The Arabs before Islam
By
Allama Ghulam Masih
وَبِذُرِّيَّتِكَ تَتَبَارَكُ جَمِيعُ أُمَمِ الأَرْضِ،
और तेरी नस्ल अपने दुश्मनों के दरवाज़ों पर क़ाबिज़ होगी और तेरी नस्ल से ज़मीन की सारी कौमें बरकत पाएंगी।
कवाइफ-उल-अरब
या
अरब क़ब्ल अज़ इस्लाम
जिसमें ज़माना-ए-जाहिलियत के अरबों की शानदार हुकूमतों के उनकी तहज़ीब और शाइस्तगी उन के मज़ाहिब व अक़ाइद
व रसूम के निहायत मुख़्तसर पर ताज्जुबख़ेज़ ख़यालात। बाइबल मुक़द्दस से मग़रिबी अश्या और आसार-ए-क़दीमा से और तारीखे इस्लाम से मुरत्तिब किए गए हैं।
ये किताब क़दीम तारीखे अरब के मुताल्लिक़ नादिर मालूमात का ख़ुलासा है।
मोअल्लिफ व मुसन्निफ़
अल्लामा पादरी ग़ुलाम मसीह साहब ऐडीटर नूर-अफ़्शाँ, लाहौर
1925 ई॰
मुक़द्दमा
बाइबल मुक़द्दस ख़ुसूसुन पुराना अहदनामा मग़रिबी एशीया और मिस्र की मदफ़ून (दफ़न) अक़्वाम और उन की गई-गुज़री तहज़ीब व शाइस्तगी (अख़्लाक़, मुरव्वत, आदमियत) को दुबारा ज़िंदा करने में बेमिसाल तौर से एक ज़बरदस्त आला-कार साबित हो चुका है जिसकी निशानदेही से अक़्वामे बाबिल, अक्काद, नैनवा, और, अमूरी, हित्ती, फेंकी, कनआन, मिस्र, ईलाम और आरमीनिया और अरब के और उन की सल्तनतों के, उन की तहज़ीब व शाइस्तगी के उन के मज़ाहिब व अक़ाइद व रसूम के अजीबोगरीब हालात व फ़साद माअरज़-ए-ज़हूर में आ चुके हैं जिनके आसार व निशानात व हालात से यूरोप के अजाइब ख़ाने भर चुके हैं। ज़माना-ए-हाल की ज़िंदा अक़्वाम की माओं मज़्कूर बाला में से अरब की अक़्वाम भी हैं जिन क़दीमी हालात पर आने वाले औराक़ में कुछ तारीख़ी रोशनी डाली गई है। बाइबल की अक़्वाम में अहले-अरब भी निहायत बुलंद जगह रखते हैं।
बाइबल मुक़द्दस ने बाद तूफान-ए-नूह जो ज़मीन पर क़ौमों के आबाद होने का बयान किया है उस मुल्क अरब को हज़रत सिम बिन नूह की औलाद से आबाद करके दिखाया है। अगरचे हज़रत सिम बिन नूह की औलाद (मग़रिबी एशीया) के वस्त में आबाद दिखाई है लेकिन इस के साथ ही ये कहना भी मुबालग़ा (किसी बात को बहुत बढ़ा चढ़ा कर बयान करना) नहीं होगा कि हज़रत सिम बिन नूह की औलाद के मुख़्तलिफ़ क़बाइल ने मुख़्तलिफ़ ज़मानों में आबाई सुकूनत गाहों (रहने की जगह) को छोड़कर मुल्क-ए-अरब में सुकूनत इख़्तियार की होगी। क्योंकि मग़रिबी एशीया के वस्त में आबादकारों में जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) का सिलसिला ज़माना-ए-क़दीम से ही जारी हो गया था जिसकी वजह से वहां के आबादकारों का माल व जान हमेशा ख़तरे में मुब्तला रहता होगा। इस वजह से सिम की नस्ल के अमन पसंद ख़ानदान मुल्क अरब में पनाह गज़ीन हुए होंगे।
मग़रिबी एशीया और मिस्र के अक़्वाम के आसार-ए-क़दीमा में अहले अरब के ज़िक्र अक्काद, साबियों, बद्दूओं और ख़ैबरी और चौपान अक़्वाम के नाम से ज़्यादातर पाए गए हैं। जिन्हों ने अक़्वाम माफ़ौक़ की हुकूमतों पर इब्तिदा से अपनी फ़ौक़ियत (बरतरी) क़ायम व साबित करने की हमेशा कोशिश की और वह इस कोशिश में नाकाम नहीं निकलते थे।
मग़रिबी एशिया की माफ़ौक़ सल्तनतों से जो मुल़्क अरब की शुमाल मशरिक़, शुमाल, शुमाल मग़रिब में ज़माना-ए-क़दीम से क़ायम हुई थीं। इनसे क़दीम अरबों के गहरे ताल्लुक़ात साबित हुए हैं। इन ज़बरदस्त सल्तनतों में सल्तनते बाबिल और नेन्वाह और मिस्र के हुक्मरानों की फिहरिस्तें ज़ेल में देते हैं। ताकि नाज़रीन किराम पर ये अम्र वाज़ेह हो जाये कि अहले-अरब किन ज़बरदस्त हुकूमतों का मुक़ाबला करके अपनी मुल्की आज़ादी और हुर्रियत को क़ायम रखते हुए अपनी हस्ती को बचाते रहे थे। दरहालिका वो ज़बरदस्त हुकूमतें फ़ना हो गईं मगर अहले-अरब आज तक ज़िंदा चले आए हैं। इन बड़ी-बड़ी सल्तनतों के हुक्मरानों की फिहरिस्तें हस्ब-ज़ैल हैं जो हनूज़ नातमाम ख़याल की जाती हैं।
ख़ानदान सिम के बाबिली या अक्कादी हुक्मरानों की फ़ेहरिस्त
मग़रिबी एशीया के आसारे-ए-क़दीमा के माहिरीन ने अक्कादी या बाबिली सल्तनत के हुक्मरानों को आला तहज़ीब व शाइस्तगी (आदमियत। अख़्लाक़) के बानी बतलाया है। और इस सल्तनत के पहले हुक्मरान का ज़माना क़ब्ल अज़ मसीह 3800 बरस क़रार दिया है और अजीब तर मुआमला ये है कि अक्कादी सल्तनत के पहले हुक्मरान को अरब की साबी हुकूमत के बादशाह असमर (अंग्रेज़ी अथमर) ने ख़राज (जिज्या) दिया था। जिससे ये बात बाखूबी रोशन होती है कि अरब में साबी हुकूमत अक्कादी हुकूमत से भी पेश्तर क़ायम हो चुकी थी। अक्कादी हुकूमत के हुक्मरानों की फ़ेहरिस्त आसार-ए-क़दीमा से साबित हो चुकी है सारगोन अव्वल ने जो ख़ानदान-ए-सिम से था उसने क़ब्ल अज़ मसीह 3800 अक्काद में अज़ीमुश्शान सल्तनत क़ायम की जो ईलाम से लेकर सूर फेनकी और कनआन (जज़ीरा कप्रस) तक वसीअ थी और दुसरी तरफ़ मुल्क-ए-अरब के जुनूब तक इस का असर था।
नारामसन ने जो सारगोन अव़्वल का बेटा था उसने क़ब्ल अज़ मसीह 3750 में मग़रिबी एशीया की तमाम सर-ज़मीन पर क़ब्ज़ा किया था।
क़ब्ल अज़ मसीह 2700 में ऊर के बादशाह सल्तनत बाबिल पर हुक्मरान थे। हमूराबी ख़ानदान का मज़्कूर का छटा हुक्मरान निहायत ज़बरदस्त हुक्मरान था जिसके ज़माने में सिमी तहज़ीब व शाइस्तगी कमाल को पहुंची थी उस की सल्तनत तमाम मग़रिबी एशीया तक वसीअ थी। ये ख़ानदान सल्तनत बाबिल के तख़्त पर क़ब्ल अज़ मसीह 2300 तक तुमकन (इख़्तियार, क़ाबू में रखना) रहा था।
बाबिल के इन बादशाहों के ख़ानदान का ये भी दावा था कि वो अमूरियों के मुल्क में भी हुक्मरान थे ईलाम के कासियों ने बाबिल को फ़त्ह किया वो वहां 573 बरस और 9 माह तक हुक्मरान रहे। यानी क़ब्ल अज़ मसीह 1786 तक फिर क़ब्ल अज़ मसीह 747 में नबूकदनस्र बाबिल का बादशाह हुआ (फिर यलोदपल) ने जिसे तुग़लत पिलासिर कहा जाता है और जो अस्सिरिया का बादशाह था उसने क़ब्ल अज़ मसीह 727 में बाबिल को फ़त्ह किया था उस के बाद अलूलू जिसे शलनज़र राबेअ कहते हैं क़ब्ल अज़ मसीह 725 में अस्सिरिया का बादशाह हुआ। फिर मर्दोक बलदान सानी ने क़ब्ल अज़ मसीह 721 में हुकूमत-ए-बाबिल पर क़ब्ज़ा किया। और 12 बरस तक हुकूमत की इसी ने यहूदाह के बादशाह उज़्ज़ियाह के पास अपना वकील भेजा था। क़ब्ल अज़ मसीह 709 में अस्सिरिया के बादशाह सारगोन ने फिर बाबिल की हुकूमत पर क़ब्ज़ा कर लिया। फिर क़ब्ल अज़ मसीह 704 में सक्खरेब बाबिल के तख़्त पर तुमकन (क़ाबिज़) हुआ फिर क़ब्ल अज़ मसीह 702 से 689 तक बाबिल और ईलाम और अस्सिरिया में ख़ाना-जंगी रही और सक्खरेब ने बाबिल को क़ब्ल अज़ मसीह 689 में बिल्कुल बर्बाद कर दिया जिसे क़ब्ल अज़ मसीह 681 में असरहदून ने फिर बनाया था क़ब्ल अज़ मसीह 668 में असरहदून ने सल्तनत बाबिल को अपने बेटों पर तक़्सीम किया था और ख़ास हुकूमत-ए- बाबिल अपने बेटे शमस समीकीन को दी थी। क़ब्ल अज़ मसीह 648 में बाबिल में बड़ी बग़ावत हुई थी जिसे अस्सिरिया ने मिटा दिया था क़ब्ल अज़ मसीह 626 में बनूपिलासर व ईसरा ही मुक़र्रर हुआ था। क़ब्ल अज़ मसीह 606 में अस्सिरिया की हुकूमत में बग़ावत हुई और शहर नैनवा बिल्कुल मिस्मार (गिराया हुआ, बर्बाद) किया गया क़ब्ल अज़ मसीह 605 में नबूकद नस्र ने बाबिल की सल्तनत में इक़्तिदार हासिल किया और उस के बेटों ने सल्तनत को मज़्बूत किया। क़ब्ल अज़ मसीह 562 में बदकार मर्दूक बंदान तख़्त नशीन हुआ क़ब्ल अज़ मसीह 560 में रगुलशरीज़ बादशाह हुआ क़ब्ल अज़ मसीह 556 में उस का बेटा हैलशेंद्र तख़्त नशीन हुआ। क़ब्ल अज़ मसीह 538 में फ़ारस के बादशाह ख़ूरस ने सल्तनत बाबिल पर क़ब्ज़ा कर लिया था। (दी इलस्ट्रेड बाइबल ट्रीझ़री सफ़ा 180, 181) यूं तख्त-ए-बाबिल पर ख़ानदानों के हुक्मरान क़ाबिज़ हुए जिसका शुमार 106 और ज़माना क़ब्ल अज़ मसीह 2396 से 539 तक का क़रार पा चुका है। (बाइबल डिक्शनरी जेम्स हेस्टिंग)
अस्सिरिया या हुक्मरान नैनवा की फ़ेहरिस्त
अस्सिरिया के लोग भी हज़रत सिम बिन नूह की नस्ल से थे जिन्हों ने पेश्तर अक्काद और बाबिल में ज़बरदस्त तहज़ीब व शाइस्तगी क़ायम की थी लेकिन ऐसा मालूम होता है कि जब क़ब्ल अज़ मसीह 1786 से पेश्तर हुकूमत अक्काद और बाबिल में ज़ोफ़ (दो गुना, दो चंद) के आसार नुमायां होते नज़र आए होंगे तो क़ब्ल अज़ मसीह 1700 में काला शेर घाट में झील कपकपू ने नेनवाई हुकूमत की बुनियाद डाली जिसकी हस्ती क़ब्ल अज़ मसीह 606 तक क़ायम रही थी मग़रिबी एशीया के आसारे-ए-क़दीमा में हुकूमत मज़्कूर के मुन्दरिजा ज़ैल हुक्मरान दर्याफ़्त हो चुके हैं।
क़ब्ल अज़ मसीह 1330 में शलनज़र अव़्वल ने काला को बनाया क़ब्ल अज़ मसीह 1300 में उस के बेटे तुग़लत नतीप अव़्वल ने हुकूमत बाबिल पर क़ब्ज़ा कर लिया और 7 साल तक हुक्मरान रहा। क़ब्ल अज़ मसीह 1000 में अस्सिरिया की हुकूमत तुग़लत पिलासिर अव़्वल के मातहत बहीरा रुम तक वसीअ हुई और मिस्र के हुक्मरानों ने भी उसे तोहफ़े तहाइफ़ दिए क़ब्ल अज़ मसीह 1000 में इसरारबी तख़्त पर नशीन रहा क़ब्ल अज़ मसीह 882 में इस नज़रील सानी ने अस्सिरिया की हुकूमत को अज़ सर नो ताज़ा दम किया। क़ब्ल अज़ मसीह 858 में इस का बेटा शलनज़र सानी तख़्त पर बैठा और उसने दमिश्क़ के बादशाह हिदूइज़ को और इस्राईल के बादशाह अहब को शिकस्त दी। क़ब्ल अज़ मसीह 850-845 तक हिनहुदा के ख़िलाफ़ जंग करता रहा। क़ब्ल अज़ मसीह 841 हज़ाईल शाह दमिश्क़ ओरियाहहो बिन उम्री के ख़िलाफ़ जंग करता रहा। क़ब्ल अज़ मसीह 825 में सारदाना पौलुस शलनज़र के बेटे की बग़ावत रौनुमा हुई। क़ब्ल अज़ मसीह 823 में शमस रमोन सानी ने बग़ावत मज़्कूर का ख़ातिमा किया क़ब्ल अज़ मसीह 810 में उस का बेटा रमोन ज़ारी तख़्त पर बैठा उसने 804 में दमिश्क़ को फ़त्ह किया। सामरिया से ख़राज वसूल किया। क़ब्ल अज़ मसीह 748 में पुल ने हुक्मरान ख़ाना का ख़ातिमा करके तुग़लत पिलासर सोम के नाम से हुकूमत पर क़ब्ज़ा कर लिया। और उस ने दमिश्क़ के बादशाह रेज़ीन और इस्राईल के बादशाह मनाहम से ख़राज वसूल किया और ये क़ब्ल अज़ मसीह 738 की बात है। क़ब्ल अज़ मसीह 734 में दमिश्क़ का मुहासिरा (चारों तरफ़ से घेर लेना) कर लिया गया और मशरिक़ी यर्दन के क़बीले जिलावतनी के लिए गिरफ़्तार किए गए और यहूदाह के बादशाह यहोवाखिज़ को ख़राज गुज़ार (मातहत बादशाह) बनाया गया। क़ब्ल अज़ मसीह 727 अलवलाया शलनज़र राबेअ तख़्त नशीन हुआ क़ब्ल अज़ मसीह 722 में शार्गोन तख़्त नशीन हुआ और उसने इसी साल सल्तनत इस्राईल पर हमला करके उस के दार-उल-ख़िलाफ़ा पर क़ाबिज़ हो गया 711 क़ब्ल अज़ मसीह में उस के सिपाह सालार ने अशदूद को फ़त्ह कर लिया 705 क़ब्ल अज़ मसीह सक्खरेब सारगोन की जगह तख़्त नशीन हो गया 701 क़ब्ल अज़ मसीह उसने सल्तनत यहूदाह पर हमला किया और 681 क़ब्ल अज़ मसीह में वो अपने बेटे के हाथों से क़त्ल हुआ और उस की जगह उस का बेटा असरहदून ही तख़्त पर बैठा 668 क़ब्ल अज़ मसीह उसका बेटा असर बनी पुल तख़्त नशीन हुआ 606 क़ब्ल अज़ मसीह में नैनवा बर्बाद किया गया। ये किताब ईज़न 179
मिस्री बादशाहों की फ़ेहरिस्त
मुल्क मिस्र के बादशाहों की फ़ेहरिस्त और उन की हुकूमत का ज़माना निहायत तवील (लंबा) है। मिस्री तारीख़ में पहले तीन ख़ानदान जो मिस्र में हुक्मरान रहे थे वो उनके माबूद या देवता थे निस्फ़ देवता थे और रुहानी हस्तियाँ थीं। लेकिन अस्ल तारीख़ मता बादशाह से जो क़ब्ल अज़ मसीह 3800 से 4400 तक माना गया है शुरू हुई थी जो सिकंदर-ए-आज़म 332 क़ब्ल अज़ मसीह पर ख़त्म की गई है।
मिस्र की सल्तनत के तख़्त पर कुल 31 ख़ानदान के बादशाह तख़्त नशीन हुए हैं जिनका कुल शुमार चौपान बादशाहों को छोड़कर 138 तक बयान किया गया है और चौपान बादशाहों के पाँच ख़ानदान यानी 13 से 17 ख़ानदान तक हुकूमत करते रहे हैं। जिनके बादशाहों का पता नहीं है कि कितने थे। इन चौपानों बादशाहों ने मिस्र में 500 बरस तक हुकूमत की थी जो मिस्री हुक्मरानों के बारहवीं ख़ानदान से लेकर अठारवीं ख़ानदान के दर्मियानी ज़माने में हुक्मरान रहे थे। इन्हीं हुक्मरानों के अय्याम में हज़रत इब्राहिम मिस्र में गए और बनी इस्राईल मिस्र में रहे थे और इन्हीं हुक्मरानों ने मिस्र से ख़ारिज हो कर मुल्क कनआन में शहर यरूशलेम की तामीर की थी। ये तमाम हुक्मरान अरब की क़ौम अमालीक़ी से थे (देखो बाई पाथ्स आफ़ बाइबल नॉलिज जिल्द 5, 8)
शुमाल और शुमाल मग़रिबी की इन तीन ज़बरदस्त हुकूमतों के सिवा शुमाल अरब में और रियासतें और हुकूमतें भी कोड़ीयों क़ायम साबित हुईं। इनमें से मुल्क कनआन में बनी-इस्राईल की हुकूमत व रियासत भी थी जिसका बयान मसीहियों की बाइबल में मौजूद है। मगर हम तवालत की वजह से इस का ज़िक्र तज़्किरा कलम अंदाज़ करते हैं।
मुल्क अरब की क़दीम हुकूमतें
मग़रिबी एशीया ख़ुसूसुन जुनूबी अरब के आसारे-ए-क़दीमा इस बात के शाहिद (गवाह) हैं कि शुमाली अरब और शुमाल मग़रिबी अरब की हुकूमतों की हमज़ां हुकूमतें ज़माना-ए-क़दीम में मुल्क-ए-अरब में क़ायम हुई थीं जिसके निज़ाम के मातहत तमाम मुल्क अरब ज़माना तवील तक अमन व सलामती से ज़िंदगी काटता रहा था और अरब की मुक़ामी रियासतें और हुकूमतें इन जमहूरी हुकूमतों के ताबे हो कर ना सिर्फ अपने मुल्क में ख़ुशहाल और फ़ारिगुलबाल (बेफ़िक्र) थीं बल्कि अरबी हुक्मरानों का असर अरब की शुमाली और शुमाल मग़रिबी हुकूमतों तक वसीअ था। अरब की ये हुकूमतें साबी, अमालीक़ी और माओनी मशहूर हैं इन हुकूमतों के हुक्मरानों के ताल्लुक़ात और बाबिल और मिस्र के चौपान बादशाहों से ज़रूर थे। अरब की इन तीन हुकूमतों के हुक्मरानों के नामोनिशान हनूज़ (अभी तक) पूरे तौर से हमें मालूम नहीं हो सके हैं डाक्टर गिलीसर ने 33 बादशाहों के नाम यमन और हज़रत मौत की दर्याफ्तों से मालूम किए हैं जिनके कुतबे अरब की साबी और माओनी ज़मानों में से मिले हैं। अरब की अंदरूनी हुकूमतों और उन के हुक्मरानों की फ़ेहरिस्तें हमने सर सय्यद मर्हूम के ख़ुत्बात अहमदिया से ली हैं इन फ़ेहरिस्तों से बात बख़ूबी ज़ाहिर हो जाएगी कि अहले-अरब ज़माना-ए-क़दीम से अपनी आज़ादी और हुर्रियत (गु़लामी के बाद आज़ादी) क़ायम रखते आए थे। ज़माना ईस्वी की पहली छः सदीयों में ही ग़ैर मुल्की हुकूमतों ने उन्हें ग़ुलाम बनाने की पहले की निस्बत निहायत ज़्यादा कोशिश की थी।
रिसाला हज़ा में जिन मसीही व मुस्लिम कुतुब से बयानात नक़्ल किए गए हैं उन की फ़ेहरिस्त ज़ेल में दी जाती है ताकि नाज़रीन किराम अहले अरब के हालात से ज़्यादा आगाह होना चाहें तो इन कुतुब का ख़ुद मुतालआ फ़रमाएं मसलन (1) बाइबल मुक़द्दस (2) दी एन्शियंट जरू ट्रेडिशन एलिस्ट्रेटिड बाई दी मानियो मिनट्स मुसन्निफ़ा प्रोफ़ैसर फ़रेन्मल (3) दी ओल्ड टेस्टामेंट इन दी लाईट आफ़ दी हिस्टोरीकल रिकार्ड दस आफ़ अस्सिरिया ऐंड बेबिलोनिया मुसन्निफ़ा डाक्टर टी॰ जी॰ नेचर (4) दी हाइर क्रिटिसिज्म ऐंड दी मानियो मिनट्स मुसन्निफ़ा डाक्टर ए॰ ऐच॰ सीस (5) रिकार्ड दस आफ़ दी पास्ट जिल्द अव्वल व सोम चहारम व पंजम, एडिटेड बाई ए॰ ऐच॰ सीस (6) ऐक्स पोज़ीशन आफ़ एजैंट ऐंड दी ओल्ड टेस्टामेंट मुसन्निफ़ा जे॰ जी॰ डंकन, बी॰ डी॰ (7) बाई दी पाथ्स आफ़ बाइबल नॉलिज जल्द 5, 6, 8 इन कुतुब के सिवा हमने ज़ेल की इस्लामी कुतुब से भी काम लिया है। (8) ख़ुत्बात अहमदिया मुसन्निफ़ा सर सय्यद मर्हूम (9) रसूम जाहिलियत, (10) तारीख़-उल-हरमेन शरीफ़ैन। (11) तवारीख़ अहमदी (12) सीरत इब्ने हिशाम वग़ैरह।
अगर कोई नाज़रीन मसीही कुतुब माफ़ौक़ का मुतालआ करेगा तो उस पर ना सिर्फ नाक़िदें बाइबल (बाइबल पर तन्क़ीद करने वाले) की बेसरू पा थियूरियों की बेहूदगी बख़ूबी ज़ाहिर व रोशन हो जाएगी बल्कि उन पर मग़रिबी एशिया की इस क़दीम तहज़ीब व शाइस्तगी की शान ज़ाहिर हो जाएगी जिनकी बुनियाद हज़रत सिम बिन नूह की नस्ल ने डाली थी। जो तमाम एशीया और यूरोप, और मिस्र व अफ्रीक़ा की अक़्वाम की तहज़ीब व शाइस्तगी का उस्ताद अव़्वल थी जिसकी यादगारों से यूरोप के अजाइब ख़ाने भरे पड़े हैं मग़रिबी एशीया की तहज़ीब व शाइस्तगी के बानी ही अरबों के बाप दादा और भाई थे जिनसे जुदा हो कर मुल्क अरब में आबाद हुए थे और उन्हों ने अरब में आबाद हो कर उन अरबी हुकूमतों और रियासतों की बुनियाद डाली जिनका ज़िक्र मुस्लिम मौअर्रखीन (तारीख़ लिखने वाले) ने किया है ये हुकूमतें और रियासतें हज़ारों बरस तक अपनी हस्ती क़ायम रखकर आख़िरकार सन ईस्वी की इब्तिदा से 590 ई॰ तक के दर्मियान अपना सब कुछ ग़ैर मुल्की हुकूमतों को देकर उन की गु़लामी का तौक़ अपने गलों में डाल चुकी थीं। वस्त अरब में सिर्फ यहूदी और उनकी रियासत अपने दोस्तों के साथ आज़ादा रह गई थी जो ग़ैर मुल्की हुकूमतों के गु़लामी के ख़तरे में मुब्तला थी ग़रज़ कि हज़रत मुहम्मद की पैदाइश के ज़माने के क़रीब मुल्क अरब की मुल्की हालत निहायत मख़दूश (मशकूक) थी जिसका फिर आज़ाद होना ख़ुदा के मोअजज़ाना काम पर ही मौक़ूफ़ था।
रिसाला हज़ा अरब के फ़र्ज़न्दे आज़म के ज़माने पर ख़त्म हो गया है जिनकी ज़िंदगी और काम और फ़ुतूहात का बयान किसी दूसरे वक़्त के लिए छोड़ दिया गया है। मगर आपकी ज़िंदगी के काम का जो असर हमारे ज़माना की इन्सानी आबादी पर है इस का ज़िक्र हमने रिसाला हज़ा की पहली फ़स्ल में ही कर दिया है ताकि हमारे नाज़रीन-ए-इकराम रसूल अरबी की ज़िंदगी पर संजीदगी से ग़ौर फ़र्मा सकें और इस बात को सफ़ाई से देख सकें कि रसूल अरबी हरगिज़ कोई मामूली हस्ती ना थे बल्कि अक़्वाम दहर की इस्लाह व दुरुस्ती के लिए और उनकी तहज़ीब व शाइस्तगी की काया पलट करने के लिए ख़ुदा के इंतिज़ाम में एक मुंतख़ब शूदा वसीला थे। जिसकी इज़्ज़त व हुरमत की मुहाफ़िज़ आज के दिन कम अज़ कम दुनिया की 24 करोड़ आबादी मौजूद है जिसका मज़्हबी तौर से सबसे ज़्यादा इश्तिराक मसीहिय्यत से है। अगर हम मसीही दुनिया की मुस्लिम आबादी के इस लासानी इश्तिराक की क़द्र ना करें और इस मज़्हबी व एतकादी इश्तिराक से कोई बेहतर फ़ायदा उठाने की तज्वीज़ ना करें तो हम बिलाशक मसीहिय्यत के मुस्लिम दोस्तों को हाथ से खोएंगे। जिनकी ख़ाली जगह को भरने के लिए क़ियामत तक हमारी कोशिशें कारगर ना होंगी।
आख़िर में ये भी गुज़ारिश कर देना चाहते हैं कि तवालत के ख़ौफ़ की वजह से क़दीम अहले-अरब की बाबत हम अपनी तमाम मालूमात रिसाला हज़ा में मुरत्तिब नहीं कर सके जो कुछ रिसाला हज़ा में बयान किया गया है। वो क़दीम अरब की तारीख़ के चश्मों के मुताल्लिक़ है लेकिन इस में भी शुब्हा नहीं है कि हमने जो कुछ रिसाला हज़ा में हद्या नाज़रीन किया है वो ज़माना-ए-जाहिलियत के अरबों की अज़मत व शान दिखाने को काफ़ी है। अगर किसी को ज़्यादा हालात की तलाश हो तो वो।..... अपनी तलाश-ए-जुस्तजू के नताइज का इज़ाफ़ा कर सकता है। फ़क़त ज़्यादा हद्द-ए-अदब।
अहकर-उल-ईबाद, पादरी ग़ुलाम मसीह, ऐडीटर नूर-ए-अफ़्शां, लाहौर
मुक़द्दमा | |
पहली फ़स्ल | मुल्क अरब का बयान |
दफ़ाअ1 लफ़्ज़ अरब की वजह तस्मीया (नाम रखने की वजह) | |
दफ़ाअ2 अरब का हदूद अर्बा | |
दफ़ाअ3 मुल्क अरब का हमारे ज़माना की आबादी पर-असर | |
दूसरी फ़स्ल | बाइबल मुक़द्दस और अहलेअरुण |
तीसरी फ़स्ल | आसार-ए-क़दीमा में अहले-अरब की अज़मत |
दफ़ाअ1 तूफ़ान-ए-नूह से क़ब्ल अज़ मसीह 2000बरस का ज़माना | |
दफ़ाअ2 मिस्र में सल्तनत हिकसॉस का क़ियाम | |
दफ़ाअ3 अरब की साबी और माओनी सल्तनतें | |
चौथी फ़स्ल | तारीख-ए-इस्लाम में अरब के क़दीम बाशिंदे |
दफ़ाअ 1 अरब अल-बाइदा का बयान | |
दफ़ाअ 2 अरब अलमस्तमर। या परदेसी अरब | |
दफ़ाअ 3 अरब इला रबिया या ठीट अरबों का बयान | |
दफ़ाअ 4 अमालीक़ी हुकूमत का बयान | |
पांचवें फ़स्ल | आसारे-ए-क़दीमा की रोशनी में क़दीम अरबों का मज़्हब |
दफ़ाअ 1 मिस्र के आसारे-ए-क़दीमा में अरबों की ख़ुदा-परस्ती के शाहिद | |
दफ़ाअ 2 मिसोपितामिया में अरब वाहिद ख़ुदा के परस्तार ना रहे | |
दफ़ाअ 3 क़दीम अरबों का मज़्हब आसारे-ए-क़दीमा की रोशनी में | |
छठी फ़स्ल | तारीख़ इस्लाम के क़दीम अरबों का बयान |
दफ़ाअ 1 मौलाना अबदूस्सलाम और क़दीम उरेब | |
दफ़ाअ 2 ईसाईयों की बाबत रिवायत और उनकी क़द्र व मन्ज़िलत | |
दफ़ाअ 3। हनफा या हनफियत का बयान | |
सातवें फ़स्ल | अरब के हनफा में हनफ़ी रसूल की आमद की इंतिज़ारी |
आठवीं फ़स्ल | तारीख-ए-इस्लाम की रोशनी में क़दीम अरबों का मज़्हब |
दफ़ाअ 1 क़दीम अरब और सर सय्यद मर्हूम | |
दफ़ाअ 2 मौलाना मौलवी नज्म उद्दीन साहब देहलवी और अरबों का मज़्हब | |
नौवीं फ़स्ल | क़ब्ल अज़ हज़रत मुहम्मद अरब में ग़ैर अरबी मज़ाहिब की हस्ती वाशाअत |
दफ़ाअ 1 अरब में ईरानी मज़्हब | |
दफ़ाअ 2 अरब में यहूदी क़ौम की आमद और यहूदियत की इशाअत | |
दफ़ाअ 3 अरब में ईसाई मज़्हब की नश्वो नुमा का बयान | |
दसवीं फ़स्ल | हज़रत मुहम्मद की ज़िंदगी के इब्तिदाई ज़माने का अरब |
पहली फ़स्ल
मुल्क-ए-अरब का बयान
हिन्दुस्तान जन्नते निशान के बाशिंदे ख़ुसूसुन हिंदू और मसीही साहिबान जो हिंद की क़ुदरती नेअमतों के वारिस हैं। जो इस के पहाड़ों और इस की वादीयों, इस के मैदानों की ज़रख़ेज़ी और इस के दरियाओं और चश्मों की ज़ररज़ी (ज़रख़ेज़ी) के ख़ूगर (आदी) हैं। जो हिंद की क़दीम, शानदार तहज़ीब व शाइस्तगी के दौर इस की सनअत व हिरफ़त्त और इस के फ़ुनून-ए-लतीफ़ा से वाक़िफ़ व आगाह हैं। जब कभी अरब और अहले-अरब का ज़िक्र सुनते तो उमूमन नाक भू चढ़ा कर कह दिया करते हैं कि अरे मुल्क-ए-अरब भी किसी मुहज़्ज़ब इन्सान के ग़ौर व फिक्र के क़ाबिल मुल्क है? जिसमें ना कोई शानदार पहाड़ों का सिलसिला है जिसमें ना कोई दरिया है और ना कोई झील या चशमा या कोई आबशार है। जहां ना कोई ऐसा मैदान है जहां खेती बाड़ी हो ना कोई तिजारत की मंडी है ना फूल और फलों के बाग़ात हैं। ना वहां सनअत व हिरफ़त ने और फ़ुनून-ए-लतीफ़ा ने जन्म लिया है। ना वहां की तहज़ीब व शाइस्तगी ही मशहूर है। वो एक बन्जर ज़मीन है। जिसे रेत के टीले क़ुद्रत ने मीरास में दीए हैं। वो जंगली और वहशी जानवरों की भी सुकूनत गाह कभी नहीं बना वहां ख़ुदा ने कभी कोई ख़ूबसूरत परिंदा भी ऐसा पैदा नहीं किया जो मुहज़्ज़ब इन्सानों की तवज्जोह को अपनी तरफ़ खींचे। ऐसे अजीबो-गरीब मुल्क की तरफ़ और उस के बाशिंदों की तरफ़ कौन ध्यान दे सकता है। हिंद जैसे मुल्क के आगे उस की क्या हक़ीक़त हो सकती है?
इस में शुब्हा नहीं कि हर मुल्क को ख़ुदा ने यकसाँ क़ुदरती दौलत तक़्सीम नहीं की हिन्दुस्तान को जिन नेअमतों से ग़नी (दौलतमंद) किया है वो दुनिया के हर मुल्क के हिस्से में नहीं आई हैं। तो भी हर एक मुल्क अपनी-अपनी किसी ना किसी बात में ख़ुसूसीयत रखता है और उस की वही ख़ुसूसीयत उस की शाने खुसूसी है। मुल्क अरब की बाबत जो ख़यालात ज़ाहिर किए जाते हैं वही उस की शान-ए-ख़ुसूसी के मज़हर (ज़ाहिर करने वाले) हैं। इल्म दोस्त इन्सान के लिए इस में भी बहुत कुछ सीखने को मौजूद है। कामिल और जाहिल इन्सानों के लिए हिन्दुस्तान की शान भी सिफ़र के बराबर है। इसलिए हम अपने नाज़रीन किराम के रूबरू मुल्क-ए-अरब को पेश करते हैं ताकि वो इस बाबरकत मुल्क पर और इस के बाशिंदों पर ग़ौर व ख़ौज़ करें और देखें कि ये मुल़्क किस बात में दीगर ममालिक के मुक़ाबिल अपनी शान ख़ुसूसी रखता है।
हम ये बात भी ज़िक्र के क़ाबिल ख़याल करते हैं कि फ़स्ल हज़ा में हम मुल्क अरब के मुफ़स्सिल हालात पेश नहीं कर सकते ना हमारा ऐसा इरादा है। मगर हम मुल्क अरब की तरफ़ नाज़रीन किराम की इस फ़स्ल के बयान पर तवज्जोह ही दिलाना चाहते हैं कि वो मुल्क अरब के बाशिंदों को अपने दिल में जगह देकर इस पर ज़रूर ग़ौर व फिक्र करें। इस की तरफ़ से दिलों से नफ़रत को निकाल डालें। क्योंकि इस मुल्क में भी क़ुद्रत ने हमारे लिए बसीरतें और हमारे लिए अजाइब व ग़रायब रखे हैं जो आम तौर से हिंद की शान व बड़ाई की रोशनी के मुक़ाबिल निहायत ख़फ़ीफ़ (मामूली) और हल्की चीज़ें मालूम होते हैं। लेकिन अगर हम इन छोटी चीज़ों पर ग़ौर व फिक्र करके देखेंगे तो वो ज़रूर अज़ीमुश्शान हक़ाइक़ दिखाई देंगी। मुन्दरिजा ज़ैल बयान में मुल्क अरब की बाबत चंद सतही बातें दर्ज व बयान की जाती हैं।
दफ़ाअ 1 : लफ़्ज़ अरब की वजह तस्मीया (नाम रखने की वजह)
बाअज़ लोग अरब के नाम को लफ़्ज़ अर्बा की तरफ़ जिसके मअनी हमवार बयान के हैं और जो सूबा थामा का एक ज़िला है मन्सूब करते हैं। और बाअज़ लोग लफ़्ज़ एबर की तरफ़ मन्सूब करते हैं। जिसके मअनी ख़ाना-ब-दोश के हैं क्योंकि ज़माना साबिक़ में अरब ख़ाना-ब-दोश थे। इस सूरत में इस इश्तिक़ाक़ लफ़्ज़ इब्रानी जिसकी यही वजह तस्मीया (नाम रखने की वजह) है साबित होता है। बाअज़ लोगों के नज़्दीक ये लफ़्ज़ इबरी मुसद्दिर अरब से निकला है। जिस के माअनी नीचे जाने के हैं। और इस से वो मुल्क मुराद है जिसमें सेमटीक यानी औलाद-ए-साम बिन नूह जो दरिया-ए-फ़ुरात के किनारे पर रहती थी। आफ़्ताब ग़ुरूब होता हुआ मालूम होता था। बोकार्ट साहब के नज़्दीक लफ़्ज़ अरब एक फ़नीशन लफ़्ज़ है जिसके मअनी अनाज की बालों के हैं से मुश्तक़ हुआ है। लफ़्ज़ अर्बा एक इबरी लफ़्ज़ भी है जिसके मअनी बन्ज़र ज़मीन के हैं। और तौरेत में शाम और अरब की हद-ए-फ़ासिल के तौर पर बारहा बोला गया है। ख़ुत्बात अहमदिया सफ़ा 17 हाशिया।
लफ़्ज़ अरब की वजह तस्मीया (नाम रखने की वजह) में कोई ऐसी बात नज़र नहीं आती जो किसी के दिल को अपनी तरफ़ माइल करे। बज़ाहिर इस से यही मालूम होती है कि मुल़्क अरब एक ऐसा मुल्क है। जिसमें दरियाओं, झीलों और चश्मों की सख़्त क़िल्लत है वो बिल्कुल एक ख़ुश्क मुल्क है। जिसके पहाड़ों और वादीयाँ नबातात की नेअमत से महरूम हैं। इस में पानी की जो क़द्रो-क़ीमत है वो सहराई आज़म अफ़्रीक़ा को छोड़कर किसी दूसरे मुल्क में नहीं है तो भी इस की बाबत ये बात नहीं कही जा सकती कि इस में बनी-नूअ इन्सान और हैवानात और परिंदों वग़ैरह की हयात के लिए पानी बिल्कुल नापिद है। क़ुद्रत ने इस ख़ुश्क सर-ज़मीन को भी पानी के चश्मे अता फ़रमाए हैं। जिनके एक एक क़तरे की क़ीमत ज़िंदगी की हमअना है।
दफ़ाअ 2 : अरब का हदूद अर्बा
मुल्क-ए-अरब बर्र-ए-आज़म एशिया का मग़रिबी हिस्सा है। क़ुदरती तौर से उस के हदूद निहायत वसीअ हैं। पर मुल्की तौर से मुल्क अरब का हदूद अर्बा हस्ब-ज़ैल है :-
उस के मशरिक़ में बहीरा अरब और ख़लीज-ए-फारिस और दरिया-ए-फ़रात वाक़ेअ हैं। इस के शुमाल में शाम और शुमाल मग़रिब में मुल्क कनआन और मिदियान और कोह शईर का सिलसिला वाक़ेअ है और मग़रिब में ख़लीज अक्काबह और बहरे क़ुलज़ुम है। इस के जुनूब में बहर-ए-हिंद है जो सर-ज़मीन इन हदूद के अंदर वाक़ेअ है उसी को मुल्क अरब कहा जाता है। सर सय्यद लिखते हैं कि :-
अरबी जुग़राफ़िया दानों ने जज़ीरा अरब को पाँच हिस्सों में तक़्सीम किया है। थामा, हिजाज़, नज्द, अरुज़ी, यमन। ग़ैर मुल्कों के मुअर्रिख़ और जुग़राफ़िया दान जो ये समझे हुए हैं कि इस मुल्क को हिजाज़ इस सबब से कहते हैं कि हाजी और ज़ाइरों का आम मरजाअ (रुजुअ करने की जगह) है वो बड़ी ग़लती पर हैं। क्योंकि लफ़्ज़ी मअनी हिजाज़ के उस चीज़ के हैं जो दो चीज़ों के दर्मियान वाक़ेअ हो। तमाम मुल्क का ये नाम इस पहाड़ की वजह से पड़ गया है जो शाम और यमन के दर्मियान बतौर महाब के वाक़ेअ है। ख़ुत्बात अहमदिया सफ़ा 22-23
मगर सर सय्यद अहमद का अपना ख़याल है कि अरब ठीक तौर से दो हिस्सों में मुनक़सिम हो सकता है। एक अरब-उल-हिजर यानी काहिस्तानी अरब जो ख़ाकनाए सोएज़ से लेकर बहर-ए-अह्मर और बहरे अरब तक फैल रहा है। दूसरा अरब अल-वादी यानी अरब का मशरिक़ी हिस्सा। मगर बतलीमूस पुराने जुग़राफ़िया दान ने अरब को तीन हिस्सों में तक़्सीम किया है। अरब-उल-हिजर यानी पथरीला अरब, और अरब-उल-उमूर यानी अरब आबाद, अरब अल-वादी यानी रेगिस्तानी अरब।”
आजकल नक़्शों में अरब-उल-हिजर में सिर्फ वो हिस्सा मुल्क शामिल रखा गया है जो ख़लीज उक़्बा के दर्मियान वाक़ेअ है मगर इस तक़्सीम के लिए कोई मोअतबर सनद नहीं। बतलीमूस के जुग़राफ़िया के मुताबिक़ अरब-उल-हिजर को ख़लीज सुवेस से लेकर यमन या अरब अल-मामूर की हद तक शुमार करना चाहिए। वो लोग जिनके नज़्दीक बतलीमूस ने अरब अल-उमूर नुक़्ता यमन का तर्जुमा किया है बिलाशक ग़लती पर हैं। क्योंकि इस पुराने जुग़राफ़िया दान के ज़माने में अरब-उल-हिजर का जुनूबी हिस्सा ग़नजान आबाद था और तिजारत के लिए मशहूर था। जिसकी वजह से उस ने तमाम जज़ीरे के इस हिस्से का अरब अल-मामूर नाम रख दिया। किताब ईज़न।
मुल्क अरब की वुसअत 1000000 लाख मुरब्बा मील की है। जिसकी आबादी यूरोप के आलमगीर जंग से पेश्तर 5000000 थी जो निहायत क़लील मालूम होती है।
मुल्क अरब के दो शहर निहायत क़दीम से मशहूर हैं। एक को मक्का और दूसरे को मदीना कहते हैं। मुस्लिम तारीख़ इस्लाम से ज़ाहिर है कि ये हर दो शहर अमालिक़ के ज़माने के हैं ग़ालिबन अस क़ौम की यादगार हैं। लेकिन मुस्लिम रिवायत से ये बात भी पाई जाती है कि शहर मक्का और काअबा को हज़रत इब्राहिम व इस्माईल ने बनाया था। इस इख़्तिलाफ़ की वजह तारीख़ इस्लाम में बयान नहीं है।
दफ़ाअ 3 : मुल्क-ए-अरब का हमारे ज़माना की इन्सानी आबाद पर असर
हिन्दुस्तान जैसे आबाद मुल्क की नज़र में अरब और इस के बाशिंदे बिलाशक हक़ीर ख़याल किए जा सकते हैं। पर अगर अरब और इस की आबादी का ख़ारिजी ममालिक पर असर देखा जाये तो उस के मुक़ाबिल हिंद व चीन के पत्ते काँप जाते हैं। ज़ेल में हम दुनिया के ममालिक में मुसलमानों का शुमार जो मुसलमान अख़बारात ने शाएअ किया है देकर दिखाते हैं कि मुल़्क अरब और इस के बाशिंदों ने किस क़द्र दुनिया के ममालिक और उन की आबादी को ज़ेर-ए-असर कर रखा है। मुसलमानों ने कुल दुनिया में अपनी आबादी हस्ब-ज़ैल बयान फ़रमाई है जो मद्रास के एक अंग्रेज़ी अख़्बार “मुस्लिम हेरल्ड” ने शाएअ फ़रमाई है।
हस्पानीया 700 | जज़ाइर रूस 13589 |
इंग्लिस्तान 2300 | मीज़ान 13901566 |
ऑस्ट्रिलिया 250 | दुनिया के दूसरे हिसस की मुस्लिम आबादी हस्ब-ज़ैल है :- |
फ़्रांस 2510 | अनातूलिया मूसिल और तुर्क के मशरिक़ी हिसस 105534224 |
हंगरी 447 | जज़ीरा क़बरस 59321 |
पुर्तगाल 121 | इराक़ 185433 |
जबरालिटर 1300 | शाम व फ़िलिस्तीन 1810521 |
रूस 939874 | जज़ाइर अरब और अरब 7389079 |
रुमानीया 59485 | ईरान 9881200 |
योरपी टर्की 1682000 | बुख़ारा चिनवा और तुर्किस्तान वग़ैरह 12465260 |
अल्बानिया 661248 | अफ़्ग़ानिस्तान 78000000 |
बोसनिया व हरज़ीगोवीना 571482 | बलोचिस्तान 811000 |
सरोया (मॉन्टी नगरो) 506438 | हिन्दुस्तान 73286554 |
बुलग़ारिया व मशरिक़ी रुमिलिया 697386 | अमरीका 83339 |
यूनान, मनास्तर जुनूबी | दुनिया के कुल मुसलमानों का शुमार 34000000 |
मक़िदूनिया व जज़ायर 410240 | दीगर मज़ाहिब के पैरों की तादाद हस्ब-ज़ैल है :- |
चीन ख़ास 429900 | ईसाई 49800000 |
हिन्दुस्तानी चीन 4425330 | बुध मज़्हब 454000000 |
मंगोलिया 271000 | हिंदू 207000000 |
यनान व नाओचीन 478000 | यहूदी 1500000 |
यहूदी 1500000 | दहरिया 65000000 |
कंतंज चीन 4220000 | तमाम दुनिया की आबादी 1719000000 |
स्याम 1098722 | जज़ाइर रूस 13589 |
जज़ाइर सुमात्रा ओजावा 32027753 | |
आस्ट्रेलिया 28189 | |
अफ़्रीक़ा 1118604390 |
और दुनिया-ए-इस्लाम की आबादी इस के 1/5 है। पैग़ाम सुलह लाहौर मत्बूआ 7 जून 1925 ई॰
मुल्क-ए-अरब और इस के बाशिंदों के मज़्हब के असर को ख़ारिजी दुनिया पर देखकर कौन शख़्स है जो मुल़्क अरब की इज़्ज़त के ख़याल से मुतास्सिर नहीं हो सकता। गो यह मुल्क दुनिया के दीगर बड़े ममालिक जैसी क़ुदरती ख़ूबसूरती और दौलत ना रखता हो तो भी ये एक हैरत-अंगेज़ हक़ीक़त है कि मुल़्क अरब की इज़्ज़त व हुरमत का ख़याल कम अज़ कम आज की दुनिया के 23 करोड़ बनी-आदम पर ज़रूर है। दुनिया में आज के दिन जो मुल़्क अरब की इज़्ज़त है वो हिन्दुस्तान जन्नतनिशॉँ को भी नसीब नहीं है। पस ये वो बदीही हक़ीक़त है जिसने हमें मुल्क अरब के क़दीम हालात दर्याफ़्त करने और लिखने पर आमादा किया है कि दर्याफ़्त करें कि क़ुद्रत ने इस मुल्क को किस वजह से ये इज़्ज़त व अज़मत अता फ़रमाई है? इस में ख़ुदा ने वो क्या ख़ुसूसीयत रखी थी कि इसे दुनिया में वो इज़्ज़त हासिल हुई जो ऊपर के आदाद व शुमार से ज़ाहिर है।
मुल्क अरब की बाबत ख़्वाह ग़ैर-अरबी ममालिक के बाशिंदों का कैसा ही अदना ख़याल हो पर उस की ख़ुसूसियात में बाअज़ बातें आज तक ऐसी हैं जो किसी दूसरे मुल्क और बाशिंदे को हासिल नहीं हैं मुल्क अरब ख़ारिजी ममालिक का कभी मेहमान नवाज़ नहीं बना। ना इस के बाशिंदों ने कभी दूसरों की ग़ुलामी में रहना पसंद किया। मुल्क अरब की आबो-हवा ग़ैर-ममालिक के बाशिंदों के मुवाफ़िक़ नहीं हुई। वहां किसी ग़ैर-मुल्क के बादशाह ने अपने लिए ना अपने लश्कर की हिफ़ाज़त व परवरिश के लिए कुछ पाया। ना ख़राज व महसूल के हुसूल की उन्हें अहले-अरब से कभी उम्मीद ना हुई ना उन्हों ने कभी अरब पर हुक्मरानी करना या उसे फ़त्ह करना आसान समझा ना इब्तिदा से आज तक ग़ैर-अरबों की मुल़्क-ए-अरब में ज़िंदगी दराज़ हुई। तमाम दुनिया के ममालिक में सिर्फ मुल्क अरब ही एक ऐसा मुल्क है जो इब्तिदा से आज तक ग़ैर ममालिक के मुक़ाबिल अपनी आज़ादी और हुर्रियत का अलम (झंडा) बुलंद रखता आया है। जिसके बाशिंदे आज़ाद चले आए हैं जिन्हों ने ना कुछ अपने मुल्क में बनाया जिसे दुश्मन आकर बर्बाद कर दें ना अपने दुश्मन की लूट के लिए अपने घरों में कुछ जमा किया। जिस पर दुश्मन को लालच आ सके। उन्होंने जो कुछ बनाया और कमाया अरब से बाहर निकल कर बनाया। पर अपने वतन को उन्होंने कभी ज़ेब व ज़ीनत ना दी जिस पर ग़ैर-अरब रश्क करें।
दूसरी फ़स्ल
बाइबल मुक़द्दस और अहले-अरब
अहले-अरब की बाबत जो कुछ दुनिया को मालूम हुआ है वो इस्लामी ज़माने का और मुसलमानों की मार्फ़त मालूम हुआ है वो भी इस क़द्र नातमाम है कि क़दीम अहले-अरब के सही हालात मुस्लिम तहरीरात से मालूम करना क़रीबन दुशवार है। इस का हरगिज़ मतलब ये नहीं कि तारीख़ इस्लाम क़दीम अहले-अरब की बाबत बिल्कुल ख़ामोश चली आई हो। बल्कि मतलब ये है कि तारीख़ इस्लाम ऐसी रिवायत पर मबनी है कि जो ज़्यादातर दर्जा एतबार से गिरी हुई हैं वो रिवायत ज़्यादातर रावियों के एतबार पर मबनी हैं। जिनकी ताईद व तस्दीक़ उन अक़्वाम की तारीख़ से नहीं होती जो अरब के क़ुर्ब व जुवार (इर्दगिर्द) में आबाद थीं। इस वजह से अहले-अरब के क़दीम हालात मालूम करने के लिए मुल्क अरब के पड़ोस की अक़्वाम की तरफ़ रुजू करना लाज़िम आया है पड़ोस की अक़्वाम में सबसे पहली क़ौम यहूदी क़ौम है। जिसकी तारीख़ मोअतबर होने के सिवा निहायत क़दीम है। इस तारीख़ का नाम बाइबल है। ज़ेल का बयान हम बाइबल से पेश करते हैं इस से इज्मालन अहले-अरब के हालात पर रोशनी पड़ेगी।
1. बाइबल मुक़द्दस के मुवाफ़िक़ बाद तूफान-ए-नूह हज़रत साम बिन नूह की औलाद ने फ़ारस, मिसोपितामिया, शाम, मुल्क अरब को आबाद किया। ख़ासकर हज़रत याक़तान की नस्ल अरब में ही आबाद हुई। ऊज़ी, मस, अरफ़क़स्द, अल्मुदाद, दक़ला, होमिला, सबा औराल, ऊबाल ओख़ीर, सलफ़, हसा, मादत, यूबाब, अबी माइल, शेबा, ने अरब में सुकूनत इख़्तियार की। देखो पैदाइश की किताब का दसवाँ बाब।
अब अगर अरब का नक़्शा देखा जाये तो अस्मा माफौक़ में से लेकर कसीर नाम मुल्क अरब के नक़्शे पर लिखे मिलेंगे। इस से हम ये नतीजा बाआसानी से अख़ज़ कर सकते हैं कि हज़रत साम बिन नूह की नस्ल से पहले-पहल मुल्क अरब आबाद हुआ था। यहां अहले-अरब की फ़ज़ीलत व खुसूसियत ये बयान की जा सकती है, कि ये मुल़्क वाहिद ख़ुदा के परस्तारों की मिल्कियत बनाया गया था। ख़ुदा सेम के डेरों में रहने वाला बयान हुआ है।
पैदाइश की किताब के दसवें बाब से ये पता भी मिलता है कि हज़रत याफत की औलाद ने यूरोप में सुकूनत इख़्तियार की। और हाम की नस्ल के कुछ हिस्से ने ईरान में मिसोपितामिया, असूर्या, कनआन, मुल्क मिस्र में रिहाइश इख़्तियार की गोया हाम और साम की नस्ल ही एक दूसरे के क़रीब रह गई। याफत की तमाम नस्ल और तमाम झगड़ों से अलग हो गई। जो बाद के ज़माने में मिसोपितामिया और मिस्र और अरब व कनआन में पैदा होने को थे।
बाइबल से मालूम होता है कि सबसे पहले हुकूमत व सल्तनत की बुनियाद हाम बिन नूह के ख़ानदान में शुरू हुई। नमरूद ने इस की बुनियाद डाली। इस के बाद मग़रिबी एशीया के ममालिक में ज़बरदस्त कौमें और हुकूमतें क़ायम हुईं। जिनका बयान इस इख़तसा में आना मुहाल है। अरब में भी ज़बरदस्त कौमें और हुकूमतें पैदा हुईं जिनका इज्मालन ज़िक्र बाइबल में आया है। इस इज्माल का बयान बतौर मिसाल ज़ेल में बाइबल से किया जाता है। ताकि मालूम हो कि मुल़्क-ए-अरब क़दीम से तहज़ीब व शाइस्तगी में दीगर अक़्वाम से हरगिज़ पीछे ना था।
2. अरब की क़दीम अक़्वाम में माओनी और अमालीक़ कौमें शामिल हैं। क़ौम अमालीक़ मुल्क-ए-कनआन के जुनूब में उस सर-ज़मीन में आबाद दिखाई गई है जो नहर सोयुज़ और मिदियान और ख़लीज अक्काबह और कोहे सीना के दरम्यान है।
जब बनी-इस्राईल मुल्क-ए-मिस्र से निकल कर कोहे सीना के पहाड़ों में पहुंचे तो उन से इसी क़ौम अमालीक़ ने सबसे पहले जंग की थी। मूसा की दुआओं से सिर्फ इसी जंग में बनी-इस्राईल ने कामयाबी हासिल की थी। जिससे इस जंग की एहमीय्यत का आसानी से अंदाज़ा किया जा सकता है। (ख़ुरूज 17:18:16)
क़ौम-ए-अमालीक़ ना सिर्फ कोहिस्तान सीना में ही आबाद थी बल्कि गिनती 13:29 से मालूम होता है कि क़ौम अमालीक़ मुल्क-ए-कनआन के दक्षिण में कनआन की दीगर अक़्वाम के साथ आबाद थी।
और जब बनी-इस्राईल ने मुल्क-ए-कनआन की जासूसी क़ादिस बरनेअ से की और जासूसों ने कनआन की बाबत दिल-शिकन बातें इस्राईल को सुनाईं तो बनी-इस्राईल के नाफ़रमानों ने चाहा कि वो कनआन के जुनूब से ही कनआन में जा घुसें। तब मूसा ने उन्हें ये कहकर मना किया कि देखो यहां अमालीक़ और कनआनी तुम्हारे सामने हैं तुम मारे जाओगे। और ऐसा ही हुआ। गिनती 15:40 ता 45
गिनती की किताब 20224 से अमालीक़ की बाबत निहायत बड़ी बात मालूम होती है जिसे हम बलआम के अल्फ़ाज़ में पेश करते हैं। मूसा कहता है फिर उसने अमालीक़ को देखा और अपनी मिस्ल ले चला। और बोला अमालीक़ क़ौमों के दर्मियान पहला था। पर इस का अंजाम नेस्ती नाबूदी होगा।
इस के सिवा हज़रत मूसा ने अमालीक़ की बाबत ख़ास तौर पर से बनी-इस्राईल को वसीयत की कि जब तू मुल्क-ए-कनआन का वारिस हो जाए तो अमालीक़ का ज़िक्र आस्मान के नीचे से मिटा देना देखो इस्तिस्ना 25:10 ता 19 तक।
क़ाज़ीयों के ज़माने में अमालीक़ मिदयानियों के साथ हो कर बनी-इस्राईल को मुल्क-ए-कनआन में सताते रहे। उन की जिदऊन इस्राईली ने क़ुव्वत व ताक़त को तोड़ा। 6:33, 7:12, 13
इस के सिवा क़ुज़ात 10:10 ता 12 तक बनी-इस्राईल के दुश्मनों की फ़ेहरिस्त में मिद्यानी और अमालीक़ और मामोनी सफ़ाई से मज़्कूर हुए हैं। जिससे ज़ाहिर है कि ये तीनों कौमें हम-अस्र हमज़बाँ थीं। जो साहिब-ए-इक़्तिदार थीं। और अमालीक़ का कनआन में इस क़द्र इक़्तिदार था कि एफ्राईम के इलाक़े में पहाड़ अमालीक़ के नाम से नामज़द थे। क़ाज़ी 12:15 इस के सिवा बनी-इस्राईल के पहले बादशाह साऊल की ज़िंदगी क़ौम अमालीक़ को ही फ़ना करने में ख़त्म हुई। 1 शमुएल 14:48, 15:31 आख़िरकार हज़रत दाऊद ने अमालीक़ और उसके हलीफ़ों की क़ुव्वत और ताक़त को ऐसा तोड़ा कि फिर उन की नुमाइश मुल्क कनआन में नहीं पाई। 1 शमुएल 27:8 से 12, 30:1, 13, 18
अमालीक़ की सुकूनत गाह की बाबत 1 शमुएल 27:8 में आया है कि “और दाऊद और उस के लोग चढ़े और जसूरियों और जज़रियों और अमालीक़ियों पर हमला किया कि वो सूर की राह से लेके मिस्र के सवाने तक इसी सर-ज़मीन में क़दीम से बस्ते थे। फिर ये कि सूकीनी अमालीक़ियों में से निकले और साऊल ने अमालीक़ियों को हविला से लेके शूर तक जो मिस्र के सामने है मारा। 1 शमुएल 15:7
बाइबल का अमालीक़ की बाबत बयान माफ़ौक़ इस बात का ज़रूर शाहिद है कि जब बनी-इस्राईल मुल्क मिस्र से निकले उस वक़्त व ज़माने में क़ौम अमालीक़ मुल्क के ही हिस्से पर क़ाबिज़ थी जिसके शुमाल में मुल्क-ए-कनआन और मग़रिब में नहर सोयुज़ और जुनूब में बहीरा क़ुलज़ुम और मशरिक़ में ख़लीज अक्काबह और कोह हूर का सिलसिला और मुल्क अदूम है। मगर इस के हरगिज़ ये मअनी नहीं लिए जा सकते कि अमालीक़ का क़ब्ज़ा और उन की हुकूमत इस मुल्क से बाहर ख़ुसूसुन मुल्क अरब में मुतलक़ ना थी। ये क़ौम सिर्फ़ मुल्क मज़्कूर ही में महदूद व मुकीद (क़ैद) थी। हमें बाइबल से मालूम हो चुका है कि ये क़ौम क़ाज़ीयों और साऊल व दाऊद बादशाहों के ज़माने में दरिया यर्दन के मशरिक़ मुल्क पर हमला-आवर हुई और ख़ुसूसुन साऊल से ख़तरनाक जंग किए।
बयान माफ़ौक़ से ये बात भी ज़ाहिर होती है, कि अमालीक़ की हलीफ़ अक़्वाम भी ज़बरदस्त और अरब की ही रहनेवाली थीं। मसलन अमालीक़ की हलीफ़ अक़्वाम में अरब की माओनी, मिदयानी, सैदानी, केनी, जस्वरी, जज़री, कनआनी अक़्वाम मज़्कूर हुई हैं और अमालीक़ क़ौम को अक़्वाम में पहला दर्जा दिया गया है। पस बाइबल के बयान से क़ौम अमालीक़ का ज़ोर सिर्फ इस बात से ज़ाहिर किया गया है कि ये क़ौम हुकूमत-ए-मिस्र और कनआन की सरहद और उस के आस-पास हो कर गोया मुल्क-ए-अरब की मुहाफ़िज़त का काम कर रही थी। जिसकी बाबत ये बात बयान नहीं की गई, कि अरब में क़ौम अमालीक़ का इख़्तियार व इक़्तदार कहाँ तक था।
बाइबल के बयान से बख़ूबी रोशन है कि मामोनी और अमालीक़ हम-अस्र अक़्वाम थीं जो मुल़्क मिस्र और कनआन की सरहद पर ज़बरदस्त इख़्तियार व इक़्तिदार रखती हैं।
3. अरब में हज़रत इब्राहिम इब्रानी की नस्ल का आबाद होना हज़रत इब्राहिम का ज़माना मुल्क अरब के इक़बाल और सर्फ़राज़ी का ज़माना था। इस ज़माने तक अरब में हुकूमत व रियासत क़ायम हो चुकी थी। जो ना सिर्फ अरब की हिफ़ाज़त कर सकती बल्कि मुल्के मिस्र में हुकूमत को ज़ेर करके इस पर पाँच सौ बरस तक हुकूमत कर सकती थी पस ऐसे ज़माने में मुल्क अरब की बाबत हरगिज़ ये ख़याल नहीं किया जा सकता कि मुल़्क-ए-अरब गोया ग़ैर-आबाद था। जिसमें आबाद हो कर हज़रत इस्माईल और एसो और लूत की औलाद गोया एक दम मुल्क-ए-अरब की मालिक मुख़्तार बन गई थी। ऐसा ख़याल करना वाक़ियात व हक़ीक़त के सरासर ख़िलाफ़ है।
हज़रत इब्राहिम के साथ वाहिद ख़ुदा की परस्तिश का एतिक़ाद आलमगीर अक़ीदा बनने के लिए शुरू हुआ। इब्राहिम की नस्ल में जो हज़रत इस्हाक़ से पैदा होने को थी इस एतिक़ाद ने जड़ पकड़ी। हज़रत इस्माईल और उस की वालिदा को किसी ना किसी वजह से हज़रत इब्राहिम से जुदा हो कर बेर सबाअ में सुकूनत इख़्तियार करना पड़ी और हज़रत हाजिरा ने हज़रत इस्माईल के लिए एक मिस्री औरत ली। जिससे आपकी शादी कराई गई और वो ब्याबान फ़ारान यानी अमालीक़ के मुल्क में रही। पैदाइश 21:12
हरसिहा ममालिक में ख़ुशगवार, ताल्लुक़ात क़ायम थे और हज़रत हाजिरा और इस्माईल का अमालीक़ के मुल्क में रहना और हज़रत इस्माईल का मिस्री औरत से शादी करना उस के ख़ानदान से खुदा-ए-वाहिद के एतिक़ाद को ज़रूर दूर करने का सबब हुआ होगा। क्योंकि अमालीक़ ख़ासकर मिस्री बुत-परस्त थे। ग़रज़ कि फ़ारान के ब्याबान में हज़रत इस्माईल के बारह बेटे पैदा हुए। और बढ़े। बाद को उन्होंने शुमाली अरब में जगह हासिल की। हज़रत इस्माईल के बेटों के नाम हस्ब-ज़ैल हैं :-
नबायोत, क़ीदार, अदबिएल, मिब्साम, मिश्मा, दूमा, मस्सा, हदद, तैमा, यतूर, नफ़ीस और क़िदमा। पैदाइश 25:13 ता 15 तक इस के साथ ही हज़रत इब्राहिम के वो बेटे भी अरब में आबाद हुए, जो हज़रत क़तूरह से थे। उन के नाम हस्ब-ज़ैल हैं मसलन, ज़िम्रान, युक़्सान, मिदान, मिदियान, इस्बाक़, सूख़, और युक़्सान से सबा और व ददान पैदा हुए। और ददान के फ़र्ज़न्द असूरी, लतूसी, और लूमी थे। और मिदियान के फ़र्ज़न्द ऐफ़ा और इफर और हनूक और अबीदा आ और इल्दआ थे। पैदाइश 25:1 ता 4
हज़रत इस्माईल की नस्ल और बनी क़तूरह का अरब में जगह हास कर लेना हरगिज़ कोई आसान काम ना था। उन दिनों में अमालीक़ी हुकूमत का तमाम अरब पर क़ब्ज़ा था। जो मज़्हबी तौर से बुत-परस्त हुकूमत थी। पर चूँकि हज़रत इस्माईल और उस के बेटे फ़ने जंग में माहिर थे। और बनी क़तूरह भी इस फ़न में कुछ कमक़दर ना थे। अरब के हुक्मरानों ने उन्हें इस वजह से अपने मुल्क में ख़ुशी से जगह दी होगी कि वो उन के मुआविन व मददगार बन जाएं। बाद को हमें हज़रत इब्राहिम की अरबी नस्ल की फ़ुतूहात का बहुत कम ज़िक्र मिलता है। अलबत्ता हज़रत यूसुफ़ की ज़िंदगी के वाक़ियात की बिसमिल्लाह, मिदयानियों और इस्माईलियों के ज़िक्र से होती है। हमें बतलाया जाता है कि लायानी और इस्माइली सौदागर हज़रत यूसुफ़ को ख़रीद कर मिस्र में ले गए थे। और उन्हों ने उसे फ़ौतीफ़ार मिस्री हाकिम के पास बेचा था। पैदाइश 37:23 ता 36
इस बयान से कई बातें ज़ाहिर हैं। इनमें से पहली बात तो ये है कि जिस वक़्त हज़रत यूसुफ़ मिस्र में बेचा गया उस वक़्त हज़रत इस्माईल की अरबी औलाद मिदयानियों से अच्छा ख़ास्सा रब्त-ज़ब्त रखती थी। दोम ये कि मिदयानी और इस्माईली उस ज़माने में तिजारत पेशा थे। सोम ये कि उस ज़माने में मुल्के कनआन और अरब में ऐसे ताल्लुक़ात क़ायम थे कि एक मुल्क का सौदागर दूसरे मुल्क में आसानी से आ जा सकता था। तिजारती माल की ख़रीद व फ़रोख़्त कर सकता था। चहारुम ये कि अरब व कनआन व मिस्र में तिजारत खुली थी ऐसा मालूम होता है कि मिस्र में चौपान हुक्मरान हुकूमत कर रहे थे। ताज्जुब नहीं कि ये चौपान हुक्मरान अमालीक़ी हूँ।
4. हज़रत इस्माईल व बनी क़तूरह के अरब में आबाद होने के बाद हज़रत इस्हाक़ के बेटे हज़रत ऐसो और आप की औलाद ने भी अरब के शुमाल मग़रिबी हिस्से में सुकूनत इख़्तियार की। हज़रत ऐसो भी एक आला दर्जे का बहादुर और फ़न-ए-हर्ब (जंग) का मश्शाक़ी व माहीर (मश्क़ व महारत रखने वाला) था। आपने इब्तिदा में कोह शईर और अदूम को अपना सुकूनत गाह बनाया। लेकिन बाद को आपकी औलाद ने अरब में पनाह पाई। हज़रत ऐसो की नस्ल की तरक़्क़ी और हुकूमत की पाएदारी का ज़िक्र बाइबल में हैरत-अंगेज़ तरीक़ पर आया है। बनी-इस्राईल के मुल्क मिस्र में ग़ुलाम बनने और गु़लामी से रिहाई पाकर मुल्क कनआन पर क़ब्ज़ा करने और क़ाज़ीयों के ज़माने के गुज़र जाने तक के ज़माने में आपकी नस्ल ने ज़बरदस्त रियासत हुकूमत क़ायम साबित कर ली थी। जिसका बयान पैदाइश की किताब के 36 वें बाब में आया है। इस बयान को रूबरू रखते हुए हम हज़रत इस्माईल की औलाद और आप के भाईयों बनी क़तूरह की औलाद की अरबी तरक़्क़ी और फ़ुतूहात का कुछ अंदाज़ा लगा सकते हैं। ग़ालिबन उस ज़माने में हज़रत इब्राहिम की अरबी नस्ल अमालीक़ी इक़्तिदार को फ़ना करके माओनी हुकूमत को क़ायम करने में ज़रूर मुआविन हो गई होगी और माओनी हुकूमत के ज़माने में हज़रत इब्राहिम की नस्ल ने अरब में ख़ूब तरक़्क़ी की होगी बाद को माओनी हुकूमत का ख़ातिमा साबियों ने किया होगा।
5. बनी-इस्राईल की कनआनी हुकूमत के ज़माने में ख़ुसूसुन हज़रत सुलेमान की सल्तनत के ज़माने में बाइबल हमारे रूबरू अरब की मलिका सबा (सबा) को पेश करके साबी हुकूमत का इक़्तिदार ज़ाहिर व साबित करती है।
साबी हुकूमत अरब के जुनूबी किनारे से अरब की शुमाली सरहद और मुल्क कनआन तक वसीअ थी। हम अम्बिया के सहाइफ़ में ज़ेल का बयान पाते हैं :-
और सबा के लोग उन पर आ गिरे और उन्हें ले गए और नौकरों को तल्वार की धार से क़त्ल किया। और फ़क़त में ही अकेला बच निकला कि तुझे ख़बर दूँ। अय्यूब 1:15
ख़ुदावंद यूं फ़रमाता है, मिस्र की दौलत और कोश का मुनाफ़ा और सबा के कद्दावर लोग तेरे पास आएंगे और वो तेरी पैरवी करेंगे। यसअयाह 45:14
और लोगों का एक हुजूम शादियाना बजाते हुए की आवाज़ उस में थी और अवाम लोगों के सिवा ब्याबान से शराबियों को लाए। वो हाथों पर कंगन पहनते और सुरों पर ख़ुशनुमा ताज रखते थे। हिज़्क़ीएल 23:42
और तुम्हारे बेटों और तुम्हारी बेटीयों को भी नबी यहूदाह के हाथ बेचूंगा और वो उन को सबाइयों के हाथ जो दूर मुल्क में रहते हैं बचेंगे। यूएल 3:8 इस के साथ देखो, 1 सलातीन 10:1 ता 13 तक, 2 तवारीख़ 9:1 ता 12 तक, अय्यूब 6:19 ज़बूर 72:10 ता 15 तक। यसअयाह नबी फ़रमाता है कि ऊंटों की क़तारें और मिदियान और ईफ़ा की सांडनियाँ आके तेरे गर्द बेशुमार होंगी वो जो सबा के हैं आएंगे। वो सोना और लोबान लाएंगे और ख़ुदावंद की तारीफ़ की बशारतें सुनाएंगे क़ेदार की सारी भेड़ें तेरे पास जमा होंगी और नबीत के मेंढे तेरी ख़िदमत में हाज़िर होंगे। 60:6 या 7
यर्मियाह फ़रमाता है कि किस फ़ायदे के लिए सबा से लोबान और दूर मुल्क से ख़ुशबूदार ओख मुझ तक आते हैं। तेरी सोख़्तनी क़ुर्बानियां मुझे पसंद नहीं हैं। *60:30
हिज़्क़ीएल नबी सूर की शौकत का ख़ाका खींचता हुआ इस में एक रंग अरबों का भी ब-ईं अल्फ़ाज़ उभरता है। विदाँ और यादान औज़ाल से तेरे बाज़ार में आते थे। आबदार फौलाद और यतजपात और बिच तेरे बाज़ार में वो बेचते थे वदान तेरा सौदागर था। सवारी के चार जामे तेरे हाथ बेचता था। अरब और क़ेदार के सब अमीर तिजारत की राह से तेरे साथ तिजारत करते थे। सबा और रामा के सौदागर तेरे साथ सौदागरी करते थे। वो हर रक़म के नफ़ीस व खूशबूदार मसाले और हर तरह के क़ीमती पत्थर और सोना तेरे बाज़ार में लाके बाहम लेन-देन करते थे। हरान और कुनह और अदन और सबा के सौदागर और असूर और कलिमुद के सौदागर तेरे साथ सवाद गिरी करते थे। ये ही तेरे तजार थे जो किम-ख़्वाब और चोगे और अर्ग़वानी और मुनक़्क़श पोशाकें और सब तरह के बूटेदार नफ़ीस कपड़े घुटनो तक डोरी से कसे हुए और मज़्बूत किए हुए तेरी नजात गाह में बेचने के लिए लाते थे। 27:19 ता 24, 38:13
फिर यर्मियाह फ़रमाता है कि विदान और तेमान और बोज़ को और उन सभों को जो डाढ़ी के गोशे मुंडाते और अरब के सारे बादशाहों को और उन मिले जुले लोगों के सारे बादशाहों को जो ब्याबान में बस्ते हैं। 25:23, 24
ग़ज़ल-उल-ग़ज़लात का मुसन्निफ़ क़ेदार के ख़ेमों की तारीफ़ में लिखता है कि “ऐ यरूशलेम की बेटीयों क़ेदार के ख़ेमों की मानिंद, सुलेमान के पर्दों की मानिंद।” 1:5 ज़बूर का मुसन्निफ़ लिखता है, कि “मैं मिस्क में सुकूनत करता और क़ेदार के ख़ेमों के पास रहता हूँ। *120:5
यसअयाह नबी लिखता है कि ब्याबान और उस की बस्तीयां, क़ेदार और उस के आबाद दिहात अपनी आवाज़ बुलंद करेंगे। सेलह के रहने वाले एक गीत गाएंगे। पहाड़ों की चोटियों पर ललकार करेंगे। 42:11 फिर लिखता है :-
अरब के सहरा में तुम रात काटोगे। ऐ दिवानियों के काफिलों, पानी ले के प्यासे का इस्तिक़बाल करने आओ। ऐ तीमा की सर-ज़मीन के बाशिंदो रोटी लेके भागने वाले के मिलने को निकलो। क्योंकि वो तलवारों के सामने से नंगी तल्वार से और खींची कमान से और जंग की शिद्दत से भागे हैं। क्योंकि ख़ुदावंद ने मुझको यूं फ़रमाया, हनूज़ एक बरस हाँ मज़दूर के से एक ठीक बरस में क़ेदार की सारी हश्मत जाती रहेगी। और तीर अंदाज़ों के जो बाक़ी रहे। क़ेदार के बहादुर लोग घट जाएंगे कि ख़ुदावंद इस्राईल के ख़ुदा ने यूं फ़रमाया है। 13:23, 17 s
फिर ज़बूर में आया है कि सबा और सीबा के बादशाह हदिये गुज़रानेंगे। 72:8, 10
बयान माफ़ौक़ में अरब की बाबत, उस के बाशिंदों की बाबत, उस के बादशाहों और तजारों की बाबत। उस की सनअत व हिरफ्त की बाबत। उस की क़ुदरती दौलत व पैदावार की बाबत हैरत-अंगेज़ सदाक़त का इज़्हार आया है। उस की हुकूमत की बाबत ताज्जुबख़ेज़ सच्चाई का बयान आया है। जो आम तौर से मुस्लिम दुनिया की नज़रों से छिपी चली आई है।
बयान माफ़ौक़ की हद ज़माना हज़रत इब्राहिम की हिज्रत के ज़माने से ले कर यहूदाह की कनआनी सल्तनत की तबाही और बर्बादी के ज़माने तक है। इस ज़माने में अरब की साबी सल्तनत बर्बाद हुई और अरब में माओनी हुकूमत बरसरा इक़्तिदार हुई। इस की वुसअत जुनूबी अरब के किनारे से शुमाली सरहद तक पहुंची। तमाम अरब में अमान व अमान की फुरादानी हुई। माओनी हुक्मरानों का सिलसिला क़ायम हुआ। उनके इक़्तिदार को पड़ोसी हुकूमतों ने तस्लीम किया। अरबी सनअत व हिरफ्त की और तिजारत की कमाल तरक़्क़ी हुई। बाइबल के अम्बिया अरबी हुक्मरानों का बार-बार ज़िक्र करते हैं बल्कि सबा या सबह की कैफ़ीयत से साबी हुक्मरानों के ताल्लुक़ात कनआन की यहूदी हुकूमत से क़ायम व साबित करते हैं। उन के तिजारती रिश्ते सूर फेनकी से ज़ाहिर करते हैं।
इस हुकूमत के दौरान में वो हज़रत इस्माईल की अरबी नस्ल के अरब में इख़्तियार व इक़्तिदार पाने का सफ़ाई से तज़्किरा करते हैं। वो क़ेदार की शानो-शौकत को उसके बहादुरों की बहादुरी को, उस की दौलत व हश्मत को। उसके ख़ेमों और आबाद व दिहात को। उस की भेड़ों और नबीत के मेंढों को खासतौर से बयान करते हैं। क़ेदार की हश्मत के जाते रहने का भी ज़िक्र करते हैं। ग़रज़ कि अरबी हुकूमत के ज़माने में बाइबल के अम्बिया हज़रत इब्राहिम की अरबी नस्ल की तरक़्क़ी और इक़बाल की गोमुख़्तसर कैफ़ीयत बयान करते हैं तो भी ये कैफ़ीयत हज़रत इस्माईल की अरबी नस्ल की दौलत वहश्मत की ज़बरदस्त शाहिद है। उसने ज़माना मज़्कूर में अरबी हुकूमत के दर्मियान हुक्मरानों की हैसियत ज़रूर हासिल करली थी। बनी-इस्राईल व यहूदा की हुकूमत की तबाही के बाद भी अरब की हुकूमत बरसर-ए-इक़तिदार रही और हज़रत इब्राहिम की अरबी नस्ल बराबर तरक़्क़ी की राह पर गामज़न रही। जब बनी-इस्राईल असीरी को लौट कर अपने मुल्क में आबाद हुए तो अरब के हुक्मरान उस वक़्त भी बरसरे इक़्तिदार थे। उन्हों ने यरूशलेम की शहर-पनाह बनाने में बनी-इस्राईल की ज़रूर मुज़ाहमत की। देखो नहमियाह की किताब 2:19, 4:7 6:1
इस के सिवा साबियों के इक़्तिदार का ज़िक्र मक्काबियों की किताबों में भी आया है जिसे बख़ोफ़ तवालत क़लम अंदाज़ किया गया है।
मक्काबियों के ज़माने के बाद से लेकर हज़रत मुहम्मद के ज़माने तक अरबों का इक़्तिदार बसूरत ज़वाल पहुंचा है। जिसके अस्बाब ज़्यादातर ख़ारिजी और कुछ अंदरूनी थे। जिनका बयान तर्क कर दिया गया है। बयान माफ़ौक़ पर नज़र डालते हुए हर एक नाज़िर को ये बात निहायत ताज्जुबख़ेज़ मालूम होगी कि हज़रत साम बिन नूह और हज़रत इब्राहिम इब्रानी की अरबी नस्ल मुल्क अरब में हमेशा बाइक़्तिदार चली आई। बाबिल, नैनवा, सूर फेंकी, कनआन, मिस्र, फ़ारस, यूनान की ज़बरदस्त हुकूमतें पैदा हो कर फ़ना की गोद में सोती गईं। मगर अरबों ने अपनी आज़ादगी हाथ से ना खोई क्या ये तारीख़ी मोअजिज़ा नहीं है?
