The Teaching of Muhammad

(Muhammadan Doctrine)
By
Rev. Mawlawi Dr.Imad ud-din Lahiz


ताअलीम-ए-मुहम्मदी

मुसन्निफ़

पादरी मौलवी इमाद-उद्दीन लाहिज़

ने फ़ायदा आम के लिए और क्रिस्चियन नौलेज सोसाइटी ने

1880 ई॰

में वकील हिन्दुस्तान प्रैस अमृतसर ने छपवाया



Rev. Mawlawi Dr.Imad ud-din Lahiz

1830−1900

पादरी मौलवी इमाद-उद्दीन लाहिज़



ताअलीमे मुहम्मदी

दीबाचा

ख़ुदा तआला की हम्दो सना और शुक्र के बाद नाज़रीन किताब हज़ा की ख़िदमत में बंदा कमतरीन इमाद-उद्दीन लाहिज़ अर्ज़ पर्दाज़ है, कि दुनिया में हर बुरा भला आदमी अपने अफ़आल व अक्वाल से साबित हुआ करता है इस के सिवा और कोई क़ायदा बुरे भले आदमी के पहचानने का हमें मालूम नहीं है।

मुहम्मद साहब का मन जानिब अल्लाह नबी होना या ना होना भी इसी क़ायदा से दर्याफ़्त हो सकता है जैसे कि अम्बिया सलफ़ का मिन जानिब अल्लाह होना और दूसरे मुअल्लिमों का जो बाइबल मुक़द्दस सिया लग हैं मन जानिब अल्लाह ना होना भी इसी क़ायदे से साबित किया जाता है।

इस किताब के पहले हिस्से में जिसका नाम तवारीख़ मुहम्मदी है (जो हमारी वेबसाइट पर दस्तयाब है) जो नाज़रीन पर मुहम्मद साहब के अफ़आल ज़ाहिर हो चुके हैं कि वो काम ख़ुदा के पैग़म्बरों को लायक़ नहीं हैं। इस किताब में जिसका नाम ताअलीम मुहम्मदी है जो तल्ख़ीस-उल-अहादीस (पाक और साफ़ अहादीस का ख़ुलासे) का दूसरा हिस्सा है हज़रत मुहम्मद साहब की ताअलीम का बयान करता है।

मेरी ये ग़र्ज़ हरगिज़ नहीं है कि किसी को दुख पहुंचाऊं या किसी की इहानत (तौहीन) करूँ मगर चूँकि मैंने ख़ूब मालूम कर लिया है कि सिर्फ बाइबल ही ख़ुदा का कलाम है और बाइबल ही वाले पैग़म्बर ख़ुदा के रसूल हैं, उन्ही ही की इताअत से शफ़ाअत दारेन हासिल होती है। इसलिए मैं इस कलाम का मुनाद (तब्लिग़ करने वाला) हूँ और सब लोगों को ख़ुदा के पाक कलाम की तरफ़ बुलाना चाहता हूँ पर अहले इस्लाम जो मेरे क़दीमी भाई हैं मुहम्मद साहब को ख़ुदा का नबी और उस की ताअलीम को ईलाही ताअलीम बग़ैर फ़िक्र किए जान बैठे हैं। इसलिए वाजिब है कि उन्हें ख़बरदार किया जाये ये ताअलीम मुहम्मदी अल्लाह की तरफ़ से नहीं है और हम जो उसे अल्लाह की तरफ़ से नहीं जानते हैं इस का क्या सबब है पस ये सब तालीफ़ और तस्नीफ़ मेरी मह्ज़ ख़ैर ख़्वाही और दोस्ती व मुहब्बत के लिए है ना किसी की तक्लीफ़ के लिए पर अगर हक़ बात कहने से कोई नाराज़ हो तो ख़ैर मैं माज़ूर हूँ।

मुक़द्दमा

तालीम के अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) और उन की ताअरीफ़ात के बयान में

मैं देखता हूँ कि अक्सर ताअलीम याफ्ता लोग भी उम्दा ताअलीम के माअनों से कम वाक़िफ़ हैं और इसलिए भी उन्हें हक़ बात का दर्याफ़्त करना मुश्किल है बल्कि वो यूं भी कहते हैं कि हर ताअलीम की उम्दियत (बेहतर होना) उस के अहले की मिज़ाज और समयात (ज़हरीली चीज़ें) पर मौक़ूफ़ है मसलन गाओ कुशी (गाय की कुर्बानी) इस वक़्त के हनूद (हिंदू की जमा) के सामने बुरी ताअलीम है और दूसरे लोगों के लिए कुछ बुरी बात नहीं बल्कि मुबाह (जायज़) अम्र है।

और बाअज़ हैं जो इस अम्र में कुछ फ़िक्र ही नहीं करते बल्कि आबाई तक़्लीद (यानी बाप दादाओं के नक्शे क़दम पर बगैर सोचे समझे चलने) के सबब से उन्हें अपने मुर्शिदों की बुरी बातें भी अच्छी मालूम होती हैं। ग़र्ज़ कि उम्दा ताअलीम की तारीफ़ बतलाना निहायत ज़रूरी बात है और इस पर फ़िक्र करना भी सब हक़-परस्तों पर फ़र्ज़-ए-ऐन है। अच्छी ताअलीम सच्चे नबी का एक बड़ा निशान है यहां तक कि मोअजज़ात और पेशनगोईयां भी अगर कोई करे और फ़रिश्तों जैसा चाल चलन भी बनाकर दिखलादे और दाअवा रिसालत का करे मगर उस की ताअलीम में नुक़्सान हो या उस की ताअलीम उम्दा ताअलीम की तारीफ़ से ख़ारिज हो तो वो आदमी पैग़म्बर ख़ुदा का होना अक़्लन मुहाल है और उस का क़ुबूल करना गुमराही में पड़ना है। इसलिए मैं अर्ज़ करता हूँ कि मुअल्लिम वो है जो किसी बात की ताअलीम अपने क़ौल या फ़ेअल से दे।

ताअलीम वो बात है जो किसी मुअल्लिम ने सिखलाई ख़्वाह ख़्याल हो या रस्म व दस्तूर, वग़ैरह हमारे ख़्याल की आँखें दुनिया में चार क़िस्म की ताअलीमें देखती हैं झिल्ली व अक़्ली नफ़्सानी व रूहानी।

(1) ताअलीम झिल्ली वो ताअलीम है जो सही और कुशादा अक़्ल के ख़िलाफ़ हो या इस में नादानी की आमेज़िश हो और अक़्ल सहीह की रोशनी उस की तारीकी दिखला सके जैसे बुत-परस्ती और क़ब्र-परस्ती और नादानी के अक़ीदे वग़ैरह।

(2) ताअलीम अक़्ली वो ताअलीम है जो आदमी की अक़्ल के मुवाफ़िक़ होती है और यह ताअलीम पहली ताअलीम से बेहतर है मगर काफ़ी नहीं है। इम्कान ग़लती के जिहत से और इस सबब से कि बनी-आदम की अक़्लें मदारिज मुख़्तलिफ़ रखती हैं और घटती व बड़ती भी हैं। वाज़ेह रहे कि अक़्ल से मुराद यहां उन ख़यालात का ख़ज़ाना है जो आदमी ज़हन में जमा करते हैं पर वो अक़्ल जो रूह की सिफ़त या उस्ताद और वही (इल्हाम) है जिसे रूह की आँख कहना चाहिए उस की हिदायतें अलबत्ता मुफ़ीद हैं तो भी जब आदमी की अक़्ल बालाई रोशनी ऐनी आफ़्ताब सदाक़त से मुनव्वर हो कर फ़िक्र करती है तो आदमी दुरुस्त सोचता है, पर जब ज़हन के खोटे खरे मुक़द्दमात की आमेज़िश से वो काम में लाई जाती है तो इस में भी ग़लती का इम्कान है बल्कि आज तक चार तरफ़ गलतियां साफ़ नज़र आती हैं।

(3) ताअलीम नफ़्सानी ये वो ताअलीम है जो नफ़्स की ख़्वाहिशों के मुवाफ़िक़ दी जाती है बाअज़ मुअल्लिम अपने नफ़्स की ख़्वाहिशों के मग़्लूब हैं और हर आदमी का नफ़्स शहवत परस्ती और अय्याशी और जिस्मानी लुत्फ़ और ग़ुरूर और हुकूमत और ग़लबे का तालिब है और रूह की ख़्वाहिशें ज़रूर जिस्म की ख़्वाहिशों के ख़िलाफ़ हैं हर आदमी पर अक़्लन वाजिब है कि नफ़्स की ख़्वाहिशों को मारे और रूह की ख़्वाहिशों की तक्मील की फ़िक्र करे पर बाअज़ मुअल्लिम नफ़्स के मग़्लूब हैं और उन्हों ने अपने नफ़्स की ख़्वाहिशों को हत्त-उल-मक़्दूर (पूरी ताक़त से) पूरा भी किया है और वैसी ही ताअलीम भी दी है। अगरचे अपनी नफ़्सानी ताअलीम पर कहीं कहीं अक़्ली ताअलीम का मुलम्माअ (क़लई, ज़ाहिरी टिप टाप) भी चढ़ाया है ताकि नादानों को फैला दें तो भी उनकी ताअलीम साफ़ ज़ाहिर है ये ताअलीम सब ताअलीमात से ज़्यादातर मफ़ुर है।

(4) ताअलीम-ए-रूहानी ये वो ताअलीम है जो आदमी की रूह की अस्ल इस्तअद्दा और इस की सब उम्दा ख़्वाहिशों से इलाक़ा रखती है।

तौज़ीह (खुल कर बयान करना) इस का यूं है कि इन्सानी रूह आलम तजर्रुद (ख़ल्वत, तन्हाई) का एक लतीफ़ जोहर है। आलम-ए-अज्साम की तर्कीब से मुतवल्लिद नहीं है चुनान्चे इस की ख़साइस (ख़ुसूसीयत की जमा) से ज़ाहिर है और इस के ख़साइस ऐसे हैं कि इस जहान की चीज़ों से तक्मील नहीं पा सकते मसलन वो ख़ुशी की तालिब है और इस जहान की कोई चीज़ या कुल जहान इस की ख़ुशी को पूरा नहीं कर सकता मगर सिर्फ आलम-ए-बाला की ख़ुशी से इस की सेरी होती है। इसी तरह वो इन्साफ़ दोस्त है और बेइंसाफ़ी से इस में ईज़ा पहुँचती है और कामिल इन्साफ़ की उम्मीद उसी ख़ुदा में है। पर वो उस वक़्त मुक़ाम ख़ौफ़ में (अपने) आपको देखती है जब तक उसे ख़ुदा तसल्ली ना दे उस का ख़ौफ़ दूर नहीं हो सकता। इसी तरह उस के और और ख़साइस भी हैं। पस जो ताअलीम उस की तिश्नगी (प्यास) को बुझा दे और इस के सवालों का जवाब दे ऐसा कि इस की तस्कीन होए उस ताअलीम को हम ताअलीम-ए-रूहानी कहते हैं और यह भी वाज़ेह रहे कि अक़्ली ताअलीम अगरचे ऐसी है कि बाअज़ उमूर् में जहां तक अक़्ल की रसाई है ऐसी हिदायतें मिलती हैं कि किसी क़द्र रूह तसल्ली पा सकती है पर रूह की उन ख़्वाहिशों की तक्मील जो इस जहान से इलाक़ा नहीं रखती हैं अक़्ली ताअलीम से हरगिज़ नहीं हो सकती है और रूह इन्सानी में एक और ही क़िस्म का तअक़्क़ुल (सोचना, ग़ौर करना) है जिससे वो अपने देस की बातों को परखती है। इसी लिए सय्यदना मसीह ने यूं फ़रमाया है। (यूहन्ना 7:17) जो कोई ख़ुदा की मर्ज़ी पर चलना चाहे वो इस ताअलीम की बाबत समझ जाएगा कि क्या ख़ुदा से है या मैं अपनी कहता हूँ। यानी जिस आदमी की रूह का तअक़्क़ुल ज़ंग-ख़ुर्दा (ज़ंग लगा हुआ) नहीं है बल्कि हक़ीक़ी ख़ुशी की उमंग इस में ज़िंदा है वो इस रुहानी ताअलीम को जो मैं देता हूँ समझ सकता है कि ये बातें इन्सानी अक़्ल की तस्नीफ़ से नहीं हैं अल्लाह से हैं।

पस बयान बाला के बाद मालूम करना चाहिए कि दीन की सच्चाई के लिए ये चौथी क़िस्म की ताअलीम मतलूब है। और जब हम यूं कहते हैं कि सिर्फ बाइबल मुक़द्दस ही की ताअलीम उम्दा है और सब जहान की ताअलीमात दीन के मुक़ाबले में इस के सामने हीच (कमतर) हैं तो हमारा यही मतलब है कि सिर्फ बाइबल मुक़द्दस ही की ताअलीम रूहानी है और चूँकि रुहानी ताअलीम अक़्ल से तव्वुलुद (पैदा) नहीं हो सकती है और ना इन्सान के रूह से पैदा हो सकती है अगरचे अमराज़ रुहानी का मुआलिजा है। पस वो ईलाही इल्हाम से होती है पस इल्हाम की शनाख़्त के लिए रुहानी ताअलीम का होना पूरी और कामिल शर्त है जो मोअजज़े और पेशीनगोईयां और मुअल्लिम की ख़ुश चलनी ये सब दूसरे क़िस्म की मोहरें हैं। ख़ुदा से अगर हम एक अशर्फ़ी हाथ में लेकर दर्याफ़्त करना चाहें कि ये खोटी है या खरी तो उस के सोने का खरा होना दर्याफ़्त करना पहली बात है और उस के सिक्का और छड़ा (पांव का कड़ा) पर फ़िक्र करना दूसरी बात है अगर इस का सब कुछ दुरुस्त है तो वो सही है पर हो सकता है कि खोटे सोने पर कोई जालसाज़ बादशाह का छड़ा और सिक्का लगा दे और आप दयानतदार जौहरी ज़ाहिर होके लोगों को फ़रेब दे इसलिए भाईयों ताअलीम की उम्दियत (बेहतर) का देखना पहले ज़रूर है।

अब मैं साफ़ कहता हूँ कि हम मुहम्मद साहब की ताअलीम को उम्दा नहीं पाते हैं। अगर मुहम्मद साहब की ताअलीम ख़ुदा से होती है तो मैं अपने प्यारे मुसलमान रिश्तेदारों को और अपने क़ौमी आराम को छोड़कर इस मसीहियों की हक़ीर जमाअत में जहां सदहा क़िस्म के दुख भी उठा रहा हूँ हरगिज़ शामिल ना होता। मैं ख़ूब जान गया कि सिर्फ मसीही दीन ख़ुदा से है इसलिए सब कुछ उस के वास्ते सहने को हाज़िर हूँ ताकि ख़ुदा के सामने मक़्बूल ठहरूं।

जब मैंने मुहम्मद साहब की ताअलीम पर फ़िक्र किया तो तीन क़िस्म की ताअलीम उन की पाई कुछ ताअलीम ना-वाक़िफ़ी से इलाक़ा रखती है। मसलन हज़रत ईसा की वालिदा मर्यम को इमरान पिदर मूसा के बेटे और हारून की बहन बतलाना वग़ैरह और कुछ बातें सिर्फ़ अक़्ल से इलाक़ा रखती हैं मसलन حزب بما لدلھیم فرحون हर फ़िर्क़ा अपनी हालत में ख़ुश है वग़ैरह और कुछ बातें नफ़्सानी ख़्वाहिशों से इलाक़ा रखती हैं मसलन औरतों का बे निहायत तअसुक (تعثق) वग़ैरह और यह तीन क़िस्म की ताअलीम उन की बहुत कस्रत से है। मगर चूँकि वो भी इन्सान थे और उन में भी इन्सानी रूह थी जिसके वाक़ई ख़साइस उम्दा हैं इस की कशिश से और इस दाअवे के लिहाज़ से जो उन्हों ने हुसूल दुनिया के लिए किया था उन्हें ज़रूर था कि कुछ बातें रुहानी भी बोलें सो उन्होंने ख़ुदा के कलाम से बाअज़ उम्दा बातें भी नसरानी ग़ुलामों के वसीले से मालूम करके क़ुरआन में बोली हैं और चूँकि ईलाही रूह इस मुआमले में उन की रहबर ना थी सिर्फ इन्सानी अक़्ल से ये इंतिज़ाम था इसलिए इन मज़ामीन की नक़्ल करने में और तर्तीब देने में और नताइज निकालने में जगह जगह उन्होंने बहुत ही धोके खाए हैं और बहुत बातें ग़लत तौर पर सुनाई हैं। इस के सिवा वो उम्दा मग़ज़ रुहानी बातों के जो रूह इन्सानी की तसल्ली का बाइस हैं और वो ख़ुदा ही की मदद से समझे भी जाते हैं उन्होंने हरगिज़ नहीं समझे इसलिए वो उम्दा बातें भी जो कलाम-ए-ईलाही से उन्हों ने इंतिख़ाब की हैं वो भी उन के क़ुरआन में आकर रूह के लिए तसल्ली बख़्श ना रहीं क्योंकि कहीं कहीं से टुकड़े उड़ाए हुए मुफ़ीद नहीं हो सकते हैं। और यह बात तो ख़ूब ज़ाहिर है कि हर जिस्मानी मुअल्लिम और वो जो धोका देता है कभी दुनिया में नहीं देखा गया कि ये सब कुछ ग़लत ही बोले हाँ ऐसे मुअल्लिम ग़लत और सही बातें मिला कर बोला करते हैं अगर वो सब कुछ ग़लत बोलें तो कौन उनकी सुनेगा। और यह बात भी मुसल्लम है कि जब कोई दुनियावी अक़्लमंद ताअलीम देता है तो उस की वो सब बातें जो अक़्लन सही हैं क़ुबूल होती हैं और जहां पर उस की ग़लती ज़ाहिर होती है वो बात छोड़ी जाती है इसलिए कि वो इन्सानी अक़्ल से बोलता है और इन्सान है इसलिए अपनी भूल पर बहुत मलामत के लायक़ नहीं है। पर जो शख़्स दावा-ए-नुबूव्वत के साथ ताअलीम दे और कहे कि ख़ुदा से पाकर तुम्हें सिखलाता हूँ उस की ताअलीम में सब कुछ सही होना चाहिए अगर उस की ताअलीम में थोड़ी सी भी ग़लती ज़ाहिर हो तो वो मुअल्लिम ख़ुदा की तरफ़ से नहीं है। मगर मुहम्मद साहब की ताअलीम में तो ना सिर्फ थोड़ी सी ग़लती मगर बहुत सी ग़लती और थोड़ी सी सेहत है और इस थोड़ी सी सेहत का माख़ज़ भी मालूम है जो कामिल सेहत अपने अंदर रखता है। इसलिए मुहम्मद साहब की नबुव्वत का इन्कार करना फ़र्ज़-ए-ऐन है और कलाम-ए-ईलाही की तस्दीक़ करना निहायत ज़रूरी बात है।

एक बात और भी नाज़रीन किताब हज़ा को याद रखना चाहीए कि वो ये है कि दुनिया में आदमीयों ने सब बातों पर एतराज़ किए हैं। रास्ती पर भी एतराज़ हुए हैं और नारास्ती पर भी एतराज़ हुए हैं। यहां तक कि ख़ुदा की ज़ात-ए-पाक को भी आदमीयों ने बग़ैर एतराज़ों के नहीं छोड़ा। पस किसी बात को सिर्फ एतराज़ों ही को देख कर हम नहीं छोड़ सकते। क्योंकि शायद एतराज़ ग़लत हों और किसी ने नादानी से या तास्सुब से एतराज़ किए हूँ इसलिए वाजिब है कि उन एतराज़ों के जवाबों पर पहले ग़ौर किया जाये अगर रूह गवाही दे कि जवाब सही हैं और एतराज़ ग़लत हैं तो उन एतराज़ों की हम कुछ परवाह नहीं करते और अगर एतराज़ सही हैं और जवाब ग़लत हैं तो मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाला) सच्चा है। देखो बाइबल पर भी हज़ारहा एतराज़ लोगों ने किए हैं पर उन के ऐसे शाफ़ी जवाब मौजूद हैं जो एतराज़ों को फ़िल-हक़ीक़त उड़ा देते हैं मगर क़ुरआन और ताअलीम मुहम्मदी और नबुव्वत मुहम्मदी पर जो एतराज़ हुए हैं नाज़रीन को चाहिए कि उलमा मुहम्मदिया की तस्नीफ़ात में उन के जवाबों को देखें और उन से इन एतराज़ों की बाबत बातचीत भी करें। उन्हें खुद ही मालूम हो जाएगा कि एतराज़ सही हैं और जवाब ग़लत हैं देखो मौलवी रहमत उल्लाह साहब ने और हाफ़िज़ वली-उल्लाह लाहौरी ने और दिल्ली के इमाम साहब ने और आगरा के मौलवी सय्यद मुहम्मद साहब ने और लखनऊ के मुज्तहिद साहब ने और, और लोगों ने भी मसीहियों के जवाब में क्या-क्या कुछ लिखा है नाज़रीन आप ही इन्साफ़ से कह सकते हैं कि क्या हक़ीक़त में मसीहियों के लिए जवाब हो गए हैं हरगिज़ नहीं हम तो बहुत ख़ुश हैं कि लोग उन की किताबों को हमारी किताबों के साथ मिला कर पढ़ें और इन्साफ़ करें कि हक़ किधर है। अब मैं मुहम्मद साहब की ताअलीम दिखलाना चाहता हूँ और यह उनकी ताअलीम चार (4) क़िस्म पर मुनक़सिम (तक़्सीम, बटीं हुई) है अक़ाइद और इबादात और मुआमलात और क़िसस इसलिए इस किताब में चार बाब मुक़र्रर होते हैं और उन की ताअलीम की सब ज़रूरी बातों का ज़िक्र आता है ताकि नाज़रीन पूरी मुसलमानी से वाक़िफ़ हों कि क्या है।

(1) पहला बाब

अक़ाइद इस्लामीया के बयान में

अरबी ज़बान में अक़ीदे के माअनी हैं गिरोह लगाई हुई, इन्सान पर वाजिब है कि सही ख़यालात के साथ अपने रूह को बाँधे और वो बातें जिनके साथ रूह बाँधी जाती है अक़ाइद कहलाते हैं और यह अक़ाइद सारी दीनदारी की जड़ होते हैं चाहिए कि उन बातों के साथ रूह की बंदिश हो जो क़ायम व दायम और सच्चाई की हैं। क्योंकि एक वक़्त आएगा कि सब बुतलान दफ़ाअ होंगे वो सच्चाई जो ख़ुदा से और ख़ुदा की ज़ात में अबद तक क़ायम है वही बाक़ी रहेगी। पस ज़रूर है कि आदमी की रूह सच्चाई की तरफ़ हमेशा ताकती रहती है बल्कि उस के साथ कुछ पैवस्तगी हासिल करे ताकि जब क़हर ईलाही का तूफ़ान तमाम बुतलान के बर्बाद करने को ज़ोर मारे तो हमारी रूहें इस सच्चाई के सुतून को पकड़े हुए क़ायम रहें। इसी वास्ते हर दीन मज़्हब का मुअल्लिम कुछ अक़ाइद अपने शागिर्दों को सिखलाया करता है मुहम्मद साहब ने भी कुछ अक़ीदे सिखलाए हैं मगर अहले इस्लाम की कुतुब अक़ाइद देखने से मालूम हो सकता है कि सिर्फ चंद ज़रूरी बातें वहां मज़्कूर हैं जो ख़ुदा की निस्बत और मुहम्मद साहब की निस्बत और दीगर अम्बिया और कतुब अम्बिया और क़ियामत और दोज़ख़ बहिश्त की निस्बत हैं बाक़ी और बयान जो वहां हैं वो तवज्जोह के लायक़ नहीं हैं। मसलन ख़लीफ़ा अव़्वल कौन है अली या अबू बक्र ये बात अक़्लन कुछ इलाक़ा ईमान से नहीं रखती है। इसी तरह ये कि यज़ीद काफिर था या मुसलमान। या जब हज़रत अली आईशा से लड़े थे तो जानबीन में से किस के मुर्दे दोज़ख़ में और किस के मुर्दे बहिश्त में गए थे ऐसी ऐसी बातें उन अहले इस्लाम के सब फ़िर्क़ों में जद्दी जद्दी (मौरूसी) मिलते हैं। मगर मैं ज़रूरी बातों का ज़िक्र करता हूँ।

1 फ़स्ल अव़्वल

ईमान के बयान में

ईमान सारी दीनदारी की बुनियाद है मगर ये ईमान दुनिया में सब फ़िर्क़ों में मुख़्तलिफ़ हैं इसलिए सही ईमान हासिल करना हर आदमी का फ़र्ज़-ए-ऐन है। मुहम्मद साहब क़ुरआन में फ़रमाते हैं कि ईमान और आमाल से आदमी नजात पाएगा चुनान्चे लिखा है :-

والشرالذین امنووعملو الصالحات ان لھم جناة تجری من تحتھا الانھار

“ख़ुशख़बरी सुना दो उन लोगों को जो ईमान लाए और नेक काम किए उन के लिए बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बेहती हैं।”

और ईमान के माअनी मुहम्मद साहब की इस्तिलाह में ये हैं कि कलिमा लाईलाहा इल्लल्लाह मुहम्मद रसूलुल्लाह (لا الہ اللہ محمد رسول اللہ) का ज़बान से इक़रार और दिल से यक़ीन होए यानी वहदत ईलाही (तौहीद) और रिसालत मुहम्मदी का यक़ीन और इक़रार ईमान है और नेक आमाल ये हैं कि बाद ईमान के आदमी क़ुरआन और हदीस के हुक्मों पर चले और इस की हिदायतों के मुवाफ़िक़ काम करे ऐसा आदमी नजात पाएगा और ऐसे ही को नजात की ख़ुशख़बरी सुनाई जाती है।

उलमा मुहम्मदिया में इख़्तिलाफ़ है कि आमाल नेक ईमान में शामिल हैं या ईमान से ख़ारिज हैं। मुहम्मद साहब ने भी कभी आमाल को ईमान से ख़ारिज करके बयान किया है और कभी शामिल करके दिखलाया है। लेकिन इस बात पर हज़रत का ज़ोर है कि आमाल ईमान से ख़ारिज हैं और ईमान और बात है और आमाल और बात है।

“मिश्कात किताब-उल-ईमान” में बुख़ारी व मुस्लिम की मुत्तफ़िक़ अलैह एक हदीस अबू ज़र से यूं लिखी है अबू ज़र कहता है कि :-

“मैं हज़रत के पास आया उस वक़्त सफ़ैद चादर ओढ़े सोते थे तब में वापिस चला गया जब फिर आया तो बेदार बैठे थे पस फ़रमाने लगे कि जो कोई लाईलाहा इल्लल्लाह (لا الہ اللہ) और इस पर क़ायम रहे कर मरे वो बहिश्त में दाख़िल होगा (यानी सिर्फ़ ख़ुदा की तौहीद के इक़रार से बद व नेक आमाल के) अबू ज़र ने कहा अगर वो ज़िना और चोरी किया करे तो भी बहिश्त में जाएगा फ़रमाया ज़िना और चोरी करके भी बहिश्त में जाएगा अबू ज़र ने तीन बार इस बात को ताज्जुब करके पूछा तब हज़रत ने फ़रमाया ज़िना और चोरी करके भी बहिश्त में जाएगा। ज़रूर जाएगा तेरी नाक पर ख़ाक डाल के (जब अबू ज़र इस हदीस को सुनाया करता था तो उस के साथ ये भी कहा करता था कि तेरी नाक पर ख़ाक डाल के)”

दूसरी हदीस इसी बाब में मुस्लिम ने अबू हुरैरा से यूं बयान की है कि :-

“जब मुहम्मद साहब बनी नज्जार के बाग़ में थे अबू हुरैरा उन्हें तलाश करता हुआ बाग़ की मोरी से उन के पास पहुंचा और कहा हज़रत हम सब अस्हाब आपकी तलाश में फिरते हैं देखो दीवार की इस तरफ़ सब दोस्त हाज़िर हैं उस वक़्त हज़रत ने फ़रमाया कि ये मेरी जूतीयां बतौर निशानी के हाथ में ले और चला जा जो कोई तुझे इस दीवार के पीछे मिले उस से कह कि जो कोई कहे ला-ईलाहा-इल्लल्लाह (لا الہ اللہ) यक़ीन करे वो बहिश्त में दाख़िल होगा पस अबू हुरैरा चला पहले उसे उमर ख़लीफ़ा मिले जब अबू हुरैरा ने ये ख़ुशख़बरी सुनाई और जूतीयां दिखलाएँ तो उमर ने इस की छाती पर ऐसी लात मारी कि अबू हुरैरा चूतड़ों के बल गिर पड़ा और चीख़ मार के रोया फिर मुहम्मद साहब के पास आकर फ़र्याद की तब उमर ने पीछे से आके कहा या हज़रत ये बात ना सुनाओ लोग इस के भरोसे पर अमल करना छोड़ देंगे तब हज़रत बोले अच्छा ना सुनाओ अमल करने दो।”

ऐसी रिवायतें दिखलाते हैं कि आमाल ईमान से जुदा हैं और कि नजात सिर्फ़ ईमान पर है ना आमाल पर। (फ) मुझसे कई बार बाअज़ अहले इल्म मुसलमानों ने भी सवाल किया है कि अगर कोई आदमी मसीह पर ईमान लाए और सारी बदकारीयाँ किया करे तो क्या उस की नजात होगी। उनका ये मतलब था कि अगर हम कहें होगी तो वो ठट्ठा मारेंगे कि ये कैसी बुरी ताअलीम है और जो हम कहेंगे आमाल की भी ज़रूरत है तो वो कहेंगे कि ये नजात ना सिर्फ ईमान पर है मगर आमाल पर है। ये ख़्याल उनके दिल में इसलिए आता है कि वो हक़ीक़ी ईमान के माअनी से नावाक़िफ़ हैं। मुहम्मदी ईमान और मसीही ईमान का एक ही मतलब जानते हैं। पर नाज़रीन को आइन्दा सुतुरों में इस का फ़र्क़ मालूम हो जाएगा यहां सिर्फ ये मालूम करना चाहिए कि मुहम्मद साहब ख़ुद फ़रमाते हैं कि सारी बदकारी करे और सिर्फ अल्लाह की वहदत (तौहीद) का क़ाइल हो तो भी बहिश्त में जायेगा। अगरचे ये हदीसें क़ुरआन की आयत बाला के ज़ाहिरी मअनी के ख़िलाफ़ हैं तो भी सही मुस्लिम और सही बुख़ारी में लिखी हैं मोअतबर हदीसें हैं और क़ुरआन की तफ़्सीरें और क़ुरआन की बातिनी हालत के मुख़ालिफ़ नहीं हैं।

फिर मिश्कात बाब-उल-कबायर में तिर्मिज़ी व अबू दाऊद से अबू हुरैरा की यूं रिवायत है फ़रमाया :-

“हज़रत ने जब कोई आदमी ज़िना करता है तो उस का ईमान उस के दिल में से निकल के उस के सर पर साएबान की तरह खड़ा हो जाता है जब वो ज़िना कर चुकता है तो फिर ईमान दिल में आ जाता हैं।”

इन सब बातों से कई एक नतीजे निकलते हैं अव़्वल हज़रत मुहम्मद की ताअलीम में एक फ़िक़्रह है यानी कलिमा जिसके मज़्मून का इक़रार और यक़ीन ईमान है और इस फ़िक़्रह की दो जुज़ (हिस्से) हैं पहला ला इलाहा इल्ललाह यानी कोई अल्लाह नहीं मगर एक अल्लाह है कभी तो सिर्फ इसी जुज़ को ईमान बतलाया है और कभी दूसरा जुज़ भी इस के साथ मिलाया है कि मुहम्मदु र्रसूलुल्लाह यानी मुहम्मद अल्लाह का रसूल है। पहले जुज़ (हिस्से) को हम बसर व चश्म क़ुबूल करते हैं। बशर्ते के वहदत-उल-वजूदी और वहदत हक़ीक़ी इस से मुराद ना हो बल्कि वहदत से वो वहदत मुराद होए जिसकी कुह्ना (पुराना) मालूम नहीं है।

तो भी ये अकेला जुज़ (हिस्सा) अक़्लन व नक़्लन मूजिब नजात नहीं हो सकता है सब शयातीन भी जानते हैं कि ख़ुदा वाहिद है। पस जब उनके हक़ में ये जुज़ मुफ़ीद नहीं है तो हमें किस तरह मुफ़ीद होगा? और मुहम्मद साहब भी इस अकेले जुज़ को मुफ़ीद नहीं जानते हैं अगरचे कभी-कभी मुफ़ीद बतलाया है पर कभी-कभी इस के साथ दूसरा जुज़ मिलाते हैं यानी मुहम्मदु र्रसूलुल्लाह मगर ये जुज़ सबूत रिसालत का मुहताज है जो मुहाल है। बिलफ़र्ज़ अगर ये क़ुरआन और यह हदीस और यह तवारीख़ मुहम्मदी दुनिया में ना होती और मुहम्मद साहब की रिसालत साबित भी होती तो भी ये जुज़ पहली जुज़ के साथ काफ़ी ना था कोई और बात भी मतलूब थी जिससे नजात की ख़ुसूसीयत और इस्तिहक़ाक़ कलिमे के मज़्मून में पैदा होता।

दूसरी बात ये मालूम हुई कि ये ईमान इन्सान का काम है यानी इन्सान आप उस को पैदा करके थामे रहे।

तीसरी बात ये मालूम हुई कि आमाल हसना ज़रूर इस ईमान से जुदा हैं।

चौथी ये मालूम हुआ कि ये ईमान कुछ मदद नहीं कर सकता है जब किसी का नफ़्स-ए-अम्मारा सरकशी करता है तो ये ईमान ज़िना के वक़्त अपना घर छोड़कर सर पर जा खड़ा होता है और मुंतज़िर रहता है कि कब वो ज़िना कर चुके ताकि फिर इस में दाख़िल हो।

पांचवीं ये मालूम हुआ कि इस ईमान को हज़रत बाइस नजात बतलाते हैं और आमाल हसना को बतौर मस्लिहत के करने देते हैं। इन हदीसों में और क़ुरआन में ईमान व आमाल हर दो को मूजिब नजात बतलाते हैं पस हदीसें जो क़ुरआन की तफ़्सीर हैं इन से मालूम हो गया कि क़ुरआन में भी आमाल की क़ैद मस्लिहतन है पर नजात सिर्फ उसी ईमान पर है ये मुख़्तसर बयान मुहम्मदी ईमान का है अगर कोई इसे पसंद करता है तो क़ुबूल करे।

अब मसीही ईमान का मुख़्तसर हाल सुनो

ईमान का मग़ज़ या ईमान की जान ये है कि उस सच्चे और बरहक़ ज़िंदा ख़ुदा पर आदमी के दिल का भरोसा क़ायम हो जाए ख़ुदा पर दिल ठहरे और तकाओ हासिल करे। मगर तफ़्सील इस की यूं है कि जिस तरह ख़ुदा ने अपने आपको बाइबल में ज़ाहिर किया है इसी तरह से उस की निस्बत यक़ीन किया जाये कि ख़ुदा एक है और उस की यकताई में अक़ानीम सलासा हैं यानी बाप, बेटा और रूह-उल-क़ुद्दुस एक वाहिद ख़ुदा है और ये वहदत उस की, क़ियास से बाहर है पर ईलाही इन्किशाफ़ से हमारी रूहों पर ये भेद मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) होता है कोई आदमी अपनी क़ुव्वत फ़िक्रिया से इस को समझ नहीं सकता पर ख़ुदा जिसको समझा देता है वो समझ जाता है और क़ुबूल करता है तब ये ईमान अक़्ल से मुतवल्लिद (पैदा) नहीं होता मगर ख़ुदा बख़्शता है वो आप बतलाता है कि मैं कैसा हूँ। पस ये ईमान ख़ुदा की बख़्शिश है जिसे मर्हमत (मेहरबानी) हो। इन्सान का सिर्फ इतना फ़र्ज़ है कि ख़ुदा से सही ईमान मांगे। पस जब इन्सान की तरफ़ से ईमान सही की तलब अपने दर्जों पर हो तो वो ईमान जो आस्मानी तासीर है ख़ुदा उस को ज़रूर बख़्श देता है। जब तक तलब में ख़ुलूस ना हो वो नहीं मिलता हाँ बाअज़ वक़्त उन को भी मिल जाता है जो नहीं ढूंडते पर ऐसी बात ख़ुदा की पोशीदा हिक्मत से मुताल्लिक़ है पर वो क़ायदा कि जो कोई ढूंढता है पाता है आम इंतिज़ाम के साथ इलाक़ा रखता है और इसी लिए इन्सान तलब में क़सूर के सबब मुल्ज़िम भी होता है।

इस सूरत में हक़ीक़ी ईमान ख़ुदा का कलाम है ना आदमी का क्योंकि ख़ुदा आदमी के दिल को अपनी तरफ़ खींचता है और अपनी ज़ात-ए-पाक को इस की रूह के सामने ज़ाहिर करता और यूं आदमी का दिल ख़ुदा पर क़ायम होता है और जैसे बच्चा जब नव पैदा (नया पैदा होता है) जब वालिदा उस के मुँह में छाती देती है वो शीर (दूध) को खींचता है इसी तरह जब हमें ये ईमान अल्लाह से मिलता है तो हम इस ईमान के वसीले से ख़ुदा से क़ुव्वत खींचते हैं और सारे नेकी के काम करने की ताक़त पाते हैं और सारी बद ख़्वाहिशों को दबाने और मारने का ज़ोर भी पाते हैं और यूं हमारी सारी पार्साई और तमाम आमाल हसना इसी ईमान के फल होते हैं जहां ये ईमान होता है वहां नेक आमाल ज़रूर पाए जाते हैं बग़ैर इस के आमाल हसना हो नहीं सकते और ना वो बग़ैर आमाल हसना कभी कहीं पाया जा सकता है। ईमान व आमाल लाज़िम व मलज़ूम (एक दुसरे से जुड़े) हैं और इस ईमान की आज़माईश अक्सर इम्तहानों के वक़्त हुआ करती है कि वो मौक़े पर अपनी ताक़त दिखलाता है यही मसीही ज़िंदा ईमान आदमी में उम्मीद पैदा करता है। इस मसीही ईमान की भी हक़ीक़त में दो ही बड़े जुज़ हैं पहला अल्लाह की ज़ात को वैसे ही क़ुबूल करना जैसे अल्लाह ने (अपने) आपको इल्हाम से ज़ाहिर किया है कि वहदत अक़ानीम सलासा में है और अक़ानीम सलासा वहदत में हमें दूसरा ये कि उक़नूम सानी ने जिस्म को इख़्तियार किया और हमारे लिए सब फ़राइज़ अदा किए और हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा हुआ। पस वहदत-फ़ील-तस्लीस और कफ़्फ़ारे का यक़ीन और इक़रार करना बयान है इस दिली टिकाओ का जो अल्लाह से इनायत हुआ है और इस ईमान में जिसमें कफ़्फ़ारे का ज़िक्र आया है नजात पाने की वजह भी साफ़ साफ़ मज़्कूर है यानी कफ़्फ़ारा, ईसाई ईमान का कलिमा ये है जिसे रसूलों का अक़ीदा कहते हैं।

मैं एतिक़ाद रखता हूँ ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ बाप पर, जो आस्मान व ज़मीन का पैदा करने वाला है। और उस के इकलौते बेटे हमारे ख़ुदावन्द यसूअ मसीह पर जो रूहुल-क़ुद्दुस से पेट में पड़ा कुँवारी मर्यम से पैदा हुआ। पेंतुस पीलातुस की हुकूमत में दुख उठाया सलीब पर खींचा गया मर गया और दफ़न हुआ और आलम अर्वाह में जा उतरा और तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठा आस्मान पर चढ़ गया और ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ बाप के दहने हाथ बैठा है जहां से वो ज़िंदों और मुर्दों की अदालत करने को आएगा। मैं एतिक़ाद रखता हूँ रूहुल-क़ुद्दुस पर पाक कलीसिया-ए-जामा पर मुक़द्दसों की रिफ़ाक़त गुनाहों की माफ़ी जिस्म के जी उठने और हमेशा की ज़िंदगी पर।

सब ईसाई फ़िर्क़े इस पर मुत्तफ़िक़ हैं बाअज़ फ़िर्क़े इस इबारत को हिफ़्ज़ रखते हैं और बाअज़ सिर्फ इस के मज़ामीन पर इक्तिफ़ा करते हैं। इस अक़ीदे का हर जुज़ (हिस्सा) निहायत मज़्बूत और क़वी दलील से साबित किया गया है और हर चीज़ पर दलाईल की किताबें जुदा जुदा मौजूद हैं अगर कोई उन दलाईल पर सोचे तो जानेगा कि इस अक़ीदे का हर-हर जुज़ु (हिस्सा) ईमान हक़ीक़ी का एक-एक रुक्न है और ज़िंदगी की तस्वीर इस में मुनक़्क़श (नक़्श) है।

मुहम्मदी ईमान और इस ईमान में ज़मीन आस्मान का फ़र्क़ है और जो ईमान उन्हों ने पेश किया है वो अहले-फ़िक्र के लिए तसल्ली का बाइस नहीं हैं बल्कि घबराहट का बाइस है। पर ये मसीही ईमान जिस पर सब पैग़म्बर भी मुत्तफ़िक़ हैं निहायत तसल्ली बख़्श और मोअस्सर है।

2 दूसरी फ़स्ल

अम्बिया व कतुब साबिक़ा के ज़िक्र में

मुहम्मद साहब ने ये अक़ीदा भी सिखलाया है कि सब नबियों और पैग़म्बरों पर भी ईमान लाना चाहिए यानी इक़रार करना कि सब रसूल जो अल्लाह की तरफ़ से दुनिया में आए बरहक़ थे उन में से बाअज़ मशहूर नाम भी क़ुरआन हदीस में मज़्कूर हैं और उन की तादाद के बाब में मुख़्तलिफ़ हदीसें हैं और उन के दर्जों में भी फ़र्क़ दिखलाया गया है बाअज़ को बाअज़ पर फ़ज़ीलत है।

उनकी किताबों की निस्बत भी हज़रत का ये बयान है कि वो सब किताबें जो नाज़िल हुईं बरहक़ हैं ये एतिक़ाद (अक़ीदा) हर मुसलमान को रखना ज़रूर है वर्ना वो मुसलमान नहीं है।

फिर इन किताबों में बाअज़ को सहाइफ़ यानी छोटी किताबें बतलाया है और चार बड़ी किताबें बयान हुई हैं। तौरेत, इन्जील, ज़बूर और चौथा उनका क़ुरआन, पर इस वक़्त क़ुरआन को छोड़कर पहली किताबों का ज़िक्र है।

पस अगले पैग़म्बरों और उन की किताबों की निस्बत जो अहले इस्लाम का एतिक़ाद (अक़ीदा) है कि वो सब बरहक़ हैं ये निहायत सच्चा और पाक अक़ीदा है। मगर उनका ये बयान कि अगले पैग़म्बरों और किताबों को बरहक़ तो जानो लेकिन उन पर अमल ना करो क्योंकि वो मन्सूख़ हो गई हैं ये ख़ौफ़नाक अक़ीदा है और कोई अहले-फ़िक्र इस को क़ुबूल ना करेगा।

(फ) बाअज़ मुसलमान कहा करते हैं कि देखो हम कैसे सुलहकार हैं हमारा ये एतिक़ाद है, आमन्तु बिल्लाही व मलाएकतीही व कुतुबीही व रसूलिही (امنت باللہ وملائیکتہ وکتبہ ورسلہ) में ईमान रखता हूँ अल्लाह और उस के फ़रिश्तों और उस की सब किताबों और उस के सब रसूलों पर। मगर मसीही मुहम्मद साहब को क़ुबूल नहीं करते हैं देखो ये कैसा मुग़ालता है। आप सिर्फ उन की हक़ीक़त के क़ाइल होते हैं पर उनकी इताअत से मना करते हैं हमें कहते हैं कि तुम मुहम्मद साहब की हक़ीक़त के भी क़ाइल बनो और उन की इताअत भी करो क्या उम्दा हीले (बहाने) से हमें पैग़म्बरों की संगत (रीफाक़त) से अलग किया चाहते हैं।

वाज़ेह हो कि मुसलमानों के इस अक़ीदे में भी बहुत से ख़ौफ़ ख़तरे वाक़ेअ हैं अगर अदालत के दिन ख़ुदा तआला किसी मुसलमान से पूछे कि क्या तूने मेरे पैग़म्बरों को नहीं पहचाना तो वो कह सकता है कि बेशक मैंने उन्हें जाना कि वो बरहक़ हैं और तेरी सब किताबों को भी बरहक़ समझा लेकिन मैंने उन पर अमल नहीं किया मैंने पैग़म्बरों को और किताबों को दीदा व दानिस्ता (जान बुझ कर) पहचान कर छोड़ दिया देखो ये शख़्स इक़रार करता है कि मैं पूरा सरकश हूँ मैंने जान लिया तो भी अमल ना किया अब इस शख़्स के पास क्या उज़्र (बहाना) है?

अलबत्ता एक उज़्र (बहाना) है कि मैंने उन किताबों को मन्सूख़ समझा था और क़ुरआन को नासिख़ (मन्सूख़ करने वाला) जाना था मुहम्मद साहब के इर्शाद से। लेकिन ख़ुदा तआला उस को यूं क़ाइल कर सकता है कि क्या मैं सादिक़ुल-क़ौल और क़दीम व अज़ली अबदी नहीं हूँ? क्या मेरा कलाम क़दीम नहीं है? क्या मैं दुनियावी हुक्काम की मानिंद अपने अहद को बदला करता हूँ? क्या तूने नहीं सुना था कि आस्मान और ज़मीन जो मख़्लूक़ हैं टल सकते हैं मगर मेरा कलाम जो क़दीम है टल नहीं सकता? फिर तूने उस की निस्बत मन्सूख़ होने का गुमान क्यों किया, अगर मैं मन्सूख़ हो जाऊं तो मेरा कलाम भी मन्सूख़ हो सकता है पर मैं तो क़ायम दाइम हूँ।

क्या सिर्फ मुहम्मद साहब के कहने से तूने एतिक़ाद किया। पस तूने उन में कौनसी निशानी रिसालत की पाई जिससे समझा कि वो मेरे रसूल हैं और कौनसी मार्फ़त की बात तूने क़ुरआन में देखी जिस पर तो फ़रेफ़्ता हुआ? क्या सिर्फ लफ़्ज़ी फ़साहत जो सब शूअरा (शायरों) के कलाम में होती है इस के सिवा ये उनका कहना कि मेरे क़ुरआन से सब कलाम ईलाही मन्सूख़ हुआ है। यही एक दलील अदम (रद्दे मुहम्मदी) नबुव्वत की थी जो तूने सुनी और इस पर नहीं सोचा। अब बतलाओ कि इस अक़ीदे वाले के पास कौनसा उज़्र (बहाना) बाक़ी है जिससे वो बचे?

एक और बात है कि मुहम्मद साहब ना सिर्फ ये सिखलाते हैं कि वो किताबें मन्सूख़ हैं बल्कि उन के पढ़ने से भी मना करते हैं देखो मिश्कात बाब-उल-ईमान में दारमी से जाबिर की रिवायत यूं लिखी है कि :-

“उमर ख़लीफ़ा हज़रत के पास एक तौरेत शरीफ़ लाए और कहा या हज़रत ये तौरेत का एक नुस्ख़ा है हज़रत चुप कर गए और उमर ख़लीफ़ा उसे पढ़ने लगा तब तो हज़रत का चेहरा ग़ुस्से से बदल गया पास से अबू बक्र ख़लीफ़ा ने उमर को ख़िताब करके यूं कहा तुझे रोवें मातम करने वालायां यानी तू मर जाए पढ़े जाता है और रसूल अल्लाह का चेहरा नहीं देखता। तब उमर ने हज़रत का चेहरा बदला हुआ देखा और डर कर कहा ख़ुदा और रसूल के ग़ुस्से से ख़ुदा की पनाह हम राज़ी हुए अल्लाह से कि वो हमारा रब है और इस्लाम से कि वो हमारा दीन है और मुहम्मद से कि वो हमारे रसूल हैं तब हज़रत बोले कि मुझे उस की क़सम जिसके हाथ में मेरा नफ़्स है अगर मूसा तुम्हारे सामने होता तो तुम मुझे छोड़ कर उस के ताबेदार हो जाते और गुमराह होते सीधी राह से और अगर मूसा जीता रहता और मेरा वक़्त पाता तो मेरा ताअबेदार होता।”

इस हदीस से उलमा मुहम्मदिया ये नतीजा निकालते हैं कि क़ुरआन हदीस को छोड़कर यहूद और नसारा और हुकमा की किताबों पर रुजू करना मना है।

और मैं यहां से ये नतीजा निकालता हूँ कि मुहम्मद साहब जो तौरेत, इन्जील, ज़बूर को ख़ुदा का कलाम बतलाते हैं और फिर उसी ख़ुदा के कलाम के पढ़ने और सुनने से नफ़रत रखते हैं तो ज़रूर ये ख़ुदा के रसूल नहीं हैं वर्ना अपने भेजने वाले के कलाम से उन्हें बुग्ज़ ना होता।

अगर कोई कहे वो किताबें मन्सूख़ हैं और अदम नस्ख़ की दलील बाला पर तवज्जोह ना करे तो हमारा ये जवाब है कि अगर बिलफ़र्ज़ ऐसा है तो देखो कि क़ुरआन में किस क़द्र आयात मन्सुखिया मौजूद हैं जिन्हें हज़रत ने ख़ुद मन्सूख़ किया है उन के पढ़ने से हज़रत ने क्यों मना ना किया और उन्हें क़ुरआन से ख़ारिज क्यों ना किया? अगर उन्हें ख़ारिज नहीं करते और नमाज़ में भी पढ़ते हैं तो उन्हें भी पढ़ो बल्कि क़ुरआन के साथ कुतुब मुक़द्दसा को भी मुजल्लद (एक ही किताब में शामिल) करो।

और जो कि इन में तहरीफ़ हो गई है तो इस का सबूत पेश करना चाहिए और मुहम्मद साहब तो तौरेत शरीफ़ में हरगिज़ तहरीफ़ लफ़्ज़ी के क़ाइल ही नहीं हैं देखो तफ़्सीर फ़ौज़-उल-कबीर जो मुसलमानों ने बंबई में छापी है इस में दर्मियान मुख़ासमा के यहूद की निस्बत ये इबारत लिखी है :-

’’اماتحریف لفظی درترجمہ توریت وامثال آن بکارمے بروندنہ دراصل پیش این فقیر این چنیں محقق شد ہو تو قول ابن عباس‘‘۔

“यानी इब्ने अब्बास के क़ौल से मुझ फ़क़ीर को (मौलवी वली उल्लाह मुहद्दिस देहलवी पिदर मौलवी शाह अब्दुल अज़ीज़ साहब) को ये साबित हुआ है कि अस्ल तौरेत में तहरीफ़ नहीं हुई मगर तर्जुमे में तहरीफ़ लफ़्ज़ी यहूदी किया करते थे।”

पस मुहम्मद साहब को लाज़िम था कि अस्ल तौरेत इबरी अपने क़ुरआन के साथ मुजल्लद (एक ही किताब में शामिल) करते और इस के पढ़ने से नाराज़ ना होते जैसे हमने इन्जील के साथ तमाम कुतुब इल्हामिया साबिक़ा को मुजल्लद (एक ही जिल्द में शामिल) किया है।

इस के सिवा ये बात है कि मुसलमानों के नज़्दीक तन्सीख़ सिर्फ़ बाअज़ अहकाम में होती है और किसी मज़्मून में नहीं हो सकती बिलफ़र्ज़ अगर कुतुब मुक़द्दसा मन्सूख़ हैं तो ये नस्ख़ उनके अहकाम की निस्बत होगा ना कुल किताब की निस्बत। पस कलाम ईलाही के किस्सेजात और ख़ुदा की ज़ात-ए-पाक और इरादे और अहूद का ज़िक्र और रुहानी हिदायतें और मार्फ़त के भेद जो इस में बशिद्दत भरे हैं वो सब तो उन के अक़ीदे के मुवाफ़िक़ भी मन्सूख़ नहीं हो सकते। पस उन बाअज़ अहकाम के लिए सारी पाक किताब से बाअज़ रखना और फिर ये भी कहना कि ये बरहक़ कलाम ईलाही है ये कौनसी इन्साफ़ की बात है?

पस नाज़रीन को याद रखना चाहिए कि उनका इक़रार करके उन पर अमल ना करने वाला उस की निस्बत जिसने नहीं पहचाना ज़्यादा सज़ा के लायक़ ठहरेगा क्योंकि ये अपने हाथ आप काटने हैं पस ये मुसलमानों का अक़ीदा है कि हम सब नबियों पर और उनकी किताबों पर ईमान रखते हैं मगर उन पर अमल नहीं करते ख़ौफ़नाक और मुज़िर अक़ीदा है।

सय्यदना मसीह ने अगले पैग़म्बरों की और उन की किताबों की बहुत इज़्ज़त की है और तौरेत शरीफ़ की निस्बत फ़रमाया कि “इस का एक शोशा ना टलेगा” और पौलुस रसूल ने गवाही दी कि सारा नौशा इल्हाम से है और इन्सान की बेहतरी के लिए। शुरू से मसीही जमाअत ने सारे पैग़म्बरों की किताबों को इन्जील के बराबर कलाम ईलाही समझा और सारे पैग़म्बरों की सब किताबों को इन्जील के मजमूए के साथ एक जिल्द में बांध कर ईमान और इबादत और क़ुर्बत (नज़दिकी) ईलाही का वसीला जाना और आज तक जिस मुल्क में जाते हैं सारे पैग़म्बरों की किताब का मजमूआ पेश करते हैं कि ये अल्लाह का कलाम है देखो ये रास्ती है या वो रास्ती है जो मुहम्मद साहब ने सिखलाई है।

अलबत्ता मुहम्मदियों में और मसीहियों में इस मुआमले के दर्मियान एक फ़र्क़ है वो ये है कि अह्दे-जदीद की ताअलीम पूरा इलाक़ा रखती है अह्दे अतीक़ की ताअलीम से क्योंकि एक ही मुसन्निफ़ इस मजमूए का है। मगर मुहम्मदी ताअलीम इस मजमूए से कामिल जुदाई रखती है और इस के सामने उस की रोशनी तारीक हो जाती है इसलिए वो इस को दूर दूर करते हैं और मुहम्मद साहब जानते हैं कि इस मजमूए की हिदायतों के सामने क़ुरआन आदमी के दिल में ठहर नहीं सकता है इसलिए उस के पढ़ने से रोका और ख़ुदा का कलाम सुनके ग़ुस्सा आया।

आज तक मुसलमान कलाम ईलाही के पढ़ने से डरते हैं मगर मसीही उन के क़ुरआन से नहीं डरते ख़ूब पढ़ते हैं ख़यालात वही दुरुस्त हैं जो किसी के उखाड़ने से उखड़ना सकें और यह क्या बात है कि वो बात ना सुनो तब ये बात क़ायम रहेगी? साहब ख़ुदा का दीन वही है जो सब कुछ सुनने के बाद भी क़ायम रहता है मसीही लोग तमाम जहान के मज़्हबों की किताबों को पढ़ते हैं और सब एतराज़ जो कलाम ईलाही पर होते हैं सुनते हैं तो भी क़ायम हैं क्योंकि ये ख़ुदा का दीन है।

3 तीसरी फ़स्ल

क़ुरआन के बयान में

हज़रत मुहम्मद ने ये भी ताअलीम दी है कि क़ुरआन ख़ुदा का कलाम है जो मुझ पर नाज़िल हुआ है अल्लाह की तरफ़ से लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ ख़ुदा ने भेजा है बाअज़ आलिम कहते हैं कि इबारत और मज़ामीन दोनों ख़ुदा से हैं और बाअज़ कहते हैं सिर्फ मज़ामीन क़दीमा ख़ुदा से हैं और सब जिस्म का काम है। इत्तिक़ान नूअ 16 में लिखा है कि :-

“ये क़ुरआन पहले लौह-ए-महफ़ूज़ में था वहां से सब का सब यक-मुश्त (पूरा क़ुरआन एक ही बार में) फ़रिश्ते रमज़ान के महीने में उठा लाए, (जैसे क़ुरआन में भी लिखा है) और इस आस्मानी दुनिया पर ला रखा और यहां से टुकड़े टुकड़े हो कर हस्ब-ए-ज़रूरत हज़रत मुहम्मद पर नाज़िल होना शुरू हुआ 20 बरस या 23 बरस या 25 बरस तक आता रहा।”

मज़ाहिर-उल-हक़ जिल्द दोम किताब फ़ज़ाइल-उल-क़ुरआन में लिखा है कि :-

“क़ुरआन तीन दफ़ाअ जमा हुआ है, पहले आँहज़रत के सामने जमा हुआ था मगर एक जिल्द में नहीं मुतफ़र्रिक़ वर्क़ों पर लिखा गया था।... दूसरी बार अबू बक्र ख़लीफ़ा अव़्वल ने एक जिल्द में जमा किया था। तीसरी बार उस्मान ने जमा किया था और क़ुरैश के मुहावरात में लिखा (और मुहम्मद साहब के अहद के वर्क़े और अबू बक्र का मुजल्लद क़ुरआन भी जला दिया) पर वही उस्मान का जमा किया हुआ (क़ुरआन) अब तक मुसलमानों के पास मौजूद है। (जिसके मुहावरात में तसर्रुफ़ है)”

क़ुरआन में (30) पारे या टुकड़े हैं और (114) सूरतें या बाब हैं और इस में सारी चीज़ों का बयान है और सारे उलूम इस में हैं (मैंने उन सब उलूम पर जो क़ुरआन से निकाल के अहले इस्लाम ने दिखलाय हैं ग़ौर किए हैं) ये बात हरगिज़ दुरुस्त नहीं है कि इस में सारे उलूम हैं बल्कि सारी शरीअत-ए-मुहम्मदी भी इस में नहीं है। इसी लिए तो अहले इस्लाम को अहादीस व इज्माअ उम्मत और क़ियास की भी ज़रूरत है क्योंकि सारी शरीअत क़ुरआन में नहीं है।

और वो उलूम जो लोगों ने निकाल के फ़हरिस्त दिखलाई है वो कुछ बात नहीं है उन्हों ने एक एक लफ़्ज़ को एक एक इल्म समझा है मसलन वहां लिखा है अलिफ़ लाम मीम (الف لام میم) किसी ने कहा कि ये जबर मुक़ाबला है मैं नहीं जानता कि यहां से जबर मुक़ाबला किस तरह निकला, पर जब मुर्दों के माल की तक़्सीम का ज़िक्र आया तो किसी ने कहा कि वहां से इल्म-ए-हिसाब निकला और जब ज़ैतून व इन्जीर का लफ़्ज़ आया तो वहां से इल्मे तिब्ब निकला। और ज़्यादातर क़ुरआन की इबारत और फ़िक़्रों की तक़्सीम और सर्फ व नहो (صرف ونحو अरबिक ग्रामर) और सनाइअ बदाइअ (صنائع بدائع) (वो अजीबो-गरीब निकात और बारीकियां जो नज़्म में ज़ाहिर की जाएं) का ज़िक्र और यह कि रात की कौन कौन आयतें हैं और दिन की कौन कौन सी आयतें हैं? और औरतों के पास सोते वक़्त कौन-कौन आयतें नाज़िल हुईं जाड़े में कौन कौन सी? और गर्मी में कौन कौन नाज़िल हुईं? ऐसी बहुत सी बातों के मजमूए को क़ुरआन के उलूम बतलाते हैं और दाअवा ये है कि सारी दुनिया के उलूम उस में हैं जिस माअनी से और जिस तरह पर कि क़ुरआन से उलूम निकलते हैं इस तरह से तो दुनिया की हर एक किताब में सब जहान के उलूम भरे हुए नज़र आते हैं पस ये बात कुछ जान नहीं रखती है।

हमारा ख़्याल जो हम ख़ुदा को हाज़िर व नाज़िर जान के बेतास्सुब क़ुरआन की निस्बत रखते हैं ये है कि क़ुरआन एक किताब है मुहम्मद साहब के मलफ़ूज़ात (मलफ़ूज़ की जमा ज़बान से बोली हुई बात) उस्मान ने इस में जमा किए हैं। आस्मान से हरगिज़ नाज़िल नहीं हुआ कुछ बातें हज़रत ने यहूदीयों और ईसाईयों से सुन कर लिखी हैं और इन के समझने में भी कहीं कहीं ग़लती खाई है और कुछ अपने मुल्क अरब के दस्तूर और कुछ क़ुर्ब व जुवार (आस-पास) के इलाक़ों के दस्तूर और बातें इस में दर्ज हैं और कुछ अपने दोस्तों की सलाह व मश्वरे की बातें और औरतों के ज़िक्र और लड़ाई वग़ैरह की बातें और तक़्सीम अम्वाल लूट वग़ैरह की बातें जो वक़ूअ में आईं इस में लिखी गई हैं।

उस सारी किताब में जो जो बातें कलाम ईलाही के मुवाफ़िक़ हैं सब दुरुस्त और बजा हैं मगर वो हज़रत का इल्हाम नहीं हैं अहले-किताब और अवाम व ख़वास से मालूम करके लिखी गई हैं। पर जो बातें कलाम के ख़िलाफ़ हैं वो उन की अपनी बातें हैं वो ऐसी कमज़ोर हैं जो ख़ुद ज़ाहिर करती हैं कि ख़ुदा से नहीं हैं जब तक क़ुरआन में कुछ ऐसी ख़सुसीयात ना दिखलाई जाये जिससे उस का मिन जानिब अल्लाह (अल्लाह की तरफ से) होना साबित हो और जब तक हमारे ख़यालात को ना तोड़ डाला जाये जिनसे क़ुरआन का मिन जानिब अल्लाह (अल्लाह की तरफ से) ना होना साबित है तब तक इस अक़ीदे को कि क़ुरआन ख़ुदा से है क़ुबूल नहीं कर सकते हैं और सब नाज़रीन पर भी वाजिब है कि यही तौर इख़्तियार करें क्योंकि जैसे हर एक सही अक़ीदा हमारी रूहों को फ़ाइदाबख्श है इसी तरह हर एक बातिल अक़ीदा रूहों को सख़्त मुज़िर (नुक़्सान में डालने वाला) भी है।

बाइबल की निस्बत हमारा एतिक़ाद है कि वो ख़ुदा का कलाम है हम नहीं कहते कि लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ ख़ुदा का कलाम है कहीं कहीं ख़ुदा के मुँह से भी बईना अल्फ़ाज़ मर्क़ूम हैं पर अक्सर इबारतें पैग़म्बरों की हैं। मज़ामीन अल्लाह से हैं और इस मजमूए का ना एक शख़्स कोई आदमी मुसन्निफ़ है मगर बहुत से पैग़म्बर इस के मोअल्लिफ़ हैं। लेकिन एक ही रूह अल्लाह की उन सब मुसन्निफ़ों में बोलती थी जो मुतफ़र्रिक़ (अलग-अलग) ज़मानों में थे और एक ही हक़ीक़ी मतलब पर सब बोलते थे।

एज़्रा काहिन ने अहद-ए-अतीक़ को आख़िर में मुरत्तिब किया और कलीसिया ने अहद-ए-जदीद को तर्तीब दी और इख़्तिलाफ़ नस्ख़ भी अब तक मौजूद रखी।

पर इस कलाम में हम ये नहीं कहते कि दुनिया के सारे उलूम भी भरे हैं। हाँ तमाम रुहानी ताअलीम और ज़िंदगी की बातें और ईलाही इरादे और ख़ुदा की पोशीदा हिकमतें और क़ुदरतें और इंतिज़ाम इस में मज़्कूर हैं दुनिया के सब उलूम उसे सज्दा करते हैं और सब परखियों और नक़्क़ादों के हाथ में आके वो कलाम खरा ठहरता है और यही एक कलाम है जो ख़ुदा की सारी ख़ुदाई का सबूत करता है और इन्सान की बेहतरी की राह दिखलाता है और बहुत सी ख़ुसूसीयतें अपने अंदर रखता है। जिससे इस का मिन जानिब अल्लाह (अल्लाह की तरफ से) होना ज़ाहिर होता है और बहुत सी ताक़तें भी अपने अंदर रखता है जिससे अपने मुख़ालिफ़ों के बातिल ख़यालात को तोड़ डालता है वो हर एक दर्जे के आदमीयों की समझ के साथ इलाक़ा भी रखता है और सब के लिए हिदायत बख़्श और मुफ़ीद है वो हदीसों का और इज्माए उम्मत का और क़ियास का मुहताज नहीं है पर ख़ुदा की पूरी मर्ज़ी ज़ाहिर करने पर क़ादिर कलाम है और इस हमारे दाअवे के सबूत में पहले तो यही कहना काफ़ी है कि इस कलाम को ख़ुद पढ़ कर देख लो। फिर ये कहते हैं कि वो सब तस्नीफ़ात जो सदहा बरस से इस कलाम की ख़ूबीयों के इज़्हार में हमारे भाईयों ने लिखी हैं देखो और उन जुमलों पर भी मए उन के जवाबों के मुलाहिज़ा करो जो दुश्मनों और दोस्तों की तरफ़ से मर्क़ूम हैं पर इस सब के साथ दिली इन्साफ़ शर्त है अगर तबीयत में इन्साफ़ और हक़-पसंदी ना हो तो आदमी जो चाहे कहे।

4 चौथी फ़स्ल

तक़्दीर के बयान में

हज़रत मुहम्मद ने ये अक़ीदा भी सिखलाया है कि ख़ुदा तआला ने सबकी तक़्दीरें ज़मीन आस्मान की पैदाइश से पचास (50) हज़ार बरस आगे मुक़र्रर की हैं और यह बयान मिश्कात बाब-उल-क़द्र में अब्दुल्लाह बिन उम्र से मुस्लिम की हदीस में लिखा है और उन के अक़ाइद में है, والقدر خیرہ وشرہ من اللہ تعالیٰ यानी नेकी और बदी की तक़्दीर ख़ुदा की तरफ़ से है और इसी बाब में मुस्लिम से ये हदीस भी लिखी है, قال کتُب علی ابن آدم نصیبہ من الزنا مدرک لامحالتہ लिखा गया है ख़ुदा की तरफ़ से हिस्सा आदमी का ज़िना में ज़रूर वो करेगा। फिर उसी बाब में अबू दर्दा से रिवायत है, ان اللہ عزوجل فرغ الی کل عبدمن خلقہ من خمس من اجلہ وعملا ومضجعہ واثر ہ ورزقہ ख़ुदा फ़ारिग़ हो चुका हर बन्दे की निस्बत पाँच बातों में मौत, अमल, जाये सुकूनत और फिरने की जगह और रिज़्क़ में। और इस अक़ीदे के मानने की ऐसी ताकीद है कि मुन्किर तक़्दीर से मुआमला रखना भी मुसलमानों को नाजायज़ है। इसी बाब में इब्ने उमर से रिवायत है, फ़रमाया हज़रत ने तक़्दीर के मुन्किर लोग मेरी उम्मत के मजूसी हैं अगर वो लोग बीमार हों तो उन की बीमार परुसी ना करो और जो मर जाएं तो उन की लाश के साथ मत जाओ।

फिर इस तक़्दीर के मुक़द्दमे में हज़रत मुहम्मद ने बह्स करने को भी मना किया है।

इस ताअलीम की तासीर अहले-इस्लाम में निस्बत और ताअलीमात के ज़्यादा पाई जाती है हर मुसीबत के वक़्त वो कहते हैं कि, तक़्दीर ईलाही में यूँही था और हर उम्मीद के साथ कहते हैं कि अगर तक़्दीर में होगा तो मिलेगा और बदी करके कहते हैं कि ख़ुदा ने ये करना हमारी क़िस्मत में लिखा था।

इस अक़ीदे में कुछ-कुछ तो सच्चाई है और कुछ-कुछ ग़लती है बल्कि बड़ी ग़लती भी है ख़ुदा के कलाम में भी तक़्दीर का ज़िक्र कहीं कहीं आया है। हम भी मुहम्मद साहब के साथ इस मुआमले में मुत्तफ़िक़ हैं कि तक़्दीर के बारे में बह्स करना अच्छा नहीं है क्योंकि ये ख़ुदा की पोशीदा हिक्मत से मुताल्लिक़ है और हम उस की दानाई की और उस के पोशीदा इंतज़ामों को दर्याफ़्त नहीं कर सकते इसलिए इस में फ़िक्र के बाद फ़ायदा नहीं शायद कुछ नुक़्सान हो जाए।

तो भी कोई क़ौल फ़ैसला इस मुआमले में बोलना मुनासिब है सो मालूम हो जाए कि हमने उस तक़्दीर पर जो बाइबल के बाअज़ मुक़ामात से साबित होती है ग़ौर की है और उस तक़्दीर पर भी फ़िक्र किया है जो क़ुरआन हदीस में मुहम्मद साहब से बयान हुई है और इन दोनों में बहुत ही फ़र्क़ पाया है और दोनों बयानों की तासीरें भी मुख़्तलिफ़ तौर पर दोनों फ़िर्क़ों में नज़र आती हैं इसलिए हम कहते हैं कि मुहम्मद साहब का बयान तक़्दीर के बारे में कुछ ज़्यादती के साथ है और बाअज़ ऐसी ज़्यादती है जो ख़ुदा की ज़ात-ए-पाक के लायक़ नहीं है। अलबत्ता हमें ये मालूम होता है कि जिन उमूर में मुतालिबा और मुवाख़िज़ा है यानी इन्सान के बद-आमाल और बुरे मंसूबे वो हरगिज़ ख़ुदा की तरफ़ से नहीं हैं इन्सान की तरफ़ से हैं क्योंकि इन्सान फ़ेअल मुख़्तार (अमल करने में आज़ाद मर्ज़ी पर) पैदा किया गया है। वो अपने आमाल में ईलाही तक़्दीर का मज्बूर नहीं है अगरचे क़ुदरत आमाल की ख़ुदा की तरफ़ से पाई है पर इस का इस्तिमाल उस के इख़्तियार में है और इसी वास्ते जज़ा और सज़ा के लायक़ ठहरता।

पर जिन उमूर में मुतालिबा और मुवाख़िज़ा और जज़ा व सज़ा नहीं है मसलन उम्र, क़द-क़ामत और रंग रूप वग़ैरह वो सब ईलाही तक़्दीर से हैं इस में शाकिर (शुक्रगुज़ार) होना चाहिए (फ) मुहम्मदी आलिमों ने इस बात में धोका खाया है कि अगर इन्सान अपने बद-अफ़आल का ख़ालिक़ है तो ख़ुदा के सिवा एक दूसरा ख़ालिक़ भी साबित हुआ। हालाँकि एक ही ख़ुदा सब चीज़ों का ख़ालिक़ है मगर मालूम करना चाहिए कि ख़ालिक़ वो है जो अपनी क़ुदरत से किसी चीज़ को पैदा करता है और जब दूसरे की क़ुदरत मुफ़व्विज़ा (सपुर्द करने वाले) को हम अपने तौर पर इस्तिमाल करके मुर्तक़िब अफ़आल बद के होते हैं तो हम अपने अफ़आल के दूसरे ख़ालिक़ नहीं हैं मगर मुर्तक़िब अज्राम हैं और मुर्तक़िब व ख़ालिक़ में फ़र्क़ है।

(फ) ख़ुदा के कलाम में लिखा है कि ख़ुदा ने बाअज़ आदमीयों को हमेशा की ज़िंदगी के लिए आप चुन लिया है। इस का मतलब लोग दो तरह पर समझते हैं कोई कहता है कि इल्म में चुन लिया है ना इरादे में यानी उसने अपने इरादे से उन्हें ये हिस्सा नहीं दिया है मगर इल्म अज़ली से जान लिया है कि फ़ुलां-फ़ुलां शख़्स ईलाही मर्ज़ी पर अमल करके बहिश्त में जाऐंगे। और बाअज़ कहते हैं कि इरादे और इल्म दोनों से चुन लिया है और यह क़ौल ज़्यादातर मुवाफ़िक़ है ख़ुदा की कलाम के देखो हमारे (39) अक़ीदों में से (17) अक़ीदों को जो नमाज़ की किताब में ख़ुदा की कलाम के मुवाफ़िक़ लिखा है और ज़रूर बाअज़ इज़्ज़त के बर्तन और बाअज़ बेइज़्ज़ती के बर्तनों की मानिंद बनाए गए हैं पर ये बातिनी इंतिज़ाम ख़ुदा की पोशीदा हिक्मत से इलाक़ा रखता है। ये हमारा काम नहीं है कि हम ख़ुदा की पोशीदा हिक्मत में हाथ डालें जिससे फ़रिश्ते भी आगाह नहीं हैं हमारा वाजिब यही है कि हम ख़ुदा के वाअदों पर भरोसा रखें और उस के वईद (सज़ा देने का वाअदे) से डरें और उस की मर्ज़ी की इताअत उस के कलाम के मुवाफ़िक़ अपने ईमान और अफ़आल और ख़यालात से करें। ना ये है कि वो हमारा वाजिब जो हज़ारहा मुक़ाम पर कलाम में साफ़-साफ़ बयान हुआ है छोड़कर उन दस पाँच मुक़ाम के दरपे हूँ जो अज़ली बर्गुज़ीदगी के बयान में हैं और समझ से बाहर हैं। अगरचे ख़ुदा का बातिनी इरादा हो कर ज़ैद को जो बीमार है मार डालेगा तो भी हमारा फ़र्ज़ है हम इंतिज़ाम जहान के मुवाफ़िक़ उस के मुआलिजा में क़सूर ना करें।

मुहम्मदी ताअलीम के दर्मियान इस ताअलीम के बारे में जो जो क़सूर हमें मालूम होते हैं वो यही हैं।

जैसे कि ख़ुदा सारी नेकी का बानी है वैसे ही मुहम्मद साहब ख़ुदा को तमाम बदी का बानी भी ठहराते हैं इस सूरत में ख़ुदा शरीर (बेदीन) अव़्वल ठहरता है जो क़ुद्दूस है और ख़ुदा का कलाम शरीर (बेदीन) अव़्वल शैतान को बतलाता है ना ख़ुदा को बाअज़ मुक़ाम बाइबल में भी ऐसे मिलते हैं जिनके ज़ाहिर से मालूम होता है कि ख़ुदा ने ये बुरा काम किया मसलन “फ़िरऔन का दिल ख़ुदा ने सख़्त कर दिया।” मगर दूसरे मुक़ाम उस की तफ़्सीर दिखलाते हैं कि आदमी जब बदी पर बशिद्दत राग़िब है और नेकी को नहीं चाहता तो ख़ुदा उसे छोड़ देता है कि जिस चीज़ को वो पसंद करता है उसी को करे और हलाक हो और यूं वो बदी में ज़्यादा सख़्त हो जाता है। इसी मअनी से फ़िरऔन की निस्बत लिखा है कि ख़ुदा ने उस के दिल को सख़्त कर दिया यानी उस के दिल पर से अपनी बरकत उठा ली इसलिए वो अपनी मर्ग़ूब बदी में मज़्बूत हो गया पर बाइबल से ये नहीं साबित होता कि ख़ुदा बदी का बानी है जैसे मुहम्मद साहब ने ये लफ़्ज़ कि ख़ुदा बदी का बानी है शिर्की क़ैद से आम ख़ास लोगों के अक़ीदे का एक जुज़ (हिस्सा) क़रार दिया है। इस सूरत में मब्दा-ए-शरारत ख़ुदा ठहरता है और यह एतिक़ाद (अक़ीदा) निहायत ख़तरनाक बात है अगर इस को क़ुबूल करें तो ख़ुदा की बेइज़्ज़ती होती है ना क़ुबूल करें तो मुहम्मदी नहीं रह सकते बेहतर है कि मुहम्मदी ना रहें पर ख़ुदा की इज़्ज़त करें जिसके साथ हमारी ज़िंदगी मुताल्लिक़ है।

(2) ऐसी तक़्दीर की ताअलीम से आदमी को बदी में बड़ी जुर्आत पैदा होती है कि वो गुनाह करके पशेमान (शर्मिंदा) ना होगा और तक़्दीर ईलाही से उसे समझ के अपनी रूह में ना रोएगा और यूं हलाक हो जाएगा।

हाफ़िज़ शीराज़ी ने इस बात का ज़िक्र यूं किया है :-

گناہ اگرچہ نبوداختیار ماحافظ تو درطریق ادب گوش گناہ منست

“गुनाह अगरचे नबूद इख़्तियार माहा फ़ज़्ज़ तो दर तरीक़ अदब गोश गुनाह मंसत”

“यानी अगरचे गुनाह हमारे इख़्तियार से नहीं है ख़ुदा की तक़्दीर से है तो भी तुझे अदब की राह से कहना चाहिए कि मेरा गुनाह है।“

यानी हक़ीक़त में हम गुनाहगार नहीं हैं अल्लाह आप ही कराता है पर अदब के लिहाज़ से गुनाह को अपनी तरफ़ मंसूब करना चाहिए ये मज़्मून ठीक मुहम्मदी शरीअत के मुवाफ़िक़ है।

कलाम ईलाही में लिखा है कि अगर तुम अपने गुनाहों का पूरा और सच्चा इक़रार ना करोगे तो तुम्हारी बख़्शिश हरगिज़ ना होगी। और मुराद सच्चे इक़रार से ये है कि यक़ीनन हमने गुनाह किया ना ख़ुदा ने गुनाह किया। और मैं अदब से इस ऐब को अपने ऊपर लेता हूँ ताकि ख़ुदा के ऐब को अपने ऊपर लगाऊँ और यूं रियाकारी की ताज़ीम करूँ। अब नाज़रीन आप ही इन्साफ़ करें कि क्या इस तक़्दीर के मानने वाले पूरा इक़रार गुनाह का कर सकते हैं? बाइबल के मानने वाले पूरा इक़रार कर सकते हैं और यह बात तो तजुर्बे से साबित हो चुकी है कि जब पूरा इक़रार गुनाह का नहीं होता तो दिल गुनाह के बोझ से हल्का भी नहीं हो सकता है।

(3) ये ताअलीम उन रन्डीयों और कसबियों और ज़िनाकार लोगों में जो इन बद-अफ़आल में सरगर्म हैं बड़ी-बड़ी तसल्ली का बाइस है वो सब इस काम के लिए (अपने) आपको ख़ुदा की तरफ़ से मुक़र्रर समझ कर इस में मज़बूती हासिल करते हैं गोया ख़ुदा का इरादा बजा लाते हैं और इस तरह शैतान का मतलब इस ताअलीम से ख़ूब निकलता है हमने कई एक ऐसे लोगों से सुना कि ख़ुदा ने हमें इसी काम के लिए पैदा किया है और यही मुहम्मदी तक़्दीर के ज़िक्र उन्होंने सुनाए हैं।

(4) अदालत के दिन ख़ुदा तआला ऐसे लोगों को सज़ा दे के क्या ज़ालिम और जाबिर ना ठहरेगा? उस की ख़ुदाई की शान के ख़िलाफ़ है कि अपनी तज्वीज़ के काम पर किसी को सज़ा दे।

(5) अगर ये सारी शरारत ख़ुदा का काम है और यह क़ुरआन जो बदी से मना करने का मुद्दई है उसी का कलाम है तो ख़ुदा के क़ौल और फ़ेअल में मुताबिक़त नहीं है और चाहिए कि ज़रूर मुताबिक़त हो जैसे तमाम जहान के इंतिज़ाम और बाइबल की हद आवतों में मुवाफ़िक़त है। हासिल कलाम आंके तक़्दीर वहां तक सही है जहां तक ख़ुदा के कलाम से साबित है मगर इस बारे में हज़रत मुहम्मद की ज़्यादती जो मूजिब हलाकत है हरगिज़ क़बूलीयत के लायक़ नहीं है।

5 पांचवीं फ़स्ल

गुनाह की तारीफ़ क्या है?

मुहम्मदी लोग मुहम्मद शराअ (शरीअत) से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) को गुनाह कहते हैं मगर गुनाह की कामिल तारीफ़ (1 यूहन्ना 5 बाब 17) में यूं लिखी है, “कि हर नारास्ती गुनाह है।” और 3 बाब आयत 4 में है, “गुनाह उदूल शराअ (शरीअत की नाफर्मानी) है।” इस तारीफ़ को सब लोग क़ुबूल करते हैं तो भी इस के समझने में हमारे और अहले इस्लाम के दर्मियान कुछ फ़र्क़ है वो लोग सिर्फ मुहम्मदी शराअ (शरीअत) से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) को गुनाह जानते हैं इन्जील तौरेत के इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) को गुनाह नहीं जानते हैं मगर कलाम से साबित है कि ख़ुदा ने एक ही शराअ (शरीअत) अव्वलीन व आख़िरीन के वास्ते मुक़र्रर की है और सारे पैग़म्बर एक ही शराअ (शरीअते) मूसा पर मुत्तफ़िक़ हैं। पस जो कोई इस ईलाही शराअ का इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) करता है गुनाह करता है और वो ईलाही शराअ बाइबल में मुफ़स्सिल लिखी है और उसका ख़ुलासा हर बशर की तमीज़ में पाया जाता है किसी ना किसी क़द्र सदहा बरस से जिस शरीअत को सब पैग़म्बरों ने पेश किया और जिस से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) को गुनाह बतलाया अब हज़रत मुहम्मद उस के इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) को कहते हैं कि गुनाह नहीं है बल्कि वाजिब है कि उसे छोड़ें और हज़रत की नई शराअ (शरीअत ए मुहम्मदी) को क़ुबूल करें इस बात को कोई बेफ़िक्र आदमी क़ुबूल कर सकता है।

6 छठी फ़स्ल

गुनाह का सरचश्मा कहाँ है?

