शहादत-ए-क़ुरआनी

बर-कुतुब रब्बानी

जिसको विलियम म्यूर अहले-किताब ने तस्नीफ़ किया और उन के इर्शाद बमो जब

बाबू शिव प्रशाद

ने अंग्रेज़ी व अरबी से उर्दू में तर्जुमा किया

क़तआ तारीख़

اتف زبرائے سال ایں نسخہٰ نو

کو ہست دلیل کتب ربّانی

فر مو دمزن حرف زانکار ونگار

نامے نامی شہادت قر آنی

लूदयाना

अमरीकन मिशन प्रैस में छपी

1886 ई॰

Shahadat-i-Qurani Bar Kutub-i-Rabbani

The Testimony of the Quran to the Christian Scriptures

By Sir William Muir

Translated By

Raja Shiv Parshad

1886



Sir William Muir,

(27 April 1819 – 11 July 1905)

Babu Shive Parshad

(1823–23 May 1895)



तम्हीद

इस किताब के लिखने से मुसन्निफ़ की ये ग़रज़ है कि क़ुरआन की सब आयतें जिनमें किसी तरह का ज़िक्र यहूदी और ईसाईयों की कुतुब रब्बानी का जैसे कि वो मुहम्मद साहब के ज़माने में मौजूद थीं लिखा हो, यकजा (एक जगह, इकट्ठे, मिले जुले) हो जाएं ताकि मुसलमानों को मालूम हो कि तौरेत और इंजील का तज़्किरा जहां-जहां क़ुरआन में आया है ताज़ीम व तकरिम के साथ आया है और वो उन के मुतालिब गिरां माया گرا ں مایہ (नफ़ीस, क़ीमती) और मज़ामीन बे-बहा पर तवज्जा तमाम ग़ौर व ताम्मुल تامل करें।

तर्तीब उन आयतों की इस किताब में जहां तक कि मुम्किन हुई लिहाज़ रखी गई यानी जो सूरतें कि क़ब्ल हिज्रत मक्के में इजरा हुईं उन की आयतें अव्वल बाब में लिखी जाएँगी और जो कि बाद हिज्रत के मदीने में जारी की गईं उन की दूसरे बाब में।

पोशीदा ना रहे कि अगरचे सूरतों के सादिर होने की तर्तीब मज़्मून के क़ुरने * قرنیے से (ढंग से, तर्तीब से) अक्सर मालूम हो सकती है ताहम उलमाए अहले इस्लाम के भी दर्मियान उन की निस्बत चंद बातों में इख़्तिलाफ़ राय है। इसी वास्ते इस किताब के मुसन्निफ़ ने उन्हें मुसलमान मुसन्निफ़ों की फ़हरिस्तों वग़ैरह पर ग़ौर करके हत्त-उल-वसीअ उन सूरतों को हसब तारीख़ सदूर तर्तीब दिया है, फिर भी शायद इस तर्तीब के दर्मियान कहीं किसी मुक़ाम पर फ़र्क़ पाया जाये तो जाने ताज्जुब नहीं है (यानी कोई ताज्जुब नहीं)। लेकिन इस से मुसन्निफ़ के मक़्सद में कुछ फ़ुतूर (बिगाड़) ना पड़ेगा। क्योंकि ये आयतें मुहम्मद साहब की नबुव्वत के हर हाल में सादिर हुई हैं और उस तेंतीस (33) बरस तमाम ज़माने में अव्वल से लेकर आख़िर तक यहूदी और ईसाई कुतुब रब्बानी के वास्ते गवाही साफ़ और शहादत सरीह (साफ़, वाज़ेह) देती है।

क़ुरआन की आयात कसीर में ऐसे क़िसस (क़िस्सा की जमाअ) व रिवायत भी लिखे हैं जो यहूद व नसारा की कुतुब रब्बानी में दर्ज हैं और बहुत मुक़ामात पर इन क़िसस और रिवायतों का वही डोल और वही तरीक़ा है जो तौरेत और इंजील में है बल्कि बाअज़ बाअज़ जगह तो अल्फ़ाज़ ताबिक उल-नअल बा-नअल طابق النعل بالنعل (दो आदमी या चीज़ें एक दूसरे से ऐन मुताबिक़ हो जाएं तो ये मिस्ल बोलते हैं) मिल जाते हैं। चुनान्चे हुबूत आदम (आदम की पैदाइश) और हव्वा का बयान और नूह और तूफ़ान और इब्राहिम और सारा और इस्हाक़ और लूत के क़िसस (किस्से, क़िस्सा की जमा) और सैदा और उमूरह की तबाही और मूसा और यूसुफ़ की तारीखें और ज़करीया और युहन्ना इस्तिबाग़ी (बपतिस्मा देने वाले) और ईसा मसीह और उन की पेशख़बरी बज़बान जिब्राईल और उनका बाकिरह (कुँवारी दोशीज़ा, कुँवारी लड़की) मर्यम के हमल में आना और मुतवल्लिद (पैदा) होना इन सब अम्रों में बल्कि इलावा इस के अक्सर मुक़ामात तौरेत व इंजील पर क़ुरआन ताईद करता और उन की शहादत (गवाही) देता है।

इस मुताबिक़त से एक ये भी दलील निकल सकती थी कि कुतुब-ए-मुक़द्दसा की किस-किस बात का क़ुरआन इस्तिहकाम करता है, मगर मुसन्निफ़ ने यहां इस बहस को मुतलक़ ना छेड़ा और जिस मंशा से क़लम उठाया था उसी पर साबित-क़दम रहा क्योंकि इस तताबिक़ और तवाफ़िक़ पर हवाला देने बग़ैर भी हमारी दलीलें मुकम्मल हैं और अहले इस्लाम जिनके दिल में ग़ौर और ताम्मुल (सोच बिचार, फ़िक्र, अंदेशा) का माद्दा है वो ख़ुद अपने क़ुरआन का तौरेत व इंजील से मुक़ाबला कर के उस के नतीजे को पहुंच जाऐंगे।

ये भी वाज़ेह रहे कि बाअज़ ऐसी आयतें क़ुरआन में हैं कि जिनका इंदराज इस किताब में होना चाहीए था लेकिन चूँकि वो सब एक ही क़बील के हैं और उन के दर्ज करने में तवालत (लंबी) हो जाती इस वास्ते हमने उन की नक़्ल करने की ज़रूरत ना समझी और यहां पर उन के मुजम्मलन तज़किरे पर इक्तिफ़ा किया। यानी ये आयतें वो हैं कि जिनमें यहूद व नसारा को अहले किताब اَہۡلِ کِتاَبِ यानी किताब वाला समझें या अहले इंजील اَہۡلِ اِنۡجِیۡل यानी इंजील वाला या الَّذِیۡنَ اُوۡتُو الۡکِتاَبَ यानी वो जिन्हें किताब दी गई। या الَّذِیۡنَ اٰتَیۡنآہُمُ الۡکِتابَ यानी वो जिनको हमने किताब दी। या الَّذِیۡنَ اٰتَیۡنآہُمُ نَصِیْبًا مِّن الۡکِتابَ यानी वह जिनको हमने किताब का हिस्सा दिया। या اَہۡلِ ذکرِ यानी साहिब-ए-ज़िक्र या साहिब-ए-किताब इलाही कि जिसमे ज़िक्र है। ये क़रीब पचास जगह के इसी तौर पर लिखा है। ग़रज़ इस्लाम से पेशतर यहूद व नसारा के पास लिखी हुई किताब रब्बानी का मौजूद होना ऐसा मशहूर व मारूफ़ था कि उनका ये नाम ही पड़ गया था और اَہۡلِ کِتاَب यानी “किताब वालों” के नाम से अवाम उन्हें पुकारते थे। पस ऐसे अल्फ़ाज़ क़ुरआन में इस कस्रत से हैं और क़ुरआन पढ़ने वाले इनसे ऐसे वाक़िफ़ हैं कि अब इस किताब में उनका बिल-तफ़सील (वज़ाहत के साथ) मुंदरज करना महज़ फ़िज़ूल समझा गया।

अगर इस किताब के पढ़ने से किसी के दिल पर ये ख़्याल गुज़रे कि ये सब आयतें जो इस किताब में दर्ज हुई हैं उनमें से बाअज़ बाअज़ मंशा-ए-मुसन्निफ़ से दूर दराज़ हैं तो इस तवालत को मुसन्निफ़ ने सिर्फ इसी लिहाज़ से गवार किया कि कोई शख़्स इस इंतिख्व़ाब को ना-मुकम्मल ना समझे या ये शुब्हा दिल में ना लाए कि जो आयतें ईसाईयों के मुफ़ीद मतलब समझें वही इंतिख्व़ाब कर लीं बाक़ी फ़िरोगुज़ाश्त (चशमपोशी करना) कीं। चुनान्चे बदफआत ख़बरदारी के साथ शुरू से आख़िर तक सारा क़ुरआन पढ़ कर जिस जिस आयत में ज़र्रा भी ज़िक्र या इशारा केत मुक़द्दस का पाया फ़र्दन फ़र्दन सबको इंतिख्व़ाब कर लिया और इस किताब में बतर्तीब उन सबको दर्ज किया।

बाब अव़्वल

सुरह मक्की का इंतिख्व़ाब

फ़स्ल 1

(सुरह आअ्ला 87 आयत 18-19)

اِنَّ ہٰذَا لَفِی الصُّحُفِ الۡاُوۡلٰی(ۙ۱۸) صُحُفِ اِبۡرٰہِیۡمَ وَ مُوۡسٰی(۱۹)

तर्जुमा :- बिल-तहक़ीक़ यही है पहली किताबों में, किताबों में इब्राहिम व मूसा की।

अगर तारीख़-वार चलें तो क़ुरआन के दर्मियान किताब-ए-मुक़द्दस का ज़िक्र अव्वल इसी मुक़ाम में मिलता है जलाल उद्दीन इस आयत की तफ़्सीर में लिखता है :-

اِنَّ ھٰذَا ای افلاح من تزکی وکون الاٰخرۃ خیر الفے الصحف الاولٰی المنز لہ قبل القران

तर्जुमा :- बिला-तहक़ीक़ ये है यानी बेहतरी और बहबूदी नेकों की आख़िरत में पहली किताबों में यानी उन किताबों में जो क़ुरआन से पहले नाज़िल हुईं।

फ़स्ल 2

(सुरह नज्म 53 आयत 36-39)

اَمۡ لَمۡ یُنَبَّاۡ بِمَا فِیۡ صُحُفِ مُوۡسٰی(ۙ۳۶) وَ اِبۡرٰہِیۡمَ الَّذِیۡ وَفّٰۤی(ۙ۳۷) اَلَّا تَزِرُ وَازِرَۃٌ وِّزۡرَ اُخۡرٰی(ۙ۳۸) وَ اَنۡ لَّیۡسَ لِلۡاِنۡسَانِ اِلَّا مَا سَعٰی(ۙ۳۹)

तर्जुमा :- क्या उसे उस की ख़बर ना पहुंची जो ये कुतुब मूसा और इब्राहिम में जिसने वफ़ा की कि बोझझ वाला दूसरे का बोझ नहीं उठाता और नहीं है इन्सान के वास्ते बाख़बर इस के जो उस ने कमाया... अलीख

ये भी आयत मिस्ल आयत गुज़शता के साबिक़ आस्मानी नविश्तों पर हवाला देती है और इलावा इस के उन किताबों के मज़्मून का ख़ुलासा है यहां मुंदरज है यानी जो इन्सान की जवाबदेही, जज़ा (नेकी का बदला जो आख़िरत में मिलेगा, सवाब, इनाम) और सज़ाए आइंदा और ख़ुदा की क़ज़ा व क़दज़ (फ़रमान ईलाही) से मुताल्लिक़ है और इस बयान के बाद ये इबारत है :-

ھٰذَانَذِیْد مِّن النّذِرِ الاْ وْلٰے

तर्जुमा :- ये (यानी मुहम्मद साहब) नसीहत करने वाला उन अगले नसीहत करने वालों में से है यानी इस्लाम का पैग़म्बर उन की मानिंद है।

इस आयत में जो सहफ़ इब्राहिम (सहीफ़ा की जमा वो किताब जो नाज़िल हुई) का ज़िक्र है इस से मुराद इन मक़ूलात और हालात इब्राहीमी से मालूम होती है जो तौरेत में शामिल हैं क्योंकि यहूदीयों के दर्मियान कोई किताब इब्राहिम की राइज ना थी और ऐसा सारे क़ुरआन में कहीं कोई इशारा नहीं पाया जाता जिससे शुब्हा हो कि पैग़म्बर इस्लाम के वक़्त में जो किताबें यहूदों के दर्मियान राइज थीं और जिनको वो इल्हाम इलाही समझे थे इनके सिवा किसी और किताब से भी पैग़म्बर इस्लाम ने मुराद ली हो।

वाज़ेह हो कि ये सूरह नज्म अगरचे तारीख़ के लिहाज़ से ज़रा पीछे लिखा जाना चाहीए था लेकिन चूँकि इस का मज़्मून फ़स्ल अव्वल मज़्मून से मुवाफ़िक़ है लिहाज़ा इसी मुक़ाम पर लिख दिया।

फ़स्ल 3

(सुरह अबस 80 आयत 11-16)

اِنَّہَا تَذۡکِرَۃٌ (ۚ۱۱) فَمَنۡ شَآءَ ذَکَرَہٗ (ۘ۱۲) فِیۡ صُحُفٍ مُّکَرَّمَۃٍ (ۙ۱۳) مَّرۡفُوۡعَۃٍ مُّطَہَّرَۃٍۭ (ۙ۱۴) بِاَیۡدِیۡ سَفَرَۃٍ (ۙ۱۵) کِرَامٍۭ بَرَرَۃٍ

तर्जुमा :- बा-तहक़ीक़ ये याददहानी है पस जिनसे चाहा इसे याद किया मुकर्रमा मर्फ़ूअ अह मुतह्हरा किताबों में (लिखी हुई) हाथों से बुज़ुर्ग और नेक लिखने वालों के।

इस आयत में क़ुरआन का ज़िक्र मालूम होता है। लेकिन चूँकि बाअज़ नामी मुफ़स्सिरों ने इस के मअनी हैं वही किताबें समझी हैं जो साबिक़ नबियों की और जिनसे दावा है कि क़ुरआन मुताबिक़ है इस वास्ते ये भी इस मुक़ाम पर बंज़र तकमिला दर्ज कर गई।

फ़स्ल 4

(सुरह अल-सज्दा 32 आयत 23-25)

وَ لَقَدۡ اٰتَیۡنَا مُوۡسَی الۡکِتٰبَ فَلَا تَکُنۡ فِیۡ مِرۡیَۃٍ مِّنۡ لِّقَآئِہٖ وَ جَعَلۡنٰہُ ہُدًی لِّبَنِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَوَ جَعَلۡنَا مِنۡہُمۡ اَئِمَّۃً یَّہۡدُوۡنَ بِاَمۡرِنَا لَمَّا صَبَرُوۡا ۟ وَ کَانُوۡا بِاٰیٰتِنَا یُوۡقِنُوۡنَ اِنَّ ربّکَ ہُوَ یَفۡصِلُ بَیۡنَہُمۡ یَوۡمَ الۡقِیٰمَۃِ فِیۡمَا کَانُوۡا فِیۡہِ یَخۡتَلِفُوۡنَ

तर्जुमा :- और बा-तहक़ीक़ हमने दी मूसा को किताब पस तू शुबहे (शक) में मत पड़ उस के मिलने में और हमने बनाया उसे हिदायत करने वाला बनी-इस्राईल के वास्ते और बनाए हमने उनमें से इमाम जो हिदायत करते हैं बमोजब हमारे हुक्म के जब कि वो मुस्तहकिम है और यक़ीन करते रहे हमारी आयतों पर। बा-तहक़ीक़ जो है, तेरा रब वही फ़ैसला करेगा क़ियामत के दिन उनके दर्मियान इस बात में जिसका वो इख़्तिलाफ़ रखते हैं।

इस आयत में जिस किताब का ज़िक्र है वो तौरेत है कि बनी-इस्राईल को बतौर हिदायत रब्ब-उल-आलमीन ने इल्हाम की थी। मुहम्मद साहब को इस आयत में हुक्म है कि इस इल्हामी नविश्ते के मिलने यानी क़ुबूल करने और मान लेने में शुब्हा ना लाएंगे।

वाज़ेह हो कि बाअज़ इस के मअनी यूं कहते हैं कि मुहम्मद साहब को क़ुरआन के क़ुबूल करने में शुब्हा ना लाना चाहीए या कि मूसा से मलाक़ी (मुलाक़ात करने वाला) होने में या कि मूसा की तौरेत को क़ुबूल करने में, चुनान्चे बैज़ावी लिखता है :-

مِّن لقْائک الْکِتَابَ اوْمِّن لِّقْاء مُوسَیٰ الْکِتَابَ اوْمِّن لِّقْاء مُوسَیٰ

तर्जुमा :- लेकिन इनमें भी अगर कोई मअनी दस्त हों तो इस शहादत में जो बनिस्बत किताब मूसा के इस आयत में दर्ज है ख़लल नहीं डालते।

मा सिवा इस के इस आयत से ये भी बात निकलती है कि तौरेत बनी-इस्राईल के दर्मियान बराबर जारी चली आई और ख़ुदा ने उनको पेशवा बख़्शे जिन्हों ने इस के अहकाम के बमोजब उन्हें हिदायत इन हुक्मों के जो इल्हामी नविश्तो मज़्कूरह बाला में दिए गए, चुनान्चे बैज़ावी है :-

یھدُوْنَ النّاسَ الٰی مافیہ مِّن الحْمکم وْالَاحکَامْ بِاَمْرِنَا ایِاھْمِ بدّاِوتبِوْفقّیْنَالہْ

तर्जुमा :- हिदायत करें लोगों को इस की तरफ़ जो इस में है हुक्म और अहकाम से बमोजब हमारे, बा-तहक़ीक़ उन्हीं लोगों को बवास्ते इसी किताब के या हमारी मदद से इस पर।

یُوْقِنُوْنَ لَامعْاَنھِم فْیِّھااْلنْظِرْ

तर्जुमा :- यक़ीन करते हैं अपनी नज़र इस में गड़ाने के बाइस फ़क़त

पस उन ज़मानों में यहूदी लोग सच्चे ईमान पर साबित-क़दम रहते थे और इन इल्हामी किताबों पर यक़ीन सादिक़ रखते थे लेकिन फिर पीछे से वो लोग आपस ही में एक दूसरे से या कि ईसाईयों से अपनी किताब के मअनी मुख़्तलिफ़ लगाने लगे और इसी वास्ते इस आयत में ही भी कहा है कि“बा-तहक़ीक़ जो ये तेरा रब वही फ़ैसला करेगा क़ियामत के दिन उनके दर्मियान इस बात में जिसकी बनिस्बत वह इख़्तलाफ़ रखते हैं।”

ग़रज़ इस आयत से ये साफ़ मुतरश्शेह (तर्शिह करने वाला, टपकने वाला) है कि अगरचे यहूदीयों के दर्मियान किताब मुक़द्दस के मअनी के बयान में गलतीयां और अपने अक़ीदों में इख़्तिलाफ़ पड़ गया था ताहम किताब मज़्कूर बराबर जारी चली आई और महफूज़ रही।

फ़स्ल 5

(सुरह अल-ज़ुमर 39 आयत 64-65)

قُلۡ اَفَغَیۡرَ اللّٰہِ تَاۡمُرُوۡٓنِّیۡۤ اَعۡبُدُ اَیُّہَا الۡجٰہِلُوۡنَ وَ لَقَدۡ اُوۡحِیَ اِلَیۡکَ وَ اِلَی الَّذِیۡنَ مِنۡ قَبۡلِکَ ۚ لَئِنۡ اَشۡرَکۡتَ لَیَحۡبَطَنَّ عَمَلُکَ وَ لَتَکُوۡنَنَّ مِنَ الۡخٰسِرِیۡنَ

तर्जुमा :- कह कि ऐ जाहिलो क्या तुम मुझको अल्लाह से ग़ैर की इबादत करने का हुक्म देते हो और तहक़ीक़ कि तेरे पास और तुझसे अगलों के पास वही भेजी गई कि अगर तूने (किसी को) शरीक माना (ख़ुदा का) अकारत (बेफ़ाइदा) जाऐंगे तेरे अमल और तू होगा ख़सारे में।

इस आयत में लिखा है कि पाक अक़ीदा तुझसे अगले लोगों पर भी मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) किया गया था यानी जैसा कि मुहम्मद साहब को इस बात का इल्हाम हुआ वैसा ही उन से पहलें नबियों को भी इस का इल्हाम हुआ था चुनान्चे बैज़ावी लिखता है :-

اِلَیٰ لَّذِیَن مِّنْ قَبْلِکَ ای مِّنْ الّزسِلْ

और इस से ये निकलता है कि साबिक़ नबीयों के अक़ीदे और तअलीम जैसी कि वो पैग़म्बर इस्लाम के वक़्त उनके नविश्तों में यानी तौरेत और इंजील में मुंदरज थी सही और शिर्क से पाक थी।

फ़स्ल 6

(सुरह अल-क़मर 54 आयत 43)

اَکُفَّارُکُمۡ خَیۡرٌ مِّنۡ اُولٰٓئِکُمۡ اَمۡ لَکُمۡ بَرَآءَۃٌ فِی الزُّبُرِ

तर्जुमा :- (ऐ मक्के वालो) क्या तुम्हारे कुफ़्फ़ार बेहतर हैं तुम्हारे पहलों से (यानी ज़माना नूह लूत व मूसा वग़ैरह के से जिन के ऊपर ज़िक्र आया है) या तुम्हारे वास्ते छुट्टी है कुतुब मुक़द्दस में?

अल-ज़बर किताब الزبر کتاب मारूफ़ बमअनी किताब मुक़द्दस। जलाल उद्दीन الزّبرامی الۡکِتٰبَ लिखता है और बैज़ावीکِتٰبَ السَّمٰویलिखता है।

यानी किताबे आस्मानी और मुराद इस से उन्हीं क़ुतुब मुक़द्दसा से है जो इन अय्याम में मौजूद थीं और मक्के वालों को इन्हीं की तरफ़ इशारा कर के कहा गया था कि काफ़िर या बुतपरस्त के वास्ते इन कुतुब-ए-मुक़द्दसा में किसी में भी बरात (हिस्सा, हुक्मनामा) नहीं है। ये आयत कुछ ऐसी ज़रूरी नहीं है ताहम तकमीले के वास्ते दर्ज गई।

फ़स्ल 7

(सुरह सबा 34 आयत 6)

وَ یَرَی الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡعِلۡمَ الَّذِیۡۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡکَ مِنۡ ربّکَ ہُوَ الۡحَقَّ ۙ وَ یَہۡدِیۡۤ اِلٰی صِرَاطِ الۡعَزِیۡزِ الۡحَمِیۡدِ

तर्जुमा :- और जिनको इल्म दिया गया है वो देखते हैं कि जो कुछ तेरे रब ने तुझ पर नाज़िल किया वो हक़ है और तरफ़ राह़-ए-रास्त और तरीक़ पसंदीदा के हिदायत करता है।

इल्म से मुराद यहां वाक़फ़ीयत है इल्हामात साबिक़ से। जिनको इल्म दिया गया यानी मोमिनान-ए-यहूदी व ईसाई चुनान्चे जलाल उद्दीन लिखता है مُومنْوٰ اَہۡلِ الۡکِتٰبَ कई आयतों से जो आगे मज़्कूर होंगी इस आयत के यही दावे और मअनी साबित हैं कि जो यहूद और ईसाई कुतुब आस्मानी के इल्हाम से वाक़िफ़ हैं और जिन्हों ने इनसे इल्म रब्बानी हासिल किया इसी इल्म के सबब से क़ुरआन को भी इल्हामी पहचाना।

फ़स्ल 8

(सुरह सबा 34 आयत 31)

وَ قَالَ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا لَنۡ نُّؤۡمِنَ بِہٰذَا الۡقُرۡاٰنِ وَ لَا بِالَّذِیۡ بَیۡنَ یَدَیۡہِ

तर्जुमा :- और काफ़िरों ने कहा कि हम हरगिज़ ईमान ना लाएँगे इस क़ुरआन पर और ना उस पर जो इस से आगे है।

الَّذِیۡ بَیۡنَ یَدَیۡہِ के लफ़्ज़ी मअनी वो जो दर्मियान उस के हाथों के है यानी वही इल्हामी किताबें जो क़ुरआन से पहले नाज़िल हुईं और साबिक़ से मौजूद हैं। बैज़ावी इस की तफ़्सीर में लिखता है :-

وْلَابماَتقِدَمِہْ مِّن الۡکِتابَ الْذا لِۃْ عْلَی الْبِعثْ

यानी ना हम लोग इस क़ुरआन पर ईमान लाएँगे और ना इस से अगली किताबों पर जो मुहम्मद साहब की पैग़म्बरी पर दलालत करती हैं।

और जलाल उद्दीन साफ़ लिखता है :-

کالتَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ

यानी मिस्ल तौरेत व इंजील के

मुहम्मद साहब ने मक्के वालों को इस बात के इस्बात (सबूत की जमा) के लिए कि रोज़-ए-क़यामत को मुर्दे उठेंगे जैसा क़ुरआन पर हवाला दिया वैसा ही यहूदीयों और ईसाईयों की कुतुब आस्मानी पर भी हवाला दिया जिस पर मक्के वालों ने जवाब दिया कि हम दोनों को नहीं मानते। ये भी अम्र लायक़ लिहाज़ के है कि जिस तौर पर इस आयत में मक्के वाले यहूदी और ईसाईयों की कुतुब समावी का ज़िक्र करते हैं। तर्ज़-ए-इबारत से साफ़ ये बात पाई जाती है कि इस मुल्क में यहूदी और ईसाईयों की कुतुब-ए-मुक्द्दसा मौजूद और जारी और माअरूफ़ थीं यहां तक कि अवामून्नास (लोग) बख़ूबी उनकी शौहरत से वाक़िफ़ थे।

फ़स्ल 9

(सुरह फुस्सिलत 41 आयत 45)

وَ لَقَدۡ اٰتَیۡنَا مُوۡسَی الۡکِتٰبَ فَاخۡتُلِفَ فِیۡہِ

तर्जुमा :- और तहक़ीक़ कि हमने मूसा को किताब दी फिर इस में इख़्तिलाफ़ पड़ा।

फ़स्ल 10

(सुरह अल-जासीया 45 आयत 16-17)

وَ لَقَدۡ اٰتَیۡنَا بَنِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَ الۡکِتٰبَ وَ الۡحُکۡمَ وَ النُّبُوَّۃَ وَ رَزَقۡنٰہُمۡ مِّنَ الطَّیِّبٰتِ وَ فَضَّلۡنٰہُمۡ عَلَی الۡعٰلَمِیۡنَوَ اٰتَیۡنٰہُمۡ بَیِّنٰتٍ مِّنَ الۡاَمۡرِ ۚ فَمَا اخۡتَلَفُوۡۤا اِلَّا مِنۡۢ بَعۡدِ مَا جَآءَہُمُ الۡعِلۡمُ ۙ بَغۡیًۢا بَیۡنَہُمۡ اِنَّ ربّکَ یَقۡضِیۡ بَیۡنَہُمۡ یَوۡمَ الۡقِیٰمَۃِ فِیۡمَا کَانُوۡا فِیۡہِ یَخۡتَلِفُوۡنَ

तर्जुमा :- और बा-तहक़ीक़ हमने दी बनी-इस्राईल को किताब और हुक्म नबुव्वत और खाने को सुथरी चीजे और बुज़ुर्ग अता किए उनको तमाम आलम से। और हमने दी उनको साफ़ साफ़ बातें इस अम्र में (यानी दीन में) और उनमें इख़्तिलाफ़ ना पड़ा तावक़्त ये कि (इस वक़्त तक, जब तक) वो इल्म रब्बानी उनके पास ना आया बग़ावत की राह से आपस में। बा-तहक़ीक़ तेरा रब यौम क़ियामत को इस अम्र का जिसमें वो इख़्तिलाफ़ रखते हैं उनके दर्मियान इन्साफ़ करेगा।

इस आयत में इलावा इस शहादत के कि यहूदीयों की किताब आस्मानी ख़ुदा की दी हुई है। उन ग़लतीयों का हाल भी खुल जाता है कि जिनमें क़ुरआन के दावे बमूजब इस किताब के मानने वाले पड़े थे। किताब मज़्कूर में उनकी हिदायत के वास्ते साफ़ साफ़ अहकाम तो थे पर बावजूद इस इल्म और हिदायत रब्बानी के उनके दर्मियान इख़्तिलाफ़ पड़ गया सो इशारा इस इख़्तिलाफ़ की तरफ़ मालूम होता है यहूदी और ईसाईयों के दर्मियान पड़ा था और जिसके रफ़ाअ करने वास्ते क़ुरआन कहता है कि मुहम्मद साहब भेजे गए। पस इस आयत की इबारत से ये इख़्तिलाफ़ात सिर्फ़ आपस के रश्क व हसद और ज़िद दुशमनी से पड़ गए थे इस किताब के नुक़्स या ख़राबी के बाइस नहीं पड़े थे।

फ़स्ल 11

(सुरह अल-साफ़्फ़ात 37 आयत 35-37)

اِنَّہُمۡ کَانُوۡۤا اِذَا قِیۡلَ لَہُمۡ لَاۤ اِلٰہَ اِلَّا اللّٰہُ ۙ یَسۡتَکۡبِرُوۡنَوَ یَقُوۡلُوۡنَ اَئِنَّا لَتَارِکُوۡۤا اٰلِہَتِنَا لِشَاعِرٍ مَّجۡنُوۡنٍبَلۡ جَآءَ بِالۡحَقِّ وَ صَدَّقَ الۡمُرۡسَلِیۡنَ

तर्जुमा :- ऐसे हैं कि जब इनसे कहा जाता है कि सिवाए अल्लाह के और कोई ख़ुदा नहीं है तो वो गुरूर करते और कहते हैं कि क्या हम लोग एक दीवाने शायर के कहने से अपने ख़ुदाओं को छोड़ देंगे (नहीं) बल्कि वो लाया हक़ और पहले रसूलों की तस्दीक़ करता है।

जब कि मक्के वालों ने दुश्मनी पर कमर बाँधी तो उनकी इस बोहतान बंदी (इल्ज़ाम तराशी) के जवाब में कि मुहम्मद साहब शायर मजनूं (दीवाना, पागल, सौदाई) में उन्होंने अपने दावे के सबूत के लिए यही कहा किमैं हक़ बात लाया हूँ और पहले रसूलों की बातों की तस्दीक़ करता हूँ।

फ़स्ल 12

(सुरह अल-साफ़्फ़ात 37 आयत 114-118)

وَ لَقَدۡ مَنَنَّا عَلٰی مُوۡسٰی وَ ہٰرُوۡنَ وَ نَجَّیۡنٰہُمَا وَ قَوۡمَہُمَا مِنَ الۡکَرۡبِ الۡعَظِیۡمِ وَ نَصَرۡنٰہُمۡ فَکَانُوۡا ہُمُ الۡغٰلِبِیۡنَۚ وَ اٰتَیۡنٰہُمَا الۡکِتٰبَ الۡمُسۡتَبِیۡنَ وَ ہَدَیۡنٰہُمَا الصِّرَاطَ الۡمُسۡتَقِیۡمَ

तर्जुमा :- और फ़िल-हक़ीक़त हमने एहसान किया मूसा और हारून पर और हमने बचा दिया उनको और उनकी क़ौम को सख़्ती अज़ीम से और हमने उनकी मदद की पस वो ग़ालिब निकले और हमने उनको किताब वाज़ेह दी और हमने उनको सीधी राह दिखलाई।

बैज़ावी और जलाल उद्दीन दोनों किताब वाज़ेह से मुराद तौरेत लेते हैं और साफ़ लिखते हैं :- ھِوْالتَّوۡرٰىۃَ

फ़स्ल 13

(सुरह शुअरा 26 आयत 19)

وَ اِنَّہٗ لَتَنۡزِیۡلُ ربّ الۡعٰلَمِیۡنَ نَزَلَ بِہِ الرُّوۡحُ الۡاَمِیۡنُۙ عَلٰی قَلۡبِکَ لِتَکُوۡنَ مِنَ الۡمُنۡذِرِیۡنَ بِلِسَانٍ عَربیٍّ مُّبِیۡنٍ وَ اِنَّہٗ لَفِیۡ زُبُرِ الۡاَوَّلِیۡنَ اَوَ لَمۡ یَکُنۡ لَّہُمۡ اٰیَۃً اَنۡ یَّعۡلَمَہٗ عُلَمٰٓؤُا بَنِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَ

तर्जुमा :- और बा-तहक़ीक़ ये उतरा है रब्ब-उल-आलामीन से। उतारा रूह-उल-अमीन ने इसे। तेरे दिलपर ताकि तू भी एक डराने वाला हो। साफ़ ज़बान अरबी में और बा-तहक़ीक़ ये है पहलों के सहीफ़ों में और क्या उनके वास्ते ये निशानी नहीं हुई कि बनी-इस्राईल के उलमा इसे जानते हैं।

इस बात के सबूत में कि क़ुरआन वही आस्मानी है। मुहम्मद साहब ने मक्के वालों से कहा कि ये है पहलों की किताब में यानी ये कि इस का ज़िक्र पहले नबियों की किताब में दर्ज है या इल्हामात मुंदरजा क़ुरआन का भी वही मतलब है जो कुतुब अम्बिया-ए-साबिक़ में लिखा है, चुनांचे बैज़ावी कहता है :-

اِنْ ذِکَرہْ اوْمِعَماَہْ لِفْی الۡکِتٰبَ الَمتَّقْدمِۃ

यानी इस का ज़िक्र इस के मअनी कुतुब मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) में मर्क़ूम हैं और कुतुब मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) यहूदी और ईसाईयों के इल्हामात रब्बानी हैं।

चुनान्चे जलाल उद्दीन साफ़ लिखता है :-

کالتَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ۔

फिर इस दलील की मज़बूती के वास्ते ये भी आयत में कह दिया गया वो लोग इस बात को क़ुरआन और मुहम्मद साहब की नबुव्वत की तस्दीक़ नहीं पहचानते। सो उलमा बनी-इस्राईल ने क़ुरआन को रब्बानी जाना और इस लिहाज़ से कि वह उन की किताबों से मुवाफ़िक़ है माना। चुनान्चे बैज़ावी अपनी तफ़्सीर में दर्ज करता है।

اِنْ یعرَفْوہْ بْنِعَیتِہْ المَذِکوْرِۃْ فْیَى کُتَبِہٰمْ

यानी उन्होंने पहचान लिया इस को उन निशानों से जो कि उनकी किताबों में मज़्कूर है।

इस में शक लाना ज़रूरी नहीं कि मुहम्मद साहब को अपनी नबुव्वत की पेशगोई का कुतुब साबिक़ में होना दिल से मुतयक़्क़न (यक़ीन करने वाला) था, और इस में भी शुब्हा नहीं कि चंद आलिम यहूदीयों ने इस भरोसे पर कि मुहम्मद साहब हमारी किताब रब्बानी बदिल तस्दीक़ करते और बहाल व बरक़रार रखते हैं उनके इल्हाम और उनकी नबुव्वत की शहादत दे दी। अब इस मुक़ाम पर हमारी ग़रज़ कुछ ये नहीं है कि इन वजहों (वजूहात) को जिन पर इस शहादत की बिना पड़ी तफ़्तीश करें बल्कि हमारा मतलब सिर्फ इस बात के ज़ाहिर करने से है कि देखो क़ुरआन में यहूदीयों की किताब-ए-मुक़द्दस का किस तौर पर ज़िक्र किया है। यानी ऐसी किताबों का ज़िक्र है जो उस वक़्त यहूदीयों के दर्मियान मौजूद और राइज थीं। आयत का मतलब ये है कि किताब मज़्कूर का मज़्मून क़ुरआन से इस क़द्र मुताबिक़ था कि मक्के वालों से बहस के वक़्त वही मुताबिक़त ख़ुद क़ुरआन के रब्बानी होने की एक दलील थी और इस दलील की ताईद उलमा-ए-यहूद की शहादत से ऐसी तर्ज़ पर हुई कि जिससे ये ज़रूर निकलता है कि वो अपनी किताबों से बख़ूबी माहिर और वाक़िफ़ थे।

ऐसी बात उन्हीं किताबों की बनिस्बत लिखी जा सकती है कि जो मौजूद हों और असली हों और हुक्म शराअ (सीधा रास्ता) रखती हों। पस मुहम्मद साहब किताब मुक़द्दस को ऐसा ही समझते थे और उनमें ग़लती या तहरीफ़ व तसहीफ़ होने का मुतलक़ शुब्हा ना रखते थे।

फ़स्ल 14

(सुरह अल-अहक़ाफ़ 46 आयत)

اِیۡتُوۡنِیۡ بِکِتٰبٍ مِّنۡ قَبۡلِ ہٰذَاۤ اَوۡ اَثٰرَۃٍ مِّنۡ عِلۡمٍ اِنۡ کُنۡتُمۡ صٰدِقِیۡنَ

तर्जुमा :- अगर तुम सच्चे हो तो लाओ मेरे पास किताब इस से पहली की, या कोई आसार इल्म का।

मुहम्मद साहब इस मुक़ाम पर मक्के वालों से कहते हैं कि अगर कोई किताब आस्मानी या आसार इल्म रब्बानी रखते हो तो अपने इस अक़ीदे के सबूत में कि बुत-परस्ती के वास्ते ख़ुदा की इजाज़त है या कि इस के तक़र्रुब (नज़दीकी ढूंढने) के वसीले हैं पेश करो क्योंकि मुहम्मद साहब ने जब बुत-परस्ती की तर्दीद की तो मक्के वालों ने यही उज़्र पेश किया था कि बुत सिर्फ़ ख़ुदा की तक़रीब के वसीले हैं।

अगरचे यहां यहूदी और ईसाईयों की किताबों का साफ़ ज़िक्र नहीं है लेकिन अगर उनके दर्मियान ख़्वाह अस्ल में ख़्वाह तहरीफ़ व तसहीफ़ से किसी तरह पर भी कोई बात बजुज़ (इस के सिवाए) परस्तिश ज़ात लाशरीक व वाहिद पाक परवरदिगार के निकलती होती तो मुहम्मद साहब हरगिज़ इस तरह से उन पर हवाला ना देते क्योंकि ग़रज़ उनके कहने की साफ़ यही मालूम होती है कि“ऐ मक्के वालो चाहो जितना तुम कुतुब इलाही मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) में तलाश करो अपने इस बुत-परस्ती के अक़ीदे के सबूत में एक हर्फ़ भी ना पाओगे।”

फ़स्ल 15

(सुरह अल-अहक़ाफ़ 46 आयत)

قُلۡ اَرَءَیۡتُمۡ اِنۡ کَانَ مِنۡ عِنۡدِ اللّٰہِ وَ کَفَرۡتُمۡ بِہٖ وَ شَہِدَ شَاہِدٌ مِّنۡۢ بَنِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَ عَلٰی مِثۡلِہٖ فَاٰمَنَ وَ اسۡتَکۡبَرۡتُمۡ اِنَّ اللّٰہَ لَا یَہۡدِی الۡقَوۡمَ الظّٰلِمِیۡنَ

तर्जुमा :- कह क्या समझते हो अगर ये हो अल्लाह के यहां से और तुमने उस को नहीं माना और गवाही दे चुका एक गवाह बनी-इस्राईल का एक ऐसी ही किताब की और यक़ीन लाया और तुमने ग़रूर क्या बेशक अल्लाह हिदायत नहीं करता क़ौम ज़ालमीन को।

यहां मक्के वालों को एक यहूदी का हवाला दिया है ख़्वाह वो मक्के के मुत्तसिल (मिला हुआ, नज़दीक इत्तिसाल रखने वाला, पास, बराबर मिलने वाला) रहता था ख़्वाह मदीने से या और किसी मुक़ाम से मक्के में आ गया था। बहर-सूरत मक्के वालों को इस से शनासाई थी। उसने क़ुरआन की अपनी किताब मुक़द्दस से मुताबिक़ होने की गवाही दी और इसी बाइस इस पर यक़ीन लाया। पस मुहम्मद साहब कहते हैं कि क्या इस से क़ुरआन के इल्हाम रब्बानी होने का इस्बात (साबित) नहीं होता और फिर तुम गुरूर से इस पर यक़ीन लाते।

चुनान्चे बैज़ावी लिखता है :-

عْلٰی مثلہْ مْثِل الَقُراٰنْ و ہوْماَ فَيْی التَّوۡرٰىۃَ مِّنْ الَمعْانے المّصَدِقۃْ لٰلقِرانْ وْالَمطاَبِقۃْ لہ اوْ الَماَرٰی مِّنْ خَبرالَوْحْی مطاَبقًاَ للحَقّ۔ عْلٰی مثلہْ

जिसका मुतालिब ये है कि जो कुछ तौरेत में है उस के मअनी क़ुरआन के मुताबिक़ या मिस्ल क़ुरआन के हैं और इस लिहाज़ से क़ुरआन को तस्दीक़ करता है और उस का مِّنْ عِنْداللہْ यानी रब्बानी होना भी साबित करता है।

فِامِّنْऔर ईमान लाया यानी जब कि उस ने वही की ख़बर हक़ के मुताबिक़ देखी तो क़ुरआन पर ईमान लाया। ग़रज़ यहां क़ुरआन की सदाक़त के इस्बात को उस यहूदी की गवाही पर हवाला दिया है जिसने क़ुरआन के मअनी को अपनी कुतुब रब्बानी के मुताबिक़ समझ कर ये नतीजा निकाला कि क़ुरआन भी रब्बानी है। हक़ीक़त में ये हवाला मिस्ल और मुक़ामों के ख़ुद उन इल्हामी किताबों पर है जो उस वक़्त यहूदीयों के दर्मियान हुक्म शराअ रखती थीं और कुतुब मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने की किताबों) को क़ुरआन की वजह सबूत क़ायम करने से ये बात निकलती है कि उन किताबों को मुहम्मद साहब कुछ सिर्फ़ शरई और रब्बानी ही तसव्वुर नहीं करते थे बल्कि असली और मोअतबर और बग़ैर तग़य्युर और तब्दील (तब्दीली) के।

फ़स्ल 16

(सुरह अल-अहक़ाफ़ 46 आयत 11-12)

وَ اِذۡ لَمۡ یَہۡتَدُوۡا بِہٖ فَسَیَقُوۡلُوۡنَ ہٰذَاۤ اِفۡکٌ قَدِیۡمٌ وَ مِنۡ قَبۡلِہٖ کِتٰبُ مُوۡسٰۤی اِمَامًا وَّ رَحۡمَۃً ؕ وَ ہٰذَا کِتٰبٌ مُّصَدِّقٌ لِّسَانًا عربیا لِّیُنۡذِرَ الَّذِیۡنَ ظَلَمُوۡا ٭ۖ وَ بُشۡرٰی لِلۡمُحۡسِنِیۡنَ

तर्जुमा :- और जब उन्होंने इस की हिदायत ना मानी तो अब कहेंगे कि ये झूट है क़दीम का। हालाँकि इस से पहले किताब मूसा इमाम और रहमत है और ये किताब ज़बान अरबी में उस की तस्दीक़ करती है ताकि मुतनब्बाह (आगाह किया, ख़बरदार, आगाह, होशयार) करे गुनाहगारों को, और बशारत है नेक किरदारों के लिए।

मक्के वालों ने जब क़ुरआन को ये तोहमत लगाई कि ये क़दीम का झूट है यानी जिसके मअनी ग़ालिबन ये हैं कि क़ुरआन को इल्हामी किताबों से बना कर अब नई किताब क़रार दिया है। इस पर मुहम्मद साहब ने जवाब दिया कि किताब मूसा ख़ुद तुम्हारे इज़्हार बमूजब इमाम और रहमत है और क़ुरआन झूटा नहीं है क्योंकि इस की बड़ी मुराद उसी किताब मूसा की, या कि और पाक किताबों की जो इस से पहले नाज़िल हुईं तस्दीक़ करता है और अरब वालों के वास्ते ज़बान अरबी में है। चुनान्चे बैज़ावी लिखता है :-

مُصَدِّقْ الۡکِتاَبَ مُوسیْٰ اوْ لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ

पस क़ुरआन के एहदास (नई बात निकालने) से असली ग़रज़ ख़्वाह एक बड़ी ग़रज़ ये भी थी कि अरब वालों को अपनी ज़बान में इल्हामात साबिक़ा की तस्दीक़ मिले। कुछ ये मुराद ना थी कि क़ुरआन यहूदीयों की किताबों को मंसूख़ कर के बजाय और उन के क़ायम हो। बल्कि उन की तस्दीक़ करने के वास्ते अरबी ज़बान में हुआ ताकि अरब के लोग उस का मतलब समझें इस वास्ते कि पहले इल्हामी नविश्ते इब्रानी और यूनानी ज़बानों में होने से जाहिल अरबों को दस्तरस ना थी। अब सबील (रास्ता, तरीक़ा, सूरत) ये निकली कि एक अरबी किताब के वसीले से जो साबिक़ किताबों की तस्दीक़ करती थी और उन के मतलब पर शामिल थी अरब के लोग हिदायत पाएं और ये बात कि क़ुरआन कुतुब रब्बानी साबिक़ा का मुसद्दिक़ है। मुहम्मद साहब मक्के वालों को दलील क़ातेअ (क़तअ करने वाला, काटने वाला) देते हैं कि क़ुरआन क़दीम का झूटा नहीं है।

तावक़्त ये कि मुहम्मद साहब के नज़्दीक यहुदियों की किताब-ए-मुक़द्दस सर तापा (सर से पांव तक, अव्वल से आख़िर तक) असली और रब्बानी ना हो। ऐसा कलाम हरगिज़ उनके मुँह से नहीं निकल सकता इस में किसी तरह का शक व शुब्हा नहीं।

फ़स्ल 17

(सुरह अल-अहक़ाफ़ 46 आयत 29-30)

وَ اِذۡ صَرَفۡنَاۤ اِلَیۡکَ نَفَرًا مِّنَ الۡجِنِّ یَسۡتَمِعُوۡنَ الۡقُرۡاٰنَ ۚ فَلَمَّا حَضَرُوۡہُ قَالُوۡۤا اَنۡصِتُوۡا ۚ فَلَمَّا قُضِیَ وَلَّوۡا اِلٰی قَوۡمِہِمۡ مُّنۡذِرِیۡنَ قَالُوۡا یٰقَوۡمَنَاۤ اِنَّا سَمِعۡنَا کِتٰبًا اُنۡزِلَ مِنۡۢ بَعۡدِ مُوۡسٰی مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ یَہۡدِیۡۤ اِلَی الۡحَقِّ وَ اِلٰی طَرِیۡقٍ مُّسۡتَقِیۡمٍ

तर्जुमा :- और जब मुतवज्जा कर दी हमने तेरी तरह एक जमाअत जिन्नों से वो सुनने लगे क़ुरआन पस जब वहां हाज़िर हुए बोले कान धर के सुन और जब तमाम हुआ जब फिर गए अपनी क़ौम की तरफ़ मुतनब्बाह (आगाह किया) करने को बोले “ऐ हमारी क़ौम हमने सुनी एक किताब जो नाज़िल हुई है मूसा के बाद तस्दीक़ करती है इस को जो उस से पहले है हिदायत करती है तरफ़ हक़ के और तरफ़ सीधी राह के।

तस्दीक़ करती है उस को जो उस से पहले है بَیۡنَ یَدَیۡہِ यानी उन सब किताबों को जो साबिक़ (पहले) नाज़िल हुईं।

चुनान्चे जलाल उद्दीन लिखता है :-

مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ ای تِقْدٰمّہْ کالتَّوۡرٰىۃَ

तर्जुमा :- तस्दीक़ करती है उस की जो पेशतर है इस के यानी जो मुक़द्दम है इस से जैसे कि तौरेत।

जब जिन्न ने अपनी क़ौम से क़ुरआन की तारीफ़ की तो उम्दा मतलब इस का ये है बयान किया कि वो पहली रब्बानी किताबों की तस्दीक़ करता है। इस की शनाहत और पहचान इसी से थी। बड़ी नमूद इस की इसी से थी। असली ग़रज़ क़ुरआन की इसी से थी। बल्कि इसी बात से क़ुरआन की तारीफ़ की जाती थी कि वो तौरेत और इंजील की तस्दीक़ करता है। पस ये मतलब फ़स्ल गुज़शता के मतलब से बिल्कुल मुताबिक़ है।

फ़स्ल 18

(सुरह फातिर 35 आयत 25)

وَاِنۡ یُّکَذِّبُوۡکَ فَقَدۡ کَذَّبَ الَّذِیۡنَ مِنۡ قَبۡلِہِمۡ ۚ جَآءَتۡہُمۡ رُسُلُہُمۡ بِالۡبَیِّنٰتِ وَ بِالزُّبُرِ وَ بِالۡکِتٰبِ الۡمُنِیۡرِ

तर्जुमा :- और अगर वो झुटलाएँ तो बा-तहक़ीक़ उन से अगले झुटला चुके हैं जिनके पास रसूल आए साफ़ निशानीयां लेकर और नूर देने वाली किताब।

रसूल से मुराद यहां अम्बियाए यहूद व नसारा और ज़बर नूर देने वाली किताब से मुराद उन रसूलों के नविश्तों से है।

फ़स्ल 19

(सुरह फ़ातिर 35 आयत)

وَالَّذِیۡۤ اَوۡحَیۡنَاۤ اِلَیۡکَ مِنَ الۡکِتٰبِ ہُوَ الۡحَقُّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ

तर्जुमा :- और हमने तुझ पर उतारी किताब वो हक़ है तस्दीक़ उस की जो उस से पहले हैं।

तस्दीक़ करती है उस की जो उस से पहले है यानी किताब-ए-मुक़द्दस की जो इस से पहले नाज़िल हुई, चुनान्चे जलाल उद्दीन लिखता है :-

تقِدَمِہْ مِّن الۡکِتٰبَ

और बैज़ावी लिखता है :-

لَمْاتِقّْدمِّہْ مِّنْ الْکِتٰب الِسّمٰویۃ

पस वाज़ेह हुआ कि क़ुरआन की माहीयत (असलियत) यही है कि यहूदी और ईसाई नविश्तों की तस्दीक़ करे यानी उन के हक़ में गवाही दे।

फ़स्ल 20

(सुरह मर्यम 19 आयत 12)

یٰیَحۡیٰی خُذِ الۡکِتٰبَ بِقُوَّۃٍ وَ اٰتَیۡنٰہُ الۡحُکۡمَ صَبِیًّا

तर्जुमा :- ऐ याह्या ले किताब को क़ुव्वत से और दिया हमने इस को हुक्म लड़कपन में।

ख़ुदा (जो इस मुक़ाम में मुतकल्लिम “कलाम करने वाला”) है यह्या को किताब यानी यहूदीयों की किताब आस्मानी (क्योंकि जलाल उद्दीन और बैज़ावी दोनों इस के मअनी तौरेत लिखते हैं) क़ुव्वत से लेने के वास्ते फ़रमाता है। इस से ये बात साबित है कि यह्या और ईसा मसीह के वक़्त में यहूदीयों की किताब आस्मानी असली और बे तहरीफ़ व तसहीफ़ मौजूद थी।

फ़स्ल 21

(सुरह मर्यम 19 आयत 29-30)

فَاَشَارَتۡ اِلَیۡہِ قَالُوۡا کَیۡفَ نُکَلِّمُ مَنۡ کَانَ فِی الۡمَہۡدِ صَبِیًّا قَالَ اِنِّیۡ عَبۡدُ اللّٰہِ ۟ اٰتٰنِیَ الۡکِتٰبَ وَ جَعَلَنِیۡ نَبِیًّا

तर्जुमा :- और उनसे (यानी मर्यम) ने इशारा किया तरफ़ उस के (यानी तरफ़ बच्चे ईसा मसीह के) कहा बा-तहक़ीक़ मैं हूँ बंदा ख़ुदा, उसने दी है मुझे किताब (इंजील) और बनाया है मुझे नबी।

इस आयत में कुछ ऐसा गिरां मतलब नहीं सिर्फ इंजील के रब्बानी होने का ज़िक्र है।

फस्ल 22

(सुरह शूरा 42 आयत 3)

کَذٰلِکَ یُوۡحِیۡۤ اِلَیۡکَ وَ اِلَی الَّذِیۡنَ مِنۡ قَبۡلِکَ ۙ اللّٰہُ الۡعَزِیۡزُ الۡحَکِیۡمُ

तर्जुमा :- इसी तरह वही भेजता है तरफ़ और तुझसे पहलों की तरफ़ अल्लाह है ग़ालिबान और दाना।

अगर इबारत और तर्ज़ इल्हाम की तरफ़ निगाह करो तो क़ुरआन को इस आयत में इल्हामात अम्बिया-ए-साबिक़ (पहले के नबीयों) के मुतलक़ बराबर कर दिया है। पस जब यहूदी और ईसाईयों की किताबें भी मिस्ल क़ुरआन इल्हाम रब्बानी ठहरें तो मुसलमानों को चाहीए कि उनकी भी इसी की मानिंद ताज़ीम व तोक़ीर (इज़्ज़त) करें।

फ़स्ल 23

(सुरह शूरा 42 आयत 13)

شَرَعَ لَکُمۡ مِّنَ الدِّیۡنِ مَا وَصّٰی بِہٖ نُوۡحًا وَّ الَّذِیۡۤ اَوۡحَیۡنَاۤ اِلَیۡکَ وَ مَا وَصَّیۡنَا بِہٖۤ اِبۡرٰہِیۡمَ وَ مُوۡسٰی وَ عِیۡسٰۤی اَنۡ اَقِیۡمُوا الدِّیۡنَ وَ لَا تَتَفَرَّقُوۡا فِیۡہِ

तर्जुमा :- उनसे हुक्म कर दिया तुम्हारे वास्ते दीन से वही जो फ़रमाया था नूह को और जो भेजा हमने तेरी तरफ़ और जो फ़रमाया हमने इब्राहिम को और मूसा को और ईसा को ये कि क़ायम रखो दीन को और फूट ना डालो इस में।

इस आयत के ज़माने में तो दीन इस्लाम साफ़ वही था जिसका नूह, इब्राहिम, मूसा और ईसा मसीह को इल्हाम हुआ। यानी दीन तौरेत व इंजील बाइबल मुक़द्दस दीन यहूद व नसारा।

फ़स्ल 24

(सुरह शूरा 42 आयत 14-15)

وَ مَا تَفَرَّقُوۡۤا اِلَّا مِنۡۢ بَعۡدِ مَا جَآءَہُمُ الۡعِلۡمُ بَغۡیًۢا بَیۡنَہُمۡ وَ لَوۡ لَا کَلِمَۃٌ سَبَقَتۡ مِنۡ ربّکَ اِلٰۤی اَجَلٍ مُّسَمًّی لَّقُضِیَ بَیۡنَہُمۡ وَ اِنَّ الَّذِیۡنَ اُوۡرِثُوا الۡکِتٰبَ مِنۡۢ بَعۡدِہِمۡ لَفِیۡ شَکٍّ مِّنۡہُ مُرِیۡبٍ فَلِذٰلِکَ فَادۡعُ ۚ وَ اسۡتَقِمۡ کَمَاۤ اُمِرۡتَ ۚ وَ لَا تَتَّبِعۡ اَہۡوَآءَہُمۡ ۚ وَ قُلۡ اٰمَنۡتُ بِمَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰہُ مِنۡ کِتٰبٍ ۚ وَ اُمِرۡتُ لِاَعۡدِلَ بَیۡنَکُمۡ اَللّٰہُ ربّنَا وَ ربّکُمۡ لَنَاۤ اَعۡمَالُنَا وَ لَکُمۡ اَعۡمَالُکُمۡ لَا حُجَّۃَ بَیۡنَنَا وَ بَیۡنَکُمۡ اَللّٰہُ یَجۡمَعُ بَیۡنَنَا ۚ وَ اِلَیۡہِ الۡمَصِیۡرُ

तर्जुमा :- और ना फूटे वो लोग जब तक इल्म (रब्बानी) उनके दर्मियान ना आया बग़ावत से आपस में और अगर पहला ना निकलता हुक्म तेरे रब से एक मुक़र्रर वक़्त तक बेशक फ़ैसला हो जाता उनके दर्मियान और बा-तहक़ीक़ जो लोग वारिस हुए किताब के उनके बाद वो उस के हक़ में बड़े शुबहे में हैं। इस वास्ते तो बुला (तरफ़ दीन हक़) के और क़ायम रह जैसा तुझे हुक्म दिया गया और ना पैरवी कर उनकी ख़्वाहिशों की और कह मैं यक़ीन लाया किताबों पर जो उतारीं अल्लाह ने और मुझको हुक्म है कि इन्साफ़ करूँ तुम्हारे दर्मियान, अल्लाह रब है हमारा और तुम्हारा। हम लोगों के वास्ते हमारे आमाल हैं और तुम लोगों के वास्ते तुम्हारे आमाल। हुज्जत (दलील, बह्स, झगड़ा) हमारे दर्मियान कुछ नहीं अल्लाह इकट्ठा करेगा हम लोगों को उसी की तरफ़ फिर जाना है।

ये आयतें इस आयत का ततिम्मा (बक़ीया, बचा हुआ, किसी चीज़ का आख़िरी हिस्सा) हैं जो फ़स्ल गुज़शता में मुंदरज है और जिसमें यहूदी और ईसाईयों का और एक दीन हक़ होने का ज़िक्र है।

इनमें ये कहा है कि वो लोग जिनको दीन हक़ का इल्म रब्बानी मिला यानी यहूद और ईसाई बाद मिलने मज़्कूर के मुख़्तलिफ़-उल-राए हुए और अज़ रूए इन्साफ़ जायज़ था कि ख़ुदा का ग़ज़ब इस बग़ावत के नतीजे में फ़ील-फ़ौर उन पर नाज़िल होता। लेकिन ख़ुदा ने उनको अपने वक़्त मुक़र्रर तक दम लेने दिया और ये भी लिखा है कि वो लोग जो उनके बाद इन किताबों के वारिस हुए यानी मुहम्मद साहब के हम-अस्र (उनके जमाने के) यहूद और ईसाईयों ने इन किताबों के तहक़ीक़ मअनी को नहीं पहचाना बल्कि उनकी बाबत तरद्दुद (सोच, फ़िक्र अंदेशा) और शक और शुबहे में पड़े हैं चुनान्चे जलाल उद्दीन लिखता है :-

الَّذِیۡنَ اُوْرِ تُو الْکِتٰبَ مِّنْ بَعۡدِ ہمْ و ہُمۡ الۡیَہُوۡدَ وَ النَّصاریٰ

तर्जुमा :- जिन्हों ने पाई है किताब इनके यानी यहूदी और ईसाई फ़क़त। और बेज़ावी कहता है यानी :-

