THE

ORIGINAL SOURCES

OF

THE QUR'AN

BY THE

REV. W. ST. CLAIR TISDALL, M.A., D.D.

माख़ज़-उल-क़ुरआन

शेख़-उल-इस्लाम हज़रत अल्लामा सेंकलर

डाक्टर टिसडल साहब

SOCIETY FOR PROMOTING CHRISTIAN KNOWLEDGE

LONDON: Northumberland Avenue, W.C.;

43 Queen Victoria Street, E.C.;

BRIGHTON: 129 North Street

NEW YORK: E. S. Gorham

1905

माख़ज़-उल-क़ुरआन

पहला बाब

तम्हीद

क़दीम यूनानी हकीम देमो क्रीतस Democritus के इस क़ौल में बहुत कुछ सदाक़त है कि “कोई चीज़ अदम से वजूद में नहीं आई।” चुनान्चे इस कुल्लिया (उसूल) से यक़ीनन मज़्हबे इस्लाम भी मुस्तसना (अलग) नहीं, चूँकि इस मज़्हब ने तारीख़ बनीनौ इन्सान में निहायत अहम नताइज पैदा किए हैं और अब भी बहुत से मशरिक़ी ममालिक में इस का बड़ा असर पाया जाता है। इसलिए हर उस शख़्स के लिए जो मज़हबी, तारीख़ी या ख़ालिस फ़लसफ़ियाना नुक़्ता-ए-नज़र से तारीख़ नौ बशर की तफ़्तीश व तहकीक करना चाहता है, मज़्हब इस्लाम के माख़ज़ की तफ़्तीश करना ज़रूर बाइस दिलचस्पी होगा। जर्मनी में इस पर नीग्रो विवेल Gustav Weil और इंग्लिस्तान में सर विलियम म्यूर Sir William Muir ने जो कुछ लिखा है इस से हमको “सीरत-ए-मुहम्मदी” और तारीख़ दुनिया-ए-इस्लाम के मुताल्लिक़ ख़ातिर-ख़्वाह मालूमात बहम पहुँचती हैं। इसलिए हमको यहां सीरत मुहम्मदी और तारीख़ इस्लाम पर बह्स करने की कोई ज़रूरत नहीं है।

मुसलमानों का दावा है कि उनको दीन इस्लाम बराहे रास्त मुहम्मदﷺ से पहुंचा है। वो मुहम्मदﷺ को “ख़ातिम-उन-नबीय्यीन (ख़ातिम-उल-अम्बिया) और “सय्यद-उल-मुर्सलिन” कहते हैं और ये भी कहते हैं कि उनके मज़्हब का मदार क़ुरआन मजीद है। इस के इलावा मुसलमान उन अहादीस को भी एहमीय्यत देते हैं जो बसिलसिला-ए-ख़ास मुहम्मद ﷺ तक पहुँचती हैं और जिन्हें अर्स-ए-दराज़ बाद क़लम-बंद किया गया था। अल-ग़र्ज़ मुसलमानों के नज़्दीक क़ुरआन व हदीस यही दो चीज़ें हैं जिन पर इस्लाम की बुनियाद क़ायम है। मुसलमान पुराने मुफ़स्सिरीन क़ुरआन को भी बहुत एहमीय्यत देते हैं और उलमा व फुक़हा मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) ने फ़िक़्ह में जो कुछ इस्तखराज़ (निकालना) व इस्तनताज (नतीजा निकालना) इन क़दीम तफ़ासीर से किया है उसे भी बहुत अहम समझते हैं। मगर हमको “माख़ज़ क़ुरआन” (ماخذ قرآن) की तहक़ीक़ात में मोअख्ख़र-उल-ज़िक्र बातों से ज़्यादा ताल्लुक़ नहीं। अगर है तो सिर्फ उसी क़द्र कि उनसे मुसलमानों के असली मोतक़िदात पर क्या रोशनी पड़ती है। हमारी तहक़ीक़ात में अहादीस को भी सानवी दर्जा दिया जाएगा, क्योंकि यूरोपीयन नुक़्ता-ए-नज़र से उनकी सेहत बहुत मुश्तबा (यानी जिसकी सेहत का यकीन ना हो) है। इलावा अज़ीं मुसलमानों के मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़े मुख़्तलिफ़ कुतुब अहादीस को मुस्तनद या सही समझते हैं, बल्कि ख़ुद जामुईन अहादीस (हदीस जमा करने वाले) भी ये कहते हैं कि उनकी किताबों में बहुत सी हदीसें ऐसी हैं जिनकी सेहत मुश्तबा (यानि यकीन ले लायक़ नहीं) है।

चूँकि अहादीस का ताल्लुक़ ज़्यादा-तर मुहम्मदﷺ के अक़्वाल व अफ़्आल से है इसलिए ऐसी हालतों में जहां उन अहादीस से बाअज़ मवाक़े पर ताअलीम क़ुरआन की तशरीह व तौज़ीह होती है, हम वक़्तन-फ़-वक़्तन इन अहादीस का भी हवाला देंगे। क्योंकि क़ुरआन मजीद में बाअज़ मुक़ामात ऐसे मुबहम (यानी छिपे हुए) हैं जिनकी वज़ाहत व तशरीह के लिए अहादीस से काम लेने की ज़रूरत पड़ती है, मसलन क़ुरआन मजीद की पचासवें सूरत का नाम “सूरह क़ाफ़” سورۂ ق है और उसे इसी नाम के अरबी हर्फ़ यानी “क़ाफ़ ق” के ज़रीये लिखा जाता है। इसलिए यक़ीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता कि इस “क़ाफ़ ق” के क्या मअनी हैं तावक़्ते के अहादीस से काम ना लिया जाये, क्योंकि इन्हीं अहादीस से मालूम होता है कि कोह-ए-क़ाफ़ की निस्बत जिसका सूरह मज़्कूर में ज़िक्र है, उनका क्या ख़्याल था। इलावा बरीं क़ुरआन मजीद की सूरत नंबर 17 का नाम “बनी-इस्राईल” है जिसकी इब्तिदाई आयतों का मफ़्हूम ये है “हम्दो सना उस की जिसने सैर कराई अपने बंदे को एक रात में मस्जिद-उल-हराम से मस्जिद-उल-अक़्सा तक वग़ैरह।” इन आयात के मअनी समझने के लिए हमको अहादीस की तरफ़ रुजू करना पड़ेगा जो “मेअराज मुहम्मदी” के मुताल्लिक़ पाई जाती हैं। मुसलमानों के अक़ाइद और मज़हबी रसूम पर बह्स करते हुए हमारा दस्तूर-उल-अमल ये रहेगा कि हम किसी ऐसी ताअलीम या रस्म से बह्स करेंगे जिसकी बाबत ज़ाहिरन या माअनन क़ुरआन का कोई हुक्म मौजूद ना हो या जिसका ज़िक्र मुस्तनद अहादीस में ना पाया जाता हो।

यहां ये अम्र ज़ाहिर कर देना मुनासिब ना होगा कि अगरचे सहीह व मुस्तनद अहादीस को एक हद तक वह्यी का मर्तबा दिया जाये। बईं-हमा उनका मर्तबा नुसूस क़ुरआनी के बराबर नहीं समझा जाता बल्कि सानवी (दूसरा) दर्जा दिया जाता है। इस तरह वह्यी की दो किसमें कर दी गई हैं यानी (1) वह्यी मत्लू और (2) वह्यी ग़ैर मत्लू। क़ुरआन मजीद को वह्यी मत्लू कहा जाता है क्योंकि मुसलमान इसी को ख़ुदा का कलाम समझते हैं और इसी वजह से ये क़ायदा मुक़र्रर है कि अगर कोई हदीस ख़्वाह कितनी ही मुस्तनद हो, क़ुरआन मजीद की किसी एक आयत के भी ख़िलाफ़ हो, रद्द कर दी जाएगी। मुसलमानों के अक़ाइद पर बह्स करते हुए इस क़ायदे की पाबंदी इसलिए मुनासिब है कि इस तरह हम अहादीस के सहीह या मौज़ू (मनघड़त) होने की बह्स से बच जाएँगे।

तारीख़ क़ुरआन की बाबत हमको पूरी तरह क़ाबिल इत्मीनान मालूमात हासिल हैं। जहां कोई सूरत नाज़िल हुई और रसूल की ज़बान से अदा हुई उसी वक़्त मुसलमान क़ातिबों ने जिनकी तादाद बहुत ज़्यादा थी फ़ौरन उस चीज़ पर जो उनके हाथ आई लिख लिया। मुहम्मदﷺ के ज़माने में मक्का वाले लिखना पढ़ना जानते थे। और बयान किया जाता है कि जब कुछ मक्का वाले असीर (क़ैदी) हुए तो उनको इस शर्त पर रिहाई दी गई कि वो मदीना के कुछ आदमीयों को लिखना पढ़ना सिखा दें। अल-ग़र्ज़ ख़्वाह क़ुरआन की आयतें उसी वक़्त लिख ली गई हों या ना लिख ली गई हूँ, मगर उनको फ़ौरन हिफ़्ज़ कर लिया जाता था और फिर नमाज़ के वक़्त या दीगर मवाक़े पर दूसरे मुसलमानों को पढ़ कर सुना दी जाती थीं। अगर किसी आयत की सेहत के मुताल्लिक़ किसी क़िस्म का शक व शुब्हा वाक़ेअ होता सहाबा मुहम्मदﷺ से दर्याफ़्त कर लिया करते थे। अहादीस से ये भी ज़ाहिर होता है कि रसूल अल्लाह की ज़िंदगी में अजवाज-ए-मुतह्हरात (हुज़ूर की बीवियों) के घरों में बाअज़ सूरतें या आयतें लिखी हुई महफ़ूज़ थीं जिनमें से बाअज़ के मुताल्लिक़ ये भी कहा जाता है कि वो ज़ाए हो गई थीं और फिर दस्तयाब ना हुईं। वक़्तन-फ़-वक़्तन नबी हिदायत फ़रमाया करते थे कि जदीद (नई) नाज़िल शूदा आयात को फ़ुलां फ़ुलां सूरत में दाख़िल कर दिया जाये और उन सूरतों के नाम भी रख दिए गए थे जो आज तक इसी तरह चली आती हैं। मगर ऐसा मालूम होता है कि इस बाब में कोई क़ायदा मुक़र्रर ना था कि इन सूरतों की तर्तीब किस तरीक़े से की जाये। हर सूरत दूसरी सूरत से कम व बेश बे-तअल्लुक़ और बज़ात-ए-ख़ुद मुकम्मल थी। क़ुरआन मजीद की सूरतें हिफ़्ज़ कर लेने से सिर्फ यही ज़ाहिर नहीं होता कि हुफ़्फ़ाज़ अपने नबी की महबुत के बाइस इस क़द्र मेहनत शाक़ा करते थे, बल्कि उनका ये अमल सरमाया-ए-इज़्ज़त व दौलत भी था क्योंकि क़ुरून-ए-ऊला में जिन लोगों को क़ुरआन की ज़्यादा आयतें याद होती थीं वो नमाज़ में इमामत करने के ज़्यादा मुस्तहिक़ समझे जाते थे। इलावा अज़ीं उनको बमुक़ाबला दीगर मुसलमानों के माल-ए-ग़नीमत भी ज़्यादा मिलता था।

सहीह बुख़ारी से मालूम होता है कि रसूल अल्लाह की वफ़ात से एक साल बाद क़ुरआन मजीद को सबसे पहली मर्तबा एक जगह जमा किया गया। ये ख़िदमत अबू बक्र के से मुहम्मदﷺ के सहाबी और कातिब वह्यी ज़ैद बिन साबित ने अंजाम दी थी। इस जमा-उल-क़ुरआन की वजह ये हुई कि जब जंगे यमामा (12) हिज्री मैं बहुत से हुफ़्फ़ाज़ (यानी क़ुरआन के हाफ़िज़) शहीद हो गए तो उमर बिन ख़त्ताब को अंदेशा हुआ कि कहीं ऐसा ना हो वह्यी रब्बानी जुज़वन या कुल्लियन (यानी क़ुरआन का थोड़ा हिस्सा या पूरा हिस्सा) ज़ाए (बर्बाद) हो जाये। लिहाज़ा उन्होंने ख़लीफ़-तुल-रसूल (अबू बक्र सिद्दीक़) पर-ज़ोर दिया कि वो मुंतशिर (बिखरी हुई) सूरतों के जमा करने का हुक्म दें ताकि उन्हें एक मुस्तनद तहरीरी सूरत में महफ़ूज़ कर लिया जाये। ज़ैद बिन साबित ने इस हुक्म की तामील करने में अव्वल अव्वल तो किसी क़द्र पस-ओ-पेश किया क्योंकि नबी ने अपनी हयात (ज़िन्दगी) में ऐसा करने का कोई हुक्म नहीं दिया था, मगर बिल-आख़िर मान गए। ख़ुद ज़ैद बिन साबित के अल्फ़ाज़ ये हैं :-

सहीह बुख़ारी, जिल्द दोम, फ़ज़ाइल क़ुरआन, हदीस 222

क़ुरआन जमा करने का बयान रावी मूसा बिन इस्माईल इब्राहिम बिन सअद इब्ने शहाब उबीद बिन सबॉक् ज़ैद बिन साबित

حَدَّثَنَا مُوسَی بْنُ إِسْمَاعِيلَ عَنْ إِبْرَاهِيمَ بْنِ سَعْدٍ حَدَّثَنَا ابْنُ شِهَابٍ عَنْ عُبَيْدِ بْنِ السَّبَّاقِ أَنَّ زَيْدَ بْنَ ثَابِتٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ أَرْسَلَ إِلَيَّ أَبُو بَکْرٍ مَقْتَلَ أَهْلِ الْيَمَامَةِ فَإِذَا عُمَرُ بْنُ الْخَطَّابِ عِنْدَهُ قَالَ أَبُو بَکْرٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ إِنَّ عُمَرَ أَتَانِي فَقَالَ إِنَّ الْقَتْلَ قَدْ اسْتَحَرَّ يَوْمَ الْيَمَامَةِ بِقُرَّائِ الْقُرْآنِ وَإِنِّي أَخْشَی أَنْ يَسْتَحِرَّ الْقَتْلُ بِالْقُرَّائِ بِالْمَوَاطِنِ فَيَذْهَبَ کَثِيرٌ مِنْ الْقُرْآنِ وَإِنِّي أَرَی أَنْ تَأْمُرَ بِجَمْعِ الْقُرْآنِ قُلْتُ لِعُمَرَ کَيْفَ تَفْعَلُ شَيْئًا لَمْ يَفْعَلْهُ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ عُمَرُ هَذَا وَاللَّهِ خَيْرٌ فَلَمْ يَزَلْ عُمَرُ يُرَاجِعُنِي حَتَّی شَرَحَ اللَّهُ صَدْرِي لِذَلِکَ وَرَأَيْتُ فِي ذَلِکَ الَّذِي رَأَی عُمَرُ قَالَ زَيْدٌ قَالَ أَبُو بَکْرٍ إِنَّکَ رَجُلٌ شَابٌّ عَاقِلٌ لَا نَتَّهِمُکَ وَقَدْ کُنْتَ تَکْتُبُ الْوَحْيَ لِرَسُولِ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَتَتَبَّعْ الْقُرْآنَ فَاجْمَعْهُ فَوَاللَّهِ لَوْ کَلَّفُونِي نَقْلَ جَبَلٍ مِنْ الْجِبَالِ مَا کَانَ أَثْقَلَ عَلَيَّ مِمَّا أَمَرَنِي بِهِ مِنْ جَمْعِ الْقُرْآنِ قُلْتُ کَيْفَ تَفْعَلُونَ شَيْئًا لَمْ يَفْعَلْهُ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ هُوَ وَاللَّهِ خَيْرٌ فَلَمْ يَزَلْ أَبُو بَکْرٍ يُرَاجِعُنِي حَتَّی شَرَحَ اللَّهُ صَدْرِي لِلَّذِي شَرَحَ لَهُ صَدْرَ أَبِي بَکْرٍ وَعُمَرَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمَا فَتَتَبَّعْتُ الْقُرْآنَ أَجْمَعُهُ مِنْ الْعُسُبِ وَاللِّخَافِ وَصُدُورِ الرِّجَالِ حَتَّی وَجَدْتُ آخِرَ سُورَةِ التَّوْبَةِ مَعَ أَبِي خُزَيْمَةَ الْأَنْصَارِيِّ لَمْ أَجِدْهَا مَعَ أَحَدٍ غَيْرِهِ لَقَدْ جَائَکُمْ رَسُولٌ مِنْ أَنْفُسِکُمْ عَزِيزٌ عَلَيْهِ مَا عَنِتُّمْ حَتَّی خَاتِمَةِ بَرَائَةَ فَکَانَتْ الصُّحُفُ عِنْدَ أَبِي بَکْرٍ حَتَّی تَوَفَّاهُ اللَّهُ ثُمَّ عِنْدَ عُمَرَ حَيَاتَهُ ثُمَّ عِنْدَ حَفْصَةَ بِنْتِ عُمَرَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ

“हज़रत ज़ैद बिन साबित रज़ीयल्लाह तआला अन्हो से रिवायत करते हैं उन्होंने बयान किया कि यमामा की ख़ूँरेज़ी के ज़माने में मुझको हज़रत अबू बक्र रज़ीयल्लाह तआला अन्हो ने बुला भेजा उस वक़्त हज़रत उमर रज़ीयल्लाह तआला अन्हो भी उनके पास बैठे हुए थे हज़रत अबू बक्र रज़ीयल्लाह तआला अन्हो ने कहा कि हज़रत उमर रज़ीयल्लाह तआला अन्हो मेरे पास आए और कहा कि जंगे यमामा में बहुत से क़ुरआन पढ़ने वाले शहीद हो गए हैं और मुझे अंदेशा है कि बहुत से मुक़ामात में क़ारीयों का क़त्ल होगा तो बहुत सा क़ुरआन जाता रहेगा इसलिए मैं मुनासिब ख़्याल करता हूँ कि आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम (के) क़ुरआन के जमा करने का हुक्म दें हज़रत अबू बक्र रज़ीयल्लाह तआला अन्हो का बयान है कि मैंने उमर रज़ीयल्लाह तआला अन्हो से कहा कि तुम क्योंकर वो काम करोगे जिसको रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने नहीं किया हज़रत उमर ने कहा अल्लाह की क़सम ये बेहतर है और उमर मुझसे बार-बार इसरार करते रहे यहां तक कि अल्लाह तआला ने इस के लिए मेरा सीना खोल दिया और मैंने भी इस में वही मुनासिब ख़्याल किया जो उमर ने ख़्याल किया ज़ैद का बयान है कि हज़रत अबू बक्र रज़ीयल्लाह तआला अन्हो ने मुझसे कहा कि तुम एक जवान आदमी हो हम तुमको मथम भी नहीं कर सकते और तुम रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम के लिए वह्यी लिखते थे इसलिए क़ुरआन को तलाश कर के जमा करो अल्लाह की क़सम अगर मुझे किसी पहाड़ को उठाने की तक्लीफ़ देते तो क़ुरआन के जमा करने से जिसका उन्होंने मुझे हुक्म दिया था ज़्यादा वज़नी ना होता मैंने कहा कि आप लोग किस तरह वो काम करेंगे जिसको रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने नहीं किया हज़रत अबू बक्र रज़ीयल्लाह तआला अन्हो ने कहा अल्लाह की क़सम ये ख़ैर है और बार-बार इसरार करके मुझसे कहते रहे यहां तक कि अल्लाह तआला ने मेरा सीना उस के लिए खोल दिया जिसके लिए हज़रत अबू बक्र और हज़रत उमर रज़ीयल्लाह तआला अन्हो के सीने खोले थे चुनान्चे मैंने क़ुरआन को खजूर के पत्तों और पत्थर के टुकड़ों और लोगों के सीनों (हाफ़िज़ा) से तलाश करके जमा करना शुरू किया यहां तक कि सूरत तौबा की आख़िरी आयत मैंने अबू ख़ुज़ैमा अंसारी के पास पाई जो मुझे किसी के पास नहीं मिली और वो आयत ये थी (لَقَدْ جَا ءَكُمْ رَسُوْلٌ مِّنْ اَنْفُسِكُمْ عَزِيْزٌ عَلَيْهِ مَا عَنِتُّمْ حَرِيْصٌ عَلَيْكُمْ بِالْمُؤْمِنِيْنَ رَءُوْفٌ رَّحِيْمٌअल-तौबा 128) सूरत बरात (तौबा) के आख़िर तक चुनान्चे ये सहीफ़े हज़रत अबू बक्र रज़ीयल्लाह तआला अन्हो के पास रहे यहां तक कि अल्लाह तआला ने उन्हें उठा लिया फिर हज़रत उमर रज़ीयल्लाह तआला अन्हो के पास उनकी ज़िंदगी में फिर हज़रत हफ़्सा बिंत उमर रज़ीयल्लाहु तआला अन्हा के पास रहे।

“जमाअ-उल-क़ुरआन” جمع القرآن के लफ़्ज़ से ज़ाहिर होता है कि पहले क़ुरआन एक मुकम्मल मजमूई सूरत में ना था और इसलिए वो जज़्ब-ए-इज़्ज़त व एहतिराम जो अपने आक़ा के साथ ज़ैद बिन साबित के दिल में पाया जाता था, उनको हरगिज़ इस बात की इजाज़त ना दे सकता था कि क़ुरआन की जो सूरतें उन्होंने हुफ़्फ़ाज़ से सुनीं या मुख़्तलिफ़ अश्या पर लिखी हुई पाइं, उनमें किसी क़िस्म की भी कमी या बेशी करें। ये वाक़िये कि बहुत सी बातें क़ुरआन में ऐसी भी मौजूद जो मुहम्मदﷺ के अद्दाए (इद्दआ - दावा करना, बे दलील बात कहना) मामूर-मिन-अल्लाह (अल्लाह की तरफ से रसूल) होने के ख़िलाफ़ हैं, इस अम्र का फ़ैसलाकुन सबूत है कि ज़ैद बिन साबित ने इस काम को जो उन के सपुर्द किया गया था इंतिहाई दियानतदारी से अंजाम दिया। अल-ग़र्ज़ ज़ैद बिन साबित ने साल दो साल के अरसे में क़ुरआन की तमाम सूरतें जमा कर लीं और हर सूरत को अलेहदा (अलग) अलेहदा (अलग) लिख लिया।

इस अम्र के बावर करने के वजूह हैं कि क़ुरआन मजीद की सूरतों की मौजूदा तर्तीब उसी ज़माने से चली आती है, मगर ये नहीं कहा जा सकता कि ये तर्तीब किसी उसूल या तरीक़े पर क़ायम की गई थी। सूरह फ़ातिहा को बेशक बतौर मुकद-तुल-क़ुरआन सबसे पहले रखा गया जिसकी वजह ये है कि ये सूरत तमाम दुनिया-ए-इस्लाम में नमाज़ का जुज़्व थी और इसलिए हर शख़्स को अच्छी तरह याद थी। दीगर सूरतों को इस तरह तर्तीब दिया गया कि सबसे बड़ी सूरत सबसे पहले रखी गई और सबसे छोटी सूरत बिल्कुल अख़ीर में, मगर ये तर्तीब तारीख़ी तर्तीब के क़तई ख़िलाफ़ है। अहादीस से हमको मालूम होता है कि अक्सर सूरतों की शाने नुज़ूल क्या है और किन हालात के तहत इन सूरतों की बाअज़ आयात “वह्यी” नाज़िल हुई थीं। मगर हमको अपनी मौजूदा तहक़ीक़ात में इस मुआमले पर बह्स करने की चंदाँ ज़रूरत नहीं है। ज़ैद बिन साबित ने अपना काम ख़त्म करके क़ुरआन का वो मख़तूता जो यक़ीनन ख़त कोनी में तहरीर होगा हज़रत अबू बक्र के हवाले कर दिया, जिन्हों ने इस को अपनी वफ़ात तक महफ़ूज़ रखा। इस के बाद वो क़ुरआन हज़रत उमर की हिफ़ाज़त में रहा। उमर की शहादत के बाद उनकी साहबज़ादी हफ़्सा के क़ब्ज़ा में जो अज्वाज मुतह्हरात (हुज़ूर की बीबियों) में से एक थीं। इस के बाद अलेहदा (अलग) अलेहदा (अलग) सूरतों की नक़्लें इस क़ुरआन मजीद से या उन तहरीरों से की गईं जिनसे ज़ैद ने नक़्ल की थी और इस तरह हुफ़्फ़ाज़ जो क़ुरआन मजीद को पढ़ते थे इस में रफ़्ता-रफ़्ता गलतीयां या इख़्तिलाफ़ क़िरअतें पैदा हो गया और मुम्किन है कि जो सूरतें अलग अलग नक़्ल की गई थीं उनमें ये बात पैदा हो गई हो।

इस ज़माने में अरबी ज़बान की बहुत सी क़िरअतें राइज थीं। इसलिए अव्वल तो बाअज़ अल्फ़ाज़ की तशरीह व तौज़ीह करने की ज़रूरत पड़ी होगी, बादअज़ां ये भी इजाज़त दे दी गई होगी कि हर शख़्स अपनी क़िरआत قرأۃ के मुताबिक़ अल्फ़ाज़ असली इबारत में दाख़िल कर ले। अल-ग़र्ज़ बाअज़ मुहतात मुसलमानों को इस से बहुत परेशानी पैदा हुई। बिलआख़िर उस्मान को जबकि वो फ़ुतूहात आरमीनीया व आज़रबाईजान में मसरूफ़ थे, हुज़ैफ़ा इब्ने अलीमान ने इस ख़तरे से आगाह किया और कहा कि कहीं ऐसा ना हो, इस तरह असली क़ुरआन में ख़राबियां पड़ जाएं। बुख़ारी में लिखा है कि हुज़ैफ़ा ने उस्मान से इस तरह कहा :-

सही बुख़ारी, जिल्द दोम, फ़ज़ाइल क़ुरआन, हदीस 222

क़ुरआन जमा करने का बयान

रावी : मूसा, इब्राहिम, इब्ने शहाब, अनस बिन मालिक

حَدَّثَنَا مُوسَی حَدَّثَنَا إِبْرَاهِيمُ حَدَّثَنَا ابْنُ شِهَابٍ أَنَّ أَنَسَ بْنَ مَالِکٍ حَدَّثَهُ أَنَّ حُذَيْفَةَ بْنَ الْيَمَانِ قَدِمَ عَلَی عُثْمَانَ وَکَانَ يُغَازِي أَهْلَ الشَّأْمِ فِي فَتْحِ إِرْمِينِيَةَ وَأَذْرَبِيجَانَ مَعَ أَهْلِ الْعِرَاقِ فَأَفْزَعَ حُذَيْفَةَ اخْتِلَافُهُمْ فِي الْقِرَائَةِ فَقَالَ حُذَيْفَةُ لِعُثْمَانَ يَا أَمِيرَ الْمُؤْمِنِينَ أَدْرِکْ هَذِهِ الْأُمَّةَ قَبْلَ أَنْ يَخْتَلِفُوا فِي الْکِتَابِ اخْتِلَافَ الْيَهُودِ وَالنَّصَارَی فَأَرْسَلَ عُثْمَانُ إِلَی حَفْصَةَ أَنْ أَرْسِلِي إِلَيْنَا بِالصُّحُفِ نَنْسَخُهَا فِي الْمَصَاحِفِ ثُمَّ نَرُدُّهَا إِلَيْکِ فَأَرْسَلَتْ بِهَا حَفْصَةُ إِلَی عُثْمَانَ فَأَمَرَ زَيْدَ بْنَ ثَابِتٍ وَعَبْدَ اللَّهِ بْنَ الزُّبَيْرِ وَسَعِيدَ بْنَ الْعَاصِ وَعَبْدَ الرَّحْمَنِ بْنَ الْحَارِثِ بْنِ هِشَامٍ فَنَسَخُوهَا فِي الْمَصَاحِفِ وَقَالَ عُثْمَانُ لِلرَّهْطِ الْقُرَشِيِّينَ الثَّلَاثَةِ إِذَا اخْتَلَفْتُمْ أَنْتُمْ وَزَيْدُ بْنُ ثَابِتٍ فِي شَيْئٍ مِنْ الْقُرْآنِ فَاکْتُبُوهُ بِلِسَانِ قُرَيْشٍ فَإِنَّمَا نَزَلَ بِلِسَانِهِمْ فَفَعَلُوا حَتَّی إِذَا نَسَخُوا الصُّحُفَ فِي الْمَصَاحِفِ رَدَّ عُثْمَانُ الصُّحُفَ إِلَی حَفْصَةَ وَأَرْسَلَ إِلَی کُلِّ أُفُقٍ بِمُصْحَفٍ مِمَّا نَسَخُوا وَأَمَرَ بِمَا سِوَاهُ مِنْ الْقُرْآنِ فِي کُلِّ صَحِيفَةٍ أَوْ مُصْحَفٍ أَنْ يُحْرَقَ قَالَ ابْنُ شِهَابٍ وَأَخْبَرَنِي خَارِجَةُ بْنُ زَيْدِ بْنِ ثَابِتٍ سَمِعَ زَيْدَ بْنَ ثَابِتٍ قَالَ فَقَدْتُ آيَةً مِنْ الْأَحْزَابِ حِينَ نَسَخْنَا الْمُصْحَفَ قَدْ کُنْتُ أَسْمَعُ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يَقْرَأُ بِهَا فَالْتَمَسْنَاهَا فَوَجَدْنَاهَا مَعَ خُزَيْمَةَ بْنِ ثَابِتٍ الْأَنْصَارِيِّ مِنْ الْمُؤْمِنِينَ رِجَالٌ صَدَقُوا مَا عَاهَدُوا اللَّهَ عَلَيْهِ فَأَلْحَقْنَاهَا فِي سُورَتِهَا فِي الْمُصْحَفِ

हज़रत अनस बिन मालिक रज़ीयल्लाह तआला अन्हो से रिवायत करते हैं कि हज़रत हुज़ैफ़ा बिन अलीमान रज़ीयल्लाह तआला अन्हो हज़रत उस्मान रज़ीयल्लाह तआला अन्हो के पास पहुंचे उस वक़्त वो अहले शाम व इराक़ को मिला कर फ़त्ह आर्मीन व आज़रबाईजान में जंग कर रहे थे क़िरआत में अहले इराक़ व शाम के इख़्तिलाफ़ ने हज़रत हुज़ैफ़ा को बेचैन कर दिया चुनान्चे हज़रत हुज़ैफ़ा रज़ीयल्लाह तआला अन्हो ने हज़रत उस्मान रज़ीयल्लाह तआला अन्हो से कहा कि ऐ अमीर-उल-मोमिनीन इस उम्मत की ख़बर लीजिए क़ब्ल इस के कि वो यहूद व नसारा की तरह किताब में इख़्तिलाफ़ करने लगें हज़रत उस्मान रज़ीयल्लाह तआला अन्हो ने हज़रत हफ़्सा को कहला भेजा कि तुम वो सहीफ़े मेरे पास भेज दो हम उस के चंद सहीफ़ों में नक़्ल करा कर फिर तुम्हें वापिस कर देंगे हज़रत हफ़्सा रज़ीयल्लाहु तआला अन्हा ने ये सहीफ़े हज़रत उस्मान रज़ीयल्लाह तआला अन्हो को भेज दिए हज़रत उस्मान ने हज़रत ज़ैद बिन साबित रज़ीयल्लाह तआला अन्हो, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रज़ीयल्लाह तआला अन्हो, सईद बिन आस, अब्दुर्रहमान बिन हारिस बिन हिशाम को हुक्म दिया तो उन लोगों ने इस को मसाहफ़ में नक़्ल किया और हज़रत उस्मान रज़ीयल्लाह तआला अन्हो ने इन तीनों क़ुरैशियों से कहा कि जब तुम में और ज़ैद बिन साबित रज़ीयल्लाह तआला अन्हो में कहीं (क़िरआते) क़ुरआन में इख़्तिलाफ़ हो तो इस को क़ुरैश की ज़बान में लिखो इसलिए कि क़ुरआन उन्हीं की ज़बान में नाज़िल हुआ है चुनान्चे उन लोगों ने ऐसा ही किया यहां तक कि जब इन सहीफ़ों को मसाहफ़ में नक़्ल कर लिया गया तो हज़रत उस्मान रज़ीयल्लाह तआला अन्हो ने वो सहीफ़े हज़रत हफ़्सा रज़ीयल्लाहु तआला अन्हा के पास भिजवा दिए और नक़्ल शूदा मसाहफ़ में से एक एक तमाम इलाक़ों में भेज दिए और हुक्म दे दिया कि इस के सिवाए जो क़ुरआन सहीफ़ा या मसाहफ़ में है जला दिया जाये इब्ने शहाब का बयान है कि मुझसे ख़ारिजा बिन ज़ैद बिन साबित रज़ीयल्लाह तआला अन्हो ने हज़रत ज़ैद बिन साबित रज़ीयल्लाह तआला अन्हो का क़ौल नक़्ल किया कि मैंने मसाहफ़ को नक़्ल करते वक़्त सूरत अह्ज़ाब की एक आयत ना पाई हालाँकि मैंने रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम को ये आयत पढ़ते हुए सुना था हमने उसे तलाश किया तो वो आयत मुझे हज़रत ख़ुज़ैमा बिन साबित अंसारी के पास मिली (वो आयत ये है (مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ رِجَالٌ صَدَقُوْا مَا عَاهَدُوا اللّٰهَ عَلَيْهِ الخ) (33 अल-अह्ज़ाब 23) यानी ईमानदारों से आदमी हैं जिन्हों ने अल्लाह से किया हुआ वाअदा सच्च कर दिखाया तो हमने इस आयत को इस सूरत में शामिल कर दिया।

इस के बाद उस्मान ने क़ुरआन का असली नुस्ख़ा हफ़्सा को वापिस कर दिया और जो नुस्ख़ा नक़्ल किया गया था उस की नक़्लें बतौर नमूना हर जगह इरसाल (भेजना) कर दीं और इस के सिवाए तमाम औराक़ व मजलदात क़ुरआन के जला देने का हुक्म सादिर फ़र्मा दिया।

मुम्किन है कि ख़लीफ़ा उस्मान की ये कार्रवाई हमको क़ाबिल एतराज़ मालूम हो। मगर सच्च पूछिए तो इस कार्रवाई की वजह से आज तक तमाम इस्लामी ममालिक में क़ुरआन मजीद अपनी असली सूरत में मौजूद है और अब अगर मादूद-ए-चंद इख़्तिलाफ़ात-ए-क़िरआत मुख़्तलिफ़ राइज-उल-वक़्त क़ुरआनों में नज़र आते भी हैं तो वो सिर्फ़ हुरूफ़ “त”,”य” ’’ت‘‘،’’ی‘‘ और नून ’’ ن‘‘ के नुक़्तों के मुक़ामात से ताल्लुक़ रखते हैं। क्योंकि ख़त कूफ़ी के अंदर इन हुरूफ़ के लिए कोई तफ़रीकी निशान इम्तियाज़ मुक़र्रर ना था।

लिहाज़ा अब हम इस नतीजे तक पहुंचते हैं कि इस वक़्त भी वही क़ुरआन मौजूद जो है मुहम्मदﷺ ने छोड़ा था। लिहाज़ा हम क़ुरआन मजीद के मतन की सेहत पर कामिल यक़ीन रखते हुए इस किताब का मुतालआ इस नज़र से कर सकते हैं कि ये मालूम करें कि मुहम्मदﷺ ने क्या ताअलीम दी थी और इस का माख़ज़ क्या था। “माख़ज़-उल-क़ुरआन” ’’ماخذ القرآن पर बह्स करते हुए सबसे पहले ये मुनासिब होगा कि इस बाब में मुम्ताज़ व सरीर आवर्दा उलमा व फ़ुक़्हा-ए-इस्लाम ने जो कुछ कहा है इस पर ग़ौर किया जाये और तहक़ीक़ात की जाये कि जो कुछ ये लोग कहते हैं इस की ताईद नसूस क़ुरआनी से भी होती है या नहीं। इस के बाद हम ग़ौर करेंगे कि इन उलमा के बयानात सहीह हैं या नहीं और वो हमारे लिए क़ाबिल-ए-क़ुबूल हो सकते हैं नहीं।

दुनिया, इस्लाम के इस क़ौल से अच्छी तरह वाक़िफ़ है कि “क़ुरआन ख़ुद ख़ुदा का कलाम है जो आफ़रीनश आलम (पैदाइश आलम) से भी बहुत अरसा पेशतर परवरदिगार आलम ने “लौह-ए-महफ़ूज़” पर दर्ज फ़र्मा दिया था। अगरचे ख़लीफ़ा अल-मामून के ज़माने में और उस के बाद इस मसअले पर सख़्त झगड़े हुए, यानी एक जमाअत तो ये कहती थी कि क़ुरआन “अज़ली” (यानी हमेशा से) है और दूसरी ये कहती थी कि क़ुरआन “मख़्लूक़” (यानी पैदा किया हुआ) है। लेकिन हम इस वक़्त इस बह्स में नहीं पड़ते। बहरहाल मुसलमान हमेशा से यही कहते चले आए हैं क़ुरआन मुहम्मदﷺ या किसी दीगर इन्सान की तस्नीफ़कर्दा किताब नहीं बल्कि जुज़वन व कुल्लन (यानी थोड़ा हिस्सा और पूरा हिस्सा) ख़ुदा का कलाम है और इस कलाम के पयाम्बर मुहम्मदﷺ थे। अहादीस से मालूम होता है कि क़ुरआन मजीद को जिब्राईल अमीन लैल-तुल-क़द्र में आला तबक़ात आसमानी से ज़ीरीं तबक़ात तक लाए। बादअज़ां तमाम सूरतें और तमाम बतदरीज मुहम्मदﷺ के दिल में डाल कर उनकी ज़बान से अदा कराएं। लिहाज़ा क़ुरआन में कोई चीज़ ऐसी नहीं जो इन्सान की बनाई हुई हो। वो बिल्कुल और क़तई ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल शूदा किताब है।

इस ख़्याल से कि लोगों पर ये बात पूरी तरह रोशन हो जाये कि वाक़ई रासिख़-उल-अक़ीदा और पुराने ख़्याल के मुसलमानों का इस मुआमले में यही अक़ीदा है, हम जे़ल में दो इक़्तिबासात मशहूर व मारूफ़ मुसन्निफ़ अल्लामा इब्ने खुल्लिदून की किताब से दर्ज करते हैं। वो लिखते हैं कि :-

“पस जान लो कि क़ुरआन अरबों की ज़बान में नाज़िल हुआ। इस के जुम्ले असालीबे बलागत अरबों ही के हैं। वो सब उस को समझते थे। वो उस के तमाम मुख़्तलिफ़ मुफ़रद अल्फ़ाज़ व तराकीब के मअनी समझते थे और जानते थे कि एक का ताल्लुक़ दूसरे से क्या है। क़ुरआन नजमुन नजमुन नाज़िल होता रहा ताकि लोगों को हस्ब-ए-ज़रूरत फ़राइज़ देनी और तौहीद बारी तआला सिखाए। बाअज़ आयात में अक़ाइद ईमानी हैं और बाअज़ में दस्तूर-उल-अमल के अहकाम हैं।”

एक दूसरे मुक़ाम पर यही मुसन्निफ़ लिखता है कि :-

“ये सब कुछ तुम्हारे लिए इस बात का सबूत है कि जुम्ला कुतुब समाविया (आस्मानी किताबों) में सिर्फ क़ुरआन ही एक ऐसी किताब है जो बज़रीया वह्यी हमारे नबी पर इन्हीं कलिमात और इन्ही तराकीब के साथ नाज़िल हुई जिनमें वो पढ़ा जाता है, बरख़िलाफ़ तौरेत व इंजील व दीगर कुतुब समाविया (आस्मानी किताबों) के जिनके मआनी व मुतालिब अम्बिया को इलक़ा किए गए थे जबकि वो हालत वह्यी में होते थे और जब वो अम्बिया हालते बशरी में आते थे तो वो अपनी वह्यी के मअनी व मुतालिब लोगों को समझा देते थे, अपने अल्फ़ाज़ में। पस उन दीगर किताबों में कोई एजाज़ नहीं।”

इस का मतलब ये है कि अगरचे उलमाए इस्लाम इस अम्र को तस्लीम करते हैं कि दीगर अम्बिया जो क़ब्ल अज़ मुहम्मदﷺ मबऊस हुए थे वो इन्सानों के लिए पैग़ाम रब्बानी ज़रूर लाए थे, मगर बईं-हमा उनका दावा है कि क़ुरआन की वह्यी अपने मर्तबे और क़िस्म में उस इल्हाम से मुख़्तलिफ़ है जिसके ज़रीया से दीगर कुतुब समावी (आस्मानी किताबें) मसलन तौरेत व इंजील नाज़िल हुई थीं। इन कुतुब के मुसन्निफ़ीन के दिलों में किसी तरीक़े से ख़यालात इल्क़ा किए गए थे, लेकिन जिस ज़बान में इन अम्बिया ने इन ख़यालात को लोगों पर ज़ाहिर किया वो उनकी ज़ाती ज़बान थी। पस वो कुतुब तसानीफ़ बशरी कहे जाने से ज़्यादा किसी और दर्जे की मुस्तहिक़ नहीं हो सकतीं। इस के ख़िलाफ़ मुहम्मदﷺ ने जिब्राईल को ब-आवाज़-ए-बुलंद या ऐसी आवाज़ में जो बख़ूबी समझ में आ सकती थी, क़ुरआन का हर लफ़्ज़ इसी तर्तीब के साथ पढ़ते सुना जैसा कि वो आस्मान पर “लौह-ए-महफ़ूज़” पर लिखा हुआ था। कहते हैं कि अरबी अहले बहिश्त और मलाइका की ज़बान है।पस क़ुरआन में बजिन्सीही वही अल्फ़ाज़ हैं जो ख़ुद ख़ुदा ने फ़रमाए थे। क़ुरआन के तमाम अल्फ़ाज़, तमाम इसतिआरात, तमाम ख़यालात, तमाम बयानात और तमाम असालीब कुल्लियन व कामिलन ख़ुदा की तरफ़ हैं।

इस में शक नहीं कि उलमाए इस्लाम का ये दावा बिल्कुल बयानात क़ुरआन के मुताबिक़ है। असली आस्मानी क़ुरआन को “उम्मुल-किताब” कहा गया है। इलावा अज़ीं क़ुरआन के मुख़्तलिफ़ नाम और उस के मुख़्तलिफ़ औसाफ़ दीगर मुख़्तलिफ़ मुक़ामात पर बयान किए गए हैं, मसलन “ये एक बर्गुज़ीदा क़ुरआन है जो लौह-ए-महफ़ूज़ पर है।” (सूरह बुरज) ख़ुद लफ़्ज़ “क़ुरआन” के मअनी उस चीज़ के हैं जो पढ़ी जाये। एक दूसरी जगह ये लिखा है कि ख़ुदावंद तआला ने मुहम्मदﷺ को हुक्म दिया कि कहो “तुम्हारे और मेरे दर्मियान ख़ुदा शाहिद (गवाह) है और ये क़ुरआन मुझ पर बज़रीये वह्यी नाज़िल हुआ ताकि मैं तुमको आगाह करूँ।” (सूरह इनाम आयत 19) इसी तरह सूरत अलक़द्र में ख़ुदा को इस तरह कहता दिखाया गया कि “बतहक़ीक़ हमने नाज़िल किया इस को शब-ए-क़द्र में।” इसी क़िस्म की बहुत सी आयतें नक़्ल की जा सकती हैं।

लिहाज़ा उलमाए इस्लाम का अक़ीदा है कि इस्लाम का माख़ज़ और सरचश्मा ख़ुद अल्लाह तआला है और इस्लाम का कोई हिस्सा बालवास्ता या बिलावास्ता साबिक़ इल्हामात या दीगर मज़ाहिब से नहीं लिया गया। अगरचे क़ुरआन मजीद इसलिए नाज़िल हुआ था कि वो तौरेत व इंजील की तस्दीक़ करे और इस्लाम का दावा है कि वो असली और बिला तहरीफ़ इल्हामी किताबों के मुवाफ़िक़ है। इस्लाम का ये दावा जो इस वक़्त हमारे पेश-ए-नज़र है अहले फ़हम हज़रात के नज़्दीक क़ाबिल-ए-क़ुबूल नहीं, क्योंकि क़ुरआन की अख़्लाक़ीयात, उस का नज़रिया दरबारह फ़ितरतूल्लाह, उस के (वाक़ियात) तारीख़ी और बहुत सी दूसरी बातें ऐसी हैं जिनकी बिना पर हम इस बात में हरगिज़ शुब्हा नहीं कर सकते कि वो ख़ुद मुहम्मदﷺ की तस्नीफ़कर्दा किताब है। इसी के साथ ये सवाल भी पैदा होता है कि वो ख़यालात, वो बयानात और वो अक़्वाल जो मुहम्मदﷺ ने अपने मज़्हब में दाख़िल किए वो कहाँ से लिए गए? कौन सी बातें ख़ुद उनकी ईजाद हैं और कौन सी बातें दूसरे मुक़ामात से ली गई हैं? जो लोग दीगर मज़ाहिब के पैरौ थे उनकी ताअलीमात सीखने के मुहम्मदﷺ को क्या ज़राए हासिल थे? अगर मुहम्मदﷺ ने कुछ बातें दीगर मज़ाहिब से ली हैं तो वो क्या हैं? और किस-किस मज़्हब से कौन कौन सी बात ली गई? और जो नताइज दीन इस्लाम ने पैदा किए उनमें किस क़द्र उस्वा-ए-मुहम्मदी के और किस क़द्र हालत ज़माने के रहीन मिन्नत हैं? ये हैं वो चंद मसाइल जो हम हत्तुल-इम्कान निहायत वज़ाहत के साथ और मुदल्लिल तौर पर ज़ाहिर करेंगे।

दूसरा बाब

इस्लाम पर क़दीम अरबी अक़ाइद व रसूम का असर

मुहम्मदﷺ के दिल में इस्लाम की तदरीजी नशो व नुमा का ख़्याल क्योंकर पैदा हुआ और अपनी ताअलीमात उन्होंने कहाँ से हासिल कीं, ये मालूम करने के लिए ज़रूरी है कि पहले उन लोगों के मज़हबी अक़ाइद व रसूम पर ग़ौर किया जाये जिनमें वो पैदा हुए थे। अरब के तमाम बाशिंदे एक ही नस्ल से ताल्लुक़ नहीं रखते थे। अरब मुसन्निफ़ीन अहले अरब को दो किस्मों में मुनक़सिम (तक़्सीम या बाटां) करते हैं। एक ख़ालिस अरब, दूसरे मस्तारब (यानी वो लोग जो दूसरे मुल्कों से आकर अरब में आबाद हुए और अरबी बन गए) हमीरी और बाअज़ दीगर क़बाइल के देखने से मालूम होता है कि उनका बहुत कुछ ताल्लुक़ हब्शियों से था। बाबलिस्तान के सुमेरी बादशाहों ने क़दीम ज़माने में अरब के बाअज़ इलाक़े फ़त्ह किए थे। इनके हालात अलवाहे-ए-ख़ुतूत-ए-मेख़ी (الواحِ خطوطِ میخی) में दर्ज हैं। इनका मुतालआ करने, नीज़ इस वाक़िया को पेश-ए-नज़र रखने के बाद कि जज़ीरा नुमा-ए-सिना और ग़ालिबन बाअज़ शुमाली और मग़रिबी हिसस अरब पर क़दीम शाहाँ मिस्र की कुछ अरसा तक हुकूमत रही थी। इस में कोई शक व शुब्हा बाक़ी नहीं रहता कि क़दीम ज़माने में अरब की आबादी में हामी दीगर ग़ैर मुल्की अनासिर भी थे।

हुक्मराँ जमाअत के ख़यालात व अक़ाइद से मह्कूम जमाअत का मुतास्सिर होना ज़रूरी है। इसलिए ज़ाहिर है कि जिस ज़माने में बाबलिस्तान पर अज़ीमुश्शान ख़ानदान कुश हुकमरान था, उस ज़माने में अहले अरब बाबुल के तमद्दुन और उस के मज़हबी ख़यालात से ज़रूर मुतास्सिर हुए होंगे। इस का सबूत क़दीम ज़माने के अरबी कुतबों से भी मिलता है, क्योंकि उनमें ऐसे देवताओं के नाम भी पाए जाते हैं जिनकी परस्तिश सुमेरी या बाबिली क़ौम में राइज थी, मसलन “सीन” (Sin) यानी “चांद देवता” और “एस्सार” (Aththar) यानी “इस्तारत या इश्तार” वग़ैरह। ये वो देवता थे जिनकी परस्तिश पहले सुमेरी क़ौम किया करती थी और फिर बाबलिस्तान, आशौर्य (असूर्या), शाम और बाअज़ ममालिक अरब की समातीकी कौमें भी करने लगी थीं। बईं-हमा अगरचे अरब आबादी में यक़ीनन हामी मौजूद था, मगर आबादी का बड़ा हिस्सा क्या बलिहाज़ नस्ल व ज़बान और क्या बलिहाज़ मुआशरत व मज़्हब हमेशा से समातीकी चला था।

इब्न हिशाम, तिबरी और दिगर अरब मौरखीन ने बाज़ क़बाइल अरब के मुताल्लिक जो क़दीम रिवायत क़लमबंद की है इनसे पता चलता चलता है की जो कुछ इस बारे में इन लोगों ने लिखा है वह तक्रीबन बन वही है जो नामूस मुसा (Pentateuch) में दर्ज है और इन बयानात को देख कर यक़ीन करना पड़ता है की इन क़बाइल में से अक्सर कह्तान (قحطان) या इश्माइल (اسمٰعیل) या क़तूरह (قطورہ) जोज़ा ए इब्राहिम की औलाद की नस्ल से थे बल्कि जिन क़बाइल के अनसाब हकिक़तन इन बुजुर्गों से नहीं मिलते थे वह भी मुहम्मद ﷺ के ज़माने में अपना नसब यही बताते थे। क़बीला एकुरैश भी अपने आप को बज़रिये इस्माइल हज़रत इब्राहिम नसल से बताते थे (अगरचे इस साबित करना नामुम्किन ख्याल किया जाता है) मगर इस वाक़ये से क़बीला ए कुरैश का ख्याल यही था, क़ुद्रतन मुहम्मद ﷺ की तरफ से लोगों को हमदर्दी पैदा होना चाहिए थी क्योंकि उन्होंने दीने इब्राहीम ही की तरफ़ लोगों को दावत देने का दावा किया था और ये इब्राहीम वही थे जिन्हें अहल क़ुरैश फ़ख़्रो नाज़ के साथ अपना मोरिस-ए-आला समझते थे। ये बावर करने की भी काफ़ी वजूह हैं कि साम की औलाद का मज़हब एक ख़ुदा की प्रस्तिश करता था। अगरचे क़दीम ज़माने ही से अरब में “शिर्क” (Polytheism) ने राह पाली थी, मगर एक सच्चे ख़ुदा का अक़ीदा लोगों के दिलों से बिल्कुल महव (ख़त्म) ना हुआ था जिसकी वजह यक़ीनन वही ग़ैर मुल्की असर था जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर चुके हैं और मुख़्तलिफ़ क़बाइल के दर्मयान वही मुआहिदा पुख़्ता समझा जाता था जो अल्लाह की क़सम खा कर किया जाता था और “दुश्मन ख़ुदा” का लफ़्ज़ बहुत बुरा लफ़्ज़ समझा जाता था। सहीफ़ा-ए-अय्यूब के देखने से इस बात का सबूत मिल सकता है कि उस क़दीम ज़माने में भी “मेज़बान बहिश्त” (Host of Heaven) की प्रस्तिश मुल्क अरब में राइज थी। हेरोदोतोस ہیرودوتوس (जिल्द सोम बाब 8) के देखने से मालूम होता है कि उस ज़माने में अरब के लोग एक देवता और एक देवी की प्रस्तिश किया करते थे। वो लिखता है कि ये देवता और देवी वही थे जो यूनान में “देवनी सोस ” (Dionysus) और “ओरानिया ” (Urania) के नाम से मौसूम थे। हेरोदोतोस ہیرودوتوس लिखता है कि उन देवता और देवी के नाम यूनानी में “Οροταλ” और “Αλιλατ” थे। मोअख्ख़र-उल-ज़िक्र नाम मुम्किन है कि बाबलिस्तान का “अल्लात” (Allatu) हो मगर क़ुरआन का “अल्लात” ज़रूर है। ये लफ़्ज़ “अल्लाह” ’’اللہ‘‘ की तानीयस (यानी मोअन्नस स्त्रीलिंग) है। ख़ुद लफ़्ज़ “अल्लाह” ’’اللہ‘‘ लफ़्ज़ “अलालाह” الالٰہ (Al-Ilah) का मुख़फ़्फ़फ़ है और यही लफ़्ज़ ख़फ़ीफ़ तग़य्युरात के साथ तमाम समातीकी ज़बानों में “ख़ुदा” के लिए इस्तिमाल होता था, जिसमें हर्फ़ तख़्सीस “अल” ’’ال‘‘ शामिल कर दिया जाता है। पस लफ़्ज़ “अल्लाह” यूनानी लफ़्ज़ होथियोस ’’ ہوتھیوس‘‘ (oJqeoß) के बराबर है और लफ़्ज़ “Αλιλα” जो हेरोदोतोस ने बताया है वो इसी लफ़्ज़ की सहीह और ग़ैर मुख़फ़्फ़फ़ तानीस है।

मुम्किन है कि जिन अरबों का ज़िक्र हेरोदोतोस ने किया है उन्होंने अपने ख़ुदा-ए-वाहिद के लिए इसी तरह एक बीवी भी बना ली हो जैसे कि बाबलिस्तान की दीगर समातीकी अक़्वाम ने किया था। उन लोगों का ये ख़्याल करना भी दुरुस्त नहीं कि तमाम अरबों का अक़ीदा यही था और मुहम्मदﷺ के ज़माने में तो यक़ीनन ऐसा नहीं था क्योंकि इस अक़ीदे का पता ना तो क़ुरआन से चलता है, ना अरबों की क़दीम शायरी से। अल्लाह की निस्बत उनका ये अक़ीदा था कि वो बिल्कुल अलग-थलग है और उस तक कोई पहुंच नहीं सकता और मुख़्तलिफ़ क़बाइल जो अपने अदना दर्जे के बुतों की परस्तिश किया करते थे वो इस ख़्याल से करते थे कि ये बुत अल्लाह की दरगाह में शफ़ी होंगे। ये अदना दर्जा के माबूद या बुत बेशुमार थे। उनमें ख़ास ख़ास वुद्द, यऊक़, हुबल, अल्लात, उज्ज़ा और मनात थे। ُدّؔ،یعوقؔ،ھبلؔ،اللّاتؔ،عُزّیٰؔ، مناۃؔ उनमें मोख्ख़र-उल-ज़िक्र तीन देवियाँ थीं। क़ुरआन में अरबों को इस बात पर मलामत की गई है कि वो इन देवियों को “अल्लाह की बेटियां” कहते हैं।

अगर हम उस ज़माने की शायरी से अंदाज़ा करें तो मालूम होगा कि उस ज़माने के अरब चंदाँ पाबंद मज़्हब या दीन-दार नहीं थे और ज़्यादा तर उन्हीं कम दर्जा के माबूदों की पूजापाट किया करते थे। हर-चंद उनका ये ख़्याल भी था कि वो उनके ज़रीये से अल्लाह की इबादत करते हैं। बड़े ख़ुदा को ये लोग “अल्लाह तआला” कहा करते थे और ख़ुदा का ये ख़िताब यक़ीनन बहुत क़दीम है।

