्फ़) उठाने की क़ाबिलीयत रखता है।”
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दोस्तों की मुहब्बत एक कारआमद जज़्बा है और दोस्तों की ख़िदमत बजा लाने और फ़वाइद पहुंचाने में ख़ुश होता है। क़दीम ज़माने के लोग इस बात से ऐसे आगाह थे कि दोस्ती के फ़राइज़ पर बह्स करते हुए सवाल ये नहीं होता था कि किस क़द्र एक दोस्त को दूसरे के लिए करना चाहिए। बल्कि ये कि किस हद पर पहुंच कर उसे रुकना चाहिए। उन के नज़्दीक ये बात मुसल्लम थी कि आदमी को अपने दोस्त की ख़ातिर जो कुछ उस से हो सके करना, बर्दाश्त करना, और देना चाहिए। वो सिर्फ ये हिदायत करते थे। कि आदमी को सिर्फ ऐसे नुक़्ते पर ठहर जाना चाहिए कि जहां उस की ये सरगर्मी किसी आला फ़र्ज़ से जो वो अपने कुंबे या मुल्क या ख़ुदा से रखता है टक्कर खाए। इस ख़्याल के मुताबिक़ वो तसावीर में दोस्ती का मुरक़्क़ा (मरम्मत शूदा, जिसमें पैवंद लगे हों) इस तौर पर उतारते थे कि गोया एक नौजवान नंगे सर मोटा सोटा लिबास पहने खड़ा है और इस तस्वीर से चालाकी और ख़िदमत-गुज़ारी पर आमादगी ज़ाहिर करना मक़्सूद होता था। उस के लिबास के दामन पर अल्फ़ाज़-ए-मौत और ज़िंदगी लिखे होते थे जिसका ये मतलब था कि दोस्ती ज़िंदगी और मौत में यकसाँ है। उस के माथे पर गर्मा और सुरमा लिखा होता था। जिससे मुराद थी कि ख़ुशहाली हो या तंगहाली दोस्ती में सिवाए इस के कि उस की ख़िदमत की क़िस्म में तब्दीली हो जाये और कोई तब्दीली वाक़ेअ नहीं होती। बायां कंधा और बाज़ू दिल के मुक़ाम तक नंगे होते थे। जहां अल्फ़ाज़-ए-दौर व नज़्दीक तहरीर थे और उन की तरफ़ दाएं हाथ की उंगली इशारा करती थी। जिससे किनाया (ईमा, रम्ज़, इशारा, मुबहम, बात, मंशा) था कि हक़ीक़ी दोस्ती ना वक़्त से कम होती है। ना फ़ासले से ज़ाइल (कम होने वाला) होती है।
यसूअ की दोस्तियों में इस सूरत के मुताल्लिक़ मिसालें देना आसान है मगर उन में से कोई ऐसी दिल-गीर नहीं जैसे उस का बर्ताव लाज़र की मौत और जी उठने पर था। इस मौक़ा पर उस का हर एक क़दम उस की ख़स्लत की ख़ुसूसीयत ज़ाहिर करता है। अपने दोस्त की मौत की ख़बर सुन कर उस का उसी मुक़ाम में जहां वो था और दो दिन ठहर जाना ताकि उस अतीया को जो वो बख़्शने पर था ज़्यादा क़ीमती कर दे। इस के बावजूद ख़तरात के जिनके वाक़ेअ होने का अंदेशा था और बारह शागिर्दों के ख़ौफ़ के यहूदिया में जाने का हौसला करना। उस का मार्था के कम्ज़ोर ईमान के शोले को तेज़ करना। उस का खु़फ़ीया मर्यम को बुला भेजना ताकि वो भी इस बड़े नज़ारे को देखने से महरूम ना रहे। उस का उन जज़्बात से जो ऐसे मौक़े पर पैदा होते हैं कामिल हमदर्दी करना, यहां तक कि वो रो पड़ा और उसे देखकर हाज़िरीन बोल उठे कि देखो वो उसे कैसा प्यार करता था। उस का दुआ के ज़रीये बहनों को तैयार करना ताकि वो अपने भाई को कफ़न पहने हुए क़ब्र से निकलते देखकर दहश्त ना खाएं और फिर सबसे बढ़कर उस को ज़िंदा कर देना। ये सब उस मुहब्बत के शाहिद (गवाह) हैं। जो औरत के दिल की मानिंद नर्म, मौत की मानिंद क़वी और ख़ुदा जैसी फै़ज़ बख्श थी।
लेकिन दोस्ती बाज़ औक़ात अपनी क़ुव्वत फ़वाइद की क़बूलीयत में मुस्तइद्दी दिखाने से भी उसी क़द्र ज़ाहिर कर सकती है। जिस क़द्र कि उस आमादगी से जिससे वो उन फ़वाइद को दूसरों तक पहुंचाती है। दोस्त के हाथ से फ़वाइद की क़बूलीयत से वो ये साबित करती है, कि उस को तरफ़-ए-सानी (दूसरी तरफ़) की मुहब्बत पर पूरा एतिमाद है। यसूअ ने अपनी दोस्ती की गहराई को जो वो युहन्ना की निस्बत रखता था। इस क़िस्म का एक सबूत दिया जब कि सलीब पर लटकते हुए उस ने अपने प्यारे शागिर्द से दरख़्वास्त की कि वो मर्यम को अपनी माँ की जगह समझे। इस से बढ़कर दोस्ती के लतीफ़ इज़्हार का मौक़ा मिलना मुश्किल है। यसूअ ने उस से ये ना पूछा कि आया वो ऐसा करेगा। बल्कि उस ने उस की मुहब्बत को बिला पूछे फ़र्ज़ कर लिया। और ये एतिमाद सबसे बड़ी इज़्ज़त थी जो शागिर्द को मिलनी मुम्किन थी।
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दोस्ती का ये एक मशहूर ख़ास्सा है कि दोस्त एक दूसरे की बाहमी रिफ़ाक़त और गुफ़्तगु से हज़ (लुत्फ़) उठाते हैं और एक दूसरे के सामने अपने ऐसे भेद बयान कर देते हैं, जो वो दुनिया के सामने ज़ाहिर करना गवारा नहीं करते।
दो निहायत गाड़े (पक्के) दोस्तों की निस्बत हम लोगों को उमूमन ये कहते सुनते हैं कि अगर तुम एक की तलाश में हो तो दूसरे के घर पर जाना बेहतर होगा। एक दूसरे की सोहबत से उन को इत्मीनान मिलता है। बल्कि कलाम की भी उन को मुश्किल से ज़रूरत पड़ती है। क्योंकि उन के पास ख़्यालात और हसात (हिस की जमा, महसूसात) को मालूम करने का एक मख़्फ़ी (छिपी, खु़फ़ीया) ज़रीया है। दोस्तों का एक दूसरे की सोहबत में बग़ैर किसी बदवज़ई के ख़ामोश रहना दोस्ती का एक क़ीमती हक़ है। ताहम जब कलाम के दरवाज़े खुल जाते हैं तो उस वक़्त दिल के खज़ाने इस तौर से उबल कर निकलते हैं कि किसी और हालत में ऐसा होना मुम्किन नहीं। क्योंकि उन्हें एक दूसरे से किसी चीज़ के छिपाने की हाजत (ज़रूरत) नहीं। पुरहया (शर्म भरा) ख़्याल जो ख़ुद अपने मूजिद (इजाद करने वाला) से भी मुँह छुपाता था। उस वक़्त बाहर निकल आता है। सख़्त से सख़्त राय भी बिला किसी ख़ौफ़ के बोल पड़ती है। एतिमाद एतिमाद का जवाब देता है। जैसे दो कोइले जो जुदा जुदा मद्धम जलते हैं जब इकट्ठे किए जाते तो उन में से एक शोला भड़क उठता है। इसी तरह जब दो दिल एक दूसरे को मस (छूना) करते हैं तो जलने लगते और ऐसे ख़ूबसूरत चिन्गारे निकालते हैं जो इस मुख़ालतत (बाहम अख़्लात, मेल-जोल, दोस्ती, मेल मिलाप, इत्तिहाद) के बग़ैर निकलने मुम्किन ना थे। वो शख़्स इन्सानियत के निहायत शानदार हक़ से बे-ख़बर है। जिसके दिल में अक़्ल की ज़याफ़त (मेहमानी, दावत खाना खिलाना) और रूह की रवानी के ऐसे सुनहरी घंटों की यादगारें जमा नहीं हैं।
यसूअ ने बारह को इसलिए चुना कि “वो उस के साथ रहें।” तीन साल तक वो उस के दाइमी (हमेशा के लिए, सदा के लिए) रफ़ीक़ (दोस्त, रिफ़ाक़त रखने वाले) थे और अक्सर वो उन को ग़ैर-आबाद जगहों या दूर दराज़ सफ़रों में अलेहदा (अलग) ले जाता। ख़ासकर इस ग़रज़ के लिए कि अलैह्दगी में उन की सोहबत और रिफ़ाक़त का लुत्फ़ उठाए। मुक़द्दस युहन्ना की इंजील में हम इन मुकालमात का कुछ-कुछ ज़िक्र पढ़ते हैं और उस बड़े फ़र्क़ को देखकर जो यसूअ के उन अक़्वाल में जो इस इंजील में दर्ज हैं और जो अनाजील सलासा (तीनो इन्जीलों) में मरक़ूम हैं (जिनमें ज़्यादा-तर वो तक़रीरें दर्ज हैं जो उस ने आम लोगों के सामने कीं) हम मालूम कर सकते हैं कि किस तरह पूरे तौर पर इन मुलाक़ातों में वो इन बारह शागिर्दों के सामने अपने दिल की पोशीदा बातों को खौलता था और इस एतिमाद से जो असरात उन की तबीयत पर पैदा हुए उन दो शागिर्दों के इस क़ौल से जिनके साथ उस ने अमाओस की राह पर गुफ़्तगु की देख सकते हैं कि “जब राह में हमसे बातें करता और हमारे लिए किताबों का भेद खौलता था तो क्या हम लोगों के दिल में जोश ना हुआ?”
ख़ासकर ज़्यादा अज़ीज़ शागिर्दों के दिलों में इस क़िस्म की बहुत सी घड़ीयों की क़ीमती याद उन की ज़िंदगी के बाद के बरसों में भी क़ायम रही। जब कि वो ग़रीक़ हैरत (हैरानी में ग़र्क़) दिल के साथ मसीह के ख़यालों के वसीअ (खुले, कुशादा) और मख़्फ़ी आलम (छिपी हुई दुनिया) पर नज़र करते थे। इस के इलावा उन को उनसे भी अज़ीम-तर चंद घड़ियाँ अता की गईं। अक्सर वो दुआ करने के लिए उन को अलैहदा ले जाता था। मसलन उस वक़्त जब उन्होंने मुक़द्दस पहाड़ पर उस का जलाल देखा। या जब उस ने गतसमनी के बाग़ में उन्हें अपने साथ जागने के लिए बुलाया। यकीनन उस की इस हालत में उस के बिल्कुल इन्सानी दोस्त की मानिंद होने में कुछ शुब्हा नहीं हो सकता। जब कि वो आख़िरी मौक़े पर उन से अपनी मुसीबत के वक़्त उन की हमदर्दी का तालिब हुआ। और उन से इल्तिजा की कि उस की जाँकनी (मौत के लम्हात में सांस उखड़ना, अज़ीयत) की हालत में उस के क़रीब रहें।
इन नज़ारों को देखकर हमें ताज्जुब होता है, कि किस तरह किसी शख़्स को उस की ज़िंदगी की इन पोशीदा बातों में इस क़द्र दख़ल मिला। क्या ख़ासकर ये दुआ की घड़ियाँ अपने तक़द्दुस के लिहाज़ से फ़ानी आदमीयों की आँख के ना सज़ावार नहीं थीं? ये बात कि उस के दोस्तों को ऐसे वक़्तों में उसके पास रहने का मौक़ा मिला। साबित करती है कि दोस्त का ये हक़ है कि उस को रूहानी तजुर्बात की पोशीदा बातों तक भी अपना हमराज़ बनाया जाये वो दोस्ती एक सरबरीदह (सर कटा हुआ) और निहायत ना-मुकम्मल दोस्ती होगी। जिस पर इस आलम का दरवाज़ा बंद किया जाये। क्योंकि उस के ये मअनी होंगे कि ये इकलौता दोस्त दूसरे की ज़िंदगी के निहायत गिरां क़दर (बेशक़ीमत, बहुत क़ीमती) हिस्से से ख़ारिज किया गया है। इसलिए हम ये कह सकते हैं। कि दोस्ती अपने निहायत आला माअनों के लिहाज़ से सिर्फ मसीहीयों के दर्मियान हो सकती है और वो भी इस प्याले का मज़ा सिर्फ उसी वक़्त चखते हैं जब उन की दोस्ती इस हद तक पहुंच जाये कि वो उन उमूर पर जिनका ज़िक्र हमेशा मसीह के लबों पर था बेतकल्लुफ़ और अक्सर गुफ़्तगु करने के क़ाबिल हों।
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दोस्ती भी और चीज़ों की तरह अपने नताइज से जांची जाती है। अगर तुम किसी दोस्त की क़द्र को मालूम करना चाहते हो तो ये सवाल करना ज़रूर है कि उस ने तुम्हारे लिए क्या-क्या किया, और तुमको क्या कुछ बना दिया?
यसूअ की दोस्ती इस पैमाने से ठीक उतरती है। बारह शागिर्दों पर नज़र करो और फिर ग़ौर करो कि उस से मिलने से पहले वो क्या थे और सोचो कि उस की तासीर ने उन्हें क्या कुछ बना दिया और वो अब क्या मर्तबा रखते हैं? वो ग़रीब आदमी थे। गो शायद उन में से बाअज़ ग़ैरमामूली तिब्बी क़ाबिलीयतें (जिस्मानी खूबियां) रखते थे। मगर वो सब नातरउशीदह (उजड्ड गँवार, बे-अदब) और ना तर्बीयत याफ्ताह हालत में थे। उस के बग़ैर वो कभी भी कुछ ना बनते। वो अपने अदना पेशों में गुमनामी की हालत में ज़िंदगी बसर करके मर जाते और दरयाए गलील के नीलगूं (नीले रंग का, आस्मानी रंग का नीला) पानी के किनारे बेनाम व निशान क़ब्रों में दफ़न किए जाते। उन के घरों से बीस मील के फ़ासले पर भी कोई उन को ना जानता और एक सदी से कम अरसे में वो बिल्कुल फ़रामोश (भूल जाना, भुला देना) हो जाते। मगर उस की सोहबत और मकालमत (गुफ़्तगु, हमकलामी) ने उन को बनी नौअ इन्सान के बेहतरीन और दाना तरीन अश्ख़ास के रुत्बे तक पहुंचा दिया और वो अब तख़्तों पर बैठे हुए अपने ख़यालात और नमूने से मौजूदा दुनिया पर हुकमरान हैं।
हमारे दोस्तियों (दोस्ती की जमा) को भी इसी पैमाने से जाँचना चाहिए। बाअज़ दोस्त ऐसे हैं जो चक्की के पाट की तरह उन लोगों को जो इस से बंधे हों ज़िल्लत और बे इज़्ज़ती के गढ्ढ़े में दबा देती हैं। लेकिन हक़ीक़ी दोस्ती पाक और सर्फ़राज़ करती है। दोस्त ज़मीर सानी की जगह हो सकता है। ये आगाही कि मेरा दोस्त मुझसे क्या उम्मीद रखता है। आला सई व कोशिश के लिए महमीज़ का काम दे सकती है। सिर्फ ये ख़्याल कि वो ज़िंदा है। गो कि फ़ासले पर ही क्यों ना हो। नामुनासिब ख़यालों को दबा सकता और नालायक़ कामों को रोक सकता है। बल्कि जब हमारे अपने ज़मीर की मुख़ालिफ़त का ख़ौफ़ बदी से बाज़ रखने के लिए काफ़ी क़ुव्वत ना रखता हो। उस वक़्त ये ख़्याल कि हमारे इस फे़अल को हमारे दोस्त के हुज़ूर में पेश होना होगा। किसी कमीना हरकत के इर्तिकाब को ग़ैर मुम्किन कर देगा। दोस्ती के हुक़ूक़ में सबसे क़ीमती ये हक़ है, कि हमारा दोस्त हमको हमारे उयूब (ऐब की जमा, बुराईयां, ख़ताएँ, गल्तीयां) बता दे। हर एक आदमी में बाअज़ बेहूदा ख़सलतें होती हैं। जिनको उसके सिवाए सबकी आँखें देख सकती हैं और हमारी इज़्ज़त के लिए बाअज़ ऐसे ख़तरे होते हैं जिनको सिर्फ एक दोस्त की आँख पेशतर इसके कि वो हमको दिखाई दें, देख लेती है। ऐसी मलामत या ज़जर व तौबीख़ (डाँट डपट, लानत मलामत, झिड़की, धुतकार) करने के लिए कमाल होशियारी की ज़रूरत है और उस को शुक्रगुज़ारी के साथ क़ुबूल करने के लिए भी कुछ ज़ाती ख़ूबी चाहिए। “लेकिन वो घाव जो दोस्त के हाथ से लगें पुर वफ़ा हैं।” और दोस्ती के बहुत कम तोहफ़े ऐसे क़ीमती हैं जो इस माक़ूल तंबीया व तादिब के अल्फ़ाज़ से बढ़कर क़ाबिल-ए-क़दर हो सकते हैं।
तो भी जब हम इन दोस्तियों की क़द्र का अंदाज़ा जो हमें हासिल हैं उस असर से करते हैं जो उन से हम पर होता है। तो इस बात को याद रखना भी कुछ कम ज़रूरी नहीं कि इस रिश्ते में हमारा चाल चलन भी इस पैमाने से आज़माया जायेगा। क्या मेरे दोस्त के लिए ये अच्छा है कि मैं उसका दोस्त हूँ? क्या अपनी अक़्ल और कुव्वत-ए-फ़ैसले की पुख़्तगी के वक़्त भी वो इस ताल्लुक़ को पसंद की नज़र से देखेगा? क्या अदालत गाह और अबदीयत में भी वो उस की क़द्र करेगा? इन्सान को इन सवालों के जवाब में ताम्मुल (शक, बर्दाश्त) होगा। मगर यक़ीनन कोई मुद्दा सख़्त तमन्ना और दिली दुआ के ज़्यादा लायक़ नहीं बनिस्बत उस के कि हमारी दोस्ती उस शख़्स के लिए जिसको हम प्यार करते हैं। कभी ज़रर रसां ना हो कि हमारी दोस्ती कभी उस को नीचे की तरफ़ ना ले जाये। बल्कि ऊपर की तरफ़ उठाए और बरक़रार रखे। क्या ये इनाम किसी क़िस्म की दुन्यवी इज़्ज़त व इम्तियाज़ से बेहतर नहीं होगा। अगर बहुत सालों के बाद जब हम बूढ़े और सर सफ़ैद हों या शायद मिट्टी के नीचे पड़े हों। तो दुनिया में एक दो शख़्स ऐसे हों। जो कह सकें कि मेरी ज़िंदगी में फ़लां शख़्स का असर नजात बख़्श साबित हुआ। उसी ने नेकी पर यक़ीन करना और इन्सानी फ़ित्रत की निस्बत आला ख़्याल रखना मुझे सिखाया। और मैं ख़ुदा का शुक्र करता हूँ कि मेरी उस शख़्स से वाक़फ़ीयत हुई।
और कोई तरीक़ा नहीं जिससे हमको यक़ीनी तौर पर ये मालूम हो जाये कि हम दूसरों पर अच्छा असर डाल रहे हैं सिवाए इस के कि हम ख़ुद अच्छी तासीर के सबसे बड़े सर चश्मे के साथ मिले रहें। यसूअ मुल्क-ए-कनआन में बहुत अरसा हुआ पतरस और युहन्ना और याक़ूब मार्था और मरियम और लाज़र का दोस्त था। मगर वो अब भी इन्सानों का दोस्त है। और अगर हम चाहें तो हमारा भी होगा। ऐसे लोग भी इस वक़्त दुनिया में हैं जो उस के साथ साथ चलते और उस से बातचीत करते हैं। वो जब सुबह को बेदार होते हैं तो उसी से मिलते हैं। चलते फिरते और काम के वक़्त भी वो उन के साथ रहता है। वो उसे अपने सारे भेद बता देते हैं और ज़रूरत के वक़्त उसी को पुकारते हैं। वो किसी और दोस्त की निस्बत उसे ज़्यादातर जानते हैं और ये वो लोग हैं जिन्होंने ज़िंदगी का राज़ दर्याफ़्त कर लिया है और मसीही ज़िंदगी के वाक़ई होने की बाबत बनी इन्सान के ईमान को ज़िंदा रखते हैं।
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मसीह का नमूना लोगों से मिलने जुलने में
(मत्ती 11:16-19, मत्ती 26:6-13, मत्ती 14:15-21, मत्ती 26:26-30)
(लूक़ा 15:1,2 लूक़ा 19:5۔7 लूक़ा 24:14-43 लूक़ा 11:37-44 लूक़ा 14:1-24 लूक़ा 7:36-50 लूक़ा 24:29-31)
(युहन्ना 2:1-11 युहन्ना 12:1-8 युहन्ना 13:1-15)
छटा बाब
मसीह का नमूना लोगों से मिलने जुलने में
उन अश्ख़ास के तंग दायरे से परे जिनको हम दोस्त पुकारते हैं वाक़फ़ीयतों का एक बड़ा दायरा होता है, जिनके साथ मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से हमारा ताल्लुक़ पैदा हो जाता है। उनको हम सोसाइटी के नाम से मौसुम (मुख़ातब) करते हैं। इस क़िस्म के लोगों के साथ मेल-जोल करने के बारे में बाअज़ सवालात पैदा होते हैं जिनका जवाब देना दिक्कत से ख़ाली नहीं। मगर यसूअ के रवय्ये पर ग़ौर करने से इन सवालात पर बहुत सी रोशनी पड़ती है।
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इस ताल्लुक़ के लिहाज़ से हमारे ख़ुदावंद और उस के पेशरो युहन्ना बपतिस्मा देने वाले के दर्मियान बड़ा फ़र्क़ था। युहन्ना सोसाइटी से बहुत दूर लोगों की रिहाइश-गाह से अलग जंगल में रहता था। उस का लिबास, घर या शहर के लिए मुनासिब नहीं था और वो बिन बासीयों (जंगली, जंगल में रहने वाले) की मोटी झूटी ख़ुराक पर गुज़ारा करता था। हमारा मुन्नजी (नजात देने वाला) उस के बरअक्स अपने हम-जिंसों में रहता था। बजाय इस के कि वो बपतिस्मा देने वाले की मानिंद इस बात का इंतिज़ार करता कि लोग बाहर उस के पास आएं। वो ख़ुद उन के पास गया। गांव और शहर में, कूचे और मंडी में, इबादत ख़ाने और हैकल में, जहां कहीं दो या तीन आदमी इकठ्ठा होते, वहां वो उन के दर्मियान होता था। वो लोगों के घरों में दाख़िल होता। जब वो ख़ुशी करते तो उन के साथ ख़ुशी करता। जब वो मातम करते थे तो उन के साथ मातम करता था। ये भी ताज्जुब से ख़ाली नहीं कि हम अक्सर उस के ज़ियाफ़तों में शामिल होने का ज़िक्र पढ़ते हैं। वो अपने काम के शुरू ही में एक शादी के मौक़े पर हाज़िर था। मत्ती महसूल लेने वाले ने उस की ज़याफ़त की और वो उस के मेहमानों के दर्मियान जा के बैठा। ज़काई एक दूसरे महसूल लेने वाले के घर पर वो ख़ुद कह कर गया। यहां तक कि उसके इस क़िस्म के लोगों के साथ मिलकर खाने की शौहरत हो गई। लेकिन जब उनसे मुख़्तलिफ़ रुत्बे के आदमीयों ने उस की दावत की तो उस ने उन की मेहमानदारी को भी ऐसे ही बिला ताम्मुल (बेफ़िक्र) मंज़ूर कर लिया और वैसी ही बेतकल्लुफ़ी के साथ जैसी कि महसूल लेने वालों और गुनाहगारों के साथ बरतता था। (इस्तिमाल करता था), फ़क़ीहों और फ़रीसयों के साथ खाने पर बैठा। मुक़द्दस लूक़ा कम से कम तीन मौक़ों का ज़िक्र करता है कि जब उसने फरीसीयों साथ खाना खाया। इस तौर से “इब्न-ए-आदम खाता पीता आया।” फ़िल-हक़ीक़त इस बारे में उसके चाल चलन ऐसा बेक़ैद था, कि तुरशरो और तुनक मिज़ाज (चिड़चिड़ा, नाज़ुक, मिज़ाज) नुक्ता-चीनों को ये कहने का मौक़ा मिला कि वो खाउ और शराबी है। बात तो बिल्कुल झूट थी। मगर ज़ाहिरन उस के तरीक़ा-ए-ज़िंदगी से इस अम्र की ताईद होती थी। क्योंकि किसी शख़्स को इस क़िस्म के नाम बपतिस्मा देने वाले की तरफ़ मंसूब करने का कभी भी ख़्याल ना आता। ऐसे दो अश्ख़ास के दर्मियान जो युहन्ना और यसूअ की मानिंद बाहम ऐसा क़रीबी ताल्लुक़ रखते हों। ऐसा इख़्तिलाफ़ अजीब मालूम होता है। दोनों मज़हबी मोअल्लिम थे और उन के शागिर्द उन के रवय्ये की तक़्लीद (क़ुबूल करना, मान लेना) करते थे। लेकिन ख़ास इस अम्र में उन के नमूने बिल्कुल मुतज़ाद थे। युहन्ना के शागिर्द रोज़ा रखते मगर यसूअ के शागिर्द ज़याफ़तें उड़ाते थे। भला इन दो मुतज़ाद उमूर को किस तरह जायज़ और दुरुस्त ठहरा सकते हैं ?
बिलाशुब्हा युहन्ना के पास इस क़िस्म के रवय्ये के वास्ते वजूहात थीं जो उस की अपनी तसल्ली के लिए काफ़ी थीं। सोसाइटी में बहुत से ख़तरात हैं। जिस्म की शहवत और आँखों की बुरी ख़्वाहिश और ज़िंदगी का झूटा फ़ख़्र वहां मौजूद हैं। बद सोहबत ने बहुत से आदमीयों और बहुत से ख़ानदानों को तबाह कर दिया। सोसाइटी में बाअज़ ऐसे फ़िर्क़ेया अश्ख़ास हैं जो मज़्हब की बर्दाश्त नहीं कर सकते और ऐसे भी हैं जिनमें वो लोग जो उस का इक़रार करते हैं अपने अक़ाइद को छिपाने की सख़्त आज़माईश में पड़ते हैं। युहन्ना ने मालूम किया कि ये असरात उस ज़माने की सोसाइटी में ऐसे ज़ोर-आवर हैं कि ना वो और ना उस के पैरु (मानने वाले) उनका मुक़ाबला कर सकेंगे। इसलिए उन्हें इन दो बातों में से एक को पसंद करना था। या तो ये कि सोसाइटी से किनारा-कश हों और अपने मज़्हब को ख़ालिस और साबित रखें या ये कि उस में शामिल हों और मज़्हब को ख़ैर-बाद कहें। ये साफ़ ज़ाहिर है कि इन दोनों में से कौन सा रास्ता इख़्तियार करना उनका फ़र्ज़ था। बरअक्स इस के यसूअ सोसाइटी में बराबर मिलता-जुलता था। ना सिर्फ अपने अक़ाइद को छुपाए बग़ैर। बल्कि उन अक़ाइद को लोगों पर ज़ाहिर करने की ग़रज़ से। उस के मज़हबी ख़यालात उस की ज़ात के साथ मिलकर ऐसे कामिल तौर से एक हो गए थे और उस के उसूल ऐसे ताक़तवर और ज़बरदस्त थे कि उसको इस अम्र का कुछ ख़ौफ़ नहीं था कि मबादा किसी सोहबत में बैठने से वो ख़ुदा के नाम पर गवाही देने में किसी तरह की कोताही कर बैठे और उस ने अपने पैरोकारों को भी वही क़ुदरत बख़्शी। उसने उनके दिल को ऐसी गर्म-जोशी से भर दिया जिसने उन पर नई शराब का काम किया। वो दुनिया के लोगों के दर्मियान शादी के मेहमानों की आज़ाद और ख़ुश व ख़ुर्रम वज़अ के साथ चलते फिरते थे। इसलिए जहां कहीं वो जाते थे उन को देखकर लोगों के दिलों पर वैसी ही तासीर पैदा होती थी। वो गर्म-जोशी से ऐसे लबरेज़ थे कि ये ज़्यादा अग़्लब (यक़ीनी, मुम्किन ज़रूर) था कि वो दूसरों में आग लगाऐं बनिस्बत उस के कि उनका अपना जोश दुनियवी असरात से ठंडा हो जाये।
इस बात से हमें उन पेचीदा सवालात का जो अक्सर किए जाते हैं हक़ीक़ी जवाब हासिल होता है कि किस हद तक ख़ुदा के लोगों को सोसाइटी में शरीक होना और उस के कारोबार में हिस्सा लेना मुनासिब है? पहले देखो कि तुम्हारी मज़हबी ज़िंदगी और इक़रार पर इस का क्या असर पड़ता है? क्या वो तुम्हारी शहादत को ख़ामोश करती है? क्या वो तुम्हारी गर्म-जोशी को ठंडा करती है? क्या वो तुम्हें बिल्कुल दुनियादार बना कर दुआ व इबादत के नाक़ाबिल कर देती है? अगर ऐसा है तो तुम्हें बपतिस्मा देने वाले के नमूने पर अमल कर के उस से अलैहदा हो जाना चाहिए या ऐसी सोहबत की तलाश करनी चाहिए जहां तुम्हारे उसूल सलामत रहीं। लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो दुनियावी बातों में बहुत ज़्यादा हिस्सा लेते हैं। तो भी हर जगह अपने मुन्नजी के वफ़ादार बंदे बने रहते हैं। जहां कहीं वो अपनी सूरत दिखाते हैं। लोग उन को मसीही जानते और उन की इज़्ज़त करते हैं। वो ऐसी जगह कभी ना जाते अगर वो जानते कि वहां वो उन मज़ामीन पर जो उन को दिल से अज़ीज़ हैं आज़ादाना बातचीत ना कर सकेंगे। मसीह की क़ुव्वत उन के अंदर एक ऐसी तेज़ और फ़तेहमंद ताक़त की मानिंद है। कि वो बजाय इस के कि उस से ढाले जाएं। वो सोसाइटी को अपनी सूरत पर ढाल लेते हैं। गो इस क़ुदरत का हासिल करना मुश्किल मालूम हो। मगर इस में कुछ शुब्हा नहीं कि दुनिया के साथ इस क़िस्म का बर्ताव मसीह के पैरोंकारों के शायां और ख़ुद उस के नमूने के मुताबिक़ है।
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ऊपर बयान हुआ कि हम अनाजील में उस के ज़याफ़तें खाने का ज़िक्र पढ़ते हैं। उसके चलन का ये हिस्सा भी बाक़ी हिस्सों के साथ पूरी मुनासबत रखने के सबब बिल्कुल मुत्तहिद है। क्योंकि उस ने कभी कोई ऐसा काम नहीं किया, जो ख़्वाह कैसा ही छोटा मालूम क्यों ना हो। जो उस अज़ीम रिसालत से जिसके लिए वो इस दुनिया में आया था, ताल्लुक़ नहीं रखता था। वो रिसालत ये थी कि आस्मान की मुहब्बत को ज़ाहिर करे और ज़मीन पर मुहब्बत को जगाए और बढ़ाए। उस की ज़िंदगी का ये मक़्सद था कि इन्सान की मुहब्बत को ख़ुदा की तरफ़ और इन्सान की तरफ़ ज़्यादा कर दे और हर एक चीज़ जो इन मक़ासिद के हुसूल में मदद दे सकती थी उस की नज़र में गिरां क़दर थी।
उसने मेहमान-नवाज़ी की तर्ग़ीब दी, इसलिए कि वो उन मक़ासिद में से एक मक़्सद को तरक़्क़ी देती है। वो उन रुकावटों को दूर करने में जो लोगों को एक दूसरे से जुदा करती हैं, मदद देती है और उन को ख़ैरख़्वाही के बंधो में बाहम जकड़ देती हैं। जब आदमी एक दूसरे से मिलते हैं। तो ग़लत-फ़हमियाँ और ग़लत ख़यालात जिनसे जुदाई पैदा हुई थी। एक दूसरे से ज़्यादा वाक़फ़ीयत हासिल करने से ज़ाइल हो जाती हैं। अक्सर औक़ात ऐसा होता है कि हम एक शख़्स के साथ जिसकी निस्बत हमारे दिल में कुछ तास्सुब पैदा हो रहा था। पहली दफ़ाअ गुफ़्तगु करने के साथ ही इक़रार करते हैं, कि फ़िल-जुम्ला वो कुछ बुरा आदमी नहीं और कई दफ़ाअ एक शख़्स से जिसको हम पहले मग़रूर या ज़ाहिरदार या कमज़र्फ़ ख़्याल करते थे एक दोस्ताना मुलाक़ात के बाद उस की ख़ूबीयों पर फ़रेफ़्ता हो जाते हैं। हमारे शुब्हात (शुब्हा की जमा, शक) व तनफ़्फ़रात (तनफ़्फ़ुर की जमा, नफ़रत, बेज़ारी, घिन, कराहियत) फ़ासले पर पैदा होते और बढ़ते हैं। मगर वाक़फ़ीयत पैदा होते ही मर जाते हैं।
यसूअ रोज़मर्रा की ख़ुश-अख़्लाक़ी या तवाज़ो (मेहमानदारी) मेहमान-नवाज़ी व तकरीम (इज़्ज़त करना, ताज़ीम करना, अदब करना) की बातों को हक़ीर या नाक़ाबिल तवज्जा नहीं समझता था। इस से आदमी आदमी के दर्मियान इज़्ज़त का ख़्याल पैदा होता है और हम एक दूसरे को बतौर ज़िंदा अश्ख़ास के समझने लगते हैं। ना कि बतौर ऐसी अश्या के जिन्हें फ़रामोश करने या पांव तले रोंद डालने में कुछ मज़ाइक़ा नहीं। एक दफ़ाअ उस की एक घर में दावत हुई जहां मेज़बान ने उस की मामूली तवाज़ो व तकरीम बजा लाने में जिसका मशरिक़ी ममालिक में रिवाज है, कोताही की। उस शख़्स के दिल में अपने मेहमान की निस्बत कुछ हक़ीक़ी इज़्ज़त नहीं थी। बल्कि उस ने अपनी एक ग़रज़ को पूरा करने के लिए उसे मदऊ किया था। इस दावत से उस की सिर्फ ये ग़रज़ थी कि उस शख़्स को जिसका मुल्क में चर्चा फैल रहा था, अच्छी तरह से मुलाहिज़ा (मुआइना करना, मुशाहिदा करना) करे। या ये कि ऐसे माज़ज़ (इज़्ज़त वाला, ताज़ीम वाला) व मुम्ताज़ (इज़्ज़त दिया गया, अज़मत दिया गया) को अपने घर बुलाकर अपनी इज़्ज़त बढ़ाए। मगर इस में वो अपनी कुछ कसरे-ए-शान (बेइज़्ज़ती, वो बात जिससे बेइज़्ज़ती हो) भी समझता था और इसलिए उस ने उस की ऐसे तौर से ख़ातिर तवाज़ो ना की जो वो अपने हम रुतबा मेहमान की करता। यसूअ ने इस बेपर्वाई को महसूस किया और दस्तर ख़्वान पर से उठने से पहले उस ने शमाउन के दिल की सुबकी (शर्मिंदगी, ज़िल्लत, रुसवाई, बेइज़्ज़ती) और बे मुहब्बती को फ़ाश कर दिया। उस ने ग़ुस्से की आवाज़ में उन तमाम बातों को जो उस ने उठा रखी थीं एक एक कर के गिन दिया। क्योंकि उस को इस मुहब्बत से ख़ाली दावत से कुछ लुत्फ़ हासिल ना हुआ।
बरअक्स इसके जहां मुहब्बत होती थी वो उस का रोका जाना कभी गवारा नहीं करता था। जब एक दूसरे शमाउन की दावत पर उस की शागिर्द मरियम ने अपना क़ीमती इत्र उस के सर पर बहा दिया। जिससे बाअज़ तंगदिल आदमीयों ने उस को फुज़ूलखर्ची के लिए मलामत की। तो यसूअ ने इन ग़रीबों के बनावटी हिमायतीयों के ख़िलाफ़ उस की तरफ़दारी की और इस बात पर ज़ोर दिया कि मुहब्बत को अपनी दिली-ख़्वाहिश पूरी करने दो।
लेकिन जहां मुहब्बत के सिवा कोई और ग़रज़ उस की ता में हो तो इस से मेहमानदारी की पाक रस्म की बेइज़्ज़ती होती है। यसूअ ने उन लोगों को क़ाबिल-ए-सज़ा ठहराया जो सिर्फ उन्ही मेहमानों की मेहमानदारी करते हैं। जिनसे उन को एवज़ मिलने की उम्मीद होती है और इस तौर से उस को ज़लील कर के एक तरह की सौदागरी बना लेते हैं। अगर कोई मेहमानदारी को ज़ाती नुमाइश की ग़रज़ से इस्तिमाल करे तो ये भी कमीना-पन है। भारी तकल्लुफ़ात भी हक़ीक़ी मेहमानदारी के दुश्मन हैं। उन से उस का दायरा अमल महदूद हो जाता है। क्योंकि एक बड़ा दौलतमंद भी ऐसी फुज़ूलखर्ची कभी कभी कर सकता है और कममाया (थोड़ा पैसा, थोड़ी रक़म, ग़ुर्बत, इफ़्लास ग़रीबी) लोग तो सिवाए अपने को बर्बाद करने के ऐसा करने का हौसला भी नहीं कर सकते। ज़माना-ए-हाल में ये ख़राबी बहुत तरक्क़ी पर है। उस रूपये से जो एक थका देने वाली ज़याफ़त पर ख़र्च किया जाता है। कम से कम आधी दर्जन सादा और वाजिबी ज़याफ़तें मुहय्या हो सकतीं और इस तौर से मेहमानदारी का दायरे अमल वसीअ हो जाता। बजाय दौलत मंदों का पेट भरने के जिनके पास पहले ही बहुत कुछ है मक़्दूर (ताक़त) वाले लोगों को चाहिए कि कभी कभी उन लोगों पर भी जो उन से कम उम्र और कम हैसियत हों अपना दरवाज़ा खोल दिया करें। इस तौर से वालदैन भी अक्सर अपने दस्तर ख़्वान पर अपने औलाद के फ़ायदे के लिए लायक़ और क़ाबिल-ए-क़द्र अश्ख़ास की सोहबत मुहय्या कर सकते हैं। बजाय इस के कि उन को अपना फ़ारिग़ वक़्त सैर व तमाशे में गुज़ारने के लिए पब्लिक मुक़ामात ढ़ूढ़ने पर मज्बूर करें। मसीही मज़्हब की मौजूदा कारकुन जमाअतों के इलावा अभी एक ऐसा मिशन खोलना बाक़ी है, जो दोस्ताना मुहब्बत और मेल-जोल के जलसों को तरक़्क़ी दे।
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अगरचे यसूअ का उन दावतों के क़ुबूल करने का एक ये मक़्सद भी था कि मेहमान-नवाज़ी और इस के ज़रीये से मुहब्बत को तरक्क़ी दे। मगर वो इस से एक आला तर मक़्सद को भी पूरा करता था। जब वो ज़क्कई के घर पर खाना खाने गया तो उस ने फ़रमाया कि “आज इस घर में नजात आई है।” और इसी तरह और घरों में भी जिनमें वो दाख़िल होता था नजात आती थी। मेहमानदारी में गुफ़्तगु के लिए बेमिस्ल मौके मिलते हैं। यसूअ उन मौक़ों को अबदी ज़िंदगी की बातें बताने के लिए इस्तिमाल करता था। अगर तुम बड़ी तवज्जा से उस की बातों पर नज़र करो। तो तुम ये देखकर मतही्यर (हैरान, हैरत भरा) होगे कि उन में बहुत सी बातें ऐसी हैं जो उस ने दस्तर ख़्वान पर कीं। उस के बाअज़ निहायत बेशक़ीमत (बहुत क़ीमती, बड़ी क़ीमत वाला) अक़्वाल (क़ौल की जमा, बातें) जो अब उस के मज़्हब में तकिया-ए-कलाम के तौर पर हैं। उन्हीं आम मौक़ों पर कहे गए थे मसलन ये कि “वो जो तंदुरुस्त हैं हकीम के मुहताज नहीं बल्कि वो जो बीमार हैं।” “इब्न-ए-आदम इसलिए आया है कि खोए हुओं को ढ़ूंढ़े और बचाए।” और निज़ इसी क़िस्म के और बहुत से अक़्वाल।
ये एक उम्दा मिसाल इस अम्र की है, कि किस तरह यसूअ ज़िंदगी को तौक़ीर (वक़ार, इज़्ज़त, वुक़अत, ताज़ीम व तकरीम) बख़्शता था और उस के उन हिस्सों में नेकी करने के उम्दा मौक़े निकाल लेता था। जिनको अक्सर सिर्फ़ तज़ीए-औक़ात (वक़्त ज़ाए करना, वक़्त गँवाना) समझा जाता है। दस्तर ख़्वान की गुफ़्तगु और हंसी मज़ाक़ एक फंदा हैं। शीरीं गुफ़्तार (मीठी बोली) लोग अक्सर अपनी इस क़ाबिलीयत को अपनी बर्बादी और दूसरों के नुक़्सान के लिए इस्तिमाल करते हैं। याराँ-ए-शातिर (चालाक दोस्तों, अक़्लमंद दोस्तों) के जलसे बहुतों की बर्बादी का बाइस होते हैं। बल्कि जहां कहीं इस क़िस्म के जलसों को आज़माईश के दर्जे तक गिरने नहीं देते वहां भी अक्सर दस्तर ख़्वान पर की गुफ़्तगु बेहुदगी और हज़ल (बेहूदा बातें, मज़ाक़) से ख़ाली नहीं होती। दोस्तों की मुलाक़ातें जिनसे ख़यालात की तरक्क़ी और शरीफ़ इरादों की तहरीक होनी चाहिए। ऐसी भारी मालूम होने लगती हैं कि उस से कुछ भी लुत्फ़ नहीं आता। लोगों में ये सिफ़त शाज़ो नादिर ही पाई जाती है। कि गुफ़्तगु को गढ़े में से निकाल के मर्दाना और फ़ाइदामंद मुआमलात की तरफ़ ले जा सकें।
अलबत्ता ख़ुदा के बंदे ऐसे भी हुए हैं जो इस अम्र में भी अपने आक़ा के नक़्श-ए-क़दम पर चले हैं। उन्होंने गुफ़्तगु को एक फ़र्हत अंगेज़ और नफ़ा बख़्श फ़न बना दिया और दोस्ताना मुलाक़ातों में उन की सोहबत, ख़ूबी और सच्चाई के बारे में बजा-ए-ख़ुद एक दर्सगाह का काम देती थी। वालदैन अपने बच्चों की इस से बेहतर ख़िदमत नहीं कर सकते कि अपने घर को दाना और नेक लोगों की गुज़रगाह बना दें। ताकि बच्चे अपनी तेज़ क़ुव्वत-ए-मुशाहिदा से शरीफ़ मर्दों और शरीफ़ औरतों के नमूने से बहरावर हो सकें। इब्रानियों के नाम के ख़त में लिखा है कि “मुसाफ़िर पर्वरी को मत भूलो, क्योंकि उसी से कितनों ने बिन जाने फ़रिश्तों की मेहमानी की है।” एक दाना मुफ़स्सिर इस आयत की यूं तफ़्सीर करता है कि :-
“मेहमानदारी करने से यानी उन लोगों से जो अभी तक बहुत सी बातों में हमसे अजनबी हैं। हमदर्दी और दिली शौक़ के साथ बर्ताव करना, मुहब्बत से पेश आना, और जब कभी ऐसे हालात पेश आएं और मौक़े मिलें उन के लिए अपने घर का दरवाज़ा खोल देना हो सकता है कि ऐसा करने से हमें भी फ़रिश्तों की मेहमानी का मौक़ा मिले। यानी ऐसे आदमीयों की जिनको हमें ख़ुदा की तरफ़ से हमारे पास भेजे हुए क़ासिद (एक जगह से दूसरी जगह पैग़ाम पहुंचाने वाला) या आलम अक़्ल व ख़यालात (अक़्ल व ख़यालात की दुनिया) से आए हुए पैग़म्बर समझना चाहिए और जिनका हमारे घर में उतरना, जिनकी गुफ़्तगु, जिनकी तासीर, हमारी रूहों पर एक ऐसी बरकत ला सकती है। जो इस तमाम ख़िदमत व तवज्ज़अ से जो हम उन की कर सकते हैं बदर्जाह (बहुत ज़्यादा दर्जा) बढ़ कर है।”
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हम उस वक़्त तक अपने ख़ुदावंद को दूसरों के मेहमान बनने की हैसियत में देखते रहे हैं। मगर अनाजील में वो हमारे सामने बतौर मेहमानदार के भी ज़ाहिर होता है। अलबत्ता यसूअ के पास कभी अपना घर नहीं था। जिसमें वो और लोगों की दावत करता। लेकिन दो मौक़ों पर जब उस ने पाँच हज़ार और चार हज़ार को खाना खिलाया तो उस ने बड़ी भारी मेहमानदारी की।
उस वक़्त भी इस हैसियत में जो कुछ उस ने किया बिल्कुल उस की फ़ित्रत के मुताबिक़ था। क्योंकि इस से ये ज़ाहिर हुआ कि वो इन्सान की मामूली ज़रूरीयात का भी ख़्याल रखता है। अगरचे वो रुहानी था और रूह की नजात हर वक़्त उस के मद्द-ए-नज़र रहती थी तो भी उस ने कभी जिस्म की कम कद़री या उस से बेपर्वाई नहीं की। बरअक्स इसके उस ने उस पर उस के ख़ालिक़ की मुहर और इज़्ज़त को पहचान लिया और वो बख़ूबी जानता था कि अक्सर औक़ात सिर्फ़ जिस्म के वसीले से रूह तक पहुंच सकते हैं। उस के मेहमानों की बड़ी तादाद बिलाशुब्हा ग़रीब लोग थे और उस के फ़य्याज़ दिल को ये भला मालूम हुआ कि उन पर कुछ एहसान करे। अलबत्ता ये एक सादाह क़िस्म का खाना था जो उस ने उन को दिया। दस्तर ख़्वान ज़मीन थी। मेज़-पोश की जगह सब्ज़ घास था और मुक़ाम-ए-दावत पर आस्मान का नीलगूं शामियाना तन रहा था। मगर उस के मेहमानों को ऐसा लुत्फ़ पहले किसी खाने से हासिल ना हुआ होगा क्योंकि ये दस्तर ख़्वान मुहब्बत से बिछाया गया था और ये मुहब्बत ही है जो मेहमानी को शीरीं करती है।
जब हम उस के चेहरे पर जो उस बड़ी जमाअत को देखकर सच्ची ख़ुशी से दरख़शां था, नज़र करते हैं तो ख़्वाह-मख़्वाह उस के इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ का ख़्याल आता है, “मैं ज़िंदगी की रोटी हूँ।” “रोटी जो मैं दूँगा मेरा गोश्त है जो में जहान की ज़िंदगी के लिए दूँगा।” अपनी ताअलीम में वो इंजील को ज़याफ़त के जलसे से तश्बीह देता है। जिसमें वो ख़ुद एक शाही मेज़बान की दिलकश रूह व मिज़ाज में तमाम बनी-आदम की दावत करता है।
मगर ये बात कि इस क़िस्म का मिज़ाज बिल्कुल उस का ख़ास्सा था इस अम्र से ज़्यादा तर वाज़ेह होता है कि वो यादगार जिसके ज़रीये से उस ने तमाम पुश्तों में याद किया जाना पसंद फ़रमाया, एक ज़याफ़त है। मुम्किन था कि वो और सैंकड़ों चीज़ों में से जो यादगार के तौर पर इस्तिमाल की जाती हैं किसी दूसरे को चुन लेता। मसलन वो अपने शागिर्दों के लिए एक ख़ास मौसमी रोज़ा मुक़र्रर कर सकता था। लेकिन ये उस के लिए एक बिल्कुल नामुनासिब यादगार होता। क्योंकि वो ख़ुद इफ़रात, शादमानी और इत्तिहाद की इंजील है। उस ने वही चीज़ चुनी जो ठीक उस की हालत के मुनासिब और पुर मअनी थी और इस तरह तमाम ज़मानों में मुन्नजी अपने ही दस्तर ख़्वान की सदर जगह पर मेज़बान की हैसियत में बैठता है। उस का चेहरा रज़ामंदी से मुनव्वर और उस का दिल फ़य्याज़ी से लबरेज़ होता है और उस के ऊपर उस दीवार पर जो उस के पीछे है, ये अल्फ़ाज़ लिखे नज़र आते हैं। “ये आदमी गुनाहगारों को क़ुबूल करता और उन के साथ खाता है।”
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मसीह का नमूना दुआ करने में
(मत्ती 11:25 व 26 मत्ती 14:19 मत्ती 19:13 मत्ती 21:12-13 मत्ती 26:53 मत्ती 14:23 मत्ती 26:36-44)
(मरकुस 1:35)
(लूक़ा 9:18 लूक़ा 11:1 लूक़ा 5:16 लूक़ा 6:12 व 13 लूक़ा 3:21-22
लूक़ा 9:28 व 29)
(युहन्ना 6:23 युहन्ना 12:16 व 17 युहन्ना 17 बाब युहन्ना 11:41 व 42)
सातवाँ बाब
मसीह का नमूना दुआ करने में
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यक़ीनन यसूअ की दुआओं में एक राज़ है। अगर जैसा कि हमें यक़ीन है वो ख़ुदा से कम ना था तो कैसे हो सकता है कि ख़ुदा ख़ुदा से दुआ मांगे? या उस की तबीयत में कौन सी ऐसी हाजत वाक़ेअ हो सकती है जिसके पूरा करने के लिए उसे दुआ मांगने की ज़रूरत पड़े?