मुहम्मदी शरीअत में गुनाह का सरचश्मा मंबा जिसके सबब दुनिया में गुनाह आया ख़ुदा तआला को बतलाया है, क्योंकि शर उस की तरफ़ से है जिसका ज़िक्र तक़्दीर के बयान में हो चुका है, पर ख़ुदा का कलाम यूं कहता है कि, ख़ुदा पाक है और शरीर (बुराई) अव्वल एक रूह है जिसको शैतान कहते हैं। उसने क़ुदरत इख़्तियारी पाके आप गुनाह किया। ख़ुदा को उस के कामों से नफ़रत है अदालत के दिन उसे कामिल सज़ा मिलेगी और आदमीयों के दर्मियान बवसीला आदम के इसी शैतान से गुनाह आया। अब देख लो कि जो उसूली बातें दीनदारी की हैं उनमें ख़ुदा के कलाम के साथ मुहम्मद साहब की किस क़द्र मुख़ालिफ़त है और हरगिज़ अक़्लन भी हज़रत की ये बातें क़बूलीयत के लायक़ नहीं हैं।

7 सातवीं फ़स्ल

गुनाह के अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में)

मुहम्मद साहब ने गुनाह की कई एक किस़्में बतलाई हैं कुफ़्र, शिर्क, फ़ीक़, निफ़ाक़, (کفر ، شرک ،فیق ، نفاق، کفر) कुफ़्र के माअनी हैं ख़ुदा का या उस के कलाम का या उस के किसी सच्चे पैग़म्बर का इन्कार करना। शिर्क है ख़ुदा की ज़ात या सिफ़ात में किसी को शरीक करना। फ़ीक़ है ज़िना चोरी झूट वग़ैरह बदी करना। निफ़ाक़ है ज़ाहिर में ईमानदार पर बातिन में बेईमान रहना

फिर मुहम्मद साहब ने गुनाह के दो हिस्से किए हैं सगीरा (صغیرہ) और कबीरा (کبیرہ) यानी छोटा और बड़ा गुनाह। ये तक़्सीम हज़रत के पैग़म्बरों के बयान से मुख़ालिफ़ नहीं है और यह सब बयान हज़रत का दुरुस्त है और यह अल्फ़ाज़ तक़्सीम भी लोगों के मुहावरे में हज़रत की पैदाइश से पहले अरब में जारी थी और हर मुअल्लिम दीन की ताअलीम में ऐसे मुहावरात बोलने ज़रूर पड़ते हैं।

8 आठवीं फ़स्ल

आया ख़ुदा को गुनाह से नफ़रत है या नहीं

हज़रत मुहम्मद ने क़ुरआन में बयान किया है कि ख़ुदा को गुनाह से नफ़रत है चुनान्चे काफ़िरीन मुशरिकीन और मुनाफ़क़ीन से वो मुहब्बत नहीं रखता। ताज्जुब की बात है कि जब वो ख़ुद बदी का बानी है और सारी बदी आप कराता है तो फिर बदी के मज़हरों से क्यों नफ़रत करता है? ये हक़ीक़ी तनाक़ुज़ (एक दूसरे की ज़िद या मुख़ालिफ़त होना) क़ुरआन में है। इस के सिवा मिश्कात बाब-उल-इस्तग़फ़ार में मुस्लिम की रिवायत अबू हुरैरा से यूं लिखी है :-

والذی نفسی بیدہ لولم تذنبوالذ ھب اللہ بکم ولجا بقومہ یذبنون فیستغفرون واللہ فیتغفر لھم

“मुझे उस शख़्स की क़सम जिसके हाथ में मेरा नफ़्स है अगर तुम गुनाह ना करो तो ख़ुदा ज़रूर तुम्हें नेस्त करेगा और एक ऐसी क़ौम पैदा करेगा जो गुनाह करके ख़ुदा से माफ़ी मांगेगी और ख़ुदा उन्हें बख़्श देगा।”

फिर बुख़ारी व मुस्लिम की सही हदीस अबू हुरैरा से इसी बाब में यूं है :-

“आदमी गुनाह करता है फिर कहता है कि ऐ रब मैंने गुनाह किया तू माफ़ कर ख़ुदा कहता है कि ये मेरा बंदा जानता है कि कोई ख़ुदा है जो गुनाह बख़्शने और मुवाख़िज़ा (जवाबतल्बी) करने पर क़ादिर है इसलिए ख़ुदा बख़्श देता है वो फिर करता है और इसी क़ायदे से बख्शवा लेता है पस इसी तरह जब तक उस का दिल चाहे गुनाह करके बख्शवा लिया करे।”

इस बयान से ज़ाहिर है कि उसे गुनाह से बड़ी नफ़रत नहीं है बल्कि गुनाह करके माफ़ी माँगना उसे पसंद है ये बयान दुरुस्त नहीं है। ख़ुदा को गुनाह से पूरी नफ़रत है उसने गुनाह के सबब तूफ़ान भेज कर सारी दुनिया को एक बार ग़र्क़ कर दिया था और अब भी गुनाह के सबब ना-फ़र्मानी के फ़रज़न्दों पर उस का क़हर भड़कता है हाँ वो बड़ा है बख़्शने वाला भी है तौबा करने वालों के गुनाहों को बख़्श देता है मगर वो जिनके गुनाह बख़्शे गए यूं कहते हैं कि :-

“पस हम क्या कहें क्या गुनाह में रहें ताकि फ़ज़्ल ज़्यादा हो हरगिज़ नहीं हम तो गुनाह की निस्बत मोए (मरे हुए) हैं फिर क्यूँ-कर इस में जिएँ?” (रोमीयों 6:1 ता 2)

फिर हज़रत सिखलाते हैं कि ये तरीक़ा जारी रहना चाहिए कि गुनाह करके माफ़ी मांगा करें और ऐसा ना करें तो ख़ुदा हमें हलाक करके ऐसी दूसरी क़ौम पैदा करेगा। (जो गुनाह करके ख़ुदा से माफ़ी मांगेगी) कलाम में लिखा है कि ख़ुदा ने गुनाह के सबब मौत भेजी है। हज़रत मुहम्मद फ़रमाते हैं कि गुनाह ना हो तो मौत आए। पस अपने क़ियाम के लिए हमें ज़रूर होगा कि गुनाह करके माफ़ी मांगें वर्ना हलाक होंगे ये बयान हज़रत का दुरुस्त नहीं है।

9 नौवीं फ़स्ल

ख़्याली गुनाह के बयान में

गुनाह की दो किस्में हैं फ़अली व ख़्याली पस इन दोनों किस्मों के गुनाह का बयान हज़रत मुहम्मद किया करते हैं ये बात उन से दर्याफ़्त करने के लायक़ है। वाज़ेह हो कि गुनाह ख़्याली को वस्वसा या बातिल मन्सूबा भी कहते हैं उलमा मुहम्मदिया ने अपनी अक़्ल से ख़्याली गुनाह की चार किस़्में बयान की हैं। हवाजिस, ख़वातिर, अवाज़िम, इख़्तयारात। (ہواجس، خواطر ، عوازم، اختیارات)

हवाजिस (ہواجس) वो वस्वसे हैं जो एतबार दिल में आते हैं ये वस्वसे मुसलमानों के ख़्याल में सब अहले इस्लाम को माफ़ हैं और अगली सब उम्मतों को भी माफ़ थे यानी ख़ुदा इस क़िस्म के वस्वसों पर किसी का मुहासिबा नहीं करता।

ख़वातिर (خواطر) वो वस्वसे हैं जो आकर दिल में ठहरते हैं और ख़ुलजान पैदा करते हैं ये वस्वसे सिर्फ़ मुहम्मदियों को माफ़ हैं मगर और उम्मतों को माफ़ ना थे यानी औरों का मुवाख़िज़ा ऐसे वस्वसों पर होगा पर मुहम्मद साहब के लोगों का ना होगा।

इख़्तयारात (اختیارات) वो वस्वसे हैं जो दिल में आकर ठहरें और हमेशा दिल में ख़ुलजान रखें बल्कि आदमी के दिल में इन की मुहब्बत और लज़्ज़त भी पैदा हो जाए ये सब मुसलमानों को माफ़ हैं जब तक अमल में ना आवें सिर्फ दिल में रहने से मुवाख़िज़ा ना होगा।

अवाज़िम (عوازم) वो वस्वसे हैं कि पक्का इरादा उन गुनाहों के करने का दिल में पैदा हो जाए मगर उन के करने के अस्बाब मौजूद ना हूँ अगर अस्बाब मौजूद होते तो वो शख़्स ज़रूर उन गुनाहों को करता। पस ऐसे वस्वसों पर मुसलमानों का थोड़ा सा मुवाख़िज़ा अल्लाह करेगा पूरी सज़ा उनकी भी नहीं देगा इसलिए कि वो मुसलमान हैं इस्लाम की रिआयत होगी।

वाज़ेह हो कि यहां बयान अक़्ली है क्योंकि जो बद ख़्याल आदमी के दिल में आता है वो या तो झपक की मानिंद दिल की आँख के सामने से गुज़र जाता उसी को हवाजिस (ہواجس) कहते हैं। या ज़रा ठहरता है इस को ख़वातिर (خواطر) कहते हैं या ज़्यादा ठहर कर कुछ परवरिश पाता है और दिल में क़ायम हो जाता है वही इख़्तयारात (اختیارات) हैं और जब वो ज़्यादा क़वी हो के दिल में मज़बूती के साथ जड़ पकड़ जाते हैं तो वो अवाज़िम (عوازم) कहलाते हैं इन चारों किस्मों की निस्बत उलमा मुहम्मदिया के फ़तवे ऊपर मज़्कूर हो गए कि पहली क़िस्म तो सारे जहान के लोगों को माफ़ है, दूसरी व तीसरी क़िस्म मुसलमानों को माफ़ है ना किसी और को, मगर चौथी क़िस्म पर थोड़ी सी सज़ा मुसलमान भी पा सकते हैं।

लेकिन मिश्कात बाब अल-वसवसा में बुख़ारी और मुस्लिम की सही हदीस अबू हुरैरा से यूं लिखी है कि, ان اللہ تجاوز عن امتی ماوسوست بہ صدورھا مالم تعمل بہ اوتتکلم “यानी मेरी उम्मत के लोगों के दिलों में जो वस्वसे आते हैं वो सब ख़ुदा ने माफ़ कर दिए हैं जब तक उन पर अमल ना किया जाये या मुँह से ना बोले जाएं।”

हज़रत मुहम्मद की इबारत से ज़ाहिर है कि वो सब क़िस्म के वस्वसों की निस्बत फ़रमाते हैं कि जब तक उन पर अमल ना किया जाये वो मेरी उम्मत को माफ़ हैं पस मालूम हुआ कि ख़्याली गुनाह हज़रत मुहम्मद की शरीअत में माफ़ हैं ये बड़ी ख़ौफ़नाक ताअलीम है।”

देखो हर गुनाह जो आदमी करता है पहले उस का ख़याल दिल में आता है और पीछे उस का ज़हूर फ़ेअल (अमल) में होता है पस वो बद ख़्याल उस गुनाह की जड़ होती है और इस का वक़ूअ वो दरख़्त है जो इस छोटे से तुख़्म से पैदा हुआ है। पस जब कि गुनाहों की जड़ें और तुख़्म मुसलमानों को बिलावजह माफ़ हैं तो इस ताअलीम से देखो शरारत की तुख़्म-रेज़ी किस क़द्र की गई है।

ख़ुदा के कलाम (याक़ूब 1:15) में लिखा है, ख़्वाहिश हामिला होके गुनाह पैदा करती है और गुनाह जब तमामी को पहुंचा तो मौत को जनता है।

(फिर अय्यूब 15:35) में है उन्हें ज़िया लकारी का हमल है और बेहूदगी को जनती हैं और उन के पेट में फ़रेब बनता है।

(ज़बूर 7:14) में है देखो उसे बदकारी की दर्द लगी और गुनाह का उसे पेट रहा और झूट को जनता है। इसी तरह के मज़ामीन (यसअयाह 59:40, होसेअ 10:13) रोमीयों 6: 41 ता 42) में भी मिलते हैं और सय्यदना मसीह फ़रमाते हैं कि ज़िना का ख़्याल भी आदमी को मिस्ल ज़िनाकार के मुजरिम बनाता है। लेकिन हज़रत मुहम्मद साहब इन बद ख़यालात को माफ़ बतलाते हैं और इस आदमी को सज़ा से बरी करते हैं।

फिर उसी अबू हुरैरा से मुस्लिम की रिवायत है कि लोग हज़रत मुहम्मद के पास आए और कहा या हज़रत हमारे दिलों में ऐसी ऐसी बातें पैदा होती हैं कि हम उन्हें ज़बान पर लाना बड़ी भारी बात जानते हैं। पस हज़रत ने फ़रमाया ذلک صریح الایمان ये तो सरीह ईमान है। देखो जब बुरी बातों का दिल में आना सरीह ईमान ठहरा और उन्हें ये ताअलीम दी गई कि सब वस्वसे माफ़ हैं तो वो लोग दिली गुनाहों पर कब अफ़्सोस करेंगे और क्यों उन से डरेंगे और क्यों उन से तौबा करेंगे और क्यों उन से कुश्ती करेंगे जैसे मसीही लोग उन से कुश्ती करते हैं? पस ये ताअलीम हज़रत की क़ुबूल करने के लायक़ नहीं है। ख़ुदा क़ुद्दूस है और सब आदमी उस के सामने गुनाहगार हैं ख़्याल में फ़ेअल में क़ौल में ख़ुदा के कलाम में लिखा है कि “मुबारक वो जो पाक-दिल हैं क्योंकि ख़ुदा को देखेंगे” बातिनी क़ुर्बत (नज़दिकी) जो इन्सान की रूह अल्लाह से होती है इस के लिए दिल की पाकीज़गी ज़रूर है और दिल की पाकीज़गी और क्या है मगर ये कि सही एतिक़ाद और अच्छे ख़याल दिल में बसें और बद-ख़यालात जो नफ़रती शैय हैं दिल से निकलें।

हासिल कलाम ये है कि दिली वस्वसों को हज़रत मुहम्मद भी गुनाह तो जानते हैं मगर ये कहते हैं कि मेरी उम्मत को माफ़ हैं। ख़ुदा मेरी उम्मत का मुहासिबा (जवाब-तल्बी) ऐसे गुनाहों पर ना करेगा सिर्फ इस लिहाज़ से कि ये मुहम्मदी लोग हैं और सब दुनिया का मुहासिबा उन में होगा। सय्यदना मसीह ये फ़रमाते हैं कि मेरी उम्मत के लोगों के तमाम गुनाह ख़्वाह फ़अली (अमली) हों या ख़्याली अमदी (जानबूझ कर) हों या सहवी (भूल से) बशर्ते के इस के कि उन में सही ईमा ज़िंदा और मोअस्सर हुए और वो मेरी रूह में से हिस्सा पाएं तो मुहासिबे में ना आएँगे इसलिए कि मैंने उन के गुनाहों की सज़ा आप उठाई है और मैं ने अपनी जान उन के कफ़्फ़ारे में दी है ये बात क़ौल हो सकती है क्योंकि बादलील दाअवा है मुहम्मद साहब कहते हैं कि जैसी करनी वैसी भरनी है और मैं किसी का कफ़्फ़ारा नहीं हूँ फिर भी मेरी उम्मत के गुनाहों का एक हिस्सा माफ़ है ये बात हरगिज़ क़बूलीयत के लायक़ नहीं है।

10 दसवीं फ़स्ल

फ़अली गुनाहों के बयान में और उन की सज़ा का ज़िक्र

फ़अली (अमली) गुनाह वो हैं जो अमल में आ चुके हैं उनका तदारुक (तलाफ़ी, सरज़निश) हज़रत मुहम्मद ने ये किया है जो मिश्कात किताब-उल-ईमान में अम्रो बिन आस से मुस्लिम की रिवायत है, ان الاسلام یھدم ماکان قبلہ وان الھجرة تھدم ما کان قبلھا وان الحج یھدم ماکان قبلہ इस्लाम और हिज्रत और हज अपने-अपने मुक़ाबिल के गुनाहों को गिरा देते हैं।

उलमा मुहम्मदिया कहते हैं कि अगर कोई आदमी मुसलमान हो जाए तो उस के पिछले सारे गुनाह ख़्वाह अल्लाह के हों या इन्सान के सब के सब माफ़ हो जाते हैं। और बाद इस्लाम के अगर फिर गुनाह करे तो हिज्रत और हज और नमाज़ जिहाद व ख़ैरात वग़ैरह इबादात से बख़्शे जाते हैं बशर्ते के ये सब सगीरा यानी छोटे गुनाह हों और जो कबाइर यानी बड़े गुनाह हों जिन पर क़ुरआन में सज़ा मुक़र्रर है तो वो गुनाह इस सज़ा के उठाने से बख़्शे जाते हैं।

जब कोई मुसलमान मर्द या औरत हज़रत के वक़्त में ज़िना का मुर्तक़िब होता था तो हज़रत उस को पत्थरों से मरवा डालते थे और समझते थे कि ये शख़्स इस सज़ा से पाक हुआ है। मगर अब क़ुरआन में कोई आयत ऐसी नहीं है जिसमें पत्थरों से मारने का हुक्म हो लेकिन पहले क़ुरआन में ये आयत थी, الشیخ والشیختہ اذازنیا فار جموھا البتتہ لکا الامن اللہ واللہ عزير حکیم बुढ़ा या बुढ़ी जब ज़िना करें तो उन को ज़रूर पत्थरों से मारो ये अल्लाह का अज़ाब है और अल्लाह है अज़ीज़ हकीम।

ये आयत जो पहले क़ुरआन में थी और अब ख़ारिज है अगर किसी को इस बात में शक हो तो मज़ाहिर-उल-हक़ जिल्द सोम किताब-उल-हदूद की फ़स्ल अव़्वल में देख ले। वहां ये भी लिखा है कि अगरचे इस आयत की तिलावत मौक़ूफ़ हो गई है तो भी हुक्म इस का बाक़ी है और यह हुक्म शख़्स मुहसिन (पाक दामन, शादीशुदा) के हक़ में है यानी जो निकाह वाला हो। मगर वो शख़्स ज़ानी जो जोरू (बीवी) वाला ना हो या औरत जो ख़सम (शौहर) वाली ना हो और ज़िना करे उन के हक़ में वो हुक्म है जो सूरह नूर के अव़्वल में है, الزَّانِيَةُ وَالزَّانِي فَاجْلِدُوا كُلَّ وَاحِدٍ مِّنْهُمَا مِئَةَ جَلْدَةٍ ज़िना करने वाली औरत और ज़िना करने वाले मर्द के सौ-सौ (100-100) कोड़े मारो उन पर रहम ना करो। ऐसे शख्सों के हज़रत सौ-सौ (100-100) कोड़े मारा करते थे और एक माह के लिए शहर से भी ख़ारिज कर दिया करते थे फिर इन सौ कोड़ों में भी तफ़ावुत (फ़र्क़) है इन्सान की ताक़त के मुवाफ़िक़ सख़्त या नर्म सज़ा दी जाती है।

शरह सुन्नाह व इब्ने माजा की रिवायत सईद बिन सअद से इसी बाब में यूं है कि, कोई बीमार आदमी किसी लौंडे से ज़िना करता हुआ पकड़ गया और हज़रत के सामने लाया गया हुक्म हुआ कि एक खजूर की लकड़ी जिसमें सौ शाख़ें हों लेकर उस के एक दफ़ाअ मारो ताकि सौ (100) कोड़े का हुक्म अदा हो जावे।

पर मर्द के साथ जब मर्द रूस्याही करते हैं तो ऐसे लोगों की सज़ा मुख़्तलिफ़ है इब्ने अब्बास की रिवायत इसी बाब में यूं है कि, हज़रत ने फ़रमाया कि जो कोई क़ौम लूत के से काम करे वो मलऊन है। और एक रिवायत में है कि अली ने ऐसे आदमीयों को आग में जला दिया था और अबू बक्र ने ऐसे लोगों पर दीवार गिरा दी थी। और जानवर से ज़िना करने वाले को भी सज़ा देते हैं।

चोर की वो सज़ा है जो सूरह माइदा के (6 रुकूअ की आयत 38) में है, وَالسَّارِقُ وَالسَّارِقَةُ فَاقْطَعُواْ أَيْدِيَهُمَا चोर मर्द और चोर औरत के हाथ काट डालो। पस मुहम्मदियों में हज़रत की एक हदीस के मुवाफ़िक़ दस दिरहम तक की चोरी पर हाथ काटे जाते हैं। जलालेन में लिखा है कि :-

“एक-बार कोई चोरी करे तो कहुनी तक दहना हाथ काटा जाये दूसरी बार चोरी करे तो बायां पैर घुटने तक काटा जाये। फिर भी अगर वो चोरी करे तो जाबिर की हदीस मौजूद है जो मिश्कात बाब क़ता अल्सरक़ा में लिखी है कि हज़रत ने मार डालने का हुक्म दिया है रावी कहता है कि एक आदमी को हमने इसी तरह कुँए में डाल कर पत्थरों से मारा था।”

ये बातें क़ुरआन हदीस में देखकर जब हम तौरेत शरीफ़ की तरफ़ देखते हैं तो मालूम होता है कि ऐसे जुर्मों के लिए कुछ सज़ाएं वहां पर भी लिखी हैं मगर अहद-ए-अतीक़ में दो क़िस्म के इंतिज़ाम मूसा की मार्फ़त ख़ुदा के किए हुए मिलते हैं मुल्की और ज़ाहिरी इंतिज़ाम जो ज़ाहिरी बादशाहत से इलाक़ा रखता है और इसी के लिए उसे जुर्मों पर ऐसी सज़ाएं मुक़र्रर हैं। दूसरा रुहानी इंतिज़ाम जो आदमीयों की रूहों की पाकीज़गी और बेहतरी के लिए मुल्की इंतिज़ाम से मुल्क का बंदो बस्त था और रुहानी इंतिज़ाम से रूहों का बंद व बस्त था। मुल्की इंतिज़ाम के लिए ऐसी सज़ाएं मुक़र्रर थीं रुहानी इंतिज़ाम के लिए क़ुर्बानियां मुक़र्रर थीं। पस गुनाहों की माफ़ी ख़ुदा के हुज़ूर में क़ुर्बानीयों के वसीले से हासिल की जाती थी ना इंतिज़ामी सज़ाओं के वसीले से जब यहूदीयों की सल्तनत जाती रही तो वो सज़ाएं भी उस के साथ उड़ गईं। जब वो मुल्कों में आवारा हुए तो सिर्फ रुहानी इंतिज़ाम गुनाहों की माफ़ी के लिए उन पर वाजिब था ना उन सज़ाओं का अज्र जो उन की सल्तनत के साथ थीं।

जब सय्यदना मसीह ज़ाहिर हुए तो उन्होंने साफ़ कहा है कि मेरी बादशाहत इस जहान की नहीं है मेरी बादशाहत आस्मानी और रुहानी है और गुनाहों की माफ़ी का इंतिज़ाम ख़ुदा के सामने उसी पुराने इंतिज़ाम की अस्ल है जो मेरा कफ़्फ़ारा है। पर ज़ाहिरी जुर्मों पर ज़ाहिरी सज़ाएं जो हैं वो बादशाहों के और हाकिमों के सुपुर्द हैं वो अपनी तमीज़ के मुवाफ़िक़ इन्साफ़ से अदालत करें ताकि उन के मुल्क में ख़लल ना वाक़ेअ हो और उन की सब रईयत अमन चेन से रहे और अहद-ए-जदीद में ये भी बतलाया गया कि सारी हुकूमतें ख़ुदा से हैं ये सब हाकिम और बादशाह ख़ुदा की तरफ़ से हैं और वो इसी वास्ते तल्वार रखते हैं कि बदकारों को सज़ा दें और नेकोंकारों की तारीफ़ करें।

हज़रत मुहम्मद ज़रूर अपने अहद में बादशाह थे और उन्हें ज़रूर था कि अपने मुल्क का इंतिज़ाम अपनी तमीज़ के मुवाफ़िक़ करें। पस ये सज़ाएं ऐसे जुर्मों पर जो उन की शरीअत में मुक़र्रर हैं उन के दिली इन्साफ़ के मुवाफ़िक़ उन के मुल्क के इंतिज़ाम के लिए हैं। यहां तक हम इन्साफ़ की राह से क़ुबूल कर सकते हैं पर उनका ये बयान कि गुनाहों के सबब जो रुहानी आलूदगी है वो सब उन सज़ाओं के उठाने से इस्लाम व हज व हिजरत वग़ैरह नेक-आमाल से ख़ुदा के सामने हासिल होती है। ये बयान हम हरगिज़ क़ुबूल नहीं कर सकते इसलिए कि सब पैग़म्बरों के रुहानी इंतिज़ाम के ख़िलाफ़ है क्योंकि वो सब इस आलूदगी का दफ़ईया क़ुर्बानी को बतलाते हैं ना किसी और चीज़ को और यह मुआलिजा लाखों रूहों पर मोअस्सर भी पाया जाता है ना वो मुआलिजा (ईलाज) जो हज़रत मुहम्मद ने निकाला है।

सब आदमीयों पर फ़र्ज़ है कि अपने ख़्याली और फ़अली (अमली) गुनाहों का तदारुक इसी ज़िंदगी में जल्दी करें और जब तक गुनाहों का बोझ दिल पर से इसी ज़िंदगी में दफ़ाअ ना हो और ईलाही बरकात का नुज़ूल दिलों में ना पाया जाये तब तक हरगिज़ तसल्ली ना पाएं सो ये बात बदों (बगैर) मसीही कफ़्फ़ारे के हरगिज़ नहीं हो सकती है।

जिस इल्हाम ने रूह-ए-बशर की बक़ा और आने वाले ग़ज़ब और अदालत की ख़बर दी है और जिस ने गुनाह की तशरीह भी सुनाई है उसी इल्हाम का काम है कि गुनाह से और उस के वबाल से बचने की राह भी बतला दे सो नए अहदनामा और पुराने अहदनामे ने मसीह के कफ़्फ़ारे को गुनाहों की मग़फ़िरत का तरीक़ा अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर किया हुआ बतलाया है और सदहा बरस से जब से कि ये राह ज़ाहिर हुई है उस के मोमिनीन बा-सफ़ा की इस तर्कीब की तासीर दिलों में देखी है इसलिए हम कहते हैं कि यही राह मग़फ़िरत की है।

ये बड़ी ग़लती है कि रूह की अबदीयत का ख़्याल और अदालते ईलाही की ख़बर तो इल्हाम से क़ुबूल की जाये और गुनाह का तदारुक अपनी अक़्ल से इन्सान तज्वीज़ करे।

11 ग्यारवीं फ़स्ल

तब्दील दिल के अक़ीदे में

वाजिब है कि इस बात पर भी फ़िक्र किया जाये कि बद आदमी नेक हो सकते हैं या नहीं इस अम्र में क़ुरआन और अहादीस और कलाम ईलाही क्या ख़बर देता है, अगर ये हो सकता है तो कोशिश की जाये और जो ये हो ही नहीं सकता तो कोशिश बेफ़ाइदा है। क़ुरआन में ऐसी बात का ज़िक्र साफ़-साफ़ नहीं है। मगर हदीसों में मुफ़स्सिल बयान है मिश्कात किताब-उल-ईमान बाब अज़ाब-उल-बक़र में अहमद की रिवायत अबू दर्दा से यूं लिखी है, اذا سمعتم بجبل زال عن مکانہ فصہ قوہ واذ استمعتم برجل تغیر عن خلقہ فلاتصد قوہ فانہ یصبران ماجبل علیہ अगर तुम सुनो कि एक पहाड़ी अपनी जगह से टल गया तो इस बात को यक़ीन कर लेना, पर जब सुनो कि एक एक आदमी का ख़ल्क़ बदल गया तो इस बात का हरगिज़ यक़ीन ना करना क्योंकि इन्सान अपनी आदत जबली पर माइल हो जाता है।

यहां से तबादुर (सबक़त) है कि इन्सान के ख़ल्क़ का बदलना उन के नज़्दीक मुहाल है लेकिन एक और बात है कि आदमी के आदात और अख़्लाक़ के दो हिस्से हैं एक वो हिस्सा है जो तर्कीब अनासिर से कुछ इलाक़ा रखता है दूसरा हिस्सा वो है जो तहसील अश्या ख़ारिजा से मुताल्लिक़ है। अगर ये हदीस पहले हिस्से की निस्बत है तो शायद इस में कुछ सच्चाई हो और जो दूसरे हिस्सा की निस्बत है तो इस में बड़ी हुज्जत (तकरार) है और हरगिज़ सच्चाई नहीं है पर ज़ाहिर ऐसा है कि दूसरे ही हिस्से की निस्बत हज़रत ने ये फ़रमाया है दो वजह से।

वजह अव़्वल ये है कि एक और हदीस इसी मुआमले में साफ़-साफ़ वारिद है जो मिश्कात बाब अल-एअतसाम में मुस्लिम की रिवायत अबू हुरैरा से है कि, الناس معادن کمعادن الذھب والفضتہ خیارھم فی الجاھیلتہ خیارھم فی الاسلام اذا فقھا तर्जुमा : आदमी ऐसे हैं जैसी चांदी सोने की कानें होती हैं जो लोग हालत कुफ़्र में अच्छे हैं वो हालत इस्लाम में भी अच्छे हैं जब समझ जाएं।

यानी इस्लाम उन की आदात पर हमला नहीं कर सकता बल्कि अगर वो अच्छी आदात लेकर इस्लाम में आए हैं तो इस्लाम में भी अच्छे हैं और जो बुरी आदात लेकर इस्लाम में आए हैं तो इस्लाम में भी बुरे हैं बा सबब अपनी जबली (फ़ित्री) आदत के। दूसरी वजह ये है कि क़ुरआन से भी साबित होता है कि हज़रत मुहम्मद सब आदात की निस्बत बल्कि ख़ास दूसरे हिस्से की निस्बत ऐसा फ़रमाते हैं। चुनान्चे क़ुरआन में लिखा है, محمد الرسول اللہ والدین معہ اشدء علی الکفاررحماء بینھم मुहम्मद रसूल अल्लाह और वो लोग जो उन के साथ हैं काफ़िरों पर सख़्ती करने वाले हैं और आपस में एक दूसरे पर रहम करते हैं।

यहां हज़रत मुहम्मद की आदत और उन के साथीयों के अख़्लाक़ का ज़िक्र है कि वही आदत उन में है जो सब दुनियादारों और जिस्मानी मिज़ाज लोगों में होती है कि अपने लोगों को प्यार करना और मुख़ालिफ़ों को दुख देना। मगर ईलाही आदत ये नहीं है वो अपना सूरज सब भलों बुरों पर चमकाता है और हर ज़मीन पर मेह (पानी) बरसाता है और सब पर मेहरबान है। मसीही दीन इस आदत को पहले हिस्से में दाख़िल नहीं समझता बल्कि दूसरे हिस्से में क़रार देता है और उस की तब्दील की कोशिश में है बल्कि उसे बदलवाता है हज़रत मुहम्मद फ़रमाते हैं कि मेरे और मेरे मुसलमानों की ये आदत नहीं बदली तब साफ़ मालूम हो गया कि अख़्लाक़ से मुराद उन की आम अख़्लाक़ हैं ना सिर्फ पहला हिस्सा इसलिए हम कहते हैं कि क़ुरआन और हदीस आदमी के अख़्लाक़ की तब्दील ही के क़ाइल नहीं इस सूरत में इस्लाम से क्या फ़ायदा है?

शायद कोई कहे कि अगर ये मतलब है तो फिर हज़रत का हिदायत करना बेफ़ाइदा है और सब पैग़म्बरों का हिदायत करना भी बेफ़ाइदा होगा सो जवाब ये है कि सब पैग़म्बर तब्दील अख़्लाक़ के क़ाइल हैं इसलिए उनका काम बेफ़ाइदा नहीं पर ज़रूर हज़रत मुहम्मद जो तब्दील अख़्लाक़ के क़ाइल नहीं हैं उनका काम बेफ़ाइदा होगा। पर वो यूं कह सकते हैं कि हम अज़ली बर्गज़ीदों के लिए आए हैं उन्हीं के लिए जो भले हैं लेकिन ख़ुदा का कलाम कहता है भले चंगों को हकीम की हाजत नहीं है इसलिए हज़रत के अफ़आल और अक़्वाल में तनाक़ुज़ (इख्तिलाफ, तज़ाद) हक़ीक़ी है।

सय्यदना मसीह फ़रमाते हैं कि “जब तक कोई नए सिरे से पैदा ना हो ख़ुदा की बादशाहत में दाख़िल नहीं हो सकता।” (यूहन्ना 3:3) इस आयत में ना सिर्फ तब्दील का इम्कान मगर वजूब बयान हुआ है फिर (2 पतरस 1:3) में लिखा है कि उस की ईलाही क़ुदरत ने हमें सब चीज़ें जो ज़िंदगी और दीनदारी से इलाक़ा रखती हैं उस की पहचान से इनायत कीं जिसने हमको जलाल और नेकी से बुलाया जिनके वसीले निहायत बड़े और क़ीमती वाअदे हमसे किए गए ताकि उन के वसीले इस ज़िंदगी से जो दुनिया में बुरी ख़्वाहिश के सबब से है, छूट के तबीयत ईलाही में शरीक हो जाओ।

इस के बाद सय्यदना मसीह के शागिर्दों के वाक़ियात देखने से साफ़ ज़ाहिर है कि लाखों आदमीयों में तब्दील हो गई है बल्कि मसीही होने का मतलब यही है कि तब्दील हो गई। इस के बाद चूँकि ख़ुदा के कलाम में ना सिर्फ थोड़ा सा तब्दील का ज़िक्र है मगर तब्दील मिज़ाज के सारे मदारिज और उस के सब पहलू और अत्वार (तौर तरीक़े) और अलामात और बवायअ बशिद्दत तसल्ली बख़्श तौर पर मज़्कूर हैं और कस्रत से वो सब नमूने जात में भी मज़्कूर हैं जिनमें तब्दीली हो गई है। पर देखो कहाँ हज़रत मुहम्मद का बयान और कहाँ ये बयानात। और किस क़द्र ख़ूबी और तसल्ली यहां है और किस क़द्र मायूसी और हुर्मान (ना-उम्मीदी) वहां है। और अक़्ले इन्सानी भी सिवाए तब्दील दिली के और कोई तरीक़ा इन्सानी की बेहतरी का क़ुबूल नहीं कर सकती है जिसका हज़रत मुहम्मद इन्कार करते हैं पर इस का सबब यही है कि ये नाज़ुक बात उन के फ़हम शरीफ़ में नहीं आई जैसे कि इस वक़्त भी हज़ारहा जिस्मानी आदमीयों की समझ में ये नहीं आता है।

फिर ये जो हज़रत मुहम्मद ने फ़रमाया कि पहाड़ का टलना ख़ल्क़ के बदलने से आसान है इसी बात का ज़िक्र सय्यदना मसीह ने भी यूं फ़रमाया है कि “अगर तुम्हारे दर्मियान राई के दाने के बराबर भी ईमान हो तो पहाड़ को कहोगे कि टल जा तो वो टल जाएगा।” पहाड़ से मुराद सय्यदना मसीह की वही अख़्लाक़-ए-इन्सानी हैं जिन को मुहम्मद साहब भी पहाड़ से ज़्यादा भारी बतलाते हैं।

मसीह का मतलब ये है कि जो आदमी मुझ पर ज़रा भी ईमान रखता है उस में इस ईमान के वसीले से ऐसी ताक़त पैदा होती है कि वो अपने अख़्लाक़ बद के छोड़ने पर क़ादिर हो जाता है जो पहाड़ के मुवाफ़िक़ सख़्त और ना टलने वाले मालूम होते हैं पर अगर वो चाहे तो ईमान के वसीले ख़ुदा से ताक़त पाके उन्हें छोड़ सकता है। नावाक़िफ़ लोग बाज़ारों में ग़रीब मसीहियों से कहते हैं कि अगर तुम्हारे अन्दर ईमान है तो ना पहाड़ मगर सिर्फ ये एक ईंट मोअजिज़े के तौर पर उठा के बतलाओ वो बेफ़िक्र लोग नहीं जानते कि मोअजज़े करना हर ज़माने में किसी क़ौम का ख़ास्सा नहीं है ना मुतलक़ ईमान का निशान है वर्ना मोअजिज़ा मोअजिज़ा नहीं रह सकता और वो ये भी नहीं समझते कि पहाड़ से मुराद अख़्लाक़ हैं पर अब हदीस बाला के देखने से उम्मीद है कि साहिबे फ़िक्र मुसलमान इस भेद को भी समझेंगे।

12 बारहवीं फ़स्ल

क़ियामत के बयान में

हज़रत मुहम्मद ने ये ताअलीम भी दी है कि क़ियामत आएगी मुर्दे जी उठेंगे और ख़ुदा आप इन्साफ़ करेगा तराज़ू रखी जाएगी लोगों के नेक व बद-आमाल तोले जाऐंगे। और हज़रत मुहम्मद की बात ख़ुदा तआला बहुत सुनेगा और उनको मए उन की उम्मत के सबसे पहले बहिश्त में दाख़िल करेगा वहां ख़ूबसूरत औरतें और लौंडी और शराब और कबाब और सब ऐश के सामान बख़ूबी मिलेंगे। लेकिन शरीर (बुरे) मुसलमान मए काफ़िरों के दोज़ख़ में जाऐंगे और कुछ अर्से के बाद बड़ा अज़ाब उठा कर फिर हज़रत मुहम्मद के वसीले से वो शरीर (बेदीन) मुसलमान भी बहिश्त (जन्नत) में आ जाऐंगे बाक़ी काफ़िर लोग हमेशा दोज़ख़ में रहेंगे और बड़े-बड़े अज़ाब अबद तक उठाएँगे।

ये ख़ुलासा है इस बारे में उन सब बयानों का इस में बाअज़ बातें तो क़ुरआन में मज़कूर हें और बाअज़ हदीसों में हैं और बयानों में उन के कस्रत से मुबालग़े पाए जाते हैं और वो चीज़ें जिनको आदमी का नफ़्सानी दिल मांगता है वहां मिलने का वाअदा की गई हैं हज़रत मुहम्मद के इस सारे बयान में बाअज़ बातें बहुत सही बयान हुई हैं क्योंकि अगले पैग़म्बरों की किताब से मन्क़ूल हैं, पर बाअज़ बातें जो उन्हों ने अपनी तरफ़ से सुनाई हैं वही क़बूलीयत के लायक़ नहीं हैं।

क़ियामत के बयान में ख़ुदा के कलाम के दर्मियान में भी बहुत कुछ मज़्कूर है मगर मैंने रिसाला आसार-ए-क़ियामत में इस मुआमले के दर्मियान जो मुनासिब समझा है ज़िक्र किया है अगर कोई चाहे तो वहां पढ़े।

13 तेरहवीं फ़स्ल

अलामात क़ियामत के बयान में

हज़रत मुहम्मद ने ना क़ुरआन मगर हदीसों में उन्हों ने आने वाले वक़्त की बाबत कुछ अलामतें और निशान भी बयान किए हैं और क़िस्म क़िस्म की बातें हैं चुनान्चे मिश्कात किताब-उल-ईमान फ़स्ल अव़्वल में बुख़ारी व मुस्लिम की रिवायत उमर बिन ख़त्ताब से यूं मर्क़ूम है कि :-

“जिब्रील फ़रिश्ते ने हज़रत मुहम्मद से क़ियामत के निशान पूछे कि क्या हैं फ़रमाया कि बांदी से बच्चे कस्रत से पैदा होंगे और कमीने लोग नंगे भूके बकरीयां चराने वाले ऊंचे ऊंचे घर बनाएंगे।”

इस वक़्त हम देखते हैं कि ग़ुलाम रखने का दस्तूर दुनिया से बहुत उठ गया है फिर क्योंकर ग़ुलामों की तरक़्क़ी होगी? शायद फिर दुनिया में ये दस्तूर जारी हो। और गुर्बा (गरीबों) का आसूदा हाल होना हज़रत के गुमान में क़ियामत का निशान है अगर ये दो अलामतें क़ियामत की किसी की अक़्ल क़ुबूल कर सकती है तो करे।

फिर मिश्कात बाब अश्रात अल-साअता में अनस से बुख़ारी व मुस्लिम की रिवायत है कि, इल्म जाता रहेगा जहालत व ज़िनाकारी और मेय (शराब) नोशी की कस्रत हो जाएगी और औरतें बहुत होंगी मर्द कम हो जाएंगे यहां तक कि पचास (50) औरतों का एक शख़्स मुंतज़िम होगा।

ये अलामत हज़रत ने कलाम ईलाही से सुनकर कुछ तसर्रुफ़ के साथ बयान की है क्योंकि वो सय्यदना मसीह ने फ़रमाया था कि, “बेदीनी फैल जाने के सबब बहुतों की मुहब्बत ठंडी हो जाएगी।” और औरतों की कस्रत के बारे में यसअयाह 4 बाब 1 आयत में लिखा है कि “सात औरतें एक मर्द से कहेंगी कि हम सिर्फ तेरे नाम की कहलाती हैं” पस हज़रत ने इन ख़बरों में कुछ तसर्रुफ़ किया है।

फिर मुस्लिम से अबू हुरैरा की रिवायत उसी बाब में है कि दौलत व माल लोगों के पास कस्रत से हो जाएगा यहां तक कि सदक़ा लेने वाला फ़क़ीर भी ना मिलेगा और अरब की ज़मीन बाग़ व बहार हो जाएगी। लेकिन कलाम ईलाही में लिखा है कि क़हत पर क़हत होंगे।

फिर अबू हुरैरा की रिवायत बुख़ारी व मुस्लिम से है कि फुरात नदी ख़ुश्क हो जाएगी और वहां से ख़ज़ाना निकलेगा मगर अहले इस्लाम को वो लेना जायज़ नहीं है। ये पेशीनगोई ख़ुदा के कलाम में से निकाल के हज़रत मुहम्मद ने सुनाई है देखो, (मुकाशफ़ात 16:12 को और यर्मियाह 50:38, 51:36) पर इस का मतलब और है ये मतलब नहीं है जो हज़रत मुहम्मद ने समझा है।

फिर उसी बाब में बुख़ारी की अनस से रिवायत है कि क़ियामत की पहली अलामत ये है कि एक आग उठेगी और मशरिक़ मग़रिब तक आदमीयों को जमा करेगी इस ख़बर की अस्ल भी (2 थिस्सलूनिकीयों 1:7) में कुछ है।

फिर अनस से तिर्मिज़ी की रिवायत इसी बाब में है कि क़ियामत से पहले एक बरस एक महीने के बराबर होगा और एक महीना एक हफ़्ते के बराबर और एक दिन एक घड़ी के बराबर होगा और एक घड़ी एक शोला आग की मानिंद होगी।

इस ख़बर की अस्ल सिर्फ इस क़द्र कलाम में है कि “वो दिन मुक़द्दसों की ख़ातिर घटाए जाऐंगे। (मत्ती 24:22) इस का मतलब ये नहीं हैं कि सूरज के गर्द जो ज़मीन का दौरा सालाना और महवर पर जो शबाना रोज़ का है इस में इस क़द्र मुबालग़ा की कोताही हो जाएगी पर ज़ाहिर ऐसा है कि वो मुसीबतें जल्दी तमाम हो जाएंगी देर तक ना रहें।

फिर इसी बाब में अब्दुल्लाह बिन हवाला से रिवायत है कि फ़रमाया हज़रत ने, ऐ इब्ने हवाला जिस वक़्त मेरी बादशाहत बैतुल-मुक़द्दस में उतर जाएगी पस जान ले कि क़ियामत नज़्दीक आई और फ़ित्ना व फ़साद और बड़े बड़े उमूर आ पहुंचे और क़ियामत उस दिन लोगों से ऐसी नज़्दीक होगी जैसे ये मेरा हाथ इस वक़्त मेरे सर के पास है ख़लीफ़ा उमर ने बैतुल-मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा किया था उस वक़्त तक तेरह (13) सौ बरस के क़रीब होते हैं मगर अब तक क़ियामत नहीं आई। मगर कलाम में ऐसा लिखा है 1260 बरस तक यरूशलेम पामाल करने के लिए ग़ैर-क़ौमों को दिया गया है पर साल से मुराद किस क़द्र अर्सा है कोई नहीं जानता चाहिए कि इस पामाली के बाद वो शहर इन के क़ब्ज़े से निकले और पेश गोयाँ जो उस के बाद वाक़ेअ होने पर हैं हो जावें तब आख़िरत आएगी।

एक और ख़बर इसी बाब में चंद हदीसों के दर्मियान मज़्कूर है वो ये है कि, एक शख़्स जिसका लक़ब इमाम मह्दी है यानी पेशवा मुहम्मदी दीन का ज़ाहिर होगा और वो फ़ातिमा की औलाद से होगा यानी सय्यद और उस का नाम मोहम्मद होगा और उस के बाप का नाम अब्दुल्लाह होगा सूरत उस की मुहम्मद साहब के मानिंद होगी मगर तमाम ख़सलतें उस की हज़रत मुहम्मद की मानिंद ना होंगी वो सारी ज़मीन को क़ुरआन की हिदायत के मुवाफ़िक़ अदल और इन्साफ़ से भर देगा और सात या आठ या नौ बरस बादशाहत करेगा उस के ज़माने में दुनिया ऐश आराम से रहेगी।

ख़ुदा के कलाम में ऐसी बात का ज़िक्र नहीं है मगर ज़ोर के साथ ये बयान हुआ है कि एक शख़्स मुख़ालिफ़ मसीह आएगा और एक झूटे नबी का भी ज़िक्र है। (मुकाशफ़ात 20:10, 19, 20)

14 चौधवीं फ़स्ल

हज़रत ईसा के नुज़ूल के बयान में

हज़रत मुहम्मद ने ये भी ख़बर दी है कि हज़रत ईसा फिर आस्मान से ज़मीन पर आएँगे। लेकिन सब लोग जानते हैं कि मसीह की आमद सानी का चर्चा हज़रत मुहम्मद की पैदाइश से छः सौ (600) बरस पहले से अब तक है पस ये कुछ नई ख़बर नहीं है।

अलबत्ता हज़रत का इस क़द्र बयान नया है जो मिश्कात किताब-उल-फितन बाब नुज़ूल ईसा में अब्दुल्लाह बिन उमर से इब्ने जोज़ी की रिवायत किताब-उल-वफ़ा से लिखी है कि, ईसा बिन मर्यम ज़मीन पर आएगा और निकाह करेगा और बच्चे पैदा होंगे और 45 बरस ज़मीन पर रहेगा फिर मर जायेगा और मदीना के दर्मियान हज़रत मुहम्मद के मक़बरे में मदफ़ून होगा फिर जब क़ियामत आएगी तो हज़रत मुहम्मद और अबू बक्र व उमर हज़रत ईसा भी इस मक़बरे की क़ब्रों में से निकलेंगे।

जायज़ है कि हम हज़रत मुहम्मद को मुख़ालिफ़ मसीह कहें क्योंकि उन्होंने हज़रत ईसा की मुख़ालिफ़त पर बड़ी कमर बाँधी है उनके सारे दीन की मुख़ालिफ़त में एक शरीअत अपनी ज़ाहिर की है और तमाम दीने मसीह के बरख़िलाफ़ अक़ीदे तज्वीज़ किए हैं सलीब का इन्कार तस्लीस का इन्कार कफ़्फ़ारे का इन्कार मसीह की उलूहियत का इन्कार और उस के मुर्दों में से जी उठने का इन्कार करते हैं और यह सारे मजमूए बाइबल की मुख़ालिफ़त है इसी तरीक़े पर हज़रत मुहम्मद ने मसीह की आमद सानी की बसूरत को भी बदला है पर जो बातें वो ख़ुदा के कलाम के बर-ख़िलाफ़ सुनाते हैं उनको वही आदमी क़ुबूल करेगा जो ख़ुदा से नहीं डरता।

(वो मसीह की मौत का ज़िक्र करते हैं कि वो आके मरेगा मगर ख़ुदा का रसूल (रोमीयों 6:9) में कहता है कि, “वो ना मरेगा और मौत फिर उस पर तसल्लुत नहीं रखती।”

फिर उस के निकाह का ज़िक्र करते हैं शायद हज़रत मुहम्मद ने (मुकाशफ़ात 21:9) को उल्टा समझा है जहां लिखा है कि, “इधर आएं तुझे दुल्हन यानी बर्रे की जोरू (बीवी) दिखलाऊँ।” इस का मतलब ये नहीं है कि वो आके जोरू (बीवी) करेगा लेकिन यहां कलीसिया और मसीह का ज़िक्र है कि उनमें ख़ावंद और बीबी की निस्बत है बलिहाज़ प्यार और परवरिश के लेकिन हज़रत ने अपनी मर्ग़ूब चीज़ का ज़िक्र उस क़ुद्दूस की निस्बत भी कर दिया है और यह भी फ़रमाया है कि उस के बच्चे पैदा होंगे। शायद हज़रत मुहम्मद ने (यसअयाह 53:10) का मतलब उल्टा समझा है वहां लिखा है कि “वो अपनी नस्ल को देखेगा।” मगर वहां नस्ल से मुराद वो मोमिनीन हैं जिन्हों ने उस से नया जन्म हासिल किया है और ख़ुदा के फ़र्ज़न्द हुए। (यूहन्ना 1:12 ता 13) फिर हज़रत ने उस की 45 बरस की उम्र भी तज्वीज़ फ़रमाई है मगर (दानयाल 2:44, यसअयाह 53:10, मुकाशफ़ात 1: 17 ता 18) वग़ैरह बहुत मुक़ाम हैं जहां उस (मसीह) की अबदीयत का ज़िक्र है।

फिर हज़रत फ़रमाते हैं कि क़ियामत के दिन ईसा हमारे साथ सब मुर्दों में उठेगा। मगर वो ख़ुद फ़रमाता है कि, आलम-ए-ग़ैब और मौत की कुंजियाँ मेरे पास हैं। (मुकाशफ़ात 1:18) और यह कि मैं आप ही क़ियामत और ज़िंदगी हूँ। (यूहन्ना 11:25) और यह कि सारा इख़्तियार आस्मान और ज़मीन पर मुझे दिया गया है। (मत्ती 28:18) देखो हज़रत ने ख़ुदा के कलाम को हरगिज़ नहीं समझा ये किस मर्तबे का बयान है और हज़रत क्या फ़रमाते हैं।

दूसरी बात इसी बाब में बुख़ारी व मुस्लिम से अबू हुरैरा की रिवायत है कि :-

“जब हज़रत ईसा आएँगे तो सलीब को तोड़ डालेंगे और सूअर को क़त्ल करेंगे और जज़्या उठाएँगे और उस ज़माने में माल बहुत होगा।”

रोमन कैथोलिक गिरजों में हज़रत ने लोगों को सलीब की परस्तिश करते देखा है इसलिए फ़रमाते हैं कि मसीह आके इन सलीबों को तोड़ डालेगा। और अगर हज़रत की ये मुराद है कि वो दीन जिसकी बुनियाद मसीह की सलीब है मसीह आके उठाएगा। तो ये बात हज़रत ने बमूजब अपने उस अक़ीदे के बयान की है कि वो मसीही सलीब के मुन्किर हैं। फ़रमाते हैं कि वो मस्लूब ही नहीं हुआ पर ये बयान तो हज़रत का बहुत सी दलीलों से ग़लत साबित हुआ है इसलिए उस की ये फ़राअ (शाख़) भी ग़लत है कि सलीब को तोड़ डालेगा।

मगर सूअर के क़त्ल करने का क्या मंशा है ये मतलब है कि बाअज़ मसीही लोग सूअर का गोश्त खाया करते हैं और हज़रत की शरीअत में सूअर हराम है जब मसीह आएगा तो सूअरों को क़त्ल कर डालेगा कि ना रहें और ना लोग खाएं और मसीह की तरफ़ से उस की हुर्मत (हराम होने का) का फ़त्वा सुनें मगर मैं पूछता हूँ कि अगर वो सूअरों को नेस्त कर डालेगा तो ख़रगोश और ऊंटों को कब छोड़ेगा जो मुसलमान भी बराबर खाते हैं और मूसा की शरीअत में मना हैं और सूअर के बराबर हैं। फिर ये कि जज़्या उठाएगा, या तो इसलिए कि सब लोग मुसलमान हो जाएंगे जिनसे जज़्या लेना जायज़ ना होगा या उस वक़्त दुनिया में माल की कस्रत होगा जज़्या की हाजत ना रहेगी। हम जानते हैं कि उस के आने के वक़्त पर ईद कफ़्फ़ारा होगी सब मोमिनीन कफ़्फ़ारे की ख़ुशी मनाएंगे कि तू हमारे लिए मुआ (मरा) था सलीब पर हमारे लिए जान दी थी और इस सूरत में सलीब की इज़्ज़त ग़ैर-क़ौमों पर भी ख़ूब ज़ाहिर हो के और बहुत पछताएँगे कि हम सलीब पर पहले से ईमान को ना लाए कि हम भी नजात पाते। और यह सब रस्मी शरीअतें कि ये कहा और वो ना कहा कामिल तौर पर रुहानी नज़र आएँगे और उस वक़्त मुसलमान भी जानेंगे कि रुहानी मअनी मसीही लोग दुरुस्त बतलाते थे और सूअर और बक्री में कुछ फ़र्क़ ना था पर इस का मतलब और ही था कि आदमी बुरी आदतों से बचें। और वह अपने बंदों को सब ज़ालिमों के हाथ से बचाएगा और हक़ीक़ी आराम में अपने साथ लेगा और सारे बादशाहों को टुकड़े टुकड़े करेगा और अपनी अबदी बादशाहत को क़ायम करेगा और सच्चे मसीही जिनका भरोसा मसीह पर है सारे जहान पर फ़त्हयाब होंगे। ख़ुदा के सारे कलाम का नतीजा ये ही है।

15 पंद्रहवीं फ़स्ल

मसीह की अदम सलीब व अदम उलूहियत के बयान में

हज़रत मुहम्मद की ताअलीम में इस बात पर ज़ोर है कि मसीह मस्लूब नहीं हुआ जैसे ख़ुदा के कलाम में इस बात पर ज़ोर है कि ज़रूर मसीह मस्लूब हुआ और निहायत ज़रूर था कि वो दुख उठाए।

(सूरह निसा 12 रुकूअ में है कि ना ईसा को मारा और ना उसे सलीब दी मगर उन के सामने ईसा की सूरत पर एक और शख़्स हो गया था।)

ये एतिक़ाद (अक़ीदा) हज़रत का हरगिज़ क़बूलीयत के लायक़ नहीं है क्योंकि कुतुब साबिक़ा उस के मारे जाने पर पेश गोईयां करती हैं। (यसअयाह 53:5 ता 9, दानयाल 9: 26) और वो ख़ुद अपने मरने से पहले बार-बार फ़रमाता था कि मेरा मर जाना ज़रूर है। (मत्ती 16:21) और उन के शागिर्द गवाही देते हैं कि वो हमारे सामने मारा गया। (आमाल 4:10) और यहूदी लोग अब तक गवाही देते हैं कि उस को हमारे बाप दादों ने ज़रूर मारा था। और उस की ताअलीम बल्कि तमाम बाइबल की तमाम उस की मौत की बुनियाद पर क़ायम है फिर बतलाओ कि इन पाँच दलीलों को जो अपनी ज़ात में कामिल सबूत रखते हैं हम किस तरह ग़लत जानें?

और हज़रत मुहम्मद की बात जिनकी ना नबुव्वत साबित है और ना ख़ुद उस वक़्त हाज़िर थे बल्कि छः सौ (600) बरस बाद पैदा हुए और ग़ैर-मुल्क के शख़्स हैं और कलाम ईलाही से भी पूरी वाक़फ़ीयत नहीं रखते और ग़र्ज़ भी रखते हैं कि सलीब के बरख़िलाफ़ एक दीन जारी किया चाहते हैं कौन दूर-अँदेश दाना है कि उन की बात को क़ुबूल करेगा?

हज़रत मुहम्मद सय्यदना मसीह की उलूहियत के भी मुन्किर हैं (सूरह माइदा 11 रुकूअ) में है, “मसीह मर्यम का बेटा एक रसूल था।” यानी उस में उलूहियत ना थी सिर्फ इन्सान था और पैग़म्बर ये अक़ीदा भी हज़रत का ख़ुदा के कलाम के बरख़िलाफ़ है क्योंकि ज़रूर सय्यदना मसीह ने उलूहियत का दाअवा किया है और अपनी उलूहियत और इन्सानियत ज़ाहिर की है और सारी शान-ए-ख़ुदाई की अपने अंदर दिखलाई है। उस की पाकीज़गी और क़ुदरत व ताक़त से उस की ख़ुदाई का सबूत उस के कामों और ख़यालों और इरादों और तासीरों से बख़ूबी किया गया है। चुनान्चे अहदनामा जदीद के पढ़ने वालों को ख़ूब मालूम है और पुराना अहदनामा भी दिखलाता है कि आने वाला नजातदिहंदा जो मसीह है उस में उलूहियत भी होगी। चुनान्चे ये सब बयानात हमारी दूसरी किताबों में कुछ मुफ़स्सिल लिखे गए हैं अगर कोई चाहता है तो ख़ासकर हमारी उन तफ़्सीरों को बिला-तास्सुब पढ़े जो अब तक छप चुकी हैं उसे मालूम हो जाएगा कि ज़रूर उस में ख़ुदाई भी थी और इस का इन्कार करना मुश्किल है इन्साफ़ का काम नहीं है। वाज़ेह हो कि हज़रत मुहम्मद का ये क़ौल कि मसीह सिर्फ़ इन्सान था और एक पैग़म्बर उस में उलूहियत ना थी ये एक दाअवा है और इस के सबूत की कुछ दलीलें बल्कि एक दलील भी क़ुरआन हदीस में नहीं है। और यह एतिक़ाद कि मसीह इन्सान और ख़ुदा भी है सदहा दलीलों के साथ अनाजील वग़ैरह में मज़्कूर है। अब क्यूँ-कर हो सकता है कि एक बे दलील बात से बादलील अक़ीदा छोड़ दें? मगर हज़रत मुहम्मद ने चूँकि मसीही दीन की मुख़ालिफ़त पर उम्दन (जानबूझ कर) कमर बाँधी या कलाम ईलाही और वाक़ियात मसीही और वाक़ियात अम्बिया से ना-वाक़िफ़ी के सबब से वो ऐसी बातें बोलते हैं इसलिए वो ना सिर्फ मसीही दीन की मुख़ालिफ़त करते हैं मगर तमाम कुतुब समावी (आस्मानी किताबों) और सब सिलसिला अम्बिया के ख़िलाफ़ बोलते हैं उन की बातें ख़तरनाक हैं उन को जो सलामती अबदी के तालिब हैं बहुत होशियार होना चाहिए और बहुत फ़िक्र के साथ सब बातों को दर्याफ़्त करके क़ुबूल करना मुनासिब है।

(2) दूसरा बाब

इबादात इस्लामीया के बयान में

इबादात उन अफ़आल और रसूम और तर्तीबों को कहते हैं जो ख़ुदा की परस्तिश से इलाक़ा रखती हैं जिनके वसीले से आदमी ख़ुदा के साथ क़ुर्बत (नज़दिकी) हासिल करता है ये निहायत उम्दा बात है कि आदमी ख़ुदा की इबादत करे। लेकिन ज़रूर है कि इबादत के अत्वार (तौर तरीक़े) ख़ुदा से मालूम किए जाएं क्योंकि मुफ़ीद इबादत वही इबादत है जो इल्हाम से ख़ुदा ने बतलाई या ख़ुदा की रूह ने इन्सान के दिल में डाल दी कि उस के सामने वो इस तरह से झुके। मुहम्मदी मज़्हब में अत्वार इबादत (इबादत का तरीक़े) का भी एक बड़ा सा दफ़्तर लिखा हुआ है जिसमें से बतौर ख़ुलासे के मुख़्तसर बयान उन की हर हर इबादत का करता हूँ। और चूँकि ख़ुदा के कलाम में मुहम्मदी मज़्हब की निस्बत बल्कि सब जहान के मज़्हबों की निस्बत ज़्यादातर ख़ुदा की इबादत के अत्वार (तरीक़ों) और उस के पहलू बयान हुए हैं इसलिए मुहम्मदी इबादात का उन इबादतों के साथ कुछ-कुछ मुक़ाबला भी किया जाएगा अगर कोई ख़ुदा-परस्त आदमी ख़ुदा के दीन की इबादतों के अत्वार (तरीक़ों) से वाक़िफ़ होना चाहे तो उसे चाहिए कि नमाज़ की किताब को पढ़े।

1 फ़स्ल अव़्वल

तहारत के बयान में

तहारत (जिस्म का पाक होना) इबादत में दाख़िल है। हज़रत ने बहुत ज़ोर के साथ तहारत की ज़रूरत का बयान किया है और अक्सर उस के दकी़क़ों को ज़ाहिर किया है और ये बयान कुछ तो क़ुरआन में है पर बहुत से ज़िक्र हदीसों में है जिसका ख़ुलासा ये है कि,

छः (6) बातों के सबब तहारत की बड़ी ज़रूरत है :-

अव़्वल नमाज़ बग़ैर तहारत (जिस्म के पाकी) के हो नहीं सकती।

दोम क़ुरआन को बग़ैर तहारत के हाथ नहीं लगा सकते।

सोम मस्जिद में बग़ैर तहारत दाख़िल नहीं हो सकते।

चहारुम हज के लिए तहारत ज़रूर है।

पंजुम हज़रत मुहम्मद पर दुरूद पढ़ने के लिए तहारत चाहिए।

शश्म परहेज़गार आदमी को चाहिए कि अक्सर तहारत से रहा करे क्योंकि बग़ैर तहारत (जिस्म की पाकी) के ख़ुदा की बरकत आदमी पर नाज़िल नहीं होती है और ना बाअज़ इबादत बग़ैर इस के क़ुबूल हो सकती है मिश्कात किताब-उल-तहारत की पहली हदीस ये है कि, الطھور شطر الایمان यानी तहारत (पाकी) आधा ईमान है। अब मालूम करना चाहिए कि तहारत क्या चीज़ है दो क़िस्म की तहारत है :-

हक़ीक़ी तहारत

ये है कि बदन और कपड़े को नजासत (नापाकी) दीदनी से पाक रखना।

हुक्मी तहारत

ये है कि बग़ैर नजासत दीदनी के नादीदनी नजासत से बहुक्म शराअ के पाकी हासिल करना मसलन वुज़ू, ग़ुस्ल और तयम्मुम वग़ैरह से।

ख़ुदा के कलाम में भी बहुत सा ज़िक्र तहारत का है और मूसवी शरीअत में जिस्मानी तहारत की ताअलीम बहुत होती थी और रुहानी तहारत का भी बहुत ज़िक्र हुआ है पर यहूदीयों ने जिस्मानी तहारत की बहुत पैरवी की और रुहानी तहारत से ग़ाफ़िल रहे मगर सय्यदना मसीह ने दिली तहारत पर ज़ोर दिया और यह दिखलाया कि जिस्मानी तहारत की ताअलीम रूहानी तहारत के लिए बतौर नमूने के थी। निहायत ज़रूरी रुहानी तहारत है कि आदमी का दिल कुफ़्र ग़ज़ब, दुश्मनी, हसद, लालच वग़ैरह से पाक हो। तब ईलाही बरकात का महबत (उतरने की जगह) हो सकता है। (मत्ती 5:8) “मुबारक वो हैं जो पाक-दिल हैं क्योंकि ख़ुदा को देखेंगे।” पस इन्जील भी तहारत की ज़रूरत बतलाती है लेकिन ये कहती है कि हक़ीक़ी तहारत (पाकीज़गी) दिल की पाकीज़गी है और मजाज़ी तहारत जिस्मानी तहारत है।

देखो हज़ारहा बेईमान अगरचे कैसे साफ़ सुथरे क्यों ना रहें ख़ुदा के नज़्दीक मकरूह हैं और वो ग़रीब ईमानदार जो अपनी ग़ुर्बत और तंगदस्ती के सबब मैले कपड़े पहने हैं ईमान और दिल की सफ़ाई के सबब ख़ुदा के मक़्बूल हैं।

हाँ जिस्मानी तहारत से जिस्म की सेहत है और आदमी ख़ूब नज़र आता है पर ईलाही तक़र्रुब के लिए दिल की तहारत (पाकी) मतलूब है पर हज़रत मुहम्मद ने अपना सारा ज़ोर जिस्मानी तहारत पर ख़र्च किया है। तो भी यहूदीयों की जिस्मानी तहारत से हरगिज़ फ़ौक़ियत नहीं ले गए जिन्हों ने मसीह से सिर्फ जिस्मानी तहारत पर मलामत उठाई कि “प्याले और रकाबियों को बाहर से धोते हो पर अंदर लूट से भरे हैं।”

2 फ़स्ल दोम

ग़ुस्ल के बयान में

हम-बिस्तरी के बाद और एहतिलाम की हालत में हज़रत मुहम्मद ने ग़ुस्ल करने का हुक्म दिया है इसी तरह औरत को हैज़ व निफ़ास से पाक होने के बाद भी ग़ुस्ल ज़रूर है ये बातें मुनासिब हैं और मूसा की शराअ में भी इनका ज़िक्र है। और दुनिया की सब कौमें अपनी तमीज़ के मुवाफ़िक़ ऐसी सफ़ाई करती हैं। लेकिन मुहम्मदी शराअ (शरीअत) में चूँकि ये अम्र इबादत में दाख़िल हैं इसलिए बड़े-बड़े बयान उलमा ने इनके (*मसअले बयान) किए हैं और बेहयाई के ज़िक्र ऐसे मौक़ों पर बहुत हैं पर हम इस बारे में और तो कुछ नहीं कहते मगर ये कि हज़रत मुहम्मद का ज़ोर जिस्मानी तहारत पर है। ईसा मसीह के लोग अपने गुनाह आलूदा दिलों और रूहों को मसीह की पाक क़ुर्बानी के ख़ून के सोते में धोते हैं ताकि वो पाकीज़गी जो ख़ुदा को पसंद है करें और इसी पर इन्जील में ज़ोर है हाँ वो लोग अपने बदन और कपड़ों को भी नजासत जिस्मानी से पानी में साफ़ करते हैं पर ना क़ुर्बत (नज़दिकी) ईलाही के लिए मगर दफ़ाअ कराहत और सेहत बदनी के लिए। और ख़ूब जानते हैं कि तौरेत और इन्जील में कुछ फ़र्क़ नहीं है वहां जिस्मानी तहारतें इसलिए मुक़र्रर नहीं की कि आइन्दा रुहानी तहारतों के नमूने हों।

3 फ़स्ल सोम

हैज़ के बयान में

हैज़ की हालत में औरत नापाक है और इस नापाकी की मुद्दत में तीन दिन से कम और दस दिन से ज़्यादा उन की शराअ में नहीं है।

औरत हाईज़ा को नमाज़ माफ़ है और वो मस्जिद में क़दम नहीं रख सकती। काअबा का तवाफ़ नहीं कर सकती ना क़ुरआन पढ़ सकती ना उस को छू सकती है मगर गिलाफ़ के साथ। ऐसी बातें हज़रत मुहम्मद ने हज़रत मूसा की तौरेत में से कुछ तसर्रुफ़ के साथ अख़ज़ की हैं जो मसीही बातिनी तहारत के नमूने थे। पर अब आज़ादगी का ज़माना आ गया है और बाप (परवरदिगार) की परस्तिश रूह और रास्ती से होने लगी उस वक़्त की रस्मी शरीअत एक ख़ास हिक्मत पर मबनी थी जिसकी हिक्मत अब खुल गई है। लेकिन हज़रत मुहम्मद का अब ऐसा बयान किस हिक्मत पर मबनी है कोई हिक्मत नहीं है मगर साफ़ बतलाया गया है कि ऐसे काम तक़र्रुब ईलाही के लिए नहीं जो तमीज़ पसंद नहीं करती है।

हाँ हज़रत मुहम्मद ने औरत हाईज़ा से हम-बिस्तर होने से भी मना फ़रमाया है और यह अच्छी बात है अक़्लन मगर ख़ुद हज़रत मुहम्मद ने इस पर अमल नहीं किया। चुनान्चे मिश्कात बाब-उल-हैज़ में हज़रत आईशा बीबी हज़रत मुहम्मद की फ़र्माती हैं कि ऐन हैज़ की हालत मेरे साथ मुबाशरत करते थे। और इस बीबी का ये क़ौल है कि, کان یامرنی فاترز فیبا شرنی وانا حیض अगरचे यहां बालाए मुबाशरत का ज़िक्र है और ऐसा ही हुक्म हज़रत ने उम्मत को भी दिया है।

इस मुक़ाम पर मैं सिर्फ इतना कहता हूँ कि अक्सर मुद्दत हैज़ की हज़रत मुहम्मद ने दस यौम मुक़र्रर किए हैं फिर भी ऐसी बेसब्री है। हालाँकि (18) बीबियाँ और भी मौजूद हैं ये बातें मुक़द्दसों को लायक़ नहीं हैं।

ख़ुदा का सच्चा रसूल (1 कुरिन्थियों 7:29) में फ़रमाता है कि “ब्याही हुई ऐसी हो जैसी बिन ब्याही” यानी जानवरों की तरह अक्सर शहवत परस्ती में मसरूफ़ रहना मुक़द्दसों को लायक़ नहीं है चह जायके रसूलों का ये हाल हो अब नाज़रीन आप ही इन्साफ़ करें और रसूल की इस ताअलीम को हज़रत मुहम्मद की इस ताअलीम से मुक़ाबला करके सोचें।

4 फ़स्ल चहारुम

वुज़ू के बयान में

वुज़ू भी एक तहारत है नजासत हुक्मी से, वो ये कि मुसलमान आदमी क़ायदा मुक़र्ररा के मुवाफ़िक़ मुँह हाथ पैर वग़ैरह धोए ताकि इबादत ईलाही के लायक़ हो जाए और सिफ़त वुज़ू की ये है कि जो मिश्कात किताब-उल-तहारत में बुख़ारी व मुस्लिम ने उस्मान से रिवायत की है कि :-

“जो आदमी अच्छी तरह वुज़ू करे उस के सारे बदन के गुनाह दफ़ाअ हो जाते हैं यहां तक कि उस के नाख़ुनों के नीचे के गुनाह भी बाक़ी नहीं रहते।”

ये बात अक़्ल में नहीं आती और कलामे ईलाही के भी ख़िलाफ़ है गुनाह जो एक नजासत रुहानी है वो जिस्म की सफ़ाई से किस तरह निकल सकता है? अलबत्ता पानी से बदन का मेल छूट सकता है पर रूह का मेल पानी से धोया नहीं जा सकता।

इन्जील में मज़्कूर है कि बपतिस्मा से गुनाह दफ़ाअ हो सकते हैं मगर उसी किताब से साबित है कि रूह और आग के बपतिस्मे से जो मसीह देता है ये होता है ना पानी से हाँ पानी उस का निशान है मगर हज़रत मुहम्मद पानी से इस नजात का दफ़ईया बतलाते हैं इन्जील साफ़ बतलाती है कि ना इबादत से ना रियाज़त से ना अक़ाइद से (बल्कि ईमान से भी नहीं) मगर रूह से जो बवसीला ईमान के अल्लाह बख़्शता है ये गुनाह दफ़ाअ होते हैं और यह बात अक़्ल और नक़्ल से मुसल्लम है पर ये आम बात जो बेअस्ल है कि पानी से गुनाह दफ़ाअ हों अगर किसी की तमीज़ क़ुबूल कर सकती है तो करे।

पर ये वुज़ू टूट जाता है जब कोई नजासत दीदनी बदन से निकले बाक़ी आ जाए या आदमी ब-आवाज़-ए-बुलंद हँसे या बेहोश हो जाएगी या सो जाये वग़ैरह इस सूरत में दूसरी बार वुज़ू करना पड़ता है।

मिश्कात अल-तहारत फ़स्ल सोम में लिखा है कि :-

“एक दफ़ाअ हज़रत मुहम्मद ने इमाम होके नमाज़ पढ़वाई और सूरह रुम को पढ़ा मगर पढ़ते पढ़ते एक जगह भूल गए जब नमाज़ हो चुकी तो फ़रमाया, क्या हाल है लोगों का कि अच्छी तरह वुज़ू नहीं करते और हमारे साथ नमाज़ पढ़ने को आ जाते हैं उन के अच्छे वुज़ू ना होने के सबब हम क़ुरआन को पढ़ते हुए भूल जाते हैं।”

यानी उन के बुरे वुज़ू हमारे अंदर तासीर करके क़ुरआन को भुला देते हैं यहां से ज़ाहिर है कि उम्मत की रास्तबाज़ी पेशवा की रास्तबाज़ी को कामिल करती है या नुक़्सान पहुंचाती है ये नहीं है कि पेशवा की रास्तबाज़ी उम्मत के नुक़्सान को कामिल करे।

इस ताअलीम से ये ख़ौफ़ पैदा हुआ कि जब बाअज़ आदमीयों के बुरे वुज़ू के सबब उस वक़्त ख़ुदा की हुज़ूरी में हज़रत मुहम्मद क़ुरआन को भूल गए तो क़ियामत के रोज़ जब ख़ुदा अपने जलाल और दबदबे में ज़ाहिर होगा और हज़ारहा आदमी बिल्कुल फ़राइज़ शिकन और बदियों से भरे हुए हज़रत मुहम्मद के पीछे होंगे तो उस वक़्त क्या हाल होगा? ऐसा ना हो कि सारी नबुव्वत ही गुम हो जाए। पस अब हम क्यूँ-कर ऐसे शख़्स के पीछे चलें जो हमारे आमाल सालेहा से मुनव्वर होके हमारे सामने चमकना चाहता है।

पर तमीज़ साफ़ कहती है कि हज़रत ने अपने भूल की शर्म दफ़ाअ करने को अलाल उमूम (علی العموم सारे) लोगों पर ये ऐब लगाया था कि वो अच्छी तरह वुज़ू नहीं करते।

अब मसीही वज़ू पर भी ख़्याल करना चाहिए कि वो क्या है। (मत्ती 5:23, 6:5) को पढ़ो कि दूसरों के क़सूर माफ़ करके और बे-रिया (मुख्लिस) हो कर इबादत करना चाहिए मुख़ालिफ़ रखने वाला और रियाकार आदमी ख़ुदा की हुज़ूरी हासिल नहीं कर सकता। और इस मतलब से तो इन्जील भरपूर है कि आदमी कैसा ही गुनाहगार क्यों ना हो जब ईमान के साथ सय्यदना मसीह के पीछे जाये तो मसीह के वसीले से उस के सारे गुनाह दफ़ाअ हो जाते हैं और वो मुनव्वर हो जाता है उस के गुनाह धोए जाते हैं और उस के सब अंदरूनी आलाईश (गंदगी) जल जाती है और नई ज़िंदगी और रोशनी इस में दाख़िल होती है और ख़ुदा की मर्ज़ी इस पर ज़ाहिर होती है ना आंके हमारा नुक़्सान पेशवा के ज़हन में से भी ख़ुदा की मर्ज़ी को उड़ा दे।

5 फ़स्ल पंजुम

तयम्मुम और मसह ख़फ़ के बयान में

हज़रत मुहम्मद ने ये ताअलीम भी दी है कि अगर पानी ना मिले या बीमारी के ख़ौफ़ से ग़ुस्ल वूज़ू ना कर सके या जाड़े ख़ौफ़ से पानी की तहारत मज़्कूर अमल में ना ला सके तो बजाय पानी की तहारत के ख़ाक पर या पत्थर पर या चूने पर दोनों हाथ मारे और मुँह पर एक दफ़ाअ और दूसरी दफ़ाअ हाथों पर हाथ फेर ले पस वो शख़्स ग़ुस्ल या वुज़ू कर चूका अब वो शख़्स नमाज़ वग़ैरह सब काम कर सकता है ये तयम्मुम है।

मसह खफ़ यह है कि सर्दी के मौसम में जब वुज़ू करे और पैरों में चमड़े के मौज़े हों तो पैर ना धोएं बल्कि पानी से भीगी हुई उंगलियां हाथ की मौजों पर फेर ले और समझे कि पैर भी धोए गए। ये नमूने हैं ऐन के ऐन तो पानी ही चाहिए कि उस से पाकीज़गी हासिल की जाये पर अदमे मौजूदगी और ज़रूरत की हालत में पानी के एवज़ (बदले) ये काम करे यानी जब अस्ल चीज़ नहीं है तो उस के नमूने से काम निकाले ये कार्रवाई की बात है मगर उन की शरीअत ये कहती है कि इन नमूनों से काम निकालने वाला बराबर है उस शख़्स के जिसने ऐन यानी अस्ल शैय से काम किया।

इस मुक़ाम पर में सिर्फ इतना कहता हूँ कि मूसा की शरीअत में पानी की जिस्मानी तहारत मसीह की रुहानी बातिनी तहारत का नमूना था और अस्ल इस में रुहानी सफ़ाई थी जो नमूनों के वसीले से उस वक़्त कारआमद हुई और जब तक अस्ल तहारत का सरचश्मा जो मसीह का ख़ून है खोला ना गया ख़ुदा ने अपने लोगों को उस के नमूनों से बरकात बख्शीं पर जब ऐन आया यानी मसीही ख़ून का सरचश्मा खोला गया तो फिर सब नमूने उड़ गए कि आब आमद व तयम्मुम बरख़ास्त (آب آمد وتمیم برخواست) और वो ऐन जो ज़ाहिर हुआ ऐसा कामिल ज़ाहिर हुआ कि उस के लिए फिर किसी हालत में नमूने की हाजत ना रही अब इन्सान ख़्वाह बीमार हो या बड़ी तंगी में हो या फ़राख़ी में हर हालत में ईमान के हाथ से मसीही ख़ून के सरचश्मे में दिली तहारत हासिल करता है। लेकिन हज़रत मुहम्मद इस भेद को ना समझे उन्हों ने उन साबिक़ा नमूनों के एवज़ में और नमूने तज्वीज़ किए और उन नमूनों को ऐन और अस्ल ठहराया अगर पानी की तहारत अस्ल शैय है और तयम्मुम उस का नमूना व कायम मुक़ाम है तो ये अस्ल कैसी ना कामिल है कि ज़मीन पर अपनी मौजूदगी हालत में भी बाज़-औक़ात नमूने की मुहताज है पर मसीही ख़ून का सरचश्मा उस हालत में नमूने में ज़ाहिर हुआ था कि जब वो वक़ूअ में ना आया था जब ज़ाहिर हुआ तो मुतलक़ नमूने हट गए। पर मुहम्मदी ताअलीम में हम कच्ची बुनियाद पर कच्ची इमारत देखते हैं।

6 फ़स्ल शश्म

मिस्वाक के बयान में

मिस्वाक या दांतुन करना हज़रत मुहम्मद की बड़ी आदत थी और यह अच्छी आदत है पर हज़रत इस को भी इबादत ईलाही में दाख़िल समझते मिश्कात बाब-उल-मिस्वाक फ़स्ल सानी में आईशा से शाफ़ई वग़ैरह के रिवायत यूं है, المسواک مطہرہ للھم مرضات للرب मिस्वाक मुँह की पाकी है और ख़ुदा की रजामंदी है। इसी बाब की फ़स्ल सालस में है,

“फ़रमाया हज़रत ने कि जब कभी जिब्रईल फ़रिश्ता मेरे पास आया तब ही मिस्वाक का हुक्म लाया यहां तक कि मुझे अपना मुँह छिल जाने का ख़ौफ़ हुआ।”

फिर आईशा की हदीस में है कि जो नमाज़ उस वुज़ू से पढ़ी जाये जिसमें मिस्वाक की गई है वो नमाज़ सत्तर (70) दर्जे ज़्यादा है उस नमाज़ से जिसके वुज़ू में मिस्वाक ना (की गई) हों।

इस ताअलीम के सबब से इमाम शाफ़ई का फ़िर्क़ा अहले-इस्लाम में मिस्वाक की बड़ी ज़रूरत समझता है बल्कि बाअज़ मुसलमान मिस्वाक हर वक़्त पास रखते हैं पर और फ़िर्क़ों के मुसलमान वुज़ू के वक़्त इस का इस्तिमाल करते हैं।

मैं इस ताअलीम पर सिर्फ इतना कहता हूँ कि मिस्वाक ख़ूब चीज़ है पर वक़्त मुईन पर ख़ल्वत में बेहतर है ना आम मजलिसों में और यह कि ये अम्र भी जिस्मानी बात है ना रुहानी। लेकिन हज़रत मुहम्मद जो बहुत मिस्वाक करते थे, उन के बारे में मेरी तमीज़ की ये गवाही है कि हज़रत मुहम्मद बा-सबब औरतों के इस का इस्तिमाल ज़्यादा करते थे और यही सबब है कि मिस्वाक के सारे बयान में रात की मिस्वाक का ज़िक्र है। और सूरह तहरीम की अव़्वल इबारत की तफ़्सीरों में एक क़िस्सा मज़्कूर है कि औरतों ने कहा कि, ऐ मुहम्मद तेरे मुँह से बदबू आती है। और इसी वास्ते हज़रत कच्चा प्याज़ और लहसुन भी ना खाते थे और अत्रियात और ख़ुशबू से कपड़े और बदन को भी मुअत्तर रखते थे पस मिस्वाक की कस्रत किसी और मतलब पर मुझे मालूम होती है पर ईलाही इबादत के पैराया में हज़रत ने इस की ताअलीम दी है।