तीसरी फ़स्ल
आसार-ए-क़दीमा में अहले-अरब की अज़मत
अहले-अरब की तहज़ीब व शाइस्तगी पर जो बाइबल ने रोशनी डाली। गो वोह किसी की कमज़ोर आँख को मद्धम और धीमी मालूम हो। मगर जब इसे आसार क़दीमा की रोशनी से देखा जाता है। तो वो एक अज़ीमुश्शान हक़ीक़त नज़र आती है। फ़स्ल हज़ा में नाज़रीन किराम आसार-ए-क़दीमा में अहले-अरब की अज़मत व फ़ज़ीलत को कामिल तौर से देख नहीं सकते। क्योंकि आसार-ए-क़दीमा में अरब की शानो-शौकत पर बहुत कुछ आया है। जो इस इख़्तिसार (मुख़्तसर बयान) में समा नहीं सकता। तो भी नाज़रीन किराम की तस्कीन के लिए इख़्तिसारन ज़ेल का बयान नज़र किया जाता है। जिससे अहले-अरब की शान व अज़मत का कुछ अंदाज़ा करना आसान हो जाएगा।
दफ़ाअ 1 : तूफान-ए-नूह से क़ब्ल अज़ मसीह 2000 बरस तक के ज़माने के अरब
वाज़ेह हो कि ज़माना-ए-क़दीम की बाबिली हुकूमत जो सनआर के मैदान में क़ायम हुई थी। (पैदाइश 14:1) उलमा ने इस का बयान क़दीमी यादगारों में अक्काद और शमीर नामों से किया है कि सनआर के मैदान में एक अर्सा बईद तक बनी-आदम की अक़्वाम के बाप दादा इकट्ठे रहे। आख़िर उनमें किसी ना किसी सबब से इंतिशार (फ़साद) पैदा हुआ। पैदाइश 11:1 ता 9, और इस के सिवा बाइबल में आया है कि और कोश से नमरूद पैदा हुआ। वो ज़मीन पर जब्बार (क़दआवर, मज़्बूत) होने लगा। और ख़ुदावंद के सामने वो सय्याद (क़ैदी) जब्बार था। इस वास्ते मिस्ल हुई कि ख़ुदावंद के सामने नमरूद सा सय्याद जब्बार है। और इस की बादशाहत की बुनियाद बाबिल और ऑरिक और अक्काद और लुकना, सनआर की सर-ज़मीन में थी। और इस मुल्क से असूर निकला और नैनवा और रजबात और ईर और कलिह के दर्मियान रसुन को जो बड़ा शहर है बनाया।” (पैदाइश 10:12-18)
इस बयान से ज़ाहिर है कि ज़माना-ए-क़दीम में पहले-पहल सनआर के मैदान में नमरूद बिन कोश बिन हाम ने सल्तनत बाबिल की बुनियाद डाली। बाबिल, अरक, अक्काद, अलकना, उस के बड़े शहर थे। जो दरिया फुरात के किनारे आबाद किए गए थे। इस सल्तनत की कहाँ तक वुसअत (वसीअ) थी। इस का फिलहाल बयान नहीं किया जा सकता फ़िलहाल इस क़द्र कैफ़ीयत ज़ाहिर है कि बाइबल के बयान के मुवाफ़िक़ बाद तूफ़ान-ए-नूह सबसे पहले सल्तनत की बुनियाद नमरूद बिन कोश ने डाली थी।
नमरूद बिन कोश की सल्तनत के क़ियाम के बाद साम की नस्ल में से असूर ने नैनवा की सल्तनत की बुनियाद दजला पर सनआर के शुमाल में डाली और रहबात, ईर, कलह, और रसआन के शहरों को आबाद किया।
हर दो सल्तनतें एक मुद्दत तक एक दूसरे के मुक़ाबिल वसीअ होती गई होंगी उनकी हदूद में ग़ैर सामी (ग़ैर-यहूदी, ग़ैर अरब) और ग़ैर हामी (मदद ना करना) नस्ल की रईयत (किरायादार, काश्तकार) भी होगी। तब उनमें बाहम तसादुम हुए होंगे। एक मुद्दत तक कोश हुक्मरान और सामी हुक्मरान आपस में जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) में मसरूफ़ रहे होंगे। जिनका नतीजा ये हुआ होगा कि कभी हाम की नस्ल के हुक्मरान साम की नस्ल पर और कभी साम की नस्ल के हुक्मराँ हाम की नस्ल के हुक्मरानों पर ग़ालिब (ज़ोर-आवर, जीतने वाला) आते रहे होंगे। हर दो क़ौमों की बाहमी जंग से दोनों कौमें कमज़ोर हो कर तीसरी क़ौम का शिकार बनी होंगी। ग़रज़ कि दो हज़ार बरस क़ब्ल अज़ मसीह से पेश्तर कुल्दिया या मिसोपितामिया में अर्सा बईद तक बाहमी जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) जारी रहा होगा। ये इमकानात तो बाइबल के बयान से ही ज़ाहिर है। इस पर आसार-ए-क़दीमा की शहादत का ख़ुलासा मुन्दरिजा ज़ैल है।
मग़रिबी एशीया के तमाम आसारे-ए-क़दीमा और मुल्क मिस्र के आसारे-ए-क़दीमा से पाया जाता है कि कुल्दिया या मिसोपितामिया बाद तूफ़ान-ए-नूह बनी-आदम के आबा व अज्दाद का वतन था। जहां इब्तिदा में उन्हों ने कई सल्तनतें क़ायम की थीं। जो बाद को शुमाली सल्तनत अक्काद और जुनूबी सल्तनत समीर और सल्तनत नैनवा के नाम से मशहूर थीं। बाबिल की क़दीम सल्तनत गिर्द व नवाह की दीगर रियासतों से घिरी थीं। जिन पर उसे मुद्दत-बाद ग़लबा (जीत, बरतरी) हासिल हुआ था।
आसार-ए-क़दीमा से ये बात बख़ूबी साबित हो चुकी है कि हज़रत इब्राहिम के ज़मान्ह्हे से पेश्तर मिसोपितामिया कोशी और सिमी और एलामी अक़्वाम का मैदान-ए-जंग था। कभी हाम के ख़ानदान के बादशाह बरसर-ए-इक़तिदार रहते थे। और कभी साम की नस्ल के हुक्मरान ग़ालिब आकर बादशाह बन जाते थे। कभी ईलाम के हुक्मरान बादशाहत पर क़ब्ज़ा जमा लेते थे। इन की हुकूमतें मिसोपितामिया से बाहर मग़रिबी एशीया के शुमाल तक और सूर्याह व कनआन और मुल्क अरब के जुनूब तक वसीअ हो जाती थीं। इन हुकूमतों की यादगार में और इन के बादशाहों की तवील फिहरिस्तें बसूरत तहरीर हमारे ज़माना तक पहुंच गई हैं। जो यूरोप के अजाइब ख़ानों में मौजूद व महफ़ूज़ हैं। इस के सिवा अंग्रेज़ी ज़बान में इन क़दीम यादगारों पर कसीर किताबें मौजूद हैं।
हम बखौफ-ए-तवालत (लंबा होने के डर से) हज़रत इब्राहिम के ज़माने के पेश्तर के हालात पर्दा ग़ैब में छोड़कर हज़रत इब्राहिम के ज़माना तक के क़रीब बाबिली बादशाहों का थोड़ा सा ज़िक्र करते हैं जो अरब के बाशिंदे थे। बाबिल की तारीख़ में इन अरबी बादशाहों का ज़माना निहायत शानदार और तहज़ीब व शाइस्तगी का ऐसा आला नमूना ज़ाहिर किया गया है कि जिसकी मिसाल मिस्री तहज़ीब व शाइस्तगी में भी नहीं मिल सकी है। बाबिल के इन अरबी हुक्मरानों की फ़ेहरिस्त और उन के ज़माने हुकूमत के साल मुन्दरिजा ज़ैल हैं :-
1. समूआबी : ज़माना हुकूमत 15 साल |
2. समूलाअलू : ज़माना हुकूमत 35 बरस |
3. सबीह या ज़ाबम : ज़माना हुकूमत 14 बरस |
4. एप्लसुन : ज़माना हुकूमत 18 बरस |
5. संबूत : ज़माना हुकूमत 30 बरस |
6. ह्मूरब्बी या ख़मोरब्बी : ज़माना हुकूमत 55 बरस |
7. समस्वालूना : ज़माना हुकूमत 35 बरस |
8. अबी अशू : ज़माना हुकूमत 25 बरस |
9. अमीसनाना : ज़माना हुकूमत 25 बरस |
10. अमीसदूक़ा : का ज़माना हुकूमत 22 बरस |
11. समसूस्ताना : ज़माना हुकूमत 31 बरस |
(मुलाहिज़ा हो दी एन्शियंट ट्रेडीशन एलिस्ट्रेटेड बाई मानियो मिंट प्रोफ़ैसर, फ़रहमल सफ़ा 69)
आसारे-ए-क़दीमा के माहिरीन ने बाबिल के अरबी ख़ानदान के हुक्मरानों के ज़माने की इब्तिदा क़ब्ल अज़ मसीह 2500 बरस क़रार दी है। चूँकि बाब के अरबी हुक्मरानों की फ़ेहरिस्त ना-मुकम्मल है। इस वजह से उन के ज़माने के इख़्तताम का दुरुस्त सन विसाल मुक़र्रर करना फ़िलहाल दुशवार है। तो भी उलमा ने ये फ़ैसला किया है कि ये ख़ानदान बाबिल की सल्तनत पर 1500 बरस तक हुक्मरान था। सफ़ा 41
इस फ़ेहरिस्त में ख़मो रब्बी या ह्मू रब्बी हुक्मरान हज़रत इब्राहिम का हमज़बाँ साबित हुआ है माहिरीन आसार-ए-क़दीमा ने उसे पैदाइश 14:1 ता 16 का अम्राखिल तस्लीम किया है। अम्राखिल या ख़मो रब्बी अपने ज़माने का अज़ीमुश्शान बादशाह बल्कि शहनशाह गुज़रा है। जिसने सल्तनत बाबिल को निहायत आला इस्तिहकाम बख़्शा था। उसने ममुल्क में क़वानीन जारी किए। जो ख़मो रब्बी कोड के नाम से मशहूर हैं। ख़मो रब्बी कोड दुनिया के हुक्मरानों के क़वानीन में सबसे क़दीम है। जिसका अंग्रेज़ी ज़बान में तर्जुमा भी शाएअ हो चुका है। इस के क़वानीन निहायत मुंसिफ़ाना हैं। जिसे एक दफ़ाअ हमने ख़ुद भी पढ़ा है। ग़रज़ कि ख़मो रब्बी सल्तनत बाबिल का वो हुक्मरान था जिसकी अज़मत का आसारे-ए-क़दीमा के माहिरीन पर सिक्का बैठा हुआ है। इस बादशाह की बाबिली तहज़ीब व शाइस्तगी का आफ़्ताब सिम्त-अल-रास था। जिसके ज़माने अमन में हज़रत इब्राहिम ने शहर हारान से मुल्क कनआन की तरफ़ हिज्रत की थी।
दफ़ाअ 2 : मिस्र में सल्तनत हैक्सास का क़ियाम
क़ब्ल अज़ मसीह 2500 बरस से 1500 बरस तक तख़्त बाबिल पर अरबी बादशाह मतकमन थे। पर अजीब बात ये है कि इस ज़माने में मिस्र की अज़ीमुश्शान सल्तनत के मालिक व मुख़्तार भी अरब के चौपान बादशाह थे। जिनको हैक्सास कहा जाता है। माहिरीन आसारे-ए-क़दीमा का बयान है कि मिस्र के चौपान हुक्मरानों का ज़माना क़ब्ल मसीह 2100 से 587 तक था। मिस्र के चौपान हुक्मरानों में बाअज़ के नाम हस्ब-ज़ैल लिखे हैं :-
1. सलातस : ज़माना हुकूमत 19 बरस |
2. बनून : ज़माना हुकूमत 44 बरस |
3. उनचनास : ज़माना हुकूमत 37 बरस 7 माह |
4. अपाफिस या एपीपी : ज़माना हुकूमत 61 बरस |
5. अयान्यास : ज़माना हुकूमत 50 बरस एक माह |
6. इल्युसिस : ज़माना हुकूमत 49 बरस 2 माह |
मंथो मिस्री मुअर्रिख़ ने बयान किया है कि ये छः हुक्मराँ चौपानों के पहले बादशाह थे जिन्हों ने मिस्रियों पर पै दरपे (लगातार, मुतवातिर) हमले करके मुल्क मिस्र को तबाह किया था। चौपान बादशाहों ने उन के क़ाइम मक़ाम हो कर मिस्र पर 511 साल तक हुकूमत की थी।
तप चौपान बादशाहों के ख़िलाफ़ थेबास और मिस्र के दीगर सूबों के शहज़ादे बग़ावत (ना फ़रमानी, सरकशी) पर आमादा हो गए। उन्हों ने चौपान बादशाह को शिकस्त पर शिकस्त देना शुरू की। उन्हों ने चौपान बादशाहों के लश्कर को जिसका शुमार 80000 का था। क़िला दारस में महसूर (क़िला बंद, घेरना) कर लिया। तब चौपान बादशाह मिस्र ने असली मिस्री दुश्मन के मुक़ाबिल मिस्र को छोड़ देने का फ़ैसला कर लिया। तब असली मिस्रियों ने उसे 240000 लोगों के साथ मिस्र से निकाल दिया जो यरूशलेम की तरफ़ चले गए। मुलाहिज़ा हो, दी ओल्ड टेस्टामेंट इन दी लाईट आवदी हिस्टोरिकल रिकार्ड आवासिर या ऐंड बेबिलोनिया। मुसन्निफ़ा टी॰ जी॰ पनचज़, एल॰ एल॰ ऐम॰ आर॰ ए॰ ऐस॰ सफ़ा 251 253
इस के सिवा टेटसमैन मत्बूआ 19 दिसंबर 1925 ई॰ में इराक़ अरब की एक ताज़ा दर्याफ़्त की एक टैब्लेट की तस्वीर शाएअ की गई है। जो एक हज़ार टैब्लेट में से एक है। उस के नीचे ये इबारत लिखी है :-
One of a thousand-day tablets written including many letters written about 3400 years ago, discovered in Iraq, there are expected to the life his story of a practically unknown people.
यानी ये तस्वीर हज़ार टैब्लेट में से एक टैब्लेट की है। जिनके साथ बहुत तहरीरी ख़ुतूत भी शामिल हैं। जो क़रीबन 3400 बरस क़ब्ल अज़ मसीह लिखे हुए हैं। ये इराक़ में दर्याफ़्त हुए हैं। इनसे उम्मीद की जाती है कि इनसे नामालूम लोगों की तारीख़ और ज़िंदगी का हाल मालूम होगा।
सी॰ ऐम॰ जी मत्बूआ 8 जनवरी 1926 ई॰ में इराक़ की एक और ताज़ा दर्याफ़्त का मुख़्तसर हाल शाएअ हुआ है। जिसमें ये बात ज़ाहिर व बयान की गई है कि शहर ऊर में जो हज़रत इब्राहिम का असली शहर था। इस में डिंगी नाम बादशाह का महल दर्याफ़्त हो गया है। जो क़ब्ल अज़ मसीह 2350 और की सल्तनत पर हुक्मरान था। यही बयान स्टेस्टमन मत्बूआ 7 जनवरी 1926 ई॰ में शाएअ हो चुका है। आने वाला ज़माना देखेगा कि बाबिल की सल्तनत की क़ियामत की हस्ती कैसी परिस्तान (परीयों की रहने की जगह) होगी। हम तवालत के ख़ौफ़ से फ़िलहाल बयान माफ़ौक़ पर ही किफ़ायत (काफ़ी होना) करते हैं क्योंकि हम नाज़रीन किराम के लिए इस को काफ़ी ख़याल करते हैं।
असली मिस्र के ख़ानदान के जिस बादशाह ने मुल्क मिस्र से अरब के चौपान बादशाहों को निकाला और 511 बरस के बाद मिस्री हुक्मरानों के हाथ में सल्तनत मिस्र को क़ायम व साबित किया उन का सिलसिला हस्ब-ज़ैल दिया गया है। जो सिर्फ मुल्क मिस्र से बनी-इस्राईल के ख़ुरूज के ज़माने तक का है।
1. ओह्मस : 1587 क़ब्ल अज़ मसीह | 8. थोथमस राबेअ : 1423 क़ब्ल अज़ मसीह |
2. अमनहूतिफ़ 1 : 1562 क़ब्ल अज़ मसीह | 9. अमनहूतिफ़ सालिस : 1414 क़ब्ल अज़ मसीह |
3. थोथमस 1 : 1541 क़ब्ल अज़ मसीह | 10. अमनहूतिफ़ राबेअ 1383 क़ब्ल अज़ मसीह |
4. थोथमस दोम : 1516 क़ब्ल अज़ मसीह | 11. रासमतहा 1365 क़ब्ल अज़ मसीह |
5. हेत शपैत : 1503 क़ब्ल अज़ मसीह | 12. तत अँख अमन : 1354 क़ब्ल अज़ मसीह |
6. थोथमस सोम : 1503 क़ब्ल अज़ मसीह | 13. ए : 1344 क़ब्ल अज़ मसीह |
7. अमनहूतिफ़ सानी : 1449 क़ब्ल अज़ मसीह | 14. होएमहेब : 1332-1328 तक। एक्सप्लोरेशन आव एजैंट एंड दी ओल्ड टेस्टामेंट। मुसन्निफ़ जय गेर्ड डंकन, बी॰ डी॰ सफ़ा 30 |
माफ़ौक़ फ़ेहरिस्त मिस्र के उन हुक्मरानों की है, जिन्हों ने चौपान बादशाहों को मिस्र से निकालने के बाद मिस्र में बनी-इस्राईल को सख़्त ईज़ाएं पहुंचाई थीं। इस का एक सबब ये था कि मिस्र में बनी-इस्राईल चौपान बादशाहों के मक़्बूल-ए-नज़र थे। दूसरी वजह ये थी कि मिस्रियों की निगाह में बनी-इस्राईल भी एशियाई थे, तीसरी वजह उन को ईज़ा देने की ये थी कि ये लोग मिस्र में तरक़्क़ी कर रहे थे। इन वजहों से मिस्रियों ने एक तरफ़ तो चौपान बादशाहों की मिस्री यादगारों को मिटाया। दूसरी तरफ़ बनी-इस्राईल को ख़ूब सताया। मिस्र के बादशाह माफ़ौक़ 260 बरस तक बनी-इस्राईल को मिस्र में दुख देते रहते थे।
मुन्दरिजा सदर बयान ज़माना-ए-क़दीम के अरबों की तहज़ीब व शाइस्तगी का शाहिदो गवाह है कि उन्होंने अरब से बाहर ज़बरदस्त हुकूमतें क़ायम की थीं। जिनकी यादगारें हमारे ज़माने की मुहज़्ज़ब दुनिया को हैरान कर रही हैं पस अहले-अरब ज़माना-ए-क़दीम से मुहज़्ज़ब व शाइस्ता थे।
दफ़ाअ 3 : अरब की साबी और माओनी सल्तनतें
क़दीम अरबों की तहज़ीब व शाइस्तगी आसारे-ए-क़दीमा से बख़ूबी साबित हो सकती है। आसार-ए-क़दीमा से पाया गया है अरब के जुनूब में यमन और हज़रमोत में दो ज़बानों के कसीर कुतबे और निशानात पाए गए हैं। जो अरब की साबी और माओनी हुकूमतों के शाहिद हैं। डाक्टर ग्रीस ने ये आसार-ए-क़दीमा निहायत कोशिश और मेहनत से दर्याफ़्त किए हैं। जिनको किताबी सूरत में शाएअ कर दिया गया है।
इन आसार-ए-क़दीमा से पाया जाता है कि ज़माना-ए-क़दीम में मुल्क अरब में साबी हुकूमत क़ायम हुई थी। डाक्टर ए॰ ऐच॰ सीस साहब आसार-ए-क़दीमा के माहिर का बयान है कि साबी हुक्मरानों में असमर साबी बादशाह ने सारगोन को ख़राज दिया। असमर के बाद उस के जांनशीन ने तिग्लत पिलासेर सोम को ख़ास ख़राज दिया था। सारगोन 3800 क़ब्ल अज़ मसीह बादशाह था और तिग्लत पिलासेर की हुकूमत का ज़माना क़ब्ल अज़ मसीह 733 बरस था। मुलाहिज़ा हो, दी हाइर क्रिटिसिज्म ऐंड दी मानियो मिंट सफ़ा 162 व सफ़ा 40
डाक्टर सीस के बयान से रोशन है कि ज़माना-ए-क़दीम से हाँ सारगोन के ज़माने से भी पेश्तर मुल्क अरब में साबी सल्तनत क़ायम थी। जिसके एक बादशाह असमर नामी ने क़ब्ल अज़ मसीह 3800 बरस सारगोन को ख़राज दिया था। साबी हुक्मरान उस ज़माने से लेकर तिग्लत पिलासेर सोम के ज़माने तक अपने हुक्मरान रखते थे। यमन की साबी हुक्मरानों की हुकूमत की वुसअत हरगिज़ मुल्क अरब में महदूद नहीं समझी जा सकती। क्योंकि हमें पेश्तर से मालूम हो चुका है कि बाबिल की वसीअ सल्तनत के निहायत बाअसर हुक्मरान अरब थे। मिस्र की अज़ीमुश्शान सल्तनत के हुक्काम अरबी चौपान थे। पस हम ये ख़याल करने के लिए मज्बूर हैं कि अरब के साबी हुक्मरानों की सल्तनत किसी ज़माने में तमाम मग़रिबी एशीया और मुल्क मिस्र तक वसीअ थी।
माहिरीन आसार-ए-क़दीमा ने इस बात को तस्लीम कर लिया है कि साबी बादशाहों से पेश्तर मुल्क सबा में काहिनी हुकूमत थी काहिनों के बाद साबी बादशाह हुए थे। इस से इस बात का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है कि अरब की साबी हुकूमत बाबिल और मिस्र की हुकूमत की तरह क़दीम और इन हुकूमतों के साथ साथ अपनी हस्ती क़ायम रखती आई थी।
मज़ीदबराँ हमें अफ़्सोस से कहना पड़ता है कि साबी हुक्मरानों के नामों की फ़ेहरिस्त हमें दस्तयाब नहीं हुई। बाइबल में जिन साबी हुक्मरानों का और आसारे-ए-क़दीमा में जिनका ज़िक्र आया है, वो ऊपर मज़्कूर हो चुका है। इस से ज़्यादा का हमें आज तक इल्म नहीं हुआ है।
यमन और हज़रमोत की दूसरी हुकूमत माओनी की दर्याफ़्त हुई है। जिसका ज़माना प्रोफ़ैसर फ़रहमल ने हज़रत मूसा और सुलेमान बादशाह के दर्मियान क़रार दिया है। सफ़ा 79 इस हुकूमत का ख़ातिमा यमन के काहिन बादशाह करीबा अलवतर बअवतर ने किया था, जो साबी था। बाइबल में माओनीयों का सबसे पहले ज़िक्र क़ाज़ीयों की किताब 10:13 में आया है।
डाक्टर ए॰ ऐच॰ सीस डाक्टर ग्रेसर की सनद से लिखते हैं कि अरब की माओनी हुक्मरानों की फ़ेहरिस्त में 33 बादशाह शुमार आ चुके हैं। जिसकी हुकूमत जुनूब से शुमाल अरब तक बल्कि ग़ाज़ा तक वसीअ थी। सफ़ा 40
माहिरीन आसारे-ए-क़दीमा ने अरबी तहज़ीब व शाइस्तगी से एक निहायत अहम व बुन्यादी हक़ीक़त ये मन्सूब की है कि अरबों ने दुनिया को लिखने का हुनर सिखाया है। सबसे पहले अरबों ने अबजद (अलिफ़, ब) के हर्फ़ को ईजाद किया। जिससे दूसरी अक़्वाम ने अपनी अपनी अबजद बनाई है। उनका ये भी ख़याल है कि माओनी हुक्मरानों का मिस्र के चौपान बादशाहों से ज़रूर ताल्लुक़ था। सफ़ा 42, 45 डाक्टर सीस।
हालात माफ़ौक़ से बख़ूबी अयाँ है कि ज़माना-ए-हाल के अरब उन अरबों की नस्ल हैं जो ज़माना-ए-क़दीम में निहायत अज़ीमुश्शान तहज़ीब व शाइस्तगी के बानी थे जिनके एहसान से बाद के ज़माना की इन्सानी अक़्वाम आज तक सबकदोश (ला-तअल्लुक़) नहीं हुई हैं। ये अरब हज़रत नूह के बेटे हज़रत सिम और इब्राहिम की नस्ल के थे। जिनकी औलाद आज तक अरब में अपनी आप हुकूमत रखती है।
चौथी फ़स्ल
तारीख़ इस्लाम में अरब के क़दीम बाशिंदे
मुवर्रिखीन-ए-इस्लाम ने क़दीम अरबों का जो बयान किया है वो ज़्यादातर रिवायती और ख़्याली बयान है। जिस पर पूरा पूरा एतबार नहीं किया जा सकता। सर सय्यद मर्हूम ने जब क़दीम अरबों के हालात पर रोशनी डालना चाही तो आपको इब्ने इस्हाक़, इब्ने हिशाम, तब्क़ात कबीर अल-मशहूर, वक़दी, तबरी, सीरत शामी अबूल-फ़िदा, मुवाहिबल-दुनिया वग़ैरह कुतुब इस क़ाबिल नज़र ना आईं कि इन की सनद से ख़ुत्बात अहमदिया का पहला ख़ुत्बा मुरत्तिब फ़र्मा लेते। उन तमाम कुतुब तारीख़ की बाबत आपको सफ़ाई से लिखना पड़ा कि :-
ये सब किताबें तमाम सच्ची और झूटी रिवायतों और सही मौज़ू हदीसों का मुहतात मजमूआ हैं। सफ़ा 8
जब इस्लामी तारीख़ की सर सय्यद जैसे अल्लामा ये तारीफ़ कर गए हैं तो इस तारीख़ से अरब के क़दीम बाशिंदों के दुरुस्त हालात का दर्याफ़्त करना जैसा कि मुश्किल काम है किसी रोशन ज़मीर नाज़िर पर पोशीदा नहीं हो सकता है। इसी सबब से ख़ुदसर सय्यद मर्हूम ने अपने ख़ुत्बात की बुनियाद बाइबल और मसीही उलमा की तस्नीफ़ात पर रखी। मसीही और इस्लामी कुतुब से क़दीम अरबों की आपने जो कैफ़ीयत बयान फ़रमाई इस में से ज़रूरी और मुफ़ीद कैफ़ीयत इख़्तिसार के साथ ज़ेल में दर्ज की जाती है जिसे हम इस्लामी तारीख़ का ख़ुलासा कह सकते हैं।
वाज़ेह रहे कि सर सय्यद ने अरबों को तीन हिस्सों पर मुनक़सिम फ़र्मा कर बयान किया है। यानी अरब अल-बाइदा यानी बद्दू अरब। अरब अल-आर यानी ठीट अरब। अरब अल-मस्तअरब यानी परदेसी अरब। इनमें से अरब अल-बाइदा की बाबत हम सबसे पहले बयान करते हैं। इस से मालूम हो जाएगा कि तारीख़ अरब से बाइबल मुक़द्दस का कितना गहिरा ताल्लुक़ है।
दफ़ाअ 1 : अरब अल-बाइदा का बयान
सर सय्यद लिखते हैं कि अरब अल-बाइदा में सात शख्सों की औलाद की सात मुख़्तलिफ़ गर्द शामिल हैं (1) कोश पिसर हाम, पिसर नूह की औलाद (2) ईलाम पिसर साम पिसर नूह की औलाद (3) लोद पिसर साम पिसर नूह की औलाद (4) ओस पिसर इरम पिसर साम पिसर नूह की औलाद (5) हवल पिसर इरम पिसर साम पिसर नूह की (6) जदीस पिसर गझ पिसर इरम पिसर नूह की औलाद (7) समूद पिसर गझ पिसर इरम पिसर साम पिसर नूह की औलाद। कोश की औलाद ख़लीज-ए-फारिस के किनारे पर और इस के क़रीब व जवार के मैदानों में आबाद हुई।
जोहम पिसर (बेटा) ईलाम भी इस तरफ़ जाकर रूद फुरात के जुनूबी किनारों पर सुकूनत पज़ीर हुआ। लूदजवान में से तीसरा मूरिस-ए-आअला है। तीन बेटे मिस्मियान तस्म अमलीक़, अमीम (अयामीम) थे। जिन्हों ने आपको तमाम मशरिक़ी हिस्से में अरब में यायह से लेकर बहरीन और इस के गिर्द व नवाह तक फैला दिया।
ओस पिसर आद और होल दोनों ने एक ही सिम्त इख़्तियार की और जुनूब में बहुत दूर जाकर हज़रत और उस के क़ुर्ब व जुवार के मैदानों में इक़ामत इख़्तियार की।
जदीस पिसर गश्र पिसर इरम पिसर साम अरब अल-वादी में आबाद हुआ।
समूद पिसर गश्र पिसर इरम पिसर सामने अरब-उल-हिजर में और इस मैदान में जो वादी अल-क़रा के नाम से मशहूर है और मुल्क-ए-शाम की जुनूबी और मुल्क अरब की शुमाली हद है रहता और क़ब्ज़ा करना पसंद किया। सर सय्यद का बयान माफ़ौक़ अरबी जुग़राफ़िया दानों के बयान की सनद पर किया गया है जिनमें से अबूल-फ़िदा, मुआलिम अल-मतनज़ील, तक़वीम अल-बदान कुतुब के हवाले सनद में पेश किए हैं। जिनमें सिर्फ़ आद, समूद, तस्म, जदीस, जिरहम का ज़िक्र है। औराद को ओस का एवज़ को अराम, अराम को साम का बेटा बयान किया गया है। बाक़ी के हसब व नसब का कुछ ज़िक्र नहीं किया गया है। सफ़ा 28, 29
सर सय्यद फिर फ़र्माते हैं कि बनी कोश, किसी अरब के मुअर्रिख़ ने बनी कोश का कुछ हाल नहीं बयान किया सब ख़ामोश हैं और इस सबब से उन के हालात कुछ दर्याफ़्त नहीं हुए।....नवेरी ने अपने जुग़राफ़िया में एक फ़िक़्रह लिखा है, “وملک شرجیل علی اقدیس وتمیم” इस फ़िक़्रह में नवेरी ने बनी कोश का ज़िक्र बशमूल बनी तमीम के किया है। जिससे वो हिस्सा सल्तनत का मुराद है जो अल-हारिस ने अपने दूसरे बेटे शरजील को बख़्शा था। नवेरी के इस फ़िक़्रह पर रेवरेंड मिस्टर फॉस्टर ये इस्तिदलाल (दलील देना) करते हैं कि मशरिक़ी मुअर्रिख़ नबी कोश को अरब के रहने वालों में शुमार करने से ख़ामोश नहीं हैं अलीख।
मगर रेवरेंड मिस्टर फॉस्टर ने बड़ी कोशिश और तलाश से और बड़ी सेहत और क़ाबिलीयत से निहायत मोअतबर और मुस्तनद हवालों से इस अम्र को बयान किया है कि बनी कोश दरहक़ीक़त अरब में ख़लीज-ए-फारिस के किनारे पर बराबर आबाद हुए थे और मशरिक़ी किनारे के मुख़्तलिफ़ शहरों के नामों का नामों से मुक़ाबला करके जो बतलीमूस ने लिखे हैं अपने दावे में क़तई कामयाबी हासिल की है। लेकिन मुसन्निफ़ मौसूफ़ ने जबकि बनी कोश को तमाम जज़ीरा अरब में और ख़ुसूसुन यमन और ख़लीज अरब के किनारों पर फैला देने की कोशिश की है तो उसी की दलीलों में ज़ोफ़ आ जाता है।...... इसलिए हम कहते हैं कि नमरूद के सिवा जिसका ज़िक्र तन्हा किताब-ए-मुक़द्दस में किया गया है और इस सबब से हमको ये मतंबत करना पड़ता है कि वो अपने भाईयों के साथ आबाद हुआ था। बाक़ी औलाद कोश की जिनके नाम सबा, हविला, सबताह, रामाह, सतबका थे और रामा के बेटे यानी शबा और दिवान सब ख़लीज-ए-फारिस के किनारे किनारे आबाद हुए थे। सफ़ा 30, 31
इस के बाद सर सय्यद ने बाइबल मुक़द्दस और मिस्टर फॉस्टर के तारीख़ी जुग़राफ़िया अरब की सनद से अरबी क़बाइल का ऐसा बयान किया है जो बाइबल के बयान से तत्बीक़ (मेल, मुताबिक़त) खाता है। तवालत के ख़ौफ़ से बाक़ी बयान क़लम अंदाज़ कर लिया गया है।
दफ़ाअ 2 : अरब अल-आरबह या ठीट अरबों का बयान
अरब अल-आरबह या ठीट अरबों का बयान भी सर सय्यद ने बाइबल मुक़द्दस और मिस्टर फॉस्टर के जुग़राफ़िया की सनद से किया है। बनी यक़तान के हुक्मरानों का बयान तारीख़ इस्लाम से किया गया है।
1. क़हतान अव्वल यमन में पहला हुक्मरान माना गया है जो क़ब्ल अज़ मसीह 2234 मौजूद था।
2. यअर्ब या जिरहम अपने बाप की वफ़ात के बाद तख़्त नशीन हुआ।
3. जिरहम के बाद उस का बेटा यश्हब उस का जांनशीन हुआ।
4. यश्हब के बाद उस का बेटा अब्द-अल-शम्स तख़्त पर बैठा।
5. अब्द-अल-शम्स के बाद उस का बेटा हुमैरी तख़्तनशीं हुआ। हुमैरी को तारा का हमज़माँ माना गया है 2126 क़ब्ल अज़ मसीह मौजूद था।
6. वासिल अपने बाप का जांनशीन हुआ।
7. वासिल के बाद उस का बेटा सकसक तख़्त नशीन हुआ।
8. सकसक के बाद इसका बेटा जाफ़र तख़्त पर बैठा।
9. जाफ़र के बाद उस का बेटा नोमान तख़्त का मालिक हुआ। नोमान का ज़माना हज़रत इब्राहिम की हिज्रत का ज़माना माना गया है। क़ब्ल अज़ मसीह 1921
10. नोमान के बाद उस का बेटा शमअ तख़्त पर बैठा।
11. शमअ पर शद्दाद ने हमला करके उस की हुकूमत पर क़ब्ज़ा कर लिया। ये क़ब्ल अज़ मसीह 1912 का वाक़ेअ माना गया है।
12, 13. शद्दाद के बाद उस के दो भाई लुक़्मान और ज़ोशद यके बाद दीगरे तख़्त पर बैठा।
14. ज़ोशद के बाद उस का बेटा अल-हारिस बादशाह हुआ।
15. फिर अल-हारिस मुलक़्क़ब राईश तख़्त पर बैठा। इस के बाद
16. सअब मुलक़्क़ब बह ज़ुलक़ुरनैन।
17. इस के बाद अबराह मुलक़्क़ब बह ज़ुलमिनार।
18. और अफ्रीक। 19. और उमरू मुलक़्क़ब बह ज़वाल-अज़ग़ार यके बाद दीगरे तख़्त नशीन हुए।
20. उमरू ज़वाल-अज़ग़ार की सल्तनत पर सर्जील ने क़ब्ज़ा कर लिया।
21. सर्जील के बाद उस का बेटा अलहदबाद तख़्त नशीन हुआ।
21. सर्जील के बाद उस का बेटा अलहदबाद तख़्त नशीन हुआ।
23. मलिका बिल्क़ीस के बाद उस का चचाज़ाद भाई मुलक़्क़ब बह नाशिर अलनाम तख़्त नशीन हुआ।
24. इस के बाद उस का बेटा शिम्र बरअश बादशाह हुआ।
25. शिम्र बरअश के बाद उस का बेटा मालिक तख़्त पर बैठा।
26. मालिक की सल्तनत को इमरान ने छीन लिया।
27. इमरान के बाद उस का भाई उमर मज़ीकिया तख़्त पर बैठा।
28. उमर मज़ीकिया के बाद हुमैरी ख़ानदान के अल-अक़रन बिन अबू मालिक ने तख़्त व हुकूमत पर क़ब्ज़ा कर लिया।
29. इस के बाद उस का बेटा ज़ोजशां तख़्त पर बैठा।
30. इस के बाद उस का भाई तबअ अकबर। (31) इस के बाद उस का बेटा क्लेकर्ब तख़्त पर बैठा। (32) इस के बाद उस का बेटा अबू करब असअद तबअ औसत (33) इस के बाद उस का बेटा हस्सान (34) इस के बाद उस का भाई ज़वालाउवाद। (35) इस के बाद उस का बेटा अब्द कलाल (36) तबअ असग़र पिसर हस्सान ने इस से तख़्त पर छीन लिया। (37) इस के बाद उस का भतीजा हारिस बिन उमरू तख़्त का मालिक हुआ तमाम मोअर्रिखों का इत्तिफ़ाक़ है कि हारिस ने यहूदी मज़्हब क़ुबूल कर लिया था। (38) इस के बाद मुर्सिद इब्ने कुलाल और (39) इस के बाद वकिअह बिन मुर्सिद तख़्त पर बैठा।
सर सय्यद लिखते हैं कि इन बादशाहों की हुकूमत का ज़माना हारिस बिन उमरू के यहूदी मज़्हब इख़्तियार करने की वजह से किसी क़द्र सेहत के साथ मालूम हो सकता है जबकि बख़्त नज़र फ़िलिस्तीन को फ़त्ह करके और बैत-उल-मुक़द्दस को मिस्मार (गिराना) करके हज़रत दानयाल और उनके दोस्तों को क़ैदी बना कर बाबिल को ले गया। उस वक़्त कुछ यहूदी बच कर यमन को भाग गए थे। इस ज़माने में हज़रत यर्मियाह और दानीएल पैग़म्बर थे। इसलिए ये बात निहायत क़रीन-ए-क़ियास (जल्द समझ में आने वाला) मालूम होती है कि इन मफ़रूर यहूदीयों की वजह से अल-हारिस ने खुदा-ए-वाहिद का इक़रार किया होगा। और यहूदी मज़्हब को क़ुबूल किया होगा। और यह अम्र वाक़ई है कि अल-हारिस और वकिअह उस ज़माने में हुक्मरान थे यानी 3400 दीनवी में या 604 क़ब्ल हज़रत मसीह में इस अम्र का वाक़ई होना ज़्यादातर इसलिए क़ाबिल-ए-एतबार है कि नसलों के पैदा होने के क़ुदरती क़ायदे के मुताबिक़ भी ये ज़माना ठीक ठीक सही आता है। क्योंकि हमने ऊपर बयान किया है कि मालिक नाशिर अल-नअम 3001 दीनवी में तख़्त पर बैठा था। मालिक और दकीअह के दर्मियान ग्यारह और बादशाह गुज़रे हैं। जिनका ज़माना मजमून चार सौ बरस ख़याल करना क़रीन-ए-अक़्ल है। दकीअह के बाद छः और बादशाह ख़ानदान हमीर में से तख़्त नशीन हुए यानी अबराह बिन अल-सबाह, सहबान, बिन महरस, उमर इब्ने तबअ, ज़ोशनात्र, ज़ूनवास मुलक़्क़ब बह ज़ौवाखिद व ज़ोजिदन चूँकि इन बादशाहों का ख़ानदानी सिलसिला साफ़ साफ़ तहक़ीक़ नहीं हुआ। इसलिए हमने उन के नामों को शिजरा अंसाब अरब-उल-अरबह में शामिल कर देने की जुर्आत नहीं की। बल्कि उन के नामों को शिजरे के हाशिया पर लिख दिया है इन लोगों की सल्तनत का ठीक ज़माना भी तहक़ीक़ नहीं हुआ।
ज़ूनवास एक मुतअस्सिब (मज़्हब की बेजा हिमायत करने वाला) यहूदी था और यहूदी मज़्हब वालों के सिवा हर मज़्हब के मोतक़िदों (एतिक़ाद रखने वालों) और पैरौओं को आग में ज़िंदा जला दिया करता था। इस बात का ख़याल करने के वास्ते एक उम्दा वजह ये है कि यही वो ज़माना था जबकि अर्टाज़-रकसज़ ओक्स ने चंद यहूदीयों को जो मिस्र में क़ैद हुए थे क्योंकि मुल्क मिस्र से मिला हुआ था हर कानया (ज़ंद रान) को भेज दिया। और चूँकि ये बादशाह भी यहूदी था। इस की सल्तनत को भी सदमा पहुंचा और हब्शियों ने इस पर ग़लबा कर लिया और उस की सल्तनत से ख़ारिज कर दिया। पस ये ज़माना इस ख़ानदान का आख़िरी ज़माना मालूम होता है और 3650 दीनवी या 354 क़ब्ल अज़ हज़रत मसीह के मुताबिक़ होता है।
इस ज़माने से हमारे जनाब पैग़म्बरे ख़ुदा सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम की विलादत तक नौ सौ बीस बरस होते हैं। इस दर्मियान में अफ़्रीक़ा के लोग जो अरबात हब्शा कहलाते थे। और नीज़ बाअज़ अरब अल-मस्तअरबा और अब्रहों की हुकूमत रही।....इस ख़ानदान अबराह में एक बादशाह का नाम इस्टर था जो अबराह अशर्म साहिबे अलफ़ील कहलाता है। और जिस ने मक्का मुअज़्ज़मा पर 4570 दीनवी या 580 ईस्वी में चढ़ाई की थी। वो अपने साथ बहुत से हाथी इस नीयत से ले गया था कि ख़ाना काअबा को मुनहदिम (गिराना) कर दे। इस के बाद उस का बेटा अबराह मस्रूक़ तख़्तनशीं हुआ मगर सैफ बिन ज़ीयज़न हुमैरी ने इस को सल्तनत से बेदखल कर दिया। जिसको किसरा नौशेरवान वाली ईरान ने बहुत मदद दी थी जैसा कि आगे मालूम होगा। इसके बाद इस ख़ानदान अबराह की हुकूमत मुनक़तेअ हो गई।..... सैफ बिन ज़ीयज़न को एक उस के दरबारी हब्श मुसाहब ने क़त्ल कर दिया। इस के बाद इस सूबा को नौशेरवान ने अपने ममालिक-ए-महरूसा में शामिल कर लिया और अपनी जानिब से वहां आमिल मुक़र्रर करता रहा। इन आलिमों में से अख़ीर आमिल बाज़ान था। उस का ज़माना और आँहज़रत का ज़माना मुत्तहिद था। चुनान्चे वो आँहज़रत पर ईमान लाया और मुसलमान हो गया। सफ़ा 40 से सफ़ा 55 तक।
दोम : सूबा हीरा के हुक्मरानों की फ़ेहरिस्त
(1) मालिक बिन फ़हम (2) मालिक बिन फ़हम का भाई उमरू (3) जज़ीमा बिन मालिक (4) जज़ीमा का भांजा उमरू बिन अदी (5) उमरू बिन अदी के बाद उस का बेटा अम्र-उल-केस (6) अम्र-उल-केस का बेटा उमरू (7) इस के बाद एक या दो बादशाह इसी ख़ानदान के तख़्त नशीन हुए। इस के बाद अम्र-उल-केस सानी बिन उमरू ने हुकूमत पर क़ब्ज़ा कर लिया। इस शख़्स ने इन्सान को ज़िंदा जलाने की सज़ा सबसे पहले तज्वीज़ की थी (8) इस के बाद नोमान (9) नोमान का बेटा अल-मुतद अव्वल (10) अल मुतद सानी (11) अल-क़मा ज़ेली (12) अम्र-उल-केस सालिस (13) अल-मुन्ज़र सालिस (14) उमरू (15) क़ाबूस (16) अल-मुन्ज़र रबअ (17) नोमान अबू क़ाबूस ये नोमान ईसाई हो गया (18) ईयास इब्ने कबिस्ता अलताई (19) ज़ावदिया (30) अल-मुन्ज़र ख़ामिस इस बादशाह को ख़ालिद बिन वलीद सरदार लश्कर इस्लाम ने शिकस्त देकर सल्तनत छीन ली।
सर सय्यद फ़र्माते हैं कि उमरू बिन अल-मुन्ज़र मअल-समा की हुकूमत के आठवें साल में मुहम्मद रसूल-अल्लाह आख़िर-ऊज़-ज़मा पैदा हुए थे। इस वास्ते ये बादशाह 4562 दीनवी या 562 ईस्वी में तख़्त पर बैठा था। सफ़ा 55 से 57
सोम : अरब आरबा की तीसरी हुकूमत ग़स्सान के हुक्मरान
अरब अल-आरबा ने एक और सल्तनत सूबा ग़स्सान में क़ायम की थी। और इस सल्तनत के हाकिम अरब अल-शाम के नाम से मशहूर थे। अगर सही तौर से ग़ोर किया जाये तो ये हाकिम क़ैसर रुम की तरफ़ से बतौर अमाल के थे। मगर शाही लक़ब इख़्तियार करने की वजह से तारीख़ अरब में बादशाहों के ज़ेल में बयान होते हैं। चूँकि बाअज़ उमूर इन लोगों से ऐसे मुताल्लिक़ हैं जिनसे हमको बाअज़ उमूर की तहक़ीक़ात और तजस्सुस में आसानी होगी। इसलिए इन सल्तनतों का एक मुख़्तसर साल हाल इस मुक़ाम पर लिखते हैं।
इस सल्तनत की बिना चार सौ बरस क़ब्ल ज़हूर इस्लाम के हुई और यह ज़माना तैन्तालिस्वी सदी दीनवी या तीसरी सदी ईस्वी से मुताबिक़त रखता है।
इस सल्तनत के बादशाहों के नाम ज़ेल में दर्ज हैं :-
(1) जफ़ना बिन आस (2) सअलबा (3) अल-हारिस (4) जब्ला (5) अल-हरस (6) अल-मुन्ज़रर अल-अकबर (7) इस का भाई नोमान (8) जब्ला (9) अल-बीम (10) उमर (11) ख़ुफ़ता अल-असग़र बिन अल-मुन्ज़र अल-अकबर (12) नोमान अल-असगर (13) जब्ला बिन नोमान सालिस। ये बादशाह ख़ानदान हीरा के बादशाह अल-मुन्ज़र मा अलसा का हम-अस्र था (14) नोमान राबा बिन अल-अमीम (15) अल-हरस सानी (16) नोमान अल-ख़ामिस (17) अल-नज़र (18) उमर बरवार अल-मंज़र (19) हिज्र बरावरर उमर (20) अल-हारिस बिन हिज्र (21) हबला बिन अल-हारिस (22) अल-हारिस बिन हबला (23) नोमान अबू कर्ब बिन अल-हारिस और अबीहम उम्म नोमान (24) अल-मुन्ज़र (25) इसराहील (26) उमरू (27) जब्ला बिन अल-इहम बिन हबला। ये बादशाह हज़रत उमर की ख़िलाफ़त के ज़माने तक ज़िंदा रहा था पहले मुसलमान हो गया और इस के बाद रोम को भाग कर ईसाई हो गया। सफ़ा 58-59
चहारुम : अरब अल-आरबा की चौथी हुकूमत कुंदा ख़ानदान ने डाली थी।
इस का पहला बादशाह हिज्र बिन उमर हुआ। इस के बाद उस का बेटा उमरू तख़्त नशीन हुआ। इस के बाद उस का बेटा अल-हरस तख़्त का वारिस हुआ उस ने किसरा क़ुबाद का मज़्हब इख़्तियार कर लिया। ये बादशाह पैन्तालिसवीं या छियालीसवीं सदी दीनवी या पांचवीं या छठी सदी ईस्वी में हुक्मरान थे। सफ़ा 60
पंजुम : सल्तनत हिजाज़ के हुक्मरानों की फ़ेहरिस्त ज़ेल में दी गई है।
अबूल-फ़िदा के नज़्दीक उस का पहला बादशाह जिरहम था। मगर सर सय्यद इस में अबूलफ़िदा की ग़लती तस्लीम करते हैं। (2) यालैल (3 जरसीम बिन यालैल (4) अब्दुल मदान बिन जरशम (5) सअलबा बिन अब्दुल मदान (6) अब्दुल मसीह बिन सालबा (7) मज़ामीन बिन अब्दुल मसीह (8) उमरू बिन मिज़ाज़ (9) अल-हरस बरावर मिज़ाज़ (10) उमरू बिन अल-हरस (11) बशर बिन अल-हरस (12) मिज़ाज़ बिन उमर बिन मिज़ाज़।
अगर अबूलफ़िदा के नज़्दीक ये बादशाह हज़रत इस्माईल बिन हज़रत इब्राहिम से पेश्तर गुज़रे हैं तो वो बड़ी ग़लती पर है। क्योंकि अब्दुल मसीह के नाम से बिला-रैब (बिलाशक) साबित होता है कि कि वो ईसाई था। और इसलिए मुम्किन नहीं कि वो हज़रत इस्माईल से पेश्तर गुज़रा हो या उनका हम-अस्र हो। कुछ शक नहीं कि ये सल्तनत उस वक़्त क़ायम थी जबकि यमन और हीरा और कुंदा की सल्तनतें ज़वाल की हालत में थीं। और इस लिए हमको यक़ीन है कि इस सल्तनत के बादशाह पैंतालीस या छियालीस सदी दीनवी या पाँचवीं और छठी सदी ईस्वी में गुज़रे हैं।
ये भी वाज़ेह है कि उमरू बिन लाही 4210 दीनवी या तीसरी सदी ईस्वी के आग़ाज़ में इसी सल्तनत पर हुक्मरान था। अबूलफ़िदा का बयान है कि इसी शख़्स ने बुत-परस्ती को अरब हिजाज़ में रिवाज दिया था और काअबा में तीन बुत हुबुल, काअबा की छत पर और इसाफ और नाइला और मुक़ामों पर रखे थे।
मिस्ल दीगर अरब अल-आरबा के जो मजाज़ में मुतवत्तिन (वतन इख़्तियार करना वाला) हुए और फिर वहीं के बादशाह हुए। ज़हीरा बिन हुबाब ने भी लक़ब शाही इख़्तियार किया था। ये बात उस वक़्त की है जबकि अबराहा अशर्म ने मक्का मुअज़्ज़मा पर हमला किया था। क्योंकि ये बात मशहूर है कि ज़हीर भी अबराहा अशर्म के साथ इस मुहिम में शरीक था। इसलिए बाआसानी मुहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ होना) हो सकता है इस का अह्दे हुकूमत छियालीसवीं सदी दीनवी या छठी सदी ईस्वी के आख़िरी हिस्से में होगा। सबसे मशहूर वाक़िया इस के अह्दे हुकूमत का ये था कि इस ने नबी ग़त्फ़ान के उस मुक़द्दस माअबद (इबादत-गाह) को जो उन्हों ने काअबा के मुक़ाबले के लिए बनाया था। बिल्कुल बर्बाद कर दिया था। सफ़ा 60-61
दफ़ाअ 3 : अरब अल-मस्तअरबह यानी परदेसी अरब
सर सय्यद अरब अल-मस्तअरबह की ज़ेल में हज़रत इस्माईल बिन हज़रत इब्राहिम की औलाद को और हज़रत इब्राहिम की उस औलाद को जो हज़रत क़तूरह से थी। हज़रत ऐसो की औलाद को बनी नाहूर को। बनी हारन को शुमार करते हैं। सफ़ा 64 से 96 तक।
सर सय्यद ने ख़ुत्बात अहमदिया में बुज़ुर्गान माफ़ौक़ की औलाद का बयान बाइबल और फॉस्टर साहब के तारीख़ी जुग़राफ़िया अरब की तत्बीक़ (मुताबिक़त) में किया है। इस्लामी रिवायत को इस मैदान में क़ाबिल-ए-एतिबार नहीं गिरदाना है। बुज़ुर्गान मज़्कूर बाला की औलाद के हज़रत फ़ातिमा बिंत हज़रत मुहम्मद तक 237 क़बीले या क़बाइल शुमार किए हैं। पर अरब अल-मस्तअरबह में हज़रत मुहम्मद के ज़माने तक हुक्मरानों की कोई फ़ेहरिस्त नहीं लिखी है। जिससे बज़ाहिर यही बात मालूम होती है, कि अरब में हज़रत तारा और हज़रत इब्राहिम की नस्ल कभी बरसर हुकूमत नहीं आई थी। अगर आई थी तो कम अज़ कम तारीख़ अरब में इस के सबूत पाए नहीं गए। चुनान्चे सर सय्यद का अपना बयान इस पर शाहिद है। आप लिखते हैं :-
हज़रत इस्माईल के बारह बेटों में से क़ेदार की औलाद ने एक अर्सा के बाद शौहरत हासिल की। और मुख़्तलिफ़ शाख़ों में मुतफ़र्रे (किसी चीज़ से अपस की शाख़ की तरह निकलने वाला) हो गई। मगर बहुत सदीयों तक ये भी अपनी असली हालत पर रही और मुद्दत तक इनमें ऐसे लईक़ (लायक़, क़ाबिल) और नामी अश्ख़ास जिन्हों ने अपनी लियाक़तों और अजीब व गरीब क़ाबिलियतों की वजह से नामवर होने का इस्तहक़ाक़ (विरसे का हक़) हासिल किया हो या सल्तनतों और क़ौमों के बानी हुए हों। पैदा नहीं हुए और इसी वजह से क़ेदार की औलाद तारीख़ के सिलसिले को मुरत्तिब करने में बहुत सी सदीयों का फ़स्ल वाक़ेअ हो जाता है। मगर ये एक ऐसा अम्र है जिससे अरब की क़ौमी और मुल्की रिवायत की जो हज़रत इस्माईल की नस्ल की बाबत चली आती है। कमा-हक़्क़ा तस्दीक़ होती है क्योंकि एक जिलावतन माँ और बेटे की औलाद की कस्रत और तरक़्क़ी के वास्ते जो ऐसी बेकस और मुसीबतज़दा हालत में ख़ाना बद्र की गई थी। ज़रूर बल्कि यक़ीनन एक अर्सा दरकार हुआ होगा। ख़ुसूसुन ऐसी तरक़्क़ी के वास्ते जिसने अंजाम-कार उन को दुनिया की तारीख़ में एक निहायत नामवर और मुम्ताज़ जगह पर पहुंचाया और उन की औलाद ने ऐसे ऐसे कारहाए नुमायां किए जिनकी नज़ीर किसी क़ौम में नहीं मिलती। सफ़ा 100-101
बयान माफ़ौक़ से ये हक़ीक़त रोज़ रोशन की तरह ज़ाहिर व साबित है कि हज़रत इस्माईल व हज़रत हाजिरा और हज़रत इब्राहिम का मक्का में आना और काअबा शरीफ़ का बनाना गो इस्लाम से साबित हो सकता है। मगर तारीख़ अरब में इस का सबूत बड़ा दुशवार है। हज़रत इब्राहिम और हज़रत इस्माईल के ज़माने में सर-ज़मीन-ए-हिजाज़ ज़बरदस्त बादशाहों की हुकूमत के मातहत थी। जिसमें अजनबी आसानी से सुकूनत पज़ीर हो ही ना सकते थे। लेकिन सर सय्यद का बयान माफ़ौक़ किताब-ए-मुक़द्दस के इस बयान के ख़िलाफ़ मालूम होता है जो हम पेश्तर कर चुके हैं। किताब-ए-मुक़द्दस का बयान हरगिज़ झुठलाया नहीं जा सकता है।
दफ़ाअ 4 : अमालीक़ी हुकूमत का बयान
तारीख़ अरब से क़ौम अमालीक़ का भी बड़ा ताल्लुक़ माना गया है। तारीख़ इस्लाम में इस ज़बरदस्त क़ौम का ज़िक्र आया है। अरब के पड़ोस की अक़्वाम की तारीख़ भी इस क़ौम के कारनामों से ख़ाली नहीं ख़याल की जा सकती। बाइबल मुक़द्दस में इस क़ौम के कसीर तज़किरे आए हैं। दफ़ाअ हज़ा में मुख़्तसर तौर से क़ौम अमालीक़ का ज़िक्र किया जाता है ताकि तारीख़ अरब पर पूरी रोशनी पड़े और नाज़रीन किराम को मालूम हो जाए कि मुल़्क अरब ज़माना-ए-क़दीम में अपनी शान रखता था।
1. तारीख़ इस्लाम और अमालीक़
मौलाना अबदूस्सलाम साहब नदवी ने अभी हाल में अपनी किताब तारीख़-उल-हरमेन अश्शरीफ़ैन लिखी है। इस किताब से नाज़रीन किराम के फ़ायदे और आगाही के लिए ज़ेल का बयान हद्या नाज़रीन करते हैं। मौलाना मदीना का बयान करते हुए लिखते हैं :-
“लेकिन इस का सबसे क़दीम मशहूर नाम यसरब है। जिसकी वजह तस्मीया (नाम रखने की वजह) के मुताल्लिक़ मुतअद्दिद अक़्वाल हैं। एक क़ौल ये है कि वो यसरब से माख़ूज़ है, जिसके मअनी फ़साद के हैं। दूसरा अक़्वाल ये है कि वो यसरब से मुश्तक़ है, जिसके मअनी मलामत करने के हैं। एक ख़याल ये भी है कि यसरब एक काफ़िर का नाम था और उसी के नाम से ये शहर मशहूर हो गया। यही वजह है कि बाअज़ उलमा ने मदीना के इस नाम को मकरूह (हराम) ख़याल किया है। लेकिन बाअज़ लोगों का ख़याल है कि लफ़्ज़ यसरब एक मिस्री लफ़्ज़ तरबीस की तहरीफ़ (तब्दीली) है।
मदीना के क़दीम बाशिंदे और अगर ये नज़रिया सही है तो इस से ये भी मालूम होता है कि इस शहर को सबसे पहले अमालिक़ा ने 1016 क़ब्ल मसीह या 1222 क़ब्ल हिज्रत में मिस्र से निकल कर आबाद किया था। (अलरहलतुल-हिजाज़िया सफ़ा 252) और ख़ुद मौअर्रखीन की तफ़रिहात से भी यही साबित होता है। चुनान्चे याकूत हमवी ने मोअज्जम अल-बलदान में लिखा है कि सबसे पहले जिसने मदीना में खेती बाड़ी की खजूर के दरख़्त लगाए मकानात और क़िले तामीर किए वो अमालीक़ यानी इमलाक बिन अरफ़हशद साम बिन नूह अलैहिस्सलाम की औलाद थी। ये लोग तमाम मुल्क अरब में फैल गए थे। और बहरीन, उम्मान, और हिजाज़ से लेकर शाम और मिस्र तक उनके क़ब्ज़े में आ गए थे। चुनान्चे फ़राइना मिस्र (मिस्र के फ़िरऔन) इन्हीं में से थे बहरीन और उम्मान में उनकी जो क़ौम आबाद थी, उस का नाम जासम था। मदीना में उन के जो क़बाइल आबाद थे उनका नाम बनू हफ़ान, साद बिन हफ़ान, और बनू मतरवेल था। और नजद तैमार और इस के अतराफ़ में इस क़ौम का क़बीला बनू अदील बिन राहील आबाद था और हिजाज़ के बादशाह का नाम अर्क़म बिन अबी अल-इरक़म था। मोअज्जम जिल्द 7 लफ़्ज़ मदीना यसरब
वफ़ा-उल-वफ़ा में और भी बाअज़ अक़्वाल नक़्ल किए हैं। मसलन एक क़ौल ये है कि जब हज़रत नूह की औलाद दुनिया में फैली तो सबसे पहले मदीना को यसरब में कांया बिन महिला बैल बिन इरम बन एबेल बिन ओस बिन इरम बन साम बिन नूह अलैहिस्सलाम ने आबाद किया और इस के नाम पर मदीना का नाम पड़ा। सफ़ा 172 173 तक
मौलाना अबदूस्सलाम साहब तारीख़ मक्का लिखते हुए फ़र्माते हैं कि मक्का की तारीख़ हज़रत इब्राहिम ख़लील-उल्लाह के ज़माने से शुरू होती है। 1882 ई॰ क़ब्ल मसीह में ख़ुदा ने उनको हुक्म दिया कि अपने फ़र्ज़न्द इस्माईल और उन की माँ हाजिरा को ले कर (जैसा कि तौरेत में आया है) हिज्रत कर जाएं। चुनान्चे वो इन दोनों को लेकर इस ख़ुश्क ग़ैर-आबाद मैदान में आए। पानी की क़िल्लत से इस में कोई शख़्स आया नहीं था।