इस सवाल का कुछ तो ये जवाब है कि तमाम दुआ ऐसी दरख्वास्तों पर मुश्तमिल नहीं होती जो हाजत के ख़्याल से पैदा हों। उमूमन लोग दुआ का इस तौर पर ज़िक्र करते हैं। ख़ासकर वो जो उस की हंसी उड़ाना चाहते हैं कि सिवाए उस के कि वो दरख्वास्तों का एक सिलसिला है जो ख़ुदा से की जाती हैं और कुछ नहीं। मसलन अच्छे मौसम के लिए, रफ़ाअ् बीमारी के लिए या किसी और तरीक़े से हमारे बैरूनी (बाहरी) हालात को हमारी ख़्वाहिशों के मुताबिक़ बदल डालने के लिए लेकिन वो लोग जो दुआ के आदी हैं दुआ का ऐसे तौर पर ज़िक्र नहीं करते। मैं कह सकता हूँ कि उन लोगों की दुआओं में जो बहुत और बेहतरीन दुआ मांगने वाले हैं। ऐसी दरख्वास्तें बहुत थोड़ी जगह पाते हैं। दुआ ज़्यादा-तर रूह की मामूरी ज़ाहिर करती है ना कि उस का ख़ाली होना। या यूं कहो कि वो प्याले का छलकना है। अगर ऐसा कहना जायज़ हो, तो मैं कहूँगा कि दुआ अपनी बेहतरीन सूरत में ख़ुदा के साथ गुफ़्तगु करना है। जैसे एक बच्चा एतिमाद के साथ अपनी हर एक बात का अपने बाप को राज़दार बनाता है। इस की निहायत उम्दा मिसाल हमको मुक़द्दस अगस्टेन के इक़रारात में मिलती है। ये गिरां क़दर किताब शुरू से लेकर आख़िर तक दुआ की सूरत में है। ताहम इस में मुसन्निफ़ की ज़िंदगी के हालात का बयान और उस के निहायत अज़ीम व अहम ख़यालात की तशरीह दर्ज है। जिससे साफ़ ये ज़ाहिर होता है कि ये मर्द-ए-ख़ुदा निहायत अमीक़ मसाइल में इस तरह से ग़ौर व फ़िक्र करने का आदी था गोया कि वो ख़ुदा से बातचीत करता है।
अगर दुआ इसी का नाम है तो इस बात को समझना मुश्किल नहीं कि किस तरह अज़ली बेटा अपने अज़ली बाप से दुआ मांगता होगा। फ़िल-हक़ीक़त ये बात ब-आसानी समझ में आ सकती है कि इन मअनों में वो हमेशा बिला तवक्कुफ़ (वक़्फ़ा, देर) दुआ मांगता होगा।
मगर सिर्फ इतनी बात से ही यसूअ की दुआओं का राज़ पूरे और साफ़ तौर पर नहीं खुलता। क्योंकि उन में से बहुत सी ऐसी हैं जिनसे बिलाशुब्हा हाजत का ख़्याल ज़ाहिर होता है। मसलन रसूल ने लिखा है कि “उस ने अपने मुजस्सम होने के दिनों में बहुत रो-रो आँसू बहा बहा के उस से जो उस को मौत से बचा सकता था, दुआएं और मिन्नतें कीं और ख़ुदातरसी के सबब से उस की सुनी गई।” (इब्रानियों 5:7) भला इस तरह के बयान की क्या शरह हो सकती है? मेरे ख़्याल में इस की सिर्फ एक ही शरह है, यानी ये कि वो हक़ीक़ी इन्सान था। हम सिर्फ इसी सच्चाई को उस के पूरे माअनों के मुताबिक़ क़ुबूल करने से उस की ज़िंदगी के इस पहलू को समझ सकते हैं। “मसीह निम् (सिर्फ) ख़ुदा और निम् (सिर्फ) इन्सान नहीं बल्कि कामिल ख़ुदा और कामिल इन्सान था।” उस के मुताल्लिक़ बहुत सी बातें और ख़ुद उस के अपने अक़्वाल इसी क़िस्म के हैं कि जब तक हम उस को मुतलक़ ख़ुदा ना मानें इन की क़ाबिल इत्मीनान तौर पर शरह नहीं कर सकते। गो हमें इस क़िस्म के इक़रार में ताम्मुल हो। मगर ये वाक़ियात सिवाए इस के कि हम उन से पहलू-तही (दामन बचाना) करें हमको ऐसे इक़रार पर मज्बूर करेंगे। बरअक्स इस के उस के मुताल्लिक़ और बातें ऐसी हैं जो हमको मज्बूर करती हैं कि इस लफ़्ज़ के पूरे माअनों के मुताबिक़ उस को इन्सान कहें और अगर हम इस सच्चाई को भी उस की कामिल सूरत और तमाम नताइज के लिहाज़ से क़ुबूल ना करें तो उस की इज़्ज़त नहीं बल्कि बेइज़्ज़ती करते हैं।
तो इस बयान से साबित होता है कि “वो दुआ मांगता था, इसलिए कि वो इन्सान था। इन्सानियत अपनी बेहतरीन सूरत में भी कमज़ोर और मुहताज है। वो कभी अपने आप में क़ायम और काफ़ी नहीं हो सकती।” ख़ुद यसूअ में भी ये इन्सानियत अपनी ज़ात में काफ़ी नहीं थी बल्कि अपनी ज़िंदगी की हर एक घड़ी में उस का इन्हिसार ख़ुदा पर था और यसूअ अपने इस इन्हिसार के ख़्याल को दुआ के ज़रीये से ज़ाहिर करता था। क्या ये ख़्याल उस को हमसे बहुत क़रीब नहीं कर देता? सच मुच वो हमारा भाई है। वो हमारी हड्डी में से हड्डी और गोश्त में से गोश्त है।
लेकिन इस से एक और सबक़ भी हासिल होता है जो बहुत गिरां है। अगरचे यसूअ इन्सान था मगर वो गुनाह से पाक इन्सान था। नशव व नुमा के हर एक दर्जे में उस की इन्सानियत कामिल थी। उस ने माज़ी में कोई गुनाह ना किया था, जो हाल के जद्दो जहद के ज़ोर को कमज़ोर कर दे। तो भी वो दुआ करने का हाजतमंद था और वो हमेशा उस की तरफ़ रुजू करता था। देखो इस से हमारी हाजतमंदी किस क़द्र अयाँ है जब कि वो वैसा हो कर हर वक़्त दुआ का मुहताज था। तो हम ऐसे हो कर किस क़द्र ज़्यादा उस के मुहताज ना हों।
2
दुआ की ज़िंदगी एक बातिनी ज़िंदगी है और हर एक शख़्स जो दरहक़ीक़त दुआ को प्यार करता है उस की बाबत ऐसी आदतें रखता है जो ख़ुद उसी को मालूम हैं। यसूअ के शुग़ल-ए-दुआ का बहुत सा हिस्सा ज़रूर है कि ख़ुद उस के शागिर्दों की नज़र से भी ओझल रहा है और इसलिए अनाजील में इस का कुछ ज़िक्र नहीं। मगर उन में उस की बाअज़ आदात का ज़िक्र है जो निहायत दिलचस्प और ताअलीम बख़्श हैं।
जब कभी उसे दुआ करना होती तो उस का ये दस्तूर था कि घर और शहर से निकल कर बाहर तन्हा और सुनसान जगहों में चला जाता। चुनान्चे हम पढ़ते हैं कि “बड़े तड़के कुछ रात रहते वो उठ कर निकला और एक वीरान जगह में जा कर दुआ मांगी।” (मरक़ुस 1:35) फिर एक और मौक़े पर लिखा है कि “वो ब्याबान में अलग जाके रहा और दुआ का मांगता था।” (लूक़ा 5:16) मालुम होता है कि दुआ मांगने के लिए वो ख़ासकर पहाड़ी मुक़ामात को बहुत पसंद करता था। जहां कहीं अनाजील में ये लिखा है कि “वो पहाड़ पर दुआ मांगने गया।” तो मुफ्फ़सरीन उस नवाही पर ग़ौर कर के जहां वो उस वक़्त ठहरा हुआ था इस अम्र के दर्याफ़्त करने की कोशिश करते हैं कि वो कौन सा पहाड़ था जिस पर वो इस मतलब के लिए चढ़ा। मगर मेरे नज़्दीक वो इस अम्र में ग़लती पर हैं। क्योंकि मुल्क-ए-कनआन में पहाड़ हर जगह मौजूद हैं। शहर से एक दो मील बाहर जाओ और पहाड़ मौजूद हैं। सिर्फ घर से निकलना और चंद एकड़ मज़रूआ (काशत की हुई ज़मीन, खेत) ज़मीन का तय करना काफ़ी है और तुम्हारे पांव एक सरसब्ज़ मुर्ग़-ज़ार (सब्ज़ा-ज़ार) में जा पहुंचते हैं जहां तुम बिल्कुल तन्हा हो सकते हो। यसूअ ने भी एक तरह से ये अम्र दर्याफ़्त कर लिया था कि वो इस क़िस्म की तन्हाई पा सकता है और जब किसी शहर में पहुंचता तो उस का पहला ख़्याल ये होता होगा कि पहाड़ की सबसे क़रीब सड़क कौन सी है। जैसा कि आम सय्याहों को नए शहर में पहुंच कर निहायत मशहूर व मारूफ़ नज़ारे और उम्दा सराय दर्याफ़्त करने की जुस्तजू होती है।
जैसे मकान की तन्हाई होती है वैसे ही ज़मान की तन्हाई भी होती है। जो निस्बत पहाड़ और वीराने शहर और कस्बों से रखते हैं वही निस्बत रात और फ़ज्र के वक़्त दोपहर और ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब के वक़्त से रखते हैं। यसूअ दुआ के लिए इस तन्हाई में भी जाया करता था। हम उस की बाबत सुनते हैं कि “उस ने तमाम रात ख़ुदा से दुआ मांगने में बिताई (गुजारी)।” और फिर लिखा है कि “वो बहुत तड़के उठा और एक वीरान जगह में दुआ मांगने गया।”
शायद कुछ तो इस की वजह ये होगी कि मुफ़लिसी के सबब उन घरों में जहां वो उतरता था बाआसानी तन्हा जगह नहीं पा सकता था। उस के इस नमूने से ऐसे शख्सों के लिए एक ख़ास नसीहत निकलती है जो अपनी ज़ाहिरी तंगहाली के सबब इसी मुश्किल में गिरफ़्तार हैं। मगर ये एक ऐसी दर्याफ़्त है जिससे हम सब बहुत ज़्यादा फ़ायदा उठा सकते हैं। बशर्ते के हम इस बात को मुतहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ कर लें) कि क़ुदरती गोशा तन्हाई में पहुंचना कैसा आसान है। शायद ही कोई ऐसा शहर होगा जिसमें से चंद एक मिनट में बाहर जा कर तुम अपने आपको बिल्कुल तन्हा ना कर सको। ख़्वाह दरिया के किनारे पर या पहाड़ पर या चरागाह में या जंगल में। शहर का तमाम शोर ग़ौग़ा (शोर शराबा, हल्ला) और इस की तमाम मक़ी्यद (क़ैद की हुई) जमाअतें जो उस की मशक़्क़तों या तफ़रीहों की पांव चक्की से जकडी हुई हैं कैसी ही क़रीब क्यों ना हों। मगर तुम इस हालत में उस से बाहर और अकेले ख़ुदा के साथ हो।
ये सिर्फ़ तन्हाई नहीं बल्कि कुछ और चीज़ भी है जो ऐसे मुक़ाम में दुआ की मुआविन होती है। ख़ुद क़ुदरत ऐसी तासीर डालती है जिससे दिल को तस्कीन मिलती और उस को इबादत पर आमादा करती है। मेरे दिल पर इस बात ने कि यसूअ ने इस आदत में ज़िंदगी के एक बड़े राज़ को इफ़्शा (खोल दिया, ज़ाहिर) कर दिया है कभी इस क़द्र पुरज़ोर असर नहीं किया था जैसा उस दिन जब मैं तन-ए-तन्हा एक पहाड़ी पर चढ़ गया और उस की चोटी पर लेटे हुए सुबह के चंद घंटे महवियत (ख़्याल में गुम या ग़र्क़ होना) के आलम में सर्फ किए।
चारों तरफ़ कोह व मैदान पर एक तन्हाई का आलम छाया हुआ था। नीचे एक झील सूरज की किरनों से सबब नुक़रई (चांदी जैसा) ढाल की मानिंद दरख़शां थी। दामन कोह में शहर नज़र आता था और लोग गलीयों में इधर उधर फिरते दिखाई देते थे। मगर शोर व ग़ौग़ा (चिल्लाहट) की कोई आवाज़ वहां तक नहीं पहुंची थी। आस्मान का शामियाना सर पर खिंचा था और ऐसा मालूम होता था कि गोया ख़ुदा पास ही खड़ा हुआ हमारी हर एक बात सुनने का मुंतज़िर है। ऐसे ही मुक़ामात थे जिनमें यसूअ दुआ मांगा करता था।
मगर वो ना सिर्फ तन्हाई में बल्कि जमाअत में भी दुआ मांगता था। हम बार-बार उस की निस्बत सुनते हैं कि वो अपने दो या तीन शागिर्दों को अलग ले गया और उन के हमराह दुआ मांगी और बाज़ औक़ात ये कि उस ने सब के हमराह दुआ मांगी। बारह शागिर्द एक तरह से उस का कुंबा थे और बड़ी कोशिश से उन के साथ ख़ानदानी इबादत अदा किया करता था। वो मिलकर दुआ मांगने की क़द्र व ख़ूबी का भी ज़िक्र करता है। “अगर तुम में से दो शख़्स ज़मीन पर किसी बात के लिए मिलकर दुआ मांगें वो मेरे बाप की तरफ़ से जो आस्मान पर है उन के लिए होगी।” (मत्ती 18:19) मिलकर दुआ मांगने से रूह पर बहुत कुछ इसी क़िस्म का असर पैदा होता है, जैसा कि गुफ़्तगु से दिल पर। बहुत से लोगों के ज़हन की हरकात जब वो तन्हा हों बहुत सुस्त होती हैं और उन के दिमाग़ में बहुत कम ख़यालात पैदा होते हैं लेकिन जब वो दूसरे शख़्स से मिलते और गुफ़्तगु में गोया उस से टकराते हैं तो उन की सूरत बदल जाती है। वो चालाक और दिलेर हो जाते हैं। वो फ़रेफ्ता और मुनव्वर होते और अपने अंदर से ऐसे ऐसे ख़यालात निकालते जिनको देखकर वो ख़ुद भी मुतअज्जिब (अजीब महसूस करना) होते हैं। इसी तरह जब दो या तीन इकट्ठे होते हैं तो एक की दुआ की ज़र्ब दूसरे की रूह से शोला पैदा करती है और फिर ये उस के एवज़ रूहानियत की आला बुलंदीयों पर दूसरे की रहनुमाई करता है और देखो जों-जों इस तरीक़े से उन की ख़ुशी बढ़ती है उन के दर्मियान एक शख़्स आ मौजूद होता है जिसको सब पहचानते और लिपटते हैं। वो पहले भी वहां मौजूद था लेकिन सिर्फ उस वक़्त जब उन के दिल मुश्तइल (शोला मारने वाला) होने लगते हैं। वो उस को पहचानते हैं और एक तरह से हम कह सकते हैं कि वो सच-मुच अपनी कोशिश से उस को वहां खींच लाते हैं। “जहां दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे हों मैं भी उन के दर्मियान हूँ।”
3
ऐसे मौक़े जिन पर दुआ की ज़रूरत पड़ी है, बेशुमार हैं और उन को गिनने की कोशिश करना अबस (फ़ुज़ूल, नाहक़, बेकार) है। यसूअ को हमारी तरह बिलाशुब्हा हर रोज़ दुआ के लिए नई नई वजूहात मिलती होंगी। मगर बाअज़ मौके़ जिन पर उस ने दुआ की ख़सूसुन ताअलीम बख़्श हैं।
(1) हम देखते हैं कि जब कभी ज़िंदगी में कोई अज़ीम काम शुरू करना होता, तो वो खासतौर से दुआ में मशग़ूल होता था। उस की ज़िंदगी का एक निहायत अज़ीम मौक़ा वो था जब उस ने अपने शागिर्दों में से बारह को मुंतख़ब करके अपना रसूल ठहराया। ये एक ऐसा काम था जिस पर मसीही मज़्हब की तमाम आइन्दा हालत मुन्हसिर थी और देखो इस से पहले उस ने क्या किया? “उन दिनों में ऐसा हुआ कि वो पहाड़ पर दुआ मांगने को गया और ख़ुदा से दुआ मांगने में रात बिताई और जब दिन हुआ उस ने अपने शागिर्दों को पास बुला कर उन में से बारह को चुना और उनका नाम रसूल रखा।” (लूक़ा 6:12 व 13) ये रात-भर की दुआ व बेदारी के बाद था उस ने वो इंतिख्व़ाब का काम किया जो उस के और उन के और तमाम दुनिया के लिए ऐसा अज़ीम था। फिर एक और दिन था जिसकी बाबत हम पढ़ते हैं कि उस ने ऐसी ही तैयारी की। ये वो मौक़ा था जब उस ने पहली दफ़ाअ अपने शागिर्दों को ख़बर दी कि वो दुख उठाएगा और मारा जाएगा।
पस इस से ज़ाहिर है कि जब कभी यसूअ को एक नाज़ुक वक़्त या मुश्किल काम आ पड़ता, तो वो खासतौर से दुआ में मशग़ूल होता। अगर हम भी अपनी मुश्किलात का इसी तरह से मुक़ाबला करें तो क्या वो सब आसान नहीं हो सकतीं? क्या इस से हमारी चश्म-ए-दानिश (अक्ल की आँख) की बीनाई में जिससे हम एक मसअले की तह को पहुंचने की कोशिश करते हैं और हाथ की ताक़त में जो हम फ़र्ज़ के ह्ते (दस्ते) पर रखते हैं, एक ला महदूद ज़्यादती ना हो जाएगी। ज़िंदगी के पहीए ज़्यादा सफ़ाई से हरकत करेंगे और हमारे इरादे ज़्यादा यक़ीनी तौर पर अपने मक़ासिद तक पहुँचेंगे। अगर हम हर सुबह को पहले ही से अपने रोज़ाना फ़राइज़ पर ख़ुदा के हुज़ूर में खड़े होकर नज़र मार लें।
(2) मालूम होता है कि यसूअ ख़ास कर ऐसे वक़्तों में दुआ में मशग़ूल होता था जब उस की ज़िंदगी ग़ैर मामूली तौर से काम और इज़तिराब से पुर होती थी। उस की ज़िंदगी बहुत मसरूफ़ ज़िंदगी थी। क़रीबन हर वक़्त उस के पास बहुत से लोगों का आना जाना लगा रहता था। बाज़ औक़ात बहुत से उमूर् का ऐसा जमघटा हो जाता था कि उसे खाने के लिए भी वक़्त नहीं मिलता था। मगर वो ऐसे वक़्तों में भी दुआ के लिए वक़्त निकाल लेता था, बल्कि मालूम होता है कि ऐसे औक़ात में वो मामूल की निस्बत दुआ पर ज़्यादा वक़्त ख़र्च करता था। चुनान्चे लिखा है, “लेकिन उस का ज़्यादा चर्चा फैला और बहुत से लोग जमा हुए कि उस की सुनें और उस के हाथ से अपनी बीमारीयों से शिफ़ा पायें। पर वो ब्याबान में जा के रहा और दुआ मांगता था।” (लूक़ा 5:15 व 16)
आजकल बहुत से लोग ऐसे हैं जो इस इज्तिमाअ-ए-अश्ग़ाल (शुग़्लों का हुजूम) से वाक़िफ़ हैं। कस्रत-ए-कारोबार से उन के पांव उखड़ जाते हैं और मुश्किल से उन्हें खाना खाने की फ़ुर्सत मिलती है। हम इस बात को दुआ ना मांगने की एक वजह ठहराते हैं मगर यसूअ इस को दुआ मांगने की वजह ठहराता था। क्या इस अम्र में कि इन दोनों में से कौन सा तरीक़ा बेहतर है कुछ शुब्हा हो सकता है? बहुत से अहले दानिश ने भी इस बारे में ऐसा ही किया है जैसा यसूअ ने किया। जब लूथर को बहुत कारोबार या इज़तिराब अंगेज़ वाक़ियात पेश आते तो वो दुआ के लिए मामूल की निस्बत पहले ही से ज़्यादा वक़्त ठहरा लिया करता था। एक ख़िर्द-मंद (अक़्लमंद, समझदार, दाना) ने एक दफ़ाअ कहा कि मैं ऐसा मसरूफ़ हूँ कि जल्द-बाज़ी नहीं कर सकता। जिससे उस का मतलब ये था कि अगर वो तअजील (जल्दी, उज्लत, जल्दबाजी) को काम में लाए तो सब कुछ जो उसे करना है नहीं कर सकेगा। इस क़िस्म की बाइत्मीनान ख़ूदारी पैदा करने के लिए दुआ के बराबर और कोई चीज़ नहीं। जब काम की धूल (मिट्टी) से तुम्हारा कमरा ऐसा भर जाये कि तुम्हारा दम घुटने लगे तो इस पर दुआ का पानी छिड़क दो। तब तुम उस को तसल्ली और इत्मीनान से साफ़ कर सकोगे।
(3) हम यसूअ को ऐसे मौके़ पर भी जब वो आज़माईश में दाख़िल होने को होता ख़ासकर दुआ में मशग़ूल देखते हैं। उस की सारी ज़िंदगी में दुआ का सब से बड़ा सीन (नज़ारा) बिलाशुब्हा गतसमनी है। जब हम उस के पीछे बाग़ में दाख़िल होते हैं तो हमें उस सीन पर नज़र करते भी ख़ौफ़ मालूम होता है क्योंकि वो बहुत मुक़द्दस और हमारी समझ से बाहर है और जब हम इन दुआओं को जो ज़मीन से जहां वो पड़ा है उठती हैं सुनते हैं तो हमारे दिल काँप जाते हैं। ऐसी दुआएं कभी सुनने में नहीं आई। गो हम उन की तह तक नहीं पहुंच सकते तो भी उन से बहुत कुछ सीख सकते हैं। मगर फ़िलहाल एक सबक़ काफ़ी है कि उस ने इस मौक़े पर इम्तिहान में पड़ने से पहले दुआ मांगी क्योंकि बाग़ के दरवाज़े पर पहुंच कर जान-कनी के दौर होने के बाद उस ने कहा, “ये तुम्हारी घड़ी और ज़ुल्मत का इख़्तियार है।” (लूक़ा 22:35) ये ज़मीन और जहन्नम के इख़्तियार वालों के साथ उस की आख़िरी जंग का आग़ाज़ था लेकिन उस ने बाग़ में दुआ मांग कर पहले ही से अपने आपको इस कश्मकश के लिए मुस्तइद कर लिया था और इसलिए वो उस तमाम जद्दो जहद में से जो उस के बाद वाक़ेअ हुआ मुस्तक़िल मिज़ाजी और मुकम्मल कामयाबी के साथ गुज़र सका। उस की ताक़त दुआ की ताक़त थी।
उस के मुक़ाबले में शागिर्दों की कमज़ोरी पर जो उन्होंने उस मौक़े पर ज़ाहिर की नज़र करो। उन के वास्ते भी तारीकी की घड़ी और इख़्तियार गतसमनी के दरवाज़े पर शुरू हुआ। मगर उन के वास्ते वो एक अफ़्सोसनाक ज़िल्लत और शिकस्त की घड़ी थी। क्यों? सिर्फ इसलिए कि जब उन को दुआ मांगनी चाहिए थी वो सोते रहे। अगरचे वो उन के सर पर खड़ा हो के कहता रहा कि “जागो और दुआ माँगो ताकि इम्तिहान में ना पड़ो।” मगर उन्होंने कुछ तवज्जा ना की इसलिए जब आज़माईश की घड़ी आई तो वो गिर गए। अफ़्सोस ! हमको भी अक्सर इसी क़िस्म का तजुर्बा पेश आया है। जिस ज़िरह (फ़ौलाद का जालीदार कुरता जो लड़ाई में पहनते हैं) से हम आज़माईश का कामयाबी के साथ मुक़ाबला कर सकते हैं, दुआ है। लेकिन अगर हम दुश्मन को अपने तक पहुंचने दें पेशतर इस के कि हम इस ज़िरह को पहन चुकें। तो उस के सामने जम कर खड़े होने की कुछ उम्मीद नहीं।
(4) अगर हमारे ख़ुदावंद की ज़िंदगी का कोई और मौक़ा दुआ के लिहाज़ से इस मौक़ा की बराबरी कर सकता है तो वो सबसे आख़िरी मौक़ा है। यसूअ ने दुआ मांगते हुए जान दी। उस के आख़िरी अल्फ़ाज़ दुआ के अल्फ़ाज़ थे। ज़िंदगी-भर की आदत मौत के वक़्त भी ना छुटी। शायद मौत हमें अभी दूर मालूम हो। मगर ये मौक़ा हम पर भी आने वाला है। भला हमारे आख़िरी अल्फ़ाज़ क्या होंगे? कौन बता सकता है? लेकिन अगर हमारी रूह में दुआ की आदत ने घर कर लिया हो, तो कैसी अच्छी बात होगी कि दुआ के अल्फ़ाज़ आख़िरी दम तिब्बी तौर पर हमारे मुँह से निकलें। बहुत से लोग इस दुनिया से गुज़र गए और उस वक़्त मसीह के आख़िरी अल्फ़ाज़ उन की ज़बान पर थे। ऐसा कौन है जिसके दिल में ये हवस ना हो कि काश मेरी ज़बान पर भी यही अल्फ़ाज़ हों कि “ऐ बाप मैं अपनी रूह तेरे हाथों में सौंपता हूँ।”
4
अगर कोई शख़्स मसीह की ज़िंदगी में उस की दुआओं की मक़्बूलियत की तलाश करे तो मुझे यक़ीन है कि उस को बहुत सी मिल सकती हैं लेकिन मैं इस वक़्त सिर्फ दो का ज़िक्र करूँगा जिन पर कलाम-उल्लाह भी ज़ोर देता है और जिनसे खासतौर पर ताअलीम हासिल होती है।
मसीह की तब्दीली सूरत भी दुआ के जवाब में थी। इंजील नवीस इस तौर से उस का ज़िक्र शुरू करता है। “और इन बातों के आठ रोज़ के बाद ऐसा हुआ कि पतरस और युहन्ना और याक़ूब को साथ लेकर पहाड़ पर दुआ मांगने गया और दुआ मांगते ही ऐसा हुआ कि उस के चेहरे की सूरत बदल गई और उस की पोशाक सफ़ैद बुर्राक़ हो गई और देखो दो मर्द जो मूसा और इलियास थे उस से गुफ़्तगु करते थे।” (लूक़ा 9:28۔30) मैं ये नहीं कह सकता कि वो अपनी सूरत और पोशाक की तब्दीली के लिए या उन दाना और हमदर्द अर्वाह (रूहों) के साथ इस काम की बाबत जो वो यरूशलीम में पूरा करने वाला था बातचीत करने की इज़्ज़त हासिल होने के लिए दुआ मांगता था। फिर भी मैं कहता हूँ कि ये सब दुआ के जवाब में था जो वो उस वक़्त जब ये सब कुछ वाक़ेअ हुआ मांग रहा था। बाअज़ ऐसे शख़्स हैं जो इस बात को नहीं मानते कि दुआ में कोई ऐसी वाक़ई ख़ूबी है जिससे उमूर् मतलूबा ख़ुदा से हासिल हो जाते हैं। ताहम वो यक़ीन करते हैं कि दुआ से एक क़िस्म का माकूसी (अलुटा) असर तबीयत में पैदा होता है। वो इस बात को मानते हैं कि दुआ करना अच्छी बात है गो कि इस से तुम्हें ज़ाहिरन कुछ हासिल ना हो। बल्कि उस हालत में भी जब कि बिलफ़र्ज़ कोई भी तुम्हारी दुआ का सुनने वाला हाज़िर ना हो। लेकिन अगर दुआ सिर्फ इतनी ही बात हो और इस से बढ़ कर कुछ बढ़ के ना हो तो ये एक मसखरी हुई और एक निहायत सादा-मिज़ाज शख़्स भी इस को ऐसा ही समझेगा। मगर फिर भी ये सच है कि दुआ में एक निहायत मुबारक माकूसी असर भी है। नेकी पाकीज़गी के लिए दुआएं एक तरह से ख़ुद ही अपना जवाब हैं। क्योंकि ये हो नहीं सकता कि तुम उन के लिए दुआ माँगो और किसी क़द्र ख़ुद इसी फे़अल से उन को हासिल ना कर लो। ख़ुदा की तरफ़ रूह को उठाने से रूह को एक क़िस्म की तस्कीन और शराफ़त हासिल होती है। मेरे नज़्दीक यही बात थी जो मसीह की तब्दीली सूरत का आग़ाज़ थी। बाप के साथ जो रिफ़ाक़त उस को हासिल थी उस की महवियत और ख़ुशी से उस की सूरत भी हुस्न व जलाल से मुनव्वर हो गई। गोया कि इस तौर से बातिनी जलाल को फूट निकलने की राह मिल गई। किसी हद तक ये बात उन सब लोगों पर जो दुआ मांगते हैं वाक़ेअ होती है और हो सकता है कि उन लोगों पर जो ज़्यादा दुआ मांगते हैं और भी ज़्यादा हो। मूसा जब चालीस रोज़ तक ख़ुदा के साथ पहाड़ पर रह चुका तो उस की सूरत भी इसी क़िस्म के नूर से नूरानी हो गई, जैसा कि शागिर्दों ने मुक़द्दस पहाड़ पर अपने उस्ताद की सूरत में देखा और ख़ुदा के तमाम मुक़्क़दसों को भी जो बहुत दुआ मांगते हैं किसी क़द्र एक क़िस्म का रूहानी हुस्न अता होता है जो इसी तरह का है और दुआ के तमाम जवाबों से ज़्यादा बेशक़ीमत है। इन्सानी ख़सलत व मिज़ाज दुआ के सोतों से सेराब होती है।
यसूअ की दुआ का दूसरा जवाब जिसकी तरफ़ मैं आपकी तवज्जा दिलाना चाहता हूँ वो है जो बपतिस्मे के वक़्त मिला। मुक़द्दस लूक़ा उस का इस तौर से ज़िक्र करता है। “और ऐसा हुआ कि जब सब लोग बपतिस्मा पा चुके थे और यसूअ भी बपतिस्मा पाकर दुआ मांग रहा था तो आस्मान खुल गया और रूहुल-क़ुद्दुस जिस्म की सूरत में कबूतर की तरह उस पर उतरा।” (लूक़ा 3:20 व 21) यानी जब वो दुआ मांग रहा था तो रूह उस पर नाज़िल हुई और ग़ालिबन वो उस वक़्त इसी के लिए दुआ मांगता था। उस ने अभी अपने नासरत के घर को छोड़ा था ताकि अपना काम शुरू करे और उस को रूह-उल-क़ुद्दुस की मअन (फ़ील-फ़ौर, उसी वक़्त) हाजत थी ताकि उस के काम के लिए उस को मुस्तइद व तैयार करे। लोग अक्सर इस बात को भूल जाते हैं कि यसूअ मसीह रूह-उल-क़ुद्दुस से मामूर था। मगर ये सच्चाई निहायत साफ़ तौर पर अनाजील में ज़ाहिर की गई है। यसूअ की इन्सानी तबीयत अव़्वल से आख़िर तक रूह-उल-क़ुद्दुस की मुहताज थी और इसी के ज़रीये से उलुहिय्यत के लिए एक मुनासिब आला बन गई। इसी इल्हाम की क़ुव्वत से उस ने मुनादी की, मोअजज़े दिखाए और नजात के काम को पूरा किया और अगर किसी हद तक हमारी ज़िंदगी उसी के नमूने पर ढल सकती है और अगर हम दुनिया में उस के काम को जारी रखते हैं या उस की मुसीबतों की कमी को पूरा करने में मददगार हो सकते तो हमको भी उसी रूह की तासीर पर भरोसा करना चाहिए। लेकिन वो हमें किस तरह मिल सकता है? उस ने ख़ुद हमें बताया है कि। “पस जब तुम बुरे होकर अपने लड़कों को अच्छी चीज़ें देना जानते हो तो वो बाप जो आस्मान पर है कितना ज़्यादा उन को जो उस से मांगते हैं रूह-उल-क़ुद्दुस देगा।” (लूक़ा 11:13) क़ुदरत भी ख़सलत की तरह दुआ के सरचश्मे से हासिल होती है।
8
मसीह का नमूना पाक नविश्तों के मुतालआ करने में
(मत्ती 4:4 व 8 व 10 मत्ती 5:17 व 48 मत्ती 6:29 मत्ती 7:12 मत्ती 8:4-11 मत्ती 9:13 मत्ती 10:15 मत्ती 11:21 व 24 मत्ती 3-7 व 39-43 मत्ती 13:14 व 15)
(मत्ती 15:7-9 मत्ती 19:8 व 18 व 19 मत्ती 21:16 व 42 मत्ती 22:29-32 व
35-40 व 43-45 मत्ती 24:37-39 मत्ती 26:30 व 31 व 53 व 54 मत्ती 27:46)
(लूक़ा 4:16-27 लूका 8:21 लूक़ा 16:29 व 30 लूक़ा 23:42 लूक़ा 24:27)
(युहन्ना 5:39 व 45 व 46 युहन्ना 6:32 व 45 व 49 युहन्ना 7:19 व 22 युहन्ना 8:17-37 युहन्ना 10:34 व 35 युहन्ना 13:18
युहन्ना 17:12 व 14 व 17)
आठवां बाब
मसीह का नमूना पाक नविश्तों के
मुतालआ करने में
1
गुमान ग़ालिब है कि यसूअ तीन ज़बानें जानता था। उस की मुल्की ज़बान अरामी थी। इस ज़बान के बाअज़ फ़िक्रात जो उस की ज़बान से निकले अनाजील में महफ़ूज़ रखे गए हैं मसअला तल्यता ( تلیتا) क़ौमी जिससे उस ने याईर की बेटी को ज़िंदा किया लेकिन ग़ालिबन उस ने नविश्तों को अपनी देसी ज़बान में मुतालआ नहीं किया, गो बाज़ औक़ात वो हवालाजात जो अहद-ए-अतीक़ से अहद-ए-जदीद में मन्क़ूल (नक़्ल किया गया, मुंतक़िल किया गया) हैं। उस अहद-ए-अतीक़ से जो इस वक़्त हमारे हाथों में है किसी तरह से ठीक ठीक मुताबिक़त नहीं रखते और इस पर बाअज़ लोग क़ियास करते हैं कि इन सूरतों में वो हवालेजात एक अरामी तर्जुमे से जो उस वक़्त राइज था लिए गए हैं। लेकिन ये सिर्फ़ क़ियास ही क़ियास है।
दूसरी ज़बान जो वो बोलता था यूनानी थी। गलील में जहां उस ने परवरिश पाई इस क़द्र कस्रत से यूनानी लोग आबाद थे कि वो ग़ैर क़ौमों की गलील कहलाता था और यूनानी तिजारत पेशा लोगों की ज़बान नीज़ मुतफ़र्रिक़ अक़्वाम की बाहमी बोल-चाल की ज़बान थी। उन दिनों में एक लड़के को जो गलील में परवरिश पाई यूनानी सीखने का ऐसा ही मौक़ा हासिल था जैसा कि आजकल हिन्दुस्तान के किसी अंग्रेज़ी कैंप में रहने वाले को अंग्रेज़ी सीखने का। इस के इलावा मसीह के ज़माने में कुतुब-ए-अहद-ए-अतीक़ का तर्जुमा यूनानी ज़बान में मौजूद था और वो इस वक़्त भी हमारे पास मौजूद है। जो सप्टूआजन्ट ( سپٹوآجنٹ) यानी सत्तर के नाम से मौसूम है क्योंकि गुमान किया जाता है कि सत्तर आदमीयों ने मसीह से दो या तीन सौ साल पहले मिस्र में उस को अंजाम दिया था। इस तर्जुमे का कन्आन में बहुत ही रिवाज था। कुतुब अहद-ए-जदीद के राक़िम (रक़म करने वाला, लिखने वाला) अक्सर उस से नक़्ल करते हैं और मुम्किन है कि हमारे ख़ुदावंद ने भी उसे पढ़ा हो।
तीसरी ज़बान जो वो जानता था ग़ालिबन इब्रानी थी मगर ये बात यक़ीनी नहीं क्योंकि अगरचे इब्रानी यहूदीयों की ज़बान थी मगर मसीह के ज़माने से पहले कन्आन में उस का आम रिवाज उठ गया था। ये अक्सर देखा जाता है कि ज़बानें अपने ही मुल्क में ज़वाल पकड़ जाती हैं और ग़ैर ज़बानों के अल्फ़ाज़ से मख़्लूत (मिल जुल) होकर बदल जाती हैं कि मुश्किल से पहचानी जा सकती हैं। इस की मिसाल मुल्क इटली में मौजूद है जहां लातीनी अब एक मुर्दा ज़बान है क्योंकि वो रफ़्ता-रफ़्ता सदहा (सौ) साल के अर्से में तब्दील होकर बिल्कुल एक और ज़बान बन गई। जो अगरचे क़दीम ज़बान से बहुत ज़्यादा मुशाबहत रखती है ताहम उस मुल्क के लड़कों को लातीनी उसी तरह सीखना पड़ती है जैसे दूसरे मुल़्क वालों को। दूर क्यों जाते हो हमारे हिन्दुस्तान ही को देखो जहां एक ज़माने में संस्कृत मुल्क की ज़बान थी लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता बदल कर भाषा बन गई और ऐसी अजनबी हो गई कि अब सिर्फ बड़े बड़े पण्डित ही साल-हा-साल की मेहनतों से उस को सीख सकते हैं और अब ये भाषा भी रफ़्ता-रफ़्ता उर्दू के सामने पसपा होती हुई नज़र आती है। यही हालत कनआन की थी। इब्रानी ज़बान जिसमें अहद-ए-अतीक़ लिखा गया बिगड़ कर अरामी में बदल गई और जो यहूदी पाक नविश्तों को असली ज़बान में मुतालआ करना चाहता था उस को ये ज़बान सीखना पड़ती थी। इस अम्र के यक़ीन की कई वजूहात हैं कि यसूअ ने भी इस ज़बान को सीखा। अहद-ए-अतीक़ के बाअज़ हवालों से जो अहद-ए-जदीद में हैं उलमा ने दर्याफ़्त किया है कि वो इरादतन यूनानी तर्जुमे से क़तअ (हट कर, कट कर) नज़र कर के अस्ल इब्रानी के ठीक ठीक अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करता है। ये भी याद रखना चाहीए कि नासरत के इबादत ख़ाने में उस को नविश्तों के पढ़ने के लिए कहा गया था। ग़ालिबन ये नविश्ते इब्रानी में थे। जिनको क़ारी पहले उस ज़बान में पढ़ता और फिर लोगों की बोल-चाल में उस का तर्जुमा करता था। अगर ये ठीक हो तो ये ख़्याल दिलचस्पी से ख़ाली नहीं कि यसूअ ने एक मुर्दा ज़बान को सीखा ताकि कलाम-उल्लाह को उस की असली ज़बान में मुतालआ कर सके। याद रखो कि वो सिर्फ एक मामूली पेशावर था और सिर्फ मेहनत मशक़्क़त के बाद फ़ुर्सत के मुख़्तसर औक़ात में उस ने उन अजीब हुरूफ़ व इशकाल को सीखा होगा। जिनके ज़रीये से ज़बूरों को जैसा कि दाऊद ने उन को लिखा और नबूवतों को जैसे कि वो यसअयाह या यर्मियाह के क़लम से निकलीं पढ़ने के क़ाबिल हुआ। उस ज़माने में भी बाअज़ ऐसे अश्ख़ास हुए हैं। हम बाअज़ हिर्फ़त (हुनर, कारीगरी) पेशा लोगों का ज़िक्र सुनते हैं जिन्होंने यूनानी ज़बान की ग्रामर (सर्फ़ व नहव) काम करते वक़्त अपने सामने रछ (पनाह) पर रखकर मुतालआ की ताकि वो अहद-ए-जदीद को उस की असली ज़बान में पढ़ सकें। यक़ीनन बाइबल में जब उस को उस की असली ज़बान में मुतालआ किया जाये एक ऐसी लज़्ज़त मिलती है जो फ़क़त तर्जुमे से हासिल नहीं होती और ये देखकर ताज्जुब होता है कि हमारे ज़माने में जब कि बाइबल की मुहब्बत ऐसी आम है और हुसूल-ए-इल्म के वसाइल ऐसे आसान हैं तो भी उस को उस की असली ज़बान में मुतालआ करने की हिर्स व ख़्वाहिश ऐसी आम नहीं है।
ये ख़्याल भी कुछ कम रक्त अंगेज़ (जिससे रोना या रहम आए) नहीं कि यसूअ के पास अपनी बाइबल नहीं थी और इस अम्र में कुछ भी शुब्हा नहीं हो सकता। उस ज़माने में ऐसी किताबों की क़ीमत निहायत गिरां (ज़्यादा क़ीमत) थी। जो इस दर्जे के आदमी की हैसियत से बिल्कुल बाहर थी और इलावा बरीं उन तूमारों का हुजम जिन पर वो लिखी जाती थीं इस क़द्र बड़ा होता था कि अगर वो उस की मिल्कियत में भी होतीं तो भी उस को जगह जगह लिए फिरना नामुम्किन होता। मुम्किन है कि उस के घर में किताब-ए-मुक़द्दस में से ज़बूर या दीगर दिलचस्प हिस्सों के चंद एक तूमार हों, लेकिन ज़रूर है कि जो कुछ किताब-ए-मुक़द्दस का इल्म उस ने हासिल किया इबादत ख़ानों में जाने और वहां की किताबों के इस्तिमाल से हासिल किया होगा और शायद इस ग़रज़ के लिए उस को मुहाफ़िज़ का ममनूने एहसान भी होना पड़ता होगा। आजकल किताब-ए-मुक़द्दस बरा-ए-नाम क़ीमत पर मिल सकती है और बच्चे बच्चे के पास मौजूद है। ख़ुदा करे कि अर्ज़ानी (कस्रत, बोहतात) और आम रिवाज से वह हमारी नज़रों में एक मामूली चीज़ ना ठहरे।
अलबत्ता ये सिर्फ़ अहद-ए-अतीक़ था जो यसूअ ने पढ़ा। इस बात को याद दिलाना इसलिए भी ज़्यादा ज़रूरी है कि हमारे पास अपनी बढ़ी हुई बाइबल को ज़्यादा-तर प्यार व इज़्ज़त करने के लिए कितनी बड़ी वजूहात हैं। जब मैं ज़बूर में कलाम-उल्लाह की निस्बत इस क़िस्म के कलिमात जो जोश-ए-मोहब्बत से भरे हुए हैं, पढ़ता हूँ कि “आह में तेरी शरीअत को कैसा प्यार करता हूँ। तमाम दिन वही मेरा विर्द है। तेरी बातें मेरे मुँह में कैसी मीठी लगती हैं। हाँ मेरे मुँह में शहद से ज़्यादा मीठी हैं। वो सोने से बल्कि बहुत कुंदन से ज़्यादा नफ़ीस हैं। शहद और उस के छत्ते के टपकों से शीरीं तर हैं।” (ज़बूर 19:10) हाँ जब में इन पुरजोश अल्फ़ाज़ को पढ़ता हूँ और फिर ये ख़्याल करता हूँ कि ये उन लोगों की ज़बान से निकले। जिनके पास सिर्फ अहद-ए-अतीक़ या शायद सिर्फ उस का एक हिस्सा था जिनकी बाइबल में ना तो अनाजील थीं, ना पौलुस के ख़ुतूत, ना मुकाशफ़ात की किताब, जिन्होंने पहाड़ी वाज़ेह मुसरफ़ बेटे की तम्सील, युहन्ना का सतरहवां या रोमीयों का आठवां, कुरंथियो का तेरहवां या इब्रानियों का ग्यारहवां बाब कभी नहीं पढ़ा था। तो मैं अपने दिल में सवाल किया करता हूँ कि उस बाइबल की निस्बत जो उस से कहीं बड़ी है मेरा क्या ख़्याल है? और फिर दिल में कहता हूँ कि यक़ीनन ज़माना-ए-हाल में इन्सान का दिल पत्थर का हो गया है और शुक्रगुज़ारी के चश्मे सूख गए हैं और तारीफ़ और जज़्ब (कशिश, खींचना, खिचाव) दिल की आग बुझ गई है क्योंकि बमुक़ाबला उन लोगों के हमारी मुहब्बत इस ज़्यादा कामिल शूदा किताब की निस्बत फीकी सी मालूम होती है।
2
इस बात के लिए निहायत पुख़्ता शहादत मिलती है कि यसूअ कलाम-उल्लाह का बड़ी मेहनत से मुतालआ करता था। इस का सबूत ना सिर्फ इस बात से मिलता है कि इस अम्र का बार-बार ज़िक्र किया गया है बल्कि इस से भी बढ़कर दिल नशीन (दिल में बैठने वाला, दिल में उतरने वाला, दिल पर नक़्श हो जाने वाला) सबूत पाए जाते हैं। उस के अक़्वाल कलाम-उल्लाह के हवालों से पुर हैं। बाअज़ जगह तो साफ़ तौर पर सहीफ़े और आयत को बता दिया है। लेकिन अक्सर औक़ात अहद-ए-अतीक़ के मुंदरजा वाक़ियात और बुज़ुर्गान की तरफ़ इशारा किया है। या उस की इबारतों को अपने कलाम के ताने-बाने में ऐसा बुन दिया है जिससे मालूम होता है कि गोया अहद-ए-अतीक़ उस के दिल के रग व रेशे में मिल गया था और उसकी क़ुव्वत वाहिमा (वो ताक़त जिससे इन्सान सोचता है) हमेशा उसी के सब्ज़ा-ज़ार में लौटती बल्कि उस के ख़्याल भी उस के तर्ज़-ए-बयान के क़ालिब (साँचा, ढांचा) में ढाले जाते थे। जब उस के हवालेजात को देखा जाता है तो मालूम होता है कि वो किताब के हर एक हिस्से से लिए गए हैं जिससे ज़ाहिर होता है कि वो ना सिर्फ बाइबल की बड़ी बड़ी बातों से बल्कि उस के तंग व तार (बहुत ज़्यादा तंग, बहुत ज़्यादा) बारीक गोशों से भी वाक़िफ़ था। यहां तक कि कुतब-ए-अहद-ए-अतीक़ की वुसअत (फैलाओ) में जहां कहीं हम सफ़र करें हमें यक़ीन जानना चाहिए कि उस के मुतबर्रिक क़दम हमसे पहले उस रास्ते से गुज़र चुके हैं। इसलिए ये बात भी कुछ कम लुत्फ़ अंगेज़ नहीं कि नविश्तों के मुतालआ में बहुत सी ऐसी आयात मिल सकती हैं जिनकी बाबत हम जानते हैं कि उस ने उनका हवाला दिया और हम ये मालूम कर सकते हैं कि उसी प्याले में से जिसको हम अपने लबों की तरफ़ उठा रहे हैं, यसूअ ने ज़िंदा पानी पिया। ऐसी आयात भी हैं जिनकी निस्बत हम बे-अदबी के मुजरिम हुए बग़ैर कह सकते हैं कि वो उस को बहुत दिल पसंद थीं क्योंकि वो उन को बार-बार नक़्ल करता है और मालूम होता है कि नविश्तों की बाअज़ किताबें मसलन इस्तिस्ना, ज़बूर और यसअयाह के उस को ख़ासकर अज़ीज़ थीं।
कुछ अरसा हुआ मुझे अपने एक मरहूम दोस्त के काग़ज़ात देखने का काम सपुर्द (मिला, दस्तयाब हुआ) हुआ। जिन लोगों को ऐसे काम से वास्ता पड़ा है वो जानते हैं कि ये कैसा दर्दनाक होता है। ये कुछ बे-अदबी सी मालूम होती है कि एक शख़्स के भेदों में जो उस ने ज़माना-ए-हयात में पोशीदा रखे, नज़र दौडाएं और ये बात मालूम करें कि वो आदमी सतह के नीचे दरअस्ल क्या था। मेरा दोस्त एक दुनियादार आदमी था और उन तमाम आज़माईशों से जो हर एक आदमी को जो उस क़िस्म के काम को इख़्तियार करते और दुनिया के लोगों से मिलते हैं, पेश आती हैं, घिरा हुआ था। लेकिन फिर भी वो सब लोगों में दीनदार आदमी माना जाता था। अब मेरे पास इस अम्र के दर्याफ़्त करने के वसाइल मौजूद थे कि आया ये दीनदारी फ़क़त उस का ज़ाहिरी लिबास थी या दिल में भी जगह रखती थी। जब बड़े ख़ौफ़ व हैबत के साथ मैं उस के काग़ज़ात को देखता गया तो मुझे ऐक बाद दीगरे (एक के बाद दूसरे) एक बातिनी ज़िंदगी की शहादतें (गवाहियाँ) मिलीं जिसकी जड़ें मेरी उम्मीद से भी बढ़कर गहरी और तरोताज़ा थीं। ख़ासकर जब मैंने उस की बाइबल को खोला तो वो एक साफ़ और नाशक (मुकम्मल तबाह) आमेज़ कहानी बयान करती मालूम होती थी क्योंकि उस के हर एक सफ़े पर इस बात के निशान पाए जाते थे कि गोया वो अरसे दराज़ तक दिन रात उस के इस्तिमाल में रही है। औराक़ बोसीदा थे। ख़ास ख़ास आयतों पर ख़त खिंचे थे और कहीं कहीं हाशीए पर मुख़्तसर अल्फ़ाज़ में दिली ख़यालात दर्ज थे। बाअज़ हिस्सों की निस्बत मालूम होता था कि ख़सूसुन ज़्यादा इस्तिमाल में आए हैं। ये हालत ख़ासकर अहद-ए-अतीक़ में ज़बूर, यसअयाह और होसीअ में थी और अहद-ए-जदीद में मुक़द्दस युहन्ना की तहरीरात में। अब मुझको उस ख़त्म शूदा ज़िंदगी की हक़ीक़त मालूम हुई और ये भी दर्याफ़्त हुआ कि उस की तमाम ख़ूबीयों का सरचश्मा क्या था।
पस किसी आदमी की बाइबल की ज़ाहिरी सूरत ही उस की निहायत पोशीदा आदात की तारीख़ का काम दे सकती है जो उन लोगों के लिए जो उस के बाद आएं उस की दीन-दारी या बेदीनी की यादगार ठहर सकती है। ख़ुद ज़िंदा आदमी के वास्ते शायद उस की अपनी मज़हबी हालत जांचने के लिए इस से उम्दा कोई कसौटी नहीं कि वो इसी किताब के सफ़्हों पर नज़र डाले क्योंकि उस के इस्तिमाल या बेपर्वाई के निशानात से वो मालूम कर सकता है कि वो उस को अज़ीज़ रखता है या नहीं। मैंने अपने इस दोस्त की बाइबल के सर-ए-वर्क़ से चंद अल्फ़ाज़ नक़्ल कर लिए जो उसी सच्ची मुहब्बत के मंबअ को ज़ाहिर करते हैं जो वो कलाम के साथ रखता था।
“काश कि मैं मसीह से ख़ुदा से पाकीज़गी से क़रीब-तर होता जाऊं। हर रोज़ उसमें, और उससे, उस के लिए और उस के साथ ज़्यादा ज़्यादा कामिल तौर से जियूं और ज़िंदगी बसर करूँ। मसीह मौजूद है तो क्या मैं बे मसीह रहूं? हमाम मौजूद है क्या मैं ग़लीज़ रहूं? पिदराना मुहब्बत मौजूद है, क्या मैं अलग रहूं? आस्मान मौजूद है, क्या मैं उस से बाहर किया जाऊं?”
