Reliability of the Four Gospels
Vol. 1
By
The Venerable Archdeacon Barakat Ullah. M.A
क़दामत व अस्लियत-ए-अनाजील
अरबा
जिल्द अव़्वल
अल्लामा बरकत-उल्लाह साहब एम॰ ए॰
पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी
अनारकली, लाहौर
1959 ई॰
The Venerable Archdeacon Barakat Ullah. M.A
1891-1972
अल्लामा बरकत-उल्लाह
तमाम तालिबान-ए-हक़ के नाम
जो
तलाश-ए-हक़ में सरगर्दां हैं
“राह हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ।” (क़ौल-उल-मसीह)
"بطلبید کہ خواہید یافت ۔ زیرا کسیکہ طلبد می بابد'۔
(इन्जील-ए-अव़्वल 7/7)
पहली ऐडीशन का दीबाचा
क़रीबन तीस (30) साल का अर्सा हुआ मैं ने मसअला तहरीफ़ पर किताब “सेहत-ए-कतुब-ए-मक़ुद्दसा” लिखी थी जिसकी दूसरी ऐडीशन 1951 ई॰ में शाएअ हुई। मैंने इस में ये साबित किया था कि यूनानी अनाजील जो हमारे हाथों में मौजूद हैं निहायत सेहत के साथ दो हज़ार साल से मन व अन (हर्फ़ बहर्फ़) महफ़ूज़ चली आती हैं। तारीख़ इस अम्र पर गवाह है कि जहां तक यूनानी मतन की सेहत का ताल्लुक़ है रुए-ज़मीन की कोई क़दीम किताब इन्जील जलील की सेहत का मुक़ाबला नहीं कर सकती। पस इस लिहाज़ से इन्जील एक लाजवाब और बेनज़ीर (जिसकी कोई मिसाल ना मिले) किताब है।
लेकिन उस किताब में इस मौज़ू के दो पहलूओं पर बह्स नहीं की गई। ये दो पहलू हस्बे-ज़ैल हैं जिन पर इस रिसाले में बह्स की गई है।
अव़्वल :इस बात का क्या सबूत है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलमात-ए-तय्यिबात जो अनाजील अर्बा में मुन्दरज हैं बईना वही हैं जो आपकी ज़बान-ए-मोअजिज़ा बयान से निकले थे? क्या इन कलमात के फ़रमाए जाने और उन के अनाजील में लिखे जाने के दर्मियानी अर्से में कोई ऐसा फ़ुतूर (ख़राबी) तो उन में वाक़िया नहीं हुआ जिसकी वजह से वो साक़ित-उन-अल-एतबार (ख़राबी की वजह से नाक़ाबिले एतबार) हो गए हों?
दोम :हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की मादरी ज़बान सूबा गलील की अरामी बोली थी जिसमें आप लोगों को तालीम दिया करते थे लेकिन मौजूदा अनाजील की ज़बान यूनानी है जिसका उर्दू तर्जुमा हम पढ़ते हैं। पस इस बात का सबूत है कि आपके कलमात जो यूनानी लिबास में हमारे पास मौजूद हैं दर-हक़ीक़त वही कलमात हैं जो आपने अरामी ज़बान में फ़रमाए थे।
ये दोनों सवालात अहम क़िस्म के हैं। अगर आँख़ुदावंद के अल्फ़ाज़ में अहाता तहरीर में आने से पहले ही किसी क़िस्म का फ़ुतूर वाक़ेअ हो गया हो या उन के अरामी बोली से यूनानी ज़बान में तर्जुमा होते वक़्त कोई अहम तब्दीली वाक़ेअ हो गई हो तो ज़ाहिर है कि इस का असर उन के पाया एतबार पर पड़ेगा। लेकिन अगर ये साबित हो जाए कि आपके कलमात के फ़रमाए जाने और अहाता तहरीर में आने के दर्मियानी वक़्फ़ा में किसी क़िस्म
के फ़ुतूर के पैदा होने का एहतिमाल नहीं हो सकता और कि इनके यूनानी लिबास की वजह से इनकी सेहत में फ़िल-हक़ीक़त कोई फ़ुतूर वाक़ेअ नहीं हुआ तो अनाजील-ए-अर्बा (चारो इन्जीलों) की बेनज़ीर सेहत और रफ़ी पाया एतबार में किसी क़िस्म के शक की गुंजाइश नहीं रहती।
गुज़श्ता चालीस (40) साल से उलमा इन दो सवालों पर ग़ौर कर रहे हैं। इनकी तहक़ीक़ का नतीजा ये है कि बेशुमार ज़ख़ीम किताबें लिखी गई हैं। कोई शख़्स ये दावा नहीं कर सकता कि उस ने इन तमाम किताबों का मुतालआ किया है। मैं इस मसअले का गुज़श्ता तीस (30) सालों से मुतालआ करता चला आया हूँ। इस किताब के आख़िर में हवालों की फ़ेहरिस्त गवाह है कि इस मौज़ू पर बीसियों (बेशुमार) मज़ामीन, रिसाले, किताबचे और किताबें मेरी नज़र से गुज़री हैं। फिर भी में अपनी कम-माइगी (बेहैसियत होने) से बख़ूबी वाक़िफ़ हूँ, ख़ुश-क़िस्मती से किसी मुसन्निफ़ की किताब के मुफ़ीद होने के लिए लाज़िम नहीं कि वो आलम-ए-कुल और हमा-दान (हर बात से वाक़िफ़) भी हो।
मुक़द्दस खेरिस्टम (अज़ 347 ई॰ ता 407 ई॰) अपने एक वाज़ में फ़र्माते हैं :-
“जिस तरह मुअत्तर अश्या को जितना रगड़ा जाये उतना ही ज़्यादा उन में से ख़ुशबू निकलती है। इसी तरह जितना ज़्यादा कुतुब-ए-मुक़द्दसा की छानबीन की जाये उतना ही हक़ाइक़ व माअरुफ़ के पोशीदा खज़ाने हम पर खुलते जाते हैं।”
मग़रिब के मसीही और ग़ैर-मसीही उलमा की जांच पड़ताल, छानबीन और तन्क़ीद इस सदाक़त की ज़िंदा मिसाल है। उन की तन्क़ीह व तन्क़ीद (तहक़ीक़ करके उयूब से पाक करना) ने अब ये साबित कर दिया है कि आँख़ुदावंद के कलमात-ए-तय्यिबात, मोअजज़ात बय्यिनात और सवानिह हयात मन व अन अनाजील में ऐसे महफ़ूज़ हैं कि इस माजरे को देखकर अक़्ल दंग रह जाती है।
इस किताब की पहली जिल्द में हमने अनाजील मुत्तफ़िक़ा यानी पहली तीन इंजीलों पर बह्स की है। चूँकि पहली तीनों अनाजील सय्यदना मसीह की सह साला ख़िदमत के सिर्फ उस हिस्से के ज़िक्र करने पर इत्तिफ़ाक़ करती हैं जो सूबा गलील में गुज़रा। लिहाज़ा इन अनाजील को “अनाजील मुत्तफ़िक़ा” का नाम दिया गया है। इस किताब की दूसरी जिल्द
में इन्जील चहारुम पर और अनाजील अर्बा की अस्ल ज़बान और इस के यूनानी तर्जुमे पर बह्स की गई है और यह साबित किया गया है कि मुरव्वजा अनाजील-ए-अर्बा की सेहत में किसी क़िस्म के शक की गुंजाइश नहीं है।
हमने इस किताब के मतन को हवालों से पाक रखा है और किताब की हर जिल्द के आख़िर में तमाम हवालों को हर बाब और फ़स्ल के उन्वान के मातहत दर्ज कर दिया है ताकि शाएक़ीन इनका ख़ुद मुतालआ करके इन किताबों और रिसालों से फ़ायदा हासिल कर सकें।
मुझे वासिक़ (पक्का) यक़ीन है कि हक़ की तलाश करने वाले इस किताब के नताइज और दलाईल को क़ुबूल करने के क़ाबिल पाएँगे। उनसे मेरी दरख़्वास्त है कि बाइबल मुक़द्दस के जो हवाले इस किताब में जा-ब-जा दर्ज किए गए हैं ज़रूर पढ़ें क्योंकि उन्ही पर दलाईल (दलील की जमा) की पुख़्तगी का दारो मदार है। अगर में उन को नक़्ल करता तो ये किताब ज़रूरत से ज़्यादा तवील हो जाती। पस मुत्ला`श्यान-ए-हक़ (हक़ की तलाश करने वालों) से इल्तिजा है कि वो हर हवाले का पहले मुतालआ करें और फिर आगे पढ़ें और ख़ाली-उल-ज़हन हो कर ठंडे दिल से किताब के दलाईल पर ग़ौर करें। मेरी दुआ है वो भी मुसन्निफ़ की तरह मुनज्जी आलमीन के क़दमों में आकर अबदी नजात हासिल करें।
अहकर-उल-ईबाद |
15 जनवरी 1955 ई॰ |
बरकत-उल्लाह |
कोर्ट रोड, अमृतसर |
दूसरी ऐडीशन का दीबाचा
तीन साल का अर्सा हुआ है कि इस किताब की पहली ऐडीशन छपी थी। इस का शाएअ होना था कि शुमाली हिंद और पाकिस्तान के मुख़्तलिफ़ कोनों से इस की मांग इस क़द्र हुई कि दो सालों के अंदर पहली ऐडीशन ख़त्म हो गई। मैं अपने मुनज्जी ख़ुदा का शुक्र करता हूँ जिसने इस किताब को मुत्ला`श्यान-ए-हक़ के लिए इस्तिमाल किया है।
जब मैं ये किताब लिख रहा था तो मेरी आँखों में मोतियाबिंद उतर आया था और मैंने ब-सद मुश्किल इस को ख़त्म किया था। दरीं हालत किताबत और तबाअत की ख़ामियों का वजूद नागुरेज़ था। ख़ुदा बाप का लाख-लाख शुक्र हो जिसने मुझे दुबारा बीनाई अता फ़रमाई है। मैंने इस ऐडीशन में उन ख़ामियों को दूर किया है और ईज़ादियाँ (इज़ाफ़ा) भी की हैं। उम्मीद है की क़ारईन किराम इस किताब से बेश अज़-पेश फ़ायदा उठा सकेंगे।
मेरी दुआ है कि ख़ुदा तालिबान-ए-हक़ की चश्म-ए-बसीरत को खोले ताकि वो ख़ुदा के कलाम-ए-हक़ पर जो ज़िंदा और क़ायम है ईमान लाकर ख़ुदा की मार्फ़त और अबदी ज़िंदगी हासिल करें। आमीन।
अहकर-उल-ईबाद
बरकत-उल्लाह
हैनरी मार्टिन स्कूल, अलीगढ़
29 दिसंबर 1955 ई॰
हिस्सा अव़्वल
दौर-ए-अव्वलीन
(अज़ 30 ई॰ ता 40 ई॰)
बाब अव़्वल
गवाहों के बादल
आँख़ुदावंद ने सिर्फ 33 साल की उम्र पाई और 30 ई॰ में मस्लूब हुए। तीस (30) साल तक आपने मेहनत व मशक्क़त करके अपने ख़ानदान की परवरिश की और जब आप के भाई रोज़ी कमाने के लायक़ हो गए और बहनों की शादी हो गई (मर्क़ुस 6:3) वग़ैरह और आप इन दुनियावी ताल्लुक़ात के फ़राइज़ से सबकदोश (आज़ाद, जिस पर कोई बोझ ना हो, फ़ारिग़) हो गए तो आपने ख़ुदा की लाज़वाल मुहब्बत और अबुबियत का परचार करना शुरू किया। (लूक़ा 4:23, मुक़ाबला गिनती 4:3, मर्क़ुस 1:15) आपने हर मुक़ाम और हर तब्क़े में मुनादी की। शहरों में (मर्क़ुस 1:32, 1:38) गांव में बस्तीयों में (मर्क़ुस 6:56) वीरान जगहों में (मर्क़ुस 6:33) सूबा गलील में (मर्क़ुस 1:39), गन्नेसरत के इलाक़े में (मर्क़ुस 6:53) सूर और सैदा की सरहदों में (मर्क़ुस 7:24) दलमनोता के इलाक़ा में (मर्क़ुस 8:10) केसरिया फिलिप्पी के गांव में (मर्क़ुस 8:27) यहूदिया की सरहदों में और यर्दन पार की जगहों में (मर्क़ुस 10:1) सामरिया के इलाक़ों में (लूक़ा 17:11, यूहन्ना 4 बाब) यहूदिया में (यूहन्ना 3:22) यरूशलेम और उस की हैकल में आपने ख़ुदा की मुहब्बत का पैग़ाम दिया (मर्क़ुस 11 व 12 बाब) (यूहन्ना 2:23) वग़ैरह जहां कहीं आप गए आपने हर क़िस्म के बीमारों को शिफ़ा बख़्शी (मर्क़ुस 1:34, 3:10) आपने नापाक रूहों को निकाला (मर्क़ुस 1:36) अँधों (मर्क़ुस 8:25, 10:52) बहरों लंगड़ों (लूक़ा 7:22) कोढ़ीयों (मर्क़ुस 1:42, लूक़ा 17:14) मिर्गी वालों (मर्क़ुस 9:27) लुंजों, मफ़लूजों (मर्क़ुस 2:11, 3:5) पागलों (मर्क़ुस 5:4,) गूंगों (लूक़ा 11:14), हकलों (मर्क़ुस 7:35) औरतों (मर्क़ुस 5:29, लूक़ा 8:2, 13:13)
ग़र्ज़ सभी क़िस्म के बीमारों को (मत्ती 4:23) आपने अच्छा किया। आपने मुर्दों को ज़िंदा किया (मर्क़ुस 5:35, लूक़ा 7:15, यूहन्ना 11:44) हज़ारों भूकों को एजाज़ी तौर पर खाना खिलाया (मर्क़ुस 7:44, 8:8) आपकी शौहरत हर चहार तरफ़ फैल गई (मर्क़ुस 1:28) वग़ैरह आप जहां जाते लोग सारे इलाक़ा में चारों तरफ़ दौड़ते और बीमारों को चारपाइयों पर डाल कर जहां कहीं सुना कि आप हैं लिए फिरते (मर्क़ुस 6:55) वो आपके मोअजिज़ात-ए-बय्यिनात और आप के कलमात तय्यिबात को सुन कर अंगुश्त बदंदाँ (दाँतों में उंगली देना, हैरान) रह जाते और कहते “ये क्या हिक्मत है जो उसे बख़्शी गई और कैसे मोअजिज़े उस के हाथ से ज़ाहिर होते हैं” (मर्क़ुस 6:2) वो दंग हो कर कहते जो कुछ उसने किया सब अच्छा किया (मर्क़ुस 7:37) सब लोग आपकी तालीम को सुनकर हैरान होते क्योंकि वो उनको फ़क़ीहों की तरह नहीं बल्कि साहिब-ए-इख़्तियार की तरह तालीम देता था।” (मर्क़ुस 1:22)
आपकी शौहरत गलील, यहूदिया, सामरिया ग़र्ज़ ये कि तमाम अर्ज़-ए-मुक़द्दस में फैल गई। आप जहां जाते भेड़ों की भेड़ें आपकी ज़ियारत को और आप की तालीम सुनने और आप के मोअजज़ात देखने को (यूहन्ना 12:18) चारों तरफ़ से जमा हो जातीं। ऐसा कि आप किसी शहर में ज़ाहिरन दाख़िल ना हो सकते (मर्क़ुस 1:45) लोग शहरों से इकट्ठे हो हो कर पैदल दौड़ते (मर्क़ुस 6:34) जिस घर में आप जाते “सारा शहर दरवाज़े पर जमा” हो जाता (मर्क़ुस 1:33) और “दरवाज़े पर जगह ना रहती।” (मर्क़ुस 2:2) ”इतने लोग जमा हो जाते कि आप खाना भी ना खा सकते” (मर्क़ुस 3:20) आपके मुसाहिबीन का भी यही हाल होता और “उन को खाना खाने की भी फ़ुर्सत ना मिलती थी” (मर्क़ुस 6:31) अगर आप घर से बाहर निकलते तो भीड़ इस क़द्र होती कि आप पर गिर पड़ती (मर्क़ुस 5:31) जब आप तालीम देने की ख़ातिर “झील के किनारे” चले जाते तो जम्अ ग़फी़र जमा हो जाता (मर्क़ुस 2:13, 3:7) और अक्सर औक़ात “यहूदिया और यरूशलेम और अदुमिया से और अरदन के पार सूर और सैदा के आस-पास से एक बड़ी भीड़ जमा हो जाती” ऐसा कि आप को अपने रसूलों से कहना पड़ता कि “भीड़ की वजह से एक छोटी कश्ती मेरे लिए तैयार रहे ताकि भीड़ मुझे दबा ना ले” (मर्क़ुस 3:8 ता 12) और आप कश्ती में बैठ कर (मर्क़ुस 4:1) ”या भीड़ को देख कर पहाड़ पर चढ़ कर” (मत्ती 5:1) सबको ख़ुदा की लाज़वाल मुहब्बत का फ़हर्त अफ़्ज़ा पैग़ाम सुनाते।
इन्जील चहारुम से हमको पता चलता है कि आँख़ुदावंद ईद के मौक़े पर यरूशलेम जाया करते थे और अर्ज़-ए-मुक़द्दस के अंदर और बाहर के ज़ाइरीन को जो ईद के मौक़े पर जमा हुआ करते ख़ुदा की मुहब्बत का पैग़ाम देते थे (यूहन्ना 2:13, 7:14, 8:2, 10:22, 11:55, 12:18 वग़ैरह) आपने एलानिया हमेशा इबादत ख़ानों और हैकल में जहां सब यहूदी जमा होते थे तालीम दी (यूहन्ना 18:20) जोज़ेफ़स हम को बतलाता है। CESTIUS GALLUS ज़ेस्टेस गीलीस (63 ई॰ ता 66 ई॰) के अहद में जब इन ज़ाइरीन (ज़ियारत करने वाले) की मर्दुम-शुमारी की गई जो यरूशलेम आते थे तो वो शुमार में सत्ताईस लाख दो सौ थे। (आमाल 2:9 ता 11) से पता चलता है कि ये ज़ाइरीन किस क़द्र दूर दराज़ मुक़ामात से आते थे। पस अहालयान-ए-अर्ज़-ए-मुक़द्दस (पाक सर-ज़मीन के रहने वाले) आँख़ुदावंद की तालीम और मोजिज़ात से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। यही वजह है कि मुक़द्दस पौलुस जो यरूशलेम में भी रहे थे (आमाल 22:3) मुनज्जी-ए-आलमीन (मसीह) की ज़िंदगी के वाक़ियात और कलमात से वाक़िफ़ थे (आमाल 13:24-25, 13:51, 20:35, 22:3) वग़ैरह और वो बादशाह अगरप्पा से कहते हैं “बादशाह जिससे मैं दिलेराना कलाम करता हूँ ये बातें जानता है और मुझे यक़ीन है कि इन बातों में से कोई उस से छिपी नहीं क्योंकि ये माजरा कहीं कोने में नहीं हुआ” (आमाल 26:26)
मज़्कूर बाला चंद मुक़ामात से नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के सामईन (सुनने वाले) अगर लाखों की तादाद में नहीं तो हज़ारों की तादाद में तो ज़रूर थे (लूक़ा 12:1, मर्क़ुस 7:44) पस हज़ारों मर्दों और औरतों ने आपका जाँफ़िज़ा (दिल को ख़ुश करने वाला) कलाम सुना और आपके मोअजज़ात को देखा। बअल्फ़ाज़-ए-दीग़र अनाजील-ए-अर्बा (चारो इन्जील) के मुन्दरिजा वाक़ियात और कलमात को सुनने और देखने वाले हज़ारों चश्मदीद गवाह थे जो आपकी शहादत के बाद ज़िंदा थे जिन्हों ने ज़िंदगी के कलाम को सुना और अपनी आँखों से देखा बल्कि ग़ौर से देखा और अपने हाथों से छुआ था (1 यूहन्ना 1:1)
इन हज़ारों चश्मदीद गवाहों ने जो कुछ कि उन्होंने देखा और सुना उस की ख़बर दूसरों तक पहुंचाई (1 यूहन्ना 1:3) क्योंकि ये नामुम्कि न था कि वो ऐसे ज़िंदगी बख़्श कलमात सुनते और ख़ामोश रहते या वो अपनी बीमारियों से छुटकारा पाते और चुपके अपने घरों की राह लेते। (मर्क़ुस 7:36, मत्ती 9:31, लूक़ा 4:37, 5:15, 25, 17:5, यूहन्ना 9:30 वग़ैरह) पस आँख़ुदावंद की वफ़ात के बाद हज़ारों ऐसे चश्मदीद गवाह मौजूद थे
जिन्हों ने “इन बातों को जो उन के दर्मियान वाक़ेअ हुईं” (लूक़ा 1:1) दूसरों तक पहुंचाया और यूं ये वाक़ियात चश्मदीद गवाहों और उन के सामईन (सुनने वालों) के दिलों और दिमाग़ों में हमेशा ताज़ीस्त ताज़ा रहे क्योंकि ये बातें ग़ैर-मामूली, हैरानकुन और ख़वारिक़-ए-आदत (खिलाफ-ए-आदत बातें, मोअजज़ात) थीं जो आसानी से किसी की याद से मिट नहीं सकती थीं। बिल-ख़ुसूस जब कि माबाअ्द के वाक़ियात (जिनका आमाल की किताब में ज़िक्र है) उन की याद को हमेशा ताज़ा रखने में मुमिद व मुआविन (मददगार) रहे।
यूहन्ना 12:42 से ज़ाहिर है कि यहूदी क़ौम के सरदारोँ में से भी बहुतेरे सय्यदना मसीह पर ईमान लाए मगर फ़रीसियों के सबब से इक़रार ना करते थे ताकि ऐसा ना हो कि इबादतखाने से ख़ारिज किए जाएं (नीज़ देखो यूहन्ना 3:1, 7:13 वग़ैरह) ये सब के सब साहिब-ए-सर्वत व इक़्तिदार (मालदार और ओहदेदार) थे और उन में से बाअज़ क़ौम-ए-यहूद की सदर-ए-अदालत के मैंबर थे (यूहन्ना 19:38-39, 7:50 वग़ैरह)
इन हज़ारहा हज़ार चश्मदीद गवाहों में से बाअज़ बूढ़े थे (लूक़ा 1:18, 2:33-36) बाअज़ अधेड़ उम्र के थे (यूहन्ना 5:5, लूक़ा 8:43, 13:11) बाअज़ अभी नौखेज़ (बच्चे) थे (यूहन्ना 4:51, 6:9, मत्ती 9:18, 15:28) लेकिन इन गवाहों की एक बहुत बड़ी अक्सरियत जवान उम्र लोगों की थी (मर्क़ुस 9:34 वग़ैरह) अनाजील-ए-अर्बा (चारो इंजील) को सरसरी नज़र पढ़ने से भी ये बात अयाँ हो जाती है कि आँख़ुदावंद के चश्मदीद गवाहों की उम्र बीस (20) और तीस (30) साल के लगभग थी। जिसका मतलब ये है कि अगर यहूदी मर्दों और औरतों की औसत उम्र की मियाद 70, 80 बरस की हो (ज़बूर 90:10) तो ये हज़ारों चश्मदीद गवाह यरूशलेम की तबाही और हैकल की बर्बादी (70 ई॰) के वक़्त ज़िंदा थे। और अगर अनाजील-ए-अर्बा (चारो इंजील) इस वाक़िये हाइला (होलनाक) से पहले ही अहाता तहरीर में आ चुकी थीं तो ये हज़ारों अश्ख़ास इंजीली बयानात के मुसद्दिक़ (सच बताने वाले) थे।
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इन हज़ारहा चश्मदीद गवाहों के हुजूम के इलावा हज़ारों मर्दों की एक और भीड़ थी जो आपके ख़ून की प्यासी थी (मर्क़ुस 15:11, मत्ती 27:20, लूक़ा 23:23) जब आप मस्लूब हुए तो वो यहूदियों की ईद के दिन थे (लूक़ा 22:7) जब हर यहूदी बालिग़ पर फ़र्ज़ था कि वो यरूशलेम हज करने के लिए जाये (ख़ुरूज 23:15) पस आपकी सलीबी मौत के रूह
फ़रसादा (ख़तरनाक) वाक़िये को देखने वालों की एक बड़ी भीड़ जमा थी (लूक़ा 23:27) जो इस वाक़िये की चश्मदीद गवाह थी जिसको वो कभी फ़रामोश नहीं कर सकते थे। एसी बड़ी भीड़ का एक बहुत बड़ा हिस्सा भी यरूशलेम की तबाही के ज़माने में ज़िंदा था और इंजीली बयान का मुसद्दिक़ (सच्चा बताने वाला) था।
इन मुख़ालिफ़ों के हुजूम के इलावा फ़रीसियों, फ़क़ीहों, हेरोदियों, सदूक़ियों, सदर-ए-अदालत के मेम्बरों, काहिनों और सरदार काहिनों की एक बड़ी जमाअत थी जो तीन साल तक हर शहर और क़स्बे में आँख़ुदावंद की मुख़ालिफ़त पर तुले रहे और बिल-आखिर उन्हों ने आपको मस्लूब करके छोड़ा, फ़क़ीहों और फ़रीसियों का फ़िर्क़ा इब्तिदा ही से हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के अक़्वाल व अफ़आल पर हर्फ़गीरी करता रहा (मर्क़ुस 2:6, 18, 24) और वो हमेशा “इस ताक में रहे कि आप पर इल्ज़ाम लगाऐं” (मर्क़ुस 3:2) इस ग़र्ज़ के लिए फ़क़ीहा यरूशलेम शहर से दूर दराज़ सूबा गलील को गए (मर्क़ुस 3:22) और वो आपके रवैय्ये को देख कर “फ़रीसियों और हेरोदियों के साथ आपके बरख़िलाफ़ मश्वरा करने लगे कि आपको किस तरह हलाक करें (मर्क़ुस 3:6) ये बातें जो आपकी ख़िदमत के शुरू में ही वाक़ेअ हुईं इस मुक़तदिर गिरोह के इंदीया (मन्सूबे) का पता देती हैं (मत्ती 13:39) तीन साल तक ये गिरोह बराबर आपकी मुख़ालिफ़त पर तुला रहा और हमेशा मुँह की खाता रहा (लूक़ा 13:17, मत्ती 22:46, 22:34 वग़ैरह) बिल-आखिर मुक़तदिर और बारसूख तब्क़ा ग़ालिब आया और उस ने रूमी गवर्नर के हाथों आपको मस्लूब करवा के दम लिया।
ज़ाहिर है कि इस तब्क़े का कोई फ़र्द भी आपके अक़्वाल व अफ़आल को भूल नहीं सकता था। आपके अक़्वाल उन के लिए जिगर दोज़ थे। (मत्ती 23 बाब वग़ैरह) फिर वो उन दिल-ख़राश कलमात को किस तरह फ़रामोश कर सकते थे? आपके अफ़आल, यहूदी बुज़ुर्गों की रिवायत के ऐन ज़िद (खिलाफ) थे (मर्क़ुस 7 बाब वग़ैरह) फिर वो उन को अपने दिलों से किस तरह महव (गायब) कर सकते थे? वो ख़ुद सुनते थे और देखते थे और दूसरों को आप उन हरकतों से मुत्लआ (खबर) करते थे। पस वो चारी इन्जीली बयानात के चश्मदीद गवाह बन जाते हैं (आमाल 3:13 ता 15; 4:10, 16, 5:27 ता 28; 7:51 ता 52 वग़ैरह) जिनकी शहादत को कोई सही-उल-अक़्ल शख़्स रद्द नहीं कर सकता। इन मुख़ालिफ़ीन की अक्सरियत आप की हम-उम्र थी। पस वो यरूशलेम की तबाही (70 ई॰) के ज़माने में इंजीली बयानात के जीते जागते ज़िंदा गवाह थे।
(3)
मज़्कूर बाला हज़ारहा मुख़ालिफ़ व मुवालफ़ गवाहों के इलावा उन लोगों की एक बड़ी तादाद है जो आप पर ईमान ले आए थे। उन की तादाद इस क़द्र बड़ी थी कि सरदार काहिनों को ये अंदेशा लाहक़ हो गया था कि “अगर हम इस को यूंही छोड़ दें तो सब इस पर ईमान ले आएँगे” (यूहन्ना 11:47 ता 53; लूक़ा 6:17 वग़ैरह) फ़रीसी चिल्ला उठे कि सोचो तो तुमसे कुछ बन नहीं पड़ता। देखो जहाँ उस का पैरौ (मानने वाला) हो चला।” (यूहन्ना 12:19) मुक़द्दस पौलुस ने मसीही होने के बाद ईमानदारों की एक जमाअत से मुलाक़ात की जिसकी तादाद पाँच सौ (500) से ज़्यादा थी (1 कुरिन्थियों 15:6) मुक़द्दस लूक़ा ईमानदारों की एक और जमाअत का ज़िक्र करते हैं जो तख़मीनन एक सौ बीस (120) शख्सों की जमाअत थी (आमाल 1:15) जिनमें ऐसे ईमानदार भी थे जो यूहन्ना के बपतिस्मे से लेकर ख़ुदावंद के हमारे पास उठाए जाने तक बराबर हमारे साथ रहे।” (1:22)
एक और जमाअत थी जिसकी बाबत लिखा है कि ख़ुदावंद ने 70 आदमी मुक़र्रर किए जिनको आपने अपने आगे-आगे भेजा (लूक़ा 10:1) ताकि वो ख़ुशख़बरी की मुनादी करें।
इनके इलावा आपने बारह रसूल ख़ास मुक़र्रर किए (लूक़ा 6:13) जो शब व रोज़ आपकी सोहबत का फ़ैज़ हासिल करते रहे। जो आपके साथ हर वक़्त उठते बैठते रहे और सफ़र व हज़र में हमेशा आपके साथ रहते थे। और आप के हर लफ़्ज़ के लबो लहजे तक से वाक़िफ़ थे। (लूक़ा 22:28, मर्क़ुस 3:14) इन आख़िरी दो जमाअतों को आप ख़ास हिदायात देते थे (लूक़ा 10:1, 34 मत्ती 10 बाब) लेकिन सबसे ज़्यादा तवज्जोह आपने अपने दवाज़दा (12) रसूलों की तालीम व तर्बियत की तरफ़ दी (मर्क़ुस 4:10 ता 34, 6:30, 7:17 ता 23, मत्ती 6:13 ता 28, लूक़ा 9:28 ता 36, मर्क़ुस 9:33 ता 37, लूक़ा 9:44 ता 48, मर्क़ुस 10:33 ता 45, मर्क़ुस 13 बाब यूहन्ना बाब 14 ता 18:12 वग़ैरह)
अव़्वल-उल-ज़िक्र ईमानदारों का गिरोह यरूशलेम की तबाही के वक़्त आँख़ुदावंद का जीता जागता ज़िंदा गवाह मौजूद था (मत्ती 16:28 वग़ैरह) दूसरा तीसरा और बिल-ख़ुसूस दवाज़दा (बाराह) रसूलों का गिरोह ऐसे लोगों पर मुश्तमिल था जिन्हों ने आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत के बाद तमाम दुनिया में हिन्दुस्तान से लेकर हसपानिया तक पहली सदी के
अंदर-अंदर आपकी इन्जील की बशारत ममालिक-ए-मशरिक़ व मग़रिब और अक़्वाम-ए-आलम में पहुंचा दी।
(4)
पस इन्जील बयानात के मुसद्दिक़ (तस्दीक़ करने वाले) हज़ारहा हज़ार गवाह हैं जिन्हों ने अपनी आँखों से इन वाक़ियात को देखा और इन कलमात को सुना जिन का ज़िक्र अनाजील अरबा में मौजूद है। यही लोग इन वाक़ियात को बतलाने वाले और इन कलमात को दूसरों तक पहुंचाने वाले थे। उन में बूढ़े, अधेड़ उम्र वाले, जवान, मर्द औरतें, आँख़ुदावंद के शैदाई और आप के जान लेवा ग़र्ज़ सभी क़िस्म के लोग शामिल थे। उन्हों ने अनाजील अरबा के मुन्दरिजा वाक़ियात को अपनी ज़बान से बतलाया। और अपने क़लम से क़लमबंद किया। ये सब के सब चश्मदीद गवाह थे जिनके मरने से पहले ना सिर्फ अनाजील लिखीं गईं बल्कि यहूद और ग़ैर-यहूद अक़्वाम में अर्ज़-ए-मुक़द्दस के अंदर और बाहर मुख़ालिफ़ व मुवालिफ़ के हाथों में मुख़्तलिफ़ ममालिक के दूर दराज़ मुक़ामात और रूमी सल्तनत के कोने-कोने में पहुंच गईं।
हम ये अम्र नाज़रीन के ज़हन नशीन कर देना चाहते हैं कि अनाजील अरबा के वाक़ियात को बतलाने वाले और लिखने वाले ख़ुद चश्मदीद गवाह थे “जो शुरू से ख़ुद देख़ने वाले और कलाम के ख़ादिम थे।” (लूक़ा 1:2) इन अनाजील में कोई वाक़िया भी ऐसा नहीं है जो रिवायत पर मबनी हो और जिस की निस्बत किसी ने कहा हो कि मुझसे बयान किया ज़ैद ने और उस से बयान किया बक्र ने और उस से बयान किया उमर ने कि उसने सुना अपने बाप से कि उसने कहा मैंने सुना अपने बाप से जिसको बतलाया फ़ुलां ने कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़ुलां मुक़ाम पर फ़ुलां अंधे की आँखें इस तरह खोलीं। अनाजील अरबा में ना तो ताबईन के अक़्वाल पाए जाते हैं और ना “तबे ताबईन” के अक़्वाल मुन्दरज हैं। अनाजील के बयानात में ना तो कोई हदीस मक़तू (तराशा हुआ) है और ना मुक़ता (छांटा हुआ) है। इनमें ना हदीस मुर्सल (इरसाल किया गया) है और ना मुबहम (वो जिसका मतलब साफ़ ना हो) है। इनमें कोई बयान ऐसा नहीं जो “अन फ़ुलां” “व अन फ़ुलां” से बयान किया गया हो। यानी जिसमें सिर्फ समाई (सुनी सुनाई, रिवायती) अस्नाद हों। इस में कुछ शक नहीं कि जिन अँधों, लुंजों, मफ़लूजों वग़ैरह को आँख़ुदावंद ने अपनी मोअजज़ाना ताक़त से शिफ़ा बख़्शी थी उन्होंने अपने बेटों, अज़ीज़ों, दोस्तों और
वाक़िफ़कारों के हलक़े से ज़रूर इन अजीब मोअजिज़ों का चर्चा क्या होगा और उन के अज़ीज़ व अक़ारिब और अहबाब ने अपने बेटों पोतों वग़ैरह से ज़रूर कहा होगा कि मेरे भाई या बाप दादा को सय्यदना मसीह ने फ़ुलां मुक़ाम पर शिफ़ा बख़्शी थी और यूं रिवायत का सिलसिला क़ुदरती तौर पर तीसरी चौथी पुश्त तक बल्कि इस से भी आगे चला होगा। चुनान्चे जैसा हम आगे चल कर बतलाएंगे। बिशप पैपईस जैसे अश्ख़ास हमेशा इस जुस्तजू में लगे रहते थे कि एल्डरों (ताबईन) की ज़बान से ये मालूम करें कि इन्द्रियास या पतरस ने क्या कहा, या यूहन्ना या मत्ती और सय्यदना मसीह के शागिर्दों में से किसी और ने क्या कहा....... क्योंकि मेरा ये ख़याल था कि मैं ज़िंदा गवाहों के बयानात से किताबों के सफ़्हों की निस्बत ज़्यादा सीख सकता हूँ” लेकिन इंजीली बयानात जैसा हम ऊपर बतला चुके हैं इस क़िस्म की रिवायत से बिल्कुल मुस्तग़नी (आज़ाद, बरी) हैं और इन बयानात का रिवायत से रत्ती भर ताल्लुक़ नहीं। क्योंकि इन बयानात में ताबईन या तबे ताबईन यानी दूसरी या तीसरी या चौथी पुश्त के बयानात का शाइबा (शक) भी नहीं पाया जाता। अनाजील-ए-अर्बा (चारो इन्जीलों) को समझने के लिए ना किसी रिवायत की ज़रूरत है और ना रावियों के सिलसिले की ज़रूरत है। पस हमें ना तो रावियों के बयान के सिदक़ व कज़ब (सच्च और झूट) को जांचने के लिए उसूल क़ायम करने की ज़रूरत है और ना अस्मा-उर्रिजाल (लोगों के नाम, इस्तिलाह मुहद्दिसीन में अहादीस के रावियों के नाम, इल्म हदीस का शोबा जिसमें रावियान-ए-हदीस के नाम और हालात से बह्स की जाती है) के इल्म की ज़रूरत है। इस नुक्ते को हम इंशा-अल्लाह जिल्द दोम के हिस्सा चहारुम के बाब हश्तम में मुफ़स्सिल तौर पर वाज़ेह करेंगे। इंजीली बयानात सीधे सादे मोअतबर बयानात हैं जो सब के सब बग़ैर किसी इस्तिस्ना (दोहराई) के सादिक़ चश्मदीद गवाहों के बतलाए हुए और लिखे हुए हैं। दौरे अव्वलीन की पहली पुश्त और रसूलों के गुज़रने से पहले (जैसा हम इंशा-अल्लाह साबित कर देंगे) ना सिर्फ अनाजील अरबा बल्कि रसूलों के आमाल, मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत वग़ैरह लिखे गए और नक़्ल हो कर आँख़ुदावंद की वफ़ात के चालीस पचास साल के अंदर अंदर पहली सदी के इख़्तताम से बहुत पहले दूर-दराज़ के मुक़ामात और कलीसियाओं के हाथों में पहुंच गए थे।
(5)
इस सिलसिले में एक और अम्र नाज़रीन को फ़रामोश नहीं करना चाहिए। ये हज़ारों मुख़ालिफ़ व मुवालिफ़ गवाहों की जमाअत सबकी सब ख़वांदा (वो जो पढ़ना लिखना जानता
हो) थी। अहले-यहूद में बच्चों की तालीम जबरीया और लाज़िमी थी। बच्चों को पहले उन के घरों में तालीम दी जाती थी। वो पैदाइश ही से मज़्हबी फ़िज़ा में तालीम पाते थे। तौरात और सहाइफ़-ए-अम्बिया के मुतालए पर ज़ोर दिया जाता था। चुनान्चे रब्बी जनाई (Jannai) का यह क़ौल था कि :-
“बच्चा तौरात का इल्म माँ के दूध के साथ हासिल करता है।” कुतुब-ए-अह्दे-अतीक़ व जदीद इस हक़ीक़त की गवाह हैं कि यहूदी माएं अपने बच्चों की रुहानी तर्बियत और ज़हनी परवरिश में कोई दक़ीक़ा फ़र्द गुज़ाशत नहीं करती थीं।” (2 तमेर 1:5 वग़ैरह)
हर यहूदी बाप पर ये फ़र्ज़ आइद था कि वो अपने बेटे को तौरात और कुतुब-ए-अह्दे-अतीक़ का इल्म सिखलाए। जूंही यहूदी बच्चा बोलने के क़ाबिल होता उस को किताब-ए-मुक़द्दस की आयात हिफ़्ज़ कराई जातीं और जूँ जूँ वो क़दो क़ामत में बढ़ता उस को किताब-ए-मुक़द्दस के हिसस और मज़ामीर हिफ़्ज़ कराए जाते थे। यहूदी फिलासफर फ़ायलो कहता है :-
“यहूद गोया अपनी पैदाइश ही से वालदैन, उस्तादों और मुअल्लिमों से ये सीखते हैं कि ख़ुदा जो दुनिया का ख़ालिक़ है वो एक है। ये हक़ीक़त उन को पहले सिखलाई जाती है और इस के बाद उन को मूसवी शराअ और यहूदी रसूम की बातें बतलाई जाती हैं।"
यहूदी मुअर्रिख़ यूसीफ़स2कहता है :-
“हमारी क़ौम का सबसे बड़ा मक़्सद ये होता है कि हम अपने बच्चों को अच्छी तालीम दें और वो शरीअत के क़वानीन और आईन पर अमल करें ताकि किसी को भी ये कहने का मौक़ा ना मिले कि वो शरीअत से बे-ख़बर है।”
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1Philo, Leg ad Caium 31
2Josephus, Against Apion, 1,12, and 2,26
पाँच छः साल की उम्र में यहूदी बच्चा मक्तब को भेजा जाता था। पहली सदी मसीही में अर्ज़-ए-मुक़द्दस के हर शहर क़स्बे और गांव में ये मक्तब मौजूद थे। छः बरस के ऊपर के बच्चों की जबरिया तालीम लाज़िमी थी और उन की तालीम पर इस क़द्र ज़ोर दिया जाता था कि रब्बियों का ये फ़त्वा था कि किसी यहूदी के लिए ऐसे मुक़ाम में रहना हराम है जहां मक्तब ना हो। इबादत ख़ाने अक्सर औक़ात मक्तब का काम भी देते थे और इबादत ख़ाने का ख़ादिम या इमाम मक्तब का उस्ताद और बच्चों की ज़हनी तर्तीब और शरीअत की तालीम का ज़िम्मेदार होता था।
इन्जील जलील की कुतुब से ज़ाहिर है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के ज़माने में अर्ज़-ए-मुक़द्दस के कोने-कोने में इबादत ख़ाने मौजूद थे जिनमें आप और मुक़द्दस पौलुस अक्सर तालीम दिया करते थे (लूक़ा 4:11, आमाल 13:15, 44, 17:1, 12, 18:4, 19 वग़ैरह) आँख़ुदावंद के दिनों में फ़क़त यरूशलेम में इबादत ख़ानों का शुमार चार और पाँच सौ के दर्मियान3था। जो मकतबों का काम भी देते थे। तमाम अर्ज़-ए-मुक़द्दस में इन इबादत ख़ानों ने यहूदियत को एक वाहिद क़ौम बना दिया था। पस वो क़ौम की तक़वियत, इत्तिहाद और यक-जह्ती का बाइस थे। उन के मकतबों के तालीमी निसाब की वाहिद ग़र्ज़ ये थी कि यहूदी क़ौम का तहफ़्फ़ुज़ हो और यहूदियत पाइंदा और ज़िंदा रहे। और वह इसी मक़्सद के तहत मुरत्तिब किया जाता था कि क़ौम इस्राईल में क़ौमियत का जज़्बा और क़ौमी इत्तिहाद फले फूले। दिहात और क़स्बात के मकतबों से तालिबे इल्म इब्तिदाई और सानवी तालीम हासिल करके यरूशलेम के कॉलिजों में जाया करते थे (आमाल 22:3) इन तालीमी इदारों के तुफ़ैल अर्ज़-ए-मुक़द्दस के मुख़्तलिफ़ सूबों में और यरूशलेम के दर्मियान ना सिर्फ तबादला ख़यालात हो जाता बल्कि तलबा की तमाम ज़िंदगी एक ख़ास ढांचे में ढल जाती जो क़ौम इस्राईल की मज़बूती और इस्तिहकाम का बाइस थी।4
इन मकतबों और कॉलेजों में क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा पर ख़ास तौर पर ज़ोर दिया जाता था। तालीमी निसाब में ना सिर्फ किताब-ए-मुक़द्दस के हिसस (हिस्से की जमा) हिफ़्ज़ याद कराए जाते थे बल्कि इदारों के रब्बी अपनी और बुज़ुर्गों की ख़ास तालीम के अल्फ़ाज़ अपने शागिर्दों को रटाया करते थे। क़ुद्रतन हाफ़िज़े की क़ुव्वत बढ़ जाती और इन तालीमी इदारों
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3Fairweather, The Background of the Gospels pp.25-26
4Edersheim, Jesus the Messiah vol.1 Ch.9pp.227-232
के शागिर्द कुतुब-ए-तौरात और बुज़ुर्गों की रिवायत को अज़बर करने में ताक़ होते थे, और तोते की तरह रट कर सुनाया करते थे।
हासिल कलाम ये है कि ये हज़ारों चश्मदीद मुख़ालिफ़ व मुवालिफ़ गवाह सब के सब लिखे पढ़े ख़वांदा लोग थे जिनकी क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा सालों की तर्बीयत से निहायत तेज़ हो गई थी। पस अगर इन हज़ारों गवाहों में से एक या दो तीन सौ शख़्स भी ऐसे हों जिन्हों ने “इस पर कमर बाँधी जो बातें हमारे दर्मियान वाक़ेअ हुईं” उन को क़लमबंद करें और हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलमात को अहाता तहरीर में लाएं या उनको हिफ़्ज़ याद करके दूसरों तक पहुंचाएं तो ये एक निहायत क़ुदरती बात होगी क्योंकि बअल्फ़ाज़-ए-मुक़द्दस पतरस “मुम्किन नहीं कि जो हमने देखा और सुना है वो ना कहें।” (आमाल 4:20) बिल-ख़ुसूस जब ईमानदारों की जमाअत के उस्ताद ने उन से फ़रमाया था कि “तुम मेरे गवाह हो क्योंकि शुरू से मेरे साथ हो।” (यूहन्ना 15:27) पस आँख़ुदावंद की ज़फ़रयाब क़ियामत के बाद ये जान कर कि, “आस्मान और ज़मीन का कुल इख़्तियार सय्यदना मसीह को दिया गया है।” (मत्ती 28:18) ये चश्मदीद गवाह पहली सदी के ख़त्म होने से क़ब्ल “तमाम क़ौमों” में गए और उन को ख़ुशख़बरी दी कि जो कुछ हमने देखा और सुना है तुमको भी इस की ख़बर देते हैं ताकि तुम भी हमारे शरीक हो।” (1 यूहन्ना 1:3) उन्हों ने इंजीली वाक़ियात को क़लमबंद किया और कहा कि ये इसलिए लिखे गए हैं कि “तुम ईमान लाओ कि ईसा ही ख़ुदा का बेटा मसीह है और ईमान ला कर उस के नाम से ज़िंदगी पाओ।” (यूहन्ना 20:31) ईमानदारों की जमाअत के सदहा गवाहों में से हर एक को यही एहसास था कि ये मेरे लिए ज़रूरी बात है कि ख़ुशख़बरी सुनाऊँ बल्कि मुझ पर अफ़्सोस अगर ख़ुश-ख़बरी ना सुनाऊँ (रोमियों 9:16) वो कहते थे ये बातें हम इसलिए लिखते हैं कि हमारी ख़ुशी पूरी हो जाए।” (1 यूहन्ना 1:4)
बाब दोम
मसीही कलीसिया का आग़ाज़ और इन्जील
जलील की इशाअत
बाब अव़्वल में हम बतला चुके हैं कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) 30 ई॰ में मस्लूब हुए और आपकी जवानामर्ग के वाक़िया जान्काह के बाद हज़ारहा लोग जो आप के सवानिह हयात, मोअजिज़ात-ए-बय्यिनात और कलमात तय्यिबात के चश्मदीद गवाह थे आपकी वफ़ात के बाद कम अज़ कम चालीस (40) बरस तक यानी यरूशलेम की तबाही 70 ई॰ तक ज़िंदा रहे।
ये चालीस (40) साल का अर्सा इन्जील-ए-जलील के बयानात और इन बयानात की सेहत के लिए निहायत अहम ज़माना है। क्योंकि अगर इन्जीली बयानात में कोई फितूर पड़ सकता था तो इन ही पहले चालीस सालों के अर्से में पड़ सकता था। ये ज़माना गोया ज़ंजीर की अव्वलीन कड़ियाँ हैं और अगर ये कड़ियाँ कमज़ोर हैं तो इनके बाद की कड़ीयों का मज़्बूत होना अबस (बेकार) है। हमने अपनी किताब“सेहत कतुब-ए-मुक़द्दसा” में साबित कर दिया है, कि पहली सदी के बाद इन्जील-ए-जलील के मतन में किसी क़िस्म का फितूर वाक़ेअ नहीं हुआ। इस के बरअक्स इस के मतन की सेहत बेमिसाल है, लेकिन अगर पहली सदी के दौरान में इंजीली बयानात की सेहत में फितूर वाक़ेअ हो गया हो तो माबाअ्द की सदीयों में इनकी सेहत का साबित करना बेकार है। पस अस्ल सवाल वो चालीस (40) यक साल का वक़्फ़ा है जो वाक़ियात के रौनुमा होने और अनाजील के लिखे जाने के दर्मियान हाइल है। ये ज़माना अनाजील अरबा की तालीफ़ और मसीही कलीसिया के वजूद में आने और उस की हैरतनाक तरक़्क़ी से ताल्लुक़ रखता है। पस लाज़िम है कि हम इस ज़माने के ख़यालात, वाक़ियात और हालात का मुतालआ करें ताकि हम मालूम कर सकें कि अनाजील अरबा का वजूद किन हालात में रौनुमा हुआ और वो ज़रूरत क्या थीं जिनके तहत ये अम्र नागुरेज़ हो गया कि कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलमात और सवानिह हयात यूनानी ज़बान में लिखे जाएं। इस ज़माने के हालात का जायज़ा लेने के लिए मुक़द्दस लूक़ा की तस्नीफ़ात की जिल्द सानी “रसूलों के आमाल” और मुक़द्दस पौलुस रसूल के ख़ुतूत और
यहूदी मुअर्रिख़ यूसीफ़स की तसानीफ़ ख़ास तौर पर क़ाबिल-ए-एतबार और कारआमद तवारीख़ी माख़ज़ हैं।
इन किताबों से मालूम होता है कि जब आँख़ुदावंद आस्मान को सऊद फ़रमाए गए तो आप के रसूल, ईमानदारों की जमाअत दस रोज़ “दुआ में मशग़ूल” रही। दसवें दिन अहले-यहूद की ईद थी और इस दिन रूह-उल-क़ुद्स से मामूर हो कर उन्होंने अपनी तब्लीग़ी मुहिम शुरू की। ईद को मनाने के लिए ना सिर्फ अर्ज़-ए-मुक़द्दस के यहूदी आए हुए थे बल्कि यरूशलेम शहर में “पारथी, माद्दी, एलामी और मिसोपितामिया, कपदकिया, पंतुस आसीया, फ़िरौगिया, पमफ़ोलिया, मिस्र और लेवा के रहने वाले और करीति और अरब” भी थे। मुक़द्दस पतरस ने एक ज़बरदस्त तक़रीर की जिसका नतीजा ये हुआ कि “इसी रोज़ तीन हज़ार आदमियों के क़रीब उन में मिल गए।” और इस के बाद जो नजात पाते थे उन को ख़ुदावंद हर रोज़ उन में मिला देता था (आमाल 2 बाब) लोग चारों तरफ़ से रसूलों और मुबल्लिग़ों के “पास दौड़े” आते थे। (आमाल 3:11) जिसका क़ुदरती नतीजा ये हुआ कि “काहिन और हैकल के सरदार और बुज़ुर्ग और फ़क़ीह और सरदार काहिन हन्ना और काइफ़ा और यूहन्ना और सिकंदरिया और जितने सरदार काहिन के घराने के थे यरूशलेम में जमा हो गए।” (आमाल 4:1 ता 5) एक क़यामत-ए-सुग़रा बरपा हो गई। रसूलों को अदालत में घसीटा गया। धमकाया, पिटवाया गया। हवालात में क़ैद कर दिया गया लेकिन कोई फ़ायदा ना हुआ बल्कि उल्टा मर्ज़ बढ़ता गया जूँ जूँ दवा की, कलाम के सुनने वालों में से बहुतेरे ईमान लाए यहां तक कि मर्दों की तादाद पाँच हज़ार के क़रीब हो गई।” (आमाल 4:4)
तीन साल की मुतवातिर सज़ाओं के बावजूद तादाद बढ़ती ही गई “और ईमान लाने वाले मर्द व औरत ख़ुदावंद की कलीसिया में और भी कस्रत से आमिले।” (आमाल 5:14) “ख़ुदा का कलाम फैलता गया और यरूशलेम में शागिर्दों का शुमार बहुत ही बढ़ गया” मुआमला यहां तक बढ़ा कि “काहिनों की बड़ी गिरोह इस दीन की तहत हो गई। (आमाल 6:7) तब तो सरदार काहिन, वग़ैरह तिलमिला उठे और उन्हों ने “उन को क़त्ल करना चाहा।” हर जगह परवाने भेजे गए कि “जो इस तरीक़ पर पाए जाएं ख़्वाह मर्द ख़्वाह औरत उन को बांध कर यरूशलेम में “लाया जाये।” “यरूशलेम में बड़ा ज़ुल्म बरपा हुआ।” स्तिफ़नुस जो एक आलिम शख़्स और जोशीला मुबल्लिग़ था शहीद कर दिया गया। पस रसूलों के सिवा सब लोग यहूदिया और सामरिया के एतराफ़ में परागंदा हो गए।” (आमाल 8:1)
क्योंकि सरदार काहिन के एजैंट कलीसियाओं को “इस तरह तबाह करते कि घर-घर घुस कर और मर्दों और औरतों को घसीट कर क़ैद” करते थे। (आमाल 8:3) लेकिन इन तमाम आफ़तों के बावजूद मसीही कलीसिया दिन दुगुनी और रात चौगुनी तरक़्क़ी करती गई, क्योंकि “जो परागंदा हुए थे वो कलाम की ख़ुशख़बरी देते फिरे।” (आमाल 8:4) और यूं यहूदिया, गलील, सामरिया, अन्ताकिया, कप्रस, फ़ीनेके, लुस्तरा, दिर्बे, केसरिया, हब्श वग़ैरह दूर-दराज़ के मुक़ामात के रहने वालों को नजात का पैग़ाम मिल गया।
33 ई॰ में अहले-यहूद का सब से ज़बरदस्त जोशीला ईज़ा देने वाला एजैंट दमिश्क़ की कलीसिया को ईज़ा देने गया लेकिन मसीही हो गया और इस का नाम पौलुस रखा गया। (आमाल 9:18) वो जो पहले मसीहियों को क़त्ल करने की “धुन” में लगा रहता था अब निहायत जोशो-ख़रोश से हर यहूदी मर्द और औरत को सलीब का पैग़ाम सुनाने लग गया। इस पर अहले यहूद भड़क उठे और बादशाह हेरोदेस के पास फ़र्याद पहुंची जिसने 43 ई॰ में सताने के लिए कलीसिया में से बाअज़ पर हाथ डाला और याक़ूब को तल्वार से शहीद कर दिया।” (आमाल 12:2) मुक़द्दस पौलुस जहां कहीं गए अहले यहूद ने आप को हर जगह सताया और फ़ित्ना बरपा कर दिया। (आमाल 13:50, 17:5, 18:12, 20:3, 21:27 ता 30 वग़ैरह) आप को बेंतों से पिटवाया गया, क़ैद कराया गया और संगसार कर दिया गया हत्ता कि आपकी जान लेने की बार-बार कोशिश की गई। (आमाल 14:19, 16:33, 21:36, 22:22, 23:12 वग़ैरह) लेकिन कोई हिक्मत कारगर साबित ना हुई। इस का उल्टा नतीजा ये हुआ कि मुनज्जी जहाँ की मौत के पंद्रह साल बाद मुक़द्दस पौलुस ने ना सिर्फ यहूद बल्कि ग़ैर-यहूद में भी परचार करना शुरू कर दिया। (आमाल 13:1, 13:46, 18:6 वग़ैरह) आप सल़्तनत-ए-रूमा के मुख़्तलिफ़ शहरों और कस्बों में गए। और हर जगह तक़रीरें कीं और ऐसी तक़रीर की कि यहूदियों और यूनानियों की एक बड़ी जमाअत ईमान ले आई। (आमाल 14:1) “ख़ुदा ने ग़ैर-यहूद के लिए भी ईमान का दरवाज़ा खोल दिया।” (आमाल 14:27) और वो हर जगह ईमान ले आए। (आमाल 13:48) बिल- ख़ुसूस अन्ताकिया और सुरिया और किल्कियाह में हर जगह कलीसियाएं क़ायम हो गईं। (आमाल 15:23) और यह “कलीसियाएं ईमान में मज़्बूत और शुमार में रोज़ बरोज़ ज़्यादा होती गईं।” (आमाल 16:5) उनके साथ-साथ सल्तनत रूमा के मुख़्तलिफ़ शहरों में ख़ुदा-परस्त यूनानियों की एक बड़ी जमाअत और बहुतेरी शरीफ़ औरतें भी उन के शरीक हो गईं। (आमाल 17:4) और यह ईमानदार हर जगह इन्जील जलील के जाँफ़िज़ा पैग़ाम के अलमबरदार हो गए और इन्हों ने बेशुमार लोगों को ख़ुदावंद का हलक़ा बगोश कर लिया।
(आमाल 19:18) और “इसी तरह ख़ुदावंद का कलाम ज़ोर पकड़ कर फैलता और ग़ालिब होता गया।” (आमाल 19:20) यूं ख़ुदावंद की नजात का पैग़ाम मक़िदूनिया, थिस्सलुनिके, बैरिया, कुरिन्थुस, इफ़िसुस, रुम ग़र्ज़ ये कि सल़्तनत-ए-रुम के हर बड़े शहर और दूरदराज़ के मुक़ामात बल्कि हसपानिया तक फैल गया। मुक़द्दस पौलुस ने इन शहरों में 46 ई॰ के बाद दो तीन बार दौरा किया। कलीसियाओं को ख़ुतूत लिखे ताकि उन को ईमान की इस्तिक़ामत हासिल हो और वो दूसरों की नजात का बाइस बनें।
पस दवाज़दा (12) रसूलों और उन के मुरीदों ने अर्ज़-ए-मुक़द्दस के मुख़्तलिफ़ सूबों के शहरों, कस्बों और गांव में इन्जील जलील की इशाअत कर दी। ख़ास “यरूशलेम में शागिर्दों का शुमार बहुत ही बढ़ गया और काहिनों की बड़ी गिरोह मुनज्जी जहान के क़दमों में आ गई। (आमाल 6:7, 10:45, 14:1, 18:28 वग़ैरह) सय्यदना मसीह के ये जोशीले मुबल्लग़ीन अपने मुनज्जी की मुहब्बत में इस क़द्र सरशार थे कि उन्होंने सलीब के पैग़ाम की ख़ातिर हर तरह की ईज़ाएं बर्दाश्त कीं। उन को बेंत लगे। उन्हों ने कोड़े खाए, संगसार किए गए। क़ैद-ख़ानों में डाले गए। वो समुंद्र और दरियाओं के ख़तरों में, ख़ुशकी और डाकूओं के ख़तरों में, बियाबानों के ख़तरों में पड़े। भूक और प्यास की शिद्दत, फ़ाक़ाकशी, सर्दी और नंगे-पन वग़ैरह की उन्हों ने मुतलक़ परवाह ना की, उन्हों ने जान ब-कफ़ हो कर तीस (30) सालों के अंदर-अंदर अर्ज़-ए-मुक़द्दस और दीगर ममालिक के कट्टर यहूद को और यूनानी माइल यहूद को और बुत-परस्त मुश्रिक ग़ैर-यहूद को सलीब के नीचे लाकर कलीसिया में सबको शामिल करके एक वाहिद रसूली और पाक जामा कलीसिया की बुनियाद डाल दी। और “यहूदी क़ौम की सारी उम्मीद तोड़ दी।” (आमाल 12:11)
(2)
जब हम इन तीस (30) सालों के वाक़ियात पर तफ़्सीली नज़र डालते हैं तो हम पर अयाँ हो जाता है कि इन इब्तिदाई अय्याम की मसीही कलीसिया में हस्बे-ज़ैल गिरोह थे :-
(1) दवाज़दा (12) रसूल
(2) यहूदी मुरीद जो हज़ारों की तादाद में मुनज्जी जहान के हल्क़ा-ब-गोश हो गए थे। (आमाल 4:4, 6:7, 10:45) ना सिर्फ अर्ज़-ए-मुक़द्दस के यहूदी सय्यदना मसीह पर
ईमान ले आए थे बल्कि अर्ज़-ए-मक़ुदस के बाहर रहने वाले यहूद भी कलीसिया में जौक़-दर-जोक़ शामिल हो गए थे।..... (आमाल 2:41, 14:1, 13:5 वग़ैरह) अर्ज़-ए-मुक़द्दस के अंदर ख़ास यरूशलेम में “यहूदिया में हज़ारहा आदमी ईमान ले आए थे।” (आमाल 21:20) और उन में ख़ास तौर पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र “काहिनों की बड़ी गिरोह” है जो आँख़ुदावंद पर ईमान ले आई थी। (आमाल 6:7) उन की माद्दी ज़बान अरामी थी।
(3) इन कट्टर यहूदियों के इलावा “यूनानी माइल यहूद” हज़ारों की तादाद में मुशर्रफ़ ब मसीहिय्यत हो गए थे। ये यहूद यूनानी तहज़ीब और इल्म के दिलदादा और फ़राख़ दिल कुशादा ख़यालात के मालिक थे।” (आमाल 2:10, 6:1 वग़ैरह) उनकी मादरी ज़बान यूनानी थी। कलीसिया के पहले डेक्कन इसी गिरोह में से थे और कलीसिया का पहला शहीदाँ डेक्कनों में से एक था। (आमाल 7:60)
(4) इन कट्टर यहूद और यूनानी माइल यहूद के इलावा एक कसीर तादाद उन लोगों की मुनज्जी आलमीन (मसीह) पर ईमान ले आई थी जिनको अहले-यहूद “ख़ुदा-परस्त नव्-मुरीद” कहते थे। (आमाल 2:10, 13:43 वग़ैरह) ये लोग मज़्हब के यहूदी थे लेकिन क़ौम इस्राईल में से नहीं थे। ये वो यहूदी “नव-मुरीद” थे जिनकी निस्बत हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़क़ीहों और फ़रीसियों को मलामत करके फ़रमाया था कि “तुम एक मुरीद करने के लिए तरी और ख़ुशकी का दौरा करते हो और जब वो मुरीद हो चुकता है तो उसे अपने से दो गुना जहन्नम का फ़र्ज़न्द बना देते हो।” (मत्ती 23:15) ये यहूदी नव-मुरीद इबादत ख़ानों में जाते और यहूदी शरह पर अमल करते थे अगरचे वो ना मख़्तून थे। ये लोग मसीह मौऊद के तसव्वुर से वाक़िफ़ थे। क्योंकि इन्होंने मसीह मौऊद की बाबत यहूदी रब्बियों से तालीम पाई थी और वो इबादत ख़ानों में अह्दे-अतीक़ की कुतुब को सुनने के आदी हो चुके थे। उन को बाज़ औक़ात “ख़ुदा से डरने वाले” कहा जाता था। (आमाल 10:2, 13:16) इन यहूदी नव-मुरीदों ने भी हज़ारों की तादाद में सलीब के पर्चम के नीचे दुनिया-नफ़्स और शैतान से पनाह लेकर रुहानी तसल्ली हासिल की।
(5) मज़्कूर बाला चारों गिरोह यहूदी मज़्हब के ज़रीये मुनज्जी जहान (मसीह) पर ईमान लाए थे लेकिन अगरचे उन की तादाद “हज़ारहा” लोगों पर मुश्तमिल थी ताहम कलीसिया की अक्सरीयत उन की ना थी। बल्कि कलीसिया की अक्सरीयत उन लोगों की थी जो बुत-परस्त मुश्रिक अक़्वाम में से मुनज्जी जहान (मसीह) पर ईमान ले आए थे।
मुक़द्दस पौलुस रसूल ने जब देखा कि अहले यहूद “ख़ुदा का कलाम” रद्द करते हैं और अपने आपको हमेशा की ज़िंदगी के नाक़ाबिल” ठहराते हैं। (आमाल 13:46 वग़ैरह) तो आपने ग़ैर-यहूद मुश्रिक अक़्वाम को “ज़िंदगी का कलाम” सुनाना शुरू किया जिसकी वजह से आप “ग़ैर-अक़्वाम के रसूल” कहलाए (ग़लतियों 2:9, इफ़िसियों 3:7) जिसका नतीजा ये हुआ कि सल़्तनत-ए-रुम के हज़ारहा हज़ार बुत-परस्त परदेसी और मुसाफ़िर ना रहे बल्कि मुक़द्दसों के हम-वतन और ख़ुदा के घराने के हो गए।” (इफ़िसियों 2:19) ये तादाद रोज़-अफ़्ज़ूँ तरक़्क़ी करती गई हत्ता कि पहली सदी के अवाख़िर में लाखों पर मुश्तमिल हो गई।
इन हज़ारहा हज़ार मसीहियों को जो बुत-परस्त अक़्वाम से आँख़ुदावंद के हल्क़ा-ब-गोश हो गए थे क़ुदरती तौर पर यहूदी शरीअत से कोई ख़ास उन्स (लगाओ) ना था। यहूदी रसूम वरिवायत उन के लिए कोई मअनी ना रखती थीं। वो गुनाहों से नजात पाने के तालिब थे और बस। लिहाज़ा इस गिरोह में और कट्टर यहूदी मसीहियों में बिल-ख़ुसूस उन में जो यरूशलेम के रहने वाले थे क़ुदरती तौर पर कश्मकश शुरू हो गई। पहला गिरोह उन मख़्तूनों का था जो यहूदी रसूम वरिवायत के आशिक़ थे और शरीअत के बारे में सरगर्म थे। (आमाल 21:20) ये गिरोह कहता था कि “अगर मूसा की रस्म के मुवाफ़िक़ तुम्हारा खतना ना हो तो तुम नजात नहीं पा सकते।” (आमाल 15:1 ता 5 वग़ैरह) लेकिन आख़िरी गिरोह मुक़द्दस पौलुस के साथ इत्तिफ़ाक़ करके कहता था कि “अगर तुम खतना कराओगे तो मसीह से तुम को कुछ फ़ायदा ना होगा।” (ग़लतियों 5:2) पस इस बात को निपटाने के लिए कलीसिया की पहली कौंसल 48 ई॰ में यरूशलेम में मुनअक़िद हुई जिसमें ये फ़ैसला हुआ कि “ज़रूरी बातों के सिवा तुम पर (मूसवी शरह का कोई) और बोझ ना डालें कि तुम बुतों की क़ुर्बानियों के गोश्त से और लहू और गला घोंटे हुए जानवरों और हराम कारी से परहेज़ कर।” (आमाल 15:29) जूँ जूँ साल गुज़रते गए इन ग़ैर-यहूद अक़्वाम से नव-मुरीद बढ़ते गए और उन की तादाद यहूदी मसीहियों की तादाद से बढ़ती गई। यरूशलेम की तबाही (70 ई॰) के वाक़िये ने यहूदी क़ौम का शीराज़ा बिखेर दिया और वह परागंदा हो कर दुनिया के मुख़्तलिफ़ ममालिक में जा बसे। इस वाक़िये ने मसीही कलीसिया की भी काया पलट दी क्योंकि इस वाक़िये के बाद ग़ैर-यहूद मसीहियों की तादाद में बड़ी तेज़ी से रोज़ बरोज़ इज़ाफ़ा होता गया लेकिन चूँकि यहूदी परागंदा हो कर तितर बितर हो गए थे उनका रसूख़ और उन की तादाद क़ुदरती तौर पर मसीही कलीसिया में हर साल कम होती गई हत्ता कि पहली सदी के आख़िर में ग़ैर-यहूद मसीहियों की तादाद इस क़द्र ग़ालिब थी कि कलीसिया अमली तौर पर उन ही पर मुश्तमिल थी।
बाब सोम
अनाजील-ए-अर्बा का पस-ए-मंज़र
गुज़श्ता बाब में हमने नाज़रीन के सामने इब्तिदाई अय्याम की कलीसिया के हालात पेश किए हैं ताकि वो उन हालात से वाक़िफ़ हो कर ये जान सकें कि अनाजील क्यों लिखी गईं और वह किस तरह और किन हालात के मातहत लिखें गईं और वो तक़ाज़ा-ए-ज़माना क्या थे जिनकी वजह से वो मौजूदा यूनानी सूरत में लिखें गईं।
हम बाब-ए-अव़्वल में बतला चुके हैं कि इस ज़माने में ऐसे हज़ारहा लोग ज़िंदा थे जिन्हों ने आप अपने कानों से हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलमात-ए-तय्यिबात को सुना था और ख़ुद अपनी आँखों से आपके मोअजिज़ात-ए-बय्यिनात को देखा था उन में से सदहा (सैंकड़ों) थे जो ईमानदारों की जमाअत में शामिल हो गए थे और अपने हम-मज़्हब और क़ौम वालों को आपकी जाँफ़िज़ा तालीम और “तरीक़ नजात” (आमाल 16:17, 18:26, 9:9, 23, 24:14) का पैग़ाम देते थे। जब कलीसिया में लोग जौक़ दर जोक़ शामिल हो गए तो ये ज़रूरत पेश आई कि ईमानदारों की ये जमाअत नव मुरीदों को आँख़ुदावंद की तालीम व सवानेह हयात से मुत्लाअ करे। उन के ईमान की इस्तिक़ामत में मदद दे ताकि यहूदी इज़ार सानियों के तूफ़ान से और उन के ईमान की कश्ती डगमगा ना जाये। पस रसूलों ने इस चश्मदीद गवाहों की ईमानदार जमाअत को नई तशकील व तंज़ीम दी ताकि कलीसिया मुनज़्ज़म हो जाए। चुनान्चे अब कलीसिया में “रसूल” थे। फिर वो पहले शागिर्द (यानी सहाबा) जिन्हों ने “ख़ुदावंद को देखा” था। और जो “यूहन्ना के बपतिस्मा से लेकर सय्यदना मसीह के हमारे पास से उठाए जाने तक बराबर हमारे साथ रहे।” (आमाल 1:21) इस निज़ाम में “नबी” थे जो अम्बिया-ए-साबक़ीन की तरह रूह-उल-क़ुद्स के वसीले ख़ुदा की मर्ज़ी लोगों पर ज़ाहिर करते थे कलीसिया में शिफ़ा देने वाले प्रसबटर, डेक्कन, पास्टर, मुबश्शिर और मुअल्लिम वग़ैरह भी थे। चुनान्चे लिखा है, “ख़ुदा ने कलीसिया में अलग-अलग शख़्स मुक़र्रर किए। पहले रसूल दूसरे नबी, तीसरे उस्ताद, फिर मोअजिज़े दिखाने वाले, फिर शिफ़ा देने वाले, मददगार, मुंतज़िम, तरह-तरह की ज़बानें बोलने वाले, बशारत देने वाले चरवाहे बना कर दे दिया ताकि मुक़द्दस लोग कामिल बनें और ख़िदमत गुज़ारी का काम किया जाये और मसीह का बदन तरक़्क़ी पाए।” (आमाल 13:1, 15:22, 19:6, 1 कुरिन्थियों 12:28, इफ़िसियों 4:11 वग़ैरह) रसूल मुख़्तलिफ़ आदमियों को उन की लियाक़त के मुताबिक़ मुख़्तलिफ़ कामों के लिए दुआ और रोज़े के बाद चुन लेते थे। (आमाल 15:22, 6:3 वग़ैरह)
हम इन अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्मों) में से ख़ास तौर पर यहां दो क़िस्म के लोगों का ज़िक्र करना चाहते हैं यानी अव़्वल वो जो बशारत या मुनादी करते थे और दूसरे वो जो मुअल्लिम और उस्ताद थे और तालीम (Didache) देते थे। मुक़द्दस पौलुस रसूल के ख़ुतूत में इन दोनों क़िस्म के लोगों में तमीज़ की गई है। मुनाद मसीहिय्यत के उसूल की तालीम दिया करते थे लेकिन मुअल्लिमों का ये काम था कि वो इस मुनादी की तश्रीह और तौज़ीह करके अपने इल्म के ज़ोर से यहूद को क़ाइल करें।
बाअज़ मसलन पतरस रसूल सिर्फ़ मुनाद ही थे। (आमाल बाब 2 वग़ैरह; 2 पतरस 3:15 ता 16) लेकिन बाअज़ मुनाद और मुअल्लिम दोनों थे। मसलन पौलुस रसूल फ़रमाता है कि “हम मसीह मस्लूब की मुनादी करते हैं।” (1 कुरिन्थियों 1:23) लेकिन वो साथ ही मुअल्लिम भी है और कहता है कि “हम कामिलों में हिक्मत की बातें कहते हैं।” (1 कुरिन्थियों 2:6 वग़ैरह) ये मुनादी मसीहिय्यत के उसूल पर मुश्तमिल थी। ये मुनादी “न्यू” थी जिसको उस तौफ़ीक़ के मुवाफ़िक़ जो ख़ुदा ने मुनादों को बख़्शी थी “वो दाना मुअम्मार की तरह रखते थे और दूसरे इस न्यू पर इमारत उठाते थे।” (1 कुरिन्थियों 3:10) ये इमारत उठाने वाले मुअल्लिम या उस्ताद या मसीही रब्बी थे जिनको रसूल फ़रमाता है “हर एक ख़बरदार रहे वो कैसी इमारत उठाता है।” अगर कोई इस न्यू पर सोना या चांदी या बेशक़ीमत पत्थरों या लकड़ी या घास या भूसे का रद्दा रखे तो उस का काम ज़ाहिर हो जाएगा।” (1 कुरिन्थियों 3:12) पस न्यू एक ही थी जिसके कोने के सिरे का पत्थर ख़ुद मसीह येसू है। उसी में हर एक इमारत (यानी हर मुअल्लिम की निज़ाम-ए-तालीम) मिल मिला कर ख़ुदावंद में एक पाक मक़्दस बनता जाता है।” (1 कुरिन्थियों 3:11, इफ़िसियों 2:21 वग़ैरह) हर रसूल की “मुनादी” का नफ़्स-ए-मज़मून एक ही था। चुनान्चे पौलुस रसूल फ़रमाता है “ख़्वाह मैं हूँ ख़्वाह दूसरे रसूल हों हम यही मुनादी करते हैं और इसी पर तुम ईमान भी लाए।” (1 कुरिन्थियों 15:11)
मुक़द्दस पौलुस ने ये ख़त यहूद नव मुरीदों को आँख़ुदावंद की सलीबी मौत के 23 साल बाद 53 ई॰ में लिखा था। पस इन 23 सालों में और इन के पहले भी तमाम नब
मुरीदों को ख़्वाह वो यहूद थे या ग़ैर-यहूद एक ही मुनादी की जाती थी। अगर मुनादी के उसूलों की तश्रीह और तौज़ीह क़ुदरती तौर पर यहूद के लिए एक तरीक़े से की जाती थी और ग़ैर-यहूद को इसी मुनादी के उसूल दूसरे तरीक़ों से समझाए जाते थे।
पस सवाल ये पैदा होता है कि इस मुनादी का नफ्स-ए-मज़मून क्या था? लफ़्ज़ मुनादी के लिए इन्जील में यूनानी लफ़्ज़ (Kerygma) “क्रेगमा” इस्तिमाल किया गया है। इस लफ़्ज़ के फ़ेअल के माअनी हैं “नक़ीब-ए-शाही या ख़बर देने वाले मुनादी करने वाले के फ़राइज़ या ऐलान करना।” इस का मतलब ये है कि किसी पैग़ाम का इख़्तियार के साथ ऐलान करना। पस सवाल ये पैदा होता है कि इस मुनादी का नफ़्स-ए-मज़्मून क्या था जिसका ऐलान इख़्तियार और क़ुद्रत से किया जाता था।
इस मुनादी के नफ़्स-ए-मज़्मून को मालूम करने के लिए हमारे पास दो माख़ज़ हैं। अव़्वल पौलुस रसूल के ख़ुतूत के वो मुक़ामात जिनमें वो इब्तिदाई कलीसिया के अक़ाइद का ज़िक्र करते हैं, मसलन (रोमियों 1:2, अलीख; 10:9, 1 कुरिन्थियों 11:23 अलीख; 15:3 अलीख) वग़ैरह। दोम रसूलों के आमाल की किताब की तक़रीर जिनमें क़दीम तरीन अय्याम के बयानात हैं जो क़दीम से ही अरामी ज़बान में लिखे गए थे।
पौलुस रसूल के ख़ुतूत 50 ई॰ और 60 ई॰ के दर्मियान लिखे गए थे। लिहाज़ा वो भी क़दीम तरीन ख़ुशख़बरी और मुनादी के नफ़्स-ए-मज़्मून को मालूम करने के लिए निहायत कारआमद हैं। ये मुनादी इन ख़ुतूत के अहाता तहरीर में आने से बीस (20) साल पहले शुरू थी और कलीसिया में इब्तिदा ही से राइज होती चली आती थी। (1 कुरिन्थियों 15:3) मुक़द्दस पौलुस रसूल आँख़ुदावंद (मसीह) की वफ़ात के सिर्फ तीन साल बाद मसीही हो गए थे लेकिन ये ज़ाहिर है कि वो मसीही होने से पहले ही इस नए तरीक़ के उसूलों से वाक़िफ़ थे जब वो यरूशलेम में रब्बी गमलीएल के शागिर्द थे। (आमाल 22:3 ता 5; 20:35 वग़ैरह) अगर वो इन उसूलों से वाक़िफ़ ना होते तो उन को मसीहियों को “क़त्ल करने की धुन” ना होती।
पौलुस रसूल के मुक्तूबात (खतों) से हमको पता चलता है कि इस मुनादी का नफ़्स-ए-मज़्मून हस्बे-ज़ैल था :-
(1) अम्बिया-ए-साबक़ीन की नबुव्वतें पूरी हो गई और अब मसीह मौऊद की आमद से इस दुनिया में एक नया दौर शुरू हो गया है।
(2) सय्यदना मसीह जो मसीह मौऊद हैं वो इब्ने दाऊद हैं जिन्हों ने ख़ुदा की क़ुद्रत से मोअजज़ात किए।
(3) गो सय्यदना मसीह अहले-यहूद के मसीह मौऊद हैं लेकिन किताब-ए-मुक़द्दस की नबुव्वतों के मुताबिक़ ज़रूर था कि आप सलीबी मौत मरें ताकि आप दुनिया को इस बुरे ज़माने से नजात अता फ़रमाएं।
(4) मौत के बाद आप दफ़न किए गए।
(5) आप किताब-ए-मुक़द्दस के मुताबिक़ मौत पर फ़त्ह पाकर तीसरे रोज़ मुर्दों में से जी उठे।
(6) आप ख़ुदा के दाहने हाथ सर्फ़राज़ हैं। आप “ख़ुदा के बेटे” हैं और मुर्दों और ज़िंदों पर हुक्मरान हैं।
(7) आप बनी-आदम के मुनज्जी हैं और मुंसिफ़ हो कर अदालत के लिए फिर आने वाले हैं।
(8) पैग़ाम सुनने वालों को नसीहत, कि वो तौबा करें और बपतिस्मा पाकर गुनाहों की माफ़ी हासिल करें।
ये है नफ़्स-ए-मज़्मून इस ख़ुशख़बरी का जिसकी रसूल मुनादी करते थे। इन्जील में इस मुनादी को “ख़ुदा की बादशाहत की मुनादी” कहा गया है। मुक़द्दस पौलुस इस मुनादी को मसीह की मुनादी कहते हैं। रसूलों के आमाल की किताब में ये दोनों नाम मौजूद हैं। जिस के मुताबिक़ रसूल “येसू” की या “मसीह” की या “ख़ुदा की बादशाहत” की मुनादी करते थे।
मुक़द्दस पतरस रसूल की पहली चार तक़रीरें ये साबित कर देती हैं कि इब्तिदा ही से रसूल मज़्कूर बाला बातों की मुनादी करते थे। (आमाल 2:16, 3:18, 3:24, 2:30 31, 2:22, 3:22, 3:13 14, 2:24 31, 3:15, 4:10, 2:33 36, 3:13, 4:11, 5:31, 2:17 21, 5:32, 3:21, 10:42, 2:38 39, 3:19, 25-26, 4:12, 5:31, 10:43)
पस मुक़द्दस पतरस रसूल भी मुक़द्दस पौलुस की ताईद करते हैं। जिससे ये पता चलता है कि क़दीम तरीन अय्याम से तमाम रसूलों की मुनादी का नफ़्स-ए-मज़्मून वाहिद था ख़्वाह वो अहले-यहूद को नजात का पैग़ाम देते थे और ख़वाह वो बुत-परस्त ग़ैर-यहूद अक़्वाम में मुनादी करते थे। अनाजील-ए-अर्बा (चारो इंजील) इस बात की गवाह हैं कि दवाज़दा (बारह) रसूलों की मुनादी का नफ़्स-ए-मज़्मून बजिन्सा वही था जो हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने ख़ुद अपनी ज़बान मोअजिज़ा बयान से उनको सिखलाया था। हम इस नुक्ते पर इंशा-अल्लाह आगे चल कर मुफ़स्सिल बह्स करेंगे।
(2)
मुनज्जी कौनैन (दोनों जहां का बचाने वाले मसीह) की वफ़ात के दो साल के अंदर-अंदर ख़ास यरूशलेम में ईमानदारों का शुमार बहुत ही बढ़ता गया (आमाल 6:7) इस मुख़्तसर अर्से में ईमानदार अर्ज़-ए-मुक़द्दस के मुख़्तलिफ़ मुक़ामों, शहरों और कस्बों और गांव में फैल गए थे और शुमार में हज़ारों की तादाद में थे। इतनी बड़ी तादाद को तालीम देना कोई आसान काम नहीं था। लेकिन रसूलों ने ईमानदारों की जमाअत को नई तशकील दे दी थी। पस उन के हुस्न-ए-इंतिज़ाम की ख़ूबी ने ये मसअला हल कर दिया। उन्हों ने क़ाबिल और दयानतदार “खादिमों” (कुलस्सियों 1:7, 4:7, 4:12, रोमियों 16:6, 9, 12 वग़ैरह) और आलिम ईमानदारों के हाथों में तालीम का काम सौंप दिया।” मसलन पौलुस रसूल ने कुलिस्से के ग़ैर-यहूद तालिबान-ए-हक़ के लिए अपफ़रास को मुक़र्रर किया था कि उन को मसीही तरीक़ नजात की तालीम दे।” (कुलस्सियों 1:7, 4:7, 12 वग़ैरह) ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि “काहिनों की बड़ी गिरोह” भी आँख़ुदावंद की हल्क़ा-ब-गोश हो गई। (आमाल 6:7) “फ़रीसियों के इल्म परवर फ़िर्क़े में से भी ईमान ले आए थे।” (आमाल 15:5) वो निहायत मुक़तदिर और बारसूख शुमार किए जाते थे (आमाल 21:18-25 वग़ैरह) ये दोनो गिरोह उन लोगों को जो रसूलों और दीगर मुबल्लिग़ों की “मुनादी” के ज़रीये कलीसिया में शामिल किए जाते थे तालीम देते थे ताकि “जिस तरह उन्होंने मसीह येसू ख़ुदावंद को क़ुबूल” किया इसी तरह उस में चलते रहें और इस में जड़ पकड़ते और तामीर होते जाएं और जिस तरह उन्होंने तालीम पाई इसी तरह ईमान में मज़्बूत रहें।” (कुलस्सियों
2:7) ये काहिन और फ़रीसी आँख़ुदावंद की तालीम और सवानिह हयात के चश्मदीद जीते जागते गवाह भी थे। इन में से बाअज़ हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के खु़फ़ीया शागिर्द भी रह चुके थे और अपनी क़ौम के सरबर आवरदा लोगों में शुमार होते थे। (यूहन्ना 3:2, 23:50) ऐसे सरदारोँ की तादाद बहुत थी जो सय्यदना मसीह की हीन-ए-हयात में आप पर ईमान ला चुके थे। मगर एलानिया इक़रार नहीं करते थे। (यूहन्ना 12:42) अब ये तमाम सरबर आवरदा लोगों की जमाअत एलानिया सय्यदना मसीह पर ईमान ले आई थी। (आमाल 6:7, 15:5, 21:20 वग़ैरह) और उलमा का तब्क़ा कलीसिया में तालीम और दर्स व तदरीस के काम पर मामूर हुआ।
(3)
ज़ाहिर है कि उन बेशुमार ईमानदारों को सबसे ज़्यादा ज़रूरत इस बात की थी कि वो हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम और कलमात-ए-तय्यिबात से वाक़िफ़ हों। उन के उस्तादों और मुअल्लिमों ने ख़ुद अपने कानों से सय्यदना मसीह की ज़बान-ए-मोअजिज़ा बयान से मुख़्तलिफ़ औक़ात पर तालीम सुनी थी। पस वो इस बात के अहल थे कि दूसरों तक आपकी तालीम के उसूल पहुंचाएं और उन पर अम्बिया-ए-साबक़ीन और आँख़ुदावंद की ख़ुसूसी तालीम में जो फ़र्क़ है तफ़्सीली तौर पर ज़ाहिर करें।
हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ से इन मुअल्लिमों के हाथों में एक रिसाला भी था जो हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम और आपके कलमात-ए-तय्यिबात पर मुश्तमिल था। इस रिसाले में सय्यदना मसीह के दवाज़दा (12) रसूलों में से एक ने यानी मुक़द्दस मत्ती रसूल ने आपके कलमात को जमा कर रखा था। इस रिसाले का हम मुफ़स्सिल ज़िक्र आगे चल कर करेंगे। इन मुअल्लिमों के लिए ये रिसाला निहायत मोअतबर और कारआमद था। वो इस की मदद से उन नव मुरीदों को ऐसी बातें बतला सकते थे जिनके वो ख़ुद चश्मदीद गवाह नहीं थे। इस रिसाले की नक़्लें की गईं ताकि आँख़ुदावंद की तालीम से हरकिस व नाकिस (तमाम लोग) वाक़िफ़ हो जाए। इस रिसाले कलमात के इलावा इन इब्तिदाई अय्याम में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के अकवाल-ए-ज़रीं (बेशक़ीमत बातें) दीगर पारों में भी तहरीरी शक्ल में मौजूद थे, मसलन हमको हाल ही में मुल्क-ए-मिस्र में बाअज़ पारे
बाब सोम
अनाजील-ए-अर्बा का पस-ए-मंज़र
(टुकड़े) दस्तयाब हुए हैं जो पेपायरस पर लिखे हैं जिनमें (सय्यदना मसीह के नए कलमात) New Sayings of Jesus सबसे ज़्यादा मशहूर है।5
इनके इलावा आँख़ुदावंद के बाअज़ ऐसे मुस्तनद अक़्वाल मौजूद थे जो अनाजील अरबा (चारो इन्जीलों) में दर्ज नहीं हैं। मसलन मुक़द्दस पौलुस इफ़िसुस के बुज़ुर्गों से आख़िरी वसीयत करके कहता है कि “ख़ुदावंद मसीह की बातें याद रखना चाहिऐं कि उस ने ख़ुद कहा कि देना लेने से ज़्यादा मुबारक है।” (आमाल 20:35) बाअज़ ऐसे मोअतबर और मुस्तनद कलमात ग़ैर मुरव्वजा अनाजील में भी महफ़ूज़ हैं जो सीना ब सीना उन के मुसन्निफ़ों तक पहुंचे थे।
(4)
रसूल अपनी “मुनादी” में बार-बार अम्बिया-ए-साबक़ीन की किताबों और नबियों का हवाला देते थे। (आमाल 2:16, 25, 34, 4:11, 7 बाब, 10:43, 13:27, 32:38 वग़ैरह) वो यहूद के साथ “किताब-ए-मुक़द्दस से बह्स करते और इस के मअनी खोल-खोल कर दलीलें पेश किया करते थे।” (आमाल 17:2) अहले-यहूद को सय्यदना मसीह के क़दमों में लाने का ये क़ुदरती तरीक़ा था ताकि उन पर वाज़ेह हो जाए कि जिन बातों की रसूल मुनादी करते हैं वो “किताब-ए-मुक़द्दस के मुताबिक़” हैं। (1 कुरिन्थियों 15:3)
इस ज़माने में बाअज़ ऐसे लोग भी थे जिन्हों ने चश्मदीद गवाहों से आँख़ुदावंद की बाबत सुना था। एक ऐसे शख़्स का आमाल में ज़िक्र पाया जाता है। (आमाल 18:24-28) अपलोस एक आलिम शख़्स था जो “सिकंदरिया का रहने वाला ख़ुश तक़रीर, फ़सीहुल-बयान (ख़ुश-कलाम) और किताब-ए-मुक़द्दस का माहिर था।” जब वो इफ़िसुस में आया तो वो यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले का शागिर्द था। पस उस को “ख़ुदा की राह और ज़्यादा सेहत से बताई” गई और वो कुरिन्थुस की कलीसिया का उस्ताद बनाकर वहां भेजा गया। इस तरीके-कार से पता लगता है कि मुख़्तलिफ़ और दूर-दराज़ के मुक़ामात के ईमानदारों को तालीम देने का किस तरह बंदो-बस्त किया जाता था और यह मुअल्लिम किस पाये के आलिम होते थे। अपलूस ने “वहां पहुंच कर उन लोगों की बड़ी मदद की जो फ़ज़्ल के सबब
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5Rev.R. Dunkerely, The Reliability of the Gospels, Expositor Aug.1924
से ईमान लाए थे। क्योंकि वो किताब-ए-मुक़द्दस से येसू का मसीह होना साबित करके बड़े ज़ोर व शोर से यहूदियों को एलानिया क़ाइल करता रहा।” (आमाल 18:27-28)
अहले-यहूद में मसीही नजात की ख़ुशख़बरी का अह्सन तौर पर परचार नहीं हो सकता था तावक़्त ये कि अहद-ए-अतीक़ के हवालों से “मुनादी” की ताईद साबित ना हो। पौलुस रसूल का भी यही वतीरा (तरीक़ा) था मसलन वो थिस्सलुनिके में “दस्तूर के मुवाफ़िक़ किताब-ए-मुक़द्दस से यहूद के साथ बह्स" करते रहे और “खोल-खोल कर दलीलें पेश” करके ये साबित करते थे कि येसू ही मसीह मौऊद है और मसीह के लिए दुख उठाना ज़रूर था और कि मसीह किताब-ए-मुक़द्दस के मुताबिक़ मुर्दों में से जी उठा। (आमाल 17:2-3)
पस मसीही मुअल्लिमों और उस्तादों की फ़ाज़िल जमाअत के मसीही काहिनों और मसीह फ़रीसियों ने अम्बिया-ए-साबक़ीन की किताबों और अहद-ए-अतीक़ की दीगर कुतुब का ग़ाइर (गहरा) मुतालआ किया ताकि किताब-ए-मुक़द्दस के उन तमाम मुक़ामात का सब ईमानदारों को इल्म हो जाए जिनकी रु से आँख़ुदावंद की ज़िंदगी के वाक़ियात का होना ज़रूर था। पस उन्होंने अपने उस्ताद-ए-अज़ल के नमूने के मुताबिक़ ईमानदारों को “मूसा से और सब नबियों से शुरू करके सब नविश्तों में जो बातें उस के हक़ में लिखी हुई हैं वो उन को समझा दें।” (लूक़ा 24:27)
डाक्टर हैरिस Dr.Rendel Harris ने ये नज़रिया क़ायम किया कि क़दीम कलीसिया ने सय्यदना मसीह की मसीहाई साबित करने के लिए एक मुस्तक़िल रिसाले में कुल आयात और मुक़ामात जमा कर दिए थे। इस रिसाले को इस आलम ने (Testamonies) (रिसाला इस्बात) का नाम दिया। तीसरी सदी के दर्मियान में मुक़द्दस स्प्रेन ने भी एक इसी क़िस्म का रिसाला तालीफ़ किया था। लेकिन उस ने ये किताब ख़ुद तस्नीफ़ नहीं की थी बल्कि वो पहले ही से लिखी हुई थी। उसने सिर्फ इस की नज़र-ए-सानी करके इस में चंद ईज़ादियाँ (इज़ाफ़त) की थीं। डाक्टर हैरिस ने ये भी साबित कर दिया है कि इस क़िस्म की आयात के मजमुए तर-तलियाँ, आयरनियोस और जस्टिन शहीद की तस्नीफ़ात में भी पाए जाते हैं। इस आलिम ने ये भी साबित कर दिया है कि :-
(1) इन्जील जलील के मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ीन इस क़दीम कलीसिया के “रिसाला इस्बात” से इक़्तिबासात पेश करते हैं और कि :-
(2) इन इक़्तिबासात का मतन आम तौर पर सेप्टवाजिंट (SEPTUAGINT) के मतन के मुताबिक़ नहीं है। जिससे ये साबित होता है कि वो किसी दूसरे यूनानी तर्जुमे का इस्तिमाल करते हैं। डाक्टर मौसूफ़ का ये भी नज़रिया है कि :-
(3) इन्जील की कुतुब के मुसन्निफ़ीन के इस्तिमाल से पहले ही इस “रिसाल इस्बात” की बाअज़ मुख़्तलिफ़ आयात एक दूसरे से बाहम पैवस्ता थीं। और इसी वास्ते इन्जील के मुसन्निफ़ीन ने इन आयात का इकट्ठा इक़्तिबास किया है। मसलन (मर्क़ुस 1:2, 3) में मलाकी और यसअयाह की कुतुब की आयात जो इकट्ठी लिखी हैं वो इस वास्ते इकट्ठी लिखी गईं हैं क्योंकि वो इस इन्जील के लिखे जाने से पहले “रिसाला इस्बात” में इकट्ठी की गई थीं।
डाक्टर मौसूफ़ का ये ख़याल है कि इस रिसाला इस्बात में इस के मुसन्निफ़ों ने किताब-ए-मुक़द्दस की आयात को मुख़्तलिफ़ उनवानात के मातहत उन के मौज़ू के मुताबिक़ इकट्ठा जमा किया गया था जिस तरह तीसरी सदी में मुक़द्दस स्प्रेन ने किया था।
तमाम हालात को मद्द-ए-नज़र रखकर ये आलिम इस नतीजे पर पहुंचा है कि ये “रिसाला इस्बात” अगर क़दीम तरीन रिसाला नहीं तो कम अज़ कम क़दीम तरीन ज़माने से मुताल्लिक़ है और इन्जील जलील की तमाम कुतब से पहले अहाता तहरीर में आया था।6
उन यहूदी नव मुरीदों के लिए ये लाज़िमी अम्र था कि इस बात को जानें कि मसीह मौऊद के लिए ये क्यों “ज़रूर” था कि वो सरदार काहिनों और फ़क़ीहों के हवाले किया जाये और वो उस के क़त्ल का हुक्म दें और “यहूद अपने मसीह को” ग़ैर क़ौमों के हवाले करें जो उसे ठट्ठों में उड़ाऐँ और उस पर थूकें और उसे कोड़े मारें और क़त्ल करें।” (मर्क़ुस 1:33-34) इन्जील-ए-जलील के नाज़रीन को याद होगा कि जब आँख़ुदावंद ने अपने रसूलों को सलीब की ख़बर दी थी तो उनका रद्द-ए-अमल ये था, ”ऐ ख़ुदावंद, ख़ुदा ना करे। ये तुझ पर हरगिज़ नहीं आने का।” (मत्ती 16:32) अहले-यहूद के ख़याल में मसीह मौऊद और सलीबी मौत दो मुतज़ाद (एक दुसरे के खिलाफ) तसव्वुर थे। “मसीह मस्लूब यहूदियों के नज़्दीक ठोकर” था। (1 कुरिन्थियों 1:23) पस मसीही मुअल्लिमों के लिए ज़रूर हुआ कि
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6C.H.Dodd, According to Scriptures (1953)
वो नव मुरीदों को मुफ़स्सिल तौर पर इन वाक़ियात और अस्बाब से मुत्लाअ करें जिनकी वजह से मसीह मौऊद मस्लूब हुए और आप के “दुखों” की तफ़सीलात बतलाएं जो आप की ज़िंदगी के आख़िरी चौबीस घंटों में आपके पेश आएं। इन मुअल्लिमों ने नव मुरीदों पर ये भी साबित करना था कि “सलीब का पैग़ाम हलाक होने वालों के नज़्दीक तो बेवक़ूफ़ी है मगर हम नजात पाने वालों के नज़्दीक ख़ुदा की क़ुद्रत है।” (1 कुरिन्थियों 1:18)
पस मुअल्लिमों को इब्तिदाई अय्याम ही में ये ज़रूरत पेश आई कि सलीबी वाक़िये का एक मरबूत और मुसलसल बयान मुरत्तिब करें ताकि नव मुरीद इस वाक़िये की तफ़सीलात से आगाह हो जाएं और उन पर इन वाक़ियात की अस्ल वजह और गायत भी मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हो जाए कि इस क़िस्म के रूह फ़र्सा और जाँ का वाक़ियात का मसीह मौऊद के दरपेश होना क्यों ज़रूर था।
सलीबी वाक़िये की चश्मदीद गवाह “एक बड़ी भीड़” थी। (मर्क़ुस 15:12, लूक़ा 23:27 वग़ैरह) जो ईद के मौक़े पर अर्ज़-ए-मुक़द्दस के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात से यरूशलेम में जमा हुई थी। इस भीड़ में यरूशलेम के रहने वाले भी थे। जब इन चश्मदीद गवाहों में से सदहा आँख़ुदावंद के हल्क़ा-ब-गोश हो गए तो उन्हों ने जो देखा और सुना था लोगों से बयान किया। अनाजील अरबा (चारो इन्जीलों) के ग़ाइर मुतालआ से साबित है कि जिस तरह मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं ने आँख़ुदावंद के अक़्वाल को मुख़्तलिफ़ पारों (हिस्सों) में जमा कर रखा था, इसी तरह सलीबी वाक़िये के मुख़्तलिफ़ बयानात मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं में मुरव्वज थे। इन बयानात में क़ुदरती तौर पर तफ़्सीली और जुज़वी बातों में मामूली इख़्तिलाफ़ात थे ताहम ये बयानात मजमूई तौर पर एक दूसरे से इत्तिफ़ाक़ करते थे। चुनान्चे इन्जील मर्क़ुस का बयान बुनियादी है और मुक़द्दस मत्ती की इन्जील का बयान इस की मह्ज़ दूसरी ऐडीशन है जिसमें चंद दीगर बातें ईज़ाद (इज़ाफ़ी) कर दी गई हैं। मुक़द्दस लूक़ा का बयान ज़्यादा मुकम्मल है उस की प्लानदेही इन्जील दोम की ही है जिससे ज़ाहिर है कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के सलीबी वाक़िये का बयान क़दीम तरीन ज़माने से चला आता है। और यह वो बयान है जिसको इब्तिदाई अय्याम की कलीसिया के मुअल्लिमों ने मुख़्तलिफ़ चश्मदीद गवाहों के बयानात से “तर्तीबवार” मुरत्तिब किया था। (लूक़ा 1:1) ताकि नव मुरीदों को आँख़ुदावंद के सलीबी वाक़ियात और उन की तफ़सीलात से आगाही हो जाए। चुनान्चे बी॰ ऐच॰ बरनीज़ कोम्ब अपनी तफ़्सीर में कहता है कि सय्यदना मसीह के :-
“सलीबी वाक़िये का बयान तहरीर में आ चुका था।”7
दौर-ए-हाज़रा के नक़्क़ाद जो फ़ार्म क्रिटिक Form Critic कहलाते हैं मुत्तफ़िक़ा आवाज़ से बबांग दहल ऐलान करते हैं कि क़दीम कलीसिया में सबसे पहले सलीबी वाक़िये के बयान मुसलसल तौर पर लिखे गए थे।
अंग्रेज़ आलिम विनसंट टेलर Vincent Taylor8कहता है :-
“सलीबी वाक़िये का बयान जो अनाजील अर्बा (चारो इन्जीलों) में महफ़ूज़ है दीगर इंजीली बयानात से इस बात में मुख़्तलिफ़ है कि वो मुसलसल और मरबूत है जिससे ज़ाहिर है कि वो शुरू से चला आता है। इस का तर्ज़ बयान और तर्तीब इस की सदाक़त पर गवाह है और साबित करती है कि ये बयान एक तवारीख़ी हक़ीक़त है।”
जर्मन आलिम ऐडवर्ड मेयर Edward Meyer कहता है9कि :-
“आख़िरी फ़सह का बयान इन्जील के क़दीम तरीन हिसस (हिस्सों) से मुताल्लिक़ है गतसमनी और गिरफ़्तारी के बयान साफ़ ज़ाहिर करते हैं कि ये मुक़द्दस पतरस की ज़बान के बयान हैं। (मर्क़ुस 12 बाब) के वाक़ियात इस वज़ाहत से लिखे गए हैं कि आँखों के सामने इनका समां बंद जाता है और वह ख़ारिजी हालात के भी एन मुवाफ़िक़ हैं। इस में किसी क़िस्म के शक की गुंजाइश नहीं कि इस बयान का सरचश्मा मोअतबर तरीन है। अगर ये बयानात बाद के ज़माने के लिखे होते तो वो इस क़िस्म के ना होते। मसलन लिखा है कि मसीह दौरान-ए-मुक़द्दमे में तक़रीबन ख़ामोश रहे लेकिन अगर ये बयान बाद के ज़माने में लिखे जाते तो वो अनाजील मौज़ूआ के बयानात के से होते। जिनमें आँख़ुदावंद यूहन्ना रसूल से, सदर अदालत वालों से, हेरोदेस से और पिलातूस वग़ैरह
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7B.H.Brans Comb Moffat, Commentary on Mark p.xxxiv
8Vincent Taylor, The Formation of the Gosple Tradition (1933).p45
9Ibid.p.46
से लंबी चौड़ी गुफ़्तगु और बह्स करते हैं। पस वाक़िया सलीब के इंजीली बयानात क़दीम तरीन और सही तरीन हैं।”
डाक्टर विनसंट टेलर अपनी किताब में सवाल करता है,10कि जब मुक़द्दस पौलुस फ़रमाता है कि “मसीह किताब-ए-मुक़द्दस के मुताबिक़ हमारे गुनाहों के लिए मुआ।” (1 कुरिन्थियों 15:3) तो वो किताब-ए-मुक़द्दस के किस हिस्से की तरफ़ इशारा करता है? बाअज़ कहते हैं कि आपका मतलब यसअयाह 53:5 6, 8, 11-12, दानीएल 9:26, ज़करीयाह 13:7, यूनाह 1:17, ज़बूर 16:8-11) वग़ैरह के मुक़ामात से था। लेकिन बस मन Bus Mann कहता है कि ना सिर्फ इन मुक़ामात में से कोई भी पौलुस रसूल के ज़हन में ना था बल्कि वो अह्दे-अतीक़ की किसी किताब की तरफ़ इशारा नहीं करते बल्कि किताब-ए-मुक़द्दस से आपका मतलब सलीबी वाक़िये के उन बयानात से था जो कलीसिया में मौजूद थे। आपका मतलब दर-हक़ीक़त उन इब्तिदाई बयानात से है जिनका ज़िक्र मुक़द्दस लूक़ा अपने दीबाचे में करते हैं (लूक़ा 1:1) ये आलिम कहता है कि 1 कुरिन्थियों 15:3 से ज़ाहिर है कि सलीबी वाक़िये का बयान अहाता तहरीर में आ चुका था और कलीसियाओं के हाथों में मौजूद था। श्मिट Schmidt भी कहता है कि सलीबी वाक़िये का एक मुसलसल और मरबूत बयान, सारे का सारा इबादत के दौरान में दर्द के तौर पर पढ़ा जाता था।11
पस ज़ाहिर है कि इब्तिदाई अय्याम से इन मुअल्लिमों ने जो इल्म व फ़ज़्ल के लिहाज़ से मुम्ताज़ थे कलीसिया के हाथों में ना सिर्फ “रिसाला कलमात” और “रिसाला इस्बात” दे दिया था बल्कि उन नव मुरीदों की ख़ातिर एक रिसाले में मुसलसल मरबूत बयान भी लिख दिया था। जिसमें मुनज्जी आलमीन (मसीह) की ज़िंदगी के आख़िरी दिनों और आख़िरी वाक़ियात का बयान तर्तीबवार मुरत्तिब था।
चूँकि सलीबी वाक़िया यरूशलेम के शहर में वाक़ेअ हुआ था लिहाज़ा इस का तर्तीबवार मुसलसल बयान भी आलम-ए-वजूद में जल्दी आ गया। लेकिन आँख़ुदावंद अपनी ज़फ़रयाब क़ियामत के बाद मुख़्तलिफ़ लोगों को अर्ज़-ए-मुक़द्दस के मुख़्तलिफ़ सूबों और मुक़ामों में नज़र आए थे। लिहाज़ा वो बयानात जो आपकी क़ियामत से मुताल्लिक़ हैं मुसलसल और तर्तीबवार नहीं हैं बल्कि मुंतशिर (बिखरा हुआ) क़िस्म के हैं क्योंकि वो मुख़्तलिफ़
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10 Ibid p.49
11 Ibid p.48
कलीसियाओं में मुरव्वज थे। जिनको इन्जील नवीसों ने बड़ी काविश के बाद मुख़्तलिफ़ लोगों और मुक़ामों से बाद में इकट्ठा किया। चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस की एक फ़ेहरिस्त है। (1 कुरिन्थियों 15:4-8) आमाल 22 और 26 बाब में आपके बयानात हैं। बाअज़ बयानात यरूशलेम से मख़्सूस हैं। लूक़ा 24 बाब में सूबा गलील में दिखाई देने के बयान नहीं हैं। (लूक़ा 24:34 और 1 कुरिन्थियों 15:5) में ज़िक्र है कि आँख़ुदावंद मुक़द्दस पतरस को नज़र आए। लेकिन अनाजील अरबा में इस वाक़िये का बयान पाया नहीं जाता। जिसका मतलब ये है कि ख़ुदावंद के वाक़िया क़ियामत में कोई ऐसी तर्तीब मौजूद नहीं जैसी वाक़िया सलीब में पाई जाती है जिसका बयान मुसलसल और मरबूत है।
(5)
जब ग़ैर-यहूद अक़्वाम में से भी नव मुरीद जौक़-दर-जोक़ मसीही कलीसिया में दाख़िल हो गए तो उन के लिए भी ये तीनों मुन्दरिजा बाला रिसाले बड़े काम के थे। पस ये रिसाले उन नव मुरीदों के लिए यूनानी ज़बान में तर्जुमा किए गए क्योंकि पहले-पहल जब ये लिखे गए थे तो क़ुदरती तौर पर वो अरामी ज़बान में मुरत्तिब किए गए थे। इन रिसालों में से बिलख़ुसूस “रिसाला कलमात” ग़ैर-यहूद की ज़रुरियात को पूरा करता था। पस इस के यूनानी ज़बान में कई तर्जुमे किए गए। इनमें से दो तर्जुमों का ज़िक्र हम इंशा-अल्लाह आगे चल कर करेंगे।
जब कलीसिया में यहूदी और ग़ैर-यहूदी हज़ारों की तादाद में शामिल हो गए तो उस्तादों और मुअल्लिमों की फ़ाज़िल जमाअत के सामने तरह-तरह के मसअले और क़िस्म क़िस्म के सवाल नव मुरीदों की दोनों मुख़्तलिफ़ जमाअतों ने पेश किए ताकि वो उनका हल ढूंढें और उन के सवालों का जवाब दें ताकि मसीही कलीसिया के अफ़राद की रुहानी ज़रूरियात पूरी हो सकें। बाअज़ नक़्क़ादों ने जो “फ़ार्म क्रिटिक्स” (form critics) कहलाते हैं form critics इन सवालात को चार अक़्साम (किस्मों) के बतलाया है :-
(1) ये नव मुरीद चाहते थे कि मसीही ईमान और अमल के बारे में उन की हिदायत हो सके। मसलन बुज़ुर्गों की रिवायत और सबत के अहकाम के मुताल्लिक़ उनका क्या रवैय्या होना चाहिए? (मर्क़ुस 7:1 ता 6) मूसवी शरीअत के मुताल्लिक़ उन को क्या करना चाहिए? (आमाल 15:1 वगैरह) फ़क़ीहों और फ़रीसियों की रास्तबाज़ी और उन की रास्तबाज़ी में क्या फ़र्क़ है? (मत्ती 5:20, 3:15 वग़ैरह) दुश्मनों से मुहब्बत क्यों करें? ख़ैरात, दुआ,
रोज़ा, हराम हलाल वग़ैरह के क्या अहकाम हैं? बेईमानों का और ईमानदारों का अंजाम क्या होगा? सय्यदना मसीह कब वापिस आएँगे? वग़ैरह-वग़ैरह। इन सवालों के जवाब में वो गवाह और रसूल जिन्हों ने आँख़ुदावंद से इन और दीगर मसाइल पर गुफ़्तगु की थी हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के इन कलमात का ज़िक्र करते थे जो उन्हों ने कानों से सुने थे। इन वाक़ियात और कलमात को मुख़्तलिफ़ पारों में जमा किया गया ताकि दूर दराज़ के मुक़ामात के नव मुरीद उन से फ़ायदा हासिल कर सकें।
(2) ये नव मुरीद क़ुदरती तौर पर आँख़ुदावंद के सवानिह हयात और कलमात-ए-तय्यिबात से वाक़िफ़ होना चाहते थे। इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए “रिसाला कलमात” की नक़्लें की गईं, ताकि क़स्बात, मुज़ाफ़ात और दय्यार व अम्सार की कलीसियाएं ईमान में मज़्बूत हो जाएं। इस के इलावा हज़ारों चश्मदीद गवाह ज़िंदा थे जो मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में रिहाइश गज़ीं थे और मुक़ामी कलीसियाओं से आँखुदावंद के मोअजिज़ात-ए-बय्यिनात और सवानिह हयात का ज़िक्र करते थे और यूं नव मुरीदों के ईमान की इस्तिक़ामत (क़ियाम) का बाइस थे। उन के बयानात मुख़्तलिफ़ पारों में मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं के लिए लिखे गए थे और मुअल्लिमों की जमाअत उनको तालीम देती थी।
(3) तीसरी क़िस्म के सवालात का ताल्लुक़ इबादत के साथ था। आमाल की किताब से ज़ाहिर है कि यहूदी नव मुरीद क़दीम-उल-अय्याम में हैकल में इबादत करने के इलावा अपनी ख़ास इबादत किया करते थे। (आमाल 1:13, 2:1, 46, 4:23 3:1 वग़ैरह) इन इबादतों में वो उन ख़ास बातों को अदा करते जो उन से मख़्सूस थीं यानी इशा-ए-रब्बानी वग़ैरह। (आमाल 2:46, 1 कुरिन्थियों 10:16 ता 17 वग़ैरह) उन इबादतों में वाअज़ भी होते जिनमें मुनज्जी आलमीन (मसीह) के किरदार व गुफ्तार बतलाए जाते थे (आमाल 20:9 वग़ैरह) यहूद और ग़ैर-यहूद क़ुर्बानियां करते थे और नज़रें गुजरानते थे। पस ये सवाल पैदा हुए कि क्या बुतों के आगे क़ुर्बानी करना या हैकल में क़ुर्बानियां गुजरानना जायज़ है? क्या क़ुर्बानियों के गोश्त को खाना जायज़ है वग़ैरह-वग़ैरह।
(4) चौथी क़िस्म के सवालों का ताल्लुक़ बह्स से था। जब यहूद या ग़ैर-यहूद में से कोई नव मुरीद होता तो क़ुद्रतन लोग इस पर टूट पड़ते और ईज़ाओं के इलावा इस पर सवालों की बोछाड़ होती थी। पस नव मुरीदों को जायज़ व नाजायज़ सवालों का जवाब देना होता था। इस के लिए उन के पास बेहतरीन जवाब वो थे जो आँख़ुदावंद ने ऐसे मौक़ों पर
ख़ुद दिए थे। हज़ारों लोगों ने हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के जवाबात को ख़ुद सुना था जिनको सुनकर वो “ताज्जुब करते थे।” (लूक़ा 20:26) ऐसा कि फिर किसी को सवाल करने की जुर्आत ना होती थी। (लूक़ा 20:26) ऐसे वाक़ियात और अक़्वाल भी क़ुदरती तौर पर मुख़्तलिफ़ औक़ात में और मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में पारों (टुकड़ों) में जमा किए गए थे ताकि कलीसियाओं के लिए और नव मुरीदों के लिए शम्मा हिदायत हों।
पस कलीसिया के वजूद के इब्तिदाई अय्याम के पहले दस (10) सालों में ही इन उस्तादों और मुअल्लिमों की फ़ाज़िल जमाअत ने वो तमाम बयानात जमा कर लिए जिनका ताल्लुक़ कलीसिया की ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी से था। इस दूर अंदेश रवैय्ये की वजह से कलीसिया को बक़ा और ईमान की इस्तिक़ामत मिली। ये बयानात चश्मदीद गवाहों की बयान-कर्दा मोअतबर बातें थीं जिनको हज़ारहा लोगों ने ख़ुद अपने कानों से सुना और अपनी आँखों से देखा था, और जिन में से बाअज़ वाक़ियात के ये फ़ाज़िल मुअल्लिम ख़ुद भी चश्मदीद गवाह थे। ये बयानात मुख़्तलिफ़ पारों (टुकड़ों) में जमा थे जो मुख़्तलिफ़ लोगों और मुक़ामों की कलीसियाओं और बिलख़ुसूस यरूशलेम की कलीसिया के पास महफ़ूज़ थे। उस्तादों और मुअल्लिमों की फ़ाज़िल जमाअत हर जगह और बिलख़ुसूस यरूशलेम में इन पारों और रिसालों की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदार थी।
(6)
इस्लामी तारीख़ में रसूल अरबी की रहलत के बाद ही मुख़्तलिफ़ सियासी जमाअतें पैदा हो गईं जिन्हों ने अपने अग़राज़ व मकासिद की तक्मील और फरीक़े मुख़ालिफ़ को ज़क (शिकस्त) देने के लिए क़ुरआनी आयात में कम व बेशी की और अहादीस को वज़ा किया। इन जमाअतों का इख़्तिलाफ़ क़ौमी, मज़्हबी, सियासी और एतिक़ादी, ग़र्ज़ सभी क़िस्म का था। लेकिन सय्यदना मसीह की ज़फ़रयाब क़ियामत के बाद मसीही कलीसिया का ये हाल ना था। सब ईमानदार “एक दिल हो कर जमा हुआ करते और ख़ुशी और सादा दिली से ज़िंदगी गुज़ारते थे।” (आमाल 1:14, 2:46, 4:24, 5:12 वग़ैरह) हत्ता कि जब ग़ैर-यहूद का खतना होने की वजह से उन में इफ़्तिराक़ (जुदाई) पैदा हुआ तब भी “रसूल और बुज़ुर्ग और सब ईमानदार” ऐसे नाज़ुक अय्याम में यकदिल रहे। (आमाल15:22-24) पस सय्यदना मसीह की ज़फ़रयाब क़ियामत के बाद अनाजील अरबा (चारो इंजील) की तालीफ़ के ज़माने तक हालात-ए-ज़माने की वजह से इन क़दीम तरीन पारों (हिस्सों) और रिसालों
में किसी क़िस्म का फ़र्क़ या फ़ुतूर पैदा ना हुआ, बल्कि वो बजिन्सा (वैसे ही) लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ वैसे ही रहे जैसे उन के सिका (मोअतबर) और चश्मदीद गवाहों ने लिखा था। और कलीसिया के उस्तादों और मुअल्लिमों की फ़ाज़िल जमाअत उन पारों (हिस्सों) और रिसालों की हाफ़िज़ और ज़िम्मेदार रही।
बाब चहारुम
चश्मदीद गवाहों के ज़बानी और
तहरीरी बयानात
फ़स्ल अव़्वल
ज़बानी बयानात के नज़रिये की तन्क़ीद
गुज़श्ता बाब में हमने बतलाया है कि कलीसिया के फ़ाज़िल उस्तादों और मुअल्लिमों की जमाअत ने सदहा चश्मदीद गवाहों के बयानात को जमा करके उन को रिसालों की शक्ल में तर्तीब दे दिया था और कि अर्ज़-ए-मुक़द्दस के दीगर शहरों और कस्बों में भी सदहा (सैंकड़ों) चश्मदीद गवाह मौजूद थे, जिसकी शहादतें मुख़्तलिफ़ पारों (हिस्सों) में उन मुक़ामात की कलीसियाओं ने उन इब्तिदाई अय्याम में महफ़ूज़ रखी थीं। चुनान्चे मुक़द्दस लूक़ा अपनी इन्जील के दीबाचे में इन रिसालों और पारों की जानिब इशारा भी करता है लेकिन मग़रिबी ममालिक के बाअज़ क़ाबिल उलमा मसलन बिशप विस्टिकट और डाक्टर राइट जैसे पाया के फ़ाज़िल कहते हैं कि चश्मदीद गवाहों के बयानात अहाता तहरीर में साल-हा-साल तक नहीं आए थे बल्कि जब तक अनाजील लिखी नहीं गईं ये बयानात सीना बसीना चालीस पचास साल तक ज़बानी हिफ़्ज़ किए जाते थे। और दूसरों तक पहुंचाए जाते थे। और वह लोग भी उन को रट कर हिफ़्ज़ कर लिया करते थे और यूं तवात्तिर और
तसलसुल का सिलसिला अनाजील अरबा के लिखे जाने तक जारी रहा। ये तवात्तिर और तसलसुल इन्जील की सेहत का ज़िम्मेदार है।
इन उलमा का ख़याल है कि आँख़ुदावंद ने अपने शागिर्दों और रसूलों को अपने कलमात और ख़ुत्बात ज़बानी याद करवाए और चूँकि मशरिक़ के लोगों का हाफ़िज़ा तेज़ और ज़बरदस्त होता है, लिहाज़ा उन लोगों के हाफ़िज़ा में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के ख़ुत्बात और कलमात का नक़्श फ़ील-हिज्र (ना मिटने वाला, पत्थर की लकीर) हो गए। और उन्हों ने अपनी बारी में सय्यदना मसीह के कलमात को दूसरों को हिफ़्ज़ कराया चुनान्चे पादरी राइट12साहब लिखते हैं :-
“ज़बानी तालीम इस तरह शुरू हुई कि मुक़द्दस पतरस ने एक तख़्ती पर सबक़ लिखा और उस को अपने शागिर्दों को पढ़ कर सुनाया जिन्हों ने इस सबक़ को अपनी तख़्तीयों पर लिख लिया और वो उन को बुलंद आवाज़ से पढ़ते रहे। यहां तक कि वो सबक़ हिफ़्ज़ याद हो गया। अगले रोज़ वो हाफ़िज़े से इस याद कर्दा सबक़ को सुना देते थे और फिर दूसरा सबक़ पढ़ लेते थे। ये तरीका-कार रोज़ बरोज़ जारी रहा होगा जब तक कि मसीही तालीम का एक अच्छा ख़ास्सा हिस्सा हिफ़्ज़ याद हो गया होगा। मुम्किन है कि मुक़द्दस पतरस के पास ऐसी निस्फ़-दर्जन तख़्तियाँ होंगी जिनसे वो अपनी याद को भी ताज़ा कर लेते होंगे ऐसा कि आप कामिल तौर पर सब बातें ख़ुद याद हो गईं। आपने उन शागिर्दों को जिनके हाफ़िज़े तेज़ होंगे उस्ताद बना दिया होगा ताकि वो इसी तरह दूसरों को भी सिखलाएँ। जब कलीसियाओं की तादाद ज़्यादा हो गई तो उन उस्तादों की ज़रूरत पड़ी जिनका ज़िक्र आमाल की किताब और मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत में पाया जाता है।”
“इसी क़िस्म की आरिज़ी दस्तावेज़ें शुरू ही से मौजूद थीं। मुक़द्दस मर्क़ुस ने बाद के ज़माने में मुक़द्दस पतरस के अरामी ख़ुत्बात को यूनानी में इस तरह लिखा कि उसने पहले अरामी के एक हिस्से को एक तख़्ती पर लिखा। फिर एक दूसरी तख़्ती पर इस हिस्से का यूनानी तर्जुमा कर
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12Rev.Arthur Wright,” Prof, Stanton on the Synoptic Problem in Exp. Times for Feb.1910. pp.211ff
दिया। तब उसने इस तर्जुमे की नज़रसानी करके यूनानियों को सिखलाया। जिस तरह मुक़द्दस पतरस ने इब्रानियों की जमाअत को सिखाया था।”
यही साहब13एक और जगह लिखते हैं :-
“मशरिक़ी ममालिक में मग़रिबी ममालिक से ज़्यादा हाफ़िज़े पर ज़ोर दिया जाता है। चुनान्चे क़ाहिरा के अज़हर यूनीवर्सिटी में जवान तलबा-ए-क़ुर्आन को हिफ़्ज़ करते हैं।”
एक और मुक़ाम में ये साहब हज़रत मुहम्मद अरबी की नज़ीर दे कर कहते हैं कि जिस तरह आँहज़रत ने अपने सहाबा को क़ुर्आन और पारे हिफ़्ज़ कराए थे इसी तरह हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) का वतीरा (तरीक़ा) होगा।”
(2)
हमने बाब अव्वल में ये साबित कर दिया है कि अहले-यहूद का हर बालिग़ आदमी और हर नाबालिग़ छः सात साल की उम्र से ज़्यादा का बच्चा पढ़ा लिखा होता था क्योंकि हर बच्चे की तालीम जबरीया और लाज़िमी थी। ज़बानी बयानात के नज़रिये के हामी इस हक़ीक़त को फ़रामोश कर देते हैं और ख़याल करते हैं कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के हम-अस्र यहूद हज़रत मुहम्मद के हम-अस्र अरब की मानिंद नाख़्वान्दा और उम्मी (अनपढ़) क़ौम थे और कि अहले-यहूद के पास नविश्त व ख़वान्द के लिए सिर्फ निस्फ़-दर्जन के क़रीब तख़्तियाँ ही होंगी जिस तरह अहले-अरब के पास क़ुर्आन को लिखने के लिए खजूर के पत्ते, सफ़ैद पत्थर की तख़्तियाँ, चमड़े के पारचे और शानों की हड्डियां वग़ैरह थीं। और कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के शागिर्दों ने आपके ख़ुत्बात को उसी तरह रट लिया होगा जिस तरह अज़हर यूनीवर्सिटी के तलबा क़ुर्आन को हिफ़्ज़ कर लेते हैं। लेकिन ये सब उनका मह्ज़ ज़न (वहम, तोहमत) है जो हक़ीक़त से कोसों दूर है।
(1) अनाजील अरबा (चारो इन्जिलों) की बुनियाद हाफ़िज़े पर क़ायम नहीं रही। आप चारों इंजीलों को पढ़ें और उस के एक-एक सफे की एक-एक सतर को छान मारें आपको
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13Quoted in Dr, Sanday’s article, “The Bearing of Criticism upon the Gospel History in Exp. Times, Dec, 1908.pp.103 ff
इस बात का शाइबा भी कहीं नहीं मिलेगा कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ख़ुत्बा देकर अपने शागिर्दों को ख़ल्वत में ख़ुत्बे का एक-एक लफ़्ज़ ज़बानी हिफ़्ज़ करवाते थे। ये आँख़ुदावंद का तरीक़ा-कार ही ना था और ना कोई साहिब-ए-अक़्ल शख़्स अनाजील के मुतालए के बाद इस क़िस्म के तरीक़े को आँ-खुदावंद से मुताल्लिक़ करने का ख़याल भी कर सकता है। यही वजह थी कि आपके सामईन (सुनने वाले) आपकी तालीम को सुनकर “हैरान रह जाते थे क्योंकि वो उन को फ़क़ीहों की तरह नहीं। बल्कि साहिब-ए-इख़्तियार की तरह तालीम देते थे।” (मर्क़ुस 1:22 वग़ैरह) आपके जान-लेवा तक इस बात का इक़रार करते थे कि “इन्सान ने कभी ऐसा कलाम नहीं किया।” (यूहन्ना 7:46) सय्यदना मसीह का तरीक़ा यहूदी रब्बियों का तरीक़ा ही ना था जिनको बात बात पर अपने उस्तादों के कलाम की सनद लानी पड़ती थी और बग़ैर सनद को रट सुनाए वो एक क़दम भी ना चलते थे। आँख़ुदावंद तो उस्ताद-ए-अज़ल थे। उनके शागिर्दों ने भी रटने का तरीक़ा कभी इस्तिमाल ना किया। अह्दे-जदीद की तमाम की तमाम कुतुब इस हक़ीक़त की गवाह हैं कि आपके शागिर्दों ने ना तो कोई ख़ुत्बा तोते की तरह ख़ुद रटा और ना दूसरों को रटवाया। डाक्टर राइट साहब का ये क़ौल कि मुक़द्दस पतरस एक तख़्ती पर सबक़ लिखते और अपने मुसाहिबों से हिफ़्ज़ करवाते थे मह्ज़ आपकी क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला के ज़न (खयाल) पर मबनी है जिसमें रत्ती भर हक़ीक़त नहीं।
अगर अनाजील की बुनियाद सीना-ब-सीना रिवायत पर होती तो वेड के अल्फ़ाज़ में “ये एहतिमाल रहता है कि क़दीम तरीन इन्जील भी क़ाबिल-ए-एतिमाद नहीं। जब किसी शख़्स के (ख़्वावह रसूल ही क्यों ना हों) गुज़श्ता मुशाहदात सिर्फ़ हाफ़िज़े की बिना पर 37 साल के बाद एक ऐसा शख़्स लिखे जो इन वाक़ियात में से सिर्फ एक दो का ही ऐनी गवाह हो तो ये कहना ज़्यादा क़रीन-ए-अक़्ल है कि वाक़ियात में शक की गुंजाइश रह जाती है। 14जो अस्हाब हाफ़िज़े के नज़रिये पर ज़ोर देते हैं वो ये भूल जाते हैं कि इन्सानी हाफ़िज़ा किसी वाक़िये को सिर्फ इज्माली (मुख़्तसर) तौर पर ही दुरुस्ती से पेश कर सकता है लेकिन इस से ये लाज़िम नहीं आता कि हाफ़िज़ा हर लफ़्ज़ की सेहत का भी ज़िम्मेदार हो। हाफ़िज़े के लिए किसी ख़ुत्बे या तक़रीर का एक एक लफ़्ज़ सेहत के साथ वाक़िये के चालीस (40) साल बाद दोहराना एक नामुम्किन अम्र है।
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14Wade, N.T. History (1922)
“फ़ार्म क्रिटिक Form Critic जो ज़बानी रिवायत के हामी हैं कहते हैं कि जो रिवायत सीना-ब-सीना चली आए वो कुछ मुद्दत के बाद एक ख़ास जामिद सूरत इख़्तियार कर लेती है और उस के अल्फ़ाज़ तक पक्के हो कर जम्हूर की सूरत इख़्तियार कर लेते हैं और गोया मुंजमिद हो जाते हैं लेकिन प्रोफ़ैसर बरकट एक ऐसी मिसाल देते हैं जिससे इस ख़याल का खोखलापन हर शख़्स पर ज़ाहिर हो जाता है। वो पूछते हैं “क्या ये लफ़्ज़ इस क़द्र पक्के हो जाते हैं कि पाँच हज़ार के खाने के मोअजिज़े के वक़्त तो “बारह टोकरीयां” उठाई जाएं। (मर्क़ुस 6:43) और चार हज़ार के खाने के वक़्त “सात पिटारे” या “टोकरे” उठाए जाएं। (मर्क़ुस 8:8) इन्जील मर्क़ुस में अल्फ़ाज़ “टोकरीयां” और “टोकरों” में तमीज़ की गई है और इन्जील अव़्वल में भी ये तमीज़ बरक़रार रखी गई है। (16:9 ता 10, मर्क़ुस 8:19 ता 20) हैरत पर हैरत ये है कि इस मोअजिज़े में ज़बानी रिवायत के अल्फ़ाज़ तो इस क़द्र पक्के हो जाएं कि दोनों इंजीलों में इनका अलग-अलग ज़िक्र हो और वो महफ़ूज़ ना किए जाएं लेकिन वाक़िया सलीब और वाक़िया क़ियामत जैसे अहम तरीन वाक़ियात के बयान करने में इनकी तफ़ासील और इन के अल्फ़ाज़ में इस क़द्र इख़्तिलाफ़ हो।15
हक़ तो ये है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपने रसूलों को “दुआ-ए-रब्बानी” के इलावा और कोई शैय हिफ़्ज़ ना कराई। लेकिन इस दुआ की भी दो क़िरअतें हैं जिनके अल्फ़ाज़ में इख़्तिलाफ़ है। (मत्ती 6:9 ता 13; लूक़ा 11:2 ता 4) अगर आँ-खुदावंद अपने मुबारक मुँह के अल्फ़ाज़ को रसूलों से रटवाया करते थे तो इस इख़्तिलाफ़ के क्या मअनी?