ख़ुदा की इबादत के लिए जो मिस्वाक या दीन की सफ़ाई है वो ये है कि आदमी अपनी ज़बान को बदबात बोलने से बाज़ रखे और गालियां व ठट्ठा बाज़ी और चुगु़लख़ोरी और कोसना व लानत करना छोड़े। (याक़ूब 3 बाब तमाम) ये रुहानी मिस्वाक है जो इबादत है पर जिस्मानी मिस्वाक जिस्म के लिए सफ़ाई है।”

7 फ़स्ल हफ़्तुम

अय्याम-ए-मतबर्का के बयान में

हज़रत मुहम्मद ने ये ताअलीम भी दी है कि बरस के बारह महीनों में से चार महीने ख़ुदा के नज़्दीक ज़्यादा इज़्ज़तदार हैं चुनान्चे (सूरह तौबा के 5 रुकूअ) में लिखा है कि ख़ुदा के दफ़्तर में साल के बारह महीने मुक़र्रर हैं जब उस ने आस्मान ज़मीन को पैदा किया था इन बारह में से चार महीने अदब के हैं।

वो ये हैं, रज्जब (رجب), ज़ी क़अदह (ذی قعدہ), ज़ील-हिज्जा (ذی الحجہ) और मुहर्रम। (محرم) ये चार महीने क़दीम से अरब में मतबर्का (बरकत वाले) ख़्याल किए जाते थे उनमें वो लोग लड़ाई और फ़साद ना करते थे हज़रत ने क़ुरआन में अपने आबा (बाप दादा) के दस्तूर पर उन्हें मुबारक बतलाया है और हर महीने की तारीफ़ बड़े बड़े मुबालग़ों के साथ कुतुब अहादीस में मिलती है और कुछ रोज़े और दुआएं और नमाज़ें इनमें मुक़र्रर हैं।

इन चार के सिवा दो और महीने हज़रत ने अपनी तरफ़ से मुअज़्ज़िज़ ठहराए हैं यानी शाअ्बान और रमज़ान पस ये छः (6) महीने हैं कि इनकी तारीफ़ क़ुरआन हदीस में बहुत है।

बाअज़ ख़ास दिन भी हैं जिनको हज़रत ने बुज़ुर्ग बतलाया है अव़्वल जुम्आ का दिन, दुवम शव्वाल की पहली तारीख़, सोम ज़ील-हिज्जा की आठवीं तारीख़, चहारुम ज़ील-हिज्जा की नौवीं तारीख़, पंजुम ज़ील-हिज्जा की दसवीं तारीख़ बल्कि यक्म ज़ील-हिज्जा से दसवीं तारीख़ तक सारा अशरा मुबारक है। शश्म मुहर्रम की दसवीं तारीख़ है और इनके सिवा और भी दिन हैं जो कम मशहूर हैं।

बाअज़ रातें भी हज़रत ने मुबारक बतलाई हैं अव़्वल शब-ए-बरात जो शाअ्बान की चौधवीं तारीख़ को आती है। दोम लैलतुल-क़द्र ये रात मालूम नहीं कि कब आती है मगर साल में कोई रात है। सोम हर जुमेरात जिसमें पीरों फ़क़ीरों और मुर्दों की रूहों के नाम पर लोग खाना देते हैं।

एक घड़ी या साअत भी हज़रत ने मुबारक बतलाई है जो हर जुम्आ के दिन सुबह से शाम तक किसी वक़्त आ जाती है।

इन महीनों और दिनों और रातों का बयान हदीसों में इस कस्रत से है कि इस बयान में एक मुजल्लद किताब तैयार हो सकती है पर इस बयान में कोई मुफ़ीद बात नहीं है सिर्फ मुबालग़ों में सवाबत का ज़िक्र है।

मसीही कलीसिया में जो नमाज़ की किताब मरूव्वज है जिसे दुआ व अमीम की किताब कहते हैं उस में भी बाअज़ महीनों और दिनों और रातों का ज़िक्र है और उन में बाअज़ दुआएं और नमाज़ें और नसीहतें ख़ास मुक़र्रर हैं और पौलुस रसूल ने भी (रोमीयों 14:5 ता 6) में यूं लिखा है कि “कोई एक दिन को दूसरे से बेहतर जानता है और कोई सब दिनों को बराबर जानता है हर एक अपने अपने दिल में पूरा एतिक़ाद रखे और वो जो दिन को मानता है सो ख़ुदावन्द के लिए मानता है और जो दिन को नहीं मानता सो ख़ुदावन्द के लिए नहीं मानता है।”

पस हम दिनों के तक़र्रुर के बाबत हज़रत मुहम्मद पर भी एतराज़ नहीं करते हैं लेकिन सिर्फ इस क़द्र नाज़रीन पर ज़ाहिर करते हैं कि अगर कोई आदमी ख़ुदा के कलाम पर और नमाज़ की किताब पर फ़िक्र करे और हज़रत मुहम्मद के अय्याम मुतबर्रिक पर भी सोचे तो उसे ये बात ख़ूब मालूम हो जाएगी कि सिवाए सबत के और किसी दिन में ख़ुदा की तरफ़ से कुछ ख़ुसूसीयत मुक़र्रर नहीं हुई है।

चुनान्चे बाइबल में लिखा है कि ख़ुदा ने छः (6) दिन में सब कुछ पैदा किया और सातवें दिन फ़राग़त की और हज़रत मुहम्मद ने क़ुरआन में भी लिखा है, (आराफ़ 7 रुकूअ में है)اللہ الذی خلق السموات الارض فی ستتہ ایام ثم الستوی علی العرش अल्लाह वो है जिसने आस्मान और ज़मीन को छः (6) दिन में पैदा किया और फिर तख़्त पर बैठ गया। पस ये तख़्त पर फ़राग़त पाके बैठ जाने का दिन जो बराबर अम्बिया में माना गया ज़रूर ख़ुदा से मुक़र्रर और मख़्सूस है।

अगरचे मुहम्मद साहब ने उसे आप ही छोड़ दिया है और इस के एवज़ जुम्आ का दिन तअ्तील (تعطیل छुट्टी) के लिए मुक़र्रर किया है और आप ही फ़रमाते हैं कि जुमा ख़ुदा की तअ्तील (تعطیل छुट्टी) का दिन नहीं था क्योंकि जुम्आ के दिन आदम पैदा किया गया था उन के क़ौल के मुवाफ़िक़ पर हम सब अम्बिया उसी यौम की इज़्ज़त करते हैं जो अलस्तवा अलल-अर्श (الستویٰ علی العرش) का यौम है यानी सबत का दिन। हाँ इस के एवज़ हम इतवार को अब मानते हैं इसलिए कि इस दिन नई पैदाइश का काम तमाम करके अक़ूनून सानी ने फ़ुर्सत पाई और मुर्दों में से जी उठा था और यह सबत मसीही कलीसिया का हुआ जैसे वो सबत यहूदी कलीसिया का था इस दिन के सिवा और दूसरा कोई दिन कलाम में मख़्सूस नहीं है जो अख़्लाक़ी शरीअत में दाख़िल होके तमाम जहान के इस्तिमाल के लिए पेश किया गया हो।

हाँ बाअज़ अय्याम और भी तौरेत में थे जिनका ज़िक्र कुछ आने वाला है लेकिन ऐसे मख़्सूस ना थे जैसा सबत था पर उन की ख़ुसूसीयत बाअज़ वाक़ियात आइन्दा के नमूने पर थी और जब वो वाक़ियात ज़हूर में आ गए तो अब उन की ख़ुसूसीयत भी जाती रही आब आमद तमीम बरख़ास्त के क़ाएदे से। हाँ अब नमाज़ की किताब में बाअज़ अय्याम कलीसिया ने मख़्सूस कर रखे हैं सिर्फ वाक़ियात गुज़श्ता की यादगारी में नमाज़ की किताब हरगिज़ हरगिज़ नहीं कहती है कि ये अय्याम अपने नफ़्स में कुछ बरकत रखते हैं बल्कि वो तो सब दिनों के बराबर दिन हैं लेकिन बात ये है कि इन दिनों में उन ख़ास वाक़ियात को बग़ौर और बिल-ख़ुसूस हम याद करते हैं जो दीन के उसूल हैं मसलन मसीह की पैदाइश का दिन और मौत का दिन और जी उठने का दिन और रूह के नुज़ूल का दिन इस दुनिया में जो ये बड़े बड़े उमूर वाक़्ये हुए थे उन की यादगारी ब-तर्तीब साल में की जाती है अगर सब मिल के इन दिनों के एवज़ में और दिन यादगारी के इन वाक़ियात के लिए मुक़र्रर करें तो किताब नमाज़ का इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) नहीं है ग़र्ज़ इस के उन वाक़ियात की यादगारी से है ना उन ख़ास दिनों सकते।

पर हज़रत मुहम्मद की ताअलीम में दिन मख़्सूस हैं, दिनों और घड़ीयों और रातों और महीनों में बरकत है ना सिर्फ उन कामों में जो इन अय्याम में किए जाते हैं, बल्कि वो काम उस दिन में वाक़ेअ होने से बासबब ख़ुसूसीयत इन औक़ात के ना निस्बत और औक़ात के वो ज़्यादा मक़्बूल हैं यही फ़र्क़ मुहम्मदी औक़ात मतबर्का (बरकत वाले वक़्त) और मसीही अय्याम यादगारी में है अब नाज़रीन सोच सकते हैं कि इस ताअलीम में भी कितना फ़र्क़ है और मार्फ़त के रुत्बे से किस क़द्र ये ताअलीम हज़रत की गिरी हुई है।

8 फ़स्ल हश्तम

ईदों के बयान में

हज़रत मुहम्मद की ताअलीम में दो ईदों का बयान है ईद-उल-फ़ित्र और ईद-उल-अज़हा यानी ईदे बक़र-ईद।

ईद-उल-फित्र की रस्म ख़ास हज़रत मुहम्मद की ईजाद है पर ईदूल्-अज़हा अरब में पहले से आती है।

ईद-उल-फित्र इसलिए है कि माह रमज़ान ख़ैर से गुज़रा और बाअज़ रोज़ों के आज मग़फ़िरत हासिल हुई। हदीस में है, عبادی ل صمتم ولی صلیتم انصرفوا مغفورالکم जब मुसलमान ईद की नमाज़ पढ़ के आते हैं तो गोया ख़ुदा उन से यूं कहता है कि, “ऐ मेरे बंदो ! तुमने मेरे लिए रोज़े रखे और ईद की नमाज़ पढ़ी पस चले जाओ बख़्शे हुए अपने घरों को।”

इस ईद का ये दस्तूर है कि साफ़ कपड़ा पहने हुए कुछ खा कर घर से निकलें और ईदगाह में नमाज़ पढ़ें और सदक़ा फ़ित्र दें और ख़ुशी करें।

लेकिन बक़र-ईद को घर से बाहर बग़ैर खाए निहार मुँह निकलें और बाद नमाज़ घर पर आकर क़ुर्बानी करें और खाएं और ख़ैरात देखेंगे।”

मिश्कात बाब सलवात अल-ईदेन में लिखा है अनस से अबू दाऊद की रिवायत है कि, जब हज़रत हिज्रत करके मक्का से मदीना में आए थे तो देखा कि अहले-मदीना साल में दो रोज़ ईद किया करते हैं मिहरजान में और नौ-रोज़ के दिन। मिहरजान ख़िज़ाओं का महीना है और नौ-रोज़ साल का पहला दिन है। ये दो रोज़ ईद के मदीने में मुक़र्रर थे।

हज़रत ने अहले मदीना से कहा कि इन दो रोज़ में ख़ुशी करना छोड़ दो इस के एवज़ में ख़ुदा ने हमें ईद-उल-फित्र बक़र-ईद का दिन बख़्शा है।

जुम्आ का दिन भी मुसलमानों में एक ईद का दिन है बमूजब मिश्कात बाब-उल-जुम्आ फ़स्ल सालस की इस रिवायत के जो इब्ने अब्बास से तिर्मिज़ी ने नक़्ल की है,

और इस दिन की बड़ी बुजु़र्गी बयान हुई है और क़ुरआन में लिखा है कि जुम्आ की नमाज़ की अज़ान के वक़्त बैअ और खरीद-फरोख्त बंद करके मस्जिद में आना चाहिए।

और इसी बाब में अब्दुल्लाह बिन उमर से रिवायत है फ़रमाया हज़रत ने जो कोई मर जाये जुम्आ को या जुमअरात को तो वो अज़ाब क़ब्र से बच जाता है।

जुम्आ की वजह ख़ुसूसीयत कई एक हैं यानी ये कि आदम जुम्आ के दिन पैदा किया गया था और जुम्आ ही को बहिश्त से निकाला गया और जुम्आ ही को वो मरा भी था और जुम्आ के दिन एक मक़्बूल घड़ी आती है और क़ियामत भी जुम्आ के दिन आएगी। लेकिन निहायत दुरुस्त बात इस दिन की ख़ुसूसीयत के लिए वो है जो मिश्कात बाब-उल-जुम्आ फ़स्ल अव़्वल में अबू हुरैरा से रिवायत है कि फ़रमाया हज़रत ने, والناس لنافیہ تبع الیھود عذاً والنصاری بعد ضدٍ यानी ख़ुदा ने हमें जुम्आ का दिन बतलाया है सब आदमी हमारे पीछे हैं यहूदी सनीचर (हफ़्ते) को इबादत करते हैं और मसीही इस के बाद इतवार को हम सबसे आगे हैं कि जुम्आ को मानते हैं।

बयान गुज़शता से मालूम हुआ कि ये तीन ईदें अहले इस्लाम की मह्ज़ मुख़ालिफ़त दीगर अक़्वाम पर क़ायम हैं ईद और बक़र-ईद हज़रत ने मदीना के मिहरजान और नौ-रोज़ के बदले में क़ायम की हैं कि उन की रस्म उजाड़े और इन की रस्म क़ायम रहे और तीसरी ईद जो जुम्आ है वो यहूदी और ईसाई लोगों की मुख़ालिफ़त में है कि हम इन दोनों फ़िर्क़ों से किसी तरह पेश-दस्ती करें यहां से ज़ाहिर है कि तीनों ईदों की बुनियाद मुख़ालिफ़त नफ़्सानी पर क़ायम है फिर क्यूँ-कर इनमें बरकत होगी?

ख़ुदा के कलाम में भी ईदों का ज़िक्र लिखा है पर वो ईदें ना किसी की मुख़ालिफ़त पर क़ायम हैं और ना इन्सान की तज्वीज़ से हैं पर ख़ुदा के पाक भेदों का अक्स हैं जैसे (अहबार 23:4) में है कि ये ख़ुदावन्द की ईदें और मुक़द्दस मुनादियां हैं।

पहली ईद हफ़्ता है यानी सनीचर का सबत इस की ख़ास वजह वही है जो कलाम-ए-ईलाही में और क़ुरआन में भी लिखी है कि ख़ुदा ने छः (6) दिन में सब कुछ पैदा किया और सातवें दिन फ़राग़त की या तख़्त पर आराम से बैठ गया। और ख़ुदा ने हुक्म दिया कि मेरे नमूने पर आदमी भी छः (6) रोज़ दुनियावी काम करें सातवें दिन सब कुछ छोड़कर अल्लाह से दिल लगाऐं और इबादत करें बहुत ठीक तौर पर यहूदी इसे मानते आए यानी हफ़्ता ही के रोज़ सबत करते रहे। पर ईसाई लोगों ने इतवार को सबत क़रार दिया इसलिए कि नजात का काम पूरा करके उस दिन मसीह क़ब्र से निकला और यहूदी सबत की तक्मील कर दी।

मसीहियों ने ये नफ़्सानी ख़्याल कभी नहीं किया कि आओ हम यहूदीयों से सबक़त ले जाने के लिए जुम्आ को इख़्तियार कर लें, उस वक़्त तो मुसलमान पैदा भी ना हुए थे अगर मसीही चाहते तो जुम्आ को ले सकते थे पर वो अपनी मर्ज़ी से दीन नहीं बनाते हैं वो ख़ुदा के इल्हाम के ताबेअ हैं और जब वो ख़ुदा के ताबेअ हैं तब ही तो ख़ुदा उन्हें उम्दा बरकतें देता है कि उसने उन्हें इतवार बख़्शा कि नई ज़िंदगी के लोग अपनी नई ज़िंदगी के पहले दिन को ख़ुदा की इबादत के लिए मख़्सूस जानें।

(2) ईदे फ़सह और फ़तीर है (अहबार 23:5,6) के मुवाफ़िक़ यानी पहले महीने की 14 तारीख़ ज़वाल व गुरूब के दर्मियान मख़लिसी (छुटकारे) की ईद है इस में बर्रा ज़ब्ह किया जाता था और दूसरे रोज़ यानी 15 तारीख़ को ईदे फ़तीरी होती थी जिसमें सात दिन तक फ़तीरी रोटी खाते थे।

ये ईद सय्यदना मसीह की यादगारी में जो दुनिया में आने वाला था ख़ुदा ने यहूदीयों को बतलाई थी। सय्यदना मसीह ठीक उसी ईद के वक़्त 12 बजे से तीन बजे तक ख़ुदा का बर्रा होके सलीब पर मुआ। (मरा) (मत्ती 27:45) अब ये ईद तक्मील पा गई यानी इस ईद का मतलब ज़ाहिर हो गया कि ये था, और ज़रूर बड़ा भारी मतलब इस में था और इस के सब क़वाइद ख़ूब इस में पूरे हुए। पस ये ईद क्या थी मसीह की मौत का एक नक़्शा खींचा हुआ अल्लाह का उन के हाथ में था, ना नौरोज़ की मुख़ालिफ़त थी ना मिहरजान की, पर ख़ुदा की आइन्दा मुहब्बत का पुर-जलाल नक़्शा या जहान के नजात नामे की तस्वीर थी पर दुरुस्त मतलब जब खुला जब कि वो आया जिसकी तस्वीर थी हमने तस्वीर को हाथ में लेकर सब कुछ उस में जिसकी तस्वीर थी दुरुस्त पाया। और इस के बाद ये फ़तीर 15 तारीख़ से सात दिन तक होती थी सात का अदद कमाल पर इशारा करता है पस आख़िर तक शरारत के ख़मीर से कलीसिया परहेज़ करती है क़ियामत के दिन तक ये ईद रहेगी और क़ियामत को ये सात दिन बहिसाब ईलाही पूरे होंगे जब तक तमाम रियाकारी का ख़मीर दूर करते रहते हैं और ख़ुदा के फ़ज़्ल से रुहानी फ़तीरी रोटी खाते हैं।

ईद पोला (عید پولا) हिलाने की थी और वह इसी महीने की 16 तारीख़ को होती थी कि उन अय्याम में ज़राअत पक जाती थी मगर गाटने से पहले ये ईद होती थी इस ईद के बाद काटना शुरू होता था मगर इस ईद के दिन पर एक पोला यानी अपनी ज़राअत का पहला हासिल काहिन के वसीले से ख़ुदा के हुज़ूर में पेश किया करते थे बमूजब (अहबार 23:10) के।

सो उसी दिन सय्यदना मसीह तमाम ज़मीन के मुर्दगान के ख़ित्ते का पहला फल होके क़ियामत की ज़िंदगी से ज़िंदा होके जी उठा था। 14 तारीख़ को ईद फ़सह के दिन मुआ (मरा) (15) तारीख़ को इस की मुनादी हुई कि सात दिन तक कोई ख़मीर का इस्तिमाल ना करे यानी अब जहान से शरारत और रियाकारी मतरूक हुए। क़ियामत तक क्योंकि हक़ीक़ी कफ़्फ़ारा हो गया पर (16) तारीख़ जब पोला हिलाने की ईद आई कि अल्लाह के सामने अपनी ज़राअत का पहला पोला शुक्रगुज़ारी में पेश करें उस दिन मसीह मुर्दों में से जी उठा यह दिखला के कि अब मुर्दों के उठने का वक़्त आया अब जो कुछ आँसुवों के साथ बोया था वो ख़ुशी के साथ काट के घर में लाएँगे। पस मसीह में क़ियामत का शुरू हो गया। (देखो मत्ती 28:1, 1 कुरिन्थियों 15:20) पस ये ईद भी कामिल हो गई और शरीअत का भेद ज़ाहिर हो गया अब उस ईद की कुछ हाजत ना रही जिसकी तस्वीर थी वो आया।

ईदे पीन्तकोस्त थी जो तीसरे महीने की पाँच तारीख़ को होती थी बमूजब (अहबार 23:15, 21) के यानी ईद फ़सह से पचास यौम के बाद इस हिसाब से कि 15 यौम माह अव़्वल के और 30 यौम माह दोम के और 5 यौम माह सोम के मिला कर बराबर पचास (50) के होते हैं और ये ईद शरीअत की यादगारी में थी कि ख़ुदा ने इस दिन शरीअत मूसवी इनायत की थी। मगर ठीक इसी ईद पर ख़ुदा की रूह मसीह ने आस्मान पर शागिर्दों पर नाज़िल की थी और उन्हें बरकात रुहानिया से भर दिया था और तमाम अहदनामा जदीद की बातें रूह से शागिर्दों को बतलाई गई थीं। (आमाल 2;1 से 13) पस ये ईद भी यहूदीयों की कामिल हो गई ये चारों ईदें यहूद की मसीह की आमद अव़्वल से मुताल्लिक़ थीं सो पूरी और कामिल हो गई और जहान से उठ गईं क्योंकि इनका ऐन आ गया।

ईद नरसिंगे की थी बमूजब (गिनती 29:1) के सो इस ईद का भेद इन्जील शरीफ़ में यूं ज़ाहिर किया गया कि जब मसीह फिर आएँगे तब वो ईद भी पूरी होगी (मत्ती 24: 30,31) और चूँकि सातवें महीने की पहली तारीख़ वो ईद थी, पस जब छः (6) महीने पूरे हो जाएंगे और सातवाँ महीना आएगा यानी जब दुनिया का छः दिन का काम पूरा हो जायेगा और सातवाँ दिन आराम का आएगा तो उस की पहली तारीख़ वो ईद भी हम करेंगे। ख़ुदा का फ़रिश्ता नर्सिंगा फूँकेगा और लोग क़ब्रों से निकलेंगे ताकि ख़ुदावन्द के सामने हाज़िर हों और ख़ुशी की ईद करें।

ईदे कफ़्फ़ारा थी और वो सातवें महीने की दसवीं तारीख़ को होती थी बमूजब (अहबार 23:6) के ये ईद अभी बाक़ी है मसीह के आने पर और मसीही मुर्दों के जी उठने के बाद ये कामिल होगी जब मसीही कफ़्फ़ारे की कैफ़ीयत और इस के फ़वाइद और इस की क़ीमत सब ईमानदारों और बे ईमानों पर भी रोशन हो जाएगी। जब वो लोग जो कफ़्फ़ारे से पाक हुए हैं निहायत ख़ुशी का मुँह देखेंगे और वो जिन्हों ने कफ़्फ़ारे की तहक़ीर की है पशेमान (शर्मिंदा) होंगे और हसरत से कहेंगे कि हाय हम अपनी नादानी और सरकशी के सबब कफ़्फ़ारे की बरकत से महरूम रहे और अब अबद तक हम पर अफ़्सोस और अफ़्सोस है और कुछ चारा नहीं उस रोज़ कफ़्फ़ारे की ईद हो जाएगी। पर सातवें महीने की दसवीं तारीख़ ये होगा कि यानी मसीह की तशरीफ़ आवरी के कुछ थोड़े अर्से के बाद।

ईद ख़ेमा थी ये ईद सातवें महीने की 15 तारीख़ से 24 तक होती थी। बमूजब (अहबार 23:32) के सो ये ईद उस वक़्त कमाल को पहुँचेगी कि जब इन सारी ईदों के बाद ख़ुदा का ख़ेमा आदमीयों के साथ होगा। (मुकाशफ़ात 21:3) को देखो।

पस इन सात ईदों में से जो यहूदीयों की किताबों में हमारे मौला की तस्वीरों के तौर पर मज़्कूर हैं एक ईद हफ़्ता हफ़्ता इतवार को की जाती है क्योंकि वो मुक़द्दसों से इलाक़ा रखती है कि बाप के नमूने पर हमेशा काम करें।

दो ईदें हो चुकी उन ईदों का मतलब पूरा हो गया यानी फ़सह और पोला हिलाने की ईद तमाम हुईं चौथी ईद हो रही है कि इन्जील सुनाई जाती है और लोग ख़ुदा की रूह पाते हैं और कलीसिया में शामिल होते जाते हैं और दुनिया की हदों तक ये सुनाई जाएगी पांचवीं छठी सातवीं ईद मसीह की दूसरी आमद से इलाक़ा रखती हैं। जिनकी इंतिज़ारी में हमारी रूहें रात-दिन आस्मान की तरफ़ ताकते हैं कि कब वो मालिक-उल-मुल्क आए और इन्हें पूरा करे जैसे उस ने तीन ईदें पूरी की हैं ये ख़ुलासा तौरेत की ईदों का है।”

अब देख लो कि मुहम्मदी ईदों का मग़ज़ और इन ईदों का भेद किस क़द्र फ़र्क़ रखता है और जितना फ़र्क़ आदमी में और ख़ुदा में है उसी क़द्र फ़र्क़ आदमी के ख़्याल और ख़ुदा के ख़्याल में है। अब जो हम मसीही लोग ईदें मानते हैं वो सब हमारी रुहानी ज़िंदगी या मसीह के वाक़ियात की यादगारी के दिन हैं।

9 फ़स्ल नह्म

नमाज़ों के बयान में

हज़रत ने ये ताअलीम भी ताकीद के साथ दी है कि आदमी को नमाज़ पढ़नी चाहिए और नमाज़ें उन की दो क़िस्म पर हैं।

अव़्वल नमाज़

जो हर मुसलमान बालिग़ आक़िल पर फ़र्ज़-ए-ऐन है और वो पाँच नमाज़ें हैं फ़ज्र, ज़ुहर, अस्र, मग़रिब और इशा।

एक नमाज़ में दो या तीन या चार रकअत होती हैं। रकअत के मअनी हैं टुकड़ा नमाज़ का बशर्ते के इस में झुकना भी पड़े पस खड़ा होना और झुकना और सज्दा करना मए नीयत नमाज़ और उन दुआओं के जो उन में मुक़र्रर हैं एक रकअत कहलाती है। सुबह को दो (2) रकअत, बाद दोपहर के चार (4) रकअत कुछ दिन (*देर) बाक़ी रहे और चार रकअत। फ़ौरन ग़ुरूब के बाद (3) रकअत कुछ रात गई चार (4) रकअत मुक़र्रर हैं। ये सब ख़ुदा की तरफ़ से आदमीयों पर बतौर फ़र्ज़ के रखी गई हैं। यही पाँच नमाज़ें हैं जो मशहूर हैं।

मिश्कात किताब-उल-सलवात फ़स्ल अव़्वल में अबू हुरैरा से मुस्लिम व बख़ारी की रिवायत है कि :-

“फ़रमाया हज़रत ने अगर किसी के दरवाज़े पर नहर हो और वह पाँच दफ़ाअ हर रोज़ उस में ग़ुस्ल करे तो क्या उस के बदन पर कुछ मेल रह सकता है लोगों ने कहा नहीं, फ़रमाया ये हाल इन पाँच नमाज़ों का है उन के सबब से सब गुनाह बख़्शे जाते हैं।”

मगर उलमा मुहम्मदिया कहते हैं कि सिर्फ छोटे-छोटे गुनाह बख़्शे जाते हैं पर बड़े गुनाह नहीं बख़्शे जाते लेकिन हज़रत मुहम्मद की इबादत में छोटे-बड़े गुनाह की कुछ क़ैद नहीं है।

शायद ये नहर की तम्सील हज़रत मुहम्मद ने अपनी पाँच नमाज़ों की निस्बत पहले ज़बूर में से उलट के अख़ज़ की है वहां नमाज़ों का ज़िक्र नहीं है और ना मग़फ़िरत गुनाहों का मगर ये ज़िक्र है कि कलाम ईलाही में रात-दिन सोचने वाला उस दरख़्त की मानिंद है जो नहर के किनारे पर है जो हर वक़्त सर-सब्ज़ रहता है और उस के पत्ते मुर्झाते नहीं वो फूलता फलता रहता रहेगा ये मज़्मून तो पसंद के लायक़ है पर नमाज़ों में ऐसी क्या ख़ुसूसीयत है?

दोम नमाज़ सुन्नत

यानी वो नमाज़ जो हज़रत मुहम्मद ने अपनी मर्ज़ी से पढ़ी हैं अगर कोई उन्हें पढ़े तो बड़ा सवाब पाता है पर ख़ुदा का हुक्म उन की बाबत नहीं है कि ज़रूर पढ़ी जाएं तो भी बासीद सवाब हज़रत के इर्शाद के मुवाफ़िक़ हर फ़र्ज़ नमाज़ के साथ किसी क़द्र सुन्नत नमाज़ें पढ़ी जाती हैं।

सोम तरावीह

ये वो ख़ास नमाज़ है जो सिर्फ रमज़ान के महीने में बराबर रात को पढ़ी जाती है इस की बीस रकआतें हैं। ये बड़ी लंबी नमाज़ें हैं और कभी-कभी ज़रूर होता है कि सारा क़ुरआन इनमें ख़त्म किया जाये। पस फ़ी यौम (एक दिन में) एक सिपारे की औसत आती है। दिन-भर रोज़ा रखा था शाम को कुछ खाया जिससे बदन में सुस्ती आ जाती है मगर फ़ौरन ये तरावीह पेश आती हैं मामूली नमाज़ के सिवा ये देर तक की उठा बैठी लोगों के लिए बड़ी तक्लीफ़ का बाइस है पर लोग भी लाचारी से इसे तमाम करते हैं।

हज़रत मुहम्मद ने ये नमाज़ जो तक्लीफ़ है आप कभी बराबर महीने भर नहीं (*पड़ीं बल्कि) कुछ दिन पढ़ कर छोड़ दी थी।

मिश्कात बाब क़ियाम शहरुल रमज़ान फ़स्ल अव़्वल में ज़ैद बिन साबित की रिवायत बुख़ारी व मुस्लिम से यूं लिखी है कि, हज़रत ने मस्जिद में चटाई का एक हुजरे बनाया और इस हुज्रे में कई रात अकेले नमाज़ पढ़ते रहे जब लोगों ने ये हाल देखा तो वो भी आने लगे और हज़रत उन के साथ नमाज़ फ़र्ज़ और तरावीह पढ़ने लगे। पस कई रात के बाद एक रात को हज़रत हुजरे से बाहर ना निकले लोग बाहर खड़े-खड़े तंग आकर कुहनगहारने (पुकारने) लगे कि शायद हज़रत आवाज़ सुनकर बाहर आएं और नमाज़ करें लेकिन हज़रत ना आए मगर कह दिया कि तुम्हारा शौक़ इस नमाज़ पर हमेशा रहना चाहिए पर मैं इसलिए इस नमाज़ के लिए बाहर नहीं आता कि मबादा (बाद में) ख़ुदा ए तआला इस नमाज़ (तरावीह) को भी तुम पर फ़र्ज़ ना कर दे और अगर ये फ़र्ज़ हो गई तो तुम इस को अदा ना कर सकोगे। पस ऐ लोगो बेहतर है कि तुम इस नमाज़ को अपने अपने घरों में पढ़ लिया करो।”

हज़रत मुहम्मद ख़ुद जानते थे कि ये भारी नमाज़ तक्लीफ़ का बाइस है, इसी लिए तो फ़रमाते हैं कि तुम अदा ना कर सकोगे। और यह भी ज़ाहिर है कि हज़रत इस बोझ के उठाने से ज़रूर थक गए थे चुनान्चे इस थकावट का मज़ा मुसलमान को ख़ूब मालूम है। मगर हज़रत का ये उज़्र कि मैं इसलिए अब इस नमाज़ को तर्क करता हूँ कि मबादा ख़ुदा हम पर इस नमाज़ को फ़र्ज़ ना कर दे, साफ़ ज़ाहिर है कि ये किस क़िस्म का उज़्र है। ये एक हीला है। ये नहीं फ़रमाते कि ये भारी बोझ मैंने बाँधा है ख़ुद नहीं उठा सकता पर दूसरों की गर्दन पर रखता हूँ। (मत्ती 23:4) बिलफ़र्ज़ अगर ये सच्चा उज़्र था जो ताज्जुब की बात है कि ये कैसा ख़ुदा है और यह कैसे नबी हैं? क्या ये ख़ुदा इस नबी को एक काम पर मुदावमत (क़ियाम) करते हुए देखकर वो काम इस की उम्मत पर फ़र्ज़ कर दिया करता है? ना अपनी किसी ख़ास हिक्मत के सबब मगर नबी की मुदावमत के सबब हालाँकि और बहुत काम इस नबी की मुदावमत में हैं और इसने उन को इस उम्मत पर फ़र्ज़ नहीं किया। और यह कैसे नबी हैं कि अपने ख़ुदा के साथ भी दाओ बरतते हैं और हिक्मत अमली से चलते हैं ये तो ऐसी बात है जैसे कोई कहे कि मेरा सन्दूकचा ज़रा अंदर उठा के रख दो ज़ैद आता है शायद सन्दूक को सामने देखकर कुछ रुपया क़र्ज़ तलब ना करे। ये तो ख़ुदा के साथ दिल की अच्छी निस्बत नहीं है और ना ख़ुदाई की शान के मुवाफ़िक़ उस की निस्बत गुमान है।

पस अबू बक्र के अहद में और उमर के अहद के अवाइल (शुरू) में ये दस्तूर रहा कि लोग जमा हो कर इस नमाज़ को ना पढ़ते थे जिसका दिल चाहता अपने घर में पढ़ा करता था। पर ख़लीफ़ा उमर ने कहा अब तो हज़रत मुहम्मद इंतिक़ाल कर गए और आस्मान से हुक्म उतरने बंद हो गए हैं अब इस का ख़ौफ़ ना रहा कि ख़ुदा इस (तरावीह) को फ़र्ज़ ना कर दे। पस अब चाहिए कि मुसलमान मस्जिदों में जमा हो कर इसे (तरावीह को) पढ़ा करें तब से फिर इस का दस्तूर जारी हुआ।

चहारुम नमाज़ शुक्र-उल-वुज़ू

वुज़ू के शुक्र में जो नमाज़ पढ़ी जाती है वो शुक्र-उल-वुज़ू है। मिश्कात किताब-उल-सलवात बाब तस्तूअ फ़स्ल अव़्वल में अबू हुरैरा की हदीस बुख़ारी व मुस्लिम से यूं लिखी है, कि एक रोज़ सुबह की नमाज़ के वक़्त हज़रत ने बिलाल से कहा, ऐ बिलाल तू मुझे बतला कि कौनसा नेक काम तूने किया है जिससे तू ऐसा मक़्बूल हो गया कि तेरी जूतीयों की आवाज़ बहिश्त (जन्नत) में, मैंने अपने आगे सुनी (यानी रात को तू बहिश्त में मुझसे भी आगे जूतीयां खड़काता हुआ पहुंच गया) बिलाल बोला मैंने जब वुज़ू की है ज़रूर इस से कुछ नमाज़ पढ़ी है यानी नमाज़ शुक्र-उल-वुज़ू के सबब से ये रुत्बा पाया है।”

हज़रत मुहम्मद ने बहिश्त (जन्नत) को बहुत ही आसान बात समझा है कि एक अदना से बात के वसीले से आदमी वहां पहुंच सकता है बिलाल एक सीधा सादा आदमी था जब हज़रत ने अपने किसी ख्व़ाब का ज़िक्र किया तो उस ने भी कुछ कह दिया मगर याद रखना चाहिए कि ऐसे फ़िक़्रों से जैसा फ़िक़्रह हज़रत मुहम्मद ने यहां सुनाया है इस वक़्त भी मशाइख़ और गुरू लोग अवाम सामईन और ख़ुदाम के दिलों को अपनी सिम्त खींचा करते हैं कुछ ऐसी बातें अपनी बातों में मिला कर बोला करते हैं कि लोगों को गुमान पैदा हो जाए कि ये बहुत पहुंचे हुए शख़्स हैं।

पंजुम नमाज़ सलवात-उल-कुबरा है

यानी चाश्त की नमाज़। इसके लिए दो (2) रकअत से बारह (12) रकअत तक तादाद है और इस का वक़्त पहर दिन चढ़े से दोपहर तक है और इस का भी बड़ा सवाब लिखा है।

शश्म नमाज़ सलवात-उल--सुग़रा है

इस को इशराक़ भी कहते हैं दो (2) रकअत से छः (6) रकअत तक है एक घड़ी दिन चढ़े से पहर दिन चढ़े तक इस का वक़्त है।

हफ़्तुम नमाज़ सलवात-उल-तस्बीह है

इस में चार रकअत हैं। हर रकअत में अल-हम्द और कोई सूरह पढ़ कर पंद्रह दफ़ाअ यूं कहे सुब्हान-अल्लाह वल-हम्द लिल्लाह व लाइलाह अल्लाह अल्लाहु-अकबर। (سبحان اللہ والحمد اللہ والاالہ اللہ اللہ اکبر) रुकूअ में दस (10) बार कहे रुकूअ से उठकर दस बार कहे सज्दे में दस बार कहे सज्दे से उठकर दस (10) बार कहे फिर सज्दा दुवम में दस बार कहे फिर सर उठाए और दस बार कहे ये (75) दफ़ाअ हुआ इसी तरह पर चार (4) रकअत में (300) बार वो इबारत पढ़े।

सवाब इस का ये बतलाया गया है कि आदमी के अगले और पिछले पुराने और नए अमदन (जानबूझ कर किये) और सहवन (भूल कर किये) छोटे और बड़े सब गुनाह बख़्शे जाते हैं।

ख़्वाह हर रोज़ कोई इस को एक दफ़ाअ पढ़ा करे या हर जुम्आ को या हर महीने में या हर बरस में या सारी उम्र में एक-बार पढ़े।

ये ख़ुलासा है उस हदीस का जो मिश्कात किताब-उल-सलवात बाब सलवात-उल-तस्बीह में अबू दाऊद और इब्ने माजा और बैहक़ी व तिर्मिज़ी की सनद से लिखी है।

वाज़ेह हो कि हमने जहां तक गुनाहों की माफ़ी के बारे में कलाम से और अक़्ल से और तालिबाने निजात की हालत पर सोचने से मालूम किया है वो ये है कि ना तो जहान में कोई ऐसी इबारत है कि जिसके पढ़ने से आदमी माफ़ी हासिल करे और ना कोई ऐसा ज़हद व रियाज़त है और ना कोई ऐसी ख़ैरात है और ना कोई ऐसा शख़्स है जिससे ये बरकत पाएं, मगर सिर्फ सय्यदना मसीह का ख़ून है जिससे हम अपने गुनाहों की माफ़ी हासिल कर सकते हैं। जिन्हों ने ख़ुदा की मार्फ़त हासिल नहीं की वो हमेशा ये समझते हैं कि गुनाहों की माफ़ी बड़ी रियाज़त उठाने से और वज़ीफ़े पढ़ने से हासिल हो सकती है मगर ऐसे ही मौक़ों के बारे में मसीह ने फ़रमाया है कि “ग़ैर-क़ौम समझती है कि बहुत बोलने से ख़ुदा उन की सुनेगा पर तुम ऐसा ना करो।” (मत्ती 6:7)

मैं जो इस किताब का लिखने वाला हूँ पैदाइश से सन वुक़ूफ़ (समझदारी, बालिग़ उम्र) तक मुसलमान था और दीने मसिहिय्यत से बिल्कुल वाक़िफ़ ना था। उन दिनों में मैंने ख़ुद बड़ी मेहनत से मुद्दत तक इन नमाज़ों को पढ़ा और उन के साथ और रियाज़तें भी बहुत उठाई हैं पर कुछ रुहानी बरकत इनके वसीले से हासिल ना हुई ना तो दिल गुनाह के बोझ से हल्का हुआ और ना गुनाह की तारीकी दिल पर से हटी पर जब सय्यदना मसीह पर ईमान लाया तब गुनाहों की माफ़ी उस के नाम से हासिल हुई और माफ़ी के आसार रूह में नुमायां हुए और ख़ुदा की मर्ज़ी मालूम हुई और पूरी तसल्ली पाई।

हश्तम नमाज़ सफ़र है

ये वही फ़र्ज़ नमाज़ है जिसका पहले ज़िक्र हुआ। मगर ये नमाज़ सफ़र में निस्फ़ निस्फ़ पढ़ी जाती है और निस्फ़ ख़ुदा की तरफ़ से बतौरे सदक़ा के मुसाफ़िरों को माफ़ है और निस्फ़ से मुराद ये है कि जहां चार रकअतें हैं वहां दो पढ़ी जाएं।

नह्म नमाज़-ए-जुमा है

जुम्आ के दिन ज़ुहर की नमाज़ माफ़ है इस के एवज़ (बदले में) जुम्आ की नमाज़ पढ़ी जाती है। उस दिन ख़ुत्बा पढ़ा जाता है और ख़ुत्बे में कुछ ख़ुदा की तारीफ़ और कुछ हज़रत मुहम्मद का ज़िक्र और कुछ उन के खल़िफ़ा का ज़िक्र ख़ैर है। और वक़्त के बादशाह इस्लाम के हक़ में दुआ लिखी हुई है। इस के बाद वाअ्ज़ होता है क़ुरआन से या हदीस से।

दहुम नमाज़ ख़ौफ़ है

वो उस वक़्त पढ़ी जाती है कि जब किसी दुश्मन जंगी का ख़ौफ़ होता है और इस की सूरतें मुख़्तलिफ़ हैं।

याज़ दहम नमाज़ ईदैन है

शाअ्बान की पहली तारीख़ और ज़ी-हिज्जा की दसवीं तारीख़ हर साल में दो दफ़ाअ पढ़ी जाती है इस की दो रकअतें हैं और ख़ुत्बा भी पढ़ा जाता है।

दवाज़ दहम नमाज़ खूसुफ़ है

जब चांद गरहन होता है तो ये नमाज़ पढ़ी जाती है।

सीज़ दहम नमाज़ कुसूफ़ है

ये नमाज़ सूरज गरहन के वक़्त पढ़ी जाती है और बाअज़ दुआएं भी होती हैं और सदक़ा व खैरात भी दिया जाता है।

चहार दहम नमाज़ इस्तिक़ामत है

जब आस्मान से पानी नहीं बरसता तब बा-उम्मीद बारिश ये नमाज़ पढ़ी जाती है।

हज़रत मुहम्मद ने नमाज़ें तो बहुत सी बतलाइं हैं और हम जानते हैं कि अस्ल मंशा नमाज़ों का बहुत अच्छा है इसलिए कि इन्सान पर फ़र्ज़ है कि अपने ख़ुदा की इबादत भी करे ये ख़ुदा का हक़ है कि लोग उस की परस्तिश (इबादत) करें और आदमीयों के दिल इस बात का इक़रार करते हैं कि ख़ालिक़ की इबादत ज़रूर है और इसलिए दुनिया की हर क़ौम में इन की तजवीज़ों के मुवाफ़िक़ ख़ुदा की इबादत की जाती है पर तसल्ली बख़्श और मुफ़ीद और क़ुर्बत (नज़दिकी) व क़ुबुलियत के लायक़ अक़्लन व नक़्लन वही तौर (तरीक़ा) इबादत का अच्छा है जो ख़ुदा ने इल्हाम से आदमीयों को बतलाया और जिस पर अम्बिया सलफ़ अमल करते थे।

लेकिन इस वक़्त मुहम्मदी नमाज़ों की निस्बत नाज़रीन दो बातों पर फ़िक्र करें कि उन की शक्ल क्या है और उन का मतलब क्या है। मतलब तो साफ़ है कि दिल की हुज़ूरी से ख़ुदा को सज्दा करें चुनान्चे वो भी फ़रमाते हैं कि, لا صلوات الحضور القلب यानी जब तक दिल हाज़िर ना हो नमाज़ दुरुस्त नहीं है।

पर शक्ल इन नमाज़ों की ये है कि कपड़े और बदन आदमी का पाक हो नजासत ज़ाहिरी से। और वह जगह भी पाक हो जहां खड़ा है और मुँह ख़ास काअबा की तरफ़ हो और ख़ास दुआओं को जो मुक़र्रर हैं इसी शुमार के मुवाफ़िक़ मौक़े पर पढ़े और सारे क़वाइद जिस्मानी भी ठीक मौक़े पर अदा की जाये और ठीक वही अरब (अरबी) के लफ़्ज़ बोले जाएं जो बतलाए गए हैं, कोई एक लफ़्ज़ भी अपनी तरफ़ से ख़ुदा के सामने ना बोले अब ये नमाज़ पढ़ने वाला सिवाए इस ख़्याल के हुज़ूरी के कि मैं ख़ुदा के सामने कुछ कर रहा हूँ ख़ुदा की हुज़ूरी में अपने दिल को हाज़िर नहीं कर सकता है क्योंकि दो काम एक ही वक़्त में इन्सान से नहीं हो सकते ये शख़्स अदा-ए-क़वाइद (नमाज़ की हरकात) में दिल को हाज़िर रखता है ना ख़ुदा में।

अच्छी सूरत नमाज़ की वो है जो ख़ुदा के कलाम में मज़्कूर है कि रूह और रास्ती से आज़ादगी के साथ ख़ुदा की परस्तिश करें ना जिस्मानी क़वाइद और रसूम के साथ पर लिखा है कि, रूह है वो जो चलाती है जिस्म से कुछ फ़ायदा नहीं है पस जिस्मानी हरकात और ख़यालात और ज़्यादा गोई और ज़ाहिर परस्ती इबादत में मुज़िरीन इबादत ये है कि इन्सान की रूह शिकस्ता दिली से ख़ुदा की सिफ़त व सना और अपनी बद-हालत पर अफ़्सोस और अपनी तमन्ना और आरज़ू को आप ख़ुदा के सामने अपनी ज़बान में बयान करे और रूह आप उस के सामने झुके जिस्मानी क़ुयूद व रूसूम (रस्मों) से आज़ादगी पाके।

पस इस नमाज़ में और मुहम्मदी नमाज़ में ये फ़र्क़ है, कि मसीही नमाज़ यूँ सिखलाती है कि इन्सान की रूह को हरकत करना चाहिए और जो हरकत वो करे बमूजब अपनी ख़्वाहिश और अपने दर्द के तो इस हरकत का मज़हर ज़बान और बाअज़ आज़ा को होना चाहिए अगर रूह चाहे वर्ना ख़ैर।

लेकिन मुहम्मदी नमाज़ ये सिखलाती है कि जिस्मानी क़ुयूद व हरकात और क़वाइद मुक़र्ररा का मज़हरख़ू रूह को होना चाहिए यानी चाहिए कि क़वाइद और हरकात मुक़र्ररा का असर रूह पर हो ना रूह का असर जिस्म पर। पस ये जिस्म की तासीर रूह पर है और वह रूह की तासीर जिस्म पर है।

मुहम्मदी नमाज़ों का मंशा ये है कि आदमी उन के वसीले से नजात हासिल करे। लेकिन मसीही नमाज़ों का ये मंशा नहीं है। क्योंकि नजात ना आमाल पर है मसीह के नाम से है तब ये नमाज़ें नजात याफ्ताह लोगों की इसलिए हैं कि ख़ुदा की शुक्रगुज़ारी हो और मदद रुहानी पाकर जिस्म पर ग़लबा हासिल करें और ख़ुदा से बातें करके दिल में ख़ुशी पाएं और अनवार बरकात दिल पर नाज़िल हों।

ये ऐसी बात है जैसे चिड़िया क़फ़स आहनी (लोहे के पिंजरे) में कोशिश करे कि किसी तरह बाहर निकलूं ये मुहम्मदी नमाज़ है। पर वो चिड़िया जिसके क़फ़स (लोहे के पिंजरे) का दरवाज़ा किसी ने बाहर से आके खोल दिया और ख़ुशी से निकली और आज़ादगी से ख़ुशी मनाती और अपनी मर्ज़ी से उड़ती है और क़फ़स कुशा (जिसने पिंजरे से आज़ाद किया उस) की शुक्रगुज़ारी में चहचहती है ये नमाज़ मसीही है।

ख़ास कलाम ये है कि नमाज़ से पहले नजात ज़रूर है ताकि नमाज़ पढ़ सकें ना पहली नमाज़ है ताकि नजात पावें। पहले हाथ पैर जो बंधे हैं खोल दो ताकि कुछ काम कर सकें ना कि हाथ पैर बांध के हमसे काम के तालिब हो कि हम काम करें तब खोले जाऐंगे।

हज़रत मुहम्मद यह तो ख़ूब जानते हैं कि बेईमान और काफ़िर के लिए बहिश्त (जन्नत) में जाना ऐसा मुश्किल है जैसा सूई के नाके में ऊंट का दाख़िल होना चुनान्चे (आराफ़ 5 रुकूअ) में, وَلاَ يَدْخُلُونَ الْجَنَّةَ حَتَّى يَلِجَ الْجَمَلُ فِي سَمِّ الْخِيَاطِ तर्जुमा : पस काफ़िरों के लिए तो बहिश्त (जन्नत में जाना) ऐसा मुश्किल है और अपने मोमिनीन के लिए ऐसा आसान कि इन नमाज़ों के वसीले से बाआसानी दाख़िल हो जाएंगे। ज़रूर है कि मुश्किल बात के लिए कोई मुश्किल और कामिल राह-ए-नजात हो ना ये नमाज़ें। इन्जील में भी लिखा है कि आस्मान की बादशाहत में दाख़िल होना दौलतमंद के लिए ऐसा ही मुश्किल है पर जब ख़ुदा उस के दिल को दुनिया की मुहब्बत की क़ैद से आज़ादगी बख़्शे तब आसान है। सो दिली क़ैद और गुनाहों से ख़लासी (छुटकारे) की राह ख़ुदा से ज़ाहिर हुई कि ख़ुदा आप मुजस्सम होके आज़ादगी बख़्शने को आया पस निहायत मुश्किल काम के लिए बड़ी आसान राह दिखलाते हैं कि हज़रत मुहम्मद पर ईमान लाए और नमाज़ें पढ़ कर बहिश्त (जन्नत) में चला जाये। मगर ना इस ईमान में कोई ऐसी ख़ुसूसीयत दिखलाते हैं और ना इन नमाज़ों में जिससे साबित हो कि इस से ये हो सकता है।

इलावा इस के इन रिवायतों के मुबालग़े और सवाब के बयान इस तरह पर बयान हुए हैं जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि मह्ज़ तर्ग़ीब है। पस भाईयों अगर दूर-अँदेश और खैरियत उक़्बा (आख़िरत की भलाई) के तालिब हो तो हर बोलने वाले की बात को परखो और सोच समझ कर सच्चाई का पीछा करो।”

10 फ़स्ल दहम

नमाज़ के मकरूह औक़ात के बयान में

हज़रत मुहम्मद ने ये भी ताअलीम दी है कि तीन वक़्त ऐसे हैं जिनमें नमाज़ ना पढ़ना चाहिए इन वक़्तों में ख़ुदा को सज्दा करना हराम है।

(फ) ये नई बात है कि बाज़-औक़ात ऐसे भी हैं जिनमें ख़ुदा की इबादत गुनाह है हमारी अक़्ल क़ुबूल नहीं करती कि ख़ुदा की इबादत किसी वक़्त में भी गुनाह हो इबादत हर हाल और हर वक़्त में मुफ़ीद है।

मिश्कात बाब औक़ात-उल-नही में मुस्लिम की रिवायत उक़्बा बिन आमिर से यूं है,

“तीन वक़्त हैं जिनमें रसूल अल्लाह हमें मना किया करते थे नमाज़ पढ़ने से और मुर्दे दफ़न करने से पहला वक़्त जब सूरज निकलने लगे जब तक बुलंद वो हो। दूसरा वक़्त जब ठीक दोपहर हो जब तक दिन ना ढले नमाज़ जायज़ नहीं है। (बल्कि गुनाह है) तीसरा वक़्त जब सूरज ग़ुरूब हो जब तक अच्छी तरह ग़ुरूब ना हो जाए।”

इस हदीस के नीचे एक और हदीस में उन वक़्तों में नमाज़ हराम होने की वजह का ज़िक्र है और वह ये है कि तलूअ के वक़्त इसलिए नमाज़ मना है कि सूरज शैतान के दो सींगों के दर्मियान से निकलता है और यही सबब ग़ुरूब के वक़्त मौजूद है। بین قرنی فی الشیطان के लफ़्ज़ी मअनी ये हैं कि, “दर्मियान दो सींगों शैतान के” यानी तलूअ व गुरूब के वक़्त सूरज दर्मियान दो सींगों शैतान के होता है। उन वक़्तों में शैतान सूरज को अपने सींगों पर उठा लेता है।

उलमा मुहम्मदिया यूं कहते हैं कि वो वक़्त शम्स परस्तों (सूरज को पूजने वालों) की इबादत का है पस उन की इबादत के वक़्त में तुम इबादत ना करो।

मैं नहीं जानता कि इस का क्या मतलब है आया अगर हम उस वक़्त इबादत करेंगे तो क्या ख़ुदा हमें भी शम्स परस्त (सूरज की इबादत करने वाला) समझेगा? क्योंकि उस वक़्त शम्स परस्त भी दुनिया में कहीं अपनी शम्स परस्ती कर रहे होंगे। या इसलिए कि उन के साथ मुशाबहत होनी है? यही दो मतलब हैं पर दोनों बातिल हैं इसलिए कि ख़ुदा आलिमुल-गै़ब है वो जानता है कि कौन शम्स (सूरज) परस्ती करता है और कौन ख़ुदा-परस्ती करता है। या क्या जिस वक़्त शरीर अपने बुतों को सज्दा करें तो मोमिनीन को लाज़िम है कि हक़ीक़ी माबूद का इज़्हार उस वक़्त ना करें और अपने ख़ुदा की इबादत को उस वक़्त गुनाह समझें सिर्फ़ मुशाबहत के सबब से ये बात कैसी बात है।

दोपहर के वक़्त नमाज़ मना हुई इस का सबब हज़रत ने ये बतलाया कि, ان جھنم تسجر الایوم الجمعتہ दोपहर के वक़्त दोज़ख़ में ईंधन या बालन झोंका जाता है मगर जुम्आ के दिन नहीं झोंका जाता।

मतलब ये है कि दोपहर के वक़्त फ़रिश्ते दोज़ख़ में लकड़ियाँ वग़ैरह डालते हैं ताकि वो भट्टी तेज़ हो इसलिए उस वक़्त नमाज़ पढ़ना मना है।

अगर ये बात दुरुस्त है तो मेरे गुमान में वाजिब और लाज़िम है कि दोपहर के वक़्त ख़ूब नमाज़ पढ़ी जाये और सज्दे किए जाएं ख़ूब मिन्नत करें कि हम ना झोंके जाएं मबादा फ़रिश्ते हमें भी बेकार पड़ा देखकर दोज़ख़ में ना झोंक दें। क्योंकि दोज़ख़ का ईंधन आदमी और पत्थर हैं जैसे क़ुरआन में लिखा है कि, وقود ھا الناس والحجار पस ये वजह तो उस वक़्त नमाज़ पढ़ना ज़रूर साबित करती है ना कि उसे छोड़ना। इन्जील में यूं लिखा है कि, तुम्हारा वक़्त हर घड़ी मौजूद है तुमको हर वक़्त अपना बंदो बस्त रुहानी करना चाहिए कोई ख़ास वक़्त तुम्हारे लिए मख़्सूस नहीं है तुम हर वक़्त दुआ और ज़ारी और हम्दो सताइश में मशग़ूल रहो। (यूहन्ना 7:6, इफ़िसियों 6:18)

11 फ़स्ल याज़ दहम

नमाज़ के कपड़ों के बयान में

हज़रत ने नमाज़ के लिए कुछ कपड़े भी तज्वीज़ किए हैं और नमाज़ की सेहत उन कपड़ों पर मौक़ूफ़ है।

हज़रत ने सरीर (صریر) और रेशमी कपड़े से नमाज़ पढ़ना मना बतलाया है। दोम ये है कि, पजामा या तहबंद जो कुछ हो इतना लंबा हो जिससे टख़ने छिप जाएं वर्ना नमाज़ मकरूह हो जाएगी।

मिश्कात बाब-उल-सतर में अबू हुरैरा से अबू दाऊद की रिवायत है कि, एक आदमी नीचे आज़ार वाला नमाज़ पढ़ रहा था हज़रत ने फ़रमाया जा फिर वुज़ू कर, वो गया और फिर वुज़ू करके आया तब एक और आदमी बोला या हज़रत ऐसा हुक्म क्यों दिया फ़रमाया, ان اللہ لایقبل صلوات جل مبل ازارہ ख़ुदा उस आदमी की नमाज़ को क़ुबूल नहीं करता है जो लंबे इज़ार (टखनों के निचे तक लिबास) पहन कर नमाज़ पढ़े।

ये बात क़ियास में नहीं आ सकती कि किसी आदमी की नमाज़ कपड़े पर मौक़ूफ़ हो उस के लिए दिल की हुज़ूरी ज़रूर है ना बाअज़ कपड़ों की भी रिआयत।

इस के नीचे आईशा की हदीस है कि फ़रमाया हज़रत ने, لاتقل صلوات حایض النجار यानी बग़ैर ओढ़नी के जवान लड़की की नमाज़ क़ुबूल नहीं हो सकती है।

ये बात शायद हज़रत ने (1 कुरिन्थियों 11 5) से सुनकर दूसरी तरह पर बयान की है वहां लिखा है कि दुआ के वक़्त औरत को ओढ़नी ओढ़ना ज़रूर है। पर इस का ये मतलब नहीं है कि बग़ैर ओढ़नी के उस की नमाज़ क़ुबूल नहीं हो सकती पर हया और हुर्मत के लिए ऐसा हुक्म रसूल ने दिया है हज़रत नमाज़ की सेहत में कलाम करते हैं।

उलमा मुहम्मदिया कहते हैं कि ये हुक्म आज़ाद औरत के लिए है लौंडी, बाँधी के लिए नहीं है क्योंकि वो कम इज़्ज़त है।

फिर अबू दाऊद तिर्मिज़ी ने अबू हुरैरा से रिवायत की है कि, हज़रत ने मना किया है सदल (سدل) से और मुँह ढाँप कर नमाज़ पढ़ने से।

सरिया कहोओं (سریا کہوؤں) पर कपड़ा लटकाने को सदल कहते हैं और यह हुक्म भी हज़रत ने (1 कुरिन्थियों 11:4) से निकाला है मगर रसूल कहता है कि सर-बरहना करके दुआ करना चाहिए ताकि इज़्ज़त इस हक़ीक़ी सर के लिए हो जो मसीह है पर हज़रत सदल से मना करते हैं जो और बात है और सर-बरहना करने को नहीं कहते हैं।

12 फ़स्ल दवाज़ दहम

नमाज़ के मकान के ज़िक्र में

हज़रत ने मस्जिदें बनाने का भी हुक्म दिया है और उन की फ़ज़ीलत का बहुत ज़िक्र किया है और बयान किया है कि मस्जिदें बड़ी बुजु़र्गी रखती हैं और उन के बनाने वाले बड़ा अज्र पाते हैं। और मस्जिदों में नमाज़ पढ़ना घर में नमाज़ पढ़ने से ज़्यादा सवाब का बाइस है लेकिन बाअज़ मस्जिदें बहुत बुज़ुर्ग हैं और बाअज़ कम हैं। मिश्कात बाब-उल-मसाजिद में बुख़ारी व मुस्लिम से अबू सईद खुदरी की रिवायत है कि, फ़रमाया हज़रत ने لاتشروالرحال الالی ثلثہ مساجد المسجد الحرام والمسجد الاقصیٰ ومسجدی ھذا यानी मत सफ़र करो किसी मस्जिद की तरफ़ मगर सिर्फ इन तीनों मस्जिदों की तरफ़ सफ़र करो अव़्वल मस्जिद हराम यानी काअबा की मस्जिद, दुवम मस्जिद अकसा यानी यरूशलेम की हैकल, सोम मस्जिद मुहम्मद यानी वो मस्जिद जो मदीना में उन की है। और बाअज़ हदीसों में मस्जिद क़ुबा की भी बुजु़र्गी (अज़मत) बयान की है और ये मस्जिद क़ुबा मदीना से तीन कोस है।

इसी बाब की फ़स्ल सालस में इब्ने माजा से अन्सक़ की रिवायत है कि :-

“फ़रमाया हज़रत ने अगर आदमी अपने घर में नमाज़ पढ़े तो एक नमाज़ बराबर एक नमाज़ के है सवाब में, और जो अपने मुहल्ले की मस्जिद में नमाज़ पढ़े तो एक नमाज़ 25 नमाज़ों के बराबर है, और जो जामा मस्जिद में नमाज़ पढ़े तो एक नमाज़ बराबर है पाँच सौ (500) नमाज़ों के, और बैत-उल-मुक़द्दस में एक नमाज़ पचास हज़ार (50000) नमाज़ों के बराबर है और मक्का वाली मस्जिदों में एक नमाज़ बराबर है लाखों नमाज़ों के पर मदीना वाली मस्जिद में एक नमाज़ पचास हज़ार नमाज़ों के बराबर है।”

और इसी बाब की फ़स्ल अव़्वल में बुख़ारी व मुस्लिम का बयान अबू हुरैरा से यूं है कि :-

“फ़रमाया हज़रत ने मेरे घर और मेरे मिम्बर के दर्मियान जो ज़मीन है वो एक बाग़ है जन्नत के बाग़ों में से और मेरे मिम्बर मेरे हौज़-ए-कौसर पर है।”

इमाम मालिक समझते हैं कि वो टुकड़ा ज़मीन का जो हज़रत के घर और हज़रत के मिम्बर के दर्मियान है बहिश्त (जन्नत) में से लाकर रखा गया है और आख़िर को ये टुकड़ा फिर बहिश्त (जन्नत) में चला जाएगा।

इस मुहम्मदी बयान में कई एक बातें लायक़ ग़ौर के हैं अव़्वल आंके इबादतखाना ख़ुदा का बनाना ज़रूर अच्छी बात है और ख़ुदा से अज्र की भी उम्मीद है उन के लिए जो बे-रिया मुहब्बत से ख़ुदा की बंदगी के लिए घर बनाते हैं ताकि वहां लोग बैठ के आराम से अल्लाह की इबादत करें पर हज़रत ने जो सवाब में मुबालग़े किए हैं ये मह्ज़ तर्ग़ीब है।

दोम आंके मस्जिदों और इबादत ख़ानों में कोई ख़ुसूसीयत ज़्यादा सवाब की अक़्लन और नक़्लन हरगिज़ नहीं है सब सवाब और बरकत आदमी की नीयत और ईमान और ख़ुलूस पर मौक़ूफ़ है ना किसी मकान पर हाँ जमाअतों में हाज़िर होके ख़ुदा की बंदगी करना इसलिए ज़्यादा मुफ़ीद है कि वहां वाअज़ सुनते हैं जिससे दिल तैयार होता है और सब के साथ मुल्की रिफ़ाक़त और मुहब्बत के साथ ख़ुदा को पुकारते हैं और एक दूसरे से मदद पाता है दिल में क़ुव्वत आती है।

सय्यदना मसीह ने इस का फ़ैसला हज़रत मुहम्मद की पैदाइश से छः सौ (600) बरस पहले कर दिया है देखो (यूहन्ना 4:20 से 24) उस ने कहा कि ना इस पहाड़ पर ना यरूशलेम में मगर रूह और रास्ती से हर जगह ख़ुदा की इबादत करने का वक़्त आ गया है अब सच्चे परस्तार ख़ुदा की इबादत ख़ाने-दिल में करेंगे। ख़ुदा ऐसे परस्तार (इबादत गुज़ार) चाहता है। पर इस उम्दा ताअलीम के बाद हज़रत मुहम्मद ये क्या सिखलाते हैं कि फ़ुलां फ़ुलां मुक़ाम में ज़्यादा बरकत है?

(फ) अगर कोई कहे कि यहूदी पहले क्यों यरूशलेम की हैकल को ज़्यादा मुतबर्रिक (बरकत वाला) जानते थे? इस का जवाब ये है कि फ़िल-हक़ीक़त सुलेमान की हैकल आस्मानी हैकल का नमूना था और आस्मानी हैकल वो मुक़द्दसों की कलीसिया है जिनमें ख़ुदा रहता है और वो सय्यदना मसीह का बदन है। अब ख़ुदा के परस्तार सय्यदना मसीह के बदन यानी कलीसिया में शामिल होके दिली हैकल में ख़ुदा की बंदगी करते हैं। सब जिस्मानी बरकात और जिस्मानी इमारतें और हैकल वग़ैरह रसूम व ज़ाहरी क़वाइद दुनिया से उठ गएं। उन की हाजत ना रही क्योंकि मसीह आ गया जिसके लिए सब कुछ नमूने थे। अब सारी ज़मीन यकसाँ है ख़्वाह बैतुल-मुक़द्दस में, ख़्वाह गिरजा में, ख़्वाह मस्जिद में, ख़्वाह अपने घर में जहां इबादत करें, बशर्ते के वो इबादत सय्यदना मसीह में हो मक़्बूल है और बराबर अज्र मिलता है। कोई मकान ज़्यादती अज्र की ख़ुसूसीयत नहीं रखता है। ये पुरानी जहालत का ख़्याल है जो हज़रत मुहम्मद ने सिखलाया है।

शायद कोई कहे कि मसीही लोग गिरजे बनाते हैं उन में आराइश करते हैं और उस्क़ुफ़ के वसीले से उन्हें मख़्सूस भी करते हैं और लोगों को ताकीद करते हैं कि वहां ज़रूर हाज़िर हुआ करें इबादत के लिए इस में क्या भेद है?

जवाब ये है कि धूप गर्मी बरसात से बचाओ के लिए गिरजे बनातें हैं ताकि वहां बैठ कर हक़ीक़ी हैकल में जो सय्यदना मसीह का बदन यानी उस की कलीसिया है आसाइश से रुहानी इबादत करें हरगिज़ मकान में कुछ ख़ुसूसीयत ज़्यादा या कम सवाब के नहीं है। हाँ गिरजों की तख़सीस जो उस्क़ुफ़ से की जाती है वो इसलिए है कि गिरजे का मकान आदमीयों के दुनियावी मुल्क से अलग होके वक़्फ़ हुए और ख़ुदा की इबादत के लिए जुदा किया जाये सब के सामने दुआओं के साथ। ये कुछ और बात है और वो कुछ और ही बात है कि बाअज़ मकान मुतबर्रिक (बरकत वाले) हैं और बाअज़ नहीं।

13 फ़स्ल सीवज़ दहम

जमाअत की नमाज़ के बयान में

हज़रत ने ये ताअलीम भी दी है कि फ़र्ज़ नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ना निहायत अफ़्ज़ल है अगर मुम्किन हो और हज़रत ने बड़े-बड़े सवाब इस के बयान किए हैं।

इस ताअलीम के उसूल में भी कुछ ग़लती नहीं है जमाअत के साथ ख़ुदा की इबादत करने को इबादतों वग़ैरह में जाना ज़रूर मुफ़ीद है इन्सान के दिल की तैयारी के लिए। और शुरू से ये दस्तूर जारी है मजमाअ मुक़द्दसों का ज़िक्र तौरेत शरीफ़ में बहुत है और यहूदी ऐसा करते थे मसीही भी ऐसा करते हैं और रसूल ने हमें हुक्म दिया है कि जमा होने से बाज़ ना आएं। (इब्रानियों का ख़त 10:25)

मगर मुहम्मदी जमाअतों में और हमारी जमाअतों में सिर्फ इतना फ़र्क़ है कि हज़रत मुहम्मद सिर्फ़ नमाज़ फ़र्ज़ के अदा करने में जमाअत की ज़रूरत दिखलाते हैं ना और उमूर में पर मसीही लोग सारी बातों में इबादत में, वाअज़ में और दूसरे क़िस्म के दीनी जलसों में भी जमाअत में जमा होना बेहतर और मुफ़ीद दिखलाते हैं।

और यह भी फ़र्क़ है कि हज़रत बड़े-बड़े मुबालग़ों में जमाअत का सवाब दिखलाते हैं जो अल्लाह से पाएँगे पर ख़ुदा का कलाम ऐसी बातें नहीं बोलता मगर ये कि हमारी ताअलीम और तर्बीयत और रुहानी हालत में तरक़्क़ी इस से होती है दुआ में ज़ोर पैदा होता है एक दूसरे से यगानगत व इत्तफ़ाक पैदा होता है उल्फ़त बिरादाराना बढ़ती है और वो लोग जो ऐसी मजलिसों में वाअज़ व नसीहत देने के लिए बहुत दुआओं और मेहनतों से तैयार हो के आते हैं उन के ख़यालात से हम सब फ़ायदा उठाते हैं और इस तरह ज़ईफ़ (कमज़ोर) ईमान में ज़्यादा क़ुव्वत पैदा हो जाती है। पस ये बातें तो दिल भी क़ुबूल करता है, मगर वो बड़े-बड़े सवाब तमीज़ क़ुबूल नहीं करती है, क्योंकि फुसलाने की बातें मालूम हो जाती हैं।

14 फ़स्ल चहार दहम

अज़ान के बयान में

तवारीख़ मुहम्मदी में अज़ान के तक़र्रुर का बयान हो गया है कि किस तरह से इस दस्तूर ने अहले इस्लाम में रिवाज पाया। अज़ान जो नमाज़ से पहले मस्जिदों में होती है इस का मतलब ये है कि अहले मुहल्ला नमाज़ में हाज़िर हों ये एक ऐलान है। इसी मतलब पर हमारे दर्मियान बंदगी के वक़्त गिरजों में घंटे बजाय जाते हैं क्योंकि आवाज़ घंटे की बनिस्बत अज़ान के दूर हो जाती है और पंद्रह (15) मिनट या कम ज़्यादा तक घंटे बजाने से लोग आ जाते हैं। बहरहाल वो ऐसा करते हैं और यह ऐसा करते हैं ग़र्ज़ दोनों की एक ही है।

15 फ़स्ल पानज़ दहम

दुआओं के बयान में

हज़रत मुहम्मद ने बहुत सी दुआएं भी सिखलाई हैं जो ख़ास वक़्तों और ख़ास मकानों और ख़ास कामों के लिए हैं और बाअज़ आम हैं।

पहली दुआ उम्मुल-किताब

हज़रत की सबसे बड़ी दुआ उम्मुल-किताब यानी क़ुरआन की माँ है उसी को फ़ातिहा और अल-हम्द कहते हैं उस का तर्जुमा ये है :-

“सब तारीफ़ उस ख़ुदा को है, जो सारे जहान का रब बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला, इन्साफ़ के दिन का मालिक है, तेरी ही हम बंदगी करते हैं और तुझसे मदद मांगते हैं, हमें सीधी राह दिखला उन लोगों की राह जिन पर तूने फ़ज़्ल किया ना उन की राह जिन पर तू ग़ुस्सा हुआ और जो राह से भटक गए हैं। आमीन।”

सब मुफ़स्सिर क़ुरआन मुत्तफ़िक़ हैं कि मुराद हज़रत मुहम्मद की इन दो फ़िर्क़ों से यानी जिन पर ख़ुदा ग़ुस्सा हुआ और जो भटक गए यहूदी और ईसाई हैं।

पस इस सूरत में मतलब दुआ का ये हुआ कि सिवाए यहूद व नसारा के और कोई राह जो हिदायत की हो हमें दिखला यानी मुतलक़ हिदायत की मतलब नहीं है मगर जिससे हम नाराज़ हैं उन्हें छोड़ के और किसी राह के तालिब हैं जो हक़ है।

दूसरी बात ये है कि ये दुआ अगरचे ज़ाहिर नज़र में अच्छी है तो भी इस के सब मज़ामीन उसी दर्जे पर हैं जो इन्सान की अक़्ल का दर्जा है यानी अक़्ल से पैदा किए हुए मज़्मून हैं।

ये दुआ मुसलमानों में ऐसी इज़्ज़त रखती है जैसे सय्यदना मसीह की दुआ ख़ुदा के लोगों में इज़्ज़त रखती है। कोई नमाज़ इस दुआ से ख़ाली नहीं है और इस को क़ुरआन की माँ इसलिए कहते हैं कि गोया सारा क़ुरआन इसी से निकला है कोई मज़्मून क़ुरआन में ऐसा नहीं है जो इस दुआ के मज़ामीन से बुलंद तर हो इस में क़ुरआन के सब उसूल मुन्दरज हैं।

पस ज़ाहिर है कि जब उम्मुल-किताब के मज़ामीन सिर्फ़ अक़्ली दर्जे की हद तक के हैं तो सारे क़ुरआन के मज़ामीन भी इसी दर्जे के होंगे और ज़रूर ऐसा ही है।

हमारे मौला की दुआ जो हमारी सब दुआओं की अस्ल है और सारे कलाम ईलाही का ख़ुलासा है जो सय्यदना मसीह ने अपने शागिर्दों को ख़ुद सिखलाई और आज तक सब दुआओं में मुअज़्ज़िज़ और सब से ज़्यादा प्यारी दुआ है। उस के मज़्मून अक़्ल से बाला और रुहानी हैं और इन्सानी अक़्ल से पैदा नहीं हुई हैं ख़ुदा से बतलाई गई हैं और वो दुआ ये है :-

“ऐ हमारे बाप जो आस्मान पर है। तेरे नाम की तक़्दीस हो। तेरी बादशाहत आए तेरी मर्ज़ी जैसी आस्मान पर है ज़मीन पर भी हो। हमारी रोज़ की रोटी आज हमें दे और जिस तरह कि हम अपने तक़सीर वारों (कसूरवारों) को माफ़ करते हैं तू हमारी तक्सीरें (कसूरों को) माफ़ कर और हमें आज़माईश में ना डाल बल्कि बुराई से बचा क्योंकि बादशाहत क़ुदरत और जलाल हमेशा तेरा ही है। आमीन।”

इस दुआ के सारे मज़ामीन ऐसे गहरे हैं कि आलम-ए-बाला से हैं अगर कोई शख़्स इन मज़ामीन की कुछ ख़ूबी से वाक़िफ़ होना चाहे तो खज़ानतुल-इसरार तफ़्सीर इन्जील मत्ती में देखे और इन्साफ़ करके अल-हम्द के मज़ामीन पर भी सोचे कि ये ख़ुदा से है या वो।

दूसरी दुआ दुरूद है

दुरूद के मअनी ये हैं कि ख़ुदा से हज़रत मुहम्मद के लिए और उन की आल व असहाब के लिए रहमत तलब करना।

और अस्ल इस मुक़द्दमे में वो आयत क़ुरआनी है जो अह्ज़ाब 7 रुकूअ की आयत (56) में है :-

إِنَّ اللَّهَ وَمَلَائِكَتَهُ يُصَلُّونَ عَلَى النَّبِيِّ يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا صَلُّوا عَلَيْهِ وَسَلِّمُوا تَسْلِيمًا

“ख़ुदा और उस के फ़रिश्ते दुआ-ए-रहमत किया करते हैं हज़रत मुहम्मद पर ऐ मुसलमानों तुम भी उस पर दुआ-ए-रहमत और सलाम भेजा करो।”

पस इस आयत के हुक्म से और उन बहुत सी हदीसों के सबब जो कुतुब अहादीस में हैं अहले इस्लाम जब हज़रत मुहम्मद का नाम सुनते या सुनाते हैं तो यूं कहते हैं कि, सल्लाहु अलैहि वसल्लम रहमत हो अल्लाह की उस पर और सलाम। अगरचे इस वक़्त ये अल्फ़ाज़ आदत में दाख़िल हो गए उन के नाम का गोया एक हिस्सा हो गया है तो भी ये एक दुरूद है जब हज़रत मुहम्मद का नाम कहीं लिखते हैं तो साथ ही ये दुरूद भी लिखते हैं या लिखने के एवज़ उस का मुख़फ़्फ़फ़ इशारा ऐसा (صہ स॰) कर देते हैं ये भी दुरूद है।

इस के सिवा बाअज़ मुसलमानों का ये वज़ीफ़ा है कि हर रोज़ हज़ार दफ़ाअ या कम ज़्यादा दुरूद पढ़ा करते हैं और उन को बमूजब हिदायत मुहम्मदी के ये उम्मीद है कि इस से आख़िरत में हमारा भला होगा।

इस ताअलीम पर हमारा ये फ़िक्र है कि ख़ुदा जो सबको देने वाला है वो किस से दुआ करके हज़रत मुहम्मद को रहमत दिलवाता है और उस को क्या हाजत है कि वो एक आदमी के नाम की तस्बीह पढ़ा करे और अपने हाथ की बनाई हुई चीज़ का नाम जपा करे और फ़रिश्तों को भी हुक्म दे कि उस के नाम की तस्बीह पढ़ा करें?

हज़रत मुहम्मद मह्ज़ आदमी थे उन्हें लायक़ ना था कि अपने नाम को इस क़द्र फ़रोग़ उम्मत में देते कभी किसी पैग़म्बर ने ऐसी जुर्आत नहीं की और नहीं कहा कि लोग मेरे नाम की तस्बीह पढ़ा करें।

मुहम्मदी लोग जब नमाज़ में ख़ुदा के सामने क़अ्दे (बैठक) करते हैं तो वहां पर भी हज़रत को ख़ुदा की मानिंद हाज़िर नाज़िर के अल्फ़ाज़ में याद करते हैं अत्तहियात (التحیات) पर ग़ौर करो।

हम लोग जो सय्यदना मसीह को और रूहुल-क़ुद्दुस को भी हाज़िर नाज़िर जान के पुकारते हैं, इस का सबब यही है कि वो ख़ुदा है पर हज़रत मुहम्मद ख़ुदा नहीं हैं कि उनका ये मन्सब हो। ये ख़ास जलाल ख़ुदा का है ना आदमी का उस का जलाल आदमी को देना गुनाह-ए-अज़ीम है।

अलबत्ता रसूल ने (2 थिस्सलुनीकियों 3:1) में लिखा है कि, “ऐ भाईयो हमारे हक़ में दुआ करो कि ख़ुदा का कलाम फैल जाये।” ये बात दुरूद के क़िस्म से नहीं है।

पर मुहम्मदी दुरूद की सूरत देखकर मेरी तमीज़ ये नतीजा निकालती है कि मंशा हज़रत का सिर्फ ये है कि मेरी मुहब्बत लोगों के दिलों में क़ायम हो या शायद किसी की दुआ से मेरा भी भला हो जाए पर ज़रूर ये ख़ौफ़नाक ताअलीम है।

तीसरी दुआ हम्द है

तस्बीह और तहमीद व तहलील व तक्बीर भी हज़रत ने अपनी उम्मत को कुतुब इल्हामिया और ईसाई रिवाज से दर्याफ़्त करके सिखलाई है।

तस्बीह के मअनी सुब्हान-अल्लाह कहना, तहमीद के मअनी हैं अल-हम्दु-लिल्लाह कहना तहलील के मअनी हैं लाइलाइलाहा-इल्लल्लाह कहना तक्बीर के मअनी हैं अल्लाहु-अक्बर बोलना।

ये ताअलीम बहुत अच्छी है मगर अगले पैग़म्बरों की ताअलीम है। चुनान्चे दाऊद पैग़म्बर के ज़बूरों में जगह-जगह उन का ज़िक्र है तो भी हम ख़ुश हैं कि हज़रत ने पैग़म्बरों की किताबों में से ये बातें लेकर सिखलाईं।

मगर पैग़म्बरों के बयान में और हज़रत के बयान में थोड़ा सा फ़र्क़ भी है वो नहीं कहते कि आदमी इन अल्फ़ाज़ का वज़ीफ़ा पढ़े पर दुआ में और सताइश (हम्द) ईलाही के वक़्त ये अल्फ़ाज़ ख़ुदा के सामने ख़ुशी में बोली जाती हैं।”

अलबत्ता रोमन कैथोलिक लोगों ने जो ईसाईयों के दर्मियान एक बड़ा बिद्दती फ़िर्क़ा है वज़ीफ़ों का दस्तूर ईजाद किया है जो ख़िलाफ़ है सय्यदना मसीह के इस हुक्म के ”तुम ग़ैर-क़ौमों की तरह बक-बक ना करो और जैसे वो समझते हैं कि बहुत बक-बक करने से ख़ुदा उन की सुनेगा तुम ऐसा ना करो।”

हज़रत मुहम्मद ने इन्हीं लोगों से ये दस्तूर अख़ज़ करके अपनी उम्मत में जारी किया है क्योंकि हज़रत के अहद में यही लोग उन इलाक़ों में कस्रत से थे और जो कुछ हम क़ुरआन हदीस में और मुहम्मदी तवारीख़ों में ईसाईयों की बाबत लिखा देखते हैं कस्रत से वही बातें हैं जो इस बिद्दती फ़िर्क़े की हैं।

हासिल कलाम आंकी (यह है कि) हज़रत ने ये अल्फ़ाज़ तो ज़रूर कलाम ईलाही के मुवाफ़िक़ बतलाए हैं पर इनका इस्तिमाल कलाम के ख़िलाफ़ बिद्दती फ़िर्क़े के दस्तूर पर सिखलाया है।

चौथी दुआ इस्तिग़फ़ार है

हज़रत ने सिखलाया है कि ख़ुदा के सामने तौबा करना और गुनाहों की माफ़ी माँगना ज़रूर है तो ये निहायत अच्छी बात है मगर इस के इस्तिमाल का तौर भी हज़रत ने दुरुस्त नहीं बतलाया।

मिश्कात बाब-उल-इस्तग़फ़ार में अग़र-मज़नी की हदीस मुस्लिम से लिखी है कि, “फ़रमाया हज़रत ने ऐ लोगो तौबा करो ख़ुदा की तरफ़ क्योंकि मैं तौबा करता हूँ ख़ुदा की तरफ़ एक दिन में सौ (100) दफ़ाअ।” सौ दफ़ाअ तौबा करने का ये मतलब है कि लफ़्ज़ तौबा सौ (100) दफ़ाअ हर रोज़ पढ़ा करता हूँ इस से क्या फ़ायदा है?