ये फ़र्ज़ करना दुरुस्त नहीं कि अरबों को तौहीद बारी तआला से अव्वल अव्वल मुहम्मदﷺ ने आश्ना किया क्योंकि ख़ुद लफ़्ज़ “अल्लाह” के हुरूफ़ तख़सीस से ज़ाहिर करते हैं कि जो लोग ये लफ़्ज़ इस्तिमाल करते थे उनको किसी हद तक तौहीद बारी का शऊर हासिल था। अल-ग़र्ज़ लफ़्ज़ “अल्लाह” ख़ुद मुहम्मदﷺ ने ईजाद नहीं किया बल्कि जिस वक़्त उन्होंने अपनी क़ौम के सामने अपने मामूर मिन अल्लाह (अल्लाह की तरफ से रसूल) और नबी होने का दावा किया, उस वक़्त ये लफ़्ज़ पहले से इस्तिमाल होता था। इस का सबूत हासिल करना चंदाँ दुशवार नहीं। ख़ुद मुहम्मदﷺ के वालिद जो अपने बेटे की विलादत से क़ब्ल वफ़ात पा गए थे, “अब्दुल्लाह” यानी “अल्लाह का बंदा” नाम रखते थे।

काअबा यानी मक्का का बड़ा माबूद अर्स-ए-दराज़ से “बैतुल्लाह” (ख़ाना-ए-ख़ुदा) कहलाता था। अरब की क़दीम रिवायत से मालूम होता है कि ऐन उसी जगह जहां इस वक़्त ख़ाना काअबा है, अल्लाह की इबादत के लिए इब्राहिम और उनके बेटे इस्माईल ने एक माबूद बनाया था। अगरचे इस बयान को हम तारीख़ी हैसियत नहीं दे सकते ताहम इस रिवायत से कम-अज़-कम इतना ज़रूर मालूम होता है कि इस मुक़ाम पर ज़माना-ए-क़दीम से इबादत होती चली आती थी और ग़ालिबन वो मुक़ाम काअबा ही था जिसकी बाबत देव दूरस सेकोलोस (Diodorus Siculus) ने लिखा कि इस मुक़ाम पर एक इबादतखाना या मंदिर है जिसका तमाम अरब लोग खासतौर पर एहतिराम करते हैं।

ज़माना-ए-जाहिलियत की उन नज़मों में जिन्हें “अल-मआलक़ात ” المعلقات कहते हैं, लफ़्ज़ “अल्लाह” कस्रत से इस्तिमाल हुआ है। सबसे पहली सीरत नब्वी का मुसन्निफ़ इब्ने इस्हाक़ था जिस की तस्नीफ़ के औराक़ मुंतशिर हम तक पहुंचे हैं। इब्ने हिशाम ने उनकी किताब से नक़्ल किया है कि क़बाइल किनाना व क़ुरैश जब रस्म इहलाल (Ihlal) अदा किया करते थे तो अल्लाह तआला को इन अल्फ़ाज़ से ख़िताब किया करते थे :-

“लब्बैक अल्लाहुम्मा” ’’لبیکَ اللہٰم‘‘ या अल्लाह हम तेरी ख़िदमत में हाज़िर हैं। हम तेरे हुज़ूर में हाज़िर हैं। तेरा कोई शरीक नहीं सिवा उस के जो तेरे ख़ौफ़ का शरीक हो। तो मालिक है उस का और उस तमाम का जिसका वो मालिक है”

मिसाल के तौर पर हम दीवान नाबेगाह के चंद अशआर पेश करते हैं :-

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इब्ने इस्हाक़ ने बिल्कुल सही कहा है कि “ख़ुदा” को इस तरह ख़िताब करने से वो अल्लाह की तौहीद का अक़ीदा ज़ाहिर करते थे।” इब्ने इस्हाक़ ने ये नहीं लिखा कि “तेरे ख़ौफ़ का शरीक” से क्या मतलब था। मगर क़ियास ये कहता है कि इस में किसी क़बाइली बुत की तरफ़ इशारा है। बहर-ए-हाल जिस देवता या देवी या शख़्स की तरफ़ इशारा किया गया है इस का दर्जा अल्लाह के बराबर नहीं रखा जाता था। अल-ग़र्ज़ क़दीम अरबों का मज़्हब इसी क़िस्म का था जैसा कि यूनानी व रूमी कलीसियाओं की औलिया परस्ती। यही हाल मुहम्मदﷺ के ज़माना में था और यही हाल बावजूद क़ुरआन मजीद की मुमानिअत के मुसलमानों का इस वक़्त भी है। मगर इस औलिया परस्ती से ये मतलब नहीं है कि ख़ुदा की वहदानीयत से इन्कार किया जाता हो, बल्कि उन औलिया या कम दर्जे के माबूदों की इबादत या हुर्मत शफ़ी की हैसियत से की जाती है। जो कुछ हमने लिखा है इस की तस्दीक़ शहर सतानी की तहरीर से भी होती है जिस ने अह्द जाहिलियत के अरबों के मज़हबी ख़यालात और रस्मों का हाल लिखा है। इस मुसन्निफ़ ने अरबों को मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़ों में तक़्सीम किया है जो अपने मज़हबी ख़यालात में एक दूसरे से बहुत इख़्तिलाफ़ रखते थे। वो लिखता है कि :-

والعرب الجاهلية أصناف فصنف أنكروا الخالق والبعث وقالوا بالطبع المحيى والدهر المفنى كما أخبر عنهم التنزيل وقالوا ما هى إلا حياتنا الدنيا نموت ونحيا ـ وقوله ـ وما يهلكنا إلا للدهرـ(سورہ الجاثیہ آیت۲۳)۔وصنف اعترفوا بالخالق وأنكروا البعث وهم الذين اخبر الله عنهم بقوله تعالى ‫ ـ أفعيينا بالخلق الأول بل هم فى لبس ٍ من خلق ٍ جديد ٍـ وصنف عبدوا الأصنام وكانت أصنامهم مختصة بالقبايل فكان وُدّ لكلب وهو بدومة الجندل وسُواع لهذيل ويغوث لمذحج ولقبايل من اليمن ونَسْر لذى الكلاع بارض حمير ويَعوقْ لهمذان واللاّت لثـقيف بالطائف والعُزّى لقريش وبنى كنانة ومَناة للاوس والخزرج وهُبَل أعظم اصنامهم وكان هُبَل على ظهر الكعبة وكان اساف ونائلى على الصفا والمروة وكان منهم من يميل إلى اليهود ومنهم من يميل إلى النصرانيّة ومنهم من يميل إلى الصّابية ويعْتقد فى انواء المنازل اعتقاد المنجمين فى السّيارات حتى لا يتحرك إلاّ بنوء من الأنواء ويقول مطرنا بنوء كذا وكان منهم من يعبد الملائكة ومنهم من يعبد الجنّ وكانت علومهم علم الأنساب والأنواء والتواريخ وتعبير الرؤيا وكان لأبى بكر الصّدّيق رضى الله عنهُ فيها يد طولى۔‬‬‬‬‬‬‬‬‬‬‬‬‬

तर्जुमा : बाअज़ ना वजूद बारी के क़ाइल थे, ना बिअसत अम्बिया और क़ियामत के मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) थे, बल्कि उनका अक़ीदा ये था कि क़ुदरत पैदा करती है और ज़माना हलाक कर डालता है। बाअज़ क़बाइल ऐसे थे जो ख़ुदा के वजूद के तो क़ाइल थे मगर इस बात से इन्कार करते थे कि वो अपना इरादा ज़ाहिर करने के लिए रसूलों को मामूर करता है। दीगर क़बाइल अपने अपने देवताओं और ज़ाती बुतों की परस्तिश किया करते थे मसलन, कबीला-ए-हलब (قبیلۂ حلب) के लोग वुद्द (وُدّ) और सुवाअ (سواع)की परस्तिश करते थे और कबीला-ए-मज़हज (قبیلۂ مذحج) वाले यग़ूस (یغوث)

की परस्तिश किया करते थे। यही हाल बाअज़ क़बाइल यमन का था। हिमयरियों (حمیریوں) का क़बीला ज़ौ-उल-कलाअ नस्र (ذو الکلاع نسر) की, कबीला-ए-हमज़ान यऊक़ (یعوق) की, ताइफ का कबीला-ए-सक़ीफ़ अल्लात (اللّٰت) और क़बाइल बनू किनाना व क़ुरैश अपनी क़बाइली देवी उज्ज़ा (عُزّیٰ) की परस्तिश किया करते थे। क़बाइल ओस व ख़ज़रज अगरचे मनात (مناۃ) को भी पूजते थे मगर हुबल (ہُبل) को तमाम देवताओं का सरदार समझते थे। इस देवता का बुत बाम-ए-काअबा पर निहायत नुमायां मुक़ाम पर रखा हुआ था। दीगर देवता इसाफ व नाइलह (اساف ؔو نائلہؔ) थे। बाअज़ अरब क़बाइल उन यहूदीयों के ज़ेर-ए-असर आ गए थे जो उनके क़रीब बस गए थे और उन्होंने कमोबेश यहूद की मज़हबी ताअलीमात इख़्तियार कर ली थीं। बाअज़ क़बाइल ईसाई हो गए थे और उनके हमसाया अरब क़बाइल उनके मोअतक़िदात की तरफ़ रुजहान रखते थे। बाअज़ क़बाइल साबईन (साबी की जमा : सितारा परस्त) के ज़ेर-ए-असर थे। उनका मज़्हब अंजुम (انجم) परस्ती था। ये लोग अपने तमाम उमूर में सितारों की गर्दिश से हुक्म लिया करते थे। बाअज़ क़बाइल मलाइक परस्त थे और बाअज़ जिन्नों या भूतों की पूजा किया करते थे। चुनान्चे ख़ुद हज़रत अबू बक्र ताबीर-ए-ख़्वाब के फ़न में बहुत मशहूर थे।

बहुत से अरब मुसन्निफ़ीन ने जिनमें बाअज़ मशहूर मुफ़स्सिरीन क़ुरआन भी हैं, एक क़िस्सा बयान किया है जिससे ज़ाहिर होता कि मुहम्मद ﷺ के ज़माने में अरब क़बाइल (उनमें वो भी थे जो मक्का में मुहम्मद ﷺ के सख़्त मुख़ालिफ़ थे और जिन्हों ने पहले मुसलमानों को बग़रज़ हिफ़्ज़ जान हब्शा की तरफ़ हिज्रत करने पर मज्बूर किया था।) मुहम्मद ﷺ के साथ “अल्लाह तआला” की परस्तिश करने पर बहुत जल्द आमादा हो गए थे। वाक़िया ये बयान किया जाता है कि :-

قدم نفر من مهاجرة الحبشة حين قراء عليه السّلام - والنّجْم إذا هوى - حتّى بلغ - أفَرَأيّتُمُ اللاّتَ والْعُزّى ومَناه الثّالثَة الأُخْرى - ألقى الشيطان فى منيتِهِ ( أى فى تلاوته ) - تلك الغرانيق العلى وإن شفاعتهن لترتجى - فلما ختم الصورة سجد صلعم وسجد معه المشركون لتوهمهم أنه ذكر آلهتهم بخير - وفشى ذلك بالناس وأظهره الشيطان حتى بلغ أرض الحبشة ومن بها من المسلمين عُثمان ابن مظعون اصحابه وتحدثوا أن أهل مكة قد أسلموا كلهم وصلوا معه صلعم وقد آمن المسلمون بمكة فأقبلوا سراعاً من الحبشة.

तर्जुमा : “एक रोज़ मुहम्मदﷺ काअबा में नमाज़ पढ़ने के लिए गए और वहां उन्होंने सूरह अल-नज्म पढ़ना शुरू की। जब वो उन्नीसवीं और बीसवीं आयतें पढ़ चुके यानी ’’افرایتم اللّات و العزّیٰ و مناۃ الثالتہ الاخریٰ‘‘ तो कहते हैं कि इस वक़्त शैतान ने मुहम्मदﷺ को वरग़ला कर उनसे ये अल्फ़ाज़ कहला दिए ’’تلک الغرانیق العلی وانّ شفاعتہن لترتجی‘‘ ये अल्फ़ाज़ सुनते ही तमाम अरब जो उस वक़्त वहां मौजूद थे मुहम्मदﷺ के साथ नमाज़ में मशग़ूल हो गए।

इस वाक़िये के बाद हर तरफ़ अफ़्वाह उड़ गई कि इन लोगों ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया है। बहर-ए-हाल ये वाक़िया इस बात को ज़ाहिर करता है कि मुख़ालिफ़ीन मुहम्मदﷺ को वजूद बारी तआला और उस की सब पर फ़ौक़ियत की ताअलीम क़ुबूल करने में कोई मुश्किल मालूम ना होती थी और वो छोटे देवताओं या बुतों को अल्लाह तआला की बारगाह में अपना शफ़ी होने की हैसियत से पूजते थे। यहां ये कहना भी मुनासिब होगा कि मुहम्मदﷺ ने बहुत जल्द वो अल्फ़ाज़ वापिस ले लिए जिनमें इन देवियों के वजूद और उनके असर को तस्लीम किया गया था और इन अल्फ़ाज़ की बजाय वो अल्फ़ाज़ रख दिए जो इस वक़्त सूरह अल-नज्म में मौजूद हैं यानी :-

’’الکم الذکر ولہہ الانثیٰ۔تلک اذاً قسمۃً ضیزیٰ۔ان ھی الاّ اسماءٌ سمیتمو ہاا نتم و آباؤکم‘‘

इब्ने इस्हाक़, इब्ने हिशाम और तमाम अरब मुसन्निफ़ीन बयान करते हैं कि अरब लोग और ख़ुसूसुन वो जो हज़रत इस्माईल की औलाद होने दावा करते थे, सिर्फ वही इब्तदाअन ख़ुदा-ए-वाहिद की परस्तिश किया करते थे और अगरचे वो कुछ अरसे बाद शिर्क और बुत-परस्ती में पड़ गए थे, मगर वो ये बात हमेशा याद रखते थे कि अल्लाह तआला उनके जुम्ला बुतों से फ़ाइक़ और और उनका सरदार व हाकिम है।

जब हम इस मौक़े पर पहुँचेंगे जहां हमने इस अम्र पर ग़ौर किया है कि यहूद व नसारा के अक़ाइद का मुहम्मदﷺ की तबीयत पर किस क़द्र असर पड़ा था तो हम बताएंगे कि वाक़ई मुहम्मदﷺ के अक़ीदा-ए-तौहीद को इन मज़ाहिब से कितनी तक़वियत पहुंची। मगर ये अक़ीदा-ए-अरबों में कोई नया अक़ीदा ना था और वो कम-अज़-कम फ़ित्री तौर पर ज़रूर उस अक़ीदे के क़ाइल थे। बईं-हमा जिन छोटे छोटे माबूदों की वो परस्तिश किया करते थे, वो बेशुमार थे। क्योंकि बयान किया जाता है कि सिर्फ तीन सौ साठ बुत ख़ाना काअबा ही में रखे हुए थे जो अरबों के क़ौमी अस्नाम (बुतों) की हैकल बन गया था। इस में भी शक नहीं कि इन मुक़ामी और क़बाइली बुतों की पूजा ने जम्हूर अरब में अल्लाह तआला की इबादत को पसेपुश्त डाल दिया था।

ये अम्र भी क़ाबिल-ए-तवज्जा है कि पुराने अरब मौअर्रखीन सही या ग़लत तौर पर ये बयान करते हैं कि जब इस्लाम शुरू हुआ तो अरब के उन हिस्सों में “ख़ुदा के साथ दूसरों को शरीक करने का अक़ीदा” निस्बतन नया था। हदीस से मालूम होता है कि अरब में बुत-परस्ती मुल्क-ए-शाम से दाख़िल हुई थी और इस हदीस में उन लोगों के नाम भी बताए गए हैं जो अरब में बुत-परस्ती लाए थे। बयान किया जाता है कि ये वाक़िया मुहम्मदﷺ से पंद्रह पुश्त पेशतर वाक़ेअ हुआ था। मुक़द्दस व मुतबर्रिक पत्थरों का जो एहतिराम किया जाता था वो इस से मुस्तसना (अलग) समझना चाहीए, क्योंकि फ़लस्तीन में अह्द शीवख़ी (Patriarchal) के अन्दर यह आम बात थी और ममालिक अरब में तो यक़ीनन ज़माना-ए-ग़ैर मालूम से चली आती थी। इब्ने इस्हाक़ ने इस फे़अल की तौजिहा करने की कोशिश इस तरह की है कि जब अहले मक्का सफ़र करते थे तो वो अपने साथ ख़ाना काअबा से पत्थरों के टुकड़े ले जाया करते थे और उनकी पूजा इस ख़्याल से किया करते थे कि वो “हरम” से लाए गए हैं। इस वक़्त भी “हज्रे-अस्वद (حجر الاسود) का बड़ा एहतिराम किया जाता है और ये रस्म भी मिनजुम्ला दूसरी रस्मों के है जो अह्द नब्वी के क़ब्ल के मज़हबी रसूम से ली गई है। ज़माना-ए-क़ब्ल अज़ मुहम्मदﷺ में इस पत्थर के मुताल्लिक़ बहुत से क़िस्से बयान किए जाते थे और उन क़िस्सों को अब तक पूरी तरह सहीह माना जाता है। एक रिवायत ये है कि ये पत्थर बहिश्त से नाज़िल हुआ था। पहले ये पत्थर बिल्कुल सफ़ैद था मगर अब लोगों के गुनाहों की वजह से स्याह हो गया। बाअज़ कहते हैं कि नापाक लोगों के बोसा देने से स्याह हो गया है।

इस्लाम ने ना सिर्फ अल्लाह तआला का अक़ीदा और काअबा व हज्रे-अस्वद के एहतिराम की रस्म, बल्कि बहुत सी दूसरी बातें भी क़दीम ज़माने के अरबों से ली हैं और ये कहना ग़लत ना होगा कि अक्सर वो मज़हबी शआइर जो फ़ी-ज़माना दुनियाए इस्लाम में राइज हैं, बिल्कुल वही हैं जो ज़माना-ए-क़ब्ल अज़ तारीख़ से मुल्क अरब में राइज चले आ रहे थे, मसलन हेरोदोतोस (Herodotus) ने बयान किया है कि उस के ज़माने में अरब कनपटी के गर्द के बाल मुंडवा कर बाक़ी को बहुत छोटा तरशवा दिया करते थे। यही बात बाअज़ मुल्कों के मुसलमान अब भी करते हैं। मुअर्रिख़ अबूलफ़िदा ने बाअज़ ऐसी मज़हबी रस्मों की तरफ़ तवज्जा दिलाई है जो अह्द इस्लाम में भी राइज रहीं। वो लिखता है कि :-

“अह्द जाहिलियत की बाअज़ बातें शराअ इस्लाम ने भी क़ुबूल कर ली हैं, मसलन अरब लोग अपनी माओं और बेटीयों से निकाह नहीं किया करते थे और वो दो बहनों से निकाह करना भी निहायत मज़मूम समझते थे और जो शख़्स अपने बाप की बीवी से निकाह कर लेता था वो उसे “ज़ीज़ा” (ضیزا) कह कर ज़लील किया करते थे। वो काअबा का हज और मुक़ामात मुक़द्दसा की ज़ियारत भी किया करते थे। वो एहराम भी बाँधते थे, वो तवाफ़ भी करते थे, सफ़ा व मर्वा के दर्मियान सई (दोड़) भी करते थे, तमाम मुक़ामात पर खड़े हो कर रुमी जमार (कंकरीयां फेंकना) भी करते थे। वो हर तीसरे साल जंतरी में एक महीने का इज़ाफ़ा भी किया करते थे। (जो बाद में मंसूख़ हो गया)”

इसी तरह इस मुअर्रिख़ ने बहुत सी पुरानी अरबी रस्में बयान की हैं जिन्हें इस्लाम में भी मज़हबी रस्म क़ायम रखा गया है, मसलन हर क़िस्म की नापाकी के बाद रस्मी तौर पर धोना और ग़ुस्ल करना, मांग निकालना, मिस्वाक करना, नाख़ुन तराशना वग़ैरह वग़ैरह। वो लिखता है कि “चोरी की सज़ा अब की तरह पहले ज़माना (अह्द ह्मू रॉबी عہد حمورابی) में क़ता यद (قطع ید) थी” और ये भी लिखता है कि “अगरचे खतना करने का हुक्म क़ुरआन में कहीं नहीं है, मगर मुसलमान करते हैं। यही रस्म मुशरिकीन अरब में भी मौजूद थी।” इस आख़िरी बयान की तस्दीक़ बरनबास (Barnabas) के ख़त से भी होती है जिसने लिखा है “तमाम शामी और अरब और बुतों के पुजारी खतना कराते हैं।” ये बात भी बख़ूबी मालूम है कि यही रस्म क़दीम मिस्रियों में भी राइज थी। इब्ने इस्हाक़ ने भी क़रीब क़रीब वही अल्फ़ाज़ लिखे हैं जो अबू अल-फ़िदा ने तहरीर किए हैं, मगर उसने इस क़द्र इज़ाफ़ा किया है कि ये रस्में हज़रत इब्राहिम के ज़माने से चली आ रही थीं और यक़ीनन यही वाक़िया खतना के मुताल्लिक़ भी है। मगर ये बात बमुश्किल कही जा सकती है कि बावजूद येकि इब्राहिम के मुताल्लिक़ यक़ीन किया जाता है कि वो मक्का में आए और जिस जगह काअबा है वहां उन्होंने इबादत की, उन्हें इन रस्मों से कोई ताल्लुक़ था।

जो कुछ हमने अब तक तहरीर किया है इस से साफ़ ज़ाहिर है कि इस्लाम के मज़हबी अक़ाइद व रसूम बहुत कुछ अह्द नब्वी के, अरबों के अक़ाइद से लिए गए हैं जिनमें कस्रत इज़दवाज (ज़्यादा निकाह करना) और गु़लामी की रस्म भी है। मुहम्मदﷺ ने बाअज़ क़िस्से कहानियां भी मुशरिकीन अरब से मुस्तआर लीं मसलन आद व समूद वग़ैरह के क़िस्से जिनके मुताल्लिक़ अलकिंदी कहता है :-

’’ فإذ ذكرت قصة عاد وثمود والناقة وأصاب الفيل ونظائر هذه القصص قلنا لك هذه أخبار باردة وخرافات عجائز الحى اللواتى كنّ يدرسنها ليلهنّ ونهارهنّ. ‘‘

यानीआद व समूद, नाक़ा, असहाब-ए-फ़ील वग़ैरह के तमाम क़िस्से बिल्कुल मुहमल (बेमाअ्नी, लायाअ्नी, फ़िज़ूल, बेमतलब) हैं और उन कहानीयों से लिए गए हैं जिन्हें अरब की बुढ़ियां बयान करती थीं।”

तीसरा बाब

इस्लाम पर साबी व यहूदी ख़यालात व रसूम का असर

जब मुहम्मदﷺ बहैसीयत एक नबी के नमूदार हुए तो हर-चंद उस वक़्त बहुत सी मज़हबी रस्में और ख़यालात ऐसे थे जिन पर तमाम अरब मुत्तफ़िक़ थे, मगर उनके यहां कोई ऐसी किताब नहीं थी जिस पर वो इल्हामी होने का दावा कर सकते और जिसकी तरफ़ मुहम्मदﷺ उनको माइल कर सकते। चूँकि वहां बाअज़ ऐसी जमाअतें भी थीं जो इल्हामी किताबें रखने की मुद्दई थीं, इसलिए ये क़ुदरती अम्र था कि मुहम्मदﷺ और उनके पैरौ, (मानने वाले) इन मुख़्तलिफ़ मज़हबी फ़िर्क़ों के ख़यालात व रसूम से दिलचस्पी लेते और उनका एहतिराम करते। “अहले-किताब का ख़िताब जो क़ुरआन में खासतौर पर यहूदो नसारा को दिया गया है, हमारे इस क़ौल का सबूत है। उस वक़्त मुल्क़ अरब में चार जमाअतें ऐसी थीं जो किताबी मज़्हब रखती थीं। यहूद, नसारा, मजूसी और साबईन। इन तमाम फ़िर्क़ों का ज़िक्र क़ुरआन की सूर अल-हज्ज की आयत 17 में पाया जाता है और इस में शक नहीं कि उनमें से हर फ़िर्क़े ने इस्लाम की नशो व नुमा पर बहुत असर डाला। सबसे पहले फ़िर्क़ा-ए-साबईन को लीजीए जिसका ज़िक्र क़ुरआन की सूरत अल-बकर की आयत 59 में भी मौजूद है।

अगरचे साबईन के मुताल्लिक़ हमको बहुत कम मालूमात हासिल हैं मगर जितनी हासिल हैं वो हमारे मक़्सद के लिए काफ़ी हैं। अबू अल-फ़दा ने एक पुराने अरब मुसन्निफ़ अबू ईसा अल-मग़रिबी की किताब से साबईन का हाल इस तरह नक़्ल किया है :-

अहले शाम अक़्वाम व मिलल (मिल्लत की जमा) आलम में क़दीम तरीन हैं। हज़रतआदम और उनके बेटे सुर्यानी ज़बान बोलते थे और उनकी मज़हबी जमाअत को साबईन कहते हैं। वो कहते हैं कि उनका मज़्हब हज़रत शीत (सियत) और हज़रत इद्रीस का जारी कर्दा है। उनके पास एक किताब है जिसे वो हज़रत शीस से मंसूब करते हैं और इस किताब का नाम उन्होंने “सहीफ़-ए-शीस” रखा है। इस सहीफ़ा में अच्छे अच्छे अहकाम शरीअत दर्ज हैं जिनमें हक़गोई, जुर्रआत व शहामत, अजनबियों की हिफ़ाज़त वग़ैरह की तल्क़ीन की गई है और बुरी बातें बयान कर के उनसे परहेज़ करने का हुक्म दिया गया है। साबईन के हाँ बाअज़ मज़हबी रस्में हैं। मिनजुम्ला उनके एक ये है कि उनके यहां दिन में सात औक़ात नमाज़ मुक़र्रर हैं। उनमें से पाँच वक़्त मुसलमानों के पंज औक़ात नमाज़ के मुताबिक़ हैं। छटा वक़्त नमाज़ का उनके यहां ब-वक़्त तुलू-ए-आफ़्ताब है और सातवाँ वक़्त-ए-ग़ुरूब आफ़्ताब से छः घंटे बाद है। मुसलमानों की तरह उनके यहां भी नमाज़ में ख़ुज़ू व ख़ुशू (आजिज़ी फ़िरोतनी) की ज़रूरत है। नमाज़ पढ़ते वक़्त इधर उधर ख़्याल हरगिज़ मुंतशिर ना होना चाहीए। ये लोग नमाज़ जनाज़ा बग़ैर रुकूअ व सुजूद पढ़ते थे और तीस दिन रोज़ा रखते थे और अगर चांद का महीना छोटा होता था तो वो उनत्तीस दिन के रोज़े रखते थे। अपने रोज़ों के सिलसिला में वो ईद-उल-फितर और ईद हिलाल मनाते थे और ईद-उल-फितर उस वक़्त मनाई जाती थी जबकि आफ़्ताब बुरज-ए-हमल में दाख़िल होता था। इन लोगों का रोज़ा रात चौथे पहर से शुरू होता था और ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब तक रहता था और जब पंज सय्यार गान महल शरीफ़ में होते थे तो वो तहवार मनाते थे या पाँच सय्यारे ज़ुहल, मुशतरी, मिर्रीख़, ज़ुहरा और अतारिद थे और वो लोग “बैत मक्का” (काअबा) का भी एहतिराम किया करते थे।”

बयान मुंदरजाबाला से ज़ाहिर होता है कि मुसलमानों ने इस गुमनाम फ़िर्क़े से बहुत सी मज़हबी रस्में ली हैं, क्योंकि मुसलमान भी रमज़ान के रोज़े एक माह तक रखते हैं और हर रोज़ा तुलू-ए-आफ़्ताब से ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब तक रहता है। रमज़ान के ख़त्म होने पर मुसलमानों में भी ईद-उल-फितर मनाई जाती है। मुसलमानों में नमाज़ के पाँच औक़ात मुक़र्रर हैं, लेकिन इनके इलावा दिन-भर में दो वक़्त-ए-नमाज़ के और हैं (इशराक़ व तहज्जुद) जिनमें नमाज़ पढ़ना अम्र इख़तियारी है। इस तरह मुसलमानों में भी बिल्कुल साबईन की तरह हफ़्त औक़ात नमाज़ मौजूद हैं। मुसलमानों की नमाज़ में रुकूअ व सुजूद का हुक्म है, मगर नमाज़ जनाज़ा में रुकूअ व सुजूद नहीं होता और आख़िरी बात ये है कि मुसलमान भी अब तक काअबा का निहायत एहतिराम करते हैं। हाँ ये मुम्किन है कि साबईन की तरह ये बातें कबील-ए-क़ुरैश में भी मौजूद होंगी और बाअज़ रस्में तो यक़ीनन थीं। लेकिन अगर सब बातें होतीं तो इस बात की तौजीह करना मुश्किल होगा कि जिस अरब मुसन्निफ़ की इबारत हमने नक़्ल की है उसने ऐसा लिखने की ज़हमत क्यों गवारा की। इस बात की कि मुहम्मदﷺ ने बहुत सी मज़हबी रस्में साबईन से लीं और साबईन के मज़्हब ने आम तौर पर (ग़ालिबन अपनी बड़ी क़दामत की वजह) से इस्लाम पर बहुत कुछ असर डाला, इस वाक़िये से भी होती है कि ताइफ और मक्का के क़बीला बनू जज़ीमा ने ख़ालिद के सामने अपने इस्लाम लाने का ऐलान किया तो वो ब-आवाज़-ए-बुलंद पुकार उठे कि “हम साबईन हो गए हैं।” साबईन की निस्बत ख़्याल किया जाता है कि वो एक नीम ईसाई फ़िर्क़ा था और बाअज़ लोग कहते हैं कि वो “मांदएन” (Mandeeans) थे जिनका मज़्हब “लाअदरिय्यत” لااَدرِیَّت (Agnosticism) मुतशक्कीन का ये नज़रिया कि हम ख़ुदा के बारे में यक़ीन से कुछ नहीं कह सकते क्योंकि इन्सान किसी सूरत में भी ख़ुदा का इदराक हासिल नहीं कर सकता। और क़दीम बाबिली असनाम-परस्ती (बुत-परस्ती) का एक तरफ़ा माजून मुरक्कब था। इलावा अज़ीं उन्होंने मजुसिय्यत, यहूदीयत और मसीहीय्यत से भी बाअज़ अनासिर लेकर अपने मज़्हब में दाख़िल कर लिए थे। अगरचे बहैसीयत फ़िर्क़ा वो नसारा के बहुत ख़िलाफ़ थे। “मांदाएन” ماندئین का नाम “माँदा” ماندا से निकला है। ये उनका बहुत बड़ा अवतार था। उनकी मज़हबी किताब “सिदरा रब्बा” سدرہ ربّہ (Sidra Rabba) में लिखा है कि “माँदा” ने बहुत से अवतार लिए जिनमें पहले तीन अवतार हाबील (हाबिल), शीस और इदरीस थे और सबसे आख़िरी अवतार यहया थे जिन्हों ने यसूअ को बपतिस्मा दिया था जो एक ज़ाहिरी मस्लुबियत के बाद “सल्तनत नूर” को वापिस हो गए। ये आख़िरी ख़्याल क़ुरआन की सूरह निसा आयत 156 में भी ज़ाहिर किया गया है जिस पर हम आगे चल कर बह्स करेंगे।

चूँकि साबईन के मुताल्लिक़ हमारी मालूमात महदूद हैं और ये भी यक़ीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वो “मांदाएन” थे इसलिए ये कहना दुशवार है कि उन का असर इस्लाम पर इस से ज़्यादा और किन सूरतों से हुआ। राडवेल (Rod well) अपनी किताब के दीबाचे में क़ुरआन पर इज़हार-ए-ख़याल करते हुए लिखता है कि :-

“इस्लाम पर एबियोनईट्स (Ebionites) के अक़ाइद का भी बड़ा असर पड़ा है, जैसा कि एपीफ़ीनियस (Epiphanies) के बयान से ज़ाहिर होता है। उसने Morabitia, Ebionites और Basanitis के अक़ाइद पर गुफ़्तगु करते हुए लिखा कि उनके यहां भी आदम और ईसा के मुताल्लिक़ तक़रीबन बिल्कुल वही रिवायत पाई जाती थी जो क़ुरआन की तीसरी सूरत में दर्ज है। इलावा इस के उनके यहां खतना का भी रिवाज था। वो रहबानीयत के भी मुख़ालिफ़ थे और बैतुल-मुक़द्दस उनका भी क़िब्ला था (जैसा कि बारह साल मुहम्मद ﷺ का रहा) वुज़ू व ग़ुस्ल का भी वही तरीक़ा था जो मुसलमानों में पाया जाता है और वो भी बादल, तेल और हवा वग़ैरह की क़समें खाते थे। (जैसी क़ुरआन में पाई जाती हैं)”

अब हम यहूद की तरफ़ रुजू करते हैं जिनसे मुहम्मदﷺ ने अपने मज़्हब में इतना कुछ मुस्तआर लिया कि अगर हम इस्लाम को यहूदीयत ही की बिगड़ी हुई सूरत कहें तो ग़ालिबन ग़लत ना होगा। मुहम्मदﷺ के ज़माने में यहूदी ना सिर्फ बलिहाज़ तादाद बहुत ज़्यादा थे बल्कि वो अरब के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में बहुत ताक़तवर भी थे। इस में शक नहीं कि जब वो मुख़्तलिफ़ फ़ातहीन मसलन बुख़तनस्सर, जांशीनान सिकंदर आज़म, पोमी्ये, ताएतूस (तीतुस), हेडरेन वग़ैरह से डर कर भागे (जिन्हों ने तमाम फ़लस्तीन को पामाल कर दिया था) तो वो बा औक़ात मुख़्तलिफ़ अरब में आकर आबाद हो गए थे और ख़ुसूसुन मदीना के क़ुरब व जुवार में वो तो बे शुमार थे जहां एक वक़्त वो बज़ोर शमशीर क़ाबिज़ भी हो गए थे। उस वक़्त मदीना के क़ुरब व जुवार में यहूदी क़बीले यानी बनू क़ुरैज़ा, बनू नज़र और बनू क़नीकाअ इस क़द्र ताक़तवर थे कि मुहम्मद ﷺ 622 ई॰ में हिज्रत कर के मदीना आए तो कुछ ही दिन बाद उन लोगों से जारिहाना व मुदाफ़आना मुआहिदा कर लिया। दूसरी यहूदी आबादीयां ख़ैबर और वादी अल-क़रा के क़ुरब व जवार में और ख़लीज उक़्बा के सवाहल पर थीं।

चूँकि यहूदी साहब-ए-किताब थे और वो यक़ीनन हज़रत इब्राहिम की नस्ल से थे, जिनको क़ुरैश और अरब के दीगर क़बाइल भी अपना मूरिस-ए-आअला बताते थे, इसलिए बनी-इस्राईल का अरबों पर बड़ा असर था और अरब की रिवायत व क़िसस में यहूदीयों की तारीख़ और रिवायत का शामिल हो जाना ताज्जुब की बात नहीं। काअबा और उस के जवार की तकरीम इसी वजह से की जाती थी कि वो हाजिरा के आलाम व मसाइब की यादगार था और मुतबर्रिक चाह ज़मज़म उनके रफ़ा तकालीफ़ की जगह, जिस तरह सफ़ा और मर्वा के दर्मियान बतलाश आब वो सरगर्दां व परेशां दौड़ी फिरती थीं, इसी तरह इस वाक़िया की यादगार में हुज्जाज भी सफ़ा व मर्वा के दर्मियान सई करते हैं। इब्राहिम व इस्माईल ने ख़ाना काअबा तामीर किया था और इस की दीवार में हज्रुल-अस्वद नसब किया था और तमाम मुल्क अरब के लिए “अर्फ़ात” का हज क़ायम किया था। इन्ही की तक़्लीद में हुज्जाज रुमी जमार करते हैं गोया शैतान को पत्थर मारते हैं और हज़रत इब्राहिम ने जो क़ुर्बानी की थी उस की यादगार में हुज्जाज भी बमुक़ाम मिना क़ुर्बानी करते हैं। इस तरह ख़ालिस अरबी रस्मों में यहूदी रिवायत दाख़िल कर लेने से बहुत कम तग़य्युर वाक़ेअ हुआ होगा।

अरबों ने इस्राईलियात को बिल्कुल मुख़्तलिफ़ रोशनी में लिया और चूँकि उनका ताल्लुक़ इब्राहिम ख़लील-उल्लाह से था इसलिए उनको मुक़द्दस समझा गया। अल-ग़र्ज़ इस मुशतर्का बुनियाद पर मुहम्मदﷺ ने अपना क़दम जमाया और अपनी क़ौम के सामने एक नया और रुहानी निज़ाम इस तरीक़े से पेश किया कि इस की तरफ़ तमाम जज़ीरा अल-अरब माइल हो सकता था। काअबा के मुताल्लिक़ जितनी बातें थीं वो बहाल रखी गईं और गो तमाम अस्नाम (बुतों) पर सताना शाइर से पाक हो कर वो अब तक चली आ रही हैं। ताहम इस्लाम की ज़िंदा ख़ुदा परस्ती के जिस्म पर एक बेमाअनी निक़ाब की कैफ़ीयत ज़रूर रखती हैं।

जब इब्राहिम की नस्ल के मुख़्तलिफ़ क़बाइल में मेल-जोल ज़्यादा बढ़ा तो बकाए रूह और हश्र बाद-उल-मौत का अक़ीदा जारी हो गया। मगर इस में बहुत से अरबी नज़ाद मज़हका अंगेज़ ख़यालात भी दाख़िल हो गए। जज़्ब-ए-इंतिक़ाम की तस्वीर अरबी लिटरेचर में इस तरह खींची जाती है कि मक़्तूल की रूह परिंदा बन कर फ़र्याद कर रही है और बाज़-औक़ात मरने वाले की क़ब्र पर इस को छोड़ दिया जाता था ताकि जब मालिक हश्र के दिन ज़िंदा हो तो उसे अपनी पुश्त पर सवार कर के ले जाये। मुख़्तलिफ़ तौर पर बाइबल की ज़बान भी आम तौर से मुस्तअमल थी, यानी कम-अज़-कम इस क़द्र काफ़ी इस्तिमाल होती थी कि आम तौर पर समझी जाती थी। ईमान, तौबा, जन्नत, दोज़ख़, शैतान, इख़्वान-उश-शयातीन, मलाइका मुक़र्रबीन, जिब्राईल अल-अमीन, ये बाअज़ इस्तिलाहात ऐसी हैं जो राइज थीं और यहूदी ज़राए से ली गईं। इसी तरह हुबूत आदम, तूफ़ान-ए-नूह, शहरों की तबाही वग़ैरह के क़िस्से भी आम तौर पर मशहूर थे। अल-ग़र्ज़ रूहानियत की हद से मिला हुआ आमियाना ख़यालात का एक वसीअ ज़ख़ीरा मुहम्मदﷺ के सामने मौजूद था।

क़दीम अरब मौअर्रखीन लिखते हैं कि जब मुहम्मदﷺ ने अपनी नबुव्वत का ऐलान किया तो उस वक़्त यहूद एक मसीह की आमद के मुंतज़िर थे और वो उमूमन अपने दुश्मनों को डराया करते थे कि उनका मसीह बहुत जल्द आकर उनसे इंतिक़ाम लेगा। इस ख़्याल का ये असर हुआ कि अरबों में से बाअज़ लोगों ख़ुसूसुन मदीना के बनू ख़ज़रज ने (बक़ौल इस्हाक़) मुहम्मदﷺ को वो नबी तस्लीम कर लिया जिसके वो मुंतज़िर थे। मुहम्मदﷺ ने ये ऐलान किया कि वो नया मज़्हब लेकर नहीं आए हैं बल्कि लोगों को “दीन इब्राहिम” की तरफ़ बुलाने के लिए आए हैं। पस ये क़ुदरती अम्र था कि वो यहूदीयों को अपना तरफ़दार बनाने की सई (मेहनत) करते और यही कोशिश उन्होंने मदीना में की और कुछ अरसा तक तो ऐसा मालूम होता था गोया वो अपनी सई में बहुत कुछ कामयाब हो जाऐंगे। एक तदबीर जो उन्होंने इस मक़्सद के लिए उस वक़्त की ये थी कि बैतुल-मुक़द्दस यानी यरूशलेम को अपने मज़्हब का क़िब्ला बना लिया, मगर कुछ अरसा जब मुहम्मदﷺ की यहूदीयों से खटक हो गई तो उन्होंने अरबों की तालीफ़ क़लूब ज़्यादा मुफ़ीद समझी और काअबा को अपना क़िब्ला क़रार दिया।

मदीना पहुंचने के बाद जब मुहम्मदﷺ ने यहूदीयों को “यौम आशूरा” मनाते देखा तो उन्होंने मुसलमानों को भी ऐसा करने का हुक्म दे दिया और इस दिन का वही नाम भी रहने दिया जो यहूदीयों में था। इस मौक़े पर जो क़ुर्बानियां की जाती थीं वो यक़ीनन उन क़ुर्बानीयों की जगह थीं जो मुशरिकीन अरब हज के वक़्त वादी मिना में किया करते थे। अल-ग़र्ज़ जब तक अप्रैल 624 ई॰ में मुहम्मदﷺ का यहूदीयों से झगड़ा नहीं हो लिया उस वक़्त तक उन्होंने ईद-उल-अज़हा की तक़रीब क़ायम नहीं की। लेकिन उन्होंने ज़ाहिर किया कि ये तक़रीब उस वक़्त की यादगार है जब इब्राहिम ने अपने बेटे इस्माईल की क़ुर्बानी की थी। मुहम्मदﷺ ने ये रस्म अपने यहां इस तरह जारी की कि ईद के रोज़ दो बक्रे क़ुर्बानी किए। एक अपनी क़ौम की तरफ़ से और दूसरा अपनी तरफ़ से, यानी उन्हों ने इस की तर्तीब बदल दी। यहूदी आशूरा के रोज़ पहली क़ुर्बानी अपनी तरफ़ से और दूसरी क़ुर्बानी अपनी तमाम क़ौम की तरफ़ किया करते थे। मालूम ऐसा होता है कि जिस वक़्त उन्होंने यहूद को अपना तरफ़दार बनाना चाहा उस वक़्त उनकी रस्में इख़्तियार कर लीं और जब यहूदीयों से कोई उम्मीद ना रही तो उन रस्मों की तर्तीब बदल दी और कम-ओ-बेश मुशरिकीन अरब की रस्मों की तरफ़ रुजू किया। अगर मुसलमानों का ये नज़रिया तस्लीम कर लिया जाये कि क़ुरआन बज़रीया वह्यी ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल हुआ है तो इस वाक़िये की कोई तौजीह नहीं हो सकती। हिज्रत से कुछ दिन क़ब्ल और ख़ुसूसुन हिज्रत के फ़ौरन बाद जो आयतें क़ुरआन की नाज़िल हुईं, उनमें बक़ौल अहादीस बेशतर ऐसी हैं जिनमें ये बयान किया गया है कि क़ुरआन ताअलीमात अम्बिया बनी-इस्राईल के मुताबिक़ है। लिहाज़ा ये फ़ैसलाकुन और मुख़्ततम सबूत इस बात का है कि क़ुरआन मिंजानिब अल्लाह है। उस ज़माने में जो सूरतें मुहम्मदﷺ ने पेश कीं उनमें इस्राईलियात का हिस्सा बहुत ज़्यादा है, जैसा कि मक्की और शुरू शुरू की मदनी सूरतों का मुक़ाबला करने से ज़ाहिर होता है। मुहम्मदﷺ को ये बात बहुत जल्द मालूम हो गई थी कि यहूद बावजूद उनसे मुतास्सिर होने के इन पर हरगिज़ ईमान ना लाएँगे। क्योंकि कोई सच्चा इस्राईली ये यक़ीन नहीं कर सकता था कि मसीहा या कोई दूसरा नबी इस्माईल की औलाद में से पैदा होगा। वो तल्वार की मंतिक़ लेकर यहूदीयों की तरफ़ मुतवज्जा हुए। अगर हम बाअज़ मुसन्निफ़ीन की ये बात तस्लीम भी ना करें कि मुहम्मदﷺ ने अक़ीदा तौहीद यहूदीयों की ताअलीमात से हासिल किया था तो भी इस में कोई शक नहीं कि उन्हें इस अक़ीदे के क़ायम रखने में इन बातों से बहुत मदद मिली जो उन्होंने बनी-इस्राईल से सीखी थीं।

अब हम आगे बढ़कर ये बात दिखाते हैं कि क़ुरआन का बहुत बड़ा हिस्सा रिवायत बराह-ए-रास्त यहूद से माख़ूज़ (लिया गया) है। अगरचे अरब के यहूदीयों के पास उनकी मुक़द्दस किताबें मौजूद थीं, मगर वो इल्म व फ़ज़्ल में चंदाँ मुम्ताज़ ना थे और बमुक़ाबला कलाम रब्बानी के रिवायत रब्बियों पर ज़्यादा तवज्जो देते थे और इसी लिए क़ुरआन में इस्राईलियात का हिस्सा बहुत है।

क़िस्सा-ए-क़ाबील व हाबील

अगरचे क़ुरआन मजीद में “आदम के दो बेटों के नाम नहीं आए हैं मगर मुफ़स्सिरीन क़ुरआन ने उनके नाम क़ाबील व हाबील लिखे हैं। सूरह माइदा की आयात 27-35 उनके हालात इस तरह लिखते हैं :-

وَاتْلُ عَلَيْهِمْ نَبَأَ ابْنَيْ آدَمَ بِالْحَقِّ إِذْ قَرَّبَا قُرْبَانًا فَتُقُبِّلَ مِنْ أَحَدِهِمَا وَلَمْ يُتَقَبَّلْ مِنَ الْآخَرِ قَالَ لَأَقْتُلَنَّكَ قَالَ إِنَّمَا يَتَقَبَّلُ اللَّهُ مِنَ الْمُتَّقِينَ لَئِن بَسَطتَ إِلَيَّ يَدَكَ لِتَقْتُلَنِي مَا أَنَا بِبَاسِطٍ يَدِيَ إِلَيْكَ لِأَقْتُلَكَ إِنِّي أَخَافُ اللَّهَ رَبَّ الْعَالَمِينَ إِنِّي أُرِيدُ أَن تَبُوءَ بِإِثْمِي وَإِثْمِكَ فَتَكُونَ مِنْ أَصْحَابِ النَّارِ وَذَٰلِكَ جَزَاءُ الظَّالِمِينَ فَطَوَّعَتْ لَهُ نَفْسُهُ قَتْلَ أَخِيهِ فَقَتَلَهُ فَأَصْبَحَ مِنَ الْخَاسِرِينَ فَبَعَثَ اللَّهُ غُرَابًا يَبْحَثُ فِي الْأَرْضِ لِيُرِيَهُ كَيْفَ يُوَارِي سَوْءَةَ أَخِيهِ قَالَ يَا وَيْلَتَا أَعَجَزْتُ أَنْ أَكُونَ مِثْلَ هَٰذَا الْغُرَابِ فَأُوَارِيَ سَوْءَةَ أَخِي فَأَصْبَحَ مِنَ النَّادِمِينَ مِنْ أَجْلِ ذَٰلِكَ كَتَبْنَا عَلَىٰ بَنِي إِسْرَائِيلَ أَنَّهُ مَن قَتَلَ نَفْسًا بِغَيْرِ نَفْسٍ أَوْ فَسَادٍ فِي الْأَرْضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيعًا وَمَنْ أَحْيَاهَا فَكَأَنَّمَا أَحْيَا

तर्जुमा :

इन लोगों को आदम के दो बेटों के हालात सही सही बयान करो, जबकि उन्होंने क़ुर्बानी की। तब उनमें से एक की क़ुर्बानी क़ुबूल हुई और दूसरे की क़ुर्बानी क़ुबूल ना हुई। (दूसरे ने) कहा कि “मैं यक़ीनन तुझको क़त्ल कर डालूँगा।” तब पहले ने कहा कि “अल्लाह तआला मुत्तक़ियों की क़ुर्बानी क़ुबूल करता है। तहक़ीक़ अगर तू ने मुझे क़त्ल करने के लिए अपना हाथ फैलाया तो मैं तुझे क़त्ल करने को अपना हाथ नहीं फैलाऊंगा। दर हक़ीक़ीत में अल्लाह रब-उल-आलमीन से डरता हूँ। मैं दरहक़ीक़त ये पसंद करता हूँ कि तू अपना और मेरा दोनों का गुनाह अपने सर ले क्योंकि उस वक़्त तू अस्हाब-उल-नार (यानी जहन्नम वालो) में से हो जाएगा और यही ज़ालिमों की जज़ा होती है। तब इस (क़ाबील) की रूह ने उसे अपने भाई के क़त्ल की इजाज़त दी। पस उसने क़त्ल कर डाला और इस तरह वो नुक़्सान उठाने वालों में शामिल हो गया। तब अल्लाह ने एक कव्वा भेजा जो ज़मीन खोद कर उसे ये बताने लगा कि वो अपने भाई की लाश क्योंकर दफ़न करे। उसने कहा “अफ़्सोस मुझ पर क्या में इस कव्वे जैसा भी नहीं कि अपने भाई की लाश छुपा दूं। तब वो नादिम हुआ। इसी वजह से हमने बनी-इस्राईल के लिए लिखा कि जो कोई किसी नफ़्स को क़त्ल करेगा, बजुज़ क़िसास या दुनिया से फ़साद रफ़ा करने के, तो ऐसा समझा जाएगा गोया उसने तमाम आदमीयों को क़त्ल कर दिया और जो कोई किसी नफ़्स को ज़िंदा रखेगा तो गोया उसने तमाम आदमीयों को ज़िंदा रखा।”

क़ाबील व हाबील के दर्मियान एक मुकालमा या बह्स (Targum of Jonathan ) और (Targum of Jerusalem ) यहूदी रिवायत में भी इस तरह बयान किया गया है कि क़ाबील ने कहा :-

“गुनाह के लिए सज़ा नहीं, ना नेको कारी के लिए कोई इनाम है।” इस के जवाब में हाबील ने कहा “ख़ुदा नेकी का इनाम और बदी की सज़ा देता है।” इस बात पर ख़फ़ा हो कर क़ाबील ने एक पत्थर लेकर अपने भाई पर दे मारा और उसे क़त्ल कर डाला।”

इस बयान और उस बयान में जो क़ुरआन में पाया जाता है चंदाँ मुताबिक़त नहीं है, लेकिन क़ुरआन के बक़ीया बयान का माख़ज़ वही यहूदी रिवायत है जो पिर्के डे रब्बी एलिज़र Pirke De-Rabbi Eliezer के बाब नंबर 21 में दर्ज है। इस का तर्जुमा ये है :-

“आदम और उस के मददगार दोनों बैठे हुए इस (हाबील) पर नोहा-ओ-ज़ारी कर रहे थे और नहीं जानते थे कि वो हाबील का क्या करें क्योंकि वो तकफ़ीन व तदफ़ीन से वाक़िफ़ ना थे। एक कव्वा जिसका एक साथी मर गया था आया। उसने उस को लिया, ज़मीन खोदी और उसे उनकी (आदम हवा) की आँखों के सामने दफ़न कर दिया। आदम ने कहा “जैसा उस कव्वे ने किया है, वैसा ही मैं करूँगा। चुनान्चे उन्होंने फ़ौरन हाबील की लाश ली, ज़मीन खोदी और उसे दफ़न कर दिया।”

जब हम इस बयान का क़ुरआन मजीद के बयान से मुक़ाबला करते हैं तो सिर्फ इस क़द्र फ़र्क़ निकलता है कि यहूदी रिवायत में कव्वे ने आदम को और क़ुरआन की रिवायत में क़ाबील को दफ़न करना सिखाया। ये भी ज़ाहिर है कि क़ुरआन में जो कुछ दर्ज है वो किसी यहूदी किताब का लफ़्ज़ी तर्जुमा नहीं बल्कि मुहम्मदﷺ ने अपने किसी यहूदी दोस्त से जिस तरह सुना था उसी तरह बयान कर दिया। लिहाज़ा अगर ये ग़लती है तो रसूल अरबी की नहीं है बल्कि उन यहूदीयों की है जिन्हों ने ये रिवायत बयान की।

सूरह माइदा की 35 वीं आयत में जो कुछ लिखा है इस का साबिक़ा आयतों के मज़्मून से बज़ाहिर कोई ताल्लुक़ नज़र नहीं आता। इसलिए साफ़ ज़ाहिर है कि कोई दरमयानी कड़ी गुम है। अगर इस बाब में हम(Mishna Sanhedrin) के बाब 4 फ़िक़्रह 5 को देखें तो मज़्कूर बाला आयत का ताल्लुक़ क़त्ल हाबील के वाक़िये से बिल्कुल वाज़ेह हो जाएगा। ये यहूदी मुफ़स्सिर “नामूस मूसा” के उन अल्फ़ाज़ की तफ़्सीर करता हुआ जो ख़ुदा ने क़ाबील से फ़रमाए थे यानी “ये तू ने क्या किया? तेरे भाई के ख़ून की आवाज़ मुझे ज़मीन से पुकारती है।” (पैदाइश 4:10) (इस इबारत में लफ़्ज़ ख़ून इब्रानी ज़बान में जमा आया है) यूं लिखता कि :-

“तेरे भाई का ख़ून” नहीं बल्कि “तेरे भाई के ख़ून” जिससे ना सिर्फ शख़्स मक़्तूल बल्कि उस की औलाद का ख़ून भी मुराद है। इसी वजह से आदम को तन्हा पैदा किया गया था ताकि वो तुझे सिखाए कि हर वो शख़्स जो बनी-इस्राईल में किसी एक नफ़्स को भी क़त्ल करता है, वो किताब मुक़द्दस के नज़्दीक तमाम दुनिया को क़त्ल करता है और जो शख़्स बनी-इस्राईल में से एक नफ़्स को भी ज़िंदा रखता है वो तमाम दुनिया को ज़िंदा रखता है।”

हमको इस तफ़्सीर की सेहत या ग़लती से कोई ताल्लुक़ नहीं, मगर देखने की चीज़ ये है कि सूरह माइदा की 35 वीं आयत इस इक़्तिबास का तक़रीबन लफ़्ज़ी तर्जुमा है। क़ुरआन में मिशनाह के अव्वल हिस्से को हज़फ़ कर दिया है। शायद इस वजह से कि मुहम्मदﷺ या उस के बयान करने वाले ने उसे पूरी तरह नहीं समझा था। लेकिन अगर ये हिस्सा जोड़ दिया जाये तो 35 वीं आयत का आयात मासबक़ से ताल्लुक़ पूरा ज़ाहिर जाता है। जिस यहूदी रिवायत का हम ने ज़िक्र किया है इस में एक लफ़्ज़ “मी्याद” میّاد आया है जिसके लफ़्ज़ी मअनी हैं “हाथ से”, लेकिन इस का मफ़्हूम “फ़ौरन” होता है। तक़रीबन यही लफ़्ज़ “अन यद” عن ید क़ुरआन की सूरह तौबा आयत 29 में भी आया है :-

قَاتِلُوا الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْآخِرِ وَلَا يُحَرِّمُونَ مَا حَرَّمَ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَلَا يَدِينُونَ دِينَ الْحَقِّ مِنَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ حَتَّىٰ يُعْطُوا الْجِزْيَةَ عَن يَدٍ وَهُمْ صَاغِرُونَ