प्रोफ़ैसर बरकट कहते हैं सय्यदना मसीह ने अपने हाथों से कुछ ना लिखा। आपने अपने शागिर्दों को दुआ-ए-रब्बानी के अल्फ़ाज़ के इलावा और कुछ ना सिखलाया और ये दुआ भी दो मुख़्तलिफ़ क़िरअतों में हम तक पहुंची है। आपका ये तरीक़ा ही ना था कि शागिर्दों को कोई मख़्सूस अल्फ़ाज़ या मुक़र्ररा तर्तीब से जुम्ले हिफ़्ज़ कराऐँ। अनाजील ये ज़ाहिर कर देती हैं कि आपने अपनी तालीम को किसी ख़ास निज़ाम में ना ढाला और ना इस के मुख़्तलिफ़ हिस्सों को आपने मुसलसल और मरबूत (वाबस्ता) किया। आपकी तालीम में कोई तकल्लुफ़ ना था बल्कि वो सीधी-सादी ग़ैर-रस्मी तालीम थी जो ना मुबहम (यानी छिपे हुए) और ना ग़ैर-मुईन और ना ग़ैर-वाज़ेह थी। वो हमेशा साफ़ और वाज़ेह तालीम थी जिसका सही मतलब हरकिस व नाकिस समझ लेता था। वो मौक़ा और महल के
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15Burkitt, Gospel History and its Transmission (1907)p.35
मुताबिक़ और इक्तज़ाए ज़रूरत के मुवाफ़िक़ थी। इस का ताल्लुक़ किसी वाक़िये या तक़रीब के साथ होता था।.... हाफ़िज़े का ताल्लुक़ बाक़ायदा तालीम से होता है जो किसी ख़ास निज़ाम में मरबूत और मुंसलिक हो। हमसे कहा जाता है कि फ़ुलां रब्बी के शागिर्दों ने अपने उस्ताद के कलाम का एक-एक लफ़्ज़ दूसरों तक पहुंचाया। लेकिन ये रब्बी अपने शागिर्दों को अपनी तालीम रटाते थे जिस तरह क़ुर्आन के हाफ़िज़ करते हैं और क़ाफ़िया-बंदी वग़ैरह के तरीक़ों से वो तालीम हिफ़्ज़ कराई जाती थी। लेकिन सय्यदना मसीह का ये तरीक़ा ना था।। हक़ तो ये है कि सय्यदना मसीह और फ़क़ीहों के दर्मियान जो तसादुम हुआ इस का असली सबब यही था कि वो बुज़ुर्गों की रिवायत को हर हाल में क़ायम और उस्तिवार रखना चाहते थे लेकिन जनाब-ए-मसीह का कलाम अनोखा, फ़ित्री तौर पर बदीअ (एक इल्म जिसमें कलाम की लफ़्ज़ी और माअनवी खूबियां बयान की जाती हैं) और अपने अंदर तख़लीक़ी क़ुव्वत रखने वाला था।”16
अगर नाज़रीन ख़ुद चालीस (40) साल पहले के किसी एक आप-बीती वाक़िये या तक़रीर को क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा पर ज़ोर दे कर याद करने की कोशिश करें तो वो ख़ुद मालूम कर सकते हैं कि किस हद तक उन को इस वाक़िये की तफ़्सील या तक़रीर के अल्फ़ाज़ सेहत के साथ याद रह सकते हैं। वो इज्माली तौर पर ही वाक़िये या तक़रीर को सही तौर पर याद कर सकेंगे लेकिन वाक़िये की हर तफ़्सील को या तक़रीर के हर लफ़्ज़ को सेहत के साथ दोहराना उन के लिए नामुम्किन होगा। पस चालीस (40) साल के अर्से के बाद जो एक पुश्त से भी ज़्यादा का अर्सा है रसूलों का आँख़ुदावंद के मोअजज़ात की तफ़ासील और आप के ख़ुत्बात के अल्फ़ाज़ को सही तौर पर याद रखना एजाज़ से कम नहीं। हमको ये बात भी याद रखनी चाहिए कि चालीस (40) साल का अर्सा गुज़रने के बाद दवाज़दा (12) रसूल बूढ़े हो गए थे और ज़िंदगी के आख़िरी अय्याम में हाफ़िज़ा जवाब दे देता है। हाँ इज्माली तौर पर ख़ुत्बा या वाक़िये की सेहत और बात है लेकिन यहां तो हर लफ़्ज़ और तफ़्सील की सेहत का सवाल है। चालीस (40) साल के बाद अक़्ल-ए-सलीम के लिए इंजीली बयानात के हर लफ़्ज़ को क़तई तौर पर दुरुस्त और हुक्मी तौर पर ख़ता से बरी मानना एक नामुम्किन है।
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16Ibid, pp.143-145 and 174
इस में कुछ शक नहीं कि दुनिया में एसी हस्तियाँ भी हुई हैं जिनकी क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा एजाज़ी थी मसलन पास्कल (Paschal) का ये दावा था कि वो कभी किसी शैय को जो उसने पढ़ी हो या जिसका ख़याल भी उस के ज़हन में कभी आया हो फ़रामोश नहीं करता था। लेकिन यहां एक दो ग़ैर-मामूली इन्सानों का ज़िक्र नहीं। इस नज़रिये के हामी तो ये समझते हैं कि मशरिक़ के तमाम लोगों की क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा ही एजाज़ी है और वो ये नहीं जानते कि क़ुर्आन के क़ारी और हाफ़िज़ तो अलग रहे ख़ुद हज़रत मुहम्मद क़ुर्आन की आयात को भूल जाया करते थे। (बुख़ारी किताब फ़ज़ाइल-उल-क़ुर्आन बाब निस्यान-उल-क़ुर्आन)
जर्मन नक़्क़ाद वलहासन दुरुस्त कहता है17कि तवील मुकालमात के मुआमले में मशरिक़ी ममालिक के रहने वालों का हाफ़िज़ा मग़रिबी ममालिक के रहने वालों के हाफ़िज़े से बेहतर नहीं था। मिसाल के तौर पर वो हज़रत मुहम्मद के अक़्वाल की नज़ीर (मिसाल) पेश करता है जो अहादीस में मुन्दरज हैं और कहता है कि ये अहादीस यक़ीनी तौर पर क़ाबिल-ए-एतिमाद नहीं हैं और यही मुसलमान उलमा का मुत्तफ़िक़ा फ़ैसला है।
(2) बहर-हाल हमारे पास ये मानने की कोई वजह मौजूद नहीं कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के सामईन (सुनने वाले) और रसूल और चश्मदीद गवाह सब के सब ऐसा हाफ़िज़ा रखते थे जो एजाज़ी था। इस नज़रिये के हामी ये भूल जाते हैं कि आँख़ुदावंद के हज़ारों चश्मदीद गवाह सब के सब लिखे पढ़े इन्सान थे और कि जैसा हम गुज़श्ता बाब में बतला चुके हैं तक़ाज़ा-ए-वक़्त ही ऐसा था कि उन गवाहों की शहादतें इब्तिदा ही में क़लमबंद की जाएं ताकि कलीसियाओं की रुहानी ज़रुरियात और तक़ाज़े पूरे हो सकें। उस ज़माने में लिखने के लिए गो कागज़ नहीं थे लेकिन पपाइरस के तूमार (जिससे अंग्रेज़ी लफ़्ज़ Paper बमाअनी काग़ज़ निकला है) हर जगह दस्तयाब होते थे। जो सरकारी काम, कारोबारी मुआमलात, निजी ख़त व किताबत, किताबों के लिखने वग़ैरह के काम आते थे।
पेपायरस पर मुस्तक़बिल की तहरीरें लिखी जाती थीं। इस के इलावा चरमी काग़ज़ “रक़ के तूमार” भी इस्तिमाल होते थे (2 तीमुथियुस 4:13) ये वो ज़माना था जब हमारे
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17Quoted by Rev.G.C Montefiore in the Synoptic Gospels. Vol.I.p.xcix
मुल्क हिंदूस्तान में आर्या लोग अपनी किताबों को भोजपत्र की खाल पर लिखा करते थे। मौजूदा क़िस्म का काग़ज़ 105 ई॰ ईस्वी में मुल्क-ए-चीन में पहल पहल बना।
मालूम नहीं कि क्यों फ़र्ज़ कर लिया जाता है कि आँख़ुदावंद के रसूलों और दीगर शागिर्दों ने जब तक आप इस दुनिया में उनके साथ रहे आप के कलमात तय्यिबात को लिखने के लिए क़लम को हाथ ना लगाया। हम देखते हैं कि अरब जैसी जगह में भी हज़रत मुहम्मद के सहाबा उन के मुँह की बातें लिख लिया करते थे। फिर हज़रत कलिमतुल्लाह के रसूलों को कौन चीज़ मानेअ (रुकावट) थी कि वो ऐसा ना करते? अम्बिया-ए-साबक़ीन का कलाम मसलन हज़रत यर्मियाह का कलाम उन के मुसाहिब बारोक ने लिखा। फ़ाज़िल जॉर्ज एडम स्मिथ (G.A.Smith) कहता है18कि वो “दबूरा का गीत” बग़ैर किसी शक व शुब्हा के उसी ज़माने का लिखा हुआ है जिस ज़माने में वो वाक़ियात हुए थे जो उस में दर्ज हैं।” अहद-ए-अतीक़ के दीगर हिस्सों की निस्बत भी उलमा की एक बड़ी तादाद का यही ख़याल है। पस हम ये समझने से क़ासिर हैं कि अनाजील के मुताल्लिक़ क्यों कुल्लियतन हाफ़िज़े पर ज़ोर दिया जाता है और तहरीरी मसालाह को ग़ैर मुताल्लिक़ क़रार देकर इस बह्स से बिल्कुल ख़ारिज किया जाता है? अगर ये साबित हो जाए कि हज़रत कलिमतुल्लाह के ख़ुत्बात वग़ैरह अनाजील के तहरीर होने से बहुत पहले अहाता तहरीर में आ चुके थे तो इन कलमात का मोअतबर होना हाफ़िज़े की क़ुव्वत पर इन्हिसार करने से ज़्यादा बेहतर तौर पर साबित हो जाता है।
जब अम्बिया-ए-साबक़ीन का कलाम उन की हीने-हयात (जीते जी) में ही अहाता तहरीर में आ जाता था तो इस अम्र में कौनसी बात मानेअ (रुकावट) थी कि आँख़ुदावंद के लिखे पढ़े हज़ारहा चश्मदीद गवाह जिनका ये ईमान था कि “एक बड़ा नबी हम में बरपा हुआ है।” (लूक़ा 7:16, मर्क़ुस 6:15, 8:28, मत्ती 21:11 वग़ैरह) ख़ामोश रहते और आप की हीने-हयात (जीते जी) में आपके कलमात-ए-तय्यिबात को क़लमबंद ना करते? अनाजील अरबा (चारो इंजील) तो ये बतलाती हैं कि ये अवाम ख़ामोश रहने वाले इन्सान नहीं थे। (7:36, मत्ती 9:31, लूक़ा 4:37, लूक़ा 5:15 25, 17:5, यूहन्ना 9:30 वग़ैरह) ज़बानी रिवायत के नज़रिये के हामी इन हज़ारहा चश्मदीद जोशीले गवाहों की हस्ती को ऐसा नज़र-अंदाज कर देते हैं कि गोया आँख़ुदावंद की वफ़ात के फ़ौरन बाद उन को पर लग गए थे
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18G.A. Smith, Historical Geography of the Holy Land
या वो कहीं नक़्ल-ए-मकानी करके चले गए या उन के हाथ शल हो गए थे कि उन से एक लफ़्ज़ भी लिखा ना गया ! सिर्फ उन की क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा ही तेज़ हो गई थी !!
अगर कोई दूसरा शख़्स आँख़ुदावंद के कलमात-ए-तय्यिबात और मोअजिज़ात-ए-बय्यिनात को क़लमबंद करने वाला नहीं था तो कम अज़ कम आपके दवाज़दा (12) रसूल तो थे जो अपने अज़ीज़ व क़ारिब, घर-बार, काम काज वग़ैरह सब कुछ छोड़कर आपके पीछे होलए थे। (मर्क़ुस 1:20 वग़ैरह) क्या ये रसूल जो शब व रोज़ आपकी रिफ़ाक़त से फ़ैज़ हासिल करते थे लिखे पढ़े ना थे? क्या उन्हों ने जब ये नई तालीम सुनी जो उनका ख़ुदावंद एक साहिब-ए-इख़्तियार शख़्स की तरह देता था (और जिस को सुनकर अवामुन्नास हैरान रह जाते थे) ये ख़याल कभी ना किया कि वो आपके कलमात-ए-तय्यिबात को क़लमबंद करलें? क़ियास तो यही चाहता है कि जिस तरह बारोक ने हज़रत यर्मियाह की नबुव्वतों को क़लमबंद कर लिया था और जिस तरह मुक़द्दस लूक़ा ने जब वो मुक़द्दस पौलुस के साथी थे उन के सफ़रों का एक बाक़ायदा रोज़-नामचा लिखा था (जिसकी उन्होंने बाद के ज़माने में अपनी किताब आमाल-उल-रसूल में शामिल कर लिया) इसी तरह आँख़ुदावंद के शागिर्द और बिल-ख़ुसूस मुक़द्दस मत्ती आँख़ुदावंद के ख़ुत्बात और कलमात को ज़ब्त (क़ाबू) तहरीर में ले आते। ऐसा करने में कोई बात मानेअ (रुकावट) नहीं थी कि इस इब्तिदाई ज़माने में आँख़ुदावंद की ज़िंदगी के दौरान में शागिर्दों में से बाअज़ ने दूसरों को बतलाने के लिए और अपनी याद को ताज़ा करने के लिए आँख़ुदावंद के कलमात को लिखा था। इंशा-अल्लाह हम आगे चल कर ये साबित कर देंगे कि मुक़द्दस मत्ती ने सय्यदना मसीह की हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में अपना रिसाला “कलमात” को मुरत्तिब किया था। ये वही रिसाला था जिसको इब्तिदाई अय्याम की कलीसिया के मुअल्लिमों की फ़ाज़िल जमाअत ने ईमानदारों के हाथों में दिया था और जिस की नक़्लें उन्होंने मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं में भेजी थीं।
यहां हम सिर्फ ये बतलाना चाहते हैं कि मुक़द्दस मत्ती रसूल का पेशा ही ऐसा था जिसमें ये ज़रूरी और लाज़िमी शर्त थी कि वो इस बात के अहल हों कि अश्या वग़ैरह को और लोगों के अक़्वाल वग़ैरह को फ़ौरन नोट कर लिया जाये। पस ये अम्र क़रीन-ए-क़ियास है कि ऐसी क़ाबिलियत रखने वाले शख़्स ने आँख़ुदावंद के अक़्वाल और तम्सीलों को सुनने के बाद फ़ौरन नोट कर लिया था।
(3) ऐसा मालूम होता है कि जो उलमा ज़बानी रिवायत के हामी हैं वो ये ख़याल करते हैं कि आँख़ुदावंद का ज़माना गोया दौर-ए-जहालत का ज़माना था। ये अस्हाब ख़याल करते हैं कि नविश्त व ख्वान्दा कोई हाल ही की बात है और क़दीम ज़माने में इस का रिवाज ना था, लेकिन मौजूदा ज़माने की तहक़ीक़ात ने इस का पोल खोल दिया है और साबित कर दिया है कि फ़न-ए-तहरीर निहायत क़दीम फ़न है और बहर मुतवस्सित के मशरिक़ की जानिब के ममालिक में क़दीम ज़माने से मुरव्वज था। वो भूल जाते हैं कि सय्यदना मसीह के ज़माने में अर्ज़-ए-मुक़द्दस सल़्तनत-ए-रुम का हिस्सा था और कि ये सल्तनत निहायत मुहज़्ज़ब सल्तनत थी जिसके क़वानीन और जिस का कल्चर ममालिक-ए-मग़रिब की मौजूदा कल्चर की बिना है। इस सल्तनत में मुख़्तसर नवीसी या शॉर्ट हैंड का रिवाज था चुनान्चे प्लू टॉर्क (Plutarch) कहता है19Cato कैटो The Younger ने जो तक़रीर Senate (मज्लिस अकाबिर) में कैटाटीन Cotatane के ख़िलाफ़ की थी वो शॉर्ट हैंड में लिखी थी। लार्ड मीकाले हमको बतलाता है20कि सेनेका Seneca के मुताबिक़ शॉर्ट हैंड रूम में इस दर्जे के कमाल तक पहुंच गया था कि जल्दी से जल्दी बोलने वाले की तक़रीर को भी मुख़्तसर नवीस अहाता तहरीर में ला सकता था। मुख़्तसर नवीसी का ये फ़न यूनानियों में भी राइज था। मिसाल के तौर पर ओक्सरी नेक्स Oxyrhnachus काग़ज़ात (जो 155 के हैं) एक ठेके का ज़िक्र है जिसकी रू से म्यूंसिपल्टी के एक अफ़्सर ने अपने ग़ुलाम को किसी उस्ताद के सुपुर्द किया था ताकि वो ग़ुलाम को दो साल के अंदर मुख़्तसर नवीसी में ताक़ कर दे।21उन अय्याम में कातिब भी होते थे। चुनान्चे पौलुस रसूल कातिब इस्तिमाल करते थे (ग़लतियों 6:11, 1 कुरिन्थियों 16:21 वग़ैरह) डाक्टर माफ़ट कहता है, कि पौलुस रसूल का कातिब तरतीस (रोमियों 16:22) इन ओहदेदारों Notaril में से था जिनको तमसकात की रजिस्ट्री वग़ैरह करने का इख़्तियार था जो अक्सर औक़ात मुख़्तसर
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19Quoted, by Rev. R. Dunkerely in “The Reliability of the Gospels”. Expositor, Aug, 1924
20Macaulay, Essay on Lord Bacon
21Expositor, Aug,1924
नवीस होते थे।22 डाक्टर सामन भी कहता है “ये याद रखना चाहिए कि मुख़्तसर नवीसी उन दिनों में आम थी।23डाक्टर A.T.Robertson24कहता है :-
“बाअज़ उलमा यहां तक कहते हैं कि मुक़द्दस मत्ती ने आँख़ुदावंद के कलमात को आपकी हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में ही क़लमबंद करना शुरू कर दिया था। चूँकि वो एक महसूल लेने वाले अफ़्सर और ओहदेदार थे। पस उनका ये काम था कि वो जल्दी नोट लिखें और ग़ालिबन उन्हों ने शॉर्ट हैंड में इन एजाज़ी अल्फ़ाज़ को क़लमबंद कर लिया जो ऐसे अज़ीमुश्शान मुअल्लिम की ज़बान से निकले थे।”
लेकिन अगर हम ये फ़र्ज़ भी करलें कि मुक़द्दस मत्ती रसूल शॉर्ट हैंड नहीं जानते थे तो भी ये अम्र ज़्यादा क़रीन-ए-क़ियास है कि आपने हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम को जिसका हर सो (हर तरफ) चर्चा हो रहा था क़लमबंद कर लिया था। इस का ज़िक्र हम इंशा-अल्लाह आगे चल कर करेंगे।
(3)
(1) जब हम अनाजील का बग़ौर मुतालआ करते हैं तो चंद इशारात पाए जाते हैं जिनसे ये ज़ाहिर हो जाता है, 25कि बाअज़ आयात और मुक़ामात फ़ौरन उसी वक़्त लिखे गए थे जिनको बाद के ज़माने में अनाजील में शामिल किया गया। मसलन हेरोदेस की ज़ियाफ़त का अहवाल मुक़ाबलतन तवील है। इस को पढ़ने से ऐसा मालूम होता है कि गोया इस को हाल ही में किसी ने लिखा है। अगर ये वाक़िया सालों बाद हाफ़िज़े पर ज़ोर लगाकर लिखा जाता तो वो इस क़द्र वज़ाहत से मुफ़स्सिल और तवील बयान ना होता। बैतअनिया के घर के मुताल्लिक़ और बालाखाना के मुताल्लिक़ अनाजील की ख़ामोशी निहायत माअनी-ख़ेज़ है जिससे ये पता चलता है कि ये बयान उस ज़माने में लिखा गया था जब इन जगहों का पता बतलाना ख़तरे से ख़ाली ना था। (आमाल 12:11) अगर इन्जील मर्क़ुस हज़रत याक़ूब की शहादत (43 ई॰) के सालहा साल बाद लिखी गई होती तो इस में “पतरस और
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22Introd, to Lite of the N.T.p50
23Salmon, Thoughts on the Textual Criticism of the N.T
24Dr.A.T. Robertson, Expositor, Feb.1922
25Expositor, Aug.1924
याक़ूब और याक़ूब का भाई यूहन्ना” (मर्क़ुस 5:37) इस तर्तीब से ना लिखे जाते। क्योंकि इस ज़माने में मुक़द्दस यूहन्ना कलीसिया के रुक्न-ए-आज़म थे। चुनान्चे मुक़द्दस लूक़ा इस तर्तीब को दो दफ़ाअ उल्टा कर मुक़द्दस यूहन्ना को मुक़द्दस याक़ूब से पहले लिखता है। (लूक़ा 8:51, 9:28, देखो आमाल 1:13) इन्जील-ए-अव़्वल में नीम मिस्क़ाल का ज़िक्र (मत्ती 17:24) तब ही मौज़ूं हो सकता है, जब ये बयान किसी इब्तिदाई तहरीरी माख़ज़ से लिया गया हो। क्योंकि अगर सालहा साल बाद हाफ़िज़े से ये बयान लिखा जाता तो इस की तश्रीह दरकार होती। क्योंकि बाद के ज़माने के ग़ैर-यहूदी पढ़ने वाले इस सिक्के रस्म और क़िस्से के किनाया (इशारा) से नावाक़िफ़ थे। यही बात हम (लूक़ा 13:1) की निस्बत कह सकते हैं। क्योंकि इस क़िस्म की झड़पें और आवेज़िशें अक्सर होती रहती थीं। (मर्क़ुस 4 और 5 बाब) भी इसी ज़माने का लिखा हुआ है जब ये वाक़ियात हुए थे क्योंकि इनमें सिर्फ़ दो दिन के वाक़ियात का हाल बहुत तवील और मुफ़स्सिल है। हालाँकि मर्क़ुस की इन्जील में तक़रीबन तीन सालों के वाक़ियात को निहायत इख़्तिसार से बयान किया गया है और इस तनासुब से सालहा साल बाद दोनों के वाक़ियात की तवील बयानी निहायत ग़ैर मुतनासिब हो जाती है। पस बज़ाहिर यही सबब नज़र आता है कि किसी चश्मदीद गवाह ने उसी वक़्त इन बातों को लिख लिया था। ये अम्र भी क़ाबिल-ए-ग़ौर और मअनी ख़ेज़ है कि अनाजील-ए-अर्बा (चारो इन्जीलों) में जब आँख़ुदावंद अपने रसूलों के साथ राह चलते बातें करते हैं तो इन बातों का ख़ुलासा चंद फ़िक्रात में ही मिलता है जिनमें आपस में कोई रब्त नहीं होता, लेकिन जब कभी आप किसी जगह बैठ कर अपने रसूलों से गुफ़्तगु करते हैं (मसलन मर्क़ुस 13:3) तो इन कलमात की रिपोर्ट ज़्यादा तूलानी (लंबी, दराज़) होती है जिससे हमारे नज़रिये की ताईद होती है कि रसूल आपकी इन तक़रीरों के नोट फ़ौरन बाद ले लिया करते थे।
(2) एक और अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है। आँख़ुदावंद का ख़िताब “इब्ने-आदम” अनाजील अरबा के इलावा इंजीली कुतुब के मजमूए में किसी और जगह नहीं मिलता। और अनाजील में भी केसरिया फिलिप्पी के वाक़िये के बाद पाया जाता है जिससे ज़ाहिर है कि इन मुक़ामात को इन्ही अय्याम में लिखा गया था।
(4)
इस अम्र को भी मलहूज़ ख़ातिर रखना चाहिए कि गो इब्ने-आदम का तसव्वुर, और फ़ातेह काहिन बादशाह का तसव्वुर और इब्ने-आदम के दुख उठाकर जलाल में दाख़िल होने का तसव्वुर तीनों तसव्वुरात अहद-ए-अतीक़ में मौजूद थे लेकिन इन तसव्वुरात को इब्तिदा ही से मसीह मौऊद के तसव्वुर के साथ यकजा करने का काम सिर्फ हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ही का ज़बरदस्त तख़लीक़ी दिमाग़ कर सकता था। अला हाज़ा-उल-क़यास (इसी तरह) यसअयाह की किताब के “ख़ादिम यहूदाह” का तसव्वुर और ज़बूर की किताब के “रास्तबाज़ के दुख उठाने का तसव्वुर” और ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम इस्राईल के गिरने और बहाल होने की नबुव्वतें अम्बिया-ए-साबक़ीन की कुतुब में पहले ही से मौजूद थीं लेकिन इन मुख़्तलिफ़ तसव्वुरात को एक ही हस्ती (यानी मसीह मौऊद) से मन्सूब करने का काम मसीही कलीसिया के उस्ताद और मुअल्लिमों की फ़ाज़िल जमाअत ने ना किया। वो इस क़िस्म के दिलो-दिमाग के मालिक ही ना थे। अगरचे इनमें अपलूस, पौलुस और इब्रानियों का मुसन्निफ़ और इन्जील चहारुम के मुसन्निफ़ जैसे ज़बरदस्त आलिम मौजूद थे। इन मुख़्तलिफ़ तसव्वुरात के तारो पोद से एक नए तसव्वुर को हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने ही ख़ल्क़ किया जो इन तमाम तसव्वुरात की सही तावील और दुरुस्त तफ़्सीर था और जिस की रोशनी में आपके तमाम कलमात और सवानिह हयात के पिनहाई (पोशीदा) मतलब वाज़ेह हो गए। अनाजील से वाज़ेह है कि आँख़ुदावंद ने रसूलों की तवज्जोह बार-बार अम्बिया-ए-साबक़ीन के इन तसव्वुरात की जानिब मबज़ूल फ़रमाई ताकि वो उनकी रोशनी में आपके कलाम और सवानिह हयात, आपकी सलीबी मौत और ज़फ़रयाब क़ियामत के सही मफ़्हूम को समझ सकें। चुनान्चे आपने 110 ज़बूर की जानिब इशारा करके अपने रसूलों को समझाया ताकि वो आपकी ज़िंदगी और मौत के हक़ीक़ी मक़्सद को समझ जाएं। आपने तसव्वुर “ख़ुदावंद” को और “ख़ुदा की दाहिनी तरफ़” बैठने के तसव्वुर को और दानीएल की किताब के “इब्ने-आदम” के तसव्वुर को यकजा कर दिया। जिससे मसीहिय्यत में एक नया बाब खुल गया। गो इस अम्र को समझाने के लिए आपने अपने रसूलों के साथ बहुतेरा मग़ज़ खपाया लेकिन रसूलों ने ना समझना था और ना वो समझे। (लूक़ा 18:34, मर्क़ुस 6:52, लूक़ा 9:45, 24:25 27, 44:45 वगैरह) अब ज़ाहिर है कि अगर अनाजील के ये मुक़ामात जिनमें आँख़ुदावंद ने इन मुख़्तलिफ़ तसव्वुरात को यकजा कर दिया था उसी वक़्त ना लिखे जाते तो माबाअ्द के ज़माने में कहाँ इस क़िस्म का तख़लीक़ी दिलो-दिमाग था जो उन को यकजा करता। बल्कि हक़ तो ये है कि इन मुक़ामात ने अहद-ए-अतीक़ की नबुव्वतों वग़ैरह की अस्लियत को समझने का एक नया तरीक़ा क़ायम कर
दिया और आप के बाद कलीसिया के फ़ाज़िल मुअल्लिमों की जमाअत ने इसी तरीक़े का इख़्तियार किया। ये तरीक़ा इब्तिदाई अय्याम में इसी वास्ते राइज हो गया क्योंकि ये मुक़ामात तहरीरी शक्ल में इन आलिमों के हाथों में थे। और इस तरीक़े को ना सिर्फ मुक़द्दस पौलुस ने बल्कि इन्जील चहारुम और इब्रानियों के ख़त के मुसन्निफ़ों ने मंज़िल बामंज़िल तक्मील तक पहुंचाया।
(5)
पस आँख़ुदावंद के बहुत से कलमात-ए-तय्यिबात और सवानेह हयात क़दीम-उल-अय्याम से ही तहरीरी शक्ल में मौजूद थे जिन को उन लोगों ने लिखा था जिन्हों ने ख़ुद इन को सुना और देखा था। ये अम्र मौजूदा ज़माने के लिए सबक़ आमेज़ है कि जिन बातों को गुज़श्ता पुश्त के उलमा कहते थे कि वो सीना बसीना रिवायत से ज़बानी चली आती थीं वो अब पचास (50) साल की छानबीन के बाद मौजूदा उलमा के मुताबिक़ ज़बानी रिवायत से अख़ज़ नहीं की गई थीं बल्कि तहरीरी पारों (हिस्सों) में अनाजील की तालीफ़ से पहले मौजूद थीं। मसलन इस सदी के अवाइल में पादरी आर्थर राइट साहब ने लिखा था कि “अनाजील के अल्फ़ाज़ एक दूसरे से मिलते हैं। इस की वजह यही है कि इब्तिदाई अय्याम में मुबश्शिर और मुअल्लिम इन अल्फ़ाज़ को ज़बानी हिफ़्ज़ कर लिया करते थे।”26लेकिन अब सब उलमा इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि अनाजील के अल्फ़ाज़ एक दूसरे से इसलिए मिलते हैं क्योंकि इनके मोअल्लिफ़ों ने एक ही तहरीरी माख़ज़ इस्तिमाल किए थे जिनमें से एक तहरीरी माख़ज़ “रिसाला कलमात”है। इस रिसाले के तहरीरी शक्ल में होने पर सब उलमा मुत्तफ़िक़ हैं।27चुनान्चे वेड तक ये तस्लीम करता है कि “ग़ालिबन मत्ती के रिसाले कलमात का मजमूआ अकेला मजमूआ ही ना था और ये अग़्लब (मुम्किन) है कि ये रिसाला आँख़ुदावंद के कलमात के उन मुख़्तसर मजमूओं से जमा किया गया था जो बग़ैर किसी शक शुबहा के लोगों में मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात लिखे जाने से पहले मुरव्वज थे।” वेड को इस बात का भी इक़बाल है कि मुक़द्दस मत्ती इस बात के अहल थे कि वो इन कलमात को जमा करते और अपनी रिपोर्ट के नफ़्स मज़्मून को परख सकते।
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26Quoted in Dr. Sanday’s article, “The Bearing of Criticism upon the Gospel History” Exp.Times Dec.1908
27A.Richardson, The Gospel in the making, (S.C.M 1938) p.20
ऑक्सफ़ोर्ड के दो उलमा ग्रीन फ़ेल और हंट Grenfell and Hunt को गुज़श्ता सदी के अवाख़िर में मुक़ाम ऑक्सी रेनिलस Oxyrhynachus से आँख़ुदावंद के चंद अक़्वाल के नुस्खे के पारे दस्तयाब हुए।28इस दर्याफ़्त ने साबित कर दिया है कि मुक़द्दस मत्ती के रिसाला कलमात के इलावा क़दीम ज़माने में दीगर लोगों ने भी सय्यदना मसीह के मुख़्तलिफ़ अक़्वाल को जमा किया था। इन पारों (हिस्सों) के मुतालए से ये ज़ाहिर हो जाता है कि तीसरी सदी में इस मुक़ाम में और वादी-ए-नील के दीगर मुक़ामात में “येसू के कलमात” का मजमूआ कलीसियाओं के हाथों में था जो आम तौर पर मुरव्वज था। इन पारों के अक़्वाल आँख़ुदावंद के असली कलमात मालूम देते हैं। अगरचे इनमें से बाअज़ पर अनाजील अरबा (चारो इन्जीलों) के अक़्वाल और शायद मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत और मुकाशफ़ात की किताब का असर पाया जाता है। ये मजमूआ ग़ालिबन 150 ई॰ के क़रीब लिखा गया था। इनमें से बाअज़ कलमात से ज़ाहिर है कि वो सय्यदना मसीह के अपने मुँह के हैं। मसलन “ख़ुदा की बादशाही आस्मान पर है लेकिन वो तुम्हारे अंदर भी है।” “तमाम फ़ित्रत और बिलख़ुसूस इन्सानी फ़ित्रत मक़नातीस की तरह है जो तुमको ख़ुदा की तरफ़ खींच ले जाती है।” “आमाल के ज़ाहिरी फ़ेअल की तरफ़ ना देखो बल्कि उनके असली मंबा और चशमा की जानिब देखो।” ”सच्चाई इन्सानी ज़िंदगी की काफ़ी और वाफ़ी….. रहनुमा है। अगर तुम इस दुनिया में “हक़ की पैरवी करोगे तो तुमको ख़ुदा के दीदार का कामिल इल्म हासिल होगा।” मुक़द्दस पौलुस की एक तक़रीर में सय्यदना मसीह का एक और क़ौल महफ़ूज़ है। आपने कहा “ख़ुदावंद की बातें याद रखना चाहिए कि उसने ख़ुद फ़रमाया कि देना लेने से ज़्यादा मुबारक है।” (आमाल 20:35)
गुज़श्ता पचास (50) सालों में मग़रिबी ममालिक के उलमा ने अपनी उम्र गरानुमाया अनाजील-ए-अर्बा के एक एक लफ़्ज़ की छानबीन में सर्फ कर दी है और अब वो इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अनाजील-ए-अर्बा (चारो इन्जीलों) की तालीफ़ से पहले तहरीरी बयानात और पारे (हिस्से) कलीसिया के हाथों में मौजूद थे। और गो ज़बानी बयानात भी इन इब्तिदाई अय्याम में हर मुक़ाम में पाए जाते थे लेकिन अनाजील की तालीफ़ के लिए वो ऐसे अहम शुमार नहीं किए जाते और ना अब इनकी एहमीय्यत पर इस क़द्र ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है। अनाजील-ए-अर्बा का मुतालआ ये ज़ाहिर कर देता है कि इनके मोअल्लिफ़ों ने ज़बानी और तहरीरी बयानात दोनों से काम लिया था और इन में से जैसा हम बतला
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28H.B.Swete”The New Oxyrhynchus Sayings.” Exp. Times. Vol.xv No.11.p.488 ff
चुके हैं, बाअज़ मुक़ामात ऐसे हैं जो वाक़िये के फ़ौरन बाद लिखे गए थे और दीगर आँख़ुदावंद की हीने-ए-हयात (ज़िन्दगी) में लिखे गए थे।
फ़स्ल दोम
सय्यदना मसीह की आमद-ए-सानी का
इंतिज़ार और ज़बानी बयानात का मफ़रूज़ा
अस्र-ए-हाज़रा में जो लोग तहरीरी बयानात का इन्कार करते हैं और इन्जीली पैग़ाम का सीना-ब-सीना बयानात पर इन्हिसार रखते हैं उन की अक्सरीयत ये वजह बतलाती है कि आपके रसूल और शागिर्द आपकी फ़ौरी आमद के मुंतज़िर थे क्योंकि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने उनसे फ़रमाया था कि आप एक नया दौर शुरू करने के लिए आने वाले हैं लेकिन आपकी आमद के “दिन और घड़ी की बाबत कोई नहीं जानता” (मत्ती 24:36) क्योंकि आप अचानक आएँगे जब कोई आपकी “राह ना देखता हो।” (मर्क़ुस 13:32-36, मत्ती 24:37-44, लूक़ा 12:35-37, 17:26-36 वग़ैरह) “पस जागते रहो क्योंकि ना तुम इस घड़ी को जानते हो और ना इस दिन को।” (मत्ती 25:13) क्योंकि “इब्ने-आदम अपने जलाल में अपने फ़रिश्तों के साथ आएगा। उस वक़्त हर एक को उस के कामों के मुताबिक़ बदला देगा। मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि जो यहां खड़े हैं उन में से बाअज़ ऐसे हैं कि जब तक इब्ने-आदम को उस की बादशाही में आते हुए ना देख लेंगे वो मौत का मज़ा हरगिज़ ना चखेंगे।” (मत्ती 16:27, 10:23, मर्क़ुस 9:1, लूक़ा 9:27)
ज़बानी बयानात के हामी कहते हैं कि चूँकि रसूल और शागिर्द सब के सब आपकी फ़ौरी (तुरंत) आमद के शदीद इंतिज़ार में लगे थे लिहाज़ा उन्होंने इस बात की ज़रूरत ही ना समझी कि आँख़ुदावंद के कलमात-ए-तय्यिबात, मोअजज़ात बय्यिनात और सवानिह हयात को बक़ैद तहरीर लाएं। वो हर आन (हर घड़ी) इसी इंतिज़ार में रहते थे कि मौला अब आए कि आए। पस उन्होंने ज़बानी बयानात पर ही इक्तिफ़ा करना दानिशमंदी समझी लेकिन जब पहली पुश्त गुज़र गई और वो ज़ईफ़-उल-उम्र (उम्र रसीदा, बूढ़े) हो गए और
उन्हों ने देखा कि आँख़ुदावंद की आमद में ताख़ीर (देर) है तो उन्हों ने आने वाली पुश्त के लिए अनाजील लिखीं।
यहां हमें सय्यदना मसीह की आमद-ए-सानी के वसीअ मज़्मून पर बह्स करना मंज़ूर नहीं है। पस हम चंद उमूर पर ही जो हमारे मज़्मून से मुताल्लिक़ हैं ग़ौर करेंगे :-
(1) हम गुज़श्ता बाब में रसूलों की मुनादी का ज़िक्र मुफ़स्सिल तौर पर कर आए हैं। अगर नाज़रीन इसी मुक़ाम के हवालों का बग़ौर मुतालआ करें तो उन पर ज़ाहिर हो जाएगा कि गो रसूल ये तालीम ज़रूर देते थे कि आँख़ुदावंद अदालत के लिए आने वाले हैं लेकिन वो किसी फ़ौरी आमदे सानी की तालीम नहीं देते थे आमाल की किताब में रसूलों की किसी तक़रीर से ये नहीं पाया जाता। कोई शख़्स जिसने इन तक़रीरों को 2, 3, 5, 10, 13 बाब में पढ़ा है ये नहीं कह सकता आँख़ुदावंद की फ़ौरी आमद-ए-सानी का अक़ीदा रसूलों की मुनादी का जुज़्व (हिस्सा) था। पस ये मफ़रूज़ा सिरे से बे-बुनियाद है कि रसूल इस क़िस्म की फ़ौरी आमद के मुंतज़िर थे कि वो सय्यदना मसीह के अक़्वाल व सवानेह हयात के लिखने में रुकावट का बाइस हो।
(2) फ़र्ज़ करो कि सय्यदना मसीह के शागिर्द और रसूल और तमाम चश्मदीद गवाह जो ईमान ले आए थे सब के सब आमद-ए-सानी के फ़ौरन और अचानक वक़ूअ में आने के मुंतज़िर भी हों फिर भी क़ियास यही चाहता है कि सय्यदना मसीह के कलमात, ख़ुत्बात और वाक़ियात-ए-ज़िंदगी अहाता तहरीर में आ जाते। तारीख़ इस अम्र की गवाह है कि सय्यदना मसीह के ज़हूर से पहले अहले-यहूद “ख़ुदावंद के दिन” के इंतिज़ार में थे। (सफ़नियाह 2:2, 1:18) चुनान्चे योएल नबी कहता है “सय्यदना मसीह का दिन नज़्दीक है वो क़ादिर-ए-मुतलक़ की तरफ़ से बड़ी हलाकत की मानिंद आएगा।” (योएल 1:15 वग़ैरह) सय्यदना मसीह का हम-अस्र मुक़द्दस यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला भी इसी “ख़ुदावंद के दिन” की तरफ़ इशारा करके अहले-यहूद को तंबीह करता है। (मत्ती 3:7) लेकिन इस के बावजूद अहले-यहूद ने किताबें लिखीं जिनमें से बाअज़ मसलन दानीएल अहद-ए-अतीक़ के मजमूए में मौजूद हैं। ख़ुद मुक़द्दस पौलुस ने अपनी कलीसियाओं की जरूरतों को पेश-ए-नज़र रखकर उन को ख़ुतूत लिखे बल्कि जब आपने देखा कि आमदे सानी के इंतिज़ार की वजह से थिस्सलुनिके की कलीसिया में गड़बड़ हो रही है तो आपने उनको हिदायत फ़रमाई कि “ये समझ कर कि ख़ुदावंद का दिन आ पहुंचा है तुम्हारी अक़्ल दफ़अतन परेशान ना
हो जाए और ना तुम घबराओ। किसी तरह से किसी के फ़रेब में ना आना क्योंकि वो नहीं आएगा, जब तक कि पहले बर्गश्तगी ना हो।..... क्या तुमको याद नहीं कि जब मैं तुम्हारे पास था तो तुमसे ये बातें कहा करता था।.... पस ऐ भाइयो साबित-क़दम रहो।” (2 थिस्सलुनीकियों 2 बाब)
जिस तरह पहली सदी में ईमानदार सय्यदना मसीह की आमदे सानी के मुंतज़िर थे इसी तरह मौजूदा ज़माने के बहुत से मोमिनीन इस बात के क़ाइल हैं कि आँख़ुदावंद बस आए कि आए। लेकिन वो भी किताबें ख़ुद लिखते हैं क्योंकि उनका ये ख़याल है कि अगरचे आप आने वाले ही हैं ताहम चूँकि ऊस दिन घड़ी को कोई नहीं जानता उन की किताबें दर्मियानी अर्से के लिए काम आयेंगी।
मौजूदा ज़माना “ऐटमी ज़माना” कहलाता है जिसमें हाईड्रोजन बम और सपटेंक वग़ैरह पर ज़ोर दिया जाता है दुनिया की ताक़तवर सल्तनतों के हाथों में ऐसे ख़ौफ़नाक बम हैं कि अगर दुनिया के किसी एक कोने में भी जंग छिड़ गई तो सियासी हालात की वजह से वो आलमगीर हो जाएगी और दुनिया का चंदा (कुछ) लम्हों में ख़ातिमा हो जाएगा। हर शख़्स जानता है कि वो गोया आतिश-फ़िशाँ पहाड़ के दहाना पर बैठा है लेकिन इस के बावजूद हर मुल्क और हर शख़्स अपने रोज़ाना कारोबार में बदस्तूर मशग़ूल रहता है और दुबक कर किसी कोने में इस इंतिज़ार में नहीं रहता कि अब मरे कि मरे।
(3) पस ये गुमान बातिल है कि कलीसिया पहली सदी के निस्फ़ से ज़्यादा अर्से तक अपने आक़ा व मौला की आमद-ए-सानी के ख़याल में इस क़द्र महू थी कि वो आपके सवानिह हयात में लिखने की जानिब से बिल्कुल बे-परवाह रही। हमें ये याद रखना चाहिए कि जिस ईसा की आमद की कलीसिया इस बेकरारी से मुंतज़िर थी वो वही मसीह मौऊद था जो आ चुका था। (आमाल 1:11) कोई सही-उल-अक़्ल शख़्स ये नहीं मान सकता कि इब्तिदाई ज़माने के मसीही आँख़ुदावंद की सी वसा साला (तीन साल) ज़िंदगी की तरफ़ से ग़ाफ़िल थे। ये बात क़ाबिल-ए-क़ुबूल नहीं हो सकती कि वो लोग जिन्हों ने आपकी सोहबत से फ़ैज़ उठाया था ख़ामोश बैठे रहे और उन को आपके कलमात और मोअजज़ात से इतनी दिलचस्पी भी ना थी कि वो उन को अहाता-ए-तहरीर में लाने की ज़हमत गवारा करते। आमाल की किताब (2:23, 10:38 वग़ैरह) में आपके मोअजिज़ात-ए-बय्यिनात का ख़ुलासा मौजूद है और इस किताब में कलीसिया का रवैय्या साफ़ बतला रहा है कि आपकी तालीम
और आप का नमूना कलीसिया में कार फ़रमा है। (आमाल 2:44, आमाल 4:33 अलीख वग़ैरह) अगर इन्जील मसीह की ख़ुशख़बरी के तौर पर पेश की जाती थी तो लाज़िम आता है कि आपकी मसीहाई का ऐलान, मौत, क़ियामत, आमद-ए-सानी, आपके कलमात और मोअजज़ात वग़ैरह-वग़ैरह किसी ख़ास शक्ल में अहाता तहरीर में आ चुके थे। जिन पर ये ख़ुशख़बरी मुश्तमिल थी और पेश की जाती थी और जो रसूलों की मुनादी की ताईद करती थी और उन के मवाइज़ (नसीहतें) को ज़िंदा नक़्श बनाकर उन में ज़िंदगी का दम फूंकती थी।
(4) जूँ-जूँ कलीसिया का शुमार बढ़ता गया तालीम का काम भी साथ-साथ बढ़ता गया और मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं में ये ज़रूरत महसूस हुई कि मुअल्लिमों की ज़्यादा से ज़्यादा तादाद इस काम पर मुक़र्रर की जाये। पस क़ुदरती तौर पर इन मुअल्लिमों की तादाद चश्मदीद गवाहों की तादाद से बढ़ गई और सीना ब-सीना ज़बानी पैग़ाम बहुत जल्दी इस मक़्सद के लिए नाकाफ़ी साबित हुआ। चश्मदीद गवाह भी यके बाद दीगरे मरते जा रहे थे। (1 कुरिन्थियों 15:6) लोग सीना ब-सीना ज़बानी पैग़ाम के अल्फ़ाज़ भूल सकते थे और उन में आमेज़िश भी हो सकती थी। आमद-ए-सानी में ताख़ीर वाक़ेअ हो रही थी और सय्यदना मसीह की फ़ौरी आमद के इंतिज़ार के ख़िलाफ़ कलीसिया को मुतनब्बाह (आगाह) किया जा रहा था। (2 थिस्सलुनीकियों 2:2) पस बहुत जल्दी इन वाक़ियात को अहाता-ए-तहरीर में लाने की ज़रूरत का एहसास हर जगाह होने लगा और मुख़्तलिफ़ मुक़ामात के लोगों ने इस ज़रूरत को पूरा करने की कोशिश की और पहले-पहल चंद औराक़ और पारे और रिसाले लिखे गए जिनको बाद के ज़माने में इन्जील नवीसों ने (जैसा हम आगे चल कर बतलाएंगे) अपनी तसानीफ़ लिखते वक़्त बतौर माख़ज़ इस्तिमाल किए।
(5) सय्यदना मसीह ने रसूलों और शागिर्दों को तो हुक्म दिया था कि “तुम यरूशलेम से शुरू करके सब क़ौमों में तौबा और गुनाहों की माफ़ी की मुनादी करो। तुम इन बातों के गवाह हो। उन को शागिर्द बनाओ और उन को तालीम दो कि उन सब बातों पर अमल करें जिनका मैंने तुमको हुक्म दिया है और देखो मैं दुनिया के आख़िर तक तुम्हारे साथ हूँ।” (लूक़ा 24 47 48, मत्ती 28 19 20) इन रसूलों की ज़िंदगी का वाहिद मक़्सद ही ये था कि बड़ी से बड़ी तादाद को सय्यदना मसीह का हल्क़ा-ब-गोश करें। इनकी तक़रीरों का मज़्मून ही सय्यदना मसीह की तालीम, ज़िंदगी, मौत और क़ियामत के हैरत-अंगेज़
वाक़ियात थे क्योंकि ये अशद ज़रूरी था कि वो दुनिया के लोगों को आपकी आमद-ए-सानी के लिए तैयार करें लेकिन ये मक़्सद सिर्फ मादूद-ए-चंद लोगों की चंद एक तक़रीरों से पूरा नहीं हो सकता था। वो इन तक़रीरों में सिर्फ मोटी-मोटी बातें जिनको “मुनादी” Kerygma कहते थे लोगों को बतला सकते थे। हम इस नुक्ते पर बाब सोम में बह्स कर चुके हैं। मुक़द्दस पतरस की तक़रीर (आमाल 10:36-43) इस बात को वाज़ेह कर देती है कि रसूल मुनादी और तालीम दोनों देते थे, लेकिन अगरचे लोग हज़ारहा की तादाद में कलीसिया में शामिल हो रहे थे लेकिन अभी करोड़ों इस के बाहर थे जिन्हों ने नजात का पैग़ाम सुना भी ना था। पस रसूलों और मुबश्शिरों की जमाअत ने इन सब ज़रुरियात को पूरा करने के लिए तहरीरी याददाश्तें और तहरीरी शहादतें बहम पहुंचाईँ जो चश्मदीद गवाहों ने लिखीं या लिखवाईँ। (लूक़ा 1:1) ताकि मुअल्लिमों और उस्तादों की फ़ाज़िल जमाअत और दीगर मुक़ामात की कलीसियाओं के मुबश्शर उनका इस्तिमाल करके लोगों को सय्यदना मसीह के क़दमों में लाएं। इस सिलसिले में मुक़द्दस पतरस के अल्फ़ाज़ हमेशा मल्हूज़-ए-ख़ातिर (याद) रखने चाहिऐं “पस तौबा करो और रुजू लाओ ताकि तुम्हारे गुनाह मिटाए जाएं और इस तरह सय्यदना मसीह के हुज़ूर से ताज़गी के दिन आएं और वो मसीह को जो तुम्हारे वास्ते मुक़र्रर हुआ है यानी येसू को भेजे।” (आमाल 3:19)
(6) सय्यदना मसीह की बाअज़ तम्सीलें ये साबित करती हैं कि हज़रत कलिमतुल्लाह का अपनी आमद-ए-सानी से ये मतलब नहीं था कि ये दुनिया ख़त्म हो जाएगी बल्कि आपका मतलब ये था कि दौर ख़त्म हो जाएगा और वो एक नया दौर और ज़माना शुरू हो जाएगा जिसमें आस्मान की बादशाही के उसूल का रिवाज होगा जिसमें रफ़्ता-रफ़्ता नेकी बदी की ताक़तों पर ग़ालिब आती जाएगी। यहां तक कि ख़ुदा की मुहब्बत वाहिद हुक्मरान होगी। मसलन बीज बोने वाले की तम्सील, कड़वे दाने की तम्सील, राई के दाने की तम्सील, बीज के पोशीदगी में बढ़ने की तम्सील, वग़ैरह सबसे ज़ाहिर है कि दुनिया आँ-खुदावंद की वफ़ात के कुछ महीने या सालों के अंदर-अंदर फ़ना नहीं होगी बल्कि ख़ुदा की बादशाही इस दुनिया में आ चुकी है और वो रफ़्ता-रफ़्ता बढ़ती जाएगी और तरक़्क़ी ही करती जाएगी। लेकिन सय्यदना मसीह ने तरक़्क़ी की तक्मील का ज़माना मुतय्यन (तय) नहीं किया जिससे ज़ाहिर है कि आमद-ए-सानी फ़ौरी नहीं होगी बल्कि बतद्रीज (दर्जा बदर्जा) राई के दरख़्त की तरह बढ़ती जाएगी और आप की तालीम का ख़मीर सब में तासीर करके नया दौर शुरू कर देगा।
(7) ये बात ग़लत है कि तमाम इब्तिदाई कलीसिया सय्यदना मसीह की फ़ौरी आमद की मुंतज़िर थी ख़्वाह दुनिया अख़्लाक़ी तौर पर आपके आने के लिए तैयार हो या ना हो। चुनान्चे मुक़द्दस पतरस के अल्फ़ाज़ (आमाल 3:19) इस नज़रिये के क़तअन ख़िलाफ़ हैं। आँख़ुदावंद के रसूलों का ये ख़याल था कि दुनिया आपका अख़्लाक़ी और रुहानी चैलेंज क़ुबूल कर लेगी। जिसका नतीजा ये होगा कि दुनिया में एक नया दौर शुरू हो जाएगा जिसकी बिना ज़ुल्म और इस्तंबदाद की बजाए इन्साफ़ पर और बदी की बजाए नेकी और मुहब्बत29पर होगी। लेकिन ये गहरा नुक्ता पहले-पहल ख़ुद शागिर्द नहीं समझते थे जिस तरह वो सय्यदना मसीह की बहतेरी दूसरी बातें नहीं समझते थे। (मत्ती 15:17, 16:9 11, लूक़ा 24:45 वग़ैरह) पस जब रसूलों ने पहले-पहल मुनादी शुरू की तो ये मुम्किन है कि बाअज़ का ख़याल हो कि अगर चंद माह में नहीं तो सालों के अंदर अंदर आँख़ुदावंद की आमद-ए-सानी होगी लेकिन जब सालहा साल गुज़र गए और आप की आमद में ताख़ीर ही वाक़ेअ होती गई। तो कलीसियाए मुक़द्दस पौलुस और मुक़द्दस यूहन्ना जैसे मुअल्लिमों और फ़ाज़िल उस्तादों की क़ियादत और रहनुमाई में वाक़ियात की रोशनी में आँख़ुदावंद के कलमात पर ग़ौर किया। जिस तरह रसूलों को बाद के वाक़ियात की रोशनी में सय्यदना मसीह के दीगर कलमात का अस्ल मफ़्हूम मालूम हो जाता था। (मत्ती 26:75, लूक़ा 22:61, 24:8, यूहन्ना 2:17, 12:16 वग़ैरह) इसी तरह कलीसिया के फ़ाज़िल मुअल्लिमों मुक़द्दस यूहन्ना और मुक़द्दस पौलुस रसूल ने इन कलमात के अस्ल मफ़्हूम को पा लिया जिनका ताल्लुक़ आमद-ए-सानी के साथ था जो एन सय्यदना मसीह के मंशा के मुताबिक़ था। चुनान्चे पौलुस रसूल दूसरे शागिर्दों से सुनकर अव्वल-अव्वल यही ख़याल करते थे कि आपकी आमद फ़ौरी होगी। (1 थिस्सलुनीकियों 4:14 17, 2 थिस्सलुनीकियों 1:7-10) लेकिन जब आमद-ए-सानी में ताख़ीर वाक़ेअ होती गई तो आपने ख़ुद इस का गहरा मतलब पा लिया। यही वजह है कि आपके माबाअ्द के ख़ुतूत में ऐसे अल्फ़ाज़ नहीं पाए जाते।30चुनान्चे 1 थिस्सलुनीकियों (50 ई॰) में मुक़द्दस पौलुस सय्यदना मसीह की आमद-ए-सानी के मुंतज़िर हैं लेकिन बाद के ख़ुतूत में आपकी आमद-ए-सानी पर ज़ोर नहीं देते बल्कि
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29A.T.Cadoux, Essays in Christian Thinking and Lily Dougal and Emmet’s The Lord of Thought
30T.R. Glover, Pual of Tarsus pp.233-234
आपका तमाम ज़ोर गुनाह से नजात हासिल करने की तालीम पर है।31(2 कुरिन्थियों 5:16, कुलिस्सियों 1:13, 6:6 वग़ैरह)
लेकिन मुअल्लिमों में से बाअज़ लोग थे जो इन गहरे मुतालिब को ना पा सके। उन्हों ने आँख़ुदावंद के कलमात का अम्बिया-ए-साबक़ीन बिल-ख़ुसूस दानीएल और दीगर मुकाशफ़ाती किताबों की इस्तिलाहात का इस्तिमाल करके एक नया नक़्शा पेश किया जिसके बाअज़ हिस्से हमको (मर्क़ुस 13 बाब) में मिलते हैं। इस गिरोह के ख़यालात ने यूहन्ना आरिफ़ के मुकाशफे में तक्मील32पाई।
बहर-हाल ये ज़ाहिर है कि दोनों क़िस्म के ख़यालात के गिरोहों के मुअल्लिम इन क़दीम तरीन अय्याम में रिसाले और किताबचे लिखते थे। हम हिस्सा दोम के बाब अव्वल में इंशा-अल्लाह ज़िक्र करेंगे कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील 13 बाब में इसी तरह का एक वर्क़ मौजूद है जो तहरीरी शक्ल में33था। इन किताबों की तस्नीफ़ और इशाअत निहायत माअनी-ख़ेज़ है क्योंकि ज़बानी बयानात के हामियों के नज़रिये के कुल्लियतन ख़िलाफ़ है और साबित करती है कि आँख़ुदावंद की फ़ौरी आमद-ए-सानी का इंतिज़ार आपके कलमात और सवानिह हयात के अहाता तहरीर में आने और जमा किए जाने की राह में रुकावट का बाइस ना था।
(8) अगर हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) का मतलब ये होता कि आपकी आमद-ए-सानी एक फ़ौरी बात होगी तो आपका अख़्लाक़ी तालीम को देना एक फ़ुज़ूल बात हो जाती। पहाड़ी वाज़ वग़ैरह अबस हो जाती है क्योंकि जब दुनिया का ख़ातिमा ही फ़ौरन होने वाला है तो लोगों को नई तालीम की तल्क़ीन करने का क्या मतलब है? पस आँख़ुदावंद की तालीम इस तरह दर-हक़ीक़त बेमाअनी हो जाती है। लेकिन आप अनाजील अरबा को एक सिरे से दूसरे तक पढ़ जाएं आपको ये कहीं नहीं मिलेगा कि आपकी तालीम सिर्फ़ चंद साल के वक़्फ़ा के इस दर्मियानी मुद्दत के लिए है जो आप की वफ़ात और आमद-ए-सानी के दर्मियान हाइल होगा। पहाड़ी वाज़ से ये साफ़ ज़ाहिर है कि इस दुनिया में इन्सानी ज़िंदगी हज़ारों साल चलती जाएगी। (मर्क़ुस 12:9, मत्ती 21:40-41, 22:8-9, लूक़ा 14:22
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31C.H. Dodd, Apostolic Preaching pp.65-71
32C.H. Dodd, The Parnkles of the Kingdom (1935) pp.133-134
33C.J. Codoux, The Historic Mission of Jesus (1941) p.12
ता 24) से भी ज़ाहिर है। पस इन हज़ारों मख़्लूक़-ए-ख़ुदा में से हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की बातों को अपने कानों से सुनने वाले थे बहुतों ने इस पर कमर बाँधी कि इस जाँफ़िज़ा पैग़ाम को अपनी याददाश्त के लिए और दूसरों को बतलाने के लिए लिखें। इस बात का सबूत कि आँख़ुदावंद के कलमात क़लमबंद नहीं किए गए थे उन लोगों की गर्दन पर है जो इस ज़ेरे बह्स नज़रिये के क़ाइल हैं। लेकिन ये नज़रिया हक़ीक़त और तारीख़ दोनों से कोसों दूर है।
हमारा मतलब ये हरगिज़ नहीं कि हज़ारहा चश्मदीद गवाहों की जमाअत में से हर एक फ़र्द ने तहरीरी बयान ही दिया था या जो अक़्वाल और वाक़ियात हर शख़्स ने देखे थे वो उन को अहाता तहरीर में ले आया था। हम तस्लीम करते हैं कि ज़बानी बयानात देने वाले भी इन क़दीम अय्याम में मौजूद थे जो “ख़बर देते थे कि ख़ुदावंद ने कैसे बड़े काम किए।” (मर्क़ुस 5:19) और वो “इस बात का चर्चा करते थे” लेकिन हम इस हक़ीक़त पर ज़ोर देना चाहते हैं कि ज़बानी बयानात के साथ-साथ तहरीरी बयानात मौजूद थे जो इन क़दीम तरीन कलीसियाओं के हाथों में थे और अर्ज़-ए-मुक़द्दस के तूल व अर्ज़ में पाए जाते थे। हर ज़ी अक़्ल शख़्स पर ज़ाहिर हो जाता है कि हज़ारहा मोमिनीन की जमाअत को जो इन क़दीम तरीन अय्याम में यरूशलेम और अर्ज़-ए-मुक़द्दस के अंदर और सल़्तनत-ए-रुम के मुख़्तलिफ़ कस्बों और शहरों में फैल गई थी, सिर्फ ज़बानी बयानात हिफ़्ज़ कराने से ईमान की इस्तिक़ामत वासिल नहीं हो सकती थी। जो काम तहरीरी लफ़्ज़ कर सकता है वो एक या मुतअद्दिद अश्ख़ास की तक़रीरों के अल्फ़ाज़ सर-अंजाम नहीं दे सकते। पस जूँ-जूँ साल गुज़रते गए और दूर व दराज़ की कलीसियाओं का शुमार बढ़ता गया, तहरीरी बयान, पारे, रिसाले और किताबें ज़्यादा इस्तिमाल होने लगीं और यह पारे और रिसाले हर मुक़ाम की कलीसियाओं में मुरव्वज हो गए। (लूक़ा 1:1)
बाब पंजुम
अनाजील-ए-अर्बा
गुज़श्ता अबवाब में हम साबित कर आए हैं कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलमात और ख़ुत्बात को सुनने वालों और आप के मोअजज़ात को अपनी आँखों से देखने वालों की तादाद हज़ारहा थी। ये सब के सब लिखे पढ़े यहूदी अवाम और ख़वास थे। उन्हों ने जो देखा और सुना इस की उन के रिश्तेदारों, वाक़िफ़कारों और दोस्तों के हलक़ों में धूम मच गई। आपकी वफ़ात के बाद उन में से हज़ारों आप पर ईमान ले आए, और कलीसिया में शामिल हो कर नजात से बहरावर हो गए। पस रसूलों ने कलीसिया की तंज़ीम की। नव-मुरीदों को मसीही ईमान की तालीम देने के लिए और उन के ईमान को मुस्तहकम (मजबूत) करने के लिए रिसाले लिखे गए। इन में से बाअज़ रिसाले और पारे आँख़ुदावंद की हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में ही लिखे गए और दीगर पारे चश्मदीद गवाहों के बयानात पर मुश्तमिल थे जो मोअतबर थे। बाअज़ रिसाले रसूलों ने और बाअज़ रिसाले मुअल्लिमों और उस्तादों की फ़ाज़िल जमाअत ने मुरत्तिब किए। बाअज़ पारे यरूशलेम की कलीसिया में मुरव्वज (राइज, जारी) थे। चुनान्चे अनाजील को ग़ौर से पढ़ने वालों पर ज़ाहिर है कि इनके बाअज़ हिस्सों में अल्फ़ाज़ में “हम”, “तो", “तुम”, “तुझे” वग़ैरह यानी वाहिद हाज़िर, जमा हाज़िर, वाहिद मुतकल्लिम, और जमा मुतकल्लिम के सीगे आते हैं। (लूक़ा 1:3-4, यूहन्ना 20:21 वग़ैरह) ये हक़ीक़त ज़ाहिर करती है कि ये बयानात चश्मदीद गवाहों के हैं जो कुल्ली वसूक़ (कामिल यक़ीन) के साथ अपने मुख़ातिबों को इन बातों की निस्बत तहरीर करते हैं जिनको “हमने सुना और अपनी आँखों से देखा बल्कि ग़ौर से देखा और अपने हाथों से छुआ।” (1 यूहन्ना 1:1) ये सब के सब बयानात आँख़ुदावंद की वफ़ात के चंद सालों के अंदर-अंदर लिखे गए। (लूक़ा 1:1) ये पारे और रिसाले जो इब्तिदाई अय्याम में लिखे गए थे अनाजील की तालीफ़ करने वालों के हाथों में थे। इन्जील नवीसों ने इन रिसालों और पारों को जो मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं में मुरव्वज थे अपनी इंजीलों के माख़ज़ बनाया क्योंकि वो सबसे मोअतबर शुमार किए जाते थे। इस बाब में हम इन क़दीम तरीन रिसालों में से चंद एक का मुफ़स्सिल ज़िक्र करेंगे।
फ़स्ल अव़्वल
रिसाला-ए-कलमात
दूसरी सदी के अवाइल में इफ़िसुस के नज़्दीक शहर हायरापौलुस के बिशप, मुक़द्दस यूहन्ना के शागिर्द, पैपाईस (तारीख़-ए-पैदाइश 60 ई॰) ने एक रिसाला लिखा जिसमें ना सिर्फ उन के अपने ख़यालात दर्ज हैं बल्कि इस में उन्होंने रिवायत भी जमा की हैं जो उन्हों ने कलीसिया के सर-बर-आवुर्दा क़ाइदीन से पहले वक़्तों में सुनी थीं। इस रिसाले में ये बिशप लिखते हैं :-
“पस मत्ती ने इब्रानी ज़बान में सय्यदना मसीह के कलाम को जमा किया और हर शख़्स ने अपने लियाक़त के मुताबिक़ उनका तर्जुमा किया।”
इस फ़िक़्रह में सिर्फ बिशप पेपाइरस का अपना ख़याल ही दर्ज नहीं बल्कि उस के वक़्त से पहले के ज़माने की यानी 100 ई॰ की रिवायत का बयान है। इस मुख़्तसर फ़िक़्रे से हमको चार बातों का इल्म हासिल होता है :-
(1) हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलमात और ख़ुत्बात जमा किए गए थे।
(2) ये कलमात इब्रानी ज़बान में जमा किए गए। ग़ालिबन “इब्रानी” से मुराद अर्ज़-ए-मुक़द्दस के यहूद की ज़बान यानी अरामी ज़बान है।
(3) इन कलमात को जमा करने वाले का नाम मत्ती था और इस से ग़ालिबन मत्ती रसूल मुराद है।/p>
(4) मुख़्तलिफ़ लोगों ने अपनी लियाक़त के मुताबिक़ इनका तर्जुमा किया। इस में ज़रा भी शक नहीं कि इस से मुराद यूनानी ज़बान में तर्जुमा है।34
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34The Mission & Message of Jesus p.309
पस 100 ई॰ की रिवायत के मुताबिक़ हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के ख़ुत्बात और कलमात मुक़द्दस मत्ती रसूल ने जमा किए थे जिसके 100 ई॰ से मुद्दतों पहले यूनानी ज़बान में मुख़्तलिफ़ तर्जुमे भी किए गए थे।
इस रिवायत को इब्तिदाई मसीही मुअर्रिख़ बिशप यूसीबस अपनी किताब तारीख-ए-कलीसिया35में लिखता है। जिसमें वो बिशप पैपाईरस की किताब “ख़ुदावंद के कलमात-ए-समावी” की तफ़्सीर36का इक़्तिबास करता है। इस किताब में ये बिशप बिद्अती मुअल्लिमों की ग़लत तफ़्सीरों के ख़िलाफ़ हज़रत कलिमतुल्लाह के अक़्वाल की सही तावील (बयान, बचाओ की दलील) करता है जो कलीसिया के नज़्दीक मोअतबर थी।
पस दवाज़दा (12) रसूलों में से मुक़द्दस मत्ती रसूल ने आँख़ुदावंद के ख़ुत्बात और कलमात को अरामी ज़बान में जमा किया। प्रोफ़ैसर रम्ज़े के मुताबिक़ ये मजमूआ हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के जीते-जी जमा किया गया था।37जिस तरह आमोस नबी की किताब उस की हीन-ए-हयात में ही लिखी गई थी। और यह मजमूआ इस क़द्र मक़्बूल आम हो गया था कि इस की बहुत निकलें की गईं। क्योंकि ईमानदारों की जमाअत को जो रोज़ बरोज़ बढ़ती ही चली जा रही थी इस बात की अशद ज़रूरत थी कि वो आँख़ुदावंद की तालीम से वाक़िफ़ हो। बाद में इस मजमूए की कई ऐडीशन भी लिखी गईं जिसमें बाअज़ उलमा मसलन हाकिंस, सेंडे, स्टरीटर वग़ैरह के मुताबिक़ चंद वाक़ियात मसलन आँख़ुदावंद की आज़माईशें, सूबेदार के ख़ादिम का शिफ़ा पाना और चंद दूसरी कहानियां और सय्यदना मसीह के अक़्वाल के “शान-ए-नुज़ूल” शामिल के गए।38ये रिसाला ग़ैर-यहूदी कलीसियाओं में भी निहायत मक़्बूल साबित हुआ और उन की ख़ातिर मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास ने इस के तर्जुमे “अपनी-अपनी लियाक़त के मुताबिक़,” यूनानी ज़बान में किए।
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35Eusebius, H.E.111.p.39
36Expositions of the Oracles of the Lord, by Papias, Bishop of Hierapolis
37Sir W. Ramsay, Luke the Physician.p.89
38Vincent Taylor, Formation of the Gospel Tradition (1938) pp.176-185
इन मुख़्तलिफ़ यूनानी तर्जुमों में से एक तर्जुमा हमारी मौजूदा इन्जील अव़्वल के यूनानी मतन में महफ़ूज़ है। ये रिसाला इन्जील-ए-अव़्वल और सोम के लिखने वालों ने अपनी-अपनी इंजीलों में लफ़्ज़ ब-लफ़्ज़ नक़्ल कर लिया क्योंकि ये रिसाला निहायत मोअतबर था। इस को बारह (12) रसूलों में से एक ने ख़ुद अपने मुबारक हाथों से लिखा था और हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में जमा किया था। ये रिसाला इब्तिदाई अय्याम से ही मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं में मक़ुबूल-ए-आम हो गया था।
ये रिसाला उन मुक़ामात पर मुश्तमिल था जो पहली और तीसरी इंजीलों में पाए जाते हैं ये मुक़ाम हस्बे-ज़ैल39हैं :-
(1) यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की मुनादी। (लूक़ा 3:7 9, 12:17, मत्ती 3:7-13)
(2) सय्यदना मसीह की आज़माईशें। (लूक़ा 4:1-13, मत्ती 4:1-11)
(3) सय्यदना मसीह की तब्लीग़। (लूक़ा 6:20-49, मत्ती 5:1-3, 4, 6, 11-12, 44, 39, 42, 7:12, 5:46-47, 44-45, 48, 7:1-2, 15:14, 10:24 25, 7:3 5, 16-20, 12:33-35, 7:24-27)
(4) कफ़र्नहुम का सूबेदार। (लूक़ा 7:1-10, मत्ती 8:5-10, 13)
(5) हज़रत यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला और सय्यदना मसीह। (लूक़ा 7:18-35, मत्ती 11:2-11, 16-19)
(6) शागिर्दी के उम्मीदवार। (लूक़ा 9:57-62, मत्ती 8:19-22)
(7) मुबल्लिग़ों से ख़िताब। (लूक़ा 10:2, अलीख 8:16; मत्ती 9:27, अलीख; 10:16, 15, 11:20-24, 10:40)
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39The Mission & Message of Jesus (1928) p.45
(8) शागिर्दी के हुक़ूक़। (लूक़ा 10:21-24, 11:9-13, मत्ती 11:25-27, 13:16 अलीख; 7:7-11)
(9) बाल-ज़बूल की निस्बत बह्स। (लूक़ा 11:14-26, मत्ती 12:22-24, 25:30, 43-45)
(10) ख़ुशामद की मलामत। (लूक़ा 11:27 अलीख; मत्ती 12:46-50)
(11) निशान के तालिब। (लूक़ा 11:29-36, मत्ती 12:38-41, अलीख; 5:15, 6:26 अलीख)
(12) फ़रीसियों के ख़िलाफ़। (लूक़ा 11:42-52, 12:2 अलीख; मत्ती 23:23, 27, 23:4, 29, 31, 34 36, 19-21)
(13) शागिर्दों की इज़ार सानी। (लूक़ा 12:4-12, 22-34, मत्ती 10:28-33, 12:32, 6:25 33, 19-21)
(14) अदालत का नाज़ुक वक़्त। (लूक़ा 12:35-59, 13:18-21, मत्ती 25:1-13, 24:43-51, 10:34-36, 5:25-26, 13:31-33)
(15) तौबा ना करने वालों का हश्र। (लूक़ा 13:22-30, 34 अलीख; 14:15, मत्ती 8:11 अलीख; 23:37, 39-22:1-10)
(16) नाज़ुक वक़्त में शागिर्दी। (लूक़ा 14:25-27, 34 अलीख; 16:13, 16-18, मत्ती 10:37-38, 5:13, 6:24, 11:12-13, 18:6-7)
(17) इब्ने-आदम के दिन। (लूक़ा 17:22-37, मत्ती 24:26-39, 10:39, 24:40-41)
अगर नाज़रीन मुन्दरिजा बाला हवालेजात के एक-एक लफ़्ज़ का मुक़ाबला करें तो आप देखेंगे कि दोनों इंजीलों के मुन्दरिजा-बाला मुक़ामात लफ़्ज़ ब-लफ़्ज़ आपस में मिलते हैं। इस की वजह यही है कि इन इंजीलों के मुसन्निफ़ों ने अपनी इंजीलों के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में अपने अपने मक़्सद के मुताबिक़ “रिसाला कलमात” के अल्फ़ाज़ को लफ़्ज़ ब-लफ़्ज़ नक़्ल किया था। और अब इस रिसाले की तमाम आयात हमारे हाथों में मन व
अन वैसी ही मौजूद हैं जैसी मुक़द्दस मत्ती ने लिखी थीं। बाअल्फ़ाज़-ए-दीगर हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के ख़ुत्बात और कलमात-ए-बाबरकात निहायत सेहत के साथ हमारी अनाजील में महफ़ूज़ हैं। इस रिसाले कलमात के अल्फ़ाज़ इन्जील सोम का छटवां हिस्सा और इन्जील अव़्वल का 2/11 हिस्सा हैं। ये रिसाला क़रीबन 192 आयात पर मुश्तमिल था।
बिशप पैपाईस ने अपनी किताब में बिद्अती मुअल्लिमों के ख़िलाफ़ हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के ज़रीन अक़्वाल की सही तफ़्सीर की जो कलीसिया के नज़्दीक मोअतबर थी। बिशप पैपाईस और उन के हम-अस्रों के नज़्दीक रिसाला-ए-कलमात के मुन्दरिजा अक़्वाल को वही पाया हासिल था जो हज़रत मूसा के दस अहकाम को हासिल है।40इस से हम रिसाला कलमात के पाया एतबार और सनद का अंदाज़ा कर सकते हैं।
(3)
जर्मन नक़्क़ाद हारनेक कहता है कि कलमात के मज़ामीन पर ग़ौर करने से ये ज़ाहिर हो जाता है कि इस का मर्कज़ी पैग़ाम ये था कि मसीह मौऊद एक ज़बरदस्त मुअल्लिम और ख़ुदा की बादशाहत का नबी था उस में सिर्फ कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम का ही मजमूआ था। इस के मज़ामीन सलीब के वाक़िये से पहले के हैं। पस इस का मर्कज़ी पैग़ाम “मसीह हमारा नजातदिहंदा” नहीं है।41इस एक बात से ये भी साबित हो जाता है कि ये रिसाला सलीब के वाक़िये से पहले अहाता तहरीर में आ चुका था। क्योंकि ये सलीबी वाक़िये के बाद लिखा जाता तो ये (सलीब का) वाक़िया इस रिसाले में लाज़िमी तौर पर होता क्योंकि दवाज़ादा (12) रसूल अपनी मुनादी के पहले अय्याम ही से इस वाक़िये पर ज़ोर देते थे। (आमाल 1:21, 2:23 वग़ैरह) चुनान्चे प्रोफ़ैसर बरकट भी कहता है42कि “रिसाला-ए-कलमात” में वाक़िया सलीब का ज़िक्र ना था बल्कि हक़ तो ये है कि बकरियों और भेड़ों की तम्सील (मत्ती 25:31-46) सय्यदना मसीह के ख़ुत्बात का निहायत
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40B.W. Bacon, The Story of Jesus (1928). p.45
41 W.C. Allen, Recent Criticism of the Synoptic Gospel’s Exp.Times July 1909 pp.455ff
42F.C. Burkitt, Gospel History & Its Transmission p.133 also T.W. Manson, The Teaching of Jesus pp.29-34
मौज़ूं ख़ातिमा है। ये रिसाला इसी तम्सील पर ख़त्म होता था क्योंकि इस के बाद मत्ती की इन्जील में रिसाला कलमात से कोई क़ौल नक़्ल नहीं किया गया।”
प्रोफ़ैसर रैमज़े कहता है कि इस क़िस्म के रिसाले को कोई मसीही आँख़ुदावंद की सलीबी मौत कि बाद ना लिखता। कम-अज़-कम ईद पैंतीकोस्त के बाद इस क़िस्म के रिसाले का लिखा जाना नामुम्किन है जिससे ये साबित होता है कि ये रिसाला हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में ही लिखा गया था।43
दीगर उलमा का ख़याल है कि ये रिसाला हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की वफ़ात के बाद लिखा गया था। हमने ऊपर दलाईल से साबित किया है कि ये क़ियास दुरुस्त नहीं है। बहर-हाल तमाम उलमा इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि44ये रिसाला क़दीम तरीन है और पहली सदी के दर्मियान से पहले यानी 50 ई॰ से पहले का लिखा हुआ है जिसका बअल्फ़ाज़े दीगर मतलब ये है कि इन उलमा के ख़याल में ये रिसाला आँख़ुदावंद की वफ़ात के दस पंद्रह साल के अंदर-अंदर लिखा गया था। लेकिन मुतअद्दिद उलमा प्रोफ़ैसर रैमज़े के हमनवा हो कर कहते हैं कि “हमारे पास ये मानने के लिए काफ़ी वजूह (वजूहात) हैं कि सय्यदना मसीह की तम्सीलों और आप के कलमात का मजमूआ आपके जीते-जी आपके ज़ेर-ए-एहतिमाम पूरा किया गया,45प्रोफ़ैसर नस्लट टेलर भी इस आलिम से इत्तिफ़ाक़ करते हैं।46प्रोफ़ैसर बरकट के अल्फ़ाज़ भी क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं। वो कहते हैं “मेरे लिए ये तस्लीम करना मुश्किल है कि सय्यदना मसीह के वो अक़्वाल और तम्सीलें (जिनका ताल्लुक़ ख़ुदा की बादशाही के इस दुनिया में पूरा होने से है) सय्यदना मसीह के ज़माने के बाद की हैं इनकी ताज़गी और इन की फ़िज़ा की शगुफ़्तगी इस बात की बय्यन दलील है कि वो आपके ज़माने के बाद की बातें नहीं हैं। (यानी आपकी ज़िन्दगी हि की बातें हैं) क़दीम मसीही अदब में अनाजील-ए-मुत्तफ़िक़ा के बाहर क़ुदरती मुनाज़िर और इन्सानी फ़ित्रत के मुताल्लिक़ इस क़िस्म का नज़रिया ज़िंदगी कहीं नहीं मिलता जो आप की तम्सीलों में मौजूद है। आमाल की किताब में मुख़्तलिफ़ रसूलों की तक़रीरें लिखी हैं इनमें एक भी तम्सील मौजूद
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43Sir W. Ramsay, Luke the Physician p.89
44A. Richardson, The Gospel in the Making (S.C.M.P.24)
45B.S. Easton, The Gospel before the Gospels (1928) p.41
46Vincent Taylor, Formation of the Gospel Tradition p.94
नहीं और ना इस क़िस्म के अक़्वाल पाए जाते हैं जो आँख़ुदावंद की ज़बान-ए-मुबारक से निकले।47
नाज़रीन ने मुलाहिज़ा किया होगा कि “मुनादी” (बाब सोम) में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की मुबारक तालीम की निस्बत एक लफ़्ज़ भी मौजूद नहीं है। अनाजील अरबा में बार-बार आया है कि सामईन (सुनने वाले) आपकी तालीम सुनकर “दंग रह जाते थे।” और मुख़ालिफ़ीन तक इस बात का इक़रार करते थे कि “इन्सान ने कभी ऐसा कलाम नहीं किया।” (यूहन्ना 7:46) फिर क्या वजह है कि आपकी तालीम रसूलों की मुनादी का ग़ालिब हिस्सा ना थी। इस की सिर्फ यही वजह हो सकती है कि यरूशलेम और अर्ज़-ए-मुक़द्दस में ना सिर्फ एक बड़ी तादाद इस तालीम से वाक़िफ़ थी बल्कि ये तालीम तहरीरी सूरत में ईमानदारों की जमाअत में मुरव्वज थी। लेकिन चूँकि इस रिसाले में सय्यदना मसीह की तालीम के इलावा और कुछ ना था लिहाज़ा रसूलों की “मुनादी” उन बातों पर मुश्तमिल थी जो इस रिसाले में ना थीं। इस क़िस्म की ज़िमनी बातों से भी पता चलता है कि आँख़ुदावंद के ज़रीन अक़्वाल आपकी हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में ही लिखे गए थे और वो तहरीरी सूरत में मौजूद थे।
मुक़द्दस पौलुस रसूल के ख़ुतूत से भी ये मालूम होता है कि आपके पास“रिसाला-ए-कलमात” मौजूद था। जिसमें आँख़ुदावंद के कलमात और अहकाम मौजूद थे। (1 कुरिन्थियों 7:10, 12, 25, मत्ती 5:32, आमाल 13:24, 19:4, 20:35 वग़ैरह) आपके ख़ुतूत (रोमियों 12:14-21, 2 कुरिन्थियों 10:1 वग़ैरह) के अल्फ़ाज़ ज़ाहिर करते हैं कि “रिसाला-ए-कलमात”रसूल मक़्बूल के हाथों में मौजूद था। (1 कुरिन्थियों का 13 बाब) दर-हक़ीक़त आँख़ुदावंद के कैरक्टर और ख़सलत का बयान है। आप आयात 4 ता 8 में लफ़्ज़ “मुहब्बत” की बजाए लफ़्ज़ “येसू मसीह” पढ़ें तो आप पर ज़ाहिर हो जाएगा कि किस ख़ूबी से मुक़द्दस पौलुस ने आँख़ुदावंद की ज़िंदगी का ख़ाका खींचा है और इस ज़िंदगी से मुहब्बत का सबक़ पढ़ा है। मुक़द्दस पौलुस बार-बार आँख़ुदावंद की हलीमी और इन्किसारी का ज़िक्र करता है। (2 कुरिन्थियों 10:1, फिलिप्पियों 2:7-8, 1 कुरिन्थियों 11:1 वग़ैरह) जिससे ज़ाहिर है कि (रिसाला-ए-कलमात)जिसमें (मत्ती 11:29) का क़ौल मौजूद है उन के हाथों में मौजूद था। आपके ख़ुतूत से ये भी ज़ाहिर है कि “रिसाला-ए-इस्बात” आप के हाथों में था जिसका
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47Burkit, Gospel-History & Its Transmission p.195-196
मुफ़स्सिल ज़िक्र हम आगे चल कर करेंगे। ये रिसाला कलमात के मजमूए के बाद लिखा गया था। पस कोई वजह नहीं कि मुक़द्दस पौलुस और दीगर रसूलों और मुबल्लिग़ों के हाथों में रिसाला कलमात ना हो। हमको ताज्जुब होता है जब कोई कहता है कि मुक़द्दस पौलुस मुनज्जी जहान की ज़िंदगी के वाक़ियात और ताअलीमात की तरफ़ से बेनियाज़ थे। दलील ये दी जाती है कि आपके ख़ुतूत में मुनज्जी की ज़िंदगी के वाक़ियात का ज़िक्र बहुत कम पाया जाता है लेकिन ये ख़ुतूत इस ग़र्ज़ के लिए लिखे ही नहीं गए थे। आपके ज़माने में कलीसियाओं के हाथों में ये रिसाले और पारे मौजूद थे जो क़दीम कलीसिया में मुरव्वज थे। पस हम इस नतीजे पर नहीं पहुंच सकते कि रसूल-ए-मक़्बूल मुनज्जी आलमीन की ज़िंदगी और वाक़ियात से वाक़िफ़ ना थे या आपके नज़्दीक वो बहुत एहमीय्यत नहीं रखते थे। रसूल की ज़िंदगी के इन्क़िलाबी वाक़िये का मर्कज़48ही ये था कि मस्लूब गलीली दर-हक़ीक़त कौन थे और क्या थे और दुनिया में आपकी एहमीय्यत दरअस्ल क्या थी। आपके ख़ुतूत से ज़ाहिर है कि क़दीम रिसाले और बिल-ख़ुसूस रिसाला-ए-कलमात आप के हाथों में मौजूद था। प्रोफ़ैसर बरकट49का ख़याल है कि पौलुस रसूल ने सय्यदना मसीह की ज़फ़रयाब क़ियामत के और इशा-ए-रब्बानी के जो बयान लिखे हैं (1 कुरिन्थियों 11:23) अलीख और (1 कुरिन्थियों 15:3 अलीख) वो तहरीरी सूरत में मौजूद थे।
हक़ तो ये है कि अगर कोई शख़्स ख़ाली-उल-ज़हन हो कर इस सवाल पर ग़ौर करे कि जिस क़िस्म की तालीम “रिसाला-ए-कलमात” में मौजूद है वो कब अहाता तहरीर में आई होगी तो वो ये समझ सकता है कि इस माख़ज़ की तारीख़ पंतीकोस्त के बाद की नहीं हो सकती क्योंकि मुक़द्दस पतरस की तक़रीर साफ़ ज़ाहिर कर देती है कि इस वक़्त रसूलों पर इन्जील का अस्ल मंशा और आँख़ुदावंद की आमद की इल्लत-ए-ग़ाई और आप की सलीबी मौत और ज़फ़रयाब क़ियामत का अक़्दह (भेद, राज़) खुल गया था और इन अय्याम में मसीहिय्यत सलीबी मौत की क़ुर्बानी और गुनाहों से नजात की न्यू पर पुख़्ता तौर पर खड़ी हो चुकी थी। अगर ये रिसाला पन्तीकोस्त के बाद लिखा जाता तो ये नामुम्किन था कि इस में नजात की ख़ुशख़बरी का ये तरीक़ा मज़्कूर ना होता। शायद कोई कहे कि ये रिसाला सय्यदना मसीह की क़ियामत और ईद पिन्तिकोस्त के दर्मियानी अर्से में लिखा गया था लेकिन ये क़ियास ऐसा ग़ैर-माक़ूल है कि किसी नक़्क़ाद ने पेश नहीं किया। इस
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48T.R. Glover, Paul of Tarsus p.205
49Burkitt, Gospel-History & Its Transmission p.263
बीम वर्जा कि ज़माने में किस को ये हौसला हो सकता था कि ऐसा रिसाला मुरत्तिब करे जिसकी फ़िज़ा बुलंद मेयार और रंग ढंग रिसाला-ए-कलमात का सा हो।
तमाम इमकानात पर ग़ौर करके हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि रिसाला-ए-कलमात सिर्फ तब ही लिखा जा सकता था जब आँख़ुदावंद अभी ज़िंदा थे और यही वजह थी कि मुक़द्दस लूक़ा जैसा मुहतात मुअर्रिख़ इस रिसाले को अपने दीगर माख़ज़ों से भी ज़्यादा मुस्तनद और मोअतबर समझता है और इन्जील अव़्वल का मुसन्निफ़ भी इस को यकता ख़याल करके इस्तिमाल करता है। इस रिसाले में मुक़द्दस मत्ती ने आँख़ुदावंद के कलमात और आँखों देखे और कानों सुने वाक़ियात को क़लमबंद कर लिया था और इन्जील-ए-अव़्वल और सोम के मुसन्निफ़ दोनों इस रिसाले की सनद को क़ुबूल करके अपने-अपने नुक्ता-ए-नज़र के मुताबिक़ इस रिसाले को अपनी-अपनी तर्तीब के इख़्तिलाफ़ के मुताबिक़ अपनी इंजीलों में लफ़्ज़ ब-लफ़्ज़ नक़्ल करते हैं। ये रिसाला एक तरफ़ तो ऐसी दस्तावेज़ थी जो मशमूला वाक़ियात की हम-अस्र थी। जिसमें उन शागिर्दों के तास्सुरात और रद्द-ए-अमल का ज़िक्र था जो वाक़ियात के चश्मदीद गवाह थे। और दूसरी तरफ़ ये कलमात और वाक़ियात तब अहाता तहरीर में आ गए, जब ये चश्मदीद गवाह इन अल्फ़ाज़ की एहमीय्यत और वाक़ियात के मुतालिब व मअनी को समझना तो दरकिनार वो उन के ख्व़ाब व ख़्याल में ना आए थे। (यूहन्ना 2:22, 12:16, लूक़ा 24:6-8, मर्क़ुस 9:32, लूक़ा 9:22, मर्क़ुस 6:52, लूक़ा 18:31-34 वग़ैरह) शागिर्दों में अभी ये सलाहियत पैदा ही नहीं हुई थी कि वो इन कलमात को समझ सकें जिनका ताल्लुक़ सलीब के साथ था या इस वाक़िये के हक़ीक़ी मक़ासिद और असली मुतालिब को जान सकें। चुनान्चे (मत्ती 16:21-23) के वाक़िये के ऐन बाद (मत्ती 16:24-25) आयात का वाक़िये से ये साबित है। इसी तरह (लूक़ा 9:44-45) के बाद आयात 54, 56 ज़ाहिर करती हैं कि आँख़ुदावंद और आप के शागिर्दों के नुक्ता-नज़र में कितना फ़र्क़ था।
بہ میں تفاوت راہ از کجا ست تاک بکجا۔
इन्जील नवीस रिसाला-ए-कलमात के मुन्दरिजा अक़वाल-ए-ख़ुदावंदी के बाद अपना नोट लिखते हैं “उस की बातें उन (शागिर्दों) को याद आईं।” उन्होंने उनमें से कोई बात ना समझी और यह क़ौल उन पर पोशीदा रहा और इन बातों का मतलब उन की समझ में ना आया।” हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने उन को बाअज़ अक़्वाल बोलने के बाद ही समझा
दीए (मर्क़ुस 4:13, 34 वग़ैरह) बाअज़ के मतलब का उन को बाद के वाक़ियात की रोशनी में पता चला। (मर्क़ुस 7:18-19, आमाल 10:14-15 वग़ैरह) इन अल्फ़ाज़ का वजूद ही इनकी सेहत का ज़िम्मेदार है और शागिर्दों के अपने पुराने ख़यालात का आईना और उन के ज़हनी इर्तिक़ा का शाहिद है। इन बातों से साबित है कि आँख़ुदावंद के अक़्वाल उस वक़्त लिखे गए थे जब आपने फ़रमाए थे।50
(4)
जब हम रिसाला-ए-कलमात के मज़ामीन पर नज़र करते हैं तो इस की ख़ुसूसियात हम पर ज़ाहिर हो जाती हैं। अव़्वल ये कि इस का दायरा नज़र, माअहुद-ए-ज़हनी (वो इस्म-ए-नकरा जो ज़हन मुतकल्लिम या मुख़ातिब में मुईन हो) और एहसासात सब के सब यहूदी फ़िज़ा और यहूदियत में रंगे हैं। दोम, इस रिसाले में बतलाया गया है कि फ़रीसियों के फ़िर्क़े में और आँख़ुदावंद में बाहमी आवेज़िश (लड़ाई) रहती थी। और सोम इस में ख़ुदा की बादशाही का तसव्वुर मसाइल मुआद Exchatological से मुताल्लिक़ है। इस रिसाला में आँख़ुदावंद की जो तस्वीर नज़र आती है वो ख़ुदा की बादशाही के नबी की है। लेकिन फ़र्क़ ये है कि ये नबी इब्ने-आदम है जो ख़ुदा की बादशाही को क़ायम करने के लिए आने वाला है।51
ये रिसाला कलमात पाँच हिस्सों पर मुश्तमिल था। इसी लिहाज़ से बिशप पैपाईस की तफ़्सीर भी पाँच हिस्सों पर मुश्तमिल थी। पस नेसल Nestle का ये ख़याल दुरुस्त मालूम होता है कि बिशप मज़्कूर की तफ़्सीर मुक़द्दस मत्ती के रिसाला-ए-कलमात के पाँच हिस्से थे। जिस तरह तौरात की और ज़बूर की किताबें पाँच हिस्सों में मुनक़सिम थीं। ये तक़्सीम इस हक़ीक़त को भी साबित करती है कि मुक़द्दस मत्ती ने अपने रिसाला-ए-कलमात को पाँच हिस्सों पर इस बिना पर तक़्सीम किया था क्योंकि रसूलों के नज़्दीक हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़बान का एक-एक लफ़्ज़ कतुब-ए-तौरात और सहाइफ़ अम्बिया की तरह इल्हामी था। (यूहन्ना 18:32, मर्क़ुस 10:33, मत्ती 12:8, 41-42, यूहन्ना 18:9, 13, 18 वग़ैरह)
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50W.M. Ramsay, The Oldest Written Gospel Expositor vol.111 May 1907
51W.C. Allen, Recent Criticism of Synoptic Gospels Exp.Times July, 1909 pp.455 ff
जिस तरह अम्बिया-ए-साबक़ीन के सहाबा उन अम्बिया का कलाम मौक़ा और महल का ज़िक्र किए बगैर जमा किया करते थे इसी तरह मुक़द्दस मत्ती ने भी रिसाला-ए-कलमात में सय्यदना मसीह के कलाम मोअजिज़ा निज़ाम को जमा किया और इन का “शान-ए-नुज़ूल” ना बतलाया। आपने ये ना लिखा कि सय्यदना मसीह ने फ़ुलां मौक़े पर या फ़ुलां महल पर फ़ुलां कलमात फ़रमाए थे।
चूँकि रिसाला-ए-कलमात एक मुख़्तसर रिसाला था जिसमें सिर्फ आँख़ुदावंद के कलमात ही दर्ज थे और इस में मुनज्जी जहान की सलीबी मौत और दीगर सवानिह हयात और मोअजज़ात का बयान ना था और मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा ने इस रिसाले के एक-एक लफ़्ज़ को अपनी इंजीलों में नक़्ल कर लिया था, लिहाज़ा जूँ-जूँ वक़्त गुज़रता गया इस रिसाले की नक़्लें होनी बंद होती गईं।
इलावा अज़ीं क़दीम ज़माने के मसीही सिर्फ़ चंद तूमारों के ही मालिक हो सकते थे। पस उन्होंने इन्जील मत्ती और इन्जील लूक़ा के तूमारों को तर्जीह दी और यह रिसाला आहिस्ता-आहिस्ता नक़्ल होना बंद हो गया और एक ज़माना आया जब ये रिसाला नापीद हो गया।52
फ़स्ल दोम
रिसाला-ए-इस्बात
हम बाब सोम में बतला चुके हैं कि इब्तिदाई अय्याम की कलीसिया के मुअल्लिमों ने ईमानदारों की जमाअत के ईमान की इस्तिक़ामत के लिए एक रिसाला मुरत्तिब किया53जिसमें मुख़्तलिफ़ उनवानात के मातहत अहद-ए-अतीक़ की किताबों की उन आयात को इकट्ठा किया गया था जिनका एक ही मौज़ू था और कि ये रिसाला इसी क़िस्म का था जिस क़िस्म का बाद के ज़माने में बिशप स्प्रेन54ने नज़र-ए-सानी करके तैयार किया था।
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52Filson, Origin of the Gospels. P.125.