اَہۡلِ الۡکِتٰبِ الَّذِیۡنَ کَانُوۡ فِیۡ عَہۡدَ الرَّسُوۡلَ

तर्जुमा :- यानी अहले-किताब जो थे अहद रसूल।

لَفِیۡ شَکٍّ مِّنۡہُ مِّنْ کَتِابِہِمْ لاَیَعۡلَمُوۡنَّہُ کَمَاہُوَ اَلاَ یُؤۡمِنُوۡنَ بِہۡ حَقِّ الَایِمَّانْ

तर्जुमा :- वो इस की निस्बत शुबहे में यानी बनिस्बत अपनी किताब के क्योंकि इस के तहक़ीक़ यानी नहीं पहचानते या कि हक़ीक़ी ईमान के साथ इस पर ईमान नहीं लाते फ़क़त।

इस वास्ते पैग़म्बर इस्लाम को हुक्म है कि उनको दीन-ए-हक़ की तरफ़ बुलाएं और आप उन अहकामात रब्बानी पर साबित-क़दम रहें और यहूदीयों और ईसाईयों के ख़यालों में ना पड़ जाएं। मगर इस के साथ मुहम्मद साहब को क़ुरआन का भी हुक्म है कि किताबों पर जो ख़ुदा ने यहूदी और ईसाईयों को दीं अपना ईमान ज़ाहिर करें और कहें कि ख़ुदा ने मुझे तुम्हारी तकरार और तुम्हारे इख़्तिलाफ़ फ़ैसल करने का इख़्तियार दिया है। वो उनके दिलों पर ये भी मुनक़्क़श करें कि ख़ुदा जिसको हम मानते हैं और ख़ुदा जिसको तुम मानते हो वही एक है आमाल हम लोगों के और आमाल अहले-किताब के दोनों मक़्बूल होंगे और अस्ल में हमारे और तुम्हारे दर्मियान कोई भी सबब झगड़ने और तकरार का नहीं है फ़क़त। वाज़ेह हो कि इन मुतालिब पर फ़स्ल दसवीं (10) का मज़्मून मुताबिक़ है इस पर रुजू करो।

ग़रज़ इन आयतों से ये साफ़ ज़ाहिर है कि अव्वल मुहम्मद साहब के हम-अस्र यहूदी और ईसाईयों ने उन्हीं कुतुब रब्बानी यहूदी और ईसाईयों को विरासत में पाया है कि जो उस वक़्त मौजूद और उनके दर्मियान राइज थीं। दूसरे पैग़म्बर इस्लाम ने अपना एतिक़ाद उन किताबों पर ऐसा कामिल ज़ाहिर किया कि जिससे वाज़ेह है कि उन्होंने बिल-ज़रूर इनको असली और बे-तहरीफ़ व तसहीफ़ समझा। तीसरे पैग़म्बर इस्लाम के और उनके हम-अस्र यहूदीयों और ईसाईयों के दर्मियान झगड़े और तकरार के सबब सिर्फ़ वो माअनवी शक व शुब्हा थे कि जिनमें वो लोग उलझ रहे थे और अक़ीदे और मअनी और जो कलाम ईलाही से उन्होंने ग़लती से निकाले थे और वह इख़्तिलाफ़ और तफ़र्क़े जो वो आपस में रखते थे और फ़क़त सिवाए इस के उन आयतों में साफ़ लिखा है कि अस्ल सबब हुज्जत और बह्स का पैग़म्बर इस्लाम और उन लोगों के दर्मियान कुछ ना था। मुहम्मद साहब का मतलब और काम उन ग़लती और इख़्तिलाफ़ों का तसफ़ीया (साफ़, वाज़ेह करना) था जो हक़ीक़त में ईसाई और यहूदीयों की कुतुब रब्बानी का मुतलक़ सहारा ना रखते थे और पैग़म्बर इस्लाम ख़ुद अपना एतिक़ाद कामिल इन कुतुब रब्बानी पर ज़ाहिर करते हैं। चुनान्चे ऊपर की आयत में मज़्कूर हो चुका इस के बाद ये लिखा है :-

لَفِیۡ شَکٍّ مِّنۡہُ مِّنْ کَتِابِہِمْ لاَیَعۡلَمُوۡنَّہُ کَمَاہُوَ اَلاَ یُؤۡمِنُوۡنَ بِہۡ حَقِّ الَایِمَّانْ

तर्जुमा :- यानी मुझे हुक्म मिला कि फैसला करूँ तुम्हारे दर्मियान।

ग़रज़ यहूदी ख़्वाह ईसाईयों की किताबों के असली और रब्बानी होने में ज़रा भी शुब्हा डालना इन आयतों से बर-ख़िलाफ़ है।

फ़स्ल 25

(सुरह मोमिन 40 आयत 53-55)

وَ لَقَدۡ اٰتَیۡنَا مُوۡسَی الۡہُدٰی وَ اَوۡرَثۡنَا بَنِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَ الۡکِتٰبَ ہُدًی وَّ ذِکۡرٰی لِاُولِی الۡاَلۡبَابِ فَاصۡبِرۡ اِنَّ وَعۡدَ اللّٰہِ حَقٌّ وَّ اسۡتَغۡفِرۡ لِذَنۡۢبِکَ

तर्जुमा :- और बा-तहक़ीक़ हमने दी मूसा को हिदायत और विरासत, दी बनी-इस्राईल को किताब राह दिखलाने वाली और याद दिलाने वाली समझ वालों को पस तू सब्र कर बेशक वाअदा अल्लाह का हक़ है और तू बख़्शिश मांग वास्ते अपने गुनाह के....अलीख।

इस बात पर जुम्ला मुफ़स्सिर (तफ़्सीर करने वाला, शारेअ) मुत्तफ़िक़-उल-राए (एक ख़्याल के हामी) हैं कि यहां किताब से मुराद तौरेत है। पस कलाम इलाही की यहूदी किताबें ख़ुदा के हुक्म से बनी-इस्राईल के दर्मियान राह दिखलाने वाली और याद लाने वाली समझ वालों को बराबर पुश्त दर पुश्त विरसे (विरासत) में चली आईं और तौरेत का ज़िक्र इस आयत में इस बात की तर्ग़ीब के वास्ते लिखा कि साहब सब्र रखें और ख़ुदा के वाअदे को हक़ जानें।

फ़स्ल 26

(सुरह मोमिन 40 आयत 70-73)

الَّذِیۡنَ کَذَّبُوۡا بِالۡکِتٰبِ وَ بِمَاۤ اَرۡسَلۡنَا بِہٖ رُسُلَنَا ۟ فَسَوۡفَ یَعۡلَمُوۡنَ اِذِ الۡاَغۡلٰلُ فِیۡۤ اَعۡنَاقِہِمۡ وَ السَّلٰسِلُ یُسۡحَبُوۡنَ فِی الۡحَمِیۡمِ ۬ ثُمَّ فِی النَّارِ یُسۡجَرُوۡنَ

तर्जुमा :- जिन्हों ने झुठलाया इस किताब को और उस को जो भेजा हमने अपने रसूलों के साथ सो आख़िर जान लेंगे जब तौक़ होंगे उनकी गर्दनों में और ज़ंजीरें जिससे खींचे जाऐंगे जहन्नम में फिर वो जलाए जाऐंगे आग में।

ये हैबतनाक सज़ा कुछ सिर्फ उन्हीं लोगों के वास्ते नहीं है जो क़ुरआन का इन्कार करें बल्कि उस का भी जो ख़ुदा ने भेजा अपने पहले रसूलों के साथ। पस यहूदी और ईसाईयों की किताबें और क़ुरआन दोनों का एक ही दर्जा ठहराया है, दोनों के झुटलाने के लिए एक ही सज़ा मुक़र्रर की है। अब इस ज़माने के मुसलमानों को जिस दम वो अग़वाए बद से यहूदी और ईसाईयों की किताब रब्बानी और उनके मज़्मून मुबारक का ज़िक्र हक़ारत के साथ अपनी ज़बान पर लाते हैं चाहिए कि क़ुरआन की ऐसी आयतों पर ग़ौर के साथ लिहाज़ करें ऐसा ना हो कि वो सज़ाए ख़ौफ़नाक के मुस्तूजिब (लायक़, क़ाबिल-ए-सज़ा वार) हो जाएं जिसका आयत मज़्कूर बाला में ज़िक्र है।

फ़स्ल 27

(सुरह फ़ुरक़ान 25 आयत 35)

وَ لَقَدۡ اٰتَیۡنَا مُوۡسَی الۡکِتٰبَ وَ جَعَلۡنَا مَعَہٗۤ اَخَاہُ ہٰرُوۡنَ وَزِیۡرًا

तर्जुमा :- और बा-तहक़ीक़ हमने दी मूसा को किताब और बनाया उस के साथ उस के भाई हारून को वज़ीर।

इस आयत से बमूजब तफ़्सीर जलाल उद्दीन के, किताब मूसा यानी तौरेत के रब्बानी होने की दलील निकलती है।

फ़स्ल 28

(सुरह ताहा 20 आयत 133)

وَ قَالُوۡا لَوۡ لَا یَاۡتِیۡنَا بِاٰیَۃٍ مِّنۡ ربّہٖ اَوَ لَمۡ تَاۡتِہِمۡ بَیِّنَۃُ مَا فِی الصُّحُفِ الۡاُوۡلٰی

तर्जुमा :- और उन्होंने (यानी मक्के वालों) ने कहा अगर ये ना लाए हम को कोई निशानी अपने रब से तो हम ना लाएँगे, क्या उनको पहुंच नहीं चुकी साफ़ निशानी अगली किताबों में।

अगली किताबों से मुराद कुतुब-ए-यहूदी नसारा है बैज़ावी इस की तफ़्सीर यूं करता है :-

مِّنْ التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ وَ سَائَرْ الْکِتٰب الِسّمٰویۃ

यानी तौरेत व इंजील और तमाम कुतुब आस्मानी।

लेकिन आस्मानी किताबें या ऐसी किताबें जिनके आस्मानी होने का दावा था और मक्के वालों को भी मालूम थीं क्योंकि ये ख़िताब उन्ही की तरफ़ है सिर्फ उन्ही यहूदी और ईसाईयों की जो अरब में और उस के क़ुर्ब व जवार (नज़दीकी) में रहते थे कुतुब मुक़द्दस थीं। पस साफ़ ज़ाहिर है कि सिर्फ इन्ही पर यहां हवाला दिया है।

जब कि मक्के वालों ने निशान या मोअजिज़ा तलब किया तो पैग़म्बर इस्लाम ने उन्हें उन साफ़ निशानीयों पर हवाला दिया जो कुतुब-ए-मज़्कूर हैं मुंदरज हैं। अगर ये किताबें मशहूर व मारूफ़ और अरब और इस के क़ुर्ब व जवार (आसपास) में राइज और जारी ना हुईं और मक्का वालों को बसहुलत (आसानी से दस्तयाब) ना हो सकतीं तो पैग़म्बर इस्लाम कभी इन पर हवाला ना देते और अगर इन किताबों को रब्बानी और मोअतबर और बे-तहरीफ़ व तसहीफ़ तसव्वुर ना करते होते तो भी हवाला ना देते क्योंकि ऐसी हालतों में मक्के वालों को इन पर हवाला देना मह्ज़ लाहासिल और बेफ़ाइदा होता।

फ़स्ल 29

(सुरह ज़ुखरुख 43 आयत 45)

وَ سۡـَٔلۡ مَنۡ اَرۡسَلۡنَا مِنۡ قَبۡلِکَ مِنۡ رُّسُلِنَاۤ اَجَعَلۡنَا مِنۡ دُوۡنِ الرَّحۡمٰنِ اٰلِـہَۃً یُّعۡبَدُوۡنَ

तर्जुमा :- पूछ उन रसूलों से जिन्हें हमने तुझसे पहले भेजा क्या हमने बनाए सिवाए रहमान के और ख़ुदा, के जो पूजे जाएं?

पूछ उन रसूलों से यानी उनकी उम्मत से यानी उन लोगों से जो उन रसूलों की किताब और अक़ीदों से वाक़िफ़ हैं। चुनान्चे बैज़ावी लिखता है :-

ای اممہم و علماء دنیہم

और जलाल उद्दीन लिखता है :-

امم من ای اہل الکتابین

यानी यहूदी और ईसाई

ग़रज़ आयत का मंशा ये है कि ख़ुदा मुहम्मद साहब को इस तौर पर अम्बिया-ए-साबिक़ से पूछने और पूछ कर इस बात पर यक़ीन लाने की हिदायत करता है कि उसने बराबर इल्हामात साबिक़ में बुत-परस्ती की मुमानिअत (मना करना) फ़रमाई है। पस पूछना अम्बिया-ए-साबिक़ से यही मअनी रखता है कि उनकी किताबों पर रुजू लाएं जो यहूद व नसारा के पास हैं। ख़ुदा का ये हुक्म कि मुहम्मद साहब इस्तिफ़सार (दर्याफ़्त करना) करें एक तर्ज़ इज़्हार है जैसा कि बैज़ावी लिखता है :-

बुतपरस्त मक्के वालों को इस बात पर यक़ीन दिलाने का कि जमा (सब, तमाम, कुल) अम्बिया-ए-साबिक़ अपनी ज़बान से और अपने नविश्तों से सिवाए एक सच्चे ख़ुदा के और किसी की परस्तिश जायज़ नहीं रखते।

والمراد بہ الاشہار باجماع الانبیاء علی التوحید

ये आयत इन नविश्तों के मौजूद और मारूफ़ होने पर दलालत करती है जिन पर ख़ुदा ए तआला पैग़ंबर-ए-इस्लाम और क़बीला क़ुरैश को रद्द-ए-बुत-परस्ती की दलील क़ातेअ के वास्ते हवाला देता है।

फ़स्ल 30

(सुरह यूसुफ़ 12 आयत 111)

مَا کَانَ حَدِیۡثًا یُّفۡتَرٰی وَ لٰکِنۡ تَصۡدِیۡقَ الَّذِیۡ بَیۡنَ یَدَیۡہِ وَ تَفۡصِیۡلَ کُلِّ شَیۡءٍ وَّ ہُدًی وَّ رَحۡمَۃً لِّقَوۡمٍ یُّؤۡمِنُوۡنَ

तर्जुमा :- ये कुछ बनाई हुई बात नहीं है लेकिन तस्दीक़ करती है उस की जो इस से पहले है तफ़्सील है सब चीज़ों की और हिदायत है और रहमत है क़ौम मोमिन के वास्ते।

इस आयत में क़ुरआन का ज़िक्र है जलाल उद्दीन और बैज़ावी दोनों लिखते हैं ہٰذَا الۡقُرۡاٰنُ और इस के वास्ते भी वही दलील काफ़ी है जो इस क़िस्म की आयात मज़्कूर बाला के वास्ते लिखी गई चुनान्चे फ़स्ल 16 पर रुजू करो।

फ़स्ल 31

(सुरह हूद 11 आयत 16-17)

اُولٰٓئِکَ الَّذِیۡنَ لَیۡسَ لَہُمۡ فِی الۡاٰخِرَۃِ اِلَّا النَّارُ ۫ وَ حَبِطَ مَا صَنَعُوۡا فِیۡہَا وَ بٰطِلٌ مَّا کَانُوۡا یَعۡمَلُوۡنَ اَفَمَنۡ کَانَ عَلٰی بَیِّنَۃٍ مِّنۡ ربّہٖ وَ یَتۡلُوۡہُ شَاہِدٌ مِّنۡہُ وَ مِنۡ قَبۡلِہٖ کِتٰبُ مُوۡسٰۤی اِمَامًا وَّ رَحۡمَۃً

तर्जुमा :- ये वो लोग हैं जिनके वास्ते कुछ नहीं है आख़िरत में सिवाए आग के और मिट गया जो किया था इस में और बातिल हुआ जो कमाया था (ये बराबर है) और वो जो चलता है अपने रब की साफ़ हिदायत पर और उस के यहां से (यानी रब के यहां से) एक गवाह इस के साथ है और इस के क़ब्ल है किताब मूसा इमाम और रहमत।

गुनाहगार दोज़ख़ी और मोमिन सादिक़ के इम्तियाज़ करने में मुक़द्दम ये रखा कि मोमिन मुहम्मद साहब और क़ुरआन का पैरौ है जिसके पेशतर तौरेत थी जो इमाम और रहमत है ग़रज़ इस आयत में भी किताब मुक़द्दस का ज़िक्र उसी अदब व तअज़ीम के साथ किया है जैसा कि सारे क़ुरआन के दर्मियान है।

फ़स्ल 32

(सुरह हौदा 11 आयत 110)

وَ لَقَدۡ اٰتَیۡنَا مُوۡسَی الۡکِتٰبَ فَاخۡتُلِفَ فِیۡہِ وَ لَوۡ لَا کَلِمَۃٌ سَبَقَتۡ مِنۡ ربّکَ لَقُضِیَ بَیۡنَہُمۡ وَ اِنَّہُمۡ لَفِیۡ شَکٍّ مِّنۡہُ مُرِیۡبٍ

तर्जुमा :- बा-तहक़ीक़ हमने दी थी मूसा को किताब फिर इस में इख़्तिलाफ़ डाला गया और अगर ना निकलता कलिमा तेरे रब से तो फ़ैसला हो जाता उनमें और बा-तहक़ीक़ वो हैं बड़े शुब्हा में इस से।

ये भी किताब-ए-मूसा के रब्बानी होने की गवाही है बाक़ी हाल फ़स्ल 24 में देखना चाहीए कि जिसकी आयत से ये बिल्कुल मुताबिक़ है।

फ़स्ल 33

(सुरह यूनुस 10 आयत 37-38)

وَ مَا کَانَ ہٰذَا الۡقُرۡاٰنُ اَنۡ یُّفۡتَرٰی مِنۡ دُوۡنِ اللّٰہِ وَ لٰکِنۡ تَصۡدِیۡقَ الَّذِیۡ بَیۡنَ یَدَیۡہِ وَ تَفۡصِیۡلَ الۡکِتٰبِ لَا رَیۡبَ فِیۡہِ مِنۡ ربّ الۡعٰلَمِیۡنَ اَمۡ یَقُوۡلُوۡنَ افۡتَرٰىہُ قُلۡ فَاۡتُوۡا بِسُوۡرَۃٍ مِّثۡلِہٖ

तर्जुमा :- और ये क़ुरआन ऐसा नहीं है कि कोई बना ले सिवाए अल्लाह के लेकिन तस्दीक़ करता है उस की (यानी कुतुब रब्बानी की) जो इस से पहले है और तफ़्सील भी इस किताब की जिसका शुब्हा नहीं है रब-उल-आलमीन से क्या लोग कहते हैं कि बना लाया तू कह कि तुम लाओ एक सुरह मिस्ल इस के।

जब लोगों ने पैग़म्बर इस्लाम को क़ुरआन बनाने की तोहमत लगाई तो उन्होंने इस की सफ़ाई में भी यही बात पेश की कि ये बनावट नहीं है बल्कि कुतुब साबिक़ की तस्दीक़ है चुनान्चे जलाल उद्दीन लिखता है :-

الَّذِیۡ بَیۡنَ یَدَیۡہِ مِنۡ الۡکِتٰبِ

यानी किताबों की तस्दीक़ जो इस से पहले हैं या कि मुताबिक़।

لَمِٰاتُّقۡدَمِٰہْ مِنۡ الۡکِتٰبِ الالہٰیۡۃِ

यानी मुताबिक़ है कुतुब रब्बानी के पेशतर हैं।

क़ुरआन के वास्ते इस बात का हवाला देना कि वो कुतुब-ए-साबिक़ की तस्दीक़ करता है या कि उनके मज़्मून से मुताबिक़त रखता है वाक़ेअ में ख़ुद उन्हीं किताबों पर हवाला देना है जो अहले-किताब के पास मौजूद थीं और मक्के वालों को बसहुलत दस्तयाब हो सकती थीं। अगर मुहम्मद साहब उनको रब्बानी और मोअतबर और बे तहरीफ़ व तसहीफ़ ना समझते होते कोई ऐसी वजह ज़हन में नहीं आती कि जिसके बाइस उन पर हवाला देते।

फ़स्ल 34

(सुरह यूनुस 10 आयत 94)

فَاِنۡ کُنۡتَ فِیۡ شَکٍّ مِّمَّاۤ اَنۡزَلۡنَاۤ اِلَیۡکَ فَسۡـَٔلِ الَّذِیۡنَ یَقۡرَءُوۡنَ الۡکِتٰبَ مِنۡ قَبۡلِکَ ۚ لَقَدۡ جَآءَکَ الۡحَقُّ مِنۡ ربّکَ فَلَا تَکُوۡنَنَّ مِنَ الۡمُمۡتَرِیۡنَ

तर्जुमा :- पस अगर तू है शक में है इस से जो उतारी हमने तेरी तरफ़ तो पूछ उनसे जो पढ़ते हैं किताब तुझसे पहले वाली, बा-तहक़ीक़ आया है हक़ तेरे पास तेरे रब से पस तू मत हो शुब्हा लाने वालों में।

जलाल उद्दीन इस किताब से जिसका क़ब्ल अज़ पैग़म्बर इस्लाम इल्हाम हुआ मुराद तौरेत लेता है लेकिन ऐसा कोई बाइस दिखलाई नहीं देता कि जिससे सिर्फ़ तौरेत मुराद लें। बल्कि यहां भी मिस्ल और बहुत से मुक़ामों के الۡکِتٰبِ مِنۡ قبلک मअनी मुतलक़ में यानी मुराद उन सब कुतुब रब्बानी से है जो यहूद व नसारा दोनों के दर्मियान जारी थीं।

बैज़ावी की राय में अल्लाह तआला का मतलब मुहम्मद साहब को क़ुरआन के रब्बानी होने के इस्बात (सबूत) के लिए इस किताब और अहले-किताब पर हवाला देने से ये है कि बेशक वो यानी जो कुछ कि हमने तुझ पर नाज़िल किया अहले-किताब के नज़्दीक मुतहक़्क़िक़ है और उनकी किताब में साबित है इसी तौर पर जो हमने तुझ पर नाज़िल किया और मुराद उसी की तहक़ीक़ करती और गवाही निकलवाना इस से जो कुतुब मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने की किताबों) में है।

बैज़ावी की अस्ल इबारत यूं है :-

فانہ متحقق عندہم ثابت فیي کنتہم علی نحوما القینا الیک والمراد تحقیق ذٰلِکَ وَالَااسِتَشّہْاِربّمْافَیْ الْکِتٰبَ الۡمُتَّقِدمۡۃَ ۔

यक़रों یقروں पढ़ते हैं मुज़ारे (मानिंद, इस्तिलाह क़वाइद ज़बान में वो फे़अल जिसमें हाल और मुस्तक़बिल दोनों ज़माने पाए जाएं) के सीगे से दस्तूर और आदत निकलती है यानी उमूमन हर दर्जे के लोग किताब मुक़द्दस को पढ़ा करते थे।

ग़रज़ किताब मुक़द्दस पर इस तरह से हवाला दिया है कि जिससे ख़ूब ज़ाहिर है कि किताब मशारइलय مشارا لیہ लिया (वो जिसकी तरफ़ इशारा किया गया हो) सब के हाथ में थी और हर कोई उस का दर्स तदरीस ख़ल्वत (तन्हाई) में भी और एलानियतन भी किया करते थे और चूँकि किताब मज़्कूर यहूदी और ईसाईयों के दरमियाँ राइज और जारी थी मुहम्मद साहब को ये हुक्म है कि अपने रफ़अ शक के लिए उन लोगों से तफ़्तीश करें जो लोग इसे पढ़ा करते हैं और इस तरह से अपने शुब्हा को दूर करें। इस इबारत से कुछ किसी क़ौम या किसी फ़िर्क़ा की ख़ुसूसीयत नहीं की है मसलन ये नहीं कहा है कि तफ़्तीश यहूदयान यमन या मदना या या ख़ैबर से की जाये या अरब के ईसाई बनी हारिस बख़र व बनी यातिमा व बनी हनीफा यमामा से की जाये। बल्कि पैग़म्बर इस्लाम को उमूमन ये हुक्म है कि जो शख़्स जहां कहीं कुतुब रब्बानी पढ़ता हो ख़्वाह वो हब्शी हो, ख़्वाह शामी, ख़्वाह वो अरबी हो, ख़्वाह मिस्री, चाहे वो हीरा के सलातीन, चाहे अस्सानी के तवाबईन में हो, चाहे कुस्तनतिनिया ( قسطنؔطینہ) का और चाहे इरान का हो वो इस से तफ़्तीश करें ग़रज़ जुम्ला अहले-किताब पर हस्र है।

अहद पैग़म्बर इस्लाम में अरबिस्तान के चारों तरफ़ तमाम मुल्कों के दर्मियान यही यहूदी व ईसाईयों की किताब मुक़द्दस राइज व जारी थी। सो इस आयत में रफ़अ शकूक पैग़म्बर इस्लाम के लिए जो इस पर हवाला होता है। इस किताब मज़्कूर ऐन क़ुरआन के इज़्हार से ना तरफ़ रब्बानी ही ठहरी बल्कि असली और पाक और बे तहरीफ़ व तसहीफ़ भी साबित हुई।

फ़स्ल 35

(सुरह अल-अन्आम 6 आयत)

اَلَّذِیۡنَ اٰتَیۡنٰہُمُ الۡکِتٰبَ یَعۡرِفُوۡنَہٗ کَمَا یَعۡرِفُوۡنَ اَبۡنَآءَہُمۡ ۘ اَلَّذِیۡنَ خَسِرُوۡۤا اَنۡفُسَہُمۡ فَہُمۡ لَا یُؤۡمِنُوۡنَ

तर्जुमा :- जिनको हमने दी है किताब वो पहचानते हैं इस को जैसे पहचानते हैं अपने बेटों को जिन्हों ने अपनी जान का नुक़्सान किया वही नहीं मानते।

तफ़्सीर जलाल उद्दीन :-

یِعْرفَونٰہْ ای مُحَمَّدٌ ابِنعّتَہْ فِیْ کِتْابِہْم

मअनी पहचानते हैं उसको यानी मुहम्मद को उस के निशानों से जो उनकी किताब में हैं।

तफ़्सीर बैज़ावी :-

یِعْرفَونٰہْ۔ یِعْرفَونْ رَسُوۡلٌ اللّٰہْ جَلیَتِہْ المذکُورِۃ فَی التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ کِمّا یِعْرفَونْ ابِنّاءْ ہمْ بِحلَا ہمْ الَّذِیۡنَ خَسّروْا انِفَسہْم مِنْ اَہْلِ الْکِتٰبَ وْالَمشِرکِیننْ فَہْم لَایِؤمُوِنْ

मअनी पहचानते हैं इस को यानी पहचानते हैं रसूल अल्लाह को उस के निशानों से जो तौरेत व इंजील में मज़्कूर हैं। जैसे अपने बेटों को पहचानते हैं यानी उनके निशानों से। जिन्हों ने हारी अपनी जान यानी अहले-किताब और बुत परस्तों से वही नहीं मानते।

सातवीं (7) और तेरहवीं (13) फ़सलें इसी मतलब पर शामिल हैं। उन्होंने इसी तरह के पहचानने का ज़िक्र है। ग़रज़ ये साफ़ साबित है कि पैग़म्बर इस्लाम अपने दावा और अक़ीदे की सदाक़त के सबूत में यहूदी और ईसाई मुक़द्दस नविश्तों पर अहले-किताब के ज़रीये से हवाला देते हैं और वो हवाला इस तौर पर देते हैं कि बेशक किताबें मज़्कूर उनकी दानिस्त में तहरीफ़ व बे तसहीफ़ कमाल एतबार के दर्जे पर हैं तहरीफ़ और तसहीफ़ के शक व शुब्हा की तो इस में कहीं से बू भी नहीं निकलती।

फ़स्ल 36

(सुरह अल-अन्आम 6 आयत 89-90)

اُولٰٓئِکَ الَّذِیۡنَ اٰتَیۡنٰہُمُ الۡکِتٰبَ وَ الۡحُکۡمَ وَ النُّبُوَّۃَ ۚ فَاِنۡ یَّکۡفُرۡ بِہَا ہٰۤؤُلَآءِ فَقَدۡ وَکَّلۡنَا بِہَا قَوۡمًا لَّیۡسُوۡا بِہَا بِکٰفِرِیۡنَ اُولٰٓئِکَ الَّذِیۡنَ ہَدَی اللّٰہُ فَبِہُدٰىہُمُ اقۡتَدِہۡ

तर्जुमा :- ये लोग हैं वो जिनको हमने दी किताब और हुक्म और नबुव्वत और अगर ये (मक्के वाले) इस बात को ना मानें तो हमने वो ऐसी क़ौम को सौंपा जो इस से इन्कार नहीं करती वो जिनको अल्लाह ने हिदायत की पस तू चल उन की राह पर।

इस आयत के शुरू में जिन लोगों का ज़िक्र है वो यहूदी और ईसाई हैं और इस से पहली आयतों में इब्राहिम से लेकर ईसा मसीह तक नबियों का ज़िक्र है जैसा दाऊद और सुलेमान और अय्यूब और यूसुफ़ और मूसा और हारून और ज़करिया और याह्या वगैरह इस्राईली और ईसाई पैग़म्बर उन के हक़ में और उनके बाप दादे और औलाद और भाईयों के हक़ में लिखा है कि ख़ुदा ने उन को चुन लिया और सीधी राह में हिदायत की फिर उन्हीं के हक़ में ये भी कहा है कि ये लोग हैं वो जिनको दी हमने किताब और हुक्म और नबुव्वत और अगर ये (यानी मक्के वाले क़ुरैश) इस बात को ना मानें तो हमने सौंपा वो ऐसी क़ौम को जो उस से इन्कार नहीं करती।

किताब से मुराद यहां उमूमन किताब मुक़द्दस है चुनान्चे बैज़ावी लिखता है :-

الکتاب یردیدبہ الجنس

और हमने सौंपा इस से मतलब ये है कि हमने इस की हिफ़ाज़त और ख़बरदारी सौंपी। وکلنابھاای بمراعتہا

और जलाल उद्दीन लिखता है :-

وکلنابھاارصدنالہا यानी उस की निगहबानी सौंपी। अब हमें इस में इख़्तिलाफ़ है कि वो कौन थे जिनको किताब मुक़द्दस की यानी यहूदी और ईसाई नविश्तों की निगहबानी सपुर्द हुई। कोई कहता है यहूदी और ईसाई जो पैरौ अम्बिया ए मज़्कूरह बाला के थे और कोई कहता है पैग़म्बर इस्लाम की उम्मत चुनान्चे बैज़ावी लिखता है :-

الانبیاء المذکورون ومتابعوہم و قیل الانصار اواصحاب النیّے او کل من اٰمن بہ الخ

मअनी और वो अम्बिया-ए-मज़्कूरिन और उनके ताबईन में या जैसा बाअज़ कहते हैं अंसार व अस्हाब मुहम्मद या सब के सब जो उन पर ईमान लाए अलीख....।

इस से कुछ हमारा मतलब नहीं कि वो कौन लोग हैं जिनकी तरफ़ ये इशारा किया गया है इस से क़त-ए-नज़र हमारी ख़ास ग़रज़ ऊपर की आयत से साफ़ साबित है। यानी ये कि क़ुरआन उन यहूदी और ईसाई किताबों पर हवाला देता है जो उस वक़्त असली और रब्बानी मौजूद थीं और हुक्म शरअ रखती थीं। यानी उन किताबों पर जिनको अगरचे बुतपरस्त क़ुरैशियों ने उनसे इन्कार किया अल्लाह तआला ने मोमिनों की हिफ़ाज़त में सपुर्द किया। पस मुसलमानों के नज़्दीक अल्लाह तआला ने ये अपना वादा वफ़ा नहीं किया जो अब इस ज़माने के मुसलमान इन किताबों में तहरीफ़ व तसहीत होने का अपने दिल में शुब्हा लाते हैं। क्या वो मोमिनों की हिफ़ाज़त जिसका इस आयत में ज़िक्र है अबस और बेफ़ाइदा ठहरे सच्चे मुसलमानों की तरफ़ से तो ऐसा हरगिज़ यक़ीन नहीं आता कि इस तौर पर अपने क़ुरआन की आयतों को लगू (बेमाअनी, लायानी बात) और बे-एतबार तसव्वुर करने लगीं और अगर सच-मुच मोमिनों ने इन किताबों की हिफ़ाज़त की तो वो तौरेत और इंजील कहाँ हैं जो महफ़ूज़ और सही हैं।

फ़स्ल 37

(सुरह अल-अन्आम 6 आयत 91)

وَ مَا قَدَرُوا اللّٰہَ حَقَّ قَدۡرِہٖۤ اِذۡ قَالُوۡا مَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰہُ عَلٰی بَشَرٍ مِّنۡ شَیۡءٍ قُلۡ مَنۡ اَنۡزَلَ الۡکِتٰبَ الَّذِیۡ جَآءَ بِہٖ مُوۡسٰی نُوۡرًا وَّ ہُدًی لِّلنَّاسِ تَجۡعَلُوۡنَہٗ قَرَاطِیۡسَ تُبۡدُوۡنَہَا وَ تُخۡفُوۡنَ کَثِیۡرًا ۚ وَ عُلِّمۡتُمۡ مَّا لَمۡ تَعۡلَمُوۡۤا اَنۡتُمۡ وَ لَاۤ اٰبَآؤُکُمۡ قُلِ اللّٰہُ ۙ ثُمَّ ذَرۡہُمۡ فِیۡ خَوۡضِہِمۡ یَلۡعَبُوۡنَ

जलाल उद्दीन कहता है कि :-

تجعلون और تبدون और تخفونके एवज़ किसी किसी नुस्खे में یجعلون یبدون व یخفون भी लिखा है।

तर्जुमा :- और ख़ुदा की उन्होंने क़द्र ना की जो हक़ है उस की क़द्र करने का जब कहते हैं कि अल्लाह ने कोई भी चीज़ (इल्हाम की राह से) इन्सान पर नहीं उतारी तू कह किस ने उतारी वो किताब जो मूसा लाया रोशनी और हिदायत लोगों की तुम उसे काग़ज़ के तख़्तों पर बनाते हो और दिखलाते हो और बहुत को छुपाते हो और तुमको सिखलाया जो ना तुम जानते थे ना तुम्हारे बाप दादा, कह अल्लाह फिर छोड़ दे उन्हें अपनी बेहूदगी में खेलने दे।

जलाल उद्दीन इस आयत की शरअ में लिखता है :-

ماقدرواای الیہود

उन्होंने ना क़द्र की यानी यहूदीयों ने, اذقالوا النبی وقد خاصموہ فی القراٰن जब कहते हैं नबी को जिस वक़्त क़ुरआन में इस के साथ तकरार करते थे। تجعلونہ قراطیس ای تکتبونہ فیی دفاترمقطعۃ मअनी तुम उसे काग़ज़ के तख़्तों पर बनाते हो यानी जुदे जुदे टुकड़ों पर लिखते हो (और मुराद इन टुकड़ों से वो चमड़े ख़्वाह काग़ज़ के अलेहदह अलेहदह बंद हैं कि जिन पर क़दीम से यहूदीयों के दर्मियान किताब-ए-मुक़द्दस के जद अजद جد اجد नविश्तों की जद अजद नक़्ल करने का दस्तूर था) تبدو نھا ای ماتجون ابدائہ منہ د दिखलाते हो यानी वो कि जो तुम इस में से दिखलाना चाहते हो تخفون کیثرا ممافیھا کنعت محمدٍ और बहुत को छुपाते हो यानी उसे कि जो उस के दर्मियान है मसलन तारीफ़ मुहम्मद साहब।

शराअ मज़्कूरह बाला के बमूजब इस आयत का ख़िताब यहूदीयों की तरफ़ है ये सुरह अनआम अक्सर तो मक्के ही में दिया गया था लेकिन ये आयत शायद पैग़म्बर इस्लाम के मदीने में जाने और यहूदीयों के मुक़ाबला करने के बाद जारी हो कर शामिल की गई है। उनका क़ौल इस में ये लिखा है कि अल्लाह ने कोई भी चीज़ इन्सान पर नहीं उतारी यानी उनकी किताब-ए-मुक़द्दस के बाद नहीं उतारी ख़्वाह ये कि मुहम्मद साहब पर नहीं उतारी ख़्वाह ये कि शायद अल्लाह ने इस तौर पर कि जैसा मुहम्मद साहब ने जिब्राईल का ख़ुदा के पास से अपने पास क़ुरआन का लाना बतलाया कभी कुछ जिस्मानी राह से नाज़िल नहीं किया। इस की रद्द कामिल के वास्ते पैग़म्बर इस्लाम जवाब में उस किताब पर जो मूसा लाया हवाला देते हैं जो उस वक़्त उन्हीं के हाथ में थी और जिसको वो जुदा-जुदा बंदों पर ख़्वाह (जैसा कि जलाल उद्दीन शरअ करता है) जुदे जुदे हिस्से कर के नक़्ल करते थे कि इस सूरह में मुहम्मद साहब के साथ मुबाहिसे के वक़्त उन्हें इख़्तियार था कि जिन बंदों या हिस्सों को अपने मुफ़ीद मतलब समझा उन्हीं को तो पेश किया और बाक़ीयों को जो शायद ख़िलाफ़ मतलब थे और जिनको दिखलाना मंज़ूर ना था अपने पास दबा रखा।

पैग़म्बर इस्लाम ये समझते थे कि यहूदी मुक़द्दस नविश्तों में मेरी नबुव्वत के सबूत में पेशगोईआं हैं और ये कि मदीने के यहूदी अगरचे इन पेशगोइयों को अपनी महफ़ूज़ और असली किताबों में जों की तों रखते हैं तो भी उनको पेश करना नहीं चाहते।

आया इस तरह की पेशगोईआं यहूदी नविश्तों में फ़िल-हक़ीक़त मौजूद थीं या नहीं इस बात की तहक़ीक़ात से बिल-फ़अल हमको ग़रज़ नहीं हमको इस मुक़ाम पर वही लिखना मंज़ूर है कि जो ख़ुद क़ुरआन की आयात से साफ़ साबित है और जिसमें अहले इस्लाम को किसी तरह की जाए तकरार व हुज्जत बाक़ी नहीं यानी इस आयत में मुहम्मद साहब यहूदीयों की किताब का इस तरह से हवाला देते हैं कि वो बा-इल्हाम नाज़िल हुई और इस वक़्त मौजूद है और असली है सिवाए इस के तर्ज़ तहरीर से ये भी बात पाई जाती है कि वो किताब यहूदयान-ए-मदीना के पास तमाम व कमाल (मुकम्मल, कुल, सब का सब) मौजूद थी। गो कि वो ऐसे रास्तबाज़ ना थे कि अपने सब नविश्तों को पेश कर देते जिन बंदों को मुबाहिसे में अपने मुफ़ीद मतलब समझते थे सिर्फ उन्हीं को पेश करते थे।

पोशीदा न रहे कि मूसा की किताब को यहां नूर और हिदायत बनी-आदम के लिए लिखा है।

फ़स्ल 38

(सुरह अल-अन्आम 6 आयत 92)

وَ ہٰذَا کِتٰبٌ اَنۡزَلۡنٰہُ مُبٰرَکٌ مُّصَدِّقُ الَّذِیۡ بَیۡنَ یَدَیۡہِ وَ لِتُنۡذِرَ اُمَّ الۡقُرٰی وَ مَنۡ حَوۡلَہَا

तर्जुमा :- और इस किताब को हम ने उतारा, मुबारक है तस्दीक़ करने वाली उस किताब की जो इस से साबिक़ (पहले) हुई और इसलिए कि तू मर्दुमान मक्का और इस के गिर्द नवाह को डरा।

الَّذِیۡ بَیۡنَ یَدَیۡہِ जलाल उद्दीन इस की शरह में लिखता है قَبِلہْ مَنۡ الْکِتٰبٌ यानी किताबें जो इस से साबिक़ (पहले) हैं और बैज़ावी लिखता है यानी التَّوۡرٰىۃَ اوَالۡکِتٰبَ اَلّتی قَبِلہْ यानी तौरेत या (और) किताबें जो क़ुरआन से पहले हैं।

ये आयत उसी आयत के बाद लिखी है जो फ़स्ल गुज़शता में मज़्कूर हुई। पस क़ुरआन की आयतों से ये बात साफ़ निकलती चली आती है कि क़ुरआन कुतुब साबक़ीन की तस्दीक़ करता है बड़ी ख़ासीयत क़ुरआन की जिससे मारूफ़ होता है उन्हीं किताबों की तस्दीक़ है।

फ़स्ल 39

(सुरह अल-अन्आम 6 आयत 114)

ہُوَ الَّذِیۡۤ اَنۡزَلَ اِلَیۡکُمُ الۡکِتٰبَ مُفَصَّلًا وَ الَّذِیۡنَ اٰتَیۡنٰہُمُ الۡکِتٰبَ یَعۡلَمُوۡنَ اَنَّہٗ مُنَزَّلٌ مِّنۡ ربّکَ بِالۡحَقِّ فَلَا تَکُوۡنَنَّ مِنَ الۡمُمۡتَرِیۡنَ

तर्जुमा :- ये वो है कि जिसने भेजी तुमको किताब मुफस्सिल और वो लोग कि जिनको दी है हमने किताब ख़ूब जानते हैं कि ये (क़ुरआन) नाज़िल किया है तेरे रब ने साथ हक़ के पस (ऐ मुहम्मद) मत हो तू उनमें से जो शक करते हैं।

والذین اتینا ہم الکتٰب कि जिनको दी हमने किताब। जलाल उद्दीन इस किताब से मुराद तौरेत लेता है और बैज़ावी उमूमन यहूदी और ईसाईयों की किताब-ए-मुक़द्दस चुनान्चे लिखता है المراد مومنوا اہل الکتاب मुराद मोमिनान अहले-किताब।

ये भी आयत मिस्ल आयत मज़्कूर बाला यानी फ़स्ल (7,13,15) वग़ैरह के मज़ामीन और अक़ाइद क़ुरआनी और कुतुब-ए-साबिक़ा के मुताबिक़त पर मबनी है और जिन लोगों को अल्लाह तआला ने तौरेत और इंजील अता फ़रमाई उनकी शहादत क़ुरआन के रास्त होने पर बजाय बुरहान क़ातेअ (ऐसी दलील जिसको कोई काट ना सके) और दलील सातेअ (रोशन दलील, आला सबूत) के दी गई है और इस बात की भी कि ख़ुद मुहम्मद साहब शक और शुब्हा में नहर हैं और जो बातें कि आयत-ए-साबिक़ा की बनिस्बत लिखी गई हैं इस आयत की बनिस्बत भी दुरुस्त हैं।

फ़स्ल 40

(सुरह अल-अन्आम 6 आयत 124)

وَ اِذَا جَآءَتۡہُمۡ اٰیَۃٌ قَالُوۡا لَنۡ نُّؤۡمِنَ حَتّٰی نُؤۡتٰی مِثۡلَ مَاۤ اُوۡتِیَ رُسُلُ اللّٰہِ

तर्जुमा :- और जब कोई आयत उनके पास आई उन्होंने कहा हम हरगिज़ ईमान ना लाएँगे जब तक कि ऐसी ना आए जैसी कि अम्बिया-उल्लाह लाए।

मर्दुमाँ-ए-मक्का (मक्का के लोगों) ने जो मुहम्मद साहब के साथ बमुक़ाबला पेश आए कहा कि जब तक तुम ऐसी किताब ना लाओगे जैसी अम्बिया-ए-साबिक़ लाए हैं हम तुम्हारे क़ुरआन पर हरगिज़ ईमान ना लाएँगे ये भी किनायतन (इशारतन, इशारे से, ज़मनन) यहूदी और ईसाईयों की उन्हीं कुतुब मुक्द्दसा पर हवाला है जिनके अहवाल और तर्ज़ व मज़्मून से अरब यहां तक कि मक्के के बुतपरस्त भी वाक़िफ़ थे।

फ़स्ल 41

(सुरह अल-अन्आम 6 आयत 154)

ثُمَّ اٰتَیۡنَا مُوۡسَی الۡکِتٰبَ تَمَامًا عَلَی الَّذِیۡۤ اَحۡسَنَ وَ تَفۡصِیۡلًا لِّکُلِّ شَیۡءٍ وَّ ہُدًی وَّ رَحۡمَۃً لَّعَلَّہُمۡ بِلِقَآءِ ربّہِمۡ یُؤۡمِنُوۡنَ

तर्जुमा :- फिर हमने मूसा को किताब दी जो अहसन बात पर कामिल है और हर शेय की तफ़्सील और हिदायत और रहमत है कि शायद ये लोग अपने रब से मिलने पर ईमान लाएं।

इस आयत से ये निकलता है कि कुछ अहसन है तमाम तौरेत इस पर है। फिर तौरेत का जुम्ला अश्या (हर चीज़) की तफ़्सील और हिदायत और रहमत होना क़ुरआन की गवाही से साबित है। पस अब कहो कि इस से बढ़कर उनकी क्या तारीफ़ हो सकती है और सबब बताओ कि अहले इस्लाम यानी इसी क़ुरआन के मुअतक़िद (अक़ीदतमंद, एतिक़ाद रखने वाला) किस वास्ते इन नविश्तों की ऐसी बेक़द्री करते और उनको पाया एतबार से गिराते हैं।

क़त-ए-नज़र (इस के सिवा) इस से कुतुब साबक़ीन इस तरह पर मुकम्मल थीं तो इल्हाम जदीद यानी क़ुरआन नाज़िल होने की क्या ज़रूरत थी? इस बात का जवाब जे़ल की आयत से मिलेगा।

फ़स्ल 42

(सुरह अल-अन्आम 6 आयत 155-157)

وَ ہٰذَا کِتٰبٌ اَنۡزَلۡنٰہُ مُبٰرَکٌ فَاتَّبِعُوۡہُ وَ اتَّقُوۡا لَعَلَّکُمۡ تُرۡحَمُوۡنَ اَنۡ تَقُوۡلُوۡۤا اِنَّمَاۤ اُنۡزِلَ الۡکِتٰبُ عَلٰی طَآئِفَتَیۡنِ مِنۡ قَبۡلِنَا ۪ وَ اِنۡ کُنَّا عَنۡ دِرَاسَتِہِمۡ لَغٰفِلِیۡنَ اَوۡ تَقُوۡلُوۡا لَوۡ اَنَّاۤ اُنۡزِلَ عَلَیۡنَا الۡکِتٰبُ لَکُنَّاۤ اَہۡدٰی مِنۡہُمۡ ۚ فَقَدۡ جَآءَکُمۡ بَیِّنَۃٌ مِّنۡ ربّکُمۡ وَ ہُدًی وَّ رَحۡمَۃٌ

तर्जुमा :- और ये किताब मुबारक (यानी क़ुरआन) हमने नाज़िल की पस उस को मानो और ख़ुदा से डरो शायद कि तुम पर रहम किया जाये मबादा तुम कहते कि हमसे पहले दो ताइफों (गिरोहों) पर किताब नाज़िल हुई और हम उस के पढ़ने से नावाक़िफ़ हैं या शायद तुम ये कहते कि अगर किताब हम पर नाज़िल होती हम ज़रूर उनसे भी ज़्यादा-तर उस की हिदायत मानते पस तुम्हारे रब ने साफ़ बयान और हिदायत और रहमत तुम्हारे पास भेजी।

मुबादा तुम कहते कि हमसे पहले दो ताइफों (गिरोहों) पर किताब नाज़िल हुई यानी यहूदी और ईसाईयों पर चुनान्चे बैज़ावी और जलाल उद्दीन दोनों लिखते हैं علٰی طائفتین ای الیہود والنصٰریٰ इस आयत में असली ग़रज़ क़ुरआन के नाज़िल होने की ये लिखी है कि मक्के और अहले अरब को कुछ उज़्र (बहाना) बाक़ी न रहे और वो लोग ये ना कहें कि यहूदी और ईसाई ख़ुदा की मर्ज़ी से वाक़िफ़ हैं उन्हीं के पास अल्लाह की किताब इब्रानी और यूनानी ज़बानों में मौजूद है और वो लोग उस का आस्मानी मतलब समझ सकते हैं पर हम लोग ना उस को पढ़ सकते हैं ना औरों से पढ़ कर उस को समझ सकते हैं अगर ख़ुदा की किताब अरबी में होती हम भी उनकी तरह पढ़ कर हक़ीक़ी ईमान पर चलते।

पस इन आयात से मालूम होता है कि क़ुरआन ऐसे उज़रात रफ़अ हो जाने के वास्ते नहीं नाज़िल हुआ कुछ वह हसब फ़हवा حسب فحواء (मज़्मून के मुताबिक़) इन आयात के इस वास्ते नहीं नाज़िल हुआ कि पहली किताब नाक़िस या ना-मुकम्मल थी ऐसा दावा आयत माक़ब्ल के बिल्कुल बरख़िलाफ़ होता क्योंकि इस में पहली किताब अहसन बात पर शामिल व कामिल और हर शैय की तफ़्सील और हिदायत और रहमत लिख आए हैं। पस क़ुरआन सिर्फ इस वास्ते नाज़िल हुआ कि पहली किताब ज़बान-ए-ग़ैर (दूसरी ज़बान) में लिखी थी। ग़रज़ इस आयत से जैसा कि किताब-ए-मुक़द्दस के असली और बेऐब व तहरीफ़ होने में किसी तरह का रख़्ना नहीं पड़ता उसी तरह इस के मुकम्मल और बे-नुक्स होने में भी किसी तरह का दक़ीक़ा (मामूली बात) बाक़ी नहीं रहता। हाँ यही एक नुक़्स निकला कि वो अरबी ज़बान में नाज़िल ना हुई और ना अरबी ज़बान में इस का तर्जुमा हुआ बल्कि ऐसी ज़बानों में लिखी हुई थी जिससे अहले अरब मुतलक़ नावाक़िफ़ थे सिर्फ इसी नुक़्स के दूर करने के वास्ते क़ुरआन नाज़िल हुआ उस का यही उम्दा मतलब और मक़्सद था।

फ़स्ल 43

(सुरह अल-क़िसस 28 आयत 43)

وَ لَقَدۡ اٰتَیۡنَا مُوۡسَی الۡکِتٰبَ مِنۡۢ بَعۡدِ مَاۤ اَہۡلَکۡنَا الۡقُرُوۡنَ الۡاُوۡلٰی بَصَآئِرَ لِلنَّاسِ وَ ہُدًی وَّ رَحۡمَۃً لَّعَلَّہُمۡ یَتَذَکَّرُوۡنَ

तर्जुमा :- बा-तहक़ीक़ पहले ज़माने वालों के हलाक करने के बाद हमने मूसा को किताब दी (कि जो) आदमीयों के वास्ते बसीरत और हिदायत और रहमत है शायद कि वो लोग नसीहत क़ुबूल करें।

ये दलील कुछ किताब मूसा के सिर्फ रब्बानी ही होने की नहीं है बल्कि उस की ये निहायत तारीफ़ है कि इन्सान के दिल को आस्मानी नूर बख़्शने के लिए रोशनी और हिदायत है और बनी-आदम के इंतिबाह के वास्ते रहमत और हादी हैं।

फ़स्ल 44

(सुरह अल-क़िसस 28 आयत 46-50 वग़ैरह)

وَ مَا کُنۡتَ بِجَانِبِ الطُّوۡرِ اِذۡ نَادَیۡنَا وَ لٰکِنۡ رَّحۡمَۃً مِّنۡ ربّکَ لِتُنۡذِرَ قَوۡمًا مَّاۤ اَتٰىہُمۡ مِّنۡ نَّذِیۡرٍ مِّنۡ قَبۡلِکَ لَعَلَّہُمۡ یَتَذَکَّرُوۡنَ وَ لَوۡ لَاۤ اَنۡ تُصِیۡبَہُمۡ مُّصِیۡبَۃٌۢ بِمَا قَدَّمَتۡ اَیۡدِیۡہِمۡ فَیَقُوۡلُوۡا ربّنَا لَوۡ لَاۤ اَرۡسَلۡتَ اِلَیۡنَا رَسُوۡلًا فَنَتَّبِعَ اٰیٰتِکَ وَ نَکُوۡنَ مِنَ الۡمُؤۡمِنِیۡنَ فَلَمَّا جَآءَہُمُ الۡحَقُّ مِنۡ عِنۡدِنَا قَالُوۡا لَوۡ لَاۤ اُوۡتِیَ مِثۡلَ مَاۤ اُوۡتِیَ مُوۡسٰی اَوَ لَمۡ یَکۡفُرُوۡا بِمَاۤ اُوۡتِیَ مُوۡسٰی مِنۡ قَبۡلُ ۚ قَالُوۡا سِحۡرٰنِ تَظٰہَرَا ۟ وَ قَالُوۡۤا اِنَّا بِکُلٍّ کٰفِرُوۡنَ قُلۡ فَاۡتُوۡا بِکِتٰبٍ مِّنۡ عِنۡدِ اللّٰہِ ہُوَ اَہۡدٰی مِنۡہُمَاۤ اَتَّبِعۡہُ اِنۡ کُنۡتُمۡ صٰدِقِیۡنَ فَاِنۡ لَّمۡ یَسۡتَجِیۡبُوۡا لَکَ الخ

तर्जुमा :- और तू तूर (यानी कोह-ए-सेना) की जानिब पर ना था जब कि हमने पुकारा मगर (तू ही) रहमत अपने रब से ताकि एक क़ौम को जिसके वास्ते तुझसे पेशतर कोई डराने वाला नहीं आया तू डराए शायद वो नसीहत क़ुबूल करें और मुबादा अगर इन कामों के बाइस जो उन्हों ने किए हैं उन पर मुसीबत पड़े तो वो कहेंगे कि या रब अगर तू हमारे वास्ते एक रसूल भेजता हम तेरी आयतों की पैरवी करते और मोमिनों में से होते और जब कि हमारे यहां से उन के पास हक़ आया तो कहते कि अगर वैसा ही आता जैसा कि मूसा के वास्ते आया था (तो हम ईमान लाते) क्या उन्हों ने उस से जो आगे मूसा को दिया गया था इन्कार नहीं किया? कहते हैं कि दो काम जादू के आपस में एक दूसरे की मदद करते हैं और कहते हैं हम दोनों से इन्कार करते हैं कह कि अगर तुम सच्चे हो तो लाओ कोई किताब ख़ुदा के यहां से जो इन दोनों से बेहतर हिदायत करती हो और अगर तुझे जवाब ना दें अलीख....

सहरान سحرا ن की जगह हैं नुस्ख़ा में साहिरान ساحران लिखा है “यानी दो जादूगर यानी मूसा और मुहम्मद साहब चुनान्चे बैज़ावी शरह करता है :-

ساحران وفی قراۃ سحران ای التورٰیۃ والقراٰن मअनी साहिर उनकी एवज़ बाअज़ ने सहरान लिखा है यानी तौरेत और क़ुरआन फ़क़त।

मुहम्मद साहब की दावत का मक़्सद और क़ुरआन का मतलब फिर वही लिखा है जो फ़स्ल (42) में मज़्कूर हुआ यानी ये कि अरब के लोग जिनके पास पेशतर से कोई पैग़म्बर नहीं भेजे गए। अब तंबीया और नसीहत पाएं ताकि ऐसा ना हो कि वो अरब के लोग जब उन के हक़ में सज़ा का हुक्म-ए-ख़ुदा से जारी हुआ ये कहें कि जो हमारे पास कोई पैग़म्बर भेजे जाते तो हम लोग बेशक ईमानदार होते पर जब वाक़ई में पैग़म्बर यानी मुहम्मद साहब उन के पास पहुंचे तो मक्का वालों ने उन पर ईमान लाने से इन्कार किया कि जब तक मूसा की सी किताब ना लाओगे (या जैसा बाअज़ मुफ़स्सिर बयान करते हैं मूसा के से मोअजज़े दिखलाओगे) हम ईमान नहीं लाएँगे मुहम्मद साहब उन के जवाब में कहते हैं कि ये कैसा इख़्तिलाफ़ है क्या तुमने किताब मूसा से जो मैंने अपने दावे के सबूत में पेश की पहले से इन्कार नहीं किया और कहा कि वो और क़ुरआन दोनों जादू हैं और एक दूसरे की मदद करते हैं। हम दोनों को सहर (जादू) समझ कर इन से इन्कार करते हैं और बादअज़ां इस आयत में ख़ुदा मुहम्मद साहब से कहता है “कह अब उन के जवाब में ये कह कि दिखलाओ मुझे कोई किताब जो इन दोनों से बेहतर हिदायत करती है ताकि मैं उस का इत्तबाअ (पैरवी, तक़्लीद, फ़र्मांबरदारी) करूँ।”

पस किताब मूसा के अहकाम इलाही रखने की शहादत इस से बढ़कर और क्या होगी। उस वक़्त यहूदीयों के पास किताब मूसा मौजूद थी और उसी पर मुहम्मद साहब ने अपने दावे की सदाक़त का हवाला दिया और मूसा की किताब और क़ुरआन की बनिस्बत मक्के वालों से ये कहा कि अगर कोई किताब उन से ज़्यादा-तर हिदायत करने वाली रखते हो तो पेश करो कि मैं पैरवी उस की करूँ।

फ़स्ल 45

(सुरह अल-किसस 28 आयत 52-53)

اَلَّذِیۡنَ اٰتَیۡنٰہُمُ الۡکِتٰبَ مِنۡ قَبۡلِہٖ ہُمۡ بِہٖ یُؤۡمِنُوۡنَ وَ اِذَا یُتۡلٰی عَلَیۡہِمۡ قَالُوۡۤا اٰمَنَّا بِہٖۤ اِنَّہُ الۡحَقُّ مِنۡ ربّنَاۤ اِنَّا کُنَّا مِنۡ قَبۡلِہٖ مُسۡلِمِیۡنَ

तर्जुमा :- जिनको हमने इस से (यानी क़ुरआन से) पहले किताब दी वो इस पर ईमान रखते हैं और जब वो (क़ुरआन) इन के सामने पढ़ा जाता है तो कहते हैं कि इस पर ईमान लाए ये ज़रूर हक़ है हमारे रब से हम तो पहले से मुस्लिम थे।

इस मुक़ाम का मतलब ये है कि क़ुरआन की जो सुरह और आयतें यहूदी या ईसाईयों के हाथ लगीं वो उन के पाक नविश्तों से ऐसी मिलती थीं और उन में ये बात ऐसी ताकीद से मुकर्रर (बार-बार) आई कि क़ुरआन का बड़ा मक़्सद उन्हीं यहूदी और ईसाई नविश्तों की तस्दीक़ करता है कि यहूदीयों ने उस को मान लिया क्योंकि समझे हमारी तौरेत बरक़रार रहेगी सिर्फ उस के अख़्बार और अक़ीदों की तस्दीक़ और तौज़ीह (वाज़ेह करना) के वास्ते ये क़ुरआन पेश हुआ हमारे दीन राह रस्म में कुछ फ़र्क़ नहीं होगा फिर क़ुरआन के मान लेने में क्या क़बाहत होगी कुछ भी नहीं। यक़ीन है कि जिन लोगों ने ऐसा समझा कुल क़ुरआन को नहीं देखा था बल्कि सिर्फ़ बाअज़ सुरह और आयतें उन में से जो पहले जारी हुईं उन को देखकर कहा होगा कि ये बईना वही हैं जिनको हमने साबिक़ से मानते चले आए।

आयत मज्कुरह बाला को फ़स्ल (7, 13, 15, 35) और इसी तरह की और फसलों से भी मुक़ाबला करो।

फ़स्ल 46

(सुरह उल-मोमिनीन 23 आयत 49-50)

وَ لَقَدۡ اٰتَیۡنَا مُوۡسَی الۡکِتٰبَ لَعَلَّہُمۡ یَہۡتَدُوۡنَ وَ جَعَلۡنَا ابۡنَ مَرۡیَمَ وَ اُمَّہٗۤ اٰیَۃً

तर्जुमा :- और बा-तहक़ीक़ हमने मूसा को किताब दी ताकि वो लोग हिदायत क़ुबूल करें और हमने मर्यम के बेटे और उस की माँ को निशान बनाया अलीख...

