Rev. Mawlawi Dr.Imad ud-din Lahiz

1830−1900

अल्लामा मौलवी इमाद-उद्दीन लाहिज़

Mirta-ul-Insan

The Mirror of Man

The Sketch of Anthropology and Psychology

By

Rev. Mawlawi Dr.Imad ud-din Lahiz

The wisdom of the prudent is to give thought to their ways

Proverbs 14:8

दाना इन्सान की हिक्मत ये है कि अपनी राह पहचाने

(किताब मुक़द्दस अम्साल 8:14)

मिरात-उल-इन्सान

ये किताब इन्सानी कैफ़ीयत वग़ैरा के बारे में

अल्लामा मौलवी इमाद-उद्दीन लाहिज़ डी॰ डी॰

ने इस मुराद से लिखी कि इस के पढ़ने वाले ख़ुद-शनासी में

माहिर हो के ख़ुदा शनासी की दौलत तक रसाई हासिल करें और

1889 ई॰

मत्बअ रियाज़ हिंद अमृतसर में छपी

दीबाचा

हक़ तआला जलशाना की हम्दो सना के बाद बंदा इमाद-उद्दीन लाहिज़नाज़रीन किताब हाज़ा की ख़िदमत में यूं अर्ज़ करता है कि अब तक मुझे कोई ऐसा रिसाला नज़र ना आया जिसमें इन्सान का ज़रूरी बयान कुछ तो हो जिस के वसीले से अवामुन्नास अपनी रूह की कैफ़ीयत से और अपनी अंदरूनी हालत से किसी क़द्र आगाही हासिल करें। ये मैं जानता हूँ कि मैं इस लायक़ नहीं हूँ कि ये भारी काम कर सकूँ और इस बह्स के तमाम पहलू जैसे चाहीए वैसे दिखलाऊँ तो भी मैंने इरादा किया कि ख़ुदा से दुआ मांग के जो कुछ लिख सकता हूँ लिखूँ और दूसरे ज़ी इल्म लायक़ आदमीयों को जो मुझसे बेहतर काम कर सकते हैं उभारूं कि वो इस मुहिम की तरफ़ मुतवज्जा हों और यह मेरा रिसाला ख़ुद-शनासी के बारे में एक इब्तिदाई किताब हो जाएगी। पस मैंने ये रिसाला लिख दिया और इस का नाम“मिरात-उल-इन्सान” रखा।

“मिरात” (مِراۃ) के मअनी हैं“शीशा।” वो सब शीशे जो लोगों के घरों में हैं इन में वो अपनी ज़ाहिरी सूरत को देख के दुरुस्त किया करते हैं ताकि वो अच्छे मालूम हों। ये किताबी शीशा है। चाहीए कि वो इस में अपनी अंदरूनी और पोशीदा कैफ़ीयत व हालत को फ़िक्र की आँख से देखें और अपनी इस्लाह के दरपे हों ताकि ख़ुदा को पसंद आएं जिसकी निगाह इन्सान के दिल पर है।

दफ़ाअ 1

ख़ुद-शनासी के बयान में

अरबी ज़बान में एक क़दीम कहावत है और अहले तसव्वुफ़ उस का इस्तिमाल बहुत करते हैं और वह सहीह कहावत है जो ये है (مَن عرف نفسہ فقد عرف ربہُّ) यानी “जिसने अपने आपको पहचाना उस ने अपने रब को पहचाना।”“रब” के मअनी हैं “परवरिश कनुंदा।” “रबीब” के मअनी हैं “पर्वरिश याफ़्ता।” हम सब रबीब हैं हमारा कोई रब है उसी का दूसरा नाम ख़ुदा तआला है और रबूबियत वो काम है जो रब और रबीब के दर्मियान रब से होता है।

अगर आदमी अपने आप को पहचानें कि हम कौन हैं? और किस हाल में हैं? तो इस शनाख़्त के वसीले से ख़ुदा की शनाख़्त कि वो कौन है? और कैसा है? आसान हो जाती है। रब की शनाख़्त से मुराद ये है कि उस की कुछ शान और मर्ज़ी मालूम हो जाए कि वो कैसा है? और क्या चाहता है? ये मालूम करके जब कोई उस की मर्ज़ी के ताबेअ होता है तब वो शख़्स अपनी ठीक वज़ा के मंशा में क़ायम हो के ख़ुदा का मक़्बूल और मुबारक बंदा हो जाता है।

اअफ़्सोस की बात है कि इस कहावत का मतलब बाअज़ सूफ़ियों ने ग़लत समझा है। वो कहते हैं कि “अपने नफ़्स का पहचानना रब का पहचानना है।” यानी “तुम्हारा नफ़्स ही तुम्हारा रब है” और यूँ वो हमा औसत (ہمہ اوست) का दम भरते हैं। ये उनका ख़्याल इसलिए ग़लत है कि ख़ुद-शनासी से हासिल नहीं होता है बल्कि ख़ुद-फ़रामोशी से ये जहालत निकलती है।

रात-दिन के तजर्बों से हमें मालूम है कि जिस किसी आदमी पर ख़ुदा का फ़ज़्ल शुरू होता है। पहली बात जो वहां नज़र आती है यही है कि वो शख़्स अपने आपको पहचानने लगा कि मैं बड़ा गुनाहगार, सख़्त नातवां, निहायत मुहताज हूँ, नादान हूँ, निकम्मा हूँ। ख़ुद-शनासी, ख़ुदा शनासी की पहली मंज़िल है जिस क़द्र हम मार्फ़त एज़दी (ख़ुदाई) में बढ़ते जाते हैं उसी क़द्र हम आपको ज़्यादा पहचानते जाते हैं। आख़िरकार हम बड़े आरिफ़ होके यूं कहते हैं यक़ीनन हम सबसे ज़्यादा ख़ताकार, सबसे ज़्यादा नादान, सबसे ज़्यादा नातवां और बिल्कुल रहम के मुहताज हैं और ख़ुदा तआला निहायत मेहरबान, निहायत पाक, बड़ा दाना, बड़ा हकीम, बड़ी क़ुदरत और ताक़त वाला है। उस ने यसूअ मसीह में हमारे लिए बड़ा ही रहम का दरवाज़ा खोल दिया और हम उस में दाख़िल होके ज़रूर बच गए हैं।

कलाम-उल्लाह से जो मार्फ़त हमें हासिल होती है उस का ख़ुलासा तो यही है जो मैंने ऊपर सुनाया लेकिन ये भेद जिस पर खुलता है वही उस का लुत्फ़ उठाता है और अपने को ऐसा और ख़ुदा को वैसा दर्याफ़्त करके अपनी रूह को बड़े चेन के मुक़ाम में पाता और ख़ुदा में ख़ुशी मनाता है।

इस बयान से मेरा ये मतलब है कि किताब-उल्लाह यानी बाइबल शरीफ़ जो सारे जहान की हिदायत के लिए ख़ुदा ने नबियों से लिखवाई है उस में भी यही तरीक़ा बरता गया है कि लोग वसीला ख़ुद-शनासी के ख़ुदा शनासी तक पहुंच जाते हैं और यह वही बात है कि जब तक कोई अपने आपको बीमार ना जाने तबीब के पास नहीं आता। ये सब लोग जो मज़्हबों की बाबत झगड़ते फिरते हैं बेफ़ाइदा काम करते हैं। चाहीए कि सब तकरार और मुबाहिसे छोड़ के ज़रा अपनी तरफ़ मुतवज्जा हों और दर्याफ़्त करें कि हम कौन हैं? और कैसे हैं? तो उन के सामने से बहुत सी मुश्किलात ख़ुद-ब-ख़ुद हल हो जाएंगी और वह अपने अंदरूनी अमराज़ से आगाह होके इलाज-ए-मुनासिब के जोयाँ (तलाश करने वाले) होंगे और उस वक़्त उन्हें मुआलिज नज़र आ जाएगा और वह उस के पास आके सेहत भी पाएँगे।

दुनिया में यही हाल हो रहा है कि हर तकरारी और बकू और झगड़ालू आदमी जब अपनी बकवास से चुप करके अपने गिरेबान में सर डालता है और अपनी तरफ़ देखता है। तब उसे मालूम होता है कि हर तरफ़ अंधेरा है सिर्फ कलाम-उल्लाह में रोशनी है। बल्कि कलाम-उल्लाह के किसी एक ही फ़िक़्रह का जलाल उस की रूह को ख़ुदा की तरफ़ खींच लाता है और ज़िंदगी के सोते तक पहुंचा देता है। किस को? उस को जो अपनी हालत पर मुतवज्जा होके और अपने आप को बीमार दर्याफ़्त करके सेहत का तालिब होता है।

दफ़ाअ 2

माख़ज़ ख़यालात किताब हाज़ा के बयान में

इस किताब के माख़ज़ ख़यालात के बारे में चंद महीनों तक मैं फ़िक्रमंद रहा। अगरचे मैं ये जानता था कि बाइबल शरीफ़ के सिवा दुनिया में कोई किताब ऐसी नहीं है कि इन्सानी कैफ़ीयत का पूरा पूरा बयान उस में हो। लेकिन बाअज़ आदमी बाइबल शरीफ़ पर ईमान नहीं रखते और उस की दलीलों पर तवज्जा नहीं फ़रमाते। वो हमेशा दुनियावी हकीमों के अक़्ली ख़यालात की तरफ़ ताका करते हैं पस उन के लिए मुझे ऐसे ख़यालात की तलाश और तन्क़ीद में कुछ अरसे तक रहना पड़ा और जहां तक उन के ऐसे ख़यालात मैंने पाए और परखे उन में मेरी कुछ सेरी नहीं हुई और बहुत ही थोड़ा सा ज़ख़ीरा तन्क़ीद के बाद मेरे हाथ में रह गया। अगर सिर्फ उसी को इस किताब में लिखता तो ये किताब “मिरात-उल-इन्सान”ना हो सकती थी क्योंकि वो बहुत ही थोड़ी बातें हैं।

पस मेरा वो एतिक़ादी ख़्याल इस वक़्त और भी ज़्यादा पुख़्तगी को पहुंच गया कि इन्सान की कैफ़ीयत और उस की पूरी हालत का बयान सिर्फ उस का ख़ालिक़ ही कर सकता है जो इन्सान से वाक़िफ़ है ये काम भी आदमीयों से पूरा नहीं हो सकता है। अक़्ली और इल्मी रोशनी से आदमी (अपने) आपको जैसा चाहे पहचान नहीं सकते। ईलाही आस्मानी इल्हामी रोशनी जब आदमीयों पर चमकती है तब वो (अपने) आपको पहचानते हैं कि हम कैसे हैं? पस मैं हकमाई ख़यालात की तरफ़ से बहुत हट गया और कलाम की तरफ़ मुतवज्जा हुआ कि उस की हिदायत के सामने किसी हकीम की राय तसल्ली बख़्श चीज़ नहीं है।

और इस वक़्त मैं नाज़रीन से ये भी कहता हूँ कि इन्सान की कैफ़ीयत और हालत का बयान जो बाइबल शरीफ़ में है तीन क़िस्म पर मुनक़सिम है :-

(1)इन्सान की इब्तिदाई हालत का बयान है कि वो क्योंकर और किस मतलब से पैदा किया गया?

(2) उस की इंतिहाई हालत का बयान है कि उस का अंजाम क्या कुछ होगा?

(3) इस की हालत-ए-मौजूदा का बयान है कि आदमी फ़िलहाल कैसे हैं? उन की हालत कैसी बिगड़ी हुई है और उन की इस्लाह क्योंकर हो सकती है?

पस इन तीन किस्मों के बयान में से पहली और दूसरी क़िस्म का बयान हुकमा (हकीम की जमा) से कुछ नहीं हो सकता क्योंकि ये ग़ैब की ख़बरें हैं जो अक़्ल से नहीं खुल सकतीं। हाँ वो कुछ इमकानी तज्वीज़ें सुनाया करते हैं जिनका कुछ सबूत नहीं हुआ करता।

अलबत्ता तीसरी क़िस्म का बयान दुनिया के लोग कुछ कर सकते हैं और कुछ किया भी है। लेकिन ये भी पूरा पूरा बयान उन से नहीं हुआ। जहां तक उन की अक़्ल दौड़ी वो कुछ बोले हैं और इस बयान के दूसरे हिस्से में इन्सान की इस्लाह क्योंकर हो सकती है? बड़े इख़्तिलाफ़ उन लोगों में हैं और यह सब मज़्हब जो दुनिया में जारी हैं। ये सब उन के इख़्तिलाफ़ात की वजह से जारी हैं और इस्लाह की राह कुछ ना कुछ दिखाते हैं।

लेकिन इस मुक़ाम पर दो सवाल करने लाज़िम हैं

अव्वल

उन की बीमारी क्या है और तुम उस का ईलाज क्या बताते हो और उस ईलाज को क्या निस्बत इस बीमारी से है

दोम

उनके इस ईलाज से जो तुम बताते हो किस-किस ने सेहत पाई है? उन के नाम भी पेश कीजिए?

ये दोनो सवाल दुनिया के सब झूटे मज़्हबों को गिरा देते हैं और मसीही दीन की अज़मत दिखाते हैं। दुनियावी मज़ाहिब ना इन्सान की बीमारी का हाल पूरा पूरा सुनाते हैं ना उस का ईलाज मुनासिब दिखाते हैं ना सेहत-याफ़्तों के नमूने पेश कर सकते हैं। उन के अहल नाहक़ लड़ने फिरते हैं।

कलाम-उल्लाह जो बाइबल शरीफ़ है उस में इन्सान की निस्बत माज़ी और हाल व मुस्तकबिल का पूरा बयान लिखा हुआ है और तसल्ली बख़्श है और इस्लाह की राह ऐसी दिखलाता है जो कैफ़ीयत बयान शूदा या तशख़ीस शूदा के मुनासिब है और उस से हज़ार-हा हज़ार आदमी सेहत-याफ्ताह हैं और हम ने ख़ुद इस राह से सेहत पाई है। पस अब फ़रमाईए कि ये कौनसी अक़्ल का हुक्म है कि हम इस कलाम-उल्लाह की तरफ़ से जो ऐसा है चशमपोशी करके उन हुकमा के उन चंद बे सर-ओ-पा ख़यालात ही की तरफ़ ताका करें और उन ही को आला दर्जे की दलीलें समझें उन में क्या उलवेयत (बुलंदी) घुस रही है वो तो वहम से हैं।

हाँ ये मैं कहता हूँ कि जो कुछ उन लोगों ने दुरुस्त तौर से कहा है। हम बह शुक्र इसे क़ुबूल करेंगे और तक्मील व तरक्क़ी के लिए कलाम-उल्लाह की तरफ़ मुतवज्जा होंगे और कलाम में इन्सान की हालत मौजूदा का जो ज़िक्र है उस पर ग़ौर करेंगे। कि फ़िलवाक़े इन्सान ऐसा ही है या नहीं। अगर इन्सान ऐसा नहीं है तो ख़ैर जाने दो कलाम को ना मानो और अगर वो ऐसा ही है तो अयाँ राचा बयाँ (फ मिस्ल, ज़ाहिरा और अलानिया चीज़ को बयान करने की ज़रूरत नहीं) अपनी चशम दीदावर तजुर्बे की गवाही से इस बयान को क़ुबूल कर लो और इस्लाह की फ़िक्र करो और अगर अपनी इस्लाह आप कर सकते हो तो कर लो और जो उसी बद हालत में मरना मंज़ूर है तो इख़्तियार बाक़ी है और अगर इस्लाह चाहते हो और ख़ुद नहीं कर सकते तो उस मुआलिज के पास चले आओ जो बाइबल में ज़ाहिर हुआ है और उस की दवा भी खाओ तब देखोगे कि क्या होगा।

दफ़ाअ 3

ईमान के बयान में

इन्सान की इब्तिदा और इंतिहा की बाबत जो बयानात बाइबल में हैं वो सब ईमान से माने जाते हैं आप लोगों में ईमान है या नहीं?

ईमान नाम है उस यक़ीन का जो उन नादीदा और मोअतबर अश्ख़ास से शनीदह बातों की निस्बत होता है जो ख़ुदा से इलाक़ा रखती हैं। इसलिए कि वहां तक अक़्ली तहक़ीक़ात को रसाई नहीं होती।

हम समझते हैं कि सब आदमीयों को ईमान की ज़रूरत है और सहीह ईमान जो लायक़ भरोसा के है, वो सिर्फ़ बाइबल शरीफ़ में बयान हुआ है। बाअज़ आदमी ईमानी ज़रूरत के तो क़ाइल हैं, लेकिन बाइबल के बाहर कुछ और तरह के ईमान रखते हैं जिनके वो ख़ूगर (आदी) हो गए हैं। उन्हों ने ईमानों में मुक़ाबला करके सहीह ईमान की तलाश कभी नहीं की। वो लकीर के फ़क़ीर हैं और तहक़ीक़ात के नाम से जलते हैं और अगर बमज्बूरी अक़्ल कुछ तहक़ीक़ करते भी हैं तो उस जानिब को झुकते हैं जिसमें उन की ग़रज़ क़ायम रहे। वो हक़ के तालिब नहीं हैं कि रास्ती की तरफ़ झुकें। बाअज़ ऐसे हैं जो कुछ भी ईमान नहीं रखते सब ईमानों से बेज़ार हैं क्योंकि उन्हों ने बाअज़ ईमानों को झूटा पाया है। इसलिए सब झूटे ईमानों में सच्चे ईमान को भी मिला के कहते हैं कि सब ईमान ग़लत हैं जो कुछ उनका दिल चाहता वो करते हैं।

हमारा एतिक़ाद ये है कि अगर इन्सान में बाइबल वाला ईमान ना हो और कोई ईमान हो या ना हो वो बेईमान है और उस की रूह हलाक हो जाएगी।

इस रिसाला के नाज़रीन बाईमान क़िस्म अव्वल और क़िस्म दोम का बयान भी क़िस्म सोम के साथ ज़रूर मानते हैं। लेकिन वो जो बा-ईमान नहीं हैं मैं उन से कहता हूँ कि आप लोग क़िस्म सोम के बयान में ज़रूर ग़ौर कीजिए और सोचिए कि आप इसी क़िस्म के आदमी हैं या नहीं। इतनी ख़ुद-शनासी भी मुफ़ीद होगी और ईमान भी इस से पैदा हो जाएगा फिर आप लोग बहुत कुछ ख़ुदा से पा सकते हैं।

तीनों क़िस्म के बयान इस किताब में रुले मिले आते हैं नाज़रीन को ख़ुद समझना होगा कि ये किस क़िस्म का बयान है?

और यह भी याद रहे कि पहली व दूसरी क़िस्म का बयान अगरचे ईमान से माना जाता है और तीसरी क़िस्म का बयान मुआयना फ़िक्री से। तो भी हमारी हालत-ए-मौजूदा का मुआयना इब्तिदाई व इंतहाई बयानात के दर्मियान होके एक ख़ास निस्बत व इलाक़ा हम में और उन दोनों बयानों में ज़ाहिर करता है। अगर संजीदगी से बग़ौर कुछ देख सकते हो तो देखो और यक़ीन करो कि बाइबल अपने बयान में बरहक़ है।

दफ़ाअ 4

ख़ुदा तआला जल्लेशानहु ﷻ के बयान में

जहां तक मौजूदात ख़ारजिया की कैफ़ीयत आदमीयों को मालूम हुई है यही दर्याफ़्त हुआ है कि हर ख़ारिजी मौजूद क़ाइम-बिल-ग़ैर है। फिर वो ग़ैर भी क़ाइम-बिल-ग़ैर है और हो नहीं सकता कि ये तमाम क़ायम-बिल-ग़ैर का सिलसिला भला किसी इल्लत “क़ायम-बिल-ज़ात” ’’قائمبالذات‘‘के क़ायम और मौजूद हो सके। इल्लत-उल-अलल (علتہ العلل) क़ायम-बिल-ज़ात का होना अक़्लन ज़रूर है। इसी का नाम अह्ले इल्म ने“वाजिब-उल-वजूद” ’’واجبالوجود‘‘ रखा है और यह नाम एक माहीयत (असलियत) की वाजिब हस्ती का है ना किसी ख़ास शख़्स का। उस हस्ती का हम-सर कोई नहीं हो सकता, इसलिए उस के हम-सर का नाम उन्हों ने“मुम्तना-उल-वजूद” ’’ممتنعالوجود‘‘ रखा है और तमाम जहान की इश्याय मख़लूक़ा (ख़ल्क़त) को उन्हों ने“मुम्किन-उल-वुजूद” ’’ممکنالوجود‘‘ कहा कि उन की हस्ती का होना या ना होना अम्र ज़रूरी नहीं है बल्कि वाजिब-उल-वजूद सानेअ (صانع ख़ालिक़) की मर्ज़ी पर मौक़ूफ़ है और हर चीज़ ऐसी ही है।

दुनिया के शुरू से सब क़ौमों में ये ख़्याल बराबर चला आता है कि एक हस्तीहै जो अज़ ख़ुद अज़ल से अबद तक मौजूद है। उसी से सब हस्तियाँ मौजूद हुई हैं। हर ज़बान में उस हस्ती के लिए दो-चार लफ़्ज़ निहायत उम्दा पाए जाते हैं जिन्हें उस ज़बान के अहल (मानने वालो) ने अपने मुहावरात में बह तकरीम (ताज़ीमन) इस्तिमाल किया है और अपनी रूहों के लिए उन के मफ़्हूम को जाए पनाह दिखाया है मसलन इब्रानी में लफ़्ज़ “इलोहीम” (الوہیمؔ) ؔ) है बमाअनी “माबूदान” सीग़ा जमाअ का है और उस माहीयत (असलियत) वाहिदा की निस्बत इस्तिमाल होता है। और लफ़्ज़ “यहोवाह” (یہوواؔ ہ) बमाअनी“हस्ती क़ायम-बिल-ज़ात” उस का इस्म-ए-आज़म है। ऐसा ही लफ़्ज़ “ख़ुदा” ’’ خُدا‘‘ है असल में “खुद आ” (خودآ) था कि इस्म-ए-फाइल तरकीबी है बमाअनी “ख़ुद आइंदा कि अज़ ख़ुद मौजूद अस्त।” ’’خودآیندہکہازخودموجوداست‘‘

इस हस्ती का सबूत हमेशा इस्तिदलाल एनी से होता है। जिसमें माअलूल (इस्तिलाह मंतिक़ में नतीजा) से इल्लत का सुराग़ लगाते हैं और इस तरह उस की सिफ़ात का सबूत होता है और दलाईल एनिया इस मक़्सद पर जहान में बकस्रत मौजूद हैं क्योंकि ये बेशुमार माअलुलात इस क़िस्म के दलाईल पैदा करते हैं। लेकिन इन दलाईल से सिर्फ इतना ही साबित होता है कि कोई हस्ती क़ायम-बिल-ज़ात ज़रूर कहीं मौजूद है, जिसका नज़ीर मादूम है और जिसमें हिकमत, क़ुदरत और इरादा है। क्योंकि हर माअलूल में ये तीन सिफ़तें मुस्तअमल नज़र आती हैं। लेकिन उस हस्ती का इल्म बालकहना (الکہنہ) (पुकारने या निदा देने का तरीक़) किसी इन्सान और फ़रिश्ते के भी ज़हन में नहीं समा सकता।

اے برتر از خیال وقیاس وگمان ووہم۔ وزہرچہ گفتہ اندشنید یم وخواندہ ایم۔

ऐ बरतर अज़ ख़्याल व क़यास व गुमान वहम। विज़ हरचे गुफ़्ता अंद शनीद यम व ख़वान्दा ऐम।

अगर उसकी ज़ात व सिफ़ात का इल्म बालकहना कमा हो हो किसी मख़्लूक़ के ज़हन में समा सकता तो वो ख़ुदा ना होता। मख़्लूक़ात के अहाता फ़िक्री में ख़ालिक़ का इल्म महदूद हो जाता। वो जो कहते हैं कि पहले हमें समझा दो कि ख़ुदा क्या है? तब हम ईमान लाएंगे। उनका मक़्सद ये है कि पहले हम ख़ुदा के हम-सर या इस से बड़े हो जाएं, तब उसे मानेंगे। सोचो कि ये हमाक़त है कि नहीं? कि वो लोग लाइन्तहा को अपने ज़हन की नहत्ता डिबिया में बंद करना चाहते हैं। क्या ऐसा होना कभी मुम्किन है ?

ख़ुदा ने आपको बज़रीये हमारी अक़्ल के और बज़रीये कुतुब ईल्हामीया के हमारे ज़रूफ़ के अंदाज़े पर हमारे सामने ज़ाहिर किया है। और जिस क़द्र उस के फ़ज़्ल से हमारे दिली और ख़्याली तरफ़ फ़राख़ होते जाते हैं, इस क़द्र ज़्यादा से ज़्यादा हम उसे पहचानते जाते हैं और मालूम नहीं कि कहाँ तक तरक़्क़ी हमारी होगी?

बड़ी बह्स जो अहले-दुनिया ख़ुदा की बाबत हमसे करते हैं वो वहदत और तस्लीस के बारे में है। जिसका मुफ़स्सिल बयान इस मुख़्तसर रिसाले में नहीं हो सकता। इंशा अल्लाह आइन्दा किसी किताब में हो जाएगा उस वक़्त चंद फ़िक़्रे इजमालन (इख़्तिसार के साथ) यहां लिखना काफ़ी है।

अक़्ल से जहां तक ख़ुदा मालूम हो सकता है आदमी जानते हैं और जान सकते हैं लेकिन ज़्यादा तरक़्क़ी इस बारे में अक़्ल से नहीं हो सकती जब तक कि वो ख़ुद ना बतलाए कि मैं क्या हूँ? और यह बात साबित हो चुकी है कि यक़ीनन उस ने दुनिया में पैग़म्बर भेजे और इल्हाम दिया जो बाइबल में है। पस हम अक़्ली हिदायत से कुछ ज़्यादा इस बारे में उस के कलाम से सीखते हैं और ज़्यादा रोशनी और तसल्ली हासिल करते हैं। क्योंकि जो कुछ कलाम सिखाता है वो अक़्ल के ख़िलाफ़ नहीं है। या अक़्ल के मुनासिब है या अक़्ल से बुलंद है। और यह बात हमें ख़ूब मालूम है कि ज़रूर ख़ुदा तआला हमारे फ़हम से बुलंद व बाला है।

ख़ुदा वाहिद है। ये बात बरहक़ है और हम ईमान से कहते हैं लाइलाहा-इल्ललाह (لااِلہ الاللّٰہ) लेकिन ये कहना कि ख़ुदा वाहिद है इस का मतलब क्या है? गौरतलब बात है। ख़ुदा नाम है एक माहीयत (असलियत) का जैसे इन्सानियत, हैवानियत, मिल्कियत वग़ैरा माहीयतें हैं। उलूहियत भी एक माहीयत (असलियत) है और सब माहीयतें क़ाइम-बिल-ग़ैर और मुरक्कब हैं। वो माहीयत (असलियत) ग़ैर मुरक्कब और क़ायम-बिल-ज़ात है। मुम्ताज़ बेनज़ीर और अज़ली व अबदी सब माहितियों की मूजिद और सब के ऊपर हाकिम है।

लेकिन उस की वहदत कैसी है? अक़्ल से इस का बयान नहीं हो सकता। क्योंकि वहदत फर्दी और नोई और जिन्सी को वहां दख़ल नहीं, वर्ना खुदाई की शान नहीं रहती है और ना वहदत-उल-वजूदी है जो मुग़ाइरत (अजनबीयत) को मादूम करती और अपने क़ाइल को बड़ा मुशरिक़ बल्कि मुन्किर-ए-ख़ुदा बनाती है। यही कहना पड़ता है कि उस की वहदत कुछ और ही क़िस्म की है जो फ़हम से बुलंद व बाला है।

कलाम से साबित हुआ कि इस की माहीयत (असलियत) वाहिदा है और इस में तीन उक़नूम (اقنوم) हैं यानी तीन शख़्स “अब” (اؔب) “इब्न” (ابؔن) “रूह-उल-क़ुद्दुस” (روؔح القدس) उन के नाम हैं। जो माहीयत (असलियत) “अब तआला” ’’ابؔ تعالیٰ‘‘ की है वही माहीयत (असलियत) “इब्न” (ابؔن) और “रूह-उल-क़ुद्दुस” (روؔح القدس) की है क्योंकि उनका जोहर (جو ہر) ज़ात एक है। सिफ़ात भी एक हैं। हिक्मत, क़ुदरत और इरादा एक है। सिर्फ तअद्दुद शख़्सी है, वर्ना हर तरह से एक हैं और यही वाहिद ख़ुदा है। ख़ुदा ने अपनी ज़ात का बयान अपने कलाम में यूं ज़ाहिर किया है और हम उस के फ़ज़्ल से समझे हैं कि ये हक़ है। ईसी का मानना ख़ुदा का मानना और इस का इन्कार ख़ुदा का इन्कार है। ये ख़्याल ख़ुदा ने ज़ाहिर किया पैग़म्बरों से पहुंचा और बाइबल शरीफ़ में बतफ़्सील बयान हुआ और मोमिनीन के दिलों और ख़यालों में ज़िंदगी और रोशनी बख़्श नज़र आया और फ़िक्र से दर्याफ़्त हुआ कि ख़ुदा इस अक़ीदे का हामी है। बल्कि सारी पाक रुहानी बरकतें और मार्फ़त-ए-ईलाही के इसरार उन्हीं आदमीयों के हिस्से में हैं जो इस वाहिद-फ़ील-तस्लीस (واحد فی التثلیث) ख़ुदा को मानते हैं। तुम ख़ुद सोचो कि तमाम दुनिया के अहले मज़ाहिब में मार्फ़त इलाही और ख़ुदा शनासी के बारे में कौनसा फ़िर्क़ा बढ़ा हुआ है? सिर्फ ईसाई लोग। इस का सबब यही है कि हक़ीक़ी और ज़िंदा ख़ुदा अभी बाइबल वाला ख़ुदा है जो उनकी रूहों में बवसीला इस ईमान के मोअस्सर है और नूरबख़्श है। और अहले मज़ाहिब जो तारीकी में रहते हैं इस का सबब यही है कि इन के फ़र्ज़ी और वहमी या अक़्ली ख़ुदा जो फ़िल-हक़ीक़त नाचीज़ शैय हैं कुछ रोशनी और ज़िंदगी उन में दाख़िल नहीं कर सकते। जब सब बुतलान दफ़ाअ होने का वक़्त आएगा ये सब लोग बे ख़ुदा खड़े रह जाऐंगे और हक़ीक़ी ज़िंदा ख़ुदा अहले इंजील के साथ सबको मालूम हो जाएगा।

दफ़ाअ 5

लफ़्ज़ इन्सान के बयान में

लफ़्ज़ “इन्सान” (انسان) की असल “इन्सी” (اِ نسی) है। लफ़्ज़ “इंसी” (اِ نسی) पर ज़्यादती मअनी की ग़रज़ से अलिफ़ नून (الف نون) ज़्यादा किया गया जैसे रहमान में कस्रत रहम दिखाने के लिए अलिफ़ नून (الف نون) ज़्यादा किया गया है। पस “इन्सी” (اِ نسی) से “इंस्यान” (انسیان) बिना कस्रत इस्तिमाल से याए तहतानी (یائے تحتانی वो हर्फ़ जिसके नीचे नुक़्ते हों) गिर गई (यानी ख़त्म कर दी गई) इन्सान रह गया। लफ़्ज़ “इन्सी” (اِ نسی) ज़िद है “वहशी” की। “इन्सान” के मअनी हैं “वो शख़्स जो बड़े मुहब्बत व उन्स वाला है।” मुज़क्कर, मुअन्नस, वाहिद व जमा सब इस में यकसाँ हैं। इन्सान की हालत तमद्दुनी का बयान इस लफ़्ज़ में ख़ूब है। अब आप सोचें कि अगर हम केंह तोज़ और ख़ुद ग़रज़ और बे मुहब्बत और वहशी-मिज़ाज हों तो हम इस्म-बा-मुसम्मा (اسم بامُسمّٰی) (जैसा नाम वैसे गुण) इन्सान हैं या नहीं और ऐसे लोगों ने कहाँ तक अपनी वज़ाअ से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) किया है?