जिसकी तफ़्सीर में बहुत इख़्तिलाफ़ पाया जाता है।

इब्राहिम और आतिश नमरूद

क़ुरआन में ये क़िस्सा मुसलसल तौर पर एक जगह बयान नहीं किया गया है बल्कि थोड़ा थोड़ा कर के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात पर दिया गया है। इसलिए मुसलमानों ने ये मुख़्तलिफ़ टुकड़े एक जगह जमा करके मुफ़स्सिल क़िस्सा तैयार कर लिया है और गुम-शुदा कड़ियाँ अहादीस नब्वी से हासिल कर ली गई हैं। जब हम इस क़िस्से का जो इस तरह मुसलसल कर के मुसलमानों में मुसल्लमा तौर पर राइज व क़ुबूल है, उस बयान से मुक़ाबला करते हैं जो यहूदीयों की किताब “मदराशि रुब्बा” (Midrash Rabba ) में पाया जाता है, तो हमको साफ़ तौर पर मालूम हो जाता है कि इस्लामी क़िस्सा का माख़ज़ दरअस्ल वही यहूदी क़िस्सा है। नाज़रीन किराम के मुलाहिज़े के लिए पहले हम इस क़िस्से का तर्जुमा दर्ज करते हैं जो मुसलमान मुसन्निफ़ीन ने लिखा है, बादअज़ां यहूदी रावियों का बयान कर्दा मुख़्तसर और सादा क़िस्सा बयान करेंगे। पहले हम वो क़िस्सा लेते हैं जो अबूल फ़दा ने बयान किया है। इस में जो हिस्सा क़ुरआन से लिया गया है वो हम अरबी इबारत में लिख देंगे। अबूल फ़दा लिखता है कि :-

“इब्राहिम का बाप आज़र बुत बनाया करता था और बना कर इब्राहिम को दे दिया करता था ताकि जा कर फ़रोख़्त कर लाए। मगर इब्राहिम हमेशा कहा करते थे कि “ऐसी चीज़ को कौन ख़रीदेगा जो ख़रीदार को नुक़्सान देगी और उसे कोई फ़ायदा ना पहुँचाएगी?” बाद अज़ां जब अल्लाह तआला ने इब्राहिम को हुक्म दिया कि वो अपनी क़ौम को तौहीद की तरफ़ बुलाए तो सबसे पहले उन्होंने अपने बाप को नसीहत की, मगर उसने ना माना। फिर उन्होंने अपनी क़ौम को तौहीद की दावत दी। अल-ग़र्ज़ जब इस दावत तौहीद का मुआमला बढ़ते बढ़ते नमरूद बिन कुश के कानों तक पहुंचा जो इस मुल्क का बादशाह था।....तो नमरूद ने इब्राहिम ख़लील-उल्लाह को पकड़ कर एक बहुत बड़ी आग में डाल दिया। पस आग सर्द हो गई और उस से इब्राहिम को कोई अज़ीयत (तक़्लीफ़) ना पहुंची और वो कुछ दिनों बाद आग से सही व सलामत बाहर निकल आए। तब उनकी क़ौम के कुछ आज़री उन पर ईमान लाए।”

अबूल फ़दा का मुख़्तसर बयान यही है। अब हम इस क़िस्से का अहम तरीन हिस्सा दर्ज करते हैं जो “अराईस-उल-मजालस” عرایس المجالس (Araisu'l Majalis) में दिया गया है। इस किताब में लिखा है कि इब्राहिम की परवरिश एक ग़ार में हुई थी और उन्हें सच्चे ख़ुदा का कोई इल्म ना था। एक रात जो वो बाहर निकले और जगमगाते सितारों की शान देखी तो वो इस क़द्र मुतास्सिर हुए कि उन्होंने सितारों को अपना ख़ुदा तस्लीम कर लेने का इरादा कर लिया। इस के बाद इस क़िस्से की तफ़्सील हस्ब-ज़ैल दी गई है जिसमें क़ुरआन की आयतों का सिलसिला हत्तल-इम्कान क़ायम कर लिया है :-

فَلَمَّا جَنَّ عَلَیۡہِ الَّیۡلُ رَاٰ کَوۡکَبًا ۚ قَالَ ہٰذَا رَبِّیۡ ۚ فَلَمَّاۤ اَفَلَ قَالَ لَاۤ اُحِبُّ الۡاٰفِلِیۡنَ۔فَلَمَّا رَاَ الۡقَمَرَ بَازِغًا قَالَ ہٰذَا رَبِّیۡ ۚ فَلَمَّاۤ اَفَلَ قَالَ لَئِنۡ لَّمۡ یَہۡدِنِیۡ رَبِّیۡ لَاَکُوۡنَنَّ مِنَ الۡقَوۡمِ الضَّآلِّیۡنَ۔ فَلَمَّا رَاَ الشَّمۡسَ بَازِغَۃً قَالَ ہٰذَا رَبِّیۡ ہٰذَاۤ اَکۡبَرُ ۚ فَلَمَّاۤ اَفَلَتۡ قَالَ یٰقَوۡمِ اِنِّیۡ بَرِیۡٓءٌ مِّمَّا تُشۡرِکُوۡنَ اِنِّیۡ وَجَّہۡتُ وَجۡہِیَ لِلَّذِیۡ فَطَرَ السَّمٰوٰتِ وَ الۡاَرۡضَ حَنِیۡفًا وَّ مَاۤ اَنَا مِنَ الۡمُشۡرِکِیۡنَ ‘‘ (سورۂ انعام آیات۷۶۔۷۹)۔

(सूरह अन्आम आयात 76-79)

कहते हैं कि उन के बाप बुत बनाया करते थे और इब्राहिम को बुत बना कर देते थे ताकि फ़रोख़्त कर लाएं। इब्राहिम बुत लेकर जाते और ब-आवाज़-ए-बुलंद पुकारते कि “कौन ख़रीदेगा ऐसी चीज़ को जो मुज़र्रत पहुंचाती है और कोई फ़ायदा नहीं देती?” पस उनसे कोई शख़्स बुत ना ख़रीदता। जब उन्होंने देखा कि वो बुत बिकते ही नहीं तो वो उन्हें एक दरिया पर ले गए। वहां उन्होंने इन बुतों को मार कर फ़रमाया कि “पियो पानी ऐ मेरे ख़राब सौदे।” ये गोया अपनी क़ौम, उनके दीन बातिल और जहालत पर तंज़ थी। आख़िरकार उन्होंने बुतों और अपनी क़ौम का इस क़द्र मज़हका उड़ाया और इस क़द्र तअन व तशनीअ की कि वो तमाम शहर के बाशिंदों और अपनी क़ौम में मशहूर हो गए। इसलिए उनकी क़ौम ने उनसे मज़्हब के बारे में झगड़ा किया, तब इब्राहिम ने अपनी क़ौम से कहा :-

قَالَ أَتُحَاجُّونِّي فِي اللَّهِ وَقَدْ هَدَانِ وَلَا أَخَافُ مَا تُشْرِكُونَ بِهِ إِلَّا أَن يَشَاءَ رَبِّي شَيْئًا وَسِعَ رَبِّي كُلَّ شَيْءٍ عِلْمًا أَفَلَا تَتَذَكَّرُونَ وَكَيْفَ أَخَافُ مَا أَشْرَكْتُمْ وَلَا تَخَافُونَ أَنَّكُمْ أَشْرَكْتُم بِاللَّهِ مَا لَمْ يُنَزِّلْ بِهِ عَلَيْكُمْ سُلْطَانًا فَأَيُّ الْفَرِيقَيْنِ أَحَقُّ بِالْأَمْنِ إِن كُنتُمْ تَعْلَمُونَ الَّذِينَ آمَنُوا وَلَمْ يَلْبِسُوا إِيمَانَهُم بِظُلْمٍ أُولَٰئِكَ لَهُمُ الْأَمْنُ وَهُم مُّهْتَدُونَ وَتِلْكَ حُجَّتُنَا آتَيْنَاهَا إِبْرَاهِيمَ عَلَىٰ قَوْمِهِ نَرْفَعُ دَرَجَاتٍ مَّن نَّشَاءُ إِنَّ رَبَّكَ حَكِيمٌ عَلِيمٌ (سورۂ انعام آیات۸۰۔۸۳)۔

(सूरह अन्आम आयात 80-83)

इस तरह उन्होंने अपनी क़ौम को क़ाइल कर के मग़्लूब कर लिया और अपने बाप आज़र को दावत दी कि वो उनका दीन क़ुबूल कर लें। चुनान्चे उन्होंने अपने बाप से इस तरह कहा يَا أَبَتِ لِمَ تَعْبُدُ مَا لَا يَسْمَعُ وَلَا يُبْصِرُ وَلَا يُغْنِي عَنكَ شَيْئًا (سورۂ مریم آیت۴۲)۔ (सूरह मर्यम आयत 42)

पस उनके बाप ने इस बात के क़ुबूल करने से इन्कार कर दिया। इस पर इब्राहिम ने ब-आवाज़-ए-बुलंद अपनी क़ौम के सामने ऐलान कर दिया कि मैं तुम्हारे दीन से बाज़ आया और अपने दीन का इज़्हार दिया :-

قَالَ أَفَرَأَيْتُم مَّا كُنتُمْ تَعْبُدُونَ أَنتُمْ وَآبَاؤُكُمُ الْأَقْدَمُونَ فَإِنَّهُمْ عَدُوٌّ لِّي إِلَّا رَبَّ الْعَالَمِينَ (سورۂ شعرا آیت ۷۶)۔

(सूरह शोअरा आयत 76)

क़ौम ने पूछा “तुम किस की परस्तिश करते हो?” इब्राहिम ने जवाब दिया कि “रब-उल-आलमीन” की। क़ौम ने पूछा “क्या तुम्हारा मतलब नमरूद से है?” इब्राहिम ने कहा “नहीं बल्कि उस की परस्तिश करता हूँ जिसने मुझे पैदा किया वग़ैरह।” जब ये मुआमला हर तरफ़ फैल गया और नमरूद ने भी सुना तो उसने इब्राहिम को तलब कर के उनसे दर्याफ़्त किया कि “ऐ इब्राहिम क्या तूने अपने ख़ुदा को देखा है जिसने तुझे भेजा है और जिसकी इबादत की (दावत) तू लोगों को देता है, जिसकी ताक़त तू बेहद बयान करता है और इसी वजह से उस को सबसे बड़ा बताता है? वो तेरा ख़ुदा क्या है?” इब्राहिम ने जवाब दिया कि “मेरा ख़ुदा वो है जो ज़िंदा रखता है और मार डालता है।” नमरूद ने कहा कि “मैं ज़िंदा रखता हूँ और मार डालता हूँ।” इब्राहिम ने दर्याफ़्त किया कि “तू किस तरह ज़िंदा रखता है और किस तरह मार डालता है?” नमरूद ने जवाब दिया कि “मैं अपनी क़लमरू से दो आदमी ऐसे लेता हूँ जो वाजिब-उल-क़त्ल हैं। उनमें से एक को क़त्ल करता हूँ और दूसरे को मैं माफ़ कर के छोड़ देता हूँ।” ये सुनकर इब्राहिम ने कहा कि “तहक़ीक़ अल्लाह तआला आफ़्ताब को मशरिक़ की तरफ़ से तलूअ फ़रमाता है, पस तू उसे मग़रिब की तरफ़ से तलूअ कर के दिखा।” इस सवाल पर नमरूद सट पटाया और कोई जवाब ना दे सका।”

इस के बाद क़िस्से का सिलसिला इस तरह जारी रखा गया है कि इब्राहिम की क़ौम में ये दस्तूर था कि हर साला यक अज़ीमुश्शान तहवार मनाया जाता था जिसमें हर शख़्स कुछ अरसे के लिए शहर से बाहर ज़रूर जाता था। बयान किया जाता है कि शहर से रवाना होने से पेशतर शहर वाले खाने तैयार करते थे और बुतों के सामने रखकर कहा करते थे कि “जब हमारे वापिस आने का वक़्त होगा तो हम वापिस आ जाऐंगे और उस वक़्त तक देवता हमारे खाने को बरकत दे देंगे और हम खाना खा लेंगे।” लिहाज़ा जब इब्राहिम ने बुतों को देखा और उनके सामने खाने रखे देखे तो उन्होंने अज़राह तंज़ बुतों से कहा “क्या तुम नहीं खाओगे।” الاتا کلون “और जब इन बुतों ने कोई जवाब ना दिया तो इब्राहिम ने उनसे कहा مالکم لا تنطقون (तुम्हें क्या हो गया! तुम बोलते क्यों नहीं?) فَرَاغَ عَلَيْهِمْ ضَرْبًا بِالْيَمِينِ (सूरह अल-साफ्फ़ात आयत 93) यानी इब्राहिम ने अपने दाहने हाथ में एक कुल्हाड़ी लेकर उनको तोड़ना शुरू कर दिया, हत्ता कि बड़े बुत के सिवाए कोई बुत बाक़ी ना रहा और इस सनम अकबर (बड़े बुत) की गर्दन में इब्राहिम ने वो कुल्हाड़ी लटका दी। बादअज़ां वो बाहर निकल गए। अल्लाह तबारक व तआला फ़रमाता है कि فجعلہم جذ اذاً الاّ کبیراً لہم لعلّہم الیہہ یرجعون (पस उसने सनम कबीर (बड़े बुत) के सिवाए तमाम बुतों को टुकड़े टुकड़े कर दिया कि शायद वो लोग वापिस आकर देखें कि ये काम इसी बुत ने किया है।) पस जब लोग बैरून शहर से वापिस आकर बुत ख़ाना में गए और उन्होंने अपने बुतों को ऐसी हालत में देखा तो قالو ا من فعل ہٰذا باٰلہتنا انہّ لمن الظالمین۔قالو اسمعنا فتیً یذکر ھم یقال لہا ابراہیم (कहने लगे कि ये हरकत हमारे बुतों के साथ किस ने की है यक़ीनन वो ज़ालिमों में से है। वो कहने लगे कि हमने एक जवान मुसम्मा इब्राहिम को उनका ज़िक्र करते सुना है। हमारे ख़्याल में ये वही शख़्स है जिसने ये हरकत की है।) ये ख़बर ज़ालिम नमरूद को पहुंची और उस क़ौम के उमरा व शरिफा ने भी सुना। लिहाज़ा उन्होंने कहा فاتوا بہٖ علیٰ اعین الناس لعلّہم یشہدون (लाओ उस को उन लोगों की आँखों के सामने ताकि वो गवाही दें कि हाँ उसी शख़्स ने ये फे़अल किया है।) पस जब वो इब्राहिम को सामने लाए तो उन्होंने उस से कहा ءَانت فعلت ہٰذا بآ لہتنا یٰا براہیم (क्या ऐ इब्राहिम हमारे बुतों के साथ ये हरकत तू ने की है? قال بل فعلہٖ علیٰ کبیر ہم ہذا فسئلو ہم ان کا نواینطقون इब्राहिम ने कहा कि ये काम बड़े बुत ने किया है। पस उनसे दर्याफ़्त कर लो अगर वो बोल सकें। वो तुम लोगों से इस बात पर नाराज़ था कि तुम उस के इन छोटे छोटे बुतों की भी पूजा करते थे और चूँकि वो इन सबसे बड़ा है इसलिए उस ने उनको टुकड़े टुकड़े कर दिया। नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया कि “इब्राहिम ने सिर्फ तीन मर्तबा झूट बोला और तीनों मर्तबा अल्लाह तआला की ख़ातिर। एक मर्तबा तो उस वक़्त जब उन्होंने ये कहा कि ’’انّی سقیم‘‘ (मैं बीमार हूँ), दूसरी मर्तबा जब उन्होंने ये कहा कि ’’قال بل فعلہہ کبیر ہم ہذا فسئلو ہم‘‘ और तीसरी मर्तबा उस बादशाह के सामने झूट बोला जो सारा को ले लेना चाहता था और कहा कि “ये मेरी बहन है”

पस जब इब्राहिम ने उन लोगों से ये कहा तो वो अपनी क़ौम की तरफ़ मुख़ातब हुए और कहने लगे कि “यक़ीनन तुम ना इन्साफ़ लोग हो। ये मौजूद है वो शख़्स जिसकी निस्बत तुम तहक़ीक़ात कर रहे हो और ये तुम्हारे बुत मौजूद हैं जिनके साथ उसने वो हरकत की, जो की गई। लिहाज़ा तुम अपने बुतों से पूछो।” और यही बात इब्राहिम ने कही थी कि “तुम उनसे दर्याफ़्त कर लो अगर वो बोल सकते हों।” पस इब्राहिम की क़ौम ने कहा कि हमारे नज़्दीक भी यही वाक़िया मालूम होता है जो इस शख़्स ने बयान किया है और इब्राहिम ने ये कहा था कि “तुम नाइंसाफ़ लोग हो क्योंकि तुम बड़े बुत के साथ छोटे बुतों की परस्तिश करते हो।” पस लोग इब्राहिम के जवाब से सट पिटा गए, क्योंकि वो जानते थे कि वो बुत बोलते नहीं और ना तशद्दुद आमेज़ हमला करते हैं। पस लोगों ने इब्राहिम से कहा “यक़ीनन तू जानता है कि ये बोलते नहीं” और इस तरह जो हुज्जत इब्राहिम ने पेश की थी, उस के लोग क़ाइल हो गए। इस के बाद इब्राहिम ने कहा कि “तो क्या तुम अल्लाह की बजाय उन चीज़ों की परस्तिश करते हो जो ना तुमको क़तई फ़ायदा पहुंचाती हैं ना नुक़्सान? अफ़्सोस है तुम पर और इस चीज़ पर जिसे तुम ख़ुदा की बजाय पूजते हो। क्या तुम अब भी नहीं समझे?” जब वो इस दलील से मग़्लूब हो गए तो वो उस का कोई जवाब ना दे सके। उन्होंने कहा कि इस शख़्स को जला दो और अपने बुतों की मदद करो अगर तुम काम के आदमी हो।” अब्दुल्लाह इब्ने उमर से रिवायत है कि जिस शख़्स ने इब्राहिम को जला देने के लिए लोगों पर ज़्यादा ज़ोर दिया वो एक कुर्द था। शुऐब अल-जबाई की रिवायत ये है कि उस का नाम ज़ीनून था। पस अल्लाह तआला ने ज़मीन को शक़ कर दिया जिसमें वो शख़्स समा गया जहां वो ताक़यामत रहेगा। पस जब नमरूद और उस की क़ौम के लोग इब्राहिम को जलाने के लिए जमा हुए तो उन्होंने उनको एक मकान में बंद कर दिया और फिर उनके लिए भेड़ों के बाड़ा की वज़ा का एक मकान बनाया। क़ुरआन के अल्फ़ाज़ का तर्जुमा ये है “उन्होंने कहा कि इसके लिए एक मकान बनाओ और उसे शोला आतिश (आग) में फेंक दो।” तब उन्होंने इब्राहिम के लिए कुछ सख़्त लकड़ी और मुख़्तलिफ़ क़िस्म का ईंधन जमा किया।

जिस मुसन्निफ़ से हमने मंदर्जा बाला इबारत नक़्ल की है वो बयान करता चला जाता है कि किस तरह इब्राहिम को आग में डाला गया और वो इस आग में से सही व सालम निकल आए। आख़िर क़िस्सा में वो लिखता है कि हदीस शरीफ़ में आया है कि इब्राहिम की जान ’’حسبی اللّٰہ‘‘ कहने से बच गई थी क्योंकि ख़ुदा ने इसी को सुनकर फ़रमाया था ’’یا نار کونی برادوّ۔سلاماً علیٰ ابراہیم‘‘ अब हम मुंदरिज बाला बयान का इस क़िस्से से मुक़ाबिला करते हैं जो यहूदीयों की किताब “मदराशि रब्बा” (’مدراش ربہّ ) मैं तहरीर है :-

וימת הרן על פני תרח אביו - רבי חייא בר בריה דרב אדא דיפו: תרח עובד צלמים היה, חד זמן נפיק לאתר הושיב לאברהם מוכר תחתיו. הוה אתי בר אינש בעי דיזבן והוה אמר לו: בר כמה שנין את? והוה אמר לו: בר חמשין או שיתין. והוה אמר לו: ווי ליה לההוא גברא דהוה בר שיתין, ובעי למסגד לבר יומי?! והוה מתבייש והולך לו. חד זמן אתא חד איתתא טעינה בידה חדא פינך דסולת. אמרה ליה: הא לך קרב קודמיהון. קם נסיב בוקלסא בידיה, ותבריהון לכולהון פסיליא, ויהב בוקלסא בידא דרבה דהוה ביניהון. כיון דאתא אבוה אמר לו: מאן עביד להון כדין? אמר לו: מה נכפר מינך, אתת חדא איתתא טעינה לה חדא פינך דסולת, ואמרת לי הא לך קריב קודמיהון, קריבת לקדמיהון הוה דין אמר: אנא איכול קדמאי! ודין אמר אנא איכול קדמאי! קם הדין רבה דהוה ביניהון, נסב בוקלסא ותברינון. אמר לו: מה אתה מפלה בי, וידעין אנון?! אמר לו: ולא ישמעו אזניך מה שפיך אומר?! נסביה ומסריה לנמרוד. אמר לו: נסגוד לנורא! אמר לו אברהם: ונסגוד למיא, דמטפין נורא. אמר לו נמרוד: נסגוד למיא! אמר לו: אם כן נסגוד לעננא, דטעין מיא. אמר לו: נסגוד לעננא! אמר לו: אם כן נסגוד לרוחא, דמבדר עננא. אמר לו: נסגוד לרוחא! אמר לו: ונסגוד לבר אינשא, דסביל רוחא. אמר לו: מילין את משתעי! אני, איני משתחוה אלא לאור, הרי אני משליכך בתוכו, ויבא אלוה שאתה משתחוה לו ויצילך הימנו. הוה תמן. הרן קאים פלוג, אמר: מה נפשך, אם נצח אברהם, אנא אמר: מן דאברהם אנא, ואם נצח נמרוד, אנא אמר: דנמרוד אנא. כיון שירד אברהם לכבשן האש וניצול, אמרין ליה: דמאן את? אמר להון: מן אברהם אנא. נטלוהו והשליכוהו לאור ונחמרו בני מעיו ויצא ומת על פני תרח אביו, הה"ד (שם יב) וימת הרן על פני תרח וגו:

तर्जुमा :“तेराह (Tirah) एक बुत बनाने वाला शख़्स था। एक मर्तबा वो कहीं बाहर गया और दूकान पर अपनी बजाय इब्राहिम को बिठा गया। जब कोई शख़्स बुत ख़रीदने आता तो इब्राहिम उस से कहता “तुम्हारी क्या उम्र है? और वो शख़्स जवाब देता कि “पच्चास या साठ साल।” इस पर इब्राहिम उस से कहता कि “अफ़्सोस है ऐ शख़्स तेरी हालत पर कि तेरी उम्र साठ साल है और तू एक ऐसी चीज़ की परस्तिश करना चाहता है जो सिर्फ चंद रोज़ हुए बनी है। ये सुनकर वो दूसरा शख़्स शर्मिंदा हो जाता और अपनी राह लेता। एक मर्तबा एक औरत आई जिसके हाथ में गेहूँ के आटे की एक थाली थी। उस औरत ने इब्राहिम से कहा “ये लो और बुतों के आगे रख दो।” वो उठा अपने हाथ में एक डंडा लेकर सब बुतों को पाश पाश कर दिया। बाद अज़ां उसने वो डंडा सबसे बड़े बुत के हाथ में रख दिया। जब उस का बाप वापिस आया तो उसने इब्राहिम से दर्याफ़्त किया कि “उनके साथ ये हरकत किस ने की है?” इब्राहिम ने कहा कि “आपसे कौन सी बात पोशीदा है। एक औरत यहां आर्द (आटा) गंदुम की थाली लेकर आई और मुझसे कहने लगी कि “लो ये थाली बुतों के आगे रख दो।” मैंने वो थाली रख दी। इस बुत ने कहा कि पहले मैं खाऊंगा और उस दूसरे बुत ने कहा कि नहीं पहले मैं खाऊंगा। ये बुत जो सबसे बड़ा था, (उसने) डंडा लिया और सबको तोड़ दिया।” उसने (इब्राहिम के बाप ने) कहा कि मुझसे ऐसे झूटे क़िस्से क्यों बयान करता है? क्या ये समझते हैं? इब्राहिम ने उस से कहा कि “जो बात तेरे लब कहते हैं क्या वो तेरे कान नहीं सुनते?” इस बात पर तेराह ने इब्राहिम को पकड़ लिया और नमरूद के हवाले कर दिया। नमरूद ने इब्राहिम से कहा “आओ आग की परस्तिश करें।” इब्राहिम ने उस से कहा कि “पानी की पूजा क्यों ना करें जो आग को बुझा देता है।” फिर नमरूद ने कहा कि “अच्छा आओ पानी की परस्तिश करें।” इस पर इब्राहिम ने जवाब दिया कि “अगर ऐसा ही है तो फिर बादल की पूजा क्यों ना करें जो पानी लाता है।” नमरूद ने कहा कि “अच्छा आओ बादल ही की पूजा करें।” इस पर इब्राहिम ने कहा कि “अगर ऐसा है तो फिर हवा ही की परस्तिश क्यों ना की जाये जो बादलों को ले जाती है।” नमरूद ने कहा कि “अच्छा आओ हवा की परस्तिश करें।” इस पर इब्राहिम ने कहा कि “फिर इन्सान ही की पूजा क्यों ना की जाये जो हवा को रोक लेता है। इस पर नमरूद ने बिगड़ कर कहा कि “तू मुझसे ज़बान दराज़ी करता है, बस मैं किसी चीज़ की परस्तिश नहीं करता। सिर्फ आग की परस्तिश करता हूँ। देख मैं तुझे आग में डाले देता हूँ। देखें वो ख़ुदा जिसकी तू परस्तिश करता है तुझे आकर क्योंकर बचाता है।”

दोनों बयानात का मुक़ाबला करने से साफ़ ज़ाहिर होता है कि मुसलमानों वाला क़िस्सा बराह-ए-रास्त यहूदी रिवायत से माख़ूज़ है और चूँकि मुहम्मदﷺ ने इस क़िस्से को किसी एक जगह मुसलसल और मुफ़स्सिल बयान करना ज़रूरी नहीं समझा इसलिए ज़ाहिर होता है कि ये क़िस्सा अरब में बहुत पहले से मशहूर था। हम देखते हैं कि क़ुरआन मजीद में इब्राहिम के बाप का नाम आज़र बताया गया है, तेराह (ताराह) नहीं जैसा कि तौरेत की किताब पैदाइश में लिखा है। मगर मशरिक़ी ममालिक के यहूदी बाज़-औक़ात उस का नाम ज़ारा (Zarah) भी लेते हैं। मुम्किन है कि अरबी नाम “आज़र” इसी की बिगड़ी हुई सूरत हो और ये भी मुम्किन कि मुहम्मदﷺ ने ये नाम मुल्क-ए-शाम में मालूम किया हो जहां से यूसीबस Eusebius ने इस नाम की सूरत “Αθαρ” निकाली और उसे इस्तिमाल किया। ज़माना-ए-हाल के ईरानी मुसलमान उस नाम को “आज़र” लिखते हैं मगर तलफ़्फ़ुज़ इस का बिल्कुल इसी तरह करते हैं जैसा कि अरबी में होता है। अगरचे असली फ़ारसी तलफ़्फ़ुज़ आज़हर (Adhar) था, यानी तक़रीबन वही जो यूसीबस ने इस्तिमाल किया है। फ़ारसी ज़बान में इस लफ़्ज़ के मअनी “आग” हैं और दरअस्ल ये उस मुवक्किल या देवता का नाम था जिसका ताल्लुक़ आग से है और ये “हूरामझ” ’’ہورامژدا‘‘ की अच्छी मख़्लूक़ में समझा जाता था।

वाक़िया ये मालूम होता है कि ग़ालिबन इस नेक देवता एज़द (Azad) को इब्राहिम का बाप बता कर उनके लिए मजूसियों में एहतिराम पैदा करने की कोशिश की गई होगी। हालाँकि इब्राहिम को आग में डाले जाने का क़िस्सा बाअज़ यहूदी मुफ़स्सिरीन की एक मामूली सी ग़लती से पैदा हुआ था। लेकिन क़ब्ल इस के कि हम उस को ज़ाहिर करें इस बाब में मुसलमानों के उन दलाईल को बयान कर दें जो इस सिलसिले में वो पेश किया करते हैं। वो कहते हैं कि अगर ये क़िस्सा दूसरी किताबों में भी पाया जाता है तो इस से क़ुरआन के इल्हामी होने पर कोई हर्फ़ नहीं आता। ऐसे क़िसस का दीगर कुतुब समावी (आस्मानी किताबों) में पाया जाना इस अम्र का बय्यन सबूत है कि दीन इस्लाम एक सच्चा दीन है। मुसलमान कहते हैं अगरचे मुहम्मदﷺ ने ये क़िस्सा यहूदीयों से नहीं लिया बल्कि बज़रीया वह्यी नाज़िल हुआ था, ताहम चूँकि यहूदीयों ने जो हज़रत इब्राहिम की औलाद में हैं इस क़िस्से को अपनी रिवायत की बिना पर तस्लीम कर लिया है, इसलिए इस बात से ताअलीम क़ुरआनी की और ज़्यादा तस्दीक़ होती है।”

इस के जवाब में सिर्फ इस क़द्र कहना काफ़ी है कि ये रिवायत सिर्फ़ जाहिल यहूदीयों की है और पढ़े लिखे यहूदी इस का एतबार नहीं करते। अहद इब्राहिम के मुताल्लिक़ जितनी क़ाबिल-ए-एतिबार यहूदी रिवायत हैं वो “नामूस मूसा” (Pentateuch) (यानी मुसा की पाच किताब तौरेत) में दर्ज हैं और उनमें ये तिफ़लाना क़िस्सा मौजूद नहीं है। इलावा इस के तौरेत की किताब पैदाइश से ज़ाहिर होता है कि नमरूद का अह्द इब्राहिम से बहुत पहले गुज़रा है। ये सही है कि नमरूद का नाम क़ुरआन में नहीं आया है, मगर मुसलमानों की अहादीस, रिवायत, तफ़ासीर और “मदराशि रब्बा” की रिवायत में ज़रूर पाया जाता है। इलावा इस के नमरूद का ये तमाम क़िस्सा एक यहूदी की जाहिलाना ग़लती पर मबनी है। इसी की तशरीह के लिए हमको (Targum of Jonathan ben Uzzeil) का हवाला देना पड़ेगा। इस मुसन्निफ़ ने कलदानियों के शहर उर् (Ur of Chaldees) को मालूम किया। ये वो मुक़ाम है जिसकी निस्बत बयान किया गया है कि इब्राहिम तर्क-ए-वतन कर के यहीं आबाद हुए थे, यानी ये शहर उस जगह आबाद था जहां आजकल मुक़ीर (Muqayyar) है। क़दीम बाबिली ज़बान में लफ़्ज़ उर् या उरूओ (Ur or Uru) के मअनी “शहर” के हैं। यही लफ़्ज़ “यरूशलेम” के नाम में भी पाया जाता है (अरबी में उसे अब भी “उरोशलीम” (اُروشلیم) कहते हैं) जिसके मअनी हैं “दार-उस्सलाम' मगर जोनाथन को बाबिली ज़बान का इल्म ना था, इसलिए उसने समझा कि “ऊर” (Ur) के मअनी ज़रूर वही हों जो इब्रानी लफ़्ज़ “ओर” (Or) के हैं यानी “नूर या रोशनी।” इसी लफ़्ज़ के मअनी अरामी ज़बान में “आग” के हैं। पस इस मुफ़स्सिर ने किताब पैदाइश 15:7 के मअनी ये किए कि “मैं वो ख़ुदा हूँ जिस ने तुझे कलदानियों की आग की भट्टी से बाहर निकाला।” इसी तरह किताब पैदाइश बाब याज़ दहुम आयत 28 की तफ़्सीर में उसने लिखा कि “जब नमरूद ने इब्राहिम को आग की भट्टी में डाल दिया क्योंकि वो उस के बुतों की परस्तिश नहीं करते थे, तो ऐसा वाक़िया हुआ कि आग को इजाज़त नहीं दी गई कि वो इब्राहिम को मुज़र्रत पहुंचाए।” इस तरह साफ़ तौर पर ज़ाहिर हो गया कि ये तमाम क़िस्सा सिर्फ एक लफ़्ज़ के ग़लत मअनी करने की वजह से पैदा हो गया वर्ना इस की कोई बुनियाद नहीं है। रही ये बात कि सबसे पहले ये ग़लती जोनाथन ने की थी सही तौर पर नहीं कही जा सकती। मुम्किन है कि उसने ये ख़्याल दूसरे लोगों से लिया हो। बहर-ए-हाल जो कुछ भी हो, मगर नतीजा वही है।

मलिका-ए-सबा व सुलेमान

क़ुरआन में ये क़िस्सा जिस तरह बयान किया गया है इस के माख़ज़ के मुताल्लिक़ हमको ज़रा सा भी शक नहीं है। ये तमाम क़िस्सा ख़फ़ीफ़ तग़य्युरात के साथ (Second Targum of Esther) से लिया गया है जो मिक़रोथ गेडोल्थ (Miqraoth Gedolth) में छपा हुआ है। इस में शक नहीं कि मुहम्मदﷺ को ये यक़ीन था कि ये क़िस्सा यहूदीयों की मुक़द्दस कुतुब में दर्ज है और ये उन्हें और अरबों को इस क़द्र पसंद था कि इस को क़ुरआन में दाख़िल कर दिया। क़ुरआन में ये क़िस्सा इस तरह बयान किया है :-

وَتَفَقَّدَ الطَّيْرَ فَقَالَ مَا لِيَ لَا أَرَى الْهُدْهُدَ أَمْ كَانَ مِنَ الْغَائِبِينَ لَأُعَذِّبَنَّهُ عَذَابًا شَدِيدًا أَوْ لَأَذْبَحَنَّهُ أَوْ لَيَأْتِيَنِّي بِسُلْطَانٍ مُّبِينٍ فَمَكَثَ غَيْرَ بَعِيدٍ فَقَالَ أَحَطتُ بِمَا لَمْ تُحِطْ بِهِ وَجِئْتُكَ مِن سَبَإٍ بِنَبَإٍ يَقِينٍ إِنِّي وَجَدتُّ امْرَأَةً تَمْلِكُهُمْ وَأُوتِيَتْ مِن كُلِّ شَيْءٍ وَلَهَا عَرْشٌ عَظِيمٌ وَجَدتُّهَا وَقَوْمَهَا يَسْجُدُونَ لِلشَّمْسِ مِن دُونِ اللَّهِ وَزَيَّنَ لَهُمُ الشَّيْطَانُ أَعْمَالَهُمْ فَصَدَّهُمْ عَنِ السَّبِيلِ فَهُمْ لَا يَهْتَدُونَ أَلَّا يَسْجُدُوا لِلَّهِ الَّذِي يُخْرِجُ الْخَبْءَ فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَيَعْلَمُ مَا تُخْفُونَ وَمَا تُعْلِنُونَ اللَّهُ لَا إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ رَبُّ الْعَرْشِ الْعَظِيمِ قَالَ سَنَنظُرُ أَصَدَقْتَ أَمْ كُنتَ مِنَ الْكَاذِبِينَ اذْهَب بِّكِتَابِي هَٰذَا فَأَلْقِهْ إِلَيْهِمْ ثُمَّ تَوَلَّ عَنْهُمْ فَانظُرْ مَاذَا يَرْجِعُونَ قَالَتْ يَا أَيُّهَا الْمَلَأُ إِنِّي أُلْقِيَ إِلَيَّ كِتَابٌ كَرِيمٌ إِنَّهُ مِن سُلَيْمَانَ وَإِنَّهُ بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ أَلَّا تَعْلُوا عَلَيَّ وَأْتُونِي مُسْلِمِينَ قَالَتْ يَا أَيُّهَا الْمَلَأُ أَفْتُونِي فِي أَمْرِي مَا كُنتُ قَاطِعَةً أَمْرًا حَتَّىٰ تَشْهَدُونِ قَالُوا نَحْنُ أُولُو قُوَّةٍ وَأُولُو بَأْسٍ شَدِيدٍ وَالْأَمْرُ إِلَيْكِ فَانظُرِي مَاذَا تَأْمُرِينَ قَالَتْ إِنَّ الْمُلُوكَ إِذَا دَخَلُوا قَرْيَةً أَفْسَدُوهَا وَجَعَلُوا أَعِزَّةَ أَهْلِهَا أَذِلَّةً وَكَذَٰلِكَ يَفْعَلُونَ وَإِنِّي مُرْسِلَةٌ إِلَيْهِم بِهَدِيَّةٍ فَنَاظِرَةٌ بِمَ يَرْجِعُ الْمُرْسَلُونَ فَلَمَّا جَاءَ سُلَيْمَانَ قَالَ أَتُمِدُّونَنِ بِمَالٍ فَمَا آتَانِيَ اللَّهُ خَيْرٌ مِّمَّا آتَاكُم بَلْ أَنتُم بِهَدِيَّتِكُمْ تَفْرَحُونَ ارْجِعْ إِلَيْهِمْ فَلَنَأْتِيَنَّهُم بِجُنُودٍ لَّا قِبَلَ لَهُم بِهَا وَلَنُخْرِجَنَّهُم مِّنْهَا أَذِلَّةً وَهُمْ صَاغِرُونَ قَالَ يَا أَيُّهَا الْمَلَأُ أَيُّكُمْ يَأْتِينِي بِعَرْشِهَا قَبْلَ أَن يَأْتُونِي مُسْلِمِينَ قَالَ عِفْرِيتٌ مِّنَ الْجِنِّ أَنَا آتِيكَ بِهِ قَبْلَ أَن تَقُومَ مِن مَّقَامِكَ ۖ وَإِنِّي عَلَيْهِ لَقَوِيٌّ أَمِينٌ قَالَ الَّذِي عِندَهُ عِلْمٌ مِّنَ الْكِتَابِ أَنَا آتِيكَ بِهِ قَبْلَ أَن يَرْتَدَّ إِلَيْكَ طَرْفُكَ ۚ فَلَمَّا رَآهُ مُسْتَقِرًّا عِندَهُ قَالَ هَٰذَا مِن فَضْلِ رَبِّي لِيَبْلُوَنِي أَأَشْكُرُ أَمْ أَكْفُرُ ۖ وَمَن شَكَرَ فَإِنَّمَا يَشْكُرُ لِنَفْسِهِ ۖ وَمَن كَفَرَ فَإِنَّ رَبِّي غَنِيٌّ كَرِيمٌ قَالَ نَكِّرُوا لَهَا عَرْشَهَا نَنظُرْ أَتَهْتَدِي أَمْ تَكُونُ مِنَ الَّذِينَ لَا يَهْتَدُونَ فَلَمَّا جَاءَتْ قِيلَ أَهَٰكَذَا عَرْشُكِ ۖ قَالَتْ كَأَنَّهُ هُوَ ۚ وَأُوتِينَا الْعِلْمَ مِن قَبْلِهَا وَكُنَّا مُسْلِمِينَ وَصَدَّهَا مَا كَانَت تَّعْبُدُ مِن دُونِ اللَّهِ ۖ إِنَّهَا كَانَتْ مِن قَوْمٍ كَافِرِينَ قِيلَ لَهَا ادْخُلِي الصَّرْحَ ۖ فَلَمَّا رَأَتْهُ حَسِبَتْهُ لُجَّةً وَكَشَفَتْ عَن سَاقَيْهَا ۚ قَالَ إِنَّهُ صَرْحٌ مُّمَرَّدٌ مِّن قَوَارِيرَ ۗ قَالَتْ رَبِّ إِنِّي ظَلَمْتُ نَفْسِي وَأَسْلَمْتُ مَعَ سُلَيْمَانَ لِلَّهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ

तर्जुमा : “सुलेमान के सामने उनकी फ़ौजें जो जिन्नों, आदमीयों और परिंदों पर मुश्तमिल थीं जमा हुईं और उन्होंने परिंदों का जायज़ा लिया और फ़रमाया कि “मुझे क्या हो गया है कि मैं हुद हुद को नहीं देखता। क्या वो गैर-हाज़िर होने वालों में है? यक़ीनन मैं इस को सख़्त सज़ा दूंगा। या तो मैं इस को यक़ीनन क़त्ल कर डालूँगा या वो यक़ीनन साफ़ सबूत देगा (अपने गैर-हाज़िर होने का) पस वो ज़्यादा अरसा तक गैर-हाज़िर ना रहा। फिर उसने कहा कि मैं वो बात जानता हूँ जो आप नहीं जानते और मैं आपकी ख़िदमत में पुख़्ता ख़बर लेकर सुबह से हाज़िर हुआ हूँ। तहक़ीक़ मैंने एक औरत देखी जो उन लोगों पर हुकूमत करती है। उस को हर चीज़ कस्रत के साथ अता हुई है और उस के पास एक बहुत बड़ अतख़त है। और मैंने देखा कि वो और उस की क़ौम ख़ुदा की बजाय आफ़्ताब (सूरज) की परस्तिश करते हैं। और शैतान ने उनके काम उनकी नज़रों में पसंदीदा कर दिए हैं और उन्हें रास्ते से मुनहरिफ़ कर दिया है और सीधे रास्ते पर नहीं चलते। और वो अल्लाह की इबादत नहीं करते जो तमाम वो चीज़ें लाता है जो ज़मीन और आस्मान में पोशीदा हैं और जानता है जो चीज़ तुम छुपाते हो और जो चीज़ तुम ज़ाहिर करते हो। ’’اللّٰہ لا الہ اِلآ ہوربّ العرش العظیم‘‘ उसने (सुलेमान ने) कहा कि “हम देखते हैं कि जो कुछ तू ने कहा, फिर आया वो वाक़ई सही है या तू झूट बोलने वालों में है। तो जा मेरा ये ख़त लेकर और उन लोगों के हवाले कर दे और फिर वहां से वापिस आ और देख वो क्या जवाब देते हैं।” “(मलिका ने) कहा कि “ऐ सरदारो यक़ीनन एक क़ाबिल-ए-एहतिराम ख़त मुझको दिया गया है। ये ख़त सुलेमान का है और इस का मज़्मून ये है ’’بسم اللّٰہ الرحمٰن الرحیم‘‘ मेरे ख़िलाफ़ सरकशी ना करो बल्कि मेरी ख़िदमत में आजिज़ाना तौर पर हाज़िर हो जाओ।” मलिका ने कहा कि “ऐ सरदारो ! मुझे मेरे मामले में सलाह व मश्वरा दो, क्योंकि जब तक तुम लोग मौजूद नहीं होते मैं किसी बात का फ़ैसला नहीं करती।” तब सरदारोँ ने कहा कि “हम ताक़तवर और बहादुर लोग हैं। हुक्म आपका है। पस आप देखें कि आप क्या हुक्म देती हैं।” मलिका ने फ़रमाया कि “जब बादशाह किसी शहर में दाख़िल होते हैं तो वो उसे बर्बाद कर देते हैं और वहां के बड़े बड़े मुअज़्ज़िज़ लोगों को ज़लील करते हैं और वो हमेशा ऐसा ही किया करते हैं और यक़ीनन मैं उनके पास एक तोहफ़ा भेजती हूँ और देखती हूँ कि क़ासिद लोग क्या जवाब लेकर वापिस आते हैं।” पस जब क़ासिद सुलेमान की ख़िदमत में हाज़िर हुआ तो बादशाह ने कहा “क्या तुम मेरी दौलत से मदद करना चाहते हो? मगर जो कुछ अल्लाह ने मुझे अता फ़रमाया है वो इस से बेहतर है जो तुम लोगों को दिया है, नहीं तुमको अपने तोहफ़े पर फ़ख़्र होगा। जाओ तुम अपनी क़ौम के पास क्योंकि हम उनके पास इस क़द्र ज़बरदस्त फ़ौज लेकर आएँगे कि वो उस की मुज़ाहमत ना कर सकेंगे और हम उन लोगों को ज़लील कर के मुल्क से निकाल देंगे और वो हक़ीर हो जाऐंगे। सुलेमान ने कहा “सरदारो ! तुम में से कौन ऐसा है कि क़ब्ल इस के कि वो लोग मेरी ख़िदमत में आजिज़ाना तौर पर हाज़िर हों, मेरे पास इस मलिका का तख़्त ले आए? “जिन्नों में से एक इफ़रीयत (देव) ने कहा कि मैं इस तख़्त को उस वक़्त से क़ब्ल हाज़िर कर दूँगा कि आप अपनी जगह से उठें। और तहक़ीक़ मैं ऐसा करने के क़ाबिल हूँ और वफ़ादार हूँ।” एक शख़्स ने जिसे किताब का इल्म हासिल था कहा मैं पलक झपकते उस तख़्त को हाज़िर कर दूँगा।” जब सुलेमान ने इस तख़्त को अपने बराबर रखा देखा तो उन्होंने कहा “ये ख़ुदा की इनायत है मेरे हाल पर ताकि वह मेरी आज़माईश करे कि मैं उस का शुक्रगुज़ार हूँ या एहसान फ़रामोश। और वो जो शुक्रगुज़ार है वो दरहक़ीक़त अपने लिए शुक्रगुज़ार है और जो शख़्स एहसान फ़रामोश है, तहक़ीक़ मेरा अल्लाह ग़नी और करीम है।” और उसने कहा कि इस के लिए उस का तख़्त बदल दो। हम देखते हैं कि वो सही रास्ते पर चलती है या उन लोगों में है जो सही रास्ते पर नहीं चलते।” पस जब वो आई तो इस से दर्याफ़्त किया गया कि “क्या तुम्हारा तख़्त यही है?” उसने जवाब दिया “ऐसा मालूम होता है गोया वही है और हमको इस से क़ब्ल इल्म हो गया था और हमने सर इताअत ख़म कर दिया।” और जिस चीज़ की वो अल्लाह की बजाय परस्तिश किया करती थी, उसने उसे गुमराह कर दिया था। तहक़ीक़ वो एक काफिर क़ौम से है। फिर उस से कहा गया “महल में दाख़िल हो।” और जब उसने उसे देखा तो वो ये समझी कि वो एक वसीअ कतअ-ए-आब है और उसने अपने पायंचे चढ़ाए और पिंडुलियां ब्रहना कर लीं। उसने कहा “ये जगह शीशा (कांच) की है।” तब उसने कहा “ऐ मेरे रब मैंने अपने ऊपर ज़ुल्म किया और अब मैं सुलेमान के साथ अल्लाह रब-उल-आलमीन की इताअत करती हूँ।” (सुरह अल-नमल आयत 19 से 34

इस क़िस्से में बाअज़ ऐसी तफ़सीलात हज़फ़ (गायब) कर दी गई हैं जो तार ग़म (تارگم) में दर्ज हैं और बाअज़ बातों में किसी क़द्र इख़्तिलाफ़ भी है। तार ग़म (تارگم) में लिखा है कि :-

“तख़्त सुलेमान का था और चौबीस उक़ाब तख़्त के ऊपर बैठे हुए अपना साया बादशाह के सर पर डालते थे, जब वो तख़्त पर बैठता था। जब कभी सुलेमान कहीं जाना चाहते थे तो ये उक़ाब उनके तख़्त को उड़ा कर पहुंचा देते थे।”

गोया तार ग़म (تارگم) की रू से ये उक़ाब सुलेमान के तख़्त बर्दार थे। मगर क़ुरआन में बयान किया गया है कि ये काम सुलेमान के लिए एक इफ़रीयत (जिन्न, देव) ने सिर्फ एक मर्तबा किया था और वो भी उस वक़्त जबकि तख़्त ख़ाली था। मगर मलिका सबा और उस के पास सुलेमान का बज़रीया एक चिड़िया के ख़त भेजने का क़िस्सा दोनों किताबों में हैरत-अंगेज़ तौर पर यकसाँ तौर पाया जाता है। फ़र्क़ सिर्फ इस क़द्र है कि तार ग़म में हुद हुद की बजाय “रेगिस्तान का मुर्ग़” लिखा है, बहरहाल दोनों बातें एक हैं। अरबी क़िस्से से मुक़ाबला करने के लिए हम तार ग़म (تارگم) के क़िस्से का भी तर्जुमा जे़ल में दर्ज किए देते हैं :-

फिर जब शाह सुलेमान का दिल शराब पी कर मसरूर हुआ तो उसने हुक्म दिया कि खेतों के चौपाए, हवा के परिंदे, ज़मीन पर रेंगने वाले कीड़े और जिन और भूत और रात के वक़्त फिरने वाले छलावे (भूत, आसीब) लाए जाएं ताकि वो उस के सामने नाचें और उस की अज़मत व जलालत उन बादशाहों के सामने ज़ाहिर करें जो उस के आगे सर झुकाए हुए हैं और बादशाह के मुंशियों ने इन सबको उनका नाम लेकर बुलाया और वो सब जमा हुए और बादशाह के सामने हाज़िर हुए, सिवाए क़ैदीयों के और असीरान जंग (जंगी क़ैदियों) के और उन लोगों के जिनकी निगरानी में वो लोग थे। उस वक़्त मुर्ग़ सहरा चिड़ियों के साथ लुत्फ़-ए-सोहबत उठा रहा था और वो ना मिला। और बादशाह ने हुक्म दिया कि उस को जबरन हाज़िर करो और उसे मार डालना चाहा। मुर्ग़ सहरा शाह सुलेमान की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अर्ज़ किया “सुन मेरे आक़ा ज़मीन के बादशाह ! ज़रा कान झुका कर मेरी बात सुन। क्या तीन महीना नहीं हुए कि मैंने ये अज़्म-बिल्-जज़्म (पक्का इरादा) किया था कि ना मैं खाऊंगा, ना पानी पियूँगा, तावक़्ते के मैं दुनिया की सैर ना कर लूं और दुनिया में ना उड़ लूं। और मैंने कहा था कि कौन सा सूबा या सल्तनत ऐसी है जो मेरे आक़ा की ताबे फ़रमान नहीं है? मैंने एक क़िला बंद शहर देखा जिसका नाम केतोर (Qitor) है और एक मशरिक़ी मुल्क में वाक़ेअ है। वहां की ख़ाक में सोना मिला हुआ है और चांदी तो हर जगह सड़कों पर पड़ी हुई है। और वहां दरख़्त इब्तिदा ही से नसब किए गए थे और जन्नत-ए-अदन से वो लोग पानी पीते हैं। उनमें तीन बड़े बड़े गिरोह हैं जो अपने सरों पर फूलों के हार पहनते हैं, क्योंकि वहां अदन के पौदे मौजूद हैं जो वहां से बहुत क़रीब है। वो कमान से तीर चलाना जानते हैं मगर उन को तीरों कमान के ज़रीये से कोई मार नहीं सकता। एक औरत उन सब पर हुकूमत करती है और उस औरत का नाम मलिका सबा है। अब अगर ख़ुदावंद-ए-नेमत की ख़ुशी हो तो नियाज़-मंद तैयार क़िला केतोर शहर सुबह को जाये, मैं उनके मुलूक को सलासिल (बेड़ियाँ) से और उनके सरदारोँ को ज़ंजीरों से बांध लूंगा और उन्हें अपने आक़ा बादशाह के हुज़ूर में ले आऊँगा।” उस के ये कहने से बादशाह बहुत ख़ुश हुआ और बादशाह के मुंशी तलब किए गए। उन्होंने एक ख़त लिखा और वो ख़त मुर्ग़ सहरा के परों में बांध दिया गया और वो उड़ा और आस्मान की तरफ़ बुलंद हो गया और उसने अपना निम ताज अपने सर पर बाँधा और चिड़ियों में उड़ने लगा और वो चिड़ियां उस के पीछे पीछे उड़ीं और क़िला-ए-केतोर शहर सुबह में गए। और सुबह के वक़्त ऐसा वाक़ेअ हुआ कि मलिका सबा..(सैर)...करने के लिए समुंद्र के किनारे गई थी। इस वक़्त चिड़ियों की कस्रत के बाइस आफ़्ताब (सूरज) छिप गया और मलिका ने अपना हाथ अपने कपड़ों पर डाला और उन्हें फाड़ डाला। वो बहुत मुतहय्यर और परेशान हुई। और जब वो बहुत परेशान हुई तो मुर्ग़ सहरा उतर कर उस के पास आया और मलिका ने उसे देखा। क्या देखती है कि एक ख़त उस के बाज़ू में बंधा हुआ है। उसने वो ख़त खोल कर पढ़ा और जो मज़्मून इस में लिखा था वो ये है :-