53Bishop Blunt, St. Mark, (Clarendon Bible 1935).11
54Cyprian’s Testimony against the Jews
जिससे मुतअद्दिद लातीनी मुसन्निफ़ों ने इक़्तिबास किए हैं इन तमाम वजूह के बाइस डाक्टर हैरिस Dr. Harris जैसा आलिम इस नतीजे पर पहुंचा कि ये रिसाला अगर क़दीम तरीन किताब नहीं तो कम अज़ कम क़दीम तरीन ज़माने से मुताल्लिक़ है। और इन्जीली मजमूए की तमाम कुतुब से पेश्तर अहाता तहरीर में आया था और इस किताब का असर इन्जील की तक़रीबन हर किताब में नज़र आता है। इस आलिम के ख़याल में ये किताब अहद-ए-अतीक़ की नबुव्वतों पर मुश्तमिल थी और इस मजमूए की बहुतेरी ऐडीशन हुईं और हर ऐडीशन में इस से पहली ऐडीशन की नज़र-ए-सानी की गई थी। जिसमें बाअज़ आयात को ख़ारिज और दीगर मुक़ामात का इज़ाफ़ा किया गया था। हम बाब सोम में बतला चुके हैं कि इस क़िस्म के रिसाले का क़दीम तरीन ज़माने में मुरत्तिब किया जाना एक क़ुदरती बात भी थी। दूसरी सदी के अवाइल में जस्टिन शहीद ने अपनी किताब “अपालोजी” की बुनियाद भी अहद-ए-अतीक़ की नबुव्वतों पर रखी थी और दीगर आबाए कलीसिया ने भी तब्लीग़ का यही तरीक़ा इख़्तियार किया था।
इस फ़स्ल में हम इस रिसाले के मज़ामीन पर मुफ़स्सिल बह्स करेंगे।
जब हम इंजीली मजमूआ की कुतुब पर एक ग़ाइर (गहरी) नज़र डालते हैं तो हम पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि इन्जील के बाअज़ मुक़ामात में अहद-ए-अतीक़ की कुतुब का इक़्तिबास करने से पहले इन्जील के बाअज़ मोअल्लिफ़ एक ख़ास फ़ार्मूले या मुक़र्ररी अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करते हैं। मसलन “जैसा नबी की मार्फ़त कहा गया था” वग़ैरह। लेकिन इंजीली मजमूए की कुतुब में मुतअद्दिद मुक़ामात ऐसे भी हैं जहां ये ज़ाहिर है कि मुसन्निफ़ का मंशा इक़्तिबास करने का है लेकिन इक़्तिबास करने से पहले वो कोई ख़ास फ़ार्मूला इस्तिमाल नहीं करता। बाअज़ इक़्तिबासात लफ़्ज़ ब-लफ़्ज़ यूनानी तर्जुमा सेप्टिवाजिंट से मिलते हैं लेकिन दीगर इक़्तिबासात सीधे इब्रानी अस्ल मतन से तर्जुमा किए गए हैं। बाअज़ मुक़ामात से ज़ाहिर है कि वो तौज़ीह (शराह वज़ाहत) की ख़ातिर इक़्तिबास किए गए हैं। दीगर मुक़ामात में अहद-ए-अतीक़ की किसी किताब की जानिब सिर्फ़ इशारा ही पाया जाता है।
अहद-ए-अतीक़ की कुतुब के चंद मुक़ामात हस्बे-ज़ैल55हैं :-
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55C.H. Dodd, according to the Scripturess (1935)
(1) (ज़बूर 2:7) ये आयत अनाजील में (मर्क़ुस 1:11, 9:7, मत्ती 3:17, लूक़ा 3:22) और अनाजील के बाहर (आमाल 13:33, इब्रानियों 1:5, 5:5) में पाई जाती है। इस से ज़ाहिर है कि अहद-ए-जदीद की किताबों के तीन मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ (जिनका एक दूसरे की तस्नीफ़ात से क़तअन कोई मुताल्लिक़ नहीं) (ज़बूर 2:7) का इस्तिमाल करते हैं जिससे ये पता चलता है कि इन किताबों के लिखे जाने से बहुत पहले ये आयत मसीह मौऊद के सबूत में पेश की जाती थी।
(2) (ज़बूर 8:4-6) का इक़्तिबास (इब्रानियों 2:6-8) (जिसके अल्फ़ाज़ सेप्टिवाजिंट तर्जुमे के मुताबिक़ हैं) (1 कुरिन्थियों 15:27, इफ़िसियों 1:22, फिलिप्पियों 3:21, 1 पतरस 3:22) में पाया जाता है। 1 पतरस के ख़त का इक़्तिबास खासतौर पर गौर-तलब है। क्योंकि वो मुक़द्दस पौलुस या इब्रानियों के ख़त के मुसन्निफ़ों की तश्रीह को जो वो इस आयत की करते हैं नहीं लेता। बल्कि वो इस ज़बूर की मक़ुबूल-ए-आम तफ़्सीर का क़ाइल है। पस ये तीनों मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ इस ज़बूर की आयात को अपने-अपने मतलब को ज़ाहिर करने के लिए सबूत के तौर पर पेश करते हैं ताकि हर किस व नाकिस ये जान ले कि “मसीह को दुख उठा कर जलाल में दाख़िल होना ज़रूर था।” (लूक़ा 24:26) पस ज़ाहिर है कि इन मुसन्निफ़ों की तहरीरात से बहुत पहले कलीसिया के मुअल्लिम इन आयात को इस ग़र्ज़ के लिए पेश करते थे।
(3) (ज़बूर 110:1) इस आयत का इक़्तिबास ना सिर्फ इन्जील (मर्क़ुस 12:36) में किया गया है बल्कि (आमाल 2:34 ता 35) (जिसके अल्फ़ाज़ सेप्टिवाजिंट के मुताबिक़ हैं) और (इब्रानियों 1:13) में किया गया है। लेकिन अहद-ए-जदीद की कुतुब में इस आयत की जानिब मुतअद्दिद मुक़ामात में इशारे मौजूद है। (मसलन मर्क़ुस 14:62, आमाल 7:55, रोमियों 8:34, इफ़िसियों 1:20, कुलस्सियों 3:1, इब्रानियों 1:3, 8:1, 10:12, 12:2, 1 पतरस 3:22) ज़ाहिर है कि ये आया शरीफा रसूलों की मुनादी की बुनियादी आयत थी। पस मुक़द्दस मर्क़ुस, मुक़द्दस लूक़ा, मुक़द्दस पौलुस और इब्रानियों और 1 पतरस के ख़ुतूत के मुसन्निफ़ मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में इस आयत का इक़्तिबास करते हैं जिससे ज़ाहिर है कि इन अनाजील के अहाता तहरीर में आने से पहले ये रिसाला लिखा गया था।
(4) (ज़बूर 118:22-23) इन आयात को मुक़द्दस मर्क़ुस (12:10-11) इस्तिमाल करते हैं। इनके अल्फ़ाज़ यूनानी तर्जुमा सेप्टिवाजिंट के मुताबिक़ हैं। इलावा अज़ीं इन आयात का
इक़्तिबास (आमाल 4:11, 1 पतरस 2:7) में किया गया है। पस तीन मुख़्तलिफ़ गवाह इस बात के शाहिद हैं कि इंजीली मजमूए के वजूद में आने से पहले इन आयात को इस ग़र्ज़ के लिए पेश किया जाता था।
(5) (यसअयाह 6:9-10) का इक़्तिबास अनाजील में मौजूद है। लेकिन इन्जील अव्वल (मत्ती 3:14-15) के अल्फ़ाज़ यूनानी तर्जुमा सेप्टिवाजिंट के मुताबिक़ हैं। इन्जील-ए-चहारुम के अल्फ़ाज़ 12:40 सेप्टिवाजिंट से मुख़्तलिफ़ हैं। इन्जील दोम (मर्क़ुस 4:12) के अल्फ़ाज़ मुक़द्दस यूहन्ना के अल्फ़ाज़ और सेप्टिवाजिंट दोनों से मुख़्तलिफ़ हैं। मुक़द्दस लूक़ा भी इन आयात का इक़्तिबास करते हैं (आमाल 25:25-27) अल्फ़ाज़ के इख़्तिलाफ़ से ये ज़ाहिर है कि ये मुसन्निफ़ एक दूसरे से नक़्ल नहीं कर रहे बल्कि एक मुक़ाम के तीन मुख़्तलिफ़ इक़्तिबासात नक़्ल कर रहे हैं। जिससे ज़ाहिर है कि क़दीम तरीन ज़माने में कलीसिया इस आयत का इस्तिमाल करती थी, जब अहले-यहूद ने नजात के पैग़ाम को क़ुबूल ना किया ताकि इस आयत की सनद से वो ये साबित करे कि इन्जील जलील की मुनादी ग़ैर-यहूद में की जाएगी।
(6) (यसअयाह 53:1) का इक़्तिबास इन्जील (यूहन्ना 12:38) में किया गया है जिसके अल्फ़ाज़ सेप्टिवाजिंट के मुताबिक़ हैं और मुक़द्दस पौलुस भी इस आयत का ज़िक्र रोमियों के ख़त 10:16 में करते हैं।
(7) (यसअयाह 40:3-5) का इक़्तिबास तीन इंजीलों यानी (लूक़ा 3:4-6, मत्ती 3:3, यूहन्ना 1:23) में पाया जाता है। इन्जील चहारुम के इक़्तिबास के अल्फ़ाज़ सेप्टिवाजिंट के मतन से मुख़्तलिफ़ हैं। इन इक़्तिबासात से ज़ाहिर है कि अनाजील अरबा के अहाता तहरीर में आने से पहले कलीसिया इन आयात को इसी मक़्सद के लिए इस्तिमाल करती थी।
(8) (यसअयाह 28:16, 8:14) ये दोनों मुक़ामात (1 पतरस 2:6-8) में मौजूद हैं लेकिन इनके अल्फ़ाज़ सेप्टिवाजिंट से मुख़्तलिफ़ हैं इन आयात का इक़्तिबास (रोमियों 9:33) में भी है।
(9) (पैदाइश 12:3, 22:18) ये दोनो मुक़ामात (आमाल 3:25 और ग़लतियों 3:8) में ये साबित करने के लिए पेश किए गए हैं कि ग़ैर-यहूद ख़ुदा की बादशाहत में दाख़िल
हो कर बरकत पाएँगे जिससे ज़ाहिर है कि क़दीम ज़माने ही से इब्तिदाई कलीसिया इस ग़र्ज़ के लिए इन आयात को इस्तिमाल करती थी।
(10) (यर्मियाह 31:31-34) इन आयात का इक़्तिबास इब्रानियों के ख़त (इब्रानियों 8:8-12) में किया गया है और इस के लफ़्ज़ तर्जुमा सेप्टिवाजिंट के मुताबिक़ हैं। इन आयात की तरफ़ (1 कुरिन्थियों 11:25) में इशारा किया गया है और (2 कुरिन्थियों 3 बाब) में इन आयात से इस्तिदलाल किया गया है जिससे ज़ाहिर है कि क़दीम तरीन ज़माने की कलीसिया इन आयात को किस-किस मक़्सद के लिए इस्तिमाल करती थी।
(11) (योएल 2:28-32) का इक़्तिबास (आमाल 2:17-21, 39) में किया गया है। और इन आयात का ज़िक्र (रोमियों 10:13) में भी आया है। इन आयात का ज़बरदस्त असर इब्तिदाई कलीसिया के उन ख़यालात पर पड़ा जिनका ताल्लुक़ आँख़ुदावंद की आमद-ए-सानी के साथ है। मुलाहिज़ा हो। (लूक़ा 21:25, मुकाशफ़ा 9:2)
(12) (ज़करीयाह 9:9) का इक़्तिबास इन्जील (मत्ती 21:5, यूहन्ना 12:15) में किया गया है। इन दोनों मुक़ामात का मतन यूनानी तर्जुमा सेप्टिवाजिंट से मुख़्तलिफ़ है। ये हक़ीक़त इस अम्र को साबित करती है कि ये दोनों इन्जील नवीस एक दूसरे के मरहून-ए-मिन्नत नहीं हैं बल्कि इन अनाजील के अहाता तहरीर में आने से बहुत पहले क़दीम ज़माने के मुअल्लिम और उस्ताद इस आया शरीफा का इस्तिमाल करते थे।
(13) (हबक़्क़ूक़ 2:3) का इक़्तिबास इब्रानियों के ख़त (10:37 ता 38) में और मुक़द्दस पौलुस के दो ख़ुतूत, (रोमियों 1:17, ग़लतियों 3:11) में किया गया है और लुत्फ़ ये है कि मुक़द्दस पौलुस का तर्जुमा यूनानी सेप्टिवाजिंट के मतन से और इब्रानियों के ख़त के अल्फ़ाज़ से दोनों से मुख़्तलिफ़ है। ये अम्र साबित करता है कि क़दीम कलीसिया के मुअल्लिमों का मजमूआ अस्ल इब्रानी ज़बान में था और बाद के ज़माने में मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ीन ने हस्बे-ज़रूरत इन आयात का अपने-अपने इल्म के मुताबिक़ यूनानी में तर्जुमा किया।
(14) (यसअयाह 41:1-2) का इक़्तिबास इन्जील (लूक़ा 4:18-19) में किया गया है जो आम तौर पर यूनानी सेप्टिवाजिंट के मुताबिक़ है। इसी आयत का इक़्तिबास (आमाल 10:38) में भी मौजूद है।
(15) (इस्तिस्ना 18:15-19) का इक़्तिबास लूक़ा ने (आमाल 3:22-23) में किया है जिससे ये पता चलता है कि क़दीम तरीन ज़माने में रसूल और मुअल्लिम इन आयात से सय्यदना मसीह का मसीह मौऊद होना साबित किया करते थे।
हमने ऊपर की पंद्रह आयात को बतौर मुश्ते नमूना इज़ख़रवारे (ढेर में से मुट्ठी भर) पेश किया है ताकि नाज़रीन पर ज़ाहिर हो जाए कि इंजीली मजमूए की कुतुब के मुसन्निफ़ीन इन आयात को और इसी क़िस्म की दूसरी आयात को अपने मुतालिब और मक़ासिद को समझाने के लिए पेश करते हैं जो उनके लिखने से पहले ही कलीसियाओं में मुरव्वज थीं।
(2)
(1) जब हम मज़्कूर बाला आयात के इक़्तिबासात पर नज़र करते हैं तो हम पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि क़दीम तरीन कलीसिया के मुअल्लिमों के “रिसाले इस्बात” का नफ्स-ए-मज़मून क्या था और इस ज़माने के मुअल्लिम, मुबल्लिग़ और मुबश्शिर इन आयात को किन-किन अग़राज़ और मक़ासिद की ख़ातिर इस्तिमाल करते थे इन इक़्तिबासात से ये भी मालूम हो जाता है कि ये रिसाला मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं में मुरव्वज था। और अनाजील अर्बा (चारो इन्जील) के लिखे जाने से पेश्तर आम मक़बूलियत हासिल कर चुका था।
(2) जब इंजीली मजमूए की कुतुब के मुसन्निफ़ इस रिसाले की आयात का इक़्तिबास करते हैं तो वो किसी ख़ास यूनानी तर्जुमे का इक़्तिबास नहीं करते। जिससे साबित होता है कि इस रिसाले की आयात का मतन यूनानी ज़बान में ना था बल्कि ये रिसाला अस्ल इब्रानी आयात का मजमूआ था और इब्रानी ज़बान में ही मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं के मुअल्लिमों के हाथों में था।
(3) जब हम इक़्तिबासात पर नज़र करते हैं तो हम पर ज़ाहिर हो जाता है कि मुसन्निफ़ इक़्तिबास करते वक़्त किसी आयत के तमाम अल्फ़ाज़ का इक़्तिबास करना ज़रूरी ख़याल नहीं करता। अगर एक मुसन्निफ़ किसी आयत के पहले हिस्से का इक़्तिबास करता है तो दूसरा मुसन्निफ़ उसी आयत के दूसरे हिस्से से इस्तिदलाल करता है। किसी मुसन्निफ़ का इक़्तिबास तवील है, किसी का कम और किसी का बिल्कुल मुख़्तसर है।
मिसाल के तौर पर (ज़बूर 69:9) को (जिसका मुन्दरिजा बाला आयात में ज़िक्र नहीं किया गया) ले लें। मुक़द्दस यूहन्ना इस आया शरीफा के पहले हिस्से का इक़्तिबास (यूहन्ना 2:17) में करता है। लेकिन मुक़द्दस पौलुस इसी आयत के पहले हिस्से का इक़्तिबास नहीं करता। लेकिन दूसरे हिस्से का इक़्तिबास (रोमियों 15:3) करता है। दोनों मुसन्निफ़ अल्फ़ाज़ “लिखा है” इस्तिमाल करते हैं। दोनों दलील दिए बग़ैर ये फ़र्ज़ कर लेते हैं कि इन अल्फ़ाज़ का इतलाक़ सय्यदना मसीह पर है। ये दोनों मुसन्निफ़ एक दूसरे की तस्नीफ़ात से नावाक़िफ़ हैं क्योंकि पौलुस रसूल ने रोमियों का ख़त 56 ई॰ में लिखा था। जिससे साबित है कि दोनों मुसन्निफ़ क़दीम तरीन कलीसिया के इस नज़रिये को तस्लीम करते हैं कि इस आया शरीफा में मसीह मौऊद की तरफ़ इशारा है हालाँकि अहले-यहूद इस ज़बूर को मसीहाई मज़ामीर में शामिल नहीं करते थे। लेकिन क़दीम कलीसिया इस ज़बूर को आँख़ुदावंद की तरफ़ मन्सूब करती थी चुनान्चे अनाजील (यूहन्ना 15:25, मत्ती 27:34, मर्क़ुस 15:36, आमाल 2:20) दोनों से ज़ाहिर है कि क़दीम ज़माने में कलीसिया इस ज़बूर को सबूत के तौर पर पेश करती थी। इसी तरह मज़्कूर बाला दीगर आयात के इक़्तिबासात से भी ज़ाहिर है कि इंजीली मजमूए के मुसन्निफ़ों का मक़्सद मह्ज़ ये ना था कि अह्दे-अतीक़ की आयात के इक़्तिबासात पर ही इक्तिफ़ा किया जाये बल्कि उनका मक़्सद ये बतलाना भी था कि इन आयात का अस्ल मफ़्हूम क्या है और मसीह मौऊद के आने से अहद-ए-अतीक़ की तमाम नबुव्वतें पूरी हो जाती हैं क्योंकि वो सब इशारात हैं जो सय्यदना मसीह के हक़ में पूरे हुए।
(4) नाज़रीन ने मुलाहिज़ा किया होगा कि मज़्कूर बाला पंद्रह आयात का ताल्लुक़ रसूलों की मुनादी के नफ़्स-ए-मज़मून के साथ है। जिसका ज़िक्र बाब सोम में किया गया है। क़दीम तरीन मुअल्लिम रसूलों की मुनादी की न्यू पर अहद-ए-अतीक़ की आयात की इमारत रखते हुए कि सय्यदना ईसा नासरी मसीह मौऊद हो कर आए और आप की आमद से तमाम यहूद पर आपके क़ौल का सही मतलब ज़ाहिर हो जाए कि “मैं तौरेत और नबियों की किताबों को पूरा करने आया हूँ।”
(3)
इस बाब की फसलों में हमने अनाजील अरबा के सिर्फ दो तहरीरी माख़ज़ों का बयान किया है ताकि नाज़रीन पर ज़ाहिर हो जाए कि अनाजील के मुसन्निफ़ों ने लिखते वक़्त
सिर्फ़ ऐसे माख़ज़ों का ही इस्तिमाल किया था जो क़दीम तरीन थे और जिनका पाया एतबार तमाम कलीसियाओं में मुसल्लम था।
ये दो माख़ज़ ऐसे हैं जिनको चारों के चारों इन्जील नवीसों ने इस्तिमाल किया था लिहाज़ा उनका ज़िक्र सबसे पहले किया गया है। लेकिन हमें ये कभी फ़रामोश नहीं करना चाहिए कि इन्जील नवीसों के सामने बहुत से माख़ज़ और भी थे। जिनको उन्होंने शुरू से ख़ुद देखने वाले और कलाम के ख़ादिम थे “तर्तीबवार” लिखा था (लूक़ा 1:1 ता 4)
पस हज़ारहा चश्मदीद गवाहों के ज़बानी और तहरीरी बयानात अर्ज़-ए-मुक़द्दस के तूल व अर्ज़ में मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं में फैले हुए थे।
पहले-पहल जो मजमुए चश्मदीद गवाहों ने आँख़ुदावंद के कलमात और सवानिह हयात के लिखे वो सब शख़्सी, ज़ाती और इन्फ़िरादी क़िस्म के थे। वो लोगों के अपने रंज के मजमुए थे। उनको कलीसिया की तरफ़ से मुस्तनद क़रार नहीं दिया गया था और ना किसी रसूल की मुहर उन पर सब्त थी। इस बात पर इन्जील सोम का दीबाचा गवाह है। चारों इन्जील नवीसों ने निहायत काविश और जांफिशानी से उन मुक़ामात का दौरा किया, जहां की कलीसियाओं में मोअतबर बयानात मुरव्वज थे और इन बयानात की उन लोगों के ज़रीये जो “शुरू से ख़ुद देखने वाले और कलाम के ख़ादिम थे” ख़ूब छानबीन की और जांच पड़ताल के बाद इन इन्जील नवीसों ने “मुनासिब जाना कि सब बातों का सिलसिला शुरू से ठीक-ठीक दर्याफ़्त करके तर्तीब से लिखें।” उन को इस बात का ख़ूब एहसास था कि किसी क़ौल या फ़ेअल को हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की ज़ात से मन्सूब कर देना बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है जिसको वो बे-बाकाना अंजाम नहीं दे सकते। ख़ुदा ने उनकी मसाई जमीला को बावर किया। अगले अबवाब में हम देखेंगे........
.........कि हर इन्जील नवीस ने मुन्दरिजा बाला दो तहरीरी माख़ज़ों के इलावा और ऐसे माख़ज़ भी बहम पहुंचाए जो दौर-ए-अव्वलीन में मोअतबर तरीन थे और जिन का पाया सेहत निहायत मुसल्लम था। हर इन्जील नवीस ने मुन्दरिजा बाला दो तहरीरी माख़ज़ों के इलावा और ऐसे माख़ज़ भी बहम पहुंचाए जो दौर-ए-अव्वलीन में मोअतबर तरीन थे और जिन का पाया सेहत निहायत मुसल्लम था। हर इन्जील नवीस के ऐसे माख़ज़ सिर्फ उसी की इन्जील में पाए जाते हैं। हम इन माख़ज़ों का मुफ़स्सिल ज़िक्र हर इन्जील की तालीफ़ के तहत करेंगे।
हिस्सा दोम
जमा व तालीफ-ए-अनाजील (अज़ 40 ई॰ ता 60 ई॰)
बाब अव़्वल
इन्जील मर्क़ुस की तालीफ़
फ़स्ल अव़्वल
इन्जील-ए-मर्क़ुस के माख़ज़
हम हिस्सा अव्वल के बाब पंजुम की पहली फ़स्ल के शुरू में बुज़ुर्ग बिशप पैपाईस का ज़िक्र कर आए हैं। ये बुज़ुर्ग फ़रगिया के हायरापूलिस (एशया-ए-कोचक) के दूसरी सदी के पहले निस्फ़ में बिशप थे और सिमर्ना के बिशप शहीद पोलीकॉर्प के (जो मुक़द्दस यूहन्ना के शागिर्द थे) दोस्त थे। वो फिलिप्पुस मुबश्शिर के बेटीयों से मिले थे जिनका ज़िक्र (आमाल 21:9) में है। वो क़ैसर M.Aurelius मार्क्स आरेलीस के ज़माने में 155 ई॰ के क़रीब शहीद हुए। उन्हों ने एक किताब लिखी जिसका नाम “तफ़्सीर कलमात-ए-ख़ुदावंदी” Exposition of the Qneclecs the Lord है। इस किताब के चंद हिस्से मुअर्रिख़ यूसीबस की किताब तवारीख़ कलीसिया Ecclesiastical History में पाए जाते हैं जो किस्तनतीने आज़म के ज़माने में लिखी गई थी इस में बिशप पैपाईस की किताब से मर्क़ुस की इन्जील की निस्बत हस्बे-ज़ैल इक़्तिबास56है :-
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55Eusebius, Ecclesiastical History Bk.111.39
“और वो एल्डर (प्रेसबेटर यूहन्ना के क़ौल की ये बिशप नक़्ल करते हैं) ये कहा करते थे कि मर्क़ुस, पतरस का तर्जुमान था। उसने सेहत के साथ जहां तक उस को याद था वो बातें लिखीं जो सय्यदना मसीह ने कही थीं या की थीं लेकिन तर्तीब से नहीं। क्योंकि ना तो उसने सय्यदना मसीह की बातों को सुना था और ना वो सय्यदना मसीह का शागिर्द था। लेकिन जैसा मैं कह चुका हूँ वो बाद में पतरस का शागिर्द था। पतरस हस्बे-मौक़ा अपने सामईन की ज़रुरियात के मुताबिक़ तालीम दिया करता था। उस का ये इरादा ना था, कि वो सय्यदना मसीह के ख़ुत्बात को सिलसिले-वार रब्त देकर तर्तीब से बयान करे। मर्क़ुस ने इन बातों को लिखते वक़्त जो उस को याद थीं कोई ग़लती ना की। क्योंकि उसने एक बात की ख़ास एहतियात की कि कोई चीज़ जो उसने सुनी थी क़लम अंदाज़ ना हो जाए और किसी बात में ग़लत-बयानी ना हो।”
इस इक़्तिबास में सिर्फ पहला फ़िक़्रह एल्डर की ज़बान का है। बाक़ी फ़िक़्रे बिशप पैपाईस के अपने हैं।57
मर्क़ुस की इन्जील की निस्बत ये क़दीम तरीन रिवायत है और इस के बाद की कलीसियाई रिवायत भी इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि इस इन्जील में मुक़द्दस पतरस की मुनादी का नफ़्स-ए-मज़मून पाया जाता है। आमाल की किताब से पता चलता है कि कलीसिया के आग़ाज़ ही से मुक़द्दस मर्क़ुस मुक़द्दस पतरस के साथी थे। (आमाल 1:13) और 44 ई॰ से पहले पतरस रसूल क़ैदख़ाने से रिहाई पाने के बाद मर्क़ुस के घर में आए थे जहां ईमानदारों की जमाअत दुआ किया करती थी। (आमाल 12:12) दोनों का ताल्लुक़ मुद्दत क़ायम रहा। (1 पतरस 5:13)
ऐसा मालूम होता है कि मुक़द्दस मर्क़ुस और उस का ख़ानदान आँख़ुदावंद से सलीबी वाक़िये से पहले भी वाक़िफ़ था। (मर्क़ुस 14:12-16) और ख़ुद मुक़द्दस मर्क़ुस आँख़ुदावंद की सोहबत से फ़ैज़याब हो चुका था और बाअज़ वाक़ियात का चश्मदीद गवाह भी था। (मर्क़ुस 14:15, 51-52) इस की माँ का घर, यरूशलेम के शहर में इब्तिदाई शागिर्दों और ईमानदारों के इकट्ठे होने की जगह थी। पस मुक़द्दस मर्क़ुस को आँख़ुदावंद के चश्मदीद
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57A.W.F Blunt, St. Mark (Clarendon Bible 1935) p.27
गवाहों से मिलने और उनसे हालात का पता लगाने के बेशुमार मौके़ 30 ई॰ से 43 ई॰ तक हासिल थे।58वो तीन रसूलों के साथी रह चुके थे और आख़िर तक पौलुस रसूल के साथ थे (कुलस्सियों 4:10) आप बर्नबास के रिश्ते के भाई और उस के साथ तब्लीग़ का काम कर रहे थे। (आमाल 12:25, 15:39) आप ईमान में मुक़द्दस पतरस के बेटे थे। (1 पतरस 5:13)
बिशप पैपाईस की रिवायत के अल्फ़ाज़ “लेकिन तर्तीब से नहीं” का सही मतलब क्या है? इस इन्जील की तर्तीब ऐसी सही है कि जैसा हम आइन्दा साबित कर देंगे। मुक़द्दस लूक़ा और मुक़द्दस मत्ती अपनी अनाजील की तर्तीब को इसी इन्जील की तर्तीब की बिना पर रखते हैं।
क़राइन (क़रीना की जमा, तौर तरीक़ा) से पता चलता है कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने इस तर्तीब को मुक़द्दस पतरस से हासिल किया था क्योंकि मुक़द्दस पतरस रसूल की ये आदत थी कि आप वाक़ियात शुरू से तर्तीबवार बयान किया करते थे। (आमाल 11:4, 1:21 वग़ैरह) पस तीनों अनाजील की मुत्तफ़िक़ा अंदरूनी शहादत इन अल्फ़ाज़ के ख़िलाफ़ है। मुम्किन है कि इन अल्फ़ाज़ का मतलब ये हो59कि इस में तारीख़वार वो वाक़ियात दर्ज नहीं हैं जो सय्यदना मसीह की सह साला (तीन साल) ख़िदमत में यरूशलेम में पेश आए थे और जिन में से चंद एक का ज़िक्र चहारुम में पाया जाता है।
(2)
प्रोफ़ैसर बरकट60कहता है कि बादियुन्नज़र (देखते ही, सरसरी नज़र से) में ऐसा मालूम होता है कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने पहली तर्तीबवार इन्जील का बेड़ा उठाया और इस बात की पहले कोशिश की कि सय्यदना मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात को यकजा करके लिखे। अगर ये दुरुस्त है तो ज़ाहिर61है कि इस इन्जील के माख़ज़ मुतफ़र्रिक़ क़िस्म के अलग-अलग पारे होंगे जो इस इन्जील के लिखे जाने से बहुत पहले अहाता तहरीर में आ
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58Ibid.p.65
59Streetor, Four Gospels p.20
60Burkitt, Earliest Sources of the Life of Jesus .p.83
61A.W.F. Blunt ,St. Mark, pp.42-43
चुके थे। इस इन्जील के माख़ज़ क़दीम ज़बानी बयानात पर ही मुश्तमिल ना थे बल्कि ये किताब उन ज़बानी बयानात और तहरीरी माख़ज़ों से बनाई गई है जो सब के सब इब्तिदाई दर्जा और पाया रखते हैं जिनमें बाद के ज़माने के कलीसियाई रूझानात और दीनी मसाइल के मिलानात का वजूद तक नहीं पाया जाता। इस की बुनियाद अर्ज़-ए-मुक़द्दस की इब्तिदाई कलीसिया और इस का तारो पोद (ताना-बाना) ऐनी शहादत से बना है जिसका ताल्लुक़ दौर-ए-अव्वलीन से है।
हम हिस्सा अव़्वल के बाब पंजुम की फ़स्ल अव़्वल में बतला चुके हैं कि रिसाला कलमात जो आँख़ुदावंद के जीते-जी लिखा गया था। इब्तिदाई कलीसिया के हाथों में मौजूद था। पस ये रिसाला मुक़द्दस मर्क़ुस का एक निहायत मोअतबर माख़ज़ था। चुनान्चे इस रिसाले के मज़ामीन और इन्जील दोम के मज़ामीन का मुक़ाबला करने से मालूम हो जाता है कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने हस्बे-ज़ैल मुक़ामात इस रिसाले से नक़्ल किए हैं।62
(1) (मर्क़ुस 1:4-13) ये मुक़ाम (मत्ती 3 बाब; 14:11, लूक़ा 3:1-7, 21:22) में पाया जाता है। इस में यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले का अहवाल और सय्यदना मसीह की आज़माईशों का हाल मौजूद है।
(2) (मर्क़ुस 3:22-30) ये मुक़ाम (मत्ती 9:34, 12:24-37, लूक़ा 11:15-26) में पाया जाता है इस में बाअल ज़बूल का ज़िक्र है जिसका मुक़द्दस मर्क़ुस ने इख़्तिसार किया है।
(3) बाब चहारुम बिल-ख़ुसूस (आयात 21:25 जो लूक़ा 8:16-18, 12:2, 6:38, मत्ती 5:15, 10:26, 7:2, 13:12) में पाई जाती हैं।63
(4) (मर्क़ुस6 7:13) ये मुक़ाम (मत्ती 10:1-5, लूक़ा 9:1-5, 10:4-12) में मिलता है जहां बारह (12) रसूलों को हिदायात दी गई हैं।
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62Bishop Rawlinson’s Commentry on Mark. See also Oxford Studies in the Synoptic Problem p.412
63Oxford Studies in the Synoptic Problem pp.xxi 176 & Burney, Poetry of Our Lord p.8 Gores Commentary on N.T.p.39
(5) (मर्क़ुस 8:15, लूक़ा 12:1, मत्ती 16:6) में पाई जाती है।
(6) (8:10:35-40)
(7) (मर्क़ुस 9:33-37, 41-50)
(8) (मर्क़ुस 10:35-40)
(9) (मर्क़ुस 12:38-40, मत्ती 23:1-36, लूक़ा 20:45-47) में मिलता है। इस में फ़रीसियों पर अफ़्सोस ज़ाहिर किया गया है।
(10) (मर्क़ुस 13:9-13)
मज़्कूर-बाला मुक़ामात कुल दस हैं जहां उलमा के ख़याल में मुक़द्दस मर्क़ुस ने रिसाला कलमात से अख़ज़ किए थे। जिसका मतलब ये है कि आपने क़रीबन साठ आयात से ज़्यादा नक़्ल नहीं कीं। लेकिन जब हम इस इन्जील को पढ़ते हैं तो हमको जाबजा इस क़िस्म अल्फ़ाज़ मिलते हैं “येसू ने गलील में आकर ख़ुदा की ख़ुशख़बरी की मुनादी की।” (मर्क़ुस 1:15) “वो इबादतखाने में तालीम देने लगा और लोग उस की तालीम से हैरान हुए।” (मर्क़ुस 1:21) “वो उनको कलाम सुना रहा था।” (मर्क़ुस 2:2) “भीड़ उस के पास.... आई और वो उनको तालीम देने लगा।” (मर्क़ुस 2:13) ”वो झील के किनारे तालीम देने लगा।” (मर्क़ुस 4:1) “वो उनको तम्सीलों में बहुत सी बातें सिखलाने लगा।” (मर्क़ुस 4:3) “वो उनको बहुत सी तम्सीलें दे देकर उन की समझ के मुताबिक़ कलाम सुनाता था।” (मर्क़ुस 4:33) “वो चारों तरफ़ के गांव में तालीम देता फिरा।” (मर्क़ुस 6:6) “वो उन को बहुत सी बातों की तालीम देने लगा।” (मर्क़ुस 6:35) वग़ैरह-वग़ैरह। इन अल्फ़ाज़ से मालूम होता है कि आँख़ुदावंद शहरों, कस्बों और गांव में इबादत ख़ानों में झील के किनारे ग़र्ज़ ये कि हर जगह तालीम देते थे लेकिन इस के बावजूद ये इन्जील नवीस आपकी तालीम की कुल (60) साठ आयात से ज़्यादा नक़्ल नहीं करता और “बहुत सी तम्सीलों” में सिर्फ तीन चार तम्सीलों के ज़िक्र पर ही किफ़ायत करता है। यहां तक कि वो सय्यदना मसीह की दुआ का ज़िक्र भी नहीं करता और ना उस की इन्जील में सय्यदना मसीह के ख़साइल मसलन हलीमी, इन्किसारी और मुहब्बत के अक़्वाल का ज़िक्र पाया जाता है। इस का क्या सबब है? इस का सबब ये तो हो नहीं सकता कि वो इन बातों को अहम ख़याल ना करता हो।
इस की वजह बजुज़ (सिवा, बग़ैर) इस के और कुछ नहीं हो सकती कि जब मुक़द्दस मर्क़ुस ने अपनी इन्जील तस्नीफ़ की तो ईमानदारों के हाथों में “रिसाला कलमात” मौजूद था। पस आपने हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम को मुफ़स्सिल ना लिखा बल्कि मुश्ते नमूना इज़ख़रवारे (ढेर में से मुठ्ठी भर) आपकी तालीम और तम्सीलें बतौर नमूना दर्ज करीं। क़रीबन तमाम उलमा इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं64कि रिसाला कलमात मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील से पहले लिखा गया था और यह क़ुदरती बात भी है क्योंकि हर शख़्स ये मानने को तैयार होगा कि आँख़ुदावंद की तालीम पहले-पहल अहाता तहरीर में आई होगी और इस के बाद आपकी ज़िंदगी के वाक़ियात लिखे गए होंगे। चुनान्चे डाक्टर रॉबिनसन Dr.A.T.Robinson कहता है कि मुक़द्दस मत्ती ने रिसाला कलमात को इन्जील मर्क़ुस की तस्नीफ़ से कम अज़ कम बीस (20) साल पहले लिखा था। बिशप65ब्लंट कहते हैं :-
“मर्क़ुस की इन्जील ग़ालिबन इसी वास्ते लिखी गई थी ताकि रिसाला कलमात का तकमिला हो जो पहले से ईमानदारों के हाथों मौजूद था और जिस में सिर्फ तालीम ही दर्ज थी और यही वजह है कि इस इन्जील में बहुत कम तालीम मौजूद है।”
बिशप गोर की तफ़्सीर में है “जब हम देखते हैं कि रिसाला कलमात में सय्यदना मसीह के सवानिह हयात कम हैं लेकिन आपके कलमात निहायत कस्रत से हैं और कि इन्जील दोम में सय्यदना मसीह के कलमात कम हैं लेकिन सवानिह हयात बकस्रत हैं तो हम क़ुदरती तौर पर इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इस इन्जील के लिखे जाने की अस्ल ग़र्ज़ ये थी कि वो रिसाला-ए-कलमात की कमी पूरा करे। पस मुक़द्दस मर्क़ुस सय्यदना मसीह की ख़िदमत के इब्तिदाई वाक़ियात का मुजम्मल ज़िक्र करके उन नई बातों का मुफ़स्सिल ज़िक्र करता है जो रिसाला-ए-कलमात में नहीं थीं।”66
गोगील कहता है “मुक़द्दस मर्क़ुस रिसाला-ए-कलमात से वाक़िफ़ था और उस ने इस का इस्तिमाल निहायत एहतियात और शऊर के साथ किया। ये रिसाला कोई ऐसी किताब ना थी जो किसी प्लान के मुताबिक़ लिखी गई हो बल्कि वो सिर्फ़ कलमात का मजमूआ
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64Gores Commentary on N.T.p.39
65Burney, Poetry of Our Lord
66Gore’s one Vol.Commentry N.T.p.39
था जो निहायत क़दीम था। मर्क़ुस ने बड़ी किफ़ायत से इस को इस्तिमाल किया है। इस में कुछ शक नहीं कि इस की वजह ये है कि वो जानता था कि ये मजमूआ उन लोगों के हाथों में मौजूद है, जिनके लिए उसने अपनी इन्जील लिखी।”67
डाक्टर मेकन टाश के अल्फ़ाज़ भी इस सिलसिले में क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं। वो कहते हैं68“मुक़द्दस मर्क़ुस सिर्फ सय्यदना मसीह के चंद अक़्वाल का ही ज़िक्र करता है क्योंकि उस का मक़्सद ये ना था कि वो आपके तमाम अक़्वाल को लिखे। वो लोगों को दुबारा वही बातें बतलाना नहीं चाहता था जिनसे वो पहले ही वाक़िफ़ थे। हमारा मतलब ये है कि जब वो अपनी इन्जील लिख रहा था तो इस के सामने आँख़ुदावंद के अक़्वाल का मजमूआ रिसाला-ए-कलमात मौजूद था।
(3)
“रिसाला कलमात” के इलावा मुक़द्दस मर्क़ुस ने दीगर छोटे-छोटे पारे अपनी इन्जील में इस्तिमाल किए हैं। चुनान्चे बिशप ब्लंट कहते हैं “मुम्किन है कि इस इन्जील की बाअज़ कहानियां तहरीरी शक्ल में पहले मौजूद थीं गो यह अग़्लब (मुम्किन) नहीं कि इस इन्जील का अक्सर हिस्सा या सब के सब हिस्से अहाता तहरीर में आ चुके थे।69बिशप रॉबिन्स कहते हैं कि “यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले और हेरोदेस का वाक़िया (मर्क़ुस 6:17 ता 29) मुक़द्दस पतरस से हासिल नहीं किया गया बल्कि ये बयान मुक़ामी रिवायत का दर्जा रखता है।”
(2) आर्च डेक्कन बुकले कहते हैं,70कि इस इन्जील में दो वाक़ियात ऐसे हैं जिनमें से हर एक के दो बयान मौजूद हैं। पहला वाक़िया पाँच हज़ार और चार हज़ार को खाना खिलाने का वाक़िया है। (मर्क़ुस 6:30-44, 8:1-10) दूसरा सय्यदना मसीह का क़ौल जो (मर्क़ुस 9:35) दीन है। और (मर्क़ुस 10:43-44) में दुहराया गया है। जिससे ज़ाहिर है कि
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67M.Goguel, Jesus the Nazarene Myth or History (1926) pp 179-180
68H.R.Mackintosh, in Exp.Time Vol.XV.No.8 pp 356 ff
69Blunt, St. Mark p.42
70Archdeacon Buckely, “The Sources of the Passion Narratives in St. Mark Gospel in J.T.S April 1933. Also A.T. Cadoux in the Sources of the Second Gospel
इन्जील नवीस के सामने दो तहरीरी माख़ज़ थे जिनसे ये दो मुख़्तलिफ़ बयानात माख़ज़ किए गए हैं। मुक़द्दस मर्क़ुस ने दोनों बयानात को अपनी इन्जील में लिख लिया क्योंकि ये बयानात आप तक पहुंचे थे। आप इन ख़ास वाक़ियात के चश्मदीद गवाह नहीं थे। पस आपने ईमानदारी के साथ अपने तहरीरी माख़ज़ों को अपनी इन्जील में नक़्ल कर लिया।
(3) पादरी केडाओ A.T.Cadou के ख़याल में इस इन्जील के 14 बाब की तीन आयात 10, 20, 43 के तीन मुख़्तलिफ़ माख़ज़ हैं और (मर्क़ुस 8:31, 9:31, 10:33-34) के भी अलग-अलग माख़ज़ हैं और यही वजह है कि इन आयात की पेशीन-गोइयों के अल्फ़ाज़ में इख़्तिलाफ़ है।
(4) अल्बर्टज़ Albertz के ख़याल में मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के लिखे जाने से पहले ऐसे वाक़ियात अहाता तहरीर में आ चुके थे जिनमें ये पाया जाता था कि अहले-यहूद में और आँख़ुदावंद में तसादुम और आवेज़िश हुई थी।71और ये वाक़ियात इस वास्ते लिखे गए थे ताकि जब इब्तिदाई अय्याम में कलीसिया और यहूद में बाहमी तकरार और तसादुम हुआ तो ये मुक़ामात कलीसिया के वतीरे के लिए चिराग़ हिदायत हों। क्योंकि जो मुश्किलात कलीसिया के सामने थीं, वही आँख़ुदावंद के पेश आई थीं। पस मुक़द्दस मर्क़ुस ने उन वाक़ियात को जो पहले से अहाता-ए-तहरीर में मौजूद थे अपनी इन्जील में शामिल कर लिया। (मर्क़ुस अज़ 2 बाब ता 6, 11:15 ता 12:40) अल्बर्टज़ का ये ख़याल दुरुस्त भी मालूम होता है कि मक़ामात-ए-मुक़द्दस मर्क़ुस ने ख़ुद नहीं लिखे थे बल्कि वो पहले ही से लिखे हुए थे और कलीसिया में मुरव्वज थे क्योंकि (मर्क़ुस 3:6) जैसी आयत इन्जील के शुरू में ही है और इस के बाद हलाक करने की कोशिश का ज़िक्र नहीं आता। ये ज़ाहिर है कि आयत (मर्क़ुस 3:6) का इस जगह नक़्ल किया जाना क़ुदरती बात नज़र नहीं आती।72लेकिन ऐसा मालूम होता है कि ये आयत उस क़दीम तहरीरी पारे की आख़िरी आयत थी जो मुक़द्दस मर्क़ुस ने नक़्ल किया था और यही वजह है कि वो आयत इस मुक़ाम में मौजूद है।
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71Vincent, Taylor Formation of Gospel Tradtion p.16
72Ibid p.176
एक और अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि मज़्कूर बाला मुक़ामात में ख़िताब “इब्ने-आदम” दो दफ़ा वारिद हुआ है लेकिन इस के (मर्क़ुस 8:29) से पहले किसी जगह भी ये ख़िताब वारिद नहीं हुआ और (मर्क़ुस 8:29) के बाद ये ख़िताब आँख़ुदावंद के साथ 12 मुक़ामात में आया है। इस लिहाज़ से भी ये ज़ाहिर है कि ये मुक़ामात इन्जील के लिखे जाने से पहले ही पारों में लिखे हुए मौजूद थे जिनको मुक़द्दस मर्क़ुस ने अपनी इन्जील में नक़्ल कर लिया। वर्ना अगर वो ख़ुद इन मुक़ामात को लिखते तो वो इब्ने-आदम ना लिखते। पस अल्बर्टज़ का कहना सही मालूम होता है कि ये मुक़ामात किसी मुअल्लिम ने पहले ही किसी पारे में लिखे थे। ये मुअल्लिम इस इख़्तिलाफ़ की मिसालें देना चाहता था जो आँ-खुदावंद और यहूद के दर्मियान था और रोज़ बरोज़ बढ़ता ही चला जाता था। अगर हम इस आलिम का ये नज़रिया तस्लीम करलें तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि ख़िताब “इब्ने-आदम” इस मुक़ाम में वक़्त से पेश्तर क्यों वारिद हुआ है और आख़िरी आयत “फिर फ़रीसी.... हलाक करें” वक़्त से पेश्तर यहां क्यों लिखी गई। पस सय्यदना मसीह की सह साला ख़िदमत के बयान के लिए मुक़द्दस मर्क़ुस ने इस जमाअत के ज़बानी और तहरीरी बयानात की तरफ़ रुजू किया जो “यूहन्ना के बपतिस्मे से लेकर सय्यदना मसीह के उठाए जाने तक बराबर उस के साथ रहे।” (आमाल 1:21) इन्जील का सतही मुतालआ ग़बी (कम-अक़्ल) से ग़बी शख़्स पर भी.... ये ज़ाहिर कर देता है कि जो वाक़ियात इस में बयान किए गए हैं उस के ड्रामे के सीन, हीरो, अदाकार सब के सब चलते फिरते और ज़िंदा मुतहर्रिक शख़्सियतें हैं जिनके अस्ल होने में कोई जुनूनी ही शुब्हा कर सकता है। पस इस इन्जील के शुरू से ग्यारह बाब तक के वाक़ियात आँख़ुदावंद की सह (तीन) साला ख़िदमत के चंद सीन हैं जिनके बतलाने वाले वो लोग थे जो शुरू से ख़ुद देख़ने वाले थे “और जो” बराबर सय्यदना मसीह के साथ रहे यानी जितने अर्से तक सय्यदना मसीह उन के साथ आते-जाते रहे” यानी “यूहन्ना के बपतिस्मा से लेकर आपके उठाए जाने तक जो बराबर साथ रहे।” (आमाल 1:21) यही वजह है कि इस इन्जील का शुरू यूहन्ना के बपतिस्मा से होता है और अगर इस के औराक़ (मर्क़ुस 16:8) के बाद ज़ाए ना हो जाते तो उन में क़यामत-ए-मसीह के बाद साऊद-ए-आस्मानी का भी ज़िक्र पाया जाता। इन वाक़ियात को इन्जील नवीस ने “तर्तीबवार बयान” किया। इनका शुरू क़ुदरती तौर पर गलील में मुनादी है। (मर्क़ुस 1:14) इस के बाद कफ़र्नहूम में मुनादी। (मर्क़ुस1 16:39) फ़रीसियों से तसादुम। (मर्क़ुस बाब 2, 3) रसूलों का तब्लीग़ी दौरा। (मर्क़ुस 6:7) पाँच हज़ार को खाना खिलाना। (मर्क़ुस 6:31) सूर की सरहदों से निकल कर सैदा की राह से दिकपौलुस की सरहदों से होते हुए
गलील को जाना। (मर्क़ुस 7:31) बैत सैदा की जानिब सफ़र करना और क़ैसरिया फिलिप्पी (मर्क़ुस 8:27) जाना और यरूशलेम को रवानगी (मर्क़ुस 10:32) ये तमाम वाक़ियात एक क़ुदरती तर्तीब में मुरत्तिब हो जाते हैं।
(5) नव्वे (90) साल का अर्सा हुआ चंद उलमा ने ये नज़रिया क़ायम किया था कि इस इन्जील के 13 बाब में आँख़ुदावंद के ख़ुत्बे की बिना पर एक दो वर्क़ा गशती इश्तिहार था जो इब्तिदाई कलीसिया में मुरव्वज था। अब तमाम उलमा के नज़्दीक ये नज़रिया मुसल्लम है।73
ये इश्तिहार किसी क़दीम यहूदी मसीही ने ज़माने की नाज़ुक हालत को देखकर मसीही कलीसिया के लिए क़दीम यहूदी मुकाशफ़ात की किताबों की तर्ज़ की तक़्लीद करके लिखा था जिसमें उसने सय्यदना मसीह के बाअज़ कलमात भी शामिल कर लिए थे। मुक़द्दस मर्क़ुस ने इस गशती इश्तिहार में आँख़ुदावंद के दीगर के दीगर अक़्वाल को ईज़ाद (इज़ाफ़ी) करके 13 बाब का ख़ुत्बा मुरत्तिब किया। उलमा का इस बारे में इख़्तिलाफ़ है कि 13 बाब में सय्यदना मसीह के अक़्वाल कौन-कौन से हैं। लेकिन बिल-उमूम वो इस अम्र पर मुत्तफ़िक़ हैं कि इस बाब में आपके अक़्वाल मौजूद हैं। अगरचे वो दीगर रिवायत में शामिल किए गए हैं जिनकी बिना क़दीम कलीसिया के हालात और ख़यालात हैं। इस बाब में आँख़ुदावंद के अक़्वाल ज़रीं को हालात ज़माने के मुताबिक़ बयान किया गया है। लेकिन ये तमाम ईज़ादीयाँ हमको कमोबेश मालूम हो सकती हैं क्योंकि हमको इस बात का इल्म है कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने अपने माख़ज़ों को किस तरह इस्तिमाल करके उन के अल्फ़ाज़ को तर्तीब देता है। ना सिर्फ हमको मुक़द्दस मर्क़ुस के तरीक़े-कार का इल्म है बल्कि हम इब्तिदाई कलीसिया के क़दीम ख़यालात और हालात से भी वाक़िफ़ हैं जिनका अक्स हमको 13 बाब में मिलता है। इनसे ज़ाहिर है कि इब्तिदाई कलीसिया के शुरका आँख़ुदावंद की आमद का निहायत शौक़ के साथ इंतिज़ार करते थे। इनका ये ख़याल था कि मौजूदा नस्ल के ख़त्म होने से पहले आप इलाही जलाल के साथ बादलों पर आएँगे और चारों तरफ़ से ईमानदारों को जमा करेंगे। (आयत 26, 27, 30-33) इस अम्र की बार-बार नसीहत और
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73Moffat Itrood, to the Lite of N.T. (1918) p.209
आगाही दी जाती है। (आयत 5, 9, 23, 32, 35, 37) गो इस बाब में मुद्दत का तक़र्रुर नहीं किया गया।
मुक़द्दस मर्क़ुस के तरीका-ए-कार से जिससे वो अपने माख़ज़ों से इन्जील को मुरत्तिब करता है अयाँ है कि वो उन को क़रीबन लफ़्ज़ ब-लफ़्ज़ नक़्ल करता है। उस की तख़लीक़ी क़ुव्वत बहुत कम है लेकिन वो मुहतात और एतिदाल पसंद मोअल्लिफ़ था। ये बातें उस की इन्जील से साबित हैं। अगर वो (मर्क़ुस 13 बाब) को शुरू से आख़िर तक ख़ुद लिखता तो (मर्क़ुस 13 बाब) इख़्तिलाफ़ से पाक होता। मसलन इस बाब के शुरू में सवाल यरूशलेम की हैकल की तबाही और इस के वक़्त और निशान के मुताल्लिक़ है। (मर्क़ुस 13:1-4) लेकिन जवाब में इन सवालात को नज़र-अंदाज कर दिया गया है और वो ग़ैर-मुताल्लिक़ा उमूर पर मुश्तमिल है जिसमें मुख़ालिफ़-ए-मसीह और इब्ने-आदम की आमद का ज़िक्र है।74
शागिर्दों ने तो आँख़ुदावंद से सवाल ये किया था “हमें बता कि ये बातें (यरूशलेम की तबाही) कब होंगी?” (मर्क़ुस 13:4) लेकिन आँख़ुदावंद हैकल की तबाही के सवाल का जवाब देने की बजाए दुनिया के आख़िर के सवाल पर रोशनी डालते हैं। और अजीब बात ये है कि हैकल की तबाही का ज़िक्र ही नहीं करते बल्कि इस सवाल को नज़र-अंदाज करके हैकल के नापाक होने का ज़िक्र फ़र्माते हैं।75
एक और अम्र क़ाबिल-ए-ज़िक्र है (1) आयात (मर्क़ुस 13:9-13) में मुक़द्दस मर्क़ुस कलीसिया को तसल्ली देता है कि गो ज़माने के हालात कलीसिया के हक़ में निहायत नाज़ुक हैं ताहम मसीहियों को हौसला रखना चाहिए क्योंकि आँख़ुदावंद ने पहले ही इन ख़तरात को भाँप लिया था और उन ईज़ाओं को जान लिया था जो कलीसिया के दरपेश हैं और सय्यदना मसीह अपनी आमद से उनकी मदद करेंगे।
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74Vincent Taylor, The Apoalyptic Discourse of Mark X111, Exp. Times Jan1949
75Charles Eschatology (2nd ed.1913) p77
(2) आयात (मर्क़ुस 13:14-23) में उजाड़ने वाली मकरूह चीज़ का ज़िक्र है जिसका ज़िक्र बाद में किया जाएगा। इन आयात में इस सवाल का जवाब है जो आयात (मर्क़ुस 13 1:4) में पूछा गया था।
(3) आयात (मर्क़ुस 13:5-18, 24-27) उस गशती इश्तिहार का हिस्सा हैं जिसमें ज़माने की नाज़ुक हालत और उन आफ़ात का ज़िक्र है जो कलीसिया के सामने दरपेश थीं। पस मुक़द्दस मर्क़ुस के तरीक़ अमल से इस इश्तिहार के अल्फ़ाज़ व ख़यालात को आँख़ुदावंद के अक़्वाल व तसव्वुरात से अलग करके मालूम कर सकते हैं कि आँख़ुदावंद के उक़ूल (कौल) कौन से थे और इस इश्तिहार के अल्फ़ाज़ क्या थे। यूं दोनों में तमीज़ करके हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलमात बाबरकात का पता लगा सकते हैं जो (मर्क़ुस 13) अबवाब का माख़ज़ हैं।
मेरा ज़ाती ख़याल है कि इस बाब की पहली छः आयात और आयात (मर्क़ुस 13:9-13, 15-16, 21, 23, 28-29, 32-37) रिसाला-ए-कलमात से माख़ूज़ की गई हैं।
(4)
हम हिस्सा अव्वल के बाब सोम में बतला चुके हैं कि क़दीम कलीसिया में आँ-खुदावंद के सलीबी वाक़िया के बयानात तहरीरी शक्ल में मुरव्वज थे जिनको कलीसिया के मुअल्लिमों ने चश्मदीद गवाहों से हासिल किया था। मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील में सलीबी वाक़िये का ज़िक्र इस तफ़्सील के साथ किया गया है इस का बहुत बड़ा हिस्सा सिर्फ इसी एक वाक़िये के लिए वक़्फ़ किया गया है। चुनान्चे इस वाक़िये का ज़िक्र आठवें बाब के दर्मियान से शुरू होता है और इन्जील के आख़िर तक मुसलसल चला जाता है।
इन्जील दोम के पढ़ने वालों ने मुनज्जी आलमीन (मसीह) की गिरफ़्तारी के बयान में एक आयत का मुलाहिज़ा किया होगा जिसमें लिखा है कि तमाम शागिर्द आप “छोड़ कर भाग गए” मगर एक जवान अपने नंगे बदन पर महीन चादर ओढ़े हुए उस के पीछे हो लिया। उसे लोगों ने पकड़ा मगर वो अपनी चादर छोड़कर भाग गया।” (मर्क़ुस 14:51) ये आयत बज़ाहिर बेजोड़ और वाक़ियात के सिलसिले से बे-तअल्लुक़ मालूम होती है। जिसकी वजह से अनाजील अव़्वल व सोम के मोअल्लिफ़ों ने इस को नक़्ल नहीं किया लेकिन माख़ज़ों के मालूम करने में ये आयत बड़े काम की है, क्योंकि इस से साबित होता है कि
यहां मुक़द्दस मर्क़ुस आप-बीती (अपना हाल) बयान कर रहे हैं। ये आयत साबित करती है कि इन्जील नवीस ख़ुद उस रात के तमाम वाक़ियात के चश्मदीद गवाह थे और जब बाग़ गतसमनी में मुक़द्दस पतरस, याक़ूब और यूहन्ना रसूल सो रहे थे (मर्क़ुस 14:37) तो मुक़द्दस मर्क़ुस के कान और आँखें खुली थीं और आप ख़ुद मुनज्जी आलमीन (मसीह) की हालत और दुआ को देख और सुन रहे थे। जिस बाला-ख़ाने में मुनज्जी जहान (मसीह) ने आख़िरी खाना खाया वो मुक़द्दस मर्क़ुस का ही घर था। (आमाल 1:12, 2:12) मुक़द्दस मर्क़ुस इस आख़िरी हफ्ते में रब्बना अल-मसीह के हर वक़्त के साथी थे और इस हफ़्ते के तमाम वाक़ियात के ख़ुद चश्मदीद गवाह थे। जभी आपकी इन्जील में इस एक हफ़्ते के वाक़ियात तफ़्सील से बयान किए गए हैं। ऐसा कि इन्जील का ये हिस्सा एक रोज़नामचा हो गया है। जिसमें खजूर के इतवार से लेकर ईद-ए-क़ियामत तक के हर रोज़ के चश्मदीद वाक़ियात का मुफ़स्सिल ज़िक्र मौजूद है।
मुक़द्दस मर्क़ुस ने एक मुहतात मोअल्लिफ़ की तरह सिर्फ अपने चश्मदीद वाक़ियात पर ही इन्हिसार ना किया बल्कि क़दीम अय्याम के तहरीरी बयानात से भी मदद ली। चुनान्चे आर्च डीकन बुकले (Burkley) के ख़याल में मुक़द्दस मर्क़ुस ने बाब 14:1 ता 16 8 में सलीबी वाक़िये को बयान करने में दो माख़ज़ों से काम लिया है। चुनान्चे ये साहब इन अबवाब को ज़ेल के हिस्सों में तक़्सीम करके इनके माख़ज़ बतलाते हैं :- 76
(1) मर्क़ुस बाब 14 आयात 1 ता 33 (अलिफ़)
पहला माख़ज़ : आयात 1, 2, 10, 11, 17-21, 27-32
दूसरा माख़ज़ : आयात 3-9, 121-6, 22-26
अगर इन साहब की ये तक़्सीम दुरुस्त है तो (मर्क़ुस 14:17) के अल्फ़ाज़ “जब शाम” हुई से मुराद वो तारीख़ है जिसका ज़िक्र पहली आयत में है “दो दिन के बाद ईद-ए-फ़तीर होने वाली थी” और यूं ये तारीख़ बईना वही हो जाती है जो मुक़द्दस यूहन्ना की इन्जील में है। इन दोनों इंजीलों में कोई तज़ाद नहीं रहता इस से ये भी पता चल जाता है कि पहले माख़ज़ के मुताबिक़ मुक़द्दस पतरस के इन्कार का ज़िक्र फ़सह के खाने के कमरे
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76Ven. E.R. Burkley, “The Sources of Passion Narratives in St. Mark’s Gospel in J.T.S1933 pp.138 ff
में हुआ था ना कि गतसमनी बाग़ को जाते वक़्त। और यही मुक़द्दस लूक़ा और मुक़द्दस यूहन्ना कहते हैं। पस यहां भी ये तनाक़ुज़ (एक दूसरे की ज़िद या मुख़ालिफ़ होना) दूर हो जाता है। इलावा अज़ीं इस माख़ज़ के मुताबिक़ इशा-ए-रब्बानी की रस्म इस फ़सह के खाने पर मुक़र्रर नहीं हुई थी और यही मुक़द्दस यूहन्ना का बयान है। इस के इलावा इस माख़ज़ के मुताबिक़ सरदार काहिन आँख़ुदावंद को अपने पहले इरादे के मुताबिक़ ईद के दौरान में गिरफ़्तार नहीं करते और यूं एक और इख़्तिलाफ़ दूर हो जाता है। इन बातों की वजह से माख़ज़ों की ये तक़्सीम दुरुस्त मालूम होती है।
एक और अम्र क़ाबिल-ए-ज़िक्र है कि पहले माख़ज़ में रसूलों के लिए लफ़्ज़ “बारह” तीन जगह इस्तिमाल हुआ है लेकिन लफ़्ज़ “शागिर्द” का इस्तिमाल इस माख़ज़ में नहीं हुआ। लेकिन दूसरे माख़ज़ में लफ़्ज़ “शागिर्द” चार दफ़ाअ इस्तिमाल हुआ है लेकिन लफ़्ज़ “बारह” एक दफ़ाअ भी मुस्तअमल नहीं हुआ।
(2) (मर्क़ुस 14:32) (ब) ता 53 में आँख़ुदावंद की जान-कनी और गिरफ़्तारी के दो बयान हैं :-
पहला माख़ज़ : (मर्क़ुस 14:33-34, 36, 40, 43, 45-46, 48-50)
दूसरा माख़ज़ : (मर्क़ुस 14:32 (ब), 33 (ब), 37-39, 41-42, 44, 47, आयात 51-52, मोअल्लिफ़ की हैं।
(3) (मर्क़ुस 14:53-54, 57-58, 61 (अलिफ़), 65, 68, (ब) ता 72
दूसरा माख़ज़ : (मर्क़ुस 14:55-56, 61 (ब) ता 64, 66-68 (अलिफ़)
पहले माख़ज़ में आँख़ुदावंद के ख़िलाफ़ ये इल्ज़ाम है कि आप हैकल को तबाह कर देंगे। दूसरे माख़ज़ में इल्ज़ाम ये है कि आप मसीहाई का दावा करते हैं। पहले माख़ज़ के मुताबिक़ मुक़द्दस पतरस दो दफ़ाअ और दूसरे माख़ज़ के मुताबिक़ एक दफ़ाअ आँख़ुदावंद का इन्कार करता है। पहले माख़ज़ के मुताबिक़ आँख़ुदावंद इल्ज़ाम का जवाब नहीं देते लेकिन दूसरे के मुताबिक़ आप जवाब देते हैं। (मर्क़ुस 54) में मुक़द्दस पतरस “दीवानख़ाने के अंदर” है। लेकिन (मर्क़ुस 14:66) में वो “नीचे सेहन” में है। अगर दोनों बयानात को
अलग-अलग करके दोनों को मुसलसल पढ़ा जाये तो ये ज़ाहिर हो जाता है कि वो दो जुदा हैं जिनको मुक़द्दस मर्क़ुस ने यक जा तर्तीब देकर मुरत्तिब किया है।
(4) (मर्क़ुस 15:1-16:8) आयत में भी दोनों बयानात हैं :-
पहला माख़ज़ : (मर्क़ुस 15:3-5, 7-8, 15, 24, 27, 29 30, 32 (ब) 39, 42-47, 16:2-4, 8)
दूसरा माख़ज़ : (मर्क़ुस 15:2, 6, 9-14, 16-20 (अलिफ़), 22, 25, 31-32 (अलिफ़), 33-36, 16:1, 5-7)
ये दो तहरीरी माख़ज़ मुक़द्दस मर्क़ुस के सामने मौजूद थे जब आपने इन्जील तालीफ़ की। पस मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात का क़दीम तरीन हिस्सा सलीबी वाक़िये के बयानात पर मुश्तमिल था जो इन्जील दोम में हैं। क्योंकि इस वाक़िये की इब्तिदा ही से मुनादी की जाती थी और मुअल्लिम साबित करते थे कि अहद-ए-अतीक़ के मुताबिक़ मसीह मौऊद का मरना ज़रूर था। ये तहरीरी माख़ज़ चश्मदीद गवाहों के मुशाहदात थे और आख़िरी हफ़्ते के वाक़ियात भी चश्मदीद गवाहों के बयानात थे। 77इलावा अज़ीं मुक़द्दस मर्क़ुस ख़ुद इन वाक़ियात में से बाअज़ के चश्मदीद गवाह थे। (मर्क़ुस 14:51-52)
(5)
मर्क़ुस 12:15 में सय्यदना मसीह फ़रीसियों और हेरोदियों को फ़र्माते हैं “मेरे पास एक दीनार लाओ ताकि मैं देखूं” ये अल्फ़ाज़ साबित करते हैं कि सय्यदना मसीह हैकल के उस हिस्से में तालीम दे रहे थे जो ग़ैर-अक़्वाम का सेहन कहलाता था क्योंकि हैकल के अंदरूनी सेहनों में रूमी सिक्कों का लाना ममनू था क्योंकि उन पर क़ैसर का बुत होता था। ये तफ़्सील साबित करती है कि ये बयान किसी चश्मदीद गवाह का है।
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77F.C. Burkitt, J.T.S for April 1935 pp.186-188
(6)
जब हम मुख़्तलिफ़ माख़ज़ों पर (जिनका ज़िक्र इस फ़स्ल में किया गया है) ग़ौर करते हैं तो हम पर ज़ाहिर हो जाता है कि मुक़द्दस पतरस ही सिर्फ अकेला वाहिद शख़्स ना था जिससे मुक़द्दस मर्क़ुस ने इस्तिफ़ादा (फ़ायदा) हासिल किया था बल्कि मुक़द्दस पतरस के इलावा आपने दीगर माख़ज़ों से भी इस्तिफ़ादा किया है और ये कि मुक़द्दस पतरस इस इन्जील के सबसे बड़े माख़ज़ नहीं हैं। चुनान्चे इस इन्जील में बमुश्किल कोई ऐसा मुक़ाम होगा जिसका ताल्लुक़ इस रसूल के साथ हो और जिसका ज़िक्र इन्जील नवीसों ने ना किया हो। इलावा अज़ीं जिस किसी ने इन्जील दोम को सतही तौर पर भी पढ़ा है उस पर ये ज़ाहिर है कि केसरिया फिलिप्पी के इलाक़ा में मुक़द्दस पतरस ने जो आँख़ुदावंद की मसीहाई का इक़रार किया था (मत्ती 16:13-24) वो इस इन्जील में दर्ज नहीं हालाँकि इस का ताल्लुक़ मुक़द्दस पतरस की ज़ात से ख़ास तौर पर वाबस्ता है। इसी तरह (लूक़ा 5:1-10) का वाक़िया इन्जील मर्क़ुस में नहीं पाया जाता जिसका ताल्लुक़ ख़ास तौर पर मुक़द्दस पतरस की ज़िंदगी के साथ है। मज़ीदबराँ जब हम इन्जील अव्वल व दोम का मुक़ाबला करते हैं तो हम पर ज़ाहिर हो जाता है कि मुक़द्दस मत्ती की इन्जील में मुक़द्दस पतरस को जो जगह हासिल है वो मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील में नहीं है। मसलन (मत्ती 10:1, मर्क़ुस 3:15, मत्ती 14:22-33, मर्क़ुस 6:48-52, मत्ती 15:5, मर्क़ुस 7:16, मत्ती 17:24, 18:21 वग़ैरह) आख़िरी दो मुक़ामात का ज़िक्र मुक़द्दस मर्क़ुस नहीं करते।
बाअज़ उलमा कहते हैं कि चूँकि इस इन्जील में मुक़द्दस पतरस जाबजा मलामत का निशाना हैं। (मर्क़ुस 8:33, 10:28, 14:29-37, 66) लिहाज़ा आपका इस इन्जील से कोई ताल्लुक़ नहीं हो सकता लेकिन मुक़द्दस पतरस को इन बातों के बतलाने में किसी क़िस्म की हिचकिचाहट नहीं हो सकती थी। ईद पैंतीकोस्त के बाद आपकी ख़सलत और तबीयत की उफ़्ताद (फ़ित्रत) बिल्कुल बदल चुकी थी।
इस सिलसिले में ये बात भी क़ाबिल-ए-ज़िक्र है कि गो मुक़द्दस पतरस सय्यदना मसीह की माँ और भाईयों से वाक़िफ़ थे लेकिन इन्जील दोम में सिवाए इन रिश्तेदारों के ग़ैर-हम्दर्दाना रवैय्या के इनका ज़िक्र नहीं मिलता और ना मुक़द्दस यूसुफ़ का नाम पाया जाता है। इस क़िस्म की बातों से ज़ाहिर है कि मुक़द्दस पतरस इन्जील-ए-दोम के वाहिद गवाह ना थे। बल्कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने रसूल के इलावा दीगर माख़ज़ों का भी इस्तिमाल किया था।
बिशप पैपाईस के क़ौल में लफ़्ज़ “तर्जुमान” का क्या मतलब है? बाअज़ इस लफ़्ज़ से मुतर्जिम मुराद लेते हैं लेकिन ये बात दुरुस्त नहीं हो सकती। जाए-हैरत है कि पैतिकोस्त के रोज़ मुक़द्दस पतरस को ग़ैर ज़बानें बोलने की बख़्शिश अता हुई और फिर आपको तर्जुमा करने के लिए मुक़द्दस मर्क़ुस की ज़रूर पड़ी। इलावा अज़ीं मुक़द्दस पतरस के पहले ख़त की यूनानी इन्जील दोम की यूनानी से बहुत बुलंद है। हक़ तो ये है कि यूनानी ज़बान मशरिक़ी ममालिक में बोली और समझी जाती थी और कोई वजह मालूम नहीं देती कि मुक़द्दस मर्क़ुस इस ज़बान को पतरस रसूल से बेहतर जानता हो। क्योंकि आमाल की किताब से ज़ाहिर है कि पतरस रसूल ग़ैर-यहूद के सामने यूनानी ज़बान में ख़ुद बिला-तोस्त ग़ैरे मुनादी किया करते थे। (आमाल 10:34 बाब के आख़िर वग़ैरह) ये बात भी माक़ूल नज़र नहीं आती कि मुक़द्दस पतरस को मग़रिबी ममालिक या रोम के शहर में अपनी तक़रीर का लातीनी में तर्जुमा करने की ज़रूरत लाहक़ हुई और इस बात को मानने के लिए भी कोई वजह नहीं कि मुक़द्दस मर्क़ुस लातीनी ज़बान में रसूल की तक़रीरों का तर्जुमा किया करते थे। तारीख़ हमको बतलाती है कि रोम में मसीहिय्यत ज़्यादातर निचले तब्क़े तक ही महदूद थी और यह लोग या तो यूनानी थे और या मशरिक़ के रहने वाले थे जो यूनानियत के रंग में रंगे थे और सब के सब यूनानी जानते थे और अग़्लब (मुम्किन) यही है कि वो लातीनी से बहुत कम वाक़िफ़ थे। पस बिशप पैपाईस की लफ़्ज़ “तर्जुमान” से मुराद “ख़ादिम” होगी क्योंकि आमाल में मुक़द्दस मर्क़ुस को पौलुस रसूल और मुक़द्दस बर्नबास का ख़ादिम कहा गया। (मर्क़ुस 13:5, 2 तीमुथियुस 4:11)
प्रोफ़ैसर बेकन78कहता है, “पैपाईस की रिवायत से असर पज़ीर हो कर लोग इस क़द्र मस्हूर हो चुके हैं कि किसी को ये कहने में मुतलक़ ताम्मुल नहीं होता कि इन्जील मर्क़ुस में पतरस रसूल का ख़ास तौर पर ज़िक्र और लिहाज़ मौजूद है।” प्रोफ़ैसर बरकट79भी कहते हैं इस में कुछ शक नहीं कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने मुक़द्दस पतरस से बहुत कुछ मसाला जमा किया होगा। लेकिन हमको इस नज़रिये के लिए कोई वजह नज़र नहीं आती कि इस इन्जील का ख़ाका और ढांचा मुक़द्दस पतरस का है।”
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78Bacon, Beginnings p.XXV
79F.C. Burkitt, The Earliest Sources for the Life of Jesus (1910) pp.93-94
पस गो इन्जील मर्क़ुस की अंदरूनी शहादत क़दीम कलीसियाई रिवायत और बिशप पैपाईस की शहादत की एक गोना तस्दीक़ करती है लेकिन इस अंदरूनी शहादत से ये पता भी चल जाता है कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने मुक़द्दस पतरस के इलावा दीगर तहरीरी ज़राए से भी फ़ायदा उठाकर अपने माख़ज़ों को एक जगह जमा करके इन्जील को तालीफ़ किया था और मुख़्तलिफ़ क़िस्म के बयानात को तर्तीब देकर इन्जील को मुरत्तिब किया था।
फ़स्ल दोम
इन्जील-ए-मर्क़ुस की ख़ुसूसियात
मुक़द्दस मत्ती की इन्जील सय्यदना मसीह की पैदाइश से शुरू होती है। (मत्ती 1:18) मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील इस से पहले के वाक़िये यानी हज़रत यूहन्ना इस्तिबाग़ी की पैदाइश की पेश-ख़बरी से शुरू होती है। (लूक़ा 1:5) मुक़द्दस यूहन्ना की इन्जील तमाम ज़मानों से भी पहले शुरू होती है “जब इब्तिदा में कलाम था।” (यूहन्ना 1:1) लेकिन मुक़द्दस मर्क़ुस अपनी इन्जील को हज़रत यूहन्ना इस्तिबाग़ी की मुनादी और बपतिस्मा से शुरू करके इस में सय्यदना मसीह की ज़फ़रयाब क़ियामत तक के वाक़ियात का ज़िक्र करते हैं।
अनाजील अरबा (चारो इंजीलो) की ये तर्तीब निहायत माअनी-ख़ेज़ है क्योंकि इस से हमको ये पता चलता है कि इन्जील मर्क़ुस कलीसिया की तारीख़ के उन इब्तिदाई अय्याम में लिखी गई जब रिसालत का मेयार ये था कि रसूल इन तमाम वाक़ियात का चश्मदीद गवाह हो। चुनान्चे यहूदाह ग़द्दार के एवज़ बारहवें रसूल के तक़र्रुर के मौक़े पर मुक़द्दस पतरस कहते हैं “ऐ भाइयो जितने अर्से तक सय्यदना मसीह हमारे साथ आते-जाते यानी यूहन्ना के बपतिस्मा से लेकर मौला के आस्मान पर तशरीफ़ ले जाने तक जो बराबर हमारे साथ रहे। चाहिए कि उनमें से एक मर्द हमारे साथ उस के जी उठने का गवाह बनने।” (आमाल 1:21-22) मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील बईना इस अर्से के वाक़ियात पर मुश्तमिल है और इस में सिर्फ उन्ही बातों का ज़िक्र है जिनकी मुनादी रसूली ज़माने के इब्तिदाई दौर में दवाज़दा (बारह) रसूल किया करते थे।
हम हिस्सा अव़्वल के बाब सोम में ज़िक्र कर चुके हैं कि इब्तिदाई अय्याम में “ये मुनादी” मसीहिय्यत के बुनियादी उसूलों पर मुश्तमिल थी। ये मुनादी “न्यू” (बुनियाद) थी
जिस पर मसीही मुअल्लिम दाना मुअम्मारों की तरह इमारत उठाते थे।” (1 कुरिन्थियों 3:10) हमने इस बाब में इस “मुनादी” के मज़्मून पर बह्स करके बतलाया था कि इस में “जितने अर्से तक सय्यदना मसीह हमारे साथ आते-जाते रहे” यानी यूहन्ना के बपतिस्मा से लेकर आपके हमारे पास से उठाए जाने तक” (आमाल 1:21) के वाक़ियात का मुसलसल ज़िक्र था।
इन्जील मर्क़ुस का मुतालआ ये ज़ाहिर कर देता है कि इस इन्जील में “मुनादी” के उन्ही हिस्सों का ज़िक्र है जिनका ख़ुलासा मज़्कूर-बाला आयात में है यानी उन तारीख़ी वाक़ियात का ही ज़िक्र है जो “मुनादी” के जुज़्व-ए-आज़म थे। इन मुक़ामात का ग़ाइर मुतालआ ये भी ज़ाहिर कर देता है कि इन तवारीख़ी वाक़ियात को “मुनादी” के सियाक़ व सबाक़ में ही मुरत्तिब किया गया है। चुनान्चे इस इन्जील की पहली आयत है “येसू मसीह इब्ने ख़ुदा की ख़ुशख़बरी का शुरू।” फिर नए दौर का आग़ाज़, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की मुनादी सय्यदना मसीह का बपतिस्मे से ममसूह (मस्ह किया हुआ) हो कर ख़ुदा की बादशाही की गलील में मुनादी करना और फिर सलीब के वाक़िये के अस्बाब का बयान और सलीबी वाक़िये का ज़िक्र और सय्यदना मसीह की ज़फ़रयाब क़ियामत वग़ैरह, ग़र्ज़ ये कि इस इन्जील के तमाम वाक़ियात इस “मुनादी” की तर्तीबवार तफ़्सीली शरह हैं। जैसा हम गुज़श्ता फ़स्ल में बतला चुके हैं। सलीबी वाक़िये का और इस के अस्बाब का ज़िक्र आठवें बाब के दर्मियान से इन्जील के आख़िर तक मुफ़स्सिल बतलाया गया है और इन्जील का सबसे बड़ा हिस्सा है। चुनान्चे आँख़ुदावंद की सह (तीन) साला ख़िदमत के वाक़ियात का ज़िक्र इस इन्जील की तीन सौ ग्यारह (311) आयात में है। लेकिन सिर्फ आख़िरी हफ़्ते के वाक़ियात का ज़िक्र तीन सौ पैतालीस (345) आयात में पाया जाता है। रसूलों की इब्तिदाई “मुनादी” का भी ग़ालिब हिस्सा मसीह मस्लूब से ही मुताल्लिक़ है। जिस तरह (आमाल 10 बाब) की तक़रीर में आँख़ुदावंद के मोअजज़ात का ज़िक्र सिर्फ़ इज्माली (मुख़्तसर) तौर पर ही किया गया है, इसी तरह इन्जील दोम में सय्यदना मसीह की तालीम व मोजिज़ात का बग़ैर किसी तवारीख़ी तर्तीब के इज्मालन ज़िक्र हुआ है। लेकिन आँख़ुदावंद की इलाही क़ुद्रत और इख़्तियार और शैतानी ताक़तों पर अपनी ज़िंदगी और मौत में हुक्मरान होने का और ईमानदारों को ख़ुदा की बादशाही के भेद बतलाने का
मुफ़स्सिल ज़िक्र है। इस इन्जील की तर्तीब रसूलों की मुनादी की तर्तीब है और यह इन्जील रसूलों की इब्तिदाई मुनादी का आईना है।80(देखो आमाल बाब, 2, 3, 4, 5, 10)
पस इन्जील-ए-दोम में वो वाक़ियात और पैग़ामात मौजूद हैं जिनकी रसूल इब्तिदाही से मुनादी करते थे। इस इन्जील की इब्तिदा नबुव्वत के पूरा होने से शुरू होती है। (मर्क़ुस 1:2) और इस में (आमाल 10:37) की तरह “यूहन्ना के बपतिस्मे की मुनादी के बाद गलील से शुरू हो कर यहूदिया तक” सय्यदना मसीह के कामों का ज़िक्र है और इस के बाद तीसरे हिस्से में सलीबी वाक़िये का ज़िक्र है। इस इन्जील के वाक़ियात बादियुन्नज़र में जैसा पैपाईस कहता है “तर्तीबवार नहीं” लेकिन ये वाक़ियात जो बज़ाहिर बेजोड़ और बेरब्त नज़र आते हैं, दर-हक़ीक़त इब्तिदाई ज़माने की मुनादी की तर्तीब के मुताबिक़ हैं। इन्जील के लिखे जाने से पहले मसीही मुअल्लिमों की जमाअत इनको तालीम देते वक़्त मुख़्तलिफ़ औक़ात पर इस्तिमाल करती थी। (आमाल 10:36 40, 13:23-31 वग़ैरह) मुक़द्दस मर्क़ुस ने इन जुदागाना वाक़ियात को बाहम मुंसलिक करके एक ख़ास तर्तीब के मुताबिक़ मुरत्तिब कर दिया।81वनसंट टेलर इस मौज़ू पर मुफ़स्सिल बह्स करता है।82और कहता है :-
“ज़ाहिर है कि जब मुक़द्दस मर्क़ुस ने सय्यदना मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात को क़लमबंद किया तो वो कोई नई बात हैं कर रहा था बल्कि वो एक ऐसी किताब तालीफ़ कर रहा था जिसमें उसने मुख्तलिफ़ तहरीरात को जमा कर दिया जो उस की इन्जील से पहले इस ग़र्ज़ से लिखी गई थीं कि कलीसिया के काम के लिए चिराग़ हिदायत हों। मुक़द्दस मर्क़ुस ने इन तहरीरात और मालूमात को तर्तीब देकर एक नई इन्जील मुरत्तिब की। ये तहरीरात बग़ैर किसी रब्त के बिखरी पड़ी थीं। मुक़द्दस मर्क़ुस ने इनको एक लड़ी में पिरो दिया।”
मर्हूम यहूदी आलिम डाक्टर मनोटी फ़ेअरी भी ये कहता है :- 83
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78Dodd, Apostolic Preaching, and its Development Lec No.1
79Formation of Gospels Tradition pp.176-185
78Formation of Gospels Tradition pp.176-185
78G.C. Montefiore, The Synpotic Gospels. Vol.1.(1927) P.XXX11
“मर्क़ुस की इन्जील ना सिर्फ क़दीम तरीन है बल्कि वो पहली इन्जील है। इस से पहले माख़ज़ थे जिनमें से बाअज़ तहरीरी थे लेकिन कोई इन्जील ना थी जिसमें तर्तीबवार वाक़ियात दर्ज हों। पस गो मर्क़ुस सिर्फ़ माख़ज़ों का इकट्ठा करने वाला और मुरत्तिब करने वाला था ताहम उसने एक नया क़दम उठाया और एक नई तरह की बुनियाद डाली। वो ना सिर्फ माख़ज़ों को सिलसिले-वार तर्तीब देने वाला है बल्कि वो इख़तिराई क़ाबिलियत रखने वाला इन्सान है जिसकी तख़लीक़ी क़ुव्वत ने एक नई राह की बुनियाद डाली।”
अब मसीही कलीसिया के शुरका और मुअल्लिमों के हाथों में एक ऐसी तहरीर मौजूद थी जो ज़्यादा जामेअ थी। पस मसीही इस की नक़्लें एक दियार से सफ़र करते वक़्त अपने साथ दूसरे मुल्क में ले जाते थे जहां के मसीही इस की नक़्ल कर लेते थे और यूं इस इन्जील ने मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं के मुअल्लिमों की ज़रुरियात को पूरा कर दिया।
(2)
जब हम इस इन्जील के उस्लूब-ए-बयान और तर्ज़ तहरीर की जानिब नज़र करते हैं तो हम वज़ाहत से देख सकते हैं कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने अपने माख़ज़ों को इस ख़ूबी से तर्तीब दिया है कि इन्जील के अल्फ़ाज़ हमारी आँखों के सामने एक समां बांध देते हैं। मुसन्निफ़ का तर्ज़-ए-बयान ऐसा है कि हालात का नक़्शा आँखों के सामने आ जाता है। मिसाल के तौर पर मुलाहिज़ा हो। (मर्क़ुस 1:39, 7:24-30, 10:32, 14:32-51, 66, 72 वग़ैरह) में हक़ीक़त निगारी साफ़ नज़र आती है। अगर हम (मर्क़ुस 4:36-41, 9:5-6) को देखें तो ज़ाहिर हो जाता है कि कोई चश्मदीद गवाह बोल रहा है। आयात (मर्क़ुस 1:20, 41, 3:2, 5, 24, 4:38, 5:43, 6:39-40, 7:33-34, 8:12, 23 ता 25; 10:16, 21, 11:11, 14:40, 51-52, 54, 15:21) में मुक़द्दस मर्क़ुस ने हालात और वाक़ियात का हू-ब-हू नक़्शा खींच दिया है।84इनकी तरावत इस इन्जील की ख़ुसूसियत है बाज़ औक़ात तो एक या दो लफ़्ज़ों में ही एक दिलकश तस्वीर खींच जाती है। इन्जील का बयान ऐसा बे-तकल्लुफ़ है कि ख़्वाह-मख़्वाह दिल को खींच लेता है। ज़बान की सादगी से ज़ाहिर है कि इस के माख़ज़
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84Blunt, St. Mark pp.34-35
चश्मदीद गवाहों के बयान हैं मसलन “मैं इस लायक़ नहीं कि झुक कर उस की जूतीयों का तस्मा खोलूं।” (मर्क़ुस 1:7) “उसने आस्मान को फटते देखा।” (मर्क़ुस 1:10) “वो जंगली जानवरों के साथ रहा किया।” (मर्क़ुस 1:12) “कश्ती मज़दूरों के साथ छोड़कर।” (मर्क़ुस 1:20) अल्फ़ाज़ ही से मालूम हो जाता है कि इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ सिर्फ एक चश्मदीद गवाह की ज़बान और क़लम से निकले हैं। “दुनिया में कोई धोबी वैसी सफ़ैद नहीं कर सकता।” (मर्क़ुस 9:3) “यकायक जो चारों तरफ़ नज़र की।” (मर्क़ुस 9:8) “आँख़ुदावंद की आँखों से प्यार।” (मर्क़ुस 10:21) “और ग़ुस्सा” (मर्क़ुस 3:5) का ज़िक्र ऐसे अल्फ़ाज़ में किया गया है कि गोया हम ख़ुद आपका मुबारक चेहरा देख रहे हैं। आपकी नज़र का बार-बार ज़िक्र है जो दिलों और ख़यालों को भाँप लेती थी। (मर्क़ुस 10:27, 3:34, 11:11, 5:32, 10:23 वग़ैरह) आपकी मुबारक आवाज़ के ज़ेरोबम और नशेब व फ़राज़ का ज़िक्र है। (1:26, 1:43 वग़ैरह) आपका अपना शिफ़ा बख़्श हाथ रखना, बच्चों को गोद में लेना, सामईन (सुनने वालों) का आपकी तालीम को सुन कर दंग रह जाने का ज़िक्र नौ बार आया है। और तीन मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ में अदा किया गया है।
मिसाल के तौर पर अगर हम इन्जील दोम के मुक़ाम (मर्क़ुस 6:21-27) के एक-एक लफ़्ज़ का मुक़ाबला इन्जील-ए-अव़्वल के मुक़ाम (मर्क़ुस 14:1-12) से करें तो हम पर मुक़द्दस मर्क़ुस के ख़ुसूसी तर्ज़ बयान की कैफ़ीयत अयाँ हो जाती है। तफ़सीलात की वज़ाहत और इन की शोख़ी इन्जील दोम में ज़िंदगी पैदा कर देती है जिस से ये पता चलता है कि ये इन्जील और इस के माख़ज़ वाक़ियात के निहायत क़रीब लिखे गए थे मसलन अल्फ़ाज़ “सिकन्दर और रोफस का बाप शमऊन कुरीनी” (मर्क़ुस 15:21) ज़बान हाल से पुकार रहे हैं कि जब ये इन्जील लिखी गई थी तब वो ज़िंदा थे और कलीसिया के मशहूर अफ़राद थे। (रोमियों 16:13) अगर ये इन्जील बहुत मुद्दत के बाद लिखी जाती तो इन शख्सों के नामों का ज़िक्र करना बेमाअनी हो जाता क्योंकि अगली पुश्त में ये सब नाम भूले बसर गए थे। आयात (मर्क़ुस 14:51-52) के अल्फ़ाज़ “एक जवान अपने नंगे बदन पर महीन चादर ओढ़े हुए उस के पीछे हो लिया। उसे लोगों ने पकड़ा मगर वो चादर छोड़कर नंगा भाग गया।” इस बयान में जन डाल देते हैं और साबित करते हैं कि यहां एक चश्मदीद गवाह बोल रहा है। इसी वजह से बाअज़ का ख़याल है कि ये जवान मुक़द्दस मर्क़ुस ख़ुद थे जो एक आप-बीती वाक़िये का ज़िक्र रहे हैं।
पस इन्जील-ए-दोम के बयानात की ताज़गी, तफ़सीलात की शोख़ी, अल्फ़ाज़ का रंग वग़ैरह सब ज़ाहिर करते हैं कि ये इन्जील क़दीम इब्तिदाई ज़माने में ही मुरत्तिब की गई थी। हम इस बात को अपने रोज़ाना तजुर्बे से जानते हैं कि चश्मदीद गवाह भी छोटे-छोटे और बारीक नुक्तों को जो अव़्वल उनके दिमाग़ में होते हैं, इमत्तीदाद-ए-ज़माने के साथ या तो भूल जाते हैं या वो उन को धुँदले गड-मड तौर पर ही याद रख सकते हैं या वो इनको इस क़द्र क़ाबिल-ए-इल्तिफ़ात नहीं समझते कि इनको बयान करें लेकिन इस इन्जील में ये बारीकियां निहायत शगुफ़्ता हालत में ना सिर्फ मौजूद हैं बल्कि भरी पड़ी हैं जिससे हर मुंसिफ़ मिज़ाज शख़्स इस नतीजे पर पहुंचे बग़ैर नहीं रह सकता कि ना सिर्फ इस इन्जील के माख़ज़ इब्तिदाई ज़माने से मुताल्लिक़ रखते हैं जो या तो हर वाक़िये के मुत्तसिल (मिला हुआ, नज़दीक) वक़्त में या वाक़िये के फ़ौरन बाद ग़ैर-मुनफ़सिल (अलैहदा किया गया, जुदा) वक़्फे में लिखे गए थे बल्कि ये इन्जील भी इन वाक़ियात के कुछ वक़्फे के बाद ही जल्दी मुरत्तिब की गई थी जब ये तफ़ासील और बारीकियां ज़िक्र करने के क़ाबिल ख़याल की गईं। बहर-हाल इंजीली मजमूए की तमाम तस्नीफ़ात में से इस इन्जील के तज़किरे उसी वक़्त के हैं जब आँख़ुदावंद की ज़िंदगी में ये वाक़ियात रौनुमा हुए थे।85
फस्ल-ए-सोम
इन्जील-ए-मर्क़ुस का पाया एतबार
गुज़श्ता फ़स्ल में हमने इन्जील-ए-मर्क़ुस की चंद ख़ुसूसियात बयान की हैं। उनसे नाज़रीन पर इस इन्जील की क़दामत ज़ाहिर हो गई होगी। इस का तर्तीब बयान बईना वही है जो इब्तिदाई ज़माने में रसूलों की “मुनादी” का था। इस की तफ़सीलात की ताज़गी, बयान की शगुफ़्तगी, अल्फ़ाज़ की शोख़ी वग़ैरह-वग़ैरह सबकी सब इसी नतीजे की मुसद्दिक़ हैं कि ये इन्जील क़दीम तरीन ज़माने से मुताल्लिक़ है। यही वजह है कि डाक्टर लेम्बी कहता है कि “जो वाक़ियात इस इन्जील में लिखे गए हैं वो उसी ज़माने में लिखे गए थे जब वो रौनुमा हो रहे थे।”
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85Dr.R. Lumby, the Graphic and Dramatic Character of the Gospel of St.Mark. Expositor Vol11. Oct. 1875 pp.269-284
इस इन्जील की क़दामत इस के बयानात पर मुहर-ए-सदाक़त सब्त करती है। इस इन्जील के माख़ज़ इस से भी ज़्यादा क़दीम हैं जो इस में निहायत ईमानदारी से लफ़्ज़ ब-लफ़्ज़ जमा किए गए हैं। लिहाज़ा ये इन्जील सही तरीन और मोअतबर तरीन तस्नीफ़ है जिसका ताल्लुक़ दौर-ए-अव्वलीन से है।
(2)
चूँकि ये इन्जील निहायत मोअतबर थी लिहाज़ा इस की नक़्लें अर्ज़-ए-मुक़द्दस में हर जगह मुरव्वज हो गईं और दूर दराज़ के मुक़ामात में ईमानदारों के हाथों में आ गईं। जब दूसरे इन्जील नवीस अपनी इंजीलों की तालीफ़ करने लगे तो उन्होंने इस इन्जील को जो हर कलीसिया में मोअतबर शुमार होती थी अपना माख़ज़ बनाया। मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा दोनों इस को अव़्वल दर्जे का मोअतबर माख़ज़ तस्लीम करके इस के अल्फ़ाज़ को अपनी तसानीफ़ में नक़्ल करते हैं।
चुनान्चे जब हम पहली तीन अनाजील के अल्फ़ाज़ का बाहम मुक़ाबला करते हैं तो चंद एक उमूर् हम पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हो जाते हैं। अगर हम इन अल्फ़ाज़ पर सुर्ख़ रोशनाई से लकीर खींचें जो पहली और दूसरी इंजीलों में यकसाँ हैं, और नीली रोशनाई से उन अल्फ़ाज़ पर लकीर खींचें जो तीनों इंजीलों में यकसाँ हैं तो हम पर अयाँ हो जाएगा कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के पेश्तर अल्फ़ाज़ मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा की इंजीलों में मौजूद हैं और मर्क़ुस के बाक़ी मांदा अल्फ़ाज़ का एक बहुत बड़ा हिस्सा या तो मुक़द्दस मत्ती की इन्जील में पाया जाता है और यह मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील में मौजूद है। अगर हम ज़्यादा तफ़्सील से मुतालआ करें तो ये साबित हो जाएगा कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के अल्फ़ाज़ का तक़रीबन दो तिहाई हिस्सा मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा की इंजीलों में पाया जाता है। और बाक़ी मांदा एक तिहाई हिस्सा सिवाए तीस आयात के या तो मुक़द्दस मत्ती की इन्जील में मौजूद है या मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील में पाया जाता है और कि मुक़द्दस मत्ती ने सिवाए पचपन (55) आयात के तमाम इन्जील मर्क़ुस को नक़्ल किया है।86बअल्फ़ाज़े दीगर :-
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86Streeter, Synoptic Problem in Peak’s one Vol.Commentary p.673
(1) इन्जील अव़्वल की तीन चौथाई से ज़्यादा हिस्सा 1068 आयात में से 616 आयात मर्क़ुस की इन्जील से नक़्ल किया गया है।
(2) इन्जील सोम की दो तिहाई से ज़्यादा हिस्सा 1149 आयात में से 798 आयात उन आयात पर मुश्तमिल है जो मर्क़ुस की इन्जील से नक़्ल की गई हैं।87
(3) अगर हम पहली और तीसरी इंजीलों के ऐसे बाक़ी मांदा मुक़ामात और उन अल्फ़ाज़ को जो उन दोनों इंजीलों में पाए जाते हैं, नीली स्याही से तहत अल-ख़त करें तो हम पर ज़ाहिर हो जाएगा कि ये मुक़ामात हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम पर मुश्तमिल हैं और 236 आयात पर मुश्तमिल हैं। ये मुक़ामात “रिसाला कलमात” में से अख़ज़ किए गए हैं जिसका ज़िक्र हम मुफ़स्सिल तौर पर हिस्सा अव़्वल के बाब पंजुम में कर आए हैं।
उलमा में इस रिसाले की आयात के तअय्युन में इख़्तिलाफ़ है मसलन सर जान हाकिंस88के ख़याल में ये रिसाला 85 आयात पर मुश्तमिल था। इस इख़्तिलाफ़ राय की वजह ये है कि ये रिसाला अब हमारे हाथों में नहीं है जिस तरह इन्जील मर्क़ुस हमारे हाथों में है हम इन्जील मत्ती और मत्ती इन्जील लूक़ा का मुक़ाबला करके किसी हद तक ही इस रिसाले को मुरत्तिब कर सकते हैं। जिस तरह बफ़र्ज़-ए-मुहाल अगर इन्जील मर्क़ुस दुनिया से गुम हो जाए तो हम इन दोनों इंजीलों के मुशतर्का मुक़ामात से इन्जील मर्क़ुस को किसी हद तक मुरत्तिब कर सकते हैं। लेकिन चूँकि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील हमारे हाथों में मौजूद है। लिहाज़ा इन्जील अव़्वल व सोम के मुशतर्का मुक़ामात में से इन्जील के मुक़ामात को ख़ारिज करके हम जान सकते हैं कि बाक़ी मांदा मुशतर्का मुक़ामात रिसाला कलमात से लिए गए हैं। और यूं हम इस रिसाले के मज़ामीन और अल्फ़ाज़ का तअय्युन कर सकते हैं और चूँकि इस गुमशुदा माख़ज़ की ख़ुसूसी तर्ज़ है और इस का नुक्ता निगाह, अल्फ़ाज़ ज़बान के मुहावरात, और इम्तियाज़ी निशानात बिल्कुल जुदागाना हैं। लिहाज़ा इस का तअय्युन करने में और भी आसानी हो जाती है।89
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87J.C. Hawkins Synoptic Problem ed.by W. Sanday p.29
88Horoe Synoptic (Oxford 1894)p.89
89W.M. Ramsay, the Oldest Written Gospel, in Expositor Vol.111. May 1907
उलमा-ए-मग़रिब मज़्कूर बाला नताइज पर एक सदी की बहस व तमहीस के बाद पहुंचे हैं और अब इस अहम नतीजे पर सब मुत्तफ़िक़ हैं कि मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा ने इन्जील मर्क़ुस को निहायत मोअतबर माख़ज़ समझ कर इस की 661 आयात में से 631 को लफ़्ज़ ब-लफ़्ज़ नक़्ल कर लिया है।
(3)
इन इन्जील नवीसों ने ना सिर्फ मुक़द्दस मर्क़ुस के अल्फ़ाज़ को ही नक़्ल किया है बल्कि इन्होंने इस की तर्तीब को भी बहाल रखा है और इन्जील मर्क़ुस के ढांचे को अपना लिया है। इस का मुफ़स्सिल ज़िक्र हम आगे चल कर करेंगे। यहां सिर्फ ये बतलाना काफ़ी है कि जिस मुक़ाम पर ये दोनों इन्जील नवीस इकट्ठे मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील की तर्तीब की तक़्लीद (पैरवी) नहीं करते वहां इन दोनों में से एक इस तर्तीब की ज़रूर पैरवी करता है। हक़ तो ये है कि इन्जील अव़्वल और इन्जील सोम में कोई एक मुक़ाम भी ऐसा नहीं है जहां ये दोनों इन्जील नवीस मुक़द्दस मर्क़ुस के बयान के ख़िलाफ़ इत्तिफ़ाक़ करते हों।90चुनान्चे मुक़द्दस मत्ती अपनी इन्जील के पहले हिस्से (अबवाब 8 ता 13) में (मर्क़ुस 1:29 ता 6:13) की तर्तीब की मुताबिक़त नहीं करते। अगरचे मुक़द्दस लूक़ा इस तर्तीब के मुताबिक़ चलते हैं लेकिन मुक़द्दस मत्ती अपनी इन्जील के दूसरे हिस्से में मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील की तर्तीब के मुताबिक़ अपनी इन्जील को मुरत्तिब करते हैं। जब कभी इन्जील अव़्वल का मुसन्निफ़ इन्जील मर्क़ुस को नक़्ल करते वक़्त अपने मक़्सद और तर्तीब को मल्हूज़ ख़ातिर रखकर इस की तर्तीब को छोड़ देता है तो मुक़द्दस लूक़ा इसी तर्तीब को जारी रख कर इस के मुताबिक़ अपनी इन्जील को मुरत्तिब करता है। अला-हाज़ा-उल-क़यास जब कभी मुक़द्दस लूक़ा अपने ख़ास मक़्सद और तर्तीब को मल्हूज़ ख़ातिर रखकर इन्जील मर्क़ुस की तर्तीब को छोड़ देता है, तो मुक़द्दस मत्ती उस की तर्तीब को जारी रखकर इस के मुताबिक़ अपनी इन्जील को मुरत्तिब करता है। इन दोनों इंजीलों में कोई एक मुक़ाम भी ऐसा नहीं है। जिसमें मुक़द्दस मर्क़ुस की तर्तीब को छोड़कर मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा ने किसी दूसरी तर्तीब पर इत्तिफ़ाक़ किया हो।
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90Streeter, The Four Gospels.p.157
पस हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि क्या बलिहाज़ नफ़्स-ए-मज़्मून और क्या बलिहाज़ अल्फ़ाज़, और क्या बलिहाज़ तर्तीब, मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील को अनाजील अव़्वल व सोम की हिमायत हासिल है। इन उमूर से ज़ाहिर है कि ये सिर्फ इस हालत में हो सकता है। जब दोनों इन्जील नवीसों के सामने उनकी इंजीलों की तस्नीफ़ के वक़्त मुक़द्दस मर्क़ुस की सी सनद रखने वाली इन्जील मौजूद हो। पस अयाँ है कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील पहली और तीसरी इंजीलों से बहुत पहले लिखी गई थी और ऐसी मुस्तनद माअनी जाती थी कि बाद के दोनों मुसन्निफ़ों ने इस की तर्तीब और मज़्मून बल्कि अल्फ़ाज़ तक को नक़्ल करके उन को अपना मुनासिब ख़याल किया।
गो इन तीनों इंजीलों के अल्फ़ाज़, मज़ामीन और तर्तीब-ए-वाक़ियात फ़र्दन फ़र्दन ये अम्र साबित करने को काफ़ी हैं कि मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा ने मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील को नक़्ल किया है। लेकिन जब हम इन तीनों बातों पर मजमूई तौर पर ग़ौर करते हैं तो ये दलील और भी वज़न-दार हो जाती है और बग़ैर किसी शक व शुबहा के ये साबित हो जाता है कि मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा दोनों ने इन्जील मर्क़ुस को निहायत मोअतबर माख़ज़ क़रार देकर इस को लफ़्ज़ ब-लफ़्ज़ (और सिवाए तीस (30) आयात के) सबकी सब इन्जील को नक़्ल किया है।
(4)
जब हम इस अम्र को मलहूज़ ख़ातिर रखते हैं कि मुक़द्दस मत्ती इन्जील सोम से वाक़िफ़ ना थे और मुक़द्दस लूक़ा भी इन्जील अव़्वल से नावाक़िफ़ थे और दोनों एक दूसरे की तस्नीफ़ात से बेनियाज़ थे तो इन्जील मर्क़ुस का पाया एतबार हमारी नज़रों में और भी बुलंद हो जाता है क्योंकि ये अम्र इस हक़ीक़त को साबित कर देता है कि अर्ज़-ए-मुक़द्दस के मुख़्तलिफ़ कोनों में इन्जील मर्क़ुस की इशाअत हो चुकी थी और वो हर जगह मुस्तनद तस्लीम की जाती थी।
डाक्टर ऐबट ने इस की एक दिलचस्प मिसाल दी है। वो कहता है फ़र्ज़ करो कि तीन लड़के ज़ैद, बक्र और उमर किसी इम्तिहान में बैठे हैं। जब उन के पर्चे मुम्तहिन (इम्तिहान लेने वाले) के पास जाते हैं तो वो उन के पर्चे पढ़ कर मालूम करता है कि ज़ैद
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91E.A. Abbot, The Four fold Gospels Section 1p.12
और उमर ने बक्र की नक़्ल की है। बसा-औक़ात (बाअज़ दफ़ाअ) जब दोनों उम्मीदवार बक्र के अल्फ़ाज़ की नक़्ल करते हैं तब तीनों के जवाबात लफ़्ज़ ब-लफ़्ज़ मिलते हैं। बाज़ औक़ात ज़ैद ऐसे मुक़ामात बक्र के पर्चे से नक़्ल करता है जो उमर नहीं करता और बक्र के पर्चे के बाअज़ मुक़ामात ऐसे हैं जो ज़ैद नक़्ल नहीं करता लेकिन उमर उन को नक़्ल करता है। लेकिन ये तीनों लड़के इस तौर से बैठे हैं कि ज़ैद और उमर एक दूसरे की नक़्ल नहीं कर सकते। पस किसी एक मुक़ाम में भी वो दोनों कोई ऐसी इबारत नहीं लिखते जो बक्र की इबारत के ख़िलाफ़ हो। ज़ाहिर है कि हर होशमंद मुम्तहिन इसी नतीजे पर पहुँचेगा कि ज़ैद और उमर दोनों ने मौक़ा पाकर बक्र की नक़्ल की है।”
मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा ने मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के अल्फ़ाज़ को नक़्ल करते वक़्त अपने इस माख़ज़ के बाअज़ अल्फ़ाज़ और फ़िक्रात ऐसे पाए जो उन को नागवार गुज़रे। पस इन्होंने या तो ऐसे अल्फ़ाज़ को नक़्ल ही ना किया या उन सख़्त अल्फ़ाज़ की बजाए नरम अल्फ़ाज़ लिख दीए (मुक़ाबला करो मर्क़ुस 10:18, मत्ती 19:17 वग़ैरह) इस के इलावा इन्जील दोम की तर्ज़ तहरीर की ख़ामी और नहवी का मुक़ाबला इन्जील अव़्वल और सोम से करते हैं तो उनमें इसी क़िस्म का फ़र्क़ पाते हैं जो किसी शख़्स की तक़रीर में और इसी तक़रीर की तहरीरी शक्ल में पाया जाता है। मुक़द्दस मर्क़ुस की इबारत और उस्लूब-ए-बयान एक फ़ी अल-बदीहा तक़रीर करने वाले का सा है। चुनान्चे एक नक़्क़ाद लिखता है कि “मर्क़ुस की इन्जील ऐसी है कि गोया किसी शख़्स ने किसी बरजस्ता मुक़र्रर की तक़रीर शॉर्ट हैंड (मुख़्तसर) नवीसी में लिख ली हो।” लफ़्ज़ फ़ील-फ़ौर मुक़द्दस मर्क़ुस को बहुत मर्ग़ूब है जो 41 मुक़ामात में आया है जिसको दीगर इन्जील नवीस नक़्ल नहीं करते। मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा इस के बाअज़ अल्फ़ाज़ को बदल कर बड़ी एहतियात के साथ ऐसे अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करते हैं जो मुख़्तसर और जामेअ हैं और नहवी लिहाज़ से बेहतर हैं और ज़ाहिर करते हैं कि वो इशाअत की ग़र्ज़ से लिखे गए हैं।92क्योंकि इनके फ़िक़्रे जँचे तुले (दुरुस्त, पूरे वज़न का) हैं। ये अम्र भी साबित कर देता है कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील ऐसे क़दीम वक़्त में लिखी गई थी। जब मुक़द्दस मर्क़ुस और उस के माख़ज़ दोनों इस बात की तरफ़ से बेनियाज़ थे इनकी ज़बान के अल्फ़ाज़ सख़्त हैं या नरम, वो सर्फ़ व नहो के क़वाइद के ऐन मुताबिक़ हैं या उन में नहवी ख़ामियाँ पाई जाती
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92Streeter, Four Gospels pp.162-164 ff. also quoted by Butler in The Originality of St. Matthew (1951) p.167
हैं। या कि वो अदबी शाहकार हैं या नहीं चुनान्चे ऐलन कहता है कि “इन्जील दोम कोई अदबी तस्नीफ़ नहीं है जिसको किसी बड़े पाये के मुसन्निफ़ ने लिखा हो।93लेकिन यही अम्र उस की क़दामत और इस के पाया एतबार का एक बय्यन और ज़बरदस्त सबूत है।
(5)
इस इन्जील का पाया एतबार इस बात से भी साबित है,94कि इस में जिन समाजी और सियासी हालात का ज़िक्र है वो ऐन बईन अस्ल तवारीख़ी हालात के मुताबिक़ है मसलन ये इन्जील बतलाती है कि गलील में “इबादत ख़ानों के सरदार” मज़्हबी रहनुमा थे लेकिन यरूशलेम में सरदार काहिन मज़्हबी रहनुमा थे और कि फ़रीसी और फ़क़ीह हर जगह मौजूद थे लेकिन सदूक़ी सिर्फ़ यरूशलेम में थे और कि आँख़ुदावंद के लिए यरूशलेम का शहर सूबा गलील से ज़्यादा ख़तरनाक था। मुक़द्दस मर्क़ुस बतलाते हैं कि आँख़ुदावंद को अंतीपास से ख़तरा था। (मर्क़ुस 6:14) लिहाज़ा आप उस के इलाक़े से दीगर मुक़ामात को चले जाया करते थे। (मर्क़ुस 3:7, 4:1, 4:35, 6:45, 8:13, 7:24, 7:31, 8:27 वग़ैरह) क्योंकि केसरिया, फिलिप्पी, फ़ीनेके, बैत सैदा में आप इस ज़ालिम और जाबिर हुक्मरान के हाथ से महफ़ूज़ थे। चूँकि ये और दीगर बयानात अर्ज़-ए-मुक़द्दस के ख़ारिजी हालात के ऐन मुताबिक़ हैं। लिहाज़ा ज़ाहिर है कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील क़दीम तरीन बयानात पर ही मबनी है। क्योंकि ये हालात बाद में बदल गए थे। पस ख़ारिजी तवारीख़ी वाक़ियात भी इस इन्जील की क़दामत और इस के पाया एतबार के मुस्तनद होने का गवाह हैं।
(6)
जोज़ेफ़स मुअर्रिख़ की कुतुब से हमको अर्ज़-ए-मुक़द्दस के उन हालात का पता चलता है जो 30 ई॰ में पाए जाते थे। यहूदी कतुब-ए-तल्मूद से हमको उस ज़माने के यहूद के ख़यालात और हालात का पता चलता है। जब हम इनका मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील से मुक़ाबला करते हैं तो हम पर अयाँ हो जाता है95कि इस इन्जील में यही हालात निहायत सेहत के साथ पाए जाते हैं जिससे ज़ाहिर है कि ये इन्जील उन हालात के दौरान में ही
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93W.C. Allen, in J.T.S. Jan-April 1946 p.46
94Blunt, St. Mark p.36
95Burkitt, Gospel. History & its Transmission p.66
लिखी गई थी। क्योंकि जैसा बरकट कहता है कि ये तमाम हालात यरूशलेम की तबाही के सफ़ा हस्ती से महव (ख़त्म) हो चुके थे। इस इन्जील के हालात का नक़्शा ऐसा है कि माबाअ्द के ज़माने में क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला (सोचने की क़ुव्वत) इस क़द्र सेहत के साथ इनको दुबारा ख़ल्क़ ही नहीं कर सकती थी।96
बाब दोम
इन्जील मत्ती की तालीफ़
फ़स्ल अव़्वल
इन्जील-ए-मत्ती के माख़ज़
हम गुज़श्ता फ़स्ल में बतला चुके हैं कि इन्जील-ए-अव़्वल के मुसन्निफ़ ने अपनी इन्जील को तालीफ़ (किताब मुरत्तिब करना, मुख़्तलिफ़ किताबों से मज़ामीन चुन कर नए पैराए में तर्तीब देना) करते वक़्त दो माख़ज़ इस्तिमाल किए थे जिनका हम मुफ़स्सिल ज़िक्र कर आए हैं यानी :-
(1) रिसाला-ए-कलमात : जिसका ज़िक्र हम हिस्सा अव़्वल के बाब पंजुम की फ़स्ल अव़्वल में कर आए हैं। यहां ये बतलाना मुनासिब मालूम होता है कि अहले-यहूद अपनी मज़्हबी कुतुब को बिल-उमूम पाँच हिस्सों में तक़्सीम किया करते थे। मसलन तौरात की पाँच किताबें हैं। ज़बूर की पाँच किताबें हैं जिनमें से हर एक किताब ख़ुदा की हम्दो तारीफ़ के अल्फ़ाज़ से ख़त्म होती है। इसी तर्ज़ पर मुक़द्दस मत्ती का रिसाला-ए-कलमात भी पाँच हिस्सों में मुनक़सिम था। इन्जील अव़्वल भी पाँच हिस्सों में मुनक़सिम है जिसका
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96Ibid.pp.67-68
हर हिस्सा ख़ास मुक़र्ररी अल्फ़ाज़ से ख़त्म होता है “जब येसू ने ये बातें ख़त्म कीं।” (मत्ती 7:18 वग़ैरह) ये पाँच हिस्से हस्बे-ज़ैल हैं :-
(1) पहाड़ी वाज़ (मत्ती बाब 5 ता 7)
(2) बारह रसूलों को हिदायात (मत्ती 10:5 ता आख़िर)
(3) ख़ुदा की बादशाही की सात तम्सीलें (मत्ती 13:3-52)
(4) आँख़ुदावंद के मुख़्तलिफ़ अहवाल (बाब 18)
(5) (मत्ती 21:28 ता 22:14) फ़रीसियों और फ़क़ीहों पर सात बार अफ़्सोस करना (मत्ती 23 बाब) मसीह की आमद की पेशीन-गोईयाँ (मत्ती बाब 24) और अदालत की तम्सीलें (मत्ती 25 बाब)
मुक़द्दस मत्ती ने जो रिसाला-ए-कलमात जमा किया था उस का शुरू मुबारकबादियों से और आख़िर अदालत की तम्सील से ख़त्म होता था।
(2) मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील : इस इन्जील की (661) आयात में से मुक़द्दस मत्ती ने (606) आयात इन्जील-ए-दोम से नक़्ल की हैं।
मुक़द्दस मत्ती ने ना सिर्फ इन्जील दोम की आयात को नक़्ल किया है बल्कि उसने इन्जील दोम के ख़ाके और वाक़ियात की तर्तीब को भी बरक़रार रखा है और इस ख़ाके के ढांचा में दीगर माख़ज़ों के मसाले (सामान) को इस्तिमाल किया है।
(3) मुक़द्दस मत्ती ने ना सिर्फ रिसाला-ए-कलमात को इस्तिमाल किया है बल्कि दूसरे क़दीम रिसाले यानी रिसाला-ए-इस्बात को भी अपना माख़ज़ बताया है और इस को जाबजा बारह मुक़ामात में इस्तिमाल किया है। इस्तिमाल से पहले वो ख़ास मुक़र्ररी अल्फ़ाज़ “इस वक़्त वो बात पूरी हुई जो सय्यदना मसीह ने नबी की मार्फ़त कही थी” लिखता है (मत्ती 1:22, 2:5 वग़ैरह) इस रिसाले का मुफ़स्सिल ज़िक्र हम हिस्सा अव़्वल के बाब पंजुम की फ़स्ल दोम में कर आए हैं।
(4) सय्यदना मसीह का नसब नामा : जिसमें साबित किया गया है कि मसीह मौऊद इब्ने दाऊद और इब्ने अबराहाम (इब्राहीम) थे। (मत्ती बाब 1:1-17) ये माख़ज़ भी तहरीरी था।
(5) एक माख़ज़ ऐसा है जिसमें मसीह मौऊद के यहूदी मुख़ालिफ़ों के एतराज़ात का दंदान शिकन जवाब दिया गया है। मुख़ालिफ़ीन मसीहिय्यत मुक़द्दसा मर्यम बाकिरा (कुँवारी) की इस्मत और मसीह मौऊद के तर्ज़ पैदाइश पर एतराज़ करते थे। इस माख़ज़ के इस ख़ास हिस्से का सरचश्मा मुक़द्दस यूसुफ़ का ख़ानदान मालूम होता है जो क़ुदरती तौर पर दौर-ए-अव्वलीन में कलीसिया में मुम्ताज़ तरीन ख़ानदान था। बाअज़ इस्मत-ए-मसीह की हक़ीक़त पर एतराज़ करके कहते थे कि अगर आप गुनाह से बरी होते तो आप मुक़द्दस यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के हाथ से बपतिस्मा ना पाते। बाअज़ ये एतराज़ करते थे कि अगर आँख़ुदावंद मुजरिम ना होते तो रोमी गवर्नर आपको मस्लूब ना करता। बाअज़ मुख़ालिफ़ीन क़ियामत मसीह के मुन्किर थे। और कहते थे कि आपके शागिर्दों ने आपका मुबारक लाश चुरा लिया था और ये मशहूर कर दिया था कि आप मुर्दों में से जी उठे हैं।
इस माख़ज़ में इब्तिदाई कलीसिया के फ़ाज़िल मुअल्लिमों ने क़दीम तरीन ज़माने के मोअतबर बयानात को जमा करके इन एतराज़ात के जवाब देकर मसीह मौऊद के दुश्मनों के दाँत खट्टे कर दिए थे। चूँकि ये जवाबात बड़े काम के थे लिहाज़ा इन्जील अव्वल के मोअल्लिफ़ ने इस रिसाले को जिसमें ये जवाबात दर्ज थे, अपना माख़ज़ बना कर उस को अपनी इन्जील में शामिल कर लिया। चुनान्चे इन्जील के पहले तीन अबवाब में और आख़िरी दो अबवाब में इस माख़ज़ से काम लिया गया है।
इस बात का सबूत कि ये माख़ज़ इब्तिदाई ज़माने में लिखा गया था इस बात से भी मिलता है कि इन्जील के पहले दो अबवाब में ख़ुदा अपनी मर्ज़ी को ख्व़ाब में ज़ाहिर करता है जिस तरह तौरात के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में ख़ुदा अपनी मर्ज़ी को पहले वक़्तों में ख्व़ाब के वसीले ज़ाहिर किया करता था। चुनान्चे अल्फ़ाज़ “ख्व़ाब में” पाँच दफ़ाअ इन दो अबवाब में और (मत्ती 27:1) में आए हैं लेकिन तमाम इन्जील में किसी और जगह वारिद नहीं हुए। जिससे ज़ाहिर है कि ये क़दीम माख़ज़ तहरीरी सूरत में मौजूद था और कि ये सब मुक़ामात इसी से लिए गए हैं।
(6) एक और माख़ज़ मुक़द्दस मत्ती के सामने था जिसमें यहूदिया के गवर्नर पंतुस पिलातूस की निस्बत बयान मौजूद थे। मुक़द्दस मत्ती ने इस माख़ज़ को (मत्ती 27:24-25, 62-66, 28:11-15) में इस्तिमाल किया है।97
(7) मज़्कूर बाला माख़ज़ों के इलावा इस इन्जील में हस्बे-ज़ेल वाक़ियात पाए जाते हैं जो इस के मोअल्लिफ़ ने तहरीरी और ज़बानी बयानात से हासिल किए थे।98
(1) कफ़र-नहूम में मुनादी का शुरू (मत्ती 4:12-17)
(2) सूबेदार के ख़ादिम का शिफ़ा पाना (8:5-13)
(3) दो शख्सों के शागिर्द होने की ख़्वाहिश (8:18-22)
(4) दो अंधों का बीनाई पाना (9:27-31)
(5) गूँगे को शिफ़ा बख़्शना (9:32-34)
(6) मुक़द्दस यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के पैग़ाम्बर (11:2-6)
(7) मुक़द्दस पतरस का पानी पर चलना (14:28-31) (8) मछली के मुँह से सिक्के का बरामद होना (17:24-27)
(8) मछली के मुँह से सिक्के का बरामद होना (17:24-27)
(9) यहूदाह ग़द्दार का अंजाम (27:3-13)
(10) यहूदी मुक़द्दसों का क़ब्रों से निकलना (27:51-53)
(11) सय्यदना मसीह का क़ियामत के बाद गलील में दिखाई देना (28:16-20)
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97St. Matthew, The Century Bibl (1922) p.25
98The Mission & Message of Jesus pp.219-250.