3
नविश्तों को बग़रज़ इफ़ादा (फ़ायदे की ग़रज़ से) मुतालआ करने के कई तरीक़े हैं। इनकी बाबत मसीह ने कोई ख़ास ताअलीम नहीं दी। मगर इस के हालात के मुतालआ से हम देख सकते हैं कि वो उन के मुतालआ में बाअज़ तरीक़े इस्तिमाल करता था। उस तरीक़े के मुताबिक़ जिससे वो मुतालआ किया जाता है। ख़ुदा का कलाम रुहानी तजुर्बे में ख़ास ख़ास मुख़्तलिफ़ फ़वाइद बख़्शता है। एक तरीक़ा एक क़िस्म के फ़ायदे के लिए कारआमद है और दूसरा दूसरे के लिए। यसूअ ने इन तमाम तरीक़ों में कमाल महारत ज़ाहिर की और इस से हम मालूम कर सकते हैं कि उस ने किस तौर से उस का मुतालआ किया।
ख़ुसूसुन तीन बड़े बड़े फ़वाइद हैं जिनके हासिल करने के लिए हम मालूम करते हैं कि उस ने बाइबल को इस्तिमाल किया और यह ऐसे अहम हैं कि हमको भी उस की तक़्लीद (पैरवी करना, क़ुबूल करना, मान लेना) करनी चाहिए।
1 बचाओ के लिए
हम देखते हैं कि सबसे पहले उसने आज़माईश से बचने के लिए उस का इस्तिमाल किया। जब उस शरीर (बेदीन) ने ब्याबान में आकर उस को आज़माया तो उस ने हर एक बात के जवाब में कहा। “ये लिखा है।” कलाम उस के हाथ में रूह की तल्वार था और उस ने उस की धार से दुश्मन के हमलों को रोका।
इसी तरह उस ने उन शरीर आदमीयों के हमलों के बर-ख़िलाफ़ अपनी हिफ़ाज़त की। जब वो उस की ताक में लगे थे और उसे बातों बातों में फँसाना चाहते थे, तो उस ने कलाम-उल्लाह से उनका मुँह-बंद कर दिया। ख़ुसूसुन इस बड़े मुबाहिसे के दिन जो उस के अंजाम से थोड़े दिन पहले वाक़ेअ हुआ, जब उस के तमाम दुश्मन उस पर आ पड़े और मुख़्तलिफ़ फ़रीक़ों के सरबर आवर्दा (बुज़ुर्ग, सरदार) लोगों ने उस को घबरा देने और उस की बातों की तर्दीद कि हत्ता-उल-वसीअ (जहां तक हो सके) कोशिश की। तो उस ने उन के हमलों को ऐक बाद दीगरे (एक के बाद एक) नविश्तों में से जवाब देकर रफ़ा किया और आख़िरकार ये दिखाकर कि वो लोग नविश्तों से जिनकी शरह व तफ़्सीर (खोल कर बयान करना) के जानने के वो ऐसे दावेदार हैं कैसे जाहिल हैं। लोगों की नज़रों में उनका मुँह बंद कर के शर्मिंदा कर दिया।
और एक दुश्मन था जिसका उसने इसी हथियार से मुक़ाबला किया। जब कि मौत के दुख उस पर इस शद्दो-मद से उमड़ रहे थे जैसे कि एक लश्कर समुंद्र की मौजों की तरह एक अकेली जान पर चढ़ आए। तो उस वक़्त भी उस ने इसी क़दीमी आज़मूदा (आजमाए) हथियार से काम लिया। उस के आख़िरी सात फ़िक़्रों में से जो उस ने सलीब पर कहे। अगर ज़्यादा नहीं तो कम से कम दो उस की दिल पसंद ज़बूर की किताब में से हैं। उन में से एक तो उस का आख़िरी कलिमा था जिससे उस ने अजदहाए अजल (मौत के बहुत बड़े साँप) के मुँह से अपनी रूह को छीन लिया। “ऐ बाप मैं अपनी रूह तेरे हाथों में सौंपता हूँ।” नविश्तों के इस इस्तिमाल के लिए उन को हिफ़्ज़ करने की मश्क़ ज़रूरी है। हर एक हालत में जिसका मैंने ज़िक्र किया है यसूअ अपने हाफ़िज़े के खज़ाने की तरफ़ जो आयात कलाम-उल्लाह से मामूर था, मुतवज्जा होता और फ़ील-फ़ौरक (फ़ौरन) मुनासिब मौक़े पर ज़रूरी हथियार निकाल लाता था। अक्सर औक़ात जब आज़माईश आती है तो उस के मुक़ाबले के लिए कलाम-उल्लाह को तलाश करने के लिए वक़्त नहीं मिलता। सब कुछ इस बात पर मौक़ूफ़ है कि पहले ही से शमशीर बदस्त (तल्वार हाथ में) मुसअला (हथियार लिए हुए) वो तैयार हो। इससे मालूम होता है कि हाफ़िज़े को जब तक वो काम दे सके आयात के ज़ख़ीरे से भरना कैसा ज़रूरी है। हम नहीं कि आइन्दा मुसीबत और कमज़ोरी के दिनों में वो किस क़द्र हमारे काम आयेंगी। रोज़ाना तिलावत में जब हम एक बाब को पढ़ चुके तो ये निहायत उम्दा तदबीर है कि उस में से एक आयत को चुन कर हिफ़्ज़ कर लें। इस से ना सिर्फ तमाम बाब पर तवज्जा जम जाती है बल्कि इस तौर से गोया हम आइन्दा लड़ाईयों के लिए गोला बारूद जमा करते हैं।
(2) उभारने और हिम्मत बढ़ाने के लिए
मसीह ने जो हवालेजात अह्द-ए-अतीक से दिए उन से बाआसानी मालूम हो सकता है कि वो ज़माना-ए-सलफ़ (शरीअत का ज़माने) के उलल-अज़्म लोगों की सोहबत में जिनकी ज़िंदगी का हाल अहद-ए-अतीक़ में दर्ज है बहुत रहा करता था। उस के ज़मीनी अहले मजलिस (मिलकर बैठने वाले) उस से बहुत कम हमदर्दी रखते थे उस के अपने घर के लोग उस पर ईमान ना लाए। उस के अपने मुल्क में जैसे वो अक्सर कहा करता था एक शरीर (बेदीन) नस्ल बस्ती थी जो उन मक़ासिद की तरफ़ जिनको उस को दिल में गहरी जगह थी कुछ तवज्जा नहीं करती थी। उस के अपने पैरौ (मानने वाले) दिल और रूह में बच्चों से बढ़कर ना थे। जिनको वो अपने ख़यालात के समझने के लिए तर्बीयत कर रहा था। उस का भरा हुआ दिल सोहबत व रिफ़ाक़त का आरज़ूमंद था और ये रिफ़ाक़त उस को सिर्फ सलफ़ के जवाँ मर्दों के दरम्यान मिलती थी। नविश्तों की सुनसान गुज़रगाहों और शजरस्तान के दर्मियान वो अब्रहाम और मूसा, दाऊद और इल्यास, यसअयाह और और बहुत से इसी तबीयत के आदमीयों के साथ मलाकी हुआ। (मिला, मुलाक़ात की) इन लोगों ने उसी क़िस्म के मक़ासिद के इतमाम (तमाम करना, अंजाम को पहपचाना, कमाल तक्मील) के लिए अपनी ज़िंदगीयां बसर की थीं और उन के लिए उन्होंने भी उस की तरह तकलीफ़ें उठाई थीं। यहां तक कि वही अल्फ़ाज़ जो यसअयाह ने अपने हमअसरों (एक ही दौर के) के हक़ में कहे वो अपने ज़माने के लोगों की निस्बत इस्तिमाल कर सकता था। अगर यरूशलेम उस को सताती है तो वो हमेशा से वही शहर है जिसने नबियों को क़त्ल किया। वो कलाम की तिलावत में उन गुज़री हुई रूहों से ऐसा क़रीब हो गया और उस के तफ़क्कुरात (सोच बिचार की जमा) में वो ऐसे जागज़ीं हुए कि आख़िरकार उन में से दो जो सबसे बड़े थे। यानी मूसा और इल्यास, फ़िलवाक़ेअ आलम ग़ैर मुरई (जो दिखाई ना दे, नादीदनी, नज़र ना आने वाली) के हदूद से उबूर कर आए और मुक़द्दस पहाड़ पर उस से बातचीत करते दिखाई दिए। लेकिन ये गुफ़्तगु उन सैंकड़ों गुफ़्तगुओं का आख़िरी नतीजा थी जो वो किताब-ए-मुक़द्दस के सफ़हात में उन से और दूसरे अम्बिया से पहले से किया करता था।
बाइबल के इस इस्तिमाल से लुत्फ़ उठाने के लिए उस तरीक़े की निस्बत जो बचाओ के लिए कारआमद है, एक मुख़्तलिफ़ क़िस्म के मुतालआ की ज़रूरत है। बचाओ के लिए जुदा जुदा आयात के अल्फ़ाज़ का याद होना ज़रूरी है। मगर इस उभारने वाली रिफ़ाक़त के लिए हमारा मुतालआ ज़्यादा वसीअ होना चाहिए। ये एक इन्सान की ज़िंदगी पर उस की इब्तिदा से आख़िर तक हावी होना चाहीए। उस के लिए उस ज़माने का जानना जिसमें वो पैदा हुआ और उन हालात को समझना जिनका उसे मुक़ाबला करना पड़ा ज़रूर है। हमको उस आदमी के मुताल्लिक़ा उमूर का इस क़द्र मुतालआ करना चाहिए कि उस ज़माने का आलम हमारी आँखों में फिर जाये और वो उस में चलता फिरता नज़र आए। हमें उसकी आवाज़ और लहजे की पहचान हासिल करनी चाहिए। तब वो हमारा वाक़िफ़ बन जाएगा। हमारे साथ सैर करेगा। हम से बातें करेगा। हमारा दोस्त और रफ़ीक़ होगा। मगर ये शर्फ़ व इज़्ज़त सिर्फ उसी को हासिल है जो अपनी बाइबल से ख़ूब वाक़िफ़ है। दुनिया में ख़्वाह वो कैसी चीज़ों से घिरा हुआ क्यों ना हो तो भी जब कभी चाहीए अपने को ऐसी उम्दा सोहबत में मुंतक़िल कर सकता है। जहां हर एक पेशानी पर शराफ़त बरसती है। हर एक आँख में शुजाअत चमकती है। बल्कि जहां की हवा भी ईमान, उम्मीद और मुहब्बत से मुअत्तर (इतर से भरी, ख़ूशबू से भरी हुई) व मुश्कबार (ख़ुशबू भरा) है।
(3) हिदायत व रहनुमाई के लिए
यसूअ अपनी बाइबल को बतौर अपनी ज़िंदगी के नक़्शे के इस्तिमाल करता था। आलिम और दीनदार लोग अक्सर इस मसअले पर बह्स किया करते हैं कि किस उम्र में उसको कामिल तौर पर आगाही हुई कि वो मसीह है और किन मदारिज (दर्जों, रुतबों, मर्तबों) से उस को उस रास्ते का साफ़ साफ़ इल्म हासिल हुआ जिस पर उसे चलना था। मसलन ये कि किस मौक़े पर उस ने मालूम किया कि वो एक फ़तेहमंद नहीं बल्कि मुसीबतज़दा मुन्नजी (नजात देने वाला) होगा और उनका ये ख़्याल है कि उस ने ये इल्म अहद-ए-अतीक़ की नबूव्वतों के मुतालआ से जो उस के हक़ में थीं हासिल किया। मैं अपने आपको ऐसी अमीक़ (गहिरा, कामिल) बातों पर ख़याल दौड़ाने के क़ाबिल नहीं समझता। मुझे ये बातें उस सर के हिजाब के पीछे उस की ज़ात में ख़ुदा और इन्सान एक शख़्स वाहिद हैं, छिपी हुई मालूम होती हैं। मगर उस के कलाम से बाआसानी नज़र आता है कि उस ने अहद-ए-अतीक़ की नबूवतों में बड़ी दिलचस्पी के साथ अपने रास्ते का खोज लगाया। जैसे कोई शख़्स एक नक़्शे में किसी शहर के रास्ते का पता लगाता है। इंजील में बार-बार ये लिखा है कि उसने फ़लां फ़लां बातें कीं ताकि फ़लां फ़लां नबूवत पूरी हो। जो लोग युहन्ना बपतिस्मा देने वाले और दूसरों ने उस के पास भेजे उन को उस ने दिखा दिया कि कैसे लफ़्ज़ी तौर से उस का तरीक़ा-ए-हयात मसीह की तस्वीर से जो यसअयाह और दीगर अम्बिया ने खींची है मुताबिक़ है। उन मुलाक़ातों के मौक़ों पर जो उस ने अपने जी उठने के बाद अपने शागिर्दों से कीं ज़्यादा-तर उस ने उन को मूसा और दीगर अम्बिया की किताबों से ये दिखाया कि उस की ज़िंदगी और दुख और मौत ठीक तौर पर उन बातों को जो उस के हक़ में कही गई थीं पूरा करते हैं।
इस तौर से नविश्तों के मुतालआ करने के लिए उस मुतालआ की निस्बत जो बचाओ या उभारने के लिए ऊपर बयान किया गया। बहुत अमीक़ मुतालआ की ज़रूरत है। इस ग़रज़ के लिए एक परिंद चश्मी नज़ारे की ताक़त की हाजत है जिससे एक ही नज़र में नविश्तों पर बहैसीयत मजमूई नज़र मार सके और इस तौर से उन बड़ी बड़ी धारों को जो शुरू से आख़िर तक उस में बेहती चली गई हैं, दर्याफ़्त कर लें और ख़ासकर साफ़ तौर से उस बड़ी वस्ती धारा (दरमयानी धारा, मर्कज़ी धारा) का खोज लगाऐं। जिसकी तरफ़ सभी का मीलान है और जिसमें सबकी सब आख़िरकार मिल जाती हैं।
ज़ाहिरन बाइबल के मुतालआ करने में मसीह का यही तरीक़ा था वो उसे लेकर उस की मजमूई हालत में उस को इस्तिमाल कर सकता था। हम ये बात उस के अकेली आयतों के इस्तिमाल के तरीक़े से में भी मालूम करते हैं। वो शाज़ो नादिर कोई आयत नक़्ल करता है जिसके साथ ही वो उस के बाअज़ पोशीदा मअनी नहीं खोल देता। जिसका पहले किसी को गुमान भी ना था। लेकिन जो उन के ज़ाहिर किए जाने के वक़्त से सबकी आँखों में साफ़ साफ़ ज़ाहिर व रोशन नज़र आने लगते हैं। हर ज़माने में किसी किसी शख़्स को ये क़ुदरत हासिल होती है। बाज़ औक़ात तुम किसी वाइज़ को सुनते हो जो एक आयत को ऐसे तौर पर नक़्ल करता है कि उस की सूरत बिल्कुल बदल जाती और उस के कलाम में मोती की तरह चमकने लगती है। ये ताक़त कहाँ से हासिल होती है? ये उस वक़्त मिलती है जब दिल बाइबल के क़ार (गहराई, थाह) में नीचे नीचे ग़ोते मारता जाता है। यहां तक कि वो नूर की बड़ी झील तक जो तमाम आयात की तह में है, पहुंच जाता है और तब उस आतिशी (आग वाले) समुंद्र में से एक शोला ऊपर उठ आता और सतह पर रोशनी फैलाता है।
हम बाअज़ अकेली आयात से हज़ (लुत्फ़, मज़ा, ख़ुशी) उठाकर कैसे जल्दी सैर हो जाते हैं ! जो ज़रब और तहरीक एक अकेली आयत से मिलती है बहुत क़ीमती तो है लेकिन पाक नविश्ते की पूरी किताब उस से भी बढ़कर ताक़तवर धक्का लगा सकती है। बशर्ते के हम उस को अव़्वल से आख़िर तक पढ़ें और उस के पैग़ाम को बहैसीयत मजमूई गिरिफ़्त करने की कोशिश करें। उस के बाद हम सहीफ़ों के मजमूओं को लेकर उन पर ग़ौर कर सकते हैं। बाज़ औक़ात ऐसा भी कर सकते हैं कि एक मज़्मून को लेकर सारी बाइबल में से गुज़र जाएं और ये दर्याफ़्त करें कि इस मज़्मून पर उस में क्या ताअलीम है? और फिर कोई वजह नहीं कि हम आख़िरकार उन तमाम बातों को जिनकी बाइबल ताअलीम देती है गिरिफ़्त करने की कोशिश ना करें। यानी एक तरफ़ तो ईमान के बारे में और दूसरी तरफ़ चाल चलन के बारे में उस की कुल ताअलीम का मुतालआ करें।
नविश्तों की मअमूरी से फ़ायदा उठाने के लिए सबसे अच्छा हिदायत नामा ये है कि हम उन को यसूअ की मानिंद इस तरह ढूंढें गोया वो हमारी ज़िंदगी का नक़्शा हैं। अलबत्ता ये तो नहीं होगा कि हम भी उन में अपनी ज़िंदगी की वैसी ही पूरी तस्वीर खींच पाएँगे, जैसे उस ने पाई। ताहम बिल्कुल सही तौर पर हम उसमें अपनी ज़िंदगी की ठीक सूरत और नक़्श दर्याफ़्त करेंगे। नसीहत और वाअदे और मिसाल में हम देखेंगे कि हर एक काम जो हमें करना है। हर एक मन्सूबा जो हमें बांधना है। ज़िंदगी का हर एक मोड़ जिस पर हमने फिरना है उस में साफ़ तौर पर तहरीर किया गया है और अगर हम उस लिखे के मुताबिक़ अमल करेंगे तो हम भी उस के बाद ये कह सकेंगे जैसा कि वो अक्सर कहा करता था कि “ये हुवा ताकि ये नविश्ता पूरा हो।”
अगर हम सरगर्मी से इस तरीक़े पर चलेंगे तो हम उस तरीक़े के जिससे वो नविश्तों का मुतालआ करता था और भी क़रीब हो जाऐंगे क्योंकि वो ज़रूर हमको उस बड़ी वसती धार तक पहुंचा देगा। जो कि तमाम नविश्तों में इब्तिदा से इंतिहा तक बराबर जारी है, ये क्या है? ये ख़ुद मसीह ही है। अहद-ए-अतीक़ का तमाम मीलान और बहाव सीधा मसीह की सलीब की तरफ़ है। तमाम अहद-ए-जदीद मसीह की तस्वीर के सिवा और क्या है? जो आदमी कलाम-उल्लाह में अपनी ज़िंदगी का सच्चा रास्ता ढूँडेगा ज़रूर वो उस को सलीब तक पहुंचाएगा ताकि हलाक होने वाले गुनाहगार की हैसियत में मुन्नजी (नजात देने वाले) के ज़ख़्मों में रहमत को ढ़ूंढ़े और फिर उस मुक़ाम से अज़ सर-ए-नौ कूच कर के वो अपना हक़ीक़ी रास्ता आगे को तलाश करे। और ज़रूर वो ये देखेगा कि सामने फ़ासले पर वो कामलीयत की तस्वीर जो यसूअ मसीह में है उस को मुतहय्यर (हैरानकुन) व फ़रेफ़्ता (आशिक़, दिलरादह) तो करती है मगर बराबर अपनी तरफ़ खींचती चली जाती है।
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मसीह का नमूना काम करने में
(मत्ती 5:24 मत्ती 8:16 व 18 मत्ती 9:35 मत्ती 11:1 व 4 व 5 मत्ती 13:15 मत्ती 13:2 मत्ती 14:13 व 14 व 35 व 36 मत्ती 15:30 मत्ती 19:1 व 2)
(मरकुस 2:2 मरकुस 3:20 मरकुस 6:31 व 54-56 मरकुस 13:34 मरकुस 14:8)
(लूक़ा 6:19 लूक़ा 10:2 लूक़ा 12:1 लूक़ा 13:32 व 33)
युहन्ना 2:4 युहन्ना 4:32-34 युहन्ना 7:6 व 8 युहन्ना 9:4 युहन्ना 12:23 युहन्ना 17:4 युहन्ना 19:30)
नवां बाब
मसीह का नमूना काम करने में
काम की निस्बत दो तरह के ख़्याल हैं, एक तो ये कि जहां तक मुम्किन हो थोड़ा करें और दूसरा ये कि जहां तक मुम्किन हो ज़्यादा करें। पहला ख़्याल मशरिक़ी और दूसरा मग़रिबी कहा जा सकता है। मशरिक़ी आदमी गर्म मुल्क में रहता है जहां हरकत व मेहनत बहुत जल्दी थका देती है। उस के लिए काहिली सबसे ज़्यादा मज़ेदार चीज़ है और इसलिए अगर मुम्किन हो तो वो अपना वक़्त बेकारी और ख्व़ाब व इस्तिराहत (सोना और आराम चाहना, राहत तलब करना) में गुज़ारना पसंद करता है। ख़ुद उस का लिबास ही यानी खुले खुले कपड़े और ढीली ढीली पापोश (जूता) उस के मज़ाक़ को बख़ूबी ज़ाहिर करता है, बरअक्स उस के मग़रिब का फ़र्ज़ंद चुलबुला (शोख़, चलाक) मख़्लूक़ है। वो कारोबार की दौड़ धूप और अंजाम देही की ख़ुशी को ज़्यादा पसंद करता है। उस के लिबास में भी कुछ वज़्अ-दार (वज़ा बनाने वाला, सजीला, बांका) काट तराश नहीं पाई जाती। मगर उस की नज़र में उस पोशाक में एक ख़ूबी है जो उस कमी का काफ़ी मुआवज़ा है। क्योंकि वो नक़्ल व हरकत और कारोबार के लिए बहुत मुनासिब है। उस की तफ़रेहात भी मेहनत तलब हैं। मशरिक़ी आदमी जब काम से फ़ारिग़ होता है तो गुदगुदे (नरम, मुलाइम) फ़र्श पर लेट जाता है। लेकिन अहले बर्तानिया अपने फ़ुर्सत के वक़्त को फूटबाल खेलने या सैर व शिकार में ख़र्च करते हैं।
अलबत्ता मग़रिब में भी मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास के मज़ाक़ में बहुत कुछ बाहमी इख़्तिलाफ़ है। सुस्त मिज़ाज लोग काम करने में ढीले और काहिली पसंद हैं और तुंद मिज़ाज लोग बाज़ औक़ात सई व मेहनत की गर्म-जोशी इस हद तक पहुंचा देते हैं कि जब तक एक तरह से अश्ग़ाल (शुग़्ल की जमा) के तूफ़ान में मुब्तला ना हों, उन्हें चैन नहीं आता। बाअज़ जमाअतों के असली हवस यही है कि अगर मुम्किन हो तो ऐसी हालत इख़्तियार करें जहां उन्हें कुछ करना ना पड़े। जिसको वो जैंटलमैन बनना समझते हैं। मगर समझदार लोग ये जानते हैं कि ऐसी हालत का लुत्फ़ जब वो हासिल भी हो जाएगी हुसूल कनुंदा की उम्मीद के मुवाफ़िक़ नहीं होता। सिवाए उस के कि जब वो रोटी कमाने की फ़िक्र से सबकदोश (फ़ारिग़, आज़ाद, बे-तअल्लुक़) हो जाये तो वो अपनी मर्ज़ी से जमाअत की या कलीसिया की उन बेशक़ीमत ख़िदमात में अपने आपको मसरूफ़ कर दे। जो अहले-फ़ुर्सत ही अच्छी तरह सरअंजाम दे सकते हैं और जिन पर ज़माने हाल में सोसाइटी की बहबूदी का ज़्यादातर दारो मदार है।
जब आदमी मह्ज़ अपने मज़ाक़ या मिज़ाज के मुवाफ़िक़ अपनी ज़िंदगी के काम का इंतिख्व़ाब करते हैं तो उन के दर्मियान इस क़िस्म के इख़्तिलाफ़ात पाए जाते हैं लेकिन और अमूर की तरह इस अम्र की निस्बत भी हमारे ख़ुदावंद ने अपनी ताअलीम और मिसाल से ख़ुदा की मर्ज़ी को हम पर ज़ाहिर किया है।
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इस सवाल से ख़ुद यही वाक़िया एक लामहदूद निस्बत रखता है कि यसूअ एक हिर्फ़तकार (पेशावर, हुनरमंद, कारीगर) की झोंपड़ी में पैदा हुआ और अपनी ज़िंदगी का बहुत बड़ा हिस्सा बढ़ई के काम में सर्फ किया। हम कभी ये नहीं मान सकते कि ये बात इत्तिफ़ाक़ से हुई क्योंकि ज़रूर है कि मसीह की ज़िंदगी के ज़रा ज़रा से वाक़ियात व हालात भी ख़ुदा की तरफ़ से मुक़र्रर किए गए हों। यहूदी उम्मीद रखते थे कि मसीह एक बादशाह होगा। लेकिन ख़ुदा ने ये ठहराया कि वो एक हिर्फ़तकार आदमी हो और इसलिए यसूअ को बढ़ई की हैसियत से नासरत के देहातियों की झोंपड़ियां उसारना। किसान का छकड़ा बनाना और शायद बच्चों के खिलौनों की भी मरम्मत करना पड़ी होगी।
इस बात से मेहनत को एक बेज़वाल (जिस पर ज़वाल ना आए) इज़्ज़त मिलती है। यूनानी और रूमी दस्ती मेहनत को हक़ीर जानते थे। वो समझते थे कि ये सिर्फ़ ग़ुलामों का काम है और ये क़दीमी ख़्याल बाआसानी लोगों के दिलों में घुस आता है लेकिन इब्न-ए-आदम की मिसाल हमेशा शरीफ़ाना मेहनत की इज़्ज़त को महफ़ूज़ रखेगी और सुन्नाअ (बहुत बड़ा कारीगर हुनरमंद पेशा-वर) का दिल अपने काम के वक़्त ख़ुशी से गायेगा जब वो ये याद करेगा कि यसूअ नासरी भी अपनी दुकान में बैठ कर बढ़ई के औज़ारों को इस्तिमाल करता था।
मेहनत में बहुत तरह की खूबियां हैं। इस से हम हैवानी दुनिया और क़ुदरती अश्या पर जो ज़मीन से ली जाती हैं, एक ज़िंदा-दिल व दिमाग़ के दस्तख़त को सब्त करते हैं जो उस हकीम-ए-मुतलक़ का नक़्श और तस्वीर है। ये बात बनी नौअ की ख़ुशी बढ़ाने में मदद देती है और उसे हर फ़र्द व बशर अपने तमाम हम-जिंस मख़्लूक़ों के हमराह अपनी मिल्कियत पर क़ाबिज़ होने के मुश्तर्क काम में शरीक होता है। इस से ख़ुद फ़ाइल पर भी असर पड़ता है। ये सब्र हमदर्दी और दियानत का रोज़ाना मदरसा (दरस देने की जगह, स्कूल) है। जो आदमी अपने काम से भागता है अपने आप को ज़लील करता है।
हमारे ज़माने के लोगों ने इन सच्चाइयों को बख़ूबी सीख लिया है क्योंकि उन को उस के बहुत से दाना और हर दिल अज़ीज़ मुअल्लीमों ने शरह व बस्त (वज़ाहत व तफ़्सील) के साथ उन के सामने बयान कर दिया है और इस सदी के लिट्रेचर में बनिस्बत उस ताअलीम के जो मेहनत की इंजील कहलाती है कोई ज़्यादा सेहत बख़्श जुज़्व नहीं। उसने बहुत से आदमीयों को सिखाया है कि अपने काम को पूरे तौर पर सरअंजाम दें ना फ़क़त इसलिए कि उस का दाम मिलता है बल्कि इसलिए कि आदमी को ख़ुद काम में काम ही की ख़ातिर ख़ुशी हासिल होती है और ख़ुद्दारी के ख़्याल ने इन्सान के दिल में इस क़द्र घर कर लिया है कि जिस बात को वो ख़ुद बनावट या पाखंड समझता है उस को काम के नाम से नहीं पुकारता।
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अगरचे आम से आम काम भी जो अच्छी तरह किया जाये, इज़्ज़त बख़्श है। तो भी हर क़िस्म का काम यकसाँ इज़्ज़त नहीं रखता। बाअज़ ऐसे पेशे हैं जिन्हें आदमी दूसरे पेशों की निस्बत अपने हम-जिंसों की बेहतरी में बहुत ज़्यादा और ज़रूरी उमूर् में मदद दे सकता है और इसलिए इज़्ज़त के पैमाने में उन को सबसे आला रुत्बा हासिल है।
इसी उसूल के मुताबिक़ यसूअ ने अमल किया। जब उस ने बढ़ई का काम छोड़कर मुनादी करने और शिफ़ा बख़्शने का काम इख़्तियार किया। इन दोनों से बढ़कर और कोई पेशा ज़्यादा मुअज़्ज़ज़ नहीं। एक तो सीधा रूह की ख़िदमत करता है और दूसरा जिस्म की। मगर उन को इख़्तियार करने से यसूअ ने वाइज़ और तबीब के काम पर एक ताज़ा इज़्ज़त की मुहर लगा दी और उस वक़्त से इन दोनों क़िस्म के बहुत से पेशावरों ने अपने फ़राइज़ को ज़्यादा गहरी गर्म-जोशी और हज़-ए-दिली के साथ सरअंजाम दिया है, मह्ज़ इसलिए कि वो जानते हैं कि इस काम में वो मसीह के नक़्श-ए-क़दम पर चल रहे हैं।
लेकिन अगरचे उस का काम तब्दील हो गया तो भी वो पहले की निस्बत कुछ कम हिर्फ़तकार (حرفت کار) नहीं था। दस्ती और दिमाग़ी पेशावरों के दर्मियान ये अम्र आम तौर पर जे़रे बह्स रहा है कि आया दस्ती मेहनत ज़्यादा सख़्त है या दिमाग़ी। सन्नाअ (صنّاع हुनर-मंद) ख़्याल करता है कि उस का ख़ुश-लिबास हमसाया जिसको मोटी सोटी अश्या को छूना या भारी बोझ उठाना नहीं पड़ता, मज़े से ज़िंदगी बसर करता है। हालाँकि दूसरा पेशावर जो फ़िक्र और ज़िम्मेदारी के बोझ से लदा हुआ है। सन्नाअ (صنّاع) के मुक़र्ररह औक़ात-ए-कारकुनी और उस के महदूद काम और फ़िक्रों से आज़ादी पर रशक (ये आरज़ू करना कि जो चीज़ दूसरे को हासिल है मुझे भी मिल जाये) खाता है। ये झगड़ा तो कभी ख़त्म होने वाला नहीं। मगर कम से कम यसूअ के मुक़द्दमे में ये बात साबित है कि फ़िल-हक़ीक़त जब उस ने अपने नए काम को हाथ में लिया तो उसकी ज़िंदगी का मुश्किल काम शुरू हुआ। उस के तीन साल का काम जो उस ने वअ़ज़ करने और शिफ़ा बख़्शने में ख़र्च किए ऐसा मेहनत-तलब था, कि उसकी मिसाल नहीं मिलती। जहां कहीं वो जाता लोगों की जमाअतें उस के पीछे लगी रहतीं। जब वो किसी नए इलाक़े में जाता तो लोग तमाम इलाक़े में ख़बर भेज कर सब रूह या जिस्म के बीमारों को उसके पास लाते थे। बाज़ औक़ात लोग ऐसी कस्रत से जमा हो जाते थे कि एक दूसरे पर गिरे पड़ते थे। और बाज़ औक़ात उसे खाना खाने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलती थी। वो बराबर इसी तरह काम की कस्रत और इज्तिमाअ (हुजूम, लोगों का कस्रत से जमा होना) से घिरा रहता था। हम में से बहुत से ऐसे हैं जिनको उस ज़माने में इसी तरह ज़िंदगी बसर करना पड़ती है। लेकिन हम यसूअ पर नज़र कर के देख सकते हैं उसने किस रूह में इस बोझ को उठाया।
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मसीह की ताअलीम में इस अम्र से मुताल्लिक़ बहुत से अक़्वाल हैं कि हम दुनिया के हर क़िस्म के काम में अपना वक़्त और ताक़त सर्फ़ करने के लिए भी जवाबदेह हैं। हम सब ख़ादिम हैं और हम में से हर एक को इलाही कारदार (काम देने वाला, काम सौंपने वाला, काम पर लगाने वाले) ने अपना कोई ना कोई काम सुपुर्द कर रखा है और जब वो वापिस आएगा तो सख़्ती से हिसाब लेगा कि आया वो काम हुआ है या नहीं।
इस अम्र में निहायत पुर मअनी और संजीदा तोड़ों की हैबतनाक तम्सील है। आक़ा एक दूर मुल्क के सफ़र पर जाते हुए अपने नौकरों में से हर एक के पास कुछ रुपया छोड़ जाता है। एक के पास ज़्यादा दूसरे के पास कम ताकि उस की गैरहाज़िरी में हर एक उस रुपये को अच्छी तरह से काम में लाए। जब वो वापिस आता है तो ना सिर्फ उन से अस्ल रक़म तलब करता है बल्कि ज़ाइद नफ़ा भी जो उस से हासिल हुआ हो। जिन्होंने मेहनत के साथ अपने रूपये का इस्तिमाल किया अपने ख़ुदावंद की ख़ुशी में दाख़िल होते हैं। लेकिन वो ख़ादिम जिसने अपने तोड़े को काम में नहीं लगाया। बाहर की तारीकी में डाला जाता है। इस तम्सील से सच-मुच एक हैबतनाक सबक़ मिलता है। साफ़ साफ़ इस के ये मअनी मालूम होते हैं कि आख़िरी रोज़े इन्साफ़ को ख़ुदा हमसे उन लियाक़तों और मौक़ों के मुताबिक़ जो उस ने हमको अता किए। हमसे काम का हिसाब तलब करेगा और अगर हमने उन से कुछ काम नहीं लिया जैसा कि एक तोड़े वाले आदमी का हाल था तो सिर्फ यही बात हम पर फ़त्वा लगाने के लिए काफ़ी होगी। ये ज़रूरी नहीं कि हमने बुरी बातों में वक़्त को ज़ाए किया और ताक़त और रूपये और दूसरी क़ाबिलियतों को ज़ाइल किया है। बल्कि फ़क़त उन को ज़िंदगी के काम में सर्फ करने से क़ासिर रहना ही हमको शरीअत की सबसे संगीन सज़ा का सज़ावार ठहराएगा।
ज़िंदगी की निस्बत ऐसा ख़्याल रखना एक निहायत सख़्त ख़्याल तो है लेकिन यही ख़्याल था जिसके मुताबिक़ यसूअ ने अपनी ज़िंदगी काटी। वो जिन बातों की मुनादी करता था उन पर ख़ुद भी अमल करता था। बिलाशुब्हा उस को ये आगाही थी कि वो इस बे-इंतिहा कारख़ाने कूदरत का मालिक है और दूसरों पर ऐसा असर डाल सकता है। जिससे अफ़राद इन्सानी पर और तारीख़ में बेशुमार तब्दीलीयां वाक़ेअ हों। लेकिन इस असर को फैलाने और उस को दुनिया पर नक़्श करने के लिए जो वक़्त उस को मिला बहुत क़लील था। वो इस बात को जानता था और हमेशा ऐसे शख़्स की मानिंद काम करता था जिसके पास करने को बहुत काम हो। मगर करने के लिए वक़्त थोड़ा हो। मालूम होता है कि उसकी ज़िंदगी की हर एक घड़ी के साथ उस के काम का ख़ास ख़ास हिस्सा मख़्सूस था। क्योंकि जब कभी उस को किसी ऐसा काम करने के लिए कहा जाता जो उस के नज़्दीक क़ब्ल अज़ वक़्त होता तो वो कह देता कि मेरा वक़्त हनूज़ नहीं आया। उसके नज़्दीक हर एक काम अपनी ख़ास ख़ास घड़ी रखता था। इस सबब से वो हर वक़्त ख़तरे के मुक़ाबले पर दिलेर था। क्योंकि वो जानता था कि जब तक उस का काम ना हो चुके, वो मरने का नहीं। जैसा कि उसने ख़ुद कहा कि इन्सानी ज़िंदगी के दिन में बारह घंटे हैं और जब तक ये ना गुज़र जाएं। इन्सान ख़ुदा-ए-कारसाज़ (काम बनाने वाला, काम संवारने वाला) की ढाल के नीचे हर एक ख़तरे से महफ़ूज़ है। जूँ-जूँ वक़्त गुज़रता गया, उस की रूह पर सरगर्मी की धार ज़्यादा तेज़ होती गई और उसकी ज़िंदगी का मक़्सद उस के अंदर ज़्यादा से ज़्यादा फुरोज़ां होता गया। और वो कैसा तंग था जब तक कि वो पूरा ना हुआ। यरूशलेम को आख़िरी सफ़र करते वक़्त जब वो राह में आगे आगे जाता था तब उस के शागिर्दों की निस्बत लिखा है कि “वो हैरान हुए और पीछे चलते चलते बहुत डर गए।” वो कहा करता था कि “ज़रूर है कि जिसने मुझे भेजा उस के कामों को जब तक कि दिन है करूँ। रात आती है और कोई उस वक़्त काम नहीं कर सकता।”
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जब आदमी ख़ूब काम कर चुकता है तो उससे एक गहरी बातिनी ख़ुशी हासिल होती है। निहायत अदना सन्नाअ (صنّاع) भी इस ख़ुशी को महसूस करता है। जब वो ये देखता है कि चीज़ जिसको वो बना रहा था उस के हाथ से कामिल तौर पर बन गई है। शायर यक़ीनन इस को महसूस करता है जब वो इस काम के आख़िर में जिस पर उस ने अपने ज़हन व ज़का (सोच) की सारी क़ुव्वतों को ख़र्च कर दिया तम्मत (تمّت) लिखता है।
“विलियम विल्बर फ़ोर्स को किस क़द्र ख़ुशी हासिल हुई होगी जब उस ने अपने बिस्तर-ए-मर्ग पर ये सुना होगा कि इस मुआमले को जिसके लिए उस ने ज़िंदगी-भर मेहनत व जाँ-फ़िशानी की, फ़त्ह हासिल हो गई और ये जान कर कि उस के मरते वक़्त बर्तानिया के मक़बूज़ात (जहां क़ब्ज़ा किया गया) के किसी हिस्से में एक भी ग़ुलाम बाक़ी नहीं रहेगा। उस की रूह में किस क़द्र तसल्ली और इत्मीनान पैदा हुआ होगा।”
यसूअ ने भी ख़ुशी के इस चश्मे से ख़ूब दिल खोल खोल कर पिया। जो काम वो कर रहा था अपनी तक्मील के हर एक दर्जे में कामिल तौर पर किया गया और ये काम निहायत फ़ाइदे-बख्श और देरपा था, जब उस ने उस के तमाम अजज़ा को यके बाद दीगरे (एक के बाद एक) पूरा हो कर अपने हाथ से निकलते देखा। जब उस ने साअतों को ख़ुदा के मुक़र्रर किए हुए काम से लदे हुए ज़माना-ए-माज़ी में गुज़रते देखा तो ज़रूर अपने दिल में कहता होगा कि “मेरा खाना ये है कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी बजा लाऊँ और उस का काम पूरा करूँ।” और अपनी मौत के वक़्त जब उस ने उस बड़े नक़्शे का आख़िरी पेच खुलते देखा तो उस वक़्त भी इस दुनिया से कूच करने के वक़्त ये सदा उस के लबों पर थी कि “पूरा हुआ।” उस ने मरते दम ये ऐसी आवाज़ निकाली जैसे कि एक सिपाही मैदान-ए-जंग में अपनी सांस के आख़िरी लम्हे में ये देख कि उस लड़ाई में जिस पर उस ने अपनी ज़िंदगी क़ुर्बान कर दी, शानदार फ़त्ह हासिल हुई, निकालता है। लेकिन मसीह के काम की फ़त्हयाबी और इनाम का कभी ख़ातिमा नहीं होता। क्योंकि अब भी उस के कारनामों के नताइज ज़मानन बाद ज़माने ज़ाहिर होते जाते हैं। जों-जों उस का कलाम लोगों के दिलों में जगह पकड़ता जाता (घर करता जाता है)। जों-जों उस की तासीर दुनिया की सूरत को बदलती जाती और जों-जों आस्मान उन लोगों से जिनको उस ने ख़लासी बख़्शी भरता जाता है। तों तों वो अपनी जान ही का दुख उठा के उसे देखेगा और सैर होगा।
5
आराम ज़िंदगी का ऐसा ही ज़रूरी हिस्सा है जैसा काम बल्कि ख़ुद-काम की ख़ातिर भी इस की ज़रूरत है। क्योंकि इस से काम करने वाला बहाल हो जाता है और अपनी तमाम क़ुव्वत में तरोताज़गी हासिल करके अपने काम को बवजह-ए-अह्सन अंजाम करने के क़ाबिल बन जाता है। यसूअ आराम करना भी जानता था और काम करना भी। अगरचे उस की ज़िंदगी में हमेशा जल्दी पड़ी रहती थी। मगर जल्द-बाज़ी ना थी। गो काम का बहुत दबाओ था, लेकिन घबराहट ना थी। उस के मिज़ाज में ये बे तब्दील क़ायम मिज़ाजी इत्मीनान और ख़ूदारी निहायत रोशन व अयाँ है।
उस ने कभी कोई ऐसा काम नहीं किया जिसके लिए पहले से वो तैयार ना था। जैसे उस ने कभी कोई काम मुनासिब वक़्त से पहले नहीं किया वैसे ही कभी मुनासिब वक़्त के बाद भी नहीं किया। ज़िंदगी की आधी दिक्कत और घबराहट बेवक़्त काम करने से पैदा होती है। ज़हन या तवक्कुल की मुश्किलात आज फ़िक्र करने से कमज़ोर हो जाता या आज के काम के इलावा गुज़रे कल का काम भी इकट्ठा करने से मांदा हो जाता है। ख़ुदा कभी नहीं चाहता कि हम एक दिन में जितना वक़्त मिले उस से ज़्यादा काम करें और मालूम हो जाएगा कि हर एक दिन में उस दिन का काम करने के लिए काफ़ी मौक़ा है। बशर्ते कि गुज़श्ता दिन के काम और आइन्दा दिन के फ़िक्र का बोझ उस पर लदा हुआ ना हो।
यसूअ हर एक फ़र्ज़ के वास्ते तैयार रहता था क्योंकि वो उस से पहले फ़र्ज़ को पूरा कर चुकने से ताक़त हासिल कर के दूसरे फ़र्ज़ तक पहुंचता था। उस का बढ़ई का काम मुनादी के काम के लिए तैयारी थी। उस से उस को इन्सानी फ़ित्रत और इन्सानी तबीयत से वाक़फ़ीयत हासिल हुई। ख़ुसूसुन ग़ुरबा की ख़ुशी, ग़मी और रंज व राहत से जिनको बाअ्द अज़ां मुनादी करना वो अपना फ़ख़्र समझता था, शनासाई हो गई। बहुत से वाइज़ अगरचे किताबी इल्म ख़ूब रखते हैं तो भी अपने काम में क़ासिर रहते हैं। इसलिए कि वो लोगों के हालात से वाक़िफ़ नहीं होते। मगर “यसूअ मुहताज ना था कि कोई इन्सान के हक़ में गवाही दे क्योंकि वो आप जो कुछ कि इन्सान में था जानता था।” उस ने जब तक वो तीस बरस का ना हुआ, तजुर्बे का ये मदरसा ना छोड़ा। अगरचे वो यक़ीनन इस काम के करने का जो उस के सामने था बहुत मुश्ताक़ था। तो भी वो क़ब्ल अज़ वक़्त उस में कूद नहीं पड़ा, बल्कि गुमनानी की हालत में उस का मुंतज़िर रहा जब तक कि ज़हन और जिस्म ने पूरी नशो व नुमा हासिल ना कर ली और हर एक बात पुख़्ता ना हो ली और तब वो अपनी ताक़त की बुजु़र्गी और क़ुव्वत में बाहर निकल आया और अपने काम को फुर्ती के साथ यक़ीनी और कामिल तौर पर सरअंजाम दिया।
लेकिन काम के अस्ना में भी वो ऐसे वसाइल इस्तिमाल करता था जिससे उस की ख़ुद-सरी (ख़ुद-राई, सरकशी, ना-फ़रमानी, ज़िद, हट) और इत्मीनान-ए-क़ल्ब (दिल का सुकून, दिल का इत्मीनान) महफ़ूज़ रहे। जब लोगों की भीड़ बहुत बढ़ जाती और बहुत ज़्यादा देर तक ठहरती तो वो वीराने में चला जाता था। जब वो ये मालूम करता कि उस को अपने इस्तिक़लाल (मुस्तक़िल मिज़ाजी) और ख़ुद्दारी (रख-रखाव, ग़ैरत, इज़्ज़त-ए-नफ़्स) को बरक़रार रखने की हाजत है, तो उस वक़्त ना तो मुनादी की ख़्वाहिश ना बीमारों और निम्-जानों (अध मुओं, नीम मुर्दा, क़रीबे-मर्ग, कमज़ोर, लाग़र) की इल्तिजाएँ उस को रोक सकती थीं। कस्रतेकार के अय्याम के बाद लोगों के सामने से वो ग़ायब हो जाता ताकि अपने जिस्म को नेचर के किनार में और अपनी रूह को ख़ुदा की आग़ोश में डाल कर तरो ताज़गी हासिल करे। जब वो अपने शागिर्दों को मांदा व परेशान देखता तो कहता, “आओ अलग वीराने में चलो और ज़रा सुस्ताव।” क्योंकि मुक़द्दस से मुक़द्दस काम में भी अपने आप को खो बैठना मुम्किन है। हो सकता है कि आदमी लोगों की दरख्वास्तों और हाजतों को पूरा करने में ऐसा ग़र्क़ (बर्बाद) हो जाये कि उसे ख़ुदा के साथ मेल व रिफ़ाक़त करने की भी फ़ुर्सत न रहे है। गर्म जोश ख़ादिम उद्दीन हर एक शख़्स को ख़ुश करने की ख्वाहिश और गर्म जोशी से अफ़रोख़्ता होकर अपने मुतालआ से ग़फ़लत (भूल, चूक) करता और अपने ज़हन को भूका मर ने देता है। इस का नतीजा लाज़िमी तौर पर ये होता है कि उसका कलाम, बासी, रूखा फीका और ना फ़ायदा बख़्श हो जाता है। वही लोग जिनकी इल्तिजाओं के जवाब उस ने अपने असली काम में हर्ज वाक़ेअ किया था सबसे पहले मुंह फेरकर उस के गल्ला व शिकायत पर कमर बाँधते हैं।
दुनिया के मेहनती लोगों की बड़ी तादाद के वास्ते आराम का सबसे बड़ा मौका रोज़ सब्त है। यसूअ ने भी इस दस्तूर को महफ़ूज़ रखा और ये क़रार दिया कि सब्त इन्सान के लिए बनाया गया है। और इसलिए किसी को ये हक़ नहीं कि उस को उस से छीन ले। उस के ज़माने में फ़रीसी लोग उसको छीन लेने की कोशिश करते थे क्योंकि उन्होंने उस को पाक ख़ुशी के दिन से तब्दील कर के उस में ऐसे कांटे लगा दिए जो ज़मीर को ज़ख़्मी कर देते थे। ये ख़तरा अब भी गुज़र नहीं गया। लेकिन हमारे ज़माने में ये हमला दूसरी तरफ़ से होता है। यानी उतना फरीसियों से नहीं जितना सदूक़ीयूँ से ज़माना-ए-हाल में सब्त के ख़िलाफ़ जो तहरीकें होती हैं। क़रीबन सबकी सब ऐसी हैं जिनके बानी का हल दौलत मंद लोग हैं जो तिब्बी तौर पर छः दिन ऐश व इशरत में सर्फ करने के बाद ख़ामोशी और आराम के एक ऐसे दिन की कुछ ख्वाहिश नहीं रखते। जबकि उन्हें अपने अंदर नज़र करनी और अपने आप से रूबरू होना पड़े। अगर वो चौथे हुलुम के पहले हिस्से को मानते कि “छः” दिन तो अपना कारोबार करना तो वो दूसरे हिस्से को भी अच्छी तरह से समझ सकते। अलबत्ता वो अमुअन ये ज़ाहिर करते हैं कि वो गुरबा के फ़ायदे के लिए करते हैं मगर वो गुरबा का नाम बे फ़ायदा लेते हैं। क्योंकि गुरबा उन की निस्बत इस मुआमले को बेहतर समझते हैं। वो जानते हैं कि जहां कहीं सब्त की हुरमत इज़्ज़त को तोड़ा जाता है वहां ग़रीब आदमियों को छः की जगह सात दिन मेहनत करनी पड़ती है जहां कहीं यूरोप और मुल्कों की तरह इतवार मनाने का रिवाज है वहां कलोल (बाहम हँसना बोलना) का शोर व ग़ौग़ा सेंचर की तरह सब्त को भी बराबर सुजाता है। इस मुल्क के यानी इंग्लिस्तान के मेहनत-वर लोग अगर कभी ख़ुदावंद के रोज़ की पाकीज़गी के दूर करने की तहरीक को तस्लीम कर लेंगे तो उन को इस बात की सच्चाई मालूम हो जायेगी कि वो जो ख़ुदा की इज़्ज़त करते उन की इज़्ज़त होगी। लेकिन वो जो उस को हक़ीर जानते उन की कम क़दरी होती है। जो हमारे हिंदूस्तान में जो खराबियाँ आराम के रोज़ की हुरमत ना करने के सबब पैदा हो रही हैं वो बयान की मुहताज नहीं। मगर ये मसअला कि सब्त को किस तरह मनाया जाये एक ऐसा मसअला है कि जों जों तरीक़ मुआशरत की बैरूनी हालतों में तब्दीली वाक़ेअ होती है हमेशा ताज़ा ग़ौर व फ़िक्र का मुहताज है। आराम का रोज़ उसी वक्त सही तौर से सर्फ होगा जबकि उस में आदमी के लिए ख़ुशी और ख़ुदावंद के लिए तक़्दीस हो, लेकिन यक़ीनन उन तमाम फलों को हासिल करने के लिए जिनके वास्ते ये मुक़र्रर होवा था सबसे उम्दा तरीक़ ये है कि उस को उसी ख़ुदावंद की रूह और रिफाक़त में सर्फ करें। जिसके नाम पर वो ख़ुदावंद का दिन कहलाता है।
10
मसीह का नमूना दुख उठाने में
(मत्ती 2:13-18 मत्ती 4:1 मत्ती 8:16 व 17 व 20 मत्ती 9:3 मत्ती 11:19 मत्ती 12:24 मत्ती 13:54-58 मत्ती 16:21 मत्ती 17:22 व 23 मत्ती 20:17-19
मत्ती 26 बाब मत्ती 28 बाब)
(मरक़ुस 3:21 व 22 मरक़ुस 8:17-21 मरक़ुस 9:19 मरक़ुस 14:50)
(लूक़ा 4:28 व 29 लूक़ा 6:7 लूक़ा 11:53 54 लूक़ा 16:14)