“मुझ बादशाह सुलेमान की तरफ़ से सलामती हो तुझ पर और सलामती हो तेरे सरदारों पर ! चूँकि तू जानती है कि अल्लाह पाक ने बुज़ुर्ग हो नाम उस का, मुझे खेत के चौपाईयों, हवा के परिंदों, जिन्नों, भूतों और रात के छलावों पर बादशाह बनाया है और शुमाल व जुनूब और मशरिक़ व मग़रिब के तमाम बादशाह हाज़िर हो कर मेरी मिज़ाज पुर्सी करते हैं। अब अगर तू इस बात पर रज़ामंद है कि आए और मेरी मिज़ाज पुर्सी करे तो अच्छी बात है। मैं तुझे इन तमाम बादशाहों से ज़्यादा अज़मत दूँगा जो आकर मेरे सामने सर-ए-नियाज़ ख़म करते हैं। लेकिन अगर तू इस बात पर रज़ामंद नहीं है और यहां नहीं आती और मेरी मिज़ाज पुर्सी नहीं करती तो तेरे ख़िलाफ़ बादशाहों को और फ़ौजों को और रिसालों (रिसाला यानी आठ सौ या हज़ार घुड़सवार फ़ौज का दस्ता) को भेजूँगा। और अगर तू कहे कि शाह सुलेमान के पास कौन से बादशाह और फ़ौजें और सवार हैं? तो मालूम कर खेत के चौपाए बादशाह की फ़ौजें और रिसाले हैं और अगर तू कहे कि सवार कैसे हैं? तो सुन कि हवा के परिंदे मेरे सवार हैं। मेरी फ़ौजें भूतों, जिन्नात, छलावों पर मुश्तमिल हैं जो तुम्हारे घरों में घुस कर बिस्तर पर सोते हुए तुम्हारा गला घोंट देंगे। खेत के जानवर तुम्हें खेतों में हलाक कर डालेंगे और हवा के परिंदे तुम्हारा गोश्त नोच कर खा जाऐंगे।” जब मलिका सबा ने इस ख़त के मज़्मून को सुना और मुकर्रर (बार-बार, कई मर्तबा) सुना तो उसने अपने हाथों से अपने कपड़े फाड़ लिए। उसने आदमी भेज कर अपनी क़ौम के सरदारोँ और बुज़ुर्गों को तलब किया और उन से इस तरह गोया हुई “ऐ उमरा व अकाबिर क़ौम क्या तुमको मालूम है कि सुलेमान ने मेरे पास क्या भेजा है?” उन्होंने जवाब दिया कि “हम सुलेमान बादशाह को नहीं जानते और ना हम उस की सल्तनत की कोई हक़ीक़त समझते हैं।” मगर इस बात से मलिका की तश्फ़ी ना हुई और ना उसने उनके अल्फ़ाज़ को सुना बल्कि उसने आदमी भेज कर समुंद्र के तमाम जहाज़ जमा करा लिए और उनमें जे़वरात व जवाहरात और तोहफ़े भरे। और उसने सुलेमान के पास छः लड़के और लड़कीयां ऐसी भेजीं जिनकी पैदाइश एक ही साल,एक ही महीना, एक ही दिन और एक ही घंटे की थी। इन सब के कदो क़ामत, सूरत व शक्ल यकसाँ थी और लिबास सब के अर्ग़वानी रंग के थे और मलिका ने एक ख़त लिखा और वो बादशाह सुलेमान के पास उन लोगों के हाथ भेजा “क़िला केतोर से मुल्क इस्राईल तक सात साल का सफ़र है। अब मैं आपसे इल्तिजा करती हूँ कि आप ख़ुदा से दुआ और दरख़्वास्त करें कि मैं आपके पास तीन साल में पहुंच जाऊं।” और ऐसा वाक़िया हुआ कि तीन साल के आख़िर में मलिक-ए-सबा सुलेमान के पास पहुंच गई और जब सुलेमान ने सुना कि मलिका सबह आ गई है तो उन्होंने उस के इस्तिक़बाल के लिए बनए्या इब्ने यहीव अयावोह (Benaiah son of Jchorada) को भेजा जो हुस्न-ओ-जमाल में मिस्ल सुब्ह सादिक़ के था, जो फ़ज्र के वक़्त नमूदार होती है और सूरत शक्ल में ऐसा था जैसे सितार-ए-ज़ुहरा जो दरख़शां हो कर सितारों में मज़बूती से क़ायम रहता है और नज़ाकत में ऐसा था जैसा नीलोफ़र जो चश्मों के अंदर उगता है। और जब मलिका सबा ने बनए्या-ए-इब्ने यहीव अयावह को देखा तो वो अपनी सवारी से उतर पड़ी। बिन अयाह ने मलिका से कहा “आप सवारी से क्यों उतर गई हैं?” इस पर मलिका ने कहा कि “क्या आप बादशाह नहीं हैं।” बिन अयाह ने जवाब दिया कि “मैं बादशाह सुलेमान नहीं हूँ बल्कि उस का एक ख़ादिम हूँ जो उस के हुज़ूर में दस्त-बस्ता हाज़िर रहता है।” मलिका ने फ़ौरन अपना मुँह पीछे की तरफ़ मोड़ लिया और अपने सरदारोँ से एक तम्सील कही “अगर शेर तुम लोगों के सामने नहीं आया तो तुमने शेर का बच्चा तो देख लिया है। और अगर तुमने बादशाह सुलेमान को नहीं देखा तो तुमने एक ऐसे शख़्स का हुस्न-ओ-जमाल तो देख लिया है जो उस की ख़िदमत में इस्तादा रहता है।” और बिन अयाह मलिका सबा को लेकर सुलेमान के पास आया और जब बादशाह ने सुना कि मलिका आ गई है तो वो उठा और जा कर क़सर बिलोरीं (कांच का फर्श) में बैठ गया। और जब मलिका सबा ने बादशाह सुलेमान को क़सर बिलौरीं (कांच का फर्श) में बैठे देखा तो उसने अपने दिल में सोचा कि वो पानी में बैठा है। इसलिए उसने अपने कपड़े समेट कर ऊपर उठा लिए ताकि पानी से गुज़र जाये। उस वक़्त सुलेमान ने देखा कि मलिका की टांगों पर बाल हैं। ये देखकर बादशाह ने उस से कहा कि तेरा हुस्न-ओ-जमाल तो औरतों जैसा है मगर तेरे बाल मर्दों जैसे हैं। बालों का होना हुस्न मर्दाना में दाख़िल है, मगर औरतों के लिए ये बात क़ाबिल शर्म है।” इस के बाद मलिका सबा ने बादशाह से कहा कि “मेरे आक़ा सलामत ! मैं आपकी ख़िदमत में तीन सवालात पेश करती हूँ, अगर आपने उनका जवाब दे दिया तो मैं जानूंगी कि आप वाक़ई एक दानिशमंद हैं और अगर ना दिया तो समझूंगी कि जैसे और आदमी हैं वैसे ही आप भी हैं।” (सुलेमान ने इन तीनों सवालों का जवाब दिया।) फिर मलिका ने कहा “पाक ज़ात है उस अल्लाह तेरे रब की जिसने तुझे तेरी सल्तनत के तख़्त पर बिठा कर ख़ुशी हासिल की ता कि तो लोगों के दर्मियान अदल-ओ-इन्साफ़ करे।” और मलिका ने बादशाह को ज़र ख़ालिस और चांदी दी।...और बादशाह ने भी उस को हर चीज़ जिसकी उसे ख़्वाहिश हुई अता फ़रमाई।”

इस यहूदी क़िस्से में हमने देखा कि बाअज़ चीसतान या मअमूं का ज़िक्र है जो मलिका सबा ने सुलेमान से हल करना चाहे। अगरचे इस बात का ज़िक्र क़ुरआन में नहीं मगर इस्लामी रिवायत में इन मअमूं का हाल ज़रूर दर्ज है। और चूँकि फ़र्श बिलौरीं (कांच का फर्श) का ज़िक्र क़ुरआन में इस क़द्र मुफ़स्सिल नहीं जैसा कि तार ग़म में है, इसलिए बाअज़ मुसलमान मुसन्निफ़ीन ने ये तमाम तफ़सीलात बिल्कुल तार ग़म से लेकर पूरी कर दी हैं, मसलन “अराईस-उल-मजालस” (عرایس المجالس) (सफ़ा 438 में लिखा है कि :-

उसने अपनी टांगों पर से कपड़ा हटा लिया ताकि वो पानी से गुज़र कर सुलेमान के पास जाये। इस वक़्त सुलेमान ने देखा कि जहां तक पिंडुलीयों और पांव की साख़त और तनासुब का ताल्लुक़ है, वो जमील औरत है मगर उस की टांगों पर बाल हैं। जब सुलेमान ने ये बात देखी तो उन्होंने उस को टोका और कहा कि “तहक़ीक़ इस क़सर का फ़र्श बिलौरीं (कांच का) है।”

फ़र्श बिलौरीं (कांच के फर्श) का जो ज़िक्र किया गया है ग़ालिबन वो हैकल सुलैमानी के “बहर गदाख़ता (पिघला हुआ)” (Molten Sea) की तरफ़ एक मुबहम (यानी छिपे हुए) सा इशारा है। इस क़िस्से के बक़ीया दीगर अजाइबात भी ख़ालिस यहूदी ख़्याल आफ़रीनियों का नतीजा हैं और ताज्जुब होता कि मुहम्मदﷺ ने इसे क्योंकर बिल्कुल सच्चा वाक़िया यक़ीन कर लिया। मगर बाअज़ उमूर की तौजीह आसानी से की जा सकती है, मसलन ये ख़्याल कि सुलेमान मुख़्तलिफ़ जिन्नों और देवों पर हुकूमत करते थे। इब्रानी अल्फ़ाज़ שִׁדָּה וְשִׁדּוֹח के ग़लत मअनी समझने से पैदा हुआ है। ये अल्फ़ाज़ बाइबल की किताब वाइज़ 2:8 में आए हैं। इन अल्फ़ाज़ के मअनी ग़ालिबन “ख़ातून और ख़वातीन” के हैं। और चूँकि ये अल्फ़ाज़ बाइबल में और किसी जगह इस्तिमाल नहीं हुए, इसलिए मुफ़स्सिरीन ने इनके मअनी ग़लत समझे और उनकी शरह ये की कि ये एक ख़ास क़िस्म के “परीज़ाद” שֵׁדִים थे। यही वजह है कि यहूदी रिवायत और क़ुरआन दोनों में सुलेमान की निस्बत ये लिखा है कि इस की फ़ौजें जिन्नों और शयातीन पर मुश्तमिल थीं।

इस कुल क़िस्से की तारीख़ी बुनियाद बाइबल के सहीफ़ा 1 सलातीन 10:1-10 और 2 तवारीख़ बाब 9 1-9 में पाई जाती है। जिसमें सुलेमान की निस्बत कोई बात ताज्जुब अंगेज़ बयान नहीं की गई। ना वहाँ कोई ज़िक्र जिन्नों, इफ़रीयतों (देवों) और शीश-महल का है। सीधा सादा हाल सुलेमान और मलिका सबा की मुलाक़ात का लिखा है। बाइबल का क़िस्सा हस्ब-ज़ैल है :-

और जब सबा की मलिका ने ख़ुदावन्द के नाम की बाबत सुलेमान की शहुरत् सुनी तो वो आई ताकि मुश्किल सवालों से उसे आज़माऐ। और वह बहुत बड़ी जलो के साथ यरूशलेम में आई और उस के साथ ऊंट थे जिन पर मसाले और बहुत सा सोना और बेश-बहा जवाहर लदे थे और जब वो सुलेमान के पास पहुंची तो उस ने इन सब बातों के बारे में जो उस के दिल में थीं उस से गुफ़्तगू की। सुलेमान ने उस के सब सवालों का जवाब दिए। बादशाह से कोई बात ऐसी पोशीदा ना थी जो उसे ना बताई। और जब सबह की मलिका ने सुलेमान की सारी हिकमत और इस महल को जो उस ने बनाया था। और उस के दस्तर-ख़्वान की नेअमतों और उस के मुलाज़िमों की नशिस्त और उस के खादिमों की हाज़िर बाशी और उन की पोशाक और उस के साक़ियों और उस सीढ़ी को जिस से वो ख़ुदावन्द के घर को जाता था देखा तो उस के होश उड़ गए। और उस ने बादशाह से कहा कि वो सच्ची ख़बर थी जो मैं ने तेरे कामों और तेरी हिकमत की बाबत अपने मुल्क में सुनी थी। तो भी मैं ने वो बातें बावर ना कीं जब तक ख़ूद आकर अपनी आँखों से ये देख ना ले और मुझे तो आधा भी नहीं बताया गया था क्योंकि तेरी हिकमत और इक़बालमंदी उस शहुरत् से जो मैं ने सुनी बहुत ज़्यादा है। खुश नसीब हैं तेरे लोग और खुश नसीब हैं तेरे ये मुलाज़िम जो बराबर तेरे हज़ूर खड़े रहते और तेरी हिकमत सुनते हैं। ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा मुबारक हो जो तुझसे ऐसा खुशनूद हुआ कि तुझे इस्राईल के तख़्त पर बिठाया है। चूँकि ख़ुदावन्द ने इस्राईल से सदा मुहब्बत रखी है इसलिए उस ने तुझे अदल और इंसाफ़ करने को बादशाह बनाया। और उस ने बादशाह को एक सौ बीस किंतार सोना और मसाला का बहुत बड़ा अंबार और बेश बहा जवाहर दिए और जैसे मसाला सबह की मलिका ने सुलेमान बादशाह को दिए वैसे फिर कभी ऐसी बोहतात के साथ न आए।” (1 सलातीन 10:1-10)

अगरचे क़ुरआन में और बहुत से क़िस्से ऐसे हैं जो यहूदी अफ़्सानों से लिए गए हैं। लेकिन यहां उनको मुफ़स्सिल लिखने की ज़रूरत नहीं। सिर्फ इसी एक अफ़साने से ये बात वाज़ेह हो जाती है कि अम्बिया की जो सही तारीख़ बाइबल में लिखी है उस से मुहम्मद ﷺ नावाक़िफ़ थे और इस की वजह ये मालूम होती है कि अरब यहूदी जिनको ये रिवायतें याद थीं, ज़्यादा पढ़े लिखे ना थे और उन्हें बमुक़ाबला बाइबल के तल्मूद की रिवायत ज़्यादा मालूम थीं।

क़िस्सा हारूत व मारूत

अब हम हारूत व मारूत के क़िस्से पर बह्स करते हैं। ये दो फ़रिश्ते थे जिन्हों ने बाबुल में गुनाह किया था। ये रिवायत बहुत दिलचस्प है क्योंकि अव्वल तो हम ये साबित कर देंगे कि क़िस्सा-ए-मज़्कूर अगरचे यहूदीयों से लिया गया है, मगर इस का माख़ज़ मुरक्कब है। पहले हम ये क़िस्सा इस तरह बयान करते हैं जैसे क़ुरआन मजीद में बयान किया गया है। बादअज़ां हम यहूदी और दीगर रिवायत बयान करेंगे। क़ुरआन की सूरह बक़रह आयत 102 में लिखा कि :-

’’ وَ مَا کَفَرَ سُلَیۡمٰنُ وَ لٰکِنَّ الشَّیٰطِیۡنَ کَفَرُوۡا یُعَلِّمُوۡنَ النَّاسَ السِّحۡرَ ٭ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ عَلَی الۡمَلَکَیۡنِ بِبَابِلَ ہَارُوۡتَ وَ مَارُوۡتَ وَ مَا یُعَلِّمٰنِ مِنۡ اَحَدٍ حَتّٰی یَقُوۡلَاۤ اِنَّمَا نَحۡنُ فِتۡنَۃٌ فَلَا تَکۡفُرۡ ‘‘۔

तर्जुमा : “यानी सुलेमान ने कुफ़्र नहीं किया बल्कि शयातीन ने किया। जो लोगों को सहर (जादू) सिखाते हैं और हमने बाबुल में हारूत व मारूत दो फ़रिश्तों पर नाज़िल नहीं किया था। और वो किसी को सहर (जादू) नहीं सिखाते जब तक वो दोनों ये बात नहीं कह देते कि “तहक़ीक़ हम इम्तिहान में पड़े हुए हैं पस तुम कुफ़्र ना करो”

’’अराईस-उल-मजालिस' (عرایس المجالس) में इसी आयत की तफ़्सीर के तौर पर एक क़िस्सा दर्ज किया गया है जो अहादीस पर मबनी है और वो ये है कि :-

“मुफ़स्सिरीन क़ुरआन कहते हैं कि जब फ़रिश्तों ने उन लोगों के आमाल ख़राब देखे जो बज़माना-ए-हज़रत इदरीस आस्मान की तरफ़ चढ़े थे तो उन्होंने उनकी मज़म्मत की और उन पर लान तअन किया और कहा “ख़ुदावंद ये हैं वो लोग हैं जिन्हें तू ने पसंद फ़रमाया और जिन्हें तू ने ख़लीफ़-तुल्लाह फ़िल-अर्ज़ (यानी ज़मीन पर खलीफ़ा) बनाया और फिर यही लोग हैं जो तेरी नाराज़ी के काम करते हैं।” पस अल्लाह तआला ने फ़रिश्तों से फ़रमाया “अगर मैंने तुम्हें ज़मीन पर भेजा होता और तुम में वही ख़्वाहिशात पैदा कर देता जो इन्सानों में की गई हैं तो तुम भी वही करते जो इन्सानों ने किया।” तब फ़रिश्तों ने कहा “ख़ुदा करे ! ऐ हमारे रब ये बात हमारी शान के ख़िलाफ़ है कि हम तेरी नाराज़ी के काम करें।” अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि “तुम अपने में से दो बेहतरीन फ़रिश्ते मुंतख़ब करो और मैं उन्हें ज़मीन पर भेजूँगा।” पस उन्होंने हारूत और मारूत को मुंतख़ब किया जो तमाम फ़रिश्तों में बेहतरीन और सबसे ज़्यादा मुत्तक़ी व परहेज़गार थे।” मगर अल-क़ल्बी ने लिखा है कि “अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि “तुम अपने में से तीन फ़रिश्ते मुंतख़ब करो।” पस उन्होंने तीन फ़रिश्ते मुंतख़ब किए। उनमें एक “अज़” (Azz) यानी हारूत, दूसरा “अज़ाबी” (Azabi) यानी मारूत और तीसरा “इज़राईल” था। और तहक़ीक़ जब इन फ़रिश्तों ने गुनाह किया तो उसने उनका नाम बदल दिया। जिस तरह अल्लाह ने इब्लीस का नाम बदल दिया था जो पहले “इज़राईल” कहलाता था। फिर अल्लाह तआला ने इन फ़रिश्तों में वही ख़्वाहिशात भर दीं जो उसने इन्सानों के अंदर पैदा की थीं और उन्हें ज़मीन पर भेज दिया और उन्हें हुक्म दिया कि ईमानदारी के साथ इन्सानों का इन्साफ़ करो। शिर्क और क़त्ल बेजा और ज़िनाकारी और शराबखोरी से बचो। मगर इज़ारएल ने जब उस के दिल में ख़्वाहिशात पैदा हुईं तो उस ने अपने रब से माफ़ी मांग ली और दरख़्वास्त की कि उसे आस्मान पर बुला लिया जाये। पस ख़ुदा ने इस को माफ़ फ़र्मा दिया और उसे आस्मान पर उठा लिया। बादअज़ां वो चालीस बरस तक सज्दे में पड़ा रहा। इस के बाद उसने अपना सर उठाया। मगर शर्म के मारे अल्लाह तआला के सामने हमेशा सर झुकाए रखा। अब रहे बक़ीया दो फ़रिश्ते तो वो बदस्तूर ज़मीन पर रहे। वो दिन के वक़्त लोगों का इन्साफ़ किया करते और जब शाम होती तो वो इस्म-ए-आज़म पढ़ कर आस्मान पर चढ़ जाते। क़तादा ने लिखा है कि अभी एक महीना भी ना गुज़रने पाया था कि वो तर्ग़ीब नफ़्सानी में पड़ गए और इस का बाइस ये हुआ कि एक रोज़ ज़ुहरा जो तमाम औरतों में सबसे ज़्यादा हसीन-ओ-जमील थी उनके पास एक मुक़द्दमा लाई। अली का क़ौल है कि ये औरत फ़ारस की क़ौम से थी और अपने मलिक की मलिका थी। पस जब उन्होंने ज़ुहरा को देखा तो वो दोनों इस पर दिल-ओ-जान से शैदा (फ़िदा) हो गए। इसी लिए इन दोनों ने इस औरत से उस का नफ़्स तलब किया। उसने इन्कार किया और चली गई। दूसरे रोज़ वो फिर आई और इन दोनों ने इस से फिर वही दरख़्वास्त की। उसने इन्कार किया और कहा जब तक तुम उस की इबादत ना करोगे जिसकी इबादत मैं करती हूँ और उस बुत की पूजा ना करोगे और क़त्ल-ए-अमद ना करोगे और शराब ना पियोगे, तब तक ऐसा ना होगा।” इस पर इन दोनों ने कहा कि “हमसे ऐसा फे़अल मुम्किन नहीं हो सकता क्योंकि अल्लाह ने ऐसे फे़अल करने से हमको मना फ़र्मा दिया है।” पस वो ये सुनकर चली गई। तीसरे दिन वो फिर आई और अपने साथ एक जाम शराब भी लाई और इस रोज़ वो उनकी नज़रों में निहायत दिल-फ़रेब मालूम हुई। पस उन्होंने इस से इस का नफ़्स तलब किया। उसने फिर इन्कार किया और जो शर्तें इस से पहले रोज़ उसने बयान की थीं वही अब पेश कीं। तब उन्होंने कहा “अल्लाह के सिवा किसी दूसरे की इबादत करना तो निहायत ख़ौफ़नाक बात है और किसी को क़त्ल करना भी ख़ौफ़नाक बात है। हाँ तीनों शर्तों में सबसे ज़्यादा आसान शराब पी लेना है।” पस उन्होंने शराब पी ली और वो नशे में बदमसत हो गए और इस औरत से मशग़ूल हो गए।...इसी हालत में उन्हें एक आदमी ने देख लिया और उन्होंने उस आदमी को क़त्ल कर दिया।” कलबी बिन अनस से रिवायत है कि “उन्होंने बुत की पूजा भी की। इस के बाद अल्लाह तआला ने ज़ुहरा को एक सितारा बना दिया। अली, सादी और कलबी से रिवायत है कि उस औरत ने कहा कि “तुम मुझे उस वक़्त तक हासिल नहीं कर सकोगे जब तक तुम मुझे वो बात ना सिखाओगे जिसके ज़रीये से तुम आस्मान पर चढ़ जाते हो। पस उन्होंने कहा कि “हम इस्म-ए-आज़म” के ज़रीये से आस्मान पर जाते हैं।” तब उसने कहा कि “पस तुम मुझे उस वक़्त तक हासिल नहीं कर सकोगे जब तक तुम मुझे इस्म-ए-आज़म ना सिखा दो।” तब एक फ़रिश्ते ने अपने साथी से कहा “सिखा भी दो।” तब दूसरे फ़रिश्ते ने कहा कि “तहक़ीक़ में ख़ुदा तआला से डरता हूँ।” इस पर दूसरे फ़रिश्ते ने कहा “फिर अल्लाह तआला का रहम किस काम आएगा।” अल-ग़र्ज़ उन्होंने इस औरत को इस्म-ए-आज़म सिखा दिया। पस जब उसने वो इस्म-ए-आज़म पढ़ा तो वो आस्मान पर चढ़ गई और अल्लाह तआला ने उसे एक सितारा बना दिया।”

वाज़ेह हो कि “ज़ुहरा” (زُہرہ) सय्यारा “वीनस” (Venus) का अरबी नाम है। इस क़िस्से के मुख़्तलिफ़ रावियों के बयानात जो हमने दर्ज किए हैं इस से साफ़ ज़ाहिर होता है कि मुसलमानों में ये क़िस्सा किस क़द्र आम तौर पर मुसल्लम है और बज़रीया अहादीस नब्वी इन तक पहुंचा है। इस क़िस्से में मुतअद्दिद बातें ऐसी हैं जिनसे ये ज़ाहिर होता है कि ये क़िस्सा यहूदी ज़राए से माख़ूज़ है। उनमें एक तो ये ख़्याल है कि जो शख़्स ख़ुदा का एक ख़ास नाम “वो नाम जो बताया नहीं जा सकता” (Incommunicable name) (यहूदीयों में इस का यही नाम है) जानता है वो बहुत बड़े बड़े कारनामे अंजाम दे सकता है, मसलन मशहूर है कि क़दीम ज़माने के बाअज़ यहूदी मुसन्निफ़ीन ने ये किया था कि यसूअ मसीह जो मोअजज़े दिखाता है वो ख़ुदा का यही नाम “Tetragrammaton” (इस्म-ए-आज़म) पढ़ कर दिखाता है। इलावा अज़ीं फ़रिश्ता इज़राईल का नाम अरबी नहीं बल्कि इब्रानी है। मगर हमारे पास इस से भी ज़्यादा बराह-ए-रास्त सबूत इस बात का है कि ये क़िस्सा यहूदी ज़राए से माख़ूज़ है और वो सबूत “मदराशि यलकोत” (مدراش یلقوت) बाब 44 में इन अल्फ़ाज़ में मौजूद है :-

“रब्बी यूसुफ़ के शागिर्दों ने दर्याफ़्त किया कि “अज़ाईल” (Azael) क्या है?” उसने जवाब दिया कि “जब वो क़ौम जो तूफ़ान-ए-नूह के ज़माने में थी उठी और फ़ुज़ूल परस्तिश (यानी बुत-परस्ती) करने लगी तो ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस मुबारक हो नाम उस का, बहुत नाराज़ हुआ। फ़ौरन दो फ़रिश्ते “शम्हा ज़ाई” (Shamhazai) और “अज़ाईल” (Azael) उठे और उस के हुज़ूर में अर्ज़ पर्दाज़ हुए कि “या-रब-उल-आलमीन जब तू ने अपनी दुनिया को पैदा किया तो क्या हमने तेरे हुज़ूर में अर्ज़ नहीं किया था कि “इन्सान है क्या चीज़ जिसका तू इस क़द्र ख़्याल मल्हूज़ रखता है?” (ज़बूर 8:4) और ख़ुदा ने उनसे कहा “और अगर दुनिया रही तो इस का क्या हश्र होगा?” तब फ़रिश्तों ने अर्ज़ किया कि “या-रब-उल-आलमीन हम इस पर हुकूमत करेंगे।” तब ख़ुदा ने उनसे फ़रमाया “मुझ पर ये बात ज़ाहिर है कि अगर तुमको दुनिया पर ग़लबा दिया जाये, तो वहां ख़्वाहिशात नफ़्सानी तुम पर हावी हो जाएँगी और तुम बनी-नौ इन्सान से भी ज़्यादा सरकश हो जाओगे।” तब उन्होंने अर्ज़ किया कि “तू हमको इजाज़त देता कि हम इन्सानों में जा कर रहें और तू देखेगा कि हम किस तरह तेरे नाम की तक़्दीस करते हैं।” ख़ुदा ने फ़रमाया कि “अच्छा जाओ और उनके साथ रहो।” फ़ोरन शमहा ज़ाई ने एक नौजवान दोशीज़ा देखी जिस का नाम अस्तर (Esther) था। उस ने इस लड़की पर अपनी आँखें जमा लीं और कहा “मुझ पर तलत्तुफ़ (मेहरबानी, लुत्फ़) करो।” उस लड़की ने कहा कि “मैं उस वक़्त तक तेरी बात हरगिज़ ना सुनूँगी जब तक तुम वो अजीब नाम ख़ुदा का मुझे ना सिखा दोगे जिसको पढ़ कर तुम आस्मान पर चले जाते हो।” उसने वो नाम उस को सिखा दिया। जब उसने वो नाम पढ़ा तो वो भी आस्मान पर चढ़ गई और ज़लील ना हुई। ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस ने, मुबारक हो नाम उस का, फ़रमाया कि “चूँकि उसने ख़ुद को ख़ता व कसूर से अलेहदा (अलग) रखा है इसलिए जाओ और उसे हफ़्त कवाकिब में दाख़िल कर दो ताकि तुम उस की तरफ़ से हमेशा पाक रहो।” पस उसे सुरय्या में रख दिया गया। उन्होंने ख़ुद को फ़ौरन बनात हिव्वा के साथ ज़लील कर लिया जो ख़ूबसूरत थीं और वो अपनी ख़्वाहिशात पूरी ना कर सके। वो उठे और उन्होंने बीवीयां कर लीं और दो लड़के हिव्वा (Hiwwa) और ही्या (Hia) जनवाए (पैदा हुवे) और इज़राईल के पास बहुत क़िस्म के ज़ेवरात और बहुत सी क़िस्म का सामान आराइश व ज़ेबाइश था जिनके बाइस मर्द औरतों पर माइल हो कर ख़ाती (ख़ताकार) हो जाते हैं।”

आख़िरी फ़िक़्रह में जो लिखा है उस का इआदा हम आगे चल कर फिर करेंगे। ये बात वाज़ेह होनी चाहीए कि मदराशि का “इज़राईल” वही है जो इस्लामी रिवायत में “इज़राईल” है। नामुम्किन है कि इस्लामी और यहूदी रिवायत का जब मुक़ाबला किया जाये तो ये ना मालूम हो कि अव्वल-उल-ज़िक्र रिवायत मोख्ख़र-उल-ज़िक्र से माख़ूज़ है। लफ़्ज़ ब लफ़्ज़ नहीं बल्कि इस सूरत में जैसे कि वो ज़बानी बयान की गई थी। मगर इस्लामी क़िस्से में चंद बातें ऐसी हैं जिन पर इस मसअले की तहक़ीक़ात से क़ब्ल कि “यहूदीयों ने ये क़िस्सा कहाँ से सीखा?” ग़ौर करने की ज़रूरत है।

इनमें एक बात तो ये है कि हारूत व मारूत नाम कहाँ से आए? बयान किया गया है कि पहले इन फ़रिश्तों के नाम और थे यानी एक का नाम “अज़” और दूसरे का नाम “अज़ाबी” था। इन दोनों नामों का माद्दा इब्रानी और अरबी ज़बानों में एक ही है। मगर “मदराशि यलकोत” (Midrash Yalkut) में इन फ़रिश्तों के नाम जिन्हों ने गुनाह किया “शमहा ज़ाई” और “इज़राईल” दर्ज हैं। अरबी रिवायत में लिखा है कि अगरचे इज़राईल, हारूत व मारूत के साथ ज़मीन पर उतरा था और वो इस जमाअत का तीसरा रुक्न था। मगर वो बाद में बग़ैर कोई गुनाह किए आस्मान पर चला गया था। अब मुसलमान लोग इस फ़रिश्ता इज़राईल को “मलक-उल-मौत” ख़्याल करते हैं और यहूदीयों के यहां मौत का फ़रिश्ता “समाईल” (Sammael) है। अरबी रिवायत में है कि इन फ़रिश्तों के नाम हारूत व मारुत इर्तिकाब माअसियत से क़ब्ल नहीं रखे गए थे। इस के अंदर जो मअनी पिनहां हैं वो उस वक़्त साफ़ ज़ाहिर हो जाते हैं जब हम ये देखते हैं कि ये दोनों नाम दो क़दीम अर्मिन बुतों के हैं जिनकी वो तीसरी और चौथी सदी में ईसाई होने से क़ब्ल पूजा करते थे। अर्मनी ज़बान में उनके नाम “होरुत” (Harut) और “मोरुत” (Marut) हैं। ज़माना-ए-हाल के एक अर्मन मुसन्निफ़ ने बयान किया है कि इस के वतन की क़दीम खराफ़ियात में ये दोनों देवता क्या काम करते थे। वो लिखता है कि :-

इस्पंद्रामीत (Spandramit) देवी के मुआवनीन में यक़ीनन होरुत व मोरुत कोह जोदी के निम् देवता और “अमीना बेघ” (Amena begh) और ग़ालिबन दीगर देवता भी थे जिनका नाम अब हमको मालूम नहीं है। ये देवता ज़मीन की पैदावार और मनाफ़त बढ़ाने में ख़ास कारकुन थे।”

आरमीनीया की “इस्पंद्रामीत” वही है जो ओस्ता की “सपनता आर्मीती” है। ये एक मुअन्नस फ़रिश्ता है जो ज़मीन की कुव्वतों की नाज़िम और नेक औरतों की सरपरस्त है। होरुत और मोरुत भी ओस्ता में बसूरत “हो रुवात” या “हूरु तात” (Haurvat or Havrvatat) बमाअनी “कस्रत या इफ़रात” और अम्रीतात (Amritat) बमाअनी “बक़ा” मौजूद हैं। ये अमिशासिपंदों (Amshaspantes or Amshaspands) में जिसके मअनी हैं “हुस्न व जमील ला-फ़ानी देवता” पांचवें और छटे नंबर पर हैं। जिन मलाइका मुक़र्रबीन या फ़रिश्तगान आला का “अमिशा सिपंद” कहते हैं। ये “आहूरो मुज़्झ” (Ahuro Muzdao) “ख़ालिक़ ख़ैर” के मुआवनीन ख़ास और कारकुन हैं या बअल्फ़ाज़े दीगर “कारकुनान क़ज़ा-ओ-क़द्र” यही हैं। जिस तरह ख़राफ़ियात आरमीनीया में होरुत व मोरुत एक दूसरे से जुदा नहीं हो सकते, इसी तरह ओस्ता में हूरतात और अम्रतात जुदा नहीं हो सकते। दोनों अर्मन देवता तमाम आलम नबातात के रब-उल-नौ हैं। बाद को फ़ारसी ज़बान में ओस्ता के अल्फ़ाज़ का तलफ़्फ़ुज़ बिगड़ कर “खो रुदाद” और “मुर्दाद” (Khurdad, Murdad) हो गया और इन्हीं दोनों मुबारक देवताओं या मुवक्किलों के नामों पर तीसरे और पांचवें अजमी महीनों के नाम रखे गए। मगर ये अल्फ़ाज़ ख़ालिस आर्या ज़बान के अल्फ़ाज़ हैं और संस्कृत में उनकी असली सूरत “सर्वता” (Sarvata) और “अमृता” (Amrita) हैं। पहला नाम रिग वेद में बसूरत “सर्व ताती” (Sorvatati) आया है। आर्या रिवायत में ये देवता ज़मीन को ज़रख़ेज़ी बख़्शने वाले हैं। उनकी तशख़ीस कर के उनको “आर्मीती” का नाम दिया गया और हर क़िस्म की पैदावार पर इस देवी की सियादत (सरदारी) क़ायम कर दी गई। ये मुक़द्दस और पाक मख़्लूक़ थे और उनका ज़मीन पर नाज़िल होना हूरामझ के हुक्म से हुआ था, जैसा कि इस्लामी रिवायत में है। मगर दरअस्ल उनके नुज़ूल का मक़्सद किसी क़िस्म की मासियत से मुताल्लिक़ ना था। आरमीनीया और ईरान क़दीम की ख़राफ़ियात से उनके नाम लेकर मुहम्मदﷺ या उनके रावियों ने गड़-बड़ कर दी और उन्हें यहूदी ख़राफ़ियात के दो गुनाहगार फ़रिश्ते बना दिया। आगे चल कर हमको मालूम हो जाएगा कि मुहम्मदﷺ ने ईरानी और यहूदी ज़राए से कुछ कम बातें अख़ज़ नहीं की थीं। और अगरचे ईरानी और यहूदी रिवायत बिल्कुल अलेहदा अलेहदा (अलग-अलग) थीं मगर फिर भी उनमें इस क़द्र काफ़ी यकसानियत थी कि मुहम्मदﷺ ने उनको एक ही क़िस्सा समझा और इसी लिए जो क़िस्सा ख़ास ख़ास बातों में यहूदीयों की तल्मूद से लिया गया था उस के अंदर आर्या क़ौम के दो देवता भी शामिल हो गए।

यहूदी रिवायत में जिस लड़की का नाम इस्तर (Esther) बताया गया है वो दरअस्ल क़दीम अहले बाबुल की देवी “इश्तार” (Ishtar) थी जिसकी परस्तिश ममालिक शाम व फ़लस्तीन में “इश्तारेत” (Ashtareth) के नाम से हुआ करती थी। ये इश्क़-ओ-मुहब्बत की देवी थी। यूनानियों में इस का नाम “ऑफ़्र दवेता” (Aphrodite) और रोमीयों में “वीनस” (Venus) था और चूँकि इसी देवी को सय्यारा “वीनस” (Venus) भी बताया जाता था जिसे अहले अरब “ज़ुहरा” कहते हैं, इसलिए बाआसानी ख़्याल में आ सकता है कि ये तमाम नाम एक ही हस्ती के हैं और यहूदी व अरबी नामों में अगर कुछ फ़र्क़ है तो वो चंदाँ एहमीय्यत रखता।

ये भी हमको बख़ूबी मालूम है कि बाबिली और उसूरी ख़राफ़ियात में इश्तार देवी ने क्या-क्या काम किए थे। उस की इश्क़-बाज़ी के एक वाक़िये का तर्जुमा हम जे़ल में दर्ज करते हैं क्योंकि इस से किसी क़द्र मालूम होगा कि फ़रिश्तों की माअसियत कारी का माख़ज़ क्या है और इस वाक़िये पर भी कुछ रोशनी पड़ेगी कि ज़ुहरा या अस्त्र को आस्मान पर चढ़ने के क़ाबिल क्योंकर बनाया गया और वो आस्मान पर वाक़ई चढ़ गई। ख़राफ़ियात बाबुल में बयान किया गया है कि इश्तार एक बहादुर शख़्स मुसम्मा गलगामेश (Gilgamesh) के इश्क़ में मुब्तला हो गई मगर उस शख़्स ने अपनी चाहने वाली की तरफ़ इल्तिफ़ात ना किया। इश्तार नया पन्ना ताज पहना और गलगामेश की तबीयत अपनी तरफ़ माइल करने के लिए इश्तार देवी ने उस से कहा :-

“गलगामेश तू मुझे प्यार करले। ऐ काश तू मेरा दूल्हा होता। ला तू मुझे अपना फल बतौर तोहफ़ा इनायत कर दे और काश तो मेरा शौहर और मैं तेरी बीवी होती। उस वक़्त तू संग लाजवर्द और ज़र-ए-ख़ालिस की गाड़ी में सवार हो कर निकलता। जिसके पहीए सोने के हैं और जिसके दोनों बम (घोड़ा गाड़ी) का बाँस जिसमें घोड़ा जोता जाता है हीरे हैं। तब तू हर-रोज़ बड़े ख़च्चर पर साज़ कसता और हमारे घर में चौब केदार की ख़ुशबू से मुअत्तर आता।”

मगर जब गलगामेश ने उस का कहना मानने से इन्कार कर दिया और उस के बहुत से पहले शौहरों के नाम लेकर तअन व तशनीअ की, जिनका हश्र ख़राब हो चुका था तो क़िस्से में लिखा है कि “इश्तार देवी नाराज़ हो गई और आस्मान पर चली गई और इश्तार देवी ख़ुदावंदा-नौ (Anu) के सामने आई।”

वाज़ेह हो कि बाबुल की क़दीम तरीन ख़राफ़ियात में आंव बहिश्त और बहिश्त का ख़ुदा या देवता था और इश्तार उस की बेटी थी। इस बयान में इस्लामी रिवायत की तरह से इश्तार देवी का आस्मान पर चढ़ना पाया जाता है। इस्लामी रिवायत में वो फ़रिश्तों को गुनाह करने के लिए वरग़लाती है, बिल्कुल इसी तरह से जैसे कि बाबिली क़िस्से में इश्तार ने गलगामेश को तर्ग़ीब दी थी। जैसा क़िस्सा क़ुरआन और अहादीस में लिखा है वैसा ही एक क़िस्सा संस्कृत लिटरेचर में भी है। ये महा-भारत में सुंदा और ऊपसुनदा का क़िस्सा है। इस क़िस्से में बयान किया गया है कि किसी ज़माना सुंदा (Sunda) और उपसुनदा (Upsunda ) दो भाई थे जिन्हों ने इस क़द्र तपशिया या रियाज़त की और इस क़द्र मुम्ताज़ व मुहतरम हो गए कि बिलआख़िर ज़मीन-ओ-आस्मान पर उनकी हुकूमत हो गई। ये बात देखकर ब्रह्मा को तशवीश पैदा हुई कि कहीं ऐसा ना हो ये दोनों भाई उस की हुकूमत भी छीन लें। इन दोनों को वरग़लाने के लिए जो तरीक़ा ब्रह्मा ने इख़्तियार क्या वो ये था कि उसने स्वर्गलोक (जन्नत) से एक ख़ूबसूरत दोशीज़ा भेजना पसंद किया। क़दीम हिंदूओं में इन बहिश्ती नाज़नीनों का नाम “अप्सरा” है और मुसलमानों में उनको “हूर” कहते हैं।

अल-ग़र्ज़ ब्रह्मा ने एक निहायत ही हसीन व जमील अप्सरा पैदा की जिसका नाम “तिलोत्तमा” था और उस अप्सरा को उसने इन दोनों भाईयों के पास बतौर हद्या भेजा। जब उन्होंने इस हसीन व जमील अप्सरा को देखा तो सुंदा ने इस का दाहिना और औपस्नद ने बायां हाथ पकड़ लिया और दोनों की ख़्वाहिश ये हुई कि उसे अपनी बीवी बनाएँ। नतीजा ये हुआ कि रशक व हसद की वजह से दोनों भाईयों में नफ़रत और अदावत पैदा हो गई और उन्होंने एक दूसरे को क़त्ल कर डाला। इस के बाद तिलोत्तमा ब्रह्मा के पास वापिस चली गई जो अपने हरीफ़ों की तबाही व हलाकत से इस क़द्र ख़ुश हुआ कि उसने तिलोत्तमा को बरकत दी और कहा कि “तमाम दुनिया में जिस पर आफ़्ताब आलम-ए-ताब दरख़शां होता है तू गर्दिश करती रहेगी और कोई शख़्स तेरे हुस्न-ओ-जमाल की जलालत और तेरे बनाओ सिंगार की दरख़शानी के बाइस तेरी तरफ़ नज़र जमा कर देख ना सकेगा।”

इस क़िस्से में भी इस अप्सरा का आस्मान पर चढ़ना पाया जाता है। अगरचे ये हिंद वाणी क़िस्सा बाबिली क़िस्सा के मुताबिक़ और इस्लामी क़िस्सा से मह्ज़ इस क़द्र मुख़्तलिफ़ है कि औरत का ताल्लुक़ पहले ही मला-ए-आला (फ़रिश्ते) से था क्योंकि अप्सराएं बहिश्त में रहती हैं, अगरचे वो कभी कभी ज़मीन की भी सैर करने आती हैं। और इश्तार देवी थी। हिंदवाणी क़िस्से में दोनों भाई पहले ही से ज़मीन पर थे। अगरचे वो रफ़्ता-रफ़्ता ज़मीन व आस्मान दोनों पर क़ाबिज़ हो गए थे। इस सूरत से वो बादी-उल-नज़र में उन दोनों फ़रिश्तों से मुख़्तलिफ़ हैं जो यहूदी और इस्लामी रिवायत के मुताबिक़ आस्मान से उतरते थे। लेकिन इस बारे में भी ये फ़र्क़ बहुत ख़फ़ीफ़ है क्योंकि हिंदवाणी क़िस्से में भी ये बयान किया गया है कि वो दोनों दिति (Diti) नामी देवी की औलाद थे जो मारूतों (Maruts) की भी माँ थी। लिहाज़ा मुख़्तलिफ़ रिवायत में जो यकसानियत पाई जाती है वो निहायत हैरत अंगेज़ है।

मगर हम ये नहीं कह सकते कि ये मुख़्तलिफ़ क़िस्से जो इन मुख़्तलिफ़ क़ौमों में राइज थे इन सब का माख़ज़ एक ही है। यहूदीयों ने अगर पूरा क़िस्सा नहीं तो कम-अज़-कम उस का बहुत कुछ हिस्सा, ख़ुसूसुन इश्तार या अस्त्र (Ishtar or Esther) का नाम और बाअज़ दीगर तफ़सीलात ज़रूर अहले बाबुल से लीं और अहले बाबुल ने ये क़िस्सा अपने से भी ज़्यादा क़दीम क़ौम अक्कादियों (Akadiuns) से लिया था। ये वाक़िया फ़रामोश कर के कि क़िस्से का माख़ज़ एक बुत-परस्त क़ौम की रिवायत है, यहूदीयों ने उसे तल्मूद में दाख़िल कर लिया और यहूदीयों की सनद पर उसे क़ुरआन और अहादीस इस्लामी में जगह मिल गई।

मालूम ऐसा होता है कि यहूदीयों में इस रिवायत की बुनियाद एक इब्रानी लफ़्ज़ के ग़लत मअनी समझने पर क़ायम हुई। किताब पैदाइश 6: 1-4 में एक इब्रानी लफ़्ज़ “नीफ़ेलीम” (Nephilim) आता है, जिसकी निस्बत ये समझा गया कि वो फे़अल “नाफ़िल” से मुश्तक़ है जिसके मअनी “गिरना” हैं। इसी वजह से जोनाथन बिन अज़्ज़ील ने अपने तार ग़म में “नीफ़ेलीम” के मअनी “मर्दूद फ़रिश्ते” ले लिए। अलक़िस्सा ये कहानी कुछ तो बाबिली ख़राफ़ियात से जाहिल यहूदीयों ने ली और कुछ अपनी तरफ़ से ईजाद की। गोया जिस तरह क़िस्सा इब्राहिम में लफ़्ज़ “ऊर” के ग़लत मअनी लेकर “कलदानियों की आग की भट्टी” बना दिया गया था, इसी तरह जोनाथन ने “नीफ़ेलीम” के ग़लत मअनी लेकर ये लिख दिया कि “शमहाज़ाई और इज़राईल” आस्मान से गिरा दिए गए थे और वो इस ज़माने में ज़मीन पर रहते थे।” अल-ग़र्ज़ “मदराशि यलकोत” का क़िस्सा जो हम ऊपर बयान कर आए हैं वो इस तरह से पैदा हुआ। अगर ये तस्लीम कर लिया जाये कि लफ़्ज़ “नीफ़ेलीम” इस लफ़्ज़ से मुश्तक़ है जिसके मअनी “गिरना” हैं, तब भी इस की ज़रूरत नहीं कि नाम का पैदा होना इस तरह बयान किया जाता है।

ओंकेलूस (Onkelos ) ने अपने तार ग़म में ज़्यादा दानिशमंदी से काम लिया है। उसने समझा है कि “नीफ़ेलीम” उन लोगों को इस वजह से कहा गया कि वो ऐसे आदमी थे जो बेकस व लाचार थे, लोगों पर “शिद्दत के साथ पड़ते थे।” इसी वजह से इस तार ग़म में लफ़्ज़ “नीफ़ेलीम” का तर्जुमा “सख़्त आदमी” या “ज़ालिम लोग” किया गया है। ज़माना-ए-हाल में बाअज़ लोगों ने “नीफ़ेलीम” का माद्दा “नाफ़िल” यानी “गिरना” क़ुबूल करने से इन्कार कर दिया है। वो लफ़्ज़ मज़्कूर का सिलसिला अरबी ज़बान के लफ़्ज़ “नबील” से मिलाते हैं जिसके मअनी “शरीफ़” नीज़ “क़ादिर तीर अंदाज़” के हैं। लेकिन जहां तक हमारा ख़्याल है लफ़्ज़ “नीफ़ेलीम” सौमेरी (Sumerian) माद्दा से निकला है और इस का समातीक़ी ज़बान के किसी मुसद्दिर से ताल्लुक़ नहीं है।

चूँकि जाहिल यहूदी बहुत ज़्यादा अजाइब परस्त वाक़ेअ हुए थे, इसलिए आस्मान से गिराए हुए फ़रिश्तों के इर्तिकअब माअसियत का क़िस्सा और भी ज़्यादा हैरत-अंगेज़ होता गया। अव्वल अव्वल तो सिर्फ दो ही “उफ़्तादा फ़रिश्ते” बयान किए गए थे और ये भी गोया बाबिली क़िस्सा इश्तार व गलगामेश में एक और शख़्स का इज़ाफ़ा था, लेकिन जूँ-जूँ ज़माना गुज़रता गया यहूदी क़िस्से में “फ़रिश्तगान उफ़्तादा” की तादाद में भी इज़ाफ़ा होता गया। हत्ता कि सहीफ़-ए-इदरीस (Enoch ) में ऐसे फ़रिश्तों की तादाद दो सौ हो गई और ये सब ज़मीन पर इस ग़रज़ से उतरे थे कि औरतों के साथ गुनाह करें। जे़ल में हम एक इक़्तिबास दर्ज करते हैं जो इस वजह से बहुत एहमीय्यत रखता है कि उस में इन क़िस्सों से जो हमने ऊपर बयान किए हैं और भी ज़्यादा तफ़्सील से काम लिया गया है। इस बयान का आख़िरी हिस्सा भी क़ुरआन और मदराशि यलकोत के क़िस्सों के आख़िरी हिस्सों से मिलता-जुलता है जिस पर हम बहुत जल्द आगे चल कर बह्स करेंगे।

और ऐसा वाक़िया हुआ कि जहां कहीं आदमीयों से बच्चे पैदा हुए तो उस ज़माने में ख़ूबसूरत और ख़ुश शक्ल लड़कीयां पैदा हुईं। और फ़रिश्तों ने जो फ़र्रज़िंदान बहिश्त थे उन लड़कीयों को देखा और उनके लिए ख़्वाहिश ज़ाहिर की और वह आपस में कहने लगे “आओ और इन्सानों में से हम अपने लिए बीवीयां पसंद करें और उनसे बच्चे जनवाएं। सीमियाज़ास् (Samizas) ने जो उन का सरदार था उन से कहा “मुझे अंदेशा है कि तुम लोग ये फे़अल करने से इन्कार कर दोगे और उस वक़्त में तन्हा ही इस गुनाह-ए-अज़ीम का मुर्तक़िब ठहराया जाऊँगा।” पस उन सबने उस से कहा कि “तो फिर आओ हम सब हलफ़ उठाएं और वाअदा करें कि हम हरगिज़ इस ख़्याल से बाज़ ना आएँगे जब तक कि हम ये काम पूरा ना कर लेंगे।” पस उन सबने हलफ़ उठाया और सख़्त क़सम खाई।”

इस के बाद सहीफा-ए-इदरीस में बाग़ी फ़रिश्तों के सरदारोँ के नाम दर्ज किए गए और फिर क़िस्से सिलसिला इस तरह जारी किया गया है।

“और उन्होंने अपने लिए बीवीयां पसंद कर लीं और हर शख़्स ने अपने लिए बीवी पसंद की।....और उन्होंने उन औरतों को ज़हर बनाना, जंतर मंत्र और जड़ी बोटियों का इल्म सिखाया।...इज़राईल ने उन्हें शमशीर व सिपर, ज़िरह बक्तर और दीगर असलाह बनाना सिखाए। उन को फ़रिश्तों की ताअलीमात सिखाईं। उसने उनको धातें दिखाईं और उन धातों को साफ़ करना और उनसे काम लेना बताया। उन्हें कंगन, चूड़ियां और दीगर जे़वरात बनाना सिखाए। उन को ग़ाज़ा (उबटन, ख़ुशबूदार पोडर), एबटना, सुर्मा, काजल, मिस्सी बनाना (एक क़िस्म का मंजन जिसे औरतें बतौर सिंगार इस्तिमाल करती हैं) और लगाना सिखाया और उन्हें मुख़्तलिफ़ क़िस्म के रंग सिखाए और जवाहरात का इल्म सिखाया।”

औरतों के ज़ेवरों की ईजाद का बयान वही है जो मदराशि यलकोत में बयान हुआ है। इस बयान से आयात क़ुरआनी के मअनी भी बख़ूबी समझ में आ जाते हैं जहां हारुत व मारूत का ज़िक्र हुए मुहम्मदﷺ ने क़ुरआन में ये बयान किया है कि :-

’’فَيَتَعَلَّمُونَ مِنْهُمَا مَا يُفَرِّقُونَ بِهِ بَيْنَ الْمَرْءِ وَزَوْجِهِ وَمَا هُم بِضَارِّينَ بِهِ مِنْ أَحَدٍ إِلَّا بِإِذْنِ اللَّهِ وَيَتَعَلَّمُونَ مَا يَضُرُّهُمْ وَلَا يَنفَعُهُمْ وَلَقَدْ عَلِمُوا لَمَنِ اشْتَرَاهُ مَا لَهُ فِي الْآخِرَةِ مِنْ خَلَاقٍ وَلَبِئْسَ مَا شَرَوْا بِهِ أَنفُسَهُمْ لَوْ كَانُوا يَعْلَمُونَ ‘‘۔

अब हमारे ख़्याल में इस बात का मज़ीद सबूत देने की कोई ज़रूरत नहीं है कि क़ुरआन में हारूत व मारूत का क़िस्सा यहूदीयों से लिया गया है और फ़रिश्तों के नाम अर्मनी, बाबिली और ग़ालिबन अजमी असर से दाख़िल हुए हैं।

तूर-ए-सिना

अब हम कुछ मिसालें और पेश करते हैं जिनसे ज़ाहिर होता है कि यहूदी रिवायत से इस्लाम किस क़द्र मुतास्सिर हुआ है। सूरह आराफ़ में लिखा है कि :-

’’ وَ اِذۡ نَتَقۡنَا الۡجَبَلَ فَوۡقَہُمۡ کَاَنَّہٗ ظُلَّۃٌ وَّ ظَنُّوۡۤا اَنَّہٗ وَاقِعٌۢ بِہِمۡ ۚ خُذُوۡا مَاۤ اٰتَیۡنٰکُمۡ بِقُوَّۃٍ وَّ اذۡکُرُوۡا مَا فِیۡہِ لَعَلَّکُمۡ تَتَّقُوۡنَ ‘‘

जलालेन और दूसरी तफ़ासीर में लिखा है कि :-

“ख़ुदा ने कोह-ए-तूर सिना को इस की बुनियादों से ऊपर उठा दिया और उसे ब्याबान में बनी-इस्राईल के सरों पर उठाए रखा ताकि अगर वो अहकाम तौरेत की पाबंदी ना करें तो वो पहाड़ गिरा कर उन्हें कुचल दिया जाये। उन्होंने इस से पेशतर अहकाम तौरेत मानने से इन्कार कर दिया था क्योंकि वो अहकाम सख़्त ज़्यादा थे। मगर जब ख़ुदा की तरफ़ से उनको ये तहदीद (तनबीहा) की गई तो उन्होंने तौरेत को क़ुबूल कर लिया।”

और इसी मफ़्हूम को मज़्कूरा-बाला आयत में ज़ाहिर किया गया है। इस मसअले की तहक़ीक़ से मालूम होता है कि इस का माख़ज़ यहूदीयों की किताब “अबूदाह ज़ाराह” (Abodah Zarah ch.II) है। उस की इबारत मुलाहिज़ा हो :-

ख़ुदा ने बनी-इस्राईल से कहा कि मैंने तुम पर पहाड़ इस तरह ढक दिया जैसे ढकना।” इलावा अज़ीं “सबत” (Sabbath) में भी ये ज़िक्र इन अल्फ़ाज़ में आया है कि “ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस ने उन पर पहाड़ों को हांडी की तरह उलट दिया और उनसे कहा कि “अगर तुम शरीअत मूसवी को मंज़ूर करते हो तो फ़बिहा (बहुत ख़ूब, बेहतर) वर्ना तुम्हारी क़ब्र यहीं बनेंगी।

ग़ालिबन ये कहने की कुछ ज़रूरत नहीं कि नामूस मूसई (तौरेत) में ऐसा क़िस्सा कोई नहीं है। ये क़िस्सा एक यहूदी मुफ़स्सिर की ग़लती से पैदा हुआ जिसने बाइबल के अल्फ़ाज़ के ग़लत मअनी समझे। किताब ख़ुरूज 32:19 में लिखा है कि “जब मूसा दो संगीन लौहें अपने हाथ में लिए हुए पहाड़ पर से उतरे तो उन्होंने देखा कि बनी-इस्राईल एक गौसाला (बछड़ा) की परस्तिश कर रहे हैं। ये शर्मनाक मंज़र देखकर मूसा ग़ज़बनाक हो गए और उन्होंने अलवाह संगीन अपने हाथों से “ज़ेर जबल” फेंक कर तोड़ दें।” इसी किताब ख़ुरूज 19:17 में लिखा है कि “जब ख़ुदा मूसा को शरीअत हवाले कर रहा था तो बनी-इस्राईल पहाड़ के हिस्से ज़ीरीं में (या नीचे) खड़े थे।” अल-ग़र्ज़ दोनों सूरतों में ये मतलब है कि बनी-इस्राईल दामन-ए-कोह में थे। मगर आख़िरी ज़माने के अजाइब परस्त और यहूदीयों ने अल्फ़ाज़ “ज़ेर जबल” की तशरीह करते हुए पहाड़ को उठाने की रिवायत घड़ ली।

पहाड़ के उठाने का क़िस्सा एक हिंदू रिवायत में भी पाया जाता है और वो ये है कि “जब सिरी कृष्ण जी महाराज ने अपने वतन गोकुल के लोगों को एक शदीद तूफ़ान बादो बाराँ से महफ़ूज़ रखना चाहा तो उन्होंने दुनिया का सबसे बड़ा पहाड़ जिसका गोबर्धन था जड़ से उखाड़ लिया और उसे छतरी की तरह अपने हाथ की उंगलीयों के सुरों पर सात दिन तक लोगों के सरों पर थामे रखा।” हम ये तो नहीं कह सकते कि यहूदीयों ने ये रिवायत हिंदूओं से ली है, लेकिन क़ुरआन में जो हिस्सा दर्ज है वो ज़रूर यहूदीयों से लिया गया है।

गौसाला सामरी

सिर्फ यही एक अजीब-ओ-ग़रीब क़िस्सा नहीं है जो क़ुरआन में बनी-इस्राईल की निस्बत बयान किया गया है। इस से ज़्यादा अजीब-ओ-ग़रीब क़िस्सा गौसाला की निस्बत बयान किया जाता है, जिसकी परस्तिश बनी-इस्राईल ने मूसा की ग़ीबत में की थी। सूरह ताहा में बयान किया है कि “जब मूसा पहाड़ से वापिस आए और उन्होंने गौसाला परस्तीश पर बनी-इस्राईल को बुरा-भला कहा तो उन्होंने जवाब दिया :-

’’قَالُوۡا مَاۤ اَخۡلَفۡنَا مَوۡعِدَکَ بِمَلۡکِنَا وَ لٰکِنَّا حُمِّلۡنَاۤ اَوۡزَارًا مِّنۡ زِیۡنَۃِ الۡقَوۡمِ فَقَذَفۡنٰہَا فَکَذٰلِکَ اَلۡقَی السَّامِرِیُّ۔ فَاَخۡرَجَ لَہُمۡ عِجۡلًا جَسَدًا لَّہٗ خُوَارٌ فَقَالُوۡا ہٰذَاۤ اِلٰـہُکُمۡ وَ اِلٰہُ مُوۡسٰی ۬ فَنَسِیَ ‘‘

सूरह ताहा (आयात 87-88)

तफ़्सीर जलालेन में इस पर ये नोट दिया गया है कि :-

“वो गौसाला गोश्त और ख़ून का बना हुआ था और बोलने की क़ुव्वत रखता था। क्योंकि उस में जान इस तरह पड़ गई थी कि सामरी ने एक मुट्ठी ख़ाक की उस जगह से उठा ली थी जहां जिब्रईल के घोड़े का पांव पड़ा था और ये ख़ाक उसने गौसाला के मुँह में रख दी थी।”

ये रिवायत भी यहूदीयों से ली गई है जैसा कि “Pirqey Rabbi Eliezer” (पिर्के रब्बी एलिज़र) के मुतालआ से मालूम होता है। उस की इबारत का तर्जुमा ये है :-

“वो गौसाला डकारता हुआ निकला और बनी-इस्राईल ने उसे देखा। रब्बी यहूदाह का क़ौल है कि इस गौसाला के अंदर समाईल पोशीदा था और वही डकारहा था ताकि बनी इस्राईल को धोका दे।”

ये ख़्याल कि वो गौसाला बोलता था ग़ालिबन इस मफ़रूज़ा से पैदा हुआ है कि अगरचे वो सोने का बना हुआ था मगर था ज़िंदा, क्योंकि आग से निकला था। ये एक शायराना तर्ज़-ए-अदा है जिसके लफ़्ज़ी मअनी लेकर ये क़िस्सा घड़ लिया गया। साहबे जलालेन ने गौसाला का “गोश्त और ख़ून” से बना हुआ होना ग़ालिबन इसलिए ज़ाहिर किया कि वो बोलता था और सोने के बने हुए गौसाला का बोलना उनके नज़्दीक ख़िलाफ़ अक़्ल था। बहर-ए-हाल ये रिवायत भी यहूदीयों से ली गई है, लेकिन मालूम ऐसा होता है कि यहूदी रिवायत के लफ़्ज़ समाईल को अच्छी तरह नहीं समझा गया। यहूदीयों के यहां मलक-उल-मौत को समाईल कहते हैं और ग़ालिबन सामरी इसी की बदली हुई सूरत है। सामरी का लफ़्ज़ इस्तिमाल करने की एक वजह और ये भी हो सकती है कि मुहम्मदﷺ जानते थे कि यहूदी क़ौम सामरियों से नफ़रत करती है। (क्योंकि गौसाला सामरी ने बनाया था और मुम्किन है उन्होंने कहीं ये भी सुन लिया हो कि यरबाम (Jerobaan) ने जो बाद में सामरिया का बादशाह कहलाया, यहूदीयों से गौसालाओं की परस्तिश कराई थी। लेकिन लुत्फ़ ये है कि जिस ज़माने में गौसाला का बनाना ज़ाहिर किया जाता है उस वक़्त तक शहर सामरिया आबाद भी ना हुआ था और ग़ालिबन मूसा से कई सौ बर्स बाद तक उस का नाम भी ये ना रखा गया था। इसलिए ये तारीख़ी ग़लती और ज़्यादा दिलचस्प है अगर मुहम्मदﷺ रिवायत बाइबल से ज़्यादा वाक़िफ़ होते तो उनको मालूम होता कि गौसाला-ए-तिलाई का बनाने वाला हारून था और बाइबल में ना “समाईल” का कोई ज़िक्र पाया जाता है, ना “सामरी” का।

ख़ुदा का मुशाहिदा

एक जगह सूरह बक़रह में लिखा है कि :-

’’ وَإِذْ قُلْتُمْ يَا مُوسَىٰ لَن نُّؤْمِنَ لَكَ حَتَّىٰ نَرَى اللَّهَ جَهْرَةً فَأَخَذَتْكُمُ الصَّاعِقَةُ وَأَنتُمْ تَنظُرُونَ ثُمَّ بَعَثْنَاكُم مِّن بَعْدِ مَوْتِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ ‘‘۔

“यानी बनी-इस्राईल ने मूसा से कहा कि ऐ मूसा हम तुझ पर उस वक़्त तक ईमान ना लाएँगे जब तक हम ख़ुदा को साफ़ तौर से ना देख लेंगे (और जब वो ख़ुदा के जलवे के लिए देख रहे थे) तो उन पर एक बिजली गिरी और वो मर गए। मगर बाद में अल्लाह ने उन्हें फिर ज़िंदा कर दिया।”

ये फ़साना भी यहूदीयों से लिया गया है। किताब “साहेंद्रीन” (Sahendrin) में लिखा है कि :-

“वो ख़ुदा की आवाज़ (रअद के पर्दे में) सुनते ही मर गए। मगर नामूस मूसा ने उनकी शफ़ाअत की। इसलिए उन्हें फिर ज़िंदा कर दिया गया।”

इस फ़साने की असली बुनियाद किताब ख़ुरूज 20:19 है जिसमें इब्रानियों के ये अल्फ़ाज़ दर्ज हैं कि :-

“ख़ुदा को हमसे ना बोलने दो कहीं ऐसा ना हो हम मर जाएं।”

लौह-ए-महफ़ूज़

तमाम मुसलमानों का ये अक़ीदा है कि क़ुरआन मजीद आफ़रीनश आलम से पहले भी बहुत पहले “लौह-ए-महफ़ूज़” पर लिख दिया गया था। ये अक़ीदा उनका सूरह अम्बिया की उन आयात की बिना पर है जहां क़ुरआन मजीद को लौह-ए-महफ़ूज़ पर लिखा होना बयान किया गया है। मगर हैरत की बात है कि मुसलमान ज़बूर को क्यों इतना ही क़दीम नहीं मानते हालाँकि इसी सूरह अम्बिया में लिखा है कि :-

’’ وَلَقَدْ كَتَبْنَا فِي الزَّبُورِ مِن بَعْدِ الذِّكْرِ أَنَّ الْأَرْضَ يَرِثُهَا عِبَادِيَ الصَّالِحُونَ ‘‘۔

“यानी यक़ीनन हमने ज़बूर को लिख दिया था बाद ज़िक्र के कि जहां तक ज़मीन का ताल्लुक़ है, मेरे नेक बंदे ज़मीन के वारिस होंगे।”

इस आयत का इशारा ज़बूर दाऊद 37:29 की तरफ़ है जिसमें ज़ाहिर किया गया है “सादिक़ ज़मीन के वारिस होंगे।” सिर्फ यही एक आयत बाइबल की ऐसी है जो क़ुरआन में दी गई है, वर्ना यूं तौरेत, ज़बूर व इंजील के नाम अक्सर जगह लिए गए हैं और हमेशा इज़्ज़त व एहतिराम के साथ उनका ज़िक्र किया है।

इस सिलसिले में ये बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि जब तक कोई किताब पहले से मौजूद ना हो, ना उस की इबारत नक़्ल की जा सकती है, ना उस का हवाला दिया जा सकता है। इसलिए ज़ाहिर है कि बाइबल के सहीफ़े क़ुरआन के वजूद में आने से पहले मौजूद थे और तारीख़ भी इस की शाहिद है, फिर मुसलमानों का ये अक़ीदा कि क़ुरआन लौह-ए-महफ़ूज़ में तख़्लीक़ आलम से पेशतर ही मनक़ूश था, क्या मअनी रखता है? और अगर ये सही है तो फिर बाइबल वग़ैरह इस से पहले मनक़ूश हो चुकी होंगी, वर्ना उनका हवाला क़ुरआन में क्यों होता?