मज़्कूर बाला वाक़ियात मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील में नहीं हैं। पस ये इन्जील से नहीं लिए गए।
(8) मुक़द्दस मत्ती ने अपने रिसाला-ए-कलमात की तालीम के इलावा दीगर चश्मदीद गवाहों के तहरीरी और ज़बानी बयानात से हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम के हिसस (हिस्से की जमा) अपनी इन्जील में शामिल किए हैं। क्योंकि आँख़ुदावंद के हज़ारहा सामईन (सुनने वालों) में से “बहुतों ने इस पर कमर बाँधी” थी कि वो सय्यदना मसीह की तालीम को लिखें और यह पारे मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं में राइज थे। लेकिन ईमानदारों की तादाद की कस्रत और उन की परागंदगी ने ये ज़रूरत पैदा कर दी कि कलीसिया के मुअल्लिमों के लिए इन मुख़्तलिफ़ पारों को जमा किया जाये। इन मुअल्लिमों के हाथों में रिसाला-ए-कलमात और आँ-खुदावंद की ज़िंदगी के हालात, मोअजज़ात और वाक़िया सलीब के बयानात मौजूद थे। इन्जील मर्क़ुस भी उन के हाथों में थी लेकिन बाअज़ रिसालों और पारों में जो सय्यदना मसीह की तालीम थी वो जमा ना थे। मुक़द्दस याक़ूब इन पारों में से बाअज़ की तालीम से वाक़िफ़ थे। (याक़ूब 1:5, 2:8, 3:12, 4:3, 5:3, 9, 12 वग़ैरह) ये माख़ज़ यरूशलेम की कलीसिया के हाथों में थे।99मुक़द्दस मत्ती ने इन पारों को जो उस के मतलब के थे अपनी इन्जील में शामिल कर लिया ताकि यहूदी मसीह कलीसियाओं के हाथों में एक जामेअ इन्जील हो। चुनान्चे ज़ेल के मुक़ामात मुक़द्दस मत्ती ने इन पारों से लिए और यह मुक़ामात सिर्फ़ इन्जील अव़्वल में ही पाए जाते हैं :-100
(1) (मत्ती 3:14-15) सय्यदना मसीह के बपतिस्मे पाने के मुताल्लिक़ एक पारा है।
(2) (मत्ती 5:7-10) की मुबारक बादियां
(3) (मत्ती 5:13-16) नमक और नूर के इसतिआरात
(4) (मत्ती 5:17 ता 7:29) के वो मुक़ामात जो रिसाला-ए-कलमात से अख़ज़ नहीं किए गए।
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97B.H. Streeter, Sources of the Gospels, in an Outline of Christinaity ed. Peake & P. Harson Vol1.p309
98The Mission & Message of Jesus.pp.441-544
(5) (मत्ती 10:5-16, 10:23-25, 40 ता 11:1) दवाज़दा (12) रसूलों को हिदायात।
(6) (मत्ती 11:14-15) यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला और एलियाह नबी।
(7) मत्ती 11:28 ता 31 दावत-ए-आम।
(8) (मत्ती 12:5 7, 11-12) सबत से मुताल्लिक़ हैं।
(9) (मत्ती 12:34 (अलिफ़ 36-37) इन्सान का क़ौल और फ़ेअल।
(10) (मत्ती 13 बाब) में चंद अक़्वाल हैं जो सिर्फ इन्जील अव़्वल में ही पाए जाते हैं।
इनको रिसाला-ए-कलमात और इन्जील-ए-मर्क़ुस के साथ तर्तीब देकर लिखा गया है। ये अक़्वाल आयात 24-30, 36, 43-47, 50-51, 53 में पाए जाते हैं।
(11) (मत्ती 15:12-13) बाअज़ पौदों का उखाड़ा जाना।
(12) (मत्ती 15:22-25) ग़ैर-अक़्वाम से मुताल्लिक़ है।
(13) (मत्ती 16:2-3) ज़माने के निशान।
(14) (मत्ती 16:17-19) कलीसिया में मुक़द्दस पतरस का मुक़ाम।
(15) (मत्ती 17:20) मज़्बूत ईमान की ताक़त।
(16) (मत्ती 18:2-4) मसीही रिफ़ाक़त।
(17) (मत्ती 18:10, 12-14) कलीसिया और गुमराह लोग।
(18) (मत्ती 18:15-22) कलीसिया की अंदरूनी ज़िंदगी।
(19) (मत्ती 18:23 ता 19:1) बेरहम मुख़्तार की तम्सील।
(20) (मत्ती 19:10-12) कुँवारा पन और ब्याह की हालत।
(21) (मत्ती 19:28) बारह रसूलों की जज़ा।
(22) (मत्ती 20:1-16) अंगूर स्तान के मज़दूरों की तम्सील।
(23) (मत्ती 21:14-16) सरदार काहिनों और फ़कीहों का जोश को बुरा मनाना।
(24) (मत्ती 21:28-32) दो बेटों की तम्सील।
(25) (मत्ती 21:43-44) बादशाही का दूसरी क़ौम को दिया जाना।
(26) (मत्ती 22:1-14) शादी की ज़ियाफ़त की तम्सील।
(27) (मत्ती 23:1-7) फ़रीसियों और फ़क़ीहों पर मलामत।
(28) (मत्ती 23:8-12) शागिर्दों को आगाही।
(29) (मत्ती 23:13-36) फ़क़ीहों और फ़रीसियों पर अफ़्सोस।
(30) (मत्ती 24:10-12, 30 (अलिफ़) आमद-ए-सानी से मुताल्लिक़ हैं।
(31) (मत्ती 25:1-13) दस कुँवारियों की तम्सील।
(32) (मत्ती 25:14-30) तोड़ों की तम्सील।
(33) (मत्ती 25:31-46) आख़िरी अदालत
जब हम इस माख़ज़ के मज़ामीन में का ग़ौर से मुतालआ करते हैं तो हम पर चंद बातें अयाँ हो जाती हैं :-
अव़्वल :इस माख़ज़ की फ़िज़ा इन्जील नवीस के दूसरे माख़ज़ यानी इन्जील दोम से बिल्कुल जुदागाना है। इस की फ़िज़ा यहूदियत की फ़िज़ा है जो ये ज़ाहिर करती है कि ये माख़ज़ अर्ज़-ए-मुक़द्दस के यहूदी मसीही नव-मुरीदों से ताल्लुक़ रखता है। क्योंकि इस में शरीअत और इन्जील मसीह दो अलग अलग चीज़ें नहीं हैं बल्कि मसीह मौऊद की इन्जील ख़ुद एक नई शरीअत है या यूं कहो कि वो मूसवी शरीअत की एक नई ऐडीशन
है। “इन्जील कोई नई मेय नहीं जो पुरानी मश्कों में भरी” हो बल्कि वो वही पुरानी मेय है जिसका अर्क़ मुक़त्तिर (क़तरा-क़तरा कर के टपकाया और साफ़ किया हुआ) करके खींचा गया है। पस वो तेज़ और क़वी-उल-असर है।101
दोम :इस माख़ज़ में बाअज़ ऐसी बातें हैं जो यहूदी रब्बियों की तस्नीफ़ात से मिलती जुलती हैं। मसलन (मत्ती 5:7, 28-30, 37) के ख़यालात तल्मूद और मदराशि में भी पाए जाते हैं।102बाअज़ मुक़ामात में तर्ज़ तहरीर रब्बियों की तर्ज़ की सी है। इस माख़ज़ में यहूदी इस्तिलाहात पाई जाती हैं मसलन इन्जील का जूवा और शरीअत का जूवा, आस्मानी बाप वग़ैरह जिससे ज़ाहिर है कि यहूदी मसीही रब्बियों की फ़ाज़िल जमाअत ने हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के उन कलमात-ए-तय्यिबात को महफ़ूज़ रखा था जिनका ताल्लुक़ यहूदी रब्बियों की तस्नीफ़ात से था। इस का मुफ़स्सिल ज़िक्र हम इंशा-अल्लाह आगे चल कर करेंगे।
सोम :इस माख़ज़ की एक और ख़ुसूसियत ये है कि इस की तालीम में और मुक़द्दस यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की तालीम में बहुत ज़्यादा ताल्लुक़ है। ना सिर्फ मुक़द्दस यूहन्ना की तालीम बल्कि इस तालीम के अल्फ़ाज़ भी इस माख़ज़ में पाए जाते हैं। मसलन (मत्ती 7:9) के अल्फ़ाज़ और ख़यालात रिसाला-ए-कलमात से मिलते हैं (मत्ती 3:10, लूक़ा 3:9) कड़वे दानों की तम्सील (मत्ती 13:24-30, 36-43) बड़े जाल की तम्सील (मत्ती 13:47-50) बकरीयों और भेड़ों की तम्सील (मत्ती 25:31-46) ज़ियाफ़त की तम्सील (मत्ती 22:11-14) के ख़यालात कुछ इख़्तिलाफ़ के साथ वही हैं जो बपतिस्मा देने वाले के हैं और जो रिसाला-ए-कलमात में मौजूद थे। (मत्ती 3:12, लूक़ा 3:17) इन के मुँह के अल्फ़ाज़ (मत्ती 3:7, लूक़ा 3:7) जो रिसाला-ए-कलमात में (मत्ती 12:34, 23:33) में पाए जाते हैं। लेकिन तमाम इन्जील में किसी और जगह नहीं मिलते जिससे ज़ाहिर है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के पेशरू के ख़यालात और आपके ख़यालात में तफ़ावुत (फ़ासिला, जुदाई) नहीं पाया था। जभी आपने फ़रमाया कि “जो औरतों से पैदा होते हैं उन में यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले से कोई बड़ा नहीं हुआ" लेकिन चूँकि आपकी इन्जील हज़रत यूहन्ना के इब्तिदाई ख़यालात से बहुत आगे बढ़ी हुई थी। आपने साथ ही फ़रमाया “लेकिन
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101T.W. Manson, The Teching of Jesus (1939) p.34
102G.F. Moore, Judaism Vol2.pp.267 ff
जो आस्मान की बादशाही में छोटा है वो यूहन्ना से बड़ा है।” (मत्ती 11:11, लूक़ा 7:28) आपका ये क़ौल रिसाला-ए-कलमात में था, जिससे ये भी अयाँ हो जाता है कि मुक़द्दस मत्ती के मुख़्तलिफ़ माख़ज़ों में ना तफ़ावुत थी और ना तनाक़ुज़ या तज़ाद बल्कि वो एक दूसरे के तकमिला थे जो एक दूसरे की कमी को पूरा करते थे। किसी माख़ज़ में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) का एक क़ौल दर्ज था और किसी में दूसरा। माख़ज़ों के लिखने वालों ने अपने-अपने मक़्सद के मुताबिक़ आपके मुबारक कलमात को जमा किया हुआ था।
(9) सलीब के वाक़ियात का एक माख़ज़ मुक़द्दस मत्ती के सामने तहरीरी सूरत में मौजूद था। आपने मुक़द्दस मर्क़ुस के सलीबी वाक़िये के बयान में इस माख़ज़ के अल्फ़ाज़ को शामिल कर दिया चुनान्चे (मत्ती 26:14-16, 27:19, 24 अलीख 27:51-53, 27:62-66, 28:2-4, 28:11-15) इस माख़ज़ के हिस्से हैं।103
मुन्दरिजा बाला माख़ज़ों पर सतही नज़र डालने से भी ये ज़ाहिर हो जाता है कि ये माख़ज़ कनआन के हैं और सब के सब क़दीम तरीन ज़माने से मुताल्लिक़ हैं। वो रिसाला-ए-कलमात के बाद लिखे गए थे और तहरीर में आ चुके थे।104चुनान्चे जर्मन नक़्क़ाद हारनेक ने इस इन्जील के माख़ज़ों की मुफ़स्सिल तन्क़ीद की है और वो इस नतीजे पर पहुंचा है कि ये माख़ज़ इब्तिदाई क़िस्म के हैं।105
मुक़द्दस मत्ती का तरीक़ा तालीफ़ ये है कि वो मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के ढांचे को बरक़रार रखकर इस ढांचे में किसी वाक़िये या बयान को नक़्ल करते वक़्त दीगर ऐसे मौज़ूं बयानात वाक़ियात और कलमात को ईज़ाद कर देता है कि जो इस वाक़िये या बयान से ताल्लुक़ रखते हों। मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील को नक़्ल करते वक़्त जब ये देखता है कि किसी वाक़िये या बयान की तफ़्सील ऐसे दीगर बयानात में पाई जाती है जो जो “रिसाला-ए-कलमात” में इस के किसी और माख़ज़ में मौजूद हैं तो वो उन माख़ज़ों के बयानात या वाक़ियात और कलमात को उस ख़ास मुनासिब और मौज़ूं मौक़े पर दर्ज कर देता है। मसलन वो (मत्ती 9:10-12) के कलमात को तलाक़ के सवाल से मुताल्लिक़ कर देता है। मुक़द्दस मर्क़ुस के अल्फ़ाज़ अव्वल आख़िर हो जाएंगे और आख़िर अव्वल के बाद वो
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103Vincent Taylor, The Formation of Gospel Tradition p.54
104Barton, “Prof. Torrey’s Theory of Aramic Origin of Gospels.J.T.S Oct,1943.p.358
105W.C. Allen, Harnack and Moffat on the Date of the First Gospel’s Exp. Times , May 1911 pp.349 ff.
ताकिस्तान के मुज़दों की तम्सील का ज़िक्र करता है। (मत्ती 19:30) शरीर बाग़बानों की तम्सील से वो शादी की दावत और दो बेटों की तम्सीलें मुताल्लिक़ कर देता है। (मत्ती 21:33)
इस मौक़े पर ये अम्र भी क़ाबिल-ए-ज़िक्र है कि मुक़द्दस मत्ती हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलमात-ए-तय्यिबात को हर मौज़ूं मौक़े पर इकट्ठा करके मजमा कर देता है। चुनान्चे चार मुख़्तलिफ़ मुक़ामात पर मुक़द्दस मर्क़ुस के मुख़्तसर मुकालमात शुरू करके वो दीगर माख़ज़ों से कलमात इकट्ठे करके जमा कर देता है जो लंबे मकालमों की सूरत इख़्तियार कर लेते हैं। मसलन मुक़द्दस मर्क़ुस की सात आयात (6:7 अलीख) इन्जील मत्ती में बयालिस आयात हो जाती हैं (मत्ती 10 बाब) इन्जील मर्क़ुस की बारह आयात (मत्ती 9:33-37, 42, ता 48) इन्जील अव़्वल में 35 आयात हो जाती हैं। (मत्ती 18 बाब) इन्जील मत्ती में मर्क़ुस के 13 बाब के बयान को खोल कर वाज़ेह कर दिया गया है और 25 बाब में अदालत की तम्सीलें बढ़ा दी गई हैं। पहाड़ी वाज़ के तमाम कलमात को इस तौर पर जमा किया गया है कि वो मर्क़ुस की आयत (मर्क़ुस 1:22, मत्ती 7:29) की तौज़ीह (वज़ाहत) हो जाते हैं।
फ़स्ल दोम
मुक़द्दस मत्ती की इन्जील की ख़ुसूसियात
हम गुज़श्ता फ़स्ल में बतला चुके हैं कि मुक़द्दस मत्ती ने अपनी इन्जील में आँख़ुदावंद की तालीम को जो रिसाला-ए-कलमात में दर्ज थी। पाँच मुख़्तलिफ़ उनवानों के मातहत यकजा जमा किया है। ये तरीक़ा इब्तिदाई अय्याम की कलीसिया की ज़रुरियात के मुताबिक़ था।106क्योंकि इन इब्तिदाई अय्याम में इस बात की ज़रूरत महसूस हुई कि इस नए “तरीक़” (आमाल 9:2) के क़वानीन व क़वाइद ज़ब्त-ए-तहरीर में आएं ताकि कलीसिया के रोज़-अफ़्ज़ूँ यहूदी शुरका इस नई शरीअत से वाक़िफ़ हो जाएं जो एक ऐसे शख़्स ने दी थी जो हज़रत मूसा से भी बड़ा नबी था। ग़ैर-यहूदी नव मुरीदों के लिए तो ये ज़रूरत निहायत
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106Rev.V.C Macmunn, Who Compiled the Sermon on the Mt Exp. Times Feb 1924
अशद थी ताकि ये लोग जो पहले बुत-परस्त और मुश्रिक थे। सय्यदना मसीह की अख़्लाक़ियात के क़वानीन और रुहानी मेयारों से वाक़िफ़ हो जाएं मुक़द्दस मत्ती ने यहूदी मोमिनीन की जमाअत की ज़रुरियात को मद्द-ए-नज़र रखकर रिसाला-ए-कलमात के मुख़्तलिफ़ और मुतफ़र्रिक़ अक़्वाल को मुख़्तलिफ़ उनवानों के मातहत पाँच हिस्सों में तौरात की पाँच किताबों की तक़्सीम को पेश-ए-नज़र रखकर मुरत्तिब किया और सय्यदना मसीह की तालीम को एक निज़ाम में मुनज़्ज़म कर दिया।
अहले-यहूद में पाँच का अदद अक्सर इस्तिमाल किया जाता था क्योंकि जैसा हम बतला चुके हैं तौरात और ज़बूर की पाँच किताबें थीं और इसी लिहाज़ से इस इन्जील में सय्यदना मसीह के कलमात को पाँच हिस्सों में तक़्सीम किया गया है। इलावा अज़ीं तीन का अदद भी अक्सर इस्तिमाल किया जाता था और इस इन्जील में इस अदद की 38 मिसालें पाई जाती हैं। मसलन तुफुलिय्यत (बचपन) मसीह के तीन वाक़ियात हैं। (मत्ती 2:1-23) सय्यदना मसीह की आज़माईशों की तीन मिसालें दी गई हैं। (मत्ती 4:1-11) पहाड़ी वाअज़ में रास्तबाज़ी की तीन मिसालें हैं। (मत्ती 6:1-18) तीन बातों की मुमानिअत है। (मत्ती 6:19 ता 7:6) फ़िक्र ना करने की तीन मिसालें मौजूद हैं। (मत्ती 6:25-31, 34) सय्यदना मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात में शिफ़ा पाने के तीन मोअजिज़े बतलाए गए हैं। (मत्ती 18:1-15) ताक़त के तीन मोअजिज़े। (मत्ती 8:23 ता 9:8) और बहाली के तीन मोअजिज़े दर्ज किए गए हैं। (मत्ती 6:8-34) फ़रीसियों को तीन निशान। (12:38-42) गतसमनी बाग़ में तीन दुआएं (मत्ती 26:39, 42, 44) सय्यदना मसीह की ज़फ़रयाब क़ियामत के तीन गवाह मौजूद हैं। (मत्ती 28:1-10, 11-15, 16-20) वग़ैरह-वग़ैरह।
मुक़द्दस मत्ती ने इस इन्जील में तीन पाँच सात और दस के अदद को कस्रत से इस्तिमाल किया है। क्योंकि अहद-ए-अतीक़ की कुतुब में ये अदद कस्रत से पाए जाते हैं। तीन सबसे छोटा अदद है जिसमें शुरू, दर्मियान और आख़िर पाया जाता है और वो ताक़ और जुफ़्त की जमा भी है। हफ़्ते के सात दिन होते हैं जिन का ताल्लुक़ चांद की मुख़्तलिफ़ सूरतों से है। पस ये अदद कामिलियत और कस्रत का निशान है और अहले-यहूद में ये अदद ख़ास तौर पर मुक़द्दस समझा जाता था।
अग़्लब (मुम्किन) है कि मुक़द्दस मत्ती ने तीन, पाँच, सात और दस के आदाद इस ग़र्ज़ से इस्तिमाल किए थे ताकि मुअल्लिम और शागिर्द (जो इन्जील को सिखलाते और
सीखते थे) दोनों के हाफ़िज़े को मदद मिल जाये। चुनान्चे जान हाकिंस कहते हैं,107“अहले-यहूद तालीम के लिए इस तरीक़े को इस्तिमाल किया करते थे। जब हम ये देखते हैं कि तौरात की पाँच किताबें थीं और ज़बूर की पाँच किताबें थीं और एक्लीज़ीऐसटीक्स Ecclesiastics के पाँच हिस्से थे और हनोक की किताब पाँच हिस्सों में मुनक़सिम है तो हम समझ सकते हैं कि मुक़द्दस मत्ती ने इन्जील में आँख़ुदावंद के कलमात को भी पाँच हिस्सों में तक़्सीम करके हर हिस्से के आख़िर में लिखा “जब येसू ये बातें ख़त्म कर चुका तो ऐसा हुआ।” (मत्ती 7:28, 9:1, 13:53, 19:1, 26:1) पस इस इन्जील की तर्तीब वाक़ियात की तवारीख़ी बिना पर मुरत्तिब नहीं की गई बल्कि तवारीख़ी वाक़ियात को यहूदी क़ालिब में ढाल कर मुरत्तिब कियागया है
प्रोफ़ैसर बेकन108भी लिखता है “यहूदी तस्नीफ़ात की ये एक ख़ुसूसियत है कि वो आदाद के लिहाज़ से इनको तक़्सीम करते हैं बिलख़ुसूस ख़ुत्बात को वो पाँच हिस्सों में तक़्सीम करते थे और इन हिस्सों के शुरू और आख़िर में ख़ास मुक़र्ररी अल्फ़ाज़ का इस्तिमाल यहूदी रिवायत का हिस्सा है..... इसी लिहाज़ से इन्जील मत्ती के भी पाँच हिस्से हैं। तम्हीद अबवाब 1-2 के बाद पहला हिस्सा शुरू होता है (बाब 3 ता 7) दूसरा हिस्सा अबवाब 8 ता 10 पर मुश्तमिल है। पांचवां हिस्सा 19 ता 25 अबवाब पर शामिल है। और बाब 26 ता 28 तमता (इख़्तताम) हैं। इस इन्जील का मक़्सद ये साबित करना था कि सय्यदना मसीह की ये पाँच किताबें तौरात शरीफ़ की पाँच किताबों की तक्मील हैं।” इस से ये हक़ीक़त भी वाज़ेह हो जाती है कि दवाज़दा (12) रसूल आँख़ुदावंद के कलमात-ए-तय्यिबात के तौरात के अल्फ़ाज़ की तरह इल्हामी गिरदानते थे। (यूहन्ना 18:32, मर्क़ुस 10:32-35, मत्ती 12:8, 41, 42, यूहन्ना 13:18, 18:9 वग़ैरह)
(2)
इस इन्जील की तमाम फ़िज़ा यहूदी है। चुनान्चे एक यहूदी आलिम कोहलर (Kohlar) कहता है,109कि :-
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107Sir.J.C Hawkins, Hore Synoptics p.131
108Prof.B.W. Bacon, “Five Books of Matthew against Jews, Expositor, January 1918 pp.56-66
109Quoted in St. Matthew (Century Bible) p.43
“मत्ती की इन्जील अहले-यहूद की तर्ज़-ए-ज़िदंगी और यहूदी ख़यालात के क़रीब तरीन है। वो यहूदी मसीहियों के लिए लिखी गई थी और इस में अरामी इस्तिलाहात का बकस्रत इस्तिमाल किया गया है।”
इस इन्जील में क़दीम यहूदी मुहावरात कस्रत से इस्तिमाल किए गए हैं। मिसाल के तौर पर (1) “आसमानों की बादशाहत” 22 दफ़ाअ। (2) इब्ने-दाऊद (मत्ती 9:27, 21:9) वग़ैरह। ये ख़िताब यहूदी रब्बी सिर्फ़ मसीह मौऊद के लिए ही इस्तिमाल करते थे। (3) मुक़द्दस शहर बुज़ुर्ग बादशाह का शहर (मत्ती 4:5, 27:53, 5:35) (4) इस्राईल का ख़ुदा (मत्ती 15:31) (5) ख़िताब “बाप जो आसमानों पर है” ख़ुदा के लिए 13 दफ़ाअ वारिद हुआ है। ये मुहावरा “आसमानों पर है” किसी और इन्जील में नहीं पाया जाता (6) “तुम्हारा आस्मानी बाप” 6 दफ़ाअ आया है। (7) ”कुत्ते और सूअर” (मत्ती 7:6) (8) लफ़्ज़ “जूवा” बमाअनी तालीम, शरीअत का जूवा, बादशाही का जूवा, यहूदी मुहावरा है। (मत्ती 11:29-30) (9) “गोश्त और ख़ून” आलम-ए-अर्वाह के दरवाज़े”, “बांधना और खोलना” (मत्ती 16:17-19) (10) “बाहर अंधेरे हैं” (मत्ती 8:11, 22:13, 25:30) (11) (मत्ती 26:29) के तमाम अल्फ़ाज़ “मैं तुमसे कहता हूँ कि अंगूर का ये शीरा फिर कभी ना पियूँगा उस दिन तक कि तुम्हारे साथ अपने बाप की बादशाही में नया ना पियूँ।” सब के सब यहूदी मुहावरात हैं। ये चंद मिसालें बतौर मुश्ते नमूना इज़ख़रवारे (बड़े ढेर में से मुट्ठी भर) पेश की गई हैं।
इस इन्जील के लिखने का मक़्सद ये ही था कि आँख़ुदावंद की मसीहाई अज़मत व शान का सिक्का यहूदी मसीहियों पर बैठ जाये। और ये मक़्सद पहली आयत ही से ज़ाहिर है “येसू मसीह इब्ने-दाऊद, इब्ने-अबराहाम”
मुसन्निफ़ मसीह मौऊद के दआवा (दावे) के सबूत में ये पेश करता है (1) इस का नसब नामा और पैदाइश के वक़्त आस्मानी मुकाशफ़ा (बाब 1 ता 4) (2) उसने अपने सह गोना मन्सब (नबी, काहिन और बादशाह) से मसीहाई को साबित कर दिया। (मत्ती 5:16) (3) उसने अपनी बादशाही के अस्ल मुतालिब को और इस के मुस्तक़बिल को ज़ाहिर कर दिया। (मत्ती बाब 16 ता 20) (4) उस की क़ुर्बानी अजुज़ और हलीमी (बाब 21 ता 24) (5) उसने यहूदी क़ौम की तबाही का फ़त्वा दिया और मौजूदा दौर पर भी फ़त्वा सादिर किया (मत्ती बाब 24 ता 25) (6) उसने अपनी जान को क़ुर्बान कर दिया। (मत्ती बाब 26 ता 27) (7) उस की ज़फ़रयाब क़ियामत ने और किबरिया के दहने बैठ कर इख़्तियार
जतलाने ने भी मसीहाई के दावे को साबित कर दिया। (मत्ती बाब 28) इस इन्जील का यहूदी रंग-ढंग और रूप इस की एक एक सतर से ज़ाहिर है। अर्ज़-ए-मुक़द्दस कनआन “इस्राईल का मुल्क” है। (मत्ती 2:21) जिसके बाशिंदे क़ौम “इस्राईल” हैं (मत्ती 8:10) वो “इस्राईल के घराने की खोई हुई भेड़ें हैं।” (मत्ती 10:6) इस मुल्क के क़स्बे इस्राईल के शहर हैं। (मत्ती 10:23) और इस मुल्क का ख़ुदा “इस्राईल का ख़ुदा” है। (मत्ती 15:31) यरूशलेम मुक़द्दस शहर है। इन्जील की हर सतर से ज़ाहिर है कि मुसन्निफ़ का मक़्सद ये था कि वो यहूदी मसीहियों के लिए एक इन्जील तालीफ़ करे ताकि “जिन बातों की उन्होंने तालीम पाई है। उनकी पुख़्तगी उन को मालूम हो जाए।”
हम गुज़श्ता फ़स्ल में बतला चुके हैं कि मुक़द्दस मत्ती ने रिसाला इस्बात से बारह मुक़ामात में पेशीनगोईयां नक़्ल की हैं ताकि यहूदी मसीहियों पर वाज़ेह हो जाए कि मसीह मौऊद के वाक़ेआत-ए-ज़िंदगी की नबुव्वतें अम्बिया-ए-साबक़ीन की किताबों में मौजूद हैं। इस तर्ज़-ए-इस्तिदलाल (दलील के तरीक़े) से साबित किया गया है कि येसू नासरी अहद-ए-अतीक़ का मसीह मौऊद है जो दाऊद और अबराहाम की नस्ल से पैदा हुआ, क्योंकि वो “यहूदियों का बादशाह” था। (मत्ती 2:2) वो यरूशलेम में शाहाना तौर पर वारिद हुआ। (मत्ती 21:4-5) उस की मौत ख़ुदा के ऐन मंशा के मुताबिक़ हुई। (मत्ती 16:11, 23) जिसकी अम्बिया-ए-साबक़ीन ने ख़बर दी थी। (मत्ती 26:24, 54) और यह मौत गुनाहों की माफ़ी के लिए थी। (मत्ती 26:28) चूँकि उस की पैदाइश कुँवारी के बतन से हुई लिहाज़ा वो ख़ुदा का बेटा था। (मत्ती 3:17) मसीह मौऊद ख़ुदा का महबूब था। (मत्ती 3:17) वो इब्ने-आदम था जो दानीएल नबी के क़ौल के मुताबिक़ आस्मान के बादलों पर आएगा।
पस जैसा किल पैट्रिक Kilpatrick) कहता है :- 110
“जिस माहौल में ये इन्जील लिखी गई वो ख़ुसूसियत के साथ यहूदी मसीहियों की जमाअत है और यह मसीही जमाअत इस बात पर तूली हुई है कि वो अपनी कलीसियाई ज़िंदगी यहूदियत से अलग बसर करे। इस मसीही जमाअत का साबिक़ा ऐसी कट्टर यहूदियत के साथ पड़ा था जिसमें रब्बियों की तालीम जारी थी।”
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110Rev.G.W. Kilpatrik, The Origin of the Gospel of St. Matthew (Oxford University Press)
मुक़द्दस मत्ती इस इन्जील में इस हक़ीक़त पर ज़ोर देता है कि इन्जील का पैग़ाम पहले-पहल अहले-यहूद के लिए था। सय्यदना मसीह ने अपना काम अहले-यहूद तक महदूद रखा। (मत्ती 15:24) जब आपने शागिर्दों को बशारत के लिए भेजा तो उनको भी यही हुक्म दिया। (मत्ती 10:5-6)
इस इन्जील में ख़ास तौर पर बतलाया गया है कि सय्यदना मसीह शराअ को मन्सूख़ करने नहीं बल्कि पूरा करने के लिए आए हैं। (मत्ती 5:17) ये अम्र क़ाबिल-ए-ज़िक्र है कि (मत्ती 5:21-48) में शराअ की इस तावील का ज़िक्र है जो आँख़ुदावंद के हम-अस्र फ़क़ीहा किया करते थे और सय्यदना मसीह के हमले मूसवी शराअ पर नहीं किए गए बल्कि फुक़हा (फ़क़ीहा की जमा, शराअ का आलिम) की तावील पर हैं “जो भारी बोझ थी (मत्ती 23:4, 23) ग़र्ज़ इन्जील के वाक़ियात यहूदी क़ौम और यहूदी शरीअत के महवर के गिर्द घूमते हैं। पुराना अहद तजदीद पाकर नया अहद बन जाता है। शरीअत की ममनूआत इन्जील के उसूल के मातहत क़ायम और बरक़रार रहती हैं और मसीह-ए-मौऊद के वसीले तमाम कौमें बरकत पाती हैं। क्योंकि मसीह मौऊद “इब्ने इब्राहिम” है। (मत्ती 1:1) पुराने अहदनामे की नबुव्वत तालीम में और कहानत सलीब के कफ़्फ़ारे में पूरी हो जाती है।111
फ़स्ल सोम
मुक़द्दस मत्ती की इन्जील की क़दामत और पाया एतबार
गुज़श्ता दो फसलों में हमने इन्जील-ए-अव़्वल के माख़ज़ और ख़ुसूसियात पर बह्स की है जिनसे ये पता चलता है कि गेया इन्जील कलीसिया के इब्तिदाई अय्याम में नहीं लिखी गई थी जिस तरह मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील लिखी गई थी। ताहम इस का ताल्लुक़ कलीसिया की ज़िंदगी के पहले बीस तीस साल के साथ है। इस इन्जील के माख़ज़ साबित करते हैं कि ये इन्जील उस ज़माने में लिखी गई थी जब कलीसिया अर्ज़-ए-मुक़द्दस के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में सय्यदना मसीह की तालीम के लिए रिसाला कलमात और सलीबी
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111Helps to the Study of the Bible (2nd ed.1931) pp.141-42
वाक़िये के लिए इन्जील दोम, और सय्यदना मसीह की मसीहाई साबित करने के लिए रिसाला-ए-इस्बात इस्तिमाल करती थी और इन रिसालों के इलावा मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं के हाथों में छोटे-छोटे रिसाले, पारे और दो वर्क़ा या चार वर्क़ा रिसाले या दस्ती वर्क़ थे। जो इन लोगों ने जा-ब-जा लिखे थे “जो ख़ुद देखने वाले और कलाम के ख़ादिम थे।” ये इन्जील उस ज़माने में लिखी गई जब अभी वो लोग ज़िंदा थे जो चश्मदीद गवाह थे और फ़ख़्रिया कहते थे “हमने इस ज़िंदगी के कलाम को सुना और अपनी आँखों से देखा बल्कि ग़ौर से देखा और अपने हाथों से छुवा।” क्योंकि ये इन्जील उस ज़माने में तालीफ़ की गई जब आँख़ुदावंद के सामईन (सुनने वालों) की नस्ल अभी ज़िंदा थी। (मत्ती 16:28) और वो “पुश्त तमाम ना हुई” थी। (मत्ती 24:34) जिसने सय्यदना मसीह के कलमात को सुना और मोअजज़ात को देखा था।
ये कलीसिया के पहले तीस सालों का नक़्शा था। पस मुक़द्दस मत्ती ने अपनी इन्जील को तस्नीफ़ किया ताकि कलीसिया को छोटे-छोटे और दो वर्क़ा या चार वर्क़ा रिसाले जो मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में मुरव्वज थे, इस्तिमाल करने ना पढ़ें। पस आपने एक जामे इन्जील तालीफ़ करने का तहय्या किया जिसमें आपने अपने रिसाला कलमात और दीगर औराक़ को नक़्ल किया और इन्जील दोम को भी नक़्ल करके कलीसिया के हाथों में एक ऐसी इन्जील दे दी जिसमें आपने सय्यदना मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात, तुफुलिय्यत (बचपन) से लेकर आपके साऊद-ए-आस्मानी तक इन्जील दोम के ढांचे के मुताबिक़ तर्तीब से जमा किए और आँख़ुदावंद की तालीम को भी अपनी ख़ास तर्तीब के मुताबिक़ जैसा हम बतला चुके हैं मुरत्तिब किया। जब ये इन्जील लिखी गई और मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं में नक़्ल हो कर मुरव्वज हो गई तो कलीसिया को इन छोटे-छोटे रिसालों और पारों और औराक़ की ज़रूरत ना रही जो इस इन्जील में नक़्ल किए गए थे। तारीख़ कलीसिया इस बात की गवाह है कि जूंही ये इन्जील लिखी गई वो मक़्बूल आम हो गई।
मुक़द्दस मत्ती के तमाम माख़ज़ जो उसने अपनी इन्जील में नक़्ल किए क़दीम तरीन माख़ज़ थे। रिसाला-ए-कलमात हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के हीने-हयात (जीते जी) में ही लिख दिया गया था। रिसाला इस्बात कलीसिया के अव्वलीन मुअल्लिमों की फ़ाज़िल जमाअत ने लिखा था। मुक़द्दस मर्क़ुस ने रसूलों की “मुनादी” के मुताबिक़ अपनी इन्जील को क़दीम तरीन माख़ज़ों से तालीफ़ किया था और वो हर जगाह मुस्तनद तस्लीम की जाती थी। जो माख़ज़ मुक़द्दस मत्ती ने ख़ुद जमा किए वो भी सब के सब क़दीम तरीन
ज़माने के थे। पस ये तमाम के तमाम माख़ज़ पाया एतबार के लिहाज़ से अव़्वल दर्जे की मोअतबर तहरीरें थीं। मसीही और ग़ैर-मसीही उलमा गुज़श्ता पौने दो सौ साल से इन उमूर पर बह्स कर रहे हैं कि और अब ये नताइज ऐसे ही यक़ीनी और बुनियादी शुमार होते हैं जैसे किसी दूसरी साईंस मसलन इल्म-ए-कीमिया वग़ैरह के नताइज यक़ीनी और बुनियादी शुमार किए जाते हैं।112
(2)
गुज़श्ता फ़स्ल में हम बतला चुके हैं कि मुक़द्दस मत्ती की इन्जील इब्तिदा से लेकर आख़िर तक यहूदी रंग में रंगी हुई है। इस के तसव्वुरात यहूदी, इस की फ़िज़ा यहूदी, इस का दायरा नज़र यहूदी, इस के हिस्सों की तक़्सीम यहूदी और इस का तर्ज़ तहरीर यहूदी ग़र्ज़ ये कि इस का तमाम रंग-ढंग यहूदियत के मुताल्लिक़ है जिससे ज़ाहिर है कि ये किताब अहले-यहूद की ख़ातिर मुक़द्दस मत्ती ने लिखी थी ताकि यहूद सय्यदना मसीह के हल्क़ा-ब-गोश हो जाएं और यहूदी नव मुरीदों का ईमान मुस्तहकम और मज़बूत हो जाए।
इस मक़्सद से भी हम को मालूम हो जाता है कि ये इन्जील उस वक़्त लिखी गई थी। जब “ख़ुदा का कलाम फैलता गया और यरूशलेम में शागिर्दों का शुमार बहुत ही बढ़ गया था” और इन ईमान लाने वाले मर्द और औरत सय्यदना मसीह की जमाअत में कस्रत से शामिल” हो चुके थे और “काहिनों की बड़ी गिरोह इस दीन की तहत में हो गई थी।” ख़ास यरूशलेम में “यहूदियों में हज़ारहा आदमी ईमान” ला चुके थे। अर्ज़-ए-मुक़द्दस के दीगर मुक़ामात की कलीसियाओं में हज़ारहा यहूदी शामिल थे और अर्ज़-ए-मुक़द्दस के बाहर भी कलीसियाओं की एक बड़ी अक्सरियत यहूदियों पर ही मुश्तमिल थी। आमाल की किताब और पौलुस रसूल के ख़ुतूत से पता चलता है कि ये यहूदी नव मुरीद निहायत जोशीले, बारसूख, और मुक़तदिर (इक़्तिदार रखने वाले, मुअज़्ज़िज़) लोग थे। (आमाल 15:1, 5, 24, 1 कुरिन्थियों 7:18, ग़लतियों 2:11, 14, 5:2 वग़ैरह) ये नव मुरीद ऐसे ज़बरदस्त थे कि रसूलों को भी इन के आगे बाज़ औक़ात झुकना पड़ता था। (आमाल 21:17-26, ग़लतियों 2:12 वग़ैरह) ये यहूदी नव मुरीद मूसवी शरीअत के सख़्त पाबंद थे। “वो सब शरीअत के बारे में सरगर्म” थे और इस बात की बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि कोई मूसा से फिर जाने
की तालीम दे और खतना ना कराए और मूसवी रस्मों पर ना चले। (आमाल 21:20-21) बअल्फ़ाज़ इन्जील मत्ती इनका ये अक़ीदा था कि “जब तक आस्मान और ज़मीन ना टल जाएं एक नुक़्ता या एक शोशा तौरेत से हरगिज़ ना टलेगा।” (मत्ती 5:18) वो कहते थे कि उनकी “रास्तबाज़ी फ़क़ीहों और फ़रीसियों से कम नहीं बल्कि ज़्यादा होनी चाहिए।” (मत्ती 5:20) क्योंकि उनकी रास्तबाज़ी की बुनियाद अहद-ए-अतीक़ के हक़ीक़ी मफ़्हूम को बेहतर तौर पर समझने और जानने की वजह से ज़्यादा उस्तिवार होगी। (मत्ती 5:21-48)
ये इन्जील उन यहूदी नव मुरीदों के ख़यालात, तसव्वुरात और जज़्बात का आईना है। इस से हमको इस फ़ाज़िल और ज़बरदस्त गिरोह के हक़ीक़ी मक़ासिद और मुतालिब का पता चलता है। इस इन्जील का मुसन्निफ़ इन्ही ख़यालात और तसव्वुरात के रंग में डूबा नज़र आता है। इस के अक़ाइद वही हैं जो इस फ़ाज़िल जमाअत के थे। इस के ख़याल में शरीअत के तमाम अहकाम व दवामी हैं। चुनान्चे जब ये इन्जील नवीस (मर्क़ुस 7:14-23) को नक़्ल करता है तो इन आयात के अल्फ़ाज़ नरम करके ये साबित करना चाहता है कि इस मुक़ाम का ताल्लुक़ ख़ुराक के हराम हलाल होने के सवाल से नहीं है बल्कि इस का ये ख़याल है कि ये क़वानीन बदस्तूर क़ायम रहेंगे। (मत्ती 15:1-38) अला हाज़ा-उल-क़यास तलाक़ के मुताल्लिक़ जब हम मर्क़ुस (10:1-12) का मुक़ाबला (मत्ती 19:1-9) से करते हैं तो मालूम हो जाता है कि ये इन्जील नवीस किताब (इस्तिस्ना 24:1-2) की इजाज़त का जवाज़ पेश करता है। इस्तिस्ना का दो गवाहों की मौजूदगी का हुक्म भी इस इन्जील में दर्ज है। (मत्ती 18:16 देखो, 2 कुरिन्थियों 13:1) सबत का हुक्म भी मौजूद है (मत्ती 24:20) वग़ैरह। इस इन्जील नवीस के दायरा नज़र की वुसअत भी इतनी ही है जो उन यहूदी नव मुरीदों के गिरोह की थी। मसीह मौऊद के मुनाद इस से पहले कि वो इस्राईल के शहरों में फिरें मसीह मौऊद की आमद को देख लेंगे। (मत्ती 10:23) उस की आमद के साथ ही “ज़माने का आख़िर” होगा (मत्ती 24:3) इस से पहले कि मौजूदा नस्ल का ख़ातिमा हो। (मत्ती 24:34) सरदार काहिन और उस के साथी इब्ने-आदम को आस्मान के बादलों पर आते देखेंगे। (मत्ती 26:64) ये इन्जील नवीस इसी उम्मीद में ज़िंदा था कि वो मसीह मौऊद को अपनी बादशाही क़ायम करते देखेगा।
बाअज़ लोग ये गुमान करते हैं कि यहूदियत और मसीही कलीसिया में रोज़े अव्वल ही से अदावत और दुश्मनी मौजूद थी और कि यहूदी मसीही यहूदियत के हर एक तसव्वुर को ख़ैरबाद कह कर ही मसीहिय्यत के हल्क़ा-ब-गोश होते थे। लेकिन ये बात हक़ीक़त से
दूर है। आमाल की किताब के पहले बारह (12) अबवाब का मुतालआ ज़ाहिर कर देता है कि पहले-पहल कट्टर यहूदियों और मसीह मौऊद के मानने वालों में कोई ऐसी मुग़ाइरत (अजनबीयत, ना मुवाफ़िक़त) ना थी। मसीही यहूदी हैकल में इबादत करते थे। (आमाल 2:46, 3:1, 5:12 वग़ैरह) अगरचे उन की अलग इबादत भी होती थी। (आमाल 1:13, 2:46, 4:23 वग़ैरह लेकिन ये जुदागाना इबादत हैकल की इबादत की जगह नहीं लेती थी।
मर्क़ुस की माँ मर्यम का घर इन मसीहियों का मर्कज़ था। (आमाल 12:12) लेकिन ये घर यरूशलेम की हैकल का हरीफ़ (दुश्मन) ना था। कलीसिया के कोई गिरजाघर नहीं थे। यहूदी सिर्फ इस “तरीक़” को बिद्अती ख़याल करते थे। (आमाल 24:5) लेकिन मसीहिय्यत कोई जुदागाना जमाअत ना थी। यहूदियों के मुख़्तलिफ़ हलक़ों के लोग इस के हल्क़ा-ब-गोश थे। (आमाल 2:47, 5:13, 21:20) फ़रीसी और काहिन भी इस फ़िर्क़े में शामिल हो चुके थे। (आमाल 15:5, 6:7) इनका इम्तियाज़ी अक़ीदा ये था कि मसीह मौऊद का ज़हूर हो चुका है और वो येसू नासरी है। (मर्क़ुस 8:29) जिसकी मसीहाई पर ख़ुदा ने उस को मुर्दों में से ज़िंदा करके मुहर लगादी। (आमाल 2:36, 3:19 वग़ैरह) वो दुनिया का इन्साफ़ करने के लिए (आमाल 3:21, 10:42, 17:31) फिर दुबारा आएगा। तब दुनिया का मौजूदा दौर ख़त्म हो जाएगा और मसीहाई दौर का आग़ाज़ होगा।
ये तसव्वुरात कलीसिया में तब तक ही ग़ालिब रहे जब तक इस में ग़ैर-यहूद की अक़ल्लीयत और यहूद की अक्सरीयत रही लेकिन ये हालात चंद साल तक ही रहे। मुख़्तलिफ़ वजूह (वजह की जमा) के बाइस और ग़ैर-यहूद मसीहियों की रोज़-अफ़्ज़ूँ तादाद की वजह से 50 ई॰ के बाद हालात रोज़ बरोज़ दिगरगों होते गए। हज़ारहा ग़ैर-यहूद मुनज्जी आलमीन (मसीह) के हल्क़ा-ब-गोश हो गए। जिसका क़ुदरती नतीजा ये हुआ कि अर्ज़-ए-मुक़द्दस के अंदर और बाहर लाखों ग़ैर-यहूद नव मुरीद कलीसिया में शामिल हो गए। यरूशलेम की तबाही के बाद तो कलीसिया की काया ही पलट गई। यहूदी क़ौम परागंदा हो कर दुनिया के चारों कोनों में तित्तर-बितर हो गई और कलीसिया में जो रसूख़ इस को 30 ई॰ और 55 ई॰ के दर्मियान हासिल था। वो रफ़्ता-रफ़्ता जाता रहा और हैकल की तबाही के बाद ख़त्म हो गया।
पस ये इन्जील यरूशलेम की तबाही के बाद किसी सूरत में भी लिखी ना गई क्योंकि इस वाक़िया के बाद इस इन्जील का नुक्ता नज़र कलीसिया के लिए किसी मुसर्रिफ़
(काम, मतलब) का ना रहा था। इन्जील की अंदरूनी शहादत से साबित है कि ये उन हालात में लिखी गई थी जो 50 ई॰ के लगभग के थे। पस ये इन्जील आँख़ुदावंद की वफ़ात के बीस (20) बरस बाद उन क़दीम तरीन माख़ज़ों से मुरत्तिब की गई जिनमें से एक सय्यदना मसीह की हीने-हयात (ज़िन्दगी) में लिखा गया और बाक़ी दौर-ए-अव्वलीन में चश्मदीद गवाहों ने लिखे थे और उमूर इस के रफ़ी (ऊंचा) पाया एतबार पर शाहिद हैं।
बाब सोम
इन्जील-ए-लूक़ा की तालीफ़
फस्ल-ए-अव़्वल
इन्जील-ए-लूक़ा के माख़ज़
मुक़द्दस लूक़ा अपनी इन्जील के दीबाचे में साफ़ लिखते हैं कि आपने माख़ज़ों का इस्तिमाल किया है। चुनान्चे वो लिखते हैं “चूँकि बहुतों ने इस बात को हाथ में लिया है कि जिन बातों पर हमारा ईमान है उन को बयान करें। जैसा कि उन्हों ने जो शुरू से ख़ुद देख़ने वाले और कलाम के ख़ादिम थे उन को हम तक पहुंचाया है इसलिए ए इज़्ज़त-मआब थ्योफिलुस मुझे भी ये भला मालूम हुआ कि चूँकि मैं इब्तिदा ही से सब बातों से ठीक-ठीक वाक़फ़ियत रखता हूँ ताकि उनको आपके लिए तर्तीबवार लिखूँ कि आपको ये इल्म हो जाए कि जिन बातों की आपने तालीम पाई है वो यक़ीनी हैं।” (लूक़ा 1:1-4)
(1) आयत 3 में यूनानी लफ़्ज़ “पैराकूलोथियु” का तर्जुमा हमने वाक़फ़ियत किया है। प्रोफ़ैसर कैडबरी कहते हैं113कि इस लफ़्ज़ के मअनी हैं “किसी के पहलू-ब-पहलू चलना” गो यहाँ लफ़्ज़ मअनी में नहीं बल्कि मजाज़ी मअनी में इस्तिमाल हुआ है लेकिन इस मुक़ाम में इस लफ़्ज़ के मअनी ये हो सकते हैं कि मुक़द्दस लूक़ा वाक़ियात की जाये वक़ूअ
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113Prof.H.J. Cadbury, The Knowledge Claimed in Luke’s Preface in Expositor December 1922, See also his commentary on Luke’s Preface part 1. Vol11 of Beginnings of Christianity
पर ख़ुद हाज़िर थे और इन वाक़ियात में हिस्सा लेने वाले थे। अगर प्रोफ़ैसर मज़्कूर के ये मअनी दुरुस्त हैं तो इस इन्जील का मुसन्निफ़ ये दावा करता है कि वो ख़ुद इन वाक़ियात का कम-अज़-कम इनमें से बाअज़ वाक़ियात का चश्मदीद गवाह है। जिस तरह वो आमाल की किताब के उन वाक़ियात का चश्मदीद गवाह है जिन के ज़िक्र में लफ़्ज़ “हम” आता है (आमाल 16:1-17, 20:6 ता 28:16) जिसका मतलब ये है कि मुक़द्दस लूक़ा पहली सदी के शुरू में पैदा हुआ और आँख़ुदावंद का हम अस्र था। प्रोफ़ैसर मौसूफ़ कहते हैं कि इस लफ़्ज़ का ये मतलब है कि मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील को इब्तिदाई ज़माने में तालीफ़ किया था और इस के बहुत से वाक़ियात का वो चश्मदीद गवाह था। पस वो इन्जील लिखने से पहले इन वाक़ियात से ना सिर्फ बख़ूबी वाक़िफ़ था बल्कि इनसे बिलातोस्त (किसी वसीला के बग़ैर) बराह-ए-रस्त वाक़िफ़ था।
मुक़द्दस पौलुस के अल्फ़ाज़ (कुलस्सियों 4:14) से पता चलता है कि मुक़द्दस लूक़ा ग़ैर-यहूद थे। क्योंकि आयत 11 में मुक़द्दस पौलुस उन लोगों के नाम इकट्ठे लिखता है जो “मख़्तूनों” में से आपके साथ थे। वो आपका प्यारा तबीब था। वो ना सिर्फ आपके सफ़रों में आपका साथी था (किताब आमाल 16:10 18, 20:5 21:17, 27:1 18:16) बल्कि उसने आख़िरी अय्याम तक आपका साथ दिया। (आमाल 28:31)
मुअर्रिख़ यूसेबस और मुक़द्दस जेरोम हमको बतलाते हैं कि मुक़द्दस लूक़ा अन्ताकिया का बाशिंदा था। ग़ालिबन यही वजह है कि (आमाल 11:28) में लफ़्ज़ “हम” भी आया है डाक्टर कैडबरी का मुन्दरिजा बाला नज़रिया दुरुस्त है तो मुक़द्दस लूक़ा आँख़ुदावंद के बाअज़ सवानिह हयात का चश्मदीद गवाह भी था। बहर-हाल उस को इन्जील के जमा करने के बेशुमार मौक़े हासिल थे।
(2) मुक़द्दस लूक़ा ने जैसा हम हिस्सा अव्वल के बाब पंजुम में ज़िक्र कर चुके हैं अपनी इन्जील में रिसाला कलमात को नक़्ल किया है। इन्जील अव्वल के मुसन्निफ़ ने इस रिसाले के अक़्वाल को मुख़्तलिफ़ उनवानात के मातहत एक जगह जमा कर दिया है। लेकिन मुक़द्दस लूक़ा ऐसा नहीं करते बल्कि वो मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के ख़ाके और ढांचे के मुताबिक़ वाक़ियात को तर्तीब देकर रिसाला-ए-कलमात के अक़्वाल को उनकी शाने नुज़ूल यानी मौक़ा और महल के मुताबिक़ मुरत्तिब करते हैं। रिसाला कलमात के जो अक़्वाल मुक़द्दस मर्क़ुस ने जमा किए हैं इन को नक़्ल करते वक़्त मुक़द्दस लूक़ा रिसाला कलमात
के अल्फ़ाज़ को क़ुदरती तौर पर तर्जीह देता है। यही वजह है कि उलमा का ख़याल है कि मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील में आँख़ुदावंद के अक़्वाल की अस्ल तर्तीब मौजूद है। चुनान्चे मर्हूम कैनन स्टरीटर का यही नज़रिया है।
3) मुक़द्दस लूक़ा ने मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील का भी इस्तिमाल किया है। आप मुक़द्दस मर्क़ुस से बख़ूबी वाक़िफ़ भी थे। (आमाल 12:25, 13:13, 15:37, कुलस्सियों 4 10, 14, फ़िलेमोन 24; 2 तीमुथियुस 4:11) इस ज़ाती वाक़फ़ियत की वजह से एक वो आपके मोअतबर गवाह होने से भी वाक़िफ़ थे। पस आपने उस की इन्जील को बतौर एक माख़ज़ इस्तिमाल किया। इन्जील सोम में कुल आयात की तादाद (1149) है। इनमें मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील की (661) आयात में से (455) आयात मौजूद हैं। मुक़द्दस लूक़ा ने ना सिर्फ मुक़द्दस मर्क़ुस की आयात को ही नक़्ल किया है बल्कि जैसा हम बतला चुके हैं, उसने इन्जील दोम के ख़ाके और ढांचे की तर्तीब को भी बरक़रार रखा है।
(4) इस इन्जील के बाअज़ मुक़ामात में निस्वानी (औरतों के मुताल्लिक़) अंदाज़ पाया जाता है और बाअज़ मुक़ामात में मज़ामीन ऐसे हैं जो सिनफ़-ए-नाज़ुक (औरत) के लिए ही दिलचस्पी का मूजिब होते हैं। इस से ये मालूम होता है कि इन मुक़ामात को मुक़द्दस लूक़ा ने उन औरतों से हासिल किया था जिनसे वो वाक़िफ़ था। मसलन फिलिप्पुस मुबश्शिर की बेटियां “जो नबुव्वत करती थीं।” (आमाल 21:9) और बाअज़ औरतें जिन्हों ने बुरी बदरूहों और बीमारियों से शिफ़ा पाई थी और बहुतेरी और औरतें जो अपने माल से ख़िदमत करती थीं। (लूक़ा 8:2 ता 3) इनमें से “युवाना हेरोदेस के दीवान खोज़े की बीवी” से मुक़द्दस लूक़ा ने (लूक़ा 23:6-12) हासिल किया क्योंकि ये वाक़िया सिर्फ वही बयान करता है। इसी ख़ातून से उसने (लूक़ा 13:31-33) हासिल किया था।
मुक़द्दस यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की पैदाइश और हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की पैदाइश के बयानात का सतही मुतालआ भी ग़बी से ग़बी शख़्स पर ज़ाहिर कर देता है कि ये बयानात किसी औरत के ही बतलाए हुए हैं। और यह या तो मुक़द्दसा मर्यम ख़ुद थीं या उन की कोई राज़दार सहेली थी। इलीशा और हन्ना (लूक़ा 1:5, 2:36) इन्जील सोम के ज़माने में इस दार-ए-फ़ानी से कूच कर गई थीं लेकिन मुक़द्दस लूक़ा बहुतेरी दीगर औरतों के नाम बतलाता है जो इब्तिदाई ज़माने में कलीसिया में मशहूर थीं, मसलन मुक़द्दस
मर्क़ुस की माँ मर्यम ताबेथा या डार्कस, बैत-अन्याह की मार्था और मर्यम, पर सकिला, लुदिया वग़ैरह जो इन निस्वानी मज़ामीन से वाक़िफ़ थीं।
(5) मज़्कूर बाला माख़ज़ों के इलावा मुक़द्दस लूक़ा ने मुख़्तलिफ़ तहरीरी पारों और रिसालों से फ़ायदा उठाया जो उन से पहले “बहुतों ने” लिखे थे। लफ़्ज़ “बहुतों” से ये साबित है कि ये पारे और रिसाले तादाद में दो या तीन नहीं थे क्योंकि दो तीन या चार रिसालों पर लफ़्ज़ “बहुतों” का इतलाक़ नहीं हो सकता। पस ये रिसाले तादाद में बहुत थे। गोया कोई मुस्तक़िल कुतुब ख़ाना नहीं था।
इस दीबाचे में लफ़्ज़ “शुरू” का मतलब इस मुसन्निफ़ की दूसरी तस्नीफ़ यानी किताब-ए-आमाल से मालूम हो जाता है यानी “यूहन्ना बपतिस्मा से लेकर सय्यदना मसीह के हमारे पास से उठाए जाने तक।” (आमाल 1:22) इस अर्से के वाक़ियात के माख़ज़ों से काम लिया गया है। मर्क़ुस की इन्जील भी इस तावील की मुसद्दिक़ है क्योंकि उस का बयान “यूहन्ना के बपतिस्मा” से शुरू होता है और रसूल इसी वास्ते मुक़र्रर हुए थे, ताकि वो इन चश्मदीद बातों के गवाह हों। (आमाल 1:8, 2:32, 3:15, 4:20, 5:22 वग़ैरह) पस इन चश्मदीद बातों में से मुक़द्दस लूक़ा ने हस्बे-ज़ैल वाक़ियात नक़्ल किए :-114
ये वाक़ियात सिर्फ़ इन्जील-ए-लूक़ा में पाए जाते हैं :-
(1) (लूक़ा 1:5-25) मुक़द्दस यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की विलादत का बयान।
(2) (लूक़ा 1:26-38) फ़रिश्ते का मुक़द्दसा मर्यम को बशारत देना।
(3) (लूक़ा 1:39-56) मुक़द्दसा मर्यम और बीबी इलीशबा की मुलाक़ात।
(4) (लूक़ा 1:57-80) मुक़द्दस यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की पैदाइश।
(5) (लूक़ा 2:1-20) सय्यदना मसीह की पैदाइश।
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114The Mission & Message of Jesus pp.259-295
(6) (लूक़ा 2:22-39) मुक़द्दसा मर्यम की तहारत और हैकल में सय्यदना मसीह को ले जाना।
(7) (लूक़ा 2:40) जनाब-ए-मसीह का क़दो-क़ामत में बढ़ना।
(8) (लूक़ा 2:41-52) जनाब-ए-मसीह की हैकल में यहूदी रब्बियों से मुलाक़ात।
(9) (लूक़ा 3:23-38) सय्यदना मसीह का नसब नामा।
(10) (लूक़ा 7:11-17) नाईन की बेवा के बेटे को ज़िंदा करना
(11) (लूक़ा 7:36-50) सय्यदना मसीह और वो औरत जिसने ज़्यादा मुहब्बत की।
(12) (लूक़ा 8:1-3) उन औरतों के नाम जो सय्यदना मसीह की ख़िदमत करती थीं।
(13) (लूक़ा 9:51-56) बेफ़ैज़ सामरी।
(14) (लूक़ा 9:60 (ब) 62 शागिर्दी की शर्त।
(15) (लूक़ा 10:1-20) सत्तर (70) शागिर्दों का तब्लीग़ी सफ़र।
(16) (लूक़ा 10:38-42) मार्था और मर्यम।
(17) (लूक़ा 13:1-5) पिलातूस का गलीलियों को क़त्ल करवाना।
(18) (13:10-17) कुबड़ी औरत का शिफ़ा पाना।
(19) (13:31-33) सय्यदना मसीह और हेरोदेस एंतिपास।
(20) (लूक़ा 14:1-6) जलन्दर के मरीज़ का शिफ़ा पाना।
(21) (लूक़ा 17:11-19) सामरी कौड़ी का बयान।
(22) (लूक़ा 19:1-10) ज़काई का बयान।
(23) (लूक़ा 19:11) फ़ौरी आमद-ए-सानी के ख़िलाफ़ आगाही।
(24) (19:41-44) सय्यदना मसीह का यरूशलेम पर रोना।
(25) (लूक़ा 22:31-38) पतरस और शैतान और दो तलवारों का बयान।
(26) (लूक़ा 22:43-44) सय्यदना मसीह का ख़ून की मानिंद पसीना।
(27) (लूक़ा 22:49-51) सय्यदना मसीह का दुश्मन के कान को शिफ़ा बख़्शना।
(28) (लूक़ा 23:4-16) सय्यदना मसीह का हेरोदेस के सामने लाया जाना।
(29) (लूक़ा 23:27-31) यरूशलेम की बेटियां।
(30) (लूक़ा 23:34-46) सलीब पर तीन कलमात-ए-तय्यिबात।
(31) (लूक़ा 23:45) सूरज गरहन।
(32) (लूक़ा 23:48) सलीब के चश्मदीद गवाहों का छाती पीटना।
(33) (लूक़ा 23:56) औरतों का मुबारक जुमे के रोज़ ख़ुशबूदार चीज़ें तैयार करना।
(34) (लूक़ा 24:12) मुक़द्दस पतरस का क़ब्र पर जाना।
(35) (लूक़ा 24:13-35) सय्यदना मसीह का इमाओस की राह पर दिखाई देना।
(36) (लूक़ा 24:36-49) यरूशलेम में सय्यदना मसीह का शागिर्दों को दिखाई देना।
(37) (लूक़ा 24:50-53) सय्यदना मसीह का आस्मान को सऊद फ़रमाना।
(6) मज़्कूर-बाला वाक़ियात के इलावा मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील में हज़रत कलिमतुल्लाह की मुफ़स्सला-ज़ैल तालीम दर्ज है जो दीगर अनाजील में मौजूद नहीं।
मुसन्निफ़ ने ये कलमात भी उन तहरीरी पारों से अख़ज़ किए जो मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं में मुरव्वज थे।115
(1) (लूक़ा 3:10-14) मुक़द्दस यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की तालीम।
(2) (लूक़ा 5:39) पुरानी मेय और नई मेय।
(3) (लूक़ा 9:51-56) सामरियों की बेमुरव्वती।
(4) (लूक़ा 10:1, 4-7) रसूलों को तब्लीग़ी हिदायात।
(5) (लूक़ा 10:17-20) रसूलों की तब्लीग़ी दौरे से वापसी।
(6) (10:25-28) ज़िंदगी का रास्ता।
(7) (लूक़ा 10:29-37) नेक सामरी की तम्सील।
(8) (लूक़ा 10:38-46) मार्था और मर्यम।
(9) (लूक़ा 11:1-4) सय्यदना मसीह की दुआ।
(10) (लूक़ा 11:5-8) इसरार करने वाले दोस्त की तम्सील।
(11) (लूक़ा 11:33-41, 53, 12:1) बैरूनी और अंदरूनी पाकीज़गी।
(12) (लूक़ा 12:13-21) लालच का ख़तरा।
(13) (लूक़ा 13:1-9) इन्जील की तामील की ज़रूरत।
(14) (लूक़ा 13:11-16) सबत का मानना।
(15) (लूक़ा 13:31-33) हेरोदेस की मुख़ासमत (दुश्मनी)
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115Ibid pp.545-638
(16) (लूक़ा 14:5) सबत का मानना।
(17) (लूक़ा 14:7-11) ज़ियाफ़त की ख़ुश अतवारी।
(18) (लूक़ा 14:12-14) मेहमान-नवाज़ी का क़ानून।
(19) (लूक़ा 14:28-33) शागिर्दी की शर्तें।
(20) (लूक़ा 15:1-10) खोई हुई भीड़, और गुम-शूदा सिक्का।
(21) (लूक़ा 15:11-32) दो बेटों की तम्सील।
(22) (लूक़ा 16:1-9) होशियार मुख़्तार की तम्सील।
(23) (लूक़ा 16:10-12) दौलत के मुताल्लिक़।
(24) (लूक़ा 16:14-15) ख़ुद-बीनी और तकब्बुर के ख़िलाफ़।
(25) (लूक़ा 16:19-31) दौलतमंद और लाज़र की तम्सील।
(26) (17:7-10) ख़ुदा की ख़िदमत।
(27) (लूक़ा 17:20-21) बादशाही की आमद।
(28) (लूक़ा 18:1-8) इसरार करने वाली बेवा की तम्सील।
(29) (लूक़ा 18:9-14) महसूल लेने वाले और फ़रीसी की तम्सील।
(30) (लूक़ा 19:11-27) अशर्फ़ियों की तम्सील।
(31) (लूक़ा 19:37-40) फ़रीसियों का हुजूम के जोश को बुरा मानना।
(32) (लूक़ा 19:41-44) यरूशलेम पर रोना।
(33) (लूक़ा 20:18) एक क़ौल
(34) (लूक़ा 21:5-36) की बाअज़ आयात मसलन 5:11 (अलिफ़) 16,17,21 (अलिफ़ 23 (अलिफ़) 26 (ब) 27-29-33 मर्क़ुस की इन्जील से ली गई हैं।
बाक़ी मुक़द्दस लूक़ा के ख़ुसूसी माख़ज़ से ली गई हैं।
(35) (लूक़ा 22:24-30) ख़ुदा की बादशाही में मुरातिब।
(36) (लूक़ा 22:31-33) मुक़द्दस पतरस को नसीहत।
(37) (लूक़ा 22:35-38) तब और अब के वक़्त।
(38) (लूक़ा 23:27-31) यरूशलेम का हश्र।
जब हम मुक़द्दस लूक़ा की तर्तीब पर ग़ाइर (गहरी) नज़र डालते हैं तो हम पर वाज़ेह हो जाता है कि मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील का ढांचा इन्जील मर्क़ुस की तर्तीब के वाक़ियात के मुताबिक़ ढाला है। अगरचे उस का तरीक़ा तालीफ़ मुक़द्दस मत्ती के तरीक़े से जुदा है। उस ने सय्यदना मसीह की आज़माईशों के बयान और इशाए रब्बानी के मुक़र्रर होने के बयान के दर्मियानी अर्से में दीगर माख़ज़ों से तीन बड़े हिस्से इकट्ठे करके तीन मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में जमा कर दिए हैं। यानी (लूक़ा 6:20 ता 8:30, 9:51 ता 18:14, 19:1-27) आयात बाक़ी हर जगह उस ने मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के अल्फ़ाज़ को नक़्ल किया है।
(2)
ऐसे वाक़ियात और कलमात जो सिर्फ इन्जील सोम में पाए जाते हैं। पाँच सौ (500) आयात पर मुश्तमिल हैं।116जब हम इन पर ग़ौर करते हैं तो हम पर वाज़ेह हो जाता है कि इन वाक़ियात और कलमात का ज़ावीया निगाह उन वाक़ियात और कलमात के ज़ावीया निगाह से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ है जो सिर्फ इन्जील अव़्वल में पाए जाते हैं। दोनों इन्जील नवीसों ने अपने अपने मक़्सद के तहत आँख़ुदावंद के सवानेह-हयात और कलमात-ए-तय्यिबात के ख़ज़ाने से वो बातें जमा की हैं जो मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं में मुरव्वज थीं।
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116W. Sanday, The Bearing of Criticism on Gospel History Exp.Times, December 1908
ताकि मुतफ़र्रिक़ औराक़ और पारों की बजाए वो बातें एक जगह जमा हो जाएं। मुक़द्दस लूक़ा ने ये माख़ज़ केसरिया से हासिल किए जहां वो 60 ई॰ के क़ुर्ब मुरव्वज थे। ये माख़ज़ अरामी ज़बान में थे, जिनका यूनानी में तर्जुमा किया गया।117जब हम दोनों इन्जील नवीसों के जमा कर्दा मसाले की तरफ़ नज़र करते हैं तो हम पर ज़ाहिर हो जाता है कि दोनों का नुक़्ता निगाह एक दूसरे से अलग है। मुक़द्दस मत्ती यहूदी मसीही नव मुरीदों के लिए वो अक़्वाल व वाक़ियात जमा करता है जिससे उन पर वाज़ेह हो जाए कि येसू नासरी मसीह मौऊद हैं जो इब्ने-दाऊद और इब्ने अबराहाम हैं। लेकिन मुक़द्दस लूक़ा ग़ैर-यहूदी मसीही नव मुरीदों के लिए आँख़ुदावंद के वो अक़्वाल और वाक़ियात जमा करता है जिससे ये वाज़ेह हो जाए कि आँख़ुदावंद यहूद और ग़ैर-यहूद दोनों क़िस्म की अक़्वाम के लिए दुनिया में आए हैं और उन की रिसालत हमागीर है। चुनान्चे मुक़द्दस मत्ती का नसब नामा “येसू मसीह इब्ने-दाऊद इब्ने-अबराहाम” का है। (मत्ती 1:1) लेकिन मुक़द्दस लूक़ा के नसब नामे के मुताबिक़ “येसू आदम का बेटा और वो ख़ुदा का बेटा है।” (लूक़ा 3:38) सय्यदना मसीह ना सिर्फ क़ौम इस्राईल का जलाल है बल्कि वो “ग़ैर-यहूद को रोशनी देने वाला नूर” भी है। (लूक़ा 2:32) मुन्दरिजा बाला माख़ज़ मुक़द्दस लूक़ा की उन थक दौड़ धूप और तलाश व तजस्सुस के ज़िंदा गवाह हैं।
(3)
मुक़द्दस लूक़ा के दो माख़ज़ जिनसे आपने हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के अक़वाल-ए-ज़रीन इकट्ठे किए एक और पहलू से भी जुदागाना ख़ुसूसियत रखते हैं। रिसाला-ए-कलमात में सिर्फ़ मुतफ़र्रिक़ कलमात-ए-तय्यिबात जमा किए गए थे और इस में वाक़ियात को बहुत कम दख़ल था लेकिन मुक़द्दस लूक़ा के मुन्दरिजा बाला माख़ज़ हैं वाक़ियात भी हैं। तम्सीलें भी हैं लेकिन मुतफ़र्रिक़ कलमात को बहुत कम दख़ल है। ऐसा मालूम होता है कि “बहुतों ने इस पर कमर बाँधी थी कि जो बातें हमारे दर्मियान वाक़ेअ हुईं” उनको तहरीर में ले आएं और यूं मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं के मुअल्लिमों के हाथों में मुख़्तलिफ़ छोटे-बड़े रिसाले और पारे थे जिनको मुक़द्दस लूक़ा ने “शुरू से ठीक-ठीक दर्याफ़्त करके तर्तीब” से सय्यदना मसीह के सवानेह-हयात, वाक़ियात और कलमात को लिखा।
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117B.H. Streeter Source of the Gospels, in “An Outline of Christianity, ed by Peake and Parsons.Vol1p309
इन्जील नवीस के इन माख़ज़ों में तीन चौथाई ऐसी बातों की है जो आँख़ुदावंद ने अवाम से कीं और कहीं।118
इस इन्जील नवीस के माख़ज़ों की एक और ख़ुसूसियत ये है कि इनमें मुनाज़रों का रंग दीगर अनाजील के माख़ज़ों से जुदागाना है। दीगर अनाजील के माख़ज़ों में मलामत के अल्फ़ाज़ में दुरुश्ती (सख़्ती, बेरहमी) पाई जाती है।119लेकिन इन्जील-ए-सोम के माख़ज़ों में मुलायम से तम्सीलों के ज़रीये वही काम लिया गया है। मसलन खोई हुई भेड़ की तम्सील, खोए हुए दिरहम की तम्सील या मुस्रिफ़ बेटे की तम्सील वग़ैरह। इन्जील दोम में फ़रीसियों को उन की सौ फ़स्तई (हुकमा का एक गिरोह जिनके उसूलों की बुनियाद वहम पर है और हक़ाइक़ से मुन्किर हैं) और बातिल ख़यालात व तावीलात की वजह से मलामत की गई है। इन्जील-ए-अव़्वल के माख़ज़ों में उन की रियाकारी के बाइस मलामत का निशाना बनाया गया है। लेकिन इन्जील सोम के माख़ज़ों में उन को उन के तकब्बुर और ख़ुदबीनी के लिए और इस रवैय्या के बाइस मलामत की गई है जो उन्हों ने अवामुन्नास की तरफ़ इख़्तियार कर रखा था। (लूक़ा 18:9-14, 15:28-32 वग़ैरह)
(4)
जब हम पहली तीनों इंजीलों के उन वाक़ियात का मुक़ाबला करते हैं जिन का ताल्लुक़ आँख़ुदावंद की सलीबी मौत के साथ है तो हम पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि सलीबी वाक़ियात के मुख़्तलिफ़ बयानात पारों की शक्ल में मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं में मुरव्वज थे। चुनान्चे मुक़द्दस लूक़ा का सलीबी वाक़िये का बयान मर्क़ुस की इन्जील से अलग है। अगरचे इस ने कहीं-कहीं इस इन्जील से भी इस्तिफ़ादा हासिल किया है। लेकिन बिल-उमूम मर्क़ुस के सलीबी बयान का बहुत सा हिस्सा छोड़कर मुक़द्दस लूक़ा ने इस की जगह अपना ख़ास माख़ज़ इस्तिमाल किया है। अगर हम इन्जील दोम के मुक़ामात को मुक़द्दस लूक़ा के बयान से अलग कर दें तो मुक़द्दस लूक़ा के बयान का बाक़ीमांदा हिस्सा एक मुसलसल और मरबूत (रब्त किया गया, वाबस्ता) शक्ल इख़्तियार कर लेता है।120
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118T.W. Manson, The Teaching of Jesus p.41
119Ibid.p.42
120Vincent Taylor, The Formation of the Gospels Tradtion pp.50-55 See also Prof.A.M. Perry’s “ The Sources of Luke’s Passion Narrative.s
जिससे साबित है कि ये बयान अलग तहरीरी सूरत में मुक़द्दस लूक़ा के सामने मौजूद था जब उस ने इन्जील सोम लिखी और यह उस का तहरीरी सूरत में जुदा मुस्तक़िल माख़ज़ था।
(5)
मर्हूम डाक्टर स्ट्रेटर का ये नज़रिया है कि मुक़द्दस लूक़ा ने पहले-पहल एक ऐसी इन्जील लिखी थी जिसमें सिवाए मर्क़ुस की इन्जील के बाक़ी तमाम माख़ज़ों से काम लिया गया था लेकिन बाद वो जब इन्जील मर्क़ुस उस के हाथ आई तो उसने उस को भी माख़ज़ बना कर इस इन्जील के हिस़्सों को जा-ब-जा दाख़िल करके अपनी इन्जील की दूसरी ऐडीशन लिखी जो अब हमारे हाथों में है।
लेकिन ये नज़रिया दुरुस्त नहीं है। क्योंकि इस नज़रिये से ये लाज़िम आता है कि अगर इस इन्जील में वो तमाम मुक़ामात ख़ारिज कर दिए जाएं जो इन्जील मर्क़ुस में मौजूद हैं तो बाकी मांदा मुक़ामात एक मुसलसल बयान की सूरत इख़्तियार कर लेंगे। लेकिन हक़ीक़त ये है कि इन बाक़ी मांदा मुक़ामात और हिसस में कोई तसलसुल पाया नहीं जाता बल्कि वो परागंदा और परेशान औराक़ बन जाते हैं जिनका ज़्यादातर हिस्सा (लूक़ा 9:52-18 बाब) बेजोड़ बयानात ख़ुत्बात और कलमात का मजमूआ हो जाता है। इस के बरअक्स इन्जील-ए-दोम के हिसस ही इन बाक़ी मांदा मुक़ामात को तर्तीब देकर माअनी-ख़ेज़ बना देते हैं। यही हिस्से गोया “शान-ए-नुज़ूल” का काम देकर उन मुक़ामात को समझने में मदद देते हैं।
इलावा अज़ीं यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के हालात में और सलीबी वाक़ियात के बयान में मर्क़ुस की इन्जील का इस्तिमाल वाज़ेह तौर पर ज़ाहिर है। सलीबी वाक़ियात के बयान में ना सिर्फ इस इन्जील के मुक़ामात मौजूद हैं (22:7-13, 54-61) बल्कि इस इन्जील के अल्फ़ाज़ भी उन मुक़ामात में मौजूद हैं जो मर्क़ुस से अख़ज़ किए गए हैं। (लूक़ा 22:19, 22, 47, 52, 71, 33:3) मर्क़ुस के ये अल्फ़ाज़ सिर्फ इसी हालत में समझ में आ सकते हैं अगर हम ये तस्लीम करलें कि मर्क़ुस के ढांचे की तर्तीब को बहाल रखकर मुक़द्दस लूक़ा ने इस के मतन को एक और तर्तीब दी है और इस में इज़ाफ़ा किया है। लेकिन डाक्टर स्ट्रेटर के नज़रिये के मुताबिक़ ये तर्तीब ग़ैर फ़ित्रती हो जाती है। मर्क़ुस की इन्जील मुक़द्दस लूक़ा के बयान कर्दा वाक़ियात की अस्ल बुनियाद है और जो बातें इज़ाफ़ा की गई
हैं वो सिर्फ़ सानवी हैसियत रखती हैं। जिससे साबित है कि इन्जील-ए-दोम इब्तिदा ही से मुक़द्दस लूक़ा के बयानात को तअय्युन करने वाला माख़ज़ है।121
डाक्टर स्ट्रेटर के नज़रिये के मुताबिक़ जब मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील की पहली ऐडीशन लिखी थी तब इन्जील-ए-दोम भी अहाता-ए-तहरीर में नहीं आई थी लेकिन हम हिस्सा दोम के बाब अव्वल की फ़स्ल सोम में साबित कर आए हैं कि इन्जील मर्क़ुस क़दीम तरीन ज़माने की तस्नीफ़ है। हक़ तो ये है कि जब मुक़द्दस लूक़ा को इन्जील लिखने का ख़याल आया तब इन्जील दोम अर्ज़-ए-मुक़द्दस के दूर-दराज़ मुक़ामात की कलीसियाओं के हाथों में मौजूद थी और उन रिसालों में से एक थी जिनका ज़िक्र इन्जील-ए-सोम के दीबाचे में आया है। जब मुक़द्दस लूक़ा अपनी इन्जील तस्नीफ़ करने लगे तो आपने इस इन्जील को मोअतबर तरीन माख़ज़ समझ कर अपनी इन्जील को इस के ढांचे और ख़ाके की बिना (बुनियाद) पर क़ायम करके दीगर माख़ज़ों को इस के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में दाख़िल करके एक नई और ताज़ा तस्नीफ़ बनाई। पस डाक्टर मौसूफ़ के नज़रिये की बिना (बुनियाद) ही ग़लत है।
फ़स्ल दोम
मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील की ख़ुसूसियात
हम गुज़श्ता फ़स्ल में बयान कर चुके हैं कि मुक़द्दस लूक़ा ग़ैर-यहूद में से मुशर्रफ़-ब-मसीहिय्यत हुए थे। लिहाज़ा क़ुदरती तौर पर आपने आँख़ुदावंद के सवानेह-हयात और कलमात-ए-तय्यिबात के ख़ज़ाने में से उन वाक़ियात और कलमात का इंतिख़ाब किया जिनसे ये साबित होता था कि सय्यदना मसीह ना सिर्फ अहले-यहूद के मसीह-ए-मौऊद हैं बल्कि अक़्वाम-ए-आलम के नजात देने वाले हैं।122इन्जील का पैग़ाम अफ़राद-ए-आलम से ताल्लुक़ रखता है सय्यदना मसीह के मुबारक अहकाम सब पर हावी हैं। आपकी इन्जील
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121Prof.J.M. Creed, The Gospe according to St. Luke p.LVIII not
122G.C. Monetfiore, The Synoptics Gospels Vol.1 pLXXXVI.