(युहन्ना 6:66 युहन्ना 7:7 व 12 व 19 व 20-32 व 52 युहन्ना 9:16 व 22 व 29 युहन्ना 10:20 युहन्ना 12:10 व 11 व 27 युहन्ना 15:18 युहन्ना 17:14 युहन्ना 18:22)
दसवाँ बाब
मसीह का नमूना दुख उठाने में
1
काम ज़िंदगी का सिर्फ आधा हिस्सा है। उस का दूसरा हिस्सा दुख है। कुरह हयाते इंसानी का एक निस्फ़ तो काम की धूप से मुनव्वर होता है। लेकिन दूसरे पर शब-ए-मुसीबत की तारीकी छा जाती है। अलबत्ता ये तो नहीं कि इन्सानी ज़िंदगी में भी ये हालतें एक के बाद एक तवात्तुर के साथ आती हैं। जैसे कि ज़मीन घूमती हुई तारीकी से रोशनी में और फिर रोशनी से तारीकी में चली जाती है। जिस निस्बत से ये दोनों अनासिर मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास के नसीब में आए हैं। इस से बढ़ कर कोई और चीज़ राज़ सर बस्ता नहीं। बाअज़ तो क़रीबन सारी उम्र कामयाबी और ऐश व राहत में ख़र्च करते हैं और बीमारी, मुफारिक़त (जुदाई) और नाकामी के नाम से भी वाक़िफ़ नहीं और बाअज़ ऐसे हैं जिनको गोया दुख व मुसीबत ने अपना ही बना रखा है। ज़िंदगी भर वो “आश्ना-ए-रंज” (दुख में मुब्तला) रहते हैं। मातमी लिबास बमुश्किल उन के जिस्म से अलेहदह (अलग) होता है। क्योंकि मौत वक़्त ब वक़्त आकर उनका दरवाज़ा खटखटाती और उन के अज़ीज़ो को ले जाती है। उनकी अपनी सेहत भी नाज़ुक हालत में है। ख़्वाह कैसी ही आला और बुलंद मुहिम्मात (मुहिम की जमा, बड़े बड़े काम) के खयालात उन के दिलों में पैदा क्यों ना हों। जों ही दिल का जोश ठंडा होता है वो जान लेते हैं कि इन उलूल्गर्मियो (ज़रूर) को पूरा करने के लिए उन के जिस्म में ताक़त नहीं।
अगर तुम ख़ूचे नसीब हो और कभी एक दिन भी तुम्हें बीमार होने का इत्तिफ़ाक़ नहीं हुआ और अपने काम में ख़ुश हो। क्योंकि तुम देखते हो कि वो दिन ब दिन बढ़ता और सरसब्ज़ होता जाता है। तो जाओ और एक मोहलिक मर्ज़ के मरीज़ के सिरहाने खड़े हो। वहां तुम मालूम करोगे कि एक दिमाग़ जो तुमसे ज़्यादा काबलीयतें रखता और एक दिल जो तुम्हारी तरह मुहब्बत करने और ज़िंदगी का लुत्फ़ उठा ने के लायक़ है पड़ा है। लेकिन एक पौशीदा ज़ंजीर ने उस के अअ़ज़ा को बांध रखा है और अगरचे ये तल्ख़ ज़िंदगी दस या बीस साल तक क़ायम भी रही। तो भी ये सूरत अपनी ताक़त से अपने बिस्तर पर से कभी नहीं उठेगी। अब बताओ तुम्हारा फ़ल्सफ़ा इस क़िस्म के नज़ारे से क्या नतीजा निकालता है? लेकिन दुख मुसीबत उस सबकी जो हजार सूरतों में हर रोज़ वाकेअ हो रहे हैं। सिर्फ एक क़िस्म की मिसाल है फ़र्ज़िंदाँ-ए-ग़म बे शुमार रहें और कोई नहीं जानता कि किस वक़्त उस के काम की ज़िंदगी मुसीबत को बदल जायेगी? और किस वक़्त इस नीले-गुम्बद (आस्मान) से बिजली गिरकर सब कुछ तब्दील कर देगी? हो सकता है कि एक बादल जो आदमी के हाथ से बड़ा ना हो रफ़्ता-रफ़्ता ऐसा बड़ा हो जाये कि आस्मान को एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ तक घटा-टोप तारीकी का लिबास पहना दे और अगर कोई ऐसा खोफ़नाक वबाल ना भी पड़े तो भी ज़माना एक के लिए जुदा जुदा मुसीबतों का हिस्सा अपने साथ लाता है।
गल्ला बां ख़्वाह कितनी ही गल्ले की रखवाली करे
कब है मुम्किन कोई बर्रा इसमें मुर्दा ना मिले
सारी दुनिया में कोई महफ़ूज़ घर ऐसा नहीं
जिसके कुंबे में किसी प्यारे की ख़ाली जा नहीं
इसलिए दुख मुसीबत ज़िंदगी में कोई ऐसी वैसी बात नहीं जिससे क़त-ए-नज़र कर सकें। अगर हमको ऐसे शख़्स की हाजत है जो हमें ये दिखाए कि काम किस तरह करना चाहीए। तो हम ऐसे शख़्स के भी कुछ कम मुहताज नहीं जो हमें सिखाए कि दुख किस तरह उठाना चाहिए। और यहां भी इब्न-ए-आदम हमारी मदद को पहुंचता है। अगरचे वो बड़ा काम लेने वाला है और हर एक नौजवान और चुस्त व चालाक आदमी को जुर्आत करने और ज़ोर मारने के लिए बुलाता है। मगर साथ ही वो मुसीबतज़दा का दोस्त भी है। उस के गर्दा गर्द कमज़ोर मुसीबतज़दा और सितम रसीदा लोग जमा हैं। जब उस ने सलीब पर से पुकारा कि “पूरा हुआ” तो उन अल्फ़ाज़ में ना सिर्फ उसकी ज़िंदगी के काम की तरफ़ इशारा था जो कामयाबी के साथ सर अंजाम को पहुंचा। बल्कि मुसीबत के प्याले की तरफ़ भी जिसके आख़िर क़तरे तक को वो नोश कर गया।
3
(1) यसूअ ने वो सब तक्लीफ़ें उठाईं जो इन्सान पर उमूमन पड़ा करती हैं। वो अस्तबल में पैदा हुआ और चरनी में रखा गया और इस तरह गोया अपनी ज़िंदगी के शुरू होते ही मुसीबत की तारीक रात में दाख़िल हुआ। हम उस मुआशरती हालत से जिसमें उस ने परवरिश पाई कम वाक़िफ़ हैं। हम नहीं कह सकते कि मर्यम के घर में उस को बहुत कुछ मुहताजी और बद-बख़्ती से वास्ता पड़ा या नहीं। मगर उस के बाद की हालत में हम ख़ूद उस के मुंह से ये अल्फ़ाज़ सुनते हैं कि “लोमड़ियों के लिए मान्दे (गुफा) हैं और परिन्दों के लिए बसेरे। मगर इब्न-ए-आदम के लिए इतनी जगह नहीं जहां अपना सर धरे।” बनी आदम में कम ऐसा इत्तिफ़ाक़ होता है कि कोई शख़्स ऐसी बुरी और अदना हालत को पहुंच जाये कि हैवानों की मांदों और जानवरों के घोसलों पर रश्क करने लगे। ये एक कुल्लिया क़ाइदा है कि इन्सानी ज़िंदगी का आख़िर वक़्त, जब वो मकान जिसमें रूह को जगह मिले टूट जाता है। ज़रूर कम व बेश दुख व मुसीबत से घिरा होता है। मगर जिस्मानी तक्लीफ़ जो यसूअ ने आख़िरी दम उठाई निहायत ही सख़्त क़िस्म की थी। याद करो कि किस तरह गतसमनी के बाग़ में उस के ख़ून का पसीना बह निकला। किस तरह बेरहम सिपाहियों ने उस को सतून से बाँध कर ज़ोर ज़ोर से कोड़े मारे। उस के सर पर कांटों का ताज रखा गया और उस ने सलीब की ना काबिल बयान उकुबत और दर्द बर्दाश्त की। हम दावे से ये ना कह सकें कि कभी किसी शख़्स ने इस क़द्र जिस्मानी दुख नहीं उठाया जैसा उसने। तो भी ऐसा ख़्याल कम से कम ज़न-ए-ग़ालिब (गुमान ग़ालिब) का रुत्बा तो रखता है। क्योंकि उस के जिस्म की सही व तंदुरुस्त हालत के सबब अग़लबन उस ने औरों की निस्बत दर्द को ज़्यादा महसूस क्या होगा।
(2) आने वाली मुसीबत का ख़्याल कर के भी उस को निहायत तक्लीफ़ हुई। जब कोई बड़ा गम या दर्द अचानक आ पड़ता है। तो बाअज़ औक़ात उस से एक क़िस्म की हैरत पैदा हो जाती है। जो मुस्किने दवाई का काम देती है और पेशतर उस के कि आदमी उस को पूरे तौर पर महसूस करे वो दर्द गुज़र जाती है। लेकिन ये इल्म कि आदमी एक ऐसे मर्ज़ में मुब्तला है जो शायद छह माह तक पेशतर के कि काम तमाम हो निहायत सख़्त जां कुन (جا ں کن ) तक्लीफ़ देगा। दिल में ऐसा ख़ौफ़ व दहशत पैदा कर देता है जो अस्ल तक्लीफ़ से भी जो वाकीअ होती है बुरा होता है। यसूअ अपनी तक़्लीफों को पहले ही से जानता था और उस ने अपने शगिर्दों को इस अम्र की ख़बर दे दी थी। ये बातें माह बमाह ज़्यादा सरीह और साफ़ होती गईं। गोया कि वो उस की कुव्व्तें-ए-वाहिमा (वो ताक़त जिससे इन्सान सोंचता है) पर दिन बदन ज़्यादा काबू पाती जाती थीं। ये दहशत गतसमनी में अपनी आला हालत को पहुंची। क्योंकि आने वाली तक़्लीफों के ख़ौफ़ ने उस के दिल में ऐसी हैरत और परेशानी पैदा कर दी कि पसीना बड़े ख़ून के क़तरों की मानिंद उस के चेहरे से गिरने लगा।
(3) उस ने इस ख़्याल से भी दुख उठाया कि वो औरों के दुख का बाइस है। ना ख़ुद ग़र्ज़ तबीयत वाले आदमियों को सबसे बड़ी चोट उनकी अपनी कमज़ोरी या बद-बख़्ती से लगती है। बाअज़ औक़ात ये देखकर लगती है कि वो जिनको वो ख़ुश व ख़ुर्रम हालत में देखना चाहते हैं उन के साथ ताल्लुक़ रखने के सबब बदबख़्ती व मुसीबत में पड़ गए। यसूअ को बचपन में बेतलहम के बच्चों की कहानी सुन कर जिनको हेरोदेस ने उस की जुस्तजू में क़त्ल कर दिया किस क़दर् सदमह हुआ होगा। या अगर उस की माँ ने ये बात उसे ना भी बताई हो तो भी कम से कम उस को ये तो मालूम होगा, कि किस तरह उस को बचाने के लिए उस की माँ को यूसुफ़ के साथ हेरोदेस के डर से मिस्र को भागना पड़ा। जों-जों उस की ज़िंदगी ख़ातमे के क़रीब पहुंची ये ख़्याल कि उस के साथ ताल्लुक़ रखने के सबब उस के शागिर्दों की जान पर बन आएगी ज़्यादा ज़्यादा उस के ज़ेर-ए-नज़र रहता था। जब वो गिरफ़्तार हुआ तो उस ने बारह को किसी मुसीबत से बचाने के लिए, पकड़ने वालो से इल्तिजा की कि “उनको जाने दो” लेकिन ये भी उस ने साफ़ तौर पर देख लिया था कि दुनिया जिसने उससे दुश्मनी की उन से भी दुश्मनी करेगी। जैसा उस ने ख़ुद कहा “वो घड़ी आती है कि जो कोई तुमको क़त्ल करे गुमान करेगा कि मैं ख़ुदा की बंदगी बजा लाता हूँ।” उस ने तल्वार को अपनी माँ के दिल से भी पार होते देखा। जब कि मर्यम ने उस को ऐसी बेइज्ज़ती की मौत मरते देखा। जो उस ज़माने में आजकल की फ़ान्सी की मौत से भी ज़्यादा बुरी समझी जाती थी।
(4) उसकी मुसीबत के प्याले में शर्म का जुज़्व और सब अजज़ा से ज़्यादा मिला हुआ था। एक असर पज़ीर दिल के लिए उस से ज़्यादा कोई चीज़ ना काबिल बर्दास्त नहीं। उस का बर्दाश्त करना जिस्मानी तक्लीफ़ से कहीं मुश्किल-तर है। लेकिन इस मुसीबत ने यसुअ पर क़रीबन हर एक सूरत में हमला किया और उस की ज़िंदगी-भर उस के पीछे लगी रही। उस की ग़ुर्बत व इफ़्लास के लिए उस पर ताने मारे जाते थे। शरीफ़-उल-नस्ल काहिन और ताअलीम याफ़्तह रब्बी नाजार्जादे (बढ़ई का बेटा) होने पर नाक भौं चढ़ाते थे कि उस ने कभी ताअलीम नहीं पाई और दौलतमंद फ़रीसी उस की हंसी उड़ाते थे। उस को बार बार दीवाना कह कर पुकारा गया। ज़ाहिरन ऐसा मालूम होता है कि पिलातूस ने भी उसको ऐसा ही समझा और जब वो हेरोदेस के सामने हाज़िर हुआ तो उस ख़ुशतबा बादशाह और उस की फ़ौज के लोगों ने भी “उस को नाचीज़ जाना।” रूमी सिपाही उस की तहक़ीक़ात और सलीब के अस्ना में बराबर उस के साथ वहशयाना छेड़छाड़ करते रहे और उस के साथ इसी तरह सुलूक किया जैसे लड़के ख़बती (सौदाई) आदमी को सतातें हैं। उन्होंने उस के मुंह पर थूका। उस की आँखों पर पट्टी बाँधकर और फिर उस के मुंह पर थप्पड़ मार के कहते कि “नबुव्वत से बता किस ने तुझे मारा।” उन्होंने उसे नक़्ली बादशाह बनाया। किसी सिपाही का पुराना कोट लिबास शाहाना की जगह उस को पहना दिया। असाए शाही की जगह नरकट और ताज की जगह कांटे उस के सर पर रखे। उस के ईलाही दिल को ये सब बेइज्ज़ती उठानी पड़ी। उस ने ये भी सुना कि उसके हमवतनो ने बरअब्बा को उस पर तर्जीह दी है और वो चोरों के दर्मियान सलीब पर खींचा गया। गोया कि वो बदकार से बदकार था। उस के आख़िरी वक़्त में भी तअन व तशनीअ (मलामत) की बूछाड़ उस पर पड़ती रही। आते जाते उस पर मुंह चिड़ाते और उस के हक़ में बुरी बुरी बातें कहते थे। बल्कि चोरों ने भी जो उस के साथ मस्लूब हुए उस की तहक़ीर की। इस तरह से उस शख़्स ने जो अपने बातिन की लामहदूद ताक़त से आग़ाह था, कमज़ोर से कमज़ोर की तरह बर्ताव किए जाने के लिए अपने को हवाले किया और उस ने जो तआला जल्लेशहना की हिक्मत था। अपने को सौंपा कि उस के साथ एक निहायत जे़ल (ذیل) आदमी से भी बदतर सुलूक किया जाये।
(5) लेकिन यसूअ के वास्ते ये अम्र और भी ज़्यादा दर्दनाक था कि “ख़ुदा का क़ुद्दुस” हो कर सबसे बड़े गुनाहगार की तरह उस के साथ सुलूक हो। उस शख़्स के लिए जो ख़ुदा और नेकी को प्यार करता है इस से बढ़ कर कोई नफ़रतअंगेज़ बात नहीं कि लोग उस को रियाकार ख़्याल करें। उस पर ऐसे जुर्म का इल्ज़ाम लगाऐं जो उस के आम इक़रार के बिल्कुल बरअक्स हों। लेकिन यही बात थी जिसका यसूअ पर इल्ज़ाम लगाया गया। लोग उस की बाबत ख़्याल करते थे कि वो बुरी रूहों से मेल रखता और देवों के सरदार बअल्ज़बोल की मदद से देवों (बदरूहों) को निकालता है। वो जिसके लिए ख़ुदा का नाम बहाए हुए इत्र की मानिंद था, कुफ़्र गो और सब्त शिकन के नाम से पुकारा जाता था। उस की अच्छी बातों के भी उल्टे मअनी किए जाते थे। और खोए हुओं को ढूंढने के लिए ऐसी जगहों में जाने के सबब जहां वो मिल सकते थे उस को पेटू और शराब खोर, महसूल लेने वालों गुनाहगारों का दोस्त कहलाना पड़ता था। उस मसीहीय्यत के दावे की निस्बत उमूमन लोग ख़्याल करते थे कि वो कोई बदचलन और धोके बाज़ आदमी है। बल्कि दीनी और दुनियावी हाकिमों ने भी बरसर अदालत यही फ़ैसला दिया। आख़िर-कार ख़ुद उस के शागिर्द भी उस को छोड़ गए। एक ने उस को पकड़वा दिया और सबसे बड़े ने लानत की और क़सम खाई कि वो उसे नहीं जानता। ग़ालिबन एक भी इन्सान नहीं था जो उस की मौत के वक़्त ये यक़ीन रखता था कि वो वही रुत्बा रखता है जिसका वह दावेदार था।
(6) अगर यसूअ के क़ुद्दूस रूह के वास्ते ये एक दर्दनाक बात थी कि लोग उसे ऐसे गुनाहों का मुजरिम ख़्याल करें जो उस ने कभी नहीं किए। तो ये मालूम करना तो और भी ज़्यादा दर्दनाक होगा कि उस को गुनाह में डालने की भी कोशिश की जाती है। क्योंकि इस बात की अक्सर कोशिश की जाती थी। शैतान ने उस को बियाबान में आज़माया और अगरचे उस की इस आज़माईश का मुफ़स्सिल ज़िक्र अनाजिल में दर्ज है वो बिलाशुब्हा अक्सर उस पर हमला करता रहता था। शरीर (बेदीन, बुरे) लोग उस को आज़माते थे। वो हर तरह का हीलाह बरतते थे “वो बे तरह चमने और छेड़ने लगे कि वो बहुत बातें करे और घात लगा के तलाश में थे कि उस के मुंह से कोई बात पकड़ पांए।” बल्कि दोस्त भी जो उस की ज़िदगी के मक़्सद को नहीं समझते थे उस को इस रास्ते से फिराने में जो रज़ाए ईलाही ने उस के लिए ठहराया था कोशिश करते थे, यहां तक कि एक दफ़ाअ उसे उन में से एक को कहना पड़ा गोया कि वो आज़माईश मुजस्सम था कि “ऐ शैतान मेरे सामने से दूर हो” इस क़ौल से जो उस के क़ाइल के मिज़ाज के ख़िलाफ़ मालूम होता है। साफ़ साफ़ ज़ाहिर होता है कि आज़माईश की नोक उसे कैसी चुभती हुई मालूम होती होगी। और रज़ा-ए-ईलाही से बाल भी तजावुज़ करने के अंदेशे पर किस क़द्र दहश्त उस के दिल में जाग उठती होगी।
(7) जब कि गुनाह के क़रीब होने से उस की मुक़द्दस रूह में ऐसी नफ़रत पैदा होती थी और उसे छूना गोया आग को छूने की मानिंद था तो भी उस को इस से बहुत ही क़रीब रहना पड़ा और ये बात उस की सबसे बड़ी तक्लीफ़ का बाइस थी। गुनाह अपनी नफ़रत अंगेज़ शक्ल सैकड़ों तौर से उस के सामने लाता था। वो जो उस के देखने की बर्दाश्त नहीं कर सकता था उसे अपनी आँखों के सामने उस की बुरी से बुरी हालतों में देखना पड़ा। बल्कि गुनाह ख़ुद दुनिया में उस की मौजूदगी से और भी नुमायाँ व ज़ाहिर हो गया। क्योंकि नेकी की मोजूदगी उस बदी को जो शरीर दिलों की तह में पड़ी हो निकाल लाती है। उस शख़्स की क़ुदूसियत ने जिससे उन्हें साबिक़ा पड़ा फरीसियों और सदूक़ीयों की ख़बासत और पिलातूस और यहुदाह के जुर्म को और भी सख़्त कर दिया और जब वो सलीब पर लटक रहा था और उस की आँख उन के ऊपर उठे हुए चेहरों को देखती थी तो उस की नज़र इन्सानी फ़ित्रत की तमाम बुरी खुवाहिशों के कैसे बड़े समुंद्र पर पड़ती होगी।
यह ऐसी हालत थी गोया कि इन्सानी नस्ल के तमाम गुनाह उस पर चढ़े आते थे और यसूअ ने महसूस किया कि गोया ये सब उस के अपने हैं। बदकारों के एक बड़े कुंबे में जहां बाप और माँ शराबी। बेटे नामी बदमाश, बेटियां क़हबाईं (बद-चलन औरत) हों। मगर उन के दर्मियान एक लड़की अफ़ीफ़ (पार्सा) दानिश्वर उस गुनाह ख़ाने में रहती हो जैसे सौसुन कांटों में। वो कुंबे के तमाम गुनाह अपने समझती है। क्योंकि दूसरे तो उन का कुछ ख़्याल नहीं करते। अपने गुनाह से उन्हें कुछ शर्म नहीं। शहर भर में उन की बातें होती हैं। लेकिन उन्हें कुछ परवाह नहीं। सिर्फ उसी लड़की के दिल में उन के जुर्म और बेइज्ज़ती बरछीयों के घढ़े की तरह चुभती और उस को पामाल करती है। कुंबे में से ये एक बे गुनाह लड़की बाकियों का जुर्म उठाती है। बल्कि ख़ुद उस के साथ जो बेरहमी होती है वो उस को भी छुपाती है। गोया कि ये तमाम शर्मिंदगी ख़ुद उस की अपनी ही है। ख़ानवादह (ख़ानदान) इन्सानी में मसीह की यही हालत थी। उस ने अपनी मर्ज़ी से उस को क़ुबूल किया। वो हमारी हड्डी में से हड्डी और गोश्त में से गोश्त बना। उस ने अपने आप को बनी इन्सान के साथ एक कर दिया। वो गोया तमाम का असर पज़ीर मर्कज़ था। उस ने तमाम गुनाह को और जुर्म को जो उस ने देखा अपने दिल में जमा कर लिया। करने वालो ने तो इस को महसूस ना किया लेकिन उस ने महसूस किया। उस गुनाह ने उसे कुचल डाला। उस के दिल को तोड़ा और वो दूसरों के गुनाह का बोझ उठाए हुए जिसे उस ने अपना बना लिया था मर गया।
इस तौर से हम गतसमनी की जानकनी और लहू के पसीने के राज़ और गलगता की हैबतनाक सज़ा को कि “ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा, तू ने मुझे क्यों छोड़ा।” अपने ख़यालात में जगह देने की कोशिश करते हैं। लेकिन तो भी ये एक भेद है। कौन शख़्स है जो उस सूरत के जो बाग़ गतसमनी में ज़ैतून के दरख़्तों के नीचे पड़ी है नज़्दीक जाये या उस आवाज़ को जो सलीब से सुनाई देती है सुने, और ये मालूम ना करे कि यहां एक ऐसा ग़म है जिसकी तह को हम नहीं पहुँच सकते। हम जहां तक हो सके क़रीब जाते हैं मगर कोई चीज़ पुकार कर कहती है। “बस यहीं तक आगे नहीं।” सिर्फ हम इतना जानते हैं कि ये गुनाह था जो उसे पामाल कर रहा था। “क्योंकि उस ने उस को जो गुनाह से वाक़िफ ना था हमारे बदले गुनाह ठहराया। ताकि हम उस में शामिल हो के ईलाही रास्तबाज़ी ठहरें।” (2 कुरंथिन्यों 5:21)
3
मसीह के दुखों से जो नतीजे निकले उन के बयान से इंजील भरी पड़ी है। लेकिन यहां हम सिर्फ चंद एक बयान कर सकते हैं।
(1) (इब्रानियों के ख़त के बाब 2 आयत 2) में लिखा है, हमारी निजात का पेशवा अज़ीयतों (तक्लीफों) से कामिल किया गया।” फिर बाब 5 की आठवी आयत में लिखा है, “उन दुखों से जो उसने उठाए फ़र्माबर्दारी सीखी।”
इन बातों में बड़े राज़ हैं, क्या वो ना-कामिल था कि उस को कामिल बनाया जाये? या क्या वो नाफ़र्मान था कि उसे फ़र्माबर्दारी सीखने की ज़रूरत पड़ी? यक़ीनन इन आयतों का कभी ये मतलब नहीं हो सकता कि उस ख़सलत की तक्मील में किसी तरह से किसी ज़र्रा भर (थोड़ी सी) बात की भी कमी थी। नहीं बल्कि सिर्फ ये मुराद है कि चूँकि वो इन्सान था और इंसानों ही की तरह उस की ज़िंदगी के हालात व वाक़ियात का नशो व नुमा हुआ। इसलिए उसे गोया ताबेदारी और कमाल के एक ज़ेने (चड़ाव) पर चढ़ना था और अगरचे वो हर एक ज़ेने (चड़ाव) पर ठीक मुनासिब वक़्त में चढ़ा और हर एक क़दम पर कामिल निकला। ताहम उस को हर नए क़दम के लिए नई सई की ज़रूरत थी और जब वो उसे तय कर चुकता था, तो कमाल के आला दर्जे और इताअत के ज़्यादा वसीअ हल्क़े में पहुंच जाता था। हम इस सई व जद्दो जहद की तरक़्क़ी ज़्यादा सफ़ाई के साथ गतसमनी में देखते हैं, जहां कि दुख की पहली हालत में वो कहता है “ऐ बाप अगर तू चाहे तो ये पियाला मुझसे दूर कर दे।” (लूक़ा 22:42) लेकिन आख़िर में वो बड़े इत्मीनान के साथ ये कह सका “ऐ मेरे बाप अगर मेरे पीने के बग़ैर ये पियाला मुझसे नहीं गुज़र सकता तो तेरी मर्ज़ी हो।” (मत्ती 26:42)
यही कामिलियत थी जो उस ने दुख के ज़रीये हासिल की। ये कामिलियत इस बात में है कि ख़ुदा की मर्ज़ी का कामिल इदराक करे और उस से इत्तिफ़ाक़ मुतलक़ हासिल करे। हमारी कामिलियत भी इसी अम्र में है और दुख और तक्लीफ़ उस के हुसूल के बड़े वसाइल हैं। हम में से बहुत ऐसे को ख़ुदा की मर्ज़ी की कुछ बहुत परवा ना करते। अगर पहले उन को मालूम ना हो जाता कि वो हमारी मर्ज़ी के बिल्कुल बरअक्स है हम उस पर ताज्जुब से निगाह करते और उस से सरकशी करते थे। लेकिन जब हमने मसीह की तरह ये कहना सीखा कि “मेरी मर्ज़ी नहीं बल्कि तेरी मर्ज़ी हो।” (लूका 22:42) तो हमने दर्याफ़्त कर लिया कि हक़ीक़ी ज़िंदगी का यही राज़ है और तब वो इत्मीनान जो समझ से बाहर है हमारी जान को हासिल हुआ कम से कम सब ने दूसरे अश्ख़ास की ज़िंदगी में इस हालत को ज़रूर मुलाहिज़ा किया होगा। मैं कह सकता हूँ कि हम में से बाअज़ के हाफ़िज़े में सबसे क़ीमती याद किसी मुसीबतज़दा लड़के या लड़की की होगी जिनकी सूरत रज़ा-ए-ईलाही की इताअत से हसीन व ख़ुशनुमा नज़र आती थी। शायद उन के दिलों में कभी जद्दोजहद या कश्मकश हुई हो। लेकिन अब वो सब ख़त्म हो चुकी थी। क्योंकि अब उन्हों ने रज़ाए ईलाही जो क़ुबूल कर लिया था ना सिर्फ इताअत के साथ बल्कि पाक ख़ुशी से जिसने उन की तमाम हस्ती को जलाली कर दिया और जब हमने उस पाक और साबिर सूरत को तकिये पर सर रखे देखा होगा। तो हमने दिल में महसूस किया होगा कि यहां एक शख़्स है जिसने अपने (आपको) ख़ुदा के हवाले कर देने से कामिल फ़त्ह हासिल कर ली है और उस वक़्त इक़रार क्या होगा कि हमारी ज़िंदगी अपने तमाम अश्ग़ाल की बेचैनी और ज़ोर व शोर के बावजूद ख़ुदा या इन्सान के नज़्दीक बहुत कम क़ीमत रखती है। ये निस्बत उस की ज़िंदगी के जो बे-हिस व हरकत बिस्तर मर्ग पर लेटा हुआ है। इंग्लिस्तान का मशहूर शायर मिल्टन अपनी नाबीनाई पर अफ़्सोस करते हुए आख़िरकार अपने दिल को इस ख़्याल से तसल्ली देता है कि गो वो अब ख़ुदा की बहुत ख़िदमत करने के काबिल नहीं रहा। ताहम ख़ुदा के नज़्दीक
“वो भी ख़िदमत में लगे हैं जो खड़े हैं मुन्तज़िर।”
(2) मुक़द्दस पौलूस रसूल अपनी तहरीरात के एक निहायत ही पुर राज़ फ़िक़्रे में इस सबक़ का ज़िक्र करता है जो उस ने मुसीबत से हासिल किया, वो (2 कुरंथियों 1:3 व 4) में लिखा है, “कि मुबारक है वो ख़ुदा जो हमारे ख़ुदावंद यसूअ मसीह का बाप और रहमतों का बानी और सारी तसल्ली का ख़ुदा है। वही हमारी हर एक मुसीबत में हमको तसल्ली देता है ताकि हम उसी तसल्ली के सबब जो हमें ख़ुदा से मिलती है उनको भी जो किसी तरह की मुसीबत में हैं तसल्ली दे सकें।” वो ख़ुश था कि उस को तक्लीफ़ पहुंची क्योंकि उस से उस ने सीख लिया कि मुसीबतज़दा लोगों के साथ किस तरह बर्ताव करना चाहीए। ये ख़्याल उस आली हौसला शख़्स के कैसा शहयाँ है और कैसा सच्चा है मुसीबत उठाने से औरो को तसल्ली देने की क़ुदरत मिलती है। फ़िल-हक़ीक़त इस फ़न को सीखने का कोई और तरीका नहीं। जो आदमी मुसीबत में ग़र्क़ हो। उस के लिए दिल दुरुस्त आदमी के अल्फ़ाज़ जो कभी मुसीबत की आग में नहीं पड़ा और उन लोगों की मुलाइम गिरिफ़्त और हम्दर्दाना आवाज़ों में जो ख़ुद तक्लीफ़ उठा चुके हैं आस्मान ज़मीन का फ़र्क़ है। इसलिए उन लोगों को जो मुफारिक़त या दु:ख की भट्टी में हैं चाहीए कि इस अम्र से इस ख़्याल को अपने दिल में जगह दें कि शायद ये रंज व तक्लीफ़ मुझको इस ग़रज़ से मिली हो कि मैं इस के ज़रीये से तसल्ली देने वाले के पाक अह्द के लिए तैयार रहूँ। यसूअ ने भी ये फ़न इसी तरह हासिल किया और हर ज़माने में इम्तिहान व आज़माईश के गिरफ़्तार एतिमाद के साथ उस के पास आते हैं, क्योंकि वो जानते हैं कि वो ख़ुद इस क़िस्म के तजुर्बे के तमाम कुंज व गोशे को देख भाल चुका है। “क्योंकि हमारा ऐसा सरदार काहिन नहीं जो हमारी सुस्तीयों में हमदर्द ना हो सके, बल्कि ऐसा जो सारी बातों में हमारी मानिंद आज़माया गया पर उस ने गुनाह ना किया।” (इब्रानियों 4:15)
(3) मसीह के दुखों के नताइज उस की नजात के काम के साथ भी बहुत गहरा ताल्लुक़ रखते हैं। उस ने ख़ुद इस अम्र को पहले से देख लिया और अक्सर उनका तज़्किरा किया करता था। चुनान्चे उस ने (युहन्ना 19:24) में फ़र्माया कि “गेहूं का दाना अगर ज़मीन में गिर के मर ना जाये तो अकेला रहता है। पर अगर वो मरे तो बहुत सा फल लाता है।” और (युहन्ना 12:32) में, “मैं जो हूँ अगर ज़मीन से ऊपर उठाया जाऊ तो सबको अपने पास खींचूंगा।” (युहन्ना 3:14) “जिस तरह मूसा ने साँप को ब्याबान में बुलंदी पर रखा। उसी तरह से ज़रूर है कि इब्न-ए-आदम भी उठाया जाये ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।”
जब वो मरा तो मालूम होता था कि उस के काम का भी उस के साथ ख़ातिमा हो गया। उस के पैरूं (मानने वाले) में से एक शख़्स भी उस से लगा नहीं रहा। लेकिन जब ये ग्रहन दूर हो गया और वो क़ब्र से निकल आया तो उस के शागिर्दों ने दर्याफ़्त कर लिया कि अब जो कुछ वो उस की निस्बत गुमान करते थे। वो उस से सैकड़ों गुना बढ़कर है और ये नया जलाल जिसमें वो अब चमकता था दुख उठाने वाला मुनज्जी (नजात देने वाले) का जलाल था।
हर ज़माने में उस के दुख, लोगों के दिलो को उस की तरफ़ खींचते रहे हैं। क्योंकि उन से उन पर उस की ना-पैदा किनार मुहब्बत, उस की कमाल नाख़ुदग़र्ज़ी और मरते दम तक सच्चाई और उसूलों से वफ़ादारी साबित होती है।
लेकिन उस के दु:ख ख़ुदा के नज़्दीक भी क़ुदरत वाले हैं। “वो हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा है। फ़क़त हमारे गुनाहों का नहीं बल्कि तमाम दुनिया के गुनाहों का भी।” (युहन्ना 2:2) चूँकि वो मरा हमारा मरना ज़रूर नहीं। ख़ुदा ने गुनाहों की माफ़ी उस के हाथ में की है ताकि उन सबको जो उसे क़ुबूल करते हैं, मुफ़्त अता करे। “चूँकि उस ने अपने को पस्त किया इस लिए “ख़ुदा ही ने उसे बहुत सरफ़राज़ किया।” (फिलिप्पियों 2:9) वो अब बादशाह और मुनज्जी होकर अल-क़ादिर के दहने हाथ बैठा है और आलमे ग़ैब और मौत की कुंजियां उस के पास हैं।
11
मसीह का नमूना हुब्बे इन्सानी में
(मत्ती 4:23 व 24 मत्ती 8:16 व 17 मत्ती 9:35 व 36 मत्ती 10:18 मत्ती 11:4 व 5 मत्ती 14:13-14, 36 मत्ती 15:30-32 मत्ती 19:21 मत्ती 21:14 मत्ती 34:25-40 मत्ती 26:8-11)
(मरक़ुस 6:54-56 मरक़ुस 10:21)
(लूक़ा 10:12-17)
(युहन्ना 13:29)
ग्यारहवा बाब
मसीह का नमूना हुब्बे (मुहब्बत) इंसानी में
(इंसानियत के लिए मुहब्बत रखने में)
1
मसीह की निस्बत मुहिब्ब (محبّ) या हमदर्द इन्सान का नाम इस्तिमाल करना शायद बहुत हल्का मालूम हो। क्योंकि ये लफ़्ज़ ज्यादातर ऐसे अश्ख़ास की निस्बत मुरव्वज है जो इन्सान की जिस्मानी या दुनियावी ज़रूरीयात और बेहतरी के लिए फ़िक्र करता हैं। मगर जब हम इस नाम के लफ़्ज़ी माअनों पर ग़ौर करते हैं तो ऐसा नहीं मालूम होता क्योंकि इन्सानी मुहब्बत और हमदर्दी में वो तमाम अश्या शामिल हैं जो इन्सान से मुताल्लिक़ हैं ख़्वाह वो रुहानी हों या जिस्मानी। उन्हें वसीअ माअनों में ये लफ़्ज़ ख़ुदा की निस्बत भी इस्तिमाल किया गया है चुनान्चे तीतुस के नाम के ख़त (तीतुस 3:4-6) में यूं लिखा है, जिसका लफ़्ज़ी तर्जुमा इस तौर पर सकता है कि, “पर जब हमारे बचाने वाले ख़ुदा की मेहरबानी और हुब्बे इंसानी ज़ाहिर हुई उस ने हमको रास्तबाज़ी के कामों से नहीं जो हमने किए बल्कि अपनी रहमत के मुताबिक़ नए जन्म के ग़ुस्ल और रूह-उल-क़ुद्दुस के सर-ए-नौ बनाने के सबब बचाया। जैसे उस ने हमारे बचाने वाले यसूअ मसीह की मार्फ़त हम पर बहुतायत (कस्रत) से डाला।” इस ये ज़ाहिर है कि हुब्बे इंसानी से मुराद है ना ख़ुदा की मेहरबानी जो वो इन्सान के जिस्म पर करता है बल्कि उस का फ़ज़्ल जो उन की रूहों पर है। क्योंकि वो मुहब्बत नौ ज़ादगी के ग़ुस्ल और रूह-उल-क़ुद्दुस के ज़रीये नया किए जाने में ज़ाहिर हुई।
मसीह की हुब्बे इंसानी भी इब्तदाअन इसी सूरत में ज़ाहिर हुई और उस के तमाम काम और तकालीफ़ का मक़्सद भी यही था कि आदमियों की रूहों को निजात बख़्शे। बाकी उन की जिस्मानी हाजतों का पूरा करना और बीमारियों से शिफ़ा देना दूसरे दर्जे पर था। और ना ये बात ही समझ में आ सकती है कि क्यों उस को जो काम को जो रूह के लिए किया जाता है। उस काम की तरह जो इन्सानी जिस्म के लिए है हुब्बे इन्सानी ना शुमार किया जाये? मसीहीयों के ख़्याल के मुताबिक़ तो ये सबसे बड़ी मेहरबानी का निशान है और कोई शख़्स इस से इन्कार नहीं कर सकता कि अक्सर उस के साथ दूरदस्त और देर-पा दुनियावी फ़वाइद भी वाबस्ता होते हैं। जहां कहीं मशीनों के ज़रीये से इंजील की मुनादी हुई है। वहां इंजील की कामयाबी में इंसानों की रूहों की नजात के साथ उमुमन ये बात भी ज़रूर शामिल होती है कि बेरहमी, इफ़्लास (गुर्बत) और जहालत के तोदूं के तोदे भी साफ़ और रफ़ाअ दफ़अ हो जाते हैं।
लेकिन अगर दुनियावी हालत की तरक़्की और बहबूदी ही को हुब्बे (मुहब्बत) इन्सानी के मअज़्ज़ज़ नाम से मूसुम किया जाये और उस को रुहानी मक़ासिद से बिल्कुल जुदा कर दिया जाये तो अलबत्ता इस सूरत में मुहिब्ब इंसान का नाम यसूअ को नहीं दिया जाना चाहीए। उस ने इन्सान की जमानी ज़रूरियात का भी बहुत कुछ लिहाज़ किया मगर हमेशा रूह की आला ज़रुरियात से दूसरे दर्जे पर था। उस की मुहब्बत इन्सान के साथ उस की मजमूई हैसीयत के लिहाज़ से थी, यानी जिस्म और रूह दोनों के साथ। उस की हुब्बे ईलाही और हुब्बे इंसानी दो जुदा जुदा जज़्बे नहीं बल्कि एक ही थे। वो इन्सान से मुहब्बत करता था इसलिए उस में उस को ख़ुदा नज़र आता था। यानी ख़ुदा की सनअ़त ख़ुदा की सूरत ख़ुदा की मुहब्बत का मूर्द (ठहरने की जगह) है और यही बात हमेशा ताक़तोर हुब्बे इंसानी की मुहर्रिक क़ुव्वत होनी चाहीए कि वो ख़ुदा को इन्सान में देखे या मसीहीयों की ज़बान में यूं कहूँ कि मसीह को इन्सान में देखे। ख़ुद मसीह के ये अल्फ़ाज़ हैं कि “जब कि तुमने उन छोटों में से एक के साथ किया तो ख़ुद मेरे साथ किया।” जब मैं किसी इन्सान के जिस्म को छूता हूँ तो मैं उस चीज़ को छूता हूँ जो रूह-उल-क़ुद्दुस की हैकल होने के लिए मख़्लूक़ की गई थी। आजिज़ से आजिज़ बल्कि गुनाहगार से गुनाहगार इन्सान में भी हमको एक ऐसा शख़्स नज़र आता है जिसको ख़ुदा मुहब्बत करता है। जिसके लिए मुनज्जी (नजात देने वाले) ने अपनी जान दी और जो मसीह के जलाल का वारिस बन सकता है। यही यक़ीन वा एतक़ाद के गहरे चश्मे हैं जिनसे मज़्बूत हुब्बे इंसानी (इंसानियत के लिए मुहब्बत) सेराबी व परवरिश पाती है।
2
ये नहीं कहा जा सकता कि इल्मी हुब्बे इन्सानी (इंसानियत के लिए मुहब्बत) हमेशा उन अश्ख़ास का जो दीनदारी और ख़ुदाशनासी के दावेदार हैं खासा रही है। ख़ुद मसीह ने भी नेक सामरी की तम्सील में इस अम्र का इशारतन ज़िक्र किया है। काहिन और बेचारे ज़ख़्मी और मुसीबतज़दा मुसाफ़िर के पास से गुज़र गए और इन्सानी मुहब्बत और हमदर्दी का दुख सिर्फ एक आमी और दुनियादार आदमी में पाया गया। तारीख़ इस तम्सील के सबूत में बे शुमार मिसालें पेश करती है। अक्सर ऐसा हुआ है कि एक ग़ैर तर्बीयत याफ़्तह आदमी एक बदी को पहचान लेता और उस को अफ़्शां (ज़ाहिर) कर देता है और एक बेदीन का हाथ किसी तक्लीफ़ और दुख के दफ़ईए (ईलाज) के लिए मदद को उठ जाता है। जब कि वो लोग जो अपने ओहदे के लिहाज़ से इस क़िस्म की ख़िदमत पर मुक़र्रर हैं ख़ामोश और बेपरवाह बैठे रहते हैं। ये हाल देखकर बाअज़ वक़्त ऐसा ख़्याल गुज़र ने लगता है कि गोया ख़ुदा के साथ निहायत अमीक़ हमदर्दी पैदा होने से इंसानी हमदर्दी बर्बाद होती है। मगर यसूअ का सबसे बड़ा काम ये था कि उस ने मज़्हब और अख़्लाक़ में इत्तिहाद व इत्तिफ़ाक़ कर दिया। वो कभी इस बात को रवा नहीं रखता था कि कोई शख़्स ख़ुदा के लिए ग़ैरतमंद होने के बहाने से इन्सान की तरफ़ से ग़फ़लत व बेपरवाही करे। बल्कि हमेशा ये ताअलीम देता था कि सिर्फ वही शख़्स ख़ुदा को सच-मुच प्यार करता है जो अपने भाई से भी मुहब्बत रखता है।
ज़माना-ए-हाल में हम देखते हैं कि इन चीज़ों को जिन्हें उस ने इकट्ठा जमा किया एक दूसरी जानिब से जुदा जुदा किया जाता है। ज़माने की नादरात (नादिर की जमा, नायाब) में से एक ये बात है कि लोगों में एक मुल्हिदाना (बेदीन) हुब्बे इन्सानी (इंसानियत के लिए मुहब्बत) का रिवाज देखा जाता है। ऐसे लोग हैं जो ना ख़ुदा पर ना ईलाही इन्सान पर ना रुहानी और अबदी आलम पर ईमान रखते हैं। मगर तो भी दूसरों के लिए अपनी जान क़ुर्बान करने को जामेंअ अख़्लाक़ समझते हैं। वो ये इक़रार करते हैं कि ये यसुअ ही था जिसने उन के इस आला ख़्याल को आलम में रिवाज दिया और इसी की सनद (तस्दीक़) पर ये ख़्याल बनी इन्सान के एतिक़ादात में जागज़ी हुआ। मगर वो ये दावा करते हैं कि अब वो उस की मदद का मुहताज नहीं। इसलिए वो हमको ये हिदायत करते हैं कि हम इन्सान को प्यार करें। मसीह की ख़ातिर से नहीं बल्कि ख़ूद इन्सान ही की ख़ातिर से उनका ख़्याल है कि ख़ुद इन्सान ही में ख़ुदा से अलग ऐसी बातें हैं जिनसे उस बेहतरी के लिए मुतवातिर ज़िंदगी भी की सई व कोशिश की तहरीक पैदा होती है। और उस की ज़िंदगी की कोताही ही में जो उन के नज़्दीक मौत के साथ है ख़त्म हो जाती है। वो एक दर्दनाक तहरीक पाते हैं कि उस की बेहतरी के लिए फ़ीलफ़ोर (फ़ौरन) कोशिश की जाये। क्योंकि वो समझते हैं कि अभी इस का मौका है और ये मौका भी कभी हाथ नहीं आएगा।
जहां तक किसी शख़्स के दिल में इन तहरीकों के ज़रीये से ख़ुद इन्कारी की ज़िंदगी इख़्तियार करने और इफ़्लास व जराइम के अक़ीदों (क़ौल व इक़रार) को हल करने की तर्ग़ीब पैदा हो। मसीही बिलाताम्मुल उन को ایَّدکٔ اللہ تعا لی (ख़ुदा तुम्हारी मदद करे) कह सकते हैं। ये एक बड़ी वसीअ दुनिया है और इस में हर एक शख़्स के आमाल व तजुर्बे के लिए काफ़ी जगह है। ये एक ऐसी खोफ़नाक और मुसीबत भरी दुनिया है कि किसी शख़्स को जो ख़्वाह किसी मक़्सद से ही क्यों ना हो? उस की इमदाद के लिए हाथ बढ़ा ने पर माइल हो, रोकने की कुछ हाजत नहीं। बल्कि हमको उन के दर्मियान नहीं, बल्कि हमको उन के दर्मियान बाअज़ ऐसे शख़्स भी नज़र आते हैं जो फ़िल-हक़ीक़त मसीह के साथ हैं। गो कि वो अपने मुंह से अपने को उस के मुख़ालिफ़ ज़ाहिर करते हैं। मगर जहां कहीं ये मुख़ालिफ़त बुनियादी और वाज़ेह तौर पर है, वहां ना तो अज़रूए अक़्ल के ना मुक़द्दमे के वाक़ियात पर लिहाज़ कर के इस क़िस्म की तहरीक से किसी बड़ी बेहतरी की उम्मीद हो सकती है। इस में कुछ शक नहीं कि इंसान के दिल में फ़ित्रतन बनी नौअ (इंसानियत) के लिए मुहब्बत पाई जाती है। जो अगर मुवाफ़िक़ हवा से भड़काई जाये तो कभी कभी अजीब अजीब करिश्मे दिखलाती है। बल्कि ऐसे लोगों की मेहरबानी व मुहब्बत को किसी मज़्हब के मुक़र्रर नहीं बाज़ औक़ात ख़ुद मसीहीयों को भी शर्म दिलाती है। मगर बर ख़िलाफ़ उस के वो क़ुव्वत जिस पर हुब्बे इंसानी (इंसानियत के लिए मुहब्बत) रखने वाले दिल को ग़ालिब आना है सफ़ह-ए-क़ुदरत में सबसे ताकतवर कुव्वतों में से है। ये ख़ुदग़र्ज़ी की क़ुव्वत है। यानी वो मज़बूत और आलमगीर तिब्बी ख़्वाहिश जिससे इन्सान फ़क़त अपनी ही ख़ुशी और फ़ायदा ढूंढता है। बिला लिहाज़ इस अम्र के कि इससे दूसरों का क्या हाल होगा। वो ख़्वाहिश जिससे ताकवतर लोग कमज़ोरों पर इख़्तियार जताते और कसीरुत्तअदाद (ज्यादा तादाद) क़लीलुत्तअत्ताद (कम तादाद) जबर व ज़ुल्म करते हैं। ये क़ुव्वत हर एक इन्सान के सीने में पाई जाती है। वो जमाआत (भीड़, हुजूम) और अफ़राद पर यकसाँ मुहीत है। ये दस्तुरात और कवानीन में मुंज़ब्त (पैवस्ता किया हुआ, मज़्बूत किया हुआ) हो रही है। यही हर एक ज़माने में नई नई क़िस्म की बुरा अय्याल ईजाद करती है और शायद बहुत लोगों का ये भी ख़्याल है कि यही क़ुव्वत तमाम दुनिया पर हुक्मरान है। यही क़ुव्वत है जिस पर हुब्बे इन्सानी (इंसानियत के लिए मुहब्बत) को ग़लबा पाना है और ये बा इंसानी मुतीअ (ताबेअ) होने वाली चीज़ नहीं है। इस पर ग़लबा पाने के लिए एक ऐसी तब्दीली की ज़रूरत है जो सिर्फ ख़ुदा ही अपनी फ़ित्रत को जो मुहब्बत है। हम में डालने से पैदा कर सकता है।
मसीह की ताअलीम में इन्सान ख़ुदा के साथ ताल्लुक़ रखने और अपनी ग़ैर फ़ानी ज़िंदगी के बाइस ऐसा आली रुत्बा हो गया है। कि हर एक शख़्स जो फ़िल-हक़ीक़त इस अक़ीदे पर ईमान रखता है अगर अपने भाई के साथ बदसलूकी करे तो ख़ुद अपने तईं मुजरिम समझने लगता है। लेकिन इन्सान से वो तमाम अज़मत और सरयत जिससे मसीहीय्यत उसे मुलब्बस करती है, उतार लो जैसा कि नास्तिक (खुदा के इन्कारी) लोग करते हैं और इस यक़ीन को तर्क कर दो कि वो ख़ुदा से निकला है और कि वो अपने से आला हस्तीयों से रिश्ता रखता है जो उस की ख़बर दारी करती हैं और कि उस की रूह लामहदूद लियाक़त व क़ाबिलीयत रखती है। इसलिए कि एक ना मुतनाही (इंतिहा को, पहुंची हुई) तरक्क़ी ही तरक्क़ी व नशोनुमा उस के सामने है, हाँ इस यक़ीन को तर्क कर दो तो मालूम हो जायेगा कि उस अदब व इज़्ज़त को जिसके सबब से उस ख़बरगीरी और इम्दाद हम पर फ़र्ज़ ठहरती है। इन्सान के हक़ में किस क़द्र अरसे तक क़ायम रखना मुम्किन है। आदमी की उम्र की कोताही, नास्तिक (खुदा के इन्कारी) लोगों की मौजूदह ताअलीम के मुताबिक़ है। उस की फ़ौरी इम्दाद के लिए एक क़िस्म का हक़ अता करती है मगर कौन जानता है कि एक ऐसी जमाअत में जो ला मज़हबी पर कारबंद है यही दलील एक मुख़्तलिफ़ असर ना कर दे यानी एक ख़ुद-ग़र्ज़ आदमी इस से ये नतीजा ना निकाल ले की जो तक्लीफ़ ऐसी जल्दी ख़त्म होने वाली हैं उन की पर्वा और फ़िक्र करना ला हासिल है?