इसी दस्तूर पर मुसलमान लोग तस्बीह हाथ में लेकर या उंगलीयों पर शुमार करके सौ (100) दफ़ाअ या कम ज़्यादा استغفر اللہ ربی والوب الیہ पढ़ा करते हैं और जानते हैं कि यूं मग़फ़िरत हासिल करेंगे।

ख़ुदा का कलाम ये सिखलाता है कि आदमी अपने दिल को ख़ुदा की तरफ़ मुतवज्जोह करे और गुनाह से और दुनियावी मुहब्बत से मुँह मोड़े और जो कुछ किया है उस से पछताए और नफ़रत करे और ईमान के साथ ख़ुदा से मग़फ़िरत का तालिब हो ये तौबा और इस्तिग़फ़ार है।

कुछ ज़रूर नहीं कि वो सौ (100) दफ़ाअ तौबा-तौबा बोले अगर वो एक दफ़ाअ भी मुँह से ये अल्फ़ाज़ ना निकाले पर दिल में उस के ये काम हो जाए जो ऊपर मज़्कूर है तो वो ज़रूर सच्चा ताइब (तौबा करने वाला) है। हाँ ये सच्च है कि इन्सान नाताक़त है उस का दिल गुनाह की तरफ़ जल्दी माइल हो जाता है। ज़रूर है कि ईमान के साथ रात-दिन तौबा का सुतून पकड़े रहे यानी दिल में कोशिश करता रहे कि तौबा क़ायम रहे ना ये कि सौ (100) दफ़ाअ लफ़्ज़ बोले और दिली जंग से बे-ख़बर रहे और दिल को ख़ुदा के सामने मुर्ग़ बिस्मिल की तरह ना डाले और तौबा का फल (अपने) आप में दर्याफ़्त ना करे वो धोके में है अब तक तौबा नहीं की और उसे लाख दफ़ाअ भी इस्तिग़फ़ार पढ़ना मुफ़ीद (फायदेमंद) नहीं है।

फिर इसी बाब में अबू हुरैरा से रिवायत है कि फ़रमाया हज़रत ने, واللہ فی الاستغفر اللہ واتوب الیہ فی الیوم سبعین صرہ बुख़ारी ने अबू हुरैरा से ये रिवायत की है कि, “हज़रत ने कहा, ख़ुदा की क़सम मैं अपने गुनाहों की माफ़ी के वास्ते एक दिन में सत्तर (70) दफ़ाअ अल्लाह के सामने इस्तिग़फ़ार करता हूँ।”

हज़रत की तमीज़ भी गवाही देती थी कि मैं गुनाहगार हूँ, इसलिए यहां पर वो अपने दिल का हाल साफ़-साफ़ दुरुस्त ज़ाहिर करते हैं।

मगर उलमा मुहम्मदिया बिला दलील उन्हें मासूम जानते हैं और कहते हैं कि ये बात हज़रत ने इसलिए कही है कि उम्मत को तौबा और इस्तिग़फ़ार पर उभारें वर्ना वो ख़ुद गुनाह से पाक थे। मगर ये तावील उनकी इस हदीस से बातिल है जो इसी हदीस के नीचे मुस्लिम की रिवायत से लिखी है वो ये है, انہ لیغان علی قلبی وانی لااستغفراللہ فی الیوم مایتہ مرتہ मेरे दिल पर ग़फ़लत का पर्दा आ जाता है इसलिए मैं ख़ुदा से सौ (100) दफ़ाअ हर रोज़ माफ़ी मांगता हूँ।

यानी मेरा माफ़ी माँगना उम्मत की तर्ग़ीब के लिए नहीं है बल्कि उस ग़फ़लत के पर्दे के लिए है जो मेरे दिल पर आता है।

इस हदीस की तावील से जब सारे मुहम्मदी आलिम लाचार हुए तो यूं कहने लगे कि ये हदीस मुतशाबहात (متشا بہات) में से है इस के मअनी मालूम नहीं हो सकते और मुसलमान को ना चाहिए कि इस के माअनों पर ग़ौर करें इस का भेद ख़ुदा ही जानता है।

देखो ये कैसी बात है कि एक शख़्स साफ़ इक़रार करता है कि मैं गुनाहगार हूँ और इस पर ख़ुदा की क़सम भी खा जाता है और साफ़ कहता है, कि मेरे दिल पर ग़फ़लत का पर्दा आ जाता है और क़ुरआन भी उस के गुनाहों का इक़रार क़ौल से और फ़ेअल से करता है फिर भी बेगुनाही का फ़त्वा आदमीयों से है। हासिल कलाम आंकी (यह है कि) हज़रत मुहम्मद ने इस्तिग़फ़ार के वज़ीफ़े को मुफ़ीद बतलाया है और आप भी इस पर अमल किया है और इस बारे में ना वज़ीफ़ा मुफ़ीद है, मगर दिली रुजू मतलूब है। पस हज़रत के इस बयान में इस ताअलीम की अस्ल तो दुरुस्त है, लेकिन इस्तिमाल का तौर नादुरुस्त और ग़ैर-मुफ़ीद है।

पांचवीं मुतफ़र्रिक़ दुआएं हैं

ऐसी ऐसी बहुत दुआएं हैं जो खाने पिने के वक़्त और कपड़े पहनने के वक़्त और हाजत ज़रूरी के वक़्त और हम-बिस्तरी के वक़्त वग़ैरह औक़ात में पढ़ी जाती हैं।

अब हज़रत की सारी दुआएं देखने के बाद अगर कोई मुंसिफ़ आदमी दाऊद पैग़म्बर के ज़बूरों को देखे और और पैग़म्बरों की दुआओं पर भी ग़ौर करे जो इल्हामी किताबों में मर्क़ूम हैं और नमाज़ की किताब की तर्तीब पर भी ग़ौर करे तो उसे बख़ूबी मालूम हो सकता है कि ना तो हज़रत मुहम्मद की दुआओं के मज़ामीन इस क़द्र आला हैं जिस क़द्र पैग़म्बरों की दुआओं के मज़ामीन हैं। और ना इतना बड़ा दफ़्तर दुआओं का हज़रत के पास है जिस क़द्र मसीही कलीसिया के पास है और ना इन दुआओं का इस्तिमाल हज़रत ने इतना मुफ़ीद और मुनासिब दिखलाया है जिस क़द्र मुफ़ीद इस्तिमाल पैग़म्बरों ने सिखलाया है। और ना इस बारे में मुबालग़े हैं जैसे हज़रत ने सुनाए हैं और ना हज़रत इतने बड़े दुआ कनुंदा हैं जितना बड़ा दुआ कनुंदा दाऊद पैग़म्बर और सय्यदना मसीह की कलीसिया है। पस इस बारे में भी अम्बिया के सिलसिला और मसीही कलीसिया को तक़द्दुम हासिल है।

16 फ़स्ल शानज़ दहम

रोज़ों के बयान में

हज़रत मुहम्मद ने रोज़ा रखने का भी हुक्म दिया है और उन की शरीअत में रोज़ा ये है कि आदमी सुबह से शाम तक ब-नीयत रोज़ा खाने पीने से और जिमाअ (हम-बिस्तरी) से बाज़ आए।

और सवाब रोज़े का उन की शरीअत में इस मुबालगे के साथ बयान हुआ है कि होशियार आदमी की तमीज़ कभी इस को क़ुबूल ना करेगी गुनियुत्तु-तालिबिन (غنتیہ الطالبین) फ़ज़्ल फ़ज़ाइल अल-सोम अलल-जुमला में इस क़िस्म की बातें बहुत सी लिखी हैं अज़ाँ जुम्ला आंकह फ़रमाया हज़रत ने कि अगर कोई एक दिन ख़ुदा के वास्ते रोज़ा रखे ख़ुदा उस को दोज़ख़ से इस क़द्र दूर रखेगा कि जितनी दूर एक काग का बच्चा पैदा हो कर उड़ जाये और सारी उम्र उड़ता रहे यहां तक कि बढ़ा हो कर मर जाये और कहते हैं कि काग का बच्चा पाँच सौ (500) बरस जीता है।

फिर मिश्कात किताब-उल-सोम में अबू हुरैरा से रिवायत है कि फ़रमाया हज़रत ने रोज़ादारों के मुँह की बू ख़ुदा के सामने मुश्क की ख़ुशबू से बेहतर है रोज़े दो क़िस्म के बयान हुए हैं फ़र्ज़ और नफ्ल।

रमज़ान के रोज़े

ये रोज़े फ़र्ज़ हैं सब पर बशर्ते के कोई लाचारी ना हो रोज़ों के अहकाम बहुत से लिखे हैं जिन पर ग़ौर करने से साबित हो गया है कि सिर्फ ज़ाहिरी तौर पर हैं बातिनी सफ़ाई का इलाक़ा रोज़ों के साथ शर्त नहीं है बद-नज़री से मुहम्मदी रोज़ा नहीं जाता और बालाई बद-फ़ेअली से भी रोज़ा नहीं जाता और हज़रत ने भी रोज़े में ऐसे ऐसे काम किए हैं तो भी (अपने) आपको रोज़ादार जाना है और वह ऐसी मकरूह बातें हैं जिनके ज़िक्र से शर्म आती है। देखो मिश्कात बाब तंज़िया-उल-सोम में बुख़ारी और मुस्लिम से आईशा की रिवायत क्या है।

दूसरे क़िस्म के रोज़े नफ़्ल हैं अगर कोई रखे तो सवाब पाएगा और जो ना रखे तो गिरिफ़्त ना होगी उन की कई एक किस्में हैं।

अव़्वल सोम-उल-दहर

यानी साल भर बराबर रोज़ा रखना। बाअज़ हदीसों में ऐसे रोज़ों से मना किया है और बाअज़ हदीसों में ऐसे रोज़ों के बड़े सवाब बतलाए हैं। बाअज़ उलमा मुहम्मदिया ने कहा है कि ऐसे रोज़े मना हैं लेकिन गुनियु-त्तुत्तालिबिन (غنتیہ الطالبین) में है कि आईशा और अबू मूसा अशअरी और अबू तल्हा ने बरस बरस रोज़े रखे हैं और कहा है कि ईदों के दिनों में रोज़े ना रखना सोम-उल-दहर (صوم الدھر) की सूरत को बदलता है।

दोम सोम-उल-बैज़

हर महीने की 13, 14, और 15 तारीख़ को तीन रोज़े रखना सोम-उल-बैज़ (صوم البیض) कहलाता है और बाअज़ लोग रखते हैं।

सोम मुतफ़र्रिक़ रोज़े

हर पीर व जुमेरात का रोज़ा आशूरा का रोज़ा, शश ईद के रोज़े, हर जुम्आ का रोज़ा वग़ैरह ये सब मुतफ़र्रिक़ रोज़े हैं।

ख़ुदा के कलाम की तरफ़ देखने से मालूम होता है कि अगले बुज़ुर्गों ने भी रोज़े रखे हैं और अब भी लोग रखते हैं और हम भी रोज़ा रखना मुफ़ीद जानते हैं पर कलाम के मुवाफ़िक़ ना मुहम्मदी तौर पर।

रोज़े का ज़ाहिरी तौर (तरीक़ा) तो ये है कि आदमी खाना पीना छोड़कर इक़रार गुनाह और ग़म दुआ आजिज़ी के साथ दुआओं में मशग़ूल हो। (1 सामुएल 7:6, योएल 2:12, इस्तिस्ना 9:18, एज़्रा 8:23) ये तो रोज़े की ज़ाहिरी सूरत है पर बातिनी सूरत उस की। (यसअयाह 58:6-7) में मर्क़ूम है कि नेकी के सब काम करे।

मगर रोज़े का वक़्त वो है कि जब आदमी मसाइब में गिरफ़्तार हो। (योएल 1:14, 2:12) और वो वक़्त भी है कि जब आदमी ईलाही बरकात के लिए दिल की तैयारी चाहता है।

और ग़र्ज़ रोज़ों के ना बड़े बड़े सवाब हासिल करना है मगर रूह को तंबीया देना है कि उस में आजिज़ी पैदा हो और वो फ़िरोतनी से ख़ुदा के सामने झुके। (69 ज़बूर आयत 10:35 ज़बूर आयत 13) इस सूरत में वो सब हरकतें जो मुहम्मदी रोज़े को नहीं तोड़ते हैं और इस रोज़े को तोड़ डालते हैं क्योंकि ये रोज़ा बातिनी है पर मुहम्मदी रोज़ा ज़ाहिरी है। मुहम्मदी रोज़ा एक हुक्म की तामील है पर ये रोज़ा ना किसी हुक्म की तामील है मगर एक रुहानी बीमारी की दवा है जो वक़्त पर दी है।

कलाम में तीन क़िस्म के रोज़े मज़्कूर हैं, अव्वल अवाम का रोज़ा जो सिर्फ एक ज़ाहिरी बात है जिस पर (यसअयाह 58:4,5) में कुछ लिखा है। मुहम्मदी रोज़ा बिल्कुल यही रोज़ा है।

दूसरा ख़वास का रोज़ा है जिसका ज़िक्र ख़ूबी के साथ कलाम में है। (यसअया 20:46)

तीसरा अख़स-उल-ख़वास का रोज़ा है और मूसा का और इल्यास और मसीह का रोज़ा था कि चालीस यौम कुछ ना खाया ये रोज़ा ताक़त बशरी से ख़ारिज है ईलाही ताक़त से उन लोगों ने रखा था। नमाज़ की किताब में रोज़ों के चालीस दिन का दस्तूर जो लिखा है वो इसी रोज़े की यादगारी में है कि उन अय्याम में मसीह की जफ़ा कुशी पर फ़िक्र करते हैं और अपने गुनाहों का आप हिसाब लेते हैं और कोशिश करते हैं कि दूसरे क़िस्म का रोज़ा रख के अपनी रूह को फ़ायदा पहुंचाएं कि वो जिस्मानी बद ख़्वाहिशों पर ग़लबा पाए। तो भी मसीही आज़ाद हैं ख़ुशी से रोज़ा रखते हैं ख़ुशी से इबादत करते हैं और ख़ुशी से ख़ैरात देते हैं ना जबर से कि ज़रूर करो शरीअत रस्मी का जबर जहान से उठ गया है शरीअत अख़्लाक़ी की तामील रूह और रास्ती के साथ उस आज़ादगी से जो मसीह ने बख़्शी है बजा लाते हैं और ख़ुदा ऐसे परस्तार चाहता है ना वैसे जैसे गु़लामी के फ़र्ज़न्द होते हैं।

17 फ़स्ल हफ़ दहम

एतिकाफ़ का बयान

एतिकाफ़ के मअनी हैं गोशे में बैठना, पर मुहम्मदी शराअ (शरीअत) में एतिकाफ़ ये है कि जामा मस्जिद में इबादत की नीयत से रोज़े के साथ रात मुक़र्ररा तक बैठे रुहानी।

रमज़ान के अख़ीर अशरा में एतिकाफ़ सुन्नत मुअक्कदा (ऐसी सुन्नत जिसकी ताकीद की गई हो) है। दस (10) दिन या कम ज़्यादा जिस क़द्र वो नीयत करे उसी मस्जिद में बैठे रहना होगा सिर्फ हाजत ज़रूरी और खाने के लिए निकल सकता है और कोई दुनियावी काम नहीं कर सकता मगर फ़क़त ख़ुदा का ज़िक्र और क़ुरआन ख़वानी करेगा।

ये रस्म मुल्क अरब की क़दीम रस्म है हज़रत ने इसे पसंद करके अपनी शरीअत में भी जारी रखा है। चुनान्चे मिश्कात बाब-उल-एतकाफ़ में इब्ने उमर से बुख़ारी व मुस्लिम की रिवायत है कि :-

“उमर ने हज़रत से कहा मैंने अय्याम-ए-जाहलीयत में एक रात एतिकाफ़ की नीयत से मस्जिद हराम में नज़र मानी थी अब अदा करूँ या ना करूँ फ़रमाया अदा करो।”

मुहम्मद साहब हर रमज़ान में दस (10) रोज़ एतिकाफ़ करते थे मगर जिस साल में वफ़ात पाई उस साल बीस (20) रोज़ किया था।

ख़ुदा की इबादत के लिए अगर कुछ अर्से तक आदमी ख़ल्वत (तन्हाई) में बैठे तो कुछ मज़ाइक़ा नहीं है अच्छी बात है लेकिन जब दिल चाहे और जिस जगह मौक़ा मिले ख़ुदा से बातें करने के लिए मुक़द्दस लोग ज़रा तन्हाई में जाया करते हैं कभी-कभी पौलुस रसूल सफ़र में हम-राहियों से अलग होके अकेला पैदल चला कि तन्हाई में कुछ फ़िक्र करे और कभी-कभी मसीह ख़ुदावंद भी अकेला हुआ और और बुज़ुर्ग भी ऐसा करते रहे और अब भी कलीसिया में बहुत लोग ऐसे मिलेंगे कि कुछ अर्से तक अकेले होके ख़ुदा से दुआ करते हैं ये मुफ़ीद बात है। हाँ अगले ज़माने में बाअज़ वक़्त बुज़ुर्ग लोग किसी ग़म की हालत में रोज़े के साथ टाट ओढ़ कर ख़ाक पर बैठ जाते थे और गिर्ये वज़ारी के साथ दुआ करते थे। पर जब आज़ादगी और फ़ज़्ल की शरीअत आई यानी इन्जील तब से इसी हुक्म पर अमल होता है कि अपनी कोठरी में जा और दरवाज़ा बंद कर और पोशीदगी में ख़ुदा से मांग।

पस कुछ ज़रूर नहीं कि ख़ास रमज़ान ही के महीने में अख़ीर अशरे के दर्मियान सिर्फ़ जामा मस्जिद ही में क़ुयूद (क़ैद) मुक़र्ररा के साथ एतिकाफ़ किया जाये हमें इन क़ुयूद में कुछ फ़ायदा मालूम नहीं होता ना किसी दिन में और किसी मकान में कुछ बरकत है बरकत ख़ुदा से मिलती है और ईमान के हाथ से लेते हैं।

18 फ़स्ल हीज़ दहम

क़ुरआन ख़वानी के बयान में

अगर कोई क़ुरआन पढ़ना चाहे तो पहले मिस्वाक के साथ वुज़ू करे और काअबे की तरफ़ मुँह हो और अच्छी जगह बैठ कर आजिज़ी से पढ़े। पहले आउज़ुबिल्लाह...अलीख पढ़े फिर क़ुरआन पढ़ना शुरू करे और आहिस्ता-आहिस्ता फ़िक्र के साथ मअनी समझता हुआ आवाज़ ख़ूब बना कर निकाले और पढ़ता पढ़ता रोता भी जाये अगर रोना ना आए तो बातकल्लुफ़ ग़मगीं हो कर रोने वालों जैसा मुँह बनाए जहां कहीं अज़ाब का बयान आए वहां पनाह मांगे जहां ख़ुदा की तक़्दीस का ज़िक्र आए वहां सुब्हान-अल्लाह कहे और क़ुरआन पढ़ते वक़्त किसी आदमी की ताज़ीम ना करे और जल्दी ख़त्म भी ना करे।

अगर मअनी ना जानता होतो ये समझे कि ये कुछ बात है जो ख़ुदा बोलता है मैं अदब से इस को सुन लूं। सारी इबादतों से बड़ी इबादत ये है कि क़ुरआन पढ़े और इस पर अमल भी करे और जब सज्दा तिलावत का वक़्त आए तो फ़ौरन करे।

सवाब ये कि क़ुरआन क़ियामत में आदमी की शफ़ाअत करेगा और एक एक मुक़ाम क़ुरआन का जुदा-जुदा सवाब रखता है रात-दिन में चौबीस (24) घंटे हैं पाँच (5) घंटे पाँच नमाज़ों में गुज़र जाते हैं बाक़ी रहे 19 सो बिस्मिल्लाह हिर्रहमान निर्रहीम (بسم اللہ الرحمن الرحیم ) जिसके 19 हर्फ़ हैं अगर कोई आदमी एक बार पढ़े तो ये 19 घंटे भी इबादत में शामिल हो जाते हैं। पस 24 घंटे इबादत ही में गुज़र जाते हैं।

और सूरह अल-हम्द (الحمد) दो तिहाई क़ुरआन का सवाब रखती है और एक हदीस में है जिसने अल-हम्द को पढ़ा उसने गोया तमाम तौरेत और इन्जील और क़ुरआन सब कुछ पढ़ लिया ऐसी ऐसी बातें इस मज़्हब की बुनियाद हैं।

कलाम ईलाही के पढ़ने का ये दस्तूर है कि जिस हालत में हो उस हालत में आजिज़ी के साथ इस इरादे से कि मैं इस कलाम से कोई नसीहत अपने लिए हासिल करूँ अपनी ज़बान में इस को पढ़ना सवाब है बल्कि हर इबारत कलाम ईलाही की जो वो पढ़ता है इस में से कोई मज़्मून दिल में उठा कर उस की तासीर अपने चलन में देखूंगा और अपने दिल की राहों को ख़ुदा की राहों से जो कलाम में मज़्कूर हैं मुक़ाबला करके अपनी हालत को आज़माऊँगा।

क्योंकि शरीअत के सुनने वाले रास्तबाज़ नहीं हैं बल्कि इस पर अमल करने वाले रास्तबाज़ हैं। पस लफ़्ज़ों के पढ़ने से कुछ सवाब नहीं मगर मज़्मून और उस की हिदायत को दिल में जगह देने से दिल की हालत बदलती है और ख़ुदा का मक़्बूल बंदा बनाती है। और कुछ ज़रूर नहीं है कि यरूशलेम की तरफ़ मुँह हो और बातकल्लुफ़ बैठें और ये भी कुछ ज़रूर नहीं है कि ग़ैर-ज़बान में जिसे नहीं समझते हैं पढ़ें ये सब नाकारा बातें हैं जिन पर लोग ज़ोर देते हैं इनसे कुछ तरक़्क़ी नहीं होती है बल्कि नुक़्सान होता है और कुछ सच्चाई हाथ नहीं आती है।

19 फ़स्ल नोज़ दहम

हज के बयान में

हज भी हज़रत ने फ़र्ज़ बतलाया है हर मुसलमान मर्द औरत पर जो आज़ाद और आक़िल बालिग़ हों और सवारी व खुराक पर क़ादिर हों सारी उम्र में एक दफ़ाअ करना चाहिए और अपनी मर्ज़ी से जब चाहे किया करे हज का सवाब ये कि आदमी गुनाहों से पाक हो जाता है और ये हज उस के गुनाहों माक़ब्ल का कफ़्फ़ारा है वो आदमी जिस पर हज फ़र्ज़ है अगर आप ना जाये तो कोई दूसरा उस के एवज़ (बदले में) हज करके बओज़ रुपये के उसे सवाब दिलवा है।

ये हज एक अजीब क़िस्म की इबादत है और अजीब ख़यालात से मुरक्कब है ये वैसा हज नहीं है कि जैसे यरूशलेम की हैकल में चार तरफ़ से बनी-इस्राईल हाज़िर होते बल्कि ये इस से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ है।

(फ) मूसा की तौरेत शरीफ़ में बाअज़ जिस्मानी बातें और कुछ रस्में नज़र आती हैं मगर हरगिज़ हरगिज़ इस हज की मानिंद नहीं हैं ये तो कुछ और ही बात है। और वहां अगरचे चंद बातें ऐसी हैं मगर वो ऐसा उम्दा मतलब रखती हैं कि बईना इन्जील हैं और रुहानी बातों पर इशारा हैं। नाज़रीन इस मुआमले में ख़ुद तौरेत को देख सकते हैं और मुहम्मदी हज का बयान भी मुफ़स्सिल लिखा गया है। पस अपनी तमीज़ों से दर्याफ़्त करें कि ये क्या बातें हैं और वो क्या हैं। और ज़हन से दर्याफ़्त करें कि ये हरकतें बतलाने वाला ख़ुदा है या वो हरकतें बतलाने वाला ख़ुदा है।

(फ) हिन्दुस्तान में मशहूर बात है कि जो आदमी हज करके आता है संग-दिल हो जाता है इस का सबब यही है संग-परस्ती से संग-दिल होता है।

20 फ़स्ल बस्तम

ज़कात के बयान में

क़ुरआन में 84 जगह और हदीसों में भी कस्रत से ज़कात का ज़िक्र आया है और इस के भी बड़े सवाब मज़्कूर हैं। सन 4 हिज्री में बमुक़ाम मक्का रमज़ान की पहली तारीख़ हज़रत ने उम्मत पर ज़कात फ़र्ज़ की थी और इबादत के बारे में मुसलमानों के दर्मियान ये चार बातें ज़रूरी हैं रोज़ा, ज़कात, नमाज़ और हज। और चूँकि इन लोगों का भरोसा आमाल हसना पर है इसलिए इसी बातों पर बड़ा ज़ोर देते हैं। जो कोई ज़कात का मुन्किर है वो मुसलमान नहीं काफ़िर है और जो मुन्किर नहीं पर अदा भी नहीं करता वो बड़ा गुनाहगार है उसे क़त्ल करना चाहिए।

ज़कात सारी उम्मत पर वाजिब नहीं है सिर्फ उस मुसलमान पर जो आज़ाद आक़िल बालिग़ साहब निसाब है। पस साल बसाल हिसाब के मुवाफ़िक़ ज़कात देना होगा।

रूपयों का हिसाब यूं है, फ़ीसदी दो रुपया आठ आना सालाना देना होगा। और सोने में जब ज़कात आएगी जब सोना साढे़ सात तौले से कम ना हो और जब इस क़द्र होतो उस का चालीसवां हिस्सा देना होगा फ़ी साल। इस के सिवा ऊंटों की ज़कात का हिसाब और बकरीयों वग़ैरह जानवरों का हिसाब हदीसों में बहुत सा लिखा है जिसकी तफ़्सील से कुछ फ़ायदा नहीं है। ज़कात का फ़ायदा ये है कि माल में इस की बरकत से तरक़्क़ी होती है और बाक़ी माल पाक रह जाता है और आदमी के गुनाह बख़्शे हैं।

ज़कात ना देने की सज़ा मिश्कात किताब-उल-ज़कात में अबू हुरैरा से मन्क़ूल है कि,

“जो कोई ज़कात नहीं देता है उस का माल क़ियामत के दिन गंजा साँप बन जाएगा उस की आँखों पर दो स्याह नुक़्ते होंगे वो इस आदमी के गले में लिपट जाएगा और इस की दो बाछें पकड़ के कहेगा मैं हूँ तेरा माल तेरा ख़ज़ाना।”

“अबू ज़र से रिवायत है कि जिसके पास ऊंट गाएँ बकरीयां हों और वो ज़कात ना दे तो वो जानवर क़ियामत को बड़े-बड़े मोटे बन कर उस आदमी को रौंदेंगे और सींगों से मारेंगे।”

ज़कात मिस्कीनों फ़क़ीरों ग़रीबों को दी जाती है पर अकारिब यानी आबा व अजदाद व औलाद को देना जायज़ नहीं है। पर भाई बहन वग़ैरह अगर मुहताज हों तो उन्हें मिल सकती है इसी तरह काफ़िर को देना जायज़ नहीं है और सय्यदों को और बनी हाशिम को भी ना दें।

ये ताअलीम अच्छी है ख़ैरात देना ज़रूरी काम है, क्योंकि मुहताजों का हक़ है कि अहले तौफ़ीक़ उन की मदद करें। पर हम इन सवाबों और अज़ाबों की बाबत कुछ नहीं जानते सिर्फ इतना जानते हैं कि ख़ुदा की रजामंदी ज़रूर इस में है कि मुहताजों की मदद की जाये। पर जो लोग नहीं करते वो अपना वाजिब अदा नहीं करते हैं इस का नुक़्सान उठाना होगा और जिस ने रहम नहीं किया उस पर रहम ना होगा। पर ज़कात के बारे में अगरचे ख़ुदा के कलाम में दहयुकी (दसवे हिस्से) का ज़िक्र है यानी दसवाँ हिस्सा देना चाहिए, पर आज़ादगी की शरीअत यानी इन्जील में आज़ादगी है कि जिस क़द्र-ए-दिल चाहता है दें अपनी ख़ुशी और रजामंदी से कि जो थोड़ा देता है थोड़ा पाएगा जो बहुत देता है बहुत पाएगा। कुछ क़ैद चालीसवें और दसवें हिस्से के अब नहीं है और ना किसी पर जब्र है कि अगर ना दे तो क़त्ल करेंगे हरगिज़ नहीं वो अपना हिसाब आप ख़ुदा को देगा। ऐसी बात इन्जील में है और ऐसी आज़ादगी है तो भी ख़ुदा के फ़ज़्ल से मुहताजों की हाजतरवाई और तमाम अख़राजात दीनी इसी चंदे से सरअंजाम पाते हैं बल्कि अहले-इस्लाम की ज़कात की निस्बत ये चंदा ज़्यादा मुफ़ीद नज़र आता है और ना सिर्फ हिन्दुस्तान में मगर एशिया के ग़ैर-मुल्कों में भी। ये ख़ुदा की बरकत मसीही चंदे पर है जो आज़ादगी की रूह से दिया जाता है। पर मसीही लोग सब कुछ ख़ुदा के वास्ते दे के भी कुछ उम्मीद मग़फ़िरत इस चंदे पर नहीं रखते हैं हमारी नजात सिर्फ़ मसीह से है और यह सब कार-खैर ख़ुदा की शुक्रगुज़ारी में करते हैं और भाईयों का हक़ और ख़ुदा का हक़ पहचानते हैं।

21 फ़स्ल बस्त वीकम

सदक़ा फ़ित्र में

जब रमज़ान तमाम होता है और ईद की सुबह आती है तो नमाज़ से पहले वाजिब हर मुसलमान रोज़ों के सदक़े में चार (4) सैर जो या खजूरें या दो (2) सैर गेहूँ फ़क़ीरों को दे और हर आदमी अपनी अपनी तरफ़ से दे ये सदक़ा फ़ित्र है।

ये भी एक ख़ैरात है बेहतर है पर नजात आमाल से नहीं है गुनाहों की माफ़ी अगर ऐसी इबादतों और रियाज़तों और मकानों और कपड़ों और और ग़ुस्लों और वुज़ू और ख़ैरात और हज ज़कात से हो सकती है तो बहुत ही आसान है कि आदमी बहिश्त (जन्नत) में जाये और इन अदना सी चीज़ों के ज़रीये से बहिश्त को कमा ले और वो आराम जो ख़ुदा को हासिल है इन चीज़ों के वसीले से आदमी भी ख़रीद ले, अगर ये बात किसी के ख़्याल में आ सकती है तो वो क़ुबूल करे और इस कच्ची बुनियाद पर अपनी उम्मीद को क़ायम करे पर हम ख़ूब जानते हैं कि ये बातें और मतलब पुर मुफ़ीद नहीं हैं, नजात और गुनाहों की माफ़ी और ख़ुदा की हुज़ूरी में दख़ल पाने के लिए ये उमूर हरगिज़ मुफ़ीद नहीं हैं यही बात सब पैग़म्बरों के बयान से साबित है और यही ताअलीम मसीह की इन्जील से पाते हैं और अक़्ल भी इसी बात को क़ुबूल करती है। पस हम आगाह कर देते हैं सब नाज़रीन को ये बातें हज़रत ने भरोसे के लायक़ नहीं बतलाई हैं और कुछ इनके सिवा हज़रत के पास नहीं है। और इन्हीं बातों को पैग़म्बरों की किताब में भी जो हज़रत ने पाया है तो, हज़रत मुहम्मद इन बातों का दुरुस्त मतलब नहीं समझे हैं इसलिए दीन की बुनियाद इन पर क़ायम की है। हालाँकि सब पैग़म्बरों की बुनियाद सय्यदना मसीह पर क़ायम है और यह सब इबादात वग़ैरह इसी बुनियाद और जड़ की शाख़ें हैं।

(3) तीसरा बाब

मुआमलात में

मुआमलात वो उमूर हैं जो आपस में एक दूसरे के साथ इलाक़ा रखते हैं चुनान्चे इबादात को इन्सान और ख़ुदा के दर्मियान इलाक़ा है जिसका ज़िक्र हो चुका है पर वो उमूर जिनका इलाक़ा आपस में आदमीयों के दर्मियान है बमूजब रजामंदी ईलाही के उन्हें मुआमलात कहते हैं। इस बाब में भी कई एक फ़स्लें हैं।

1 पहली फ़स्ल

कमाई और कसब हलाल के बयान में

उलमा मुहम्मदिया ने क़ुरआन हदीस से निकाल कर कसब (कारोबार) और कमाई की चार किस़्में बयान की हैं, वो ये हैं कि अफ़्ज़ल और अच्छी सूरत कमाने की जिहाद है यानी इमाम के साथ जिहाद करने को जाना और काफ़िरों का माल लूट कर लाना ये सबसे बेहतर और पाक खाना है। इस के बाद तिजारत है फिर ज़राअत का दर्जा है फिर दस्तकारी है यानी कोई पेशा। ख़ुदा के कलाम में आदमी की ख़ुराक का ज़िक्र यूं लिखा है कि, तू अपने मुँह के पसीने से रोटी खाएगा यानी मेहनत और जफ़ा कुशी से। पर अक़्ल-ए-सलीम के नज़्दीक सबसे बेहतर काम तिजारत है फिर ज़राअत फिर दस्तकारी मगर लूट के माल को ना अक़्ल जायज़ बतलाती है, ना ख़ुदा का कलाम जिसको इस ताअलीम में सबसे बेहतर काम क़रार दिया गया है।

पर इस की बुनियाद वही अरब की क़दीमी आदत है जो अब तक बदों में जारी है और हज़रत मुहम्मद का भी बाद दाअ्वा-ए-नुबूव्वत के अय्याम हिज्रत से आख़िर तक वही पेशा था कि जिहाद का अम्वाल ग़नीमत (लूट के माल) से खाते पीते थे जिसकी बाबत इस्माईल के हक़ में ख़बर दी गई थी कि इस के हाथ सब के ख़िलाफ़ होंगे।

और यह बात कि ख़ुदा ने मुल्क कनआन बनी-इस्राईल के हाथ में कर दिया था और वहां के अम्वाल (माल की जमा, माल व दौलत) उन्होंने पाए थे ये बात ख़ुदा के इंतिज़ाम से इलाक़ा रखती है कि अपनी ख़ुदाई के क़ानून के मुवाफ़िक़ जो मुल़्क जिसको चाहे बख़्श दे इस का नतीजा ये नहीं निकल सकता कि आदमी का अच्छा पेशा लूट मारह होए। या आंका दीन के पैराए में इस पेशे को इख़्तियार करे। अलबत्ता दुनिया के ममालिक ख़ुदा ने बादशाहों के हाथ में तक़्सीम कर दिए हैं। वो अगर आपस में लड़ें या इंतिज़ाम के लिए किसी मुल्क को लूटें और उन के नौकर या साथी ऐसा माल उन के हुक्म से लाकर खाएं तो ये उनकी मेहनत की कमाई है पर दीन के लिए ये काम अक़्लन व नक़्लन अच्छा नहीं है।

2 दूसरी फ़स्ल

सूद (ब्याज) के बयान में

हज़रत ने सूद (ब्याज) खाने को मना किया है और तिजारत को हलाल बतलाया है ये बात दुरुस्त है। लेकिन सूद क्या चीज़ है इस बारे में कलाम ईलाही और क़ुरआन के दर्मियान इख़्तिलाफ़ है। उलमा मुहम्मदिया सूद की क़िस्में बतलाते हैं सूद नसिया (نسیہ) यानी नक़द चीज़ को वाअदे पर देना सूद फ़ज़्ल यानी थोड़े को बहुत के बदले में देना।

पस अगर इत्तिहाद जिन्स और इत्तिहाद क़द्र भी हो तो दोनों सूरतें सूद की हराम हैं कीली या वज़नी होना क़द्र है, पर जब जिनसें मुख़्तलिफ़ हों और दस्त-ब-दस्त लेन-देन हो जाए तो ये सूद नहीं है।

मगर कलाम में बे-जा ज़्यादती को सूद (ब्याज) कहते हैं और जिंस क़द्र दस्त-ब-दस्त की कुछ शर्त नहीं है बनी-इस्राईल को मना था कि नामुनासिब ज़्यादती आपस में ना लें मगर परदेसी और ग़ैर-क़ौम से सूद (ब्याज) लेना उन्हें भी मना ना था। अब जो मसीहियों में सूद का रिवाज है ये एक क़िस्म की तिजारत है पर अपने अहबाब और दोस्तों में ऐसा नहीं है और वहां जहां लिया जाता है उस के लिए भी एक शरह और रिवाजी है और मुनासिब है पर बे-जा ज़्यादती अब तक वो नहीं लेते क्योंकि क़ानूनन व शरअन नाजायज़ जानते हैं।

रिवायत है कि एक आदमी ने बुरी गेहूँ (گیہوں) बदलवाई थी। इसी तरह पर कि बुरी चार सीरई और अच्छी चार सीरई हज़रत मुहम्मद ने फ़रमाया कि ये ऐन सूद है (अगर ऐसी बातें सूद हैं तो दुनिया में ज़िंदगी कैसी तल्ख़ होगी) तो भी ख़ुद हज़रत ने एक बार एक ग़ुलाम लिया उस के एवज़ दो ग़ुलाम दिए थे गेहूँ (گیہوں) के क़ाएदे के मुवाफ़िक़ ये भी सूद था पर इस को हज़रत ने सूद ना कहा।

हज़रत ने फ़रमाया है कि सूद के सत्तर जुज़ हैं सबसे छोटा सूद ये है कि आदमी अपनी माँ से ज़िना करे। (इस मुबालग़ा को ख़्याल फ़रमाईए)

उमर बिन ख़ताब कहते हैं कि मुआमलात में सबसे पीछे सूद की आयत नाज़िल हुई थी मगर हज़रत ने इस की शरह बयान नहीं की यहां तक कि वफ़ात पाई पस चाहिए कि जिस चीज़ में सूद (ब्याज) का शक भी हो उसे छोड़ दें। पस ये साफ़ इक़रार ख़लीफ़ा का है कि दुरुस्त मअनी सूद के मालूम नहीं हैं इस सूरत में क्यूँ-कर इस आफ़त से बच सकते हैं जो ऐसा बड़ा गुनाह है।

3 तीसरी फ़स्ल

अश्या ज़ेल की बैअ नाजायज़ है

मुर्दार और ख़ून और हरदाम वलद या मकातिब या मुदब्बिर की बैअ बातिल है कि बैअ माल नहीं है।

शराब और सूअर की बैअ (खरीद-फ़रोख्त) बातिल है क्योंकि माल ग़ैर-मतक़ूम (यानी जिसकी कोई क़ीमत नहीं غیرمتقوم) है जानवर के पस्तान (पेट) में जो शीर (बच्चा) है जब तक बाहर ना निकाला जाये फ़रोख़्त करना बातिल है। जो जानवर ख़ुद-मुख़्तार हुआ उड़ते हैं, या मछलियाँ जो दरिया में हैं, या लौंडी का हमल, या वो मोती जो सदफ़ में है और वो गोश्त जो जीते जानवर में है फ़रोख़्त करना जायज़ नहीं। मुर्दार का गोश्त, या चर्बी या नजिस तेल और इन्सान का बरुअज़ जिस में मिट्टी ना मिलाई जाये फ़रोख़्त करना मना है और जुम्ए की अज़ान के वक़्त कोई चीज़ फ़रोख़्त करना मना है।

देखो ये कैसी बातें और इन में हुक्म-जारी करना क्या फ़ायदा रखता है अगर किसी को किसी दवा के लिए ये चीज़ें दरकार हों और कोई लाके बेचे तो क्या गुनाह है?

4 चौथी फ़स्ल

एहतिकार के ज़िक्र में

एहतिकार (احتکار) ये है कि अर्ज़ानी (ارزانی सस्तापन, कस्रत) के वक़्त ग़ल्ला जमा किया जाये इस इरादे से कि गिरानी (भाव की तेज़ी, काल) के वक़्त फ़रोख़्त करूँगा ये भी हराम है। अगर ये कार जहान उठ जाये तो हमेशा क़हत रहेंगे और मुल्क बर्बाद होगा और अगर नफ़ा की उम्मीद से गल्ला जमा करके ना रखें तो ज़रूरत के वक़्त रोटी मयस्सर ना आएगी। इन बातों के सिवा ख़रीद व फ़रोख़्त के दस्तूर और बैअ की क़िस्में उलमा मुहम्मदिया ने अपने इज्तिहाद (जद्दो जहद, क़ियास) से बहुत सी बयान की हैं और उस में भी बहुत गलतीयां हैं और बाअज़ मुक़ाम इल्म इंतिज़ाम मुदुन (बहुत से शहर) के ख़िलाफ़ हैं पर मैं ऐसे बयान करके किताब को नहीं बढ़ा सकता। मुहम्मदी आलिम तालिबे इल्म की उम्र ऐसी बातों में बर्बाद कर डालते हैं इन बातों से ना रूहानियत बढ़ती है ना दुनियावी फ़ायदा है ये मुआमलात की शरीअत है।

5 पांचवीं फ़स्ल

निकाह के बयान में

उलमा मुहम्मदिया कहते हैं कि शहवत के वक़्त निकाह वाजिब है और जब ज़िना का ख़ौफ़ हो तो फ़र्ज़ है बशर्ते के महर और नक़द देने की ताक़त हो और सुन्नत मोअक्कीदा (ताकीद किया गया) है हालत एतिदाल में। ऐसे ही ख़ुदा के कलाम से भी मालूम होता है चुनान्चे तौरेत में लिखा है कि अच्छा नहीं कि आदम अकेला रहे मैं उस के लिए एक औरत बनाऊँगा। और पौलुस रसूल से ये भी सुनते हैं कि अगर आदमी ज़ब्त (क़ाबू रखने) पर क़ादिर है तो बेहतर है कि निकाह ना करे। वर्ना मुनासिब है कि निकाह करे। यहां मुहम्मदी बयान और ख़ुदा के कलाम में कुछ मुख़ालिफ़त नहीं है।

मसीहियों के दस्तूर के मुवाफ़िक़ मुसलमानों को भी चाहिए कि निकाह से पहले औरत को देख लें, पर अगर बेज़ब्त (बेक़ाबू) हों तो ग़ैरों से मुलाहिज़ा करा लें। ज़रूर है कि निकाह के वक़्त कोई औरत का मुख़्तार हो के निकाह करवाए पर औरत की मर्ज़ी भी दर्याफ़्त करना ज़रूर है। निकाह के वक़्त दफ़ बजा कर शौहरत करना भी ज़रूर है या किसी और तरह से ताकि ये मुआमला मशहूर हो जाए। मुहम्मदी निकाह में शर्तें भी हो सकती हैं जितनी चाहें जानबीन शर्तें कर लें।

और तो सब बातें दुरुस्त हैं मगर ये शर्तें आज़ादगी के साथ मसीही दीन में नहीं हैं और ना होनी चाहीए सिर्फ यही शर्तें मुनासिब हैं कि उम्र-भर के लिए औरत मर्द की हुई और मर्द औरत का हुआ और वो उस की ख़िदमत व इज्ज़त करेगा और वह उस की। हर हाल में इस के सिवा और कुछ शर्तें अक़्लन व नक़्लन बेहतर नहीं हैं।

6 छठी फ़स्ल

निकाह मवक़्त

निकाह मवक़्त (किसी ख़ास वक़्त तक ठहराया गया निकाह) एक क़िस्म का निकाह मुसलमानों में है जिसको मुताअ (متعہ) कहते हैं। ये निकाह कुछ दिन के लिए यानी एक ख़ास वक़्त मुक़र्ररा तक की शर्त से कुछ दाम (कीमत) देकर किया जाता है, जब तक मियाद पूरी ना हो वो औरत बीबी है और मियां शौहर है और जब मियाद मुक़र्ररा पूरी हो गई औरत मर्द फ़ौरन निकाह से आज़ाद हो जाते हैं।

अगर ऐसे निकाह से औलाद जारी हो जाए तो उन को बाप का विरसा नहीं मिलता है बहुक्म इज्माअ उम्मत के। इसलिए कि उन की माँ ने मुताअ (متعہ) की उज्रत (मजदूरी) पाई थी ये निकाह और लोंडी बाज़ी राक़िम के गुमान में बराबर है।

अब सुन्नी मुसलमान इस निकाह को हराम जानते हैं और उन के दर्मियान ऐसे निकाह का अब दस्तूर नहीं है।

लेकिन शिआ मुसलमान अब तक इस को हलाल और जायज़ बतलाते हैं और ये दस्तूर उन में अब भी जारी है। इस में कुछ शक नहीं कि ये दस्तूर हज़रत मुहम्मद के हुक्म से जारी हुआ है और सुन्नी भी इस बात के क़ाइल हैं।

चुनान्चे मिश्कात किताब-उन्न-निकाह बाब ऐलान में बुख़ारी व मुस्लिम की रिवायत इब्ने मसऊद से यूं लिखी है कि :-

“हम लोग हज़रत के साथ जिहाद में थे और हमारे साथ औरतें ना थीं। पस हमने कहा या हज़रत हम खोजे हो जाएं तब हज़रत ने हमें ख़ोजा होने से मना किया और हमें रुख़्सत दी कि हम मुताअ (متعہ) करें पस कोई कोई हम में से किसी औरत को कपड़ा दे के किसी मुद्दत मुक़र्ररा तक निकाह किया करता था।”

ये हदीस सुन्नीयों की है और इस के माअनी वो लोग यूं करते हैं, कि इब्तिदा इस्लाम में ये दस्तूर जारी था मगर आख़िर को हज़रत ने इस दस्तूर से मना कर दिया। पस ये हदीस मन्सूख़ है तो भी इस बात का तो इक़रार हुआ कि ये दस्तूर इब्तिदा-ए-इस्लाम में हज़रत ही से मुसलमानों में जारी हुआ था। मगर साफ़ ज़ाहिर है तवारीख़ मुहम्मदी के देखने से जिहाद व ग़ज़वा (जंगे) ख़ास मदीना में जाकर होनी शुरू हुई थी यानी अजरा इस्लाम के 11 या 12 बरस बाद एक करन तो इस्लाम पर गुज़र चुका था इस वक़्त के अहकाम अवाइल (शुरू के) इस्लाम के अहकाम नहीं हैं बल्कि अवास्त (दरमियानी वक़्त के) इस्लाम के अहकाम हैं। और यह क्या बात है कि वो मुअल्लिम जो ख़ुदा की तरफ़ से होने का मुद्दई है उस की ताअलीम अवाइल व अवास्त व अवाखिर (शुरुआत, दर्मियानी, व आखिरी) में वही तौर (तरिक्र) दिखलाती है जो हम सब का तौर (तरीक़ा) है कि मौक़े के मुवाफ़िक़ कार्रवाई करते हैं या नादानी से कोई बात बोलते हैं जब उस का नुक़्सान ज़ाहिर होता है तब उसे छोड़ देते हैं।

इस के बाद दूसरी हदीस तिर्मिज़ी की रिवायत से मिश्कात में ये है कि :-

“इब्ने अब्बास कहते हैं कि मुताअ (متعہ) का दस्तूर अव्वल इस्लाम में था जब कोई मर्द किसी ऐसे शहर में जाता था जहां उस का कोई वाक़िफ़ ना हो तो वो किसी औरत से बक़द्र क़ियाम मुताअ (متعہ) कर लेता था, ताकि वो औरत अस्बाब की निगहबानी करे और खाना भी पकाए और हम-बिस्तर भी होए जब वो आयत उतरी कि बांदी (लौंडी) और बीबी के सिवा किसी और औरत से सोहबत करना ना चाहिए तो उस वक़्त ये दस्तूर हराम हो गया।”

ग़र्ज़ इजरा (चलन) इस का हज़रत ही से हुआ और मौक़ूफ़ (ख़त्म) भी इस को हज़रत ही ने किया तो भी शीया लोग जायज़ जानते हैं कि और मन्सूख़ नहीं बतलाते।

इस में कुछ शक नहीं कि फ़ी नफ़ा ये दस्तूर बद है और ज़िनाकारी है और इस सूरत में और भी ज़्यादा बद है कि जब उसे एक क़िस्म का निकाह समझें जैसे कि शीया व सुन्नी हर दो इस के क़ाइल हैं दोनों कहते हैं कि हज़रत मुहम्मद ने ये ताअलीम दी थी कि अगरचे एक फ़िर्क़ा कहता है कि अब ये मना है तो भी इक़रार है कि हमारे पैग़म्बर की ताअलीम है। पस अब ख़्वाह वो जारी हो बमूजब बयान अहले-शीया के या ना जारी हो बमूजब बयान अहले सुन्नत के बहर-ए-हाल हज़रत मुहम्मद की ज़रुरीया ताअलीम है और इस ताअलीम से उन की दिल की तहारत और ज़हन की रोशनी की बाबत हम कुछ समझ नहीं सकते हैं।

7 सातवीं फ़स्ल

निकाह ग़ैर-मवक़्त

ये वो है जो सब मुसलमान करते हैं। इस को ग़ैर-मवक़्त इसलिए कहते हैं कि इसके लिए भी कोई वक़्त नहीं है ख़्वाह मौत तक रहे या कभी दर्मियान में जाता रहे।

इस निकाह में मर्द इक़रार करता है कि मैंने इस औरत को क़ुबूल किया और औरत अपने दिल की ज़बान से इक़रार करती है कि मैंने इस मर्द को क़ुबूल किया। तो भी मर्द को इख़्तियार है चाहे तमाम उम्र उस औरत के साथ बसर करे या चाहे छोड़ दे। और इस इक़रार में मर्द की तरफ़ से ये भी शर्त नहीं है कि मैं सब औरतों को छोड़ के सिर्फ इसी औरत का शौहर रहूँगा क्योंकि वो और औरतें भी निकाह में ला सकता है, लेकिन औरत की तरफ़ से इक़रार ये है कि और सब मर्दों को छोड़कर तेरी ही बीवी रहूंगी और मैं तुझे कभी नहीं छोड़ सकती पर तू मुझे छोड़ सकता है।

इस निकाह में भी हमें बहुत सी बेइंसाफ़ी और ख़ुदग़र्ज़ी नज़र आती है और ख़ास करके औरतों पर ज़ुल्म है और ज़रूर ख़ुदा की तरफ़ से ये ताअलीम नहीं है क्योंकि वो मुंसिफ़ है और रहीम है।

मसीही मज़्हब में निकाह का इक़रार यूं है कि तमाम ज़िंदगी के लिए जब तक मौत हमें जुदा ना करे मैं इस औरत का शौहर रहूँगा और सब औरतों को छोड़कर सिर्फ इसी औरत का मैं हो गया हूँ और इसी तरह औरत भी सब मर्दों को छोड़कर तमाम उम्र के लिए उसी की बीवी हो गई है और हर दो एक तन हैं। ज़रूर ये निकाह ख़ुदा से है जिसमें इन्साफ़ हे, हां अगर वो लोग ज़िना करके इस इक़रार को तोड़ डालें तो मुम्किन है कि जुदाई हो जाएगी।

8 आठवीं फ़स्ल

हराम औरतों के बयान में

हराम औरतें जिनसे शराअ (शरीअते) मुहम्मदी में निकाह नाजायज़ है ये हैं :-

(फ) हलाला ये है कि मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा) औरत किसी और शख़्स से निकाह करे और ज़रूर इस से हम-बिस्तर होए और फिर वो शख़्स उसे तलाक़ दे तो अब ये औरत अगर चाहे कि ख़सम साबिक़ (पहले शोहर) से निकाह करे तो जायज़ है मगर जब तक दूसरा ख़सम (शोहर) ना कर चुके पहले ख़सम (शोहर) की तरफ़ रुजू करना नाजायज़ है। ये नौ (9) क़िस्म की हराम औरतें फ़तावा आलमगीरी के मतलब का ख़ुलासा है।

ख़ुदा की शरीअत में बलिहाज़ हुर्मत के अपने माँ बाप की तरफ़ से शीर (شیر) का बचाओ है और अपनी बीबी से भी वैसा ही बचाओ है, क्योंकि ख़ुदा के हुक्म के मुवाफ़िक़ अपनी बीबी के साथ एक तन होके पूरी यगानगत पैदा करता है।

अगर आदमी उन औरतों की बाबत फ़िक्र करे और इस इंतिज़ाम पर भी सोचे तो जानेगा कि यहां ज़्यादा हया शर्म और अका़रिब की हुर्मत है।

9 नौवीं फ़स्ल

महर का बयान

निकाह के वक़्त औरतों के लिए कुछ महर मुक़र्रर किया जाता है, गोया ये पहले हम-ख़्वाबी (हम-बिस्तर होने) की उज्रत (मज्दूरी) है। अदना दर्जे का महर दो रुपया दस आना हैं और ज़्यादा जहां तक ख़ावंद (शोहर) अदा कर सके। हज़रत की बीबी उम्म हबीबा का महर एक हज़ार पचास रुपये का मुक़र्रर हुआ था। और हज़रत की बेटी बीबी फ़ातिमा का महर एक सौ पचास रुपये का था। इनके सिवा और सब औरतों और बेटीयों का महर एक सौ इकत्तीस रुपया चार आना का बाँधा गया था।

ये महर ख़ावंद (शोहर) को अदा करना ज़रूर है या बीबी माफ़ कर दे या ज़रूर उसे दिया जाये अगर ख़ावंद (शोहर) ना दे तो बीबी नालिश करके ले सकती है और जो बीबी मर जाये तो उस की औलाद बाप से ले सकती है। मगर निहायत मुनासिब ये है कि निकाह के बाद हम-ख़वाबी (हम-बिस्तरी) से पेशतर अदा कर दिया जाये क्योंकि हज़रत ने अपने दामाद अली से कहा था कि हम-बिस्तर होने से पहले फ़ातिमा का महर दीजिए उसने कहा मेरे पास कुछ नक़दी इस वक़्त मौजूद नहीं है, फ़रमाया अपनी ज़र्रा (ذرہ) दे दे तब उस ने ज़र्रा (ذرہ) दे दी इस के बाद हम-ख़्वाब (हम-बिस्तर) हुआ।

मसीहियों में कुछ महर मुक़र्रर नहीं है, इसलिए कि बीबी और मियां में किसी तरह का फ़र्क़ नहीं रहता है। जो कुछ ख़ावंद (शोहर) के पास है या वो सारी उम्र में कमाएगा सब कुछ बीबी का हो गया है, ख़ावंद मए अपने सब माल के बीबी का हो गया है और बीबी उस की हो गई है। पस मुहम्मदी निकाह में बहुत फ़र्क़ है इसलिए इस (मुहम्मदी, इस्लामी) निकाह में महर की ज़रूरत है क्योंकि वहां फ़र्क़ क़ायम है, इस (मसीही) निकाह में महर की ज़रूरत नहीं है क्योंकि फ़र्क़ नहीं है।

10 दसवीं फ़स्ल

वलीमा या शादी के खाने और सब क़िस्म के

ज़ियाफ़तों के ज़िक्र में

मुसलमानों में आठ क़िस्म की ज़याफ़तें या खाने होते हैं और यह ना सिर्फ मज़्हबी ताअलीम है मगर मुल्की और रिवाजी बात है जो शराअ (शरीअत) में भी जायज़ रही है।

उन सब खानों के नाम में भी अरबी ज़बान में जुदा-जुदा हैं और वो ये हैं। ख़ुरस, अक़ीक़ा, आज़ार, नक़ीआ, वकीरा, मादबा, वख़ीमा, वलीमा।

(1) ख़रस (خرس) वो खाना है जो बच्चा पैदा होने की ख़ुशी में खिलाया जाता है।

(2) अक़ीक़ा (عقیقہ) वो खाना है कि बच्चे के नाम रखने के वक़्त खिलाया जाता है।

(3) आज़ार (اعذار) वो खाना है कि खतना के वक़्त खिलाते हैं।

(4) नक़ीआ (نقیعہ) वो खाना है जो मुसाफ़िर को खिलाते हैं।

(5) वकीरा (وکیرہ) वो खाना है जो मकान की इमारत तमाम होने के वक़्त खिलाया जाता है।

(6) मादबा (مادبہ) वो खाना है जो यूँही बिला किसी ख़ास सबब के खिलाया जाता है।

(7) वख़ीमा (وخیمہ) वो खाना है जो मुसीबत के वक़्त खिलाते हैं।

(8) वलीमा (ولیمہ) वो खाना है जो बाद निकाह के खिलाते हैं।

वलीमा सुन्नत है या वाजिब, मगर और सब वाजिब नहीं हैं ये ख़ुशी का खाना है सब क़ौमों में इस का रिवाज है। मसीहियों में भी क़िस्म क़िस्म के खाने हैं मगर सब कुछ तौफ़ीक़ पर है वाजिब या सुन्नत कुछ नहीं है मुहब्बत की ज़ियाफ़तें हैं जो ख़ुदा के जलाल और शुक्रगुज़ारी में की जाती हैं इन बातों में फ़ायदा है।

11 ग्यारवीं फ़स्ल

औरतों की बारी मुक़र्रर करना

मुहम्मदी ताअलीम में चूँकि एक मर्द चार बीवीयां भी रख सकता है, इसलिए उन्हें ज़रूरत है कि अपनी बीबी के लिए बारियां मुक़र्रर करें। ताकि मर्द उन की बारियों के मुवाफ़िक़ उन की ख़िदमत में हाज़िर हुआ करे और किसी का हक़ तलफ़ ना करे। क़ुरआन में लिखा है, فان تعدلو فواحدہ अगर अदल ना कर सको तो एक ही जोरू (बीबी) करो। पस अगर बमूजब ऊपर की आयत के दो-दो तीन-तीन चार-चार बीबियाँ करें तो शर्त ये है कि उन में बराबरी और अदालत की जाये वर्ना नाजायज़ है कि एक से ज़्यादा की जाये।

मगर ये बात मुहाल है कि इन्सान सब औरतों को एक ही नज़र से देखे और सब के हक़ बराबर अदा करे। इसलिए उलमा ने इस आयत के मअनी यूं बयान किए हैं कि, एक-एक रात सब के पास रहना और बराबर हमनशीनी करना और बराबर खाना कपड़ा देना ज़रूर है। मगर बराबर हमख़्वाबी (हम-बिस्तरी) और बराबर मुहब्बत सबसे करना कुछ ज़रूर नहीं यानी लफ़्ज़ अदालत (इन्साफ) में ये बात शामिल नहीं है।

देखो उलमा मुहम्मदिया की तमीज़ ने ख़ुद गवाही दी कि सब औरतों से बराबर मुहब्बत और हम-ख़वाबी (हम-बिस्तरी) करना मुहाल है, इसलिए उन्होंने अदालत (इन्साफ़) के और ही मअनी तस्नीफ़ किए कि सब के पास बराबर वक़्त में बैठना और खाना कपड़ा बराबर देना बस अदालत (इन्साफ) है, मगर मुहब्बत बराबर करना कुछ ज़रूर नहीं है। मगर ये अदालत (इन्साफ) तमीज़ इन्सान के ख़िलाफ़ है, उन्हें साफ़ कहना चाहिए था कि या तो कस्रत-ए-अज़्वाज (एक से ज्यादा बीबी रखने) की ताअलीम ही ग़लत है या इस में शर्त-ए-अदालत ग़लत है।

बिलफ़र्ज़ अगर ये बनावटी मअनी अदालत के जो ख़िलाफ़ तमीज़ हैं क़ुबूल भी किए जाएं तो एक और तमाशा नज़र आता है कि हज़रत ने ख़ुद इस आसान अदालत पर भी अमल नहीं किया और साफ़ दिखलाया कि ये भी कस्रत इज़्दवाज (यानी एक से ज़्यादा बीबियाँ रखने) में मुहाल है।

आख़िर उम्र में हज़रत मुहम्मद के पास नौ (9) औरतें इकट्ठी मौजूद थीं लेकिन बारियां आठ (8) की थीं। सिर्फ आईशा के लिए दो रातें थीं और सब के लिए एक एक रात थी सो वो औरत बारी से महरूम थी।

फिर ये दस्तूर भी था कि जब हज़रत मुहम्मद किसी कुँवारी औरत को लेते थे तो अव़्वल में सात रात बराबर उस के पास रहते थे और जो ग़ैर-कुँवारी से निकाह करते थे तो उस के लिए तीन रात मुक़र्रर थीं ये भी अदालत (इन्साफ) मुफ़स्सिरा के ख़िलाफ़ था।

मगर उलमा मुहम्मदी इस का जवाब यूं देते हैं कि औरतों के हक़ में अदालत (इन्साफ) करना हज़रत मुहम्मद पर वाजिब ना था, वो अपनी ख़ुशी से जिस क़द्र हो सकता था अदालत करते थे। पर ख़ुदा की तरफ़ से ख़ास उन के लिए इस अम्र में अदालत की शर्त ना थी, लेकिन मुसलमानों के लिए अदालत शर्त है।

देखो ये कैसा जवाब है, कि किसी आदमी का दिल इन्साफ़ को पसंद कर सकता है जब कि अदालत ख़ुदा की सिफ़त है और मुहाल है कि ख़ुदा कभी भी अदालत से बाहर कोई काम करे और बंदगान ख़ुदा पर फ़र्ज़ है कि अदालत करें वर्ना ख़ुदा के मुजरिम होंगे। मगर रसूल ख़ुदा को जायज़ है कि वो कभी-कभी अदालत (इन्साफ) ना करें उन पर अदालत वाजिब नहीं है।

हम कहते हैं कि कस्रत इज़्दवाज (एक से ज़्यादा बीवियां रखने) की ताअलीम ही खिलाफ-ए-अदालत (बेइन्साफी) है। जब एक मर्द ने चार औरतों से शादी की तो इस के ये मअनी हैं कि, ऐ औरतों तुम चारों बिल्कुल मेरी हो और हर एक तुम में से बिल्कुल पूरी-पूरी मेरी है और मैं हर एक के लिए पूरा नहीं हूँ, बल्कि हर एक के लिए 1/4 और फिर इस ताअलीम में अदालत की शर्त है यानी अम्र अदालत शिकन में अदालत शर्त है और अदालत से मुराद वो अदालत है जो फ़िल-हक़ीक़त अदालत नहीं है, क्योंकि हम-ख़वाबी (जिस्मानी रिश्ते) और मुहब्बत जो हक़ीक़ी रुक्न अदालत का औरतों के बारे में है वो इस अदालत से ख़ारिज (बाहर) है सिर्फ ज़ाहिरी हम-नशीनी और खाना कपड़ा बराबर देना अदालत (इन्साफ) कहलाता है, जिससे अदालत की ग़र्ज़ हरगिज़ पूरी नहीं हो सकती।

नाज़रीन को इन बातों पर फ़िक्र कर के सोचना चाहिए, कि क्या ये ताअलीमात ख़ुदा से हैं या किसी इन्सान की ख़्वाहिशों में से निकली हैं?

शायद कोई कहे कि पुराने अहदनामे में भी पैग़म्बरों की निस्बत लिखा है कि उन्होंने भी बहुत से औरतें जमा की थीं। जवाब मुख़्तसर ये है कि, ख़ुदा ने पहले आदम को एक ही औरत बख़्शी थी और इन्सान की बिगड़ी हुई हालत से पहले ये इंतिज़ाम ख़ुदा ने किया था। पस उस की अच्छी हालत का इंतिज़ाम ख़ुदा से यही है कि एक बीबी हो। मगर जब इन्सान की हालत बिगड़ गई तो हम देखते हैं कि क़ाइन ज़ालिम के पोते लमक ने ये बुरा दस्तूर जारी किया कि अदा और ज़िला दो औरतें जमा कीं फिर उसी की सुन्नत, ये दुनिया में जारी हुई और इस में लोगों ने अपनी नफ़्सानी ख़्वाहिशों के सबब से बड़ी तरक़्क़ी की पस जिन्हों ने ये काम किया अपनी नफ़्सानी ख़्वाहिशों से किया और बुरा किया और ख़ुदा ने भी उन की इस बद-हालत से तरह दी, पर जब मसीह आया और इन्सान की बहाली का वक़्त शुरू हुआ फिर वही आदम वाला दस्तूर जारी हुआ। अब हम कस्रत-ए-इज्दवाज़ (एक से ज़्यादा बीबियाँ रखने) को ना पैग़म्बरों की सुन्नत मगर लमक की सुन्नत जानते हैं और आदम की हालत बेगुनाही की सुन्नत छोड़कर आदमी की बुरी हालत और नफ़्सानी ख़्वाहिशों की सुन्नत पर नहीं चल सकते, जो ख़िलाफ़-ए-अदालत और ख़िलाफ़-ए-अक़्ल और ख़िलाफ़-ए-हुक्म के है।

12 बारहवीं फ़स्ल

औरतों से ख़ुश-मिज़ाजी करना

मिश्कात किताब-उन्न-निकाह बाब अशरा-उन्न-निसा में लिखा है कि :-

“हज़रत मुहम्मद ने ताअलीम दी है, कि औरतों के साथ ख़ुश-मिज़ाज रहना चाहिए और उन्हें नसीहत भी देना चाहिए।”

ये ताअलीम अच्छी है और ख़ुदा के कलाम में भी ऐसा लिखा है कि अपनी बीवीयों के साथ ख़ुश-मिज़ाज रहना चाहिए। और हज़रत ने औरतों के मारने से भी मना किया है ये सब मुनासिब और लायक़ बातें हैं।

मगर और बातें इसी बाब में ऐसी भी मज़्कूर हैं कि उनका ज़िक्र शर्म की बात है। पर उस का हासिल ये है कि औरतों को भी मर्दों के लिए हर वक़्त हाज़िर रहना चाहिए जब वो बुलाऐं। बिला-उर्ज़ हाज़िर होना चाहिए वर्ना ख़ुदा के फ़रिश्ते सारी रात औरत पर लानत भेजा करते हैं इस जुर्म में कि उस ने इस रात हमख़वाबी (हम-बिस्तरी) से इन्कार किया था।

“आईशा कहती है कि मैं लड़कीयों के साथ खेला करती थी जब हज़रत आते थे तो लड़कीयां भाग जाती थीं। मगर हज़रत अपनी ख़ुश-मिज़ाजी के सबब लड़कीयों को बुला कर मेरे पास भेजा करते थे। एक दिन का ज़िक्र है कि हज़रत दरवाज़े पर खड़े थे और हब्शी नट बर्छियों पर तमाशे कर रहे थे तब हज़रत मुहम्मद ने आईशा को अपने कपड़े की आड़ में लेकर अपने कंधे पर चढ़ाया और तमाशा दिखलाया।”

इस से ज़ाहिर है कि हज़रत बीवीयों से बहुत ख़ुश-मिज़ाज थे।

और आईशा बीबी भी हज़रत मुहम्मद से ठट्ठा (हंसी-मज़ाक) किया करती थीं चुनान्चे एक ठट्ठा उनका हज़रत से ये भी हुआ वो कहते हैं कि :-

मैं उन औरतों पर ऐब लगाया करती थी जो अपना नफ़्स हज़रत को मुफ़्त बख़्श देती थीं मैं कहती थी कि ये कैसी बे-हया और शहवत पुर हरीज़ औरतें हैं कि बे-निकाह मुफ़्त अपना बदन मेरे ख़ावंद (शोहर) को हम-बिस्तर होने के लिए बख़्श देती हैं। ये बात मेरे दिल में थी, जब वो आयत नाज़िल हुई कि “निकाल दे जिस औरत को तेरा दिल चाहे और रख ले उस औरत को जिसको तेरा दिल चाहे” तब आईशा कहती हैं कि मैं यूं बोली, مااریٰ ربک الایسار ع فی ھواک मैं देखती हूँ तेरे ख़ुदा को, कि तेरे दिल की ख़्वाहिशें जल्द-जल्द पूरी करता है।”

पस ये आईशा का ठट्ठा हज़रत के साथ हुआ।

देखो ना इस वक़्त सिर्फ़ हमारी तमीज़ ये कहती है कि मुहम्मदी ताअलीम हज़रत मुहम्मद की नफ़्सानी ख़्वाहिशों का मज़हर है। मगर उन के अस्हाब बल्कि हम-किनार बीबी की तमीज़ भी इस बात पर गवाही देती थी कि ये ख़ुदा उस की ख़्वाहिशों के मुवाफ़िक़ चलता है। पस ये एक बात हज़रत की अदम नबुव्वत (नबुव्वत के रद्द) पर काफ़ी दलील है, क्योंकि ख़ुदा जो हक़ीक़ी ख़ुदा है अक़्लन व नक़्लन मुहाल है कि किसी आदमी की नफ़्सानी ख़्वाहिशों के मुवाफ़िक़ चले पर वो अपनी मर्ज़ी और इरादों के मुवाफ़िक़ आदमी को चलाना चाहता है। सारे पैग़म्बर ख़ुदा की मर्ज़ी की तरफ़ आदमीयों को खींचते हैं और अपनी ख़्वाहिशों को उस की मर्ज़ी के ताबे करना चाहते हैं, पर यहां देखते हैं कि ख़ुदा एक आदमी की ख़्वाहिशों के ताबे है पस भाईयों होशियार हो जाओ।

औरतों के हुक़ूक़ मर्दों पर और मर्दों के हुक़ूक़ औरतों पर हैं। इनका मुफ़स्सिल बयान हज़रत मुहम्मद की ताअलीम में जो लिखा है सो बाब अशरा-उन्न-निसा में देखना चाहिए जिसका हवाला ऊपर है और मसीही दीन की ताअलीम जो इस बारे में है इस का ज़िक्र मुफ़स्सिल किताब नमाज़ तर्तीब निकाह के आख़िर में अगर कोई देखना चाहे तो देखे और फिर इन्साफ़ से कहे, कि कौनसी ताअलीम ख़ुदा से है और कौनसी ताअलीम नफ़्स-ए-अम्मारा (गुनाह पर ले जाने वाला नफ़्स) और अक़्ल-ए-इन्सानी से है?

13 तेरहवीं फ़स्ल

तलाक़ के बयान में

मुहम्मदी ताअलीम है कि हर मर्द अपनी बीबी को जब चाहे और जिस वजह से चाहे तलाक़ दे सकता है। चुनान्चे यहूदी भी ऐसा करते थे जिनके बारे में सय्यदना मसीह ने फ़रमाया तुम्हारी सख़्त दिली के सबब मूसा ने ऐसा हुक्म दिया है।

और हज़रत मुहम्मद ने भी फ़रमाया है कि, البغض الحلال الی اللہ الطلاق यानी हलाल चीज़ें जिससे ख़ुदा को बहुत ग़ुस्सा है वो तलाक़ है। यानी अगरचे ये काम जायज़ है तो भी ख़ुदा इस से सख़्त नाराज़ है।

मिश्कात बाब अल-वस्वसा में मुस्लिम से जाबिर की रिवायत है कि :-

“फ़रमाया हज़रत ने, शैतान के पास एक तख़्त है वो उसे पानियों पर रखकर बैठा करता है और उस के नौकर अपनी ख़िदमतगुज़ारी का रोज़-नामचा उसे सुनाया करते हैं कि हमने फ़ुलां फ़ुलां शरारत के काम आज किए हैं और शैतान हर एक की कार-गुज़ारी के मुवाफ़िक़ उन की इज़्ज़त किया करता है पर जब कोई नौकर कहता है कि मैंने एक औरत में फ़साद डलवा के तलाक़ करा दी है तो शैतान बहुत ख़ुश होके उसे अपने गले से लगा लेता है।”

यहां से ज़ाहिर है कि तलाक़ का दस्तूर ख़ुदा के नज़्दीक मकरूह है अगरचे उसने जायज़ किया है और यह कि शैतान को इस में बहुत ख़ुशी है। मूसा की शराअ (शरीअत) में जो तलाक़ जायज़ थी इस की वजह तो सय्यदना मसीह ने वो बतलाई है जिसको अक़्ल भी क़ुबूल करती है, कि आदमीयों की सख़्त दिली के सबब से उस ने ऐसा हुक्म दिया था। पर मुहम्मदी शराअ (शरीअत) में जो ये जायज़ है इस की वजह क्या है? आया सख़्त दिली आदमीयों की या मुनासिब इंतिज़ाम उम्मत मुहम्मदिया का ये ख़ुदा की तरफ़ से है? अगर आदमीयों की सख़्त दिली के सबब से ये रिवाज है, तो ज़रूर हज़रत मुहम्मद भी सख़्त दिल-आदमी होंगे जिन्हों ने कई औरतों को तलाक़ दी थी और वो तलाक़ ज़रूर शैतान के किसी नौकर की तहरीक से वाक़ेअ होगी, बमूजब हदीस जाबिर के। या मह्ज़ नेक इंतिज़ाम के लिए तलाक़ होगी, अगर इस मतलब पर तलाक़ है तो बड़ी नेकी है पर ख़ुदा के नज़्दीक البغض حلال क्यों हुई? और वो कौनसी नेकी है जिससे शैतान ख़ुश हो सकता है, वो तो मह्ज़ बदी से ख़ुश होता है ना नेकी से इसलिए हैरानी है कि शरीअत मुहम्मदिया की तलाक़ का क्या मंशा है।

और जब हम ज़ैद और ज़ैनब की तलाक़ पर सोचते हैं और हज़रत मुहम्मद की ख़ुशनुदी इस में पाते हैं, जिसका साफ़ ज़िक्र क़ुरआन में है। तब और भी हैरान हैं कि हज़रत मुहम्मद इस फ़ेअल से क्यों ख़ुश थे जो ख़ुदा के नज़्दीक मबग़ूज़ (क़ाबिल-ए-नफ़रत) था और शैतान के नज़्दीक निहायत अच्छा था। अब सोच लें कि इस मुआमले में हज़रत मुहम्मद किस की तरफ़ थे। ग़र्ज़ ये ताअलीम जिसकी मंशा और ग़र्ज़ और बयान में बहुत गड़-बड़ है यानी तलाक़ शरीअत मुहम्मदिया में हर वजह से जायज़ है और इस की कई किस्में हैं।

14 चौधवीं फ़स्ल

खुला के बयान में

ये एक क़िस्म की तलाक़ है। इस का मतलब ये है कि अगर कोई औरत अपने शौहर की जोरू (बीबी) रहना नहीं चाहती उस से आज़ाद होना चाहती है तब वो अपने ख़ावंद (शौहर) को किसी क़द्र माल देकर राज़ी करती है कि उसे छोड़ दे, अगर ख़ावंद (शौहर) मंज़ूर करे और इस तरह से छोड़ दे तो ये खुला हुआ।

15 पंद्रहवीं फ़स्ल

तलाक़ मुग़ल्लिज़ा व मख़फ़फ़ा के ज़िक्र में

तलाक़ मुग़ल्लिज़ा (مغلظہ) ये है कि मर्द तीन बार अपनी औरत से यूं कहे कि, “ऐ औरत मैंने तुझे तलाक़ दी।” पस इस से निकाह उनका मुतलक़ टूट जाता है वो फिर उस की जोरू (बीबी) नहीं हो सकती, जब तक किसी ग़ैर से निकाह करके और हम-बिस्तर होके और उस से फिर तलाक़ ले के ना आए और फिर इस से निकाह ना करे। यही हुक्म क़ुरआन में साफ़ लिखा है, حتی تنکح زوجاً غیر तलाक़ मख़फ़फ़ा (مخففہ) उस सख़्ती के अल्फ़ाज़ में नहीं है, इसलिए इस से मुराजअत हो सकती है बग़ैर हलाला के।

16 सोलहवीं फ़स्ल

लिआन के बयान में

लिआन (لعان) भी एक क़िस्म की तलाक़ है, वो ये है कि अगर कोई मर्द अपनी औरत की निस्बत ज़िनाकारी का दाअ्वा करे तो दोनों क़ाज़ी के सामने हाज़िर हों और जब मर्द गवाहों से ज़िना का सबूत औरत की निस्बत ना दे, तो चार दफ़ाअ यूं कहे ख़ुदा की क़सम में इस दाअ्वे में सच्चा हूँ और पांचवीं दफ़ाअ यूं कहे, “अगर मैं झूटा हूँ तो मुझ पर ख़ुदा की लानत हो।” फिर औरत चार दफ़ाअ यूं कहे, “ख़ुदा की क़सम ये मर्द झूटा है और पांचवीं बार औरत यूं कहे, “अगर ये मर्द सच्चा हो तो मुझ पर ख़ुदा की लानत पड़े।” ये लिआन (لعان) है यानी इस में एक दूसरे पर लानत करना जब ये हुआ तो तलाक़ पड़ गई अब दोनों में जुदाई हो गई।

17 सत्रहवीं फ़स्ल

इद्दत का बयान

इद्दत उस मुद्दत को कहते हैं जिसमें औरत को ज़रूर है कि निकाह ना करे जब वो मुद्दत पूरी हो जाए तब निकाह करे।

अगर ख़ावंद (शौहर) मर जाये तो चार (4) महीने दस (10) दिन तक औरत को निकाह करना दुरुस्त नहीं है, उस की ये इद्दत है। अगर वो हामिला है तो जनने तक इद्दत रहती है या तीन (3) महीने तक अगर हैज़ ना आता हो।

मगर लौंडी मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा) की इद्दत दो हैज़ हैं या डेढ़ महीना और अगर लौंडी का ख़ावंद (शौहर) मर जाये तो दो (2) महीने पाँच (5) दिन इद्दत है। ये बंदो बस्त इसलिए है कि वो नुत्फ़ा मिल ना जाये।

ये बंदो बस्त मुनासिब है इस में कुछ नुक़्सान नहीं है, बल्कि फ़ायदा है हाँ मुद्दत इद्दत की वक़्त के मुनासिब चाहिए, पर जो इनके नज़्दीक इसी क़द्र मुनासिब है और लोगों के ख़्याल में कुछ ज़्यादा वक़्त मतलूब है।

18 अठारवीं फ़स्ल

अतक़ के बयान में

ग़ुलाम के आज़ाद करने को अतक़ (عتق) कहते हैं इस का बड़ा सवाब है कि ग़ुलाम आज़ाद किया जाये। ये बात बहुत दुरुस्त है कि ग़ुलाम को आज़ाद करना चाहते हैं लेकिन क्या ख़ूब बात है कि ग़ुलाम रखने की रस्म ही जहान में ना रहे। पर ख़ैर शरीअत-ए-मुहम्मदी में ग़ुलाम रखने का दस्तूर जारी है, तो भी उन की तमीज़ कहती हैं कि आज़ादगी चाहिए इसलिए कहते हैं कि बड़ा सवाब है कि ग़ुलाम आज़ाद किया जाये।

लेकिन बाअज़ वक़्त ग़ुलाम आज़ाद करना गुनाह भी है। उस वक़्त कि जब ख़ौफ़ हो कि वो काफ़िरों के मुल्क में चला जाएगा या इस्लाम छोड़ देगा, तो इस सूरत में आज़ाद करना मना है, इसलिए कि जबरी इस्लाम (इस्लाम फ़ैलाने में ज़ोर-जबर) भी उन की शरीअत में महमूद (तारीफ़ के लायक़) है।

19 उन्नीसवीं फ़स्ल

क़सम के बयान में

मुहम्मदी ताअलीम में क़सम की तीन सूरतें हैं (غموس) ग़मूस, (لغو) लगू, (منعقدہ) मुन्अक़िदा।

ग़मूस (غموس) वो झूटी क़सम है जो माज़ी या हाल के अम्र पर खाई जाये। इस क़सम का खाने वाला उन की शरीअत में गुनाहगार है, उस को चाहिए कि तौबा करे।

लगू (لغو) क़सम ये है कि अपने गुमान में वो सच्ची क़सम खाता है अम्र माज़ी या हाल पर मगर हक़ीक़त में उस का गुमान बातिल है। पस इस क़सम पर उन की शरीअत कहती है कि ख़ुदा सज़ा ना देगा बल्कि ये माफ़ है।

मुन्अक़िदा (منعقدہ) वो क़सम है कि अम्र आइन्दा पर क़सम खाई जाये और इस का पूरा करना ज़रूर है, अगर उसे पूरा ना कर सके तो कफ़्फ़ारा दे। ग़ुलाम आज़ाद करे, या दस (10) आदमी को खाना खिलाए या तीन दिन रोज़ा रखे।

देखो इन हर सह क़सम से आज़ाद होना कुछ मुश्किल बात नहीं है। यहूदी रब्बी लोग भी ऐसी रिवायतें सुनाते थे और लोगों को क़सम से आज़ाद किया करते थे। ये सब वही बातें हैं जो हज़रत ने यहूदीयों से मालूम की हैं। ये ताअलीम कि लगू क़सम माफ़ है, इसी ने अहले इस्लाम की अवाम को ऐसी जुर्आत क़सम के बारे में दी है कि वो बात बात में क़सम खाते हैं। पर ख़ुदा के कलाम में क़सम खाना मना है, हाँ ज़रूरत के वक़्त हाकिम के हुक्म से अल्लाह की क़सम खाना जायज़ है जो एक संजीदगी से वाक़ेअ होती है पर बातचीत के दर्मियान या अदना बातों पर एसी हरकत करना मुनासिब नहीं है।

20 बीसवीं फ़स्ल

औरतों की अक़्ल और दीन का ज़िक्र

मिश्कात किताब-उल-ईमान में अबू सईद ख़ुदरी से मुस्लिम और बुख़ारी रिवायत करते हैं कि :-

“फ़रमाया हज़रत ने, ऐ औरतों ! मैं देखता हूँ कि मर्दों की निस्बत दोज़ख़ में औरतें बहुत हैं उन्होंने इस का सबब पूछा तो फ़रमाया, हज़रत ने कि तुम नाक़िस (कम) अक़्ल और नाक़िस (कम) दीन हो तुम्हारी अक़्ल में और तुम्हारे दीन में भी नुक़्सान है तुम लानत बहुत करती हो और खाविंदों (शौहरों) की नाशुक्री करती हो और होशियार आदमी की अक़्ल खो देती हो तुम्हारी अक़्ल इसलिए नाक़िस है कि मेरी शरीअत में एक औरत की गवाही बराबर है निस्फ़ मर्द के और तुम्हारा दीन इसलिए नाक़िस है कि अय्याम हैज़ में (तुम से) रोज़ा नमाज़ नहीं हो सकती हो।”

इस ताअलीम को कौन क़ुबूल कर सकता है? क्योंकि ये हर दो नुक़्सान औरतों के अंदर ख़ुदा ने पैदा नहीं किए हैं ये तो हज़रत मुहम्मद की शराअ (शरीअत) के नुक़्सान में जबरन एक औरत की गवाही को निस्फ़ मर्द के बराबर इस शरीअत ने तज्वीज़ किया है और जबरन इसे रोज़ा नमाज़ से रोका है। पर अक़्ल ये कहती है कि जैसे मर्द है वैसी ही औरत भी एक इन्सान है इस में भी नफ़्स-ए-नातिक़ा है, क्यों उस की गवाही एक मर्द के बराबर ना हो और अय्याम हैज़ में क्यों वो नमाज़ से बाज़ आए? ख़ुदा की इबादत रूह से होती है वो हर हालत में (इबादत) कर सकती है। मुहम्मदी शराअ (शरीअत) में ये बहुत ही बड़ा नुक़्सान है कि औरतों को मर्द की निस्बत नाचीज़ या कमतर और हक़ीर गिना है और यह दलील है इस बात की कि ये शराअ (मुहम्मदी शरीअत) ख़ुदा से नहीं है ख़ुदा का कलाम बतलाता है कि औरत और मर्द ख़ुदा के सामने यकसाँ हैं ईलाही नेअमतें हर दो के लिए बराबर हैं। ये बात दुरुस्त है कि मुसलमान लोग औरतों को हक़ीर जान कर उन की ताअलीम और तर्बीयत में बहुत कम कोशिश करते हैं उन्हें गु़लामी की हालत में डाल रखा है उन्हें कोठरियों में बंद करके दीन, दुनिया के भेदों से वाक़िफ़ होने नहीं देते हैं, इसलिए वो ज़लील हालत में हैं अगर उन्हें ज़रा आज़ादगी बख़्शें तो देखो मर्दों के बराबर तरक़्क़ी करती हैं या नहीं अहले-यूरोप की औरतों और अहले-एशिया की औरतों पर ग़ौर करो। पर ये ज़लील हालत जो एशिया की औरतों में है इस का सबब सिर्फ़ शरीअते मुहम्मदी है और यह अच्छी हालत जो अहले-यूरोप की औरतों को हासिल है इस का सबब सिर्फ़ ख़ुदा का कलाम है।

21 इक्कीसवीं फ़स्ल

ताअलीम दीन के बयान में

हज़रत ने इल्मे दीन के सीखने और सिखलाने की बाबत बड़ी फ़ज़ीलत और सवाब और ताकीद का बयान किया है और उलमा मुहम्मदिया ने और उलमा मसीहिया ने भी इस बारे में बहुत सी हिदायतें की हैं।

मगर यहां सिर्फ मुहम्मदी ताअलीम और कलाम-ए-ईलाही का ज़िक्र है, इसलिए मालूम करना चाहिए कि मुक़द्दर इल्म सीखने की मिश्कात बाब-उल-इल्म में अबू दाऊद से यूं बयान हुई है कि :-

“सवाल किया गया हज़रत से कि या हज़रत आदमी किस क़द्र इल्म सीखने से फ़क़ीह हो जाता है? फ़रमाया, जो कोई मेरी उम्मत के फ़ायदे के लिए चालीस (40) हदीसें याद कर ले तो ख़ुदा उस को क़ियामत के दिन फ़क़ीह करके उठाएगा और मैं उस का गवाह और शफ़ाअत करने वाला हूँगा।”

इस हदीस के मुवाफ़िक़ बाअज़ मुसलमान चहले हदीस जो एक छोटा सा रिसाला है याद किया करते हैं ये कुछ बात नहीं है इस से क्या फ़ायदा है?