हमागीर और आप की नजात आलमगीर है जो बिला-इम्तियाज़ रंग, मुल्क, क़ौम और नस्ल के कुल बनी नूअ इन्सान के लिए बरकत का मूजिब है। यही वजह है कि मुक़द्दस लूक़ा रिसाला-ए-कलमात में से सिर्फ उन्ही कलमात को मुंतख़ब करता है जो इस मौज़ू के मुताबिक़ हैं और इन्जील अव्वल के पहाड़ी वाअज़ के वो कलमात जिनका ताल्लुक़ ख़ास क़ौम इस्राईल और यहूदियत से है अपनी इन्जील में नक़्ल नहीं करता। (लूक़ा 6:17-49) मुक़द्दस मत्ती की इन्जील में मूसवी शरीअत की नई तावील “तुम सुन चुके हो कि अगलों से कहा गया... लेकिन मैं तुमसे कहता हूँ”, मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील में नहीं पाई जाती। अला-हाज़ा-उल-क़यास, दुआ, रोज़ा, ख़ैरात के मुताल्लिक़ वो अहकाम नहीं मिलते, जो फ़रीसियों के क़ायदे के मुताबिक़ नहीं थे। (मर्क़ुस 1:23, मत्ती 15:1-11, 15-20) वग़ैरह के से मुक़ामात इस इन्जील में नहीं पाए जाते क्योंकि वो ग़ैर-यहूदी नव मुरीदों के लिए कुछ मअनी नहीं रखते थे। इसी तरह (मर्क़ुस 7:24, मत्ती 15:21-22, 26-28) और इसी क़िस्म के दूसरे मुक़ामात ग़ैर-यहूदी कलीसियाओं के मुसर्रिफ़ के ना थे। पस वो उनका इंतिख़ाब नहीं करता लेकिन मुक़द्दस लूक़ा ने नेक सामरी की तम्सील, शुक्रगुज़ार सामरी कौड़ी का वाक़िया, सय्यदना मसीह का ज़बदी के बेटों को सामरी गांव को तबाह करने के ख़याल को झिड़कना और इसी क़िस्म के दीगर अक़्वाल और वाक़ियात मुंतख़ब किए हैं जो ग़ैर-यहूद अक़्वाम और अर्ज़-ए-मुक़द्दस के बाहर के ममालिक के रहने वालों के लिए ख़ास तौर पर सबक़ आमोज़ थे।
(2)
मुक़द्दस लूक़ा एक मुअर्रिख़ की तरह बतलाता है कि आँख़ुदावंद की ज़िंदगी के फ़ुलां-फ़ुलां वाक़ियात फ़ुलां क़ैसर या फ़ुलां गवर्नर या फ़ुलां सूबा या फ़ुलां हाकिम के वक़्त में ज़हूर में आए। (लूक़ा 2:1-2, 3:1-2 वग़ैरह) कोई और इन्जील नवीस सय्यदना मसीह के सवानेह-हयात को इस तौर पर दुनिया के तारीख़ी वाक़ियात से मुताल्लिक़ नहीं करता। मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील सल़्तनत-ए-रोम के मुल्कों और सूबों के मुशरिका ग़ैर-यहूद बुत-परस्तों और ख़ुदा-परस्त नव मुरीद यहूदियों के लिए लिखी ताकि वो मुनज्जी आलमीन पर ईमान लाकर नजात पाएं। और उन में से जो सय्यदना मसीह के हल्क़ा-ब-गोश हो गए हैं वो जान लें कि “जिन बातों की तालीम उन्होंने पाई है, उनकी पुख़्तगी उन को मालूम हो जाए।”
(3)
इन्जील अव्वल में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के मुअल्लिम होने के पहलू पर ज़ोर दिया गया है। वो एक रब्बी हैं जिन्हों ने मूसवी शरीअत की एक नई तावील की है। इन्जील-ए-सोम में मुक़द्दस लूक़ा ने आँख़ुदावंद के मुनज्जी होने के पहलू को वाज़ेह किया है। पहली तीन इंजीलों में से मुक़द्दस लूक़ा ही सिर्फ इस ख़िताब का इस्तिमाल करता है। (लूक़ा 1:47 2:11, आमाल 5:31, 13:23) मुक़द्दस लूक़ा ख़ुद तबीब था लिहाज़ा उस को क़ुद्रतन सय्यदना मसीह के सवानेह-हयात और तालीम में वो बातें दिलकश मालूम हुईं जिनमें अमराज़, दुख और गुनाह से नजात का ज़िक्र मौजूद था और जिन से इन्सानी ज़िंदगी को ख़ुशी, आराम-ए-क़ल्ब, इत्मीनान-ए-जान, मोहब्बत, उम्मीद और ईमान नसीब होते थे।
फ़स्ल सोम
इन्जील-ए-लूक़ा की क़दामत और पाया एतबार
नाज़रीन को याद होगा कि ईद पिन्तिकोस्त के अय्याम में “ख़ुदा-परस्त” यहूद जिनकी मादरी ज़बान यूनानी थी जो सल़्तनत-ए-रोम के मुख़्तलिफ़ कोनों से ईद मनाने के लिए यरूशलेम आए हुए थे। (आमाल 2:10) मुक़द्दस पतरस और दीगर रसूलों की तब्लीग़ी मसाई (कोशिशें) की बदौलत मुनज्जी आलमीन (मसीह) पर ईमान ले आए थे। बअल्फ़ाज़-ए-दीगर रोज़ अव़्वल से ही “यूनानी माइल” यहूदी कलीसिया में दाख़िल हो गए और चंद महीनों के अंदर-अंदर अरामी बोलने वाले यहूद और “यूनानी माइल” यहूदी ईमानदारों की जमाअत दिन दुगुनी और रात चौगुनी तरक़्क़ी कर गई।” “यूनानी माइल” यहूदी ख़ास तौर पर ग़ैर-यहूद को सय्यदना मसीह के हल्क़ा-ब-गोश करने में सरगर्म थे। कट्टर यहूद की इज़ार-सानी की वजह से जब कलीसिया पर बड़ा ज़ुल्म बरपा हुआ तो ईमानदारों की जमाअत “परागंदा” हो गई। और जो “परागंदा” हुए थे वो कलाम की ख़ुशख़बरी देते फिरे और फिलिप्पुस शहर सामरिया में जाकर लोगों में मसीह की मुनादी करने लगा और लोगों ने बिला-इत्तफ़ाक उस की बातों पर जी लगाया और सामरियों ने ख़ुदा का कलाम क़ुबूल कर
लिया और उन्हों ने रूह-उल-क़ुद्स पाया।” (आमाल 8 बाब) यही फिलिप्पुस हब्शियों की मलिका के वज़ीर और उस के सारे ख़ज़ाना के मुख़्तार को बपतिस्मा देने के बाद “केसरिया में पहुंचने तक सब शहरों में ख़ुशख़बरी सुनाता गया।” मुक़द्दस पतरस हर जगह फिरता हुआ” (आमाल 9:32) केसरिया में जा पहुंचा जहां उसने ग़ैर-यहूद “दीनदार” कुर्लेनियुस को बपतिस्मा दिया और “ग़ैर-क़ौमों पर भी रूह-उल-क़ुद्स की बख़्शिश जारी हुई।” (लूक़ा 10:45) और सब पर अयाँ हो गया कि “ख़ुदा ने ग़ैर-क़ौमों को भी ज़िंदगी के लिए तौबा की तौफ़ीक़ दी है।” (आमाल 11:18) जो लोग परागंदा हुए थे वो फिरते-फिरते फ़ीनेके और कुप्रुस और अन्ताकिया में पहुंचे और अन्ताकिया में ग़ैर-यहूद को सय्यदना मसीह की ख़ुशख़बरी की बातें सुनाने लगे और बहुत से लोग ईमान ला कर सय्यदना मसीह की तरफ़ फिरे।” (आमाल 11:19-21) और ग़ैर-यहूद बुत-परस्त अक़्वाम में “ख़ुदा का कलाम तरक़्क़ी करता और फैलता गया।” ग़ैर-अक़्वाम के रसूल मुक़द्दस पौलुस और आपके साथियों की तब्लीग़ी मसाई की वजह से ग़ैर-यहूद “ख़ुदा-परस्त नव मुरीद ख़ुदा के फ़ज़्ल पर क़ायम हो गए।” (आमाल 14:43) कट्टर यहूद की मुख़ालिफ़त की वजह से रसूल मक़्बूल ने अपनी तमाम तवज्जोह ग़ैर-यहूद अक़्वाम पर मबज़ूल कर दी और “इस तमाम इलाक़े में ख़ुदा का कलाम फैल गया।” (13:47-48) इस के बाद जहां भी मुक़द्दस पौलुस गए “हर जगह ग़ैर-यहूद की एक बड़ी जमाअत ईमान ले आई।” (आमाल 14 बाब) और ग़ैर क़ौमों के लिए ईमान का “दरवाज़ा” खुल गया जिसका नतीजा ये हुआ कि मुनज्जी आलमीन (मसीह) की वफ़ात के चंद साल के अंदर-अंदर हज़ारहा ग़ैर-यहूद शिर्क और बुत-परस्ती को तर्क करके ईमानदारों की जमाअत में शामिल हो गए। ये तादाद रोज़ बरोज़ बढ़ती गई और ग़ैर-यहूद कलीसियाएं मुनज़्ज़म हो कर (आमाल 14:23) क़ुव्वत पकड़ती गईं।
मुक़द्दस मत्ती ने अपनी इन्जील यहूदी नव मुरीदों के लिए लिखी थी जिसमें ये साबित किया गया था कि ईसा नासरी क़ौम इस्राईल का मसीह मौऊद है जो अम्बिया-ए-साबक़ीन और शाहान-ए-इस्राईल से भी बड़ा है। (मत्ती 12:41-42 वग़ैरह) और जिस का वजूद-ए-मुबारक यरूशलेम की हैकल से भी आला और अर्फ़ा है। (मत्ती 12:6) यहां तक कि वो सबत का भी मालिक है। (मत्ती 12:8) वो “इब्ने-आदम” है जिसको “ज़मीन पर गुनाह माफ़ करने का इख़्तियार है।” (मत्ती 9:6) और जिस ने मूसवी शरीअत में एक नई रूह पैदा कर दी है। (मत्ती 5:17-47) लेकिन गो ये बातें अहले-यहूद के लिए “ज़िंदगी और मौत” (इस्तिस्ना 30:19, यर्मियाह 21:8) का सवाल थीं पर ग़ैर-यहूद को ये बातें अपील ना करती थीं। जो बातें अहले-यहूद के लिए दिल-फ़रेब और जाज़िब-ए-तवज्जोह थीं वो बुत-परस्त
ग़ैर-यहूद के लिए दिलकश ना थीं क्योंकि दोनों क़ौमों में मुग़ाइरत (ना मुवाफ़िक़त, अजनबियत) थी। (आमाल 10:28 वग़ैरह) पस ग़ैर-यहूद मसीहियों के लिए वो काम की बातें ना थीं और ना उन बातों से मुतास्सिर होते थे।
पस मुक़द्दस लूक़ा ने “इस पर कमर बाँधी” कि मुनज्जी जहान (मसीह) के सवानिह हयात, वाक़ियात और कलमात-ए-तय्यिबात के ज़ख़ीरे की तहक़ीक़ और तलाश करे जो मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाओं के पास महफ़ूज़ था और जिस को उन लोगों ने रिसालों, पारों और वर्क़ों की सूरत में लिख रखा था “जो शुरू से ख़ुद देखने वाले और कलाम के ख़ादिम थे।” आप सख़्त दौड़ धूप करके (जैसा हम फ़स्ल अव़्वल में बतला चुके हैं) मुख़्तलिफ़ मुक़ामात के मर्दों और औरतों को मिले जिन्हों ने “ज़िंदगी के कलाम को ख़ुद अपने कानों से सुना था और अपनी आँखों से देखा था बल्कि ग़ौर से देखा था और अपने हाथों से छुआ था।” (1 यूहन्ना 1:1) आप मुक़द्दस पौलुस के साथी थे और मुक़द्दस पतरस से भी मुलाक़ात कर चुके थे जिन्हों ने “ख़ुद सय्यदना मसीह की अज़मत को देखा था।” (2 पतरस 1:16) पस आपने ख़ुशकी और तरी का दौरा करके “सब बातों का सिलसिला शुरू से ठीक ठीक दर्याफ़्त किया।” ताकि इन माख़ज़ों से ग़ैर-यहूद ईमानदारों के लिए सय्यदना मसीह की सवानेह-हयात और कलमात-ए-तय्यिबात का एक निहायत मोअतबर और मुस्तनद मजमूआ तैयार करें ताकि जिन बातों की ग़ैर-यहूद नव मुरीदों ने तालीम पाई है “उन की पुख़्तगी उन को मालूम हो जाए।” पस जो काम मुक़द्दस मत्ती ने यहूदी नव मुरीदों के लिए सर-अंजाम दिया वही काम मुक़द्दस लूक़ा ने ग़ैर-यहूदी नव मुरीदों के लिए पूरा किया ताकि उन के काम आए।
इस बाब की फ़स्ल अव्वल में हमने उन माख़ज़ों का ज़िक्र किया है जिनको मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील की तालीफ़ में इस्तिमाल किया है। ये माख़ज़ क़दीम तरीन थे। इनमें से दो माख़ज़ों को जैसा हमने ज़िक्र किया है मुक़द्दस मत्ती ने भी इस्तिमाल किया है यानी रिसाला-ए-कलमात और मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील जो क़दीम तरीन और मोअतबर तरीन माख़ज़ थे। इन दो माख़ज़ों के इलावा मुक़द्दस लूक़ा ने दीगर क़दीम मोअतबर और मुस्तनद माख़ज़ों से काम लेकर उनको तर्तीब देकर एक ऐसी इन्जील तैयार की जिसकी सनद का मेयार बुलंद और पाया एतबार आला था। डाक्टर स्ट्रेटर कहता है कि मुक़द्दस लूक़ा के ख़ास माख़ज़ सनद ऐन बईन मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील की सनद की सी है जो
अव़्वल दर्जे की सनद है।123इंशा-अल्लाह हम आगे चल कर साबित कर देंगे कि इस इन्जील में सय्यदना मसीह के कलमात और इंजीली बयानात में अरामी अल्फ़ाज़ और मुहावरात मौजूद हैं जिससे इस अम्र की तस्दीक़ हो जाती है कि ये माख़ज़ अहाता तहरीर में आ चुके थे।124पस वो निहायत मोअतबर थे। अगर डाक्टर कैडबरी की तावील सही है कि मुक़द्दस लूक़ा आँख़ुदावंद की ज़िंदगी के वाक़ियात और तालीम से ख़ुद वाक़िफ़ था जिसकी बिना पर वो ये दावा करता है कि “मैं इब्तिदा ही से सब बातों से ठीक-ठीक वाक़फ़ियत रखता हूँ।” (लूक़ा 1:3) तो इस की इन्जील का पाया एतबार और भी बुलंद हो जाता है।
(2)
आमाल की किताब से जैसा हम ऊपर बतला चुके हैं ये पता चलता है कि ग़ैर-यहूद पहले दिन ही से कलीसिया में शामिल हो गए थे। (आमाल 2:10) और उन की तादाद, रोज़ बरोज़ बढ़ती गई हत्ता कि चंद सालों के अंदर-अंदर ग़ैर-यहूद में मसीहिय्यत का जलाल साया-फ़गन हो गया। पहले अन्ताकिया फिर शाम और दीगर मुक़ामात में मसीही कलीसियाएं क़ायम हो गईं, जिनकी शुरका की अक्सरीयत बुत-परस्त ग़ैर-यहूद पर मुश्तमिल थी। माहौल के बदल जाने से कलीसिया के मसीही मुअल्लिमों के लिए ये लाज़िम हो गया कि वो अपनी तालीम का तरीक़ेकार बदल दें और “यहूदियों के लिए यहूदी और ग़ैर-मख़्तूनों के लिए ग़ैर-मख़्तून” बन जाएं। रसूलों की “मुनादी” के बुनियादी उसूल वैसे के वैसे ही क़ायम रहे लेकिन क़ुदरती तौर पर ग़ैर-यहूद के लिए उनको पेश करने का तरीक़ा मुख़्तलिफ़ हो गया। ये उसूल मसीही इन्जील के रूह-ए-रवाँ थे। चूँकि ग़ैर-यहूद के लिए ज़्यादा तफ़सीलात की ज़रूरत थी लिहाज़ा पहले मुक़द्दस पौलुस जैसे मुअल्लिमों ने इनकी इस ज़रूरत को पूरा किया। लेकिन चूँकि अर्ज़-ए-मुक़द्दस के अंदर और बाहर सल़्तनत-ए-रोम के मुख़्तलिफ़ सूबों और शहरों में हज़ारहा ग़ैर-यहूद बुत-परस्त मुनज्जी आलमीन (मसीह) पर ईमान ला रहे थे। पस इन रोज़-अफ़्ज़ूँ ईमानदारों के लिए एक इन्जील की ज़रूरत का एहसास बहुत जल्द पैदा हो गया ताकि इनके ईमान की इस्तिक़ामत हो और इस के ज़रीये दूसरों को भी मुनज्जी (मसीह) के क़दमों में ला सकें। इस खला और ज़रूरत को पूरा करने के लिए
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123Streeter, Four Gospels p.222
124J.T.S July-October 1943 p.135
मुक़द्दस लूक़ा ने इन्जील लिखी। पस ये इन्जील कलीसिया के इब्तिदाई दौर से ताल्लुक़ रखती है। इन दिनों में रिसाला कलमात और इन्जील दोम और चंद दीगर रिसाले और पारे लिखे गए थे लेकिन ग़ैर-यहूद कलीसियाओं के लिए ये नाकाफ़ी थे। उनको एक ऐसी जामेअ किताब की ज़रूरत थी जिसमें ना सिर्फ सय्यदना मसीह की पैदाइश से लेकर साऊद-ए-आस्मानी तक के वाक़ियात हों बल्कि जिसमें आँख़ुदावंद की तालीम के वो हिसस जो ख़ास तौर पर ग़ैर-यहूद को अपील करें दर्ज हों। मुक़द्दस लूक़ा ने इस काम को पूरा करने का बेड़ा उठाया। पस मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील, मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के क़रीबन पंद्रह (15) साल बाद अहाता-ए-तहरीर में आई।
(3)
जब हम मुक़द्दस मत्ती की इन्जील और मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील का मुक़ाबला करते हैं तो जैसा हम कह चुके हैं हम पर अयाँ हो जाता है कि दोनों इन्जील नवीस एक दूसरे की तस्नीफ़ से वाक़िफ़ ना थे।125पस दोनों एक दूसरे की तस्नीफ़ की जानिब से बेनियाज़ हैं। दोनों अपनी-अपनी इंजीलों को मुख़्तलिफ़ ज़ाविया निगाह से लिखते हैं। मुक़द्दस मत्ती की इन्जील में उन सवालात के जवाब पाए जाते हैं जो कट्टर यहूदी मसीही जमाअत से पूछते थे मसलन तुम ऐसे शख़्स को मसीह-ए-मौऊद क्यों कहते हो जिसके हालात हमारे तसव्वुरात-ए-मसीहाई के ख़िलाफ़ हैं। बाअज़ यहूदी मुक़द्दस यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शागिर्द (आमाल 19:1-7, 18:25 वग़ैरह) जो मसीह मौऊद की राह देखते थे। उन के सवालात के जवाब भी इसी इन्जील में हैं। लेकिन ग़ैर-यहूद को ऐसे मसाइल से कोई दिलचस्पी नहीं थी। वो मुश्रिक बुत-परस्त थे जो गुनाहों से नजात पाने के तालिब थे। इनमें से जो “मवह्हिद ख़ुदा-परस्त” थे वो मुश्रिकाना मज़ाहिब के तुहमात और ताअलीमात से बेज़ार थे। मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत से बिल-ख़ुसूस जो आपने रोमियों, कुरिन्थियों, ग़लतियों, कुलिस्सियों को लिखे उन सवालात का पता चलता है जो ग़ैर-यहूद को मसीहिय्यत की जानिब खींच लाए। हमने अपने रिसाला नूर-उल-हुदा में इनका मुफ़स्सिल ज़िक्र किया है। लिहाज़ा हम उन का यहां ज़िक्र नहीं करते। मुक़द्दस लूक़ा ने इन ग़ैर-यहूद के सवालात के जवाब अपनी इन्जील में लिखे ताकि उनको मसीही ईमान के उसूल की पुख़्तगी मालूम हो जाए। पस चूँकि दोनों इन्जील का नुक़्ता-ए-नज़र अलग-अलग है। इनके मुसन्निफ़ों ने एक
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125Sanday.The Bearing of Criticism upon the Gospels History in Exp.Times, December 1908
दूसरे की तस्नीफ़ से कुछ अख़ज़ नहीं किया। हालाँकि दोनों में मुशाबहत भी मौजूद है मसलन दोनों ने इन्जील दोम का इस्तिमाल किया है। दोनों ने रिसाला-ए-कलमात के ख़ुत्बात को अपना माख़ज़ बनाया है। दोनों ने अपनी इन्जील के शुरू में पैदाइश के हालात बयान किए हैं। दोनों में नसब नामे मौजूद हैं। दोनों ने मुक़द्दस मर्क़ुस के सलीबी वाक़ियात के बयान में इज़ाफ़ा किया है। गो दोनों के इज़ाफ़ों में कोई मुशतर्का बात नहीं है और दोनों इन्जील मर्क़ुस और रिसाला-ए-कलमात को एक ही तरह इस्तिमाल नहीं करते, जिसकी वजह से उनका अलग-अलग ज़ाविया निगाह है। लेकिन चूँकि दोनों अनाजील एक दूसरे से बेनियाज़ हैं इस हक़ीक़त से ये साबित होता है कि ये दोनों अनाजील क़रीब-क़रीब एक ही वक़्त में लिखी गई थीं।
मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील में हम आँख़ुदावंद की ज़िंदगी के वाक़ियात के ज़माने के क़रीब तरीन हैं। इस में जो वाक़ियात दर्ज हैं इनके बयान की सादगी, शगुफ़्तगी और ताज़गी इस बात की शाहिद हैं कि ये वाक़ियात बाक़ी दोनों इंजीलों से कम-अज़-कम दस पंद्रह साल पहले लिखे गए थे। पस मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील मर्क़ुस की इन्जील से दस पंद्रह साल बाद अहाता-ए-तहरीर में आई। इंशा-अल्लाह हम आगे चल कर इस मौज़ू पर मुफ़स्सिल बह्स करेंगे।
(4)
इन्जील-ए-सोम की क़दामत और पाया एतबार इस अम्र से भी साबित है कि मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत, इलाहियात और तसव्वुरात का असर इस इन्जील में कहीं नहीं पाया जाता हालाँकि मुक़द्दस लूक़ा आपके हम-सफ़र और साथी थे और इस ने आपका साथ आख़िरी दम तक दिया। मुक़द्दस लूक़ा एक ईमानदार और दयानतदार मुअर्रिख़ की तरह उन वाक़ियात को सही सही बयान करने पर ही किफ़ायत करते है जो उस के माख़ज़ों में मौजूद थे। सय्यदना मसीह के साऊद-ए-आस्मानी के बाद जो तसव्वुरात कलीसिया के मुअल्लिमों ने पेश किए, उनका शाइबा भी इस इन्जील में मौजूद नहीं है। अला-हाज़ा-उल-क़यास मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील के पहले दो बाब का ताल्लुक़ यहूदी माख़ज़ों से है जिसमें बहुत सी ऐसी बातें पाई जाती हैं जो मुक़द्दस लूक़ा जैसे ग़ैर-यहूदी मुसन्निफ़ के ख़यालात से बेगाना हैं। इनमें यहूदी रसूम और यहूदी शरीअत का ज़िक्र है। ज़करीयाह और इलीशबा का बयान, हैकल में बारी-बारी का मुक़र्रर होना, आठवें रोज़ खतने की रस्म की अदायगी और नाम
रखा जाना, ज़च्चा का शुक्राना और नज़राना, शमऊन और हन्ना के गीत वग़ैरह-वग़ैरह तहरीरी माख़ज़ थे जिनको वो निहायत ईमानदारी के साथ नक़्ल करता है।126
(5)
नाज़रीन को याद होगा कि हमने हिस्सा अव़्वल के बाब सोम में रसूलों की “मुनादी” का ख़ाका पेश किया था। हिस्सा दोम के बाब अव़्वल की फस्ल दोम में साबित कर आए हैं कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के मज़ामीन रसूलों की “मुनादी” के मुताबिक़ मुरत्तिब किए गए हैं। लिहाज़ा वो क़दीम तरीन तस्नीफ़ है। जब हम मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा की इंजीलों के मज़ामीन पर नज़र करते हैं तो हम पर ज़ाहिर हो जाता है कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने आइन्दा इन्जील नवीसों के लिए एक नमूना क़ायम कर दिया है जिसके ढांचे को बाक़ी इन्जील नवीस इख़्तियार कर लेते हैं। इन्जील-ए-अव़्वल और सोम में रसूलों की इब्तिदाई “मुनादी” के मुख़्तलिफ़ हिसस में से बाअज़ पर नुमायां ज़ोर दिया गया है और बाअज़ हिस्सों पर ज़ोर नहीं दिया गया। ये हक़ीक़त भी इस बात को साबित करती है कि ये दोनों अनाजील इब्तिदाई अय्याम से ज़रा परे हट कर और उन के बाद की तस्नीफ़ की गई थीं। मसलन मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील में सलीबी वाक़िया तमाम इन्जील का पांचवां हिस्सा है, लेकिन इन्जील अव़्वल का सातवाँ हिस्सा और इन्जील सोम का छटवां हिस्सा है। अगर इन दोनों इंजीलों को बहैसियत मजमूई देखा जाये तो ज़ाहिर हो जाता है कि इनमें “तालीम” के हिसस ग़ालिब हैं। लेकिन साथ ही ये भी ज़ाहिर है कि ये दोनों इन्जील नवीस उस ज़माने में लिख रहे थे जब अभी वो रसूलों की “मुनादी” से बराह-ए-रास्त और बिला-वास्ता वाक़िफ़ थे। इब्तिदाई मुनादी के उसूल और इस का नफ़्स-ए-मज़मून इन इंजीलों में ज़िंदा और जीता जागता है। इस हक़ीक़त से ज़ाहिर है कि ये दोनों अनाजील क़दीम हैं। अगरचे वो मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के दस पंद्रह साल बाद तस्नीफ़ की गई थीं।
(6)
मुक़द्दस लूक़ा की इंजील से ये ज़ाहिर है कि वो उस ज़माने में लिखी गई थी जब ग़ैर-यहूद के दर्मियान मुक़द्दस लूक़ा और उस के साथी इन्जील जलील की तब्लीग़ बड़े ज़ोर
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126Dodd.Apostolic Preaching and Its Development Lecture I
127The Mission and Message of Jesus p.258
और शोर से कर रहे थे। सलीब के ये शुजाअ सिपाही और दिलेर अलमबरदार सल़्तनत-ए-रोम के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में सलीब का पर्चम लहरा रहे थे। वो “फ़त्ह करते हुए निकले और फ़त्ह करते गए।” (मुकाशफ़ा 6:2) आमाल की किताब का मुतालआ भी ये ज़ाहिर कर देता है कि इन्जील-ए-सोम उस ज़माने में लिखी गई जब वो वाक़ियात रौनुमा हो रहे थे जिनका ज़िक्र आमाल की किताब में है। इन्जील-ए-सोम में बाअज़ ऐसी बातें मौजूद हैं जो इस किताब के वाक़ियात की रोशनी में ही बख़ूबी समझ में आ सकती हैं।128
(7)
मुक़द्दस लूक़ा में ख़ुदा की बादशाही के तसव्वुर को नुमायां जगह हासिल है लेकिन इस इन्जील में इस से मुराद सिर्फ़ ख़ुदा की हुकूमत ही है, जिसकी आमद पर मौजूदा दौर का ख़ातिमा हो जाएगा और इस की बजाए ख़ुदा की बादशाहत क़ायम हो जाएगी। पस ये अम्र याद रखने के क़ाबिल है कि इस इस्तिलाह से मुक़द्दस लूक़ा का वही मतलब है जो इन्जील-ए-मर्क़ुस और रिसाला-ए-कलमात में मौजूद है। (लूक़ा 11:2, 13:28-29, 17:20, 22:16-18, 23:51) लेकिन इस बादशाही का जल्दी ज़हूर में आने का ख़याल ऐसा नुमायां और वाज़ेह नहीं जैसा इन्जील मर्क़ुस में है। (देखो मर्क़ुस 14:62, लूक़ा 22:69, मर्क़ुस 13:3, लूक़ा 9:27) चुनान्चे मुक़द्दस लूक़ा में सय्यदना मसीह की एक तम्सील दर्ज है जिसके मुख़ातिब वो लोग हैं जो ये “गुमान करते थे कि ख़ुदा की बादशाही अभी ज़ाहिर हुआ चाहती है।” (लूक़ा 19:11, 21:8) हमें उन लोगों से ख़बरदार किया गया है जो कहते थे कि वक़्त नज़्दीक आ पहुंचा है ताहम ये इन्जील नवीस तमाम इब्तिदाई कलीसिया के ईमानदारों के साथ ये तस्लीम करता है कि मौजूदा दौर ख़त्म हो जाएगा और इब्ने-आदम का ज़हूर अचानक होगा। (लूक़ा 17:22, 21:35-36)
इस अम्र से भी ज़ाहिर है कि ये इन्जील तब लिखी गई थी जब इस क़िस्म के ख़यालात कलीसियाओं में पाए जाते थे और मुक़द्दस पौलुस ने थिस्लिनीकी कलीसिया को इनके ख़िलाफ़ अपने दूसरे ख़त में ख़बरदार किया था। (2 बाब) अगर हम (1 थिस्सलुनीकियों 5:2-8 का मुक़ाबला लूक़ा 21:34-36) से करें तो ये ज़ाहिर हो जाता है कि रसूल की इबारत
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128J.M. Creed ,The Gospel according to St.Luke (1930) p.XII
के अल्फ़ाज़ तक इंजीली हैं। इस लिहाज़ से ये भी साबित हो जाता है कि ये इन्जील पहली सदी के निस्फ़ के क़रीब लिखी गई थी जब ये ख़ुतूत अहाता तहरीर में आए थे।
डाक्टर डॉड Dodd लिखते हैं,129ये अम्र क़ाबिल-ए-ज़िक्र है कि अगरचे आमाल की किताब की तक़रीरों में आँख़ुदावंद की आमद का ज़िक्र है। (लूक़ा 3:12-21) ताहम आपकी फ़ौरी आमद-ए-सानी के सवाल पर ज़ोर नहीं दिया गया। चुनान्चे अबवाब 2, 4, 5, 13 में इस का ना तो खासतौर पर ज़िक्र किया गया है और ना इस पर ख़ास ज़ोर दिया गया है। इस में कुछ शक नहीं कि ये बात रसूलों की मुनादी का जुज़्व ज़रूर थी लेकिन इस पर ज़ोर नहीं दिया गया बल्कि उन की “मुनादी” का तमाम-तर ज़ोर इस बात पर है कि ख़ुदा ने अपने लोगों पर रहम किया है और नजात बख़्शी है और इसी बात पर मुक़द्दस पौलुस ज़ोर देता है चुनान्चे 1 थिस्सलुनीकियों (50 ई॰) से ज़ाहिर है कि आमद-ए-सानी का वक़्त आ गया है। लेकिन बाद में इस पर ज़ोर नहीं दिया गया बल्कि तमाम-तर ज़ोर गुनाह से नजात पाने पर है। (2 कुरिन्थियों 5:16, कुलस्सियों 1:13, 6:6 वग़ैरह) यही ज़ावीया निगाह मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील का है जो इस इन्जील की अस्लियत और क़दामत का एक मज़ीद और ज़बरदस्त सबूत है।
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129J.M. Creed ,The Gospel according to St.Luke (1930) p.XII
बाब चहारुम
अनाजील के तरीक़ा तालीफ़ पर तब्सिरा
गुज़श्ता अबवाब से नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि हमारी अनाजील निहायत क़दीम हैं और इन का पाया एतबार निहायत बुलंद और रफ़ी (आला) है क्योंकि वो उन माख़ज़ों से तालीफ़ की गई हैं जिनका ताल्लुक़ उस ज़माने से है जब अभी वाक़ियात रौनुमा हो रहे थे। और इन में से अहम तरीन माख़ज़ आँख़ुदावंद की हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में ही लिखा गया था।
जब आँख़ुदावंद तालीम देने लगे तो आप क़रीबन तीस (30) बरस के थे। (लूक़ा 3:23) आपकी ज़िंदगी का वो ज़माना जो ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत में सर्फ हुआ कम अज़ कम चार-सौ (400) दिन का मुख़्तसर ज़माना था लेकिन जब हम चारों इंजीलों का मुतालआ करते हैं तो हम पर वाज़ेह हो जाता है कि इन चार सौ (400) दिनों में से बमुश्किल चालीस अलग-अलग दिनों के बाअज़ छोटे बड़े वाक़ियात का ही ज़िक्र मिलता है जिसका मतलब ये है कि आँख़ुदावंद की इस ऐलानिया ज़िंदगी के (लूक़ा 9:10) हिस्से की निस्बत हमें कोई इल्म नहीं। अगर चारों इंजीलों का खंड पाठ (किताब के हिस्से) किया जाये और इनको लगातार आहिस्ता-आहिस्ता पढ़ा जाये तो ज़्यादा से ज़्यादा छः घंटे लगते हैं।130चारों अनाजील आँख़ुदावंद की पहली तीस (30) साला ज़िंदगी को दो बाब में बयान कर देती हैं लेकिन आपकी ज़िंदगी के आख़िरी हफ़्ते के वाक़ियात तीस (30) अबवाब पर मुश्तमिल हैं। इस की क्या वजह है?
हम बतला चुके हैं कि सय्यदना मसीह के सामईन (सुनने वालों) की तादाद हज़ारहा थी और आप की ज़िंदगी में आपकी वफ़ात के बाद बीस पच्चीस साल तक इन हज़ारों चश्मदीद गवाहों के आपके मुताल्लिक़ हज़ारों ज़बानी और सदहा (सैंकड़ों) तहरीरी बयानात मशहूर होंगे। पस इन्जील नवीस के पास बहुत मसाला था जो बहुतों ने लिखा था। (लूक़ा 1:1) लेकिन इन्जील नवीसों ने हर एक बयान को अपनी इन्जील में दर्ज ना किया बल्कि आँख़ुदावंद के कलमात-ए-तय्यिबात, मोअजिज़ात-ए-बय्यिनात और सवानेह-हयात में से सिर्फ उन को मुंतख़ब किया जो आला तरीन पाया एतबार के थे और जो उन के मतलब के भी थे। मुक़द्दस यूहन्ना ने इस अंबार (ढेर में से बाअज़) को मुंतख़ब किया (यूहन्ना
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130F.C. Burkitt, Gospels History and it’s Transmission p.20
20:30, 21:25, आमाल 10:29-41 को देखो) मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा ने भी ऐसा ही किया (लूक़ा 1:1-3) मुक़द्दस मर्क़ुस का तरीक़ा-कार यही था। (आमाल 11:4, 26:16, इब्रानियों 2:3, यूहन्ना 15:27, 2 पतरस 1:16, 1 यूहन्ना 1:1-4)
हक़ तो ये है कि हर मुसन्निफ़ का यही तरीक़ा-ए-कार होता है। जब कोई शख़्स किताब लिखने बैठता है तो वो अपनी तस्नीफ़ में उन तमाम बातों का ज़िक्र नहीं करता जिनका उस को इल्म होता है बल्कि सिर्फ उन ही बातों का ज़िक्र करता है जो उस के मौज़ू के ख़ास पहलू से ताल्लुक़ रखती हैं। मसलन मुक़द्दस पौलुस अपने ख़ुतूत में मुनज्जी जहान (मसीह) के मोअजज़ात की तरफ़ इशारा भी नहीं करता और बमुश्किल आपके दो-चार अक़्वाल पेश करता है और वो भी सिर्फ ज़िमनी तौर पर। आमाल की किताब में पौलुस रसूल की तब्लीग़ी मसाई का मुफ़स्सिल ज़िक्र है लेकिन इस को पढ़ने से ये पता नहीं चलता कि मुक़द्दस रसूल ने अपनी कलीसियाओं को कभी ख़त भी लिखे थे। इस रिसाले से हम को मुक़द्दस पौलुस के तर्ज़-ए-इस्तिदलाल और उस्लूब-ए-तहरीर का पता भी नहीं चल सकता। अला-हाज़ा-उल-क़यास रोम के मुक़द्दस क्लीमेंट ने जो ख़त पहली सदी के आख़िर में लिखा था उस में मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत के मजमूए का वो ज़िक्र नहीं करता। हालाँकि 47 बाब में (1 कुरिन्थियों 1:12) की तरफ़ इशारा करता है।
(2)
इलावा अज़ीं सय्यदना मसीह की ज़िंदगी के उन वाक़ियात और आप के उन कलमात-ए-ज़रीन को बक़ा नसीब हुई जो रसूलों और मुबश्शिरों की “मुनादी” के जुज़ और इस मुनादी के अजज़ा की मिसालें थीं या जिनका दौरान-ए-वाअज़ अक्सर ज़िक्र किया जाता था। इस ज़माने में बयान करने वाले वो लोग थे जो ख़ुद चश्मदीद गवाह थे और जो एक जगह से दूसरी जगह जाते थे। (आमाल 8:1, 14, 26 9:32 वग़ैरह) ये लोग मुख़्तलिफ़ कलीसियाई मर्कज़ों में आँख़ुदावंद की तालीम, ज़िंदगी और क़ियामत के हालात सुनाते थे। पस मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं में मुख़्तलिफ़ बयानात मुरव्वज थे जिनको इन्जील नवीसों ने अपने माख़ज़ बनाया। मसलन सय्यदना मसीह की क़ियामत के मुताल्लिक़ किसी जगह पर यरूशलेम में, और किसी जगह गलील में दिखलाई देने के बयानात मुरव्वज थे। इन्जील नवीसों ने इनमें से बाअज़ बयानात को ले लिया और दूसरों को छोड़ दिया। मसलन मुक़द्दस पौलुस हम को बतलाता है कि आँख़ुदावंद अपनी क़ियामत के बाद “केफ़ा को और इस के
बाद उन बारह को दिखाई दिया।” (1 कुरिन्थियों 15:5) लेकिन किसी इन्जील नवीस ने केफ़ा को दिखाई देने का वाक़िया बयान नहीं किया अगरचे इस का ज़िक्र किया गया है। (लूक़ा 24:34)
आँख़ुदावंद की तालीम, रसूलों, मुबल्लिग़ों और मुबश्शिरों की मुनादी में और कलीसिया की रोज़ाना ज़िंदगी में चिराग़-ए-राह थी। वो हर जगह दोहराई और सिखलाई जाती थी। मसलन ये कि कलीसिया का रवैय्या क्या होना चाहिए जब यहूदी रसूम, खतना, हलाल व हराम, सबत का एहतिराम, निकाह, तलाक़, हैकल और क़ैसर को जज़्या देने के सवाल वग़ैरह दरपेश हों या जब ज़र और दौलत का सवाल, आमद-ए-सानी का सवाल, नए दौर का आग़ाज़ का सवाल मसीही जमाअत के सामने पेश हो। ये ज़बानी बयानात और तहरीरी पारे जो दौर-ए-अव्वलीन के थे, मुख़्तलिफ़ क़ीमती पत्थरों की तरह जा-ब-जा दूर दराज़ मुक़ामात की कलीसियाओं में बिखरे पड़े थे। इन्जील नवीसों ने इन क़ीमती पत्थरों को जमा किया और इन से अनाजील के ताज बनाए।131
(3)
गुज़श्ता अबवाब से ज़ाहिर हो गया है कि इन्जील नवीसों ने चश्मदीद गवाहों के बयानात को क़लमबंद किया है। हर एक इन्जील नवीस के पास मुख़्तलिफ़ माख़ज़ थे। अगरचे इनमें से बाअज़ ने एक ही क़िस्म के माख़ज़ इस्तिमाल किए हैं। चूँकि ये मुख़्तलिफ़ माख़ज़ मुख़्तलिफ़ चश्मदीद गवाहों के बयान थे। पस क़ुद्रतन इनके बयानात की तफ़्सील में इख़्तिलाफ़ था। यही वजह है कि जब ये इन्जील नवीस एक ही वाक़िये को बयान करते हैं तो चूँकि इनके माख़ज़ मुख़्तलिफ़ थे लिहाज़ा इन अनाजील के बयानात की तफ़सीलात में इख़्तिलाफ़ का होना एक लाज़िमी और नागुरेज़ (ज़रूरी, लाज़िम) अम्र था। मसलन सलीबी वाक़िये की तफ़सीलात में इख़्तिलाफ़ है चुनान्चे पहली तीन इंजीलों में मर्क़ूम है कि शमऊन ने आँख़ुदावंद की सलीब उठाई थी लेकिन मुक़द्दस यूहन्ना में है कि आँख़ुदावंद ख़ुद अपनी सलीबी उठाए हुए क़त्लगाह को गए थे। इस क़िस्म के तफ़्सीली इख़्तिलाफ़ात हर वाक़िये के चश्मदीद गवाहों के बयानात में पाए जाते हैं। बल्कि सच्च तो ये है कि अगर गवाहों के बयानात की तफ़ासील में इख़्तिलाफ़ ना हों तो अदालत के फ़ाज़िल जज इन
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131Taylor, Formation of Gospel Tradtion pp.168-176
बयानात को मशुक़ूक़ निगाहों से देखते हैं क्योंकि ये क़ुदरती बात है कि हर गवाह अपने ख़ुसूसी ज़ावीया निगाह से वाक़िये को देखे और इस को बयान करे और यह बयानात के इख़्तिलाफ़ का मूजिब हो जाता है। चुनान्चे राइट ऑनरेबल लार्ड शाह जो लार्ड आफ़ अपील रह चुके हैं कहते हैं :-
“हर शख़्स और बिल-ख़ुसूस हर जज पर (जिसका साबिक़ा शहादत और गवाही से पड़ता) ये बात फ़ौरन ज़ाहिर हो जाती है कि अगरचे सलीबी बयान की तफ़ासील में फ़र्क़ है और हर इन्जील नवीस के बयान का तरीक़ा निराला और जुदागाना है और चारों बयान करने वालों की समझ के मुताबिक़ वाक़िया सलीब के मुख़्तलिफ़ पहलूओं पर ज़ोर दिया गया है ताहम सलीबी मौत का बयान वज़न रखता है और बयान कर्दा वाक़ियात की सेहत में किसी को कलाम नहीं हो सकता।”
(सय्यदना मसीह का मुक़द्दमा सफ़ा 8, दी ट्रायल आफ़ जीज़स क्राइस्ट)
मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा ने बाअज़ वाक़ियात के बयान को दोहराया है। सर जान हाकिंस कहता है132कि इस क़िस्म के बयानात निहायत अहम क़िस्म के हैं क्योंकि इनके ज़रीये हमको अनाजील के माख़ज़ों का पता चल जाता है और इस बात का इल्म हो जाता है कि अनाजील के मुसन्निफ़ों ने अपनी इन्जील को मुरत्तिब करते वक़्त क्या-क्या माख़ज़ इस्तिमाल किए थे। बाज़ औक़ात सय्यदना मसीह का एक क़ौल दो मुख़्तलिफ़ माख़ज़ों में मुख़्तलिफ़ सियाक़ व सबाक़ में लिखा गया है और दोनों इन्जील नवीसों ने दोनों माख़ज़ों को निहायत ईमानदारी से नक़्ल कर दिया है। जिसका नतीजा ये है कि एक ही क़ौल या वाक़िये के दो बयानात बाज़ औक़ात एक ही इन्जील में पाए जाते हैं।
इस सिलसिले में हमें ये भी याद रखना चाहिए कि आँख़ुदावंद के कलमात (सवानिह हयात) जो अनाजील में दर्ज हैं सिर्फ किसी एक वाक़िये या महल पर ही बोले नहीं गए थे। इस नुक्ते को उमूमन नज़र-अंदाज किया जाता है और यह फ़र्ज़ कर लिया जाता है कि आँख़ुदावंद ने अपनी सह साला ख़िदमत में जो कलमा भी फ़रमाया था वो सिर्फ एक ही बार आप की मुबारक ज़बान से निकला था और बस। और जिस क़िस्म का मोअजिज़ा
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132Sir.J. Hawkins Horce Synoptica 1st ed.p.64
आपने एक दफ़ाअ किया वो सिर्फ एक ही मौक़े पर किया था। लेकिन ये मफ़रूज़ा सिरे से ग़लत है और तहक़ीक़-ए-हक़ में बनाए फ़ासिद (ख़राब, नाक़िस)133है। मसलन (मत्ती बाब 18:1) में लिखा है कि शागिर्दों ने सय्यदना मसीह से पूछा कि “आस्मान की बादशाही में बड़ा कौन है।” तब आपने एक बच्चे को बीच में खड़ा करके बड़ाई का उसूल बतला दिया। और मर्क़ुस और लूक़ा में आपने ये उसूल बतलाया। जब शागिर्दों में बाहम बह्स छड़ी। (लूक़ा 9 बाब)
पस ज़ाहिर है कि आँख़ुदावंद ने एक ही क़िस्म का क़ौल अपनी सह साला ख़िदमत के दौरान में कई बार और मुख़्तलिफ़ मौक़ा और महल पर फ़रमाया था और एक ही क़ौल मुख़्तलिफ़ तहरीरी माख़ज़ों और पारों में मुख़्तलिफ़ मौक़ा और महल के मुताबिक़ इन्जील नवीसों के सामने मौजूद था जिसको उन्होंने नक़्ल कर लिया।
इस सिलसिले में डाक्टर मोंटी फ़ेअरी का क़ौल याद रखने के क़ाबिल है। वो कहता है134कि आँख़ुदावंद की ज़िंदगी के किसी वाक़िये की सच्चाई या आपके किसी क़ौल की अस्लियत उस के माख़ज़ की क़दामत पर मुन्हसिर नहीं है। यानी ये बातिल है कि अगर कोई क़ौल या वाक़िया पहले लिखा गया है तो वो सही है और अगर कोई दूसरा क़ौल या वाक़िया उस के चंद माह या साल बाद अहाता-ए-तहरीर में आया है तो वो ग़लत है। किसी क़ौल या वाक़िये की सेहत का सही मेयार दिनों या महीनों की कमी बेशी नहीं है। मसलन पहाड़ी वाअज़ को ले लो। ये मजमूआ इन्जील मत्ती में मौजूद है जिसमें सय्यदना मसीह के मुख़्तलिफ़ ज़रीन अक़्वाल को एक मुक़ाम में जमा किया गया है। गो ये अक़्वाल एक ही वक़्त और एक ही मौक़े पर नहीं फ़रमाए गए थे जैसा कि इन्जील लूक़ा से ज़ाहिर है कि जमा किए जाने से पहले ये अक़्वाल मुंतशिर थे और हस्ब मौक़ा और महल बोले गए थे। पस इन अक़्वाल की अस्लियत का मेयार इनके जमा किए जाने का ज़माना नहीं है बल्कि इस अस्लियत का दारो-मदार इनके बोले जाने के बाद इनके महफ़ूज़ रहने पर है।s
मुअर्रिख़ सैली Seeley अपनी किताब Ecce Homo” “एकसी होमो” में क्या ख़ूब कहता है कि :-
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133G.C. Montefiore, The Synoptic Gospels Vol1.pXCIX
134Ibid.Vol.I.XCVII-VIII
“अनाजील के बेहतरीन अक़्वाल और ज़रीन कलमात की अस्लियत में किसी क़िस्म का शक नहीं हो सकता। क्योंकि वो ऐसे अल्फ़ाज़ हैं जो सिर्फ आँख़ुदावंद की ज़बान-ए-हक़ीक़त तर्जुमान से ही निकल सकते थे। आपके रसूल ऐसे तख़लीक़ी दिमाग़ और ज़ेहन-ए-रसा (तेज़ ज़हन) रखते ही ना थे कि वो उन को घड़ सकते। वो सिर्फ़ मामूली समझ और सूझ-बूझ के इन्सान थे। बल्कि सच्च पूछो तो वो इस क़ाबिल ना थे कि सय्यदना मसीह के कलमात की गहराईयों को पा सकें। बल्कि बाअज़ औक़ात तो वो आपके अक़्वाल के सतही मतलब को भी समझने से क़ासिर थे। उन्हों ने तमाम हालात को पोस्तकंदा (साफ़-साफ़) लिख दिया है और आलम वा अलमियान को मुस्तफ़ीद कर दिया है।”
(4)
जब अनाजील अहाता तहरीर में आईं उस ज़माने में काग़ज़ अभी दर्याफ़्त नहीं हुआ था। किताबें और रिसाले तूमारों पर लिखे जाते थे जो लपेटे जाते थे। क़ुद्रतन हर मुसन्निफ़ ये चाहता था कि उस के तूमार का साइज़ सिर्फ इतना बड़ा हो कि खोलते पढ़ते और लपेटते वक़्त पढ़ने वाला दिक्कत महसूस ना करे और तूमार भी ना फटे। पस मुसन्निफ़ को लाज़िमी तौर पर वाक़ियात का इंतिख़ाब करना पड़ता था और वो सिर्फ़ उन्ही वाक़ियात को क़लमबंद करता था जो उस के मक़्सद के लिए अहम थे और दीगर वाक़ियात को नज़र-अंदाज कर देता था। चुनान्चे इस नुक्ते को निगाह में रखकर अनाजील का साइज़ महदूद रखा गया। और इन्जील नवीसों ने आँख़ुदावंद के हज़ारों वाक़ियात और कलमात में से सिर्फ वही कलमात और वाक़ियात लिखे जो उन के मतलब को बदर्जा अह्सन पूरा करते थे। पपाइरस (नर्सल) के पारचे की तक़ती (किताब का साइज़) 5 इंच से 15 इंच तक होती थी। इस के मुतअद्दिद टुकड़े इकट्ठे लम्बान में जोड़े जाते थे और यूं एक लंबा तूमार तैयार किया जाता था जो लपेटा जाता था। ये तूमार तूल में आम तौर पर तीस या बत्तीस फिट होते थे। पस इन्जील नवीस को इस बात का ख़याल रखना पड़ता था कि जो कुछ उस ने लिखना है वो बीस पच्चीस फुट लंबे तूमार में लिखा जा सके। चुनान्चे मर्क़ुस की इन्जील के लिए 19 फुट का तूमार दरकार होता था। यूहन्ना की इन्जील के लिए साढ़े तेईस फुट का और मत्ती की इन्जील के लिए तीस फुट का तूमार दरकार था। लूक़ा की इन्जील के लिए 32 फुट के तूमार की ज़रूरत थी। पस लामुहाला इन्जील नवीसों को आँख़ुदावंद के कलमात-ए-तय्यिबात और मोअजज़ात और सवानिह हयात में से इंतिख़ाब करना पड़ता था
और उन्हों ने निहायत हज़म व एहतियात से काम लेकर अपने मक़्सद के तहत सिर्फ उन्ही वाक़ियात को क़लमबंद किया जो ज़्यादा से ज़्यादा तीस या बत्तीस फुट के तूमार पर लिखे जा सकें। यही वजह है कि मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा इन्जील दोम को नक़्ल करते वक़्त बाअज़ अल्फ़ाज़ को छोड़ देते हैं। मसलन (मर्क़ुस 1:23) को नक़्ल करते वक़्त मुक़द्दस लूक़ा अल्फ़ाज़ और “फ़ील-फ़ौर” को छोड़ देता है। मत्ती और लूक़ा इन्जील (मर्क़ुस 14:51 या 9:14-29) को नक़्ल करते वक़्त इस मुक़ाम की तफ़सीलात को छोड़ देते हैं (मत्ती 17:14-20, लूक़ा 9:37-41) गो यही तफ़सीलात साबित करती हैं कि ये तमाम बयान किसी चश्मदीद गवाह का बयान है। लेकिन चूँकि इन तफ़सीलात के बग़ैर भी बयान मुकम्मल है। पस मत्ती और लूक़ा इनको नक़्ल नहीं करते। लेकिन इस क़िस्म की ग़ैर ज़रूरी तफ़सीलात से हर रोशन दिमाग़ पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि इनका बयान करने वाला एक चश्मदीद गवाह है और वो इन्जील नवीस के दिमाग़ की इख़्तिरा नहीं क्योंकि इनके बग़ैर भी बयान मुकम्मल है।
(5)
हम अबवाब बाला में देख चुके हैं कि तीनों इन्जील नवीसों ने क़दीम माख़ज़ों को लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ नक़्ल किया है। चुनान्चे मुक़द्दस मत्ती ने मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील की नव्वे फ़ीसद बातें तक़रीबन मुक़द्दस मर्क़ुस के अल्फ़ाज़ में नक़्ल की हैं और मुक़द्दस लूक़ा ने मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील का आधे से ज़्यादा नक़्ल किया है। और तीनों अनाजील के मुशतर्का मुक़ामात में मुक़द्दस मत्ती या मुक़द्दस लूक़ा या दोनों इन्जील नवीस मुक़द्दस मर्क़ुस के अल्फ़ाज़ का एक कसीर हिस्सा नक़्ल करते हैं। इलावा अज़ीं मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के मुन्दरिजा वाक़ियात की तर्तीब को बाक़ी दोनों इन्जील नवीस क़ायम रखते हैं और जिस मुक़ाम में एक इन्जील नवीस इस तर्तीब को छोड़ देता है, दूसरा इन्जील नवीस इस को क़ायम रखता है।135इन उमूर से हमको इन्जील नवीसों की तर्ज़ तालीफ़ का पता मिल जाता है कि जहां तक हो सका उन्होंने अपने माख़ज़ों के अल्फ़ाज़ को क़ायम और बरक़रार रखा और उन में तब्दीली ना की। दूसरे लफ़्ज़ों में हम ये कह सकते हैं कि इन अनाजील में बमुश्किल कोई लफ़्ज़ होगा जो इन के माख़ज़ों में ना हो। चूँकि इन माख़ज़ों के अल्फ़ाज़ का पाया एतबार आला तरीन है और इनके हर लफ़्ज़ की सेहत का ज़िम्मेदार है। लिहाज़ा
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135Streeter, Four Gospels pp.200ff
इन अनाजील का भी पाया एतबार बुलंद तरीन है क्योंकि वो सिर्फ़ मोअतबर अल्फ़ाज़ पर ही मुश्तमिल हैं।
(6)
बईं-हमा (इन तमाम बातों के बावजूद) तीनों इन्जील नवीसों ने अपने माख़ज़ों को इस हैरत-अंगेज़ पर इस्तिमाल किया है कि इनको अपना लिया है। ऐसा कि हर एक तर्ज़-ए-तहरीर अलग है। हर एक का उस्लूब बयान जुदा है। मुक़द्दस मर्क़ुस का तर्ज़ बयान मुक़द्दस मत्ती का सा नहीं और मुक़द्दस मत्ती का तौर-ए-तहरीर मुक़द्दस लूक़ा का सा नहीं। हर एक की तर्ज़ ख़ुसूसी है ऐसा कि जिस शख़्स ने अनाजील का ज़रा ग़ौर व तदब्बुर के साथ मुतालआ किया है वो फ़ौरन बतला सकता है कि फ़ुलां आयत लूक़ा में या मर्क़ुस में या मत्ती की इन्जील में नहीं हो सकती क्योंकि इस का तर्ज़-ए-तहरीर इस मुसन्निफ़ का सा नहीं है।
हक़ तो ये है कि इन्जील नवीसों ने अपने माख़ज़ों को इस ख़ुश-उस्लूबी से अपनाया है कि अगर हमारे हाथों में इन्जील मर्क़ुस ना होती तो हम इन्जील अव़्वल व सोम से तमाम की तमाम इन्जील मर्क़ुस को मुरत्तिब ना कर सकते हालाँकि इन दोनों इंजीलों में वो नक़्ल की गई है। हम बाआसानी इस इन्जील के अल्फ़ाज़ भी मुतय्यन ना कर सकते, लेकिन चूँकि इन्जील मर्क़ुस हमारे हाथों में मौजूद है हम ना सिर्फ ये बतला सकते हैं कि इस को बाक़ी दोनों इन्जील नवीसों ने नक़्ल किया है बल्कि इन दोनों के मुशतर्का अल्फ़ाज़ से हम रिसाला-ए-कलमात को भी एक हद तक मुईन कर सकते हैं हालाँकि ये रिसाला अब आलम-ए-वुजूद में नहीं है। लेकिन अगर हमारे पास सिर्फ इन्जील मत्ती होती या सिर्फ इन्जील लूक़ा होती तो हम इन दोनों में से किसी एक इन्जील के ज़रीये ना तो इन्जील मर्क़ुस मुरत्तिब कर सकते और ना रिसाला-ए-कलमात के अल्फ़ाज़ को मुतय्यन कर सकते। इस से हम अंदाज़ा कर सकते हैं कि इन्जील नवीसों ने किस ख़ूबी से अपने माख़ज़ों को अपना लिया है।
मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा ने माख़ज़ों को इस्तिमाल करते वक़्त ना सिर्फ इनके अल्फ़ाज़ की नहवी (इल्म नहव का माहिर) ख़ामियों को दुरुस्त किया है बल्कि अल्फ़ाज़ की दुरशती (सख़्ती) को भी दूर कर दिया है। मसलन (मर्क़ुस 6:5 का मुक़ाबला करें मत्ती 13:58 से) मुक़द्दस लूक़ा इन अल्फ़ाज़ को नक़्ल नहीं करता। इन लफ़्ज़ी तब्दीलियों
का ताल्लुक़ अक्सर औक़ात मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील की यूनानी ज़बान के तर्ज़-ए-अदा और उस्लूब-ए-बयान के साथ है। जैसा हम बतला चुके हैं इस इन्जील की यूनानी ऐसी है, जैसे कोई शख़्स फ़ील-बदीहा तक़रीर करता है और दूसरा शख़्स उस की तक़रीर को “शॉर्ट हैंड” में लिख ले। पस इस इन्जील की यूनानी ज़बान में ख़ामियाँ मौजूद हैं। लेकिन बाक़ी दोनों इन्जील नवीसों की यूनानी ज़बान ज़्यादा शुस्ता (पाक ख़ालिस), मुख़्तसर और जामेअ है और वो अपने अल्फ़ाज़ को तौल कर लिखते हैं, जिस तरह कोई मुसन्निफ़ अपनी किताब को दूसरे लोगों के पढ़ने के लिए सलीस, और नस्तईलक़ (मुहज़्ज़ब, नफ़ीस) ज़बान में लिखता है। मसलन मुक़द्दस मर्क़ुस एक जगह लिखते हैं “जब शाम हो गई और सूरज डूब गया।” लेकिन मुक़द्दस मत्ती इस मुक़ाम को यूं नक़्ल करते हैं “जब शाम हुई।” और मुक़द्दस लूक़ा जब “सूरज डूब गया” लिखते हैं। सरजान हाकिंस ने इस क़िस्म की एक सौ (100) मिसालें जमा की हैं।136ये मुक़ामात मुक़ाबलतन बहुत कम हैं लेकिन वो माअनी-ख़ेज़ हैं और साबित करते हैं कि इन्जील नवीस मह्ज़ क़ातिबों की तरह अल्फ़ाज़ को नक़्ल करने वाले ही ना थे। बल्कि ज़बान और कलाम के नक़्क़ाद (खोटा-खरा देखने वाले) भी थे जो इस बात पर क़ादिर थे कि माख़ज़ों के अल्फ़ाज़ को इस तौर पर नक़्ल करें कि वो अपनाए जाएं ऐसा कि इनमें ख़ुसूसी तर्ज़ पैदा हो जाए।
(7)
अनाजील के मोअल्लिफ़ों ने अपने माख़ज़ों के इस्तिमाल करते वक़्त वही तरीक़ा इख़्तियार किया जो उन से पहले अहद-ए-अतीक़ की कुतुब के लिखने वालों ने इस्तिमाल किया था। चुनान्चे इन किताबों में उन माख़ज़ों के नाम भी दिए गए हैं जिनसे इनके मोअल्लिफ़ों ने वाक़ियात अख़ज़ किए थे। मसलन यशूअ की किताब और शमुएल की किताब में आशिर की किताब का ज़िक्र आता है। (यशूअ 10:13, 2 शमुएल 1:18 वग़ैरह) इसी तरह पहली और दूसरी तवारीख़ की कुतुब के मुसन्निफ़ों ने पहली और दूसरी सलातीन की कुतुब से वाक़ियात लिए हैं और वो सलातीन की किताबों के अल्फ़ाज़ भी इस्तिमाल करते हैं।
जिस तरह क़दीम ज़माने में “आशिर की किताब” मशहूर थी लेकिन चूँकि इस के बेहतरीन मज़ामीन बाइबल की दीगर किताबों में नक़्ल हो गए थे इस किताब का नक़्ल
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136Hawkin’s Horce Synoptica p.125
होना मौक़ूफ़ हो गया और आहिस्ता-आहिस्ता वो किताब नाबूद हो गई। इसी तरह जब इन्जील नवीसों ने रिसाला-ए-कलमात और रिसाला-ए-इस्बात के मज़ामीन को नक़्ल कर लिया तो इन रिसालों की ज़रूरत ना रही और इन का नक़्ल होना मौक़ूफ़ हो गया। ऐसा कि ये रिसाले रफ़्ता-रफ़्ता नाबूद हो गए।
अला-हाज़ा-उल-क़यास जब मुक़द्दस मत्ती और मुक़द्दस लूक़ा ने मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के मज़ामीन को अपनी इन्जील में नक़्ल कर लिया तो ये इन्जील भी बहुत कम नक़्ल होने लगी। क्योंकि ये दोनों अनाजील ज़्यादा मुकम्मल और मुफ़स्सिल थीं। इनमें वो सब कुछ मौजूद था जो इन्जील मर्क़ुस में पाया जाता है और इस के इलावा इनमें सय्यदना मसीह की तालीम और कलमात और दीगर वाक़ियात भी दर्ज थे। हमें ये भी याद रखना चाहिए कि इब्तिदाई मसीही सिर्फ़ चंद एक तूमार ही रख सकते थे पस उन्हों ने इन्जील मत्ती और इन्जील लूक़ा के तूमारों को क़ुद्रतन तर्जीह दी जिसका नतीजा ये हुआ कि इन्जील मर्क़ुस की नक़्लें भी कम होने लगीं और एक वक़्त ऐसा आ गया कि ये इन्जील भी नाबूद (नापैद, नेस्त) होने लगी। हर एक इन्जील ख़वाँ इस बात से वाक़िफ़ है कि इस इन्जील के सोलहवें बाब की आठवीं आयत के दर्मियान में ये इन्जील ख़त्म हो जाती है। इस आयत का आख़िरी फ़िक़्रह भी अधूरा ही रह गया है जिसके आख़िरी अल्फ़ाज़ “क्योंकि लर्ज़िश और हैबत” हैं हालाँकि इस में रत्ती भर शक नहीं कि इस इन्जील के आख़िर में सय्यदना मसीह के शागिर्दों पर ज़ाहिर होने का वाक़िया दर्ज था। ये ज़ाहिर है कि इस की मौजूदा अधूरी हालत मह्ज़ एक इत्तिफ़ाक़ीया अम्र है क्योंकि अगर ये बात इरादतन वक़ूअ में आई तो कम-अज़-कम आख़िरी फ़िक़्रह तो अधूरा ना रहने दिया जाता बल्कि वो पूरा लिखा जाता। इस से साबित होता है कि इस इन्जील का नक़्ल होना मौक़ूफ़ हो गया था और एक वक़्त ऐसा आया जब सिर्फ एक ही नुस्ख़ा मौजूद रह गया था जिसमें ये फ़िक़्रह अधुरा था और कोई दूसरा नुस्ख़ा दस्तयाब ना हो सका जिसके ज़रीये इस आख़िरी फ़िक़्रह को पूरा कर लिया जाता।
जब बाद के ज़माने में कलीसिया ने अनाजील अरबा की मुसल्लिमा फ़ेहरिस्त को तस्लीम कर लिया तो इन्जील दोम फिर से नक़्ल होने लगी और अब ये इन्जील हमारे हाथों में मौजूद है, अगरचे इस को बाक़ी दोनों इंजीलों में नक़्ल किया गया है। जिस तरह सलातीन की दोनों किताबें हमारे हाथों में मौजूद हैं अगरचे इनके मज़ामीन और अल्फ़ाज़ तवारीख़ की किताबों में नक़्ल हो गए थे।
(8)
इन्जील नवीस वक़ाऐ निगार मुअर्रिख़ (तारीख़ी वाक़ियात लिखने वाले) ना थे। इस ज़माने में तारीख़ का मौजूदा तसव्वुर अभी मारज़-ए-वजूद में नहीं आया था। जस्टिन शहीद दूसरी सदी के पहले निस्फ़ हिस्से में अनाजील को “तज़्किरा” Memoirs के नाम से मौसूम करता है और यह इन्जील नवीसों के नुक़्ता निगाह को समझने के लिए निहायत मौज़ूं लफ़्ज़ है। इन्होंने मुख़्तलिफ़ बिखरे हुए माख़ज़ों को मुख़्तलिफ़ गिरोहों में जमा किया, सय्यदना मसीह की तालीम को मुख़्तलिफ़ उनवानों के मातहत इकट्ठा किया लेकिन शान-ए-नुज़ूल का यानी इस बात का ख़ास लिहाज़ ना रखा कि वो कलमात कब और किस मौक़े पर फ़रमाए गए। इन्होंने इन कलमात के जमा करने में किसी तवारीख़ी तर्तीब को भी मलहूज़ ख़ातिर ना रखा। उन्हों ने सय्यदना मसीह के कलमात और सवानेह-हयात को इस मक़्सद के लिए जमा किया कि कलीसिया के ईमानदारों का ईमान मुस्तहकम और मज़्बूत हो। उन्हों ने सीरत-ए-निगारी का काम अंजाम दिया। वो वाक़ियात को मुसलसल तवारीख़ी तौर पर जमा करने वाले ना थे। हक़ तो ये है कि तारीख़ इत्तिफ़ाक़ीया वाक़ियात के मह्ज़ सिलसिले का नाम नहीं। इन वाक़ियात के पस-ए-पर्दा इलाही अटल क़वानीन होते हैं और मुअर्रिख़ का काम इन पिन्हानी क़वानीन को बतलाना है। चुनान्चे इन्जील नवीस इस काम को सरअंजाम देते हैं।
हमारे मुल्क हिंद व पाकिस्तान के क़दीम लोगों की तरह अहले-यहूद भी तवारीख़ी वाक़ियात को इस तरह क़लमबंद नहीं करते थे जिस तरह रोमी सल्तनत के मुअर्रिख़ कर लेते थे। अगरचे अहद-ए-अतीक़ की तवारीख़ी कुतुब यहूद में मुरव्वज थीं ताहम यहूद तारीख़ की जानिब से बेनियाज़ थे और यही वजह है कि किसी नबी या यहूदी रब्बी की सवानेह-उम्री मौजूद नहीं। कुतुब अहद-ए-अतीक़ की तवारीख़ी कुतुब भी मह्ज़ वाक़ियात के ज़िक्र करने पर ही इक्तिफ़ा नहीं करतीं बल्कि इन वाक़ियात के पस-ए-पर्दा जो रुहानी और अख़्लाक़ी क़वानीन कारफ़रमा हैं, इनका ही ज़िक्र करती हैं।
सच्च पूछो तो मह्ज़ वाक़ियात को तवारीख़ी तौर पर जमा कर देने से किसी शख़्स की सीरत का पता नहीं चल सकता। मसलन अगर कोई मुसन्निफ़ किसी मशहूर शख़्स की
सीरत लिखने बैठे और तवारीख़ी तौर पर सिर्फ ये बतलाए कि वो फ़ुलां मुक़ाम में और फ़ुलां सन में पैदा हुआ। उस ने फ़ुलां स्कूल से फ़ुलां सन में फ़ुलां जमाअत का इम्तिहान पास किया। और फ़ुलां कॉलेज से फ़ुलां यूनीवर्सिटी में फ़ुलां साल फ़ुलां इम्तिहान में अव्वल दर्जे पर रहा। फ़ुलां साल वो फ़ुलां हाईकोर्ट का जज और फ़ुलां साल में फ़ुलां मुल्क का वज़ीर-ए-आज़म बना। उस के ओहदे वज़ारत के ज़माने में फ़ुलां फ़ुलां क़ानून बने और वो फ़ुलां साल अचानक मर गया तो इस क़िस्म की वो वक़ाऐ निगारी से किसी को इस शख़्स की सीरत और एहमीय्यत का पता नहीं चल सकता और ना इस क़िस्म की तवारीख़ी मुसलसल तर्तीब किसी मुसर्रिफ़ (काम) की हो सकती है। क्योंकि हर शख़्स की ज़िंदगी में ख़फ़ीफ़ वाक़ियात रख़्तनी और गुज़िश्तनी होते हैं जो सिर्फ आरिज़ी और वक़्ती क़िस्म के होते हैं और चंद अर्से के बाद वो भूल बसर हो जाते हैं क्योंकि ऐसे वाक़ियात का दाइमी असर नहीं होता। लेकिन उस की ज़िंदगी के बाअज़ हालात तमाम ज़मानों के लिए होते हैं। उनका ज़िक्र लाज़िमी है। अगर उस की शख़्सी, ख़ानदानी और पब्लिक ज़िंदगी की चंद मिसालें दी जाएं और यह बतलाया जाये कि उस के ताल्लुक़ात दोस्तों और दुश्मनों के साथ क्या थे, उस का सुलूक क़ौमी कारकुनों और आम्म-तुल-नास के साथ क्या था। जिसकी वजह से वो उस पर फ़िदा थे। उस का क़ौमी और बयनुल-अक़वामी मुतम्मअ नज़र (असली मक़्सद) क्या था। जिससे उस के मुल्क में इन्क़िलाब और दुनिया में तहलका पड़ गया वग़ैरह-वग़ैरह। तो ये उमूर् उस की सीरत को समझने में और उस की शख़्सियत को जानने में बड़े काम के होते हैं।
इस सिलसिले में प्लोटॉर्क के अल्फ़ाज़ क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं। चुनान्चे वो अपनी किताब सिकन्दर के ज़िंदगी नामे के शुरू में कहता है, “उस के बड़े और अजीब काम इस कस्रत से थे कि मेरे लिए ये ज़रूर है कि मैं अपने नाज़रीन को आगाह कर दूँ कि मैंने उस की ज़िंदगी का मुख़्तसर ख़ाका ही पेश किया है और हर वाक़िये की तफ़सीलात से अहितराज़ किया है। ये याद रखना चाहिए कि मेरा मक़्सद ये नहीं कि मैं कोई तारीख़ की किताब लिखूँ बल्कि मेरा मतलब ये है कि मैं एक ज़िंदगी नामा लिखूँ। पस जिस तरह मुसव्विर चेहरे की उन लकीरों और ख़ुसूसी बातों को पेश करता है जिनसे कैरक्टर (किरदार) साफ़ हो जाये। इसी तरह मैंने उन वाक़ियात को पेश किया है जिनसे उस की रूह नज़र आ जाए।”
इसी तरह ये इन्जील नवीस सीरत-ए-मसीह को पेश करना चाहते थे ताकि आँख़ुदावंद के तसव्वुरात और रुहानी जज़्बात का नक़्शा उन के पढ़ने वालों की नज़रों के सामने खींच जाये।
“सीरत-ए-मसीह” से हमारी ये मुराद है कि इब्तिदाई मसीही अपने आक़ा और मुनज्जी की तालीम और सवानेह-हयात, आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत और साऊद-ए-आस्मानी से वाक़िफ़ होना चाहते थे और अनाजील अर्बा ने ये काम बेहतरीन तरीक़े से पूरा कर दिया है। लेकिन अगर सीरत से ये मुराद ली जाये कि एक वाक़िये से किस तरह दूसरा वाक़िया रौनुमा हुआ, और दूसरे वाक़िये का तीसरे वाक़िये से क्या ताल्लुक़ है या आपकी ज़हनी और रुहानी ज़िंदगी ने किस तरह बतद्रीज (दर्जा बदर्जा) तरक़्क़ी की ताकि आपके बातिनी ख़यालात और रुहानी जज़्बात और मुख़्तलिफ़ मुहर्रिकात का पता लग सके तो इस क़िस्म का तसव्वुर इन्जील नवीसों के ज़माने में मौजूद ही ना था। यही वजह है कि हम ठीक-ठीक ये नहीं बतला सकते कि आपकी उम्र क्या थी। या आपकी एलानिया ख़िदमत का अर्सा कितने बरस का था या आपका मुबारक चेहरा, क़दो-क़ामत ख़द्द व ख़ाल (शक्ल व सूरत) क्या थे। और आप की ज़िंदगी का बेशतर और मुतअद्दद (बहुत, कई) हिस्से हमसे पोशीदा है।
वाक़ियात को मुफ़स्सिल तौर पर तारीख़-वार लिख कर तर्तीब देना एक बात है। और किसी शख़्स की शख़्सियत, सीरत, स्वभाव वग़ैरह की किरदार निगारी दूसरी बात है। तारीख़ी वाक़ियात सिर्फ़ बैरूनी आलम के मुशाहदात होते हैं और उन को लिखने में मुक़ाबलतन शऊर को इतना दख़ल नहीं होता जितना एक अम्र और हमेशा ज़िंदा रहने वाली शख़्सियत की सीरत निगारी में अक़्ल और शऊर को दख़ल होता है। वाक़िया निगारी में कोई आग नहीं होती लेकिन सीरत निगारी की चिंगारियां तन-बदन में आग लगा देती हैं और पढ़ने वाले की रग-रग में इर्तिआश (काँपना) पैदा हो जाता है। और यह काम इन्जील नवीसों ने बदर्जा अह्सन अंजाम दिया है।138
इन्जील नवीसों के तरीक़ा-ए-कार कम-अज़-कम ये फ़ायदा ज़रूर हुआ कि आपकी ज़िंदगी के वाक़ियात में इस्लामी अहादीस की तरह ग़लतबयानी, मुबालग़ा आमेज़ी और रंग
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138Burkitt, Gospels History and its Transmission pp.23-27
आमेज़ी से काम नहीं लिया गया। जिसका ये मतलब है कि अगरचे हमारे पास दौर-ए-हाज़रा के मोअर्रिखों के से बयान नहीं हैं ताहम इन्जील के पढ़ने वाले आँ-खुदावंद की सीरत और शख़्सियत से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं। इन्जील नवीसों ने आपकी ज़िंदगी के अहम वाक़ियात को लिखा जिनका इल्म लाज़िमी और ज़रूरी था। दीगर वाक़ियात को क़लम अंदाज़ कर दिया गया है। जो वाक़ियात लिखे गए वो बिल-उमूम में मौजूद थे क्योंकि ज़बानी बयानात उमूमन मुसलसल वाक़ियात की सूरत में नहीं होते बल्कि वो अलग-अलग और ग़ैर-मरबूत होते हैं।139
अनाजील का सरसरी मुतालआ भी हम पर ये वाज़ेह कर देता है कि इनके मुसन्निफ़ आँख़ुदावंद की सीरत निगारी का काम सरअंजाम देने की इस्तिदाद (सलाहियत) और क़ाबिलियत रखते थे। ये मुसन्निफ़ वो तमाम सिफ़ात रखते थे जो किसी आला सीरत निगार के लिए लाज़िमी हैं। यही वजह है कि इनकी तसानीफ़ दो हज़ार साल के बाद रोज़ अव़्वल की तरह अब भी वैसी ही जाज़िब-ए-तवज्जोह हैं और दुनिया के मुख़्तलिफ़ ममालिक, अक़्वाम और ज़मानों में दिलकश साबित हो कर करोड़ों की नजात का बाइस होती चली आई हैं।
(9)
अगर इन्जील व क़ुर्आन के माख़ज़ों पर और इन की तालीफ़ पर एक इज्माली नज़र डाली जाये तो दोनों आस्मानी किताबों के पाया सेहत व एतबार का फ़र्क़ ख़ुद ब-ख़ुद सामने आ जाता है। हमारे मुस्लिम बिरादरान क़ुर्आन व हदीस में तमीज़ करके क़ुर्आन को ख़ुदा का कलाम और हदीस को रसूल का कलाम कहते हैं। लेकिन हर आक़िल पर ये बात रोशन है कि जिस तरह हक़ तआला इन्सान के बने हुए किसी मकान में सुकूनत नहीं करता, इसी तरह वो इन्सान की ज़बान के बने हुए अल्फ़ाज़ की बोली भी नहीं बोलता। क़ुर्आन में ख़ुद आया है। (وَمَا كَانَ لِبَشَرٍ أَن یكَلِّمَهُ اللَّهُ إِلَّا وَحْیا)
तर्जुमा : यानी किसी आदमी के लिए मुम्किन नहीं कि अल्लाह उस से बातें करे मगर बज़रीये वही के। (सूरह अल-शूरा आयत 50)
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139Vincent Taylor, Formation of Gospels Tradtion pp.144-167
क़ुर्आन के मुताबिक़ वही का मतलब किसी इन्सान के जी में बात डालना है। चुनान्चे लिखा है, (وَأَوْحَینَا إِلَى أُمِّ مُوسَى أَنْ أَرْضِعِیهِ)
तर्जुमा : यानी हमने मूसा की माँ की तरफ़ वही भेजी यानी उस के दिल में ये बात डाली कि वो मूसा को दूध पिलाए। (क़िसस आयत 7)
और सूरह नहल में है कि ख़ुदा ने शहद की मक्खी की तरफ़ वही भेजी वग़ैरह। लिहाज़ा अगर क़ुर्आन ख़ुदा का कलाम है तो वो उन मअनों में नहीं कि इस के अल्फ़ाज़ ख़ुदा के अपने मुँह के अल्फ़ाज़ हैं क्योंकि ख़ुदा का ना तो कोई मुँह है, ना ज़बान, और ना अल्फ़ाज़। उस की ज़ात ऐसी बातों से बाला और मुनज़्ज़ह है। पस ज़ाहिर है कि क़ुर्आन भी हदीस की तरह रसूल अरबी का कलाम है जो ख़ुदा की तरफ़ से इलक़ा और इल्हाम का नतीजा है और जो माख़ज़ों से जमा किया गया था। और दीगर कुतुब की तरह तालीफ़ किया गया था।
जब रसूल-ए-अरबी ने 11 हिज्री में वफ़ात पाई तो मौजूदा क़ुर्आन अहाता-ए-तहरीर में नहीं आया था। क़ुर्आन को जमा करने वाले ज़ैद बिन साबित के पास ये माख़ज़ थे।
“वही कभी हिरन की झिल्लियों और कभी ऊंट की हड्डीयों और कभी खजूर के पत्तों की क़त्लों (पत्थर की किरिच, मिट्टी के बर्तन का टुकड़ा) पर लिखी जाती थी। अस्हाब में से जिनको ज़्यादा शौक़ था वो बतौर-ए-ख़ुद वही को जमा भी करते जाते थे। लेकिन बा-इस्तियुवाब (तमाम) नहीं। बल्कि जिसको जो कुछ बहम पहुंचा बक़द्र फ़ुर्सत जमा कर लिया। पैग़म्बर साहब की ज़िंदगी में पूरे क़ुर्आन का किसी एक शख़्स के पास होना साबित नहीं। मगर हाँ जमाअत-ए-सहाबा में पूरा क़ुर्आन मौजूद था। कुछ लोगों के सीनों में, कुछ झिल्लियों और हड्डीयों और क़त्लों और पत्तों में। इस ज़माने के लोग अज़बस (बहुत ज़्यादा) पढ़े लिखे ना थे, क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा को ज़्यादा काम में लाते थे।”
(हाफ़िज़ नज़ीर अहमद दीबाचा क़ुर्आन सफ़ा 36)
ये माख़ज़ इस क़िस्म के थे और जमा क़ुर्आन का काम ऐसा दुश्वार था कि ज़ैद कहता है कि “ख़ुदा की क़सम अगर मुझे मज्बूर करते कि तुम पहाड़ को एक जगह से
दूसरी जगह कर दो तो ये बात मुझे ज़्यादा मुश्किल मालूम ना होती बनिस्बत इस के कि मुझे जमा क़ुर्आन का हुक्म दिया।”
(1) पहली क़िस्म के माख़ज़ क़ुर्आन के हाफ़िज़ और क़ारी थे और क़ुर्आन ज़्यादातर उन के सीने में ही था। क्योंकि “झिल्लियों और हड्डीयों और क़त्लों और पत्तों” पर क़ुर्आन का हिस्सा बहुत कम लिखा जा सकता था। लेकिन अव़्वल ये हाफ़िज़ आख़िर बशर थे। इनके हाफ़िज़े से बाअज़ आयात फ़रामोश हो सकती थीं और हुईं। बल्कि हदीस से ज़ाहिर है कि ख़ुद रसूल-अल्लाह भी बाअज़ आयात भूल जाते थे।
दोम, रसूल अरबी के जीते-जी हिज्रत के बाद 9 सालों के अंदर 83 ग़ज़वात और सुरया हुए और उन की वफ़ात के बाद खल़िफ़ा के ज़माने में बहुत जंगें हुईं जिनमें ये हाफ़िज़-ए-क़ुर्आन मारे गए। मअरका (जंग) यमामा में बिलख़ुसूस बहुत से हाफ़िज़-ए-क़ुर्आन काम में आए। पस क़ुर्आन का वो हिस्सा जो सिर्फ उनको ही याद था उनके साथ ज़ाए हो गया। चुनान्चे इब्ने दाऊद से मर्वी है कि हज़रत उमर ने क़ुर्आन की किसी आयत को दर्याफ़्त किया उन से कहा गया कि वो आयत फ़ुलां शख़्स को याद थी जो जो कि मअरका (जंग) यमामा में क़त्ल हो गया। ये सुनकर उमर ने कहा इन्ना लिल्लाह और क़ुर्आन को जमा करने का हुक्म दिया।”
(2) क़ुर्आन के दूसरे माख़ज़ इस क़िस्म के थे, कि वो पाएदार ना थे और मुंतशिर (बिखरे, परागंदा) हालत में थे जो क़रीब निस्फ़ सदी तक महफ़ूज़ रह सकते। उनको जमा करने और जमा करने के बाद उनकी हिफ़ाज़त का कोई इंतिज़ाम ना था।
(3) क़ुर्आन को जमा करने वाला ज़ैद बिन साबित इस काम के अहल ना था जो उस के सपुर्द किया गया था। क़ुर्आन के चारों मुसल्लम-बिल-सबूत उस्तादों यानी अब्दुल्लाह बिन मसऊद, सालिम मौला इब्ने हुज़ैफ़ा, अबी बिन कअब और मुआज़ बिन जबल से किसी को जमा क़ुर्आन के लिए ना कहा गया। लेकिन ये काम ज़ैद को दिया गया जो बाद हिज्रत मदीना में मुसलमान हुआ था और ख़ुर्द-साल होने की वजह से जंगों में भी शरीक ना किया गया था। वो ना मशहूर सहाबा में से था और ना उस को क़ुरआनी आयात व अल्फ़ाज़ की तर्तीब का इल्म था। वो हाफ़िज़-ए-क़ुर्आन भी ना था।
(4) इस का नतीजा ये हुआ कि जो क़ुर्आन जमा किया गया, उस में तमाम का तमाम क़ुर्आन जो रसूल के ज़माने में था दर्ज ना हुआ बल्कि उस का सिर्फ एक हिस्सा जमा हुआ और वो भी बे-तर्तीबी और बेरबती के साथ। मक्की आयात मदनी सूरतों में मौजूद हैं और बिल-उमूम क़ुर्आन के मुक़ामात और आयात की जमा और तक़्सीम में कोई मुनासबत पाई नहीं जाती। इमाम जलाल उद्दीन सियूती की किताब “इत्तिक़ान” का सतही मुतालिबा भी ये ज़ाहिर कर देता है कि अस्ल क़ुर्आन ना सिर्फ आयात की आयात बल्कि सूरतें भी मौजूदा क़ुर्आन में नहीं हैं। और इस में बाअज़ आयात ऐसी हैं जो दर-हक़ीक़त अस्ल क़ुर्आन का हिस्सा ना थीं और क़ुर्आन व ग़ैर-क़ुर्आन में कोई फ़र्क़ ना रहा। अस्ल क़ुर्आन के बाअज़ हिस्से ग़ैर-क़ुरआनी समझे गए और ग़ैर-क़ुरआनी हिस्से क़ुर्आन में दाख़िल हो गए। अब हालत ये है कि सूरतों और आयतों का सही महल व मकाम दर्याफ़्त करना एक नामुम्किन अम्र हो गया है। इस बे-एहतियाती और बे-रबती को उलमाए इस्लाम तस्लीम करते हैं। इस का नतीजा ये हुआ कि क़ुर्आन के बाअज़ मुक़ामात में फ़साहत व बलाग़त तो अलग, सलीस अरबी इबारत की बजाए लफ़्ज़ी उयूब मौजूद हैं। तकरार लफ़्ज़ी और माअनवी मौजूद है और जाबजा बे-रबती पाई जाती है। मसलन बतौर मुश्ते नमूना इज़ख़रवारे (ढेर मे से चन्द मिसालें) (सूरह यूनुस रूकुअ 9) में (وَأَوْحَینَا إِلَى مُوسَى ۔۔۔ الخ) में पहले हुक्म तशनिया (تشنیہ) के सीग़ा से देना शुरू हुआ फिर रबूत तोड़ कर इस को जमा कर दिया है और फिर दफ़अतन इस को वाहिद बना दिया है! (सूरह फ़त्ह आयत 8) में है (إِنَّا أَرْسَلْنَاكَ شَاهِدًا وَمُبَشِّرًا ۔۔۔۔ الخ) में मुतकल्लिम हाज़िर और ग़ायब को मख़लूत करके ज़मीरों को गढ़-बड़ कर दिया है। हम इस मौज़ू पर नाज़रीन की तवज्जोह इमाम सियूती की किताब “इत्तिक़ान” मिर्ज़ा सुल्तान अहमद की किताब “तसहीफ़-ए-कातीन” सय्यद अली हायरी की किताब “मवअज़ तहरीफ़ क़ुर्आन” सय्यद अमजद हुसैन की किताब “तहरीफ़-उल-क़ुर्आन” प्रोफ़ैसर रामचंद्र की किताब “तहरीफ़-उल-क़ुर्आन” और मिस्टर अकबर मसीह की किताब “तनवीर अज़्हान फ़साहत-उल-क़ुर्आन” और पादरी इमाद-उद्दीन की किताब “तक़वियतुल-ईमान” वग़ैरह की जानिब मबज़ूल करने पर इक्तिफ़ा करते हैं।
हर मुंसिफ़ मिज़ाज शख़्स ख़ुद देख सकता है कि अनाजील अरबा और क़ुर्आन के माख़ज़ों और तालीफ़ करने वालों की क़ाबिलियत और मजमूआ अनाजील और क़ुर्आन में ज़मीन आस्मान का फ़र्क़ है।
بہ بیں تفاوتِ راہ از کجا ست تا بکجا
हिस्सा सोम
तारीख़ तस्नीफ़-ए-अनाजील-ए-मुत्तफ़िक़ा
हमने पिछले दो हिस्सों में ये साबित कर दिया है कि अनाजील का पाया एतबार निहायत बुलंद और इनके मज़ामीन की सेहत की शान निहायत रफ़ी (आला) है। इनके बयानात के हज़ारहा चश्मदीद गवाह थे जो इन की तालीफ़ व तर्तीब के ज़माने में ज़िंदा थे। इन चश्मदीद गवाहों के बयानात हमारी अनाजील के माख़ज़ हैं जो निहायत क़दीम हैं और अव्वलीन ज़माने से ताल्लुक़ रखते हैं।
इस हिस्से में हम इंशा-अल्लाह ये साबित करेंगे कि ये अनाजील मुनज्जी-ए-जहान (मसीह) की सलीबी मौत के तीन सालों के अंदर-अंदर उन क़दीम तरीन माख़ज़ों से तालीफ़ की गईं जिनमें से (जैसा हम हिस्सा दोम में साबित कर चुके हैं) बाअज़ उसी ज़माने में लिखे गए थे जब ये वाक़ियात रौनुमा हुए थे और जब आँ-खुदावंद अभी मस्लूब भी नहीं हुए थे।
रसूलों के आमाल की किताब (जो इन्जीली मजमूए में पांचवीं किताब है) इन्जील-ए-सोम के बाद लिखी गई (आमाल 1:1) हम दूसरे हिस्से के अबवाब अव़्वल की फ़स्ल सोम में बतला चुके हैं कि इन्जील सोम के मुसन्निफ़ मुक़द्दस लूक़ा ने इन्जील दोम को बतौर एक माख़ज़ के इस्तिमाल किया है। पस मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील मर्क़ुस की इन्जील के बाद लिखी गई थी। लिहाज़ा अगर हम सबसे पहले रसूलों के आमाल की तारीख़ तस्नीफ़ को मुईन करलें तो मुक़द्दस लूक़ा और मुक़द्दस मर्क़ुस की इंजीलों की तारीख तस्नीफ़ को मालूम करने में सहूलत हो जाएगी और हम वसूक़ (यक़ीन) के साथ ये कह सकेंगे कि ये दोनों अनाजील रिसाला आमाल के फ़ुलां सन तस्नीफ़ से पहले अहाता तहरीर में आ चुकी थीं।
बाब अव़्वल
तारीख-ए-तस्नीफ़ रिसाला आमाल अल-रसूल
फ़स्ल अव़्वल
तारीख-ए-तस्नीफ़ की अंदरूनी शहादत
उमूमन ये ख़याल किया जाता है कि आमाल की किताब 85 ई॰ के क़रीब लिखी गई थी।140लेकिन किताब की अंदरूनी शहादत इस तारीख़ के ख़िलाफ़ है और यह साबित करती है कि ये तारीख़ दुरुस्त नहीं हो सकती बल्कि अगर हम रसूलों के आमाल की किताब का ग़ौर व तदब्बुर से मुतालआ करें तो इस के ग़ाइर (गहरा) मुतालए और अंदरूनी शहादत से ये साबित हो जाता है कि ये किताब 60 ई॰ के क़रीब लिखी गई थी।
किसी तारीख़ की किताब का सन तस्नीफ़ मालूम करने के लिए ये ज़रूरी है कि हम ये मालूम करें कि इस में आख़िरी वाक़िया जो दर्ज हुआ है वो किस साल में वक़ूअ पज़ीर हुआ था। आमाल की किताब के आख़िरी बाब में मुक़द्दस पौलुस के शहर रोम में पहुंचने का ज़िक्र पाया जाता है ताकि वो केसर-ए-रोम के सामने अपनी सफ़ाई पेश कर सकें चुनान्चे इस किताब के आख़िरी अल्फ़ाज़ ये हैं, “जब हम रोम में पहुंचे तो पौलुस को इजाज़त हुई कि अकेला उस सिपाही के साथ रहे जो उस पर पहरा देता था। तीन रोज़ के बाद उसने यहूदियों के रईस को बुलवाया। वो इस से एक दिन ठहरा कर कस्रत से उस के हाँ जमा हुए। बाअज़ ने उस की बातों को मान लिया और बाअज़ ने ना माना।.... और पौलुस पूरे दो बरस अपने किराए के घर में रहा और जो उस के पास आते थे उन सबसे मिलता रहा और कमाल दिलेरी से बग़ैर रोक-टोक के ख़ुदा की बादशाहत की मुनादी करता और सय्यदना मसीह की बातें सिखाता रहा।”
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140Peake’s Commentary p.744
ये आख़िरी तारीख़ी वाक़िया है जो इस किताब के ततिम्मा (इख़्तताम) में पाया जाता है। “ये दो साल” जिनका ज़िक्र इस ततिम्मा (खात्मे) में किया गया है 58 ई॰ ता 60 ई॰ के बाद किसी तारीख़ी वाक़िये का ज़िक्र मौजूद नहीं। पस नतीजा ज़ाहिर है कि मुक़द्दस लूक़ा ने ये किताब 60 ई॰ के इख़्तताम से पहले उन दो सालों के दर्मियान लिखी जब मुक़द्दस पौलुस रसूल रोम में थे और मुक़द्दस लूक़ा आपकी मय्यत (साथ, हम-राही) में रहते थे। (कुलस्सियों 4:14) और कि ये ततिम्मा (आयात 30, 31) 60 ई॰ में लिखा गया।
मौजूदा ततिम्मा (खात्मा) किताब को यकायक और अचानक बेरबती के साथ ख़त्म कर देता है। इस किताब का लिखने वाला एक निहायत क़ाबिल मुसन्निफ़ है जो फुनूने लतीफ़ा में महारत ताम्मा (पूरी लियाक़त) रखता है। वो आला तरीन इंशा-ए-पर्दाज़ (अदीब, नस्र को लिखने वाला) भी है। इस पाये के शख़्स से ये उम्मीद नहीं हो सकती कि वो अपनी किताब को ऐसे बे ढंगे तरीक़े से ख़त्म करे। इस क़िस्म के मुसन्निफ़ के क़लम से इस क़िस्म का भद्दा ख़ातिमा तब ही मुम्किन हो सकता है जब ये मान लिया जाये कि जब मुसन्निफ़ रोम में मुक़द्दस पौलुस का साथी था तो इस दो बरस के अर्से में उसने ये किताब लिखी थी। सिर्फ इस हालत में ही ये आख़िरी फ़िक़्रह एक मौज़ूं ख़ातिमा हो सकता है।141
अगर आमाल की किताब क़ैसर नेरू के फ़ैसले के बीस या पच्चीस बरस बाद लिखी जाती तो मुक़द्दस लूक़ा के पाया का इंशा-पर्दाज़ इस क़िस्म के ख़ातिमे से किताब को कभी ख़त्म ना करता क्योंकि क़ैसर का फ़ैसला ख़्वाह कुछ ही होता वो इस किताब के मुसन्निफ़ के लिए इंतिहाई दर्जे का मौज़ूं ख़ातिमा होता जो मुक़द्दस लूक़ा के पाये के मुसन्निफ़ का मुंतहाए कमाल (इंतिहा को पहुंचा हुआ, पूरा कामिल) होता।142चुनान्चे अगर ख़ातिमे में इस बात का ज़िक्र होता कि क़ैसर ने मुक़द्दस पौलुस के मुक़द्दमे की समाअत (सुनवाई) के बाद आप को बरी कर दिया था तो ये हक़ीक़त मसीहिय्यत की आज़ादी का शाही मंशूर (शाही फ़र्मान) और रसूल मक़्बूल के कारनामों का ताज होती। पस इस क़िस्म का ख़ातिमा इस तालीफ़ का मुंतहा-ए-कमाल होता। लेकिन अगर क़ैसर नेरू मुक़द्दमे की समाअत
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141Beginnings of Christianity Part I.Vol2 by Foakes Jackson and Kirsopp Lake 1922 p.309
142Adeney St Luke (Century Bible)p.42
(सुनवाई) के बाद आपको वाजिब-उल-क़त्ल क़रार दे देता तो आपकी ज़िंदगी के इस मुबारक अंजाम का ज़िक्र किताब का ना सिर्फ क़ुदरती ख़ातिमा होता बल्कि आपकी शहादत का बयान इस किताब का शानदार इख़्तताम (खात्मा) होता।
पस मौजूदा ख़ातिमा ये साबित करता है कि आमाल की किताब मुक़द्दस पौलुस की हिरासत के दौरान में लिखी गई थी और इस का ख़ातिमा 60 ई॰ के क़रीब हुआ।
(2)
(1) एक और तवारीख़ी अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है। इन रोमी हुक्काम के सामने सिर्फ दो हल तलब सवाल थे (1) क्या मसीही किसी ऐसे मज़्हब के परस्तार हैं जो अज़रूए क़ानून वजूद में रह सकता है। (2) क्या वो अपने क़ौल और फ़ेअल से किसी ऐसी बात के मुर्तक़िब हुए हैं जिसकी वजह से सल्तनत को मुदाख़िलत करनी पड़े। (आमाल 23:29, 25:16, 26:31) अगर ये दुरुस्त है कि हुक्काम को सिर्फ इन्ही सवालों का फ़ैसला देना था तो लाज़िम आता है कि आमाल की किताब पहली सदी के ख़ातिमे में नहीं बल्कि इस से बहुत पहले लिखी गई हो क्योंकि ये सवाल कि आया कोई मज़्हब अज़रूए क़ानून वजूद में रह सकता है या कि नहीं बड़ी तेज़ी के साथ मिट रहा था।143
(2) हमारे पास ये मानने के लिए काफ़ी वजूह (वजह की जमा) हैं कि इन दो सालों के बाद केसर-ए-रोम ने मुक़द्दस पौलुस के मुक़द्दमे की समाअत (सुनवाई) करके आपको बरी क़रार देकर रिहा कर दिया था अगर ये किताब 60 ई॰ के बाद लिखी जाती तो मुक़द्दस लूक़ा इस मुक़द्दमे का और रसूल मक़्बूल की रिहाई का ज़रूर ज़िक्र करते क्योंकि क़ैसर रोम का फ़ैसला मसीहिय्यत के परचार के हक़ में निहायत अहम क़िस्म का था। मुक़द्दस लूक़ा तफ़्सील को काम में लाकर अदालतों की पेशियों का ज़िक्र अबवाब (आमाल 22 ता 26) में करते हैं। क्या ये अम्र क़रींन-ए-अक़्ल (वो बात जिसे अक़्ल क़ुबूल करे) हो सकता है कि अगर किताब के लिखने से पहले मुक़द्दस लूक़ा को शाहंशाह रोम के बरी करने के फ़ैसले का इल्म होता तो वो ऐसे ज़बरदस्त वाक़िये को नज़र-अंदाज कर देते जो कलीसिया के हक़ में निहायत अहम क़िस्म का था। क़ैसर रोम का अदालती फ़ैसला मसीही कलीसिया
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143See W.M. Ramsay, The Chruch in the Roman Empire Befor 170 (1893) also Beginnings of Christianity Part1 Vol2 pp.179-187
की हस्ती, बक़ा और आज़ादी के लिए एक शाही मंशूर था। ऐसे अहम और ज़बरदस्त वाक़िये के ज़िक्र का ना होना इस अम्र की क़तई दलील है कि ये किताब इस वाक़िये के रौनुमा होने से पहले अहाता-ए-तहरीर में आ चुकी थी।
हमें याद रखना चाहिए कि मुक़द्दस लूक़ा मज़्कूर बाला पाँच अबवाब में (आमाल 22 ता 26) मुख़्तलिफ़ हुक्काम के सामने मुक़द्दस रसूल के मुक़द्दमे की समाअत (सुनवाई) का इसलिए ज़िक्र करते हैं ताकि हर ख़ास व आम पर ज़ाहिर हो जाए कि इन हुक्काम की नज़र में मसीही मज़्हब के उसूल रोमी सल्तनत के क़ानून के मुताबिक़ क़ाबिल-ए-इताब (मलामत के लायक़) नहीं थे। (आमाल 23:29, 24:27, 26:30-31, 28:18 वग़ैरह) ये पाँच बाब (22 ता 26) मुक़द्दमों और कचहरियों से भरे पड़े हैं। बल्कि (आमाल 16 बाब से आख़िर तक) पौलुस रसूल की ज़िंदगी के वाक़ियात दर-हक़ीक़त एक अदालत से दूसरी और दूसरी से तीसरी अदालत में जाकर रिहाई पाने पर ही मुश्तमिल हैं। कुरंथ में गेलियो जो रोमी सल्तनत के क़ाइदीन में से था। मुक़द्दमे को ख़ारिज कर देता है। इफ़िसुस के “एशियार्क” जो अपने मुल्क में साहिब-ए-सर्वत (अमीर) और मुक़तदिर (इख़्तियार वाले) लोग थे फ़साद के दौरान में मुक़द्दस रसूल के हामी नज़र आते हैं। शहर का मुहर्रिर (कातिब, मुंशी) आपको एलानिया सुलह पसंद और अमन का हामी क़रार देता है। क्लॉडियस लुसियास सिवाए एक मौक़े के जब वो यहूद के ज़ेर-ए-असर था आपसे नर्मी का बर्ताव करता है। फेलिक्स और फैस्टस जो “प्रोकियारेटर” थे आपको मुजरिम नहीं गिरदानते और ना आपको दुश्मनों के हवाले कर देते हैं। अगरपा बादशाह ख़ुद यहूदी था लेकिन वो भी आपको बरी क़रार देता है।
फैस्टस के सामने की पेशी से ज़ाहिर है कि अगरचे मुक़द्दमा यहूदी रसूम और हैकल को नापाक करने से मुताल्लिक़ था लेकिन दरअस्ल इल्ज़ाम पोलिटिकल था जिस तरह का इल्ज़ाम सय्यदना मसीह के ख़िलाफ़ था। पस मुक़द्दस लूक़ा ने आमाल की किताब के मुक़द्दमे की सफ़ाई के लिए लिखी और कलीसिया की इब्तिदा से इस का पोलिटिकल के तौर पर बेज़रर होना साबित किया। मुसन्निफ़ की दलील ये है कि सय्यदना मसीह अहले-यहूद का मसीह है। पस उस के पैरौओं को वही मज़्हबी आज़ादी हासिल होनी चाहिए जो अहले-यहूद को हासिल है। वो मुक़द्दस पौलुस के रोमी सल्तनत के शहरों में जाने और वहां फ़सादाद होने का ज़िक्र करता है और कहता है कि अगरचे इन शहरों में फ़सादाद वाक़ेअ हुए लेकिन इनके ज़िम्मेदार यहूद थे और रोमी मजिस्ट्रेट तक का ये फ़ैसला था कि मुक़द्दस
पौलुस नुक्स-ए-अमन के हामी नहीं थे बल्कि आपके मुख़ालिफ़ गै़र-क़ानूनी कार्यवाहीयां करते थे।144डाक्टर पलोज (Plooj) का नज़रिया ये है कि थ्युफ्लुस नेरू के दरबार में एक मुक़तद राव रुबा रसूख़ मसीही था और लूक़ा ने इन्जील और आमाल अल-रसुल को इस के लिए मुक़द्दस पौलुस की सफ़ाई के तौर पर लिखा था ताकि उस को मालूम हो जाए कि मसीहिय्यत रूमी सल्तनत के हक़ में कोई ख़तरनाक शैय नहीं है।145केसर-ए-रोम का अदालती फ़ैसला एक क़तई फ़ैसला था जिसके आगे तमाम दुनिया का सर झुकता था। पस अगर इस किताब के लिखने से पहले मुक़द्दस लूक़ा को इस फ़ैसले का इल्म होता तो जहां वो मामूली हुक्काम के फ़ैसलों का तफ़्सीली ज़िक्र करते हैं वो निहायत तफ़्सील के साथ रसूल मक़्बूल की क़ैसर के सामने पेशी का और मुक़द्दमे की समाअत (सुनवाई) और इस के फ़ैसले का ज़िक्र ज़रूर करते मुसन्निफ़ की ख़ामोशी निहायत माअनी-ख़ेज़ है और साबित करती है कि आमाल की किताब इस फ़ैसले से पहले लिखी गई थी और यही वजह है कि इस का इस किताब में कोई ज़िक्र पाया नहीं जाता।
(3) हमारे पास ये मानने के लिए काफ़ी दलाईल हैं कि जब केसर-ए-रोम ने मुक़द्दस पौलुस को बरी कर दिया तो रसूल-ए-मक़्बूल ने क्रीत, मक़िदूनिया और इफ़िसुस वग़ैरह कलीसियाओं का दौरा किया। (तितुस 1:5, 1 अंता 1:3, 3:14, फ़िलेमोन आयत 22-24) अगर आमाल की किताब इन दौरों के बाद लिखी जाती तो यक़ीनन मुक़द्दस लूक़ा अपनी किताब आमाल के 20:25, 38, आयात के अल्फ़ाज़ को इनकी मौजूदा सूरत में ना लिखते।
इलावा अज़ीं कलीसियाई रिवायत है कि मुक़द्दस पौलुस ने बरी हो कर हसपानीया में इन्जील जलील की नजात का पैग़ाम सुनाया था। अग़लबन ये रिवायत दुरुस्त है क्योंकि रसूल मक़्बूल की मुद्दत से ये ख़्वाहिश थी कि रोम से हसपानीया जाये। (रोमियों 15:20-28) अगर आप ने वाक़ई हसपानीया में इन्जील की तब्लीग़ की थी और मुक़द्दस लूक़ा ने आमाल की किताब 85 ई॰ में लिखी थी तो किताब में इस वाक़िये का ज़रूर ज़िक्र होता क्योंकि इस वाक़िये के ज़िक्र से सय्यदना मसीह के कलमात-ए-तय्यिबात की कामिल तौर पर तश्रीह और तौज़ीह हो जाती कि “जब रूह-उल-क़ुद्स तुम पर नाज़िल होगा तुम यरूशलेम
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144Dr.J. Ironside Still St. Paul on Trial (S.C.M)
145Foakes Jackson and Kirsopp Lake, Beginnings of Christianity Part1 Vol2 p.309 note. See also Expositor Series 8 VIII pp.511-23. XIIIpp.108-24, Cf M. Jones Expositor Series,8.IXpp.217-34 See also W.M.Ramsay, The Church in the Roman Empire Befor 170 (1893)
और यहूदिया और सामरिया बल्कि ज़मीन की इंतिहा तक मेरे गवाह होगे।” (आमाल 1:8) आमाल में यरूशलेम, सामरिया, यहूदिया और दीगर मग़रिब की जानिब के ममालिक का ज़िक्र पाया जाता है लेकिन हसपानीया का ज़िक्र नहीं मिलता। जो “ज़मीन की इंतिहा” था। इस से ज़ाहिर है कि मुक़द्दस लूक़ा ने आमाल की किताब को रसूल मक़्बूल के बरी होने से पहले यानी 60 ई॰ में लिखा था।
(4) जब मुक़द्दस पौलुस को क़ैसर रोम ने बरी कर दिया तो इस के बाद चार साल तक (जैसा हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं) आप मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में आज़ादाना इन्जील जलील की बशारत बेखटके देते रहे। चौथे साल में आप पहले कुरिन्थुस में गए। (2 तीमुथियुस 4:20) वहां से आप तरवास गए। जब आप वहां थे क़ैसर नेरू ने 64 ई॰ में अपनी ख़ौफ़नाक इज़ार सानी शुरू कर दी और आप क़ैद हो कर दुबारा रोम आए। वहां से आपने करेसकेंस को गलतिया की जानिब और तितुस को दलमतिया की जानिब और तख़कस को इफ़िसुस की तरफ़ रवाना किया। (2 तीमुथियुस 4:10-12) इसी ज़माने में आपने तीमुथियुस को दूसरा ख़त भी भेजा। इन बातों से ज़ाहिर है कि क़ैद और तशद्दुद के ज़माने में भी रसूल मक़्बूल को अपना ख़याल नहीं बल्कि कलीसियाओं का फ़िक्र सताता था। बिल-आख़र मुक़द्दस रसूल ज़िंदान (क़ैदख़ाना) से मक़्तल की जानिब ले गए। और 64 ई॰ में आपको शहीद कर दिया गया।
अगर आमाल की किताब 85 ई॰ में लिखी जाती तो ये हैरत का मुक़ाम होता अगर मुक़द्दस लूक़ा इस किताब में आपकी शहादत का कहीं ज़िक्र ना करते। क्या ये इस बात का क़तई सबूत नहीं कि आपने इस किताब को मुक़द्दस रसूल की शहादत से पहले लिखा था? ये अम्र बईद-अज़्कियास (समझ के बाहर) बल्कि नामुम्किन है कि अगर मुक़द्दस लूक़ा को किताब के लिखने से पहले आपकी शहादत का इल्म होता तो वो इन वाक़ियात का मुफ़स्सिल ज़िक्र ना करते जो आपकी शहादत का बाइस हुए थे। मुक़द्दस लूक़ा मुक़द्दस स्तिफ़नुस शहीद की शहादत का मुफ़स्सिल ज़िक्र करते हैं। (आमाल बाब 6, 7) और जो आफ़तें दीगर रसूलों पर टूट पड़ी थीं उन की तफ़सीलात बतलाते हैं। (आमाल बाब 4 ता 6 वग़ैरह) लेकिन वो अपने आक़ा, दोस्त और हीरो की शहादत का बयान नहीं करते। अगर ये वाक़िया सन तस्नीफ़ से पहले ज़हूर में आया होता तो ये अम्र क़रीन-ए-अक़्ल (अक़्ल के क़रीब) नहीं कि वो दीदा दानिस्ता (जानते बूझते) इस वाक़िये का तफ़्सीली ज़िक्र ना करते। आपकी ख़ामोशी इस अम्र का क़तई सबूत है कि आमाल की किताब उस ज़माने में
लिखी गई थी जब ये सानिहा रूह फ़र्सा (रूह तबाह करने वाला, ख़तरनाक वाक़िया) अभी वाक़ेअ नहीं हुआ था।
(5) आमाल की किताब में ना सिर्फ मुक़द्दस पौलुस की शहादत का ज़िक्र मौजूद नहीं बल्कि कलीसिया के दीगर सर-बरा-दर्दा (बुज़ुर्ग) लीडरों और रसूलों की शहादत का भी ज़िक्र नहीं मसलन कलीसिया के सरदार मुक़द्दस याक़ूब (आमाल 15:19) 62 ई॰ में शहीद किए गए लेकिन आमाल में इनकी शहादत का ज़िक्र नहीं पाया जाता है जिससे ज़ाहिर है कि ये किताब इस वाक़िये से पहले 60 ई॰ में लिखी गई थी जब वो अभी यरूशलेम की कलीसिया पर हुक्मरान थे।
इलावा अज़ीं कलीसियाई रिवायत के मुताबिक़ मुक़द्दस पतरस रसूल ने भी क़ैसर नेरू की इज़ार सानी के दिनों में 64 ई॰ में अपने ख़ून से अपने ईमान पर मुहर लगाई। लेकिन ऐसी ज़बरदस्त शख़्सियत की शहादत का ज़िक्र तो अलग इशारा तक भी आमाल की किताब में नहीं मिलता। ये बात हमारे नतीजे की मुसद्दिक़ है कि किताब मज़्कूर 60 ई॰ में लिखी गई थी जब मुक़द्दस रसूल “कमाल दिलेरी से बे रोक-टोक” अपने तब्लीग़ी फ़राइज़ को अदा कर रहे थे।
(6) जब हम आमाल की किताब का मुतालआ करते हैं तो हम पर ज़ाहिर हो जाता है कि हम इस में इस वक़्त की कलीसिया के हालात बईना (वैसा ही, जूं का तूं) वही पाते हैं जो 64 ई॰ से पहले मौजूद थे। रोमी सल्तनत अभी तक अगर मसीहिय्यत के हक़ में नहीं थी तो इस के बरख़िलाफ़ भी ना थी। लेकिन 64 ई॰ के बाद तमाम नक़्शा बदल गया था क्योंकि तब क़ैसर नेरू (अज़ 54 ई॰ ता 68 ई॰) ने रोम को 64 ई॰ में आग लगाकर इस का इल्ज़ाम मसीहियों पर लगा दिया था और इन को क़त्ल व ग़ारत करना शुरू कर दिया था और मसीहिय्यत के अज़ीमुश्शान मुबल्लग़ीन मुक़द्दस पतरस और पौलुस को शहीद कर दिया था। 64 ई॰ के बाद रोमी सल्तनत और मसीहिय्यत के बाहमी ताल्लुक़ात का नक़्शा यूहन्ना आरिफ़ के मुकाशफ़ात में पाया जाता है जहां क़ैसर नेरू और सल़्तनत-ए-रोम की निस्बत लिखा है, “पस वो मुझे रूह में जंगल को ले गया वहां मैंने क़िरमज़ी रंग के हैवान (क़ैसर नीरू) पर जो कुफ़्र के नामों से लिपा हुआ था और जिस के साथ सर और दस सींग थे। एक औरत (सल़्तनत-ए-रोम) को बैठे हुए देखा। ये औरत अर्ग़वानी और क़िरमज़ी लिबास पहने हुए और सोने और जवाहर और मोतीयों से आरास्ता थी और एक
सोने का पियाला मकरूहात यानी उस की हराम क़ारीयों की नापाकियों से भरा हुआ उस के हाथ में था और उस के माथे पर ये नाम लिखा हुआ था। राज़, बड़ा शहर बाबिल, कसबियों और ज़मीन की मकरूहात की माँ, और मैंने इस औरत को मुक़द्दसों के ख़ून और येसू और शहीदों के ख़ून पीने से मतवाला देखा और उसे देखकर सख़्त हैरान हुआ।” (वग़ैरह 17:3 ता 6) इन आयात के अल्फ़ाज़ में और मुक़द्दस “पौलुस के क़ैसर की दुहाई देने (आमाल 25:11) और ततिम्मा (इख्ततामिया) के अल्फ़ाज़ “पौलुस कमाल दिलेरी से बे रोक-टोक के मुनादी करता रहा” में ज़मीन आस्मान का फ़र्क़ है। यही फ़िज़ा (1 तीमुथियुस 2:1-2 आयात) की है। अगर मुक़द्दस लूक़ा आमाल की किताब को 85 ई॰ में लिखते तो आपके अल्फ़ाज़ मुकाशफ़ात के अल्फ़ाज़ से भी ज़्यादा दुरुश्त (सख़्त) होते क्योंकि नेरू के जांनशीन मसीहिय्यत की इज़ार सानी में इस से भी गोया सबक़त ले गए थे।
(7) रोमी अफ़्वाज ने 70 ई॰ में यरूशलेम को फ़त्ह करके हैकल को तबाह व बर्बाद कर दिया। इस वाक़िये ने ना सिर्फ अहले-यहूद की तारीख़ पर मुस्तक़िल असर डाला बल्कि इसने मसीही कलीसिया की भी काया पलट दी। 70 ई॰ के बाद यहूद तमाम दुनिया में परागंदा हो गए और ग़ैर-यहूदी अक़्वाम जौक़-दर-जोक़ मसीहिय्यत की हल्क़ा-ब-गोश हो गईं और हर कि वमा (हर छोटा बड़ा) पर रोज़ रोशन की तरह ज़ाहिर हो गया कि मसीहिय्यत यहूदियत की शाख़ नहीं बल्कि एक मुस्तक़िल आलमगीर मज़्हब है जिसके उसूल हर मुल़्क व मिल्लत पर हावी हैं।
मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील और आमाल की किताब ग़ैर-यहूद अक़्वाम की ख़ातिर लिखी थी। अगर किताब के लिखने के वक़्त इस को यरूशलेम की बर्बादी जैसे अहम तरीन वाक़िये का इल्म होता तो ये नामुम्किन अम्र था कि वो इस से पूरा फ़ायदा ना उठाता और हैकल की बर्बादी का ज़िक्र करके इन नताइज को जो इस में मुज़म्मिर थे अपने नाज़रीन पर वाज़ेह ना करता। लेकिन किताब में इस अज़ीम वाक़िये और इस के नताइज का इशारा तक नहीं पाया जाता।
अगर किताब की तस्नीफ़ के वक़्त शहर यरूशलेम और इस की हैकल बर्बाद होते और अहले-यहूद एतिराफ़-ए-आलम में परागंदाह होते तो मुसन्निफ़ (आमाल अबवाब 3, 4, 5, 21) के वाक़ियात को इस क़द्र एहमीय्यत ना देता और ना इनको ऐसी तवालत के साथ लिखता कि वो किताब का तक़रीबन छटवां हिस्सा हो जाए। तमाम किताब में इस बात का
इशारा तक नहीं मिलता कि शहर यरूशलेम बर्बाद हो चुका है। हैकल की ईंट से ईंट बजा दी गई है। क़ौम यहूद का शीराज़ा बिखर चुका है। किताब में इस क़िस्म के इन्क़िलाबी वाक़ियात के ज़िक्र का ना होना, इस बात का बय्यन सबूत है कि ये किताब ऐसे ज़माने में लिखी गई थी जब किसी के ख्व़ाब व ख़्याल में भी नहीं आया था कि इस क़िस्म के वाक़ियात जल्दी रौनुमा होंगे। पस ये किताब 60 ई॰ के बाद तस्नीफ़ नहीं हुई।
अगर इस किताब के लिखे जाने से पेश्तर यरूशलेम तबाह हो गया होता और खुदावंद की पेशीनगोई पूरी हो गई होती तो मुक़द्दस लूक़ा इस किताब में सय्यदना मसीह की पेशीनगोई और इस के पूरा होने का ज़रूर ज़िक्र करते। जिस तरह आपने अगबस की पेशीनगोई का ज़िक्र करके इस के पूरा होने का भी ज़िक्र किया था। (आमाल 11:28) लेकिन मुक़द्दस लूक़ा इस बात का ज़िक्र छोड़ इशारा तक नहीं करते। जिससे ज़ाहिर है कि शहर यरूशलेम और हैकल दोनों इस किताब की तस्नीफ़ के वक़्त सलामत थे।
चूँकि यरूशलेम की बर्बादी की दलील निहायत ज़बरदस्त दलील है लिहाज़ा नाज़रीन की वाक़फ़ियत के लिए हम इस वाक़िये का मुख़्तसर ज़िक्र करना मुनासिब ख़याल करते हैं।
(62 ई॰ से 66 ई॰) तक रोमी गवर्नरों की हुकूमत अहले-यहूद के लिए निहायत तक्लीफ़-देह थी। चुनान्चे गवर्नर एल्बीनस (अज़ 62 ई॰ ता 64 ई॰) और गवर्नर फ्लोर्स (अज़ 64 ई॰ ता 66 ई॰) के अय्याम-ए-हुकूमत यरूशलेम और क़ौम-ए-यहूद के लिए निहायत नाज़ुक दिन थे। इधर ज़ीलोतियस के फ़िर्क़ा और दीगर फ़सादी यहूद ने हुक्काम का दम नाक में कर रखा था। ज़ीलोतीस रोमी हुक्काम का इताअत करना और उन को टैक्स अदा करना क़ौम के ख़िलाफ़ ग़द्दारी और जुर्म तसव्वुर करते थे। 66 ई॰ के मौसम-ए-बहार में फ्लोर्स के मज़ालिम की वजह से फ़साद बरपा हुए। गवर्नर को शहर से बाहर निकाल दिया गया। बग़ावत हर चहार सो फेल गई और कनआन के मुख़्तलिफ़ शहरों में यहूद और ग़ैर-यहूद में ख़ाना-जंगी छिड़ गई। इस पर शाम का गवर्नर सीसट्यूस् गेलस एक लश्कर-ए-जर्रार लेकर आया। इसने यरूशलेम पहुंच कर शुमाल के मज़ाकात की ईंट से ईंट बजा दी लेकिन उस में ये हिम्मत ना हुई कि शहर पर हमला करे। जब वो वापिस जा रहा था तो (नवम्बर 66 ई॰) में यहूद इस पर टूट पड़े और इस को वहां से भागना पड़ा। इस पर शहर यरूशलेम के मसीही यर्दन पर पीला में चले गए। बग़ावत की आख़िरी मंज़िल
(70 ई॰) का वाक़िया हाइला था। जब तितुस बेशुमार अफ़्वाज के साथ (70 ई॰) की ईद-ए-फ़सह के तेहवार से पहले यरूशलेम पर हमला-आवर हुआ। तेहवार की वजह से हज़ारों यहूदी और अर्ज़-ए-मुक़द्दस के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात से यरूशलेम आए हुए थे। मुहासिरे की वजह से काल और वबा ने यरूशलेम में ख़ूब जश्न मनाया और लाखों लाशें फ़सील के बाहर फेंकी गईं। तितुस नहीं चाहता था कि हैकल जैसी ख़ूबसूरत इमारत तबाह हो जाए। पस उसने सख़्त अहकाम जारी किए लेकिन एक मनचले सिपाही ने जलती मशाल हैकल के अंदर फेंक ही जिसकी वजह से हर तरफ़ आग फैल गई और फ़ौज ने बेलगाम हो कर हैकल को ऐसा तबाह व बर्बाद कर दिया कि इस पर “पत्थर पर पत्थर ना रहा।” (मत्ती 24:2) इस जंग में दस लाख के क़रीब यहूदी मारे गए।
(70 ई॰) में ज़ीलोतीस का फ़िर्क़ा बरसर-ए-इक़तिदार था। लेकिन जब तितुस ने शहर को फ़त्ह कर लिया तो वो भी बे-दस्त व पा (अपाहिज, मजबूर, लाचार) हो गए क्योंकि रोमी सल्तनत की क़ुव्वत व हश्मत के सामने वो बेबस थे। पस इनका ख़ातिमा एक लाज़िमी और नागुरेज़ अम्र था। 135 ई॰ के वाक़िये के बाद यरूशलेम का रोमियों ने कुल्लियतन ख़ातिमा कर दिया और इस साल बार कोकब की बग़ावत के बाद फ़िर्क़ा ज़ीलोतीस के पैरौ अहले-यहूद की तारीख़ के सफ़्हों से मिट गए।
(70) ई॰ के बाद सदूक़ियों की जमाअत का भी ख़ातिमा हो गया क्योंकि हालात ही ऐसे पैदा हो गए थे कि इस पार्टी का बक़ा नामुम्किन हो गया था। हैकल की बर्बादी के साथ ही सालाना तहवारों और कहानत के फ़राइज़ की ज़रूरत भी ख़त्म हो गई थी। सियासी दुनिया में इनका वजूद ना रहा। अनाजील में जो बातें इनकी बाबत और हेरोदेस बादशाहों के मुताल्लिक़ दर्ज हैं वो सफ़ा हस्ती से मिट गईं।
अब 66 ई॰ और 70 ई॰ के दर्मियान के वाक़ियात का ना तो आमाल की किताब में और ना किसी इन्जील में इशारा पाया जाता है जो आमाल से पहले लिखी गई थीं। पस ये ख़ामोशी निहायत माअनी-ख़ेज़ है क्योंकि आमाल की किताब की फ़िज़ा इस जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) की फ़िज़ा से बिल्कुल जुदा है।
(8) यहूदी और यूनानी फ़ल्सफ़ियाना ख़यालात की वजह से पहली सदी में चंद बिद्अतें रौनुमा होनी शुरू हो गईं। लेकिन आमाल की किताब में इन बिद्अतों का कहीं निशान भी नहीं मिलता। अगर ये किताब 85 ई॰ में लिखी गई होती तो मुक़द्दस लूक़ा
इनका ज़िक्र मुफ़स्सिल तौर पर करते क्योंकि इस वक़्त ये ग़नासती बिद्अतें बहुत तरक़्क़ी कर चुकी थीं। चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस रसूल ख़ुद इन बिद्अतों का ज़िक्र कुलस्सियों के ख़त में करते हैं जो 63 ई॰ में लिखा गया था। (कुलस्सियों 2:16, 18, 20-23, 1 तीमुथियुस 1:7, 4:3, 6:20 वग़ैरह) चूँकि इन बिद्अतों का इशारा तक आमाल की किताब में मौजूद नहीं है। पस नतीजा ज़ाहिर है कि ये किताब इन बिद्अतों के ज़ाहिर होने से पहले (60 ई)॰ में लिखी गई थी।
(9) जब हम आमाल अल-रसुल का बनज़र-ए-ताम्मुक़ (बारीक बीनी से) मुतालआ करते हैं तो हम देखते हैं कि इस के बाअज़ मुक़ामात में ऐसे नाम पाए जाते हैं जिन का वाक़ियात के साथ कोई ख़ास ताल्लुक़ नहीं। मसलन (आमाल 17:5, 19:33, 21:16, 28:11) वग़ैरह मुक़ामात में ऐसे नामों का ज़िक्र है जो अगर ना लिखे जाते तो बयान में किसी क़िस्म का कोई हर्ज वाक़ेअ ना होता। ये नाम मह्ज़ इस वजह से याद रहे और किताब में लिखे गए क्योंकि वो वाक़ियात (जिनमें इनका ज़िक्र आता है) अभी ताज़ा ही थे लेकिन अगर आमाल की किताब 85 ई॰ में लिखी जाती तो ये नाम कब के फ़रामोश हो गए थे। इस क़िस्म की छोटी-छोटी और मामूली तफ़सीलात भी हमारे इस नतीजे की मुसद्दिक़ हैं कि मुक़द्दस लूक़ा ने आमाल की किताब 60 ई॰ में तस्नीफ़ की थी।
(10) जब यरूशलेम तबाह हो गया और अहले यहूद हर चहार सौ परागंदा हो गए (तो जैसा हम ऊपर बतला चुके हैं) सदूक़ियों का मुक़तदिर फ़िर्क़ा भी ख़त्म हो कर नापीद हो गया। हुर्रीयत पसंद यहूदियत के आलिम यूहन्ना बिन ज़की ने जबना में अपने स्कूल (मसलक) की बुनियाद डाली।146इस जगह आज़ाद ख़याल रब्बियों के ख़यालात, मुआमलात और इलाहियात की तालीम दी जाती थी। ये मसलक सुलह पसंद फ़रीसियों का नुमाइंदा था और इस के बानी को तमाम यहूद इज़्ज़त व तकरीम की निगाहों से देखते थे लेकिन आमाल की किताब में इस मसलक का निशान तक नज़र नहीं आता। अगर ये किताब 85 ई॰ में लिखी जाती तो ये नामुम्किन अम्र था कि इस आज़ाद ख़याल पसंद यहूदी फ़िर्क़े का ज़िक्र तक ना होता। इस के बरअक्स तमाम किताब में सदूक़ियों का फ़िर्क़ा ज़िंदा और हर जगाह अपने इक़्तिदार और रसूख़ से काम लेता नज़र आता है। हर जगह फ़क़ीहों के साथ बहस व तमहीस का सिलसिला जारी है और फ़रीसियों के बिरादर-कुश सख़्त रवैय्ये का
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146The Beginnings of Christianity Part1.Vol1 p.118.