अब हम देखते हैं कि अहादीस व रिवायत “लौह-ए-महफ़ूज़” के बारे में क्या कहती हैं। इस का जवाब हमको “क़िसस-उल-अम्बिया” जैसी किताबों से मिलता है। इस किताब में ये बयान करते हुए कि ख़ुदा ने तमाम चीज़ों को क्योंकर पैदा किया लिखा है कि :-

“अर्श-ए-आज़म के नीचे उसने एक दान-ए-मर्वारीद (मोती, गौहर) पैदा किया और इस मर्वारीद से उसने “लौह-ए-महफ़ूज़” बनाई। इस लौह का तूल सात सौ बरस की राह और उस का अर्ज़ तीन सौ बरस की राह था। इस के हाशिया पर चारों तरफ़ अल्लाह तआला ने अपनी क़ुदरत से लाल व याक़ूत के ज़रीये से नक़्क़ाश की थी। बाद अज़ां क़लम को हुक्म हुआ कि “लिख ऐ क़लम मेरी तमाम मख़्लूक़ की निस्बत और जो कुछ ताक़यामत होगा उस की निस्बत मेरा इल्म।” पहले क़लम ने “लौह-ए-महफ़ूज़” पर लिखा ’’بسم اللّٰہ الرحمٰن الرحیم‘‘ मैं अल्लाह हूँ और मेरे सिवाए और कोई माबूद नहीं। जिस किसी ने मेरा हुक्म माना और जो तक्लीफ़ उस को मेरी तरफ़ से पहुँचेगी उसे सब्र शुक्र के साथ बर्दाश्त किया और मेरी नेअमतों का शुक्रिया अदा किया, मैंने लिख दिया है उस का नाम, और वो सादिक़ीन के साथ उठाया जाएगा। और जो शख़्स मेरे हुक्म से ख़ुश ना हुआ और जो तक्लीफ़ उसे मेरी तरफ़ से पहुंची उसे सब्र व शुक्र के साथ बर्दाश्त ना किया और मेरी नेअमतों का शुक्रिया अदा ना क्या, उसे चाहीए कि वो कोई दूसरा इलाह तलाश कर ले और मेरे आस्मान के नीचे से चला जाये। पस क़लम ने अल्लाह तआला की मख़्लूक़ में हर चीज़ की निस्बत क़ियामत तक का हाल लिखा, हत्ता कि दरख़्त का पत्ता हिलने, गिरने या ऊपर उड़ने तक का हाल दर्ज किया और उसने ऐसी तमाम बातें अल्लाह तआला की क़ुदरत से लिखीं।”

“लौह-ए-महफ़ूज़” का ख़्याल मुसलमानों में यहूदीयों से लिया गया है। बाइबल की किताब इस्तिस्ना 10:1-5 में लिखा है कि :-

जब मूसा ने ख़ुदा के हुक्म से वैसी ही दो लौहें पत्थर तराश कर बनाएँ जैसी उन्होंने तोड़ दीं थीं तो ख़ुदा ने उन पर अहकाम अशरा (दस अहकाम) तहरीर फ़र्मा दिए और मूसा को हुक्म दिया कि वो इन अलवाह को शित्तिम (Shittim) यानी बबूल की लकड़ी के संदूक़ में महफ़ूज़ रखे। इस मुक़ाम पर इब्रानी ज़बान में जो लफ़्ज़ तख़्ती के लिए लिखा है, वो वही है जो अरबी ज़बान में है और बाइबल की किताब 1 सलातीन 8:9 और सहीफ़ा इब्रानियों 9:3-4 से हमको मालूम होता है कि ये दोनों लौहें संदूक-ए-मीसाक़ में “महफ़ूज़” रखी गई थीं जो मूसा ने ख़ुदा के हुक्म के मुताबिक़ बनाया था।

ये है वो बयान जिसकी बिना पर “लौह-ए-महफ़ूज़” पर शरीअत ख़ुदावंदी का ख़ुदा की क़ुदरत से दर्ज होने का ख़्याल रफ़्ता-रफ़्ता पहले यहूदीयों में पैदा हुआ और बादअज़ां मुसलमानों में आ गया। क़ुरआन की जो आयत “लौह-ए-महफ़ूज़” के बारे में है उस में ’’بل ہو قرآنٌ مجید فی لوحٍ محفوظ‘‘ लिखा है यानी “एक लौह” जिससे ज़ाहिर होता है कि मुहम्मदﷺ के ज़हन में कम-अज़-कम दो लौहें ज़रूर थीं और चूँकि ये लौहों वाला संदूक़ हैकल के अंदर रखा जाता था जो इस बात की अलामत था कि ख़ुदा बनी-इस्राईल के साथ मौजूद है। लिहाज़ा उन अलवाह की निस्बत ये कहा जाना क़ुदरती अम्र था कि वो ”लौहें ख़ुदा की जनाब में महफ़ूज़ हैं।” इस तरह से ये ख़्याल पैदा हुआ कि “लौह-ए-महफ़ूज़” आस्मान पर है।

अब सवाल ये पैदा होता है कि मुहम्मदﷺ ने ये क्यों बयान किया कि क़ुरआन “लौह-ए-महफ़ूज़” मैं दर्ज है? इस के जवाब के लिए हमें फिर यहूदीयों की तरफ़ रुजू करना पड़ेगा और मालूम करना होगा कि मुहम्मदﷺ के ज़माने में और इस से क़ब्ल यहूदीयों का इस बारे में क्या ख़्याल था कि अलवाह महफ़ूज़ पर क्या लिखा हुआ था? बावजूद उस के कि किताब इस्तिस्ना में साफ़ लिखा हुआ है कि इन तख़्तीयों पर सिर्फ अहकाम अशरा लिखे हुए थे, मगर कुछ अरसा बाद ये ख़्याल पैदा हो गया कि अह्द नाम-ए-अतीक़ के तमाम सहाइफ़ मआ तमाम तल्मूद के या तो उन तख़्तीयों पर लिखे हुए थे या उनके साथ ख़ुदा ने दिए थे। जब मुहम्मदﷺ ने यहूदीयों का ये क़ौल अपनी कुतुब मुक़द्दसा के बारे में सुना होगा तो यक़ीनन उन्हें भी ख़्याल हुआ होगा कि जो कुछ उन पर इल्हाम होता है, वो भी ज़रूर उन “अलवाह महफ़ूज़” में दर्ज होगा। गुमान ग़ालिब है कि मुसलमानों ने जो ये ना समझते थे कि अल्फ़ाज़ “लौह-ए-महफ़ूज़” से किस तरफ़ इशारा है, रफ़्ता-रफ़्ता इस के मुताल्लिक़ बहुत सी अजीब बातें घड़ लीं। इस अम्र की तस्दीक़ के लिए कि यहूदीयों का ख़्याल “अलवाह महफ़ूज़” की तहरीर की निस्बत क्या था? हमको रिसाला बेराकोथ (Berakoth) की तरफ़ रुजू करना चाहीए। वहां हमको रब्बी शमाउन बिन लाकेश (Rabbi Simeon ben Laqish) का ये क़ौल मिलता है कि :-

“वो क्या है जो लिखा हुआ है?” और मैं तुझे पत्थर की लौहें और शरीअत और अहकाम जो मैंने लिखे हैं दूँगा ताकि तू उन्हें सिखाए” (ख़ुरूज 24:12) लौहों से मुराद अहकाम अशरा हैं। शरीअत से मुराद वो है जो पढ़ी जाती है और अहकाम से मुराद मिशनाह है और अल्फ़ाज़ “जो मैंने लिखा है” से मुराद अम्बिया और Hagiographa (हेगियोग्राफा) हैं, (जिनमें यहूद की तमाम कुतुब मुक़द्दसा मसलन ज़बूर, अम्साल, ग़ज़ल-उल-ग़ज़लात, वाइज़, यर्मियाह का नोहा, आस्तर, दानीएल, एज़रा, अय्यूब, रुत और नहमियाह वग़ैरह सब दाख़िल हैं) और अल्फ़ाज़ “ताकि तू उनको सिखाए” से मतलब गमेरा (Gemara) है। इस आयत से ये ज़ाहिर होता है कि ये तमाम चीज़ें मूसा को कोह-ए-तूर सिना से दी गई थीं।”

ज़माना-ए-हाल का हर फ़ाज़िल यहूदी आयत मज़्कूर की इस तफ़्सीर को ग़लत समझता है, क्योंकि वो जानता है कि मिशनाह की तालीफ़ 220 ई॰ में हुई थी। यरूशलेम का “Gemara” (गमेरा) 438 ई॰ के क़रीब लिखा गया था और बाबिली जमारा (गेमारा की तस्नीफ़ तक़रीबन 530 ई॰ में हुई थी। मगर चूँकि मुसलमानों को ये बातें मालूम ना थीं इसलिए उन्होंने आयत मज़्कूर की मुंदरजा बाला तफ़्सीर को बिल्कुल सही समझ लिया और उनका इतलाक़ क़ुरआन पर भी दिया।

दूसरा बड़ा सबूत इस अम्र का कि “लौह-ए-महफ़ूज़” का अक़ीदा यहूदीयों से लिया गया पिर्के अबोथ (Pirqey Aboth) बाब पंजुम फ़स्ल 6 का ये बयान है :-

“शरीअत की दोनों अलवाह नौ दूसरी चीज़ों के साथ आफ़रीनश आलम के वक़्त पैदा की गई थीं और ये यौम-उस-सबत से क़ब्ल की शाम को हुआ था।”

कोह-ए-क़ाफ़

क़ुरआन मजीद की एक सूरत का नाम “सूरह क़ाफ़” है और वो हर्फ़ “क़ाफ़” (ق) से शुरू होती है। मुसलमानों का ख़्याल है कि इस का इशारा “कोह-ए-क़ाफ़” की तरफ़ है। तफ़्सीर अब्बासी में यही बात तस्लीम की गई है और इस की ताईद में एक हदीस बयान की है जो इब्ने अब्बास से रिवायत की गई है। इब्ने अब्बास फ़रमाते हैं कि :-

“क़ाफ़” (ق) एक सरसब्ज़ व शादाब पहाड़ है जो तमाम ज़मीन को घेरे हुए है और आस्मान की सब्ज़ी उसी की वजह से है और ख़ुदा ने उस की क़सम खाई है।”

तफ़्सीर जलालेन में लिखा है कि :-

“ख़ुदा ही ख़ूब जानता है कि “क़ाफ़” (ق) से क्या मतलब है।”

किताब अराईस-उल-मजालिस में इस की तशरीह ज़्यादा तफ़्सील के साथ की गई है और लिखा है कि :-

“अल्लाह तआला ने एक बहुत बड़ा पहाड़ सब्ज़ ज़मुर्रद का बनाया। आस्मान की सब्ज़ी इसी की वजह से है। उस का नाम क़ाफ़ (ق) है और वो तमाम ज़मीन को घेरे हुए है और यही है जिसकी क़सम ख़ुदा खाता है और क़ुरआन शरीफ़ कहता है “क़सम है क़ाफ़ (ق) की” “क़िसस-उल-अम्बिया' में लिखा है कि :-

एक रोज़ अब्दुल्लाह इब्ने सलाम ने मुहम्मदﷺ से दर्याफ़्त किया कि दुनिया में बलंद तरीन चोटी पहाड़ की कौन सी है? मुहम्मदﷺ ने जवाब दिया कि “कोह-ए-क़ाफ़।” मज़ीद सवाल किया गया कि ये पहाड़ किस चीज़ का बना हुआ है मुहम्मदﷺ ने जवाब दिया कि “सब्ज़ ज़मुर्रद” का और आस्मान की सब्ज़ी इसी के बाइस है।” साइल ने ये कह कर कि ख़ुदा के रसूल ने इस बारे में सही फ़रमाया है दर्याफ़्त किया कि “कोह-ए-क़ाफ़” की ऊंचाई किस क़द्र है?” मुहम्मदﷺ ने जवाब दिया कि “उस की बुलंदी पांच सौ (500) बरस की राह है।” अब्दुल्लाह ने पूछा कि “उस की गोलाई किस क़द्र है?” जवाब दिया गया कि “दो हज़ार बरस की राह”

अगर हम ये मालूम करना चाहें कि इस अजीब व ग़रीब सिलसिला-ए-कोहिस्तान के वजूद की क्या हक़ीक़त है तो इस का जवाब यहूदीयों की तफ़्सीर हज्जी (Hagigah) बाब 9 फ़स्ल 1 में मिलता है। बाइबल की किताब पैदाइश 1:2 में एक बहुत ही क़लील-उल-इस्तअमाल इब्रानी लफ़्ज़ “तो हो” (Tohu) आता है। उस की तफ़्सीर ये लिखी है कि “तो हो” एक सब्ज़ ख़त है जो तमाम दुनिया के गर्द मुहीत है और जिसके अंदर से तारीकी निकलती है।” वो इब्रानी लफ़्ज़ जिसके मअनी हमने यहां “ख़त” (خط) लिखे हैं “क़ाव” (قاو) है। मुहम्मदﷺ और उन के मुतबईन ने ये इब्रानी लफ़्ज़ तो सुन लिया मगर इन को यह मालूम ना था कि इस लफ़्ज़ के मअनी “ख़त” के हैं। इसलिए उन्होंने ये समझ लिया कि यक़ीनन जिस चीज़ को दुनिया के गर्द मुहीत बताया गया है और जिसमें से तारीकी निकलती है, वो ज़रूर एक बड़ा सिलसिला कोहिस्तान है जिसका नाम “क़ाव” या “क़ाफ़” (قاف) है।

आस्मान व ज़मीन साथ तबक़े

क़ुरआन की सूरह बनी-इस्राईल की आयत 44 में लिखा है :-

’’تُسَبِّحُ لَهُ السَّمَاوَاتُ السَّبْعُ وَالْأَرْضُ وَمَن فِيهِنَّ ‘‘۔

और सूरह अल हिज्र की आयत 43-44, में तहरीर कि :-

’’ وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمَوْعِدُهُمْ أَجْمَعِينَ لَهَا سَبْعَةُ أَبْوَابٍ ‘‘۔

यानी एक आयत में सात आसमानों का और दूसरी आयत में दोज़ख़ के सात दरवाज़ों का ज़िक्र किया गया है। ये दोनों बातें यहूदी रिवायत से माख़ूज़ हैं। पहली बात हज्जी (Hagigah) बाब 9 फ़स्ल नंबर 2 में और दूसरी बात ज़ोहर (Zohar) बाब 2 सफ़ा 150 पर दर्ज है।

ये अम्र भी क़ाबिल-ए-तवज्जा है कि हिंदूओं के नज़्दीक भी सतह ज़मीन के नीचे हफ़्त (सात) तबक़ात सिफ्ली और ज़मीन के ऊपर हफ़्त (सात) तबक़ात अलवी हैं और ये सब तबक़ात एक अज़ीम-उल-जसामत साँप के सर पर क़ायम हैं जिसका नाम “शेषनाग” है। इस साँप के एक हज़ार सर हैं। इन हफ़्त समावात (सात आसमानों) से ग़ालिबन सुबह सय्यारा के अफ़्लाक या सालाना गर्दिश के रास्ते मुराद थे। मुहम्मदﷺ के ज़माने में इन अज्राम समावी की निस्बत यक़ीन किया जाता था कि वो ज़मीन के गर्द गर्दिश करते हैं। मुसलमानों की रिवायत में दर्ज है कि :-

हफ़्त तबक़ात-उल-अरज़ (सात ज़मीने) कजुताह (Kajutah) नामी बेल के सींगों के दर्मियान क़ायम हैं। इस बेल के चार हज़ार सींग हैं और हर सींग दूसरे से पाँच सौ बरस की राह की मुसाफ़त पर वाक़ेअ है। उस के इतने ही कान, नाक, आँखें, मुँह और ज़बानें हैं जितने कि सींग हैं। उस के पांव एक मछली पर क़ायम हैं जो पानी में तैरती है। इस पानी की गहराई चालीस बरस की राह है। (मुलाहिज़ा हो अराईस-उल-मजालिस सफ़हात 5-9)

एक दूसरी रिवायत में ये लिखा है कि ज़मीन एक फ़रिश्ते के सर पर क़ायम है और इस फ़रिश्ते के पांव एक बहुत बड़े लअल (لعل) पर क़ायम हैं और ये लअल (لعل) बैल पर है। ज़मीन और बैल के ताल्लुक़ का ख़्याल ग़ालिबन आर्या रिवायत से माख़ूज़ है। ये रिवायत कि ज़मीन हफ़्त (सात) तबक़ात सिफ्ली पर मुश्तमिल है ग़ालिबन इस ख़्याल से है कि ज़मीन को भी आस्मान ही के मुताबिक़ कर दिया जाये। ग़ालिबन ये ख़्याल एक फ़ारसी ज़बान के ग़लत मअनी समझने की बिना पर पैदा हुआ है जो ओसत्ता (اَوَست) में एक जगह लिखा है कि सात Karshvares पर मुश्तमिल है जिन्हें फ़ीज़मानिना “हफ़्त अक़ालीम” (अक़लीम की जमा- मलिक)” कहा जाता है। इसी तरह पार्सियों की किताब Yasht (यष्ट) बाब 19 फ़स्ल 31 में लिखा है कि “जमशेद ने ज़मीन की हफ़्त (सात) अक़ालीम पर सल्तनत की और ये ईरानी अक़ालीम, हिंदू जुग़राफ़िया के द्विपास (Dvipas) के बिल्कुल मुताबिक़ है।

अर्श

सूरह हूद में अल्लाह तआला के अर्श की निस्बत बयान किया गया है कि ज़मीन व आस्मान के पैदा किए जाने से पेशतर “उस का तख़्त या अर्श पानी पर यानी हवा में था।” इसी तरह बाइबल मुक़द्दस की किताब पैदाइश 1:2 की तफ़्सीर करता हुआ यहूदी मुफ़स्सिर “रषि” (Rashi) एक मशहूर व मारूफ़ रिवायत की बिना पर लिखता है कि “ख़ुदा का तख़्त जलाल हवा में क़ायम और पानी पर झुका हुआ था।”

दारोगा जहन्नम

मुसलमान मुसन्निफ़ीन बयान करते हैं कि फ़रिश्ता मालिक जिसका नाम सूरह ज़ख़रफ़ आयत 77 में आया है, मिनजुम्ला इन अनीस फ़रिश्तों (सूरह मुदस्सिर आयत 29) के है जो दोज़ख़ के मुहतमिम हैं। इसी तरह यहूदी रिवायत में भी “शहज़ादा जहन्नम” का नाम आता है। लेकिन मालूम होता है कि मुसलमानों ने “मालिक” का नाम “मौलिक” (Molech or Molek) से लिया है जो एक देवता का नाम है जिसकी निस्बत बाइबल में बयान किया गया है कि पहले ज़माने में उस की परस्तिश अहले कनआन किया करते थे और ये लोग इस बुत के एज़ाज़ में ज़िंदा आदमीयों को जला देते थे। ये लफ़्ज़ अरबी और इब्रानी दोनों में एक ही मअनी रखता है यानी “मालिक” या “फ़रमानरवा”

आराफ़

सूरह आराफ़ में लिखा है कि जन्नत और दोज़ख़ के दर्मियान एक तबक़ा है जिसका नाम “आराफ़” है और इस सूरत का नाम भी इसी लफ़्ज़ की वजह से रखा गया है कि इस में तबक़े “आराफ़” का ज़िक्र है। आयत यूं है ’’وَبَيْنَهُمَا حِجَابٌ وَعَلَى الْأَعْرَافِ رِجَالٌ ‘‘۔ “यानी इन दोनों के दर्मियान एक पर्दा है और आराफ़ पर आदमी हैं।” ये ख़्याल ग़ालिबन बाइबल की किताब वाइज़ 7:14 से आया है (तफ़्सीर) से लिया गया है जहां इस सवाल का कि “जन्नत व दोज़ख़ के दर्मियान क्या है?” रब्बी युहन्ना ने ये जवाब दिया कि “एक दीवार है।” रब्बी अखाह (Akhah) ने कहा कि “एक वक़्फ़ा है” और रब्बान (Rabban) कहते हैं कि वो दोनों एक दूसरे से इस क़द्र क़रीब हैं कि रोशनी की शआएं इधर से उधर गुज़र जाती हैं।”

ग़ालिबन ये ख़्याल ओस्ता से लिया गया है जहां फ़र्जन्द (Fargand) बाब 19 में जन्नत व दोज़ख़ के दरमयानी तबक़े का नाम “मस्वानु गातोश” (Miswanu gatus) लिखा है। ये वो मुक़ाम है “जहां उन लोगों की रूहें रहती हैं जिनकी नेकियां और बदीयाँ बराबर हैं।”

पहलवी ज़बान में इस मुक़ाम को “मिस्वात गॉस” (Miswat gas) कहते थे। पैरौवान ज़रदुश्त का क़ौल है कि दोज़ख़ और जन्नत के दर्मियान वही मुक़ाम है जो नूर व ज़ुल्मत के दर्मियान है। ये ख़्याल कि जिन लोगों के आमाल नेक व बद होते हैं उनके लिए एक ख़ास मुक़ाम मुक़र्रर है, दीगर मज़ाहिब में भी राइज हो गया है।

शैतान

सूरह अल-हिजर की आयत 17-18, में शैतान की निस्बत लिखा है कि :-

’’وَحَفِظْنَاهَا مِن كُلِّ شَيْطَانٍ رَّجِيمٍ إِلَّا مَنِ اسْتَرَقَ السَّمْعَ فَأَتْبَعَهُ شِهَابٌ مُّبِينٌ ‘‘۔

जिससे मालूम होता है कि शैतान और दीगर मलाइका मर्दूद चोरी से उन अहकाम को सुनने की कोशिश करते हैं जो अल्लाह तआला आस्मान पर फ़रिश्तों को देता है। इसी ख़्याल की तकरार सूरह अल-साफ्फ़ात और सूरह अल-मुल्क में भी की गई है। हक़ीक़त ये है कि मुसलमानों में ये ख़्याल यहूदीयों से आया, क्योंकि “हक़ीक़त” बाब 6 फ़स्ल 1 में लिखा है कि शयातीन आइन्दा वाक़ियात का इल्म हासिल करने की ग़रज़ से “पर्दे के पीछे से सुनते हैं।” क़ुरआन ये भी कहता है कि इन शयातीन को भगाने के लिए उन पर शहाब साक़िब मारे जाते हैं।

दोज़ख की आग

सूरह क़ाफ़ आयत 30 में जहां क़ियामत का ज़िक्र हुआ है, ख़ुदा को ये कहते हुए बताया गया है कि “वो दिन जब हम दोज़ख़ से कहेंगे कि क्या तू भर गई है? तो वो कहेगी कि “क्या अभी कुछ बाक़ी है।” ये वही बात है जो रब्बी अक़िबा (Rabbi Aqiba) की किताब ओसियोत (Othioth) बाब 8 फ़स्ल 1 में लिखी हुई है यानी “दोज़ख़ का हाकिम कहेगा कि मुझे पेट भर कर ख़ुराक दो।”

नार अल-तनुर

सूरह हूद और सूरह अल-मोमीनून में बताया गया है कि “हज़रत नूह के ज़माने में आग की भट्टी उबल पड़ी।” ये बात यक़ीनन यहूदीयों की किताब रिवायत “रोश हवशानाह” (Rosh Havhshanah) बाब 16 फ़स्ल 2 और साहनेदरीन बाब 108 से ली गई है जिनमें लिखा है कि तूफ़ान-ए-नूह के ज़माने की क़ौम को “खोलते हुए पानी के ज़रीये से सज़ा दी गई थी।” क़ुरआन का वो तमाम हिस्सा जहां कुफ़्फ़ार ने नूह से मज़ाक़ किया है, यहूदीयों की किताब “साहनेदरीन” और दीगर तफ़ासीर से लिया गया है। तफ़्सीर जलालेन में इस वाक़िये की तशरीह करते हुए लिखा है कि “एक नानबाई का तनूर उबल पड़ा और ये नूह के लिए एक अलामत थी कि तूफ़ान आने वाला है।

क़ुरआन मजीद में दूसरी ज़बानों के अल्फ़ाज़

अगर इस अम्र का मज़ीद सबूत दरकार हो कि इस्लाम पर यहूदी रिवायत का असर पड़ा है, तो वो इस वाक़िये से बहम (सबूत) पहुंच सकता है कि अगरचे मुसलमानों को क़ुरआन के तर्ज़-ए-अदा और उस की ज़बान की पाकीज़गी का बहुत बड़ा दावा है और वो इस बात को क़ुरआन शरीफ़ का एक मोअजिज़ा और इस के इल्हामी होने की दलील समझते हैं, मगर बईं-हमा क़ुरआन में बाअज़ अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जो ख़ालिस अरबी नहीं हैं बल्कि आरामी और इब्रानी ज़बानों से लिए गए हैं। उनमें से कुछ अल्फ़ाज़ ये हैं :-

ताग़ूत (طاغوت), सकीना (سکینہ), हब्र (حبر), जहन्नम (جہنم), जन्नत-ए-अदन (جنت عدن), ताबूत (تابوت), तौरात (توراۃ), मलकूत (ملکوت), माओन (ماعون), फुर्क़ान (فرقان)।

इनमें से बाअज़ अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जिनका माद्दा तीनों ज़बानों यानी अरामी, इब्रानी व अरबी में एक है, मगर वो अरबी सिर्फ़ व नहव के मुताबिक़ मुश्तक़ नहीं हुए। मगर इब्रानी और अरामी ज़बानों में वो बकस्रत पाए जाते हैं और इसलिए दरअस्ल वो उन्हीं ज़बानों के हैं।

लफ़्ज़ “फ़िर्दोस” (Firdaus) आख़िरी ज़माने की इब्रानी ज़बान से लिया गया है। मगर दरअस्ल इस ज़बान में भी ये क़दीम फ़ारसी ज़बान से आया था और फ़िल-हक़ीक़त ये लफ़्ज़ क़दीम फ़ारसी और संस्कृत ज़बानों का लफ़्ज़ है। लफ़्ज़ “फ़िर्दोस” अरबी ज़बान के लिए भी इतना ही ग़ैर है, जितना कि यूनानी ज़बान के लिए लफ़्ज़ “” (फ़िर्दोस)। चूँकि मुसलमानों मुफ़स्सिरीन अरामी, इब्रानी, क़दीम फ़ारसी व संस्करत ज़बानें नहीं जानते थे इसलिए वो इन अल्फ़ाज़ के सही मअनी ना बता सके। जब हमको इन अल्फ़ाज़ के मअनी इस तरह मालूम हो गए तो हम देखते हैं कि सियाक़-ओ-सबाक़ में इन अल्फ़ाज़ का मतलब सही बैठता है, मसलन ये एक आम ग़लती है कि लफ़्ज़ “मलकूत” (ملکوت) से मतलब मुक़ाम मलाइका या उनकी हालत समझी जाती है। मगर ये नहीं ख़्याल किया जाता कि इस लफ़्ज़ का माद्दा “मलक” (फ़रिश्ता) नहीं है बल्कि ये लफ़्ज़ वही है जो इब्रानी में इस तरह लिखा जाता है “מלחות” (मलकूत बमाअनी सल्तनत)

तरीक़ इबादत

ये फ़र्ज़ करना तो ग़लती है कि मुसलमानों ने सर ढक कर नमाज़ पढ़ना, जमाअत के वक़्त औरतों को मर्दों से अलेहदा (अलग) कर देना या नमाज़ के वक़्त जूता उतार देना यहूदीयों से सीखा है, क्योंकि ग़ालिबन अरबों और तमाम समातीकी अक़्वाम में ये रिवाज ज़माना-ए-क़दीम से मौजूद था। लेकिन वुज़ू वग़ैर में मुसलमानों ने ग़ालिबन यहूदीयों की तक़्लीद की है। गो पूरी सेहत के साथ हम ये भी नहीं कह सकते। ये हमको मालूम है कि कुछ अरसे तक मुसलमानों ने यहूदीयों की तक़्लीद में यरूशलेम की तरफ़ रुख कर के नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा इख़्तियार किया था और बाद में मक्का की तरफ़ क़िब्ला मुक़र्रर कर दिया गया। हम ये भी देख चुके रमज़ान के रोज़े रखना मुसलमानों ने यहूदीयों से नहीं बल्कि साबईन से सीखा था। रोज़े के बाब में एक क़ायदा अलबत्ता यक़ीनन यहूदी ज़रीये से लिया गया है। सूरह बक़रह में ब-वक़्त शब खाने का जहां हुक्म दिया गया है वहां ये लिखा है कि :-

الْخَيْطُ الْأَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الْأَسْوَدِ مِنَ الْفَجْرِ ثُمَّ أَتِمُّوا الصِّيَامَ إِلَى اللَّيْلِ

इन स्याह व सफ़ैद डोरों के रंग में इम्तियाज़ करने का सवाल इसलिए पैदा हुआ कि मुसलमानों को तुलू-ए-आफ़्ताब से रात शुरू होने तक रोज़ा रखने का हुक्म दिया गया था और इस सिलसिले में ये जानना ज़रूरी था कि दिन किस वक़्त शुरू होता है। इसी लिए ये आयत नाज़िल हुई, लेकिन ये तरकीब “मिशनाह बैरा ख़ौस” (Mishnath Berakhoth) बाब 1, फ़स्ल 2 से ली गई है जहां लिखा है कि “दिन उस वक़्त शुरू होता है जब नीले और सफ़ैद डोरों के रंग में इम्तियाज़ हो सके।” हर मुल्क में जहां मुसलमान आबाद हैं उनको हिदायत है कि जिस जगह नमाज़ पंजगाना (पांच वक़्त) का वक़्त आए वो उसी जगह ख़्वाह घर में हों या मस्जिद में या बाज़ार में फ़ौरन नमाज़ पढ़ लें। चुनान्चे बहुत से मुसलमान ऐसा करते हैं। अगर हम इस तरीक़ा का माख़ज़ मालूम करना चाहें तो हमें यहूदीयों की तरफ़ रुजू करना पड़ेगा।

वो यहूदी जो मुहम्मदﷺ के ज़माने में अरब में रहते थे, उन फ़रीसयों (Pharisees) की रुहानी और किसी हद तक सुल्बी (सगा) औलाद थे जिनकी निस्बत इंजील में लिखा है कि वो अपनी ज़रूरत से ज़्यादा रिवायत परस्तीयों से ख़ुदा के कलाम को बातिल करते हैं। बयान किया जाता है कि मसीह के ज़माने में उनको इस अम्र पर बुरा-भला कहा जाता था कि वो “माबदों और सड़कों के गोशों में नमाज़ पढ़ने के लिए खड़े हो जाते हैं।” ता कि उनको अवाम से अपनी परहेज़गारी की पूरी दाद मिले। क़दीम ज़माने के फ़रीसयों और ज़माना-ए-हाल के मुसलमानों में इस क़द्र मुशाबहत है कि मुसलमानों में जो लोग मसीहीय्यत के मुख़ालिफ़ हैं वो ये कहते हैं कि यही बात इस अम्र का बय्यन सबूत है कि इंजीलों में तहरीफ़ हो गई है और कहते हैं कि मुंदरिजा-बाला आयात अनाजील में मुसलमानों की नमाज़ गुज़ारी का इस क़द्र ठीक बयान है कि किसी ईसाई जिसने मुसलमानों को नमाज़ पढ़ते देखा होगा और जो मुसलमानों की ख़िदमत करना चाहता होगा, ये आयतें लिख कर इंजील में दाख़िल कर दी अगर मुहम्मदﷺ और उनके पैरौओं ने इस मुआमले में यहूदीयों की तक़्लीद की तो उनके लिए ये एक क़ुदरती अम्र था। वो जानते थे कि यहूदी हज़रत इब्राहिम की नस्ल से हैं और “अहले-किताब” हैं। पस जब मुसलमान ज़ाहिरी और फ़ुरूई बातों को इस क़द्र एहमीय्यत देते थे तो कोई ताज्जुब-अंगेज़ बात नहीं जो उन्होंने यहूदी तरीक़ा-ए-इबादत को बिल्कुल सही समझ लिया हो। मगर कहा ये जाता है कि नमाज़ पढ़ना जिब्रईल ने सिखाया और आज तक तमाम मुसलमान रुकूअ व सुजूद में इसी की तक़्लीद करते हैं।

तअद्दुद अज़्वाज (एक से ज्यादा, बहुत सी बीबियाँ)

सूरह निसा में बीवीयों की तादाद महदूद कर दी गई है, यानी एक वक़्त में एक मुसलमान सिर्फ चार बीवीयां रख सकता है। मुफ़स्सिरीन बयान करते हैं कि पहले बहुत से मुसलमानों के पास इस से ज़्यादा बीवीयां थीं। इस क़ायदे का इतलाक़ मुहम्मदﷺ पर नहीं होता क्योंकि सूरह अह्ज़ाब में लिखा कि मुहम्मदﷺ को इजाज़त दी गई थी कि वो जितनी बीवीयां चाहें रखें। जिस आयत में बीवीयों की हद मुक़र्रर की गई है वो हस्ब-ज़ैल है :-

وَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تُقْسِطُوا فِي الْيَتَامَىٰ فَانكِحُوا مَا طَابَ لَكُم مِّنَ النِّسَاءِ مَثْنَىٰ وَثُلَاثَ وَرُبَاعَ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تَعْدِلُوا فَوَاحِدَةً أَوْ مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ ذَٰلِكَ أَدْنَىٰ أَلَّا تَعُولُوا

इस आयत की तफ़्सीर मुफ़स्सिरीन हमेशा ये करते चले आए हैं कि मुसलमानों के लिए एक वक़्त में चार बीवीयों से ज़्यादा रखना मना है। अगरचे उनको इस अम्र में पूरी आज़ादी हासिल है कि वो इन बीवीयों में से किसी को या सबको तलाक़ देकर दूसरी औरतों से निकाह कर के तादाद पूरी कर लें। जब हम इस की तहक़ीक़ करते हैं तो हमें यही ताअलीम यहूदीयों के यहां भी मिलती है। उन को हिदायत है कि एक मर्द बहुत सी बीवीयां कर सकता है, क्योंकि रब कहता है कि ऐसा करना जायज़ है अगर तुम उनका ख़र्च बर्दाश्त कर सको। बईं-हमा अक़्ल मंदों ने इस बारे में ये नेक मश्वरा दिया है कि एक मर्द को चार बीवीयों से ज़्यादा शादी ना करना चाहीए।

रसूल अल्लाह का उम्मी होना

इस एतराज़ के जवाब में कि क़ुरआन ख़ुदा का कलाम नहीं बल्कि मुहम्मदﷺ का कलाम है एक जवाब ये भी दिया जाता है कि मुहम्मदﷺ लिखना पढ़ना नहीं जानते थे और उन के लिए मुम्किन ना था कि वो इब्रानी या अरामी या दीगर कुतुब का मुतालआ करते जिनसे हमने क़ुरआन की बहुत सी बातें बराह-ए-रास्त या बिलवास्ता माख़ूज़ ज़ाहिर की हैं। वो (मुसलमान) कहते हैं कि “एक नाख़्वान्दा (अनपढ़) शख़्स के लिए ये क्योंकर मुम्किन हो सकता है कि वो इस क़द्र ज़बानों का लिटरेचर मुतालआ करे जिनसे फ़ी-ज़मानिना भी बहुत कम लोग वाक़िफ़ हैं।”

मुसलमानों का ये जवाब दो बातों पर मबनी है। अव्वल ये कि मुहम्मदﷺ ना लिख सकते थे, ना पढ़ सकते थे। दोम ये कि वो सिर्फ़ पढ़ने ही से उन रिवायत का इल्म हासिल कर सकते थे, जो इस ज़माने में यहूदीयों, नस्रानीयों और ज़र्दतश्तीयों वग़ैरह में राइज थीं। मगर इन दोनों का कोई सबूत मौजूद नहीं है। पहली दलील की ताईद में मुसलमानों की तरफ़ से सूरह अल-आराफ़ की वो आयत पेश की जाती है जिसमेंﷺ को “नबी अल-उम्मी” (نبی الاُمّ) कहा गया है। मुसलमान लफ़्ज़ “उम्मी” (اُمّی) के मअनी “नाख़्वान्दा (अनपढ़)” बताते हैं। मगर रब्बी इब्राहिम गेगर (Rabbi Abraham Geiger) ने साफ़ ज़ाहिर कर दिया है कि जिस लफ़्ज़ के मअनी इस आयत में “नाख़्वान्दा” (अनपढ़) बताए जाते हैं वो दरहक़ीक़त “ग़ैर यहूदी” (gentile) के मअनी रखता है। रब्बी मज़्कूर के इस क़ौल की तस्दीक़ सूरह आले-इमरान की इस आयत से भी होती है जिसमें नबी को हुक्म दिया गया है कि वो “उमीय्यीन और अहले-किताब से बात करें।” وَقُل لِّلَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ وَالْأُمِّيِّينَ أَأَسْلَمْتُمْ इस आयत में साफ़ ज़ाहिर है कि अरबों को आम तौर से “وَالْأُمِّيِّينَ” (वल-उम्मीयीन) यानी ग़ैर यहूदी “gentile” कहा गया है। इलावा अज़ीं सूरह अन्कबूत आयत 27 और सूरह हामीम आयत 16 में ये बयान किया गया है कि मन्सब नबुव्वत इस्हाक़ व याक़ूब की औलाद को अता किया गया। इस्माईल की औलाद का ज़िक्र नहीं है, इसलिए मुहम्मदﷺ ने ख़ुद को दीगर अम्बिया से अलग करने के लिए उम्मी (ُمّی) यानी “ग़ैर यहूदी” (gentile) बयान किया है, क्योंकि दीगर अम्बिया इस्हाक़ की औलाद में मबऊस हुए थे।

मुहम्मदﷺ का मुतलक़ बे लिखा पढ़ा होना जैसा कि मुसलमान आम तौर पर समझते हैं, वाक़ियात से साबित नहीं होता, बल्कि बाअज़ अहादीस से इस की तक़्ज़ीब होती है। चुनान्चे बुख़ारी और मुस्लिम की बाअज़ अहादीस से मालूम होता है कि जब सुलह नामा हुदैबिया का मुसव्वदा आपके सामने लाया गया तो आपने उसे देखकर हज़रत अली से क़लम मांगा और “मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह” (محمدرسول اللہ) क़लमज़द (मिटा दिया) कर के “मुहम्मदﷺ इब्ने अब्दुल्लाह” लिख दिया। दूसरी रिवायत आपके रहलत के वक़्त की है कि आपने कुछ हिदायात लिखने के लिए क़लम व काग़ज़ तलब किया, लेकिन आप ऐसा ना कर सके। इस के रावी इब्ने अब्बास हैं और बुख़ारी व मुस्लिम दोनों किताबों में ये रिवायत पाई जाती है।

लेकिन अगर हम ये भी मान लें कि मुहम्मदﷺ नविश्त व ख़वांद (लिखना पढ़ने) से वाक़िफ़ नहीं थे तो भी इस का इम्कान बाक़ी रहता है कि उन्होंने बहुत सी बातें यहूदी और दीगर ज़राए से हासिल की होंगी और क़ुरआन की आयात और यहूदी तहरीरों का जो हम ने मुक़ाबला किया है उनसे ये बात पूरी तरह साबित होती है। लेकिन इसी के साथ एक बात और भी है, वो कि मुहम्मदﷺ को ये मालूमात ज़बानी हासिल हुई थीं और ग़ालिबन ऐसे लोगों से हासिल हुई थीं जिन को किताबी इल्म बहुत कम हासिल था। यक़ीनन मुहम्मदﷺ के लिए ये बात मुतअद्दिद वजूह की बिना पर नामुम्किन थी कि वो अरामी, इब्रानी, फ़ारसी या यूनानी कुतुब का मुतालआ करते, लेकिन ये बात किसी सूरत से भी नामुम्किन ना थी कि वो अपने यहूदी, ईरानी और नसरानी सहाबा और शागिर्दों से उनकी रिवायत सुन लेते।

मुहम्मदﷺ के मुख़ालिफ़ीन ने उनकी ज़िंदगी ही में ये इल्ज़ाम लगाया था कि वो क़ुरआन के बनाने में लोगों से मदद लेते हैं और ये बात ख़ुद क़ुरआन, अहादीस और तफ़ासीर से भी मालूम होती है। ऐसे लोगों में एक वो यहूदी था जिसका ज़िक्र सूरह अह्क़ाफ़ में क़ुरआन व कुतुब यहूद की मुवाफ़िक़त के बारे में बतौर “गवाह” किया गया है।

तफ़्सीर अब्बासी और जलालेन में इस आयत के मुताल्लिक़ ये लिखा है कि ये यहूदी शख़्स अब्दुल्लाह इब्ने सलाम था जो दर-हक़ीक़त पहले एक यहूदी रब्बी था मगर बाद में इस्लाम ले आया था। (रोज़तुल-अहबाब) सूरह फुर्क़ान में लिखा कि मुहम्मदﷺ के मुख़ालिफ़ीन ने कहा “واعانہ علیہ قومٌ آخرون”, यानी उस की दूसरों ने मदद की। और ये भी कि मुहम्मदﷺ ने सिर्फ “असातीर उला अव्वलीन” اساطیر الاولین (क़दीम लोगों के क़िस्से) लिखे हैं जो उसे उस के रफ़क़ा (दोस्त साथी) सुबह व शाम लिखवाते हैं। तफ़्सीर अब्बासी में लिखा है कि जिन लोगों की तरफ़ इशारा किया गया है, वो जबर एक नसरानी ग़ुलाम यसार (जिसका नाम अबू फ़क़ीह भी था) और अबू तक़बीह एक यूनानी थे। सूरह अल-नहल में जब ये इल्ज़ाम लगाया गया कि “इन्नम्मा यअल्लमा बशर” انمّا یعلّمہ بشر तो इस का जवाब ये दिया गया कि जिनकी निस्बत ये लोग इशारा करते हैं, उनकी ज़बान अरबी नहीं है और क़ुरआन ख़ालिस अरबी ज़बान में है। लेकिन असली इल्ज़ाम का कोई जवाब नहीं दिया गया जो ये था कि क़ुरआन की ज़बान नहीं बल्कि क़ुरआन में जो क़िसस दर्ज हैं वो मुहम्मदﷺ को बताए गए हैं। तफ़्सीर अब्बासी में लिखा कि जिस “बशर” की तरफ़ इशारा किया गया है, वो एक नसरानी मुसम्मा क़ैस था।

तफ़्सीर जलालेन में जबर और यसार लिखा है। बाअज़ कहते हैं सलमान फ़ारसी मशहूर सहाबी की तरफ़ इशारा है। बाअज़ सुहैब बताते हैं और बाअज़ उस का नाम रिदास लेते हैं।

इसी सिलसिला में ये वाक़िया भी क़ाबिल-ए-ज़िक्र है कि ख़दीजा-तुल-कुबरा के अम ज़ाद भाई उस्मान और ख़ुसूसुन वर्क़ा उस ज़माना की नस्रानीयत और यहूदीयत से वाक़िफ़ थे और उन लोगों का मुहम्मदﷺ की नबुव्वत के इब्तिदाई ज़माने में और ग़ालिबन इस से क़ब्ल कुछ कम असर ना था। ज़ैद, मुहम्मदﷺ के मुतबन्ना (गोद लिए हुए) बेटे के बक़ौल इब्ने हिशाम एक शामी थे जो यक़ीनन पहले ईसाई रहे होंगे। हम आगे चल कर ये भी दिखाएँगे किﷺ के सहाबियों में और भी ऐसे लोग थे जो उनको यहूदी, ईसाई और पार्सी मज़्हब के मुताल्लिक़ बाआसानी मालूमात बहम पहुंचा सकते थे, मगर उनकी सूरत इस क़द्र तब्दील कर दी गई है कि जिन से मुहम्मदﷺ ने अपनी मालूमात बहम पहुंचाई थीं, उनको उनका शनाख़्त करना मुश्किल हो गया होगा और अगर उन्होंने शनाख़्त भी कर लिया होगा तो ये समझा होगा कि ख़ुदा ने उनके मज़्हब की तस्दीक़ में नाज़िल की हैं।

चौथा बाब

इस्लाम पर नस्रानीयत और ईसाईयों की मशकूक कुतुब का असर

जब मुहम्मदﷺ ने नबुव्वत का दावा किया, उस वक़्त तक नस्रानीयत का अरबों पर इतना ज़्यादा असर नहीं था। सर विलियम म्यूर साहब ने अपनी किताब “लाइफ़ आफ़ मुहम्मद” में लिखा है कि अगरचे नस्रानीयत की तब्लीग़ व इशाअत को पाँच सौ बरस गुज़र चुके थे, बईं-हमा बहुत कम ईसाई अरब में पाए जाते थे, मसलन नजरान में बनू हारिस, यमामा में बनू हनीफा, तीमा में बनोते और बस।” बयान किया जाता है कि जब मुहम्मदﷺ बहुत छोटे थे तो वो शाम गए जहां उन्होंने नजरान उस्क़ुफ़ किस्स (Quss) का वाइज़ सुना, बहुत से राहिबों से मुलाक़ात की और जो लोग मसीही मज़्हब रखते थे उनको देखा।

मुहम्मदﷺ का ये सफ़र क़ब्ल अज़ एलान-ए-नबूवत बग़रज़ तिजारत हुआ था। इसलिए जो कुछ उन्हों ने वहां देखा या सुना उस का असर उन पर बहुत कम हुआ और ऐसा होना चाहीए था क्योंकि उस वक़्त ईसाईयों की अख़्लाक़ी हालत बहुत गिरी हुई थी।

इस्हाक़ टेलर ने लिखा है कि “ईस्वीयत एक ज़लील क़िस्म की तोहम परस्ती और पलीद क़िस्म की बुत-परस्ती के सिवा कुछ ना थी। उस की ताअलीमात इस क़द्र पुर अज़ किबर-ओ-तुग़्यान और वहां की रस्में इस क़द्र पुर अज़ फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूर थीं कि उन्हें देखकर मुस्तक़िल मिज़ाज और ग़यूर अरबों के दिलों में यक़ीनन ये जोश-ओ-ख़्याल पैदा हुआ होगा कि उनको ख़ुदा ने दुनिया में इसी कुफ़्र परस्त मसीहीय्यत को मिटाने के लिए भेजा है। जिस यूनानी राहिब ने किताब “तारीख़ शहादत अथनासीस” (Athanasius) ईरानी” लिखी है, उसने इस ज़माने में जबकि बुज़ माना मुहम्मदﷺ ईरानियों का क़ब्ज़ा क़लील मुद्दत के लिए फ़लस्तीन पर हो गया था, इन आलाम-ओ-मसाइब का हाल बयान किया है जो ईरानियों के हाथों अहले फ़लस्तीन पर होता था। उसने उस वक़्त के ईसाईयों के फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूर और बदकारियों का हाल भी लिखा है और ये भी लिखा है कि इऩ्ही स्याह क़ारीयों के बाइस ख़ुदा ने अहले फ़लस्तीन को अर्नियों के हवाला कर दिया था कि वो उन पर ज़ुल्म करें और सज़ा दें। जो बातें राहिब मज़्कूर ने बयान की हैं वही बातें मुकाशफ़ात युहन्ना 9:21-22 में लिखी हैं।

इसी ज़माना का हाल बयान करते हुए मोशीम (Mosheim) ने लिखा है कि “इस सदी” में अस्ल मज़्हब, तो हम परस्तीयों के अंबार के नीचे दबा पड़ा था और अपना सर नहीं उठा सकता था। क़दीम ज़माने के ईसाई सिर्फ़ ख़ुदा और उस के बेटे की इबादत किया करते थे। लेकिन जो लोग इस सदी में ख़ुद को ईसाई कहते थे वो एक सलीब की लकड़ी, औलिया, अल्लाह के बुतों और मशकूक हड्डीयों की परस्तिश किया करते थे। क़दीम ईसाई लोगों के सामने जन्नत व दोज़ख़ के मुनाज़िर पेश किया करते थे, मगर बाद के ईसाई सिर्फ एक आग का बयान करते हैं जो लोगों की रूह की ख़ामियाँ रफ़ा करने के लिए तैयार की गई है। पहले ज़माने के ईसाई ये सिखाते थे कि मसीह ने अपनी मौत और अपने ख़ून से लोगों के गुनाहों का कफ़्फ़ारा दिया है, मगर आख़िर ज़माने के ईसाई ये कहते थे कि जो शख़्स अतयात या चंदे देकर पादरीयों या कलीसिया को माला-माल करेगा उस के ख़िलाफ़ बहिश्त के दरवाज़े बंदकर दिए जाऐंगे। पहले ज़माने के ईसाई तबन व पाकीज़ा ज़िंदगी बसर करने की कोशिश करते थे, मगर आख़िर ज़माने के ईसाईयों ने फ़ुरूई रस्मों और जिस्मानी रियाज़तों को ही अस्ल मज़्हब समझ लिया था।”