इस मुल्हीदाना हुब्बे इंसानी (खुदा के इनकार करने वाले लोगों का इंसानियत के लिए मुहब्बत) का आग़ाज़ मुल्क फ़्रांस के मशहूर इन्क़िलाब सल्तनत के मा क़ब्ल ज़माने में हुआ। उस ज़माने के दूर-अँदेश (दाना) लोग अमन व सुलह और बिरादराना मुहब्बत के ज़माने की पैशनगोई कर रहे थे। जब कि ख़ुदग़र्ज़ी के जज़्बात मादूम (ग़ायब, ख़त्म) हो जाएंगे और आगे को बेरहमी और ज़ुल्म, दुनिया को नहीं सताएंगे। मगर जब उन की ताअलीम अपना काम पूरा कर चुकी तो उस के फल इस इन्क़िलाब सल्तनत में ज़ाहिर हुए। जिसकी ना काबिल बयान बेरहिमो ने बनी इन्सान को अपनी फ़ित्रत की तारिक गहराईयों में नज़र मारने का ऐसा मौका दिया जिसको वो कभी फ़रामोश नहीं करेंगे। इस अम्र को याद करना दर्दनाक है कि ख़ुद रूसो भी जो इस नए मज़्हब का निहायत फ़सीह-उल-बयान (शीरीं कलाम) और बाअज़ उमूर में निहायत शरीफ़ उन्नफ़स रसूल था। हालाँकि लोगों के सामने तो आलमगीर बिरादरी की मुनादी करता था। उस ने ख़ुद अपनी औलाद को जों जों वो पैदा होती गई यतीमों के अस्पताल में भेज दिया ताकि उस को उन की परवरिश का ख़र्च व तक्लीफ न उठानी पड़े इस इन्क़िलाब ने बहुत कुछ बर्बादी की जिसका वक़्त आ चुका था। मगर वो एक निहायत अज़ीम सबूत इस अम्र का था कि वो मुहब्बत जो इस काम की अंजाम देहि के लिए ज़रूरी है एक बाला ए क़ुदरत के ज़रीये से मिलनी चाहिये।
हम फ़िलहाल सोसाईटी की ऐसी हालत में रहते हैं जिसमें उन लोगों में भी जिन्हों ने मसीह का नाम लेना छोड़ दिया है। मसीही ख़्याल की चिन्गारी सी अभी बाकी है। जिसके सबब से कभी कभी निहायत ख़ूबसूरत शोले ज़ाहिर होते हैं। मगर जो लोग फ़ित्रत इन्सानी से वाक़िफ़ हैं वो ज़रूर इस अम्र का इस्तफ़सार करेंगे कि नास्तिक (खुदा का इन्कार करने वाले) खयालात के पैरो (मानने वाले) वो रोशनी और हरारत कहाँ से लाएंगे जिसके ज़ोर से वो मसीही मज़्हब के उठाए जाने पर तारीक और ख़ुदगरज़ाना जज़्बात के पुर ज़ोर हमलों को रोक सकेंगे? उन लोगों में भी जो समझते हैं कि हम इस से बिल्कुल ख़लासी पा चुके हैं। मसीही मज़्हब का बक़ीया अभी तक बाकी है। मगर ये देखना अभी बाकी है कि असली मंबा से जुदा किए जाने पर हुब्बे इंसानी (इंसानियत के लिए मुहब्बत) का ये जोश कब तक रहेगा? एक बर्फ की चादर का पानी ख़ुशक हो जाने के बाद भी जिस पर वो मुंजमिद हुई थी नाले के किनारों से चिमटे रह कर अपनी जगह पर क़ायम रहना मुम्किन है। मगर वो देर तक वहां नहीं रह सकती और ना बहुत बोझ की बर्दाश्त कर सकती है। वो वाक़आत जिनका हुब्बे इन्सानी (इंसानियत के लिए मुहब्बत) को सामना करना पड़ता है निहायत ग़ैर मरगुब हैं और अपने को तकलीफ़ से बचाने और दुनिया का हज़ (मज़ा) उठाने की आज़माइश ज़ोर-आवर और दवामी (क़ायम रहने वाली) हैं। अभी बहुत अरसा नहीं गुज़रा कि लंदन के ग़ुरबा के आह व नाला की सदा इस क़द्र बुलंद हुई कि वहां के दौलत मंदों को भी मजबूरन इस पर कान धरना पड़ा। इस से उन के दिलों में यहां तक तहरीक पैदा हुई कि बहुत से औरत मर्दों ने अपने ऐश व इशरत को छोड़कर गुरबा की इमदाद के लिए उन की तंग व तारीक और ग़लीज़ झोपड़ियों में जाना शुरू कर दिया। मगर ये बात बहुत अरसा तक ना रही और थोड़े ही दिनों के बाद गुरबा की ख़बर-गीरी का काम ज़्यादातर मसीह के आजिज़ पैरुउन (मानने वाले मोमिन) के हाथ में जो पहले ही से इस में मशग़ूल थे छोड़ा गया, अगर बखुबी तहक़ीक़ात व जुस्तजू की जाये तो मेरे ख़्याल में ये बात साबित हो जायेगी कि हमारे दर्मियान बहुत थोड़े काबिल-ए-ज़िक्र हम्ददर्दी इन्सानी के इन्तिज़ामात व कारख़ा नजात हैं जो टूटने से बचे रहेंगे। अगर वो लोग जो ना सिर्फ इन्सान की बल्कि अपने मुनज्जी (नजात देने वाले मसीहा) की ख़ातिर इमदाद करते हैं मदद देना बंद कर दें।
3
वह सूरतों जिनमें मसीह की हुब्बे इन्सानी (इंसानियत के लिए मुहब्बत) ज़ाहिर होती थी ख़ास कर दो हैं। उन में से एक गरीबों को ख़ैरात देना है। ये ज़ाहिर है कि ये उस की दाइमी आदत थी। यहां तक कि जब पकड़वाऐ जाने की रात को उस ने यहुदी से जिसके पास थैली थी ये कहा कि “जो तुझे करना है सो जल्दी कर” तो बाकी शागिर्दों ने ख़्याल किया कि इस पैग़ाम से ये मुराद है कि वो किसी शख़्स की जो मुसीबत में है जा कर मदद करे। हम नहीं जानते कि वो थैली किस तरह भरी जाती थी। शायद यसूअ ने अपनी आइंदह ज़िंदगी का ख़्याल कर के बढ़ई का काम करने के ज़माने में जो कुछ जमा किया था। उस में डाल दिया हो और बारह शागिर्दों ने भी शायद ऐसा ही क्या हो और पाक औरतें भी जो उस के साथ रहती थीं उस की मदद करती होंगी। मगर ऐसा ख़्याल करने की कोई वजह नहीं कि वो हमेशा बहुत भरी रहती थी। बल्कि हमको इस के ख़िलाफ़ शहादत (गवाही) मिलती है। जब यसूअ ख़ैरात देता था तो ये एक ग़रीब, गरीबों को देता था। मगर उस ने ये आदत आख़िर तक बराबर जारी रखी।
बहुत से नेक आदमी हैं जिनको इस क़िस्म की इन्सानी हमदर्दी ऐसी खौफ़नाक मालूम होती है कि अन्होंने बिल्कुल इस के ख़िलाफ़ अपनी राय ज़ाहिर की है। मगर यसूअ का नमूना इस की ताईद करता है। ताहम इस में कुछ शक नहीं कि इस में बहुत कुछ एहतियात ख़बरदारी की ज़रूरत है। एक ऐसे गदा (फ़क़ीर, भिकारी) को जिसने गदागिरी (भिक मांगने का धंधा) का पेशा इख़्तियार कर लिया हो देना बजाय फ़ायदे के नुक़्सान करना है और ऐसे शख़्स की मिन्नत समाजत पर कान धरना ख़ूबी की बजाय एक ऐब शुमार किया जाना चाहीए, मगर ऐसे ग़रीब लोग भी हैं जो इम्दाद के मुस्तहिक़ हैं। ऐसे लोग उन अश्ख़ास को जो उन के दर्मियान काम करते हैं मालूम हैं और अगर दौलतमंद लोग इन अश्ख़ास को अपनी ख़ैरात तक़्सीम करने का भी ज़रीया बना लें तो फ़ायदे से ख़ाली ना होगा। मगर ऐसे लोगों को ख़ुद बख़ुद ढूंढ लेना भी कुछ मुश्किल नहीं। बशर्ते के हम ख़ूद गुरबा के मिस्कनों में जाने की तक्लीफ़ गवारा कर सकें। बहुत लोगों के लिए तो गुरबा के मिस्कन दुनिया के एक ना मालूम हिस्से की मानिंद हैं। अगरचे वो उन के दरवाज़ों के सामने ही हैं। मगर उनका दर्याफ़्त कर लेना कुछ मुश्किल नहीं। एक दफ़ाअ मुहब्बत वाले दिल के साथ उनमें दाख़िल हो और फिर तरक्की बिल्कुल आसान है। तुमको उन में ऐसे रास्तबाज़ अश्ख़ास मिलेंगे जो बीमारी या आरज़ी बेकारी के सबब मुहताज हो गए हैं और जिनको तुम मदद देकर उन की मुसीबत से आज़ाद कर सकते हो। उन में ऐसे उम्र रसीदा लोग भी मिलेंगे जिन्होंने ज़िंदगी की लड़ाई मर्दाना वार लड़ी है मगर अब ज़्यादा लड़ाई की ताक़त नहीं रखते। यक़ीनन ऐसे लोगों में से चंद एक की अपनी फय्याज़ी से परवरिश करेंगे तो यक़ीनन तुम्हारे लिए इज़्ज़त की बात होगी। ग़रीब से ग़रीब लोगों के दर्मियान ऐसे लोग हैं जो ख़ुदा के नज़्दीक इक़्तिदार रखते हैं। जो शायद ज़िंदगी की आइन्दा मंज़िल में हमारे मुरब्बी (तर्बीयत वाला) बनने के लायक़ समझते जाएंगे।
मसीह की हुब्बे-इंसानी (इंसानियत के लिए मुहब्बत) की दूसरी सूरत बीमारी से शिफ़ा देना थी। ये देखकर कि वो मोअजज़े से चंगा करता था। हम तबअन ये ख़्याल करते हैं कि वो ये काम बाआसानी कर सकता था। मगर शायद इस में हमारे ख़्याल की निस्बत उस को ज़्यादा जहद वसई करनी पड़ती थी। एक मौक़े पर जब एक औरत उसे छू कर चंगी हो गई मगर वह नहीं चाहती थी कि वो उस को जाने तो भी इस को मालूम हो गया। क्योंकि ये लिखा है कि “उस ने जाना कि क़ुव्वत उस में से निकली।” और भी बातें हैं जिनसे मालूम होता है कि उन मुआलीजों (बीमारों) पर उस की जिस्मानी हमदर्दी और जज़्ब-ए-दिल का ख़र्च होता था और इस अम्र से मुक़द्दस मत्ती के इस क़ौल का ज़ोर हमको मालूम होता है कि “उस ने ख़ुद हमारी कमज़ोरियां ले ली और हमारी बीमारियां उठाली।” मगर ख़्वाह कुछ ही हो मुआलिजे का काम उस के निहायत दिल पसंद और मरगुब तबेअ था। वो कभी ऐसा ख़ुश नहीं होता था। जैसा उस भीड़ में जहां हर क़िस्म की जिस्मानी या रूहानी अमराज़ (बीमारियों) के गिरफ़्तार जमा होते थे और जिनके दर्मियान वो मुहब्बत व मेहरबानी के साथ फिरते हुए किसी को छू कर शिफ़ा बख़्शता। किसी को कलाम की क़ुदरत से मज़्बूत करता और सबको मेहरबानी और तसल्ली की नज़र से ख़ुश व ख़ुर्रम करता था। इस ख़ुशी की शहनाईं दूर दूर तक पहुँचती थीं। जब कि एक बाप अपने घर को वापिस आता था। घर के लोगों पर बोझ होने के लिए नहीं। बल्कि उन के लिए रोटी कमाने को और जब एक बेटा अपने माँ बाप के घर आता था। तरद्दू तशवीश (परेशानी, घबराहट) का बाइस होने को नहीं बल्कि कुंबे का फ़ख़्र होने को और जब एक माँ अपने बाल बच्चों के दर्मियान आती और अपना काम दुबारा इख़्तियार करती थी जिससे बीमारी की वजह से अलैहदा हो गई थी। हाँ ऐसी हालतों में उस ख़ुशी का दायरा जो उस ने अपने शिफ़ा बख़्श हाथ से पहुंचाई किस क़द्र वसीअ हो जाता होगा। सबसे उम्दा इम्दाद जो ग़रीब और मुहताज को दी जा सकती है वो है जो उन्हें अपनी मदद आप करने के काबिल बनाए, और इसी क़िस्म की मदद थी जो यसूअ अपने मोअजज़ों के ज़रीये से देता था। अलबत्ता हमको मोअजिज़ा करने की ताक़त तो हासिल नहीं है। मगर उस की जगह हमको और क़ुव्वतें हासिल हैं, जिनसे हम वैसा ही काम ले सकते हैं और जो ऐसे ऐसे अजीब काम करने की क़ाबिलीयत रखती हैं। जो उन कामों से जो उस के ज़माने में मह्ज़ तिब्बी ज़रीओं से किए जाने मुम्किन थे। इस क़द्र बढ़ कर हैं जैसे उस के मोअजज़े हमारे कामों से।
मसलन हमारे पास इल्म दफ़न (علم دفن) की क़ुव्वत है। शायद हुब्बे-इंसानी (इंसानियत के लिए मुहब्बत) की कोई सूरत इस क़द्र ज़्यादा मसीह के ख़्याल की मानिंद नहीं। जिस क़द्र वो जिससे ग़रीब और जाहिल शख़्स के लिए भी अव़्वल दर्जा का तिब्बी ईलाज मुहय्या हो सकता है। हमारे ग़रीब ख़ाने और अस्पताल में मसीह के शिफ़ा बख़्श कामों को जारी रखते हैं। मैडीकल मिशनरी ग़ैर ममालिक में जा कर वो काम करते हैं जो बिल्कुल इस काम के मुताबिक़ मालूम होता है। जिसके साथ उस ने अपने शागिर्दों को मुनादी करने के लिए भेजा था। कलीसिया ने अब ताअलीम याफ़्तह बीमार-दारों औरतों को मिशन के काम में इस्तिमाल करना शुरू कर दिया है और मुल्क के हर एक हिस्से में ऐसे तबीब (डोक्टर) मौजूद हैं जो ग़रीब शख़्स के वास्ते भी जहां तक उन के फ़न के इख्तियार में है सई व कोशिश करते हैं। इस काम के लिए वो उन से कुछ भी मुआवज़ा नहीं लेते। मगर तो भी वो ज़्यादा अंदरूनी ख़ुशी से इस मेहनत को गवारा करते हैं। बनिस्बत उस के जो उन को ऐसे बीमारों के मुआलिजे से जो उन्हें रुपया देते हासिल होती और ये काम वो सिर्फ इस वजह से करते हैं कि उन को यक़ीन है कि गरीबों का ईलाज करने में वो मसीह की जिसके वो आज़ा हैं ख़िदमत करते हैं।
फिर सियासत मुल्क की ताक़त है। इस पर इब्तिदाई ज़माने के मसीहियों को कुछ इख़्तियार ना था। क्योंकि हुकूमत में उन को कुछ दख़ल ना था। मगर ये ताक़त अब हम सब के हाथ में है यहां तक कि अब हमारे मुल्क में पब्लिक और पेनेन् का ज़ोर इस क़द्र बढ़ता जाता है कि गौरमेंट (सरकार) हर मुआमले में हत्त-उल-मकान अवाम की राय को मालूम करने और उस पर कार बंद होने की कोशिश करती है। विल्बर फ़ोर्स और शिफ़्टसबरी के काम से ज़ाहिर होता है कि बदी और दुख के दफ़ईयह के लिए इस ताक़त को किस तरह काम ला सकते हैं। इस के ज़रीये से हम चश्मे के मंबा पर जाकर बहुत सी बड़ी बड़ी बदियों को उन के निकास पर ही रोक सकते हैं। मसीही लोग अभी सीखने लगे हैं कि इस का इस्तिमाल किस तरह करना चाहीए। बाअज़ तो अभी तक उस को छूने से भी डरते हैं। गोया कि वो कोई नापाक चीज़ है। मगर अब वो ये जान कर उस की क़द्र करेंगे कि नेकी करने के लिए ये एक निहायत ताकतवर औज़ार है। जो तक़्दीर ने उन के हाथ में दिया है। हम हमेशा ऐसी हुब्बे-इंसानी (इंसानियत के लिए मुहब्बत) पर कानअ (क़नाअत करने वाला, जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) नहीं रह सकते। जो उन मज़्लुमों की जो ज़ुल्म की चर्ख़ी पर से शिकस्ता व ख़स्ता होकर गिरते हैं ख़बरगीरी करते है। बल्कि हमें ख़ुद उस चर्ख़ी को बंद कर देना चाहीए।
ये क़ुव्वतें जिनका हमने ऊपर ज़िक्र किया सिर्फ उन कुव्वतों में से बतौर मुश्ते नमूना अज़ख़रवार (ढेर में से मुट्ठी भर) के हैं, जिनसे मसीही हुब्बे-ए-इन्सानी (इंसानियत के लिए मुहब्बत) अपने को मुस्लाह कर रही है और रफ़्ता-रफ़्ता मसीह का ये कलाम पाय-ए-सबूत को पहुंच रहा है कि “मैं तुमसे सच-सच कहता हूँ कि वो जो मुझ पर ईमान लाता है जो काम मैं करता हूँ वो भी करेगा। और इस से भी बड़े बड़े काम करेगा क्योंकि मैं अपने बाप के पास जाता हूँ।”
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इस से बढ़ कर कोई अम्र ज़्यादा तहक़ीक़ नहीं कि हमारे ख़ुदावंद ने अपने काम का ये हिस्सा भी अपने पैरों (मानने वालों) के लिए बतौर नमूने के छोड़ा है। मुशतर्का थैली में से ख़ैरात तक़्सीम करने से उस ने बारह शागीर्दों को भी इस काम में अपने साथ शरीक कर लिया।
बल्कि वो थैली भी उन में से एक के सुपुर्द कर रखी थी। एक शख़्स उस के पैरों (मानने वालों) में शरीक होना चाहता था उस ने फ़र्माया कि “जा और जो कुछ तेरा है बेच और गरीबों को तक़्सीम कर तू आस्मान पर ख़ज़ाना पाएगा। और आ और मेरे पीछे हो ले।” और सूरतों में भी उस ने शागिर्द बनने के लिए यही शर्त पेश की होगी। उस ने मुआलिजे (बीमारों) के काम में भी बारहों को अपने साथ शरीक किया। जब उस ने उन को बाहर भेजा तो फ़र्माया कि “बीमारों को चंगा करो, कोड़ियों को साफ़ करो, मुर्दों को जिलाओ, देवओं (बदरूहों) को निकालो, तुमने मुफ़्त पाया मुफ़्त दो।”मगर इनमें सबसे ज़्यादा दिल नशीन सबूत आख़िरी अदालत के उस होलनाक़ बयान में मिलता है, जहां कि बादशाह अपने दाएं हाथ वालों से फ़र्माता है, “ऐ मेरे बाप के मुबारक लोगो, उस बादशाहत को जो दुनिया की बुनियाद डालते ही तुम्हारे लिए तैयार की गई मिरास में लो, क्योंकि मैं भूका था तुमने मुझे खाना खिलाया मैं प्यासा था तुमने मुझे पानी पिलाया, मैं परदेसी था तुमने मुझे अपने घर में उतारा, नंगा था तुमने मुझे कपड़ा पहनाया, बीमार था तुमने मेरी इयादत की, क़ैद में था तुम मेरे पास आए।” मगर बाएं तरफ़ वालों से कहता है कि, “ऐ मलऊनो मेरे सामने से उस हमेशा की आग में जाओ जो शैतान और उस के फ़रिशतों के लिए तैयार की गई है। क्योंकि मैं भूका था पर तुमने मुझे खाने को ना दिया, प्यासा था तुमने मुझे पानी ना पिलाया, परदेसी था तुमने मुझे अपने घर में ना उतारा, नंगा था तुमने मुझे कपड़ा ना पहनाया, बीमार और क़ैद में था तुमने मेरी ख़बर ना ली।”
क्या ऐसे बहुत से मसीही हैं जो इस अम्र को मुतहक़्क़िक़ करते हैं कि ये पैमाना है। जिसके मुताबिक आख़िरी अदालत में उन की मसीहीय्यत का इम्तिहान होगा? क्या मसीही मुमालिक के लोगों के आदात हमारे ख़ुदावंद की इस निहायत साफ़ व सरीह ताअलीम से मुताबिक़त रखते हैं? दर-हक़ीक़त चंद ऐसे अश्ख़ास हैं जो इस रास्ते में उस की पैरवी करते हैं। अगरचे ये ख़ुद इंकारी का रास्ता है वो इस को फूलों से बिछा पाते हैं। क्योंकि बदबख़्तों के घरों के रास्ते पर वो मसीह के क़दमों के निशान पाते और नहीफ़ और दर्दकश लोगों के बदन को हाथ लगाने में उन की उंगलियां उस के हाथों और पहलू जो छूती हैं। इस तौर से जब वो अपनी ज़िंदगी को खोतें हैं तो उसे पाते हैं। मगर क्या आम तौर पर हर एक मसीही का यही तौर व आदत है? क्या उस के पांव अंधे और अपाहिज और बे-यार व मददगार अश्ख़ास के घरों की राह से वाक़िफ़ हैं? एक दिन आता है जब हम में से बहुत ये चाहेंगे कि काश हर एक पैसा जो उन्होंने ग़रीब को दिया अशर्फ़ी होता। उस दिन वो लोग जो मिस्कीन और बीमार की मदद के लिए हमसे रुपया मांगते हैं और जिनके इसरार इसतदआ की हम अक्सर शिकायत किया करते हैं। हमारे सबसे उम्दा मुरब्बी शुमार किए जाएंगे। हाँ उस रोज़ हमारे लिए वो एक घड़ी जो हमने गुरबा की झोंपड़ी में काटी सौ घड़ियों की निस्बत जो दौलतमंद के दस्तरख़्वान पर गुज़ारें ज़्यादा क़ीमती होगी। क्योंकि उस दिन वो अदालत के तख़्त पर बैठकर फ़र्माएगा कि “जब तुमने मेरे इन सबसे छोटे भाईओं में से एक के साथ किया तो मेरे साथ किया।”
12
मसीह का नमूना रूहों को अपनी
तरफ़ खींचने में
(मत्ती 1:21 मत्ती 4:18-22 मत्ती 9:10-13)
(लूक़ा 4:43 लूक़ा 7:36-50 लूक़ा 15 बाब लूक़ा 19:1-10 व 14 व 42 लूक़ा 22:39-43)
(युहन्ना 2:23 युहन्ना 3 बाब युहन्ना 4 बाब युहन्ना 7:31 व 37 युहन्ना 9:35-38 युहन्ना 10:11 युहन्ना 12:21 व 22)
बारह्वा बाब
मसीह का नमूना रूहों को अपनी
तरफ़ खींचने में
मैंने सुना है कि जुनूबी अफ़्रीक़ा में एक हीरे की कान (खान) इस तौर से दर्याफ़्त हुई कि कोई मुसाफ़िर एक रोज़ सफ़र करते हुए एक वादी में जा पहुंचा और एक आदमी के घर की तरफ़ गया। घर के दरवाज़े पर एक लड़का पत्थरों से खेल रहा था। एक पत्थर इस सय्याह के पांव पास भी आ पड़ा जिसे उसने उठा लिया और वो खेल के तौर पर उस लड़के की तरफ़ फेकने को था कि नागहां उस में कुछ चीज़ चमकती नज़र आई, जिसे देखकर उस का दिल धड़कने लग गया, क्योंकि ये हीरा था। बच्चा उसे एक आम पत्थर समझ कर खेल रहा था किसान का पांव कई बार इस पर पड़ा होगा और वो गाड़ी के पहियें के नीचे आकर कुचला गया होगा। यहां तक कि उस आदमी ने उसे देखा और उस की क़द्र पहचानी।
जब मैं इन्सानी रूह कि निस्बत ग़ौर करता हूँ तो ये कहानी अक्सर मुझे याद आया करती है। क्या रूह के साथ भी ऐसी ही बेपरवाई से बर्ताव नहीं होता था? जब कि यसूअ ने दुनिया में आकर उस को इस हीरे की तरह दरयाफ़त्त किया? एक कसबी की रूह बदकारी की कैच और ग़लाज़त में डूबी हुई है मगर फिर क्या? क्या एक फ़रीसी उस को निकालने के लिए कभी अपनी उंगली को नापाक करना पसंद करता? हरगिज़ नहीं ! एक बच्चे की रूह इस की निस्बत तोफिक़ीयह अपनी महफ़िलों में बह्स किया करते थे कि आया बच्चे में भी फ़ील्वाकेअ रूह है।
बल्कि इस ज़माने में भी बहुत से अश्ख़ास के नज़्दीक कोई चीज़ रूह इन्सानी की निस्बत ज़्यादा कम वक़अत नहीं समझी जाती। ठीक उसी तरह जैसे हीरे का हाल था इस को भी इधर उधर फेंका जाता। उस से बेपरवाई की जाती और पांव के नीचे रोंदा जाता है एक नई रूह अबदियत में से तरोताज़ा निकल कर एक ज़मीनी घर में दाख़िल होती है। लेकिन फिर भी उमूमन कुम्बे के लोग बराबर गुनाह पर गुनाह किए जाते हैं। गोया कि कोई रूह वहां नहीं आई और ना उन के दिल में इस ख़्याल से किसी क़िस्म की पेशीमानी या इज़तिराब होता है कि मबादा वो रूह उन के बुरे नमूने से बिगड़ जाये। रफ़्ता-रफ़्ता बड़ी होकर ये रूह बाहर दुनिया में जाती और तम्मद्नी ज़िंदगी के क़िस्म क़िस्म के असरात से मुतास्सिर होती है। मगर यहां भी लोगों के दिल में इस की क़द्र व क़ीमत का कुछ ख़्याल नहीं। यहां भी उस को गुमराह करने से किसी को कुछ ख़ौफ़ नहीं और ना उस की आली अस्ल और अज़ीम अंजाम का ख़्याल कर के किसी के दिल में उस की निस्बत ताज़ीम का ख़्याल पैदा होता है। अगर उस का मुनासिब तौर से नशो व नुमा नहीं होता या वो खोई जाती या बिला तैयारी हलाकत के गढ़हे की तरफ़ दौड़ती है तो अक्सरों को तो उस की कुछ भी परवा नहीं। उस की आइन्दह क़िस्मत से लोगों को कुछ वास्ता नहीं बल्कि उन को याद भी नहीं कि ऐसी कोई चीज़ दुनिया में मौजूद है।
ख़ुद हमारे रोज़मर्रा के कलाम से ज़ाहिर होता है कि हम में से अक्सरो के नज़्दीक रूह ऐसी ही नादीर याफ़्ता शूदा शैय है जैसे वो हीरा उस बच्चे के नज़्दीक था। जब कि मज़दूर एक कारख़ाने से शाम को निकलते हैं तो हम कहते हैं कि इस कारख़ाने में कितने हाथ काम करते हैं। हाथ ! ना रूह, गोया कि आदमी सिर्फ काम की क़ुव्वत ही का पुतला है और उस में इस से बाला और कोई चीज़ नहीं जब हम गली में लोगों की बड़ी भीड़ देखते हैं तो हमें क्या नज़र आता है? क्या सिर्फ बहुत सी शक्लें जो अपनी सूरत और लिबास वग़ैरह के लिहाज़ से मरगुब या ग़ैर मरगुब मालूम होती हैं? या मुजस्सम अर्वाह जो ख़ुदा के पास से आईं और ख़ुदा की तरफ़ जा रही हैं ?
अगर अब हमको इस मज़्क़ुरबाला तौर से रूह-ए-इन्सानी पर नज़र करने की क़ुव्वत हासिल है तो ये बात हमने मसीह ही से सीखी है। उसी ने रूह को कीचड़ में से और पांव के नीचे से उठाया और कहा कि देखो ये हीरा “आदमी को इस से क्या फ़ायदा कि वो सारी दुनिया को हासिल कर ले मगर अपनी जान को खो दे?”
ज़माना-ए-गुज़श्ता में बनी आदम बड़ी बड़ी रूहों का तो बहुत ख़्याल करते थे। यानी ऐसे अश्ख़ास का जो क़ुव्वत या हिक्मत के ज़ोर से तमाम लोगों में इम्तियाज़ हासिल कर लेते थे। मसलन सुक़रात या जोलिस क़ैसर वग़ैरह। मगर यसुअ ने ही पहली दफ़अ ये ताअलीम दी कि हमको आम से आम रूह का ख़्वाह वो बच्चे की हो या औरत की बल्कि महसूल लेने वाले और गुनाहगार की रूह का भी वैसा ही ख़्याल करना चाहीए। यही ताअलीम उस की लासानी और ग़ैर फ़ानी ईजाद है। आदम के हर एक फ़र्ज़ंद में उस ने इस गौहर को दरयाफ़्त कर लिया। एक क़ल्लाश (मुफ़लिस) के चीथड़े इस रूह को उस की आँखों से पनहां ना कर सके और ना हब्शी आदमी का स्याह चमड़ा या बदकार के जुर्म उस को उस की नज़रों से छिपा सके। ये तो सच है कि रूह जहालत और शरारत की कैच में ग़र्क़ होकर खो गई थी। मगर इस वजह से वो उस की नज़रों में और भी मरगुब हो गई, बल्कि इस अम्र से उस को और भी ज़्यादा तहरीक हुई कि उसे निकाल कर और साफ़ करके उस जगह पर रखे जहां वो दरख़शां (चमकदार) हो, एक तबीब (डोक्टर) के नज़्दीक किस क़िस्म के अश्ख़ास ज़्यादा दिलचस्प हैं? तंदुरुस्त नहीं बल्कि वो जो बीमार हैं और उस के तमाम मरिज़ों में उस मरीज़ का उसे ज़्यादा तर ख़्याल रहता है जो ज़्यादा तर उस की मदद का मुहताज है। उस की फ़िक्र दिन रात उस से जुदा नहीं होती वो करीबन हर वक़्त उसी की हालत पर सोचा करता है। वो दिन में तीन तीन बार जा कर उसे देखता है और अगर वह इस मर्ज़ के ईलाज में कामयाब होता है तो उसे अपने फ़न की एक बड़ी फ़त्ह समझता है। यसूअ ने भी यही ताअलीम दी, और इस से उस के दिली ख़्याल और रवैय्ये का बख़ूबी इज़्हार होता है।
मगर रूह के इस मक़यास (पैमाना) में भी एक राज़ है। क्या ये दर-हक़ीक़त सही है कि एक रूह, बल्कि चोर की रूह भी जो आज क़ैद ख़ाने में पड़ा है। या भाँडनी (मस्ख़रा, राज़ फ़ाश करने वाला) की भी जो रात तमाशा घर में लोगों को हंसा रही थी। कैलीफोर्निया के सौने और गोलकंडह हीरे से ज़्यादा क़ीमती है? अवाम के नज़्दीक अगर वो अपने दिली ख़्याल का साफ़ इज़्हार करें ये दावा कुछ मअनी नहीं रखता। मगर ये दावा उस शख़्स ने किया था जो जब कि वो इस आलम सिफ्ली (दुनिया, ज़मीन) में ज़माने और मकान की क़ैद में था। उसी वक़्त आलिम अलवी (आस्मानी दुनिया) और हिदायत में भी सुकूनत पज़ीर था और इसलिए वो ज़माना मुस्तक़बिल के अंजाम तक नज़र कर के देख सकता था कि रूह क्या कुछ बन सकती है? किसी आला और शानदार हालत तक तरक्की कर सकती और किस ज़िल्लत और बर्बादी की गहराई तक तनज़्ज़ुल कर सकती है?
ये रूह का अजीब व ग़रीब मक़यास उस के रूहों के बचाने के काम की मख़्फ़ी (छिपी) कलीद है और यही ज़हन और दिल का रोशन करने वाला एतिक़ाद है जो हर ज़माने में मुख़्लिस अर्वाह (रूहों) शख़्स का ख़ास्सा है। कोई ऐसा शख़्स इस ओहदे के किसी काम पर मुतईन होने के लायक़ नहीं जो रूह को माल व दौलत या जिस्मानी क़ुव्वत या कामयाबी या किसी ज़मीनी चीज़ से बढ़ कर नहीं समझता और जिसके नज़्दीक एक रुह का बचाना तमाम आला दर्जे की शौहरत व नामुरी से कहीं बढ़ कर तोहफ़ा नहीं।
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लेकिन एक और मुद्दा भी है जो शायद ज़्यादा लाबदी है। वो ईलाही बुलाहट का यक़ीन है, मुख़्लिस अर्वाह को इस बात से दिली आग़ाही होनी चाहीए कि वो ख़ुदा का काम करता है और ये ख़ुदा का पैग़ाम है जो वो लोगों तक पहुंचा रहा है।
बनी इन्सान की ख़िदमत में सरगर्म होने की ख़्वाहिश एक शरीफ जज़्बा है और उस से एक नाख़ूदगर्ज़ शख़्स के इब्तदाई जद्दो जहद पर एक निहायत ख़ूबसूरत शआए पुर तू-अफ़गन شعا ع پر توا فگن (गिरा देने वाला) होती है। मगर उस जज़्बे की ताक़त दुनियावी कारोबार के लिए बमुश्किल काफ़ी है। बाअज़ औक़ात ऐसी मायूसी की घड़ियाँ ज़िंदगी में पेश आती हैं कि आदमी मुश्किल से हमारी ख़िदमत व जाँफ़िशानी के सज़ावार मालूम होते हैं। वो ऐसे कमीने और ना-शुक्र गुज़ार हैं। हमारी सारी सई व कोशिश से उन में कुछ भी तब्दीली नज़र नहीं आती। इस ख़्याल से दिल में ऐसी सख़्त तहरीक पैदा होती है, कि ऐसे बे-सिला काम को तर्क कर देना ही बेहतर है। वो लोग जिनके लिए हम अपने तईं कुर्बान कर रहे हैं हमारी कोशिशो के नितीजे से बहरावर तो होते हैं। मगर या तो हमारा कुछ भी लिहाज़ नहीं करते या फिर कर हमें फाड़े डालते हैं। गोया कि हम उन के दुश्मन हैं। तो फिर हम क्यों इसरार के साथ अपने तोहफ़ों को ऐसे अश्ख़ास के सामने पेश करें जो उन की ख़्वाहिश नहीं रखते? इस से भी बढ़ कर रंजगेज़ ये ख़्याल है कि हमारे पास देने को भी बहुत कुछ नहीं। शायद हमने अपनी बुलाहट को ग़लत समझा। ये दुनिया तो सिरे ही से बिगड़ी पड़ी है, क्या हम उसे सुलझाने को पैदा हुए हैं?
ऐसी हालतों में मह्ज़ इन्सानी मुहब्बत की निस्बत एक ज़्यादा क़ौमी मक़्सद की ज़रूरत होती है। हमारी थकीहारी गर्मजोशी ख़ुदा के हुक्म से पाओं पर खड़ी किए जाने की मुहताज होती है। ये उस का काम है, ये रूहें हैं उसी की हैं। उसी ने इन्हें हमारे सपुर्द किया है और अपने तख़्त अदालत पर वो हमसे इनका हिसाब तलब करेगा।
तमाम अम्बिया व रसुल ने जो ख़ुदा की तरफ़ से इन्सान के दर्मियान काम करते है इसी क़ुव्वत से तहरीक पाई है और इसी के ज़रीये से उन्होंने कमज़ोरी में ताक़त पाई और इसी क़ुव्वत ने उन्हें दुनिया की मुख़ालिफ़त के मुक़ाबले में बरक़रार रखा उन से अक्सरो पर तो वो अज़ीम घड़ी वारिद हुई जिसमें उन्होंने इस बुलाहट को साफ़ तौर पर मालूम कर लिया और अपनी ज़िंदगी के काम को पहचान लिया। ये बुलाहट मूसा को बियाबान में हुई और बावजूद उस की नारज़ामंदी के उस को क़ौमी ख़िदमत पर मज्बूर किया और उस के बाद की ज़िंदगी की गौनागौं और बेमिस्ल आज़माइशों और तक्लीफ़ात में उस की हमदम रही। ये यसअयाह पर एक रोया (कश्फ़) में जलवागर हुई और उस की बाद की ज़िंदगी पर अपना पुर ज़ोर असर डाला। इसी ने मुक़द्दस पोलुस की ज़िंदगी की एक घड़ी भर में काया पलट दी। यर्मीयाह ने इस ईलाही पैग़ाम को ऐसा महसूस किया जैसे तल्वार हड्डियों में काटती है और वो आग की तरह उस के अंदर सुलगता था। जब तक कि वो लोगों के सामने उस को ना सुना देता था। यही बात मसीह की ज़िंदगी में एक सबसे बड़ा मुद्दा थी। उसी ने इस में एक बे रोक ज़ोर पैदा कर दिया। उसी से उस ने मुखालिफ़त के मुक़ाबले की ताक़त पाई। उसी ने उस को मायूसी की तारीक घड़ी से खलासी दी। वो बार बार इस अम्र के इज़्हार करने से कभी नहीं थकता था कि काम जो वो करता है उस के अपने नहीं बल्कि ख़ुदा के हैं। निज़ ये कि कलाम भी जो उस की ज़बान से निकलता है उसी (खुदा) का है उस की तसल्ली इस बात में थी कि हर एक क़दम जो वो रखता है उस से ईलाही मर्ज़ी पूरी होती है।
मगर उस पर कोई ऐसी घड़ी नहीं आई जब उस की ज़िंदगी एक अख़्लाक़ी फ़ैसले की कश्मकश से दो नीम हो गई हो और दूसरों के लिए ज़िंदगी बसर करने का काम उस के सर पर रखा गया हो। ये काम तो ख़ुद उस की हस्ती के तारोपोद (धागे में बंदी पनीरी) में बना हुआ था? इन्सान की मुहब्बत उस के दिल में ऐसी ही जुबली थी, जैसे वो ख़ुदा की फ़ित्रत में है। इन्सान की नजात उस की रूह की असली आरज़ू और वलवलह था और अगरचे उस का दावा था कि उसका काम और कलाम ख़ुदा की तरफ़ से उसे दिए गए हैं। मगर उस की अपनी गहरी ख़्वाहिश ईलाही मुहब्बत के मक़ासिद से ऐसी मुत्तहिद हो रही थी कि वो ये कह सकता था कि “मैं और बाप एक हैं।”
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मगर खोई हुई रूहों का बचाना एक ऐसा काम है जिसके लिए बड़ी अक़्लमंदी और होशयारी की ज़रूरत है। चुनान्चे लिखा है कि वो “जो नेकी से ज्यूँ को मोह लेता है दाना है।” जिसका लफ़्ज़ी तर्जुमा है कि वो जो रूहों को जीत लेता है।” ग़रज़ ये कि रूहों को मोह लेने या जीत लेने के लिए ज़रूर है कि इन्सान उस तरीक़ से बख़ूबी वाक़िफ़ हो वर्ना उस में कामयाबी ना मुम्किन है।
ख़ुदावंद यसुअ ने इस काम के इज़्हार के लिए जो अल्फ़ाज़ इस्तिमाल किए हैं उन से भी हम इस काम की माहियत को किसी क़द्र सीख सकते हैं। चुनान्चे जब उस ने शागिर्दों को बुलाया कि उस के साथ काम में शरीक हों तो उस ने फ़र्माया कि “मेरे पीछे चले आओ मैं तुम्हें आदमियों के मछुवे बनाऊँगा।” हर एक माहीगीर जो अपनी बंसी लेकर दरिया के किनारे जाता है ज़रूर है कि मौसम और पानी के हालात से बख़ूबी वाक़फ़ीयत रखता हो और सब जानते हैं कि मछली पकड़ने के लिए किस क़द्र जांच परख, बारीकबीनी और फुर्ती की ज़रूरत है। ग़ालिबान उस वक़्त मसीह को जाल से मछली पकड़ने का ख़्याल था। मगर उस में भी किस क़द्र तजुर्बे, चालाकी, होशियारी और साबित क़दमी की हाजत पड़ती है।
ये तमाम औसाफ़ रूहों के बचाने या यूं कहो कि जीतने के लिए ज़रूरी हैं। यसुअ इस फ़न का कामिल नमूना था और इस फ़न के हासिल करने के लिए सबसे उम्दा दस्तवार-उल-अमल ये है कि हम ग़ौर से उस के तरीक़ अमल पर नज़र करें।
(1) वो अपने मोअजज़ात को रूहों तक पहुंचने के लिए बतौर ज़रीये के इस्तिमाल करता था। तमाम मेहरबानी और रहमत के काम जिनका गुज़श्ता बाब में ज़िक्र हुआ है मह्ज़ उन आला और ज़्यादा रुहानी मंशाओं के पूरा करने के लिए जो हमेशा उस के ज़हन में थे बतौर तम्हीद या मुकदमे के थे। मैं ये नहीं कहता कि उन से उस का सिर्फ यही मुद्दा था। क्योंकि उस के मोअजज़ात बहुत से मअनी रखते हैं। मगर ये भी उनमें से एक था, क्योंकि अक्सर ये काम रूहानी उमूर के लिए दरवाज़े खोल देते हैं जो उन के बग़ैर शायद ना खुल सकता। मसलन इंजील (युहन्ना 9 बाब) में हम एक शख़्स का ज़िक्र पढ़ते हैं, जिसको उस ने अंधेपन से शिफ़ा बख़्शी मगर अपने को उस पर ज़ाहिर ना किया। उस आदमी के दिल में उस की शुक्रगुज़ारी का ख़्याल पैदा हो गया और वो हर जगह अपने इस ग़ैर मालूम दोस्त की तारीफ़ और हिमायत करता फिरा यहां तक कि यसूअ ने उस से मिलकर अपने को उस पर ज़ाहिर किया और उस वक़्त वो फ़ीअफ़ोर (फ़ौरन) कह उठा कि “ख़ुदावंद में ईमान लाया।” और उस की परस्तिश की। इस वाकेअ से साफ़ ज़ाहिर है कि उस की जिस्मानी नाबीनाई का ईलाज रुहानी नाब्याई के ईलाज के ज़रिये हुआ और भी बे शुमार सूरतों में ऐसा ही हुआ होगा। और अगर हम इस बात को याद रखें कि मोअजज़ात शिफ़ा याफ़्तह लोगों के रिश्तेदारों के लिए भी ऐसे ही क़ीमती थे जैसे ख़ुद उन के लिए। तो हम ख़याल कर सकते हैं कि किस क़द्र लोग इस ज़रीये से उस के ईलाही पैग़ाम सुनने की तरफ़ माइल किए गए होंगे।
हमदर्दी व बही ख़ूवाई इन्सान भी हमारे लिए इस आला काम के वास्ते बतौर वसीले के काम आ सकता है। मेहरबानी दिल की कुंजी है और इस खुले दरवाज़े में निजात अंदर दाख़िल की जा सकती है। अलबत्ता इस में दो तरह के ख़तरों को जगह है एक तो ये कि शायद मुरीद करने की गर्मजोशी में उल्फ़त व मुहब्बत में से हक़ीक़ी इन्सान मेहरबानी का जोहर ज़ाइल हो जाये और दूसरी ये कि दुनियावी फ़वाइद के हासिल करने वाला शायद उस के मुआवज़े के तौर पर अपने मुहसिन को ख़ुश करने के लिए रियाकारी से सिर्फ ज़ाहिरी तौर पर दीनदारी की सूरत इख़्तियार कर ले। लेकिन अगर हम इन ख़तरात से होशियार रहें। तो ये उसूल एक निहायत आला सनद रखता है। ज़मानाहाल में मसीही काम में इस का मुख़्तलिफ़ तौर से बड़ी कामयाबी के साथ इस्तिमाल हो रहा है। रूहों के बचाने की गर्मजोशी अक्सर जिस्म की ख़बर लेने की ख़्वाहिश भी दिल में पैदा कर देती है और इस से ऐसे अफ़आल पैदा होते हैं जो मुनज्जी इन्सान के मिशाम (मशम्म की जमा, दिमाग़ में सूँघने की क़ुव्वत की जगह) को ऐसे ही मुअत्तर करते हैं जैसे मर्यम (मसीह की एक शागिर्दा) का इत्र जो उस ने उस को मला।
(2) मुनादी एक सबसे बड़ा ज़रिया था, जिसके वसीले से मसीह खोए हुओ की तलाश करता था। चूँकि इस मज़्मून के मुताल्लिक़ हमने एक अलैहदा बाब में मुफस्सिल बह्स की है इसलिए इस पर यहां बहुत कुछ लिखने की ज़रूरत नहीं। हमको इस वक़्त सिर्फ इस बात की तरफ़ तवज्जा करनी चाहीए कि उस की मुनादी कैसी दिलकश थी और लोगों को खींचने के लिए कैसी मुनासबत रखती थी। वो सच्चाई को हर तरह की तम्सील और मिसाल के दिलफ़रेब लिबास में मुबल्ल्स कर देता था। अगरचे वो जानता था कि वो सच्चाई का असली लिबास नहीं। सच्चाई सीधी सादी चीज़ है और वो जो उसे जानते हैं उस की असली सूरत ही में उस को प्यार करते हैं। मगर यसुअ को ऐसे अश्ख़ास से वास्ता पड़ता था जिनके लिए वो बजाय ख़ुद दिलकश नहीं थी और इसलिए वो उसे ऐसे तरीक़ से पेश करता था जिससे वो उस के मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला, साबिर) हो सकते थे। क्योंकि उसे यक़ीन था अगर एक दफ़ाअ वो उन के दिल में बैठ जायेगी और वो उस की क़द्र को जान लेंगे तो ख़्वाह वो किसी लिबास में क्यों ना हो ज़रूर उसे प्यार करेंगे।
इस वक़्त भी मुनादी लोगों को ख़ुदा तक पहुंचाने के लिए एक ऐसा ज़बरदस्त वसीला है कि अक्सर मुनादी की ख़्वाहिश रूहों के बचाने की ख़्वाहिश के साथ ही पैदा होती है लेकिन ये एक ताज्जुब की बात है कि उन लोगों में जो मुनादी का काम करते हैं बहुत थोड़े ऐसे हैं जो मसीह की तरह अपने पैग़ाम को ख़ूबसूरत और दिलफ़रेब लिबास में पेश करने की कोशिश करते हैं।
(3) अलबत्ता उन लोगों में से जो खोए हुओं को बचाने के आर्ज़ूमंद हैं सिर्फ थोड़े ही मुन्नाद बन सकते हैं। मगर यसुअ अपनी मुनादी के साथ एक और तरीक़े को भी इस्तिमाल करता था जिसकी सब नक़्ल कर सकते हैं। यानी गुफ़्तगु का तरीका हमारे पास इस तरीक़े की मिसाल निकोदीमस की गुफ़्तगु में और निज़ मसीह के सामरिया की औरत के साथ बातचीत करने में पाई जाती है और ये दोनों वाक़ेअ बाद के ज़मानों के लिए रूहों के बचाने के बारे में बतौर नमूने के हैं। अगर इन दोनों सूरतों का बाहम मुक़ाबला किया जाये तो मालूम होगा कि कैसी कामिल दानिश व होशियारी के साथ उस ने अपने हम-सुख़नों (हम साथी) की हालत के मुताबिक़ उन से बातचीत की और किस तरह तिब्बी तौर पर वो बात के सिलसिले को अम्र-ए-मक़्सूद की तरफ़ ले गया। ठीक उन के ज़मीर पर तीर की तरह जा लगाया।
ये एक निहायत मुश्किल फ़न है। क्योंकि मज़हबी गुफ़्तगु ज़रूर है कि तिब्बी हो। ज़रूर है कि वो दिल से जो मज़्हब से पुर हो बतौर फव्वारे के फूट निकले और अगर ऐसी नहीं तो बिल्कुल बे-असर और बे फ़ायदा होगी। मगर ये निहायत बेशक़ीमत चीज़ है और इसलिए जिस क़द्र कोशिश इस के हासिल करने में सर्फ की जाये थोड़ी है। मेरे ख़्याल में हमको ज़्यादातर ऐसे अश्ख़ास की हाजत है जो मज़्हब के मुताल्लिक़ बात चीत कर सकें बनिस्बत उन के जो उस की मुनादी कर सकें। वाज़ के सुनने वाले अक्सर उसे एक दूसरे की तरफ़ मंसूब कर देते हैं और हर एक ये कोशिश करता है कि उस के पैग़ाम को अपने से हटा कर दूसरे पर लगा दे। मगर गुफ़्तगु सीधी निशाने पर जाकर लगती है। अगर मुतकल्लिम (बात करने वाला) एक दिल नशीन और मुस्तक़ीम ख़सलत भी रखता हो तो ज़रूर जहां कहीं वो जाये उस की गुफ़्तगु के साथ बरकत भी हमरकाब (हमसफ़र, सवारी के साथ) होती है। उन घरों में जहां वो ठहरा हो उस को इस तरह से याद करते हैं कि गोया उन के सामने उस ने मज़्हब को पहली दफ़ाअ एक हक़ीक़ी चीज़ के तौर पर ज़ाहिर कर दिया और अगरचे उस का नाम ज़मीन पर सुनने में कम आए तो भी ख़ुदा के सामने उस का निशान क़दम नूर के ख़त से मुनव्वर मालूम होता है। मगर यसुअ हमेशा इस बात का मुहताज नहीं था कि पहले किसी शख़्स को गुफ़्तगु के लिए ख़िताब करते बहुत सी सूरतों में वो लोग जिनसे वो रूह की बाबत गुफ़्तगु करता था आप पहले बात को छेड़ते थे। जो लोग मज़हबी मुआमलात की बाबत फ़िक्रमंद थे ख़ुद उस की तलाश करते थे। क्योंकि ख़ुद अपने दिल में महसूस करते थे कि यक़ीनन ये शख़्स उस राह से वाक़िफ़ है जिसकी तलाश में वो हैरान व सरगर्दान हैं। यसुअ का किसी इलाक़े में से गुज़रना ऐसा था जैसा कि एक फ़र्श पर जहां लोहे के रेज़े मुंतशिर हों मक़्नातीस مقناطیسں फिर जाये। वो उन रूहों को जो ईलाही ज़िंदगी से उन्स व मुवाफ़कत रखती थीं अपनी तरफ़ खींच लेता था। हर एक मसीही जमाअत में बाअज़ ऐसे लोग हैं जो कम व बेश इस ख़िदमत को अंजाम कर सकते हैं। उन के इर्दगिर्द के लोग जानते हैं कि ये अश्ख़ास ज़िंदगी के राज़ पर हावी हैं और वो जो रूह के गहरे तजुर्बात और कश्मकश में गुज़र रहे होते हैं। एतिमाद करते हैं कि वो उन की हमदर्दी की उम्मीद से बिला तक़ल्लुफ़ उन के पास आते हैं। यक़ीनन ये मुख़्लिस अर्वाह शख़्स का एक बेशक़ीमत हक़ है। उस को कभी ऐसे मोअस्सर और कामयाब तौर से खोए हुओं की तलाश करने का मौका नहीं मिलता जैसा उस वक़्त जब कि खोए हुए ख़ुद उस की तलाश करते हुए उस के पास आएं।
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चूँकि इस किताब में हम तक़्लीद मसीह के मज़्मून पर बह्स करते हैं। इसलिए हमको क़ुदरती तौर पर उस की ज़िंदगी और काम के उन पहलूओं पर जिन की तक़्लीद हमारे लिए ज़्यादा तर मुम्किन है। ज़्यादा तर ग़ौर व ताम्मुल करना चाहीए। मगर गाह बहगाह हमें इस अम्र को याद रखने की हाजत है कि हम सिर्फ फ़ासले पर और लड़खड़ाते पावों के साथ उस के नक़्श-ए-क़दम पर चल सकते हैं। बल्कि बहुत सी जगहों में तो वो हम से इस क़द्र दूर है कि वहां तक हमारी रसाई नहीं हो सकती।
अम्र ज़ेर बह्स भी ऐसा ही है। बाअज़ बातों में मसलन वो जिनका ऊपर ज़िक्र हुआ हम रूहों के बचाने में उस की नक़्ल कर सकते हैं। मगर वो इस जुस्तजू में ऐसे मुक़ाम तक गया जहां हम नहीं जा सकते। वो ना सिर्फ खोए हुओं को ढूंढने बल्कि बचाने भी आया। उस ने इस अम्र में अपने को एक गडरिए (चरवाहे) से मुशाबेह ठहराया जो खोई हुई भेड़ की तलाश में जाता और ख़ुशी करते हुए उसे अपने कंधे पर उठा कर घर को लाता है। यहां तक हम भी अपने को उस के मुशाबेह क़रार दे सकते हैं। मगर वो इस मुशाबहत को और भी दूर तक ले गया। “अच्छा गडरिया (चरवाहा) भेड़ों के लिए अपनी जान देता है।” वो गुनाहगारों के पीछे पीछे उन के बसेरों तक गया। हम भी ऐसा कर सकते हैं। मगर वो इस से भी परे पहुंचा यानी नीचे दोज़ख़ के दरवाज़ों तक जहां उस ने क़ुदरत वाले के हाथ से शिकार को छीन लिया। वो एक बाला ए क़ुदरत मुक़ाम में दाख़िल हुआ जहां उस ने हमारे लिए फ़त्ह हासिल की। हमारे लिए सुलह करवाई। हमारे लिए बक़ा के दरवाज़ों को खोल दिया। उन कामों का हम सिर्फ धुँदला सा इल्म हासिल कर सकते हैं क्योंकि वो उस मुक़ाम में वाक़ेअ हुए जो हमने नहीं देखा। सिर्फ हम इतना जानते हैं कि वो हमारे खयालात की निस्बत ज़्यादा अज़ीम ज़्यादा संजीदा और दर्दनाक थे। उनका बैरूनी निशान और अलामत जो हम देख सकते हैं गुलगता है, यानी उस का जिस्म जो हमारे लिए तोड़ा गया, उस का ख़ून जो हमारे लिए बहाया गया और रूहों के बचाने वाली मुहब्बत की यही सबसे आला अलामत है।
इस मुक़ाम पर बजाय तक़्लीद व नक़्ल का ख़्याल दिल में लाने के हम उस के हुज़ूर अदब से सर झुकाते और उस की परस्तिश करते हैं। मगर इस में बहुत से सबक़ हैं जो उन सबको जो इस फ़न में कामिल होना चाहते हैं सीखने ज़रूर हैं। कोई शख़्स इन्सान के साथ क़ुदरत नहीं रख सकता जो पहले इन्सान के लिए ख़ुदा के साथ क़ुदरत नहीं रखता। ज़ाहिरन तो फ़त्हयाबी उस वक़्त मालूम होती है जब कि हम लोगों को तर्ग़ीब देकर राह पर लाने में कामयाब होते हैं मगर ये कामयाबी इस से पहले सिफ़ारिश व दुआ के मुक़ाम में हासिल की जाती है। यसूअ के लिए ये मुक़ाम जान्कनी और मौत का मुक़ाम था और रूहों का बचाना कभी सिवाए दुख और क़ुर्बानी के नहीं होता। मुक़द्दस पोलूस ने फ़र्माया “मैं मसीह की कमतयां उस के बदन यानी कलीसिया के लिए अपने जिस्म में भरे देता हूँ।” और उन सबको भी जो दुनिया की निजात में मसीह की ख़ुशी में शरीक होना चाहते हैं पहले उस की मुसीबतों में शरीक होना ज़रूर है।
5
अगर रूहों के बचाने का फ़न सख़्त जान का और मेहनत-तलब है तो उस का इनाम भी उस के मुवाफ़िक़ बहुत बड़ा है। मैं एक बड़े कामिल मुसव्विर (तस्वीर बनाने वाले) को जानता हूँ जो जब कभी किसी तस्वीर के खींचने में उस हद तक पहुंचता जहां इस अम्र का फ़ैसला होता है कि आया मुसव्विर ने सिर्फ ज़ाहिरी ख़त व ख़ाल ही का ठीक ख़ाक उतारा है या कि उस शख़्स की रूह और ख़सलत की तस्वीर भी ली है तो उस की हालत निहायत मुज़्तरब और बेक़रार हो जाती वो रोता चिल्लाता, हाथ मलता और बेताब होकर ज़मीन पर लौटने लग जाता। मगर जब ये हालत दूर हो जाती और असली सूरत का सही अक्स सफ़ा तस्वीर पर साफ़ मुजस्सम नज़र आता तो वो इसी क़द्र ख़ुशी और इंबिसात (ख़ुशी, शादमानी) के मारे बेक़रार हो जाता। दर-हक़ीक़त हुस्न व ख़ूबी की एक सूरत को गोया नेस्ती से निकल कर रफ़्ता-रफ़्ता सफ़ा-ए-तस्वीर पर मुनक़्क़श होकर एक मुस्तक़िल जिस्म इख़्तियार करते देखना ज़रूर एक अजीब क़िस्म का वलवला और तहरीक दिल में पैदा करता है। मगर उस को इस नज़ारे से क्या निस्बत हो सकती है कि हम एक रूह को मौत से निकल कर ज़िंदगी में दाख़िल होती देखें, कि किस तरह वो अपने बाज़ुओं को आहिस्ता आहिस्ता तिब्बी जिस्मानी ज़िंदगी के सख़्त और बदसूरत ख़ौल से निकालती और आलमे बक़ा के नूर व ज़िया में फड़ फड़ा कर उड़ने लगती है।
इस क़िस्म के नज़ारे से जो असर यसूअ के दिल पर होता था उस का कुछ कुछ अंदाज़ा हम लूका के पंद्रहवें बाब की अजीब तम्सीलो से कर सकते हैं कि किस तरह गडरिया अपने दोस्तों को जमा करता और कहता है कि “मेरे साथ ख़ुशी करो क्योंकि मैंने अपनी खोई हुई भीड़ पाई।” और किस तरह फ़ुज़ूल ख़र्च बेटे का बाप चिल्ला उठता है कि “आओ हम खाएं और पीये और ख़ुशी करें।” उस ने ख़ुद हमको बतलाया है कि इस ख़ुशी से किया मुराद है। “मैं तुम्हें कहता हूँ कि ख़ुदा के फ़रिश्तों के आगे एक गुनाहगार के लिए जो तौबाह करता है ख़ुशी होती है।” और वो ख़ुशी जो फ़रिश्तों की सूरत से ज़ाहिर होती है फ़क़त फ़रिश्तों के ख़ुदावंद की ख़ुशी का अक्स है। जिसकी सूरत को वो देखते रहते हैं।
उस की ज़मीनी ज़िंदगी में हम कम से कम एक मौक़े पर निहायत साफ़ तौर से उस के दिल की इस ख़्वाहिश व तहरीक को मुलाहिज़ा करते हैं जब वो बदकार सामरी औरत को ख़ुदा और पाकीज़गी की तरफ़ फेर ला चुका तो उस के शागिर्द शहर से उस के किए खाना लेकर वापिस आए और उस से कहने लगे, “ऐ रब्बी कुछ खाइए।” मगर वो कुछ खा ना सका। क्योंकि वो ख़ुशी व ख़ुर्रमी से महव (खो जाना) हो रहा था और उस ने जवाब दिया कि “मेरे पास खाने के लिए ख़ुराक है जिसे तुम नहीं जानते।” फिर शहर की तरफ़ नज़र कर के जहां वो औरत और रूहों को उस के पास लाने के लिए गई थी वहा उसी ख़ुशी के लहजे में कहने लगा कि “क्या तुम नहीं कहते कि अभी चार महीने बाकी हैं तब फ़स्ल आएगी, देखो मैं तुमसे कहता हूँ, अपनी आँखें उठाओं और खेतों को देखो कि वो काटने के लिए पक चुके हैं।” वो भी इसी गहरे जोश की एक दूसरी सूरत थी। जब वो उस शहर पर नज़र कर के जिसको बचाने की उस ने बे फ़ायदा कोशिश की और जिसमें इस क़द्र बे शुमार रूहें हलाक हो रही थीं उस पर रोया।
इन पाक जज़्बात में तमाम लोग जिनका काम रूहों का बचाना है अपने अपने दर्जे के मुताबिक़ हिस्सा लेते हैं और इस दुनिया में इस से बूलंदतर कोई जज़्बात नहीं हैं। ये इस आला इमारत के निशान और सनदात हैं जिसकी अस्ल व तक़र्रुर आसमान से है क्योंकि अदना मसीही ख़ादिम जिसको दर-हक़ीक़त इन्सान के गुनाह से दुख होता और उस की नजात से ख़ुशी होती अपने अपने दर्जे पर उसी जज़्बे व तहरीक को महसूस करता है जो दुनिया के मुनज्जी (नजात देने वाले) की उस के दुखों में हम दम रही और जो अज़ल से ख़ुद ख़ुदा के दिल में जोश ज़न है।
13
मसीह का नमूना वाअज़ करने में
(मत्ती 4:16 व 23-25 मत्ती 5 ता 7 बाब मत्ती 9:4 व 13 व 35-38 मत्ती 10:7 व 19 व 20 व 27 मत्ती 13 बाब मत्ती 16:14)
(मरक़ुस 1:38 व 39 मरक़ुस 2 बाब मरक़ुस 4:33 मरक़ुस 6:1-6
(लूका 4:16-23 लूक़ा 5:17 लूक़ा 7:16 लूक़ा 8:1-8 लूक़ा 11:27 व 28
(युहन्ना 3:34 युहन्ना 7:14-16 व 26 व 40 व 45 व 46 युहन्ना 8:1 व 2)
तेरहवां बाब
मसीह का नमूना वअज़ करने में
1
अगर हमें उम्र-भर में एक या दो दफ़ाअ ख़ुशक़िस्मती से किसी अव़्वल दर्जे के फ़सीह (शीरीं कलाम) मुक़र्रर की तक़रीर सुनने का इत्तिफ़ाक़ हुआ हो। तो हम हमेशा उस का तज़किरह करते रहते हैं या अगर हमको किसी ऐसे वाइज़ मिलने का इत्तिफ़ाक़ हुआ, जिसने पहली दफ़ाअ हम पर मज़्हब को हक़ीक़ी चीज़ साबित कर दिया। तो उस की तस्वीर हमारे हाफ़िज़े के ताक़ में बड़ी इज़्ज़त के साथ धरी रहती है तो भला उस की बातों का सुनना जिसकी मानिंद कभी किसी शख़्स ने कलाम नहीं किया-क्या कुछ ना होगा? उस के होंठो से पहली दफ़ाअ पहाड़ी वाअज़ मुसरफ़ बेटे की तम्सील तारोताज़ा निकलती हुई सुनना क्या कुछ होगा?
तीस साल तक यसूअ ख़ामोश रहा। इस अरसे के दर्मियान ख़्याल और यक़ीन के पानी उस के ज़हन में जमा होते रहे और जब बद्ररव खुला तो वो बड़े ज़ोर शोर से ढेर के ढेर निकल पड़े। उस ने नासरत और कुफ़रनहुम में जो उस की जाये रिहाश थे। सब्त के रोज़ इबादत ख़ानों में मुनादी शुरू की। लेकिन बहुत जल्द उस का काम ग़रदो नवाह के गाँव और कस्बों में भी फैल गया। मगर उस की सरगर्मी के लिए सब्त और इबादत ख़ाने और नमाज़ के मामूली वक़्त ही काफ़ी नहीं थे। रफ़्ता-रफ़्ता वो हर रोज़ मुनादी करने लगा, और ना सिर्फ इबादत ख़ानों में बल्कि गली कूंचों में और कोहसतानी मुक़ामात या साहिल बहर पर भी।
उस के सुनने वालों के दिलों में भी उसी की ऐसी सर गर्मी पैदा हो जाती थी। जो ही उस ने मुनादी शुरू की क़रीबन उसी की शौहरत कुल मुल्क सुरय्या में फैल गई और लोग हर तरफ़ से उस की बातें सुनने को आने लगे। उस वक़्त के बाद हम बराबर ये सुनते हैं, कि बड़ी भीड़ उस के पीछे लगी रहती थी, जो बाज़ औक़ात ऐसी ज़्यादा हो जाती थी, कि लोग एक दूसरे पर गिरे पड़े थे। जब वो मेहनत मशक्कत से थक कर अलैहदा तन्हा जगह में जाना चाहता तो वो उसे रोक रखते और आख़िरकार अगर वो चला भी जाता तो जब वापिस आता, उन्हें चशमबहराह पाता था।
हर क़िस्म के लोग उस के पास आते थे। अक्सर ऐसा होता है कि जो वाइज़ अवाम पर असर कर सकता है। ताअलीम याफ़्तह लोग उस की कुछ पर्वाह नहीं करते और जो ताअलीम याफ़्ता अश्ख़ास को ख़ुश कर सकता है। अवाम के नज़्दीक बेक़द्र होता है। लेकिन यसूअ के पाँव पास फ़र्रीसी और शरीअत के सिखलाने वाले भी बैठे देखे जाते थे। जो गलील और यहुदिया के हर एक शहर और यरुशलेम से आते थे। और दूसरी जानिब अवामुन्नानास ख़ुशी से उस की बातें सुनते थे। बल्कि वो जमाअत भी जो हक़ीर व बे इज़्ज़त समझी जाती थी। जो उमुमन इबादत ख़ानों और वअज़ व नसीहत की कुछ परवा नहीं करती थी उस वक़्त उन आम मज़हबी मजमओं जाने पर उकसाई। चुनान्चे लिखा कि “तब सब महसूल लेने वाले और गुनाहगार उस के नज़्दीक आते थे कि उस की सुनें।” भला इस गहरी और आम दिलचस्पी का भेद क्या था? क़ुदमा तस्वीरो में एक फ़सीह-उल-बयान शख़्स की शबिया इस तरह खींचते थे कि गोया वो तिलाई ज़ंजीरों से जो उस के मुंह से निकलती हैं लोगों को अपनी तरफ़ खींच रहा है। पर वो कशिश की कौनसी ज़ंजीरीं थीं, जिनसे यसूअ तमाम आदमियों को अपनी तरफ़ खींचता था?