सिर्फ अमालीक़ इस के शुमाली वादी में जिसको हजून कहते हैं आबाद थे। ये लोग यहां पर बहरीन की तरफ़ से निकल कर आबाद हुए थे। और उन की सल्तनत शबहा जज़ीरा सीना तक फैली हुई थी। बाबिली उन को मालिक़ कहते थे। और इब्रानियों ने इस में लफ़्ज़ अम (यानी अमितह) का इज़ाफ़ा करके “अम-मालिक़” बना लिया और अरब ने तहरीफ़ करके अमालीक़ बना दिया। मिस्री लोग उन को हकसूस यानी चरवाहा कहते हैं।
हज़रत हाजिरा को चाह ज़मज़म से जो इस वादी के लिए एक ज़िंदगी ताज़ा थी इत्तिला हुई तो अमालीक़ भी यहां आए। और इस शर्त पर उन के साथ क़ियाम करने की दरख़्वास्त की, कि हुकूमत उन के और उन के फ़र्ज़न्द के हाथ में होगी। चुनान्चे उन्हों ने इस शर्त को क़ुबूल कर लिया।... इस दिन से ख़ाना काअबा के आस-पास के क़बाइल में इस की शौहरत फैलने लगी और लफ़्ज़ मक्का या मक्का का अश्तिक़ाक़ (किसी चीज़ से निकलना) इसी से हुआ। क्योंकि ये एक बाबिली लफ़्ज़ है। जिसके मअनी घर के हैं और अमालीक़ ने ये नाम रखा है। सफ़ा 57, 58
2. सर सय्यद लिखते हैं, अरब में जो लोग आबाद हुए, वो तीन नामों से मशहूर हैं। एक अरब अल-बाइदा, एक अरब अल-आरिया और एक अरब अल-मस्तअरबह। अरब अल-बाइदा वो लोग कहलाते थे जिनमें आद समूद और जिरहम अल-ऊला और अमालीक़ ऊला थे। वो कौमें बर्बाद हो गईं और तारीख़ की किताबों में उनका बहुत कम हाल मिलता है। और यह सब कौमें इब्राहिम से और बिना काअबा से पहले थीं।
अरब अल-आरबा की वो कौमें हैं, जिनकी नस्ल यक़तान या क़हतान से चली है और तमाम क़बाइल अरब इसी नस्ल में हैं। हमीर भी इन्हीं में एक क़बीला है। और बनी हमीर में भी एक क़बीला अमालीक़ के नाम से था जो मक्का में बस्ता था। इस पिछली क़ौम ने बनी जिरहम पर ग़लबा पा लिया था। और काअबा की मुख़्तार हो गई थी। इस ज़माने में इस क़ौम अमालीक़ सानी ने काअबा को फिर बनाया। जो ग़ालिबन पहाड़ों के नाले चढ़ आने से टूट टूट जाता था।
सर सय्यद तस्लीम करते हैं कि बाअज़ मोअर्रिखों ने इन दोनों क़ौमों में तमीज़ नहीं की और अरब अल-बाइदा में जो क़ौम अमालीक़ थी। इस की निस्बत तामीर काअबा को ख़याल किया और चूँकि वो क़ौम बनी जिरहम से पहले थी। इसलिए लिख दिया कि अमालीक़ ने क़ब्ल बनी जिरहम के तामीर काअबा की थी। हालाँकि इस ज़माने में ना इब्राहिम थे ना काअबा था।” ख़ुत्बात अहमदिया सफ़ा 233
सर सय्यद की राय अमालीक़ की बाबत अपनी है। वो किसी शहादत पर मबनी नहीं है। इस पर ख़ुद सर सय्यद फ़र्माते हैं कि अमालीक़ सानी की तामीर का ज़माना भी नहीं मालूम हो सकता। सफ़ा 323, फिर ना मालूम सर सय्यद ने अमालीक़ सानी का ख़याल किस फ़ायदे के लिए ज़ाहिर फ़रमाया था। शायद इस से आपका ये मुद्आ (मक़्सद) होगा कि काअबे की तामीर अव़्वल को हज़रत इब्राहिम व इस्माईल से मन्सूब (जुड़ा हुआ) फ़रमाएं। मगर हम उस की बाबत क्या कह सकते हैं। ख़ुद मुस्लिम मुअर्रिख़ काअबा शरीअत की तामीर हज़रत इब्राहिम से हज़ारों बरस पेश्तर करा गए हैं क्या इन मोअर्रिखों के बयानात और काअबा शरीफ़ के मुताल्लिक़ दीगर रिवायत को झुटलाएँ? और ऐसा करने की किसी की क्या मजाल हो सकती है। जो इन मोअर्रिखों और रिवायतों के ख़िलाफ़ फ़त्वा दे।
सर सय्यद की राय ख़्वाह कैसी ही ज़बरदस्त हो पर हम मौलाना अबदूस्सलाम की राय को तर्जीह देने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि इस में ज़्यादा सदाक़त नज़र आती है। इस के सिवा मौलाना की राय बाइबल के बयान से ज़्यादा मुवाफ़िक़त रखती है।
इस के सिवा तारीख़ इस्लाम की एक ख़ामी जो हज़रत इब्राहिम व हाजरा व इस्माईल के मक्का में आने और काअबा को तामीर करने की बाबत है वो तो वैसी की वैसी रुहानी है। उसे ना तो सर सय्यद ने वाक़ियात की बिना पूरा किया है ना मौलाना अबदूस्सलाम साहब ने पूरा करके दिखाया है। तारीख़ी वाक़ियात जिनका ज़िक्र हम ऊपर कर चुके हैं। तारीख़ इस्लाम की इस ख़ामी के पुर करने में किसी सूरत में मुआविन व मददगार बनते नज़र नहीं आते तारीख-ए-इस्लाम ऐसे ज़बरदस्त क़राइन (क़रीना की जमा, तरीक़े) पेश करती है। जिनसे ये अम्र साबित होता है कि मक्का मदीना बल्कि काअबा तक अमालीक़ क़ौम की यादगार में हैं। उनसे हज़रत इब्राहिम या इस्माईल का ताल्लुक़ एतिक़ाद तो साबित है मगर तारीख-ए-इस्लाम का मक्का व काअबा की ख़ुसूसीयत से हज़रत इब्राहिम व इस्माईल से मन्सूब कर देना किसी तारीख़ी सबूत पर मबनी नहीं किया गया है।
इस बात से इन्कार नहीं हो सकता कि अमालीक़ी और साबी हुकूमतों के ख़ारिजी और अंदरूनी अस्बाब से कमज़ोर हो जाने पर हज़रत इब्राहिम की अरबी नस्ल ने ज़रूर तरक़्क़ी की होगी। रफ़्ता-रफ़्ता इसने इक़बाल हासिल किया होगा। और वो हिजाज़ तक पहुंच कर हुक्मरान बन गई होगी। मगर तारीख़ इस्लाम इस तरक़्क़ी पर ख़ामोश है। वो तो वहां अरब अल-आरबा की मुस्तक़िल हुकूमत दिखा रही है।
पांचवीं फ़स्ल
अरबों का मज़्हब आसार-ए-क़दीमा की रोशनी में
तमाम दुनिया में मज़ाहिब हज़रत नूह के तीनों बेटों के तीन ख़ानदानों से मुताल्लिक़ होने से इब्तिदाई सूरत में तीन मज़्हब क़रार पाए हैं। यानी याफत की नस्ल की अक़्वाम का मज़्हब। हाम की नस्ल की अक़्वाम का मज़्हब और साम की नस्ल की अक़्वाम का मज़्हब। फिर ये तीनों मज़ाहिब हर एक क़ौम में सैंकड़ों सूरतों में तक़्सीम हो गए हैं। पर तो भी हर एक ख़ानदान के मज़ाहिब अपने असली मज़्हब से इश्तिराक रखते आए हैं। उन्हों ने अपने इफ़्तिराक़ (इख़्तिलाफ़, जुदाई) में असली मज़्हब को ज़ाए नहीं किया है।
हाम बिन नूह की अक़्वाम में एक ख़ास क़िस्म के मज़्हब की बुनियाद पड़ी। जिसे मिस्री मज़्हब के नाम से याद किया जाता है। मिस्री मज़्हब हमा ओसती (हर चीज़ ख़ुदा है) मज़्हब था जो कायनात दीदनी की हर एक चीज़ को ख़ुदा मानता था। ख़ुदा के लिए मौत और जन्म लाज़िमी क़रार देता था। सूरज और चांद उन के बड़े माबूद थे। बादशाह उन के नज़्दीक सूरज देवता के अवतार (देवता का जन्म लेना) समझे जाते थे। वो दुनिया के हर एक मख़्लूक़ को किसी ना किसी मआनी में अपने माबूद का मज़हर (ज़ाहिर करने वाला) ख़याल करते थे। ज़माना-ए-क़दीम की अक़्वाम ख़ुसूसुन मग़रिबी एशीया और यूरोप और हिंद की अक़्वाम तक यही मज़्हब माना जाता था। बाबिली अक़्वाम में थोड़ी सी तब्दीली के साथ इस मज़्हब की पैरवी होती थी मगर हज़रत साम की नस्ल की अक़्वाम में बिल्कुल दूसरा मज़्हब मुरव्वज़ था। अगरचे साम बिन नूह की नस्ल की बाअज़ अक़्वाम मिस्री और बाबिली मज़्हब क़ुबूल कर चुकी थीं। तो भी आम तौर से उन के दर्मियान वाहिद ख़ुदा का ज़बरदस्त एतिक़ाद था। गो वो बुतों को पूजती थीं। मुल्क अरब के क़दीम बाशिंदों का यही मज़्हब था।
जाये अफ़्सोस है कि हज़रत साम बिन नूह की नस्ल ने तहज़ीब व शाइस्तगी को शुरू करके इस में ऐसी तरक़्क़ी ना की जैसी कि हाम बिन नूह और याफत बिन नूह के ख़ानदान की अक़्वाम ने की थी। ख़ुसूसुन बाशिंदगान अरब ने फ़न तहरीर को जन्म देकर इसे इब्तिदाई हालत में छोड़ दिया। इल्म व मालूमात के बढ़ाने और गुज़श्ता वाक़ियात व रिवायत को ज़ब्त (क़ाबू) तहरीर में लाने की कभी कोशिश ना की इस का ये नतीजा हुआ कि हज़रत मुहम्मद से पेश्तर के अरबों की तारीख़ और तहज़ीब व शाइस्तगी मिट गई। वो मैदान तरक़्क़ी में पीछे रह गए। उनका जैसा हाल आज तक देखा जा सकता है वैसा हाल हज़रत मुहम्मद से पेश्तर हज़ारहा बरस तक देखा जा सकता है इस वजह से क़दीम अरबों के मज़्हब व अक़ाइद का और उन की तहज़ीब व शाइस्तगी का पूरा और सही हाल दर्याफ़्त करना निहायत दुशवार है। इनके मज़्हब व अक़ाइद के जानने के लिए हमारे पास तारीख़ इस्लाम और बाइबल और मिस्र और बाबिल और अरब के आसार-ए-क़दीमा के सिवा कोई और ज़रीया ऐसा नहीं है जिससे हम क़दीम अरबों के मज़्हब व अक़ाइद को दर्याफ़्त करें।
दफ़ाअ 1 : मिस्र के आसार-ए-क़दीमा में अरबों की ख़ुदा-परस्ती के शाहिद
1. अगर हम इस बात को तस्लीम करलें कि मिस्र के चौपान हुक्मरान अरब के बाशिंदे थे तो हमें मिस्री यादगारों से इस बात का सुराग़ मिल सकता है कि अरब ज़माना-ए-क़दीम में मिस्री मज़्हब व माबूदों के दुश्मन थे। वो वाहिदा ख़ुदा के मानने वाले थे। मसलन यूसेफ़स यहूदी मुअर्रिख़ ने मिस्र के काहिन मुअर्रिख़ से एक इक़्तिबास अपनी किताब में इन चौपान बादशाहों की निस्बत इन माफ़ी का किया है कि इन चौपान बादशाहों ने बग़ैर जंग मिस्र पर ग़ालिब आकर मिस्र के शहरों को जला डाला। मिस्रियों के माबूदों के बुत ख़ानों या हैकलों को बर्बाद कर डाला और मिस्रियों पर सख़्त ज़ुल्म व तशद्दुद रवा रखा देखो डाक्टर पेँच की किताब सफ़ा 351 ये बातें ज़ाहिर करती हैं कि अरब मिस्रियों के मज़्हब के और उन के माबूदों के ना सिर्फ मानने वाले ना थे बल्कि उन से सख़्त नाफ़िर थे।
2. डाक्टर पेँच इस से बढ़कर ये बात ज़ाहिर करते हैं कि चौपान शाहाँ मिस्र वाहिद ख़ुदा के परस्तार थे। अपूपी बादशाह चौपान बादशाहों में से था वो वाहिद ख़ुदा का परस्तार था। सफ़ा 254
3. आसार-ए-क़दीमा के माहिरीन ने मिस्र में अरब चौपान बादशाहों का ज़माना हुकूमत 2100 क़ब्ल अज़ मसीह से 1587 क़ब्ल अज़ मसीह तक क़रार दिया है। इस ज़माने में हज़रत इब्राहिम मुल्क मिस्र में गए। इसी ज़माने में हज़रत यूसुफ़ मिस्र में बेचे गए। इसी ज़माने में हज़रत याक़ूब अपनी तमाम औलाद को लेकर मिस्र में पहुंचे। इसी ज़माने में मिस्र के हुक्मरानों ने इस्राईल से ख़ुश सुलूकियां कीं। ये तमाम बातें इस बात पर दलालत करती हैं कि मिस्र के चौपान हुक्मरान वाहिद ख़ुदा के मानने वाले थे।
4. मिस्र की क़दीम यादगारों में एक तहरीर दाहिदा की बाबत पाई गई है। जिसका ख़ुलासा मतलब मए बाइबल के हवालों के ज़ेल में दिया जाता है। ताज्जुब नहीं कि ये तहरीर अरब के चौपान बादशाहों के ज़माने में मशहूर हो।
मिस्री ज़बान में लफ़्ज़ “नौतर” ख़ुदा के लिए आया है। गो वोह माबूद को नौतर कहते थे तो भी एक तहरीर नौतर की हस्ब-ज़ैल तारीफ़ आई है। जिसके साथ ही बाइबल के हवाले भी नक़्ल किए जाते हैं :-
(1) ख़ुदा वाहिद और एक है। उस के साथ कोई दूसरा ख़ुदा नहीं है। (इस्तशना 6:4, 2 शमुएल 7:22, यसअयाह 45:5, 21, मलाकी 2:10, 1 कुरिन्थियों 7:6, इफ़िसियों 4:6)
(2) ख़ुदा वाहिद है। उस एक ने तमाम चीज़ें बनाईं। यूहन्ना 1:13 कुलस्सियों 1:16)
(3) ख़ुदा एक रूह है। एक पोशीदा रूह वो रूह-उल-अर्वाह है जो मिस्र की अज़ीम रूह है जो इलाही रूह है। (यूहन्ना 4:24, इब्रानियों 12:9)
(4) ख़ुदा इब्तिदा से है और वो इब्तिदा से हसत है। पैदाइश 1:1, यूहन्ना 1:1, कुलस्सियों 1:17)
(5) ख़ुदा अव्वल है। वो सब चीज़ों से पहले है। वो तब से है जब हनूज़ कोई चीज़ ना थी। और जो कुछ उस ने बनाया वो सब अपने बाद बनाया। (मुकाशफ़ा 4:11)
वो इब्तिदाओं का बाप है। (मुकाशफ़ा 1:8)
खुदा अज़ली व अबदी है। (इस्तिस्ना 33:27, 1 तीमुथियुस 1:12)
उस की इब्तिदा और इंतिहा नहीं है। वो अबद-उल-आबाद रहने वाला है। (ज़बूर 10:16, 90:2, 102:25, 27, यर्मियाह 10:10)
(6) ख़ुदा पोशीदा है। कोई उस की सूरत को महसूस नहीं कर सकता ना उस की मुशाकलत (हमशक्ल) की पैमाइश कर सकता है। (ख़ुरूज 33:20, यूहन्ना 1:18, 1 तीमुथियुस 6:16)
वो देवताओं और इन्सानों से पोशीदा है। जो अपनी मख़्लूक़ात के लिए राज़ सरबसता है। (अय्यूब 37:23)
(7) ख़ुदा बरहक़ है। (ज़बूर 25:10, 31:5, 100:5, 57:3, 89:14, 91:4, 100:5, 46:1, यर्मियाह 10:10, यूहन्ना 14:16) वो सदाक़त व सच्चाई से ज़िंदा है। वो सदाक़त से ज़िंदा है। वो सदाक़त का बादशाह है।
(8) ख़ुदा ज़िंदा है इन्सान सिर्फ उसी के वसीले ज़िंदा है। (आमाल 17:28) वो ज़िंदगी का दम उन के नथनों में फूँकता है। (पैदाइश 2:7, अय्यूब 12:10, 33:6, दानीएल 5:23, आमाल 17:35)
(9) ख़ुदा बाप है और माँ है। (इस्तसना 32:6, ज़बूर 27:10, 68:5, यसअयाह 9:6 मलाकी 2;1) वो बापों का बाप है और माओं की माँ है।
(10) ख़ुदा पैदा करता है। (ज़बूर 3:7, यूहन्ना 1:14,18, 3:16, 18)
लेकिन वो किसी से पैदा नहीं होता। वो जन्म देता है। पर उस को कोई जन्म नहीं दे सकता।
(11) वो आप अपना पैदा कनिंदा है। और अपने आपको ख़ुद जन्म देने वाला है। वो बनाता है। लेकिन ख़ुद नहीं बनता। (अम्साल 16:14, यसअयाह 45:12, यर्मियाह 27:5)
वो अपनी शक्ल व हस्ती का ख़ुद मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) है और अपने जिस्म को आप बनाने वाला है।
ख़ुदा ज़मीन व अस्मान का ख़ालिक़ है। गहराओ, समुंद्र, पहाड़, ख़ुदा ने आस्मान फैलाए और उन के नीचे ज़मीन को इस्तिवार की। (ज़बूर 104:5, अम्साल 7:28, यसअयाह 40:13, 42:5 अमोस 4:13)
(12) ताकि जो उस की रज़ा व मर्ज़ी हो उन से फ़ौरन तक्मील पाए। और जब वो एक दफ़ाअ कह दे फ़ौरन वजूद नुमा हो और अबदुल-आबाद क़ायम साबित रहे। (ज़बूर 148:5, 6) s
(13) ख़ुदा जुम्ला माबूदों का बाप है और तमाम इलाहों का मोरिस-ए-आला (सबसे बड़ा बुज़ुर्ग) है। (इस्तस्ना 10:17, ज़बूर 76:8, 135:5)
(14) ख़ुदा उन पर मेहरबान है जो उस से डरते हैं। (ख़ुरूज 34:6, गिनती 14:18, 2 तवारीख़ 13:9, नोहा 3:22, रोमीयों 9:15) वो उन की सुनता है जो उसे पुकारते हैं (गिनती 25:16, ज़बूर 34:17) वो ज़बरदस्तों के मुक़ाबिल कमज़ोरों की हिफ़ाज़त करता है। (ज़बूर 35:10 अम्साल 22:22, 23, मलाकी 3:5) ख़ुदा उन को जानता है जो उसे जानते हैं। (ज़बूर 1:6, नहमियाह 1:7) जो उस की इबादत करते हैं वो उन को अज्र देता है। (ज़बूर 58:11, यसअयाह 40:10, लूक़ा 9:12-27) जो उस की पैरवी करते हैं उन की वो हिफ़ाज़त करता है।
(15) ख़ुदा की फ़र्माबरदारी उस से मुहब्बत करना है। लेकिन उस की ना-फ़र्मानी उस से नफ़रत करता है। (1 शमुएल 15:22-23)
(16) ख़ुदा की हैकल में तेरी आवाज़ बुलंद ना हो। ऐसी बातें ख़ुदा के नज़्दीक नफ़रतअंगेज़ हैं। (वाइज़ 5:1, 2, 6, मत्ती 6:6-7)
(17) ख़ुदा बदकारों को जानता है। वो उन को फ़ना करेगा। (ज़बूर 58:10, 29, 1:4, अम्साल 3:33, 14:11) मुलाहिज़ा हो बाई पाथ्स ऑफ़ बाइबल नॉलिज जिल्द 8 मुसन्निफ़ ई॰ ए॰ डब्लयू॰ बज, एम॰ ए॰ सफ़ा 130-133 नाज़रीन किराम में से कौन ऐसा शख़्स हो सकता है जो बयान मज़्कूर बाला को पढ़ कर दंग (हैरान) और मुतहय्यर (हक्का बक्का) ना हो जाए। हमारे नज़्दीक हमारे ज़माने में ख़ुदा की बाबत इस अक़ीदे से बेहतर अक़ीदा बाइबल से बाहर मिलना सख़्त दुशवार है।
दफ़ाअ 2 : मिसोपितामिया में अरब वाहिद ख़ुदा के परस्तार ना रहे
अहले-अरब ज़माना-ए-क़दीम में बाबिल की सल्तनत के मालिक हुए वहां उन्हों ने ज़बरदस्त तहज़ीब व शाइस्तगी की बुनियाद डाली। पर बाबिल की हुकूमत और बाबिल का बुत-परस्त मज़्हब उन पर ग़ालिब आ गया। वहां वो वाहिद ख़ुदा के परस्तार ना रह सके। ना बाबिली अरब वहां पर अपना कोई इम्तियाज़ क़ायम रख सके।
बाबिल, अक्काद, नैनवा और क़स्दियों की तहज़ीब व शाइस्तगी अगरचे मिस्री तहज़ीब व शाइस्तगी में बाअज़ बातों में निहायत मुम्ताज़ (नुमायां) थी। मसलन बाबिली तहज़ीब व शाइस्तगी में ये वस्फ़-ए-ख़ास था कि इस में मुख़्तलिफ़ अक़्वाम के लोग उसे मान कर एक हो जाते थे। उनमें बाहमी इम्तियाज़ ना रहता था। पर मिस्र के मज़्हब का ये हाल ना था। मिस्री ग़ैर-अक़्वाम को अपने मज़्हब में दाख़िल ही ना करते थे। अगर कोई उन के मज़्हब को मान भी लेता तो उन्हें अपनी मुसावात (बराबरी) ना देते थे। पर बाबिल तहज़ीब व शाइस्तगी में ये वस्फ़ ज़रूर था कि गोया बाबिली मज़्हब और मिस्रियों का मज़्हब उसूलन एक था। पर बाबिली मज़्हब में दीगर अक़्वाम के लोग दाख़िल हो कर अपना इम्तियाज़ खो देते थे। इस वजह से अरब जो बाबिल में आए वो मज़्हबी तौर से बाबिली ही बनेंगे। मिस्र के चौपान बादशाहों की तरह वो अपनी हस्ती को बाबिलियों से जुदा क़ायम ना रख सके।
अहले-बाबिल व नेन्वाह इल्म नुजूम के मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) व माहिर थे वो अज्रामे फ़लकी की इज़्ज़त व इबादत किया करते थे। उन के माबूद कसीर थे। जो मज़कुर व मोअन्नस थे और साहिबे औलाद थे। उन के बड़े बड़े माबूद हस्ब-ज़ैल थे :-
मज़्कूर माबूद | मुअन्नस | उन की औलाद |
1. अनू | अनात | रमोन |
2. अबयाया हया | दमकीना | सम्स या शम्स |
3. बैल | बेलतस | सन चांद, पाई पाथ्स ऑफ़ बाइबल नॉलिज जिल्द सफ़ा 128 |
बाबिल और नैनवा और अक्काद और उदर, और फेंकी और कनआन के आसार-ए-क़दीमा से पाया जाता है कि हज़रत इब्राहिम के ज़माने के क़रीब मग़रिबी एशीया में बाबिली मज़्हब आम तौर से माना जाता था। इस मज़्हब के माबूद बेशुमार थे। बाबिल और अक्काद और समीरद हारान में इन माबूदों के लिए शानदार मुनाद बने थे। अरब भी इस मज़्हब के ग़ालिब असर से महफ़ूज़ ना था। मिस्रियों की तरह बाबिल के मज़्हब में भी माबूदों के साथ पैदा होने और मरने की बीमारी लगी हुई थी। बाबिल में भी बादशाह को ख़ुदा का मज़हर (ज़ाहिर करने वाला) माना जाता था। बाक़ी जो मकरूहात (नफ़रत-अंगेज़ चीज़ें) मिस्रियों के मज़्हब में जायज़ थीं। बाबिली मज़्हब में भी आम थीं जिनका यहां पर ज़िक्र करना मुनासिब नहीं है।
ज़माना-ए-क़दीम की यादगारों में मुल्क अरब के बाअज़ माबूदों का ज़िक्र मिलता है मसलन अल-लात की पूजा बाबिल में भी होती थी। डाक्टर पंज की किताब सफ़ा 18
दफ़ाअ 3 : क़दीम अरबों का मज़्हब आसारे-ए-क़दीमा की रोशनी में
गो क़दीम अरबों का मज़्हब आम तौर से मिस्रियों और बाबिलियों का ही मज़्हब था। पर इस में कुछ ख़ुसूसीयत भी पाई गई है। डाक्टर ग्रेसर की उन दर्याफ़्त में जो आपने यमन और हज़रमोत के आसारे-ए-क़दीमा के मुताल्लिक़ शाएअ फ़रमाई हैं बात मालूम हो सकती है कि क़दीम साबी यादगारों में लोगों के ऐसे नाम मिले हैं जोएल, एली, एलोनामी माबूद से मुरक्कब व मन्सूब (निस्बत करना) हैं। उनसे ये बात ज़ाहिर हो सकती है कि क़दीम ज़माने के अरबों में वाहिद ख़ुदा का एतिक़ाद (यक़ीन, ईमान) अक़ीदा ज़रूर पाया जाता था। पर इन अस्मा से ये नतीजा अख़ज़ नहीं किया जा सकता कि क़दीम ज़माने के साबी बुत-परस्त व शिर्क परस्त (कुफ्र परस्त) ना थे।
1. इस्लामी ज़माने की तहरीरात के ज़माने से पेश्तर क़दीम अरबी यादगारों में ख़ुदा का नाम अल्लाह या अल-रहमान का कहीं पता निशान नहीं मिलता है। हमने उन कुतुब में जो हमारे पास आसार-ए-क़दीमा के मुताल्लिक़ मौजूद हैं इन दोनों नामों के मुताल्लिक़ तलाश व जुस्तजू (कोशिश) की। पर उनमें किसी शख़्स का नाम अब्दुल्लाह या अब्दुल-रहमान वग़ैरह ना पाया। जिससे ये बात मालूम होती है कि ख़ुदा के ये दोनों मुक़द्दस इस्म साबी तहज़ीब व शाइस्तगी के बाद ज़माने के हैं। इब्तिदाई ज़माने में हज़रत साम बिन नूह की अरबी नस्ल के माबूद का नाम ईल ही था। जो ज़ेल के साबी कुतबों के अस्मा में जुज़्व अज़ीम बनाया गया है। मसलन एली अज़ा, एली यदा, एली करीबा, एली रब्बी, एली सादा वग़ैरह यसमा-ए-उलवेहराम एलूहिमी अलू। वह्बवाली वग़ैरह। देखो प्रोफ़ैसर, फ़रहमल की किताब एन्शियंट हिब्रू ट्रेडिशन सफ़ा 83, 86 तक।
याद रखना चाहिए कि यमन और हज़रमोत के आसार-ए-क़दीमा ऐसे रस्म-उल-ख़त में पाए गए हैं जो मुरव्वजा अरबी की रस्म-उल-ख़त से कुछ मुशाबहत नहीं रखते। हमने अस्मा-ए-माफ़ौक़ को अंग्रेज़ी रस्म-उल-ख़त से लिया है। जिसे मज़्कूर बाला सूरत में हमने लिखा है। ताकि नाज़रीन किराम मुलाहिज़ा फ़र्मा लें कि अरब की क़दीम तहज़ीब व शाइस्तगी इस बात की शाहिद (गवाह) है कि क़दीम अरबों का माबूद, ईल, एली उलूद जुज़्व में बख़ूबी अयाँ (ज़ाहिर) है। इन्हीं अस्मा के जुज़्व अव़्वल या आख़िर से अग़लबन (यक़ीनी) अरबी ज़बान का इस्म अल्लाह बना है जो हमारे ज़माने तक पहुंचा है। जो ख़ुदा का पाक व मुक़द्दस नाम माना जाता है।
अगरचे साबी ज़माने की अरबी यादगारों में ख़ुदा का नाम ईल या एली या अलू मज़्कूर हुआ है तो भी यमन व हज़रमोत की माओनी यादगारों में.....क़दीम अरबों के बाअज़ ऐसे माबूद मज़्कूर हुए हैं। जो बाअज़ बाबिली और बाअज़ ख़ास अरबों के मालूम होते हैं। मसलन अस्तर देवी, कबाद देवी, विद, अनुक्रिया, यहरक, लश्क की देवी वग़ैरह। अस्तर और क़बाद बाबिलियों के माबूदों में दाख़िल हैं। बाक़ी माबूद ख़ास अरबों के हैं। (हमल सफ़ा 80, 81)
2. अगर अहले-अरब को बाइबल की रोशनी में से देखा जाये तो हमें हज़रत इब्राहिम के ज़माने के बाद से मुल्क अरब के शुमाल मग़रिबी ममालिक में और ख़ास कर शुमाल अरब के वुस्ता में वाहिद ख़ुदा के परस्तारों की मिसालें भी मिल जाती हैं जिनकी ख़ुदा-परस्ती हमारे ज़माने तक एक मुसल्लिमा अम्र है। मसलन :-
हज़रत इब्राहिम के ज़माने में मुल्क कनआन में मुल्क सिदक़ नामी वाहिद ख़ुदा का परस्तार बादशाह था। जिसको हज़रत इब्राहिम ने भी दहयुकी दी थी।
हज़रत अय्यूब और आप के दोस्तों के हाल से कौन बाइबल पढ़ने वाला नावाक़िफ़ है। ख़ुदा-परस्ती में जो सऊबतें (मुश्किलें) और मुसीबतें इस बुज़ुर्ग हस्ती ने बर्दाश्त कीं वो अपनी आप मिसाल हैं। ये हज़रत अय्यूब मुल्क अरब के शहर एवज़ के गोया बादशाह थे। जिनके तमाम दोस्त अरबी शहज़ादे थे। वो एक मुल्क अरब के मवहिदीन की चोटी के बुज़ुर्ग थे। जिसकी ख़ुदा-परस्ती की धूम कनआन के मवाहदीन तक पहुंची। और उन्हों ने आपकी ज़िंदगी के हालात लिख कर मुक़द्दस नविश्तों में शामिल किया।
इस के सिवा हज़रत मूसा के ज़माने में येत्रो मिदियान काहिन था जो अपनी ख़ुदा-परस्ती में इतनी शौहरत रखता था कि हज़रत मूसा जैसा ख़ुदा-परस्त और गैरतमंद शख़्स चालीस बरस तक उस के घर रह सका। बलआम को भी वाहिद ख़ुदा के आरिफ़ों (वलीयों, पहचानने वालों) में शुमार किया जा सकता है।
अगर इस्लामी रिवायत पर एतबार किया जा सके तो हमें मुल्क अरब में। हज़रत शुऐब, हूद, सालिह व लुकमान जैसी बुज़ुर्ग हस्तियाँ ऐसी मिल सकती हैं जो वाहिद ख़ुदा की परस्तार थीं। उन्हों ने अपने मुआसिरीन (हम ज़माना लोग, अपने हम-अस्र) अरबों को वाहिद ख़ुदा की परस्तिश के सबक़ पढ़ाए थे। लेकिन अफ़्सोस है कि वो दुनिया में ख़ुदा-परस्ती फैलाने में कामयाब ना हुए थे। और ना वो बुत-परस्ती और शिर्क परस्ती की क़ुव्वत व ताक़त पर ग़ालिब आ सके। इस ग़लबा आलमगीर के लिए ख़ुदा ने हज़रत इब्राहिम इब्रानी को ही बर्गुज़ीदा किया था। जिसका ज़िक्र आने वाला है।
छठी फ़स्ल
तारीख-ए-इस्लाम के क़दीम अरबों का बयान
अरब के पड़ोसी ममालिक की तारीख़ में अरबों का शानदार बयान मिल सकता है। पेश्तर की फ़ुसूल का बयान मह्ज़ एक मुश्ते नमूना इज़ख़रवारे (ढेर में से मुठ्ठी भर) के तौर पर हद्या नाज़रीन किया गया है। लेकिन अगर इस पर तारीख़ इस्लाम का बयान बढ़ाया ना जाये तो ना तमाम रह जाता है। इस वजह से हम इख़्तिसार (कोताही) के साथ तारीख़ इस्लाम से भी क़दीम अरबों की कैफ़ीयत नज़र नाज़रीन करते हैं।
तारीख़ इस्लाम में गो क़दीम अरबों की बाबत बहुत कुछ बसूरत रिवायत जमा किया गया है। तो भी इस से मुस्तनद (तस्दीक़) करना ज़रा मुश्किल है। मुल्क हिंद के मुस्लिम उलमा ने तारीख़ इस्लाम की सनद से जो बयानात क़दीम अरबों की बाबत कलमबंद फ़रमाए हैं हम उन में से चंद बयानात नाज़रीन किराम की आगाही के लिए नक़्ल करते हैं।
दफ़ाअ 1 : मौलाना अबदूस्सलाम और क़दीम अरब
क़दीम अरबों के हालात जनाब मौलाना अबदूस्सलाम साहब नदवी ने अपनी किताब तारीख़-उल-हरमैन-अश्शरीफ़ैन में जनाब मर्हूम सर सय्यद अहमद ख़ां साहब ने अपने ख़ुत्बात अहमदिया में रक़म फ़रमाए हैं। उन्हीं कुतुब से साबियों और अमालीक़ का मुन्दरिजा ज़ैल बयान इक़्तिबास किया जाता है। जिसके हक़ व बातिल (ग़लत) होने के ज़िम्मावार यही साहिबान हैं। ख़ाना काअबा के बयान की ज़ेल में मौलाना अबदूस्सलाम साहब साबियों और अमालीक़ियों की बाबत तहरीर करते हैं :-
कि इस्लाम से 27 सदी पेश्तर तमाम अरब के नज़्दीक ख़ाना काअबा एक क़ाबिल-ए-एहतिराम चीज़ था और इस में अरब के बुत-परस्त और अरब के यहूदी और अरब के ईसाई सब के सब यकसाँ हैसियत रखते थे। सिर्फ अरब की ही ख़ुसूसीयत नहीं बल्कि इज़्ज़त जज़ीरा अरब से निकल कर हिंदूओं तक के क़ुलूब (दर्मियान) में जागज़ीं हो गई थी। और उन लोगों का एतिक़ाद (यक़ीन) ये था कि जब उनके एक देवता बग़ी शिव ने अपनी बीबी के साथ मुल्क हिजाज़ की ज़ियारत की तो उस की रूह संग-ए-असवद में हाइल करके रह गई। ये लोग मक्का को मकशशाया मोकशीशाना यानी शीशा या शीशाना का घर कहते थे और ग़ालिबन ये उन के देवताओं के नाम हैं।
मुरव्वज-उल-मज़्हब में जहां बुयूत मुअज़्ज़मा पर बह्स की गई है वहां लिखा है कि फ़िर्क़ा साइबा का ये एतिक़ाद (यक़ीन) था कि ख़ाना काअबा उन सातों घरों में दाख़िल है जिन की वो इज़्ज़त करते हैं और नीज़ उनका ये एतिक़ाद था कि वो ज़ुहल का घर है। और ज़ुहल के वजूद व बका के साथ अबद-उल-आबाद तक क़ायम रहेगा। इब्तिदा में तमाम मशरिक़ी ममालिक बिलख़ुसूस मुल्क-ए-अजम, मुल्क हिंद, और कलदान जो हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम का मौलिद (पैदा होने की जगह) व मंशा था। साबी-उल-मज़्हब थे और उनमें ये मज़्हब अब तक क़ायम है। उनमें बाअज़ फ़िर्क़े आफ़ताब (सूरज) और सबअ सय्यारा (सात सय्यारे) को ख़ुदा मानते थे। और उन को मद बरात के नाम से पुकारते थे और उन की परस्तिश के लिए इबादतगाहें तामीर करते थे। बाअज़ मौअर्रखीन का बयान है कि ये लोग अपनी इबादत-गाहों के गिर्द हरम (शुरफा का ज़नाना ख़ाना) बनाते थे ताकि उनमें अजनबी लोग ना दाख़िल हो सकें। ग़ालिबन हर सितारे के फ़लक के गिर्द जो दायरा इस ग़र्ज़ से क़ायम है कि दूसरा सितारा उस के हदूद में क़दम ना रख सके। इसी से उन लोगों ने हरम के बनाने का ख़याल पैदा किया। ग़ालिबन वो अपनी इबादत-गाहों का तवाफ़ (किसी चीज़ के चारों तरफ़ घूमना) भी करते होंगे और तमाम सितारे जो सूरज के गिर्द घूमते हैं, इन से ये नतीजा निकलता है कि वो उस के ताबे हैं इसी से उन लोगों ने तवाफ़ की रस्म क़ायम की होगी। ग़ालिबन वो अपनी इबादतगाहों के गिर्द सात चक्कर भी लगाते होंगे क्योंकि इस को सबअ सय्यारा से एक ख़ास ताल्लुक़ है यानी ये कि वो उन इबादत-गाहों में से हर एक इबादत-गाह के गिर्द सात फेरे लगाते होंगे ताकि हर सितारे के लिए एक फेरा हो जाए। (तारीख़-उल-हरमैन अश्शरीफ़ैन सफ़ा 98, 99)
और दरहक़ीक़त ये कोई ताज्जुबअंगेज़ (हैरत-अंगेज़) बात नहीं है। क्योंकि थोड़े बहुत इख़्तिलाफ़ात के साथ हर क़ौम की शरीअत क़दीम शरीअतों से माख़ूज़ (अख़ज़ किया हुआ) है। ख़ुद शरीअत इब्राहिम अमालिक़ा शुमाल की शरीअत से मुस्तफ़ीद (फ़ायदा उठाने वाला) हुई है। जिन्हों ने पंद्रहवीं सदी क़ब्ल मसीह में इराक़ में एक निहायत तरक़्क़ी याफ्ताह सल्तनत क़ायम की थी। अख़ीर में उलमाए आसार-ए-क़दीमा ने बाबिल और अशूर के खंडरों में उन के बहुत से आसार निकाले हैं जिनमें से उन की तमद्दुनी (मिलकर रहने का तरीक़ा, तर्ज़-ए-मुआशरत) तरक़्क़ी का पता चलता है। और इन्ही में उनकी शरीअत के बहुत से मवाद भी शामिल हैं। आज इन आसार का बहुत सा ज़ख़ीरा बर्लिन और लंदन के अजाइब ख़ानों में मौजूद है। सबसे पहले इन्ही अमालिक़ा ने इल्म-उल-फ़लक की ईजाद की थी और सितारों और आसमानों की हरकत का पता लगाया था। क्योंकि उन के यहां ये इल्म सिर्फ एक मज़्हबी इल्म था और यही वजह है कि तमाम साबियों में बावजूद इख़्तिलाफ़ क़ौमीयत के आम तौर पर इस इल्म की इशाअत हुई।
ये भी मुम्किन है कि तवाफ़ के इन सात फेरों को सितारों से कोई ताल्लुक़ ना हो। बल्कि इनकी तादाद इसलिए मुक़र्रर की गई हो कि सात का अदद अहले-रियाज़ी के नज़्दीक अदद कामिल यानी तमाम आदाद का मजमूआ है। क्योंकि अदद की दो किस्में हैं जुफ़्त और ताक़, और जो आदाद जुफ़्त होते हैं उनमें अव्वल व दुवम की तर्तीब होती है। मसलन दो का अदद जुफ़्त अव्वल और चार का अदद जुफ़्त दुवम है ताक़ अददों की भी यही हालत है। मसलन तीन का अदद ताक़ अव्वल और पाँच का अदद ताक़ दुवम है। इस लिहाज़ से अगर जुफ़्त अव्वल यानी दो का अदद ताक़ दोम यानी पाँच के अदद के साथ ताक़ अव्वल हो यानी तीन का अदद जुफ़्त दोम यानी चार के साथ मिलाया जाये तो सात का अदद पूरा हो जाता है। इसी तरह अगर एक के अदद को जो कि तमाम आदाद की अस्ल है छः के साथ जो हुकमा के नज़्दीक अदद ताम है मिलाया जाये तो इस से सात जो कि अदद कामिल है पूरा हो जाता है और यह ख़ासियत सात के अदद के इलावा और किसी अदद में पाई नहीं जाती। यही वजह है कि लोग जब किसी तादाद में मुबालग़ा (किसी चीज़ को बढ़ा चढ़ा कर बयान करना) करना चाहते हैं तो इसी अदद का इस्तिमाल करते हैं। मसलन कहते हैं कि “ख़ुदा को सात बार याद करो।” रसूल अल्लाह पर सात बार दुरूद भेजो, सात कंकरियों के साथ रुमी जमार (कंकरीयां फेंकना) करो अर्ज़ ये अदद बहुत सी इबादात में मुस्तअमल (इस्तिमाल) है और यही वजह है कि आस्मान सात हैं, सय्यारे सात हैं, और ज़मीनें सात हैं और यही वजह है कि जब जोहर ने क़ाहिरा को बनवाया तो तख़मीनन उस के सात दरवाज़े बनवाए। जब महल का जलूस निकलता है तो लोग सात बार उस के गर्द घूमते हैं। लोग मुबालग़ा (बढ़ा चढ़ा कर) जब किसी की तारीफ़ करते हैं तो कहते हैं कि वो सात ज़बानें जानता है। सातों दरिया को उबूर कर चुका है और हफ़ते क़लीम का सय्याह (सात सल्तनतें की सैर करने वाला) है वग़ैरह-वग़ैरह। लेकिन बाईहुमा हमारे फुक़हा (इल्म, फ़िक़्ह के आलिम) इन बातों पर एतिमाद नहीं करते। क्योंकि इबादत में जो आदाद मुक़र्रर किए गए हैं। मसलन रकअत नमाज़ और अश्वात तवाफ़ की तादाद वो लोग इनसे बह्स नहीं करते बल्कि वो इनकी बहैसीयत एक क़ाबिल-ए-तसलीम व क़ाबिले एहतिराम हुक्म ख़ुदावंदी के मानते हैं और उन के अलल व असबाब (बीमारी के बाइस) का सुराग़ नहीं लगाते।
मसऊदी की तस्रीहात (तश्रीह) से मालूम होता है कि हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम की तामीर से पहले अहले-अरब मौक़ा ख़ाना काअबा का एहतिराम करते थे। चुनान्चे उसने जहान क़ौम आद की क़हतज़दगी (ख़ुश्कसाली, क़ाल का ज़माना) का ज़िक्र किया है वहां लिखा है कि ये लोग मौक़ा ख़ाना काअबा की इज़्ज़त करते थे और वह एक सुर्ख रंग का टीला था। इस से ज़ाहिर होता है कि तामीर इब्राहिम अलैहिस्सलाम से पेश्तर मौक़ा ख़ाना काअबा उन लोगों के नज़्दीक क़ाबिल-ए-एहतिराम था। ग़ालिबन इस जगह अमालिक़ा की कोई क़दीम इबादत-गाह थी जो हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम के आने से पहले मिट चुकी थी। इस बिना पर पैग़म्बर इब्राहिम से पहले मौअर्रखीन ने इस इबादत-गाह की बुनियाद के मुताल्लिक़ मुख़्तलिफ़ राएं क़ायम करलीं। चुनान्चे बाअज़ मौअर्रखीन ने लिखा कि हज़रत इब्राहिम से पहले हज़रत आदम अलैहिस्सलाम ने ख़ाना काअबा को तामीर किया और बाज़ों ने इस के इलावा और राय क़ायम की ये भी मालूम होता है कि ये पूरा क़तआ ज़मीन अहले-अरब के नज़्दीक मुक़द्दस ख़याल किया जाता था यही वजह है कि क़दमा-ए-मिस्र मुल्क हिजाज़ को “बिलाद मुक़द्दमा” कहते थे।
ईरानी भी ख़ाना काअबा की इज़्ज़त करते थे और उन के एतिक़ाद के मुवाफ़िक़ हुर्मुज़ की रूह इस में हलूल (एक चीज़ का दूसरी चीज़ में दाख़िल होना) की गई थी। ये लोग निहायत क़दीम ज़माने से ख़ाना काअबा का हज भी करते थे। चुनान्चे इस्लाम के बाद उन का एक शायर कहता है :-
ومازلنا نحج البیت قدما
وتلقی بالا باطح امیتنا
हम निहायत क़दीम ज़माने से
ख़ाना काअबा का हज करते हैं।
और बातह में अमन व अमान के
साथ मिलते-जुलते रहे हैं।
وسا سان بن بابک سارحتی
اتی البیت التعیق بطوف دینا
और सासान बिन बाबक आया
और मज़्हबी हैसियत से ख़ाना
काअबा का तवाफ़ किया
فطاف بہ وزمزم عندئیبر
لاسماعیل تروی الشار بینا
इस का और ज़मज़म का एक कुँए के नज़्दीक जो इस्माईल का था तवाफ़ किया।
इस हालत में कि वह पानी पीने वालों को सेराब कर रहा था।
यहूदी ख़ाना काअबा का एहतिराम करते थे और दीन-ए-इब्राहीमी के मुताबिक़ इस में इबादत बजा लाते थे। नसारा अरब भी यहूदीयों से कुछ कम उस की इज़्ज़त नहीं करते थे। इन लोगों ने ख़ाना में चंद तस्वीरें भी क़ायम की थीं। जिनमें एक तस्वीर हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम की और एक तस्वीर हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की थी। जिनके दोनों हाथों में जुए के तीर थे। हज़रत मर्यम और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की तस्वीरें भी थीं। और अरब के मुख़्तलिफ़ क़बाइल ने अपने अपने बुत भी इस में रखे थे। और इस तरह ख़ाना काअबा 360 बुतों का मुरक़्क़ा (एलबम) बन गया था। सबसे पहले ख़ाना काअबा के मुतवल्ली (इंतिज़ाम करने वाला, मुंतज़िम) होने के बाद जिस शख़्स ने मक्का में बुत-परस्ती को रिवाज दिया और काअबा में बुत रखे वो क़बीला ख़ुज़ाआ का सरदार उमरू बिन लही था। उस ने शाम के सफ़र में बुत-परस्ती सीखी। और समूद से हुबल, लात और मनात की परस्तिश का तरीक़ा अख़ज़ किया। क्योंकि समूद के आसारे-ए-क़दीमा के नुक़ूश से साबित होता है कि ये तीनों बुत उन के देवता थे। बहर-हाल उस ने मक्का में बुत-परस्ती को रिवाज दिया और यह तमाम क़बाइल अरब ने उस की तक़्लीद (नक़्ल, पैरवी) की और अपने अपने बुत लाकर ख़ाना काअबा में रखे। लेकिन अरब में बुत-परस्ती का असर दूसरी क़ौमों से कम था। क्योंकि ये लोग हिन्दुस्तान, चीन, रोम और मिस्र के बुत परस्तों की तरह बुतों की परस्तिश उन की ज़ात व सिफ़ात के लिहाज़ से नहीं करते थे बल्कि तक़र्रुब (नज़दीकी) क़ुर्ब इलाही के लिए उन को पूजते थे।
8 हिज्री तक ख़ाना काअबा की यही हालत थी कि मक्का में रसूल-अल्लाह अलैहिस्सलाम का फ़ातिहाना दाख़िला हुआ और आप ने इस को बुतों की आलाईश (ग़लाज़त, आलूदगी) से पाक किया। हज़रत उसामा से मर्वी (बयान किया गया) है कि आप ख़ाना काअबा में दाख़िल हुए तो चंद तस्वीरें देखीं जिनको पानी लगा कर मिटाया। अज़रूक़ी ने रिवायत की है कि हज़रत ईसा और हज़रत मर्यम की तस्वीरें ख़ाना काअबा में क़ायम रह गईं जिनको बाअज़ ग़स्सानी नव मुस्लिम ईसाईयों ने देखा। एक बार सुलेमान बिन मूसा ने अता से पूछा कि तुमको ख़ाना काअबा में तस्वीरें भी नज़र आईं? उन्होंने कहा हाँ मैंने हज़रत मर्यम अलैहिस्सलाम की रंगीन तस्वीर देखी और उन की गोद में उनके बेटे ईसा थे। (तारीख़-उल-हरमैन अश्शरीफ़ैन सफ़ा 100 से 103 तक)
मक्का की तारीख़ हज़रत इब्राहिम ख़लील के ज़माने से शुरू होती है 892 ई॰ क़ब्ल अज़ मसीह में ख़ुदा ने उन को हुक्म दिया कि अपने फ़र्ज़न्द इस्माईल और उन की माँ हाजिरा को लेकर जैसा कि तौरात में आया है हिज्रत कर जाएं। चुनान्चे वो इन दोनों को लेकर इस ख़ुश्क ग़ैर-आबाद मैदान में आए। पानी की क़िल्लत से इस में कोई शख़्स आबाद नहीं था। सिर्फ अमालीक़ इस के शुमाली वादी में जिसको हजून कहते हैं आबाद थे। ये लोग यहां बहरीन की तरफ़ से निकल कर आबाद हुए थे और उन की सल्तनत शह जज़ीरा सीना तक फैली हुई थी। बाबिली उन को मालिक कहते थे और इब्रानियों ने इस में लफ़्ज़ “अम (यानी अमिता) का इज़ाफ़ा करके अम-मालिक बना लिया और अरब ने तहरीफ़ (बदल देना) करके इस को अमालीक़ बना दिया। मिस्री लोग इनको हकसूस यानी चरवाहा कहते हैं।
हज़रत हाजिरा को चाह ज़मज़म से जो इस वादी के लिए एक ज़िंदगी ताज़ा हुआ इत्तिला हुई तो अमालीक भी यहां आए और इस शर्त पर उनके साथ क़ियाम करने की दरख़्वास्त की कि हुकूमत उन के और उन के फ़र्ज़न्द के हाथ में होगी चुनान्चे उन्हों ने इस शर्त को क़ुबूल कर लिया। उन्हों ने अपने लिए एक घर बना लिया था जिसमें हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम के साथ रहती थीं और हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम इन दोनों की मुलाक़ात के लिए फ़िलिस्तीन से आया जाया करते थे। (तारीख-उल-हरमैन अश्शरीफ़ैन सफ़ा 57)
इसी दिन से ख़ाना काअबा के आस-पास के क़बाइल में उस की शौहरत फैलने लगी और लफ़्ज़ मक्का या मक्का का अश्तिक़ाक़ (इल्म असरफ में से एक कलिमे से दूसरा कलिमा बनाना, इस्तिलाह) इसी से हुआ क्योंकि ये एक बाबिली लफ़्ज़ है जिसके मअनी घर के हैं और अमालीक़ ने ये नाम रखा है।
इस के बाद हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम अपनी क़ौम में वापिस आए और हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम के बाद उन की औलाद को ख़िदमत काअबा की तोलियत (सरबराही, निगरानी) हासिल हुई। लेकिन जब उनमें ज़इफ़ (दोगुना, दोचंद) आया तो अमालीक़ ने उन पर ग़लबा हासिल कर लिया और ख़ाना काअबा उन के हाथ में आ गया। एक मुद्दत तक ख़ाना काअबा की तोलियत उन के हाथ में रही लेकिन सदमारब के टूटने के बाद जब यमन से क़बीला जिरहम के लोग छठी सदी क़ब्ल मीलाद के निस्फ़ हिस्से में मक्का में आए तो अमालीक़ से जंग करके उन पर ग़लबा हासिल कर लिया और मक्का बल्कि तमाम हिजाज़ में उनका इक़्तिदार क़ायम हो गया। लेकिन इस जाह इक़्तिदार के नशे में जब उन्हों ने अर्ज़-ए-इलाही में फ़साद व तग़यान (ज़ुल्म) फैलाया तो एक वबा ने फैल कर उन को हलाक कर दिया। इस ज़इफ़ की हालत में बनी-इस्माईल उन पर ग़ालिब आ गए ख़ाना काअबा को उन से वापिस ले लिया और उन को मक्का से निकाल दिया और वो शुमाल यनबअ में जाकर अर्ज़ जुहैना में आबाद हो गए चुनान्चे उमरू बिन हारिस इन्ही वाक़ियात के मुताल्लिक़ कहता है :-
وکناولاہ البیت من عھد فابت
نطوف بذاک البیت والافرظاہر
हम नाबत (फ़र्ज़न्द इस्माईल) के ज़माने से ख़ाना
काअबा के वाली थे।
इस घर का तवाफ़ करते थे और मुआमला साफ़ था
کان لم یکن مین الحجوان الی الصفا
انیس ولم یسحر بمکتہ سامر
गोयान्जून के दर्मियान से सफ़ा तक, कोई दोस्त ना था।
और मक्का में किसी क़िस्सागो ने क़िस्सा नहीं कहा था
بلی تحن کنا اھلھا فا بادفا
صروف اللیابی والجد وداھواثر
हाँ हम इस के बाशिंदे थे।
लेकिन हमको हवादसात ज़माना और बख़्त-ए-बद
(बुरे नसीब) ने बर्बाद कर दिया।
एक मुद्दत तक बनू-इस्माईल ख़ाना काअबा के मुतवल्ली (मुंतज़िम) रहे। लेकिन इस के बाद ख़ुज़ाआ के क़बीले ने आकर उन पर ग़लबा हासिल कर लिया और अपनी असबीयत (ताक़त, तरफ़दारी) की वजह से एक मुद्दत तक ख़ाना काअबा की सदानत यानी ख़िदमत और सक़ाया यानी हाजियों के पानी पिलाने के मुतवल्ली रहे। इस असबीयत (मज़बूती, ताक़त) के ख़िलाफ़ बनू-इस्माईल अख़्लाक़ी और रुहानी हैसियत से ज़्यादा तरक़्क़ी याफ्ताह थे। क्योंकि इनमें से अक्सर ऐसे अश्ख़ास.... पैदा हुआ करते थे। जिनके इल्म व फ़ज़ल से उन की ख़ानदानी ज़हानत और नसबी (ख़ानदानी नसब से ताल्लुक़ रखने वाली) शराफ़त का पता लगता था। मसलन इनमें कअब बिन लोई एक ऐसा शख़्स पैदा हुआ जिसने फ़साहत व बलाग़त (ख़ुश्कलामी व फ़सीह कलाम, हसब-ए-मौक़ा गुफ़्तगु) में निहायत शौहरत हासिल की और सबसे पहले यौम अरूया यानी जुमा के दिन लोगों को इसी ने जमा किया और इन के सामने अख़्लाक़ी ख़ुत्बे दिए। उसने अरब में इस क़द्र नामवरी हासिल की कि उस की मौत के साल से आम फ़ील तक जो चार सौ साल से कम का ज़माना नहीं है। अहले-अरब ने अपना सन क़ायम किया था। एक मुद्दत तक ख़ाना काअबा का एहतिमाम ख़ुज़ाआ के हाथ में रहा लेकिन जब कुस्सी बिन किलाब जो कअब के पोते और हज़रत इस्माईल की चौधवीं पुश्त में थे और बचपन में अपनी माँ के साथ शाम को चले गए थे। शाम से वापिस आए तो उन को नज़र आया कि क़ुरैश में तफ़रीक़ व इंतिशार (तितर बितर होना, परेशानी, घबराहट) पैदा हो गया है और उन में बाहमी बुग़्ज़ व अदावत (नफ़रत व दुश्मनी) की आग भड़क उठी है। इसी लिए उन्हों ने अपने हसन व तदबीर (सोच बिचार) ज़ोर तक़रीर और ज़हानत से क़बीला क़ुरैश की शीराज़ा-बंदी (इंतिज़ाम) की और कोशिश करके ख़ुज़ाआ से ख़ाना काअबा की हिजाबत यानी किलीद बर्दारी का अहद ख़रीद लिया। इस के बाद जब उन को असबियत हासिल हुई तो उन को मक्का से बतन-मर यानी वादी फ़ातिमा की तरफ़ जिलावतन कर दिया। अब उन को निहायत जाह इक़्तिदार हासिल हो गया। और सक़ायता हजाबता, रफ़ादा और आलम बर्दारी के ओहदे जो अब तक मजमूई तौर पर किसी को नहीं मिले थे एक साथ मिल गए। कुस्सी पहले शख़्स हैं जिन्हों ने ख़ुदा का मेहमान और पड़ोसी समझ कर हाजियों के खाने पीने का इंतिज़ाम किया और इसी वजह से अरब में उन की आम शौहरत हो गई। उन्हें ने क़ौमी मुआमलात में बह्स व मशवरे के लिए ख़ाना काअबा के मुत्तसिल दारुल-नदवा को क़ायम किया और इस के दरवाज़े का रुख ख़ाना काअबा की तरफ़ रखा। इन तमाम बातों का नतीजा ये हुआ कि क़ुरैश का मुल्की इक़्तिदार बहुत ज़्यादा बढ़ गया। यहां तक कि उन्हों ने इस के बाद क़बाइल अरब पर टैक्स मुक़र्रर कर दिया। (तारीख़-उल-हरमैन अश्शरीफ़ैन सफ़ा 58 से 60 तक)
मदीना के मुख़्तलिफ़ नाम : मदीना के मुख़्तलिफ़ नाम हैं और हर एक नाम में कोई ना कोई लतीफ़ मज़्हबी, तारीख़ी या अदबी मुनासबत पाई जाती है।
इनमें याक़ूत हमवी ने मोअज्जम अल-बलदान में सिर्फ उन्नीस नाम बताए हैं यानी मदीना, तय्यबा, ज़ाबह, मसकतबा, अज़्रा, जाबरह, मजतह, मजियह, मजूरह, यसरब, नाजिया, सूफ़िया, अकालता अल-बलदान, मुबारक, महफ़ूफ़ा, मुस्लिमा, मजता, क़ुद्दूसिया, आसमा, मार्ज़ुक़ा, शाकिया, खैरह, महबूबा, मरहूमा, जाबरह, मुख्तारह, महरमा, क़ासमा, तबाया, लेकिन साहिबे वफ़ा-उल-वफ़ा ने नव्वे से ज़्यादा नाम गिनाए हैं और लिखा है कि, ان کثرہ الاسماء تدک علے شرف المسمی ولمہ واجداکثر من اسماء ھذہ البلدتہ الشریفہ नामों की कस्रत मुसम्मा के शर्फ़ (बुजु़र्गी, बुलंदी) पर दलालत (दलील, हिदायत) करती है और मैंने इस शहर से ज़्यादा किसी शहर के नाम नहीं पाए। इन नामों के साथ साथ उन्हों ने हर नाम की वजह मुनासबत भी तफ़्सील के साथ बताई है। लेकिन इस का सबसे क़दीम मशहूर नाम यसरब है। जिसकी वजह तस्मीया (नाम रखने की वजह) के मुताल्लिक़ मुतअद्दिद अक़्वाल हैं। एक क़ौल ये है कि वसरब से माख़ूज़ है जिसके मअनी फ़साद के हैं। दूसरा क़ौल ये है कि वो तसरीब से मुश्तक़ (निकला हुआ) है। जिसके मअनी मलामत करने के हैं। एक ख़याल ये भी है कि यसरब एक काफ़िर का नाम था और उसी के नाम से ये शहर मशहूर हो गया। यही वजह है कि बाअज़ उलमा ने मदीना के इस नाम को मकरूह (नाजायज़, नफ़रतअंगेज़) ख़याल किया है।