मसीही फ़क़ीह का अहवाल पहले ज़बूर में यूं लिखा गया है कि वो “ख़ुदावन्द की शरीअत में मगन रहता है और दिन रात उस की शरीअत में सोचा करता है।” अब इस ताअलीम और उस ताअलीम का भी मुक़ाबला करो और सोचो कि कौनसी बात क़रीन-ए-क़ियास है।

ये मैं मानता हूँ कि बाअज़ मुहम्मदी लोग दुनियावी उलूम पढ़ते हैं और मुहम्मदी शरीअत को भी ख़ूब दर्याफ़्त करते हैं और यह उन ख़वास का अपना शौक़ है, मगर मुहम्मदी ताअलीम सिर्फ यही सिखलाती है जिसका ऊपर ज़िक्र हुआ।

हाँ मसीही लोगों में भी लाखों आलिम हैं और उलूम दुनियावी और दीनी भी पढ़ते हैं पर ख़ुदा का कलाम सिर्फ उसी को मुबारक बतलाता है जो ख़ुदा की शरीअत में मगन रहता है और रात-दिन इस में सोचता है, ताकि कलाम-ए-ईलाही के भेदों को दर्याफ़्त करके उनकी तासीर अपने अंदर हासिल करे ना कि ये चालीस (40) बातें याद कर ले।

और यह ज़ुकूर (ज़िक्र की जमा) जो ज़बूर में है ख़ास उलमा का नहीं है, मगर चाहिए कि हर मसीही मर्द व औरत ख़ुदा के कलाम में मगन रहे।

फिर हज़रत ने ख़ुदा के 99 नाम भी बतलाए हैं और वो सब ख़ुदा की सिफ़तें हैं और फ़रमाया, कि जो कोई इन्हें हिफ़्ज़ करे बहिश्त (जन्नत) में जाएगा। ये बात भी हमारे क़ियास में नहीं आती सिर्फ नाम याद करने से क्या फ़ायदा होगा? चाहिए कि इन नामों की तासीर और उन का मंशा आदमी के ख़्याल और कामों में पैदा हो, मसलन अगर कोई कहे कि ख़ुदा हाज़िर नाज़िर है तो सिर्फ यही लफ़्ज़ ही बोलना मुफ़ीद नहीं है, जब तक कि उस की हाज़िरी का रोब मेरे ख़्याल में और ख़ल्वती गुनाहों से परहेज़ मेरे अफ़आल में इस लिहाज़ से कि वो देखता है पैदा ना हो। मगर मुसलमान लोग 99 नाम ख़ुदा के जो अरबी की एक घुट्टी हुई इबारत में हैं हर रोज़ पढ़ कर मुँह पर हाथ फेर लेते हैं इस उम्मीद से कि बहिश्त (जन्नत) में जाऐंगे, लेकिन उन से बात करके मालूम कर सकते हैं कि उन नामों की तासीर ख़्याल व अफ़आल में कुछ भी नहीं है इस का सबब यही है कि हज़रत मुहम्मद ने यूँही बोलने को सवाब बतलाया है जो क़ियास से बईद बात है।

22 बाइसवीं फ़स्ल

मंत्र पढ़ने का बयान

अरबी में रक़य्या (رقیہ) के मअनी मंत्र हैं, इस की जमा रक़ा (رقیٰ) है हज़रत मुहम्मद ने ये ताअलीम दी है कि बीमारीयों में दवा भी की जाये और बाअज़ बीमारीयों में मंत्र पढ़ी जाएं पर शिर्क के मंत्र ना हों। चाहिए कि क़ुरआन की आयतों को मंत्र बना दें और ख़ुदा के नामों को भी मंत्र बना दें और ग़ैर-ज़बानों के मंत्र भी पढ़े जाएं, बशर्ते के उन के मअनी में शिर्क ना हो।

मिश्कात बाब-उल-तिब्ब-अर्रक़ा में आईशा की रिवायत है कि बुख़ारी व मुस्लिम से यूं है :-

“हज़रत ने हमें हुक्म दिया है कि अगर किसी को नज़र लग जाये तो मंत्र पढ़वाओ।”

“उम्मे सलमा कहती हैं कि मेरे घर में हज़रत ने एक लड़की देखी जिसका चेहरा ज़र्द था। फ़रमाया, इस को नज़र हो गई है इस पर मंत्र पढ़वाओ।”

मुस्लिम ने जाबिर से रिवायत की है कि :-

“हज़रत ने मंत्र पढ़ने से मना किया था। पस उमर बिन हज़म के लोग आए और कहा हमारे पास एक मंत्र है हम बिच्छू के काटे हुए आदमी पर पढ़ा करते हैं और आपने मंत्र पढ़ने से मना कर दिया है, तब हज़रत ने कहा अपना मंत्र सुनाओ जब सुनाया तो कहा इस में कुछ ख़ौफ़ नहीं है अपने भाईयों को फ़ायदा पहुँचाओ।”

हज़रत नज़र-ए-बद की शिद्दत से क़ाइल हैं, बल्कि फ़रमाया कि अगर कोई चीज़ तक़्दीर पर ग़ालिब आ सकती तो यही नज़र बद आती (है,) ऐसी क़वी तासीर उस की है। पस अब अहले इन्साफ़ आप ही सोचें कि आया नज़र-बद का एतिक़ाद किस क़िस्म की बात है। आया कोई पैग़म्बर नज़र-बद का क़ाइल गुज़रा है या कोई अहले-अक़्ल इस का इक़रार करते हैं और सब अक़्लमंद इस बात पर हंसते हैं।

23 तेईसवीं फ़स्ल

नज़र-बद का ईलाज

हज़रत ने नज़र-बद का एक अजीब ईलाज बतलाया है, जो किताब मज़ाहिर-उल-हक़ 4 जिल्द किताब-उल-तिब्ब फ़स्ल दोम के आख़िर में लिखा है, जिसका ख़ुलासा ये है कि :-

“जिसने नज़र लगाई है चाहिए कि वो एक पियाला पानी में कुल्ली करके ब-तरतीब मुक़र्ररा हर दो थैलियां व कुहनियां और पैर व घुटने और पेशाब गाह भी उसी पियाले में धोए और पानी उसी पियाले में जमा रखे, फिर जिसको नज़र लगी है उस की कमर के पीछे से आके वो नापाक पानी उस के सर पर डाला जाये आराम हो जाएगा।”

माज़री ने कहा कि नज़र लगाने वाले पर जबर करना चाहिए, ताकि वो ऐसा पानी तैयार करके दे। क़ाज़ी अयाज़ ने कहा है, जो कोई नज़र लगाने में मशहूर है चाहिए कि इमाम वक़्त उस को लोगों के दर्मियान आने जाने से मना करे और कहे कि अपने घर में रहा कर ताकि (लोगों को नज़र ना लगे*) ये कैसे ख़यालात हैं और इनकी कैसी बुरी तासीर जाहिल मुसलमानों में पाई जाती है ख़ासकर औरतों में और यह बात कुछ जाहिलों की नहीं है, हज़रत ने ये ताअलीम दी है और उलमा मुहम्मदिया ने इसे क़ुबूल किया है। ऐसी बातों से ख़ुदा का कलाम मुतलक़ पाक है और पैग़म्बरों की ताअलीम में ऐसी बातें नहीं हैं।

24 चौबीसवीं फ़स्ल

बिच्छू के काटे का ईलाज

मिश्कात किताब-उल-तिब्ब में बैहकी से रिवायत है कि :-

“एक रात हज़रत नमाज़ पढ़ रहे थे जब ज़मीन पर हज़रत ने हाथ रखा तो बिच्छू ने काट लिया, हज़रत ने उसे जूती से मारा और फ़रमाया, ख़ुदा की लानत हो बिच्छू पर ना नमाज़ी को छोड़ता है ना बे-नमाज़ी को, या यूं कहा ना नबी को छोड़ता है ना ग़ैर-नबी को। इस के बाद हज़रत नमक और पानी डालते थे और दर्द के सबब उंगली को मलते थे और मऊज़तीन (फ़लक़ और नास क़ुरआन की आखिरी सूरतें) पढ़ कर दम करते थे।”

पस ये ईलाज बिच्छू के काटे का है जो हज़रत से ज़ाहिर हुआ।

क़िस्म-क़िस्म के ईलाज यक्म हकीम लोग ऐसे मौक़ों पर करते जिससे आराम हो, आदमी वो कर सकता है। पर हज़रत ने भी ईलाज किया था अब तो ये ईलाज कुछ मुफ़ीद नहीं होता है, तो भी बाअज़ मुसलमान ऐसा करते हैं और ये भी दुरुस्त है कि ये मूज़ी (नुक़्सान पहुँचाने वाले) जानवर सबको ईज़ा (तक़्लीफ़) पहुंचाते हैं नबी वग़ैरह नबी नमाज़ी वग़ैरह, नमाज़ी में कुछ इम्तियाज़ नहीं करते हैं। हाँ एक दफ़ाअ एक बड़ा काला नाग पौलुस रसूल को भी चिमट गया था, मगर उसे कुछ ज़रर (नुक़्सान) नहीं पहुंचा। (आमाल 28:4 ता 5) तक ग़ौर से देखो।

25 पच्चीसवीं फ़स्ल

नेक फ़ाल और बद-शुगून का ज़िक्र

हज़रत ने फ़रमाया कि नेक फ़ाल लेना चाहिए और बद फ़ाल लेना ना चाहिए और वो आप भी नेक फ़ाल लिया करते थे। ख़ुसूसुन लोगों के और मुक़ामों के नाम से मसलन घर से निकलते ही एक आदमी मिला उस का नाम रहमत उल्लाह था। पस इस अच्छे नाम के आदमी के मिलने के सबब ख़ुश होना, इस उम्मीद पर कि जिस काम को जाते हैं उस में कामयाब होंगे क्योंकि घर से निकलते ही वो आदमी मिला जिसका नाम अच्छा है।

और बद फ़ाल को हज़रत ने मना किया है, मसलन घर से निकलते ही एक आदमी मिला जिसका नाम मियां झगडू है, तो ये गुमान ना करना चाहिए कि अब मतलब में झगड़ा पड़ेगा क्योंकि मियां झगडू राह में मिले थे। लेकिन ये हो नहीं सकता क्योंकि जब नेक फ़ाल लेने की आदत हज़रत ने पैदा कर दी है, तो नामुम्किन है कि इस का अक्स ज़हन में ना आए ज़रूर बद फ़ाली ख़ुद बख़ुद ज़हन में आएगी। एक मर्ज़ तो हज़रत ने आप ही पैदा कर दिया पर इस से मना करना क्या मअनी रखता है?

पर यह उलमा मुहम्मदिया की ग़लती है या ख़ुद हज़रत ही की ग़लती है कि बद फ़ाल ना लिए जाए हज़रत ख़ुद बद फ़ाल और नेक फ़ाल लेते थे।

मिश्कात बाब-उल-फ़ाल में अबू दाऊद से बरीदा की रिवायत यूं लिखी है कि :-

“हज़रत जिस वक़्त किसी को आमिल या तहसीलदार मुक़र्रर करते थे तो उस का नाम पूछा करते थे, अगर नाम अच्छा होता तो ख़ुश होते और जो नाम बुरा होता तो उदास हो जाते थे और ऐसा ही हाल गांव के नाम सुनकर होता था।”

फिर इसी बाब में अबू दाऊद से अनस की रिवायत है कि :-

“एक आदमी ने हज़रत से कहा, हम एक घर में रहते थे वहां हमारे पास बहुत माल हो गया था, जब से वो घर छोड़ा और नए घर में आए माल कम हो गया। हज़रत ने फ़रमाया कि इस बुरे घर को छोड़ दो।”

देखो हज़रत मकानों को भी मनहूस या ग़ैर-मनहूस समझते थे। नाज़रीन अपनी तमीज़ को जगा दें, कि ये ताअलीमात कैसी हैं?

26 छब्बीसवीं फ़स्ल

ख्व़ाब के बयान में

हज़रत ने फ़रमाया لم یبق من النبوت الالمبشرات “नबुव्वत तो तमाम हो गई मगर इस का एक हिस्सा जो सच्चे ख्व़ाब में बाक़ी है।” इस बात का मैं भी क़ाइल हूँ कि ये दुरुस्त बात है, कि सच्चे ख्व़ाब अब तक ज़ाहिर होते हैं। बाज़ औक़ात ख़ुदा तआला कोई बात ज़ाहिर करता है पर इस में कुछ ख़ुसूसीयत मोमिन और ग़ैर-मोमिन की मेरे गुमान में हरगिज़ नहीं है कभी-कभी बे-ईमानों को भी ख़ुदा कोई बात बतलाता है और ईमानदारों को भी। पर ख़ुदा की मर्ज़ी जो इन्सान की अबदी सलामती और उस की सब राहों के बारे में है, वो तो सब ख़ुदा के कलाम में ज़ाहिर हो चुकी है। हाँ किसी ख़ास अम्र की बाबत कभी-कभी ख्व़ाब में कुछ इशारा अल्लाह से पाते हैं। (देखो अय्यूब 33:15)

फिर फ़रमाया हज़रत ने कि, अगर कोई शख़्स बद (बुरे) ख्व़ाब देखे जब नींद से जागे तो चाहिए कि बाएं तरफ़ तीन बार थूक दे इस बद (बुरे) ख्व़ाब की तासीर ना होगी। ये बात क़ियास में नहीं आती, क्योंकि ख्व़ाब सच्चे वाक़ेअ होते हैं वो तो वाक़ियात आइन्दा का साया सा होते हैं जो आईना-ए-दिल पर आलम-ए-बाला से इलक़ा होता है। अब वो जिस क़िस्म का वाक़िया है ख़्वाह बुरा ख़्वाह भला ज़रूर इसी तरह ज़हूर में आएगा। पर तीन बार थूकने से वो इंतिज़ाम और इरादा ईलाही क्यूँ-कर हट सकता है? ये तो शायद हो सके कि अगर एक आदमी ख्व़ाब में मालूम करे कि मुझ पर कोई आफ़त आने वाली है और उठ कर तौबा व ईमान के साथ ख़ुदा के सामने रो-रो के मिन्नत करे, कि ख़ुदा उसे बचा ले तो उम्मीद है कि ख़ुदा जो निहायत ही बख़शिंदा (बख्शने वाला) और मेहरबान है, उस पर रहम करे। पर सिर्फ बाएं तरफ़ थूकने से क्या होगा?

और जो हज़रत की मुराद यहां बद (बुरे) ख्व़ाब से मह्ज़ वाहीयात ख्व़ाब हैं जो पेट की बदहज़मी से होते हैं, तो फिर इस के क्या मअनी हैं कि थूकने से इस की तासीर ना होगी? क्या बद-हज़मी के ख़्वाबों में भी कुछ तासीर हुआ करती है? वो तो पेट के अबख़रे (बुख़ार, धुआँ) हैं जो ख़्याल में आके अजीब शक्लें दिखलाते हैं और मर जाते हैं।

हज़रत ने ये भी फ़रमाया है कि, من رانی فی المنام فقدرانی فان الشیطان لا یمثل بی अगर कोई मुझे ख्व़ाब में देखे तो यक़ीनन मुझको उसने देखा है, क्योंकि शैतान मेरा हम-शक्ल बन नहीं सकता।

उलमा मुहम्मदिया कहते हैं कि शैतान ख़ुदा का हम-शक्ल बन कर कह सकता है, कि मैं ख़ुदा हूँ और यूं लोगों को फ़रेब दे सकता है। मगर मुहम्मद साहब का हम शक्ल बन के नहीं कह सकता कि मैं मुहम्मद हूँ, ये ताक़त उस में नहीं है। यहां मुहम्मद साहब के लिए कुछ फ़ौक़ियत ख़ुदा की शान से भी बड़ी नज़र आती है और इस का नतीजा नाज़रीन आप ही निकाल सकते हैं, मैं कुछ ज़्यादा नहीं कह सकता।

ख़ुदा के कलाम में लिखा है कि शैतान नूर के फ़रिश्तों से अपनी शक्ल बदल डालता है और वो इस जहान का ख़ुदा भी कहलाता है, क्योंकि उस ने (अपने) आपको इस जहान के अहले तारीक लोगों की नज़र में मिस्ल ख़ुदा के फ़रेब से बना रखा है और वो उस की परस्तिश करते हैं। इसी तरह मसीह के हक़ में भी लिखा है कि मुख़ालिफ़-ए-मसीह आने वाला है और झूटे मसीह ज़ाहिर होने वाले हैं जो कहेंगे कि हम मसीह हैं, मगर हज़रत मुहम्मद फ़रमाते हैं कि मेरा हम-शक्ल नहीं बन सकता।

मेरे गुमान में इस ताअलीम के वसीले से शैतान के कई मतलब ख़ूब निकलते हैं और अहले ईमान का इस ताअलीम से कुछ फ़ायदा नहीं है, मैं नहीं चाहता कि इस मुक़ाम पर तसरीह करूँ अगर नाज़रीन का ज़हन उन नताइज की तरफ़ ख़ुद पहुंचे तो कोशिश करें वर्ना ख़ैर।

27 सत्ताईसवीं फ़स्ल

मुलाक़ात का दस्तूर

मुलाक़ात के दस्तूर में हज़रत ने तीन बातों का ज़िक्र किया है।

अव़्वल, इज़्न यानी अगर किसी के घर पर जाएं या अपने घर के अंदर आएं तो बे-इज़्न (बगैर इजाज़त) दाख़िल ना हों। हाँ अपने घर में ज़रा कहनघारते आना चाहिए, ताकि औरतें बरहना ना देखी जाएं।

ये बहुत मुनासिब बात है ऐसी संजीदगी हर आदमी को चाहिए और सब अहले तहज़ीब ऐसा करते भी हैं। मगर हज़रत ख़ुद एक दफ़ाअ ज़ैनब के घर बे-इज़्न (बगैर इजाज़त) बग़ैर निकाह चले गए थे और ज़ैनब ने एतराज़ भी किया था। पस नसीहत देना उस नासेह (नसीहत करने वाले) को ज़ेबा है जो आप भी अमल करता है, पर ऐसा नमूना सिवाए सय्यदना मसीह के जहान में और कोई भी नहीं है।

दुवम, सलाम करना यानी अस्सलामु अलैकुम (السلام علیکم) कहना या अस्सलाम अलैक कहना, इस के माअनी हैं “तुम पर सलाम हो या तुझ पर सलाम हो।” ये तो अच्छी ताअलीम है तहज़ीब से इलाक़ा रखती है एक का दूसरे पर हक़ भी है और इस से मुहब्बत बढ़ती है और सब लोग अपने अपने मुल्क के रिवाज के मुवाफ़िक़ इस पर अमल भी करते हैं और यह बात पसंद के लायक़ है और हज़रत की पैदाइश से बहुत पहले से ये रस्म दुनिया में जारी है।

मिश्कात बाब अस्सलाम में मुस्लिम की रिवायत अबू हुरैरा से यूं लिखी है :-

لا تبدوالیھود والنصاری بالسلام واذا القیتم احد ھم فی طریق فاضطر وہ الی ضیقہ

“सलाम का शुरू यहूदीयों और ईसाईयों पर ना करो और जब तुम्हें कोई उनका आदमी राह में मिले, तो राह घेर के उसे तंग करो यानी ऐसा राह घेर कर चलो कि वो तंगी से चल सके।”

और इब्तिदा-ए-सलाम के मअनी ये हैं कि उन के लिए शुरू सलाम का तुम्हारी तरफ़ से ना हो। हाँ अगर वो पहले सलाम करें, तो तुम जवाब दे सकते हो। देखो ये ग़ुरूर और कीना की ताअलीम है या सफ़ाई की बात है? सफ़ाई और पाक दिली की बात ये है कि जिसे मौक़ा मिला उसी ने पहले सलाम कर दिया, ख़्वाह कोई आदमी हो। फिर उलमा मुहम्मदिया कहते हैं कि अगर कोई ज़रूरत या कोई हाजत मसीहियों और यहूदीयों से मुताल्लिक़ हो तो इस ज़रूरत के निकालने को जायज़ है कि सलाम की इब्तिदा मुसलमान से हो जाए, वर्ना हरगिज़ नहीं चाहिए ये ख़ुद-ग़र्ज़ी की हिदायत है।

हज़रत ने फ़रमाया है कि, अगर यहूदी व ईसाई पहले सलाम करें तो चाहते हैं कि उन को पूरा जवाब भी ना दिया जाये, बल्कि कहो व अलैक (وعلیک) या वाअलैकुम (وعلیکم) यानी “तुझ या तुम पर” लेकिन लफ़्ज़ सलाम ना बोलो, (तो) यूं कहो ھد اک اللہ यानी “ख़ुदा तुझे इस्लाम की तरफ़ हिदायत करे।”

और अगर किसी काफ़िर को ना-वाक़िफ़ी में सलाम कर बैठो और फिर मालूम हो जाए कि वो काफ़िर है, तो कहो अस्तर जअत सलामी (استر جعت سلامی) “मैंने अपना सलाम जो तुझे किया था वापिस हटा लिया है।” देखो ये कैसी ईज़ा (तक़्लीफ) की बात है, मुहम्मद साहब चाहते हैं कि सब मुसलमान आपस में ख़ुश रहें पर दूसरी क़ौमों के साथ अच्छा मुआमला ना बरता जाये। पस ये मुअल्लिम यक़ीनन ख़ुदा की तरफ़ से नहीं है इस की ताअलीम तमाम जिस्मानी ख़्वाहिशों से निकलती है, उस से नहीं है जो अपना मेह (पानी) सब पर बरसाता है और अपना सूरज सब पर तलूअ करता है।

हदीसों में है कि बाअज़ यहूदी जब हज़रत से मिलते थे तो कहते थे अस्साम अलैकुम (السام علیکم) साम (سام) के मअनी हैं, मौत यानी मौत हो तुम पर। वो लोग बजाय अस्सलामु अलैकुम के ज़बान दबा कर अस्साम अलैकुम ऐसे तौर से बोलते थे कि गोया उन्हों ने सलाम अलैकुम किया है, इसलिए हज़रत ने भी जवाब में से लफ़्ज़ सलाम को निकाला और सिर्फ वाअलैकुम कहना शुरू किया यानी तुम पर। ये सूरत अलबत्ता बदला लेने की थी पर शरारत का मुक़ाबला शरारत के साथ करना मसीहियों को जायज़ नहीं है, मुहम्मदियों को जायज़ है इसलिए मैं इस मुक़ाम पर ऐसी सूरत में हज़रत को इल्ज़ाम नहीं दे सकता।

अलबत्ता वो सूरत इल्ज़ाम की है कि जो आदमी अस्साम व अलैकुम (السام وعلیکم) नहीं कहता, मगर मुहब्बत से सलाम अलैकुम (سلام علیکم) कहता है और उसे भी वही जवाब देना कि व अलैकुम (وعلیکم) अच्छा नहीं दिल-शिकनी का बाइस है।

देखो (मत्ती 5:47) में लिखा है कि, “अगर तुम फ़क़त अपने भाईयों को सलाम करो तो क्या ज़्यादा किया, क्या महसूल लेने वाले भी ऐसा नहीं करते? यानी मसीहियों को भी बस नहीं है कि सिर्फ मसीहियों से सलाम करें, बल्कि उन्हें वाजिब है कि हर किसी से सलाम करें। फिर (लूक़ा 10:5) में लिखा है कि “जिस घर में दाख़िल हो पहले कहो इस घर को सलाम अगर सलामती का बेटा वहां हो तो तुम्हारा सलाम उसे पहुँचेगा वर्ना तुम्हारी तरफ़ वापिस आएगा।” तुम अपनी तरफ़ से सलाम कर गुज़रो और अदालत ईलाही से पहले किसी को लायक़ व नालायक ना बतलाओ और अपना सलाम मिस्ल मुसलमानों के काफ़िर से वापिस ना माँगो अगर वो बरकत का अहल है तो ख़ुदा उसे बरकत देगा वर्ना बरकत तुम्हारे ऊपर होगी ख़ुद बख़ुद।”

अब सोचो कि मुहम्मदी ताअलीम में और ख़ुदा की ताअलीम में किस क़द्र फ़र्क़ है और हर ताअलीम का मंबा कहाँ है, हज़रत की ताअलीम का सरचश्मा उन की नफ़्सानी ख़्वाहिशें हैं जो उन की ताअलीम में लिपटी हुई हैं जिसका कोई इन्कार नहीं कर सकता। पर ईलाही ताअलीम का सरचश्मा मह्ज़ अल्लाह है, जो निहायत मेहरबान और सारी अलाईश से पाक है इसी लिए उस की ताअलीम पाक है।

सोइम, दोस्तों और बुज़ुर्गों और ख़ुर्दों के लिए मुसाफ़ा और मुआनक़ा (गले मिलना) और क़िब्ला (बोसा) भी मुलाक़ात के दस्तूर में शामिल है हाथ मिलाना मुसाफ़ा कहलाता है। गले लग कर मिलना मुआनक़ा है बोसा लेना क़िब्ला कहलाता है।

ये हर सह बातें भी अगर गुनाह के तौर पर ना हों तो अच्छी हैं और यह ना सिर्फ मुहम्मदी ताअलीम है, बल्कि क़दीम से ये प्यार के दस्तूर जहान में चले आते हैं यहूदी भी करते थे और करते हैं और हिंदू भी ऐसी बातें करते हैं। मसीही भी क़दीम से ये करते आए हैं देखो (2 कुरिन्थियों 13:2) में क़िब्ला (बोसा लेने) का ज़िक्र है। (आमाल 20:37) में मुसाफ़ा और मुआनक़ा (गले मिलने) का ज़िक्र है और आज तक मसीहियों में ये रस्म निस्बत और क़ौमों के ज़्यादा जारी है। हज़रत मुहम्मद ने ये रस्म अरब के दर्मियान भी जारी की इन्हीं मसीहियों और यहूदीयों से ले कर। ये तो बर्ताव की बात है और अच्छी है।

28 अठाईसवीं फ़स्ल

ताज़ीम व तवाज़ोअ के बयान में

हज़रत ने हुक्म दिया है कि अपने बुज़ुर्ग या सरदार की ताज़ीम के लिए उठा कर और वो ख़ुद भी बाअज़ अश्ख़ास की ताज़ीम के लिए उठा करते थे। चुनान्चे अक्रमा बिन अबी जहल के लिए वादी बिन हातिम के लिए और अपनी बेटी फ़ातिमा के लिए वग़ैरह।

और हज़रत अपने लिए लोगों को मना करते थे कि मेरे लिए ना उठो। और यह भी फ़रमाते थे कि जो कोई अपनी ताज़ीम लोगों से चाहता है वो दोज़ख़ में जाएगा। हाँ अगर लोग ख़ुद बख़ुद उस की बुजु़र्गी के सबब से उस की इज़्ज़त व ताज़ीम करें तो बेहतर है। और हज़रत ने मस्जिदों के दर्मियान और तिलावत के वक़्त और इबादत के वक़्त भी इसे तवाज़ोअ (आवभगत) के तौर से मना किया है, क्योंकि आदमी उस (इबादत के) वक़्त ख़ुदा की तरफ़ मुतवज्जोह ही नहीं चाहिए, कि ख़ुदा से हटें और आदमीयों को इज़्ज़त करें।

ये ताअलीम बहुत अच्छी है और मुनासिब है और यह जहान की क़दीमी बात है इस में हज़रत की कुछ ख़ुसूसीयत नहीं है। (1 सलातीन 2:19) को देखो कि सुलेमान बादशाह ने अपनी वालिदा की कैसी ताज़ीम व तकरीम की थी उसी दस्तूर पर जो सब शुरफ़ा में क़दीम से जारी है।

29 उन्तीसवीं फ़स्ल

जलूस व नौम व मशी के ज़िक्र में

जलूस बैठने को कहते हैं। कभी हज़रत मुहम्मद गोट मार के बैठते थे और इसी लिए अहले इस्लाम इस नशिस्त को मुस्तहब जानते हैं मगर यह देहातों की नशिस्त है। कभी बशक्ल करफ़सा बैठते थे, वो ये है कि ज़मीन पर चूतड़ रखे और घुटने खड़े करे और रानें पेट से लगाए और हाथों से गोट मार के हथेलियाँ बग़लों में दाख़िल की जाएं। ये तो बड़ी तक्लीफ़ की नशिस्त है कभी चार ज़ानू बैठते थे। कभी तकिया लगा कर बैठते थे। पस इन्हीं शक्लों से बैठने पर मुसलमानों को मूजिब सवाब हो गया, ये कुछ बात नहीं है जिस तरह उन्हें अच्छा मालूम हुआ वो उठते बैठते थे और जिस तरह हमें बेहतर मालूम होता है हम भी करते हैं।

“नौम” (نوم) के मअनी हैं, “सोना” कभी हज़रत मुहम्मद चित्त सोते थे और कभी दहनी करवट सोते थे लेकिन औन्धे सोने को मना फ़रमाते थे।

वाज़ेह हो कि सोने की चार सूरतें हैं चित्त सोना या पट सोना या दहनी करवट सोना या बाएं करवट सोना और चूँकि सोना आराम के लिए है, इसलिए बेहतर यूँ है कि बाएं करवट आराम से सोएँ, जिसमें खाना भी ख़ूब हज़म होता है और नींद भी आराम से आती है और बद-ख़वाबी (बुरे ख्वाब) भी नहीं होती। अलबत्ता पट सोना तबअन मकरूह है और छाती पर बोझ होता है। लेकिन दहनी करवट भी बे आरामी है और चित्त सोना अक्सर बद-ख़वाबी का बाइस होता है। अगरचे ये सब कुछ है तो भी इन्सान आज़ाद है जिस तरह उस को आराम हो वो सोया करे।

मशे (مشے) चलने को कहते हैं। ग़ुरूर की चाल जो मिट कर चलना है उस से हज़रत ने मना किया है, ये ख़ूब बात है पसंद के लायक़ है मगर ये मुबालग़ा हज़रत की अक़्ल क़ुबूल नहीं करती कि एक आदमी दो चादर पहने मटकता जाता था इस गुनाह के सबब ज़मीन फट गई और वो ज़मीन में धस गया और अब तक धसा चला जाता है और क़ियामत तक धसा चला जायेगा। चुनान्चे मिश्कात बाब-उल-जलूस फ़स्ल अव़्वल में अबू हुरैरा की ये रिवायत बुख़ारी व मुस्लिम से मन्क़ूल है।

दोम, औरतों के दर्मियान मर्द को चलना भी हज़रत ने मना बतलाया है और सबब इस का ये है कि मर्द फ़ित्ने में ना पड़े।

लेकिन ये हुक्म उन के लिए चाहिए जिनके दिल में ख़ुदा का ख़ौफ़ नहीं है और हिर्स ग़ालिब है उनका हाल हर हाल में ख़तरनाक है। लेकिन ख़ुदा-परस्त लोग अपनी बीबी को बीबी जानते हैं और सब औरतों को बहन बेटी या माँ समझते हैं। क्या मज़ाइक़ा है कि वो उन के साथ चलें? ख़ुदा का कलाम और तमीज़ ऐसे मुआमले में इल्ज़ाम नहीं देता है।

सोम, यह कि औरतें जब चलें तो राह में दीवारों की तरफ़ हो कर चलें ताकि दर्मियानी राह मर्दों के लिए खुला रहे। हज़रत के अहद में औरतें ऐसी यकसू हो कर चलती नहीं कि उन के कपड़े दीवारों से रगड़ खा कर ख़राब हो जाते थे। हमारे गुमान में ये सख़्ती थी औरतों पर, कि मर्द तो कुशादा राह में चलें और औरतें दीवारों में रगड़ खाएं, मर्दों के ख़ौफ़ से। मगर शरीअत मुहम्मदिया का ये उसूल है कि औरतें मिस्ल ग़ुलाम के होएं और सारी ज़िंदगी मर्द हासिल करें, इसी बुनियाद पर ये सब ज़ुल्म और बे-इंसाफ़ी की बातें औरतों के हक़ में मिलती हैं।

30 तीसवीं फ़स्ल

नाम रखने का दस्तूर

मिश्कात बाब-उल-असामी में हज़रत मुहम्मद से यह ताअलीम मन्क़ूल है कि फ़रमाया हज़रत ने कि मेरा नाम जो मुहम्मद व अहमद है और मुसलमान भी अगर चाहें तो ये नाम रख सकते हैं, मगर कुनिय्यत अबूल-क़ासिम है कि कोई ये नाम ना रखे।

दोम, ये कि, अब्दुल्लाह व अब्दुल रहमान ये दो नाम ख़ुदा को बहुत प्यारे हैं। बादशाहों का बादशाह अगर कोई आदमी अपना (यह) नाम रखे तो ख़ुदा उससे नाराज़ है।

सोम, यह कि, बाअज़ बुरे नामों को हज़रत बदल डालते थे मसलन अस्वद बमाअनी स्याह नाम को बदल कर अबीज़ बमाअनी सफ़ैद नाम रख दिया और आस्या को जमीला कर दिया था।

चहारुम, आंका, हज़रत ने हुक्म दिया कि ग़ुलामों का नाम रियाह व यसार व फ़िलह व नाफ़ेअ व बरकत ना रखना चाहिए और मतलब हज़रत का ये था कि इन लफ़्ज़ों के मअनी अच्छे हैं, अगर किसी का नाम बरकत है और किसी ने कहा कि बरकत घर में है या नहीं, जवाब हुआ कि नहीं है तो ये बदशगुनी होती है।

हज़रत की एक बीबी थी जिसका नाम बर्रा (برہ) ब माअनी नेकोकार था इस को बदल कर हज़रत ने जुवेरिया कर दिया उसी मतलब बाला के सबब से।

ये जो फ़रमाया हज़रत ने कि अबूल-क़ासिम कोई अपनी कुनिय्यत ना रखे इस की वजह सिर्फ यही है कि मेरे लिए ये कुनिय्यत मख़्सूस है। पर अब्दुल्लाह व अब्दुल रहमान की निस्बत हम ये कह सकते हैं कि अगर किसी आदमी के ये नाम हों और उस का चलन इन नामों के मुवाफ़िक़ हो तो अक़्ल चाहती है कि ख़ुदा को उस के चलन से राज़ी होना चाहिए ना सिर्फ इन लफ़्ज़ों से। पर बादशाहों का बादशाह ये लक़ब ख़ास सय्यदना मसीह का है। (मुकाशफ़ात 17:14) नहीं मुनासिब है कि कोई आदमी उसे ले तो भी अगर मजाज़न उन बादशाहों की निस्बत बोला जाये जो बहुत से बादशाहों के ऊपर हैं तो कुछ मज़ाइक़ा नहीं है, क्योंकि ख़ुदा की निस्बत और मतलब है और आदमीयों की निस्बत और मतलब है।

चहारुम, आंका, (यह की) हर नाम आदमी की शनाख़्त के लिए एक निशान होता है उस के माअनों पर अक्सर लिहाज़ नहीं होता है। मगर हज़रत के ख़्याल के मुवाफ़िक़ अगर कहा जाये कि अब्दुल्लाह यानी ख़ुदा का बंदा घर में नहीं है, मगर और किसी के बंदे मौजूद हैं पस चाहिए कि ये नाम भी ना रखा जाये। देखो अच्छे नाम से ये नतीजा निकलता है और बुरे नाम से वो नतीजा निकलता है, जिसके सबब आस्या का नाम जमीला हुआ था तब क्या करें ना बुरे नाम रख सके ना भले और कोई कुल्लिया क़ायदा यहां नहीं है, तब ये ताअलीम भी नाक़िस है।

सही ताअलीम वो है जो ख़ुदा के कलाम से बरामद होती है, वो ये मुनासिब है कि नाम बामाअनी हों और अगर बा-माअने ना हों तो भी कुछ परवाह नहीं है। हाँ अगर बा-मअनी हों तो भी उस के घर में होने या ना होने से कुछ बदशगुनी नहीं हो सकती है क्योंकि नाम सिर्फ निशान हैं हाँ आदमीयों को चाहिए कि अपने अच्छे नाम पर लिहाज़ करके नेक-चलन हों।

31 इकत्तिसवीं फ़स्ल

छींक और जबाई के बयान में

अतास (عطاس) छींकने को कहते हैं हज़रत ने फ़रमाया कि ख़ुदा छींकने को प्यार करता है, पस जो कोई छींके और अल-हम्दु-लिल्लाह (الحمد اللہ) कहे उस के जवाब में यरहमकुल्लाह (یرحمک اللہ) कहो।

अल-हम्दु-लिल्लाह (الحمد اللہ), व यरहमकुल्लाह (یرحمک اللہ), बोलना तो अच्छा है मगर ख़्याल में नहीं आता कि छींकने में ख़ुदा की क्यों ख़ुशनुदी है? ये तो इंतिज़ाम बदनी की एक बात है।

मुतशावब (متشا وب) जबाई को कहते हैं, हज़रत ने फ़रमाया कि ख़ुदा को बुरा मालूम होता है जब कोई जबाई (बगासी) लेता है क्योंकि जबाई शैतान से है और जबाई (बगासी) के वक़्त शैतान हँसता है। एक हदीस में है कि शैतान उस के मुँह में घुस भी जाता है। पस चाहिए कि जबाई को दफ़ाअ करें और मुँह पर हाथ रख लें। नींद के वक़्त जबाई (बगासी) आती है निशान है कि नींद आई इस में शैतान का क्या दख़ल है? ये तो आदमी की जिबली (फ़ित्री) बात है और हर दो हरकतें मूजिब सेहत हैं।

32 बत्तीसवीं फ़स्ल

हंसी ठट्ठा के बयान में

आवाज़ से हँसने को ज़हक (ضحک) कहते हैं। बुलंद आवाज़ से हँसने को क़हक़हा बोलते हैं। और हंसी का मुँह बनाने को तबस्सुम या मुस्कुराना कहते हैं। हज़रत मुहम्मद ज़हक (ضحک) और क़हक़हा कभी ना करते थे, मगर तबस्सुम (मुस्कुराया) करते थे और मुसलमानों को ज़हक (ضحک) करना मना नहीं है पर क़हक़हा करना मकरूह है और अगर नमाज़ में क़हक़हा हो तो वुज़ू भी टूट जाती है।”

अहले-इस्लाम बहुत ख़ुश होते हैं ये सुनकर कि हज़रत सिर्फ़ तबस्सुम किया करते थे जो बड़ी संजीदगी की बात है, मैं भी इस को क़ुबूल करता हूँ कि तबस्सुम (मुस्कुराना) संजीदगी की बात है, अगर हज़रत की यही आदत थी तो एक संजीदा आदत थी। तो भी ज़हक़ और क़हक़हा बुरी बात नहीं है, बल्कि ज़िंदा-दिली के निशान हैं और तबअ (सेहत) को फ़र्हत बख़्शते हैं पर मह्ज़ तबस्सुम (मुस्कराहट) का ख़ूगर (आदी) जो कभी क़हक़हा और ज़हक अपने ख़ास दोस्तों के साथ ख़ल्वत (तन्हाई) में भी नहीं करता, हम क्योंकर कह सकते हैं कि वो ज़िंदा-दिल आदमी है और उस का मिज़ाज रूखा नहीं है?

मज़ाख़ (مزاخ) कहते हैं ठट्ठा बाज़ी को जो ख़ुश-तबई के वास्ते की जाती है, जिसमें किसी को ईज़ा और तक्लीफ़ ना हो। हज़रत मुहम्मद ने ऐसी ठट्ठा बाज़ी को मना नहीं किया, बल्कि आप भी किया करते थे।

अनस का एक छोटा भाई था जिसका नाम था अमीर उस के पास एक बुलबुल थी जिसको अरबी में “नगीर” (نغیر) कहते हैं, जब वो बुलबुल मर गई तो हज़रत मुहम्मद उस लड़के को यूं कह के छेड़ा करते थे, “ऐ अमीर क्या हुई नगीर” और अनस को ठट्ठे से कहा करते थे कि “ओदु कानो वाले” और बुढ़ी से कहा था कि “बुढ़िया बहिश्त में ना जाएगी।”

इस के सिवा लोग भी हज़रत मुहम्मद से ठट्ठा बाज़ी किया करते थे। ग़ज़वा तबूक में जब हज़रत एक बहुत छोटे तम्बू में जो चमड़े का था बैठे थे और औफ़ बिन मालिक आया हज़रत मुहम्मद ने कहा आओ, वो बोला “क्या में सब चला आऊं।”

ऐसी बातों से मुसलमान ये सीखते हैं कि ठट्ठा बाज़ी करना जायज़ है, बशर्ते के उस में गुनाह ना हो। ये दुरुस्त बात है।

33 तैंतीसवीं फ़स्ल

ख़ुश-बयानी व शअर ख़वानी के ज़िक्र में

मिश्कात बाब-उल-बयान-वल-शअर में लिखा है कि ख़ुश-बयानी को हज़रत ने पसंद किया है और फ़रमाया है कि, ان من البیان السحرا यानी बाअज़ बयान जादू का असर रखते हैं। ये बात निहायत दुरुस्त है और ख़ुदा ने हर क़ौम की ज़बान में ऐसे लोग ज़ाहिर किए हैं जो ख़ुश-बयान हैं। पर ख़ुश-बयानी अगर सही मज़ामीन के साथ होए तो बेहतर है, वर्ना दीवाने के हाथ में तल्वार है।

हज़रत ने ये भी कहा कि जो लोग ख़ुश-बयान हों चाहीए कि अपने बयान के मुवाफ़िक़ अमल भी करें वर्ना सज़ा पाएँगे।

अनस से तिर्मिज़ी की हदीस ग़रीब में आया है कि :-

“मेअराज की रात को हज़रत ने दोज़ख़ में ऐसे लोगों को देखा था, जिनकी ज़बान मिक़राज़ (क़ैंची) से काटी जाती थी। जब हज़रत ने पूछा कि ये कौन हैं? जिब्राईल ने कहा तेरी उम्मत के वाइज़ हैं अपने बयान के मुवाफ़िक़ अमल ना करते थे।”

ख़ुदा के कलाम में भी लिखा है कि बे-अमल नासेह (नसीहत करने वाले) सज़ा याब होंगे। पस हज़रत का यह सब बयान दुरुस्त है, मगर ख़ास मिक़राज़ (مقراض) की सज़ा के बारे में हम कुछ नहीं कह सकते, ख़ुदा जाने क्या सज़ा पाएँगे।

दुवम, शेर-ख़्वानी है। हज़रत ने बुरे अशआर बनाने और पढ़ने से मना किया है ना अच्छे। ये बात भी अक़्ल और नक़्ल के मुवाफ़िक़ है और अदना आदमी भी इस बात को पसंद करता है।

मगर मज़ाहिर-उल-हक़ जिल्द चहारुम बाब-उल-बयान में लिखा है कि :-

“हस्सान बिन साबित शायर मुहम्मदी अपने अशआर में कुफ़्फ़ार क़ुरैश के नसब नामों पर तअन किया करता था। कअब ने उस की शिकायत हज़रत से की, कि ऐसे शेअर जो तअन व सर-ज़निश के हैं क़ुरआन के बरख़िलाफ़ हैं। हज़रत ने फ़रमाया कि जो शेअर इस्लाम की ताईद में कहे जाते हैं वो बुरे नहीं हैं, बल्कि जिहाद का सवाब रखते हैं।”

लेकिन हमारी इन्साफ़ दिली इस बात को क़ुबूल नहीं करती है कि ऐसे शेअर भी मूजिब सवाब हों जो दुनिया ही में मुफ़ीद नहीं वो आख़िरत में क्या मुफ़ीद होंगे? अलबत्ता जिस उसूल पर इस्लाम की बुनियाद क़ायम है इस उसूल से तो वो मुफ़ीद हैं यानी जबरी उसूल (जब्र करके मनवाने) से मुफ़ीद हैं। पस हम जिस उसूल पर इन्जील की बुनियाद देखते हैं यानी मुहब्बत उस उसूल से ये अशआर बुरे और मुज़िर हैं।

अगर कोई चाहे तो उलमा मुहम्मदिया के पाकीज़ा अशआर मिस्ल बान सआदत और क़सीदा बुरदा (قصیدہ بردہ) और क़सीदा हमज़िया (قصیدہ ہمزیہ) वग़ैरह के साथ मिला कर मसीही दीन के गीतों की किताब को मुलाहिज़ा करे और सोचे कि कौन से मज़ामीन तर्बीयत रुहानी और नसाएह और ईलाही हम्दो सना व मुनाजात के लिए मुफ़ीद हैं और कौन हैं जो मुबालग़ा और किज़्ब से ख़ाली हैं। अलबत्ता फ़साहत लफ़्ज़ी और बरजस्ता इबारत मुहम्मदी शुरआ (शायरों) के अशआर (शायरियों) में इन ग़रीब मसीहियों की सादा इबारत की निस्बत ज़्यादा मिलेगी जो ज़बान दानी और उमूर फ़साहत लफ़्ज़ी और मज़ामीन ख्यालिया से इलाक़ा रखती है। लेकिन रुहानी परवरिश की ख़ूबी और सच्चाई और इसरार इल्हामिया की भर्ती इन्हीं के सादा कलाम में पाई जाती है।

34 चौंतीसवीं फ़स्ल

राग व बाजे के बयान में

राग सुनना और बाजा बजाने से हज़रत ने मना किया है और फ़रमाया है कि “राग आदमी के दिल में ऐसी बेईमानी पैदा करता है जैसे पानी से ज़राअत होती है।” और नाफ़े की रिवायत अहमद, अबू दाऊद से यूं है कि :-

“नाफ़े लड़का और इब्ने उमर साथ-साथ कहीं जाते थे, राह में बांसली (बांसुरी) की आवाज़ कान में आई इब्ने उमर ने अपने कान उंगलीयों से बंद कर लिए और दूसरी राह से चले दूर जा के इब्ने उमर ने नाफ़े से कहा, अब कुछ आवाज़ आती है या नहीं? उसने कहा नहीं आती। तब कान खोले और कहा कि एक रोज़ हज़रत मुहम्मद ने भी यूँही किया था।”

इन हदीसों से ज़ाहिर है कि राग और बाजा हज़रत मुहम्मद की शराअ (शरीअत मुहम्मदिया) में हराम है।

मगर मिश्कात बाब सलवात-उल-ईदेन में बुख़ारी व मुस्लिम की हदीस सही आईशा से यूं लिखी है कि :-

“ईद के दिन लड़कीयां दफ़ बजाती और गाती थीं और हज़रत मुहम्मद घर में कपड़ा ओढ़े हुए लेटे थे। अबू बक्र ने आके लड़कीयों को धमकाया हज़रत ने मुँह खोल कर फ़रमाया मत धमकाओ ईद के दिन हैं गाने बजाने दो।”

अब मुहम्मदियों में गाने बजाने की बाबत इख़्तिलाफ़ पड़ गया अहले शराअ (शरीअत के माहिरिन) ने उसे हराम बतलाया है। और अहले तसव्वुफ़ (सुफियत के मानने वालों) ने उसे क़ुर्बत (नज़दिकी) ईलाही का वसीला और रूह की गिज़ा कहा है।

पर हम यूं कहते हैं कि ऐसा गाना बजाना जिससे नफ़्सानी ख़्वाहिशें गुनाह की तरफ़ जोश में आएं और बरुए ख़्याल और नफ़्सानी मज़ा पैदा हो हराम या नामुनासिब है और इस पर इसरार करने वाले का दिल बिगड़ जाता है।

मगर वो राग और बाजा जो इन्सान की रूह को ख़ुदा की तरफ़ उभारे और ख़ुदा की सिफ़त व सना और इन्सानी अजुज़ व इल्तिज़ा और शुक्रगुज़ारी का मज़ा दिल में पैदा करे ऐन इबादत और ज़िंदा-दिली है। ख़ुदा के पैग़म्बर भी राग और बाजे के साथ इबादत करते थे दाऊद पैग़म्बर बाजों पर गा-गा के दुआएं किया करते थे पर ये हज़रत की ताअलीम जो ज़ुहद-ए-ख़ुश्क की बात है। सब पैग़म्बरों और तमीज़ मर्दुम के तजुर्बों के ख़िलाफ़ है।

35 पैंतीसवीं फ़स्ल

फ़ख़्र नसबी के बयान में

मिश्कात बाब-उल-मख़ाफ़रत के देखने से मालूम होता है कि हज़रत ने हसब व नसब और ज़ात पर फ़ख़्र करने से मना किया है।

“अबू हुरैरा की रिवायत बुख़ारी व मुस्लिम से यूं है लोगों ने पूछा या हज़रत सबसे बड़ा कौन है? फ़रमाया जो सबसे बड़ा दीनदार हो। वो बोले दीनदार की बात हम नहीं पूछते तब हज़रत ने कहा कि सबसे बड़ा यूसुफ़ पैग़म्बर है वो बोले पैग़म्बर की बात हम नहीं पूछते ये पूछते हैं कि अक़्वाम अरब के दर्मियान कौन क़ौम बुज़ुर्ग है फ़रमाया कि जो हालत कुफ़्र में अच्छे थे हालत इस्लाम में भी अच्छे हैं।”

फिर अनस से मुस्लिम की रिवायत है कि :-

“एक आदमी हज़रत के पास आया और कहा या ख़ैर-उल-बर्रिया (خیر البریہ) सारी दुनिया से अच्छे शख़्स, तब हज़रत ने कहा ये मर्तबा मेरा नहीं है इब्राहिम का है।”

लेकिन उलमा मुहम्मदिया यूं कहते हैं कि सबसे अच्छे शख़्स हज़रत मुहम्मद हैं, पर वो ख़ुद इस बात का इन्कार करते हैं और इब्राहिम को अच्छा बतलाते हैं इस की कुछ तावील करना चाहिए। पस तीन तरह से उन्होंने तावील की है। अव़्वल हज़रत ने मह्ज़ कसर-ए-नफ़्सी (کسر ِنفسی) के लिए कह दिया है। दोम, ये उस वक़्त की बात है जब हज़रत को ख़ुदा ने ख़बर नहीं दी थी कि तुम ही सबसे अच्छे हो। सोम, इब्राहिम अपने ज़माने में सबसे अच्छे थे।

अगर किसी की तमीज़ इन तीनों तावीलों में से कोई बात क़ुबूल कर सकती है तो करे मेरे गुमान में तो ये तावीलें बइद-अज़-क़ियास हैं।

हासिल ये ही है कि ज़ात पर फ़ख़्र करना हज़रत के नज़्दीक गुमराही की बात है। ख़ुदा के कलाम में भी ऐसा फ़ख़्र करने वालों पर बड़ी मलामत मज़्कूर है।

अगरचे यहां ऐसी ताअलीम कुछ है, तो भी हज़रत के शायर क़राअ सब नामों पर एतराज़ किया करते थे और हज़रत उसे जिहाद-लिसानी (ज़बान का जिहाद) कहते थे। और हज़रत ख़ुद भी ये फ़ख़्र करते थे कि, انا ابن عبد اللہ المطلب “मैं अब्दुल मुत्तलिब का बेटा हूँ।” और इसी तरह क़ौम अंसार को एक ख़ास फ़ज़ीलत दी गई, और फ़ातिमा और अली और अपनी आल को मुम्ताज़ बतलाया, कि कुल अरब को तमाम दुनिया की क़ौमों पर फ़ज़ीलत बतलाई। और कुतुब फ़िक़्ह में हसब-नसब का इन्हिसार क़ौम अरब को दिया गया। पस अगरचे मुँह से मना किया मगर इस पर ना आप अमल किया ना उम्मत में इस की तामील कराई। आज तक अहले-इस्लाम फ़ख़्र नसबी (खानदानी ज़ात-पात) पर आशिक़ हैं और दूसरों पर ऐब लगाते हैं। ये ख़ूबी ख़ास सय्यदना मसीह के दीन में है कि, उस ने सब फ़र्क़ उठा दिया है और सब क़ौमों को ख़ूब मिला दिया है। रज़ालत और शराफ़त का इन्हिसार ईमानदारी और बेईमानी पर है, ना किसी क़ौम और ज़ात और पेशे पर सब आदमी एक बाप के बेटे हैं। पर उन के पेशे मुख़्तलिफ़ हैं, कोई किसी पेशे के सबब से रज़ील (कमतर) नहीं है, मगर गुनाह और बेईमानी से आदमी रज़ील (कमतर) है।

36 छत्तीसवीं फ़स्ल

वालदैन अक़ारिब से सुलूक के बयान में

मिश्कात बाब-उल-बरवसलता में लिखा है कि, हज़रत ने माँ बाप के साथ भलाई और उन की फ़र्मांबरदारी का भी हुक्म दिया है। और इसी तरह सब रिश्तेदारों से दर्जा बदर्जा भलाई और सुलूक करने को कहा है। और सुलह रहम का भी हुक्म दिया है और कत्आ रहम (रिश्ता तोड़ने) से मना किया है।

“अस्मा बिंत अबू बक्र से बुख़ारी व मुस्लिम की रिवायत है कि, उस की वालिदा जो मुशरिका थी अपनी बेटी के पास आई, अस्मा ने हज़रत से पूछा और कहा कि, मेरी माँ आई है और वो काफ़िर है इस्लाम से नाराज़ है में इस के साथ सुलूक करूँ या ना करूँ फ़रमाया उस के साथ सुलूक करो।”

मुसलमानों को इस हदीस में मुशरिक रिश्तेदारों से सुलूक करने का हुक्म है, पर ईसाई और यहूदी रिश्तेदारों से सुलूक करना मना है, और उन के साथ दोस्ती रखना जायज़ नहीं है। इस का दुरुस्त सबब ये है कि बुत-परस्त रिश्तेदारों से सोहबत रखने में इस्लाम का कुछ नुक़्सान नहीं है, क्योंकि क़वानीन इस्लाम बुत-परस्ती के क़वानीन से ज़रूर मज़्बूत हैं। मगर ईसाईयों और यहूदीयों के साथ सोहबत रखना इसलिए मना है कि उन की संगत से इस्लाम जाता रहता है, क्योंकि उन के दलाईल और उन के ख़यालात निहायत क़वी (मज़बूत) हैं जो इस्लाम को तोड़ डालते हैं, इसलिए कहते हैं कि उनके साथ ना मिलो, मगर इनके साथ मिलो। पर हक़ ये है कि, सब के साथ मिलें सबकी सुनें और अपनी बातें सबको सुनाएँ।

हज़रत ने ये भी कहा है कि, माँ की इज़्ज़त बाप की निस्बत तीन दर्जा ज़्यादा चाहीए। पर हम ख़ुदा के कलाम में सिर्फ ये देखते हैं कि अपनी माँ और बाप की इज़्ज़त कर।

माँ बाप की इताअत का हुक्म दिया है, मगर जब माँ बाप मुसलमान होने से मना करें तो उन की इताअत करना ना चाहिए। इस ताअलीम का उसूल तो सही है कि दीन की बात में वालदैन की इताअत नहीं चाहिए। चुनान्चे तौरेत से भी ज़ाहिर है, और इन्जील भी ये सिखलाती है कि, दुनिया की बातों में दुनियावी वालदैन की इताअत चाहिए और रुहानी बात में रुहानी बाप यानी अल्लाह की इताअत वाजिब है। पस ये ताअलीम कलाम ईलाही की है जो हज़रत ने अपने इस्लाम के लिए चुन ली है।

37 सैंतीसवीं फ़स्ल

लोगों के साथ मुआमला करने का ज़िक्र

हज़रत ने हुक्म दिया है कि आदमी को वादा वफ़ा होना चाहिए। ये सही बात है, मगर ख़ुद हज़रत ने इस के बरख़िलाफ़ नमूना दिखलाया है, चुनान्चे जंग बद्र में एक बुढ़ी के साथ वाअदा वफ़ा नहीं किया था और अहले-मक्का से भी अहद शिकनी की थी और और कई नमूने भी पेश किए।

हज़रत ने ये भी फ़रमाया है कि बेहूदा बात ज़बान से निकालना ना चाहिए। ये बहुत अच्छी बात है, लेकिन ख़ुद हज़रत ने बनी क़ुरैज़ा यहूदीयों को अपनी ज़बान मुबारक से गालियां दी थीं और बहुत से फ़हश लफ़्ज़ उन के मुहावरात में पाए गए हैं। पर ये हुक्म है कि अगर हज़रत मुहम्मद किसी को गाली दें या लानत करें तो ये रहमत ईलाही है। अगर ऐसी बातों का इस्तिमाल नहीं था, तो फिर किस दूर-अंदेशी पर ये हुक्म और बयान था?

ग़ुरूर और बदगोई और ग़नीमत और लानत करने से भी हज़रत ने मना किया है। ये सब अच्छी ताअलीम है और तमाम जहान के मुअल्लिम इसे क़ुबूल करते हैं। और ख़ुदा का कलाम भी अच्छी तरह से इन मकरूहात से मना करता है। पर हम ये कहते हैं कि हज़रत आप इन बातों से हरगिज़ नहीं बचे हैं। तवारीख़ मुहम्मदी और ताअलीम मुहम्मदी हर दो नाज़रीन के सामने पेश हैं, पस वो ख़ुद मालूम कर सकते हैं कि किस जगह हज़रत ने क्या किया और क्या कहा।

फिर हज़रत ने औरतों और बच्चों और यतीमों और रांडों (यानी बेवाओं) पर और फ़क़ीरों और मिस्कीनों और अँधों लंगड़ों वग़ैरह पर मेहरबान रहने का हुक्म दिया है और सब आदमीयों की ताज़ीम और इज़्ज़त और ख़िदमत दर्जा बदर्जा बक़द्र ताक़त करने को इर्शाद किया है।

ये सारी बातें अच्छी हैं और मुनासिब हैं और ख़ुदा के कलाम में और इनका निहायत अच्छा बयान है। और वहां से ये बयानात हर तरफ़ मशहूर हुए हैं, और ख़ुदा की दी हुई दिली शरीअत जो लोगों में है इन बातों पर अक्सरों को उभारती है और ये वही बातें हैं जो दुनिया में मशहूर हैं और सब जानते हैं कि, हज़रत मुहम्मद का बयान इस मुआमले में इस क़द्र ज़ाइद है कि इनके सवाब मुबालग़ा के साथ कस्रत से बयान हुए हैं, जिसको दिल क़ुबूल नहीं करता। जहां तक दुरुस्त है वहां तक मानते हैं और इन सब बातों को बाइबल में बे-मुबालग़ा पाक तौर पर सुनते हैं यानी ये बयान फ़ीनफ्सिही दुरुस्त है, पर हज़रत के बयान का तौर और हज़रत के नमूने, दिल क़ुबूल नहीं करता है, बल्कि दिल हट जाता है ना इन बातों से मगर हज़रत के बयान की तस्दीक़ से कि ये अल्लाह से ना हो।

हज़रत ने मुहब्बत के बारे में भी ताअलीम दी है और इस का बयान यूं किया है, चुनान्चे मिश्कात बाब-उल-हुब्ब फ़ी अल्लाह में आईशा से मुस्लिम की रिवायत है कि :-

“दुनिया में आने से पहले इन सब आदमीयों की रूहों का एक इकट्ठा लश्कर था जिन रूहों में वहां मुलाक़ात थी, अब यहां भी उन में मुहब्बत है। और जिनमें वहां मुलाक़ात ना थी यहां भी उन में इख़्तिलाफ़ है।”

यानी मूजिब मुहब्बत और मूजिब मुख़ालिफ़त तआरुफ़ साबिक़ और अदम तआरुफ़ साबिक़ है, ना कोई और वजह। अगर यही बात है तो मिस्ल तक़दीर के मुहब्बत का मसअला भी हो गया और मुहाल हुआ, कि सब बनी-आदम में बावजूद हम मज़्हबी के यही मुहब्बत हो।

ख़ुदा का कलाम बतलाता है कि, मुहब्बत ख़ुदा की सिफ़त है और ख़ुदा ने अपनी मुहब्बत के कमाल को सय्यदना मसीह में दुनिया पर ज़ाहिर किया है। और हमें उस में निहायत ही प्यार किया है। उसी मुहब्बत की तासीर से हमारे दिलों में ख़ुदा की मुहब्बत पैदा होती है, कि हम ख़ुदा को अपने सारे दिल और सारी अक़्ल और सारी ताक़त से प्यार करें जैसा (अपने) आपको।

इसी बाब की फ़स्ल सानी में इब्ने अब्बास से बैहक़ी की रिवायत है कि, ख़ुदा में बाहम दोस्ती रखना और बाहम बुग्ज़ रखना ईमान का एक हिस्सा है। ये बात मान सकते हैं कि ख़ुदा में मुहब्बत रखना ईमान का हिस्सा है। पर ख़ुदा में बुग़्ज़ रखना ईमान का हिस्सा नहीं हो सकता। अगर कोई शरीर (बेदीन) है तो मैं उस के बद-कामों से नाराज़ हूँ, मगर उस से मुतलक़ दुश्मनी नहीं रखता उस का भला चाहता हूँ। ये बात तो ईमान का हिस्सा है। पर लोगों से दुश्मनी रखना उस का हिस्सा नहीं है, जो कलाम ईलाही से पैदा होता है। हाँ उस का ईमान का हिस्सा ज़रूर है, जो क़ुरआन से पैदा होता है। ख़ुदा की मेहरबानी की नज़र उस दिल पर कभी नहीं हो सकती जिस दिल में बुग़्ज़ है।

फिर मिक़दाम इब्ने मुइद यकर्ब से अबू दाऊद और तिर्मिज़ी से रिवायत है कि, फ़रमाया हज़रत ने :-

“चाहिए कि जब कोई किसी से मुहब्बत करना शुरू करे तो पहले उसे ख़बर दे, कि मैं कहता हूँ, कि ये कुछ बात नहीं है, वो समझेगा कि मुझे फ़रेब देता है। बेहतर है कि बग़ैर कहे हमारी मुहब्बत के कामों से वो जाने कि हमने उस से मुहब्बत शुरू की है।”

फिर मआज़ बिन जबल से तिर्मिज़ी की रिवायत है कि :-

“जो लोग मेरे जलाल के लिए आपस में मुहब्बत रखते हैं उन लिए क़ियामत के दिन नूर के मिम्बरान रखे जाऐंगे, ऐसा कि नबियों और शहीदों को भी रश्क आएगा।”

नाज़रीन इन मुबालग़ों को ख़्याल करें तो ये हम मान सकते हैं कि, मुहब्बत आपस में रखना ज़रूर और मुफ़ीद है और ख़ुदा के जलाल के लिए और भी ज़्यादा मुफ़ीद है। लेकिन क्या पैग़म्बर लोग और शुहदा इसी मुहब्बत से ख़ाली थे? बिलफ़र्ज़ अगर उन से ज़्यादा मुहब्बत इन अश्ख़ास में पैदा हो गई थी तो भी क़ियामत में उनके अज्र पर वो लोग रश्क नहीं कर सकते, क्योंकि बहिश्त (जन्नत) में रश्क नहीं है, वो नापाक दुनिया नहीं है कि वहां भी हज़रत हासिद तशरीफ़ लाएं हसद में दुख है।

अबू हुरैरा से मुस्लिम की रिवायत है कि :-

“ख़ुदा जब किसी को प्यार करता है तो जिब्राईल को बुला कर कहता है कि, मैंने फ़ुलां शख़्स से मुहब्बत शुरू की है तो भी इस से मुहब्बत कर। जिब्राईल कहता है कि, बहुत ख़ूब फिर जिब्राईल आस्मान में आवाज़ देता है कि ख़ुदा ने फ़लांने आदमी को प्यार करना शुरू किया है, ऐ आस्मान वालो तुम भी उसे प्यार किया करो। इस के बाद अहले ज़मीन के दिलों में उस की मुहब्बत डाली जाती है और सब आदमी व जिन्न भूत भी उसे प्यार करना शुरू करते हैं। और जब ख़ुदा किसी से दुश्मनी शुरू करता है तो यही हाल उस का होता है।”

ख़ुदा हरगिज़ किसी साथ दुश्मनी नहीं करता वर्ना आदमी का पता भी ना लगे। हाँ तंबीया (नसीहत) देता है, मिस्ल बाप के और आख़िर तक उस की बेहतरी का बंदो बस्त फ़रमाता है। अगर वो ख़ुद हलाकत में जाना चाहता है तो जाये। लेकिन ख़ुदा की शान ये है, कि वो किसी की अबदी मौत नहीं चाहता मगर यह कि तौबा करे और बच जाएं।

ये बात ख़ूब मालूम है कि जिस क़द्र दुनिया में ख़ुदा के प्यारे लोग पैदा हुए हैं, दुनिया ने ज़रूर उन से दुश्मनी की है। पर इस मुहम्मदी बयान से लाज़िम आता है कि जिनसे अहले-दुनिया ने दुश्मनी की है, वो ख़ुदा के दुश्मन थे। और जिन्हें अहले-दुनिया ने प्यार किया है वो ख़ुदा के प्यारे थे, ये तो सरीह बातिल है। सय्यदना मसीह फ़रमाते हैं कि, “अगर तुम दुनिया के होते तो दुनिया अपनों को प्यार करती है पर तुम दुनिया के नहीं हो इसलिए दुनिया तुमसे दुश्मनी रखती है।” अदम मुजानिस्त के सबब से जो ईमानदार और बेईमान की रूह में पैदा हो जाती है, ख़ुद हज़रत मुहम्मद के लिए उनके दोस्तों की निस्बत दुश्मन दुनिया में हमेशा ज़्यादा पाए गए, तो क्या ये इसलिए है कि ख़ुदा उन से दुश्मनी रखता है? ये दूसरी बात है और वो दूसरी बात है।

फिर हज़रत ने फ़रमाया है, “आदमी को जायज़ नहीं है कि अपने भाई को तीन दिन से ज़्यादा छोड़ दे।” यानी अगर ग़ुस्सा और लड़ाई के सबब जुदाई हो जाएगी तो अर्सा तीन दिन के दर्मियान मेल कर लेना चाहिए।

पर इन्जील सिखलाती है कि फ़ौरन मेल करना चाहिए। क्योंकि इसी हालत में आदमी ख़ुदा से दुआ और नमाज़ नहीं कर सकता है, बेहतर है कि वो पहले अपने मुद्दई से मेल करे मत्ती 5:23 ता 24 और फिर लिखा है कि, “ग़ुस्सा तो हो पर गुनाह ना करो, ऐसा ना हो कि सूरज डूबे और तुम ख़फ़ा के ख़फ़ा रहो।” (इफ़िसियों 4:26) मगर मुहम्मदी लोग ग़ुस्सा दिल में लेकर नमाज़ कर सकते हैं इसलिए तीन दिन की मोहलत है। मसीहियों को ज़रूर है कि दिली तहारत (दिल की पाकी) के बाद ख़ुदा की हुज़ूरी में जाये।

हज़रत ने झूट बोलने से मना फ़रमाया है, मगर तीन जगह झूट बोलना दुरुस्त बतलाया है। चुनान्चे मिश्कात बाब मायानी (مایہنی) में अस्मा बिंत यज़ीद से अहमद व तिर्मिज़ी की रिवायत है कि :-

“बीबी के राज़ी करने को, और लड़ाई के वक़्त पर, और दो आदमीयों के दर्मियान सुलह कराने को झूट बोलना दुरुस्त है।”

पर हम इसे क़ुबूल नहीं कर सकते हर हाल में सच्च बोलना चाहिए।

38 अड़तीस्वीं फ़स्ल

बीमारी के ज़िक्र में

मिश्कात बाब अयादत-उल-मरीज़ में इब्ने अब्बास से बुख़ारी की रिवायत है कि :-

“जब हज़रत किसी बीमार की ख़बर लेने जाया करते थे तो फ़रमाते थे, لاباس طھور ان شا اللہ تعالٰییعنی कुछ ख़ौफ़ नहीं है, बीमारी से आदमी पाक हो जाता है, अगर अल्लाह चाहे।”

फिर अबू सईद खुदरी से बुख़ारी व मुस्लिम की रिवायत है कि :-

“कोई रंज दुख और कोई फ़िक्र और ग़म और ईज़ा जो मुसलमान पर आता है, ख़्वाह एक कांटा ही क्यों ना चुभ जाये तो इस के एवज़ भी उस के गुनाह झड़ जाते हैं।”

ये बात ना तो अक़्ल में आती है और ना कलाम ईलाही से साबित है कि, बीमारी से और ज़रा से दुख से यही गुनाह दफ़ाअ हो जाएं। अलबत्ता ये क़ियास में आता है जो ख़ुदा के कलाम से साबित है कि, अक्सर तक्लीफ़ात गुनाहों के सबब से आती हैं, तब वो गुनाहों का वबाल हैं ना गुनाहों के ज़रीये का बाइस हैं।

अलबत्ता उन तक्लीफ़ात से जो गुनाहों का वबाल हैं, अगर आदमी तंबीया (नसीहत) पाए और तौबा करके अपनी चाल सुधारे और ईमान में मज़बूती हासिल करे, तो उन से सिर्फ यही नेक नतीजा निकल आता है कि, उस की चाल सुधर गई और ईमान सेज (बिस्तर) पर दुरुस्ती से क़ायम हो गया, तो अब पाकीज़गी और मख़लिसी गुनाहों से बवसीला मसीह के हो जाती है और जो चाल ना सुधरी तो तक्लीफ़ात मह्ज़ दुख हैं, और आख़िर को अबदी सज़ा है।

हाँ ये जो हज़रत ने बीमार पुर्सी करना मुसलमान का मुसलमान पर हक़ बतलाया है दुरुस्त बात है, और इस में ज़रूर ख़ुदा की रजामंदी है कि, बीमारों की ख़बर ली जाये। तो भी हज़रत की ताअलीम में इस क़द्र नुक़्स है कि मुसलमान की ख़बर लेना मुसलमान पर वाजिब है, ना ये कि सबकी ख़बर लेना ख़्वाह मुसलमान हो या काफ़िर, बल्कि हज़रत मुहम्मद ने मुन्किरीन तक़्दीर की बीमार पुर्सी करने से मना फ़रमाया है।

सय्यदना मसीह ने हमें यूं सिखलाया है कि, हत्तलमक़्दूर (ताक़त के मुताबिक़) सबकी ख़बर लो और सब के साथ नेकी करो, अगर तुम सिर्फ अपनों के साथ भलाई करो तो तुमने क्या ज़्यादा किया? खिराजगीर भी ऐसा करते हैं।

39 उन्तालीसवीं फ़स्ल

दवा के ज़िक्र में

हज़रत ने बीमार के लिए दवा और दुआ हर दो काम करने का हुक्म दिया है। ये ताअलीम दुरुस्त है और सब पैग़म्बरों ने भी ऐसा ही किया है। और अक़्ले-आम और अक़्ले-ख़ास भी यही चाहती है और सब लोग ऐसा ही करते भी हैं। पर हज़रत की इस ताअलीम में एक और ग़लती है, वो ये है कि हज़रत ने ख़ुद तबीब (डाक्टर, हकिम) होके मुआलिजे (इलाज के नुस्खे) भी सिखलाए हैं, हालाँकि इल्म-उत्तिब (हकीम के इल्म) से हज़रत बिल्कुल नावाक़िफ़ थे।

एक किताब तिब्ब-ए-नब्वी नाम से मुसलमानों में जारी है और उस के मुवाफ़िक़ मुआलिजा (ईलाज) करना सुन्नत जानते हैं। अलबत्ता अक़्लमंद मुसलमान इस पर भरोसा नहीं रखते हैं तो भी बाअज़ मुतशर्रे लोग उस के मुवाफ़िक़ काम करके हलाकत में पड़ते हैं।

मिश्कात बाब-उल-तिब्ब में हज़रत की हिक्मत और मुआलिजे (ईलाज) लिखे हुए हैं, और वो बतौर नमूने के यहां पेश किए जाते हैं :-

“फ़रमाया हज़रत ने तीन चीज़ों में शिफ़ा है, सींगी या पछनी लगाना, शहद पीना, आग से दाग़ देना।”

फिर फ़रमाया हज़रत ने कि मौत के सिवा हर बीमारी में काला दाना मुफ़ीद है।

और एक शख़्स को जिसे दस्त आते थे, हज़रत ने ताकीदन चार दफ़ाअ शहद पिलाया था।

और क़िस्त बहरी (قسط بحری) यानी कट (کٹ) को भी हज़रत ने मुफ़ीद बतलाया है।

और फ़रमाया हज़रत ने बुख़ार और तप दोज़ख़ की भाँप है, इस को पानी से सर्द करो। और जब हज़रत का इंतिक़ाल हुआ था तो बड़ी सख़्त तप हज़रत को चढ़ी थी और हज़रत ख़ुद पानी से उसे ठंडा करते थे।

उक़बा की हदीस में है कि, फ़रमाया हज़रत ने बीमारों को खाना खाने की ताकीद ना किया करो, क्योंकि ख़ुदा उन्हें खाना और पानी दिया करता है।

ग़र्ज़ ऐसे ऐसे मुआलिजे (ईलाज, नुस्खे) लिखे हैं और उन मुआलिजों से हदीसों पर चलने वाले लोग अमल करके दुख में और दीदा व दानिस्ता (जानबूझ कर) पड़ जाते हैं।

ग़र्ज़ ऐसे ऐसे मुआलिजे (ईलाज, नुस्खे) लिखे हैं और उन मुआलिजों से हदीसों पर चलने वाले लोग अमल करके दुख में और दीदा व दानिस्ता (जानबूझ कर) पड़ जाते हैं।

ग़र्ज़ ऐसे ऐसे मुआलिजे (ईलाज, नुस्खे) लिखे हैं और उन मुआलिजों से हदीसों पर चलने वाले लोग अमल करके दुख में और दीदा व दानिस्ता (जानबूझ कर) पड़ जाते हैं।

अगर हज़रत मुहम्मद बगुमान अहले-इस्लाम के इल्म-ए-लुदनी (علمِ لدنی यानी एसा इल्म जो जमीनी उस्ताद से नहीं, बल्कि सीधे खुदा से सिखा हो) रखते थे और उसी इल्म-ए-लुदनी (علمِ لدنی) से इल्म-ए-तिब्ब में भी दख़ल दिया है, तो ज़ाहिर है कि ये उनका दख़ल इस फ़न में मह्ज़ नादुरुस्त निकला है। और इस का एक नतीजा ये भी निकलता है कि, जब दुनियावी बातों में उन की समझ दुरुस्त ना निकली तो आस्मानी बातों में और इबादात व अक़ाईद में उनका यक़ीन किस तरह कर सकते हैं?