दफ़ाअ 6

लफ़्ज़ आदम के ज़िक्र में

“आदम” ’’آدم‘‘ नाम है उस शख़्स का जो पहला इन्सान और सब इन्सानों का बाप था। इस लफ़्ज़ के माअनी हैं “मिट्टी या सुर्ख़ मिट्टी” क्योंकि वो शख़्स सुर्ख़ मिट्टी से बनाया गया था। अगरचे उस की बनावट में और सब मख़्लूक़ात अर्ज़ी की साख़त में बड़ा इम्तियाज़ है कि वो अजीब तौर से बना है और इस में ज़िंदगी का दम ख़ुदा ने फूँका है। और वो सब अर्ज़ी मख़्लूक़ात पर हाकिम है बल्कि तमाम कारखाना-ए-ज़मीन इसी के लिए तैयार हुआ है। तो भी उस का नाम “आदम” है यानी “मिट्टी।” उस लफ़्ज़ में उस के जुज़ असफ़ली (جُز اسفلی) का बयान होता है कि वो याद रखे कि मैं आदम हूँ यानी मिट्टी। पस हम सबको चाहीए कि इस लफ़्ज़ के मअनी याद रखें और ख़ाकसार रहें। मग़रूरी की सर-बुलंदी को दिल में जगह ना दें कि हम ख़ाक हैं और ख़ाक में जाऐंगे।

خاک شوپیش ازآں کہ خاک شوی

“ख़ाक शोपेश अज़ां कि ख़ाक शिवी”

दफ़ाअ 7

लफ़्ज़ हव्वा का बयान

इस लफ़्ज़ के मअनी हैं “ज़िंदगी” ये नाम आदम ने अपनी बीबी को दिया था क्योंकि वो सब ज़िंदों की माँ है। (पैदाइश 3:20) उस औरत की पैदाइश नर में से हुई थी। इसी लिए नारी कहलाती है कि नर में से निकली।۔ख़ुदा ने आदम को एक ही औरत दी थी। इस से ख़ुदा का क़ानून मालूम हुआ कि हर मर्द को एक ही औरत चाहीए। औरतों की कस्रत का दस्तूर आदम के पोते लमक बिन क़ाइन ने सबसे पहले दुनिया में निकाला है। अदा और ज़िला उस की दो बीवीयां थीं। (पैदाइश 4:19) ये आदमी ख़ूनी था और इस का बाप क़ाइन भी ख़ूनी था। अब जो कोई एक से ज़्यादा औरतें जमा करता है वो इस शख़्स की सुन्नत पर चलता है ख़वाह वो नबी हो या ग़ैर नबी। ये सच्च है कि पुराने अह्दनामे के इंतिज़ाम में ये दस्तूर कुछ मअयूब (एब वाला) ना था और ख़ुदा तआला ने भी इस मुआमला में कुछ तरह (दरगुज़र) सी दी थी। किसी हिक्मत के सबब से लेकिन जब पाकीज़गी का कमाल ज़ाहिर हुआ तो सब कुछ साफ़ रोशन हुआ है। ख़ुदा ने एक जोड़ा आदम और हव्वा का शुरू में पैदा किया और अब देखो कि ये ज़मीं इस जोड़े के बच्चों से किस क़द्र मामूर है।

दफ़ाअ 8

वहदत अबवी का बयान

सब आदमी बनी-आदम कहलाते हैं। “बनी” असल में “बनें” था। नून (نون) जमा का बाज़ाफ़त गिर गया यानी आदम के फ़र्ज़ंद। ये आवाज़ दुनिया के शुरू से चली आती है कि सब आदम के बच्चे हैं कोई नहीं कह सकता कि ये ख़्याल थोड़े दिनों से मशहूर हुआ है।

हमने सुना है कि आदम एक ख़ास शख़्स था और उस की एक ख़ास ज़ौजा (बीवी) थी और उन दोनों को ख़ालिक़ ने कुछ और ही क़ायदा से पैदा किया था। इन से ये सब आदमी पैदा हुए हैं और इसी आदम की तरफ़ मंसूब होके “बनी-आदम” कहलाते हैं। अगर ये ख़्याल दुरुस्त है तो “वहदत अबवी” के सबब से हम सब एक ही घराने के बच्चे हैं।

बाअज़ अश्ख़ास ने “वहदत अबवी” के बारे में इख़्तिलाफ़ ज़ाहिर किया है। पस उनके गुमान में कई एक आदम होंगे लेकिन उन की दलीलें जो इस बारे में हैं तसल्ली बख़्श नहीं हैं। उन्हें अक़्ल-ए-सलीम क़ुबूल नहीं करती। “वहदत अबवी” का ख़्याल बहुत सहीह मालूम होता है औरा इल्हामी तवारीख़ में है और जहांगीर है। दिलकश भी है और इस के सबूत की ताईद में हमारे पास जे़ल में ख़यालात मौजूद हैं। इन पर भी गौर व फ़िक्र करो।

1) सब दुनिया के आदमीयों में बदनी साख़त यकसाँ है।

2) हर दर्जे के आदमीयों में अख़्लाक़ी व रूही कैफ़ीयत के उसूल मुसावी हैं। और इस से इत्तिहाद नोई ज़ाहिर होके मंबा की वहदत दिखाता है।

3 ) आदमीयों में कुछ तफ़रीक़ें भी हैं, लेकिन ऐसी तफ़रीक़ें नहीं हैं जैसी मुख़्तलिफ़ अन्वा के जानवरों की आमेज़िश से उन के फलों में होती हैं। आदमीयों में जो तफ़रीक़ें हैं वो मुख़्तलिफ़ ममालिक की आब-ओ-हवा और मुख़्तलिफ़ अत्वार मईशत और तासीरात मुल्किया के सबब से हैं। चुनान्चे अफ़्रीक़ा, एशिया और यूरोप के बाशिंदों में कुछ फ़र्क़ सा नज़र आता है मगर इंसानियत के ज़ाती उसूल बराबर हैं।

4) इल्म तरकीब अर्ज़ी से साबित हो गया है कि तरकीबी नस्लें आगे नहीं बढ़तें, सिर्फ़ फ़ित्री नस्लें आगे चलती हैं। फिर हम ये भी देखते हैं कि मुख़्तलिफ़ ममालिक के आदमी आपस में शादी ब्याह करते हैं और उनकी नसलें बराबर दुनिया में चलती हैं। इस से वहदत अबवी ज़ाहिर है।

5) कुल बनी-आदम में नोई मुवानिसत (نوعی موانست) है और यह सरचश्मा की वहदत के सबब से है और क़ियास भी इसी तरह के निकलते चले आते हैं। हमारे दिलों को मुस्तइद करते हैं कि हम बमूजब हिदायत बाइबल शरीफ़ के आदमीयों में वहदत अबवी के क़ाइल हों और कहें कि हम सब आदम के बच्चे हैं। किसी का बावा-आदम निराला नहीं है और यह जुदाइयाँ जो बातिल ताअलीमात ने आदमीयों में डाली हैं नादानी और मग़रूरी के सबब से हैं और बहुत मुज़िर हैं। इंजील शरीफ़ इन जुदाईयों को दूर करती है और सब आदमीयों में एक ही लहू साबित करती है। अब वो सब लोग जिन्हें दुनिया के ख़ुद-पसंद लोगों ने ज़लील ठहरा के अलग खड़ा कर रखा है चाहीए कि ख़ुशी का नारा मार के मसीह यसूअ ख़ुदावन्द की जमाअत में चले आएं कि वही है जो सब का हक़ देता है।

दफ़ाअ 9

इंसान एक ख़ास वक़्त से दुनिया में है

آआदम किसी ख़ास वक़्त में मौजूद हुआ था वो हमेशा से ना था। लेकिन वो कब पैदा हुआ था? उसे कितने बरस का अरसा गुज़रा? इस के सन साल का क़तई सबूत हमारे पास नहीं है। एहतिमाली सबूत है ना क़तई। और वह ये है कि अह्दे-अतीक़ के इब्रानी नुस्ख़ों के नसब नामों पर फ़िक्र करके हमारे बुज़ुर्ग आलिमों ने यूं दर्याफ़्त किया है किआदम हमारे ख़ुदावन्द यसूअ मसीह से (4004) बरस पहले दुनिया में पैदा हुआ था और इस तादाद के साथ इस वक़्त (1889) मसीही बरस मिलाने से (5893) बरस आदम को होते हैं। उमूमन कलीसिया में ये तादाद मुसल्लम है बल्कि कलाम-उल्लाह के हाशिये पर भी मर्क़ूम है। क्योंकि पुराने नसब नामों के हिसाब से भी तादाद इतनी है।

सेप्तुवाजिन्त (Septuagint) और तवारीख़ यूसीफ़स (Josephus) से जहां हदीसों की भी रिआयत है। आदम से मसीह तक (5500) बरस का अरसा निकलता है। इसलिए हम बरसों की तादाद क़तअन मुईन नहीं कर सकते और ना किसी तादाद पर-ज़ोर देते हैं क्योंकि हमारा कोई ईमानी मसअला किसी तादाद पर मौक़ूफ़ नहीं है। हो सकता है कि वही हिसाब दुरुस्त हो जो इब्रानी नुस्ख़ों से आता है।

हाँ इस बात का सबूत हम पर वाजिब है कि जहां की पैदाइश में आदम ख़ुदा तआला की आख़िरी मख़्लूक़ था और कि छटे दिन में आदम और हवा की पैदाइश हुई है। उनकी पैदाइश के बाद किसी और चीज़ की पैदाइश का ज़िक्र नहीं है। यहां से दो बातें निकलती हैं।

अव्वलआंका वो जोड़ा आदम और हव्वा का तमाम पैदाइश में आख़िरी मख़्लूक़ था।

दोमउनकी सारी जिस्मानी पैदाइश का मक़्सद वही जोड़ा था जिस पर ख़ालिक़ ने पैदाइश का काम तमाम कर दिया था।

वो जो कहते हैं कि आदमी हमेशा से यूं हैं, बराबर चले आते हैं ग़लती पर हैं क्योंकि उनके लिए इब्तिदा ज़रूर साबित है।

इल्म तरकीब अर्ज़ी साबित करता है कि इन्सान का वजूद एक ख़ास वक़्त में नज़र आया है। वो लाइन्तहा अरसे से नहीं है और जब कि इल्मी तौर से ये बात मालूम हो गई तो फिर कलाम-उल्लाह पर ईमान लाने में क्या हुज्जत है?

हर इब्तिदा के लिए इंतिहा है और इंसान के लिए इब्तिदा साबित है पस इन्सान के लिए इंतिहा भी आएगी। और चूँकि इन्सान की रूह ग़ैर-फ़ानी मख़्लूक़ है, इसलिए उस की इंतिहा भी है कि वो दूसरी हालत में जाये। इसी का नाम आख़िरत है। उस वक़्त विलादत का क़ायदा बंद हो जाएगा और जहान के काम तमाम हो जाएंगे। क़ुदरत ईलाही कुछ और ही रंग दिखाएगी। अगर मर्ज़ी होतो नबियों की बात मान लो कि आख़िरत आने वाली है वर्ना वर्ना इन्सान के लिए इल्मी तौर से अज़लियत साबित करो और इल्म तरकीब अर्ज़ी को जो इन्सान के लिए इब्तिदा साबित करता है ख़ाक में दबा दो जहां वो पहले दबा था या कहो कि हर इब्तिदा के लिए इंतिहा साबित नहीं है और अपनी तमीज़ को आप ही जवाब दो।

दफ़ाअ 10

आदम क्योंकर पैदा हो गया?

दुनिया के सब आदमी क़ायदा मामूली के मुवाफ़िक़ वालदैन से पैदा होते हैं और यह उन के लिए फ़ित्री क़ायदा है। चुनान्चे सब हैवानात के लिए भी क़वाइद फ़ित्रयह मुक़र्रर हैं। अगर यही क़ायदा शुरू से है तो पहले जोड़े के वालदैन कौन थे? और उन में से भी हर फ़र्द के लिए एक जोड़ा चाहीए। दूर तो किसी तरह से हो हि नहीं सकता कि उस जोड़े का वजूद हम पर मौक़ूफ़ हो और हमारा वजूद उस पर।

और तसलसुल भी बातिल है और यह ख़ूब साबित है कि इन्सान सबसे पीछे पैदा हुआ है। पस वो पहला जोड़ा यक़ीनन क़ायदा माअलूमा के ख़िलाफ़ किसी और क़ायदे से पैदा हुआ होगा और यह क़ायदा माअमूली उस की पैदाइश के बाद जारी हुआ है।

अब हुज्जत इस में है कि वो जोड़ा किस क़ायदे से और क्योंकर पैदा हुआ था? अगर कोई आदमी अपनी अक़्ल से कहे कि इस तरह से या उस तरह से हुआ होगा तो ये सब उस के बयान अक़्ली इम्कान होंगे या क़ुव्वत-ए-वाहिमा के तुहमात होंगे जिनसे किसी अम्र का सबूत नहीं हुआ करता है।

और कोई नज़ीर भी दुनिया की तवारीख़ में नहीं है कि कोई इन्सान कभी इत्तिफ़ाक़ से या तरकीब बहायमी वग़ैरा से पैदा होके आदमीयों के झुंड में आ मिला हो जिस पर क़ियास करके उस पहले जोड़े को भी ऐसा ही समझें। हालाँकि इस वक़्त जो इन्सानी जोड़े दुनिया में मौजूद हैं उस पर ग़ौर करने से उनकी बनावट में अजीब हिक्मत और इरादा सानेअ (पैदा करने का इरादा) का पाया जाता है। और ये ज़ाहिर होता है कि पहला जोड़ा जो इन सब जोड़ों का साँचा था और कुछ और ही क़ायदे से बना था। वो क़ायदा अपने वक़्त पर ज़ाहिर होके पोशीदा हो गया है और यह माअमूली क़ायदा जारी कर गया है। चुनान्चे तमाम दुनियावी फ़ित्री क़वाइद मुक़र्ररा की जड़ों में कुछ और ही क़ाएदे सानेअ के पास बचश्म ग़ौर नज़र आते हैं जो आदमीयों की समझ से बाहर हैं और वह अपने वक़्तों पर ज़ाहिर होते हैं। वो आम नहीं हैं कि हर वक़्त नज़र आया करें। उन्हीं क़वाइद मख़फ़ीह से ब-वक़्त मुनासिब मोअजज़ात भी होते हैं जो सच्चे मोअजज़े कहलाते हैं।

कोताहअंदेश लोग जो ख़ुदा की मार्फ़त से बेनसीब हैं उन्हें चंद फ़ित्रे मालूमा क़वाइद में ख़ुदा की सारी क़ुव्वत को मुन्हसिर समझ के गुमराही के गिर्दाब में नाहक़ डुबकों डुबकों कर रहे हैं।

बेदार मग़ज़ आदमी गहिरी निगाह से देखता है कि क्या है? बाइबल शरीफ़ की सदहा बातें इसी दुनिया में बरहक़ साबित हो चुकीं हैं। फिर क्या वजह है कि उस जोड़े की पैदाइश का ज़िक्र जैसे कि उस में लिखा है माना ना जाये? हालाँकि अक़्ल-ए-सलीम साफ़ कहती है कि ये बयान ख़ुदा की शान के मुनासिब है।

(पैदाइश 2:7) में लिखा है कि ख़ुदा ने आदम को ख़ाक से बनाया। ये उस के जिस्मी माद्दा का ज़िक्र है और इस बात का बयान है कि वो हैवानी तरकीब से नहीं निकला बल्कि ख़ुदा ने ख़ाक का एक पुतला बनाया और उस में ख़ुदा ने ज़िंदगी का दम फूँका। ये उस के दूसरे जुज़ का ज़िक्र है जिसको “नफ़्स-ए-नातिक़ा” कहते हैं जो आलम-ए-बाला से उस में डाला गया। (पैदाइश 1:27) में मर्क़ूम है कि ख़ुदा ने उसे अपनी सूरत पर बनाया। “सूरत” से मुराद ये है कि इन्सान की ज़ाहिरी और बातिनी रुहानी व अख़्लाक़ी सूरत ऐसी बनाई कि ख़ुदा के साथ एक ख़ास निस्बत और मुशाबहत और इलाक़ा उस का हुआ।

मुशब्बह (مُشبہَّ) और मुशब्बह ब (مُشبہّ بِہٖ) में मुवाफ़िक़त कुल्ली तो कभी नहीं होती है वर्ना दुई ना होगी लेकिन किसी क़द्र मुवाफ़िक़त और मुनासबत बाअज़ उमूर में हुआ करती है। इन्सान में और ख़ुदा में पूरी दुई है। लेकिन वो ऐसी सूरत में पैदा हुआ है कि सिफ़ात ईलाहीय का गो ना मज़हर और तजल्लियात का महबत और ईलाही मर्ज़ी व अहकाम की बजा आवरी के लायक़ वज़ा में है और आज़ाद भी है ना मज्बूर और अक़्ल क़ुबूल करती है कि ज़रूर इन्सान ऐसी वज़ा में है। अगरचे वो सूरत उस की बाद गुनाह के बिगड़ गई है तो भी शेअर :-

ازنقش ونگار درودیوار شکستہ۔ اثار پدیداست صنا دیدعجم را۔

अज़नक़्श व निगार दरोदीवार शिकस्ता

आसार पदीद अस्त सना दीद अज्म रा

और इस से ये भी साबित है कि वो इत्तिफ़ाक़ी मख़्लूक़ नहीं बल्कि इरादी है। आदम का जिस्म ख़ाक से बना और रूह अल्लाह ने फूंकी लेकिन उस की ज़ौजा (बीवी) को उस की पसली से निकाला और उस की रूह का ज़िक्र नहीं है कि कहाँ से आई? क़ियास चाहता है कि जैसे जिस्म से जिस्म निकला वैसे रूह से रूह पैदा की। इसी लिए वो मर्द की दबैल और उस से कमज़ोर है।

अव्वल-ख़ुदा ने ज़मीन व अस्मान को हुक्म से पैदा कर दिया और वह बे माद्दा सिर्फ हुक्म से मौजूद हो गए सानियन-उस ने ज़मीन को हुक्म देकर इस से हैवानात और नबातात निकलवाये। सालसन- आदम को ख़ुद पैदा किया। राबिअन- आदम में से हव्वा को निकाला। ख़ामसुन- तौवलीद का क़ायदा जारी किया। पस पहला आदमी क़ाइन पैदा हुआ जो मामूली क़ायदे से है।

पहले चार क़ाएदे अमल में आए। तब पांचवां क़ायदा जारी हुआ और वह क़ुव्वत जिससे ये कुछ हुआ ख़ुदा में अज़ल से मख़्फ़ी (छिपी) थी और अब भी उस में मख़्फ़ी (छिपी) और मौजूद है। कोई नहीं कह सकता कि तू क्या करता है? या तूने ऐसा क्यों किया? किस का मुँह है जो ऐसा बोले? अलबत्ता काफिर आदमी जो चाहता है सो बकता है और अपना नुक़्सान करता है। लेकिन ख़ुदा के आरिफ़ लोग जानते हैं कि उस के सारे काम रास्ती और इन्साफ़ और हिक्मत और मुहब्बत के हैं। कोई समझे या ना समझे हाँ जिन्हों ने उस की किताब बाइबल शरीफ़ को उस से पढ़ा है वो ग़ैरों की निस्बत ज़्यादा समझते और तसल्ली से भरे हैं।

दफ़ाअ 11

हम सब क्योंकर पैदा होते हैं?

इसी क़ायदे से जो पहले जोड़े की पैदाइश के बाद जारी हुआ है सब आदमी पैदा होते हैं। (पैदाइश 1:28) ख़ुदा ने इस जोड़े को पैदा करके बरकत दी और बरकत में चार लफ़्ज़ फ़रमाए थे:-

“फलो और बढ़ो और ज़मीन को माअमूर व मह्कूम करो....”

(पैदाइश 1:28) लफ़्ज़ “फलो” में ख़ुदा ने हम सबको उस जोड़े में याद किया था और लफ़्ज़ “बढ़ो” में सिलसिला तौवलीद के इजरा का ज़िक्र किया था और लफ़्ज़ “माअमूर” में ख़ुदा की निगाह इस बड़ी आबादी पर थी जो दुनिया में अब नज़र आती है और लफ़्ज़ “मह्कूम” में वो इख़्तयारात और तसर्रुफ़ात (क़ब्ज़े) याद किए गए थे। जो अब दुनिया में आदमीयों से हो रहे हैं और बड़ते जाते हैं और जिन की तक्मील का वक़्त चला आता है।

इन अल्फ़ाज़ पर और दुनिया की तवारीख़ और हालत पर ग़ौर कीजिए कि वो बरकत जो ख़ुदा ने उस जोड़े को दी थी क्योंकर बतदरीज पूरी होती और तरक़्क़ी करती चली आई है? और उन अल्फ़ाज़े बरकत में कुछ सदाक़त नज़र आती है या नहीं? और कि ये बरकत का बयान और यह किताब पैदाइश उस वक़्त की है या नहीं कि जिस वक़्त दुनिया में अंधेरा था, ना इस क़द्र आबादी थी और ना ऐसी हिक्मत थी। लेकिन एक वक़्त आया कि ये मज़्मून सच्च निकला तो ऊपर का बयान भी जिसका ये मज़्मून एक हिस्सा है क्यों ना सच्च होगा।

आदमी से आदमी पैदा होता है इसलिए तो आदम हमारी जिस्मानी मौजूदगी का एक ज़ाहिरी वसीला है। (1 करनत्थियों 15:45) जिस्म से जिस्म पैदा होता है और रूह से रूह पैदा होती है (युहन्ना 3:6) और वालदैन की जिस्मानी साख़त और कुछ ना कुछ बल्कि बहुत कुछ मिज़ाजी और अख़्लाक़ी कैफ़ीयत भी और अमराज़ मतादिह (मताद्दी अमराज़-छूतछात से पैदा होने वाली बीमारीयां) भी औलाद में नज़र आती हैं जिनका इन्कार नहीं हो सकता। इसी लिए ये कहावत मशहूर हुई है कि “बाप पर पूत पिता पर घोड़ा बहुत नहीं तो थोड़ा थोड़ा।” (हिन्दी मिस्ल- हर शख़्स पर कुछ ना कुछ ख़ानदानी असर ज़रूर होता है)

ज़ाहिर है कि वालिद से रहेम (कोख) ए वालिदा में एक क़तरा गिरता है। इस में एक नुक़्ता है जो इस पैदा होने वाले की ज़िंदगी का मर्कज़ सा है। इस में ईलाही क़ुदरत का कुछ तसर्रुफ़ (दख़ल देना - अमल) होता है जो इन्सानी समझ से बुलंद है “तू नहीं जानता है कि....हामिला के रहेम (कोख) में हड्डियां क्योंकर बढ़ती हैं.....”(वाइज़ 11:5)۔

डाक्टर कहते हैं कि यूं यूं होता है लेकिन नहीं कह सकते कि यूं क्यों होता है? कलाम-उल्लाह बताता है कि इन्सान की पैदाइश अम्र इत्तिफ़ाक़ी नहीं है। ख़ुदा के इरादे से इन्सान, रहेम मादर (मां के पेट में) में डाला जाता है। (अय्यूब 31:15) जिसने मुझे रहेम में डाला उस ने इसे भी बनाया और उसी वक़्त से ईलाही कुमक उस जनीन या बच्चे की निस्बत मालूम होती है। “ख़ुदावन्द तेरा ख़ालिक़ जिस ने रहेम ही से तुझे बनाया और तेरी मदद करेगा यूं फ़रमाता है...” (यसअयाह 44:2) ज़बूर नवीस दाऊद लिखता है “जब मैं पौशयदगी में बन रहा था और ज़मीन के अस्फ़ल में अजीब तौर से मुरत्तब हो रहा था तो मेरा क़ल्ब तुझ से छुपा ना था। तेरी आँखों ने मेरे बे-तरतीब माद्दे को देखा और जो अय्याम मेरे लिए मुक़र्रर थे वो सब तेरी किताब में लिखे थे।” (ज़बूर 139:15-16) ये क़ुदरती काम मिट्टी में शुरू होता है और आदमी मिट्टी से बनता है..... “मैं भी मिट्टी से बना हूँ।” (अय्यूब 33:6) आदम और हव्वा के सिवा सब आदमी वालिद के सुल्ब से पैदा होते हैं। याक़ूब के छयासठ सुल्बी (सगा) फ़र्ज़ंद मिस्र में आए थे। (पैदाइश 46:26) इसी तरह हर आदमी के लिए ऊपर की तरफ़ एक सुल्बी (सगा) सिलसिला है जो इस का “नसब” कहलाता है। वो नसब नामे जो इंजील मत्ती व लुक़ा में हमारे ख़ुदावन्द मसीह के मज़्कूर हैं। वो मर्यम और यूसुफ़ के हैं। यूसुफ़ मसीह का शरई बाप था ना जिस्मानी। मर्यम ख़ुदावंद मसीह की जिस्मानी वालिदा थी। मसीह का बदन उस के ख़ून से बना। लेकिन वो फ़क़त जो उस के रहेम में आया उसी क़ुदरत से आया था जिस क़ुदरत से आदम बना था। (लूक़ा 1:35)

पस यूसुफ़ और अब्रहाम व दाऊद वग़ैरा मसीह के शरई बाप थे ना सुल्बी (सगा) और मर्यम के साथ ख़ूनी मुशारकत (बाहम शिरकत करना- हिस्सादारी) के सबब से मसीह का जिस्म उन बुज़ुर्गों का ख़ून था और मुशारकत शरई व जिस्मानी के सबब से वो उनका फ़र्ज़ंद कहलाता है। सब आदमीयों में एक ही लहू है औरा एक ख़ास क़िस्म का लहू है जो सिर्फ आदमीयों में है। इस के अअ्ज़ा तमाम हैवानात के ख़ून से अलग क़िस्म के अअ्ज़ा हैं। इस ज़माना में ये साबित हो गया है कि आदमी का ख़ून ख़ास क़िस्म का है अब आदमी धोका नहीं खा सकता कि जानवर के ख़ून और आदमी के ख़ून में इम्तियाज़ ना कर सकें। ये आदम का ख़ून कुल दुनिया के आदमीयों में यकसाँ है और इस से भी वहदत अबवी ज़ाहिर होती है। ख़ुदा ने एक ही लहू (असल) से आदमीयों की सब क़ौमों को तमाम सतह ज़मीन पर बसने के लिए पैदा किया है। (आमाल 17:26) और यह भी दुरुस्त बात है कि ख़ून में जोश है और मुवानिस्त (मुहब्बत, उन्स) का एक ये भी सबब बनी-आदम में है और जिद्दी ख़ून का जोश अक़्रब मुवानिस्त का बाइस है वो कहावत दुरुस्त है “आख़िर लहू ने जोश मारा।”

दफ़ाअ 12

اइन्सान की इस्तिलाही तारीफ़

इन्सान क्या चीज़ है? या यूं कहो कि हम जो बनी-आदम कहलाते हैं हम क्या हैं? इस सवाल का जवाब अह्ले इल्म यूं देते हैं “इन्सान हैवान-ए-नातिक़ (बोलने वाला) जानवर है।” इन्सान की तारीफ़ सबने यही की है और यह तारीफ़ दुरुस्त और सहीह है क्योंकि ये जिन्स क़रीब और फ़स्ल क़रीब से इन्सान की हदताम (मुकम्मल) है और इस से बढ़कर कामिल तारीफ़ इस की हो नहीं सकती।

अब मुनासिब है कि हम सब अपनी जिन्स और फ़स्ल पर ग़ौर कर के (अपने) आप को ख़ूब पहचानें और उस से कुछ उम्दा नताइज निकालें ना ये कि आम लोगों की मानिंद अपनी तारीफ़ का फ़िक़्रह ही सुनके चुप कर रहें।

वाज़ेह हो कि जब हम अपनी अजनास (जिन्स की जमा) में ग़ौर करते हैं तो हमें नीचे की तरफ़ बहुत उतरना पड़ता है और जब फ़ुसूल (फ़स्ल की जमा) की तरफ़ देखते हैं तब ऊपर चढ़ते आते हैं।

पहले “हैवान” के मफ़्हूम को टटोलो कि वो क्या है? ये कहना पड़ेगा कि (हैवान एक जिस्म है नामी, हस्सास, मुतहर्रिक बिलइरादा) ये हैवान की तारीफ़ हुई इस में जुज़ आज़म या जिन्स जिस्म है और नामी हास और मुतहर्रिक बिलइरादा फ़सलें हैं उन्हें छोड़ के जिस्म को देखो कि वो किया है? यही कहोगे कि (जिस्म एक चीज़ है जिसमें अल-ईबाद सलसा हैं) ये जिस्म की तारीफ़ हुई। अल-ईबाद सलसा से मुराद है तूल अर्ज़ अमुक इस से नीचे उतरना मुझे मुनासिब मालूम नहीं होता क्योंकि अगर कुछ और भी नीचे उतरें तो अनासिर की और जोहर की बह्स पेश आ जाती है और यही कहना पड़ता है कि कुछ है तो लेकिन अक़्ल से साफ़ साफ़ मालूम नहीं हो सकता। इमकानी ख़यालात के ढेर लग जाते हैं जिनसे सिर्फ़ हैरानी पैदा होती है और हक़ीक़ी बात इन्सानी फ़हम से पैदा नहीं होती है। ये मुक़ाम एक व्रता या गिर्दाब है जिसमें बहुत लोग डूब मरे हैं और गौहर मुराद पाके कोई गौत ज़न नहीं निकला। ये ख़ौफ़ ख़तरे का मुक़ाम है इसी जगह पर खड़े होके किसी ने कहा कि हमा ओसत (ہمہ اُوست) है और किसी ने कहा नहीं हमा अज़ ओसत (ہمہ ازاُوست) है। पहला ख़्याल ज़हर क़ाइल और दूसरा ख़्याल तिरयाक़ है जो इसी जगह से आदमी निकालते हैं। लिहाज़ा इस बह्स को तूल देना बेफ़ाइदा दर्द सिरी है।

हम जो मसीही हैं इस मुक़ाम पर इस अम्बिया के क़ौल को मज़बूती से थाम लेते हैं कि ख़ुदा-ए-क़ादिर ने माद्दा को बे माद्दा सिर्फ अपने हुक्म की तासीर से मौजूद किया और माद्दा का माद्दा गोया वो हुक्म ईलाही था कि उस ने कहा “हो जा” और “हो गया” कुछ ना था और सब कुछ हो गया।

देखो नीचे की तरफ़ उतरने में तनज़्ज़ुल पर तनज़्ज़ुल चला आता है और तमाम तंज़िलात के नीचे यही आता है कि कुछ ना था। तो भी अब हम सब कुछ मौजूद देखते हैं और कलाम इस में बाक़ी रहता है कि ये सब कुछ कहाँ से और क्योंकर हो गया? “कहाँ” से का जवाब तो हमारे पास सिर्फ यही है कि नीस्ती से निकला जो इन्सानी ख़्याल में मुहाल है मगर वो फ़ित्री नूर जो ख़ुदा ने हम में रखा है ये दिखाता है कि ख़ुदा की क़ुव्वत के सामने मुहाल नहीं है और लफ़्ज़ “क्योंकर” का जवाब ये है कि क़ादिर की क़ुदरत से हुआ। उस की क़ुदरत के सामने बहुत सी वो बातें जिन्हें हम मुहाल कहते हैं मुहाल नहीं हैं।

पस मैं जिस्म ही पर इस बह्स को छोड़ता हूँ और यूं कहता हूँ कि इस तरफ़ तहक़ीक़ात अक़लीया का दरवाज़ा बंद है और जो जो कुछ अहले ख़्याल बोलते हैं वो उन की इमकानी तज्वीज़ें हैं। पस चाहीए कि हम इस ख़्याली ग़ार में से निकलें और अपनी माहीयत (असलियत) के मफ़्हूम में ऊपर की तरफ़ चढ़ें जहां तक चढ़ सकते हैं और ख़ूब टटोलें कि हमारे वजूद में क्या कुछ है और कहाँ तक हमें उम्मीद है? पस मालूम हो जाएगा कि हम सब जिस्म मुतलक़ में शामिल होके ठोस बे-जान पत्थरों और ईंटों और ख़ाक के हम-जिंस या हम-रुत्बा या रिश्तेदार हैं। ख़ुदा-ए-क़ादिर हमें एक ख़ास शक्ल में लाया और उस ने क़ुदरती तसर्रुफ़ से हम में क़ुव्वत-ए-नामिया जिससे बढ़ते और नशव-ओ-नुमा की शादाबी हासिल करते हैं पैदा की। तब हम जमादात के दर्मियान मुम्ताज़ हुए और दरख़्तों में शामिल हो गए और जमादात हमारे नीचे आए तो भी हैवानात ऊपर रहे।

ये क़ुव्वत-ए-नामिया हम में कहाँ से आ गई क्या सिर्फ जमादात में से निकली? हरगिज़ नहीं बल्कि ये हुआ कि हमारी जमुदियत को कोई ख़ारिजी क़ुव्वत तर्तीब ख़ास में लाई और माद्दा के दर्मियान से नमी और हवा और धूप ने इसी तर्तीब में तासीर की और उस ख़ारिजी क़ुव्वत की मर्ज़ी और इरादे के मुवाफ़िक़ एक ख़ास क़ुव्वत हम में मौजूद हो गई जिसको क़ुव्वत-ए-नामिया कहते हैं। इस क़ुव्वत के सबब से हम नबातात की जिन्स में शामिल हो गए और जिस्म नामी ठहरे। “जिस्म नामी” के मअनी हैं वो जिस्म जिसमें निम्मो की क़ुव्वत है फिर भी बे-हिस-ओ-रकत थे सिर्फ निम्मो की शान आ गई थी।