लेकिन बाअज़ लोगों का ख़याल है कि लफ़्ज़ यसरब एक मिस्री लफ़्ज़ तरीबस की तहरीफ़ (बदल देना) है।
मदीना के क़दीम बाशिंदे : और अगर ये नज़रिया सही है तो इस से ये भी मालूम होता है कि इस शहर को सबसे पहले अमालीक़ा ने 1016 क़ब्ल मसीह या 1223 क़ब्ल हिज्रत में मिस्र से निकल कर आबाद किया था। और ख़ुद मौअर्रखीन की तसरीहात (तश्रीह, तफ़्सील) से भी यही साबित होता है। चुनान्चे याक़ूत हमवी ने मोअज्जम अल-बलदान में लिखा है कि सबसे पहले जिसने मदीना में खेती बाड़ी की खजूर के दरख़्त लगाए। मकानात और क़िले तामीर किए वो अमालीक़ यानी इमलाक बिन अज़फ़ख़शद बिन साम बिन नूह अलैहिस्सलाम की औलाद थी। ये लोग तमाम मुल्क अरब में फैल गए थे और बहरीन, अम्मान और हिजाज़ से लेकर शाम और मिस्र तक उन के क़ब्ज़े में आ गए थे। चुनान्चे फ़राइना मिस्र (मिस्र के फिरऔन) इन्हीं में से थे। बहरीन और अम्मान में इनकी जो क़ौम आबाद थी उस का नाम जासम था। मदीना में उन के जो क़बाइल आबाद थे उनका नाम बनू हक़ान, साद बिन हनफ़ान, और बनू-मत्रवील था और नजद तैमार और इस के अतराफ़ में इस क़ौम का क़बीला बिन अदील बिन राहील आबाद था और हिजाज़ के बादशाह का नाम अर्क़म बिन अबी अल-अरक़म था।
वफ़ा-उल-वफ़ा में और भी बाअज़ अक़्वाल नक़्ल किए हैं। मसलन एक क़ौल ये है कि जब हज़रत नूह की औलाद दुनिया में फैली तो सब से पहले मदीना को यसरब में कांया बिन महिलाहील बिन इरम बन एबेल बिन ओस बिन इरम बन साम बिन नूह अलैहिस्सलाम ने आबाद किया। और इसी के नाम पर मदीना का नाम पड़ा और एक और रिवायत ये है कि सबसे पहले मदीना में यहूद आबाद हुए और बाद को चंद अहले अरब भी उन के साथ मिल-जुल गए लेकिन साहिबे वफ़ा-उल-वफ़ा ने इन अक़्वाल को नक़्ल कर के लिखा है कि :-
وذکر بعض اہل التواریخ ان قوما من العالقہ تکون قبلھمہ (قلت) وھوالہ رحج
बाअज़ अहले-तारीख़ ने बयान किया है कि अमालक़ा की एक क़ौम उन से पहले मदीना में आकर आबाद हुई और मैं कहता हूँ कि यही क़ौल राइज है। यहूद अमालक़ा के बाद आबाद हुए उन के आबाद होने के मुताल्लिक़ रिवायतें हैं। (तारीख़-उल-हरमैन अश्शरीफ़ैन। सफ़ा 172, 173)
दफ़ाअ 2 : साबियों की बाबत रिवायत और उन की क़द्र व मंज़िलत
हज़रत मुहम्मद के ज़माने में साबियों की कुछ अजीब कैफ़ीयत मज़्कूर हुई है। हमारे मुस्लिम उलमा के बयानात साबियों की बाबत अजीबो-गरीब आए हैं जिसको हम अख़बार-उल-फ़कीह अमृतसर से ज़ेल में नक़्ल करते हैं। पढ़ने वाले ख़ुद ही इन बयानात में हक़ व बातिल का इम्तियाज़ कर सकते हैं। हम इनकी बाबत ज़्यादा लिखना ज़रूरी ख़याल नहीं करते हैं।
1. मालूम हो कि क़ुरआन शरीफ़ में साबियों का सिर्फ तीन जगह ज़िक्र आया है मगर बग़ैर तख़्सीस (ख़ुसूसीयत) आया है। इसलिए हम उसे भी नक़्ल किए देते हैं लिखा है :-
(सूरह बक़रह 62)
إِنَّ الَّذِينَ آمَنُواْ وَالَّذِينَ هَادُواْ وَالنَّصَارَى وَالصَّابِئِينَ
(सूरह अल-मायदा 68)
إِنَّ الَّذِينَ آمَنُواْ وَالَّذِينَ هَادُواْ وَالصَّابِؤُونَ
(सूरह अल-हज्ज 17)
إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَالَّذِينَ هَادُوا وَالصَّابِئِينَ
इन आयात में लफ़्ज़ साबिईन अरब के क़दीम बाशिंदगान की बाबत ही आया है। जो आँहज़रत से पेश्तर तमाम मुल्क अरब पर हुक्मरानी कर चुके थे। मगर आँहज़रत के ज़माने में वो हालत ज़वाल को पहुंच कर अपनी क़दीम शानो-शौकत को खो चुके थे। और ग़ालिबन मसीहिय्यत को इख़्तियार कर चुके थे। क्योंकि मुस्लिम बुज़ुर्ग उन की बाबत कुछ ऐसे ही बयानात लिख गए हैं। जिनसे पाया जाता है कि साबी आँहज़रत के ज़माने में मसीहिय्यत को इख़्तियार कर चुके थे। और बहुत थोड़े लोग अपने आबाई मज़्हब पर क़ायम रह गए थे। चुनान्चे साबियों की बाबत मुस्लिम तहरीरात में ज़ेल के बयानात मिलते हैं। जिन्हें हम इख़्तिसार (कोताही, ख़ुलासा, कमी) के साथ नक़्ल करते हैं।
1. सही बुख़ारी मतबुआ अहमीद लाहौर के पारा दोम में एक तवील रिवायत आई है जो उन्वान बाला पर सफ़ाई से रोशनी डालती है। हम नाज़रीन किराम की आगाही के लिए इस का इख़्तिसार पेश करते हैं।
सही बुख़ारी, जिल्द अव्वल, तयम्मुम का बयान, हदीस 341
حَدَّثَنَا مُسَدَّدٌ قَالَ حَدَّثَنِي يَحْيَی بْنُ سَعِيدٍ قَالَ حَدَّثَنَا عَوْفٌ قَالَ حَدَّثَنَا۔۔۔۔۔۔ وَالسَّبَّابَةِ فَرَفَعَتْهُمَا إِلَی السَّمَائِ تَعْنِي السَّمَائَ وَالْأَرْضَ أَوْ إِنَّهُ لَرَسُولُ اللَّهِ حَقًّا فَکَانَ الْمُسْلِمُونَ بَعْدَ ذَلِکَ يُغِيرُونَ عَلَی مَنْ حَوْلَهَا مِنْ الْمُشْرِکِينَ وَلَا يُصِيبُونَ الصِّرْمَ الَّذِي هِيَ مِنْهُ فَقَالَتْ يَوْمًا لِقَوْمِهَا مَا أُرَی أَنَّ هَؤُلَائِ الْقَوْمَ يَدْعُونَکُمْ عَمْدًا فَهَلْ لَکُمْ فِي الْإِسْلَامِ فَأَطَاعُوهَا فَدَخَلُوا فِي الْإِسْلَامِ قَالَ أَبُو عَبْد اللَّهِ صَبَأَ خَرَجَ مِنْ دِينٍ إِلَی غَيْرِهِ وَقَالَ أَبُو الْعَالِيَةِ الصَّابِئِينَ فِرْقَةٌ مِنْ أَهْلِ الکِتَابِ يَقْرَئُونَ الزَّبُورَ
तर्जुमा : मसदू बिन मस्रहद ने बयान किया। कहा हम से यहया बिन सईद कतअन ने। कहा हमसे औफ़ ने.... उन्हों ने उस से कहा कहाँ चलो। उन्हों ने कहा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के पास। उस ने कहा वो तो नहीं जिसको लोग साबी (एक दीन से फिर कर दूसरे दीन में जाना) कहते हैं। उस ने कहा उन्हीं के पास जिनको तू समझे। आख़िर वो दोनों उस को आँहज़रत सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के पास ले आए (घर आने पर औरत के रिश्तेदारों ने पूछा) अरे फ़ुलानी तूने देर क्यों लगाई। वो कहने लगी अजीब बात हुई। दो आदमी (राह में) मुझ को मिले। वो तुझको उस शख़्स के पास ले गए। जिस को लोग साबी कहते हैं।..... इमाम बुख़ारी ने कहा साबी सबा ने निकाला गया। सबा के मअनी अपना दीन छोड़कर दूसरे दीन में चला गया और अबूल-आलिया ने कहा साबईन अहले-किताब का एक फ़िर्क़ा है जो ज़बूर पढ़ा करते हैं।
हाशिये पर यूं आया है, अस्ल में साबी उस को कहते हैं जो अपना दीन बदल कर नया दीन इख़्तियार करे। अरब के मुश्रिक (बुत-परस्त, शरीक करने वाले) आँहज़रत सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम को साबी कहा करते थे। चूँकि आप अपने बाप दादों का दीन छोड़ कर तौहीद पर चल रहे थे। सफ़ा 34, 37
मज़ीदबराँ सही बुख़ारी मत्बूआ ईज़न पाराह सोला में एक रिवायत आई है जिसका ख़ुलासा मतलब ये है कि अमीद और सअद मक्का में काअबा का तवाफ़ (चक्कर लगाना) करते हुए अबू जहल ने पा लिए। ये दोनों हज़रत मुहम्मद के सहाबा में शामिल थे। अबू जहल उन को कहने लगा, الا ارک تطوف بمکتہ امناً وقداوایتم الصباتہ अबु जहल ने साद को कहा क्या मज़े से बेडर हो कर मक्का में तवाफ़ कर रहा है और दीन बदलने वालों को जगह दी। हाशिया पर यूं आया है :-
हदीस में सबाता है जो साबी की जमा है। मक्का के मुश्रिक आँहज़रत सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम और मुसलमानों को साबी कहा करते। जिसके मअनी दीन बदलने वाला सफ़ा 2
हम-अस्र अल-फ़कीह अमृतसर मत्बूआ 14 फरवरी 1925 ई॰ में एक बह्स के ज़िमन में साबियों की हस्ब-ज़ैल कैफ़ीयत बयान करती है :-
साबी दो क़िस्म के हैं। एक क़िस्म काफ़िर हैं उनका ज़बीहा हलाल नहीं तफ़्सीर अहमदी में है ھم صنفان صنف یقرون الزبور وبعیبد والمکتہ وصنف لایقرون کمتابا ویعبدون النجوم فھولا، لیسوامن اھل کتاب यानी एक क़िस्म तो ज़बूर पढ़ते हैं और मलाइका (फ़रिश्ते) की पूजा करते हैं। एक क़िस्म कोई किताब नहीं पढ़ते और सितारों की परस्तिश करते हैं ये लोग अहले-किताब नहीं।
सिद्दीक़ हसन ने तफ़्सीर फ़त्ह-उल-बयान सफ़ा 121 में इब्ने तैमिया से नक़्ल किया है, فان الصائبتہ نوعان صابئتہ حنفا موحدون وصائبتہ مشرکون यानी साबियों की एक क़िस्म तो ख़फ़ा मवह्हिद हैं और एक क़िस्म मुश्रिक हैं।
इमाम-ए-आज़म रह॰ ने पहली क़िस्म के साबी का ज़बहा हलाल क़रार दिया है ना दूसरी क़िस्म का। फतावा क़ाज़ी ख़ां सफ़ा 758 में है, انھم صنفات صنف مھم یقرون ینوہ عیسیٰ علیہ السلام ویقرون الزبور فھمہ صنف من النصاروانما احباب ابوحنیفہ یحل ذبحیہ الصابی اذاکان من ھذاالصنف यानी साबी दो क़िस्म हैं। एक क़िस्म अव्वल में ईसा अलैहिस्सलाम की नबुव्वत का इक़रार करते हैं और ज़बूर शरीफ़ पढ़ते हैं वो तो नसारा हैं और अबू हनीफ़ा रहमतुल्लाह ने जो साबियों के ज़बियह की हिल्लत (हलाल होना) का फ़त्वा दिया है और इस वक़्त है जब वो साबी इस क़िस्म से हों। यानी ईसा अलैहिस्सलाम की नबुव्वत के मारूफ़ और किताब इलाही के मानने वाले।
हिदाया किताब-उल-निकाह सफ़ा 290 में है :-
ویجوز تزوج الصابیات ان کا نوا یوممنون بدین ویقرون بکتاب لا نھمہ من اھل الکتاب وان کا نوا یعبد ون الکواکب ولا کتاب لھم تجزمنا کحتم لانھمہ مشرکون والخلاف المنقول فیہ محموں علیٰ اشتباہ مذھم فکل اجاب علیٰ ماوقع عندہ وعلےٰ ھذا حال ذبحیہ ھم انتھےٰ۔
यानी साबी अगर दीन रखते हों और किताब पढ़ते हों तो उन की औरतों से निकाह दुरुस्त है क्योंकि वो अहले-किताब हैं और अगर सितारों की परस्तिश करते हों और कोई किताब उन के लिए ना हो तो उन की औरतों के साथ निकाह दुरुस्त नहीं क्योंकि वो मुश्रिक (बुत-परस्त) हैं और जो ख़िलाफ़ इमाम-ए-आज़म व साहबीन पर मन्क़ूल है वो उन के मज़्हब के मुश्तबा (मशकूक होने पर महमूल (लादा गया) है। इन के ज़बियह का हुक्म यानी इमाम-ए-आज़म रज़ीयल्लाहु अन्हो ने साबियों की इस क़िस्म को पाया जो अहले-किताब ज़बूर पढ़ते हैं तो आप उन के ज़बियह की हिल्लत का फ़त्वा दिया। साबईन ने साबियों की दूसरी कुसुम को जो मुश्रिक थी पाया और मुमानिअत (रोक, बंदिश) का हुक्म दिया। हक़ीक़त में कोई इख़्तिलाफ़ नहीं।
तफ़्सीर अकलील अला मदारिक अल-तंज़ील सफ़ा 219 में बहवाला तफ़्सीर मज़हरी लिखा है, قال عمروابن عباس ھم قوم من اھل الکتاب यानी हज़रत उमरू बिन अब्बास फ़र्माते हैं कि साबी अहले-किताब की एक क़ौम है।
तफ़्सीर ख़ाज़िन सफ़ा 55 में है, قال عمر ذبا لحھم دباع اھل الکتاب यानी हज़रत उमर फ़र्माते हैं कि इस का ज़बीहा अहले-किताब का ज़बीहा (क़ुर्बानी का जानवर, शरई तौर पर ज़बिह किया हुआ जानवर) है।
2. पैग़ाम सुलह लाहौर मत्बूआ 26 अप्रैल 1922 ई॰ में एक रिवायत हज़रत उमर की बाबत हस्ब-ज़ैल नक़्ल की गई है :-
हज़रत उमर ईमान लाए तो पहले अपने मामूं के घर आए और दरवाज़ा खटखटाया। उन्हों ने दरवाज़ा खोला तो कहा तुम्हें मालूम है मैं साबी हो गया वहां से एक सरदार क़ुरैश के पास आए और वहां भी यही गुफ़्तगु हुई। वहां से निकले तो एक आदमी ने कहा कि तुम अपने इस्लाम का ऐलान करना चाहते हो? बोले हाँ। उसने कहा कि इस की सूरत ये है कि जब कुफ़्फ़ार ख़ाना काअबा में हज्र-ए-असवद के पास जमा हों तो तुम वहां जाओ उनमें एक आदमी है जो अफ़शा-ए-राज़ में बदनाम है उस के कान में ये राज़ कह दो वो ऐलान कर देगा। उन्हों ने ख़ाना काअबा में जाकर उस के कान में कहा तो बाआवाज़ बुलंद पुकारा कि उमर बिन अल-ख़त्ताब साबी हो गया कुफ़्फ़ार दफ़अतन टूट पड़े और बाहम ज़द्द व कूब होने लगी। बिल-आखिर उन के मामूं ने अपनी आसतीन से इशारा करके कहा कि मैं अपने भांजा को अपनी पनाह में लेता हूँ। अब कुफ्फार रुक गए।
नोट 3 : असद-उल-गाबह तज़किरह हज़रत उमर
किताब सीरत हिशाम तर्जुमा उर्दू हसब फ़रमाईश रब-उल-रहीम ऐंड ब्रदर पिसरान मौलवी रहम बख़्श ताजिरान कुतुब लाहौर मस्जिद चेनियाँवाली। मत्बूआ रफ़ाइह आम स्टीम प्रैस लाहौर में हज़रत उमर की बाबत लिखा है :-
3. इब्ने-इस्हाक़ कहते हैं अब्दुल्लाह बिन उमर खत्ताब से रिवायत है कहते हैं कि जब मेरे वालिद हज़रत उमर इस्लाम लाए पूछा कि क़ुरैश में ऐसा कौन शख़्स है जो हर एक जगह ख़बर पहुंचाए। किसी ने कहा कि जमील बिन मुअम्मर हजमी उस का काम है। पस मेरे वालिद उस के पास गए। अब्दुल्लाह कहते हैं में भी उन के पीछे हो लिया और मैं देखता था कि ये क्या करते हैं। पस उन्हों ने जमील के पास जाकर कहा कि ऐ जमील तुझ को कुछ मालूम हुआ उस ने कहा क्या? उन्हों ने कहा मैं इस्लाम ले आया हूँ और मुहम्मद के दीन में दाख़िल हो गया हूँ। अब्दुल्लाह कहते हैं कि पस क़सम है ख़ुदा की जमील सुनता ही अपनी चादर घसीटता हुआ दौड़ा और हज़रत उमर भी उस के पीछे हो लिए और मैं भी उन के पीछे था। यहां तक जमील ख़ाना काअबा के दरवाज़े तक आया और गुल मचाकर कहा ऐ गिरोह क़ुरैश उमर बिन खत्ताब ने दीन छोड़ दिया। बल्कि मैंने इस्लाम क़ुबूल किया है और मैं गवाही देता हूँ कि बेशक ख़ुदा के सिवा कोई माबूद नहीं है और हज़रत मुहम्मद उस के बंदे और रसूल हैं। अब्दुल्लाह कहते हैं। क़ुरैश उस वक़्त अपनी-अपनी जगहों में बैठे थे। इस बात को सुनते ही सब हज़रत उमर पर दौड़े। हज़रत उमर ने भी उनका बमर्दी व मर्दांगी ख़ूब मुक़ाबला किया मगर कहाँ तक लड़ते आख़िर थक कर बैठे और क़ुरैश से फ़रमाया कि मैं तो मुसलमान हूँ। तुम्हारा जो दिल चाहे सो करो। और वो सब के सब आपके सर पर खड़े हुए थे कि इतने में अब्दुल्लाह कहते हैं कि एक बूढ्ढा काला जुब्बा (चोग़ा) पहने हुए क़ुरैश में आया और कहा क्या बात है। क़ुरैश ने कहा ये बेदीन हो गया है। उस ने कहा फिर तुम्हारा क्या हर्ज। एक शख़्स ने अपने वास्ते एक बात इख़्तियार की है क्या तुम ये समझते हो कि उमर की क़ौम के उमर के क़त्ल होने से तुमसे कुछ बाज़पुर्स (पूछगुछ) ना करेगी। क़सम है ख़ुदा की वो तुम्हें हरगिज़ ना छोड़ेगी। अब्दुल्लाह कहते हैं कि इस बुड्ढे के ये कहते ही वो सब लोग हज़रत उमर के गिर्द से बादल की तरह फट गए। अलीख सफ़ा 118 की सतर 11 से 28 तक।
4. इब्ने-इस्हाक़ कहते हैं फ़त्ह मक्का के बाद हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने ख़ालिद बिन वलीद के सलीम बिन मंसूर और लालज बिन मुर्राह के क़बाइल की फ़ौज के साथ दावत-ए-इस्लाम के वास्ते क़बाइल अरब की तरफ़ से रवाना फ़रमाया और क़त्ल व किताल का हुक्म नहीं दिया था। जब ख़ालिद फ़ौज लेकर बनी हज़ीमा बिन आसिर बिन अब्द मनाता बिन कनाना के पास पहुंचे तो उन लोगों ने उन को देखकर हथियार उठाए। उन्हों ने उन को हुक्म किया कि हथियार सब डाल दो। क्योंकि मुसलमान हो गए हैं।
बनी हज़ीमा के एक शख़्स कहते हैं कि जब ख़ालिद ने हमको हथियार डालने का हुक्म किया तो हम में से एक शख़्स हजदम नाम ने कहा कि ऐ बनी हज़ीमा अगर तुम ने हथियार डाल दिए तो ख़ालिद तुमको क़ैद करके क़त्ल करेंगे। मैं तो अपने हथियार ना डालूंगा। बनी हज़ीमा ने कहा ऐ हजदम तू हम सब का ख़ून कराना चाहता है सब लोग मुसलमान हो गए हैं और सबने हथियार डाल दीए हैं और अमन क़ायम हो गया है। फिर उन सब लोगों ने ख़ालिद के कहने से हथियार डाल दीए। जब ये लोग हथियार डाल चुके तब हज़रत ख़ालिद ने उन की मश्कें बांध कर चंद लोगों को उन से क़त्ल कर दिया। जब ये ख़बर हुज़ूर को पहुंची आपने दोनों हाथ आस्मान की तरफ़ बुलंद करके दुआ की ऐ परवरदिगार मैं ख़ालिद की कार्रवाई से बरी हूँ।........
रावी कहता है कि जब ख़ालिद उस क़ौम के पास आए तो उन लोगों ने कहना शुरू किया। सबानन सबानन यानी हम लोग बेदीन हो गए। और हम ने अपना दीन छोड़ दिया। सीरत इब्ने हिशाम सफ़ा 410 से 412 तक।
मुन्दरिजा सदर बयान पर ग़ौर करने से साबियों की बाबत ये हक़ीक़त रोज़-ए-रौशन की तरह ज़ाहिर मालूम होती है कि गो साबी ज़माना-ए-क़दीम से बुत-परस्त चले आए थे। मगर हज़रत मुहम्मद से पेश्तर और आप के ज़माने में वो मसीही मज़्हब इख़्तियार कर चुके थे। वो मसीही हो जाने के सबब से बुत-परस्त हमसाया क़बाइल की नज़र में बदनाम हो चुके थे। बुत-परस्त क़बाइल की नज़र में वो दीन व मज़्हब के बदलने वाले मशहूर हो गए थे जैसा कि बयान माफ़ौक़ से ज़ाहिर व साबित है। हत्ता कि जब हज़रत मुहम्मद ने और हज़रत उमर ने आबाई मज़्हब तर्क करके इस्लाम क़ुबूल किया और इस्लाम की मुनादी शुरू की तो बुत-परस्तों ने आपको साबी कहना शुरू किया जिसके उन के नज़्दीक यही मअनी हो सकते थे कि हज़रत मुहम्मद और हज़रत उमर ने आबाई मज़्हब बदल लिया है। अगरचे हज़रत मुहम्मद और हज़रत उमर ईसाई होने का एतराफ़ करने की जगह इस्लाम लाने का ही एतराफ़ किया करते थे तो भी हज़रत के मुआसिरीन मुख़ालिफ़ आपको साबी ही कहा करते थे। ये बात बाद को देखी जाएगी कि इस्लाम और ईसाईयत में क्या रिश्ता साबित हो सकता है फ़िलहाल बयानात माफ़ौक़ से इस क़द्र हक़ीक़त रोशन हो चुकी है कि आँहज़रत के ज़माने में साबियों और अरबी मसीहियों का बाहमी रिश्ता ज़रूर क़ायम हो गया था। जिसकी वजह से मुआसिरीन साबीत और मसीहिय्यत और इस्लाम में मुश्किल से फ़र्क़ किया करते थे।
दफ़ाअ 3 : हनफा या हनफ़ी का बयान
तारीख़ इस्लाम से पता चलता है कि हज़रत मुहम्मद की पैदाइश से पेश्तर बुत-परस्त अरबों में मिल्लत हनीफ़ या हनफियत रौनुमा हुई थी। जिसका क़दीम तारीख़ अरब में कुछ सुराग़ नहीं मिला है। सिर्फ हज़रत मुहम्मद की पैदाइश के चंद साल पेश्तर दीन हनीफ़ और हनफा का सुराग़ मिलता है।
अगर मुस्लिम रिवायत की बिना पर इस बात को तस्लीम कर लिया जाये कि बुत-परस्त साबी और हनफा वाहिद मिल्लत के ही मानने वाले थे। एतिक़ादी तौर से उनमें कुछ फ़र्क़ ना था। तो भी इस बात को तस्लीम करना पड़ता है कि अरब के हनफा साबी हो कर अरब के क़दीम मज़्हब को ही मानने वाले थे। और साबी हनफा हो कर हनफियत के मानने वाले थे। यही मज़्हब क़ुरैश और जुम्ला बुत परस्तान अरब का था। तारीख़ इस्लाम में दीन हनीफ़ और हनफा का हस्बे ज़ेल बयान आया है :-
1. ख़ादिम-उल-उलमा-ए-मुहम्मद यूसुफ़ साहब ने गुज़रे साल एक किताब बनाम “हक़ीक़तुल-फतह” शाएअ की। इस किताब के सफ़ा 3, 4 पर मिल्लत हनीफ़ या मिल्लत इब्राहिम हनीफ़ और उस के मानने वालों की बाबत ज़ेल की इबारत आई है :-
बिल-ख़ुसूस मुल्क अरब के कुफ़्र व शिर्क, बिदआत व शराब ख़ोरी, ज़िनाकारी, क़िमारबाज़ी (जूआ खेलना), चोरी ग़ारतगरी और ज़ुल्म व ज़्यादती वग़ैरह-वग़ैरह इन तमाम महनियात व मुन्करात ख़िलाफ़ अक़्ल व नक़्ल का मर्कज़ बना हुआ था। जिन का वजूद उमम साबिक़ा में फ़र्दन-फ़र्दन पाया जाता है और अहले-अरब ना अपने दीन से ख़ारिज बल्कि दायरा इन्सानियत से गुज़र कर दर्जा हैवानियत पर पहुंच चुके थे और उन के क़बीला क़बीला और घर-घर में और ख़ास ख़ाना काअबा में जहां (360) बुत रखे हुए थे ख़ुदा-ए-वाहिद के सिवा मलाइका, अम्बिया और सालहीन साबिक़ा वग़ैरह की तस्वीरों और बुतों की आम परस्तिश होती थी और हमेशा लोग उन की नज़्र व नियाज़ मानते थे और ख़ुदावन्द तआला से ज़्यादा उनसे डरते थे और शिजरा हिज्र वग़ैरह मख़्लूक़ परस्ती की भी कोई हद ना थी। हर वक़्त हर जगह उनका कोई नया माबूद होता था और इलावा उस के उन के आबाओ अज्दाद ने दीन में नए-नए और फ़ुहश (क़ब्ल शर्म) रस्म व आइन अपनी तरफ़ से मुक़र्रर कर लिए थे जिनके ये सख़्त पाबंद थे। लेकिन बायहनुमा मुश्रिकीन अरब ख़ुद को ملتہ ابراہیم حنیفاً وما کان من المشرکین पर क़ायम समझ रहे थे और अपने ख़ुद तराशीदा मज़्हबी उसूल व फ़रोग़ को बिल्कुल दुरुस्त ख़याल किए बैठे थे।
2. मिल्लत-ए-हनीफ़ और हनफा का रिसालत मुहम्मदी से पेश्तर के ज़माने से मुताल्लिक़ बयान
जनाब मौलवी मुहम्मद अली साहब अमीर जमाअत अहमदिया लाहौर ने रिसाला इशाअत-उल-इस्लाम बाबत माह अप्रैल 1920 ई॰ में हस्ब-ज़ैल अल्फ़ाज़ में रक़म फ़रमाया है, आप लिखते हैं,.... मगर नबी करीम सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम की बिअसत (रिसालत) से चंद ही साल पेश्तर बाअज़ शख्सों ने जोकि ना यहूदी थे और ना ईसाई अरबों की बुत-परस्ती और तुहमात की सख़्ती से तर्दीद करना शुरू की और सुन्नत इब्राहिम अलैहिस्सलाम के मुताबिक़ अल्लाह तआला की वहदानियत पर ईमान होना ज़ाहिर किया। हक़ीक़त में मुल्क-ए-अरब को सुधारने की ये आख़िरी इन्सानी कोशिश थी। फ़िर्क़ा हनीफ़ बावजूद अरबों की पुरानी कहावतों का एहतिराम करते हुए वहदानियत इलाही को क़ायम करना चाहता था। चाहे कोई बाहर का असर इस पर हुआ या ना मगर ये बात यक़ीनी है कि ये सिलसिला मह्ज़ मुल्की था। इस का एक मक़्सद ये भी था जहां तक मुम्किन हो अरबों की रस्मों वग़ैरह से कोई तार्रुज़ ना किया जाये हक़ीक़त में वो सिर्फ़ चाहते थे कि बुत-परस्ती किसी तरह से दूर हो जाए। मगर उन को भी नाकामी हुई।..... फ़िर्क़ा हनीफ़ का सुन्नत इब्राहिम पर अमल करना और पुरानी बातों को वैसे ही रहने देना ग़रज़ कि तमाम बातें बेसूद हुईं।..... इसी तरह फ़िर्क़ा हनीफ़ ने एक तौहीद के मज़्हब का वाअज़ शुरू किया जो सुन्नत इब्राहिम को अज़सर-ए-नौ ज़िंदा करने का दावेदार था और अरबों की पुरानी रस्मों कहावतों की हर तरह ताज़ीम करता था। मगर उस का भी दूसरों जैसा हश्र हुआ और यह उन से भी जल्दी मफ़्क़ूद (ग़ायब) हो गया क्या ये अजीब बात नहीं मालूम होती कि इन अल्फ़ाज़ ने जिनकी यहूदी और ईसाई सैंकड़ों साल तक मुनादी करते रहे एक भी इन्सानी रूह को पाक और साफ़ ना किया। अलीख सफ़ा 182, 183
3. सीरत इब्ने हिशाम मत्बूआ रिफ़ाह-ए-आम स्टीम प्रैस लाहौर 1915 ई॰ में इब्ने इस्हाक़ के क़ौल के मुवाफ़िक़ अशआर ज़ेल अबू सलत बिन अज़बीका सक़फ़ी के हैं जो उस ने फील के हालात और दीन इब्राहिम के मुताल्लिक़ कहे हैं :-
तर्जुमा : हमारे रब के दलाईल वाज़ेह व रोशन हैं। सिवाए काफ़िरों के कोई उन में झगड़ा नहीं करता। अल्लाह ने रात व दिन पैदा किए कि हर एक हिसाब व अंदाज़ से चल रहा है। फिर रब मेहरबान सूरज के ज़रीये से जिसकी शुवाएं हर तरफ़ फैली हुई होती हैं। दिन को रोशन करता है। अब्रहा के हाथी को मग़मस में बंद कर दिया कि मक्का पर हमला ना कर सकेगा गोया ये कि उस के हाथ पांव ही काट दीए गए हैं। अगरचे उस के गिर्द सलातीन कुंदा के बहादुर आदमी जो लड़ाईयों में बाज़ का सा काम देते थे और उस को इश्तिआल (गुस्सा, भड़काना) देते थे। आख़िर जब हाथी ने ना माना तो नाचार उन्हों ने उस को उस के हाल पर छोड़ दिया और आप सब भाग गए और हर एक पिंडली की हड्डी टूटी हुई थी। तमाम मज़ाहिब क़ियामत के रोज़ सिवाए दीन हनीफा (मज़्हब तौहीद इब्राहीमी) हलाक व तबाह होंगे।
4. सीरत इब्ने हिशाम में आया है कि इब्ने हिशाम कहता है कि बाअज़ अहले इल्म से रिवायत है कि उमरू बिन लहन मक्का से किसी ज़रूरत के वास्ते शाम को गया। जब बल्क़ा की ज़मीन में एक मुक़ामी मुसम्मा मुआब पर पहुंचा तो वहां के बाशिंदों को जो अमालीक़ कहलाते थे बुतों की परस्तिश करते पाया (ये अमालीक़ इमलाक या अमलिक़ की औलाद हैं जो लादज़बन साम बिन नूह की औलाद से था) उमर ने उन से पूछा ये कैसे बुत हैं जिनकी तुम परस्तिश करते हो। उन्हों ने कहा ये ऐसे बुत हैं कि जब हम इनसे बारिश की दरख़्वास्त करते हैं तो बारिश हो जाती है। और जब उनसे मदद मांगते हैं तो मदद देते हैं। उमरू ने कहा क्या आप इनसे एक बुत मुझे नहीं दे सकते कि मैं उसे अरब में ले जाऊं ताकि वहां के लोग इनकी इबादत करें उन्हों ने इस को एक बुत दे दिया जिसका नाम हुबल था। उस ने उसे मक्का में ला कर नसब कर दिया। और लोगों को उस की इबादत व ताज़ीम का हुक्म दिया। इब्ने इस्हाक़ कहता है कि जब अव्वल, अव्वल मक्का में बनी-इस्माईल के दर्मियान पत्थरों की इबादत शुरू हुई तो उनका क़ायदा था कि जब कोई शख़्स सफ़र में जाता तो पत्थर को अपने साथ ले जाता और उस को अपनी क़ज़ा-ए-हाजात का वसीला ख़याल करता और जहां जाकर मुक़ाम करता वहां उस को नसब कर देता और उस के गिर्द तवाफ़ करता और उस की ताज़ीम व तकरीम (इज़्ज़त करना) करता। लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता जब उन को पत्थरों के उठाने से तक्लीफ़ महसूस होने लगी तो उन को साथ ले जाना छोड़ दिया। वो जहां जाते वहां किसी ख़ूबसूरत पत्थर को लेकर उस के गिर्द तवाफ़ (चक्कर लगाना) वग़ैरह रसूम अदा कर लेते। इस हाल पर कई नसलें गुज़र गईं यहां तक अख़ीर नसलों का इसी बुत-परस्ती पर पूरा पूरा एतिक़ाद (यक़ीन) हो गया और इब्राहिम और इस्माईल अलैहिस्सलाम के अस्ल दीन को भूल गए। हाँ चंद बातें इब्राहीमी मनासिक (हाजियों की इबादत के मुक़ामात) की मिस्ल ताज़ीम बैतुल्लाह, तवाफ़ ख़ाना, काअबा, हज, उमरा, अर्फ़ा में खड़े होना मुज़दलफ़ा में ठहरना। क़ुर्बानी, हज वग़ैरह का एहराम बांधना उनमें बाक़ी थीं और रसूल-अल्लाह की बिअसत (रिसालत) के वक़्त क़बीला कनाना व क़ुरैश एहराम के वक़्त कहा करते थे, اللّهُمَّ لَبَّیْکَ، لَبَّیْکَ لا شَرِیکَ لَکَ الا شَرِیکَ ھُو لَکَ تملکہ وَماَ مَلَکَ या इलाही हम बदिल व जान तेरी ख़िदमत में हाज़िर हैं तेरा कोई शरीक नहीं मगर एक तेरा शरीक है जिसका तू मालिक है और इन चीज़ों का भी तूही मालिक है। गोया ख़ुदा की तौहीद का इक़रार भी करते थे फिर अपने बुतों की भी उस में दाख़िल करते थे और उस की मिल्कियत भी ख़ुदा के क़ब्ज़े में समझते थे। इसी के मुताल्लिक़ अल्लाह तआला ने फ़रमाया है, وما یومن اکثر ھمہ باللہ الاوھم مشرکون यानी अल्लाह को मानते भी हैं फिर उस के साथ शिर्क करते हैं। क़ौम नूह भी बुत परस्ती किया करती थी। जिसकी ख़बर ख़ुदावंद तआला ने क़ुरआन की आयत ज़ेल दी है :-
وَقَالُوا لَا تَذَرُنَّ آلِهَتَكُمْ وَلَا تَذَرُنَّ وَدًّا وَلَا سُوَاعًا وَلَا يَغُوثَ وَيَعُوقَ وَنَسْرًا وَقَدْ أَضَلُّوا كَثِيرًا
तर्जुमा : कहते हैं कि अपने माबूदों को मत छोड़ो और ना वद्द व सुवाअ व यगुस व यऊक़ व नसर को तर्क करो और वह लोग जो इन पाँच बुतों की परस्तिश किया करते थे। वो इस्माईल अलैहिस्सलाम की औलाद से थे अलीख सफ़ा 24, 27 तक।
5. सर सय्यद अहमद खां मर्हूम ताज-उल-उरूस शरह क़ामूस के हवाले से लिखते हैं :-
यानी बुत-परस्त लोग अय्याम-ए-जाहलीयत में दावा करते थे कि हम हनीफ़ हैं और इब्राहिम अलैहिस्सलाम के मज़्हब पर हैं जब मज़्हब इस्लाम का ज़हूर हुआ तो मुसलमानों को भी हनीफ़ (हज़रत इब्राहिम के दीन को मानने वाले। मज़्हबी अक़ीदे का पुख़्ता) कहने लगे। अख़्फ़श ने कहा है कि ज़माना-ए-जाहिलियत में जो लोग खतना करते थे और काअबा का हज करते थे उन को हनीफ़ कहते थे। क्योंकि उस ज़माने में अरब के लोगों ने सिवाए खतना और हज काअबा के इब्राहीमी मज़्हब में से कोई चीज़ इख़्तियार नहीं की थी। ज़जाजी कहता है कि अरब जाहिलियत उन लोगों को जो काअबा का हज करते थे और जनाबत के बाद ग़ुस्ल करते थे और उन में खतना की रस्म भी जारी थी। हनीफ़ कहते जब इस्लाम शुरू हुआ तो मुसलमानों को भी हनीफ़ इसलिए कहने लगे कि वो शिर्क से बाज़ रहे थे। आख़िरी मज़ामीन सफ़ा 101
6. ख़लीफ़ा मामून के ज़माने का एक अरबी मसीही लिखता है कि :-
पस इब्राहिम अपने बाप दादाओं और शहर-वालों के साथ इस बुत की परस्तिश किया करता था और इस परस्तिश को हनीफ़ी कहते हैं। जैसा कि तूने ऐ हनीफ़ी ख़ुद इक़रार किया और यह गवाही दी कि अल्लाह की इस पर तजल्लिया हुई और जब वो इस पर ईमान लाया और उस के वाअदे को सच्चा जाना तो ये फ़ेअल उस के हक़ में सदाक़त समझा गया। (पैदाइश 15) और हनीफ़ी मज़्हब को इस कि मुराद इस से बुतों की बंदगी है छोड़कर मवह्हिद (एक ख़ुदा को मानने वाला) और ईमानदार हो गया। क्योंकि कुतुब मंज़िला में हमने देखा कि हनफियत बुत-परस्ती को कहते हैं। अब्दुल मसीह वलद इस्हाक़ कुंदी उर्दू सफ़ा 35, 38, 39, किताब ईज़न अरबी सफ़ा 41, 42, 46, किताब ईज़न फ़ारसी सफ़ा 61, 65, 66 अब अगर माफ़ौक़ बयानात का कुछ भी एतबार किया जाये तो लफ़्ज़ हनीफ़ और इस के मुश्तकाक के मआनी व मतालिब का हमेशा के लिए झगड़ा ख़त्म हो जाता है और मानना पड़ता है कि अरब के हनफा वो लोग थे जो बुत-परस्ती करते थे। उन की बुत-परस्ती का नाम हनफियत या वग़ैरह था। इन मआनी का इन्कार करना गोया तारीख़ इस्लाम की एक बड़ी हक़ीक़त का इन्कार करना होगा। हम इस पर ज़्यादा कुछ भी बढ़ाना पसंद नहीं करते। हक़ाइक़ मुताल्लिक़ा साबीत व हनफियत बयान माफ़ौक़ में मौजूद हैं। हर एक नाज़िर इसे देखकर अपने लिए कोई बेहतर राय क़ायम कर सकता है।
6. लफ़्ज़ हनीफ़ और इस के मश्तक़ाक़ के मअनी
बयान माक़ब्ल में जो बयान नज़र नाज़रीन हो चुका है गो इससे से लफ़्ज़ हनीफ़ के मअनी वाज़ेह हो चुके हैं मगर मुस्लिम तहरीरात में लफ़्ज़ हनीफ़ और हनफियत और हनफा के मअनी मुन्दरिजा ज़ैल भी आते हैं जो नाज़रीन किराम के ग़ौर व ख़ोस के लिए लिखे जाते हैं।
1. अरबी की मशहूर लुग़त के हवाले से जिसे क़ामूस कहा जाता है एक दफ़ाअ मिस्टर ग़ाज़ी महमूद धरम पाल ने अपने रिसाले अल-मुस्लिम लूदियाना जिल्द दोम सफ़ा 55 बाबत माह मई 1915 ई॰ के सफ़ा पर लिखा था कि क़ामूस में अल-हनीफ़ के मअनी क़ाइल-उल-इस्लाम, अल-साबित अलैह व नहल मिन, हज, औकान अली दीने इब्राहीम अलैहिस्सलाम के आए हैं।
2. तफ़्सीर इत्तिफ़ाक़ हिस्सा अव्वल सफ़ा 308 पर हनीफन लफ़्ज़ के मअनी हाजिन किए गए हैं। सफ़ा 381 में इब्ने अल-मुन्ज़र अल-सदी से रिवायत करता है कि क़ुरआन में जहां कहीं हनीफन मुस्लिमन (حنیفاً مسلماً ) और हिस जगह हनफा मलमीन (حنفاء ملمین) आया है वहां हज करने वाले लोग मुराद हैं।
3. तफ़्सीर हुसैनी का मुसन्निफ़ सूरह बय्यिना और रोम की तफ़्सीर करता हुआ लफ़्ज़ हनफा के मअनी बबल करने वाले बातिल अक़ीदों से दीन इस्लाम की तरफ़ के करता है।
4. क़ुरआन शरीफ़ से मालूम होता है कि मिल्लत हनीफ़ यहूदियत व ईसाईयत का ग़ैर थी। जैसा कि लिखा है وَقَالُواْ كُونُواْ هُودًا أَوْ نَصَارَى تَهْتَدُواْ قُلْ بَلْ مِلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا यानी और कहते हैं कि हो जाओ यहूदी या ईसाई तो राह पाओगे तू कह दे बल्कि पैरवी की हमने इब्राहिम हनीफ़ की मिल्लत की। (सूरह बक़रह 135)
5. ان ذات الدین عنداللہ الحنفیتہ غير الیہود الاالنصر انبتہ यानी तहक़ीक़ दीन नज़्दीक अल्लाह के हनफियत है जो यहूदियत और ईसाईयत का ग़ैर-दीन है। तफ़ीसर इत्तिक़ान जिल्द दोम सफ़ा 64
6. हज़रत मुहम्मद की बाबत भी आया है कि आप यहूदियत व नसरानियत के साथ मबऊस नहीं हुए बल्कि हक़ीक़त के साथ मबऊस हुए हैं। जैसा कि लिखा है :-
فقال رسول اللہ صلے اللہ علیہ السلام انی المہ البعثت با لییھودیتہ ولا بالنصر انیتہ ولکن بعث بالحنفیتہ
यानी रिवायत है मासह से.... पस फ़रमाया रसूल-ए-ख़ूदा ने कि तहक़ीक़ मैं नहीं भेजा गया साथ यहूदियत और नसरानियत के व-लेकिन भेजा गया हूँ साथ हनफियत के अलीख मज़ाहिर-उल-हक़ जिल्द सोम छापा नवलकिशोर सफ़ा 357
जो कोई बयान माफ़ौक़ पर गहिरी नज़र डालेगा उस पर लफ़्ज़ हनीफ़ व हनफियत और मिल्लत इब्राहिम हनीफ़ और हनफा की बाबत ये अम्र रोज़ रोशन की तरह ज़ाहिर वाज़ेह हो जाएगा कि लफ़्ज़ हनिफा के मअनी सिर्फ़ वाहिद ख़ुदा के परस्तारों के नहीं हो सकते हनिफा हनफियत के मोअतक़िदों और पैरोकारों का नाम था। ज़माना नब्वी से पेश्तर हनफा अरब में मौजूद थे जो यहूदियत व ईसाईयत के मुख़ालिफ़ दीन हनीफ़ के मानने वाले थे जो दीन यहूदियत व ईसाईयत का हज़रत मुहम्मद के ज़माने से पेश्तर मुख़ालिफ़ था। इसे मवाह्हिदीन का दीन क़रार देना बालाशक मुश्किल है इस बात को माना जा सकता है कि हज़रत मुहम्मद के ज़माने से पेश्तर दीन हनीफ़ को मानने वालों में वाहिद ख़ुदा के मानने वाले भी होंगे लेकिन मुस्लिम उलमा के बयान माफ़ौक़ को रूबरू रखते हुए हर एक दीन हनीफ़ के मानने वालों में वाहिद ख़ुदा का परस्तार ख़याल करना दुशवार अम्र (मुश्किल काम) है। पस अगर बयान माफ़ौक़ की सनदात के कुछ भी मअनी हो सकते हैं तो यही हो सकते हैं कि ज़माना नब्वी से पेश्तर बनी-इस्राईल का जो मज़्हब व दीन था उसी का नाम दीन हनीफ़ या मिल्लत इब्राहिम हनीफ़ था उसी दीन को मानने वाले इस़्माईली हनिफा कहलाते थे जिनकी हनफियत में हर क़िस्म की मकरूहात दाख़िल थी जिसका बयान साबी मज़्हब के ज़िमन में भी हो चुका है और हज़रत इस्माईल की अरबी औलाद इसी हनफियत को मानती हुई यहूदियत व ईसाईयत से बरसर-ए-पैकार (लड़ाई) रहती थी। इन हर दो इल्हामी मज़ाहिब के ताबे होना पसंद ना करती थी। ग़ालिबन यहूदियत व ईसाईयत की बाहमी मुख़ालिफ़त अरब के हनफा को अपनी हनफियत पर क़ायम रहने के लिए ज़्यादा मददगार थी।
आख़िर में इस बात की तरफ़ भी तवज्जोह को मबज़ूल (लगाया गया, लगाना) फ़रमाना चाहिए कि आँहज़रत की निस्बत जो लिखा गया है कि आप यहूदियत और ईसाईयत के साथ मबऊस नहीं हुए बल्कि हनफियत के साथ मबऊस हुए हैं ये बात कहाँ तक क़ाबिल-ए-एतिमाद हो सकती है? हम इस का यहां पर फ़ैसला पेश नहीं कर सकते मगर आँहज़रत की ज़िंदगी और काम के हालात में इस की हक़्क़ानियत या अदम हक़्क़ानियत पर रोशनी डालेंगे। यहां पर इस क़द्र गुज़ारिश कर देना ज़रूरी समझते हैं कि अगर हनफियत हज़रत इस्माईल की नस्ल के दीन का नाम था तो आँहज़रत का मिल्लत-ए-हनफियत पर पैदा होना ज़रूर तस्लीम किया जा सकता है लेकिन आँहज़रत की बाबत ये बात हरगिज़ क़ाबिल-ए-एतिमाद नहीं हो सकती कि आँहज़रत ने हनफियत में पैदा हो कर तमाम उम्र हनफियत ही की ताईद व तस्दीक़ में वाअज़ व नसीहत फ़रमाई और यहूदियत व ईसाईयत की उम्र-भर तर्दीद व तकज़ीब (झुटलाना) ही की। क्योंकि इस्लाम की मोअतबर रिवायत से इस मुसल्लिमा की हरगिज़ तस्दीक़ नहीं हो सकती है।
हम इस बात का ख़ुशी से एतराफ़ कर लेते हैं कि आँहज़रत से पेश्तर हनफियत का मर्कज़ मक्का शरीफ़ का काअबा था जिसमें हनफा के 360 माबूद मौजूद थे। इस काअबा का हज मर्द व औरत हालत ब्रहंगी (बिना कपड़े) में किया करते थे और उन की नमाज़ें सीटियाँ और तालियाँ बजाना होती थीं। जैसा कि लिखा है कि, وَمَا كَانَ صَلاَتُهُمْ عِندَ الْبَيْتِ إِلاَّ مُكَاء وَتَصْدِيَةً और ना थी नमाज़ उन के नज़्दीक काअबा के मगर सीटियाँ और तालियाँ बजाना। (सूरह अन्फ़ाल आयत 35) पस हम इस्लाम की बेहतर रिवायत की बिना पर हनफियत व हनफ़ा की निस्बत ये ख़याल करने के लिए मज्बूर हैं कि कुल हनफा आँहज़रत से पेश्तर हरगिज़ वाहिद ख़ुदा के परस्तार ना थे और ना मिल्लत इब्राहिम हनीफ़ के मअनी वाहिद ख़ुदा की परस्तिश पर महदूद थे।
सातवीं फ़स्ल
अरब के हनफा में हनफ़ी रसूल की आमद की इंतिज़ारी
अरब में यहूदियत व ईसाईयत का सख़्त ग़लबा (फ़ौक़ियत, बरतरी) था। ये दोनों मज़ाहिब मसीहे माऊद की आमद के सख़्त मुंतज़िर थे। हर दो मज़ाहिब के मानने वाले अपनी अपनी आलमगीर फ़त्ह मसीह मौऊद की तशरीफ़ आवरी पर मुन्हसिर कर रहे थे। यहूदी मसीह मौऊद की पहली आमद का इंतिज़ार करते थे मगर ईसाई उसे सय्यदना मसीह की दूसरी आमद यक़ीन करते थे। उन की उसूली किताबों में मसीह मौऊद की आमद के मुताल्लिक़ कसीर बयान आया है। इस वजह से यहूदीयों और मसीहियों का एतिक़ाद मज़्कूर ना सिर्फ इन्हीं में आम था बल्कि उन के इस एतिक़ाद का इल्म अरब के हनफा को भी था। उन्हों ने भी मुस्लिम रिवायत के मुवाफ़िक़ एक हनफ़ी रसूल की आमद का ख़याल क़ायम कर लिया था। यहूदीयों और ईसाईयों के पाक नविश्तों में मसीह मौऊद की बाबत ज़ेल का बयान मौजूद था। मसलन :-
1. जोज (याजूज) और माजूज की बाबत देखो हिज़क़ीएल 37 बाब से 39 बाब तक। मुकाशफ़ा 20:7 ता 10, मुख़ालिफ़ मसीह या मसीह अल-दज्जाल की बाबत देखो मत्ती 24:5, 11, 24 को और 2 थिस्सलुनीकियों 2:3, 10-18 तक सय्यदना मसीह की दूसरी आमद की बाबत लिखा है कि वो अचानक आएगा। 1 थिस्सलुनीकियों 5:1-5, मुकाशफ़ा 16:15 कि वो नूह के तूफ़ान की तरह अचानक आएगा। मत्ती 26:37-39, लूक़ा 17:26-27 कि वो सदोम व अमोरह की हलाकत की तरह अचानक आएगा। लूक़ा 17:28 30 तक कि वो बिजली की तरह अचानक आएगा। मत्ती 24:27 कि वो शख़्सी तौर से आएगा। मर्क़ुस 8:38, 13:26, फिलिप्पियों 2:16, 3:20, 1 थिस्सलुनीकियों 2:19-20, तितुस 2:13, आमाल 1:11, 1 कुरिन्थियों 4:5, इब्रानियों 9:28 कि वो मसीही ईमानदारों को अज्र देने आएगा। यूहन्ना 16:22, कुलस्सियों 3:3-4, 2 तीमुथियुस 4:8, इब्रानियों 9:27-28 कि वो मसीह अल-दज्जाल को फ़ना करने आएगा। 2 थिस्सलुनीकियों 2:8 ता 10 तक कि वो शैतान को क़ैद करेगा। मुकाशफ़ा 20:1 ता 6 तक कि उस के आने का वक़्त नामालूम रखा गया है। मत्ती 24:36, आमाल 1:11 और कि वो बादलों पर आएगा और उस के आने पर नर्सिंगा फूँका जाएगा और कि वो फ़रिश्तों के साथ आएगा और ज़मीन पर अदल व इन्साफ करेगा। इन तमाम बातों का ज़िक्र कुतुब-ए-मुक़द्दस में मज़्कूर है। ये तमाम बातें आम तौर से अरब के यहूद व नसारा में मुसल्लिमा थीं जिसे अरब के हनफा (हज़रत इब्राहिम के मज़्हब के लोग) भी जानते होंगे।
3. रावियों के बयान का हनफ़ी रसूल
इस्लामी रिवायत के रावियों ने अपनी रिवायत वज़ा करने में एक बात का ज़रूर ख़याल किया और वो ये था कि वो हज़रत मुहम्मद को यहूदीयों और ईसाईयों का मसीह मौऊद (वाअदा किया हुआ) बना कर दिखाना चाहते होंगे। इस बात की तक्मील के लिए उन्हों ने यहूदीयों और ईसाईयों की ज़बानी ऐसी रिवायत ज़रूर वज़ा कीं जो हज़रत मुहम्मद को अपनी ज़बानी उन की हनफियत (सच्चाई) का वो नबी मौऊद बना कर दिखाएं जिसकी यहूद व नसारा बल्कि दीगर अरबों को भी इंतिज़ारी थी। कुछ रिवायत पेश्तर नक़्ल हो चुकी हैं। बाक़ी इख़्तिसार (मुख़्तसर) के साथ ज़ेल में पेश की जाती हैं।
इब्ने हिशाम लिखता है इब्ने इस्हाक़ कहते हैं रबीआ बिन नस्र यमन का बादशाह था एक दफ़ाअ उसने एक होलनाक ख्व़ाब देखा जिसके देखने से उस को अज़हद परेशानी और ख़ौफ़ व हिरास पैदा हुआ और उसने अपनी सल्तनत के तमाम काहिनों और साहिरों (जादूगरों) और नुजूमियों और आयफ़ों (ये वो लोग हैं जो हाथों की लकीरें देखकर हाल बतलाते हैं) को बुला कर कहा कि मैंने एक परेशान ख्व़ाब देखा। तुम लोग इस की ताबीर बयान करो। इन सब लोगों ने बयान किया कि आप ख्व़ाब बयान कीजिए हम उस की ताबीर देंगे। बादशाह ने कहा मैं ख्व़ाब नहीं बयान करूंगा हर शख़्स ताबीर का दावा करता है। उस को ख्व़ाब भी ख़ुद बयान करनी चाहिए और मेरा इत्मीनान उस शख़्स की ताबीर से होगा जो ख्वाब का मज़्मून भी अदा करेगा उस वक़्त एक शख़्स ने कहा कि ऐ बादशाह अगर आपका यही इरादा है तो सतीअ व मशक़ (दो शख्सों के नाम हैं) को बुलाना चाहिए कि इन दोनों से बढ़कर दूसरा कोई आदमी इस ज़माने में मौजूद नहीं। वो आपकी ख्व़ाब व ताबीर हर दो बतला सकेंगे सतीअ का दूसरा नाम रबी बिन रबईह बिन मसऊद बिन माज़िन बिन ज़एब बिन अदी बिन माज़िन बिन हस्सान है। और शक़ सअब बिन यशकुर बिन रहमम बिन अफ़रक बिन क़ैस बिन अबक़र बिन अनमा बिन नज़ार है और इतमार की कुनिय्यत अबू बजीलत व ख़शअम है। इब्ने क़स्साम कहता है कि अहले यमन के क़ौल के मुताबिक़ इतमार बिन अराश बिन लहयान बिन उमरू बिन अल-ग़ोस बिन नाबत बिन मालिक बिन ज़ैद बिन खलान बिन सबा है। और कहते हैं कि अराश बिन उमरू बिन लहयान बिन अल-ग़ोस है ग़रज़ कि बादशाह ने दोनों को बुला भेजा मगर सतीह मिशक़ से पहले आ हाज़िर हुआ। बादशाह ने सतीह से कहा कि मैंने एक ख़ौफ़नाक ख्व़ाब देखा है मैं चाहता हूँ कि तुम इस ख्व़ाब को बमअ उस की तावील (दलील) के बयान करो कि इस काम के लायक़ तुम ही बयान किए जाते हो। उस ने कहा ऐ बादशाह अब आपने एक आग देखी है जो तारीकी से निकल कर ज़मीन पर फैल गई है और हर हैवान को खा गई है। बादशाह ने कहा ऐ सतीह वाक़ई तूने सच्च कहा है। यही मेरी ख्व़ाब है। अब उस की ताबीर व तावील बयान कीजिए। कहा आपकी सल्तनत पर अहले हब्श हमला करेंगे और यमन से लेकर जर्श तक फ़त्ह करेंगे। बादशाह ने कहा ये तो बड़ी दर्दनाक बात है। भला ये तो बतलाओ कि ये वाक़िया मेरे ज़माने में होगा या मेरे बाद। कहा आपके साठ या सत्तर साल बाद। पूछा कि अहले हब्श की बादशाही हमेशा रहेगी या मुनक़तेअ (ख़त्म) हो जाएगी। कहा कि सत्तर इसी साल के दर्मियान मुन्क़तअ हो जाएगी। बाअज़ इनमें से क़त्ल किए जाएंगे और बाअज़ भाग जाएंगे। पूछा उन को कौन क़त्ल करेगा और कौन निकालेगा? कहा कि क़ौम इरम जो अदन से निकलेगी उनको यमन से निकाल देगी और उनमें से कोई फर्द यमन में नहीं छोड़ेगी। पूछा कि क्या इस क़ौम इरम की बादशाही हमेशा रहेगी या मुनक़तेअ हो जाएगी? कहा कि वो भी जाती रहेगी। पूछा इन को कौन निकालेगा कहा एक पाक नबी मुहम्मद रसूल-अल्लाह जिसको अल्लाह की तरफ़ से वही होती होगी। पूछा वो नबी किस क़बीले से होगा कहा कि ग़ालिब बिन फहर बिन मालिक बन नफ़र की औलाद से होगा। फिर ये सल्तनत उस की क़ौम में क़ियामत तक रहेगी। पूछा कि ज़माना का ख़ातिमा होगा? कहा हाँ। उस वक़्त अव्वल व आखिर सब जमा होंगे और नेकोकारों को नेक बदला मिलेगा और बदकारों को बुरा। पूछा क्या जो कुछ तूने मुझको बताया है सब सच्च है। कहा कि ख़ालिक़ लैल व नहार (रात और दिन) की क़सम है कि जो कुछ मैंने बतलाया है बिल्कुल सच्च दुरुस्त है। इस के बाद दूसरा मुनज्जम (नजूमी) शक़ हाज़िर हुआ। बादशाह ने इस से भी वैसा ही सवाल किया जैसा कि सतीह से किया था औरा ना बतलाया कि मैं पहले इस मुआमले को सतीह के सामने पेश कर चुका हूँ ताकि मालूम करले कि आया दोनों इत्तिफ़ाक़ करते हैं या इख़्तिलाफ़। शक़ ने कहा ऐ बादशाह आपने एक आग देखी है जो तारीकी से निकली है और हर एक सर-सब्ज़ व ख़ुश्क मैदान में लगी है और हरज़ी हयात को खा गई है। बादशाह ने कहा बेशक शक़ यही बात है। अब बतलाओ कि इस का नतीजा क्या है। कहा कि बख़ुदा आपकी ज़मीन पर हब्शियों का ग़लबा होगा और बायमन से लेकर नजरान तक क़ाबिज़ हो जाएंगे। बादशाह ने कहा ये तो बड़ी ना-उम्मीदी करने वाली और ख़ौफ़नाक ख़बर है। भला ये तो बतलाओ कि ये वाक़िया मेरे ज़माने और मेरी ज़िंदगी में होगा या मेरे बाद कहा आपके बाद। फिर अहले हब्श पर एक और क़ौम अज़ीमुश्शान ग़ालिब आऐगी। पूछा वो कौन होंगे? कहा कि क़ौम इरम आकर उन को हलाक करेगी। पूछा कि क्या उस की सल्तनत हमेशा रहेगी या मुनक़तेअ हो जाएगी? कहा कि उन की सल्तनत एक रसूल-ए-ख़ुदा के आने से मुन्क़ताअ हो जाएगी। जिसकी क़ौम के क़ब्ज़े में ये मुल़्क आबद-उल-आबाद तक रहेगा और क़ियामत तक यही क़ौम इस पर तसल्लुत रहेगी। पूछा कि क़ियामत का दिन क्या होगा? कहा कि क़ियामत तक यही क़ौम इस पर तसल्लुत रहेगी। पूछा कि क़ियामत का दिन क्या होगा। कहा कि क़ियामत का रोज़ वो है जिसमें अव्वलीन व आख़िरीन के मुक़द्दमात फ़ैसल (फ़ैसला होना) होंगे। और हर नेक व बद अपने कैफ़र-ए-किरदार (अंजाम को पहुंचना) को पहुंचेगा। पूछा कि जो कुछ तू ने कहा है आया वाक़ई दुरुस्त व हक़ है। कहा कि ख़ालिक़ अर्ज़ व समा (ज़मीन व आस्मान) की क़सम कि ये वाक़ियात बेकम व कासित (बग़ैर कमी बेशी) बरहक़ हैं। (सीरत इब्ने हिशाम सफ़ा 5, 6)