2
जब मज़हबी ज़िंदगी और वअज़ का पैमाना किसी मुल़्क या इलाक़े में अदना दर्जे का होता है। तो एक मर्द-ए-ख़ुदा की आमद जो क़ुदरत के साथ कलाम सूनाता है। इस अख़्लाफ के सबब ज़्यादा अजीब मालूम होती है, क्योंकि पुश्त पर तारीकी होने से रोशनी ज़्यादा तेज़ नज़र आती है।
इसी क़िस्म की एक तारीकी जिसको हम आधी रात की तारीकी से तश्बीह दे सकते हैं। उस वक़्त गलील पर छा रही थी जबकि यसूअ ने मुनादी का काम शुरू किया। मुक़द्दस मत्ती ने जो उसी इलाक़े का रहने वाला था। एक नबी के इस कलाम से इस फ़र्क़ को ज़ाहिर किया है, “उन लोगों ने जो अँधेरे में बैठे थे बड़ी रोशनी देखी और उन पर जो मौत के मुल्क और साये में बैठे थे नूर चमका।” इसी तरह जिन लोगों ने इस नए वाइज़ का कलाम सुना उस के मामूली मुअल्लिमों के दर्मियान इस क़द्र इख़्तिलाफ़ देखकर दंग हो गए। चुनान्चे लिखा है कि “लोग उस की ताअलीम सुन कर दंग हो गए क्योंकि वो फ़क़ीहों की तरह नहीं बल्कि इख़्तियार वालों की तरह ताअलीम देता था।”
फ़क़ीह उन के मामूली मुअल्लिम थे जो हफ़्ता-वार इबादत ख़ानों में उनको पंद व नसीहत किया करते थे। बिला-शुब्हा उन के दर्मियान बहुत कुछ बाहम फ़र्क़ होगा। वो सब के सब एक से बुरे नहीं होंगे। मगर बहैसीयत मजमूई ग़ालिबन वो निहायत ही ख़ुश्क और ग़ैर रूहानी लोग थे। यहूदी किताबों के इस मजमुए में जो तालमुद कहलाती हैं और जो हम तक पहुंचीं, हम उन की ताअलीम के नमूने देखते हैं। और जिन्होंने उन को मुतालआ किया है। बयान करते हैं कि:-
“वो इन्सानी ज़हन की निहायत ख़ुशक पैदावार हैं। उन्हें पढ़ना बे शुमार रद्दी चीज़ों से भरी हुई अंधेरी कोठरियों में जाने की मानिंद है जहां गिरदो गुबार के मारे दम घुटने लगता है।”
लोगों ने यसूअ की बातों पर नज़र कर के अपने मुअल्लिमों के बड़े ऐब को ठीक ठीक मालूम कर लिया। क्योंकि उन्हों ने कहा कि वो फ़क़ीहों की मानिंद नहीं। बल्कि इख़्तियार के साथ ताअलीम देता है। यानी फ़क़ीह बग़ैर इख़्तियार के ताअलीम देते थे। चुनान्चे उन तालमुदी तहरीरों का यही बड़ा ख़ास्सा है। उस में कोई मुअल्लिम ऐसे तौर पर ताअलीम नहीं देता। जिससे मालूम हो कि वो कभी ख़ुद ख़ुदा की रिफ़ाक़त में रहा है या उस ने अपनी आँखों से रुहानी दुनिया को देखा है। उन में से हर एक किसी साबिक़ा मुअल्लिम को नक़्ल करता और उसी से सनद लेता है। उन सब का मदार एक दूसरे पर है। ये बड़ी बुरी क़िस्म की ताअलीम है गो कि वो अक्सर रिवाज पकड़ जाती है। बाअज़ औक़ात वो बड़े ग़रूर और शेख़ी के साथ अपने को आरथोड किसी ( آر تھو ڈ) यानी अक़ाइद मुस्तनद के नाम से पुकारती है। क्या तुमने लोगों को ख़ुदा का इस तौर से ज़िक्र करते हुए नहीं सुना? गोया कि वो सदहा साल हुए बाइबल के लिखने वालों के ज़माने में मौजूद था। मगर ज़माना-ए-हाल की ज़िंदगी और तवारीख में कारो हरकत नहीं करता? क्या तुमने ख़ुदा में ख़ुश होने, माफ़ी की ख़ुशी, रूहों की मामूरी और रूहानी जिंदगी के दीगर आला तजुर्बों का इस तौर पर ज़िक्र होते नहीं सुना। गोया कि फ़िल-हक़ीक़त बाइबल के मुक़द्दीसिन ने इन तजुर्बों को हासिल किया। मगर हाल के ज़मानों में उन की उम्मीद करना फ़ुज़ूल है। हो सकता है कि बाअज़ लोग बाइबल को बतौर क़ैदख़ाने के, बना कर उस में ख़ुदा को बंद कर दें या बतौर एक नुमाइशगाह के क़रार दें जिसमें रुहानी ज़िंदगी बतौर क़दीमी ज़माने के अजाईबात के रखी हुई हो। मगर जो लोग यसूअ की बातें सुनने आते थे महसूस करते थे। कि वो आलम रुहानी के साथ क़रीबी ताल्लुक़ रखता है और उन को उन बातों की ख़बर देता है जो उस ने ख़ुद देखी और महसूस की हैं। वो मह्ज़ एक शारह (शरह लिखने वाला) नहीं है जो उस पैग़ाम को जो आलम बाला से अरसे के मरे हुए आदमियों को मिला दुहराता है। वो एक ऐसे आदमी की मानिंद बोलता है जो बारी तआला के हुज़ूर से अभी आया है। बल्कि यूं कहो कि अब भी वहीं है और जिस चीज़ का बयान करता है उस को देख रहा है। वो फ़क़ीह नहीं बल्कि एक नबी था जो कह सकता था कि “ख़ुदावंद यूँ फ़र्माता है।”
इस तरह उस की शौहरत दान से बीरसबअ तक फैल गई। लोग चमकती हुई आँखों के साथ कहते थे कि एक बड़ा नबी हमारे दर्मियान बर्पा हुआ। गडरिया (चरवाहा) ब्याबान में अपनी भेड़ें और किसान अपने अंगुरस्तान और मछुवा साहिल पर अपने जाल छोड़कर सब उस के वाअज़ सुनने जाते थे। क्योंकि बनी इन्सान जानते हैं कि वो दूसरे जहान के पैग़ाम के हाजतमंद हैं और जब वो हक़ीक़ी पैग़ाम को सुनते हैं वजदानी तौर पर उसे पहचान लेते हैं।
3
वअज़ बाअज़ औक़ात वाइज़ की ज़ात से बहुत तासीर हासिल करता है। वो लोग जो फ़क़त वअज़ को पढ़ते हैं उन लोगों की ज़बानी जिन्होंने उसे वाइज़ की ज़बान से सुना ये सुनते हैं कि इस से उस के हक़ीक़ी ज़ोर का अंदाज़ा करना ना-मुम्किन है। इस को सब लोग जानते हैं कि बाअज़ निहायत मशहूर वाअजों की तक़रीरें जो उन की वफ़ात के बाद छपाई गईं। दुनिया की नज़र में ऐसी बाक़द्र साबित नहीं हुईं और बाद की नसलें हैरत से ये सवाल करती हैं कि उन की तासिर किस बात में थी? ये तासिर उस आदमी में थी। उस की ज़ात की ख़ुसूसीयत में, उस की सूरत के रोअब में, उस की गर्मजोशी या उस की अख़्लाक़ी क़ुव्वत में।
मगर यसूअ की निस्बत नहीं कहा जा सकता कि उस का मत्बूआ कलाम भी वैसा ही ना तसल्ली बख़्श है। बर ख़िलाफ़ इस के ख़्वाह वो किसी तरह बोला जाता उस का वज़न और क़ुदरत ज़रूर लोगों के दिलों को खींच लेती है। मगर इस सूरत में भी जैसा कि उस के सुनने वालों की बातों से बाआसानी मालूम हो सकता है वाइज़ और वअज़ दोनों पुरता सैर थे। अलबत्ता हम नहीं जानते कि यसूअ की सूरत कैसी थी? आया की सूरत दिलकश थी? आया उस की आवाज़ शीरीं थी? इस बारे में जो रिवायत हम तक पहुंची हैं वो काबिल एतबार नहीं। लेकिन हम किसी क़द्र उस तासिर से वाक़िफ हैं जो उस के सुनने वालों पर होती थी।
अगरचे बहुत सी पुश्तों तक जिन वाइज़ों की उस के हमवतन सुनते रहते थे वो ख़ुशक और बेमज़ा फ़क़ीह थे। ताहम यहूदी कौम की रिवायतें जिन पर उन को निहायत फ़ख़्र था। ऐसे ख़ुदा शनास मुक़र्ररों से पुर थीं। जिनकी आवाज़ों ने गुज़श्ता ज़मानों में मुल्क को गूँजा दिया था और जिनके औसाफ़ क़ौम के लोह-ए-दिल पर नक़्श थे। पस जों ही यसूअ ने मुनादी करनी शुरू की तो लोगों ने फ़ौरन जान लिया कि अम्बिया का फिरक़ा का अज़ सर-ए-नौ बहाल हो गया है। और उन्होंने कहा कि वह नबीयों में से एक की मानिंद बोलता है।
मगर यहीं बस नहीं, बल्कि वो ये भी यक़ीन करने लगे कि क़दीम नबीयों में से एक मुर्दों में से जी उठा है और यसूअ के जिस्म में फिर अपने काम को इख़्तियार किया है। इस ख़्याल के बारे में उन के दर्मियान दो क़दीम नबियों की बाबत इख़्तिलाफ़ राय था। और उन दो का नाम चुनने से साफ़ ज़ाहिर होता है। कि उन्हों ने कौन कौन सी सिफ़ात ख़ास तौर से उस में दर्याफ़्त की थीं। ये दो नबी यर्मियाह और इल्यास थे। बाअज़ कहते थे कि वो यर्मियाह है और बाअज़ कि वह इल्यास है।
अब ये दोनों बड़े नबी थे। शायद अवाम के नज़्दीक बहुत ही बड़े समझे जाते थे। पस उन्हों ने सबसे बड़ों के साथ उस को तश्बीह दी। मगर उन दोनों के मिज़ाज एक दूसरे से बिल्कुल मुतज़ाद थे। जिससे ना-मुम्किन मालूम होता है कि उन दोनों के औसाफ़ एक ही ज़ात में जमा किए जाएं।
यर्मियाह हज़ीं (ग़मगीं, रंजीदा) मिज़ाज और हलीम तबअ आदमी था। ऐसा नरम दिल कि वो चाहता था कि काश मेरी आँखें आंसूओं का सोता (चशमा) होतीं तो अपने लोगों की मुसीबतों पर रोता। कुछ ताज्जुब नहीं कि जिन्हों ने मसीह की मुनादी सुनी उन्होंने उस के साथ उस की मुशाबहत दर्याफ़्त कर ली। क्योंकि पहली ही नज़र में ये ज़ाहिर हो गया होगा कि यसूअ बड़ा नर्म दिल है। उस के पहाड़ी वअज़ के पहले ही फ़िक़्रों में उस ने गरीबों और मातम करने वालों और मज़्लूमों की हालत पर तरस खाया। उस के सामईन (सुनने वालों) में से निहायत ज़लील शख़्स ने भी मालूम कर लिया होगा कि वो उस में दिलचस्पी रखता और उस के फ़ायदे के लिए हर तरह की तक्लीफ़ उठा ने को तैयार है। अगरचे उस का ख़िताब सब जमाअतों की तरफ़ था। लेकिन उस का फ़ख़्र इस बात में था कि वो ग़रीबों के सामने इंजील की मुनादी करता है। जब कि फ़क़ीह दौलतमंदो की चापलूसी करते और मुअज्ज़ज़ सामईन (सुनने वालों) की तलाश करते थे। एक आम आदमी भी जानता था कि यसूअ अपने सामईन में से उस की रूह को ऐसा ही क़ीमती समझता है जैसे एक दौलतमंद की रूह को। लोगों के गिरोह देखकर उस को बड़ा तरस आता था और यर्मियाह कि मानिंद उस के दिल में अपने वतन और हम वतनों की ऐसी सख़्त मुहब्बत जागीर थी। कि महसूल लेने वाला और भी उस को अज़ीज़ थे। इसलिए कि वो इब्राहिम की नस्ल थे।
इल्यास का मिज़ाज हर एक बात में यर्मियाह के बरअक्स था। वो संगीन आदमी था। बादशाहों और हाकिमों को उन के मुंह पर मलामत करता और अकेला सारी दुनिया के मुक़ाबले पर खड़ा था। ये ना-मुम्किन मालूम होता था कि वो शख़्स जिससे यर्मियाह के ख़साइल ज़ाहिर हों। इल्यास के ख़साइल भी रख सकता है। मगर लोगों ने यसूअ को इल्यास भी ख़्याल किया और उनका ये ख़्याल ग़लत ना था। ये ख़्याल करना सख़्त ग़लती है कि यसूअ सरासर नर्मी और मुलाइम ही था। उस के बहुत से अक़्वाल में ऐसी सख़्ती थी जो उन अल्फ़ाज़ से जिनको इलियास ने अख़ीअब को मलामत करते हुए कहे कुछ कम ना थे। दिलेराना शरारत की नफ़रीन करना उस की क़ुदरत का एक सबसे बड़ा अंसर था। इस दुनिया में ऐसा सख़्त और दंदान शिकन (मुंहतोड़) हमला कभी नहीं सुना गया जैसा उस ने फरीसियों के बर ख़िलाफ़ किया।
हक़ीक़त ये है कि दोनों सिफ़ात यानी उस की मुलायम और उस की सख़्ती एक ही जड़ रखती थीं। जैसे कि वो एक निहायत दौलत मंद अमीर को भी इन्सान से बढ़कर ना समझता था। जैसे कि लाज़र के फटे कपड़े उस की रूह के रुतबे को उस से ना छिपा सके। वैसे ही दौलतमंद की लाल पोशाक उस की कमीनगी पर पर्दा ना डाल सकी। वो जानता था कि इन्सान क्या कुछ है? उस की बुलंदी और पस्ती, जलाल और ज़िल्लत, सिफ़ात और उयूब उस के सामने खुले थे। और जो आदमी उस के रूबरू होता फ़ौरन मालूम कर लेता था। कि यहां एक शख़्स है जिसकी इन्सानियत गो आम इंसानों की इन्सानियत से कहीं बुलंद है। ताहम नीचे झुक कर उस से बग़लगीर होती और ज़रा ज़रा बात में उस से हमदर्दी रखती है।
4
शायद ही कोई वाइज़ होगा, जिसने अवाम के दिलपर गहरी तासीर पैदा की हो सिवाए उस के जिसने पहले इस बात पर ख़ूब ग़ौर ना किया हो, कि जो कुछ वो कहना चाहता है, उस को किन अल्फ़ाज़ में अदा करना चाहीए या ज़्यादा सही तौर पर हम यूं कह सकते हैं, कि ख़ुदा का सच्चा क़ासिद जो लोगों की तरफ़ भेजा गया हो। तबअन अपने पैग़ाम को दिलकश और दिल नशीन अल्फ़ाज़ के लिबास में मुलब्बस करता है। मैंने देखा है कि अक्सर नौजवान जब मुनादी का काम शुरू करते हैं इस अम्र से बेपरवाई करते हैं। वो ख़्याल करते हैं कि अगर उन के पास कोई अच्छी बात कहने के लिए है तो कुछ मज़ाइक़ा नहीं कि वो किस तरह पकाई जाये।
यसूअ की ताअलीम की कशिश बड़ी हद तक उस की लुभाने वाली सूरत पर मौक़ूफ़ थी और अब भी है। मेरे ख़्याल में अवामुन्नास उमुमन किसी बहस या लंबी तक़रीर के सिलसिले को इस क़द्र याद नहीं रखते जैसे उन बाअज़ गर्म फ़िक्रात को जो कहीं कहीं बरजस्ता नुकीले और शफ़्फ़ाफ़ अल्फ़ाज़ में ज़ाहिर किए गए हों। यसूअ के ज़्यादा-तर अक़्वाल की यही सूरत है। वो सादा और ख़ुशनुमा हैं और बआसानी याद रह सकते हैं। लेकिन उन में से हर एक मआनी से भरा हुआ होता है और जिस क़द्र ज़्यादा उन पर ग़ौर करें उसी क़द्र गहरे मुतालिब उस में नज़र आते हैं। वो एक साफ़ व शफ़ाफ चश्मे की मानिंद हैं जिसमें देखने से बिल्कुल थोड़ा पानी मालूम होता है। लेकिन जब तुम अपनी छड़ी से उन पत्थरों को जो उस की तह में साफ़ नज़र आ रहे हैं छूना चाहते हो। तो मालूम होता है कि उस की गहराई तुम्हारे गुमान की निस्बत बहुत ज़्यादा है।
लेकिन यसूअ की गुफ़तार में एक और सिफ़त भी थी जिसके सबब से वो हर दिल अज़ीज़ हैं। वो बड़ी कस्रत से तम्सीलों से आरास्ता हैं जो इन्सानी कलाम की निहायत ही दिलकश सिफ़त है। एक ही ख़ुदा आलम ख़्याल और आलम माद्दा दोनों का ख़ालिक़ है और उस ने उन को ऐसे तौर पर बनाया है। कि क़ुदरती अश्या अगर एक ख़ास तौर पर पेश की जाएं। तो रुहानी सच्चाईयों को आईने की तरह मुनअकिस करती हैं और हमारी बनावट भी इस क़िस्म की है। कि हम कभी सच्चाई का ऐसा मज़ा नहीं उठाते। जैसा उस वक़्त जब कि वो इस तौर से पेश की जाये। नेचर (क़ुदरत) के पास इस क़िस्म के हज़ारहा आइने रूहानी सच्चाईयों को दिखला ने के लिए मौजूद हैं। जो अब तक इस्तिमाल में नहीं आए, बल्कि ऐसे कादरान कलाम के हाथ के मुंतज़िर हैं, जो अभी पैदा नहीं हुए।
मसीह सच्चाई की तशरीह करने के लिए इस तरीक़ को इस क़द्र कस्रत से इस्तिमाल करता था कि उस मुल्क की आम अश्या जिसमें वो रहता था, उस अह्द के तमाम मूर्खों की निस्बत उस के कलाम में ज़्यादा कामिल तौर पर नज़र आती हैं। इस तौर से यसूअ के ज़माने में गलील के यहुदियों का तरीक़ ज़िंदगी उस तारीकी में से जो दीगर अश्या पर छा रही है। बिल्कुल नुमायाँ हो गया है। और जैसा जादू की लालटैन के पर्दे पर चीज़ों की तस्वीरें नज़र आती हैं। उसी तरह उस के कलाम में उस मुल्क के नज़ारें लोगों के तरीक़े रिहायश और शहरी लोगों के हालात की तस्वीर देखते हैं। घर में पियाला और तबाक, चिराग़ व शमादान नज़र आते हैं। नौकरों को चक्की में अनाज पीसते और उस में ख़मीर मिलाते। यहां तक कि सब ख़मीर हो जाता, मुलाख्ता करते हैं। हम कुंबे की माँ को पुराने लिबास पर कपड़े का पेवंद लगाते और बाप को मश्को में मय निचोड़ते देखते हैं। दरवाज़े पर मुर्ग़ी अपने बच्चों को परों तले जमा करती और गलीयों में लड़ के ब्याह शादी और ग़मी का खेल खेलते नज़र आते हैं। बाहर खेतों में सोसन अपनी शानदार ख़ूबसूरती से सुलेमान को रश्क दिलाती है। कव्वे बीज बोने वाले के पीछे पीछे बीज उठातें और परिन्दे टहनियों के दर्मियान घोंसले बनाते दिखाई देते हैं। कबूतर और गोरे, कुत्ते और सूअर, इंजीर और ख़ारदार झाड़ियां भी वहां नज़र आती हैं ऊपर आँख उठा कर हम बादल को दक्षिणी हवा के साथ उड़ते देखते। शाम के लाल आस्मान को उम्दा और साफ़ सुबह की उम्मीद दिलाते और बिजली को आसमान के गोशे से दूसरे गोशे तक कूंदते देखते हैं। हमें अंगूरस्तान मअ बुर्ज और कोलहू के नज़र आते हैं। खेत बहार की नर्म पत्ती से आरास्ता या काटने वाले रबीअ की फ़स्ल काटते दिखाई देते हैं। भेड़ सामने चरगाह में चरती फिरती है। गडरिया (चरवाहा) उन के आगे आगे जाता या खोई हुई को पहाड़ों या वादियों में ढूंढता फिरता है। क्या हमारी गलीयों में ऐसी सूरतें हैं जिनसे हम ज़्यादा वाक़िफ़ व मानुस हैं। बनिस्बत उस फ़रीसी और महसूल लेने वाले जो हैकल में दुआ मांगने गए। या बनिस्बत यरेहू की सड़क वाले काहिन् और लावी और नेक सामरी के या बनिस्बत उम्दा लिबास वाले दौलतमंद के जो हर रोज़ जल्से करता और लाज़र के जो उस के दरवाज़े पर पड़ा रहता और जिसके घाव कुत्ते चाटते थे। ये तस्वीरें अगरचे रोज़मर्रा लोगों के सामने थीं तो भी उन के लिए कुछ कम हैरत अंगेज़ ना थीं। क्योंकि हमारी साख़त इस क़िस्म की है। कि हम अश्या को जिनके पास से हम सैकड़ों दफ़ाअ बेपरवाई से गुज़रे होंगे। जब सफ़ा तस्वीर पर देखते हैं तो प्यार करना शुरू करते हैं।
ये उस ख़ालिस मुहब्बत और लिहाज़ की वजह से था जो वो अपने सामईन के साथ रखता था कि वो इस तौर से उन के दिलों को काबू में लाने के लिए ऐसे दिल पसंद अल्फ़ाज़ ढूंड ढूंढ कर इस्तिमाल करता था। लेकिन इस के इलावा एक और वजह भी थी जो ख़ास उसी की ज़ात से मुताल्लिक़ थी। उस वक़्त जब कि वाइज़ का ज़हन किसी सच्चाई पर बड़ी क़ुव्वत और ख़ुशी के साथ ग़ौर करता है। तो उस से ऐसी ही रोशन तम्सीलात की फुलझड़ियाँ झड़ ने लगती हैं। जब क़ुव्वत ज़हनी शेर गर्मी के साथ किसी मज़्मून में लगती है तो उस वक़्त आम और बे मज़ा बातें निकलती हैं। लेकिन जों जों हरारत बढ़ती और कुल दिमाग़ पर हावी होती है। तो साफ़ पुर ज़ोर और दिल नशीन खयालात ज़ाहिर होते हैं। लेकिन जब आग कुल जिस्म में भड़क उठती तो उस वक़्त ऐसी शानदार तस्वीरें और तम्सीलें निकलती हैं। जो सुनने वालों के दिलों में हमेशा के लिए जगह पकड़ लेती हैं।
5
वअज़ की ज़ाहिरी सूरत का ख़्याल रखना ख़्वाह कैसा ही अहम क्यों ना हो मगर निहायत ही गिरां क़द्र चीज़ उस का नफ़्स-ए-मज़मून है। सूरत सिर्फ़ सिक्के का नक़्श है, अस्ल चीज़ धातु है। वो क्या है? सोना या चांदी या सिर्फ ताँबा? आया वो खरी है या खोटी? धातु की निस्बत यही सवाल ज़रूरी है।
वअज़ का मज़्मून ऐसा नाक़िस कभी नहीं था जैसा यहूदी फ़क़ीहों में ये बात तालमुद से बख़ूबी ज़ाहिर है। जिन मज़ामीन पर वो बह्स करते हैं। बिल्कुल बेहूदा हैं और इस लायक़ नहीं कि उन पर कुछ भी तव्वजा की जाये फ़क़ीहों का मज़्हब फ़क़त रसूमात का एक सिलसिला था और उनका वअज़ भी बिल्कुल इन्ही बातों पर महदूद होता था। तावीज़ो की चौड़ाई, रोज़ों की लंबाई, दहयकी देने के लायक़ अश्या और एक सौ एक बातें जिनसे जिस्मानी तहारत कामिल हो सकती। ये और हज़ारों ऐसी ही बातें उन की थका देने वाली तक़रीरों में बयान की जाती थीं। उस के बाद भी कलीसिया की तारीख में ऐसे ज़माने आते रहे हैं। जब कि वअज़ ऐसी ही पस्त हालत पर पहुंच गया। ख़ुद मुल्क इंग्लिस्तान में ज़माना-ए-इस्लाह से पहले राहिबों के वअज़ मसीह के ज़माने के फ़क़ीहों की निस्बत ज़्यादा बदतर और बेहूदा होते। इसी तरह गुज़श्ता सदी में मुल्क जर्मनी में भी वअज़ निहायत ज़लील हालत को पहुंच गया था। सच तो ये है कि ऐसा भी होना ही चाहीए। जब वाइज़ों के दिल सर्द हो जाते हैं तो अन्जाने उसूली बातों से हट कर फ़र्रई (वो जिसकी अस्ल कोई और चीज़ हो) बातों पर जा लगते हैं और आख़िरकार उन से भी परे चले जाते हैं।
हम उन मज़ामीन को जो मसीह की मुनादी का मज़्मून थे इस जगह बयान नहीं कर सकते। यही कहना काफ़ी होगा उस का नफ़्स-ए-मतलब हमेशा वो हो जाता था जो इन्सानी ज़हन के लिए निहायत संजीदा और ज़रूरी है। वो ख़ुदा का ऐसे तौर पर ज़िक्र करता जिससे उस के सामईन (सुनने वाले) ये महसूस करते थे कि गोया ख़ुदा उन की नज़रों में नूर है और उस में बिल्कुल तारीकी नहीं। जब उस ने ऐसी तम्सीलात जैसे खोई हुई भेड़ और मुसरफ़ बेटे की तम्सील बयान की तो मालूम होता था कि गोया आस्मान के दरवाज़े खुल गए हैं और उस रहीम ख़ुदा के दिल की हरकत को देख सकते हैं। वो आदमी का ऐसे तौर पर ज़िक्र करता था। जिससे हर एक सुनने वाला महसूस करता था कि इस वक़्त तक या तो वो अपने आप से या बनी इन्सान से नावाक़िफ़ था। वो हर एक आदमी को आग़ाह कर देता था कि ख़ुद उस के सीने में एक चीज़ है जो तमाम आलमों की निस्बत ज़्यादा क़ीमती है। उस की ज़िंदगी की गुज़रती हुई घडीयाँ जो ज़ाहिरन ऐसी कमक़द्र मालूम होती हैं। ऐसे नताइज से ममलू (लबरेज़) हैं। जो आस्मान तक बुलंद और दोज़ख़ तक गहरे हैं। जब उस ने अबदीय्यत का ज़िक्र किया तो ज़िंदगी और बक़ा को जिनकी निस्बत उस वक़्त से पहले लोग धुँदला सा इल्म रखते थे पूरे तौर पर ज़ाहिर कर दिया और पस पर्दह आलम का ऐसे साफ़ और आम फहम अल्फ़ाज़ में ज़िक्र किया जिससे मालूम होता था कि वो उस मुल्क से नावाक़िफ़ नहीं।
ये देखकर क्या ये अजीब मालूम होगा, कि जमाअतें उस के पीछे लगी रहती थीं और उस की बातों से कभी भी सैर नहीं होती थीं? इन्सान अगरचे इस दुनिया की चीज़ों में ग़र्क़ हो रहा है तो भी वो अपने दिल की तह में जानता है कि उस का ताल्लुक़ एक दूसरे जहां से है। गो इस जहान का इल्म दिलचस्प है तो भी दूसरे जहान के मुताल्लिक़ सवालात रूह इन्सान के लिए हमेशा ज़्यादा दिलफ़रेब हैं। मैं कहाँ से हूँ? मैं क्या हूँ? मैं कहाँ जाता हूँ? अगर हमारे वाइज़ इन सवालात का जवाब नहीं दे सकते। तो बेहतर है कि हम अपने गिरजे बंद कर दें। वो आवाज़ जो गलील के दामन-ए-कोह से निकलती और जो इन इसरार का ऐसे साफ़ तौर से ज़िक्र करती थी। फ़िल-हक़ीक़त उस वक़्त तक कभी नहीं सुनेंगे, जब तक कि उस अज़ीम तख़्त पर से उसे ना सुनें। मगर वो दिल और रूह जो इन आवाज़ों में ज़ाहिर हुए कभी नहीं मरते वो जैसे उस वक़्त थे वैसे अब भी ज़िंदा और दरख़शां हैं। जब कभी कोई वाइज़ अबदी सच्चाई के सुर को ठीक तौर पर अलापता (गाना) है तो ख़ुद मसीह ही उस में बोलता है। जब कभी किसी वाइज़ का कलाम सुन कर तुम महसूस करते हो कि इस जहान के परे जिसको हम देखते और छूते हैं एक हक़ीक़ी आलम मौजूद है। जब कभी वो तुम्हारे ज़हन को पकड़ लेता और तुम्हारे दिल पर तासीर करता और तुम्हारी उमंगों को जगाता और तुम्हारे ज़मीर को जिलाता है। तो मसीह ही है जो तुम्हें पकड़ने की, अपनी मुहब्बत के साथ तुम तक पहुंचने की और तुम्हें बचाने की कोशिश करता है। “इसलिए हम मसीह के एलची हैं, गोया कि ख़ुदा हमारे वसीले मिन्नत करता है। सो हम मसीह के बदले इल्तिमास करते हैं कि तुम ख़ुदा से मेल करो।
14
मसीह का नमूना ताअलीम देने में
(मत्ती 4:18 व 19 मत्ती 9:9 व 13-17 मत्ती 10 बाब मत्ती 12:1-3 व 49 मत्ती 13:10 व 11 व 16-36 मत्ती 15:15 व 16 व 23 व 24 व 32 व 36 मत्ती 16:5-28 मत्ती 17 बाब मत्ती 18:1-3 व 21 व 22 मत्ती 19:13-30 मत्ती 20:17-19 व 20-28 मत्ती 26:21 व 22 व 26-36 व 56 मत्ती 28:7
व 10 व 16-20)
(मरक़ुस 3:14 मरकुस 4:34 मरकुस 6:30-32 मरकुस 9:35-41
मरकुस 16-7)
(लूक़ा 9:54-56 लूक़ा 10:1-17 लूक़ा 11:1 लूक़ा 24:36-51)
(युहन्ना 2:11 व 12 युहन्ना 4:2 युहन्ना 13-17 बाब)
चौधवां बाब
मसीह का नमूना ताअलीम देने में
1
मुअल्लिम का काम वाइज़ की निस्बत ज़्यादा-तर महदूद है। वाइज़ एक जमाअत से ख़िताब करता है। मगर मुअल्लिम अपनी तवज्जा को सिर्फ चंद मुंतख़ब अश्ख़ास पर लगा देता है। जिन जमाअतों के सामने यसूअ ने मुनादी की उन की गिनती हज़ारहा हज़ार की थी। मगर जिन अश्ख़ास के साथ उस ने मुअल्लिम का बर्ताव किया, वो सिर्फ़ बारह थे। लेकिन नताइज के लिहाज़ से हम कह सकते हैं कि ग़ालिबान जो काम उस ने इस हैसीयत से किया, उस की क़ीमत उस की मुनादी के तमाम काम की निस्बत किसी तरह कम ना थी।
मसीह से पहले बहुत मशहूर व मारूफ़ मुअल्लिम हो चुके थे। यूनानी फ़लसफ़े में सुकरात, अफ़्लातून, अरस्तू और दीगर मशहूर व मारूफ़ उस्ताद एक तरह से अपने शागिर्दों के साथ वही ताल्लुक़ रखते थे, जो यसूअ को अपने शागिर्दों के साथ हासिल था। यहुदियों के दर्मियान भी ये रिश्ता नामालूम ना था। अम्बिया के मदरसे में जिनका अहदे अतीक़ में ज़िक्र है। “मर्द-ए-ख़ुदा’’ “अम्बिया ज़ादों” के मुअल्लिम थे। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के पास अलावा जमाअतों के जिनको वो मुनादी करता था ऐसे शागिर्द थे जो उस के साथ साथ रहते थे।
यूनानी ज़बान किसी उस्ताद के शागिर्दों को इन अल्फ़ाज़ से ताबीर करती है कि “वो जो उस के आस पास हैं।” मसलन सुक़रात के शागिर्द का ज़िक्र करते हुए कहते थे कि “वो जो सुक़रात के आस पास हैं।” इसी तरह अनाजिल में लिखा है कि यसूअ ने बारह को चुना “ताकि वो उस के साथ रहें।” मालूम होता है कि इस वाक़िये से उन अश्ख़ास की तादाद जो ख़ास माअनों में उस के शागिर्द थे महदूद हो गई होगी। क्योंकि थोड़े ऐसे थे जो अपना घर और कारोबार छोड़ कर उस के पीछे पीछे हो लिए। वो हमेशा सैर व सयाहत में रहता था और इसलिए उस के हमराहियो के लिए एक जगह जम कर कारोबार में मशग़ूल होना बिल्कुल ना-मुम्किन था। मालूम होता है कि बाअज़ लोग सिर्फ आरज़ी तौर पर या वाक़ीयन फ़ौकियन उस की हमराही में रहते थे। क्योंकि हम एक मौक़े पर एक सौ बीस शागिर्द का और दूसरे मौका पर सिर्फ सत्तर का ज़िक्र पढ़ते हैं। मगर वो जिनको उस ने मुंतख़ब किया कि सब कुछ छोड़ कर हमेशा उस के साथ रहें सिर्फ बारह ही रहे।
इस तौर पर शागिर्दों की तादाद को महदूद करने के लिए एक और वजह भी थी। उस्ताद के लिए ज़रूर है कि वो अपने शागिर्दों में से हर एक को फ़र्दन फ़र्दन जाने और उन के हालात से बख़ूबी वाक़फ़ीयत हासिल करे। जैसे कि माँ अपने हर एक बच्चे की तबीयत और मिज़ाज का जुदा जुदा अंदाज़ा करती है। ताकि उन की परवरिश अच्छी तरह से कर सके। वाइज़ एक जमाअत से ख़िताब करते हुए अपनी कमान को अटकल पचो खींचता है और नहीं जानता कि उस का तीर किस निशान पर लगेगा। बल्कि वो वअज़ किसी ख़ास शख़्स का ज़िक्र करने से भी परहेज़ करता है। मगर मुअल्लिम हर एक सवाल और ख़्याल में ख़ास अफ़राद को ख़िताब करता है और इसलिए लाबदी है। यही वजह है कि हर एक इंजील नवीस ने बारह शागिर्दों के नाम ऐसी दुरुस्ती से बयान किए हैं और उन के बाहमी ताल्लुक़ात को भी जता दिया है। शायद उन बारहों की तबईयत और हालात बाहम इस क़द्र मुख़्तलिफ़ और मुतफ़र्रिक़ (अलग-अलग) थे जिस क़द्र ऐसी तादाद की जमाअत में होने मुम्किन हैं। मगर तो भी उन की तादाद इतनी ज़्यादा ना थी कि उन के साथ फ़र्दन फ़र्दन बर्ताव करना ना-मुम्किन हो। इस अम्र की कामिल शहादत (गवाही) मौजूद है कि उनका उस्ताद उन के हालात को बख़ूबी मुतालआ करता था। यहां तक कि वो उन में से हर एक की ख़सलत के तमाम पहलूओं से बख़ूबी वाक़िफ़ हो गया और हर एक के साथ ठीक उस की हालत के मुताबिक़ सुलूक करता था। उस का यूहन्ना के साथ मुहब्बत से पेश आना उस शागिर्द के मिज़ाज के ठीक मुनासिब था। इसी तरह तोमा की तबईयत तहम्मुल और बुर्दबारी के तरीक़े से मुनासबत रखती थी। मगर जिस ढंग से उस ने पतरस के साथ बरतावं किया। वो उस के इस फ़न में कामिल महारत रखने का सबसे आला और शानदार सबूत है। कैसे पूरे तौर पर वो उस से वाक़िफ़ था? वो उस के मिज़ाज के पुर जोश और मतलवी जज़्बों पर ऐसा काबू रखता था जैसे एक कामिल शहसवार एक तुंद मिज़ाज घोड़े को अपने बस में रखता है। इस मुआमले में वो कैसा कामयाब हुआ उस ने उस तबईयत को जो पानी की मानिंद बेक़रार थी चट्टान की मानिंद मज़्बूत बना दिया और इस चट्टान पर अह्दे जदीद के कलीसिया की बुनियाद क़ायम की। रसूलों के इस दायरे में जो और शामिल थे उन के साथ भी उस ने ऐसा ही किया। दग़ा बाज़ शागिर्द के सिवा बाकी सब के सब अपने उस्ताद की ताअलीम के वसीले कलीसिया के सतून और जहान में क़ुदरत वाले बनने के काबिल हो गए।
यसूअ ने मुन्नाद और मुअल्लिम के काम को इकट्ठा कर दिया। पहला काम ज़्यादा दिलकश था और मुम्किन था कि उस के तमाम वक़्त और क़ुव्वत पर हावी हो जाता। लोगों के हुजूम के हुजूम शोरो ग़ौग़ा मचाते हुए उस के पास आते थे और उन की हाजात पर लिहाज़ कर के उस का दिल उन की तरफ़ खींचा जाता था। मगर उस ने अपने वक़्त का बड़ा हिस्सा इन बारहों की तर्बीयत के लिए ख़र्च किया। हम शुमार व तादाद का बड़ा ख़्याल रखते हैं। ख़ादिम नहीं पर अपनी तमाम ताक़त को ख़र्च कर देते हैं। अलबत्ता ये तो सच है कि कोई मुन्नाद*( منا د) जो मसीह के जैसा दिल अपने सीने में रखता हो जमाअतों को बुरा भला कहने में जो ज़ाहिरन ऐसी माक़ूल बात मालूम होती मगर बहुत नावाजिब है शरीक नहीं हो सकता। मगर मसीह का नमूना हमें इस बारे में भी एक और सबक़ सिखाता है। एक दाना का क़ौल है कि :-
“फ़राख़ी और तंगी के दर्मियान वही फ़र्क़ है जो दलदल और नाले के दर्मियान है और यही क़ौल इस मौक़े पर भी सादिक़ आता है। अगर क़ुव्वत की एक वाजिबी मिक़्दार मसलन इस क़द्र जो हम रखते हैं एक बड़ी फ़राख़ सतह पर फैलाई जाये तो उस का इस से कुछ ज़्यादा असर नहीं होगा जैसा दलदल के इंच भर गहरे पानी का। लेकिन उस को ज़्यादा महदूद काम पर मुतजमा करने से वो एक नाले की मानिंद हो सकती है जो अपनी तंग नाली में गाता हुआ जाता और पनचक्की को चलाता है।”
एक जमाअत को लेकर अपनी तासीर को उस में मुन्किस्म कर दो। तो हर एक के हिस्से में थोड़ी थोड़ी आएगी। लेकिन उस को बारह या छः या सिर्फ एक शख़्स पर लगा दो तो असर ज़्यादा गहरा और देरपा होगा। ऐसे बहुत आदमी हैं जो एक जमाअत को ख़िताब करने के बिल्कुल ना काबिल हैं। मगर एक छोटी सी जमाअत को ताअलीम दे सकते हैं और मुम्किन है कि अंजामकार ये साबित हो कि उन्हों ने भी इसी क़द्र काम सर अंजाम किया है जैसा वो इस से ज़्यादा मर्गुब और तहसीन अंगेज़ क़ाबिलीयत को रख के कर सकते।
2
बाअज़ उमूर के लिहाज़ से तो बारहों के लिए मसीह का तरीक़ा ताअलीम उस तरीक़े से अह्द व जमाअत के साथ बरतता था मुशाबेह था। वो उन तमाम तक़रीरात को जो वो जमाअतों के सामने करता था सुनते थे। क्योंकि वो हमेशा उस के साथ साथ रहते थे। ताहम उस के सामईन (सुनने वालों) में से अक्सरों को एक या दो बार से ज़्यादा उस की बातें सुनने का इत्तिफ़ाक़ ना होता था। इस के इलावा उन्हों ने ख़ल्वत (अकेले) में उस को बहुत से तक़रीरात को जिनका तर्ज़-ए-बयान और साख़त उस के पब्लिक वअज़ों के मुशाबेह थी सुना था। इसी तरह उन्हों ने उस के तमाम मोअजज़ात को भी मुलाहिज़ा किया। क्योंकि वो जहां कहीं जाता था वो उस के हमराह जाते थे। हालाँकि अक्सरों को सिर्फ वही मोअजज़ात देखने का इत्तिफ़ाक़ हुआ होगा। जो उस ने एक या दो मुकामात में किए। इस के इलावा उस ने बाअज़ निहायत अज़ीमुश्शान मोअजज़ात मसलन तूफ़ान को थमाना सिर्फ उन्हीं की मौजूदगी में और उन्हीं के फ़ायदे के लिए दिखाए। इन बड़ी बड़ी मूसर और दिल में खुबने वाली बातों का बार बार उन के सामने वाक़ेअ होना उन की ताअलीम के लिए ना काबिल बयान फ़वाइद का वसीला था।
लेकिन उन की ताअलीम के तरीक़ में जो बात ख़ास थी वो ये थी कि वो उन्हें अपने से सवाल पूछने देता था और फिर उनके सवालों के जवाब भी देता था। जब कभी उस की पब्लिक तक़रीर में कोई बात दकी़क़ होती तो वो ख़ल्वत (अकेले) में उस से इस के मअनी पूछते और वो उन्हें बता देता था या अगर उस के बयान में किसी अम्र की सच्चाई या मअक़ूलियत की निस्बत उन्हें कुछ तामिल होता तो उन्हें आज़ादी थी कि उस के सामने अपने शुब्हात (शुब्हा की जमा, शक) को पेश करें और वो उन्हें हल कर देता था। चुनान्चे उस के काम के आग़ाज़ में हम उन्हें ये सवाल करते पाते हैं कि वो तम्सीलों में क्यों बात करता है? और उस के बाद हम बार बार उन्हें उस तम्सीलों की तशरीह दर्याफ़्त करते देखते हैं जिनका मतलब उन की समझ में ना आता था। जब उन्हों ने तलाक़ के मसअले पर उस की सख़्त ताअलीम सुनी तो उस से कहने लगे। कि “अगर मर्द का जौरू के साथ ये हाल है तो शादी करनी अच्छी नहीं।” इस पर उस ने इस मसअले को पूरा पूरा बयान उन के सामने कर दिया। इसी तरह जब उन्हों ने उसे ये कहते सुना कि “ऊंट का सूई के नाके से गुज़रना आसान है बनिस्बत इस के कि दौलतमंद ख़ुदा की बादशाहत में दाख़िल हो तो वो पुकार उठे तो फिर कौन नजात पा सकता है?” इस पर उस ने दौलत के मज़्मून पर एक मुफस्सिल तक़रीर की। क़िस्सा मुख़्तसर हम इंजील में पढ़ते हैं कि “लेकिन ख़ल्वत (अकेले) में अपने शागिर्दों को सब बातों के मअनी बतलाता था।”
मगर वो इस से भी बढ़ कर करता था। वो ना सिर्फ उन्हें अपने से सवाल पूछने देता था बल्कि उन को ऐसा करने की तहरीक भी करता था। वो जान बूझ कर अपने बयानात को पेचीदा और पहेलियों के से अक़्वाल में ज़ाहिर करता था ताकि लोगों को सवाल पूछने की तहरीक हो। उस ने ख़ुद भी अपनी इस तम्सीलों में कलाम करने की आदत का सबब बतलाया है। तम्सील बतौर एक नक़ाब के है जो सच्चाई के चेहरे पर पड़ा हो जिससे ये ग़रज़ होती है कि सामईन (सुनने वाले) के दिल में इश्तियाक़ पैदा हो कि वो उसे उठा कर उस ख़ूबसूरती को देखें जिसको ये नक़ाब कुछ कुछ छुपाने के बावजूद ज़ाहिर करता है। मुअल्लिम को अपने काम में कुछ भी कामयाबी नहीं होती जब तक कि वो शागिर्दों के दिल में बजाय ख़ुद सई व तहक़ीक़ात करने का शौक़ नहीं पैदा कर देता। जब तक शागिर्द ऐसी बे हरकत हालत में रहता है कि सिर्फ वही जो उस में डाला जाये क़ुबूल करता और उस के सिवा कुछ नहीं करता तो जानना चाहीए कि हक़ीक़ी ताअलीम अभी तक शुरू नहीं हुई और सिर्फ उसी वक़्त जब कि ज़हन ख़ुद बख़ुद किसी मज़्मून पर लड़ने लगता और अपने में वो तमाम मुश्किलात जिनका जवाब सच्चाई मुहय्या करती और वो तमाम ऐहत्याजात जिनको वो पूरा करते देखने लगता है। उस का हक़ीक़ी नशव व नुमा शुरू होता और वो तरक्की की राह पर क़दम मारने लगता है। जो कुछ मसीह फ़र्माता उस से शागीर्दों के दिलों में एक क़िस्म का जोश सा पैदा हो जाता था। उस की ग़रज़ ये होती थी कि उन के दिलों में हर तरह की दिक्कतें और मुश्किलात पैदा कर दे और तब वो उन को हल करने के लिए उस के पास आते थे।
सुकरात का भी जो यूनानी मुआल्लिमों में सबसे ज़्यादा दाना था यही तरीक़ा था। उस की ताअलीम में भी सवाल व जवाब को बड़ी जगह हासिल है। जब कोई शागिर्द उस के पास आता तो सुकरात उस से किसी अहम मज़्मून पर मसलन रास्तबाज़ी, मियाना रवी या हिक्मत के मुताल्लिक़ सवाल पूछता जिसकी निस्बत उस शागिर्द को ख़्याल था कि उस से बखुबी वाक़फ़ीयत रखता है। उस के जवाब पर वो एक और सवाल कर देता जिससे उस के दिल में शक पैदा हो जाता कि आया उस का जवाब सही या काफ़ी है या नहीं। तब सुकरात उस से मज़्मून के मुख़्तलिफ़ पहलूओं से सवाल पर सवाल किए जाता यहां तक कि शागिर्द को यक़ीन हो जाता कि उस की राय इस अम्र की निस्बत उस वक़्त तक नकीज़ात (बरख़िलाफ़, बरअक्स) का एक बेतर्तीब मजमूआ थी या ग़ालिबन ये भी कि ख़ुद उस का दिमाग़ भी अभी तक महज़ ग़ैर हज़म शूदा गूदे का तोदह है।
दोनों तरीक़े से एक ही ग़रज़ मक़्सूद थी कि ज़हन को इस बात पर उभारा जाए कि ख़ुद बख़ुद तहक़ीक़ात में सई व कोशिश करे। लेकिन इन दोनों में एक निहायत ही नाज़ुक और अमीक़ फ़र्क़ है। सुकरात सवाल पूछता था और उस के शागिर्द उनका जवाब देने की कोशिश करते थे। फ़िल-जुम्ला फ़लसफ़े के मदरसे में जो कुछ ताअलीम होती थी वो बतौर ज़हनी वरज़िश थी। सवालों के जवाबात बजाय ख़ुद कुछ वक़अत नहीं रखते थे। फ़िल-हक़ीक़त बहुत से फ़लसफ़ियों ने भी इस अम्र का इक़रार किया है कि उन के काम का बड़ा मक़्सद वो ज़हनी क़ुव्वत है जो सच्चाई की जुस्तजू में हासिल होती है और उन में से एक का क़ौल है कि:-
“अगर ख़ुदा उस के सामने एक हाथ में सच्चाई की जुस्तजू और दूसरे में ख़ुद सच्चाई को पेश करे तो वो बिला तातिल अव्वल-उल-ज़िक्र को क़ुबूल करेगा। दायरह फ़ल्सफ़ा में तो शायद ये दानाई की बात समझी जायेगी मगर कोई दाना आदमी दायरा मज़्हब में उस को इस्तिमाल करना पसंद ना करेगा। ये नजात बख़्श सच्चाई थी जिसकी यसूअ ताअलीम देता था। उस की जुस्तजू से भी ज़हन की तादेब दुरुस्ती होती है मगर हम इस अम्र में सिर्फ जुस्तजू पर क़ालेअ् (क़नाअत, जितना मिल जाए उस पर सब्र करना, जो मिल जाये उस पर राज़ी रहने वाला) होने का हौसला नहीं कर सकते बल्कि ज़रूर है कि हम रूह के उन बड़े बड़े सवालों का जवाब हासिल करें।”
इसलिए जहां सुकरात सिर्फ़ सवाल करने पर इक्तिफ़ा करता था। यसूअ उनका जवाब देता और सिर्फ उसी के पास तमाम आदमी शुब्हात और तहक़ीक़ात के तारीक जंगलों में आवारा सरगर्मां होकर आख़िरकार रूह के अक़ीदों और दिक्कतों को हल करने के लिए आएंगे। “ख़ुदावंद हम किस के पास जाएं हमेशा की ज़िंदगी की बातें तो तेरे पास है।”
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अगर हम इस सवाल के जवाब में कि मसीह की बारहों की ताअलीम व तर्बीयत से क्या ग़र्ज़ थी ये कहें कि उस की ग़र्ज़ ये तो ज़ाहिर है कि अपने लिए जांनशीन मुहय्या करे तो शायद ये अल्फ़ाज़ ज़्यादा सख़्त समझे जाएं गए। क्योंकि ये तो ज़ाहिर है कि उस के सबसे बड़े और ख़ास काम में यानी अपने दुख और मौत से नजात का काम सर अंजाम करने में ना तो कोई उस का जांनशीन है और ना हो सकता है। उस ने ख़ुद ही इस काम को सरअंजाम कर दिया और इस का कुछ हिस्सा किसी दूसरे के करने लिए बाकी नहीं छोड़ा।
लेकिन इस अम्र को बख़ूबी समझ लेने के बाद हम इस काम को जो उस ने मोअल्लिम की हेसीयत में किया ज़्यादा उम्दा तौर से उन्हें अल्फ़ाज़ में ज़ाहिर कर सकते हैं कि वो अपने जांनशीन बनने के लिए उन की ताअलीम व तर्बीयत इस तौर से कर रहा था। जब वो ज़मीन से उठाया गया तो बहुत सा हिस्सा इस काम का जो वो किया करता था और अगर दुनिया में रहता तो करता रहता उन (शागिर्दों) के हिस्से में आया। इस मुआमले की जिसकी उस ने बुनियाद रखी हिमायत करनी और इस का दुनिया में इंतिज़ाम व बंदोस्त करना उन्हीं के सपुर्द हुआ। उस के अपने काम के आग़ाज़ ही से ये अम्र उस के मद्द-ए-नज़र था। और बावजूद और मश्ग़लात (मशगुल जमा) के जो अगर वो ऐसा होने देता उस को बिल्कुल मुसतग़र्क़ि (महव, डूबा हुआ) कर लेते। उस ने अपने (आपको) को ऐसे लोगों के तैयार करने में लगा दिया जो उस की रहलत के बाद उस की जगह काम कर सकें।
उस ने पहले फल उन को अपने काम की अदना अदना ख़िदमतों पर लगाया। मसलन ये साफ़ लिखा है कि “यसूअ नहीं बल्कि उस के शागिर्द बप्तीस्में देते थे।” जब उन को उस के साथ रहते ज़्यादा अरसा हो गया और वो किसी हद तक मसीही ज़िन्दगी में पुख़्ता हो गए तो उस ने उन को अलैहदा बजाय ख़ुद काम करने के लिए भेजा वो भी अपने तौर पर दौरे पर गए। गोया दौरे बहुत बड़े ना थे। वो भी मुनादी करते और बीमारों को चंगा करते फिरे और फिर उस के पास वापिस आकर “जो कुछ उन्हों ने किया और जो कुछ सिखलाया था सब उस से बयान किया।” और फिर आइंदह के लिए उस से हिदायत हासिल करीं। इस तौर से बाअज़ औक़ात शागिर्द पहले से ज़मीन तैयार कर देते थे कि उनका उस्ताद आकर उस में अबदी ज़िंदगी के बीज बोए और शायद बाअज़ ऐसे इलाकों तक उस की ख़बर पहुंच जाती थी जहां बज़ात ख़ुद जाने की उसे फ़ुर्सत ना थी। लेकिन इन सब बातों से बढ़ कर इस तरीक़े से उन की ताक़तें नशव व नुमा पाती थीं और उस दिन के लिए उनका ईमान मज़्बूत होता जाता था, जो उसे पहले ही से मालूम था। जब कि वो अपने को तने तन्हा कलीसिया को क़ायम करने और उस के लिए दुनिया को फ़त्ह करने के अज़ीम काम से रूदरू पायेंगे।
सही मसीहीय्यत का ये एक ख़ास्सा है कि वो हमारे दिल में ना सिर्फ माज़ी के बड़े बड़े वाक़ियात की निस्बत बल्कि मुस्तक़बिल की तारीख की निस्बत भी एक दिलचस्पी पैदा कर देती है। एक मामूली आदमी सिवाए उस ज़माने के जहां तक उस की अपनी औलाद के साथ उस का ताल्लुक़ हो ज़माना आइंदह कि कुछ परवा नहीं करता। अगर वो इस वक़्त शादी व आराम में बसर करता है तो उसे क्या वास्ता कि दुनिया की हालत उस मौत के बाद क्या होगी? मगर मसीही इस बात की बहुत परवा करता है। उस के दिल में ईमान और मुहब्बत है वो उसे उन मक़दूसो से जो अभी तक पैदा नहीं हुए पैवंद कर देती है। वो एक ऐसे मुआमले में भी दिलचस्पी लेता है जो उस के कोच के बाद भी बराबर जारी रहेगा और जिससे उसे अपनी हस्ती के बाद की मंज़िल में फिर दो चार होना और सरअंजाम करना पड़ेगा। उस के नज़्दीक ये अम्र कि मसीह का काम उस के क़ब्र में पड़ने के बाद किस तरह सरसब्ज़ रहेगा। ऐसा ही अहम है जैसा ये कि वो काम इस वक़्त किस तरह सरसब्ज़ हो रहा है। इसलिए हमको बड़ी फ़िक्रमंदी से उन लोगों का भी ख़्याल करना चाहीए जो हमारे बाद हमारे काम को करते रहेंगे। मसीह ने अपने काम के शुरू ही से इस अम्र का ख़्याल किया और ये पेश-बीनी निहायत ज़रूरी थी।