फ़स्ल 47

(सुरह अल-अम्बिया 21 आयत 7)

وَ مَاۤ اَرۡسَلۡنَا قَبۡلَکَ اِلَّا رِجَالًا نُّوۡحِیۡۤ اِلَیۡہِمۡ فَسۡـَٔلُوۡۤا اَہۡلَ الذِّکۡرِ اِنۡ کُنۡتُمۡ لَا تَعۡلَمُوۡنَ

तर्जुमा :- और हमने तुझसे पहले और किसी को रसूल नहीं भेजा मगर आदमीयों को जिनको हमने वही दी पस तू अहले-किताब से पूछ अगर नहीं जानते।

किसी किसी नुस्ख़ा में नोही نوحی (मातम) की जगह यू ही (एक साँप जिसकी बाबत मशहूर है कि हज़ार साल का होने पर जो शक्ल चाहे इख़्तियार कर सकता है) भी लिखा है यानी जिनको वही दी गई। चुनान्चे जलाल उद्दीन लिखता है :-

یُوْ حٰۤی وْفِیۡۤ قُرْأۃ بِتّوْنْ

अहले-किताब से मुराद वो लोग हैं जो तौरेत और इंजील के फ़ाज़िल और आलिम हैं चुनान्चे बैज़ावी लिखता है :-

اَہۡلِ الَّذِ کَرْالَعْلمِاء بالتَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ۔

ये आयत क़ुरैशियों के जवाब में है यानी जब उन्हों ने कहा कि क्या ये भी तुम लोगों की तरह एक आदमज़ाद नहीं है तो मुहम्मद साहब ने उन से कहा कि अम्बिया-ए-साबिक़ का हाल अहले-किताब से जिनके पास आस्मानी नविश्ते मौजूद हैं दर्याफ़्त करो। चुनान्चे बैज़ावी लिखता है जवाब :-

لِقْولَہُمْ ہَلْ ہٰذَاۤ اِلَّا بَشَرٌ مِّثۡلُکُمْ یَاۡمِرْ بِہْم اَنْ یِسّئلوْا اَہۡلِ الْکِتٰبَ مِنۡ حَالْ اِلّرْسَلْ الۡمُتَّقِدمۡۃَ۔

मुहम्मद साहब ने जो इस तरह से यहूदी और ईसाईयों पर यानी उन लोगों पर हवाला दिया जिनके पास किताब-ए-मुक़द्दस मौजूद थी तो हक़ीक़त में अपने दावे और अक़ीदे के सबूत का ख़ुद उसी किताब पर हवाला दिया कि जो उन के हम-असर यहूदी और ईसाईयों के पास मौजूद और जारी थी पस नबी इस्लाम और उन के इन दिनों के पैरौओं से क्या ही फ़र्क़ है गोया आस्मान और ज़मीन।

फ़स्ल 48

(सुरह अल-अम्बिया 21 आयत 48-50)

وَ لَقَدۡ اٰتَیۡنَا مُوۡسٰی وَ ہٰرُوۡنَ الۡفُرۡقَانَ وَ ضِیَآءً وَّ ذِکۡرًا لِّلۡمُتَّقِیۡنَ الَّذِیۡنَ یَخۡشَوۡنَ ربّہُمۡ بِالۡغَیۡبِ وَ ہُمۡ مِّنَ السَّاعَۃِ مُشۡفِقُوۡنَ وَ ہٰذَا ذِکۡرٌ مُّبٰرَکٌ اَنۡزَلۡنٰہُ اَفَاَنۡتُمۡ لَہٗ مُنۡکِرُوۡنَ

तर्जुमा :- और बा-तहक़ीक़ हमने दिया मूसा और हारून को फ़ुरक़ान (यानी इम्तियाज़) और रोशनी और नसीहत और ख़ुदा परस्तों के वास्ते वो जो ग़ैब में अपने रब से डरते हैं और उस घड़ी (यानी क़ियामत) से कांपते हैं और ये भी ज़िक्र मुबारक है जिसे हम ने नाज़िल किया है पस क्या तुम इस से इन्कार करोगे?

इस आयत में किताब मूसा का नाम फ़ुरक़ान लिखा है और उस का बयान ऐसी तारीफ़ के साथ किया है कि इस को ज़िया यानी रोशनी और ज़िक्र यानी नसीहत याद-दहानी उन ख़ुदा परस्तों के वास्ते ठहराया है जो अपने ख़ालिक़ से डरते और रोज़ क़यामत से थर्राते हैं। इस में तो किताब मूसा से बढ़कर ख़ुद क़ुरआन की भी तारीफ़ नहीं की। पस अब वो मुत्तक़ी ख़ुदा-परस्त मुसलमान जो इस किताब मुबारक को हौसला रखते हैं जिसका अभी ज़िक्र हुआ किस वास्ते इस किताब को नहीं पढ़ते और इस के अहकामात रब्बानी की शमअ से अपने हुज्रा सीना को रोशन नहीं करते।

लफ़्ज़ फ़ुरक़ान तौरेत और क़ुरआन दोनों पर एक ही में इस आयत के दर्मियान इस्तिमाल किया है।

ग़रज़ इस आयत का भी वही मतलब है जो और मुक़ामों पर आया है यानी निशान देना एक किताब का शुरू इस्लाम में जारी और राइज थी और जिससे मोमिनान सादिक़ का ज़हद व तक़वा इस्तिहकाम पाता था और उनकी रूह व रवां (रूह और रूह) को रोशनी मिलती थी।

फ़स्ल 49

(सुरह अल-अम्बिया 21 आयत 105)

وَ لَقَدۡ کَتَبۡنَا فِی الزَّبُوۡرِ مِنۡۢ بَعۡدِ الذِّکۡرِ اَنَّ الۡاَرۡضَ یَرِثُہَا عِبَادِیَ الصّٰلِحُوۡنَ

तर्जुमा :- और बा-तहक़ीक़ हमने ज़िक्र (यानी तौरेत) के ज़बूर में लिखा है कि मेरे बंदगान सालेह ज़मीन के वारिस होंगे।

ज़बूर में यानी किताब-ए-दाऊद में ज़िक्र के बाद यानी तौरेत के बाद चुनान्चे बैज़ावी लिखता है :-

الزَّبُوۡرِ فِی کَتِٰبْ دَاوٗدَ مِنۡۢ بَعۡدِ الذِّکۡرِٰی التَّوۡرٰىۃَ

मगर और लोग ज़बूर से उमूमन किताब-ए-मुक़द्दस मुराद लेते हैं।

बहर-सूरत इस इबारत को अहले इस्लाम ने अहद-ए-अतीक़ की होना तस्लीम किया और वो ज़बूर (29:37) के दर्मियान साफ़ लिखी हुई कि “सालहीन ज़मीन के वारिस होंगे और हमेशा उस पर रहा करेंगे।” जिसका दिल चाहे किताब-ए-मुक़द्दस खोल कर देख ले।

ज़बूर का जिस तौर पर कि उस वक़्त मौजूद थी और यहूदी और ईसाईयों के दर्मियान राइज थी उस का कलाम रब्बानी मानना ये कुछ नई बात नहीं है, बल्कि ये भी उसी क़बील (आदमीयों का गिरोह) से है जो तमाम क़ुरआन में बनिस्बत किताब-ए-मुक़द्दस के लिखा है यही मतलब बराबर सिलसिला-वार चला आता है।

फ़स्ल 50

(सुरह बनी-इस्राईल/इसरा 17 आयत 2)

وَ اٰتَیۡنَا مُوۡسَی الۡکِتٰبَ وَ جَعَلۡنٰہُ ہُدًی لِّبَـنِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَ اَلَّا تَتَّخِذُوۡا مِنۡ دُوۡنِیۡ وَکِیۡلًا

तर्जुमा :- और हमने मूसा को किताब दी और उसे बनी-इस्राईल के वास्ते हिदायत बनाई ये कह कर कि ना इख़्तियार करो सिवाए मेरे किसी को वकील।

जलाल उद्दीन लिखता है कि तत्तख़ज़ो تتّخذو की जगह बाअज़ नुस्ख़ों में तिखज़ू ( تیخذو) भी लिखा है और किताब से मुराद तौरेत :-

تَتَّخِذُوۡۤا و فِی قُرْأۃ تَیَّخِذُوۡۤا الۡکِتٰبَ التَّوۡرٰىۃَ۔

फ़स्ल 51

(सुरह बनी-इस्राइल/इसरा 17 आयत 4, 5, 7)

وَ قَضَیۡنَاۤ اِلٰی بَنِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَ فِی الۡکِتٰبِ لَتُفۡسِدُنَّ فِی الۡاَرۡضِ مَرَّتَیۡنِ وَ لَتَعۡلُنَّ عُلُوًّا کَبِیۡرًا فَاِذَا جَآءَ وَعۡدُ اُوۡلٰىہُمَا بَعَثۡنَا عَلَیۡکُمۡ عِبَادًا لَّنَاۤ اُولِیۡ بَاۡسٍ شَدِیۡدٍ الخ فَاِذَا جَآءَ وَعۡدُ الۡاٰخِرَۃِ الخ

तर्जुमा :- और बनी-इस्राईल की निस्बत हमने किताब में हुक्म दिया कि तुम ज़मीन पर बिलज़रूर दो मर्तबा फ़साद करोगे और बड़े ग़रूर से चढ़ जाओगे पस इन दोनों में से जब पहला वअ़दा पहुंचा तो हम ने तुम पर अपने शदीद ज़ोर वाले चाकरों को भेजा अलीख... और जब दूसरा वाअ़दा पहुंचा अलीख...

बैज़ावी और जलाल उद्दीन दोनों लिखते हैं الۡکِتٰبَ التَّوۡرٰىۃَ यानी किताब से मुराद तौरेत है।

ये आयत तौरेत की उन पेशगोइयों से ताल्लुक़ रखती है जिनमें लिखा है कि यहूदी दो मर्तबा फ़साद करेंगे और अपने तकब्बुर से ख़ुदा तआला को नाराज़ करेंगे और दोनों मर्तबा अपने गुनाहों की सज़ा को पहुँचेंगे ये पेशगोई जैसा कि इस आयत में लिखा है वाक़ई पूरी हुई और सातवें (7) आयत के शुरू से मालूम होता है कि वो हैकल यानी बैत-उल-मुक़द्दस के गिर जाऐंगे दो मर्तबा मिस्मार होने की तरफ़ इशारा है यानी अव्वल तो बाबुल की क़ैद में पड़ने के वक़्त और दूसरे तीतूस शहनशाह के हाथों से।

फ़स्ल 52

(सुरह बनी-इस्राइल/इसरा 17 आयत 55)

وَ لَقَدۡ فَضَّلۡنَا بَعۡضَ النَّبِیّٖنَ عَلٰی بَعۡضٍ وَّ اٰتَیۡنَا دَاوٗدَ زَبُوۡرًا

तर्जुमा :- और बा-तहक़ीक़ हमने बअ़ज़ नबियों को बअ़ज़ों पर फ़ज़ीलत दी और दाऊद को ज़बूर बख़्शी।

इस फ़स्ल के उन्चास्वे (49) फ़स्ल के साथ मुक़ाबला करो जिसमें सूरह अल-अम्बिया की एक सौ पांचवें (105) आयत के दर्मियान इन्हीं ज़बूर से क़ुरआन ज़बूर से इक़्तिबास हुआ है।

फ़स्ल 53

(सुरह बनी-इस्राइल/इसरा 17 आयत 101)

وَ لَقَدۡ اٰتَیۡنَا مُوۡسٰی تِسۡعَ اٰیٰتٍۭ بَیِّنٰتٍ فَسۡـَٔلۡ بَنِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَ الخ

तर्जुमा :-और बा-तहक़ीक़ हमने मूसा को तो साफ़ निशानीयां दी पस पूछ बनी-इस्राईल से।

जलाल उद्दीन लिखता है فَاسْاَلْ یِامُحَمَّدٌ मअनी पस पूछो या मुहम्मद यानी ख़ुदा पैग़म्बर इस्लाम से फ़रमाता है कि नौ (9) मोअजज़े जो मूसा ने फ़िरऔन को दिखलाए थे उन की तस्दीक़ और अहवाल बनी-इस्राईल से दर्याफ़्त कर ऐसी तस्दीक़ और ये शहादत बनी-इस्राईल की उसी किताब मुक़द्दस से निकल सकती थी जो उन लोगों के हाथ में मौजूद थी।

फ़स्ल 54

(सुरह बनी-इस्राइल\इसरा 17 आयत 108)

قُلۡ اٰمِنُوۡا بِہٖۤ اَوۡ لَا تُؤۡمِنُوۡا اِنَّ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡعِلۡمَ مِنۡ قَبۡلِہٖۤ اِذَا یُتۡلٰی عَلَیۡہِمۡ یَخِرُّوۡنَ لِلۡاَذۡقَانِ سُجَّدًا وَّ یَقُوۡلُوۡنَ سُبۡحٰنَ ربّنَاۤ اِنۡ کَانَ وَعۡدُ ربّنَا لَمَفۡعُوۡلًا وَ یَخِرُّوۡنَ لِلۡاَذۡقَانِ یَبۡکُوۡنَ وَ یَزِیۡدُہُمۡ خُشُوۡعًا

तर्जुमा :- कि तुम इस को (क़ुरआन को) मानो या ना मानो बेशक वो लोग जिनको इस के पेशतर से इल्म इलाही मिला है जब उन के सामने पढ़ा जाये तो सज्दे में ठुड्डियों पर गिरते हैं शुक्र हो हमारे रब को बेशक पूरा हुआ वअ़दा हमारे रब का और गिरते हैं रोते हुए ठुड्डियों पर और ज़्यादा होती है उन की आजिज़ी।

बैज़ावी लिखता है :-

الَّذِیۡنَ اَوْتِوُ الَعّْلمْ مِنْ قَبۡلُہْ وَہْوٰ االَعّْلمْاء الَّذِیۡنَ قُرْوَا الْکِتٰب الِسّابِقْۃّ وعِرۡفَوۡاحُقْیِقّۃْ اُلوۡحِیَ وْاَمّٖاَرِاٰتْ النُّبُوَّۃَ

मअनी वो लोग जिनको उसने पहले इल्म (यानी इल्म रब्बानी) मिला है यानी उलमा जिन्होंने कुतुब साबिक़ पढ़ी हैं और वही की हक़ीक़त और नबुव्वत की निशानियों को दर्याफ़्त किया है।

और जलाल उद्दीन लिखता है :-

وْہمْ مُو مِنُوۡۤا اَہۡلِ الْکِتٰبَ

यानी वो मोमिनान अहले-किताब थे।

इस आयत में ख़ुदा मुहम्मद साहब को हुक्म देता है कि मुन्किरीन मक्का से कह दो कि तुम चाहे ईमान लाओ चाहे ना लाओ जिन लोगों के पास पहले से कुतुब रब्बानी मौजूद हैं और इम्तियाज़ करने की ताक़त, तुमसे ज़्यादा रखते हैं वो तो क़ुरआन पर ईमान लाए और इस में अपनी किताबों की तस्दीक़ का मुज़्दा पा कर निहायत ख़ुश हुए।

ये मज़्मून सातवीं और तेरहवीं वग़ैरह फसलों के मज़्मून से मिलता है जिनमें मज़्कूर है बाअज़ अहले अल-किताब क़ुरआन और अक़ीदा इस्लाम को अपनी किताबों के मुताबिक़ पाकर इस पर एतिक़ाद ले आए।

फ़स्ल 55

(सुरह अल-नहल 16 आयत 43-44)

وَ مَاۤ اَرۡسَلۡنَا مِنۡ قَبۡلِکَ اِلَّا رِجَالًا نُّوۡحِیۡۤ اِلَیۡہِمۡ فَسۡـَٔلُوۡۤا اَہۡلَ الذِّکۡرِ اِنۡ کُنۡتُمۡ لَا تَعۡلَمُوۡنَ بِالۡبَیِّنٰتِ وَ الزُّبُرِوَ اَنۡزَلۡنَاۤ اِلَیۡکَ الذِّکۡرَ لِتُبَیِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ اِلَیۡہِمۡ وَ لَعَلَّہُمۡ یَتَفَکَّرُوۡنَ

तर्जुमा :- और तुझसे पहले हमने किसी को रसूल नहीं भेजा सिवा आदमज़ाद के और उनको हमने वही दी है पस पूछ अहले ज़िक्र (यानी अहले कुतुब इलाही) से अगर नहीं जानते हो। साथ साफ़ निशानीयों के (हमने उन को भेजा) और किताबों के साथ और तेरे पास भी हमने ज़िक्र (यानी किताब इलाही) भेजी ताकि तू लोगों से बयान करे जो उन्ही पर उतारी गई शायद कि वो ध्यान करें।

इस आयत का पहला हिस्सा सूरह अल-अम्बिया की सातवीं (7) आयत जो सेंतालिस्वीं (47) फ़स्ल में मज़्कूर हुई है मुताबिक़ है अलावा इस के इस में उन मोअजज़ात और किताबों का भी हवाला निकलता है जो अम्बिया-ए-साबिक़ को अता हुई थीं।

फ़स्ल 56

(सुरह अल-रअद 13 आयत 36)

وَ الَّذِیۡنَ اٰتَیۡنٰہُمُ الۡکِتٰبَ یَفۡرَحُوۡنَ بِمَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡکَ وَ مِنَ الۡاَحۡزَابِ مَنۡ یُّنۡکِرُ بَعۡضَہٗ

तर्जुमा :- और वो लोग जिनको हमने किताब दी ख़ुश होते हैं उस के सबब से जो तुझे भेजी गई लेकिन बाअज़ फ़िर्क़े उस की बाअज़ बात से इन्कार करते हैं।

जलाल उद्दीन लिखता है :-

یِفرْحَوْن بِمُوا فَقّتہْٰ بِمّاعْنَدِہُمْ वो ख़ुश होते हैं बसबब मुवाफ़िक़त के उस के साथ जो उन के पास है यानी अपनी किताबों से मुताबिक़ होने के बाइस।

इस को और आयतों के साथ जो सातवीं (7) तेरहवीं (13) और पंद्रहवीं (15) वग़ैरह फसलों के दर्मियान लिखी गई हैं जिनमें यहूदी और ईसाईयों पर क़ुरआन उन की किताबों के साथ मुताबिक़ होने की गवाही के लिए हवाला किया है मुक़ाबिल करना चाहे।

फ़स्ल 57

(सुरह अल-रअ़द 13 आयत 43)

وَ یَقُوۡلُ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا لَسۡتَ مُرۡسَلًا قُلۡ کَفٰی بِاللّٰہِ شَہِیۡدًۢا بَیۡنِیۡ وَ بَیۡنَکُمۡ ۙ وَ مَنۡ عِنۡدَہٗ عِلۡمُ الۡکِتٰبِ

तर्जुमा :- और कुफ़्र करते हैं कहते हैं कि तू अल्लाह का भेजा हुआ नहीं है, कि तू कह कि अल्लाह काफ़ी है गवाह दर्मियान मेरे और तुम्हारे और वो भी जिसको इल्म है किताब का।

जलाल उद्दीन लिखता है :-

وَمِنْ عِنۡدِ ہْ عِلۡمِ الْکِتٰبَ مِنْ مَنُومْنَی الۡیَہُوۡدَ وَ النَّصاریٰ

मअनी और जिसको इल्म है किताब का यानी मोमिनान यहूद और ईसाईयों में से।

इस आयत का मज़्मून भी आयत माक़ब्ल के मुताबिक़ है मक्के में मुहम्मद साहब का गवाह जैसा कि इस आयत में लिखा है ख़ुदा और बाअज़ यहूद व नसारा जिन पर अपनी कुतुब रब्बानी की वाक़फ़ीयत के सबब सदाक़त क़ुरआन की शहादत को मुहम्मद साहब हस्र करते हैं।

फ़स्ल 58

(सुरह अल-अन्कबूत 29 आयत 27)

وَہَبۡنَا لَہٗۤ اِسۡحٰقَ وَ یَعۡقُوۡبَ وَ جَعَلۡنَا فِیۡ ذُرِّیَّتِہِ النُّبُوَّۃَ وَ الۡکِتٰبَ

तर्जुमा :- और हमने उसे (इब्राहिम को) इस्हाक़ और याक़ूब दिया और उस की औलाद में नबुव्वत और किताब को रखा।

बैज़ावी शरह करता है :-

وَالْکِتٰبَ مْیِرَیۡدِبہْ الَجِنْسّ لَیِتّنْاوْلَ الْکِتٰبَ الَاربّعۃْ

मअनी और किताब से मुराद जिन्स है, ता कहो क़ुबूल करे चारों किताबों को। और जलाल उद्दीन लिखता है :-

وَالْکِتٰبَ بِمعَّنیْ ایِ التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ وَالزَّبُوۡرِوالۡقُرۡاٰنُ الْکِتٰبَ

मअनी और किताब के मअनी कुतुब यानी तौरेत और इंजील और ज़बूर और क़ुरआन।

ये वही कुतुब रब्बानी हैं जिनका इस आयत में इब्राहिम की औलाद के दर्मियान रहना लिखा है और मज़्मून आयत और शरह मुफ़स्सिरों की दोनों से ये बात निकलती है कि ये कुतुब मुक़द्दस यानी तौरेत, ज़बूर और इंजील पुश्त दर पुश्त ख़ानदान इब्राहीमी में बराबर महफ़ूज़ और मसुन (महफ़ूज़, निगहबानी किया गया) चली आईं।

फ़स्ल 59

(सुरह अल-अन्कबुत 29 आयत 46)

وَ لَا تُجَادِلُوۡۤا اَہۡلَ الۡکِتٰبِ اِلَّا بِالَّتِیۡ ہِیَ اَحۡسَنُ ٭ۖ اِلَّا الَّذِیۡنَ ظَلَمُوۡا مِنۡہُمۡ وَ قُوۡلُوۡۤا اٰمَنَّا بِالَّذِیۡۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡنَا وَ اُنۡزِلَ اِلَیۡکُمۡ وَ اِلٰـہُنَا وَ اِلٰـہُکُمۡ وَاحِدٌ وَّ نَحۡنُ لَہٗ مُسۡلِمُوۡنَ

तर्जुमा :- और ना झगड़ा करो अहले-किताब के साथ मगर एहसान की सूरत से बजुज़ (सिवा, मगर, बग़ैर) उन लोगों के जिन्हों ने बदी की है और कहो कि हम उस चीज़ पर ईमान रखते हैं जो हम पर नाज़िल हुई और उस चीज़ पर भी जो तुम पर नाज़िल हुई ख़ुदा हमारा और तुम्हारा एक है और हम सब उसी के भरोसे हैं।

इस से साफ़ ज़ाहिर है कि सूरह अन्कबूत जारी होने के वक़्त मुहम्मद साहब किस तौर पर यहूद व नसारा से ख़िताब करते थे। इस ख़िताब से तो मालूम होता है कि वो उनके मज़्हब और किताबों की पैरवी और तत्बीक़ (मुताबिक़ करना, बराबर करना) करते थे ना कि तर्दीद व तन्सीख़। बहर-सूरत इस से कुछ तो वो बातें खूब दर्याफ़्त हो गईं जिनके बाइस यहूद व नसारा रसूल-ए-मक्का की ताअलीम सुनकर ख़ुश हुए क्योंकि इस्लाम के पैग़म्बर उनकी पाक किताबों की ताकीद व तशद्दुद (सख़्ती, ज़्यादती, जबर) तस्दीक़ किया करते और ज़ाहिरा यहूदी और ईसाई उसूल और क़वाइद को बदस्तूर बहाल व बरक़रार रखना चाहते थे। हाँ इस क़द्र उन पैग़म्बर को अलबत्ता मंज़ूर था कि जिन ग़लतीयों ने उन की ताअलीम में और जिन दस्तुरात ने खिलाफ-ए-हक़ उन के क़वाइद में रफ़्ता-रफ़्ता दख़ल (रसाई, पहुंच) पाया था। उन की तर्मीम और इस्लाह करें जैसे फ़रिश्तों और पीरों की इबादत और मसीह और उस की माँ मर्यम की तस्वीर बना कर उन की परस्तिश करनी ऐसी रसूमात मकरूह (कराहत किया गया, नफ़रत अंगेज़, घिनावना) की मुहम्मद साहब ने मलामत शदीद की, सो जितने यहूदी और ईसाई हक़ परस्त थे। इस तर्मीम और इस्लाह के इरादे से राज़ी थे और मुहम्मद साहब की गवाही अपने पाक नविश्तों की तरफ़ सुनकर और यहूदी और ईसाई मज़्हब की हक़ीक़त बहाल रखने का मुज़्दा (ख़ुश-ख़बरी, बशारत, मुबारकबाद) पाकर ऐसे बेनिहायत ख़ुश हुए कि आँसू बहा कर रोने लगे।

फिर उस तोक़ीर व एतिक़ाद के वास्ते भी जो मुहम्मद साहब यहूद नसारा की किताब रब्बानी का करते थे अब इस आयत से बढ़ कर और क्या सबूत होएगा, क्योंकि इस में साफ़ लिखा है इस किताब पर ईमान रखते हैं जो हमको आस्मान से उतरी और उस पर भी जो तुम को आस्मान से नाज़िल हुई ख़ुदा हमारा और तुम्हारा एक ही है हम दोनों उसी के भरोसे हैं।

मुहम्मद साहब के हम अस्र अहले इस्लाम और जो कि उन के बाद हुए अगर हाल के बाअज़ मुसलमानों की ये हुज्जत ना माक़ूल सुनते कि जो तौरेत और इंजील तमाम यहूद व नसारा के दर्मियान रिवाज रखती थी उस का नहीं बल्कि किसी और तौरेत और इंजील का मुहम्मद साहब ने ज़िक्र किया, नहीं मालूम कि कितना हंसते और कैसी फटकार देते क्योंकि ये सिर्फ़ दिल की जोड़ी हुई बात है और बिल्कुल क़ुरआन के मतलब के बर-ख़िलाफ़।

फ़स्ल 60

(सुरह अल-अन्कबूत 29 आयत 47)

وَ کَذٰلِکَ اَنۡزَلۡنَاۤ اِلَیۡکَ الۡکِتٰبَ فَالَّذِیۡنَ اٰتَیۡنٰہُمُ الۡکِتٰبَ یُؤۡمِنُوۡنَ بِہٖ ۚ وَ مِنۡ ہٰۤؤُلَآءِ مَنۡ یُّؤۡمِنُ بِہٖ وَ مَا یَجۡحَدُ بِاٰیٰتِنَاۤ اِلَّا الۡکٰفِرُوۡنَ

तर्जुमा :- और वैसी ही हमने तुझ पर किताब (यानी क़ुरआन) नाज़िल की पस् जिनको हमने किताब दी है वह उस को मानते हैं।

ये उसी पहली आयत का ततिम्मा है।

जलाल उद्दीन लिखता है :-

الْکِتٰبَ التَّوۡرٰىۃَ

यानी के किताब से मुराद तौरेत है

और बैज़ावी लिखता है :-

ہُمْ عَبۡدًا لِّلّٰہِ ابۡنِ سۡلَامُ واَحۡزَابِہ اوَ مَنۡ تُقَدِّمُ عہَدَ الرَّسُوۡلَ مَنۡ اَہۡلِ الْکِتٰبَیۡنَ

यानी उन लोगों से मुराद अब्दुल्लाह इब्ने सलाम और उस के साथी हैं या वो लोग मिनजुम्ला अहले-किताबीन (तौरेत और इंजील) के जो मुहम्मद साहब के ज़माने तक पहुंची।

और फिर जलाल उद्दीन लिखता है :-

وَ کَذٰلِکَ انَزَّلۡنَا اِلَیۡکَ الۡقُرۡاٰنُ کِمَاانَزَّلۡنَاالیۡہِمۡ التَّوۡرٰىۃَ وغیرہ

और वैसी ही हमने तुझ पर नाज़िल की किताब यानी क़ुरआन जैसी कि उन लोगों पर नाज़िल की थी तौरेत वग़ैरह।

ग़रज़ ये बात इस आयत में मुंदरज है कि क़ुरआन उसी तौर पर नाज़िल हुआ जिस तौर पर साबिक़ आस्मानी किताबें तौरेत व इंजील भी नाज़िल हुई थीं। दोनों के इल्हाम का तरीक़ और सूरत यकसाँ है चशमा और मब्दा (शुरू होने की जगह, ज़ाहिर होने जगह) दोनों का एक ही है मतलब क़ुरआन के नाज़िल होने से उन्हीं कुतुब साबिक़ का तस्दीक़ करना था। बहर सूरत उस के नाज़िल होने से ये एक बड़ा मतलब था। पस जो मुसलमान कि क़ुरआन को कलाम इलाही मानता है उस को ये आस्मानी किताबें भी लामुहाला रब्बानी माननी लाज़िम पड़ेगी और कम से कम इतनी ताज़ीर व तोक़ीर के साथ तो बिलज़रूर पढ़नी चाहिऐं कि जो वो क़ुरआन के वास्ते करता है। जो क़ुरआन की ताज़ीम करेगा तो क्यों इन किताबों की ताज़ीम ज़्यादा ना करेगा जिनकी तस्दीक़ के लिए क़ुरआन जारी हुआ।

फ़स्ल 61

(सुरह अल-आराफ़ 7 आयत 156-157)

فَسَاَکۡتُبُہَا لِلَّذِیۡنَ یَتَّقُوۡنَ وَ یُؤۡتُوۡنَ الزَّکٰوۃَ وَ الَّذِیۡنَ ہُمۡ بِاٰیٰتِنَا یُؤۡمِنُوۡنَ اَلَّذِیۡنَ یَتَّبِعُوۡنَ الرَّسُوۡلَ النَّبِیَّ الۡاُمِّیَّ الَّذِیۡ یَجِدُوۡنَہٗ مَکۡتُوۡبًا عِنۡدَہُمۡ فِی التَّوۡرٰىۃِ وَ الۡاِنۡجِیۡلِ ۫ یَاۡمُرُہُمۡ بِالۡمَعۡرُوۡفِ وَ یَنۡہٰہُمۡ عَنِ الۡمُنۡکَر

तर्जुमा :- पस वो (यानी अपनी रहमत) लिख दूँगा उन को जो मुत्तक़ी हैं और देते हैं ज़कात और हमारी आयतों का यक़ीन करते हैं वो जो ताबेअ होते हैं इस रसूल उम्मी नबी के जिसको पाएँगे लिखा हुआ अपने पास तौरेत व इंजील में वो उन को हुक्म देगा नेक काम के वास्ते और मना करेगा बुराई से अलीख....

आयत का मतलब ये है कि जब इस्राईलियों ने बछड़े की सूरत पूजी और मूसा ने इस्तिग़फ़ार (बख़्शिश चाहना, तौबा करना) कर के इस बड़े क़सूर की माफ़ी मांगी तो उस के जवाब में ये ख़ुदा की तरफ़ से मूसा को पैग़म्बर आख़िर उल्ज़मान के आने की गोया ख़ुश-ख़बरी आई। पस इस ख़्याली ख़ुश-ख़बरी में ख़ुदा को इस तौर पर फ़रमाते हुए लिखा है कि बनी-आदम उस को यानी मुहम्मद साहब को पायेंगे लिखा हुआ अपने पास तौरेत व इंजील में (और बमूजब लिखे बैज़ावी और जलाल उद्दीन के) साथ उस के नाम और सिफ़त के। اسمہ وصفتۃ۔

पस ये आयत बहोतरी और आयात के मुताबिक़ है जिनमें दीन व दावा मुहम्मदी की शहादत का उन कुतुब रब्बानी के दर्मियान मुंदज होना लिखा है। जो उस वक़्त के यहूद व नसारा के पास थीं عِنۡدِ ہُمْ के लफ़्ज़ से ये साफ़ मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना, कशफ़ होना, ज़ाहिर होना) है कि तौरेत व इंजील मुहम्मद साहब के हम-अस्र यहूद व नसारा के दर्मियान बख़ूबी जारी थीं और उन्हीं किताबों को जब ख़ुदा मूसा से यूं मज़्कूरह करता है कि उन में हुक्म शराअ और ख़ुदा की मर्ज़ी है। पस मुहम्मद साहब के दिनों में वो मदार एतबार और हक़-शनासी की होंगी तो बिल्कुल साबित होता है कि वो आस्मानी किताबें जो 620 ई॰ के अमल में नसारा और यहूदीयों के पास मौजूद थीं क़ुरआन के इज़्हार से मोअतबर और असली और बिला तहरीफ़ व तसहीफ़ थीं।

फ़स्ल 62

(सुरह अल-आराफ़ 7 आयत 159)

وَ مِنۡ قَوۡمِ مُوۡسٰۤی اُمَّۃٌ یَّہۡدُوۡنَ بِالۡحَقِّ وَ بِہٖ یَعۡدِلُوۡنَ

तर्जुमा :- और मूसा की क़ौम में एक फ़िर्क़ा है जो हक़ की हिदायत करते हैं और उसी पर इन्साफ़ करते हैं।

बिल-फ़रज़ अगर इस बेबुनियाद हुज्जत को भी क़ायम करें कि कुछ यहूदीयों ने अपनी आस्मानी किताबों में उन फ़िक्रात को मुहम्मद साहब के लिए शहादत देते थे। ख़राब किया या बिल्कुल निकलवा डाला तो हम पूछते हैं क्या वो यहूदी भी जिनको इस आयत में आदिल और हादी बिलहक़ लिखा है ऐसी हरकत नाशाइस्ता के मुर्तक़िब हो गए और क्या उन्हों ने कोई सही नुस्ख़ा तौरेत बिला तहरीफ़ व तसहीफ़ मख़सूज़ ना रखा और क्या वो ऐसी किताब अपनी औलाद को विरसे में ना दे गए? ख़ुद मुहम्मद साहब अपनी पैग़म्बरी की किताब की शहादत और पेशगोइयों का हवाला उसी किताब पर देते हैं। पस अगर वो बातें उस में होतीं तो क्या वो यहूदयान सालिह व मुत्तक़ी भी जो दीन इस्लाम पर ईमान लाए थे। उस असली और सही बिला तहरीफ़ व तसहीफ़ तौरेत के नुस्ख़ों को मअ़ उन शहादत व पेशगोइयों के मुहम्मद साहब के दावे की दलील सातेअ़ और बुरहान क़ातेअ और अपने बिरादरान यहूदी का मज़्हब छोड़कर पैरौ इस्लाम होने की वजह माक़ूल और सबब मक़्बूल दिखलाने के लिए बहिफ़ाज़त तमाम और निगहबानी माला कलाम ना रखते और पुश्त दर पुश्त उस की हिफ़ाज़त और निगहबानी इसी तरह पर ना करते चले आते। बेशक वो करते चले आते अगर ये बात अज़हर मिन अश्शम्स (रोज़-ए-रौशन की तरह अयाँ) ना होती कि उनके भाई बंदों ने कभी अपने पाक नविश्तों में कमी व बेशी ख़्वाह किसी तरह की ख़राबी या नुक़्सान के लिए एक क़दम भी नहीं मारा और ना उस की कुछ तोहमत लगाई और ये बात कि मुहम्मद साहब की वो शहादत और पैशगोईयां मुद्दई बहा उन किताबों में जो यहूदयान मुनकर अज़ इस्लाम ने बचा रखें जूं की तूं इसी क़द्र थीं कि जिस क़द्र यहूदयान नव मुस्लिम की किताबें थीं।

फ़स्ल 63

(सुरह अल-आराफ़ 7 आयत 167-169)

وَ اِذۡ تَاَذَّنَ ربّکَ لَیَبۡعَثَنَّ عَلَیۡہِمۡ اِلٰی یَوۡمِ الۡقِیٰمَۃِ مَنۡ یَّسُوۡمُہُمۡ سُوۡٓءَ الۡعَذَابِ اِنَّ ربّکَ لَسَرِیۡعُ الۡعِقَابِ ۚ وَ اِنَّہٗ لَغَفُوۡرٌ رَّحِیۡمٌ وَ قَطَّعۡنٰہُمۡ فِی الۡاَرۡضِ اُمَمًا ۚ مِنۡہُمُ الصّٰلِحُوۡنَ وَ مِنۡہُمۡ دُوۡنَ ذٰلِکَ ۫ وَ بَلَوۡنٰہُمۡ بِالۡحَسَنٰتِ وَ السَّیِّاٰتِ لَعَلَّہُمۡ یَرۡجِعُوۡنَ فَخَلَفَ مِنۡۢ بَعۡدِہِمۡ خَلۡفٌ وَّرِثُوا الۡکِتٰبَ یَاۡخُذُوۡنَ عَرَضَ ہٰذَا الۡاَدۡنٰی وَ یَقُوۡلُوۡنَ سَیُغۡفَرُ لَنَا ۚ وَ اِنۡ یَّاۡتِہِمۡ عَرَضٌ مِّثۡلُہٗ یَاۡخُذُوۡہُ اَلَمۡ یُؤۡخَذۡ عَلَیۡہِمۡ مِّیۡثَاقُ الۡکِتٰبِ اَنۡ لَّا یَقُوۡلُوۡا عَلَی اللّٰہِ اِلَّا الۡحَقَّ وَ دَرَسُوۡا مَا فِیۡہِ

तर्जुमा :- और (याद कर वो वक़्त) जब तेरे रब ने हुक्म दिया कि उन पर (यानी यहूदीयों पर) रोज़-ए-क़ियामत तक किस को खड़ा रखेगा जो दिया करे उन को बड़े अज़ाब। तेरा रब ज़रूर शिताब (जल्द, झटपट, फ़ौरन) सज़ा देता है और वो ग़फ़ूर व रहीम है और हमने मुतफ़र्रिक़ किया उन को दुनिया में फ़िर्क़े फ़िर्क़े बाअज़ उन में नेक हैं और बाअज़। और इस तरह के और आज़माया उन को ख़ूबीयों से और बुराईयों से कि शायद वो फिरें। फिर उन के पीछे और लोग आए जो वारिस-ए-किताब हुए इस दुनिया का फ़ायदा लेते हैं और कहते हैं कि हमको माफ़ होगा और अगर उसी सूरत का फ़ायदा आए तो उस को ले लेते हैं। क्या उन से किताब का अहद नहीं लिया गया कि ना कहें अल्लाह पर सिवाए हक़ के और जो कुछ इस में लिखा है मुस्तईद्दी से पढ़ते हैं।

ये आयत शायद उन दिनों मदीने में जारी हुई कि जब मुहम्मद साहब और यहूदीयों के दर्मियान मुख़ालिफ़त पैदा होने लगी। अगरचे इस में हक़ के छिपाने का इल्ज़ाम यहूदीयों के ज़िम्मे लगाया है और ये कि ख़ुदा के अपने अहद से ग़ाफ़िल थे तो भी उन की किताबों की सेहत और एतबार पर किसी तरह की तोहमत नहीं है इस इल्ज़ाम से इस ख़बरदारी और एहतियात के दर्मियान मुतलक़ फ़र्क़ नहीं पड़ता कि जिसके साथ उन्हों ने अपनी आस्मानी किताबों की हमेशा हिफ़ाज़त की और करते चले आए हैं। चुनान्चे इस तरह ईसाई भी आज तक उन्हीं यहूदीयों पर शुरू से इल्ज़ाम देते चले आए हैं। हाँ आज तक भी इल्ज़ाम देते हैं कि उन के अक़ीदे दुरुस्त नहीं हैं अपने पाक नविश्तों के मअनी ख़िलाफ़ हक़ के बताते हैं और जो बात रास्त और ठीक है उसे फेर कर उल्टी तरह से ज़ाहिर करते हैं तो भी उस के साथ यहूदीयों की किताब को जुम्ला ईसाई बिलयक़ीन रब्बानी मानते हैं और बिला कम व कासित रब्बानी मानते चले आए हैं जैसा क़ुरआन में लिखा है कि पैग़म्बर इस्लाम ने मान लिया।

इलावा बरीं (आला, बुलंद, बरतर) इस आयत में जो ये लिखा है कि वारिस किताब हुए इस से एक और ताज़ी शहादत निकलती है कि वो पाक किताब यहूदीयों के दर्मियान पुश्त दर पुश्त दस्त बदस्त चली आई।

फिर यहूदीयों की इस आयत में ये शिकायत लिखी है कि उन्हों ने इस अहद को तोड़ा जिसको ख़ुदा ने उन से किताब के बाब में लिया। यानी ये कि ना कहें अल्लाह पर सिवाए हक़ के हालाँकि इसी किताब में पढ़ते थे। वाज़ेह हो कि दर्स درس के लफ़्ज़ में ताकीद है मतलब ये है कि कोशिश से तिलावत करते थे। पस पैग़म्बर इस्लाम का मक़्सद ये कि यहूदीयों का क़सूर इस बाइस से और भी ज़्यादा ठहरा कि किताब आस्मानी को दर्स में रखते थे यानी बग़ौर हमेशा पढ़ कर हक़ से वाक़िफ़ थे तो भी उस हक़ीक़त और रास्त बात से जो मुक़द्दस नविश्तों में मुंदरज थी उन्हों ने इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी, इन्कार) किया। पस आयत मज़्कूर बाला इस अम्र की शहादत देती है कि वही किताब रब्बानी जिसकी मुहम्मद साहब बराबर तस्दीक़ करते चले आए और जिसे रब्बानी और मोअतबर जानते थे यहूदीयों के दर्मियान राइज व जारी थी और उसी को वो हमेशा पढ़ते और देखते थे।

इस बात का भी ज़िक्र यहां चाहिये कि यहूदीयों के मुतफ़र्रिक़ हो जाने की पेशगोई जो तौरेत में दर्ज है उस का बयान भी इस आयत में है।

फ़स्ल 64

(सुरह अल-आराफ़ 7 आयत 169-170)

وَ الدَّارُ الۡاٰخِرَۃُ خَیۡرٌ لِّلَّذِیۡنَ یَتَّقُوۡنَ اَفَلَا تَعۡقِلُوۡنَ وَ الَّذِیۡنَ یُمَسِّکُوۡنَ بِالۡکِتٰبِ وَ اَقَامُوا الصَّلٰوۃَ اِنَّا لَا نُضِیۡعُ اَجۡرَ الۡمُصۡلِحِیۡنَ

तर्जुमा :- और दार-उल-आख़ेरत बेहतर है (इस दुनिया से) उन लोगों के वास्ते जो डरते हैं पस तुम क्या नहीं जानते और जो लोग कि पकड़े हुए हैं किताब को और क़ायम रखते हैं नमाज़ को हम नेकी वालों का अजर् ज़ाइअ़ नहीं करेंगे।

ये आयत माक़ब्ल का ततिम्मा है इस में यहूदीयों की तरफ़ ख़िताब है और इस से कुछ सिर्फ यही नहीं साबित होता कि उन के दर्मियान किताब रब्बानी मौजूद और राइज थी। बल्कि मिंजानिब अल्लाह इस बात की उनको नसीहत पाई जाती है कि उस किताब को पकड़े हैं। یُمَسِّکُوۡنَ بِالۡکِتٰبِ۔

पस बजुज़ असली और बिला-तारीफ़ व तसहीफ़ की दूसरी किताब पकड़े रहने की तो कुछ तारीफ़ हो ही नहीं सकती थी। मिनजुम्ला यहूदयान सालहीन के जिनका इस आयत में ज़िक्र है जलाल उद्दीन अब्दुल्लाह इब्ने सलाम का तम्सीलन नाम लिखता है।

पस अगर यही जो मुहम्मद साहब के वक़्त से पुश्त दर पुश्त दस्त–ए-बदस्त चली आई है और उनसे पहले भी चली आई थी और अब भी यहूदीयों के हाथ में ही वो किताब रब्बानी नहीं है जिसके पकड़े रहने को इन यहूदीयाँ को हिदायत थी तो बतलाओ कि वो कौन सी है और कहाँ किस के पास है?

फ़स्ल 65

(सुरह अल-मुदस्सिर 74 आयत 30-31)

عَلَیۡہَا تِسۡعَۃَ عَشَرَوَ مَا جَعَلۡنَاۤ اَصۡحٰبَ النَّارِ اِلَّا مَلٰٓئِکَۃً ۪ وَّ مَا جَعَلۡنَا عِدَّتَہُمۡ اِلَّا فِتۡنَۃً لِّلَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا ۙ لِیَسۡتَیۡقِنَ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡکِتٰبَ وَ یَزۡدَادَ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡۤا اِیۡمَانًا وَّ لَا یَرۡتَابَ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡکِتٰبَ وَ الۡمُؤۡمِنُوۡنَ ۙ

तर्जुमा :- इस पर (यानी दोज़ख़ पर) मुक़र्रर हैं उन्नीस (19) फ़रिश्ते और हमने उस आग का निगहबान नहीं किया इल्ला फ़रिश्तों को और उनका शुमार नहीं किया इल्ला क़ाफिरों के जांचने को ताकि वो लोग यक़ीन करें और ईमानदार का ईमान ज़्यादा हो, और वो जिन्हें मिली है किताब, शुब्हा ना करें और ना ईमानदार।

ये सुरह मक्की है लेकिन गुमान होता है कि ये आयत इस में मुहम्मद साहब के मदीने जाने के बाद बढ़ाई गई। इस आयत का मतलब ख़ूब नहीं खुलता लेकिन इतना मालूम होता है कि यहां जो निगहबान-ए-जहन्नम का ज़िक्र लिखा है मतलब उस का ये है कि इस ज़िक्र से और अहले-किताब के नविशतों के साथ कुछ मुताबिक़त है और ये मुताबिक़त जिनके पास वो किताब रब्बानी मौजूद थी और जो सच्चे मोमिन थे उन के ईमान के वास्ते गोया एक बुनियाद बाँधी गई थी। चुनान्चे बैज़ावी लिखता है :-

یَکۡتِبَوْا اَلّیُقَیِّنْ نُّبُوَّۃَ مُحَمَّدٌوَ صَدَقَ الۡقُرۡاٰنُ لۡمَارَؤَا ذٰلک مُوۡا فِقْالْمَا فِی کِتابَہُمْ

मअनी ताकि वो यक़ीन ला सकें नबुव्वत मुहम्मद साहब और सिदक़ क़ुरआन पर जब कि देखें कि जो कुछ उन की किताब में है उस के वो मुताबिक़ है।

ये तसरीह और भी आयतों के मुवाफ़िक़ है जो इसी बात के वास्ते ऊपर इंतिखाब की गईं।

बाब दूसरा

अगले बाब में उन सूरतों की आयात मुंदरज हैं जो मक्के में पैग़म्बर इस्लाम की हिज्रत के पहले जारी हुईं अगरचे उन सूरतों का फ़ील-वाक़ेअ जुज़्व आज़म मक्के में दिया गया तो भी उन में बाअज़ ऐसी आयात हैं जैसा ऊपर ज़िक्र भी हुआ जो हिज्रत के बाद जारी हुईं और फिर किसी मक्के वाली सूरह में शामिल हुईं चुनान्चे मिशकात मसाबीह में लिखा है कि :-

जब कोई आयत उतरी तो मुहम्मद साहब ने उसे उस सूरह में मुंदरज फ़रमाई जिसका मज़्मून उस से मुताल्लिक़ था।

سُوۡرَۃٍ اِلْتِی یْذِکَرْ فِیْھُاَ کْذِا

पस इसी बाइस मदीने की आयतें मक्के की सूरतों में कुछ ना कुछ दाख़िल हो गईं।

बरअक्स इस के जो आयतें कि अब इस बाब में लिखी हैं वो बिल्कुल मदीने में हिज्रत के बाद जारी हुईं।

वाज़ेह हो कि यहूदयान मदीना और मुहम्मद साहब के दर्मियान दुश्मनी जो पैदा हुई इस का मुख़्तसर अहवाल ख़ातमे की छठी फ़स्ल में दर्ज किया जाएगा उस को अगली आयात के पढ़ते वक़्त याद रखना ज़रुरी है।

फ़स्ल 66

(सुरह अल-बक़रा 2 आयत 2-5)

ذٰلِکَ الۡکِتٰبُ لَا رَیۡبَ ۚ فِیۡہِ ۚ ہُدًی لِّلۡمُتَّقِیۡنَ الَّذِیۡنَ یُؤۡمِنُوۡنَ بِالۡغَیۡبِ وَ یُقِیۡمُوۡنَ الصَّلٰوۃَ وَ مِمَّا رَزَقۡنٰہُمۡ یُنۡفِقُوۡنَ وَ الَّذِیۡنَ یُؤۡمِنُوۡنَ بِمَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡکَ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ مِنۡ قَبۡلِکَ ۚ وَ بِالۡاٰخِرَۃِ ہُمۡ یُوۡقِنُوۡنَ ؕ اُولٰٓئِکَ عَلٰی ہُدًی مِّنۡ ربّہِمۡ وَ اُولٰٓئِکَ ہُمُ الۡمُفۡلِحُوۡنَ

तर्जुमा :- ये वो किताब है जिसमें कुछ शक नहीं राह बतलाती है ख़ुदा परस्तों को जो ईमान लाते हैं बिना देखे पर और क़ायम रखते हैं नमाज़ को और जो कुछ हमने उन को दिया उस से ख़र्च करते हैं और वो लोग जो ईमान लाते हैं उस पर जो नाज़िल हुआ तुझ पर और जो नाज़िल हुआ तुझसे पहले और यक़ीन जानते हैं आख़िरत को वो सीधी राह पर हैं अपने रब से और वही नेक-बख़्त (ख़ुशनसीब, बुलंद इक़बाल, नसीब वाला) है।

مَاۤ اُنۡزِلَ مِنۡ قَبۡلِکَ यानी जो नाज़िल हुआ तुझ से पहले। इस की जलाल उद्दीन शरह करता है ای التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ وغیرہما यानी तौरेत व इंजील वग़ैरह।

ख़ूब याद रखो कि इस आयत के बमूजब जिन्हों ने अपने रब की सीधी राह पाई और जो नेक-बख़्त हैं वो ही लोग हैं जो सिर्फ क़ुरआन ही पर नहीं बल्कि तौरेत और इंजील पर भी ईमान लाते हैं। पस क्या ताज्जुब की बात है कि क़ुरआन के पहले ही वर्क़ में ऐसी आयत लिखी रहने पर भी मुसलमान बा ईमान ऐसी ख़िलाफ़वर्ज़ी करें कि ना तो उन किताबों को पढ़ें और ना उनके मज़ामीन मुबारक से वाक़िफ़ हुएं और ना उनके पाक हक़ों को मानें क्या ये वो नहीं हैं जिनकी बसारत जाती रही और जिनके दिल पर मुहर हो गई।

फ़स्ल 67

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 40-42)

نِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَ اذۡکُرُوۡا نِعۡمَتِیَ الَّتِیۡۤ اَنۡعَمۡتُ عَلَیۡکُمۡ وَ اَوۡفُوۡا بِعَہۡدِیۡۤ اُوۡفِ بِعَہۡدِکُمۡ ۚ وَ اِیَّایَ فَارۡہَبُوۡنِ وَ اٰمِنُوۡا بِمَاۤ اَنۡزَلۡتُ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَکُمۡ وَ لَا تَکُوۡنُوۡۤا اَوَّلَ کَافِرٍۭ بِہٖ ۪ وَ لَا تَشۡتَرُوۡا بِاٰیٰتِیۡ ثَمَنًا قَلِیۡلًا ۫ وَّ اِیَّایَ فَاتَّقُوۡنِ وَ لَا تَلۡبِسُوا الۡحَقَّ بِالۡبَاطِلِ وَ تَکۡتُمُوا الۡحَقَّ وَ اَنۡتُمۡ تَعۡلَمُوۡنَ

तर्जुमा :- ऐ बनी-इस्राईल याद करो एहसान मेरा जो मैंने किया तुम पर और पूरे करो अहद मेरे। पूरे करूँगा अहद तुम्हारे और डरो मुझसे और मानो जो कुछ मैंने नाज़िल किया तस्दीक़ करने वाला उस की (उस किताब की) जो तुम्हारे पास है और मत हो पहले इन्कार करने वाले उस से, और मत बेचो मेरी आयतों को क़लील (कम, थोड़ा, ज़रा सी) क़ीमत पर और डरते रहो मुझसे और मत लिबास (मिलावट) करो हक़ को बातिल से और मत छुपाओ सच्च को जब कि तुम जानते हो, जो तुम्हारे पास है यानी तौरेत।

चुनान्चे जलाल उद्दीन अपनी शरह में लिखता है। जब मामूल क़ुरआन इस आयत में भी किताब रब्बानी की जो बनी-इस्राईल के पास थी तस्दीक़ करता है।

लेकिन बनी-इस्राईल ने मर्ज़ी मुहम्मद साहब के ख़िलाफ़ अपनी किताब की शहादत ना दी हालाँकि मुहम्मद साहब गुमान करते थे कि उन को यही शहादत देनी वाजिब थी इसी वास्ते उन से फ़रमाते हैं कि हक़ को बातिल से लिबास (मिलावट) ना करो और जब कि जानते हो सच्च को मत छुपाओ।

ईसाई लोग भी इसी तौर पर यहूदीयों को कुतुब रब्बानी के मअनी उलट देने और मसीह की बनिस्बत जो पेशगोईआं हैं और ईसा के वजूद में पूरी हुईं उनके ना मानने बल्कि ख़िलाफ़ हक़ बयान करने का और हक़ को छिपाने का इल्ज़ाम देते हैं लेकिन उन किताबों पर ईसाई भी वैसा ही यक़ीन-ए-कामिल रखते हैं कि जैसा ख़ुद यहूदी रखते हैं तो भी यही दावा बईना करते हैं कि बनी-इस्राईल हक़ बात से लिबास (मिलावट) करते हैं।

ख़ुदा की आयतों को क़लील क़ीमत पर बेचना ये फ़िक़्रह यहूदीयों के सिवा औरों की बनिस्बत भी इसी मअनी में अक्सर मुक़ामों पर आया है चुनान्चे (सूरह बक़र की आयत 16 और सूरह आले-इमरान की आयत 76 और सूरह अल-तौबा की आयत 10 और सूरह अल-नहल की आयत 95) मुलाहिजा करो।

फ़स्ल 68

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 53)

وَ اِذۡ اٰتَیۡنَا مُوۡسَی الۡکِتٰبَ وَ الۡفُرۡقَانَ لَعَلَّکُمۡ تَہۡتَدُوۡنَ

तर्जुमा :- और जब हमने मूसा को किताब और फुर्क़ान दिया कि तुम हिदायत पाओ।

किताब से मुराद बैज़ावी और जलाल उद्दीन दोनों तौरेत लेते हैं। किताब मूसा को इस मुक़ाम पर अल-फ़ुरक़ान के नाम से लिखा है और यही अल-फ़ुरक़ान और मुक़ामात पर क़ुरआन के मअनी में भी मुस्तअमल (अमल में लाया हुआ, काम में लाया हुआ, बरता हुआ) हुआ है।

फ़स्ल 69

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 75)

اَفَتَطۡمَعُوۡنَ اَنۡ یُّؤۡمِنُوۡا لَکُمۡ وَ قَدۡ کَانَ فَرِیۡقٌ مِّنۡہُمۡ یَسۡمَعُوۡنَ کَلٰمَ اللّٰہِ ثُمَّ یُحَرِّفُوۡنَہٗ مِنۡۢ بَعۡدِ مَا عَقَلُوۡہُ وَ ہُمۡ یَعۡلَمُوۡنَ

तर्जुमा :- क्या तुम उम्मीद रखते हो कि वो मानें तुम्हारी बात हालाँकि उन में एक फ़रीक़ (जमाअत, गिरोह, फ़िर्क़ा) सुनते हैं कलाम-उल्लाह का और फिर बाद समझने के उसे बदल डालते हैं और वो जानते हैं।

इस आयत में इन्हीं बनी-इस्राईल का ज़िक्र है।

जलाल उद्दीन शरह करता है :- اَنۡ یُّؤۡمِنُوۡا اَیْ الۡیَہُوۡدَ वो मानें यानी यहूदी یَسۡمَعُوۡنَ کَلٰمَ اللّٰہِ فِیْ التَّوۡرٰىۃَ मअनी सुनते हैं कलाम-उल्लाह का तौरेत में। और बैज़ावी शरह करता है :- (یَسۡمَعُوۡنَ کَلٰمَ اللّٰہِ یَعّْنِیْ التَّوۡرٰىۃَ ) मअनी सुनते हैं कलाम-उल्लाह का यानी तौरेत ثُمَّ یُحَرِّفُوۡنَہٗ کْنَعُتَ مُحَمَّدٌ وَاٰیۡۃَ الرَّجِمْ اوَتْاوَیِلہْ فِیفْسَروَ نہْ یَمِّاْ یِشتہَوِنْ मअनी और फिर उसे बदल डालते हैं मसलन बयान मुहम्मद का और पत्थराने (रज्म) की आयत या उस की तावील पस जैसा उनका दिल चाहता है उस की तफ़्सीर कर लेते हैं। बैज़ावी का पिछ्ला बयान बेशक सही और दुरुस्त है यानी ये कि यहूदीयों ने कलाम इलाही के मअनी उलटे बयान किए और इस लिहाज़ से उस की तहरीफ़ की यानी उस का मतलब बदल डाला। ये तफ़्सीर सैकड़ों आयतों से मुताबिक़ है जिनमें यहूदीयों के सुलूक और उन की किताबों की सेहत और एतबार का ज़िक्र है। पस तहरीफ़ के वो मअनी जो और सब आयतों से मुत्तफ़िक़ हैं बिल-ज़रूर पसंद होने चाहें ثُمَّ یُحَرِّفُوۡنَہٗ مِنۡۢ بَعۡدِ مَا عَقَلُوۡہُ यानी यहूदीयों ने हर-चंद कि तौरेत का मतलब ख़ूब समझा तो भी उस मतलब को जान बूझ कर बदल डाला और ख़िलाफ़ बयान किया।