इस के ऊपर एक और चीज़ जिसको “हयात” कहते हैं और इसी का नाम फ़ारसी में “जान” है हम में आ गई जिसके सबब से हम हस्सास और मुतहर्रिक बिलइरादा हो गए और नबातात की बिरादरी में से निकलते हैवानात में शामिल हुए।

“हयात” के मअनी हैं “ज़िंदगी”। हैवान वो है जिसमें हयात है। “हस्सास” के मअनी हैं “हिस्सों वाला” और “मुतहर्रिक बिलइरादा” वो है जो अपने इरादे से हरकत करता है। ये दोनों बातें यानी हिस्सों वाला होना और हरकत कनुंदा होना हयात को लाज़िम हैं। ये हयात या जान हैवानों में कहाँ से और क्योंकर आ गई है? ज़ाहिर तो है कि उंसरों की ख़ास तर्तीब से निकली है तो भी इस क़ुव्वत ख़ारिजी का जो जहां में हर कहीं मोअस्सर नज़र आती है इस हयात के ईजाद में साफ़ साफ़ दख़ल मालूम होता है क्योंकि हैवान की जान और उस के जिस्म पर ग़ौर करने से और उस के ख़साइस के देखने से मूजिद के आसार-ए-इरादा उस में नज़र आते हैं और वह इरादे हर जानवर की ज़िंदगी में पूरे भी होते हैं।

अलबत्ता हैवानात की जानों में इदराक और ताक़्क़ुल नहीं है। सिर्फ ज़ीस्त के बहाल रखने का और तलाश मईशत का थोड़ा शऊर फ़ित्री है जिसको अक़्ल हैवानी कहना चाहीए और वहां तक इन्सान भी हैवानों के बराबर रहते हैं।

हैवानों में से एक क़िस्म का हैवान इन्सान है और उस में एक ख़ास चीज़ ऐसी दिखाई देती है जो और हैवानों में नहीं है। इस चीज़ को अह्ले इल्म “नुत्क़” (نطق) कहते हैं। ये कोई और ही चीज़ है जो उस हैवान यानी इन्सान की जान के ऊपर कहीं से उस में आ गई है और इसी चीज़ के सबब से ये दीगर हैवानों में मुम्ताज़ हुआ है और उन में से निकल के आला रुत्बे को पहुंचा है और उस की तारीफ़ हैवान-ए-नातिक़ ठहरी है।

देखो हमारा निचला हिस्सा ख़ाक है और उस के ऊपर निम्मो है और निम्मो के ऊपर जान है और जान के ऊपर नुत्क़ है और यह हमारा ऊपर का हिस्सा है ये सब कुछ तो साफ़ साफ़ मालूम होता है कि हमारा ख़ालिक़ हमें तरक़्क़ी देता हुआ कहाँ से कहाँ लाया है? अब कौन कह सकता है कि आगे को तरक़्क़ी का दरवाज़ा बंद हो गया है। शायद हम और भी तरक़्क़ी करते करते ख़ालिक़ की हुज़ूरी में पहुँचेंगे और ख़ाक से अफ़्लाक पर चढ़ेंगे या अस्फ़ल अल्साफिल में गिरेंगे।

दफ़ाअ 13

नुत्क़ (نطق) के बयान में

“नुत्क़” (نطق) की तरफ़ देखिए कि वो क्या चीज़ है? अरबी ज़बान में “नुत्क़” के मअनी हैं “बोलना” लेकिन इस्तिलाह में सिर्फ “बोलना” ही नहीं बल्कि इदराक माअनी की भी इस में शर्त है और इस सूरत में “नुत्क़” नाम हुआ उस वक़्त का जो इदराक मअनी की क़ुव्वत इन्सान में है और इसी क़ुव्वत के लिहाज़ से इन्सान की रूह को ''नफ़्स-ए-नातिक़ा कहते हैं।

जब कहा जाता है कि फ़ुलां शख़्स का नफ़्स नातिक़ा या बोलता निकल गया तो ये मुराद है कि उस की रूह निकल गई। लफ़्ज़ “नफ़्स” के माअनी हैं “हक़ीक़त शैय।” “इन्सानी नफ़्स” से मुराद है इन्सानी हक़ीक़त यानी वो असली चीज़ जो इंसान में है।

उस का दूसरा नाम “रूह” है। लताफ़त के सबब से इस वक़्त ये मालूम हो जाए कि वो हक़ीक़ते इन्सान जिसको “नफ़्स इन्सान” कहते हैं वो एक ही चीज़ है और उस के नाम छः हैं। बलिहाज़ उस की छः सिफ़तों के क़ुव्वत इदराक के लिहाज़ से उस को “नफ़्स नातिक़ा” कहते हैं क्योंकि उस में इदराक की क़ुव्वत है। और जब वो नफ़्स दुनियावी लज़्ज़तों की तरफ़ बशिद्दत माइल होता है तो इस सूरत में उस को “नफ़्स-ए-अम्मारा” कहते हैं। और जब वो नफ़्स अपनी बदकिर्दारी से पछताता है और शर्मसार होता है उस का नाम “नफ़्स लव्वामा” होता है और जब वो ख़ुदा से मग़फ़िरत और तसल्ली हासिल करके ख़ुशी में होता है उस वक़्त उस को “नफ़्स-ए-मुत्मईन्ना” कहते हैं और जब उस पर हिदायत ग़ैबी के अनवार ईलाही फ़ैज़ान से नाज़िल होते हैं या उस पर चकमते हैं तब उस का नाम “नफ़्स मल्हिमा” होता है और लताफ़त के लिहाज़ से हर कोई उसे रूह कहता है। पस चीज़ एक ही है नाम छः हैं।

ये हक़ीक़त इन्सान यानी रूह जिसमें ये छः कैफ़ियतें हैं और जिस के सबब से इन्सान अर्ज़ी मख़्लूक़ात में अशरफ़ नज़र आता है। तमिज़ी इदराक कहता है कि वो हैवानी जान के ऊपर कोई शैय है लेकिन उस की माहीयत (असलियत) कि वो क्या है? अक़्ल-ए-इंसानी से पूरी पूरी दर्याफ़्त नहीं हो सकती है। मगर बाइबल शरीफ़ ने इस बारे में हमारी तसल्ली कर दी है ये दिखा के कि ये “नफ़्स-ए-नातिक़ा” या “रूह” आलम-ए-बाला का एक शख़्स है और मख़्लूक़ है जिसे ख़ुदा ने पैदा किया और इन्सान के बदन में उसकी जान के ऊपर रखा है। उसी का नाम कलाम-उल्लाह में “ज़िंदगी का दम” है जो ख़ुदा ने आदम में फूँका यानी पैदा किया गया था। पस हमारा दावा ये है कि ये नफ़्स-ए-नातिक़ा जो इन्सान में है मिस्ल नमू और हयात के तरकीब अनासिर का हासिल नहीं है बल्कि आलम-ए-अलवी का एक जोहर बड़ा शरीफ़ और बेश-क़ीमत है।

दफ़ाअ 14

जान और रूह का बयान

लफ़्ज़ “रूह” के मअनी हैं “हवा” लेकिन ना वो “हवा” जो हमारे चारों तरफ़ बहती है क्योंकि आदमी की रूह में कुछ कैफ़ीयत है जो आम हवा में नहीं है तो भी इस आम हवा के साथ उस की रूह का कुछ इलाक़ा है। लताफ़त और सुकूनत के लिहाज़ से चुनान्चे अगर किसी मकान में खला कर दिया जाये और हवा खींच ली जाये तो वहां कोई जानवर और इन्सान जी नहीं सकता, फ़ौरन जान निकल जाती है। इस का नतीजा ये नहीं हो सकता कि रूह इन्सानी मह्ज़ हवा है बल्कि ये बात है कि गोया रूह “हवा” पर सवार है और “हवा” उस का मस्कन सा है जब “हवा” पहुँचेगी तो रूह के लिए मस्कन ना रहा इसलिए वो ग़ायब हो जाती है और कहीं चली जाती है हवा में रल-मिल भी नहीं जाती।

लफ़्ज़ “रूह” के इस्तिलाही माअनों में और इस की माहीयत (असलियत) के बयान में अह्ले इल्म ने आज तक बहुत सा इख़्तिलाफ़ किया है और उन लोगों का सारा बयान पढ़ने से यही मालूम होता है कि रूह की माहीयत (असलियत) आदमीयों को अब तक मालूम नहीं हुई है। हाँ ये बात तो ख़ूब मालूम है कि इन्सान में मिस्ल सब हैवानात के एक हरारत है जिसको ये हकीम “हरारत-ए-ग़रीज़ी” कहते हैं। “ग़रीज़ा” नाम है “सरिशत या तबीयत” का और सरिशती हरारत जो अनासिर की आमेज़िश से पैदा होती है वही “हरारत-ए-ग़रीज़ी या सरिशती” है।

ये हरारत क़ल्ब (दिल) में कि गोश्त के टूकड़ा है पैदा होती है और नसों के वसीले से सारे बदन में फलती है। इसी को तबीब लोग “रूह हैवानी” कहते हैं और बीमारी की हालत में इसी के सँभालने की कोशिश होती है क्योंकि हर जानदार की ज़िंदगी उसी पर मौक़ूफ़ है और उस का नाम जान है जिसके सबब से सब हैवान “जानवर” यानी “जान वाले” कहलाते हैं। लेकिन ये जिस्मानी है और जिस्म के साथ फ़ना हो जाती है। उस को कोई हकीम “हवाई जिस्म” कहता है और कोई “आतिशी” और कोई “आबी” बताता है और यहां तक इन्सान में और सब हैवानात में मुसावात रहती है। और जब कहा जाता है कि इन्सान में दो चीज़ें हैं यानी रूह और जिस्म तो जिस्म की ग़ायत उस के आज़ा ए कसीफ़ा से ले के उस की ऐसी जान तक मुराद होती है यानी जिस्म की हद में ये जान भी आ जाती है और रूह से मुराद वो चीज़ होती है जो हद जिस्मानी से बाहर है।

ख़ुदावन्द यसूअ मसीह की निस्बत अथनासीस के अक़ाइद नामा में लिखा है (फ़िक़्रह 37) कामिल ख़ुदा कामिल इन्सान नफ़्स-ए-नातिक़ा और इन्सानी जिस्म की तरकीब में मौजूद। यहां लफ़्ज़ जिस्म में ये हैवानी जान भी शामिल है।

इस जान में भी किसी क़द्र शऊर मईशत की रोशनी ख़ालिक़ से डाली हुई नज़र आती है लेकिन वो शऊर है ना अक़्ल। जानवर इस शऊर महदूद के वसीले से दुनिया में गुज़ारा करते हैं और मामूली तरीक़े में इस से काम लेते हैं। ना इस में तरक़्क़ी कर सकते हैं ना इसे इशकाल-ए-मतनवा में इस्तिमाल कर सकते हैं। पस वो एक ख़ास हद में रहते हैं।

आदमी में इस जान के ऊपर कोई और चीज़ है और वह सिर्फ़ इन्सान ही में पाई जाती है और वही फ़स्ल है जो कि इन्सान को हैवान-ए-मुत्लक़ में से निकालती है। जमादात में से निकालने के लिए निम्मो फ़स्ल था और नबातात में से निकालने के लिए ये जान फ़स्ल हुई थी। अब हैवानात में से निकालने के लिए ये चीज़ फ़स्ल है जिसको “नफ़्स-ए-नातिक़ा” कहते हैं।

ये रूह क्या चीज़ है? कोई कहता है कि वो एक नूर है उस में ताक़्क़ुल और इदराक है और हरकत व इरादा की इस्तिदाद (सलाहियत) है। कोई कहता है कि वो कोई शैय क़दीम है लेकिन ऐसा बोलने वाला कुछ सबूत नहीं दे सकता। कोई कहता है कि वो हादिस (नई चीज़ जो पहले ना हो, फ़ानी) है लेकिन ग़ैर-फ़ानी है ख़ालिक़ ने उसे अबद तक ज़िंदा रखने के लिए पैदा किया है। उस के लिए इब्तिदा तो है लेकिन इंतिहा नहीं है। ऐसा बंद-ओ-बस्त ख़ालिक़ ने इस के लिए किया है। हमारा भी रूह की निस्बत ऐसा ही यक़ीन है और यही ख़्याल सब पैग़म्बरों का था और सबूत इस ख़्याल का इसी रूह की सिफ़तों में से निकलता है। बाअज़ अहले-फ़िक्र ने कहा है कि ये रूह आलम तजर्रुद का एक शख़्स है जो ख़ाकी बदन में रहता है जैसे जिस्मानी आज़ा बदन में हैं वैसे ही रूह में भी आज़ा हैं। लेकिन ये ख़्याल सूफ़िया का है और इस का सबूत कुछ नहीं है। कलाम-उल्लाह में इस रूह को “बातिनी इन्सान” कहा गया है।....” “गो हमारी ज़ाहिरी इन्सानियत ज़ाइल होती जाती है फिर भी हमारी बातिनी इन्सानियत रोज़ बरोज़ नई होती जाती है।” (2 करनत्थियों 4:16) “क्योंकि बातिनी इन्सानियत की रू से तो मैं ख़ुदा की शरीअत को बहुत पसंद करता हूँ।” (रोमीयों 7:22) इसी बातिनी इन्सानियत के ज़िम्मे अफ़आल की जवाबदेही है। सारे पैग़म्बर इस बात पर-ज़ोर लगा रहे हैं कि ये बातिनी इन्सान अबदी दुखों से बचाया जाये। इसी की इस्लाह के लिए मसीह ख़ुदावन्द मुजस्सम होके दुनिया में आया और मस्लूब हुआ, मर गया, दफ़न हुआ, तीसरे दिन जी उठा और अपनी इस बेशक़ीमत मौत और हयात की तासीरों से वो हमारे इस बातिनी इन्सान को नया बनाता है। (इफ़िसियों 2:5, 4:24) और यही बातिनी इन्सान है जो ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) और रिफ़ाक़त हासिल करता है और यह हर इन्सान की जान या रूह हैवानी पर सवार सा है लेकिन इस का जलाल दिमाग़ में ज़्यादा ज़ाहिर है।

दफ़ाअ 15

रूह और जान की ज़्यादा तौज़ीह

एक फ़ारसी शाएर ने यूं कहा है और बहुत ख़ूब कहा है उस पर ख़ूब ग़ौर कीजिए।

آدمی زادہ طرفہ معجونی ست

گر کند میل اینؔ شووبد زیں

از فرشتہؔ سر شتہ وز حَیوَانؔ

درکند میل اَن شود بہ زاں


अज़ फ़रिश्तह सर शता विज़ हैवान

दर कुंद मेल अन शोद बह ज़ां

आदमीज़ादा तरफ़ा माअजूनी सत

गर कुंद मेल अन शिवो बद ज़ीं


इस जगह लफ़्ज़ “फ़रिश्ता” से मुराद “फ़िरिस्ता” यानी “फ़िरिस्तादा” है जो ख़ुदा से भेजा गया या पैदा हुआ है यानी रूह जिसे ख़ुदा ने इन्सान में फूँका कि इस ख़ाकी बदन में कुछ अरसा तक रहे और कुछ ख़ास काम करे। लफ़्ज़ “सिरिश्ता” (سرشتہ) जो “सर शितिन” (سرشتن) मुसद्दिर से है इस मेल मिलाप का बयाँ करता है जो उस फ़रिश्ते को रूह हैवानी से हुआ है। गोया उस के साथ गूंदहा गया है, और इस तरकीब से जो पैदा हुआ है वही आदमीज़ादा है। इस में दो मीलान साफ़ नज़र आते हैं जिनमें सख़्त मुख़ालिफ़त है। जिस्म की ख़्वाहिश रूह के मुख़ालिफ़ है और रूह की ख़्वाहिश जिस्म के मुख़ालिफ़ है। (गलतियों 5:17) और इस मुरक्कब शख़्स का अपना इख़्तियार है। जिधर चाहे ज़्यादा मुतवज्जा हो वो किसी तक़्दीर का मज्बूर नहीं है। अगर वो हैवानियत की तरफ़ माइल होता है जैसे कि सब नफ़्स परवर और अय्याश और दुनिया के मग़्लूब लोग हैं तो हैवान से ज़्यादा ज़लील और ख़्वार है क्योंकि हैवान से ज़्यादा इज़्ज़तदार चीज़ उस में थी यानी रूह और अगर वो फ़रिश्ते की तरफ़ माइल होता है यानी रूहानी ख़्वाहिशों की तरफ़ मुतवज्जा होता है तो दीगर आस्मानी फ़रिश्तों से ज़्यादा रुत्बा पाता है क्योंकि उस ने वो बहादुरी की जो और फ़रिश्तों ने नहीं की है। उन में कुछ हैवानियत ना थी, इस में थी फिर भी ये ग़ालिब आया और बहादुर निकला। अब नाज़रीन सोचें कि ये बयान सच्च है या नहीं? अगर सच्च है तो फ़िक्र करो कि आप लोग कैसे हैं? आपके मिज़ाज शरीफ़ किस तरफ़ माइल हैं? आप हैवान से बदतर हैं या फ़रिश्तों से अच्छे हैं मरने से पहले अभी फ़ैसला कर लीजिए।

याद रहे कि मुक़र्र्बान (मुक़र्रब की जमा) दोस्त, हमराज़ दरगाह ईलाही की भी शनाख़्त है कि उन की सफ़लियत (पस्ती) पर उन की अलवियत (बुलंदी) ग़ालिब आती है और बुरे आदमी इसी लिए बुरे हैं कि वो सफ़लियत (पस्ती) के मग़्लूब हैं अलवियत (बुलंदी) की तरफ़ मुतवज्जा नहीं होते बल्कि ऐसे ख़यालों को ठट्ठे में उड़ाते हैं।

सफ़लियत (पस्ती) उस वक़्त ग़ालिब आती है जब आदमी अपनी रुहानी कुव्वतों और ख़्वाहिशों का काम छोड़ देता है और सिफ्ली कुव्वतों और ख़्वाहिशों को काम में लाता है। अगर कोई चाहे कि मैं अपनी सफ़लियत (पस्ती) पर ग़ालिब आऊँ तो चाहीए कि वो अपनी सारी ताक़त से इस बारे में साई (कोशिश) हो और ख़ुदा से मदद मांगे वो उसे ताक़त बख्शेगा।

दफ़ाअ 16

नफ़्स-ए-नातिक़ा में कुछ अलवी किरनें चमकती हैं

इस शायर ने “नफ़्स-ए-नातिक़ा” को “फ़रिश्ता” बताया है। हक्मा उसे “फ़ित्री नूर” कहते हैं। कलाम-उल्लाह में उस को “ज़िंदगी का दम” कहा गया है। लेकिन बाअज़ आदमी जो बेईमान हैं उस को तरकीब इमत्तीज़ाजी की कैफ़ीयत का हासिल बताते हैं। ये ख़्याल ज़लील है और बे फ़िक्री का ख़्याल है या ग़लत मुक़द्दमात का ग़लत नतीजा है और आदमी की ज़िंदगी के दायरे को ख़राब कर डालता है। वो जो कहते हैं कि नफ़्स-ए-नातिक़ा तरकीब इमत्तीज़ाजी का हासिल है उन की दलीलें ये हैं कि तरकीब इमत्तीज़ाजी की बर्बादी के साथ नफ़्स-ए-नातिक़ा भी बर्बाद हो जाता है और कि जिस्मानी क़ुव्वत की तरक़्क़ी से उस में तरक़्क़ी और तनज़्ज़ुल से तनज़्ज़ुल होता है इसलिए तरकीब मज़्कूर का हासिल है।

मैं कहता हूँ कि कोई मुरक्कब शए अपने अजज़ा की कैफ़ीयत से अलग कोई सिफ़त पैदा नहीं कर सकती है। तरकीब इमत्तीज़ाजी के अजज़ा अनासिर हैं और अनासिर में इदराक व इरादे की इस्तिदाद (सलाहियत) भी नहीं है। पस जो चीज़ अजज़ा में मुतलक़ नहीं है वह तरकीब में कहाँ से निकल सकती है? रूह हैवानी या जान ज़रूर तरकीब अनासिर का हासिल है तो भी बताईए कि इस में हसासी और तहर्रुक कौन सी जुज़ की ख़ासीयत है? वो तो एक रोशनी से है जो ख़ारिज से उस में आई है। इसी तरह रूह इन्सानी की ना बाअज़ बल्कि तमाम खसलतें ऐसी हैं कि माद्दा से कुछ भी लगाओ नहीं दिखातीं। अलबत्ता इन्सान के मिज़ाज में अजज़ा माद्दा की तासीरात दिखाई देती हैं। लेकिन नफ़्स-ए-नातिक़ा में कुछ और ही मुआमला नज़र आता है। ख़यालात जे़ल पर ग़ौर कीजिए।

1) मदारिज और मनासिब आलिया (आला मर्तबे) के हासिल करने की एक ख़ास इस्तादाद सब आदमीयों की रूहों में मौजूद है जिससे बाअज़ आदमीयों ने हस्ब कोशिश हर हर काम में ताज्जुब के लायक़ तरक़्क़ी भी दिखाई है ऐसी इस्तिदाद (सलाहियत) ना किसी अर्ज़ी मख़्लूक़ में है ना रूह हैवानी में है ना माद्दा के मुनासिब है। फिर ये इस्तिदाद (सलाहियत) नफ़्स-ए-नातिक़ा में कहाँ से है? अब इस इस्तिदाद (सलाहियत) की बुनियाद या तो माद्दा में से निकालो या मान लो कि नफ़्स-ए-नातिक़ा किसी ग़ैर जहान का शख़्स है।

2) सब हैवानों की तरफ़ देखो सिर्फ़ सिफ्ली और जिस्मानी सिफ़ात उन में हैं। हाँ इतनी बात उन में है कि हसासी और तहर्रुक और किसी क़द्र मईशत का नाक़िस साशावर ख़ित्ते हैं और मैं इस को भी बालाई चमक कहता हूँ। बाक़ी तमाम सिफ़तें जो उन की जानों में हैं सिफ्ली हैं क्योंकि उन में सिर्फ वही जान है जो तरकीब इमत्तीज़ाजी से पैदा हुई है और ये तरकीब माद्दा से है और माद्दा अपनी तासीरें मुस्ल्लमा उन में दिखा रहा है। लेकिन इन्सानी रूह में अलवेत की ख़्वाहिश कहाँ से है?

3) हैवानात की जानों में जो ख़्वाहिशें हैं वो सब इसी ज़मीन की चीज़ों से पूरी हो जाती हैं और तक्मील पाती हैं और जानवर अपनी ख़ुशी इसी जहान में पूरी कर लेते हैं। लेकिन इन्सान की रूह में जो ख़्वाहिशें हैं वो इस जहान की चीज़ों से आसूदा और मुकम्मल नहीं हो सकती हैं। इस का यही सबब हो सकता है कि नफ़्स-ए-नातिक़ा आलम-ए-बाला का शख़्स है और अपने देस की चीज़ों से जो उस की तबा के मुनासिब हैं वो आसूदा और ख़ुश होता है क्योंकि हर चीज़ का मीलान उस के कुर्राह की तरफ़ होता है।

मसलन आदमी की रूह अबदी बक़ा और हक़ीक़ी ख़ुशी की यक़ीनन तालिब है और यह दोनों चीज़ें यानी अबदीयत और हक़ीक़ी ख़ुशी इस दुनिया में कहाँ हैं? हम तो सब मरने वाले हैं ना आगे कोई रहा है ना हम रहेंगे। फिर वो अबदी बक़ा कहाँ है? जिसकी ये रूह तालिब है और यहां जो ख़ुशी है वो फ़ानी और तल्ख़ी आमेज़ है। पस हक़ीक़ी ख़ुशी दुनिया में कहाँ है जिसकी तालिब रूह है? फिर फ़रमाईए कि रूह इन्सानी के दर्मियान इन दोनों चीज़ों की उमंग क्योंकर पैदा हो गई है? हम नहीं कह सकते कि इन्सानी रूह दीवानी है या उसे वहम हो गया है क्योंकि ये उमंग उस में तिब्बी है ना आरिज़ी। इसलिए हम कहते हैं कि वो अलवी है और आलम ए बाला में हक़ीक़ी ख़ुशी और अबदीयत के वजूद की ख़बर हमारी तमीज़ भी हमें देती है। पस रूह वो चीज़ें माँगती है जो दुनिया में नहीं हैं लेकिन अल्लाह में हैं और इस का सबब यही है कि रूह इन्सानी अल्लाह की तरफ़ से है, माद्दा से पैदा नहीं हुई है। नाज़रीन बहुत फ़िक्र करें और गुमराह ना हों। नफ़्स प्रवरों की वाहीयात बातों में फंस के अपनी रूहों को बर्बाद ना करें।

4) आम और ख़ास आदमीयों में से उन आदमीयों की रूहें जिन्हें इस जहान के ग़ुबार ने दबा के बिल्कुल अंधा नहीं कर दिया है बल्कि उन की आँखें कुछ टिमटिमाती हैं। वो सब अपने ज़रूरी फ़ायदे के लिए बवसीला नेक-आमाल के या रियाज़त बदनी और ईमान व एअतकाद के कुछ सवाब जमा करते हैं। हिंदू, मुसलमान, यहूदी और ईसाई वगैरह तमाम अहले मज़ाहिब यही कुछ करते हैं। ये बह्स जुदा है कि कौन मुनासिब और कौन नामुनासिब मशक़्क़त खींचता है लेकिन कुछ ना कुछ मशक़्क़त ये सब खींचते हैं इस उम्मीद पर कि बाद इंतिक़ाल ख़ुदा से कुछ पाएंगे और क्या पाएंगे वही अबदी बक़ा और ख़ुशी मांगते हैं।

लामज़्हबों, ताअलीम याफ़्तों की अख़्लाक़ी व तहज़ीबी कोशिशें भी कुछ ऐसे ही मतलब पर मालूम होती हैं। क्यों उन सबकी रूहें आइन्दा दुखों से थरथराती हैं? क्यों इन रूहों में ऐसा यक़ीन है कि बाद फ़ना इस तरकीब बदनी के हम बाक़ी रहेंगे और वह क्यों किसी ना किसी वसीले से छुटकारे और आराम के उम्मीदवार हैं? सब हैवानों की ऐसी कैफ़ीयत क्यों नहीं है? सिर्फ आदमीयों ही की ऐसी कैफ़ीयत क्यों है? इसी लिए कि हैवानी रूह फ़ानी और माद्दा की तरकीब से है और उस में इदराक नहीं। इन्सानी रूह ग़ैर-फ़ानी और आलम बाला से है और उस में इदराक है और वो इस जहान में आपको मुसाफ़िर समझती है और बाद इंतिक़ाल आपको शैय बाक़ी जानती है और जहां जाके बाक़ी रहना है उसे अपना घर और देस समझती है और ये रूह का ख़्याल तिब्बी है और दुरुस्त है।

दफ़ाअ 17

एक फ़ायदा है याद रखने के लायक़

चंद आदमी सक़ीम (बीमार, ख़स्ता) अल-अर्वाह या मग़्लूब दुनिया या बहाईम सीरत या वहमी लोग या कज-फ़हम या बेईमान कि बेराह रवी करके नाउम्मीदी और नादानी के ग़ार में जा पड़े हैं। अगरचे वो बज़ाहिर ख़ुश-पोशाक और ख़ुश-ख़ुराक बल्कि ख़ुश-अख़्लाक़ और ताअलीम याफ़्तह और साहब मदारिज क्यों ना हों लेकिन उन के दिलों और ख़यालों की वही कैफ़ीयत है जो ऊपर के सख़्त लफ़्ज़ों में पर्दा हटा के मैंने सुनाई या दिखाई है। (अगर मर्ज़ी हो तो ग़ौर करके उन की तरफ़ ताकना कि वो ऐसे ही हैं या नहीं) ऐसे लोगों ने आइन्दा की उम्मीद को अपने दिलों और ख़यालों में से ज़बरदस्ती खींच खींच कर निकाला है और हैवानों के साथ इसी जहान में बर्बाद होने के शौक़ीन हुए हैं। उनकी रूहों में कैफ़ीयत मज़्कूर बाला का ना होना रूह इन्सानी की फ़ित्री हालत का बयान नहीं हो सकता है क्योंकि उन में किसी इन्हितात का ज़हूर है और रूह की फ़ित्री कैफ़ीयत वही है जो जिम-ए-ग़ेफ़िर की रूहों में पाई जाती है।

और मैं इस बात पर भी तवज्जा नहीं करता जो वो लोग कहते हैं कि वहशी आदमीयों की रूहों में ऐसी अलवी किरनें क्यों नहीं चमकती हैं जैसी तुम मज़हबी ताअलीम याफ़्तों की रूहों में हैं। मैं समझता हूँ कि वहां कुछ तो है जो बहुत ग़ौर से नज़र आता है मगर आप लोग इल्मी रोशनी और आसाइश के मुल्कों और मकानों में आराम से बैठे हुए इन वहशियों के हक़ में दूर से जो चाहते हो सो कहते हो, ज़रा उन के नज़्दीक जाना और उन के मुहावरात दोस्तो रात में मश्क़ करके उन की कैफ़ीयत से आगाह होना जैसे हमारे भाई मिशनरी लोग करते हैं। तब मालूम होगा कि उन की रूहों में भी ऐसी ही इस्तिदाद (सलाहियत) और तलब है।

और यह कहना कि हमारी रूहों की ऐसी कैफ़ीयत ताअलीम के सबब से है ना कि रूह की तबा के इसलिए जायज़ नहीं है कि तालीमी दस्तूर सानेअ (कारीगर, ख़ालिक़) ने इन्सान की फ़ित्रत में रखा है। अगर आदमी का बच्चा ताअलीम ना पाए तो वो कुछ नहीं सीखता। पैदा होते ही बच्चे की ताअलीम वालदैन से शुरू होती है। वो सिखाते हैं कि दूध यूं पीना चाहीए, ये बाप है, ये माँ है वग़ैरा वग़ैरा। यहां तक कि वालिदा की छातीयों से शुरू करके बुढ़ापे की मौत तक इन्सान सीखता और ताअलीम पाता रहता है। यहां तक कि मर जाता है और ताअलीम तमाम नहीं होती है। पस ताअलीम इन्सान के लिए कोई आरिज़ी अम्र नहीं है बल्कि उस के कमाल का तरीक़ा और अम्र फ़ित्री है। जो कोई ताअलीम से महरूम है ख़्वाह वहशी हो या शहरी वो अपने कमाल के तरीक़े से गिरा हुआ है। पस उस की रूह की तरफ़ देख के हम ऐसा हुक्म नहीं दे सकते कि ख़साइस मज़्कूर उमूर फ़ित्री नहीं हैं क्योंकि ऐसा क़ियास ग़लत है। हमको चाहीए कि इन्सान कामिल की तरफ़ देखें और वहां से रूह की शान दर्याफ़्त करें ना कि बच्चों, वहशियों, सक़ीम-उल-अर्वाह मुल्हिदों (बेदीन), बद ताअलीम याफ़्तों, अहमक़, जाहिलों और जोगीयों वग़ैरा की तरफ़ देख के नीचे गिरें। हम तो तरक़्क़ी करते चले आए हैं और भी ज़्यादा तरक़्क़ी करेंगे। ताअलीम को फ़ित्री तरीक़ा समझेंगे और सब तालीमों पर ग़ौर करके उम्दा ताअलीम के पाबंद होंगे और इस तरीक़े से सैक़ल शूदा (साफ़-शफ़्फ़ाफ़) अर्वाह में रूहों के जोहर दर्याफ़्त करेंगे और कहेंगे कि तमाम अर्वाह बनी-आदम में ऐसे ऐसे जोहर हैं जो अलवेत दिखाते हैं और यूं इन्सान की रूह का अलवी जोहर होना साबित है।

देखो दरख़्त अपने फलों से पहचाना जाता है कि वो अच्छा और मुफ़ीद दरख़्त है या बुरा और मुज़िर। लेकिन कच्चे और हवा से टूटे और गिर के सूखे फलों से हम पूरी शनाख़्त दरख़्त की हासिल नहीं कर सकते हैं बल्कि कामिल और पुख़्ता फलों से जो मुनासिब वक़्त पर दरख़्त से उतरते हैं दरख़्त पहचाना जाता है। पस रूह इन्सानी के जोहर कामिल आदमीयों में देखना चाहीए, वहशियों और शरीरों और बच्चों में जो ना कामिल हैं और दरख़्त इन्सानियत के कच्चे या गिरे और सूखे फल हैं क्या दर्याफ़्त कर सकते हो? तो भी जो कुछ उन में नज़र आता है वही हमारे मतलब पर मुफ़ीद है। नाज़रीन को चाहीए कि मुल्हिदों के बहकाने से गुमराह ना हों मगर ख़ुद कामिल होने की कोशिश करें और कामिल शख्सों की तरफ़ देखें।

दफ़ाअ 18

اइन्सानी हवास अशराह के बयान में

“हवास” जमा है “हासा” (حاسہ) की इस के मअनी हैं “दर्याफ़्त करने की क़ुव्वत।” इन्सान में पाँच हवास-ए-ज़ाहिरी साफ़ नज़र आते हैं लेकिन हकीम कहते हैं कि पाँच हवास-ए-बातिनी भी हैं। क़दीम मुहम्मदी इन पाँच हवास-ए-बातिनी के क़ाइल नहीं हैं। लेकिन हम अगर उन के भी क़ाइल हों तो कुछ मज़ाइक़ा नहीं है। पस मैं इस मुक़ाम पर ज़ाहिरी और बातिनी हवास को मिला के दस हवास का ज़िक्र करता हूँ। इन्सानी रूह बवसीला इन हवास अशराह के इस जहान की चीज़ों को दर्याफ़्त किया करती है और जो कुछ दर्याफ़्त करती है बमूजब उस के तज्वीज़ें और इरादे और बंद-ओ-बस्त बांधती है और अपने बदनी आज़ा को हिलाती और काम भी करती है। हवास-ए-ख़मसा ज़ाहिरी ये हैं “क़ुव्वत लामसा” “क़ुव्वत बासिरा” “क़ुव्वत सामेआ” “क़ुव्वत ज़ायक़ा” “क़ुव्वत शामा।”

क़ुव्वत-ए-लामसा (لامسہ) का बयान

“लम्स” (لمس) के मअनी हैं “छूना” पस छू के दर्याफ़्त करने की क़ुव्वत को लामसा (لامسہ) कहते हैं। ये क़ुव्वत इन्सान के सारे बदन में है। कोई चीज़ इन्सान को किसी जगह से छूए या इन्सान का कोई उज़ू किसी चीज़ को छूए रूह को मालूम हो जाता है कि किसी ने मुझे छुवा और यह कि वो चीज़ सख़्त है या नरम, सर्द है या गर्म, नोकदार है या मुसत्तह। अगरचे ये क़ुव्वत सारे बदन में है लेकिन हाथों में ख़ुसूसुन उंगलीयों के सरों में ज़्यादा है। इसी लिए हकीम उंगलीयों के सरों से नब्ज़ को देखता है और सर्दी, गर्मी, सस्ती वसरात (फिरती) नब्ज़ की मालूम कर लेता है। अगर ये क़ुव्वत अल्लाह तआला हमारे सारे बदन में ना रखता तो हम मुज़िर चीज़ों के सदमात से क्योंकर बचते। रूह को ख़बर भी ना होती और बदन कहीं सर्दी या आग में तलफ़ हो जाता। पस इस क़ुव्वत के लिए ख़ुदा के शुक्रगुज़ार हो या नहीं?