2. इब्ने इस्हाक़ कहता है कि उस ने यमन से मदीना तक एक सड़क बनवाई थी जिस पर आया जाया करता था। एक दफ़ाअ मदीना में अपना लड़का छोड़ गया और वो किसी धोके से क़त्ल किया गया। पस तबअ आख़िर (यानी बुतान असअद अबू कर्ब ने मदीना और अहले मदीना की बेख़कुनी (जड़ से उखाड़ना) का इरादा किया। इस पर मदीना के एक क़बीला अंसार ने जिनका रईस व अफ़सर उमरू बिन तलह था। इस का मुक़ाबला किया। ये उमरू बिन तलह बनी नज्जार का भाई है और बनी उमरू बिन मबज़ूल की औलाद से है। मबज़ूल का दूसरा नाम आमिर बिन मालिक बन अल-नज्जार है और नज्जार का दूसरा नाम तमीम अल्लाह बिन सकलबा बिन उमरू बिन अल-ख़ज़-ज़ज बिन हारिसा बिन सालबा बिन उमरू बिन आमिर मालिक बिन अल-नज्जार है। और तलह और उस की वालिदा आमिर बिन ज़रीक सन अब्द हारिसा बिन मालिक बिन अक़ब जशम बिन अल-ख़रज़ज है। इब्ने इस्हाक़ कहता है कि बनी अदी बिन अल-जब्बार में से एक शख़्स ने जिसका नाम अह्मर था तबअ के आदमीयों में से एक शख़्स पर हमला किया था और उस को मार डाला था वजह ये थी कि इस शख़्स ने तबअ के आदमी को अपने ख़जूरों के बाग़ में खजूरें तोड़ता हुआ पाया और अपनी दरांती से वहां ही इस का काम तमाम कर दिया और कहा (انما المترطن ابرہ) यानी खजूर पैवंद लगाने वाले का हक़ है ना तेरा इस बात से तबअ का ग़ज़ब इस क़ौम पर और भी बढ़ गया और दोनों तरफ़ अस्हाब तबअ व असहाब उमरू बिन तलह से लड़ाई का बाज़ार गर्म हो गया। अंसार सुबह के वक़्त उनसे मुक़ाबला करते थे और रात को उन की इताअत का इक़रार कर लेते थे अंसार के सरदार उमरू बिन तलह को ये बात निहायत पसंद आती थी और कहता बख़ुदा हमारी क़ौम ग़ालिब आकर रहेगी। इसी असना में जबकि तबअ व उमरू बिन तलह के अस्हाब के माबैन लड़ाई की आग लगी हुई थी। बनी क़ुरैज़ा के यहूदीयों के दो आलिम जो अपने इल्म में रासिख़ व जय्यद (पक्का, मज़्बूत, खरा) थे तबअ के पास आए। (ये बनी क़ुरैज़ा और नसीर व अल-तहाम और उमरू बिन अल-ख़ज़रज ये तमाम इब्ने अल-सरीह इब्ने अक्तूमान जिन अल-सीत बिन अल-यसअ इब्ने-साद बिन लादी बिन ख़ैर बिन अल-तहाम बिन तनख़ूम बिन आरिज़ बिन अज़री बिन हारून बिन इमरान बिन यस्र बिन क़ाहित बिन होई बिन याक़ूब बिन इस्हाक़ बिन इब्राहिम ख़लील-उल्लाह की औलाद से हैं और कहा ऐ बादशाह मदीना और अहले मदीना की हलाकत के इरादे से बाज़ आ। अगर आप इस से बाज़ ना आएंगे और हमारी इस नाचीज़ नसीहत व खेर ख़्वाही को क़बूलियत के कानों से नहीं सुनेंगे तो हमें अंदेशा है कि कोई क़हर इलाही व ग़ज़ब नामुतनाही आप पर नाज़िल हो जाए। तबअ ने पूछा क्योंकर? उन्हों ने कहा कि ये मदीना एक नबी की हिज्रत की जगह होगा जो क़ौम क़ुरैश से आखिरुज़्ज़मान में पैदा होता। फिर ये जगह.... उस की जाये क़रार होगी। ये बात सुनकर बादशाह अपने इरादे से बाज़ आया और उन उलमा यहूद की इल्मीयत व फ़ज़ीलत का क़ाइल हो कर उनका दीन क़ुबूल कर लिया और मदीना से वापिस चला गया।
3. इब्ने इस्हाक़ कहता है कि ये तबअ और उस की क़ौम बुत-परस्त थे। उसने मक्का मुअज़्ज़मा पर भी चढ़ाई की थी। कहते हैं कि जब इस इरादे से मक्का की तरफ़ आ रहा था और अभी असफ़ान व आहज की हदूद के दर्मियान पहुंचा था तो हिज़्बुल बिन मुद्रिका बिन इल्यास बिन मुज़िर बिन नज़ार बिन मुसाद के चंद आदमीयों ने आकर कहा, ऐ बादशाह हम आपको एक ऐसे बैत-उल-माल का पता देते हैं जिससे पहले बादशाह ग़ाफ़िल रहे हैं। जिसमें मोती, ज़बरजद, याक़ूत, सोना, चांदी, वग़ैरह बेशुमार अम्वाल व असबाब हैं वो मक्का में एक घर है। वहां के लोग उस की इबादत करते हैं और उस में नमाज़ पढ़ते हैं और उन लोगों का यहां से ये मतलब था कि अगर ये मक्का पर दस्त-दराज़ी करेगा तो हलाक हो जाएगा। क्योंकि वो लोग जानते थे कि जो शख़्स मक्का मुअज़्ज़मा की बेहुरमती का इरादा किया करता है तो वह हलाक व तबाह हो जाया करता है। गोया वो लोग इस बला को इस बहाने से टालना चाहते थे। मगर जब तबअ ने उन लोगों से ये तक़रीर सुनी तो उसने उन दो यहूदी उलमा को जिनको वो अपने साथ मदीना से लाया हुआ था बुलाया और यह माजरा उन के सामने बयान किया उन्होंने कहा कि इन लोगों ने इस बहाने से आपकी और आप की क़ौम की हलाकत का इरादा किया है अगर आप उनकी बात पर अमल करेंगे तो आप बमए अपने लश्कर के हलाक हो जाएंगे। इस पर तबअ ने दर्याफ़्त किया कि जब मैं मक्का में पहुँचूँ तो मुझे क्या करना चाहिए। उलमा ने कहा कि जो कुछ वहां के लोग उस की ताज़ीम व तकरीम करते हैं आपको भी वैसा ही करना चाहिए। जब आप वहां पहुंचें तो सर के बाल हलक़ करवा कर उस का तवाफ़ (चक्कर लगाना) करें और ख़ुशूअ व खुज़ूअ (आजिज़ी व गिड़गिड़ाना) व फ़रोतनी व इन्कसारी से आदाब ताज़ीम व तकरीम बजा लादें। (सीरत इब्ने हिशाम सफ़ा 7, 8)
4. मयस्सरा और हज़ीमा दोनों ये कैफ़ीयत देखकर कमाल ताज्जुब में आए और आप के इस तसर्रुफ़ पर सिदक़ दिल से यक़ीन लाए। बाद इस के जब शहर बस्रा के मुत्तसिल (नज़्दीक) पहुंचे तो बहीर राहिब के इबादतखाने के नज़्दीक उतरे मगर देखा तो इस इबादतखाने में बहीरा नज़र आया और उस की जगह किसी और एक राहिब को मुक़ीम पाया। बाद दर्याफ़्त के मालूम हुआ कि बहीरा ने इंतिक़ाल किया है। अभी चंदाँ हुए इस दार-ए-फ़ानी (ख़त्म होने वाला दुनिया) से मुल्क जाविदानी (हमेशा रहने वाला) का रास्ता लिया। ये राहिब उसी का क़ाइम मक़ाम है। नस्तौर उस का नाम है। ये शख़्स बड़ा आलिम और आबिद (इबादत करने वाला) क़ौम नसरानी है फ़ी ज़माना अपनी क़ौम में लासानी है। ग़रज़ कि इसी मुक़ाम पर एक दरख़्त ख़ुश्क नज़र आया। जनाब सरवर-ए-आलम सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इस के नीचे जाकर थोड़ी देर क़ियाम फ़रमाया आपकी बरकत से उसी वक़्त वो दरख़्त अज़सर तापा सब्ज़ व शादाब हो कर पर पार हुआ और गिर्द बगिर्द उस दरख़्त के ख़ुदा की क़ुद्रत से अजीब दिलचस्प सब्ज़ा और क़फ़ा का बर-हुक्म परवरदिगार हुआ। उस वक़्त नस्तौर राहिब किसी ज़रूरत से अपने इबादतखाने के कोठे पर आया सामने जो नज़र पड़ी तो उसी दरख़्त को सरापा सरसब्ज़ और मेवा हाय तरो ताज़ा से फुला हुआ पाया और देखा तो एक जवान निहायत हसीन मह-ए-जबीन परीपीकर रश्क़-ए-क़मर उस शजर के नीचे क़द मज़न है और उस के सर मुबारक पर वो दरख़्त साया-फ़गन है जब नस्तौर को ये हाल नज़र आया तो बजल्दी तमाम बाम ख़ाना से नीचे उतर आया और जल्दी से तौरात को हाथ में लिया और आपके हुज़ूर में जाकर उस की निशानीयों से आपके हुल्या मुबारक को मुताबिक़ किया तो एक सुरमू (ज़र्रा बराबर) किसी चीज़ में फ़र्क़ ना पाया। फिर तो उसने बे-ख़ुद हो कर ये शोर मचाया कि ईसा मसीह ने जिस पैग़म्बर अफ़्ज़ल-उल-बशर नबी आखिर-उल-ज़मान साहिबे अल-फुर्क़ान की ख़बर हमको दी है और उस के मबऊस होने की सनद तौरेत व इन्जील से ली है ख़ुदा की क़सम वो नबी साहिब-उल-जूद वल-करम आज इस दरख़्त के नीचे मौजूद है जो इस की नबुव्वत व रिसालत का मुन्किर है, वो काफ़िर ख़ुदा की रहमत से कौनैन में महरूम व मर्दूद (रद्द किया हुआ) हो। (तवारीख़ अहमदी सफ़ा 60-16)
5. इब्ने इस्हाक़ कहते हैं कि हुज़ूर के मबऊस (नबी मुक़र्रर होना) होने से पहले यहूद व नसारा के उलमा और अरब के काहिन हुज़ूर की ख़बरें बयान किया करते थे। क्योंकि हुज़ूर का ज़माना ज़हूर क़रीब था यहूद व नसारा के उलमा तो अपनी किताबों से हुज़ूर के औसाफ़ और ज़माना ज़हूर और अम्बिया का अहद जो उन्हों ने अपनी उम्मतों से हुज़ूर पर इस्लाम लाने की बाबत लिया था बयान करते थे और अरब के काहिन अपने शयातीन से ख़बरें सुनते थे और शयातीन आस्मान के क़रीब जाकर मलाइका (फ़रिश्तों) की गुफ़्तगु सुनकर उस में से कुछ उड़ा लाते थे और अपने दोस्त काहिनों को मुत्ला`अ (इत्तिला देना) करते थे और वो आम लोगों को इस से ख़बरदार करते थे और इस ज़माने में शयातीनों के वास्ते आस्मान से ख़बर लाने में कोई रुकावट ना थी। और ना अरब के लोग इल्म-ए-कहानत में कोई बुराई समझते थे यहां तक कि अल्लाह तआला ने हमारे हुज़ूर को मबऊस किया और शयातीन इस्तिराक़ समाअ से रोके गए। जब कोई जिन्न आस्मान की तरफ़ जाता फ़ौरन शहाब (सितारा) से इस की ख़बर ली जाती यहां तक कि फिर जिन्नात में ये ताक़त ना रही कि किसी बात को आलम-ए-बाला से मालूम कर सकें। (सीरत इब्ने हिशाम सफ़ा 63)
6. इब्ने इस्हाक़ कहते हैं मुझसे आसिम बिन उमरू बिन क़तादा ने बयान किया कि हमारी क़ौम के लोग कहते थे कि हमारे इस्लाम लाने की वजह ये थी कि एक तो अल्लाह तआला ने हम पर अपनी रहमत और हिदायत की जो हम को इस्लाम की तौफ़ीक़ इनायत फ़रमाई और दूसरी बात ये कि हमारे पड़ोस में यहूद रहते थे वो अहले-किताब थे और हम मुश्रिक लोग बुत-परस्त थे। जो इल्म उन के पास था वो हमारे पास ना था। और हमारे उन के दर्मियान में हमेशा जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) रहती थी तो वो हमसे कहा करते थे कि जब उन को हमसे कोई शिकस्त पहुँचती कि अब एक नबी के मबऊस (भेजा जाना) होने का ज़माना अनक़रीब है उन के मबऊस होते ही हम उन के साथ हो कर तुमको मिस्ल आद इरम के क़त्ल करेंगे। पस हम यहूदीयों की ये बातें अक्सर सुना करते थे यहां तक कि ख़ुदावंद तआला ने अपने रसूल हज़रत मुहम्मद को मबऊस फ़रमाया। पस हमने आपकी दावत क़ुबूल की जब कि आपने हमको ख़ुदा की तरफ़ बुलाया और उन बातों को पहचान गए। जिनका यहूदी हमसे वाअदा करते थे। पस इस्लाम के इख़्तियार करने में यहूदीयों से हमने सबक़त की और ईमान ले आए और उन्हों ने कुफ़्र किया। चुनान्चे हमारे और उन के दर्मियान ये आयत नाज़िल हुई है :-
وَلَمَّا جَاءهُمْ كِتَابٌ مِّنْ عِندِ اللّهِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَهُمْ وَكَانُواْ مِن قَبْلُ يَسْتَفْتِحُونَ عَلَى الَّذِينَ كَفَرُواْ فَلَمَّا جَاءهُم مَّا عَرَفُواْ كَفَرُواْ بِهِ فَلَعْنَةُ اللَّه عَلَى الْكَافِرِينَ
तर्जुमा : यानी जब इन यहूदीयों के पास ख़ुदा की किताब आई और ख़ुदा ने अपना रसूल भेजा जो उन की किताबों की तस्दीक़ करता है। हालाँकि पहले ये उस के वसीले से दुआ-ए-फ़त्ह किया करते थे और उस के साथ फ़त्ह के तालिब थे। पस जब वो उनके पास आया और उन्हों ने उस को पहचान लिया उस के साथ ये काफ़िर हो गए। पस लानत है ख़ुदा की काफ़िरों पर। (सूरह बक़रह आयत 89)
7. इब्ने इस्हाक़ कहते हैं कि मुझको हज़रत सलमा बिन सलामा बिन दक़श से रिवायत पहुंची है और यह बदरी सहाबी थे। कहते हैं हमारे यानी बनी अब्दुल्लाह शहल के पड़ोस में एक यहूदी रहता था और सलमा कहते थे मैं उन इमाम में अपनी क़ौम के अंदर सबसे ज़्यादा नव उम्र था एक चादर ओढ़े हुए अपने लोगों के दर्मियान में बैठा था। पस उस यहूदी ने आकर क़ियामत और बअस और हिसाब और मीज़ान और जन्नत व दोज़ख़ का ज़िक्र शुरू किया और दोज़ख़ उन लोगों के वास्ते है जो मुश्रिक (बुत-परस्त) हैं और बुत-परस्ती करते हैं और यह नहीं समझते कि मरने के बाद ज़िंदा होना है। क़ौम ने कहा तुझको ख़राबी है क्या तू ये अक़ीदा रखता है कि लोग मर कर फिर ज़िंदा होंगे और अपने आमाल का बदला पाएंगे। इस यहूदी ने कहा हाँ मैं ये अक़ीदा रखता हूँ। क़ोम ने कहा तुझको ख़राबी हो इस की निशानी क्या है। उस ने कहा इन शहरों की तरफ़ से एक नबी मबऊस होंगे और अपने हाथ से मक्का और यमन की तरफ़ इशारा किया। क़ौम ने कहा वो नबी कब मबऊस होंगे। इस यहूदी ने मेरी तरफ़ देख कर कहा कि अगर इस बच्चे की उम्र ने वफ़ा की तो ये उन नबी को पालेगा सामेआ (सुनने वाले) कहते हैं पस क़सम है ख़ुदा की थोड़े अर्से के बाद हज़रत रसूल-ए-ख़ूदा का ज़हूर हुआ और इस वक़्त तक वो यहूदी हमारे अंदर ज़िंदा था। पस लोग तो ईमान ले आए और वो यहूदी बुग़्ज़ व हसद व सरकशी के सबब से ईमान ना लाया। हमने उस से कहा तुझको ख़राबी हो तू ईमान क्यों नहीं लाता हालाँकि तूही तो हम से हुज़ूर का बयान किया करता था। फिर अब क्या आफ़त तेरे सर पर नाज़िल हुई कि ईमान नहीं लाता। उस ने कहा ये वो नबी नहीं जिसका में ज़िक्र करता था।
8. इब्ने इस्हाक़ कहते हैं कि आसिम बिन उमर इब्ने क़तादा बनी क़ुरेज़ा के एक शेख़ से नक़्ल करते हैं कि उन्हों ने मुझसे कहा तुमको मालूम है कि तालिबा बिन सईद और अमीद बिन सईद और असद बिन उबीद जो बनी बदल बनी क़ुरैज़ा के भाईयों में से जाहिलियत में उन के साथी और फिर इस्लाम में उन के सरदार थे उनके इस्लाम लाने की क्या वजह हुई। आसिम कहते हैं कि मैंने उन शेख़ जिसका नाम इब्ने हबान था। इस्लाम के ज़हूर से चंद साल पेश्तर हमारे पास और हमारे अंदर ठहरा। पस क़सम है ख़ुदा की हमने कोई उस से बेहतर पांचवीं नमाज़ अदा करने वाला ना देखा और वो यहूदी हमारे हाँ ठहरा रहा। चुनान्चे एक दफ़ाअ ईमसाक बाराँ (ख़ुश्कसाली, बारिश ना होना) हुआ हमने उस से कहा, ऐ इब्ने हबान तुम चल कर हमारे वास्ते दुआ नुज़ूल-ए-बानान (बारिश नाज़िल होना) करो। उस ने कहा मैं हरगिज़ ना जाऊंगा, जब तक कि तुम कुछ सदक़ा ना निकालोगे। हमने कहा किस क़द्र सदक़ा चाहिए। उस ने कहा एक चार सैर खजूरें या जो ले लो। कहते हैं कि हमने वो सदक़ा लिया और उस के साथ दुआ के वास्ते चले। यहां तक कि वो शहर के बाहर एक मैदान में आया वहां उस ने दुआ की और हनूज़ (उस वक़्त तक) वो अपनी जगह से उठने ना पाया था कि अब्र नमूदार हुआ और बारिश शुरू हुई। इसी तरह कई बार मौक़ा हुआ फिर जब वो बीमार हुआ और उस ने समझा कि अब ज़िंदगानी आख़िर है। हमारे लोगों को जमा किया और कहा ऐ गिरोह यहूद बताओ कि किस चीज़ ने मुझको नेअमतों और अच्छी पैदावार के मुल्क से इस ख़ुश्क ज़मीन में पहुंचाया। कहते हैं कि हम ने कहा तुम ही जानो। हमें क्या ख़बर है। उस ने कहा मैं इस जगह एक नबी के मबऊस (भेजा गया) होने की ख़ातिर आया था। जिसका ज़माना ज़हूर (ज़ाहिर होना) अनक़रीब है और मैं उम्मीद करता था कि वो मबऊस हों तो मैं उन की पैरवी करूँ। पस ऐ यहूद तुमको लाज़िम है कि तुम सबसे पहले उनकी इताअत (ताबेदारी, बंदगी) करो। क्योंकि उनको हुक्म होगा कि जो उनकी इताअत ना करेगा उस को क़त्ल करके वो उस की औलाद को लौंडी और ग़ुलाम बनाऐंगे। पस तुम बिला-उज्र व हुज्जत उन पर इस्लाम ले आना। शेख़ कहते हैं पस जब रसूले ख़ुदा मबऊस हुए और बनी क़ुरैज़ा का आपने मुहासिरा (घेरा डालना, क़िला बंदी) किया उन्हें नौजवानों ने जिन्हों ने इस यहूदी की नसीहत सुनकर याद रखी थी अपनी क़ौम से कहा, ऐ बनी क़ुरैज़ा बेशक ये वही नबी हैं जिन पर ईमान लाने के वास्ते तुमसे इब्ने हबान ने अहद लिया था। क़ौम ने कहा बेशक तुम सच्च कहते हो ये वही नबी हैं और इनमें वो सब सिफ़तें मौजूद हैं जो उस ने बयान की थीं फिर सब बनी क़ुरैज़ा इस्लाम ले आए और अपने जान व माल को ग़ाज़ियान-ए-इस्लाम की दस्त व बरो से महफ़ूज़ रखा। इब्ने इस्हाक़ कहते हैं, ये वो ख़बरें हैं जो उलमा यहूद से हमको पहुंची हैं। (सीरत इब्ने हिशाम सफ़ा 66, 67)
9. इब्ने इस्हाक़ कहते हैं कि मुझको उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ बिन मरदान से ये रिवायत पहुंची है कि जब हज़रत सुलेमान ने हुज़ूर की ख़िदमत में अपना वाक़िया नक़्ल किया तो ये भी कहा कि उमूर ये के राहिब (ईसाई आबिद या ज़ाहिद, तारिक-उल-दुनिया) ने उनसे ये भी कहा था कि तुम मुल्क-ए-शाम में फ़ुलां जगह जाओ। वहां एक राहिब है वो साल भर में एक गीज़ा (1) से निकल कर दूसरे गीज़ा में जाता है। तमाम लोग अपने बीमारों को लेकर उस के मुंतज़िर रहते हैं। जिसके वास्ते वो दुआ करता है फ़ौरन वो बीमार तंदुरुस्त हो जाता है। इस से तुम उस दीन की बाबत सवाल करो जिसकी तुमको तलाश है वो बतला देगा। सुलेमान कहते हैं कि मैं वहां से हस्बे निशानदेही उस राहिब के उस शहर में आया। पस मैंने देखा कि लोग बीमारों को लिए हुए जमा थे। यहां तक कि रात के वक़्त वो राहिब एक गीज़ा से निकल कर दूसरे में जाने लगा लोगों ने उसको चारों तरफ़ से घेर लिया और मुझ को उस तक पहुंचने भी ना दिया जिस मरीज़ के वास्ते उस ने दुआ की वो अच्छा हो गया। यहां तक कि वो गीज़ा के दरवाज़े तक पहुंचा और चाहता था कि अंदर दाख़िल हो तो मैंने जाकर उस का बाज़ू पकड़ लिया। उसने पीछे मुड़कर देखा। मैंने कहा ऐ शख़्स ख़ुदा तुम पर रहम करे मुझको दीन-ए-इब्राहिम और मिल्लत हनीफ़ से ख़बर दीजिए उस ने कहा तूने आज मुझसे ऐसी बात दर्याफ़्त की है जो किसी ने अब तक ना दर्याफ़्त की थी। मगर ये तो सुन ले कि अब एक नबी के ज़हूर (ज़ाहिर होना) का ज़माना क़रीब है वो बनी अहले-हरम में से होंगे और तुझ को ये दीन ताअलीम करेंगे। फिर वो राहिब अपने गीज़ा में दाख़िल हो गया। सुलेमान से हुज़ूर ने ये वाक़िया ज़िक्र फ़रमाया अगर तूने ये वाक़िया सच्च बयान किया है तो बे शक तूने ईसा बिन मर्यम से मुलाक़ात की। (सीरत इब्ने हिशाम सफ़ा 71)
(1) गीज़ा बीशा व जगल को कहते हैं।
10. इब्ने इस्हाक़ कहते हैं कि फिर अबू तालिब को सफ़र शाम का इत्तिफ़ाक़ हुआ और इस की तैयारी करके चलने को आमादा हुए। हुज़ूर ने भी उन के साथ जाने का इश्तियाक़ (शौक़, ख़्वाहिश) ज़ाहिर किया। अबू तालिब चूँकि हुज़ूर से अपने फ़रज़न्दों से ज़्यादा मुहब्बत रखते थे आपके इश्तियाक़ से नर्म-दिल हो गए और कहने लगे क़सम है ख़ुदा की मैं इस को अपने साथ ले जाऊंगा। ना ये मेरे फ़िराक़ (जुदाई) की ताक़त रखता है ना में इस को छोड़ सकता हूँ। पस अबू तालिब हुज़ूर की बैअत (मुरीद बनना) में शाम की तरफ़ राही हुए। जब उनका क़ाफ़िला शहर बसरा में जो सरहद शाम पर वाक़ेअ है पहुंचा तो वहां एक राहिब बहीरा नाम अपने सोमअ (इबादतखाना, गिरिजा) में रहा करता था ये राहिब इल्म नस्रानियत का पूरा वाक़िफ़ था और इस सोमअ में सात राहिब पुश्त ब पुश्त गुज़र चुके थे। जिनका इल्म यके बाद दीगरे उस राहिब को पहुंचा था। जब ये क़ाफ़िला इस साल इस राहिब के सोमअ के क़रीब जाकर उतरा हालाँकि पहले भी क़ाफ़िले उस के क़रीब जाकर उतरते थे मगर यह राहिब किसी से मुख़ातिब ना होता था। अब जो ये क़ाफ़िला उस के क़रीब नाज़िल हुआ उसने उस की पुर-तकल्लुफ़ खाने से मेहमानी की। लोग कहते हैं इस मेहमानी का ये बाइस था कि बहीरा राहिब ने जब अपने सोमाअ में इस क़ाफ़िले को देखा तो उस की नज़र हुज़ूर पर पड़ी और उस ने देखा कि अब्र का टुकड़ा आप पर साया किए हुए है। फिर जब लोग उतरे और हुज़ूर एक दरख़्त के नीचे जल्वा-अफ़रोज़ हुए तो उस ने देखा कि वो अब्र साया अफ़्गन आपके सर मुबारक पर मिस्ल छतरी के क़ायम हो गया और दरख़्त की सब टहनियां आप पर साया करने के वास्ते माइल (झुकना) हुईं। राहिब ये माजरा देखते ही अपने सोमाअ से बाहर निकला और खाना पकाकर अहले-क़ाफ़िला की दावत की और कहला भेजा कि ऐ क़ुरैश के गिरोह में चाहता हूँ कि तुम्हारे सब छोटे बड़े आज़ाद और ग़ुलाम सब मेरी दावत में शरीक हों कोई बाक़ी ना रहे। क़ाफ़िले के लोगों में से एक शख़्स ने कहा ऐ राहिब आज तुम ऐसा काम करते हो जो हम ने तुमको कभी करते नहीं देखा। हालाँकि हम तुम्हारे पास बारहा गुज़रे हैं मगर कभी तुमने दावत तो कैसी हमसे बात तक भी नहीं की। बहीरा ने कहा तेरा कहना सच्च है। मेरी ऐसी ही आदत है मगर तुम लोग मेहमान हो मेरा जी चाहा कि मैं आज तुम्हारी अपने माहज़र (जो खाना मौजूद हो) से कुछ मुदारात (ख़ातिर तवाज़ेह) करूँ और क़द्रे तान जो तैयार करके सामने पेश करूँ मगर तुम सब क़दमरंजा (तशरीफ़ लाना) फ़र्मा कर मेरे कुलबा (छोटा सा घर) तारीक को अपने नूर से रोशन व मुनव्वर करो। सबने क़ुबूल किया और राहिब के सोमाअ में इकट्ठे हुए मगर हुज़ूर सरवर-ए-आलम बा सबब कम उम्री के क़ाफ़िला में अपने अस्बाब (असासा, ज़रूरत का सामान) के पास ही रह गए थे। राहिब ने जब सब लोगों में बग़ौर नज़र की और उस नूर-ए-नज़र यानी हज़रत सय्यद-उल-बशर को ना देखा कहा ऐ क़ुरैश मैंने पहले ही तुमसे कह दिया था कि देखो तुम में से कोई बाक़ी ना रहे। छोटे बड़े सब तक्लीफ़ करना। क़ुरैश ने कहा ऐ राहिब हम तुम्हारे हस्ब-उल-अशार सब के सब मौजूद हैं कोई बाक़ी नहीं रहा। सिर्फ एक बच्चा जो बहुत नव उम्र है उस को क़ाफ़िले में छोड़ आए हैं। राहिब ने कहा ये तुम ने ग़लती की। ऐसा ना चाहिए था। उस को भी बुलाओ ताकि वो भी शरीक तआम (खाने में शरीक) हो। पस क़ुरैश में से एक शख़्स खड़ा हुआ और उस ने कहा बहुत बुरी बात है कि अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब के फ़र्ज़न्द हमारे साथ शरीक दावत ना हों। पस वो शख़्स जाकर हुज़ूर को अपने साथ ले आया। और खाने में शरीक किया (रावी कहता है कि) बहीरा हुज़ूर को बार-बार देखता था और आप के बाअज़ आज़ा जिस्म को बग़ौर मुलाहिज़ा करता था और उन अलामात के मुताबिक़ पाता था जो उस के पास लिखी हुई थीं। यहां तक कि जब लोग आब व तआम (खाने) से फ़ारिग़ हुए और चलने लगे तो बहीरा ने हुज़ूर से अर्ज़ किया कि ऐ साहबज़ादे मैं तुमसे बवास्ता लात व उज्जाह (ज़माना जहालत में अरबों का देवता जिसकी परस्तिश की जाती थी। चांद की देवी) के एक बात दर्याफ़्त करता हूँ। तुम मुझको उस का जवाब दो। और यह वास्ता बहीरा ने इस वास्ते दिया था कि वो क़ुरैश से इसी तरह की गुफ़्तगु किया करते थे और लात व उज्ज़ा के वास्ते देते थे। पस कहते हैं कि हुज़ूर ने ये गुफ़्तगु सुनकर फ़रमाया मुझको लात और उज़्ज़ा का वास्ता ना दे क्योंकि इस से ज़्यादा दुश्मनी की चीज़ मुझको और कोई नहीं है। राहिब ने अर्ज़ किया पस मैं तुमको ख़ुदा का वास्ता देता हूँ कि तुम मेरे सवाल का जवाब दो। हुज़ूर ने इर्शाद किया, दर्याफ़्त कर क्या कहता है। उसने आपकी आदात के मुताल्लिक़ आपसे सवाल करने शुरू किए और आप उस को जवाब देते थे और राहिब उस को उन सिफ़ात से जो उस के पास मकतूब थीं मुताबिक़ करता था। यहां तक कि फिर उस ने ख़ातिम नबुव्वत की ज़ियारत की जो हुज़ूर के दोनों शानों के दर्मियान में मिस्ल एक घुंडी के थी।
इब्ने इस्हाक़ कहते हैं कि जब वो राहिब हुज़ूर के दीदार फ़र्हत आसार (अक़्वाल व अफ़आल) से अपनी तश्फ़ी (तसल्ली) ख़ातिर कर चुका। आपके चचा अबू तालिब की तरफ़ मुतवज्जोह हुआ और कहा ये साहबज़ादे आपके कौन हैं। अबू तालिब ने फ़रमाया मेरे फ़र्ज़न्द हैं। राहिब ने कहा इन फ़र्ज़न्द के वालिद ज़िंदा नहीं हो सकते। अबू तालिब ने कहा दरअस्ल ये मेरे भाई के फ़र्ज़न्द हैं। राहिब ने कहा उन के वालिद क्या हुए। अबू तालिब ने जवाब दिया जब ये फ़र्ज़न्द हमल ही में थे। जो इन के वालिद विसाल कर गए। राहिब ने कहा तुम सच्च कहते हो। पस अब तुमको लाज़िम है कि इन साहबज़ादे को लेकर घर वापिस जाओ और यहूदीयों से इनकी हिफ़ाज़त रखो ताकि वो कोई बुराई इनके साथ ना कर सकें क्योंकि अगर वो भी इसी तरह उनको पहचान लेंगे जैसे कि मैंने पहचान लिया तो इनकी अदावत (दुश्मनी) पर मुस्तइद (तैयार) हो जाएंगे। इसलिए कि तुम्हारे इन भतीजे का ज़हूर होने वाला है। पस तुम जल्द इनको घर वापिस ले जाओ। पस अबू तालिब हुज़ूर को बहुत जल्द मक्का पहुंचा गए।
लोग कहते हैं कि ज़रीर और तमामा और दरेसा ये भी अहले-किताब में से थे। उन्होंने भी इसी सफ़र में अबू तालिब के साथ हुज़ूर को इस तरह पहचान लिया था और आप के साथ बदी के इरादे पर मुस्तइद (आमादा) हो गए थे। मगर बहीरा ने उनको वाअज़ व नसीहत के साथ समझाया और उन की किताब में जो हुज़ूर की शान व सिफ़त लिखी थी वो दिखाई और कहा कि अगर तुम बदी करोगे तो तुम्हारी बदी कुछ कारगर ना होगी। यहां तक कि उन तीनों ने बहीरा की तस्दीक़ की और इस इरादे से वो बाज़ आए। (सीरत इब्ने हिशाम सफ़ा 54, 55)
11. इब्ने इस्हाक़ कहते हैं कि हज़रत ख़दीजा ने वो वाक़ियात जो अपने ग़ुलाम मयस्सरा से सुने थे अपने चचाज़ाद भाई वर्क़ा बिन नवाफिल से बयान किए। उन्होंने नस्रानियत (ईसाई मज़्हब) इख़्तियार करली थी और आस्मानी किताबों का बख़ूबी इल्म हासिल किया था। ख़दीजा को जवाब दिया कि अगर ये बातें हक़ हैं तो ऐ ख़दीजा तो मुहम्मद सरवर इस उम्मत के नबी हैं। और मैं जानता हूँ कि ज़रूर इस उम्मत में नबी होने वाला है और यही ज़माना उस के ज़हूर का है मगर देखिए किस वक़्त ज़हूर (ज़ाहिर) होता है। मैं इस नबी का अशद इंतिज़ार रखता हूँ और इस शौक़ की हालत में वर्क़ा ने एक क़सीदा कहा है जिसके चंद शेअर ये हैं :-
12. इब्ने कसीर ने कहा है सबसे पहले ईमान लाने वालों में अहले-बैत हज़रत मुहम्मद थे। यानी उम्मुल मोमनीन ख़दीजा अल-कुबरा और हुज़ूर के ग़ुलाम ज़ैद बमए अपनी बीवी उम्म एमन और अली करम-अल्लाह वजहा और वर्क़ा के इब्ने असाकिर ने बरिवायत ईसा बन यज़ीद लिखा है कि हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ कहते हैं कि मैं एक रोज़ काअबा शरीफ़ के पास बैठा था और मेरे पास ज़ैद बिन उमर खड़े थे कि उमय्याय बिन अबी अल-सलत वहां से गुज़रा और मिज़ाजपुर्सी की। मैंने शुक्र किया। उस ने कहा तुझे कुछ ख़बर है मैं ने कहा कि नहीं वो कहने लगा (शेअर) :-
کل دین یوم القیامتہ الامقضے اللہ فی الحقیقتہ بور
(तर्जुमा) रोज़ क़ियामत ख़ुदावंद तआला ने तमाम दीनों में से एक दीन को सर्फ़राज़ी देगा। फिर कहने लगा कि नबी मौऊद जिसके हम मुंतज़िर हैं तुम में से होगा या हम में से। चूँकि मैंने नबी मौऊद का हाल पहले ना सुना था। जिसकी बिअसत (रिसालत) का इंतिज़ार है। मैं उठा हुआ वर्क़ा बिन नवाफिल के पास चला गया (ये शख़्स अक्सर आस्मान को तकता रहता था उस के सीने से एक तरह की आवाज़ निकलती रहती थी) इसलिए उस से अपनी और उमय्या की गुफ़्तगु बयान की। उस ने कहा ऐ मेरे भतीजे मैं कुतुब समाविया (आस्मानी किताबें) के हुक्म की रु से जानता हूँ कि नबी मौऊद ख़ानदान-ए-वुस्ता अरब में से होंगे। और चूँकि तुम्हारा ख़ानदान वस्त अरब में है। इसलिए वो तुम ही में पैदा होंगे। मैंने पूछा कि चचा नबी क्या कहेंगे। उस ने कहा कि पस यही कि ना एक दूसरे पर ज़ुल्म करो ना किसी ग़ैर पर ज़ुल्म करो और ना मज़्लूम बनो। मैं सुनकर चला आया और जैसे ही कि रसूल-अल्लाह की बिअसत हुई मैं ईमान लाया और तस्दीक़ उन के फ़र्मान की की। (तारीख़-उल-खुलफ़ा उर्दू तर्जुमा सफ़ा 20)
बयान माफ़ौक़ पर एक नज़र
बयान माफ़ौक़ पर एक नज़र रिवायत हिकायात मुन्दरिजा सदर इस बात की शाहिद (गवाह) हैं कि मोअर्रखीने इस्लाम ने आँहज़रत से क़ब्ल की हनफियत को और उस के मानने वाले हनफा (हनीफ़ की जमा) को निहायत इज्जत व एहतराम की निगाह से देखा है। आँहज़रत से पेश्तर हनफियत ज़्यादातर क़ुरैश के क़बीलों का मज़्हब ज़ाहिर की गई है। मगर इस्लाम की क़ुरैश में हस्ती नहीं दिखाई गई है। आँहज़रत की वफ़ात के बाद के ज़माने कि मौअर्रखीन का आँहज़रत की पैदाइश के ज़माने से पेश्तर के ज़माने के दीन हनीफ़ और उसे मानने वाले हनफा का बयान निहायत इज्जत व एहतराम से करना और इस ज़माने में इस्लाम व मुस्लिमीन को सिर्फ इशारे के तौर पर अरबी मसीहियों में ही दिखाना और हनफा का इस्लाम व मुसलमानी से किसी तरह का रिश्ता ही ना दिखाना एक अजीब सा मुआमला होता है जिसे नाज़रीन किराम ही समझ सकते हैं।
मस्बूकु-ज़िक्र रिवायत व हिकायात गो तारीख इस्लाम का हिस्सा हैं मगर रिवायत इस बात की ख़ुद शाहिद हैं कि अस्ल वाक़ियात और रावियों और उन की रिवायत में ज़बान व मकान के एतबार से सैंकड़ों साल का बाद ज़माना है और जिन लोगों से रिवायत व हिकायत का ताल्लुक़ है इन में से एक शख़्स को छोड़कर बाक़ी तमाम यहूद व मसीही हैं। जो अपने मज़्हब व एतक़ाद (अक़ीदा) में अपने मसीह मौऊद की पहली और दूसरी आमद के मुंतज़िर थे। रिवायत व हिकायात माफ़ौक़ को पढ़ कर ये ख़याल हो सकता है कि मौअर्रखीन इस्लाम ने जिस आने वाले नबी का बयान आँहज़रत मक्की व मदनी पर चस्पाँ करके दिखाने की कोशिश फ़रमाई है वो दरअस्ल यहूद व नसारा (दीन मसीह के पैरौ) के मसीह मौऊद की आमद का बयान ही था जो आँहज़रत की तशरीफ़ आवरी से पेश्तर और तशरीफ़ आवर के ज़माने में यहूद व नसारा में ख़ुसूसुन और हनफा (मज़्हबी अक़ीदे का पक्का, हज़रत इब्राहिम के दीन का मानने वाला) में उमूमन मशहूर था। जैसा कि पेश्तर बयान हो चुका है।
मौअर्रखीन ने इस बात को बयान करने की बड़ी कोशिश फ़रमाई है कि दीन हनीफ़ हज़रत (इब्राहिम के दीन का मानने वाला) ही अल्लाह का दीन है और हनफा ही सच्चे दीन को मानने वाले थे और कि हज़रत मुहम्मद दीन हनीफ़ के ही नबी रसूल थे। मगर इन बातों के सबूत में किसी नामवर हनफ़ी को पेश नहीं किया जाता, जो सिर्फ दीन हनीफ़ का ही मानने वाला हो बल्कि उन मुअज़्ज़िज़ व मारुफ़ बुज़ुर्गों के नाम से हिकायात व रिवायत क़ुबूल की जाती हैं जो मसीही और यहूदी थे और हनफा में भी मसीही मशहूर थे।
हनफियत व हनफ़ा की बाबत जो कुछ पेश्तर बयान हो चुका है वो उनकी अस्ल हक़ीक़त को समझने के लिए काफ़ी है। यहां पर इस क़द्र अर्ज़ करना, बे-जा ना होगा कि चूँकि हज़रत मुहम्मद का आबाई दीन हनीफ़ ही था इस वजह से इब्ने हिशाम ने रिवायत ज़ेर-ए-नज़र को भी इसी ख़याल से नक़्ल किया कि आँहज़रत के नाम से दीन हनीफ़ की क़द्र व मंज़िलत बढ़ाए। वर्ना कौन नहीं जानता कि आँहज़रत ने तो आबाई दीन को तर्क करके और क़ुबूल इस्लाम फ़र्मा कर अरब में वो काम किया था जो आज तक आपकी अज़मत का शाहिद है। इस वजह से आँहज़रत को दीन हनीफ़ का हामी (मददगार) कहना या दीन हनीफ़ का नबी रसूल कहना और यहूदियत व मसीहियत का दुश्मन कहना ऐसी बातें हैं जो इस्लाम की मुस्तनद रिवायत से साबित होना मुश्किल है।
इस बात का इन्कार नहीं किया जा सकता कि हज़रत मुहम्मद अरब की अज़ीमुश्शान शख़्सियत थे। आपने अपनी ज़िंदगी में वो काम करके दिखाया था जिसकी मिसाल मिलना दुशवार (मुश्किल) है। आज़ाद और सरकश अरब को अपनी ज़िंदगी के असर और काम से अपनी हयात में ऐसा मोअस्सर कर देना कि वो एक हुक्म के ताबे हो जाएं और उन्हें दुनिया के फ़ातिह होने के क़ाबिल बना देना ऐसा अज़ीमुश्शान काम था जिसे आप ही कर सकते थे। अरब की ऐसी अज़ीमुश्शान हस्ती की अज़मत के इज़्हार में अगर लोगों ने ऐसी ऐसी रिवायत वज़ा करली हों जैसी रिवायत ऊपर नक़्ल हो चुकी हैं तो कोई ताज्जुब (हैरानगी) की बात नहीं है।
अभी कल की बात है कि मुल़्क-ए-हिंद में महात्मा गांधी अदम तशद्दुद व अदम तआवुन के उसूल को लेकर गर्वनमैंट और अहले वतन के रूबरू निकले और आप ने ऐलान पर ऐलान किया कि मैं एक साल के अंदर अंदर मुल्क हिंद को स्वराज्य दिला दूंगा। हिंदू साहिबान ने आप को सय्यदना मसीह का अवतार क़रार दिया। मुस्लिम रहनुमाओं ने भी उन की हाँ मैं हाँ मिलाई। मसीहियों और पादरीयों ने महात्मा जी को मसीह सिफ़त गांधी और हिंद का सबसे बड़ा मसीही तस्लीम कर लिया। आपकी तारीफ़ व सना में बरसों गुज़ार दीए हालाँकि स्वराज्य आज तक हिंद के साहिलों से हज़ारों मील दूर है। अगर महात्मा गांधी को स्वराज्य की उम्मीद पर अहले हिंद मसीह बना सकते हैं तो अरब के फ़र्ज़न्दे आज़म को अहले-अरब क्या कुछ नहीं बना सकते थे। जिन्हों ने अरब जैसे अजहल और पुर निफ़ाक़ व फ़साद मुल्क (बिगाड़ व दुश्मन मुल्क) को अपनी 23 साला ज़िंदगी में स्वराज्य दिला दिया था? पस गो रिवायत माफ़ौक़ इस्लाम की मुस्तनद रिवायत (क़ाबिल-ए-एतबार रिवायत) के ख़िलाफ़ हैं तो भी इन रिवायत में अरब के अवाम के ख़यालात हज़रत मुहम्मद की बाबत देखे जा सकते हैं और इन पर ज़्यादा जिरह क़ुज़ह (रंगों की मिलावट) की ज़रूरत नहीं है।
आठवीं फ़स्ल
तारीख़ इस्लाम की रोशनी में क़दीम अरबों का मज़्हब
अरब क़दीम की हमसाया अक़्वाम की तारीख़ में अरबों की बाबत जो रोशनी पाई गई है इख़्तिसार (ख़ुलासा) के साथ पेश्तर की फसलों में इस का इज़्हार कर दिया गया है। उसे देखने वाले अरब के बाशिंदों की बाबत अपने ख़यालात की इस्लाह (नज़र-ए-सानी, तर्मीम) कर सकते हैं। हम इस तमाम बयान को इंसाफ़ पसंद नाज़रीन के लिए पीछे छोड़कर तारीख़ इस्लाम में से अरबों की तहज़ीब व शाइस्तगी (अख़्लाक़, मुरव्वत) और मज़्हब व अक़ाइद की मिसालें पेश करते हैं।
जानना चाहिए कि इस्लाम के मोअर्रिखों ने अरब के हालात पर ज़ैग़म (शेर बब्बर) कुतुब तहरीर फ़रमाई हैं। तबरी, इब्ने कसीर, अबूलफ़िदा वग़ैरह कुतुब अरबिया हालात अरब से पुर हैं। लेकिन इन कुतुब से बराह-ए-रास्त इक़तिबासात पेश नहीं कर सकते। क्योंकि ये तारीख़ी किताबें नायाब और क़ीमती होने से अवाम की आगाही से दूर हैं। हम इन कुतुब से इक़तिबासात पेश करने पर किफ़ायत (कमी, हस्ब-ए-ज़रूरत) करेंगे जो हिंद के चोटी के मुस्लिम बुज़ुर्गों ने कुतुब मज़्कूर बाला की सनद से ख़ुद उर्दू में तहरीर फ़रमाई हैं और हर एक मुस्लिम कुतुबफ़रोश के पास मिल सकती हैं। हिंद के मुस्लिम बुज़ुर्गों की तहरीरात के इक़तिबासात ज़ेल तारीख़ इस्लाम में क़दीम अरबों के मज़्हब व अक़ाइद व रसूम पर काफ़ी रोशनी डालेंगे। जिनसे ये बात बख़ूबी मालूम हो जाएगी कि क़दीम अरब पड़ोस के ममालिक में अज़ीमुश्शान तहज़ीब व शाइस्तगी क़ायम करने वाले थे मगर उन्हों ने अपने घर में कोई ऐसा बड़ा काम ना किया था जो उन्हें दुनिया में शौहरत देने का बाइस बना देता।
दफ़ाअ 1 : क़दीम अरब और सर सय्यद मर्हूम
फ़ख़्र क़ौम सर सय्यद मर्हूम के ख़ुत्बात निहायत मशहूर किताब है। जिसमें आँजनाब ने अरब के हालात पर काफ़ी रोशनी डाली है। इस किताब से ज़ेल की इबारतें नक़्ल की जाती हैं। जिनमें अरबों का माक़ूल (मुनासिब) बयान किया गया है। मसलन सर सय्यद लिखते हैं :-
“यही ग़ैर महसूस ख़यालात की तरक़्क़ी अरब में भी वाक़ेअ हुई और इस मुल्क के बाशिंदों ने अपने माबूदों को हर जिस्मानी आसाईश और रुहानी ख़ुशी के अता करने का उस शख़्स को जिससे वो राज़ी हों इख़्तियार कुल्ली (पूरा इख़्तियार) दे दिया।”
क़दीमी बाशिंदगान अरब की निस्बत यानी क़ौम आद, समूद, जदीस, जिरहम अलादना और अमलीक़ अव्वल वग़ैरह की निस्बत इस क़द्र मुहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करने वाला) है, कि ये लोग बुत-परस्त थे मगर हमारे पास कोई ऐसी मुक़ामी रिवायत अरब की नहीं है जो हम को उनकी परस्तिश अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) के तरीक़ों की तईन (मुक़र्रर करना) और जो क़ुदरतें कि वो अपने माबूदों की तरफ़ मन्सूब (निस्बत किया गया, मुताल्लिक़ किया) गया करते थे उन की तसरीह (तश्रीह) और जिन अग़राज़ (ग़र्ज़ की जमा) और इरादों से कि वो मूरतों को पूजते थे उनके बयान करने में मुत्मइन करे। क़रीब क़रीब तमाम हाल जो हमको अरब के बुतों की निस्बत मालूम होता है सिर्फ़ यक़तान और इस्माईल की औलाद के बुतों की निस्बत मालूम है जो अरब अल-आरबा और अरब अल-मस्तअरबह के नाम से मशहूर हैं उन के बुत दो क़िस्म के थे। एक क़िस्म तो वो थी जो मलाइक और अर्वाह और ग़ैर-महसूस ताक़तों से जिन पर कि वो एतिक़ाद रखते थे और जिन को मुअन्नस ख़याल करते थे निस्बत रखते थे और दूसरी क़िस्म के वो थे जो नामी अश्ख़ास की तरफ़ जिन्हों ने अपने उम्दा कामों की वजह से शौहरत हासिल की थी मन्सूब (निस्बत करना) थे।
वो क़ुदरती सादगी और बे-तकल्लुफ़ी जो इब्तिदाई दर्जा तमद्दुन (मिलकर रहने का तरीक़ा) में आदमीयों की निशानीयां हैं उन की परस्तिश के तरीक़ों में क़ाबिले तमीज़ नहीं रही थीं। इलावा इस के उन्हों ने बहुत से ख़यालात ग़ैर-मुल्कों के और नीज़ अपने ही वतन असली के इल्हामी मज़्हबों से अख़ज़ कर लिए थे और उन सबको अपने तुहमात से ख़लत-मलत (मेल-जोल) करके अपने माबूदों को दुनिया और उक़्बा दोनों के इख्तियारात दे दीए थे लेकिन इतना फ़र्क़ था कि वो ये एतिक़ाद रखते थे कि दुनियावी इख्तियारात बिल्कुल उन के माबूदों के हाथ हैं और उक़्बा के इख्तियारात की निस्बत उनका ये एतिक़ाद था कि उन के बुत यानी वो जिनकी परस्तिश के लिए वो बुत बनाए गए हैं उन के गुनाहों की माफ़ी की ख़ुदा तआला से शफ़ाअत (गुनाहों की माफ़ी की सिफ़ारिश) करेंगे। उनकी तर्ज़-ए-मुआशरत और उन की ख़ानगी सोश्यल और मज़्हबी अत्वार और रसूम ने भी इसी तरह से गिर्द नवाह के मुल्कों से जिनके बाशिंदे इल्हामी मज़्हब रखते थे असर हासिल किया था ग़रज़ कि क़ब्ल ज़हूर इस्लाम के, मुल्क में अरब बुत-परस्ती की ये कैफ़ीयत थी।”
लामज़्हबी
ज़माना जाहिलियत में मुल्क अरब में एक फ़िर्क़ा था जो किसी चीज़ को नहीं मानता था। ना तो बुत-परस्ती को और ना किसी इल्हामी मज़्हब को। उन को ख़ुदा के वजूद से इन्कार था और हश्र (क़ियामत) के भी मुन्किर थे और चूँकि वो गुनाह के वजूद के क़ाइल ना थे। इसी लिए उक़बा में भी रूह को जज़ा या सज़ा के क़ाइल ना थे। वो अपने आपको जुम्ला क़ुयूद व क़ानूनी राह रस्मी से मुबर्रा (पाक) तसव्वुर करते थे और अपनी ही आज़ाद मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ कारबन्द होते थे। उनका अक़ीदा ये था कि इन्सान का वजूद इस दुनिया में एक दरख़्त या जानवर की मानिंद है। वो पैदा होता है और पुख़्तगी पर पहुंच कर तनज़्ज़ुल (ज़वाल, कमी) पकड़ता है और मर जाता है। जिस तरह कि कोई अदना जानवर मर जाता है और जानवरों ही की मानिंद बिल्कुल नेस्त व नाबूद हो जाता है। (अल-खुतबात-उल-अहमदिया सफ़ा 135 ता 137)
ख़ाना काअबा में सात तीर रखे हुए थे और हर तीर पर एक अलामत बनी हुई थी। बाज़ों पर काम करने के हुक्म देने की और बाज़ों पर उस काम करने से मना करने की अलामत थी। हर शख़्स पेश्तर इस से कि कोई काम शुरू करे उन तीरों से इस्तिख़ारा (नेकी की तौफ़ीक़ माँगना, तलब ख़ैर) करता था और उसी के बमूजब काम करता था। इन तीरों को “अज़लाम” कहते थे।
तमाम अरब जाहिलियत का शेवा बुत-परस्ती था और जिन बुतों की वो परस्तिश किया करते थे उन की तफ़्सील ये है :-
1. हुबल : एक बहुत बड़ा बुत था जो ख़ाना काअबा के ऊपर रखा हुआ था।
2. विद : क़बीला बनी कल्ब का ये बुत था और वो क़बीला उस की परस्तिश करता था।
3. सुवाअ : क़बीला बनी मज़हज का ये बुत था और वो उस की परस्तिश करते थे।
4. यग़ूस : क़बीला बनी मुराद का ये बुत था और वो उस की इबादत करते थे।
5. यऊक़ : बनी हमदान के क़बीले का ये बुत था और वो इस को माबूद समझते थे और इबादत करते थे।
6. नस्र : बनी हमदान के क़बीले का ये बुत था। और यमन के लोग इस की परस्तिश करते थे।
7. उज़्ज़ा : क़बीला बिन ग़त्फ़ान का ये बुत था और इस की परस्तिश वो क़बीला किया करता था।
8. लात, 9. मनात : ये बुत किसी ख़ास क़बीले से इलाक़ा नहीं रखते थे। बल्कि अरब की तमाम कौमें उन की परस्तिश किया करती थीं।
10. द्वार : ये बुत नौजवान औरतों की परस्तिश करने का था। वो चंद दफ़ाअ उस के गर्द तवाफ़ (चक्कर लगाना) करती थीं और फिर उस को पूजती थीं।
11. असाफ : जो कोह-ए-सफ़ा पर था। और, 12. नाइला : जो कि मर्वाह पर था। इन दोनों बुतों पर हर क़िस्म की क़ुर्बानी होती थी और सफ़र को जाने और सफ़र से वापिस आने के वक़्त उन को बोसा दिया करते थे।
13. अबअब : एक बड़ा पत्थर था जिस पर ऊंटों की क़ुर्बानी करते थे और ज़बीहा के ख़ून का इस पर बहना निहायत नामवरी की बात ख़याल की जाती थी।
काअबे के अंदर हज़रत इब्राहिम की मूर्त बनी हुई थी और उन के हाथ में वही इस्तिख़ारे के तीर थे जो “अज़लाम” कहलाते थे। और एक भेड़ का बच्चा उन के क़रीब खड़ा था और हज़रत इब्राहिम की मूर्त ख़ाना काअबा में रखी हुई थी और हज़रत इब्राहिम और हज़रत इस्माईल की तस्वीरें ख़ाना काअबा की दीवारों पर खींची हुई थीं।
हज़रत मर्यम की भी एक मूर्त थी। इस तरह पर कि हज़रत ईसा उनकी गोद में हैं या उन की तस्वीर इस तरह ख़ाना काअबा की दीवारों पर खींची हुई थी।
अरब की देसी रिवायतों से मालूम होता है कि “विद” और “यग़ूस” और “यऊक़” और “नस्र” मशहूर लोगों के जो अय्याम-ए-जाहलीयत में गुज़रे हैं नाम हैं उनकी तस्वीरें पत्थरों पर मुनक़्क़श करके बतौर यादगार के ख़ाना काअबा के अंदर रख दी थीं। एक मुद्दत-ए-मदीद के बाद उन को रुत्बा माअबूदियत देकर परस्तिश करने लगे। इस में कुछ शक नहीं कि अरब के नीम-वहशी बाशिंदे इन मूरतों पर ख़ुदा होने का एतिक़ाद नहीं रखते थे और उन लोगों को जिनकी ये मूरतें थीं माबूद समझते थे बल्कि उन को मुक़द्दस समझने की मुन्दरिजा ज़ैल वजूहात थीं :-
जैसा कि हमने ऊपर बयान किया। अरब जाहिलियत उन मूरतों को उन शख्सों और उन की अर्वाह की यादगार समझते थे। और उनकी ताज़ीम और तकरीम (इज़्ज़त) इस सबब से नहीं करते थे कि इन मूरतों में कोई शान उलूहियत मौजूद है बल्कि मह्ज़ इस वजह से उन की इज़्ज़त और ताज़ीम करते थे कि वो उन मशहूर और नामवर अश्ख़ास की यादगार है। जिनमें बमूजब उनके एतिक़ाद के जुम्ला सिफ़ात उलूहियत या किसी क़िस्म की शान-ए-उलूहियत मौजूद है। उन के नज़्दीक उन मूरतों की परस्तिश से उन लोगों की अर्वाहें (रूहें) ख़ुश होती थीं। जिनकी वो यादगारें थीं।
उनका ये एतिक़ाद था कि ख़ुदा तआला की जुम्ला क़ुदरतें मसलन बीमारों को शिफ़ा बख़्शना, बेटा, बेटी अता करना, क़हत व वबा और दीगर आफ़ात-ए-अर्ज़ी व समावी का दौर करना उनके मशहूर व मारूफ़ लोगों के इख़्तियार में भी था। जिनकी तरफ़ उन्हों ने सिफ़ात उलूहियत मन्सूब की थीं और वो ख़याल करते थे कि अगर मूरतों की ताज़ीम और परस्तिश की जाएगी तो उन की दुआएं और मिन्नतें क़ुबूल होंगी।
उनका ये भी मुस्तहकम अक़ीदा था कि ये अश्ख़ास ख़ुदा तआला के महबूब थे और अपनी मूरतों की परस्तिश से ख़ुश हो कर परस्तिश करने वालों को ख़ुदा तआला के क़ुर्ब हासिल कराने का ज़रीया होंगे और उन को तमाम रुहानी ख़ुशी अता करेंगे। और उन की मग़्फिरत व शफ़ाअत करेंगे।