और उन की सख़्त दिली और ईज़ा देने का हर जगह चर्चा पाया जाता है। (आमाल 22:22 वग़ैरह)
आमाल की किताब की तमाम फ़िज़ा यही है और वह इस फ़िज़ा से बाहर नहीं जाती। जिससे ज़ाहिर है कि ये किताब उस ज़माने में लिखी गई जब यरूशलेम की हैकल अभी खड़ी थी, सदूक़ियों का फ़िर्क़ा बरसर-ए-इक़तिदार था, फ़क़ीहों और फ़रीसियों की मुख़ालिफ़त रोज़ बरोज़ तरक़्क़ी पर थी और हर तरफ़ मसीहिय्यत का गला घोंटने की कोशिश की जा रही थी। ये तमाम हालात साबित करते हैं कि मुक़द्दस लूक़ा ने रसूलों के आमाल को 60 ई॰ में तस्नीफ़ किया था।
फ़स्ल दोम
आमाल की ज़बान, ख़यालात और मोअ्तक़िदात
आमाल की किताब की ज़बान, ख़यालात और मोअ्तक़िदात इस नज़रिये की तस्दीक़ करते हैं कि ये किताब 85 ई॰ में नहीं बल्कि इस से पच्चीस (25) बरस पहले लिखी गई थी। जब हम इस किताब का ग़ौर से मुतालआ करते हैं तो हम पर वाज़ेह हो जाता है कि इस में कलीसिया की ज़िंदगी के इब्तिदाई अय्याम के ख़यालात और मोअ्तक़िदात (एतिक़ाद रखने वाला) पाए जाते हैं। और कि इन ख़यालात की अदायगी का तौर व तरीक़ा भी उसी ज़माने का है। किताब का उस्लूब बयान, अल्फ़ाज़ की बंदिश और अंदाज़-ए-बयान बिल्कुल इसी क़िस्म का है जो अनाजील अरबा का है और ये तर्ज़ पहली सदी के अवाख़िर की तस्नीफ़-शूदा किताबों से बिल्कुल अलग है। इस किताब के आख़िरी अबवाब के अंदाज़-ए-बयान में और मुक़द्दस पौलुस के आख़िरी ख़ुतूत में (जिनको उमूमन पासबानी ख़ुतूत कहते हैं) बहुत मुशाबहत पाई जाती है।147
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147Ibid p.299
ज़ेल में हम इन चंद ख़यालात और मोअतक़िदात का मुख़्तसर ज़िक्र करते हैं :-
(1) अगर आमाल की किताब (85 ई॰) में लिखी जाती तो आमाल के पहले बाब का दूसरा हिस्सा इस की मौजूदा शक्ल में ना लिखा जाता। क्योंकि जिस ख़याल के मुताबिक़ मुक़द्दस मतय्याह का चुनाव हुआ था। इस ख़याल का ताल्लुक़ कलीसिया की ज़िंदगी के इब्तिदाई ज़माने के साथ है। ये ख़याल सय्यदना मसीह के उस क़ौल पर मबनी था जो (मत्ती 19:27-28, लूक़ा 22:29-30) में मुन्दर्ज है।148यरूशलेम की बर्बादी से पहले इन आयात को लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ माना जाता था। इस ख़याल के मुताबिक़ यहूदा ग़द्दार की ख़ुदकुशी से जो जगह ख़ाली हुई थी उस को पुर करना लाज़िम था ताकि अदालत के दिन बारह (12) रसूल बारह (12) तख़्तों पर बैठ सकें और कोई तख़्त ख़ाली ना रह जाये। जब शहर यरूशलेम बर्बाद हो गया और यहूद के बारह (12) क़बाइल तितर-बितर हो गए तो इस ख़याल का भी ख़ातिमा हो गया। अगर आमाल की किताब 85 ई॰ में लिखी जाती तो इस क़िस्म के ख़यालात को कभी एहमीय्यत ना दी जाती और मुक़द्दस मतय्याह के इंतिख़ाब का वाक़िया बाआसानी नज़र-अंदाज कर दिया जाता ख़ुसूसुन जब पहले बाब के बाद इस मुक़द्दस का ज़िक्र कहीं पाया नहीं जाता। पस ज़ाहिर है कि ये किताब अहले-यहूद की परागंदगी से पहले लिखी गई थी।
(2) आमाल की किताब में मुक़द्दस पौलुस रसूल की जो तक़रीरें दर्ज की गई हैं, वो रसूल-ए-मक़्बूल के ख़यालात के इर्तिक़ा की इब्तिदाई मनाज़िल ही से मुताल्लिक़ हैं, जिनसे ये ज़ाहिर होता है कि आप भी दीगर यहूदी मसीहियों की तरह शरीअत के बारे में सरगर्म थे। (आमाल 16:3, 21:26 वग़ैरह) ये ख़यालात अहले-यहूद की परागंदगी से पहले कलीसिया में राइज हो सकते थे लेकिन इस वाक़िये के बाद इनका वजूद नामुम्किन हो गया था। इस वाक़िये के बाद कलीसियाओं में (जो ज़्यादातर गैर-यहूद थीं) रसूल-ए-मक़्बूल के वो ख़यालात और मोअ्तक़िदात मुरव्वज हो गए जिनका ज़िक्र आप ने ग़लतियों और रोमियों के ख़ुतूत में किया था और जिन के मुताबिक़ मसीहिय्यत, मूसवी शरीअत और यहूदी पाबंदीयों से कुल्लियतन आज़ाद थी। अगर आमाल की किताब 85 ई॰ में लिखी जाती तो मुक़द्दस लूक़ा पौलुस रसूल के इब्तिदाई ख़यालात का मुफ़स्सिल ज़िक्र करने की बजाए हालात के बदल जाने की वजह से रसूल के उन ख़ुसूसी ख़यालात और मोअ्तक़िदात का मुफ़स्सिल ज़िक्र
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148H.R. Mackintosh, The Doctrine of the Person of Jesus Christ p.48
करता जो पहली सदी के अवाखिरर में ग़ैर-यहूदी कलीसियाओं में मुरव्वज थे। इस से ज़ाहिर है कि ये किताब यरूशलेम की तबाही और क़ौम यहूद की बर्बादी से बहुत पहले लिखी गई थी।
(3) आमाल की किताब में सय्यदना मसीह की ज़ात के मुताल्लिक़ जो तालीम पाई जाती है वो कलीसिया की ज़िंदगी के इब्तिदाई ज़माने से मुताल्लिक़ है जब कलीसिया को अभी ज़रूरत ना पड़ी थी कि सय्यदना मसीह की ज़ात के मुताल्लिक़ ग़ौरो-फ़िक्र करके अपने मोअ्तक़िदात को फ़लसफियाना अल्फ़ाज़ के ज़रीये वाज़ेह करे। सच्च तो ये है कि इस अवाइल ज़माने में बुज़ुर्गाने-कलीसिया सय्यदना मसीह की ज़ात पर ग़ौर व फ़िक्र नहीं करते थे। बल्कि आपके साथ वालहाना इश्क़ रखते थे, जिसका मंबा और सरचश्मा वो तजुर्बा था जो उन को फ़ातिह और जलाल नजातदिहंदा के साथ शख़्सी तौर पर हासिल था।149
अवाइल ही से मुनज्जी आलमीन (मसीह) की ज़ात-ए-पाक पर अहद-ए-अतीक़ की कतुब-ए-मक़ुदसा के बाअज़ नामों का इतलाक़ किया गया था। मसलन इब्ने-आदम, ख़ुदा का बेटा, ख़ुदा का ख़ादिम, मूसा की मानिंद नबी, और ख़ुदावंद। जब हम इन अल्क़ाब का बनज़र-ए-ताम्मुक़ मुतालआ करते हैं तो हम देखते हैं कि आमाल की किताब में इन तमाम इस्तिलाहात का इतलाक़ आँख़ुदावंद पर उन के इब्तिदाई माअनों में ही किया गया है। मसलन इब्ने-आदम का लक़ब, जो अनाजील अर्बा में सिर्फ कलिमतुल्लाह की ज़बान-ए-मोअजिज़ा बयान पर पाया जाता है। आमाल में मुक़द्दस स्तिफ़नुस की ज़बान पर है (आमाल 7:56) और इस के बाद ये लक़ब कहीं नहीं मिलता। इसी तरह मुनज्जी आलमीन (मसीह) के लिए “ख़ुदा का बेटा” इस्तिमाल किया गया है। (आमाल 8:37, 9:20 वग़ैरह) लेकिन इस इस्तिलाह में ताहाल कोई फ़ल्सफ़ियाना मुतालिब मौजूद नहीं। इस्तिलाह “ख़ुदा का ख़ादिम” (आमाल 3:13 वग़ैरह) में भी सिर्फ इब्तिदाई मनाज़िल के ख़यालात पाए जाते हैं। हत्ता कि गो इससे किताब में सय्यदना मसीह के दुख उठाने को ख़ादिम यहोवा के दुख उठाने पर मुंतबिक़ (बराबर, मुवाफ़िक़, ऊपर तले ठीक आने वाला) कर दिया गया है। (आमाल 8:26-36, यसअयाह 53:7 ता आख़िर) ताहम इस से बनी-आदम की नजात के मुताल्लिक़ कोई नताइज अख़ज़ नहीं किए गए। मुक़द्दस पतरस रसूल और मुक़द्दस स्तिफ़नुस
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149Foakes Jackson, Acts (Moffat’s Commentary) p.XVI
की तक़रीरों में आँख़ुदावंद की मौत दीगर अम्बिया की शहादत की मानिंद शरीरों की बदआमाली का नतीजा है। (आमाल 2:22 36, 3:17, 7:51-53) इसी तरह “मूसा की मानिंद नबी” की पेशीनगोई का इतलाक़ आँख़ुदावंद पर किया गया है। (आमाल 3:17-26) लेकिन इस से किसी क़िस्म के नताइज अख़ज़ नहीं के गए। पस आमाल की किताब कलीसिया की ज़िंदगी के इब्तिदाई दौर के साथ ही ताल्लुक़ रखती है।
एक और मिसाल लफ़्ज़ “मसीह” है। ये लफ़्ज़ मुक़द्दस पौलुस के हर एक ख़त में बार-बार बतौर इस्म-ए-मारिफ़ा या इस्म-ए-ख़ास सय्यदना मसीह के लिए इस्तिमाल हुआ है। चुनान्चे आपके हर ख़त में जा-ब-जा “येसू मसीह”, “मसीह येसू” या सिर्फ़ “मसीह” पाया जाता है। लेकिन आमाल की किताब में ये लफ़्ज़ एक जगह भी सय्यदना मसीह के लिए इस्म-ए-ख़ास के तौर पर इस्तिमाल नहीं किया गया। बल्कि सिर्फ़ ख़िताब के तौर पर “मसीह-ए-मौऊद” के माअनों में इब्ने-अल्लाह के लिए इस्तिमाल किया गया है (आमाल 2:26, 3:15, 4:41, 9:30, 20:41, 22:67, 23:35, 39, 24:26, 46 वग़ैरह) यही हाल इन्जील सोम का है। इस में भी ये लफ़्ज़ सिर्फ़ ख़िताब के तौर पर ही हर जगह आया है मसलन (लूक़ा 2:11, 4:41, 1:26, 24:26 वग़ैरह)
मुक़द्दस यूहन्ना की इन्जील में भी ये लफ़्ज़ सिर्फ़ ख़िताब के तौर पर ही सोलह (16) मुक़ामात में वारिद हुआ है। इन्जील मत्ती में ये लफ़्ज़ ख़िताब के तौर पर (13) दफ़ाअ और इन्जील मर्क़ुस में ख़िताब के तौर पर छः (6) दफ़ाअ इस्तिमाल हुआ है। पस ये लफ़्ज़ “मसीह” ना तो किसी इन्जील में, और ना रसूलों के आमाल की किताब में, सय्यदना मसीह के लिए बतौर इस्म-ए-ख़ास के एक जगह भी इस्तिमाल नहीं हुआ। इस एक नुक्ते से ये साबित है कि चारों अनाजील और रसूलों के आमाल कलीसिया के इस इब्तिदाई दौर से मुताल्लिक़ हैं जब अभी सय्यदना मसीह को सिर्फ बतौर “मसीह-ए-मौऊद” माना जाता था। और अभी लफ़्ज़ “मसीह” ने बतौर इस्म-ए-मारिफ़ा आम मसीहियों की ज़बान पर रिवाज नहीं पकड़ा था। ऐसा मालूम होता है कि मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत की नक़्ल, नशर और इशाअत की वजह से कलीसिया में सय्यदना मसीह के लिए नाम “मसीह” ज़बान ज़द (मशहूर, मारूफ़) ख़लाइक़ (ख़ल्क़ की जमा, मख़्लूक़ात) हो गया और अब दुनिया-भर के लोग सय्यदना ईसा को उमूमन मसीह के नाम से ही जानते हैं।
एक और मिसाल लफ़्ज़ “ख़ुदावंद” है। ये लफ़्ज़ “ख़ुदावंद” पहली दो इंजीलों में बतौर इस्म-ए-ख़ास इब्ने-अल्लाह के लिए कहीं इस्तिमाल नहीं किया गया। इन्जील सोम में लफ़्ज़ “ख़ुदावंद” का इतलाक़ मुनज्जी आलमीन (मसीह) की ज़ात-ए-पाक पर बतौर इस्म-ए-ख़ास के सिर्फ ग्यारह मुक़ामात में किया गया है। रसूलों के आमाल की किताब में भी ये लफ़्ज़ सिर्फ़ कहीं-कहीं बतौर इस्म-ए-ख़ास इब्ने-अल्लाह के लिए इस्तिमाल हुआ है। जिससे ज़ाहिर है कि ये किताब उस ज़माने में लिखी गई थी, जब लफ़्ज़ “ख़ुदावंद” मुनज्जी आलमीन के लिए अभी शुरू हुआ था लेकिन वो अभी रिवाज नहीं पा चुका था। लेकिन इन मुक़ामात (आमाल 2:36, 9:5, 10:36) में भी इस इस्तिलाह से मुराद सिर्फ “आक़ा है” और बस। अगर आमाल अल-रसूल 60 ई॰ के बाद या इन्जील लूक़ा 90 ई॰ के क़रीब लिखी जाती तो इन्जील पतरस की तरह येसू की बजाए लफ़्ज़ “ख़ुदावंद” हर जगह इस्तिमाल किया जाता। नाज़रीन को याद होगा कि मुक़द्दस पौलुस हर एक ख़त में इब्ने-अल्लाह (मसीह) के लिए अक्सर लफ़्ज़ “ख़ुदावंद” इस्तिमाल करता है। पस आमाल की किताब में आँख़ुदावंद के लिए एक इस्तिलाही अल्फ़ाज़ मौजूद नहीं जो पहली सदी के अवाख़िर में आपके लिए आम तौर पर इस्तिमाल होते थे। चुनान्चे डाक्टर फ़ोकस जैक्सन कहते हैं :- 150
“मसीह की ज़ात और शख़्सियत के मुताल्लिक़ आमाल की किताब में जो ख़यालात पाए जाते हैं वो इस क़िस्म के नहीं जो बाद के ज़माने में मुरव्वज थे।”
एक अवामिर (अहकामे इलाही, शरई हुक्म) क़ाबिल-ए-ग़ौर है। मुक़द्दस पौलुस की तहरीरात में हर जगह आँख़ुदावंद की सलीबी मौत का ताल्लुक़ बनी नूअ इन्सान की नजात के साथ बतलाया गया है। लेकिन आमाल की किताब में ये ताल्लुक़ मौजूद नहीं है। इस किताब में आपकी सलीबी मौत को अहले-यहूद की शरारत से मुताल्लिक़ किया गया है जिससे ज़ाहिर है कि जब ये किताब लिखी गई थी तो उस वक़्त मसीही अक़ाइद अपनी इर्तिक़ा की इब्तिदाई मनाज़िल में ही थे।
मैं आख़िर में ये अर्ज़ करना चाहता हूँ कि सय्यदना मसीह के कलमात बलाग़त निज़ाम के लिए आमाल की में कोई इस्तिलाही लफ़्ज़ इस्तिमाल नहीं किया गया बल्कि सिर्फ़ अल्फ़ाज़ “ख़ुदावंद येसू” की बातें इस्तिमाल किए गए (आमाल 20:35) इस बात से
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150Harnack, Luke the Physician p.24
भी ज़ाहिर है कि इस किताब का ताल्लुक़ पहली सदी के अवाख़िर से नहीं बल्कि निस्फ़ के साथ है। जब हज़रत कलिमतुल्लाह की तालीम के लिए ताहाल कोई ख़ास लफ़्ज़ या इस्तिलाह तज्वीज़ नहीं की गई थी। पस ये नुक्ता भी इस बात की ताईद करता है कि ये किताब 60 ई॰ में लिखी गई थी।
(4) पहली सदी के अवाख़िर में अल्फ़ाज़ “मसीही” और “मसीहिय्यत” आम तौर पर मुरव्वज थे। लेकिन आमाल की किताब में ये अल्फ़ाज़ मुरव्वज नहीं जिससे ज़ाहिर है कि ये किताब उस ज़माने में लिखी गई थी जब कलीसिया के मेम्बरों के लिए अभी लफ़्ज़ मसीही आम इस्तिमाल नहीं किया जाता था और सय्यदना मसीह के ख़ुसूसी उसूलों के लिए लफ़्ज़ “मसीहिय्यत” वज़ा भी नहीं किया गया था। अगर ये किताब 60 ई॰ की बजाए पच्चीस (25) साल बाद अहाता तहरीर में आती तो इस में ईमानदारों के लिए लफ़्ज़ “मसीही” ज़्यादा इस्तिमाल किया जाता क्योंकि इस सदी में कियासिरा (क़ैसर की जमा, बादशाह रोम) रोम के तशद्दुद आमेज़ रवैय्ये की वजह से लफ़्ज़ “मसीही” की इस्तिलाह कलीसिया के अंदर और बाहर जड़ पकड़ चुकी थी।
अहद-ए-जदीद में लफ़्ज़ मसीही सिर्फ तीन जगह वारिद हुआ है यानी (आमाल 11:26, 26:28, 1 पतरस 4:16) पहले मुक़ाम में मुक़द्दस लूक़ा हमको बतलाते हैं कि ये शागिर्द पहले अन्ताकिया में ही मसीही कहलाए अन्ताकिया का शहर सिकंदरिया की तरह अज़्राह-ए-तम्सख़र हजू (मज़ाक़ या गाली) ये नाम और हिक़ारत आमेज़ लक़ब देने के लिए मशहूर था। जब शाम के दारूल-सल्तनत अन्ताकिया के शहर और गिर्द व नवाह में मसीहिय्यत फैल गई और मुनज्जी आलमीन (मसीह) की वफ़ात के दस साल के अंदर ग़ैर-यहूद जौक़-दर-जोक़ मसीहिय्यत के हल्क़ा-ब-गोश हो गए तो बुत-परस्तों के लिए अहले-यहूद में और मसीह पर ईमान लाने वालों में तमीज़ करना एक लाबदी अम्र (लाज़िम) हो गया। उन्हों ने ग़ैर-यहूद ईमानदारों को अज़्राह-ए-तम्सख़र (मज़ाक बनाने के लिए) “मसीही” कहना शुरू कर दिया यानी मसीह के पैरौ जिस तरह हेरोदेस के पैरौओं को “हेरोदी” कहा जाता था। (मत्ती 22:16, मर्क़ुस 3:6 वग़ैरह)
लेकिन मुनज्जी जहान (मसीह) पर ईमान लाने वाले अपने आपको “मसीही” नहीं कहते थे। वो अपने और दूसरों के लिए आम तौर पर अल्फ़ाज़ “भाई”, “भाईयों” वग़ैरह का इस्तिमाल करते थे। (आमाल 6:3, 9:30, 10:23, 11:12, 12:17, 14:2, वग़ैरह। रोमियों
1:13, 12:1, 16:14 वग़ैरह। 1 कुरिन्थियों 2:1, 7:29, 10:1, 11:2, 14:26, 2 कुरिन्थियों 9:5, 11:9, ग़लतियों 1:2, इफ़िसियों 6:23, फिलिप्पियों 1:14, 1 थिस्सलुनीकियों 4:1, 10, 1 तीमुथियुस 4:6, 1 पतरस 1:22, 1 यूहन्ना 3:14 वग़ैरह)
बाज़ औक़ात कलीसिया के शुरका के लिए लफ़्ज़ “शागिर्द” इस्तिमाल किया जाता था। (आमाल 9:1, 10, 16:1, 21:16, 19:1, 20:7 वग़ैरह) बाज़ औक़ात लफ़्ज़ “मुक़द्दस” इस्तिमाल होता था। (आमाल 9:13, 32, 41, 26:10, रोमियों 1:7, 12:13, 15:26, 1 कुरिन्थियों 6:1, 14:33, 2 कुरिन्थियों 1:2, 13:13 वग़ैरह)
अहले-यहूद सय्यदना मसीह पर ईमान लाने वालों को “नासरी” और “गलीली” कहा करते थे। अहद-ए-जदीद की तमाम कुतुब में किसी एक मुक़ाम में भी हम ये नहीं पाते कि कलीसिया के शुरका ने अपने आपको “मसीही” कहा हो।
दूसरा मुक़ाम जहां अहद-ए-जदीद में लफ़्ज़ “मसीही” वारिद हुआ है। (आमाल 26:28) है। इस मुक़ाम में मुक़द्दस पौलुस रसूल अगरप्पा को ख़िताब करके कहता है “ऐ अगरप्पा बादशाह तू नबियों का यक़ीन करता है। मैं जानता हूँ कि तू यक़ीन करता है। अगरप्पा ने पौलुस से कहा, तो तू थोड़ी सी नसीहत करके मुझे मसीही कर लेना चाहता है।” ये वाक़िया अहले अन्ताकिया के लफ़्ज़ “मसीही” को इख़्तिरा (नई बात निकालना) करने के क़रीबन बीस (20) साल बाद का है। यहां अगरप्पा बादशाह भी अज़रूए तम्सख़र (मज़ाक बनाने को) ईमानदारों को हिक़ारत आमेज़ लफ़्ज़ “मसीही” से याद करता है। जिस तरह अस्रे हाज़िर में पंजाब के बाअज़ देहाती ग़ैर-मसीही, कलीसिया के शुरका को “कुरानी” कहते हैं। मुक़द्दस पौलुस की तहरीरात में कहीं लफ़्ज़ “मसीही” नहीं पाया जाता।
तीसरा मक़ाम मुक़द्दस पतरस के पहले ख़त (1 पतरस 4:16) यहां मुक़द्दस पतरस कलीसिया के मेम्बरों को फ़र्माते हैं कि “अगर बुत-परस्त तुमको अज़्राह-ए-हिक़ारत (हंसी उड़ाने को) “मसीही” कहते हैं या तुमको मसीह के नाम के सबब मलामत करते हैं तो ये अम्र तुम्हारे लिए आर (शर्म) का और शर्माने का मूजिब नहीं होना चाहिए बल्कि तुम इस नाम के सबब ख़ुदा की तम्जीद करो। क्योंकि अगर मसीह के नाम के सबब तुमको मलामत की जाती है तो तुम मुबारक हो। (1 पतरस 4:14-16) मुक़द्दस पतरस का ये ख़त 64 ई॰ के क़रीब लिखा गया था। जिससे ज़ाहिर है कि कलीसिया के शुरका 64 ई॰) तक लफ़्ज़ “मसीही” अपने लिए इस्तिमाल नहीं करते थे। इस साल मुक़द्दस पौलुस और मुक़द्दस पतरस
अभी ज़िंदा थे। मुक़द्दस पौलुस की शहादत के चंद बाद एपीकटेटस (Epictetus) मुनज्जी आलमीन (मसीह) पर ईमान लाने वालों के लिए लफ़्ज़ “गलीली” इस्तिमाल करता है। जिससे ज़ाहिर है कि आमाल की किताब उस ज़माने में लिखी गई थी जब कलीसिया के शुरका लफ़्ज़ “मसीही” को अपने लिए इस्तिमाल करना पसंद नहीं करते थे और नेक निहाद बुत-परस्त भी (जो ईमानदारों को तअन व तशनी (गाली ग्लोच) का आमाजगाह बनाना नहीं चाहते थे) इस लफ़्ज़ को इनके लिए इस्तिमाल नहीं करते थे। पस ये अम्र भी हमारे नतीजे का मुसद्दिक़ है कि आमाल की किताब 60 ई॰ के क़रीब लिखी गई थी।
हक़ीक़त तो ये है कि कियासिरा रोमम के अहकाम और इज़ार सानियों की वजह से लफ़्ज़ “मसीही” कलीसिया के शुरका पर चस्पाँ किया जाता था। रोमी सल्तनत के क़ानून ने सय्यदना मसीह के मज़्हब को ममनू क़रार दे दिया था। क्योंकि वो रोम के क़ौमी मज़्हब, देवता परस्ती और क़ैसर परस्ती के ख़िलाफ़ था। पस जब कलीसिया के शुरका को गिरफ़्तार करके अदालत में पेश किया जाता था तो उन से ये सवाल किया जाता था कि क्या तुम “मसीही” हो? अगर गिरफ़्तार शुदगान इन्कार करते तो कलीसियाई हलक़ों में इस बात को ख़ुदावंद के इन्कार के बराबर समझा जाता था। पस वो निहायत दिलेरी से यही जवाब देते कि वो मसीही हैं। यूं रफ़्ता-रफ़्ता कलीसिया में लफ़्ज़ “मसीही” रिवाज पा गया और इज़ार सानियों के दौरान में कलीसिया ने इस लफ़्ज़ को अपना लिया और हर ईमानदार इस हिक़ारत आमेज़ लफ़्ज़ को अब फ़ख़्रिया इस्तिमाल करने लग गया।
लफ़्ज़ “मसीहिय्यत” भी अहद-ए-जदीद की कुतब के मजमूए में कहीं पाया नहीं जाता। आमाल की किताब से मालूम होता है कि अहले-यहूद इस के लिए हिक़ारत के तौर पर लफ़्ज़ “तरीक़” बमाअनी “राह” इस्तिमाल करते थे। (आमाल 9:2 मुक़ाबला करो 24:5 वग़ैरह) लेकिन मसीही कलीसिया ने इनके तम्सख़र तज़हीक और हिक़ारत की परवाह ना की। (आमाल 24:14) लफ़्ज़ “तरीक़” को अपना लिया क्योंकि उस के मुनज्जी ने ये लफ़्ज़ ख़ास अपनी ज़ात के लिए इस्तिमाल फ़रमाया था। (यूहन्ना 14:4-6) आमाल की किताब में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूलों के लिए यही लफ़्ज़ “तरीक़” जा-ब-जा इस्तिमाल हुआ है जिससे ज़ाहिर है कि ये किताब अव्वलीन और इब्तिदाई ज़माने से मुताल्लिक़ है (आमाल 16:17, 18:26, 19:9, 23, 24:22 वग़ैरह) कियासिरा रोम की इज़ार सानियों की वजह से (जिसमें पस-ए-पर्दा अहले-यहूद का हाथ होता था) यहूदियत और मसीहिय्यत में तमीज़ करना ज़रूरी हो गया था। पस लफ़्ज़ “मसीही” के साथ-साथ लफ़्ज़ मसीहिय्यत भी
इस्तिमाल होने लग गया और पहली सदी के आख़िर में लफ़्ज़ “मसीहिय्यत” आम हो गया। क़दीम ज़माने का जो मसीही लिट्रेचर महफ़ूज़ रह गया है, इस में पहले-पहल मुक़द्दस अगनेशस के ख़ुतूत में लफ़्ज़ “मसीहिय्यत” पाया जाता है।
सुतूर बाला से ज़ाहिर हो गया होगा कि आमाल की किताब उस ज़माने में लिखी गई जब कलीसिया ने लफ़्ज़ “मसीहिय्यत” को अभी अपनाया ना था। और यह वक़्त नेरू की तशद्द-दाना पालिसी से पहले का है जिसका आग़ाज़ 64 ई॰ में हुआ था। पस ये किताब 60 ई॰ के क़रीब लिखी गई थी।
(5) इस सिलसिले में लफ़्ज़ “शहीद” की तारीख़ का बयान करना भी फ़ायदे से ख़ाली नहीं है। अल्फ़ाज़ “शहीद” और “शहादत” के असली मअनी गवाही के हैं और इस्तिलाही तौर पर सिर्फ उन लोगों के लिए इस्तिमाल किए जाते हैं जो अपने ख़ून से अपने ईमान की गवाही देते हैं। लफ़्ज़ “शहीद” के यूनानी लफ़्ज़ “मार्टर” μαρτυ के मअनी गवाह के हैं। और रोमी कियासिरा की इज़ार सानियों के दौरान में ये लफ़्ज़ उन ईमानदारों के लिए इस्तिमाल होना शुरू हो गया जिन्हों ने अपने ख़ून से अपने ईमान की गवाही दी थी।
जब हम आमाल की किताब का मुतालआ करते हैं तो हम देखते हैं कि इस में ये लफ़्ज़ इन इस्तिलाही माअनों में इस्तिमाल नहीं किया गया है। (आमाल 1:22; 4:33, 5:32, 10:41, 13:31, 22:15, 26:16 वग़ैरह)
मुम्किन है कि कोई साहब ये एतराज़ करें कि मुक़द्दस पौलुस की ज़बान पर ये लफ़्ज़ इन मअनों में इस्तिमाल किया गया है लेकिन अगर इस मुक़ाम (आमाल 22:19) का गौर से मुतालआ किया जाए तो हम पर वाज़ेह हो जाएगा कि इस मुक़ाम में रसूल मक़्बूल का मतलब ये नहीं कि मुक़द्दस इस्तिफ़नुस की गवाही ने मौत की सूरत इख़्तियार की थी बल्कि आपका मतलब ये था कि गवाही की वजह से उस की मौत वाक़ेअ हुई थी। पस ज़ाहिर है कि लफ़्ज़ “शहीद” इस मुक़ाम पर इस्तिलाही माअनों में इस्तिमाल नहीं किया गया। जिस तरह मिसाल के तौर पर वो मुकाशफ़ात (मुकाशफ़ा 2:13, 17:6) में इस्तिमाल किया गया है। पस साबित हुआ कि आमाल की किताब क़ैसर नेरू की इज़ार सानियों से पहले अहाता-ए-तहरीर में आई और ये नतीजा हमारे इस नज़रिये की तस्दीक़ करता है कि मुक़द्दस लूक़ा ने ये किताब 60 ई॰ के क़रीब लिखी थी।
(6) जब हम आमाल की किताब की कलीसियाई तंज़ीम पर नज़र करते हैं तो हम पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि कलीसिया के उमूर निज़ाम भी इब्तिदाई मराहिल से मुताल्लिक़ हैं। इस किताब के किसी सफ़ा में भी कोई ऐसी बात नहीं पाई जाती। जिससे ये ज़ाहिर हो कि कलीसियाई तंज़ीम पहली सदी के अवाखिर की है। इस किताब में अल्फ़ाज़ “एपिसकोपोस” और “परेसबटरोए” आते हैं लेकिन इन अल्फ़ाज़ से हम वो मतलब अख़ज़ नहीं कर सकते जो इनके हम-मअनी अल्फ़ाज़ “बिशप” और “प्रसबटर” के तसव्वुरात में माबाअ्द के ज़माने में पाया जाता है। अला-हाज़ा-उल-क़यास रसूलों के हाथ रखने का मतलब भी वो नहीं है जो माबाअ्द के ज़माने में कलीसिया में मुरव्वज था। हक़ तो ये है कि कलीसिया की तंज़ीम इस किताब के लिखे जाने के वक़्त अभी ठोस और जामिद नहीं हुई थी।151बल्कि अपनी तरक़्क़ी की इब्तिदाई मंज़िलों में ही थी।
इन और दीगर वजूह के बाइस डाक्टर स्टिल कहता है कि आमाल की किताब 61 ई॰ के बाद की नहीं हो सकती।152
इन तमाम इस्तिलाहात का मुतालआ ये हक़ीक़त साबित कर देता है कि इनके माअनी और मुतालिब कलीसिया की इर्तिक़ा के इब्तिदाई ज़माना ही से मुताल्लिक़ हैं। अगर किताब आमाल अल-रसुल पहली सदी के अवाख़िर में लिखी जाती तो यक़ीनन कलीसिया के उस दौर के ख़यालात और मोअ्तक़िदात और कलीसियाई तंज़ीम का अक्स और असर इस किताब में पाया जाता। इस से ज़ाहिर है कि ये किताब 85 ई॰ से मुद्दतों पहले लिखी गई थी और इसका ज़माना तस्नीफ़ 60 ई॰ के लगभग का है।
फ़स्ल सोम
मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत और आमाल की किताब
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151Foakes Jackson Acts (Moffat’s Commentary) p.XVI
152J. Ironside Still, St. Paul on Trial (S.C.M.)
आमाल की किताब से ज़ाहिर है कि इस के मुसन्निफ़ ने मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत का इस्तिमाल नहीं किया। अब अगर ये मान लिया जाये कि मुक़द्दस लूक़ा ने ये किताब रसूल की हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में ही लिखी थी तो इस हक़ीक़त की कुछ वजह हो सकती है। लेकिन अगर ये मान लिया जाये कि ये किताब रसूल की शहादत के बीस (या जैसा कि बाअज़ कहते हैं चालीस) बरस बाद लिखी गई तो ये हक़ीक़त क़ाबिल-ए-तवज्जोह नहीं हो सकती। आमाल की किताब को एक सिरे से दूसरे तक पढ़ जाओ किसी पर ये अम्र ज़ाहिर नहीं हो सकता कि इस का मुसन्निफ़ मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत से वाक़िफ़ भी था। इब्रानियों का ख़त इस किताब से ग़ालिबन दस पंद्रह बरस बाद लिखा गया था। इस का मुसन्निफ़ रसूल के ख़ुतूत से वाक़िफ़ नज़र आता है। पतरस के पहले ख़त में चंद हिसस ऐसे हैं जो मुक़द्दस पतरस की शहादत के चंद साल बाद इस में ईज़ाद (इज़ाफ़ा) किए गए थे। इस में भी मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत का साफ़ इशारा और ज़िक्र है। (1 पतरस 1:14, रोमियों 12:2, 1:3, रोमियों 2:11, 1:20, रोमियों 16:25 अलीख; 2:6-8, रोमियों 9:33, 2:10, रोमियों 9:25, 1:2, इफ़िसियों 1:4, 1:4-5, इफ़िसियों 1:11, 18, 1:14, इफ़िसियों 2:3, 2:18, इफ़िसियों 6:5 वग़ैरह) अगर आमाल की किताब भी मुक़द्दस पौलुस की शहादत के बीस या तीस साल बाद लिखी जाती तो ये नामुम्किन अम्र है कि इस का मुसन्निफ़ मुक़द्दस रसूल के ख़ुतूत का इस्तिमाल ना करता। हम यहां तीन मिसालें देते हैं।153
(1) आमाल के सफ़र के रोज़नामचे (डायरी, खाता, हर रोज़ के हिसाब लिखने की किताब) से ज़ाहिर है कि फिलिप्पी एक ऐसी जगह थी जहां इस रोज़नामचे के मुसन्निफ़ मुक़द्दस लूक़ा ने कुछ मुद्दत तक क़ियाम किया था। पस वो क़ुद्रतन उस की कलीसिया में निहायत दिलचस्पी रखता था। लेकिन हैरत का मुक़ाम ये है कि आमाल की किताब का मुसन्निफ़ फिलिप्पियों के ख़त से वाक़िफ़ भी नज़र नहीं आता। आमाल की किताब में कलीसिया के शुरका में से सिर्फ लुदिया के ही नाम का ज़िक्र है। (आमाल 16 बाब) ना अपफ़र्दतस का ज़िक्र है। ना योदियाह का ना सुन्नतख़े का और ना क्लेमिनस का ज़िक्र है जो बाअज़ उलमा के मुताबिक़ बाद में कलीमन्ट आफ़ रुम के नाम से तारीख़ में मशहूर हुआ। पस किताब में फिलिप्पियों की कलीसिया का रसूल मक़्बूल की हाजतों को रफ़ा करने
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153George Salmon, Historical Introduction to N.T. pp.317-321
की ग़र्ज़ से ज़र-ए-नक़द भेजने का भी ज़िक्र नहीं। (फिलिप्पियों 4:16, नीज़ देखो 2 कुरिन्थियों 11:9)
(2) अगर आमाल की किताब 85 ई॰ में लिखी जाती जब रसूल मक़्बूल के ख़ुतूत तमाम कलीसियाओं के हाथों में थे तो मुक़द्दस लूक़ा कम-अज़-कम ग़लतियों के ख़त का ज़रूर इस्तिमाल करते जो 49 ई॰ में लिखा गया था। इस ख़त की रोशनी में (आमाल 9:19-30) और पंद्रहवीं बाब को लिखा जाता ताकि वाक़ियात का तवात्तिर और तसलसुल क़ायम रहे, मसलन (ग़लतियों 1:15-17) से ज़ाहिर है कि रसूल मक़्बूल अरब को गए थे और वहां से दमिश्क़ वापिस लौटे थे लेकिन मुक़द्दस लूक़ा इस सफ़र का कहीं ज़िक्र नहीं करते और हम यक़ीनी तौर पर ये नहीं कह सकते कि ये सफ़र कब किया गया। आया ये सफ़र (आमाल 9 बाब की 21-22 आयात) के माबैन के वक़्फे में वाक़ेअ हुआ या 22 और 23 आयात के दर्मियानी अर्से में किया गया। इलावा अज़ीं (ग़लतियों 1:21, 2:1, 11:18) वग़ैरह की आयात की रोशनी में आमाल का पंद्रहवां बाब लिखा जाता।
अगर मुक़द्दस लूक़ा के सामने ग़लतियों का ख़त होता तो ये मुम्किन था कि वो अपनी किताब में मुक़द्दस पौलुस के सफ़र-ए-अरब या अन्ताकिया में मुक़द्दस पौलुस और मुक़द्दस पतरस की बाहमी रंजिश का या तीतुस के फित्ने का ज़िक्र ना करते। पस आमाल की किताब के लिखने के वक़्त ग़लतियों का ख़त मुक़द्दस लूक़ा की नज़रों के सामने नहीं था।
इस का सबब ज़ाहिर है। आमाल की किताब की तस्नीफ़ के वक़्त ग़लतियों का ख़त अभी तमाम कलीसियाओं के हाथों में नहीं था और रसूल मक़्बूल ख़ुद ज़िंदा थे। पस इस के मुसन्निफ़ को जो रसूल के साथी थे उन के ख़ुतूत को बहम पहुंचाने की ज़रूरत महसूस ना हुई थी। अगर मुक़द्दस लूक़ा इस किताब को 60 ई॰ की बजाए पच्चीस (25) साल बाद 85 ई॰ में लिखते तो वो मज़्कूर बाला वाक़ियात को जो अहम क़िस्म के थे हरगिज़ नज़र-अंदाज ना करते।
(3) अगर कुरिन्थियों के ख़ुतूत मुक़द्दस लूक़ा के सामने होते और आपने (1 कुरिन्थियों 15:6-7) को पढ़ा होता तो यक़ीनन अपनी इन्जील लिखते वक़्त वो इन वाक़ियात का ज़िक्र करते और बतलाते कि मुनज्जी आलमीन (मसीह) अपनी ज़फ़रयाब क़ियामत के बाद फ़ुलां मुक़ाम और फ़ुलां मौक़े पर “पाँच सौ (500) से ज़्यादा भाईयों को एक साथ
दिखाई दिए जिनमें से अक्सर अब तक मौजूद हैं।” और मुक़द्दस याक़ूब को भी फ़ुलां मौक़े और क़ियामत के बाद फ़ुलां रोज़ फ़ुलां जगह नज़र आए।
अगर मुक़द्दस लूक़ा ने (2 कुरिन्थियों) पढ़ा होता तो वो आमाल की किताब में ज़रूर बतलाते कि मुक़द्दस पौलुस ने कहाँ और किस मौक़े पर यहूदियों से एक कम चालीस कोड़े पाँच बार खाए। तीन मर्तबा बेदें खाईं। तीन दफ़ाअ जहाज़ टूटने की बला में गिरफ़्तार हुए। (2 कुरिन्थियों 11:24-25)
आमाल की किताब को “अलिफ़” से “य” तक पढ़ जाओ। तमाम किताब में इस बात का इशारा तक नहीं मिलता कि मुक़द्दस पौलुस ने किसी कलीसिया को कभी कोई ख़त लिखा था। अगर आमाल की किताब 60 ई॰ में ना लिखी जाती बल्कि इस से पच्चीस (25) साल (या जैसा बाअज़ कहते हैं चालीस साल से ज़ाइद अर्सा) बाद लिखी जाती तो ये नामुम्किन अम्र है कि इस का मुसन्निफ़ रसूल के ख़ुतूत का ज़िक्र तक ना करता बिल-ख़ुसूस इस ज़माने तक आपके ख़ुतूत हर कलीसिया के हाथों में थे। मसलन जब वो कुरंथ का ज़िक्र करता है तो ज़रूर लिखता कि यहां रसूल मक़्बूल ने रोम की कलीसिया को ख़त लिखा था। लेकिन अगर कोई ग़ैर-मसीही जो इन्जील जलील की किताब के मजमूए से नावाक़िफ़ हो और ये ना जानता हो कि इस में किस शख़्स ने किया लिखा है और सिर्फ आमाल की किताब को पढ़े तो इस के शान व गुमान में ये भी बात कभी ना आएगी कि मुक़द्दस पौलुस ने कभी किसी कलीसिया को कोई ख़त लिखने के लिए क़लम भी उठाया था। बल्कि इस के बरअक्स वो यही समझेगा कि पौलुस सिर्फ एक ज़बरदस्त मुबल्लिग़ और जोशीला रसूल था जो जुनूनी हो कर जा-ब-जा सरगर्दां (आवारा) फिरता रहा ताकि अपने ख़ुदा की नजात की बशारत रोमी दुनिया के कोने कोने में पहुंचा दे।
पस आमाल की किताब लिखते वक़्त मुक़द्दस लूक़ा के सामने मुक़द्दस पौलुस रसूल के ख़त मौजूद नहीं थे वर्ना आप इन ख़तों की रोशनी में बाअज़ उमूर् का ज़िक्र ज़रूर करते और दीगर उमूर को अच्छी तरह वाज़ेह कर देते। अब ग़बी से ग़बी शख़्स पर भी ये ज़ाहिर है कि अगर ये किताब 60 ई॰ के बाद लिखी जाती तो इस के मुसन्निफ़ के हाथों में इन ख़ुतूत की कापियां ज़रूर होतीं। मुक़द्दस पौलुस 64 ई॰ में शहीद किए गए थे। क्या ये अम्र क़रीन-ए-क़ियास हो सकता है कि अगर मुक़द्दस लूक़ा 85 ई॰ या 100 ई॰ में ये किताब लिखते तो आप अपने शहीद आक़ा के ख़ुतूत को उन की ज़िंदगी के वाक़ियात लिखते वक़्त
अपने सामने ना रखते? इन ख़ुतूत का 60 ई॰ तक मुक़द्दस लूक़ा के हाथों में ना होना ताज्जुबख़ेज़ अम्र नहीं हो सकता, लेकिन 85 ई॰ या 100 ई॰ तक इन ख़ुतूत का आपके हाथों में ना होना एक नामुम्किन अल-वक़ूअ अम्र है।154
फ़स्ल चहारुम
मुख़ालिफ़ उलमा के ख़यालात की तन्क़ीअ व तन्क़ीद
हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं कि बाअज़ उलमा रिसाला आमाल की तस्नीफ़ के लिए 85 ई॰ की बजाए 100 ई॰ तज्वीज़ करते हैं। इन अस्हाब की दलील ये है कि मुक़द्दस लूक़ा ने यहूदी मुअर्रिख़ यूसीफ़स की तस्नीफ़ ANTIQUITES को बतौर एक माख़ज़ के इस्तिमाल किया था जो 94 ई॰ में शाएअ हुई थी। अगर ये दलील सही साबित हो जाए तो कोई शख़्स ये इन्कार नहीं कर सकता कि रिसाला आमाल 60 ई॰ की बजाए 95 ई॰ या इस के बाद लिखा गया था। लेकिन ये दाअ्वा सरासर ग़लत है और हक़ीक़त से कोसों दूर है।
इस में कुछ शक नहीं कि मुक़द्दस लूक़ा और यूसीफ़स दोनों बाज़ औक़ात एक ही वाक़िये का ज़िक्र करते हैं। चुनान्चे (आमाल 5:36-37, 12:20, 21:38) में जिन वाक़ियात का ज़िक्र है इनका ये मुअर्रिख़ भी ज़िक्र करता है। दोनों मुसन्निफ़ों की किताबों में बाअज़ अल्फ़ाज़ एक ही क़िस्म के पाए जाते हैं। जिनसे इन उलमा को ये धोका हो गया है कि मुक़द्दस लूक़ा ने इस यहूदी मुअर्रिख़ को माख़ज़ के तौर पर इस्तिमाल किया था। मसलन यूसीफ़स ने तिबरियास से कहा “अगर यही इन्साफ़ है तो मुझे मरने से इन्कार नहीं”155मुक़ाबला करो (आमाल 25:11) लेकिन इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ ऐसे शख़्स के मुँह से
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154See also Encyclo, Biblica S.V. Acts Col 42 and Moffat’s Introd. To Lit of the N.T. p300
155Vita 29
निकलते हैं जिस पर झूटा इल्ज़ाम लगाया जाता है और इन से ये नतीजा अख़ज़ नहीं हो सकता कि मुक़द्दस लूक़ा यहूदी मुअर्रिख़ का मर्हूने मिन्नत है।
हमें ये बात याद रखनी चाहिए कि जब दो मुसन्निफ़ एक ही वाक़िये की निस्बत लिखते हैं तो वो किसी हद तक एक ही क़िस्म के अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करते हैं। लेकिन इन अल्फ़ाज़ की मुतशाबहत (हम-शक्ल) से ये लाज़िम नहीं आता कि एक ने दूसरे की नक़्ल की है। हक़ तो ये है कि दोनों मुसन्निफ़ों के बयानात को पढ़ने से ये ज़ाहिर हो जाता है कि दोनों के बयानात में बड़ा फ़र्क़ है और यह फ़र्क़ इस क़द्र वाज़ेह है कि एक नक़्क़ाद कहता है156कि अगर मुक़द्दस लूक़ा ने यूसीफ़स की कुतुब को पढ़ा था तो वो उन को पढ़ने के बाद ही फ़ौरन भूल गया होगा!!
मुक़द्दस लूक़ा और यूसीफ़स दोनों मुसन्निफ़ फ़ाज़िल थे। और दोनों का मुतालआ वसीअ था। पस ये अम्र मुम्किन है कि जब दोनों मुसन्निफ़ ज़माना-ए-माज़ी के एक ही क़िस्म के तारीख़ी वाक़ियात का ज़िक्र करते हैं तो इन दोनों का तारीख़ी माख़ज़ किसी तीसरे मुसन्निफ़ की किताब होगी जिसकी वजह से दोनों के अल्फ़ाज़ में मुशाबहत है। और जब दोनों मुसन्निफ़ एक ही मुल्क और क़ौम के एक ही वाक़िये का ज़िक्र करते हैं तो एक ही क़िस्म के मंज़रों का ज़िक्र करते हैं तो जा-ए-हैरत नहीं कि दोनों के क़लम से एक ही क़िस्म के अल्फ़ाज़ निकलते हैं और इस मुशाबहत से हम क़तई और हतमी तौर पर ये नहीं कह सकते कि मुक़द्दस लूक़ा ने यूसीफ़स की किताब का इस्तिमाल किया है इस के बरअक्स यहूदी मुअर्रिख़ ने मुक़द्दस लूक़ा की तस्नीफ़ का इस्तिमाल किया है।
हक़ तो ये है कि मुक़द्दस लूक़ा एक मुहतात मुअर्रिख़ है और अपनी इन्जील और आमाल की किताबों में तवारीख़ी वाक़ियात का बार-बार ज़िक्र करता है। मसलन वो हेरोदेस के ख़ानदान की तारीख़ से वाक़िफ़ है। वो रोमी कियासिरा के नामों का ज़िक्र करता है और अहले-यहूद की तारीख़ की जानिब इशारा भी करता है। वो रोमी हुक्काम के सही ख़िताब लिखता है और रोमी सल्तनत के शहरों का बयान भी दुरुस्ती से करता है। इस से बाअज़ उलमा को ये गुमान हुआ कि मुक़द्दस लूक़ा के सामने तारीख़ी किताबें थीं जो इस का माख़ज़ थीं और चूँकि इस क़िस्म की तारीख़ी कुतुब में से सिर्फ यूसीफ़स की किताब का ही
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156Schrur & Salmon Hasting’s Dict, of the Bible Vol1. p.30
हमको इल्म है लिहाज़ा उन्होंने ये नज़रिया क़ायम किया कि आमाल यूसीफ़स की कुतुब के बाद लिखी गई है। लेकिन यूसीफ़स की किताब का वो हिस्सा जो आमाल का माख़ज़ किया जाता है इस का आख़िरी हिस्सा है और इस आख़िरी हिस्से का मुतालआ हम पर वाज़ेह कर देता है कि इस किताब के वो बयान जो इन्जील-ए-सोम और आमाल से मुताल्लिक़ हैं निहायत क़लील, नाकाफ़ी और कम माया क़िस्म के हैं, क्योंकि इस हिस्से के जुज़्व-ए-आज़म का ताल्लुक़ हेरोदेस अगरपा (xxx) बाबिल के यहूद के हालात (xvii) और शाह अव्याबीन की ज़िंदगी (xx) के बयानात पर मुश्तमिल है। पस अगर ये नज़रिया दुरुस्त हो तो हमको हैरानगी होती है कि मुक़द्दस लूक़ा जैसे मुहतात शख़्स ने एक ऐसी किताब को माख़ज़ बनाया जिससे उस को इस क़द्र कम हालात मिले हमको ये अम्र फ़रामोश नहीं करना चाहिए कि जिन लोगों का मुक़द्दस लूक़ा बिल-उमूम ज़िक्र करता है वो मशहूर हस्तियाँ थीं और उन के जानने के लिए किसी तारीख़ी किताब के माख़ज़ की ज़रूरत नहीं थी। हाँ अगर यूसीफ़स हमको ये बतलाता कि सरजियस पौलुस Sergius Paulus एक पिरो कौंसल था या फिलिप्पी के मजिस्ट्रेट अपने आपको “प्रियोटर” Proetor कहलाने के ख़्वाहिशमंद थे या गलियो Gallio आख्या का पिरो कौंसल था या इफ़िसुस शहर का “मुहर्रिर” हुआ करता था तो ये नज़रिया ज़्यादा क़ाबिल-ए-क़ुबूल होता।157
इस में शक नहीं कि मुक़द्दस लूक़ा की तस्नीफ़ात की रोशनी में यूसीफ़स की कुतुब ज़्यादा वाज़ेह हो जाती हैं और यूसीफ़स की तर्ज़-ए-अदा और इस के बयान को हम बेहतर तौर पर समझ सकते हैं। लेकिन इस से ये उल्टा साबित नहीं होता कि मुक़द्दस लूक़ा ने यूसीफ़स की कुतुब का इस्तिमाल किया था।158
(2)
तादम-ए-तहरीर कोई आलिम ऐसी मिसाल पेश नहीं कर सका जिससे इस दाअ्वे का सबूत क़तई तौर पर पाया-ए-तक्मील को पहुंच सके कि मुक़द्दस लूक़ा के माख़ज़ों में इस यहूदी मुअर्रिख़ की किताबें शामिल थीं। इस के बरअक्स बाअज़ तफ़सीलात से ज़ाहिर होता है कि दोनों मुसन्निफ़ ना सिर्फ एक दूसरे से बेनियाज़ हैं बल्कि दोनों में शदीद
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157Foakes Jackson Acts (Moffiat’s Commentary) pp.XIV, XV
158Foakes Jackson $ Kirsopp Lake, Beginnings of Christianity Part1, Vol2 pp.311-312
इख़्तिलाफ़ है। मसलन थिवुस के मुआमले में दोनों में हद दर्जे का इख़्तिलाफ़ है। (आमाल 5:36) फिर मुक़द्दस लूक़ा लिखता है कि मिस्री के पैरौ चार हज़ार थे (आमाल 21:38) लेकिन यूसीफ़स इस तादाद को तीस हज़ार बतलाता है। और मौअर्रखीन का ख़याल है कि मुक़द्दस लूक़ा की तादाद ज़्यादा क़रीन-ए-क़ियास है। डाक्टर सेंडे Sanday कहता है159कि दोनों मुसन्निफ़ों में जो इख़्तिलाफ़ात हैं वो उनकी बाहमी मुशाबहत से कहीं बढ़कर हैं.... और मैं अकेला ही इस नतीजे पर नहीं पहुंचा। ये मफ़रूज़ा बिल्कुल बे-बुनियाद है। “जर्मन नक़्क़ाद डाक्टर हारनेक भी” कहता है कि “ये नज़रिया कि आमाल के मुसन्निफ़ ने यूसीफ़स की किताबों को पढ़ा था क़तई बे-बुनियाद है।”160ये नज़रिया ऐसी बोदी (कमज़ोर) दलील पर मबनी है कि फ़ी ज़माना मग़रिबी ममालिक का कोई संजीदा मिज़ाज नक़्क़ाद इस का क़ाइल नहीं रहा।
इस दलील में यूसीफ़स की तस्नीफ़ात को हम दो धारी तल्वार की तरह इस्तिमाल नहीं कर सकते।161अगर अल्फ़ाज़ की मुशाबहत की बिना पर हम ये साबित करना चाहें कि मुक़द्दस लूक़ा ने यहूदी मुअर्रिख़ की किताब की नक़्ल की है तो जहां दोनों मुसन्निफ़ों में हद दर्जे का इख़्तिलाफ़ पाया जाता है वहां हमको ये कहने का मजाज़ नहीं कि इन बयानों में यहूदी मुअर्रिख़ का बयान तो दुरुस्त है लेकिन मुक़द्दस लूक़ा का बयान ग़लत है। (लूक़ा 3:1, आमाल 5:35-36) अगर मुक़द्दस लूक़ा के सामने बज़ाम-ए-मोअतरिज़ यूसीफ़स का सही बयान मौजूद था तो फिर उस ने मुअर्रिख़ की किताब से इख़्तिलाफ़ क्यों किया? हक़ तो ये है कि जब मौजूदा ज़माने के नक़्क़ाद दोनों मुसन्निफ़ों के मुख़्तलिफ़ बयानात का ग़ैर जानिबदाराना मुवाज़ना करते हैं तो वो मुक़द्दस लूक़ा के बयान को ज़्यादा क़रीन-ए-क़ियास और सही पाते हैं। यहूदी मुअर्रिख़ के बयान मुबालग़ा और रंग आमेज़ी से ख़ाली नहीं।
पस मुक़द्दस लूक़ा के किताब आमाल अल-रसुल को यूसीफ़स की किताबों से पहले लिखा था। आमाल की किताब का मुतालआ ये अम्र अयाँ कर देता है कि मुसन्निफ़ ने इस
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159Sanday, Inspiration pp. 278- 279
160Harnack Luke the Physician p.24 note
161Plummer, St. Luke p.XXIX
मुअर्रिख़ की कुतुब को पढ़ा भी ना था और ग़ालिबन इस के माख़ज़ भी वो ना थे जो यहूदी मुअर्रिख़ के थे।
(3)
हक़ तो ये है कि अगर अनाजील अरबा और आमाल अल-रसुल पहली सदी के अवाख़िर में लिखे जाते तो इन्जीली बयानात में इसी क़िस्म के ख़ुराफ़ात (फ़ुज़ूल बकवास) और लगुयात (बेहूदा बातें या आमाल) मौजूद होतीं जो अनाजील मौज़ूआ में हैं। वाक़ियात के बाद अर्सा तवालत की निस्बत से इन्सान की क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला परवाज़ करने लग जाती है और जिस क़द्र वाक़ियात दूर होते जाते हैं उसी क़द्र रंग आमेज़ी और मुबालग़ा (किसी बात को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बयान करना) से काम लिया जाता है। अगर अनाजील अर्बा के वाक़ियात का सीना-ब-सीना रिवायत पर ही इन्हिसार होता और अगर ये अनाजील पहली सदी के अवाख़िर में अहाता-ए-तहरीर में आतीं तो इनके बयानात में लगुयात पाई जाती हैं। मिसाल के तौर पर हायरापौलुस के बिशप पैपाईस को लें। इस की किताब का पाया इस्लामी कुतुब सैर का सा है। जिस तरह इन कुतुब सैर के मुसन्निफ़ जो सुनते थे वो बग़ैर जांचे परखे लिख लिया करते थे इसी तरह ये बिशप इस बात के शौक़ीन थे कि वो हर शख़्स का बयान बग़ैर किसी कसौटी पर परखने के लिख लें। चुनान्चे उस ने रसूलों की ज़बान के और उन के बाद के आने वाले लोगों के अक़्वाल को एक किताब में 100 ई॰ के क़रीब जमा किया। जिसमें हर तरह का रतब दिया बस (नेक व बद्) भरा हुआ है। मसलन वो कहता है162कि ख़ुदावंद ने सआदत के हज़ार साला दौर की निस्बत फ़रमाया है कि “अंगूर की पैदावार होगी और हर पौदे की दस हज़ार शाख़ें होंगी और हर शाख़ पर दस हज़ार गुच्छे होंगे और हर गुच्छे में अंगूर के दस हज़ार दाने होंगे और हर दाने में अढ़ाई मन रस होगा। यही हाल अनाज का होगा। हर बीज से दस हज़ार डंठल पैदा होंगे और हर डंठल पर दस हज़ार बालियां और हर बाली में पाँच सैर आटा होगा।” फिर वो यहूदाह ग़द्दार की निस्बत लिखता है “इस का जिस्म इस क़द्र फूल गया था कि वो कुशादा से कुशादा दरवाज़े में से नहीं गुज़र सकता था। गो इस में से एक छकड़ा बाआसानी निकल जाता था। इस की आँखें इस क़द्र अन्दर धस गई थीं कि वो उन से कुछ देख नहीं सकता था और ना कोई डाक्टर किसी नाली के ज़रीये इनका मुआइना कर सकता था।” अब जाये
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162Dr.F.Blass The Origin and Character of Our Gospels. In Exp. Times, May 1907
ग़ौर है कि अगर एक शख़्स जो बिशप के ओहदे पर फ़ाइज़ हो और जिस ने इन्जील अव्वल व सोम में ग़द्दार की मौत का हाल पढ़ा हो, इस क़द्र ज़ूद एतिक़ाद हो सकता है कि वो इस क़िस्म के ख़ुराफ़ात को तस्लीम करके हवाला क़लम करे। तो अगर ये अनाजील भी 100 ई॰ के क़रीब लिखी जातीं तो इनमें लगू क़िसस और कहानियां ज़रूर मौजूद होतीं। लेकिन अनाजील अरबा और आमाल अल-रसुल हर क़िस्म की लगुयात से कुल्लियतन पाक हैं। जिससे ज़ाहिर है कि जो वाक़ियात इन में दर्ज हैं वो ना सिर्फ चश्मदीद गवाहों के बयानात हैं बल्कि ये बयानात वाक़ियात के थोड़े अर्से के बाद ही तहरीर में आ गए थे।
यहां ये बतला देना मुनासिब मालूम होता है कि बिशप पैपाईस क़दीम तरीन मुसन्निफ़ है और गो जैसा मुअर्रिख़ यूसीबस इस की निस्बत कहता है। कि वो कोताह अक़्ल (कम-अक़्ल) था और ज़ूद एतिक़ाद (जल्द ईमान लाने वाला) होने की वजह से हर अय्यार और फ़रेबी की बातों में आ जाता था। ताहम उस की किताब में ऐसे बयानात भी पाए जाते हैं जो सच्चाई के मेयार पर पूरे उतरते हैं और यही वजह है की यूसीबस जैसे मुहतात मुअर्रिख़ ने इन को तस्लीम किया है। इन बयानात को हम इस रिसाले में नक़्ल कर आए हैं।
इस तमाम बह्स का मुहासिल (नतीजा, फल) ये है :-
आमाल की किताब ना तो दूसरी सदी के अवाइल में लिखी गई और ना यरूशलेम की तबाही (70 ई॰) के बाद लिखी गई। बल्कि पहली सदी के दूसरे निस्फ़ के अवाइल में 60 ई॰ के क़रीब लिखी गई थी। क्योंकि (1) इस में आख़िरी वाक़िया जो दर्ज है वो पौलुस रसूल की पहली क़ैद से मुताल्लिक़ है। (2) इस का मुसन्निफ़ इस अम्र से बे-ख़बर है कि जो अपील मुक़द्दस रसूल ने क़ैसर के हाँ की थी उस का क्या हश्र हुआ। (3) इस में सय्यदना मसीह के भाई मुक़द्दस याक़ूब की शहादत का (जो 62 ई॰ में वाक़ेअ हुई) ज़िक्र नहीं मिलता। (4) इस में मुक़द्दस पतरस और पौलुस की शहादतों का (64 ई॰) इशारा तक नहीं पाया जाता। (5) इस में नेरू की इज़ार सानी (64 ई॰) का इशारा तक नहीं मिलता। (6) इस किताब में उम्मीद अफ़्ज़ा हालात की झलक हर जगह नज़र आती है। अगर ये किताब 85 ई॰ के क़रीब लिखी जाती तो इस का लबो लहजा मुकाशफ़ात की किताब का सा होता। (7) इस में मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत की निस्बत एक लफ़्ज़ भी नहीं मिलता जिसकी वजह सिर्फ यही हो सकती है कि मुक़द्दस लूक़ा रसूल-ए-मक़्बूल के तादम मर्ग
साथी और रफ़ीक़कार थे। अगर ये किताब (85 ई॰) में लिखी जाती तो रसूल शहीद के ख़ुतूत का ज़िक्र होता और उन की रोशनी में बाअज़ वाक़ियात (आमाल 9:19-30) वग़ैरह लिखे जाते। (8) इस में इब्तिदाई क़िस्म के मसीही मोअ्तक़िदात पाए जाते हैं। (9) इस में यरूशलेम की तबाही और अहले-यहूद की परागंदगी का ज़िक्र तक नहीं। (10) इस किताब के हीरो, ऐक्टर और अदाकार सब के सब ऐसी फ़िज़ा में सांस लेते और चलते-फिरते हैं जो मसीहिय्यत के अव्वलीन दौर से मुताल्लिक़ है। इन वजूह के बाइस हम इस नतीजे पर पहुंचे बग़ैर नहीं रह सकते कि रसूलों के आमाल की किताब 60 ई॰ के क़रीब लिखी गई थी।
बाब दोम
तारीख-ए-तस्नीफ़-ए-इन्जील-ए-लूक़ा
हमने गुज़श्ता बाब में शरह व बस्त के साथ किताब आमाल अल-रसुल की तारीख-ए-तस्नीफ़ पर मुफ़स्सिल बह्स की है। क्योंकि इस किताब के ज़माना-ए-तस्नीफ़ के तअय्युन पर इन्जील-ए-लूक़ा की तारीख़ तस्नीफ़ का दारो मदार है। चुनान्चे इस के दीबाचे में मुक़द्दस लूक़ा लिखता है “ऐ थियुफिलुस मैंने पहला रिसाला (यानी इन्जील) इन सब बातों के बयान में तस्नीफ़ किया जो येसू (ईसा) शुरू में करता और सिखाता रहा।” (लूक़ा 1:1) पस इन्जील सोम पहला रिसाला है और आमाल की किताब दूसरा रिसाला है जो इन्जील के बाद लिखा गया था। अगर ये दूसरा रिसाला (80 ई॰ या 85 ई॰ या 100 ई॰) के क़रीब लिखा गया था तो ज़ाहिर है कि इन्जील-ए-सोम भी इस से पाँच दस साल पहले लिखी गई होगी। यही
वजह है कि बाअज़ उलमा इस इन्जील के ज़माने तस्नीफ़ के लिए (70 ई॰ या 80 ई॰) का ज़माना तज्वीज़ करते हैं।163लेकिन अगर हमारे नताइज (जिन पर हम पिछले बाब में पहुंचे हैं) दुरुस्त हैं और आमाल की किताब फ़िल-हक़ीक़त 60 ई॰ के क़रीब लिखी गई थी तो इन्जील सोम का ज़माना तस्नीफ़ इस से चंद साल पहले का होगा। इंशा-अल्लाह इस बाब में हम ये साबित कर देंगे कि इन्जील-ए-लूक़ा 57 ई॰ से पहले मुनज्जी आलमीन (मसीह) की सलीबी मौत के सिर्फ क़रीबन पच्चीस (25) साल बाद लिखी गई थी।
फ़स्ल अव़्वल
मुख़ालिफ़ उलमा के दलाईल पर तन्क़ीद
इस फ़स्ल में हम पहले उन उलमा के दलाईल का मवाज़ना करेंगे जिनका ये नज़रिया है कि इन्जील लूक़ा 80 ई॰ के क़रीब लिखी गई।164
(1)
इन उलमा का ये क़ौल है कि ये इन्जील यरूशलेम की तबाही के बाद अहाता-ए-तहरीर में आई इनकी मज़्बूत तरीन दलील ये है कि जिन अल्फ़ाज़ में मुक़द्दस लूक़ा यरूशलेम के बर्बाद होने की पेशीनगोई का ज़िक्र करते हैं उन से ये साबित होता है, कि शहर यरूशलेम इस किताब की तस्नीफ़ से बहुत पहले बर्बाद हो चुका था।
इस में कुछ शक नहीं कि जब हम इन्जील सोम की पेशीनगोई के अल्फ़ाज़ का दीगर अनाजील के अल्फ़ाज़ के साथ मुक़ाबला करते हैं। (लूक़ा 21:20-23, मर्क़ुस 13:14 28, मत्ती 24:15-22) तो तीनों के बयानात के अल्फ़ाज़ में हमको फ़र्क़ नज़र आता है। मसलन मुक़द्दस लूक़ा इन्जील-ए-अव़्वल के अल्फ़ाज़ “पढ़ने वाला समझ ले।” (मत्ती 24:15) नहीं लिखता और अल्फ़ाज़ पस जब तुम इस उजाड़ने वाली मक़रुह चीज़ को जिसका ज़िक्र दानीएल नबी की मार्फ़त हुआ घिरा हुआ देखो तो जान लेना कि इस का उजड़ जाना
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163Grieve, Peake’s Commentary p 724
164Bishop Gore’s Commentary p.209. and Adeney St. Luke (Century Bible )p.44
नज़्दीक है। (लूक़ा 21:20) और तफ़सीलात देता है कि “वो तल्वार का लुक़मा हो जाएंगे और असीर (क़ैदी) हो कर सब क़ौमों में पहुंचाए जाऐंगे। और जब तक ग़ैर-अक़्वाम की मियाद पूरी ना हो, यरूशलेम ग़ैर क़ौमों से पामाल होती रहेगी।” (आयत 24) फिर आगे चल कर निशानों के ज़हूर की निस्बत बतलाता है लेकिन इन्जील-ए-अव़्वल के अल्फ़ाज़ “और फ़ौरन इन दिनों की मुसीबत के बाद।” (मत्ती 24:29) को क़लम अंदाज़ कर देता है। इलावा अज़ीं मुक़द्दस (लूक़ा 19:43) में पेशीनगोई की तफ़सीलात बतलाता है। “क्योंकि वो दिन तुझ पर आएंगे कि तेरे दुश्मन तेरे गर्द मोरचा बांध कर तुझे घेर लेंगे। और हर तरफ़ से तंग करेंगे और तुझ को और तेरे बच्चों को जो तुझमें हैं ज़मीन पर दे पटकेंगे। और तुझ में किसी पत्थर पर पत्थर बाक़ी ना छोड़ेंगे।”
ये उलमा कहते हैं कि इस क़िस्म के तफ़्सीली अल्फ़ाज़ ज़ाहिर करते हैं कि इन्जील-ए-सोम की तस्नीफ़ से पहले यरूशलेम तबाह हो चुका था और मुक़द्दस लूक़ा सय्यदना मसीह की ज़बानी वो बातें कहलवाता है जो रूमी अफ़्वाज ने दरअस्ल 70 ई॰ में यरूशलेम को तबाह करते वक़्त इख़्तियार की थीं। बअल्फ़ाज़े दीगर वो माबाअ्द के वाक़ियात की रोशनी में सय्यदना मसीह की पेशीनगोई की तश्रीह करके कहता है कि मुक़द्दस मत्ती के अल्फ़ाज़ (इस उजाड़ने वाली मकरूह चीज़.... खड़ा देखो) से मुनज्जी आलमीन (मसीह) का ये मतलब था कि जब तुम यरूशलेम को फ़ौजों से घिरा हुआ देखो और वो बातें बतलाता है जो रूमी अफ़्वाज ने यरूशलेम के मुहासिरा के वक़्त की थीं। (आमाल 19:43)
नाज़रीन को याद होगा कि हम फस्ल-ए-अव़्वल में ये दलील दे चुके हैं कि किताब रसूलों के आमाल में यरूशलेम की तबाही और क़ौम यहूद की परागंदगी का इशारा तक मौजूद नहीं लिहाज़ा ये किताब इस वाक़िये (70 ई॰) से बहुत पहले अहाता तहरीर में आ चुकी थी। अब अगर ये साबित हो जाए कि मुक़द्दस लूक़ा अपनी इन्जील में यरुशलेम और अहले-यहूद की बर्बादी का मंज़र बयान करता है तो हमारा दाअ्वा ग़लत होगा। पस हम इस दलील पर हर पहलू से ग़ौर करके इंशा-अल्लाह ये साबित कर देंगे कि मुक़द्दस लूक़ा सय्यदना मसीह की पेशीनगोई की माबाअ्द के वाक़ियात की रोशनी में तश्रीह नहीं करते :-
(1) पहली तीनों अनाजील इस एक बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि सय्यदना मसीह की ज़बान-ए-मुबारक ने यरूशलेम की बर्बादी की पेशीनगोई फ़र्मा कर कहा था कि मौजूदा नस्ल
के होते हुए इनकी आँखों के सामने ये वाक़िया रौनुमा होगा। तारीख़ हमको बतलाती है कि तमाम मसीही ईमानदारों को इस बात का पक्का यक़ीन था कि शहर यरूशलेम तबाह हो जाएगा। जिसका मतलब ये है कि मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील लिखे जाने से पहले ही सब ईमानदार सय्यदना मसीह की पेशीनगोई के अल्फ़ाज़ का यही मतलब समझते थे कि यरूशलेम तबाह हो जाएगा। चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस फ़रमाता है “यहूदियों ने सय्यदना मसीह और नबियों को भी मार डाला और हम को सता-सता कर निकाल दिया। वो हमें ग़ैर क़ौमों को इन की नजात के लिए कलाम सुनाने से मना करते हैं ताकि इनके गुनाहों का पैमाना हमेशा भरता रहा है। लेकिन इन पर इंतिहा का ग़ज़ब आ गया।” (1 थिस्सलुनीकियों 2:16, नीज़ देखो रोमियों 11:25) ये अल्फ़ाज़ मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील के अल्फ़ाज़ (लूक़ा 21:22-23) की सदाए बाज़गश्त हैं और (49 ई॰) में यानी यरूशलेम की तबाही से इक्कीस (21) साल पहले लिखे गए थे। पस मसीह ईमानदारों को किसी ऐसी तश्रीह की ज़रूरत नहीं थी जो 70 ई॰ के वाक़िये की रोशनी में लिखी जाती।
तारीख़ हमको बतलाती है कि जब यरूशलेम तबाह होने के क़रीब हुआ तो तमाम मसीही हुक्म-ए-ख़ुदावंदी के मुताबिक़ (लूक़ा 20:21) शहर यरूशलेम को छोड़कर भाग गए। बाअज़ ने पहाड़ों में जाकर पनाह ली और बाक़ी यर्दन पर शहर पीला में जा बसे। जिससे साबित होताहै कि यरूशलेम की तबाही से पहले इन्जील लूक़ा उन लोगों के हाथों में थी और ईमानदारों ने सय्यदना मसीह के हुक्म के मुताबिक़ सब कुछ किया। इस मौक़े पर बेशुमार यहूद जो दिहात में रहते थे भाग कर यरूशलेम में पनाह गज़ीन हो गए जहां उन की आमद के सबब क़हत पड़ गया165और अहालयान यरूशलेम का हाल-ए-बद से बदतर हो गया।
ये दोनों तारीख़ी वाक़ियात साबित कर देते हैं कि मुक़द्दस लूक़ा के अल्फ़ाज़ “जब तुम यरूशलेम को फ़ौजों से घिरा हुआ देखो तो जान लेना कि इस का उजड़ जाना नज़्दीक है।” (70 ई॰) के वाक़ियात की रोशनी में क़लमबंद नहीं किए गए थे बल्कि मसीही ईमानदार वाक़िया तबाही से पहले ही इस बात से वाक़िफ़ थे कि यरूशलेम किस तरह तबाह किया जाएगा। और जब वो निशान ज़ाहिर हुए तो उन्हों ने इर्शाद-ए-ख़ुदावंदी के मुताबिक़ अमल किया। पस इन्जील लूक़ा यरूशलेम की तबाही से पहले अहाता तहरीर में आ चुकी थी।
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165Eusebius Ecclesiastical History 3.C.5
अगर मुक़द्दस लूक़ा ने बर्बादी के वाक़िये के बाद लिखा होता तो जिन पहाड़ों में मसीही भाग गए थे, उनका नाम दिया होता और शहर पीला का भी ज़िक्र इन्जील की इन आयात में मिलता।166ये अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि इस मुक़ाम में सय्यदना मसीह की आगाही के अल्फ़ाज़ को वाक़ियात के मुताबिक़ तब्दील नहीं किया गया जिससे साबित है कि पेशीनगोई के अल्फ़ाज़ वाक़िया बर्बादी (70 ई॰) से बहुत पहले लिखे गए थे।
(2) फिर सवाल पैदा होता है कि मुक़द्दस लूक़ा ने सय्यदना मसीह की पेशीनगोई के अल्फ़ाज़ को (जो मर्क़ुस 13:14) में इस के सामने थे क्यों बदल कर (लूक़ा 21:20) के अल्फ़ाज़ लिख दीए? इस का जवाब ये है कि मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील उन मसीहियों को तालीम देने की ख़ातिर लिखी थी जो ग़ैर-यहूद से मुनज्जी आलमीन (मसीह) के क़दमों में आए थे। (आमाल 1:1-4) ग़ैर-यहूद इब्रानी मुहावरात और यहूदी मसाइल मुआद (आख़िरत, क़ियामत) की ज़बान से क़तई नाआशना थे। पस वो (मर्क़ुस 13:14) के अल्फ़ाज़ “जब तुम इस उजाड़ने वाली मकरूह चीज़ को इस जगह खड़ा हुआ देखो जहां उस का खड़ा होना रवा नहीं (पढ़ने वाला समझ ले) उस वक़्त.... अलीख को समझने से क़ासिर थे। लिहाज़ा मुक़द्दस लूक़ा के इन अल्फ़ाज़ का तर्जुमा आम फहम अल्फ़ाज़ में कर दिया और लिखा “जब तुम यरूशलेम को फ़ौजों से घिरा हुआ देखो” ये आम फहम तर्जुमा साबित नहीं करता कि मुक़द्दस लूक़ा ने ये अल्फ़ाज़ तबाही के वाक़िये के बाद लिखे थे।
(3) मुक़द्दस लूक़ा के तफ़्सीली अल्फ़ाज़ (लूक़ा 19:43-44) से भी ये साबित नहीं होता कि वो यरूशलेम की बर्बादी के वाक़िये की रोशनी में लिखे गए थे। पहली निस्फ़ सदी (जैसा हम गुज़श्ता बाब बतला चुके हैं) एक निहायत ही पुर-आशोब ज़माना (फ़ित्ना फ़साद का वक़्त) था। जिसमें यहूदी मुअर्रिख़ यूसीफ़स के मुताबिक़ जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) हर-सू हुआ करते थे। मुक़द्दस लूक़ा इस सुलूक से बख़ूबी वाक़िफ़ थे जो फ़ातिह बिल-उमूम मफ़तूह (जिस पर फ़त्ह हासिल की गई हो) के साथ किया करते थे और जिस का ज़िक्र इन दो आयात में किया गया है। यरूशलेम का शहर 70 ई॰ में पहली दफ़ाअ बर्बाद नहीं हुआ था बल्कि सन-ए-ईस्वी से क़ब्ल डेढ़ सौ (150) साल के अर्से में ये शहर दो दफ़ाअ ताराज (बर्बाद) हो चुका था। दोनों मौक़ों पर हैकल की बे-हुरमती की गई थी और बाशिंदों को क़त्ल और ग़ारत और बेइंतिहा मसाइब का सामना करना पड़ा था। अनियोकस एपिफेन्स
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166Ibid, 3,5,8
Antiochus Epiphanes ने तमाम पिछले रिकार्ड मात करके यरूशलेम को तह व बाला कर दिया था। पस मुक़द्दस लूक़ा जैसा फ़हम मुअर्रिख़ फ़ातहीन के सुलूक से बख़ूबी वाक़िफ़ था और जानता था कि जब सय्यदना मसीह के इर्शाद के मुवाफ़िक़ शहर तबाह होगा तो “दुश्मन इस के गिर्द मोरचा बांध कर घेर डालेंगे और हर तरफ़ से तंग करेंगे और अहालयान यरूशलेम को क़त्ल करेंगे और बच्चों को ज़मीन पर दे पटकेंगे। और यरूशलेम में किसी पत्थर पर पत्थर बाक़ी ना छोड़ेंगे। अहले-यहूद तल्वार का लुक़मा हो जाएंगे और असीर (क़ैदी) हो कर सब क़ौमों में पहुंचाए जाऐंगे और यरूशलेम ग़ैर क़ौमों से पामाल होगी।” (लूक़ा 19:43-44, 21:20-24) बफर्ज़-ए-मुहाल अगर मुक़द्दस लूक़ा दुश्मन के सुलूक से वाक़िफ़ ना भी होते तो भी अहले-यहूद की कुतुब (जिनसे वो कमा-हक़्क़ा बमाअनी “जैसा उस का हक़ है, बख़ूबी” वाक़िफ़ थे) उन को बतला देतीं कि ये सुलूक किस क़िस्म का होगा। क्योंकि इन तमाम तफ़सीलात का ज़िक्र इनमें मौजूद है। (यर्मियाह 20:4, इस्तिस्ना 28:64, 1 सलातीन 8:46, यसअयाह 5:5, 63:18, दानीएल 8:13, ज़करीयाह 12:3, 1 मक्काबीन 4:60, यसअयाह 29:3, 37:33, यर्मियाह 6:6, हिज़्क़ीएल 4:2, ज़बूर 137:9, होसेअ 13:16 वग़ैरह)
इस पेशीनगोई के तमाम तफ़्सीली अल्फ़ाज़ (जो इस इन्जील के यूनानी मतन में हैं) यहूदी कुतुब मुक़द्दसा के यूनानी तर्जुमा सबईना (सेप्टिवाजिंट) में पाए जाते हैं। और ये यूनानी अल्फ़ाज़ (जो पहली तीनों अनाजील में मौजूद हैं) सिर्फ इसी मुक़ाम से मख़्सूस हैं और अहद-ए-जदीद में किसी दूसरी जगह नहीं पाए जाते।167
हाँ। अगर कोई शख़्स सिरे से इस बात का इन्कार कर दे और कहे कि आँख़ुदावंद में मामूली फ़िरासत (समझदारी, दानाई) भी नहीं थी और वो यरूशलेम की बर्बादी की पेश ख़बरी दे सकते थे तो ये और बात है। ऐसे अस्हाब की तसल्ली के लिए हम एक और तवारीख़ी वाक़िये का ज़िक्र करते हैं जिनसे उन की समझ में आ जाएगा कि आँख़ुदावंद ने यरूशलेम की तबाही की पेश ख़बरी दी थी। इटली का सेवनरोला Savanarola एक मशहूर मुसलेह (इस्लाह करने वाला) गुज़रा है। उसने (1496 ई॰) में शहर रोम की तसख़ीर और लुट मार की पेशीनगोई जो अगले साल (1497 ई॰) में छप कर शाएअ हो गई। जिसमें उसने दीगर तफ़ासील में ये भी नबुव्वत की थी कि गिरजाघर अस्तबल (जानवरों के बाँधने
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167P.N.F. Young, The College St. Luke, p.344
की जगह) बनाए जाऐंगे। ये पेशीनगोई 1527 ई॰ में पूरी हुई। नाज़रीन को ये याद रखना चाहिए कि यरूशलेम की तबाही 70 ई॰ से पहले वाक़ेअ हो चुकी थी और अहले-यहूद दुश्मनों के सुलूक से जो उन्हों ने उन के शहर मुक़द्दस से किया वाक़िफ़ थे और क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला इस तबाही की तफ़सीलों से काम ले सकती थी, लेकिन शहर रोम के साथ इस क़िस्म का मौक़ा पहले कभी हुआ ही ना था और ना 1469 ई॰ में किसी के वहम व गुमान में आ सकता था कि शहर रुम के साथ ऐसा सुलूक किया जाएगा। जैसा फ़्रांस की अफ़्वाज ने चार्ल्स हश्तम के ज़माने में रोम के साथ रवा रखा।168
(4) अगर कोई शख़्स ये जानना चाहे कि सय्यदना मसीह की ये पैशन गोई किस तरह पूरी हुई तो वो यहूदी मुअर्रिख़ यूसीफ़स की कुतुब का मुतालआ करे। ये कुतुब इस की बेहतरीन तफ़्सीर और तौज़ीह करती हैं। अगर मुक़द्दस लूक़ा यहूदी मुअर्रिख़ की तरह यरूशलेम की बर्बादी के बाद लिखता तो ज़ाहिर है कि वो भी इस अम्र का निहायत तफ़्सीली तौर पर ज़िक्र करता लेकिन वो ऐसा नहीं करता बल्कि सिर्फ चार पाँच आयात में दुश्मन के सुलूक का मुजम्मल तौर पर ज़िक्र करता है। जिससे ज़ाहिर हो जाता है कि मुक़द्दस लूक़ा ने ये बातें बर्बादी के वाक़िये के बाद नहीं लिखीं।
ये अम्र इस बात का भी सबूत है कि मुक़द्दस लूक़ा ने (जैसा हम ऊपर कह चुके हैं) यहूदी मुअर्रिख़ की कुतुब का मुतालआ नहीं किया था। अगर उस की कुतुब आपकी इन्जील का माख़ज़ होतीं तो आप उनसे उन तफ़ासील को अख़ज़ करते (बिलख़ुसूस हैकल के नज़र-ए-आतिश होने के वाक़िये को) जिनसे ये साबित हो जाता है कि सय्यदना मसीह की पेशीनगोई निहायत शानदार तरीक़े से पूरी हुई। इस के बरअक्स वो आया ज़ेरे बह्स में (आमाल 21:20) इन्जील-ए-अव्वल के अल्फ़ाज़ मुक़द्दस मुक़ाम और इन्जील दोम के अल्फ़ाज़ “इस जगह जहां इस का खड़ा होना रवा नहीं” (मत्ती 24:15, मर्क़ुस 13:14) छोड़ जाते हैं और हैकल के आग लगने के वाक़िये को बिल्कुल नजर-अंदाज़ कर देते हैं।
हमने इन उलमा की दलील की क़दरे तफ़्सील के साथ तन्क़ीह व तन्क़ीद (तहक़ीक़) की है। क्योंकि इनके पास यही मज़्बूत तरीन दलील है जो हमारे दाअ्वे को कि आमाल की किताब (60 ई॰) और मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील (57 ई॰) के क़रीब लिखी गई ग़लत साबित
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168Dr.F. Blass, The Origin & Character of our Gospels. Exp. Times, May 1907. See also J.M. Creed, The Gospel according to St.Luke,(1930 p.XXIII)
कर सकती है। ये दलील दर-हक़ीक़त इस क़द्र कमज़ोर है कि बिशप गोर जैसा मुहतात नक़्क़ाद भी कहता है,169कि “आमाल की किताब के इन मुक़ामात (आमाल 21:20, 19:43 44) से ये साबित नहीं हो सकता कि मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी तस्नीफ़ात को (70 ई॰) से पहले नहीं लिखा था।” बिशप लाईट फट भी कहते हैं कि “मेरे ख़याल में ये दलील कमज़ोर है।”170
इन हर दो उलमा का ये फ़ैसला हमारे नतीजे के लिए निहायत ज़ोरदार है क्योंकि दोनों आलिमों का ये यक़ीन है कि आमाल की किताब और इन्जील-ए-सोम (लूक़ा) यरूशलेम की तबाही के बाद लिखी गई थीं।
(2)
जो उलमा मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील के लिए 70 ई॰ ता 80 ई॰ का ज़माना तज्वीज़ करते हैं उन की एक और दलील ये है कि मुक़द्दस लूक़ा अपनी इन्जील के दीबाचे में लिखते हैं, “चूँकि बहुतों ने इस पर कमर बाँधी है कि जो बातें हमारे दर्मियान वाक़ेअ हुईं उनको तर्तीबवार बयान करें।.... मैंने भी मुनासिब जाना कि इनको तर्तीब से लिखूँ।” (लूक़ा 1:1-4) ये उलमा कहते हैं कि इन अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है कि मुतअद्दिद लोगों ने मुनज्जी आलमीन (मसीह) के हालात व तालीमात को क़लमबंद किया था और ये रिसाले मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की मसीही कलीसियाओं में रिवाज पा चुके थे। ये रिसाले मुक़द्दस लूक़ा के माख़ज़ों में से भी थे। इन रिसालों के मुसन्निफ़ों और मोअल्लिफों के लिए सय्यदना मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात की खोज लगाकर अपना मसाला तैयार करने, इनको तर्तीब देकर लिखने, और फिर इन रिसालों के मुरव्वज होने के लिए एक अच्छी ख़ासी मुद्दत चाहिए जो कम अज़ कम निस्फ़ सदी की हो।171
(1) लेकिन हम पूछते हैं कि क्या ज़रूर है कि इन रिसालों के मसाले के जमा करने और इनकी तस्नीफ़ व तालीफ़ और रिवाज के लिए निस्फ़ सदी का तवील अर्सा मुतय्यन
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169Gore’s New Commentary on N.T. p.234 Col a
170J.B. Lightfoot, Smith’s Dict of the Bible Vol1.Part1.p.40,Col.b
171Sanday, Inspiration pp.278-80
किया जाये? क्या इस ग़र्ज़ के लिए एक पूरी पुश्त और रबअ सदी (सौ साल का चौथे हिस्से) का अर्सा काफ़ी नहीं है?