“लम्स” (لمس) के वसीले से जब रूह को कुछ ख़बर मिलती है तब वो फ़ौरन बदन को हरकत देती और इस शैय की तरफ़ मुतवज्जा होके पहले आँखों से देखना चाहती है कि वो क्या है फिर जो मुनासिब समझती है सो करती है।

क़ुव्वत-ए-बासिरह (باصر ہ) का बयान

ये देखने वाली क़ुव्वत है और सिर्फ इन दो आँखों में है और बदन के किसी टुकड़े में नहीं है। इनमें ख़ुदा की तज्वीज़ से एक तर-ओ-ताज़ा शीशा सा है जिसके नीचे साफ़ पानी का एक चशमा सा है। रोने के वक़्त आँसू इसी चश्मे से बहते हैं और इस पानी से वो शीशा या पर्दा तर-ओ-ताज़ा रहता है। इस पर्दे की हिफ़ाज़त और रोशनी की कमी बेशी के लिए पलकें हैं। हरपेश आइन्दा शेकी तस्वीर बतौर अक्स के इस पर दहया शीशा में मुनक़्क़श होती है। उस के आगे दिमाग़ में एक नुक़्ता है और नुक़्ता इन्सानी रूह और इस शीशे के साथ एक ख़ास निस्बत में वाक़ेअ है। पस रूह इन्सानी बवसीला इस नुक़्ता के इस अक्स मनक़ूश को साफ़ देख लिया करती है।

तमाम चीज़ें जो तुम देखते हो वो चीज़ें तो नहीं देखते हो मगर उन के अक़ोस (अक्स) देखते हो। रूह शए लतीफ़ है और अक़ोस भी जो नज़रों में आते हैं लतीफ़ हैं। ख़ुदा तआला सब कसीफ़ और बड़ी बड़ी चीज़ों को लतीफ़ शक्ल में लाके इस लतीफ़ रूह को दिखाता है। देखो अल्लाह तआला की हिक्मत। जब दूर की चीज़ देखना है तो रूह इन्सानी आँख का मुंह ज़्यादा खौलती है और ज़्यादातर खारिज़ी रोशनी की तालिब है। अगर नज़्दीक की चीज़ देखना है तो आँख का मुँह कुछ तंग खुलता है और इसी हिसाब पर लोगों ने दूर बीन और ख़ुर्द बैन बनाई हैं, जिनके शीशों में चीज़ों के अक्स पड़ते और बवसीला आँख के इन अक्सों के अक्स रूह को नज़र आते हैं। अगर आदमी उस चीज़ से जो बवसीला आँख के मालूम हुई है वाक़िफ़ था तो उसे पहचान लेता है कि वो फ़ुलां चीज़ है वर्ना और ज़्यादा दर्याफ़्त के दरपे होता है कि वो क्या है।

क़ुव्वत-ए-सामेआ (سامعہ) का बयान

ये सुनने की ताक़त है और सिर्फ दो कानों में है और कहीं नहीं और बग़ैर ख़ारिजी आवाज़ के सुन भी नहीं सकते। कान सलामत हों और आवाज़ भी कहीं से आए तब सुन सकते हैं। आवाज़ ख़्वाह धीमी हो या बुलंद, मगर कुछ आवाज़ हो और आवाज़ भी बामाअनी मालूमा हो वर्ना सिर्फ एक खड़का सा कान में पहुँचेगा और रूह उस का मतलब ना समझेगी। जानवरों की आवाज़ें, हवा के सन्नाटे, बादिलों की गरज, बिजली की कड़क, चीज़ों के टकराने के खड़के और अजनबी ज़बानों के अल्फ़ाज़ सुनने से रूह को कुछ मतलब मालूम नहीं होता सिर्फ़ आवाज़ें पहुँचती हैं।

अरबी में “लफ़्ज़” के मअनी हैं “फेंकना।” जब एक आदमी दूसरे आदमी से बात करना चाहता है तो अपने दिल का मतलब कलिमात माअलूमा में लपेट कर बवसीला अपनी ज़बान के हवा में मुख़ातब की तरफ़ फेंकता है। और देखते हो कि जैसे पानी के तालाब में पत्थर मारने से एक हलक़ा सा बंध जाता है इसी तरह इस हवा के समुंद्र में जो हमारे चार तरफ़ भरा है जो कलिमा या लफ़्ज़ रूह से बवसीला ज़बान के फेंका जाता है वो हवा में एक हलक़ा या दायरा पैदा करता है और हलक़ा सदमें की ताक़त के मुवाफ़िक़ बंधता है जिस क़द्र लोग कानों वाले और उन अल्फ़ाज़ के समझने वाले इस हलक़े के दर्मियान होते हैं वो सब सुन और समझ लेते हैं। और सुनने का तौर ये है कि ये दो कान मिस्ल दो पंखों के हैं जो हवा की जुंबिश को जमा कर लेते हैं या रोक लेते हैं और इन के आगे एक सुराख़ है जिसके सिरे पर एक जली सी है इसी को कान का पर्दा कहते हैं। ये पर्दा ऐसा कसा हुआ है जैसे ढोलक का चमड़ा कसा हुआ होता है। पस उन पंखों की जमा की हुई या रुकी हुई जुंबिश उस ढोलक में जाके बजती है और वह पर्दा उस के सदमे से हिलता है। उस के आगे एक ज़ंजीर सी है और वह ज़ंजीर उस जुंबिश को मग़ज़ के अंदर पहुंचा देती है वहां से नफ़्स-ए-नातिक़ा को मालूम हो जाता है कि फ़ुलां शख़्स ने यूं कहा है। पस मैं पूछता हूँ कि ख़ालिक़ की इस हिक्मत पर फ़िक्र करके उसे सज्दा करना चाहते हो या नहीं?

क़ुव्वत-ए-ज़ायक़ा का बयान

ये चखने की क़ुव्वत है जो सिर्फ ज़बान में अल्लाह ने रखी है। जब कोई चीज़ ज़बान पर आती है और उस के अजज़ा थूक में किसी क़द्र घुलते हैं तो इस हिस्स के वसीले से उस शैय का मज़ा रूह को मालूम हो जाता है कि वो किस मज़ा की है?

ज़बान से तीन काम निकलते हैं। मज़े चखती है, बोलती है और दाँतों से चबाई हुई ग़िज़ा को टटोल के मादा में उतरने की इजाज़त रूह से दिलवाती है और यह ज़बान बड़ी फुर्तीली है जल्द जल्द काम करती है।

क़ुव्वत-ए-शामा (شامہ) का बयान

ये सूँगने की क़ुव्वत है और सिर्फ नाक में है। जब किसी चीज़ के लतीफ़ अजज़ा बवसीला हवा के उड़ के नाक में आते हैं या आदमी किसी चीज़ को नाक के पास ला के बवसीला हवा के ऊपर की तरफ़ दम खींच के उस चीज़ के अजज़ा लतीफ़ा को नाक में चढ़ाता है तब उस चीज़ की ख़ुशबू या बदबू बवसीला इस हिस के रूह को मालूम हो जाती है। ये हवास-ए-ख़मसा ज़ाहिरी हैं और उन के काम भी ख़ास ख़ास हैं। हकीम कहते हैं कि पाँच हवास-ए-बातिनी और भी हैं और वह इन हवास-ए-ज़ाहिरी से दर्याफ़्त शूदा उमूर में अपना अपना काम किया करते हैं। इन के नाम ये हैं “हिस्स मुश्तर्क” “ख़्याल” “वहम” “क़ुव्वत-ए-मुतसर्रिफ़ा” “क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा”

हिस्स मुश्तर्क (مشترک) का बयान

हुकमा कहते हैं कि इन्सान के दिमाग़ में तीन ख़ाने या तीन बतन हैं और उन को “बतन अव्वल” “बतन दोम” और “बतन सोम” कहते हैं। हर बतन में दो मुक़ाम बताते हैं और उन को “दर्जा अव्वल” और “दर्जा दोम” कहते हैं।“हिस्स मुश्तर्क” एक क़ुव्वत है। दिमाग़ के बतन अव्वल के पहले दर्जे में इस को हिस्स इसलिए कहते हैं कि वो एक क़ुव्वत ए हासा है और मुश्तर्क इसलिए कहते हैं कि वो हवास-ए-ख़मसा ज़ाहिरी और नफ़्स नातिक़ा के दर्मियान है। दोनों तरफ़ इस का इलाक़ा है जो कुछ हवास-ए-ज़ाहिरी दर्याफ़्त करते हैं अव्वलन इसी हिस्स (حِس) के सामने आता है और यही हिस्स रूह को ख़बर देती है।

ख़्याल का बयान

“ख़्याल” के लफ़्ज़ी मअनी हैं पिंदार वांचा दर-ए-ख़्वाब दीदा शोद दिया दर बेदारी तख़य्युल कर्दा एद वांचा दर-ए-आईना दीदा शोद। (پندؔار وانچہ درخواب دیدہ شود دیا دربیداری تخیل کردہ اید وانچہ درآئینہ دیدہ شود۔) लेकिन यहां ख़्याल से मुराद “क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला” है और वह एक क़ुव्वत है। बतन अव्वल के दर्जा दोम में जो कुछ हिस्स मुश्तर्क को बवसीला हवास के मालूम होता है ये क़ुव्वत इस माअलूम के तसव्वुर को अपने अंदर कुछ अरसा तक महफ़ूज़ रखती है।

वहम का बयान

वहम के मअनी हैं “आंचे दर-ए-दिल गुज़र्द यार फ़ितन दिल बसूए चीज़े बे-क़स्द एन” ’’ انچہ دردل گذرد۔ یارفتن دل بسوئے چیز ے بے قصد اَِن ‘‘ लेकिन यहां मुराद वहम से क़ुव्वत-ए-वाहिमा है और यह क़ुव्वत बतन दोम के आख़िर में है और इस का ये काम है कि अपने अंदर तसव्वुरात की तस्वीरें खींचा करती है ख़्वाह ग़लत हों या सहीह।

हवास-ए-ख़मसा ज़ाहिरी से दर्याफ़्त हो के बवसीला हिस्स-ए-मुश्तरक (حس مشترک) के जो कुछ ख़्याल हैं वो हिस्स मुश्तर्क के मख़ज़न से पहुंचा करता है। ये क़ुव्वत-ए-वाहिमा उसे देख के शक व शुब्ह और जो जो कुछ चाहती है अपनी वहमी इमारतें बनाना शुरू करती है और कभी किसी दिली-ख़्वाहिश पर ख़्वाह वो ख़्वाहिश नेक हो या बद बुनियाद क़ायम करके अपनी वहमी इमारत का एक महल सा बना खड़ा करती है। इस का मैदान बहुत फ़राख़ है। वो लोग जो अपने दिल ही दिल में बातों का सिलसिला बांधा करते हैं वहां यही क़ुव्वत काम किया करती है। किताब अलिफ़ लैला और सब ज़टल्ली मज़्मून जो दुनिया में हैं इसी क़ुव्वत की तस्नीफ़ से हैं। सारी बेईमानी की जड़ यही क़ुव्वत है। ये क़ुव्वत ना ख़ुदा के ताबे होती है ना अक़्ल के। ये रात-दिन भौंकती रहती है जब तक कि इन्सान की रूह इस को धमका के चुप ना कराए ये चुप नहीं करती है सारे वस्वसे और शकूक और ख़ौफ़ और सब झूटे मज़्हब और तमाम भूतों और जादू टोनों के वाहीयात ख़्याल इसी से निकले हैं। इसी ने बाअज़ आदमीयों को दहरिया बाअज़ को हमा ओसत बोलने वाला बनाया है और क़िस्म क़िस्म के वाहीयात इसने आदमीयों के ख़यालों में भर रखे हैं। बाअज़ साहब-ए-इल्म आदमी कहते हैं कि ईमानी अक़ाइद के बारे में जैसे जाहिलों के यक़ीन वासिक़ नज़र आते हैं हमारे ऐसे यक़ीन नहीं होते हैं। इस का सबब मैं यही जानता हूँ कि इन लोगों ने इस क़ुव्वत-ए-वाहिमा की बहुत इताअत की है और अपने आप को उसके ताबे कर दिया है। इसलिए शक में शक उन के दिलों में चले आते हैं। अगर चाहो उन से कलाम करके देख लो कि वहम पर वहम वो उगलते हैं। अफ़्सोस है कि आदमी अपने आप को इस क़ुव्वत की ताबेअ करे जो कि ना ख़ुदा के और ना अक़्ल के ताबेअ हो सकती है और फिर वो आदमी यूँ भी कहे कि मैं सच्चा मुहक़्क़िक़ हूँ।

हाँ ये क़ुव्वत कुछ मुफ़ीद भी है अगर इस को एक हद में काम करने दें ताकि हम धोका ना खाएं। जो शकूक ये पेश करे उन पर फ़िक्र किया जाये ना ये कि इस से मुतलक़-उल-अनान करके हम ख़ुद उस के पीछे हो लें। फिर वो तो कभी किसी बात पर भी क़ायम ना होने देगी। हमेशा कहेगी शायद यूं ना हो यूँ हो, फिर भी यूं हो, यूं हो।

ये क़ुव्वत हैवानात में ज़्यादा है। इसलिए कि ये ख़ास रूह हैवानी की कुव्वतों में से है। नफ़्स-ए-नातिक़ा की ये क़ुव्वत नहीं है। नफ़्स-ए-नातिक़ा की ख़िदमत में तो है पर ख़ुद हैवानी सिफ़त है ना मुल्की। बाज़-औक़ात इस के काम से फ़ायदा भी होता है। पस चाहीए कि हर आदमी ये बातें सुन के होशयार हो जाए क्योंकि इस क़ुव्वत ने बहुतों को गुमराही में डाल रखा है। अगर उस को क़ाबू में ना रखा जाये तो वो बाअज़ सदाक़तों को भी मानने ना देगी। जब ये क़ुव्वत ज़्यादती दिखाए उस को धमकाना चाहीए। सिर्फ धमकी से उस का मुँह-बंद होता है और हम इस का कान पकड़ के इस को ख़ुदा के और अक़्ल के ताबे करते हैं और जब ये बेहूदा बकती है तो हम कहते हैं चुप रह मत बक। हम अपने आप को इस के हवाला हरगिज़ नहीं करते हैं बल्कि इस को अपने ताबेअ रखते हैं।

क़ुव्वत-ए-मतसरफ़ा (متصرفہ) का बयान

ये वो क़ुव्वत है जो ख़यालात में उलट पलट करके नतीजे निकाला करती है। ये बतन दोम के दर्जा अव्वल में है। ये निहायत ख़ूब चीज़ है और यह हैवानी क़ुव्वत नहीं है बल्कि नफ़्स-ए-नातिक़ा की क़ुव्वत है। इस की बहुत परवरिश चाहीए। इस का काम ये है कि बाअज़ हासिल शूदा शक्लों को बाअज़ मुतालिब के साथ मुरक्कब करके और उन से नतीजे निकाल के कहा करती है कि इन शक्लों का मक़्सद और मतलब मुझे यूं मालूम होता है सो मैं नफ़्स-ए-नातिक़ा के सामने पेश करती हूँ, फ़तवा देना उस का काम है। पस ये क़ुव्वत नफ़्स-ए-नातिक़ा के लिए सलाहकार और मुशीर सा है। तज्वीज़ें इस से होती हैं और हुक्म नफ़्स-ए-नातिक़ा से मिलता है और कभी कभी नफ़्स-ए-नातिक़ा इस की तजवीज़ों में भी मुरम्मत करता है। इस क़ुव्वत के दो नाम हैं क्योंकि दो तरह के काम इस से होते हैं जबकि ये क़ुव्वत मालूमात की तरकीब में नफ़्स-ए-नातिक़ा के साथ मिल के काम करती है। तब उस का नाम “क़ुव्वत मुतफ़क्किरह” (قوت متفکر ہ) होता है और ये इस का काम आला दर्जे का काम है लेकिन जब ये अपना काम क़ुव्वत-ए-वाहिमा के साथ मिल के करती है उस वक़्त उस को “क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला” (متخیلہ) कहते हैं और इस काम में ख़तरे होते हैं।

सब मुहक़्क़िक़ों पर फ़र्ज़ है कि तफ़क्कुर व तख़ील में इम्तियाज़ किया करें ताकि ग़लती से बचें। तख़ैयुलात ने ईमान में बड़ा फ़साद मचा रखा है। तफ़क्कुरात बहुत कम-नज़र आते हैं।

क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा का बयान

ये क़ुव्वत बतन ए सोम के दर्जा अव्वल में रहती है और तसव्वुरात ख्यालिया और वाक़ियात की शक्लों को याद रखती है और यही दिमाग़ी दफ़्तर का आख़िरी मख़रन है और यह क़ुव्वत-ए-वाहिमा की चीज़ों को भी रख छोड़ती है। पच्चास बरस गुज़रे या कम ज़्यादा, कि जै़द ने उमर को एक ख़ास लिबास में जवान देखा था। अब उमर बूढ़ा हो के और तरह का हो गया लेकिन जै़द की क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा में इस की वही पहली सूरत महफ़ूज़ है। अल-हाज़-उल-क़यास और और मिसालें ख़ुद सोच लो। ये पाँच क़ुव्वतें जिन्हें बातिनी हवास कहा गया इन्सान में बचश्म ग़ौर दिखाई तो देती हैं तो भी रूह एक शैय मुम्ताज़ रहती है। इन कुव्वतों ही में रल-मल नहीं जाती। सबसे ज़्यादा बुलंद रुत्बे की क़ुव्वत क़ुव्वत-ए-मुतसर्रिफ़ा है और वह भी अपने काम में कभी वाहिमा की तरफ़ और कभी रूह की तरफ़ झुकी हुई नज़र आया करती है। ऐसी बातों से रूह में और कुव्वतों में इम्तियाज़ होता है और रूह सब कुव्वतों पर हाकिम रहती है। ग़ौर से अपनी अंदरूनी कैफ़ीयत पर सोचो।

दफ़ाअ 19

इन्सान के दिल का बयान

“दिल” फ़ारसी लफ़्ज़ है। अरबी में इस को “क़ल्ब” (قلب) कहते हैं और यह अरबी का लफ़्ज़ निहायत ख़ूब और पुर-ताअलीम है। “क़ल्ब” (दिल) के मअनी हैं “पलटे खाना और उलट पलट होना।” चूँकि इन्सान का दिल क़िस्म क़िस्म के असरों से उलट पुलट होता रहता है इसलिए उस का नाम अच्छा है और ख़ुदा को भी मुक़ल्लिब-उल-क़ुलूब (مقلب القلوب) इसी लिए कहा जाता है कि वो दिलों को उलट पुलट कर दिया करता है। दूसरे मअनी क़ल्ब (दिल) के हैं दरमयानी जगह या सदर जगह और चूँकि ये दिल इंसान में गोया सदर जगह है जहां से इरादे और ख़्वाहिशें निकलती हैं इसलिए भी इस का नाम क़ल्ब (दिल) अच्छा है। आम इस्तिलाह में “दिल” नाम है उस गोश्त के टुकड़े का जिसकी शक्ल सनोबरी या गाजर जैसी है और वो इन्सान के सीने में बाएं तरफ़ है और वह एक उज़ू रईस है।

सूफ़ी कहते हैं कि “दिल एक रब्बानी लतीफ़ा है उस का इलाक़ा इस जिस्मानी दिल के साथ ऐसा है जैसा अर्ज़ों और सिफ़तों का इलाक़ा अजसाम और मौज़ूफ़ात से होता है।”

एक और मुहक़्क़िक़ ने कहा है “हक़ायक़ रुहानी और ख़साइस नफ़्सानी के दर्मियान और हक़ायक़ जिस्मानी व क़वाई मिज़ाजी के दर्मियान एक हक़ीक़त है जामिआ उस को दिल कहते हैं।”

एक और आलिम ने कहा कि “दिल एक नूरानी जोहर है। मुजर्रिद और वह रूह हैवानी और नफ़्स नातिक़ा के दर्मियान है और इसी से इन्सानियत क़ायम होती है। गोया ये दिल मल्कियत और हैवानियत के दर्मियान का मुक़ाम है जो दोनों माहीयतों से इलाक़ा रखता है।” ये बात तो साफ़ है कि इन्सान के दिल ही से सारी बदी और नफ़्सानी व हैवानी ख़्वाहिशें निकलती हैं और दिल ही में से बहुत सी खूबियां भी ज़ाहिर होती हैं और यह भी देखते हैं कि जब दिल से खूबियां निकलती हैं तब इस दिल को नफ़्सानी हैवानी बद ख़्वाहिशों से बड़ा जंग करना पड़ता है और जब दिल से बदी आती है तब इस से मिल्कियत की मुख़ालिफ़त होती है। इसी से ज़ाहिर है कि दिल दर्मियान में है मल्कियत और हैवानियत के और इस का इलाक़ा दोनों तरफ़ है।

कलाम-उल्लाह में इन्सान के दिल का बयान बहुत हुआ है। बाइबल के दर्मियान तखमीना दो सौ आयतें होंगी जिनमें दिल का बयान हुआ है। और कोई किताब दुनिया में ऐसी नहीं है जो दिल का ऐसा बयान दिखाए जैसा बाइबल शरीफ़ ने दिखाया है। इस का सबब यही है कि बाइबल ख़ुदा से है और ख़ुदा तआला सब आदमीयों के दिलों की कैफ़ीयत से पूरी तरह वाक़िफ़ है। उस की निगाह में सब अव्वलीन व आख़िरीन के दिलों की कैफ़ीयत पूरी पूरी मौजूद है। इसी लिए वो आदमी के दिल का बयान अपनी किताब में पूरा पूरा कर सका है।

ख़ुदा तआला चाहता है कि हर एक इन्सान की रूह अपने दिल की हिफ़ाज़त ख़ूब तरह से करे क्योंकि जंग का मुक़ाम वही है उसी जगह से फ़त्ह या शिकस्त होती है। शैतान चाहता है कि आदमी अपना दिल उस को दे ताकि वहां बैठ के वो इस पर हुकूमत करे और क़ाबिज़ हो के अपने साथ उसे जहन्नम में ले जाए।

ख़ुदा फ़रमाता है कि तुम सब अपना दिल मुझे दो ताकि मैं तुम्हारे दिलों में सुकूनत करूँ और तुम मेरे साथ हमेशा ख़ुशी में रहो।

और इन्सान की रूह का ये इख़्तियार है कि अपना दिल जिसको चाहे दे और ये इख़्तियार इसलिए है कि इन्सान आज़ाद पैदा किया गया है ताकि इस पर अदालत वाजिबी हो सके। क़ियामत और अदालत के दिन से पहले दोज़ख़ी और बहिश्ती लोग इसी से पहचाने जा सकते हैं कि इन के दिलों में हाकिम कौन है? और कि वो किस की हुकूमत के तहत में मुए (मरे) हैं? वो जिसकी हुकूमत में मुए (मरे) हैं उसी के साथ, उसी के सिपाही और उसी की चीज़ों के वारिस होते हैं। अब नाज़रीन अपने दिलों की तरफ़ ग़ौर करके (अपने) आपको पहचानें कि वो किस के लोग हैं?

बनिस्बत मुहम्मदी अहले शराअ के सूफ़ियों ने दिल का फ़िक्र ज़्यादा किया है और उस के दुरुस्त करने की कुछ तदबीरें भी सोची हैं। मैंने जब तक बाइबल शरीफ़ से रोशनी ना हासिल की थी मैं भी सूफ़ियों की तदबीरों पर फ़रेफ़्ता था। अब मुझे मालूम हो गया कि सूफ़ियों की बातें अगरचे मुहम्मदियों की बातों से बेहतर हैं मगर फ़िल-हक़ीक़त निकम्मी हैं। वो लोग बाअज़ रियाज़तों और बाअज़ तसव्वुरात और बाअज़ वज़ाइफ़ के वसीले से दिलों को सुधारने के दर पे रहते हैं लेकिन ये चीज़ें इस मर्ज़ की दवा नहीं हैं।

दिल पाक होता है सिर्फ मसीही ईमान से क्योंकि वो ईमान ख़ुदा की बख़्शिश है और मसीह की सलीबी मौत की तासीर से जो बवसीला ईमान के मोमिन में असर करती है। दिल की बद ख़्वाहिशें मुर्दा सी हो जाती हैं और मसीह ख़ुदावन्द की क़ियामत की तासीर से दिल में ऐसी ताज़गी और क़ुव्वत और रोशनी आती है कि मसीही मोमिन बदी पर और दुनिया, नफ़्स और शैतान पर ग़ालिब आता है और फ़त्ह पाता है और ख़ुदा का मुक़र्रब हो जाता और दुनियावी दुख सुख में ख़ुदा की मर्ज़ी का मुतीअ होके अपनी ज़िंदगी बसर करता है और यही बड़ी नेअमत है जिसके सब मुहताज हैं।

دفعہ ۲۰

दिमाग़, जिगर, गुर्दों और अंतड़ियों का बयान

दिमाग़, ये लफ़्ज़ तीन माअनों में आता है कभी सर के अंदर के पर्दों की चर्बी और गूदे को दिमाग़ कहते हैं और वहां कुछ हिस (حِس) नहीं है। कभी तमाम खोपड़ी को दिमाग़ कहते हैं और चूँकि वहां पट्ठे भी हैं इसलिए वहां हिस (حِس) भी है। कभी सारे सर को दिमाग़ कहते हैं। लेकिन जब कहा जाता है कि फ़ुलां बड़े दिमाग़ का आदमी है तब उस की अक़्ल की गहराई और बड़ी रसाई पर इशारा होता है और कभी उस के ग़रूर पर और कभी उस की हमाक़त पर भी इसी लफ़्ज़ से इशारा करते हैं।

हकीम कहते हैं कि “दिमाग़ वो उज़ू रईस है जो खोपड़ी में है और उस की शक्ल मुसल्लस मख़रूती है। वही रूह का महल है जहां वो रहती है। कान और आँखें ज़बान और नाक जो पेशी के ख़ादिम हैं उस के बहुत ही नज़्दीक हैं सिर्फ एक क़ुव्वत-ए-लामिसा बतौर जासूसी के सारे बदन में छोड़ी हुई है। देखो अल्लाह की शान।”

जिगर यानी “कबिद” (کبد) दहने पहलू में एक उज़ू है और वह भी उज़ू रईस है। दिल, दिमाग़ और जिगर यही तीन उज़ू रईस कहलाते हैं। इनकी बहुत हिफ़ाज़त चाहीए क्योंकि जब उनमें से किसी में ख़लल आया तो फिर आदमी की ज़िंदगी नहीं है। जिस्मानी दिलावरी जिगर की क़ुव्वत पर मुन्हसिर समझते हैं। जब कहते हैं कि वो बड़े जिगरे का आदमी है तब उस की दिलावरी पर इशारा होता है।

गुर्देवही दो गोले से हैं जो जानवरों में देखते हो। अरबी में वाहिद को “कुल्लिया” (کلیہ) या “कलवा” (کلوہ) कहते हैं और दोनों को कलेतें (کلیتیں) कहा करते हैं। (ज़बूर 7:9 मैं है कि ख़ुदा सादिक़ दिलों और गुर्दों को जाँचता है।

अंतड़ियांजिन्हें अरबी में मिआ (معا) कहते हैं जिसकी जमा “अमआ” (امعا) है। इन्सान के पेट में छः अंतड़ियां बताते हैं। और कहते हैं कि गहिरा ग़म और बड़ी ख़ुशी अंतड़ियों तक महसूस होती है। (नोहा 1:20) में बयान है कि मेरी अंतड़ियां उबलती हैं। उस ज़माने के लोग ऐसा समझते थे कि दिल की पोशीदा बातें गुर्दों में छुपी रहती हैं और गहरा ग़म और गहरी ख़ुशी दिल से आगे बढ़ा के अंतड़ियों तक मोअस्सर है। पस ये अगले ज़माने का मुहावरा था और इसी मुहावरे पर कलाम-उल्लाह में कहा गया है कि ख़ुदा दिल और गुर्दों का जानने वाला है और कि ग़म से मेरी अंतड़ियां कलपती हैं। और कभी कभी मुहावरे में कहा जाता है कि अंतड़ियां इसीस देती हैं।

दफ़ाअ 21

ग़म के बयान में

गम एक कैफ़ीयत है नापसंदीदा जो इन्सान के दिल पर तारी होती है। जिससे दिल सुस्त और चेहरा अफ़्सुर्दा हो जाता है और ज़्यादा ग़म से जिस्मानी क़ुव्वत में ज़ईफ़ आ जाता है। (अम्साल 12:25) इन्सान के दिल का ग़म उसे झुका देता है और शिकस्ता ख़ातिर करता है। (अम्साल 15:13)

दिल के कमज़ोर आदमी ग़म की बर्दाश्त ना करके कुड़कुड़ाते और वावेला करते और कभी कभी हद एतिदाल से बाहर हो जाते हैं लेकिन बुर्दबार अश्ख़ास जो साबिर और जफ़ाकश हैं बर्दाश्त करके एतिदाल में रहते हैं। गम खाने का एक वक़्त है। (वाइज़ 3:4) सब जानते हैं कि इन्सान को ग़म कभी कभी होता है हमेशा नहीं रहता। अगर कोई आदमी अपनी ज़िंदगी के गुज़शता वक़्त पर फ़िक्र करे और सोचे कि किस क़द्र वक़्त गम और दुख में कटा और कितना वक़्त आराम में गुज़रा तो उसे मालूम हो जाएगा कि ख़ुशी व आराम के लिए बहुत वक़्त था और ग़म के लिए बहुत ही थोड़ा वक़्त था। लेकिन नादानी से या मुबालग़ा से बाअज़ आदमी कहा करते हैं कि मेरी तो सारी उम्र ग़म में गुज़री है ये नाशुक्री की बात है और दुरुस्त नहीं है।