ख़ुलासा इस आयत का ये है कि अब यहूदीयों की क्या उम्मीद है वो पहले ही से ख़ुदा का कलाम तौरेत में सुन चुके और बावजूद ये कि उन्हों ने उस की हक़ीक़त समझी और हक़ को पहचाना तो भी हक़ में तहरीफ़ की और हक़ को ना-हक़ से बदल डाला। पस ऐ मुहम्मद तू ये उम्मीद ना रख कि वो तुझ पर ईमान लाएं जिन लोगों ने ख़ुद ख़ुदा के कलाम से ख़िलाफ़वर्ज़ी की उस के मअनी उलटे लगाए और जैसा दिल चाहा तफ़्सीर कर ली तो भला तेरा कब मानेंगे और उस अल्लाह के कलाम को जो उन्हें क़ुरआन में तू दिखला देगा वो कब उन के दिल में उतर करेगा फ़क़त।

ईसाई भी ठीक इसी तौर पर यहूदीयों की बनिस्बत कहा करते हैं क्योंकि ईसाई कहते हैं कि यहूदीयों ने अपने मुक़द्दस नविश्तों के मअनी तहरीफ़ कर के हक़ को नाहक़ से बदल डाला और ईसा मसीह के हक़ में जो पेशगोईयां थीं उन को ख़िलाफ़ बयान किया। पस जब कि ख़ुद अपनी किताब मुक़द्दस के अहकाम को उन्हों ने ना माना तो फिर इंजील पर हवाला देकर उन्हें बरसर हक़ लाने की क्या उम्मीद है तो भी ईसाई लोग यहूदीयों की किताब रब्बानी पर ख़ुद यहूदीयों की बराबर यक़ीन व एतिक़ाद रखते हैं इस में मुतलक़ फ़र्क़ नहीं लाते।

इस आयत में उस पाक किताब को जो यहूदीयों के दर्मियान राइज थी कलाम-उल्लाह कहते हैं ये कैसी शहादत उस के वास्ते हासिल हो गई अब इस से बढ़कर और क्या होगी? पस अगर ग़ौर कर के देखो तो मुसलमान क़ुरआन कि सिर्फ उसी वास्ते क़द्र करते हैं कि उस को कलाम-उल्लाह जानते हैं क्या इस कलाम-उल्लाह की भी जो क़ुरआन से पेशतर नाज़िल हुआ उन लोगों को वैसी ही क़द्र मंजिलत करनी ना चाहीए? अलबत्ता जैसी कलाम-उल्लाह की क़द्र जानते हैं वैसी ही तौरेत और इंजील की भी जाननी चाहीए।

फ़स्ल 70

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 76-77)

وَ اِذَا لَقُوا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا قَالُوۡۤا اٰمَنَّا ۚ وَ اِذَا خَلَا بَعۡضُہُمۡ اِلٰی بَعۡضٍ قَالُوۡۤا اَتُحَدِّثُوۡنَہُمۡ بِمَا فَتَحَ اللّٰہُ عَلَیۡکُمۡ لِیُحَآجُّوۡکُمۡ بِہٖ عِنۡدَ ربّکُمۡ اَفَلَا تَعۡقِلُوۡنَ اَ وَ لَا یَعۡلَمُوۡنَ اَنَّ اللّٰہَ یَعۡلَمُ مَا یُسِرُّوۡنَ وَ مَا یُعۡلِنُوۡنَ

तर्जुमा :- और जब वो (यानी मदीने के यहूदयान) ईमानदारों से मिलते हैं तो कहते हैं हम ईमान लाए और जब अकेले होते हैं एक दूसरे के साथ तो कहते हैं कि जो ख़ुदा ने तुम पर ज़ाहिर किया है वो उन से क्यों कहते हो कि वो तुम्हारे ख़ुदावंद के आगे उस से तुम्हारे वास्ते हुज्जत पेश लाएं क्या तुम नहीं जानते, क्या नहीं समझते हैं कि ख़ुदा जानता है वो जिसको छुपाते हैं और जिसको ऐलान करते हैं।

ये ऊपर की आयत का ततिम्मा है।

बैज़ावी शरह करता है :- بِمَا فَتَحَ اللّٰہُ عَلَیۡکُمۡ بِّمَابَیۡنَ لَکُمۡ فِی التَّوۡرٰىۃَ

मअनी जो अल्लाह ने तुम पर ज़ाहिर किया है यानी तौरेत में मुहम्मद की तारीफ़ की निस्बत जो कुछ तुमसे बयान किया है और जलाल उद्दीन भी ऐसा ही लिखता है। मतलब यूं मालूम होता है कि तुम मुसलमानों को क्यों तौरेत की ऐसी बातें बतला देते हो जिन्हें फिर वो तुम्हारे लिए दीन इस्लाम की दलील में पेश लाएं।

पस यहूदीयों का एक फ़िर्क़ा दूसरे फ़िर्क़े को इस बात की मलामत करता है कि तुम मुहम्मद साहब से और उन के दीन वालों से यहूदी नोशियों की ऐसी बातों का क्यों बयान करते हो कि जिनसे वो फिर तुम्हें क़ाइल करें।

फ़स्ल 71

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 78)

وَ مِنۡہُمۡ اُمِّیُّوۡنَ لَا یَعۡلَمُوۡنَ الۡکِتٰبَ اِلَّاۤ اَمَانِیَّ وَ اِنۡ ہُمۡ اِلَّا یَظُنُّوۡنَ

तर्जुमा :- और उन के दर्मियान जाहिल लोग हैं जो किताब को नहीं जानते मगर वाहीयात वो लोग बजुज़ अपने ख़यालों के और किसी चीज़ की पैरवी नहीं करते।

ऊपर की आयत का ततिम्मा चला जाता है।

इस आयत में मुहम्मद साहब और इस्लाम के मुख़ालिफ़ों की दूसरी क़िस्म का बयान है यानी यहूद जाहिल कि जो अपने आस्मानी नविश्तों की हक़ीक़त से मुतलक़ नावाक़िफ़ थे और सिवाए अख़बार और रब्बानीयों की रिवायत और वाहीयात कहानी क़िस्सों के और कुछ नहीं जानते थे ऐसे आदमीयों की दलील और हुज्जत लायक़ इल्तिफ़ात (मुतवज्जा होना, तवज्जा, महरबानी) के ना थी मह्ज़ बेअस्ल और ख़ारिज अज़ शुमार थी। पस मुहम्मद साहब उन की जहालत पर तोहमत लगाते हैं ना उन की किताब पर, उन की किताब रब्बानी सही थी पर उनका फ़िर्क़ा उस के मतलब से नावाक़िफ़ था।

फ़स्ल 72

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 79)

فَوَیۡلٌ لِّلَّذِیۡنَ یَکۡتُبُوۡنَ الۡکِتٰبَ بِاَیۡدِیۡہِمۡ ثُمَّ یَقُوۡلُوۡنَ ہٰذَا مِنۡ عِنۡدِ اللّٰہِ لِیَشۡتَرُوۡا بِہٖ ثَمَنًا قَلِیۡلًا فَوَیۡلٌ لَّہُمۡ مِّمَّا کَتَبَتۡ اَیۡدِیۡہِمۡ وَ وَیۡلٌ لَّہُمۡ مِّمَّا یَکۡسِبُوۡنَ

तर्जुमा :- पस दिए बर हाल (अफ़सोस) उन लोगों के जो लिखते हैं किताब अपने हाथों से फिर कहते हैं कि ये अल्लाह के पास से है ताकि बेचें उस को थोड़े मोल पर पस दे बर हाल उन के उस के सबब जो उनके हाथों ने लिखा और दिए बर-हाल (अफ़सोस) उनके उस के सबब जो उन्होंने कमाया।

ऊपर की आयत का ततिम्मा यहां भी चला आता है। अगली आयत में जाहिल यहूदीयों का ज़िक्र है कि जो सिर्फ हदीस और रिवायत और क़िसस ग़ैर मोअतबर को जानते थे तौरेत और उस के अस्ल मतलब से कम वाक़िफ़ थे। उन्हीं लोगों के हक़ में आयत मालूम होती है इस मज़्मून से कि उन्हीयों ने ऐसी-ऐसी हदीसों और रिवायतों को तहरीर करके मुहम्मद साहब के पास पेश किया और बयान किया कि हुक्म अल्लाह इनमें या कि जैसा किताब-उल्लाह का ऐतबार है वैसा ही उनका भी ऐतबार है। वाज़ेअ हो कि अल-किताब के मअनी लिखी हुई चीज़ के हैं कुछ तौरेत से ख़ुसूसीयत ज़रूर नहीं है अलैहदा-अलैहदा परचों पर जो कुछ लिखा गया उस को अरबी में किताब कहते थे ख़्वाह शायद इस्तिमाल अल-किताब का यहां इशारतन तौरेत की तरफ़ इस मतलब से है कि वो चीज़ जिस को जाहिल यहूद लाए इस इरादे से लाए कि मुहम्मद साहब उस को बमंज़िला तौरेत और ऐतबार में तौरेत के मुवाफ़िक़ समझें।

पस इस आयत में इस क़िस्म के जाहिल मुख़ालिफ़ों का बयान है जिन्हों ने अपने उलमा की शरह और रिवायात इख़्तियार कर के तफ़्सीरों से कुछ मुक़ामात लिख लिए और उन्हें अहकामात इलाही के तौर पर पेश किया इस तरह की तफ़्सीर मसलन जिसमें लिखा था कि ज़िना के वास्ते संगसार करना ज़रूर नहीं ख़्वाह तौरेत की ऐसी आयतों का दूसरा मतलब ठहराना कि जिनसे यहूद, नव मुस्लिम ने मुहम्मद साहब के हक़ में पैग़म्बरी का दावा निकलवाया इसी वास्ते मुहम्मद साहब ने उन लोगों को आदमी की बातों को पर्चे पर लिखने और फिर ऐसा पर्चा इस दावा से पेश लाने के लिए कि वो बमंज़िला हुक्म-ए-ख़ुदा है बददुआएं दीं।

चुनान्चे अब्दुल क़ादिर क़ुरआन का मुतर्जिम इस आयत की तफ़्सीर यूँ लिखता है कि :-

ये वो लोग हैं जो अवाम को उन की ख़ुशी के मुवाफ़िक़ बातें जोड़कर लिख देते हैं और निस्बत करते हैं तरफ़ ख़ुदा या रसूल के।

बैज़ावी इस की शरह में लिखता है :- اَ رْٰدَبِہْ مِاکَتْبِوہْ مِنْ اِلّتَاوِیْلَاتْ الزِّنٰۤیہْ मअनी और इस से शायद वो मुराद है जो तावीलात यानी तफ़्सीरें उन्हों ने सज़ाए ज़िना की बाबत लिखीं। यहां बैज़ावी उस इख़्तिलाफ़ राय की तरफ़ इशारा करता है जो मुहम्मद साहब और यहूदीयों के दर्मियान ज़िना की सज़ा के बाब में पड़ गया था। मुहम्मद साहब की तो ये राय थी कि ज़ानी को तौरेत के एतबार से संगसार करना चाहीए और यहूदीयों की ये राय थी कि उनकी शरअ़ में संगसारी का हुक्म ना था क़रीब-उल-क़यास है कि यहूदीयों ने अपने इस क़ौल की दलील के वास्ते अख़्बार और रब्बानियों की कोई शरह निकाली हो और लिख कर मुहम्मद साहब के यहां इस दावे से पेश की कि ये बमंज़िला हुक्म-ए-ख़ुदा है और शरई हुक्म के बराबर है। पस इस बात का यानी आदमी की तफ़्सीर को ख़ुदा के हुक्म के बराबर करने का इल्ज़ाम और मलामत इस आयत में मुंदरज है।

ग़रज़ इशारा साफ़ इस अम्र बेजा का है जो मुहम्मद साहब के मुख़ालिफ़ यहूदीयों ने ख़्वाह हसब-ए-आदत ख़्वाह किसी इत्तिफ़ाक़ से इस मुक़ाम पर अपने उलमा की तावीलात और शरहों को मिस्ल अहकाम रब्बानी व शरई पेश किया था। इस आयत से ये नहीं निकलता कि यहूदीयों ने तौरेत में तहरीफ़ व तसहीफ़ की उन के मुक़द्दस नविश्तों का ज़िक्र भी नहीं है क्योंकि यहूदी लोग उन की निहायत एहतियात और ख़बरदारी करते थे जिस तरह पर मुसलमान लोग क़ुरआन की हिफ़ाज़त करते हैं। इस तरह यहूदी भी हमेशा से तौरेत को जों का तों सही व दुरुस्त महफ़ूज़ रखने में मशहूर व मारूफ़ हैं बल्कि उस के हुरूफ़ और लफ़्ज़ों तक का भी शुमार उन के दर्मियान पुश्त दर पुश्त चला आता है। यहूदीयों का अपने उलमा की शरह और अख़्बार की तावीलात और रब्बानियों की रिवायतें या उन के मुंतख़बात मनक़ूला (चुने बयान) का बतौर अहकाम इलाही पेश करना ये तो बात ही दूसरी है इस से उन की रब्बानी किताबों के सही व दुरुस्त होने में किसी तरह का फ़र्क़ नहीं आता है ना ख़ुद मुहम्मद साहब ने कभी इस बात की तोहमत लगाई यहूदीयों ने अपने अख़्बार और रब्बानियों के अक़्वाल को बेहद ताज़ीम से माना बल्कि अहकाम इलाही के तौर पर समझा और ये कि अय्याम क़दीम से वैसा समझते चले आए इस से तो कुछ तौरेत की तहरीम व तौक़ीर और सेहत हिफ़ाज़त हैं मुतलक़ फ़र्क़ नहीं आता।

पस यहूदीयों ने जो अक़्वाल-इन्सानी को किताबों से नक़्ल कर के अहकाम ख़ुदा के बराबर मुहम्मद साहब के सामने पेश किया उस को तौरेत में तहरीफ़ व तसहीफ़ होने का मुंतिज (नतीजा देने वाला) ठहराना ख़्याल-ए-ख़ाम और मुतलक़ बेअस्ल है। बल्कि अगर ये भी फ़र्ज़ करें कि उन यहूदीयों ने जिस क़द्र कि ऊपर मज़्कूर हुआ इस से बढ़कर क़दम रखा यानी बनाई हुई आयतें लिखें और दग़ा और फ़रेब से उन्हें अस्ल तौरेत का इंतिख्व़ाब क़रार देकर मुबाहिसे के वक़्त पेश कीं बावजूद ये कि अज़राह इन्साफ़ ये मअनी नहीं निकलते ताहम ये नतीजा किसी तरह हासिल नहीं होता कि उन्हों ने अपनी पाक किताब के नुस्ख़ों में तहरीफ़ व तसहीफ़ की। अगर आयत का मतलब ऐसा होता तो दावा उस का उस से कुछ मुशाबेह होता जो सूरह आले-इमरान की फ़स्ल (110) में मुंदरज है यानी ज़बान के मरोड़ने से पढ़ते वक़्त यहूद धोका देते थे ताकि ज़ाहिर में उन के मुँह की बातें कलाम इलाही की मालूम हो जाएं हालाँकि वो ऐसी ना थीं मगर तो भी इस दावे से और तौरेत के नुस्ख़ों में दस्त अंदाज़ी करने से निहायत फर्क़ है।

फ़ायदा (1) इस आयत का इल्ज़ाम सिर्फ़ यहूदयान मदीना की जानिब है और कैसा ही भारी क्यों ना हों, उन के सिवा और किसी पर सादिक़ नहीं आ सकता, मसलन ख़ैबर या शाम के यहूदीयों पर ये इल्ज़ाम नहीं है ख़ुसूसन ईसाईयों पर ऐसे तो इल्ज़ाम का इशारा भी कहीं किसी आयत में क़ुरआन के नहीं है।

फ़ायदा (2) इल्ज़ाम चाहे जैसा हो लेकिन उस तौरेत के जो यहूदयान मदीना के पास थी और उन के दर्मियान राइज व जारी थी सही व असली होने में कुछ भी शक पैदा नहीं हो सकता क्योंकि इस सुरह के बाद वो सूरतें जारी हुईं जिनमें तौरेत का ज़िक्र है। पस हर एक जगह मुहम्मद साहब तौरेत की क़द्र व मन्ज़िलत और एतबार उसी ताज़ीम व तकरीम के साथ करते चले जाते हैं कि जैसा साबिक़ की आयतों में करते चले आए शक व शुब्हा का कहीं ज़िक्र भी नहीं है।

फ़स्ल 73

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 85)

اَفَتُؤۡمِنُوۡنَ بِبَعۡضِ الۡکِتٰبِ وَ تَکۡفُرُوۡنَ بِبَعۡضٍ ۚ فَمَا جَزَآءُ مَنۡ یَّفۡعَلُ ذٰلِکَ مِنۡکُمۡ اِلَّا خِزۡیٌ فِی الۡحَیٰوۃِ الدُّنۡیَا ۚ وَ یَوۡمَ الۡقِیٰمَۃِ یُرَدُّوۡنَ اِلٰۤی اَشَدِّ الۡعَذَابِ

तर्जुमा :- क्या तुम किताब के एक हिस्से पर ईमान लाते हो और दूसरे हिस्से से इन्कार करते हो? पस जो कोई तुम में से ये काम करता है उस की जज़ा नहीं मगर रुस्वाई इस दुनिया की ज़िंदगी में और क़ियामत के दिन डाले जाऐंगे सख़्त-तर अज़ाब में।

ये ख़िताब अब तक यहूदयान मदीना की तरफ़ चला आता है और बाइस उस का हदीस में यूं लिखा है कि मदीने में दो क़ौम के यहूदी थे बनी नज़ीर और बनी क़ुरैज़ा इन दोनों फ़िर्क़ों के दर्मियान दुश्मनी थी। उन्हों ने आपस में जिदाल व क़िताल (जंग, व क़त्ल) और मुख़ालिफ़ को घर से बाहर निकाल देने में तो कुछ दरेग़ ना किया लेकिन जिनको गिरफ़्तार कर लिया उन्हें क़ैद करने में ताम्मुल किया क्योंकि ये बात अपनी शरअ़ में ममनू समझते थे मुहम्मद साहब ने उन को मलामत की और कहा कि तुम्हारी शरअ़ में जैसा आपस के दर्मियान एक दूसरे को क़ैद रखना मना है। उसी तरह क़त्ल करना और घर से बाहर निकाल देना भी ममनू है। पस क्या तुम किताब के एक मुक़ाम को मानते और दूसरे मुक़ाम को रद्द करते हो। हासिल-ए-मतलब ये है कि तुम उन को तमाम तौरेत जुज़्व (हिस्सा, रेज़ा, पारा, टुकड़ा) कुल माननी चाहिए और उस जुम्ला अहकामात की तामील करनी चाहीए। जो शख़्स कि सिर्फ एक हिस्से को मानेगा और दूसरे हिस्से से इन्कार करे के उस के अहकाम से ग़ाफ़िल रहेगा। उसे रुस्वाई है इस दुनिया की ज़िंदगी में और क़ियामत के दिन डाला जाएगा सख़्त-तर अज़ाब में।

अब इस से ज़्यादा और कौन सी दलील क़ातेअ़ और बुरहान सातेअ़ तौरेत के बिल्कुल अव्वल से आख़िर तक जैसी कि मुहम्मद साहब के हम-अस्र यहूदीयों के हाथ में मौजूद थी असली और सही और मोअतबर और रब्बानी होने की क़ुरआन से चाहते हो।

फ़स्ल 74

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 87)

وَ لَقَدۡ اٰتَیۡنَا مُوۡسَی الۡکِتٰبَ وَ قَفَّیۡنَا مِنۡۢ بَعۡدِہٖ بِالرُّسُلِ ۫ وَ اٰتَیۡنَا عِیۡسَی ابۡنَ مَرۡیَمَ الۡبَیِّنٰتِ وَ اَیَّدۡنٰہُ بِرُوۡحِ الۡقُدُسِ

तर्जुमा :- और बा-तहक़ीक़ हम ने मूसा को किताब दी और भेजे पीछे उस के रसूल और दिए ईसा इब्ने-ए-मरियम को मोअजज़े सरीह और अता की उसे रूहुल-क़ुद्दुस से क़ुव्वत।

अल-किताब जलाल-उलद्दीन और बैज़ावी दोनों तौरेत लिखते हैं।

फ़स्ल 75

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 89)

وَ لَمَّا جَآءَہُمۡ کِتٰبٌ مِّنۡ عِنۡدِ اللّٰہِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَہُمۡ ۙ وَ کَانُوۡا مِنۡ قَبۡلُ یَسۡتَفۡتِحُوۡنَ عَلَی الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا ۚ فَلَمَّا جَآءَہُمۡ مَّا عَرَفُوۡا کَفَرُوۡا بِہٖ۫

तर्जुमा :- और जब उन को पहुंची किताब (यानी क़ुरआन) अल्लाह की तरफ़ से तस्दीक़ करती हुई उन के पास वाली किताब की अगरचे वो साबिक़ से काफ़िरों पर फ़त्ह मांग रहे थे पर जब उन के पास वो पहुंचा जिसे उन्हों ने पहचाना तो उस से इन्कार किया।

उन्हीं यहूदयान मदीना की तरफ़ ख़िताब चला जाता है।

इस आयत में जैसा और बीसियों (बहुत से) मुक़ामात पर लिखा है क़ुरआन उस की तस्दीक़ करता है जो यहूदीयों के पास था और जिसको जलाल उद्दीन और बैज़ावी यहूदीयों की किताब रब्बानी लिखते हैं।

मालूम होता है कि मुहम्मद साहब ने इस आयत में उन बातों की तरफ़ इशारा किया है जो उन के ज़हूर से पहले यहूदी लोग बुत-परस्त मदीने वालों से कहा करते थे कि जब हमारा पैग़म्बर मसीह आएगा तो हमें फ़त्ह बख़्शेगा और दुआ मांगते थे कि उस का ज़माना जल्द आ जाये। मुहम्मद साहब ये दावा कर के कि जिस पैग़म्बर के ज़माने के लिए यहूदी लोग दुआ मांगते थे वो मैं हूँ फ़रमाते हैं कि अगरचे उन्हों ने मुझे पहचाना और क़ुरआन को जान लिया कि वही है जिसका उन्हें इंतिज़ार था ता हम अब कि वो आया तो जान बूझ कर उस से इन्कार किया। ये उसी क़िस्म की आयतों से जिनका ज़िक्र सातवीं (7) और तेरहवीं (13) और पंद्रहवीं (15) वग़ैरह फ़स्लों में हो चुका है।

फ़स्ल 76

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 91)

وَ اِذَا قِیۡلَ لَہُمۡ اٰمِنُوۡا بِمَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰہُ قَالُوۡا نُؤۡمِنُ بِمَاۤ اُنۡزِلَ عَلَیۡنَا وَ یَکۡفُرُوۡنَ بِمَا وَرَآءَہٗ وَ ہُوَ الۡحَقُّ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَہُمۡ

तर्जुमा :- और जब उन से कहा गया कि ईमान लाओ उस पर जो अल्लाह ने नाज़िल किया है उन्हों ने कहा कि हम ईमान लाए उस पर जो हम ही पर नाज़िल हुआ और इन्कार करते हैं उस से जो उस के पीछे है हालाँकि वो हक़ है तस्दीक़ करता है उस को जो उन के पास है।

यहूदी लोग सिर्फ तौरेत को मानते थे इंजील को रद्द करते थे और क़ुरआन से भी मुन्किर थे। पस जब कि मुहम्मद साहब ने उन से जुम्ला कुतुब रब्बानी के मानने का हुक्म दिया यानी ना सिर्फ तौरेत को बल्कि इंजील व क़ुरआन को भी तो यहूदीयों ने जवाब दिया कि हम सिर्फ उसी किताब रब्बानी को मानेंगे जो हमारे वास्ते नाज़िल हुई है, यानी तौरेत और जो कुछ कि उस के बाद है यानी इंजील व क़ुरआन उस से इन्कार किया लेकिन मुहम्मद साहब कहते हैं कि वो किताब जिसको उन्हों ने ना माना यानी क़ुरआन हक़ है और यहूदीयों की किताब की तस्दीक़ करता है कि वो रब्बानी है और यहूदी पाक नविश्तों के अहकाम की सेहत और एतबार पर शहादत देता है।

ग़रज़ इस आयत से भी यहूदीयों की उस किताब का जैसी कि उस वक़्त उन के पास मौजूद थी रब्बानी होना साबित है।

फ़स्ल 77

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 92)

وَ لَقَدۡ جَآءَکُمۡ مُّوۡسٰی بِالۡبَیِّنٰتِ ثُمَّ اتَّخَذۡتُمُ الۡعِجۡلَ مِنۡۢ بَعۡدِہٖ وَ اَنۡتُمۡ ظٰلِمُوۡنَ

तर्जुमा :- और बा-तहक़ीक़ मूसा लाया तुम्हारे पास साफ़ निशानीयां फिर तुमने इख़्तियार किया बछड़े को।

बनी-इस्राईल ने जो गोसाला तिलाई (सोने का एक बछड़ा) की परस्तिश की थी। उसी का इस आयत में बयान है और फिर आगे जाकर कोह-ए-तूर पर ख़ुदा से मूसा को शरअ़ मिलने का अहवाल लिखा है।

फ़स्ल 78

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 97)

فَاِنَّہٗ نَزَّلَہٗ عَلٰی قَلۡبِکَ بِاِذۡنِ اللّٰہِ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ وَ ہُدًی وَّ بُشۡرٰی لِلۡمُؤۡمِنِیۡنَ

तर्जुमा :- पस तहक़ीक़ कि उस ने (यानी जिब्राईल ने) उस को (यानी क़ुरआन को) तेरे दिल पर ख़ुदा के हुक्म से उतारा तस्दीक़ करता है उस की (यानी उस किताब की) जो उस से पेशतर है हिदायत और बशारत ईमान वालों को।

जलाल उद्दीन यूं लिखता है :-

مَابَیۡنَ یَدَیۡہِ قَبۡلُہْ مَنۡ الْکِتٰبَमतलब वो जो उस के पहले थी यानी वो किताबें जो उस के क़ब्ल हैं।

क़ुरआन बराबर हर सूरह में उन किताबों को जो इस से पहले नाज़िल हुई थीं और मुहम्मद साहब के वक़्त में यहूद व नसारा के पास मौजूद थीं रब्बानी ठहराता चला जाता है।

फ़स्ल 79

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 101)

وَ لَمَّا جَآءَہُمۡ رَسُوۡلٌ مِّنۡ عِنۡدِ اللّٰہِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَہُمۡ نَبَذَ فَرِیۡقٌ مِّنَ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡکِتٰبَ ٭ کِتٰبَ اللّٰہِ وَرَآءَ ظُہُوۡرِہِمۡ کَاَنَّہُمۡ لَا یَعۡلَمُوۡنَ

तर्जुमा :- और जब ख़ुदा से उन के पास रसूल आया तस्दीक़ करने वाला उस का (यानी उस किताब का) जो उन के पास है तो जिन्हों ने किताब पाई है उन में से एक फ़रीक़ ने ख़ुदा की किताब अपनी पीठ के पीछे फेंक दी गोया वो जानते ही नहीं।

बैज़ावी लिखता है कि रसूल से मुराद ईसा या मुहम्मद है और जलाल उद्दीन सिर्फ मुहम्मद कहता है और आयत की साफ़ मुराद यही है।

किताब-उल्लाह के मअनी तौरेत हैं चुनान्चे जलाल उद्दीन और बेज़ावी दोनों लिखते हैं کِتٰبَ اللّٰہْ ایِ التَّوۡرٰىۃَ۔

मतलब ये कि रसूल यानी मुहम्मद यहूदीयों के पास आया उन के पाक नविश्तों की तस्दीक़ बराबर करता रहा और जिस रसूल का उन किताबों में वाअदा था वही अपने तईं क़रार दिया तो भी यहूदीयों ने उस से इन्कार किया और इस ढब (तरीक़ा, आदत) अल्लाह की किताब यानी अपनी किताब रब्बानी को पीठ के पीछे फेंक दिया।

इस आयत में तौरेत को जैसा कि उस वक़्त यहूदीयों के पास मौजूद थी किताब-उल्लाह कहा इस से बढ़कर कौन सा नाम मुअज़्ज़िज़ और मुक़द्दस है। जिसकी अस्ल ख़ुदा है उस किताब का हुक्म मुतलक़ मानना पड़ेगा और जिसको किताब-उल्लाह कहते हैं उस में जाये शक और तकरार क्या बाक़ी है यहां बहुत साफ़ और काफ़ी शहादत हैं।

फ़स्ल 80

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 113)

وَ قَالَتِ الۡیَہُوۡدُ لَیۡسَتِ النَّصٰرٰی عَلٰی شَیۡءٍ ۪ وَّ قَالَتِ النَّصٰرٰی لَیۡسَتِ الۡیَہُوۡدُ عَلٰی شَیۡءٍ ۙ وَّ ہُمۡ یَتۡلُوۡنَ الۡکِتٰبَ

तर्जुमा :- यहूदी कहते हैं कि ईसाई लोग किसी चीज़ पर क़ायम नहीं और ईसाई कहते हैं कि यहूदी किसी चीज़ पर क़ायम नहीं हालाँकि पढ़ते हैं किताब।

ये किताब वही तौरेत और इंजील है कि जो यहूद व नसारा के दर्मियान राइज व जारी थी और जिसकी क़ुरआन तस्दीक़ और तक़्वियत हर जगह ताकीद से करता है।

फ़स्ल 81

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 136)

قُوۡلُوۡۤا اٰمَنَّا بِاللّٰہِ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡنَا وَ مَاۤ اُنۡزِلَ اِلٰۤی اِبۡرٰہٖمَ وَ اِسۡمٰعِیۡلَ وَ اِسۡحٰقَ وَ یَعۡقُوۡبَ وَ الۡاَسۡبَاطِ وَ مَاۤ اُوۡتِیَ مُوۡسٰی وَ عِیۡسٰی وَ مَاۤ اُوۡتِیَ النَّبِیُّوۡنَ مِنۡ ربّہِمۡ ۚ لَا نُفَرِّقُ بَیۡنَ اَحَدٍ مِّنۡہُمۡ ۫ۖ وَ نَحۡنُ لَہٗ مُسۡلِمُوۡنَ

तर्जुमा :- कहो कि हम मानते हैं अल्लाह को और जो नाज़िल हुआ हम पर और इब्राहिम और इस्माईल और इज़्हाक़ और याक़ूब और इस्राईली फ़िर्क़ों पर ओर जो मिला ईसा को और मूसा और नबियों को अपने रब से हम उन में किसी के दर्मियान फ़र्क़ नहीं करते और हम अपने तईं उसी को सौंपते हैं।

जो कि इब्राहिम, इस्माईल, इज़्हाक़ और याक़ूब पर नाज़िल हुआ वो क्या था? उस की तहक़ीक़ात से बिल-फ़अल (इस वक़्त, सरदस्त, फ़िलहाल) कुछ बड़ा मतलब नहीं है शायद उन बातों का इशारा है जो उन पर या उन के हक़ में ख़ुदा से वही की राह नाज़िल हुईं और मूसा की किताबों में दर्ज हैं। इस के इन्किशाफ़ के लिए लिहाज़ करना चाहीए कि ऐसी बातों के वास्ते लफ़्ज़ مَاۤ اُنۡزِلَ इस आयत में लिखा है। यानी वो बात जो उतरी बरअक़्स उस के मूसा, ईसा और नबियों के नविश्तों के वास्ते مَاۤ اُوۡتِیَ लिखा यानी वो किताब जो दी गई चुनान्चे اٰتَی اور نَزَّلَ में ये फ़र्क़ है कि اٰتَی सिर्फ़ किताब या नविश्तों की बाबत जिनमें इल्हामी बातें मर्क़ूम हैं मुस्तअमल है पर نَزَّلَ का लफ़्ज़ ख़ाली इल्हाम व इल्का के वास्ते काम में आता है। चाहे वो काग़ज़ पर मुसबत हो चाहे ना हो। पस इस आयत से कुछ ये नहीं निकलता कि इब्राहिम इस्माईल वग़ैरह के पास कभी कोई किताब या इल्हामी नविश्ते थे।

इस आयत में उन किताबों को जो मूसा, ईसा और नबीयों को ख़ुदा ने दीं क़ुरआन के बराबर मानने और उन के दर्मियान मुतलक़ ना फ़र्क़ करने की ताकीद लिखी है। यानी सबकी ताज़ीम व तकरिम क़ुरआन के बराबर करनी चाहीए और सब का हुक्म मानना चाहीए क्योंकि सबको क़ुरआन ही की मानिंद अल्लाह का कलाम लिखा है। पस क्या बाइस कि जो इस्लाम क़ुरआन को मानते हैं और अब इन कुतुब मोतबर के की जिन पर एतबार और भरोसा रखना क़ुरआन में मोमिनीन का इस तरह से फ़र्ज़ ठहराया गया मुतलक़ ख़बर नहीं लेते।

फ़स्ल 82

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 140)

اَمۡ تَقُوۡلُوۡنَ اِنَّ اِبۡرٰہٖمَ وَ اِسۡمٰعِیۡلَ وَ اِسۡحٰقَ وَ یَعۡقُوۡبَ وَ الۡاَسۡبَاطَ کَانُوۡا ہُوۡدًا اَوۡ نَصٰرٰی قُلۡ ءَاَنۡتُمۡ اَعۡلَمُ اَمِ اللّٰہُ وَ مَنۡ اَظۡلَمُ مِمَّنۡ کَتَمَ شَہَادَۃً عِنۡدَہٗ مِنَ اللّٰہِ وَ مَا اللّٰہُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُوۡنَ

तर्जुमा :- क्या कहते हो कि इब्राहिम और इस्माईल और इज़्हाक़ और याक़ूब और इस्राईली फ़िर्क़े यहूद थे या नसारा, कह क्या तुम ख़ुदा से ज़्यादा जानते हो और उस से कौन ज़्यादा ज़ालिम है जिनसे छुपाया शहादत को जो उस के पास है अल्लाह की और अल्लाह बे खबर नहीं है तुम्हारे काम से।

जलाल उद्दीन उस की तफ़्सीर यूँ लिखता है और उस से ज़्यादा वो ज़ालिम कौन है यानी उस से ज़्यादा और कोई ज़ालिम नहीं है और वो यहूद थे जिन्हों ने तौरेत की शहादत को कि इब्राहिम हनफ़ी (लफ़्ज़ी मअनी सादिक़, सच्चा) मज़्हब पर था छुपाया।

وَ مَنۡ اَظۡلَمُ مِمَّنۡ الخ اَیِ لۡاِاحِلًّاَظۡلَمُ مَّنۡہ وَّ ہُمۡ الۡیَہُوۡدَ کَتَمَوْا شَہَادَۃً فِیْ التَّوۡرٰىۃَ لا براھیم بالحنفیہ۔

आयत का मतलब यूं मालूम होता है कि यहूदीयों ने जिन्हों ने मुहम्मद साहब की पेशख़बरों से इन्कार किया वाक़ेइ में ख़ुदा की शहादत को जो उन के पास मौजूद थी छिपा रखा जैसा कि ईसाई लोग आज तक कहते हैं कि यहूद दीन ईस्वी कि शहादत को जो तौरेत में है छुपाए रखते हैं क्योंकि वो उस के मअनी उलट देते हैं और उस का इक़बाल (इक़रार, एतराफ़, तस्लीम) नहीं करते।

अला-हाज़ा-उल-क़यास (इसी तरह, इसी क़ियास) मुहम्मद साहब के हम-

अस्र यहूद इसी तरह अपने मज़्हब को मज़्हब हनीफ़ नहीं मानते थे। यानी क़ुबूल नहीं करते थे कि इस के बाद एक कामिल दीन होने वाला है जिस का शुरू और अस्ल यहूदी दीन है। जैसा अब हाल के यहूद नहीं मानते हैं वो अपनी किताब की आयतों के मअनी इस तरह पर कि दीन ईस्वी या दीन-ए-मोहम्मदी की तरफ़ इशारा करें ना तब लगने देते थे ना अब लगने देते हैं। उन्होंने ऐसी बात का इक़बाल किया कि गोया यहूदी रस्म और मज़्हब से ईस्वी या मुहम्मदी दीन पैदा हो सकता है और ना ऐसी आयतों को पेश करना चाहा जिनमें उस का कुछ इशारा निकल सकता पस छुपाया शहादत को जो उन के पास थी अल्लाह की।

यहां तहरीफ़ व तसहीफ़ या किसी और तरह पर अपनी किताब रब्बानी को यहूदीयों के बनाने बदलने का मुतलक़ ज़िक्र नहीं बल्कि बर-ख़िलाफ़ उस के यहूदी किताब के जो उस ज़माने में उनके पास थी रब्बानी और सही और पाक साफ़ होने का इस आयत में जैसा चाहीए साफ़ साफ़ बयान है क्योंकि इस को شَہَادَۃً عِنۡدِ ہُمۡ مِنۡ लिखा है।

फ़स्ल 83

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 144-145)

قَدۡ نَرٰی تَقَلُّبَ وَجۡہِکَ فِی السَّمَآءِ ۚ فَلَنُوَلِّیَنَّکَ قِبۡلَۃً تَرۡضٰہَا ۪ فَوَلِّ وَجۡہَکَ شَطۡرَ الۡمَسۡجِدِ الۡحَرَامِ وَ حَیۡثُ مَا کُنۡتُمۡ فَوَلُّوۡا وُجُوۡہَکُمۡ شَطۡرَہٗ وَ اِنَّ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡکِتٰبَ لَیَعۡلَمُوۡنَ اَنَّہُ الۡحَقُّ مِنۡ ربّہِمۡ وَ مَا اللّٰہُ بِغَافِلٍ عَمَّا یَعۡمَلُوۡنَ وَ لَئِنۡ اَتَیۡتَ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡکِتٰبَ بِکُلِّ اٰیَۃٍ مَّا تَبِعُوۡا قِبۡلَتَکَ ۚ وَ مَاۤ اَنۡتَ بِتَابِعٍ قِبۡلَتَہُمۡ ۚ

तर्जुमा :- हमने देखा कि तू ने अपना मुँह आस्मान की तरफ़ फेरा इसलिए हम फेरेंगे तुझे इस क़िब्ले की तरफ़ जिससे तू राज़ी होगा पस फेर अपना मुँह मस्जिद-उल-हराम (यानी काअबा) की तरफ़ और जिस जगह तुम हुआ करो फेरो मुँह इसी की तरफ़ और जिनको मिली है किताब वो अलबत्ता जानते हैं कि ये बेशक हक़ है उनके रब की तरफ़ से और अल्लाह ग़ाफ़िल नहीं इस से जो वो करते हैं और अगर तू लाए किताब वालों के पास हर तरह की निशानीयां ना वो मानेंगे तेरे क़िब्ले को और ना तू मानेगा उनके क़िब्ले को।

ये जो यहूदीयों के बाब में यहां लिखा है कि वो अलबत्ता जानते हैं कि ये बेशक हक़ है उनके रब की तरफ़ से चाहे इस से ये हो कि काअबा सच्चा क़िब्ला था जैसा जलाल उद्दीन लिखता है और चाहे ये मअनी हों जो क़रीन-ए-क़ियास हैं कि यहूदी लोगों ने मुहम्मद साहब की नबुव्वत और क़ुरआन की सदाक़त पहचानी बहर सूरत नतीजा इस आयत से निकलता है जो साबिक़ फसलों में ज़िक्र हुआ यानी मुहम्मद साहब ने यहूद व नसारा की रब्बानी किताबों का इस भरोसे पर हवाला दिया कि उन में उन की नबुव्वत की शहादत थी और ये कि यहूद गो उस शहादत के इक़बाल से इन्कार करते थे पर वाक़िफ़ बख़ूबी थे।

फ़स्ल 84

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 146)

اَلَّذِیۡنَ اٰتَیۡنٰہُمُ الۡکِتٰبَ یَعۡرِفُوۡنَہٗ کَمَا یَعۡرِفُوۡنَ اَبۡنَآءَہُمۡ وَ اِنَّ فَرِیۡقًا مِّنۡہُمۡ لَیَکۡتُمُوۡنَ الۡحَقَّ وَ ہُمۡ یَعۡلَمُوۡنَ

तर्जुमा :- जिन्हें हमने किताब दी वो उस को पहचानते हैं जैसा कि पहचानते हैं अपने बेटों को और एक फ़रीक़ उन में से छुपाते हैं हक़ को जान कर।

बैज़ावी लिखता है :- یَعۡرِفُوۡنَہٗ पहचानते हैं उस को यानी मुहम्मद को या क़ुरआन को।

इस आयत में भी मसल-ए-साबिक़ यही मज़्कूर है कि यहूदीयों ने अपनी कुतुब रब्बानी के इशारों से क़ुरआन और मुहम्मद साहब को पहचान तो लिया था लेकिन बुग़्ज़ व इनाद (नफ़रत, लड़ाई, दुश्मनी) के बाइस क़ुबूल ना किया।

फ़स्ल 85

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 159-160)

اِنَّ الَّذِیۡنَ یَکۡتُمُوۡنَ مَاۤ اَنۡزَلۡنَا مِنَ الۡبَیِّنٰتِ وَ الۡہُدٰی مِنۡۢ بَعۡدِ مَا بَیَّنّٰہُ لِلنَّاسِ فِی الۡکِتٰبِ ۙ اُولٰٓئِکَ یَلۡعَنُہُمُ اللّٰہُ وَ یَلۡعَنُہُمُ اللّٰعِنُوۡنَ اِلَّا الَّذِیۡنَ تَابُوۡا وَ اَصۡلَحُوۡا وَ بَیَّنُوۡا فَاُولٰٓئِکَ اَتُوۡبُ عَلَیۡہِمۡ ۚ وَ اَنَا التَّوَّابُ الرَّحِیۡمُ

तर्जुमा :- बा-तहक़ीक़ जो लोग छुपाते हैं उन साफ़ बातों और हिदायतों को जो हमने नाज़िल कीं बाद इस के हम किताब में ज़ाहिर कर चुके उन को लोगों के वास्ते उन्हें लानत करेगा अल्लाह और लानत करेंगे लानत करने वाले मगर जो तौबा करें और नेक-चलन हों और (हक़ को) ज़ाहिर करें तो उन को माफ़ करता हूँ और मैं हूँ रहीम माफ़ करने वाला।

इस आयत की शान इब्ने इस्हाक़ की रिवायत से सीरत हशामी में यूं लिखी है।

کَتَمّانْہُمْ مَا فِیْ التَّوْرٰىۃَ مِنْ الۡحَقُّ سَالَ مَعَاذَ بۡنَ جَبَلْ اَخْوِ بَنِیۡ سۡلِمَۃْ وَسِعْدِ اَبْنَ مَعَاذَ اَخْوِ بَنِیْ عَبۡدًالَاشَلْ وَ خَارِجَۃْ بْنَ زَیۡدٌ نَفَرًا مِنْ اَحۡبَارَیَہُوۡدُ عَنْ بَعۡضَ مَا فِیْ التَّوْرٰىۃَ فِکَتّمُوْہ ایْا ہُمْ وَ اِبُوْا اِنَّ یِخُبۡروَہُمْ عَنْہْ فَاْنۡزَّلَ اللّٰہْ عۡزُوۡجَلْ اِنَّ الَّذِیۡنَ یَکۡتُمُوۡنَ مَاۤ اَنۡزَلۡنَا مِنَ الۡبَیِّنٰتِ وَ الۡہُدٰی الۡاٰیۡۃِ

मअनी तौरेत का हक़ छुपाना। मुआज़ बिन जबल और सअ़द इब्ने मआ़ज़ और ख़ारिजा इब्ने ज़ैद ने बाअज़ यहूदी आलिमों से तौरेत की किसी बात का इस्तिफ़सार किया लेकिन यहूद इनको उन से छिपा गए और बताने से इन्कार किया। पस अल्लाह तआला ने ये आयत नाज़िल की बा-तहक़ीक़ जो लोग छुपाते हैं इन साफ़ बातों और हिदायतों को अलीख....

इस मुक़ाम पर भी यहूदीयों को कुछ अपनी रब्बानी किताब में तहरीफ़ व तसहीफ़ और वस्त अंदाज़ी करने का मुतलक़ इल्ज़ाम नहीं है सिर्फ इतना ही लिखा है कि उन्हों ने वो मुक़ामात-ए-तौरेत जो दीन इस्लाम के मुफ़ीद थे मुहम्मद साहब और उनकी उम्मत को बतलाने से इन्कार किया तलब के वक़्त पेश किया। पस जब मुसलमान ख़बरें पूछते थे और यहूद ख़बरें बताने से इन्कार करते थे तो मुहम्मद साहब ने उन को हक़ के छिपाने के लिए मलामत की कि गोया उन्होंने ख़ुदा की साफ़ बातों और हिदायतों को पोशीदा किया और हक़ बात ज़ाहिर ना करने के बाइस उन्हें मलऊन ठहराया। ग़रज़ जो कुछ इल्ज़ाम और तोहमत हो ये उस का इंतिहा दर्जा है इस में यहूदीयों के अपनी किताब-ए-मुक़द्दस को इज़्ज़त और एहतिराम के साथ रखने में मुतलक़ शुब्हा नहीं होता बल्कि इस बात का तो कहीं कुछ ज़िक्र ही नहीं पाया जाता।

इस फ़िक़्रे को भी याद रखना चाहीए जो तौरेत के बाब में कि उस वक़्त यहूदीयों के हाथ में लिखा है।

مَاۤ اَنۡزَلۡنَا مِنَ الۡبَیِّنٰتِ وَ الۡہُدٰی

यानी यहूदी पाक नविश्तों में साफ़ बातें और हिदायतें थीं जो ख़ुदा ने भेजीं।

फ़स्ल 86

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 174-176)

اِنَّ الَّذِیۡنَ یَکۡتُمُوۡنَ مَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰہُ مِنَ الۡکِتٰبِ وَ یَشۡتَرُوۡنَ بِہٖ ثَمَنًا قَلِیۡلًا ۙ اُولٰٓئِکَ مَا یَاۡکُلُوۡنَ فِیۡ بُطُوۡنِہِمۡ اِلَّا النَّارَ وَ لَا یُکَلِّمُہُمُ اللّٰہُ یَوۡمَ الۡقِیٰمَۃِ وَ لَا یُزَکِّیۡہِمۡ ۚ وَ لَہُمۡ عَذَابٌ اَلِیۡمٌ اُولٰٓئِکَ الَّذِیۡنَ اشۡتَرَوُا الضَّلٰلَۃَ بِالۡہُدٰی وَ الۡعَذَابَ بِالۡمَغۡفِرَۃِ ۚ فَمَاۤ اَصۡبَرَہُمۡ عَلَی النَّارِ ذٰلِکَ بِاَنَّ اللّٰہَ نَزَّلَ الۡکِتٰبَ بِالۡحَقِّ وَ اِنَّ الَّذِیۡنَ اخۡتَلَفُوۡا فِی الۡکِتٰبِ لَفِیۡ شِقَاقٍۭ بَعِیۡدٍ

तर्जुमा :- जो लोग छुपाते हैं इस किताब को जो अल्लाह ने नाज़िल की और बेचते हैं उसे थोड़े से मोल पर वो आग खाएँगे अपने पेट में और ख़ुदा उनसे बात ना करेगा क़ियामत के दिन और ना पाक करेगा उनको और उनके वास्ते होगा सख़्त अज़ाब ये वही हैं जिन्हों ने हिदायत की एवज़ गुमराही मोल ली और माफ़ी के एवज़ अज़ाब। पस क्यूँ-कर बर्दाश्त कर सकेंगें आग ये इस वास्ते है कि ख़ुदा ने हक़ से नाज़िल की किताब और जिन्हों ने कि इख़्तिलाफ़ डाला किताब में वो बड़ी भूल में हैं।

ये इसी मज़्मून का ततिम्मा है जो ऊपर की आयत में अदा हुआ।

यहूदीयों को मुल्ज़िम ठहराया है कि उन्होंने ग़रज़ दुनियावी (दुनिया) के वास्ते यानी अपनी क़ौम को नाख़ुश ना करने के लिए और ऐसी ऐसी ग़रज़ों के लिए उन शहादतों को जो उनकी किताब रब्बानी में दीन इस्लाम और मुहम्मद साहब की मुफ़ीद मतलब तसव्वुर की गईं ज़ाहिर ना किया।

आख़िर में जो दूसरी मर्तबा किताब का ज़िक्र आया है इस से मुराद क़ुरआन और तौरेत व इंजील दोनों निकल सकती है अगर किताब मुक़द्दस यानी तौरेत व इंजील की मुराद लो तो फिर इख़्तिलाफ़ के मअनी में इख़्तिलाफ़ राय समझो जो इन मुक़ामात के असली मंशा की बनिस्बत थी जिनके पेश करने से यहूद इन्कार करते थे यानी यहूद नव मुस्लिम तो शायद उन्हें मुहम्मद साहब के हक़ में शहादत समझते थे और जिन यहूदीयों ने दीन इस्लाम क़ुबूल नहीं किया वो इस बात से इन्कार कर के मज़हर (ज़ाहिर करने वाला, बयान करने वाला, गवाह) थे कि ऐसे मुक़ामात से मुग़ालता (धोका, फ़रेब, दग़ा) देही की राह से इस्लाम और इस के पैग़म्बर का इशारा निकाला गया।

फ़स्ल 87

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 213)

کَانَ النَّاسُ اُمَّۃً وَّاحِدَۃً ۟ فَبَعَثَ اللّٰہُ النَّبِیّٖنَ مُبَشِّرِیۡنَ وَ مُنۡذِرِیۡنَ ۪ وَ اَنۡزَلَ مَعَہُمُ الۡکِتٰبَ بِالۡحَقِّ لِیَحۡکُمَ بَیۡنَ النَّاسِ فِیۡمَا اخۡتَلَفُوۡا فِیۡہِ وَ مَا اخۡتَلَفَ فِیۡہِ اِلَّا الَّذِیۡنَ اُوۡتُوۡہُ مِنۡۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡہُمُ الۡبَیِّنٰتُ بَغۡیًۢا بَیۡنَہُمۡ ۚ فَہَدَی اللّٰہُ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا لِمَا اخۡتَلَفُوۡا فِیۡہِ مِنَ الۡحَقِّ بِاِذۡنِہٖ وَ اللّٰہُ یَہۡدِیۡ مَنۡ یَّشَآءُ اِلٰی صِرَاطٍ مُّسۡتَقِیۡمٍ

तर्जुमा :- आदमीयों की एक ही उम्मत थी फिर भेजे ख़ुदा ने नबी बशारत और डर के सुनाने वाले और उनके साथ किताब को हक़ से उतारा कि जिस बात में लोगों के दर्मियान इख़्तिलाफ़ पड़े उसे फ़ैसला कर दें और किताब की बाबत इख़्तिलाफ़ में नहीं पड़े मगर वो लोग कि जिनको मिली थी बाद इस के कि उनको भेज चुके थे साफ़ साफ़ हुक्म आपस की बग़ावत की राह से और अल्लाह ने अपने हुक्म से ईमान वालों को इस सच्ची बात की राह दिखलाई जिसमें उनके दर्मियान इख़्तिलाफ़ पड़ रहा और अल्लाह जिसको चाहता है हिदायत करता है तरफ़ सीधी राह के।

फ़स्ल 88

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 253)

تِلۡکَ الرُّسُلُ فَضَّلۡنَا بَعۡضَہُمۡ عَلٰی بَعۡضٍ ۘ مِنۡہُمۡ مَّنۡ کَلَّمَ اللّٰہُ وَ رَفَعَ بَعۡضَہُمۡ دَرَجٰتٍ وَ اٰتَیۡنَا عِیۡسَی ابۡنَ مَرۡیَمَ الۡبَیِّنٰتِ وَ اَیَّدۡنٰہُ بِرُوۡحِ الۡقُدُسِ وَ لَوۡ شَآءَ اللّٰہُ مَا اقۡتَتَلَ الَّذِیۡنَ مِنۡۢ بَعۡدِہِمۡ مِّنۡۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡہُمُ الۡبَیِّنٰتُ وَ لٰکِنِ اخۡتَلَفُوۡا فَمِنۡہُمۡ مَّنۡ اٰمَنَ وَ مِنۡہُمۡ مَّنۡ کَفَرَ وَ لَوۡ شَآءَ اللّٰہُ مَا اقۡتَتَلُوۡا ۟ وَ لٰکِنَّ اللّٰہَ یَفۡعَلُ مَا یُرِیۡدُ

तर्जुमा :- इन सब रसूलों में अफ़्ज़ल किया हमने बाज़ों को बाज़ों से उनमें से किसी के साथ तो अल्लाह ने कलाम किया और किसी का दर्जा बुलंद किया और हमने ईसा इब्ने-ए-मरियम को सरीह निशानीयां दीं (यानी साफ़ किताब या मोअजज़ात) और रूहुल-क़ुद्दुस से उस को क़ुव्वत बख़्शी और अगर अल्लाह चाहता वो लोग जो उनके बाद हुए आपस में ना लड़ते साफ़ निशानीयों के पाने के पीछे लेकिन उनके दर्मियान इख़्तिलाफ़ पड़ गया। पस कोई तो उनमें से ईमान लाया और कोई मुन्किर हो गया और अगर चाहता अल्लाह, वो ना लड़ते लेकिन अल्लाह करता है जो चाहता है।

इन आयतों की तौज़ीह (वाज़ेह करना, खोल के बयान करना, शरह) करनी ज़रूर नहीं।

फ़स्ल 89

(सुरह अल-बक़र 2 आयत 285)

اٰمَنَ الرَّسُوۡلُ بِمَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡہِ مِنۡ ربّہٖ وَ الۡمُؤۡمِنُوۡنَ کُلٌّ اٰمَنَ بِاللّٰہِ وَ مَلٰٓئِکَتِہٖ وَ کُتُبِہٖ وَ رُسُلِہٖ ۟ لَا نُفَرِّقُ بَیۡنَ اَحَدٍ مِّنۡ رُّسُلِہٖ۟

तर्जुमा :- रसूल ईमान लाता है इस पर जो नाज़िल हुआ उसे उस के रब से और ईमान वाले हर एक ईमान लाए ख़ुदा पर और फ़रिश्तों पर और उस की किताबों पर और उस के रसूलों पर हम उस के रसूलों में से फ़र्क़ किसी के दर्मियान नहीं करते।

ये किताबें जिन पर रसूल यानी मुहम्मद साहब और उस की उम्मत को क़ुरआन के बराबर ईमान लाना यहां फ़र्ज़ लिखा है वही कुतुब आस्मानी यानी तौरेत और इंजील थीं जो यहूदी और ईसाईयों के पास उस वक़्त मौजूद थीं और जिनका ऊपर बराबर ज़िक्र होता चला है।

फ़स्ल 90

(सुरह अल-हदीद 57 आयत 19)

وَ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا بِاللّٰہِ وَ رُسُلِہٖۤ اُولٰٓئِکَ ہُمُ الصِّدِّیۡقُوۡنَ ۖ وَ الشُّہَدَآءُ عِنۡدَ ربّہِمۡ لَہُمۡ اَجۡرُہُمۡ وَ نُوۡرُہُمۡ وَ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا وَ کَذَّبُوۡا بِاٰیٰتِنَاۤ اُولٰٓئِکَ اَصۡحٰبُ الۡجَحِیۡمِ

तर्जुमा :- और जो यक़ीन लाते हैं अल्लाह पर और उस के रसूलों पर वही हैं सच्चे और शहादत देने वाले अपने रब के पास इनके वास्ते है इनका अज्र और इनकी रोशनी, और जो मुन्किर हैं और झूट बतलाते हैं हमारी बातों को वो हैं दोज़ख़ के लोग।

इधर तो इस आयत में उन लोगों के वास्ते जो ना सिर्फ क़ुरआन पर बल्कि उमूमन ख़ुदा के रसूलों पर यानी उनके नविश्तों और अक़ीदों पर यक़ीन रखते हैं बहिश्त और ख़ुदा की महरबानीयों का वाअदा किया है और उधर उन लोगों के वास्ते जो इन रसूलों से यानी उनके नविशतों और अक़ीदों से मुन्किर हों दोज़ख़ की आग का डर दिखलाया है।

ये आयत उन मुसलमानों की गर्दन पर बड़ी भारी जवाबदेही डालती है जो क़ुरआन पर तो अपना ईमान ज़ाहिर करते हैं और पहले रसूलों के नविशतों को ना मानने और उन पर यक़ीन ना लाने के बाइस ख़ुद उन रसूलों से मुन्किर होते हैं और उनकी तक़्ज़ीब (झुटलाना, झूट बोलने का लगाना) करते हैं क़ुरआन ही के हुक्म से वो अस्हाब-ए-दोज़ख़ ठहरे।

फ़स्ल 91

(सूरह अल-हदीद 57 आयत 25-28)

لَقَدۡ اَرۡسَلۡنَا رُسُلَنَا بِالۡبَیِّنٰتِ وَ اَنۡزَلۡنَا مَعَہُمُ الۡکِتٰبَ وَ الۡمِیۡزَانَ لِیَقُوۡمَ النَّاسُ بِالۡقِسۡطِ ۚ وَ اَنۡزَلۡنَا الۡحَدِیۡدَ فِیۡہِ بَاۡسٌ شَدِیۡدٌ وَّ مَنَافِعُ لِلنَّاسِ وَ لِیَعۡلَمَ اللّٰہُ مَنۡ یَّنۡصُرُہٗ وَ رُسُلَہٗ بِالۡغَیۡبِ اِنَّ اللّٰہَ قَوِیٌّ عَزِیۡزٌ وَ لَقَدۡ اَرۡسَلۡنَا نُوۡحًا وَّ اِبۡرٰہِیۡمَ وَ جَعَلۡنَا فِیۡ ذُرِّیَّتِہِمَا النُّبُوَّۃَ وَ الۡکِتٰبَ فَمِنۡہُمۡ مُّہۡتَدٍ ۚ وَ کَثِیۡرٌ مِّنۡہُمۡ فٰسِقُوۡنَ ثُمَّ قَفَّیۡنَا عَلٰۤی اٰثَارِہِمۡ بِرُسُلِنَا وَ قَفَّیۡنَا بِعِیۡسَی ابۡنِ مَرۡیَمَ وَ اٰتَیۡنٰہُ الۡاِنۡجِیۡلَ ۬ وَ جَعَلۡنَا فِیۡ قُلُوۡبِ الَّذِیۡنَ اتَّبَعُوۡہُ رَاۡفَۃً وَّ رَحۡمَۃً وَ رَہۡبَانِیَّۃَۨ ابۡتَدَعُوۡہَا مَا کَتَبۡنٰہَا عَلَیۡہِمۡ اِلَّا ابۡتِغَآءَ رِضۡوَانِ اللّٰہِ فَمَا رَعَوۡہَا حَقَّ رِعَایَتِہَا ۚ فَاٰتَیۡنَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا مِنۡہُمۡ اَجۡرَہُمۡ ۚ وَ کَثِیۡرٌ مِّنۡہُمۡ فٰسِقُوۡنَ یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰہَ وَ اٰمِنُوۡا بِرَسُوۡلِہٖ یُؤۡتِکُمۡ کِفۡلَیۡنِ مِنۡ رَّحۡمَتِہٖ وَ یَجۡعَلۡ لَّکُمۡ نُوۡرًا تَمۡشُوۡنَ بِہٖ وَ یَغۡفِرۡ لَکُمۡ وَ اللّٰہُ غَفُوۡرٌ رَّحِیۡمٌ