इस दलील के पेश करने वाले इस हक़ीक़त को भूल जाते हैं कि इब्तिदाई कलीसिया में तीन तारीखें172यादगार तारीखें शुमार की जाती थीं। अव़्वल (30 ई॰) जब आँख़ुदावंद मस्लूब हुए फिर बारह (12) साल बाद अगरप्पा की इज़ार सानी जिसकी वजह से दवाज़दा (12) रसूल मुंतशिर हो गए। (42 ई॰) और फिर पच्चीस (25) बरस बाद पतरस रसूल की शहादत (67 ई॰) इस के बाद एक नया दौर शुरू होता है। जब क़दीम मसीही कलीसिया के ख़याल के मुताबिक़ शुरू से ख़ुद देखने वालों और कलाम के खादिमों का ज़माना ख़त्म हो गया था। इन्जील का सतही मुतालआ भी ये ज़ाहिर कर देता है कि ये उस ज़माने में नहीं लिखी गई थी जब इन चश्मदीद गवाहों का ज़माना ख़त्म हो गया था। बल्कि इस इन्जील की पहली आयत के अल्फ़ाज़ “हमारे दर्मियान” साबित करते हैं कि जो बातें इस इन्जील में लिखी गईं, इनके वक़ूअ में और वक़्त-ए-तस्नीफ़ में सत्तर अस्सी साल का वक़्फ़ा नहीं था। सत्तर अस्सी साल की पुरानी बातों को “हमारे दर्मियान” की “बातें” नहीं कहा जा सकता।
इलावा अज़ीं अहले-यहूद का हर बालिग़ लिखा पढ़ा होता था। लेकिन ये उलमा ये फ़र्ज़ कर लेते हैं कि सय्यदना मसीह के कलमात-ए-हिदायात आयात ना तो हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में और ना आपकी सलीबी मौत के तीस (30) साल बाद तक अहाता-ए-तहरीर में आए और कि सय्यदना मसीह के मुक़द्दस रसूलों और शागिर्दों ने ईमानदारों की लिखी पढ़ी जमाअतों को सिर्फ ज़बानी तालीम दी थी जिन्हों ने इस तालीम को सीना ब-सीना कम अज़ कम दो पुश्तों तक दूसरों तक पहुंचाया।
एक हद तक तो ये दुरुस्त है कि मुनज्जी आलमीन ने अपने बाद अपने हाथ की लिखी हुई कोई किताब ना छोड़ी और आप के बाद कुछ अर्से तक रसूल जा-ब-जा आपकी जाँफ़िज़ा (दिल ख़ुश करने वाला) तालीम और नजात की बशारत, ईमानदारों को ज़बानी देते रहे। हमने इस रिसाले के हिस्सा अव्वल में इस मौज़ू पर मुफ़स्सिल बह्स की है। पस हम यहां इस का इआदा (दोहराना) ज़रूरी नहीं समझते। यहां ये कहना काफ़ी है कि गो रसूलों ने और उन के सामईन (सुनने वालों) ने भी दूसरों तक मसीही नजात का पैग़ाम
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172B.W. Bacon, “Their Growth and Conflict” in Outline of Christianity by Peake & Parsons Vol1.p.281.
सीना-ब-सीना ज़रूर पहुंचाया था। लेकिन इस से ये साबित नहीं होता कि किसी रसूल या ईमानदार ने सय्यदना मसीह की हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में आपके कलमात-ए-तय्यिबात को कभी क़लमबंद ही नहीं किया था और सालहा साल तक मसीही रिवायत सिर्फ सीना ब-सीना ही चली आईं। क्या अक़्ल इस बात को मान सकती है कि अगरचे मसीही कलीसिया के यहूद व ग़ैर-यहूद सब लिखे पढ़े और ख़वांदा मैंबर थे। लेकिन एक पुश्त के गुज़रने पर यकायक मुतअद्दिद ईमानदारों को ख़याल आया कि मुनज्जी जहान की ज़िंदगी और मौत और ज़फ़रयाब क़ियामत के वाक़ियात को क़लमबंद करना शुरू कर दें। और इन्हों ने छोटे-छोटे मुख़्तसर रिसाले लिखे जो मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं में मुरव्वज हो गए और चालीस पचास साल बाद जाकर इन रिसालों से मौजूदा अनाजील अरबा मुरत्तिब की गईं? अनाजील के माख़ज़ों की बह्स में हमने ये साबित कर दिया है कि ये तमाम मज़हकाख़ेज़ मफ़रूज़ात अज़ सर तापा ग़लत हैं।
ये अर्ज़ कर देना मुनासिब मालूम होता है कि ख़ुद इन्जील जलील का मजमूआ इस अम्र का गवाह है कि सय्यदना मसीह की ज़फ़रयाब क़ियामत के बाद पहले चालीस (40) साल में कलीसिया ने ऐसा लिट्रेचर पैदा कर दिया जिसका सानी रुए-ज़मीन के इल्म-ए-अदब की तारीख़ में नहीं मिलता। उस वक़्त के लिखे हुए मक्तुबात वग़ैरह क़ियामत तक लोगों के दिलों को अपनी मक़नातीसी कशिश से खींचते रहेंगे। इंजीली मजमूए की कुतुब से साबित है कि मसीही इल्म व अदब पहली पुश्त में ही बलूग़त के ज़माने को पहुंच चुका था। क्योंकि थिस्सलुनीकियों के ख़त, कुरिन्थियों के ख़त, ग़लतियों का ख़त, रोमियों का ख़त (49 ई॰ और 54 ई॰) के दर्मियान यानी सय्यदना मसीह की सलीबी मौत के बाद पहले चालीस (40) साल ऐसे ना थे कि इनमें किसी ने एक सतर भी ना लिखी हो और सय्यदना मसीह के कलमात-ए-तय्यिबात, मोअजज़ात बय्यिनात और मुक़द्दस हालात क़तई (यक़ीनी) क़लमबंद ना किए गए हों।
एक और अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है। इंजीली मजमूए के ख़ुतूत में सय्यदना मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात और आप के कलमात-ए-हिदायत आयात का सिर्फ कहीं-कहीं ज़िक्र आता है। ये ख़ुतूत ज़्यादातर पंद व नसाइह (नसीहत) पर और सय्यदना मसीह की ज़ात, उलूहियत और शख़्सियत के मसाइल पर और कलीसियाओं की तंज़ीम और उन की मुक़ामी मुश्किलात के हल पर ही मुश्तमिल हैं। क्या ये हैरानी की बात नहीं कि नव मुरीदों को सय्यदना मसीह की ज़ात और शख़्सियत की निस्बत तो तालीम दी जाये लेकिन जिस बात
पर तमाम मसाइल का दारो मदार है यानी मसीह की ज़िंदगी और तालीम इस का ज़िक्र ही ना किया जाये? ये ख़ामोशी सिर्फ़ पौलुस रसूल ही इख़्तियार नहीं करते बल्कि मुक़द्दस पतरस, मुक़द्दस यूहन्ना, मुक़द्दस याक़ूब, इब्रानियों के ख़त का मुसन्निफ़ और रसूलों के आमाल का मोअल्लिफ़ सब के सब बिला-इस्तिसना ख़ामोश हैं। पस ये ख़ामोशी निहायत माअनी-ख़ेज़ है। जिससे हम सिर्फ यही नतीजा मुस्तंबित (चुना गया) कर सकते हैं कि इन ख़ुतूत के लिखे जाने के वक़्त कलीसियाओं के हाथों में ऐसे छोटे-छोटे मुख़्तसर रिसाले मौजूद थे जिनमें कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम या आपके सवानेह-हयात या दोनों दर्ज थे और चूँकि ये कलीसियाएं ज़बानी तालीम और तहरीरी रिसालों के रिवाज के सबब आँख़ुदावंद की तालीम और ज़िंदगी से वाक़िफ़ थीं, लिहाज़ा इंजीली मजमूए के मज़्कूर बाला मुसन्निफ़ अपने ख़ुतूत और तहरीरात में इनके ज़िक्र का दोहराना ज़रूरी ख़याल नहीं करते। चुनान्चे इब्रानियों के ख़त का मुसन्निफ़ अपने मुख़ातबों को कहता है, “वक़्त के ख़याल से तो तुमको उस्ताद होना चाहिए था। मगर अब तुम्हारा ये हाल है कि तुमको इस बात की हाजत है, कि कोई शख़्स ख़ुदा के कलाम के इब्तिदाई उसूल और कलमात के अनासिर या इस्तिफ़सारात (दर्याफ़्त करना, पूछना) तुम्हें फिर सिखाए। सख़्त ग़िज़ा की जगह तुमको दूध पीने की फिर हाजत पड़ गई। पस आओ हम मसीह की तालीम की इब्तिदाई बातें छोड़कर कमाल की तरफ़ क़दम बढ़ाएं।” (इब्रानियों 5:12-14)
अगर हम इन हालात का मुक़ाबला मौजूदा ज़माने के तब्लीग़ी काम से करें तो ये अम्र और भी वाज़ेह हो जाएगा। जो मसीही उस्तादगाओं की नाख़्वान्दा कलीसियाओं में काम करते हैं। वो इनको सिर्फ सय्यदना मसीह के सवानेह-हयात, मोअजज़ात और ताअलीमात की निस्बत ही तालीम देते हैं ताकि ये इब्तिदाई बातें इन कलीसियाओं के (जो उन से उमूमन नावाक़िफ़ होती हैं) ज़हन नशीन हो जाएं। लेकिन वो उन के सामने सय्यदना मसीह की ज़ात, उलूहियत या शख़्सियत पर बह्स नहीं करते और ना उन के रूबरू मसीही अक़ाइद के फ़ल्सफ़ियाना पहलूओं को वज़ाहत के साथ पेश करते हैं। क्योंकि बकौल-ए-मुसन्निफ़ इब्रानिया “दूध पीने वाले को रास्तबाज़ी के कलाम का तजुर्बा नहीं होता। इसलिए कि वो बच्चा है और सख़्त ग़िज़ा पूरी उम्र वाले के लिए होती है।” (इब्रानियों 5:13) इस के बरअक्स जो मुबल्लिग़ शहरों की ख़वांदा कलीसियाओं में काम करते हैं वो अपनी जमाअतों के सामने बिल-उमूम मसीहिय्यत के अक़ाइद पर ही बह्स किया करते हैं। लेकिन सय्यदना मसीह के सवानिह हयात का कभी-कभार ज़िक्र करते हैं। इस का सबब ये है कि गांव की कलीसियाएं नाख़्वान्दा होने के बाइस अनाजील के मुतालए से महरूम हैं और वो
सिर्फ़ इब्तिदाई बातों ही को अपने दिमाग़ में जगह दे सकती हैं। लेकिन शहरों की कलीसियाओं के हाथों में अनाजील मौजूद हैं जिनको पढ़ कर वो इब्तिदाई उमूर से वाक़िफ़ होती हैं। पस इनके सामने उमूमन मसीहिय्यत के अक़ाइद और फ़ल्सफियाना पहलूओं पर बह्स की जाती है।
पस क़ियास यही चाहता है कि जब मुक़द्दस पौलुस ने या दीगर रसूलों, उस्तादों और बुज़ुर्गों ने अपने ख़ुतूत और तहरीरात को मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं के ईमान की इस्तिक़ामत (क़ियाम) की ख़ातिर लिखा था उस ज़माने में (जैसा हम हिस्सा अव़्वल में साबित कर चुके हैं) कलीसियाओं के दर्मियान छोटे-छोटे मुख़्तसर रिसाले मुरव्वज थे, जिनमें से किसी में कलिमतुल्लाह की तालीम का। किसी में आपके मोअजिज़ात-ए-बय्यिनात का, किसी में नबुव्वतों के पूरा होने का और किसी में आपके सवानेह-हयात का ज़िक्र था। (लूक़ा 1:1) इस का मतलब ये है कि मुनज्जी आलमीन (मसीह) की सलीबी मौत के बीस (20) साल के अंदर इस क़िस्म के रिसाले मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं के हाथों में मौजूद थे और रिवाज पाकर अनाजील के माख़ज़ भी बन चुके थे।
पस ज़ाहिर है कि वो उलमा ग़लती पर हैं जो ये कहते हैं कि इस क़िस्म के रिसाले निस्फ़ सदी तक कलीसियाओं के हाथों में नहीं थे और इस दाअ्वे की बुनियाद पर मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील की तस्नीफ़ के लिए (70 ई॰ या 80 ई॰) का दूर दराज़ ज़माना तज्वीज़ करते हैं।
फ़स्ल दोम
मसीही इस्तिलाहात और इन्जील-ए-लूक़ा
हमने गुज़श्ता बाब में आमाल के सन-ए-तस्नीफ़ को मुक़र्रर करने के लिए ये दलील भी दी थी कि इस किताब में आँख़ुदावंद के लिए इस्तिलाही अल्क़ाब इस्तिमाल नहीं हुए। यही हाल मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील का है। इस इन्जील में आँख़ुदावंद की ज़ात की निस्बत कोई नज़रिया क़ायम नहीं किया गया बल्कि इस मुआमले में मुक़द्दस लूक़ा के वही तसव्वुरात
हैं जो आपके माख़ज़ों में पाए जाते हैं।173और इन से आगे इन्जील का मुसन्निफ़ एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ा। इस में बुनियादी तसव्वुर यही है कि येसू नासरी ही मसीह मौऊद है। अहद-ए-अतीक़ की कुतुब में मसीह मौऊद का ख़ुदा के साथ बेटे का ताल्लुक़ है। पस अनाजील मुत्तफ़िक़ा में बाअज़ औक़ात ये दोनों इस्तेलाहें “मसीह” और “इब्ने-अल्लाह” एक ही मुक़ाम में इकट्ठी लिखी गई हैं। (मर्क़ुस 14:61, मत्ती 16:16) और दोनों हम-मअनी हैं। (लूक़ा 4:41) लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता ख़िताब “इब्ने-अल्लाह” का मतलब ज़्यादा वसीअ होता गया “मसीह” का लफ़्ज़ हम ख़ास यानी इस्म-ए-मारिफ़ा हो गया और लफ़्ज़ “इब्ने-अल्लाह” की इस्तिलाह आँख़ुदावंद की ज़ात और आप के ख़ुसूसी मुक़ाम के लिए मख़्सूस हो गई जैसा मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत से ज़ाहिर है। लेकिन मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील में आँख़ुदावंद के अज़ल से होने का कहीं ज़िक्र का थोड़ा इशारा भी नहीं पाया जाता। इस इन्जील के ख़यालात एक अलग सतह पर हैं जिससे आगे वो परवाज़ नहीं करते और साबित करते हैं कि ये इन्जील कलीसिया के इब्तिदाई ज़माने की तस्नीफ़ है। ये इब्तिदाई ज़माना अव्वलीन मनाज़िल का ज़माना था जिसमें मुक़द्दस पौलुस, मुक़द्दस यूहन्ना और दीगर इन्जील नवीसों के तसव्वुरात अभी तक रवानी और सयाली हालत में ही थे और ठोस और जामिद नहीं हुए थे। अक़ाइद की इमारत का क़ियाम अभी बहुत दूर था।
इस में शक नहीं कि इस इन्जील में “इब्ने-आदम” का ख़िताब मौजूद है लेकिन हर मुक़ाम में ये ख़िताब आँख़ुदावंद की ज़बान-ए-हक़ीक़त तर्जुमान पर ही पाया जाता है। ये तमाम मक़ामात-ए-मुक़द्दस लूक़ा ने अपने माख़ज़ों यानी इन्जील-ए-मर्क़ुस और रिसाला-ए-कलमात से अख़ज़ किए हैं।
ये बात भी दुरुस्त है कि इस इन्जील में येसू नासरी को “ख़ुदावंद” कहा गया है। चुनान्चे नाइन की बेवा के बेटे को ज़िंदा करने के बयान में पहली दफ़ाअ लफ़्ज़ येसू की बजाए लफ़्ज़ “ख़ुदावंद” इस्तिमाल किया गया है। (लूक़ा 7:13) इस इन्जील के हस्बे-ज़ैल मुक़ामात में ये ख़िताब वारिद हुआ है। (लूक़ा 7:13, 19, 10:1, 12:42, 13:15, 17:5 6, 18:6, 19:8, 22:61) इन मुक़ामात का मुतालआ ज़ाहिर कर देता है कि ये वो मुक़ाम हैं जो मुक़द्दस लूक़ा ने दीगर माख़ज़ों से हासिल किए हैं। बिलख़ुसूस (लूक़ा 19:34) से मालूम होता है कि जब ख़ुदावंद के रसूल और दीगर ईमानदार मुनज्जी आलमीन (मसीह) की
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173Prof.J.M Creed, The Gospel according to St. Luke (1930) pp.LXXII-V
निस्बत ज़बान से कुछ बयान करते थे तो वो लफ़्ज़ ख़ुदावंद इस्तिमाल करते थे। (मुक़ाबला करो 1 कुरिन्थियों 16:22) लेकिन जब वो आपकी निस्बत क़लम से कुछ लिखते थे तो वो लफ़्ज़ “येसू” इस्तिमाल करते थे। जिससे साबित हो जाता है कि इस इन्जील में जिस-जिस मुक़ाम में लफ़्ज़ “ख़ुदावंद” इस्तिमाल हुआ है वो किसी ना किसी चश्मदीद गवाह का ज़बानी बयान है।174
पस इस अंदरूनी शहादत से भी साबित है कि मुक़द्दस लूक़ा ने ये इन्जील कलीसिया की ज़िंदगी के इब्तिदाई मराहिल में 55 ई॰ के लगभग तस्नीफ़ की थी।
मशहूर नक़्क़ाद डाक्टर बिलास ने इस मज़्मून पर एक मअरका ख़ेज़ मक़ाला सुपुर्द-ए-क़लम किया है175जिसका उर्दू तर्जुमा हम नाज़रीन की ख़ातिर ज़ेल में दर्ज करते हैं। आप लिखते हैं :-
“अब सवाल ये पैदा होता है कि इन्जील लूक़ा कब और कहाँ लिखी गई? जब तक रसूल यरूशलेम में रहे तब तक यरूशलेम और यहूदिया में इन वाक़ियात को तर्तीबवार इस मौजूदा इन्जील की सूरत में क़लमबंद करने की ज़रूरत लाहक़ नहीं हुई थी। मुक़द्दस लूक़ा अपने दीबाचे में साफ़ तौर पर बतलाता है कि आप इस इन्जील को लिखने के वक़्त यहूदिया में थे क्योंकि आप लिखते हैं “जो बातें हमारे दर्मियान वाक़ेअ हुईं और जैसा कि उनको हम तक पहुंचाया है।” लफ़्ज़ “हमारे” और “हम” से ज़ाहिर है कि आप यहूदिया में थे जहां थियुफिलुस नहीं था। जुम्ला “उन्होंने जो शुरू से ख़ुद देखने वाले और कलाम के ख़ादिम थे।” में फ़ेअल माज़ी “थे” इस्तिमाल हुआ है ना कि फ़ेअल हाल “हैं।” पस इस इन्जील के मुरत्तिब होने के वक़्त सय्यदना मसीह के रसूल यरूशलेम में मुक़ीम ना थे। फअल-ए-माज़ी से हरगिज़ मतलब नहीं कि वो फ़ौत हो चुके थे बल्कि इस से मुराद ये है कि वो दीगर मुक़ामात में तब्लीग़ का फ़र्ज़ अदा कर रहे थे ताकि ज़मीन की इंतिहा तक गवाह हों। (आमाल 1:8) आमाल की किताब से ज़ाहिर है कि जब मुक़द्दस पौलुस आख़िरी बार (54 ई॰) में यरूशलेम गए तो वहां कोई रसूल मौजूद ना था। सिर्फ सय्यदना मसीह
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174Findlay, Gospel according to Luke p.12
175Dr.F.Blass,”The Origin & Character of our Gospels. Exp. Times May1907
के भाई मुक़द्दस याक़ूब ही वहां थे, जो वहां की कलीसिया के सरदार थे। (आमाल 21:17-18) लेकिन (47 ई॰) में जब मुक़द्दस पौलुस वहां गए थे तो रसूल वहां मौजूद थे। (आमाल 15 बाब, ग़लतियों 2:9) पस (47 ई॰ और 54 ई॰) के दर्मियान मुक़द्दस यूहन्ना और मुक़द्दस पतरस वहां से चले गए थे। मुक़द्दस पौलुस के ग़लतियों के ख़त (ग़लतियों 2:11) अलीख से ज़ाहिर है कि मुक़द्दस पतरस कौंसल के बाद ही यरूशलेम से ग़ालिबन (47 ई॰ या 48 ई॰) के अवाइल (आग़ाज़) में चले गए थे क्योंकि (48 ई॰) में मुक़द्दस पौलुस अपने दूसरे तब्लीग़ी सफ़र के लिए रवाना हो गए थे। पस अगर मुक़द्दस पतरस और दीगर रसूल (48 ई॰) के अवाइल में यरूशलेम से चले गए थे तो ज़ाहिर है कि इन्जील की ज़रूरत दरपेश थी जिसमें तमाम वाक़ियात और तालीमात सिलसिले-वार तर्तीब से मुरत्तिब हों। पस जो तज़किरे यहूदिया के मुताल्लिक़ ज़ब्त-ए-तहरीर में आ चुके थे वो (48 ई॰) से पहले के होने चाहिऐं। और दीगर सूबों के तहरीर शूदा तज़किरे इस तारीख़ से बहुत पहले होने चाहिऐं। क्योंकि स्तीफनुस की मौत के बाद अव्वलीन मुबल्लग़ीन जिन्हों ने अन्ताकिया का रुख किया था वो यूनानी माइल यहूद थे, जिन्हों ने ग़ैर-यहूद की एक बड़ी तादाद को मसीहिय्यत का हल्क़ा-ब-गोश कर लिया था। लेकिन ये मुबल्लग़ीन सय्यदना मसीह के सवानेह-हयात के चश्मदीद गवाह ना थे। (आमाल 11:19 ता आख़िर) पस ये ज़ाहिर है कि इन लोगों के पास तहरीरी तज़किरे ज़रूर होंगे, गो इनको वो बयानात भी याद होंगे जोकि सीना-ब-सीना चले आए थे। पस परागंदगी के ज़माने से बहुत पहले सय्यदना मसीह के सवानिह हयात वग़ैरह क़लमबंद हो चुके थे। मुक़द्दस पौलुस के पास भी इस क़िस्म के तज़्किरात थे। ये तहरीरी तज़किरे ना तो मुकम्मल थे और ना तर्तीबवार मुरत्तिब किए गए थे लेकिन अब चूँकि ज़रूरत पेश आ गई थी पस लूक़ा ने तर्तीबवार चश्मदीद गवाहों के तहरीरी और ज़बानी बयानात को मुसलसल तौर पर लिखा।”
“आमाल की किताब से इस नतीजे की तस्दीक़ होती है। चुनान्चे 18:24 ता आख़िर में अपोल्लूस का ज़िक्र आता है जो सिकंदरिया से इफ़िसुस आया था। (आयत 24) “वो मसीही था और येसू की बाबत सही सही तालीम देता था मगर वो सिर्फ़ यूहन्ना ही के बपतिस्मा से वाक़िफ़ था।” (आयत 25) यानी उस का मसीही तरीक़ के मुताबिक़ बपतिस्मा नहीं हुआ था। उसने सिकंदरिया में मसीहिय्यत की तालीम ग़ालिबन उनसे हासिल की थी जो लोग इस मुसीबत से परागंदा हो गए थे जो स्तिफ़नुस के बाइस पड़ी थी। (आमाल 11:10) अब क़ाबिल-ए-ग़ौर बात ये है कि अगर किसी मसीही मुबल्लिग़ ने इस को बपतिस्मा दिया होता तो वो मसीही तरीक़ बपतिस्मे से ज़रूर वाक़िफ़ होता लेकिन वो सिर्फ़ यूहन्ना
ही के बपतिस्मे से वाक़िफ़ था “लेकिन येसू की बाबत सही-सही तालीम देता था।” इन अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है कि अपोलूस किसी ऐसी किताब के ज़रीये सय्यदना मसीह के क़दमों में आया था जो किसी मसीही मुबल्लिग़ ने इस को सिकंदरिया में पढ़ने को दी थी “यूहन्ना के बपतिस्मे” का ही ज़िक्र था और सय्यदना मसीह की बाबत सही-सही तालीम दर्ज थी। ये ऐन मुम्किन है कि ये इन्जील मर्क़ुस की इन्जील हो जो इस को (49 ई॰) से पहले सिकंदरिया में दी गई थी और जिस को पढ़ कर वो जनाब-ए-मसीह का हल्क़ा-ब-गोश हो गया था।”
पस इन्जील लूक़ा तब लिखी गई थी जब मुक़द्दस लूक़ा यहूदिया में ही थे। आप मुक़द्दस पौलुस के साथ यरूशलेम में आए। (आमाल 21:15 अलीख) ये (54 ई॰) का वाक़िया है। आपने 56 ई॰ में रोम जाने से पहले इन दो सालों के दौरान में ये इन्जील लिखी।”
इंशा-अल्लाह हम आइन्दा बाब में साबित कर देंगे कि इन्जील मर्क़ुस (40 ई॰) में लिखी गई थी। पस डाक्टर बिलास का नज़रिया कि अपोलूस इस इन्जील को सिकंदरिया में पढ़ कर (49 ई॰) में मसीही हो गए थे, ऐन क़रीन-ए-क़ियास है।
पस मुख़्तलिफ़ क़िस्म की दलाईल से हम इसी नतीजे पर पहुंचते हैं कि मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील (55 ई॰) और (57 ई॰) के दर्मियान क़ैसरिया में लिखी गई थी।
फस्ल-ए-सोम
इन्जील लूक़ा का सन-ए-तस्नीफ़
आमाल की किताब और मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत से ये मालूम होता है कि मुक़द्दस लूक़ा ना सिर्फ रसूल मक़्बूल के मूनिस ग़मख़्वार (मुहब्बत करने वाला और दुख-दर्द में शरीक) और रफ़ीक़कार थे। (कुलस्सियों 4:14, 2 कुरिन्थियों 8:18, फ़िलेमोन 24, 2 तीमुथियुस 4:11 वग़ैरह) बल्कि इब्तिदा ही से इनको ये शौक़ दामन-गीर था कि मुनज्जी आलमीन (मसीह) की ज़िंदगी के वाक़ियात और आप के कलमात-ए-तय्यिबात की खोज लगाऐं। इन बातों को मालूम करने के लिए उन्हों ने कोई दक़ीक़ा फ़र्द गुज़ाश्त (सब कुछ कह देना, कोई कसर ना छोड़ना) ना किया। इन्जील-ए-सोम का दीबाचा बतलाता है कि
आप इस बात के हमेशा जोयायाँ (तलाश करने वाला) रहे कि ऐसे लोगों का पता लगा के उनसे मुलाक़ात करें जो “शुरू से देखने वाले थे।” चुनान्चे इस दारफ़्तगी की वजह से बअल्फ़ाज़ पौलुस रसूल मुक़द्दस लूक़ा की तारीफ़ इन्जील के सबब से तमाम कलीसियाओं में होती थी। (2 कुरिन्थियों 8:18)
क़ियास यही चाहता है कि जिस तरह मुक़द्दस लूक़ा ने पौलुस रसूल की ज़िंदगी और सफ़रों के वाक़ियात की एक डायरी (रोज़नामचा) बना रखी थी और बाद में इस रोज़नामचा से काम लेकर आमाल की किताब को लिखा था, (आमाल बाब 16, 20, 21, 27, 28) इसी तरह आपने अपनी इन्जील की तालीफ़ से पहले एक याददाश्त तैयार की होगी। आप जिस जगह भी जाते होंगे वहां “शुरू से देखने वालों” से जो “कलाम के ख़ादिम” थे मिलते होंगे। मसलन जब आप अन्ताकिया गए होंगे (जहां आपकी मुक़द्दस पौलुस से पहले-पहल मुलाक़ात हुई थी) तो वहां की मुक़ामी कलीसिया के लीडरों और कलाम के खादिमों मुक़द्दस पतरस, मुक़द्दस बर्नबास और मुक़द्दस सीलास से मिलकर आपने सय्यदना मसीह के हालात मालूम करके क़लमबंद कर लिए होंगे क्योंकि उन दिनों में यरूशलेम और अन्ताकिया में आमद व रफ़्त का सिलसिला आम था। इस जगह हेरोदेस का रज़ाई भाई (दूध शरीक भाई) मेनन भी था, जिसकी वसातत से मुक़द्दस लूक़ा ने क़ाबिल-ए-क़द्र मालूमात जमा की होंगी। लेकिन सबसे ज़्यादा ज़ख़ीरा मालूमात आपने यरूशलेम से जमा किया होगा, जहां कलीसिया के मुक़तदिर लीडर मुक़ीम थे जो “शुरू से ख़ुद देखने वाले थे।” प्रोफ़ैसर हारनेक का ख़याल है कि केसरिया में आप फिलिप्पुस के घर रहे, “जो सातों में से था।” और जिस की चार कुँवारी बेटियां नबुव्वत करती थीं।” (आमाल 21:8-9) इस से मुक़द्दस लूक़ा ने सय्यदना मसीह (सत्तर) मुबश्शिरों को भेजने का हाल (लूक़ा 10:1) और सामरिया के वाक़ियात सुने होंगे जिनका आपकी इन्जील में ज़िक्र है। इस की बेटियों ने आपको उन औरतों की निस्बत बतलाया होगा जिनके ज़िक्र से ये इन्जील भरी पड़ी है। बिल-ख़ुसूस उनका जो अपने माल से सय्यदना मसीह की ख़िदमत करती थीं। (लूक़ा 8:3) “हेरोदेस के दीवान खोज़े की बीवी लवाना” के साथ आपकी मुलाक़ात अन्ताकिया के मनाहीम के ज़रीये (आमाल 13:1) हुई होगी, जिन्हों ने आपको उन वाक़ियात का हाल बतलाया होगा जिनका ताल्लुक़ हेरोदेस और उस के दरबार के साथ है। क्योंकि सिर्फ आप ही की इन्जील में ये वाक़िया मज़्कूर है मुनज्जी जहान (मसीह) को हेरोदेस के दरबार में लिए गए थे। ग़ालिबन इसी वजह से आप लफ़्ज़ “हेरोदी” इस्तिमाल भी नहीं करते। (मर्क़ुस 12:13, मुक़ाबला लूक़ा 20:20 से करो) युवाना ने आपको सय्यदना मसीह ज़फ़रयाब क़ियामत के बाद औरतों की दिखाई देने का
हाल भी सुनाया होगा। (लूक़ा 24:1-11) ये ऐन-मुम्किन है कि इऩ्ही औरतों (लूक़ा 8:3, आमाल 21:9 वग़ैरह) से आपने मुनज्जी आलमीन (मसीह) और यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की पैदाइश के हालात पाए हों। क्योंकि ये हालात निस्वानी नुक़्ता निगाह से लिखे हुए हैं। अगर “शमऊन जो काला कहलाता है।” (आमाल 13:1) वही है जो इन्जील में “शमऊन कुरेनी” के नाम से मशहूर है, तो मुक़द्दस लूक़ा इस को अन्ताकिया में मिले होंगे। सलीबी वाक़ियात को जानने के लिए इस से बेहतर और कोई चश्मदीद गवाह नहीं हो सकता था। हम इन उमूर् का मुफ़स्सिल ज़िक्र हिस्सा दोम के बाब सोम में कर आए हैं। लिहाज़ा इनका यहां इआदा (दोहराई) नहीं करते।
क़राइन से ये मालूम होता है कि जब मुक़द्दस लूक़ा ने फिलिप्पी के मुक़ाम पर 50 ई॰ में मुक़द्दस पौलुस का साथ छोड़ा था आपने उस के बाद के चंद साल सय्यदना मसीह के हालात की खोज लगाने में सर्फ किए थे।
पस ज़ाहिर है कि मुक़द्दस लूक़ा मुख़्तलिफ़ मुक़ामात और ज़राए से अपनी इन्जील के लिए मालूमात हासिल करके उन को अपने रोज़नामचा (डायरी) और याददाश्त की किताब में दर्ज कर लेते थे। पस आप एक मुअर्रिख़ की हैसियत से सब बातों का सिलसिला शुरू ही से ठीक-ठीक दर्याफ़्त करते रहे ताकि बवक़्त-ए-फ़ुर्सत इनको “तर्तीब” देकर लिखें।
(2)
मुतनाज़ा फिया (वो चीज़ जिस पर झगड़ा हो) सवाल ये है कि मुक़द्दस लूक़ा ने इस मसाले को (जो उन्हों ने सालहा साल की जान काह “मेहनत-तलब” मेहनत और दौड़ धूप करके जमा किया था) कब तर्तीब देकर मौजूदा इन्जील सोम की सूरत में लिखा? इस सवाल के मुख़्तलिफ़ जवाब दिए जाते हैं :-
(1) बाअज़ उलमा कहते हैं कि मुक़द्दस लूक़ा ने इस तमाम मसाले को उस ज़माने में जमा किया था जब आप 57 ई॰ या 58 ई॰ और 60 ई॰ के दर्मियानी अर्से में मुक़द्दस पौलुस के साथ रोम में मुक़ीम थे। फिर 70 ई॰ और 80 ई॰ के दर्मियान आपने इस मसाले को तर्तीब देकर मौजूदा इन्जील की सूरत में शाएअ किया। लेकिन हमने साबित कर दिया है कि मुक़द्दस लूक़ा ने अपना दूसरा रिसाला यानी आमाल की किताब उन अय्याम 60 ई॰ में लिखा था। पस उन्होंने अपना पहला रिसाला इस से चंद साल क़ब्ल लिखा होगा।
इलावा अज़ीं मुक़द्दस लूक़ा इब्तिदा ही से इस बात के ख़्वाहां (ख़्वाहिशमंद) थे कि “सब बातों का सिलसिला शुरू से ठीक-ठीक दर्याफ़्त करके इनको तर्तीबवार बयान करें” इस ग़र्ज़ के लिए वो हर मुम्किन तौर पर कोशिश करते रहे कि ऐसे लोगों से ख़ुद मुलाक़ात करें “जो शुरू से ख़ुद देखने वाले और कलाम के ख़ादिम थे” चुनान्चे इन्ही वालहाना और बेगरज़ाना कोशिशों की वजह से बअल्फ़ाज़ पौलुस रसूल “इन की तारीफ़ तमाम कलीसियाओं में होती थी।” (2 कुरिन्थियों 8:18) मुक़द्दस रसूल के ये अल्फ़ाज़ 54 ई॰ में लिखे गए थे।176जिसका मतलब ये है कि 54 ई॰ तक इस क़ाबिल मुसन्निफ़ की अन-थक कोशिशों ने हर मुक़ाम की कलीसिया में दौड़ धूप करके काफ़ी मसाला जमा कर लिया था। अगर ये नतीजा दुरुस्त है तो फिर समझ में नहीं आता कि बक़ौल इन उलमा के सोलाह (16) साल और बक़ौल दीगर उलमा पच्चीस (25) साल मुक़द्दस लूक़ा क्यों हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहे? पस हमारे ख़याल में इन्जील सोम का 70 ई॰ और 80 ई॰ के दर्मियान लिखा जाना बईद अज़ क़ियास (सोच के बाहर) अम्र है।
(2) मर्हूम डाक्टर स्ट्रेटर Dr. Strater का ख़याल है177कि मुक़द्दस लूक़ा ने इन दो सालों में जो आपने क़ैसरिया में मुक़द्दस पौलुस के साथ काटे अपना मसाला जमा किया और मुक़द्दस पौलुस की शहादत के बाद आपने अपनी इन्जील का पहला ऐडीशन शाएअ किया जो सिर्फ हलक़ा अहबाब के लिए ही मख़्सूस था। इस ज़माने के बाद जब इन्जील मर्क़ुस लिखी गई तब आपने इस इन्जील के चंद हिसस को अपने पहले ऐडीशन में शामिल करके इन्जील सोम को इस की मौजूदा सूरत में लिख कर आम मसीहियों के फ़ायदे के लिए शाएअ किया। लेकिन इस नज़रिये को क़ुबूल करने से पहले ये लाज़िम आता है कि हम दो बातें क़ुबूल करें। अव़्वल ये कि किताब आमाल अल-रसुल कम अज़ कम 80 ई॰ से पहले नहीं लिखी गई थी178और दोम ये कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील 70 ई॰ के क़रीब लिखी गई। हमने गुज़श्ता बाब में ये साबित कर दिया है कि पहली बात क़ाबिल-ए-क़बूल नहीं है और इंशा-अल्लाह हम आगे चल कर ये साबित कर देंगे कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील 70 ई॰ से बहुत पहले लिखी गई थी। पस डाक्टर मर्हूम की तारीख़ तस्नीफ़ हमारे
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176Rackham, Acts CXV
177Streeter, The Four Gospels pp. 218-19
178Ibid p.218
नज़्दीक क़ाबिल-ए-तस्लीम नहीं है। हम हिस्सा दोम के बाब सोम की फ़स्ल अव्वल में साबित कर आए हैं कि डाक्टर स्ट्रेटर का नज़रिया क़ाबिल-ए-क़बूल नहीं है।
(3)
पहली सदी के वाक़ियात का तारीख़-वार सिलसिला वाक़ियात का नक़्शा बनाना एक निहायत दुशवार अम्र है। मुख़्तलिफ़ उलमा मुख़्तलिफ़ वाक़ियात के लिए मुख़्तलिफ़ औक़ात और सन तज्वीज़ करते हैं। हमने ऊपर लिखा है कि मुक़द्दस पौलुस के कुरिन्थियों के दूसरे ख़त से ज़ाहिर होताहै कि 54 ई॰ तक मुक़द्दस लूक़ा ने अपना मसाला जमा कर लिया था। जब वो इस साल कुरंथ भेजे गए थे। 55 ई॰ में ईदे फ़सह के मौक़े पर मुक़द्दस पौलुस यरूशलेम आए और आप क़ैद हो कर क़ैसरिया भेज दिए गए जहां आप दो साल 55 ई॰ से 57 ई॰ के मौसम-ए-गर्मा के आख़िर तक क़ैद रहे और फिर वहां से रोम भेजे गए जहां आप 58 ई॰ के मौसम-ए-बहार में पहुंचे। और 60 ई॰ तक ज़ेर-ए-निगरानी रहे।179
अगर हम सिलसिला वाक़ियात की मुन्दरिजा बाला तारीख़ों को क़ुबूल करलें 55 ई॰ में मुक़द्दस पौलुस केसरिया में लाए गए जहां आप कामिल दो साल हिरासत में रहे। केसरिया पहली जगह थी जहां मुक़द्दस पतरस ने कुरनेलियुस को बपतिस्मा देकर मसीहिय्यत का हल्क़ा-ब-गोश किया था। (आमाल 10 बाब) पस वो गोया ग़ैर-यहूदी कलीसियाओं की माँ थी और मुक़द्दस फिलिप्पुस अपनी बेटियों के साथ यहीं मुक़ीम भी थे। मुक़द्दस पौलुस की क़ैद सख्त ना थी। पस केसरिया की मसीही कलीसिया के शुरका आपके पास आते-जाते रहते थे। मुक़द्दस लूक़ा और अरस्तर ख़स आपके साथ थे। (आमाल 27:1-2) मुक़द्दस लूक़ा को सिवाए रसूल मक़्बूल की हाज़िरबाशी (मौजूदगी) के और कोई ख़ास काम भी ना था। पस अग़्लब (मुम्किन) ये है कि आपने मौक़े को ग़नीमत समझ कर ये दो साल इन्जील सोम की तालीफ़ व तर्तीब में सर्फ किए। आपको ये एहसास था कि रोमी यूनानी दुनिया को और मसीही कलीसिया दोनों को ऐसी किताब की ज़रूरत है जिसमें मुनज्जी आलमीन (मसीह) की तालीम और ज़िंदगी का तर्तीबवार ज़िक्र हो। एशिया, आख्या और मक़िदूनिया की कलीसियाएं अब मुक़द्दस पौलुस के क़ैद होने की वजह से गोया यतीम हो रही थीं। और कोई ये नहीं कह सकता था कि मुक़द्दमे का अंजाम क्या होगा। इन कलीसियाओं को इस
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179Rackham, Acts p.CXV
बात की फ़ौरी ज़रूरत थी कि इनके हाथों में एक ऐसी मुस्तनद किताब हो जिसमें सय्यदना मसीह की तालीम और सवानेह-हयात दोनों का मुफ़स्सिल ज़िक्र हो। पस मुक़द्दस लूक़ा ने इस फ़ुर्सत के वक़्त को ग़नीमत समझा और कमर हिम्मत बांध कर अपने रोज़नामचे। याददाश्त और दीगर माख़ज़ों से और बिलख़ुसूस इन्जील-ए-मर्क़ुस से काम लेकर सब वाक़ियात को तर्तीब देकर अपनी इन्जील को लिखा।
पस मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील 55 ई॰ और 57 ई॰ के दर्मियान यानी सलीबी वाक़िये के सिर्फ क़रीबन पच्चीस (25) साल बमुक़ाम केसरिया में लिखी गई।
बाब सोम
तारीख-ए-तस्नीफ़ इन्जील-ए-मर्क़ुस
फ़स्ल अव़्वल
इन्जील-ए-मर्क़ुस का पस-ए-मंज़र
दौर-ए-हाज़रा में मग़रिबी कलीसियाओं के उलमा बिल-उमूम यही ख़याल पेश करते हैं कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने इन्जील दोम को 70 ई॰ के क़रीब लिखा था। इस सवाल का मैं गुज़श्ता तीस (30) साल से मुतालआ कर रहा हूँ और जितना मैं अनाजील-ए-अर्बा की तारीख़ तस्नीफ़ पर ग़ौर करता हूँ उतना ही मुझको यक़ीन होता जाता है कि मग़रिबी उलमा की तारीखें ग़लत हैं और मौजूदा अनाजील अरबा इस तारीख़ से कम अज़ कम एक रबाअ
सदी यानी पच्चीस (25) साल पेश्तर लिखी गई थीं। और अव्वलीन इन्जील यानी इन्जील-ए-मर्क़ुस मुनज्जी आलमीन (मसीह\) की सलीबी मौत के सिर्फ दस साल बाद अहाता तहरीर में आ गई थी।
सय्यदना मसीह की ज़फ़रयाब क़ियामत और जलाली सऊद के बाद जब रूह-उल-क़ुद्स का नुज़ूल हुआ तो रसूलों और तमाम दीगर सहाबा और शागिर्दों के मुर्दा दिलों में वोही ज़िंदगी दुबारा ऊद कर (वापसी) आई जो वो हज़रत इब्ने-अल्लाह की फैज़ान-ए-सोहबत की वजह से अपने अंदर रखते थे। हम हिस्सा अव़्वल में बतला चुके हैं कि रसूलों ने शुरू शुरू में गुनाहों से नजात हासिल करने की ख़ुशख़बरी (इन्जील) को ज़बानी सुनाया। इनकी मुनादी का माहसल (हासिल) ये था कि हर शख़्स मुनज्जी जहां (मसीह) पर ईमान लाए, तौबा करे और गुनाहों की माफ़ी हासिल करने के लिए सय्यदना मसीह के नाम पर बपतिस्मा ले। (आमाल 2:22-40) वो कहते थे कि ये नजात शरीअत के अहकाम पर कामिल तौर से अमल करने के ज़रीये नहीं मिलती बल्कि सिर्फ़ सय्यदना मसीह पर ईमान लाने से मिलती है। पस आँख़ुदावंद की ज़िंदगी, मौत, क़ियामत और सऊद-ए-आस्मानी के वाक़ियात को इब्तिदा ही से इसी नुक्ता नगाह से देखा गया। पस इन वाक़ियात का बयान और इनकी तावील व तश्रीह इब्तिदा ही से रसूलों की मुनादी का जुज़्व-ए-आज़म थे। सय्यदना मसीह की ज़िंदगी के वाक़ियात इसी एक मक़्सद के तहत बताए जाते थे और उन का ज़िक्र उसी तावील के तहत किया जाता था। (आमाल 10:38-43) और इसी एक वजह के बाइस इन वाक़ियात ने अनाजील अर्बा में जगह भी पाई। हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम, आपकी मुबारक ज़िंदगी के वाक़ियात, आपका अवामुन्नास में नेकी के काम करना, लोगों को मोअजज़ाना तौर पर शिफ़ा देना और दीगर ख़वारिक़-ए-आदत (खिलाफ-ए-आदत बातें, मोअजिज़े) वाक़ियात के ज़िक्र का मतलब ये नहीं था कि आपकी कोई सवानिह उम्री लिखी जाये बल्कि ये बातें इसी एक मक़्सद के तहत चारों इन्जील नवीसों ने अपने अपने ख़याल, मक़्सद, नज़रिया और मतलब के मुताबिक़ क़लमबंद कीं। (यूहन्ना 21:25)
ये अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि रसूलों के आमाल की किताब के पहले हिस्से (अबवाब 1-13) में सय्यदना मसीह के रसूल मुनज्जी आलमीन (मसीह) की सलीबी मौत और फ़तहयाब क़ियामत पर ज़ोर देते हैं। (आमाल 2:22-40, 3:13-25, 4:2-12, 5:28-32, 7:51-53, 8:32-39, 10:37-43, 13:27-39 वग़ैरह) इब्तिदा में हर मुरीद को शुरू ही से
इस एक बात की तालीम दी जाती थी कि “मसीह किताब-ए-मुक़द्दस के मुताबिक़ हमारे गुनाहों के लिए मुआ और दफ़न हुआ और तीसरे दिन किताब-ए-मुक़द्दस के मुताबिक़ जी उठा।” (1 कुरिन्थियों 15:3-4) इस हक़ीक़त को हम पहले हिस्से के बाब सोम में वाज़ेह कर चुके हैं। इब्तिदाई मुनादी के ऐन मुताबिक़ इन्जील मर्क़ुस में भी सलीब को मर्कज़ी जगह देती है। एक मुसन्निफ़ ने ख़ूब कहा है कि इन्जील मर्क़ुस का पहला हिस्सा सिर्फ दीबाचा है। और अस्ल किताब में सलीब का बयान है। चुनान्चे अरुदो ऐडीशन में इस इन्जील में आँख़ुदावंद की सह-साला ख़िदमत का बयान सिर्फ सोलाह (16) सफ़्हों पर मुश्तमिल है। लेकिन आपकी ज़िंदगी के सिर्फ एक आख़िरी हफ्ते का बयान बीस (20) सफ़्हों पर मुश्तमिल है। मुक़द्दस मर्क़ुस का अस्ल मक़्सद ये था कि आप एक ऐसा मुख़्तसर रिसाला लिखें जिसमें ये साबित हो कि सय्यदना मसीह ही मसीह मौऊद और इब्ने-अल्लाह थे जिनको सलीब पर मरना ज़रूर था। पस सलीबी वाक़िया इस इन्जील का मर्कज़ है जिसके गर्द तमाम वाक़ियात और बयानात घूमते हैं। चुनान्चे मुक़द्दस मर्क़ुस अपनी इन्जील के पहले सोलाह (16) सफ़्हों में पंद्रह (15) वाक़ियात का ज़िक्र करते हैं। जिनका ताल्लुक़ मसीह की मुख़ालिफ़त के साथ है और जिन का लाज़िमी नतीजा सलीबी वाक़िया हुआ। (मर्क़ुस 2:1, 3:6, 3:22-30, 7:5-13, 8:11-12, 9:11-13, 10:2-12, 11:27 33, 12:13-40) इन्जील नवीस इन वाक़ियात को दो टुकड़ों में यकजा जमा करता है और पहले टुकड़े के आख़िरी अल्फ़ाज़ में “फिर फ़रीसी ने फ़ील-फ़ौर बाहर जाकर हेरोदियों के साथ इस के बरख़िलाफ़ मश्वरा करने लगे कि इसे किस तरह हलाक करें।” (मर्क़ुस 3:6) और दूसरे टुकड़े के आख़िर में लिखता है “फिर किसी मुख़ालिफ़ ने इस से सवाल करने की जुर्आत ना की।” (मर्क़ुस 12:34)
ये पंद्रह (15) वाक़ियात जो दर-हक़ीक़त सलीबी वाक़िये का दीबाचा हैं हस्बे-ज़ैल हैं :-
(1) शिफ़ा देने का वाक़िया। (मर्क़ुस 2:1-12) (2) गुनेहगारों के साथ खाना। (मर्क़ुस 2:13-17) (3) रोज़ा रखने का सवाल। (मर्क़ुस 2:18-22) (4) सबत के एहतिराम का सवाल (मर्क़ुस 2:23 ता 3:6) (5) मसीह की क़ुव्वत का सरचश्मा। (मर्क़ुस 3:22-30) (6) बुज़ुर्गों की रिवायत का सवाल। (मर्क़ुस 7:5-13) (7) निशान तलब करना (मर्क़ुस 8:11-12) (8)
एलियाह का आना। (मर्क़ुस 9:11-13) (9) तलाक़ का सवाल। (मर्क़ुस 10:2-9) (10) येसू के इख़्तियार के बारे में सवाल। (मर्क़ुस 11:27-33) (11) जज़्या देने का सवाल। (मर्क़ुस 12:13-17) (12) क़ियामत का मसअला। (मर्क़ुस 12:18-25) (13) अव्वलीन हुक्म (मर्क़ुस 12:28-34) (14) मसीह के इब्ने दाऊद होने का सवाल। (मर्क़ुस 12:35-37) (15) फ़क़ीहों की रुहानी कमज़ोरी का इल्ज़ाम। (मर्क़ुस 12:38-40)
इन इब्तिदाई बयानात में इन्जील नवीस ने ज़ेल के छोटे-छोटे वाक़ियात के सात मजमुए शामिल किए हैं :-
(1) कफ़र्नहूम में एक दिन की डायरी। (मर्क़ुस 1:21-39) (2) तम्सीलें (मर्क़ुस 4:1-34) (3) बारह रसूलों का बुलावा और तक़र्रुर। (मर्क़ुस 1:16-20, 3:13-19, 6:7-13 वग़ैरह) (4) गलील के शुमाली हिस्से के सफ़र। (मर्क़ुस 6:24, 7:37, 8:1-26) (5) सलीब की शाहराह। (मर्क़ुस 8:27, 10:45) (6) यरूशलेम को सफ़र। (मर्क़ुस 10:1, 10:46-52, 11:1-24) (7) मुसीबतों का आना। (मर्क़ुस 13 बाब)
हमने सुतूर बाला में ज़रा तफ़्सील से काम लिया है ताकि नाज़रीन के ये ज़हन नशीन हो जाए कि इन्जील मर्क़ुस का मर्कज़ सलीबी वाक़िया है। इस इन्जील के पहले हिस्से में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के बाअज़ कलमात-ए-तय्यिबात भी हैं जो इस तहरीरी मजमूआ “रिसाला कलमात” में से अख़ज़ किए गए थे जो आँख़ुदावंद की हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में लिखा गया था। इनके इलावा चौदह (14) ऐसे मुक़ामात हैं जो “इब्ने-आदम” के सवाल से मुताल्लिक़ हैं, जिनमें से सात (7) मुक़ामात इन्जील के इस हिस्से से मुताल्लिक़ हैं जिसको हमने ऊपर “सलीब की शाहराह” के नाम से मौसूम किया है जिसमें मुनज्जी आलमीन (मसीह) तीन (3) बार अपने मस्लूब होने की पेशीनगोई करते हैं। क्योंकि मुक़द्दस पौलुस और इब्तिदाई अय्याम के दीगर “उस्तादों” की तरह मुक़द्दस मर्क़ुस भी इस एक मुअम्मे को हल करना चाहते हैं कि जलाली इब्ने-आदम ने अपने आपको पस्त कर दिया यहां तक कि उस ने सलीबी मौत गवारा की। ये चौदह मुक़ामात हस्बे-ज़ैल हैं :-
(मर्क़ुस 2:10, 2:28) इस के बाद सात (7) मुक़ामात का ताल्लुक़ “सलीब की शाहराह” के हिस्से से है। (यानी मर्क़ुस 8:31, 8:35, 9:9, 9:12, 9:31, 10:33, 10:45) इनके बाद पाँच बाक़ी-मांदा मुक़ामात हस्बे-ज़ैल हैं :-
(मर्क़ुस 13:26, 14:21 दो दफ़ाअ। मर्क़ुस 14:41, 14:62)
पस हमारा दावा साबित हो गया कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील का मर्कज़ सलीबी वाक़िया है। (मर्क़ुस बाब 14, 15) जिससे पहले तम्हीद के तौर पर उन पंद्रह (15) वाक़ियात का ज़िक्र किया गया है, जो यहूद के साथ तसादुम (झगड़े) का बाइस थे। चंद एक मुक़ामात में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम का बतौर मुश्ते नमूना इज़ख़रवारे (ढेर में से मुट्ठी भर) ज़िक्र किया गया है ताकि इन्जील के पढ़ने वाले पर अयाँ हो जाए कि इस क़िस्म की तालीम का और फ़क़ीहों और फ़रीसियों की तालीम का तसादुम एक नागुरेज़ अम्र था। (मर्क़ुस 1:27) पस इन्जील मर्क़ुस का अस्ल मक़्सद ये साबित करना है कि मुनज्जी आलमीन (मसीह) की सलीबी मौत कोई इत्तिफ़ाक़ीया अम्र ना था जो आपकी क़िस्मत में मुक़द्दर हो। बल्कि आप इस दुनिया में क़ुर्बान होने ही की ख़ातिर आए थे और आप ने इस मौत को बरज़ा व रग़बत ख़ुद क़ुबूल फ़रमाया था जिससे ख़ुदा का मक़्सद पूरा हुआ और दुनिया को नजात मिली। (मर्क़ुस 8:31, 9:12-13, 10:33, 14:21, 36) इन्जील नवीस ने इस बुनियादी अम्र को इब्तिदा ही से पेश-ए-नज़र रखा और इसी मक़्सद के तहत उस ने अपने मसाले को तर्तीब दी।
(2)
हम हिस्सा अव़्वल के बाब सोम में बतला चुके हैं कि मसीहिय्यत के आग़ाज़ ही से एक सवाल सबकी ज़बान पर था। यहूद और ग़ैर-यहूद मसीही और ग़ैर-मसीही, सब ये पूछते थे कि अगर सय्यदना ईसा फ़िल-वाक़ेअ मसीह मौऊद थे तो आप क्यों मस्लूब किए गए? सलीब और मसीह-ए-मौऊद का तसव्वुर दोनों मुतज़ाद बातें समझी जातीं थीं। (मत्ती 16 बाब) सलीब यहूदियों और ग़ैर-यहूदियों के लिए ठोकर और मज़हका ख़ेज़ बात थी (ग़लतियों 5:11) पस हर जानिब से कलीसिया के मुबल्लग़ीन पर इस सवाल की बोछाड़ होती थी कि अगर येसू फ़िल-हक़ीक़त मसीह-ए-मौऊद थे तो आपका अंजाम सलीब पर क्यों हुआ?
मुक़द्दस मर्क़ुस ने इस सवाल का जवाब देने के लिए अपनी इन्जील तस्नीफ़ की। इस सवाल के जवाब में आप फ़र्माते हैं :-
(1) अहले-यहूद के लीडरों ने “हसद के मारे” सय्यदना मसीह को पिलातूस के हवाले किया था। (मर्क़ुस 5:10) क्योंकि उन में और सय्यदना मसीह में बार-बार मुख़्तलिफ़ उमूर् के मुताल्लिक़ (जिनकी मुक़द्दस मर्क़ुस चंद मिसालें भी देते हैं) बाहमी तसादुम हुआ था और हर मौक़े पर वो बह्स में हार गए थे और लीडरों की तमाम कोशिशों के बावजूद अवामुन्नास जौक़-दर-जोक़ सय्यदना मसीह के पैरौ होते जाते थे।
(2) सय्यदना मसीह ने बरज़ा व रग़बत ख़ूद अपनी जान दी ताकि बहुतेरों के बदले फ़िद्या हो। (मर्क़ुस 10:45, 14:24 मुक़ाबला करो यूहन्ना 10:18)
(3) मसीह मौऊद के हक़ में अम्बिया-अल्लाह ने पेशीनगोईयां की थीं कि वो क़ौम की ख़ातिर जान देगा। (मर्क़ुस 8:31, 9:12, 31, 10:33, 14:21, 36) मसीह मौऊद की ज़िंदगी का आख़िर और अंजाम सलीब पर होना था क्योंकि रज़ा-ए-इलाही ये थी कि मसीह मौऊद इसी तरह अपनी जान दे।
इन जवाबात की वजह से मर्क़ुस में सलीब को (जैसा हम बतला चुके हैं) मर्कज़ी जगह हासिल है। रसूलों के आमाल की किताब से ज़ाहिर है कि रसूलों के वाअज़ और मुनादी में सलीब को शुरू ही से मर्कज़ी जगह दी गई है। रसूल बार-बार मज़्कूर बाला सवाल का अपनी तक़रीरों में जवाब देते हैं। मुक़द्दस पौलुस की तहरीरात में भी मसीह मस्लूब के तसव्वुर को मर्कज़ी जगह हासिल है। (ग़लतियों 3:1, 1 कुरिन्थियों 2:2; 1 कुरिन्थियों 15:1-4, फिलिप्पियों 2:6-11 वग़ैरह) मुक़द्दस पतरस की मुनादी भी सलीब की मुनादी है। (आमाल 10:37-43)
ये सवाल और दवाज़दा (12) रसूलों के जवाबात, सब के सब कलीसिया की ज़िंदगी के अव्वलीन और इब्तिदाई दौर से मुताल्लिक़ हैं, जब मसीहिय्यत का अभी आग़ाज़ ही हुआ था। पस इन्जील-ए-मर्क़ुस उस ज़माने में तस्नीफ़ की गई थी जब मज़्कूर बाला सवाल, यहूद और ग़ैर-यहूद, मसीही और ग़ैर-मसीही गिरोहों की ज़बान पर था। ज़ाहिर है कि ये ज़माना 70 ई॰ का नहीं हो सकता। बल्कि मसीहिय्यत का आग़ाज़ का ज़माना है। बअल्फ़ाज़-ए-दीगर ये इन्जील मुनज्जी आलमीन की सलीबी मौत के सिर्फ चंद साल बाद ही लिखी गई थी।
लेकिन सलीब का वाक़िया आँख़ुदावंद की ज़िंदगी का अंजाम नहीं था बल्कि ये वाक़िया आँख़ुदावंद की ज़फ़रयाब क़ियामत और सऊद-ए-आस्मानी के वाक़ियात के साथ लाज़िम व लज़ूम की कड़ी में बतौर एक कामिल ज़ंजीर के वाबस्ता था। सय्यदना मसीह की क़ियामत ने साबित कर दिया है कि येसू फ़िल-हक़ीक़त जलाली मसीह मौऊद था जिसने मौत के बंधनों को तोड़ा। इब्ने-अल्लाह का मुर्दों में से जी उठना मह्ज़ किसी मुर्दे का दुबारा ज़िंदा होना नहीं था। आपका मौत के बंधनों को तोड़ने का वाक़िया इस क़िस्म का सा ना था जैसा नाइन की बेवा के बेटे का या लाज़र के क़ब्र से दुबारा निकल आने का वाक़िया था। ये और दीगर मुर्दे जिनको आँख़ुदावंद ने अपनी एजाज़ी ताक़त से ज़िंदा किया था दुबारा मर गए थे लेकिन इन्जील नवीस के मुताबिक़ सय्यदना मसीह का मुर्दों में से ज़िंदा होना आपके जलाली मसीहाई मर्तबा का सबूत था। आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत ने आलम और आलमयान पर वाज़ेह कर दिया कि सय्यदना मसीह फ़िल-हक़ीक़त मसीह मौऊद थे। ये वाक़िया इस अम्र की बय्यन दलील है कि आप इब्ने-आदम थे जो आस्मान से उतरे थे ताकि अपनी ज़िंदगी और मौत के वसीले ज़मीन के रहने वालों को अबदी नजात अता करें। पस इन्जील मर्क़ुस के मुताबिक़ मुनज्जी जहां (मसीह) की ज़फ़रयाब क़ियामत और सऊद-ए-आस्मानी आपकी मसीहाई के सबूत के आख़िरी और ज़बरदस्त कड़ियाँ हैं। मुक़द्दस पौलुस की तक़रीरों और तहरीरों से यही उमूर् वाज़ेह हो जाते हैं। जिनसे ये साबित होता है कि मुक़द्दस पौलुस रसूल इन्जील मर्क़ुस से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। देखो (मर्क़ुस 1:1-12, आमाल 13:24, 19:4 वग़ैरह) पिसिदियाह के अन्ताकिया वाली तक़रीर से साबित है कि मुक़द्दस पौलुस 46 ई॰ से पहले इन्जील मर्क़ुस से वाक़िफ़ थे। यही बात (मर्क़ुस 6:11 और आमाल 13:51) के मुक़ाबला करने से ज़ाहिर हो जाती है।
ये उमूर् ना सिर्फ मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील से ही ज़ाहिर है बल्कि आमाल की किताब के इब्तिदाई अबवाब भी साबित करते हैं कि तमाम रसूल इसी एक तालीम पर मुत्तफ़िक़ थे। और सब रसूलों और मुबल्लिग़ों की मुनादी का माहसल यही था। (रोमियों 1:1-4, 6:9-11, आमाल 2:32-33, 5:31 वग़ैरह) यही तालीम इब्तिदाई ज़माने में हर नव-मुरीद को दी जाती थी। (1 कुरिन्थियों 15:1-7) और इन्जीली मजमूए की तमाम तहरीरात की यही बुनियाद है।
मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील दौर-ए-अव्वलीन के इसी इब्तिदाई ज़माने की तालीम की तफ़्सील है। इब्तिदा ही से रसूलों ने इसी ढंग से सय्यदना मसीह की पैदाइश, तालीम,
वाक़ियात-ए-ज़िंदगी, सलीबी मौत, ज़फ़रयाब क़ियामत और सऊद-ए-आस्मानी को समझा। और इसी रंग में यहूद और ग़ैर-यहूद सब के सामने पेश किया।
अब नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील की तमाम की तमाम फ़िज़ा शुरू से आख़िर तक वही है जो इब्तिदाई कलीसिया के शुरू के ज़माने में थी जिसका नज़ारा हमको आमाल की किताब के पहले हिस्से में मिलता है। इस इन्जील में सय्यदना मसीह की मौत के बाद के दस (10) साल के हालात का अक्स नज़र आता है। पस इस की तस्नीफ़ का ज़माना भी 40 ई॰ के लगभग का है।
फ़स्ल दोम
इन्जील-ए-मर्क़ुस और अव्वलीन अय्याम की मोअ्तक़िदात
मुक़द्दस मर्क़ुस कोई बड़े पाए के आलिम ना थे। वो दीनियात के माहिर और फिलासफर भी ना थे। उनकी इन्जील में ना तो कोई दकी़क़ फ़ल्सफ़ियाना नज़रिए पेश किए गए हैं और ना कोई ऐसी इस्तिलाहात मौजूद हैं जो मसीही दीनियात की तश्रीह के लिए बाद के ज़माने में वज़ाअ की गई थीं। वो सीधे सादे तौर पर अपने मुनज्जी (मसीह) की सीरत लिखने वाले थे। उन्हों ने दियानतदारी से उन ख़यालात को पेश किया जो इब्तिदाई कलीसिया के आग़ाज़ में मुरव्वज थे। चुनान्चे प्रोफ़ैसर वर्नर Werner कहता है कि मर्क़ुस की इन्जील मसीहिय्यत के उन ख़यालात का आईना है जो पहली सदी के दर्मियान में यहूद नव-मुरीद और ग़ैर-अक़्वाम के नव मुरीद दोनों मानते थे। इस में मसीह के तजस्सुम या कफ़्फ़ारे के मुताल्लिक़ कोई फ़ल्सफ़ियाना नज़रिए नहीं हैं लेकिन इन हक़ाइक़ पर ज़ोर दिया गया है। इस इन्जील में ये फ़र्ज़ कर लिया गया है कि आँख़ुदावंद अपनी ख़िदमत की
इब्तिदा ही से मसीह मौऊद (मर्क़ुस 1:34, 8:29) और इब्ने-अल्लाह (मर्क़ुस 1:1) थे और इलाही मक़्सद के मातहत और बुलावे की वजह से इब्ने-आदम थे। आपने सलीब का दुख उठाया क्योंकि आप इब्ने-आदम थे, जो आस्मान से थे और जिन का ज़मीन पर इख़्तियार था (मर्क़ुस 2:10, 28) और कि आप उन बातों को पूरा करने आए थे जो आप की बाबत लिखी थीं। इसी वास्ते आप सलीब पर मरे और फिर ज़िंदा हुए और जलाल के साथ मुंसिफ़ हो कर आएँगे। (मर्क़ुस 8:38, 13:26 आयत अलीख)
ये हालात कलीसिया के मोअ्तक़िदात (एतिक़ाद करने वाले) के इर्तिक़ा (बतद्रीज तरक़्क़ी करना) की पहली मंज़िल से मुताल्लिक़ हैं। इस मंज़िल में हज़रत इब्ने-अल्लाह की शख़्सियत के मुताल्लिक़ किसी नज़रिये का वजूद पाया नहीं जाता। सिर्फ इस हक़ीक़त के इज़्हार पर ही इक्तिफ़ा किया गया है कि आप इब्ने-अल्लाह, इब्ने-आदम और मसीह मौऊद हैं। पस इस इन्जील की तस्नीफ़ का ज़माना मुनज्जी जहान (मसीह) की सलीबी मौत के दस बरस बाद का है जो कलीसिया के ख़यालात की इब्तिदाई मंज़िल थी।
इन्जील-ए-मर्क़ुस के बयान के मुताबिक़ जब सय्यदना मसीह ने हज़रत यूहन्ना इस्तिबाग़ी से बपतिस्मा पाया तो लिखा है कि “जब वो (येसू) पानी से निकल कर ऊपर आया तो फ़ील-फ़ौर उस ने आस्मान को फटते और रूह को कबूतर की मानिंद अपने ऊपर उतरते देखा और आस्मान से आवाज़ आई कि ये मेरा “महबूब” (है) और मेरा बेटा है। तुझसे मैं ख़ुश हूँ।” अहद-ए-अतीक़ में “महबूब” और “बेटा” मसीह मौऊद के दो मुख़्तलिफ़ नाम और अलग-अलग खिताबात थे। पस इस बयान के मुताबिक़ बपतिस्मे के वक़्त आँख़ुदावंद पर ये हक़ीक़त मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) हो गई कि आप ख़ुद मसीह मौऊद हैं। आपकी अपनी मसीहाई का एहसास इस ज़माने से शुरू हुआ और आपने ये महसूस किया कि ख़ुदा ने आपको रूह-उल-क़ुद्स से मसह किया है इस इन्जील के अल्फ़ाज़ से साफ़ वाज़ेह है कि मुसन्निफ़ के ख़याल में रूह-उल-क़ुद्स से ममसूह होने की वजह से आप इब्ने-अल्लाह हैं।
आँख़ुदावंद की ज़ात और शख़्सियत के मुताल्लिक़ बईना यही नज़रिया आमाल अल-रसुल के पहले बारह (12) अबवाब में मौजूद है जो मसीही कलीसिया में दौर-ए-अव्वलीन में मुरव्वज था और जिस का ख़ुलासा मुक़द्दस पतरस के अल्फ़ाज़ में मौजूद है ख़ुदा ने येसू नासरी को रूह-उल-क़ुद्स और क़ुद्रत से मसह किया। “वो भलाई करता और उन सबको जो
इब्लीस के हाथ से ज़ुल्म उठाते थे शिफ़ा देता फिरा क्योंकि ख़ुदा उस के साथ था।” (आमाल 10:38)
पस मसीहिय्यत के आग़ाज़ में आँख़ुदावंद की ज़ात और शख़्सियत की निस्बत जो नज़रिया कलीसिया के इब्तिदाई मराहिल व मनाज़िल में राइज था वो इस आया शरीफा के मुताबिक़ ये था कि जिस शख़्स की रसूल मुनादी करते थे वो एक ऐसा इंसान-ए-कामिल था जिस को हमेशा ख़ुदा की कुर्बत नसीब थी, जो मुर्दों में से जी उठा और ख़ुदा के दहने हाथ बैठा है। वो एक ऐसा इन्सान था जिसको ख़ुदा ने अपने काम व पैग़ाम के लिए ख़ास तौर पर मसह किया था। “येसू नासरी एक इन्सान था जिसका ख़ुदा की तरफ़ से होना उन मोअजिज़ों और अजीब कामों, और निशानों से साबित हुआ जो ख़ुदा ने इस की मार्फ़त किए।” (आमाल 2:22)
मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील और रसूलों के मज़्कूर बाला बयानात के मुक़ाबले से ज़ाहिर है कि इस इन्जील का बईना वही नज़रिया है जो मसीही कलीसिया के आग़ाज़ में कलीसिया के अव्वलीन दौर में मुरव्वज था। यानी कि येसू नासरी एक ऐसे इन्सान थे जो कामिल तौर पर नेक थे। जिनको ख़ुदा ने मसीह मौऊद के ओहदे पर मामूर फ़रमाया और रूह-उल-क़ुद्स से ममसूह किया। आपकी ज़िंदगी ख़ुदा की कामिल फ़रमांबर्दारी में गुज़री जिसकी वजह से आपने मौत और क़ब्र पर फ़त्ह पाई और ख़ुदा के दहने हाथ सर्फ़राज़ हुए और बनी नूअ इन्सान की अदालत करने के लिए इलाही क़ुद्रत के साथ फिर आएँगे।
आँख़ुदावंद की ज़ात व शख़्सियत का ये नज़रिया कलीसिया के आग़ाज़ में उस ज़माने में मुरव्वज था जब अभी मुक़द्दस यूहन्ना ने अपनी इन्जील नहीं लिखी थी और ना मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत अभी अहाता-ए-तहरीर में आए थे। जिसका मतलब ये है कि ये नज़रिया कलीसिया के शुरू ज़माने में मुरव्वज था। पस इन्जील-ए-मर्क़ुस भी इसी अव्वलीन दौर से मुताल्लिक़ है। बअल्फ़ाज़-ए-दीगर ये इन्जील मुनज्जी आलमीन (मसीह) की ज़फ़रयाब क़ियामत के दस (10) साल के अंदर लिखी गई थी।
मुक़द्दस पौलुस अपनी तहरीरात में जो सय्यदना मसीह की वफ़ात के क़रीबन पंद्रह तीस साल बाद के दर्मियानी अर्सा (अज़ 44 ई॰ ता 60 ई॰) में लिखी गई थीं बार-बार लफ़्ज़ “मसीह” को इस्म-ए-मारिफ़ा के तौर पर इस्तिमाल करके आँख़ुदावंद को कभी “येसू” कभी “मसीह” और कभी “मसीह येसू” कहते हैं। लेकिन मुक़द्दस मर्क़ुस लफ़्ज़ “मसीह” को
इस्म-ए-मारिफ़ा के तौर पर कहीं भी इस्तिमाल नहीं करते बल्कि हमेशा इस लफ़्ज़ को सय्यदना मसीह के लिए ख़िताब के तौर पर मसीह मौऊद के माअनों में इस्तिमाल करते हैं। इस में लफ़्ज़ “अल-मसीह” तीन जगह वारिद हुआ है। (मर्क़ुस 8:29, 14:61, 15:32) पहले मुक़ाम में मुक़द्दस पतरस का इक़रार दर्ज है कि “आँख़ुदावंद अल-मसीह (मौऊद) हैं।” दूसरे मुक़ाम में सरदार काहिन आपसे सवाल करके पूछता है “क्या तू उस सतूदा का बेटा अल-मसीह (मौऊद) है?” तीसरे मुक़ाम में सरदार काहिन ठट्ठे से कहता है कि “अगर ये शख़्स इस्राईल का बादशाह “अल-मसीह” (मौऊद) है तो वो अब सलीब पर उतर आए।” पस इन तीनों मुक़ामों में किसी एक जगह भी आँख़ुदावंद के लिए मसीह का नाम बतौर इस्म-ए-ख़ास या इस्म-ए-मारिफ़ा नहीं आया जिस तरह दौर-ए-हाज़रा में निनान्वे फ़ीसदी मसीही और ग़ैर-मसीही आँख़ुदावंद का नाम येसू नहीं लेते बल्कि मसीह कहते हैं। हक़ तो ये है कि 70 ई॰ के बाद यूनानी दुनिया के लिए लफ़्ज़ “मसीह” दर-हक़ीक़त लफ़्ज़ “येसू” का मुतरादिफ़ था और इस से ज़्यादा ये लफ़्ज़ ग़ैर-यहूद के लिए कोई मअनी नहीं रखता था। साफ़ और मोटे लफ़्ज़ों में इस का मतलब ये है कि कलीसिया (जिसका अग़्लब (मुम्किन) हिस्सा ग़ैर-यहूद पर मुश्तमिल था) किसी यहूदी मसीह मौऊद में दिलचस्पी नहीं रखती थी।181
अला हाज़ा-उल-क़यास इस इन्जील में येसू नासरी के लिए लफ़्ज़ “ख़ुदावंद” बतौर एक ख़िताब के कहीं इस्तिमाल नहीं किया गया। जिस तरह हमने जा-ब-जा इस रिसाले में आपके लिए लफ़्ज़ “आँख़ुदावंद” इस्तिमाल किया है जिस तरह मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत में आपके लिए लफ़्ज़ “ख़ुदावंद” आया है। इन्जील मर्क़ुस में ये लफ़्ज़ ख़ुदावंद सिर्फ चार मर्तबा आया है यानी (मर्क़ुस 5:19, 11:3, 13:20, 12:37) लेकिन इन मुक़ामात में से पहले और तीसरे मुक़ाम में वो ख़ुदा यानी रब-उल-आलमीन के लिए इस्तिमाल हुआ है। दूसरे मुक़ाम में लफ़्ज़ “ख़ुदावंद” दीदा दानिस्ता तौर पर ज़ू माअनी है, और चौथे मुक़ाम में इस का ताल्लुक़ अहद-ए-अतीक़ की किताब ज़बूर की आयत की तावील है।
पस इन्जील-ए-मर्क़ुस में मुनज्जी आलमीन (मसीह) के लिए ना फ़क़त “मसीह” बतौर आपके ख़ास नाम के इस्तिमाल किया गया है और ना कोई शख़्स आपको मुख़ातिब करके या आपकी तरफ़ इशारा करके लफ़्ज़ “ख़ुदावंद” आपके लिए इस्तिमाल करता है। इस
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181F.C. Grant ,The Earliest Gospel.pp.175 ff
से ज़ाहिर है कि ये इन्जील उस ज़माने में लिखी गई थी जब मसीही कलीसिया अपने मुनज्जी के लिए सिर्फ लफ़्ज़ “येसू” इस्तिमाल करती थी और अभी तक मसीही अवाम मुक़द्दस पौलुस रसूल की तरह आपको “ख़ुदावंद” या “ख़ुदावंद येसू” या “ख़ुदावंद येसू मसीह” या “येसू मसीह” या “मसीह” नहीं कहते थे। उस ज़माने में ये अल्फ़ाज़ व अल्क़ाब व खता बात ना तो आम तौर पर कलीसिया में ताहाल मुरव्वज हुए थे और ना वो सराहतन या किनायतन (वाज़ेह या इशारे के तौर पर) बतौर-ए-इस्म ख़ास या इस्म मारिफ़ा या इस्म इशारे लफ़्ज़ “येसू” की बजाए इस्तिमाल होते थे। बअल्फ़ाज़-ए-दीगर इन्जील मर्क़ुस का ज़माना तस्नीफ़ रसूली ज़माने के अव्वलीन दौर से ताल्लुक़ रखता है और यह इन्जील मुनज्जी जहान (मसीह’) की सलीबी मौत के दस (10) बरस के अंदर अहाता-ए-तहरीर में आ चुकी थी।
(2)
अला हाज़ा-उल-क़यास मुक़द्दस मर्क़ुस हज़रत इब्ने-अल्लाह की सलीबी मौत को नजात का ज़रीया बतलाते हैं। (मर्क़ुस 10:45, 14:24) लेकिन वो आपकी मौत और नजात का कोई ख़ास नज़रिया पेश नहीं करते। वो ये बतलाने की कोशिश कहीं नहीं करते कि इब्ने-अल्लाह की मौत और बनी नूअ इन्सान की नजात किस तरह एक दूसरे से मुताल्लिक़ हैं। आपकी इन्जील में ये मज़्कूर है कि इब्ने-आदम को मरना ज़रूर है। क्योंकि आपकी सलीबी मौत किताब-ए-मुक़द्दस और रज़ा-ए-इलाही के ऐन मुताबिक़ है। लेकिन इस मंज़िल से मुक़द्दस मर्क़ुस एक क़दम भी आगे तजावुज़ नहीं करते। पस ये मंज़िल मसीहिय्यत की इब्तिदाई तारीख़ की अव्वलीन मंज़िल है। (1 कुरिन्थियों 15:3, 1 थिस्सलुनीकियों 1:10, ग़लतियों 3:13, 4:5 वग़ैरह) लिहाज़ा ये इन्जील मसीहिय्यत की इब्तिदाई फ़िज़ा से मुताल्लिक़ है और क़दीम तरीन ज़माने से ताल्लुक़ रखती है। मुक़द्दस पौलुस इस ज़माने के बाद (अज़ 44 ई॰ ता 60 ई॰) अपने ख़ुतूत में कफ़्फ़ारे का नज़रिया पेश करते हैं और मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के वाक़ियात की बुनियाद पर अपने अक़ाइद और दीनियात की इमारत खड़ी करते हैं।
(3)
इसी तरह मुक़द्दस मर्क़ुस अपनी इन्जील में क़यामत-ए-मसीह के वाक़िये का ज़िक्र करते हैं लेकिन वो मुर्दों के जी उठने का कोई नज़रिया या दलील क़ायम नहीं करते। मसीही
कलीसिया इब्तिदा ही से मुनज्जी-ए-आलमीन की ज़फ़रयाब क़ियामत के वाक़िये पर ईमान रखी थी। (1 कुरिन्थियों 15:3-7) लेकिन इस वाक़िये के सबूत के दलाईल, तौज़ीह और तश्रीह वग़ैरह माबाअ्द के ज़माने से मुताल्लिक़ हैं। (1 कुरिन्थियों 15 बाब वग़ैरह) पस मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील इस ज़माने से बहुत पहले लिखी गई जब मुक़द्दस पौलुस ने 55 ई॰ के मौसम-ए-बहार में कुरिन्थियों के ख़त में वाक़िया क़ियामत की तश्रीह की थी।182जिससे ज़ाहिर है कि ये इन्जील वाक़िया क़ियामत के क़रीबन दस (10) साल बाद लिखी गई थी।
(4)
हम ज़िक्र कर चुके हैं कि इन्जील-ए-मर्क़ुस में इन सवालों के जवाब में जो मसीहिय्यत की इब्तिदाई मंज़िल में यहूद व ग़ैर-यहूद, मसीही और ग़ैर-मसीही सब पूछते थे अगर ख़ुदावंद ने येसू फ़िल-हक़ीक़त मसीह मौऊद थे तो आप क्यों मस्लूब हुए? पस ये इन्जील एक ख़ास ज़ावीया निगाह से लिखी गई है। मुम्किन है कि कोई साहब ये एतराज़ करें कि इस ख़ाके के मुताबिक़ इन्जील-ए-मर्क़ुस सय्यदना मसीह का सीधा सादा ज़िंदगी नामा नहीं है। बल्कि इब्ने-अल्लाह की ज़िंदगी के तमाम वाक़ियात को सिर्फ एक नुक़्ता निगाह से क़लमबंद किया गया है।
जवाबन अर्ज़ है कि :-
जैसा हम हिस्सा दोम के बाब चहारुम में बतला चुके हैं अनाजील अरबा मह्ज़ कुतुब तवारीख़ नहीं हैं जिनमें वाक़ियात शुरू से आख़िर तक मुसलसल तौर पर क़लमबंद किए गए हों। वो “इन्जील” हैं यानी ऐसी किताबें हैं जिनमें ख़ुशी की ख़बर दी गई है। हर इन्जील नवीस ने इस ख़ुशी की ख़बर को अपने-अपने नुक़्ता निगाह से लिखा है। और मुनज्जी जहान मसीह की (33) साला ज़िंदगी के वाक़ियात पर नज़र डाल कर सिर्फ ऐसे वाक़ियात का इंतिख़ाब किया है जो उन के नुक़्ता निगाह को अज़हर-मिन-श्शम्स (रोज़-ए-रौशन की तरह अयाँ) कर देते हैं। ये अनाजील इन ईमानदार मुसन्निफ़ों के ज़िंदा ईमान की निशानियां हैं जिनमें दुनिया की सबसे अज़ीमुश्शान हस्ती के माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत उमूर, वाक़ियात, तालीम और शख़्सियत का ज़िक्र है। मुक़द्दस मर्क़ुस फ़र्माते हैं कि सय्यदना मसीह एक
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182T.R. Glover Paul of Tarsus p.201
तारीख़ी हस्ती थे जो मसीह मौऊद, इब्ने-अल्लाह और माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत इब्ने-आदम थे, जो दुनिया को नजात देने के लिए सलीब पर मरे, तीसरे रोज़ मुर्दों में से जी उठे और आस्मान को सऊद फ़र्मा गए। ये था मुक़द्दस मर्क़ुस का ज़ावीया निगाह, इन्जील-ए-अव़्वल व सोम का नुक़्ता-ए-नज़र मुक़द्दस मर्क़ुस के नुक़्ता निगाह से मुख़्तलिफ़ है और वो आँख़ुदावंद के सवानेह-हयात को अपने-अपने नुक़्ता निगाह से देखकर अवामुन्नास को नजात की बशारत देते हैं। जब हम इन मोअख्ख़र-उल-ज़िक्र (जिसका ज़िक्र बाद में आए) दोनों इंजीलों का मुतालआ करते हैं तो हम पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि ये दोनों मुसन्निफ़ इन्जील-ए-मर्क़ुस को लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ शुरू से आख़िर तक अपनी किताबों में नक़्ल करते हैं जिससे साबित हो जाता है कि गो ये तीनों मुसन्निफ़ मुनज्जी आलमीन (मसीह) की ज़िंदगी के वाक़ियात अपने-अपने ज़ावीया निगाह से इंतिख़ाब करते हैं लेकिन उनके ज़ावीया निगाह एक दूसरे के मुतज़ाद नहीं हैं इस के बरअक्स ये तीनों ज़ावीए एक दूसरे के मुमिद व मुआविन (मददगार) हैं और एक दूसरे का तकमिला (पूरा) करते हैं। मुक़द्दस मर्क़ुस का ज़ावीया निगाह मुनज्जी आलमीन (मसीह) की वफ़ात के पाँच दस साल बाद के ज़माने से मुताल्लिक़ है। इन्जील-ए-अव़्वल व सोम के मुसन्निफ़ों का नुक़्ताह-ए-निगाह इस से दस, पंद्रह साल बाद यानी पहली सदी के निस्फ़ से मुताल्लिक़ है। रसूलों के आमाल की किताब का पहला हिस्सा (बाब अव़्वल ता बाब बारह) ज़ाहिर करता है कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील मसीही अक़ाइद व तालीम के इर्तिक़ा की तारीख़ का पहला बाब है। इन्जील मत्ती और इन्जील लूक़ा इस तारीख़ का दूसरा और तीसरा बाब है और इन्जील यूहन्ना इस तारीख़ का चौथा बाब है। हर इन्जील नवीस की किताब इस ईमान की ज़िंदा गवाह है कि मसीह के वसीले नई ज़िंदगी हासिल होती है जो इन्सान की ख़ुफ़ता ताक़तों को बेदार करके इस की तमाम उम्मीदों को सरसब्ज़ व शादाब कर देती है और ना-मुम्किनात को मुम्किन करके दिखा देती है। इस ज़िंदगी से ख़ुदा और इन्सान के बाहमी ताल्लुक़ात कुल्लियतन (मुकम्मल) तब्दील हो जाते हैं और गुनाहों की माफ़ी का कामिल यक़ीन हो जाता है। इस से हमको रूह-उल-क़ुद्स की ख़ुशी का तजुर्बा हासिल हो जाता है और मसीह के सऊद-ए-आस्मानी के बाद उस की जलाली आमद के इंतिज़ार की झलक दिखाई देती है।
इस ख़ुशी की ख़बर और बशारत का ऐलान करने के लिए हर इन्जील नवीस क़ुद्रतन अहले-यहूद की इस्तिलाहात को इस्तिमाल करके अपने ख़यालात, जज़्बात और तजुर्बात की मुनादी करते हैं। मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील का सतही मुतालआ भी ये साफ़ साबित कर देता है कि ये इन्जील उन ख़यालात की हामिल है जो मसीहिय्यत के आग़ाज़ में कलीसिया
में नश्वो नुमा हासिल करके फल फूल रहे थे। बाक़ी तीन अनाजील जो चंद बरस बाद लिखी गईं, उन ख़यालात का आईना हैं जो पहली सदी के निस्फ़ में नश्वो नुमा पा रहे थे। लेकिन इंजीलों का मुतालआ ज़ाहिर कर देता है कि इन तमाम ख़यालात का बाहमी ताल्लुक़ वैसा ही है जो ग़ुन्चा (फूल की कली, शगूफ़ा) का फूल के साथ होता है। ये तमाम ख़यालात जो अनाजील अरबा में पाए जाते हैं मसीही अक़ाइद की पहली मंज़िलें हैं। इंजीली मजमूआ कुतुब की बाद की तहरीरात में दीगर ख़यालात की झलक है जो पहली सदी के पहले निस्फ़ के बाद के ज़माने से मुताल्लिक़ हैं। चुनान्चे डाक्टर स्ट्रीटर (B.H.Streeter) मर्हूम बतलाता है कि इंजीली मजमूए की तमाम तहरीरात में आँख़ुदावंद की ज़ात के मुताल्लिक़ सात (7) नज़रीए पाए जाते हैं जो मुनज्जी आलमीन (मसीह) की वफ़ात के तीस पैंतीस साल के अंदर मसीही कलीसिया के मुख़्तलिफ़ तबक़ों में रिवाज पा गए थे। इन मुख़्तलिफ़ ख़यालात और नज़रिया-जात में तज़ाद नहीं है बल्कि वो मसीही अक़ाइद की इर्तिक़ा की मुख़्तलिफ़ मंज़िलें हैं, जिनमें तवात्तिर और यकजहती पाई जाती है। इस तसलसुल, तवात्तिर और यकजहती का मर्कज़ वो मसीही ज़िंदगी है जो ज़फ़रयाब और फ़ातिह जलाली मसीह से निकलती है, जिससे रूह-उल-क़ुद्स ने तमाम मसीहियों को एक बदन में मुनज़्ज़म कर रखा है। (इफ़िसियों 4:16) इस इर्तिक़ा की पहली मंज़िल वो ख़यालात हैं जो ख़ुदावंद मसीह की वफ़ात के बाद राइज थे और जिन का ज़िक्र रसूलों के आमाल की किताब के पहले बारह (12) बाब में पाया जाता है। यही ख़यालात मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील में पाए जाते हैं जिससे इस इन्जील की क़दामत साबित है और हम पर वाज़ेह हो जाता है कि ये इन्जील मुनज्जी आलमीन (मसीह) की मौत के बाद दस (10) साल के अंदर यानी उस ज़माने में लिखी गई थी जिस ज़माने में वो हालात थे जिनका ज़िक्र आमाल के पहले बारह (12) अबवाब में मिलता है।
इंजीली मजमूए की तमाम तहरीरात का ग़ाइर (गहरा) मुतालआ ये वाज़ेह कर देता है कि इस तमाम मजमूए में मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के ख़यालात से ज़्यादा क़दीम ख़यालात का वजूद कहीं पाया नहीं जाता। और इन का वजूद हो भी कैसे सकता है? क्योंकि अगर इन क़दीम तरीन ख़यालात से कम की मुनादी अवाम में की गई होती तो मसीही कलीसिया मारज़-ए-वजूद में भी ना आती। क्योंकि यही ख़यालात यहूदियत और मसीहिय्यत में माया अल-इम्तियाज़ का दर्जा रखते हैं। इब्तिदा ही से रसूल यही बशारत देते थे कि मुनज्जी आलमीन (मसीह) “हमारे गुनाहों की ख़ातिर” मस्लूब हुए। (1 कुरिन्थियों 15:3) और आप ने मुर्दों में से ज़िंदा हो कर साबित कर दिया कि आप जलाली मसीह मौऊद हैं।
आप चालीस (40) रोज़ तक मुख़्तलिफ़ औक़ात और जगहों में लोगों पर ज़ाहिर होते रहे। (1 कुरिन्थियों 15:4-11 वग़ैरह) और फिर आपने सऊद फ़रमाया। (लूक़ा 24:51, यूहन्ना 20:17 वग़ैरह) आपके शागिर्दों और रसूलों ने आपकी जलाली हालत का ज़ाती तजुर्बा किया। (मर्क़ुस 16:6, लूक़ा 24:31, 34, यूहन्ना 20:17-19, 26, 21:14 वग़ैरह) यही बातें मसीहिय्यत को यहूदियत से जुदा करती थीं। अगर रसूलों ने इनसे कम का परचार किया होता तो मसीहिय्यत यहूदी मज़्हब की मह्ज़ एक शाख़ हो कर रह जाती और बस। सय्यदना मसीह ईमानदारों की नजात के बानी ना होते बल्कि यहूदी अम्बिया की क़तार में नज़र आते जिनकी सह साला तब्लीग़ी ख़िदमत की याद भी दीगर अम्बिया-ए-यहूद की तरह भूल बसर गई होती।
पस ये इन्जील उस ज़माने की तस्नीफ़ है जिसमें अभी तक मुनज्जी आलमीन (मसीह) की ज़ात और शख़्सियत के मुताल्लिक़ या आप की सलीबी मौत के मुताल्लिक़ कोई ख़ास नज़रिया क़ायम नहीं हुआ था, जिस पर तमाम कलीसियाओं का इत्तिफ़ाक़ हो। इस इन्जील में उस इब्तिदाई ज़माने का नक़्शा नज़र आता है जिसमें सिर्फ सय्यदना मसीह की शख़्सियत, मौत और क़ियामत की हक़ीक़त पर ही ईमान लाने की दावत दी जाती है। इस इब्तिदाई ज़माने के चंद साल बाद वो ज़माना आया जब यहूद और ग़ैर-यहूद मसीही उलमा ने इन हक़ाइक़ पर फ़ल्सफ़ियाना पहलूओं से निगाह करके हकीमाना नज़रिया जात क़ायम किए थे। लेकिन मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील में इस क़िस्म के हकीमाना नज़रिया जात और फ़ल्सफ़ियाना ख़यालात का नामोनिशान भी नहीं मिलता जो मुक़द्दस यूहन्ना और मुक़द्दस पौलुस और दीगर इंजीली मुसन्निफ़ीन की तहरीरात में मौजूद हैं। इस से ज़ाहिर है कि इन्जील मर्क़ुस मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत और मुक़द्दस यूहन्ना की तहरीरात से बहुत पहले लिखी गई थी। जिससे साबित हो गया कि ये अव्वलीन इन्जील, मुनज्जी आलमीन (मसीह) की सलीबी मौत के दस (10) साल के अंदर-अंदर अहाता तहरीर में आ गई थी।
फ़स्ल सोम
मुक़द्दस लूक़ा और मुक़द्दस मर्क़ुस की अनाजील का बाहमी ताल्लुक़
हम इस किताब के हिस्सा दोम के बाब-ए-अव़्वल की फ़स्ल सोम में साबित कर चुके हैं कि इन्जील लूक़ा की दो तिहाई से ज़्यादा हिस्सा (1149) आयात में से (798) आयात उन आयात पर मुश्तमिल है जो मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील से नक़्ल की गई हैं। इसी हिस्से के बाब सोम की फ़स्ल अव़्वल में हम ये साबित कर चुके हैं कि मुक़द्दस लूक़ा ने इन्जील लिखते वक़्त मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील को बतौर एक माख़ज़ के इस्तिमाल किया था और कि उसने अपनी इन्जील का ढांचा मुक़द्दस मर्क़ुस की तर्तीब के मुताबिक़ ढाला है। मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील का ग़ाइर (गहरा) मुतालआ ये ज़ाहिर कर देता है कि उस ने ख़ुदावंद की आज़माईशों के बयान और इशाए रब्बानी के मुक़र्रर होने के दर्मियानी अर्से में दीगर माख़ज़ों से तीन बड़े हिस्से इकट्ठे करके तीन मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में जमा कर दिए हैं। (लूक़ा 6:20 8:3, 9:51 ता 18:14, 19:1-27 आयात) बाक़ी-मांदा हिसस में मुक़द्दस लूक़ा ने मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील को नक़्ल किया है।
पस जब मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील को लिखा तब मर्क़ुस की इन्जील इस क़द्र एतबार के क़ाबिल समझी जाती थी कि आपने उस के अल्फ़ाज़ और तर्तीब को क़ायम रखा और उन के मुताबिक़ अपनी इन्जील को लिखा। इस से ज़ाहिर है कि 55 ई॰ तक (जब मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील को लिखा) मर्क़ुस की इन्जील कलीसिया में हर चहार तरफ़ मुरव्वज थी और ऐसी मुसल्लम शुमार की जाती थी कि उस ज़माने में इस की टक्कर का और इस की क़िस्म का कोई दूसरा माख़ज़ मौजूद ना था।
ये अम्र मुहताज-ए-बयान नहीं कि इस क़िस्म की किताब को ये रुत्बा और चंद हफ़्तों या महीनों में हासिल नहीं हो जाता। बल्कि इस बात के लिए एक तवील मुद्दत दरकार है कि इन्जील मर्क़ुस जैसी मुस्तनद किताब लिखी जाये और वो हर चहार तरफ़ ऐसी रिवाज पाए जाये कि मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की कलीसियाएं उस के सामने सर-ए-तस्लीम ख़म कर दें। बिल-ख़ुसूस ऐसे ज़माने में जब छापा ख़ाने मौजूद ना थे, और हर किताब का एक-एक लफ़्ज़ हाथ से नक़्ल किया जाता था। गुज़श्ता बाब में हम साबित कर आए हैं कि मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील 55 ई॰ के क़रीब बमुक़ाम केसरिया में लिखी थी। रसूलों के आमाल की किताब और कलीसियाई रिवायत से ज़ाहिर है कि 55 ई॰ तक मसीही कलीसिया दूर व दराज मुक़ामात में यहूद और ग़ैर-यहूद दोनों में फैल चुकी थी। पस अगर मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील 55 ई॰ तक तमाम कलीसियाओं में मुसल्लम और मुस्तनद समझी जाती थी और रिवाज पा चुकी थी तो ज़ाहिर है कि वो इस से कम अज़
कम दस पंद्रह साल पहले लिखी गई होगी। पस क़ियास यही चाहता है कि ये इन्जील 40 ई॰ के क़रीब अहाता तहरीर में आई हो। इस का मतलब ये है कि इन्जील मर्क़ुस मुनज्जी आलमीन (मसीह) की वफ़ात के क़रीबन दस (10) साल के अंदर-अंदर तस्नीफ़ की गई थी। इंशा-अल्लाह आइन्दा फ़स्ल में हम ये वाज़ेह कर देंगे कि दीगर उमूर् से भी ये साबित होता है कि ये इन्जील 40 ई॰ के क़रीब लिखी गई थी।
फस्ल-ए-चहारुम
इन्जील-ए-मर्क़ुस का सन-ए-तस्नीफ़ और तवारीख़ी वाक़ियात
(1)
हम गुज़श्ता बाब की फ़स्ल में बतला चुके हैं कि जब मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील लिखी थी उस ज़माने में यरूशलेम का शहर वीरान व तबाह नहीं था और ना उस की हैकल नज़र-ए-आतिश हो चुकी थी। चूँकि मुक़द्दस मर्क़ुस ने अपनी इन्जील मुक़द्दस लूक़ा से बहुत साल पहले लिखी थी। पस क़ियास यही चाहता है कि इस में भी इस वाक़िया हाइला (हाइल की तानीस, होलनाक, मुहीब) का ज़िक्र मौजूद ना हो। जब हम इन्जील मर्क़ुस पढ़ते हैं तो हम बईना यही हालत पाते हैं। इस में ना तो यरूशलेम की तबाही का ज़िक्र है और ना हैकल के बर्बाद होने का इशारा तक पाया जाता है। जिससे ज़ाहिर है कि वो उलमा यक़ीनन ग़लती पर हैं जो ये दाअ्वा करते हैं कि इन्जील 70 ई॰ में लिखी गई थी।
हक़ तो ये है कि अगर इन्जील मर्क़ुस ख़ाली-उल-ज़हन हो कर पढ़ी जाये तो ये बात किसी के ख़याल में भी ना आएगी कि इस के लिखने के वक़्त हैकल बर्बाद हो चुकी थी। इस के बरअक्स इस का मुतालआ यही ज़ाहिर करता है कि ये शहर यरूशलेम और हैकल दोनों सही सलामत खड़े हैं। मसलन हैकल की नापाकी का ज़िक्र मौजूद है। (मर्क़ुस 13:14)
क्या नापाकी का ज़िक्र ये साबित नहीं करता कि जब ये इन्जील लिखी गई थी तो ख़ुदावंद की हैकल उस वक़्त मौजूद थी।
मुक़द्दस मर्क़ुस 15:29 में लिखते हैं कि कल्वरी के मुक़ाम पर लोग मस्लूब सय्यदना मसीह को लान-तान करते और कहते थे वाह मुक़द्दस के ढाने वाले और उस को तीन दिन में बनाने वाले अगर इस इन्जील के लिखे जाने के वक़्त हैकल बर्बाद हो चुकी होती तो इन्जील-ए-नवीस यहां ज़रूर बतलाता कि देख लो। हैकल बर्बाद हो चुकी है।
मर्क़ुस 13 बाब की पहली 13 आयात में उन लोगों की जानिब इशारे हैं जो काज़िब (झूटे) नबी थे और मसीहाई का झूटा दाअ्वा करते थे। इन आयात में जो ज़िक्र लड़ाईयों और जंगों का है इन में पार्थिया की जानिब इशारा है। इन आयात में क़हत, ज़लज़लों और ईज़ाओं का ज़िक्र है जो अहले-यहूद मसीहियों को देते थे, लेकिन नेरू की ख़ौफ़नाक और वहशत-अंगेज़ इज़ार सानी 64 ई॰ और इस के बाद के वाक़ियात का कहीं ज़िक्र नहीं पाया जाता। रोमी अफ़्वाज का हमला के जो मुल़्क यहूदिया पर किया गया था और यरूशलेम के ताराज (बर्बाद) होने का और हैकल के नज़र-ए-आतिश होने के वाक़ियात की जानिब इशारा तक नहीं मिलता। इन जांकाह तवारीख़ी वाक़ियात की बजाए सिर्फ हैकल की नापाकी का ज़िक्र मौजूद है। और वो नापाकी भी ऐसी थी (जैसा हम अभी बयान करेंगे) जो वजूद में ना आई।183मुअर्रिख़ यूसेबस का एक बयान इस मुक़ाम पर क़ाबिल-ए-ग़ौर है। वो हमको बतलाता है कि यहूदिया के मसीही लीडरों को इल्हाम से पहले ही आगाही मिल गई थी। पस वो 70 ई॰ में यरूशलेम से पीला भाग गए। ये इल्हाम (मर्क़ुस 13:14-19) में मौजूद है और साबित करता है कि ये इन्जील यरूशलेम की तबाही के वाक़िया के बाद तहरीर में नहीं आई थी बल्कि इस से पहले कलीसिया के हाथों में मौजूद थी जिससे आगाही पाकर वो पीला की जानिब भाग गए।
आयत 12 में ख़ानदानों में फूट पड़ने का ज़िक्र है। जब हम अम्बिया-ए-साबक़ीन की कुतुब का मुतालआ करते हैं तो हम पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि ख़ानदानों का बाहमी निफ़ाक़ क़ौमी मसाइब की रिवायती तस्वीर है।184(मीकाह 7:6, यसअयाह 19:2, यूबली
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183T.R. Glover Paul of Tarsus p.201
184Ibid.p.69
23:16, 19, 2 बारोक 7:3-7, 2 सदर्स 6:24 वग़ैरह) ये हाल इब्तिदाई अव्वलीन कलीसिया का था, जिसका ख़ुलासा इस आयत में मौजूद है।
ये ज़ाहिर है कि (मर्क़ुस 13:5-13) के मुक़ाम का ताल्लुक़ मसीही कलीसिया की इब्तिदाई मंज़िल से है, जब मसीहिय्यत एक नया बिद्अती यहूदी फ़िर्क़ा ख़याल किया जाता था। चुनान्चे यहूदी आलिम मर्हूम डाक्टर मोंटी फ़ेअरी लिखता है185कि मसीह की मौत के बाद बीस (20) बरस का ज़माना मसीही कलीसियाओं के लिए ईज़ाओं का ज़माना था जो यहूदी इबादत ख़ानों की तरफ़ से था। गो अव्वलीन यहूदी मसीही जो यरूशलेम में रहते थे शरीअत की तमाम रसूम को मानते थे और शरई अहकाम पर चलते थे ताहम इनमें और दीगर यहूद में जो कट्टर थे बड़ा फ़र्क़ था। गो ये यहूदी मसीही इबादत ख़ानों के मेम्बर हो कर रहना चाहते थे ताहम इनका वजूद ही यहूद के लिए लगातार ब्रहमी और बुरा फ़रोख़्तगी का बाइस था। हम जानते हैं कि ख़ानदान के अफ़राद में बाहमी पर्ख़ाश (नाइत्तिफ़ाक़ी) किस क़द्र ख़तरनाक होती है। यहूदी मसीहियों का ये ईमान कि मसीह मौऊद आ गया है, बजा-ए-ख़ुद कोई मामूली इख़्तिलाफ़ ना था। इस पर इन लोगों में शरीअत की पाबंदी में जो ढील आ गई वो यहूद को बरफ़रोख़्ता (ग़ुस्से में भरा हुआ) करने के लिए काफ़ी थी। इस पर तुर्रा (बढ़कर) ये मसीही येसू नासरी को इलाही सिफ़ात से मौसूफ़ (तारीफ़ किया गया, ममदूह वो जिसकी तारीफ़ की जाये) मानते थे और यह बात उन कट्टर मवाहिदों के लिए एक नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त अक़ीदा था जिससे शिर्क टपकता था। फ़रीसी इस क़िस्म के ख़यालात से मुसालहत रवा नहीं रख सकते थे। रैनान दुरुस्त कहता है कि :-
“अगर यहूदी रूमी सल्तनत के मातहत ना होते और इन से सज़ा-ए-मौत का हक़ ना छीन लिया गया होता तो वो मसीहियों को ज़िंदा ना छोड़ते।”
पस इन्जील-ए-मर्क़ुस के तेरहवें बाब की मज़्कूर बाला आयात का ताल्लुक़ कलीसिया के वजूद के पहले बीस (20) बरस के साथ है। जब मसीही “इबाद ख़ानों में पीटे” जाते थे और यहूदी अदालतों के सामने पेश किए जाते थे। इस मुक़ाम में “हाकिमों और बादशाहों” से मुराद है यहूदिया के गवर्नर और यहूदी हाकिम, जो चौथाई हिस्से के हाकिम थे। “झूटे
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185G.C. Montefiore, the Synoptic Gospels (1927) Vol1.p.CIV also see I, Abraham, Studies in Pharisaism and the Gospels, 2nd series (1924) ch X.”The Persecutions’s pp.56-72
नबी और काज़िब मसीह” यहूदी लीडर हैं। आयत 8 के अल्फ़ाज़ “दर्दज़ाह” का शुरू रब्बियों की मशहूर इस्तिलाह186है। जिसका मतलब अंदरूनी और बैरूनी सियासी मुसीबत का ज़माना था, जिसका मसीह मौऊद के ज़माने से पहले वजूद में आना लाज़िम ख़याल किया जाता था। इस मुक़ाम में मसीही कलीसिया को ख़बरदार किया गया है कि सय्यदना मसीह की आमद से पहले इनको दुख और मुसीबत और इज़ार सानी का सामना करना होगा और इस से अक़्वाम में इन्जील सुनाई जाएगी। मुक़द्दस पौलुस फ़रमाता है कि ये उस के ज़माने में हो गया है। (रोमियों 1:8, कुलस्सियों 1:5-6, 1 थिस्सलुनीकियों 5 बाब)
पस इस मुक़ाम से ज़ाहिर है कि ये नक़्शा वही है जो आमाल की किताब के पहले अबवाब में कलीसिया का नक़्शा है और येरूशलेम की हैकल के बर्बाद होने से कम अज़ कम तीस (30) साल क़ब्ल का है।
इलावा अज़ीं मर्क़ुस की इन्जील में आया है “जब तक ये सब बातें ना हो लें ये पुश्त हरगिज़ तमाम ना होगी।” (मर्क़ुस 13:31) और इन्जील (मत्ती 16:28) में ख़ुदावंद फ़र्माते हैं, “मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि जो यहां खड़े हैं उन में से बाअज़ ऐसे हैं कि जब तक इब्ने-आदम को उस की बादशाही में आए हुए ना देख लें वो मौत का मज़ा हरगिज़ ना चखेंगे।” (नीज़ देखो मत्ती 24:34, 10:23, 23:36) सय्यदना मसीह इन मुक़ामात में साफ़ और वाज़ेह अल्फ़ाज़ में फ़र्माते हैं कि ये सब वाक़ियात आपके सामईन (सुनने वाले) के सामने होंगे। अल्फ़ाज़ “जो यहां खड़े हैं” से मुराद सिर्फ यही हो सकती है कि जो आपके सामने खड़े थे और आप के कलमात को सुन रहे थे। (देखो मत्ती 26:73) ये अरामी मुहावरा है जिसको उर्दू दां अच्छी तरह समझ सकते हैं “मौत का मज़ा ना चखेंगे” भी अरामी मुहावरा है जो इब्रानी कुतुब मुक़द्दसा में कहीं वारिद नहीं हुआ और (यूहन्ना 8:52, इब्रानियों 2:9) में पाया जाता है। ये मुहावरा रब्बियों की किताबों और कुतुब “तराजिम” में अक्सर आया है।187उर्दू दां इस मुहावरे से जो क़ुर्आन में भी आया है मानूस (राग़िब, पसंद) है।
इन वाज़ेह मुक़ामात से साबित है कि जब इन्जील मर्क़ुस लिखी गई थी उस वक़्त यरूशलेम की हैकल हनूज़ खड़ी थी। जर्मन नक़्क़ाद हारनेक ने ज़बरदस्त दलाईल से ये
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186Manson, Mission & Message of Jesus p.159
187Box, St. Matthew (The Century Bible) p.268 and Allen, St Mark, p.122
साबित कर दिया है कि आमाल की किताब, मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील और इन्जील मर्क़ुस यरूशलेम की तबाही के वाक़िये से बहुत पहले लिखी गईं।188ये आलिम कहता है कि मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील 60 ई॰ के लगभग और मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील 50 ई॰ के लगभग लिखी गई।189
पस मर्क़ुस की इन्जील तब लिखी गई थी जब वो नस्ल आलम-ए-शबाब में थी जिसकी निस्बत सय्यदना मसीह ने फ़रमाया था कि “मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि जो यहां खड़े हैं उन में से बाअज़ ऐसे हैं कि जब तक वो ना देख लें कि ख़ुदा की बादशाही क़ुद्रत के साथ आ गई है वो मौत का मज़ा हरगिज़ ना चखेंगे।” (मर्क़ुस 9:1) जिससे ज़ाहिर है कि ये इन्जील कलीसिया के दौर-ए-अव्वलीन में अहाता-ए-तहरीर में आ चुकी थी। इस से पहले हम दीगर वजूह (वजह की जमा, सबब) से भी इसी नतीजे पर पहुंचे हैं कि ये इन्जील 40 ई॰ में तस्नीफ़ की गई थी।
(2)
सल़्तनत-ए-रोम के कियासिरा में से एक क़ैसर था जिसका नाम केली-ग्युला था। जिसके ज़माने में अगरप्पा गलील का हाकिम हुआ था। सल्तनत के नशे ने इस के दिमाग़ में ख़लल पैदा कर दिया और ऐसा कि उसने हुक्म दिया कि हर शख़्स उस की परस्तिश किया करे और इस के आगे सर-निगूँ हो कर सज्दा किया करे। वो मंदिरों में देवताओं की मूर्तियों के साथ उन के पहलू में बैठ जाता था ताकि रियाया दीगर माबूदों के साथ उस की भी पूजा करें। बाज़ औक़ात वो देवताओं के क़ासिद अतारिद देवता के से पर लगा लेता और बाअज़ औक़ात अपोलो देवता की नक़्ल करके सूरज की सी शुवाएं ज़ेब तन कर लेता। अक्सर औक़ात वो जियुपितर देवता की मूर्ती के कानों में सरगोशी करता और अपने कान उस के मुँह के पास ले जाता गोया कि वो दोनों बराबर के देवता हैं और देवता तक भी इस को अपने बराबर देवता मानते हैं। वो कहता था कि जियुपिटर मेरा भाई है और चांद मेरी बीवी है। उसने एक निहायत आलीशान मंदिर अपनी पूजा के लिए बनवाया जिसमें उस के हुज़ूर क़ुर्बानियां की जाती थीं। इस मंदिर के बाक़ायदा पुजारी थे जिनमें से एक उस
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188& 7 Archdeacon W.C.Allen, “Moffiat’s Introduction to the N.T.”Exp, Times June 1911 p. 395
189Foakes Jackson & Kirsopp Lake, Beginnings of Christanity Part 1 Vol 2.p393
का घोड़ा भी था जिसके लिए उसने सोने की चरनी बनवाई थी और जिस के लिए उसने एक रिहायशी मकान भी बनवाया जिसमें दरबार के उम्रा (सरदार) घोड़े के साथ खाना भी खाया करते थे।190
(40 ई॰) की बात है कि इस पागल और ज़ालिम क़ैसर ने अहकाम सादिर किए कि यरूशलेम की हैकल में उस का बुत नसब किया जाये ताकि मवह्हिद (ख़ुदा को एक मानने वाले) यहूद भी इस की इबादत और परस्तिश करें।191तमाम अर्ज़-ए-मुक़द्दस में हलचल मच गई और अहले-यहूद मरने मारने पर तैयार हो गए। इधर क़ैसर भी इस बात पर तुला हुआ था कि वो अपना बुत क़ुद्दुस-उल-क़ददास में नसब करके रहेगा। ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि इस कश्मकश के दौरान में 41 ई॰ के शुरू में वो क़त्ल किया गया और इस के हुक्म पर अमल ना हो सका।
अमरीकी आलिम डाक्टर टोरी कहता है192कि मर्क़ुस की इन्जील के तेरहवें बाब में क़ैसर के इस हुक्म की तरफ़ इशारा है। “जब तुम इस उजाड़ने वाली मक़रूह चीज़ को इस जगह खड़ी हुई देखो जहां इस का खड़ा होना रवा नहीं (पढ़ने वाला समझ ले)....” अलीख (मर्क़ुस 13:14) मसीही यहूदियों ने रोमी क़ैसर केली-ग्युला के हुक्म को दानीएल नबी की पेशीनगोई का पूरा होना समझ लिया। ग़ैर क़ौम मुश्रिक बुत-परस्त केसर-ए-रोम का बुत यरूशलेम की हैकल की क़ुर्बान गाह पर नसब किया जाये और मवह्हिद यहूद उस की परस्तिश करें!! “इस क़िस्म के हुक्म का मसीह मौऊद की पहली आमद के बाद ही दिया जाना एक ऐसी बेमिसाल “उजाड़ने वाली मक़रूह चीज़” थी जिसका सानी हज़ार साल तो अलग रहे दस हज़ार साल में भी नहीं मिल सकता था और अगर 41 ई॰ के शुरू में केली-ग्युला क़त्ल ना किया जाता तो हालात निहायत नाज़ुक सूरत इख़्तियार कर लेते।”
अगर मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील 41 ई॰ या इस सन के बाद लिखी जाती तो इस में इस वाक़िये की जानिब इशारा ना होता। क्योंकि इस हुक्म पर अमल होने से पहले ही क़ैसर केली-ग्युला क़त्ल कर दिया गया था। पस इस आलिम के ख़याल में ये किताब केली-
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190J.B.De Serviez Lives of the Roman Empresses p.142.