गम जो कभी कभी दिलों में आ जाता है अच्छा नमूना है। इस आइन्दा दुख की हालत का जो गुनाहों के वबाल के सबब से बे ईमानों और बदकारों का हिस्सा होगा जिसे आदमीयों ने अभी नहीं देखा, चाहीए कि हम सब उन दुनियावी ग़मों की तल्ख़ी को चख के होशयार हो जाएं और वह काम ना करें जिनके सबब से आइन्दा अबदी ग़मों के सज़ावार होते हैं।

लोग हंसी ख़ुशी को बहुत पसंद करते हैं और अपनी ज़िंदगी का वक़्त ख़ुशी में बसर करना चाहते हैं बल्कि बाज़ों के तो हर वक़्त दाँत पसरे ही रहते हैं। कहके मार मार कर हंसते और ऐसी ऐसी बातें दिल से निकालते हैं जिनसे आप ही हँसें और दूसरों को भी हँसाए। लेकिन कलाम-उल्लाह में लिखा है। “ग़मगीनी हंसी से बेहतर है।” (वाइज़ 7:3) बहुत हंसी से आदमी का दिल मुर्दा सा हो जाता है और ग़म दिल को सुधारता है ख़ुदावन्द मसीह ने फ़रमाया है कि ग़मगींन लोग मुबारक हैं। (मत्ती 5:4) पस ग़म निशान बरकत है। गम दो क़िस्म का होता है :-

अव्वल दुनिया का ग़म है कि दुनियावी चीज़ों के लिए अहले दुनिया के दिलों में मोअस्सर होता है और यह बहुत है। चारों तरफ़ अहले दुनिया इसी ग़म में मुब्तला हैं। कभी कभी ये दुनियावी गम भी आदमीयों को ख़ुदा की तरफ़ खींच लाता है लेकिन अक्सर ये ग़म हलाकत का बाइस होता है।

दूसरा ईलाही ग़म है जो अपने और दूसरों के गुनाहों की यादगारी से दिलों में आता है और तौबा की बरकत दिल में पैदा करता है यही ग़म मुबारक है। (2 कुरनत्थियों 7:10) ग़म की फिर और तरह पर दो किस्में हैं “बेवक़ूफ़ी का ग़म” और “दानिशमंदी का ग़म”

बेवक़ूफ़ी का वो ग़म है जो क़ाज़ी साहब को था किसी ने पूछा क़ाज़ी जी आप दुबले क्यों हो गए हैं? फ़रमाया कि शहर के ग़म ने मुझे दुबला कर दिया है। जो बातें ईलाही इंतिज़ाम के वाक़ियात से दुनिया में होती हैं और यूं ही हुआ करेंगी जब तक कि आख़िरत आए। पस उन के लिए बेहद वावेला से क्या फ़ायदा है? मसलन ज़वाल दौलत का ग़म या मौत अहबाब का ग़म या बाअज़ रिश्तेदारों और दोस्तों की तरफ़ से बेमुरव्वती और बे इंसाफ़ी और जफ़ा व दग़ा देखने का ग़म वग़ैरा। बहुत बातें ऐसी हैं जिनसे दिल पर चोट लगती है लेकिन ऐसी चोटों के नीचे दाँत पसार के गिर जाना बेवक़ूफ़ी है कुछ अक़्ल को भी काम में लाना चाहीए।

दानिशमंदी का वो ग़म है जिसका ज़िक्र (वाइज़ 7:4) में है कि “दाना का दिल मातम के घर में है और अहमक़ का दिल इशरत ख़ाना से लगा है।” दानिशमंद आदमी हर वक़्त हर अम्र में अंजाम बख़ैर के लिए दूर-अँदेश और फ़िक्र मंद रहता है और यह दूर अंदेशी व फिक्रमंदी उस के दिल के लिए गोया एक मातम-ख़ाना सा होता है और यह मातम-ख़ाना अच्छा है। बेवक़ूफ़ आदमी नादान बच्चों की मानिंद कुछ दूर-अँदेश नहीं है। अदना फ़ानी चीज़ों को पा कर ख़ुश होता और उन के ज़वाल से बच्चों की तरह चिल्ला चिल्ला कर रोता है। पस उस (बेवक़ूफ़ आदमी) की ख़ुशी और उस का ग़म बेवक़ूफ़ी के साथ है और उस (दानिशमंद आदमी) की ख़ुशी और ग़म दानिशमंदी के साथ है और कामयाब भी वही होगा।

बाअज़ ग़म और दुख इन्सान की सेहत रुहानी के लिए भी अल्लाह तआला से जो हक़ीक़ी मुदब्बिर और प्यारा बाप है आया करते हैं। वो इन्सान के हक़ में बमंज़िला दवा के होते हैं उन की तहक़ीर ना चाहै। हर एक ग़म और दुख जो इन्सान पर आता है अगर वो उस से कुछ नसीहत हासिल ना करे तो वो ग़म फ़िल-हक़ीक़त ग़म है और जो वो उस से कुछ इस्लाह पज़ीर हो तो वो ना सिर्फ ग़म है बल्कि बरकत है।

गम अगरचे तल्ख़ चीज़ है मगर इस में कुछ मज़ा भी है। एक शायर कहता है “ग़म खाता हूँ लेकिन मेरी नीयत नहीं भर्ती।” क्या ग़म में मज़ा है, कि तबीयत नहीं भर्ती। अगरचे इस शायर ने दुनियावी ग़म की निस्बत ऐसा कहा है लेकिन फ़िल-हक़ीक़त ईलाही ग़म में मज़ा है। दुनिया के ग़म में मह्ज़ तल्ख़ी है। मसीह ख़ुदावन्द की सलीबी मौत के वक़्त मसीहीयों को भी बड़ा गम और अलम हुआ था लेकिन बमूजब इर्शाद मसीह के उनका वो ग़म मुबद्दल बखु़शी हो गया था। (युहन्ना 16:20) और वह ख़ुशी अब तक हमारी रूहों में बराबर चली आती है और अबद तक बजलाल रहेगी। गम और अलम का वजूद तो मादूम ना होगा बल्कि बे ईमानों के लिए ग़म का समुंद्र ज़ाहिर होगा और वह अबद तक मग़्मूम रहेंगे। हाँ मसीही मोमिन के लिए ग़म ऐसा मादूम होगा कि वह सियोन में गीत गाते हुए आएंगे और अबदी ताज़ उन के सरों पर होगा। वो ख़ुशी और शादमानी हासिल करेंगे और ग़म उनसे काफ़ूर जाऐंगे।” (यसअयाह 35:10)

और वो (ख़ुदा) उन की आँखों के सब आँसू पोंछ देगा। इस के बाद ना मौत रहेगी और ना मातम रहेगा। ना आह-ओ-नाला ना दर्द। पहली चीज़ें जाती रहीं।” (मुकाशफ़ा 21:4) इस वक़्त भी मसीहीयों के ग़मों में ग़ैर मसीहीयों के ग़मों की निस्बत बहुत फ़र्क़ होता है। इनके ग़म हल्के और उन के ग़म भारी हैं। देखो क्या लिखा है तुम औरों की मानिंद जो ना उम्मीद हैं ग़म ना करो। (1 थिसलीनकों 4:13) वो क़वी उम्मीद जो मसीहियों को मसीह में है उन के ग़मों का बोझ हल्का करती है। नाउम्मीद शख़्स के लिए क्या आसरा है कुछ नहीं पूरा बोझ ग़म का उसे उठाना होता है। ये भी याद रहे कि ग़म के वक़्त हमें क्या करना चाहीए। अगर कोई तुम में ग़मगींन हो वो दुआ मांगे। (याक़ूब 5:13) यानी ख़ुदा के हुज़ूर में जाये और अपना बोझ उस के सामने रखे वहां से क़ुव्वत सबरी और तसल्ली हासिल करेगा।

दफ़ाअ 22

ख़ुशी के बयान में

ख़ुशी एक शीरीं कैफ़ीयत है जो दिल पर आती है। सब आदमी रात-दिन ख़ुशी की तलाश में हैं। वहशी भी और बच्चे भी, अहमक़ भी और दानिशमंद भी, ईमानदार और बेईमान भी सब ख़ुशी चाहते हैं। लेकिन ख़ुशी दो क़िस्म की है फ़ानी और ग़ैर फ़ानी। “फ़ानी ख़ुशी” फ़ानी चीज़ों में है। ये फ़रेबी ख़ुशी है जो चंद रोज़ा है और आख़िरकार यह ख़ुशी मुबद्दल नअम हो जाएगी और मसलुब (नाबूद) होगी। ये ख़ुशी जिस्मानी ख़्वाहिशों की तक्मील में है किसी क़द्र तो इस की हाजत दुनिया में इन्सान को है मगर ये नादानी की बात है कि हम उस के हो रहें। दानिशमंद की रूह इस ख़ुशी से कभी सैर नहीं होती और ना हो सकती है।

“ग़ैर-फ़ानी ख़ुशी” ग़ैर-फ़ानी चीज़ों में है। ये ख़ुदा के पास है और ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) से हासिल होती है। ये रूह का फल है जो मसीह बख़्शता है और इस का बयाँ इंजील शरीफ़ में है। वो मोमिनीन की रूहों में मोअस्सर होती है और मसीह अपने ख़ास बंदों को इस ख़ुशी से भर देता है। फ़ानी ख़ुशी इस ग़ैर-फ़ानी ख़ुशी के सामने ऐसी हक़ीर होती है कि ख़ुदा के बंदे इसके लेने को उसे छोड़ देते हैं और इन का ऐसा काम बेजा नहीं बल्कि बजा है। हाँ मुनासिब तौर से कभी फ़ानी ख़ुशी को भी वो अमल में लाते हैं मगर उसे मग़्लूब बग़ैर फ़ानी रखते हैं।

लेकिन वो दुनियादार जो ग़ैर-फ़ानी ख़ुशी की तरफ़ से अंधे हैं। फ़ानी ख़ुशी की तलाश और तक्मील में तमाम ज़िंदगी बसर करके मर जाते हैं और उन की ख़ुशी इसी जहान में फ़ना हो जाती है और उन की रूहें बे-ख़ुशी के अंदर तक हाय हाय करती हुई दुख में चली जाती हैं। नाज़रीन किताब हज़ा को चाहीए कि ग़ैर-फ़ानी ख़ुशी को तलाश करें फ़ानी ख़ुशी पर फ़रेफ़्ता होके चुप ना कर रहीं।

दफ़ाअ 23

जिस्म के बदकामों के बयान में

यहां जिस्म से मुराद रूह हैवानी है क्योंकि वो जिस्म की हद में दाख़िल है। रूह हैवानी के कामों को ख़ुदा के कलाम में जिस्म के काम कहा गया है और यह ज़ाहिर किया गया है कि रूह हैवानी जब बुरे काम करती है और नफ़्स नातिक़ा उसे दबा के नहीं रखता बल्कि उस की ख़्वाहिशों का ख़ुद मुतीअ हो रहता है तो ख़ुदा का ग़ुस्सा उस शख़्स की तरफ़ होता है।

रूह हैवानी एक फ़ानी चीज़ है। वो बदन के साथ फ़ना हो जाएगी। उस पर कुछ मलामत नहीं और ना इसे माख़ज़ में आना है। लेकिन रूह इन्सानी जो बाक़ी और ग़ैर फ़ानी है और जिस में इदराक और तमीज़ है वो क्यों एक जानवर की मुतीअ हो जाती है इसलिए वो आफ़तों की सज़ावार है।

इस बात को यूं समझना चाहीए कि अगर कोई घोड़े का सवार जो इन्सान है घोड़े की लगाम अपने हाथ में ना रखे और अपनी मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ जहां चाहे उसे ना ले जाये बल्कि लगाम ढीली छोड़ के आप घोड़े का मुतीअ हो जाए कि जिधर चाहे ख़ुद घोड़ा उसे ले जाये तो क्या वो बचेगा? या खुदकुश हो के मरेगा? और क़सूर किस का होगा? घोड़े का या उस शख़्स का जिसने उस के हाथ घोड़ा बेचा था या ख़ुद ये हज़रत मलामत के लायक़ होंगे जिन्हों ने इस जानवर को क़ाबू में ना रखा? यही हाल जिस्मानी बद ख़्वाहिशों की इताअत से आदमीयों की रूहों का हो रहा है। जिस्म की उसूली बद ख़्वाहिशों की फ़हरिस्त ये है।

1) शहवतउस ख़्वाहिश का नाम है जो नर और मादा में मेल की ख़्वाहिश कहलाती है। असल तो उस की ख़ूब है कि तनासुल की ग़रज़ से अल्लाह ने ये क़ुव्वत जानवरों में रखी है और इन्सान में भी है। जब ये क़ुव्वत इन्सान में ज़ाहिर होती है उस वक़्त को बलूग़त का वक़्त कहते हैं और जब आदमी बूढ्ढा हो जाता है और क़ुव्वतें कमज़ोर हो जाती हैं उस वक़्त ये क़ुव्वत भी मुनक़ते हो जाती है।

नादान, अहमक़, ना तजुर्बाकार जवान जो ना ख़ुदा से डरते और ना अहले तजुर्बा बुज़ुर्गों की नसीहतें सुनते हैं वो इस क़ुव्वत में आके बहुत उछलते हैं। इस को दबाते नहीं बल्कि इस में मगन हो जाते हैं और अपनी दीगर कुव्वतों को इस का मग़्लूब करते हैं और ऐसा मग़्लूब करते हैं गोया उन के हवास-ए-ख़मसा पर भी शहवत छा जाती है। बुरे गीत गाते, बुरी बातें ख़ुशी से सुनते सुनाते, बद सोहबतों को पसंद करते और नफ़्स अम्मारा को मज़ा देते फिरते हैं। शरीर औरतों के दरपे होते हैं हरामकारी पर कमर बाँधते हैं और सख़्त बेहया हो जाते हैं। चारों तरफ़ ताक झांक करते फिरते हैं। घोड़ों की तरह हिनहिनाते और कुत्तों की तरह कुत्तियों के दरपे फिरते हैं। आपस में लड़ते भी हैं, बंदिशें भी बाँधते हैं, नारे मारते, फ़रेब देते और फ़रेब खाते फिरते हैं।

बड़ी बड़ी आफ़तें भी उन पर आ जाती हैं और उन की ख़ूब ख़ाना-ख़राबियाँ होती हैं। आतिश्क की बीमारी और बरस या कोढ़ इसी से होता है और ऐसी सख़्त तक्लीफ़ होती है कि इन बीमारीयों में मुब्तला होके इन्सान मौत मांगता है और नहीं आती। अगर किसी अय्याश को ऐसी बीमारीयों ना हों और वह कुछ अरसा तक उछल कूद के बैठा रहे तो भी वो बाक़ी उम्र-भर रोया करता है। इसलिए कि उस में से असली क़ुव्वत निकल जाती है और उस की औलाद कमज़ोर पैदा होती है और उस के बच्चे आए दिन बीमार रहते बल्कि कम उम्र में मर जाते हैं। ये आफ़त बाप की शरारत से औलाद में आती है और उस सज़ा के सिवा जो ऐसे लोगों पर ख़ुदा से आने वाली है ये हरामकार लोग ऐसी दुनिया में अपना बहुत नुक़्सान कर लेते हैं। अक्सर उन की नसलें मुनक़ते (ख़त्म) हो जाती हैं और उन के अब्बा का नसबी सिलसिला नेस्त व नाबूद हो जाता है।

इन लोगों में बाअज़ तो ग़रीब बदकार हैं जो बे तहज़ीब और जाहिल होते हैं। वो ज़्यादा रुस्वा और ख़्वार हो जाते हैं। बाअज़ मुहज़्ज़ब, ज़ी इल्म और दौलतमंद बदकार हैं और वह कुछ संजीदगी और दानाई और सर्वत खुफियतन (छुपके) एसे काम किया करते हैं और वह उन ग़रीबों की निस्बत कुछ कम रुस्वा होते हैं तो भी ईलाही ग़ज़ब, आतिशक व कोढ़, कमज़ोरी नसल और इन्क़िता नसब (नसल ख़त्म होना) वग़ैरा आफ़ात में सब का बराबर हिस्सा है। बाअज़ दीनदारी के लिबास में छिप के ऐसे बदफ़ेलों के मुर्तक़िब होते हैं वो सब से ज़्यादा बुरे हैं। ऐसों के हक़ में किसी शायर ने क्या ख़ूब कहा है।

ये सब आहूओं के हैं मुब्तला

इन्हीं टीट्टियों की आड़ में

लंबी डाड़ीयों पे ना जादिला

ये शिकार करते हैं बरमला

(टीट्टी यानी आड़, पर्दा, लंबी डाढ़ी)


ख़ुदा का बंदोबस्त जो इन्सान के लिए सरासर मुफ़ीद है इस बारे में यूं है कि जवान आदमी एक शादी करे और अपनी इस बीबी को जो मुनासिब तौर से इस ने पाई है मुहब्बत और इज़्ज़त से रखे और उसी के साथ ज़िंदगी बसर करे। हाँ अगर दोनों में से एक मर जाये और दूसरा फिर शादी के लायक़ रहे। अगर वो चाहे तो फिर अपना बंद-ओ-बस्त पाक तौर पर कर ले ताकि गुनाह से बचे और इस क़ुव्वत को क़ाबू में रखे। ख़ुदा से डरे और अपने बदन की भी हिफ़ाज़त करे और दानाई से रहे। ऐसा आदमी ख़ुदा से बरकत पाएगा। दुनिया में भी ख़ुश रहेगा और आख़िर को उस का भला होगा और इस की औलाद भी बहुत बीमारीयों से बची रहेगी। तमाम सच्चे मसीही ऐसा ही करते है।

2) तमअ (लालच) जिसको लालच कहते हैं असल इस की भी ख़ूब है और वह ये है कि आदमी अपनी हाजतों के रफ़ा करने में मुनासिब कोशिश करे और अपने आराम की चीज़ें तलाश करके, जायज़ तौर पर ले। अगर उसे हौका (यानी किसी चीज़ की बे-इंतिहा ख़्वाहिश) लग जाये तब वो तामअ और लालची है। उस की निगाह इन्साफ़ और हक़ पर नहीं रहती जिस क़द्र पाता है उस से सैर नहीं होता बल्कि ख़ुदा को छोड़ के ज़र-परसत हो जाता है। ऐसे आदमी का दिल हमेशा दुख में रहता है। अगर वो ऐसा ही मर गया तो ख़ुदा के ग़ज़ब की आग में चला जाएगा। तमअ (लालच) ख़्वाहिश हैवानी है। नफ़्स-ए-नातिक़ा की ये ख़्वाहिश नहीं है बल्कि उस के ख़िलाफ़ क़नाअत (जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) नफ़्स-ए-नातिक़ा की ख़्वाहिश है जो निहायत अच्छी चीज़ है।

3) हसद क्या है? दूसरे शख़्स के पास कोई अच्छी चीज़ देख के अपने दिल में जलना है। ये भी हैवानी ख़्वाहिश है। तंग दिल लोगों में हसद बहुत होता है कुशादादिल लोग हासिद कम होते हैं। ख़ैर ख़्वाही और ख़ैर अंदेशी और बिरादराना मुहब्बत जो नफ़्स नातिक़ा की सिफ़तें हैं हसद उन के ख़िलाफ़ है।

4) ग़रूरये ख़्याल रखना कि मैं भी कुछ हूँ आप पर फ़रेफ़्ता होना है और यह हैवानी सिफ़त है। हर एक सांड ये समझता है कि “हम चूमन दीगरे नेस्त” (फ़ारसी मिसाल- मेरी मिस्ल दूसरा नहीं) यही हाल अहले तकब्बुर का है कि अपने आपको बड़ा आदमी जानते हैं और दूसरे लोगों को जो ख़ाकसार हैं हक़ीर समझते हैं। ये ग़रूर पैदा होता है। क़ौमी शराफ़त के ख़्याल से और दौलतमंदी की वजह से और इल्मी लियाक़त से भी बल्कि बाअज़ दीनदारों में भी उन की दीनदारी उन की जान का वबाल हो जाती है जबकि उन में बजाय फ़िरोतनी (हलीमी) के ग़रूर पैदा होता है और वह समझते हैं कि मैं कुछ हूँ। सच्ची दीनदारी का फल ये है कि मैं कुछ नहीं हूँ लेकिन झूटी दीनदारी कहती है कि हाँ मैं कुछ हूँ। बाअज़ ख़ुदा के बंदे क़ौम से भी शरीफ़ हैं, दौलतमंद और साहिबे इल्म भी हैं तो भी ख़ाकसार फ़रोतन (हलीम) रहते हैं और ग़रूर को दिल में हरगिज़ जगह नहीं देते हैं।

5) किना कसी के साथ दिल में पोशीदा दुश्मन रखने का नाम “कीना” है। ये एक आग है जो आदमी के दिल में पोशीदा या दबी हुई रहती है और उसी के दिल को अंदर अंदर जलाती रहती है। फिर मौक़ा पाके भड़कती है ताकि उस को भी जला दे जिसकी निस्बत ये कीना है। ये भी हैवानी सिफ़त है। नफ़्स-ए-नातिक़ा की ख़्वाहिश ये है कि इन्सान का दिल सबकी तरफ़ से साफ़ हो। याद रखना चाहिए कि कीना-वर आदमी मसीही नहीं हो सकता जब तक कि उस के दिल से कीना निकल ना जाये और वह लोग जो मसीही कहलाते और दिलों में कीना रखते हैं वो अभी तक मौत में रहते हैं। मसीह की रूह उन में नहीं है और वह ख़ुदा के सामने मसीही नहीं हैं।

6) ग़ज़बयानी “ग़ुस्सा” ये सिफ़त आम है। ये हैवानों में भी है और नफ़्स नातिक़ा इन्सानी में भी है बल्कि ख़ुदा में भी है कि वो शरीरों (बेदीनों) पर ग़ुस्सा होता है और उन की शरारत के सबब से नाराज़ होके उन पर आफ़तें नाज़िल किया करता है और सब शरीरों (बेदीनो) को अबद तक अपने ग़ुस्से के साये में रखेगा यही मुक़ाम दुख का है। मगर नादानी का ग़ुस्सा और बेजा ग़ुस्सा और हैवानियत के जोश का ग़ुस्सा और ज़ूद रन्जी का ग़ुस्सा और बे हलिम ग़ुस्सा मकरूह बल्कि हराम और ख़ून रेज़ि के बराबर है। इसी से आदमी गुनाहगार होता है। हाँ दानिशमंदी और ख़ैर-अंदेशी के साथ इंतिज़ाम के लिए जो ग़ुस्सा है वो जायज़ और मुफ़ीद भी है चाहीए कि हम सब अपने गुस्सों को भी परखें।

7) दुश्नाम दही (دشنام دہی) यानी “गालियां बकना” या कुछ और बुरी बातें किसी की निस्बत मुँह से निकालना और कोसना या बददुआएं देना या अपने ऊपर आप या किसी ग़ैर पर लानत भेजना ये सब काम बुरे हैं और आदमीयों के दिलों पर अपने मुँह से चोट मारना है। ऐसी बातों से मालूम हो जाता है कि इस शख़्स का दिल अंदर से नापाक है और वो बुरी बातें जो उस के मुँह से निकलती हैं उस के नापाक दिल की बदबू हैं और दिली बदबू उस के मुँह से बाहर आती है और सुनने वालों के मिज़ाज ख़राब करती है और उस आदमी की बेदीनी ज़ाहिर होती है। ये भी मालूम होता है कि उस शख़्स के दिल में शैतान रहता है। वही उस के अंदर बैठा हुआ है जो ऐसी बुरी बातें बोलता है। ख़ुदा ने उस के दिल को नहीं छुवा। उस की इबादात, नमाज़ (दुआ) और रोज़ा सब वाहीयात हैं। कुछ असर नेकी का उस के दिल पर नहीं हुआ है। सच्चे मसीही जिनके दिल पाक हैं ऐसे काम हरगिज़ नहीं करते। उन के अंदर से सिर्फ ख़ूबी निकलती है और ज़ाहिर करती है कि उनका दिल ख़ुदा के साथ है। तालिबान-ए-हक़ को मालूम हो जाए कि वो जो हिंदूओं और मुसलमानों वग़ैरा में “बुज़ुर्ग” कहलाते हैं और मक़ताअ शक्ल रखते और हाथ में तस्बीह लेकर “सुब्हान-अल्लाह सुब्हान-अल्लाह” पढ़ा करते हैं जब उन के साथ तुम तन्हाई में होते हो और उन के मुँह से मसीहीयों वग़ैरा को गालियां निकालते सुनते हो तो मालूम कर जाओ कि वो किस क़िस्म के आदमी हैं? और सच्चे मसीहीयों से भी रिफ़ाक़त करके मालूम करना कि उन के अंदर से दुश्मनों और मूज़ियों के लिए क्या निकलता है, मह्ज़ ख़ैर अंदेशी और दुआ है। ये मसीही दीन की पाक तासीर है जो उन पर हुई है और वो जो उन ग़ैर-मज़्हब के बुज़ुर्गों की कैफ़ीयत है वो भी उन के दीन की तासीर से है। इस से साबित कर सकते हो कि दीन ए हक़ की तासीर कैसी है?

8) क़समइंसान को ख़ुदा के सिवा ग़ैर शैय की क़सम खाना अक़्लन व शरअन हराम है। वो जो कहा करते हैं कि मुझे अपने पीर की क़सम या अपने सर व जान व औलाद की क़सम वग़ैरा ये सब गुनाह करते हैं। बुत-परस्तों से ऐसी क़समों का रिवाज जारी हुआ है। वो जो ऐसी क़समें खाते हैं ज़ाहिर करते हैं कि ये चीज़ें उन्हें ज़्यादा प्यारी हैं और उन के गुमान में ये बड़ी चीज़ें भी हैं। लेकिन फ़िल-हक़ीक़त ख़ुदा बड़ा है और वही सब चीज़ों से ज़्यादा महबूब होना चाहीए।

पस ख़ुदा के सिवा ग़ैर चीज़ की क़सम खाना बेईमानी है और ख़ुदा का हक़ ग़ैर को देना है। पस हासिल कलाम ये है कि सिर्फ ख़ुदा की क़सम खाना चाहीए और सिवाए ख़ुदा के और किसी चीज़ की क़सम खाना हराम और नाजायज़ है। लेकिन ख़ुदा की क़सम भी बार-बार खाना और उसे तकया कलाम बना रखना ख़ुदा की बेइज़्ज़ती और ठट्ठों में उड़ाना है और अपने आप को लोगों की नज़रों में बे-एतिबार करना है। सख़्त ज़रूरत के वक़्त आदमी सच्चाई और संजीदगी से ख़ुदा की क़सम खा सकता है। वर्ना हर हाल में जब वो बोलता है तो उस की हाँ और नहीं बमंज़िला क़सम के मोअतबर होना चाहीए।

फ) ख़ुदा तआला ने भी अपने पाक कलाम में अब्रहाम व दाऊद से अपनी ज़ात-ए-पाक की क़सम खा कर बात की है और वह बड़ी भारी बात थी। चुनान्चे तुम ख़ुद इस बयान को पैदाइश 22:16, ज़बूर 89:3 में देख सकते हो। क़ुरआन शरीफ़ ज़ाहिर करता है कि ख़ुदा ने अपनी चंद मख़्लूक़ चीज़ों की क़समें खाई हैं। हम समझते हैं कि ये बात ख़ुदा की शान से बईद है कि वो इन मख़्लूक़ चीज़ों की क़सम खाए और उन फ़ानी चीज़ों को अपनी बात की सदाक़त में पेश करे। ये ख़्याल जो क़ुरआन शरीफ़ में है इन्सान की तज्वीज़ है ख़ुदा से नहीं है।

9) ग़ीबत यानी पीठ पीछे लोगों के हक़ में बुरी बातें बोलना या उन की तहक़ीर करना, उन पर हँसना, उनका नुक़्सान करना। ये बद आदमी का काम है। भले लोग जैसे सामने होते हैं वैसे ही पीछे भी रहते हैं। ये ग़ीबत बड़ी फ़साद की सूरत है। ये कभी मख़्फ़ी (छिपी) नहीं रहती। ज़ाहिर हो जाती है और उस के कान तक भी जा पहुँचती है जिसके हक़ में वो हुई। तब उस का दिल ख़राब हो जाता है और दुश्मनीयां पैदा होती हैं। वो जो ग़ीबत किया करता है दानिशमंदों की निगाह में हक़ीर है। वो ख़ुद उस से नफ़रत करने लगते हैं। इस ख़्याल से कि ये आदमी उस शख़्स की ग़ीबत हमारे सामने करता है हमारी ग़ीबत कहीं और जा कर करेगा। ये नालायक़ है इस से होशयार रहना चाहीए। पस ग़ीबत से क्या होता है? अपने भाई का नुक़्सान, ख़ुदा का गुनाह और दानिशमंदों के सामने ख़ुद ज़लील होना है। इसलिए मुनासिब है कि कोई किसी की ग़ीबत ना करे बल्कि जो कुछ कहना हो उस के मुँह पर साफ़ साफ़ कहे। ये सफ़ाई की बात है और उस का जवाब भी उस से सुने। शरीरों (बेदीनो) की मजलिसों में ग़ीबत करने वाले और ग़ीबत सुनने वाले लोग अक्सर जमा हुआ करते हैं और इस क़िस्म के बहुत चर्चे वहां होते हैं। बाअज़ लोगों को ग़ीबत सुनने में और बाअज़ को ग़ीबत करने में मज़ा आता है। इस का सबब यही है कि उन के दिलों में शैतान रहता है।

10) निफ़ाक़ इस लफ़्ज़ के मअनी हैं “बज़ाहिर दोस्ती और ब-बातिन दुश्मनी।” ख़ालिस दोस्ती की ख़ुशबू और निफ़ाकी दोस्ती की बदबू हरगिज़ छिपी नहीं रहती। मैं अपने उन दोस्तों को ख़ूब पहचानता हूँ जो मुझसे ख़ालिस दोस्ती रखते हैं और उन को भी नाम बनाम जानता हूँ जो मुझसे निफ़ाकी मुहब्बत रखते हैं और यह मैंने क्योंकर जाना है सिर्फ इसी से कि बाअज़ की दोस्ती में से ख़ुलूस की और पाक नीयत की ख़ुशबू दिमाग़ तक पहुंची है और बाअज़ की दोस्ती में से निफ़ाक़ की बू आ गई है। तब मैं भी उन की तरफ़ से होशयार हो गया हूँ। उन के लिए दुआ करता हूँ कि ख़ुदा उन के दिलों को पाक करे और उन के फंदों से बचने के लिए हर वक़्त होशयार रहता हूँ और मैं ख़्याल करता हूँ कि और लोग भी इस तरह अपने ख़ालिस और निफ़ाकी दोस्तों को पहचानते होंगे। निफ़ाकी दोस्त दुश्मनों से ज़्यादा बुरे हैं और बड़े नुक़्सान का बाइस हैं। चाहीए कि कोई आदमी अपनी रूह में निफ़ाक़ को जगह ना दे।

11) बद-गुमानी, बद-गोई, इज़ा रसानी, इल्ज़ाम लगाना, बेहयाई, बददियानती, बेईमानी, बिसयारख़ोरी (बिसयारख़ोर-बहुत खाने वाला, पेटू), बातिल अक़ाइद, बुत-परस्ती, क़ब्र परस्ती, पीर-परस्ती, बे-इंसाफ़ी, तास्सुब, ख़ुसूमत (अदावत-दुश्मनी), ख़ुदग़रज़ी, दुज़दी (चोरी), दारोग़-गोई, दग़ा, रियाकारी, शराबखोरी, सुस्ती, ज़ुल्म, अय्याशी, नाशुक्री, ना-फ़रमानी वग़ैरा। ये सब काम ग़लबा हैवानियत के सबब से होते हैं जबकि नफ़्स-ए-नातिक़ा अपना काम पस अंदाख़्त करके रूह हैवानी का मुतीअ हो जाता है। ये सब जिस्म के काम कहलाते हैं। ये रूह के काम नहीं हैं और रूह इन्सानी जब जिस्म की ताबे हो रहती है तो इन सब कामों से वो मलामत के लायक़ ठहरती है।

दफ़ाअ 24

इन्सानी जिस्म के नामों का बयान

तमाम दुनिया की ज़बानों में जिस्म के कुछ ऐसे नाम मिलते हैं जो रूह इन्सानी को जिस्म से जुदा ज़ाहिर करते हैं और यह बात भी गौरतलब है कलाम-उल्लाह में इन्सानी जिस्म के लिए छः नाम मज़्कूर हैं। पैदाइश 2:7 में जिस्म को “मिट्टी”, अय्यूब 4:19 में उसे “मिट्टी का मकान”, अय्यूब 10:11 में जिस्म को “चमड़ा, गोश्त”, हड्डी और नसें”, 2 कुरंथियो 5:1 में जिस्म को “ख़ेमे का घर”, 2 कुरंथियो 4:7 में जिस्म को “मिट्टी का बर्तन”, 2 पतरस 1:13 में उसे “ख़ेमा” बयान किया गया है। इन नामों में बदन को “मकान” और रूह को “मकीं” ज़ाहिर किया है जिससे बदन और रूह में साफ़ साफ़ फ़र्क़ दिखाया गया है। फिर जब रूह बदन से निकल जाती है तो इस जिस्म का नाम “लाश” होता है और लफ़्ज़ “लाश” की असल “लाशी” यानी “कुछ चीज़ नहीं है।” क्योंकि शैय वही थी जो उस में से निकल के चली गई है।