अगरचे नस्रानीयत के मुताल्लिक़ मुहम्मदﷺ का तजुर्बा महदूद था मगर क़ुरआन मजीद में मसीहीय्यत की जो तस्वीर पेश की गई है उस से ज़ाहिर होता है कि इस मज़्हब के मुताल्लिक़ मुहम्मदﷺ के ख़यालात क्या थे। नस्रानीयत के मुताल्लिक़ जो कुछ भी मुहम्मदﷺ ने बयान क्या उस से मालूम होता है कि उनके ख़यालात पर “Orthodox” (ऑर्थडॉक्स) ईस्वीयत के मोतक़िदात का बहुत ज़्यादा असर पड़ा था। ये जमाअत मर्यम को “ख़ुदा की माँ” कहती थी और इसने अल्लाह तआला की बजाय एक यहूदी दोशीज़ा की परस्तिश का रास्ता खोल दिया था। इस ग़लतफ़हमी का नतीजा इब्ने इस्हाक़ ने बहुत वाज़ेह तौर पर ज़ाहिर किया है। इस सिफ़ारत का हाल बयान करते हुए जो 632 ई॰ में नजरान के नसारा की तरफ़ से मुहम्मदﷺ के पास बमुक़ाम मदीना आई थी और बक़ौल रावी मज़्कूर “मज़्हब शहनशाह” की थी। वो लिखता है कि “तमाम ईसाईयों की तरह ये लोग भी कहते हैं कि “यसूअ ख़ुदा है, ख़ुदा का बेटा है और अक़ानीम सलासा में से तीसरा है।”.....इन लोगों ने ये भी साबित किया कि वो अक़ानीम सलासा यानी ख़ुदा, मसीह और मर्यम में से तीसरा उक़नूम है।” यानी जो अल्फ़ाज़ उन लोगों ने कहे वो तो रावी ने सही तौर पर नहीं लिखे, लेकिन इस से कम-अज़-कम ये ज़रूर मालूम हो सकता है कि मुहम्मदﷺ ने उन नसारा के अक़ीदे के मुताल्लिक़ क्या समझा था और जो कुछ मुहम्मदﷺ ने समझा था वो क़ुरआन की मुंदरज आयात से साफ़ तौर पर ज़ाहिर होता है :-

لَّقَدْ كَفَرَ الَّذِينَ قَالُوا إِنَّ اللَّهَ ثَالِثُ ثَلَاثَةٍ

(सूरह माइदा आयत 73) तर्जुमा : यानी तहक़ीक़ उन लोगों ने कुफ़्र किया जो कहते हैं कि “अल्लाह तीन में से एक है” और :-

وَإِذْ قَالَ اللَّهُ يَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ أَأَنتَ قُلْتَ لِلنَّاسِ اتَّخِذُونِي وَأُمِّيَ إِلَٰهَيْنِ مِن دُونِ اللَّهِ

(माइदा आयत 116) तर्जुमा : यानी जब अल्लाह कहेगा कि “या ईसा इब्ने-मरियम क्या तूने इन लोगों से कहा था कि तुम मुझे और मेरी माँ को अल्लाह के इलावा दो ख़ुदा समझो?।”

इन आयतों के देखने से मालूम होता कि मुहम्मदﷺ ने इस नस्रानीयत को मुस्तर्द कर दिया था जो उनके सामने पेश की गई थी, लेकिन अगर मुहम्मदﷺ ने नस्रानीयत की पाक रस्मों और ख़ालिस ताअलीमात को देखा होता और इस मज़्हब की मस्ख़शुदा सूरत उनके सामने ना होती तो यक़ीनन अपने इब्तिदाई ज़माने में जबकि वो सच्चे दिल से जूयाए हक़ थे, यसूअ के दीन को क़ुबूल कर लेते।

ये ख़्याल किस क़द्र अफ़्सोस नाक है कि शाम के वाइज़ीन और राहिबों ने नस्रानीयत की किस क़द्र ख़राब और मस्ख़शुदा शक्ल पेश की और इंजील की सादा जलालत की बजाय मुग़ालता अंगेज़ और तक्लीफ़-देह शिर्क के साथ तस्लीस का मुक़द्दस मसअला पेश किया गया और कुँवारी मर्यम की परस्तिश को इस क़द्र गंदा और मकरूह सूरत में दिखाया गया कि मुहम्मदﷺ के दिल में ये ख़्याल पैदा हो गया कि मर्यम एक देवी ख़्याल की जाती है। यक़ीनन ऐसी ही कुफ़्र आमेज़ फुज़ूलीयात की से मुहम्मदﷺ का दिल इस सच्चे अक़ीदे से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाला) हुआ और इसी वजह से वो यसूअ को सिर्फ “ईसा इब्ने-मरियम समझने लगे क्योंकि तमाम क़ुरआन में यसूअ के लिए यही ख़िताब इस्तिमाल हुआ है।” (सर विलियम म्यूर आफ़ मुहम्मद) इस में शक नहीं कि मुहम्मदﷺ को ख़ालिस इंजीली नस्रानीयत से कभी वास्ता ना पड़ा था और देखा जाये तो नस्रानीयत की इन्हीं ग़लत सूरतों की वजह से जो उस ज़माने में आम तौर पर राइज थीं, इस्लाम पैदा हुआ। क्योंकि जब नस्रानीयत की ग़लत सूरतों देखकर मुहम्मदﷺ की तबीयत बेज़ार हो गई तो वो इन हक़ायक़ की तलाश करने से रुक गए जो इंजील में हैं और इस तरह उनके दिल में नस्रानीयत के ख़िलाफ़ कोई जदीद (नया) मज़्हब जारी करने की तहरीक पैदा हुई।

इस अम्र का कोई क़ाबिल इत्मीनान सबूत नहीं है कि मुहम्मदﷺ के ज़माने में अह्द नाम-ए-जदीद का कोई अरबी तर्जुमा मौजूद था। ख़ुद “मशरिक़ी कलीसिया” में इंजील की तरफ़ इस क़द्र तवज्जा नहीं दी जाती थी जिस क़द्र कि औलिया अल्लाह की रिवायत पर और उस वक़्त अरब की हालत ये थी कि वहां मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़ों के बहुत से ज़ाल्लीन (गुमराह) जमा हो गए थे और क़ुरआन के देखने से ये बात साफ़ तौर पर ज़ाहिर होती है कि बहुत से ख़ुराफियाती क़िस्से जो साकित अल-सेहत अनाजील (Apocryphal Gospels) और इसी तरह की दूसरी किताब में मौजूद थे, मुहम्मदﷺ के कानों तक पहुंचे जिनको उन्होंने बिल्कुल सही मान लिया। ये बात बज़ाहिर ताज्जुब-अंगेज़ मालूम होती है कि मुहम्मदﷺ ने क्यों यक़ीन कर लिया कि ये तमाम ख़ुराफ़ियात इंजील में पाई जाती हैं, लेकिन दरअस्ल ताज्जुब की कोई बात नहीं क्योंकि वो लोग जो मुहम्मदﷺ पर ईमान लाए थे उनमें कोई भी सच्चा और अच्छा ताअलीम याफ़्तह ईसाई नहीं था। नीज़ ये कि वो लोग नस्रानीयत से इस क़द्र दिलचस्पी नहीं रखते थे जिस क़द्र तल्मुदी यहूदीयत से।

क़ुरआन की वो आयतें जिनमें बख़यालﷺ ईसाई अक़ाइद की तसरीह की गई है, उस ज़माने की हैं जबकि इस्लाम बड़ी हद तक पुख़्तगी को पहुंच गया था और हम इस में एक रस्म या ताअलीम भी ऐसी नहीं देखते जो उस ज़माने की नस्रानीयत के अजीब-ओ-ग़रीब अक़ाइद पर मबनी हो या उनके रंग में ख़फ़ीफ़ तौर से भी रंगी हुई हो। अलबत्ता बरअक्स उस के यहूदीयत का रंग इस्लाम पर चढ़ा हुआ नज़र आता है और बहुत से अहकाम शरीअत अगर असली मफ़्हूम में नहीं तो सूरत-ओ-वज़ा में यहूदीयत ही के ममनून नज़र हैं।

लेकिन चूँकि मुहम्मदﷺ ये भी चाहते थे कि यहूद-ओ-नसारा दोनों दीन इस्लाम क़ुबूल कर लें (अगरचे अरब में नसारा बलिहाज़ तादाद व ताक़त इतने ना थे जितने यहूद मगर चूँकि नस्रानीयत अज़ीमुश्शान बाज़नतीनी सल्तनत का मुक़र्ररा सरकारी मज़्हब था, इसलिए वो मुहम्मदﷺ की नज़रों में ज़रूर कुछ एहमीय्यत रखता होगा, ख़ुसूसुन इस ख़्याल से कि अगर अरब के नसारा इस्लाम ना लाए तो मुम्किन है कि सयासी पेचीदगियां पैदा हो जाएं।) इस ख़्याल से उन्होंने अपने मामूर मिनल्लाह (अल्लाह की तरफ से रसूल) होने के सबूत में इंजील से भी काम लिया और यहां तक कह दिया कि मसीह ने उनकी बिअसत की निस्बत पेशगोई की है।

मुहम्मदﷺ ने ईसा की निस्बत अल्फ़ाज़ :-

کلمتہ منّہ اسمہ المسیح عیسیٰ ابن مریم

और, إِنَّمَا الْمَسِيحُ عِيسَى ابْنُ مَرْيَمَ رَسُولُ اللَّهِ وَكَلِمَتُهُ

इस्तिमाल किए हैं। मगर वो यसूअ की उलूहियत और मस्लुबियत के मुन्किर हैं और ताअलीमात इंजील से अपनी पूरी लाइल्मी ज़ाहिर करते है। ताहम वो इंजील की निस्बत इज़्ज़त व एहतिराम के अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करते हैं और बहुत सी आयात में इंजील को आस्मानी किताब बयान किया है जो “ईसा पर आस्मान से हुई” और ये भी लिखा है कि क़ुरआन भी इंजील की तस्दीक़ और उस की हिफ़ाज़त करने के लिए नाज़िल हुआ है।

मुहम्मदﷺ ने ये भी कहा कि ईसा कुँवारी औरत के पेट से पैदा हुए थे। और क़ुरआन में मसीह के बहुत से मोअजज़ात भी बयान किए गए हैं, मगर ये सब कुछ रिवायती ज़बान में है और ऐसा मालूम होता है कि कुछ मुहम्मदﷺ को यसूअ मसीह और उस के हवारिन की निस्बत मालूम हुआ वो सब ग़ैर मुस्तनद सुनी सुनाई बातों पर मबनी था। हम आगे चल कर दिखाएँगे कि जो कुछ क़ुरआन में लिखा है वो इन बयानात से बहुत कुछ मुताबिक़ है जो अनाजील मशकूक अल-सेहता और कुतुब ज़ाल्लीन (गुमराहकुन किताबों) में दर्ज है। अब हम क़ुरआन के बाअज़ वो क़िसस लेते हैं जो नस्रानीयत से ताल्लुक़ रखते हैं और ये दिखाएँगे कि वो किन ज़राए से माख़ूज़ मालूम हैं।

किस्सा-ए-अस्हाबे कह्फ़

ये क़िस्सा सूरह कहफ़ में इस तरह बयान किया गया है :-

तर्जुमा : “क्या तू ने कभी इस अम्र पर ग़ौर नहीं किया कि अस्हाब अल-कहफ़ वलरकीम हमारी अजीब निशानीयों में थे? जब वो नौजवान ख़ुद को ग़ार में ले गए तो उन्होंने कहा कि “ऐ हमारे ख़ुदा तू अपनी तरफ़ से हम पर रहम फ़र्मा और हमारे मुआमले में हमारी रहनुमाई कर।” पस हमने ग़ार में उनके कानों को सुनने से रोक दिया (यानी उन पर नींद का ग़लबा कर दिया) बहर बरसों तक। बाद अज़ां हमने उनको बेदार किया ता कि मालूम हो दोनों जमाअतों में से कौन इस क़ाबिल है जो सही तौर पर इस ज़माने का शुमार करे, जब वो ग़ार में रहे। हम तुमसे उनका सच्चा सच्चा हाल बयान करेंगे। “तहक़ीक़ वो नौजवान थे जो अपने ख़ुदा पर ईमान रखते थे और हमने उनकी हिदायत में इज़ाफ़ा किया और हमने उनके दिलों को तक़वियत दी, जब वो उठ खड़े हुए और बोले कि “हमारा ख़ुदा ज़मीन-ओ-आस्मान का ख़ुदा है। हम उस के सिवाए हरगिज़ किसी दूसरे ख़ुदा को नहीं पुकारेंगे क्योंकि अगर हमने ऐसा किया तो गोया हमने बे-इंतिहा झूट बोला। इस हमारी क़ौम ने ख़ुदा के सिवाए दीगर माबूद क़ुबूल कर लिए हैं। वो लोग अपनी ताईद में कोई बय्यन सबूत क्यों पेश नहीं करते। पस इस से ज़्यादा और कौन ज़ालिम होगा जो ख़ुदा के ख़िलाफ़ झूट बनाता है। और जब तुम उन्हें छोड़ दो और उनके ग़ैरूल्लाह माबूदो को छोड़ दो तो तुम ग़ार में चले जाओ। तब तुम्हारा ख़ुदा तुम पर अपनी रहमत वसीअ करेगा और तुम्हारे मुआमले में तुम्हारे फ़ायदे की कोई बात निकालेगा। और तुम देख सकते हो कि सूरज बुलंद होता है तो वो उनके ग़ार से दाहिनी तरफ़ हो कर निकल जाता है और जब ग़ुरूब होता है तो उनका ग़ार बाएं तरफ़ पीछे रह जाता है। और वो उस के अंदर एक वसीअ जगह में थे और ये अल्लाह की एक निशानी है। पस अल्लाह जिसकी हिदायत करता है, वो हिदायत पाता है और जिसको वो गुमराह करता है उसे कभी कोई सरपरस्त या रहनुमा नसीब नहीं होता। और तुम समझते होगे कि वो बेदार हैं हालाँकि वो सो रहे थे और हम उन को दाहिनी और बाएं तरफ़ करवटें दिलाते हैं। और उनका कुत्ता दहाना ग़ार पर अपने पंजे फैलाए बैठा था। और अगर तुम उनको देखते तो तुम वहां से भाग आते क्योंकि तुम्हारे दिलों पर दहश्त तारी हो जाती और बस हमने उनको बेदार किया ता कि वो एक दूसरे से दर्याफ़्त करें। तब उनमें से एक कहने वाले ने कहा कि “तुम यहां किस क़द्र अरसा तक ठहरे रहे? “तब उन्होंने जवाब दिया कि “हम दिन-भर या दिन के कुछ हिस्से तक यहां रहे हैं?” दूसरों ने कहा कि “तुम्हारा ख़ुदा सबसे बेहतर जानता है कि तुम यहां कितने अर्से तक रहे। बस अब तुम अपने में से किसी को अपना ये चांदी का सिक्का देकर शहर भेजो ता कि वो वहां देखे कि किस शख़्स के पास पाकीज़ा तरीन खाना है और वो इस से तुम्हारा सामान खूर्दो नोश ख़रीद लाए। उस को चाहीए कि शहर में जा कर तहज़ीब और आदमियत से काम ले और किसी से तुम्हारा हाल हरगिज़ बयान ना करे। तहक़ीक़ अगर उन्होंने तुम्हारा पता निशान मालूम कर लिया तो वो तुमको संगसार कर देंगे या जबरन तुमसे तुम्हारा दीन छुड़ा कर तुम्हें अपने में शामिल कर लेंगे और उस वक़्त तुम हरगिज़ कामयाब नहीं हो सकते।” और इस तरह हमने लोगों को उनका हाल मालूम कराया ताकि उन्हें मालूम हो कि ख़ुदा का वाअदा सच्चा है। और क़ियामत के मुताल्लिक़ कोई बात शुब्हा की नहीं और जब वो अपने मुआमले में बाहम बह्स करने लगे और कहा कि “अपने ऊपर एक इमारत तामीर कर लो। उनका ख़ुदा उनकी निस्बत ख़ूब जानता है।” और जो लोग हुज्जत में ग़ालिब आए उन्होंने कहा कि “हम यक़ीनन अपने ऊपर एक मस्जिद तामीर करेंगे।” बाअज़ कहते हैं कि “वो तीन हैं और चौथा उनमें उनका कुत्ता है बाअज़ कहते हैं कि कि वो पाँच हैं और छटा उनमें उनका कुत्ता है। गोया एक पुर-इसरार मुआमले के मुताल्लिक़ वो ख़याल-आराइयाँ करते हैं और बाअज़ कहते हैं कि “वो सात हैं और आठवां उनमें उनका कुत्ता है।” तुम कहो कि मेरा ख़ुदा ही उनकी तादाद के बारे में ख़ूब जानता है। मादूद-ए-चंद के सिवाए इस बात को कोई नहीं जानता। लिहाज़ा इस बारे में झगड़ा ना करो और उनमें से किसी एक के बारे में भी सवाल ना करो। और किसी बात की निस्बत ये ना कहो कि यक़ीनन मैं इस काम को कल अंजाम दूँगा। ता वक़्ते कि अल्लाह तआला ना चाहे और जब तुम भूल जाओ तो अपने रब को याद करो और कहो कि मुम्किन है मेरा रब मुझे इस से ज़्यादा क़रीब का रास्ता बता दे। और वो लोग ग़ार के अंदर तीन सौ बरस तक रहे और बाअज़ उनमें नौ बरस का मज़ीद इज़ाफ़ा करते हैं। तुम कहो कि ख़ुदा ही ख़ूब जानता है कि वो कितने दिनों तक रहे। वही आस्मान-ओ-ज़मीन के इसरार को ख़ूब जानता है।” (सुरह कहफ़)

इस मुज़बज़ब (डानोडोल) बयान को समझने के लिए मुसलमान मुफ़स्सिरीन की तरफ़ रुजू करना चाहीए। वो लिखते हैं कि बाअज़ मुशरिकीन अरब या यहूदीयों ने मुहम्मदﷺ का इम्तिहान लेने के लिए कि वाक़ई उन पर वह्यी नाज़िल होती है या नहीं, ये तक़ाज़ा किया कि अगर वो सच्चे नबी हैं तो अस्हाबे कह्फ़ का क़िस्सा सुनाएँ। इस से साफ़ ज़ाहिर होता है कि ये क़िस्सा मुख़्तलिफ़ सूरतों से बयान किया जाता था और इस बाब में झगड़ा था कि जो लोग ग़ार में गए, उनकी तादाद क्या थी? मुहम्मदﷺ ने जैसा कि आयत 23-24 से ज़ाहिर होता है वाअदा किया था कि वो इस सवाल का जवाब कल देंगे। मतलब ये था कि इस असना में वो इस के मुताल्लिक़ अपने किसी सहाबी से दर्याफ़्त करेंगे। मगर मालूम होता है कि उन्हें सही मालूमात हासिल नहीं हुईं, इसलिए उन नौजवानों की सही तादाद का मुआमला उन्होंने यूंही दिया। मुहम्मदﷺ ने ये भी नहीं बताया कि ये वाक़िया कब और कहाँ रौनुमा हुआ था। मगर हाँ वाज़ेह तौर पर सिर्फ एक बात बयान करने की जुर्रत की है और वो ये कि इन लोगों को ग़ार के अंदर 309 बरस गुज़रे थे। मगर अफ़्सोस है कि ये भी सही नहीं जैसा कि आगे चल कर मालूम होगा, ताहम मुहम्मद ﷺ को ये ज़रूर यक़ीन था कि जो वाक़िया बयान किया जाता है वो सहीह है।

जैसा कि हम अभी कह चुके हैं ये क़िस्सा मुख़्तलिफ़ सूरतों में क़ब्ल अज़ मुहम्मदﷺ राइज था, इसलिए ये बात ज़ाहिर है कि जो हालात क़ुरआन के अंदर इस क़िस्से के मुताल्लिक़ बयान किए गए हैं वो ज़बानी सुने हुए थे।

एक शामी मुसन्निफ़ याक़ूब सरोगी ने जिसका इंतिक़ाल 521 ई॰ में हुआ, ये ख़ुराफियाती क़िस्सा अपने एक मक़ाले में किसी क़द्र तफ़्सील के साथ बयान किया था। ये मक़ाला “एक्टा सेंकटोरम” (Acta Sanctorum) में शाएअ हो चुका है। हमको ये भी मालूम है कि मुल़्क-ए-शाम में ये क़िस्सा मुख़्तलिफ़ सूरतों से बयान किया गया है कि सोने वाले तादाद में सात थे और यूरोप में अस्हाबे कह्फ़ का क़िस्सा इसी नाम यानी “हफ़्त ख़फ़तगान” (Seven Sleepers) के नाम से मशहूर है। लेकिन छठी सदी का एक शामी मख़तूता ब्रिटिश म्यूज़ीयम में ऐसा है जिसमें उन लोगों की तादाद आठ बताई गई है। मुसलमान मुफ़स्सिरीन (साहब जलालेन वग़ैरह) ने इस क़िस्से की तफ़्सीर में बाअज़ रिवायत व अहादीस बयान की हैं। बाअज़ कहते हैं कि उनकी तादाद सात थी और बाअज़ कहते हैं कि आठ थी।

जहां तक हमको मालूम है पहला यूरोपीयन मुसन्निफ़ जिसने ये रिवायत बयान की थी वो शहर तोरस (Torus) का रहने वाला ग्रेगोरी (Gregory ) था। इस शख़्स ने लिखा है कि शहनशाह डीसीस (Decius) के अह्द में 249 ई॰ 251 ई॰ शहर इफ़सुस (Ephesus) के सात ईसाई नौजवान मुख़ालिफ़ीन के ज़ुल्म-ओ-सितम से तंग आकर निकल गए और एक ग़ार में जो शहर से ज़्यादा दूर ना था पनाह गज़ीन हुए। मगर कुछ अरसे बाद दुश्मनों को उनका पता मालूम हो गया और उन्होंने ये तदबीर की कि ग़ार के दहाना को बंद कर दिया जाये ताकि वो फ़ाक़ाकशी कर के अन्दर ही अंदर मर जाएं। इस से 196 बरस बाद जब शहनशाह थियोडोसीस सानी (Theodosius II) तख़्त पर मुतमक्किन था, एक चरवाहे ने वो ग़ार पाया और इस का दहाना खोल दिया। इस वक़्त वो “हफ़्त ख़फ़तगान” (सात नींद में सोने वाले) अपने ख्व़ाब-ए-शीरीं से बेदार हुए जिसमें वो इस तमाम अरसा तक (जैसा कि क़ुरआन भी कहता है) मुब्तला रहे थे। और उन्होंने अपने में से एक आदमी शहर भेजा ता कि खाना ख़रीद लाए। जब वो शख़्स बाहर आया तो ये बात देखकर सख़्त हैरान हुआ कि हर तरफ़ दीने ईस्वी फैला हुआ है। एक दूकान पर इस शख़्स ने खाना ख़रीदा और शहनशाह डीसीस के ज़माने का सिक्का निकाल कर दिया। ये देख कर लोगों ने इस को गिरफ़्तार कर लिया और इल्ज़ाम लगाया कि उसने किसी जगह दफ़ीना पाया है। इस वक़्त मज्बूर हो कर उसने अपना और अपने साथीयों का हाल बयान किया। जब वो लोगों को ग़ार पर ले गया तो उस के साथीयों के चेहरे अभी तक आस्मानी नूर से दरख़शां थे और इस वाक़िये से लोगों को उनकी बात का यक़ीन आ गया। इस वाक़िये की ख़बर जब शहनशाह को मिली तो वो बज़ात ख़ास उन लोगों को ग़ार में देखने गया। इन लोगों ने उसे बताया कि ख़ुदा ने इन को महफ़ूज़ रखा ता कि लोगों पर रूह का ला-फ़ानी होना साबित हो और अपना ये पैग़ाम दुनिया को पहुंचा कर वो लोग गए।

अब इस के बाद क़िस्से की इस नौईय्यत पर बह्स करना फ़ुज़ूल है जो क़ुरआन में बयान किया गया है। अगरचे इस में मुहम्मदﷺ इस क़द्र मोरीद-ए-इल्ज़ाम नहीं जिस क़द्र वो जाहिल ईसाई जिन्हों ने इस क़द्र वुसअत के साथ इस क़िस्से को फैलाया। ताहम मुम्किन है कि दरहक़ीक़त ये क़िस्सा बतौर तम्सील या रम्ज़ (Symbolism) तैयार किया गया हो या ग़ालिबन एक मज़हबी रूमान (फ़र्ज़ी दास्तान) समझा गया हो जिसकी तस्नीफ़ से ये ज़ाहिर करना मक़्सूद हो कि नस्रानीयत अपनी जुर्रत वफ़ादारी और शौक़-ए-शहादत के सबब से किस क़द्र हैरत-अंगेज़ तेज़ी के साथ दुनिया में फैल गई। बहर-ए-हाल हक़ीक़त जो कुछ हो ये रिवायत मुहम्मदﷺ से बहुत अरसा क़ब्ल ममालिक मशरिक़ में एतबार की नज़र से देखी जाती थी। और ऐसा मालूम होता है कि मुहम्मदﷺ के ज़माने में मक्का वाले भी इस क़िस्से को सही मानते थे। इस बारे में मुहम्मदﷺ का ताल्लुक़ सिर्फ इस क़द्र है कि उन्होंने एक ऐसे क़िस्सा को जो कहानी से ज़्यादा वक़अत नहीं रखता, सही समझा।

कुँवारी मर्यम का क़िस्सा

क़ुरआन व अहादीस में मर्यम की जो तारीख़ बयान की गई है, वो तक़रीबन सबकी सब ईसाईयों की मशकूक-उल-सेहत अनाजील और इसी क़िस्म की दूसरी किताबों से ली गई है। चूँकि मुहम्मदﷺ ने इस में एक और बात भी दाख़िल कर दी है जिसका माख़ज़ हम असली क़िस्से पर बह्स करने से पहले बयान करते हैं। सूरह मर्यम आयात 27-28 में लिखा है कि जब मर्यम के पेट से यसूअ मसीह पैदा हुआ तो वो उसे लेकर अपने लोगों में आई, जिन्हों ने बच्चे को देखकर कहा कि “ऐ मर्यम यक़ीनन तू ने ये एक अजीब हरकत की। ओ हारून की बहन तेरा बाप बदकार नहीं था, ना तेरी माँ सियाहकार थी।”

इन अल्फ़ाज़ से ये साफ़ ज़ाहिर कि मुहम्मदﷺ की राय में यसूअ की माँ “मेरी” या “मारिया” (Mary) वही “मर्यम” (Miriam) थी जो मूसा व हारून की बहन थी। ये बात सूरह तहरीम से और ज़्यादा वाज़ेह हो गई है जहां “मेरी” (Mary) को “बिंत इमरान” कहा गया है और इमरान वही शख़्स है जिसे नामूस मूसा (Pentateuch) में अमराम कहते हैं और जिसे “हारून व मूसा व मर्यम का बाप” बताया गया है। इलावा अज़ीं किताब ख़ुरूज 15:20 में भी मर्यम को “हारून की बहन” का ख़िताब दिया गया है और मालूम होता है कि मुहम्मदﷺ ने ये बात यहीं से ली है। इस ग़लती का सबब (जिसकी वजह से) यसूअ मसीह की वालिदा मेरी (Mary) को एक ऐसी औरत बना दिया गया जो विलादत मसीह से 1570 बरस क़ब्ल पाई जाती थी, ये मालूम होता है कि अरबी ज़बान में “मेरी” (Mary) और “मर्यम” (Miriam) दोनों एक हैं और एक ही सूरत यानी “मर्यम” (Maryam) की तरह लिखी जाती हैं। दो जुदा-जुदा शख्सों को एक बना देने से जो तारीख़ी दिक्कतें वाक़ेअ हुई हैं, ग़ालिबन इनका एहसास मुहम्मदﷺ ने नहीं किया। इसी ग़लती पर हमको शाहनामा-ए-फ़िर्दोसी का एक क़िस्सा याद आया जिसमें फ़िर्दोसी ने लिखा कि जब फरीदूं ने ज़ह्हाक को शिकस्त दी तो उसने क़िले में जमशेद की दो बहनें पाइं जिन्हें इस ज़ालिम ने क़ैद कर रखा था। फरीदूं देखते ही उन पर फ़रेफ़्ता हो गया। मगर उसी शाहनामा के दीगर मुक़ामात से मालूम होता है कि ये दोशीज़ गान जमील ज़ह्हाक के पास इस की सल्तनत की इब्तिदा से क़ैद थीं, यानी तक़रीबन एक हज़ार क़ब्ल से।

अगर इस ग़लती की मज़ीद छानबीन की ज़रूरत हो तो इस का सुराग़ उस यहूदी रिवायत से भी मिल सकता है जिसमें “मर्यम” (Miriam) की निस्बत बयान किया गया है कि “मलक-उल-मौत को उस पर कुछ इख़्तियार ना था बल्कि वो एक रब्बानी प्यार के बाइस फ़ौत हुई और कीड़े और हशरात-उल-अर्ज़ को उस पर कोई इख़्तियार ना था।” बहर-ए-हाल अगर ये रिवायत भी सही मान ली जाये तो इस में ये कहाँ बयान किया गया है कि मर्यम (Miriam) यसूअ के ज़माने तक ज़िंदा रही और ना यहूदीयों की ये रिवायत है कि वो “कुँवारी मर्यम” ही थी।

अब देखना चाहिए कि क़ुरआन व अहादीस और इस्लामी रिवायत में “कुँवारी मर्यम” की निस्बत क्या बयान किया जाता है। सूरह आले-इमरान 34-35 में बयान किया गया है कि “जब इमरान की बीवी ने कहा कि ऐ मेरे रब तहक़ीक़ में मिन्नत मानती हूँ कि जो कुछ मेरे बतन में है, वो तेरी नज़र कर दूँ, पस तू उसे क़ुबूल कर क्योंकि तू सुनने और जानने वाला है। पस जब वज़ा हमल हुआ तो उसने कहा कि ऐ मेरे रब यक़ीनन मैंने लड़की जनी है और अल्लाह ख़ूब जानता है कि उसने क्या जना है और मैंने उस का नाम मर्यम रखा है। मैं इसे और इस की औलाद को तेरी हिफ़ाज़त में देती हूँ शैतान रजीम से। पस अल्लाह ने इस को अच्छी क़बूलीयत के साथ क़ुबूल फ़र्मा लिया और उसने इस को अच्छी तरह बढ़ाया और ज़करीयाह ने इस की परवरिश की। जब कभी ज़करीयाह उस के पास इबादतखाने में जाते तो वो हमेशा उस के पास खाने को पाते। उसने दर्याफ़्त किया कि “ऐ मर्यम ये कहाँ से आया तो वो ये जवाब देती है कि “ये मेरे रब की तरफ़ से है। तहक़ीक़ अल्लाह उस को रिज़्क़ पहुँचाता है जिसको वो चाहे और बग़ैर हिसाब देता है।”

इस के इलावा बैज़ावी और दीगर मुफ़स्सिरीन व मुहद्दिसीन ने हस्ब-ज़ैल बातें तहरीर हैं :-

“इमरान की बीवी उम्र रसीदा और बाँझ थी। एक रोज़ उसने एक चिड़िया को देखा जो अपने बच्चों को दाना भरा रही थी। ये मंज़र देखते ही उस के दिल में भी माँ बनने की आरज़ू पैदा हुई और उसने ख़ुदा से दुआ की कि वो उसे कोई बच्चा अता फ़रमाए। उसने कहा कि “ऐ मेरे रब अगर तू मुझे बचा देगा, ख़्वाह लड़की हो या लड़का, उसे में तेरे ख़ादिम के तौर पर यरूशलेम की हैकल में दे दूँगी।” ख़ुदा ने उस की दुआ सुनी और पूरी की। चुनान्चे उसे हमल ठहर गया और इस ने एक लड़की मर्यम नामी जनी।”

जलाल उद्दीन का बयान ये है कि :-

मर्यम की वालिदा का नाम हिना (Hanna) था। जब वो मर्यम को हैकल में लाई और उसे ख़ुद्दाम हैकल के सपुर्द किया तो उन्होंने इस लड़की को क़ुबूल कर लिया और इस की परवरिश के लिए ज़करीया को दे दिया। उसने इस लड़की को एक हुज्रे में रखा जहां उस के सिवा और कोई जा नहीं सकता था। मगर एक फ़रिश्ता उसे रोज़ खाना दे जाता था।”

अब हम क़ुरआन की तरफ़ रुजू करते हैं। वहां सूरह आले-इमरान आयात 41-46 में लिखा कि :-

وَإِذْ قَالَتِ الْمَلَائِكَةُ يَا مَرْيَمُ إِنَّ اللَّهَ اصْطَفَاكِ وَطَهَّرَكِ وَاصْطَفَاكِ عَلَىٰ نِسَاءِ الْعَالَمِينَ يَا مَرْيَمُ اقْنُتِي لِرَبِّكِ وَاسْجُدِي وَارْكَعِي مَعَ الرَّاكِعِينَ ذَٰلِكَ مِنْ أَنبَاءِ الْغَيْبِ نُوحِيهِ إِلَيْكَ ۚ وَمَا كُنتَ لَدَيْهِمْ إِذْ يُلْقُونَ أَقْلَامَهُمْ أَيُّهُمْ يَكْفُلُ مَرْيَمَ وَمَا كُنتَ لَدَيْهِمْ إِذْ يَخْتَصِمُونَ إِذْ قَالَتِ الْمَلَائِكَةُ يَا مَرْيَمُ إِنَّ اللَّهَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَةٍ مِّنْهُ اسْمُهُ الْمَسِيحُ عِيسَى ابْنُ مَرْيَمَ وَجِيهًا فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ وَمِنَ الْمُقَرَّبِينَ وَيُكَلِّمُ النَّاسَ فِي الْمَهْدِ وَكَهْلًا وَمِنَ الصَّالِحِينَ قَالَتْ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي وَلَدٌ وَلَمْ يَمْسَسْنِي بَشَرٌ ۖ قَالَ كَذَٰلِكِ اللَّهُ يَخْلُقُ مَا يَشَاءُ ۚ إِذَا قَضَىٰ أَمْرًا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُ كُن فَيَكُونُ

तर्जुमा : “जब मर्यम बड़ी हो गई तो उस के पास फ़रिश्ते आए और कहा “ऐ मर्यम यक़ीनन अल्लाह ने तुझे चुन लिया और तुझे पाक कर दिया है और तुझे तमाम दुनिया की औरतों पर मुंतख़ब कर लिया है। ऐ मर्यम तू हमेशा अपने रब की इताअत गुज़ार रह और इबादत कर और झुक उन लोगों के साथ जो झुकते हैं। और ये ग़ैब की ख़बर है जो हमने तुझ ऐ मुहम्मदﷺ बज़रीया वह्यी नाज़िल की। और तुम उस वक़्त उनके साथ नहीं थे जब उन्होंने इस बारे में अपने क़लम फेंके (क़ुरआ अंदाज़ी) की कि मर्यम को कौन पाले। और तुम उस वक़्त उनके साथ नहीं थे जबकि वो आपस में झगड़ा कर रहे थे। जब फ़रिश्तों ने कहा कि “ऐ मर्यम तहक़ीक़ अल्लाह तुझे मुज़्दा (खुशखबरी) देता है अपनी तरफ़ से एक कलिमे का जिसका नाम मसीह ईसा इब्ने-मरियम है, वो इस दुनिया और दूसरी दुनिया में क़ाबिल-ए-वक़अत होगा और मुक़र्रबीन बारी तआला में से होगा। और वो अपने गहवारे ही में लोगों से गुफ़्तगु करेगा और जब बड़ा होगा उस वक़्त भी और वो सालहीन में से होगा।” मर्यम ने कहा “ऐ मेरे रब मेरे लड़का कैसे पैदा होगा जबकि मुझे मर्द ने छुवा नहीं?” इस (फ़रिश्ते) ने कहा “इसी तरह अल्लाह पैदा करता है जो वो चाहता है। उसे सिर्फ इस क़द्र कहना पड़ता है कि “हो जा” पस वो हो जाता है।”

इन आयात में “क़लम फेंकने” (कुर्आ डालने) के बारे में जलाल उद्दीन और बैज़ावी का बयान है कि ज़करीयाह और छब्बीस दूसरे काहिनों में झगड़ा उठा कि उनमें से कौन मर्यम की परवरिश करे। पस वो सब लब दरया-ए-यर्दन (Jordon) गए और उन्होंने अपने क्लक (क़लम) पानी में फेंक दिए। सिवाए क्लक ज़करीयाह के और सब क़लम डूब गए और इस तरह वो मर्यम के अतालीक़ (परवरिश करने पर) मुक़र्रर हुए।

इस के बाद सूरह मर्यम आयत 16-34 मुलाहिज़ा फ़रमाइये जिसमें विलादत मसीह का हाल इस तरह लिखा है :-

“किताब में मर्यम का हाल बयान कर जबकि वो अपने ख़ानदान से अलेहदा (अलग) हो कर एक मशरिक़ी मुक़ाम में चली गई। तब उसने उनसे छिपने के लिए एक निक़ाब डाल लिया। तब हमने उस की तरफ़ अपनी रूह (यानी जिब्रईल) को भेजा। पस उसने ख़ुद को एक अच्छे जिस्म के मर्द की सूरत में मर्यम पर ज़ाहिर किया। उस (मर्यम) ने कहा “मैं तेरे ख़िलाफ़ अपने ख़ुदा-ए-रहमान के दामन में पनाह लेती हूँ, अगर तू ख़ुदा से डरने वाला है। इस (फ़रिश्ता) ने कहा कि “मैं सिर्फ तेरे रब की तरफ़ से भेजा हुआ हूँ ताकि मैं तुझे एक पाक लड़का दूं।” इस (मरियम) ने कहा कि मेरे लड़का कहाँ से पैदा होगा? क्योंकि मुझे किसी मर्द ने नहीं छुवा और ना में बे इस्मत (बदकार) औरत हूँ।” उसने कहा “तेरा रब इस तरह फ़रमाता है कि ये बात मेरे लिए बहुत आसान है। और हम उसे लोगों के लिए अपनी एक निशानी और अपनी एक रहमत बनाना चाहते हैं और इस बात का फ़ैसला हो चुका है।” पस उसे इस बच्चे का हमल रह गया और फिर वो इस हमल को लेकर किसी दूर मुक़ाम पर चली गई और वज़ा हमल के वक़्त जो उस के दर्द हुआ तो वो मज्बूर हो कर एक खजूर के दरख़्त के तने के पास गई। उस (मर्यम) ने कहा “काश मैं इस से पहले ही मर जाती और लोगों की याद से फ़रामोश हो जाती। तब उस के नीचे से एक आवाज़ ने पुकार कर कहा कि रंज मत कर। तेरे रब ने एक चशमा पैदा कर दिया है जो तेरे नीचे बहता है और तू सिर्फ अपनी खजूर के दरख़्त के तने को हिला। वो तुझ पर ताज़ा पकी हुई खजूरें गिराएगा। पस खा और पानी पी और अपनी आँखों को ठंडक पहुंचा। फिर जब तू किसी शख़्स को देखे तो उस से कह दे कि तहक़ीक़ मैंने ख़ुदा की मिन्नत मानी थी कि मैं रोज़ा रखूँगी। पस मैं आज किसी शख़्स से बातचीत नहीं करूँगी। पस वो इस (ईसा) को लेकर अपनी क़ौम के पास आई। उन्होंने कहा “ऐ मर्यम यक़ीनन ये तू ने एक अजीब हरकत की। ऐ हारून की बहन! तेरा बाप बदकार ना था ना तेरी माँ सियाहकार थी।” तब उसने उस की तरफ़ इशारा किया। तब उन्होंने कहा कि हम गहवारेह के बच्चे से क्या बातचीत करें।” इस (मसीह) ने कहा “तहक़ीक़ मैं अल्लाह का बंदा हूँ उसने मुझे किताब दी है और मुझे नबी बनाया है और जहां कहीं मैं हूँगा, वहीं मुबारक हूँगा और उसने मुझे हुक्म दिया कि जब तक मैं ज़िंदा रहूं उस वक़्त तक इबादत करता रहूं और ज़कात देता रहूँ और अपनी माँ से अच्छा बर्ताव करूँ और उसने मुझे गुस्ताख और शक़ी नहीं बनाया। और सलामती हो उस दिन पर जबकि मैं पैदा हुआ और जिस दिन मैं मरूँ और जिस दिन मैं ज़िंदा उठाया जाऊं।”

मुंदरजा-ए-बाला क़ुरआनी बयान की तफ़्सील का माख़ज़ सरासर ईसाईयों की मशकूक-उल-सेहत अनाजील हैं। चुनान्चे मुंदरजा ज़ैल इक़तिबासात से नाज़रीन पर ख़ुद बख़ुद रोशन हो जाएगा। किताब “प्रोट एवेंजलीम आफ़ जेम्स दी लैस” (Protevangelium of James the Less) में विलादत मसीह का हाल इस तरह लिखा है :-

“अन्ना (हन्ना) ने आस्मान की तरफ़ नज़र जमा कर जो देखा तो उसने एक दरख़्त में आशियाना (चिड़िया) देखा और वो अपने दिल में रंज करने लगी ये कह कर “हाय हाय मुझे किस ने जना, अफ़्सोस मैं किस चीज़ की मानिंद हूँ? मैं मर गान हवा की मानिंद भी नहीं हूँ। क्योंकि ऐ मेरे रब हवा की चिड़ियां भी तेरी नज़रों में बच्चे देने के क़ाबिल हैं।... और देखो ख़ुदा का एक फ़रिश्ता उस के क़रीब खड़ा हुआ और उस से ये कह रहा था “अन्ना अन्ना (हन्ना) ख़ुदावंद ने तेरी अर्ज़ सुन ली, तुझे हमल रहेगा और तू बच्चा जनेगी और तेरी औलाद तमाम आलम में मशहूर होगी।” मगर अन्ना (हन्ना) ने कहा “मेरा ख़ुदा ज़िंदा है, अगर मेरे लड़का या लड़की कुछ भी पैदा हुआ तो मैं उसे अपने ख़ुदा की नज़र कर दूँगी और वो तमाम उम्र उसी की ख़िदमत में लगा रहेगा।”....लेकिन उस के महीने पूरे हो गए और नौवें महीने अन्ना (हन्ना) ने बच्चा जना।...और उसने बच्चे को दूध पिलाया और उस का नाम “मेरी” (Mary) रखा।”

इस के बाद इस क़िस्से में ये बयान किया गया है कि जब वो लड़की इस क़ाबिल हो गई कि अपनी माँ से अलेहदा (अलग) हो सके तो अन्ना (हन्ना) उस को अपनी मिन्नत के मुताबिक़ यरूशलेम की हैकल में ले गई। इस के बाद क़िस्सा यूं बयान होता है :-

काहिन ने उस को ले लिया, उस को प्यार और बरकत दी और कहा “ख़ुदावंद ने तेरा नाम पुश्त हा पुश्त तक दुनिया के अंदर मशहूर कर दिया और तुझ पर ख़त्म पर अय्याम के बाद ख़ुदावंद बनी-इस्राईल की नजात ज़ाहिर करेगा।....मगर मर्यम एक क़मरी की मानिंद थी जिसने ख़ुदा के घर में परवरिश पाई थी। और उसे हमेशा फ़रिश्ते के हाथों खाना पहुंचता था। मगर जब वोह बारह बरस की हो गई तो काहिनों का एक मुशावरती जलसा हुआ, जिन्हों ने कहा “देखो मर्यम अब बारह बरस की हो गई है। अब हम इस को क्या करें?...और देखो ख़ुदा का एक फ़रिश्ता उस के पास खड़ा हुआ ये कह रहा था “ज़करीया ज़करीया जाओ और क़ौम में जितने रंडवे हैं इन सबको बुलाओ और कहो कि वो अपने अपने असा लाएं। पस जिस किसी को ख़ुदावंद ख़ुदा अपना निशान दिखाएगा, वो उसी की बीवी बन जाएं। और यहूदयह के तमाम साहिल पर नक़ीब दौड़ गए, ख़ुदावंद का नरसिंघा फूँका गया और वो सब दौड़े और यूसुफ़ भी अपना बिस्वा (ज़मीन नापने का एक पैमाना) फेंक कर दौड़ा। फिर जमा हो कर वो सब लोग काहिन आज़म के पास गए और काहिन ने उनके असा ले लिए और हैकल में गया और दुआ मांगी। दुआ ख़त्म करने के बाद वो बाहर आया और हर शख़्स को उस का असा हवाले कर दिया और उनमें कोई निशानी नहीं थी। मगर यूसुफ़ को उस का असा सबसे आख़िर में मिला और देखो एक क़मरी इस असा में से बरामद हुई और यूसुफ़ के सर पर अड़ी। और काहिन ने उस से कहा “तुझे बज़रीये क़ुरआ अंदाज़ी ख़ुदावंद की कुँवारी मिल गई है। पस तू इस को अपने साथ हिफ़ाज़त के लिए ले जा।”....और यूसुफ़ ने ख़ौफ़ खा कर उस को हिफ़ाज़त के लिए ले लिया।...मगर मर्यम एक घड़ा ले कर उसे पानी से भरने गई और देखो एक आवाज़ सुनी गई जो ये कहती थी “मुबारक हो, ख़ुदा की प्यारी! ख़ुदावंद तेरे साथ है। तू औरतों में बरकत याफ्ताह है।” और उसने कभी दाहने कभी बाएं तरफ़ देखा कि ये आवाज़ कहाँ से आती है और ख़ौफ़ खा कर वो वहां से अपने घर चली आई और अपना घड़ा रखा।....वो अपनी जगह बैठ गई।...और देखो ख़ुदावंद का एक फ़रिश्ता उसके पास खड़ा हुआ ये कहने लगा “मत डरो मर्यम मत, क्योंकि तू ख़ुदा की नज़रों में महबूब हो गई है और तू उस के कलाम से हामिला होगी।” मगर मर्यम ने ये सुनकर अपने दिल में ग़ौर किया क्या मैं इसी तरह हामिला होंगी जिस तरह दूसरी औरतें होती हैं।” और फ़रिश्त ने इस से कहा “इस तरह नहीं मर्यम ! क्योंकि ख़ुदावंद बरतर की क़ुदरत तुझ पर साया-अफ़गन होगी। इसी लिए वो मुक़द्दस चीज़ जो पैदा होगी वो “ख़ुदा का बेटा” कहलाएगा और तू उस का नाम यसूअ (ईसा) रखना।”

मर्यम के हैकल में परवरिश होने की रिवायत भी बहुत सी दीगर मशकूक-उल-सेहत (गैर-यक़ीनी) अनाजील में बयान हुई है, मसलन क़िबती किताब “तारीख़ दोशीज़ा” History of the virgin में लिखा है :-

“उसने क़ुमरियों की तरफ़ हैकल में परवरिश पाई थी और ख़ुदा के फ़रिश्ते उस के लिए जन्नत से खाना लाते थे। वो हैकल में ख़िदमत किया करती थी और ख़ुदा के फ़रिश्ते उस के पास आया करते थे। और वो उस के लिए अक्सर शजर-तुल-हयात के भी (फल) लाया करते थे ता कि वो उनको ख़ुश हो कर खाए।”

एक दूसरी क़िबती किताब “किस्सा-ए-वफ़ात यूसुफ़” (Story of the decease of Joseph ) में मुंदरजा ज़ैल इबारत पाई जाती है :-

“मर्यम हैकल में रहा करती थी और वहां पाकीज़गी और तक़द्दुस के साथ इबादत क्या करती थी। और वहां वो परवरिश पाती रही हत्ता कि वो बारह बरस की हो गई। अपने माँ बाप के यहां वो तीन साल रही थी और ख़ुदावंद की हैकल में वो नौ साल तक रही। पस जब काहिनों ने देखा कि वो कुँवारी इस्मत व इफ़्फ़त के साथ रहती है और ख़ुदा के ख़ौफ़ के साथ ज़िंदगी बसर करती है तो वो आपस में कहने लगे कि “कोई अच्छा आदमी तलाश कर के इस की निस्बत उस के साथ कर दो।...पस उन्होंने फ़ौरन क़बीला यहूदाह को बुलाया और उनमें से बारह आदमी बनी-इस्राईल के बारह क़बाइल में से एक एक मुंतख़ब कर लिए और क़ुरआ में बूढ़े नेक मर्द यूसुफ़ का नाम निकला।”

अब हम “प्रोट एवेंजलीम” (Protevangelium) की तरफ़ फिर रुजू करते हैं जिसमें लिखा है कि जब ये वाक़िया लोगों को मालूम हो गया कि मर्यम हामिला हो गई है तो यूसुफ़ और मर्यम दोनों को फ़ैसले के लिए काहिनों के सामने लाया गया। फिर उस के बाद इस तरह शुरू होता है :-

“और काहिन ने कहा “ऐ मर्यम ये तू ने क्यों किया और अपनी रूह को ज़लील किया? तू ख़ुदावंद अपने ख़ुदा को भूल गई तू जिसने ख़ुदावंद की मुक़द्दस हैकल में परवरिश पाई थी, जिसको ख़ुदा के हाथों खाना पहुंचता था और जो ख़ुदा की तस्बीह व तहलील सुना करती थी।...तू ने ये हरकत क्यों की?” मगर वो ज़ार क़तार रो कर कहने लगी “क़सम है ख़ुदा-ए हय्यु-क़य्यूम की मैं उसकी नज़रों में पाक हूँ और मैं किसी मर्द को नहीं जानती।”

इस के बाद लिखा है कि यूसुफ़ और मर्यम दोनों नासरत से हिज्रत कर के बैत-उल-लहम को चले गए। जब वहां उनको कारवान सराय में जगह ना मिली, वो एक ग़ार में ठहरने के लिए गए और वहां ख़ुदावंद यसूअ पैदा हुआ। मर्यम और दरख़्त रतब का वाक़िया जो क़ुरआन में (सूर मर्यम में) बयान किया गया है वह साफ़ ज़ाहिर करता है कि एक मशकूक-उल-सेहत किताब (History of the nativity of the Mary & the infancy of the Saviour) से लिया गया है। अगरचे हम आइन्दा चल कर दोनों बयानात को और भी ज़्यादा क़दीम ज़राए से माख़ूज़ साबित करेंगे, जिस किताब का नाम हमने ऊपर दर्ज किया है इस में इस वाक़िये का ताल्लुक़ उस ज़माने से है जबकि यूसुफ़ व मर्यम मय यसूअ हिज्रत कर के मिस्र जा रहे थे। क़िस्से में बयान किया गया है कि ये मुक़द्दस ख़ानदान किस तरह सफ़र पर रवाना हुआ और दो रोज़ तक ख़ामोशी के साथ सफ़र करता रहा। क़िस्से का तसलसुल इस तरह है :-

“लेकिन सफ़र पर रवाना होने से तीसरे दिन ऐसा वाक़िया हुआ कि मर्यम रेगिस्तान में बावजाह तमाज़त आफ़्ताब बेहद थक गई। पस जब उसने एक दरख़्त देखा तो उसने यूसुफ़ से कहा “आओ थोड़ी देर के लिए इस दरख़्त के साया में आराम करें।” और यूसुफ़ जल्दी जल्दी उस को इस दरख़्त के पास लाया और उसे जानवर पर से उतारा जिस पर वो सवार थी। जब मर्यम बैठ गई तो उसने दरख़्त की चोटी की तरफ़ देखा और जब उसने ये देखा कि वो फल से लदा हुआ है तो उसने यूसुफ़ से कहा “मैं चाहती हूँ कि अगर मुम्किन हो सके तो इस दरख़्त का फल खाऊं।” इस पर यूसुफ़ ने उस से कहा कि “मुझे ताज्जुब है तुम इस क़िस्म की बातें करती हो क्योंकि कि तुम देखती हो कि इस खजूर के दरख़्त की शाख़ें किस क़द्र ऊंची हैं। अलबत्ता मैं पानी के लिए बहुत फ़िक्रमंद हूँ क्योंकि अब हमारे मशकीज़ों का पानी ख़त्म हो गया है और कोई जगह ऐसी नज़र नहीं आती जहां से पानी भर कर प्यास बुझाई जाये।” इस पर बच्चा यसूअ ने जो शगुफ़्ता सूरत के साथ अपनी माँ के सीने से लिपटा हुआ था, इस खजूर के दरख़्त से कहा ऐ दरख़्त अपनी शाख़ें झुका दे और अपने फल से मेरी माँ का दिल शादकर।” ये हुक्म सुनते ही इस दरख़्त ने फ़ौरन अपना सर मर्यम के क़दमों में झुका दिया और उन्होंने उस के फल चुन कर खाए और तरो ताज़ह हो गए। इस के बाद जब दरख़्त के तमाम फल चुन लिए गए तो वो दरख़्त इसी तरह झुका खड़ा रहा क्योंकि वो उस के हुक्म का मुंतज़िर था जिसके हुक्म से वो झुका था। तब यसूअ ने उस दरख़्त से कहा “ओ खजूर के दरख़्त उठ और ख़ुश हो क्योंकि तू उन दरख़्तों के साथ होगा जो मेरे बाप की बहिश्त में हैं। मगर तू अपनी जड़ों से वो चशमा खोल दे जो ज़मीन में पोशीदा है और इस चशमा से पानी बहने दे ता कि हम प्यास बुझाएं।” फ़ौरन वो खजूर का दरख़्त सीधा खड़ा हो गया और निहायत साफ़, सर्द और शीरीं पानी के चश्मे उस की जड़ों से फूट निकले और जब उन्होंने इन चश्मों को देखा तो वो बहुत ख़ुश हुए और वो सब मय अपने खादिमों और जानवरों के मुत्मइन हो गए और ख़ुदा का शुक्रिया अदा किया।”

खजूर के दरख़्त और चशमें के क़िस्से को उस ज़माने से मुताल्लिक़ करने की बजाय जबकि वो लोग हिज्रत कर के मिस्र जा रहे थे, क़ुरआन ने इस वक़्त से मुताल्लिक़ किया है जब ईसा पैदा हुए और ये बताया कि उनकी पैदाइश दरख़्त की जड़ में हुई और इसी वक़्त दरख़्त को हुक्म दिया गया कि वो मर्यम के खाने के वास्ते अपने फल गिराए और इस को बहते हुए चशमें की भी इत्तिला दी। चूँकि इस जगह क़ुरआन और मशकूक-उल-सेहत इंजील की मुताबिक़त होती है, इसलिए क़ुरआनी अल्फ़ाज़ की भी यही तावील ज़्यादा सही होगी बजाय उस के कि इस क़ौल को जिब्रईल की तरफ़ मंसूब जाए।