उनका क़ायदा बुतों की परस्तिश का ये था कि बुतों को सज्दा करते थे उन के गिर्द तवाफ़ करते थे और निहायत अदब और ताज़ीम से बोसा देते थे ऊंटों की क़ुर्बानी उन पर करते थे। मवेशीयों का पहला बच्चा बुतों पर बतौर नज़राना के चढ़ाया जाता था। अपने खेतों की सालाना पैदावार और मवेशी के इंतिफ़ाअ (हासिल, फ़ायदा) में से एक मुईन (मुक़र्रर किया गया) हिस्सा ख़ुदा के वास्ते और दूसरा हिस्सा बुतों के वास्ते उठा रखते थे। और अगर बुतों का हिस्सा किसी तरह ज़ाए हो जाता तो ख़ुदा के हिस्से में से उस को पूरा कर देते और अगर ख़ुदा का हिस्सा किसी तरह ज़ाए होता तो बुतों के हिस्से में से इस को पूरा नहीं करते थे। अलीख सफ़ा 133 तक (अल-खुतबात अहमदिया सफ़ा 126 से 128 तक)
दफ़ाअ 2 : मौलाना मौलवी नज्म उद्दीन साहब स्यूहारी और अरबों का मज़्हब
मौलवी नज्म उद्दीन साहब ने अपनी किताब रसूम जाहिलियत बलूग़ अल-अरब फ़ी अहवाल अल-अरब की सनद से लिखी है। जिसमें क़ब्ल इस्लाम अरबों के मज़्हब व अक़ाइद व रसूम का बयान किसी क़द्र तफ़्सील के साथ लिखा है।
नाज़रीन किराम को इस किताब का ज़रूर मुतालआ करना चाहिए। हम इस में से सिर्फ बाअज़ बातों का ज़िक्र इख़्तिसारन (मुख़्तसर) करते हैं। आप रक़म फ़र्माते हैं :-
1. सितारा परस्त : जाहिलियत के बाअज़ फ़िर्क़े सितारा परस्त थे। बनी तमीम के बाअज़ अश्ख़ास व बर इन को पूजते थे और लख़म और ख़ुज़ाआ और क़ुरैश के बाअज़ क़बाइल शेअरा को। सफ़ा 3
2. आफ़ताब-परस्त व माह परस्त : जाहिलियत के बाअज़ क़बाइल चांद और सूरज को भी पूजते थे। सफ़ा 3
3. मलाइका परस्त और जिन्नात परस्त : दिहात के बाअज़ ताइफ़ा फ़रिश्तों और जिन्नात को भी पूजते थे। सफ़ा 4
4. मजूस व ज़नादक़ा : अरब के बाअज़ दिहात में मजूस आबाद थे। ये लोग आग को पूजते थे। और माँ बहन बेटी वग़ैरह मुहर्रमात अबदीया से निकाह जायज़ ख़याल करते थे। ये फ़िर्क़ा जहां के दो ख़ालिक़ मानता था एक ख़ैर और नूर का और दूसरा शर (बुराई) और ज़ुल्मत (अँधेरे) का। इब्ने कतीबा ने मआरिफ़ में इस फ़िर्क़े का ज़िक्र किया है। लेकिन इस के अक़ाइद का कुछ ज़िक्र नहीं किया सिर्फ इतना लिखा है कि क़ुरैश में कुछ लोग ज़िंदीक़ थे जिन्हों ने इस मज़्हब को हीरा से लिया था। हीरा चूँकि बिलाद फ़ारस में वाक़ेअ था और इस में जो अरब रहते थे वो या पारसी दीन रखते थे या ईसाई थे। सफ़ा 4, 5
5. दियरा : जाहिलियत में बाअज़ क़बाइल दहरिया थे जो ख़ुदा और जज़ा सज़ा-ए-आमाल के मुन्किर थे। और आलम को क़दीम मानते थे। सफ़ा 6
6. बुत-परस्त : अगरचे बुतों को पूजते थे और उन के लिए हज और क़ुर्बानियां भी करते थे लेकिन इस के साथ ही ख़ालिक़ के वजूद के क़ाइल थे। आलम को हादिस (फ़ानी) मानते थे और मरने के बाद एक क़िस्म के इआदा (बार-बार करना) के सब मुक़िर थे। गो इससे की सूरत और कैफ़ीयत में इख़्तिलाफ़ था। उनकी तौहीद ये भी कि ख़ालिक़, राज़िक़ लोगों के काम संवारने वाला है। नफ़ा नुक़्सान का मालिक और पनाह देने वाला फ़क़त एक ख़ुदा को जानते थे। सफ़ा 11
7. जिन्नात और मलाइका की निस्बत मुश्रिकीन अरब ख़ुसूसुन अहले-मक्का का ये एतिक़ाद था, कि ख़ुदा तआला ने जिन्नात के सरदारोँ की बेटीयों से शादी की है जिनके बतन से फ़रिश्ते पैदा हुए हैं। फ़रिश्ते ख़ुदा की बेटियां हैं। सफ़ा 14
8. हामिलियन अर्श की निस्बत मुश्रिकीन अरब का ये एतिक़ाद था कि चार फ़रिश्ते ख़ुदा का अर्श थामे हुए हैं। जिनमें एक फ़रिश्ता आदमी की सूरत पर है जो अल्लाह के हाँ बनी-आदम का शफ़ी (शफ़ाअत करने वाला) है। दूसरा फ़रिश्ता बैल की सूरत पर है वो बहाम का शफ़ी है। तीसरा फ़रिश्ता कर्गस की सूरत पर जो परिंदों का शफ़ी है। चौथा शेर की सूरत पर है, वो दरिंदों का शफ़ी है। मुश्रिकीन अरब इन चारों फ़रिश्तों को दअवल यानी बुज़ को ही कहते थे। सफ़ा 15
9. जाहिलियत के लोग तक़्दीर के वैसे ही क़ाइल थे जैसे मुसलमान क़ाइल हैं। इफ़्लास (ग़रीबी), तावानगिरी (दौलत-मंदी), सेहत, बीमारी और हर अम्र को ख़ुदा की तरफ़ से समझते थे और यह एतिक़ाद रखते थे कि जो कुछ अज़ल से मुक़र्रर हो चुका है, वही हुआ। वही हो रहा और वही आइन्दा होगा। सफ़ा 15
10. साबिईन : ये वो क़ौम थी जिससे रईस-उल-मुवाह्हिदीन सय्यदना हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने कवाकिब परस्ती (रोशन सितारों की परस्तिश) में मुनाज़रा किया था और सितारे और चांद और सूरज के छिपने से उन को क़ाइल किया था कि ये चीज़ें माबूद बनने की क़ाबिलीयत नहीं रखतीं क्योंकि ये चीज़ें ज़वाल-पज़ीर हैं। एक हालत पर क़ायम नहीं रहतीं और माबूद होना चाहिए जो बेज़वाल हो। ग़र्ज़ जिस क़ौम की हिदायत के लिए हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम मबऊस हुए थे वो क़ौम साबी (एक दीन से फिर कर दूसरे दीन में जाना) कहलाती है। आँहज़रत से पेश्तर साबिईन की दो क़िस्में थीं। हनफा, और मुश्रिकीन। हनफा वही लोग हैं जिनका ज़िक्र पहले मवाह्हिदीन में गुज़र चुका है। चूँकि आँहज़रत भी लोगों को तौहीद की तरफ़ बुलाते थे इसलिए नसारा क़ुरैश आपको साबी कहते थे। सफ़ा दो मुलाहिज़ा हो तारीख़-उल-हरमैन-अश्शरीफ़ैन सफ़ा 88
11. हनफा या मवाह्हिदीन : इस फ़िर्क़े के लोग हज़रत इब्राहिम और उन के साहबज़ादे हज़रत इस्माईल के दीन पर थे। बुत-परस्ती, क़त्ल औलाद, दाद बनात वग़ैरह उमूर मुन्किरा और उन तमाम बिदआत से जो उमर बिन लही ख़ज़ाई ने निकाली थीं सख़्त मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) थे। ये लोग मवह्हिद और हनफा यानी ताबे मिल्लते इब्राहीम कहलाते थे। लेकिन ऐसे तादाद में बहुत थोड़े गुज़रे हैं। इस फ़िर्क़े के सबसे ज़्यादा मशहूर बुज़ुर्ग ये हैं :-
तस बिन साअदा, ज़ैद बिन नफ़ील, उमय्या बिन अबी अल-सलत, अर्बाब बिन रियाब सवेद बिन मुस्तल्क़ी, असअद अबू कर्ब हैरी, वकीअ बिन सलमा बिन ज़हीरा यादी उमैरू बिन हिंदब लजहनी, अदी बिन ज़ैद, अबू क़ैस बिन अबी अनस, सैफ बिन ज़ी यज़न, वर्क़ा बिन नवाफिल, आमिर बिन अल-ज़रब, अब्दुल तान्जा बिन अल-सलअब, अलाफ़ बिन शहाब, मतमलस बिन उमय्या, ज़हीर बिन अबी सलमा, ख़ालिद बिन सिनान, अब्दुल्लाह क़ज़ाई, उबीद बिन अब्रस अल-असदी, कअब बिन लोती, क़ुस्सी, हाशिम अब्द मनाफ़।
इन लोगों की निस्बत अगरचे पूरे तौर पर ये दावा नहीं किया जा सकता कि इन के पास हज़रत इब्राहिम या इस्माईल का दीन कामिल व मुकम्मल महफ़ूज़ था लेकिन इस में ज़रा भी शक नहीं कि ये लोग अल्लाह और यौम आख़िर पर पूरा-पूरा ईमान रखते थे। सफ़ा 2, 3
मुश्रिकीन (साबी) सबअ सय्यारा (सात सय्यारे) और बारह बुर्जों को पूजते थे। सबअ सय्यारा, शम्स, क़मर, ज़ुहरा, मुशतरी, मरीख़, ज़ुहल के लिए उन्हों ने अलैहदा अलैहदा हैकलें बनाई थीं। जिनमें उन की तस्वीरें थीं। इन सितारों के लिए उनके हाँ ख़ास ख़ास इबादतें और दुआएं मुक़र्रर थीं। वग़ैरह सफ़ा 5, 6
12. यूं तो जाहिलियत में बेशुमार बुत थे जिनकी तादाद नामुम्किन है ख़ुद ख़ाना काअबा में जो ख़ुदा का घर है 360 बुत नसब थे।.... इन बुतों के इलावा मक्के के हर घर में एक बुत था। जिसको वो अपने घरों में पूजते थे।
बुतों की पूजा में चंद उमूर किए जाते थे। उनको सज्दा करते थे और ख़ाना काअबा की तरह उनके गिर्द तवाफ़ (चक्कर लगाते) करते थे। उनको हाथ लगाते थे। और निहायत अदब व ताज़ीम के साथ बोसा देते थे। उन के नाम पर क़ुर्बानी करते थे। उनको दूध और मक्खन और हर क़िस्म की नज़रें चढ़ाते थे। सफ़ा 15, 24
13. जाहिलियत के लोग ईदें करते थे। उनके जलसे होते थे। वो ग़ुस्ल व तहारत (पाकीज़गी) के पाबंद थे। वो नमाज़ें भी पढ़ा करते थे वो रोज़े भी रखा करते थे। वो एतिकाफ़ (मस्जिद में मुअय्यना मुद्दत के लिए गोशा नशीन होना) भी करते थे। वो हज भी किया करते थे। औरत मर्द नंगे हो कर रसूम हज अदा किया करते थे सफ़ा 39 सूद लेने देने का रिवाज अरब में ख़तरनाक था। वक़्त मुक़र्ररा पर अगर असल रक़म मए सूद अदा ना की जाती थी तो अगली मोहलत के लिए वो कुल रक़म दो गुनी हो जाती थी। सफ़ा 60 अरब शराबखोरी और जुए के सख़्त आदी (वो शख़्स जिसे किसी अम्र की आदत पड़ गई हो) थे। जुआ बाज़ी उनका सबसे बड़ा मशग़ला था। सफ़ा 61, 76, 91 तक। लड़कीयों को ज़िंदा दफ़न करके मार डालते थे। सफ़ा 105 जिन्नों और बद अर्वाह के सख़्त क़ाइल थे। सफ़ा 126 जंतर मंत्र वग़ैरह उन की तमाम बीमारीयों और दहश्तों के ईलाज थे। मुर्दों की क़ब्रों पर ऊंट और घोड़े क़ुर्बानी किया करते थे। सफ़ा 76 अमीर की क़ब्र पर ज़िंदा ऊंटनी बांध दिया करते वहां वो भूक प्यास से ख़ुद मर जाया करती। सफ़ा 72 उनका एतिक़ाद था कि जब क़ब्र में आदमी की हड्डियां सड़ गल जाती हैं तो मुर्दा के सर से उल्लू की शक्ल का एक परिंदा निकला करता है। सफ़ा 78
14. अरबों में आठ क़िस्म के निकाह मुरव्वज थे जिनकी तफ़्सील हस्ब-ज़ैल है,
1. निकाह-ए-आम : इस निकाह की सूरत आजकल के निकाह से जो मुसलमानों में राइज है मिलती जुलती थी। जाहिलियत के शुरफ़ा में अक्सर इसी निकाह का रिवाज था और ये निकाह और निकाहों से बेहतर ख़याल किया जाता था। इस का तरीक़ ये था कि एक मर्द दूसरे मर्द से उस की बेटी या उस औरत की जो उस की विलायत में होती मंगनी की दरख़्वास्त करता और उस का महर मुक़र्रर करता। जब वो शख़्स मंगनी मंज़ूर कर लेता तो महर की मुईन मिक़दार पर जिसका उस मज्लिस में ज़िक्र हो जाता। उस के साथ अक़्द (निकाह) करता। मंगनी की दरख़्वास्त औरत के बाप या भाई या चचा या चचाज़ाद भाईयों से करते थे। ख़ातिब जब मंगनी की दरख़्वास्त करता तो औरत के बाप या वली से कहता कि ख़ुदा करे कि तुम हर सुबह ख़ुश रहो। फिर कहता कि हम तुम्हारे जोड़ गौत और ज़ात बिरादरी के हैं। अगर तुम हमसे अपनी बेटी ब्याह दो तो हमारी ख़ुशी पूरी हो जाएगी और हम तुम्हारे हो जाएंगे और तुम्हारी तारीफ़ करते हुए हम तुम्हारी फ़र्ज़ंदी में दाख़िल होंगे। और अगर किसी इल्लत (कमी) की वजह से जिसको हम भी जानते हों तुम हमें महरूम लौटाओगे तो हम तुमको माज़ूर समझ कर लौट जाएंगे। अगर औरत की क़ौम से ख़ातिब की क़राबत-ए-क़रीबा (क़रीब की रिश्तेदारी) होती और उस की मंगनी मंज़ूर हो कर उस के साथ अक़्द (निकाह) हो जाता तो रुख़्सत के वक़्त लड़की का बाप या भाई लड़की से कहता, कि ख़ुदा करे जब तू उस के पास जाये तो ऐश व आराम से रहे और लड़के जने ना लड़कीयां। ख़ुदा तुझसे कसीर तादाद और इज़्ज़त वाले अश्ख़ास पैदा करे और तेरी नस्ल हमेशा क़ायम रहे। अपना ख़ल्क़ उम्दा रखना और अपने शौहर की इज़्ज़त और ताज़ीम करना और पानी को ख़ुशबू समझना।
अगर औरत किसी अजनबी और परदेसी से ब्याही जाती तो उस का बाप या भाई उसे कहता कि ख़ुदा करे ना तू ऐश व आराम में रहे और ना लड़के जने। क्योंकि तू अजनबियों से क़रीब होगी और दुश्मनों को जनेगी। अपना ख़ल्क़ उम्दा रखना और अपने शौहर के अज़ीज़ व क़ारिब की नज़र में प्यारी बनी रहना क्योंकि उन की आँखें तेरी तरफ़ उठी हुई होंगी और उन के कान तेरी तरफ़ लगे हुए होंगे और पानी को ख़ुशबू समझना।
क़ुरैश और अरब के अक्सर क़बाइल में यही निकाह राइज था और अक्सर शरीफ़ और ख़ानदानी लोग इसी निकाह को पसंद करते थे।
2. निकाह इस्तबज़ाअ : इस की सूरत ये थी कि जब औरत हैज़ से पाक हो जाती हो तो उस का शौहर उस से कहता कि फ़ुलां शख़्स को अपने पास बुलवाले और उस से हम-बिस्तर हो ताकि उस से हामिला हो जाए। वो औरत उस शख़्स को बुलवाती और उस के साथ हम-बिस्तर होती। इस अर्से में उस का शौहर उस से अलैहदा रहता और जब तक इस औरत को उस शख़्स से हमल ज़ाहिर ना होता जिससे उसने इस्तबज़ाअ चाहा तो शौहर उस को हाथ ना लगाता। जब इस से उस का हमल ज़ाहिर हो जाता उस वक़्त उस का शौहर जब उस का जी चाहता उस के साथ हम-बिस्तर होता। इस्तबज़ाअ उन सरदारोँ और रऊसा के साथ कराते थे जो शुजाअत या सख़ावत वग़ैरह औसाफ़ में मशहूर होते थे और यह इसलिए करते थे कि बच्चा नजीब व शरीफ़ पैदा हो। क्योंकि उम्दा नर के पानी से उम्दा ही औलाद होती है गोया अकाबिर दावर शुरफ़ा से तुख़्म लेने का नाम इस्तबज़ाअ था। आर्यों का न्यूग और ये सूरत एक क़िस्म की है। हैज़ से पाक होने के बाद इसलिए करते ताकि इस औरत को हमल रह जाये। क्योंकि उस वक़्त नुत्फ़ा ठहराना ज़्यादा यक़ीनी है। (2)
3. निकाह की एक और क़िस्म : चंद आदमी मिलकर जो दस से कम ना होते औरत के पास जाते और नौबत ब नौबत उस से हम-बिस्तर होते। ये काम औरत की रजामंदी और आपस के इत्तिफ़ाक़ से करते। जब औरत हामिला हो जाती और मुद्दत मुक़र्ररा के बाद बच्चा जनती और बच्चा पैदा हुए चंद दिन गुज़र जाते तो उन सबको अपने पास बुलवाती वो सब उस के पास जमा हो जाते किसी की ये मजाल ना होती कि उस के पास आने से इन्कार करे जब वो उस के पास जमा हो जाते तो उन से कहती कि तुमने जो मेरे साथ किया है तुम्हें मालूम है। अब मैंने ये बच्चा जना है सिवाए फ़ुलाने ये तेरा बेटा है। औरत जिसको चाहती उस का नाम ले देती और वो उस का बेटा क़रार जाता। वो शख़्स उस के क़ुबूल करने से इन्कार ना कर सकता था ये उस वक़्त होता था जब बच्चा लड़का होगा और अगर लड़की होती तो इसके लिए इस की ज़रूरत ना थी कि किस की बेटी क़रार दिया जाये। क्योंकि लड़कीयों को ज़िंदा दफ़न कर देते थे।
4. निकाह की एक और क़िस्म : बहुत से आदमी जमा हो कर औरत के पास जाते वो किसी को जो उस के पास आता मना ना करती। ये फ़ाहिशा औरतें थीं जो अपने दरवाज़ों पर झंडियां खड़ी करती थीं। ये झंडियां इस बात की निशानी होती थीं कि जो उन के पास आना चाहे चला आए। किसी को मुमानिअत नहीं है। इनमें से जब कोई औरत इनमें से हामिला हो जाती और बच्चा जनती तो सब उस के पास जमा हो जाते और एक क़ियाफ़ाशनास (चेहरा देखकर आदमी का किरदार मालूम करना) को बुलाते। क़ियाफ़ाशनास बच्चे को जिसके मुशाबेह पाता उस का बेटा क़रार देता। औरत बच्चा उस को दे देती और वो उस का बेटा कहलाने लगता। मर्द इस से इन्कार नहीं कर सकता था। जाहिलियत में अपने दरवाज़ों पर झंडियां खड़ी करने वाली औरतों में से हिशाम बिन अबकली ने किताब शाब में दस से ज़्यादा मशहूर औरतों के नाम बयान किए हैं। उन्हीं में से एक औरत उम्म मह्ज़ूल थी जो जाहिलियत में ज़िना कराती थी। इस्लाम के ज़माने में बाअज़ सहाबा ने उस से निकाह करना चाहा। इस पर ये आयत नाज़िल हुई कि الزانیتہ لاینکحہما الازان ادمشرک यानी ज़ानिया औरत से निकाह करना ज़ानीया मुश्रिक का काम है।
(2) बलुगुल-अरब फी अहवाल-उल-अरब
5. निकाह अल-ख़िदन : इस की तरफ़ क़ुरआन मजीद की इस आयत में इशारा किया गया है। فحصنات غیر مافحات دلا متخذات اخدان
ख़िदन के मअनी याराने के हैं यानी मख़्फ़ी (छिपी) तौर पर किसी औरत से याराना करना ज़माना-ए-जाहिलियत के लोग कहा करते थे कि जो निकाह छुपा कर किया जाये इस में मज़ाइक़ा नहीं है लेकिन जो निकाह ज़ाहिर हो वो मनहूस है।
6. निकाह मुतआ : मुतआ की ये सूरत थी कि औरत से एक मुद्दत मुअय्यना के लिए निकाह करते थे जब मुद्दत ख़त्म हो जाती थी तो ज़ोजेन के दर्मियान ख़ुद बख़ुद फुर्क़त (अलैहदगी) वाक़ेअ हो जाती थी।
7. निकाह-उल-बदल : इस की ये सूरत थी कि एक मर्द दूसरे मर्द से कहता था कि तू मेरे लिए अपनी औरत से जुदा हो जा। मैं तेरे लिए अपनी औरत से अलैहदा होता हूँ इस तरह पर्दा आपस में एक दूसरे से अपनी बीवीयां बदल लेते थे। और यह उन के नज़्दीक निकाह था।
78. निकाह शग़ार : इस की ये सूरत थी कि आदमी अपनी बेटी या बहन या भतीजी या किसी और अज़ीज़ को इस पर किसी के साथ ब्याह देता कि वो अपनी बेटी या बहन या भतीजी या किसी और अज़ीज़ को उस के साथ ब्याह दे। इन दोनों निकाहों में महर किसी का मुक़र्रर नहीं किया जाता था बल्कि ये आपस का तबादला यानी एक निकाह दूसरे निकाह का महर होता था। हिन्दुस्तान में इस को अटा साटी कहते हैं। लेकिन यहां दोनों निकाहों में महर भी होता है। जाहिलियत में सिवाए तबादले के महर कुछ नहीं होता था।
अहले जाहिलियत : माँ, बेटी, ख़ाला, फूफी, बहन, भांजी, भतीजी, और उन तमाम औरतों से निकाह नहीं करते थे। जिनसे शरीअत इस्लाम में निकाह करना हराम है। इन रिश्तादार औरतों को ख़्वाह वो नसबी होतीं या रज़ाई (दूध शरीक भाई बहन) निकाह में लाना हराम जानते ख़ुसूसुन क़ुरैश इस बारे में सबसे ज़्यादा हया और ग़ैरत वाले थे और इन अज़हाम क़रीबा की हुर्मत का पूरा-पूरा पास वो लिहाज़ रखते थे। मुसलमानों के हाँ जो औरतें मुहर्रमात में दाख़िल हैं। जाहिलियत में उन में से सिर्फ दो सूरतें मस्तिसना थीं। अव्वल ये कि वो लोग अपने बाप की मन्कूहा से निकाह में मज़ाइक़ा नहीं समझते थे। क्योंकि वो इस को मय्यत का तरका (जायदाद) तसव्वुर करते थे। बाप की बीवी का सबसे ज़्यादा मुस्तहिक़ उस का बड़ा बेटा ख़याल किया जाता था। अगर वो उस के साथ निकाह करना चाहता तो बेताम्मुल (बिला सोचे) कर लेता कोई ऐब ना था। चुनान्चे जाहिलियत में ऐसे बेशुमार निकाह हुए हैं ये लोग इस क़िस्म का निकाह करते थे उन को ज़ीज़न कहा जाता था। बनी क़ैस बन सालबा में से तीन भाईयों ने यके बाद दीगरे अपने बाप की बीवी से निकाह किया था। ओस बिन हिज्र तुमीती उन को उन के इस फ़ेअल पर आर (शर्म) दिलाता है।
نیکو افیکھتہ وامشواحول قبتھا
فکلمہ لابیہ ضیزن سلف
फ़कियह से हम-बिस्तर हो और उस के क़ुब्बा के गर्द चक्कर लगाओ
तुम सब अपने बाप के मेज़न सलफ़
अगर मय्यत का बड़ा बेटा उस की बीवी से निकाह करना ना चाहता तो उस के छोटे भाई कर लेते और अगर वो भी ना चाहते तो मय्यत का और कोई क़रीबी रिश्तेदार कर लेता इस में औरत की रजामंदी की ज़रूरत ना थी। क्योंकि वो मय्यत का तरका (जायदाद) थी। जो कोई उस पर अपना कपड़ा डाल देता वही उस के निकाह का मालिक हो जाता। जाहिलियत में इस निकाह को निकाह मुफ़्त कहते थे और जो औलाद इस से पैदा होती थी उस को मुक़्ती। क़ुरआन मजीद में ख़ुदा तआला ने इस निकाह को हराम फ़रमाया और इस की मज़म्मत में ये आयत नाज़िल फ़रमाई, وَلَا تَنكِحُوا مَا نَكَحَ آبَاؤُكُم مِّنَ النِّسَاءِ إِلَّا مَا قَدْ سَلَفَ إِنَّهُ كَانَ فَاحِشَةً وَمَقْتًا وَسَاءَ سَبِيلًا यानी जिन औरतों से तुम्हारे बापों ने निकाह किया है तुम उन औरतों से निकाह ना करो। पहले जो हो चुका सो हो चुका। ये निकाह करना बे-हयाई और ख़ुदा के ग़ुस्से का बाइस है।
दूसरी सूरत जो शरीअत इस्लाम के ख़िलाफ़ थी ये थी कि वो लोग निकाह में दो सगी बहनों की एक वक़्त में जमा कर लेते थे। इस में भी उन के नज़्दीक कोई ऐब ना था। ख़ुदा तआला ने इस को भी تَجْمَعُوا بَيْنَ الْأُخْتَيْنِ नाज़िल फ़र्मा कर हराम फ़रमाया। यानी तुम पर दो बहनों का एक वक़्त में निकाह जमा करना हराम है।
जाहिलियत में निकाह की कोई हद मुईन (मुक़र्रर) ना थी। मर्द जिस क़द्र यह बीवीयां चाहते थे कर लेते थे। चुनान्चे जब क़ैस बिन हारिस मुसलमान हुए तो उस वक़्त उन के निकाह में आठ औरतें थीं और ग़ैलान बिन सलमा सफ़क़ी के इस्लाम क़ुबूल करने के वक़्त उनके निकाह में दस औरतें थीं इस्लाम ने ज़्यादा से ज़्यादा चार निकाहों की इजाज़त दी और इस से ज़्यादा की मुमानिअत कर दी। (रसूम जाहिलियत सफ़ा 42 से 47 तक)
ख़ुत्बात अहमदिया मुसन्निफ़ा सर सय्यद मर्हूम और रसूम जाहिलियत मुसन्निफ़ा मौलवी नज्म उद्दीन साहब ने जो कुछ साबियों के मज़्हब व अक़ाइद व रसूम की बाबत फ़रमाया आम तौर से बुत-परस्त अरबों के मज़्हब व अक़ाइद का बयान फ़रमाया है वो यहूदियत व ईसाईयत के असर से ग़ैर-मोअस्सर ज़माने के अरबों का या साबियों का बयान है जो अरब यहूदियत व ईसाईयत के असर से मोअस्सर ना हुए थे वो वाक़ई ऐसे ही मज़्हब व अक़ाइद व रसूम के मानने वाले थे जिस मज़्हब व अक़ाइद व रसूम का सर सय्यद और मौलवी नज्म उद्दीन साहब ने बयान फ़रमाया है। मगर अफ़्सोस है कि हम इस बयान को पूरा बयान नहीं मान सकते।
सर सय्यद और मौलवी नज्म उद्दीन साहब ने ख़ुसूसुन साबियों और हनफा के बयान में सफ़ाई व तक्मील का बहुत कम ख़याल रखा है। इन बुज़ुर्गों के बयान से पाया जाता है कि गोया बुत-परस्त अरबों में यहूदीयों और ईसाईयों के सिवा वाहिद ख़ुदा को मानने वाले अरब भी मौजूद थे जिनको हनफा कहा गया है। पर हमें इस क़द्र एतराफ़ है कि हज़रत मुहम्मद के ज़माने से पेश्तर तमाम अरब में वाहिद ख़ुदा के आलिम व आरिफ व आबिद सिर्फ़ यहूदी और ईसाई ही मौजूद थे। या इन दोनों मज़ाहिब के मुतलाशी (तलाश करने वाले) होंगे जो वाहिद ख़ुदा का एतराफ़ व एतक़ाद रखते होंगे फिर उन मुतलाशियों को यहूदीयों और ईसाईयों से अलग शुमार नहीं किया जा सकता। इनके सिवा अरब में कोई फ़रीक़ कसीर या क़लील ऐसा मुतहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करने वाला) नहीं हो सकता जिसे अरब के मवाह्हिदीन का नाम दिया जा सके।
नौवीं फ़स्ल
क़ब्ल अज़ हज़रत मुहम्मद अरब में ग़ैर-अरबी मज़ाहिब की हस्ती व इशाअत
हज़रत मुहम्मद की पैदाइश से पेश्तर अरब में ग़ैर-अरबी मज़ाहिब की ज़बरदस्त इशाअत हुई थी। इनमें एक तो यहूदी मज़्हब था। दूसरा ईसाई मज़्हब था। तीसरा ईरानी मज़्हब था। इन हर सनद मज़ाहिब का बयान ज़ेल में किया जाता है :-
दफ़ाअ 1 : अरब में ईरानी मज़्हब
ये मज़्हब दरअस्ल यहूदियत व ईसाईयत के बाद अरब में आया। चूँकि ईरानी मज़्हब तब्लीग़ी मज़्हब ना था। इस वजह से अरब में इस की बहुत इशाअत ना हुई। ना यहूदियत व ईसाईयत के मुक़ाबिल इस की लोगों ने कुछ क़द्र व मन्ज़िलत की। इब्ने हिशाम में इस का ज़िक्र हस्ब-ज़ैल आया है :-
इस के बाद मुल्क यमन हब्शियों के हाथ से निकल कर ईरानियों के क़ब्ज़े में आया तो कुछ मुद्दत तक दहरज़ हुकूमत करता रहा फिर जब दहरज़ का इंतिक़ाल हो गया। तो नौशेरवां ने दहरज़ के बेटे मर्ज़बान को यमन का हाकिम मुक़र्रर कर दिया और मर्ज़बान के बाद उस के बेटे तेंजान को वहां का अमीर बना दिया। तेंजान के इंतिक़ाल के बाद उस के बेटे को मुक़र्रर कर दिया। फिर उस को माज़ूल (बरतरफ़ करना) करके एक शख़्स मुसम्मा बाज़ान को यमन का अमीर मुक़र्रर कर दिया था। रसूल अल्लाह की बिअसत (रिसालत) के वक़्त यही बाज़ान यमन का बादशाह था। ज़ोहरी का कोल है कि जब रसूल मबऊस हुए और आपकी शौहरत किसरा के कान तक भी पहुंची तो नौशेरवां ने यमन के हाकिम बाज़ान को लिखा कि मुझे मालूम हुआ है कि क़बीला क़ुरैश के एक शख़्स ने मक्का में नबुव्वत का दावा किया है।
तुम उस के पास जाओ और उस से तौबा के ख़्वास्तगार (तलबगार) बनो। अगर वो अपने दावे से बाज़ आ जाए तो फ़बिहा (बहुत ख़ूब) वर्ना उस का सर मेरे पास भेज दो। जब बाज़ान के पास नौशेरवां का ये ख़त पहुंचा तो उस ने वही ख़त रसूल-अल्लाह की ख़िदमत में भेज दिया। रसूल-अल्लाह ने इस के जवाब में लिखा कि अल्लाह तआला ने मुझे ख़बर दी ये ख़त पहुंचा तो उसी ने वो जवाब नौशेरवां के पास ना भेजा और इंतिज़ारी करने लगे कि अगर ये नबी होगा तो इस का क़ौल सही होगा वर्ना फिर देखा जाएगा। मगर अल्लाह तआला ने नौशेरवां को इसी रोज़ क़त्ल करवाया जिसका वाअदा रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम को दिया गया था। इब्ने हिशाम कहता है कि जब बाज़ान को नौशेरवां के क़त्ल की ख़बर पहुंची तो इस्लाम ले आया और बहुत से ईरानी भी उस के साथ इस्लाम लाने में शरीक हुए। फिर उन्हों ने एक क़ासिद अपनी तरफ़ से रसूल अल्लाह की ख़िदमत में भेज कर अपने इस्लाम लाने की इत्तिला दी और दर्याफ़्त किया कि अब हम किस की तरफ़ मन्सूब होंगे। रसूल अल्लाह ने फ़रमाया और अब तुम मुझसे हो और मेरी तरफ़ मन्सूब हो और तुम मेरे अहले-बैत हो। इस वास्ते रसूल अल्लाह ने सलमान फ़ारसी के हक़ में कहा था (سلیمان منا اہل بیت )सलमान हमारे अहले-बैत से है यहां तक तो यमन की कैफ़ीयत बयान हुई। अब ये बयान किया जाता है कि अरब में बुत-परस्ती की बुनियाद क्योंकर पड़ी। इस के वास्ते नज़ार बिन मुइद की औलाद का हाल क़ाबिल-ए-ज़िक्र है। (सीरत इब्ने हिशाम सफ़ा 23)
दफ़ाअ 2 : अरब में यहूदी क़ौम की आमद
मौलाना अबदूस्सलाम साहब नदवी लिखते हैं, अमालिक़ा के बाद मदीना में यहूद आबाद हुए। उन के आबाद होने के मुताल्लिक़ रिवायतें हैं। एक रिवायत तो ये है कि जब हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम फ़िरऔन की सरकूबी (सर कुचलना) से फ़ारिग़ हो चुके तो उन्हों ने शाम में कनआनियों की सरकूबी के लिए एक फ़ौज रवाना की। और उन को बिल्कुल तबाह व बर्बाद कर दिया। इस के बाद अर्ज़ हिजाज़ में अमालीक़ की तरफ़ फ़ौज भेजी और हुक्म दिया कि बजुज़ उन लोगों के जो यहूदी मज़्हब को क़ुबूल करलें वहां किसी बालिग़ शख़्स का वजूद बाक़ी ना रहे। चुनान्चे ये फ़ौज अर्ज़ हिजाज़ में आकर अमालिक़ा से मअरका (वह जंग जहाँ लोग इकठ्ठा हो जाएं) आरा हुई और उन को शिकस्त दी और उन के बादशाह अर्क़म को क़त्ल कर दिया और उस ने इस बादशाह के एक लड़के को भी गिरफ़्तार कर लिया लेकिन चूँकि वो निहायत हसीन और नौखीज़ (ताज़ा उगा) था इसलिए इस ने उस के क़त्ल करना पसंद न किया और इस को हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की राए पर मौक़ूफ़ रखा लेकिन ये लोग जब इस नौजवान को लेकर चले तो उनके पहुंचने से पहले ही हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम का विसाल हो चुका था इसलिए इस्राईल ने उनका ख़ैर-मक़्दम किया। हालात व वाक़िआत पूछे और मुज़्दा फ़त्ह (फ़त्ह की ख़बर) सुनने के बाद इस जवान का हाल दर्याफ़्त किया। इन लोगों ने इस का वाक़ेआ बयान किया तो उन लोगों ने मुत्तफ़िक़ा कहा कि ये एक गुनाह का काम है क्योंकि तुमने अपने पैग़म्बर के हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी की है अब तुम हमारे मुल्क में दाख़िल नहीं हो सकते। ये कहकर उन को शाम में आने से रोक दिया। अब इस फ़ौज ने ये राए-ए-इक़रार दी कि अपने मुल्क के बाद हमारे जदीद मफ़्तूहा मुल्क (फ़त्ह किया हुआ) से बेहतर कोई जाय-ए-क़ियाम (रहने की जगह) नहीं है चुनान्चे वो हदूद शाम से पलट कर हिजाज़ और मदीना में आकर आबाद हो गए। इस के बाद काहिन बिन हारून अलैहिस्सलाम की औलाद भी मदीना के नशीबी हिस्से में आकर आबाद हो गई और इस तरह एक मुद्दत तक मदीना में यहूद का क़ियाम रहा।
इस के बाद रोमीयों ने शाम पर फ़ातिहाना हमला किया और बकस्रत यहूदीयों को तह तेग़ (तल्वार से क़त्ल किया) कर दिया। इस हालत में बनू क़ुरेज़ा और बनू नज़ीर शाम से भाग कर हिजाज़ में आए और अपने इस्राईली भाईयों के साथ आबाद हो गए।
इसी सिलसिले की एक रिवायत ये भी है कि जब शाह-ए-रोम ने शाम में यहूदीयों को शिकस्त दी तो बनू हारून के ख़ानदान में शादी करना चाही लेकिन यहूदी मज़्हब ईसाईयों के साथ निकाह करने की इजाज़त नहीं देता। इसलिए ये लोग बलतायफ़ अल-हील उस को धोके से क़त्ल करके हिजाज़ में भाग आए और यहीं मुस्तक़िल सुकूनत इख़्तियार कर ली।
लेकिन तबरी की एक रिवायत ये है कि जब बख़्तसर ने शाम में यहूदीयों को तबाह व बर्बाद करके बैतुल-मुक़द्दस को मुनहदिम (गिराना) और वीरान कर दिया तो वो वहां से निकल कर हिजाज़ में आकर आबाद हो गए।
अंसार : अंसार अस्ल में यमन के रहने वाले थे और कहतानी ख़ानदान से ताल्लुक़ रखते थे। यमन में जब मशहूर सेलाब आया जो सैल इरम के नाम से मशहूर है तो ये लोग यमन से निकल कर मदीना में आबाद हो गए। ये दो भाई थे ओस और ख़ज़रज तमाम अंसार इन्ही दो के ख़ानदान से हैं। इन लोगों ने मदीना में क़ियाम किया तो इब्तिदा में निहायत तक्लीफ़ और उस्रत (तंगी) के साथ महिकूमाना और ग़ुलामाना ज़िंदगी बसर की। बनू क़ुरैज़ा और बनू नज़ीर ने यहां शाहाना इक़्तिदार हासिल कर लिया था और अंसार उनको खिराज देते थे। चुनान्चे एक शायर कहता है :-
نووی الخرج بعد خراج کسری
وخرج بنی قریظہ والنضیر
इस वक़्त तमाम यहूद ओस और ख़ज़रज में बादशाह के ज़ेर फ़र्मान थे उस का नाम फ़ीतवान या फ़ीतून था और वो इस क़द्र जाबिराना और मस्तब्दाना (ख़ुद-मुख़्तार) हुकूमत करता था कि जब किसी बाकिरा (कुँवारी) लड़की की शादी होती थी तो शौहर के पास जाने से पहले उस को मजबूरन उस के शबिस्तान उवेश (बादशाहों के सोने का कमरा) में एक रात बसर करनी पड़ती थी। इस वक़्त अंसार के सरदार मालिक बिन अजलान थे जो निहायत ग़यूर और बाहमीय्यत (ग़ैरत मंद) थे। चुनान्चे उन की बहन की शादी हुई और रुख़्सती का वक़्त आया तो वो अपनी पिंडुलीयों को खोले हुए भरी मज्लिस में आई। इत्तिफ़ाक़ से मालिक बिन अजलान भी मज्लिस में थे। उन्हों ने उस की ये दीदा दिलेरी देखी तो उस को लानत मलामत की लेकिन उसने कहा कि आज शब को जो वाक़िया पेश आने वाला है वो इस से भी ज़्यादा सख़्त होगा। क्योंकि मुझे अपने शौहर के इलावा एक दूसरे शख़्स के पास रात बसर करनी होगी। ये कहकर वो घर के अंदर चली गई और मालिक भी जोश व गुस्से से बेताब हो कर उस के साथ घर में आए और बाहम ये राय क़रार पाई कि जब फ़ीतून उस के पास आए तो उस का काम तमाम कर दें। चुनान्चे इस क़रारदाद के बमूजब वो औरतों के लिबास में उस के साथ गए। और जब फ़ीतून उन की बहन के पास आया तो उन्हों ने तल्वार से इस का काम तमाम कर दिया और मदीना से भाग कर शाम में ग़स्सानी ख़ानदान के बादशाह अबू जलीला के दामन में पनाह ली और उस को तमाम वाक़िया कह सुनाया। अबू जलीला ने फ़ीतून के जब्रो तशद्दुद की ये पर्वर्द दास्तान सुनी तो क़सम खाई कि जब तक मदीना पहुंच कर यहूद को तबाह व बर्बाद ना करेगा ना किसी औरत से मुक़ारबत करेगा ना शराब पिएगा और ना ख़ुशबू लगाएगा। चुनान्चे एक अज़ीमुश्शान फ़ौज के साथ शाम से रवाना हो कर मदीना के क़रीब मुक़ाम ज़ी हरमैन में पढ़ाव डाला और ऑस और ख़ज़रज को मख़्फ़ी (खु़फ़ीया) तौर पर ये पैग़ाम कहला भेजा कि वो तमाम यहूदी सरदारोँ को धोके से क़त्ल कर देना चाहते हैं। लेकिन अगर उनको ख़बर हो गई तो क़िलागीर हो जाएंगे। इसलिए ये राज़ किसी पर इफ़शा (ज़ाहिर) ना होने पाए। इस के बाद यहूदीयों के सरदारोँ को दावत देकर बुलाया और सिला व अनआम की तवक़्क़ो दिलाई। चुनान्चे ये लोग अपने ख़दम व हशम के साथ शिरकत-ए-दावत के लिए रवाना हुए। और जब सब के सब आ गए तो उन लोगों को ख़ेमे के अंदर ले जाकर क़त्ल कर दिया और यह पहला दिन था, कि ओस ख़ज़रज ने मदीना में इक़्तिदार हासिल किया। साल व जाएदाद के के मालिक हुए निहायत कस्रत से क़िले बनाए और एक मुद्दत तक मुत्तहदा ताक़त के साथ शाहाना ज़िंदगी बसर की। लेकिन इस के बाद ख़ाना जंगियों का एक तवील सिलसिला जिसकी इब्तिदा जंग समीर से हुई क़ायम हो कर तक़रीबन एक सौ बीस बरस तक क़ायम रहा और इन लड़ाईयों में अंसार की मुत्तहदा ताक़त बिल्कुल पाश-पाश हो गई। (तारीख़-उल-हरमैन शरीफ़ैन सफ़ा 174 से 176)
मौलाना अबदूस्सलाम फिर लिखते हैं कि, चुनान्चे सबसे पहले सलातीन हमीर तबअ बिन हस्सान ने जो यहूदी था कोशिश की और इस ख़ज़रज की जंग से फ़ारिग़ हो कर मदीना से वापिस आना चाहा तो ख़ाना काअबा के मुनहदिम (गिराना) करने का क़सद (इरादा) किया लेकिन इस के साथ जो अहबार यहूद थे उन्होंने इस को रोक दिया।... और वापिस चला आया। सफ़ा 110 सीरत इब्ने हिशाम सफ़ा 7, 8 तक तबअ बिन हस्सान का मुफ़स्सिल बयान मुलाहिज़ा हो। आप फिर लिखते हैं कि :-
अरब की तिजारत तमाम तर यहूदीयों के हाथ में थी और उन के महाजनी कारोबार का जाल तमाम मुल्क में फैला था। मुल्क में गल्ला और सामान शाम के बनती और यहूदी लाते थे और यही यहां के बयोपारी थे। यहूदीयों की तिजारती कोठियाँ जो क़ल्ओं का मुक़ाबला करती थीं हर जगह क़ायम थीं।” सफ़ा 10
अपने ख़ुत्बात में सर सय्यद अरब के यहूद का मुन्दरिजा ज़ैल बयान लिखते हैं, यहूदी मज़्हब को शाम के यहूदीयों ने अरब के मुल्क में शाएअ किया था जो इस मुल्क में जाकर आबाद हुए थे। बाअज़ मुसन्निफ़ ना वाजिब जुर्आत करके ये राय देते हैं कि एक क़ौम क़ौम बनी-इस्राईल की अपने जत्थे से अलैहदा हो कर मुल्क अरब में जा बसी थी और वहां अक्सर क़ौमों को अपना मज़्हब तल्क़ीन किया। मगर ये राए सेहत से बिल्कुल मुअर्रा (आज़ाद) है। अस्ल ये है कि यहूदी मज़्हब अरब में उन यहूदीयों के साथ आया था जो 35 सदी दीनवी में या पांचवीं सदी क़ब्ल हज़रत मसीह के बख़्त-नज़र के ज़ुल्म से जो उनके मुल्क और क़ौम की तख़रीब के दरपे हुआ था भाग गए थे और शुमाली अरब में बमुक़ाम ख़ैराबाद हुए थे। थोड़े अर्से बाद जबकि उन की मुज़्तरिब (परेशान) हालत ने किसी क़द्र सुकून और क़रार पकड़ा उन्हों ने अपने मज़्हब को फैलाना शुरू किया और क़बीला कनाना और हारिस इब्ने कअब और कुंदा के बाअज़ लोगों को अपने मज़्हब में लाए जबकि 3650 दीनवी में 354 क़ब्ल मसीह के यमन के बादशाह ज़ूनवास हुमैरी ने मज़्हब यहूद इख़्तियार किया। तब उस ने और लोगों को भी बिलजब्र इस मज़्हब में दाख़िल करके इस को बहुत तरक़्क़ी दी। इस ज़माने के यहूदीयों को अरब में बड़ा इक़्तिदार हासिल था और अक्सर शहर और क़िले उन के क़ब्ज़े में थे।
इस बात के यक़ीन करने का क़वी क़रीना (बहमी ताल्लुक़) ये है कि यहूदी बुत-परस्ती को गो गुस्सा और हिक़ारत की नज़र से देखते होंगे मगर अरब की कोई मुक़ामी रिवायत इस मज़्मून की नहीं पाई जाती कि ख़ाना काअबा की निस्बत इन यहूदीयों की राय अरबों की राय से बरख़िलाफ़ थी। मगर ये अम्र तस्लीम किया गया है कि एक तस्वीर या मूर्त हज़रत इब्राहिम की जिनके पास एक मेंढा क़ुर्बानी के वास्ते मौजूद खड़ा था यहूदीयों के ज़रीये से ख़ाना काअबा में इस बयान के मुताबिक़ जो तौरेत में है खींची गई होगी या रखी गई होगी। क्योंकि यहूदी इस क़िस्म की तस्वीरों या मूरतों के बनाने और रखने को गुनाह नहीं समझते थे।
इस में कुछ शक नहीं कि यहूदीयों के ज़रीये से मुल्क अरब में ख़ुदा तआला की मार्फ़त का इल्म जैसा कि क़बाइल अरब में बिल-उमूम पेश्तर था इस से भी दोचंद हो गया। वो अरब जिन्हों ने यहूदी मज़्हब क़ुबूल कर लिया था और वो लोग भी जो उन से साह वर्सम रखते थे। इस से फ़ाइदेमंद हुए थे। क्योंकि यहूदीयों के पास एक उम्दा कानून शरीअत और सोश्यल और पोलिटिकल का मौजूद था और उस ज़माने के अरब इस क़िस्म की चीज़ से बिल्कुल बे-बहरा थे। इस से एक मग़फ़ूल (बख़्शा गया) तौर पर इस्तिंबात (नतीजा अख़ज़ करना) होता है कि बहुत से ख़ानगी (ज़ाती, ख़ास) और सोशियल आईन और रसूम को जो इस क़ानून में मज़्कूर हैं अरबों ने इख़्तियार कर लिया होगा। ख़ुसूसुन यमन के रहने वालों ने जहां कि उन के बादशाह ज़ूनवास ने यहूदी मज़्हब क़ुबूल कर लिया था।.... और इस ने यहूदी मज़्हब की तरवीज (रिवाज देना, इशाअत करना) में कोशिश की होगी।
हमको इस मुक़ाम पर मज़्हब यहूद के मसाइल और अक़ाइद और उन की रस्मों और तरीक़ों पर बह्स करने की ज़रूरत नहीं मालूम होती क्योंकि ये सब बातें तौरेत में मौजूद हैं और हर शख़्स उन से किसी ना किसी क़द्र वाक़िफ़ है। और वो उमूर जिन का बयान करना हमको बिल-तख्सीस मद्द-ए-नज़र है। इस मुक़ाम पर बयान होंगे जहां कि हम मज़्हब यहूद और इस्लाम के ताल्लुक़ बाहमी पर बह्स करेंगे। (अल-खुतबात अहमदिया सफ़ा 141, 142)
बयान माफ़ौक़ में चार यहूदी बादशाहों का ज़िक्र हो चुका है यानी मलिका सबा का, तेग़ बिन हस्सान का, हारिस का, ज़ूनवास का, इन यहूदी सलातीन अरब के ज़मानों में यहूदी मज़्हब की अरब में काफ़ी इशाअत हुई होगी। अगरचे सर सय्यद ने सिर्फ क़बीला कनाना, हारिस बिन कअब और कुंदा का ही यहूदी होना माना है।
मगर इब्ने हिशाम अरब के यहूदी क़बाइल की फ़ेहरिस्त में अच्छा ख़ासा इज़ाफ़ा करता है। जिनके नाम ज़ेल में दर्ज हैं। मसलन (1) बनी औफ़ (2) बनी नज्जार (3) बनी हर्स (4) बनी साअदा (5) बनी जशम (6) बनी ओस (7) बनी सालबा (8) बनी शतना सफ़ा 178 से 180 तक। क़बीला तै, जिसमें से कअब बिन अशरफ़ मशहूर आदमी था। (9) कीकाअ (10) बनी क़ुरैज़ा (11) बनी ज़रीक (12) बनी नज़ीर (13) बनी हारिसा (14) बनी उमरू, बिन औफ़ सफ़ा 183 से 184 (15) बनी मुस्तलक़ सफ़ा 355 अगर इन के साथ डाक्टर अब्दुल हकीम ख़ां सोल-सर्जन पटियाला की तफ़्सीर-उल-क़ुरआन बिल- क़ुरआन के सफ़ा 599-613 तक पढ़ कर बनी ग़ालिब, अहले थामा, ग़त्फ़ान, अहले नजद के नाम यहूदी क़बाइल में शामिल करलें तो अरब में यहूदीयों की माक़ूल (मुनासिब) आबादी साबित हो सकती है इस के सिवा भी मुल्क में यहूदी आबादी का सुराग़ मिलता है। चुनान्चे इब्ने हिशाम लिखता है कि इब्ने इस्हाक़ कहते हैं कि जब हुज़ूर ने (हज़रत मुहम्मद ने) मआज़ बिन जबल को यमन की तरफ़ रुख़्सत किया तो वसीयत फ़रमाई थी कि लोगों के साथ नर्मी करना सख़्ती ना करना और बशारत (ख़ुशी) देना मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) ना करना और तुम ऐसे अहले-किताब के पास जाओगे जो तुमसे पूछेंगे कि जन्नत की कुंजी क्या है? तुम जवाब देना कि जन्नत की कुंजी ला इलाहा इल्ललाह वहदहु लाशरीक ला की गवाही है। सफ़ा 470
मज़ीदबराँ अरब में यहूद पाँच वक़्त इबादत किया करते थे। उन की पाँच नमाज़ें ग़ैर-यहूद अरब के नज़्दीक निहायत पसंदीदा थीं। इब्ने हिशाम लिखता है कि इब्ने इस्हाक़ कहते हैं कि आसिम बिन उमर इब्ने क़तादा बनी क़ुरैज़ा के एक शेख़ से नक़्ल करते कि उन्हों ने मुझसे कहा तुमको मालूम है कि सालबा बिन सईद और असद बिन सईद और असद बिन उबैद जो बनी क़ुरैज़ा के भाईयों में से जाहिलियत में उन के साथ और फिर इस्लाम में उन के सरदार थे उन के इस्लाम लाने की क्या वजह हुई। आसिम कहते हैं कि मैंने उनके शेख़ से कहा मुझको नहीं मालूम शेख़ ने कहा शाम के यहूदीयों में से एक शख़्स जिसका नाम हेबान था इस्लाम के ज़हूर से चंद साल पेश्तर हमारे पास आया और हमारे अंदर ठहरा। पस क़सम है ख़ुदा की हमने कोई शख़्स उस से बेहतर पांचों नमाज़ें अदा करने वाला ना देखा और वो यहूदी हमारे हाँ ठहरा रहा। चुनान्चे एक दफ़ाअ ईमसाक बाराँ (बारिश ना होना, ख़ुश्कसाली) हुआ। हमने उस से कहा ऐ इब्ने हेबान तुम चल कर हमारे वास्ते दुआ नुज़ूल बारान करो।.... उस ने दुआ की और हनूज़ (उस वक़्त) वो अपनी जगह से उठने ना पाया था कि अब्र नमूदार हुआ और बारिश शुरू हुई। अलीख सफ़ा 66, 67
हम पेश्तर इस्लामी रिवायत से दिखा चुके हैं कि यहूदी अरब में हज़रत मुहम्मद से पेशतर सदीयों से आबाद चले आते थे। यहूदी वाहिद ख़ुदा के परस्तार थे। उन के पास पुराने अहदनामे के तमाम सहाइफ़ थे। इस के सिवा उनके पास रिवायत की सखीम किताबें (साइज़ में बड़ी) थीं। वो इल्म व फ़ज़ल में ग़नी (मुत्मइन, दौलतमंद) थे। उन्हों ने अरब में अपने दीन की इशाअत की। उनके वसीले से अहले-अरब को वाहिद ख़ुदा का इल्म हुआ। अरब के कई एक बादशाह यहूदी मज़्हब के हामी हो गए। उन्हों ने अरब में अपनी रियासत क़ायम की। बहुत से क़बीले यहूदी मज़्हब में दाख़िल हो गए। अरब में यहूदीयों ने बड़ा इक़्तिदार हासिल किया। तमाम अरब की तिजारत उन के हाथ में आ गई।
अगरचे अरब में यहूदी मज़्हब को क़बूलियत हासिल हुई। तो भी ये बात सच्च है कि अरब में यहूदीयों ने अपने मज़्हब की इशाअत में कमाल ग़फ़लत (लापरवाही) की। उन्हों ने इब्तिदा से अपने मज़्हब को तब्लीग़ी मज़्हब बनाने से परहेज़ किया। गो उन के नविश्ते आज तक इस बात के शाहिद (गवाह) हैं कि उनका मज़्हब तब्लीग़ी था वो हज़रत इब्राहिम की नस्ल की बरकात को ज़मीन की अक़्वाम के घरानों तक पहुंचाने के ज़िम्मेदार थे। मगर तो भी यहूदी क़ौम के इमामों और मौलवियों ने अपने मज़्हब की तब्लीग़ को गुनाह समझा। उन्हों ने हज़रत इब्राहिम के मज़्हब की बरकत में ग़ैर-यहूदीयों की शिरकत को कभी पसंद ना किया। वो ग़ैर-यहूदी अक़्वाम को कुत्तों के बराबर ख़याल करते रहे अपने पाक नविश्तों को कभी ग़ैर-यहूदी अक़्वाम को सुनाने पर राज़ी ना हुए। अगर वह अपनी रिवायत ग़ैर-यहूदी मुतलाशियों को उन के गले ही पड़ जाते थे सुना कर उन्हें अपने मज़्हब में शामिल कर लेते थे। पर कभी पुराने अहद के नविश्ते उन को ना देते थे। यही रविश (तौर तरीक़ा) अरब के यहूद की बराबर क़ायम रही। इसी वजह से तमाम अहले-अरब को वो यहूदी मज़्हब में शामिल करने से रह गए। वो अरबों की मज़्हबी प्यास को ना बुझा सके।
तो भी ये बात मानने के क़ाबिल है कि यहूदी क़ौम के वसीले से अरबों की दरीना जहालत व बुत-परस्ती की तारीकी में वाहिद ख़ुदा की सदाक़त का एक मुद्दत तक नूर चमकता रहा। अरबी यहूदी अगरचे अरब में सय्यदना मसीह की मसीहाई के मुन्किर (इन्कार करने वाले) रहे। तो भी वो अपने मसीह मौऊद की आमद के मुंतज़िर रहे उनका ये इंतिज़ार ग़ैर-यहूद अरबों तक को मालूम था। वो हज़रत मुहम्मद के ज़माने के क़रीब अपने मसीह मौऊद की आमद के सख़्त इंतिज़ार में थे। उन्हों ने यहूदी मज़्हब की आलमगीर फ़त्ह और यहूदी क़ौम की आलमगीर ख़ुशहाली की तमाम उम्मीदें अपने मसीह मौऊद की आमद के गले में डाल रखी थीं। ये तमाम उमूर हैं जिनसे कोई तारीख़ इस्लाम का माहिर इन्कार नहीं कर सकता है। सीरत इब्ने हिशाम सफ़ा 66 से 67 तक।
अरबी यहूदी गो ग़ैर-यहूद को सख़्त नफ़रत की निगाह से देखते थे तो भी ग़ैर-यहूद अरब ख़ुसूसुन बुत-परस्त उनकी बड़ी इज़्ज़त किया करते थे। वो उन्हें अहले इल्म यक़ीन करते थे। वो उनकी पाँच वक़्ती नमाज़ों को निहायत पसंद करते थे वो उनसे मेल मिलाप और अहद व मुआहिदा रखते थे वो उनके मज़्हब के मुख़ालिफ़ व मुकाज़ब (झुटलाने वाले) ना थे। क़राइन से ऐसा मालूम होता है कि हज़रत मुहम्मद के ज़माने के क़रीब जो हनफा मुल्क अरब में नमूदार हुए थे। वो दरअस्ल यहूदियत के मुतलाशी या यहूदी मज़्हब से मुतास्सिर लोग थे जिन्हों ने वाहिद ख़ुदा का एतिक़ाद यहूद से लिया था। चूँकि हनफा ने यहूदीयों के जद्दे अमजद (परदादा) हज़रत इब्राहिम की मिल्लत का और वाहिद ख़ुदा का इक़रार व एतराफ़ कर लिया था। इस वजह से ग़ैर-मसीही हनफा को यहूद और यहूदियत से एक हद तक ख़ुश एतिक़ादी मुम्किन थी। चूँकि अरब में यहूदी मज़्हब तब्लीग़ी मज़्हब ना था। इस वजह से ग़ैर-मसीही हनफा यहूदियत में दाख़िल होने से महरूम हो कर अपने ही हाल पर क़ानेअ (जो मिल जाये उस पर राज़ी रहने वाले) हो गए थे वो यहूद की मसीहिय्यत से नफ़रत व हिक़ारत को देख कर ख़ुद भी यहूदीयों की तरह मसीहिय्यत से नफ़रत करते थे। पस यहूद और ग़ैर-यहूद मसीही हनफा एक दूसरे के दोस्त हो कर मसीहिय्यत के मुख़ालिफ़ बन चुके थे जिससे मसीहिय्यत की तरक़्क़ी अरब में रुक गई थी।