दफ़ाअ 25

रूह इन्सानी की सिफ़ात के बयान में

अम्साल 20:27 में “आदमी की रूह (ज़मीर)” को “ख़ुदावन्द का चिराग़” कहा गया है क्योंकि इस तमाम कारख़ाना बदनी में रोशनी बख़्श चीज़ रूह है। मत्ती 6:23 में ख़ुदावन्द मसीह ने फ़रमाया है कि “….अगर वो रोशनी जो तुझमें है तारीकी हो जाए तो कैसी तारीकी ठहरेगी।” ये उसी रुहानी रोशनी का ज़िक्र है। 1 कुरंथियो 2:11 में लिखा है कि “क्योंकि इन्सानों में से कौन किसी इन्सान की बातें जानता है सिवाए इन्सान की अपनी रूह के जो उस में है? इसी तरह ख़ुदा कि रूह के सिवा कोई ख़ुदा की बातें नहीं जानता।” पस इन्सानी रूह में इल्मी रोशनी है अपनी निस्बत।

तब ये रूह इन्सानी एक रोशनी सी है जिसमें ज़िंदगी है और उस में हिस्स (حِسؔ), इदराक (ادؔراک), इरादा और क़ुव्वत भी एक हद में है। मसनूआत (مصنوعات) की तरफ़ देख के रूह इन्सानी जो सानेअ (صانع) का सुराग़ लगाती है। इस का यही सबब है कि उस में ख़ुदा की तरफ़ से ये इस्तिदाद (सलाहियत) रखी हुई है। रोमीयों 1:20 में लिखा है कि “उस की अनदेखी सिफ़तें यानी उस की अज़ली क़ुदरत और उलूहियत दुनिया की पैदाइश के वक़्त से बनाई हुई चीज़ों के ज़रीये से मालूम हो कर साफ़ नज़र आती हैं। यहां तक कि उन को कुछ उज़्र बाक़ी नहीं।” ये इल्म किस को हासिल होता है ”इन्सान की रूह” को? नोहा 3:24 में है कि “मेरी रूह कहती है कि खुदावंद मेरा हिस्सा है।” वो ऐसा क्यों कहती है? इदराक के सबब से और उस की ख़ास मेहरबानी अपनी तरफ़ मालूम करके। आस्तर 4:14 में बयान है कि “….ख़लासी और नजात यहूदीयों के लिए किसी और जगह से आऐगी।” ये कौन कहता था? उस की इन्सानी रूह, उस इदराकी इस्तिदाद (सलाहियत) से जो उस में थी। ज़बूर 139:14 में ज़बूर नवेस कहता है कि “….मेरा दिल उसे ख़ूब जानता है।” ये यक़ीन क्योंकर पैदा हुआ? रूही इदराक से। अम्साल 23:3 में “दग़ा के खाने” का बयान है और अम्साल 6:30 में “भूके चोर को हक़ीर ना जानना” लिखा हुआ है। ये सब हिदायतें रूही इस्तिदाद (सलाहियत) इदराकी से हैं। फिर हम देखते हैं कि इन्सान की रूह नेकी पर आफ़रीन और बदी पर नफ़रीन (मज़म्मत) करती है, ज़ुल्म से ईज़ा पाती है, इन्साफ़ से ख़ुश होती है और फ़ानी ख़ुशी से आसूदा नहीं होती। ये सब कुछ उस की ज़ाती इस्तिदाद (सलाहियत) के सबब है।

दफ़ाअ 26

इन्सानी रूह ग़ैर-फ़ानी है

इब्रानियों 12:9 में लिखा है कि ख़ुदा “रूहों का बाप” है। ज़करीयाह 12:1 में है कि “ख़ुदावंद इन्सान के अंदर उस की रूह पैदा करता है।” गिनती 16:22 में लिखा है कि “ख़ुदा सब बशर की रूहों का ख़ुदा है।” इसी तरह के बहुत से और हवालेजात में भी बयान है कि इन्सानी रूह ख़ुदा की तरफ़ से है और उसी की तरफ़ वापिस लौट जाती है मसलन “जानें जो मैंने बनाएँ” (यसअयाह 57:16), “तू इन का दम रोक लेता है और ये मर जाते हैं।” (ज़बूर 104:29:), “वो अपनी रूह और अपने दम को वापिस ले ले। तो तमाम बशर इकट्ठे फ़ना हो जाऐंगे।” (अय्यूब 34:14-15), “उस वक़्त ख़ाक ख़ाक से जा मिलेगी जिस तरह पहले मिली हुई थी और रूह ख़ुदा के पास लौट जाएगी जिसने उसे दिया था।” (वाइज़ 12:7)

इन आयतों से ये बात साबित है कि इन्सान की रूह में और ख़ुदा में एक ख़ास क़िस्म का इलाक़ा है और कि जब इन्सान मर जाता है तो इस का बदन ख़ाक में मिल जाता है और उस की रूह अल्लाह के पास चली जाती है नेस्त नहीं हो जाती।

दफ़ाअ 27

इन्सान की रूह मज्बूर नहीं आज़ाद है

पैदाइश 3:22 में लिखा है “….ऐसा ना हो कि वो अपना हाथ बढ़ाए और हयात के दरख़्त से भी कुछ ले कर खाए और हमेशा जीता रहे।” क्योंकि आदम मज्बूर ना था। वो इरादे और फे़अल (अमल करने) में आज़ाद था। बाइबल मुक़द्दस के बेशतर हवालेजात से इन्सान की इस आज़ादी का सबूत मिलता है। 1 पतरस 2:16 में लिखा है कि “और अपने आप को आज़ाद जानो मगर इस आज़ादी को बदी का पर्दा ना बनाओ।” ज़बूर 110:3 में है कि “लश्कर कुशी के दिन तेरे लोग ख़ुशी से अपने आपको पेश हैं।” “अपनी मुस्तइद रूह से मुझे सँभाल।” (ज़बूर 51:12) “जहां कहीं ख़ुदावन्द का रूह है वहां आज़ादी है।” (2 कुरंथियो 3:17) मेरी रूह इन्सान के साथ हमेशा मुज़ाहमत ना करती रहेगी।” (पैदाइश 6:1-4) इसलिए कि वो आज़ाद है और कभी कभी अल्लाह की रूह की हिदायत को भी नहीं मानता और अपने मन्सूबों की तरफ़ जाता है। ये सज़ा और जज़ा इसी आज़ादी पर मुरत्तिब है और गुनाहों पर मलामत का और हिदायत का तरीक़ा इसी सबब से जारी है कि आदमी आज़ाद पैदा हुए हैं। वो हरगिज़ किसी तक़्दीर के मज्बूर नहीं हैं। और ख़ुदा की मर्ज़ी ये है कि सब आदमी अपनी आज़ादी के साथ अपनी ख़ुशी से इस के ताबेअ फ़रमान हों।

(फ) जिस ख़ुदा ने आदमीयों को आज़ाद पैदा किया क्या अक़्ल मानती है कि उस की तरफ़ से कोई जबरी शराअ आदमीयों के लिए निकले कि ज़रूर कलिमा पढ़ो या जज़िया दो या मारे जाओ?

दफ़ाअ 28

रूह इन्सानी में हमेशा दो तरफ़ा तवज्जा है

हर आदमी अपने आपको एक शख़्स मौजूद समझता है और मैं बोलता है और दुनिया की चीज़ों की तरफ़ भी मुतवज्जा होता है। इस के साथ वो ये भी जानता है कि मैं यक़ीनन क़ायम-बिल-ज़ात नहीं हूँ। किसी दूसरे के हाथ में मेरी ज़िंदगी है और यह दूसरा वही है जो क़ायम-बिल-ज़ात और जहान का मालिक है। पस इन्सानी रूह हर दो तरफ़ देखती है। अपनी तरफ़ और ख़ुदा की तरफ़ और उस की ये दोनों तोजिहात उस की ज़ाती ख़सलतें हैं।

दफ़ाअ 29

इन्सानी रूह जब गुनाह में है, मुर्दा है, मसीह उसे जिलाता है

ऐसा “मुर्दा” नहीं कि बे-हिस व हरकत मिस्ल लाश के हो मगर मौत के साये में है और मौत का ज़हर उसे चढ़ा हुआ है। इसी लिए ख़ुदा के कलाम में बे ईमानों और बदकिर्दारों को “मुर्दा” कहा गया है। “यसूअ ने उस से कहा तू मेरे पीछे चल और मुर्दों को अपने मुर्दे दफ़न करने दे।” (मत्ती 8:22) और उस ने तुम्हें भी ज़िंदा किया जब अपने क़ुसूरों और गुनाहों के सबब से मुर्दा थे।” (इफ़िसियों 2:1), “जब क़ुसूरों के सबब से मुर्दा ही थे तो हमको मसीह के साथ ज़िंदा किया।” (आयत 5) “...ऐ सोने वाले जाग और मुर्दों में से जी उठ।” (इफ़िसियों 5:14), “….गुनाह के सबब से मौत आई और यूं मौत सब आदमीयों में फैल गई इसलिए कि सबने गुनाह किया।” (रोमीयों 5:12), “जिस्मानी मिजाज़ मौत है।” (रोमीयों 8:6)

ये मुर्दा रूहें जब तक कि आदमीयों के बदनों में हैं उनका ईलाज हो सकता है कि मौत उनमें से निकल जाये और ज़िंदगी आ जाए और फिर वो अबद तक ज़िंदा रहें। लेकिन ये काम सिर्फ यसूअ मसीह से और उस की रूह से होता है और यही बात मसीही दीन की बड़ी फ़ज़ीलत है। दुनिया में और कोई तदबीर दफ़ाअ मौत के लिए नहीं है मगर सिर्फ यसूअ मसीह का नाम है जिस से लाखों करोड़ों आदमीयों की रूहों में से मौत निकल गई है और ज़िंदगी आ गई है।

जब सच्चे मसीही बनते हैं तब गुनाह दिल में से निकलता है और मौत रूह में से निकलती है। अंधेरा दफ़ाअ होता है और गुनाह का वबाल मसीही कफ़्फ़ारे से जाता रहता है और जब फर्माबरदार होके मसीह के पीछे हो लेते हैं तब उस के नूर से मुनव्वर होते हैं और मसीह की रूह से हमारी रूहों में ज़िंदगी आ जाती है। तब हम ख़ुदा की इबादत रूह और रास्ती से करते हैं। (युहन्ना 4:24)

तो भी जब तक दुनिया में हैं जिस्म फ़ानी में और जंग रुहानी में फंसी हैं। लेकिन दिलों और ख़यालों में रोशनी और आनंद है। आइन्दा को फ़रिश्तों की मानिंद होंगे। (लूक़ा 20:36) बक़ा और जलाल और क़ुदरत और रुहानी जिस्म ख़ुदा से पाएँगे। फ़ना और हक़ारत नातवानी और नफ़्सानियत जाती रहेगी। (1 कुरंथियो 15:42-44) बल्कि हम मसीह की मानिंद होंगे। (1 युहन्ना 3:2) ख़ुदा के बेटे के हम-शक्ल होंगे (रोमीयों 8:29), आस्मानी सूरत पाएँगे। (1 कुरंथियो 15:49), हमारे ख़ाकी बदन भी उस के जलाली जिस्म की मानिंद होंगे। (फिलिप्पियों 3:21) और हम जलाल में ज़ाहिर होंगे। (कुलुसियों 3:4)

इन बातों का यक़ीन हमें इसलिए है कि हमने मसीह से अपनी रूहों में इस वक़्त बतौर बयाना के कुछ पाया है। और कि हम मसीह को पहचान गए कि वो कौन है? और कि उसकी कुव्वत से भी आगाह हो गए हैं और उस का कलाम हक़ साबित हो चुका है और जब कि ये सब बातें उमूर वाक़ई हैं तो साबित है कि हमारी रूहों की असलीयत मल्की है कि हम अपनी तक्मील फ़रिश्तों की मानिंद होने में देखते हैं।

दफ़ाअ 30

आदमीयों की रूहों पर कुछ अंधेरा सा है जिसके मखरज हैं

ना सब आदमीयों की रूहों पर मगर अक्सरों की रूहों पर। हाँ वो जो अब मुनव्वर नज़र आते हैं पहले उन की रूहों पर भी अंधेरा था। उन को मसीह ने अब रोशन किया है। इस में कुछ शक नहीं कि बहुत सी रूहों में अंधेरा है। लेकिन ये अंधेरा कहाँ से आ गया है? ये काबिल-ए-ग़ौर है।

अव्वलनये देखते हैं कि आदमी के अंदर से अंधेरा निकलता है। जब आदमी अपनी ख़्वाहिशों और बद मन्सूबों और ख़ुद-ग़र्ज़ियों वग़ैरा का मग़्लूब हो के बुरे काम करता है तो ये अंधेरा उसी के अंदर से निकलता है। “….क्योंकि उन्होंने अपने ग़ज़ब में एक मर्द को क़त्ल किया। और अपनी ख़ुद-राई से बैलों की कौंचें काटीं।” (पैदाइश 49: 6) “….और अपनी जान से कहूँगा ऐ जान ! तेरे पास बहुत बरसों के लिए बहुत सा माल जमा है। चैन कर और खा पी ख़ुश रह।” (लूक़ा 12:19) देखो ये सब अंधेरे की बातें हैं और इन्सान के अंदर से निकलती हैं।

सानियनख़ारिज में बहकाने वाले भी हैं। शरीर (बुरे) दोस्त, बदकार हम-नशीन और बद नमूने जो दुनिया में नज़र आते हैं अंधेरे का बाइस हैं।

सालसन एक और पोशीदा बदरुह है जो इन्सान की दुश्मन है जिसने हव्वा को बहकाया था। (पैदाइश 3:13) और यही बदरुह इन्सान पर ग़ालिब आके दुनिया में ऐसी मुसल्लत हो गई है कि मसीह ने उसे इस “जहान का सरदार” और पौलुस रसूल ने उसे इस “जहान का ख़ुदा” कहा है। क्योंकि वो बद-इरादे लोगों के दिलों में पैदा करता है और बहुतों से अपनी परस्तिश कराता है। उस का नाम शैतान है। उस ने बहुत सा अंधेरा लोगों की रूहों में डाल रखा है। इंजील शरीफ़ में लिखा है “यानी उन बेईमानों के वास्ते जिनकी अक़्लों को इस जहान के ख़ुदा ने अंधा कर दिया है ताकि मसीह जो ख़ुदा की सूरत है उस के जलाल की ख़ुशख़बरी की रोशनी उन पर ना पड़े।”(2 कुरंथियो 4:4) वो लालच देता है और बातिन में तासीर करता है। (मत्ती 4:8)

राबिअनजब आदमी गुनाह पर गुनाह करता चला जाता है और ख़ुदा की हिदायतों के ताबेअ नहीं होता है तब एक वक़्त ऐसा आ जाता है कि ख़ुदा उस आदमी को छोड़ देता है। मेहरबानी और फ़ज़्ल को उस की तरफ़ से हटा लेता है। तब उस आदमी के दिल पर बड़ा अंधेरा सा आ जाता है और वह संगदिल हो जाता है। यहां तक कि हलाक हो जाए। फ़िरऔन और हबों का हाल ऐसा ही हुआ और हर ज़माने में गर्दनकश शरीर जो ख़ुदा की तरफ़ आना नहीं चाहते और हमेशा हिदायत ईलाही की तहक़ीर करते और बजाय ईलाही हिदायतों के अपने दिल से ख़्याल निकालते हैं और झूटी राहों के हिमायती हो रहते हैं। इसी तरह ख़ुदा से छोड़े जाते हैं और फ़िरऔन के सामान हो के मरते हैं। हमारे देखते देखते कई एक हमारे दोस्त ख़ुदा से छोड़े गए। उन की तरफ़ से रोशनी हट गई और वह सख़्त तारीकी में फंस के हलाक हो गए। इसलिए मुनासिब और फ़र्ज़ है कि हम इन अंधेरे के चार मख़रजों से ख़बरदार हैं।

दफ़ाअ 31

ख़ुदा तआला हमारा निशाना है

यानी वो चीज़ जिसकी तरफ़ आदमीयों को हमेशा ताकना चाहीए कि उस की मुशाबहत होके अपने कमाल को पहुँचें ख़ुदा तआला है और उस से हमारी रूहों की शान ज़ाहिर होती है कि वो किस रुत्बे की हैं? अगरचे ख़ुदा तआला के काम दुनिया में कुछ नज़र आते हैं मगर उस की ज़ात-ए-पाक ग़ैर मुरे या नादीदनी है। यसूअ मसीह ख़ुदा की सूरत है। वो नादीदा (अनदेखे) ख़ुदा को अपनी ज़ात में दिखाता है और यूं हिदायत करता है कि “तुम कामिल हो जैसा तुम्हारा आस्मानी बाप कामिल है।” (मत्ती 5:48) आदमी इस से कामिल होता है कि ख़ुदा की सिफ़तों का मज़हर बने। इस तरह से कि ख़ुदा की तरफ़ बदिल व जान मुतवज्जा हो और अपने मिज़ाज को उस के मिज़ाज के मुशाबहा करने में कोशिश करे। ख़ुदा नेक, पाक, हलीम, साबिर, बुर्दबार, ग़यूर, रहीम, मुंसिफ़ और आदिल वग़ैरा सिफ़तों के साथ मौसूफ़ है और यह सब सिफ़तें कामिल तौर पर इस में हैं और यही सिफ़ात हैं जिनसे आदमी लायक़ होता है। अगर ये सिफ़तें इन्सान में ना हों तो वो आदमी बड़ा नालायक़ और नफ़रती होता है। इस बयान से समझ लो कि हमारी रूहों में और ख़ुदा में क्या इलाक़ा है? लेकिन इस बात का लुत्फ़ इन्सान पर उस वक़्त खुलता है कि वो गुनाह के नशे से होश में आता है। तब कहता है कि मैं अपने बाप के पास जाऊँगा। (लूक़ा 15:17-18) कलाम-उल्लाह में ख़ुदा तआला की निस्बत तीन ख़ास बातों का ज़िक्र है :-

अव़्वल ख़ुदा रूह है। (युहन्ना 4:24)

दोम ख़ुदा नूर है और उस में तारीकी ज़र्रा भर भी नहीं। (1 युहन्ना 1:5)

सोमख़ुदा मुहब्बत है। (1 युहन्ना 4:16)

और इन्सान के आला फ़राइज़ भी यही तीन हैं कि आदमी अपनी रूह से ख़ुदा के सामने झुके और ईलाही नूर की रोशनी में चले फिरे और यह कि ख़ुदा की मुहब्बत और बिरादराना मुहब्बत के अहाता में हर वक़्त रहे। इस का हासिल ये है कि वो जो ख़ुदा तआला की ख़ास ख़ूबी है उसी में क़ायम रहना इन्सान की ख़ूबी है।

एक क़िस्म के आदमी हैं जिनको कलाम-ए-ख़ुदा में “ख़ुदा” कहा गया है मजाज़न देखो। ज़बूर 83:6 “मैंने कहा था कि तुम ख़ुदा हो।” युहन्ना 10:34-35 में लिखा है कि “…..मैं ने कहा कि तुम ख़ुदा हो? जब कि उस ने उन्हें ख़ुदा कहा जिनके पास ख़ुदा का कलाम आया।” ये वही कलाम है जिसका ज़िक्र युहन्ना 1:1 में है कि “इब्तिदा में कलाम था और कलाम ख़ुदा के साथ था और कलाम ख़ुदा था।” ये यसूअ मसीह की निस्बत लिखा है जो मुजस्सम होके ज़ाहिर है। वो अनदेखे ख़ुदा की सूरत है। जब वो आदमी के दिल में आता है तो आदमी को ख़ुदा की सूरत में और ईलाही तबीयत और मिज़ाज में लाता है और आदमी इतना बड़ा ख़िताब पाते हैं। बाइबल की इबारत को जो “कलाम-उल्लाह” कहा गया है इसलिए कहा गया है कि वो उस का कलाम है। (युहन्ना 14:23) और यह ज़िंदगी का कलाम है जो उसी से आता है और जब ये इबारती कलाम दिल में आता है, तो वो आता है, जिसका वो कलाम है। आदमी जो पैदा होता है रुहानी नहीं बल्कि जिस्मानी पैदा होता है। फिर एक ख़ास वक़्त बाअज़ आदमीयों पर ऐसा आता है कि वो जिस्मानी से रुहानी हो जाते हैं जबकि तौलीद जदीद उन की रूहों में होती है। (1 कुरंथियो 15:45-46) और जब ये होता है तो इन्सान की रूह मौत से गुज़र के ज़िंदगी में आ जाती है। (1 युहन्ना 3:14)

दफ़ाअ 32

नींद और ग़नूदगी के बयान में

नींद एक हालत है हर एक हैवान को आरिज़ होती है। उस में ये सब हवास कुछ मुअत्तल से हो जाते हैं और ग़ैर ज़रूरी हरकात छोड़ देते हैं सिर्फ ज़रूरी हरकतें मसलन सांस लेना वग़ैरा क़ायम रहते हैं। क्योंकि थकान के सबब से लतीफ़ अबख़रे (बुख़ार की जमा - बुख़ारात, भाप) दिमाग़ में घुस जाते हैं और हैवानी रूह को ऐसा ग़लीज़ करते हैं कि वो पट्ठों में नहीं बहती। जब तक कि नींद का वक़्त पूरा ना हो जाए या वह आदमी सदमात सख़्त से जगाया ना जाये। नींद सेहत के लिए मुफ़ीद है अगर अपनी हद में हो इस से हैवान तर-ओ-ताज़ा होके फिर उठता है।

“ग़नोदगी” या “नवम मतमलमल” (نوم متململ) एक और हालत है जो नींद और बेदारी के दर्मियान होती है जिसमें हैवान कुछ सोता है कुछ जागता है। नींद को तशबीयन मौत की छोटी बहन समझना चाहीए। बड़ी बहन मौत है जिसमें तमाम कारख़ाना उलट पुलट हो जाता है। रोज़ रोज़ सोना और फिर जागना मर के जी उठने का एक नमूना सा है।

दफ़ाअ 33

ख्व़ाब के बयान में

कभी-कभी सोते वक़्त आदमी कुछ देखते हैं या उन्हें कुछ मालूम होता है और जब जागते हैं तो कहते हैं कि हमने ये ख्व़ाब देखा। ये तो सच्च है कि उन्होंने ख्व़ाब देखा। मगर वाक़ियात के तजुर्बों से मालूम हुआ है कि ये ख्व़ाब कई तौर पर हुआ करते हैं। चाहीए कि हम ख़्वाबों की किस्मों से भी आगाह हो जाएं। अव्वल “अज़्ग़ास-ए-अहलाम” (اَضغاثِ اَحلام) (परेशान ख्व़ाब जिनकी कोई ताबीर हो) हैं। इस लफ़्ज़ के मअनी हैं “सूखे घास के मट्ठे” ख़्वाबों के ये वो वाहीयात परेशान ख्व़ाब हैं जो मेअदा (पेट) की ख़राबी से नज़र आते हैं जब कि पेट में क़ब्ज़ है या कोई ऐसी ग़िज़ा खाई है जिससे ख़राब अबख़रे दिमाग़ की तरफ़ चढ़े हैं। या वो शख़्स अपनी बदनी कैफ़ीयत और दिमाग़ी वहमी ख़यालात के मुवाफ़िक़ कुछ देखता है मसलन दमवी मिज़ाज (वो शख़्स जिसमें ख़ून की खिलत बढ़ जाये) आदमी अक्सर ख्व़ाब में सुर्ख़ रंग की चीज़ें देखता है और सिफ़रवाई मिज़ाज (तल्ख़ मिज़ाज) को आग व अंगारे नज़र आते हैं। और जब रिह (मादा की हआ, पेट की गैस) का ग़लबा है और मिज़ाज में कुछ बादी है तब देखता है कि गोया हवा में उड़ता हूँ और अहमक़ समझ लेता है कि मैं शायद वली अल्लाह हो गया हूँ। सौदावी मिज़ाज (जुनूनी आदमी) को पहाड़ धुंए के ग़ुबार नज़र आते हैं और बलग़मी मिज़ाज (वो शख़्स जिसमें बलग़मी ख़लत ज़्यादा हो, मोटा) को पानी की नहरें और बारिश और सफ़ैद रंग की चीज़ें दिखाई देती हैं।

कभी-कभी ऐसा होता है कि दो या चंद कैफ़ीयतों में तरकीब हो जाती है। नफ़्सानी ख़्वाहिशें और रूह की बुरी कैफ़ीयत और बदनी अमराज़ वग़ैरा मिल के अजीब शक्लें पैदा करते हैं। ये सब वाहीयात ख्व़ाब हैं और ख़ुदा के कलाम में इन ख़्वाबों को नाचीज़ बताया गया है। भूका और प्यासा आदमी ख्व़ाब देखता है कि खाता और पीता हूँ। (यसअयाह 29:8) “क्योंकि ख़्वाबों की ज़्यादती और बतालत और बातों की कस्रत से ऐसा होता है लेकिन तू ख़ुदा से डर।” (वाइज़ 5:7)

(फ) वो जो दानिशमंद आदमी है वो ख़्वाबों के वसीले से अपनी अंदरूनी बिगड़ी हुई कैफ़ीयत से ख़बरदार होके सेहत और सफ़ाई के दरपे होता है और मिज़ाज को एतिदाल पर लाने की जुलाबों वग़ैरा से कोशिश करता है। लेकिन बेवक़ूफ़ आदमी कभी कभी ऐसे ख़्वाबों का मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) होके अपने दीन का और दुनिया का भी नुक़्सान कर लेता है।

बाअज़ वक़्त वो मशाइख़ जो ख़ुलूस से बेबहरा (अन्जान) हैं और दीनदारी के लिबास में होके दुनिया कमाते हैं। कहते हैं कि आज हमने एक ख्व़ाब देखा उस की ताबीर ये है कि यूं यूं होगा। और ऐसे लोग ना सिर्फ बातिल मज़्हबों के मशाइख़ों में हैं बल्कि ख़ुदा की जमाअत के दर्मियान भी होते हैं। उनकी शिकायत ख़ुदा तआला ने अपने कलाम में यूं की है “ख़ुदावंद फ़रमाता है कि देख मैं उनका मुख़ालिफ़ हूँ जो झूटे ख़्वाबों को नबुव्वत कहते और बयान करते हैं और अपनी झूटी बातों से और लाफ़ ज़नी से मेरे लोगों को गुमराह करते हैं।” (यरमयाह 23:32) यरमयाह 29:8 में है कि अपने ख्व़ाब बीनों को जो तुम्हारे ही कहने से ख्व़ाब देखते हैं मत मानो।

इन झूटे और वाहीयात ख़्वाबों का ज़िक्र सुनके ये ना समझना चाहीए कि ख्व़ाब मुतलक़ ग़लत और बातिल ही होते हैं। ऐसी बात हरगिज़ नहीं है बल्कि वोह जो हक़ीक़ी ख्व़ाब हैं और ख़ुदा की तरफ़ से बाअज़ आदमीयों की रूहों पर ज़ाहिर होते हैं बरहक़ और रास्त हैं। मुहम्मदी लोग इन को मुबशरात कहते हैं। उनमें ये ख़ुसूसीयत नहीं है कि सिर्फ नेक और ख़ुदा-परस्त दीनदार और बा-ईमान आदमी ही देखते हैं बल्कि काफ़िर और बुत-परस्त भी कभी-कभी सच्चे ख्व़ाब देखते हैं। देखो फ़िरऔन और नबुकदनज़र ने भी जो बुत-परस्त लोग थे सच्चे ख्व़ाब देखते हैं। और फ़िरऔन के नानपज़ और साक़ी ने भी जो देखा था सच्च था। (पैदाइश 40:8-20, 41:1-8, दानीएल बाब 2) नबूकदनज़र के ख्व़ाब का बयान कैसी ताज्जुब की बात है कि दानीएल ने उस का ख्व़ाब भी बताया और ताबीर भी कही और वैसे ही ज़हूर में आया। अब कौन कह सकता है कि वो ख्व़ाब ना था ख़्याल था? फिर देखो एक आदमी बुत-परस्त पीलातुस की ज़ौजा (बीवी) ने जो अदालत के वक़्त अपने शौहर के पास यसूअ मसीह ख़ुदावन्द की निस्बत अपने ख्व़ाब की ख़बर पहुंचाई कैसी सहीह ख़बर थी? (मत्ती 27:19) दुनिया में सच्चे ख़्वाबों का वजूद भी ज़रूर पाया जाता है। बाअज़ लोग अपने सच्ची ख़्वाबों के ऐसे मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) मिलेंगे कि इन के इस एतिक़ाद को कोई फिलासफर हरगिज़ हटा ना सकेगा। वो कहेंगे कि अलबत्ता दुनिया में बातिल ख्व़ाब ख़्याल भी होते हैं मगर हमारा फ़ुलां ख्व़ाब ज़रूर सच्चा था। पस अगरचे उस का वो ख्व़ाब सच्चा हो लेकिन ग़ैर शख़्स के लिए वो सनदी बात नहीं हो सकती है। अगर कुछ सनदी बात है तो उसी के लिए है जिसने वो ख्व़ाब देखा है। क्योंकि बाज़-औक़ात आइन्दा वाक़िया का अक्स हो सकता है कि किसी आदमी के दिल पर गिरे और मुदब्बिर आलम के इरादे से गिरे जबकि ख़ुदा कोई बात किसी पर ज़ाहिर करना चाहे।

लेकिन आदमीयों की नजात के बारे में जो ताअलीम ज़रूरी थी वो सब पैग़म्बरों और साहिबाने इल्हाम के वसीले से बाइबल शरीफ़ में ख़ुदा की तरफ़ से बयान हो चुकी है और कामिल सबूत को पहुंच गई है और यह काम ख़त्म हो गया है। अब जो कुछ इस बारे में कोई आदमी बाइबल के ख़िलाफ़ कहेगा वो हरगिज़ ख़ुदा से ना होगा। “अगर हम या आस्मान से कोई फ़रिश्ता सिवाए इस इंजील के जो हमने सुनाई दूसरी इंजील तुम्हें सुनाए सो मलऊन हो।” (ग़लतियों 1:8)

ये और बात है कि कोई कहे मैंने एक ख्व़ाब देखा है फ़ुलां शख़्स पर कोई आफ़त या बरकत आती हुई नज़र आती है। हम कह सकते हैं कि शायद ऐसा हो देखा जाएगा। जब वैसा हो तो कह सकते हैं कि तुम्हारा ख्व़ाब सच्चा था। लेकिन हमें और तुम्हें दोनों को कलाम-उल्लाह का मुतीअ (फर्माबरदार) होना ज़रूर है ना ख्व़ाब ख़यालों का।

दफ़ाअ 34

पैग़म्बरों और मोमिनीन के ख्व़ाब का बयान

चूँकि ये लोग भी इन्सान हैं। उन्हें भी बदहज़मी और बीमारी वग़ैरा अस्बाब से बातिल ख़्याल आ सकते हैं और आते भी हैं। मगर उन लोगों के वो ख़ास ख़ास ख्व़ाब जो कलाम-उल्लाह में मज़्कूर हैं इल्हाम की क़िस्म से हैं। इसलिए उन की उन ख़्वाबों को हक़ीक़ी ख्व़ाब मानना वाजिब है।

देखो क्या लिखा है “ख्व़ाब में रात की रोया में जब लोगों को गहिरी नींद आती है और बिस्तर पर सोते है उस वक़्त, तब वो लोगों के कान खोलता है और उनकी ताअलीम पर मुहर लगाता है।” (अय्यूब 33: 15-16)

अब सोचिए कि ये ताअलीम दुरुस्त है या नहीं। तजुर्बे से यक़ीन है कि दुरुस्त है। उस वक़्त आदमी के हवास मुअत्तल से होते हैं तो भी उस की रूह कुछ सुनती, कुछ देखती, कुछ सीखती है। अगर रूह इन्सानी एक मुस्तक़िल जोहर ना होता तो ऐसा मुआमला किस तरह हो सकता था?