अब हमें ये तहक़ीक़ करना है कि क़ुरआन ने ये ख़्याल कहाँ से लिया कि यसूअ एक दरख़्त की जड़ में पैदा हुआ था। नीज़ ये कि वो रिवायत कहाँ से आई जिसमें ये बताया गया है कि दरख़्त झुक गया और माँ और बच्चे को अपना फल खिलाया। ये कहने की ज़रूरत नहीं कि इन दोनों बातों का मुस्तनद अनाजील में मुतल्लिक़न ज़िक्र नहीं है। इन दोनों वाक़ियात का माख़ज़ बुध मत की पाली ज़बान की कुतुब में पाया जाता है। हमको महावनसू (Mahavanso) से पता चलता है कि ये वाक़िया ग़ालिबन 80 क़ब्ल मसीह के क़रीब राजा वत्तागामनी (Vattagamani) फ़र्मान रवाए सीलून के ज़माने में क़लम-बंद किया गया था। मगर ये बहुत मुम्किन है कि इन पाली कुतुब का बहुत बड़ा हिस्सा इस से भी कई सदी पेशतर क़लम-बंद किया जा चुका हो। इन कुतुब में जो रिवायत हैं वो बहुत ही क़दीम ज़माने में वुसअत के साथ ना सिर्फ हिन्दुस्तान और सीलून बल्कि वसती एशिया, चीन, तिब्बत और दीगर ममालिक में फैल गई थीं। पारसियों की मुक़द्दस किताब “यश्त” (Yacht) बाब 13-16 में लिखा है कि बुध मत के दाई ईरान में ईसा से दो सौ बरस क़ब्ल पहुंच चुके थे और मग़रिबी, मशरिक़ी, वसती और जुनूबी एशिया में बूज़ीयत से लोग बेहद मुतास्सिर हो गए। मातीयत (Manicheism) लाउदरीयत (Gnosticism) वग़ैरह क़िस्म के मज़ाहिब इसी की वजह से ज़हूर में आए थे और इसी के बाइस रहबानीयत (Monasticism) भी वजूद में आई थी। मशकूक-उल-सेहत अनाजील की बहुत सी इबारतों से ज़ाहिर होता है कि इन बातिल कुतुब के मुसन्निफ़ीन के दिलों में बूज़ीत के ख़यालात जा-गुज़ीं हो गए थे। अगरचे उनको इस अम्र का एहसास तक ना था कि ख़यालात कहाँ से आए। हम पाली की कुतुब की वो इबारतें नक़्ल करते हैं जिनमें दरख़्त के मुताल्लिक़ क़दीम रिवायत हैं।

उनमें एक रिवायत “निदाना कथा जाटकम” (Nidana Katha Jatkam) बाब 1 सफ़हात 50-53, पर मौजूद है। लिखा है कि :-

“रानी माया जो गौतमबुद्ध की वालिदा थीं, हामिला थीं और जानती थीं कि वज़ा हमल का वक़्त क़रीब आ रहा है। इसलिए उसने अपने शौहर राजा सिद्धू धन से मुल्की रस्म के मुवाफ़िक़ अपने मयके में जाने की इजाज़त हासिल कर ली ता कि वहां पहुंच कर बच्चा जने। असना-ए-सफ़र में रानी माया और उस की खूवासियन एक ख़ूबसूरत और दिल आवेज़ जंगल में दाख़िल हुईं और रानी ने जो बाअज़ दरख़्तों को फुलों से लदा देखा तो वो बेहद तारीफ़ करने लगी।” इस के बाद जो कुछ वाक़ेअहुआ वो किताब के अल्फ़ाज़ में हस्ब-ज़ैल है :-

“जब वो एक ख़ुशनुमा दरख़्त साल (एक क़िस्म का दरख़्त जिसकी लकड़ी के तख़्ते बनाए जाते हैं। साखू) के नीचे पहुंची तो उस के दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि साल के दरख़्त की शाख़ पकड़े। साल के दरख़्त की शाख़ इस तरह मुलाइम हो कर जैसे भाप में पकाई हुई लकड़ी मुलाइम हो जाती है, नीचे झुकी और इस क़द्र क़रीब हो गई कि कि रानी हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ सके। पस उसने अपना हाथ फैला कर शाख़ को पकड़ लिया।...पस जहां वो शाख़ पकड़े खड़ी हुई थी वहीं इसे वज़ा हमल हुआ।”

इस बयान में और उस में जो विलादत ईसा के बारे में क़ुरआन के अंदर है, बहुत ख़फ़ीफ़ साफ़रक है। मुहम्मदﷺ ने खजूर का दरख़्त बयान किया है क्योंकि अरब लोग इसी दरख़्त से ज़्यादा मानूस थे। इलावा अज़ीं मुल्क अरब में साल का हिन्दुस्तानी दरख़्त पैदा नहीं होता। बे-शुबह ये रिवायत हिन्दुस्तान से अरब तक पहुंचते पहुंचते बदल गई है और ऐसा उमूमन होता है। हिन्दुस्तानी रिवायत में ये बताया गया है कि बुध की वालिदा ने उन फूलों को तोड़ने के लिए जो उस के सर पर दरख़्त की शाख़ पर खिले हुए थे कोशिश जो की तो ग़ैर मुतवक़्क़े तौर पर वज़ा हमल हो गया। ये बात बिल्कुल फ़ित्री है। मगर क़ुरआन में वज़ा हमल का कोई सबब बयान नहीं किया गया कि खजूर के दरख़्त के नीचे क्यों वज़ा हमल हुआ। मगर ज़ाहिर है कि दोनों क़िस्से यकसाँ और वाहिद हैं। क़ुरआन की तरह हिन्दुस्तानी रिवायत में भी ये बात मौजूद है कि दरख़्त ने अपनी शाख़ें झुका दीं ताकि माया फूल तोड़ सके या जैसा कि क़ुरआन में लिखा है कि दरख़्त ने अपने पुख़्ता फल मर्यम पर गिरा दिए। मोख्ख़र-उल-ज़िक्र वाक़िये के मुताल्लिक़ दीगर बयानात जो ईसाईयों की अनाजील मशकूक-उल-सेहत में बयान किए गए हैं, वो इस ज़माने से ताल्लुक़ रखते हैं जबकि मर्यम व यूसुफ़ मय मसीह मिस्र की तरफ़ हिज्रत कर रहे थे। इस वक़्त मसीह शिर-ख़्वार बच्चा था। ये बयान बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि “चार या पटकम” (Charia Pitekam) बाब 1, श्लोक 9 में लिखा है। इस में बयान किया गया है कि बुध अपने किसी पिछले जन्म में राजा व सन्तरो (Veesantaru) कहलाता था। जब इस राजा ने अपनी रियाया को नाख़ुश कर दिया तो उसने उसे माज़ूल कर के मुल्क से निकाल दिया और इस के साथ उस की बीवी और दो छोटे बच्चों को भी निकाल दिया। जब ये लोग पहाड़ों की तरफ़ जो दूर फ़ासिले पर नज़र आ रहे थे बग़रज़ पनाह गज़ीनी सफ़र कर रहे थे तो बच्चों को भूक मालूम हुई। इस के बाद बुध मत की रिवायत में इस तरह बयान किया गया है।” अगर बच्चे अतराफ़ कोह में बारिदार दरख़्तों को देखते हैं तो बच्चे फलों के लिए रोते हैं, चुनान्चे बच्चों को रोता देखकर बड़े बड़े तनावर दरख़्त ख़ुद बख़ुद झुक गए और बच्चों की दस्तरस से क़रीब हो गए।”

साफ़ ज़ाहिर है कि क़ुरआन में और “तारीख़ मर्यम” में ये रिवायत ग़ैर शऊरी तौर पर बुध मत की रिवायत से ली गई है और इसी वाक़िये से इन दोनों बयानात की ग़लती साबित होती है। अगर इस बात के साबित करने की मज़ीद ज़रूरत हो कि मुहम्मदﷺ के ज़माने में बुध मत की रिवायत मग़रिबी एशिया में राइज हो गई थीं और उन्हें मसीही तारीख़ समझा जाता था, तो इस के सबूत में हम “बरलाम और जोज़ाफ़स” (Barlaam & Jusaphat) का क़िस्सा पेश करते हैं। बाअज़ का क़ौल है कि ये रिवायत छठी सदी ईस्वी में बज़बान यूनानी लिखी गई थी। मगर ज़्यादा आम तौर से यह ख़्याल किया जाता है कि उसे ख़लीफ़ अल-मंसूर बिल्लाह के ज़माना में (753 ई॰ 774 ई॰) जाहनेस दमिश़्की (Johannes Damascenus) ने लिखा था। इस किताब का ईसाई शहज़ादा जोज़ाफ़स यक़ीनन ख़ुद बुध है और ये नाम “जोज़ाफ़स” दरअस्ल “बोधि सतवा” (Bodhisattva) की बिगड़ी हुई सूरत है जो बुध के बहुत से खिताबों में से एक है। इस क़िस्से का अस्ल माख़ज़ संस्कृत ज़बान में बुध के मुताल्लिक़ एक रिवायती क़िस्सा है जिसका नाम “ललित वस्त्र” (Lalit Vistara) है। बईं-हमा यही “जोज़ाफ़स” यूनानी व रूमी दोनों कलीसियाओं में एक वली अल्लाह माना जाता है जिसके उर्स के लिए यूनानियों में 26 अगस्त और रोमीयों में 27 नवम्बर मुक़र्रर है।

ईसा के बचपन का क़िस्सा

इस वक़्त तक हमने जो कुछ लिखा है इस में किसी क़द्र ज़िक्र ईसा के बचपन का भी आ गया है। मगर अब हम इसी मौज़ू पर किसी क़द्र तफ़्सील के साथ बह्स करना चाहते हैं। सूरह आले-इमरान में लिखा है कि विलादते ईसा से क़ब्ल फ़रिश्ते ने उस की निस्बत कहा था कि “वो गहवारे में लोगों से बातें करेगा।” और सूरह मर्यम में लिखा है कि “जब कुँवारी मर्यम की क़ौम ने उसे लानत व मलामत की तो मर्यम ने बच्चे की तरफ़ इशारा किया।” जिसका मतलब ये था कि इसी बच्चे से दर्याफ़्त कर लो कि वो कैसे पैदा हुआ है। इस पर उन लोगों ने मुतअज्जिब हो कर कहा था कि “हम इस से क्योंकर बातचीत कर सकते हैं जो अभी गहवारे में बच्चा है।” इस पर शिरख्वार ईसा ने लोगों से कहा कि “तहक़ीक़ मैं ख़ुदा का बंदा हूँ, उसने मुझे किताब दी है और मुझे नबी बनाया है।”

इस रिवायत का माख़ज़ तलाश करना चंदाँ मुश्किल नहीं है। हम इस से पेशतर दिखा चुके हैं कि एक मशकूक-उल-सेहत इंजील में लिखा है कि जब ईसा अह्दे तुफुलिय्यत (बचपन) में मर्यम व यूसुफ़ के साथ मिस्र को जा रहा था तो उसने खजूर के एक दरख़्त को ख़िताब कर के यह हुक्म दिया था कि “झुक जाये और उस की माँ को अपना फल चुनने दे।” मगर ग़ालिबन जिस जगह से ये रिवायत ली गई है वो “इंजील अल-तफुलियत है। इस किताब के पहले बाब में लिखा है कि :-

“हमने काहिन आज़म जोज़ीफ़स (Josephus) की किताब में लिखा देखा है जो यसूअ के ज़माने में था और जिसे बाअज़ लोग काएफ़स (Caiphus) बताते हैं कि यसूअ उस वक़्त बात करता था जबकि वो गहवारेह में था और उसने अपनी माँ मर्यम से कहा कि “तहक़ीक़ मैं हूँ यसूअ, इब्न-अल्लाह, कलिमा जिसे तू ने जना, हसब फ़र्रमोदह जिब्रईल जिसने तुझे ख़ुशख़बरी सुनाई थी और मुझे मेरे बाप ने दुनिया की नजात के लिए भेजा है।”

यक़ीनन क़ुरआन में ये तो ज़ाहिर नहीं किया जा सकता था कि ईसा ने वो अल्फ़ाज़ कहे जो इस मस्नूई (खुदसाख्ता) इंजील के मुसन्निफ़ ने लिखे हैं, क्योंकि क़ुरआन में हर जगह ईसा के इब्न-अल्लाह होने से इन्कार किया गया है। लेकिन इस अम्र का यक़ीन करते हुए कि ईसा ने गहवारे में की, मुहम्मदﷺ ने उस की ज़बान से वह अलफ़ाज़ कहलाए जो उनके नज़्दीक मुनासिब और इस्लाम के मुवाफ़िक़ थे, वर्ना क़िस्सा एक ही है।

“इंजील अल-तुफेलियत” की अरबी ज़बान इस क़द्र ख़राब है कि हरगिज़ यक़ीन नहीं किया जा सकता कि वो मुहम्मदﷺ के ज़माने की लिखी हुई है मगर आज तक इस किताब की निस्बत ये ख़्याल कभी नहीं किया गया कि वो अरबी ज़बान में लिखी गई थी। जब हम किताब मज़्कूर का बनज़र ग़ाइर (गौर से) मुतालआ करते हैं तो मालूम होता है कि दरअस्ल ये किताब क़िबती ज़बान में लिखी गई थी और बाद में इस का तर्जुमा अरबी ज़बान में किया गया। और इस वाक़िये से ये बात साफ़ हो जाती है कि इस क़िस्से का माख़ज़ क्या है। क्योंकि ये मशहूर वाक़िया है कि वाली मिस्र ने मुहम्मदﷺ की ख़िदमत में तोहफ़्तन दो क़िबती लड़कीयां भेजी थीं। उनमें एक “मारिया क़िब्तिया” थी जो मुहम्मदﷺ की महबूब हरम बन गई थी। ये औरत अगरचे इंजील से बख़ूबी वाक़िफ़ ना थी, मगर वो इस रिवायत से ज़रूर वाक़िफ़ होगी जो “इंजील अल-तुफेलियत” मैं बयान की गई है और जो इस ज़माना में बहुत मशहूर थी। मुहम्मदﷺ ने ग़ालिबन ये क़िस्सा इसी मारिया क़िब्तिया से मालूम किया और ये यक़ीन कर के कि ग़ालिबन ये उन अनाजील में दर्ज होगा जिन्हें तमाम ईसाई आम तौर पर इल्हामी समझते हैं, मुहम्मदﷺ ने इस क़िस्से को क़ुरआन के अंदर दाख़िल कर दिया। मुम्किन है कि मारिया क़िब्तिया के इलावा इस क़िस्से के रावी और भी हों। मगर रावी कोई भी हो, ये बात ज़ाहिर है कि इस का माख़ज़ यक़ीनन वही है जो हमने बयान किया। वाज़ेह हो कि किताब “इंजील अल-तुफेलियत” मिनजुम्ला उन मुतअद्दिद कुतुब के है जो बहुत बाद में लिखी गई थीं और जिन्हें किसी नसरानी फ़िर्क़े ने भी इल्हामी ख़्याल नहीं किया था। इसी क़िस्म की दूसरी किताब जिनका क़ुरआन पर बहुत बड़ा असर है वो ये हैं :-

(Protevangelium of James, Gospel of Thomas the Israelite., Gospel of Nicodemus) जिसका दूसरा नाम (Gesta Plilati) भी है और (The Narrative of Joseph of Arimathea)

मुंदरजा बाला कुतुब मह्ज़ दिलचस्प दास्तानें हैं जिन्हें लोग बग़ैर ख़्याल सेहत व अदम सेहत के पढ़ते थे बल्कि अक्सर ये भी जानते थे कि ये पुराने क़िस्से हैं और उनको कोई तारीख़ी एहमीय्यत हासिल नहीं। लेकिन बाअज़ कम इल्म लोग ऐसे भी थे जो इन रिवायत को सही समझते थे।

हम बाअज़ मिसालें ऐसी पेश कर चुके हैं जिनमें बाअज़ क़िसस का माख़ज़ बुध मत के क़दीम क़िस्से हैं। यसूअ का आलम तिफ़्ली (बचपन) में जबकि वो गहवारा में था लोगों से गुफ़्तगु करना भी इसी क़िस्म का एक क़िस्सा है। इसी क़िस्म का मोअजिज़ा “ललित वसतर” (Lalit-Viscera) बुध चरित (Budh Carita ) और दीगर संस्कृत कुतुब में भी बुध की निस्बत पाया जाता है। किताब (Romantic Legend ) में हमको निहायत मितानत के साथ बताया गया है कि बुध पैदा होते ही “फ़ौरन सात क़दम उफ़ुक़ की हर-सम्त चला और जो क़दम वो रखता था, हर क़दम पर उस के पांव के नीचे की ज़मीन से कंवल का फूल पैदा हो जाता था और जब वो नज़र जमा कर किसी सिम्त को देखता था तो उस के मुँह से ये अल्फ़ाज़ निकलते थे।”....तमाम दुनिया में सिर्फ मैं ही सरदार हूँ।” एक और चीनी संस्कृत की किताब में भी यही क़िस्सा बयान किया गया है और लिखा है कि बुध के अल्फ़ाज़ ये थे “ये जन्म बहैसीयत बुध लिया गया है, इस के बाद में कोई नया जन्म नहीं लूँगा। बस अब मैं सिर्फ इसी मर्तबा के लिए पैदा हुआ हूँ ताकि तमाम दुनिया को नजात दूं।”

बुध मत और नस्रानीयत के दर्मियान जो फ़र्क़ है अगर इस से क़त-ए-नज़र कर के देखा जाये तो मुंदरिजा-बाला इबारत के आख़िरी अल्फ़ाज़ इन अल्फ़ाज़ से बेहद मुशाबेह हैं जो “इंजील अल-तुफेलियत” में पाए जाते हैं यानी “मेरे बाप ने मुझे दुनिया की नजात के लिए भेजा है।” बल्कि ये मालूम होता है कि एक इबारत दूसरी का लफ़्ज़ी तर्जुमा है। ये वाक़िया कि ईसा ने अह्द शिरख्वारी में गुफ़्तगु की, क़ुरआन की सूरह माइदा की आयात में भी पाया जाता है, जिनका तर्जुमा है :-

“जब अल्लाह कहेगा कि ऐ ईसा इब्ने-मरियम याद कर मेरी इन नेअमतों को जो मैंने तुझ पर और तेरी माँ पर नाज़िल कीं, जब मैंने रूहुल-क़ुद्दुस से तुझको क़ुव्वत दी। तू लोगों से गहवारे में और बड़ा हो कर बातें करता था और जब मैंने तुझे किताब और हिक्मत और इंजील सिखाई और जब तू ने चिकनी मिट्टी से मेरे हुक्म से चिड़िया जैसी एक शक्ल बनाई, फिर तू ने इस में रूह फूंकी और वो उसी वक़्त चिड़िया बन गई मेरे हुक्म से, तू ने अँधों और जुज़ामियों (कोढ़ीयों) को मेरे हुक्म से शिफ़ा दी, जब तू ने मुर्दों को मेरे हुक्म से ज़िंदा किया और जब मैंने बनी-इस्राईल को तुझसे रोका। और जब तू उनके पास साफ़ दलाईल लेकर पहुंचा। पस उनमें से जिन्हों ने कुफ़्र किया कहा कि ये साफ़ जादू होने के सिवा और कुछ नहीं।”

यहां ईसा का अँधों, जुज़ामियों (कोढ़ीयों) को शिफ़ा देना और मुर्दों को ज़िंदा करना जो कुछ लिखा है वो बिलवास्ता अनाजील अरबा से अख़ज़ किया जा सकता है और इसी क़िस्म की बातें मशकूक-उल-सेहत अनाजील में भी दर्ज हैं। मगर मिट्टी की चिड़ियां बनाने और उनमें जान डालने के बारे में जो कुछ बयान किया गया है वो मशकूक-उल-सेहत किताब “इंजील तामस इस्राईली” से माख़ूज़ है, जिसके दूसरे बाब में ये लिखा है कि :-

“ये लड़का यसूअ जब पाँच बरस का हो गया तो वो एक चशमें के किनारे खेल रहा था। उसने पानी को गड्ढों में भर लिया था और वो फ़ौरन एक ही हुक्म देकर इन गड्ढों को साफ़ कर देता था। और उसने किसी क़द्र बारीक मिट्टी गूँध कर उस की बारह चिड़ियां बनाईं मगर जिस रोज़ वो हरकतें कर रहा था वो यौम-उस-सबत था। मगर उस के साथ बहुत से और लड़के भी खेल रहे थे। लेकिन एक यहूदी ने देखा कि यसूअ क्या कर रहा है यानी सबत के दिन खेल रहा है। पस वो फ़ौरन गया और यसूअ के बाप यूसुफ़ से कहा “देखो तुम्हारा लड़का चशमे पर है। उसने मिट्टी लेकर उस की बारह चिड़ियां बनाईं और उसने यौम-उस-सबत की बे-हुरमती की। यूसुफ़ मौक़े पर पहुंचा और देखकर चिल्लाया “क्यों तू सबत के दिन एसी हरकतें कर रहा है जबकि ऐसा करना ना जायज़ है?” मगर यसूअ ने तालियाँ बजा कर चिड़ियों को आवाज़ दी और उनसे कहा कि “उड़ जाओ” और वो चिड़ियां उड़ीं और चहचहाती हुई चली गईं। जब यहूदीयों ने ये बात देखी तो वो हैरान व शश्दर रह गए और उन्होंने जा कर जो कुछ देखा था और जो यसूअ ने किया था अपने सरदारोँ से बयान किया।”

ये अम्र क़ाबिल-ए-तवज्जा है कि ये तमाम क़िस्सा अरबी की “इंजील अल-तुफेलियत” में दो मर्तबा बयान हुआ है, यानी एक मर्तबा बाब 36 और दूसरी मर्तबा बाब 46 में। इस का बाइस ये है कि इस किताब का एक हिस्सा “इंजील तामस इस्राईली” से लिया गया है। यहां भी हम ये बात देखते हैं कि अगरचे ये रिवायत वही है जो क़ुरआन में मुख़्तसरन बयान की गई है। मगर मालूम होता कि मुहम्मदﷺ ने ये मुख़्तसर बयान किसी तहरीर से नहीं बल्कि अपनी याददाश्त से दर्ज किया और इसी लिए उन्होंने बारह की बजाय सिर्फ एक चिड़िया का ज़िक्र किया है। और ये भी लिखा है कि इस चिड़िया में यसूअ के हुक्म से नहीं बल्कि ख़ुद अपनी सांस फूँकने से जान पड़ गई थी। क़ुरआन के मुख़्तसर बयान से ना सिर्फ ये ज़ाहिर होता है कि ये क़िस्सा उस ज़माने में काफ़ी राइज था और सब उस को सही मानते थे बल्कि ये भी कि उस वक़्त अहले मदीना को सही अनाजील का किस क़द्र कम इल्म था। क्योंकि उनमें ये कहीं नहीं लिखा कि मसीह ने बचपन में कोई मोअजिज़ा दिखाया बल्कि बक़ौल युहन्ना 1:11 मसीह ने उस वक़्त तक कोई मोअजिज़ा नहीं दिखाया था जब तक उसे बत्तीस बरस की उम्र के क़रीब बपतिस्मा नहीं दिया गया।

माइदा

(दस्तर ख़्वान जिस पर खाना चुना हो)

ईसा का ये मफ़रूज़ा मोअजिज़ा क़ुरआन की सूरह माइदा आयात 112-115 में इस तरह है :-

إِذْ قَالَ الْحَوَارِيُّونَ يَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ هَلْ يَسْتَطِيعُ رَبُّكَ أَن يُنَزِّلَ عَلَيْنَا مَائِدَةً مِّنَ السَّمَاءِ قَالَ اتَّقُوا اللَّهَ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ قَالُوا نُرِيدُ أَن نَّأْكُلَ مِنْهَا وَتَطْمَئِنَّ قُلُوبُنَا وَنَعْلَمَ أَن قَدْ صَدَقْتَنَا وَنَكُونَ عَلَيْهَا مِنَ الشَّاهِدِينَ قَالَ عِيسَى ابْنُ مَرْيَمَ اللَّهُمَّ رَبَّنَا أَنزِلْ عَلَيْنَا مَائِدَةً مِّنَ السَّمَاءِ تَكُونُ لَنَا عِيدًا لِّأَوَّلِنَا وَآخِرِنَا وَآيَةً مِّنكَ وَارْزُقْنَا وَأَنتَ خَيْرُ الرَّازِقِينَ قَالَ اللَّهُ إِنِّي مُنَزِّلُهَا عَلَيْكُمْ فَمَن يَكْفُرْ بَعْدُ مِنكُمْ فَإِنِّي أُعَذِّبُهُ عَذَابًا لَّا أُعَذِّبُهُ أَحَدًا مِّنَ الْعَالَمِينَ

तर्जुमा : जब ईसा के हवारियों ने उस से कहा कि या ईसा इब्ने-मरियम क्या तेरा ख़ुदावंद हमारे लिए आस्मान से खाना नाज़िल करना मंज़ूर के लेगा, तो उसने कहा कि डरो ख़ुदा से अगर तुम मोमिन हो। उन्होंने कहा कि हम ये चाहते हैं कि उस में से खाएं और कि हमारे दिल मुत्मइन हो जाएं और हमको ये भी मालूम हो जाए कि तूने जो कुछ हमसे कहा है, वो बिल्कुल सच्च कहा है। नीज़ ये कि हम इस के गवाह हो जाएं। तब ईसा इब्ने-मरियम ने कहा कि ऐ ख़ुदा तू हमारे लिए आस्मान से एक ख़वान (तबाक़) भेज देता कि हम में सबसे अव्वल और सबसे आख़िर यानी सब के लिए ईद हो जाये और तेरा निशान हो और तू हमको रिज़्क़ भेज क्योंकि तू बेहतरीन राज़िक़ है। इस पर अल्लाह ने फ़रमाया “यक़ीनन मैं तुम्हारे पास खाना भेजूँगा। मगर जो शख़्स तुम में से इस के बाद कुफ़्र करेगा तो मैं यक़ीनन उसे सख़्त अज़ाब में मुब्तला करूँगा कि आज तक किसी को ना किया होगा।”

इस क़िस्सा के मुताल्लिक़ अगर मुल्क हब्श की कोई रिवायत हो तो दूसरी बात है, क्योंकि जो लोग सबसे पहले इस्लाम लाए थे वो मुख़ालिफ़ीन के ज़ुल्म-ओ-सितम के बाइस मुल्क हब्श को हिज्रत कर गए थे। और वहां से मुम्किन है वो कोई रिवायत अपने साथ लाए हों, वर्ना ये बात अह्द नामा-ए-जदीद की इबारत सही ना समझने से पैदा हुई। इंजील लूक़ा 20:30 में लिखा है मसीह ने अपने शागिर्दों से कहा “ता कि तुम मेरी सल्तनत में मेरे दस्तर ख़्वान पर खा पी सको।” मुहम्मदﷺ को बे-शुबह मालूम था कि नसारा बमूजब इंजील मत्ती 26:20-29, इंजील मरक़ुस बाब 14 आयात 17-25, इंजील लूक़ा बाब 22 आयात 14-30 और इंजील युहन्ना बाब 13 आयात 1-30 इशाए रब्बानी की तक़रीब मनाते हैं। मगर जिस चीज़ की वजह से उनको ये ख़्याल पैदा हुआ कि ख़वान-ए-निअमत आस्मान से नाज़िल हुआ था, वो यक़ीनन किताब आमाल बाब 10 आयात 9-16 का बयान था जिसमें रोया-ए-पतरस को इसी तरह बयान किया गया है :-

“दूसरे दिन जब वो राह में थे और शहर के नज़्दीक पहुंचे तो पतरस दोपहर के क़रीब कोठे पर दुआ करने को चढ़ा। और उसे भूक लगी और कुछ खाना चाहता था लेकिन जब लोग तैयार कर रहे थे तो उस पर बेखुदी छा गई। और उसने देखा कि आस्मान खुल गया और एक चीज़ बड़ी चादर की मानिंद चारों कोनों से लटकती हुई ज़मीन की तरफ़ उतर रही है। जिसमें ज़मीन के सब चौपाए और कीड़े मकोड़े और हवा के परिंदे हैं। और उसे एक आवाज़ आई कि ऐ पतरस उठ ! ज़ब्ह कर और खा। मगर पतरस ने कहा ऐ ख़ुदावंद हरगिज़ नहीं क्योंकि मैंने कभी कोई हराम या नापाक चीज़ नहीं खाई। फिर दूसरी बार उसे आवाज़ आई कि जिनको ख़ुदा ने पाक ठहराया है तू उन्हें हराम ना कह। तीन बार ऐसा ही हुआ और फ़ील-फ़ौर वो चीज़ आस्मान पर उठा ली गई।”

सूरह माइदा की जिन आयात का तर्जुमा हमने पेश किया है। उनके आख़िरी अल्फ़ाज़ इस अम्र का सबूत कि मुहम्मदﷺ के दिल में इशा-ए-रब्बानी का ख़्याल था क्योंकि इन अल्फ़ाज़ में पौलुस रसूल के इस इंतिबाह की झलक नज़र आती है जो इशा-ए-रब्बानी को बदतमीज़ी के साथ खाने पर किया गया है। जिस किसी शख़्स ने अह्द नामे-जदीद को पढ़ा या पढ़ते हुए सुना होगा वो हरगिज़ ऐसा नहीं कर सकता कि पतरस के रोया और इशाए रब्बानी में ग़लत मबहस कर दे या उस रोया को ये समझ ले कि ईसा इब्ने-मरियम की ज़िंदगी में कोई ख़वान-ए-निअमत आस्मान से नाज़िल हुआ था। ये मज़्मून जो इन आयात में दर्ज है इस बात की एक दिलचस्प मिसाल है कि रिवायत किस तरह पैदा हुआ करती हैं।

मुहम्मदﷺ और अक़ीदा-ए-तस्लीस

इस बाब के इब्तिदाई हिस्से में हम मुख़्तसरन इस मज़्मून की तरफ़ इशारा कर चुके हैं। लेकिन बाब हज़ा का जो उन्वान हमने क़ायम किया है, इस पर मज़ीद रोशनी डालने के लिए ये ज़्यादा मुनासिब मालूम होता है कि इस मौज़ू पर किसी क़द्र तफ़्सील के साथ बह्स की जाये। मुहम्मदﷺ ने जिस तरह तस्लीस व तौहीद के मसीही अक़ीदे को समझा था, वो बिल्कुल इसी तरह था जैसे कि उन्होंने इशाए रब्बानी के मुआमले को समझा। क़ुरआन की आयात का मफ़्हूम है :-

“जब अल्लाह ने फ़रमाया कि ऐ ईसा इब्ने-मरियम क्या तू ने लोगों से ये कहा था कि मैं और मेरी माँ ख़ुदा के इलावा दो ख़ुदा हैं।” “ऐ अहले-किताब तुम अपने देन में हद से ज़्यादा ना बढ़ो और अल्लाह के ख़िलाफ़ झूट ना बोलो बल्कि सच्च बोलो। मसीह ईसा इब्ने-मरियम सिर्फ़ अल्लाह का एक बंदा और उस का कलिमा है जो उस ने मर्यम में डाला और उस की रूह है। पस तुम ईमान लाओ अल्लाह और उस के रसूल पर और मत कहो “तीन।” बाज़ आओ इस हरकत से क्योंकि ये तुम्हारे लिए अच्छा है। तहक़ीक़ अल्लाह वाहिद माबूद है। ये उस की शान के ख़िलाफ़ है कि उस के कोई बेटा हो। जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीनों में है, वो सब उस का है और अल्लाह वकालत के लिए काफ़ी है।” (सूरह निसा आयत 171)

“यक़ीनन वो लोग कुफ़्र करते हैं जो ये कहते हैं कि तहक़ीक़ अल्लाह तीन में से तीसरा है। और कोई माबूद नहीं है सिवाए अल्लाह के। और जो कुछ वो कहते हैं अगर वो इस से बाज़ ना आएँगे तो यक़ीनन एक सख़्त तक्लीफ़-देह अज़ाब उन पर नाज़िल होगा जो कुफ़्र करेंगे।” (सूरह माइदा आयत 73)

जलाल उद्दीन और यहया मुफ़स्सिरीन क़ुरआन ने लिखा है कि ये आयात जवाब हैं उन नसारा के बयानात का जो कहते थे कि ख़ुदा तीन हैं यानी ख़ुदा बाप, मर्यम और यसूअ। इन आयात से ये बात भी बिल्कुल साफ़ ज़ाहिर होती है यक़ीनन महमुदﷺ को इस बात का कामिल यक़ीन था कि नसारा के दर्स तस्लीस में तीन अलेहदा (अलग) अलेहदा (अलग) ख़ुदा हैं और यसूअ व मर्यम इनमें से दो हैं। लेकिन तीसरी आयत से मालूम होता कि मुहम्मद ﷺ के ख़्याल में इन ख़ुदाओं की तर्तीब यसूअ, मर्यम और ख़ुदा....या मर्यम, यसूअ और ख़ुदा थी।

हमको अफ़्सोस है कि इस ज़माने में जिस सनम परसताना (बुत-परस्ती) तरीक़ा से लोग मर्यम की प्रसतिश किया करते थे उस की वजह से मुहम्मदﷺ को ये यक़ीन हो गया कि जो लोग मर्यम को “बहिश्त की मलिका” और “ख़ुदा की माँ” कहते हैं, वो दरहक़ीक़त मर्यम में शान उलूहियत मानते हैं। उनका ये ख़्याल बिलकुल सही था कि नसारा ने मर्यम के मुक़ाबले में ख़ुदा को उस के अर्श से माज़ूल कर दिया था। लेकिन अगर मुहम्मदﷺ को ये मालूम होता कि नस्रानीयत की बुनियाद ही तौहीद पर है (इस्तिस्ना 4:4 और इंजील मरकुस 12:29) तो वो शायद ऐसा ना कहते। मुहम्मदﷺ ने मसला तस्लीस-फ़ील-तौहीद की असली तफ़सीर व तशरीह ग़ालिबन कभी ना सुनी होगी। वर्ना वो ये बात ज़रूर जान लेते कि ईसाई उलमाए दीन बाप की निसबत “तीन में का तीसरा” का लफ़्ज़ नहीं इस्तिमाल करते थे बल्कि गॉड हेड (God Head) यानी “सर चश्म-ए-उलूहियत” कहते थे।

ये बात क़ाबिल-ए-तवज्जा है कि अगरचे मर्यम की इस तरह ग़ैर ज़रूरी शान बढ़ाना जिसे देखकर मुहम्मदﷺ बाइबल की सच्ची तालीम से मुनहरिफ़ हो गए, दीने मसीही के ख़िलाफ़ है। मगर इस किस्म के बातिल ख़्यालात और रस्मों की बाद की लिखी हुई मशकूक-उल-सेहत अनाजील से बहुत कुछ हौसला-अफ़्ज़ाई होती है। ख़ुसूसन उन अनाजील बातिल से जो मुहम्मदﷺ का नस्रानीयत के मुताल्लिक़ ज़रीया मालूमात थीं। ये बात हमने इस लिए ज़ाहिर कर दी है कि मुसलमान ये ना कहने लगे कि वो “इंजील अल-तुफेलियत” वग़ैरा जैसी किताबों की निसबत ये साबित कर सकता है कि वो बमुक़ाबला अनाजील मशमूला अह्द नामा-ए-जदीद के ज़्यादा मुस्तनद हैं और उन्हीं में इब्तिदाई दीने ईसवी की तालीम है जो ईसा ने लोगों को सिखाई थी। हमको ये तजुर्बा है कि मुसलमान लोग इस किस्म की बातें अक्सर करने लगते हैं।

मस्लुबियत मसीह से इन्कार

ये बात आम तौर पर मशहूर है कि मुसलमानों ने इब्तिदा ही से इस बात से इन्कार किया है कि मसीह की वफ़ात सलीब पर हुई थी। इस बारे में उनकी दलील क़ुरआन की सूरह निसा की आयत 157-158 है जिसमें यहूदीयों की निस्बत लिखा है कि :-

“वो कहते थे कि मसीह ईसा इब्ने-मरियम रसूल अल्लाह को क़त्ल कर दिया। और उन्होंने ना उस को क़त्ल किया, ना उस को मस्लूब किया बल्कि इस बारे में शुब्हा में डाल दिए गए और यक़ीनन जो लोग इस बारे में इख़्तिलाफ़ करते हैं वो इस मुआमले में शुब्हा रखते हैं। उन्हें इस मुआमले का कोई इल्म नहीं। सिर्फ क़ियास आराई है और यक़ीनी तौर पर उन्हें कुछ मालूम नहीं। नहीं अल्लाह ने उस (ईसा) को अपनी तरफ़ उठा लिया और अल्लाह ताक़तवर और हिक्मत वाला है।”

मुहम्मदﷺ ने जो मस्लुबियत मसीह से इन्कार किया इस बारे में ये भी नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने ऐसी मशकूक-उल-सेहत अनाजील से मदद ली जो उस को बेहद महबूब थीं। ये भी कहना ग़ैर ज़रूरी है कि मुहम्मदﷺ ने अह्दनामा अतीक़ और अह्दनामा जदीद दोनों की मुख़ालिफ़त की और ग़ालिबन मह्ज़ इस वजह से कि उनके नज़्दीक ये बात मसीह की शान के ख़िलाफ़ थी कि उसे सलीब दी जाये और उस के दुश्मन उसे क़त्ल कर दें। मुहम्मदﷺ को इस का और ज़्यादा यक़ीन हो गया जब उन्होंने ख़ुद अपने दुश्मन यहूदीयों को इस बात पर फ़ख़्र करते देखा कि उन्होंने यसूअ को क़त्ल कर दिया था। यही बाइस है कि मुहम्मदﷺ ने बाअज़ नसारा-ए-मोअतज़िला (Heresiarchs) का ये बयान बड़ी ख़ुशी से क़ुबूल कर लिया कि मसीह को सलीब नहीं दी गई। बहुत से नसारा-ए-मोअतज़िला ने ज़मान मुहम्मदﷺ से बहुत अरसे पहले इस बात से इन्कार कर दिया था कि मसीह को तकलीफ़ें दी गई थीं। आरेनीस (Irenaus) ने एक लाउदरी मोअतज़िला मुसम्मा बासील्दीज़ (Basilides) की ताअलीमात का हवाला देकर लिखा है कि मसीह के मुताल्लिक़ ये शख़्स अपने गुमराह मुतबईन को ये सिखाया करता था कि :-

“उस को कोई तक्लीफ़ नहीं हुई बल्कि एक शख़्स मुसम्मा शमाउन (Simon) साकिन सायरीनेह (Cyrene) को मज्बूर किया गया था कि वो मसीह की बजाय उस की सलीब उठा कर ले चले। पस ला-इल्मी और ग़लती की वजह से इसी शख़्स को सलीब दी गई थी जिसे मसीह की सूरत में तब्दील कर दिया गया था ताकि लोगों को ये ख़्याल गुज़रे कि यही ख़ुद मसीह है।”

इस इक़्तिबास की इबारत क़ुरआन की इबारत से क़रीब मिलती जूलती है। बईं-हमा मुहम्मदﷺ हर बात में बासीलदीज़ के हम-ख़याल नहीं क्योंकि मोख्ख़र-उल-ज़िक्र के ख़्याल में मसीह ख़ुदा का “νουσ” यानी ज़हन था। लिहाज़ा उस को किसी क़िस्म का सदमा नहीं पहुंच सकता था क्योंकि वो असली इन्सानी जिस्म ही नहीं रखता था। ये अक़ीदा क़ुरआन के बिल्कुल ख़िलाफ़ है क्योंकि येसूअ अगरचे नबी और रसूल था, मगर फिर भी वो जिस्म इन्सानी रखता था। औरत के बतन से पैदा हुआ था और उस के लिए किसी ना किसी वक़्त मरना था। मुहम्मदﷺ ने बासीलीदेज़ के उसूल से मुख़ालिफ़त भी की और इस उसूल से इस्तिख़्राज शूदा नतीजे को मंज़ूर भी कर लिया।

ये ख़्याल कि मसीह सिर्फ़ बज़ाहिर फ़ौत हुआ था, सिर्फ़ बासीलीदेज़ तक महदूद ना था। फ़ाथीव्स (Photius) ने अपनी किताब “बिब्लियोतिका” (Bibliotheca) में ये वाक़िया क़लम-बंद किया है कि एक मशकूक-उल-सेहत किताब “इस्फ़ार हवारियिन” में बयान किया गया है कि “मसीह मस्लूब नहीं किया गया बल्कि उस की जगह कोई दूसरा शख़्स सलीब दिया गया था।” मानी (Mani) वो मशहूर व मारूफ़ शख़्स जिसने किसी ज़माने में ईरान के अंदर इस क़द्र ज़बरदस्त असर हासिल कर लिया था, वो भी कहता था कि “शाह ज़ुल्मत को सलीब से बांध दिया गया और इसी शख़्स पर कांटों का ताज रखा गया।” बईं-हमा क़ुरआन की मुख़्तलिफ़ आयात में बहुत जगह ये लिखा है कि यसूअ की वफ़ात ज़रूर होगी और जिस तरह तमाम इन्सान फ़ौत होते हैं इसी तरह वो भी मरेगा, मसलन सुरह आले-इमरान आयत 54 में लिखा है कि “ऐ ईसा तहक़ीक़ मैं तुझे वफ़ात दूँगा और तुझे अपनी तरफ़ उठा लूँगा (यानी अपने दरबार में तेरा दर्जा बुलंद करूँगा) और जिन लोगों ने कुफ़्र किया उनसे तुझे पाक करूँगा।” इसी तरह सूरह मर्यम आयत 33 में है “सलामती हो मुझ पर उस रोज़ जब मैं पैदा हुआ और उस रोज़ जबकि मैं मरूँगा और उस रोज़ जबकि में ज़िंदा उठाया जाऊँगा।

मुसलमान मुफ़स्सिरीन इन आयात के मअनी पर मुत्तफ़िक़-उल-ख़याल नहीं हैं। बाअज़ कहते हैं कि जब यहूदीयों ने ईसा को सलीब देना चाहा तो उन्होंने ईद अल-फ़सह से एक दिन क़ब्ल शाम के वक़्त यसूअ और उस के हवारियों को गिरफ़्तार कर के क़ैद कर दिया, इस इरादे से कि दूसरे रोज़ सुबह को उसे क़त्ल कर दें। मगर रात के वक़्त अल्लाह ने ईसा पर वह्यी नाज़िल फ़रमाई कि “तुझे मेरी वजह से ज़ाइकतुल मौत (मौत का मज़ा) चखना चाहिए। मगर तुझे फ़ौरन ही मेरी तरफ़ उठा लिया जाएगा और तू काफ़िरों की ताक़त से महफ़ूज़ हो जाएगा।” पस यसूअ मर गया और तीन घंटे तक मुर्दा रहा। बाअज़ कहते हैं कि ज़्यादा अर्से तक मुर्दा रहा। बिलआख़िर जिब्राईल आया और ईसा को खिड़की के रास्ते से बाहर निकाल कर आस्मान पर ले गया। और ये बात किसी ने ना देखी। एक काफ़िर यहूदी जासूस को ग़लती से ईसा समझ लिया गया और उसे सलीब दे दी गई। मगर आम बल्कि दरअस्ल आलमगीर राय मुसलमानों की फ़ीज़मानिना वो है जिसकी ताईद “क़िसस-उल-अम्बिया” और “आरईस-उल-तीजान” (عرایس التیجان) वग़ैरह ऐसी किताबों से होती है। इन कुतुब में बयान किया गया है कि जब यहूदीयों ने इस मकान का मुहासिरा (घेरना) कर लिया जिसमें ईसा और उस के हवारिन थे तो जिब्राईल आकर ईसा को खिड़की में से या छत में से ज़िंदा उठा कर चर्ख़ चहारुम (चौथे आस्मान) पर ले गए। शीयुग़ “मुल्क अलयहूद” या उस का एक दोस्त मुसम्मा फ़लतयानूस (Faltianus) यसूअ को क़त्ल करने के लिए जो मकान में दाख़िल हुआ तो लोगों ने ग़लती से उसी को ईसा समझ लिया और क़त्ल डाला। बहर-ए-हाल ईसा ज़रूर मरेगा और इस ग़रज़ के लिए दुनिया पर वापिस आएगा क्योंकि आयात मुंदरिजा-बाला का मफ़्हूम यही है, नीज़ सुरह निसा आयत 159 में लिखा है :-

’’وان مّن اہل الکتاب الا لئیو مننّ بہٖ قبل سوتہٖ‘‘۔

“यानी तहक़ीक़ अहले-किताब में से कोई ऐसा ना होगा जो इस पर उस की मौत से क़ब्ल ईमान ना लाएगा।”

इस में भी बहुत से मुफ़स्सिरीन के नज़्दीक वफ़ात मसीह की तरफ़ इशारा है क्योंकि जब दज्जाल का ख़ुरूज होगा और वो गुमराह कर के लोगों को काफ़िर बना लेगा और जिस वक़्त इमाम मह्दी बहुत से मुसलमानों के साथ बैतुल-मुक़द्दस में होंगे, उस वक़्त ईसा आएगा और दज्जाल से जंग करके उस को क़त्ल करेगा और नसारा को दीन इस्लाम की दावत देगा। ईसा का मज़्हब इस्लाम होगा और जो शख़्स इस्लाम लाएगा, उसे वो पनाह देगा और जो शख़्स इस्लाम नहीं लाएगा, वो क़त्ल कर दिया जाएगा। वो मशरिक़ से लेकर मग़रिब तक तमाम दुनिया को फ़त्ह कर लेगा और दुनिया की तमाम आबादी को मुसलमान करेगा। और वो दीन इस्लाम की सदाक़त इस हद तक क़ायम करेगा कि दुनिया-भर में एक मुतनफ़्फ़िस (इंसान) भी काफ़िर नहीं रहेगा और दुनिया पूरी तरह मुहज़्ज़ब-ओ-मुतमद्दिम हो जाएगी। और उस पर ख़ुदा की कसीर बरकतें नाज़िल होंगी और वो अदल व इन्साफ़ की तक्मील करेगा। यहां तक कि शेर और बकरी एक घाट पानी पीने लगेंगे और वो बदकारों पर नाराज़ होगा। इस तरह चालीस बरस तक दुनिया को तरक़्क़ी देने के बाद वो भी ज़ाइकतुल-मौत (मौत का मज़ा) चखेगा और दुनिया से उठ जाएगा। तब मुसलमान लोग उस को हुज्रा-ए-मुहम्मद के क़रीब दफ़न करेंगे।

मसीह के दुनिया में वापिस आने और अपनी सल्तनत तमाम दुनिया पर क़ायम करने का ख़्याल इंजील के ऐन मुताबिक़ है और इसी से लिया गया है। ख़ुसूसुन ऐसे मुक़ामात से जैसे किताब आमाल बाब 1:11, मुकाशफ़ा 7:1,यसअयाह 11:1-10। मगर अफ़्सोस इस्लाम के हाथों से शमशीर बुर्रां यहां भी नहीं छुटी, यानी मसीह आकर बज़रीये नोक शमशीर (तल्वार की नोक पर) इस्लाम फैलाएगा। दज्जाल की शिकस्त की तरफ़ इशारा है। वो ग़ालिबन 2 थिस्ल 2:8-10 और इसी क़िस्म की इबारतों से माख़ूज़ है। लेकिन तहक़ीक़ तलब अम्र ये है कि अगर आयात क़ुरआनी मुंदरजा बाला का ये मतलब है कि मसीह को मौत ज़रूर आएगी, जैसा कि बक़ीही और दीगर मुहद्दिसीन के बयानात से भी मालूम होता है, तो ये ख़्याल कहाँ से लिया गया जबकि ये ख़्याल इंजील के क़तई खिलाफ है। (मुलाहिज़ा हो मुकाशफ़ा 1:17-18)

इस का सुराग़ भी हमको अनाजील बातिला में मिलता है। एक अरबी किताब में जो ग़ालिबन पहले क़िबती ज़बान में थी जिसका नाम “हमारे मुक़द्दस बाप बूढ़े यूसुफ़ नज्जार की वफ़ात” है, इदरीस और इल्यास के बारे में जो बग़ैर वफ़ात पाए आस्मान पर चले गए थे, ये लिखा है कि “इन लोगों को इख़तताम ज़माने (आखिरी ज़माने) पर ज़रूर दुनिया में आना पड़ेगा। जबकि हर तरफ़ तक्लीफ़, मुसीबत, ख़ौफ़, दहश्त और ज़ुल्म-ओ-सितम तारी होगा और वो यहां आक ज़रूर मरेंगे।” इसी क़िस्म की एक क़िबती किताब और है जिसका नाम “मर्यम के सो जाने की तारीख़” है। इस में भी क़रीब क़रीब यही अल्फ़ाज़ लिखे हैं, मसलन “अब रहे दूसरे (इदरीस और इल्यास) इन के लिए ज़ाइक-तुल-मौत चखना ज़रूरी है।” क़ुरआन में भी इस क़िस्म के जुमले पाए जाते हैं ’’کلّ نفسٍ ذائقۃ الموت‘‘ यानी “हर मुतनफ़्फ़िस (नफ्स) को मौत का मज़ा चखना पड़ेगा।” चूँकि मुहम्मदﷺ ने हर जगह ये बयान किया है कि ईसा आस्मान पर ज़िंदा चले गए, इसलिए उनके दिल में ये ख़्याल क़ुदरतन पैदा होना चाहीए था कि इदरीस व इल्यास की तरह वो भी दुनिया पर ज़रूर आकर मरेगा। मुसलमानों की रिवायत में ये भी बयान किया जाता है कि दुनिया में दुबारा आकर ईसा अपनी शादी करेगा। ये ख़्याल ग़ालिबन मुकाशफ़ा 19:7-9 को ग़लत समझने से पैदा हुआ। इन आयात में लिखा है कि :-

“आओ हम ख़ुशी करें और निहाईत शादमान हों और उस की तमजीद करें। इसलिए कि बर्रे की शादी आ पहुंची और उस की बीवी ने अपने आपको तैयार कर लिया। और उस को चमकदार और साफ़ मुहीन कत्तानी कपड़ा पहनने का इख़्तियार दिया गया क्योंकि मुहीन कत्तानी कपड़े से मुक़द्दस लोगों की रास्त बाज़ी के काम मुराद हैं। और उस ने मुझ से कहा लिख। मुबारक हैं वो जो बर्रे की शादी की ज़याफ़त में बुलाए गए हैं। फिर उस ने मुझ से कहा ये ख़ुदा की सच्ची बातें हैं।”

यक़ीनन इन आयात में इस्तआरतन बात कही गई है, जिसका मतलब रुहानी उमूर में कामिल मुहब्बत और कामिल इत्तिहाद है जो इस ज़माने में मसीह और उस की पाक शूदा और नजात याफ्ताह कलीसिया के दर्मियान होगा (ये बात मुकाशफ़ा 21:2 और इफ़िसियों 5:22-32 में समझा दी गई है।) ये बात कि ईसा दुनिया में दोबारा आकर चालीस बरस तक रहेगा किताब आमाल 1:3 की ग़लतफ़हमी से पैदा हुई है, जहां ये लिखा है कि यसूअ मुर्दों में से जी उठने और आस्मान पर चढ़ जाने के दर्मियान चालीस दिन तक अपने शागिर्दों के साथ रहा।

बिअसत मुहम्मदﷺ की निस्बत ईसा की पेशगोई

बाइबल मुक़द्दस में बहुत से मुक़ामात ऐसे हैं जिन्हें पेश कर के मुसलमान ये बात साबित करने की कोशिश करते हैं कि ये मुहम्मदﷺ के मुताल्लिक़ पेशगोईआं हैं। क़ुरआन में एक जगह साफ़ तौर पर ये बयान किया गया है कि ईसा ने अपने शागिर्दों से कहा वो मुहम्मदﷺ की आमद के मुंतज़िर रहें और ग़ालिबन उनमें इंजील युहन्ना की बाअज़ आयात की तरफ़ इशारा किया गया है। सूरह अल-सफ़ आयत 6 में लिखा कि :-

“जब ईसा इब्ने-मरियम ने कहा कि या बनी-इस्राईल तहक़ीक़ मैं तुम्हारी तरफ़ ख़ुदा की तरफ़ से रसूल भेजा गया हूँ और मैं तस्दीक़ करता हूँ तौरेत की जो मुझसे पहले थी और मैं तुमको बशारत देता हूँ एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा उस का नाम अहमद है।”

इस में फ़ारक़लीत (Paraclete) (तसल्ली देने वाले) की आमद की तरफ़ इशारा है जिसका नाम ज़िक्र इंजील युहन्ना 14:16-26, 15:26 और 16:7 में किया गया है। मालूम होता कि मुहम्मदﷺ को किसी जाहिल मगर जोशीले नव-मुस्लिम ने धोका दिया जिसने दोनों लफ़्ज़ों में ग़लत मबहस कर दिया, यानी इंजील युहन्ना की आयात में लफ़्ज़ “Παρακλητοσ” इस्तिमाल हुआ है। मगर उसने उस को एक दूसरा यूनानी लफ़्ज़ “Περικλντοσ” समझा। जिसके मअनी अरबी ज़बान में वही हैं जो “अहमद” के हैं, यानी “बहुत तारीफ़ किया गया।” मगर जो लफ़्ज़ ईसा ने इस्तिमाल किया है उस के मअनी किसी तरह भी “अहमद” नहीं हो सकते। जो शख़्स इंजील युहन्ना की मुंदरजा बाला आयात को पड़ेगा, वो बख़ूबी जान जाएगा कि इनमें किसी भी आइन्दा आने वाले रसूल के मुताल्लिक़ पेशगोई नहीं है और इस का इतलाक़ किसी फ़र्द बशर पर नहीं हो सकता। इलावा अज़ीं हर ईसाई जानता है कि जो वाअदा इन आयात में किया गया है वो किस तरह आमाल 2:1-11 में पूरा चुका।

क़ब्ल इस के कि हम बह्स ख़त्म करें, मुनासिब मालूम होता है कि नाज़रीन पर ये बात वाज़ेह कर दी जाये कि मुहम्मदﷺ ही पहले शख़्स नहीं हैं जिन्हों ने इंजील युहन्ना की इन आयात में अपने लिए पेशगोई होने का किया। मुहम्मदﷺ से पहले मानी जो ईरान के क़िस्से कहानीयों में एक हैरत-अंगेज़ मुसव्विर की हैसियत से मशहूर है, ये दावा किया था कि मैं वही “शख़्स” हूँ जिसकी तरफ़ मसीह ने इन आयात में इशारा किया है। मानी का दावा ये था कि में “फ़ारक़लीत” (فارقلیط) हूँ जिससे उस का मक़्सद ग़ालिबन ये था कि जाहिल ईसाईयों को अपना तरफ़दार बना ले। और ये अम्र क़ाबिल-ए-तवज्जा है कि इस शख़्स ने तारीख़ी यसूअ को तस्लीम नहीं किया था बल्कि अपनी तरफ़ एक ऐसा मसीह ईजाद कर लिया था “जिसने ना तक्लीफ़ उठाई ना वफ़ात पाई।” एक और बात जिसमें वो और मुहम्मदﷺ दोनों बराबर हैं ये है कि उसने अपने लिए “अम्बिया का सरदार” और “सफ़ीर अल-नूर” होने का दावा किया था और कहता था कि मेरे बाद कोई नबी नहीं आएगा। दावा मुहम्मदﷺ का भी यही है मगर वो शख़्स मुहम्मदﷺ की तरह ख़ुश-क़िस्मत नहीं था क्योंकि उसे बहिराम अव्वल शाह ईरान के हुक्म से तक़रीबन 276 ई॰ में सूली पर चढ़ा दिया गया। इस शख़्स ने एक किताब पेश की थी जिसे मशरिक़ी ममालिक के मुसन्निफ़ीन “अर्तंग” या (अर्ज़ंग) कहते हैं। इस का दावा ये था कि इस पर ये किताब आस्मान से नाज़िल हुई है और लोगों के लिए आख़िरी है।

तख़्लीक़ आदम व सज्दा-ए-मलाइका

क़ुरआन की सूरह आले-इमरान आयत 58 में है कि “तहक़ीक़ अल्लाह के नज़्दीक ईसा की मिसाल ऐसी है जैसे आदम की। उसने उस को मिट्टी से पैदा किया फिर कहा कि हो जा पस वो हो गया।”