तर्जुमा :- बा-तहक़ीक़ हमने भेजा अपने रसूलों को साथ साफ़ निशानीयों के और उतारी उनके साथ किताब व तराज़ू के लोग इन्साफ़ पर क़ायम रहें और हम ने उतारा लोहा इस में है बड़ा ज़ोरावर और फ़ायदे लोगों के लिए और इसलिए कि अल्लाह मालूम कर ले कौन छिपे में मदद करता है उस की और उस के रसूलों की। बेशक अल्लाह ही ग़ालिब ज़ोर-आवर और बा-तहक़ीक़ हमने भेजा नूह व इब्राहीम को और रखी दोनों की औलाद में पैग़म्बरी और किताब और उनमें बाअज़ राह पर थे और बहुतेरे उनमें से बदकिर्दार थे फिर भेजा हमने अपने रसूलों को उनके आसार पर और उनके पीछे भेजा हमने ईसा इब्ने मरियम को और हमने दी उस को इंजील और जो उस के पैरौ हैं, उनके दिलों में हमने रखा तहम्मुल और रहमत और दुनिया का तर्क करना ये उन्होंने नया निकाला हमने उनके वास्ते नहीं लिखा था फिर ना निबाहा उस को जैसा कि चाहीए था निबाहना (मगर उन्होंने उसे निकाला) सिर्फ अल्लाह की रजामंदी की आरज़ू से और दिया हमने उन को जो उनमें ईमानदार थे उनका अज्र, बहुतेरे उनमें बदकिर्दार हैं तुम लोग जो ईमान लाए हो डरते रहो अल्लाह से और यक़ीन लाओ उस के रसूल पर वो देगा तुमको दो हिस्से अपनी रहमत से और बनाएगा तुम्हारे वास्ते रोशनी कि जिससे चलते फिरोगे और माफ करेगा तुमको और अल्लाह है ग़फ़ूर-रहीम।

जलाल उद्दीन लिखता है :- الْکِتٰبَ बमाअनी کتبہا यानी आस्मानी जिनको ख़ुदा ने नूह और इब्राहिम की औलाद में रखा इस से ये निकलता है कि नविशते मज़्कूर इब्राहिम की औलाद बनी-इस्राईल के दर्मियान पुश्त दर पुश्त बराबर एक से दूसरे के पास रहते आए।

इस आयत में मुहम्मद साहब के वक़्त के ईसाईयों की तारीफ़ लिखी है ख़ुदा ने रखी उनके दिलों में राफ़त (मेहरबानी) और रहमत यानी तहम्मुल और दर्दमंदी फिर आख़िरी आयत में ईस्वी क़ौम और शायद यहूदी क़ौम की तरफ़ भी ख़िताब कर के ताकीद की है और तर्ग़ीब दी है कि ख़ुदा से डरें और उस के रसूल पर यक़ीन लाएं तब उनके वास्ते दोहरे हिस्से रहमत और बरकत का वाअदा किया है। क़ुरआन के मुतअक़्क़िद (बंधा हुआ, मजबूत किया हुआ) ज़रूर इस बात पर साबित-क़दम रहेंगे कि जिन यहूदी और ईसाईयों ने दीन इस्लाम क़ुबूल किया उनके हक़ में ये वाअदा पूरा हुआ होगा। मशहूर व मारूफ़ है कि मुहम्मद साहब ही के वक़्त में कितने ईसाई और यहूदी मुसलमान हो गए थे। पस वही दलील जो बासठवीं (62) फ़स्ल में लिखी गई इस मुक़ाम पर भी मुनासिब होएगी। क़ियास हर तरह से यही चाहता है कि यहूदी और ईसाई जिन्हों ने दीन इस्लाम क़ुबूल किया अपनी उन कुतुब आस्मानी को जिनकी शहादत पर मुहम्मद साहब ने इस कस्रत और ताकीद से हवाला दिया था और जिन पर यक़ीन लाना और जिनके अहकाम और अक़ीदों के बमूजब चलना मुहम्मद साहब ने फर्ज़ियात और वाजिबात से बतलाया बड़ी ख़बरदारी से महफ़ूज़ रखते ऐसे ईमानदार यहूदी और ईसाई तौरेत और इंजील को दीन इस्लाम के सबूत और शहादत के लिए पुश्त दर पुश्त अबना व औलाद (अपनी तमाम औलाद) को देते चले आए। हाँ वो शहादत जिसके भरोसे से उन्होंने ख़ुद इस्लाम को क़ुबूल किया उस को अपनी ही इज़्ज़त जान कर महफ़ूज़ रखते लेकिन बख़ैर इन कुतुब रब्बानी के जो अब यहूद व नसारा के दर्मियान जारी हैं और हमेशा से इसी तरह पर जारी चली आएं और किसी क़िस्म की तो वो किताबें दुनिया में नहीं दिखलाई देतीं और ये बात कि इस तौरेत और इंजील के सिवा जो यहूद व नसारा के दर्मियान जारी थीं। मुसलमानों ने कोई अलैहदा (अलग) तौरेत और इंजील अपने पास ना रखी दलील क़ातेअ है कि अलैहदा रखने की उन्होंने कुछ ज़रूरत ना समझी अगर कोई नव मुस्लिम ये बद-गुमानी करता कि यहूदी ख़्वाह ईसाई अपनी तौरेत और इंजील में किसी तरह के ख़लल-अंदाज़ थे तो बिलाशक तौरेत और इंजील के सही नुस्खे़ अपने मुख़ालिफ़ों के क़ाइल करने के लिए और दीन इस्लाम के इस्बात (सबूत) के लिए महफ़ूज़ रखता पर किसी ने ऐसा ना किया। पस ज़ाहिर है कि उन यहूद व नसारा को जिन्हों ने दीन इस्लाम क़ुबूल किया इत्मीनान कुल्ली हासिल थी कि हमारे भाई बंद जो इस दीन में ना आए उनकी तौरेत और इंजील वही हैं जो हमारे पास हैं जुदा किताबों के रखने की कुछ हाजत नहीं बल्कि अहले-किताब अपनी कुतुब रब्बानी की हिफ़ाज़त और उसे सही रखने में हरगिज़ कोताही नहीं करते और ना करेंगे फ़क़त।

फ़स्ल 92

(सुरह अल-बय्यना 98 आयत 1-5)

لَمۡ یَکُنِ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا مِنۡ اَہۡلِ الۡکِتٰبِ وَ الۡمُشۡرِکِیۡنَ مُنۡفَکِّیۡنَ حَتّٰی تَاۡتِیَہُمُ الۡبَیِّنَۃُ ۙ رَسُوۡلٌ مِّنَ اللّٰہِ یَتۡلُوۡا صُحُفًا مُّطَہَّرَۃً ۙ فِیۡہَا کُتُبٌ قَیِّمَۃٌ وَ مَا تَفَرَّقَ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡکِتٰبَ اِلَّا مِنۡۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡہُمُ الۡبَیِّنَۃُ وَ مَاۤ اُمِرُوۡۤا اِلَّا لِیَعۡبُدُوا اللّٰہَ مُخۡلِصِیۡنَ لَہُ الدِّیۡنَ ۬ۙ حُنَفَآءَ وَ یُقِیۡمُوا الصَّلٰوۃَ وَ یُؤۡتُوا الزَّکٰوۃَ وَ ذٰلِکَ دِیۡنُ الۡقَیِّمَۃِ

तर्जुमा :- अहले-किताब से जो कुफ़्र करते हैं और मुशरिक बाज़ ना आए जब तक कि पहुंची उनको साफ़ बात एक रसूल-ए-ख़ूदा के पास से जो पढ़ता है औराक़ पाक इनमें हैं सीधी किताबें और जिनको किताब दी गई है वो नहीं फूटे इला बाद इस के कि साफ़ बात इनके पास आई और उनको और कुछ हुक्म नहीं हुआ सिवा इस के कि इबादत करें ख़ुदा की और उस के सामने सच्चा दीन पाक दिखाएं और क़ायम रखें नमाज़ को और दें ज़कात और ये है सच्चा दीन।

तफ़्सीर जलाल उद्दीन :-

وَمَا امِرْوَاْفِی کِتابَہُمْ التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ

मअनी उनको और कुछ हुक्म नहीं यानी इनकी दोनों किताब तौरेत व इंजील में।

तफ़्सीर बैज़ावी :-

وَمَا امِرْوَاْاَییْ فِیْ کِتبٰہْمْ بِمْافِیہْا

मअनी उनको हुक्म नहीं यानी उनकी किताबों में।

पस मुफ़स्सिरों (मुसलमानों की इस्तिलाह में कलाम मजीद के मअनी और मतलब बयान करने वाले) के बयाँ से वाज़ेह है कि इस आयत में यहूद व नसारा की कुतुब रब्बानी की सेहत और एतबार की गवाही है क्योंकि उस ज़माने के यहूद व नसारा ने चाहे जैसी ख़िलाफ़वर्ज़ी क्यों ना की, और कलाम-उल्लाह के मंशा और अक़ीदों को चाहे जैसे उल्टे और ग़लत माअनों के साथ क्यों ना लगाया? वो किताबें जिनमें अल्लाह का कलाम लिखा हुआ था और उस वक़्त उनके दर्मियान राइज थीं इस आयत के बमूजब जुम्ला आलाईशों آلایشوں से मुबर्रा और पाक थीं। उनमें सिवाए हक़ और दीन हनीफा (हनीफ़ जमअ़ हज़रत इब्राहिम के मज़्हब के पैरौ लोग) और क़य्यीमा قیمہ के और किसी तरह की ताअलीम ना थी। बजुज़الدِّیۡنَ اَلْحُنَفَآءَ وَ ذٰلِکَ دِیۡنُ الۡقَیِّمَۃِ इन क़ुतुब मुक़द्दसा में किसी और बात का हुक्म ना था। مَاۤ اُمِرُوۡۤا اِلَّا لِیَعۡبُدُوا اللّٰہَ مُخۡلِصِیۡنَ لَہُ الدِّیۡنَ حُنَفَآءَ۔

फ़स्ल 93

(सुरह अल-जमाअ़ 62 आयत 5)

مَثَلُ الَّذِیۡنَ حُمِّلُوا التَّوۡرٰىۃَ ثُمَّ لَمۡ یَحۡمِلُوۡہَا کَمَثَلِ الۡحِمَارِ یَحۡمِلُ اَسۡفَارًا بِئۡسَ مَثَلُ الۡقَوۡمِ الَّذِیۡنَ کَذَّبُوۡا بِاٰیٰتِ اللّٰہِ وَ اللّٰہُ لَا یَہۡدِی الۡقَوۡمَ الظّٰلِمِیۡنَ

तर्जुमा :- मिस्ल उन लोगों के जिन पर लादी गई तौरेत फिर ना उठाया उन्होंने इस को (यानी उस के लवाज़मात को अदा ना किया) है मानिंद उस गधे के जिस पर लादी गई किताबें बरी मिस्ल है उन लोगों की जिन्हों ने झुटलाएँ ख़ुदा की बातें और ख़ुदा हिदायत नहीं करता ज़ालिमों को।

जिस तरह पर गधा उम्दा किताबों से लदा हुआ उनके मज़ामीन मुफ़ीदा (फ़ायदा मंद) से मुतलक़ नावाक़िफ़ रहता है इसी तरह यहूदी भी अगरचे कुतुब रब्बानी अपने पास मौजूद रखते थे उनके गिरां क़द्र (आली मर्तबा, मुअज़्ज़िज़) माअनों से और हिक्मत-ए-इलाही से मुतलक़ नावाक़िफ़ और बेइल्म थे।

यहूदीयों के हाल व अफ़आल की बनिस्बत जो बात कि तमाम क़ुरआन से निकलती है ये आयत उस की बहुत मज़बूती के साथ ताईद करती है और ये इस राय के भी ताबिक अलनअ़ल बालनअ़ल (क़दम बी क़दम) है जो ईसाई लोग हमेशा से उन्हें यहूदीयों की बनिस्बत रखते चले आए हैं। यानी अगरचे ख़ुदा का कलाम तौरेत में पाक और सही उनके पास मौजूद है ताहम उन का ज़हन व ज़का उस के असली मंशा को नहीं पहुंचता। गोया हक़ बीनी की तरफ़ से इनकी आँखें अंधी हो गई हैं।

पस इस आयत का ख़ुलासा ये निकलता है कि यहूदीयों के पास ख़ुदा का असली कलाम मौजूद तो था मगर वो अपनी बेवक़ूफ़ी दसेसा दरौनी (बातिनी मक्कारी) के बाइस उस के मअनी नहीं समझते थे ग़रज़ उनकी मिस्ल ठीक गधा लदा हुआ किताबों से थी फ़क़त।

फ़स्ल 94

(सुरह अल-फतह 48 आयत 29)

مُحَمَّدٌ رَّسُوۡلُ اللّٰہِ وَ الَّذِیۡنَ مَعَہٗۤ اَشِدَّآءُ عَلَی الۡکُفَّارِ رُحَمَآءُ بَیۡنَہُمۡ تَرٰىہُمۡ رُکَّعًا سُجَّدًا یَّبۡتَغُوۡنَ فَضۡلًا مِّنَ اللّٰہِ وَ رِضۡوَانًا ۫ سِیۡمَاہُمۡ فِیۡ وُجُوۡہِہِمۡ مِّنۡ اَثَرِ السُّجُوۡدِ ذٰلِکَ مَثَلُہُمۡ فِی التَّوۡرٰىۃِ ۚ وَ مَثَلُہُمۡ فِی الۡاِنۡجِیۡلِ کَزَرۡعٍ اَخۡرَجَ شَطۡـَٔہٗ فَاٰزَرَہٗ فَاسۡتَغۡلَظَ فَاسۡتَوٰی عَلٰی سُوۡقِہٖ یُعۡجِبُ الزُّرَّاعَ لِیَغِیۡظَ بِہِمُ الۡکُفَّارَ

तर्जुमा :- मुहम्मद है रसूल अल्लाह का और जो उस के साथ हैं, काफ़िरों पर सख़्त हैं नर्म-दिल हैं आपस में। तो उन्हें देखे सर झुकाए सज्दा करते चाहते हैं अल्लाह का फ़ज़्ल और इस की ख़ुशी निशान इनका इन के मुँह पर है सज्दे के असर से। ये है मिस्ल उनकी तौरेत में और मिस्ल है उनकी इंजील में कि जैसे बीज ने निकाली अपनी शाख़ फिर उसे मज़्बूत किया फिर मोटा हुआ फिर खड़ा हुआ अपने तने पर ख़ुश करता है बोने वाले को ताकि जल उठे उनसे जी काफ़िरों का।

ये आयत सिर्फ इस नज़र से दाख़िल हुई कि इस में तौरेत और इंजील का तज़्किरा है और इशारा शायद ज़बूर की किसी तश्बीह की तरफ़ हो या इंजील वाली किसान की तम्सील की तरफ़।

फ़स्ल 95

(सुरह अस्सफ़ 61 आयत 6)

وَ اِذۡ قَالَ عِیۡسَی ابۡنُ مَرۡیَمَ یٰبَنِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَ اِنِّیۡ رَسُوۡلُ اللّٰہِ اِلَیۡکُمۡ مُّصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیَّ مِنَ التَّوۡرٰىۃِ وَ مُبَشِّرًۢا بِرَسُوۡلٍ یَّاۡتِیۡ مِنۡۢ بَعۡدِی اسۡمُہٗۤ اَحۡمَدُ ؕ

तर्जुमा :- और जब ईसा इब्ने मर्यम ने कहा कि ऐ बनी-इस्राईल मैं बा-तहक़ीक़ भेजा आया हूँ अल्लाह का तुम्हारी तरफ़ तस्दीक़ करता हुआ इस तौरेत को जो मुझसे आगे है और सुनाता हुआ ख़ुशख़बरी एक रसूल की जो आएगा मुझसे पीछे उस का नाम है अहमद।

मुहम्मद साहब इन बातों को पेश करते हैं इस बयान से कि ये एक पैग़ाम है जो ईसा मसीह अपनी उम्मत के वास्ते ख़ुदा से लाया था। पस इस से ये आयत यहूदीयों की कुतुब रब्बानी के जैसी कि ईसा के वक़्त में मौजूद थीं पाक व साफ़ होने और हुक्म शराअ रखने की तस्दीक़ करती है। अहदे अतीक़ यानी तौरेत के जुम्ला नविश्ते उस वक़्त मुकम्मल हो चुके थे और वो नविश्ते जिस शुमार और तफ़्सील से अब मौजूद हैं उस वक़्त इसी शुमार और तफ़्सील से तमाम व कमाल थे। पस इस बात से हम लोगों को नज़र पड़ता है कि क़ुरआन में जहां कहीं तौरेत लिखा है इस से मुराद बिल्कुल अह्दे अतीक़ यानी शराअ मूसा, ज़बूर और सहफ़ (सहीफ़ा की जमअ़) अम्बिया जो कि ईसा के वक़्त में राइज और जारी थे।

इस आयत का इशारा उस वाअ़दे की तरफ़ मालूम होता है जो ईसा ने फ़ारकलेत فار قلیط यानी तसल्ली देने वाली रूहुल-क़ुद्दुस का किया था। सो यहां मुहम्मद साहब ख़ुद को एक पेशगोई क़ायम करते हैं जो कोई इंजील की अस्ल आयत पर रुजूअ़ करे बेताम्मुल दर्याफ़्त करेगा कि ईसा की बातें दर हक़ीक़त किस की तरफ़ इशारा करती हैं।

फ़स्ल 96

(सुरह अल-निसा 4 आयत 44-47)

اَلَمۡ تَرَ اِلَی الَّذِیۡنَ اُوۡتُوۡا نَصِیۡبًا مِّنَ الۡکِتٰبِ یَشۡتَرُوۡنَ الضَّلٰلَۃَ وَ یُرِیۡدُوۡنَ اَنۡ تَضِلُّوا السَّبِیۡلَ وَ اللّٰہُ اَعۡلَمُ بِاَعۡدَآئِکُمۡ وَ کَفٰی بِاللّٰہِ وَلِیًّا وَّ کَفٰی بِاللّٰہِ نَصِیۡرًا مِنَ الَّذِیۡنَ ہَادُوۡا یُحَرِّفُوۡنَ الۡکَلِمَ عَنۡ مَّوَاضِعِہٖ وَ یَقُوۡلُوۡنَ سَمِعۡنَا وَ عَصَیۡنَا وَ اسۡمَعۡ غَیۡرَ مُسۡمَعٍ وَّ رَاعِنَا لَـیًّۢا بِاَلۡسِنَتِہِمۡ وَ طَعۡنًا فِی الدِّیۡنِ وَ لَوۡ اَنَّہُمۡ قَالُوۡا سَمِعۡنَا وَ اَطَعۡنَا وَ اسۡمَعۡ وَ انۡظُرۡنَا لَکَانَ خَیۡرًا لَّہُمۡ وَ اَقۡوَمَ ۙ وَ لٰکِنۡ لَّعَنَہُمُ اللّٰہُ بِکُفۡرِہِمۡ فَلَا یُؤۡمِنُوۡنَ اِلَّا قَلِیۡلًا یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡکِتٰبَ اٰمِنُوۡا بِمَا نَزَّلۡنَا مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَکُمۡ مِّنۡ قَبۡلِ اَنۡ نَّطۡمِسَ وُجُوۡہًا فَنَرُدَّہَا عَلٰۤی اَدۡبَارِہَاۤ اَوۡ نَلۡعَنَہُمۡ کَمَا لَعَنَّاۤ اَصۡحٰبَ السَّبۡتِ وَ کَانَ اَمۡرُ اللّٰہِ مَفۡعُوۡلًا

तर्जुमा :- क्या तू ने उनको नहीं देखा जिन्हें हमने दिया है किताब का हिस्सा, गुमराही मोल लेते हैं और चाहते हैं कि तुम बहको राह से और अल्लाह ख़ूब जानता है तुम्हारे दुश्मनों को और अल्लाह काफ़ी है हिमायती और अल्लाह काफ़ी है मददगार उन लोगों में जो यहूदी हैं फेरते हैं लफ़्ज़ को इस की जगह से और कहते हैं سَمِعۡنَا وَ عَصَیۡنَا यानी हमने सुना और हुक्म उदूली की और اسۡمَعۡ غَیۡرَ مُسۡمَعٍ यानी सुन बग़ैर सुनने के और رَاعِنَا यानी देख हमको, मोड़ कर अपनी ज़बानों को और मलामत देकर दीन को और अगर वो कहते سَمِعۡنَا وَ اَطَعۡنَا यानी हमने सुना और माना और انۡظُرۡنَا यानी हम पर नज़र कर तो बेहतर होता इनके लिए और ज़्यादा दुरुस्त लेकिन लानत की उनको अल्लाह ने उन के कुफ़्र से पस ईमान नहीं लाए मगर थोड़े वो लोगो जिन्हें किताब मिली ईमान लाओ इस पर जो हमने नाज़िल किया (यानी क़ुरआन) तस्दीक़ करता है उस को (यानी उस किताब को) जो तुम्हारे पास है क़ब्ल उस के कि हम मिटादें तुम्हारे मुँह और उन्हें औंधा कर दें या कि लानत करें उन्हें जैसे कि लानत की हमने अस्हाब सबत को (यानी उनको जिन्हों ने सबत तोड़ा) और ख़ुदा का हुक्म पूरा होने का है।

ये मुक़ाम तमाम व कमाल इस वास्ते मुंतख़ब हुआ कि इस का रब्त और मतलब बख़ूबी निकले यहां ख़िताब यहूदयान मदीना की तरफ़ है। पस मतलब ये है कि यहूदी लोग इस तरह पर इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी, फिर जाना, मुकर जाना, बर्ख़िलाफ़ होना) की बातें कहा करते थे और ईहाम (शक या वहम में डालना) की रेत से ऐसी बातें ज़बान पर लाते थे जिसके दो मतलब निकलें ज़ाहिर मअनी तो शायद दुरुस्त और बेऐब थे पर पोशीदा मअनी में इस्लाम का इल्ज़ाम और ठट्ठा था या ज़बान मड़ोर कर अच्छी बातों से दुश्नाम (गाली, गाली गलोच) की बातें बोलते थे। अल-ग़र्ज़ अपने कलाम को इस तरह से फेर फार देते थे कि जिसमें इधर तो पर्दे में मुहम्मद साहब और दीन इस्लाम का ठट्ठा हो और ज़ाहिर में उनके बचाओ के लिए दूसरे माअनों की ओट (पर्दा, घूँघट, निक़ाब) भी बनी रहे।

इसी बात पर सुरह बक़र में एक सौ चार (104) आयत में दर्ज है।

یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا لَا تَقُوۡلُوۡا رَاعِنَا وَ قُوۡلُوا انۡظُرۡنَا وَ اسۡمَعُوۡا

यानी ऐ ईमान वालो ना कहो राअ़ना راعنا (निगाह करो हम पर) पर कहो अंज़रना انظرنا (देखो हमको) और اسۡمَعُوۡا (सुनो)। ये दोनों लफ़्ज़ यानी राअ़ना راعنا और अंज़रना انظرنا बरवक़्त मुलाक़ात मिस्ल सलाम व बंदगी यहूदी लोग आपस में इस्तिमाल करते थे लेकिन लफ़्ज़ अव्वल यानी राअ़ना راعنا के मअनी में तहक़ीर (हक़ीर समझना, नफ़रत, हक़ारत) और तशनीअ (बुरा-भला कहना, लान-तान, मलामत) भी निकलती है पस यहूदी लोग इसे इसी मंशा से इस्तिमाल लाते थे और मुहम्मद साहब ने इसी वास्ते उस के इस्तिमाल का इमतीनाअ़ (रोक, मुमानिअत, मनाही) किया चुनान्चे इस आयत में भी इस का इमतीनाअ़ है।

अब्दुल क़ादिर ने जो क़ुरआन का उर्दू तर्जुमा किया है उस के हाशिया में लिखता है कि राअ़ना راعنا लफ़्ज़ बोलते थे इस का बयान सूरह बक़र में हुआ। इसी तरह हज़रत बात फ़रमाते तो जवाब में कहते सुना हमने उस के मअनी ये हैं कि क़ुबूल किया लेकिन आहिस्ता कहते कि ना माना यानी फ़क़त कान से सुना और दिल से ना सुना और हज़रत को ख़िताब करते तो कहते ना सुनाया जाये ज़ाहिर में ये दुआ नेक है कि तू हमेशा ग़ालिब रहे कोई तुझ को बुरी बात ना सुना सके और दिल में नीयत रखते कि तू बहरा हो जाये ऐसी शरारत करते।

पस मालूम होता है कि तहरीफ़ और لی السنہ से मुराद इन्हीं बातों से है कि पुकार कर तो सिर्फ इतना ही कहते سَمِعۡنَا यानी सुन लिया हमने और आहिस्ता से शायद होंटों में इतना और कहते وَ عَصَیۡنَا यानी और ना माना, اَطَعۡنَا हमने माना की जगह में عَصَیۡنَا हमने उ़दूल हुक्मी की धीमी आवाज़ से बोलते थे और इसी तरह से कि देते اسۡمَعۡ غَیۡرَ مُسۡمَعٍ यानी सुन बग़ैर सुनने के और राअ़ना यानी निगाह कर हम पर चुनान्चे इन अल्फ़ाज़ के नेक और बद दो मअनी थे ज़ाहिर में इताअत की बातें बोलते थे और हक़ीक़त में तहक़ीर और तशनीअ से ज़बान पर लाते। ये दस्तूर ر لَـیًّۢا بِاَلۡسِنَتِہِمۡ यानी लिपटी ज़बानों से बोलना लिखा है और जलाल उद्दीन तहरीफ़ की भी तफ़्सीर यूँ ही करता है وَلۡیًا تَحۡرِیۡفِا بِاَلۡسِنَتِہِمۡ मअनी लपेट यानी तहरीफ़ (या मुनक़लिब करना) साथ अपनी ज़बानों के। ग़रज़ नतीजा इस से यही निकलता है कि यहूदीयों को जो क़ुरआन में तहरीफ़ का इल्ज़ाम दिया गया है वो तहरीफ़ इसी क़बील से थी जिसका इस आयत में ज़िक्र हुआ ये इस से मुतलक़ मुराद नहीं कि यहूदीयों ने अपनी कुतुब रब्बानी में किसी तरह की तसहीफ़ ख़्वाह तब्दील की हो बर्ख़िलाफ़ उस के मज़्मून आयत साफ़ तौरेत की ताईद करता है क्योंकि क़ुरआन के हक़ में लिखा है مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَکُمۡ यानी तस्दीक़ करता है उस की यानी उन रब्बानी नविश्तों को जो तुम्हारे पास है पस तौरेत की तस्दीक़ और इस्बात जो उस वक़्त यहूदीयों के हाथ में था इस आयत से बख़ूबी निकलता है ऐसी तस्दीक़ सिर्फ उस किताब की हो सकती है जो बेऐब और तमाम व कमाल ख़ुदा ही का कलाम हो।

फ़स्ल 97

(सुरह अल-निसा 4 आयत 51)

اَلَمۡ تَرَ اِلَی الَّذِیۡنَ اُوۡتُوۡا نَصِیۡبًا مِّنَ الۡکِتٰبِ یُؤۡمِنُوۡنَ بِالۡجِبۡتِ وَ الطَّاغُوۡتِ وَ یَقُوۡلُوۡنَ لِلَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا ہٰۤؤُلَآءِ اَہۡدٰی مِنَ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا سَبِیۡلًا

तर्जुमा :- क्या तू ने उनको ना देखा जिनको किताब का हिस्सा मिला है वो मानते हैं बुत और देवों को, और काफ़िरों से कहते हैं कि मोमिनीन से तुम्हारा तरीक़ा अच्छा है।

मुफ़स्सिरों के लिखने बमूजब इस आयत में उन यहूदीयों की तरफ़ इशारा है जिन्हों ने मक्के के बुत परस्तों से अंद-उल-इस्तफ़सार (पूछने पर, दर्याफ़्त करने पर) दीन इस्लाम की बनिस्बत ये कहा था कि मुहम्मद साहब के इस झूटे दीन से तुम्हारी बुत-परस्ती ही अच्छी है।

जिस बात की कि बिल-फ़अल तहक़ीक़ात दर पेश है इस से ये आयत कुछ चंदान इलाक़ा नहीं रखती हाँ इस आपस के बुग़्ज़ व इनाद (लड़ाई, ज़िद, दुश्मनी, निफ़ाक़) को ज़ाहिर करती है जो पैग़म्बर इस्लाम और यहूदीयों के दर्मियान था।

फ़स्ल 98

(सुरह अल-निसा 4 आयत 54-55)

اَمۡ یَحۡسُدُوۡنَ النَّاسَ عَلٰی مَاۤ اٰتٰہُمُ اللّٰہُ مِنۡ فَضۡلِہٖ ۚ فَقَدۡ اٰتَیۡنَاۤ اٰلَ اِبۡرٰہِیۡمَ الۡکِتٰبَ وَ الۡحِکۡمَۃَ وَ اٰتَیۡنٰہُمۡ مُّلۡکًا عَظِیۡمًا فَمِنۡہُمۡ مَّنۡ اٰمَنَ بِہٖ وَ مِنۡہُمۡ مَّنۡ صَدَّ عَنۡہُ

तर्जुमा :- क्या इस बात पर लोग हसद करते हैं जो ख़ुदा ने उनको अपने फ़ज़्ल व करम से दिया और बेशक हमने इब्राहिम की औलाद को किताब दी और इल्म और बड़ी सल्तनत दी है फिर बाअज़ उनसे इस पर ईमान लाए और बाअज़ इस से रुके रहे।

ये इस बात की शहादत है कि इब्राहिम की औलाद में जिससे मतलब यहां यहूदी है रब्बानी किताब रही और उनके दर्मियान कितने ईमानदार थे कि औरों ने जो चाहा सो किया पर वो अपनी रब्बानी किताबों पर कभी किसी को दस्त अंदाज़ ना होने देते।

फ़स्ल 99

(सुरह अल-निसा 4 आयत 60)

اَلَمۡ تَرَ اِلَی الَّذِیۡنَ یَزۡعُمُوۡنَ اَنَّہُمۡ اٰمَنُوۡا بِمَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡکَ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ مِنۡ قَبۡلِکَ یُرِیۡدُوۡنَ اَنۡ یَّتَحَاکَمُوۡۤا اِلَی الطَّاغُوۡتِ وَ قَدۡ اُمِرُوۡۤا اَنۡ یَّکۡفُرُوۡا بِہٖ وَ یُرِیۡدُ الشَّیۡطٰنُ اَنۡ یُّضِلَّہُمۡ ضَلٰلًۢا بَعِیۡدًا

तर्जुमा :- क्या तू ने ना देखा उन्हें जो गुमान करते हैं कि हम यक़ीन लाए इस पर जो उतरी है तुझ पर और जो उतरी है तुझ से पहले फ़ैसले के लिए बुत पर हसर (घेरना, अहाता करना, मख़सर करना) करते हैं, हालाँकि उनको हुक्म हुआ कि इस से इन्कार करें और शैतान चाहता है कि उनको दूर की गुमराही में डाले।

اُمِرُوۡۤا उनको हुक्म हुआ यानी उनकी क़ुतुब-ए-ईलाही में ये हुक्म है कि बुत-परस्ती से बाज़ आएं।

इस आयत में उन यहूदीयों का ज़िक्र है जिन्हों ने ज़ाहिर किया कि जैसे हम अपनी किताब पर यक़ीन करते हैं वैसे ही क़ुरआन के ऊपर ईमान लाते हैं, पर हक़ीक़त में बेईमान थे क्योंकि इस बात पर तैयार थे कि एक बुत के सामने जाकर बुत परस्तों की रेत पर अपनी तकरार का तस्फ़ीया (वाज़ेह करना, सुलह, फ़ैसला) करें सो इस मुक़ाम पर जैसी चाहीए उनकी मलामत है और उन्हीं कुतुब रब्बानी पर जिनके वो अपने तईं मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) बयान करते थे हवाला देकर ये लिखा है कि बुत-परस्ती की उनमें कुली मुमानिअत है। हवाला देने का तरीक़ा ऐसी किताबों पर बेशक होगा जिन्हें मुहम्मद साहब बेऐब व नुक़्स और अहकामात ईलाही समझते और मानते थे।

फ़स्ल 100

(सुरह अल-निसा 4 आयत 131)

وَ لِلّٰہِ مَا فِی السَّمٰوٰتِ وَ مَا فِی الۡاَرۡضِ وَ لَقَدۡ وَصَّیۡنَا الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡکِتٰبَ مِنۡ قَبۡلِکُمۡ وَ اِیَّاکُمۡ اَنِ اتَّقُوا اللّٰہَ وَ اِنۡ تَکۡفُرُوۡا فَاِنَّ لِلّٰہِ مَا فِی السَّمٰوٰتِ وَ مَا فِی الۡاَرۡضِ

तर्जुमा :- और अल्लाह का है जो कुछ आस्मान व ज़मीन में है और हमने कह रखा है उन्हें जिनको तुमसे पेशतर किताब दी गई और तुमको भी कि डरते रहो अल्लाह से और अगर मुन्किर होगे तो अल्लाह का है जो कुछ कि आस्मान व ज़मीन में है।

जलाल उद्दीन अपनी तफ़्सीर में लिखता हैالْکِتابَ بِمُعَنْی الْکِتبَ۔ मअनी किताब बमाअनी कुतुब है مِّنۡقَبۡلِکُمۡ اْیِ الۡیَہُوۡدَ وَ النَّصاریٰ माअनी तुमसे पहले के लोग यानी यहूदा और ईसाई।

ख़ुदा से डरने के लिए तौरेत और इंजील और क़ुरआन तीनों पर बिला-फ़र्क हवाला दिया गया मख़्फ़ी (छिपी, छिपा हुआ, पोशीदा, खु़फ़ीया) ना रहे कि यहां यहूदी और ईसाईयों की कुतुब मुक़द्दस के अहकामात बराबर दोश इन अहकामात के साथ लिखे हैं कि जो क़ुरआन में दर्ज हैं।

फ़स्ल 101

(सुरह अल-निसा 4 आयत 136)

یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡۤا اٰمِنُوۡا بِاللّٰہِ وَ رَسُوۡلِہٖ وَ الۡکِتٰبِ الَّذِیۡ نَزَّلَ عَلٰی رَسُوۡلِہٖ وَ الۡکِتٰبِ الَّذِیۡۤ اَنۡزَلَ مِنۡ قَبۡلُ وَ مَنۡ یَّکۡفُرۡ بِاللّٰہِ وَ مَلٰٓئِکَتِہٖ وَ کُتُبِہٖ وَ رُسُلِہٖ وَ الۡیَوۡمِ الۡاٰخِرِ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلٰلًۢا بَعِیۡدًا

तर्जुमा :- ऐ ईमान वालो ईमान लाओ अल्लाह पर और उस के रसूल पर और इस किताब पर जो उसने उतारी अपने रसूल पर और उस किताब पर जो उसने उतारी पहले और जो कोई मुन्किर हुआ अल्लाह से और उस के फ़रिश्तों से और उस की किताबों से और उस के रसूलों से और आख़िर रोज़ से पस बल-तहक़ीक़ वो दूर की गुमराही में पड़ा।

इस में साफ़ ये हुक्म जिसको क़ुरआन के मानने वाले बिल-ज़रूर रब्बानी क़ुबूल करते हैं निकलता है कि जो कोई ईमानदार है ना सिर्फ उसी किताब पर एतिक़ाद रखे जो मुहम्मद साहब लाए बल्कि बिल-ज़रूर उन सब कुतुब रब्बानी पर भी जो इस से पहले नाज़िल हुईं और जो कोई उन कुतुब रब्बानी या उनकी किसी बात पर (क्योंकि बैज़ावी लिखता है :- وَ مَنۡ کَفَرُ بِشَیۡءٍ مِّنۡ ذٰلِکَ) एतिक़ाद ना लाए वो बड़ी भारी गुमराही में फंसा है। इस आयत की तफ़्सीर में बैज़ावी यूं लिखता है ईमान लाओ ख़ुदा पर और उस के रसूल पर और उस किताब पर जो उसने अपने रसूल पर नाज़िल की और उस किताब पर जो उसने पेशतर नाज़िल की थी यानी उन पर अपना ईमान मज़्बूत रखो और हमेशा उन्हीं पर रहो और जिस तरह अपनी ज़बानों से उन पर जमीअ़ ईमान रखते हो इसी तरह अपने दिलों से ईमान रखो या उमूमन जमीअ़ कुतुब रब्बानी व अम्बिया पर ईमान रखो क्योंकि उनमें से सिर्फ बाअज़ पर ईमान रखना गोया कुछ ईमान ना रखना है।

اٰمِنُوۡا بِاللّٰہِ وَ رَسُوۡلِہٖ وَ الۡکِتٰبِ الَّذِیۡ نَزَّلَ عَلٰی رَسُوۡلِہٖ وَ الۡکِتٰبِ الَّذِیۡۤ اَنۡزَلَ مِنۡ قَبۡلُ اثۡبُتُوۡا عَلَی الۡاَیۡمَانْ بِذٰلِکَ وَدُّوۡ مُوۡا عَلَیۡہِ وَاٰمَنُوۡابِہٖ اتَّقُلْوَ بِکُمُ کْمَّا اٰمَنۡتُمۡ بِلِسَانِکَمْ اْوَ اٰمِنُوۡا اَیۡمَانْا عَامًا یَعۡمَ الْکِتٰبَ وْ الرُّسُلُ فَاِنۡ الۡاَیۡمَانْ بِالْبَّعَصْ کُلَا اِیۡمَانْ۔

और इस बात पर कि आयत में ख़िताब किस की तरफ़ है बैज़ावी तफ़्सीर करता है :-

خَطِّابْ الۡمُسۡلِمِیۡنَ اوَ الۡمُنۡافِقِیۡنَ اوَ الۡمُؤۡمِنِیْ اَہۡلِ الْکِتٰبَ اذَرُوۡیْ اَنْ اَبْنَ سۡلَامُ وَ اصَّحِٰبِہْ قَالُوْٰیِاْ رَسُوۡلٌ اللّٰہْ انَانِوْمِنْ بَکْ وَبْکِتّْابَکْ وْبِمُوۡسٰی وَ التَّوْرٰىۃَوَعَزِیۡزٌ وَ نُکَفِّرۡ بَمّاْ سِوْاہْ فِزَّلْتَ اٰمِنُوۡا الخ۔

मअनी यहां मुसलमानों की तरफ़ ख़िताब है या मुनाफ़िक़ों की तरफ़ या ईमानदार अहले अल-किताब की तरफ़ चुनान्चे रिवायत है कि इब्ने सलाम और उस के अस्हाब ने कहा कि ऐ रसूल अल्लाह हम तुझ पर और तेरी किताब पर और मूसा पर और तौरेत पर और उज़ैर ( عزیر) पर ईमान लाते हैं और जो कुछ कि इस के सिवा है उस से इन्कार करते हैं तब ये आयत नाज़िल हुई। اٰمِنُوۡا الخ۔

ग़रज़ चाहे जिस बाइस ये आयत दी गई हो और चाहे जिसकी तरफ़ इस में ख़िताब हो हुक्म उस के दर्मियान ऐसा आम और नातिक़ है कि बस अब इस से ज़्यादा मुम्किन नहीं ये आयत पुकार के कहती है कि अल्लाह तआला कुल कुतुब आस्मानी पर ईमान लाने का हुक्म देता है यानी ना सिर्फ क़ुरआन पर मगर उन सब कुतुब रब्बानी पर भी जो क़ुरआन से पहले नाज़िल हुईं और जिन पर जाबजा क़ुरआन में हमेशा हवाला दिया गया कि यहूदी और ईसाईयों के पास मौजूद थीं यानी यहूदी ईसाईयों की कुतुब रब्बानी से इन्कार ना करे। ईसाई ना सिर्फ तौरेत और इंजील पर बल्कि क़ुरआन पर भी ईमान लाए और इसी तरह मुसलमान भी ना सिर्फ क़ुरआन ही पर ईमान लाए बल्कि यहूदी और ईसाईयों की कुतुब रब्बानी पर ईमान लाए। अगर ना लाएगा तो लिखा है कि वो बड़ी भारी गुमराही में पड़ेगा।

पस अब इस ज़माने के इन मुसलमानों के हक़ में क्या कहना चाहिए जो इन कुतुब रब्बानी से इन्कार करते हैं बेशक क़ुरआन के हुक्म मूजिब वो लोग जो तौरेत और इंजील से ग़ाफ़िल और मुन्किर हैं बड़ी भारी ख़ौफ़नाक गुमराही में पड़ते हैं।

फ़स्ल 102

(सुरह अल-निसा 4 आयत 150-153)

اِنَّ الَّذِیۡنَ یَکۡفُرُوۡنَ بِاللّٰہِ وَ رُسُلِہٖ وَ یُرِیۡدُوۡنَ اَنۡ یُّفَرِّقُوۡا بَیۡنَ اللّٰہِ وَ رُسُلِہٖ وَ یَقُوۡلُوۡنَ نُؤۡمِنُ بِبَعۡضٍ وَّ نَکۡفُرُ بِبَعۡضٍ ۙ وَّ یُرِیۡدُوۡنَ اَنۡ یَّتَّخِذُوۡا بَیۡنَ ذٰلِکَ سَبِیۡلًا اُولٰٓئِکَ ہُمُ الۡکٰفِرُوۡنَ حَقًّا ۚ وَ اَعۡتَدۡنَا لِلۡکٰفِرِیۡنَ عَذَابًا مُّہِیۡنًا وَ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا بِاللّٰہِ وَ رُسُلِہٖ وَ لَمۡ یُفَرِّقُوۡا بَیۡنَ اَحَدٍ مِّنۡہُمۡ اُولٰٓئِکَ سَوۡفَ یُؤۡتِیۡہِمۡ اُجُوۡرَہُمۡ وَ کَانَ اللّٰہُ غَفُوۡرًا رَّحِیۡمًا یَسۡـَٔلُکَ اَہۡلُ الۡکِتٰبِ اَنۡ تُنَزِّلَ عَلَیۡہِمۡ کِتٰبًا مِّنَ السَّمَآءِ فَقَدۡ سَاَلُوۡا مُوۡسٰۤی اَکۡبَرَ مِنۡ ذٰلِکَ الخ

तर्जुमा :- बा-तहक़ीक़ जो लोग मुन्किर हैं अल्लाह से और उस के रसूलों से और चाहते हैं कि अल्लाह और उस के रसूलों में फ़र्क़ डालें और कहते हैं कि हम मानते हैं बाज़ों को और बाज़ों को नहीं मानते और चाहते हैं कि निकालें एक राह उस के बीच में से यही लोग हैं काफ़िर सच-मुच और हमने तैयार कर रखा है मुन्किरों के वास्ते अज़ाब बेइज़्ज़त पर जो लोग कि ईमान लाए अल्लाह और उस के रसूलों पर और ना फ़र्क़ डाला किसी के दर्मियान उनमें से ये वो हैं जिनको अनक़रीब हम देंगे उनके अज्र और है अल्लाह बख़्शने वाला और रहम करने वाला। तुझसे किताब वाले तलब करेंगे कि तू उतारे उन पर एक किताब आस्मान से पस बा-तहक़ीक़ उन्होंने मूसा से इस से भी बढ़कर दरख़्वास्त की अलीख...

इस आयत का मज़्मून आयत साबिक़ से बहुत मिलता है और इस से भी वही बात निकलती है।

अस्ल में ये आयत उन यहूदीयों की तरफ़ ख़िताब करती है। जिन्हों ने इंजील को रद्द किया लेकिन इस की नसीहत तमाम है और मुसलमानों को भी मुतनब्बाह (आगाह किया, तंबीया किया गया, ख़बरदार) आगाह करती है जो मुँह से तो तौरेत और इंजील का इक़रार करते हैं पर वाक़ेअ में उन कुतुब रब्बानी से इन्कार रखते हैं। उन्हें कुतुब रब्बानी से जो यहूदी और ईसाईयों के दर्मियान शुरू इस्लाम के दिन जारी थीं और जिस पर एतिक़ाद रखने के लिए क़ुरआन में वाजिबात से लिखा है।

जो लोग कि क़ुरआन के साथ इन किताबों पर भी एतिक़ाद रखते हैं उनके वास्ते यहां अज्र नेक का वाअदा किया है लेकिन जो मुसलमान कि उनसे इन्कार करते हैं। वो इस आयत की इबारत के बमूजब हक़ीक़त में काफ़िर हैं और ख़ुदा ने काफ़िरों के वास्ते बेइज़्ज़ती का अज़ाब तैयार कर रखा है। اُولٰٓئِکَ ہُمُ الۡکٰفِرُوۡنَ حَقًّا ۚ وَ اَعۡتَدۡنَا لِلۡکٰفِرِیۡنَ عَذَابًا مُّہِیۡنًا۔

फ़स्ल 103

(सुरह अल-निसा 4 आयत 162-164)

لٰکِنِ الرّٰسِخُوۡنَ فِی الۡعِلۡمِ مِنۡہُمۡ وَ الۡمُؤۡمِنُوۡنَ یُؤۡمِنُوۡنَ بِمَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡکَ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ مِنۡ قَبۡلِکَ وَ الۡمُقِیۡمِیۡنَ الصَّلٰوۃَ وَ الۡمُؤۡتُوۡنَ الزَّکٰوۃَ وَ الۡمُؤۡمِنُوۡنَ بِاللّٰہِ وَ الۡیَوۡمِ الۡاٰخِرِ اُولٰٓئِکَ سَنُؤۡتِیۡہِمۡ اَجۡرًا عَظِیۡمًا اِنَّاۤ اَوۡحَیۡنَاۤ اِلَیۡکَ کَمَاۤ اَوۡحَیۡنَاۤ اِلٰی نُوۡحٍ وَّ النَّبِیّٖنَ مِنۡۢ بَعۡدِہٖ ۚ وَ اَوۡحَیۡنَاۤ اِلٰۤی اِبۡرٰہِیۡمَ وَ اِسۡمٰعِیۡلَ وَ اِسۡحٰقَ وَ یَعۡقُوۡبَ وَ الۡاَسۡبَاطِ وَ عِیۡسٰی وَ اَیُّوۡبَ وَ یُوۡنُسَ وَ ہٰرُوۡنَ وَ سُلَیۡمٰنَ ۚ وَ اٰتَیۡنَا دَاوٗدَ زَبُوۡرًا وَ رُسُلًا قَدۡ قَصَصۡنٰہُمۡ عَلَیۡکَ مِنۡ قَبۡلُ وَ رُسُلًا لَّمۡ نَقۡصُصۡہُمۡ عَلَیۡکَ وَ کَلَّمَ اللّٰہُ مُوۡسٰی تَکۡلِیۡمًا

तर्जुमा :- लेकिन उनमें जो साबित क़दम हैं इल्म पर और ईमान वाले हैं, सो मानते हैं जो उतरा तुझ पर और जो उतरा तुझसे पहले और नमाज़ पर क़ायम रहने वालों और ज़कात देने वालों को और अल्लाह पर और रोज़-ए-क़यामत पर यक़ीन रखने वालों को हम देंगे बड़ा सवाब। बा-तहक़ीक़ हमने वही भेजी तुझको जिस तरह वही भेजी थी नूह को और उस के बाद के नबियों को और इब्राहिम और इस्माईल और इज़्हाक़ और याक़ूब और इस्राईली फ़िर्क़ों को और ईसा और अय्यूब और यूनुस और हारून और सुलेमान को और हमने दाऊद को ज़बूर दी और वो रसूल जिनका अहवाल हम ने तुझ को पेशतर से सुना दिया और रसूल जिनका अहवाल तुझको नहीं सुनाया और अल्लाह ने मूसा से बातें कीं बोल कर।

इस आयत में अव्वल (1) ये बात लायक़ लिहाज़ है कि अगरचे उस का ख़िताब अस्ल में यहूदीयों की तरफ़ है लेकिन इबारत इस की मुतलक़ आम है और मुसलमानों की तरफ़ भी बे कम व कासित आइद होता है। पस याद रखना चाहीए कि अज्र अज़ीम का उन्हें लोगों के वास्ते वाअदा किया गया है जो ना सिर्फ क़ुरआन पर एतिक़ाद रखते हैं बल्कि इसी तरह उस पर भी जो क़ुरआन से पहले नाज़िल हुआ। दूसरे (2) ये कि मुहम्मद साहब को भी इसी तौर पर मौरिद वही (वही के ठहरने की जगह) होना लिखा है कि जिस तौर पर अम्बिया-ए-साबिक़ हुए। तीसरे (3) ये कि क़ुरआन कुछ इस बात का दावा नहीं करता कि इस के दर्मियान अम्बिया-ए-साबिक़ का तमाम व कमाल मुफ़स्सिल अहवाल लिखा हो। पस शायद यही बाइस है जो इस मुक़ाम पर और-और मुक़ामों पर भी उनके क़िसस और शुमार बे तईन (इख़्सूस करना, मुक़र्रर करना, तक़र्रुर) लिखे हैं लेकिन इस फ़र्क़ पर ज़रा ग़ौर करना चाहीए कि अम्बिया को तो उमूमन किस तरह बे तादाद व तईन लिख दिया और कुतुब रब्बानी को किस तरह हमेशा इबारत मुशख़्ख़स (तज्वीज़ किया गया) ओर मुईन से बयान किया।

फ़स्ल 104

(सुरह अल-निसा 4 आयत 171)

یٰۤاَہۡلَ الۡکِتٰبِ لَا تَغۡلُوۡا فِیۡ دِیۡنِکُمۡ وَ لَا تَقُوۡلُوۡا عَلَی اللّٰہِ اِلَّا الۡحَقَّ اِنَّمَا الۡمَسِیۡحُ عِیۡسَی ابۡنُ مَرۡیَمَ رَسُوۡلُ اللّٰہِ وَ کَلِمَتُہٗ ۚ اَلۡقٰہَاۤ اِلٰی مَرۡیَمَ وَ رُوۡحٌ مِّنۡہُ ۫ فَاٰمِنُوۡا بِاللّٰہِ وَ رُسُلِہٖ ۚ وَ لَا تَقُوۡلُوۡا ثَلٰثَۃٌ اِنۡتَہُوۡا خَیۡرًا لَّکُمۡ اِنَّمَا اللّٰہُ اِلٰہٌ وَّاحِدٌ سُبۡحٰنَہٗۤ اَنۡ یَّکُوۡنَ لَہٗ وَلَدٌ ۘ لَہٗ مَا فِی السَّمٰوٰتِ وَ مَا فِی الۡاَرۡضِ وَ کَفٰی بِاللّٰہِ وَکِیۡلًا

तर्जुमा :- ऐ किताब वालो ज़्यादती ना करो अपने दीन में और मत कहो अल्लाह के बाब में मगर हक़ मसीह ईसा मर्यम का बेटा और अल्लाह का रसूल है और अल्लाह का कलिमा जिसे मर्यम की तरफ़ डाला और रूह उस के यहां से पस ख़ुदा पर और उस के रसूलों पर ईमान लाओ और मत कहो तीन (यानी तस्लीस) बाज़ रहो बेहतर होगा तुम्हारे वास्ते क्योंकि अल्लाह एक ही ख़ुदा है वो इस से बरतर है कि उस के औलाद हो उसी का है जो कुछ आस्मान व ज़मीन पर है और अल्लाह काफ़ी है हाफ़िज़।

ईसाईयों की बनिस्बत सिर्फ़ ज़्यादती यानी ग़लती अक़ीदे का इल्ज़ाम है क़ुरआन में यहूदीयों की निस्बत जो इल्ज़ाम किया कि یُحَرِّفُوۡنَ الۡکَلِمَ عَنۡ مَّوَاضِعِہٖ لَـیًّۢا بِاَلۡسِنَتِہِمۡ वग़ैरह ऐसा इल्ज़ाम ईसाईयों की बनिस्बत मुतलक़ नहीं है। ये तोहमत उनकी बनिस्बत कहीं मिलती कि कलाम ईलाही के राबत कलाम رابط کلام को बदल कर इसका का मतलब फेर डाला और ना ये तोहमत मिलती है कि कलाम ईलाही की किसी बात को छुपा रखा हाँ इतनी बात का इल्ज़ाम है कि अपने अक़ीदों में कुछ ग़लतीयों को दख़ल दिया। तो भी बावजूद इस इल्ज़ाम ग़लती और ज़्यादती के ग़ौर करना चाहीए कि क़ुरआन की इबारत किस क़द्र ईस्वी अक़ीदे से मिलती है जब कि ईसा मसीह को ख़ुदा का रसूल और उस का कलिमा कहा जिसको ख़ुदा ने मर्यम में डाला और रूह उस के यहां से।

सूरह अल-मायदा में ये आयत है।

وَ اِذۡ قَالَ اللّٰہُ یٰعِیۡسَی ابۡنَ مَرۡیَمَ ءَاَنۡتَ قُلۡتَ لِلنَّاسِ اتَّخِذُوۡنِیۡ وَ اُمِّیَ اِلٰہَیۡنِ مِنۡ دُوۡنِ اللّٰہِ قَالَ سُبۡحٰنَکَ مَا یَکُوۡنُ لِیۡۤ اَنۡ اَقُوۡلَ مَا لَیۡسَ لِیۡ بِحَقٍّ

तर्जुमा : यानी याद कर जब ख़ुदा ने ईसा बिन मर्यम से कहा क्या तूने लोगों से कहा कि मुझको और मेरी माँ को दो ख़ुदा अल्लाह के सिवा मान लें। ईसा ने जवाब दिया तू इस से बरतर है मुझे ताक़त नहीं है कि वो बात कहूं जिसको मैं हक़ नहीं जानता।

पस इस आयत से मालूम होता है कि मुहम्मद साहब ने ये समझा कि ईसाईयों के अक़ीदों में शायद तस्लीस में मर्यम तीसरा अक़नूम यानी माबूद है। यक़ीन है कि ये ख़्याल यूं पैदा हुआ कि उन दिनों में मशरिक़ के ईसाईयों ने वाक़ेअ में मर्यम का एहतिराम बे हद यहां तक किया कि उस की परस्तिश की। सिवा उस के यहूद जिसकी ज़बान से मुहम्मद साहब को ईस्वी मज़्हब की अक्सर ख़बर मिली ख़ुद ईस्वी मज़्हब के हक़ीक़ी अक़ीदों से बे-ख़बर थे। काश कुँवारी मर्यम का सच्चा अहवाल और ईसा इब्ने-अल्लाह का तव्वुलुद रुहानी और अज़ली का अक़ीदा मुहम्मद साहब के आगे हक़ की राह से बयान होता और ये कि अक़ीदा मज़्कूर ला-मुहाला उन्हें तौरेत और इंजील की सीधी सीधी इबारत और मअनी से निकलता है जिस को ख़ुद पैग़म्बर इस्लाम ने मान लिया और जिसकी बराबर तस्दीक़ करते थे अगर ऐसा होता तो क्या मुहम्मद साहब इन अक़ीदों के तस्लीम करने से बाज़ रहते जबकि ख़ुद उन क़ुतुब मुक़द्दस की तस्दीक़ की जिनमें वो ब-सराहत (वज़ाहत से, खुल्लम खुल्ला, साफ़ तौर) पर मुंदरज हैं।

फ़स्ल 105

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 2-4)

اللّٰہُ لَاۤ اِلٰہَ اِلَّا ہُوَ ۙ الۡحَیُّ الۡقَیُّوۡمُ نَزَّلَ عَلَیۡکَ الۡکِتٰبَ بِالۡحَقِّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ وَ اَنۡزَلَ التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ ۙمِنۡ قَبۡلُ ہُدًی لِّلنَّاسِ وَ اَنۡزَلَ الۡفُرۡقَانَ ۬ اِنَّ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا بِاٰیٰتِ اللّٰہِ لَہُمۡ عَذَابٌ شَدِیۡدٌ وَ اللّٰہُ عَزِیۡزٌ ذُو انۡتِقَامٍ

तर्जुमा :- अल्लाह कोई ख़ुदा उस के सिवा नहीं हय्यूल-क़य्यूम उसने उतारी तुझ पर किताब हक़ से तस्दीक़ करने वाली उस को (यानी उस किताब को) जो इस से पहले है और उतारी इस से पहले तौरेत व इंजील लोगों की हिदायत को और उतारा फुर्क़ान। जो लोग कि मुन्किर हुए अल्लाह की आयतों से उनके वास्ते सख़्त अज़ाब है और अल्लाह ज़बरदस्त है बदला लेने वाला।

तौरेत और इंजील ख़ुदा ने लोगों की हिदायत के वास्ते नाज़िल की है ہُدًی لِّلنَّاسِ۔ और फिर इंजील और तौरेत के ज़िक्र के बाद लिखा है कि जिन लोगों ने ख़ुदा की आयात यानी इल्हामी नविश्तों से इन्कार किया उनके वास्ते सख़्त अज़ाब है। पस क्या मुसलमान और क्या यहूद और नसारा सबको ख़बरदार हो जाना चाहीए ऐसा ना हो कि उस अल्लाह के इंतिक़ाम की किसी आयत यानी हुक्म व इल्हामी नविश्तों से इन्कार कर के उस के ग़ज़ब की आग में पड़े।

फ़स्ल 106

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 19)

وَ مَا اخۡتَلَفَ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡکِتٰبَ اِلَّا مِنۡۢ بَعۡدِ مَا جَآءَہُمُالۡعِلۡمُ بَغۡیًۢا بَیۡنَہُمۡ

तर्जुमा :- और जिनको कि हमने किताब दी वो इख़्तिलाफ़ में नहीं पड़े इल्ला बाद आने इल्म के (यानी इल्म ईलाही के) बग़ावत की राह से आपस में। इस मज़्मून की साबिक़ आयतों पर रुजूअ हो।

फ़स्ल 107

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 23-24)

اَلَمۡ تَرَ اِلَی الَّذِیۡنَ اُوۡتُوۡا نَصِیۡبًا مِّنَ الۡکِتٰبِ یُدۡعَوۡنَ اِلٰی کِتٰبِ اللّٰہِ لِیَحۡکُمَ بَیۡنَہُمۡ ثُمَّ یَتَوَلّٰی فَرِیۡقٌ مِّنۡہُمۡ وَ ہُمۡ مُّعۡرِضُوۡنَ ذٰلِکَ بِاَنَّہُمۡ قَالُوۡا لَنۡ تَمَسَّنَا النَّارُ اِلَّاۤ اَیَّامًا مَّعۡدُوۡدٰتٍ ۪ وَ غَرَّہُمۡ فِیۡ دِیۡنِہِمۡ مَّا کَانُوۡا یَفۡتَرُوۡ

तर्जुमा :- क्या तू ने नहीं देखे वो लोग जिनको मिला है एक हिस्सा किताब में से वो बुलाते हैं अल्लाह की किताब की तरफ़ ताकि वो फ़ैसला करे दर्मियान इनके फिर उल्टे फिरे एक फ़रीक़ हट कर के ये इस वास्ते कि वो कहते हैं हमको ना छुएगी आग मगर चंद रोज़ गिनती के और बहकाया इनको इनके दीन में इस चीज़ ने कि जो उन्होंने इफ़्तिरा (बोहतान, झूटा इल्ज़ाम) किया।

मुफ़स्सिरों ने इस आयत के इजरा की सूरतें मुख़्तलिफ़ बयान की हैं पर यहां उनकी तफ़्सील से फ़ायदा नहीं क्योंकि इजरा का सबब जो हो इतनी बात सभों के नज़्दीक मक़्बूल है कि मुहम्मद साहब और यहूदीयों के दर्मियान किसी अम्र में इख़्तिलाफ़ राय पड़ गया था। तब मुहम्मद साहब ने इख़्तिलाफ़ के तसफ़ीए (फ़ैसला) के वास्ते यहूदीयों ही की किताब रब्बानी पर हस्र (मुन्हसिर करना, अहाता करना) किया और कहा कि आओ हम दोनों फ़रीक़ इस किताब-उल्लाह की इबादत पर हवाला करेंगे तब बाअज़ यहूदी उस से नाराज़ हो कर चले गए।

अल-ग़र्ज़ वो किताब जिसे मुहम्मद साहब ने इस मुआमले का सालस (मुंसिफ़) क़रार दिया यहूदीयों की किताब रब्बानी थी यानी वही किताब रब्बानी जो यहूदीयों के दर्मियान उस वक़्त राइज थी और जिस पर मुहम्मद साहब ने चाहा कि तरफ़ैन हवाला करें। इसी यहूदी किताब को क़ुरआन की इबारत में किताब-उल्लाह लिखा है।

अब इन यहूदी किताबों की जो उस वक़्त में उन लोगों के पास मौजूद थीं रब्बानी और शुरू और असली होने की इस से ज़्यादा मज़्बूत और कौन सी शहादत अहले इस्लाम के वास्ते चाहीए।

फ़स्ल 108

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 48-50)

وَ یُعَلِّمُہُ الۡکِتٰبَ وَ الۡحِکۡمَۃَ وَ التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ وَ رَسُوۡلًا اِلٰی بَنِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَ اَنِّیۡ قَدۡ جِئۡتُکُمۡ وَ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیَّ مِنَ التَّوۡرٰىۃِ وَ لِاُحِلَّ لَکُمۡ بَعۡضَ الَّذِیۡ حُرِّمَ عَلَیۡکُمۡ

तर्जुमा :- और ख़ुदा सिखाएगा उस को (यानी ईसा को) किताब और हिक्मत और तौरेत और इंजील और रसूल (होगा) बनी-इस्राईल की तरफ़ और (कहेगा) कि मैं आया हूँ तुम्हारे पास। और तस्दीक़ करता हूँ उसे जो मेरे आगे है तौरेत से और इस वास्ते कि हलाल करूँ मैं तुम्हारे वास्ते बाअज़ चीज़ें जो हराम की गईं तुम पर।

चूँकि इख़्तिसार मंज़ूर है हमने ईसा के उन सब मोअजज़ों का ज़िक्र जो इस आयत में दर्ज है फ़िरोगुज़ाश्त (चशमपोशी, कमी, ख़ता, बेपर्वाई) किया। ईसा का कलाम जिस तरह से कि आयत मज़्कूर बाला में लिखा है साफ़ इस बात को ज़ाहिर करता है कि क़ुरआन के बमूजब ईसा के ज़माने में तौरेत बिला-तहरीफ़ तमाम व कमाल बेऐब व नुक़्स अपनी हालत-ए-असली में मौजूद था। लेकिन अगर सच पूछो तो हमारा इस मुक़ाम पर ये लिखना मह्ज़ फ़ुज़ूल है क्योंकि ख़ुद मुहम्मद साहब क़ुरआन में उन्हीं लफ़्ज़ों से अपने वक़्त के यहूदी और ईस्वी दोनों किताबों की बनिस्बत वही शहादत देते हैं।

फ़स्ल 109

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 65-66)

یٰۤاَہۡلَ الۡکِتٰبِ لِمَ تُحَآجُّوۡنَ فِیۡۤ اِبۡرٰہِیۡمَ وَ مَاۤ اُنۡزِلَتِ التَّوۡرٰىۃُ وَ الۡاِنۡجِیۡلُ اِلَّا مِنۡۢ بَعۡدِہٖ اَفَلَا تَعۡقِلُوۡنَ ہٰۤاَنۡتُمۡ ہٰۤؤُلَآءِ حَاجَجۡتُمۡ فِیۡمَا لَکُمۡ بِہٖ عِلۡمٌ فَلِمَ تُحَآجُّوۡنَ فِیۡمَا لَیۡسَ لَکُمۡ بِہٖ عِلۡمٌ وَ اللّٰہُ یَعۡلَمُ وَ اَنۡتُمۡ لَا تَعۡلَمُوۡنَ

मुफ़स्सिर कहते हैं कि ये आयत यहूदी और ईसाईयों की बनिस्बत है जो दोनों इब्राहिम को अपने अपने मज़्हब पर होने का दावा करते थे मुहम्मद साहब उस को इस क़ौल से बातिल क्या चाहते हैं कि इब्राहिम तौरेत ख़्वाह इंजील दोनों के नाज़िल होने से पेशतर हुआ पस यहूदी और ईसाई ये क्यूँ-कर कह सकते हैं कि वो इन दोनों में से किस किताब का मज़्हब मानता था उनके पास क्या दलीलें थीं जिससे मालूम हो सकता कि इब्राहिम का मज़्हब यहूदी था या ईसाई?