40 चालीसवीं फ़स्ल

तल्क़ीन के ज़िक्र में

जब मौत नज़्दीक आती है तो मुसलमान लोग बीमार को कलिमे की तल्क़ीन करते हैं और सूरह यासीन उसे पढ़ कर सुनाते हैं, जिसमें कुछ ज़िक्र सय्यदना मसीह के शागिर्दों का है, कि उन्होंने ख़ुदा के रसूल होके अहले-अन्ताकिया को किस तरह जाके ख़ुशख़बरी सुनाई थी। ये तो मुनासिब है कि बीमार को तल्क़ीन की जाये पर हज़रत मुहम्मद ने कलिमे की तल्क़ीन का हुक्म दिया है, और अरबी ज़बान में एक फ़िक़्रह है जिसका नाम उन्होंने कलिमा रखा है। पर हक़ीक़ी कलिमा से नावाक़िफ़ हैं जो सबकी ज़िंदगी का बाइस है जिसका ज़िक्र (यूहन्ना 1:1) में है, और वो सय्यदना मसीह है, जो एक शख़्स है और ख़ुदा है और हज़रत ने क़ुरआन में इस की निस्बत यूं कहा है कि, ईसा मसीह ख़ुदा का कलिमा है, जिसे ख़ुदा ने मर्यम में डाला था। पस हम मसीही उस हक़ीक़ी कलिमे की तल्क़ीन करते हैं, जिसमें ज़िंदगी है। पर हज़रत उस कलिमे की तल्क़ीन कराते हैं जिन पर फ़स्ल अव़्वल बाब अव़्वल में बह्स हो चुकी है। और हज़रत सूरह यासीन पढ़वाते हैं, जिसमें हम कोई तसल्ली की बात नहीं पाते। पर मसीही लोग ख़ुदा के कलाम में इसी मरने वाले की ज़बान में कोई बाब तसल्ली बख़्श निकाल के सुनाते हैं, और उसे नसीहतों से उभारते हैं, कि सच्ची तौबा करके ईमान के हाथ से हक़ीक़ी कलिमे का दामन पकड़ ले, ताकि अबदी ज़िंदगी पाए।

41 इक्तालीसवीं फ़स्ल

तकफ़ीन व तजहीज़ के ज़िक्र में

ग़ुस्ल देना उन की ताअलीम में फ़र्ज़-ए-किफ़ायह है। और पानी में बैरी के पत्ते जोश देकर उस से नहलाते हैं, और ख़ुशबू भी लगाते हैं और तीन कपड़े देते हैं, लुंगी, कफ़न, पोट की चादर।

इस मुआमले में सबसे अच्छा दस्तूर यहूदीयों का है और इसी तौर से सय्यदना मसीह भी कफ़नाये गए थे।

हम मसीहियों में दस्तूर है कि मुर्दे को साफ़ पानी से ग़ुस्ल देकर उस की साफ़ पोशाक उसे पहनाते हैं, और जैसी ख़ुशबू मयस्सर आ सके उसे मुअत्तर भी करते हैं, फिर एक संदूक़ में जो उस के कद के बराबर बनाया जाता है उसे लिटाते हैं, गोया आराम से सोता है, और संदूक़ को बंद करके बाद नमाज़ के क़ब्र में दफ़न कर देते हैं, इस उम्मीद पर कि सय्यदना मसीह के वसीले से मुर्दों की क़ियामत होगी और उस वक़्त ये शख़्स भी उठेगा।

वो जो मर गया है इस जहान से चला गया, उस का बदन जो मिट्टी है। उसे आरास्तगी या अदम आरास्तगी से कुछ फ़ायदा या नुक़्सान नहीं है। मगर मुहब्बत व उलफ़त के सबब और इस ख़्याल से कि उस की मिट्टी ख़राब ना हो मुनासिब जानते हैं कि दुरुस्ती से इज़्ज़त के साथ मदफ़ून (दफ़न) किया जाये सो ऐसी अच्छी तरह से करते हैं, जो सब लोग जानते हैं इस मुआमले में भी मसीहियों का दस्तूर बेहतर है।

42 बयालिस्वीं फ़स्ल

मशे व नमाज़ व तदफ़ीन का ज़िक्र

मशे (مشے) चलना है। हज़रत ने हुक्म दिया है कि मुर्दों के साथ ताज़ीम से चलो और कलिमा पढ़ते जाओ, ना आवाज़ से पर आहिस्ता-आहिस्ता और जमाअत करके उस पर नमाज़ पढ़ो।

ये मुक़ाम बड़ी इबरत का है, चाहिए कि ख़ुदा के ख़ौफ़ के साथ अपने मरने का दिन भी याद करके अदब के साथ मुर्दा को दफ़न करने जाएं। मगर कलिमा पढ़ते जाने में हमें कुछ फ़ायदा मालूम नहीं होता है, इसलिए मसीही लोग कोई ख़ास अल्फ़ाज़ नहीं पढ़ते हैं, मगर तरह तरह के ख़यालात मुफ़ीदा ज़हन में होते हैं। दुनिया की नापाइदारी की बाबत अदालत ईलाही की बाबत अपने चलन के बाबत वग़ैरह। आदमी आज़ाद हैं जो चाहें सोचें पर मुफ़ीद बातें सोचें जो उन की रूह की सलामती का बाइस हों।

मुर्दे की नमाज़ जो मुहम्मदियों में है और हज़रत ने सिखलाई है वो बिल्कुल मुफ़ीद नहीं है, सिर्फ एक जमाअत खड़ी हुई नज़र आती है और लफ़्ज़ अल्लाहु-अकबर का भी कान में आ जाता है, पर वो दुआ जो इमाम चुपके चुपके अपने दिल में पढ़ लेता है कोई नहीं सुन सकता, क्योंकि वो आवाज़ से पढ़ी नहीं जाती है। और अगर आवाज़ से पढ़ी भी जाती तो भी मुफ़ीद ना थी, क्योंकि इस का मतलब निहायत मुख़्तसर है। सिर्फ ये कि ऐ ख़ुदा मुझे बख़्श दे और इस मुर्दा को। मुर्दा की नमाज़ का दस्तूर जो हमारी नमाज़ की किताब में लिखा है और ख़ुदा के कलाम के मुवाफ़िक़ है, अगर कोई चाहे तो किताब नमाज़ में निकाल के देखे कि वो बयान तसल्ली बख़्श अक़ाईद इल्हामिया से भरपूर और नसीहत के लिए बहुत ही अच्छा है, जिससे ईमानदार आदमी की आँखें ज़्यादा रोशन हो जाती हैं। मुर्दा की नमाज़ से सिर्फ यही फ़ायदा है कि ज़िन्दगान को अच्छी तरह से इबरत हासिल हो और क़ियामत व अदालत और अबदी ज़िंदगी और अबदी मौत की बाबत फ़िक्र करें। सो ये बात सिर्फ उसी तर्तीब से जो मसीही लोगों में जारी है हासिल होती है।

43 तैंतालीसवीं फ़स्ल

दफ़न का दस्तूर

लहद (لحد) उस क़ब्र को कहते हैं जिसमें बग़ली खोदी जाती है। और शक़ (شق) वह क़ब्र है जिसमें सीधा घड़ा होता है। हज़रत मुहम्मद लहद को पसंद करते हैं, पर शक़ को पसंद नहीं करते हैं। अलबत्ता अगर आदमी संदूक़ में दफ़न ना किया जाये तो उस के लिए लहद अच्छी है। मसीहियों में शक़ (شق) खोदने का दस्तूर है, इसलिए कि इन के वास्ते लहद से बेहतर चीज़ संदूक़ है।

फिर हज़रत मुहम्मद क़ब्र को ऊंट की कमर की मानिंद ऊंचा बनाना पसंद करते हैं ना सतह और उस पर चूना लगाना भी मना करते हैं, और सिर्फ कच्चे गारे से लीपी हुई क़ब्र रखना मूजिब सवाब बतलाते हैं। पर अक्सर मुसलमानों ने इस ताअलीम पर अमल करना छोड़ दिया है और वो हज़ारहा क़ब्रें चूने से तैयार कराते हैं।

क़ब्र एक निशान है इस बात का कि यहां फ़ुलां शख़्स की लाश दाबी गई है। आदमी की ख़ुशी है जिस तरह का निशान चाहे बनाए, ख़्वाह पाएदारी के लिए कोई पत्थर लगाए या चूना। हमारे ख़्याल में और ख़ुदा के कलाम में ऐसी बातों के लिए कुछ सवाब व अज़ाब का मुआमला नहीं है। मसीही लोग क़ब्रों की आरास्तगी मह्ज़ मुहब्बत के सबब से अच्छी तरह से करते हैं और उस के ऊपर कुछ लिख भी देते हैं, जिससे पढ़ने वालों को अक्सर फ़ायदा होता है।

44 चवालिसवीं फ़स्ल

क़ब्रिस्तान के बयान में

हज़रत के ख़्याल में बाअज़ मक़ामात मुक़द्दस और मुबारक हैं, वहां दफ़न होना उन के गुमान में अच्छा है। पर हम लोग इस उसूल ही के क़ाइल नहीं हैं, क्योंकि ख़ुदा का कलाम और अक़्ल-ए-इंसानी हमें इस बात का क़ाइल होने नहीं देती है।

मिश्कात बाब हरम-उल-मदीना में लिखा है कि :-

“फ़रमाया हज़रत ने जो कोई मक्का या मदीना में मर जाये क़ियामत के दिन अमन पाने वालों के साथ उठेगा।”

हमारे ख़्याल में ये बात नहीं आ सकती कि कोई जगह मुर्दा के लिए फ़ाइदेबख्श ज़्यादा हो। इन्सान के लिए सिर्फ सही ईमान मुफ़ीद है वो कहीं मर जाये और कहीं गाढ़ा जाये ख़्वाह काशी में या द्वारका में या मथुरा में या हिमालया में या मक्का में या मदीना में सिर्फ ईमान से बचेगा और बेईमानी से हलाक होगा।

मौलवी सना-उल्लाह क़ाज़ी पानीपती ने जो अरबी के बड़े फ़ाज़िल मशहूर हैं अपनी किताब तज़्किरा मौता (تذکرہ الموتیٰ) में लिखा है कि :-

“बद (बुरे) आदमी की क़ब्र के पास मुर्दे को दफ़न करना ना चाहिए, क्योंकि बद (बुरा) मुर्दा अपने हम-साए के मुर्दे को तक्लीफ़ दिया करता है। रिवायत है कि एक आदमी मदीना में मर गया था और दफ़न किया गया, किसी ने ख्व़ाब में देखा कि वो अज़ाब में है, फिर हफ़्ता के बाद लिखा कि, अज़ाब जाता रहा जब पूछा गया कि अज़ाब किस तरह मौक़ूफ़ हुआ? उस ने कहा कि मेरी क़ब्र के पास एक नेक आदमी गाढ़ा गया है उस ने चालीस (40) मुर्दों को जो हम-साए थे बख्शवा लिया है।”

इसी ख़्याल से अहले-इस्लाम अपने मुर्दों को सय्यदों और मौलवियों और फ़क़ीरों और हाफ़िज़ों वग़ैरह के हमसाया (क़रीब) में गाड़ना बेहतर जानते हैं, बल्कि बाअज़ मशहूर औलियाओं की ख़ानक़ाह के अहाते में बड़ी क़ीमत से क़ब्रें ख़रीदते हैं।

ख़ुदा का कलाम हमें ये सिखलाता है कि ईमानदार की रूह इब्राहिम के पास आराम में चली जाती है और शरीर (बेदीन) की रूह अंधेरे में रहती है। बदन ख़ाक है उसे क़ब्र में कुछ तक्लीफ़ नहीं है, मिट्टी को मिट्टी क्या तक्लीफ़ देगी? ये बहुत पुराना ख़्याल है हिंदू मुसलमानों और यहूदीयों वग़ैरह लोगों में पाया जाता है कि बाअज़ मकानात मुतबर्रिक हैं। मगर कलाम-ए-ईलाही से और अक़्ल से इस का सबूत नहीं है। सारी ज़मीन बराबर है कहीं दफ़न करो नजात और हक़ीक़ी आराम सिर्फ़ सय्यदना मसीह से पाते हैं।

लोग क़ब्रिस्तान के लिए अहाते बनाते हैं और ज़मीन तज्वीज़ करते हैं, ये इसलिए है कि एक टुकड़ा ज़मीन का इस काम के लिए जुदा होए, सो ये अच्छी बात है मुहम्मदी भी ऐसा करते हैं और मसीही उन से ज़्यादा अच्छी तरह इस का बंद व बस्त करते हैं।

45 पैतालीसवीं फ़स्ल

क़ब्र के अंदर का अहवाल

अगरचे ये बयान अक़ाइद में दाख़िल है, पर यहां मुआमलात में फ़स्ल गुज़शता के साथ इलाक़े के सबब से बयान किया जाता है।

हज़रत की ताअलीम से मालूम होता है कि क़ब्र के अंदर कई एक बातें वाक़ेअ होती हैं।

अव़्वल, तासीर तल्क़ीन अबू अमामा से गुनियुत्तुत-तालिबिन में रिवायत है कि,

“फ़रमाया हज़रत ने कि मुर्दा दफ़न करके जब सब लोग चले जाया करें, तो चाहिए कि एक मुसलमान वहां रह जाये और क़ब्र के सिरहाने खड़ा होके इस मुर्दे को पुकारे कि, ऐ फ़ुलां शख़्स! तब वो क़ब्र में फ़ौरन उठ बैठेगा, पस उसे कहना चाहिए कि, कह अल्लाह से और इस्लाम से और मुहम्मद से और काअबा से और क़ुरआन से मैं राज़ी हूँ। तब फ़रिश्ते कहते हैं कि, अब इस से क्या सवाल करना है, सब जवाब तो उसे सिखलाए गए इसलिए वो छोड़कर चले जाते हैं।”

इस रिवायत पर कहीं कहीं अमल होता है। ये बात किस की अक़्ल क़ुबूल कर सकती है कि, मुर्दा क़ब्र में जी उठता है और सदहा मन मिट्टी के नीचे दबा हुआ बातें सुनता है?

दोम, मुन्किर नकीर की आफ़त है। हज़रत ने सिखलाया कि मुन्किर नकीर दो फ़रिश्ते हैं। हर मुर्दा के पास क़ब्र में आते हैं और मुर्दे को उठा के बिठलाते हैं और सवाल करते हैं, अगर वो नबुव्वत मुहम्मद का इक़रार करे तो छोड़ देते हैं, वर्ना लोहे की मोगरी (कूटने का आले) से मारते हैं, ऐसा कि उस का सर टुकड़े टुकड़े हो जाता है, फिर सर जोड़ देते हैं, फिर मोगरी मार के तोड़ते हैं इस के बाद शरीर (बुरों) के लिए दोज़ख़ की तरफ़ से और नेक के लिए बहिश्त की तरफ़ से एक खिड़की खोल के इस को आराम से सुलाते हैं।

ये बात मह्ज़ दहश्त की है और जाहिल आदमीयों को डरा के अपनी तरफ़ मुतवज्जोह करने के लिए हम इस बात पर हरगिज़ यक़ीन नहीं कर सकते। हाँ शरीरों (बेदीनों) को अज़ाब और दुख होता है, पर रूह को होता है जहां रूह गई है, क़ब्र के अंदर कुछ नहीं होता है।

सोम, ज़फ़ता (ضفطہ) क़ब्र है। ज़फ़ता के माअनी हैं दबाना, यानी क़ब्र आदमी को ऐसा दबाती है कि उस की हड्डियां तोड़ डालती है, और ज़मीन यूं कहती है कि, तू मेरे ऊपर चलता था आज तुझे मैं दबाऊंगी।

कहते हैं कि सअद बिन मुआज़ को जो बड़ा बुज़ुर्ग अस्हाब हज़रत का था और जिसके मरने के वक़्त ख़ुदा का तख़्त भी काँप उठा था और सत्तर (70) हज़ार फ़रिश्ते उस के जनाज़े के साथ चले थे उस को ज़फ़ता (ضفطہ) हुआ था और ज़ैनब व रुक़य्या हज़रत की बेटीयों को भी ज़फ़ता हुआ था।

चहारुम, हज़रत मुहम्मद ने सिखलाया है कि मुर्दे क़ब्रों में पड़े हुए बाहर वालों की आवाज़ सुना करते हैं और देखा भी करते हैं।

“आईशा की रिवायत है कि, जब तक उमर ख़लीफ़ा हज़रत के मक़बरे में मदफ़ून ना हुए थे। आईशा कहती है कि मैं खुले मुँह हज़रत की क़ब्र पर जाया करती थी, क्योंकि पहले वहां सिर्फ हज़रत की और अबू बक्र की क़ब्र थी, पर जब उमर मदफ़ून हुए जो ग़ैर-शख़्स थे उन के लिहाज़ से अब आईशा बुर्क़ा ओढ़ के जाने लगीं, इसलिए कि हज़रत ने अपनी ज़िंदगी में ज़ोर के साथ ये ताअलीम दी थी कि मुर्दे क़ब्रों में देखते हैं।”

हम जानते हैं कि देखना और सुनना ये रूह के साथ है और मिट्टी में कोई हिस (होश, एहसास) नहीं है, फिर क्यूँ-कर यक़ीन करें कि मुर्दे देखते सुनते हैं? पस ये चार बातें हरगिज़ क़बूलीयत के लायक़ नहीं हैं। अब क्या ये ताअलीम ख़ुदा से है? हरगिज़ नहीं ये तो अक़्ल से भी नहीं है, मगर ना-वाक़िफ़ी के अम्बार में से है। ये मुअल्लिम जब हमारे बहुत ही नज़्दीक के वाक़ियात में ऐसी ग़लती से ताअलीम देता है, तो आलम-ए-बाला की बाबत उसने फ़सीह ताअलीम कब दी होगी? पस क्यूँ-कर इस शख़्स के हाथ में अपनी रूह को सपुर्द करें।

46 छियालीसवीं फ़स्ल

अम्बिया व औलिया के जिस्म की बाबत

तज़्किरा अल-मौता (تذکرہ الموتی) किताब की आख़िरी फ़स्ल में है कि, फ़रमाया हज़रत मुहम्मद ने, अम्बिया औलिया के बदन क़ब्र में सड़ते गलते नहीं हैं, जिस तरह से मदफ़ून हुए हैं उसी तरह से ज़मीन में सलामत हैं।

ये ताअलीम हज़रत की सही नहीं है। कई वजह से अव़्वल आंका (यह कि) क़ियास क़ुबूल नहीं करता कि बदों (बगैर) किसी मसाले (लेप) के आदमी का मुर्दा बदन क़ब्र में सलामत रहे और मिट्टी ना हो। और ना कभी ये बात किसी के तजुर्बे में आई है, बल्कि बरख़िलाफ़ इस के ज़ाहिर हुआ है। यूसुफ़ पैग़म्बर था मिस्र से उस की हड्डियां कनआन में आई थीं, बदन साबित और सलामत ना था। (ख़ुरूज 13:19) और दाऊद पैग़म्बर की क़ब्र बेइज़्ज़ती के इरादे से एक दफ़ाअ हेरोदेस बादशाह ने खुलवा डाली थी उस की लाश भी सलामत ना पाई गई थी। और (आमाल 2:39) में दाऊद की निस्बत लिखा है कि, उस ने सड़न देखी।

दुवम, आंका यह कि (1 सलातीन 2:1-2) दाऊद ख़ुद फ़रमाता है, कि मैं तमाम जहान के लोगों की राह जाता हूँ। (अय्यूब 19:26) में अय्यूब पैग़म्बर कहता है कि, मेरे मरने के बाद मेरे गोश्त को कीड़े खा जाएंगे। और सब पैग़म्बर ऐसी बातें बोलते हैं और मुक़द्दसीन इसी तरह का ख़्याल रखते हैं। फिर ये ख़्याल हज़रत मुहम्मद का क्यूँ-कर क़ुबूल हो सकता है, जो सरीह ग़लत है।

अलबत्ता एक शख़्स है जिसका नाम सय्यदना ईसा मसीह है, वो भी मुआ (मरा) था उस के बदन ने सड़न नहीं देखी और वो तीन दिन से ज़्यादा (क़ब्र) में भी नहीं रहा वो अब आस्मान पर ज़िंदा मौजूद है और हर जगह हाज़िर व नाज़िर है ख़ुदा होके।

हाँ मसीह के जी उठने के बाद बहुत सी लाशें मुक़द्दसों की जो आराम में थीं क़ब्रों से उठीं और बहुतों को नज़र आईं। (मत्ती 27:53) इस का ये मतलब नहीं है कि वो पहले से क़ब्रों में सलामत थीं। उन की रूहें ख़ुदा के पास थीं और बदन उन के क़ब्रों में मिट्टी हुए पड़े थे। जब सय्यदना मसीह जो कलीसिया का सर है जी उठा और क़ियामत का पहला फल हुआ तो उस ने यरूशलेम के मुक़द्दसों के बदनों को भी जो ख़ाक थे ज़िंदगी बख्शी और उन्हीं की रूहें उन में डालीं और उन्हें उठाया, ये निशान दिखलाने को कि क़ियामत और ज़िंदगी सय्यदना मसीह है। क़ियामत का शुरू उस से हो गया है। वक़्त आएगा कि वो इसी तरह सब मुर्दगाँ को जिंदा करेगा पस ये और बात है।

फिर उसी तज़्किरा अल-मौता (تذکرہ الموتی) में लिखा है कि, पैग़म्बर लोग क़ब्रों के अंदर नमाज़ पढ़ा करते हैं। ये बात भी सही नहीं है। बेजान मिट्टी जिसमें ना फ़हम है ना हिस व हरकत है, क्यूँ-कर नमाज़ पढ़ती है? और अलबत्ता रूहें पैग़म्बरों की और सब मुक़द्दसों की ख़ुदा की तारीफ़ करती हैं, क्योंकि वो ज़िंदा हैं, पर वो क़ब्रों में नहीं हैं और दाऊद पैग़म्बर उन के बदनों की निस्बत कहता है कि, “मुर्दे ख़ुदा की सताइश (हम्दो सना) नहीं करते हैं।”

ये ताअलीम हज़रत की मुक़द्दस लोग और पैग़म्बर क़ब्रों में रहते हैं और देखते व सुनते हैं दुरुस्त नहीं है। और इसी ताअलीम का ये नतीजा है कि अहले-इस्लाम ने क़ब्रों की ज़ियारत और उन से दुआ माँगना और वहां मैले (उर्स) करना शुरू किया है। और मह्ज़ बुत-परस्ती की हालत में एक फ़िर्क़ा अहले-इस्लाम का जा पड़ा है, जिनको लोग बिद्दती कहते हैं, पर वो बिद्दती क्यूँ-कर हैं? वो तो मुहम्मदी ताअलीम के मुवाफ़िक़ काम करते हैं। मेरे गुमान में बिद्दत का इल्ज़ाम इस फ़िर्क़े पर इस क़द्र आइद नहीं हो सकता है जिस क़द्र हज़रत पर इस ताअलीम का इल्ज़ाम आइद है।

47 सैंतालीसवीं फ़स्ल

मरने का अच्छा वक़्त

इसी तज़्किरा अल-मौता (تذکرہ الموتی) में देलमी से आईशा की रिवायत है कि, फ़रमाया हज़रत ने :-

“जो कोई जुमा या जुमेरात को मरेगा उसे क़ब्र में अज़ाब ना होगा और क़ियामत में बअलामत शुहदा वो उठेगा। इसी तरह अगर कोई आदमी माह रमज़ान में या अर्फ़ा के आख़िर में मरेगा तो बहिश्त (जन्नत) में जाएगा। या कोई नेक काम करता हुआ मरेगा मिस्ल सदक़ा या रोज़ा या जिहाद या हज या उमरा वग़ैरह करता हुआ।”

ये बात ख़्याल में नहीं आती कि एक आदमी को जुमा के दिन मरने के सबब से सवाब मिले और दूसरे को मंगल के रोज़ मरने से इस सवाब से महरूम रहना पड़े। मरना आदमी के इख़्तियार में नहीं है, जब उम्र तमाम हुई फ़ौरन मर जाता है। पस उमूर ग़ैर-इख़्तियार पर ये अज़ाब व सवाब का मुरत्तिब होना अक़्लन व नक़्लन नाजायज़ है। हाँ अगर एक नेक काम ज़िंदा ईमान की तासीर से करता हुआ कोई मर जाये तो बज़ाहिर अच्छी अलामत है, पर सब के दिलों और गुर्दों का हाल ख़ुदा जानता है।

हासिल कलाम आंका (यह है कि) ना किसी वक़्त पर और ना किसी मुक़ाम पर और ना किसी कपड़े और तबर्रुक की चीज़ पर और ना किसी उम्दा मक़बरे के अहाते में दफ़न होने से कुछ फ़ायदा है। मगर सिर्फ सही ईमान पर जो बमूजब कलाम-ए-ईलाही के हो आदमी नजात पाएगा। इस अच्छे उसूल से हम हरगिज़ नहीं हट सकते हैं और ना इस में कोई और बात दाख़िल कर सकते हैं, वर्ना तमाम सिलसिला अम्बिया के बरख़िलाफ़ होना पड़ेगा और हज़रत मुहम्मद ऐसा ही करते हैं।

48 अड़तालीसवीं फ़स्ल

क़ब्रों की ज़ियारत के बयान में

हज़रत ने शुरू में तो क़ब्रों की ज़ियारत से मना किया था, मगर उस के बाद हुक्म दिया कि क़ब्रों की ज़ियारत किया करें और क़ब्रों पर जाकर मुर्दों से कहें अस्सलामु अलैकुम या अहल-उल-क़ुबूर (السلام علیکم یا اہل القبور) ऐ क़ब्रों में रहने वालो तुम पर सलाम। और उन के वास्ते दुआ करें और क़ुरआन की इबारतें पढ़ कर उन्हें सवाब बख़्शें।

ये ताअलीम कि क़ब्रों में जाया करें, एक और मतलब से अच्छी बात है कि अपनी मौत याद आती है और अपने अहबाब रुख़्सत शूदा की मुहब्बत का निशान है और ख़ुदा का ख़ौफ़ दुनिया की नापाइदारी दिल पर ताज़ा होती है। मगर उन के लिए दुआ से कुछ फ़ायदा नहीं है उनका हिस्सा दुनिया से जाता रहा, जैसी करनी वैसी भरनी उन के लिए है। और ख़ुदा के कलाम में कहीं इस बात का इशारा नहीं है कि मुर्दों के लिए दुआ चाहिए ये तो आदमी की ईजादी (बनावटी) बातें हैं।

पर उन्हें सलाम अलैक करना गोया कि वो हाज़िर हैं और सुनते और देखते हैं ये बात ख़ास मुहम्मदी उसूल पर मबनी है, अक़्ल और कलाम से इस का सबूत नहीं है।

हज़रत ने अपनी क़ब्र की ज़ियारत का भी हुक्म दिया है। चुनान्चे मज़ाहिर-उल-हक़ बाब हरम-उल-मदीना की फ़स्ल सालस में लिखा है :-

من حج فزار قبری بعد موتی کا ن کمن زارنی فی حیاتی

“यानी काअबा के हज के बाद अगर कोई आदमी मेरी क़ब्र पर ज़ियारत करने आएगा, तो ऐसा होगा जैसे मुझसे ज़िंदगी में मिला।”

“और एक रिवायत में है, जिसने हज किया लेकिन मेरी क़ब्र पर ना आया वो ज़ालिम है।”

“और एक रिवायत में है कि, जो कोई बाद हज के मेरी क़ब्र पर आया, उस को दो हज का सवाब मिलता है।”

हज़रत मुहम्मद अपनी क़ब्र पर लोगों को आने की तर्ग़ीब देते हैं। ख़ुदा के पैग़म्बरों ने कभी ऐसा नहीं किया। सब पैग़म्बर, लोगों को ईमान के वसीले ख़ुदा की तरफ़ भेजते हैं, अपनी तरफ़ हरगिज़ नहीं बुलाते। सय्यदना मसीह अपनी तरफ़ सारे जहान को बुलाता है, इसलिए कि सारे जहान का ख़ुदा है। पर हज़रत का मिज़ाज हम वैसे ही पाते हैं जैसे और लोगों के मिज़ाज हैं जो अपनी इज़्ज़त के तालिब हैं।

49 उन्चासवीं फ़स्ल

रूह कहाँ जाती है?

तज़्किरा अल-मौता (تذکرہ الموتی) में क़ाज़ी सना-उल्लाह ने इस अम्र की तहक़ीक़ात में कि आदमी की रूह कहाँ जाती है? क़ुरआन हदीस से बड़ी फ़िक्र के साथ बहुत सा बयान किया है जिसका ख़ुलासा ये है :-

“दो मकान हैं, एक नाम सिज्जीन (سجین) है अरबी में सिज्जीन (سجین) जेल ख़ाने को कहते हैं। पस सिज्जीन (سجین) मुबालग़ा के साथ बड़ा जेल ख़ाना (है और) काफ़िरों की रूहें इस में क़ैद रहती हैं।

दूसरा मकान इल्लियीन (علیین) है इल्लियता (علیتہ) की जमा है, बमाअनी ऊंची खिड़कियाँ यानी बहिश्त (जन्नत) वहां मुसलमानों की रूहें जाती हैं।

अबू दाऊद वग़ैरह ने अबू हुरैरा से रिवायत की है कि, फ़रमाया हज़रत ने कि :-

“बहिश्त (जन्नत) में एक पहाड़ है वहां पर मुसलमानों के बच्चों की रूहें जाती हैं और इब्राहिम व सारा वहां उन की परवरिश करते हैं। जब क़ियामत आएगी तो वो इन बच्चों को उन के वालदैन के सपुर्द कर देंगे।”

ये बातें कलाम के चंदाँ ख़िलाफ़ नहीं हैं, हज़रत ने ये बातें मसीहियों से मालूम करके अपने तौर पर बयान की हैं। और इब्राहिम के गोद में जाने का ज़िक्र (लूक़ा 16:22) में है। तो भी हज़रत के बयान में कुछ ज़्यादती है जो सबूत की मुहताज है और इल्लियीन (علیین) व सिज्जीन (سجین) की बाबत हम कुछ नहीं कह सकते, ज़रूर दो मकान हैं, जहां दो क़िस्म की रूहें रहती हैं।

फिर ख़ालिद बिन मुइद उन की रिवायत है कि, वो बच्चे दरख़्त तूबा से शीर (दूध) पिया करते हैं। शुरू दुनिया में बच्चों के नातवां जिस्म की परवरिश का वसीला है ना रूहों की, सो जिस्म उन के ख़ाक हो गए हैं पर रूह की ग़िज़ा चाहिए, जिससे अबद तक रूह जिए सो ये ख़ुदा से है ना बशर से।

मकहूल (مکحول) की रिवायत है कि मुसलमानों के बच्चे बशक्ल चिड़िया बहिश्त (जन्नत) में उड़ते हैं और ख़ानदान फ़िरऔन के बच्चे एक सय्यारा रंग परिंदे के मुवाफ़िक़ हैं जो सुबह व शाम दोज़ख़ के सामने लाए जाते हैं।

यहां कुछ हैरानी है क्योंकि मुहम्मदी लोग कुल बच्चों की इस्मत (गुनाह से पाक होने) के क़ाइल हैं फिर फ़िरऔन के बच्चों को तक्लीफ़ की वजह क्या है?

बाअज़ हदीसों में है कि मुसलमानों की रूहें मिस्ल जानवर के बहिश्त (जन्नत) के दरख़्तों पर उड़ती हैं, क़ियामत के दिन बदनों में आयेंगी। मगर शहीदों की रूहें एक सब्ज़ जानवर के शिकम (पेट) में दाख़िल होती हैं और वो जानवर बहिश्त की नहरों के किनारे चरते हैं, लेकिन रैन बसेरे के वक़्त उन क़ंदीलों के दर्मियान जो ईलाही तख़्त के नीचे आवेज़ां हैं आ कर बसेरा करते हैं।

इस मुआमले में सिर्फ हम इतना कह सकते हैं, कि उस नादीदनी (अनदेखे) जहान की बातें बग़ैर सबूत रिसालत के हज़रत की ज़बानी क्यूँ-कर क़ुबूल की जा सकती हैं? और उन के मुबालग़े जो उन के बयान में हैं इन बातों का यक़ीन दिल में पैदा होने नहीं देते हैं। ख़ुदा का कलाम ये सिखलाता है कि ज़रूर मुक़द्दसों की रूहें ख़ुदा की हुज़ूरी में निहायत ख़ुश हैं और उन्हें कुछ दर्द दुःख नहीं है। ख़ुदा की सताइश (हम्द) और उस का दीदार उन की ग़िज़ा है। क़ियामत के रोज़ सब अपने बदनों में आयेंगी और उन के बदन नूरानी होंगे और वो अबद-उल-आबाद ख़ुदा के साथ ख़ुशी में रहेंगे।

50 पचासवीं फ़स्ल

बच्चों की मौत से वालिदा को अज्र मिलना

मिश्कात बाब-उल-बका में मुस्लिम से अबू हुरैरा की रिवायत है :-

“फ़रमाया हज़रत ने, जिस औरत के दो या तीन छोटे बच्चे मर जाएं और माँ सब्र करे तो वो बहिश्त (जन्नत) में जाएगी।”

और सब्र से मुराद ये है कि पहले सदमे पर सब्र करे ना आंका (यह कि) बतदरीज सब्र आए।

ख़ुदा का कलाम कहता है कि बच्चे ख़ुदा की बख़्शिश हैं। और जैसे ख़ुदा सब का मालिक है बच्चों का भी मालिक है। जब तक चाहे किसी को दुनिया में रहने दे जब चाहे बुला ले। पस किसी का मरना जीना आदमी के बहिश्त (जन्नत) में जाने का बाइस नहीं है। सिर्फ मसीह का मरना हमारे गुनाहों को मारता है और उस का जीना हमारे अंदर ईलाही ज़िंदगी दाख़िल करता है। अलबत्ता सब्र करना हर मुसीबत में मुफ़ीद है जो आदमी के दिल को सुधारता है और उस का भरोसा जो ख़ुदा पर है इस का सबूत देता है।

51 इक्कावन फ़स्ल

मुर्दों पर रोने के बयान में

हज़रत ने मुर्दों पर नोहा (मातम) करने को मना किया है मगर रोने से मना नहीं किया है और बाअज़ मुक़ाम पर हज़रत ख़ुद भी रोएँ हैं।

चीख़ें मारना और बयान कर कर के रोना और हलक़ा बंदी करना और कपड़े फाड़ना और छाती पीटना ये नोहा (मातम) है।

ये ताअलीम दुरुस्त है और सब ईमानदार और दाना आदमी भी ऐसा करते हैं।

फिर हज़रत ने पेशीनगोई भी की है, कि अगरचे ऐसे रोने से मना किए गए हैं, तो भी मेरी उम्मत के दर्मियान से ऐसा रोना दफ़ाअ ना होगा। और यह पेशगोई सच्च भी निकली है जो फ़िरासत से थी, कि अब तक अहले-इस्लाम बुरी तरह से रोते हैं।

इस दर्द के ज़ब्त (क़ाबू) की ताक़त इन्सान में उस वक़्त पैदा होती है कि, जब उस का सही ईमान कामिल हो और उस की उम्मीद ख़ुदा के वादों पर भरोसा रखे।

हज़रत की शरीअत आदमी के दिल में सच्चे और ज़िंदा उम्मीद पैदा नहीं कर सकती है। अगरचे क़ियामत और बहिश्त (जन्नत) के वो क़ाइल हैं, पर क़ियामत का सबूत जैसा मसीह की इन्जील में है सारी दुनिया में कहीं नहीं है। सय्यदना मसीह का जी उठना क़ियामत का कामिल सबूत है, जिसके हज़रत ख़ुद मुन्किर हैं। इसलिए मसीही शरीअत आदमी के दिल में क़ियामत की पूरी उम्मीद पैदा करती है और उस के दिल को ख़ुदा के वादों पर क़ायम करती है। लिहाज़ा सिवाए सच्चे मसीहियों के कोई आदमी अहबाब की मौत के सदमें पर ज़ब्त (क़ाबू) की पूरी ताक़त नहीं रखता है, उस की पूरी उम्मीद है कि मुर्दों की क़ियामत होगी और ख़ुदा हमारे आँसू पोछेगा। पर अक़्ली ज़ब्त (क़ाबू) और सख़्त दिली का ज़ब्त (क़ाबू) या बेअस्ल बात पर यक़ीन करके जो ज़ब्त (क़ाबू) पैदा होता है, हां वो भी सब्र का बाइस है, जो सब क़ौमों में से किसी-किसी आदमी के दर्मियान पाया जाता है। पर मसीही लोगों का ज़ब्त (क़ाबू) कुछ और बात है, जो निहायत महमूद (बेहतर) है और नाज़रीन किताब हज़ा कुछ थोड़ा सा फ़िक्र के इस बात को दर्याफ़्त कर सकते हैं।

(4) चौथा बाब

क़साइस मुहम्मदिया के बयान में

मुहम्मदी क़िस्से क़ुरआन में कामिल तौर पर मज़्कूर नहीं हैं। किसी-किसी क़िस्से का कहीं-कहीं टुकड़ा टुकड़ा मिलता है और वो क़िस्सा इन टुकड़ों से कामिल नहीं होता है। मुहम्मदियों ने अपनी हदीसों और रिवायतों से उन क़िस्सों के पूरा करने में बहुत कोशिश की है, और बहुत सी किताबें इस बाब में तस्नीफ़ हो गई हैं। इस पर भी उन लोगों को कोई पूरा क़िस्सा सेहत के साथ नहीं मिला है। मगर मैंने उन क़िस्सों को जो इस बाब में बतौर ख़ुलासे के लिखा है, अब्दुल वाहिद बिन मुहम्मद बिन मुफ़्ती की किताब क़िसस-उल-अम्बिया (यानी नबियों के वाक़्यात) से लिखूँगा, जो इस वक़्त इस मुल्क के सब लोगों को बाआसानी हर कहीं मिल सकती है। और इस के मुसन्निफ़ ने कुतुब मज़्कूर ज़ेल से जो बहुत मोअतबर किताबें हैं अपनी किताब को मुरत्तिब किया है :-

تیسیر، کشاف، کبیر، درُر، زاد المیسر، تبیان، جامع البییان، جلالین ، فشیری، مدارک ، نیشا پوری ، مغنی ، لباب ، عین المعانی ، ینابیع، بحر المواج، بیضاوی، معالم، وسیط، کواشی، عرایس، زاہدی، کشف الاسرار ، تفسیر یعقوب چرخی، حسینی، بستان فقیہ، ابوللیث، معارج النبوت ، شفا قاضی عیاض ، شواہد النبوت

तयस्सीर, कश्शाफ़, कबीर, दुर्रे, ज़ाद-उल-मयस्सर, तिबयान, जामेअ-उल-बयान, जलालेन, फ़िशीरी, मदारिक, नीशा पूरी, मुग़न्नी, लबाब, ऐन-उल-मआनी, यनाबीअ, बहर-उल-मवाज, बैज़ावी, मुआलिम, वसीत, कवाशी, अराईस, ज़ाहिदी, कश्फ़-उल-इसरार, तफ़्सीर याक़ूब चर्ख़ी, हुसैनी, बुस्तान फ़क़ीह, अबूल-लय्स, मआरिज-उन्नबुव्वत, शिफ़ा क़ाज़ी अयाज़, शवाहिद-उन्नबुव्वत वग़ैरह से।

इस के सिवा ये बात है कि, ये क़िस्से जो इस बाब में लिखे हैं वही हैं जो इस वक़्त के और अगले ज़माने के भी मुहम्मदी आलिम अपने वाअज़ व नसीहत में लोगों को सुनाते हैं और सुनते थे।

हमें इन क़िस्सों के देखने से बड़ा अफ़्सोस आता है, कि इन हदीसों ने कैसी ग़लती में आदमीयों को डाला है कि वो अस्ल मतलब को छोड़कर कहाँ से कहाँ जा निकले। अगर कोई शख़्स इन क़िस्सों को सेहत के तौर पर मालूम करना चाहे तो ख़ुदा के कलाम यानी बाइबल में मुलाहिज़ा करे या एक किताब जिसका नाम मुक़द्दस किताब का अहवाल है और जिस में तमाम क़िसस कलाम ईलाही के मुवाफ़िक़ ख़ुलासे के तौर पर लिखे हैं ग़ौर से देखे और सारे मुहम्मदी क़िस्से जो इस बाब में हैं मुक़ाबला करके ग़लती में से निकले।

क़िस्सा आदम व हव्वा का

जब ख़ुदा ने आदम के पैदा करने का इरादा किया तो फ़रिश्तों से कहा, मैं ज़मीन पर अपना ख़लीफ़ा बनाना चाहता हूँ। फ़रिश्तों ने इस इरादे पर एतराज़ करके कहा, क्या मुफ़सिद (ख़राबी डालने वाला) और ख़ूनी को पैदा करना चाहता है? जवाब मिला तुम इस भेद को नहीं समझते जो मैं ख़ूब जानता हूँ। इस के बाद ख़ुदा ने सारी ज़मीन के ज़र्रों से एक मुश्त ख़ाक जिब्राईल से मँगवाई, पर ज़मीन ने ना चाहा कि मुझसे आदम पैदा हो और बाअज़ उस की औलाद दोज़ख़ में जाये, इसलिए जिब्राईल ख़ाली हाथ चला गया इसी तरह मीकाईल और इस्राफ़ील भी आए और ज़मीन का रोना देखकर ख़ाली हाथ चले गए, आख़िर को इज़राईल (عزرائیل) जान निकालने वाला आकर ज़बरदस्ती ज़मीन से ख़ाक (मिट्टी) ले गया, तब ख़ुदा ने अपने हाथ से इस मिट्टी का चालीस (40) बरस में ख़मीर उठाई। हदीस में है :-

“خمرت طینتہ آدم بیدی ارابعین صلبحاً यानी ख़ुदा ने आदम की मिट्टी को चालीस (40) दिन में अपने हाथ से ख़मीर उठाया है।”

फिर चालीस (40) बरस तक इस ख़मीर पर ख़ुदा ने ग़म के समुंद्र में से पानी बरसाया, इसी वास्ते सब आदमी ग़मगीं रहा करते हैं, कि उन के ख़मीर में ख़ुदा ने ग़म दाख़िल किया है। इस के बाद आदम का क़ालिब (ढांचा) बना और मक्का और ताईफ़ के दर्मियान रखा गया। चालीस बरस तक हज़ारहा फ़रिश्ते उसे देखने को आते-जाते रहे मगर शैतान उसे देखकर ठट्ठा किया करता था, इस के बाद ख़ुदा ने उस में रूह दाख़िल करने का इरादा किया, मगर रूह ने तीन बार उज़्र किया चौथी बार ज़बरदस्ती उस में डाली गई।”

फिर आदम को आस्मान पर बहिश्त (जन्नत) में ले गए, वहां फ़रिश्तों का और आदम का इम्तिहान हुआ। ख़ुदा ने सब चीज़ों के नाम फ़रिश्तों से पूछे वो ना बतला सके लेकिन आदम को ख़ुदा ने सब चीज़ों के नाम सिखला रखे थे, इसलिए उसने बतला दीए (ये आदम का इम्तिहान मुम्तहिन (इम्तिहान लेने वाले) की रिआयत से अच्छा हो गया।)

फिर ख़ुदा ने अर्श के बराबर एक तख़्त रखवा कर उस पर आदम को बैठाया और हुक्म दिया, कि सब फ़रिश्ते उसे सज्दा करें पस सबने सज्दा किया, लेकिन शैतान ने सज्दा ना किया इसलिए मलऊन (लानती) हो गया उसने उज़्र (बहाना) किया, कि मैं नारी (आग से बना) हूँ और वो ख़ाकी (मट्टी से बना) है, और शायद ये उज़्र (बहाना) भी किया हो कि ख़ुदा के सिवा दूसरे को सज्दा करना शिर्क है, ऐ ख़ुदा तू बुत-परस्ती करने का हुक्म क्यों देता है?

पर कोई उज़्र सुना ना गया फ़ौरन लानत आ पड़ी, तब शैतान ने अर्ज़ की कि मुझे क़ियामत तक रहने दे और अभी दोज़ख़ में ना डाल पस ख़ुदा ने उसे मोहलत दी और उस की अर्ज़ क़ुबूल कर ली, तब वो बोला मुझे ख़ुदा की क़सम सारे आदमीयों को गुमराह करके दोज़ख़ में ले जाऊंगा। ख़ुदा ने कहा, मेरे ख़ास बंदे गुमराह ना होंगे। इस के बाद बड़ी धूम धाम से आदम बादशाहों की तरह बहिश्त (जन्नत) में आया वहां तरह-तरह के मज़े और शराब, कबाब और महल और खाने, कपड़े वग़ैरह मौजूद थे पर कोई औरत ना थी। पस आदम इसी फ़िक्र में सो गया तब उस की बाएं पसली से ख़ुदा ने औरत बनाई और वो बहुत ख़ूबसूरत थी, फिर ख़ुदा ने आदम और हव्वा का निकाह मुहम्मदी दस्तूर के मुवाफ़िक़ कर दिया और हज़रत मुहम्मद पर दुरूद पढ़ना उस का महर हुआ।

पस आदम और हव्वा बहिश्त (जन्नत) में ख़ुशी से रहते, और सब चीज़ें काम में लाते थे और उन्हें हुक्म था कि सब चीज़ें खाना मगर इस दरख़्त से ना खाना, लेकिन शैतान साँप के मुँह में बैठ कर बहिश्त (जन्नत) में गया और आदम व हव्वा को बहकाया तब उन्होंने वो दरख़्त भी ख़ा लिया और बहिश्त से निकाले गए, ज़मीन पर गिराए गए, यहां आकर बच्चे जने लगे और बड़े ग़म में रहे। फिर ख़ुदा ने आदम को चंद कलिमे सिखलाए उनके वसीले उस का गुनाह माफ़ हुआ और उन कलिमों के बयान में इख़्तिलाफ़ है, कि वो क्या कलिमे थे बाअज़ कुछ बतलाते हैं और बाअज़ कुछ।

लेकिन तौरेत शरीफ़ में लिखा है कि, वो मसीह की बशारत (खुशखबरी) थी, कि तेरी नस्ल से शैतान का सर कुचलने वाला पैदा होगा। पस आदम का भरोसा उस शैतान के सर कुचलने वाले शख़्स पर जा ठहरा और यह भरोसा मसीह पर ईमान इज्माली था इसी से आदम ने नजात पाई ना क़िस्म-क़िस्म के लफ़्ज़ पढ़ने से।

फिर आदम दुनिया में हज़ार बरस जिया मगर कअब अहबार के क़ौल के मुवाफ़िक़ 930 बरस की उम्र पाई है। जब पाँच बरस का था और औलाद बहुत हो गई थी, उस वक़्त वो पैग़म्बर हुआ उस पर एक किताब नाज़िल हुई जिसमें चालीस सहीफ़े थे। और कश्शाफ़ में है कि, दस किताबें उस पर नाज़िल हुईं, और 48 हर्फ़ अरबी के भी उस पर नाज़िल हुए। मगर उस पर सिवाए अहकाम शरीअत मुहम्मदिया के इल्म तिब्बी व इल्मे हंदिसिया (علم طبعی وعلم ہند سہ) और इल्मे हिसाब, इल्मे तिब्ब वग़ैरह भी नाज़िल हुए थे। और जिन्न भूत के ताबे करने के मंत्र जंतर भी उतरे थे, और जब क़ाबील, हाबील को मार कर किसी सर-ज़मीन में अलग जा बसा था और आतिश-परस्त हो गया था, तो उस वक़्त आदम बहुक्म ईलाही उसे नसीहत करने को गया था। आदम ने अपनी औलाद को एक हज़ार (1000) ज़बानें मुख़्तलिफ़ सिखलाईं गोया उसी वक़्त से ज़बानों में इख़्तिलाफ़ है। जब उस के चालीस हज़ार (40,000) बच्चे पैदा हो गए और वो हज़ार बरस का हुआ तब उस की मौत आई उस वक़्त उस ने शीस को बुला कर नसीहत की :-

अव्वल, दुनिया में दिल ना लगाना।

दोम, औरत की बात ना मानना।

सोम, हर काम का अंजाम सोच लिया कीजियो।

चहारुम, जिस बात में शक हो उसे छोड़ दिया करना।

पंजुम, हर काम में यारों से मश्वरा कर लेना।

इस के बाद हज़रत मुहम्मद के औसाफ़ और बुजु़र्गी का बयान भी सुनाया, कि वो सब पैग़म्बरों के सरदार हैं। उन की फ़ज़ीलत इस से ज़ाहिर है, कि मैं एक गुनाह के सबब ऐसी बला में मुब्तला हुआ, मगर हज़रत मुहम्मद की उम्मत हज़ार गुनाह करके भी बहिश्त (जन्नत) में जा सकती है। इस के बाद एक संदूक़ निकाल लाया और क़ुफ़ुल खोल कर एक किताब निकाली, उस में आदम से लेकर ब-तर्तीब सब पैग़म्बरों का हाल लिखा था। फिर अबू बक्र व उमर व अली व हसन व हुसैन का सब अहवाल सुनाया, फिर संदूक़ बंद करके शीस को दे दिया और मर गया, और मुहम्मदी दस्तूर पर दफ़न हुआ उस की क़ब्र सर अन्दीप (سر اندیپ) के मुल्क में है और वहां एक दरख़्त उस की क़ब्र पर खड़ा है उस के हर पत्ते पर ला-इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मदु-र्रसूलुल्लाह (لا الہ الا اللہ محمد رسول اللہ) क़ुदरत से लिखा है, बादशाह लोग वहां से पत्ते मंगवाकर अपने ख़ज़ानों में रखते हैं।

और वही संदूक़ बनी-इस्राईल में नस्लन बाद नस्लन चला आया था।

जिन्नों और शैतान का क़िस्सा

नार सुमूम (نارسموم ) एक बड़ी आग थी, उस में रोशनी और तारीकी मिली हुई थी। रोशनी से फ़रिश्ते बनाए गए और इस तारीकी से जिसमें क़दरे नूर भी था जिन्नात पैदा हुए यही शयातीन कहलाते हैं। वही इब्तिदा में ज़मीन पर रहते थे। जब सवाबत (ثوابت) का एक दौरा यानी 6 हज़ार तीस बरस का अर्सा पूरा हुआ, तो वो जिन्नात शरारत के सबब हलाक किए गए। तो भी बाअज़ जिन्नात जो नेक चलन थे बाक़ी रहे, उन को ख़ुदा ने नई शरीअत दी और एक शख़्स उनका सरदार मुक़र्रर हुआ। इसी तरह हर दौरे के बाद शरीर (बुरे) लोग हलाक होते गए और अच्छे जिन्नात बाक़ी रहते गए। उन में भी रसूल आया करते थे जब चौथा दौरा पूरा हुआ ख़ुदा ने फ़रिश्तों को भेजा उन्होंने आकर जिन्नात को क़त्ल किया मगर बाअज़ जिन पहाड़ों और जंगलों और जज़ीरों में भाग गए। उन के लड़के बच्चे जो फ़रिश्तों ने क़ैद किए थे, उन में से एक जिन्न का लड़का जिसका नाम अज़ाज़ील (عزازیل) है, फ़रिश्तों के साथ आस्मान पर चला गया और वहां ताअलीम पाकर होशियार हुआ और इबादत बहुत करने लगा। पस इबादत के सबब क़ैद से छुटा और हर आस्मान के फ़रिश्तों ने दर्जा बदर्जा ख़ुदा से सिफ़ारिश करके सातवें आस्मान तक पहुंचाया फिर बहिश्त (जन्नत) के दरोगा ने सिफ़ारिश करके बहिश्त में बुलवाया, वो वहां जाकर फ़रिश्तों का मुअल्लिम बना और फ़रिश्तों को वाअज़ नसीहत किया करता था। और उस का मिम्बर ख़ुदा के तख़्त के नीचे था। (मगर बाअज़ मुहम्मदी उस को असली फ़रिश्ता कहते हैं) इस अस्ना में इन भागे हुए जिन्नात की औलाद फिर ज़मीन पर ज़्यादा हो गई, तब ये अज़ाज़ील दुनियावी जिन्नात की ताअलीम के वास्ते बतौर रसूल के ज़मीन पर आया मगर नसीहत करने के सबब उस के साथी कई एक जिन्नों के हाथ से मारे गए इसलिए अज़ाज़ील ने फ़रिश्तों से मदद लेकर जिहाद किया और बहुत जिन्नात मारे गए उस वक़्त से ख़ुदा ने इस शैतान को ज़मीन पर बादशाह मुक़र्रर कर दिया, पर उसे अपनी इबादत और इल्म का ग़ुरूर हो गया और उसी वक़्त से वो लानती था, मगर आदम की ना-फ़र्मानी के वक़्त वो लानत ज़ाहिर हुई।

मीसाक़ का क़िस्सा

मीसाक़ (میثاق) के माअने अहद और इक़रार के हैं। तफ़्सीर मदारिक में है कि, ख़ुदा ने आदम को पैदा करके बहिश्त (जन्नत) में दाख़िल होने से पेशतर बहिश्त के दरवाज़े के सामने ये इक़रार लिया, या मुक़ाम नोअ्मान सहाब (مقام نعمان سحاب) में इक़रार लिया। वो अर्फ़ात (عرفات) के नज़्दीक मक्का (مکہ) में है या मुक़ाम नहार (نہار) में लिया जो हिन्दुस्तान में कोई जगह है। और मुआलिम (معالم) में है, कि बक़ौल इमाम कलबी मक्का और ताइफ में ये इक़रार लिया गया, मगर मआरिज-उन्नबूव्वत (معارج النبوت) में है कि, बहिश्त (जन्नत) से निकलने के बाद ये इक़रार लिया गया और सूरत इक़रार की यूं हुई कि, जब आदम मक्का में हज करने को गया था तो कोह अर्फ़ात के पीछे वादी नोअ्मान में सो गया, ख़ुदा ने अपनी क़ुदरत का हाथ उस की पुश्त (पीठ) पर लगाया फ़ौरन तमाम आदमजा़द जो आदम के अहद से क़ियामत तक पैदा होंगे सब के सब बशक्ल चियूंटी तर्तीब तौलीद के मुवाफ़िक़ बाहर निकल पड़े और उसी वक़्त जवान बाअक़्ल बालिग़ हो गए। तब ख़ुदा ने सबसे पूछा क्या मैं तुम्हारा रब नहीं हूँ? वो बोले हाँ तू हमारा रब है। पस इक़रार ये था कि मैं तुम्हारा ख़ुदा हूँ तुम मेरे बंदे हो और सबने क़ुबूल किया और यह इक़रार ख़ुदा ने आदमीयों से लेकर उस काले पत्थर को जो काअबा में है सपुर्द कर दिया। और ख़ुदा ने सबसे कहा, कि तुम मुझे इस वक़्त सज्दा करो और काले पत्थर को हाथ लगाओ मगर बाज़ों ने सज्दा किया और बाअज़ ने ना किया। ये पहला सज्दा हुआ फिर दूसरे सज्दे के वक़्त बाअज़ ने जो पहले ना किया था पछता कर दूसरा सज्दा किया और उन में से बाअज़ ने जो पहले किया था दूसरा ना किया। इसलिए चार क़िस्म के लोग हो गए।

अव़्वल : जिन्हों ने हर दो सज्दे किए वो ईमानदार हो कर जीते और ईमान से मरते हैं।

दोम : वह जिन्होंने ना पहला किया ना दूसरा, वो जीते मरते काफ़िर हैं।

सोम : वो जिन्हों ने पहला सज्दा किया और दूसरा ना किया वो ईमानदार हो कर जीते हैं पर काफ़िर मरते हैं।

चहारुम : वो जिन्हों ने पहला ना किया पर दूसरा किया। वो काफ़िर हो कर जीते हैं और ईमान से मरते हैं। इस के बाद सब तरह के काम और पेशे और हुनर जो दुनिया में हैं दिखलाए गए, जिसने जो पसंद किया वो उस का काम हो गया फिर सब पर्दा ग़ैब में ग़ायब हो गए या आदम की पुश्त में फिर घुस गए, जहां से निकले थे। गोया एक जन्म ले चुके, अब दूसरे जन्म में इसी मुआमले के मुवाफ़िक़ हो कर मरते जाते हैं।

शीस का क़िस्सा

आदम के बाद शीस (شیث) पैग़म्बर हुआ। आदमीयों और जिन्नों पर उस का हुक्म था। उस की शरीअत मिस्ल शरीअत-ए-आदम के थी। और उस पर पचास (50) किताबें नाज़िल हुईं। उन में इल्मे हिकमत और रियाज़ी यानी हिंदसा (ہندسہ), हेत हिसाब और इल्मे मौसीक़ी और इल्मे ईलाही और इल्मे सनाईअ (صنائیع) मुश्किला मिस्ल अकसीर व केमियागिरी वग़ैरह के मर्क़ूम था। और शीस मुल्क-ए-शाम में रहता था। जब उस ने शादी करना चाहा, तो एक निहायत ख़ूबसूरत औरत से जो मिस्ल हव्वा के थी उस का निकाह हुआ और एक याक़ूत व ज़मरद के बुर्ज में उस ने उस के साथ ख़ल्वत किया।

इसी वक़्त नूर मुहम्मदी उस औरत के शिकम में आया। बाअज़ कहते हैं कि, वो औरत जिन्नात में से थी और उस से इनोश (انوش) पैदा हुआ और शीस सात सौ (700) बरस का हो कर मर गया। उस का बेटा इनोश जब नव्वे (90) बरस का हुआ, उस से क़ीनान पैदा हुआ। और इनोश 905 बरस का हो कर मर गया। जब क़ीनान 70 बरस का हुआ उस से महलाएल पैदा हुआ, वो 840 या 910 बरस का हो कर मरा। ये महलाएल मुल्क बाबुल में आ बसा था और शहर सबूस उस ने बनाया। उस के दो बेटे पैदा हुए बयाज़ और अखनूख़।

क़िस्सा इदरीस

अख़नूख़ (اخنوخ) को इदरीस कहते हैं, उस के ज़माने में बुत-परस्ती का शुरू हुआ। मगर पहले बयान हो चुका कि क़ाबील आतिश-परस्त हो गया था। और कलाम ईलाही से ज़ाहिर है कि तूफ़ान के बाद दुनिया में बुत-परस्ती जारी हुई पहले बुत-परस्ती ना थी, मगर नफ़्सानी ख़्वाहिशों की लोग पैरवी करके हलाक हुए थे। इदरीस पर तीस (30) किताबें नाज़िल हुईं और इल्मे नुजूम उसने ज़ाहिर किया। सबसे पहले क़लम से ख़त उसने लिखा मगर 48 हर्फ़ आदम पर नाज़िल हुए थे। अंग्रेज़ी का पेशा और हथियार बनाने का तौर और जिहाद में ग़ुलाम पकड़ने का दस्तूर उसने निकाला। और रूई का कपड़ा उसने निकाला और वो जीते-जी बहिश्त (जन्नत) में उठाया गया।

हारूत मारूत का क़िस्सा

इदरीस के ज़माने में फ़रिश्तों ने ख़ुदा से कहा, कि तूने आदमीयों को क्यों पैदा किया, देख वो कैसे गुनाह करते हैं? अगर हम दुनिया में बजाय आदमीयों के होते तो गुनाह ना करते। ख़ुदा ने कहा, अगर तुम्हारे अन्दर शहवत और हवा-ए-नफ़्स हो तो तुम भी गुनाह करोगे, वो बोले हम हरगिज़ ना करेंगे। ग़र्ज़ दो फ़रिश्ते जिन का नाम हारूत व मारूत है आज़माईश के लिए कमरबस्ता हुए और ज़मीन पर आए। दिन-भर ज़मीन पर रहते थे, रात को इस्म-ए-आज़म के वसीले आस्मान पर उड़ जाते थे। एक दिन एक बड़ी ख़ूबसूरत औरत जिसका नाम ज़हरा (زھرہ) था उन के सामने आई, वो आशिक़ हो गए औरत बोली अगर मेरे बुत को सज्दा करो और मेरे ख़सम (शौहर) को क़त्ल करो और मुझे इस्म-ए-आज़म सिखलाओ और एक पियाला शराब का पी लो तो (मैं) तुम्हारी होंगी। ग़र्ज़ उन्हों ने सब कुछ किया। वो औरत बाद ज़िना के इस्म-ए-आज़म के सबब आस्मान को उड़ गई और सितारा बन कर आज तक ज़ुहरा सितारा कहलाती है। मगर वो फ़रिश्ते गुनाह के सबब उड़ ना सके। ग़र्ज़ वो फ़रिश्ते बाबुल में किसी कुँए के अंदर बंद हैं, और उन को बड़ी मार पड़ती है, वो क़ियामत तक मार खाएँगे बाद क़ियामत के बहिश्त (जन्नत) में चले जाऐंगे, क्योंकि उनका अज़ाब दुनिया में पूरा हो जाएगा। कहते हैं कि, एक मुहम्मदी शख़्स उस कुँए पर गया था, जब उस ने अंदर झांक कर देखा, तो उन को बड़े अज़ाब में पाया अंदर से फ़रिश्ते बोले, तू कौन है जो ऊपर से देखता है? वो बोला आदमी हूँ, हज़रत मुहम्मद की उम्मत का। तब वो फ़रिश्ते बड़े ख़ुश हुए और कहा, कि हज़रत मुहम्मद दुनिया में पैदा हो गए हैं? कहा हाँ। तो कहने लगे, कि अब मख़लिसी (छुटकारे) का दिन नज़्दीक आया, क् योंकि आख़िरी पैग़म्बर दुनिया में आ गया। कहते हैं कि लोग इस कुँए पर जाकर उन फ़रिश्तों से जादूगरी सीखा करते हैं, चुनान्चे क़ुरआन में भी (इसका) ज़िक्र है।

क़िस्सा नूह

नूह बड़ा पैग़म्बर था। उस के ज़माने में कुफ़्र बहुत फैल गया और क़ाबील की औलाद बुत-परस्त हो गई उन के पास पाँच (5) बुत थे दो मर्द की शक्ल, सुवाअ (سواع) औरत की सूरत, यग़ूस (یغوث) गायें की शक्ल, यऊक़ (یعوق) घोड़े की सूरत, नस्र (نسر) खरकोस की मानिंद। मगर ज़्यादा मशहूर बात ये है कि, ये पाँच (5) यानी दो सुवाअ (سواع), यग़ूस (یغوث), यऊक़ (یعوق), नस्र (نسر) पाँच (5) नेक आदमी थे, जो आदम और नूह के दर्मियान किसी वक़्त होंगे। लोग पीरों की तरह उनकी ताअलीम ताज़ीम करते थे। जब वो मर गए तो उन की शक्लें पत्थर की बना कर लोग पूजने लगे, और अरब में भी इन्हीं पाँच (5) बुतों की परस्तिश (इबादत) की जाती थी।

कहते हैं कि शीस की औलाद जो ख़ुदा-परस्त थी, वो कोहिस्तान में रहती थी। और क़ाबील की औलाद शहरों में बस्ती थी। क़ाबील की औलाद में औरतें हसीन और ख़ूबसूरत थीं। पस इन ख़ूबसूरत बुत-परस्त औरतों से शीस की औलाद ने मेल मिलाप किया, इसलिए उन में भी बुत-परस्ती फैल गई। नूह इन सब बुत-परस्तों को मना करता था, पर वो ना मानते थे, बल्कि नूह को बहुत दुख देते थे। पस नूह ने उन को बद-दुआ की ख़ुदा ने वाअदा किया, कि मैं उन को तूफ़ान से हलाक करूँगा। और नूह को कश्ती बनाने का हुक्म दिया। उस ने साल की लकड़ी से कश्ती बनाई 660 गज़ लंबी 333 गज़ चौड़ी। उस में तीन तबक़े थे, नीचे चार पाइयों के बीच में परिंदों का, ऊपर आदमीयों का तबक़ा था। कश्ती के तख़्तों पर सारे पैग़म्बरों के नाम और हज़रत मुहम्मद और उन के चार ख़लीफों के नाम भी लिखे थे। मगर तूल अर्ज़ में इख़्तिलाफ़ है कि किस क़द्र था। हर जानवर का जोड़ा बहुक्म ईलाही उस में आया और शैतान भी गधे की दुम पकड़ कर उस में जा बैठा। नूह ने उसे समझाया कि तो तौबा कर, उस ने कहा कि मेरी तौबा क़ुबूल ना होगी। आदम की लाश का संदूक़ भी नूह ने क़ब्र निकाल कर कश्ती में रख लिया था। ख़ुदा ने कहा अगर शैतान आदम के संदूक़ को सज्दा करे तो उस की तौबा क़ुबूल हो सकती है, मगर शैतान बोला कि जिस वक़्त आदम जीता था तो मैंने उसे सज्दा ना किया अब उस की मिट्टी को क्यों सज्दा करूँ? पस नूह चुप कर गया। फिर कश्ती के दर्मियान 8 या 10 या 20 या 78 या 80 शख़्स बैठ गए, मगर नूह का एक बेटा जिसका नाम कनआन था नूह के साथ कश्ती में ना आया, वो काफ़िरों के साथ मरा। इस के बाद तूफ़ान आया और चालीस (40) दिन रात पानी बरसा एक बरस का खाना उस में था सब खाते पीते रहे। और दो गौहर नूरानी आस्मान से आए थे वो कश्ती में सूरज व चाँद का काम देते थे, लेकिन कश्ती में गंदगी बहुत जमा हो गई थी और बड़ी बदबू उठी, नूह पर वही आई कि, हाथी की दुम को हाथ लगा, जब उस ने हाथ लगाया, फ़ौरन एक सूअर और एक सूअरनी उस दुम में से निकली और सब गंदगी खा गई। हुक्म था कि, कोई जानदार कश्ती में अपने मादा से हम-बिस्तर ना हो, मगर चूहे ने ना माना और चूही से मिल गया, इसलिए बहुत चूहे हो गए और कश्ती में सुराख़ करने लगे, तब ख़ुदा ने कहा, कि शेर के माथे पर हाथ लगा जब हाथ लगाया, फ़ौरन बिल्लियां निकलीं और चूहों को खा गईं। कश्ती पानी पर छः (6) महीने तक फिरती रही, जब तूफ़ान तमाम हुआ तो वो कोह जूदी पर कश्ती ठहरी और एक महीने तक वहां रही। तब नूह ने एक काग (کاگ) उड़ाया, कि ख़ुशकी की ख़बर लाए, मगर वो कमबख़्त काग मुर्दार खाने लग गया, कश्ती में ख़बर लेकर ना आया। तब उस ने कबूतर को उड़ाया, वो ज़ैतून का पत्ता मुँह में लाया, जब ज़मीन ख़ुश्क हो गई नूह उतरा और एक शहर बनाया जिसको सौक़-उल-समानीन (سوق الثمانین) कहते हैं, वहां नूह के सब साथी मर गए, सिर्फ़ नूह और उस के लड़के और जोरू (बीवी) यानी आठ (8) शख़्स बाक़ी रहे। तब नूह ने इराक़ और फ़ारस व खुरासान का मुल्क अपने बेटे साम (سام) को बख़्श दिया। और हब्श व हिन्दुस्तान हाम (حام) को दिया। और चीन व तुर्किस्तान याफेत (یافت) को दिया, फिर नूह मर गया। 150 बरस की उम्र में पैग़म्बर हुआ, 950 बरस नसीहत करता रहा, फिर तूफ़ान के बाद 600 बरस और जिया, सारी उम्र उस की 1700 बरस की हुई। और बाअज़ 1500 बरस की बतलाते हैं। नूह के बाद साम पैग़म्बर हुआ और 500 बरस का हो कर मर गया। उस की औलाद में अक्सर पैग़म्बर और औलिया व हुकमा व सलातीन पैदा होते हैं।

क़िस्सा औज बिन अनक़ का

औज (عوج) आदम का नवासा था, उस की माँ जो आदम की बेटी थी उस का नाम अनक़ (عنق) था। जब कश्ती तैयार हुई तो औज नूह के पास आया और कहा, मुझे भी कश्ती में बिठा, नूह ने कहा, काफ़िर के लिए कश्ती में जगह नहीं (मगर शैतान जो काफ़िरों का बाप है उस के लिए कश्ती में जगह थी।) पस औज लाचार हो कर चला गया। सारी दुनिया ग़र्क़ हो कर मर गई मगर औज ना मरा। मुआलिम में है कि, तूफ़ान का पानी पहाड़ों पर चालीस गज़ तक चढ़ा था, पर औज ऐसा लंबा था कि वो पानी उस के ज़ानू तक भी ना आया इस क़द्र 3333 गज़ से कई मुश्त ज़्यादा था। बादल उस की कमर तक आते थे समुंद्र की थाह में हाथ डाल कर मछलियाँ पकड़ता था और आस्मान की तरफ़ सूरज के नज़्दीक हाथ बढ़ाकर कबाब कर लेता था। और कहा जाता था कि ये अकेला तूफ़ान में बचा और मूसा के ज़माने तक जिया, बल्कि मूसा के हाथ से मारा गया उस की उम्र 3600 बरस की हुई। उस की माँ भी बड़ी मोटी थी एक जरीब ज़मीन पर बैठती थी उस की हर अंगुश्त 3 गज़ की थी और दो-दो नाख़ुन हर एक अंगुश्त पर मिस्ल दो दरान्ते के थे और सब औरतों में जो बदकार हैं वो पहली औरत है।

क़िस्सा हूद का

हूद एक पैग़म्बर था। साम की दूसरी या छठी पुश्त में इस का नसब नामा मिलता है। और साम की चौथी पुश्त में एक और शख़्स था, जिसका नाम आद था उस की औलाद बकस्रत थी, और उन को क़ौम आद कहते थे। और वो बड़े तवील लोग थे ज़्यादा से ज़्यादा 60 गज़ या सौ (100) या 120 गज़ लंबे थे और कम से कम 16 या 60 या 80 गज़ के होते थे। शहर हज़रमोत (حضرموت) से अम्मान तक वो रहते थे, और बुत परस्त थे। हज़रत हूद उन्हें नसीहत करने को आए, पर उन्होंने हूद की बात पर यक़ीन ना किया तो भी बाअज़ अश्ख़ास ईमान लाए, पर काफ़िरों ने हूद को क़त्ल करना चाहा, इसलिए हूद ने बददुआ की तो पानी बरसना बंद हो गया और सब चश्मों और कुओं का पानी भी ख़ुश्क हो गया। 3 बरस या 7 बरस क़हत में मुब्तला रहे, आख़िर को उन्होंने लाचार हो कर मक्का की तरफ़ जहां अमालीक़ बसते थे, एक जमाअत को रवाना किया, ताकि मक्का में जाकर पानी के लिए दुआ करें। पस इस जमाअत ने मक्का में आकर क़ुर्बानी की और इस का सरदार जिसका नाम क़ील (قیل) था, दुआ करने लगा उस वक़्त तीन बादल मक्का में आए सफ़ैद और स्याह और सुर्ख़ और आवाज़ आई कि ऐ क़ील, तू कौनसा बादल पसंद करता है, कि तेरे मुल्क पर भेजा जाये? उसने कहा स्याह पस स्याह बादल इस तरफ़ रवाना हुआ। हूद इस बादल को देख कर एक दायरे में अपने लोगों को ले बैठा या किसी जज़ीरे में चला गया। तब इस बादल से साँप और बिच्छू इस क़द्र निकले कि इस क़ौम के सब रास्ते बंद हो गए और हवा ऐसी तुंद चली कि उन के सब घर गिर पड़े इस तरह सब हलाक हुए।

क़िस्सा शदीद व शद्दाद का

आद (عاد) मज़्कूर के दो बेटे थे, शदीद, शद्दाद, ये दोनों बादशाह हुए थे। शदीद सात (7) बरस के बाद मर गया और शद्दाद दो सल्तनतों का मालिक हुआ और वो कीमिया गिर (کیمیا گر) भी था। हूद इस के पास आया और कहा, ख़ुदा ने तुझे हज़ार (1000) बरस की उम्र दी है, और हज़ार खज़ाने बख़्शे और हज़ार औरतें तुझे मिलीं और हज़ार लश्कर भी तूने मारे, अब ईमान ला, ताकि उस का दुगना तुझे मिले और बाद मौत के बहिश्त (जन्नत) में जाये। उसने कहा, मैं आप एक बहिश्त (जन्नत) बना सकता हूँ, मुझे ख़ुदा की बहिश्त की हाजत (ज़रूरत) नहीं है। पस उसने ज़मीन अदन में एक बहिश्त बनाया निहायत नफ़ीस और बहुत से बादशाहों ने इस अम्र में उस की मदद की, जब वो तैयार हुआ और ख़ूबसूरत लड़के और लड़कीयां बजाए हूर, ग़िल्माँ के इस में छोड़े गए तब वो अपना बहिश्त (जन्नत) देखने को आया, मगर अंदर दाख़िल ना होने पाया कि ऐन दरवाज़े पर फ़रिश्ते ने उस की जान निकाली। वो अपने बहिश्त (जन्नत) की सैर ना कर सका ये शद्दाद बड़ा काफ़िर था, ख़ुदाई का दाअवा करता था। बाअज़ मुसलमान कहते हैं कि, ख़ुदा ने इस बहिश्त को पसंद करके आस्मान पर उठा लिया। मगर सही ये है कि वो बर्बाद हुआ या ज़मीन निगल गई और हूद भी 464 बरस का हो कर मर गया।

क़िस्सा सालेह पैग़म्बर का

सालेह (صالح) पैग़म्बर नूह की पांचवीं या नवीं पुश्त में पैदा हुआ, और क़ौम समूद को जो उसी के ख़ानदान से थी हिदायत करता था। पर वो जानते थे, आख़िर को इस क़ौम ने सालेह से कहा, कि अगर इस बड़े पत्थर में से एक ऊंटनी अभी निकले और फ़ौरन बाहर आकर एक बच्चा दे, तो ये मोअजिज़ा देखकर हम ईमान लाएँगे। पस सालेह ने दुआ की और उन की ख़्वाहिश के मुवाफ़िक़ ऊंटनी निकली, जो एक पहलू से दूसरे पहलू तक 122 गज़ की थी, और उस ने अपने बराबर का एक बच्चा उसी वक़्त जना पर लोग ये देखकर भी ईमान ना लाए, बल्कि उसे जादूगर बतलाया मगर थोड़े से आदमी ईमान भी लाए।

अब वो ऊंटनी जंगल में मए बच्चे के चरा करती थी, और तमाम जंगल का घास खा जाती थी। और वहां एक ही कुँआं था जिससे सात क़बीले पानी पीते थे, मगर वो ऊंटनी सारा पानी एक ही दिन में पी जाती थी, इसलिए लोग दुख में पड़ गए। आख़िर को यूं ठहरी कि एक रोज़ सब लोग पानी भरें और एक रोज़ ऊंटनी पिए। वो सब इस फ़ैसले पर राज़ी हुए। मगर ऊंटनी जो दूसरे रोज़ एक कुआँ पीती थी, इसी क़द्र दूध भी देती थी, और सब शहर वाले उस के दूध से मशकें भर भर ले जाते थे और इस का घी और पनीर और ऊन फ़रोख़्त करके बड़े दौलतमंद भी हो गए थे। चार सौ (400) बरस इसी तरह ऊंटनी से फ़ायदा उठाया। लेकिन तक्लीफ़ ये थी कि, जो एक पहाड़ सा फिरता था डर-डर कर निहायत लाग़र (लाचार) हो गए थे और भागते फिरते थे। वहां वो ख़ूबसूरत औरतें भी थीं उन के बहुत मवेशी थे, इसलिए वो इस ऊंटनी से तक्लीफ़ रसीदा थीं। इत्तिफ़ाक़न उन औरतों के आशिक़ दो शख़्स बदकार वहां आए, औरतों ने उन से कहा, कि हम तुमसे निकाह करेंगी अगर तुम इस ऊंटनी को मार डालो। पस वो दोनों शराब में बदमस्त हो कर कुँए पर आए, जब इस ऊंटनी ने कुँए में गर्दन डाल कर पानी पीना शुरू किया, उन शख्सों ने उस के पैर काट डाले और फ़ौरन मार लिया और गोश्त तक़्सीम कर के फ़ौरन ख़ा लिया। उस का बच्चा भी या तो मार खाया या उसी पत्थर में घुस गया या आस्मान पर उड़ गया। तब सालेह ने ख़बर दी कि तीन रोज़ बाद ख़ुदा का क़हर तुम पर आएगा, पहले दिन ज़र्द दूसरे दिन सुर्ख़ तीसरे दिन स्याह तुम्हारे मुँह होंगे, इस के बाद तुम सब मर जाओगे। पस इसी तरह हुआ, कि तीसरे दिन जिब्राईल ने आकर एक ऐसी चीख़ मारी कि ख़ौफ़ के मारे सबकी जान निकल गई।

क़िस्सा इब्राहिम

इब्राहिम (ابراہیم) हो हूद की पांचवीं पुश्त और साम की छठी पुश्त में है, नमरूद बादशाह के अहद (जमाने) में था। चार बादशाह ऐसे हुए हैं कि सारी ज़मीन पर उन की सल्तनत थी, उन में दो ईमानदार और दो काफ़िर थे। एक सिकन्दर दूसरा सुलेमान तीसरा बुख्तनसर चौथा नमरूद। पर बाअज़ बजाए नमरूद के शद्दाद को बड़ा बतलाते हैं। नमरूद की ममलकत में जादूगरी और शोब्दे-बाज़ी का बड़ा चर्चा था। जिस जगह उस की दारुल-सल्तनत थी वहां पर किसी मूज़ी जानवर व हशरत-उल-अर्ज़ को भी दख़ल ना था। उस ने किसी शहर के दरवाज़े पर एक हौज़ बनाया था। साल में एक दफ़ाअ वहां मए रईयत (लोगों) के आता था, कि जो कोई आए अपने वास्ते कुछ पीने की चीज़ साथ लाए। जब वो आते, अपने-अपने मशरूबात हमराह लाते। तो हुक्म देता था, कि सब लोग अपना मशरूब उस हौज़ में डाल दें, ताकि सब मशरूबात आमेज़ हो जाएं बाद इस के खाना खिलाकर राग सुनवाता था, फिर हुक्म देता था कि हौज़ में से शराब निकाल कर सबको दें। जब वहां से शराब निकालते तो हर एक का मशरूब क़ुदरत से जुदा-जुदा हो कर निकल आता था, ये उस का मोअजिज़ा था। और एक और हौज़ थे, उस में ज़मीन के सारे शहर दिखलाई देते थे। जिस शहर पर ख़फ़ा होता था उसी हौज़ से पानी निकाल कर उसे ग़र्क़ कर देता था। और उस के शहर के दरवाज़े पर तिलिस्म की एक बत्तख़ बनी हुई थी। जब कोई अजनबी मुसाफ़िर शहर में आता वो बत्तख़ चिल्लाती थी, फ़ौरन ओहदेदारों को इत्तिला हो जाती थी, कि कोई अजनबी शख़्स शहर में आया है। हर शहर के दरवाज़े पर एक तिलिस्म का तबला रखा था, जिसके घर में चोरी हो जाती थी वो आकर तबला बजाता था तब उस तबले से आवाज़ निकलती थी, कि तेरा माल फ़ुलां जगह रखा है और फ़ुलां शख़्स ने चुराया है। पस चोर फ़ौरन गिरफ़्तार हो जाता था। और हर शहर के दरवाज़े पर एक ऐसी अजीब चीज़ बना रखी थी, कि अगर कोई शख़्स मफ़्क़ूद यानी गुम हो जाता और उस का पता निशान ना मिलता, तो इस चीज़ के सामने एक औरत को ले जाते थे और उस से इस गुम-शुदा का निशान पूछते थे तो फ़ौरन मालूम हो जाता था।

जब नमरूद शहर से बाहर आता था, तो उस का तख़्त चार बुर्जों पर चारों पाए टेक कर रखा जाता था। और वो चार बुर्ज देबाई रुम और जवाहरात से आरास्ता थे (देबाई रुम उस अहद में कहाँ थी?) और सोने की रस्सियों से खींचे रहते थे, इस पर नमरूद बैठता था, जब उस ने एक हज़ार सात सौ बरस सल्तनत की तो उस ने ख़ुदाई का दाअ्वा शुरू किया और अपनी तस्वीरात अतराफ़-ए-आलम में भेजीं ताकि लोग उन की इबादत करें।

एक रोज़ नमरूद बादशाह ने शहर बाबुल में एक ख्व़ाब देखा, कि एक सितारा निकला और उस की रोशनी से सूरज व चाँद नाबूद हो गए। उस ने बेदार हो कर नुजूमियों से ताबीर पूछी, वो बोले कि बाबुल की ममलकत में एक लड़का तव्वुलुद (पैदा) होगा और वो तुझे व तेरी ममलकत को हलाक करेगा।