इन्सान किसी मुआमले में इस तौर से भी बहुत मदद दे सकता है कि वो नौजवानों को उस में लगाए और उस के लिए उन को तर्बीयत करे बनिस्बत इस के कि वो ख़ुद अपनी उम्र का हर एक लम्हा और अपनी ताक़त का हर एक ज़र्रा इसी काम में सर्फ कर दे। कुछ अरसा हुआ मैंने इल्म तिब्ब की एक ख़ास शाख़ की मुख़्तसर तारीख़ पढ़ी थी मुझे ये मुतालआ बड़ा ही दिलचस्प मालूम हुआ कि किसी तरह पहले-पहल उस का इल्म यूनानी तबीबों में शुरू हो कर ज़मान मुतवस्सित (12 ता 15 सदी ईस्वी) में अरबी तबीबों के दर्मियान तरक्क़ी पाता गया। यहां तक कि वो ज़माना-ए-हाल की वसीअ और रोज़-अफ़्ज़ोन दरियाफ़्तों और इजादों के दर्जे को पहुंच गया। मगर इस तमाम अत्बा (तबीब की जमा, हकीम) के सिलसिले में जिस नाम ने मेरे दिलपर बहुत असर किया वो था जिसने इस तरक्क़ी में बहुत कुछ मदद दी मगर जो ख़ुद इक़रार करता था कि इस काम में दरहक़ीक़त उस ने कुछ नहीं किया। उस शख़्स को हमेशा नौजवान तबीबों की जमाअत घेरे रहती थी जिनके दम में उस ने इस मुआमलें की निस्बत जोश व सरगर्मी पैदा कर दी। फिर वो उन्हें एक एक हल तलब मसअले तहक़ीक़ात के लिए दिया करता था और आख़िरकार उन्हें तफ़्सीली तहक़ीक़ातों के इज्तिमे के ज़रीये से वो फ़न-ए-तिब्ब में ऐसी बड़ी ईजाद व तरक्की करने में कामयाब हुआ। हमको इस वक़्त मसीही कलीसिया में और किसी चीज़ की इतनी सख़्त ज़रूरत नहीं। जैसी ऐसे आदमियों की जो इस तौर से नौजवान और ख़्वाहिशमंद अश्ख़ास की उन के मुनासिब हाल काम की तरफ़ रहनुमाई करें और उन पर ज़ाहिर करें कि किस-किस काम के करने की हाजत है और फिर उन की लियाक़तों के मुनासिब काम में उन्हें लगाऐं। मुअल्लिम की ख़िदमत व ओहदा इख़्तियार करने से बहुत अश्ख़ास मसीह की ख़िदमत में ऐसे आदमियों को भर्ती कर सकते हैं जिनकी ख़िदमत उन की अपनी ख़िदमतों से कहीं बढ़ कर हों। बरनबास ने भी ऐसा ही किया जब वो पोलूस को कलीसिया की ख़िदमत में लाने का वसीला बना। जिसकी ख़िदमत का हाल हम आमाल की किताब और उस के लिखे हुए ख़ुतूत में हैरत के साथ पढ़ते हैं।
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ज़मानाहाल में जो काम मुअल्लिमीन की हैसीयत से मसीह के काम से ज़्यादातर मुशाबहत रखता है वो शायद इल्म ईलाही के प्रोफ़ैसर का काम है। उलमा इलाही के मदरसों और कॉलिजों के तलबा उसी हालत में हैं जिसमें बाराहों शागिर्द अलग अलग बजाए खुद काम करने के लिए भेजे जाने से पहले थे। अगर मसीह और उन बारहों के बाहमी ताल्लुक़ पर ख़ूब ग़ौर करें तो प्रोफ़ैसरों और उन के तलबा के बाहमी ताल्लुक़ की निस्बत हमको बहुत कुछ रोशनी मिलेगी।
बारहों के लिए उन के उस ताल्लुक़ का जो वो मसीह के साथ रखते थे सबसे ज़्यादा क़ीमती हिस्सा सिर्फ ये था कि उन को उस की हमराही में रहने की इज्ज़त हासिल थी। यानी रोज़ बरोज़ वो उस की अजीब व ग़रीब ज़िंदगी पर नज़र करते और रोज़ बरोज़ चुप चाप अन्जाने उस की ख़सलत का नक़्श अपने ऊपर होने देते थे। मुक़द्दस युहन्ना बहुत अर्से बाद इन तीन सालों के तजुर्बे पर ग़ौर करते हुए इन चंद अल्फ़ाज़ में उस को क़लम-बंद करता है कि “हमने उस का जलाल देखा।” जो लफ़्ज़ वो उस मौक़े पर इस्तिमाल करता है वो वही है जिससे वो सकीना मुराद है। जो कफ़्फ़ारागाह के ऊपर चमकता था। फ़ीनेकियह और पियरिया के तन्हा सफ़रों में गलील के पहाड़ों पर की बे तक्लीफ़ बातचीत में वो अक्सर महसूस करते थे कि क़ुद्दुस इला क़ुद्दुस उन पर खोला जा रहा है और कि वो उस हुस्न पर नज़र कर रहे हैं जो बयान से बाहर है।
शायद सबसे बड़ा नुक़्स मदरसा इल्म ईलाही की ताअलीम व तर्बीयत में जैसे आज कल मुरव्वज है ये है कि मुअल्लिम और मुतल्लिम के दर्मियान ये हमदमी और रिफ़ाक़त नहीं। बहुत कम प्रोफ़ेसर हैं जिन्होंने इस अम्र में बहुत कोशिश की हो। काम तो दर-हक़ीक़त बड़ा मुश्किल है कोई आँख ऐसी तेज़ नहीं जैसे शागिर्दों की, अगर उन के साथ ज़्यादा मेल जोल करें तो वो फ़ौरन उस्ताद की लियाकतों का अंदाज़ा लगाने लगते हैं। जब किसी प्रोफ़ेसर पर उन को एतिमाद होता है तो वो एक तरह से उस की परस्तिश करने लग जाते हैं। लेकिन जब एतिमाद उठ जाये तो फिर उन की नफ़रत की भी कोई हद नहीं। ये तो मुम्किन है कि किसी की शौहरत व नामोरी उन की आँखों को चकाचोंध (हैरान, तअज्जुब) कर दे। मगर सिर्फ ख़स्लत की कामिलियत और कमाल इल्मीयत ही इस असर को ज़्यादा मुस्तक़िल तौर पर क़ायम रख सकते हैं।
ज़माना-ए-हाल में मैं सिर्फ एक आदमी से वाक़िफ़ हूँ। जिसने बिला ख़ौफ़ व तामिल अपने शागिर्दों के साथ गाढ़ी उन्स व रिफाक़त पैदा की। उस का चलन ईसा मसीह की मानिंद था और उस का नमूना ऐसा अज़ीमुश्शान था कि वो इस लायक़ है इस जगह उस का ज़िक्र करें।
तमाम लोग जो कुछ भी इल्म ईलाही से वाकफ़ीयत रखते हैं उन्होंने प्रोफ़ैसर थोलक का कम से कम नाम तो ज़रूर सुना होगा। इल्म तफ़्सीर और इल्म कलाम पर उस ने बे शुमार किताबें लिखी हैं जिससे उस को इस सदी के उलमाए दीन में आला पाया हासिल हो गया है। इस्लाह दुरुस्ती के लिहाज़ से वो और भी आला दर्जा रखता है। जो कुछ वस्ली ने कलीसिया ए इंग्लिस्तान के लिए और चामर्ज़ ने कलीसिया सकाटलैंड के लिए किया। हम कह सकते हैं कि वही उस शख़्स ने कलीसिया ए जर्मनी के लिए किया है। उस ने मअक़ुलीयों से लड़ाई कर के उनको पसपा कर दिया और इंजीली मज़्हब को उस मुल्क में एक आला और मुअज्ज़ज़ रुत्बे पर पहुंचा दिया।
मगर जिस तरीक़े से उस ने इस काम को अंजाम दिया वो उस लायक़ है कि ख़ुदा की कलीसिया में हमेशा उस की याद रहे। जों ही उस के दिल में रुहानी तब्दीली वाक़ेअ हुई और वो बैतूलउलूम में मोअल्लिम मुक़र्रर हो गया उस ने अपने शागिर्दों से इस तौर से मेल जोल रखना शुरू किया जो जर्मनी में एक ग़ैर मामूली बात थी। फ़क़त अपनी कुर्सी मुअल्लिमी पर से लेकचर देने पर क़नाअत (जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) ना कर के उस ने उन के साथ फ़रदन फ़रदन ज़ाती वाक़फ़ीयत पैदा की ताकि उन को मसीह की तरह रुजू करे। वो सैर के वक़्त उन को अपने हमराह ले जाता। वो उन के घरों में उन से मुलाकात करता वो हफ़्ते में दो बार शाम के वक़्त दुआ और मुतालआ कलाम-उल्लाह और मशज़ी काम के हालात पढ़ने के लिए उन्हें जमा करता था। जों जों वक़्त के साथ उस की जमाअत बढ़ती गई उसी क़द्र ये काम भी ज़्यादा वसीअ होता गया। मगर उस की सई व कोशिश में किसी तरह फ़र्क़ ना आया। जब वो काम में बिल्कुल ग़र्क़ था यानी एक तरफ़ तो अपने शागिर्दों के लिए लेक्चर तैयार करता और दूसरी तरफ़ वो किताबें जिनसे दुनिया की नज़रों में उस की इज़्ज़त मुसल्लम हो गई शाएअ करता था। वो बिला नागह चार घंटे हर रोज़ अपने शागीर्दों के साथ सर्फ करता था। और इस के इलावा हर रोज़ एक को खाने पर और दूसरे को चाय पिलाने पर अपने घर मदऊ करता (दावत देना) था।
ये सब सिर्फ बालाई बातें थीं। वो उन लोगों की मानिंद नहीं था जो अगर बिला किसी तैयारी के एक दफ़ाअ बातों बातों में किसी के साथ मज़्हब का तज़्किरह छेड़ देते हैं तो समझते हैं कि बस उस शख़्स के रुहानी उमूर के साथ जहां तक उन को वास्ता था इस से सबकदोश (बरी-उज़्ज़िम्मा, फ़ारिग़ होना) हो गए। उस को अक्सर देखने का इत्तिफ़ाक़ होता था कि बाअज़ शागिर्दों के दिल तक पहुंचना बहुत मुश्किल काम है और इसलिए उस को अपनी कारवाई बहुत दूर से गोया उस के खयालात के बैरूनी दायरे से शुरू करनी पड़ती थी। वो बड़ा जिंदादिल और नग़ज़गो (उम्दा उस्लूब बयान) शख़्स था। वो शागिर्दों से अजीब अजीब सवाल कर के उन के ज़हन को आज़माता था और जिनको उस के साथ कभी सैर करने का मौका मिलता था। बादअज़ां हफ़्तों तक उस की हंसी मिज़ाज की बातों को याद कर के लुत्फ़ उठाया करते थे। वो ज़हनी उमूर में बहुत दिलचस्पी रखता था और हर एक आदमी से उस के मुअल्लिमों और दिल पसंद मज़्मून पर गुफ़्तगु करवाने का ख़ूब ढंग जानता था। वो किताबों और तरीक़े मुतालआ की निस्बत बहुत कुछ क़ीमती सलाह दे सकता था। वो हर एक पहलू से ज़हन को होशियार करने और उकसाने की कोशिश करता था। बहुत से लोग ऐसे हैं जो अपनी ज़हनी और रुहानी बेदारी के लिए उसी के मम्नून हैं, मगर वो जिस्म की ज़रूरीयात से भी बेपरवा ना था। जर्मनी के किसी प्रोफ़ैसर ने अपने शागिर्दों की इस क़द्र मदद ना की होगी जैसी उस ने की है। लेकिन हर वक़्त उस की आँख सिर्फ एक मक़्सद पर लगी रहती थी और उस की तमाम कोशिशों का उसी तरफ़ मिलान (रुजहान) होता था। यानी हर एक शागिर्द जिससे उस को साबिक़ा पड़ता था उस की ज़ाती निजात।
और उस को इस का फल भी मिला। उस की ज़िंदगी ही में ये अम्र मशहूर था कि उस को बहुत बड़ी बड़ी कामयाबी हुई है। मगर ये सिर्फ उस के सवानिह उम्री की इशाअत से बख़ूबी मालूम होता है कि वो कामयाबी दर-हक़ीक़त किसी क़द्र बड़ी थी उस के काग़ज़ात में सैकड़ों ख़ुतूत तालिबे इल्मों और ख़ादमान-ए-दीन के पाए गए, जिनमें वो उसे अपना रुहानी बाप तस्लीम करते हैं और ये भी ज़ाहिर हुआ है कि बहुत से अश्ख़ास जिनके नाम जर्मनी की इस सदी की इल्मी तारीख में निहायत मशहूर व मारूफ़ हैं उसी के वसीले से उन के दिल में सच्ची रूहानी तब्दीली पैदा हुई और जर्मनी के मेम्बरों और मुअल्लिमीन की कुर्सियों पर सैकड़ों अश्ख़ास इस वक़्त इंजील की ख़िदमत में मशग़ूल हैं जिनकी जानें इसी के वसीले से बच गईं। इस की क्या वजह है कि ऐसी ज़िंदगी हमें बिल्कुल ग़ैर मामूली और यकता मालूम होती है? क्यों और दायरों में मसलन ओफ़ीस दूकान या स्कूल में भी कलीसिया और बैतूल-उलूम की मानिंद इस की नक़्ल नहीं की जाती? थोलक ने अपनी ज़िंदगी का राज़ सिर्फ एक फ़िक़्रे में बता दिया। “मेरे दिल में फ़क़त एक आरज़ू है और वो मसीह है।”
15
मसीह का नमूना मुबाहिसा करने में
(मत्ती 15:21-48 मत्ती 9:10-13 मत्ती 12:24-45 मत्ती 15:1-14 मत्ती 16:1-4 मत्ती 19:3-12 मत्ती 21:23-46 मत्ती 22 बाब मत्ती 23 बाब)
(लूक़ा 7:36-50 लूक़ा 10:25-37 लूका 11:37-54 लूक़ा 12:1
लूक़ा 13:11-17)
(युहन्ना 2:18-20 युहन्ना 5 बाब युहन्ना 6:14-65 युहन्ना 7:10-53
युहन्ना 8:12-59)
पन्द्रहवां बाब
मसीह का नमूना मुबाहिसा करने में
किसी का क़ौल है कि :-
“सच्चाई की हैकल के ख़ादिम तीन क़िस्म के हैं, अव़्वल वो जो हैकल के दरवाज़े पर खड़े हुए रहगुज़रों को अंदर आने की तर्ग़ीब व तहरीस करते हैं। दोम वो जिनका काम ये है कि उन सब के हमराह जो दाख़िल होने पर राग़िब हुए में अंदर जाएं और उस मुक़ाम के खज़ाने और राज़ उन पर ज़ाहीर और आशकारा करें। सोम वो हैं जिनका ये काम है कि हैकल के गिर्दा गिर्द फिर कर पहरा देते रहें और दुश्मनों के हमलों से मुक़द्दस की निगबानी करे।”
सरसरी तौर पर हम कह सकते हैं कि इन तीनों ओहदों में से अव़्वल तो मुन्नाद का है दूसरा मुअल्लिम का और तीसरा बहस मुबाहिसा करने वाले का है।
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इस ज़माने में मुबाहिसे का नाम बदनाम हो रहा है। जहां इस का नाम लिया लोग फ़ौरन चौंक उठते हैं और उमूमन लोगों के दिल में मुबाहिसा करने वाले की निस्बत कुछ उम्दा और तारीफ़ का ख़्याल नहीं पाया जाता। वो शख़्स जिसे तक़्दीर ने मुबाहिसे का काम सपुर्द किया है मसीह के दीगर ख़ादिमों की निस्बत बहुत कम मसीह के लोगों की हम्दर्दी और क़द्रदानी की उम्मीद कर सकता है। क्योंकि वो लोग भी जो सच्चाई के मुताल्लिक़ खयालात में उस से मुत्तफ़िक़ हैं उस के झगड़े के मैदान में दाख़िल होने को पसंद नहीं करते बल्कि अफ़्सोस करते हैं कि उस ने किस लिए बजाय किसी और उम्दा काम के इस काम को इख़्तियार कर लिया। मसीहीयों के इस ख़्याल ने वही नतीजा पैदा किया जो होना चाहीए था। साहिब-ए-लियाक़त अश्ख़ास इस क़िस्म का काम इख़्तियार करने से शर्म खाते हैं क्योंकि वो अपनी क़ाबलियतों को बआसानी ऐसे कामों में लगा सकते हैं। जहां उन के काम की क़द्रदानी होती है। इस वजह से मुबाहिसे का काम ज़्यादा-तर कम लियाक़त आदमीयों के हाथ में पड़ गया है। हम बाआसानी बहुत से मुबाहिसों का नाम ले सकते हैं। जिनका कलीसिया की बहबूदी के लिए कारामद होना बिल्कूल मुसल्लम है मगर जो ऐसे हामीयों की हिमायत से महरूम हैं जिनकी इम्दाद व ताईद उन्हें लोगों की नज़रों में वक़अत बख़्शती।
जिन अस्बाब से पब्लिक (लोगों) के दिल में मुबाहिसे की निस्बत ऐसा ख़्याल पैदा हो गया उन का खोज लगा ना भी दिलचस्पी से ख़ाली ना होगा। क्योंकि बिला-शुब्हा इस अम्र के लिए माक़ूल वजूहात होनी चाहिऐं। ग़ालिबान इस की एक वजह ये है कि पहले ज़माने में बहस मुबाहिसे की हद कर दी थी और उस लिए पब्लिक तबीयत ने उस से दक़ (دق) आकर पल्टा खाया है। क्योंकि अगरचे मुबाहिसा कलीसिया का ज़रूरी काम है मगर किसी तरह से निहायत ज़रूरी नहीं समझा जा सकता और इसलिए वो चीज़ जो मिक़दार मुनासिब में फ़ायदेमंद हो मुम्किन है कि ज़्यादा मिक़्दार में ज़हर का काम दे। नेक आदमी भी बाअज़ औक़ात सच्चाई के लिए ऐसे गर्म हो जाते हैं कि बाहमी उल्फ़त व मुहब्बत के लिए सरगर्मी दिखानी भूल जाते हैं। बाअज़ औक़ात ऐसी छोटी छोटी बातों पर जिनकी निस्बत बेहतर होता कि मसीही बाहमी इख़्तिलाफ़ के रवादार हो जाते ऐसी तंदी और गर्मी के साथ बहस मुबाहिसा किया गया जो सिर्फ ऐसे मौके पर बर-महल होता जब कि आज़ादी और मज़्हब को वाक़ई नुक़्सान पहुंचने का ख़ौफ़ होता। जब लोग इस क़िस्म के जोश अंगेज़ उमूर में शरीक होते हैं तो वो तनासुब के ख़्याल को नज़र-अंदाज कर देते हैं और अपने तफ़्सीली अल्फ़ाज़ को अदना अश्या पर ख़र्च कर बैठते हैं। यहां तक कि जब वो उमूर जिन पर उनका इस्तमाल दरहक़ीक़त वाजिब था पेश आते हैं तो अपनी जेबों को ख़ाली पाते हैं। इसी तौर से वो औरों के दिलों पर जो काबू उन को पहले हासिल था वो भी खो बैठे हैं। क्योंकि पब्लिक उन मुआमलात के मुताल्लिक़ सख़्त जोश दिलाए जाने के बाद ये दरयाफ़्त कर के कि वो बिल्कुल बे-हक़ीक़त बातें थीं ऐसी बे एतिक़ाद होती है कि जब हक़ीक़ी ख़तरा भी पेश आता है तो हरकत करने से इन्कार करती है।
मगर ये इस ज़माने की कुछ अच्छी अलामत नहीं है कि लोग मुबाहिसे को हक़ीर समझने लग गए हैं। किताब के हुजम के बहुत पढ़ जाने के ख़ौफ़ से हमें अनाजील में से ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ हालात के मुताल्लिक़ यसूअ के रवय्ये की तमाम व कमाल शहादत को छापने से बाज़ रहना पड़ा है। लेकिन अगर हम उस को छाप सकते तो इस मजमूआ शहादत में से सबसे मोटा ततिम्मा (बचा हुआ) इस बाब के आख़िर में लगाना पड़ता। उस की ज़िंदगी के तज़किरों में हमें बहस मुबाहिसे के मुताल्लिक़ सफ़्हों के सफ़्हे भरे मिलते हैं। मुम्किन है कि ये ऐसा काम ना था जिसमें उसे बहुत ही ख़ुशी हासिल होती थी। लेकिन उसे ये काम अपनी ज़िंदगी-भर ख़ासकर ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में इख़्तियार करना पड़ा। उस के सबसे आलीक़द्र खादिमों को भी हर ज़माने में ऐसा ही करना पड़ा है। शायद मुक़द्दस पौलुस के लिए उस की तबीयत ही के लिहाज़ से ये काम कुछ ग़ैर मर्ग़ूब ना था। लेकिन मुक़द्दस युहन्ना को भी वैसी ही गर्म-जोशी से उसे इख़्तियार करना पड़ा। मुश्किल से हम मसीह कलीसिया की तारीख़ के किसी ऐसे उलुल-अज़्म शख़्स का नाम ले सकते हैं जो बिल्कुल इस से फ़ारिग़ रह सका है।
सच्चे मुबाहिसे की तोह व मिज़ाज ये है कि मुबाहिसे को दिली यक़ीन है कि सच्चाई उस के पास है और कि वो सच्चाई तमाम आदमीयों के लिए क़ीमती है और इस यक़ीन के सबब उस के दिल में ग़लती से नफ़रत और उस को दफ़ाअ करने की जुर्रत पैदा हो। ये शाहे हक़ की हैसीयत में था कि मसीह बहस मुबाहिसो में मशग़ूल रहा और इस हालत में यही नेक-ख़ुवाहिश उस को सहारा देती थी कि अपने हम जिंसों को ग़लती के तंग व तारीक क़ैदख़ाने से रिहाई बख़्शी। मुबाहिसे की निस्बत हद से बढ़ कर नफ़रत होने से ये ख़्याल हो सकता है कि कलीसिया के दिल में ऐसी सच्चाई पर क़ाबिज़ होने की जो निहायत ही बेशक़ीमत है कुछ बड़ी वक़अत नहीं है और कि उस के ज़हन में सच्चाई और ग़लती की क़ीमत के बेहद फ़र्क़ की कुछ तमीज़ बाकी नहीं रही।
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अलबत्ता पब्लिक के दिल में मुख़्तलिफ़ क़िस्म के मुबाहिसों की निस्बत मुख़्तलिफ़ खयालात जागज़ीन हैं। मुबाहिसे का एक काम ये है कि उस ग़लती का जो कलीसिया से बाहर है मुक़ाबला करे। मसीही मज़्हब पर मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब की तरफ़ से बराबर हमले होते रहते हैं जो यके बाद दीगरे (एक के बाद एक) पैदा होते और कुछ अरसे के बाद मादूम (ख़त्म) होते रहते हैं। एक ज़माने में डी अज़्म (ڈی ازم) की तर्दीद की ज़रूरत पड़ती है कभी हमाओसती की कभी दहरियत की। मसीही सच्चाई की हैकल को ऐसे हमलाआवरों से बचाना लोगों के नज़्दीक हर दिलअज़ीज़ है। बल्कि बहुत कुछ इनाम का सज़ावार भी समझा जाता है। इसलिए इस क़िस्म के मुबाहिसे पर बहुत कुछ लिखा जाता है। बल्कि बाअज़ औक़ात ऐसे मौको पर भी जहां उस की ज़रूरत नहीं होती। ताहम ये काम अपने मुनासिब मौके पर किया जाये तो निहायत ही कारआमद है। और ख़ास कर ज़मानाहाल में उसी लिए आला दर्जे की लियाक़त व क़ाबिलीयत दरकार है। क्योंकि हमारी सदी के बहुत से मसाइल ज़ेर-ए-बहस अभी तक हल नहीं हो गए।
ये वो बहस है जो कलीसिया के अंदरूनी मुआमलात पर होती जिससे नफ़रत और तशवीश पैदा होती है। मगर वो मुबाहिसा जो हमारे ख़ुदावंद ने किया कलीसिया की अंदरूनी बातों पर था और ऐसा ही वो भी है जो उस आली क़द्र पैरूओं को करना पड़ा है। अलबत्ता जो उम्दा बात होती कि मुबाहिसे के औज़ारों की सदा अमन की हैकल में सुनाई ना पड़ती। मगर ये सिर्फ उस सूरत में होता जब कि वो फ़िल-हक़ीक़त सच्चाई की हैकल होती। मसीह के ज़माने में वो ग़लती का क़लेअ् और पनाहगाह बनी हुई थी और उस के बाद भी सिर्फ एक या दो दफ़ाअ ही उस को ऐसा बनने का मौका नहीं मिला। यसूअ को अपने ज़माने के क़रीबन तमाम मज़हबी तरीक़ा इंतिज़ाम और कलीसिया के बहुत से मसाइल पर हमला करना पड़ा। ऐसा करना एक साहिब-ए-होश इन्सान के लिए हर हालत में ज़रूर एक दर्द नाक काम है। क्योंकि जो एतिक़ाद एक कसीर-उल-तादाद आदमीयों के दिल में जिन्हें ऐसे वसीअ मज़ामीन पर ग़ौर व फ़िक्र करने की क़ाबिलीयत या फ़ुर्सत नहीं। अपने रूहानी पेशवाओं की निस्बत होता है। इंसान ज़िंदगी के निहायत पाक और काबिल हुरमत सुतुनों में से है। और कोई काम इस से बढ़ कर गुनाह नहीं कि उस को बेपरवाई से हिलाया जाये। लेकिन बाअज़ औक़ात उस को हिलाना ज़रूरी होता है और यसूअ ने भी ऐसा ही किया।
अलबत्ता इस के बरअकस होना भी ब-आसानी मुम्किन है। हो सकता है कि कलीसिया हक़ पर हो और नई बात निकालने वाला ग़लती पर। तब हक़ीक़ी काम मसीही मुनाज़िर का ये है कि कलीसिया की तरफ़ से उस शख़्स का जो उस को गुमराह करने की कोशिश करता है मुक़ाबला करे। ये भी निहायत नाज़ुक काम है जिसमें आला दर्जे की मसीही हिक्मत की ज़रूरत होती है। बाअज़ औक़ात उस के एवज़ कुछ तहसीन और आफ़रीन भी हासिल नहीं होती। क्योंकि मुम्किन है कि जो शख़्स उस ग़लती के बरख़िलाफ़ जो बाहर से आती है कलीसिया की हिफ़ाज़त करता है, हामी दीन समझा जाकर वो तो इज्ज़त व तौक़ीर से लादा जाये। मगर वो शख़्स जो उसे ज़्यादा सख़्त अंदरूनी ख़तरे से बचाने की कोशिश करता है अपनी सारी मेहनत के एवज़ में बिदअत जो कि ज़लील और शर्मनाक ख़िताब से बढ़ कर और कुछ हासिल ना करे। लेकिन ये मालूम करना आसान बात नहीं कि एक काबिल मसीही के वास्ते इन दोनों सुरतों के दर्मियान कौन सी ज़्यादा मुनासिब जाये क़याम है यानी या तो एक तरफ़ कलीसिया को बिदअती समझ कर उस पर हमला करना या दूसरी तरफ़ उस को सच्चाई की ताअलीम ना देने के इल्ज़ाम से बचाने के लिए तैयार रहना।
3
मसीह और यहूदी मुअल्लिम जिनसे वो झगड़ा करता था दोनों के पास एक मुश्तरीक मक़यास और पैमाना था। जिससे वो सनद लाते थे। दोनों अहदे अतीक़ के नविश्तों को कलामुल्लाह तस्लीम करते थे। चूँकि इस अम्र से उस के काम की जो कोम यहूद के मुताल्लिक़ था एक ख़ास सूरत हो गई “क्योंकि उन को वो ऐसे तौर से ख़िताब कर सकता था, जिस तौर से वो और किसी क़ौम को ना कर सकता था।” इसलिए उस का काम भी बहुत कुछ सादा और आसान हो गया। उस की बड़ाई और ग़लबा इस बात में था कि वो उस पैमाने से जिससे दोनों सनद लाते थे ज़्यादा गहरी और कामिल वाकफ़ीयत रखता था। वो लोग तो दर-हक़ीक़त क़ौम के उलमा थे और अहदें अतीक़े उन की तालीमी किताब थी। लेकिन मसीह जैसा उस से कई बार तंज़न कहा गया अनपढ़ था। मगर कलामुल्लाह से गहरी मुहब्बत रखने और उस की जुस्तजू और तहक़ीक़ात में उम्र-भर की मेहनत के सबब वो उन से उन्ही के मैदान में बाज़ी ले गया। क्योंकि वो अपने हाफ़िज़े के खज़ाने से मौके की ज़रूरत के मुताबिक़ बिलाताम्मुल आयत पेश कर सकता था और जब वो उस कलाम का जो उन की दलील को तोड़ने वाला था। हवाला देता तो बाअज़ औक़ात उन पर जिन्हें बाइबल से कामिल वाक़फ़ीयत रखने पर बड़ा फ़ख़्र था। तंज़ कर के अपने हवाले को इस सवाल से शुरू करता कि “क्या तुमने नहीं पढ़ा?” कभी वो ज़्यादा संजीदा हालत में उन्हें साफ़ अल्फ़ाज़ में कह देता कि “तुम नविशतों को ना जान कर ग़लती करते हो।”
ताहम उस ने नविशतों के सिर्फ लफ़्ज़ी माअनों के जानने पर ही किफ़ायत ना की। ये एक अदना दर्जे के मुनाज़िर की आदत है जो इस पर क़ानेअ् (मुतमईन, क़नाअत, जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) होता है कि आयत के मुक़ाबले में आयत पेश करता जाये और आख़िर में उस के मुख़ालिफ़ की निस्बत उस की तरफ़ से एक आयत ज़्यादा रहे। ऐसा मुनाज़िरह समुंद्र की रेत की तरह जो हवा के सामने उड़ती फिरती है ख़ुश्क और बे फल होता है और चील कव्वे की काएं काएं से बढ़ कर वक़अत नहीं रखता। ये इसी क़िस्म का बहस व मुनाज़िरह है जिससे कलीसिया का ये ओहदा बदनाम हो रहा है। सच्चे मुनाज़िर को सिर्फ नविशतों की ज़ाहिरी इबादत से बढ़ कर वाक़फ़ीयत हासिल होनी चाहीए। वो किताब मुक़द्दस के उसूलों पर उस मज़हबी तजुर्बे पर जिससे नविश्तों की इल्मी तशरीह होती है हावी और नेज़ ख़ुदा की क़ुर्बत से बहरावर होता है। जिससे उस के काम में गर्मजोशी और अज़मत पैदा होती है।
यसूअ का ज़हन इस तौर से नविश्तों के सिर्फ ज़ाहिरी अल्फ़ाज़ से परे तक पहुंचता था और वो उन को बेमिस्ल आज़ादी और बे साख़्तापन से इस्तिमाल करता था। इसी वजह से वो अहद-ए-अतीक़ से बमुश्किल कोई आयत नक़्ल करता था जिसके मुताल्लिक़ कोई नए मआनी नहीं ज़ाहिर कर देता था। ऐसा मालूम होता था कि गोया उस के छूने से बैरूनी ख़ौल फट जाता था और उस के अंदर से दफ़अतन एक मोती अपनी आबो ताब से दिखलाई देने लगता था। बाअज़ औक़ात वो पाक नविश्तों के आम मंशा के मुताबिक़ एक उसूल निकाल लेता था जो ज़ाहिरन लफ़्ज़ी माअनों को उलट पलट करता हुआ मालूम देता था। (मत्ती 5:31 व 32) जब कि वो अपने बाप के कलाम से मुहब्बत रखता और उस का अदब और ताज़ीम करता था। वो ये भी जानता था कि वो ख़ुद एक नए मुकाशफ़े का सर चशमा है जिसमें पुराना इल्हाम इस तौर से छुप जायेगा जैसी सितारों की रोशनी मुतालेअ (बाख़बर) फ़ज्र में निहां (पोशीदा) हो जाती है।
लेकिन यसूअ सिर्फ़ नविश्तों की मदद से ही मुनाज़िरे का काम नहीं करता था। बल्कि वो इन्सानी अक़्ल और आम समझ से भी काम लेता था। जो महज़ इल्मी फ़ख्र और सनद आवरी से बढ़ कर है और जो हर एक सच्चे मुनाज़िर को इस्तिमाल करनी चाहीए। अगर हम ये इस्तिमाल एक निहायत नग़ज़ो दिलफ़रेब फ़िक़्रे में करें जो फ़ीलफ़ोर सामईन के हाफ़िज़े पर नक़्श हो जाये तो जब ये मुनाज़िरह अवामुन्नास के सामने हो रहा हो। उस का असर बे रोक होता है। यसूअ को ये क़ुदरत आला दर्जे में हासिल थी जैसा कि उस के अक्सर अक़्वाल से ज़ाहिर होता है। उन में से एक निहायत ही हैरत बख़्श वो है। “जिस पर उन्होंने ताज्जुब किया और उसे छोड़ कर चले गए” कि “जो चीज़ें क़ैसर की हैं क़ैसर को और जो ख़ुदा की हैं ख़ुदा को दो।”
4
ज़माना हाल के आदाब व क़वाइद मुबाहिसे की तफ़्सील में सबसे आला जगह इस फ़र्ज़ को दी जाती है कि अपने मुख़ालिफ़ के साथ इज़्ज़त व लिहाज़ से पेश आना चाहीए। उस के दलाईल के साथ ख़्वाह कैसा ही सख़्ती से बर्ताव किया जाये मगर उस की ज़ात का अदब व लिहाज़ करना और उस की नेक नीयती को भी तस्लीम करना चाहीए।
कोई क़ाएदह इस से बढ़ कर माक़ूल नहीं हो सकता। हम अपने हम जिंसों के अंदरूनी हालात से बहुत ही कम वाक़िफ़ हैं और जब किस सबब से हम उन से बरअंगेख़्ता (तैश में भरा हुआ) ख़ातिर हो जाते हैं तो तास्सुब की वजह से उन की खूबियों से भी आँख बंद कर लेनी मुम्किन है। बर ख़िलाफ़ इस के हम ख़ुद अपनी हालात से इस क़द्र ज़्यादा वाक़िफ़ हैं कि हमको दूसरों पर पत्थर फेंकने पर कभी दिलेरी नहीं करनी चाहीए। कोई आदमी तमाम व कमाल सच्चाई नहीं रखता और मुम्किन है कि हमारा मुख़ालिफ़ उसी सच्चाई का दूसरा पहलू देख रहा है जो हम नहीं देख सकते। ख़ुदा बाअज़ औक़ात अपनी कलीसिया को इसी तौर से किसी सच्चाई की पूरी ताअलीम देता है कि उस का आधा आधा हिस्सा मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास के ज़हन में आता है जो पहले एक दूसरे की मुख़ालिफ़त पर कमर-बस्ता होते हैं। मगर इसी टक्कर से एक आग पैदा हो जाती है जो आख़िर कार उन को पिघलाती और बिल्कुल मख़्लूत कर के एक बना देती है।
लेकिन अगरचे ये क़ाइदा निहायत उम्दा है तो भी इस में मस्तसीनात مستشینا ت (मुस्तसना مستثنٰی की जमा, वो शख़्स या चीज़ जिसे अलैहदा कर दिया गया हो) हैं। क्योंकि ख़ुद यसूअ ने इस क़ाएदे को तोड़ा हमारे पास इस अम्र के जानने के लिए काफ़ी सबूत मौजूद नहीं कि आया उस ने अपने काम के शुरू में अपने मुख़ालिफ़ीन के साथ ज़्यादा इज़्ज़त व लिहाज़ से बर्ताव किया या नहीं। लेकिन अपनी ज़िंदगी के इख़्तताम के क़रीब उस ने ज़्यादा ज़्यादा तंदी और सख़्ती से उन की पर्देदारी (ऐब नुमाई, इफ़्शा-ए-राज़) की और आख़िर कार उस ने फ़रीसीयों और फ़क़ीहों और काहिनों पर लानत मलामत की ऐसी सख़्त बोछाड़ की जो अपनी सख़्ती और दंदाँ शिकनी के लिहाज़ से बेमिस्ल है। (मत्ती 23 बाब)
फ़िलवाक़ेअ जो कुछ हम अश्ख़ास के मिज़ाज व ख़सलत की निस्बत ख़्याल रखते हैं उसी के मुताबिक हम उन की राओं की क़द्र मन्ज़िलत करते हैं। गो हम उन को पब्लिक में ज़ाहिर ना भी करें तो भी हो सकता है कि हमारे दिल में अपने मुख़ालिफ़ की निस्बत ऐसी बातें भरी हों जिनके सबब उस के ख़यालात की हमारे नज़्दीक कुछ वक़अत बाकी ना रहे। हो सकता है कि वो बड़े एतिमाद के साथ मज़हबी मुतालिब पर लिखता या तक़रीर करता हो, मगर हम उस की निस्बत जानते हों कि वो दरहक़ीक़त बिल्कुल ला मज़्हब और बेदीन आदमी है और इसलिए उस क़ुव्वत से बे-बहरा है जिस पर ऐसे मुआमलात की मार्फ़त का मदार है। गो कि वो सच्चाई से वाक़िफ़ भी हो उस के ज़ाहिर करने का हौसला नहीं कर सकता। क्योंकि वो हर एक बात में ख़ुद उसी को मुजरिम ठहराएगा। बाअज़ हालात में इस अम्र को अवाम पर ज़ाहिर कर देना हमारा फ़र्ज़ है। यसूअ अक्सर यहूदी मुअल्लिमों से कहता था कि उन के लिए उस की बातों को समझना ना-मुम्किन है क्योंकि वो सच्चाई के साथ अख़्लाक़ी हम्दर्दी नहीं रखते थे और काहिन और फ़रीसी की ज़ाती अग़राज़ भी उसी रियाकाराना दस्तूर और तरीक़े से वाबस्ता थीं जिसको महफ़ूज़ रखने के लिए उन्हों ने ये सब दलाईल और तावीलात घड़ रखी थीं। ऐसी सुरतों में हमारी तमीज़ का ग़लती खा जाना मुम्किन है, मगर मसीह अपनी तमीज़ पर पूरा भरोसा कर सकता था और आख़िरकार उस ने अपने मुख़ालिफ़ीन के सारे इख़्तियार और एतबार को उन के असली करतूत ज़ाहिर कर के ख़ाक में मिला दिया।
5
ताहम यसुअ मुबाहिसे और मुनाज़िरे की गर्मी में भी अगर मुख़ालिफ़ में कुछ भी साफ़ दिली का निशान पाता तो इस बेहतर मिज़ाज को ज़ाहिर व क़ुबूल करने के लिए ठहर जाता।
उस की ज़िंदगी में एक दिन निहायत सख़्त जद्दो जहद का दिन था। जिस पर इंजील नवीसों ने बहुत तवज्जा की है। ये दिन उस के दुख उठा ने से पहले उस की ज़िंदगी के आख़िरी हफ़्ते में था। जब कि उस के दुश्मनों ने उस को पसपा करने के लिए एक खोफ़नाक जत्था (जमाअत) बनाई। फ़क़ीह और फ़रीसी तो वहां थे ही अब सदुकी भी जो उस वक़्त तक उस की तरफ़ से बेपरवा रहे थे उन के साथ आ मिले। बल्कि फ़रीसी और हेरोदेसी भी जो उमुमन एक दूसरे से नफ़रत रखते थे। इस मुशतर्का ग़रज़ में शरीक हो गए। उन्हों ने पहले ही से अपने दर्मियान दो सवाल ठान रखे थे जिनसे उस को फँसाने की ठहराई थी। उन्हों ने अपने मददगारों और अपनी तरफ़ से बोलने वालों को भी चुन लिया था और येके बाद दीगरे उन्हों ने हैकल में उस पर हमले करने शुरू कर दिए। मगर उन के लिए वो शिकस्त और ज़िल्लत का दिन था। क्योंकि उस ने उनका ऐसा मुंह बंद किया कि लिखा है कि “कोई उस के जवाब में एक बात ना बोल सका। और उस दिन से किसी का हवाओ (हिम्मत) ना पड़ा कि उस से फिर कुछ सवाल करे।”
मगर इस जोश अंगेज़ मौके के ऐन दर्मियान में एक मुनाज़िर उठ खड़ा हुआ जिसके साथ यसूअ बिल्कुल मुख़्तलिफ़ तौर से पेश आया, मालूम होता है कि इस शख़्स को मसीह का बहुत थोड़ा हाल मालूम था। शायद वह उस की निस्बत सिर्फ इतना जानता था कि लोगों में इस का बड़ा चर्चा है। मगर वो एक फ़क़ीह था और चूँकि उस के फ़िरके के लोग मसीह पर हमला कर रहे थे। इसलिए उस को भी उन के साथ शरीक होना पड़ा। उस ने भी उस को लोगों का गुमराह कर ने वाला समझा जिसको पसपा करना मुनासिब है और वो उन के हमराह इसी ग़रज़ से चला आया था। लेकिन पेशतर इस के कि उस की बारी आए जो जवाब उस ने यसूअ की ज़बान से सुने उन से उस का जी हिल गया। क्योंकि वो सही जवाब थे और उन से उन खयालात की ताईद नहीं होती थी जो वो मसीह की निस्बत अपने दिल में रखकर वहां आया था। कुछ कुछ उस के सवाल की तर्ज़ से भी मालूम होते है कि उस ने इस अम्र का इक़रार किया।
सवाल तो फ़िल-हक़ीक़त अदना सा था। कि “सबसे अव़्वल हुक्म कौनसा है?” उन मसाइल में से एक था जिस पर रब्बियों की मजलिसों में बहुत कुछ मंतिक़ छांटा जाता था, और ग़ालिबन उस आदमी के दिल में ये ख़्याल था कि वो इस मसअले में दूसरे रब्बीयों पर सबक़त रखता है। मगर यसूअ ने उस आदमी की सूरत या तौर में कोई ऐसी बात देख ली थी जो उसे ख़ुश आई और बजाय इस के कि उस को भी जवाब तुर्की बुतर्की देकर दम-ब-ख़ुद और ज़लील करे जैसा उस ने औरों के साथ किया था। उस ने उस के सवाल का कामिल और संजीदा जवाब दिया कि “सब हुक्मों में से अव़्वल हुक्म ये है कि ऐ इस्राईल सुन, “वो ख़ुदावंद जो हमारा ख़ुदा है एक ही ख़ुदावंद है। और तू ख़ुदावंद को जो तेरा ख़ुदा है। अपने सारे दिल से और अपनी सारी जान से और अपनी सारी अक़्ल से और अपने सारे ज़ोर से प्यार कर। अव़्वल हुक्म यही है और दूसरा जो इस की मानिंद है ये है कि तू अपने पड़ोसी को अपने बराबर प्यार कर। इनसे बड़ा और कोई हुक्म नहीं है।”
हमारे लिए तो ये ताअलीम एक मामूली बात है और उस के सुनने से हमारे दिल पर कुछ बड़ा असर नहीं होता, मगर इस अम्र का तसव्वुर करना मुश्किल नहीं कि इस बात ने कैसी क़ुदरत व अज़मत के साथ उस शख़्स के ज़हन पर तासीर की होगी। जिसने उस को पहली दफ़ाअ सुना। मालूम होता है कि इस जवाब को सुन कर उस शख़्स ने वो मुखालफ़ा ना ढंग छोड़ दिया और बिल्कुल अख़्लाक़ी संजीदगी इख़्तियार की।
इस जवाब ने ना सिर्फ उस की हुज्जत को तोड़ डाला बल्कि उस के वजूद के दरवाज़ों को खोल कर सीधा उस के ज़मीर में जा कर लगा जहां से फ़ील-फ़ौर गूंज की तरह ये जवाब निकला, “क्या ख़ूब ! ऐ उस्ताद ! तूने सच कहा, क्योंकि ख़ुदा एक है। उस के सिवा और कोई नहीं और उस को सारे दिल से और सारी अक़्ल से और सारी जान से और सारे ज़ोर से प्यार करना और अपने पड़ोसी से अपने बराबर मुहब्बत रखना सब, सौख़्तनी क़ुर्बानियों और ज़बिहों से बेहतर है।”
ये एक निहायत शरीफाना जवाब था। ये शख़्स उस काम को जिसके लिए आया था भूल गया। अपने हमराहीयों को और निज़ वो बात जिसकी वो उस से उम्मीद करते थे उस को भी भूल गया और जो कुछ उस के दिल में था कह उठा और इस तौर से मसीह की अख़्लाकी अज़मत के सामने सर न्याज़ झुका दिया। यसूअ ने इस तब्दीली को बड़े अंदरूनी इत्मीनान व ख़ुशी के साथ मुलाहिज़ा किया और फिर उस से फ़र्माया कि “तू ख़ुदा की बादशाहत से दूर नहीं।”
ये एक बड़ा भारी नमूना है। मुनाज़िरे में मुखालिफ़ें पर बिला इम्तीयाज़ व तफ़रीक़ और बेरहमी से हमला करना उन को मुख़ालिफ़त में साबित क़दम बना देना है। हालांकि नर्मी व मुलाइमत से उन को अपने से मिला लेना मुम्किन होता। हो सकता है कि बाअज़ अश्ख़ास ज़ाहिरन मसीही मज़्हब के सख़्त मुख़ालिफ़ नज़र आएं लेकिन दिल में बिल्कुल उस के क़रीब हों। ये भी मसीही रूह का काम है कि इस हम्दर्दी को दर्याफ़्त कर के उन को उस के इज़्हार पर बरा नगीख़्ता करे। लोगों पर ये साबित कर देना कि वो आस्मानी बादशाहत से बाहर हैं एक आसान बात है। लेकिन उन पर ये वाज़ेअ कर देना बहुत ही बेहतर होगा कि वो उस की दहलीज़ से चंद ही क़दम पर खड़े हैं। बहस व हुज्जत में कामिल फ़त्ह हासिल करने से शायद एक जिस्मानी तबीयत वाले आदमी को ख़ुशी हो तो हो। लेकिन ज़्यादातर वो शख़्स उस्ताद के मुशाबेह है जो हत्ता-उल-मकान नर्मी व मुलाइमत से लोगों को अपनी तरफ़ खींच लाता है।
16
मसीह का नमूना दर्द-मंदी में
(मत्ती 8:17 मत्ती 9:36 मत्ती 14:14 मत्ती 15:32 मत्ती 20:3 मत्ती 8:10 9:2 व 27 मत्ती 11:6 मत्ती 13:58 मत्ती 14:31 मत्ती 15:28 मत्ती 26:13 व 38 मत्ती 16:23 मत्ती 17:17 मत्ती 26:50 व 55 मत्ती 27:34 मत्ती 8:4 मत्ती 9:30 मत्ती 12:16 मत्ती 14:22 मत्ती 16:20 मत्ती 17:9)
(मरक़ुस 1:41 मरक़ुस 4:33 मरक़ुस 6:5-6 मरक़ुस 8:12 मरक़ुस 1:25 मरक़ुस 3:5 मरक़ुस 15:3 व 5 मरक़ुस 10:13-16 व 21 मरक़ुस 12:34 मरक़ुस 7:24 व 36 मरक़ुस 8:26 व 30)
(लूक़ा 7:11-15 लूक़ा 4:35 व 39-41 लूक़ा 10:21 लूक़ा 19:41
लूक़ा 7:9 लूक़ा 17:17)
(यूहन्ना 11:33-38 यूहन्ना 8:1-11 यूहन्ना 12:27 यूहन्ना 13:21 यूहन्ना 20:16 व 17 यूहन्ना 5:18 यूहन्ना 6:15)
सोलहवां बाब
मसीह का नमूना दर्दमंदी में
ज़माना-ए-हाल में हयात-उल-मसीह पर इस क़द्र इल्मीयत ख़र्च की गई है और उस के तज़करे के हर एक ज़र्रे की ऐसी छान बीन हुई है कि ये सवाल हो सकता है कि आया सिर्फ इन्सानी ज़हन अब इस मज़्मून में कोई नई बात दरयाफ़्त कर सकता है? ताहम अभी उस की दर्दमंदी या हिस्सात की इलाहयाना ताक़त पर ग़ौर व फ़िक्र करने की बहुत कुछ गुंजाइश बाकी है। यसूअ जैसा कलाम में दानिशमंद और फ़अल में क़ादिर था वैसे ही उस की हस्सात निहायत नाज़ुक और शाइस्ता थीं। और उस के रवय्ये के अगराज़ व मक़ासिद अक्सर सिवाए ऐसे अश्ख़ास के जो उसी दर्जे की हस्सात रखते हैं कोई समझ नहीं सकता। उस ने बनी इन्सान को नाज़ुक और लतीफ़ रखना सिखलाया और उस के दुनिया में आने के वक़्त से ऐसे अश्ख़ास की तादाद व तरक्क़ी करती रही है। जिन्होंने उस से बच्चा और औरत, इफ़्लास और ख़िदमत और बहुत सी बातों की निस्बत बनिस्बत उन के जो उस की आमद से पहले मुरव्वज़ थे निहायत ही मुख़्तलिफ़ खयालात रखना सीखा है। अनाजिल में ऐसे बे शुमार वाक़िआत का ज़िक्र दर्ज है जिनसे उस की हस्सात पर बहुत असर पैदा हुआ। लेकिन सिर्फ एक वाक़िया यानी याइर की लड़की का ज़िंदा करना। जिसमें उस के दिल की हस्सात साफ़ तौर पर नज़र आएं। इस मतलब की तशरीह करने के लिए काफ़ी होगा।
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उस का रहम इस वाक़िया से ज़ाहिर होता है :-
ये एक ऐसे शख़्स का मुआमला था जिसकी इकलौती लड़की क़रीब अल-मर्ग पड़ी थी और उस ने जैसा कि मुक़द्दस मरक़ुस लिखता है उस के लिए यसूअ से बड़े ज़ोर से इल्तिजा की। यसूअ का दिल ऐसी दरख़्वास्त को सुन कर कब बाज़ रह सकता था? एक ऐसे ही और वाक़ेअ में (यानी नाइन की बेवा जिसका इकलौता बेटा मर गया था) ये लिखा है कि जब उस ने उसे जनाज़े के पीछे पीछे आते देखा तो उस ने उस पर तरस खाया और उस से कहा “मत रो।” उस ने ना सिर्फ उस को इस हालत में मतलूबा इमदाद दी बल्कि वो मदद एसी हमदर्दी के साथ दी जिससे उस की क़ीमत दो बाला हो गई। इसी तरह उस ने ना सिर्फ लाज़र को जिलाया बल्कि उस की बहनों के साथ उस की वफ़ात पर गरये वज़ारी भी की। बहरे आदमी क़ा इलाज करते हुए जब उस ने इफ़्ताह (यानी खुल जा) कहा तो उस के साथ ठंडी सांस भी ली। अपने तमाम मुआलिजे के काम में वो बीमारों के साथ दर्द-मंदी भी करता था। उस ख़ादिम दीन या तबीब में जो एक ग़मनाक घर में सिर्फ फ़र्ज़ समझ कर जाता है ताकि ये कह सके कि वो वहां गया था और उस में जो इस मुसीबतज़दा घर की तक्लीफ़ व रंज को अपना बना लेता और उस से उस का दिल-गुदाज़ होता बल्कि टूट जाता है बहुत फ़र्क़ है।
इस मौक़े पर मसीह के दिल में इस अम्र से और भी ज़्यादा असर हुआ होगा कि एक बच्चा था जो बीमार था। उस का बाप उसे “मेरी नन्ही लड़की” कह कर पुकारता था। मसीह की ज़िंदगी के तमाम नज़ारे जिनमें बच्चे दिख पड़े हैं निहायत ही असर अंगेज़ हैं। ये उस की दर्दमंदी की वजह से था वो ऐसे खुबसूरत और दिलकश मालूम होते हैं। जब हम उन पर नज़र करते हैं तो मालूम होता है कि वो ना सिर्फ उसे जो बाप और माँ के दिल में है जानता था। बल्कि उस ने इन्सानियत के दिल में नए कुवें खोदे और पहले की निस्बत बड़ी गहराईओं से मुहब्बत को निकाल लाया। रस्किन लिखता है कि :-
“यूनानी फ़न तस्वीरो संग तराशी में बच्चों का निशान नहीं मिलता मगर मसीही के हाथ की बनाई तस्वीरों में वो कस्रत से पाए जाते हैं। जो एक साफ़ अलामत इस बात की है कि ये मसीह की आँख थी जिसने पहले-पहल बच्चों की दिलफ़रेबी को पूरे तौर पर दर्याफ़्त कर के लोगों को उस से वाक़िफ़ कर दिया।”
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दूसरा जज़्बा जो इस वाक़िये में यसूअ ने ज़ाहिर किया असर पज़ीरी है। याइर की दरख़्वास्त पर वो उस मुक़ाम को जहां वो लड़की थी गया लेकिन रास्ते में एक क़ासिद उन्हें मिला जिसने बेचारे बाप को ये ख़बर दी कि काम तमाम हो चुका है और अब उस्ताद को ज़्यादा तक्लीफ़ देने की ज़रूरत नहीं। इस पर बग़ैर उस के कि उस से दरख़्वास्त की जाये यसूअ ने उस की तरफ़ मुतवज्जा हुआ और कहने लगा “ख़ौफ़ ना कर सिर्फ ईमान ला।”
इस अम्र में हमको उस के रहम की एक नई मिसाल नज़र आती है लेकिन ये बात मह्ज़ रहम से कुछ बढ़कर ज़ाहिर करती है। यसूअ पर एतिमाद या बे-एतिमादी के ख़यालात से जो उस की निस्बत लोग रखते थे बहुत ही असर होता था। अगर इस पर एतिमाद किया जाता तो उस का दिल ख़ुशी से भर जाता था और वो अपनी ख़ुशी बिला तकल्लुफ़ ज़ाहिर कर देता था। इसी तरह जब एक और शख़्स ने जो कुछ-कुछ याइर की सी हालत में था मदद मांगी और ये यक़ीन भी ज़ाहिर किया कि अगर यसूअ गो फ़ासले पर है सिर्फ एक बात भी कह दे बग़ैर इस घर में जाने के जहां बीमार पड़ा था। तो वो अच्छा हो जाएगा। तो यसूअ ये सुनकर ठहर गया और हाज़िरीन की तरफ़ फिर बोल उठा कि “मैंने ऐसा बड़ा ईमान इस्राईल में भी नहीं पाया।” याईर का ईमान अगरचे ऐसा मज़्बूत नहीं था तो भी मालूम होता है कि उसे ख़ुश आया और चूँकि वो नहीं चाहता था कि उस पर शक का बादल छा जाये। वो बड़ी आमादगी और जल्दी से उस के घर गया ताकि उसे मजबूत करे।
मगर उस को इस से मुख़्तलिफ़ क़िस्म के हालात भी पेश आते थे और इस से उस के दिल पर बड़ा गहरा असर होता था। अगरचे कभी कभी वो ईमान की बड़ाई पर ताज्जुब करता था। मगर इस से भी ज़्यादा अक्सर औक़ात उसे सख़्त बेईमानी पर भी ताज्जुब करना पड़ता था। जब वो ख़ुद अपने ही वतन में गया। तो वहां इसी वजह से कोई अज़ीम काम ना दिखला सका। मुख़ालिफ़त ने उस के दिल को ऐसा सर्द कर दिया कि उस के मोअजज़े की क़ुदरत अमल से रुक गई। उस की बड़ी बड़ी महरबानियाँ भी बाअज़ औक़ात ना-शुक्री से क़ुबूल की जाती थीं। जैसे दस कोढियों के वाक़िये से मालूम होता है कि उन में से सिर्फ एक ही शुक्र गुज़ारी के लिए उस के पास वापिस आया। जिस पर उसने निहायत अफ़्सोस के साथ पूछा कि “वो नौ कहाँ हैं?”