इस क़ौल की सेहत और मज़बूती की यहां कुछ गुफ़्तगु नहीं है इस आयत को इस मुक़ाम पर सिर्फ उसी सबब से इक़्तिबास किया कि तौरेत व इंजील का उस के दर्मियान ज़िक्र है।

मुराद इल्म से जिसका यहूदी और ईसाईयों में होना लिखा है और जिसकी बाअज़ बातों की बनिस्बत उनमें तकरार थी उनकी कुतुब रब्बानी का इल्म मालूम होता है।

फ़स्ल 110

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 69-73)

وَدَّتۡ طَّآئِفَۃٌ مِّنۡ اَہۡلِ الۡکِتٰبِ لَوۡ یُضِلُّوۡنَکُمۡ وَ مَا یُضِلُّوۡنَ اِلَّاۤ اَنۡفُسَہُمۡ وَ مَا یَشۡعُرُوۡنَ یٰۤاَہۡلَ الۡکِتٰبِ لِمَ تَکۡفُرُوۡنَ بِاٰیٰتِ اللّٰہِ وَ اَنۡتُمۡ تَشۡہَدُوۡنَ یٰۤاَہۡلَ الۡکِتٰبِ لِمَ تَلۡبِسُوۡنَ الۡحَقَّ بِالۡبَاطِلِ وَ تَکۡتُمُوۡنَ الۡحَقَّ وَ اَنۡتُمۡ تَعۡلَمُوۡنَ وَ قَالَتۡ طَّآئِفَۃٌ مِّنۡ اَہۡلِ الۡکِتٰبِ اٰمِنُوۡا بِالَّذِیۡۤ اُنۡزِلَ عَلَی الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا وَجۡہَ النَّہَارِ وَ اکۡفُرُوۡۤا اٰخِرَہٗ لَعَلَّہُمۡ یَرۡجِعُوۡنَ وَ لَا تُؤۡمِنُوۡۤا اِلَّا لِمَنۡ تَبِعَ دِیۡنَکُمۡ قُلۡ اِنَّ الۡہُدٰی ہُدَی اللّٰہِ ۙ اَنۡ یُّؤۡتٰۤی اَحَدٌ مِّثۡلَ مَاۤ اُوۡتِیۡتُمۡ اَوۡ یُحَآجُّوۡکُمۡ عِنۡدَ ربّکُمۡ قُلۡ اِنَّ الۡفَضۡلَ بِیَدِ اللّٰہِ ۚ یُؤۡتِیۡہِ مَنۡ یَّشَآءُ وَ اللّٰہُ وَاسِعٌ عَلِیۡمٌ

तर्जुमा :- किताब वालों में से एक जमाअत (के लोग) चाहते हैं कि तुम्हें गुमराह करें और गुमराह नहीं करते किसी को मगर अपने तईं और ख़बर नहीं रखते। ऐ किताब वालो क्यों मुन्किर होते हो अल्लाह की आयतों से हालाँकि तुम शहादत देते हो, किताब वालो क्यों हक़ को बातिल से लिबास (मिलावट) करते हो और हक़ को छुपाते हो जान-बूझ कर और किताब वालों में से एक जमाअत (के लोग) कहते हैं कि ईमान लाओ उस पर जो ईमान वालों पर (यानी मुसलमानों पर) उतरा दिन के शुरू में और मुन्किर हो जाओ रोज़ के अख़ीर में शायद वो फिर जाएं और यक़ीन ना करो, मगर उसी का जो चले तुम्हारे दीन पर। तू कह हिदायत है वही जो अल्लाह की हिदायत है ताकि एक को दिया जाये मिस्ल उस के जो तुमको दिया गया या क्या हुज्जत करेंगे तुमसे तुम्हारे रब के आगे तू कह फ़ज़्ल है अल्लाह के हाथ में वो देता है जिसको चाहता है और अल्लाह गुंजाइश वाला है, (अपनी महरबानी में और) दाना।

इस आयत का ख़िताब उन यहूदयान मदीना की तरफ़ है जो मुहम्मद साहब से मुख़ालिफ़त रखते थे इस में सबकी राय मुत्तफ़िक़ है। इस आयत में पहले उन झूटे अक़ीदों की तक़्ज़ीब है जिन्हें यहूदीयों ने मुहम्मद साहब और उनके पैरौओं के दिलपर नक़्श करना चाहा था यहूदीयों को अपने तरीक़ का तास्सुब था सो उनका ये क़ायदा बंध गया था कि जो हमारे मज़्हब को मानते हैं हम उन्हीं को बावर करेंगे और किसी को नहीं फिर ये भी लिखा है कि उन्होंने सिर्फ अपने ही नफ़्सों को बे-ख़बर रह कर गुमराह किया। यानी अपने झूटे अक़ीदों से पस किस बात की यहां मलामत है मह्ज़ तौरेत की ग़लतफ़हमी की यानी ये कि उन्होंने अपनी कुतुब रब्बानी के मअनी ख़िलाफ़ बताए और इस का मतलब हक़ है फेरा मुहम्मद साहब ने कहा कि तुम लोगों की किताब में हक़ की शहादत है सो आयात अल्लाह से किस वास्ते इन्कार करते हो यानी उस शहादत को जो तुम्हारी कुतुब रब्बानी में मौजूद है बावजूद ये कि तुम इन किताबों की गवाही देते हो क्यों नहीं मानते?

हक़ छिपाने के इल्ज़ाम पर (85) फ़स्ल में (सूरह बक़रह की आयत 161) के बयान पर रुजू करना चाहीए और इब्ने इस्हाक़ की इबारत पर जो फ़स्ल मज़्कूर में इक़्तिबास की गई है वो लिबास दरोग़ जिससे हक़ को मलबूस करने का इस मुक़ाम पर यहूदीयों को इल्ज़ाम दिया है यही उनका अपनी कुतुब रब्बानी का ग़लत मअनी लगाना था। कुतुब रब्बानी ख़ुद सही और दुरुस्त थीं लेकिन उन्होंने ग़लती की राह से या जान-बूझ कर इस के मअनी उल्टे लगाए।

इस इत्तिहाम (तोहमत, इल्ज़ाम) की, के सुबह के वक़्त तो यहूद मुहम्मद साहब की नबुव्वत पर ईमान लाते थे और शाम के वक़्त इस से फिर इन्कार कर जाते थे इब्ने इस्हाक़ इस तौर पर शरह करता हैं।

تلنسہم الحق بالباطل و قال عبداللہ بن ضیف و غدی بن زید و الحارث بن عوف بعضہم لبعض تعالوٰ نومن بما انرل علٰی محمد و صحبہ غدوۃ و نکفربہ عشیہ حتی نلبس علیہم دینہم لعھلم یصنعوں لمانضع فرجعون عن دینہم فانزل اللہ عن و جل فیہم یٰاہل الکتب لم تلبسون الحق بالباطل و تکتمون الحق و انتم تعلون الایہ۔

मअनी यहूदीयों ने हक़ को बातिल से मलबूस किया, शरह उस की ये है कि अब्दुल्लाह इब्ने ज़इफ़ और अदी इब्ने ज़ैद और हारिस इब्ने औफ़ इन तीन शख्सों ने आपस में मश्वरा किया कि आओ मुहम्मद साहब और उनके अस्हाब पर जो कुछ नाज़िल हुआ है इस पर सुबह को तो ईमान लाएं और शाम को फिर इस से इन्कार कर जाएं यहां तक कि उन्हीं के दीन को उन पर मलबूस यानी मुश्तबा करें शायद वो ऐसा ही करने लगे जैसा हम लोग करते हैं और अपने दीन से फिर जाएं तब अल्लाह अज़्ज़ वजल (ख़ुदा की सिफ़त के तौर पर इस्तिमाल होता है) ने उनकी बनिस्बत ये आयत नाज़िल की कि ऐ अहले-किताब हक़ को झूठ से किस लिए मलबूस करते हो और हक़ को किस लिए छुपाते हो दरहाल ये कि तुम जानते हो।

उनकी इन नाशाइस्ता हरकात और क़ुरआन पर शुब्हा डालने के हीले की इस्तिर्दाद (रद्द करना, वापिस लेना, वापसी चाहना) में मुहम्मद साहब ने कहा कि ख़ुदा का फ़ज़्ल व बरकत जैसा कि यहूदी लोग दावा करते थे यहूदी क़ौम पर मौक़ूफ़ ना थी और ना इल्हाम की नेअमत उन पर मख़्सूस है बल्कि आम है। ख़ुसूसीयत किसी शख़्स व क़ौम की हरगिज़ नहीं पस ख़ुदा की मर्ज़ी यूं थी कि उसने अपने बंदों की हिदायत के लिए एक को (यानी मुहम्मद साहब को) वैसी ही (किताब आस्मानी) दी जैसी उन लोगों को दी थी यानी मिस्ल यहूदीयों की कुतुब रब्बानी के।

पस ये आयत यहूदीयों की कुतुब रब्बानी पर किसी तरह की तोहमत नहीं लगाती बल्कि इस के बरअक्स बहुत अदब और एहतिराम के साथ साफ़ उनके रब्बानी और शुरू होने का ज़िक्र करती है और ख़ुद क़ुरआन के वास्ते यही दावा करती कि वो उन्हीं की मानिंद है। مِّثۡلَ مَاۤ اُوۡتِیۡتُمۡ पस जब यहूदी मुक़द्दस किताब मिस्ल क़ुरआन के है तो मुसलमान लोग उस की तहरीम व तकरिम ख़ुसूसुन जैसा कि मुहम्मद साहब करते थे क्यों नहीं करते और किस वास्ते अपने पैग़म्बर के क़दम पर क़दम रखते?

फ़स्ल 111

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 78)

وَ اِنَّ مِنۡہُمۡ لَفَرِیۡقًا یَّلۡوٗنَ اَلۡسِنَتَہُمۡ بِالۡکِتٰبِ لِتَحۡسَبُوۡہُ مِنَ الۡکِتٰبِ وَ مَا ہُوَ مِنَ الۡکِتٰبِ ۚ وَ یَقُوۡلُوۡنَ ہُوَ مِنۡ عِنۡدِ اللّٰہِ وَ مَا ہُوَ مِنۡ عِنۡدِ اللّٰہِ ۚ وَ یَقُوۡلُوۡنَ عَلَی اللّٰہِ الۡکَذِبَ وَ ہُمۡ یَعۡلَمُوۡنَ

तर्जुमा :- और उनमें एक फ़रीक़ है कि ज़बान मरोड़ कर पढ़ते हैं किताब को ताकि तुम जानो वो किताब में से है हालाँकि वो किताब में से नहीं है और कहते हैं कि ये अल्लाह के पास से है हालाँकि वो ख़ुदा के पास से नहीं है और ख़ुदा पर झूट जोड़ते हैं और वो जानते हैं।

यहां यहूदयान-ए-मदीना को धोका देने की मलामत है इस तरह से कि उन्होंने कुछ अपने मतलब के वास्ते पढ़ा फिर मुहम्मद साहब ख़्वाहाँ के पैरौओं से कहा कि ये ख़ुदा की बातें हैं, हालाँकि फ़िल-वाक़ेअ़ वो तौरेत में से ना थीं और इस मुग़ालिते देही के लिए उन्होंने अपनी ज़बानें मरोड़ कर उलट दी थीं। यानी हीलाबाज़ी ख़्वाह इबारत ज़ो-मअनी के बोलने से। (96) फ़स्ल में सूरह अल-निसा की छयालीसवीं 46 आयत) के दर्मियान भी यही इबारत है لَـیًّۢا بِاَلۡسِنَتِہِمۡ इस मुक़ाम के बयान पर रुजूअ चाहे। पस इस आयत के बमूजब यहूदी मुख़ालिफ़ों ने या तो अपने जी से बात बना कर दग़ाबाज़ी की आवाज़ से इसी ख़ुदा के कलाम की मानिंद पेश किया ख़्वाह अपने किसी मुफ़स्सिर की तफ़्सीर या किसी आलिम की रिवायत कलाम इलाही के साथ पढ़ते थे ताकि मुहम्मद साहब वगैरह तफ़्सीर या रिवायत को भी कलाम इलाही समझें। ख़ैर जो कुछ माजरा हो ख़्वाहाँ यहूदीयों ने रिवायतें या शरहें या अपने रब्बानियों के नविश्ते या और कुछ इस तरह पर पढ़ कर कि जिसमें वो कुतुब रब्बानी मालूम हुईं फ़िल-हक़ीक़त मकरो फ़रेब किया हो ख़्वाह इस बात से मुबर्रा हों पर बहर-ए-हाल ख़ुद कुतुब रब्बानी में किसी तरह की तहरीफ़ व तसहीफ़ करने का आयत मज़्कूर बाला से हरगिज़ कुछ इशारा नहीं निकलता।

बल्कि बरअक्स इस के इस आयत में इशारा है कि ऐसे जुर्म के इर्तिकाब की जुर्आत ना थी कि अपनी पाक किताबों में दस्त अंदाज़ी करें अलबत्ता दग़ाबाज़ी की राह से अपनी ही बातें ऐसी पढ़ते थे कि मुहम्मद साहब समझें कि वो तौरेत की आयतें हैं या ये हीला किया कि मुहम्मद साहब जानें कि वो तौरेत ही से पढ़ते हैं और इस तरह से अपनी ज़बानों को उलट के यानी फ़रेब से गुफ़्तगु करके मुसलमानों को इस बात का धोका देना चाहते थे कि वो कलाम-उल्लाह हैं ये तो उन्होंने किया होगा पर ये एक दूसरी बात है और ख़ुद कलाम इलाही के नुस्ख़ों में ज़रर डालना दूसरी बात इन दोनों में आस्मान और ज़मीन का फ़र्क़ है।

ग़रज़ और सब बातों में यहूदीयों ने चाहे जैसी ग़फ़लत और नादानी की हो लेकिन अपनी कुतुब रब्बानी का मतन हर्फ़ ब हर्फ़ दुरुस्त रखने में वो हर वक़्त और हर ज़माना निहायत मुहतरिज़ और ख़बरदारर है बल्कि मशहूर है। पस आयत मज़्कूर-ए-बाला इन यहूदीयों की इस आदत से बिल्कुल मुताबिक़ है।

फ़स्ल 112

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 79)

مَا کَانَ لِبَشَرٍ اَنۡ یُّؤۡتِیَہُ اللّٰہُ الۡکِتٰبَ وَ الۡحُکۡمَ وَ النُّبُوَّۃَ ثُمَّ یَقُوۡلَ لِلنَّاسِ کُوۡنُوۡا عِبَادًا لِّیۡ مِنۡ دُوۡنِ اللّٰہِ وَ لٰکِنۡ کُوۡنُوۡا ربّٰنِیّٖنَ بِمَا کُنۡتُمۡ تُعَلِّمُوۡنَ الۡکِتٰبَ وَ بِمَا کُنۡتُمۡ تَدۡرُسُوۡنَ

तर्जुमा :- आदमजा़द को मुनासिब नहीं कि ख़ुदा इस को किताब और हुक्म और नबुव्वत दे और फिर वो लोगों से कहे कि ख़ुदा के सिवा तुम मेरी इबादत करो लेकिन हो जाओ तुम कामिल इस सबब से कि तुम किताब का इल्म रखते हो और इस सबब से कि तुम उसे मुतालआ करते हो।

चाहे जिस बात पर ये आयत दी गई हो ख़्वाह यहूदीयों से ताल्लुक़ रखती हो ख़्वाह ईसाईयों से माअनी इस से साफ़ निकलते हैं कि वो लोग अपनी रब्बानी किताबें पढ़ते थे और उनके पढ़ने की बरकत से रब्बानी यानी कामिल हो सकते थे पस क़ुरआन की तज्वीज़ से तौरेत या इंजील की तिलावत के ज़रीये से कोई मुबतदी (इब्तिदा करने वाला) कमाल ईमान तक पहुंच सकता है ये एक बड़ी शहादत है और सिर्फ ऐसी किताबों के हक़ में दुरुस्त है जो रब्बानी हों और बे नुक़्स व ऐब हों पस तौरेत और इंजील के नुस्खे़ जो शुरू इस्लाम के वक़्त यहूद और ईसाईयों के हाथ में थे सही और बे-ख़लल थे अला हज़ा-उल-क़यास बैज़ावी लिखता है :-

والربَّانی ہوا لکا مل فی العلم والعمل بما کنتم تعلمون الکتاب وبما کنتم تدر سون بسبب کو نکم معلمین الکتاب و بسبب کو نکم دار سین لہ فان فائدۃ التعلیم و العلم معرفۃ الحق و الخیر الاعتقاد و العمل۔

मअनी और रब्बानी वो कि जो कामिल हो इल्म व अमल में इस सबब से कि तुम जानते हो इस किताब को और इस सबब से कि तुमने पढ़ा है यानी इस बाइस से कि तुम इस किताब के सिखाए हुए हो और इस बाइस से कि तुमने उसे पढ़ा क्योंकि बेशक फ़ायदा ताअलीम और इल्म का मार्फ़त हक़ और ख़ैर है वास्ते एतिक़ाद और अमल के।

फ़स्ल 113

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 81)

وَ اِذۡ اَخَذَ اللّٰہُ مِیۡثَاقَ النَّبِیّٖنَ لَمَاۤ اٰتَیۡتُکُمۡ مِّنۡ کِتٰبٍ وَّ حِکۡمَۃٍ ثُمَّ جَآءَکُمۡ رَسُوۡلٌ مُّصَدِّقٌ لِّمَا مَعَکُمۡ لَتُؤۡمِنُنَّ بِہٖ وَ لَتَنۡصُرُنَّہٗ

तर्जुमा :- और (याद करो) जब ख़ुदा ने नबियों से इक़रार लिया कि जो कुछ मैंने तुमको किताब और हिक्मत दी है फिर उस के बाद आएगा रसूल तस्दीक़ करने वाला उस चीज़ का (यानी उन इल्हामी नविश्तों का) जो तुम्हारे पास हैं तो तुम हर आईना ईमान लाओगे उस पर और मदद करोगे उस की।

इस आयत का ये इज़्हार है कि ख़ुदा ने अम्बिया-ए-साबेक़ीन को यानी उनके ताबईन को हुक्म दिया था कि जब मुहम्मद साहब का ज़हूर हो तो वो मुहम्मद साहब पर ईमान लाएं और उनकी मदद करें। पस अब देखना चाहीए कि इस पेश ख़बरी के हुक्म में मुहम्मद साहब की किस तौर पर तारीफ़ की है, इस की कैफ़ीयत यही है कि होगा तस्दीक़ करने वाला किताब का जो उनके पास है। ग़रज़ कि बड़ा निशान इन अम्बियाए-ए-साबेक़ीन को यानी उनकी उम्मत यहूदी और ईसाईयों को रसूल आइंदा की पहचान का यही दिया गया था कि वो उन रब्बानी नविश्तों की तस्दीक़ करेगा जो उनके पास थे जो उस वक़्त उनके पास मौजूद थे।

चुनान्चे जलाल उद्दीन लिखता है :-

مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَکُم مِنۡ الۡکِتٰبَ وَ الۡحِکۡمَۃَ وَہُوْ الْمُحَمَّدٌ

मअनी तस्दीक़ करता हुआ उस की जो तुम्हारे पास है किताब व हिक्मत से और मुहम्मद है।

फ़स्ल 114

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 84)

قُلۡ اٰمَنَّا بِاللّٰہِ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ عَلَیۡنَا وَ مَاۤ اُنۡزِلَ عَلٰۤی اِبۡرٰہِیۡمَ وَ اِسۡمٰعِیۡلَ وَ اِسۡحٰقَ وَ یَعۡقُوۡبَ وَ الۡاَسۡبَاطِ وَ مَاۤ اُوۡتِیَ مُوۡسٰی وَ عِیۡسٰی وَ النَّبِیُّوۡنَ مِنۡ ربّہِمۡ ۪ لَا نُفَرِّقُ بَیۡنَ اَحَدٍ مِّنۡہُمۡ ۫ وَ نَحۡنُ لَہٗ مُسۡلِمُوۡنَ

इस आयत में क़रीब हर्फ़ बहर्फ़ वही अल्फ़ाज़ हैं जो (81) फ़स्ल के दर्मियान (सुरह बक़र की 136 आयत ) में दर्ज थे सो उस पर रुजूअ हो।

फ़स्ल 115

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 93-94)

کُلُّ الطَّعَامِ کَانَ حِلًّا لِّبَنِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَ اِلَّا مَا حَرَّمَ اِسۡرَآءِیۡلُ عَلٰی نَفۡسِہٖ مِنۡ قَبۡلِ اَنۡ تُنَزَّلَ التَّوۡرٰىۃُ قُلۡ فَاۡتُوۡا بِالتَّوۡرٰىۃِ فَاتۡلُوۡہَاۤ اِنۡ کُنۡتُمۡ صٰدِقِیۡنَ فَمَنِ افۡتَرٰی عَلَی اللّٰہِ الۡکَذِبَ مِنۡۢ بَعۡدِ ذٰلِکَ فَاُولٰٓئِکَ ہُمُ الظّٰلِمُوۡنَ

तर्जुमा :- सब खाने की चीज़ें हलाल थीं बनी-इस्राईल को मगर वो जो इस्राईल ने अपने नफ़्स पर तौरेत नाज़िल होने से पहले हराम कर ली थी तू कह लाओ तौरेत और पढ़ो अगर सच्चे हो फिर इस के बाद जो कोई ख़ुदा पर झूट बाँधे तो वो हैं ज़ालिम।

यहूदयान-ए मदीना से दरबाब खाने ना खाने बाअज़ क़िस्म गोश्त के जो उनकी शरअ़ में ममनूअ़ था। मुफ़स्सिरीन कहते हैं कि शतुर ( شتر) के गोश्त हलाल होने में यहूदीयों ने तकरार की तो मुहम्मद साहब ने अपने इस क़ौल की तक़वियत में कि ऊंट का गोश्त हलाल है। यूं मुबाहिसा किया कि बाअज़ अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) का गोश्त तौरेत में तो मना था पर तौरेत से पेशतर कुछ मुमानिअत ना थी। क़ब्ल उस के कि मूसा ने शरअ़ दी कभी किसी गोश्त के खाने का इमत्तीना ना था। बजुज़ उस के जो याक़ूब ने अपने दिल से अपने ऊपर हराम ठहरा लिया था और जिसको इस सबब से ईस्राईलीयों ने खाना मतरूक (तर्क किया गया, छोड़ा हुआ) किया। चुनान्चे इस का अहवाल पैदाइश की किताब के बत्तीसवें बाब की बत्तीसवीं आयत (पैदाइश 32:32) में मर्क़ूम है। पस मुहम्मद साहब कहते हैं कि इब्राहिम के वक़्त में गोश्त हराम नहीं था और मज़्हब इब्राहीमी यानी मज़्हब हनफ़ी में जिसका मैं मुक़तदी (पैरवी करने वाला, पैरौ हूँ) गोश्त की मुमानिअत नहीं है बाद अज़ीं अपनी दलील साबित करने को वो मज़्मून आयत का लिखा है जिसमें ख़ुदा मुहम्मद साहब को यहूदीयों से ये बात कहने के लिए हुक्म देता है कि अगर तुम सच्चे हो तो यहां लाओ तौरेत और इस को पढ़ो ताकि साबित हो जाये कि मैं इस बात में हक़ कहता हूँ या ख़िलाफ़ उस के। पस यहां तौरेत के नुस्ख़ों पर साफ़ हवाला किया गया है आम यहूदीयों के दर्मियान मुस्तअमल थे और तौरेत पर इस तरह हवाला किया कि वो हुक्म-ए-नातिक़ करेगा और मुबाहिसे का तस्फ़ीया क़तई हो जाएगा क्योंकि लिखता है कि जो कोई इस के बाद झूट बाँधेगा पस वही ज़ालिम ठहरेगा।

अल-ग़र्ज़ ये इसी तौरेत पर रफ़अ़ तकरार के वास्ते इस जगह हवाला दिया गया जो यहूदयान मदीना के हाथ में थी और सब यहूदीयों के हाथ में जो अरबिस्तान के अतराफ़ और जानिब में थे। चुनान्चे सभों के पास एक ही तौरेत मुस्तअमल थी और होती चली आती है ये वही तौरेत है जिस पर मुहम्मद साहब ने मुबाहिसे के रफ़अ़ के वास्ते हस्र किया और इस को ऐसा गवाह क़तई पेश कर दिया कि जिस का किसी तरह से शुब्हा नहीं हो सकता।

फ़स्ल 116

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 98-99)

قُلۡ یٰۤاَہۡلَ الۡکِتٰبِ لِمَ تَکۡفُرُوۡنَ بِاٰیٰتِ اللّٰہِ وَ اللّٰہُ شَہِیۡدٌ عَلٰی مَا تَعۡمَلُوۡنَ قُلۡ یٰۤاَہۡلَ الۡکِتٰبِ لِمَ تَصُدُّوۡنَ عَنۡ سَبِیۡلِ اللّٰہِ مَنۡ اٰمَنَ تَبۡغُوۡنَہَا عِوَجًا وَّ اَنۡتُمۡ شُہَدَآءُ

तर्जुमा :- तू कह ऐ अहले-किताब तुम क्यों मुन्किर होते हो अल्लाह की आयात से और अल्लाह उस का गवाह है जो तुम करते हो तू कह ऐ अहले-किताब क्यों रोकते हो ख़ुदा की राह से ईमान वाले को कि तुम चाहते हो उसे टेड़ा करना हालाँकि तुम गवाह हो।

जलाल उद्दीन लिखता है :-

وَ اَنۡتُمۡ شُہَدَآءَ عٰلِمُوۡنَ بِاَنَّ الَّذِیۡنَ الۡمَرۡضٰی الۡقِیٰمَ دِیۡن الۡاِسۡلَامِ کۡمَانِیْ کِتْابِّکُمۡ

मअनी दरहाल ये कि तुम शाहिद (गवाह) हो यानी जानते हो कि ख़ुदा का पसंदीदा मज़्हब रास्त मज़्हब है (यानी दीन इस्लाम) जैसा कि तुम्हारी किताब में है।

एक तरह पर इस आयत से भी इशारा इन पाक नविश्तों की तरफ़ निकलता है जो हुक्म शरअ़ रखते थे और यहूदीयों के पास मौजूद थे।

फ़स्ल 117

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 113-114)

لَیۡسُوۡا سَوَآءً مِنۡ اَہۡلِ الۡکِتٰبِ اُمَّۃٌ قَآئِمَۃٌ یَّتۡلُوۡنَ اٰیٰتِ اللّٰہِ اٰنَآءَ الَّیۡلِ وَ ہُمۡ یَسۡجُدُوۡنَ یُؤۡمِنُوۡنَ بِاللّٰہِ وَ الۡیَوۡمِ الۡاٰخِرِ وَ یَاۡمُرُوۡنَ بِالۡمَعۡرُوۡفِ وَ یَنۡہَوۡنَ عَنِ الۡمُنۡکَرِ وَ یُسَارِعُوۡنَ فِی الۡخَیۡرٰتِ وَ اُولٰٓئِکَ مِنَ الصّٰلِحِیۡنَ

तर्जुमा :- वो सब बराबर नहीं हैं किताब वालों में से एक फ़िर्क़ा सीधा है पढ़ते हैं ख़ुदा की आयतों को रात के वक़्त और झुकते हैं सज्दे में यक़ीन लाते हैं अल्लाह पर और रोज़-ए-क़यामत पर और हुक्म करते हैं पसंद बात का और मना करते हैं ना पसंद को और दौड़ते हैं नेक कामों में और वो लोग सालिह हैं।

ये मज़्मून इस मुक़ाम के बाद है जिसमें यहूदीयों को अपने रसूलों की क़त्ल व सरकशी वग़ैरह की सख़्त मलामत है और इस के मज़्मून से ये पाया जाता है कि मुहम्मद साहब के वक़्त में भी ऐसे नेक और सादिक़ और दियानतदार यहूदी थे जो अपनी कुतुब रब्बानी बराबर पढ़ा करते थे और अल्लाह की इबादत में सज्दा और दुआ करते थे।

पस चाहे उन यहूदीयों ने दीन इस्लाम क़ुबूल किया चाहे ना किया ये हरगिज़ मुम्किन नहीं कि उन्हीं लोगों में किसी ने यहूदी कुतुब रब्बानी में कुछ ख़लल या किसी तरह की दस्त अंदाज़ी (माअनवी और लफ्ज़ी तहरीफ़) की हो या ख़ामोश रह कर दूसरों को करने दी हो क्योंकि तौरेत का तिलावत करना बाअज़ मुक़ाम पर ताकीद से उन पर वाजिब ठहराया गया है और इस में मुहम्मद साहब ने दावा किया कि हमारी नबुव्वत की बहुतेरी दलीलें हैं।

फ़स्ल 118

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 119)

ہٰۤاَنۡتُمۡ اُولَآءِ تُحِبُّوۡنَہُمۡ وَ لَا یُحِبُّوۡنَکُمۡ وَ تُؤۡمِنُوۡنَ بِالۡکِتٰبِ کُلِّہٖ الخ

तर्जुमा :- देखो तुम वो लोग हो जो इनको (यानी यहूदीयों) को प्यार करते हो पर वो तुमको प्यार नहीं करते और तुम सारी किताब मानते हो।

जलाल उद्दीन तफ़्सीर करता है :-

بِالۡکِتٰبِ کُلِّہٖ اَیْ بِالۡکِتٰبِ کُلِّہْاَ

मअनी सारी किताब यानी तमाम किताबें (यानी जुम्ला रब्बानी किताबें)

और बैज़ावी तफ़्सीर करता है :-

بَجِنْسَ الْکِتٰبَ کُلِّہ وَ الْمِعّنَیْ انَبِہُمْ لْاَ یِحَبُوْ نِکَمْ وَ الْحَالَ اَنْکِمْ تُؤۡمِنُوۡنَ بَکِتّبَہُمْ

मअनी जिन्स किताब (यानी) कुल किताबें और मअनी उस के ये हैं कि वो लोग (यानी यहूदी) तुमसे मुहब्बत नहीं रखते हालाँकि तुम उनकी किताब पर एतिक़ाद रखते हो।

पस मुहम्मद साहब और सब मुसलमान इस्लाम के शुरू में उन सब नविश्तों पर जो तौरेत में मुश्तमिल थे ईमान लाए जो किताबें मूसा की और ज़बूर और नबियों वग़ैरह की यहूदी लोग रब्बानी जानते थे। सो मुहम्मद साहब भी उन्हें इसी नहज (तौर, तरीक़ा, ढंग) पर रब्बानी जानते थे। उनके नुस्ख़ों में कोई किसी तरह का शक ना था जो किताबें हम-अस्र यहूदीयों के हाथ में मौजूद थीं और जिनको वो अपने इबादत ख़ानों वग़ैरह में हमेशा पढ़ा करते थे। उनको मुहम्मद साहब ने तस्लीम किया क्योंकि यहां मुक़ाम इस्ताजात (ताज्जुब, हैरानी, हैरत) लिखा है कि वो लोग तुमको नहीं चाहते हालाँकि तुम उनकी किताबों को मानते हो।

फ़स्ल 119

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 183-184)

اَلَّذِیۡنَ قَالُوۡۤا اِنَّ اللّٰہَ عَہِدَ اِلَیۡنَاۤ اَلَّا نُؤۡمِنَ لِرَسُوۡلٍ حَتّٰی یَاۡتِیَنَا بِقُرۡبَانٍ تَاۡکُلُہُ النَّارُ قُلۡ قَدۡ جَآءَکُمۡ رُسُلٌ مِّنۡ قَبۡلِیۡ بِالۡبَیِّنٰتِ وَ بِالَّذِیۡ قُلۡتُمۡ فَلِمَ قَتَلۡتُمُوۡہُمۡ اِنۡ کُنۡتُمۡ صٰدِقِیۡنَ فَاِنۡ کَذَّبُوۡکَ فَقَدۡ کُذِّبَ رُسُلٌ مِّنۡ قَبۡلِکَ جَآءُوۡ بِالۡبَیِّنٰتِ وَ الزُّبُرِ وَ الۡکِتٰبِ الۡمُنِیۡرِ

तर्जुमा :- वो जो कहते हैं कि ख़ुदा ने हमारे साथ अह्द किया है कि हम ईमान ना लाएं किसी रसूल पर जब तक वो ना लाए हमारे पास क़ुर्बानी जिसको खा जाये आग तो कह बा-तहक़ीक़ तुम्हारे पास आ चुके कितने रसूल मुझसे पहले साफ़ निशानीयां लेकर और उसे भी जो तुमने कहा पस उनको तुमने क्यों मार डाला अगर तुम सच्चे हो और अगर वो तुझको झुटलाएँ तो बल-तहक़ीक़ तुझसे पेशतर झुटलाए गए कितने रसूल जो लाए थे साफ़ निशानीयां और नविश्ते और किताब रोशन करने वाली।

ये कुतुब रब्बानी जिनकी इस क़द्र तारीफ़ लिखी है वही यहूदी और ईसाई किताब रब्बानी हैं जिनको बाइबल कहते हैं।

चुनान्चे जलाल उद्दीन लिखता है :-

الۡمُنِیۡرِ الْوَاضِحْ ہُوْ التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ मअनी वाज़ेह कि वह तौरेत व इंजील है।

फ़स्ल 120

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 187-188)

وَ اِذۡ اَخَذَ اللّٰہُ مِیۡثَاقَ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡکِتٰبَ لَتُبَیِّنُنَّہٗ لِلنَّاسِ وَ لَا تَکۡتُمُوۡنَہٗ ۫ فَنَبَذُوۡہُ وَرَآءَ ظُہُوۡرِہِمۡ وَ اشۡتَرَوۡا بِہٖ ثَمَنًا قَلِیۡلًا فَبِئۡسَ مَا یَشۡتَرُوۡنَ لَا تَحۡسَبَنَّ الَّذِیۡنَ یَفۡرَحُوۡنَ بِمَاۤ اَتَوۡا وَّ یُحِبُّوۡنَ اَنۡ یُّحۡمَدُوۡا بِمَا لَمۡ یَفۡعَلُوۡا فَلَا تَحۡسَبَنَّہُمۡ بِمَفَازَۃٍ مِّنَ الۡعَذَابِ ۚ وَ لَہُمۡ عَذَابٌ اَلِیۡمٌ

तर्जुमा :- और जब ख़ुदा ने इक़रार लिया उन लोगों से जिन्हें किताब दी गई थी कि उस को बयान करें बनी-आदम से और ना छुपाएं पस उन्होंने फेंक दिया वो (इक़रार) अपनी पीठ के पीछे और बेच दिया उसे थोड़े मोल पर और बुरा है वो जो उन्होंने ख़रीदा तू हरगिज़ ना समझ कि जो लोग ख़ुश होते हैं अपने किए पर और तारीफ़ चाहते हैं अपने बग़ैर किए पर तू हरगिज़ ना समझ कि वो बच जाऐंगे अज़ाब से और उनके वास्ते दर्द-नाक अज़ाब है।

यहां तकरार का ख़ुलासा है जो मुहम्मद साहब और यहूदीयों के दर्मियान था। उन्होंने मुहम्मद साहब की नबुव्वत तस्लीम नहीं की और उनके दावे का इन्कार किया और कहा कि हमारी किताब में कोई ऐसी ख़बर नहीं है जो इस्लाम का या दीन हनफ़ी का इशारा करती हो। पस ये वही इल्ज़ाम है जो मुहम्मद साहब बार-बार यहूदीयों पर करते हैं कि उन ख़बरों को उलट बयान कर के छिपा दें और इस तरह से हक़ बात को थोड़े ही फ़ायदे के लिए बेचा यानी अपने मौरूसी दीन की मुहब्बत और अपने भाई बिरादर की सोहबत के फ़ायदे के लिए हक़ का इन्कार किया और इस्लाम की शहादत से बाज़ रह कर गोया इसे छिपा दिया।

फ़स्ल 121

(सुरह आले-इमरान 3 आयत 199)

وَ اِنَّ مِنۡ اَہۡلِ الۡکِتٰبِ لَمَنۡ یُّؤۡمِنُ بِاللّٰہِ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡکُمۡ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡہِمۡ خٰشِعِیۡنَ لِلّٰہِ ۙ لَا یَشۡتَرُوۡنَ بِاٰیٰتِ اللّٰہِ ثَمَنًا قَلِیۡلًا اُولٰٓئِکَ لَہُمۡ اَجۡرُہُمۡ عِنۡدَ ربّہِمۡ اِنَّ اللّٰہَ سَرِیۡعُ الۡحِسَابِ

तर्जुमा :- और बा-तहक़ीक़ किताब वालों में से बाअज़ हैं जो ख़ुदा पर ईमान लाते हैं और उस पर जो उतरा तुम्हारे वास्ते और उस पर जो उतरा उनके वास्ते आजिज़ी करते हुए अल्लाह के आगे नहीं बेचते अल्लाह की आयतों को थोड़े मोल पर और ये वो हैं जिनके वास्ते अज्र है उनके रब के यहां बेशक अल्लाह हिसाब लेने में शत्ताब है।

बैज़ावी तफ़्सीर करता है :-

وَ مَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡہِمۡ مِنُ الۡکِتٰبَیِنْ

मअनी जो कुछ कि उन पर उतरा यानी दोनों किताबों से। और जलाल उद्दीन तफ़्सीर करता है :-

اَی ْالتَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ

और फिर वही जलाल उद्दीन यहा भी तफ़्सीर करता है :-

لَا یَشۡتَرُوۡنَ بِاٰیٰتِ الْتَیْ ہِی عِنۡدَ ہُمْ ْالتَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ مِنْ نَعۡتَ النَّبِیُّ ثَمَنًا قَلِیۡلًا مَنْ الدُّنۡیَا بِاَنَّ یَکۡتُمُوۡنھْا خَوۡفِا عَلٰی الرَّیۡاسَۃْ کَہْغُلَّ غَیۡرَ الۡیَہُوۡدَ

मअनी वो आयात अल्लाह कि नहीं बेचते यानी जो कुछ कि नबी की कैफ़ीयत उनके पास तौरेत व इंजील में मौजूद है थोड़ी क़ीमत पर (यानी दुनिया के फ़ायदे) पर क्योंकि रियासत के ख़ौफ़ से इस को (यानी अपनी कुतुब मुक़द्दस के मतलब को) छुपा दिया था जैसा और यहूदीयों ने भी किया।

पोशीदा ना रहे कि ये नेक-बख़्त यहूद और ईसाई क़ुरआन के सिवाए तौरेत और इंजील की ताअलीम पर साबित-क़दम रहने का दावा करते थे इस आयत से साफ़ वाज़ेह है कि उन्होंने तो अपनी कुतुब मुक़द्दस के मअनी ग़लत नहीं लगाए और ना उल्टे फेरे दूसरे यहूदीयों ने जो ग़फ़लत और ग़लतफ़हमी की हो तो की हो मगर इन सादिक़ दिल और दियानतदार लोगों ने सब सूरत से एहतियात और ख़बर-गैरी की ताकि कलाम ईलाही हर तरह के नुक़्स और ख़लल से महफ़ूज़ रहे। बेशक उन्होंने ना सिर्फ क़ुरआन की बल्कि तौरेत व इंजील की भी यानी अपनी मौरूसी किताबों के नुस्ख़ों को पाक और बे कम व कासत (ठीक ठीक, बग़ैर कमी बेशी के) रखा ताकि वो नुस्खे़ उनकी औलाद के पास पुश्त दर पुश्त क़ायम रहें। पस अगर यहूदीयों ने जैसा कि बाअज़ नादान लोग दावा करते हैं किसी तरह की दस्त अंदाज़ी अपनी किताबों पर की हो तो वो नुस्खे़ कहाँ हैं जिनको सादिक़ और दियानतदार अहले-किताब मज़्कूर आयत बाला ने महफूज रखा।

फ़स्ल 122

(सुरह अल-मायदा 5 आयत 13-15)

فَبِمَا نَقۡضِہِمۡ مِّیۡثَاقَہُمۡ لَعَنّٰہُمۡ وَ جَعَلۡنَا قُلُوۡبَہُمۡ قٰسِیَۃً ۚ یُحَرِّفُوۡنَ الۡکَلِمَ عَنۡ مَّوَاضِعِہٖ ۙ وَ نَسُوۡا حَظًّا مِّمَّا ذُکِّرُوۡا بِہٖ ۚ وَ لَا تَزَالُ تَطَّلِعُ عَلٰی خَآئِنَۃٍ مِّنۡہُمۡ اِلَّا قَلِیۡلًا مِّنۡہُمۡ فَاعۡفُ عَنۡہُمۡ وَ اصۡفَحۡ اِنَّ اللّٰہَ یُحِبُّ الۡمُحۡسِنِیۡنَ وَ مِنَ الَّذِیۡنَ قَالُوۡۤا اِنَّا نَصٰرٰۤی اَخَذۡنَا مِیۡثَاقَہُمۡ فَنَسُوۡا حَظًّا مِّمَّا ذُکِّرُوۡا بِہٖ ۪ فَاَغۡرَیۡنَا بَیۡنَہُمُ الۡعَدَاوَۃَ وَ الۡبَغۡضَآءَ اِلٰی یَوۡمِ الۡقِیٰمَۃِ وَ سَوۡفَ یُنَبِّئُہُمُ اللّٰہُ بِمَا کَانُوۡا یَصۡنَعُوۡنَ یٰۤاَہۡلَ الۡکِتٰبِ قَدۡ جَآءَکُمۡ رَسُوۡلُنَا یُبَیِّنُ لَکُمۡ کَثِیۡرًا مِّمَّا کُنۡتُمۡ تُخۡفُوۡنَ مِنَ الۡکِتٰبِ وَ یَعۡفُوۡا عَنۡ کَثِیۡرٍالخ

तर्जुमा :- पस इनके अह्द तोड़ने के सबब हमने इनको लानत की और उनके दिल सख़्त कर दिए वो बदलते हैं कलाम को उस की जगह पर और भूल गए एक हिस्सा उस नसीहत से जो उनकी थी और तू हमेशा ख़बर पाता रहेगा उनकी दग़ा की सिवाए थोड़े लोगों के उनमें से। सो माफ़ कर उनको और दरगुज़र कर उनसे। अल्लाह चाहता है नेकी वालों को और वो जो कहते हैं कि हम नसारा हैं उनसे हमने अह्द लिया फिर भूल गए एक हिस्सा उस नसीहत को जो इनको की थी पस् हमने डाल दी उनके दर्मियान दुश्मनी और कीना क़ियामत के दिन तक और आख़िर आगाह करेगा इन्हें उन कामों से जो वो करते थे, ऐ किताब वालो बेशक हमारा रसूल तुम्हारे पास आया है वो बयान करेगा तुमको बहुत बातें जो छुपाते हो किताब की और माफ़ करेगा बहुत को।

यहां भी ठीक वही इल्ज़ाम दिया गया है जो (96) फ़स्ल में (सुरह निसाअ तिर्यांलिस्वीं 43 आयत) में मज़्कूर हुआ यानी ये कि उन्होंने लफ़्ज़ों को अपनी जगह से बे-जगह कर दिया।

अव्वल तो हम ये कहते हैं कि क्या इस मुक़ाम पर और क्या दूसरे मुक़ामों पर इस इल्ज़ाम का इन्हिसार ख़ास यहूदीयों ही पर किया है ईसाईयों की बनिस्बत ऐसे इल्ज़ाम का कहीं कुछ इशारा भी नहीं पाया जाता ये इल्ज़ाम अलबत्ता ईसाईयों पर बाँधा गया है कि जो उन्हें नसीहत की गई थी उस का एक हिस्सा भूल गए, इस में कुछ मुक़ाम एतराज़ नहीं हम बेताम्मुल तस्लीम करते हैं कि ना सिर्फ उस ज़माने में बल्कि हर ज़माने में ऐसे ईसाई बहुत हैं जो इंजील की ताअलीम मुक़द्दस से कुछ फ़िरोगुज़ाश्त करते हैं पर ये बात सिर्फ ईस्वी मज़्हब पर मुन्हसिर नहीं है। अगर हम चाहें तो ठीक इसी तरह पर ज़माना-ए-हाल के बहुतेरे मुसलमानों को जो ताज़ीए (मातम परसी, हज़रत इमाम हुसैन और अहले बैत अलैहा अस्सलाम की तरबूतों की नक़्ल जो मुहर्रम के दिनों में बतौर यादगार काग़ज़ और बाँस वग़ैरह से बनाते हैं) बनाते हैं और पीरो-मुर्शिदों की मिन्नतें माना करते हैं कह सकते हैं कि जो उन्हें नसीहत की गई थी उस का एक हिस्सा भूल गए।

क़त-ए-नज़र इस से वाज़ेह हो की ईसाईयों की बनिस्बत लफ़्ज़ों को जगह से बे-जगह करने का ख़्वाह अपनी कुतुब रब्बानी क़ी माअनी ग़लत लगाने और उनके मतलब में उलट-फेर करने का ना इसी मुक़ाम पर कुछ इल्ज़ाम लिखा है और ना उस का किसी दूसरे मुक़ाम पर क़ुरआन में कुछ ज़िक्र है इस वास्ते जिस ग़रज़ से कि हम बिल-फ़अल इस किताब को लिखते हैं इस में यहूदीयों की ऐसे इल्ज़ामों से सफ़ाई करने की हमें चंदाँ ज़रूरत नहीं क्योंकि ये बात अज़हर-मिन-श्शम्स है कि यहूदीयों की बिल्कुल कुतुब रब्बानी ईसाईयों के पास भी अवाइल (अव्वल की जमा, इब्तिदा) ज़माने से मौजूद चली आती हैं चुनान्चे अहले इंजील तौरेत को मिस्ल इंजील के मानते हैं और इस तरह उस को भी अपने इबादत ख़ानों में हमेशा पढ़ा करते हैं। अगर यहूदीयों ने अपनी पाक किताबों में तहरीफ़ व तसहीफ़ भी की होती तो ये बात उन नुस्ख़ों में जो ईसाईयों ने सारी दुनिया में महफ़ूज़ रखे किसी तरह नहीं हो सकती थी।

यहूदीयों पर इस बाब में इल्ज़ाम जो चाहे सो करे लेकिन क़ुरआन में ईसाई क़ौम ऐसे इल्ज़ाम से मह्ज़ पाक और साफ़ है। पस तौरेत और ज़बूर और नबियों के नविश्ते यानी तमाम यहूदी मुक़द्दस किताब जो ईसाईयों के दर्मियान मुस्तअमल है और अवाइल से चली आती है इस का मानना हर सूरत से मुसलमानों पर वाजिब है और इंजील के बाब में तो सब पर रोशन है कि यहूदीयों का उस पर कभी दख़ल ना था पस मअनी ग़लत लगाना या मतलब का फेरना या लफ़्ज़ों को जगह से बे-जगह ले जाना जो कुछ हो इंजील के नुस्ख़ों से मुतलक़ इलाक़ा नहीं रख सकता।

अल-ग़र्ज़ तौरेत व इंजील दोनों पाक रब्बानी किताबें जिस तौर पर कि ज़माना मुहम्मद साहब में ईसाईयों के पास मौजूद थीं उन इल्ज़ामों से जो अहले इस्लाम उन कुतुब रब्बानी पर कि यहूदीयों के पास मौजूद थीं लगाया करते हैं من جمیع الو جوہ بری और साफ़ हैं ये बात ख़ुद मुसलमानों के दावे और क़ुरआन की इबादत से सरीह निकलती है।

दूसरे हम ये कहते हैं कि मदीने के यहूदीयों पर भी इस आयत में जो कुछ इल्ज़ाम दिया गया है इस से ये बात नहीं निकलती कि उन्होंने अपनी कुतुब रब्बानी में कुछ दस्त अंदाज़ी या तसहीफ़ की हो। हम अभी (96 फ़स्ल में सुरह की तिर्यांलिस्वीं 43 आयत) के दर्मियान ठीक वही इबारत लिख आए कि उन्होंने लफ़्ज़ को इस की जगह से बे-जगह कर दिया और इस के मअनी की आयत मज़्कूर में तसरीह की गई यानी ये कि बाअज़ मुक़ामात का बयान और तफ़्सीर इस के माक़ब्ल और माबअ्द की आयात के लिहाज़ से नहीं की बल्कि बर-ख़िलाफ़ उस के और ये कि तौरेत के जुमले और फ़िक़्रे जुदा-जुदा बे रबत पेश किया करते थे ताकि मअनी बिगड़ जाएं और अल्फ़ाज़ जो मअनी और इबारत मौहूम (फ़र्ज़ी, फ़र्ज़ी) ज़बान पर लाते थे ताकि मुहम्मद साहब की बेइज़्ज़ती हो चुनान्चे आयत मज़्कूर में इस की मिसालें भी लिखी हैं जैसे اسۡمَعۡ غَیۡرَ مُسۡمَعٍ वग़ैरह।

पस यहां भी वही मतलब है किताब में दस्त अंदाज़ी करने का ज़िक्र भी नहीं और ना इशारा ऐसे काम का है ग़रज़ इस मुक़ाम से ये इल्ज़ाम किसी सूरह से नहीं निकलता और ना किसी और जगह में है, बल्कि उस के बरअक्स जहां-जहां क़ुरआन में कुतुब रब्बानी का नाम आया है सब जगह की इबारत और तरीक़ा ज़िक्र से उन किताबों का जो कि वो उस वक़्त यहूदीयों के पास मौजूद थीं असली और शुरू और सही और रब्बानी होना साबित है।

फिर इस मुक़ाम में लिखा है कि यहूदी लोग जो उन्हें नसीहत की गई थी इस का एक हिस्सा भूल गए थे इस वास्ते मुहम्मद साहब आयत के आख़िर में कहते हैं कि मैं इसलिए आया हूँ कि जिस बात को तुमने फ़िरोगुज़ाश्त किया और भूल गए बहुत सा इस में से ज़ाहिर करूँ। यानी बहुत से अक़ाइद अहकाम और ताअलीम जो तुमने फ़िरोगुज़ाश्त किए ख़्वाह ज़ाहिर ना कर के छिपा दिया उन्हें मशहूर करूँ और बहुत सी बातों से दरगुज़र करूँ यानी यहूदीयों की बहुत सी रेत रस्म मंसूख़ करूँ।

फ़स्ल 123

(सुरह अल-मायदा 5 आयत 41)

یٰۤاَیُّہَا الرَّسُوۡلُ لَا یَحۡزُنۡکَ الَّذِیۡنَ یُسَارِعُوۡنَ فِی الۡکُفۡرِ مِنَ الَّذِیۡنَ قَالُوۡۤا اٰمَنَّا بِاَفۡوَاہِہِمۡ وَ لَمۡ تُؤۡمِنۡ قُلُوۡبُہُمۡ ۚ وَ مِنَ الَّذِیۡنَ ہَادُوۡا ۚ سَمّٰعُوۡنَ لِلۡکَذِبِ سَمّٰعُوۡنَ لِقَوۡمٍ اٰخَرِیۡنَ ۙ لَمۡ یَاۡتُوۡکَ یُحَرِّفُوۡنَ الۡکَلِمَ مِنۡۢ بَعۡدِ مَوَاضِعِہٖ ۚ یَقُوۡلُوۡنَ اِنۡ اُوۡتِیۡتُمۡ ہٰذَا فَخُذُوۡہُ وَ اِنۡ لَّمۡ تُؤۡتَوۡہُ فَاحۡذَرُوۡا

तर्जुमा :- ऐ रसूल तू ग़म ना खा उन पर जो कुफ़्र की तरफ़ दौड़ते हैं उनमें से वो लोग हैं जो सिर्फ मुँह से कहते हैं हम ईमान लाते हैं हालाँकि उन के दिल ईमान नहीं लाते और यहूदीयों में से बाअज़ जासूसी करते हैं झूट के लिए और जासूसी करते हैं दूसरी जमाअत के लिए जो तुझ तक नहीं आते बे उस्लूब करते हैं बात को इस के ठिकाने से कहते हैं अगर तुमको ये बात दी जाये तो लो और अगर ना दी जाये तो बचते रहो।