पस उस ने हुक्म दिया, कि कोई मर्द औरत से हम-बिस्तर ना हो। और जो पहले की हामिला औरतें हैं, जब जनें तो लड़के क़त्ल हों और लड़कीयां छोड़ी जाएं। इस हुक्म से एक लाख लड़के क़त्ल हुए। फिर नुजूमियों ने ख़बर दी कि आज रात को वो लड़का हमल में आने वाला है, इसलिए हुक्म हुआ कि आज रात को सब मर्द शहर से बाहर चले जाएं ताकि कोई औरत से हम-बिस्तर ना हो और औरतें शहर में अकेली रहें और दरवाज़ों पर पहरे रहें। जब ये हुआ तो औरतें शहर की उस रात गलीयों में खेलती फिरने लगीं। जिस दरवाज़े पर आज़र का पहरा था वहां उस की जोरू (बीवी) आ पहुंची और अपने ख़सम (शौहर) से चुप-चाप हम-बिस्तर हो कर चली गई, उस के शिकम (पेट) में हज़रत इब्राहिम आ गए। वालिदा ने हमल को छुपाया, जब तव्वुलुद (पैदा) हुए तो पोशीदा परवरिश की गई। जब बड़े हुए अव्वल वालदैन से बुत-परस्ती के इब्ताल (गलत साबित करने) में बह्स करने लगे, और बुतों की मज़म्मत सुनाने और बुत-परस्तों को गालियां देने लगे। आख़िर को यूं हुआ कि, उन के बुत ख़ाने में 72 बुत थे, जिनकी परस्तिश (इबादत) सब लोग करते थे। एक दिन वो सब किसी मेले में बाहर जाने लगे, इब्राहिम से कहा, कि तू भी चल, वो ना गया मगर झूट बोल कर कहा, कि मैं बीमार हूँ जा नहीं सकता तुम जाओ, जब वो गए। इब्राहिम ने कुल्हाड़े से सब बुत तोड़ डाले लेकिन बड़े बुत को ना तोड़ा, बल्कि वो कुल्हाड़ा उस की गर्दन पर रख दिया ताकि मालूम हो कि बड़े ने सबको तोड़ा है। जब वो आए और इब्राहिम ने उन्हें इल्ज़ाम दिया, कि बड़े ने सबको तोड़ा है, तो वो लोग इब्राहिम को नमरूद के पास पकड़ कर ले गए। इब्राहिम ने जाकर दस्तूर के मुवाफ़िक़ नमरूद को सज्दा ना किया, जब उस ने सज्दा ना करने का बाइस पूछा तो कहा, मैं ख़ुदा के सिवा किसी को सज्दा नहीं करता। उस ने कहा तेरा ख़ुदा कौन है? वो बोला जो मारता और जिलाता है। नमरूद ने कहा, मैं मारता और जिलाता हूँ, और क़ैदख़ाने से दो क़ैदी बुला कर एक को क़त्ल किया एक को छोड़ दिया। ये दिखलाने को कि मैं मारता और जिलाता हूँ। तब इब्राहिम ने कहा, ख़ुदा तो सूरज को मशरिक़ से निकालता है, तू मग़रिब से निकाल कर दिखला। पस नमरूद लाजवाब हो गया और इब्राहिम को गुस्से में आकर जलते तनूर में डाल दिया, लेकिन ख़ुदा ने उसे बचाया। पर नमरूद ने इब्राहिम को क़ैद में रखा, चालीस दिन से लेकर सात बरस तक। मुख़्तलिफ़ रिवायत के मुवाफ़िक़ इस अर्से में शहर कूफ़े के पास उस गांव के क़रीब जिसका नाम कोसी था, चार कोस मुरब्बा में एक चार-दीवारी बनाई गई, जिसकी दीवार सौ (100) गज़ या साठ (60) गज़ बुलंद, तीस (30) गज़ तवील, बीस (20) गज़ के अर्ज़ की थी। उस में एक महीने तक लकड़ियाँ भरीं और बहुत सा तेल भी डाला और शैतान के बतलाने से एक मंजनीक बनाई गई, ताकि इब्राहिम को उस में बैठा कर आग में फेंक दें। फिर नमरूद ने इब्राहिम को अपने कपड़े पहनाए, इसलिए कि अगर ना जला तो लोग समझेंगे कि नमरूद के कपड़ों की बरकत से बच रहा है। पस इब्राहिम को आग में डाला। ख़ुदा ने आग को सर्द कर दिया, लेकिन नमरूद के कपड़े और बेड़ियाँ जल गईं। जब ये मोअजिज़ा हुआ तो नमरूद ने इब्राहिम को आग से बाहर बुला लिया और चार हज़ार (4000) गाएँ ख़ुदा के सामने नमरूद ने क़ुर्बान कीं, पर मुसलमान ना हुआ। लेकिन बाअज़ अश्ख़ास ईमान लाए एक नमरूद की बेटी दूसरा लूत इब्राहिम का भतीजा और तीसरी सारा इब्राहिम की भतीजी। इस के बाद इब्राहिम ने नमरूद की बेटी का निकाह अपने बेटे मदयन से कर दिया, उस से नस्लन बाद नस्लन बीस (20) पैग़म्बर पैदा हुए। जब नमरूद इब्राहिम को जला ना सका और उस का फ़रोग़ होता देखा, तो उसे मए उस के मोमिनीन के, शहर बाबुल से निकाल दिया। वो मुल्क-ए-शाम की तरफ़ चला, राह में सारा से निकाह किया और 20 दिरहम को एक गधा मोल लेकर इस पर सारा को सवार किया और चल निकला, उस वक़्त इब्राहिम 75 या 83 बरस का था। एक रिवायत है कि, सारा किसी बादशाह की बेटी थी। जब इब्राहिम बाबुल से शाम को जाता था, राह में कोई शहर मिला वहां के सब लोग अच्छी पोशाक पहन कर बाहर चले जाते थे। जब इब्राहिम ने उनका हाल पूछा वो बोले हमारे बादशाह की एक ख़ूबसूरत बेटी है और वो शादी नहीं करती, कहती है कि सब लोग मेरे सामने अच्छी पोशाक पहन कर हाज़िर हों, ताकि जिसे पसंद करूँ उस से शादी करूँ। पस इब्राहिम भी उन के साथ मलिका के सामने गया, उस ने इब्राहिम को पसंद किया और निकाह करके उस के साथ मिस्र को चले गए। वही सारा थी पर मिस्र के बादशाह ने उसे लेना चाहा, इसलिए उस के सात उज़ू ख़ुश्क हो गए और अंधा हो गया, फिर इब्राहिम की दुआ से सेहत पाई और अपना निस्फ़ माल और एक लौंडी हाजिरा उन को बख़्श दी, वो भी इब्राहिम की जोरू (बीवी) हुई।

बुर्ज बाबुल का क़िस्सा

जब नमरूद ने इब्राहिम को आग में डाला और वो ना जला, बल्कि बच कर शाम की तरफ़ चला गया। तो नमरूद ने कहा इब्राहिम का ख़ुदा बड़ा बुज़ुर्ग है, जिसने उसे बचा लिया। मैं चाहता हूँ कि आस्मान पर जाकर उसे देखूं, इसलिए उस ने एक मीनार बाबुल में बनाया, ताकि उस पर चढ़ कर आस्मान पर जाये और ख़ुदा को देखे। जब उस पर चढ़ा तो आस्मान उसी क़द्र बुलंद नज़र आया, जिस क़द्र ज़मीन पर से नज़र आता था। हालाँकि वो मीनार पाँच हज़ार गज़ या दो फ़र्सख़ बुलंद था। तब ख़ुदा ने एक हवा चलाई, जिससे वो मीनार नमरूदियों पर गिर पड़ा और एक ऐसी आवाज़ कि सब लोगों की ज़बान बदल गई और 72 ज़बानें दुनिया में पैदा हो गईं।

इस वक़्त नमरूद बहुत ग़ुस्सा हुआ और कहा, कि मैं इस ख़ुदा से लड़ाई करूँगा। पस उस ने चार कर्गस या गिद्ध पाले और एक बड़े से संदूक़ के चार कोनों पर चार नेज़े खड़े किए, हर नेज़े पर एक गोश्त की रान लटकाई और चारों गिद्ध संदूक़ के चारों पाइयों से बाँधे, जब वो गिद्ध नेज़ों पर गोश्त देखकर खाने को उड़े तो संदूक़ आस्मान की तरफ़ चला, इस संदूक़ में नमरूद और एक शख़्स बैठे थे, दोनों ख़ुदा से लड़ने को आस्मान पर चले एक रात-दिन बराबर चले गए जब ऊपर का दरवाज़ा खोल कर देखा तो आस्मान उसी क़द्र बुलंद था जितना ज़मीन से है। तब नमरूद ने ग़ुस्सा हो कर आस्मान की तरफ़ एक तीर मारा ख़ुदा ने इस तीर को मछली के ख़ून में डूबा कर संदूक़ में वापिस डाल दिया तब नमरूद ख़ुश हुआ, कि मैंने ख़ुदा को मार लिया। तब उल्टे गोश्त लटकाए और नीचे उतरा। फिर जब इब्राहिम से मुलाक़ात हुई तो नमरूद ने कहा, कि मैंने तेरे ख़ुदा को मार डाला इब्राहिम बोला ख़ुदा को कोई नहीं मार सकता। नमरूद बोला उस के पास कितनी फ़ौज है इब्राहिम ने कहा बेशुमार लश्कर है। उस ने कहा भला अपने ख़ुदा की सारी फ़ौज बुला कि मेरी फ़ौज से लड़ाई करे। पस ख़ुदा ने सिर्फ मच्छरों की फ़ौज भेज दी, तब नमरूद की फ़ौज मच्छरों से हलाक हुई और एक लंगड़ा मच्छर नमरूद की नाक में घुस गया और ऐसा पुहर पुहराया कि नमरूद बड़ा दिक़ (परेशान) हो गया और किसी तरह आराम ना पाता था। जब उस के सर में जूती या लकड़ी मारते थे, तब मच्छर चुब (चुप) करता था वर्ना पुहर पुहराता था, यहां तक कि नमरूद मर गया।

इस्माईल का क़िस्सा

जब इब्राहिम बैतुल-मुक़द्दस में था, तो उस का लड़का इस्माईल हाजिरा से पैदा हुआ, इसलिए सारा को रश्क आया, कि मेरे औलाद ना हुई हाजिरा लौंडी बेटा जनी इसलिए उस ने कहा, हाजिरा व इस्माईल को ब्याबान में निकाल दे। फ़रिश्ते ने भी आकर कहा, कि ऐ इब्राहिम, सारा का हुक्म मान उनको निकाल दे। पस इब्राहिम ने उन को निकाल दिया और मक्का की सर-ज़मीन में जहां कोई बस्ती ना थी उनको छोड़ गया। जब पानी ना मिलने के सबब हाजिरा बे-ताब हुई, तो कोह-ए-सफ़ा और मर्वा के दर्मियान दौड़ने लगी और सात (7) बार दौड़ी, इसलिए मुसलमानों को हज के वक़्त इन पहाड़ों में सात बार दौड़ना सुन्नत हो गया। और जब बहुत प्यास लगी तो इस्माईल बेक़रारी में ज़मीन पर पैर मारने लगा, ख़ुदा ने वहां एक चश्मा (पानी) जारी कर दिया, जिसको आब-ए-ज़म ज़म (آب زم زم ) कहते हैं, इसलिए मुसलमान उस का पानी पीना मूजिब सवाब जानते हैं। इस असना (वक़्त) में वहां एक क़ाफ़िला आ गया और पानी के सबब वहां डेरा लगा दिया। इब्राहिम जो छोड़कर चला आया था, मुद्दत-बाद उन्हें देखने को गया, मगर सारा का हुक्म था कि सवारी से ना उतरे खड़ा-खड़ा देखकर वापिस आए। चुनान्चे ऐसा ही किया। इस के बाद ऐसा हुआ कि इस्माईल जवान हो गया और हाजिरा मर गई। पर इस्माईल ने इस जिरहम के क़ाफ़िले में से जो वहां उतरा था, किसी औरत से निकाह कर लिया। तब इब्राहिम फिर मुलाक़ात को आया उस वक़्त इस्माईल घर में ना था सिर्फ उस की बीबी थी, उसने ना जाना कि मेरा ख़ुसर (ससुर) आया है, इसलिए कुछ ख़िदमत ना की और कहा, कि हमारे घर में खाने पीने की तंगी है इसलिए हम मुसाफ़िर पर्वरी नहीं कर सकते। इब्राहिम ने कहा, जब तेरा शौहर आए तो उस से कहियो कि अपने घर का दरवाज़ा बदल डाले। ये कह कर इब्राहिम चले आए। जब औरत ने इस्माईल से कहा, कि कोई शख़्स मुसाफ़िर आया था। ऐसा शख़्स था और यूं मैंने कहा और यूं वो कह गया, तो इस्माईल समझ गया कि मेरा बाप था और जोरू (बीवी) को तलाक़ देने का हुक्म दे गया है। पस उस को तलाक़ दी और एक और बीबी कर ली जिसने घर को ख़ूब आरास्ता किया। फिर इब्राहिम आया और इस वक़्त भी इस्माईल ना था, पर उस की बीबी ने इब्राहिम की बहुत इज़्ज़त की, इसलिए वो कह गया कि, जब इस्माईल आए तो कहियो दरवाज़े की निगहबानी करे यानी बीबी को हिफ़ाज़त में रखे, सो उस औरत को उस ने हिफ़ाज़त से रखा।

इब्राहिम के बेटे की क़ुर्बानी का क़िस्सा

मुसलमानों में इख़्तिलाफ़ है, कि वो कौनसा बेटा था जिसको इब्राहिम ने क़ुर्बान किया? बाअज़ कहते हैं कि इस्माईल को किया, और बाअज़ कहते हैं इज़्हाक़ को “चूँकि इज़्हाक़ के क़ुर्बान होने से इस्माईल की इज़्ज़त कम रहती थी इसलिए बाअज़ मुसलमानों ने कहा कि सही बात यूं है कि इस्माईल क़ुर्बान हुआ।” और क़ुर्बानी का क़िस्सा यूं है कि, ख्व़ाब में इब्राहिम को आवाज़ आई कि तू अपने बेटे को क़ुर्बान कर। पस वो बैतुल-मुक़द्दस से मक्का में आया और हाजिरा से कह कर उस के बेटे इस्माईल को आरास्ता कराया, उस वक़्त इस्माईल 7, 9, या 13 बरस का था, कि वो उसे ज़ब्ह करने को ले चला छुरी और रस्सी आस्तीन में छिपा रखी थी, तब शैतान ने हाजिरा को कहा कि तेरे बेटे को इब्राहिम क़त्ल करने को ले जाता है, वो बोली बाप बेटे को क़त्ल नहीं किया करता शैतान ने कहा कि ख़ुदा ने उसे हुक्म दिया है, तब हाजिरा ने कहा ये ख़ुशी की बात है। फिर शैतान इस्माईल के पास आया और कहा तेरा बाप तुझे मारने ले जाता है, उस ने भी हाजिरा के मानिंद जवाब दीए। फिर इस्माईल ने इब्राहिम से कहा, कि तू मुझे कहाँ ले जाता है? उस वक़्त इब्राहिम ने बता दिया, कि यूं ख़ुदा का हुक्म है। उस ने कहा अच्छा मैं पसंद करता हूँ, मगर जल्दी कर क्योंकि शैतान मुझे बहकाता है। तब इब्राहिम व इस्माईल शैतान को पत्थर मारने लगे। इसलिए हाजी लोग इन पहाड़ों में शैतान को अब तक पत्थर मारा करते हैं। इस के बाद उसने इस्माईल को ज़ब्ह करना चाहा और कहा, (اللہ اکبر اللہ اکبر لاالہ الا اللہ واللہ اکبر اللہ اکبر واللہ الحمد) अल्लाहु-अकबर अल्लाहु-अकबर, ला-इलाहा इल्लल्लाह, वल्लाहु अकबर अल्लाहु-अकबर वलिल्लाहि-लहम्द। ये तक्बीर मुसलमान लोग उसी की सुन्नत पर अब तक पढ़ते हैं। पर ख़ुदा ने एक बड़ा दुम्बा भेज दिया, जो उस के एवज़ (बदले में) क़ुर्बान हुआ। इसलिए मुसलमान अब तक क़ुर्बानी करते हैं।

इस वक़्त वो इख़्तिलाफ़ की सूरतें देखना चाहिए, जिसमें इस्माईल की क़ुर्बानी पर ये लोग फ़त्वा देते हैं। तफ़्सीर बैज़ावी वग़ैरह से रोज़तुल-अहबाब में यूं लिखा है, कि :-

“अक्सर लोग कहते हैं, कि इस्माईल क़ुर्बान हुआ मगर एक बड़ी जमाअत उलमा की क़ाइल है कि ना इस्माईल, मगर इज़्हाक़ क़ुर्बान हुआ है। जो लोग इज़्हाक़ की क़ुर्बानी के क़ाइल हैं वो ये दलील लाते हैं कि क़ुरआन में यूं लिखा है, कि :-

فبشر ناہ بغلام حلیم فلما بلغ معہ السعی قال یا ابتی انی اری فی المنام انی اذبحک فانظر ماذ اتری

तर्जुमा : फिर ख़ुशख़बरी दी हमने उस को एक लड़के की जो होगा तहम्मुल (सब्र) वाला पर जब पहुंचा उस के साथ दौड़ने को कहा, ऐ बेटे, मैं देखता हूँ ख्व़ाब में कि तुझे ज़ब्ह करता हूँ, पर देख तू क्या देखता है।”

यहां से ज़ाहिर है कि जिस लड़के की पैदाइश पर इब्राहिम को बशारत सुनाई गई उसी के ज़ब्ह करने का हुक्म भी हुआ था। और क़ुरआन से साफ़-साफ़ साबित है कि सिर्फ इज़्हाक़ ही के तव्वुलुद (पैदाइश) पर बशारत दी थी, और किसी लड़के पर बशारत नहीं सुनाई गई। चुनान्चे सूरह हूद में है, فبشر ناہ باصحاق और साफ़्फ़ात में है, وبشر ناہ صحاق यानी बशारत दी गई थी सिर्फ इस्हाक़ पर। और जिस पर बशारत दी गई, बमूजब पहली आयत के वही क़ुर्बानी भी हुआ। ये बड़ी कामिल दलील है, कि इस्हाक़ ज़ब्ह हुआ ना इस्माईल। दूसरी दलील ये है कि हज़रत मुहम्मद ने हदीस में कहा है, कि इस्हाक़ ज़बीह-उल्लाह हैं।

पर वो लोग जो इस्माईल की क़ुर्बानी के क़ाइल हैं, यूं कहते हैं कि, क़ुरआन में अव़्वल क़िस्सा ज़ब्ह का बयान हुआ है इस के बाद इस्हाक़ की बशारत का ज़िक्र है, पस तक़द्दुम क़िस्से के सबब इस्माईल मुराद होना चाहिए।

“हमारा जवाब इस दलील वालों को ये है कि, क़ुरआन में साफ़ बयान हो चुका है कि बशारत वाला लड़का ज़ब्ह हुआ है। पस जब कि क़ुरआन में पहले ज़ब्ह का क़िस्सा बयान हो चुका है तो ज़रूरत हुई कि इस ज़ब्ह शूदा लड़के का ज़िक्र किया जाये, कि वो कौनसा लड़का था। इसलिए इस्हाक़ का ज़िक्र उस के बाद आया ताकि ज़ब्ह शूदा की तशरीह हो जाए।”

“दूसरी दलील उनकी ये है कि, हज़रत ने आपको इब्ने अल-ज़बीहीन (ابن الذبیحین) कहा है, यानी मैं दो क़ुर्बानीयों का बेटा हूँ, एक इस्माईल दूसरा अब्दुल्लाह, जिसकी क़ुर्बानी का ज़िक्र तवारीख़ मुहम्मदी में हो चुका है। पस अगर इस्हाक़ ज़ब्ह किया जाता तो वो हज़रत मुहम्मद का बाप ना था। इस का जवाब उसी रोज़तुल-अहबाब में लिखा है, کسے کہ مرتبہ عم بودہ حکم پدرد ادہ باشد यानी चचा भी हुक्मन बाप की मानिंद है।

देखो इस्माईल की क़ुर्बानी वालों की कैसी कच्ची दो दलीलें हैं, जिनके जवाब कामिल हो गए पर इस्हाक़ की क़ुर्बानी वालों की दलीलें लाजवाब हैं।

शायद कोई कहे, कि अगर इस्माईल क़ुर्बान नहीं हुआ था तो अरब में ये क़ुर्बानी की रस्म उस के नाम पर किस तरह जारी हुई है?

जवाब ये है कि इस्हाक़ की क़ुर्बानी का ज़िक्र इस्माईल ने सुनकर क़ुर्बानी का दस्तूर लोगों में जारी किया और कई पुश्तों के बाद ख़्वाह जहालत के सबब ख़्वाह यहूद की ज़िद में अहले-अरब ने अपने बाप इस्माईल की निस्बत इस शराफ़त को जो इस्हाक़ की थी फ़र्ज़ कर लिया, तो भी वो सब इस बात पर मुत्तफ़िक़ ना हुए। इस अक़ीदे में ये लोग ना सिर्फ मूसा के मुख़ालिफ़ हैं, बल्कि तमाम पैग़म्बरों के भी मुख़ालिफ़ हैं, जो इस्हाक़ की क़ुर्बानी का ज़िक्र करते हैं। फिर मुसलमान कहते हैं कि, इस्माईल पैग़म्बर भी था, वो मुल्क मग़रिब के बुत-परस्तों की हिदायत के लिए भेजा गया था। पचास (50) बरस उसने उनको हिदायत की आख़िर को मक्का में आया और 137 बरस का हो कर मर गया और अपनी वालिदा हाजिरा के पास मक्का में दफ़न हुआ। मगर ख़ुदा के कलाम में उस की पैग़म्बरी का कुछ ज़िक्र नहीं है। सिर्फ ये लिखा है, कि “वो भी तेरी नस्ल है उस से बारह सरदार निकलेंगे” और यह कि ख़ुदा ने उस की मुसीबत के वक़्त उस पर रहम किया। और यह कि वो वहशी और भाईयों का मुख़ालिफ़ होगा और यह कि इस्हाक़ के साथ वारिस ना होगा या ये कि उस को और उस की वालिदा को घर से निकाल दे, क्योंकि वाअदे के फ़र्ज़न्द पर ठट्ठा करता था और सताता था। इस के सिवा उस की नबुव्वत का कलाम कहीं दुनिया में सुना नहीं गया और किसी पैग़म्बर की ज़बान शरीफ़ से कभी उस की नबुव्वत पर गवाही नहीं गुज़री। अलबत्ता इब्राहिम पैग़म्बर का जिस्मानी तौर पर फ़र्ज़न्द था, इसलिए हम भी उस की इज़्ज़त करते हैं, पर ये रिश्ता मूजिब नबुव्वत नहीं है।

लूत का क़िस्सा

लूत (لوط) इब्राहिम का ख़्वाहरज़ादा चचाज़ाद या बिरादर ज़ाद भाई था। जब मुल्क-ए-शाम में इब्राहिम आया तो मुल्क फ़िलिस्तीन में आप रहा और लूत मोतफ़का में जा रहा। इन दो मुक़ामों में आठ (8) पहर की मुसाफ़त (दुरी) थी। ये लूत यही मुसलमानों के गुमान में पैग़म्बर था और मोतफ़कात के लोगों के लिए भेजा गया था और मोतफ़कात पाँच शहर को कहते थे सदोम और अमूरा, वदाओमा सऊदा यासगर। (سدوم عمورا۔ وداؤ ماوصعودایا صغر)

इन बस्तीयों में चालीस (40) लाख आदमी थे। मर्द और औरतें सब बदकार ख़िलाफ़-ए-वज़अ थे और कबूतरबाज़ी व सिंटी बाज़ी भी करते थे। और राह के सरों पर बैठ कर ठट्ठा बाज़ी किया करते थे। बीस बरस लूत ने उन को नसीहत की पर उन्हों ने ना मानी।

एक रोज़ कुछ फ़रिश्ते इब्राहिम के पास आए वो चार थे या 3 या 8 या 7 या 12 पर सब ख़ूबसूरत लड़के बन कर आए थे। इब्राहिम उन्हें आदमी समझा और फ़ौरन एक बक्री का बच्चा मेहमानी के तौर पर पका लाया। वो कहने लगे हम ना खाएँगे, इब्राहिम समझा कि ये चोर हैं, क्योंकि उस ज़माने में दुश्मन और चोर जिसको दुख देना चाहते थे उस की रोटी ना खाते थे। पर फ़रिश्तों ने कहा, हम चोर नहीं हैं हम फ़रिश्ते हैं। इब्राहिम ने कहा, पहले से ख़बर क्यों ना दी, कि मैं बक्री का बच्चा ज़ब्ह करके उस की माँ से उसे जुदा ना करता। तब जिब्राईल ने अपना बाज़ू इस पके हुए गोश्त पर मारा वो बच्चा फ़ौरन ज़िंदा हो कर अपनी माँ के पास चला गया। इस वक़्त फ़रिश्तों ने इब्राहिम को ख़बर दी कि तेरे बेटा पैदा हुआ (होगा) और उस वक़्त इब्राहिम 112 या 120 बरस का था और सारा 99 या 112 बरस की थी।

फिर फ़रिश्तों ने कहा, हम क़ौम लूत के हलाक करने को आए हैं। ये कह कर चले गए जब लूत के पास पहुंचे वो उन्हें अपने घर लाया और शहर वालों ने उन फ़रिश्तों को ख़ूबसूरत लड़के जान कर उन से बदी करना चाहा। हर चंद लूत ने मना किया उन्हों ने ना माना घर में घुस आए। तब फ़रिश्तों ने उन्हें अंधा कर दिया और लूत से कहा, कि अपनी जोरू (बीबी) को जो काफ़िर है, शहर में छोड़ और सब अयाल (परिवार) को लेकर अंधेरे अंधेरे निकल जा, पस वो निकल गया। तब जिब्राईल ने उन शहरों को ज़मीन समेत आस्मान की तरफ़ उठाया और इतने ऊंचे तक ले गया कि आस्मान के रहने वालों ने और शहरों के कुत्तों और मुर्गों की आवाज़ सुनी, तब शहर नीचे, ज़मीन ऊपर करके वहां से गिराए गए और सब दब कर मर गए। ये वहां के मुक़ीमों का अहवाल हुआ मगर जो जो मुसाफ़िर वहां आए हुए थे, उन पर पत्थर बरसे हर पत्थर पर उस आदमी का नाम लिखा था जिस पर वो पत्थर गिरने वाला था।

उन आफ़त-ज़दों में से एक शख़्स भाग कर मक्का में काअबा के अंदर भी आया था जब तक काअबे की चार दीवारी के अंदर रहा उस का पत्थर हवा में मुअल्लक़ (लटकाया हुआ) रहा जब हरम से बाहर निकला, फ़ौरन पत्थर सर पर गिरा और वो मर गया। बाद तबाही उन शहरों के लूत इब्राहिम के पास चला गया और इबादत में मशग़ूल रहा।

क़िस्सा इस्हाक़

इस के बाद इस्हाक़ पैदा हुआ और लड़के भी हज़रत सारा के शिकम से पैदा हुए और इस्माईल, इस्हाक़ से 12 बरस बड़ा था। ख़ुदा ने इस्हाक़ को भी ओहदा पैग़म्बरी का बख़्शा और वो मुल्क कनआन का पैग़म्बर हुआ और कनआन के सरदार की बेटी उस की बीबी हुई और दो लड़के तवाम इस से तव्वुलुद (पैदा) हुए यानी ईस व याक़ूब फिर 160 या 180 बरस की उम्र में इस्हाक़ मर गया और अपनी वालिदा के पास दफ़न हुआ।

क़िस्सा याक़ूब व यूसुफ़

याक़ूब, इस्हाक़ का बेटा था ख़ुदा ने इस को पैग़म्बर बनाया। इस के बारह (12) लड़के पैदा हुए 6 लिया के शिकम से, दो (2) एक लौंडी से, दो (2) दूसरी लौंडी से, दो (2) राख़ेल से। यूसुफ़ इस का बेटा बहुत ख़ूबसूरत था। उस ने ख्व़ाब देखा कि बारह सितारें और सूरज व चाँद ने उसे सज्दा किया। ये ख्व़ाब सुनकर उस के भाई उस से हसद (जलन) रखने लगे। और एक सबब हसद का ये भी था कि, याक़ूब के घर में एक दरख़्त था जब कोई लड़का पैदा होता तो उस दरख़्त में एक शाख़ निकला करती थी। जब वो लड़का जवान होता तो याक़ूब उस शाख़ को काट कर उस के हाथ में दिया करता था, कि ये तेरी लाठी है। जब यूसुफ़ पैदा हुआ तो कोई शाख़ ना निकली, पर जब जवान हुआ तो जिब्राईल आस्मान से सब्ज़ ज़बरजद की लाठी उस के वास्ते लाया। इसलिए भाई उस के मर्तबे पर हसद करने लगे। एक रोज़ भाईयों ने बाप से कहा, जंगल की सैर के दिन हैं तो यूसुफ़ को हमारे साथ भेज दे, ताकि बाहर की सैर करे। पर याक़ूब ने ना चाहा, भाईयों ने यूसुफ़ को बाहर जाने की रग़बत दिलाई और वो बाप से इजाज़त लेकर उन के साथ गया। बाप के सामने प्यार करते हुए ले गए। जंगल में जाकर पहले तो ख़ूब मारा और ज़मीन पर पटका भी और एक कुँए में जो बैतुल-मुक़द्दस से तीन चार कोस था बांध कर डाल दिया। वो कुँआं 70 गज़ गहिरा था। थोड़ी दूर तक रस्सी से लटकाया फिर रस्सी काट कर नीचे गिरा दिया मगर फ़ौरन जिब्राईल ने आकर निस्फ़ कुँए में थाम लिया और आहिस्ता से ले जा कर एक पत्थर पर बिठाया और बहिश्त (जन्नत) से खाने पीने को लाया करता था। इस तरफ़ यूसुफ़ के भाई उस का पैराहीन (लिबास) बर्रे के ख़ून से आलूदा करके रोते हुए घर में आए और कहा यूसुफ़ को भेड़ीया खा गया। याक़ूब बोला अगर भेड़ीया खाता तो पराहीन (लिबास) चाक (फटा) होता पर ये तो चाक नहीं हुआ। बेशक तुमने उस के साथ कोई शरारत की है अच्छा तुम इस भेड़िये को हाज़िर करो जिस ने उसे खाया है। पस वो जंगल से एक भेड़ पकड़ लाए याक़ूब ने भेड़िये से पूछा, कि तूने यूसुफ़ को खाया है वो बोला पैग़म्बरों का बदन-ज़मीन और जानवरों को खाना हराम है। मैंने हरगिज़ नहीं खाया हम तो तेरी बकरीयों के पास भी नहीं आ सकते। पस भाई शर्मिंदा हुए और याक़ूब रोता हुआ तलाश में था और यूं कहता फिरता था, “ऐ मेरी आँखों की ठंडक, ऐ मेरे दल के मेवे तुझे किस कुँए में डाला, तुझे किस दरिया में डूबोया, तुझे किस तल्वार से क़त्ल किया? और वो रात-दिन रोते-रोते अंधा हो गया और चालीस (40) बरस तक रोता रहा। ये मुसीबत जो याक़ूब पर आई इस का सबब या तो ये था कि उसने फ़क़ीर को रोटी नहीं दी थी, या एक लौंडी जो याक़ूब ने मए उस के बच्चे के ख़रीद की थी, फिर उस के बच्चे से जुदा करके उसे फ़रोख़्त कर दिया था, और वह लौंडी उस की जुदाई में रोती थी या उस ने एक बक्री का बच्चा ज़ब्ह किया था, वो बक्री अपने बच्चे के लिए बहुत रोई थी, इसलिए ये बला आई थी।

यूसुफ़ एक रात-दिन या तीन रात-दिन या सात रात-दिन कुँए में रहा, फिर एक मदयन का क़ाफ़िला मिस्र को जाने वाला राह भूल कर वहां आ गया। जब मालिक क़ाफ़िले ने पानी भरने को कुँए में डोल डाला, तो यूसुफ़ डोल में बैठ कर बाहर निकल आया। पर कुँआं उस की जुदाई से बहुत रोया। लेकिन क़ाफ़िले वाले बहुत ख़ुश हुए, कि एक ख़ूबसूरत लड़का पाया। इस अर्से में भाई उस के वहां आ पहुंचे और कहा, ये हमारा फ़रारी ग़ुलाम है, अगर तुम उसे लेना चाहते हो तो दाम देकर ले जाओ। पस उन्होंने 17 या 18 या 19 या 30 दिरहम मिस्री देकर उसे ख़रीदा और मिस्र को ले चले। राह में यूसुफ़ ने अपनी वालिदा की क़ब्र देखी और शुत्र पर से कूद कर क़ब्र पर रोने गया। अहले-क़ाफ़िला समझे कि भागता है, इसलिए उस के तमांचा मारा और पकड़ लाए, फिर मिस्र में जाकर अज़ीज़-ए-मिस्र के हाथ उसे फ़रोख़्त किया उस की क़ीमत ये हुई :-

बहर-उल-लूज (بحر اللوج) में लिखा है, कि ये दौलत देखकर यूसुफ़ मालिक पर ख़फ़ा हुआ और कहा, कि मैं नबी ज़ादा हूँ मुझे फ़रोख़्त ना कर, बल्कि मुफ़्त अज़ीज़ को बख़्श दे। मालिक बोला अच्छा मैं कुछ नहीं लेता, मगर तू दुआ कर कि मेरे घर में औलाद पैदा हो क्योंकि मैं बेऔलाद हूँ। यूसुफ़ ने दुआ की तब उस की जोरू (बीबी) के बारह हमल रहे, हर हमल में दो लड़के पैदा हुए यानी 24 बेटे हो गए। या उस के बारह लौंडियां थीं हर लौंडी दो लड़के जनी तब 24 हुए। ग़र्ज़ यूसुफ़ को अज़ीज़ अपने घर ले गया और अपनी बीबी ज़ुलेख़ा से कहा, कि इस को लेपालक करके रख मगर वह इस पर आशिक़ हो गई।

ज़ुलेख़ा का अहवाल

मग़रिब की ज़मीन में तमौस नाम एक बादशाह था। ज़ुलेख़ा उस की बेटी बहुत ख़ूबसूरत थी। उसने रात को ख्व़ाब में यूसुफ़ को देखा, जब कि वो बाप के पास लड़का था। पस वो ख्व़ाब में उस पर आशिक़ हो गई। एक बरस उस के इश्क़ में रोती रही फिर एक रोज़ यूसुफ़ उस के ख्व़ाब में आया उसने पूछा कि तू कौन? यूसुफ़ ने कहा, मैं अज़ीज़-ए-मिस्र हूँ। अल-क़िस्सा जब ज़ुलेख़ा की शादी का बंदो बस्त होने लगा तो बहुत लोग उसे ब्याहने को आए पर उसने किसी को क़ुबूल ना किया और बाप से कहा, मैं अज़ीज़-ए-मिस्र से निकाह करूँगी जिसे ख्व़ाब में देखा था। इसलिए इस बादशाह ने अज़ीज़-ए-मिस्र को पैग़ाम भेजा कि तुम इस से शादी करो। पर अज़ीज़-ए-मिस्र ने कहला भेजा कि, मुझे फ़िरऔन रुख़्सत (इजाज़त) नहीं देता आप ज़ुलेख़ा को यहां भेज दें, मैं उस से निकाह कर लूंगा। पस ज़ुलेख़ा मिस्र में आई और जब बोतीफ़ार को देखा तो घबराई, कि ये तो वो शख़्स नहीं है जिसे ख्व़ाब में देखा था। पस आस्मान से फ़ौरन आवाज़ आई कि मत घबरा इसी शख़्स के वसीले से तेरा महबूब तुझे मिलेगा, पस वो बोतीफ़ार के घर में दाख़िल हुई। मुद्दत-बाद यूसुफ़ मिस्र में फ़रोख़्त होने को आया, ज़ुलेख़ा को ख़बर मिली उसने बोतीफ़ार को उभारा और बहुत सी दौलत दी कि किसी तरह इस ग़ुलाम को ख़रीद ले। पस उस ने ख़रीद लिया और सात (7) बरस ज़ुलेख़ा ने यूसुफ़ की ख़िदमत की और चाहा कि इस से हम-ख़्वाब हो, पर यूसुफ़ ने ना चाहा आख़िर को ज़ुलेख़ा ने एक अजाइब ख़ाना बनाया जिसमें सात कमरे थे, हर कमरा बहुत ही आरास्ता किया गया था। फिर यूसुफ़ को लेकर अजाइब ख़ाने में आई और हर कमरे का क़ुफ़ुल लगाती जाती थी, सातवें कमरे में जाकर और सब इशारे किनाया करके लाचार हो गई। तब ज़बान से कहा, कि तू ये काम कर। यूसुफ़ ने कहा, मुझे दो ख़ौफ़ हैं अव़्वल ख़ुदा का ख़ौफ़, दूसरे बोतीफ़ार का ख़ौफ़। ज़ुलेख़ा ने कहा, कि ख़ुदा का गुनाह इस तरह बख़्शा जा सकता है कि मैं बहुत सा माल ख़ैरात करूँगी और बोतीफ़ार से भी निडर रह कि मैं उसे ज़हर से मारूंगी, तो भी यूसुफ़ ने ना माना। तब ज़ुलेख़ा ने तल्वार निकाली और कहा आपको मार कर मरती हूँ। मेरे क़िसास (बदले) में तुझे भी क़त्ल करुँगी। तब यूसुफ़ बोला, ऐ ज़ुलेख़ा, जल्दी ना कर। तू अपने मतलब को पहुंचेगी। उस वक़्त यूसुफ़ का दिल डगमगा गया और चाहा कि बदी करे, फ़ौरन जिब्राईल बशक्ल याक़ूब नज़र आया और कहा ज़िना मत कर। तब यूसुफ़ डर कर भागा और ज़ुलेख़ा पीछे भागी और क़ुफ़ुल ख़ुद-बख़ुद खुल गए पर ज़ुलेख़ा ने आख़िरी दरवाज़े पर यूसुफ़ का पिछला दामन आ पकड़ा, वो ऐसा भागा कि पिछला कपड़ा फट गया। और यूसुफ़ घबराया हुआ बाहर आ निकला। वहां बोतीफ़ार खड़ा था, वो बोला क्या है, यूसुफ़ ने सब हाल सच्च सच्च कह दिया, तब बोतीफ़ार उसे घर में लाया पीछे ज़ुलेख़ा भी आई और कहा, कि इस ग़ुलाम को तू यहां लाया है कि हमसे ज़िना करे, मैं सोती थी वो मुझसे ज़िना करने को आया, मैं जाग उठी तब वो भागा मैं पीछे पकड़ने के दौड़ी इस का ये कपड़ा फट गया।

पस बोतीफ़ार ने कहा, ऐ यूसुफ़, तूने ऐसी बड़ी बे-अदबी की, वो बोला ज़ुलेख़ा फ़रेब देती है, मैंने नहीं किया मगर उस ने ये चाहा था। वो बोला कोई गवाह है यूसुफ़ ने कहा ये छः (6) महीने का बच्चा, जो गवाह में है, गवाह है। पस ख़ुदा ने बच्चे को ज़बान दी वो बोला यूसुफ़ सच्चा है। अगर उस का कपड़ा पीछे से फटा हो, और जो आगे से, तो ज़ुलेख़ा सच्ची है। तब बोतीफ़ार ने ज़ुलेख़ा को मलामत की और चाहा कि क़त्ल करे। इस बच्चे ने कहा, ऐसा ना कर इस में तेरी बदनामी होगी। पस बोतीफ़ार ने यूसुफ़ से कहा, ये बात किसी से ना कहना और ज़ुलेख़ा से कहा तौबा कर और चुपकी घर में बैठ। मगर तीन महीने या सात महीने के अर्से में ये बात मशहूर हो गई। मिस्र की औरतें ज़ुलेख़ा पर हँसने और मलामत करने लगीं। ज़ुलेख़ा ने जब ये हाल देखा तो सब औरतों की ज़ियाफ़त की और उन के आगे खाने और छुरीयां भी रखवाईं, ताकि मेवा तराश कर खाएं। फिर यूसुफ़ का सिंगार करा के उन के सामने बुलाया, वो सब उस का हुस्न देखकर ऐसी बेहोश हो गईं कि बजाय मेवा के उन्होंने अपने हाथ तराश लिए। जब यूसुफ़ सामने से हटा और वो होश में आईं तो कहने लगीं, ये तो आदमी नहीं फ़रिश्ता है। ज़ुलेख़ा ने कहा, इसी के इश्क़ से तो तुम मुझे मलामत करते हो। तब वो मलामत करने से बाज़ आईं और ज़ुलेख़ा ने बोतीफ़ार से कहा, कि मैं यूसुफ़ के सबब बदनाम हो गई, मुनासिब है कि तू उसे क़ैदख़ाने में डाले, ताकि लोग जानें कि यूसुफ़ की ख़ता थी ना ज़ुलेख़ा की। तब बोतीफ़ार ने उसे क़ैदख़ाने में डाल दिया और वहां पर भी ज़ुलेख़ा ने उस की बड़ी ख़िदमत की, हमेशा उस के पीछे क़र्म (बेहया मर्द) लगाए और खाने भिजवाए और रात को बहीला सैर (घुमने के बहाने) देखने भी आती रही।

अल-ग़र्ज़ नानबाई और साक़ी दो शख़्स फ़िरऔन के क़ैदी वहां आए और उन्हों ने ख्व़ाब देखी और यूसुफ़ ने उन की ताबीर बतलाई, साक़ी से कहा कि तू तीन रोज़ बाद छूट जाएगा और नानबाई से कहा, तू मारा जाएगा और साक़ी से इक़रार लिया कि मेरी भी मख़लिसी (छुटकारा) करवाए मगर वो भूल गया।

यूसुफ़ का अज़ीज़-ए-मिस्र होना

सात (7) बरस या दस (10) बरस क़ैद में रहा और उस वक़्त तीस (30) बरस का था कि बादशाह मिस्र ने ख्व़ाब देखा वही ख्व़ाब जो तौरेत में है।

जब उस के ख्व़ाब की किसी हकीम से ताबीर ना हो सकी तो साक़ी को यूसुफ़ याद आया और उस ने यूसुफ़ का ज़िक्र बादशाह से किया। बादशाह ने उस को क़ैदख़ाने से बड़ी इज़्ज़त व करोफ़र से बुलाया और यूसुफ़ के साथ 70 मुल्कों की ज़बानों में बातें कीं। उस ने हर ज़बान में जवाब दिया और उस के ख्व़ाब की ताबीर बतलाई। जब ताबीर बतला कर यूसुफ़ चलने लगा तो इब्रानी ज़बान में दुआ-ए-ख़ैर दी और अरबी में सलाम किया। इन दोनों ज़बानों को बादशाह ना जानता था कहा, ये किस मुल्क की ज़बानें हैं ये तो उन सत्तर (70) के सिवा हैं जिनमें मैंने तुझसे बातचीत की है। यूसुफ़ ने कहा, इब्रानी मेरे बाप की ज़बान है और अरबी मेरे चचा इस्माईल की बोली है। पस यूसुफ़ बादशाह ने ज़बान दानी में भी फ़ालीक़ (فالیق) रहा। मगर मालूम नहीं कि वो सत्तर (70) ज़बानें कौनसी थीं, जो बादशाह जानता था और इब्रानी व अरबी जो क़रीब के मुल्क की हैं उन से वो ऐसा नावाक़िफ़ था कि पूछना पड़ा ये किस मुल्क की ज़बानें हैं। ग़र्ज़ बादशाह ने उस की बड़ी इज़्ज़त की और सारे मुल़्क पर उसे इख़्तियार बख़्शा और बोतीफ़ार को मौक़ूफ़ कर दिया अब यूसुफ़ अज़ीज़-ए-मिस्र हो गया और चंद रोज़ बाद बोतीफ़ार मर गया।

ज़ुलेख़ा रोती हुई जंगल को निकल गई, वहां जो कोई यूसुफ़ की ख़बर लाता था उसे दौलत बख़्शती थी आख़िर को फ़क़ीर हो गई और बूढ़ी व अंधी हो गई पर यूसुफ़ की यादगारी ना छोड़ी।

एक रोज़ यूसुफ़ के हज़ार प्यादे व सवार लेकर कहीं जाता था, राह में ज़ुलेख़ा आह भर्ती हुई मिली। यूसुफ़ ने उस की ख़राब हालत पर तरस खाया हाल पूछा और तसल्ली दी फिर दुआ मांगी, तो वो फ़ौरन जवान और बाकराह (कुंवारी) हो गई और पहले से ज़्यादा हुस्न आ गया तब यूसुफ़ ने उस से निकाह कर लिया।

उस से दो बेटे पैदा हुए एफ्रईम और मनस्सी और यूसुफ़ ने एज़्रानी (बोहतात, सस्ते दाम) के सात (7) बरसों में गल्ला जमा किया और गिरानी (काल) के सात (7) बरसों में फ़रोख़्त किया और अहले मिस्र के सब अमलाक, बल्कि बाल बच्चे भी ख़रीद लिए और फिर उन्हें आज़ाद कर दिया, ताकि कोई उसे गु़लामी का दाग़ ना लगा दे, बल्कि सब उस के ग़ुलाम हों।

भाईयों की मुलाक़ात

यूसुफ़ के दस (10) भाई ग़ल्ला ख़रीदने को मिस्र में आए, जब यूसुफ़ के सामने पेश हुए उन्होंने यूसुफ़ को ना पहचाना पर यूसुफ़ जान गया और उस ने कहा, तुम जासूस हो वो बोले नहीं हम याक़ूब के बेटे हैं, एक को भेड़ीया खा गया। एक बिनियामीन बाप के पास है और हम दस (10) ग़ल्ला ख़रीदने को आए हैं। यूसुफ़ ने कहा, अपने उस भाई को भी ला कर दिखलाओ तो मुझे यक़ीन होगा, कि तुम जासूस नहीं हो। तब उन्होंने शमाउन को वहां छोड़ा और आप वहां से कनआन को गल्ला लेकर वापिस गए। उनकी पूँजी भी जो उन्होंने गल्ले (अनाज) की क़ीमत दी थी, यूसुफ़ ने खु़फ़ीया बोरीयों में वापिस कर दी थी। पस बाप से बजिद हो कर बिनियामीन को लाए और यूसुफ़ ने उन की ज़ियाफ़त की और फिर उन को वापिस किया, लेकिन बिनियामीन की बोरी में यूसुफ़ का पियाला उस के हुक्म से छुपाया गया था बाद तलाशी के उसे पकड़ और ग़ुलाम किया। अगरचे भाई बहुत रोय पर उस ने ना छोड़ा। आख़िर को बिनियामीन को वहां छोड़कर वो चले गए और रोबीन भी अपनी मर्ज़ी से वहां रहा। अब याक़ूब ज़्यादा मुसीबत में पड़ गया, क्योंकि ना यूसुफ़ है ना बिनियामीन और रोबीन भी मिस्र में रह गया, लाचार हो कर याक़ूब ने अज़ीज़-ए-मिस्र को ये ख़त लिखा और लड़कों के हाथ भेजा। ख़त ये था याक़ूब इस्राईल बिन इस्हाक़ ज़बीह-उल्लाह बिन इब्राहिम ख़लील-उल्लाह की तरफ़ से अज़ीज़-ए-मिस्र को लिखा जाता है, कि हम लोग अहले-बैत हैं जिन पर बलाऐं आती रहीं, मेरा दादा इब्राहिम आग में डाला गया पर ख़ुदा ने उसे ख़लासी दी, मेरे बाप इस्हाक़ के गले पर छुरी रखी गई और ख़ुदा ने उस के एवज़ फ़िद्या दिया, मेरा एक प्यारा बेटा था उसे जंगल में ले गए और आकर कहा, कि उसे भेड़ीया खा गया उस के ग़म में रोते-रोते मेरी आँखें सफ़ैद हो गईं। उस का भाई बिनियामीन तूने चोरी की तोहमत से पकड़ रखा है हम लोग चोर नहीं हैं। पस मेरे लड़के को छोड़ दे वर्ना ऐसी बददुआ करूँगा, कि तेरी सातवीं पुश्त तक उस का बद-असर ना जाएगा।

यूसुफ़ ने इस का जवाब फ़ौरन यूं लिखा :-

याक़ूब इस्राईल अल्लाह बिन ज़बीह-उल्लाह बिन ख़लील-उल्लाह की तरफ़ अज़ीज़-ए-मिस्र से यूं लिखा जाता है कि, आपका ख़त मेरे पास पहुंचा जिसमें आपके बाप दादों की और आप की तक़्लीफों का ज़िक्र है पस आपको सब्र करना चाहिए था, तुम्हारे बाप दादों ने सब्र किया तो फ़त्ह पाई आप भी सब्र करें।

जब याक़ूब ने ये पढ़ा तो कहा, शायद वो यूसुफ़ हो। क्योंकि ये बातें पैग़म्बरों की सी हैं। पस याक़ूब ने अपने लड़कों को जो मिस्र में थे और ख़त लिखा कि वहीं रहें और अज़ीज़-ए-मिस्र के सामने आजिज़ी करते रहें, ताकि तुम पर मुहर करके लड़का छोड़ दे और कुछ खाना भी दे। पस वो सब जमा हो कर उस के सामने ज़ारी करने को आए तब यूसुफ़ ने (अपने) आपको उन पर ज़ाहिर किया और वो शर्मिंदा हुए यूसुफ़ ने उन्हें मलामत नहीं की बल्कि बख़्श दिया और तसल्ली भी दी।

यूसुफ़ की बाप से मुलाक़ात

80 बरस याक़ूब और यूसुफ़ में जुदाई रही इस अर्से में याक़ूब रोते-रोते अंधा हो गया या धुँदला देखने लगा। एक दिन यूसुफ़ ने भाईयों से कहा, तुम मेरा कपड़ा लेकर बाप के पास जाओ और उस के मुँह पर डाल दो वो बीना हो जाएगा, फिर तुम सब उसे लेकर मिस्र में चले आओ। जब वो लोग कपड़ा लेकर मिस्र से बाहर निकले ख़ुदा ने बादसबा को हुक्म दिया कि यूसुफ़ के कपड़े की ख़ुशबू याक़ूब को पहुंचा दे। पस याक़ूब कनआन में बोला मुझे यूसुफ़ के कपड़े की ख़ुशबू आती है। लोगों ने उसे दीवाना बतलाया तब लड़के आए और कपड़ा डाला वो बीना हुआ, फिर वो सब बड़ी ख़ुशी से मिस्र को आए। 72 या 93 या 70 या 400 शख़्स थे जब मिस्र के नज़्दीक पहुंचे सत्तर (70) फ़ौजें लेकर यूसुफ़ इस्तिक़बाल को आया। हर फ़ौज दो (2000) हज़ार सवार की थी, सब 140000 सवार हुए। पस पहले याक़ूब ने यूसुफ़ से कहा, अस्सलाम अलैक या मज़्हब-उल-हिज्ज़ान (السلام علیک یا مذہب الاحزان) फिर मिलकर रोए और याक़ूब पाँच घड़ी तक बेहोश रहा आस्मान के फ़रिश्ते ख़ुदा से कहने लगे, ऐ ख़ुदा, दुनिया में किसी के साथ ऐसी मुहब्बत होगी जैसे याक़ूब को यूसुफ़ से है ख़ुदा ने कहा उनसे ज़्यादा मुझे मुहम्मदी लोगों के साथ मुहब्बत है।

ग़र्ज़ याक़ूब बाद मुलाक़ात बीस (20) बरस और ज़िंदा रहा और 147 बरस का हो कर मर गया और बमूजब वसीयत के यूसुफ़ ने इस्हाक़ की क़ब्र के पास शाम में जाकर दफ़न किया। फिर यूसुफ़ मिस्र में आया और 43 बरस और जिया फिर मर गया उस की लाश की बाबत अहले मिस्र ने तकरार किया हर कोई अपने क़ब्रिस्तान में बाउम्मीद बरकत उसे रखना चाहता था।

आख़िर ये बात क़रार पाई कि एक संगमरमर के संदूक़ में उसे बंद करके रूद नील दरिया में रखें, ताकि बरकत का पानी सबको पहुंचे जब चार-सौ (400) बरस बाद मूसा पैदा हुए वो उसे वहां से उठा कर लाए और शाम के मुल्क में अपने क़ब्रिस्तान में दफ़न किया गया। यूसुफ़ की उम्र 110 या 120 बरस की हुई। मदारिक में है 17 बरस का था जब मिस्र में बका 13 बरस बोतीफ़ार के घर में रहा, 30 बरस का था जब वज़ीर हुआ, 33 बरस का था जब इल्म व हिक्मत ख़ुदा ने उसे बख़्शा, 120 बरस का था जब मर गया।

क़िस्सा अय्यूब

अय्यूब पैग़म्बर रूमी था। ईस (عیص) तीसरी पुश्त में से उस की माँ लूत की बेटी थी। उस के सात (7) या तीन (3) बेटे थे और 3 या 7 लड़कीयां थीं। और दौलत बहुत थी उस पर बड़ी मुसीबत आई और सबब मुसीबत का ये था कि किसी मज़्लूम की फ़र्यादरसी उस ने नहीं की थी। या आंका (और यह कि) उस के मवेशी किसी काफ़िर बादशाह के इलाक़े में चरते थे और अय्यूब इस रिआयत से उस के साथ जिहाद नहीं करता था। या उस ने कोई गुनाह की बात देखी और चुप कर रहा या उसने कोई बकरी ज़ब्ह करके आप खाई और हमसाया भूका रहा था। या आंका (या फिर) शैतान ने उस पर हसद किया और ख़ुदा से कहा, ये शख़्स ऐश व इशरत में तुझे याद करता है, मुसीबत में भूल जाएगा। पस उस का सब कुछ मुझे सपुर्द कर कि मैं उसे आज़माऊं। या फ़रिश्तों ने हसद करके उसे आज़माईश में डलवाया। या ख़ुद इस ने ख़ुदा से कहा, कि मुझे बला में डाल ताकि मुझे साबिरों का अज्र मिले या कोई और सबब हुआ। पस उस के ऊंट बिजली ने मारे, बकरीयां ग़र्क़ाब (पानी में डूबा हुआ) हुईं, खेत हवा ने जलाए, लड़के लड़कीयां दीवार के नीचे दब मरी, वो हर मुसीबत पर कहता रहा, ख़ुदा ने दिया ख़ुदा ने लिया। आख़िर को बदन में कीड़े पड़े बदबू आने लगी सब उस से जुदा हो गए और उस की तीन जोरूं (बीबी) तलाक़ ले गईं। एक जोरू (बीबी) मुसम्मात रहमत या रहीमा जो एफ्राईम बिन यूसुफ़ की बेटी थी या वो माख़ीरनाम मनस्सी बिन यूसुफ़ की बेटी थी या लिया नाम याक़ूब की बेटी थी वो साथ रही।

और वो जिस शहर में जाता था वहां से लोग निकालते थे। सात (7) शहरों में से निकाला गया जंगल में जा रहा और दो शागिर्द भी जो साथ थे वहां जुदा हो गए सिर्फ़ वो औरत साथ थी और ख़िदमत करती थी।

वो सात (7) बरस या 13 या 18 बरस बीमार रहा। कभी उस की इबादत में फ़र्क़ ना आया ना उस ने मुसीबत में शक़ावत (शिकायत) की, इसलिए साबिर (सब्र करने वाला) कहलाता है। “मगर क़ुरआन में लिखा है कि, उस ने رب انی مسنی الضر “ऐ ख़ुदा ! मुझे मुसीबत ने पकड़ा” ये शिकायत के अल्फ़ाज़ जो वो बोला इस की तावील मुहम्मदी लोग यूं करते हैं कि, उसे शैतान ने आकर कहा था, कि तू मुझे सज्दा कर जब तू अच्छा होगा। या उस की उम्मत के लोगों ने उस पर ठट्ठा मारा था। या आंका (फिर) ऐसा लाचार हो गया था कि नमाज़ भी ना पढ़ सकता था। या आंका (फिर) एक रोज़ ख़ुदा ने उस की बीमार पुरसी नहीं की थी। या आंका (फिर) उस की बीबी ने कहा था, कि शराब और सूअर खाले तो अच्छा होगा। या आंका (फिर) उस की औरत किसी काफ़िर औरत के घर गई और क़र्ज़ के तौर पर खाना मांगा। उसने कहा, अगर अपने बाल काट कर मुझे दे तो खाना दूँगी। पस उस ने बाल काट कर दिए और घर आई, शैतान ने अय्यूब से कहा, तेरी औरत ने ज़िना किया है उस के बाल किसी ने अलामत के लिए काट लिए हैं। अय्यूब ने कहा, जब मैं तंदुरुस्त हूँगा उस के सौ (100) कोड़े मुहम्मदी दस्तूर पर मारूंगा। ग़र्ज़ इन सबबों के सबब उस ने अल्फ़ाज़ शिकायत बोले थे। “पर ये सब तावीलात दुरुस्त नहीं, क्योंकि ये तो सबब शिकायत हैं, वजूद शिकायत का इंदिफ़ाअ् इनसे नहीं हो सकता। हाँ बाअज़ ने कहा, कि ख़ुदा से शिकायत थी ना ग़ैर से। ये क़रीन-ए-क़ियास बात है, तो भी शिकायत हुई। “ख़ुदा ने एक चश्मा पानी का उस के पास जारी किया जिसमें अय्यूब ग़ुस्ल करके तंदुरुस्त हो गया।” जैसे अव्वल में था फिर वो मए ज़ौजा (बीवी के साथ) शहर में आया और ख़ुदा ने उस के मरे हुए बच्चे भी जिला दीए और सब माल मवेशी भी जी उठे और जोरू (बीबी) फिर जवान हो कर औलाद जनने लगी और वो तीन औरतें जो तलाक़ ले गईं थी, फिर घर में आ बसीं और वो पहले नबी था अब पैग़म्बर हो गया और इस के बाद 48 बरस जिया फिर 135 या 141 या 146 बरस का हो कर मर गया।

क़िस्सा शुऐब

शुऐब पैग़म्बर इब्राहिम के बेटे मदयन की दूसरी पुश्त में था। ख़ुदा ने उसे रिसालत देकर अहले मदयन और एका के जंगल के बाशिंदों की तरफ़ भेजा था। उस का ये मोअजिज़ा था कि जब किसी पहाड़ पर चढ़ता था, तो वो पहाड़ उस के सामने झुक जाता था। उस के अहद के लोग तराज़ू में टिंडी मारते थे, राहज़नी करते थे। शुऐब ने लाचार हो कर उन को जो ईमान ना लाए बददुआ की, तब जिब्राईल ने एक सख़्त आवाज़ से उन्हें हलाक किया। ये तो अहले-मदयन का अहवाल हुआ पर अहले-एका ऐसे सख़्त थे कि कोई भी ईमान ना लाया, तब ख़ुदा तआला एक क़िस्म की गर्मी उन पर लाया कि वो उन के पानी और ज़मीन जलने लगी, तब वो जंगल की तरफ़ भागे वहां एक सर्द अबर (बादल) आया, जब वो सब उस के नीचे जमा हुए ख़ुदा ने उन पर आग बरसाई और वो हलाक हुए। अब शुऐब अपने लोगों को लेकर मदयन में आ बसा और जब तक कि मूसा पैदा हो कर वहां ना आया वहीं रहा। जब मूसा उस के पास से चला गया तब चार (4) महीने सात (7) बरस के बाद मर गया उस की क़ब्र कोह-ए-सफ़ा और मर्वा के दर्मियान है।

मूसा का क़िस्सा

मूसा लावी बिन याक़ूब की तीसरी पुश्त में था। उस के बाप का नाम इमरान था। क़ाबूस या वलीद बादशाह मिस्र के अहद में पैदा हुआ। इस बादशाह का लक़ब भी फ़िरऔन था। ये फ़िरऔन या तो उस यूसुफ़ वाले फ़िरऔन की औलाद था या वही फ़िरऔन था जो इतनी देर तक ज़िंदा रहा और आख़िर को काफ़िर हो गया। अपनी तस्वीर की परस्तिश (इबादत) लोगों से कराता था और कहता था कि, मैं तुम्हारा बड़ा ख़ुदा हूँ, और यह बुत तुम्हारे छोटे ख़ुदा हैं। और उस ने ख़ुदा से दुआ की थी कि मुझे दुनिया इनायत कर मैं आख़िरत की कोई चीज़ नहीं चाहता। ख़ुदा ने उस की अर्ज़ (दुआ) क़ुबूल भी की थी और उसे दरिया-ए-नील पर इख़्तियार था, जब हुक्म देता वो चलता जब मना करता वो ठहर जाता था।

एक दिन फ़िरऔन से काहिनों ने कहा, बनी-इस्राईल में एक लड़का पैदा होगा, उस से तेरी ममलकत में ज़वाल आएगा। या फ़िरऔन ने ख्व़ाब देखा कि एक शख़्स पैदा हो कर मुझे ख़राब करेगा पस वो ग़मगीं था।

उस के पास हज़ार जादूगर, हज़ार काहिन और हज़ार नजूमी लोग थे, वो सब अपने बुतों से मिन्नत करके पूछते थे, कि वो लड़का कब पैदा होगा। पस जिस वक़्त ख़ुदा ने अर्श के फ़रिश्तों से कहा, कि मैं बनी-इस्राईल में मूसा को फ़ुलां महीने की फ़ुलां तारीख़ फ़ुलां जुमेरात को तीन घड़ी रात गुज़रे उस की वालिदा के शिकम में आने दूँगा, तो ये ख़बर देवताओं ने आस्मान से चुरा कर अपने पूजारियों को ला कर दी और उन्हों ने फ़िरऔन को मूसा के रहम में आने का वक़्त बतला दिया।

इसलिए फ़िरऔन ने उस जुमेरात को बनी-इस्राईल के सब मर्द औरतों से जुदा कर दिए और शहर से बाहर निकाल दीए और फ़िरऔन आप मए इमरान मुसाहब के शहर में रहा और इमरान से कहा, कि तू मेरे दरवाज़े पर पहरा दे, मैं महल में जाता हूँ। इमरान की औरत यूखाबज़ (یوخابذ) को ख़बर मिली कि इमरान शहर में है, वो उस के पास चली आई और हम-बिस्तर हो कर हामिला हुई।

इस वक़्त जादूगर चिल्लाए जो बुतों की हुज़ूरी में शबदारी कर रहे थे। वो बोले, कि दुश्मन रहम (माँ के पेट) में आ गया और ये इंतिज़ाम औरत मर्द की जुदाई का कारगर ना हुआ पर अब तव्वुलुद (पैदाइश) के वक़्त इंतिज़ाम किया जाएगा। पस फिर ये बंदो बस्त हुआ कि जो लड़का बनी-इस्राईल में तव्वुलुद (पैदा) होता, मारा जाता था। 90 हज़ार लड़के मारे गए, जब मूसा तव्वुलुद (पैदा) हुए। दाया ने मेहरबान हो कर छोड़ा और वो तीन महीने या ज़्यादा अर्से तक पोशीदा (छिपा के) रखा गया। ये योजाबज़ इमरान की औरत लावी के ख़ानदान से थी और बक़ौल मुआलिम लावी की बेटी थी। उस के दो बच्चे हारून व मर्यम और भी थे। जब वो औरत मूसा को छिपा ना सकी, तो एक संदूक़ में रखकर पानी में डाल दिया वो बहता हुआ फ़िरऔन के बाग़ में पहुंचा वहां फ़िरऔन और उस की बीबी आसीया जो ईमानदार थी और उस की लड़की भी वहां थी उन्होंने मूसा को संदूक़ में पाया और बेटा करके पाला और मूसा नाम रखा। लफ़्ज़ मू (مو) के मअनी हैं पानी और सा (سا) कहते हैं दरख़्त को, मिस्री ज़बान के मुवाफ़िक़ और सुर्यानी ज़बान में मूमरूह (مومروہ) के संदूक़ को कहते हैं और सा (سا) पानी को। पस मूसा के मअनी हैं पानी के दरख़्तों में पाया हुआ या पानी का ताबूत पर अरबी में मूसा उस्तुरा (استرہ) को कहते हैं जिससे बाल तराशे जाते हैं। जब मूसा को पानी में पाया तो मूसा की बहन मर्यम वहां हाज़िर थी, उसने कहा कि मैं इस के लिए एक दूध पिलाने वाली (दाई) ला सकती हूँ और वो मूसा की माँ को लाई इस तरह उस की परवरिश हुई।

मूसा की ज़बान में लुक्नत थी इस का सबब ये था कि एक रोज़ तिफ़्ली में फ़िरऔन ने उसे गोद में लिया मूसा ने उस की दाड़ी नोच ली और एक तमांचा उस के मुँह पर मारा फ़िरऔन ने ग़ुस्सा हो कर उस के क़त्ल का हुक्म दिया। आसीया ने कहा, ये नादान बच्चा है इसे तमीज़ नहीं ये तो आग में भी हाथ डालता है। पस उस ने आज़माईश के तौर पर जवाहरात और आग उस के सामने रखवाई मूसा जवाहरात उठाने लगा, जिब्राईल ने उस का हाथ आग की तरफ़ फेर दिया और उस ने आग उठा कर मुँह में डाली पस थोड़ी सी ज़बान जल गई थी इस लिए लुक्नत हुई और फ़िरऔन ने जान बख़्श दी।

क़त्ल क़िबती

जब मूसा 13 या 20 या 30 बरस का हुआ, एक रोज़ मिस्र में या किसी और बस्ती में था कि एक क़िबती फ़िरऔन का मुलाज़िम किसी इस्राईली को मारता था और कहता था कि बावरीचीख़ाने के लिए लकड़ियाँ ला। इस्राईली ने मूसा से फ़र्याद की, पहले मूसा ने क़िबती को मना किया, जब उसने ना माना तो मूसा ने एक घूँसा मारा कि वो मर गया और कोई वहां ना देखता था, पस मूसा और वो इस्राईली वहां से खिसक गए।

दूसरे रोज़ वही इस्राईली किसी और क़िबती से लड़ता था, मूसा बोला, तू बड़ा गुमराह है। कल तूने एक शख़्स को मरवाया आज फिर झगड़ा करता है। ये कह कर मूसा क़िबती को मारने आया इस्राईली समझा मुझे मारने आता है इसलिए चिल्ला उठा, क्या मुझे भी आज मरता है, जैसे तूने कल उस क़िबती को मारा? वो क़िबती जो हाज़िर था जान गया कि पहले क़िबती का क़ातिल मूसा है और ये ख़बर फ़िरऔन ने सुनी। जब मूसा ने सुना कि फ़िरऔन अब मुझे मारना चाहता है, तो भागा और आठ रोज़ घास खाकर मदयन के नज़्दीक पहुंचा वहां राह में एक कुँए पर गडरीए (चरवाहे) गल्ला (झुण्ड) लेकर जमा थे और दो लड़कीयां भी गल्ले लेकर हाज़िर थीं और मुंतज़िर थीं कि जब सब पिला चुकें तो बाक़ीमांदा पानी अपनी बकरीयों को पिलाऐं। मूसा ने कहा, तुम अलग क्यों खड़े हो पानी क्यों नहीं पिलातें? वो बोलीं जब सब पिला चुकेंगे और पानी बचेगा तो पिलाऐंगी, क्योंकि हमारा कोई मददगार नहीं है, सिर्फ एक बूढ़ा वांधा बाप है वो नहीं आ सकता। ये लड़कीयां शुऐब पैग़म्बर की भतीजियां या बेटियां थीं।

पस मूसा ने उन की मदद की और उन के गल्लों (जानवरों के झुण्ड) को पानी निकाल कर पिलाया और वो लड़कीयां मूसा को घर में लाईं और शुऐब ने उसे खाना खिलाया और कहा, आठ, दस (8,10) बरस हमारी गल्लाबानी कर, तो एक लड़की से तेरा निकाह कर देंगे पस मूसा ने यही किया। शुऐब के घर में वो लाठी भी रखी थी, जिसे आदम बहिश्त (जन्नत) से लाया था। वही लाठी मूसा को शुऐब ने दी वही असाए मूसा हुआ।

मूसा का मिस्र में फिर आना

जब मूसा चालीस (40) बरस का हुआ तो उस ने मिस्र का इरादा किया और शुऐब से रुख़्सत लेकर मए अपनी बीबी के मिस्र की तरफ़ चला, जब वादी-ए-ऐमन में आया तो राह भूल गया रात अँधेरी थी बर्फ़ पड़ती थी और उस की बीबी सफूरा उसी वक़्त लड़का भी जनी थी और आग मयस्सर ना आती थी और वो जुमेरात की रात थी नागाह कोह-ए-तूर की तरफ़ आग नज़र आई, मूसा सबको छोड़कर वहां आग लेने गया आग में से आवाज़ आई “मैं तेरा ख़ुदा हूँ, तू अपनी जूतीयां उतार।”

शायद इसलिए जूतीयां उतारने का हुक्म हुआ कि वो गधे के चमड़े की नापाक जूतीयां थीं या सिर्फ अदब व ताज़ीम के लिए रखा। या जूतीयों से मुराद तफ़क्कुरात दिल और अलाइक़ जिस्मानी हैं यानी आलम तफ़रीद (तन्हा रहना) में क़दम रख ये मतलब मुहम्मदियों ने जूते उतारने का बयान किया है।

फिर कहा कि, ऐ मूसा ! तेरे हाथ में क्या है? वो बोला मेरी लाठी है जिससे बकरीयां हाँकता और पत्ते झाड़ता हूँ और इस पर तकिया करता हूँ। मुआलिम और मदारिक में लिखा है, कि इस लाठी में कई तासीरें थीं वो लाठी मूसा से राह में बातें करती थी। और मूज़ियात (नुक़्सान पहुँचाने वाली चीजों) से हिफ़ाज़त करती थी। राह का तोशा उठा कर चलती थी। और कुँए पर वो रस्सी और डोल बन जाती थी और मैदान में दरख़्त मेवादार बन कर फल देती थी और साया करती थी। रात को चिराग़ बन जाती थी। ज़मीन से चश्मे जारी करती थी। और सवारी का काम भी देती थी और और भी फ़ायदे पहुंचाती थी।

पस ख़ुदा ने इस वक़्त मूसा को असा और यद-ए-बैज़ा (یدبیضا) का मोअजिज़ा इनायत किया और फ़िरऔन की तरफ़ भेजा और हारून को इस का मददगार किया। इस रात मूसा की लोग इंतिज़ारी में रहे पर वो आग लेकर ना आया कोई मदयन का क़ाफ़िला वहां आ गया पस सफूरा उस के साथ शुऐब की तरफ़ चली आई या मूसा ने आकर सब हाल सुनाया और अपना सब कुछ उसे देकर वापिस किया। अब अकेला मिस्र को चला क़रीब चार (4) घड़ी रात गुज़री शहर मिस्र में आया हारून और मर्यम और अपनी माँ को देखा लेकिन बाप मर गया था। या हारून को भी वही आई कि वो राह में जाकर मूसा से मलाकी (मुलाक़ात करने वाला) हुआ, फिर वो दोनों उसी रात या एक बरस बाद फ़िरऔन के पास गए। फ़िरऔन ने मूसा को पहचाना और बातें हुईं, मूसा बोला बनी-इस्राईल को मुल्क शाम में जाने दे और गु़लामी में ना रख और तू ख़ुदा पर ईमान ला। पर उस ने ना माना और फ़िरऔन के वज़ीर हामान ने भी बड़ी सरकशी की मूसा ने वहां मोअजज़ात दिखलाए और जादूगरों ने भी अपनी करामातें दिखलाईं पर मूसा पर ग़ालिब ना आ सके। मूसा के मोअजज़े ये थे, कहतसाली, मलख़ पियादा, जुएँ, मेंढ़क, दरिया-ए-नील का ख़ून होना और मिस्रियों के दिरहम दीनारों का पत्थर होना ये सब बलाऐं (आफत) उन पर आईं पर वो ईमान ना लाए। इस के बाद बहुक्म मूसा बनी-इस्राईल ने मिस्रियों से बर्तन और ज़ेवर ईद के बहाने से क़र्ज़ लिए और यूसुफ़ की लाश का संदूक़ दरिया से निकाल कर रात को भाग निकले।

शाम के वक़्त मिस्रियों को ख़बर हुई कि वो चले गए हैं, वो तआक़ुब (पीछा) करना चाहते थे, लेकिन हर एक घर में एक प्यारा इज़्ज़तदार मर गया था। इसलिए इस रोज़ ग़म में रहे, दूसरे रोज़ तआक़ुब (पीछा) किया। बनी-इस्राईल दस (10) लाख से ज़्यादा थे फ़िरऔन भी चौबीस (24) हज़ार सवार आगे पीछे दाएं बाएं करके उन के पीछे आया और दरिया-ए-नील पर मुलाक़ात हुई। मूसा ने दरिया-ए-नील को कहा, या बाख़ालिद (یا باخالد) हमें राह दे! बाख़ालिद रूद-ए-नील की कुनिय्यत है।

पस दरिया में बारह रास्ते ज़ाहिर हुए और दीवारों की तरह इधर-उधर पानी खड़ा हो गया। सब इस्राईली पार उतर गए और जब फ़िरऔन का लश्कर पानी में आया तो दरिया ने उन को ग़र्क़ किया और फ़िरऔन भी बेइज़्ज़ती से दरिया में डूब कर मर गया। उस की उम्र चार सौ (400) बरस की हुई।

मूसा का तूर पर जाकर किताब लाना

मूसा ने साबिक़ में बनी-इस्राईल से वाअदा किया था, कि जब फ़िरऔन मए अपनी क़ौम के ग़र्क़ हो जाएगा, तब मैं तुम्हारे फ़ायदे के लिए ख़ुदा के पास से एक किताब लाऊँगा। अब कि फ़िरऔन मर गया बनी-इस्राईल ने मूसा से कहा, वो किताब ख़ुदा से लाओ, जिसका तुमने वाअदा किया था। पस मूसा ने बहुक्म ईलाही माह ज़ीकअदा (ذیعقد) में 30 दिन तक रोज़ा रखा, उस के बाद कोह तूर पर गया। मगर मूसा को शर्म आई कि मैंने रोज़ा रखा है मेरे मुँह से रोज़े की बू आती होगी, इसलिए उस ने मिस्वाक करके मुँह साफ़ किया। फ़रिश्तों ने कहा, वो रोज़े की बू हमारे लिए मुश्क की ख़ुशबू से ज़्यादा थी, तूने उसे मिस्वाक से क्यों दफ़ाअ किया ये अच्छा नहीं किया। तब मूसा ने बहुक्म ख़ुदा उस के जुर्माने में ज़ीलहिज्जा के 10 रोज़े और रखे। इस तरह चालीस (40) रोज़े हो गए। इस के बाद मूसा ने हारून को अपना क़ाइम मक़ाम किया और कोह-ए-तूर पर चढ़ा वहां ख़ुदा ने चालीस (40) रात-दिन उस से बातें कीं 4 हज़ार या 7 हज़ार या 90 हज़ार कलिमात उस ने ख़ुदा से सुने। आख़िर को मूसा बोला, ऐ ख़ुदा मुझे बचा, अपना दीदार दिखला, उसने फ़रमाया, कि तू मुझे देख ना सकेगा, फिर ख़ुदा ने अपने जलाल का एक ज़र्रा पहाड़ पर ज़ाहिर किया, उस वक़्त दुनिया के सब पागल होशियार हो गए और सब बीमार तंदुरुस्त और सारी सर-ज़मीन सब्ज़ हो गई सारे पानी मीठे हो गए सारे बुत दुनिया के गिर पड़े और मजूस की आग बुझ गई और वो पहाड़ तूर टुकड़े टुकड़े हो गया और 6 पहाड़ इस पहाड़ में से टूट कर अलग जा पड़े।

कोह उहद व कोह क़ाफ़ व कोह रिज़वी, मदीना में जा कर गिरे और कोह सौर व कोह बीश्र व कोह हिरा मक्का में गिरे और मूसा आठ पहर बेहोश रहा। जब होश आया तो उठा और ख़ुदा की तारीफ़ की। फिर ख़ुदा ने उसे 7 या 9 या 12 तख़्तियाँ इनायत कीं। हर तख़्ती 10 या 12 गज़ लंबी थी और वो या तो याक़ूत सुर्ख़ की ज़बर जद की संग ज़रहाम या ज़मरद की थीं या उस बैरी के दरख़्त की तख़्तियाँ थीं जो बहिश्त (जन्नत) में है। यानी सिदर-उल-मुन्तहा (سدرہ المنتہی) और उन तख़्तीयों पर सब कुछ लिखा था। तफ़्सीर मदारिक में है, وکتبنا لہ فی الالواح के ज़ेल में लिखा है, कि जब तौरेत नाज़िल हुई तो उस में इतना बोझ था कि सत्तर (70) ऊंट इसे उठाते थे और किसी ने उसे अव्वल से आख़िर तक नहीं पढ़ा सिर्फ़ मूसा और यशूअ वाज़ीर और ईसा ने, इनके सिवा सब लोगों ने थोड़ा-थोड़ा इस में से पढ़ा है।

सामरी का क़िस्सा

एक आदमी था जिसका नाम सामरी था, वो या तो बनी-इस्राईल के बुज़ुर्ग क़बीले सामरा का था या ग़ैर-क़ौम में से था। उस को मूसा बिन मुज़फ़्फ़र कहते थे। ये शख़्स भी मूसा की तरह मिस्र में पैदा हुआ और इस की वालिदा ने इस को रूद-ए-नील के किनारे किसी जज़ीरे में फ़िरऔन के ख़ौफ़ से फेंक दिया था, वहां जिब्राईल ने इस की परवरिश की थी। जिस वक़्त बनी-इस्राईल मिस्र से निकले और दरिया-ए-नील पर फ़िरऔन ग़र्क़ हुआ, उस वक़्त जिब्राईल फ़रिश्ता सवार हो कर मूसा की मदद को आया था। इस सामरी ने जिब्राईल के घोड़े के सिम के नीचे से थोड़ी ख़ाक उठाकर अपने पास रख ली थी। अब कि मूसा तूर पर गया तो इस शख़्स ने आकर हारून से कहा, कि वो ज़ेवर व बर्तन जो बनी-इस्राईल मिस्र से आरियत लाए हैं इस का इस्तिमाल जायज़ नहीं है, वो सब जमा करना चाहिए कि बनी-इस्राईल उस को काम में ना ला सकें। सो हारून ने कहा, अच्छा वो सब जमा करो। पस सामरी ने वो सब अम्वाल लेकर आग में डाले और इन का एक बछड़ा ढाला और इस के शिकम में वो मिट्टी जिब्राईल के घोड़े के सिम के तले की दाख़िल कर दी, इसलिए वो बछड़ा जी उठा और आवाज़ करने लगा। पस सामरी ने कहा, कि ये तुम्हारा ख़ुदा है इस की परस्तिश करो मूसा तूर पर गया है, ख़ुदा आप यहां चला आया है देखो धात का बछड़ा बोलता है। पस सबने उस की परस्तिश की मगर 6 लाख और 12 हज़ार ने इस की परस्तिश ना की हारून ने हर-चंद मना किया पर अवाम ने ना मानी।

जब मूसा आया तो निहायत ग़ुस्सा हुआ और वो तख़्तियाँ ग़ुस्से में ज़मीन पर फेंक दीं, उन के 6 टुकड़े हो गए 5 आस्मान को उड़ गए और एक हिस्सा रह गया जिसमें वाअज़ नसीहत और अहकाम की बातें थीं। बाक़ी पाँच जिनमें ख़ुदाई के भेद लिखे थे वो उड़ गए। और मूसा ने हारून की दाढ़ी पकड़ी और कहा, तूने ये शरारत क्यों होने दी? वो बोला लोग मुझे मारे डालते थे, मैं लाचार हो गया था। पस मूसा हारून को क़त्ल करना चाहता था मगर ख़ुदा ने मना कर दिया। तब मूसा ने इस बछड़े को जलाकर या टुकड़े टुकड़े करके दरिया में डाल दिया और सामरी को जंगल में निकाल दिया और हुक्म हुआ कि कोई उसे ना पूछे। आज तक उस की औलाद लोगों से कहती है कि हमें ना छुओ और सब बुत-परस्त लोग जो उस के मुतीअ (मानने वाले) थे जंगल में सर-निगूँ हो कर तौबा करने लगे, फिर हारून बारह (12) हज़ार शमशीर-ज़न मर्द लेकर निकला और सुबह से दोपहर तक 70 हज़ार तक उन के क़त्ल किए तब बाक़ीयों की तौबा क़ुबूल हुई।

क़ारून मलऊन का क़िस्सा

शायद ये लोग क़ारून क़ूरह (قارون قورح) को कहते हैं। ये क़ारून मूसा का चचा या चचा-ज़ादा या ख़्वाहरज़ादा भाई था और मूसा की ख़्वाहर का शौहर भी था। वो बहुत ख़ूबसूरत और मालदार शख़्स था। फ़िरऔन ने उसे मिस्र में बनी-इस्राईल का चौधरी बना रखा था और वह बड़ा ज़ालिम और मुतकब्बिर मगरूर था। उस के पास दौलत बहुत थी चालीस (40) ख़ज़ानों का मालिक था या तो यूसुफ़ की दौलत उसे हाथ आ गई थी या आंका (या फिर) फ़िरऔन का ख़ज़ानची था। जब वो मर गया तो उस का ख़ज़ाना दबा बैठा था। बाअज़ कहते हैं कि मूसा ने कीमियागिरी का इल्म अपने ख़्वाहर को सिखलाया था। उस ने क़ारून को बतला दिया था। ग़र्ज़ क़ारून ने ज़कात माल की ना दी और मूसा से हमेशा दुश्मनी रखी और उस की बेइज़्ज़ती चाहता था, कि एक दफ़ाअ मूसा को उस ने ज़िना का एहतिमाम भी किया और हारून के ओहदे पर हसद किया, तब मूसा ने उस के लिए बददुआ की और वो मए दस (10) आदमीयों और अपने अम्वाल की ज़मीन में धस गया। हर रोज़ एक क़द आदम नीचे उतरता है और क़ियामत तक धसा चला जाएगा।

क़िस्सा गाय

बनी-इस्राईल में कोई बूढ्ढा आदमी था उस के औलाद ना थी सिर्फ दो भतीजे थे और इस बुड्ढे के पास माल बहुत था उस के भतीजों ने इस ख़्याल से कि जब मर जायेगा तो सब माल हमारे हाथ आ जाएगा, एक रोज़ उसे मार डाला। मगर क़ातिल मालूम ना हुआ कि किस ने उसे मारा है। ख़ुदा ने मूसा से कहा, कि एक गायें ऐसी ऐसी सिफ़तों वाली लेकर ज़ब्ह कर और उस का गोश्त इस मुर्दा को मारो (वह) ख़ुद ज़िंदा हो कर अपना क़ातिल बतला देगा। चालीस (40) बरस तक इन सिफ़ात की गायें तलाश की गई आख़िर एक शख़्स के पास मिली उस की क़ीमत यूं ठहरी कि उस के चमड़े को सोने से भर कर उस के मालिक को देंगे, पस उस को लिया और ज़ब्ह करके उस का गोश्त मुर्दा के मारा वो जिया और क़ातिल बतलाया फिर मर गया, तब मूसा ने क़ातिलों को मारा और माल उस का ग़ुरबा को बांट दिया।