3
इस हिस्स-ए-बातिनी की तीसरी क़िस्म जो उस ने उस मौक़े पर ज़ाहिर की गु़स्सा है। जब वो घर पर पहुंचा तो ना सिर्फ उस ने बच्चे को मुर्दा पाया बल्कि वो मुक़ाम मर्सिया ख़ूवानों और रस्मी मातम करने वालों से भरा हुआ था। मौत अगरचे सब हादसात से ज़्यादा संजीदा और दर्दनाक है। मगर बहुत से मुल्क में रसूम मातम के सबब जो उस से मुल्हिक़ हो गए हैं उसे बिल्कुल बेहूदगी के दर्जे को पहुंचाया गया है। मगर कनआन में ये बात हद को पहुंच गई थी। जों ही किसी घर में कोई क़ज़ा करता मातम पेशा लोग हर तरफ़ से घर आते और घर को वाय वाय और मर्सिया ख़वानी के शोर व ग़ौग़ा से भर देते। यसूअ के उस मकान में पहुंचे पर वहां भी यही कुछ हो रहा था और उस का अम्न पसंद रूह उस को बर्दाश्त ना कर सका। उस ने गुस्से के साथ उन्हें चुप रहने को कहा, और जब उन्हों ने उस की बात ना मानी तो उस ने सबको बाहर निकाल कर घर को ख़ाली कर दिया।
गु़स्सा अगरचे गुनाह आलूद ग़ज़ब के निहायत क़रीब क़रीब है तो भी बुरा नहीं बल्कि नेक है। ये एक शरीफ़ और नेक तैनत (ख़सलत, आदत) शख़्स का निशान है। वो रूह जो इंतिज़ाम, रास्ती और शराफ़त को पसंद करती है। बद इंतिज़ामी, दोरुख़ी और कमीनगी पर ग़ुस्सा ज़ाहिर किए बग़ैर नहीं रह सकती। यसूअ के ग़ुस्से का अक्सर ज़िक्र आया है। कभी वो बेजा शोर और खलबली पर जैसा उस मौक़े पर थी गुस्से में आ जाता था। जब वो देवों (बदरूहों) को निकालता तो वो गुस्से से आसेब ज़दा के चीख़ने चिल्लाने पर मलामत किया करता था। जब उस ने तूफान में हवा और लहरों को थमाया उस वक़्त भी उस के गुस्से का ज़िक्र है। शायद इस वजह से कि वो उस वक़्त हवा की हुकूमत के सरदार से मुक़ाबला कर रहा था। शैतान की तमाम सल्तनत बद इंतिज़ामी की सल्तनत है और उस ताक़त का हर एक ज़हूर देखकर उस के दिल में ख़्वाह-मख़्वाह गु़स्सा पैदा होता था। इस से हम उस ग़ज़बनाक जोश की अजीब तहरीक का मतलब समझ सकते हैं जो उस ने लाज़र की क़ब्र की तरफ़ जाते हुए ज़ाहिर की उस के दिल की हालत से मालूम होता था गोया वो मौत की बर्बादियों के ख़िलाफ़ ग़ज़ब व इन्तकाम की आग से भरा हुआ है।
उस ज़माने की हालत जिसमें वो रहता था इस ख़्याल और जज़्बे के ज़ाहिर करने के लिए एक ख़ास मौक़ा मुहय्या करती थी। इस वजह से कि याईर के घर में सिर्फ मातम पेशा लोग मातम करते थे जिनका दिल उस में नहीं लगा था। उस ने उन के मातम को बिल्कुल ना पसंद किया। मगर यहुदियों की कुल सोसाइटी उस ज़माने में बिल्कुल रियाकारी मुजस्सम बनी हुई थी, जो लोग मुक़द्दस ओहदों पर थे वो अपनी ही भलाई ढूंढते थे। दीनदार लोग आद्मियों की तारीफ़ हासिल करने में लगे थे। क़ौम के मुअल्लिम भारी भारी बोझ लोगों के कंधो पर रखते थे मगर ख़ुद एक उंगली भी लगाने के रवादार ना थे। और पाक नौश्ते लूट मार और नापाकी के लिए बतौर तेट्टी (बाँसों का बना पर्दा, हिजाब) की आड़ के बने हुए थे। यसूअ के दिल में इन सब उमूर के ख़िलाफ़ ग़ज़ब की आग भड़क रही थी और उस ने अपने इन खयालात को उस ज़माने के फ़िर्क़ों और लोगों के ख़िलाफ़ निहायत सख़्त और चुभने वाले अल्फ़ाज़ में ज़ाहिर किया।
ये एक पाक आग थी। ये सच्चाई का शोला जिसके सामने झूटे जल जाता है। ये अदल की आग थी जो बदी व शरारत को बर्बाद करती है। ये मुहब्बत की आग थी जो ख़ुदग़र्ज़ी को भस्म कर डालती है। अक्सर औक़ात रियाकारी और बनावट के ख़िलाफ़ ऐसी गर्मजोशी से जो नापाक होती है। जंग शुरू की जाती है। अक्सर अश्ख़ास हजू गोया ऐब ग़ैर का काम इख़्तियार कर लेते हैं। जिनके अपने दिल पाक साफ़ नहीं होते और ना उनका चाल चलन उन के क़ौल के मुवाफ़िक़ दुरुस्त होता है। वो अपने भाई की आँख से तिनके को निकालते मगर ख़ुद उन की आँख में कांड़ी (एक क़िस्म का पतंग) होती है। उन्हों ने सिर्फ गुस्से का लिबास बहरूप बदलने के लिए पहन लिया है। मगर ये लिबास यसूअ पर ठीक सजता था और वो इस को बेमिस्ल वक़ार के साथ पहनता था। उस ने उन को जो उसे पकड़ने आए थे कहा “क्या तुम जैसे चोर के लिए, मुझे पकड़ने को निकले हो।” उस ने उस दग़ा बाज़ से कहा। “यहूदा, क्या तू इब्ने आदम को बोसा से पकड़वाता है?” सरदार काहिन पिलातूस और हीरोदेस के सामने उस की ख़ामोशी आतिशीं अल्फ़ाज़ की निस्बत ज़्यादा फ़सीह-उल-बयां थी। उस ने ये लिबास अभी तक उतार नहीं फेंका। आस्मान में इस वक़्त भी “बर्रे का ग़ज़ब” भड़क रहा है।
4
एक चौथी क़िस्म का जज़्बा जो यसूअ से मख़्सूस था और इस मौक़े पर ज़ाहिर हवा लतीफ़ ख़ाली थी।
मातम पेशा लोगों को निकाल कर वो नाश के कमरे में गया। जहां वो छोटी लड़की बिस्तर पर पड़ी थी। मगर वो अकेला अंदर ना गया। ना सिर्फ तीन शागिर्दों के साथ जिनको वो अपने हमरा घर में लाया था। बल्कि उस ने लड़की के बाप और माँ को भी अपने हमराह लिया। इसलिए कि उन को इस मुआमले में बड़ा ताल्लुक़ था और उनका हक़ था कि जो कुछ उन की लड़की के साथ हो उसे देखें।
तब उस ने पेशतर इस के कि उस को ज़िंदा करने वाले अल्फ़ाज़ कहे। उसे हाथ से पकड़ा। क्योंकि वो नहीं चाहता था कि जब वो जागे तो हैरत या घबराहट में पड़ जाये, बल्कि एक हम्दर्द शख़्स को अपने पास मौजूद देखकर उस के दिल को एक तरह का इत्मीनान हो। बहुत लोगों ने जोश की घड़ी में या बेहोशी से होश में आते हुए, इस अम्र को मालूम किया है कि ऐसे मौक़ों पर एक मज़्बूत हाथ से पकड़े जाने या एक मुत्मइन सूरत पर नज़र करने से किस क़द्र क़ुव्वत मिलती है।
इस तरह उस ने सब कुछ कामिल इख़्तियात और होशियारी से किया। ना ग़ौर व ताम्मुल से बल्कि एक लतीफ़ हिस्स की क़ुदरती तहरीक से जिसकी रहनुमाई से वो हर मौक़े पर में लताफ़त व नफ़ासत के लिए किसी क़िस्म की सई व कोशिश नज़र नहीं आती थी। एक मूजी या पुर वलवला तबईत वाले शख़्स में भारी नुक़्स ये है कि वो ऐसे मौक़ों पर हद से बढ़ कर बैठता है। मगर मसीह की हिस्सात कैसी सही और मर्दाना-वार हालत में थीं। उन तमाम नफ़ीस अफ़आल के बाद ये किया कि “उस ने उन्हें हुक्म दिया कि उसे कुछ खाने को दें।” इसी तरह बियाबान में बहुत दिनों तक मुनादी और मुआलिजा करने के बाद जिसमें वो नब्वी गर्मजोशी से महव हो रहा था ख़ुद उस ने ही ये तज्वीज़ की कि उस जमाअत को मुंतशिर होने से पहले खाना देना चाहीए। ताकि ऐसा ना हो कि रास्ते में भूक से बेताब हो जाएं। शागिर्दों के दिल में जिनको बहुत कम शुग़्ल था। इस का ख़्याल तक भी ना आया। वो जैसा लताफ़त पसंदी के जज़्बे में वैसा ही लिहाज़दारी और अमल शआरी की सिफ़त में भी उन से बढ़ कर था।
5
एक और क़िस्म की हिस्स जो ख़ुदावंद ने इस मौक़े पर ज़ाहिर की हया थी।
जब वो मोअजिज़ा कर चुका तो “उस ने उन को ताकीद की कि कोई उस को ना जाने।” अपनी ज़िंदगी के बहुत से अजीब अजीब कामों के बाद उस ने ऐसा ही किया। चुनान्चे उस ने उस कौड़ी से जिसे उस ने पाक किया था कहा “देखो ये किसी से ना कहना।” उस ने दो अंधो से जिनको उस ने आँखें दी कहा कि “देखो कोई इस बात को ना जाने।” वो उमूमन उन से जिनमें से वो देवों (बदरूहों) को निकालता था ताकीद किया करता था कि उस को लोगों पर ज़ाहिर ना करें।
इसी क़िस्म के बयानात इंजील में कस्रत से पाए जाते हैं। लेकिन मैं यक़ीन से कह सकता हूँ कि मैंने कभी किसी को उन की सही तौर पर तशरीह करते नहीं सुना। क़िस्म क़िस्म की गहरी आलिमाना तशरीहात की गई हैं। मसलन एक इस की बाबत यूं लिखता है कि :-
“उस ने उस आदमी को जिसे उसने चंगा किया था इस बात को ज़ाहिर करने से इसलिए मना किया कि ऐसा ना हो उस से उस के दिल में शेख़ी पैदा होने से उसे ज़रर पहुंचे। दूसरी सूरत में इसलिए कि उस की शहादत लोगों की नज़र में कुछ वक़अत ना रखती। तीसरी सूरत में इसलिए कि अभी वक़्त ना आया था कि वो अपने मसीह होने का इक़रार करे।”
अला हज़ा-उल-क़यास (इसी क़ियास पर) हमारे उलमा इस क़िस्म की वुजूहात बयान करते हैं और मुम्किन है कि उनमें भी कुछ सच्चाई हो।
मगर वो निहायत दकी़क़ और मुह्म सी मालूम होती हैं। हालांकि असली तशरीह बिल्कुल सतह ही पर है। वो सिर्फ ये है कि गो वो ऐसा अजूब कार था। वो नहीं चाहता था कि उस के अच्छे काम लोगों में मशहूर हों। मुक़द्दस मत्ती इस अम्र को ऐसे साफ़ तौर से बयान करता है कि वो कभी नज़रअंदाज नहीं होना चाहीए। एक मौक़े का ज़िक्र करते हुए जब एक बड़ी जमाअत को चंगा करने के बाद उस ने उन्हें ताकीद की कि वो उसे मशहूर ना करें। इंजील नवीस लिखता है कि ये उस ने एक पैशनगोई को पूरा करने के लिए किया। जिसमें लिखा है कि “वो झगड़ा और शोर ना करेगा और बाजारों में कोई उस की आवाज़ ना सुनेगा।” ख़ुदा का जो काम पब्लिक के सामने किया जाता है। ये उस की एक सज़ा है कि लोग उस का तज़्किरा करने लग जाते हैं और अवामुन्नास तो उस का बहुत ही चर्चा करते हैं। हम ज़माना-ए-हाल में इस अम्र से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं। क्योंकि अब कोई बात मख़्फ़ी (छिपी) नहीं रहने पाती और अगर कोई शख़्स कोई काम करता है जो मामूल से ज़रा भी बढ़कर हो। तो उस की ज़िंदगी की ज़रा ज़रा सी बातें भी खींच कर अवाम की नज़रों के सामने ज़ाहिर की जाती हैं। मगर ये बात बिल्कुल नेकी के खासे के ख़िलाफ़ है। बल्कि उन को भी जो निहायत पाक काम में मशग़ूल हों मारज़-ए-आज़माइश में डालती है कि वो बजाय उस के कि आजिज़ी व फ़िरौतनी से ख़ुदा के हुज़ूर में काम करें लोगों की तारीफ़ के शावक हो जाते हैं। यसूअ इस बात से नफ़रत करता था। अगर हो सकता तो वो छिपे रहने को पसंद करता। उस के लिए ये एक भारी सलीब थी कि जिस क़द्र वो लोगों को ताकीद करता था कि उस की बाबत कुछ ना कहे उसी क़द्र ज़्यादा ही उस की शोहरत करते थे।
यसुअ का दिल ऐसा था, जैसा कि हमने सिर्फ एक ही कहानी के मुताल्ऐ से मालूम किया है, ज़्यादा वसीअ तहक़ीक़ात से हम और बहुत सी मिसालें जमा कर सकते हैं। लेकिन ये उसूल या निशान जब एक दफ़ाअ हाथ आ जाये तो हम ना आसानी अनाजिल के मुताल्ऐ में उस का इस्तिमाल कर सकते हैं जिनमें इस अम्र के मुताल्लिक़ कि मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर वाक़ियात से उस पर क्या-क्या असर हुआ ऐसे बे शुमार बयानात दर्ज हैं कि जिस शख़्स ने इस अम्र पर कभी ग़ौर नहीं किया वो हमारे बयान को मुबालग़ा (बात को बढ़ाकर बयान करना) समझेगा।
उस इस्लाह बख़्श असर का जो उस की सोहबत से उस के शागिर्दों पर हुआ खोज लगाना भी मुश्किल नहीं है कि किस तरह उन्होंने मुख़्तलिफ़ अश्या की निस्बत उस के से खयालात रखने सीखे, मसीही दीनदारी से बढ़ कर कोई इस्लाह बख़्श असर नहीं। जहां वफ़ादारी से इंजील की ताअलीम दी जाती और मुहब्बत से उस पर ईमान रखा जाता है। वहां रफ़्ता-रफ़्ता लोगों के ख़त व ख़ाल पर इब्ने आदम की मुहर लगती जाती है क्योंकि मसीह की दोस्ती दिल को नर्म और मुलाइम बनाती है।
17
मसीह की तासीर
(मत्ती 7:28 मत्ती 8:27 मत्ती 9:8 व 26 व 31 व 33 मत्ती 12:23 मत्ती 13:54 मत्ती 22:22 व 33 मत्ती 14:1 व2 मत्ती 2:1 व 3 मत्ती 3:13 व 14 मत्ती 4:19 व 22 मत्ती 27:19 व 55)
(मरक़ुस 1:45 मरक़ुस 2:1 व 2 व 12 मरक़ुस 7:36 व 37 मरक़ुस 9:15 मरक़ुस 15:5 मरक़ुस 4:41 मरक़ुस 10:32 मरक़ुस 1:23 27 मरक़ुस 5:6 व 7 मरक़ुस 1:37 मरक़ुस 5:18 मरक़ुस 12:37)
(लूक़ा 2:47 व 48 लूक़ा 4:15 व 22 व 32 व 37 लूक़ा 5:8 व 26 लूक़ा 23:45 व 48 लूक़ा 6:11 लूक़ा 13:14 लूक़ा 1:14 लूक़ा 8:40 लूक़ा 11:27 लूक़ा 22:61 व 62 लूक़ा 24:32)
(यूहन्ना 18:6 यूहन्ना 6: 68 व 7 बाब)
सत्रहवां बाब
मसीह की तासीर
गुज़श्ता बाब में हम उन असरात को देख चुके हैं जो अश्ख़ास या अश्या से जिनसे वो मुलाक़ी होता था। मसीह के असर पज़ीर दिल में पैदा होते थे। इस बाब में हम उन असरात पर बहस करते हैं जो वो अपनी मौजूदगी या अफ़आल से लोगों के दिलों में पैदा करता था, अगर उस की ज़िंदगी के तज़करात में उन असरात के अन्वाअ और गहराई पर जो उस पर पैदा होते थे बहुत कुछ लिखा है, तो ये भी कुछ हैरत बख़्श बात नहीं कि उन असरात का जो उस ने औरों के दिलों में पैदा किए बहुत कुछ बयान है।
बूढ़े शमउन ने जब यसूअ को हालत-ए-तिफ़ली (बचपन) में हैकल के अंदर अपनी गोद में लिया तो ये पैशनगोई की कि उस से मिलने से बहुत दिलों के ख़्याल ज़ाहिर हो जाएंगे और यही बात उस की बाद की ज़िंदगी में निहायत साफ़ तौर पर नज़र आती है। कोई शख़्स उस के पास आकर बेपर्वाई की हालत में नहीं रहता था, ख़्वाह वो उसे प्यार करें या हक़ीर जानें। ख़्वाह उस की तारीफ़ करें या बुरा भला कहीं मगर हर सूरत में उन्हें जो कुछ उन के दिल कि तह में था दिखलाना पड़ता था। तालमुद में एक हिकायत लिखी है कि :-
“सुलेमान बादशाह के पास एक अँगूठी थी जिस पर इस्में आज़म (اسِم اعظم) लिखा था। और जिस शख़्स की तरफ़ वो इस नक़्श को फेर देता था उसे मजबूरन वही बात जो उस वक़्त उस के ख़्याल में होती कहनी पड़ती थी।”
ऐसे ही यसूअ सिर्फ़ लोगों के दर्मियान मौजूद होने से उन के निहायत गहरे खयालात और हिस्सात को बाहर निकाल लाता था और उन की उम्दा से उम्दा या बुरी से बुरी बात जो उन के दिल में छिपी होती थी ज़ाहिर हो जाती थी।
1
जो तासीर इंजील की तहरीर के मुवाफ़िक़ वो ज़्यादा आम तौर से लोगों में पैदा करता था वो ताज्जुब था। “वो हैरान हुए।” “उन्होंने ताज्जुब किया।” “वो दंग रह गए।” इस क़िस्म की फ़िक्रात अक्सर उस की ज़िंदगी के तज़करो में पाए जाते हैं। बाज़-औक़ात वो उस की ताअलीम से मुतअज्जिब होते थे। यानी उस की ख़ुश बयानी, तबाज़ादी (तबीयत से निकला हुआ) और पुरज़ोर तासीर से या उस के आला इल्मीयत से, बावजूद ये कि उस ने कभी ताअलीम हासिल ना की थी। मगर इस से बढ़ कर उन को उस के मोअजज़े देखकर ताज्जुब होता था। लोग दौड़ दौड़ कर उस मुक़ाम की तरफ़ आते थे जहां वो मोअजिज़ा करता था। वो जो उस के हाथ से शिफ़ा पाते इस अम्र की जो उन पर वाक़ेअ हुआ दूर दूर तक शौहरत फैलाते थे और जहां कहीं वो जाता उस के गिर्दागिर्द शौहरत का बादल छा जाता।
अगरचे इस क़िस्म की तासीर उमूमन लोगों के दिलों पर पैदा हो जाती थी मगर ये हरगिज़ बहुत काबिल क़द्र ना थी। वो ख़ुद इसे अपने काम का एक ना पसंद लवाज़मा समझता था, उस की रूह जमाअत के इसरार और तक़ाज़े से झिझकती थी और वो उन के उपर दिल की मदह सराई को ख़ूब जानता था। सिर्फ एक फ़ायदा था जिसकी वजह से वो इस लवाज़्मे को रवा रखता था और वो ये था कि इस के ज़रीये से और लोगों के साथ ऐसे भी आ जाते थे जो फ़िल-हक़ीक़त उस के ख़्वाहां होते और जिनका वो ख्वाहां था, जैसा कि वो औरत जो उस वक़्त जब कि वो याईर के घर को जा रहा था एक बड़ी भीड़ में उस के पीछे से आई और उस के कपड़े का दामन छूआ ताकि चंगी हो जाये। भीड़ उस पर उमड़ रही थी और कुछ शक नहीं कि इस गत्थम गुत्था में बहुत उस के बदन को भी छूते होंगे। लेकिन उनको इस मुमास (छूने वाला, मस करने वाला) से कुछ भी फ़ायदा हासिल ना हुआ। मगर वो औरत अपनी अशद ज़रूरत की हालत में काँपते हुए ईमान के साथ आई और एक ही दफ़ाअ छूने से तासीर उस में से निकली और वो चंगी हो गई। लेकिन अगर ये भीड़ ना होती तो मुश्किल से वो वहां तक पहुँचती, क्योंकि इस शोर व ग़ौग़ा से उस को ख़बर हुई कि वो वहां है या कम से कम इस भीड़ के सबब से उस को छूने का मौक़ा मिला।
अब भी यही फ़ायदा उन बहुत सी रुकावटों की तलाफ़ी कर सकता है जो मुख़्तलिफ़ इशकाल में मज़्हब के मुताल्लिक़ अफ़्वाहें उड़ने से पैदा होती हैं। ये जोश व ख़रोश बतौर घंटे के है। जो अपनी आवाज़ से उन अश्ख़ास को जो मसीह के हाजत मंद हैं गिरजे में बुलाया है। मशहूर वाइज़ों की आमद पर उन की शौहरत हर तरफ़ फैल जाती है और लोग झुंड के झुंड उन की बातें सुनने को जमा होते हैं। जब एक मिस्र वाइज़ ज़ाहिर होता है या मज़्हबी खयालात लोगों के दर्मियान हयात ताज़ा हासिल करने लगते हैं तो उस इलाक़े के लोग ताज्जुब से भर जाते हैं। ये शोर व ग़ौग़ा बहुत कुछ बिल्कुल बेहूदा होता है, मगर उस में से बहुत कुछ फ़ायदा निकल सकता है। जब बड़ी भीड़ जमा हो जाती है तो उन में कहीं ऐसे शख़्स भी होते हैं जो छूते हैं। जमाअत बुड़बुढाती और भिनभिनाति गिरजे में से निकलती है, मगर उन में से कोई ना कोई तन्हाई को तलाश में भीड़ को चीरता हुआ निकलता है जो फ़िल-हक़ीक़त वहां से कोई बरकत अपने साथ ले जाता है।
2
बाअज़ औक़ात ये ताज्जुब बढ़कर ख़ौफ़ में बदल जाता था। चुनान्चे जब उस ने तूफ़ान के वक़्त सोते से उठ कर हवा और लहरों को मलामत की, तो लिखा है कि “वो बहुत डर गए।” और जब उस ने नाईन की बेवा के बेटे को ज़िंदा किया तो “सब पर ख़ौफ़ छा गया।”
किताब मुक़द्दस के दूसरे मक़ामात से भी मुस्तंबित होता है कि मोअजज़ों के देखने का ये क़ुदरती नतीजा था। जब लोग अपने सामने एक मोअजिज़ा होता देखते थे तो उस से ख़्वाह-मख़्वाह ख़्याल गुज़रता था कि क़ादिर मुतलक़ यहां ज़ाहिर है और ख़ुदा के हर एक बीन ज़हूर को देखकर ज़रूर ख़ौफ़ व दहशत पैदा होती है, दफ़अतन बादल की गरज की बुलंद आवाज़ सुनने से रूह पर एक क़िस्म का रोब और हैबत छा जाती है और जिन लोगों ने भुंचाल देखा है, उन को बयान करते सुना है कि उस से एक क़िस्म की अजीब तहरीक जो क़ुव्वत-ए-इरादी के काबू से बाहर होती है तबीयत में पैदा हो जाती है। उस वक़्त ऐसा महसूस होता है कि गोया हम एक ला महदूद ताक़त के इख्तियार में बिल्कुल अजज़ व लाचारी की हालत में पड़े हैं, वो जो यसूअ को मोअजिज़ा करते देखते थे महसूस करते थे कि उस में ऐसी चीज़ है जो उन के आम क़ुदरती अश्या के साथ जो कुछ चाहे कर सकती है। ये उस की अंदरूनी बातिनी उलुहिय्यत का धुंदला सा तसव्वुर था जिससे उन के दिलों में ऐसी दहश्त पैदा हो जाती थी।
मगर दीगर औक़ात में जो ख़ौफ़ उस से पैदा होता था। वो उस की इन्सानी ख़सलत की अज़मत की वजह से होता था। हमें यसूअ की अख़्लाक़ी अज़मत का इस से बढ़ कर साफ़ और सही निशान नहीं मिल सकता, जो उन असरात पर ग़ौर करने से मिलता है। जिन्हें वो अपनी ज़िंदगी के बड़े बड़े मौक़ों पर दूसरों के दिलों पर पैदा करता था। गतसमनी के दरवाज़े पर जब वो उस जमाअत से जो उसे गिरफ़्तार करने को आई थी दो चार हुआ तो उस रूहानी कश्मकश और तजुर्बात के निशान जो अभी बाग़ में उस पर वाक़ेअ हुए थे उस के चेहरे पर नज़र आते थे और उस की इस दर्दनाक और मुसतग़र्क़ि हालत का असर बड़ा अजीब था। चुनान्चे लिखा है कि “उसे देखकर वो पीछे हटे और ज़मीन पर गिर पड़े।” मालूम होता है कि उस की ज़िंदगी के गुज़श्ता छह माह के अरसे में अपनी आइन्दा मुसीबत पर ग़ौर करने की वजह से उस की सूरत से हमेशा एक रोब नाक जलाल बरसता था। उस के मक़्सद की बुजु़र्गी ने गोया उस के ख़त व ख़ाल को नुकीला कर दिया था। उस का क़ामत सीधा और उस की रफ़्तार तेज़ हो गई और बाज़ औक़ात जब वो अपने खयालात में ग़र्क़ राह में बारहों (शागिर्दों) से आगे बढ़ जाता तो लिखा है “तब वो हैरान हुए, और पीछे चलते चलते बहुत डर गए।”
ताहम इस से भी पहले उस के मनसड़ी के पुर अमन आग़ाज़ के ज़माने में भी उस के इस ताक़तवर अख़्लाक़ी जलाल के ज़हूर नज़र आते हैं, जब उस ने अपने नब्वी इल्हाम के पहले जोश में हैकल में से ख़रीद व फ़रोख़्त करने वालों को बाहर निकाल दिया तो वो भला किस वजह से ऐसे बे-हवास होकर उस के सामने से भागे। ये बहुत थे और वो सिर्फ़ तन-ए-तन्हा था। ये दौलतमंद और बा-असर आदमी थे वो सिर्फ एक ग़रीब किसान था। मगर उस में वो बात थी जिसके मुक़ाबले का उन को कभी हौसला ना था। उन्हों ने उस वक़्त महसूस किया कि नेकी कैसी दहश्त नाक चीज़ है। ग़ज़बनाक पाक दामनी में एक जलाल है। जिसके सामने आला से आला गुनाहगार भी दुबकता है। मुझे एक नौ जवान का हाल मालूम है जो दीहात से आकर एक ऑफ़िस में नौकर हुआ जहां रोज़ाना उसकी बात चीत ऐसी नापाक और फ़ुहश थी कि बाज़ारी भी उस से शर्मा जाते। मगर उस की आमद के एक महीने बाद कोई शख़्स उस की मौजूदगी में नापाक लफ़्ज़ मुंह से निकालने की जुरआत ना करता था। हालांकि उस ने मुश्किल से कभी मलामत का एक कलिमा ज़बान से निकाला होगा। ये सिर्फ उस की मर्दाना नेक दिली की अज़मत थी जिसने बदचाली का सर नीचा कर दिया।
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जो ख़ौफ़ यसूअ की हुज़ूरी से पैदा होता था बाज़ औक़ात वो बढ़कर नफ़रत के दर्जे को पहुंच जाता था। जो ख़ौफ़ उसे देखकर पैदा होता था वो एक महदूद चीज़ का ख़ौफ़ था। जो ला-महदूद के क़ाबू में हो मगर जो क़ादिर मुतलक़ के हाथ में अपने तईं आजिज़ व नाचार मालूम करते थे। साथ ही अपने को एक हमाजा हाज़िर और क़ुद्दूस शख़्स की नज़र के सामने भी मालूम करते थे।
जैसे कि जाहिल आदमी जाहिलों की सोहबत में बिला तकल्लुफ़ बातें करते हैं लेकिन अगर आलिमों के सामने हाज़िर किए जाएं तो उन की ज़बान लड़खड़ाती और वो अपनी आवाज़ से भी डरने लगते हैं। या जैसे एक फ़क़ीर जो अपने चिथड़ो से जब वो अपने हम-जिंसों के दर्मियान हो बेपर्वा होता है अगर ख़ुश लिबास अश्ख़ास के हुज़ूर एक निहायत आरास्ता गोल कमरे में हाज़िर किया जाये तो दफ़कन अपने कोट की हर एक थेगली और अपने फटे पुराने कपड़ों के हर एक सूराख़ से बा-ख़बर हो जाता है। इसी तरह जब इन्सानी रूह बेदाग़ पाकीज़गी से दो चार होती तो अपनी हालत पर नज़र करती और अपने तमाम नुक़्सों से ख़बरदार हो जाती है। यही बात थी जिसके सबब मुकद्दस पतरस ने मोअजज़े के ज़रीये से मछलीयों से भरा जाल देखकर तौबा के तौर पर अपने हाथ उठाए और यसूअ से चिल्ला कर कहने लगा कि “ख़ुदावंद मुझसे दूर हो, क्योंकि मैं गुनाहगार आदमी हूँ।” और इसी वजह से गदरीनियों ने जब वो मोअजिज़ा देखा जो यसूअ ने उन के दर्मियान किया था, तो इल्तिजा की कि वो उन के इलाक़े से चला जाये। उन के दिलों में भी वही नफ़रत पैदा हो गई जो मुजरिम को पाक आदमी से होती है।
फ़ोसट नामी मशहूर नाटक में मारग्रेट जो अफ़ीफ़ बाकराह लड़की है मफ़िसटो फ़ैलीज़ (शैतान) को एक आँख नहीं देख सकती, अगरचे वो उस वक़्त एक नाईट (शहसवार) के लिबास से मुल्बस था और उस को ज़रा भी ख़्याल ना था कि वो शख़्स दरहक़ीक़त कौन है। उस के दिल में फ़क़त तिब्बी तौर पर उस से नफ़रत पैदा हो गई। और वो कहने लगी कि “मेरी ज़िंदगी में कभी किसी चीज़ ने मेरे दिल में ऐसी ख़लिश पैदा नहीं की जैसी इस शख़्स की नफ़रत अंगेज़ सूरत ने।” मगर मसीह की हुज़ूरी से इस से बिल्कुल बरअक्स असर पैदा होता था। नापाक लोगों के दिल में उसे देखकर एक नफ़रत सी और उस के पास से भाग जाने की ख़्वाहिश पैदा होती थी। जब उस ने शर्म के मारे अपना सर झुका कर ज़मीन पर लिखना शुरू किया उस हालत में कि ज़ानिया औरत उस के सामने खड़ी थी तो उस औरत के इल्ज़ाम लगाने वालों ने भी कुछ यूंही सा मालूम कर के कि इस वक़्त उस के दिल में क्या गुज़र रहा है ख़ौफ़ खाया और “वो दिल ही दिल में आप को गुनाहगार समझ कर बड़ों से लेकर छोटों तक एक एक कर के चले गए और यसूअ अकेला रह गया और औरत बीच में खड़ी रही।” जब वो आसेबज़दा आदमीयों के पास पहुंचता था तो फ़क़त उस की नज़्दीकी उन को सख़्त बेकरारी में डाल देती थी और वो उस की मिन्नत करते थे कि उन के पास से चला जाये और उन्हें दुख ना दे। क्योंकि ऐसे मुक़द्दस को फ़क़त देखना ही उन के लिए सख़्त अज़ाब का बाईस था।
आला दर्जे की नेकी की मौजूदगी अगर इन्सान को अपना मुतीअ (ताबे) ना करे तो उस वहशी हैवान को जो इन्सानी दिल की तह ज़मीनी कोठरियों में सुकूनत करता है। बरअंगेख़्ता कर के मुख़ालिफ़त पर आमादा कर देती है। मसीह की मौजूदगी के बाइस उस के मुखालिफ़ों की बदी अपनी बुरी से बुरी सूरत में ज़ाहिर होती थी। मसलन पिलातूस ने यसूअ के मुक़द्दमे में हुकूमत के इन्ही उसूलों का इस्तिमाल किया जो शायद इस से पहले सैकड़ों और मुक़द्दमों में इस्तिमाल कर चुका था। यानी उस शख़्स का उसूल जो अपनी बेहतरी चाहने वाला और वक़्त के मुताबिक़ चाल चलने वाला हो और अदालती के लिबास से मुलब्बस हो। मगर ये उसूल कभी अपनी असली बदसूरती और नारास्ती में ऐसे पूरे तौर पर नुमायाँ ना हुआ जैसे उस वक़्त जब उस ने बरअब्बा को रिहा कर दिया और यसूअ को सलीब दिए जाने के लिए हवाले किया। सदुकियों और फ़रीसीयों की बेरहमी और रियाकारी कभी ऐसे साफ़ तौर पर अयाँ ना हुई जब तक कि उस रोशनी ने जो यसूअ से निकल कर उन पर पड़ी रियाकारी की पोशाक के हर एक दिमाग़ और चैन को उजागर ना कर दिया। मसीह की हलीमी को देखकर उन के दिल में उस के दावों की तर्दीद का ख़्याल ज़्यादा तर जोश ज़न होता था। इल्ज़ामों के जवाब में उस के चुप रहने से वो कीने के मारे उस पर और भी दाँत पीसने लगे और उस की नफ़रीनों की सख़्ती से वो और भी ज़्यादा पुख़्तगी से अपनी ग़लतीयों से लिपटे रहने पर आमादह होते थे।
इस तौर से ख़ुद उन अश्ख़ास की ख़ूबीयों के सबब जिनसे बद आदमियों को वास्ता पड़ता है उन के दिल सख़्त हो जाते हैं। जैसे अख़ीअब ने जब ईलियाह को देखा तो पुकार कर कहने लगा। “ऐ मेरे दुश्मन, तू ने मुझे पा लिया?” इसी तरह हो सकता है कि सिर्फ ये ख़्याल कि उस की दीनदार माँ उस के लिए दुआ मांग रही है या कि नेक अश्ख़ास उस की रूहानी बेहतरी के लिए मंसूबे बांध रहे हैं। एक शख़्स के दिल में जो मुस्तक़िल अज़म के साथ चौड़ी राह पर जा रहा है एक शैतानी नफ़रत और ग़ुस्सा पैदा हो। हक़ारत जिससे ख़ुदा के शाहिद पर उस के हमराही नज़र करते हैं। अक्सर सिर्फ इस अम्र की शहादत होती है कि वो उस की मौजूदगी को ख़ुद अपनी बदचलीयों पर बतौर एक ज़िंदा लानत के तसव्वुर करते हैं और ये बात उस शख़्स की बरतरी की एक हक़ीक़ी गो ग़ैर मक़्सूद शहादत है। “अगर दुनिया तुमसे दुश्मनी करे तो ताज्जुब ना करो। तुम जानते हो कि उस ने तुमसे आगे मुझसे दुश्मनी की।”
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अगरचे यसूअ की हुज़ूरी से बाअज़ अश्ख़ास के दिल में नफ़रत पैदा होती थी बहुत से ऐसे लोग भी थे जिनको इस से उस की तरफ़ सख़्त कशिश होती थी। उस से उन लोगों के दिल में जो अपने गुनाहों से वाबस्ता थे और उन को छोड़ना नहीं चाहते थे नफ़रत पैदा होती थी। मगर वो उन सबको जो किसी क़द्र नई और बेहतर ज़िंदगी की जुस्तजू में थे अपनी तरफ़ खींचता था।
अगरचे रूह इन्सानी में गुनाह को बड़ी ताक़त हासिल है तो भी वो मुक़ाबिल के उसूल को बिल्कुल मग़्लूब नहीं कर लेता हर एक आदमी में एक चीज़ है जो उस के गुनाह की मुख़ालिफ़त करती और उस के बर-ख़िलाफ़ नालिश करती है। वो मुसरफ़ को बाप का घर याद दिलाती है जहां से वो आवारा हो गया है और उस के दिल में सूअर चुराने की ख़िदमत की निस्बत शर्म पैदा करती है, वो तन्हाई की घड़ियों में इस को मुतनब्बाह (आगाह किया) करती है कि गुनाह जिस पर वो फ़रेफ़्ता हो रहा है उस का बदतर दुश्मन है और कि जब तक उस से जुदा ना हो वो कभी ख़ुश व ख़ुर्रम नहीं होगा।
इन्सानी फ़ित्रत का ये नजात बख़्श उसूल ज़मीर या नूर-ए-क़ल्ब (दिल) है और अगर ये ताक़त जो पाक और ईलाही चीज़ों को महसूस करती है इन्सान में ना होती तो उस की हालत की दुरुस्ती की कोई उम्मीद ना रहती। ये ताक़त शरीर (बुरे) आदमी में भी मौजूद है। जो फ़िल-हक़ीक़त अच्छी बातों की तारीफ़ व तोसीफ़ किए बग़ैर नहीं रह सकता और अगरचे वो बदतर रास्ते पर चलता है तो भी बेहतर रास्ते को पसंद करता है। ये ताक़त इन्सान को उस के गुनाहों से गो कि वो उन में कैसा ही ग़र्क़ क्यों ना हो रहा हो खोफ़नाक और शर्मसार करती है। हो सकता है कि गुनाहगारी पर लानत मलामत करने से इस क़ुव्वत में तहरीक पैदा हो। जैसे कि यूहन्ना बपतिस्मा ने किया, मगर इस से भी बढ़कर ये ताक़त एक ग़ैर मामूली पाकीज़गी और इफ़्फ़त के देखने से या उस रहम से जो बेदीनी व शरारत पर तरस खाता है मुतास्सिर होती है। ये आदमी को याद दिलाती है कि उस ने कोई चीज़ खो दी है। उस से गुनाह का हज़ जिसमें वो मशग़ूल होता है। उस की नज़र में बक़ीद्र और नाशाइस्ता मालूम होता है और यही ताक़त उस के दिल में बेचैनी और बेक़रारी पैदा कर देती है।
यसूअ तिब्बी तौर पर इस क़िस्म का असर दूसरों पर निहायत मज़बूती से करता था। जहां किसी दिल में आला और पाक चीज़ों की निस्बत नर्मी या असर पज़ीरी का मादा होता था उस की हुज़ूरी उस को उकसा देती थी, ज़मीर अपने क़ैद ख़ाने में उस की आवाज़ सुन कर चौंक उठता और खिड़की के पास आकर रिहाई की दरख़्वास्त करने लगता था। जैसा किसी हकीम की आमद से जिसके पास जिस किसी मुहलक मर्ज़ का हुक्मी ईलाज हो। उस मर्ज़ के मरीज़ों के दर्मियान एक क़िस्म की हलचल सी पैदा हो जाती है और तारबरकी की तेज़ी के साथ ये ख़बर एक दूसरे तक फैला देते हैं। इसी तरह जहां कहीं यसूअ जाता था भारी बोझ से लदे और वल्वलो से भरे दिल उस की ख़बर सुनते और उस को ढूंढ कर पाते थे। महसूल लेने वाले और गुनाहगारों बल्कि ख़ुद फ़रीसीयों में भी उस के आने से ग़ैर मामूली तहरीकें पैदा होती थीं। नेकोदीमस रात के वक़्त उस के पास आया। ज़की उस को देखने के लिए गूलर के दरख़्त पर चढ़ गया और गुनाहगार औरत चुप-चुप उस के पांव के पास जाकर आँसूं से उन को धोने लगी।
अख़्लाक़ी कशिश दो क़िस्म की है, फ़ाअ़ली और अनफआली
एक वो ख़ूबी है जो लोगों को फ़क़त अपने हुस्न व ख़ूबसूरती की क़ुव्वत से अपनी तरफ खींचती है। ये असर सोचने से पैदा नहीं किया जाता, क्योंकि वो बातनी चीज़ है और अपने आप में महोव महदूद है। उस की तवज्जा एक अंदरूनी रोया पर जमी हुई होती है और ख़ुद बख़ुद एक मख़्फ़ी (छिपी) क़ानून की पैरवी करती है, उस को ख़्याल तक भी नहीं आता कि वो औरों पर किसी क़िस्म का असर पैदा कर रही है। क्योंकि वो अपने हुस्न से भी आग़ाह नहीं और वो चीज़ जो उस के तमाम औसाफ़ को बवजह हुस्न लोगों पर ज़ाहिर करती है फ़िरोतनी और इन्किसार का ज़ेवर है। इस क़िस्म की खूबी ख़ुसूसुन ज़नाना औसाफ़ से ताल्लुक़ रखती है और जिसे अश्ख़ास उस को ज़्यादा सफ़ाई और ख़ुसूसीयत से ज़ाहिर करते हैं। उन की फ़ित्रत हमेशा निसाई अंसर से बहरावर होती है। “ऐसे अश्ख़ास को हम में से अक्सरों ने देखा है। बाअज़ तो अदना दर्जे के लोगों में से होते हैं। जो वफ़ादार और धुन के पक्के, इन्सान से बावफ़ा और उन के दिल ख़ुदा की सताइश से पुर और उन की ज़िंदगी एक लगातार हम्द व तारीफ़ का गीत मालूम देती है। बाअज़ आला दर्जे के लोगों में से होते हैं। जो ज़िंदगी के छोटे फ़ख़्र और शान व शौकत के दर्मियान रहते मगर इन चीज़ों के जादो फ़रेब असरात उन को बिल्कुल छू नहीं जाते। उन की रूह आज़ाद और बेक़ैद है। जो कभी इन्सानी ज़िंदगी के झूटे नूर और वल्वलो से रोशन नहीं हुई और ना वो दुनिया की बदियों पर फ़रेफ़्ता हुई। मगर तो भी उस की सारी ख़ूबियों से हम्दर्दी रखती और मुनासिब तौर से उस से हज़ (लुत्फ़) उठाती है। ये लोग जहां तक इस ज़िंदगी में इन्सान से होना मुम्किन है, उस नूरानी आलम का जलवा एक नज़र हमें दिखलाते हैं जिसका नूर ना सुरज से ना चांद से बल्कि उस से है जो अबदी नूर है।” यसूअ इस खसलत व मिज़ाज के आदमियों का सर और ताज है। उस की सूरत गुज़श्ता तमाम सदीयों में क़ुद्दुसियत के हुस्न से दरख़शां नज़र आती है। यही वजह है कि इन्सान की आँखें तारीख़ के सफ़हों में फ़ज़ीलत और ख़ूबी की तलाश करते हुए आख़िरकार उसी पर जिसमें वो कामिल और लासानी और पर मुजस्सम हो रही है जा ठहरती हैं। यही वजह है कि जो शख़्स मसीह के हालात लिखने बैठा है उस की तारीफ़ व तोसीफ़ में अज़ब-उल-बयान हुए बग़ैर नहीं रह सकता, बल्कि वो अश्ख़ास भी जो मसीही मज़्हब की हर एक बात की मुख़ालिफ़त में सरगर्म और साई हैं जब ख़ुद मसीह का ज़िक्र करने लगते हैं तो उस के सामने अदब व सुकूत इख़्तियार कर लेते हैं। कोई क़लम उस तासीर को पूरे तौर पर तहरीर नहीं कर सकती जो उस की जिंदगी का तज़्किरह जो अनाजिल में है पढ़ने से दिल पर होती है। उन तमाम औसाफ़ की जो उस की इन्सानी ख़सलत के अजज़ा थे एक फ़हरिस्त तर्तीब से लेना तो आसान है, लेकिन उन की बाहमी आमेज़श, और तरकीब मौज़ूनियत और कमाल मसर्रत और दिल-फ़रेबी को कौन शख़्स बयान कर सकता है? मगर ये औसाफ़ का मजमूआ जिस्म की सूरत में इस ज़मीन पर फिरता रहा और मर्द व औरत ने उस को अपनी आँखों से देखा।
फ़ाइली क़िस्म की अख़्लाक़ी कशिश एक मुख़्तलिफ़ तरीक़े से असर करती है, बाअज़ ऐसी तबीयतें हैं जिनको हम मक़नातीसी कहते हैं। लोग उन की तरफ़ खिंचे जाते और उन की पैरवी करने से बाज़ नहीं रह सकते, ऐसी तबीयतें जो कुछ करती हैं अपने सारे ज़ोर से करती हैं और दूसरे लोग उन की तरफ़ ख़ुद बख़ुद खींचे जा कर उन के बहाव की तेज़ी और तंदी के साथ बहे जाते हैं। अगर वो बुरे रास्ते पर हों तो वो गुनाह में पेशवा बन जाते हैं, क्योंकि तारीकी की बादशाहत भी आस्मान की बादशाहत की तरह मिशनरी रखती है इन्सानी फ़ित्रत की दूसरी कुव्वतों की तरह इस क़ुव्वत के लिए तख़्लीस और तक़्दीस की ज़रूरत है और तब वो मशज़ी, रसूल और मज़हबी पेशरू की रूह बन जाती है।
यसूअ की ज़िंदगी के तज़किरात में कोई अम्र इस से बढ़ कर हैरत बख़्श नहीं कि वो कैसे आसानी से आदमियों को अपना घर बार छोड़ने और उस की पैरवी करने पर राग़िब कर लेता था। यूहन्ना और याक़ूब अपनी कश्ती पर बैठे जालों की मरम्मत कर रहे हैं। लेकिन जब वो बुलाता है तो वो फ़ीलफ़ोर अपनी कश्ती और जाल और अपने बाप ज़बदी को छोड़कर उस के पीछे हो लेते हैं, मत्ती महसूल की चौकी पर बैठा है और ये आसानी से नहीं छोड़ी जा सकती। मगर जों ही वो बुलाया जाता है अपना सब कुछ छोड़ कर यसूअ की पैरवी करता है। ज़की जो अपनी ज़िंदगी भर जाबर और ज़्यादास्ता रहा है जों ही यसूअ उस के घर मेहमान बनना चाहता है वो बड़े फ़य्याजाना वाअदे और इक़रार करने शुरू करता है। यसूअ एक शानदार काम में लगा था जिसका तसव्वुर और नतीजा हर एक शख़्स की क़ुव्वत वाहिमा पर जिसमें कुछ भी शराफ़त को जगह थी असर करता था। वो बिल्कुल अपने काम में महव हो रहा था और ना ख़ुद गर्ज़ाना जानफ़िशानी को देखकर लोगों के दिलों में उस के नमूने पर चलने की ख़ुद बख़ुद तहरीक होती थी। वो एक नई तहरीक का बानी और पेशवा था जो उस के साथ साथ बढ़ती गई और उन लोगों की सरगर्मी देखकर जो उस में शामिल हो गए थे औरों के दिल में भी उस की तरफ़ कशिश पैदा होती थी। यही ताक़त बड़े बड़े रुहानी पेशवाओं में भी बड़ी मिक़्दार में पाई जाती है, मसलन मुक़द्दस पोलूस, सूद नारोला, लूथर, वसली और ऐसे ही और बहुत से आमियों में, जो ख़ुद रूह-उल-क़ूद्दस से भर कर ओरों को ख़ुशी और आसाइश व आराम की तिब्बी ख्वाहिशों से ऊपर उठाकर उन को एक अज़ीम मुआमले के वास्ते ख़ुद इंकारी पर आमादा कर सके हैं और कोई गर्म जोश आदमी जिसमें यसूअ की सरगौमी जोश ज़न है किसी ना किसी हद तक वैसा ही असर पैदा किए बग़ैर नहीं रह सकता।
हमारे ज़माने में ये एक सेहत व दुरुस्ती का निशान है कि तमाम समझदार आदमी अपनी ज़ाती तासीर की ख़बर रखने लगे हैं। बहुत लोग सिर्फ इसलिए गुनाह से ख़ौफ़ करते हैं कि अगर वो गुनाह करें तो ज़रूर बावास्ता या बिलावास्ता औरों को भी उस में मुब्तला करते हैं और उन को ये मालूम कर के निहायत ही इत्मीनान और तसल्ली हासिल होती है कि वो उन लोगों को जिनसे उन को किसी क़िस्म का ताल्लुक़ है नफ़ा पहुंचा रहे हैं ना नुक़्सान।
ये ऐसा ख़्याल है जो हमारी ज़मीनी ज़िंदगी की मुक़द्दरत (क़िस्मत) और एहमीय्यत के शायां है और यक़ीनन यही ख़्याल हमारी ज़िंदगी के हादी उसूलों में से होना चाहीए। मगर ये ख़तरात से ख़ाली नहीं। अगर इस उसूल को अपने मक़ासिद व मुतालिब में हद-ए-मुनासिब से बढ़ कर जगह दी तो इस से ज़हन एक ना काबिल बर्दाश्त बोझ के नीचे दब जायेगा और हमारे चाल चलन के मुताल्लिक़ ऐसी बड़ी ज़िम्मावारी और जवाबदेही का ख़्याल हमारे दिल में पैदा हो जाएगा कि हिम्मत और कोशिश के तमाम सोते बंद हो जाएंगे। हो सकता है कि इस से हम अपनी ज़िंदगी में अपने अफ़आल के नताइज और असरात का यहां तक ख़्याल रखने लगें कि आख़िरकार रियाकारी की बला में फंस जाएं। सबसे सही असर वो है जो ना हमारी कोशिश से और ना जान बुझ कर पैदा किया जाये। जब हम दूसरों पर-असर डालने की कोशिश करते हैं तो ठीक उसी वक़्त ही हम बहुत ज़्यादा असर डालने से महरूम रहते हैं। लोग हमारी ऐसी बराह-रास्त कोशिशों से नज़र बचा जाते हैं। मगर जब हम उस का ख़्याल भी नहीं कर रहे होते वो उस वक़्त हमको ताड़ते (नज़र रखना) हैं। वो एक ना मालूम इशारे या बे-साख़्ता लफ़्ज़ से इस भेद को जिसे हम छुपाने की कोशिश कर रहे हैं दर्याफ़्त कर लेते हैं। वो बख़ूबी जानते हैं कि आया हमारी ज़ात फ़िल-हक़ीक़त अंदर से एक खुबसूरत महल की मानिंद है या फ़क़त एक भद्दी सी इमारत सर ब-फ़लक कशीदा है, वो हमारी ख़सलत के वज़न और जसामत का बड़ी तफ़्तीश व सेहत के साथ अंदाज़ा लगाते हैं और सिर्फ यही बात है जो फ़िल-हक़ीक़त उन पर कुछ असर कर सकती है। हमारा असर ठीक ठीक उसी क़द्र होता है जिस क़द्र इन्सानियत के लिहाज़ से हमारी लियाक़त या ना-लियाक़ती साबित होती है।
हो सकता है कि आदमी असर के लिए कोशिश करे मगर ना काम रहे। लेकिन अगर वो अपने बातिन में तरक़्क़ी करे यानी ख़ुददारी, हक़-शनासी, इफ़्फ़त और इताअत में। तो वो इस में ना काम नहीं रहेगा। अंदरूनी तरक्की का हर एक क़दम हमको दुनिया की नज़र में और हर एक मुआमले के वास्ते जिससे हमारा ताल्लुक़ हो ज़्यादा काबिल क़द्र बना देता है। लोगों पर असर डालने की सड़क सिर्फ़ फ़र्ज़ और वफ़ादारी की शाह राह ही है। अगर आदमी मसीह की क़ुर्बत में बढ़ता जाये और अपनी तबीयत में मसीह की क़ुव्वत को ज़्यादा से ज़्यादा जगह पकड़ ने दे तो यक़ीनन इन्सान के साथ ख़ुदा के लिए और ख़ुदा के साथ इन्सान के लिए क़ुदरत रखने में तरक़्क़ी करता जायेगा। “मुझमें क़ायम हो और मैं तुम में, जिस तरह कि डाली आप से मेवा नहीं ला सकती मगर जब कि वो अंगूर के दरख़्त में क़ायम हो। उसी तरह तुम भी नहीं मगर जब कि मुझमें क़ायम हो।” (यूहन्ना 15:4)
• ख़ुदावंद यसूअ मसीह फ़र्माता है
“ऐ लोगो जो मेहनत उठाते और बोझ से दबे हो मेरे पास आओ, कि मैं तुम्हें आराम दूँगा, मेरा जुव्वा (बोझ) अपने ऊपर उठालों और मुझसे सीखो क्योंकि मैं हलीम और दिल से फ़रोतन हूँ। और तुम अपनी जानों के लिए आराम पाओगे। क्योंकि मेरा जुव्वा (बोझ) मुलाइम है और मेरा बोझ हल्का।”
(मत्ती 11 बाब 28 व 29 व 30 आयत)
मत्बूआ मुफ़ीद आम प्रैस लाहोर