(अय्यूब 4:12-21 पढ़ो) देखो जब वो सोता था और आँखें बंद थीं हवास मुअत्तल थे तब उस की रूह ने एक और रूह को देखा और उस से मुतास्सिर हुई और एक आवाज़ भी सुनी इस हालत में जो देखना और सुनना हुआ नफ़्स-ए-नातिक़ा से बिला तवस्सुत हवास ज़ाहिरी के हुआ। (गिनती 12:6-9) ख़ुदा तआला नबी को अपने तीन रोया में मालूम कराता है और उस से बातें करता है और मूसा से आमने सामने बोलता है। और यह भी लिखा है कि सच्चे ख्व़ाब वाला नबी जो बद ताअलीम दे क़ुबूल ना किया जाए कि वो आज़माईश का मुक़ाम है। (इस्तिस्ना 13:3-4)

दफ़ाअ 35

अत्वार ताअ्लीम व तअल्लुम

इन्सान मह्ज़ जाहिल पैदा होते हैं और पैदा होते ही इस जहान की बातें सीखना शुरू करते हैं और वो सुनने, देखने, क़ियास और तजुर्बे से ताअलीम पाते चले जाते हैं। वो बदी भी सीखते हैं और नेकी भी सीखते हैं। उन की ताअलीम कभी पूरी नहीं होती कि वो मर जाते हैं और सीखने के लिए बहुत कुछ बाक़ी रह जाता है। उन्हें ना इस क़द्र फ़ुर्सत है ना इस क़द्र ताक़त है कि सब कुछ सीख सकें।

ज़रूरी बात इन्सान के लिए ये है कि वो अपने ख़ालिक़ की मर्ज़ी को दर्याफ़्त करे कि वो क्या चाहता है? और उसी के मुवाफ़िक़ अपनी ज़िंदगी बसर करके इस से रुख़स्त हो। हाँ दुनिया की और बातें भी जहां तक वो सीख सकता है सीखे इस से भी फ़ायदा होता है। लेकिन आला ग़रज़ यही होना चाहीए कि वो ख़ुदा की मर्ज़ी को दर्याफ़्त करे क्योंकि बहबूदी उस की इसी पर मौक़ूफ़ है। आम तरीक़ा ताअलीम आदमीयों के लिए इक्तिसाब और इस्तिफ़ाज़ा (फ़ायदा उठाना) और फ़िक्र है और यह तरीक़ा हवास से इलाक़ा रखता है और पूरा होता है। लेकिन ख़ुदा की मर्ज़ी इस तरीक़े से पूरी पूरी दर्याफ़्त नहीं हो सकती है। इसलिए ख़ुदा ने एक और तरीक़ा ताअलीम का दुनिया में ज़ाहिर किया है जिसे “इल्हाम” कहते हैं। ये तरीक़ा ख़ास ईलाही मर्ज़ी के इज़्हार के लिए है और ये आम आदमीयों के लिए नहीं है बल्कि ख़ास लोगों को बख़्शा गया था जिनके वसीले से ईलाही मर्ज़ी बाइबल शरीफ़ में क़लम-बंद हो गई है। इस तरीक़े से जो ताअलीम होती है उस के लिए अल्फ़ाज़ जे़ल दुनिया में मशहूर हैं यानी इल्हाम, मुकाशफ़ा, इल्क़ा, वही, वज्द, वज्दान, फ़ैज़।

“इल्हाम” के मअनी हैं कि “कोई मतलब इन्सान के दिल में ख़ुदा की तरफ़ से आए जिसमें इक्तिसाब और इस्तिफ़ाज़ा और फ़िक्र को और क़ुव्वत वाहिमा को दख़ल ना हो।”

“मुकाशफ़ा” के मअनी हैं “पर्दा हटा के कुछ दिखाना”

“इल्क़ा” के मअनी हैं' ख़ुदा की तरफ़ से कोई बात दिल में डाला जाना''।

“वही” के मअनी हैं “ख़ुदा का पैग़ाम”

“वज्द” के मअनी हैं “बवसीला चश्म-ए-दिल के ख़ुदा को देखना।”

“वज्दान” इन के मअनी हैं “गुम-शुदा को पाना।”

“फ़ैज़” के मअनी हैं “ख़ुदा की तरफ़ से दिलों में बरकत का बह के आना”

दुनिया में बड़ा मुबाहिसा इस बारे में हो रहा है कि आया ये दो तरीक़े यानी “इक्तिसाबी” और “इल्हामी” फ़िल-हक़ीक़त जहान में हैं या नहीं। बाअज़ कहते हैं कि सिर्फ इक्तिसाबी तरीक़ा है इल्हामी तरीक़ा फ़र्ज़ी बात है या वो मुग़ालता दे कर इल्हामी तरीक़े को इक्तिसाबी में शामिल कर देते हैं। चुनान्चे ब्रहमो और नेचरियों का यही हाल है। ये सब इल्हाम के मुन्किर हैं। इन की बातें हमें कुछ संजीदा नज़र नहीं आतीं और ना उन लोगों में कुछ ख़ैर ख़ूबी दिखाई देती है। दुनिया के दर्मियान जिस क़द्र ख़ैर ख़ूबी नज़र आती है वो सिर्फ इसी इल्हामी तरीक़े से निकली हुई मालूम होती है। इसलिए ऐसे मुन्किर हमें बुतलान पर नज़र आते हैं।

बाअज़ कहते हैं कि हाँ इल्हाम का तरीक़ा तो मौजूद है मगर वो आम है। हर ज़माने में लोगों को इल्हाम हुआ करता है। ख़ास ज़माने में ख़ास लोगों पर और ख़ास किताबों में मुन्हसिर नहीं है। ये क़ौल फ़रेब का है जो मुन्करीन इल्हाम ने क़ायलें इल्हाम को फ़रेब और मुग़ालता दे के अपने जाल में फँसाने के लिए बनाया है ताकि अपनी वह्मी बातों को इस ज़माने का इल्हाम कह के इन से क़ुबूल करवाएं और हक़ीक़ी इल्हाम को इन से छुड़ाएं। ऐसे लोगों को मुन्करीन इल्हाम कहना चाहीए।

मैं पूछता हूँ कि इल्हाम की हमें ज़रूरत क्यों है? सिर्फ इसलिए कि हम ख़ुदा की मर्ज़ी को मालूम करें कि हमारी उख़रवी और हाल की बहबूदी क्योंकर हो सकती है? और अक़्ल इस बात को क़ुबूल नहीं करती है कि ख़ुदा की मर्ज़ी हर ज़माने में लोगों की निस्बत बदला करे आज कुछ मर्ज़ी है और कल कुछ और मर्ज़ी हो जाए। इस की एक मर्ज़ी है जो अव्वल से आख़िर तक सब आदमीयों की निस्बत है। सो एक दफ़ाअ एक ज़माने में इस का इज़्हार काफ़ी है। हर ज़माने में इल्हाम की कुछ ज़रूरत और हाजत नहीं है। हाँ फ़ैज़ की हाजत है कि हर ज़माने में हर कोई अपने दिल में बरकत पाने का मुहताज है कि इलाही मर्ज़ी ज़ाहिर शूदा में मुस्तक़ीम हो। ख़ुदा की तरफ़ से जो पैग़ाम आना था वो पैग़म्बरों के वसीले से आ चुका है। उस की मर्ज़ी ज़ाहिर हो गई है जो बाइबल में मुंदरज है और बरकत रुहानी ईमानदारों को हर ज़माने में बराबर मिलती रहती है जिससे वो दीनदारी में क़ायम और ईमान में ख़ुश-वक़्त रहते हैं।दुनिया में अहले बाइबल के सिवा और लोग भी हैं जो एक एक किताब ले के उस के इल्हामी होने के मुद्दई हैं इस का फ़ैसला क्योंकर हो सकता है?

हम जानते हैं कि बाअज़ आदमीयों को वहम भी होते हैं क्योंकि क़ुव्वत-ए-वाहिमा उन में है। बाअज़ आदमी धोका भी खाते हैं क्योंकि वो इन्सान “ज़ईफ़-उल-बुनयान” (जिसकी बुनियाद कमज़ोर हो) हैं और दुनिया में फ़रेब बहुत है। बाअज़ आदमीयों को मालेख़ौलिया (مالیخو لیا) भी हो जाता है। सिफ़र-ऊई-ग़लबा (صفر اوی غلبہ) से बाअज़ आदमी ख़ुद भी फ़रेब देना चाहते हैं कि अपनी कोई ग़रज़ पूरी करें। बाअज़ आदमी बेवक़ूफ़ भी हैं क्योंकि सबने मुनासिब ताअलीम नहीं पाई है। बाअज़ आदमी शरीर (बुरे, बेदीन) भी हैं क्योंकि उन के दिलों में शर है। बाअज़ आदमी बजा-ए-ख़ुद नेक और ख़ुदा तरस और सच्चे भी हैं इसलिए हर मुद्दई का क़ौल बेताम्मुल क़ुबूल करना या रद्द करना मुनासिब नहीं है जब तक कि मुनासिब तहक़ीक़ ना हो जाये। पस जो कोई चाहे उठे और तहक़ीक़ करे कि कौनसी किताब अल्लाह से है और ऐसी सच्चाई से दर्याफ़्त करे कि ख़ुदा के सामने रूसियाह ना हो जाये। बेईमान और बे इन्साफ़ मुंसिफ़ होके फ़ैसला ना करे। बाइबल शरीफ़ की कैफ़ीयत का मुक़ाबला सब अहले मज़ाहिब की किताबों की कैफ़ीयतों से ब-हज़ार कोशिश और इन्साफ़ लायक़ आदमीयों से हो गया है और साबित हो चुका है कि सिर्फ बाइबल ही हक़ है, वही ख़ुदा से है। इसी में इल्हाम है, इसी में इन्सान के लिए ज़िंदगी और तसल्ली है, इसी में रोशनी है। चाहो तो बाइंसाफ़ ख़ुद मुक़ाबला कर के देखो।

.

दफ़ाअ 36

अत्वार तहक़ीक़ात

दुनिया में झूट और सच्चाई ये दोनों मौजूद हैं बल्कि झूटी ताअलीमात बकस्रत फैली हुई हैं। क्या करें कि गुमराही से बचें और ग़लतीयों में से निकलें? इस की राह सिर्फ यही है कि अव्वलन हम हर तरफ़ से निगाह हटा के अपने दिल में और ख़्याल में सच्चे बनें यानी सच्चाई के सच्चे तालिब हों।

यहां तीन अल्फ़ाज़ हैं जिन्हें ख़ूब याद रखना चाहीए। अव्वल सच्चाई, दोम उस की तलब, सोम सच्ची तलब। सच्चाई नाम है अम्र वाक़ई का और किज़्ब के ख़िलाफ़ है और अपने नमूने या साये का ऐन भी है। मसअला ज़ैद जो फ़िलवाक़े अंधा है अगर कहें कि वो आँखों वाला है तो ये झूट है और जो कहें कि वो अंधा है ये सच्चाई है। इस तरह अगर जै़द की तस्वीर को कहें कि ये जै़द है ये अम्र वाक़ई नहीं है। जै़द फ़िल-हक़ीक़त वो शख़्स है जिसकी वो तस्वीर है। अक़्लन व नक़लन सच्चाई उम्दा शैय है और किज़्ब (झूठ) मकरूह है। इन्सान की तमीज़ को और सब ज़िंदा तमीज़ शख्सों को और ख़ुदा को भी सच्च प्यारा है। सच्चाई ख़ुदा की सिफ़त है और झूट शैतान की सिफ़त है। सच्चाई पर ईलाही रहमत का साया रहता है और झूट पर ख़ुदा के ग़ुस्से की घटा छाई रहती है। सच्चाई से दिल पाक और किज़्ब (झूठ) से नापाक होता है। पस चाहीए कि हम सच्च बोलें और हर बात में सच्चा इन्साफ़ करें और सच्चे ख़्याल अपने ज़हन में रखें और हर बात में सच्च के तालिब रहें और सच को इज़्ज़त दें और दिलों में महबूब रखें और ख़ुद इस में क़ायम हों।

हर कोई मुँह से तो कहता है कि सच्चाई ख़ूब चीज़ है क्योंकि इन्सान की तमीज़ ऐसा कहती है। लेकिन हर कोई उस का तालिब नहीं है, उसे तलाश नहीं करता, इसके लिए दिन रात ऐसा मुश्ताक़ नहीं जैसा अपनी और ग़रज़ों का मुश्ताक़ है। इस का यही सबब है कि सच्चाई उस की नज़रों में कुछ क़ीमती और अज़ीज़ शैय नहीं है। वो मुहावरे के तौर पर कहता है कि सच्चाई ख़ूब चीज़ है। ऐसा आदमी सच्चाई को ना पाएगा बल्कि झूट के जाल में फंसा हुआ मरेगा और वहां जाएगा जहां झूट का बाप यानी शैतान रहता है। चाहीए कि सच्चाई की तलब हम में हो और सच्ची तलब हो, झूटी तलब से सच्चाई हाथ नहीं आती है। वो जो सच्चाई का तालिब है चाहीए कि पहले अपनी जेब से झूट को निकाल के दूर फेंक दे ताकि सच्चाई का आशिक़ कामिल हो तब उस का महबूब उसे नज़र आएगा कि कहाँ है? सच्चाई नज़र आती है, सच्ची आँखों वाले को। पस चार चीज़ों को जो सच्चाई के ख़िलाफ़ हैं अपने अंदर से निकाल और दो बातों को अमल में ला तब तू हक़ को ख़ूब पहचानेगा।

अव़्वलबेजा तरफ़दारी को छोड़ दे, हक़ का तरफ़दार हो। दोम ख़ुदग़रज़ी को निकाल कि ये शैतान की रस्सी है जो आदमीयों को शैतान के पास बाँधे रखती है।

सोमकजबहसी का तौर (अमल तरीक़ा) छोड़ दे कि ये शैतान का जाल है जिसमें सदहा आदमी मगस (मक्खी) सीरत फंसे रहते हैं। बात के मग़ज़ की तरफ़ मुतवज्जा नहीं होते बल्कि मग़ज़ को फेंक देते और पोस्त को चबाया करते हैं।

चहारम ग़रूर ना कर। मत कह कि मैं बड़ा आलिम हूँ या बड़ा ख़ानदानी शरीफ़ या ज़्यादा नेकोकार हूं।

ये सब बातें सच्चाई के ख़िलाफ़ और गुमराही की दलदल हैं। ग़रूर एक नशा सा है जो आदमी के दिमाग़ को मुकद्दर (कुदूरत आमेज़, गदला) रखता है। इन चार बातों को छोड़ कि जो दो बातें तुझे अमल में लाना लाज़िम हैं यह हैं :-

अव्वलनतू अपनी रूह में ख़ुदा से जो ख़ालिक़ है सच्चाई के लिए इन्किशाफ़ का तालिब हो ताकि तुझे ग़ैबी मदद ऊपर से मिले।

सानियनअगर तू साहब-ए-इल्म है या किसी क़द्र ख़वांदा शख़्स है तो तू मुख़ालिफ़ों और मुवाफ़िक़ों की किताबों पर मुतवज्जा हो। अगर तू बेइल्म है और ना-ख़वांदा है तो इन दोनों क़िस्म के लोगों की बातें बग़ौर सुन और जो कुछ तू ख़ुद ना समझे वो बात जिस गिरोह के लोगों की है उसी गिरोह के लोगों से पूछ कि आप लोग इस बात को क्योंकर समझते हैं? और दूसरी जानिब के सामने उनका बयान पेश कर और सबकी सुन के या पढ़ के अपनी तमीज़ से आप इन्साफ़ कर। और आहिस्तगी और नर्मी से एक एक बात को सुलझा। बहुत सी बातों का हुजूम अपने सामने ना आने दे कि तेरा दिमाग़ बर्दाश्त ना कर सकेगा और तेरे सामने ग़ौग़ा होगा और गोगे में हक़ पोशीदा हो जायेगा या तू ख़ुद दीवाना सा हो के कहेगा कि ये तो सब झगड़े हैं। मैं सबसे किनारा हो के यूं यूं करूँ गो तब तू ख़ुद अपनी तरफ़ से एक गुमराही का निकालने वाला होगा। अगर तू एक एक बात का फ़ैसला आराम के साथ करेगा तो चंद रोज़ में चंद सदाक़तें तेरे हाथ में आ जाएँगी। और तेरे ख़्याल में अजीब रोशनी का बाइस होंगी और वो झगड़े का बड़ा जंजाल तेरे सामने हल हो जाएगा। लेकिन तुझे ख़ूब मालूम हो जाये कि तुझे बवसीला अपनी तमीज़ के ग़ौर से इन्साफ़ करना है क्योंकि ये तमीज़ अल्लाह की तरफ़ से एक रोशनी है। इसी का दूसरा नाम नूर-ए-फ़ितरत है और यही पहला हादी इन्सान के लिए ख़ुदा की तरफ़ से मुक़र्रर है और उस में तारीकी भी छा जाती है। इन्हीं चार मकरूह चीज़ों के सबब से जिनका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है। जब तू ने इन चारों को अपने अंदर से निकाल डाला है तो अब तेरी तमीज़ साफ़ हो गई है और सच्चाई की तरफ़ ख़ूब हादी हो सकती है। अब हर बात का मुनासिब फ़ैसला तेरी ही तमीज़ से होगा और तू इस फ़ैसले पर बाइस्तहकाम क़ायम भी रहेगा क्योंकि तू सच्चाई का तालिब था।

हाँ अगर तू अपनी जान को फ़रेब देगा और उन बद सिफ़तों मज़्कूर बाला में से कोई बद सिफ़त छुपा के अपने दिल में रखेगा। इस सूरत में तेरे फ़ैसले के दर्मियान इस पोशीदा बद-सिफ़त की कुछ बदबू ज़रूर निकलेगी और तेरा ही दिल तुझे अंदर अंदर इल्ज़ाम देगा और दीगर मुबस्सिरीन रोशन ज़मीर हक़-पसंद तेरे फ़ैसले में तेरी इस बद- सिफ़त का ख़मीर तुझे दिखाएँगे और तू बे इन्साफ़ होके अदालत ईलाही में सज़ा का सज़ावार होगा। हज़ारों आदमी हैं जो अपने आपको हक़ का तालिब कहते हैं मगर किज़्ब को बग़ल में दबाए हुए नापाक बह्स किया करते हैं। वो जो फ़िल-हक़ीक़त सच्चाई के सच्चे तालिब हैं वो ज़रूर सच्चाई को पाते हैं।

दफ़ाअ 37

कामिल इन्सान के बयान में

कामिल इन्सान वो है जिसकी इन्सानियत के सब मदारिज जिस्मानी और रुहानी पूरे पूरे और ठीक मुनासबत में हों। यानी उस की इन्सानियत के किसी हिस्से में कमी बेशी ना हो। जब कहते हो कि इस थैली में पूरे सौ रूपये हैं। इस के यही मअनी हैं कि सौ से ना कुछ कम है ना ज़्यादा, मगर सौ इकाईयां पूरी हैं। लफ़्ज़ “कामिल” के मअनी हैं “पूरा”, “बेनुक़्स”। कामिल इन्सान के लफ़्ज़ी मअनी हैं वो इन्सान जिसकी इन्सानियत में कुछ नुक़्स नहीं।

हमारे मुल्क के कजफ़हम लोग जो मुर्शिद-ए-कामिल की तलाश में होते हैं। वो अक्सर मुर्ताज़ (रियाज़त करने वाले) और कुछ परहेज़गार लोगों को जब उन से कोई अचंभे की बात देखते हैं कामिल आदमी कहा करते हैं बल्कि अपनी रूह को भी उनके सपुर्द कर देते हैं जो वो फ़रमाते हैं ये करते हैं। क्योंकि उन्हें कामिल इन्सान मिल गया है और उनका पीरो मुर्शिद हुआ है। ये निहायत नाज़ुक मुआमला है। इस में बड़ी गलतीयां होती हैं। अक्सर अंधे लोग इस अंधे मुर्शिद के पीछे चल के उस के साथ दोज़ख़ की ग़ार में जा गिरते हैं। पस कामिल इन्सान की तारीफ़ बग़ौर समझ के नाज़रीन को होशयार होना चाहिए।

मुहम्मदी लोग कहते हैं कि मुहम्मद साहब कामिल इन्सान थे। मैं समझता हूँ कि इन लोगों ने कामिल इन्सान के मफ़्हूम पर ग़ौर नहीं किया है। सिर्फ शेफ़्तगी (इश्क़) के सबब से और इस लिहाज़ से कि वो उनके पेशवा हैं, उन्होंने हज़रत को कामिल इन्सान कह दिया है। अब ज़माना रोशनी का है और बहुत कुछ साफ़ साफ़ नज़र आता है। इसलिए हम ख़ूब दर्याफ़्त कर के कहेंगे कि कामिल इन्सान कौन है? कामिल इन्सान की वही तारीफ़ है जो इस दफ़ाअ की पहली सतरों में मैंने लिखी है। इस को हिफ़्ज़ रखना चाहिए। इस के मुवाफ़िक़ अगर कोई शख़्स नज़र आए तो उस को कामिल इन्सान समझना मुनासिब होगा।

लफ़्ज़ “इन्सान” पर बहुत बह्स हो चुकी है और इस का मफ़्हूम यही है कि इन्सान एक चीज़ है मुरक्कब हैवानियत और मल्कियत से ख़ाकी जिस्म उस का ख़ेमा सा है। पस चाहिए कि जिस्मानी आज़ा सब दुरुस्त हों और हैवानी क़ुव्वतें भी मुनासिब सूरत में मौजूद हों और सिफ़ात मल्किया की रूया नफ़्स-ए-नातिक़ा की क़ुव्वतें या सिफ़तें हैं। सबकी सब मुनासिब शक्ल में हों और ये कुल मजमूआ बेहतर तय्यब मुनासिब क़ायम हो के उस अपनी ख़ास निस्बत या इलाक़ा में जो उस को अपने ख़ालिक़ से अपनी वज़ाअ में है वो शख़्स बेदाग सूरत में क़ायम हो। वही कामिल इन्सान है।

तोज़िह उस की यूं है कि जिस्मानी और हैवानी और मल्की सब हिस्सों के वजूदी तकमिला के बाद ये भी ज़रूर है कि इन में निस्बतें भी मुनासिब हों ना उनका कोई हैवानी सिफ़त तअद्दी करके किसी मल्की सिफ़त में ख़लल-अंदाज़ हो। और ये भी चाहीए कि वो अपनी बनी नो और उन सब दुनियावी ख़ारिजी इश्याय के दर्मियान भी मुनासिब हालत में रहे। फिर अपने ख़ालिक़ की निस्बत भी ठीक हो और ऐन वक़्त पैदाईश से मौत तक हर हाल में ये कैफ़ीयत तुम इस में साबित कर सको तो वो कामिल इन्सान होगा।

अब बताओ कि दुनिया में कौन ऐसा शख़्स कभी ज़ाहिर हुआ है? किस की तारीख़ ऐसी है? किस को ऐसा शख़्स बदलील बता सकोगे? सिर्फ हम मसीही लोग दिलावरी के साथ कह सकते हैं कि हमारा ख़ुदावन्द यसूअ मसीह ऐसा है क्योंकि ये सब मदारिज मज़्कूर उस में साबित हैं। पाक तहक़ीक़ से हमें ये मालूम हो गया है क्योंकि हमने उस की तवारीख़ के हर हर फ़िक़्रे और हर हर लफ़्ज़ को बग़ौर देखा और समझा है। उन नुक्तों और बारीकियों के साथ जो वहां मज़्कूर हैं। इसलिए हम कहते हैं कि यसूअ मसीह कामिल इन्सान है और यह बयान उस की माहीयत (असलियत) इन्सानी का है। उलूहियत की माहीयत (असलियत) इस की जद्दी (आबाई, मौरूसी) बात है और वह भी पूरी ख़ुदाई है। पस वो कामिल ख़ुदा और कामिल इन्सान है। आदम भी कामिल इन्सान पैदा हुआ था और कुछ अरसा तक कामिल रहा। फिर वह कमाल के रुत्बे से गुनाह के सबब गिर गया और उस की निस्बतों में ख़लल आ गया और ख़लल के सबब से रुहानी कुव्वतों में अंधेरा सा छा गया और सारा कारख़ाना दरहम-बरहम हो गया। तमाम औलाद में बदी और गुमराही फैल गई और लानत के निशान ज़ाहिर हो गए और हम सब के सब निकम्मे और नाक़िस ठहरे।

अलबत्ता कभी कभी बाअज़ शख़्स दुनिया में ऐसे भी ज़ाहिर हुए जिन्हें ख़ुदा के कलाम में कामिल कहा गया मसलन नूह वह अपने ज़माने में रास्तबाज़ था। (पैदाइश 6:9), दाउद का दिल कामिल हुआ। (1 सलातीन 15:3), अय्यूब कामिल और सादिक़ था। (अय्यूब 1:8) ये सब लोग हक़ीक़ी कामिल ना थे, दीनदार और भले आदमी थे। इज़ाफ़ी और मजाज़ी तौर पर कामिल थे और मसीही लोग भी दुनिया में ऐसे ही कामिल होते हैं। आख़िर को वो और हम सब अपने कमाल को पहुँचेंगे। हक़ीक़ी कामिल सिर्फ़ यसूअ मसीह है। वो दुनिया में पैदा हो के हिक्मत में और क़द में ख़ुदा के और इन्सान के नज़्दीक मक़बूलियत में तरक़्क़ी करता गया। (लूक़ा 2:52) वही ख़ुदा का और इस्राईल का क़ुद्दूस है। अल्लाह का बेऐब बर्रा है। उसने ख़ुदा की मर्ज़ी पर पूरा पूरा ऐसा अमल किया कि ख़ुदा की निगाह में अपने और ख़ुदा के दर्मियान किसी दक़ीक़ा (बात) के भी क़सूर ना आने दिया। उसने आदमीयों के हुक़ूक़ भी पूरे किए बल्कि अपने जायज़ हुक़ूक़ भी छोड़ के आदमीयों के लिए बेहद फ़ज़्ल तैयार कर दिया। इसी लिए तमाम अव्वलीन और आख़रीन की निगाह उस पर है। अव्वलीन बहिदायत ईलाही उधर से और हम आख़रीन इधर से उसी को तकते हैं और वो सबकी निगाहों का निशाना है। और जब हम उसे तकते हैं तो उस का अक्स हम पर पड़ता है और हम सुधरते और कामिल होते चले जाते हैं। यहां तक कि हम अपने कमाल को पहुँचेंगे और तमाम नुक़्स हम में से निकल जाऐंगे। कामिल इन्सान यानी मसीह के पूरे क़द के अंदाज़े तक पहुंचे। (इफ़िसियों 4:13)

पस वो सब लोग जो कामिल मुर्शिद के तालिब हैं चाहीए कि मसीह यसूअ को ताकें। नाक़िस आदमीयों की तरफ़ ताकने से क्या फ़ायदा है। नाक़िस से नाक़िस बनते हैं और कामिल से कामिल होते हैं। वो जो कामिल ख़ुदा और कामिल इन्सान है और अव्वलीन व आख़िरीन की निगाहों का निशाना ख़ुदा से मुक़र्रर है और वह अनदेखे ख़ुदा की सूरत है। उस का तसव्वुर ऐन ख़ुदा-परस्ती है और ग़ैर का तसव्वुर जो तसव्वुर शेख़ कहलाता है बुत-परस्ती है। आदमी जब बुत-परस्ती करते हैं तो ख़ुद मिस्ल बुत के हो जाते हैं और जब ख़ुदा-परस्ती करते हैं तो ख़ुदा की सूरत में बहाल होते चले जाते हैं। ये सिर्फ़ यसूअ मसीह की तरफ़ ताकने से होता है और वह ताका जाता है अपनी तवारीख़ में जो किताब इंजील में मज़्कूर है।

दफ़ाअ 38

इन्सान के पैदा करने से ख़ुदा का क्या मतलब है

हर मौजूद शैय के लिए ये हकीम लोग चार इल्लतों या सबबों का ज़िक्र करते हैं :-

अव्वल“इल्लत-ए-माद्दी” (علتِ مادی) है मसलन तख़्त के लिए इल्लत माद्दी लकड़ी है जिससे वो बना है। इन्सान के लिए इल्लत माद्दी क्या है? ये बताना मुश्किल है क्योंकि इन्सानी जिस्म के लिए तो हम जल्द कह सकते हैं कि अर्बा अनासिर उस की इल्लत माद्दी हैं। लेकिन उस की रूह का माद्दा अनासिर नहीं हैं वो कोई आलम-ए-बाला की शैय है जिसकी हक़ीक़त मालूम नहीं है। पस यही कहना पड़ता है कि इन्सान का माद्दा मुरक्कब है, सफ़लियत (पस्ती) और अलवियत से।

दोम“इल्लत-ए-सूरी” (علتِ صور ی) है यानी उस शैय की सूरत मसलन तख़्त की ख़ास सूरत जो नज़र आती है ये उस की “इल्लत-ए-सूरी” कहलाती है। इन्सान की भी जो सूरत देखते हो ये उस की इल्लत-ए-सूरी है।

सोम “इल्लत-ए-फ़ाइली” (علتِ فاعلی) जिससे वो शैय बन गई मसलन तख़्त बन गया है। बख्खार से इन्सान को किस ने बनाया? अक़्ल कहती है कि ख़ुदा ने बनाया। तब उस की इल्लत-ए-फाइली ख़ुदा है।

चहारुम“इल्लत-ए-ग़ाई” (علتِ غائی) है यानी उस शैय की वज़ाअ से जो ग़रज़ और मतलब है इस का नाम “इल्लत-ए-ग़ाई” है मसलन तख़्त की इल्लत-ए-ग़ाई ये है कि उस पर बैठें। इन्सान की पैदाइश से क्या मतलब है? ख़ुदा तआला तो चीज़ों के पैदा करने में किसी ग़रज़ और मतलब का हरगिज़ मुहताज नहीं है। तो भी साफ़ देखते हो कि चीज़ें मौजूद हैं और उन की पैदाइश से जो ग़रज़ें हैं वो उनको चस्पाँ हैं, बेग़र्ज़ी कोई चीज़ ही नहीं। हम नहीं कहते कि ख़ुदा इन चीज़ों का मुहताज था इसलिए बनाया। उस ने अपनी ख़ुशी से इन्सान को पैदा किया और सब कुछ उस के फ़ायदे के लिए बनाया है।

हुज्जत इस में है कि इन्सान को क्यों पैदा किया? इस की इल्लत-ए-ग़ाई क्या है? ये तो ज़ाहिर है कि सब कुछ इन्सान के लिए पैदा हुआ फिर इन्सान किस मतलब के लिए पैदा हुआ? वो बहुत ही बड़ा और भारी मतलब होगा। कुर्राह अर्ज़ी (पृथ्वी) की पैदाइश और जो कुछ इस में है ज़रूर इन्सान के लिए है। हर इन्सान की पैदाइश जिस मतलब पर होगी वो मतलब सब मतलबों के ऊपर होगा जिसके लिए इतना बड़ा कारख़ाना क़ायम किया गया है। भाईओ उस मतलब को दर्याफ़्त करो और उस में क़ायम हो ताकि तुम्हारी पैदाइश का मतलब तुम में पाया जाये।

मुहम्मद साहब ने अपनी हदीस में ये बताया है शायद किसी रहबान से उन्हों ने सुना होगा कि (کنت کنزاً مخفیاً فأحببت أن اُعرف فخلقتُ الخلق) गोया ख़ुदा कहता है कि “मैं पोशीदा ख़ज़ाना था मैंने चाहा कि ज़ाहिर हो जाऊं पस मैंने जहान को पैदा कर दिया।” क़ुरआन में मुहम्मद साहब ने कहा है कि आदम को ख़ुदा ने इसलिए पैदा किया कि अपना ख़लीफ़ा या नायब दुनिया में बनाए।

हमा ओसत (ہمہ اُوست) वाले कहते हैं कि ख़ुद (ख़ुदा) इस सारी पैदाइश में जलवागर है। तब अपना तमाशा आप ही देख रहा है, आप ही माद्दा है, आप ही सूरत है, आप ही फ़ाइल है, आप ही ग़ायत है। ये ख़्याल अहमक़ भंगड़ों का है ना उस के लिए कोई दलील, ना हुज्जत।

ये ऐसी बात है जिसे एक ग़मज़दा शायर ने अपने दिल का बुख़ार निकालने को कहा है कि :-

दर्द-ए-दिल के वास्ते पैदा किया इन्सान को

वर्ना ताअत के लिए कुछ कम ना थे करू बयाँ

और उन अक़्लमंदों में से भी जिसके ख़्याल में जो कुछ आता है वो कहता है। लेकिन नफ़्स-परवर और पेटू लोग अपने कामों से ज़ाहिर करते हैं कि गोया वो अपनी नफ़्सानी ख़्वाहिशों के पूरा करने के लिए पैदा हुए हैं। वो कहते हैं कि खाओ, पियो कि कल मरेंगे। हमारी अक़्ल ना तो ये बात मानती है कि ये सब ख़ुदा ही ख़ुदा है और ना ये कि हम दुखों के लिए पैदा हुए हैं, ना ये कि शिकम-परवरी और अय्याशी हमारी इल्लत-ए-ग़ाई है। क्योंकि इतना बड़ा कारख़ाना और इन्सान की ये अजीब पैदाइश और सूरत किसी ज़लील मक़्सद पर तो हरगिज़ नहीं है।