ख़िज़र का क़िस्सा

मूसा को एक रोज़ ये ख़्याल आया कि, मैं सबसे बड़ा आलिम हूँ कोई मेरे बराबर दुनिया में है नहीं। ख़ुदा ने कहा, हज़रत तुझसे ज़्यादा है और वो वहां रहता है जहां दरिया-ए-फ़ारस और दरिया-ए-रुम मिलते हैं, तू अपने साथ एक आदमी लेकर उस की तलाश में जा और एक भुनी हुई मछली भी साथ ले जा, कि वो मछली तुझे ख़िज़र का घर बतला देगी। पस मूसा एक मछली भुनी हुई और यशूअ् को साथ लेकर उधर गया, जब मजमा-उल-बहरीन (مجمع البحرین) पर पहुंचा, जहां आब-ए-हयात का चशमा था, वहां मूसा तो सो गया और यशूअ ने उस चशमे में वुज़ू किया (और) कोई क़तरा आब-ए-हयात का उस मछली पर गिर पड़ा, फ़ौरन वो ज़िंदा हो गई और पानी में भाग गई यशूअ हैरान रह गया, जब आगे चले मूसा ने कहा, ऐ यशूअ खाना निकाल ताकि खाएं। पस यशूअ ने दस्तर ख़्वान निकाला और मछली का ज़िक्र किया, कि मैं उसे मजमा-उल-बहरीन पर भूल आया हूँ। मूसा बोला उसी मुक़ाम पर वापिस चलो वही मछली ख़िज़र की राह बताएगी। जब वहां वापिस आए तो देखा कि वो मछली जो ज़िंदा हो कर पानी में चली गई थी, जिस तरफ़ वो गई उसी तरफ़ पानी की एक ख़ुश्क राह खुलती चली गई है, तब उसी राह से मूसा और यशूअ चले गए। आगे जाकर देखा तो हज़रत ख़िज़र तकिया लगाए हुए बैठे हैं, मूसा ने सलाम किया ख़िज़र ने जवाब दिया और कहा, तू कौन है? वो बोला मैं मूसा हूँ। बनी-इस्राईल का पैग़म्बर ख़ुदा ने मुझे तेरे पास भेजा है, ताकि तुझसे कुछ सीखूं। बाबा ख़िज़र ने कहा, तू मेरे साथ नहीं रह सकता, क्योंकि तू मेरी बातों पर सब्र ना कर सकेगा। मूसा बोला, मैं सब्र करूँगा। उस ने कहा, इस शर्त पर साथ रखूँगा कि तू मुझसे सवाल ना करे चुप-चाप रहे, जब तक मैं ख़ुद बयान ना करूँ। उस ने ये शर्त क़ुबूल की और तीनों चले और दरिया के किनारे पर आए और मल्लाहों से दरख़्वास्त की हमें भी कश्ती में सवार कर लो पहले उन्होंने इन्कार किया फिर ख़िज़र को पहचान के मान लिया और बड़ी इज़्ज़त से कश्ती में बिठलाया। जब दरिया के बीच पहुंचे ख़िज़र ने चुपके-चुपके तीर से कश्ती में सुराख़ कर दिया, मूसा बोला क्या तू लोगों को डुबाना चाहता है? ख़िज़र बोला क्या मैंने ना कहा था कि तू मेरे साथ सब्र नहीं कर सकता? मूसा ने कहा, अब की बार माफ़ कीजिए मैं भूल गया। फिर एक गांव में पहुंचे वहां बाहर लड़के खेलते थे ख़िज़र ने एक ख़ूबसूरत लड़का पकड़ा और गला घोंट कर या पत्थर से या छुरी से मार डाला। मूसा चिल्लाया, कि तूने नाहक़ बेगुनाह का ख़ून किया। वो कहने लगा, मैंने ना कहा था कि तू मेरे साथ सब्र ना कर सकेगा? तब मूसा ने कहा, माफ़ कीजिए अगर अब के बार बोलूँ तो अपनी सोहबत से निकाल देना। अल-क़िस्सा आगे चले और रात को किसी गांव के क़रीब पहुंचे बस्ती के दरवाज़े बंद हो चुके थे, इसलिए लोगों ने गांव में घुसने ना दिया सारी रात भूके प्यासे बाहर पड़े रहे, वहां शहर-पनाह की एक दीवार पुरानी गिरने पर थी, ख़िज़र ने सारी रात उस की मुरम्मत की। मूसा बोला इस बस्ती वालों ने ना खाना दिया ना अंदर आने दिया और तू ने उनके साथ ये नेक सुलूक किया? ख़िज़र बोला, ये तीसरी अहद शिकनी (वादा खिलाफी) है, अब तू चला जा पर मैं तुझे तीनों बातों का जवाब देता हूँ। वो कश्ती मुहताज व गरीब मल्लाहों की थी और एक बादशाह अच्छी कश्तियां बेगार पकड़ता है, पस मैंने उस कश्ती में ऐब लगा दिया ताकि पकड़े ना जाये और उन की रोज़ी बंद ना हो। और उस लड़के को मैंने इसलिए मारा, कि उस के वालदैन नेक लोग हैं पर ये लड़का शरीर (बुरा) और काफ़िर था बड़ा हो कर वालदैन को भी काफ़िर कर डालता, अगरचे वो मर गया पर उस के एवज़ (बदले में) उस के वालदैन को ख़ुदा और बच्चा देगा। कहते हैं कि उस के वालदैन के एक लड़की उस के एवज़ पैदा हुई और वो एक पैग़म्बर की जोरू (बीबी) बनी और उस की नस्ल से 70 पैग़म्बर निकले। और उस दीवार की मुरम्मत का ये सबब हुआ कि वो घर किसी यतीम का है वहां ख़ज़ाना दफ़न है, अगर वो दीवार गिर जाती ख़ज़ाना खुल जाता तो लोग निकाल लेते, पर ज़रूर था कि उस यतीम को ना मिले जब वो बड़ा हो। पस ये सुनकर मूसा ख़िज़र से जुदा हुआ।

कहते हैं कि ये ख़िज़र अब तक जीता है और क़ियामत तक जियेगा। कभी-कभी वो लोगों को मिला भी करता है। ज़मीन पर फिरता है और पानी में रहता है। इसी वास्ते मुसलमान ख़िज़र के लिए हिन्दुस्तान में मीठा दलिया पका कर पानी में डाला करते हैं और कहते हैं कि, दिल्ली की जामा मस्जिद में जुमा के दिन कभी-कभी मुसलमानों से उन की मुलाक़ात भी हुई थी। पर ये बाअज़ बुज़ुर्गों का क़ौल है कोई मज़्हबी अक़ीदा नहीं है। पर ख़िज़र के क़िस्से ने उन में ये मुहमल (बेमाअ्नी, फ़िज़ूल) ख़्याल पैदा किया है।

बलआम बिन बाऊर

बलआम बाऊर मूसा के अहद (ज़माने) में था। इस्म-ए-आज़म (खुदा का सबसे बड़ा नाम) उसे याद था। जब मूसा बक़सद (इरादे से) जंग जब्बारान विलायत शाम में गए, क़ौम ने बलआम ने कहा, ऐ बलआम, मूसा हमारे क़त्ल के लिए आया है, दुआ कर कि वो वापिस चला जाये। उस ने कहा, कि मैं पैग़म्बर और मोमिनों पर बददुआ क्यूँ-कर करूँ अच्छा इस्तिख़ारा करूँ जैसा मालूम होगा कह दूँगा। जब इस्तिख़ारे में मालूम हुआ कि बददुआ ना कर तो उस की क़ौम उस के पास तोहफ़ा तहाइफ़ लाए और बददुआ की तक्लीफ़ दी वो गधे पर सवार हो कर चला, राह में कई बार गधा ज़मीन पर गिरा उस ने मार-मार कर उसे उठाया, तब ख़ुदा ने गधे को ज़बान दी, वो बोला, ऐ बलआम, तू कहाँ जाता है? देख फ़रिश्ते मुझे फेरते हैं। तब बलआम ने गधा छोड़ दिया और पियादापा (पैदल) हुस्बान के पहाड़ पर चला गया और जब बनी-इस्राईल पर बददुआ करनी चाहता था, ख़ुदा उस की ज़बान के अल्फ़ाज़ पलट देता था ऐसा कि उसी की क़ौम पर बददुआ पड़ती थी और उस के बाद बलआम की ज़बान मुँह से निकल कर उस के सिने पर आ पड़ी। तब वो बोला, दुनिया और आख़िरत मेरी दोनों बर्बाद हुईं। अब एक हीला (बहाना) करना चाहिए, कि तुम अपनी औरतों को आरास्ता सौदा बेचने के हीले (बहाने) से बनी-इस्राईल में भेजो और सिखला दो कि अगर कोई इस्राईली ज़िना करे तो इन्कार ना करें, इस हीले (बहाने) से बनी-इस्राईल बर्बाद होंगे। पस एक औरत किसी बिंत सूर उन औरतों में से जो वहां आएं ज़मज़म बिन शलोम सरदार बनी-इस्राईल को पसंद आ गई, वो उस का हाथ पकड़ कर मूसा के पास ले गया और कहा, ये औरत मुझ पर हराम है या हलाल? मूसा ने कहा हराम है। ज़मज़म बोला मैं इस बात में तुम्हारी इताअत ना करूँगा। फिर ख़ेमे में आया और उस से ज़िना किया तब वबा आई, एक घड़ी में 70 हज़ार मर गए उस वक़्त फ़ीनहास हारून का पोता हर्बा लेकर ज़मज़म के ख़ेमा में आया और ज़मज़म को मए औरत के क़त्ल किया तब वो बला (आफ़त) दफ़ाअ हुई।

ब्याबान का बयाब और मूसा की मौत

जब फ़िरऔन मर गया था, तो अब मूसा में नबुव्वत और सल्तनत दोनों जमा हो गईं थीं। उसे हुक्म हुआ कि फ़ौज बनी-इस्राईल को अरीहा की तरफ़ भेजे और क़ौम अमालिक़ से जंग करके विलावत बैतुल-मुक़द्दस ख़ाली करा ले। मूसा के पास बारह (12) फ़ौजें थीं हर फ़ौज में *120 हज़ार मर्द थे और उस के पास बारह नक़ीब थे, हर फ़ौज का एक नक़ीब या हाकिम था। मूसा सब पर हाकिम था और 36 या 39 बरस हाकिम रहा। उस के पास ना घर था ना सवारी एक पोस्तीन पहनता था और नमदे की टोपी रखता था और कच्चे चमड़े की जूतीयां पैरों में थीं और हाथ में असा था। रात को मुक़ाम करता और दिन को चला करता था। लोग बारी-बारी उस के पास खाना भेजा करते थे। कोई सुबह को और कोई शाम को भेजता था। ख़ुदा ने वाअदा किया था कि अर्ज़ मुक़द्दसा मए सब विलायत के बनी-इस्राईल को दूँगा, मगर उन में उस जगह जब्बार यानी अमालीक़ जो क़ौम आद से थे रहते थे। उनका क़द छ (6) गज़ या 4 सौ गज़ या 18 गज़ या 7 सौ गज़ या 8 सौ गज़ का था। पस जब कि मुल़्क मिस्र बाद हलाकत फ़िरऔन बनी-इस्राईल के क़ब्ज़े में आ गया तो अब जब्बारों से जिहाद करने का हुक्म हुआ। पस मूसा ने हर फ़िर्क़े का एक नक़ीब बुला कर बारह नक़ीब जासूसी को जब्बारों में भेजे। इन बारह (12) जासूसों ने जाकर ऊज बिन अनक़ से मुलाक़ात की और उन के बाग़ों को देखा उन के अंगूरों के ऐसे बड़े बड़े ख़ोशे थे (जो) एक ख़ुशा आदमी से नहीं उठ सकता था और अनार ऐसे थे कि एक अनार के पोस्त में पाँच आदमी समा सकते थे। पस उन जासूसों को पकड़ कर उन्होंने अपने बादशाह के सामने पेश किया। बाअज़ कहते हैं कि ऊज ने इन बारहों (12) को एक हाथ से उठा कर अपनी जोरू (बीबी) के सामने डाल दिया और कहा, ये लोग हमसे लड़ने आए हैं तू क्या कहती है, अगर तू कहे तो इनका आटा बना डालूं? औरत ने कहा, इन्हें दुख ना दे, बल्कि छोड़ दे ताकि अपनी क़ौम में हाज़िर हो कर हमारा ज़िक्र करें और वो सब डर कर चले जाएं। फिर ऊज ने इन्हें एक अनार खाने को दिया कि उस के निस्फ़ से ये बारह (12) सैर होए और निस्फ़ बाक़ी हमराह लेकर लश्कर में आए। पस बारह में से दस (10) ने सबको बेदिल कर दिया और क़ालिब व योशेअ् ने जुर्आत (हिम्मत) दिलाई।

उस शहर से तीन मील के फ़ासिले पर लश्कर मूसा आरास्ता पड़ा था, तब ऊज ने एक पहाड़ पर तीन मील मुरब्बा उखाड़ लिया और बनी-इस्राईल पर डालने को सर पर उठा कर लाया। ख़ुदा ने हुदहुद को हुक्म दिया, उस ने फ़ौरन अपने मिनक़ार से उस पहाड़ में सुराख़ कर दिया। पस वो पहाड़ ऊज की गर्दन में मिस्ल तौक़ के गिर पड़ा, तब ऊज ज़मीन पर गिरा और मूसा ने जो दस गज़ का आदमी था और लाठी भी दस गज़ की रखता था यानी बीस गज़ की बुलंदी तक पहुंच कर ऊज के टख़ने पर लाठी मारी फिर सब बनी-इस्राईल तलवारें लेकर दौड़े और ऊज का सर काटा और उस के पैर की हड्डी यानी नली लेकर रूद-ए-नील पर बतौर पुल के (डाला) कितने ही दिनों के हों बदबू ना करते थे। इस चालीस (40) बरस के अर्से में ना बाल बढ़े ना नाख़ुन ना कपड़े मैले हुए और ना पूराने। बाअज़ आलिम कहते हैं कि बाद चालीस (40) बरस के मूसा बाक़ीमांदा को लेकर उस ज़मीन में दाख़िल हुआ और अरीहा को फ़त्ह किया मगर बाअज़ कहते हैं कि नहीं मूसा और हारून ब्याबान में मर गए और योशेअ उन्हें अर्ज़ मुक़द्दसा में ले गया।

हारून व मूसा की मौत हुई कि एक रोज़ हारून किसी बाग़ में एक तख़्त पर बैठा हुआ कहता था, ऐ भाई मूसा क्या अच्छा मुक़ाम है, फ़ौरन फ़रिश्ते ने आकर उस की जान क़ब्ज़ कर ली और मूसा से हारून तीन चार बरस बड़ा था और एक बरस पहले मरा जब वो मर गया, मूसा ने आकर लोगों से कहा, वो बोले तूने उसे मारा है तब हारून फिर ज़िंदा हुआ और कहा मुझे मूसा ने नहीं मारा मैं अपनी मौत से मरा हूँ पस वो दफ़न किया गया।

फिर जब मूसा की मौत आई और फ़रिश्ता जान लेने आया तो मूसा ने कहा, बग़ैर वसीला फ़रिश्ते के मैं ख़ुदा को जान दूँगा, जैसे बग़ैर वसीला फ़रिश्ते के मुझसे ख़ुदा बातें किया करता है। फिर मूसा ने फ़रिश्ते के मुँह पर तमांचा मारा और वो अंधा हो गया। ख़ुदा ने फिर उसे बीना किया और मूसा कोह-ए-तूर पर गया देखा कि सात (7) आदमी क़ब्र खोद रहे हैं पूछा कि किस के लिए है? वो बोले तुझ जैसे शख़्स के वास्ते है। पस मूसा इस में लेट गया और बोला, क्या अच्छी क़ब्र है, अगर मेरे लिए होती तो ख़ूब था फ़ौरन जिब्रील बहिश्त से एक सेब लाया और मूसा ने सूँघा और जान निकल गई तब फ़रिश्तों ने ग़ुस्ल दिया और दफ़न किया और वो गुर (क़ब्र) आदमीयों से छुपाई कई किसी को मालूम ना हुई। मूसा की उम्र 123 बरस या 130 बरस या 150 बरस या 160 बरस की हुई है।

क़िस्सा इल्यास

इब्ने मसऊद की हदीस से मालूम होता है कि इल्यास नाम है हज़रत यस या हनोक का, मगर दो और अक़्वाल से साबित है कि वो अम्बिया बनी-इस्राईल में से है। इब्ने अब्बास की रिवायत है कि वो एलीशा का चचाज़ाद भाई था। और मुहम्मद इस्हाक़ की रिवायत है कि वो हारून की पुश्त में था। उस का क़िस्सा ये है कि जब हिज़्क़ीएल नबी मर गया और बनी इस्राईल बुत-परस्ती करने लगे उस वक़्त इल्यास उठा। और यह यूं हुआ कि जब योशेअ बिन नून ने मुल्क-ए-शाम को फ़त्ह किया और मुल्क को बनी-इस्राईल के दर्मियान तक़्सीम कर दिया और शहर बअलबक और उस के नवाही (आसपास) में बाअज़ बनी-इस्राईल को जगह दी, तो वो लोग बाअल की परस्तिश करने लगे। बाअल एक बुत था उस की शिकम में शैतान आकर बोला करता था। और एक बादशाह बड़ा बुत-परस्त वहां था, उस की जोरू (बीबी) भी बड़ी बुत-परस्त औरत थी। सात (7) बादशाह उस के ख़सम (शौहर) हो चुके थे, उस ने सबको मारा था, और वो 70 लड़के जनी थी, तो भी ज़िनाखोर थी। बहुत से पैग़म्बरों को भी उस ने मारा था और यहया बिन ज़करीया को जो ईसा के अहद में था इसी औरत ने मारा था (ये औरत ईज़बिल अख़्याब की जोरू से मुराद है) इस औरत के घर के पास एक अच्छा बाग़ था, किसी भले आदमी का औरत चाहती थी कि वो बाग़ ले, पर उस का मालिक ना देता था, इसलिए वो उसे क़त्ल करना चाहती थी मगर बादशाह मना करता था। जब बादशाह किसी सफ़र को गया पीछे औरत ने उसे क़त्ल किया और बाग़ ले लिया बादशाह आकर अगरचे नाराज़ हुआ तो भी दरगुज़र की ख़ुदा ने इल्यास से कहा, अगर बादशाह और उस की जोरू (बीबी) तौबा करें और बाग़ उस के वारिसों को दें तो बेहतर है, वर्ना मैं इन दोनों को हलाक करूँगा। जब इल्यास ने ये बात बादशाह को सुनाई तो वो नाराज़ हुआ और इल्यास को दुख देना चाहा। पस इल्यास पहाड़ों की तरफ़ भाग गया और नबातात खाता रहा सात (7) बरस बाद फिर आया। कहते हैं कि बादशाह का लड़का ऐसा बीमार हुआ कि मरने के क़रीब पहुंचा तब उस ने चार सौ (400) बाअल के पैग़म्बरों को बाअल के पास दुआ के वास्ते भेजा, बाअल परस्त (यानी बाअल बुत की इबादत करने वाले) कहने लगे, कि तेरी दुआ बाअल ना सुनेगा, तूने इल्यास को क़त्ल नहीं किया है। बादशाह ने कहा, मैं तो इल्यास को तलाश करने जाता हूँ तुम दुआ करने को बाअल के पास जाओ। पस तलाश करते करते लोगों ने इल्यास को पहाड़ पर बैठा पाया और फ़रेब से बुलाने लगे ताकि पकड़ लें। इल्यास ने बददुआ की पस उन पचास (50) आदमीयों को आग खा गई। दूसरी बार पचास (50) आदमी बुलाने आए उन को भी आग ने खाया। फिर बादशाह ने कहा, क्या करूँ लड़के की बीमारी के सबब मैं ख़ुद जा नहीं सकता कि वो किस तरह आए। अच्छा यूं करें कि उस ईमानदार शख़्स को जो उस की जोरू (बीबी) का वज़ीर था भेजें शायद वो उस के साथ आए। पस फ़रेब से वज़ीर पर ज़ाहिर किया अब तो मैं भी लाचार हूँ इसलिए इल्यास पर ईमान लाता हूँ तू उसे जाकर ला। वह गया और इल्यास को लाया जब बादशाह के सामने आया उस वक़्त लड़का मर गया। बादशाह और सब लोग ग़म में मुब्तला हो गए। इल्यास सिर्फ़ शक्ल दिखला कर फिर पहाड़ पर चला गया। जब ग़म तमाम हुआ बादशाह ने इल्यास को याद किया ताकि मारे। मोमिन ने कहा, वो तो चला गया। पस बादशाह अफ़्सोस करके रह गया और इस का ख़्याल छोड़ दिया।

मुद्दत बाद इल्यास अपनी मर्ज़ी से फिर आया और एक औरत के पास जो यूनुस पैग़म्बर की वालिदा थी छः (6) महीने पोशीदा रहा। उन्हीं दिनों में यूनुस तव्वुलुद (पैदा) हुआ था और इल्यास पहाड़ों का रहने वाला, घर में छिपा-छिपा तंग आ गया था, इसलिए वो फिर पहाड़ पर चला गया। इस अर्से में यूनुस लड़का मर गया, तब उस की माँ इल्यास को पहाड़ों में से तलाश करके लाई, कि बाहर चल के तुम अपने बुतों से और मैं ख़ुदा से दुआ करूँ ताकि सच्चाई और किज़्ब (झूठे) मज़्हबों की हक़ीक़त ज़ाहिर हो जाए।

पस बाहर गए और अव़्वल उन्होंने बुतों से दुआ की, मगर पानी ना बरसा तब इल्यास ने ख़ुदा से दुआ की और एक छोटा सा बादल समुंद्र की तरफ़ से उठा और पानी बरसा तो भी वो ईमान ना लाए। तब इल्यास ने दुआ की कि मुझे दुनिया से उठा ले, ख़ुदा ने उस के उठाने की जगह और वक़्त मुक़र्रर करके उसे बुलाया और एक आग का घोड़ा या कोई और सवारी वहां भेजी, उस पर इल्यास चढ़ कर आस्मान को चला, तब इलीशा चिल्लाया और इल्यास ने चादर उस के लिए ऊपर डाल दी और यूं उस को ख़लीफ़ा बनाया। फिर ख़ुदा ने उस बादशाह का एक दुश्मन भेजा, जिसने उस को और उस की जोरू (बीबी) को क़त्ल किया।

ख़ुदा ने इल्यास की सब इन्सानी ख़्वाहिशें दूर कीं। अब वो आदमी भी है और फ़रिश्ता भी है और वो ज़मीनी भी है और आस्मानी भी है। उस में दो माहीयतें जमा हो गईं हैं और इल्यास जंगलों और बियाबानों पर ख़ुदा की तरफ़ से अब हुकूमत करता है और ख़िज़र दरियाओं का हाकिम है और यह दोनों शख़्स माह रमज़ान के रोज़े बैतुल-मुक़द्दस में आकर रखा करते हैं और हर बरस मक्का में जा कर हज करते हैं और इल्यास व खिज़र एक दूसरे से इल्मी फ़ायदा भी उठाया करते हैं और अच्छे-अच्छे मुहम्मदी लोग इनसे कभी-कभी मुलाक़ात भी किया करते थे।

यूनुस का क़िस्सा

यूनुस हूद की औलाद में से था और उस की माँ बनी-इस्राईल में से थी। बाअज़ कहते हैं कि यूनुस अपनी माँ की तरफ़ मंसूब है और बाप उस का फ़िर्क़ा लावी में से था। तारीख़ इब्ने शख़ना (ابن شخنہ) में लिखा है कि, मत्ता उस की माँ थी। बाअज़ कहते हैं कि मत्ता उस का बाप था। ख़ुदा ने उसे रिसालत बख़्शी और नैनवा शहर में भेजा, उस ने वहां जाकर मुद्दत तक वाअज़ नसीहत की लोगों ने ना माना और दुख दिया। उस ने तंग आकर कहा, ऐ ख़ुदा, इन पर अज़ाब नाज़िल कर। ख़ुदा ने कहा, अच्छा तू शहर में ख़बर कर दे कि तीन (3) रोज़ या चालीस (40) रोज़ बाद अज़ाब आएगा। पस यूनुस ये ख़बर सुना कर पहाड़ में जा छिपा। जब वक़्त मौऊद (वादे का वक़्त) आया, ख़ुदा ने मालिक दोज़ख़ से कहा, कि एक जो के बराबर दोज़ख़ की हवा अहले-नैनवा पर जाने दे, पस उस ने जाने दी। जब शहर उस आतिश-बार हवा से घिर गया तो लोग समझ गए, कि ये वही अज़ाब आया जिसकी ख़बर यूनुस दे गया है। बादशाह आक़िल (अक़्लमंद) था यूनुस को तलाश कराया पर वो ना मिला, तब सब लोग मए बादशाह टाट का लिबास पहन कर भूके प्यासे जंगल में रोते हुए निकले और तौबा की यक्म ज़िलहिज्जा (ذالحجہ) से दसवीं मुहर्रम तक रोते रहे, आख़िरकार जुमे का दिन था, कि दुआ क़ुबूल हुई और वो अब्र (बादल) दफ़ाअ हुआ।

बाद चालीस यौम (40 दिन) के यूनुस पहाड़ से निकला तो उसे मालूम हुआ कि अज़ाब रहमत से बदल गया। पस उसे शहर में जाने से शर्म आई, कि लोग मुझे झूटा बतलाएंगे कि उस के कहने के मुवाफ़िक़ अज़ाब ना आया। तब उस ने जंगल की राह ली जब किनारे दरिया पर पहुंचा तो एक ऐसी मौज पानी की आई कि यूनुस की जोरू (बीबी) और एक बेटा पानी में बह गए। एक बेटा बाक़ी था कि उसे भेड़िया खा गया। अब वो अकेला रह गया पस सौदागरों के साथ कश्ती में सवार हुआ, जब दरिया के बीच में आया तो वहां कश्ती ठहर गई मल्लाह बोले कि कोई फ़रारी ग़ुलाम इस कश्ती में है, इसलिए कश्ती नहीं चलती। पस यूनुस बोला, मैं भागा हुआ ग़ुलाम हूँ। और इस क़ौम का दस्तूर था कि भागे हुए ग़ुलाम को दरिया में डुबोया करते थे, इसलिए यूनुस को दरिया में डाला और मछली ने निगल लिया। 4 घड़ी या एक दिन या 3 रोज़ या 7 रोज़ या 40 रोज़ या छः (6) महीने या 7 बरस मछली के शिकम में रहा, जैसे बच्चे माँ के शिकम (पेट) में रहा करते हैं और ख़ुदा ने मछली का बदन मिस्ल शीशे के शफ़्फ़ाफ़ कर दिया था और वो मछली सातों समुंद्रों में फिरी, यूनुस ने ख़ूब अजाइब ग़राइब समुंद्रों को मुलाहिज़ा किए और मछली यूनुस को चह हज़ार बरस की राह तक ले गई या सातवीं ज़मीन के नीचे तक गई पर यूनुस ज़िक्र ईलाही करता रहा, जब वक़्त पूरा हुआ मछली ने जंगल में उसे उगल दिया वो बहुत ना-ताक़त (कमज़ोर) था उसे धूप बुरी लगी, तब ख़ुदा ने एक अरंडी का दरख़्त उस पर उगाया और हिरनी को हुक्म हुआ वो आकर अपने पिस्तान से उसे (दूध) पिलाती थी, क्योंकि वो मिस्ल बच्चे के पैदा हुआ था। आख़िर को मज़्बूत हुआ और एक रोज़ सो गया जब उठा तो देखा कि दरख़्त सूख गया है बड़ा ग़मगीं हुआ ख़ुदा ने कहा, दरख़्त के लिए ऐसा ग़म करता है और इतने हज़ार आदमीयों के लिए तूने बददुआ की थी।

अल-क़िस्सा फिर ख़ुदा ने उसे नैनवा को भेजा लोग उसे देखकर बहुत ख़ुश हुए और ईमान लाए ये लोग एक लाख बीस हज़ार या एक लाख सत्तर हज़ार थे वो वहां रहा आख़िर को मर गया उस की क़ब्र कूफ़ा में है।

तालूत व जालूत का क़िस्सा

तालूत साऊल को और जालूत जोलियत फ़िलिस्ती को कहते हैं। मूसा की मौत के बाद बनी-इस्राईल ने अपने वक़्त के पैग़म्बर शमूएल यानी समूएल से कहा, हमारे दर्मियान तू एक बादशाह मुक़र्रर कर, ताकि हम उस की मदद से क़ौम जालूत यानी अमालिक़ से जिहाद करें। ये दरख़्वास्त इसलिए कि उन के दर्मियान उस वक़्त कोई बादशाह ना रहा था। समूएल बोला शायद तुम पर जिहाद फ़र्ज़ हो जाए और तुम ना करके हलाक हो जाओ। वो कहने लगे, ये किस तरह हो सकता है? जब कि क़ौम जालूत ने हमें लूटा और बर्बाद कर दिया है। हदीस में है कि, क़ौम जालूत ने 4040 नफ़र बनी-इस्राईल के क़ैद कर लिए थे। पस समूएल ने दुआ की ख़ुदा ने एक लाठी और बर्तन में तेल भेज दिया और कहा, कि जो लोग तेरे घर में आएं और यह तेल किसी को देखकर जोश मारे और यह लाठी उस के क़द के बराबर हो तो उसे बनी-इस्राईल का बादशाह कर देना। जब उस के पास एक शख़्स तालूत क़ौम का कि टेक या सक़ा आया उस पर तेल ने जोश मारा और लाठी उस के कद के बराबर निकली, वो बहुत ख़ूबसूरत और क़द आवर था, बनी-इस्राईल उस की बादशाहत से नाराज़ हुए, क्योंकि वो शख़्स बिनियामीन के फ़िर्क़े से ग़रीब आदमी था ना यहूदा के फ़िर्क़े से जिसमें बादशाहत आती थी।

बनी-इस्राईल ने कहा, अगरचे तेल ने जोश मारा और लाठी बराबर निकली तो भी कोई और अलामत हमें ख़ुदा से दिलवा, जिससे हम कामिल यक़ीन करें कि तालूत बादशाह है। समुएल बोला, दूसरी अलामत ये है कि ताबूत जो अब यहां नहीं है वो तुम्हारे पास आ जाएगा। ताबूत कहते हैं ख़ुदावन्द के संदूक़ को जिसे क़ौम अमालिक़ बनी-इस्राईल से छीन कर ले गए थे उस में मूसा की जूतीयां थीं और हारून की पगड़ी और थोड़े से मन व सलवा और उन तख़्तीयों के संग-रेज़े जिन्हें मूसा तूर से लाया था। जब अमालिक़ उसे ले गए जहां ले जाते थे आफ़त आती थी, उन्होंने चाहा कि जला दें उसे आग ना लगी, चाहा तोड़ डालें टूट ना सका। आख़िर उन्होंने किसी नापाक जगह में दफ़न कर दिया और वहां पेशाब करने आते थे, जब कोई वहां पेशाब करने आता उसे बवासीर हो जाती थी। इसलिए अमालिक़ ने उसे वहां से निकाल कर एक गाड़ी में रखा और दो बैल जोत कर जंगल की तरफ़ अकेला हाँक दिया। सो वो समुएल के पास आ गया, तब बनी-इस्राईल को यक़ीन हुआ कि तालूत बादशाह है।

मुसलमान कहते हैं कि वो ताबूत अब दरिया तबरियह में रखा है, क़ियामत से पहले निकलेगा। पस तालूत ने बाद बादशाही के, सत्तर (70) हज़ार बनी-इस्राईल लेकर अमालिक़ से जिहाद किया गया। शहर अरून और फ़िलिस्तीन के दर्मियान बड़ी गर्म हवा चली और लोगों को बहुत प्यास लगी, तालूत ने लश्कर से कहा, ख़ुदा तआला एक नदी पानी की ज़ाहिर किया (करना) चाहता है, उस में से जो कोई एक कफ़-ए-दस्त (हाथ की हथेली के बराबर) पानी पिएगा वो मोमिन है, और जो दो कफ़ दस्त से पिएगा वो बेईमान है। ख़बरदार हो जाओ, कि ये ख़ुदा की तरफ़ से आज़माईश है पस 213 शख़्स ने यक कफ़-ए-दस्त पिया और सैर हुए, मगर सबने ज़्यादा पिया और उन की ज़बानें स्याह हो गईं और ना प्यास बुझी। पार उतरे जिन्हों ने ज़्यादा पानी पिया था क़ौम जालूत से डर गए, पर जिन्हों ने थोड़ा पिया था मुस्तइद और तैयार है। जालूत एक आदमी था बड़ा ज़ोर वाला और उस के हथियार बारह (12) मन लोहे के थे और उस का ख़ूद तीन मन लोहे का था और सात (7) हज़ार उस के साथ थे बनी-इस्राईल उस से डर गए आख़िर उस को दाऊद ने मारा।

दाऊद का अहवाल

दाऊद पैग़म्बर यहूदा की नौवीं (9वीं) पुश्त में था और दाऊद का बाप तालूत के लश्कर में मए अपने छः (6) बेटों के हाज़िर था, मगर दाऊद जो सबसे छोटा था बकरीयां चराता था। ख़ुदा ने बनी-इस्राईल को ख़बर दी कि ये जालूत मर्दूद, दाऊद के हाथ से मारा जाएगा। पस बनी-इस्राईल ने दाऊद को बुलाया, जब वो आया राह में तीन पत्थरों ने दाऊद से बात कही, कि ऐ दाऊद ! तू हम से जालूत को मारेगा। पस दाऊद ने वो पत्थर उठा कर तोबरे में रख लिए और सफ़ जंग में आकर, फ़लाख़न में रखकर जालूत के मारे, उस का सर टूट गया और क़ौम जालूत भाग निकली।

तालूत ने शर्त की थी जो कोई जालूत को मारे, मैं उसे अपनी बेटी दूँगा और निस्फ़ सल्तनत भी बख़्शूंगा। पस दाऊद को उस की बेटी और निस्फ़ सल्तनत मिल गई। इस के बाद सारी सल्तनत उस की हो गई। बाद सल्तनत के ख़ुदा ने दाऊद को रिसालत भी दी और किताब ज़बूर यूनानी ज़बान में उसे मर्हमत हुई। उस किताब में नवाही व अवामिर (यानी शरीअत) नहीं हैं सिर्फ हम्दो सना वाअ्ज़ नसीहत और हज़रत मुहम्मद की तारीफ़ और मुसलमानों की सताइश लिखी है। (एसा मुस्लिमानों का कहना है) दाऊद पैग़म्बर मूसा की शरीअत पर चलता था। तफ़्सीर बहर-उल-मवाज और ज़ाहिदी में लिखा है कि :-

“हज़रत ईसा तक चार (4) हज़ार पैग़म्बर जो आए सब के सब एक ही शरीअत यानी तौरेत पर चलते थे। अपनी जुदा-जुदा शरीअत ना लाए थे।”

दाऊद के हाथ में ख़ुदा ने ऐसी क़ुदरत दी थी कि लोहा उस के हाथ में मोम हो जाता था और वो रोज़ एक ज़र्रा बनाता था और छः (6) हज़ार दिरहम को फ़रोख़्त (बेचा) करता था। उन में से चार (4) हज़ार दिरहम ख़ैरात देता था और दो (2) हज़ार से आल व औलाद की परवरिश करता था। वो ऐसा ख़ुश-आवाज़ था कि जब ज़बूर पढ़ता दरिंदे परिंदे और वहूश (वहशी की जमा, जंगली जानवर) भी जमा हो कर सुनते थे और मुज़्तरिब (बेक़रार) हो जाते थे, बल्कि जानवर भी उस के साथ गाने लगते थे और दरिया व हवा ठहर जाती थी और जब वो चाहता था तो पहाड़ भी उस के साथ चलते थे। 99 औरतें उस की जोरूं (बीबी) थीं और 300 लौंडियां भी उस के पास थीं तो भी उस ने ऊरियाह की जोरू (बीबी) को ले लिया। और क़िस्सा यूं था कि एक औरत से ऊरियाह ने मंगनी की थी उस की मंगनी पर दाऊद ने भी उस की दरख़्वास्त की और उस से निकाह कर लिया, इसलिए ख़ुदा नाराज़ हुआ कि तूने दूसरे की मंगनी क्यों छीन ली। इस क़िस्से में उलमा मुहम्मदिया की तरह बतरह की रिवायतें हैं, चूँकि वो रिवायतें अक़्ल और शराअ के बरख़िलाफ़ हैं इसलिए ये रिवायत कि मंगनी थी मुहम्मदियों ने क़ुबूल की है ताकि दाऊद पर ऐब ना लगे, तो भी इक़रार करते हैं कि हमारे पास और तरह की भी रिवायतें आईं हैं जो हमारी अक़्ल और शराअ क़ुबूल नहीं करती दुनियावी वाक़ियात भी चाहे कि उन की शराअ (शरीअत) अक़्ल के बरख़िलाफ़ वाक़ेअ ना हों।

पस ख़ुदा ने दो फ़रिश्ते उस के पास भेजे वो आकर बोले कि हमारे दर्मियान इन्साफ़ कर। ये मेरा भाई है इस के पास 99 भेड़ें हैं और मेरे पास एक भेड़ थी इसने वो भी छीन ली, तो दाऊद बोला इसने ज़ुल्म किया है पस फ़रिश्ते फ़ौरन ग़ायब हो गए। दाऊद समझा कि मेरा इम्तिहान किया गया, रोने लगा चालीस (40) बरस या चालीस दिन रोता रहा तब ख़ुदा ने उसे बख़्शा। (यानी मुआफ किया) दाऊद के ज़माने में जुमा के दिन इबादत करना यहूद पर वाजिब था, पर उन्होंने क़ुबूल ना किया हफ़्ते के रोज़ इबादत करने लगे और हुक्म था कि उस रोज़ मछली का शिकार ना करें, पर बाअज़ लोग करते रहे इसलिए ख़ुदा ने उन्हें बंदर बना दिया तीन रोज़ बंदर रहे फिर मर गए। बाअज़ कहते हैं कि बंदर की नस्ल उन्हीं से अब तक जारी है।

सुलेमान का क़िस्सा

जब दाऊद बूढ़ा हुआ, जिब्राईल एक संदूक़ उस के पास लाया और कहा, जो कोई तेरे बेटों में (जो) 19 हैं, ये बतलाए कि इस संदूक़ में क्या है, वही बादशाह होगा। पस कोई लड़का ना बतला सका मगर सुलेमान ने कहा, इस में एक अंगुश्तरी है और एक कोड़ा है और एक चिठ्ठी है, जो कोई इस अंगुश्तरी को पहनेगा उस में सब तरह की क़ुदरत होगी और इस कोड़े से हुकूमत करेगा और चिठ्ठी में पाँच सवाल हैं, जो उनका जवाब देगा वो बादशाह है। पस संदूक़ खोला तो यही निकला और सुलेमान ने पाँच जवाब भी दीए तब वो बादशाह हुआ और दाऊद मर गया उस की उम्र 170 बरस की हुई। जब सुलेमान वो अंगुश्तरी पहन कर बादशाह हुआ तो सब आदमी और जिन्न व परियां और सब जानवर बल्कि हवा और दरिया भी उस के मुतीअ हो गए। समुंद्र और ज़मीन ने अपने सब खज़ाने उस को बतला दीए, जिन्नात ने उन को जमा किया और वो सारी ज़मीन का बादशाह हुआ। वो जानवर की आवाज़ भी समझता था और कोई चीज़ उस से पोशीदा ना थी। उस के पास शीशे के हज़ार मकान थे, जिनमें तीन सौ (300) औरतें ख़ूबसूरत उस की जोरूं (बीबीयां) थीं और सात सूबा नदियाँ और ग़ुलाम थे। उस के पास सारी दुनिया की शानो-शौकत बदर्जा कमाल मौजूद थी और दरियाई घोड़े जिनके पर थे जिन्नात उस के लिए समुंद्रों में से लाए थे। एक रोज़ सूरज ग़ुरूब हो गया और वो घुड़-दौड़ के तमाशे में नमाज़ अदा ना कर सका। पस सुलेमान ने उन फ़रिश्तों को जो सूरज पर हाकिम हैं फ़रमाया, तब उन्हों ने सूरज को उल्टा हटाया और उस ने नमाज़ पढ़ी और वो सब घोड़े क़ुर्बान कर डाले। सुलेमान का लश्कर सौ फ़र्सख़ मुरब्बा में ख़ेमा-ज़न होता था 25 फ़र्सख़ में आदमीयों की और 25 में जिन्नात की और 25 में परिंदों की और 25 में दरिंदों की फ़ौजें पड़ती थीं।

उस के पास एक अजीब क़ुदरत का तख़्त भी था और ऐसी ऐसी चीज़ें थीं जिनका ज़िक्र इस मुख़्तसर में नहीं हो सकता।

सुलेमान की ख़िदमत में एक हुदहुद भी था एक रोज़ा वो ग़ायब रहा ख़िदमत में ना आया सुलेमान उस पर ख़फ़ा हुआ, उस (हुदहुद) ने कहा, कि मैं मुल्क यमन में गया था वहां एक औरत बिल्क़ीस नाम मलिका है, उस की शान शौकत बड़ी है और वो सूरज परस्त है। उस के मुल्क की सैर में मुझे देर लगी। पस सुलेमान ने एक ख़त लिखा बिस्मिल्लाह अल-रहमान अल-रहीम (بسم اللہ الرحمن الرحیم) ऐ बिल्क़ीस ! मेरे ऊपर फ़ौक़ियत का दाअवा ना कर, बल्कि मुसलमान हो कर मेरी ख़िदमत में हाज़िर हो और यह ख़त हुदहुद के मिनक़ार (चोंच) में देकर बिल्क़ीस की तरफ़ भेजा, हुदहुद ने जाकर बिल्क़ीस को दिया, उस ने पढ़ कर अरकान-ए-दौलत से सलाह की वो लोग जंग पर आमादा हुए पर बिल्क़ीस ने जंग करना ना चाहा, बल्कि बहुत से तोहफ़े तहाइफ़ अजीब ग़रीब जो यहां बयान नहीं हो सकते उस की तरफ़ भेजे और आप पीछे से आती थी। जब वो तहाइफ़ लेकर वकील आए सुलेमान उन से मिला और अपनी शान शौकत उन्हें दिखलाई, लोगों ने सुलेमान से कहा, बिल्क़ीस कम-अक़्ल और बद-शक्ल है, तू उस पर तवज्जोह ना कर। पर उस ने हुक्म दिया कि बिल्क़ीस की हाज़िरी के पहले उस का तख़्त उठाकर लाया जाये। पस जिन्नात जल्दी जाकर उसे उठा लाए और बिल्क़ीस पीछे हाज़िर हुई और मुसलमान हो गई। सुलेमान ने उसे ग़ुस्ल दिलाया और निकाह किया और उस का मुल्क उसे बख़्श दिया। हर महीने में एक बार उस के मुल्क में जाता था और तीन रोज़ उस के साथ रहता था और उस से लड़का भी पैदा हुआ था। बाअज़ कहते हैं आपने निकाह नहीं किया, हमदान के बादशाह से उस का निकाह करा दिया था। फिर कहते हैं कि किसी जज़ीरे में कोई काफ़िर बादशाह था सुलेमान ने उसे क़त्ल किया और उस की ख़ूबसूरत लड़की मुसलमान करके निकाह में लाया, वो लड़की अपने बाप को याद करके रोया करती थी। पस सुलेमान ने उस का दिल बहलाने को उस के बाप की तस्वीर बनवाई, ताकि वो औरत देखे और तसल्ली पाए। पर वो मए अपनी सहेलियों के सुलेमान से पोशीदा इस तस्वीर को पूजने लगी। आसिफ़ को जो सुलेमान का वज़ीर था ख़बर हो गई, उसने सुलेमान से कहा, पस सुलेमान ने फ़ौरन इस तस्वीर को तोड़ डाला और उस औरत को लातें मार कर तंबीया दी और रोता हुआ जंगल को निकल गया। सुलेमान की आदत थी कि वो अंगुश्तरी तहारत के वक़्त अपने बेटे उमीना के सपुर्द करता था। एक रोज़ वो अंगुश्तरी उस लड़के के पास थी, कि सखरा नाम जिन्न बशक्ल सुलेमान आया और उस से अंगुश्तरी मांग कर पहन ली और बादशाह हो गया। अब उस का हुक्म मिस्ल सुलेमान के जारी हुआ और सुलेमान फ़क़ीर हो कर भीक मांगने लगा, जब लोगों से कहता कि मैं सुलेमान हूँ, वो उस को गालियां दिया करते थे और ख़ाक डालते थे। आख़िर को एक माहीगीर का नौकर हो गया और वो हर रोज़ उसे दो मछलियाँ दिया करता था। चूँकि चालीस (40) रोज़ उस तस्वीर की परस्तिश (इबादत) उस के घर में हुई थी, इसलिए चालीस दिन सुलेमान का ये हाल रहा। बाद इस के वो सखरा जिन्न उस अंगुश्तरी को दरिया में डाल कर उड़ गया, मछली ने अंगुश्तरी को निगल लिया और वो मछली माहीगीर ने पकड़ कर सुलेमान के हिस्से में दी, उसे चीर कर अंगुश्तरी निकाली और फिर उरूज हुआ। पर कहते हैं कि सुलेमान सब पैग़म्बरों से पाँच सौ (500) या चालीस (40) बरस बाद बहिश्त (जन्नत) में जाएगा, क्योंकि उस ने दुनियावी शान शौकत बहुत हासिल की थी और हज़रत मुहम्मद सब पैग़म्बरों से पहले बहिश्त (जन्नत) में जाऐंगे, क्योंकि वो फ़क़ीर थे। फिर कहते हैं कि बैतुल-मुक़द्दस की इमारत पहले दाऊद ने शुरू की मगर क़ब्ल अज़-तमाम इंतिक़ाल हो गया। फिर सुलेमान ने उस की तैयारी में बड़ी कोशिश की और कई हज़ार आदमी लगा कर ज़र कसीर से सात बरस तक बनाया, अभी तैयार ना हुई थी कि उस की मौत आ गई। पस उस की लाश को ग़ुस्ल और कफ़न देकर लाठी के सहारे बैतुल-मुक़द्दस में खड़ा कर दिया, जिन्नात ने समझा कि वो इबादत में है, इसलिए सब काम में मशग़ूल रहे और वो एक साल तक खड़ा रहा आख़िर दीमक ने लाठी को ख़ालिया और लाश गिर पड़ी, तब जिन्नात भाग गए और बैत-उल-मुक़द्दस तैयार हो गई, मगर बुख़्तनज़र ने उसे बर्बाद कर दिया। सुलेमान की उम्र 153 या 180 बरस की हुई उस की क़ब्र बैतुल-मुक़द्दस में है।

ज़करीयाह और यहया का क़िस्सा

ज़करीया, यहया या यूहन्ना इस्तिबाग़ी का बाप सुलेमान बिन दाऊद की औलाद से था और बड़ा पैग़म्बर और बैत-उल-मुक़द्दस के अहबारों का सरदार था। (वाज़ेह हो कि, वो औलाद दाऊद से ना था, बल्कि हारून में से एक काहिन था) उस की उम्र 60 या 70 या 75 या 85 या 120 या 99 या 93 बरस की थी और उस की जोरू (बीवी) 80 या 98 बरस की थी। एक एक रोज़ बैतुल-मुक़द्दस के मेहराब में क़ुर्बानी चढ़ा कर दुआ करता था, कि “ऐ ख़ुदा मैं बूढ़ा हूँ और मेरी जोरू (बीबी) बाँझ है और औलाद नहीं है तू मुझे एक बेटा इनायत कर जो उमूर दुनिया व दीन में मेरा जांनशीन (वारिस) हो।” दुआ क़ुबूल हुई और ख़ुदा ने कहा, “तेरे बेटा होगा उस का नाम यहया रखना।” उस ने ख़ुदा से अलामत मांगी ख़ुदा ने कहा, तीन रोज़ तू बोल ना सकेगा, इसलिए उस की ज़बान तीन रोज़ बंद रही आख़िर को खुल गई और 9 महीने के बाद लड़का हुआ। वो टाट का लिबास पहनता और रियाज़त करता और बहुत रोता था, इसलिए ज़करीयाह उस के सामने वाअज़ नसीहत भी ना सुनाता था कि उस का ग़म ज़्यादा ना हो। एक रोज़ ज़करीयाह समझा कि वो मजलिस में नहीं है और दोज़ख़ का बयान सुनाया, यहया जो गोशे में बैठा था चीख़ें मारता हुआ जंगल में भागा, दिन-भर पहाड़ों में रोता, रात को किसी ग़ार में आ सोता था। किसी चरवाहे के बतलाने से उस की वालिदा वहां जाकर मिली, वो उसे देखकर भागने लगा तब माँ ने हक़ शीर (दूध पिलाने का हक़) साबित किया तब वो उस से मिला।

इस अर्से में बनी-इस्राईल शरीर (बुरे, बेदीन) हो गए, ज़करीयाह उन्हें नसीहत करता था पर वो ना मानते थे, बल्कि उस के दुश्मन हो गए थे और उसे क़त्ल करना चाहते थे। पस ज़करीया उन के सामने से भागा और इस्राईली लोग उस के पीछे दौड़े, राह में एक दरख़्त ज़करीयाह के छुपाने को फिट किया और ज़करीयाह उस में घुस गया, शैतान ने कुफ़्फ़ार से कहा, ज़करीयाह इस दरख़्त में है, पस उन्हों ने आरी से चीरा जब उस के सर पर आरा चला उस ने आह मारी, ख़ुदा ने कहा, अगर फिर मारेगा तो पैग़म्बर में से तेरा नाम काट डालूँगा। पस वो चुप-चाप चीरा गया उस की उम्र उस वक़्त 300 बरस की थी।

फिर बनी-इस्राईल में एक बादशाह था, उस के एक मलिका थी और उस मलिका की बेटी थी। पहले ख़सम (शौहर) से मलिका चाहती थी कि अपनी बेटी भी अपने हाल के ख़सम (शौहर) की जोरू (बीबी) बना दे। यहया ने इस हरकत से उसे मना किया, इसलिए बादशाह ने मलिका के कहने से उस की गर्दन में एक रस्सी बांध कर हाज़िर कराया और सर काट लिया। वो सर भी कटा हुआ बोलता था कि जोरू (बीबी) की बेटी से निकाह करना ना चाहिए। कहते हैं कि मलिका को शेर खा गया और बादशाह भी मए अपनी क़ौम के शेरों से हलाक हुआ। बाअज़ कहते हैं कि नहीं, अपने भाई की बेटी पर आशिक़ हो गया था यहया की उम्र 75 बरस की हुई और दमिशक़ की जामा मस्जिद में उस की क़ब्र है।

मर्यम और मसीह के तव्वुलुद (पैदाइश)

का अहवाल

मर्यम सुलेमान की 17 या 18 पुश्त में थी। उस की माँ एक ज़ाहिदा (इबादत गुज़ार) औरत थी, जिसका नाम हन्ना था और उस का शौहर इमरान (عمران) था। जब हन्ना हामिला हुई, तो उस ने नज़र (मन्नत) मानी, कि जो बच्चा पैदा होगा वो बैतुल-मुक़द्दस की ख़िदमत करेगा। पस उस के मर्यम लड़की पैदा हुई। मर्यम के मअनी हैं ख़ुदा की बांदी या आबिदा। हन्ना उसे कपड़े में लपेट कर बैतुल-मुक़द्दस में लाई, ज़करीया ने उस की परवरिश की और वो बैतुल-मुक़द्दस की ख़ादिमा हुई और मर्यम की बहन या ख़ाला ज़करीया की जोरू (बीबी) थी। अगरचे उस वक़्त बैतुल-मुक़द्दस की खाकरूबी (खिदमत) 4 हज़ार आदमी करते थे और मर्यम भी उन में से एक थी, तो भी ख़ुदा ने मर्यम को ऐसा क़ुबूल किया कि उस का नाम क़ियामत तक जारी रहेगा। वो 10 या 13 बरस की थी कि जिब्राईल ने आकर फ़र्ज़न्द (लड़के) की बशारत दी और कहा, क़ुदरत एज़दी से बिला (बगैर) शौहर तेरे फ़र्ज़न्द पैदा होगा। उसी वक़्त से वो हामिला हुई और हमल की ख़बर ज़करीया को मिली, वो मुतअज्जिब (हैरान) हुआ कि वो बिला (बगैर) शौहर किस तरह हामिला है? ज़करीया की औरत ने कहा, उस के शिकम (पेट) से हज़रत यहया थे। पस ज़करीया की औरत के शिकम (पेट) वाले बच्चे ने मर्यम के शिकम वाले बच्चे को सज्दा किया और तवाज़ेह से झुका इसलिए उस ने इस की तारीफ़ की। पस मर्यम या तो जंगल को निकल गई या शहर एलियाह जो 6 कोस बैतुल-मुक़द्दस से है वहां गई और इस ख़्याल से कि लोग मुझे इत्तिहाम (तोहमत, इल्ज़ाम) करेंगे, ग़म-ज़दा हो कर मौत की आरज़ू करने लगी। तब दर्दज़ह हो गया और दरख़्त ख़ुरमा जो ख़ुश्क था, ताज़ा हुआ और एक चशमा पानी का जारी हुआ। लोगों ने जब देखा कि बैतुल-मुक़द्दस में मर्यम नहीं है, तो उस की तलाश में पता लगा कर उसी जगह आ पहुंचे और मर्यम को मए लड़के के वहां पाया और कहा, “ऐ मर्यम इमरान की बेटी ! हारून की बहन, तेरी माँ ज़िनाकार ना थी, तूने ये क्या किया? मर्यम ना बोली, बल्कि इशारा किया कि इस लड़के से पूछो। पस बच्चे ने जवाब दिया, कि मैं ख़ुदा का बंदा हूँ, ख़ुदा ने मुझे इन्जील देकर पैग़म्बर किया है और मुझे बाबरकत बनाया है और मुझे नमाज़ और ज़कात देने का हुक्म दिया है, जब तक मैं जीता हूँ और मुझे ख़ुदा ने नेकोकार बनाया है और गर्दनकश नहीं बनाया है।” पस लोगों ने जब ये मोअजिज़ा देखा तो क़ुदरत ईलाही से हैरान हो गए। उस वक़्त ईसा की उम्र एक दिन या 40 दिन की थी और वो एक दफ़ाअ बातें करके फिर चुप रहा, जब तक कलाम करने की उम्र को ना पहुंचा। 30 बरस का हुआ तब उसे वही आई, बाअज़ कहते हैं कि गहवारे में भी लोगों से बातें किया करता था। जब उसे उस्ताद के पास ले गए ताकि पढ़ना सीखे, तो मुअल्लिम ने कहा, कह बिस्म-ईसा अलैहिस्सलाम, वो बोला बिसमिल्लाह यानी उस ने बिस्म-ईसा ना कहा। (शायद ये मुअल्लिम (उस्ताद) ईसा को उस के ज़ाहिर होने से पहले भी ख़ुदा जानता था कि ख़ुदा की जगह में इस के नाम को रखता है) फिर मुअल्लिम ने कहा, अल-रहमान-ईसा, बोला अल-रहमान-अलरहीम। जब मुअल्लिम ने कहा, कह अबजद यानी अलिफ़, ब, ज, द (الف ب ج د) ईसा बोला, अबजद क्या होता है और इस के क्या मअनी हैं? वो बोला, मैं नहीं जानता। ईसा ने कहा, अलिफ़ (الف) अलामत अहदीयत से, ब (ب) उस की बुजु़र्गी दिखलाती है, ज (ج) उस का जलाल ज़ाहिर करती है, दाल (د) अलामत दवाम की है। तब मुअल्लिम बोला, मैं इस को क्यूँ-कर पढ़ाऊं ये तो मुझ से ज़्यादा आलिम है। पस ईसा लड़कों में खेलता रहा और जो जो खाने लड़के खाकर आते थे, वो ग़ैब से बतलाता था। जब बालिग़ हुआ, बनी-इस्राईल को ईमान लाने के लिए दावत की पर कोई ईमान ना लाया और कहा बे-बाप के लड़के का हुक्म हम क़ुबूल नहीं करते, हम मूसा के शागिर्द हैं। लेकिन सबसे पहले उस पर यहया पैग़म्बर ईमान लाया, मगर यहूदी उस के दरपे थे इसलिए वो मुल्क-ए-शाम से मिस्र को चला, दरिया-ए-नयाल के किनारे उस ने धोबियों को कपड़े धोते देखा उन्हें कहा, तुम कपड़ों को सफ़ैद और पाक करते हो अगर मेरे साथ आओ तुम्हारे दिल कुफ़्र से पाक करके मैं तुम्हें साफ़ बनाऊँगा। पस वो उस के साथ ईमान ला कर (पाक) हुए। बाअज़ कहते हैं कि उसने माहीगीरों (मछ्वारों) को देखा था और कहा, मेरे साथ आओ कि तुम तौहीद ईलाही का शिकार करोगे। तफ़्सीर ज़ाहिदी में लिखा है कि :-

“जब ईसा को किसी मुअल्लिम ने ना पढ़ाया, तो मर्यम ने उसे किसी रंगरेज़ (कपड़ा रंगने वाले) के पास छोड़ दिया, ताकि ये पेशा सीख ले। ईसा ने उस के सारे कपड़े उठाकर नील के माट में डाल दीए और हर रंग जो मतलूब था ख़ुद बख़ुद हो गया। पस लोग ये मोअजिज़ा देखकर उस के साथ हो गए। जब ईसा मिस्र से वापिस आया और बनी-इस्राईल से ईमान लाने को कहा कि मैं ख़ुदा से मोअजज़े लेकर आया हूँ, एक तो ये कि मिट्टी के जानवर बनाकर बहुक्म ख़ुदा ज़िंदा कर देता हूँ और वो उड़ते हैं। दूसरे ये कि मादर-ज़ाद अंधे को बीना करता हूँ और कौड़ी को साफ़ करता हूँ। और उस के पास कभी-कभी पचास हज़ार (50000) आदमी बीमार आते थे और वो सबको तंदुरुस्त कर देता था और जो ना आ सकते थे उन्हें दुआ से सेहत बख़्शता था उस के मुँह के सांस में बड़ी तासीर थी।”

ईसा ने चार मुर्दे जिलाए, एक इनमें से साम बिन नूह था जो 4 हज़ार बरस का मुर्दा था वो ज़िंदा हो कर फिर उसी वक़्त मर गया। मगर दूसरे तीन जो जिलाए दुनिया में रहे और बच्चे भी जने। उस ने दो शख़्स शहर अन्ताकिया में भेजे उनका (ज़िक्र) बंदे ने इत्तिफ़ाक़ी मुबाहिसे में लिखा है।

पस ईसा जो तरह तरह के मोअजज़े दिखलाता था, लोग कहने लगे वो जादू से करता है और बाअज़ कहते थे वो सच्चा है। ये लोग ईमान भी लाए और उसे ख़ुदा समझने लगे क्योंकि वो लोग गुमान करते थे कि ख़ुदा हर ज़माने में किसी जिस्म में हुलूल (एक चीज़ का दूसरी चीज़ में इस तरह दाख़िल होना कि दोनों में तमीज़ (फर्क़) ना हो सके) करके आता है, इस वक़्त ईसा में आया है। और बाअज़ कहते थे कि तीन ख़ुदा हैं एक अल्लाह दूसरी मर्यम तीसरा ईसा। और बाअज़ कहते थे कि ईसा ख़ुदा का बंदा और रसूल है। लोगों ने ईसा से कहा कि हमें आस्मान से खाना मंगवाकर खिला, ताकि हमें यक़ीन आए उसने दुआ की और एक दस्तर ख़्वान उतरा, उस में एक मछली भुनी हुई और नमक और सिरका और तरकारियां और पाँच रोटियाँ और पाँच अनार थे। लोग बोले इस मोअजिज़े में कोई और मोअजिज़ा भी दिखला, तब उस ने इस भुनी हुई मछली को ज़िंदा कर दिया और ईसा ने वो सब खाना 1300 या 5000 या पाँच लाख फ़ुक़रा (गरीबों) को खिलाया फिर वो दस्तर ख़्वान आस्मान पर चला गया और जिस रोज़ वो खाना आया वो इतवार का दिन था, इसलिए ईसाई लोग इतवार को ईद करते हैं। बाअज़ कहते हैं कि तीन (3) रोज़ या सात (7) रोज़ या 40 रोज़ खाना आता रहा। हुक्म था कि फ़क़ीर इस में से खाएं, अमीर लोग ना खाएं, इसलिए दौलतमंदों ने ग़ुस्से से उसे सहर (जादू) बतलाया, तब ईसा ने उन्हें बददुआ की और 33 या 333 या 5000 शख़्स सूअर बन गए और गंदगी खाकर तीन (3) रोज़ बाद मर गए।

हज़रत ईसा ख़ुश रू (ख़ुश मिजाज़) शख़्स थे और तुर्क दुनिया और ज़हद में दर्जा आला रखते थे। एक रोज़ जंगल में शागिर्दों के साथ थे कि एक लोमड़ी उन्हें मिली, ईसा ने कहा, तू कहाँ से आती है? वो बोली ईसा के घर से आती हूँ। हज़रत ने कहा, मेरे कोई घर नहीं है। शागिर्दों ने कहा कि आपके वास्ते जहां कहो हम घर बनाएँ? फ़रमाया, दरिया, मोजज़न के अंदर बनाओ। वो कहने लगे यहां क्यूँ-कर बन सकता है? फ़रमाया, दुनिया दरिया-ए-मौजज़न है, इस में घर बनाना ना चाहिए।

ईसा का आस्मान पर जाना

एक रोज़ हज़रत ईसा ने बैतुल-मुक़द्दस के मिम्बर पर वाअ्ज़ किया और कहा, ऐ लोगो तुम्हें मालूम है कि यहूद के लिए हफ़्ते का दिन और तौरेत किताब-ए-शरीअत है। पस अब तौरेत मन्सूख़ हुई और हफ़्ते के दिन के एवज़ इतवार मुक़र्रर हुआ। पस यहूदी दुश्मन हो गए और क़त्ल की फ़िक्र में लगे और ईसा और मर्यम को गालियां देने लगे, इसलिए ख़ुदा ने उन के जवानों को बंदर और बच्चों को सूअर बना दिया इस से वो और भी ज़्यादा दुश्मन हुए और बड़ी हीलेबाज़ी (बहानेबाज़ी) से ईसा को पकड़ा और तमाम रात एक घर में क़ैद रखा। सुबह को घर के दरवाज़े पर सब जमा हुए और उन का सरदार घर के अंदर गया, ताकि ईसा को बाहर लाए, पर ईसा को तो उसी रात ख़ुदा ने आस्मान पर बुला लिया था, ऐसा कि किसी को ख़बर ना हुई थी। लेकिन वो सरदार जब अंदर गया तो उस की शक्ल ख़ुदा ने मिस्ल ईसा के फ़ौरन बना दी, जब वो बाहर निकला और कहा, घर में ईसा तो नहीं है लोग उसे चिमट गए कि तू ही ईसा है। हर-चंद वो कहता रहा, कि मैं ईसा नहीं हूँ पर शक्ल ईसा की थी, इसलिए किसी ने ना माना, उसे ले जा कर सलीब पर मारा। फिर अपने सरदार की तलाश करने लगे, जब कहीं ना पाया तो बहुत घबराए कि सरदार मारा गया और ईसा उड़ गया। उस के आस्मान पर जाने के तौर में बहुत इख़्तिलाफ़ है या तो उस की जान ख़ुदा ने क़ब्ज़ की और सात घंटे के बाद उसे आस्मान पर ले गया। या वो सो गया था और नींद में उसे ख़ुदा ने उठा लिया। या अबर (बादल) आया और उसे ले गया। जाते वक़्त मर्यम ईसा को लिपट गई, पस वो मुलाक़ात क़ियामत का वाअदा करके छोड़ गया। बाद इस के छः (6) बरस मर्यम और ज़िंदा रहीं और जब मसीह आस्मान को गए, तो उन की उम्र 33 बरस की थी और वो आस्मान पर जाकर जिस्मानी ना रहे बल्कि आस्मानी हो गए। फिर लोगों में इख़्तिलाफ़ पड़ा कि वो कौन था, याक़ूब ने कहा वो ख़ुदा था, ज़मीन पर आया था फिर आस्मान पर चला गया। नस्तूर (نسطور) बोला, वो ख़ुदा का बेटा था ख़ुदा ने उसे भेजा था फिर बुला लिया। मलका (ملکا) बोला, वो बंदा और रसूल था। पस इन तीनों आलिमों की राय के मुवाफ़िक़ (یعقوبیہ) याअ्क़ूबिया, (نسطوریہ) नसतुरीया, (ملکا نیہ) मलकानियाह तीन फ़िर्क़े हो गए। कहते हैं कि ईसा फिर आस्मान से आएगा और दज्जाल को मारेगा उस के अहद में सब यहूदी मारे जाऐंगे और कोई काफ़िर दुनिया में ना रहेगा और ऐसा अमन चैन होगा कि शेर, ऊंटों और गाएँ और बकरीयों के साथ एक मकान में चरेंगे और लड़के साँपों से खेलेंगे और हज़रत ईसा, मुहम्मदी शरीअत पर अमल करेंगे और किसी औरत से शादी करके बच्चे जनेंगे और चालीस (40) बरस बाद मर जाएंगे और मदीना में हज़रत मुहम्मद की क़ब्र के पास दफ़न किए जाऐंगे।

नतीजा

ताअलीम मुहम्मदी का एक वो हिस्सा, जिसमें निहायत फ़हश बातें हैं मैंने छोड़ दिया है, मगर उन की सारी अच्छी ताअलीम जो है सो ये ही है जो इस किताब में लिखी गई है। और यह सब बयान ना सिर्फ हदीसों से हैं, मगर क़ुरआन और अहादीस मोअतबरा से बमूजब राय उलमा मुहम्मदिया के जो मोअतबर लोग हैं, ये ज़िक्र लिखे गए हैं। और अगर कोई बात बाक़ी भी रही होगी तो रहे, मगर सब ज़रूरी बातें इस्लाम की मज़्कूर हो गई हैं। अब तवारीख़ मुहम्मदी और ताअलीम मुहम्मदी के देखने से नाज़रीन को मालूम हो सकता है कि मुहम्मदी मज़्हब के लिए अगरचे एक सूरत तो है, मगर उस में जान हरगिज़ नहीं है। इसलिए वो एक मुर्दा दीन है या एक पुतला है, जो आदमी ने बड़ी कारीगरी से बनाया मगर उस में जान ना डाल सका।

आदमीयों के तज्वीज़ किए हुए दीन तो इस जहान में बहुत हैं, बल्कि सिवाए दीन ईस्वी के, सारे अदयान (मज़हब) आदमीयों से हैं और अब भी आदमी बनाता जा रहा है फिर भी मतलूब है जो ना इन्सान से पर ख़ुदा से है।

मुहम्मदी लोग दाअ्वा तो करते हैं कि हमारा दीन ख़ुदा से है, क्योंकि हज़रत मुहम्मद ने इल्हाम के दाअ्वे से अपना दीन जारी किया है। लेकिन इन्साफ़ से बोलना चाहिए, कि क्या कोई दाअ्वा बे-दलील दुनिया में कभी अहले-फ़िक्र लोग क़ुबूल कर सकते हैं? अलबत्ता बेफ़िक्र लोग तो कभी-कभी मान लिया करते हैं या वो लोग जिनके फ़िक्र नाकारा (अधूरी) हैं।

हम हज़रत मुहम्मद को बसर व चश्म क़ुबूल करते अगर उनका दाअ्वा हक़ दलीलों से साबित हो जाता, पर ये तो मुहाल है। लेकिन बरअक्स इस के उनके अक़्वाल और अफ़आल से ये ज़ाहिर हुआ है, कि ज़रूर ये दीन ख़ुदा से नहीं है, मगर इन्सान की नफ़्सानी ख़्वाहिशों और उसी की अक़्ल से पैदा हुआ है।

ख़ुदा ने आदमीयों में ये ताक़त बख़्शी है कि अगर वो फ़िक्र करें तो मालूम हो सकता है कि कौन-कौन (सी) चीज़ें ख़ुदा की बनाई हुई हैं, और कौन-कौन (सी) चीज़ें इन्सानी अक़्ल से ईजाद हैं। और कौन-कौन (सी) चीज़ें नफ़्सानी ख़्वाहिशों से निकली हैं, और कौन-कौन (से) ख़यालात व रसूम इन्सानी नादानी से हैं। क्योंकि हर चीज़ अपने मख़रज और मम्बा को आप ज़ाहिर करती है, कि कहाँ से है।

तवारीख मुहम्मदी के देखने से ये बात ख़ूब ज़ाहिर है कि हज़रत मुहम्मद अरब के एक बादशाह थे और यह मन्सब उन्होंने अपनी चालाकी और होशियारी और हिक्मत अमली से बवसीला दाअ्वा-ए-नुबूव्वत और बवसीला इस तर्कीब के जो रणजीत सिंह से पंजाब में ज़ाहिर हुई थी, मुल्क अरब में अच्छा मौक़ा पाकर हासिल किया था, और बड़ी कामयाबी भी हासिल की थी।

हाँ इस कामयाबी से जो ख़ुदा की मईयत (हम-राही, साथ) का ख़्याल उन की निस्बत बाअज़ मर्दुम के ज़हन में गुज़रता है, मैं भी इस का क़ाइल हूँ। पर ये वैसी ही मईयत (हम-राही, साथ) थी, जैसी रणजीत सिंह के साथ भी थी, और दुनियावी आफ़तों और इंतज़ामों के साथ दुनिया के शुरू से अब तक है। पर वो मईयत (हम-राही, साथ) ईलाही जो मख़्सूस है पैग़म्बरों के साथ, हज़रत में हरगिज़ पाई नहीं जाती। क्योंकि ना तो ख़ुदा ने उन की ताअलीम पर अपनी क़ुदरत के मोअजज़ों से मुहर की और ना उन की ताअलीम में वो दानाई (अक़्मंदील) ज़ाहिर हुई, जो ख़ुदा में है। इसलिए उन की ताअलीम से रूहों की तिश्नगी (प्यास) हरगिज़ नहीं बुझ सकती है और यह बड़ा सबूत है कि वो ख़ुदा के पैग़म्बर ना थे।

इस किताब के पहले बाब में उन अक़ीदों पर सोचो जो हज़रत मुहम्मद ने सिखलाए हैं। क्या उन से तालिब-ए-हक़ की रूह इत्मीनान हासिल कर सकती है? वहां तो बाअज़ बातें ना-वाक़िफ़ी की हैं और बाअज़ वो बातें भी हैं जो ख़ुदा के कलाम (किताबे मुक़द्दस) से सुनकर हज़रत ने सुनाई हैं।

फिर दूसरे बाब में हज़रत की इबादात पर ग़ौर करो, वो भी इन्हीं तीन क़िस्म की बातें हैं और बुनियाद उन के इबादात की वही पहले बाब के अक़ाइद हैं। पस कच्ची बुनियाद पर कच्चा घर बनाना है।

अला-हाज़ा-उल-क़यास हज़रत के मुआमलात भी उन्हीं अक़ाइद पर मबनी हैं और वही तीन क़िस्म की हिदायतें वहां पर भी मज़्कूर हैं।

पर क़िसस मुहम्मदिया पर ग़ौर करने से ख़ूब ही मालूम हो गया कि मह्ज़ हवाई मज़्हब है। देखो हज़रत पैग़म्बरों की तवारीख़ से कहाँ तक नावाक़िफ़ हैं, अवाम से सुन सुनकर किस क़द्र ग़लत बातें क़ुरआन और हदीस में भर दी हैं। वो कौन है, जो बाइबल मुक़द्दस की तवारीख़ से वाक़िफ़ हो कर इस तवारीख़ को जो हज़रत मुहम्मद ने सुनाई है क़ुबूल करेगा? इस तवारीख़ का फ़िक़्रह फ़िक़्रह ग़लाता फ़ाहिशा से भरा हुआ है। जिस ज़माने में हज़रत ने पैग़म्बरों की ये तवारीख़ात सुना कर अरब के नावाक़िफ़ लोगों को अपनी तरफ़ खींचा उस ज़माने में रोमन कैथोलिक लोगों ने ख़ुदा के पाक कलाम को उस की ज़बान में बंद कर रखा था। वो कहते कि जायज़ नहीं कि सिवाए पादरीयों के ख़ुदा के कलाम को लोग पढ़ें। अपनी ज़बान से अवाम को कभी-कभी कुछ सुनाते थे और उस के साथ अपनी रिवायतें भी बतलाते थे। सुनने वाले और, और कुछ अपनी तरफ़ से मिला कर मशहूर करते थे। पस ये बातें मिस्ल मिस्ल अफ़्वाह के उड़ती थीं, उसी अफ़्वाह को हज़रत अपनी तावीलात से अपनी नबुव्वत की बुनियाद पर रख लेते थे। हाँ कुछ-कुछ टुकड़े बाइबल के बाअज़ ईसाईयों के पास मौजूद भी थे और यहूदीयों के पास पूरा अहद-ए-अतीक़ भी था और हज़रत ने उस में से कुछ-कुछ सुना भी था, पर यहूदी भी अपनी रिवायतें बहुत सुनाते थे और हज़रत जो सुनने वाले थे ख़ुद अनपढ़ थे, इसलिए कुछ-कुछ दुरुस्त समझा और कुछ-कुछ नादुरुस्त समझा, ख़्वाह अपनी ग़लती से ख़्वाह उन लोगों की रिवायतों की ग़लती से, इसलिए हज़रत के सर में पूरी और सही तवारीख़ पैग़म्बरों की हरगिज़ हासिल नहीं हुई। पीछे उलमा मुहम्मदिया ने जब इन तवारीख़ात का तकलमा अरब में करना चाहा, उन्होंने भी सही बात के दर्याफ़्त करने की कोशिश नहीं की, मगर जो कुछ क़ुरआन और हदीस में बयान हो चुका उसी की ताईद में जहां तक उन्हें उस मुल्क और उस अहद (ज़माने) की रिवायतें मिलीं उन्होंने जमा करके क़ुरआन की तफ़्सीरों में अम्बार लगा दीए, और आम मुसलमानों ने इन बातों को मुस्तनद (सहीह) समझ कर यक़ीन भी कर लिया। लेकिन अब कि ख़ुदा का कलाम सूरज की तरह से बुलंदी पर तुलु हुआ जो सारी तारीकी सारी दुनिया से हटाता है और इसलिए मुहम्मदी दीन की रोशनी भी बुझ गई है।

और यह बात जो मैं कहता हूँ, कि ख़ुदा के कलाम की रोशनी से मज़्हब मुहम्मदी की भी रोशनी जाती रही निहायत सच्च बात है और इस के सबूत की सब दलीलें छोड़कर ये क्या उम्दा दलील है कि बाअज़ उलमा मुहम्मदिया जो बड़े होशियार हैं, इस वक़्त इस्लाम की मरम्मत के फ़िक्र में बशिद्दत सरगर्म हो रहे हैं और तमाम मुहम्मदी फ़िक़्ह उसूल और अहादीस और तफ़्सीरें वग़ैरह को जो बारह सौ (1200) बरस से, जो मुसलमानों में ईमान का जुज़्व-ए-आज़म था अब दूर फेंकते हैं, सिर्फ क़ुरआन को हाथ में लेकर अपनी अक़्ल से उस के कुछ और ही मअनी बनाना चाहते हैं और नई क़िस्म की तफ़्सीर मह्ज़ अक़्ल से करते हैं और एक बड़ी उलट-पलट मुहम्मदी मज़्हब में करते हैं, ये इसी लिए है कि अगली रोशनी इस्लाम की दीन मसीही के सामने तारीक हो गई है और उन्हें इस से नफ़रत आ गई है, वो नहीं चाहते कि तौबा करके सच्चे नूर में शामिल हो जाएं, मगर अपने आबाओ अज्दाद (बाप दादाओं) के लकीर के फ़क़ीर होके और अपनी अक़्ल को ख़ुदा से ज़्यादा रहबर समझ के चाहते हैं कि क़ुरआन पर अपनी अक़्ल की सोने का मुलम्माअ (सोने चांदी का पानी) चढ़ा दें और यूं क़ुरआन को बेशक़ीमत चीज़ ज़ाहिर करें। पर ये अनहोनी बात है और इंशा अल्लाह कुछ अर्से के बाद मालूम भी हो जाएगा कि इस से क्या नतीजा निकला?

हासिल कलाम आंका (फिर यह है कि) मुहम्मदी ताअलीम मुहम्मद साहब से है, ना ख़ुदा से और मुहम्मद साहब से भी इस तरह से है कि बाअज़ बातें उन की दानाई में से निकली हैं और वो दानाई उसी दर्जे की है जो इन्सान की अक़्ल का दर्जा है।

बाअज़ बातें हज़रत की ख़्वाहिशों में से हैं और यह वही ख़्वाहिशें हैं जो हर इन्सान में हैं।

बाअज़ हज़रत की ना-वाक़िफ़ी में से हैं और यह ना-वाक़िफ़ी वही ना-वाक़िफ़ी है जो सब अनपढ़ और उम्मी और मुहज़्ज़ब शहरों से ज़रा दूर के बाशिंदे रखते हैं।

और बाअज़ बातें समाई (सुनी सुनाई سماعی) हैं ख़्वाह दुरुस्त तौर से सुनें, ख़्वाह ग़लत तौर से।

ख़ुदा के कलाम में इन बातों के ख़िलाफ़ कुछ और ही खूबियां हैं और वो ये हैं,

कि ये मजमूआ ना किसी एक आदमी के हाथ से, मगर तमाम अम्बिया से है और तमाम मुक़द्दीसीन का मुत्तफ़िक़ अलैह है और सब पैग़म्बरों की किताबें इस में शामिल हैं। इस के साथ जब हमारा दिली इत्तिफ़ाक़ होता है, तो तमाम मजमूआ अम्बिया के साथ हम हो जाते हैं। वो कौन दूर-अँदेश आदमी है, जो सिलसिला-ए-अम्बिया को छोड़कर मुहम्मद साहब की ख़तरनाक चाल में उन के साथ चलेगा?

ख़ुदा ने आप इस कलाम का सबूत मुतअद्दिद (बहुत से) गवाहों से दिया है। यानी रसूलों और नबियों के मोअजज़ात और पेशीनगोईयां, जिनसे वो कलाम भरपूर है। ये ख़ुदा की तरफ़ से इस का सबूत कामिल है।

ख़ुदा की ज़ात और सिफ़ात और उस की सारी ख़ुदाई की शान शौकत जो इन्सानी फ़हम से बाला है, सिर्फ इसी कलाम में है।

ख़ुदा की ज़ात का वो बयान, जो सिर्फ उसी को लायक़ है और उस के इरादे और उस के अजीब इंतिज़ाम और उस की मर्ज़ी इन्सान की निस्बत, जैसे इस कलाम में बयान है, सारी ज़मीन पर कभी किसी इन्सान में ताक़त नहीं हुई कि ऐसा बयान कर सके, सारा क़ुरआन और सब अहादीस मुहम्मदिया इस मुआमले में हरगिज़ इस (कलाम) का मुक़ाबला नहीं कर सकतीं।

फिर इस कलाम का कुछ मग़ज़ (ख़ुलासा) भी है जिसको इस कलाम की जान कहना चाहिए, वो ये है कि ख़ुदा तआला अपनी ज़िंदगी आदमीयों में बवसीला सय्यदना मसीह के दाख़िल करता है और यूं वो बच जाते हैं। और इसी हमारी ज़िंदगी में, जो अब हम में मौजूद है, ख़ुदा की ज़िंदगी हमारे शामिल-ए-हाल हो जाती है। और हमारी रूहों के पाक इक़तिज़ा (ताक़ाज़ें) सब के सब पूरे होते हैं। सारे कलाम की सब तवारीख़ात और सब हिदायतें और तमाम रसूम व इंतज़ाम एक ही मतलब पर मबनी हैं, कि नजात सिर्फ़ सय्यदना मसीह से है। हज़रत ने मुतलक़ इस कलाम को नहीं समझा। अगर ख़ुदा हज़रत का हादी था, तो क्या वो भी इस मतलब को ना समझा था? और अगर समझा था और यह मन्शा कलाम का जो हम समझते हैं, उस के ख़्याल में दुरुस्त ना था? (तो) इस के दलाईल वो पेश करता और चाहिए था कि वो दलाईल इबतालिया (बातिल करने वाली दलीलें) हमारे दलाईल इसबातिया (सबूत देने वाली दलीलों) के सामने काफ़ी होते। मगर क़ुरआन का मुसन्निफ़ (लिखने वाला) तो हमारे दलाईल इसबातिया (दलीलों के सबूत) ही को नहीं समझा, ये ख़ुदा से बईद (दूर) है।

हज़रत मुहम्मद को कलाम-ए-ईलाही का मंशा समझना तो बहुत मुश्किल था, मगर मोटी बातों को भी दुरुस्त नहीं समझा है। मर्यम मूसा की बहन को हज़रत ईसा की माँ बतला दिया है और यूहन्ना इस्तिबाग़ी के बाप ज़करीया को और उस ज़करीया को जो नबी था, एक ही आदमी समझ लिया है। और हेरोदेस व हीरदिया औरत को जिन्हों ने यूहन्ना का सिर काटा था अख़्याब व ईज़बिल बतलाया है और अजीब बेसरोपा क़िस्से सुनाते हैं। अगर कोई आदमी मुसलमान होना चाहे, तो ज़रूर है कि वो इन सब मह्ज़ ग़लत बातों पर ईमान लाए, कि ये सच्च बातें हैं, वर्ना मुसलमान नहीं हो सकता और इसी तरह हज़ारहा ग़लत बातें चाहे कि दिल में भरे। भाइयों इन्साफ़ से कहो, कि हम माज़ूर हैं या नहीं? हमारा उज़्र मुहम्मदी मज़्हब की निस्बत हक़ है या नहीं? और अपनी हालत पर भी फ़िक्र करो।

जब तक आदमी फ़ज़्ल और सच्चाई से, जो सय्यदना मसीह से पहुंची है ना भर जाये वो हयात-ए-अबदी का मुँह ना देखेगा।

सलाम, इमाद-उद्दीन लाहिज़