तारीख-ए-इस्लाम इस बात की शाहिद है कि अरबी यहूदीयों ने अरबी ईसाईयों पर हज़रत मुहम्मद से पेश्तर सख़्त ज़ुल्मो-सितम किए थे। ज़ूनवास हुमैरी के मज़ालिम की दास्तानें अरब में अवाम की ज़बानों पर थीं मगर हम तारीख़ इस्लाम में कोई मिसाल ऐसी नहीं पा सकते जिससे ये मालूम हो कि अरब के यहूदीयों ने अरब के बुत-परस्तों पर भी ऐसे ज़ुल्म किए थे। पस बयान माफ़ौक़ से ज़ाहिर है कि हज़रत मुहम्मद की पैदाइश के ज़माने के क़रीब ईसाईयत की तरक़्क़ी की राह में यहूदी और वस्त अरब के ग़ैर-मसीही हनफा रोक थे। हनफा के साथ वो तमाम अरब थे जो बुत-परस्ती और शिर्क परस्ती का शिकार बने हुए थे। पस हज़रत मुहम्मद की पब्लिक ख़िदमत शुरू करने से पेश्तर के ज़माने में अरबी यहूदियत की यही फ़ुतूहात थीं। जिनका ज़िक्र हुआ है। मगर ख़ुदा अरब के फ़र्ज़न्द आज़म को दुनिया में भेज कर वो काम करने को था जो.... अरब के यहूदीयों के ख्व़ाब व ख़्याल में ना था बल्कि जिसकी ख़बर दुनिया को ना थी।
दफ़ाअ 3 : अरब में ईसाई मज़्हब की नश्वो नुमा का बयान
अहले-यहूद के बाद मुल्क अरब में ईसाई भी दाख़िल हुए। उन की भी अरब में रियासतें और हुकूमतें क़ायम हुईं। इस के मुताल्लिक़ ज़ेल में मौअर्रखीन इस्लाम का बयान बराए नमूना पेश करते हैं। इनमें से सर सय्यद के बयान को सबसे पेश्तर नक़्ल करते हैं। आप फ़र्माते हैं :-
ये बात मुहक़्क़िक़ है कि ईस्वी मज़्हब ने तीसरी सदी ईस्वी में मुल्क अरब में दख़ल पाया था जबकि उन ख़राबियों और बिद्अतों की वजह से जो आहिस्ता-आहिस्ता मशरिक़ी कलीसिया में शाएअ हो गई थीं, क़दीम ईसाईयों की तबाही हुई थी। और वो लोग तर्क-ए-वतन पर मज्बूर हुए थे ताकि और किसी जगह जाकर पनाह लें। अक्सर मशरिक़ी और नीज़ युरोपीन मुअर्रिख़ जिन्हों ने इस मज़्मून को मशरिक़ी मुसन्निफ़ों से अख़ज़ किया है इस बात में पुर मुत्तफ़िक़-उल-राए हैं कि वो ज़माना ज़ूनवास की सल्तनत का ज़माना था। मगर हम इस राय से किसी तरह इत्तिफ़ाक़ नहीं कर सकते क्योंकि हमारे हिसाब के मुवाफ़िक़ जिसका बयान हमने ख़ुत्बा अव्वल में किया है ज़ूनवास का ज़माना क़रीबन छः सौ बर्स पेश्तर इस वाक़ये के गुज़र चुका था और इसी वजह से हम उन मुसन्निफ़ों की इस राय को भी तस्लीम नहीं करते जिनका बयान है कि ज़ूनवास ने ईसाईयों की तख़रीब की थी।
अव़्वल मुक़ाम जहां तक ये भागे हुए ईसाई आबाद हुए थे नजरान था और उस से पाया जाता है कि वहां के मुतअद्दिद ये लोगों ने ईस्वी मज़्हब क़ुबूल कर लिया था। ये ईसाई फ़िर्क़ा जैकोबाइट यानी यअक़ूबी फ़िर्क़ा था और इस लक़ब से मशरिक़ी फ़िर्क़ा “मानोफ़ैज़ येट्ज़” का मौसूम किया जाता था अगरचे सही तौर पर ये लक़ब शाम और इराक़ और बाबिल के फ़िर्क़ा “मानोफ़रेटीज़” पर इतलाक़ हो सकता है। जैकोबाइट का लक़ब एक शाम के राहिब के सबब से जिसका नाम जैकोबस प्राडेस था। इस फ़िर्क़े का नाम पड़ गया था और जिस ने कि यूनान के बादशाह जस्टीनीन के अहद में अपने मुल्क से निकले हुए मानूफ़ज़ीटीज़ का एक अलैहदा फ़िर्क़ा क़ायम कर लिया था उनका अक़ीदा ये था कि हज़रत ईसा सिर्फ एक सिफ़त रखते हैं यानी एक इन्सानी सिफ़त ने उन में तक़्दीस का दर्जा हासिल कर लिया है।
ईसाई मुसन्निफ़ों ने बयान किया है कि ईस्वी मज़्हब ने अहले-अरब में बहुत तरक़्क़ी हासिल की थी। मगर हम इस बाब में उन से इत्तिफ़ाक़ नहीं करते क्योंकि हम देखते हैं कि बइस्तशनाइ सूबा नजरान के जिसके अक्सर बाशिंदों ने ईस्वी मज़्हब इख़्तियार कर लिया था क़बाइल हमीर, ग़स्सान, रबइयह, तग़ल्लुब, बहरद, तोतह, तै, क़ूदिया और हीरह में मअदूद अश्ख़ास ने उन की तक़्लीद (पैरवी) की थी। और कोई जमाअत कसीर या क़ौम की ईस्वी मज़्हब में नहीं आई थी जिस तरह कि यहूदी मज़्हब में आ गई थी। अग़्लब (मुम्किन) है कि इन मुतग़र्क अराब मतंसरा की वसातत (ज़रीया) से हज़रत मर्यम की तस्वीर ख़्वाह मूर्त हज़रत ईसा को गोद में लिए हुए ख़ाना काअबा की अंदरूनी दीवारों पर खींची गई हो या उस के अंदर रखी गई हो।
ख़ाना काअबा में मुतअद्दिद क़ौमों के माबूदों की या बुज़ुर्गों की तस्वीरें या मूरतें रखी हुई थीं और जिस फ़िर्क़े से वो तस्वीर या मूर्त इलाक़ा रखती थी वही फ़िर्क़ा उस की परस्तिश करता था। जबकि अरब के लोगों ने यहूदी और ईसाई मज़ाहिब इख़्तियार कर लिया था तो उसी मज़्हब के लोगों ने हज़रत इब्राहिम और हज़रत मर्यम की तस्वीर या मूर्त ख़ाना काअबे में रखी या खींची होगी। क्योंकि जिस तरह अरब के और फ़िर्क़ों को अपने माबूदों या बुज़ुर्गों की मूरतें रखने या खींचने का काअबा में हक़ था इसी तरह उन अरबों को भी हक़ था जो यहूदी या ईसाई हो गए थे और किसी को इस की मुमानिअत का हक़ ना था। (अल-खुतबात अहमदिया सफ़ा 142, 143)
सर सय्यद ने ईसाई क़ौम की अरब में बहुत तरक़्क़ी तस्लीम नहीं की। आप ने ज़ूनवास यहूदी की सल्तनत का ज़माना जमीअ मुवर्रिखीन-ए-इस्लाम के ख़िलाफ़ सय्यदना मसीह से पेश्तर के ज़माने में डाल दिया। बावजूद इस के आपको मानना पड़ा कि सूबा नजरान के बाशिंदे क़बाइल हमीर, ग़स्सान, रबीया, तग़ल्लुब, बहरद, तूनख़, तै, तोदिया और हीरह के लोग ईसाई हो गए थे। हिजाज़ का बादशाह अब्दुल मसीह था।
इस के सिवा यमन में ईसाई बादशाहों की हुकूमत हो चुकी थी। जिसका बयान ज़ेल में इब्ने हिशाम ने किया है।
इब्ने इस्हाक़ कहता है कि उन मक़्तूलों में से जिनको ज़ूनवास ने क़त्ल करवाया था एक शख़्स सबा का रहने वाला दोस ज़ोसअलबान नामी अपने घोड़े पर सवार हो कर भाग गया था और रेत का रास्ता इख़्तियार कर लिया। ज़ूनवास के आदमीयों ने उस का तआक़ुब किया था। मगर वो उनके हाथ ना आया। वो भाग कर क़ैसर बादशाह की ख़िदमत में आया और ज़ूनवास के बरख़िलाफ़ उस से मदद का तालिब हुआ क़ैसर रोम ने कहा तुम्हारा इलाक़ा परले मुल्क से बहुत दूर है। मैं तुम्हारे वास्ते हब्शा के बादशाह को लिखता हूँ। वो तुम्हारे ही मज़्हब (ईसाईयत) पर है और तुम्हारे मुल्क के क़रीब है। पस क़ैसर रोम ने बादशाह हब्शी की तरफ़ एक रुक़आ (ख़त) लिखा और इस में दोस ज़ोसअलबान की रिआयत व इमदाद की ताकीद की। दोस क़ैसर रुम से ख़त लेकर नज्जाशी के पास आया। नज्जाशी ने सत्तर हज़ार हब्शी उस के साथ कर दिए। और अरयाता नामी एक शख़्स को उनका सिपाहसालार मुक़र्रर किया और उस के साथ उस के लश्कर में एक शख़्स था जिसका नाम अब्रहा अल-अशरम था। ग़रज़ कि अरियाता लश्कर हब्श को साथ लेकर दरिया के रास्ते से यमन के साहिल पर आ पहुंचा और दोस ज़ोसअलबान भी उस के साथ था। इस तरफ़ से ज़ूनवास भी क़बीला हमीर की फ़ौज और क़बाइल यमन को साथ लेकर अरियाता के मुक़ाबले पर आ मौजूद हुआ। हर दो तरफ़ हंगामे का बाज़ार गर्म हुआ तक़्दीर ने अरियाता की यादरी की और ज़ूनवास भाग निकला और अपना घोड़ा दरिया में डाल दिया और दरिया की गहराई में पहुंच कर लुक्मा-ए-अजल (मौत) हो गया। अरियाता ने यमन में दाख़िल हो कर इस पर क़ब्ज़ा कर लिया और इस का ख़ुद-मुख़्तार बादशाह बन गया और चंद साल तक बेखटके यमन में अपनी सल्तनत का डंका बजाया। इस के बाद अब्रह अल-शरम और अरयात के माबैन मुनाज़अत (झगड़ा) व मुख़ालफ़त हो गई। इस वजह से कुछ हब्शी अब्रहा की तरफ़ हो गए। और कुछ अरयाता के तरफ़दार बन गए। फिर मुक़ाबले के लिए मैदान-ए-जंग में आए। अब्रहा ने अरियाता को कहला भेजा कि मैं इस तरह से फ़ौजों का मुक़ाबला करवाकर उन्हें हलाक करवाना नहीं चाहता और पहले में और तू मैदान-ए-मुक़ाबले में आएं। जो शख़्स हम में से अपने मद्द-ए-मुक़ाबिल को ज़क (शिकस्त) दे सके फ़रीक़ मग़्लूब (हारा हुआ गिरोह) की फ़ौजें फ़रीक़ ग़ालिब के पास चली जाएं। अरयात ने भी इस शर्त को मंज़ूर कर लिया। पस अब्रहा ने (ये शख़्स पस्त क़द बदसूरत फ़र्बा बदन था) अरियाता पर (ये शख़्स ख़ूबसूरत व व दराज क़द मुतवस्सित-उल-बदन था हमला करना चाहा और अपने पीछे अपने एक ग़ुलाम मुसम्मा अतूदा को खड़ा कर लिया ताकि वो पीछे से अरियाता के हमले को रोके। मगर अरयाता ने अब्रहा पर हर्बा (दाओ) का वार किया और चाहता था कि उस का सर उड़ा दे लेकिन हर्बा सिर्फ उस के अबरदरनाक आँख और लब पर पड़ा और क़त्ल होने बच गया। मगर अतोदा ने जो अब्रहा के पीछे खड़ा था अरियाता को क़त्ल कर दिया और बमूजब मुआहिदा के अरियाता का लश्कर अब्रहा के ज़ेर कमान आ गया और तमाम हब्शी जो यमन में रहते थे अब्रहा के मातहत हो गए जब अरियाता के क़त्ल होने की ख़बर नज्जाशी हाकिम हब्शा को पहुंची तो वो बहुत ख़फ़ा हुआ और अब्रहा की इस हरकत पर बड़ा नाराज़ हुआ कि उस ने अरियाता को क़त्ल कराया। फिर नज्जाशी ने क़सम खाई कि मैं अब्रहा के शहरों को पामाल करूंगा और उस के सर के बाल खींचूंगा। जब अब्रहा को ये बात मालूम हुई तो उसने अपना सर मुंडवाया और यमन की मिट्टी से एक थैली पुर करके नज्जाशी के पास भेज दी और लिखा कि ऐ आक़ा नामदार कि अरियाता भी आपका ग़ुलाम था और बंदा भी आपका बंदा है। हमारा बाहमी इख़्तिलाफ़ हो गया था। बंदा उस की निस्बत इंतिज़ाम व ज़ब्त (क़ाबू) रियाया में ज़्यादा क़ाबिलीयत रखता था वो मेरे मुक़ाबला की ताब ना लाया और तक़्दीर इलाही से मक़्तूल (क़त्ल) हो गया। मैंने आपकी क़सम का इरादा सुनकर अपना सर मुंडवा लिया है और अपनी ज़मीन मुल्क-ए-यमन की मिट्टी आपके पास इस ग़र्ज़ से भेजी है कि आप उस को अपने पांव से पामाल करें और इस मुल्क को अपना मुल्क समझें और मुझे एक वफ़ादार ताबेदार ग़ुलाम तसव्वुर करें। नज्जाशी ये बात पढ़ कर ख़ुश हो गया और उस को लिख दिया कि जब तक मेरा कोई हुक्म तुम्हारे पास ना पहुंचे उस वक़्त तक यमन में पड़े हो।
फिर अब्रहा ने सनआ में एक क़िला बनवाया और इस में एक ऐसा आलीशान कीसा (गिरजा) बनवाया कि उस के ज़माने में रुए-ज़मीन पर कोई गिरजा इस का सानी नहीं था। फिर नज्जाशी को लिखा कि ऐ आक़ा नामदार मैंने आपकी ख़ातिर एक ऐसा गिरजा बनवाया है कि आपसे पहले किसी बादशाह ने नहीं बनवाया था और मेरा इरादा है कि लोगों को हज मक्का से बाज़ रखकर इस की तरफ़ मुतवज्जोह किया जाये। जब अब्रहा का ये ख़त नज्जाशी के पास पहुंचा और अहले-अरब जो नज्जाशी की रईयत थे उन को ये हाल मालूम हुआ तो एक शख़्स जो क़बीला फ़कीम बिन अदी बिन आमिर बिन सालबा बिन हर्स बिन मालिक बिन कनानता बिन ख़ुज़ैमा बिन मुद्रिका बिन इल्यास बिन मुज़िर की औलाद में से था बड़ा हनिफा हुआ (और यह वो ख़ानदान है जो जाहिलियत के ज़माने में हराम महीनों को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ उनमें से एक साल एक महीना को हराम समझते और एक महीना हराम को हलाल... समझ कर इस में लड़ाईयां लड़ते और एक साल उस को हराम बनाकर दूसरे को हलाल बना लेते जिसकी निस्बत क़ुरआन में आयत ज़ेल के अंदर इशारा है, انما النیتی زيادتہ فی الکفر یفل بہ الذین کفر والحلونہ عاماً ویحرمونہ عاماً لیوا طو عدہ ماحرم اللہ۔ الخ अलीख और जिस शख़्स ने सबसे पहले अरब में ये तरीक़ा ईजाद किया था उस का नाम हुज़ैफ़ा बिन अबद फ़कीम बिन अदी बिन आमिर बिन सालबा बिन हर्स बिन मालिक बन कनानता बिन हज़ीमा है। इस के बाद हुज़ैफ़ा का बेटा उबादा इस का क़ायम हुआ। इस के बाद उबादा का बेटा क़िलअ और क़िलअ के बाद उस का बेटा अमीता और अमीता के बाद बाद इसका बेटा औफ़ और औफ़ के बाद इस का बेटा अबू तमामा जनादत्ता इस काम पर क़ायम रहा। यहां तक कि इस्लाम का ज़माना आ गया और ज़माना इस्लाम में जो लोग महीनों हराम में ताख़ीर रवा रखते थे उनका सरदार यही अबू तमामा बिन औफ़ ही था और ग़ैरत की ताब ना ला कर इस गिरजे में जो अब्रहा ने तामीर कराया उस के अंदर पाख़ाना कर दिया और अपने वतन को भाग आया और अब्रहा को ख़बर हुई। दर्याफ़्त किया कि ये किस ने किया है। मालूम हुआ है कि ये किसी ऐसे शख़्स का काम है जो अहले-अरब में से बैतुल्लाह के साथ एतिक़ाद रखता हो। इस से अब्रहा के तन में आग लग गई और कहा बख़ुदा अब मैं बैतुल्लाह को मिस्मार व मुन्ह्दम (गिराना) किए बग़ैर ना रहूँगा। ये ठान कर अहले हब्श को जो इस का लश्कर था हुक्म दिया कि बैतुल्लाह की तरफ़ चलने की तैयारी करो। फ़ौज रवाना हुई और उन के साथ एक मस्त हाथी भी था जो मअरका (वह जंग जहाँ लोग इकठ्ठा हो जाएं) में काम आया करता था। अहले-अरब के कानों में भी ये आवाज़ पड़ी वो उस के सुनने से घबरा गए। कि अगरचे हम उस के सामने ताब-ए-मुक़ावमत ना ला सकें। ताहम उस को हत्तलमक़्दूर (जहान तक हो सके रोकना) और मुदाफ़अत (दिफ़ा करना) करना हमारा फ़र्ज़ है। चुनान्चे एक शख़्स ज़ोतफ़र नामी जो अशराफ़ यमन की औलाद से था अब्रहा के मुक़ाबले के वास्ते आ खड़ा हुआ और अहले अरब में से उन को भी जो उस की इमदाद के लिए तैयार हुए अपने साथ मिला लिया मगर शिकस्त खाई और असीर (क़ैदी) हो कर अब्रहा के सामने लाया गया। अब्रहा ने ज़ोतफ़र के क़त्ल का फ़त्वा दिया ज़ोतफ़र ने कहा ऐ बादशाह मुझे क़त्ल ना करो। मुम्किन है कि मेरी ज़िंदगी आपके हक़ में बनिस्बत मौत के ज़्यादा मुफ़ीद हो। ये बात अब्रहा को पसंद आई। क़त्ल से आज़ाद करके अपने पास मजूस (आतिशपरस्त) रखा फिर वहां से आगे बढ़ा। जब अर्ज़ ख़शअम में पहुंचा तो एक शख़्स नफ़ील बिन हबीब ख़िश्शाम के दो क़बीलों शहरान व नाहस को साथ लेकर उस के मुक़ाबले को आया। मगर इस ने भी शिकस्त-ए-फ़ाश खाई और असीर (क़ैदी) हो कर अब्रहा के सामने लाया गया। जब अब्रहा ने इस के क़त्ल का हुक्म सादिर किया तो कहा ऐ बादशाह मुझे क़त्ल ना करो मैं आपको अरब की ज़मीन तक पहुंचाने के वास्ते रहबर का काम दूंगा और यह दोनों मेरे क़बीले शहरान और नाहस आपकी इताअत व फर्माबरदारी के लिए साथ होंगे। अब्रहा ने माफ़ कर दिया और उस को साथ लेकर ताइफ तक आ पहुंचा। यहां मसऊद बिन मातब बिन मालिक बन कअब बिन उमरू बिन साद बिन औफ़ बिन सक़ीफ़ ने अपने लोगों के साथ उस का मुक़ाबला करने का इरादा किया। मगर लोगों ने कहा हम उस का मुक़ाबला नहीं कर सकते। हमें उस की इताअत करनी चाहिए। वो सब अब्रहा के पास गए। और कहा ऐ बादशाह हम आपके ग़ुलाम हैं और आप के बरख़िलाफ़ नहीं। जिस घर को आप बर्बाद करना चाहते हैं वो ये घर नहीं है जो ताइफ में है वो तो मक्का में है (अहले ताइफ का भी एक घर था जिसमें अल-लमात रखा हुआ था) और हम आपके साथ एक शख़्स को कर देते हैं जो आप को उस का निशान मक्का में बतला देगा। ये शर्त क़रार पा गई और उन्हों ने उबूरख़ाल को इस काम के वास्ते अब्रहा के साथ कर दिया। जब मुक़ाम मुनइमस पर पहुंचे तो उबूर ख़ाल मर गया और अरबियों ने इस की क़ब्र पर पत्थर बरसाए। अब्रहा ने मग़मस में डेरे डाल दीए और एक हब्शी आदमी को जिसका नाम इब्ने मुफ़ावद था घोड़े पर सवार कर के मक्का में भेज दिया। वो मक्का में जाकर क़ुरैश वग़ैरह क़बाईल अरब के बहुत से अम्वाल व असबाब को ताराज कर लाया। इसी लूट में अब्दुल मुत्तलिब बिन हाशिम (जद्दे रसूल अल्लाह) के दो सौ ऊंट भी थे जो इन अय्याम में क़बीला क़ुरैश के सरदार थे। इस बात पर क़ुरैश व कनानता व हज़ील वग़ैरह क़बाइल अरब ने अब्रहा के साथ मुक़ाबला करने का इरादा किया। फिर ये ख़याल करके हम उस के मुक़ाबले की ताब ना ला सकेंगे इस इरादे से बाज़ रहे।
अब्रहा ने हिनाता हुमैरी को मक्का में भेजा और कहा कि तुम मक्का में जाकर उस के शरीफ़ व सरदार से कहो कि बादशाह कहता है कि मैं तुम्हारे साथ लड़ाई करने को नहीं आया। उस का इरादा सिर्फ ख़ाना काअबा को गिराना है। अगर तुम इस काम में उस की मुज़ाहमत ना करो तो वो ख़ूँरेज़ी नहीं करेगा। अगर वो इस बात को मान जाये तो उस को मेरे पास ले आना। पस जब हिनाता मक्का में दाख़िल हुआ तो किसी से दर्याफ़्त किया कि इस वक़्त यहां का शरीफ़ व सरदार कौन है उस ने बतलाया कि अब्दुल मुत्तलिब बिन हाशिम, उस के पास जाकर अब्रहा का सारा माजरा कह सुनाया। अब्दुल मुत्तलिब ने कहा कि हम लड़ाई का इरादा नहीं रखते और ना हमें उस के मुक़ाबला की ताक़त है। ये ख़ुदा का घर है और उस के ख़लील इब्राहिम का बनाया हुआ है। अगर ख़ुदा को अपने घर की हिफ़ाज़त मंज़ूर हुई तो उस को रोक देगा वर्ना छोड़ देगा। हमारा इस मुआमले में कुछ दख़ल नहीं है। हिनाता ने कहा कि तुम मेरे साथ बादशाह के पास चलो। अब्दुल मुत्तलिब उस के साथ हो लिया और उस के साथ उस के चंद लड़के भी थे। जब अब्दुल मुत्तलिब लश्कर में आया तो लश्कर में से दर्याफ़्त किया कि ज़ोनफ़र कहाँ (ये ज़ोनफ़र जो अब्रहा के पास मजूस था अब्दुल मुत्तलिब का दोस्त था) मुलाक़ात होने पर अब्दुल मुत्तलिब ने ज़ोनफ़र से कहा ऐ दोस्त इस मुसीबत से जो मुझ पर नाज़िल हुई है रिहाई पाने की क्या तदबीर हो सकती है क्या तुम कुछ सिफ़ारिश कर सकते हो। उस ने कहा मैं क़ैदी हूँ जिसको शाम व सहर क़त्ल किए जाने का खटका लगा रहता है क्या सिफ़ारिश कर सकता हूँ। हाँ हाथी का साईंस जिसका नाम अनस है मेरा दोस्त है उस के पास मैं आपको भेज देता हूँ वो आपको बादशाह के पास लेजा कर बड़े ज़ोर की सिफ़ारिश कर देगा। पस वो अब्दुल मुत्तलिब को अनस के पास ले गया और कहा कि ये क़ुरैश का सरदार है और मक्का के चशमे (ज़मज़म) का मालिक है। ग़रीबों को खाना खिलाता है। पहाड़ों के जानवरों की हिफ़ाज़त करता है बादशाह अब्रहा ने उस के दो सौ ऊंट तावान में ले लिए हैं। उस को बादशाह के पास ले जा और जहां तक हो सके उस की सिफ़ारिश करो। अनस ने कहा बहुत अच्छा। पस अनस ने जाकर बादशाह से कहा ऐ बादशाह अब्दुल मुत्तलिब शरीफ़ मक्का व सरदार क़ुरैश आपके दरवाज़े पर खड़ा है और आप से कुछ इल्तिजा करना चाहता है। अब्रहा ने अब्दुल मुत्तलिब को दाख़िल होने की इजाज़त दी। जब अब्रहा ने इस को देखा तो उस के दिल पर उस का रोब तारी हुआ और उस की ताज़ीम व तकरीम के वास्ते दिल से मज्बूर हुआ (क्योंकि अब्दुल मुत्तलिब निहायत ख़ूबसूरत वोजेह आदमी था) और इस वास्ते नीचे बिठलाना ना चाहा। पस आप अपने तख़्त से नीचे उतर कर अब्दुल मुत्तलिब के साथ फ़र्श पर बैठ गया। फिर अपने तर्जुमान से कहा कि अब्दुल मुत्तलिब से उस की दरख़्वास्त दर्याफ़्त करे। तर्जुमान ने अब्दुल मुत्तलिब से दर्याफ़्त करके बतलाया कि ये अपने दो सौ ऊंट वापिस किए जाने की इल्तिमास करता है। अब्रहा ने तर्जुमान से कहा कि अब्दुल मुत्तलिब को कहे कि बादशाह कहता है कि मैं तुम्हारी इस दरख़्वास्त से बड़ा हैरान हूँ तू अपने ऊंटों को दीए जाने की ख़्वाहिश करता है और अपने मज़्हबी घर के बारे में (जो तेरा और तेरे आबाओ अज्दाद का दीन है) कुछ कलाम नहीं करता और उस के ना गिराए जाने की सिफ़ारिश नहीं करता। अब्दुल मुत्तलिब ने कहा मुझे इस घर से कुछ वास्ता नहीं जो इस का रब है ख़ुद उस की हिफ़ाज़त करेगा। मैं तो ऊंटों का मालिक हूँ इस वास्ते उन्हीं के वापिस किए जाने की इल्तिजा करता हूँ। अब्रहा ने ये माक़ूल जवाब सुनकर उस के ऊंट वापिस दे दिए। अब्दुल मुत्तलिब ने मक्का में वापिस आकर लोगों को इस वाकिए की ख़बर दी और मश्वरा दिया कि हम में अब्रहा के मुक़ाबले की ताक़त नहीं बेहतर है कि हम यहां से निकल जाएं और पहाड़ों और घाटियों के ग़ारों में जाकर छिप जाएं फिर अब्दुल मुत्तलिब ने जाने के वक़्त चंद क़ुरैश को साथ लेकर ख़ाना काअबा के दरवाज़ा का हलक़ा पकड़ा और अब्रहा और उस के लश्कर के हक़ में बददुआ की। फिर क़ुरैश के साथ पहाड़ों में जाकर महफ़ूज़ हो गया और इंतिज़ार करने लगा कि अब्रहा मक्का के साथ क्या करता है। उधर से अब्रहा ने सुबह के वक़्त मक्का पर चढ़ाई कर दी और उस के गिराने के वास्ते उस हाथी को जो साथ लाए हुए थे जिसे तैयार किया उस का नाम महमूद था। जब हाथी मक्का के गिराने के लिए तैयार किया गया तो नफ़ील ने (जिसका ज़िक्र ऊपर हो चुका है) हाथी का कान पकड़ लिया और कहा ऐ महमूद बैठ जा या जहां से आया है उसी तरफ़ सीधा लौट जा। क्योंकि तू बलद हराम में है। ये कहकर उस का कान छोड़ दिया और हाथी बैठ गया और नफ़ील बिन हबीब मज़्कूर भाग कर पहाड़ पर चढ़ गया। हाथी के वारिसों ने जब ये मुआमला देखा तो उन्हों ने हाथी को मारा ताकि खड़ा हो जाए मगर उसने ना माना। फिर उन्हों ने उस के उठाने के वास्ते उस के सर पर कुल्हाड़ी मारी मगर वो ना उठा। फिर उन्हों ने उस का मुँह यमन की तरफ़ कर दिया और वो उठकर दौड़ने लगा। फिर शाम की तरफ़ मुतवज्जोह किया इधर भी चलने लगा। फिर मशरिक़ की तरफ़ उस का मुँह फेरा इधर भी ऐसा ही काम आया। फिर मक्का की तरफ़ मुतवज्जोह किया तो बैठ गया। फिर अल्लाह तआला ने समुंद्र की तरफ़ से अबाबील जैसे जानवर भेजे जिनके पास तीन तीन संगरीज़े (छोटे) थे। एक एक तो उन की चोंचों में और दो-दो उनके पंजों में जिनकी मिक़दार चने या मुसव्विर की सी थी। जिसको वो संगरीज़े लगता था हलाक हो जाता था। अब ख़ौफ़ के मारे भागने लगे और जिस रास्ते आए थे उस की तरफ़ दौड़ने लगे और नफ़ील को जो उन्हें रास्ते लाया था तलाश करने लगते ताकि उन को यमन का रास्ता बता दे मगर अब नफ़ील कहाँ। नफ़ील तो पहाड़ों पर उन की दुर्गत होते हुए देखकर कह रहा था।
این المفروالا الہ الطالب
ولا شرم المغلوب لیس الغالب
तर्जुमा : ऐ बदकिर्दारो अब कहाँ भागते हो। ख़ुदा की तलाश व कहर से कहाँ जा सकते हो। अब्रहा मग़्लूब हो गया और अपने ख़याल के मुवाफ़िक़ ग़ालिब ना रहा। (सीरत इब्ने हिशाम सफ़ा 15 से 19 तक)
इब्ने हिशाम के बयान से पाया जाता है कि ज़ूनवास यहूदी बादशाह की हुकूमत यमन में थी। जिसने नजरान के ईसाईयों को आग में जलाया था और इस बादशाह को हब्श के ईसाई बादशाह ने यमन में शिकस्त देकर वहां अपनी हुकूमत क़ायम की। और अब्रहा अल-अशरम वहां का ईसाई बादशाह हुआ जिसने काअबा को मुनहदिम करने के लिए मक्का पर फ़ौजकशी की और अबाबील के लश्कर से शिकस्त खाई पस सर सय्यद का बयान नादुरुस्त है। क्योंकि इब्ने हिशाम का बयान है कि :-
ग़रज़ कि वाक़िया फ़ील के बाद जब अब्रहा हलाक हो गया तो उसी का बेटा यकूम बिन अब्रहा हब्श का मालिक हुआ और जब वो भी मर गया तो उसी के बाद उस का भाई मस्रूक़ हब्श में यमन का मालिक हुआ। फिर जब अहले यमन पर निहायत तकालीफ़ व मसाइब आने लगीं और अपने ज़ालिम हुक्काम के हाथ से बहुत तंग आ गए तो एक शख़्स जिसका नाम बनज़ीयज़न हुमैरी था और जिसकी कुनिय्यत अबूतर थी अपनी क़ौम की तरफ़ से बादशाह रोम के पास शिकायत लेकर आया और कहा कि हम लोग हब्शा के हाथ से जो इस वक़्त हमारे मुल्क यमन पर हुक्मरान हैं निहायत तंग हैं। हम चाहते हैं कि आप उन को हमारे मुल्क से निकाल दें और रोम में से किसी को हमारा बादशाह मुक़र्रर फ़रमाएं। मगर बादशाह रोम ने इस की शिकायत रफ़ा ना फ़रमाई। सफ़ा 21 अरियाता, अब्रहा, यकूम, मस्रूक़ ने यमन पर 72 साल हुकूमत की थी। सफ़ा 23
रहमतुल-लिल-आलमीन के मुसन्निफ़ जिल्द अव्वल में ख़ुलासा तारीख़-उल-अरब सफ़ा 39 के हवाले से लिखता है कि ईसाईयत को 330 ई॰ में बनू ग़स्सान ने क़ुबूल किया और फिर इराक़ अरब बहरीन, और सहरा-ए-फ़ारान व दूमत-उल-जनदल और फुरात दजला के दवाबा में यही मज़्हब फैल गया और इस दीन की इशाअत में नज्जाशी और क़ैसर रोम ने बाहम मिलकर कोशिश की थी। 395 ई॰ व 513 ई॰ में इस की इशाअत पर बड़ा ज़ोर दिया गया था और यमन में अनाजील बकस्रत फैल गई थी।” जिल्द अव्वल सफ़ा 8 फिर यही मुसन्निफ़ लिखता है कि :-
इस के (अरब के) जुनूब पर सल्तनत हब्श और मशरिक़ी हिस्से पर सल्तनत फ़ारस का और शुमाल अक़्ताअ पर रोमा की मशरिक़ी शाख़ सल्तनत क़ुस्तुनतुनिया का क़ब्ज़ा था अंदरूनी मुल्क बज़अम ख़ुद आज़ाद था लेकिन हर एक सल्तनत इस पर क़ब्ज़ा करने के लिए साई थी। जिल्द अव़्वल सफ़ा 6, 7
फिर यही मुसन्निफ़ जिल्द अव़्वल सफ़ा 143 के हाशिये पर लिखता है कि फ़लाडलफिया का क़दीम कलीसिया जिसका ज़िक्र मुकाशफ़ा 3:7 ता 13 में है तबूक के ही मुत्तसिल (मिला हुआ, नज़दीक) था अरब उसे अल-फ़ज़र कहते थे। हिजाज़ रेलवे की सड़क में इस के खन्डर भी पाए गए ज़माना नब्वी में इस जगह ईसाई कौमें आबाद थीं। इसलिए अय्याम क़ियाम तबूक में इन अक़्वाम में तब्लीग़ इस्लाम भी की गई और उन से मुआहिदात भी किए गए। ईसाईयत पर क़ायम रहने वाली अक़्वाम को मज़्हब की आज़ादी दी गई और उन के जान व माल का ज़िम्मा मुसलमानों ने अपने ऊपर ले लिया इस तरफ़ चंद छोटी-छोटी रियासतें भी ईसाईयों की थीं। मसलन केदर दोमता अल-जनदल में हुक्मरान था और यूहन्ना अबला का फ़रमांरवा था। उनकी हुकूमतों को क़ायम रखा गया। अहले अज़रज भी ईसाई थे। और आज़ाद क़बाइल थे। अलीख
1. क़ब्ल अज़ इस्लाम अरब में ईसाई मज़्हब की इशाअत व तरक्क़ी का बयान जो मौअर्रखीन इस्लाम ने किया है वो हर तरह से ताज्जुबख़ेज़ और हैरत अंगेज़ है। ख़ुसूसुन जब इस बात को देखा जाता है अरब में यहूद की आबादी और उस की तरक़्क़ी व असर अरब में मसीहिय्यत ने मसीहिय्यत की मुख़ालिफ़त व मकाज़बत (क़ाबू) में कोई कसर बाक़ी भी ना छोड़ी थी तो ऐसे अस्बाब व हालात की मौजूदगी में मसीहिय्यत का अरब में वो ग़लबा और असर हासिल करता जिस का ज़िक्र इस्लामी मोअर्रिखों के बयान में गुज़रा है कोई हल्का मुआमला नहीं है। जिसे आसानी से नज़र-अंदाज किया जा सके।
ईसाईयत की अरबी ईसाई लारेय्ब (बिलाशक) उन्हीं अक़ाइद के मानने वाले थे जो इस ज़माने की ईसाई दुनिया माना करती थी। इस बात का सबूत ख़ुद क़ुरआन अरबी और मुस्लिम रिवायत में मौजूद है। जिसका ज़िक्र बाद को आने वाला है। इसके साथ ही वो सय्यदना मसीह की दूसरी आमद के यहूदी क़ौम की तरह सख़्त मुंतज़िर थे मुम्किन नहीं कि उनका अक़ीदा सिर्फ़ ईसाईयों में ही महदूद रहा हो। और इस की ख़बर अरब के ग़ैर ईसाई अरबों तक ना पहुंची हो।
इस्लाम के मोअर्रिखों के बयान के.... क़रीना (बहमी ताल्लुक़) से पाया जाता है कि अरब में ईसाईयत की इशाअत हरगिज़ जब्र व इकराह से नहीं हुई बल्कि पादरीयों और राहिबों की पुर अमन इशाअत के तरीक़ से हुई। इस इशाअत में लारेब (बिलाशक) रोम और हब्श के मसीही सलातीन ने बड़ा हिस्सा लिया था। उन्हों ने ज़रूर मसीही मुबश्शिरीन व मुनज़रीन की रुपया पैसा से आदाद की होगी। जैसा कि मुस्लिम मौअर्रखीन ने ज़िक्र किया है। इस में कोई शुब्हा नहीं हो सकता है कि मसीहियों की इन तमाम कोशिशों में कलाम-उल्लाह की वो बशारात जो अरब की हिदायत व रोशनी के मुताल्लिक़ वारिद हुई थीं। लफ़्ज़न व माअनन तक्मील को पहुंची थीं। बुत-परस्त अरबों ने मसीहिय्यत के वसीले से ख़ुदा का और इन्सान का मज़्हब और उस की सदाक़त का गुनाह और नजात का इल्म व इरफ़ान ज़रूर हासिल किया था।
2. अरब में मसीही मज़्हब की इशाअत की दो बड़ी सूरतों का ज़िक्र मुस्लिम मोअर्रिखों ने किया है। जिनमें से एक सूरत अरब पर मसीही हुक्मरानों की फ़ुतूहात से ताल्लुक़ रखती है मसलन अरब के शुमाल और मशरिक़ और मग़रिब में रोम की ईसाई सल्तनत ने क़ब्ज़ा कर लिया था और जुनूब में मुल्क यमन की यहूदी हुकूमत को हब्श के ईसाई बादशाह ने फ़त्ह करके वहां से यहूदी इक़्तिदार उठा दिया था। इब्ने हिशाम का बयान है कि मुल़्क-ए-यमन पर हब्श की तरफ़ से चार ईसाई बादशाह हुकूमत करते रहे। जिनकी हुकूमत का ज़माना 72 साल का था। इन ईसाई हुक्मरानों को ईरानियों ने वहां से निकाला था।
अरब के शुमाल मशरिक़ में रोमी ईसाई ग़ालिब थे। शुमाल और शुमाल मग़रिब में तबूक तक रोमी हुक्मरानों की हुकूमत थी। वस्त-ए-अरब में हिजाज़ की हुकूमत के हुक्मरान अगर सब ईसाई ना थे तो कम अज़ कम एक हुक्मरान अब्दुल मसीह नामी तो ज़रूर ईसाई था। पस अरब में ईसाई हुक्मरानों की हुकूमत के असर का लाज़िमी नतीजा था कि ग़ैर-यहूद व अरब ईसाईयत से मुतास्सिर हों। ईसाई हुकूमत ने अरबों को मज़्हबी आज़ादी दी। इस वजह से बहरीन, हीरह, ग़स्सान, दोमता अल-जनदल इला, सहराए फ़ारान के हुक्मरान ईसाई हो गए। उनके साथ उनकी रइयत (रियाया) में से बहुत से लोग भी ईसाई हुए होंगे। यमन नजरान हिजाज़ में भी हज़रत मुहम्मद की पैदाइश के ज़माने के क़रीब बहुत से ईसाईयों का पाया जाना क़रीन-ए-क़ियास (जिसको अक़्ल तस्लीम करे) है। ईसाईयत का असर इन्हीं अय्याम में हिजाज़ में इस क़द्र ग़ालिब हो गया था कि बुत-परस्त अरबों ने अपने काअबे की दीवार पर अपने माबूदों के दर्मियान सय्यदना मसीह और आप की वालिदा माजिदा की तसावीर ज़रूर बनवा ली थीं। जिनकी इज़्ज़त वो अग़लबन अपने माबूदों के साथ किया करते थे।
3. अरब में ईसाई हुकूमतों के सिवा मसीहिय्यत की इशाअत के दीगर वसाइल भी थे। जिनमें से एक वसीला मसीही मुबश्शिरीन (मंज़रीन, पादरी) साहिबान का था जो अरबों के मेलों में वाअज़ व नसीहत किया करते थे। तारीख़ इस्लाम में इस बात की भी चंद मिसालें मिलती हैं जिनका यहां पर ज़िक्र करना ज़रूरीयात में से है मसलन :-
1. यमन के पास एक नजरानी इलाक़ा है। वहां के लोग किसी ज़माने में बुत-परस्त थे। फिर उन्हों ने दीने ईस्वी क़ुबूल कर लिया था। और उन का एक सरदार था जिसको अब्दुल्लाह अल-सामर कहते थे। अहले नजरान के मज़्हब ईस्वी क़ुबूल कर लेने की मुजम्मल कैफ़ीयत ये है कि एक शख़्स फ़ीमियून आबिद व ज़ाहिद उन के दर्मियान आ गया उसने उनको मज़्हब ईस्वी के क़ुबूल करने पर बरअंगेख़्ता (उकसाना) किया और इस की तफ़्सील इब्ने इस्हाक़ ने मुग़ीरह बिन अबी लबीद मौला अल-ख़फ्स से और उस ने दहब बिन मत्तीया यमानी से इस तरह बयान की है कि मज़्हब ईस्वी का पाबंद एक शख़्स फ़ीमयून नामी था जो बड़ा आबिद परहेज़गार, मुज्तहिद (कोशिश करने वाला), मुस्तजाब (माना गया), अल-दअवात था और गांव ब गांव फिरा करता था। जब गांव के लोग उसका ज़ोहद व तकवा व करामत (परहेज़गारी व मोअजज़ात) से वाक़िफ़ होने लगे तो दूसरे गांव में चला जाता और अपने हाथ की कमाई यानी मुअम्मार का काम करके अपनी मआश पैदा करता और इतवार के रोज़ कोई दुनियावी काम ना करता। बल्कि किसी जंगल में निकल जाता और सारा रोज़ इबादत व नमाज़ में गुज़ार देता और शाम को वापिस आता। एक दफ़ाअ मुल्क-ए-शाम के गांव में से एक गांव में अपने मामूल के मुवाफ़िक़ इबादत व तकवा में मसरूफ़ था कि इस गांव का एक शख़्स मुसम्मा सालिह उस के हाल पर वाक़िफ़ हो गया और उस की मुहब्बत उस के दिल में जागज़ीन हो गई। फ़ेमियों जहां जाता सालिह भी इस के पीछे हो लेता। मगर फ़ीमयून को ख़बर ना होती। एक दिन वो अपनी आदत के मुवाफ़िक़ इतवार को किसी जंगल में निकल गया और सालिह भी उस के पीछे गया। वो अपनी नमाज़ में मसरूफ़ हो गया और सालिह एक पोशीदा जगह बैठ कर उसको देखता रहा। जब वो नमाज़ में था। तो एक सात सरका साँप उस की तरफ़ आया। फ़ीमयून ने उसके लिए बददुआ दी और वो मर गया। सालिह साँप देखकर चिल्लाया कि ऐ फ़ीमयून साँप साँप और उसे ये ख़बर ना थी कि साँप उस की बददुआ से मर चुका है। फ़ीमयून अपनी नमाज़ में मसरूफ़ रहा लेकिन उस को मालूम हो गया कि सालिह उस की करामत पर मुत्ला`अ (इत्तिला मिलना) हो गया है जब शाम को वापिस होने लगे तो सालिह ने कहा ऐ फ़ीमयून आप जानते हैं कि मुझे आपसे अज़हद मुहब्बत है। इस वास्ते में आपकी मुफ़ारिक़त (जुदाई) गवारा ना कर सका। आप अंदेशा ना करें कि आपका राज़ फ़ाश हो जाएगा। मैं उसे इफ़शा ना करूंगा। मगर शहर के लोग भी उस के हालात से वाक़िफ़ होते जाते थे यहां तक कि अगर कोई शख़्स बीमार हो जाता तो वो उस के हक़ में दुआ करता और वो अच्छा हो जाता। और अगर किसी को किसी आफ़त व मुसीबत आने का अंदेशा होता तो उस की दुआ से वो टल जाती। इस गांव में एक शख़्स था और उस का बेटा अंधा था। उसने उस की करामत का शहरा सुनकर उस से इस्तिदा (दरख़्वास्त) का इरादा किया। मगर लोगों ने उस से कहा कि वो किसी के घर पर नहीं आया करता। वो तामीर इमारत का काम किया करता है। उस को तामीर या मुरम्मत के तरीक़े से घर में बुलालो और फिर उस से दुआ करो। इस शख़्स ने अपने बेटे को एक कोठरी में बंद कर दिया और फ़ीमयून के पास आकर कहा कि मेरे घर में थोड़ा सा काम है फ़ुर्सत है तो आकर कर जाओ।
इस तरह से उस को अपने घर ले गया और लड़के को निकाल कर पेश कर दिया, कि ऐ फ़ीमयून उस ख़ुदा के बंदे (मुराद अपना बेटा) को ये मुसीबत है जिसको आप देख रहे हैं। (यानी अंधा है) इस के हक़ में दुआ कीजिए। उस ने दुआ की और वो अच्छा हो गया। फ़ीमयून ने दिल में कहा कि अब यहां से निकलना चाहीए। पस इस गांव से निकल पड़ा। मगर सालिह ने उस का पीछा ना छोड़ा जब रास्ते में चले जाते थे तो एक बड़े दरख़्त से किसी ने फ़ीमयून कहकर पुकारा। फ़ीमयून ने जवाब दिया, इस शख़्स ने कहा कि मैं तेरी ही इंतिज़ारी में था और तेरी आवाज़ सुनना चाहता था। अब मैं मरता हूँ और तुझे मेरा जनाज़ा दफ़न करके जाना होगा। वो मर गया और फ़ीमयून ने उस पर नमाज़ अदा करके दफ़न कर दिया चलते चलते अरब की किसी ज़मीन में पहुंच गया और सालिह भी उस के पीछे था। अहले-अरब ने उन दोनों पर हमला किया और अरब के एक क़ाफ़िले ने उन्हें ले जाकर नजरान में हर दो को फ़रोख़्त कर दिया। इन दिनों में अहले-नजरान एक लंबी खजूर की इबादत किया करते थे और हर साल ईद किया करते थे और इस खजूर को औरतों के ज़ेवर और अच्छे कपड़े पहनाया करते थे पस अहले-नजरान में से एक शख़्स ने फ़ीमयून को ख़रीद लिया और दूसरे ने सालिह को। इस आक़ा के घर में जब फ़ीमयून तहज्जुद की नमाज़ पढ़ता तो वो घर बग़ैर चिराग़ के रोशन हो जाता और सुबह तक रोशन रहता। एक रोज़ उस के आक़ा ने ये कैफ़ीयत देखकर बड़ा ताज्जुब ज़ाहिर किया। और उस से पूछा तुम्हारा क्या दीन व मज़्हब है। फ़ीमयून ने अपना मज़्हब ईस्वी ज़ाहिर कर के उस को बतौर ख़ैर ख़्वाही कहा कि तुम्हारा मज़्हब बातिल है। ये खजूर तुम्हें कोई नफ़ा व नुक्सान नहीं पहुंचा सकती। अगर मैं अपने ख़ुदा से जिसकी मैं इबादत करता हूँ इसके लिए बददुआ करूँ तो इस को जला दे। इस के आक़ा ने कहा कि अगर तू ऐसा कर दिखाए तो हम तेरे दीन में दाख़िल हो जाएंगे। पस फ़ीमयून ने उठकर वुज़ू किया और दो रकअत नमाज़ पढ़ कर दस्त बद्दुआ उठाया। अल्लाह तआला ने एक सख़्त आंधी भेजी। जिसने इस खजूर को जड़ से उखाड़ दिया। इस वक़्त अहले नजरान ने मज़्हब ईस्वी को क़ुबूल कर लिया। पस उस रोज़ से ज़मीन अरब में नजरान के अंदर नस्रानियत पैदा हो गई। इब्ने इस्हाक़ ने यज़ीद बिन ज़ियाद से और ज़ियाद ने मुहम्मद बिन कअब अल-करती से और नीज़ बाअज़ अहले-नजरान से इस तरह रिवायत की है कि अहले-नजरान मुश्रिक बुत-परस्त थे और नजरान के क़रीब एक गांव में एक साहिर (जादूगर) रहा करता था जो अहले नजरान को जादू सीखाया करता था। इत्तिफ़ाक़न फ़ीमयून ईसाई राहिब ने इस गांव के नज़्दीक अपना ख़ेमा गाड़ दिया। जब नजरान के लड़के इस जादूगर के पास जादू सीखने जाते तो रास्ते में इस ईसाई राहिब को नमाज़ व इबादत में मसरूफ़ पाते और इस की हरकत से मुतअज्जिब (हैरान) होते। एक रोज़ का ज़िक्र है कि नजरान के एक सामर नामी ने अपने बेटे अब्दुल्लाह को दूसरे लड़कों के साथ इस जादूगर के पास भेजा। रास्ते में जब उसने इस राहिब फ़ीमयून को नमाज़ व इबादत करते देखा तो इस पर इस इबादत का असर हुआ वो उस के पास आने जाने लगा और इस के अक़्वाल व ख़यालात सुनने लगा। यहां तक मुसलमान हो गया और ख़ुदा की तौहीद का क़ाइल हो गया और अल्लाह की इबादत करने लगा। फिर उस राहिब से अहकाम इस्लाम दर्याफ़्त करने लगा। जब इल्म-ए-दीन में माहिर हो गया तो एक रोज़ इस ने फ़ीमयून से इस्म-ए-आज़म दर्याफ़्त किया। उसने कहा ए अज़ीज़ उस का जानना तेरे हाल के मुनासिब नहीं तू कमज़ोर है। तू इस की तक्लीफ़ बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। अब्दुल्लाह ने जब देखा कि राहिब इस्म-ए-आज़म सिखलाने से बुख्ल (लालच) करता है तो उसी ने तमाम अस्मा-ए-इलाही को जो राहिब ने सिखाए हुए थे तीरों पर लिख कर आग में डालने शुरू कर दिए। ताकि जिस पर इस्म-ए-आज़म होगा वो आग में नहीं जलेगा। चुनान्चे ऐसा ही हुआ कि वो तीर जिस परइस्म आज़म लिखा हुआ था। आग से कूद कर बाहर आ पड़ा और इस तरह से इस को इस्म-ए-आज़म मालूम हो गया फिर राहिब के पास आकर कहा मैंने इस्म-ए-आज़म मालूम कर लिया है। राहिब ने हैरान हो कर पूछा वो क्या है कहा कि फ़ुलां कहा तूने किस तरह मालूम किया। उस ने सारा माजरा कह सुनाया। राहिब ने कहा ऐ अज़ीज़ इस को पोशीदा रखियो और ज़ब्त (क़ाबू) से काम लीजियो। अब अब्दुल्लाह बिन सामर का ये काम हो गया कि जब नजरान में किसी को मुसीबत या बीमारी लाहक़ होती तो उसी को कहता ऐ फ़ला ने अल्लाह पर ईमान ले आ और मेरे दीन में दाख़िल हो जा। मैं अल्लाह से दुआ करूंगा वो अल्लाह तुझे इस मुसीबत से नजात देगा। अगर वो उसे क़ुबूल कर लेता तो अब्दुल्लाह उस के हक़ में दुआ मांगता और वो अच्छा हो जाता। इस तरह से नजरान के बहुत से आदमी उस के ताबे हो गए और उस के दीन को क़ुबूल कर लिया। रफ़्ता-रफ़्ता उस की शौहरत नजरान के बादशाह के कान तक पहुंची। बादशाह ने इस को बुला कर कहा तूने मेरी रईयत का मज़्हब ख़राब कर दिया है और मेरे दीन और अपने आबाओ अज्दाद के दीन की मुख़ालिफ़त की है। अब मैं तुझे इस का बदला दूंगा और तुझे सख़्त अज़ाब में मुब्तला करूंगा। अब्दुल्लाह बिन सामर ने कहा, बादशाह तू मुझे कोई तक्लीफ़ नहीं दे सकेगा। बादशाह ने कहा कि इस को ऊंचे पहाड़ पर ले जाकर सर के बल गिरा दें इसे गिराया गया मगर इस को कुछ ज़रर नहीं पहुंचा और सही व सलामत ज़मीन पर आ पहुंचा। फिर इस को नजरान के गहरे पानियों में गिरा दिया था ताकि वो डूब जाये मगर वो बिलाज़रूर वहां से भी निकल आया। जब बादशाह इस पर किसी तरह ग़ालिब ना आ सका तो अब्दुल्लाह ने कहा अगर तू मुझ को मारना चाहता है तो अल्लाह पर ईमान ले आ और जिस चीज़ को मैं मानता हूँ तू भी मान ले। इस के बाद तू मेरे क़त्ल पर क़ादिर हो सकेगा। कहते हैं कि बादशाह ने अब्दुल्लाह के मज़्हब को क़ुबूल कर लिया। फिर अपने असा से ही अब्दुल्लाह का काम तमाम कर दिया। फिर आप भी इसी मुक़ाम पर हलाक हो गया। और नजरान के लोगों ने अब्दुल्लाह बिन सामर के दीन को क़ुबूल कर लिया यानी ईसा और उस की किताब व हिकमत को मानने लग गए फिर उनमें भी बिदआत का ज़हूर हुआ। जैसा कि हर मज़्हब में अख़ीर पर हुआ करता है। पस इस तरह से नजरान की नस्रानियत की बुनियाद पड़ी थी। जब नजरान की ये हालत थी तो ज़ूनवास के भाई एहसान बादशाह यमन ने लश्कर लेकर अहले नजरान पर चढ़ाई की और यहूदियत की तरफ़ बुलाया और उन्हें इख़्तियार दिया कि या यहूदी हो जाओ या क़त्ल को पसंद करो। उन्हों ने क़त्ल पसंद किया। पस उस ने उन के लिए आग की ख़ंदक़ खुदवाई और उन लोगों को आग में जला दिया। जो आग से बचे रहे उन को तल्वार से क़त्ल कर दिया। यहां तक कि बीस हज़ार आदमी इसी तरह से हलाक किए गए। इसी ज़ूनवास और उस के लश्कर के हक़ में अल्लाह ने आयत ज़ेल उतारी थी :-
قُتِلَ أَصْحَابُ الْأُخْدُودِ النَّارِ ذَاتِ الْوَقُودِ إِذْ هُمْ عَلَيْهَا قُعُودٌ وَهُمْ عَلَىٰ مَا يَفْعَلُونَ بِالْمُؤْمِنِينَ شُهُودٌ وَمَا نَقَمُوا مِنْهُمْ إِلَّا أَن يُؤْمِنُوا بِاللَّهِ الْعَزِيزِ الْحَمِيدِ
तर्जुमा : ख़ंदक़ वालों पर ख़ुदा की मार जिन्हों ने ख़ंदक़ में आग भड़काई और उस पर बैठ कर मोमिनों का अज़ाब मुशाहिदा कर रहे थे और मुसलमानों से इंतिक़ाम लेने की वजह सिर्फ ये थी कि वो अल्लाह अज़ीज़ हमीद पर ईमान लाए आए थे। (भला ये भी कोई वजह इंतिक़ाम हो सकती है)
इब्ने इस्हाक़ कहता है कि वो मक़्तूल जिनको ज़ूनवास ने क़त्ल करवाया था। इन में अब्दुल्लाह बिन सामर सरदार भी शामिल था। इब्ने इस्हाक़ ने अब्दुल्लाह बिन अबू बक्र मुहम्मद बिन उमर हज़म से रिवायत की है कि अहले नजरान में से एक शख़्स ने हज़रत उमर के ज़माने में नजरान की ख़राबा ज़ीनों में से एक ख़राब खोदा। उस के नीचे से अब्दुल्लाह बिन सामर दफ़न किया हुआ निकला कि उस का हाथ अपने सर की ज़रब पर रखा हुआ था। वो शख़्स बयान करता, था कि जब में उस का हाथ वहां से हटाता था तो ख़ून जारी हो जाता था और जब फिर उस के हाथ को उसी जगह रख देता था तो ख़ून बंद हो जाता था और उस के हाथ में अंगुश्तरी थी। जिस पर रब्बी अल्लाह लिखा हुआ था। इस शख़्स ने ये माजरा हज़रत उमर की ख़िदमत में लिख भेजा। हज़रत उमर ने लिख भेजा कि उस को उस के हाल पर रहने दो और उस को वैसा ही दफ़न कर दो। (सीरत इब्ने हिशाम सफ़ा 12, 16)
2. ख़ास मक्का में हज़रत वर्क़ा बिन नवाफिल जैसे अल्लामा अस्र मसीही मौजूद थे। जिनकी बाबत तारीख़ इस्लाम में बहुत कुछ मौजूद है। बतौर मिसाल ज़ेल का बयान पेश किया जाता है। मसलन :-
सही बुख़ारी, जिल्द सोम, ख्व़ाब की ताबीर का बयान, हदीस 1908
وَهُوَ ابْنُ عَمِّ خَدِيجَةَ أَخُو أَبِيهَا وَکَانَ امْرَأً تَنَصَّرَ فِي الْجَاهِلِيَّةِ وَکَانَ يَکْتُبُ الْکِتَابَ الْعَرَبِيَّ فَيَکْتُبُ بِالْعَرَبِيَّةِ مِنْ الْإِنْجِيلِ مَا شَائَ اللَّهُ أَنْ يَکْتُبَ وَکَانَ شَيْخًا کَبِيرًا
तर्जुमा : यानी वो ख़दीजा के चचा के बेटे थे। और जाहिलियत के ज़माने में ईसाई हो गए थे और वो अरबी ज़बान में एक किताब यानी इन्जील लिखा करते थे जितना कि अल्लाह को मंज़ूर होता था और वो बहुत बूढ़े थे। देखो सही मुस्लिम किताब-उल-ईमान बाब बदा अल-वही
3. उमय्या बिन अबी अल-सलत : अरब के इस मशहूर शायर की बाबत आया है कि उमय्या बिन अबी सलत एक शायर था कि अबी जाहिलियत था और हवाए तदैयुन व ताला सर में रखता था यानी ख़्वाहिश दीन जारी करने की और ख़ुदा-परस्ती करने की रखता था और क़दीम किताबें पढ़ा हुआ और नसारा के दीन पर आया हुआ था। और बुत परस्ती से एअराज़ यानी सर-फिराया था।” मनाबीह अल-नबूव्वत जिल्द दोम छापा ज़ल-कशूरवाका कानपूर सफ़ा 230
एक और बुज़ुर्ग लिखते हैं कि उमय्या बिन अबी अल-सलत अरब का मशहूर शायर था उसने क़दीम मज़्हबी किताबों का अच्छी तरह मुतालआ किया था। उस के मज़्हबी रंग के साथ उस की ज़बान पर सबसे क़दीम मज़्हबी लिट्रेचर के अल्फ़ाज़ चढ़ गए थे। उस के कलाम में आया है :-