इस आयत में यहूदयान मदीना को मुनाफिक़ीन के साथ शुमार किया है और उन्हें इस बात का इल्ज़ाम दिया है कि वो जासूसी कर के लोगों को झूट की तरफ़ हिदायत करते थे और मुहम्मद साहब के कलाम को कुछ का कुछ बयान करते थे और वही इल्ज़ाम दिया है कि जो साबिक़ बयान हो चुका। यानी कलामों को अपने ठिकाने से बे उस्लूब (तरीक़ा, तर्ज़, रोशन) कर देते थे बल्कि इस मुक़ाम पर ठिकाने का फ़िक़्रह बे-ठिकाने पेश करना बहुत साफ़ लिख दिया है इस इबारत से حَرِّفُوۡنَ الۡکَلِمَ مِنۡۢ بَعۡدِ مَوَاضِعِہٖ यानी लफ़्ज़ या फ़िक़्रे को इस के ठिकाने से जुदा कर के बयान करते थे। और मुराद इस से ये है कि या तो वो किसी जुम्ला को इस के मौक़े से जुदा करके इस तरह पर पढ़ते थे कि जिसमें उस के मअनी बदल जाएं या उसे किसी दूसरे जुमले से इस ढब मिला कर बयान कर देते थे कि जिसमें दोनों के मअनी बिगड़ जाएं ये औंधी अक़्ल वाले अपने आदमीयों से कहते थे कि तुम बेशक मुहम्मद साहब के पास जाओ अगर तुम उनकी ताअलीम व तल्क़ीन में यही बातें पाओ यानी वो जुदा-जुदा और बे-ठिकाने फ़िक़्रे जिनके मअनी उल्टे निकलते थे और अगर मुहम्मद साहब की बातें उनके मुताबिक़ हों तो उन्हें क़ुबूल करो वर्ना इस से हज़िर (इन्कार) करो।

इस बात में (सूरह निसा की फ़स्ल 96) पर रुजूअ करो जहां یُحَرِّفُوۡنَ الۡکَلِمَ مِنۡ مَوَاضِعِہٖ का बयान हो चुका।

फ़स्ल 124

(सुरह अल-मायदा 5 आयत 43-48)

وَ کَیۡفَ یُحَکِّمُوۡنَکَ وَ عِنۡدَہُمُ التَّوۡرٰىۃُ فِیۡہَا حُکۡمُ اللّٰہِ ثُمَّ یَتَوَلَّوۡنَ مِنۡۢ بَعۡدِ ذٰلِکَ وَ مَاۤ اُولٰٓئِکَ بِالۡمُؤۡمِنِیۡنَ اِنَّاۤ اَنۡزَلۡنَا التَّوۡرٰىۃَ فِیۡہَا ہُدًی وَّ نُوۡرٌ ۚ یَحۡکُمُ بِہَا النَّبِیُّوۡنَ الَّذِیۡنَ اَسۡلَمُوۡا لِلَّذِیۡنَ ہَادُوۡا وَ الربّٰنِیُّوۡنَ وَ الۡاَحۡبَارُ بِمَا اسۡتُحۡفِظُوۡا مِنۡ کِتٰبِ اللّٰہِ وَ کَانُوۡا عَلَیۡہِ شُہَدَآءَ ۚ فَلَا تَخۡشَوُا النَّاسَ وَ اخۡشَوۡنِ وَ لَا تَشۡتَرُوۡا بِاٰیٰتِیۡ ثَمَنًا قَلِیۡلًا وَ مَنۡ لَّمۡ یَحۡکُمۡ بِمَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰہُ فَاُولٰٓئِکَ ہُمُ الۡکٰفِرُوۡنَوَ کَتَبۡنَا عَلَیۡہِمۡ فِیۡہَاۤ اَنَّ النَّفۡسَ بِالنَّفۡسِ ۙ وَ الۡعَیۡنَ بِالۡعَیۡنِ وَ الۡاَنۡفَ بِالۡاَنۡفِ وَ الۡاُذُنَ بِالۡاُذُنِ وَ السِّنَّ بِالسِّنِّ ۙ وَ الۡجُرُوۡحَ قِصَاصٌ فَمَنۡ تَصَدَّقَ بِہٖ فَہُوَ کَفَّارَۃٌ لَّہٗ وَ مَنۡ لَّمۡ یَحۡکُمۡ بِمَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰہُ فَاُولٰٓئِکَ ہُمُ الظّٰلِمُوۡنَ وَ قَفَّیۡنَا عَلٰۤی اٰثَارِہِمۡ بِعِیۡسَی ابۡنِ مَرۡیَمَ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ مِنَ التَّوۡرٰىۃِ ۪ وَ اٰتَیۡنٰہُ الۡاِنۡجِیۡلَ فِیۡہِ ہُدًی وَّ نُوۡرٌ ۙ وَّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ مِنَ التَّوۡرٰىۃِ وَ ہُدًی وَّ مَوۡعِظَۃً لِّلۡمُتَّقِیۡنَ وَ لۡیَحۡکُمۡ اَہۡلُ الۡاِنۡجِیۡلِ بِمَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰہُ فِیۡہِ وَ مَنۡ لَّمۡ یَحۡکُمۡ بِمَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰہُ فَاُولٰٓئِکَ ہُمُ الۡفٰسِقُوۡنَ وَ اَنۡزَلۡنَاۤ اِلَیۡکَ الۡکِتٰبَ بِالۡحَقِّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ مِنَ الۡکِتٰبِ وَ مُہَیۡمِنًا عَلَیۡہِ فَاحۡکُمۡ بَیۡنَہُمۡ بِمَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰہُ وَ لَا تَتَّبِعۡ اَہۡوَآءَہُمۡ عَمَّا جَآءَکَ مِنَ الۡحَقِّ لِکُلٍّ جَعَلۡنَا مِنۡکُمۡ شِرۡعَۃً وَّ مِنۡہَاجًا وَ لَوۡ شَآءَ اللّٰہُ لَجَعَلَکُمۡ اُمَّۃً وَّاحِدَۃً وَّ لٰکِنۡ لِّیَبۡلُوَکُمۡ فِیۡ مَاۤ اٰتٰىکُمۡ

तर्जुमा :- और किस तरह तुझको अपना हाकिम बनाएंगे चूँकि उनके पास तौरेत है जिसमें अल्लाह का हुक्म है। तब इस के बाद वो फिर जाऐंगे और वो ईमान लाने वाले नहीं हैं बा-तहक़ीक़ हमने उतारी तौरेत इस में हिदायत और रोशनी है इस के बमूजब हुक्म करते थे पैग़म्बर जो अपने तईं ख़ुदा को सौंपते थे यहूद को और आलिम और अहबार (ऐसा ही करते थे) इस वास्ते कि निगहबान ठहराए थे अल्लाह की किताब पर और इस के गवाह थे। पस तुम ना डरो आदमीयों से पर मुझसे डरो और मत बेचो मेरी आयतों को थोड़े मोल पर और जो कोई हुक्म ना करे बमूजब अल्लाह के उतारे के तो वही है काफ़िर। और लिख दिया हमने उन पर (किताब) में कि जी के बदले जी और आँख के बदले आँख और नाक के बदले नाक और कान के बदले कान और दाँत के बदले दाँत और मजरूही (ज़ख़्म) के लिए क़िसास (ख़ून के एवज़ ख़ून) और जिसे बख़्श दिया तो उस के वास्ते वो कफ़्फ़ारा हुआ और जिस किसी ने हुक्म ना किया बमूजब उतारे हुए अल्लाह के तो वही हैं ज़ालिम। और पीछे से हमने उन्हीं के क़दमों पर ईसा मर्यम का बेटा तस्दीक़ करता हुआ तौरेत की जो इस के आगे से थी और इस को हमने दी इंजील जिसमें हिदायत और रोशनी है और तस्दीक़ करती है तौरेत की जो उस के आगे थी और हिदायत और नसीहत है परहेज़गारों के लिए और इस वास्ते कि अहले इंजील उस के बमूजब हुक्म करें जो ख़ुदा ने इस में नाज़िल किया और जो कोई हुक्म ना करे अल्लाह के उतारे पर तो वही हैं फ़ासिक़ (गुनाहगार, शरीर)। और तुझ पर हमने उतारी किताब हक़ से तस्दीक़ करती हुई किताब को जो उस के पहले है और उस की हाफ़िज़ पस तू हुक्म कर उनके दर्मियान उस के बमूजब जो ख़ुदा ने उतारा और इनके राहो पर मत चल इस हक़ की बात को छोड़कर जो तेरे पास आई। हर एक को तुम में से दी हमने एक शराअ और राह और अल्लाह चाहता तो तुमको एक दीन पर करता लेकिन उसने ऐसा ना किया तुमको आज़माने के लिए अपने दिए हुए हुक्म में।

इस आयत से जैसा कि चाहीए साबित और हुवैदा (ज़ाहिर, आशकार, वाज़ेह) है कि जो कुतुब रब्बानी मुहम्मद साहब के वक़्त में यहूद व नसारा के दर्मियान जारी थीं, عِنۡدَہُمُ क़ुरआन के इज़्हार से ख़ुद अल्लाह तआला के यहां से नाज़िल हुई थीं, اَنۡزَلۡنَا और अल्लाह की दी हुई थीं, اَنۡبِیَآءَ और उस वक़्त असली वज़अ़ पर थीं, और मोअतबर थीं और बे हुज्जत व तकरार हुक्म शरअ़ रखती थीं यहां तक कि उमूरात मुश्तबा के इन्फ़िसाल (फ़ैसला होना तय पाना) के लिए उन्हीं पर रुजूअ़ चाहीए थी तौरेत और इंजील दोनों के वास्ते इबारत यकसाँ लिखी है और दोनों के वास्ते दर्ज है कि जो लोग उस के बमूजब जो अल्लाह ने नाज़िल किया हुक्म नहीं देते वो काफ़िर हैं, वो ज़ालिम हैं, वो फ़ासिक़ हैं, तीन मर्तबा इस बात को मुकर्रर लिखा ताकि इस का उम्दा मतलब सभों पर ज़ाहिर हो और सभों को अच्छी तरह तम्बियाह और इबरत हो जाये जिन कुतुब रब्बानी को क़ुरआन के दर्मियान ऐसा हुक्मन हक़ व नाहक़ का मुहक़ (वो पत्थर जिस पर सोना चांदी परखा जाता है) और कसौटी ठहराया है। उन्हें क़ुरआन के बयान से ख़्वाह-मख़्वाह अस्ल व सही और बिला नुक़्सान व तसहीफ़ समझना चाहीए इस में किसी तरह का शक नहीं हो सकता। जो मुसलमान के रास्तबाज़ और साफ़-दिल हैं बसहुलत अपना इत्मीनान कर सकते हैं कि ठीक वही तौरेत और इंजील अब भी यहूद व नसारा के दर्मियान राइज व जारी हैं जो शुरू इस्लाम के अहद में उनके दर्मियान राइज व जारी थीं और ये काम उन पर निहायत वाजिब और लाज़िम है कि जिस तरह मुम्किन हो जद्दो जहद कर के इस का इत्मीनान हासिल कर लें और बसहुलत इस बात की वजह सबूत मयस्सर हो सकती है क्योंकि सदहा नुस्खे़ और तर्जुमे और शरहें और इंतिख्व़ाब और इक़्तिबास वग़ैरह जो ज़माना मुहम्मद साहब से पेशतर के भी लिखे हुए मौजूद हैं उनमें कुतुब मुक़द्दस की सेहत की हज़ारहा दलीलें ऐसे मुतलाशी को बिलादिक़्क़त व बिलाइशकाल दस्तयाब हो सकती हैं। पस जब कि हम इस से हाँ पुकार कर क़ुरआन की इबारत में तौरेत और इंजील की तरफ़ इशारा करके कहते हैं कि इस के बमूजब जो अल्लाह ने नाज़िल किया हुक्म कर तू इस को ख़बरदार रहना चाहीए कि कहीं इस से ख़ुदा की ना-फ़रमानी ना हो जाये और यहूद व नसारा की कुतुब रब्बानी से इन्कार करने में और उनके नाचीज़ व हक़ीर समझने में और उनके मज़ामीन पाक और मुबारक के बरअक्स कुफ़्र बकने में कहीं ख़ुदा की उदूल हुक्मी की सज़ा इस पर ना आ जाए और इस कुतुब रब्बानी के बमूजब जो अल्लाह ने नाज़िल की हुक्म मदीने से और इस से मुन्किर होने से इस आयत का वाअदा उस के हक़ में दस्त ना हो जाये और वो الکافر और الظالم और الفاسق इसका बदला ना पाए।

क़ुरआन जैसा और मुक़ामों पर वैसा यहां भी यहूद व नसारा की कुतुब रब्बानी का तस्दीक़ करने वाला लिखा है बल्कि उनका मुहैमिन مہیمن यानी इनका शाहिद-ख़्वाह मुहाफ़िज़ ठहराया है। चुनान्चे बेज़ावी लिखता है :-

ومہیمنًا علیہ ور قیبًا علی سائر الکتب یحفظہ عن التغیر و یشہد لہابا لصحۃ و الثبات

मअनी और इस पर मुहैमिन (مہیمن) यानी मुहाफ़िज़ कुल कुतुब (रब्बानी) का जो महफ़ूज़ रखता है उनको तग़ईर (हालत बदल देना, पलट देना, तब्दील करना) से और शहादत देता है उनकी सेहत और सिबात पर।

पस अब बतलाओ कि वो किताबें जिनकी हिफ़ाज़त, शहादत, सबात (क़ियाम, क़रार) और सेहत का इस आयत में तज़्किरा है। अगर यही कुतुब रब्बानी नहीं हैं जिनको हम लोग फ़ी ज़मानिना ज़माना मुहम्मद साहब के यहूद व नसारा की मानिंद अपने पास मौजूद रखते हैं और अपनी कलीसिया और अपने मकानों में पढ़ा करते हैं और ज़माना मुहम्मद साहब और इस के पेशतर सदहा साल से बराबर पढ़ते चले आए हैं तो फिर और वो किताबें कहाँ हैं क्योंकि इस आयत की इबारत से इनको महफ़ूज़ समझना चाहीए।

मख़्फ़ी (छिपा) ना हो कि तौरेत को फिर इस आयत में किताब-उल्लाह के नाम से लिखा है।

फ़स्ल 125

(सुरह अल-मायद 5 आयत 59)

قُلۡ یٰۤاَہۡلَ الۡکِتٰبِ ہَلۡ تَنۡقِمُوۡنَ مِنَّاۤ اِلَّاۤ اَنۡ اٰمَنَّا بِاللّٰہِ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡنَا وَ مَاۤ اُنۡزِلَ مِنۡ قَبۡلُ ۙ وَ اَنَّ اَکۡثَرَکُمۡ فٰسِقُوۡنَ

तर्जुमा :- तू कह ऐ किताब वालों क्या हमसे किसी और सबब के लिए आज़ुर्दा (नाराज़, नाख़ुश, ख़फ़ा) दिल हो सिवा इस के कि हम यक़ीन लाए अल्लाह पर और इस पर जो हमको उतरा और इस पर जो उतरा पेशतर से लेकिन तुम में से अक्सर फ़ासिक़ हैं।

पैग़म्बर इस्लाम और इनके मुक़्तदी इन कुतुब रब्बानी पर जो क़ब्ल अज़ क़ुरआन नाज़िल हुईं ईमान लाए। पस अब पैग़म्बर इस्लाम के सच्चे पैरौ होने का कोई भी दावा नहीं कर सकता तावक़्त ये कि वो भी अपने पैग़म्बर की इत्तिबा कर के इस पर जो क़ब्ल (अज़-क़ुरआन) नाज़िल हुआ ईमान ना लाए।

फ़स्ल 126

(सूरह अल-मायदह 5 आयत 65-66)

وَ لَوۡ اَنَّ اَہۡلَ الۡکِتٰبِ اٰمَنُوۡا وَ اتَّقَوۡا لَکَفَّرۡنَا عَنۡہُمۡ سَیِّاٰتِہِمۡ وَ لَاَدۡخَلۡنٰہُمۡ جَنّٰتِ النَّعِیۡمِ وَ لَوۡ اَنَّہُمۡ اَقَامُوا التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡہِمۡ مِّنۡ ربّہِمۡ لَاَکَلُوۡا مِنۡ فَوۡقِہِمۡ وَ مِنۡ تَحۡتِ اَرۡجُلِہِمۡ مِنۡہُمۡ اُمَّۃٌ مُّقۡتَصِدَۃٌ وَ کَثِیۡرٌ مِّنۡہُمۡ سَآءَ مَا یَعۡمَلُوۡنَ

तर्जुमा :- और अगर किताब वाले ईमान लाएं और डरें ख़ुदा से हम उतार दें उनकी बुराईयां और उनको दाख़िल करेंगे नेअमत के बाग़ों में और अगर वो क़ायम करें तौरेत और इंजील को और जो उतरा इनको इनके रब की तरफ़ से तो खाएँ अपने ऊपर से और अपने पांव के नीचे से, कुछ लोग इनमें से सीधे हैं लेकिन बहुतों के आमाल बद हैं।

ग़ौर करो कि यहां भी और मुक़ामों की मानिंद यहूद व नसारा पर मिस्ल क़ुरआन के तौरेत व इंजील को भी क़ायम करना यानी ख़बरदारी व एहतियात से इस के हुक्मों की पैरवी की ताकीद है और उन यहूद व नसारा को जो इस तरह से तौरेत और इंजील और क़ुरआन के हुक्मों पर क़ायम रहेंगे। इस आयत में अच्छी सी अच्छी रहमतें यानी जन्नात नईम और अफ़ु-ए-गुनाह और नीचे और ऊपर दोनों तरफ़ से बरकतें मौऊद की हैं और कितनों ही को इन यहूद व नसारा में से مُّقۡتَصِدَۃٌ यानी सीधा और रास्तबाज़ लिखा है। पस क्या वो यहूद व नसारा अपने पैग़म्बर के लिखने बमूजब सीधे और रास्तबाजों की तरह उन कुतुब रब्बानी को जिन पर क़ायम रहने से उन्हें इस क़द्र आला दर्जा और मर्तबा मिलना था बिला-नुकसान व तसहीफ़ महफ़ूज़ ना रखते और इनके नुस्ख़ों को अपनी औलाद को ना देते ताकि उनकी नस्ल में पुश्त दर पुश्त उनकी नसीहत और बरकत के लिए मौजूद हैं। तौरेत और इंजील को क़ायम रखना और उनके हुक्मों पर चलना यहां ये हुक्म साफ़ और सरीह है। पस या तो वो मोमिनीन जिन पर ये फ़र्ज़ किया गया और यहां नेक व रास्त लिखे हैं। इस हुक्म को बजा ना लाए और जो बजा लाए तो यहूद और ईसाईयों की तौरेत और इंजील के सिवा वो तौरेत और इंजील कहाँ है। पैग़म्बर इस्लाम किस एहतिराम व तकरीम से तौरेत और इंजील के हक़ में कहते हैं। जब अपने पैरौ यहूद व नसारा को ताकीद से हुक्म किया कि इन मुबारक किताबों को क़ायम करें और क़ायम करने के लिए इतने बड़े अज्र का वाअदा किया तो उनके उम्दा मुतालिब पर बख़ूबी शहादत देते हैं। अफ़्सोस कि अब इस ज़माने के बहुतेरे मुसलमान अपने पैग़म्बर के बर-ख़िलाफ़ जहालत की राह से उन पाक किताबों की बनिस्बत गुफ़्तगु करते हैं।

फ़स्ल 127

(सुरह अल-मायदह 5 आयत 68)

قُلۡ یٰۤاَہۡلَ الۡکِتٰبِ لَسۡتُمۡ عَلٰی شَیۡءٍ حَتّٰی تُقِیۡمُوا التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡکُمۡ مِّنۡ ربّکُمۡ

तर्जुमा :- तू कह ऐ अहले-किताब तुम किसी चीज़ पर क़ायम नहीं जब तक कि ना मानो तौरेत और इंजील को और जो तुम को उतरा तुम्हारे रब से।

चाहे इस आयत में यहूदीयों की तरफ़ ख़िताब हो जैसे इब्ने इस्हाक़ की सीरत में रिवायत है चाहे उमूमन यहूदीयों और ईसाईयों की तरफ़ हो दोनों सूरह में ये आयत अस्बाब में इन लोगों को कि जिनकी तरफ़ उस का ये ख़िताब है कि वो ना सिर्फ क़ुरआन पर ईमान लाएं बल्कि तौरेत और इंजील पर वैसा ही ईमान लाएं और उन के हुक्म को मुस्तहकम क़ायम कर के मानें क़तई हुक्म देती है कि यहूद व नसारा दोनों की सलामती सिर्फ इस बात में है कि माव-राए (इस के अलावा) क़ुरआन के इन पाक नविश्तों के जो उस वक़्त उनके पास मौजूद थे। यानी तौरेत व इंजील के जुम्ला अहकामात को मल्हूज़ रखकर उनकी तामील करें।

पस ये किस तरह क़ुबूल करे कि वो किताबें क़ुरआन से मंसूख़ हो गईं? हिज्रत के कई एक बरस बाद ये सूरह निकली इस के इजरा के वक़्त दीन इस्लाम मुकम्मल हो चुका या क़रीब तक्मील के पहुंच चुका था ताहम उस वक़्त मुहम्मद साहब क़ुरआन में यहूद व नसारा से कहते हैं कि जिस तरह तुम क़ुरआन पर क़ायम हो और इस को मानते हो इसी तरह तौरेत और इंजील पर भी क़ायम रहना और उन को मानना तुम पर फ़र्ज़ है। मुहम्मद साहब कहते हैं لَسۡتُمۡ عَلٰی شَیۡ तुम किसी चीज़ पर भी क़ायम नहीं गोया उन्हें समझाते हैं कि जब तक तुम अगली कुतुब रब्बानी को ना मानो और उन पर अमल ना करो तुम्हारी बुनियाद कच्ची है और तुम्हारा मज़्हब नाचीज़ और बातिल है जब तक कि तुम तौरेत और इंजील पर भी क़ायम ना हो और इनके हुक्मों का लिहाज़ ना करो। जो कुछ कि तुम पर तुम्हारे रब ने नाज़िल किया इस का यानी क़ुरआन का मानना भी अबस है। तुम्हारा दीन भी लाहासिल है और तुम्हारा ईमान भी तुम्हारे वास्ते काफ़ी नहीं जब तक क़ुरआन के सिवा तौरेत और इंजील को भी ना मानोगे।

अगर ये कुतुब रब्बानी जैसा कि इस आयत में साफ़ साफ़ लिख दिया है। क़ुरआन के होते हुए भी यहूद व नसारा की सलामती के वास्ते ज़रूरत से हैं तो क्या मुसलमान उनसे बे ख़तरा ग़ाफ़िल रह सकते हैं? ग़ौर करना चाहीए कि किसी ख़िलाफ़ राह में मुसलमानों ने अपने पैग़म्बर के दीन से क़दम बाहर रखा कि जब ऐसा किया ऊपर के मुक़ामों से ख़ूब वाज़ेह हुआ होगा कि किस ताज़ीम व तकरीम से क़ुरआन में उन्हीं किताबों का ज़िक्र हमेशा होता आया है चुनान्चे इनको نُوۡرًا وَّ ہُدًی لِّلنَّاسِ यानी बनी-आदम के लिए नूर व हिदायत और फिर بَصَآئِرَ لِلنَّاسِ وَ ہُدًی وَّ رَحۡمَۃً यानी बनी-आदम के लिए रोशनी और हिदायत और रहमत और फिर وَّ مَوۡعِظَۃٌ نُوۡرًا وَ ہُدًی لِّلۡمُتَّقِیۡنَ यानी नूर और हिदायत और नसीहत ख़ुदा तरसों के लिए और फिर ہُدًی وَّ ذۡکُرُ لِّاُولِی الۡاَلۡبَابِ यानी हिदायत और याददहानी रौशन-दिलों के लिए और फिर ضِیَآءً وَّ ذِکۡرًا لِّلۡمُتَّقِیۡنَ यानी उजाला और याददहानी ख़ुदा तरसों के वास्ते कहा है और उन्हीं नविश्तों को किताब मुनीर यानी नूर देने वाली किताब और किताब-उल्लाह यानी अल्लाह की किताब भी कहा है क्या ये इसी दीन के लोग हैं जो ना सिर्फ इन किताबों को तर्क करते हैं बल्कि इनकी और इनके मज़ामीन रब्बानी की बनिस्बत कलिमा कुफ़्र ज़बान से निकालते हैं नाम में तो मुसलमान हैं पर पैग़म्बर इस्लाम के दीन से किस क़द्र बदल गए हैं अफ़्सोस सदा अफ़्सोस।

हम इस मुक़ाम पर इब्ने इस्हाक़ की एक रिवायत दर्ज करते हैं जिसमें इस आयत का सबब लिखा है :-

ومن عد و النہم قال وانی رسول اللہ رافح بن حارثہ و سلام بن مشکم و مالک بن الضیف و رافح بن حرملہ فقالوا یا محمد الست تزعم انک علٰی ملۃ ابراہیم و دینہ و تومن بما عند نا من التورٰىۃ و تشہد انہا من اللہ حق قال بلی و لکنکم احمد ثتم و ججد تم ما فیہا ہما اخذ علیکم من المثیاق و کتمتم منہا ما امر تم ان تبینوہ الناس فربت من احد ائکم قالوا فانا ناخذ بمافی اید نیا فانا علی الحق و الہدی ولا تومن بک و لا نتبعک فانزل اللہ غرو جل فیہم قل یا اہل الکتب لستم علی شی حنی تقیموا التورٰىۃ والانجیل الایۃ۔

यानी यहूदीयों की अदावत के बयान में इब्ने इस्हाक़ रिवायत करता है कि रसूल अल्लाह राफ़ेअ़ इब्ने हारिस और सलाम इब्ने मुश्कम और मालिक इब्ने अलज़ीफ़ और राफ़ेअ़ इब्ने हरमिला के पास गए तो वो कहने लगे कि ऐ मुहम्मद क्या ये तेरा ख़्याल नहीं है कि तू इब्राहिम के दीन व मिल्लत पर है और क्या तू इस पर जो हमारे पास है यानी तौरेत पर ईमान रखता है और क्या तू इस बात की शहादत नहीं देता है कि वो हक़ है ख़ुदा की तरफ़ से मुहम्मद साहब ने जवाब दिया कि हाँ बेशक लेकिन तुमने नए नए अक़ीदे निकाले और जो कुछ कि इस में मौजूद है जिसका तुमसे वाअदा लिया गया इस से तुमने इन्कार किया और इस में से जिसके वास्ते तुम्हें हुक्म है कि लोगों से बयान करो इसे तुमने छुपाया। पस मैं बरी हूँ तुम्हारे एहदास से उन्होंने जवाब दिया कि हम लोग इस को (यानी इस किताब को) पकड़ते हैं जो हमारे हाथ में है पस हम हक़ और राह-ए-रास्त पर हैं और तुझ पर ईमान नहीं लाते और तेरी पैरवी नहीं करते। पस इनकी बनिस्बत अल्लाह अज्ज़ो-जल ने ये आयत नाज़िल की, “तू कह ऐ किताब वालो तुम किसी चीज़ पर क़ायम नहीं जब तक कि क़ायम ना करो तौरेत और इंजील को।”

मुसलमान रावियों पर हमेशा हर वक़्त एतबार नहीं हो सकता लेकिन अगर ये ऊपर की रिवायत क़ाबिल-ए-एतिबार हो तो इस से भी वही बात बख़ूबी ज़ाहिर होती है जो क़ुरआन के हर मुक़ाम से मुबय्यन और हुवैदा है यानी मुहम्मद साहब क़ुरआन में तमाम तौरेत के नुस्ख़ों का जो उस वक़्त यहूदीयों में जारी थे एतबार और तसद्दुक़ करते थे। यहूदीयों से सिर्फ ये हुज्जत और तकरार थी कि उन्होंने नए नए अक़ीदे और तफ़्सीर वग़ैरह निकालें और पैग़म्बर इस्लाम के दावे से इन्कार किया और जिन मुक़ामात को मुहम्मद साहब ख़्याल करते थे कि तौरेत में हमारी नबुव्वत के सबूत में मौजूद हैं उनकी निशानदेही से किनारा किया। इतनी हुज्जत तो थी पर तौरेत के नुस्ख़ों पर कभी किसी वक़्त तोहमत नहीं लगाई बल्कि उनके बयान से और ख़ुद क़ुरआन की इबारत से बिल-ज़रूर निकलता है कि उन्होंने तमाम व कमाल इन पाक नविश्तों के एतबार और सेहत की बिला-दरीग़ तस्दीक़ की जो यहूदीयों के दरम्यान उन दिनों राइज थे।

फ़स्ल 128

(सूरह मायदा 5 आयत 82-85)

لَتَجِدَنَّ اَشَدَّ النَّاسِ عَدَاوَۃً لِّلَّذِیۡنَ اٰمَنُوا الۡیَہُوۡدَ وَ الَّذِیۡنَ اَشۡرَکُوۡا ۚ وَ لَتَجِدَنَّ اَقۡربّہُمۡ مَّوَدَّۃً لِّلَّذِیۡنَ اٰمَنُوا الَّذِیۡنَ قَالُوۡۤا اِنَّا نَصٰرٰی ذٰلِکَ بِاَنَّ مِنۡہُمۡ قِسِّیۡسِیۡنَ وَ رُہۡبَانًا وَّ اَنَّہُمۡ لَا یَسۡتَکۡبِرُوۡنَ وَ اِذَا سَمِعُوۡا مَاۤ اُنۡزِلَ اِلَی الرَّسُوۡلِ تَرٰۤی اَعۡیُنَہُمۡ تَفِیۡضُ مِنَ الدَّمۡعِ مِمَّا عَرَفُوۡا مِنَ الۡحَقِّ ۚ یَقُوۡلُوۡنَ ربّنَاۤ اٰمَنَّا فَاکۡتُبۡنَا مَعَ الشّٰہِدِیۡنَ وَ مَا لَنَا لَا نُؤۡمِنُ بِاللّٰہِ وَ مَا جَآءَنَا مِنَ الۡحَقِّ ۙ وَ نَطۡمَعُ اَنۡ یُّدۡخِلَنَا ربّنَا مَعَ الۡقَوۡمِ الصّٰلِحِیۡنَ فَاَثَابَہُمُ اللّٰہُ بِمَا قَالُوۡا جَنّٰتٍ تَجۡرِیۡ مِنۡ تَحۡتِہَا الۡاَنۡہٰرُ خٰلِدِیۡنَ فِیۡہَا وَ ذٰلِکَ جَزَآءُ الۡمُحۡسِنِیۡنَ

तर्जुमा :- तू ज़रूर पाएगा सब आदमीयों से ज़्यादा-तर दुश्मन मोमिनीन का, यहूद और मुशरिकों को और तू ज़रूर पाएगा सबसे नज़्दीक मुहब्बत में मोमिनीन की इन लोगों को जो कहते हैं कि हम नसारा हैं ये इस वास्ते कि उनमें क़िस्सीस (यानी ख़ादिमान दीन) और दरवेश हैं और वो ग़रूर नहीं करते और जब सुनेंगे उसे जो उतरा रसूल पर तो तू देखेगा उनकी आँखें उबलती हैं आँसूओं से इस पर जो हक़ पहचाने वो कहते हैं, ऐ रब ! हम ईमान लाए पस लिख हमको गवाही देने वालों के साथ और हमको क्या होने का है कि ईमान ना लाएं अल्लाह पर, और जो पहुंचा हमारे पास हक़ और हमको तवक़ुअ़ है कि हमारा रब हमको नेक बख़्तों के साथ दाख़िल करेगा। पस इस के सबब से जो उन्होंने कहा उनके रब ने उनको बदला दिया बाग़ जिनके नीचे से बेहती हैं नहरें हमेशा रहने वाले उनमें और ये जज़ा है नेकी वालो की।

ईसाईयों की बनिस्बत यहूदी लोग मुसलमानों से बहुत ज़्यादा दुश्मनी रखते थे। एक बड़ा सबब इस का क़ियास में ये आता है कि मुहम्मद साहब ने अगरचे उनकी कुतुब रब्बानी की कामिल तस्दीक़ की लेकिन इस के साथ ही ईसाईयों की भी कुतुब रब्बानी और ईसा मसीह की नबुव्वत की भी वैसी ही कामिल तस्दीक़ की। पस इतनी बात से इस्लाम बिल्कुल यहूदीयों की आँख से उतर गया, लेकिन ईसाई लोग इस के बरअक्स ये बात सुनकर निहायत ख़ुश हुए कि मुहम्मद साहब ने उनके मज़्हब के मुताबिक़ तौरेत और इंजील दोनों को माना और यहूद व नसारा दोनों के जुम्ला अम्बिया-ए-साबक़ीन और रब्बानी नविश्तों का इक़रार किया और कई एक उनमें से जो मुहम्मद साहब की नबुव्वत पर भी ईमान लाए आयत मुंदरजा बाला की पुर जोश इबारत से मज़हर और मुबीन हुए।

इस बात पर भी ग़ौर करो कि मुहम्मद साहब क्या यहां और क्या दूसरे मुक़ामों पर उमूमन ईसाईयों का भलाई के साथ ज़िक्र करते हैं। यानी उनका भी ज़िक्र ऐसा ही किया है जिन्हों ने दीन इस्लाम तस्लीम नहीं किया था और बाइस इस बुजु़र्गी का उनके लिए यहां ये ठहराया है कि उनके दर्मियान क़िस्सीस (मसीही आलिम) और राहिब यानी ख़ादिमान दीन और दरवेश हुए हैं और यह कि वो तकब्बुर नहीं करते थे। पस ख़ूब वाज़ेह हुआ कि ईसाईयों पर कहीं किसी मुक़ाम पर कोई इशारा भी नहीं है कि उन्होंने जान-बूझ कर अपनी पाक किताबों के मअनी फेरे या इस के रब्त बिगाड़ने के लिए अल्फ़ाज़ को इनके महल से बेमहल किया जैसे यहूदीयों पर तोहमत लगाई।

फ़स्ल 129

(सूरह मायदा 5 आयत 110-111)

اِذۡ قَالَ اللّٰہُ یٰعِیۡسَی ابۡنَ مَرۡیَمَ اذۡکُرۡ نِعۡمَتِیۡ عَلَیۡ وَ عَلٰی وَالِدَتِکَ ۘ اِذۡ اَیَّدۡتُّکَ بِرُوۡحِ الۡقُدُسِ ۟ تُکَلِّمُ النَّاسَ فِی الۡمَہۡدِ وَ کَہۡلًا ۚ وَ اِذۡ عَلَّمۡتُکَ الۡکِتٰبَ وَ الۡحِکۡمَۃَ وَ التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ ۚ وَ اِذۡ تَخۡلُقُ کَ مِنَ الطِّیۡنِ کَہَیۡـَٔۃِ الطَّیۡرِ بِاِذۡنِیۡ فَتَنۡفُخُ فِیۡہَا فَتَکُوۡنُ طَیۡرًۢا بِاِذۡنِیۡ وَ تُبۡرِیُٔ الۡاَکۡمَہَ وَ الۡاَبۡرَصَ بِاِذۡنِیۡ ۚ وَ اِذۡ تُخۡرِجُ الۡمَوۡتٰی بِاِذۡنِیۡ وَ اِذۡ اَوۡحَیۡتُ اِلَی الۡحَوَارِیّٖنَ اَنۡ اٰمِنُوۡا بِیۡ وَ بِرَسُوۡلِیۡ ۚ قَالُوۡۤا اٰمَنَّا وَ اشۡہَدۡ بِاَنَّنَا مُسۡلِمُوۡنَ

तर्जुमा :- याद कर जब कहा अल्लाह ने ऐ ईसा, मर्यम के बेटे याद कर मेरी नेअमत, अपने ऊपर और अपनी वालिदा पर जब मैंने रूह क़ुद्दुस से तुझको क़ुव्वत बख़्शी कि तूने कलाम किया पालने में और बड़ी उम्र में और जब मैंने तुझको सिखाई किताब और हिक्मत और तौरेत और इंजील और जब तूने बनाई मिट्टी से जानवर की सूरत मेरे हुक्म से फिर फूँका इस में तो हो गया जानवर मेरे हुक्म से और चंगा किया अंधे मादर-ज़ाद और कौड़ी को मेरे हुक्म से और जब ज़िंदा किए मुर्दे मेरे हुक्म से और जब मैंने वही किया हवारियों की तरफ़ कि यक़ीन लाओ मुझ पर और मेरे रसूल ईसा पर बोले हम यक़ीन लाए और तू गवाह रह कि हम हुक्मबरदार हैं।

फ़स्ल 130

(सूरह तह्रीम 66 आयत 12)

وَ مَرۡیَمَ ابۡنَتَ عِمۡرٰنَ الَّتِیۡۤ اَحۡصَنَتۡ فَرۡجَہَا فَنَفَخۡنَا فِیۡہِ مِنۡ رُّوۡحِنَا وَ صَدَّقَتۡ بِکَلِمٰتِ رَبِّہَا وَ کُتُبِہٖ وَ کَانَتۡ مِنَ الۡقٰنِتِیۡنَ

तर्जुमा :- और मर्यम बेटी इमरान की जिसने बचाई अपनी दोशीज़गी और फूंक दी इस में अपनी रूह में से और उसने तस्दीक़ की अपने रब की बातें और उस की किताबें और वो थी आबिदों में से।

फ़स्ल 131

(सूरह तौबा 9 आयत 111)

وَ مَرۡیَمَ ابۡنَتَ عِمۡرٰنَ الَّتِیۡۤ اَحۡصَنَتۡ فَرۡجَہَا فَنَفَخۡنَا فِیۡہِ مِنۡ رُّوۡحِنَا وَ صَدَّقَتۡ بِکَلِمٰتِ رَبِّہَا وَ کُتُبِہٖ وَ کَانَتۡ مِنَ الۡقٰنِتِیۡنَ

तर्जुमा :- बा-तहक़ीक़ अल्लाह ने ख़रीदी मोमिनीन से उनकी जान और माल इस शर्त पर कि उनको बहिश्त है जो लड़ें अल्लाह की राह में पस जो वो मारें ख़्वाह मरें वाअदा उस के बाब में हक़ है तौरेत में और इंजील में और क़ुरआन में।

ये आयत सूरह अल-तौबा में है जो सब कि पिछली सूरह है और इस वक़्त इजरा हुआ कि दीन इस्लाम ने तल्वार के ज़ोर से अरब के अक्सर अतराफ़ में तसल्लुत पाया था।

शायद इशारा इस आयत में तौरेत और इंजील के इन मुक़ामात पर हो जहां जंग रुहानी यानी ईमान की नेक लड़ाई का ज़िक्र लिखा है।

इस बाब में इन्साफ़ और ग़ौर करने वालों से पोशीदा ना रहेगा कि अहकाम इंजील व क़ुरआन के दर्मियान तफ़ावुत (फ़र्क़, दूरी) है ईसाईयों के हथियार रुहानी हैं। दीन ईस्वी फैलाने के वास्ते ज़ोर हरगिज़ नहीं। जब कि ईसा पीलातूस के महकमे में खड़ा हुआ उसने यही कहा कि :-

“मेरी सल्तनत इस दुनिया की नहीं है अगर मेरी सल्तनत इस दुनिया की होती तो मेरे नौकर इस बात के वास्ते लड़ते कि मैं यहूदीयों के हवाले ना किया जाऊं लेकिन अब यहां से मेरी सल्तनत नहीं है।”

ये ज़िक्र इस आयत के नीचे इस वास्ते लिख दिया कि ऐसा ना हो कि कोई मुसलमान ये ख़्याल कर बैठे कि इंजील मज़्हब फैलाने के वास्ते लड़ने का हुक्म देती है बल्कि उस के फैलाने में ज़ोर और ज़बरदस्ती बिल्कुल ममनूअ है।

ख़ातिमा

क़ुरआन के इक़्तिबासात इस मुक़ाम पर ख़त्म हुए अब ईमानदार और सच्चे मुसलमानों की तरफ़ ख़िताब करता हूँ और उनके गौर व ख़ौज़ के वास्ते ये चंद बातें पेश करता हूँ वो मुसलमान जो क़ुरआन की तिलावत में दिन रात मशग़ूल रहते हैं कि जैसा मुसलमान को रहना चाहीए यानी अपनी किताब मुस्तइद्दी के साथ पढ़ें और बड़ी मिन्नत व आजिज़ी से दुआ मांगें कि अल्लाह तआला उन्हें राह-ए-हक़ की रहनुमाई करे चुनान्चे सूरह अल-मुज़म्मल में है।

(सुरह अल-मुज़म्मल 73 आयत 2-4, 6)

قُمِ الَّیۡلَ اِلَّا قَلِیۡلًا ۙ نِّصۡفَہٗۤ اَوِ انۡقُصۡ مِنۡہُ قَلِیۡلًا ۙ اَوۡ زِدۡ عَلَیۡہِ وَ رَتِّلِ الۡقُرۡاٰنَ تَرۡتِیۡلًا اِنَّ نَاشِئَۃَ الَّیۡلِ ہِیَ اَشَدُّ وَطۡاً وَّ اَقۡوَمُ قِیۡلًا

तर्जुमा : उठो रात को जब कि वो थोड़ी सी बाक़ी रह जाये आधी या इस में से कुछ घटा कर या कुछ बढ़ा कर और पढो क़ुरआन हुस्न आवाज़ से फ़िल-हक़ीक़त पिछली रात का वक़्त इबादत और साफ़ पढ़ने के वास्ते में अच्छा है।

फिर (सुरह अल-फतह 48 आयत 29 में) यूं लिखा है कि :-

تَرٰىہُمۡ رُکَّعًا سُجَّدًا یَّبۡتَغُوۡنَ فَضۡلًا مِّنَ اللّٰہِ وَ رِضۡوَانًا ۫ سِیۡمَاہُمۡ فِیۡ وُجُوۡہِہِمۡ مِّنۡ اَثَرِ السُّجُوۡدِ ذٰلِکَ مَثَلُہُمۡ فِی التَّوۡرٰىۃِ ۚ وَ مَثَلُہُمۡ فِی الۡاِنۡجِیۡلِ الخ

तर्जुमा : तुम देखते हो इनको यानी (मुसलमानों को) झुकने में और औंधे मुँह के बल में उम्मीदवार फ़ज़्ल व रज़ामंदी अल्लाह के इनकी निशानीयां और इनके चेहरों पर हैं सज्दो के असर से ये मिस्ल है इनकी तौरेत में और मिस्ल है इनकी इंजील में।

फिर (सुरह अल-आराफ़ 7 आयत 204-205) में यूं लिखा है कि :-

وَ اِذَا قُرِیَٔ الۡقُرۡاٰنُ فَاسۡتَمِعُوۡا لَہٗ وَ اَنۡصِتُوۡا لَعَلَّکُمۡ تُرۡحَمُوۡنَ وَ اذۡکُرۡ رَّبَّکَ فِیۡ نَفۡسِکَ تَضَرُّعًا وَّ خِیۡفَۃً وَّ دُوۡنَ الۡجَہۡرِ مِنَ الۡقَوۡلِ بِالۡغُدُوِّ وَ الۡاٰصَالِ وَ لَا تَکُنۡ مِّنَ الۡغٰفِلِیۡنَ

तर्जुमा : जब क़ुरआन पढ़ा जाये तो तुम उस को सुनो और ख़ामोश रहो ताकि तुम रहम किए जाओ और अपने दिल अपने रब को याद करो आजिज़ी और ख़ौफ़ से बग़ैर बुलंद करने आवाज़ के सुबह को और शाम को और तू ग़ाफ़िलों में से होजा।

अल-ग़र्ज़ अब जो बातें बतौर फ़वाइद के लिखी जाती हैं वो इसी तरह के सालिह व मुत्तक़ी मुसलमानों के वास्ते हैं राक़िम की बमिन्नत ये अर्ज़ है कि वो मुसलमान इस किताब को बग़ौर व ताम्मुल सिदक़ दिल और सफ़ाई बातिन के साथ ख़ुदा से दुआ मांग कर पढ़ें।

पहला बाब

इंतिख्व़ाब का कामिल होना और इस में किसी का पास-ए-ख़ातिर ना रहना

इस किताब में राक़िम ने कुछ इन्हीं आयतों को तलाश कर के नहीं चुना जो उस की दानिस्त में यहूद व नसारा के मतलब के मुवाफ़िक़ थीं बल्कि जो जो आयतें ऐसी पाइं जिनमें कुछ भी ज़िक्र या इशारा उनकी कुतुब रब्बानी का था सबको बिला कम व कासित इंतिख्व़ाब कर के इकट्ठा कर दिया यहां तक कि इस बात के वास्ते ख़बरदारी तमाम के साथ अव्वल से आख़िर तक क़ुरआन को मुकर्रर देखा और जहां जो आयतें क़िस्म मज़्कूर बाला की नज़र पड़ीं उनको बराबर इक़्तिबास कर लिया ज़र्रा भी जिसमें कुछ ज़िक्र या इलाक़ा इस बात का पाया अपनी दानिस्त में एक को भी बाक़ी ना छोड़ा सबको इस किताब में यकजा कर दिया और शायद अगर इस पर भी कोई आयत फ़िरोगुज़ाश्त हुई हो तो इस को बाइस सिर्फ़ सहव (भूल-चुक) समझना चाहीए, ये कभी ना ख़्याल करना चाहीए कि उसे अपने मतलब के ना-मुवाफ़िक़ पाकर उम्दन छोड़ दिया है। पस क्या मुसलमान और क्या ईसाई दोनों को ज़रूर है कि इस किताब पर इक्तिफ़ा (किफ़ायत करना, काफ़ी समझना, काफ़ी होना) करें। यानी दोनों को तस्लीम करना चाहीए कि किताब हज़ा में वो शहादत जो तौरेत और इंजील के हक़ में क़ुरआन देता है रो रिआयत अहद (एक) से तमाम व कमाल मौजूद है।

दूसरा बाब

मुहम्मद साहब के ज़माने में तौरेत व इंजील का मौजूद होना और जारी रहना

ऐसा कोई शख़्स नहीं है जो मुतवज्जा हो कर क़ुरआन को पढ़े और ये बात उस के दिल में ना गड़ जाये कि किस कस्रत से यहूदीयों और ईसाईयों की कुतुब रब्बानी का ज़िक्र आता है। सैंकड़ों मुक़ामात पर उनका हवाला होता है और उन्हें कितने ही नामों से ताबीर किया है मसलन किताब-उल्लाह व कलाम-उल्लाह व अल-तौराता व अल-इंजील वग़ैरह।

फिर इनकी तारीफ़ इस सूरत पर है कि वो क़ुरआन से पेशतर के ज़मानों में ख़ुदा ही से नाज़िल हुईं, जैसा इस इबारत में مَّا بَیۡنَ یَدَیۡہِ مَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰہُ مِنۡ قَبۡلُ वग़ैरह। फिर क़ुरआन भर में तौरेत और इंजील का ज़िक्र इस सूरत पर है कि वो पैग़म्बर इस्लाम के वक़्त में सिर्फ मौजूद ही ना थीं बल्कि उनके नुस्खे़ हर कहीं यहूदी और ईसाईयों के दर्मियान राइज व जारी थे। चुनान्चे ये बात अल्फ़ाज़ जे़ल से बख़ूबी निकलती है مَعَہُمۡ यानी कुतुब रब्बानी जो उनके साथ हैं مَا عِنۡدَہُمْ यानी जो उनके पास हैं فَسۡـَٔلِ الَّذِیۡنَ یَقۡرَءُوۡنَ الۡکِتٰبَ مِنۡ قَبۡلِکَ ऐ मुहम्मद पूछ उन लोगों से जो पढ़ते हैं किताब जो तुझसे पेशतर नाज़िल हुई وَ دَرَسُوۡا مَا فِیۡہِ यहूद पढ़ते हैं इसे जो इस में यानी उनकी किताब में है। یَسۡمَعُوۡنَ کَلٰمَ اللّٰہ यानी यहूद सुनते हैं कलाम-उल्लाह को وَّ ہُمۡ یَتۡلُوۡنَ الۡکِتٰبَ और वो पढ़ा करते हैं किताब।

एक सौ सातवीं (107) फ़स्ल के दर्मियान देखो कि इसी तरह एक मर्तबा मुहम्मद साहब ने यहूदीयों को उनकी किताब की तरफ़ दावत की यानी वाक़ेअ में उनकी कुतुब यहूद ये के नुस्ख़ों पर हवाला देना चाहा और फिर एक सौ पंद्रहवीं (115) फ़स्ल के दर्मियान देखो कि एक और मर्तबा उनसे एक बह्स के तसफ़ीया (साफ़ करना, वाज़ेह करना) के लिए उन्हीं की पाक किताबों के नुस्ख़ों को तलब किया और किसी मुक़ाम के पढ़ने का भी हुक्म दिया ताकि फिर उस के बाद शक बाक़ी ना रहे।

यहूद व नसारा दोनों को इस बात की ताकीद है कि अपनी कुतुब रब्बानी के अहकाम अमल में लाएं और उनके मुताबिक़ हुक्म करें। इस से साफ़ निकलता है कि किताब मज़्कूर के नुस्खे़ बकस्रत इस उम्मत में जारी थे कि जिन पर बिलादिक़्क़त रुजूअ़ कर सकते थे ताकि उनके अहकाम पर अमल करना और उनके मुताबिक़ हुक्म करना मुम्किन हो और फिर यहूद व नसारा को हुक्म मिला कि तुम्हारा दीन बेफ़ाइदा है ता-वक़्त ये कि तुम यहूद व नसारा दोनों की कुतुब रब्बानी को तस्लीम कर के उनके अहकाम पर क़ायम ना हो। इस से भी वही बात निकलती है क्योंकि ऐसी किताबों पर क़ायम रहने का इसरार करना जो बसहुलत इन फ़िर्क़ों के अक्सर लोगों को हाथ ना लग सके गोया फ़ुज़ूल बकना था। क़त-ए-नज़र इस के मुहम्मद साहब ख़ुद अपने दावे के इस्बात में बार-बार उन्हीं कुतुब रब्बानी पर हवाला देते थे और रफ़ा इशतिबाह (दो चीज़ों का इस तरह हमशक्ल होना कि धोका हो जाएगी, शक) के लिए ये किया करते थे कि अहले-किताब से पूछो या ख़ुद किताबों पर रुजूअ़ करने का हुक्म देते थे। पर जो कुतुब मज़्कूर के नुस्खे़ बकस्रत उनके ज़माने में जारी ना होते तो वो कभी ऐसा ना करते।

पस इस नतीजे में कुछ शक व शुब्हा नहीं कि जो अल्फ़ाज़ आम यहूदी कुतुब रब्बानी के वास्ते क़ुरआन में लिखे हैं मसलन الۡکِتْابِ الذِّکۡرُ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوۡا نَصِیۡبًا مِّنَ الۡکِتٰبِ वग़ैरह। उनसे मुराद उन्हीं कुतुब के नुस्ख़ों से है कि जो ज़माना मुहम्मद साहब में यहूदीयों के दर्मियान मौजूद थे और जिनको यहूद ने इल्हामी क़रार दिया التَّوۡریت लफ़्ज़ से कभी तो ये मअनी मक़्सूद होते हैं कि जुम्ला पाक नविश्ते मुरव्वज यहूदीयों के और कभी सिर्फ कुतुब मूसा पर इस्तिमाल किया गया। الزَّبُوۡر का लफ़्ज़ सिर्फ़ दाऊद के इल-हानों (लहन की जमा, गीत, अच्छी आवाज़ से गाना या पढ़ना) पर मुस्तअमल हुआ है। अला हाज़-उल-क़यास ईसाईयों के जो पाक नविश्ते उमूमन الۡاِنۡجِیۡلَ के नाम से लिखे हैं इंजील पर जो ईसाईयों के दर्मियान उस ज़माने में जारी थी और जिसको वो इल्हाम इलाही समझते थे यानी तमाम व कमाल इंजील मुरव्वजा ज़माना मज़्कूर पर इतलाक़ करते हैं। क़ुरआन के बमूजब ईसा ने वो ख़ुदा से पाई और फिर अपने तवाबेअ़ (ताबे की जमअ़ पैरौ, मुलाज़िम, मातहत) को सिखाई। ग़रज़ जिस तरह कि मुहम्मद साहब बेखटके यहूद व नसारा की कुतुब रब्बानी पर जैसा कि उस वक़्त उन के दर्मियान जारी थीं और उनके नज़्दीक मोअतबर समझी गई थीं हवाला देते हैं। इस से तो ख़्वाह-मख़्वाह यही नतीजा निकलता है कि तौरेत और इंजील मज़्कूर क़ुरआन वही तौरेत और इंजील थी जिनके नुस्खे़ ज़माना मज़्कूर के यहूद व नसारा में मुरव्वज थे। फिर पोशीदा ना रहे कि क़ुरआन में यहूद व नसारा की कुल किताब रब्बानी पर ईमान लाने का हुक्म है मुतवातिर कहा गया कि जुज़्व पर ईमान लाना अबस है बल्कि साफ़ ताकीद और तहदीद (धमकी) है कि जो लोग एक हिस्से को मानते हैं और एक हिस्से को नहीं मानते उनके वास्ते सख़्त सज़ा होगी चुनान्चे (फ़स्ल 73 और फ़स्ल 102) के दर्मियान मुलाहिज़ा करो।

तीसरा बाब

यहूद व नसारा की किताबों के रब्बानी होने की क़ुरआन शहादत देता है

यहूद व नसारा की किताबों का जैसे कि वो मुहम्मद साहब के वक़्त में मौजूद व जारी थीं। रब्बानी होना सारे क़ुरआन में बानी-ए-क़ुरआन ने जैसा कि चाहीए साफ़ तस्दीक़ किया है मसलन مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ वग़ैरह यहां तक कि ये इबारत बईना मुतवातिर क़ुरआन के हक़ में बीसियों (बहुत ज़्यादा) जगह पर लिखी है कि क़ुरआन उन पाक नविश्तों की जो इस के आगे नाज़िल हुए यानी तौरेत व इंजील की तस्दीक़ करने को नाज़िल हुआ, बल्कि कई मुक़ामों पर क़ुरआन ही का अस्ल-ए-मुद्दआ और मतलब ये ठहराया गया कि तौरेत व इंजील की शहादत दे। अला हाज़-उल-क़यास क़ुरआन की आयत में एक नबुव्वत है जो बतौर पीशीनगोई मुहम्मद साहब के हक़ में अगले अम्बिया को दी गई और इस में मुहम्मद साहब का बड़ा निशान और तारीफ़ भी लिखी है कि वो इस को यानी उस किताब को जो तुम्हारे पास है तस्दीक़ करेगा इस अलामत से वो नबी पहचाना जाएगा।

ثُمَّ جَآءَکُمۡ رَسُوۡلٌ مُّصَدِّقٌ لِّمَا مَعَکُم (फ़स्ल 113), फिर (फ़स्ल 17) पर रुजूअ़ करने से मालूम होगा कि जिनकी एक जमाअत ने जब क़ुरआन को मुहम्मद साहब के पढ़ने से सुन लिया तो अपने साथीयों के पास जाकर यही उस की तारीफ़ और ख़ासीयत बताई कि ऐ हमारी क़ौम हमने सुना एक किताब कि जो उतरी मूसा के बाद तस्दीक़ करती है उन इल्हामी नविश्तों को जो उस के पेशतर हैं। قَوۡمَنَاۤ اِنَّا سَمِعۡنَا کِتٰبًا اُنۡزِلَ مِنۡۢ بَعۡدِ مُوۡسٰی مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ वाज़ेह हो कि इन अगली किताबों के हक़ में हमेशा यही कैफ़ीयत और सिफ़त रही है कि वो बदर्जा कमाल वही की राह से मिंजानिब ख़ुदा दी गई हैं। चुनान्चे क़ुरआन में ऐसी ऐसी इबारत उनकी बाबत हर जगह लिखी है जैसे نزل यानी ख़ुदा से उतरी। انَزَّلَ کِتْابًا بِالۡحَقِّ यानी ख़ुदा ने किताब को हक़ से या हक़ के साथ उतारा और अम्बिया जिन्हों ने किताब इजरा की इल्हाम और वही की राह की।

ये भी सोचना चाहीए कि क़ुरआन ख़ुद अपने वास्ते बदर्जा कमाल वही का दावा करता है। अब (फ़स्ल 22, 60, 103 और 110) पर रुजूअ़ करो तो मालूम होगा कि क़ुरआन की तारीफ़ की राह से मुकर्रर लिखा है कि मुहम्मद साहब की वही उसी सूरत की वही थी जैसी अगले पैग़म्बरों की और क़ुरआन इसी तरीक़ के इल्हाम से दिया गया कि जिस तरीक़ के इल्हाम से यहूदी और ईसाईयों की किताब। अलावा बरीं यहूद ईसाईयों की पाक किताब के लिए वही नाम लिखे जाते हैं कि जो क़ुरआन के वास्ते मुस्तअमल हैं और जिनसे आस्मानी कैफ़ीयत और रब्बानी सिफ़त निकलती है क्योंकि उस को किताब-उल्लाह कहा है (79, 107, 124 फसलों) पर रुजूअ़ करो और कलाम-उल्लाह (फ़स्ल 70) में और फ़ुरक़ान यानी नेक व बद का तमीज़ करने वाला (फ़स्ल 48, 68) में उनके मज़ामीन अक्सर मुक़ामों पर इस ढब से मज़्कूर हुए हैं कि जैसे क़तई और रब्बानी हुक्मों से भरे हों।

क़िस्सा कोताह (मुख़्तसर ये कि) इन किताबों के रब्बानी होने की शहादत क़ुरआन अव्वल से आख़िर तक ऐसा वाज़ेह और कामिल लिखा हुआ है कि जिससे ज़्यादा और क़ियास में नहीं आ सकता।

चौथा बाब

यहूद व नसारा की कुतुब रब्बानी की

तारीफ़ क़ुरआन में

यहूद व नसारा की कुतुब रब्बानी की क़ुरआन में बड़ी भारी क़द्रो मंजिलत मुतवातिर लिखी है।

जहां कहीं इनका ज़िक्र आया है सब जगह तौक़ीर और ताज़ीम व तकरीम के साथ है क़ुरआन में इब्तिदा से इंतिहा तक ऐसा उनका मज़्कूर कहीं नहीं कि जिससे उनकी अज़मत व बुजु़र्गी बदर्जा कमाल ना निकलती हो। अब मैं यहां बाअज़ आयात और इबारत क़ुरआन से इक़्तिबास करके साबित करूँगा कि क़ुरआन की शहादत से तौरेत व इंजील मुरव्वजा यहूद व नसारा की बड़ी क़द्र व मंजिलत है इनमें आस्मानी फ़ज़ीलत और नेअमत है और इनके दर्स व मुतालआ से फ़ायदा अज़ीम और बरकत बेपायाँ हासिल होती है।

किताब मूसा इमाम व रहमत है (फ़स्ल 16, फ़स्ल 31) उन नबियों के नविश्ते जो मुहम्मद साहब से पेशतर थे। “किताब मस्तबीन مستبین और अल-किताब-उल-मुनीर।” यानी वो किताब जो साफ़ और वाज़ेह और नूरानी है और जो नूर और रोशनी बख़्शती है। (फ़स्ल 12, 18, 19)