191Josephus, Wars 2, 10, 184 ff
192G.C. Torrey, The Four Gospels p. 262
ग्युला के हुक्म के बाद और इस के क़त्ल होने से पहले दर्मियानी अर्सा 40 ई॰ में शाएअ हो गई थी।
एक और अमरीकी आलिम एफ़॰ सी ग्रांट भी लिखता है :- 193
“बहुतों का ख़याल है कि “उजाड़ने वाली मकरूह चीज़” से इशारा इस वाक़िये की तरफ़ है जब (40 ई॰) में क़ैसर केली-ग्युला ने हुक्म दिया था कि इस का बुत यरूशलेम की हैकल में नसब किया जाये। यहूदियों और यहूदी मसीहियों ने इस वाक़िये को दानीएल नबी की पेशीनगोई की तक्मील समझा।”
मशहूर नक़्क़ाद बावटन तक कहता है कि इस अम्र को मानने में हमें ताम्मुल नहीं कि आयत 14 से केली-ग्युला का हुक्म साबित है गो ये आलिम कहता है कि इस माख़ज़ में और इन्जील मर्क़ुस की तस्नीफ़ के दर्मियान वक़्फे की ज़रूरत है। पस वो ये ख़याल करता है कि ये इन्जील पहले-पहल 50 ई॰ के क़रीब शाएअ हुई। प्रोफ़ैसर बेकन डाक्टर टोरी के नज़रिये की ताईद करता है और कहता है कि (मर्क़ुस 13:14) मे केली-ग्युला के हुक्म की तरफ़ इशारा है। दानीएल की नबुव्वत (दानी 11:3, 36) इस की बिना है। यहां क़ैसर की परस्तिश मुराद है। जिस यूनानी लफ़्ज़ का तर्जुमा “मकरूह चीज़” किया गया है वो बे जिन्स है यानी ना वो मुज़क्कर है और ना वो मुअन्नस है लेकिन फ़ेअल “खड़ा होना,” मुज़क्कर है। प्रोफ़ैसर मेंसन लिखता है, “मर्क़ुस के अल्फ़ाज़ “इस उजाड़ने वाली मकरूह चीज़” से क्या मुराद है। बाअज़ का ख़याल है कि ये इस हुक्म की पेशीनगोई है जो क़ैसर केली-ग्युला ने दिया था कि इस के बुत की परस्तिश की जाये। अहले-यहूद के नज़्दीक “मकरूह चीज़” से मुराद बुत या बुत-परस्ती का निशान था। ये अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि यूनानी मतन में गो वो लफ़्ज़ मकरूह चीज़ बेजिंस इस्म है लेकिन फ़ेअल “खड़ा” मुज़क्कर है और ऐसा मालूम होता है कि लिखने वाले का मतलब ये था कि कोई आदमी यरूशलेम में आएगा ताकि उस की परस्तिश की जाये। बाअज़ का ख़याल है कि लफ़्ज़ “उजाड़ने वाली” से मुराद नक़ीब शाही या कोई शख़्स है जो हैकल या शहर को उजाड़ने का सबब होगा।
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193F.C Grant, The Earliest Gospel p.262
194Barton, Prof, Torrey’s Theory of the Aramaic Origin of the Gospels in the J.T.S Oct.1935
195Blunt, St. Mark pp. (70-74)
दीगर उलमा का ये ख़याल है कि इन अल्फ़ाज़ से मुराद ऐसी शैय है जिस से लर्ज़ा बरानदाम हो जाए यानी कोई निहायत मुहीब और नफ़रत अंगेज़ क़िस्म की बुत-परस्ती है, मसलन क़ुद्दुस-अल-क़ुदास में रोमी क़ैसर के बुत का नसब होना।” 196
मुन्दरिजा बाला आयात के अल्फ़ाज़ “पढ़ने वाला समझ ले” निहायत माअनी-ख़ेज़ हैं और यह ज़ाहिर करते हैं कि इन्जील नवीस राज़दारी और इख़फ़ा (पोशीदा करना) के पर्दे में अपने नाज़रीन को क़ैसर के अहकाम बतला कर ख़बरदार करता है क्योंकि ये क़ैसर निहायत ज़ालिम और जाबिर था। पस इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ 40 ई॰ के सन तस्नीफ़ होने पर भी गवाह हैं। 70 ई॰ के बाद राज़दारी और इख़फ़ा के पर्दे की ज़रूरत ही ना रही थी।
प्रोफ़ैसर डॉड कहते हैं कि अगर टोरी और बेकन के दलाईल को तस्लीम कर लिया जाये तो “मकरूह चीज़” से मुराद क़ैसर केली-ग्युला की वो नापाक कोशिश थी कि हैकल में इस का बुत 40 ई॰ में नसब किया जाये। लेकिन इस की मुराद बर ना आई। पस (मर्क़ुस 13:14) से इस इन्जील की आख़िरी तारीख़ मुतय्यन हो सकती है।” 197
फ़ाज़िल मुसन्निफ़ पादरी केडाओ मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के मुख़्तलिफ़ माख़ज़ों पर बह्स करके इस नतीजे पर पहुंचता है कि ये इन्जील पहले-पहल 40 ई॰ में लिखी गई थी।198
पस ख़ारिजी वाक़ियात इस क़दीम तरीन इन्जील की अंदरूनी शहादत की हर पहलू से ताईद करते हैं और हम पर ये नतीजा वाज़ेह हो जाता है कि ये इन्जील 40 ई॰ में लिखी गई। अगर मुक़द्दस पतरस का हाथ इस इन्जील के लिखवाने में था तो ये तारीख़ मुक़द्दस पतरस की ज़िंदगी के वाक़ियात के मुताबिक़ भी है। क्योंकि आमाल के बारहवें बाब में हेरोदेस अगरप्पा के अहद-ए-हुकूमत में पतरस रसूल की क़ैद और रिहाई का ज़िक्र है और यह 44 ई॰ का वाक़िया है और यरूशलेम के क़हत से पहले का वाक़िया है जो मुअर्रिख़ जोज़ेफ़स के मुताबिक़ 45 ई॰ में हुआ था। पस मुक़द्दस पतरस 44 ई॰ के मौसम-ए-बहार
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196Manson, Mission & Message of Jesus p.159
197Dodd, Parables of the Kingdome p. 52. (note)
198A.T. Cadoux, The Sources of the Second Gospels, See also Exp, Times for Jan,1936 p.161
में कहीं चले गए थे और यह इन्जील इस से पहले 40 ई॰ में अहाता-ए-तहरीर में आ चुकी थी।
फ़स्ल पंजुम
मुख़ालिफ़ उलमा के ख़यालात की तन्क़ीद
ममालिक मग़रिब के उलमा बिल-उमूम कहते हैं कि इन्जील मर्क़ुस की तारीख़ तस्नीफ़ 70 ई॰ है। ये तारीख़ दो वजूह की बिना पर मुक़र्रर की गई है जिन पर हम इस फ़स्ल में ग़ौर करेंगे।
(1)
कलीसियाई रिवायत है कि ये इन्जील शहर रोम में लिखी गई थी। अगर ये रिवायत दुरुस्त है तो हमारा नतीजा ग़लत होगा कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने ये इन्जील यरूशलेम में मुनज्जी आलमीन (मसीह) की सलीबी मौत के दस (10) साल बाद लिखी थी। लेकिन क्या ये रिवायत ऐसी है जिसमें किसी क़िस्म के शक व शुब्हा या चूँ व चरा को दखल नहीं हो सकता?
आबाए कलीसिया में से इस रिवायत का सिर्फ एक शख़्स यानी सिकंदरिया का फ़ाज़िल मुक़द्दस क्लीमेंट सरीह, साफ़ और ग़ैर मुबहम (यानी छिपे हुए) और वाज़ेह अल्फ़ाज़
में ज़िक्र करता है,200क्लीमेंट 155 ई॰ ता 220 ई॰ का है। गो इस की तस्नीफ़ात का ज़माना 190 ई॰ से शुरू होता है। पस इस बुज़ुर्ग का ताल्लुक़ दर-हक़ीक़त दूसरी सदी के आख़िर और तीसरी सदी के अवाइल से है। अगर बिलफ़र्ज़ मुक़द्दस मर्क़ुस ने अपनी इन्जील 70 ई॰ में भी लिखी हो, ताहम इस तारीख़ में क्लीमेंट की तस्नीफ़ात में कम अज़ कम सवा सौ (125) साल का फ़ासिला हाइल है।
मुक़द्दस आर्येनियुस ने 133 ई॰ ता 203 ई॰ अपनी किसी तस्नीफ़ में वाज़ेह तौर पर ये नहीं कहा कि इन्जील मर्क़ुस रोम में लिखी गई थी। मुक़द्दस आर्येनियुस मुक़द्दस पोली कॉर्प के शागिर्द थे जिनको मुक़द्दस यूहन्ना ने सिमर्ना का बिशप मुक़र्रर किया था। मुक़द्दस आर्येनियुस ने रोम में मुख़्तलिफ़ बिद्अतों और बिलख़ुसूस ग़िनास्ती बिद्अतों के ख़िलाफ़ मुतअद्दिद लैक्चर दिए थे। इनकी मशहूर व माअ्रूफ़ किताब पाँच जिल्दों में 182 ई॰ और 188 ई॰ के दर्मियान लिखी गई जब वो लाईनज़ (Lyons) के बिशप थे। जब इस पाये का शख़्स मज़्कूर बाला रिवायत को बयान नहीं करता तो इस की ख़ामोशी निहायत माअनी-ख़ेज़ हो जाती है जिससे ज़ाहिर है कि ये रिवायत ज़ईफ़ (कमज़ोर) है।
इलावा अज़ीं ये रिवायत ऐसी नहीं कि जिस पर कुल आबाए कलीसिया मुत्तफ़िक़ हों। चुनान्चे मुक़द्दस ख़रसस्तम का ये क़ौल है कि ये इन्जील मुल्क मिस्र में लिखी गई थी।201
एक और सवाल ये पैदा होता है कि अगर ये इन्जील रोम में 70 ई॰ में लिखी गई थी तो मुक़द्दस मर्क़ुस को क्या ज़रूरत पड़ी थी कि वो 13 बाब के पम्फलेट को अपना एक माख़ज़ बनाता या इस बाब को लिखता। ये पम्फलेट यहूदिया के यहूदी मसीहियों के लिए लिखा गया था। 70 ई॰ में हालात बदल गए थे पस अगर मर्क़ुस की इन्जील रोम में लिखी गई थी तो इस ने एक ऐसे वर्क़ को क्यों शामिल कर लिया जो यहूदिया में लिखा गया था और यहूदिया के ख़ास हालात माज़ी से ही ताल्लुक़ रखता था? कोई सलीम-उल-अक़्ल
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200See.H.D.A.Major, Jesus by an Eye witness,p. 11
201Bishope Blunt, St.Mark ( Clarendon Bible) p.29
शख़्स ये मानने को भी तैयार ना होगा कि ये वर्क़ तस्नीफ़ के बाद इस में शामिल किया गया था।202
पस ये रिवायत कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने अपनी इन्जील को शहर रोम में लिखा बहुत बाद के ज़माना की है जो कम-अज़-कम किसी महल दलील की बुनियाद नहीं हो सकती।
(2)
दूसरी दलील भी एक ऐसी रिवायत पर मबनी है जो राक़िम-उल-हरूफ़ के ख़याल में ज़ईफ़ है। इस रिवायत के मुताबिक़ इन्जील-ए-मर्क़ुस मुक़द्दस पतरस रसूल की शहादत के बाद लिखी गई थी। रिवायत ये है कि मुक़द्दस पतरस ने नेरू क़ैसर रोम की इज़ार सानी के ज़माने में 64 ई॰ में जाम-ए-शहादत पिया और मुक़द्दस मर्क़ुस ने आपकी शहादत के बाद रोम में अपनी इन्जील लिखी जो मुक़द्दस पतरस रसूल के ख़ुत्बात पर मबनी थी।
(अलिफ़) क्या मुक़द्दस पतरस शहर रोम गए थे? अगर इस का जवाब इस्बात में है तो आप किस सन में वहां तशरीफ़ ले गए थे?
(ब) क्या मुक़द्दस पतरस रोम में शहीद हुए थे?
(ज) क्या मुक़द्दस मर्क़ुस ने अपनी इन्जील मुक़द्दस पतरस की वफ़ात के बाद लिखी थी?
पहला सवाल ये है कि क्या मुक़द्दस पतरस रसूल शहर रोम गए थे और अगर गए थे तो आप किस ज़माने में गए थे?
रिवायत है कि मुक़द्दस पतरस पच्चीस (25) बरस रोम के बिशप रहे। ये रिवायत चौथी सदी में मुरव्वज थी। बाअज़ कहते हैं कि जब रसूल ने क़ैदख़ाने से रिहाई हासिल करके यरूशलेम को छोड़ा तो लिखा है कि “आप “दूसरी जगह” चले गए। (आमाल 12:17) इस “दूसरी जगह” से ये अस्हाब मतलब शहर रोम से लेते हैं। लेकिन अगर ये तावील दुरुस्त है तो जब 50 ई॰ के क़रीब यरूशलेम में पहली कौंसल मुनअक़िद हुई तो आप
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202C.J. Cadoux, The Historic Mission of Jesus p. 12
यरूशलेम में कैसे पहुंच गए। ये बात भी माअनी-ख़ेज़ है कि जब 59 ई॰ में मुक़द्दस पौलुस रोम ले जाये गए (आमाल 28 बाब) तो मुक़द्दस पतरस वहां नहीं थे। अगर मुक़द्दस रसूल बरुए रिवायत 43 ई॰ में रोम के बिशप थे तो आप 50 ई॰ के क़रीब यरूशलेम की कौंसल में किस तरह हाज़िर और 59 ई॰ में रोम से क्यों ग़ायब थे? मुक़द्दस पौलुस ने रोम के मसीहियों के नाम 58 ई॰ में ख़त लिखा लेकिन इस में मुक़द्दस पतरस का ना ज़िक्र है और ना आप को सलाम भेजा गया है हालाँकि इस ख़त के सोलहवें बाब में रोम की कलीसिया के सरकर्दा अश्ख़ास की एक लंबी चौड़ी फ़ेहरिस्त मौजूद है। इलावा अज़ीं जो ख़ुतूत मुक़द्दस पौलुस ने ज़िंदाने रोम से लिखे थे, उन में भी मुक़द्दस पतरस का नाम तक नहीं मिलता। इन और दीगर वजूह की बिना पर राक़िम-उल-हरूफ़ का ख़याल है कि मुक़द्दस पतरस रसूल शहर रोम में 63 ई॰ से पहले तशरीफ़ नहीं ले गए थे।
(ब) रिवायत के मुताबिक़ मुक़द्दस पतरस रसूल रोम में शहीद किए गए थे। इस रिवायत के हक़ में रोम के मुक़द्दस क्लीमेंट की उमूमन गवाही पेश की जाती है। लेकिन मुक़द्दस क्लीमेंट ने जो ख़त रोम से 96 ई॰ में कुरिन्थियों को लिखा इस में आप वाज़ेह तौर पर ये नहीं फ़र्माते कि मुक़द्दस पतरस शहर रोम में शहीद किए गए थे। चुनान्चे आपके अल्फ़ाज़ हस्बे-ज़ैल हैं :- 203
“पतरस ने अपने नारास्त हसद के बाइस एक दो नहीं बल्कि बहुत मेहनतें और मशक़्क़तें उठा लीं और इस तरह अपनी गवाही देकर अपने जलाल की मुक़र्ररी जगह को चला गया।”
(ज) आम रिवायत के मुताबिक़ मुक़द्दस मर्क़ुस ने अपनी इन्जील को मुक़द्दस पतरस की वफ़ात के बाद लिखा था लेकिन सिकंदरिया के मुक़द्दस क्लीमेंट तक इस रिवायत के ख़िलाफ़ हैं।
चुनान्चे आप लिखते हैं :- 204
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203Epistle to Corinthians, Chapter V (Lightfoot’s Translation)
204Eusebius H.E. VI.14
“पतरस ने रोम में एलानिया कलाम की मुनादी की। और रूह-उल-क़ुद्स की तहरीक से इन्जील की बशारत दी। पस बहुतों ने जो वहां थे मर्क़ुस से दरख़्वास्त की कि इस के कलमात को एक मुसलसल बयान की सूरत में क़लमबंद करे क्योंकि वो मुद्दत तक मुक़द्दस पतरस के साथी रह चुके थे और उन को रसूल के कलमात याद थे। पस उन्हों ने अपनी इन्जील लिखी और उन को दी। जब पतरस ने (लोगों की दरख़्वास्त को) सुना तो उस ने ना तो मना किया और और ना तर्ग़ीब दी।”
इस इक़्तिबास से ज़ाहिर है कि मुक़द्दस क्लीमेंट के ख़याल में मुक़द्दस मर्क़ुस ने अपनी इन्जील को मुक़द्दस पतरस की हीने हयात (ज़िन्दगी) में ही लिखा था।
बाअज़ अस्हाब ने मुक़द्दस आर्येनियुस के अल्फ़ाज़ की ग़लत तावील करके ये कहा है कि आपके ख़याल में मुक़द्दस मर्क़ुस ने अपनी इन्जील को मुक़द्दस पतरस रसूल की वफ़ात के बाद लिखा था। लेकिन चैपमैन ने (Chapman) एक मबसूत (फैला हुआ, कुशादा) मज़्मून में ये साबित कर दिया है205कि मुक़द्दस आर्येनियुस के अल्फ़ाज़ का हरगिज़ वो मतलब नहीं जो ये उलेमा समझते हैं। डाक्टर हारनेक अपनी किताब में206और आर्चडीकन ऐलन अपनी तफ़्सीर में207इस क़ाबिल मुसन्निफ़ की हिमायत करके कहते हैं कि मुक़द्दस आर्येनियुस का मतलब ये है कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील मुक़द्दस पतरस की वफ़ात से पहली लिखी गई थी और यूँ इस रसूल की तालीम उस की मौत के बाद भी इस इन्जील में महफ़ूज़ रही।
अस्ल हक़ीक़त ये है कि मुक़द्दस आर्येनियुस मुख़ालिफ़ीन-ए-मसीहिय्यत के जवाब में दलील के दौरान में फ़र्माते हैं कि सय्यदना मसीह की ज़फ़रयाब क़ियामत के बाद रसूल इन्जील जलील के इल्म से मामूर हो कर मुख़्तलिफ़ एतराफ़ में गए और उन्हों ने मुख़्तलिफ़ ममालिक में इसी इन्जील की मुनादी की जो हमारे हाथों में है क्योंकि दो रसूलों ने तो ख़ुद
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205Chapman, J.T.S Vol VIpp.563-569
206Date of Acts, Harnack p. 130
207Archdeacon Allen, Gospel according to St. Mark (Oxford Chruch Bibllical Commentaries) p.2
अनाजील लिखीं और बाक़ी दो अनाजील रसूलों के शागिर्दों ने लिखें। चुनान्चे मुक़द्दस आर्येनियुस के अल्फ़ाज़ ये हैं :-
“मत्ती ने इब्रानियों (यहूदियों) के दर्मियान इन्जील की मुनादी करने के इलावा उन की अपनी ज़बान में इन्जील क़लमबंद की। पतरस और पौलुस ने (किसी इन्जील को लिखे बग़ैर यहूद में) इन्जील की मुनादी की लेकिन (अगरचे वो ख़ुद किसी इन्जील को लिखे बग़ैर वफ़ात पा गए ताहम) उन की वफ़ात के बाद (उन की मुनादी का नफ़्स-ए-मज़्मून महफ़ूज़ रहा) मर्क़ुस की तहरीर में जो पतरस का शागिर्द और मुतर्जिम था वो बातें मौजूद हैं जिनकी मुनादी पतरस किया करता था। लूक़ा ने जो पौलुस का साथी था एक किताब में वो इन्जील लिखी, जिसकी मुनादी ये रसूल किया करता था और आख़िर में यूहन्ना ने जो ख़ुदावंद का शागिर्द था अपनी इन्जील शाएअ की जब वो शहर इफ़िसुस में सुकूनत करता था।” 208
पस मुक़द्दस आर्येनियुस इस इक़्तिबास में मुख़ालिफ़ीन के इस एतराज़ का जवाब देता है कि मुक़द्दस पतरस ने तो कोई इन्जील नहीं लिखी। पस हम किस तरह मालूम कर सकते हैं कि उन्हों ने क्या मुनादी की थी? वो जवाब देता है, कि अगर मुक़द्दस मर्क़ुस और मुक़द्दस लूक़ा ने इन रसूलों की मुनादी को अपनी अनाजील में उन की वफ़ात से क़लमबंद ना किया होता तो ये मुम्किन था कि उन की मुनादी के नफ़्स-ए-मज़्मून का पता ना चलता। लेकिन उन की वफ़ात के बाद भी वो अनाजील कलीसिया में मुरव्वज हैं जो उन रसूलों की वफ़ात से पहले उन की हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में ही लिखी गई थीं।
पस मुक़द्दस क्लीमेंट और मुक़द्दस आर्येनियुस दोनों इस रिवायत को ग़लत बतलाते हैं कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील मुक़द्दस पतरस की वफ़ात के बाद लिखी गई थी। मुक़द्दस औरेजन कहता है, (और मुक़द्दस जेरोम इस बात में इस का पैरोकार है) कि मुक़द्दस पतरस ने इस इन्जील को मुक़द्दस मर्क़ुस से लिखवाया था।209लिहाज़ा वो उलमा यक़ीनन ग़लती पर हैं जो इस बिना फ़ासिद (बद, शरीर) पर अपनी दलील क़ायम करके कहते हैं कि इन्जील मर्क़ुस 70 ई॰ में लिखी गई थी। इस के बर-अक्स जैसा हम बतला चुके हैं। ये
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208J.T.S Vol VI pp.565-566
209Beginnings of Christianity Part1, Vol2 pp. 351-356
इन्जील मुक़द्दस पतरस की हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में सय्यदना मसीह की ज़फ़रयाब क़ियामत के दस (10) साल के बाद लिखी गई थी।
(द) हम इस किताब के हिस्सा दोम के बाब अव़्वल में ये साबित कराए हैं कि मुक़द्दस पतरस का मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील से कोई ख़ास ताल्लुक़ ना था। बल्कि मुक़द्दस मर्क़ुस ने पतरस रसूल के इलावा ऐसे दीगर माख़ज़ों से भी काम लिया था, जो क़दीम तरीन थे। पस इन मुख़ालिफ़ों की इस दलील में कोई ख़ास वज़न नहीं है। हम साबित कर आए हैं कि ये इन्जील मुख़्तलिफ़ मोअतबर तरीन माख़ज़ों से तालीफ़ की गई थी, और कलीसिया के इब्तिदाई दौर में ख़ुद मोअतबर शुमार की जाती थी। इस का पस-ए-मंज़र, इस की फ़िज़ा, इस के मज़ामीन, इस के मोतक़िदात, इस की इस्तिलाहात वग़ैरह सब के सब ये साबित करते हैं कि ये क़दीम तरीन इन्जील 40 ई॰ में अहाता-ए-तहरीर में आई यानी सय्यदना मसीह की वफ़ात के सिर्फ दस (10) बरस बाद लिखी गई और इस का पाया एतबार इस के लिखे जाने के पहले दिन से ही मुसल्लम गिरदाना गया।
बाब चहारुम
तारीख-ए-तस्नीफ़ इन्जील-ए-मत्ती
फ़स्ल अव़्वल
इन्जील-ए-मत्ती का पस-ए-मंज़र
हम इस रिसाले के हिस्सा अव़्वल के बाब दोम में बतला चुके हैं कि कलीसिया का आग़ाज़ उन ईमानदारों से हुआ जो अहले-यहूद में से मसीह-ए-मौऊद पर ईमान ले आए थे। चंद माह के अंदर-अंदर इनकी तादाद हज़ारों तक पहुंच गई थी और वह अर्ज़-ए-मुक़द्दस
के मुख़्तलिफ़ कोनों में पाए जाते थे। वो बड़े ज़ोरशोर से तब्लीग़ का काम करते फिरे कि येसू नासरी मसीह-ए-मौऊद इब्ने-अल्लाह है जिसका नतीजा ये हुआ कि अर्ज़-ए-मुक़द्दस के अंदर रहने वाले यहूद और इस के बाहर सल़्तनत-ए-रोम के मुख़्तलिफ़ शहरों और कस्बों के यहूद और यूनानी माइल यहूद और ख़ुदा-परस्त नव-मुरीद यहूद हज़ारों की तादाद में चंद सालों के अंदर-अंदर मुनज्जी आलमीन (मसीह) के हल्क़ा-ब-गोश हो गए। इन हज़ारहा नव-मुरीद यहूदियों के लिए उस्ताद और मुअल्लिम मुक़र्रर किए गए ताकि उन के ईमान की इस्तिक़ामत हो। उन के लिए सय्यदना मसीह के कलमात-ए-तय्यिबात के मजमूए की नक़्लें की गईं और आपकी मसीहाई साबित करने के लिए रिसाला-ए-इस्बात लिखा गया और बीसियों ने “इस पर कमर बाँधी कि जो बातें हमारे दर्मियान वाक़ेअ होई हैं उन को तर्तीबवार बयान करें” यूं अर्ज़-ए-मुक़द्दस के मुख़्तलिफ़ चश्मदीद गवाहों ने छोटे-छोटे पारे, किताबचे और वर्क़ लिखे ताकि उन यहूदी नव-मुरीद मसीहियों के ईमान को मज़्बूत और मुस्तहकम किया जाये।
हम हिस्सा दोम के बाब दोम में मुफ़स्सिल बह्स करके साबित कर आए हैं कि मुक़द्दस मत्ती ने इन क़दीम रिसालों, पारों और किताबचों को अपने माख़ज़ बना कर एक जामेअ इन्जील यहूदी नव-मुरीद मसीहियों के लिए लिखी जिसके ख़ाके और प्लान से ज़ाहिर है कि मुसन्निफ़ अपने नाज़रीन पर ये साबित करना चाहता है कि “नया अहद” (पहाड़ी वाज़ वग़ैरह) मूसवी शरीअत की मानिंद है और जिस तरह वो शराअ सीना पहाड़ पर दी गई इसी तरह सय्यदना मसीह ने “पहाड़ पर चढ़” कर अपनी नई शरीअत दी। इस का मुसन्निफ़ अहद-ए-अतीक़ में से एक सौ से ज़ाइद मुक़ामात का इक़्तिबास करता है। ये साहिब-ए-कमाल मुसन्निफ़ यहूदी रब्बियों की सी तर्ज़-ए-तहरीर और उन की सी तबीयत और मिज़ाज की उफ़्तादगी (आजिज़ी) रखता है, हत्ता कि ये तस्नीफ़ यहूदी रंग में रंगी है (मत्ती 13:52) इस इन्जील में यहूदी तर्ज़ से इस क़द्र मुमासिलत है कि इन्जील दोम और सोम में इस का निस्फ़ हिस्सा भी नहीं मिलता। क़दीम यहूदी मुहावरात को हर जगह इस्तिमाल किया गया है जिससे सिर्फ़ अहले-यहूद ही मानूस थे। इलावा अज़ीं जिन हिस्सों में इस मुसन्निफ़ ने इन्जील दोम को नक़्ल नहीं किया उन में यहूदी तारग़म से ज़बरदस्त मुशाबहत पाई जाती है। बिल-ख़ुसूस जब ये मुसन्निफ़ मुख़्तलिफ़ बयानों या तम्सीलों को तीन या सात या दस के अदद में जमा करता है या जब वो ज़रब-उल-अम्साल को बयान करता है या जब वो रस्मी ग़ैर मुतबद्दल (Stereotyped) अल्फ़ाज़ को मुक़र्ररा तर्तीब के मुताबिक़ इस्तिमाल करता है। सर जान हाकिंस के मुताबिक़ इस क़िस्म की तर्बीयतें पंद्रह
(15) के क़रीब हैं।210इन्जील अव़्वल के मुसन्निफ़ ने हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलमात-ए-तय्यिबात को इस तरह लिखा है, कि आपके कलमात में अरामी सुनाएअ मन व अन महफ़ूज़ हैं। इस का मुफ़स्सिल ज़िक्र हम इंशा-अल्लाह आगे चल कर करेंगे। यहां पर ये बतला देना काफ़ी है कि अहद-ए-अतीक़ के इब्रानी इक़्तिबासात साफ़ साबित करते हैं कि इनकी इब्तिदा अर्ज़-ए-मुक़द्दस कनआन में हुई क्योंकि रोमी सल्तनत के किसी दूसरे हिस्से में अहद-ए-अतीक़ की कुतुब का इल्म इब्रानी में मौजूद ना था।211
इन्जील मत्ती की तमाम फ़िज़ा यहूदी फ़िज़ा है। मसीह मौऊद की जमाअत यानी कलीसिया की शरीअत मूसवी शराअ है जो दीगर यहूद की तरह सबत के अहकाम की पाबंद है। (मत्ती 24:20) अगरचे वो फ़क़ीहों और फ़रीसियों की ख़ुद-साख़्ता तावीलों और तफ़सीरी क़ुयूद से आज़ाद है और बुज़ुर्गों की रिवायत की तरफ़ से बेनियाज़ है। ये जमाअत हराम हलाल की तमीज़ को बरक़रार रखती है और यह ख़याल करती है कि मसीह मौऊद मूसवी शरीअत को कामिल करने वाले हैं, जिन्हों ने शरई अहकाम की तावील (बचाओ की दलील) के ऐसे नए उसूल वज़ा किए हैं। जिनसे इन अहकाम की क़द्र व मंज़िलत दो-बाला हो जाती है। ये फ़िज़ा आमाल के पंद्रहवें बाब की फ़िज़ा है जो यरूशलेम की कलीसिया में पहली सदी के पहले निस्फ़ में मौजूद थी। हम हिस्सा अव़्वल के बाब दोम की फ़स्ल सोम में बतला चुके हैं कि इस इन्जील में कोई ऐसी बात नहीं पाई जाती जिससे ये ज़ाहिर हो कि ग़ैर-यहूद अक़्वाम भी जौक़-दर-जोक़ शामिल हो कर मूसवी शरीअत से आज़ाद हो कर ज़िंदगी बसर करेंगी।
ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि जब 49 ई॰ में यरूशलेम की कौंसल मुनअक़िद हुई तो हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के भाई हज़रत याक़ूब की सरकर्दगी में रूह-उल-क़ुद्स की ज़ेरे हिदायत रसूलों ने ये फ़ैसला किया कि “जो ग़ैर-अक़्वाम से ख़ुदा की तरफ़ रुजू होते हैं हम उन को (शरई अहकाम के मातहत रहने की) तक्लीफ़ ना दें।” (आमाल 15:19, 29) इस तवारीख़ी हक़ीक़त से ज़ाहिर है कि ये इन्जील यरूशलेम की कौंसल 49 ई॰ से कम-अज़-कम एक दो साल पहले शाएअ हो चुकी थी।
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210Horce Synoptica pp. 168-73
211F.C. Burkitt, Gospel History and its Transmission p.128
फ़स्ल दोम
इन्जील-ए-मत्ती का सन-ए-तस्नीफ़
इन्जील मत्ती में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के ऐसे अक़्वाल लिखे हैं जो आपने फ़रीसियों और फ़क़ीहों की ज़ाहिरदारी, रियाकारी और मज़्हबी नुमाइश का पर्दा चाक करने के लिए फ़रमाए थे। (मत्ती 5:20, 6:2, 5, 16, 12:24-45, 15:3-15, 21:31, 42-46, 23 बाब वग़ैरह) मुनज्जी आलमीन (मसीह) को मस्लूब करने के बाद क़ाइदीन यहूद ने मसीहियों को “बिद्अती” क़रार दे दिया। (आमाल 24:14) और उन के रसूलों और मुबल्लिग़ों पर तरह-तरह का ज़ुल्मो-सितम ढाया। पस इस इन्जील में सय्यदना मसीह के वो अक़्वाल बिल-ख़ुसूस जमा किए गए हैं जिनमें आपने हवारियों को आगाह कर दिया था कि अहले-यहूद उन को सताएंगे और ईज़ाएं पहुंचाएंगे और अदालतों में पेश करेंगे। (मत्ती 10:14-39, 15:11 12, 21:23 वग़ैरह) बईं-हमा इन्जील का मुतालआ ये ज़ाहिर कर देता है कि इस की तस्नीफ़ के वक़्त अहले-यहूद को सय्यदना मसीह के क़दमों में लाने की कोशिश बराबर जारी थी। लेकिन इस तरीक़-ए-कार का क़ुदरती नतीजा ये हुआ कि रऊसा-ए-यहूद ने उन को ईज़ाएं पहुंचाईं। उन को क़त्ल और संगसार किया। फ़साद और बलवे बरपा किए और उन को शहीद करके कलीसिया को परागंदा कर दिया। चुनान्चे किताब आमाल अल-रसुल इन मुसलसल ईज़ा रसानियों की गवाह है। ये सूरत-ए-हालात क़ैसर नेरू के ज़माने तक रही जो 54 ई॰ में तख़्त नशीन हुआ था। लेकिन नेरू की सल्तनत के दिनों में हालात दगरगों (उलट-पलट) हो गए। रऊसा-ए-यहूद की बजाए कियासिरा रोम ने मसीही कलीसिया और मसीहियों का नामो-निशान मिटाने का तहय्या (इरादा) कर लिया।
लेकिन इस इन्जील में किसी बाक़ायदा इज़ार सानी का ज़िक्र तो अलग, निशान तक हमको नहीं मिलता जिससे ज़ाहिर है कि ये इन्जील नेरू की ईज़ा रसानी 64 ई॰ से बहुत पहले तालीफ़ की गई थी। इस इज़ार सानी में मुक़द्दस पौलुस और मुक़द्दस पतरस रसूल को दर्जा शहादत नसीब हुआ था। इस इन्जील को पढ़ने से ये ज़ाहिर हो जाता है कि ताहाल ऐसा ज़माना नहीं आया था जब कियासिरा रोम ने कलीसिया को कुचलने और इस को बीख़ व बुन से उखाड़ने (जड़ से उखाड़ना, नाबूद करना) की ठान ली थी। इस इन्जील में बार-बार मसीह की ख़ातिर बिरादरी (रिश्तेदारी, जमाअत) से ख़ारिज किए जाने। तर्क
मवालात (आपस की दोस्ती छोड़ना) होने, मेल-जोल के छोड़े जाने और आम हुक़ूक़ से महरूम हो जाने का ज़िक्र आता है। लेकिन कियासिरा रोम के अहकाम-ए-अक़ूबत व ईज़ारसानी का निशान तक नहीं पाया जाता। जिससे ज़ाहिर है कि इस इन्जील के ज़माना तस्नीफ़ का माहौल वही है जिसका ज़िक्र आमाल की किताब के पहले नौ (9) अबवाब में पाया जाता है। पस ये इन्जील 50 ई॰ के लगभग लिखी गई थी। अगर ये इन्जील 80 ई॰ या 90 ई॰ में लिखी जाती जैसा बाअज़ उलमा-ए-मग़रिब का ख़याल है।212तो इस में हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के वो अक़्वाल मौजूद ना होते जिनका ताल्लुक़ एक ऐसे ज़माने से था जो ना सिर्फ गुज़र चुका था बल्कि मिट चुका था। और यहूदी क़ौम ख़ुद परागंदा हो कर रुए-ज़मीन के मुख़्तलिफ़ ममालिक में मुंतशिर हो चुकी थी। पस इस इन्जील में जो यहूदी मुख़ासमत (दुश्मनी) की फ़िज़ा मौजूद है। वो पहले सदी के पहले निस्फ़ की फ़िज़ा है जिससे ये साबित होता है कि ये इन्जील 50 ई॰ से पहले लिखी गई थी।
(2)
अगर ये इन्जील पहली सदी के पहले निस्फ़ के बाद लिखी जाती तो वो हरगिज़ मक़्बूल आम हो कर इंजीली मजमूए में जगह ना पाती। क्योंकि यरूशलेम की तबाही 70 ई॰ के बाद अहले-यहूद परागंदा हो गए थे और ग़ैर-यहूद लाखों की तादाद में मसीही कलीसिया में शामिल हो चुके थे। ये ग़ैर-यहूद मसीही तमाम मूसवी शरीअत की क़ुयूद से आज़ाद हो चुके थे। रसूलों के आमाल की किताब और मुक़द्दस पौलुस के ख़ुतूत साबित करते हैं कि 60 ई॰ से पहले तमाम ग़ैर-यहूद मसीही इन बंधनों से आज़ाद हो गए थे। दरीं हालात (इन हालात) में कलीसिया को इस बात की ज़रूरत ही ना रही थी कि वो ऐसी किताब लिखे या लिखवाए जिसमें ये साबित किया गया हो कि येसू नासरी मूसवी शरीअत की नई तफ़्सीर करने वाला, अहले-यहूद का मसीह मौऊद है। ग़ैर-यहूदी कलीसिया को किसी ऐसी किताब से दिल-बस्तगी ना हो सकती थी जिसमें वो ख़ुसूसियात हों जिनका ज़िक्र हमने हिस्से दोम के बाब दोम की फ़स्ल दोम के तहत किया है।
जब हम इन ख़ुसूसियात पर नज़र करते हैं और फिर देखते हैं कि ये इन्जील कलीसिया की पहली दो सदीयों में ऐसी मक़ुबूल-ए-ख़ास व आम हो गई थी कि इस को
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212Peake’s Commentary p. 700 (b)
बिल-ख़ुसूस “अल-इंजील” के नाम से मौसूम किया जाता था तो हम इस की मक़बूलियत-ए-आम्मा को देख कर दंग रह जाते हैं। इस मक़बूलियत का सबब ये था कि ये इन्जील यरूशलेम की तबाही के वक़्त 70 ई॰ में ऐसी क़दीम और क़ाबिल-ए-एतबार और जामेअ ख़याल की जाती थी कि इस की क़दामत की वजह से किसी के ख्व़ाब व ख़्याल में भी ना आया कि हालात के तब्दील हो जाने की वजह से और कलीसिया में ग़ैर-यहूद अनासिर की अक्सरीयत की वजह से इस इन्जील की तिलावत करना या इस की नक़्लें करना बंद कर दे। पस ये इन्जील 49 ई॰ के क़रीब लिखी गई थी। जब “यहूदियों में से हज़ारहा आदमी ईमान ले आए थे।” (आमाल 21:22) और कलीसिया को इस बात की ज़रूरत थी कि वो ये साबित करे कि येसू नासरी अहले-यहूद का मसीह मौऊद है “जिसकी पेशीनगोई नबियों ने भी की है।” (आमाल 2:22-36, 26:22-23 वग़ैरह) तस्नीफ़ के बीस (20) साल के अंदर इस इन्जील ने मसीही कलीसिया के दिल में ऐसा घर कर लिया कि यरूशलेम की तबाही के बाद कलीसिया में ग़ैर-यहूद नव-मुरीदों की ज़बरदस्त अक्सरीयत के बावजूद इस इन्जील ने अहद-ए-जदीद के मजमूए में जगह पाली।
(3)
इन्जील मत्ती में ही उन सिक्कों के नाम पाए जाते हैं जो अर्ज़-ए-मुक़द्दस में यरूशलेम की तबाही से पहले राइज थे। मसलन नीम मिस्क़ाल, और मिस्क़ाल (मत्ती 17:24-27) मिस्क़ाल का सिक्का तक़रीबन दो रुपये का था और हर एक यहूदी को ये सिक्का हैकल के अख़राजात के लिए सालाना देना पड़ता था। रोमी सिक्का दीनार था जिस पर क़ैसर रोम की तस्वीर होती थी। (मर्क़ुस 12:15) पस इस का हैकल में लेकर जाना ममनू था। सिर्फ मिस्क़ाल का सिक्का ही हैकल में जा सकता था। लेकिन जब हैकल तबाह व बर्बाद हो गई तो क़ुद्रतन ना ये सिक्का मुरव्वज रहा ना लफ़्ज़ मिस्क़ाल मुरव्वज रहा और ना 70 ई॰ के बाद इस लफ़्ज़ को कोई समझ ही सकता था। पस इस सिक्के के लफ़्ज़ का इस्तिमाल साबित करता है कि ये इन्जील यरूशलेम की तबाही से बरसों पहले लिखी जा चुकी थी।
(4)
साठ (60) साल का अर्सा हुआ प्रोफ़ैसर ब्रिक्स (T.R.Birks) ने ये साबित किया था,213कि मत्ती की इन्जील 44 ई॰ से पहले की तस्नीफ़ है। इस के दलाईल में से एक दलील ये है कि मुक़द्दस मर्क़ुस और मुक़द्दस लूक़ा और मुक़द्दस यूहन्ना जब कभी पिलातूस का ज़िक्र करते हैं तो हमेशा इस का नाम लेते हैं और कभी इस को मह्ज़ “गवर्नर” नहीं कहते लेकिन मुक़द्दस मत्ती अपनी इन्जील में सात (7) दफ़ाअ इस का नाम लिए बग़ैर उस को सिर्फ “गवर्नर” का ख़िताब ही देता है। (मत्ती 27:11 वग़ैरह) गो वो इस का नाम भी बतलाता है। इस की दलील ये है कि कोई मुसन्निफ़ 44 ई॰ के बाद पिन्तुस पिलातूस का सिर्फ “गवर्नर” के ओहदे से ज़िक्र नहीं करेगा क्योंकि इस के बाद पिलातूस के जांनशीन गवर्नर थे। ये दलील बतौर एक मुस्तक़िल दलील के ज़ोर और वज़न नहीं रखती। लेकिन जब ये दीगर दलाईल से (मिलती है तो) हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि ये इन्जील 50 ई॰ के क़रीब लिखी गई थी तो ये दलील इस बात की मुआविन (मददगार) हो सकती है कि इन्जील की तस्नीफ़ के वक़्त पिलातूस की गवर्नरी नज़्दीक का वाक़िया था और इस की तस्नीफ़ में और पिलातूस की गवर्नरी में क़रीबन चालीस (40) साल का वक़्फ़ा नहीं था।
(5)
हम गुज़श्ता बाब की फ़स्ल चहारुम में ज़िक्र कर आए हैं कि मुतअद्दिद उलमा इन्जील मर्क़ुस के अल्फ़ाज़ “उजाड़ने वाली मकरूह चीज़” (मर्क़ुस 13:14) से मुराद क़ैसर केली-ग्युला का बुत लेते हैं और कहते हैं कि यहां इस क़ैसर के हुक्म की जानिब इशारा है जो इस के क़त्ल होने की वजह से पूरा ना किया गया।
ये अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि जब मुक़द्दस मत्ती इस मुक़ाम पर (मत्ती 24:15) इन्जील मर्क़ुस की नक़्ल करता है तो वो जुम्ला मोअ्तरिज़ा “पढ़ने वाला समझ ले” को जो क़ौसैन में है नक़्ल कर देता है कि लेकिन वो अल्फ़ाज़ जिसका ज़िक्र दानीएल नबी की मार्फ़त हुआ ईज़ाद (इज़ाफ़ा) कर देता है जो मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील में ना पाए जाते। इस से ज़ाहिर है कि मुक़द्दस मत्ती इन अल्फ़ाज़ से वो मतलब नहीं लेता जो मुक़द्दस मर्क़ुस लेता है क्योंकि केली-ग्युला क़त्ल हो चुका था और बला टल गई हुई थी। लेकिन मुक़द्दस
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213Exp. Times Aug.1910 p. 523 note by Engene Stock on the Date of First Gospel
मत्ती ये ख़याल करता है कि दानीएल नबी की पेशीनगोई (दानीएल 11:31) पूरी होने को है और क़ौसैन के अल्फ़ाज़ वो किसी दूसरे वाक़िये की जानिब इशारा करता है। मुक़द्दस लूक़ा इन अल्फ़ाज़ को सिरे से नक़्ल ही नहीं करता।
ये बात माअनी-ख़ेज़ है कि अहद-ए-जदीद के मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ अपने-अपने ख़याल के मुताबिक़ दानीएल नबी की पेशीनगोई की तावील करते हैं क्योंकि पहली सदी के पहले निस्फ़ में हालात बड़ी तेज़ी से बदल रहे थे। चुनान्चे मर्क़ुस इस की एक तावील करते हैं और मुक़द्दस मत्ती इस की दूसरी तावील करते हैं। मुक़द्दस पौलुस “इस उजाड़ने वाला मकरूह चीज़” को गुनाह का शख़्स यानी हलाकत का फ़र्ज़न्द मुख़ालिफ़ मसीह (2 थिस्सलुनीकियों 2:2-4) ख़याल करते हैं। मुक़द्दस पौलुस के अल्फ़ाज़ 50 ई॰ में लिखे गए थे। पस मुक़द्दस मत्ती के अल्फ़ाज़ भी इसी ज़माने के क़रीब के हैं।
मुक़द्दस मत्ती के क़ौसैन के अल्फ़ाज़ “पढ़ने वाला समझ ले” साबित करते हैं कि जिस वाक़िये की तरफ़ वो इशारा करते हैं इस को वो ज़ाहिरन तौर पर बयान नहीं कर सकते। पस इन अल्फ़ाज़ को नक़्ल करके वो इख़फ़ा का पर्दा इस वाक़िये पर डाल देते हैं। अगर ये इन्जील 80 ई॰ या 90 ई॰ में लिखी जाती तो इस इख़फ़ा (छिपाने) की ज़रूरत क्या थी? क्योंकि 70 ई॰ के बाद हालात कुल्लियतन तब्दील हो चुके थे बल्कि इस साल से पहले ही वो ऐसे बदल चुके थे कि 57 ई॰ में जब मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील लिखी तो इस मुक़ाम में इन अल्फ़ाज़ को नक़्ल करने की ज़रूरत ही बाक़ी ना रही थी। इस से भी ये ज़ाहिर है कि ये इन्जील 50 ई॰ के क़रीब लिखी गई थी।
(6)
इन्जील-ए-मत्ती में सय्यदना मसीह की आमद सानी पर ख़ास तौर पर ज़ोर दिया गया है। आख़िरी अदालत का मौज़ू निहायत संजीदगी से पेश किया गया है। (मत्ती 25 बाब) और मुख़्तलिफ़ तम्सीलों के ज़रीये इस सवाल पर रोशनी डाली गई है। इस इन्जील के मुताबिक़ आँख़ुदावंद की आमद सानी बिल्कुल नज़्दीक है। (मत्ती 10:23, 16:28, 24:34 वग़ैरह आपकी आमद दुनिया के आख़िर होने का निशान होगी। (मत्ती 24:3) और यह दोनों वाक़ियात यरूशलेम की तबाही के फ़ौरन बाद ज़हूर पज़ीर होंगे। (मत्ती 24:30-32) और यह सब बातें मौजूदा नस्ल की आँखें देखेंगी। (मत्ती 24:34) सरदार काहिन और क़ाइदीन यहूद इब्ने-आदम को क़ादिर-ए-मुतलक़ के दाहिनी तरफ़ बैठे और आस्मान के बादिलों पर
आते देखेंगे। (मत्ती 26:64) इन अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है कि इस इन्जील के मुसन्निफ़ का ये ईमान था कि इस के ख़ुदावंद की आमद बिल्कुल नज़्दीक है। वर्ना वो इस के अक़्वाल दर्ज ना करता और आमद सानी के क़रीबी ज़हूर के लिए (मर्क़ुस 9:1) के अल्फ़ाज़ को ना बदलता (मत्ती 16:28) पस ये इन्जील ज़माना इंतिज़ार के दौरान में लिखी गई। (मत्ती 16:28) जब अभी सय्यदना मसीह के हम-अस्रों की नस्ल मौजूद थी। (मत्ती 24:34) और मसीही मुबल्लग़ीन इस्राईल के सब शहरों में ना फिर चुके थे। (मत्ती 10:23) और हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के सामईन (सुनने वालों) में से बाअज़ ऐसे थे जिन्हों ने अभी “मौत का मज़ा नहीं चखा था।” (मत्ती 16:28) पस इस इन्जील के लिखने के वक़्त हज़रत मत्ती और दीगर रसूलों की शौक़ निगाहें आँख़ुदावंद की आमद-ए-सानी का इंतिज़ार कर रही थीं। मसीही कलीसिया में इस ज़माने का नक़्शा मुक़द्दस पौलुस के उन ख़ुतूत में मुफ़स्सिल तौर पर मौजूद है जो आपने थिस्सलुनिके की कलीसिया को 50 ई॰ के क़रीब लिखे थे। इन ख़ुतूत और इन्जील मत्ती के इस मुक़ाम की फ़िज़ा एक ही है। पस ये इन्जील भी 50 ई॰ के लगभग अहाता-ए-तहरीर में आई थी।
इलावा अज़ीं पौलुस रसूल के क़ुलिस्सियों के ख़त से ज़ाहिर है कि जब ये ख़त लिखा गया था मुक़द्दस मत्ती की इन्जील कलीसिया में मुरव्वज थी। चुनान्चे (कुलस्सियों 3:13) में इस इन्जील के मुक़ाम (मत्ती 18:23-35) की तरफ़ इशारा है। ये ख़त मुक़द्दस पौलुस की क़ैद के ज़माने का है। पस ये इन्जील 80 ई॰ में नहीं लिखी गई थी।
(7)
हम मुक़द्दस लूक़ा और मुक़द्दस मर्क़ुस की अनाजील की तारीख़ों के तअय्युन की बह्स में साबित कर आए हैं कि इन इंजीलों में यरूशलेम की तबाही और हैकल की बर्बादी के वाक़िये का ना तो ज़िक्र है और ना इस की तरफ़ इनमें इशारा तक पाया जाता है। जब हम मुक़द्दस मत्ती की इन्जील का ग़ाइर (गहरा) मुतालआ करते हैं तो इस इन्जील में भी इस वाक़िये का निशान तक नहीं पाते।
अगर ये इन्जील 80 ई॰ या 90 ई॰ में लिखी जाती तो ये नामुम्किन अम्र है कि मुक़द्दस मत्ती हैकल की तबाही की पेशीनगोई के पूरा होने का ज़िक्र ना करता (मत्ती 24:2) जैसा हम बतला चुके हैं ये इन्जील नवीस नबुव्वतों के पूरा होने पर निहायत ज़ोर देता है। पस अगर यरूशलेम बर्बाद और हैकल नज़र-ए-आतिश हो चुकी होती तो वो इस नबुव्वत
के पूरा होने का ज़रूर ज़िक्र करता क्योंकि इसी बाब में वो ख़ुदावंद के सादिक़ुल-क़ौल होने का एक कलमा दर्ज करता है जिसमें सय्यदना मसीह ने फ़रमाया है कि “देखो मैंने पहले ही तुमसे कह दिया है।” (आयत 25)
(मत्ती 27:24-35) से ज़ाहिर है कि रसूल और मसीही कलीसिया सब के सब यहूद की गर्दनों पर सय्यदना मसीह के मस्लूब करवाने की ज़िम्मेदारी डालते थे। (इस्तिस्ना 21:6, ज़बूर 26:6, 73:13) अगर इस इन्जील की तस्नीफ़ के वक़्त हैकल बर्बाद हो गई होती तो इस किताब में यहूद की क़ौम की ज़िम्मेदारी के नतीजा और इलाही मुवाख़िज़ा और सज़ा और अज़ाब का ज़रूर ज़िक्र किया जाता। एक और अम्र क़ाबिल-ए-ज़िक्र है कि इस इन्जील में आँख़ुदावंद की आमद-ए-सानी को यरूशलेम की तबाही से वाबस्ता किया गया है। (मत्ती 14:3, 34, 16:28) अगर ये इन्जील यरूशलेम की तबाही से पहले ना लिखी गई होती तो इस वाक़िये के बाद इस इन्जील का पाया एतबार वो ना रहता जो पहली सदी के अवाख़िर में इस को हासिल था।
हक़ तो ये है कि जिस तरह हम इस बाब की पहली फ़स्ल में बतला चुके हैं इस इन्जील की तारीख़ तस्नीफ़ का ताल्लुक़ यरूशलेम की कौंसल 49 ई॰ के साथ है। यरूशलेम की बर्बादी का वाक़िया इस इन्जील की तस्नीफ़ के रुबा सदी बाद का है। पस ये इन्जील उस ज़माने में लिखी गई जब कि अहले-यहूद बहैसियत एक क़ौम के अर्ज़-ए-मुक़द्दस में रहते थे। और उन का तमद्दुन, तहज़ीब, सक़ाफत व इल्म, अदब रिवायत वग़ैरह सब बरक़रार थे और उन की तबाही और परागंदगी का किसी को सान व गुमान भी ना था बअल्फ़ाज़े दीगर ये इन्जील 50 ई॰ के लगभग अहाता-ए-तहरीर में आ चुकी थी।214
एक और अम्र क़ाबिल-ए-ज़िक्र है जो ये साबित करता है कि इस इन्जील का ताल्लुक़ कलीसिया की ज़िंदगी के इब्तिदाई अय्याम के साथ है। पहाड़ी वाअज़ में उन तमाम हालात का अक्स पाया जाता है जो आँख़ुदावंद के ज़माने के हालात थे और जो आपके गिर्द व पेश का माहौल था। इस वक़्त अभी तक फ़क़ीहा अपने हरीफ़ (दुश्मन) फ़रीसी पार्टी के मैंबर नहीं थे और दोनों पार्टीयों की तंज़ीम अलग-अलग थी। यही वजह है कि इस इन्जील में बार-बार फ़क़ीहा और फ़रीसी यानी दोनों पार्टीयों के नाम पाए जाते हैं। सय्यदना मसीह के
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214Archdeacon Allen St.Matthew (International Commentary) and A.T. Cadoux, Sources of the Second Gospel, Exp Times Jan.1936 p. 161
बाद के ज़माने में दो पार्टीयों का वजूद ख़त्म हो गया था।215हक़ तो ये है कि इन्जील मत्ती का पाया एतबार इस क़द्र बुलंद है कि जॉर्ज मूर जैसा नामवर मुहक़्क़िक़ कहता है कि “अनाजील अरबा में से मत्ती की इन्जील ऐसी है जो पहली सदी की यहूदियत के हालात का इल्म हासिल करने के लिए निहायत मोअतबर माख़ज़ है।”216
अहले-यहूद की तारीख़ हमको बतलाती है कि 70 ई॰ के बाद सालहा साल तक यरूशलेम की तबाही और क़ौम-ए-यहूद की परागंदगी की वजह से फ़क़ीहों और फ़रीसियों के तब्क़े में और यहूद नव-मुरीद मसीहियों में बह्स का इम्कान ही ख़त्म हो गया था। जिस क़िस्म की बह्स का इन्जील मत्ती में ज़िक्र है वो दुबारा दूसरी सदी में तब शुरू हुई थी जब अहले-यहूद अपनी क़ौमी ज़िंदगी के सदमे से सँभल चुके थे। लेकिन इस ज़माने में तो ये इन्जील जाबजा कलीसियाओं के हाथों में थी और मक़्बूल आम हो चुकी थी। इन्जील का मुतालआ साबित करता है कि वो बह्स की गर्मा-गर्मी और जज़्बात की बरांगेख़्तगी से मामूर है। पस अगर हैकल की तबाही ज़माना-ए-माज़ी की बात होती और इस इन्जील की तस्नीफ़ से पहले वक़ूअ में आ गई होती तो इन्जील का मुसन्निफ़ इस ज़बरदस्त हर्बे का ज़रूर इस्तिमाल करता और साबित करता कि क़ौम यहूद की तबाही की अस्ल वजह ये है कि क़ौम ने अपने मसीह मौऊद को रद्द कर दिया था और क़ौम को इस की पादाश (सिला, बदला) में ये सज़ा मिली।
इस सिलसिले में इस इन्जील (मत्ती 27 बाब की 8 आयत) के अल्फ़ाज़ “आज के दिन तक” ख़ास तौर पर क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं। क्योंकि इनसे पता चलता है कि जब ये इन्जील लिखी गई थी तब क़ौम-ए-यहूद अभी परागंदा नहीं हुई थी और ना हैकल और ना यरूशलेम का शहर मिस्मार वीरान हुआ था। यही बात 28:15 से मुतशर्रह होती है।
पस इन्जील की अंदरूनी शहादत ये साबित करती है कि इन्जील की फ़िज़ा आँख़ुदावंद की वफ़ात के चंद साल बाद की है, जब मुक़द्दस पतरस कलीसिया के अमलन सरबराह व क़ाइद थे और जब फ़क़ीहा और फ़रीसी कलीसिया के जानी दुश्मन थे लेकिन यहूदी नव-मुरीद मूसवी शरीअत को मज़बूती से थामे हुए थे। क्योंकि उनका ये ईमान था कि मसीह
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215St.Matthew (Century Bible 1922) pp.52-53
216George F. Moore, Judaism in the First Centuries of the Christian Era (Quoted by Filson, Origin of the Gospels) p. 186
मौऊद ने शरीअत को मन्सूख़ नहीं किया बल्कि इस को मुकम्मल किया है। ये फ़िज़ा दौर-ए-अव्वलीन की फ़िज़ा है और इस इन्जील की क़दामत और पाया एतबार की गवाह है।
पस इस इन्जील की ये तालीम कि ख़ुदा की बादशाही का क़ियाम अनक़रीब होने वाला है साबित करती है कि ये यरूशलेम की तबाही से बहुत पहले अहाता-ए-तहरीर में आ चुकी थी। इस की ये तालीम कि शरीअत मन्सूख़ नहीं हुई और शरीअत के अहकाम का जवाज़ साबित करता है कि ये इन्जील यरूशलेम की कौंसल से कुछ अर्सा पहले या कुछ मुद्दत बाद लिखी गई थी। इस का मुसन्निफ़ (आमाल 15:1) के ख़यालात का इन्सान है (5:17-20, 15:24, 7:6) पस ये इन्जील 50 ई॰ के लगभग की तस्नीफ़ है।
फ़स्ल सोम
इन्जील-ए-मत्ती और इन्जील-ए-मर्क़ुस का बाहमी ताल्लुक़ और उन की क़दामत
हम हिस्सा अव़्वल के बाब दोम की फ़स्ल सोम में साबित कर आए हैं कि मुक़द्दस मत्ती ने इन्जील मर्क़ुस के ना सिर्फ तर्तीब वाक़ियात और बयानात बल्कि अल्फ़ाज़ तक को नक़्ल किया है और इस ख़ूबी से अपना लिया है कि इस की इन्जील एक नई और ताज़ा तस्नीफ़ (किताब लिखना) हो गई है। उस ने मर्क़ुस के बयानात को इस तरह अज़सर-ए-नौ तर्तीब दिया है और इस तर्तीब में हज़रत कलिमतुल्लाह के दीगर कलमात-ए-तय्यिबात, सवानेह-हयात और मोअजिज़ात वग़ैरह को इस तरह पैवस्त कर दिया है कि इंजीली बयान आरास्ता और पैरास्ता हो गया है। मर्क़ुस की इन्जील में 661 आयात हैं। मुक़द्दस मत्ती ने
इनमें से छः सौ (600) से ज़ाइद आयात का इस्तिमाल किया है लेकिन दोनों मुसन्निफ़ों की तर्ज़-ए-तहरीर ऐसी है कि गो मुक़द्दस मत्ती ने इन छः सौ (600) आयात का इस्तिमाल किया है पर उस की इन्जील की (1068) आयात में मर्क़ुस की ये तमाम आयात निस्फ़ हिस्से से ज़रा कम हैं। ताहम इन्जील-ए-अव़्वल में मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के इक्यावन (51) फ़ीसद अल्फ़ाज़ मौजूद हैं।217
इन उमूर से साबित है कि मुक़द्दस मत्ती की इन्जील, मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील के बाद लिखी गई थी। हमने गुज़श्ता बाब में साबित कर दिया है कि मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील 40 ई॰ में अहाता तहरीर में आ गई थी। चूँकि इन्जील के लिखे जाने और इस के मुख़्तलिफ़ शहरों की कलीसियाओं में रिवाज पाकर मक़्बूल होने में वक़्फ़ा दरकार है और अगर हम इस अर्से के लिए दस (10) साल की तवील मुद्दत क़रार दे दें तो हम इसी नतीजे पर पहुंच जाते हैं जिस पर हम अंदरूनी शहादत और दीगर वजूह के बाइस पहुंचे हैं कि ये इन्जील 50 ई॰ के लगभग लिखी गई थी।
जो अस्हाब इन्जील अव़्वल के लिए 70 ई॰ के वाक़िया हाइला के बाद का ज़माना तज्वीज़ करते हैं वो ना तो उस के ज़माने तस्नीफ़ पर मुत्तफ़िक़ हैं और ना उस की जाये तस्नीफ़ पर इत्तिफ़ाक़ करते हैं। वो ये तो तस्लीम करते हैं कि “इन्जील अव़्वल मर्क़ुस के बाद लिखी गई थी” लेकिन इस के आगे वो किसी बात पर इत्तिफ़ाक़ नहीं करते। बाअज़ कहते हैं कि “शायद वो लूक़ा के बाद लिखी गई थी। बल्कि मुम्किन है कि इन्जील यूहन्ना के बाद लिखी गई हो। वो ये नहीं बतला सकते कि वो कब लिखी गई और ना वसूक़ (यक़ीन) के साथ कह सकते हैं कि वो कहाँ लिखी गई थी। बाअज़ कहते हैं कि वो रोम में लिखी गई थी। बाअज़ एशया-ए-कोचक का नाम लेते हैं बाअज़ शाम और यरूशलेम बतलाते हैं। बाअज़ कहते हैं कि वो किसी ऐसे मर्कज़ में लिखी गई थी जहां अहले-यहूद हिज्रत करके चले गए हुए थे। लेकिन ये सब क़ियासात (गुमान) ही हैं।”218चुनान्चे डाक्टर मॉन्टी फ्यूरी लिखता है :-
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217Oxford Studies in the Synoptic Problem pp. 85 ff
218H.L. Jackson, The Present State of the Synoptic Problem in Camb Biblical Essays p. 424
“बाअज़ का ख़याल है कि मुक़द्दस मत्ती इन्जील लूक़ा से वाक़िफ़ था। बाअज़ कहते हैं कि लूक़ा इन्जील अव़्वल से वाक़िफ़ था लेकिन अग़्लब (मुम्किन) ये है कि दोनों एक दूसरे की इंजीलों से नावाक़िफ़ थे।” 219
लेकिन हक़ीक़त वही है जो हम ऊपर बतला चुके हैं कि ये इन्जील 50 ई॰ के लगभग लिखी गई थी और यहूदी मसीही कलीसियाओं में जो अर्ज़-ए-मुक़द्दस में हर चहार तरफ़ थीं मक़्बूल आम हो गई क्योंकि इस के वाक़ियात का ताल्लुक़ उन सवालात और मसाइल के साथ था जो कनआन की कलीसिया के सामने थे।220
फ़स्ल चहारुम
मुख़ालिफ़ उलमा के दलाईल की तन्क़ीद
मुतअद्दिद उलमा का ये ख़याल है कि इन्जील मत्ती पहली सदी के पहले निस्फ़ के लगभग नहीं लिखी गई थी बल्कि इस की तस्नीफ़ के लिए पहली सदी का आख़िर तज्वीज़ करते हैं और इस के लिए मुख़्तलिफ़ दलाईल पेश करते हैं। हम इस फ़स्ल में इन दलाईल का मुवाज़ना और तन्क़ीद करके इनकी ख़ामियाँ नाज़रीन पर ज़ाहिर करेंगे।
(1)
इन सरकर्दा उलमा में प्रोफ़ैसर पैक का नाम इनके इल्म व फ़ज़ल की वजह से ख़ास तौर पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र है। मौसूफ़ कहते हैं कि इन्जील मत्ती से ज़ाहिर है कि इस में
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219G.C. Montefiore, The Synoptic Gospel Vol1.pXCI
220Burkitt, The Gospel History and its Transmission p. 191
नजात का तसव्वुर ये है कि वो तमाम बनी नूअ इन्सान के लिए है। पस ये इन्जील हमागीर है और इस की हमागीरी साबित करती है कि ये इन्जील पहली सदी के आख़िर में लिखी गई थी।221उलमा का ये गिरोह इस इन्जील की जामईयत को साबित करने के लिए चंद मुक़ामात पेश करता है। हम इन मुक़ामात की यके बाद दीगरे जांच पड़ताल करते हैं।
अव़्वल :ये उलमा कहते हैं कि इस इन्जील में सय्यदना मसीह के हस्बे-ज़ेल कलमात दर्ज हैं जो ये साबित करते हैं कि सय्यदना मसीह की नजात की ख़ुशख़बरी यहूद और ग़ैर-यहूद दोनों के लिए है:-
(1) “मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि बहुतेरे पूरब और पक्षिम से आकर अबराहाम और इज़्हाक़ और याक़ूब के साथ आस्मान की बादशाही की ज़ियाफ़त में शरीक होंगे मगर बादशाही के बेटे बाहर अंधेरे में डाले जाऐंगे।” (मत्ती 8:11-12)
(2) “ख़ुदा की बादशाही तुमसे ले ली जाएगी और उस क़ौम को जो इस के फल लाए दे दी जाएगी।” (मत्ती 21:43)
(3) “बादशाही की इस ख़ुशख़बरी की मुनादी तमाम दुनिया में होगी ताकि सब क़ौमों के लिए गवाही हो तब ख़ातिमा होगा।” (मत्ती 24:14)
(4) “सब क़ौमों को शागिर्द बनाओ।” (मत्ती 28:19)
हम ऊपर ज़िक्र कर आए हैं कि ये इन्जील यहूदी ख़यालात, तसव्वुरात और जज़्बात से भरी पड़ी है और इस का दायरा यहूदियत से बाहर नहीं जाता। इस इन्जील में ग़ैर-यहूद की निस्बत जो रवैय्या इख़्तियार किया गया है वो (मत्ती 10:5-6) के अहकाम और (मत्ती 15:24-26) से ज़ाहिर है। पस सवाल ये पैदा होता है कि मज़्कूर बाला मुक़ामात का क्या मतलब है?
ये बात याद रखने के क़ाबिल है कि कोई पक्का और रासिख़-उल-एतक़ाद (मज़्बूत ईमान) का फ़रीसी ग़ैर-यहूद को यहूदियत के हुक़ूक़ से बाज़ नहीं रखता था, क्योंकि अहद-ए-अतीक़ की कुतुब में बार-बार ऐसे मुतअद्दिद मुक़ामात आए हैं जिनके मुताबिक़ ग़ैर-यहूद
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221Peake, Critical Introd. To N.T. p.123
अक़्वाम यहूदियत के तमाम हुक़ूक़ से बहरावर (फ़ायदा उठाने वाला) होंगी। अला हज़ा-उल-क़ियास हर यहूदी मसीही ख़्वाह वो मुक़द्दस पौलुस के तरीक़ अमल का कैसा ही मुख़ालिफ़ क्यों ना हो मसीह मौऊद के अहकाम और फ़र्मान को बिला चूँ चरा तस्लीम करता था। पस मज़्कूर बाला आयात के अल्फ़ाज़ को ये यहूदी मसीही तस्लीम करते थे। इनके नज़्दीक ग़ैर-यहूद से मुराद “ख़ुदा-परस्त नव-मुरीद” (आमाल 13:43) थे जिनको मुरीद बनाने के लिए फ़क़ीहा और फ़रीसी तरी और ख़ुशकी का दौरा करते थे। (मत्ती 23:15) और जो “अबराहाम और इज़्हाक़ और याक़ूब के साथ आस्मान की बादशाही में ज़ियाफ़त में शरीक होंगे।” (मत्ती 8:11) बअल्फ़ाज़े दीगर वो यहूदियत के तमाम हुक़ूक़ में बराबर के शरीक होंगे। पस यहूदी जो कलीसिया में शामिल हो कर मुनज्जी जहान (मसीह) पर ईमान ले आए थे, वो ये तस्लीम करते थे कि ग़ैर-यहूद कलीसिया में शामिल हो सकते हैं लेकिन इस शर्त पर कि वो शरीअत को मानें। (आमाल 15:1, 5 वग़ैरह) मसीह-ए-मौऊद के हक़ीक़ी पैरौ (मानने वाले) जो हक़ीक़ी इस्राईल हैं बाक़ी यहूदियों से और बिल-ख़ुसूस फ़क़ीहों और फ़रीसियों से जुदा हैं और इन के इम्तियाज़ी निशान ये हैं कि (1) वो येसू नासरी पर जो मसीह-ए-मौऊद है ईमान रखते हैं। (2) उन को मूसवी शरीअत का इल्म और अस्ल मफ़्हूम हासिल है। पस वो इस शरीअत से बेहतर वाक़फ़ियत रखते हैं। (3) वो ख़ुदा की बादशाही पर जो अनक़रीब क़ायम होने वाली है यक़ीन रखते हैं। पस ये ईमानदार असली और हक़ीक़ी इस्राईल हैं ख़्वाह फ़रीसी उन को बिद्अती (आमाल 24:5) क़रार दें और दीगर यहूद उन को ख़ारिज कर दें। लेकिन दरअस्ल उन के ख़ारिज करने वाले “बादशाहत के बेटे हैं जो बाहर अंधेरे में डाले जाऐंगे।” (मत्ती 8:12) मसीह मौऊद पर ईमान रखने वाले ही दर-हक़ीक़त “बादशाही के बेटे हैं।” (मत्ती 13:38) पस (मत्ती 21:43) आयत में “क़ौम” से इन्जील नवीस की मुराद ग़ैर-यहूद अक़्वाम से नहीं बल्कि हक़ीक़ी इस्राईल से है वर्ना यहां फ़ेअल सीग़ा वाहिद में वारिद ना होता। यहां यहूदी नस्ल और ग़ैर-यहूदी नसलों का सवाल नहीं बल्कि रुहानी हुक़ूक़ का सवाल है। इन्जील नवीस के ख़याल में लफ़्ज़ “क़ौम” से मुराद मसीह मौऊद के वो तमाम पैरौ (मानने वाले) हैं जो शरीअत को मानते हैं और ख़ुदा की बादशाही के मुंतज़िर हैं।
इन आयात का असली मफ़्हूम जानने के लिए हमें ये सवाल पूछना चाहिए कि इन्जील नवीस की इनसे क्या मुराद थी ना इस बीसवीं (20) सदी में हम इनसे क्या मतलब लेते हैं और इन की किस तरह तावील करते हैं। पस सवाल ये है कि मुक़द्दस (मत्ती 24:14 और 28:19) से क्या मतलब था? (मर्क़ुस 13:9-10) से जो (मत्ती 24:14) में नक़्ल
की गई है (ज़ाहिर है कि “गवाही” को इसी पुश्त में ख़त्म होना था। (मत्ती 16:28, 24:34) इस से ज़ाहिर है कि इन्जील नवीस का मतलब यहां परागंदा यहूदी क़बाइल से है और ख़ुशख़बरी की मुनादी ये थी कि मसीह मौऊद आस्मान के बादलों पर आकर बादशाही क़ायम करेगा जिसमें उस के तमाम पैरौ (मानने वाले) दाख़िल होंगे जो “बादशाही के बेटे” होंगे।
लफ़्ज़ “दुनिया” से मुराद यहां रुए-ज़मीन नहीं है। बल्कि (यूहन्ना 17:6, 18:20, 21:25, आमाल 17:6, 19:27, 24:5, 11:28) वग़ैरह से ज़ाहिर है कि ये यहूदी मुहावरा था जिससे मुराद दुनिया के तमाम ममालिक ना थे बल्कि अर्ज़-ए-मुक़द्दस का मुल्क ही था, क्योंकि यही इनका मौज़ू ख़याल था। इसी तरह अल्फ़ाज़ “सब क़ौमों” (मत्ती 28:19) की हमें मौजूदा जुग़राफ़ियाई ख़यालात के मुताबिक़ तावील नहीं करनी चाहिए, बल्कि इन्जील नवीस के मौज़ू ख़याल को मद्द-ए-नज़र रखना वाजिब है। हमें ये भी याद रखना चाहिए कि फ़रीसी अपना फ़र्ज़ समझते थे कि तमाम लोगों को शागिर्द बनाएँ और यहूदी मसीही भी इस को अपना फ़र्ज़ गिरदानते थे लेकिन इस पर भी वो मुक़द्दस पौलुस और उन के हम-ख़यालों के मुख़ालिफ़ थे। (आमाल 21:20-22, ग़लतियों 2:12 वग़ैरह) यही वजह है कि गो इस इन्जील में ये हुक्म मौजूद है कि “तुम जाकर सब क़ौमों को शागिर्द बनाओ।” (मत्ती 28:19) ताहम तमाम इन्जील में बुत-परस्त अक़्वाम और ग़ैर-यहूद कलीसियाओं की ज़रुरियात और ख़ुसूसी दुशवारीयों और मसाइल का ज़िक्र छोड़ उन की तरफ़ इशारा तक मौजूद नहीं।
दोम :बाअज़ अस्हाब कहते हैं कि इस इन्जील में बिल-उमूम और (मत्ती 23 बाब) में बिल-ख़ुसूस फ़क़ीहों और फ़रीसियों पर आँखुदावंद के हमले दर्ज हैं जिनसे ज़ाहिर है कि ये इन्जील नवीस यहूदियत का दुश्मन था। पस ये इन्जील हैकल की तबाही के बाद लिखी गई थी। लेकिन अनाजील अरबा से वाज़ेह है कि सय्यदना मसीह की हीन-ए-हयात (ज़िन्दगी) में और अहले-यहूद के मुख़्तलिफ़ तबक़ों में चपक़ुलश और आवेज़िश होती रही हत्ता कि वो आपके जानी दुश्मन हो गए और उन्हों ने आपको मस्लूब करवा के ही दम लिया। आमाल की किताब का मुतालआ भी ये ज़ाहिर कर देता है कि कट्टर यहूदी सय्यदना मसीह की कलीसिया के सख़्त मुख़ालिफ़ रहे और उन्हों ने हर मुम्किन कोशिश की कि इस तरीक़ को जिसको वो “बिद्अत” कहते थे (आमाल 24:14) मिटा दें। और इस के पैरौओं को ईज़ाएं दें, तितर-बितर कर दें और क़त्ल कर दें। अंदरें हालात (इन हालात में) जब हम
इन्जील मर्क़ुस और इन्जील मत्ती का मुक़ाबला करते हैं तो हम पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि जब इन्जील मर्क़ुस लिखी गई अहले-यहूद की आतिश-ए-अदालत बराबर जारी थी लेकिन इस के चंद बरस बाद ये आग भड़कती चली गई और अर्ज़-ए-मुक़द्दस में फैलती गई। इन हालात में इन्जील अव़्वल लिखी गई। इस वक़्त यहूदी फ़रीसियों और फ़क़ीहों और यहूदी नव-मुरीदों में मुख़ासमत (दुश्मनी) ज़्यादा बढ़ गई थी। इस का मुसन्निफ़ उस यहूदी मसीही जमाअत से ताल्लुक़ रखता है जो येसू नासरी को मसीह मौऊद मानती है। इस का ईमान है कि वो अपनी मसीहाई बादशाही को क़ायम करने के लिए आने वाला है। पस मोमिनीन का फ़र्ज़ है कि वो इस मसीह-ए-मौऊद की मुनादी करें ताकि ईमानदारों की जमाअत रोज़-अफ़्ज़ूँ तरक़्क़ी करती जाये और ज़्यादा से ज़्यादा लोग मसीह-ए-मौऊद कि हल्क़ा-ब-गोश (मुतीअ, ग़ुलाम) हो जाएं। इनके मुख़ालिफ़ फ़क़ीहा और फ़रीसी जो आँख़ुदावंद की पैदाइश और ज़िंदगी पर हर्फ़गीरी करके कहते हैं कि येसू नासरी मूसवी शरीअत का मुन्किर था और कुफ़्र बकता था, वो हरज़ा सराई (बेहूदागोई) करते हैं। इन्जील का नफ़्स-ए-मज़्मून साबित करता है कि (मत्ती 23 बाब) के हमले जवाबी हमले हैं और यह अम्र साबित करता है कि इस इन्जील में वही फ़िज़ा है, जो रसूलों के आमाल की किताब में पाई जाती है और यह बात इस इन्जील की क़दामत की दलील है। इस का मुसन्निफ़ और इस के पढ़ने वाले अभी कुल्ली तौर पर “शरीअत से आज़ाद” नहीं हुए। इनका नुक़्ता-ए-नज़र हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के अव्वलीन शागिर्दों ही का है जो आपको मसीह-ए-मौऊद मान कर आपको मूसवी शराअ की तक्मील करने वाला, ना कि मन्सूख़ करने वाला तसव्वुर करते थे, ताकि आपकी तालीम से मुस्तफ़ीज़ (फ़ायदा उठाना) हो कर अहले-यहूद मूसवी शरीअत के सही मफ़्हूम को लोगों पर ज़ाहिर करके इस को एक क़द्र व मंज़िलत वाली किताब मानें। पस ये इन्जील इस नुक़्ते-निगाह से यरूशलेम के पहले अय्याम की आईनादार है और लिहाज़ा पहली सदी के पहले निस्फ़ की है।
(9)
(3) डाक्टर माफ़ट कहता है222कि इस इन्जील को पढ़ कर ये गुमान होता है कि ये इन्जील उस ज़माने में लिखी गई थी जब कलीसिया की तंज़ीम बहुत बढ़ चुकी थी और
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222W.C.Allen “The Alleged Catholicism of First Gospel, Exp. Times July1910 pp.439 ff
इस के अक़ाइद और उमूर ईमानिया नश्वो नुमा पा चुके थे। जिससे वो ये साबित करना चाहता है कि ये इन्जील पहली सदी अवाख़िर में लिखी गई थी।
लेकिन जब हम इस इन्जील का बग़ौर मुतालआ करते हैं तो ये ज़ाहिर हो जाता है कि ये गुमान सिर्फ एक ज़न (वहम) है और बस। इन्जील में किसी जगह भी कलीसिया के रहनुमाओं और रहबरों के लिए कोई ऐसे लफ़्ज़ इस्तिमाल नहीं हुए जो इंजीली मजमूए की माबाअ्द की किताबों में पाए जाते हैं। (1 तीमुथियुस 4:14, 2 यूहन्ना 1:1 वग़ैरह) कलीसिया के अरकान और रहबरों को “नबियों, दानाओं और फ़क़ीहों” के नामों से ही पुकारा गया है। (मत्ती 23:34, 13:52 वग़ैरह) क्या ये उल्टा साबित नहीं करता कि ये इन्जील दौर-ए-अव्वलीन और इब्तिदाई अय्याम की तस्नीफ़ है। इस इन्जील में मुक़द्दस पतरस शागिर्दों का नुमाइंदा और नियाबत (सिफ़ारत, नायब होना) करने वाला है। (मत्ती 16:16 वग़ैरह) और यह आमाल की किताब के इब्तिदाई अबवाब की फ़िज़ा है। (आमाल 1:15, 2:14, 3:11 वग़ैरह) पस कलीसिया की तंज़ीम का तसव्वुर जो इस इन्जील में पाया जाता है वो इब्तिदाई क़िस्म का है जिसका ताल्लुक़ इब्तिदाई मनाज़िल के साथ है।
इस इन्जील में लफ़्ज़ “कलीसिया” दो दफ़ाअ (मत्ती 16:18, 18:17) में वारिद हुआ है। जिससे बाअज़ उलमा को ये धोका हुआ है कि इस लफ़्ज़ से मुराद “कलीसिया-ए-जामा” है और इस का मफ़्हूम वही है जो बाद के ज़माने में इस लफ़्ज़ से लिया जाता था। पस वो ख़याल करते हैं कि इस लफ़्ज़ “कलीसिया” से मसीही जमाअत की वो मंज़िल मुराद है जब उसने दूसरी सदी में तरक़्क़ी करके बाक़ायदा तौर पुर मुनज़्ज़म सूरत इख़्तियार करली थी। लेकिन ताज़ा दर्याफ़्त इस क़ियास को ग़लत क़रार देती है, क्योंकि क़दीम कुतबों में एक कुतबा मिला है जिसकी तारीख़ 103 ई॰ है। जिससे ये ज़ाहिर है कि ये लफ़्ज़ हर क़िस्म की जमाअत के लिए इस्तिमाल किया जाता था ख़्वाह वो मुनज़्ज़म हो या ग़ैर-मुनज़्ज़म। पस लफ़्ज़ “कलीसिया” मसीही जमाअत की अव्वलीन मंज़िल में इस्तिमाल हो सकता था। मुक़द्दस मत्ती की इन्जील से ज़ाहिर है कि कलीसिया की जामईयत का तसव्वुर अभी जमाअत के ज़हन में ना था। शागिर्दों की जमाअत की तंज़ीम निहायत सादा थी। दवाज़दा (12) रसूल इस जमाअत के “सरदार” थे। जिस तरह अहले-यहूद के “सरदार” थे। (आमाल 3:17, लूक़ा 23:13, 35, 24:20, यूहन्ना 7:26, 48 वग़ैरह) जो आने वाली बादशाही में इस्राईल के बारह तख़्तों पर बैठेंगे। (मत्ती 19:28) बाक़ी लीडरों के लिए अहदे-अतीक़ की इस्तिलाहात “नबी,” “दाना” या “फ़क़ीह” इस्तिमाल की की जाती थीं। (मत्ती
23:34, 13:52, 10:41, मत्ती 18:17) में लफ़्ज़ कलीसिया से मुक़ामी जमाअत मुराद है और (मत्ती 19:18) में मसीह मौऊद के तमाम शागिर्दों की जमाअत मुराद है जिसमें तमाम शागिर्द आपस में भाई-भाई हैं, जिनका एक बाप ख़ुदा है और एक आक़ा और उस्ताद मसीह है। (मत्ती 23:8-10) पस वो एक कलीसिया हैं जिनको ब-वक़्त ज़रूरत मुमानिअत और इजाज़त का इख़्तियार है। (मत्ती 18:17-18) इस मंज़िल के आगे इस इन्जील में कलीसिया का तसव्वुर नहीं जाता।
पस मत्ती की इन्जील में कोई ऐसा मुक़ाम नहीं मिलता जो हमको इब्तिदाई कलीसिया की उस मंज़िल से आगे ले जाये जिसका ज़िक्र आमाल के पहले पंद्रह (15) बाब में पाया जाता है। इस वक़्त तक कलीसिया, का नुक़्ता नज़र वही था जो अम्बिया-ए-यहूद का था कि यहूदियत अक़्वाम-ए-आलम को अपनी जानिब खींचेगी। इनके ख्व़ाब व ख़्याल में भी ये बात ना आई थी कि एक दिन ऐसा आएगा जब ये “बिद्अत” और “तरीक़” एक नया मज़्हब बन कर यहूदियत की जगह ग़ज़ब कर लेगा। अभी तक यहूदी मसीही कलीसिया ने आँख़ुदावंद के अक़वाल-ए-मुबारका की तह को ना पाया था और उस मंज़िल-ए-मक़्सूद का नज़ारा ना देखा था जो आँख़ुदावंद का असली मंशा था कि इस्राईल और ग़ैर-यहूद, कुल अक़्वाम-ए-आलम आपकी नजात से बहरा अंदोज़ होंगी।
पस इस इन्जील के मुताबिक़ कलीसिया के शुरका सिर्फ़ यहूद होंगे या “ख़ुदा-परस्त नव-मरीद” क्या ये हालात पहली सदी के अवाख़िर के हैं, जब क़ौम यहूद तबाह और परागंदा हो चुकी थी और बुत-परस्त मुश्रिक ग़ैर-यहूद लाखों की तादाद में मुनज्जी जहान (मसीह) पर ईमान ला चुके थे और मूसवी शरीअत की क़ुयूद से आज़ाद हो चुके थे। इस इन्जील की अंदरूनी शहादत तो साफ़ ज़ाहिर करती है कि ये इन्जील उन हालात में लिखी गई थी जो यरूशलेम की कान्फ़्रैंस (आमाल 15 बाब) और मुक़द्दस पौलुस के यरूशलेम में आने के दर्मियानी अर्से के हैं। (आमाल 21 बाब) यानी 48 ई॰ और 57 ई॰ के दर्मियानी हालात की फ़िज़ा में ये इन्जील तस्नीफ़ की गई थी।
(2)
डाक्टर माफ़ट कहता है कि इस इन्जील में मसीही ईमान के उमूर और अक़ाइद का ज़िक्र साबित करता है कि वो नश्वो नुमा पा चुके थे। लेकिन जब हम इस इन्जील का ग़ाइर (गहरा) मुतालआ करते हैं तो हम पर वाज़ेह हो जाता है कि ये भी गुमान ही गुमान है
और हक़ीक़त पर मबनी नहीं। चुनान्चे इस इन्जील में आमद-ए-सानी के मुताल्लिक़ जो बातें दर्ज हैं वो वही हैं जो थिस्सलुनीकियों के ख़ुतूत (50 ई॰) और आमाल की किताब के पहले अबवाब में पाई जाती हैं। जब हम (1 थिस्सलुनीकियों 5:2-8) का मुतालआ करते हैं तो हम देखते हैं कि ये आयात मुक़द्दस मत्ती की इन्जील के ख़यालात और अल्फ़ाज़ की सदाए बाज़गश्त (वो आवाज़ जो पहाड़ या गुम्बद से टकरा कर वापिस आती है, असर) हैं। (मत्ती 24 42 43) इन्जील अव़्वल की तम्सीलें, सब इन्ही ख़यालात की ताईद करती हैं (मत्ती 24:27 ता 25:30) फ़र्क़ सिर्फ ये है कि मुक़द्दस पौलुस “इब्ने-आदम के दिन” की बजाए “ख़ुदावंद का दिन” लिखता है। इस हवाले से ये भी ज़ाहिर है कि मुक़द्दस पौलुस इस इन्जील से वाक़िफ़ थे। पस ये नुक्ता इस की बजाए कि ये साबित करे कि इन्जील मत्ती पहली सदी के अवाख़िर में लिखी गई थी, उल्टा ये ज़ाहिर करता है कि वो इब्तिदाई अय्याम की तस्नीफ़ है।
हक़ तो ये है कि जैसा हारनेक कहता है223ये मानना ज़्यादा आसान है कि ये इन्जील 70 ई॰ से पहले लिखी गई थी क्योंकि इस वाक़िये के दस (10) साल बाद ये तस्लीम करना आसान नहीं है। वजह ये है कि आयत (मत्ती 28:20) के मुताबिक़ अभी ये नस्ल तमाम ना होगी कि तमाम तब्दीलीयां वाक़ेअ हो जाएंगी।
इलावा अज़ीं इस इन्जील में आँख़ुदावंद की ज़ात का अक़ीदा अपनी इब्तिदाई मनाज़िल में ही है। येसू नासरी मसीह मौऊद है जो ख़ुदा का महबूब है। (मत्ती 3:17) वो “इब्ने-आदम” है जो दानीएल नबी के क़ौल के मुताबिक़ आस्मान के बादलों पर आएगा और आस्मान की बादशाही क़ायम करेगा। इस मंज़िल से ये इन्जील एक क़दम भी आगे नहीं जाती। जाये ताज्जुब है कि मौजूदा ज़माने के मुसन्निफ़ इस तरह लिखते हैं कि गोया इन्जील अव़्वल का मुसन्निफ़ कोई कट्टर ख़ाली क़िस्सीस (दीन-ए-मसीहिय्यत का आलिम) था।224जिसकी किताब बतलाती है कि सय्यदना मसीह ने उन तमाम अक़ाइद पर मुहर सब्त कर दी है जो आपकी सलीबी मौत के दो तीन पशुतों के बाद कलीसिया में मुरव्वज थे।
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223Allen, “Recent Criticism of Synoptic Gospels.” Exp Times July 1909 pp. 445 ff
224B.W.Bacon, The Story of Jesus (1928) p.33
(4)
एक और अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है। अगर ये इन्जील पहली सदी के अवाख़िर में लिखी जाती तो मग़रिब की कलीसियाएं जिनकी अक्सरीयत ग़ैर-यहूद मुश्रिकीन से सय्यदना मसीह के क़दमों में आई थी, इस क़िस्म की इन्जील को क़ुबूल ना करतीं जिसका मुद्दआ ही ये था कि वो साबित करे कि आँख़ुदावंद सिर्फ़ यहूद के ही मसीह-ए-मौऊद हैं और जिस का हर सफ़ा यहूदियत की इस्तिलाहात से भरा पड़ा है। 70 ई॰ के बाद के ज़माने के साथ इस इन्जील के मज़ामीन का ताल्लुक़ कहीं नज़र नहीं आता। इस वाक़िया हाइला के बाद किस ग़ैर-यहूद नव-मुरीद को ये जानने की ज़रूरत थी कि येसू नासरी फ़क़त अहले-यहूद का मसीह मौऊद है? ग़ैर-यहूदी कलीसियाएं तो इस से मुद्दतों पहले इस बात की क़ाइल हो चुकी थीं कि आँख़ुदावंद ना सिर्फ अहले-यहूद के मसीह-ए-मौऊद हैं बल्कि तमाम दुनिया की अक़्वाम के नजात देने वाले हैं। अगर ये इन्जील कलीसिया के इब्तिदाई अय्याम में ना लिखी जाती तो वो ग़ैर-यहूदी कलीसियाओं में कभी रिवाज ना पाती। लेकिन 70 ई॰ से पहले ये इन्जील बकस्रत नक़्ल हो कर अर्ज़-ए-मुक़द्दस के अंदर और बाहर मक़ुबूल-ए-आम हो कर ख़ुसूसियत के साथ “अल-इन्जील” कहलाती थी। चुनान्चे दूसरी सदी के आग़ाज़ में बाअज़ आबा-ए-कलीसिया भी इस को यही नाम देते हैं। लिहाज़ा ये इन्जील अपनी क़दामत और पाया एतबार की वजह से हर जगह मक़्बूल थी।
नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि जो उलमा ये ख़याल करते हैं कि ये इन्जील पहली सदी के आख़िर में लिखी गई थी इन के दलाईल दर-हक़ीक़त ज़ोर नहीं रखते। इन उलमा के बरअक्स हमारे ख़याल में उन उलमा के दलाईल निहायत वज़नदार हैं जो कहते हैं कि इन्जील पहली सदी के पहले निस्फ़ के इख़्तताम के वक़्त यानी 50 ई॰ के क़रीब लिखी गई। बअल्फ़ाज़-ए-दीगर ये इन्जील वाक़िया सलीब के सतरह (17) बरस के अंदर-अंदर अहाता-ए-तहरीर में आ गई थी।
इस हिस्से की बह्स का माहसल ये है कि अनाजील-ए-मुत्तफ़िक़ा यरूशलेम की तबाही से मुद्दतों पहले लिखी गई थीं जब किसी के वहम व गुमान में भी ना आया था कि अहले-यहूद का मुक़द्दस शहर तबाह वीरान हो जाएगा, क़ुद्दुस-अल-कुद्दास नज़र-ए-आतिश हो जाएगा क़ौम-ए-यहूद ख़स्ता और परागंदा हो जाएगी और यहूद की क़ौमी रिवायत, मिल्ली रसूम व रिवाज और शरई पाबंदीयां सबकी सब यकसर ख़त्म हो जाएंगी। क़दम
तरीन इन्जील को मुक़द्दस मर्क़ुस ने सय्यदना मसीह की सलीबी मौत के सात (7) बरस के अंदर लिखा। मुक़द्दस मत्ती ने अपनी इन्जील को इस जांकाह वाक़िये के सत्रह (17) बरस के अंदर लिखा और मुक़द्दस लूक़ा ने अपनी इन्जील को मुनज्जी आलमीन (मसीह) की वफ़ात के पच्चीस (25) साल के बाद लिखा। इन अनाजील की और इनके माख़ज़ों की क़दामत इनकी अस्लियत पर गवाह है।
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