ये क़सीदा ग़ायत मस्तूल है। जिसमें उस ने मज़्हबी रहंग व आब से ख़ुदा की क़ुद्रत और फ़रिश्तों की कस्रत ग़ैर ज़ी-रूह चीज़ों की तस्बीह तहलील की तस्वीर खींची है। लेकिन हमने उस के अक़ाइद के इज़्हार के सिर्फ चंद शेअर नक़्ल किए हैं। उमय्या इब्ने अल-सलत ने जनाब रिसालत पनाह का ज़माना पाया था। जब आपके सामने उस के ये अशआर पढ़े गए :-
तो आपने फ़रमाया सिदक़ ज़िया अस्सलाम मुरादाबाद जिल्द नम्बर 3 को देखो।
सही बुख़ारी मत्बूआ अहमदी लाहौर के पारा 15 के सफ़ा 27 के हाशिये पर सही मुस्लिम की एक रिवायत यूं आई है। सही मुस्लिम में शरीद से रिवायत है। आँहज़रत ने फ़रमाया मुझे उमय्या बिन अबी अल-सलत के शेअर में सुनाओ। मैंने आपको सौ बेतों के क़रीब सुनाएँ। आपने फ़रमाया ये तो अपनी शेअरों में मुसलमान होने के क़रीब था उमय्या जाहिलियत के ज़माने में इबादत किया करता। आख़िरत का क़ाइल था। बाज़ों ने कहा नसरानी हो गया था। उस के शेअरों में अक्सर तौहीद के मज़ामीन हैं।
4. क़ैस बिन साअदा : क़ैस बिन साअदा अरब का मशहूर ख़तीब था और सूक़ उकाज़ में उमूमन मज़्हबी और अख़्लाक़ी ख़ुत्बे दिया करता था। जनाब रसूल अल्लाह ने इस का ख़ुत्बा सुना था और उस की तारीफ़ फ़रमाई थी। क़ैस बिन साअदा के ख़ुत्बात और अशआर तमाम-तर इन अक़ाइद से भरे हुए हैं। चुनान्चे हम उस के चंद शेअर नक़्ल करते हैं :-
तर्जुमा : बुलंद और अटल पहाड़ पर पानी से लबरेज़ दरिया और सितारे जो रात की तारीकी में चमकते हैं और सूरज जो दिन में गर्दिश करता है लड़के और अधेड़ शीर ख़ार बच्चे सब के सब एक दिन क़ब्र में मिलेंगे। ये तमाम चीज़ें ख़ुदा की तरफ़ उन नफ़ूस की रहनुमाई करती हैं, जो हिदायत पज़ीर हैं। ऐ दाई मौत इस हालत में कि मुर्दे क़ब्र में हैं और उन के बच्चे कच्चे कपड़े पर ज़ुए पर रूए हो गए हैं उनको पड़ा रहने दे क्योंकि एक दिन वो पुकारे जाएंगे। पस ख़ौफ़ज़दा हो कर बेदार की तरफ़ रुजू करेंगे। जैसा कि पहले मख़्लूक़ हुए थे। बाअज़ इनमें नंगे होंगे और बाअज़ नए पुराने कपड़े पहने हुए होंगे।” ज़िया अस्सलाम जिल्द 5 नम्बर 3
5. हज़रत ख़दीजा की बाबत ज़ेल का बयान आया है :-
चूँकि हज़रत बीबी ख़दीजा तमाम रऊसा-ए-अरब (अरब के अमीरों) में मुम्ताज़ और क़ौम क़ुरैश में सबसे ज़्यादा इज़्ज़त व हुरमत में सर्फ़राज़ और हुस्न व जमाल में शहरा आफ़ाक़ और कस्रत माल व दौलत में ताक़ (माहिर) थीं। लिहाज़ा तमाम अरब के उमरा-ए-नामदार (नामवर) और शहरयार ज़ी-वक़ार (इज़्ज़तदार) उनके साथ अक़द व मनाकहत (निकाह) के ख़्वास्तगार (तलबगार) थे और इसी वहम व ख़्याल में लैल व नहार (दिन रात) गिरफ़्तार थे और हज़रत ख़दीजा ने बाद इंतिक़ाल अपने शौहर के अपने दिल को यादे इलाहियह और इश्तिआल कुतुब समाविया (आस्मानी किताबें) में मशग़ूल किया और कभी अपने अक़्द सानिया (दूसरा निकाह) का नाम भी ना लिया। बीबी ख़दीजा ख़ुद रिवायत करती हैं कि चंद अर्से के बाद एक रात मुझे ये ख्व़ाब दिखाई दिया कि महताब आलमताब आस्मान से आकर मेरी गोद में गिरा और उस के नूर ने मेरी बग़ल से निकल कर तमाम आलम को अपनी रोशनी से घेर लिया। जब मैं ख्व़ाब देखकर बेदार हुई तो इसी की ताबीर के वास्ते निहायत बेक़रार हुई। हत्ता कि इस हालते बेकरारी में दर्याफ़्त हाल के वास्ते एक आदमी को बहीरा राहिब के पास दौड़ाया। वो वहां से ये जवाब लाया कि खुदा-ए-दो जहान ने नबी आख़िर-उल-ज़मान को मबऊस फ़रमाया है और तू अनक़रीब उन के अक़्दह निकाह में आ मिलेगी। यही ताबीर इस ख्व़ाब की है जो तेरे देखने में आया है और वही इलाही तेरे ही मकान में उनके पास नुज़ूल फ़रमाएगी और सब से पेश्तर तूही उन पर ईमान लाएगी और क़ौम क़ुरैश के औलाद बनी हाशिम ने ये मर्तबा पाया है। ऐसा नबी बर्गुज़ीदा ख़ुदा ने इन में पैदा फ़रमाया है।.... ये फ़रमाकर ख़दीजा ने ख़ुद तौरात व इन्जील दीगर कुतुब समाविया में पैग़म्बर आख़िर-ऊज़-ज़मा के हालात व निशानात देखना शुरू किए जब तक हज़रत तशरीफ़ लाएं जुम्ला हालात नबुव्वत ख़ूब ज़हन नशीन कर लिए। तवारीख़ अहमदी मत्बूआ मुंशी नवलकिशोर कानपूर सफ़ा 53 से 56
6. हज़रत ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील भी ईसाई थे। जिनके कलाम में से ज़ेल का कलाम हद्या नाज़रीन है :-
इब्ने इस्हाक़ कहते हैं कि मुझको ये रिवायत पहुंची है कि ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील के फ़र्ज़न्द सईद बिन ज़ैद और उमर बिन खत्ताब ने रसूल अल्लाह से अर्ज़ किया कि हुज़ूर आप ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील के वास्ते दुआ मग़्फिरत कीजिए। फ़रमाया हाँ वो तन्हा क़ब्र से उठाया जाएगा।
ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील ने अपनी क़ौम का दीन तर्क करने और उन की तकालीफ़ के सहने को नज़्म किया है जिसके चंद शेअर (अशआर) हम नक़्ल करते हैं :-
बयान माफ़ौक़ में इस बात की बख़ूबी तश्रीह हो चुकी है कि अरब में ईसाईयत ने अरबों को अपना गरवीदा बना लिया था। मुल्की रियासत जो हनफा ही अरब की वाहिद ख़ुद-मुख़्तार रियासत भी जिसमें वस्त अरब की आबादी शामिल थी हज़रत मुहम्मद की दीनी ख़िदमत शुरू करने से पेश्तर ही मसीहिय्यत के ग़ालिब असर के आगे एक हद तक सर झुका चुकी थी वो मसीही राहिबों और ख़तीबों और शाइरों और मुहक़्कीक़ों (तहक़ीक़ करने वालों) के आगे सर अदब ख़म (अदब से सर झुकाना) कर चुकी थी। ख़ुद हज़रत मुहम्मद के अपने अज़ीज़ मसीहिय्यत का असर क़ुबूल कर चुके थे। पस हज़रत मुहम्मद की दीनी ख़िदमात शुरू करने से पेश्तर अरब में मसीहिय्यत एक ज़बरदस्त और ग़ालिब मिल्लत (क़ौम) थी। मसीहिय्यत ने अरब की चोटी तक शुरफ़ा में मक़बूलियत पाना शुरू कर लिया था।
7. मक्का शरीफ़ के हनफा में मज़्हबी रिवाइवल या तरोताज़गी
बयान माक़ब्ल में हमने मिल्लत-ए-हनीफ़ और साबियत का और साबियों और हनफा का काफ़ी बयान कर दिया है। जिससे हनफा और साबियों की बाबत इस क़द्र हक़ीक़त ज़ाहिर हो चुकी है कि वो उसूलन एक ही मज़्हब को मानने वाले थे। जिसमें बुत-परस्ती का अंसर अज़ीम पाया जाता था लेकिन साबी हज़रत मुहम्मद के ज़माने के क़रीब अपने आबाई मज़्हब को छोड़कर मसीहिय्यत इख़्तियार करने की वजह से अपने आबाई मज़्हब के मुन्किर (इंकारी) मशहूर हो चुके थे। इस पर भी साबियों का एक गिरोह अपने आबाई मज़्हब पर क़ायम रह गया था।
इस के साथ ही हमने हनफा और उनकी हनफियत की बाबत ये हक़ीक़त इस्लामी तहरीरात से ज़ाहिर की थी कि गो उनका दीन हनफियत हज़रत मुहम्मद की पैदाइश से पेश्तर अरब में मशहूर व मारूफ़ था और लोग उसे मानते थे मगर वो भी बुत-परस्ती से पाक ना था। हज़रत मुहम्मद की पैदाइश के ज़माने के क़रीब उसी दीन-ए-हनीफ़ को मानने वालों के दरम्यान ख़ास मक्का शहर में एक अज़ीमुश्शान मज़्हबी रिवाइवल शुरू हुआ था। जिसका ज़िक्र इब्ने हिशाम ने किया है। इस मज़्हबी तरोताज़गी और जुस्तजू और तलाश की एहमीय्यत पेंटीकोस्त के वाक़िये के अगर बराबर नहीं तो उस के दूसरे दर्जा पर ज़रूर तस्लीम की जा सकती है। जो मज़्हबी तहरीक ज़माना कोर में शुरू हुई थी वो फिर कभी नहीं रुकी और अजब मुआमला ये है कि इस तहरीक के मुहर्रिक क़बीला क़ुरैश के हनिफा ही थे। इब्ने हिशाम ने इस तहरीक मज़्हबी का बयान-ए-हस्ब-ज़ैल किया है।
हज़रत के अक़्वाल व आमाल कलमबंद करने वालों में सबसे पहला मुअर्रिख़ ज़ोहरी गुज़रा है जिसने 124 ई॰ में वफ़ात पाई थी। उसने जो कुछ लिखा था आँहज़रत के अस्हाब की मुतवातिर रिवायत से हासिल किया था बिलख़ुसूस उर्वा की सनद से जो हज़रत आईशा के अज़ीज़ों में था। इस में तो शक नहीं कि इस क़द्र मुद्दत गुज़र जाने की वजह से इन रिवायत में बहुत कुछ मुबालग़ा और इशतिबाह (मुशाबेह होना) मिल गया था तो भी अगर ज़ोहरी की किताब इस वक़्त मौजूद होती तो ग़ालिबन इस से उन लोगों का बड़ा काम निकलता जो इस्लाम की इब्तिदा के मुताल्लिक़ हक़ीक़त खोज व तलाश में हैं। क्योंकि वो किताब सबसे क़दीम और इसलिए सबसे मोअतबर समझी जाती। ज़ोहरी की किताब तो बिल्कुल नापैद (ख़त्म) हो गई लेकिन उस का एक शागिर्द इब्ने इस्हाक़ था जिसने 171 हिज्री में वफ़ात पाई। उस ने इसी मज़्मून पर एक और किताब लिखी थी जो किताब भी बादअज़ां गुम हो गई। मगर उस के अक्सर अजज़ा इब्ने हिशाम की किताब सीरतु-र्रसूल में महफ़ूज़ रह गए हैं। इस इब्ने हशाम ने 212 हिजरी में वफ़ात पाई। इस वक़्त हम इसी किताब से हनफा का कुछ थोड़ा सा हाल यहां नक़्ल करते हैं :-
(सीरतु-र्रसूल जिल्द 76, 77) तर्जुमा : इब्ने इस्हाक़ ने कहा कि एक रोज़ अपनी ईद के दिन क़ुरैश अपने एक बुत के पास जमा हुए सो वो लोग उस की पूजा करते थे उस पर ऊंट क़ुर्बान करते और उस के पास एतिकाफ़ में बैठते। और गिर्द उस के परिक्रमा (चक्कर लगाना) करते थे और ये ईद उन की हर साल एक दिन होती थी। उनमें चार शख़्स थे जिन्हों ने खु़फ़ीया मश्वरत करली और उन लोगों से जुदा हो गए। तब आपस में उन्हों ने एक दूसरे से कहा आओ हम लोग अहद बांध लें कि एक दूसरे का राज़ फ़ाश ना होने दें उन लोगों ने कहा बहुत ख़ूब। उन लोगों के नाम ये हैं :-
वर्क़ा बिन नवाफिल बिन असद बिन अब्दुल उज्जा बिन कुस्सी बिन किलाब बिन मरता बिन कअब बिन लोई और उबैद उल्लाह बिन हजश बिन रिकाब बिन यअर बिन उबरता बिन मरता बिन कुबरा बिन ग़नम बिन विद्वान बिन असद बिन ख़रीमा (इस की माँ अमीमा अब्दुल मुत्तलिब की बेटी थी और उस्मान बिन अल-जुवैरस बिन असद बिन अब्दुल उज्ज़ा बिन क़ुस्से और ज़ैद इब्ने उमरू इब्ने नफ़ील बिन अब्दुल उज्जा बिन अब्दुल्लाह बिन क़ुरत बिन रियाह बिन राज़ह बिन अदी बिन कअब बनी लोई इन लोगों ने आपस में एक दूसरे से कहा। तुमको मालूम है कि ख़ुदा की क़सम तुम्हारी क़ौम कुछ दीन पर नहीं। यक़ीनन वो लोग अपने बाप इब्राहिम के दीन से बर्गश्ता (फिरना) हो गए। पत्थर क्या है कि हम इस की परिक्रमा करें। ना वो सुने ना देखने ना ज़रर पहुंचाए ना नफ़ा। ऐ क़ौम अपने वालों में ग़ौर करो कि बख़ुदा तुम कुछ राह पर नहीं हो। यूं वो लोग अलग-अलग हो गए। और मुख़्तलिफ़ मुल्कों में चले गए कि हनफियत यानी दीन इब्राहिम की खोज करें। वर्क़ा बिन नवाफिल तो दीन ईसाई में पक्का हो गया और उन लोगों की किताबों की खोज में लगा यहां तक कि उसने अहले-किताब का इल्म सीख लिया। उबैदुल्लाह बिन हजश जो था वो जिस शुब्हा में था उसी में क़ायम रहा। हत्ता कि मुसलमान हो गया फिर उस ने मुसलमान के साथ हब्शा में हिज्रत की और उसी के साथ उस की जोरू उम्मे हबीबा अबी सुफ़ियान की बेटी भी गई थी जो मुसलमान थी लेकिन जब वो इस मुल्क में गया तो वहां ईसाई हो गया और इस्लाम को तर्क कर दिया और दीने मसीही पर वफ़ात पाई। इब्ने इस्हाक़ ने कहा कि मुहम्मद बिन जाफ़र इब्ने अल-ज़बीर ने मुझको ख़बर दे कर कहा जब उबैदुल्लाह बिन हजश ईसाई हो गया तो वो असहाब-ए-रसूल-अल्लाह सलअम के पास जो उस वक़्त सर-ज़मीन हब्शा में थे आता और उन से कहा करता कि हमारी आँखें तो खुल गईं और तुम अब तक चौंधियाते हो। यानी हम तो आँखों देखने लगे और तुम अभी बीनाई की तलाश ही में हो। इस के मअनी लफ़्ज़ी ये हैं कि जब कुत्ता का पिल्ला अपनी आँख खोलना चाहता है कि देखे तो पहले साअ साअ करता है यानी चौंधियाता है और यही लफ़्ज़ फ़त्ह के मअनी हैं कि आँखें खोलें। इब्ने इस्हाक़ ने कहा है कि इस शख़्स के बाद रसूल-अल्लाह ने उस की जोरू उम्म हबीबा दुख्तर अबी सुफ़ियान बिन हर्ब को ले लिया।.... इब्ने इस्हाक़ ने कहा रहा उस्मान बिन हुवरैस तो वो क़ैसर सोम के पास गया और ईसाई हो गया। वहां के बादशाह की दर्सगाह में उस को बहुत इज़्ज़त हासिल हुई और इब्ने हिशाम ने कहा कि इस उस्मान बिन हुवरैस के क़ैसर के पास ठहरने के मुताल्लिक़ एक रिवायत है जिसका ज़िक्र यहां तर्क करता हूँ। क्योंकि इस का बयान हदीस फ़ुजार में हो चुका। इब्ने इस्हाक़ कहता है कि व-लेकिन ज़ैद इब्ने उमरू इब्ने नफ़ील जो था वो ठहरा रहा। ना दीन यहूदी उस ने इख़्तियार किया ना दीन नसरानी। उसने सिर्फ अपनी क़ौम के दीन को तर्क कर दिया और बुतों और मुर्दार और ख़ून और क़ुर्बानी से जो बुतों पर चढ़ाई जाती परहेज़ करता था और दुख़तर कुशी (बेटी का क़त्ल) से मना करता और कहता था कि मैं इब्राहिम के ख़ुदा की बंदगी करता हूँ और जिन बुराईयों की उस की क़ौम मुर्तक़िब होती थी वो उन को रद्द करता था। इब्ने इस्हाक़ ने कहा कि मुझको ख़बर दी हिशाम बिन उर्वा ने अपने बाप से जिसने सुना था अपनी माँ अस्मा बिंत अबी बक्र से वो कहती थी कि मैंने ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील को देखा जब वो बहुत बूढ्ढा हो गया कि काअबा से पीठ टीके हुए कह रहा था ऐ क़ौम क़ुरैश क़सम है उस की जिसके हाथ ज़ैद बिन उमरु की जान है कि बजुज़ मेरे तुम में कोई भी नहीं जो दीन-ए-इब्राहिम पर साबित हो और फिर कहता था बार-ए-ख़ुदाया अगर मुझ को मालूम हो कि कौनसा तरीक़ तेरी बारगाह में ज़्यादा पसंदीदा है तो मैं उसी तरीक़ से तेरी बंदगी करता लेकिन मैं नहीं जानता। फिर वह दोनों हथेलियाँ ज़मीन पर टेक कर सज्दे में जाता। इब्ने इस्हाक़ ने कहा मुझको ख़बर मिली है कि उस के बेटे सईद बिन ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील ने और उमर बिन अल-खत्ताब ने जो इस का अमज़ादा था दोनों ने रसूल अल्लाह से कहा कि ज़ैद बिन उमरू के लिए मग़्फिरत माँगिए। आपने कहा बहुत ख़ूब वो यक़ीनन मिस्ल एक उम्मत के तन्हा क़ियामत में उठेगा और ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील ने अपनी क़ौम का दीन तर्क करने पर और जो कुछ इस वजह से उन के दर्मियान उस पर बीता अशआर ज़ेल कहे हैं।
इब्ने हिशाम ख़बर देता है कि ख़त्ताब ने जो ज़ैद का चचा था ज़ैद को मक्का से निकाल बाहर किया तो मज्बूर हो कर वो कोह-ए-हिरा में जा रहा जो उस के शहर के सामने वाक़ेअ है। ख़त्ताब ज़ैद को मक्का के अंदर घुसने नहीं देता था। (सीरतु-र्रसूल जिल्द अव्वल सफ़ा 79) और इसी किताब से ये ख़बर मिलती है कि हज़रत मुहम्मद भी गर्मीयों के मौसम हर साल तख़नस (तज़्किया नफ़्स) करने की ख़ातिर इसी कोह-ए-हिरा के एक ग़ार में अहले-अरब की रस्म के मुवाफ़िक़ जाकर रहा करते थे जिससे गुमान ग़ालिब होता है कि आप जो अपनी क़ौम के दीन से बेज़ार थे वहां जाकर ज़ैद इब्ने उमरू से जो इलावा ख़ुदा परस्त और मुसल्लेह क़ौम होने के आपके क़रीबी रिश्तेदारों में भी थे मुलाक़ात किया करते थे। (3) इस ख़याल की ताईद एक क़ौल से भी होती है। वो ये कि जिस वक़्त आप पर वही आई आप इसी ग़ार में थे।
ثمہ جاء جبرئیل بما جائہ من کر امتہ اللہ وھو بحراء فی شھر رمضان۔۔۔۔کان رسول اللہ صلعمہ یجادرنی حراء من کل سنتہ شھر اوکان ذالک بما تحنث بدقریش فی الجاھلیہ والتحنث التبرو۔۔۔۔۔ قال بن ہشام تقول العربالحتنث والتحیف یریدون الحنیفہ نیبہ لون الفاء آمن الثاء (صفحہ ۸۰، ۸۱)۔
(सफ़ा 80, 81) तर्जुमा : फिर जिब्राईल उन के पास आए और जो कुछ ख़ुदा की करामत से था लाए और आप उस वक़्त हिरा में थे। माह रमज़ान के दिनों में... और रसूल अल्लाह हर साल एक माह हिरा में गोशा-नशीनी करते थे। वजह इस की ये थी कि अय्याम-ए-जाहलीयत में क़ुरैश इसी तरह तहन्नुस करते थे। तहन्नुस के मअनी में तज़्किया नफ़्स। इब्ने हिशाम कहता है कि अहले-अरब तहन्नुस और तख़फ़ दोनों कहते थे और मुराद इस से ख़फ़ीत लेते थे। पस यूं उन्हों ने फकूस से बदल दिया। (यना बैअ अल-इस्लाम)
8. इब्ने हिशाम ने क़ुरैश के चारों मुहक़्क़ीक़ीन की तहक़ीक़ात के नताइज में से तीन की तहक़ीक़ात के नताइज बयान कर दिए कि वो ईसाईयत को मिल्लत इब्राहिम जान कर क़ुबूल कर बैठे थे मगर हज़रत ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील की बाबत ना-तमाम बयान छोड़ दिया गया और आप की बाबत सिर्फ इस क़द्र लिख दिया कि उस ने ना यहूदियत को माना ना ईसाईयत को अपने आबाई दीन को भी तर्क कर बैठा। इस पर कहा करता था कि सिर्फ में ही दीने इब्राहीम पर हूँ मगर हमें ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील की बाबत ज़्यादा दर्याफ़्त करना है कि वो क्यों ईसाई ना हुआ था? मुस्लिम रिवायत में आपकी बाबत मज़ीद बयान ज़ेल आया है :-
(3) किताब अल-गाफी अल-इमाम अबी अल-फ़रह अल-सुब्हानी के जुज़ सालिस सफा 15 में यह रिवायत है ज़ुबेर ने कहा रिवायत की मुसअब बिन अब्दुल्लाह ने उस से जहाक बिन उस्मान से उस ने अब्दुल रहमान बिन अबी नाद से उस ने मुसा बिन अक़बा से उस ने सालिम बिन अब्दुल्लाह से कि उसने अब्दुल्लाह बिन उमर को सुना रिवायत करते हुए रसूल अल्लाह से कि आप ज़ैद बिन उमरू बिन नफील से वादी बलदह के नचान में मिले थे और यह पेश्तर इस से हुआ के आप पर वही नाज़िल हो। पस रसूल अल्लाह ने उस के आगे ख्वान पेश किया। उस में गोश्त था। पास ज़ैद ने खाने से इन्कार किया और कहा कि मैं कोई शे नहीं खाता बजुज़ इस हाल के कि इस के ऊपर खुदा का नाम लिया गया हो। (मुक़ाबला करो आमाल 15 से 20 तक)
सही बुख़ारी में है कि मुझसे मुहम्मद बिन अबी बक्र मुक़द्दमी ने बयान किया। कहा हमसे फज़ील बिन सुलेमान ने कहा, हम से मूसा बिन उक़्बा ने कहा। हमसे सालिम बिन अब्दुल्लाह बिन उमर ने उन्हों ने अपने वालिद अब्दुल्लाह बिन उमर से कि आँहज़रत ज़ैद बिन उमरू बिन फज़ील से बलदह में मिले। अभी आप पर वही उतरना शुरू ना हुआ था। आप के सामने खाने का दस्तर-ख़्वान चुना गया। ज़ैद ने वो खाना खाने से इन्कार किया फिर कहने लगा मैं इन जानवरों का गोश्त नहीं खाने का, जिनको तुम थानों पर काटते हो। मैं उस जानवर का गोश्त खाऊंगा जो अल्लाह के नाम पर काटा जाये और ज़ैद क़ुरैश के लोगों पर इन जानवरों को काटने का ऐब धरता था। कहता था बकरी को तो अल्लाह ने पैदा किया। आस्मान से पानी भी उसी ने बरसाया (जिसको बकरी पीती है) चारा भी ज़मीन से उसी ने उगाया। (जिसको बकरी खाती है) फिर तुम लोग इस को औरों के नाम पर काटते हो वहदान मुशरिकों के काम पर इन्कार करता था और इस को बड़ा गुनाह ख़याल करता था। मूसा बिन उक़्बा ने कहा मुझसे सालिम बिन अब्दुल्लाह ने बयान किया। मैं समझता हूँ उन्होंने अब्दुल्लाह बिन उमर से नक़्ल किया कि ज़ैद बिन उमरू नफ़ील दीन हक़ की तलाश में मक्का से शाम के मुल्क को गए। वहां यहूद के एक आलिम से मिले उस से कहने लगे मुझे अपना दीन बतला शायद मैं तेरा दीन इख़्तियार करलूं। فقال لاتکون علی دینا حتی تاخذ بنصیبک من غضب اللہ उस ने कहा अगर तू हमारा दीन इख़्तियार करेगा तो अल्लाह के ग़ज़ब में से अपना हिस्सा लेगा। यानी ख़ुदा के ग़ज़ब में गिरफ़्तार होगा ज़ैद ने कहा वाह मैं तो ख़ुदा के ग़ज़ब से भाग कर आया हूँ (इस से बचना चाहता हूँ) फिर ख़ुदा के ग़ज़ब को तो मैं अपने ऊपर कभी ना लूंगा और ना मुझको उस के उठाने की ताक़त है। अच्छा और कोई दीन तू मुझको बतला सकता है। उस ने कहा मैं नहीं जानता (कोई दीन सच्चा हो) हो तो हनीफ़ दीन हो। قال ما الحلمہ الا ان یکون حنیفا) قال زید وما الحنیف قال دین ابراہیم لویکن یھودیا ولا نصرانیا ذلا یعبد الا اللہ ज़ैद ने कहा हनीफ़ दीन क्या है। उसने कहा हज़रत इब्राहिम का दीन जो ना यहूदी थे। ना नसरानी अकेले अल्लाह की परस्तिश करते थे। ख़ैर ज़ैद वहां से चले गए। एक नसरानी पादरी से मिले। उस से भी यही गुफ़्तगु की فقال لن تکون علی دیننا حتی تاخذ نصیبک من تعنہ اللہ उसने कहा तू हमारे दीन में आएगा तो अल्लाह की लानत में से एक हिस्सा लेगा। ज़ैद ने कहा (राहीब) मैं तो ख़ुदा की लानत से भागना चाहता हूँ। मुझसे ना ख़ुदा की लानत उठ सकेगी ना उस का ग़ज़ब कभी उठ सकेगा। भला मुझमें इतनी ताक़त कहाँ से आई। अच्छा तो और कोई (सच्चा) दीन मुझको बतला सकता है? قال ما اعلمہ یھودیا والا نصرانیاً ولا یعبد الااللہ पादरी ने कहा मैं नहीं जानता अगर हो तो दीन हनीफ़ सच्चा दीन हो ज़ैद ने कहा वह क्या? कहने लगा इब्राहिम का दीन जो ना यहूदी थे और ना नसरानी अकेले अल्लाह को पूजते थे। जब ज़ैद ने यहूदीयों और नस्रानियों का ये क़ौल हज़रत इब्राहिम के बाब में सुना और वहां से निकले तो अपने दोनों हाथ (आस्मान की तरफ़) उठाए। कहने लगे या अल्लाह मैं गवाही देता हूँ मैं इब्राहिम के दीन पर हूँ।
और लैस बिन साद ने कहा मुझको हिशाम ने अपने बाप की ये रिवायत अस्मा बिंत अबी बक्र से लिख भेजी वो कहती थीं। मैंने ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील को देखा खड़े हुए काअबा से अपनी पीठ लगाए हुए कह रहे थे। क़ुरैश के लोगो ख़ुदा की क़सम तुम में से इब्राहिम के दीन पर मेरे सिवा और कोई नहीं है और ज़ैद बेटीयों को जीता नहीं गाड़ते थे वो उस शख़्स से जो अपनी बेटी को मारना चाहता हों यूं कहते तू इस को मत मार (मुझको दे डाल) मैं पाल लूंगा। फिर उस को लेकर पालते। जब वो बड़ी हो जाती तो उस के बाप से यूं कहते अगर तू चाहे तो अपनी बेटी ले-ले मैं दे दूंगा। अगर तेरी मर्ज़ी हो तो मैं उस के सब काम पूरे कर दूँगा।” सही बुख़ारी मत्बूआ अहमदी लाहौर, 15 पारा सफ़ा 21-23
क़बीला क़ुरैश के चार सरदारोँ की हनफियत
अगर साबियत और हनफियत को वाहिद मज़्हब तस्लीम कर लिया जाये और मिल्लत हनीफ़ और साबियत में बुत-परस्ती का एक अज़ीम अंसर मान लिया जाये जैसा कि रिवायात व बयानात मा फ़ौक़ से रोशन हो चुका है और इस बात का भी एतराफ़ कर लिया जाये कि क़ुरैश हनफियत को मिल्लत-ए-इब्राहिम जान कर ही माना करते थे तो फिर हज़रत ज़ैद बिन उमरू नफ़ील की “मिल्लत इब्राहीमी” या हनफियत एक वस्याफ़त तलब अम्र रह जाती है। गो आम तौर से मिल्लते हनफियत में बुत-परस्ती व शिर्क परस्ती पाई जाती थी। गो इस बुत परस्ती के साथ दीगर मकरूहात का भी ताल्लुक़ है। जिसके सबब से इस के मानने वाले अरबी यहूदियत व मसीहियत मानने वालों से जुदा रहना पसंद करते थे। मगर इस पर भी ये बात याद रखने के क़ाबिल है कि हज़रत ज़ैद बिन उमरु बिन नफ़ील की हनफियत उस की दीगर अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) है निहायत अफ़्ज़ल व आला थी। इस में आबाई हनफियत का नाम के सिवा कुछ पाया ही नहीं जाता था। आपकी हनफियत की बाबत मोअर्रिखों ने साफ़ लिखा है कि हज़रत ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील कुछ अर्से तक ना यहूदी हुए ना मसीही हुए थे। तो भी आप आबाई हनफियत को बिल्कुल तर्क करके सिर्फ वाहिद ख़ुदा का एतबार रखते हुए उसी की इबादत में मसरूफ़ रहते थे और अपनी क़ौम के रूबरू सफ़ाई से ऐलान करते रहते थे कि तुम में मेरे सिवा कोई मिल्लत इब्राहिम पर या मिल्लत हनीफ़ पर या मिल्लत इब्राहिम हनीफ़ पर नहीं है और यही हज़रत वर्क़ा बिन नवाफिल और दीगर मुहक़्क़िक़ीन क़ुरैश की तहक़ीक़ का नतीजा था कि मिल्लत इब्राहिम तो मसीहिय्यत है। इस से ये बात रोज़-ए-रोशन की तरह ज़ाहिर हो जाती है कि गो हज़रत मुहम्मद की ज़िंदगी की इब्तिदा में मिल्लत हनीफ़ या मिल्लत इब्राहिम हनीफ़ में बुत परस्ती या शिर्क परस्ती का अंसर अज़ीम पाया जाता था मगर क़ुरैश के चार सरदारोँ की तहक़ीक़ व तलक़ीन से असली मिल्लत इब्राहिम या मिल्लत हनीफ़ इन मआनी की रौनुमा हो चुकी थी जिसमें बुत-परस्ती व शिर्क परस्ती का मुतलक़ दख़ल ना था जो आला दर्जे के मुहक़्क़िक़ीन की तहक़ीक़ में मसीहिय्यत की हमअना मिल्लत क़रार पा चुकी थी। जैसा कि बयान माफ़ौक़ से अयाँ हो चुका है।
मज़ीदबराँ ये बात भी फ़रामोश नहीं की जा सकती कि क़ुरैश के आला तबक़े में मिल्लत-ए-हनीफ़ और मिल्लत-ए-मसीहिय्यत में जो तत्बीक़ दी जा चुकी थी वो क़ुरैश के अवाम और अरब के जहला के ख़यालात व अक़ाइद से निहायत बुलंद थी। अवाम की आबाई मिल्लते हनीफ़ के ही दिलदाह थे वो मिल्लते हनीफ़ में इस्लाह पसंद ना करते थे और यही इस्लाह का वो काम था जिसकी तक्मील अरब के फ़र्ज़न्द आज़म ने दुनिया में रौनुमा हो कर करना थी। आपकी इस्लाह का बयान इंशा-अल्लाह किताब के दूसरे हिस्से में आएगा।
बयान माफ़ौक़ में दीन हनीफ़ की तल्क़ीन एक यहूदी और एक मसीही आलिम की ज़बानी हज़रत ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील को कराई गई है। जो ख़ुद बचपन से ही दीन हनीफ़ को मानते आते थे जो दीन हनीफ़ से ही बेज़ार होकर उस की अस्लियत दर्याफ़्त करने को अरब से शाम पहुंचे थे। यहूदी और मसीही आलिमों का हज़रत ज़ैद को यहूदी या मसीही होने से रोकने की तल्क़ीन करना एक ऐसा मुआमला है जो किसी नाज़िर की समझ में नहीं आ सकता इस का फ़ैसला ख़ुद नाज़रीन किराम कर सकते हैं। बयान माफ़ौक़ में दूसरी बात क़ाबिल-ए-ग़ौर दीन हनीफ़ की तारीफ़ की है। अगर एक यहूदी और मसीही आलिम ने दीन हनीफ़ की वो तारीफ़ की हो जो रिवायत माफ़ौक़ में मज़्कूर है तो इस से भी यही नतीजा अख़ज़ किया जा सकता है कि मआनी मज़्कूर का दीन हनीफ़ ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील ने यहूदीयों और मसीहियों से सीखा था और आपने अपने वतन में आकर कुछ अर्से तक इसी एतिक़ाद पर एतिमाद किया था। लेकिन इब्ने हिशाम और दीगर मुस्लिम उलमा के बयान से ऐसा मालूम होता है कि माफ़ी मज़्कूर बाला का दीन हनीफ़ आम तौर से क़ुरैश के लोगों को मालूम ना था जैसा कि फ़ज़ूल माक़ब्ल से अयाँ हो चुका है। ग़रज़ कि सही बुख़ारी की रिवायत का मतलब अगर कुछ हो सकता है तो यही हो सकता है कि हज़रत ज़ैद बिन उमरू ने दीन हनीफ़ ख़ास की ताअलीम यहूद व नसारा से पाई थी मगर आपका यहूदी या मसीही होने सीबाज़ रहना माक़ूल वजह पर मबनी नहीं है। इस में यहूदी और मसीही उलमा के उज़्रात (बहाने) ग़ैर माक़ूल है।
इस के सिवा मुस्लिम रिवायत से इस बात की भी दलालत होती है कि हज़रत ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील को मसीहिय्यत से कमाल उन्स (मुहब्बत) था। आप अपनी मक्की ज़िंदगी में खाने पीने की चीज़ों की बाबत किताब आमाल 15:20 पर आमिल (अमल करना) थे।
इस के सिवा इब्ने हिशाम के बयान से ज़ाहिर है कि हज़रत ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील मआनी मज़्कूर बाला के दीन हनीफ़ को मानते हुए अपनी क़ौम की नज़र में नामक़्बूल थे। आप मक्का में अपने घर में ही ना रह सकते थे। आपके बुज़ुर्ग आपसे बेज़ार थे। आप ग़ार-ए-हिरा में अय्याम गुज़ारी किया करते थे। जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि हज़रत ज़ैद का दीन हनीफ़ और हज़रत ज़ैद के आबाओ अज्दाद का और आम क़ुरैश का दीन ना सिर्फ एक ना था बल्कि निहायत मुख़्तलिफ़ था।
मज़ीदबराँ मौलाना मौलवी नज्म-उद्दीन साहब सेयूहारी अपनी किताब रसूम जाहिलियत मत्बूआ ख़ादिम-उल-ताअलीम स्टीम प्रैस लाहौर के सफ़ा 2 के हाशिया में लिखते हैं कि हज़रत ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील भी आख़िरकार मसीही हो गए थे।
ग़रज़ कि अगर इस्लामी रिवायत मनक़ूला बाला का एतबार किया जा सके तो हनफा के मक्की रिवाइवल को तारीख़ इस्लाम में अज़ीमुश्शान एहमीय्यत दी जा सकती है। क़ुरैश के चार सरदारोँ का जो अपने इल्म व फ़ज़ल में गोया यगाना रोज़गार थे। अपने आबाई दीन-ए-हनीफ़ की तहक़ीक़ व तदक़ीक़ (सोच बिचार) पर आमादा हो कर इस दीन की अस्लियत मसीहिय्यत में पाना और आला दीन हनीफ़ और मसीहिय्यत में मुवाफ़िक़त व मुताबिक़त तलाश कर लेना एक ऐसा तारीख़ी मुआमला है जिस को साहिबे बसीरत हल्की निगाह से नहीं देख सकता है इस के साथ ही जब हम इस बात का ख़याल करते हैं कि क़ुरैश के सरदारों ने दीन हनीफ़ की इस्लाह व पाकीज़गी की जो तहरीक शुरू की थी वो कभी बंद ना हुई थी। इस में तरक़्क़ी का इज़ाफ़ा ही होता गया था तो हमें तहरीक मज़्कूर के लिए ख़ुदा का शुक्र करने के बजाए और दूसरी बात सूझती ही नहीं है। इस वजह से हमें इस बात का सफ़ाई से एतराफ़ करना पड़ता है कि मक्का में दीन-ए-हनीफ़ की बाबत जो तहरीक शुरू हुई थी वो ज़रूर ख़ुदा की तरफ़ से थी। जिस ने अरब के फ़र्ज़ंद-ए-आज़म की मार्फ़त दुनिया के किनारों तक पहुंचना था। क्योंकि अरबी दीन हनीफ़ की इस्लाह के माअनों में गोया इस ज़माना की दुनिया के मज़ाहिब की इस्लाह मुज़म्मिर (छिपी) थी।
क़ुरैश में दीन-ए-हनीफ़ की इस्लाह का जो काम इन चारा क़ुरैशी उलमा से शुरू हुआ था इस की मुख़ालिफ़त बुत-परस्त हनफा और साइबा की तरफ़ से लाज़िमी थी हमें इस का मुफ़स्सिल बयान मौअर्रखीन इस्लाम ने नहीं सुनाया है सिर्फ इब्ने हिशाम के बयान मुन्दरिजा सदर में इज्मालन इस पर दलालत ही की गई है, कि बुत-परस्त क़ुरैश ने हज़रत ज़ैद बिन उमरू बिन नफ़ील से जो सुलूक रवा रखा था वो बुत-परस्त हनफा की उस मुख़ालिफ़त का जो उन्हें तहरीक मज़्कूर से पैदा हुई थी एक अदना नमूना था। बुत-परस्त हनफा की यही वो मुख़ालिफ़त थी जिसका क़िला क़ुमा (ख़ातिमा) करने वाला इस ज़माने में परवरिश पा रहा था। जिस ने आने वाले ज़माने में ना सिर्फ अरब के बुत परस्तों को इल्म इस्लाम के आगे झुकाना था। इस वक़्त के बाद की दुनिया ने उस के आगे झुकना था। मगर हनूज़ उस की हस्ती का किसी को इल्म ना था।
दसवीं फ़स्ल
हज़रत मुहम्मद की ज़िंदगी के इब्तिदाई ज़माने का अरब
मुल्क-ए-अरब और उस के बाशिंदे ख़्वाह अपने मुल्क में कैसे ही थे और कैसी ही मकरूहात (ना पाक, नफ़रत-अंगेज़) में मुब्तला थे। ख़्वाह ख़ारिजी दुनिया की नज़रों में वो कैसे ही ख़याल किए जाते थे मगर इस बात में भी शक व शुब्हा का मुतलक़ दख़ल नहीं है कि वो मुल्क-ए-कनआन के अम्बिया बरहक़ की नबुव्वतों और बशारतों का मौज़ू बने रहे। बाइबल मुक़द्दस की कसीर इबारतें मुल्क अरब और उस के बाशिंदों की ख़ुशहाली की ख़बरों से ममलू (भरा हुआ) हैं। उन की गुमराही और ज़लालत (तबाही) के दूर होने की ख़बरों से पुर हैं। इस्राईल के वाहिद ख़ुदा की तरफ़ फिरने और इल्म-ए-तौहीद इलाही के नीचे ख़ुदा की बशारतें सुनाने की ख़बरों से लबरेज़ हैं। जिसकी मिसाल हम फ़स्ल अव्वल में पेश कर चुके हैं। यहां पर हम नाज़रीन किराम को यह बतलाना चाहते हैं कि हज़रत मुहम्मद के ज़माने से सैंकड़ों बरस पेश्तर से कलाम ख़ुदा यहूद और मसीहियों के अरब में आबाद होने के साथ पूरा होना शुरू हो गया था तो भी कलाम-ए-ख़ुदा की तक्मील अरब के फ़र्ज़न्द आज़म की वसातत से होने को बाक़ी थी। जिस के लिए क़ुद्रत व हिक्मत इलाही ने मुल्क अरब में सख़्त मुश्किलात पैदा होने दी थीं। जिनमें से एक मुश्किल अरब की ग़ैर-मुल्की हुकूमतों की मौजूदगी थी
हज़रत मुहम्मद के बचपन के ज़माने में अरब के शुमाल मशरिक़ी किनारे से लेकर जुनूबी मग़रिबी किनारे तक के तमाम ज़रख़ेज़ और आबाद इलाक़े और रियासतें एशीया की ज़बरदस्त ईरानी हुकूमत की मिल्कियत बन गई थीं और यमन की तमाम मसीही आबादी ईरान की मह्कूम हो चुकी थी। इन इलाक़ों में ईरानी बस्तीयां आबाद हो कर अरब को ईरानी मज़्हब में भर्ती करती जाती थीं।
अरब के शुमाल और शुमाल मशरिक़ से लेकर शुमाल मग़रिब के तमाम मुल्क पर ख़लीज अक्काबह तक सल़्तनत-ए-रुम ने क़ब्ज़ा कर लिया था। वहां के उमरा और शुरफ़ा और बादशाहों तक ने मसीही मज़्हब इख़्तियार कर लिया था जिसकी वजह से वस्त अरब और मदीना की यहूदी रियासत ही आज़ाद रह गई थीं लेकिन वस्त की ये तमाम आबादी और उस का मक़बूज़ा मुल्क ईरानी और रूमी हुकूमतों के पिंजरों में यूं बंद ना था जैसे परिंदा बंद किया जाता है गो वस्त अरब की आबादी उन हुकूमतों से तिजारती मुआहिदे रखती थी। मगर उन की तिजारत पर भी पाबंदीयां आइद थीं। इन हुकूमतों ने मुल्क अरब की आबादी को तीन हिस्सों में तक़्सीम कर दिया था। जिससे हरसेह हिस्से के आबादकार आपस में मेल जोल ना रख सकते थे शुमाल व जुनूब की ग़ैर-मुल्की हुकूमतों से वस्त अरब की आबादी का सख़्त तंग होना एक क़ुदरती बात थी जिसका इन्कार नहीं किया जा सकता है यानी उस के साथ ही ये बात कहना भी बेजा ना होगा कि मदीना की यहूदी रियासत वस्त अरब की आज़ाइर रियासत के साथ उस के दुख सुख में शरीककार थी और अपनी तिजारत से वस्त अरब की आबादी की बहुत मुश्किलात हल करने का वसीला थी जिसे वस्त अरब में माक़ूल इक़्तिदार हासिल हो गया था तो भी वस्त अरब की आबादी की जुम्ला मुश्किलात का हल मदीना की यहूदी रियासत तज्वीज़ ना कर सकती थी। क्योंकि वस्त अरब की मुश्किलात को ज़ाहिर करने वाला पैग़ाम क़ुरआन शरीफ़ की मार्फ़त ज़ेल के अल्फ़ाज़ में हम तक पहुंच गया है जो उन लोगों की दुशवारीयों का ख़ुलासा है जो वस्त अरब में आबाद थे लिखा है :-
ام لھمہ نصیب من الملک فاذ لاھیوتون النا من نقیراً यानी क्या इनके वास्ते मुल्क में कोई हिस्सा है। पस वो लोगों को तिल बराबर जगह नहीं देते हैं। निसा 8 रुकूअ
ईरान और सदोम की ज़बरदस्त फ़ुतूहात-ए-अरबिया ने वस्त अरब की रियासतों पर जो दबाओ डाला हुआ था उसने ना सिर्फ वस्त अरब के उमरा और शुरफ़ा का ख़ून ख़ुश्क कर रखा होगा बल्कि उन में ख़ुदग़रज़ी और तंग नज़री और बाहमी बे-एतबारी और बाहमी निफ़ाक़ (इख़्तिलाफ़) की बलाऐं भी पैदा कर दी होंगी। क़ुरआन शरीफ़ में उन के बाहमी निफ़ाक़ का ज़ोरदार अल्फ़ाज़ में ज़िक्र आया है। चुनान्चे लिखा है,الاعراب اشد کفراً ونفاقاً ऐसे हालात व अस्बाब की मौजूदगी वस्त अरब की आज़ाद रियासतों के लिए जैसी कि मोहलिक (ख़तरनाक) थी बयान की मुहताज नहीं है।
बयान माफ़ौक़ में जो कुछ वस्त अरब की आबादी की बाबत लिखा गया है वो हमारा ही ख़याल नहीं बल्कि मौअर्रखीन इस्लाम (इस्लाम की तारीख़ लिखने वाले) के बयान का ख़ुलासा है। ज़ेल का बयान बतौर मिसाल मुलाहिज़ा हो, जिसे आईना-उल-इस्लाम मोअल्लिफ़ आली-जनाब आग़ा मुख़्तार हुसैन साहब सलमा रुबा मीर आबपाशी रियासत जम्मू व कशमीर, मत्बूआ यूसुफ़ी प्रैस दिली 1911 ई॰ से हद्या नाज़रीन किया जाता है। आप लिखते हैं :-
इस वक़्त अरब की ये हालत थी कि सात सौ साल से इस मुल्क के बाशिंदे क़त्ल व ग़ारत को अपना पेशा इख़्तियार किए हुए थे। ऐश व इशरत उनका शेवा (रिवाज) था। रियाया को कोई मुल्की व माली हुक़ूक़ मयस्सर ना थे। बेचारे ग़रीब काश्तकार और मुफ़्लिस लोग अमीरों का शिकार होते थे। अगरचे ज़राअत पेशा लोगों के पास ज़मीनें भी थीं लेकिन आला मालिकान अराज़ी को इख़्तियार था कि जिस वक़्त चाहें ज़मीनें उनसे छीन लें और बेचारे काश्तकारों को भूक से मरने दें। ग़ुलामों की ये हालत कि हर वक़्त उन के गलों में भारी तौक़ पड़ा रहता था और वो चौपाओं की तरह जगह बजगह हांके जाते थे आम तौर पर बरदा-फ़रोश ग़ुलामों की ख़रीद व फ़रोख़्त में मसरूफ़ थे और इस इन्सानी रेवड़ को एक बड़े चाबुक के साथ इधर-उधर लिए फिरते थे। मुर्दो औरत चिथड़े लगाए सरोपा बरहना (नंगे) दियार बदयार ले जाए जाते थे। अगर कोई चलने से माज़ूर हो जाता तो उसे चाबुको से इस क़द्र मार पड़ती कि वो बेदम हो जाता था। अहले-अरब बिल-उमूम ख़ाना-जंगी और फ़ित्ना व फ़साद में मशग़ूल थे। इन्सानी ख़ून बहाना यतीमों का माल खा जाना उन लोगों के आगे मामूली बात थी। ग़रज़ कि दुनिया की कोई बदकारी और बद-ख़सलती (बुरी आदत) ऐसी ना थी जो उन में मौजूद ना हो। सफ़ा 2
हालात मुन्दरिजा सदर इस बात के शाहिद (गवाह) हैं कि हज़रत मुहम्मद के ज़माने का अरब ग़ैर-मुल्की हुकूमतों के इख़्तियार व इक़्तिदार की ज़ंजीरों से जकड़ बंद था। आज़ाद रियासतों की अंदरूनी हालत और भी ख़तरनाक और दहश्त अंगेज़ थी। इन रियासतों में हरगिज़ ये दम-ख़म ना था कि वो अपने आपको तबाही और बर्बादी से बचा लें।
ज़माना-ए-जाहिलियत के अरबी मज़ाहिब पर ग़ौर करो
अरब के मुल्की हालात पर तब्सिरा करते हुए हम अहले-अरब के मज़ाहिब व अक़ाइद व रसूम को फ़रामोश (भूल) नहीं कर सकते। बाइबल मुक़द्दस के बयान से ये बात ज़ाहिर व साबित हो सकती है कि मुल़्क-ए-अरब ही एक ऐसा मुल्क़ था जो वाहिद ख़ुदा के परस्तारों की औलाद के विरसे में आया था। हज़रत सिम बिन नूह की औलाद ही ज़्यादातर मुल्क अरब में आबाद हुई थी। जिसके डेरों में ख़ुदा की सुकूनत ज़ाहिर की गई थी। पर ख़ासकर मुल्क अरब तो इस का गोया मौरूसी हिस्सा था। अजीबतर मुआमला ये भी है कि इस मुल्क में बाद के ज़मानों में हज़रत इब्राहिम की नस्ल भी आबाद हुई। लेकिन मवाह्हिदीन की अरबी नस्ल वाहिद ख़ुदा की परस्तिश छोड़कर बुत-परस्ती की तारीकी में ज़रूर मुब्तला हो गई। जिसका इन्कार नहीं किया जा सकता है।
अरबों के बुतों का उनके माअबदों (इबादत-गाहों) उन की परस्तिश के रसूम वग़ैरह का जब दीगर बुत-परस्त अक़्वाम के बुतों, माअबदों और उन की परस्तिश निहायत सादा मालूम हो सकती है। जिसके साथ निहायत कम मकरूहात शामिल थीं तमाम मुल्क अरब में सिर्फ मक्का शहर का काअबा ही एक ऐसा माअबद था जिसमें 360 बुतों से ज़्यादा बुत रखे थे और ताज्जुब है कि तमाम मुल्क में इस के सिवा कोई दूसरा माअबद ही ना था। तमाम अरब इसी काअबे की इज़्ज़त व हुर्मत किया करते थे। इसी में यहूद व क़ुरैश के जद्दे-अमजद (बाप दादा) की तसावीर रखी थीं। इसी में मसीहिय्यत के बानी और आप की वालिदा माजिदा की तस्वीरें मौजूद थीं। इसी में दीगर अक़्वाम अरब के बुत धरे थे। वाक़ई मक्का का काअबा अपनी नौईय्यत में अजीबो-गरीब माअबद (इबादत-गाह) था जिसकी मिसाल ज़मीन पर नापैद (ख़त्म) थी।
इस के सिवा अरब के बुत परस्तों और दुनिया के दीगर ममालिक के बुत परस्तों में एक बात में ये भी खुला इम्तियाज़ (फ़र्क़) था कि जहां दूसरे ममालिक के बुत-परस्त अपने बुतों और बनावटी माबूदों को ही उलूहियत मुजस्सम मानते थे। वहां अरबी बुत-परस्त का एक ख़ुदा का इक़रार करते हुए अपने बातिल माबूदों को ख़ुदा के हुज़ूर अपने लिए शफ़ाअत कनिंदे ख़याल करते थे। अगरचे दीगर अक़्वाम की तरह वो भी अपने बातिल माबूदों को मुज़क्कर व मोंअन्नस मानते और उन की बुत-परस्ती में बाबिल और मिस्र के माअबूदों की शमूलीयत पाई जाती थी। लेकिन अस्ल अरबों के अपने माअबूद बहुत कम थे।
सर-ज़मीन अरब को गो ज़माना क़दीम से बुत-परस्ती की मकरूहात ने ज़ुल्मत-कदा बनाया हुआ था। मगर इसे इस बात में भी नुमायां इम्तियाज़ हासिल था कि इसी सर-ज़मीन की सतह पर शहर और आबाद था। जहां से रईस अल-मवाहिदीन हज़रत इब्राहिम इब्रानी का ख़ानदान निकला था कि वो बरकत इब्राहीमी से ज़मीन के किनारों तक को रोशन करे। उस की औलाद से ज़मीन की अक़्वाम के घराने बरकत पाएं। गो हज़रत इब्राहिम से लेकर यहूद के मुल्क अरब में आबाद होने कि दिन तक और मसीहियों के मुल्क-ए-अरब में पनाह पाने कि दिन तक या हज़रत मुहम्मद के पैदा होने के दिन तक आम तौर से अहले-अरब बुत-परस्त ही रहे तो भी इस तवील ज़माने में मुल्क-ए-अरब में हज़रत अय्यूब और हूद सालिह जैसी हस्तियाँ ज़रूर पैदा हुईं जो वाहिद ख़ुदा की परस्तार थीं। मगर इस के साथ ही ये बात भी मानना पड़ती है कि अरबों की बुत-परस्ती की जहालत ने अरब की इन बुलंद मर्तबा हस्तीयों की तमाम कोशिशें बे-असर कर डाली थीं।
हज़रत मुहम्मद के ज़माने के क़रीब वस्त अरब की आज़ाद रियासत में यहूदियत ख़ुसूसुन मसीहिय्यत के असर से मोअस्सर हुए थे। जिनमें से बाअज़ की कोशिशें वाक़ई शानदार थीं। अगरचे उनकी ज़िंदगी और उन के काम का अहाता निहायत महदूद था। लेकिन इस में कलाम नहीं हो सकता कि उन्हों ने ही एक दफ़ाअ फिर मुल्क-ए-अरब की आज़ादी और हुर्रियत की ऐसी बुनियाद रख दी थी जिस पर बाद के अय्याम में अरब के फ़र्ज़न्द आज़म ने इस्लाम की शानदार इमारत तामीर करना थी जिसे आने वाले ज़मानों की दुनिया ने हज़ारों साल तक इज्जत व एहतराम से देखना और इस में पनाह लेना था। तो भी हज़रत मुहम्मद की ख़िदमात से क़ब्ल वस्त अरब की आज़ाद रियासत बुत-परस्ती की तमाम मकरूहात (नफ़रत-अंगेज़) काम के नशे में मख़मूर (मदहोश) थी और अपने हक़ीक़ी खैर-अंदेशों का आख़िरी मुक़ाबला करने को तैयार हो रही थीं।
हम पेश्तर इस बात का बार-बार ज़िक्र कर चुके हैं कि अरब की आबादी हज़रत सिम बिन नूह और हज़रत इब्राहिम इब्रानी की नस्ल से थी। सिमी अक़्वाम में औरत मर्द के वो रिश्ते नापीद (ख़त्म) थे जो हज़रत मुहम्मद के ज़माने के क़रीब अरबों में पाए जाते थे। वाक़ई ये रिश्ते निहायत मकरूह थे। इस के सिवा उनमें लड़कीयों को ज़िंदा दरगोर (ज़िंदा दफ़न) करने का रिवाज इंतिहा दर्जे तक ज़ालिमाना था। ये रिवाज भी सिमी अक़्वाम में नापीद (ख़त्म) था लेकिन अरबों में आम था। सवाल पैदा होता है कि अरबों ने ये मक़रूर रिवाज कहाँ से लिए थे?
अगर इन बातों की बाबत दर्याफ़्त किया जाये तो औरत मर्द के रिश्तों ज़ेर-ए-नज़र की हस्ती और लड़कीयों को मारने का दस्तूर मुहज़्ज़ब हिंद के दर्मियान मिल सकता है। मनु के धर्मशास्त्र में औरत मर्द के वही आठ बवाह मज़्कूर हैं जो अरबों में मुरव्वज़ थे। हिन्दुस्तान में लड़कीयां भी हलाक की जाती थीं जो ज़माना हुकूमत इंग्लिशिया से ही बचनी शुरू हुई हैं मुहर्रमात से निकाह की रस्म ग़ालिब ईरानी अक़्वाम से जारी हुई होगी। पस ऐसे हालात की मौजूदगी में हमारा ये कहना बेजा नहीं हो सकता कि अरबों में औरत मर्द के रिश्ते मुल्क ईरान और हिन्दुस्तान से ही अख़ज़ किए गए होंगे। जिनके मकरूह होने के सिवा अरबों की बर्बादी का एक बड़ा चशमा यही रिश्ते तस्लीम किए जा सकते हैं। और इन के सिवा शराबखोरी, जुआ बाज़ी, और दीगर बद रसूम वस्त अरब को बर्बाद कर रही थीं। जिनका ज़िक्र पेश्तर हो चुका है।
ज़माना ज़ेर-ए-नज़र में अहले-अरब की गुज़श्ता शान ही मफ़्क़ूद (खोया हुआ) ना थी। बल्कि इस ज़माने में ख़ारिजी और अंदरूनी आफ़तें वस्त अरब की आबादी का ख़ून चूस रही थीं। जिनसे ख़लासी और रिहाई पाना इन्सानी अक़्ल व फिक्र और क़ुव्वत व ताक़त की हदूद से बाहर हो चुका था। अहले-अरब का अपने बंधनों से आज़ाद होना और अपनी आज़ादी व हुर्रियत (आज़ादी को क़ायम रखना) को फिर हासिल करना वाक़ई क़ुद्रत के मोअजज़ाना काम पर मुन्हसिर था। जिसका कोई हक़-पसंद इन्सान हरगिज़ इन्कार नहीं कर सकता है। चूँकि ख़ुदा ने ये अज़ीमुश्शान काम हज़रत मुहम्मद मक्की व मदनी की मार्फ़त किया था इस वजह से हमारे ज़माने की 24 करोड़ इन्सानी आबादी अरब और उस के फ़र्ज़ंद-ए-आज़म की इज़्ज़त व हुर्मत कर रही है।
अहकर-उल-ईबाद, पादरी ग़ुलाम मसीह, ऐडीटर, नूर-ए-अफ़्शां, लाहौर