जो किताब बनी-इस्राईल ने विरसे में पाई वही हिदायत और याद-दहानी है साहिबान दानाई के लिए “ہدی و ذکری لادلی الالباب” (फ़स्ल 25), किताब मूसा नूर है और हिदायत है बनी-आदम के वास्ते ’’نوراًوہدیً للناس‘‘ (फ़स्ल 37) फिर (फ़स्ल 41) में लिखा है कि वो तमाम व कमाल है उस चीज़ में जो नेक है हर चीज़ की तफ़्सील और बयान इस में है हिदायत और रहमत ताकि लोग अपने रब से मलाक़ी (मिलने वाला, मुलाक़ात करने वाला) होने पर ईमान लाएं

تَمَامًا عَلَی الَّذِیۡۤ اَحۡسَنَ وَ تَفۡصِیۡلًا لِّکُلِّ شَیۡءٍ وَّ ہُدًی وَّ رَحۡمَۃً لَّعَلَّہُمۡ بِلِقَآءِ رَبِّہِمۡ یُؤۡمِنُوۡنَ۔फिर (फ़स्ल 43) में लिखा है कि बसारया यानी बसीरत व रोशन ज़मीरी बनी-आदम को बख़्शी है और हिदायत व रहमत है शायद कि लोग नसीहत मान लें بَصَآئِرَ لِلنَّاسِ وَ ہُدًی وَّ رَحۡمَۃً لَّعَلَّہُمۡ یَتَذَکَّرُوۡنَ۔ फिर (फ़स्ल 48) में इस की ये बड़ी तारीफ़ है कि वो फ़ुरक़ान है और उजाला और नसीहत ख़ुदा परस्तों के लिए वो जो ग़ैब में अपने रब से डरते हैं और उस घड़ी यानी क़ियामत के रोज़ से काँपते हैं الۡفُرۡقَانَ وَ ضِیَآءً وَّ ذِکۡرًا لِّلۡمُتَّقِیۡنَ الَّذِیۡنَ یَخۡشَوۡنَ ربّہُمۡ بِالۡغَیۡبِ وَ ہُمۡ مِّنَ السَّاعَۃِ مُشۡفِقُوۡنَ۔ फिर (फ़स्ल 66) में लिखा है कि वो जो ईमान लाते हैं उस किताब पर जो इस्लाम से पेशतर नाज़िल हुई مَاۤ اُنۡزِلَ مِنۡ قَبۡلِکَ۔ और क़ुरआन पर भी वो अपने रब की हिदायत पर चलते हैं वही हैं मुबारक। علی ٰ ہدی من ربھم و اولئک ہم المفلحون ۔ फिर (फ़स्ल 82) में लिखा है कि ख़ुदा की शहादत यानी तौरेत यहूदीयों के पास थी شَہَادَۃً عِنۡدَہٗ مِنَ اللّٰہ और (फ़स्ल 105) में मुंदरज है कि ख़ुदा ने तौरेत और इंजील को पेशतर से नाज़िल किया ताकि होएं हिदायत बनी-आदम के वास्ते और फुर्क़ान को नाज़िल किया। वो जो मुन्किर हैं ख़ुदा की आयतों से उनके लिए अज़ाब शदीद है। وَ اَنۡزَلَ التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ مِنۡ قَبۡلُ ہُدًی لِّلنَّاسِ وَ اَنۡزَلَ الۡفُرۡقَانَ ۬ اِنَّ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا بِاٰیٰتِ اللّٰہِ لَہُمۡ عَذَابٌ شَدِیۡدٌ۔

फिर (फ़स्ल 124) में ख़ास इंजील की बाबत ये लिखा है कि ख़ुदा ने इंजील बख़्शी कि उस में हिदायत है और वअ़ज़ व नसीहत ख़ुदा परस्तों के लिए व وَ اٰتَیۡنٰہُ الۡاِنۡجِیۡلَ فِیۡہِ ہُدًی وَّ نُوۡرٌ ۙ وَّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ مِنَ التَّوۡرٰىۃِ وَ ہُدًی وَّ مَوۡعِظَۃً لِّلۡمُتَّقِیۡنَ۔ ग़रज़ इसी तौर पर सारे क़ुरआन में यहूद व नसारा की कुतुब रब्बानी की तारीफ में लिखा है कि वो रूह को रोशनी बख़्शती हैं बनी-आदम के वास्ते हिदायत हैं सब चीज़ों की तफ़्सील हैं जो कुछ अहसन है तमाम इस में मौजूद है। अब फ़रमाए कि इस से बढ़कर और क्या तारीफ़ होगी और इस से बढ़कर और कौन सी दूसरी बात इन कुतुब मुक्द्दसा के मुतालआ करने और इनके अहकामात दिल से मानने के लिए मुसलमानों को दरका है।

पांचवां बाब

क़ुरआन का तौरेत व इंजील पर हवाला देना और उनके अहकाम की तबईत के वास्ते इर्शाद करना

यहूद व नसारा की कुतुब रब्बानी पर मुहम्मद साहब ने क़ुरआन में अक्सर मुक़ामों पर हवाला दिया है और यहूदीयों और ईसाईयों को अपनी अपनी किताबों के अहकाम की तबईत (पैरवी) के वास्ते ताकीदन इर्शाद किया है।

अव्वल :- ये कि मुहम्मद साहब बहुतेरे मुक़ामों पर क़ुरआन में अहले तौरेत और अहले इंजील को अपने दावे और इस्लाम की सेहत के गवाह क़रार देते हैं। क़ुरआन में साफ़ लिखा है कि तौरेत व इंजील में मुहम्मद साहब की नबुव्वत की शहादत है और उनका मज़्मून क़ुरआन से मुताबिक़ है और जो लोग कि उनकी पेशीनगोइयों के मअनी सफ़ाई बातिन से रास्त रास्त लगाते हैं उन्होंने मुहम्मद साहब की निशानीयां और क़ुरआन की हक़ीक़त पहचानी और इस सबब से निहायत ख़ुश हुए। चुनान्चे जे़ल की फसलों में मज़्कूर है। (यानी 7, 13, 15, 35, 39, 45, 54, 56, 57, 61, 65, 74, 75, वग़ैरह)

दोम :- तमाम व कमाल तौरेत व इंजील की दिल से तबईत करनी यहूदीयों और ईसाईयों पर बहुत इबरत के साथ फ़र्ज़ ठहराया है और मुसलमानों को भी कुतुब मज़्कूर पर ईमान लाने के वास्ते ताकीद है बल्कि ये उनके दीन को जुज़्व लाज़िमी ठहराया गया है।

जो लोग कि किताब को मज़बूती से पकड़े रहे यानी इस पर क़ायम हैं یُمَسِّکُوۡنَ بِالۡکِتٰبِ۔ उनके वास्ते जज़ा-ए-नेक का वाअदा है और वो किताब रब्त कलाम से भी तौरेत ही मालूम होती है। (फ़स्ल 64), फिर (फ़स्ल 26) में यूं लिखा है الَّذِیۡنَ کَذَّبُوۡا بِالۡکِتٰبِ وَ بِمَاۤ اَرۡسَلۡنَا بِہٖ رُسُلَنَا ۟ فَسَوۡفَ یَعۡلَمُوۡنَ اِذِ الۡاَغۡلٰلُ فِیۡۤ اَعۡنَاقِہِمۡ وَ السَّلٰسِلُ یُسۡحَبُوۡنَ فِی الۡحَمِیۡمِ ۬ ثُمَّ فِی النَّارِ یُسۡجَرُوۡنَ मअनी जिन्हों ने रोकी किताब और वो जो भेजा हमने साथ अपने रसूलों के सो आख़िर जान लेंगे जब तौक़ होंगे उनकी गर्दनों में और ज़ंजीरीं जिनसे खींचे जाऐंगे जहन्नम में फिर वो जलाए जाऐंगे आग में। फिर (फ़स्ल 101) में ताकीदन नसीहत है कि ना सिर्फ क़ुरआन पर ईमान लाना है बल्कि उस किताब पर भी जो बेशतर से अल्लाह ने नाज़िल की عَلٰی الۡکِتٰبِ الَّذِیۡۤ اَنۡزَلَ مِنۡ قَبۡلُ और जो कोई कुतुब मज़्कूर से किसी किताब को रद्द करे सो बड़ी गुमराही और ज़लालत में पड़ा ا مَنۡ یَّکۡفُرۡ بِاللّٰہِ وَ مَلٰٓئِکَتِہٖ وَ کُتُبِہٖ وَ رُسُلِہٖ وَ الۡیَوۡمِ الۡاٰخِرِ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلٰلًۢا بَعِیۡدًا۔ फिर (फ़स्ल 73) में इस तौर पर लिखा है कि :- اَفَتُؤۡمِنُوۡنَ بِبَعۡضِ الۡکِتٰبِ وَ تَکۡفُرُوۡنَ بِبَعۡضٍ ۚ فَمَا جَزَآءُ مَنۡ یَّفۡعَلُ ذٰلِکَ مِنۡکُمۡ اِلَّا خِزۡیٌ فِی الۡحَیٰوۃِ الدُّنۡیَا ۚ وَ یَوۡمَ الۡقِیٰمَۃِ یُرَدُّوۡنَ اِلٰۤی اَشَدِّ الۡعَذَابِ۔ यहां तौरेत का ज़िक्र है सो उस के हक़ में यूं तहरीर है कि जो लोग किताब के एक हिस्से को मानते हैं और दूसरे हिस्से को रद्द करते हैं उनकी जज़ा और कुछ ना होगी मगर रुस्वाई इस दुनिया की ज़िंदगी में और क़ियामत के दिन डाले जाऐंगे सख़्त से सख़्त अज़ाब में। फिर (फ़स्ल 102) में ज़्यादा तफ़्सील और सफ़ाई से ये मुंदरज है कि اِنَّ الَّذِیۡنَ یَکۡفُرُوۡنَ بِاللّٰہِ وَ رُسُلِہٖ وَ یُرِیۡدُوۡنَ اَنۡ یُّفَرِّقُوۡا بَیۡنَ اللّٰہِ وَ رُسُلِہٖ وَ یَقُوۡلُوۡنَ نُؤۡمِنُ بِبَعۡضٍ وَّ نَکۡفُرُ بِبَعۡضٍ ۙ وَّ یُرِیۡدُوۡنَ اَنۡ یَّتَّخِذُوۡا بَیۡنَ ذٰلِکَ سَبِیۡلًا اُولٰٓئِکَ ہُمُ الۡکٰفِرُوۡنَ حَقًّا ۚ وَ اَعۡتَدۡنَا لِلۡکٰفِرِیۡنَ عَذَابًا مُّہِیۡنًا मअनी बा-तहक़ीक़ जो लोग मुन्किर हैं अल्लाह से और उस के रसूलों से और चाहते हैं कि फ़र्क़ डालें इन दोनों में और कहते हैं कि एक हिस्से को हम मानते हैं और एक हिस्से को नहीं मानते और चाहते हैं कि निकालें एक राह बीच में से यही लोग हक़ीक़ी काफ़िर हैं और हमने तैयार कर रखी है काफ़िरों के वास्ते ज़िल्लत की मात। अलावा इस से (फ़स्ल 115) में तौरेत पर एक आयत इक़्तिबास हो चुकी जिसमें अल्लाह का हुक्म है मुहम्मद साहब को कि यहूदीयों से कह कि वो तौरेत को यहां लाएं और उस को पढ़ें ताकि जिस बात की तकरार दर पेश थी उस का तस्फ़ीया हो जाये कुल قُلۡ فَاۡتُوۡا بِالتَّوۡرٰىۃِ فَاتۡلُوۡہَاۤ۔ (फ़स्ल 115) में दूसरी आयत का ज़िक्र हुआ जिसमें लिखा है कि यहूदी लोग किताब-उल्लाह की तरफ़ यानी तौरेत की तरफ़ दावत किए गए ताकि वो उनका इन्साफ़ कर दे یُدۡعَوۡنَ اِلٰی کِتٰبِ اللّٰہِ لِیَحۡکُمَ بَیۡنَہُم फिर (फ़स्ल 127) में यहूद व नसारा को कुछ सिर्फ़ तौरेत व इंजील का हुक्म मानने ही के वास्ते नहीं कहा है बल्कि बहुत इबरत के साथ उन्हें मुतनब्बाह (आगाह किया) कर दिया है कि अगर वो तौरेत व इंजील के अहकाम को क़ायम ना करें किसी चीज़ पर भी क़ायम नहीं हैं لَسۡتُمۡ عَلٰی شَیۡءٍ حَتّٰی تُقِیۡمُوا التَّوۡرٰىۃَ وَ الۡاِنۡجِیۡلَ۔ फिर (फ़स्ल 124) में तौरेत व इंजील के ज़िक्र के बाद ये इबरतनाक इबारत ताकीद तीन बार लिखी है कि जो कोई उस के बमूजब जिसको ख़ुदा ने उतारा हुक्म नहीं करता वो फ़ासिक़ व ज़ालिम व काफ़िर हैं। و مَنۡ لَّمۡ یَحۡکُمۡ بِمَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰہُ فَاُولٰٓئِکَ ہُمُ الۡکٰفِرُوۡنَ الظّٰلِمُوۡنَ۔

सोम :- तौरेत व इंजील के अहकाम की तबईत क़ुरआन के बयान से सिर्फ यहूद व नसारा पर वाजिब थी तो भी जमी मुसलमानान बा ईमान पर सख़्त हुक्म है कि तौरेत व इंजील पर ईमान लाएं चुनान्चे ये बात जे़ल की फसलों से वाज़ेह और हुवैदा होगी। (24, 26, 59, 66, 81, 101, 102, 103, 118)

अला हाज़ा-उल-क़ियास (90, 201) फसलों में ख़ुदा की रहमत और भारी जज़ा उमूमन उन मोमिनीन के वास्ते मौऊद हुई है जो कि कुतुब आस्मानी पर तमाम व कमाल ख़्वाह वो यहूदीयों की हों ख़्वाह ईसाईयों की ईमान लाते हैं। जो लोग कि इस के किसी हिस्से से इन्कार करते हैं उन्हें लिखा है कि बड़ी भूल में पड़े हैं। (फ़स्ल 101) हां वह असली काफ़िर हैं जिनके लिए ख़ुदा ने बड़ी शर्म की सज़ा मौजूद रखी है। (फ़स्ल 102, 90) पस मालूम नहीं होता कि यहूद व नसारा की कुतुब रब्बानी को मुसलमानान सादिक़ ने किस वास्ते अदम तवज्जही में डाल रखा है या कि उनसे इन्कार व इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) इख़्तियार किया है इस में तो ख़ुद क़ुरआन के बमूजब उन्हीं के वबाल को ख़ौफ़ है।

पोशीदा न रहे बल्कि ख़ूब लिहाज़ है इस बात पर कि कुतुब मुक़द्दस जिन पर ईमान लाना मुसलमानों को फ़र्ज़ है वही तौरेत व इंजील हैं जिनको मुहम्मद साहब के हम-अस्र यहूद व नसारा उमूमन कलाम-उल्लाह मानते थे। तौरेत व इंजील जिसका ये तज़्किरा मुतवातिर क़ुरआन में आया है कि वो अहले-किताब के पास थी बिल-ज़रूर वही तौरेत व इंजील है किसी और तौरेत व इंजील का होना हरगिज़ अक़्ल तस्लीम ना करेगी। मक्का और मदीना दुनिया के किसी ऐसे कोने में वाक़ेअ ना था जहां इस बाब में कुछ ग़लत-फ़हमी हो सकती थी। ज़रूर है कि जब तौरेत व इंजील का इस क़द्र ज़िक्र क़ुरआन में हुआ तो सिवा इन रब्बानी किताबों के जिनको उस ज़माने के तमाम मुल्कों के यहूदी और ईसाई कलाम इलाही जानते थे किसी और किताब का इशारा मुम्किन नहीं। क़ुरआन में ऐसी किताबों का ज़िक्र है जो मुस्तअमल व मुरव्वज थीं और हर जगह रोज़मर्रा पढ़ी जाती थीं और जिन पर हस्र और हवाला बसहुलत हो सकता था। पस ज़रूर है कि ये उन्हीं पाक किताबों से मुराद है जो चारों तरफ़ के यहूद और ईसाईयों के पास थीं और ये बात उस वक़्त ज़्यादा-तर तौज़ीह पाएगी जब याद किया जाये कि अरबिस्तान की जवानिब से यहूद और ईसाई साल ब साल कस्रत से उकाज़ (एक मेला जो इस्लाम से पहले मक्का के क़रीब लगा करता था) और मजना और ज़वालमजाज़ वग़ैरह मेलों में जमा होते थे और क़ुरैश वग़ैरह और सौदागर मक्के से साल में कई मर्तबा शाम यमन और हब्श की तरफ़ कि जहां दीन ईस्वी फैल गया था और यहूदीयों का मज़्हब भी लोगों को मालूम था जाया करते थे। बल्कि सही रिवायतें हैं जिनसे दर्याफ़्त हुआ कि इन अय्याम में बाअज़ अरब क़ैसरो क़सरी के दरबार तक भी पहुंचे थे। मुहम्मद साहब की नबुव्वत का दावा करने से थोड़े ही दिन बेशतर उस्मान इब्ने हुवैरस एक रईस मक्का क़ुस्तुनतुनिया में गया था और वहां से इस्तिबाग़ पाकर ईसाई हो आया। फिर दो ईसाई रियासत के दरबार थे यानी हीरा और ग़स्सानी का जो मुल़्क अरब से शुमाल की तरफ़ मुल्हिक़ हैं। चुनान्चे अरब लोग हमेशा उन दरबारों में जाया करते थे। ख़ुद मुहम्मद साहब दो मर्तबा शाम में गए थे और वहां के ईसाई बाशिंदों से मुलाकी (मुलाकात) हुए सिवाए उस के नज्जाशी बादशाह हब्श के ईसाई दरबार में एक सौ से ऊपर मुसलमानों ने हिज्रत के पहले पनाह पाई थी। अलावा बरीं मदीने में जो नव मुसलमान के सामने हुए सौ बाअज़ उनमें यहूद और कई एक नसारा भी थे। क़त-ए-नज़र-अज़ीं छटे साल हिज्रत में मुहम्मद साहब ने रोम और ईरान दोनों दरबारों में और हब्श व मिस्र और मुल्क ग़स्सानी में ईसाई सरदारोँ के वास्ते सफ़ीर रवाना किए थे।

नज़र बर मुतालिब बालाइब साबित व मुनकश्फ़ हो गया कि चारों तरफ़ के यहूद और ईसाईयों से मुहम्मद साहब का सिलसिला तआरुफ़ बख़ूबी जारी था। पस जिस किसी जगह कि वो क़ुरआन में तौरेत व इंजील का ज़िक्र करते हैं कि यहूद व नसारा उन्हें पढ़ते हैं और इर्शाद करते हैं कि इन तौरेत और इंजील को मानें और क़ायम करें और उनके बमूजब हुक्म दें तो मुहम्मद साहब की मुराद ज़रूर उन्हीं तौरेत और इंजील से थी जो यहूद व नसारा के तमाम फ़िर्क़े में महफ़ूज़ रखी गई थीं और हर मुल्क में उनके गिरजा और मुआबिद और ख़ानक़ाहों में पढ़ी जाती थीं और जिसका वो लोग अपने मकानों में मुतालआ करते रहते थे सो तौरेत और इंजील मज़्कूर क़ुरआन जो शुरू इस्लाम के वक़्त दुनिया में जारी थीं वही सबसे बिलातोस्त बराबर जारी चली आती है फ़क़त।

छटा बाब

यहूदीयों पर जो तोहमतें लगाई गईं

यहूदीयों को क़ुरआन में अक्सर इस बात का इल्ज़ाम दिया है कि अपने आबा और अज्दाद इस्राईली लोगों की तरह ख़ुदा की तरफ़ से बाग़ी व सरकश थे और ये भी कि उन्होंने अपनी कुतुब मुक़द्दस के मअनी शरारत और हट धर्मी से लगाए।

पोशीदा न रहे कि जब पैग़म्बर इस्लाम मदीने में गए तो उन्हें उम्मीद थी कि जो यहूदी इस गर्द नवाह में बकस्रत रहते थे उनके दावे की ताईद करेंगे और उन्होंने उन लोगों के साथ क़ौल व क़रार कर के एक अह्दनामा लिखा कि जिसकी नक़्ल ख़्वाह ख़ुलासा मतलब सीरत की किताबों में दर्ज है। जब कि मुहम्मद साहब ने यहूदी मज़्हब और दावे से किनारा किया यानी इस बात से इन्कार किया कि ईस्वी मज़्हब और और सब मज़्हबों को छोड़कर सिर्फ यहूदी मज़्हब को इख़्तियार करें तो यहूद दुश्मन हो गए और इस बात के इक़रार करने से उन्होंने दरेग़ किया कि हमारी कुतुब रब्बानी में मुहम्मद साहब की बनिस्बत कुछ पैशनगोई है उन्होंने इसरार किया कि हमारा मसीह यहूदीयों में से होने वाला है ना कि अरब की नस्ल से और मुहम्मद साहब की नबुव्वत से क़तई इन्कार किया। पस इस से दोनों के दर्मियान जानी दुश्मनी पैदा हुई। मुहम्मद साहब ने अपने बड़े मुख़ालिफ़ों से कई एक को खु़फ़ीया क़त्ल करवा डाला और फिर अलानिया उनसे जंग किया। बनु नज़ीर और बनी क़नीक़ाअ़ दोनों क़बीलों को जिला-वतन कर दिया और तीसरे क़बीला बनी क़ुरैत के तमाम मर्दों को क़त्ल करवाकर उनके ज़न व फ़रज़न्दों को असीर (क़ैदी) कर लिया।

क़ब्ल उस के कि यहूदीयों का मुँह तल्वार से बंद किया गया उन्होंने मुहम्मद साहब के साथ बह्स व मुनाज़रा में मुक़ाबला करना चाहा था और अपनी दलीलों की ताईद के लिए कुतुब रब्बानी की आयतें पेश लाए थे। लेकिन मुहम्मद साहब ने उनका सादिक़ दिल और रास्तबाज़ होना तस्लीम ना किया उनको ये इल्ज़ाम दिया कि उन्होंने अपनी किताबों के मअनी जान-बूझ कर उलट दिए और यह कि ग़फ़लत और नादानी से उनके मतलब बख़ूबी ना समझे चुनान्चे मुहम्मद साहब ने उनको एक गधे से मिसाल दिया कि जो उम्दा किताबों से लदा हुआ हो। यानी वो क़ौम इल्म इलाही और तौरेत के सहीफ़े का ख़ज़ाना तो रखती लेकिन ताहम हक़ीक़ी दानाई और सच्चे इल्म की एक रत्ती भी उनके दिल में ना आई ये बात (फ़स्ल 93) में मुंदरज है। पस ख़ुलासा दावा मुहम्मद साहब का ये था कि जहालत और तास्सुब से यहूद ऐसे अंधे हो गए थे कि इस हक़ीक़ी हुक्म को जो ख़ुदा ने उनकी किताब में दिया था मुतलक़ ना पहचाना वाज़ेह हो कि ये बईना वही इल्ज़ाम है जो कि ईसाई अठारह सौ बरस से यहूदीयों पर देते चले आते हैं यहूद और ईसाई दोनों फ़िर्क़े तौरेत के बराबर मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) हैं लेकिन इस के मअनी और तफ़्सीर में उनके दर्मियान आस्मान और ज़मीन का फ़र्क़ है अला हाज़ा-उल-क़यास यहूद और मुहम्मद साहब दोनों ने तौरेत की सेहत तस्लीम की पर उन्होंने उस के मतलब और तफ़्सीर में बड़ा इख्तिलाफ़ किया।

फिर मुहम्मद साहब ने मदीने के यहूदीयों को ये इल्ज़ाम दिया कि तौरेत की आयतें अलेहदा अलेहदा मुतफ़र्रिक़ पेश करते हैं। जिस मज़्मून के साथ इन आयतों का रब्त है उसे दबा रखते हैं या उसे किसी दूसरे ग़लत मज़्मून से इस तरह पर बयान के वक़्त मरबूत कर देते हैं कि जिसमें उस के असली मअनी बदल जाएं जैसा कि (69, 96, 122, 123, फसलों) में मज़्कूर है और फिर (96, 111 फसलों) पर रुजूअ़ करने से मालूम होगा कि यहूदी लोग जो मअनी कलिमात बोलते थे कि जिनसे मतलब नाशाइस्ता मुहम्मद साहब की तरफ़ निकले और इसी को तहरीफ़ ولیا بَالِستِہَمْयानी ज़बान का मड़ोड़ना कहा। फिर आदमी की बातें पेश करके यानी अख़्बार और रब्बानियों की तफ़्सीरें और रिवायतें पेश कर के उनको कलाम इलाही के बराबर दलीलें बनाते थे जैसा (72, 111 फसलों) में लिखा है। उन्हें इस बात का भी इल्ज़ाम दिया है कि इन सब आयात और पैशनगोइयों को बावजूद यक (یکہ) ख़ुदा ने उनसे ये मीसाक़ लिया था कि वो लोगों पर उन्हें ज़ाहिर करें।

ग़ायत इल्ज़ाम की यहां तक है इस से बढ़कर मुहम्मद साहब ने अपने दुश्मन यहूदीयों की तरफ़ किसी तरह का इल्ज़ाम नहीं किया आयतों का कुतुब रब्बानी में से काट डालना या छील कर ओढ़ा देना ये मअनी लेना मह्ज़ बेअस्ल है।

ऐसी आयत क़ुरआन भर में नहीं है कि जिसके मअनी सच्चे लगाऐं और उन लोगों का अपनी कुतुब रब्बानी में ऐसे फे़अल का इर्तिकाब किसी तरह पर इस से पाया जाये। अगर किसी आयत के मअनी इस तरह पर खींच खांच कर निकाल भी लें तो क़ुरआन के कुल मंशा और इस की इस साफ़ शहादत के बर-ख़िलाफ़ होगा जो अव्वल से आख़िर तक ना सिर्फ अहले इंजील के नविश्तों पर बल्कि कुतुब यहूदीयों के हक़ में भी देता है कि वो रब्बानी हैं और काबुल हसरावर एतबार के हैं इस से ख़ूब वाज़ेह होगा कि ऐसी टेढ़ी तफ़्सीर का वो मतलब नहीं है जो मुहम्मद साहब ने ख़ुद इस आयत का लगाया।

क्या पैग़म्बर इस्लाम ऐसी तौरेत पर हवाला देते जो नाक़िस और बे-एतिबार हो गई हो या ऐसे नामूस (अहकाम ईलाही) की बार-बार तस्दीक़ करते जिसमें तब्दील व तग़य्युर ने राह पाई हो? क्या पैग़म्बर इस्लाम यहूदीयों की तकरार के तस्फ़ीया का ऐसी कुतुब रब्बानी पर हुक्म देते जिसमें तहरीफ़ व तसहीफ़ हुई हो और जो मंसूख़ हो गई हो? या कि उनसे ऐसी किताब को हाज़िर करने के वास्ते इर्शाद करते जिसमें शक व शुबा रहा हो और उसे इस इरादे से पढ़वाने का हुक्म देते कि ख़ुद अपने और यहूदीयों के दर्मियान जो तकरार थी वो क़तई फ़सील (यक़ीनी दीवार) हो जाएगी? क्या मुहम्मद साहब किसी ग़लत किताब के हुक्मों की तबीअत फ़रमाते और उनके अहकाम की पैरवी के लिए इबरत व तशद्दुद के साथ हुक्म देते और क्या वो सिवाए किताब असली और बे नुक्स व ऐब के किसी दूसरी के वास्ते भी ये कहते कि जब तक यहूदी लोग इस पर क़ायम ना हों और इस के अहकाम को ना मानें उनका ईमान मुतल्लिक़न ख़ाम और बेअस्ल है।

क़त-ए-नज़र (इस के सिवा) इस से ग़ौर करना चाहीए कि ये सब तोहमत और इल्ज़ाम चाहे जिस तरह के क्यों ना हों जहां कहीं दर्ज हैं सिर्फ यहूदीयों ही की बनिस्बत दर्ज हैं ऐसी कोई आयत सारे क़ुरआन में ना मिलेगी कि जिसे किसी तरह पर खींच खांच कर भी ऐसे मअनी निकल सकें जो ईसाईयों की बनिस्बत ख़्वाह अपनी इंजील में ख़्वाह यहूदीयों की तौरेत में जो उनके पास थी तहरीफ़ व तसहीफ़ करने का शुब्हा डाले हाँ उनकी बनिस्बत यही लिखा है कि वो एक हिस्सा भूल गए उस का जिससे उन्हें तंबीया की गई थी यानी ग़लत अक़ीदे और रसूमात में पड़ गए चुनान्चे (फ़स्ल 22) में ऐसा ही लिखा है इस से बढ़कर के ईसाईयों की बाबत क़ुरआन भर में कुछ ना पाओगे।

लेकिन बिल-फ़र्ज़ अगर लहज़ा (पल, लम्हा, पलक झपकने का अरसा) भर के वास्ते ये भी मान लें कि तौरेत में मुहम्मद साहब के दुश्मनों ने तहरीफ़ व तसहीफ़ कर दी बल्कि अपनी ये कारस्तानी इंजील तक भी पहुंचाई तो क्या कोई ऐसे नेक यहूदी व ईसाई ना थे कि वो इन कुतुब रब्बानी को बिलातहरीफ़ व तसहीफ़ महफ़ूज़ रखते और उनके नुस्ख़ों को फैलाते क्या वो यहूद और ईसाई जो पैग़म्बर इस्लाम के मुरीद हुए। ऐसे नुस्ख़ों को बड़ी हिफ़ाज़त से ना रखते क्योंकि इन कुतुब रब्बानी पर मुहम्मद साहब हमेशा हवाला देते हैं और कहते हैं कि उनमें दीन इस्लाम और मेरी नबुव्वत की उम्दा शहादत मौजूद है। शुरू इस्लाम में मुसलमान ज़रूर ऐसा करते और जब उनके हाथ में तल्वार और अफ़्वाज ज़फ़र अम्वाज उनकी मुमिद हुईं तब भी वो यहूद व नसारा को क़ाइल करने के वास्ते ऐसी माक़ूल और क़ातेअ़ दलील कभी हाथ से ना देते। यानी वो शहादत और दलीलें ज़रूर पेश करते जो तौरेत और इंजील के नुस्ख़ों में थीं वो नुस्खे़ जो पैग़म्बर के सामने थे और जिन पर वो हवाला करते थे अवाइल (अव्वल की जमा इब्तिदा, आग़ाज़, पहले हिस्से) ज़माने के मुसलमान तो यक़ीनन अपने पैग़म्बर के दावा का ऐसा उम्दा सबूत फ़िरोगुज़ाश्त ना करते।

क़तेअ़ नज़मा इस के ख़ुद यहूदी और ईसाई नव मुस्लिम के लिए भी तौरेत और इंजील के सही नुस्ख़ों का महफ़ूज़ रखना कुछ भी ना था कि पसंद ख़ातिर हो बल्कि लामुहाला ज़रूरीयात से था क्योंकि उन्हें पैग़म्बर इस्लाम का हुक्म था कि इन कुतुब रब्बानी पर ईमान लाएं और उनके हुक्मों के बमूजब अमल करें और उन्हीं के मुताबिक़ हुक्म दें। बेशक ऐसे नव मुस्लिम उन्हें ना सिर्फ अपने ही काम के वास्ते हमेशा बहिफ़ाज़त बरक़रार रखते बल्कि अपनी औलाद के सिखलाने और उनका एतिक़ाद पक्का करने को भी। बेशक इस अम्र को ज़रूरीयात से समझते जैसा कि ईसाई लोग यहूदीयों की कुतुब रब्बानी को महफ़ूज़ रखते हैं और सिखलाते हैं और उनमें उन पेश गोइयों का निशान देते हैं और उनके ज़ोर शोर बयान करते हैं जो उनके दर्मियान ईसा मसीह की बनिस्बत दर्ज हैं।

इसी तरह ईसाई और यहूद नव मुस्लिम भी तौरेत और इंजील को हिफ़ाज़त से रखते ताकि ताअलीम और तल्क़ीन और इस्लाम के सबूत के वास्ते मौजूद रहतीं और ये बात उस वक़्त बहुत ज़्यादा तनदेही से करते अगर ज़र्रा भी कुछ शुब्हा होता कि कोई शरीर उनमें दस्त अंदाज़ी करता है। फिर इस बात में कि उस वक़्त ऐसे रास्तबाज़ और ईमानदार यहूद व नसारा मौजूद थे कोई मतफ़हस (ढ़ूढ़ने वाला, तलाश करने वला, जुस्तजू करने वाला) वुजू या मुसलमान शुब्हा ना करेगा। चुनान्चे आयात मुफ़स्सला-ए-ज़ैल से साबित और मुतहक़्क़िक़ है यानी बासठवीं (62) फ़स्ल में सूरह के दर्मियान लिखा है और मूसा की क़ौम में एक फ़िर्क़ा है जो हिदायत करता है जानिब हक़ और इसी से आदिल (इन्साफ) करता है। وَ مِنۡ قَوۡمِ مُوۡسٰۤی اُمَّۃٌ یَّہۡدُوۡنَ بِالۡحَقِّ وَ بِہٖ یَعۡدِلُوۡنَ (फ़स्ल 117) में सूरह आले-इमरान से इक़्तिबास हुआ कि अहले-किताब में से एक उम्मत है सीधी राह पर पढ़ते हैं। आयात अल्लाह को वक़्त शब और सज्दा करते हैं और ईमान लाते हैं ख़ुदा पर और रोज़-ए-क़यामत पर और हुक्म देते हैं नेक बात के लिए और मना करते हैं बदकारी से और फिरती करते हैं ख़ैरात में और वही लोग हैं सालिह। (नेक) ۔ مِنۡ اَہۡلِ الۡکِتٰبِ اُمَّۃٌ قَآئِمَۃٌ یَّتۡلُوۡنَ اٰیٰتِ اللّٰہِ اٰنَآءَ الَّیۡلِ وَ ہُمۡ یَسۡجُدُوۡنَ یُؤۡمِنُوۡنَ بِاللّٰہِ وَ الۡیَوۡمِ الۡاٰخِرِ وَ یَاۡمُرُوۡنَ بِالۡمَعۡرُوۡفِ وَ یَنۡہَوۡنَ عَنِ الۡمُنۡکَرِ وَ یُسَارِعُوۡنَ فِی الۡخَیۡرٰتِ ؕ وَ اُولٰٓئِکَ مِنَ الصّٰلِحِیۡنَ۔ फिर (फ़स्ल 126) में सूरह अल-मायदा से अख़ज़ हुआ कि مِنۡہُمۡ اُمَّۃٌ مُّقۡتَصِدَۃٌ यानी अहले-किताब में से एक क़ौम है रास्त व नेक और इसी मअनी पर और भी आयात हैं, जैसा कि 91, 98 और 121 फसलों में मुंदरज है अल-हासिल क़ुरआन के पढ़ने वाले ख़्वाह-मख़्वाह तस्लीम करेंगे कि यहूद और ईसाई दोनों में ऐसे फ़िर्क़े थे जो क़ुरआन की शहादत से दयानतदार और नेकोकार और इन्साफ़ करने वाले और अमानत रखने वाले और सादिक़ और ईमानदार थे। क्या उन लोगों को भी कुतुब मुक़द्दस के ग़लत करने में कुछ फ़ायदा था? क्या उन्हें तौरेत व इंजील को बिला-तहरीफ़ व तसहीफ़ महफ़ूज़ रखने में हर तरह का सूदो बहबूद ना था और अगर फ़र्ज़ भी किया जाये कि इस बात में किसी तरह का फ़ायदा दुनियवी उनके वास्ते बाइस तहरीस होता तो क्या उनका इन्साफ़ और ईमान और रास्तबाज़ी और अमानत और नेक किरदारी और ख़ुदा-परस्ती उनको ऐसे ख़यालात फ़ासिद से ना रोकती? पस वो सही नुस्खे़ बिला तहरीफ़ व तसहीफ़ नसारा नव मुस्लिम ने महफ़ूज़ रखा कहाँ हैं? अगर ज़रा भी उस वक़्त इस बात का शुब्हा होता कि कुतुब मुक़द्दस में किसी जानिब से भी तहरीफ़ व तसहीफ़ होती है तो बिल-यक़ीन ये मुत्तक़ी और दयानतदार लोग इस को सही बिला तहरीफ़ व तसहीफ़ महफ़ूज़ रखते। मगर ऐसा वाहिमा बिल्कुल बे-बुनियाद है ये शुब्हा कभी किसी को नहीं हुआ बहर-ए-हाल मुहम्मद साहब के दिल में तो कभी नहीं आया और ना उनके अस्हाब के दिल में बल्कि मुहम्मद साहब की वफ़ात के बीसीवीं बरस बाद तक कुतुब रब्बानी में तहरीफ़ व तसहीफ़ करने का इल्ज़ाम यहूद व नसारा की बनिस्बत किसी के ख़्याल में नहीं आया था। ये बात तभी से मशहूर हुई कि जब से मुहम्मदी आलिम और मुफ़स्सिरों ने क़ुरआन को तौरेत और इंजील के ख़िलाफ़ पाकर इस वरतह (हलाकत मुक़ाम) इशकाल से निकलने के वास्ते यही सहलतर (आरामदेह) तरीक़ा इल्ज़ाम देने का इख़्तियार किया कि अहले-किताब ने ख़ुद अपनी किताबों में तहरीफ़ व तसहीफ़ की है बुनियाद उस की कुछ भी नहीं है।

इलावा बरीं ये फ़र्ज़ी इल्ज़ाम जो मुबाहिसे के वास्ते इबारत बाला में इख़्तियार कर लिया है यहूदयान मदीना के सिवा किसी तरह से औरों पर आइद नहीं हो सकता। सिर्फ वही लोग मुहम्मद साहब से दुश्मनी रखते थे और क़ुरआन में सिर्फ उन्हीं लोगों पर इल्ज़ाम है लेकिन यहूद व नसारा की कुतुब रब्बानी जिनकी क़ुरआन में हर मुक़ाम पर तस्दीक़ व शहादत है तमाम दुनिया के मुल्कों में फैली हुई थीं। चुनान्चे रोम व इरान के बड़े बड़े सोबजात में और हब्श और हीरा और अर्मिन और मिस्र और गस्सानियों की सल्तनत वग़ैरह में लाखों आदमीयों के पास मौजूद थीं। पस ये इल्ज़ाम या इशतिबाह तहरीफ़ व तसहीफ़ बा-अदावत चाहे जैसी बे इंसाफ़ी के साथ आप क्यों ना लगाए इस जम (बात) ग़फी़र (अंबोह, भीड़) पर क्या यहूदी क्या ईसाई जो अरब से बाहर बस्ता था किसी तरह से भी नहीं पहुंच सकता मगर सिर्फ मदीने ही और इस के जवानिब के यहूदीयों पर।

अलावा इस के मुहम्मद साहब की वफ़ात के बाद दो ही बरस के अंदर अहले इस्लाम की फ़ौजें तमाम मुल्क में फैल गई थीं कि जहां से यहूद व नसारा का मज़्हब निकला है और जहां गिरजा और ख़ानक़ाह और यहूदी मुवाहिद और सब लोगों के घरों में बेशुमार नुस्खे़ तौरेत व इंजील के मौजूद थे। फिर इसी के चंद साल बाद अहले इस्लाम ने मुल्क मिस्र भी ले लिया और फिर थोड़े दिनों में अफ़्रीक़ा के बिल्कुल साहिल शुमाली को अपने दख़ल में किया ये सब मुल्क भी ईसाईयों के शहर और क़स्बात और गिरिजा और ख़ानक़ाहों से भरे पड़े थे। पस जब कि मुसलमान वहां के वाली बा-तसर्रुफ़ हुए और यहूद व नसारा को तल्वार के ज़ोर से रोज़ बरोज़ अपने क़ाबू में लाने लगे शहर और ख़ानक़ाह ग़ारत किए और जो कुछ कि माल इस बाब और बेशुमार तौरेत व इंजील के नुस्खे़ उनमें मौजूद थे। उनके इख़्तियार में आए तो क्या ये भी बात क़ियास में आ सकती है कि अगर उनके दिलों में ज़रा भी शुब्हा इस बात का राह पाता कि पैग़म्बर के दुश्मनों से कहीं भी कुतुब रब्बानी में कुछ तहरीफ़ व तसहीफ़ हुई है या उन कुतुब रब्बानी में जैसा कि हाल के मौलवी लोग अवामुन्नास को यक़ीन दिलाना चाहते हैं कोई भी कलाम पैग़म्बर इस्लाम की नबुव्वत की दलील का जो कि अब उनमें दिखलाई नहीं देता हो मौजूद होता तो क्या वो तौरेत व इंजील की सही नक़लें बहम पहुंचाने का और अपने रसूल की नबुव्वत के बाब में ऐसी अच्छी शहादतों के फ़राहम करने का मौक़ा हाथ से जाने देते?

ग़रज़ मुसलमानों को ऐसी किताबों के फ़राहम करने में कोशिश ना करना दलील क़ातेअ़ और बुरहान सातेअ़ है कि उस वक़्त तहरीफ़ व तसहीफ़ का उन कुतुब रब्बानी में किसी को शुब्हा ही नहीं पड़ा था। मुसलमान, यहूदी और ईस्वी किताबों को रब्बानी और सही मानते थे जैसे कि ख़ुद यहूद और ईसाई मानते थे।

क़िस्सा कोताह जो लोग कि क़ुरआन के सच्चे मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) हैं। उनको इस नतीजे के इक़रार से हरगिज़ चारा नहीं कि यहूद व नसारा की रब्बानी किताबें जैसी कि तमाम ईसाईयों के मुल्कों में मुहम्मद साहब के ज़माने के दर्मियान जारी और राइज थीं असली और बिला तग़य्युर व तबद्दुल कलाम ईलाही थीं।

सातवाँ बाब

मुहम्मद साहब के वक़्त में जो कुतुब रब्बानी मौजूद थीं वो बईना वही कुतुब रब्बानी हैं कि यहूद और ईसाईयों के हाथ में फ़ी ज़मानिना मौजूद हैं।

अगरचे बिल-फ़अल जिस मंशा से ये रिसाला लिखा गया इस से इस बात का इलाक़ा नहीं कि ऐसी दलीलें पेश करें जिनसे साबित हो कि मुहम्मद साहब के वक़्त में यही तौरेत और इंजील थी जो अब यहूद व नसारा के पास मौजूद है लेकिन जो मुसलमान कि जोयाँ हक़ (हक़ का मुतलाशी) व ईक़ान (यक़ीन होना, यक़ीन, ईमान) हैं। उनके फ़ायदे और सहूलत के लिए ये चंद बातें बा-इख़्तसार बयान की जाती हैं ताकि वो दिल लगा कर इस अम्र की बख़ूबी तहक़ीक़ात करें।

अव्वल :- ये कि तौरेत व इंजील के ऐसे नुस्खे़ अब तक मौजूद हैं जो मुहम्मद साहब की पैदाइश से भी पेशतर लिखे गए जिसका जी चाहे उनको देख ले क्योंकि बाअज़ उनमें से कुतुब ख़ाना आम में मौजूद हैं दक़ीक़ा बाज़ (बारीकबीनी से देखने वाले) के लिए ये ख़ूब खेल है सच्चा मुतलाशी ज़रूर ऐसे नुस्ख़ों का इम्तिहान लेगा। क्योंकि ये बईना वही कलाम इलाही है जिसकी क़ुरआन हर जगह गवाही देता है مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ यानी क़ुरआन तस्दीक़ करने वाला है उस का जो इस के पहले से मौजूद है यानी तौरेत व इंजील जो ख़ुदा से नाज़िल हो कर पहले से चली आती थी और उस वक़्त بَیۡنَ یَدَیۡہِ मौजूद थी ये वही किताब-अल-मुनीर है।

وہی کِتبَ المستبین بَصَآئِرَ لِلنَّاس اِمَامًا وَّ رَحۡمَۃً فِیۡہِ ہُدًی وَّ نُوۡرٌ وَّ مَوۡعِظَۃً لِّلۡمُتَّقِیۡنَ تَمَامًا عَلَی الَّذِیۡۤ اَحۡسَنَ وَ تَفۡصِیۡلًا لِّکُلِّ شَیۡءٍ وَّ ہُدًی وَّ رَحۡمَۃً لَّعَلَّہُمۡ بِلِقَآءِ رَبِّہِمۡ یُؤۡمِنُوۡنَ الۡفُرۡقَانَ وَ ضِیَآءً وَّ ذِکۡرًا لِّلۡمُتَّقِیۡنَ۔

क्या मुतलाशी ऐसे नुस्ख़ों की आज़माईश के लिए दरिया और ख़ुशकी की हज़ारों कोस की राह ना काटेंगे और दौड़ धूप से दरेग़ करेंगे हम कहते हैं कि क़ुरआन की गवाही से ये नुस्खे़ सही हैं और क़ुरआन की तारीफ़ से ज़िंदगी और नजात की सबील उन्हीं तौरेत और इंजील से पाई जाती है।

दोम :- ये कि तौरेत और इंजील के तर्जुमे मौजूद हैं जो मुहम्मद साहब के वक़्त से पेशतर किए गए बल्कि एक तर्जुमा तौरेत का है जो सन ईस्वी से भी पेशतर लिखा गया उस को स्टपवाहंट ( سٹپواحنٹ) कहते हैं क्योंकि कितने फ़ाज़िल यहूदीयों ने अस्ल इब्रानी ज़बान से उसे यूनानी ज़बान में तर्जुमा किया। मुहम्मद साहब से चार-सौ बरस पेशतर अरेजन आलिम ईसाई ने एक किताब तालीफ़ की और उस का नाम उक्तापला (اُکتاپلا) रखा। यानी “किताब हश्त मिद्दा” क्योंकि इस में अरेजन ने आठ मुद्दों में अस्ल इबारत और मुख़्तलिफ़ तर्जुमों की इबारत बमुक़ाबला बाहम दीगर आयत बा आयत मुंदरज की। चुनान्चे अज्र उस के अब तक मौजूद हैं। अला हज़ा-उल-क़यास इंजील के तर्जुमे भी मौजूद हैं जो मुहम्मद साहब के अस्र से कई सौ बरस पहले लिखे गए जैसे लातीनी यानी रोम की ज़बान में और सुर्यानी यानी शाम की ज़बान में क़िबती यानी मिस्र की ज़बान में अर्मनी यानी मुल्क अर्मन की ज़बान में। मुतलाशी बसहुलत उन पर रुजूअ़ कर सकता और बाआसानी मुत्मइन हो सकता है कि उस के पैग़म्बर के अय्याम से तौरेत व इंजील में फ़र्क़ नहीं पड़ा जो इबारत तौरेत व इंजील की शुरू इस्लाम से पहले थी वही इबारत अब भी है।

अलावा बरीं मुहम्मद साहब से पहले यहूदी और ईसाई मुसन्निफ़ों ने अपनी किताबों में कुतुब मुक्द्दसा के बे शुमार फ़िक़्रे और जुमले इक़्तिबास किए हैं और तौरेत और इंजील के बेशुमार मुक़ामात पर हवाले दीए हैं और उनकी इबारत व मतलब और अहकाम व ताअलीम पर इशारे किए हैं। चुनान्चे मुसन्निफ़ों के दस्तूर के मुवाफ़िक़ बाअज़ जगह कुतुब मुक्द्दसा के अल्फ़ाज़ बईना मुंदरज हैं बाअज़ जगह उस का मतलब मज़्कूर है और बाअज़ जगह अल्फ़ाज़ या मतलब पर किनाया है जिस मुसलमान का दिल चाहे मुसन्निफ़ान मज़्कूर की किताबों को उनकी अस्ल ज़बान में पढ़ ले मसलन जस्टिन शहीद, एअर तेइस, क्लेमनस, टेरिट, अरी कपर यान, यूसेबियोस, करसू, ग्रिगोरी, बासिल, अम्बर दस, जरुम, अगस्टिन और बहुतेरे और मुसन्निफ़ इस्लाम से पहले के हैं कि जिनकी किताबें पढ़ कर मुतलाशी अपनी इत्मीनान कर सकता है हाँ यूनानी और लातीनी ज़बानें सीखने की ज़रा मेहनत अलबत्ता उठानी पड़ेगी। लेकिन वो कौनसा हक़ का मुतलाशी है जो हक़ीक़त में निजात का तालिब हो और इतनी ज़रा सी मेहनत ना उठाए, ये काम ज़रूरी है, क्योंकि ऐसी इत्तिफ़ाक़ी लफ़्ज़ी और माअनवी मुताबिक़त सबसे पक्की दलील है कि इस के बराबर कोई दलील मज़्बूत नहीं है।

फिर शायद कोई कहेगा कि तौरेत व इंजील के हाल के नुस्ख़ों के दर्मियान हुरूफ़ का और बाअज़ जगह इबारत का अभी इख़्तिलाफ़ है और कई एक बातें उनमें ऐसी मुंदरज हैं मसलन ईसा मसीह की इब्नीयत और मौत कि जो सही कलाम इलाही में नहीं हो सकतीं तो इस का जवाब ये है कि क़दीम नुस्ख़ों मज़्कूर बाला पर अगर रुजूअ़ करोगे और पुराने तर्जुमों और अय्याम सलफ़ के मुंसिफ़ों की किताबों को अगर ख़ूब जांचोगे तो बिला-शक व शुब्हा दर्याफ़्त हो जाएगा कि हुरूफ़ व अल्फ़ाज़ का इख़्तिलाफ़ और ईसा मसीह की मौत और इब्नीयत का ज़िक्र और तस्लीस की ताअलीम वग़ैरह जैसे उनके नुस्ख़ों में मौजूद है मुहम्मद साहब के वक़्त के नुस्ख़ों में बल्कि और सैंकड़ों बरस पेशतर के नुस्ख़ों में मौजूद है। यानी उन्हीं पाक नविश्तों में जिनकी तस्दीक़ क़ुरआन हर जगह करता है और जिनकी सेहत पर मुहम्मद साहब बेताम्मुल हस्र करते हैं। मुसलमानों को अब बा-ख़बर इस के चारा नहीं कि इन्हीं कुतुब रब्बानी के नुस्ख़ों को तस्लीम करें और उनके मुतालिब मुबारक पर ईमान लाएं।

आठवां बाब

जुम्ला मुसलमानों पर कुतुब रब्बानी का जाँचना और उन पर ईमान लाना वाजिब व फ़र्ज़ है

पस जब हाल ऐसा है तो जो मुसलमान साफ़ बातिन और मुंसिफ़ मिज़ाज और रास्तबाज़ हैं हम उनसे ये ख़्वाहिश करते हैं कि तफ़्तीश और तन्क़ीह करें इस बात की कि आज की तौरेत और इंजील वही मुहम्मद साहब की तौरेत और इंजील है या नहीं क्योंकि आसानी से इस की तहक़ीक़ात और इत्मीनान हो सकती है और जब कि इस में मुतलक़ शक व शुब्हा का मुक़ाम बाक़ी ना रहा कि मुहम्मद साहब की तौरेत और इंजील रह बईना यही तौरेत और इंजील है जो इन दिनों में भी हर अतराफ़ और हर मुल्क में जारी और मुरव्वज है। तो मैं मुसलमानों की तरफ़ ख़िताब कर के कहता हूँ कि वो इस किताब मुबारक की इज़्ज़त व एहतिराम करें जैसी कि उनके उस्ताद पैग़म्बर ने की और इस को किताब-उल्लाह और कलाम-उल्लाह (अल्लाह की किताब और अल्लाह का कलाम) जान कर जैसा कि मुहम्मद साहब ने भी जाना मुस्तइद्दी से पढ़ें और ख़ुदा तआला की बातें जो इस में हैं उन पर ईमान लाएं ताकि वो बदला اجورہم जो तौरेत और इंजील के मानने वालों को मौऊद हुआ पाएं। ऐसा ना हो कि कोई तौरेत और इंजील से ग़ाफ़िल रहे या मआज़-अल्लाह इस की तक़्ज़ीब कर के शर्म की सज़ा का वारिस हुए क्योंकि ख़ुदा ने शर्म की सज़ा عَذَابًا مُّہِیۡنًا तैयार की है उन लोगों के वास्ते जिन्हों ने अल्लाह के कलाम के एक हिस्से को तो मान लिया पर दूसरे हिस्से को रद्द किया चुनान्चे (फ़स्ल 106) पर रुजूअ़ करो। पस क्यों कोई मुसलमान ऐसा कोता-अंदेश हो कि तास्सुब के मारे तौरेत और इंजील को रद्द कर के अपनी आक़िबत और निजात को पाया उम्मीद से गिरा दे। और ये कैसे ताज्जुब का तास्सुब है? क्या क़ुरआन में तौरेत और इंजील को कुतुब کتب المستبین और کتب المنیر नहीं कहा यानी साफ़ और नूर बख़्शने वाली किताब? क्या क़ुरआन में उस के हक़ में ये नहीं लिखा कि वो रोशनी है बनी-आदम के रोशन करने को और हादी है और हिदायत है और इमाम व रहमत है और नसीहत अक़्लमंदों के लिए अल-फ़ुरक़ान है और उजाला और याद-दहानी है सालिहों के लिए जो दिल में अपने रब से डरते हैं और काँपते हैं रोज़-ए-क़यामत से। ये वो किताब है जो कामिल और तमाम है सब चीज़ों पर जो नेक हैं और तफ़्सील है हर एक बात की और रहमत है काश वो अपने रब की मुलाक़ात पर ईमान लाएं ये सब इबारत क़ुरआन की इबारत है। मैं इस से बढ़कर तौरेत और इंजील की और क्या तारीफ़ कर सकता हूँ? मैं इस गुफ़्तगु में ज़्यादा-तर जद्दो जहद करता हूँ क्योंकि क्या ही बुरा हाल होगा उनका जो तौरेत और इंजील को रद्द करें क़ुरआन ही की गवाही से वो तो गुमराह हुए बड़ी गुमराही में।

मैं उस के हक़ में क्या कहूं कि जो अपने मुँह से कुफ़्र का कलिमा ख़ुदा की पाक किताब की बनिस्बत निकाले ऐसे शख़्स ने तो क़ुरआन के मज़्हब से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) किया और क़ुरआन ही की मुहर अपने फ़तवे पर करवाई और ये उस का फ़त्वा है कि فاسق و ظالم و کافر सुरह माइदा में लिखा है चुनान्चे फ़स्ल 124 पर रुजूअ़ करो। क्या ही ढीठ और बे-ख़ौफ़ बाअज़ मुसलमान ज़माना-ए-हाल में पैदा हुए हैं जो बग़ैर जाने बुझे उस किताब की निस्बत जो ख़ुदा ने नाज़िल की और जिसे क़ुरआन में फुर्क़ान और कलाम-उल्लाह लिखा है कलिमा कुफ़्र बकते हैं और तुरफ़ा-तर ये है कि ऐसे लोग अपने तइं मुहम्मद साहब की उम्मत बतलाते हैं।

पोशीदा ना रहे कि हम लोग अहले-किताब जो तौरेत और इंजील दोनों को मानते हैं और उन को क़ायम रखते हैं सो ये ऐन पैग़म्बर इस्लाम के बमूजब है। सूरह अल-मायदा फ़स्ल (127) पर रुजूअ़ करो और ये भी पैग़म्बर इस्लाम के दावे और इर्शाद के मुताबिक़ है कि जो लोग तौरेत और इंजील में तलाश और तफ़्तीश करते हैं कि आया उनकी नबुव्वत की गवाही या कुछ वजह तर्दीद किताब मौसूफ़ में है या नहीं क्योंकि ख़ुद मुहम्मद साहब ने बरमुला अरब के लोगों के सामने इसी तौरेत और इंजील पर हस्र किया और कहा कि वही मेरा गवाह है। सो ये कलाम हर मुसलमान पर भी बहुत ही वाजिब व लाज़िम है ऐसा ना हो कि वो भटक कर गुमराही और हलाकत और ला इलाजी में पड़ जाये।

अब ख़त्म किताब हम इस बात पर करते हैं कि तुम मुसलमान इस बात को तो मानते हो और लाबद क़ुरआन के मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) को इस बात के मानने से कुछ चारा नहीं कि तौरेत और इंजील कलाम-उल्लाह है, नूर है और हिदायत है बनी-आदम के वास्ते और उजाला और रोशनी और ख़ुदा परस्तों की नसीहत। ۔ نُوۡرًا وَّ ہُدًی لِّلنَّاسِ ضِیَآءً وَّ ذِکۡرًا لِّلۡمُتَّقِیۡنَ और जिन लोगों ने इनके अहकाम की पैरवी की है उन्होंने अमन और निजात की राह में हिदायत पाई। वो वही हैं जिन्हों ने फ़ज़्ल और रहमत अपने रब की पाई क्योंकि तौरेत और इंजील की बाबत क़ुरआन में ऐसी ऐसी आयतें लिखी हैं।

اِمَامًا وَّ رَحۡمَۃً ہُدًی وَّ ذۡکُرُ لِّاُولِی الۡاَلۡبَابِ بَصَآئِرَ لِلنَّاسِ وَ ہُدًی وَّ رَحۡمَۃً الۡاِنۡجِیۡلَ فِیۡہِ ہُدًی وَّ نُوۡرٌ وَّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ مِنَ التَّوۡرٰىۃِ ہُدًی وَّ مَوۡعِظَۃً لِّلۡمُتَّقِیۡنَ

पस ऐ मुसलमानो तुम अपनी आक़िबत की दुरुस्ती के लिए ऐसे उम्दा वसीले को जो तुम्हारे क़ुरआन ही के बमूजब तौरेत और इंजील में मौजूद है क्यों हाथ से देते हो और उस की मुतबर्रिक रोशनी से अपनी आँखें क्यों बंद करते हो? अल्लाह तआला की शहादत तौरेत और इंजील में है क्योंकि सूरह बक़र में लिखा है शहादत मिन अल्लाह। (شہادۃمن اللہ۔)

पस ख़ुदा की शहादत की अच्छी तरह से तलाश और आज़माइश करो तो यक़ीनन इस का ख़ुलासा ये पाओगे कि “ख़ुदाए तआला ईसा मसीह में दुनिया को अपनी तरफ़ फिर मिलाता है और ये कि ईसा मसीह है राह और हक़ और ज़िंदगी।” अल-ग़र्ज़ जोयाँ हक़ कलाम इलाही के मुज़्दे से ये बात दर्याफ़्त करेगा कि “ख़ुदा ने दुनिया को ऐसा प्यार किया कि अपने इकलौते बेटे को भेजा कि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” चुनान्चे ईसा मसीह ने ख़ुद कहा कि हयात-ए-अबदी ये है कि तुझको अकेला सच्चा ख़ुदा और ईसा मसीह को जिसे तू ने भेजा है जान लें। पस नजात का मुतलाशी हयात-ए-अबदी के सर चश्मे में हयात की तलाश करे जो ज़ारी और आजिज़ी और सादिक़ दिल से ऐसा करे ख़ुदाए तआला ज़रूर उस को हयात-ए-अबदी की तरफ़ हिदायत करेगा अल्लाह अलहम्द।

तम्मत