अव्वलनकलाम-उल्लाह की तरफ़ देखो कि इन्सान की पैदाइश से वहां ख़ुदा का क्या मतलब मज़्कूर है? (पैदाइश बाब 1,2 से) ज़ाहिर है कि आदम को ख़ुदा ने अपना हमशक्ल इसलिए पैदा किया था कि वो सब चीज़ों पर हाकिम और सिर्फ ख़ुदा का मह्कूम हो कर अबद तक ज़िंदा आराम में रहे। लेकिन उसने बइख़्तयार ख़ुद इस ग़रज़ को बर्बाद कर दिया, अपनी सूरत भी बिगाड़ी और अपनी हुकूमत भी खोई और ख़ुदा का मह्कूम ना रह के अपने ऊपर मौत भी ली। क्योंकि ख़ुदा का नाफ़रमान मौत का मुस्तहिक़ है।

सानियनउस कामिल इन्सान यानी यसूअ मसीह की तरफ़ देखो जो दुनिया में यगाना ज़ाहिर हुआ। उस की तवारीख़ साबित करती है कि वो बेशक नादीदा (अनदेखे) ख़ुदा की सूरत था और सब चीज़ों पर उस की हुकूमत भी थी। वो बाइख़्तियार ख़ुद हुआ और दरिया, अर्वाह मर्दुम, शयातीन, अमराज़ और मौत व ह्यात वग़ैरा सब चीज़ों पर हाकिम था और ख़ुदा तआला का भी बेक़सूर, मह्कूम और ताबे फ़रमान रहा। उस पर मौत का फ़त्वा ना था क्योंकि वो बेगुनाह था तो भी उस ने हमारे लिए मौत को अपने ऊपर आने दिया मर गया, दफ़न हुआ, तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठा और अबद तक ज़िंदा है और ख़ुदा तआला के अर्श मजीद पर तख़्त नशीन है। उस के सारे काम जो हमारे लिए हुए, उस की तमाम ताअलीम जो उस ने हमें दी, उस की रूह की तासीरें जो हम पर होती हैं ये सब कुछ इसी एक मतलब पर है कि हमें मौत में से निकाले और पाक साफ़ करके और ख़ुदा का हम-शक्ल बना के सिर्फ ख़ुदा का मह्कूम और सब चीज़ों पर हाकिम ठहरा दे ताकि हम अबद तक आराम में ज़िंदा रहें और कि ख़ुदा हम में सुकूनत करे।

पस इन्सान की पैदाइश से मतलब और मक़्सद और इल्लत ग़ाई यही है कि इन्सान ऐसा हो और ऐसे काम करे तब वो ख़ुदा का नायब बजाय ख़वेश (क़िराबती) हो सकता है। ये कैसी उम्दा और आला और अफ़्ज़ल ग़रज़ इन्सान की पैदाइश से है जो ठीक इस अज़ीम दायरा पैदाइश के मुनासिब और हमारी इल्लत माद्दी और सूरी और फ़ाइली के भी मुवाफ़िक़ है। ऐसी इल्लत-ए-ग़ाई का इज़्हार कभी किसी दानिशमंद की दानाई से हुआ था? हरगिज़ नहीं और ना हो सकता है। अगर कोई आदमी इस गलत ग़ाई को क़ुबूल ना करे और कुछ इल्लत-ए-ग़ाई सुनाए उस का बयान इस बयान से कुछ नीचे ही गिरा हुआ होगा। काश के हर कोई अपनी इस इल्लत-ए-ग़ाई से आगाह हो जाए और इस मक़्सद के हासिल करने के लिए यसूअ मसीह के पास चला आए कि वो इस को बहाल करेगा और वह मक़्सद हासिल करा देगा।

(फ) ये सच्च है कि ख़ुदा किसी ग़रज़ का मुहताज नहीं तो भी तमाम कारख़ाना पैदाइश में हर शैय के लिए कुछ इल्लत-ए-ग़ाई है। इस से उस की ख़ुदाई मुहताज बाग़राज़ नहीं हो जाती बल्कि उस की मुहब्बत और क़ुदरत और हिक्मत वग़ैरा सिफ़ात का इज़्हार और बयान होता है।

(फ)वो ग़रज़ जो इन्सान की पैदाइश से है हर फ़र्द बशर में हरगिज़ पूरी ना होगी क्योंकि वो जबरी ग़रज़ नहीं है बल्कि आज़ादी के साथ आदमीयों में मतलूब है सिर्फ उन के फ़ायदे के लिए। अगर आदमीयों में से कोई शख़्स ख़ुद इस ग़रज़ से अलग होना पसंद करे तो इस का इख़्तियार है और इसी लिए लिखा है कि बनी-आदम में से एक बक़ीया नजात पायगा।

(फ) वो ग़रज़ जो हमारी पैदाइश से हम में मतलूब है और जिस से हम सब आदमी बहुत ही दूर जा पड़े हैं जिसमें आदमीयों को फिर बहाल करने के लिए यसूअ मसीह ख़ुदावन्द दुनिया में आया है, इसी ज़िंदगी के दर्मियान मसीहियों में मुकम्मल नहीं होती है। हाँ हमारे अंदर बवसीला मसीही ईमान के वो ग़रज़ कुछ जलवागर और मोअस्सर होती है और इस का बैयाना सा हम में आ जाता है जिससे यक़ीन होता है कि आइन्दा जहान में वो ग़रज़ हम में ख़ुदा तआला पूरी करेगा। तमाम ईमानदार और मोअतबर मुक़द्दस इसी उम्मीद में दुनिया से चले गए कि हम आइन्दा वक़्त में इस ग़रज़ को हासिल करेंगे। देखो क्या लिखा है “पर मैं सदाक़त में तेरा दीदार हासिल करूँगा। मैं जब जागूँगा तो तेरी शबाहत से सैर हूँगा।” (ज़बूर 17:15)

(फ) मसीह ख़ुदावन्द बाएतिबार उलूहियत ख़ुदा बाप के बराबर है और बा- एतबार इन्सानियत वो ख़ुदा तआला का पूरा ख़लीफ़ा और ज़मीन व आस्मान का पूरा इख़्तियार उस के हाथ में है। हम सब मसीही बवसीला ईमान के उस से अव्वलन गुनाहों की माफ़ी हासिल करते हैं। फिर हम आप को मअ (साथ) अपनी सब ख़्वाहिशों के उस का मुतीअ (फर्माबरदार) करके कुद्दूसीयत के रुत्बे में बतदरीज तरक़्क़ी करते और ख़ुदा की सूरत बनते चले जाते हैं और तक्मील हमारी इस सूरत में उस वक़्त होगी जबकि हम क़ियामत के फ़र्ज़ंद होके फिर नए बदन में मसीह से उठाए जाएंगे। उस वक़्त हम सब उस की मानिंद होंगे और हमारी बहाली कामिल होगी।

(फ) इस मतलब के लिए एक ख़ास दिन ख़ुदा से मुक़र्रर है। उसी दिन का नाम “ख़ुदा के फ़र्ज़न्द के ज़ाहिर होने का दिन है।” उस दिन वो ग़रज़ हम में बवसीला मसीह के पूरी होगी और हम अबद तक इस जलाल में रहेंगे। इस वक़्त दुनिया में इस ग़रज़ की तैयारी बवसीला मसीह के रूह से हम हो रही है और कुछ ऐसा काम हम में ख़ुदा से हो रहा है जिससे हमें यक़ीन है कि तकमिला इस काम का हम में इस ग़रज़ को ज़रूर पूरा करेगा। उस वक़्त मसीह के सब मुख़ालिफ़ ख़ार और रुस्वा होंगे और शैतान के साथ जिसके वो दुनिया में साथी थे अबदी दुख में चले जाऐंगे। ज़्यादा हसरत उन्हें इस बात पर होगी कि ख़ुदा की तरफ़ से उन की बहाली का इंतिज़ाम मसीह हुआ और वह बुलाए भी गए मगर अज़ ख़ुद ना आके उन्हों ने अपनी बेहतरी का मौक़ा खो दिया।

दफ़ाअ 39

.

मौत के बयान में

किसी हैवान की ज़िंदगी का जाता रहना “मौत” कहलाता है। इन्सान के सिवा सब हैवान मुत्लक़ फ़ानी हैं। पस उन की मौत ये है कि उन की ज़िंदगी बिल्कुल मादूम (ग़ायब) हो जाएगी यानी बदन टूट के अनासिर में मिल जाये और जान भी कहीं ना रहे, बिल्कुल नेस्तनाबूद हो जाएगी। इन्सान की मौत कुछ और चीज़ है। इसलिए कि वो मह्ज़ हैवान नहीं है बल्कि उस की हैवानियत के ऊपर कुछ और चीज़ इस में है जो ग़ैर-फ़ानी है। पस जहां तक इन्सान में हैवानियत है वहां तक उस के साथ भी वही मुआमला होता है जो सब हैवानों के साथ मौत में हुआ करता है लेकिन उस चीज़ में जो हैवानियत से बुलंद इस में है नीस्ती का मुआमला अमल में नहीं आता है सिर्फ इख़राज का मुआमला होता है। इसी वास्ते इन्सान की मौत के लिए एक दूसरा लफ़्ज़ “इंतिक़ाल” दुनिया में मुरव्वज हुआ है। कलाम-उल्लाह में पाँच लफ़्ज़ इन्सान की मौत के लिए इस्तिमाल में आए हैं जिनसे कुछ-कुछ मौत की कैफ़ीयत मालूम हो जाती है।

1)बदन से रूह का निकलना (अय्यूब 11:20) इस से मालूम होता है कि रूह इन्सानी उस के मुर्दा बदन ही में तहलील नहीं हो जाती मगर उस से अलग हो जाती है।

2) रूह का उंडेला जाना जैसे पानी एक बर्तन से दूसरे बर्तन में उन्डेलते हैं (यसअयाह 53:12) इस लफ़्ज़ में इशारा है कि रूह इन्सानी बदन से निकल के कोई और बदन अल्लाह से पाती है। (1 कुरंथियो 15:35-44)

3)चला जाना यानी इस जहान को मअ (साथ) बदन के छोड़ के किसी दूसरे जहां में चला जाना। (ज़बूर 39:13)

4) सो जाना या मौत की नींद में आ जाना या ख्व़ाब दाइमी में चले जाना (युहन्ना 11:11, ज़बूर 13:3, यरमयाह 51:39) ये अल्फ़ाज़ बदन की निस्बत मालूम होते हैं क्योंकि रूह कभी नहीं सोती। दुनिया में देखते हैं कि नींद के वक़्त बदन सोता है रूह बेदार रहती है। हाँ आअ्ज़ा (बदन के हिस्सों) को कुछ हवास के कामों से मुअत्तल करके चुप-चाप हो जाती है।

5)सूरज का डूबना या ग़ुरूब होना। (यरमयाह 15:9) में लिखा है “उस का सूरज डूब गया।” यहां “रूह” को “सूरज” कहा गया है और दुनिया का सूरज जब डूबता है तो वो मादूम (ग़ायब) नहीं हो जाता लेकिन ज़मीन की दूसरी तरफ़ चला जाता है।

(फ) कलाम-उल्लाह से और अक़्ल से भी मौत की दो क़िस्में बलिहाज़ शख़्स मुर्दा के मालूम होती हैं।

अव्वल सादिक़ों की मौत है, दोम बेईमानों की मौत है। सादिक़ों की मौत ये है कि इन्सान ईमान में मग़फ़िरत हासिल करके मरे। बलआम ने भी इस मौत की तमन्ना की थी मगर ना पाई (गिनती 23:10) इस दुनियावी ज़िंदगी के अंजाम पर भी मौत इन्सान के लिए फ़त्हयाबी का पहला दरवाज़ा है। बेईमानों की मौत क्या है? ये कि आदमी अपने गुनाहों में लिपटा हुआ बग़ैर ईमान और मग़फ़िरत के मर जाये। (युहन्ना 8:24) ये मौत जहन्नम में दाख़िल होने का पहला दरवाज़ा है।

(फ) मौत के ज़ाहिरी अस्बाब पर निगाह करके हकीमों ने इस की दो क़िस्में बयान की हैं।अव्वल ''”मौत तिब्बी” वो है कि जिस्म के फ़ित्री इंतिज़ाम में कुछ ख़लल आ जाए या वो शख़्स अपनी पूरी उम्र को पहुंच के मर जाये जैसे दरख़्तों के पके फल गिर जाते हैं। दोम “मौत इख़्तरामी” (موت اخترامی) वो है कि भले चंगे आदमी की मौत किसी और सबब से आ जाए मसलन वो दुश्मनों से या हाकिम से क़त्ल किया जाये या डूब मरे या आग में जल जाये या कोई और नागहानी सदमें से मर जाये। ख़ैर किसी तरह मर जाये मगर बग़ैर इजाज़त अल्लाह के कोई नहीं मरता। मसीह ख़ुदावन्द फ़रमाता है कि कोई चिड़िया भी बे इजाज़त अल्लाह के ज़मीन पर नहीं गिरती।

(फ) मौत का वजूद इन्सान की पैदाइश से पहले मालूम होता है। इल्म तरकीब अर्ज़ी (علم ترکیب ارضی) से ज़ाहिर करते हैं कि इन्सान से पहले ज़मीन पर हैवान रहते थे और वह मरते भी थे। तब मौत का वजूद पहले से था लेकिन आदम को जब ख़ुदा ने पैदा किया तो अपनी शक्ल पर बनाया था। उस के लिए मौत ना थी और उस से कहा गया था कि इस दरख़्त से ना खाना वर्ना तू मरेगा। पस अगर वो ना खाता तो हरगिज़ ना मरता और हमेशा ज़िंदा रहता और औलाद भी ना मरती। मौत उस के लिए अम्र तिब्बी ना था जैसे हैवानात और नबातात के लिए अम्र तिब्बी है। लेकिन आदम ने नाफ़रमानी करके अपने ऊपर मौत का तसल्लुत होने दिया और यूं मौत उस को लाहक़ हो गई और ऐसी लाहक़ हुई कि गोया उस के लिए अम्र तिब्बी है, उस वक़्त तक कि सब कुछ नया हो, नई ज़मीन, नया आस्मान और नया बदन ज़ाहिर हो। अभी तमाम हक़ीक़ी मसीहियों की रूहों में और उन के दिलों में नौज़ादगी ज़ाहिर हुई है तो भी वो सब मौत के बदन में रहते हैं यानी उस बदन में जिस पर मौत का फ़त्वा है और जिसके लिए ये मौत एक अम्र तिब्बी हो गया है। वक़्त चला आता है कि हम मौत के बदन से भी मख़लिसी पाएंगे बवसीला मसीह के।

(फ) ख़ुदा का कलाम मौत की दो क़िस्में दिखाता है “जिस्मानी मौत” जिसका बयान हो चुका। “रुहानी मौत” जिसका ये बयान है कि इन्सान की रूह में मौत का ज़हर छोड़ा जाये और उस पर मौत छा जाये। चुनान्चे जिस वक़्त आदम ने गुनाह किया था रुहानी मौत से वो उसी वक़्त मर गया था। जिस्मानी मौत 930 बरस बाद आई थी और इस अरसा में वो जिस्मानी ज़िंदा और रुहानी मुर्दा रहा था जब तक कि बवसीला मसीही ईमान के मौत उस की रूह पर से ना हटी, वो रुहानी मुर्दा था क्योंकि फ़तवा मौत का उस पर आ गया था और निस्बत ईलाही टूट गई थी और ख़ुदा की हुज़ूरी से निकाला गया था। इसलिए बरकते ईलाही की ओस उस पर गिरनी मौक़ूफ़ हो गई थी और रूह में तारीकी छा गई थी और मिज़ाज में जिस्मानियत ग़ालिब आ गई थी और यही रुहानी मौत है। पौलुस रसूल कहता है कि “जिस्मानीयत मौत है।” (रोमीयों 8:6) यही बड़ी मौत है और यह सब आदमीयों की रूहों में है। अगर ये मौत आदमीयों की रूहों में से इसी ज़िंदगी के दौरान निकल ना जाये तो उन शख्सों को अबद-उल-आबाद मौत में रहना होगा। जहां ख़ुदा से जुदाई और शैतान से क़ुर्बत (नज़दिकी) है, रात-दिन रोना और दाँत पीसना है। सिर्फ मसीह ख़ुदावन्द है जो इस मौत से आदमीयों की रूहों को छुड़ाता है और बदनों को मरने देता है क्योंकि नए बदन उन लोगों को मिलने वाले हैं।

(फ) मसीह पर मौत का फ़त्वा ना था। वो हमारे लिए मुआ (क़ुर्बान हुआ) कि मौत के फ़त्वे को मुकम्मल कर के हम पर से हटाए। देखो क्या लिखा है “कोई उसे (यानी मेरी जान को) मुझसे छीनता नहीं बल्कि मैं उसे आप ही देता हूँ। मुझे उस के देने का भी इख़्तियार है और उसे फिर लेने का भी इख़्तियार है। ये हुक्म मेरे बाप से मुझे मिला।” (युहन्ना 10:18) मसीह ख़ुदावन्द जो कामिल इन्सान और मह्ज़ बेगुनाह शख़्स था उस पर मौत का फ़त्वा ना था क्योंकि मौत गुनाहगार के लिए है और वह बेगुनाह था, इसलिए उस का हिस्सा मौत में ना था। उस ने अपनी मर्ज़ी और ख़ुशी से हमारे फ़ायदे के लिए अपनी जान दी और फिर अपनी जान को ले लिया। अगर मसीह पर भी मौत का फ़त्वा होता जैसे सब आदमीयों पर है तो वो हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा ना हो सकता। हमारे क़र्ज़ वही शख़्स अदा कर सकता है जो ख़ुद कर्ज़दार नहीं है जो ख़ुद कर्ज़दार है वो अपना क़र्ज़ अदा नहीं कर सकता हमारे क़र्ज़ कैसे अदा करेगा? पस मसीह ख़ुदावन्द मौत का मुतलक़ कर्ज़दार ना था और इसी लिए उस ने आयत बाला में साफ़ बताया है कि मैं अपनी जान पर इख़्तियार रखता हूँ मरूँ या ना मरूँ। ख़ुदा बाप की मर्ज़ी तो ये है कि मैं अपनी जान कफ़्फ़ारे में दूं मगर जबर नहीं है। मुझे इख़्तियार दिया गया है। सो मैं अपने बाप की मर्ज़ी को अपने इख़्तियार से क़ुबूल करता हूँ और जान देता हूँ और फिर अपनी जान को मौत के नीचे से निकाल के आप ले लूंगा।

(1 पतरस 3:18) रास्तबाज़ ने नारास्तों के लिए दुख उठाया। (1 कुरंथियो 15:54) मौत को फ़त्ह ने निगल लिया। (यसअयाह 25:8) वो मौत को हमेशा के लिए नाबूद करेगा। आदम के सबब से आदमीयों में मौत आई है मसीह के सबब से मौत दफ़ाअ हुई और ज़िंदगी आई और सारी बहाली की सूरत दिखाई दी। फ़िलहाल मौत जहान में नज़र आती है लेकिन उस की जड़ें कट गई हैं और एक वक़्त चला आता है कि ये मौत, ग़म, रोना और आह-ओ-नाला मुतलक़ इस जहान से दफ़ाअ हो जाएगा। सारे बेईमान लोग और यह सब आफ़तें हट जाएँगी और सब कुछ नया और निहायत ख़ूब और पुर जलाल होगा।

(फ) मौत की चाबी मसीह यसूअ ख़ुदावन्द के पास है। “....मैं मर गया था और देख अबद-उल-अबाद ज़िंदा रहूंगा और मौत और आलम-ए-अर्वाह की कुंजियाँ मेरे पास हैं” (मुकाशफ़ा 1:18) मौत से रिहाई बख़्शना यहोवा ख़ुदावन्द ही का काम है (ज़बूर 68:20) मसीह ख़ुदावन्द “यहोवा” है, इसलिए मौत की चाबियाँ उस के पास हैं और इसलिए भी कि वो मौत पर ग़ालिब आया। उस का सारा ज़ोर उस ने सहा। उस का तमाम ज़हर-नोश कर लिया। अपने आप को इस के क़ब्ज़े में कर दिया और इस की सारी कैफ़ीयत का लुत्फ़ देख के उस के नीचे से अज़ ख़ुद निकल आया और क़ियामत अपनी आप कर ली और मुर्दों में से पहलौठा हो के जी उठा और ख़ुदा तआला की दहनी तरफ़ उस के अर्श मजीद पर जा बैठा। अब वो सब अव्वलीन और आख़रीन को मौत के क़ब्ज़े से निकाल के ज़िंदा करेगा और उन के बदनों में उन्हें खड़ा करेगा और अपने सब बंदों को अपने साथ जलाल में और हक़ीक़ी ख़ुशी व आराम में लाएगा और सब शैतान के फ़रज़न्दों को और उन सब आदमीयों को जो मसीही होके नहीं मरते थे, अबदी मौत के हवाले कर देगा कि हमेशा दुःख में रहें।

दफ़ाअ 40

ताल्लुक़ात अर्वाह मोमिनीन

बाख़ुदावन्द यसूअ मसीह

मोमिनीन को बवसीला ईमान और बर्गुज़ीदगी के ख़ुदावन्द मसीह के साथ एक ख़ास इलाक़ा हासिल हो जाता है जिसके सबब से वो लोग मसीह में पैवंद होके ख़ुदा के मुतबन्ना फ़र्ज़ंद हो जाते हैं और ईलाही मीरास में शरीक होते हैं। इसी इलाक़े के सबब से मसीही बरकतें उनमें आ जाती हैं और उन की कमज़ोरियाँ और ख़ताएँ दफ़ाअ होती हैं। “तुम सब जितनों ने मसीह में शामिल होने का बपतिस्मा लिया मसीह को पहन लिया।” (ग़लतियों 3:27) “और नई इन्सानियत को पहनो जो ख़ुदा के मुताबिक़ सच्चाई की रास्तबाज़ी और पाकीज़गी में पैदा की गई है।” (इफ़िसियों 24:4) “और नई इन्सानियत को पहन लिया है जो मार्फ़त हासिल करने के लिए अपने ख़ालिक़ की सूरत पर नई बनती जाती है।” (कलसियों 3:10) क्योंकि हम जीते जी यसूअ की ख़ातिर हमेशा मौत के हवाले किए जाते हैं ताकि यसूअ की ज़िंदगी भी हमारे फ़ानी जिस्म में ज़ाहिर हो।” (2 कुरंथियो 4:11) और तुम भी इस में बाहम तामीर किए जाते हो ताकि रूह में ख़ुदा का मस्कन बनो।” (इफ़िसियों 2:22) “पस ऐ भाईयों! चूँकि हमें यसूअ के ख़ून के सबब से उस नई और ज़िंदा राह से पाक मकान में दाख़िल होने की दिलेरी है। जो उस ने पर्दा यानी अपने जिस्म में से हो कर हमारे वास्ते मख़्सूस की है।” (इब्रानियों 10:19-20) “ग़रज़ हमारी ख़ातिर जमा है और हम को बदन के वतन से जुदा हो कर ख़ुदावंद के वतन में रहना ज़्यादा मंज़ूर है।” (2 कुरंथियो 5:8)

इसी तरह के और बहुत से मुक़ाम कलाम-उल्लाह में हैं जिन्हें नाज़रीन ख़ुद देख सकते हैं। हासिल कलाम ये है कि सच्चे मोमिनीन की अर्वाह (रूहों) में दर्मियान इसी दुनिया के बइलाक़ा ईमान बरकाते ज़ेल नमूदार होती हैं। नई पैदाइश, नई ज़िंदगी, नई इन्सानियत ख़ुदा की सूरत पर बनती चली जाती है और दिल ख़ुदा का घर होता है। मसीह की मौत और ज़िंदगी की तासीर से गुनाह की निस्बत मुर्दा और रास्तबाज़ी में ज़िंदा होते हैं और लायक़ क़ुर्बत (नज़दिकी) और हुज़ूरी के होते हैं। ये सब कुछ मसीह की रूह से और उस के कफ़्फ़ारे की तासीर से उनमें होता है।

(फ) इस में कुछ शक-ओ-शुब्हा नहीं है कि ज़रूर ऐसा होता है। तवारीख़ कलीसिया से ज़ाहिर है कि हज़ारहा हज़ार आदमीयों की रूहों में ऐसी तासीरें हुई हैं और हर ज़माने में ख़ास बंदगाने मसीह ख़ुदा के गवाह ऐसी तासीरों से भरपूर पाए जाते हैं। अब भी मौजूद हैं और आइन्दा को भी मिलेंगे। अगर कोई चाहे कि ऐसे लोगों को देखे तो हक़ीक़ी मसीहीयों के साथ रिफ़ाक़त और दोस्ती पैदा करके वो दर्याफ़्त कर सकता है कि ऐसी तासीरें मसीह से उस के मोमिनीन की अर्वाह (रूहों) में फ़िल-हक़ीक़त मौजूद हैं और वह कुछ बात नहीं है जो बाअज़ मुख़ालिफ़ बैठे हुए तास्सुब की राह से हक़ के ख़िलाफ़ ऐसी तासीरों का इन्कार करते हैं। हमें ऐसे आदमी कलीसिया में कहीं कहीं साफ़ नज़र आते हैं और हम अपने अंदर भी ऐसी पाक तासीरें मसीह की तरफ़ से देखते हैं और साफ़ कहते हैं कि कलाम-उल्लाह का बयान हक़ है।

ये सब पाक तासीरें और तब्दीलीयां जो मसीह से मोमिनीन में हुई हैं ये सब मसीह की रूह से हैं जो उन में मोअस्सर है। और जब कि ये बात साबित है कि मसीह की रूह ने उन में मोअस्सर होके उन्हें क्या से कुछ कर दिया तो हम क्योंकर क़ुबूल ना करें कि आइन्दा को उसी की रूह से इनमें क्या कुछ ना होगा। जिस रूह से हमारी रूहों में फ़िलहाल ज़िंदगी आई है, उसी रूह से हमारे बदनों की क़ियामत भी जलाल के लिए होगी। “और अगर उसी का रूह तुम में बसा हुआ है जिसने येसूअ (ईसा) को मुर्दों में से जिलाया तो जिस ने मसीह यसूअ को मुर्दों में से जिलाया वो तुम्हारे फ़ानी बदनों को भी अपने उस रूह के वसीले से ज़िंदा करेगा जो तुम में बसा हुआ है।” (रोमीयों 8: 11) ये एक दम में, एक पल में, पिछ्ला नर्सिंगा फूँकते वक़्त होगा। (1 कुरंथियो 15:52) और जो मसीह में होके मुए (मरें) हैं वो पहले जी उठेंगे। (1 थिस्सलुनीकियों 4:16) मसीह ख़ुदावंद “अपनी इस क़ुव्वत की तासीर से.... हमारी पस्त हाली के बदन की शक्ल बदल कर अपने जलाल के बदन की सूरत पर बनाएगा।” (फिलिप्पियों 3:21) युहन्ना रसूल बयान करता है कि हम उस की मानिंद होंगे। (1 युहन्ना 3:2), जहां मसीह है वहां होंगे और उस का जलाल देखेंगे। (युहन्ना 17:24)

(फ) अगर तुमने इस दुनिया में मसीही होके मसीह की रूह पाई है और वह रूह तुम में अब मोअस्सर है और तुम्हें वो रूह ख़ुदा की रिफ़ाक़त का लुत्फ़ अब दिखा रही है तो यक़ीन करो कि इसी रूह से तुम्हारे बदनों की क़ियामत भी जलाल के लिए होगी। और अगर रूह नहीं पाई तो क़ियामत तो होगी मगर रुस्वाई और ज़िल्लत और अबदी दुख के लिए।

अगरचे बाद मौत रूह और बदन में जुदाई हो जाती है। रूह बदन से निकल के या अब्रहाम के पास या शैतान के फ़रज़न्दों के झुण्ड में चली जाती है और बदन ख़ाक में मिल जाता है। तो भी कलाम-उल्लाह के बाअज़ मुक़ामों से साबित है कि रूहों को अपने बदनों से एक इज़ाफ़ी इलाक़ा बाक़ी रहता है और आख़िर को रूह अपने ही बदन में आएगी। हाँ ईमानदार का बदन जलाल में और बे ईमान का बदन ज़िल्लत में उठेगा तो भी वही बदन होगा और वही सूरत उस शख़्स की होगी जो पहले थी। जलाल में सूरत साबिक़ा नुमायां होगी और ज़िल्लत में वही पहली सूरत दिखाई देगी जिससे वो पहचाना जाएगा कि फ़ुलां शख़्स है। पस जिस्म और रूह के इलाक़े को मौत मादूम (ख़त्म) नहीं करती है। अय्यूब कहता है मेरी यही आँखें उसे देखेंगी ना बेगाना की (अय्यूब 19:27), (2 सलातीन 13:21) में देखो क्या लिखा है कि जब वो मुर्दा एलीशा नबी की क़ब्र में गिराया गया और एलीशा की हड्डीयों से लगा तो वो जी उठा और अपने पांव पर खड़ा हो गया।

एलीशा की रूह को उस की मदफ़ून हड्डीयों के साथ इलाक़ा था तब ही तो ये हुआ कि ग़ैर मुर्दा उस से महसूस हो के जी उठा। इस बात के सबूत के लिए ग़ौर कीजीए। उस लड़के की जान उस में फिर आई। (1 सलातीन 17:21) उन की लाशों पर जो मुझसे बाग़ी हुए नज़र करेंगे। (यसअयाह 66:24) मैं उसे आख़िरी दिन में फिर ज़िंदा करूँगा। (युहन्ना 6:40) क़ब्रें खुल गईं और बहुत से जिस्म उन मुक़द्दसों के जो सो गए थे जी उठे। (मत्ती 27:52) बदन और रूह के दर्मियान जो इज़ाफ़ी इलाक़ा है इस का ज़िक्र बहुत आयतों में है।

दफ़ाअ 41

इन्सानी रूह के लिबास के बयान में

जबकि सच्चे ईमानदार मसीही की रूह उस के बदन से निकल जाती है तो ख़ुदा तआला उस को, और एक बदन देता है, और वो बदन जिस्मानी नहीं है बल्कि नूरानी है और एक लिबास भी रूह को इनायत होता है जिससे उस की ब्रहंगी पोशीदा होती है और वह रूह उस लिबास में ख़ूबसूरत नज़र आती है। हम हक़ीक़तन मुल्बस (लिबास पहने हुए) होंगे ना कि नंगे पाए जाऐंगे। (2 कुरंथियो 5:3) आस्मानी जिस्म भी हैं और ज़मीनी भी हैं, आस्मानियों का जलाल और है, और ज़मीनियों का और है। (1 कुरंथियो 15:40) ये फ़ानी जिस्म बक़ा को और ग़ैर फ़ानी को पहनेगा। (आयत 53) सब मुबद्दल (बदले हुए) हो जाएंगे। (आयत 51), एक अमारत ख़ुदा से पाएँगे। (2 कुरंथियो 5:1) ये रूह के बदन का ज़िक्र है। मौत का बदन छूट जाएगा। (रोमीयों 7:24) जैसा वो आस्मानी है वैसे वो भी जो आस्मानी हैं। (1 कुरंथियो 15:48) जिसमें होके (यानी रुहानी बदन में होके) उस ने उन रूहों के पास जो क़ैद थीं जाके मुनादी की। (1 पतरस 3:19)

फिर लिखा है कि वो जलाल में ज़ाहिर हुए यानी मूसा और एलयाह (लूक़ा 9:31) जलाली और ग़ैर फ़ानी बदन की पोशाक सफ़ैद होगी। (लूक़ा 24:4, मुकाशफ़ा 3:4,18) ख़ुदावन्द मसीह की सूरत जब तब्दील हो गई थी तो उस का चेहरा आफ़्ताब सा चमका था और उस की पोशाक नूर की मानिंद सफ़ैद हो गई थी। (मत्ती 17:2) समोएल नबी जब बुलाया गया तो वो अपनी पुरानी वज़ा के लिबास में आया था ताकि साउल से पहचाना जाये। (1 समोयल 28:14) मसीह की रास्तबाज़ी तमाम मोमिनीन सलफ़ व ख़लफ़ (सलफ़ यानी आबा-ओ-अजदाद, अगले ज़माने के लोग, और ख़लफ़ यानी जांनशीन, पीछे वाले) की रूहों का ख़ूबसूरत लिबास है और यही शादी का लिबास है जो बादशाह की तरफ़ से हमें बख़्शा जाता है। चाहीए कि इसी दुनिया में हम इस लिबास को रूहों में पहनें और इस लिबास की हिफ़ाज़त करें। ये लिबास अब भी ख़ुशनुमा है और आइन्दा को इस का जलाल ख़ूब ज़ाहिर होगा। फ़क़त

तमत