आफ़रीनश आदम के मुताल्लिक़ रिवायत में लिखा कि :-

जब अल्लाह तआला ने आदम को पैदा करना चाहा तो उसने मलाइका मुक़र्रबीन में से यके बाद दीगरे एक एक को भेजा कि वो जाकर मुट्ठी भर मिट्टी लाए। चूँकि ज़मीन जानती थी कि औलाद-ए-आदम में से बहुत से ऐसे होंगे जो जहन्नम में डाले जाऐंगे, इसलिए उसने हर फ़रिश्ते से इल्तिजा की कि वो इस में से कोई हिस्सा ना ले। इसलिए वो सब सिवाए आख़िरी फ़रिश्ते के जो इज़राईल था ख़ाली हाथ वापिस आ गए। मगर इज़राईल ने मुट्ठी भर मिट्टी उठा ली और ज़मीन की इल्तिजा ना सुनी। बाअज़ कहते हैं कि वो मिट्टी उस जगह से उठाई गई थी जहां बाद में ख़ाना काअबा तामीर किया गया और बाअज़ कहते हैं कि नहीं तमाम सतह ज़मीन से ली गई थी। अल-ग़र्ज़ वो फ़रिश्ता मिट्टी लेकर अल्लाह के पास आया और कहने लगा “ऐ अल्लाह तू जानता है कि मैं मिट्टी ले आया हूँ।”

अबू अल-फ़दा बहवाला कामिल इब्ने असीर लिखता है कि :-

“रसूल ख़ुदा ने फ़रमाया कि तहक़ीक़ अल्लाह तआला ने आदम को पैदा किया मुट्ठी भर मिट्टी से जो तमाम रूए ज़मीन से ली गई थी।...और तहक़ीक़ उस का नाम आदम इसलिए रखा गया कि उसे “अदीम” यानी सतह ज़मीन से पैदा किया गया था।”

ये रिवायत इस वजह से और भी दिलचस्प है कि इस से ये मालूम हो जाता है कि इस्लाम ईस्वी मोअतज़िला के ख़यालात का किस क़द्र रहीन मिन्नत है। ये तमाम क़िस्सा मारसियुन (Marcion) की किताब से लिया गया है। इस की एक इबारत अज़नीक अर्मनी (Ezniq) की किताब “तर्वीद मोअतज़िला” (Refutation of Heresies) में नक़्ल की गई है। दूसरी सदी ईस्वी के इस रईस-उल-मोअतज़िला का हाल बयान करते हुए अज़नीक ने मारसियुन की हस्ब-ज़ैल इबारत अपनी किताब में नक़्ल की है :-

“और जब तौरेत के ख़ुदा ने ये देखा कि ये दुनिया ख़ूबसूरत है तो उसने इस में से आदम को पैदा करने का इरादा किया और उसने ज़मीन यानी माद्दा में उतर कर कहा कि “तू मुझे अपने में से मिट्टी दे और मैं अपने में से रूह दूँगा।”.....जब माद्दा ने उसे मिट्टी दे दी तो उस ने इसे पैदा किया और इस में रूह फूंकी।...और इस वजह से इस का नाम आदम रखा गया क्योंकि मिट्टी से बनाया गया था।”

इस इबारत को समझने के लिए ये बात याद रखना चाहीए कि मारसियुन क़दीम ईरानी मज़्हब सनवीयत (Dualism) का बड़ी हद तक क़ाइल था और उस का अक़ीदा था कि इल्लत-उल-इलल दो हैं। एक “ख़ैर मह्ज़” और दूसरा “शर मह्ज़।” उस के नज़्दीक “देम्यूर गॉस” यानी इस ज़ीरें दुनिया का ख़ालिक़ (Demuir god) जिसकी निस्बत उसने इबारत मुंदरजा बाला में “तौरेत का ख़ुदा” लिखा है क्योंकि उसने यहूदीयों को शरीअत मूसवी दी थी, वो मुसन्निफ़ है, ना बिल्कुल अच्छा है ना बिल्कुल बुरा है। मगर वो हमेशा अस्ल शर के साथ बरसर जंग रहता है। इसलिए ये समझना चाहिए कि गोया वो ख़ुदा नहीं बल्कि एक बड़ा फ़रिश्ता है और इस्लामी रिवायत में भी वो एसा ही मालूम होता है। मारसियुन के नज़्दीक ये वीमियुगार्स पहले दूसरे आस्मान पर रहता था और उसे “आला उसूल ख़ैर” के वजूद का कोई इल्म ना था। मारसियुन ने इस उसूल ख़ैर का नाम “ख़ुदाए ला मालूम” (Unknown god) रखा है। जब वीमियुगार्स को आला उसूल ख़ैर का इल्म हुआ तो वो उस का दुश्मन बन गया और इस अम्र की कोशिश करने लगा कि लोग उस ख़ुदा का इल्म हासिल करने से बाज़ रहें ता कि कहीं ऐसा ना हो उस की परस्तिश छोड़कर ख़ुदा की इबादत करने लगीं। पस अल्लाह तआला ने यसूअ मसीह को दुनिया में भेजा ताकि वो तौरेत के ख़ुदा और उसूल शर की ताक़त को तोड़ दे। और लोगों को हिदायत कर के उनको सच्चे ख़ुदा का इल्म हासिल कराए। यसूअ पर इन दोनों यानी वीमियुगार्स और उसूल शर ने हमला किया। मगर वो इस को ज़रर ना पहुंचा सके क्योंकि वो सिर्फ़ ज़ाहिरी जिस्म रखता था ता कि लोगों को दिखाई दे, वर्ना उस के कोई असली जिस्म ना था (ग़ालिबन इसी ख़्याल का ततब्बो (पैरवी) कर के मुहम्मदﷺ ने मस्लुबियत मसीह से इन्कार किया)

जो कुछ मारसियुन ने वीमियुगार्स की निस्बत लिखा है उस से बहुत कुछ मुसलमानों की रिवायत दरबारा अज़ाज़ील मिलती जुलती है जो दूसरे आस्मान का बाशिंदा हो गया था और बक़ौल बाअज़ तमाम आसमानों का उस वक़्त तक ये मर्दूद हो कर निकाला नहीं गया था और उस का नाम अभी तक “इब्लीस” (Διαβολοσ) और “शैतान” (Satan) नहीं रखा गया था। मगर मालूम होता है कि अब मैं मारसियुन और मुहम्मदﷺ के बयानात पारसी रिवायत से माख़ूज़ हैं जिनको हम आइन्दा बाब में बयान करेंगे। ये अम्र भी क़ाबिल-ए-तवज्जा है कि मारसियुन और उस के मुतबईन ने वीमियुगार्स को “रब-उल-आलमीन” “ख़ालिक़-उल-मख़्लूक़ात” और “मलक-उल-अर्ज़” के खिताबात दिए थे। अव्वल दो ख़िताब दरअस्ल ख़ुदा के हैं और यहूदी और मुसलमान दोनों फ़िर्क़े ख़ुदा के लिए ये अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करते हैं। मगर तीसरा ख़िताब इंजील युहन्ना 14:30 से लिया गया है जहां वो शैतान के लिए इस्तिमाल हुआ है।

तख़्लीक़ आदम के सिलसिले में क़ुरआन ने बार-बार बयान किया है कि ख़ुदा ने फ़रिश्तों को हुक्म दिया कि वो आदम को सज्दा करें, मसलन सूरह बक़रह आयत 34 में है कि “जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सज्दा करो तो उन्होंने सज्दा किया, सिवाए इब्लीस के।” इसी तरह और क़रीब क़रीब इन्ही अल्फ़ाज़ में सूरह बनी-इस्राईल आयत 61, सुरह अल-कहफ़ आयत 50 और सुरह ताहा आयत 116 में बयान किया गया है। मगर ये ख़्याल तल्मूद से हरगिज़ नहीं माख़ूज़ हो सकता जिसमें अगरचे ये लिखा है कि फ़रिश्तों ने आदम की ज़रूरत से ज़्यादा इज़्ज़त की। मगर ये भी साफ़ लिखा है कि उन्होंने ग़लती की। यक़ीनन ये ख़्याल “इब्रानियों 1:6” की ग़लतफ़हमी से पैदा हुआ है। जिसमें लिखा है कि “जब वो पहलूटा बच्चा दुनिया में लाया तो उसने कहा कि “ख़ुदा के तमाम फ़रिश्ते उस को सज्दा करें।” ऐसा मालूम होता है कि इस आयत में जो लफ़्ज़ “पहलूटा” इस्तिमाल हुआ है इस को मुहम्मदﷺ ने “ईसा” नहीं बल्कि “आदम” समझा यानी वो जो सबसे पहले दुनिया में पैदा किया गया। और मुम्किन है ये बात ईसा परस्ती के ख़िलाफ़ की गई हो क्योंकि क़ुरआन में मुहम्मदﷺ ने कहा है कि ख़ुदा की नज़रों में ईसा की मिसाल आदम की सी है। बे-शुबह इस वजह से कि ईसा का बाप कोई इन्सान ना था। (जैसा कि अब्बासी और जलालेन में बयान किया गया है)

सबको दोज़ख़ में जाना होगा

ये अजीब व ग़रीब ख़्याल क़ुरआन की सुरह मर्यम आयात 68-71 में इस तरह ज़ाहिर किया है :-

“पस तेरे रब की क़सम है कि हम यक़ीनन उनको और शयातीन को जमा करेंगे। फिर हम यक़ीनन उनको जहन्नम के गिर्द ले जा कर दो ज़ानू बिठाएँगे। फिर हम हर फ़िर्क़े में से उस शख़्स को लेंगे जो ख़ुदाए रहमान के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा बाग़ी है। फिर हम यक़ीनन उन लोगों को सबसे बेहतर जानते हैं जो इस में सबसे ज़्यादा जलने के मुस्तहिक़ हैं और तुम में कोई ऐसा नहीं जो इस में दाख़िल ना होगा। ये तेरे ख़ुदा का अटल फ़ैसला है।”

इस मज़्मून के बाइस मुत्तक़ी व परहेज़गार मुसलमानों को सख़्त परेशानी लाहक़ होती है। मुफ़स्सिरीन ने इन अल्फ़ाज़ के ज़ाहिरी मअनी समझाने की सख़्त कोशिश की है। (अगरचे इस बारे में सब हम-ख़याल नहीं हैं।) और कहते हैं कि यहां सिर्फ ये मतलब है कि तमाम आदमी, हत्ता कि सच्चे मुसलमान भी, आतिश-ए-दोज़ख़ के क़रीब आएँगे। यानी उस वक़्त जबकि वो क़ियामत के दिन पुल सिरात से गुज़़रेंगे। अगर ये मअनी तस्लीम कर लिए जाएं तो ज़्यादा मुनासिब होगा कि इस मसअले पर आइन्दा यानी बाब पंजुम में बह्स की जाये, जहां हम ये दिखाएँगे कि मज़्हब ज़रतुशत ने इस्लाम पर क्या असर डाला। मगर आयात मुंदरजा बाला के अल्फ़ाज़ से ग़ालिब ख़्याल गुज़रता कि मुहम्मदﷺ ने यहां आलम-ए-बजर्ख़ यानी मकान ततहीरा नफ्स बाद उल-मौत (تطہیرا لنفس بعد الموت) का अक़ीदा ज़ाहिर किया है जिसे अंग्रेज़ी ज़बान में (Purgatory) कहते हैं। अगर ये सही है तो ज़रूर उन्होंने ये ख़्याल इंजील मरक़ुस 9:49 और 1 कुरंथियो 3:13 से लिया है। सहीफ़ा इब्राहिम में लिखा है कि हर शख़्स के आमाल आग के ज़रीये से जांचें जाते हैं। अगर आग किसी शख़्स के आमाल को जला देती है तो दोज़ख़ के फ़रिश्ते उस को मुक़ाम अज़ाब में ले जाते हैं। मगर चूँकि क़ुरआन की इन आयात का सही मफ़्हूम ग़ैर यक़ीनी है, इसलिए हम ज़रूरत नहीं समझते कि आलम-ए-बजर्ख़ के अक़ीदा की मज़ीद तहक़ीक़ करें।

अल-मीज़ान

क़ुरआन में कई जगह अलमीज़ान यानी तराज़ू का ज़िक्र आया है जिसमें हश्र के दिन सब के बुरे और भले आमाल तो ले जाऐंगे। क़ुरआन की ख़ास ख़ास आयतें इस बारे में हस्ब-ज़ैल हैं :-

’’ وَالْوَزْنُ يَوْمَئِذٍ الْحَقُّ ۚ فَمَن ثَقُلَتْ مَوَازِينُهُ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ ‘‘

(सुरह अल-आराफ़ आयत 8)

तर्जुमा : “उस रोज़ सही तौल तौला जाएगा। पस जिस शख़्स के नेक-आमाल का पल्ला भारी होगा वही शख़्स कामयाब होंगे।

اللَّهُ الَّذِي أَنزَلَ الْكِتَابَ بِالْحَقِّ وَالْمِيزَانَ

तर्जुमा : “अल्लाह वो है जिसने किताब नाज़िल की सच्चाई के साथ और मीज़ान” (सुरह अल-शुरा आयत 17)

’’ فَأَمَّا مَن ثَقُلَتْ مَوَازِينُهُ فَهُوَ فِي عِيشَةٍ رَّاضِيَةٍ وَأَمَّا مَنْ خَفَّتْ مَوَازِينُهُ ‘‘۔

तर्जुमा : “पस जिसके नेक-आमाल का वज़न भारी होगा वो ऐश में रहेगा और वो जिसके नेक-आमाल का वज़न हल्का होगा उस का ठिकाना सबसे नीचे का तबक-ए-जहन्नम होगा।” (सुरह अलक़ारिया आयात 6-9)

मुफ़स्सिरीन क़ुरआन ने बर बनाए अहादीस इन आयात की तफ़्सीर करते हुए ये बताया है कि हश्र के दिन अल्लाह तआला दोज़ख़ और जन्नत के दर्मियान एक तराज़ू खड़ी करेगा जिसमें एक कांटा और दो पल्ले होंगे। ये मीज़ान इसलिए मख़्सूस होगी कि इस में लोगों के नेक व बदआमाल या उनके आमाल-नामे तोले जाऐंगे। जो लोग मोमिन हैं वो देखेंगे कि वो पल्ला जिसमें उनके नेक-आमाल रखे जाते हैं, दूसरे पल्ले से झुक जाएगा जिसमें उनके बुरे आमाल हैं। मगर जिस पल्ले में काफ़िरों के नेक-आमाल रखे जाते हैं, वो उस पल्ले से हल्का रहेगा जिसमें उनके बुरे आमाल रखे गए हैं। मोमिन का रत्ती भर भी नेक अमल ना छोड़ा जाएगा और ना उस के बद-आमाल में रत्ती भर इज़ाफ़ा किया जाएगा। वो लोग जिनके नेक-आमाल का पल्ला भारी है वो जन्नत में चले जाऐंगे, मगर वो लोग जिनके नेक-आमाल उनके आमाल बद से हल्के होंगे वो आतिश-ए-दोज़ख़ में डाल दिए जाऐंगे। लोगों के आमाल वज़न किए जाने का ख़्याल यहूदीयों की तल्मूद यानी “रुष हशानाह” (Rosh Hashshanah) बाब 17 में मौजूद है। मुम्किन है कि इस में ये ख़्याल किताब दानीएल 5:27 से लिया गया हो। लेकिन इस सूरत में बीलशज़र (Belshazzar) बादशाह का “वज़न” किया जाना हश्र के दिन या बाद-उल-मौत (मौत के बाद) नहीं क़रार पाता बल्कि इस ज़िंदगी ही में होता है। लिहाज़ा मुहम्मदﷺ के ख़्याल का माख़ज़ हमें किसी दूसरी जगह तलाश करना पड़ेगा और ये बात हमको मशकूक-उल-सेहत किताब “सहीफ़ा इब्राहिम” में मिलती है। ये किताब ग़ालिबन मुल्क मिस्र में लिखी गई थी और दूसरी या तीसरी सदी ईस्वी में एक यहूदी ने जो ईसाई हो गया था, तहरीर की थी। इस किताब का तर्जुमा अरबी ज़बान में भी मौजूद है। इस किताब की बाअज़ इबारतों और क़ुरआन की बाअज़ नीज़ मुहम्मदﷺ की अहादीस इस क़द्र ज़्यादा मुताबिक़त पाई जाती है कि इस वाक़िये को मह्ज़ इत्तिफ़ाक़ी नहीं कहा जा सकता और ख़ुसूसुन जो कुछ “सहीफ़ा इब्राहिम” में “मीज़ान” के मुताल्लिक़ कहा गया है, वो तो खासतौर पर क़ाबिल-ए-तवज्जा है।

लिखा है कि जब मलक-उल-मौत ख़ुदा के हुक्म से इब्राहिम की रूह क़ब्ज़ करने आया तो उन्होंने इस से दरख़्वास्त की कि मुझे आसमानों और ज़मीन के अजाइबात देखने की मोहलत दी जाये। चुनान्चे ये इजाज़त दे दी गई और वो इस फ़रिश्ते के साथ आस्मान पर चढ़े और देखने के क़ाबिल चीज़ें देखीं। जब वो दूसरे आस्मान पर पहुंचे तो वहां उन्होंने मीज़ान देखी जिसमें एक फ़रिश्ता लोगों के आमाल तौलता था। सहीफ़ा मज़्कूर की इबारत हस्ब-ज़ैल है :-

“दो फाटकों के दर्मियान एक तख़्त बिछा था।...और उस पर एक अजीब-ओ-ग़रीब शख़्स बैठा था और उस के सामने एक बिलौर की तरह चमकदार मेज़ बिछी हुई थी जो सोने और बारीक कतअन की थी। और इस मेज़ पर एक किताब रखी हुई थी जो छः हाथ मोटी और उस की चौड़ाई दस हाथ थी। और इस मेज़ के दाहने और बाएं दो फ़रिश्ते इस्तादा थे जिनके हाथों में क़लम, रश्नाई और काग़ज़ था। और मेज़ के सामने एक रोशनी बर्दार फ़रिश्ता अपने हाथ में एक तराज़ू लिए बैठा था और बाएं तरफ़ एक आतशीन फ़रिश्ता बैठा था जो क़तई बेरहम और सख़्त दिल था। और उस के हाथ में एक सोटा था जिसमें वो सबको जला देने वाली आग रखता था, ये गुनहगारों की आज़माईश थी। और वो अजीब-ओ-ग़रीब आदमी जो तख़्त पर बैठा था वो ख़ुद रूहों की जांच कर रहा था और दाहने और बाएं जो दो फ़रिश्ते थे वो लिखते जाते थे। दाहिनी तरफ़ वाला फ़रिश्ता नेक-आमाल और बाएं तरफ़ वाला फ़रिश्ता गुनाह दर्ज करता था और वो फ़रिश्ता जो मेज़ के सामने था जिसके हाथ में मीज़ान थी, वो रूहों को तौल रहा था और वो आतिशीं फ़रिश्ता जो आग लिए हुए था, वो इन रूहों की जांच कर रहा था। तब इब्राहिम ने मीकाईल उनके बड़े सरदार से दर्याफ़्त किया “ये जो कुछ हम देख रहे हैं क्या है?” सरदार ने जवाब दिया “मुक़द्दस इब्राहिम जो कुछ देखता है वो हिसाब और जज़ा व सज़ा है।”

इस के बाद क़िस्से में लिखा है कि इब्राहिम ने देखा कि हर वो रूह जिस के नेक व बद आमाल बराबर हैं। वो ना नजात याफ्ताह में दाख़िल किया गया, ना मातूबीन (معتوبین) (मातूब की जमा- जिस पर इताब किया गया हो) में बल्कि वो इन दोनों तबक़ात के दर्मियान जा खड़ा हो गया। ये आख़िरी बात मुसलमानों के इस अक़ीदे के बिल्कुल मुताबिक़ है जो सुरह आराफ़ में ज़ाहिर किया गया कि ’’وبینہا حجاب،وعلی الاعراف رجالٌ‘‘ “और इन दोनों के दर्मियान पर्दा है और आराफ़ पर आदमी हैं।” इसी मज़्मून की हदीसें भी हैं। अब इस बात में किसी क़िस्म का शक-ओ-शुब्हा करना क़तई नामुम्किन कि मुहम्मदﷺ ने ये ख़्याल यानी मीज़ान का क़िस्सा बराह-ए-रास्त या बिलवासता सहीफ़ा इब्राहिम से लिया था। और ये ख़्याल जो दरअस्ल मुल्क मिस्र से आया था, उस ज़माने में बहुत कम राइज था। गुमान ग़ालिब ये कि मुहम्मदﷺ ने ये बात “मारिया क़िब्तिया” से सीखी होगी जो उनकी मिस्री हरम थी। ऐसी तराज़ू का अक़ीदा जिसमें लोगों के नेक व बद आमाल तोले जाएं क़दीम मिस्र में बहुत पुराना था। क़दीम मिस्रियों की “किताब-उल-मौत” (Book of the dead) की बहुत सी जिल्दें क़दीम मिस्री मक़बरों में दस्तयाब हुई हैं। मीज़ान का क़िस्सा इस किताब के इस हिस्से में दर्ज है जिसमें “यौम-उल-हिसाब” का मंज़र दिखाया गया है। इस किताब के मुताल्लिक़ डाक्टर बज (Budg) का क़ौल है कि “ये अम्र क़तई यक़ीनी है कि “किताब-उल-मौता” अपनी मुसलसल सूरत में उतनी ही क़दीम है जितना कि मिस्री तमद्दुन। और जिन ज़राए से वो किताब माख़ूज़ है वो इस क़द्र पर्दा क़यामत में पोशीदा हैं कि उनकी निस्बत कोई तारीख़ मुक़र्रर नहीं की जा सकती। “किताब-उल-मौत” की तारीख़ में हमको ठोस तारीख़ी बातें शाहाँ मिस्र के क़दीम ख़ानदानों में नज़र आती हैं। और अगर हम इस रिवायत का एतबार करें जो मिस्र में मसीह से अढ़ाई हज़ार साल क़ब्ल राइज थी तो हम ये यक़ीन करने में बिल्कुल सही होंगे कि इस किताब के बाअज़ हिसस (हिस्से) जैसे कि वो मौजूदा सूरत में हैं, पहले फ़रमांरवा ख़ानदान से ताल्लुक़ रखते हैं।”

इस अम्र के मुताल्लिक़ कि ये किताब किस शख़्स की तस्नीफ़ है, डाक्टर मौसूफ़ फ़रमाते हैं कि “ज़माना ना मालूम से सोस याथोथ (Thoth) देवता, जो देवताओं का मीर-ए-मुंशी (Scribe of the gods) और अक़्ल रब्बानी (Divine Intelligence) या इल्म ईलाही भी था जिसने ब-वक़्त आफ़रीनश आलम वह अल्फाज़ कहे थे जिन्हें पताह (Ptah) और ख़नेमो (Khnemm) ने सूरत अमल दी थी, वो इस किताब-उल-मौता की तस्नीफ़ से वाक़िफ़ था। मिस्रियों की हनूत शूदा लाशों के साथ इस “किताब-उल-मौता” का एक नुस्ख़ा इस ख़्याल से दफ़न कर दिया जाता था कि मुर्दा इस किताब से हिदायत हासिल करे और वो तरीक़े भी सीख ले जिन पर अमल कर के वो इन मुख़्तलिफ़ ख़तरात से महफ़ूज़ रहेगा जो उसे दूसरी दुनिया में पेश आएँगे। “किताब-उल-मौता” से हमको क़दीम मिस्री मज़्हब के मुताल्लिक़ बहुत कुछ मालूमात हासिल होती हैं। इस किताब में “अदालत ख़ाना” की एक तस्वीर भी होती थी, जो अगरचे मुख़्तलिफ़ किताबों में मुख़्तलिफ़ होती थी मगर आम ख़ाका सब का एक ही सा होता था। इस तस्वीर में जो उमूमन पाई जाती है, ये दिखाया जाता है कि दो देवता हूरोस (Horus) और अनूबीस (Anubis) तराज़ू तौल रहे हैं। एक पल्ले में इन्सान का दिल रखा हुआ है और दूसरे में हक़ व सदाक़त की देवी मात (Maat) का बुत है। एक तीसरा देवता थोस (Thoth) एक काग़ज़ पर मुर्दा के आमाल का हिसाब लिख रहा है। तराज़ू पर ये इबारत लिखी होती है :-

“ओसीर्ज़ (ओसीर्स) का अदल-ओ-इन्साफ़ हो कर रहता है। ख़ुदा के ऐवान (मकामे) अदालत में तराज़ू अपने मुक़ाम पर मुतवाज़िन क़ायम है। वो कहता है “अब रहा उस का दिल तो उस के दिल को अपने मुक़ाम पर ओसीर्ज़ आदिल में दाख़िल होने दो।” तेहोती (Tehuti) शहर हसरत (Heseret) के सनम कबीर मालिक बलदा हरसू पौलुस, तेहोती के अल्फ़ाज़ के मालिक को ये कहने दो।”

मुर्दा को अपने ज़ाती नाम के इलावा (जिसके लिए एक ख़ाली जगह छोड़ दी जाती थी) ओसीरेज़ का नाम देना ये मअनी रखता था कि हिसाब किताब में ठीक उतरने के बाद वो बड़े देवता ओसीरेज़ की ज़ात में शामिल हो जाता है। जो क़दीम मिस्रियों का सबसे बड़ा देवता था और इस तरह इस मुर्दा की रूह ख़बीस ताक़तों के हमले से मामून व मसनून हो गई। देवताओं के मीर-ए-मुंशी तेहोती की तस्वीर के सामने एक ख़ौफ़नाक जानवर खड़ा होता है जो सूरत-ओ-शक्ल में कुत्ते से मिलता-जुलता होता है। इस जानवर की निस्बत ये ख़्याल किया जाता था कि वो बदकारों को खा जाता है। इस जानवर के सर पर ये लिखा हुआ होता है “दुश्मनों को निगल कर उन्हें मफ़तूह करने वाली मलिका जहन्नम का कुत्ता।” इस जानवर के क़रीब एक कुरबानगाह होती है जिस पर बहुत सा प्रशाद या तबर्रुक चढ़ा होता है और ये कुरबानगाह अंदरूनी मंदिर के दरवाज़े के सामने क़ायम होती है। मंदिर के अंदर एक तख़्त पर ख़ुद ओसीरेज़ मुतमक्किन होता है। इस के एक हाथ में असा और दूसरे में ताज़ियान-ए-अज़ाब होता है। ये देवता बहैसीयत एक मुसन्निफ़ के बैठा होता है और जब तेहोती मुर्दा के दिल को मीज़ान में तौल कर नतीजा दर्ज कर लेता है तो इसी के मुताबिक़ ओसीरेज़ मुर्दा की रूह से मुआमला करता है। ओसीरेज़ के सामने एक किताब होता है जिसमें उस के बाअज़ ख़ताबात दर्ज होते हैं। ये इबारत इस तरह होती है “ओसीरेज़ नेक हस्ती, माबूद, मालिक हयात, सनम कबीर, मालिक उक़्बा, फ़िर्दोस और दोज़ख़ का बादशाह, माबूद आज़म, शहर अबत (Abt) का मालिक, अज़ल का बादशाह, माबूद।” इस के नीचे कई मर्तबा अल्फ़ाज़ “ज़िंदगी और सेहत” दर्ज होते हैं।

इस तस्वीर का अगर मीज़ान के इस बयान से मुक़ाबला कर के देखा जाये जो “सहीफ़-ए-इब्राहीमी” और क़ुरआन के अंदर दर्ज है तो साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि क़ुरआन और अहादीस और मुसलमानों की रिवायत में जिस मीज़ान का ज़िक्र किया गया है वो क़दीम मिस्री ख़राफ़ियात से ली गई है और ये अक़ीदा उन मसीही ख़यालात के ज़रीये से पहुंचा है जो सहीफ़ा इब्राहीमी में दर्ज हैं और जो मिस्र में पुश्त हा पुश्त से थे।

बहिश्त में आदम की ख़ुशी और ग़म

क़ुरआन की सूरह “बनी इस्रा” की पहली आयत में मुहम्मदﷺ की मेअराज का मुख़्तसर-सा बयान है और मुसलमानों की रिवायत व अहादीस इस के मुफ़स्सिल और वसीअ हालात से भरी पड़ी हैं। मेअराज की आयत हस्ब-ज़ैल है :-

’’ سُبْحَانَ الَّذِي أَسْرَىٰ بِعَبْدِهِ لَيْلًا مِّنَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ إِلَى الْمَسْجِدِ الْأَقْصَى الَّذِي بَارَكْنَا حَوْلَهُ لِنُرِيَهُ مِنْ آيَاتِنَا إِنَّهُ هُوَ السَّمِيعُ الْبَصِيرُ ‘‘۔

तर्जुमा : “तारीफ़ है उस ख़ुदा की जिसने एक रात में सफ़र कराया अपने बंदे को मस्जिद-उल-हराम से मस्जिद अक़्सा तक जिसके अहाते को हमने बरकत दी है ताकि हम उसे अपनी एक निशानी दिखाएं।” इस वाक़िये को वाक़या-ए-मेअराज मुहम्मदी कहते हैं। और इस पर हम आइन्दा बाब में किसी क़द्र तफ़्सील के साथ बह्स करेंगे। यहां हमने इस वाक़िया का ज़िक्र मह्ज़ इस ग़रज़ से किया है कि इस मशहूर सफ़र के मुताल्लिक़ जो एक हदीस है उस की सैर हम अपने नाज़रीन को कराएं। किताब “मिशकात-उल-मसाबेह” में एक मंज़र दर्ज है जो मुहम्मदﷺ ने सात आसमानों में सबसे नीचे के आस्मान में दाख़िल होते हुए देखा था। लिखा कि :-

“पस जब उसने हमारे लिए सबसे नीचे का आस्मान खोल दिया तो क्या देखते हैं कि एक आदमी बैठा है। उस के दाहने और बाएं हाथ की तरफ़ स्याह सूरतें थीं। जब वो अपनी दाहिनी तरफ़ देखता था तो हँसता था और जब वो अपनी बाएं तरफ़ देखता था तो रोता था।...मैंने जिब्रईल से पूछा “ये कौन है? जिब्रईल ने कहा “ये आदम है और इस के दाहने और बाएं हाथ की तरफ़ जो स्याह सूरतें हैं, वो उस की औलाद की रूहें हैं। जो रूहें उस की दाहिनी तरफ़ हैं वो जन्नती हैं और जो रूहें बाएं तरफ़ हैं वो दोज़ख़ी हैं। यही वजह है कि जब वो अपनी दाहिनी तरफ़ देखता है तो हँसता है और जब अपनी बाएं तरफ़ देखता है तो रोता है।”

यही रिवायत मशकूक-उल-सेहत किताब “सहीफ़-ए-इब्राहीमी” में भी है। जैसा कि मुंदरजा ज़ैल इक़्तिबास से साबित होगा :-

“मीकाईल ने सवारी को मोड़ा और इब्राहिम को जानिब मशरिक़ आस्मान के पहले दरवाज़े पर ले गया और इब्राहिम ने दो रास्ते देखे। एक रास्ता टेढ़ा और तंग और दूसरा वसीअ और चौड़ा था। और वहां उसने दो फाटक देखे यानी एक छोटा जो तंग रास्ते पर था और दूसरा चौड़ा जो वसीअ रास्ते पर था। और दोनों फाटकों के बाहर की तरफ़ मैंने एक आदमी को तख़्त पर बैठे देखा और ये तख़्त सोने से मंढा हुआ था और उस आदमी का चेहरा ऐसा होलनाक था जैसा ख़ुदावंद का चेहरा। और मैंने देखा कि बहुत सी रूहों को फ़रिश्ते हांके लिए जा रहे थे और उनको बड़े फाटक से ले जाया जा रहा है। और मैंने दूसरी रूहें भी देखीं, मगर चंद, जिन्हें फ़रिश्ते तंग रास्ते से ले जा रहे थे और जब इस अजीबो-गरीब आदमी ने जो तिलाई तख़्त पर बैठा था तंग रास्ते से कम और बड़े रास्ता से ज़्यादा रूहों को जाते देखा तो उसने फ़ौरन अपने सर के बाल और अपनी दाढ़ी पकड़ ली और ख़ुद को तख़्त से ज़मीन पर गिरा दिया और फ़र्याद-ओ-ज़ारी करने लगा। और जब वो छोटे फाटक से बहुत सी रूहों को दाख़िल होते देखता था तो वो ज़मीन पर से उठकर अपने तख़्त पर बैठ जाता था और बहुत ख़ुश होता था और ख़ुशी के मारे फूला ना समाता था। इब्राहिम ने सिपहसालार से दर्याफ़्त किया कि “ऐ मेरे आक़ा सिपहसालार आज़म ये अजीबो-ग़रीब आदमी कौन है जिस पर इस क़द्र अज़मत व शान बरस रही है और जो एक वक़्त फ़र्याद-ओ-ज़ारी करता है और दूसरे वक़्त मसरूर व शादमाँ होता?” तब उस हस्ती बेजिस्म (मीकाईल) ने कहा कि “ये आदम है जो पहला इन्सान है, जिसे पैदा किया गया, जो इस क़द्र अज़मत-ओ-जलाल के साथ बैठा है और वो दुनिया को देखता है क्योंकि सब आदमी उसी की औलाद हैं। जब वो बहुत सी रूहों को छोटे फाटक से दाख़िल होते देखता है तो वो उठकर अपने तख़्त पर बैठ जाता है और मसरूर व शादमाँ होता है। क्योंकि छोटे रास्ता से नेक और आदिल रूहें दाख़िल होती हैं और ये रास्ता हयात की तरफ़ ले जाता है। और जो लोग इस रास्ते से जाते हैं वो जन्नत में दाख़िल होते हैं और यही वजह है कि आदम जो सब से पहला मख़्लूक़ शूदा इन्सान है, ख़ुश होता है क्योंकि वो रूहों को नजात पाते हुए देखता है। और जब वो बहुत सी रूहों को बड़े फाटक से दाख़िल होते देखता है तो वो अपने बाल उखाड़ता है और ख़ुद को तख़्त से ज़मीन पर गिरा देता है और बुरी तरह गिरे-ए-बका करता है क्योंकि बड़ा फाटक गुनेहगारों का रास्ता है जो तबाही और अज़ाब अबदी की तरफ़ ले जाता है।”

माख़ूज़ात अज़ अहद नाम-ए-जदीद

यहां ये सवाल पैदा होता है कि जब मुहम्मदﷺ ने मशकूक-उल-सेहत नसरानी ज़राए से इस क़द्र कसीर मवाद लिया है तो क्या उन्होंने अह्द नाम-ए-जदीद से कुछ नहीं लिया होगा? इस का जवाब ये है कि वाक़ई मुहम्मदﷺ ने अह्द नाम-ए-जदीद से बहुत कम मवाद लिया है। ये तो कहा जा सकता है कि मुहम्मदﷺ ने बिलवास्ता ये बातें सीखी थीं कि ईसा का बाप कोई बशर नहीं था, ईसा मामूर-मिन-अल्लाह (अल्लाह की तरफ से) था, वो मोअजज़े दिखाता था, उस के बहुत से हवारी थे और वो आस्मान पर चढ़ गया मगर मुहम्मदﷺ ने उलूहियत मसीह (मसीह के खुदा होने) से इन्कार किया, मसीह की मौत को बनी-आदम के गुनाहों का कफ़्फ़ारा नहीं माना (और इसी वजह से मसीह के नशर सानिया से इन्कार किया।) मगर बईं-हमा क़ुरआन और अहादीस में अह्दनामा जदीद के बाअज़ मुक़ामात से इस्तिफ़ादा किया गया है, मसलन क़िस्सा माइदा यानी मसीह और उस के हवारियों पर आस्मान से ख़वान-ए-निअमत का नाज़िल या मुहम्मदﷺ के मुताल्लिक़ इंजील में पेशगोई होना। उनमें एक ख़्याल बहुत नुमायां तौर पर बराह-ए-रास्त इंजील से लिया गया है।

ये सूरह अल-आ`अराफ की आयत 40 है :-

’’ إِنَّ الَّذِينَ كَذَّبُوا بِآيَاتِنَا وَاسْتَكْبَرُوا عَنْهَا لَا تُفَتَّحُ لَهُمْ أَبْوَابُ السَّمَاءِ وَلَا يَدْخُلُونَ الْجَنَّةَ حَتَّىٰ يَلِجَ الْجَمَلُ فِي سَمِّ الْخِيَاطِ وَكَذَٰلِكَ نَجْزِي الْمُجْرِمِينَ ‘‘۔

(तर्जुमा) “यक़ीनन जिन लोगों ने हमारी निशानीयों को झुठलाया और ग़रूर तकब्बुर के साथ हमारी निशानीयों की तरफ़ से हट गए, उनके लिए आस्मान के दरवाज़े नहीं खुलेंगे और वो जन्नत में दाख़िल ना होंगे ता वक़्ते की ऊंट सूई के नाके से ना गुज़र जाये।”

ये आयत इंजील लूक़ा 18:25 का लफ़्ज़ी तर्जुमा है, जो ये है “ऊंट का सूई के नाके में निकल जाना ज़्यादा आसान है बमुक़ाबला इस के कोई दौलतमंद आदमी ख़ुदा की सल्तनत में दाख़िल हो।” इसी के क़रीब क़रीब अल्फ़ाज़ इंजील मत्ती 19:24 और इंजील मरक़ुस 10:25 में हैं।

अहादीस में भी एक नुमायां मिसाल इस इबारत की है जो ख़त (इंजील की किताब) (Epistle) से ली गई है। ये हदीस अक्सर साहबे फ़िक्र मुसलमानों की ज़बान पर रहती है। मगर उन को इस का मुतलक़ इल्म नहीं कि ये मज़्मून बाइबल से लिया गया है। अबू हुरैरा ने मुहम्मदﷺ से रिवायत की है कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि “मैंने अपने नेक और मुत्तक़ी बंदों के लिए जो चीज़ तैयार की है, जिसे ना किसी आँख ने देखा, ना किसी कान ने सुना और ना किसी इन्सान के दिल में आई।” हर शख़्स बाआसानी समझ सकता है कि ये इबारत 1 कुरंथियो 2:9 से ली गई है। अबू हुरैरा ज़्यादा सका रावी नहीं माने जाते। मगर सूरह क़ियामत आयात 22-23, का मज़मून وجوہٌ یو مئذٍ نا ضرۃٌ،الیٰ ربھّا ناظرۃٌ‘ यानी उस रोज़ बाअज़ चेहरे मुनव्वर होंगे जो अपने रब की तरफ़ देखते होंगे। यक़ीनन इंजील युहन्ना 3:2 और 1 कुरंथियो 13:12 से ली गई है और ये बात वही है जिसे अबू हुरैरा ने मुहम्मदﷺ से रिवायत की है।

पांचवां बाब

क़ुरआन व अहादीस में ज़रदूश्ती अंसर

अरब और यूनानी मुसन्निफ़ीन की किताबों से मालूम होता है कि मुहम्मदﷺ के ज़माने में और इस से पेशतर जज़ीरा नुमाए अरब और गिर्द-ओ-नवाह (आसपास) के ममालिक पर ईरानियों का बहुत बड़ा असर था। अबू अलफ़दा ने लिखा है कि सातवीं सदी के अवाइल में ख़ुसर-ओ-नौशेरवां (जिसे अहले अरब किसरा कहते हैं) ज़बरदस्त ईरानी फ़ातिह ने सल्तनत हीरा पर जो दरिया-ए-फ़ुरात के किनारे वाक़ेअ थी, हमला किया था और वहां के बादशाह हारिस को तख़्त से उतार दिया। और उस की जगह अपना एक आवर्दा (लाया हुआ- सिफ़ारशी) मनज़मा-ए-इलसम्मा तख़्त नशीन कर दिया। इस के कुछ ही दिन बाद नौ शेरवां ने यमन में एक फ़ौज भेजी जिसकी कमान जनरल बहरोज़ (Vahroz) के सपुर्द थी। इस मुहिम का मक़्सद ये था कि वहां से हब्शियों को निकाल दे और वहां का तख़्त-ओ-ताज अबू सैफ़ यमनी के हवाले कर दे क्योंकि वो इस का आबाई तख़्त था। मगर ईरानी सिपाह मुल्क यमन में क़ायम रही और बिल-आखिर इस फ़ौज का जनरल ही तख़्त पर बैठ गया और उसी की नस्ल में सल्तनत जारी हो गई।

अबूल फ़दा ने लिखा है कि ख़ानदान मंज़र के मुलूक जो उस के बाद तख़्त हीरा पर बैठे और जिनकी हुकूमत इराक़ अरब पर भी थी, वो दर अस्ल शाहाँ ईरान की तरफ़ से बतौर गवर्नर काम करते थे। यमन के मुताल्लिक़ ये मुअर्रिख़ बयान करता है कि मुहम्मदﷺ की हुकूमत क़ायम होने से पेशतर यमन में चार हब्शी और आठ ईरानी फ़र्मांरवाओं ने सल्तनत की थी। मगर इस ज़माना से भी बहुत अरसा क़ब्ल शुमाल मग़रिबी और मग़रिबी अरब के ताकात सल्तनत ईरान से क़ायम थे। बयान किया जाता है कि नवाफिल और मुत्लिब जो मुहम्मदﷺ के बुज़ुर्ग थे, वो क़बीला क़ुरैश के मुम्ताज़ सरदार थे। उन्होंने ईरान से एक मुआहिदा किया था जिसकी रु से तजार (ताजिर) मक्का को इराक़ और फ़ारस में तिजारत करने की इजाज़त मिल गई थी। 606 ई॰ में या इसी के लग भग मक्का के सौदागरों की एक जमाअत ज़ेर क़ियादत अबू सुफ़ियान दार-उल-हकूमत ईरान में गई और शहनशाह ईरान की ख़िदमत में हाज़िर हुई।

जब मुहम्मदﷺ ने 612 ई॰ में नबुव्वत का दावा किया तो उस ज़माने में ईरानियों ने तमाम मुल्क-ए-शाम, एशया-ए-कोचक और फ़लस्तीन पर कुछ दिनों के लिए क़ब्ज़ा कर लिया था। 622 ई॰ में जब मुहम्मदﷺ ने हिज्रत की तो शहनशाह हिरक़्ल (Heraclius) ने सल्तनत बाज़ नितीनी के अज़दसत रफ़्ता इलाक़े वापिस लेना शुरू कर दिए थे, जिसके बाद ईरानियों को सुलह की दरख़्वास्त करना पड़ी थी। इस का नतीजा ये हुआ कि जब यमन के ईरानी गवर्नर बसीरन को वतन की तरफ़ से इमदाद पहुंचने की कोई उम्मीद ना रही तो वो 668 ई॰ में मुहम्मदﷺ की इताअत करने और ख़राज देने पर मज्बूर हो गया। बादअज़ां मुहम्मदﷺ की वफ़ात से चंद साल बाद अरबी फ़ौजों ने तमाम ईरान को फ़त्ह कर लिया और वहां की बहुत बड़ी आबादी को बनोक शमशीर (तल्वार की नोक पर) मुसलमान बना लिया।

जब कभी ऐसी दो कौमें जिनमें से एक तमद्दुन व शाइस्तगी में बहुत ज़्यादा तरक़्क़ी या फ़तह हो और दूसरी निस्बतन जाहिल हो, आपस में मिल जाती हैं तो तरक़्क़ी याफ्ताह क़ौम दूसरी क़ौम पर हमेशा बहुत बड़ा असर डालती है। तमाम तारीख़ इस हक़ीक़त से मामूर है। मुहम्मदﷺ के ज़माने में अरब लोग बहुत ही कम ताअलीम याफ़्ता और मुहज़्ज़ब थे। हत्ता कि ख़ुद अरब मुसन्निफ़ीन अरब के ज़माने क़ब्ल अज़ इस्लाम को “ज़माना-ए-जाहिलियत” कहते हैं। दूसरी तरफ़ जैसा कि हमको “ओस्ता” दारयुस व कनहीरो की मेख़ी तहरीरों पर सीपौलिस (क़दीम पाया तख़्त ईरान) के आसारे-ए-क़दीमा और यूनानी मुसन्निफ़ीन की किताबों से मालूम होता है, ईरानी क़ौम बहुत ही क़दीम ज़माने से निहायत तरक़्क़ी याफ्ताह और शाइस्ता थी। बस ये क़ुदरती अम्र था कि अरबों पर इस क़ौम का बहुत असर पड़ता। अरब मौअर्रखीन, क़ुरआन के बयानात और मुफ़स्सिरीन क़ुरआन की तहरीरों से ज़ाहिर होता है कि ईरान के रूमानी क़िसस और अजमी शेअर ने महमुदﷺ के ज़माने में अरबों में बहुत कुछ हर दिल-अज़ीज़ी हासिल कर ली थी। क़ुरैश में ये ईरानी क़िस्से इस क़द्र ज़्यादा मशहूर थे कि मुहम्मदﷺ के मुख़ालिफ़ीन ने उन पर ये इल्ज़ाम लगाया कि उन्होंने क़ुरआन में ईरानी क़िसस से मवाद लिया है या नक़्ल उतारी है, मसलन इब्ने हिशाम ने बयान किया है कि :-

“एक रोज़ मुहम्मदﷺ ने लोगों को जमा किया और उन्हें अल्लाह तआला की तरफ़ बुलाया। उन्हें क़ुरआन पढ़ कर सुनाया और डराया कि जो कौमें ईमान ना लाएँगी उनका क्या हश्र होगा। उस वक़्त नज़र बिन हारिस जो मुहम्मदﷺ के साथ मजमे में गया था, उठा और उसने रुस्तम व स्तान, इस्फ़ंदयार और शाहान ईरान के क़िस्से सुनाए और फिर यूं कहा कि “क़सम ख़ुदा की मुहम्मदﷺ मुझसे अच्छा दास्तानगो (दास्तान सुनाने वाला) नहीं है और उस की तक़रीर में असातीर उला अव्वलीन (اساطیر الاولین) (पुराने लोगो की कहानी) के सिवा कुछ नहीं है। जिस तरह मैंने ये क़िस्से बना कर सुनाए हैं इसी तरह मुहम्मदﷺ ने भी बनाए हैं।”

इसी शख़्स के मुताल्लिक़ अल्लाह तआला ने ये आयत नाज़िल फ़रमाई :-

’’ وَقَالُوا أَسَاطِيرُ الْأَوَّلِينَ اكْتَتَبَهَا فَهِيَ تُمْلَىٰ عَلَيْهِ بُكْرَةً وَأَصِيلًا قُلْ أَنزَلَهُ الَّذِي يَعْلَمُ السِّرَّ فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ إِنَّهُ كَانَ غَفُورًا رَّحِيمًا ‘‘ (सूरह फुर्क़ान आयात 6,5)

और इसी शख़्स की वजह से ये आयत भी नाज़िल हुई थी :-

إِذَا تُتْلَىٰ عَلَيْهِ آيَاتُنَا قَالَ أَسَاطِيرُ الْأَوَّلِينَ

यानी जब हमारी आयतें उस को सुनाई जाती हैं तो वो उन्हें पुराने लोगों के क़िस्से कहता है। (सूरह क़लम आयत 15) और ये आयत भी इसी शख़्स की वजह से नाज़िल हुई थी :-

وَيْلٌ لِّكُلِّ أَفَّاكٍ أَثِيمٍ يَسْمَعُ آيَاتِ اللَّهِ تُتْلَىٰ عَلَيْهِ ثُمَّ يُصِرُّ مُسْتَكْبِرًا كَأَن لَّمْ يَسْمَعْهَا ۖ فَبَشِّرْهُ بِعَذَابٍ أَلِيمٍ

यानी अफ़्सोस है हर उस गुनाहगार झूटे पर जो सुनता है अल्लाह की आयतों को जब उसे सुनाई जाती हैं और फिर इस तरह से अकड़ता है गोया उसने सुनी ही नहीं। पस तुम उसे एक तक्लीफ़देह अज़ाब की ख़बर सुना दो।” (सुरह 45 आयात 7-8)

“रुस्तम व इस्फ़ंदयार और “मुलूक फ़ारस” के क़िस्से जिनका ज़िक्र नज़र बिन हारिस ने किया था यक़ीनन उन क़िसस में शामिल हैं जो कुछ अर्से बाद ईरान के मशहूर रज़मीया शायरी फ़िर्दोसी ने शाहनामा में नज़्म किए और जिनकी निस्बत वो बयान करता है कि एक ईरानी दहक़ान से सुने गए थे। यक़ीनन ये क़िस्से किसी ना किसी सूरत में बहुत क़दीम थे। मगर हम अपनी बह्स में शाहनामा के क़िस्सों का हवाला नहीं देंगे क्योंकि वो मुहम्मदﷺ से बहुत ज़माना पहले की तस्नीफ़ है। इसलिए हम जो कुछ लिखेंगे वो ओस्ता के हवाले से लिखेंगे क्योंकि पार्सियों की इस किताब की क़दामत पर कोई शख़्स एतराज़ नहीं कर सकता। ये बात साफ़ ज़ाहिर है कि चूँकि अरबों को रुस्तम व इस्फ़ंदयार और मुलूक अजम के क़िस्सों से इस क़द्र दिलचस्पी थी तो उन्होंने जमशेद का क़िस्सा भी ज़रूर सुना होगा। और ये अम्र भी क़रीन-ए-क़ियास है कि उन्होंने अरो अदेराफ़ और इस से पेशतर ख़ुद ज़रदुश्त के आस्मान पर जाने के ईरानी क़िसस मुताल्लिक़ बह फ़िर्दोस, पुल चुनवात (Chinvat) और दरख़्त हवप्पा (Havapah) वग़ैरह बहुत से अजीब-ओ-ग़रीब दिलचस्प क़िस्से अरबों को ज़रूर मालूम होंगे। इसी लिए हम देखते हैं कि इस क़िस्म के ख़यालात का क़ुरआन और अहादीस और मुस्लिम रिवायत पर कहाँ तक असर पड़ा। हम ये भी देखेंगे कि ना सिर्फ इस सूरत में बल्कि बाअज़ मिसालों में ये ईरानी क़िसस आर्या रिवायत पर मबनी हैं, सामी-उल-असल नहीं और ये क़िसस ख़फ़ीफ़ से तग़य्युर के साथ हिन्दुस्तान में भी पाए जाते हैं। और दरहक़ीक़त ये क़िसस दोनों क़ौमों के मज़हबी और इल्मी विरसा का एक जुज़्व थे। और जब आर्या क़ौम की ईरानी और हिन्दुस्तानी शाख़ें अपने क़दीम वतन वाक़्य “एरियानम वाइजो” (Airyanem Vaejo) मुत्तसिल (मिला हुआ) हिरात से जुदा हो कर ईरान और हिन्दुस्तान में आबाद हुए तो ये तमाम क़िसस उनको याद थे। और मुम्किन है कि बहुत से ख़यालात ज़माना-ए-माबाअ्द में ईरान के अंदर पैदा हुए हों और कुछ अरसा बाद हिन्दुस्तान आ गए हों। हम ये बात दिखाएँगे कि वाक़ई ये ईरानी ज़रूर मुहम्मदﷺ के गोश गुज़ार हुए थे और उनका क़ुरआन और अहादीस पर ज़रूर-बिल-ज़रूर असर पड़ा। ये अहादीस मुसलसल रावीयों के ज़रीया ख़ुद मुहम्मदﷺ तक पहुँचती हैं।

शब मेअराज

पहली बात जिस पर हम यहां बह्स करेंगे वो मुहम्मदﷺ की शबे मेअराज का हाल है और मुसलमानों में ये वाक़िया बहुत ही मशहूर है। ये वाक़िया सूरह बनी इस्राईल की आयत 1 में बयान हुआ है जो हस्ब-ज़ैल है :-

سُبْحَانَ الَّذِي أَسْرَىٰ بِعَبْدِهِ لَيْلًا مِّنَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ إِلَى الْمَسْجِدِ الْأَقْصَى الَّذِي بَارَكْنَا حَوْلَهُ لِنُرِيَهُ مِنْ آيَاتِنَا ۚ إِنَّهُ هُوَ السَّمِيعُ الْبَصِيرُ

तर्जुमा : “तारीफ़ उस अल्लाह की जिसने एक रात में सफ़र कराया अपने बंदे को मस्जिद-उल-हराम से मस्जिद अक़्सा तक जिसके अहाते को हमने बरकत दी है ताकि हम उसे अपनी निशानी दिखाएं।”

ये भी मालूम है कि मुसलमान मुफ़स्सिरीन इस आयत की तफ़्सीर में मुत्तफ़िक़-उल-ख़याल नहीं हैं। बाअज़ कहते कि मुहम्मदﷺ को ये मेअराज ख्व़ाब में हुई और बाअज़ इस के लफ़्ज़ी मअनी लेकर जिस्मानी मेअराज कहते हैं और बाअज़ उस के तमसीली मअनी लेते हैं, मसलन इब्ने इस्हाक़ बहवाला हज़रत आईशा ज़ौज-ए-रसूल लिखता है कि :-

रसूल-ए-ख़ूदा का जिस्म ग़ायब नहीं हुआ बल्कि अल्लाह उनकी रूह को रात के वक़्त सफ़र पर ले गया।”

एक और हदीस में बयान किया गया है कि मुहम्मदﷺ ने ख़ुद कहा कि “मेरी आँखें सो रही थीं और मेरा दिलबेदार था।” मशहूरो मारूफ़ मुफ़स्सिर मुही उद्दीन ने तमाम क़िस्सा इस्तआरतन (मिसालन, तम्सिली अंदाज़ में) लिया है। मगर चूँकि हमको यहां इस से ज़्यादा बह्स नहीं है कि इस शब मेअराज में दरअस्ल क्या-क्या वाक़ियात रौनुमा हुए थे, इसलिए हम इस मसअले पर इस नुक़्ता-ए-नज़र से मज़ीद बह्स नहीं करेंगे। ये सही है कि मुसलमान मुफ़स्सिरीन और मुहद्दिसीन की ग़ालिबन अक्सरीयत ये यक़ीन करती कि मुहम्मदﷺ वाक़ई मक्का से बैतुल-मुक़द्दस को गए, उन्होंने आसमानों की भी सैर की और जो कुछ मुहम्मदﷺ ने वहां देखा वो लोग इस के मुताल्लिक़ निहायत तवील और दिलचस्प बातें बयान करते हैं। और हमको इन्ही अहादीस से बह्स कर के बताना है कि इस वाक़िये की ख़ास ख़ास बातें क़दीम रिवायत से किस हद तक ली गई हैं।

अब हम सबसे पहले मेअराज के मुताल्लिक़ वो बयान दर्ज करते हैं जो इब्ने इस्हाक़ ने लिखा है क्योंकि इस बारे में क़दीम तर बयान यही है। ये हालात इब्ने हिशाम ने जो इब्ने इस्हाक़ की किताब का मुदीर और उस की तक्मील करने वाला था यूं लिखते हैं कि :-

“मेअराज की शब जिब्रईल ने दो मर्तबा आकर मुहम्मदﷺ को जगाया ता कि मेअराज के सफ़र पर चले मगर मुहम्मदﷺ दोनों मर्तबा सो गए।”

इस के बाद इस क़िस्से का सिलसिला मुसन्निफ़ मज़्कूर ने मुहम्मदﷺ की ज़बान से इस तरह पेश किया है :-

“पस वो (जिब्रईल) मेरे पास तीसरी मर्तबा आया। और उसने मुझे अपने पांव से छुवा और में उठ बैठा। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और मैं उस के पास उठ खड़ा हो गया। बादअज़ां वो मस्जिद के दरवाज़े पर गया। क्या देखता हूँ कि एक सफ़ैद जानवर जो सूरत शक्ल में एक ख़च्चर और गधे के माबीन था, खड़ा हुआ है। उस के दोनों पहलूओं पर दो बाज़ू थे जिनसे वो अपनी टांगों की नक़्ल व हरकत को भी क़ाबू में रखता था। वो अपना अगला पांव हद-ए-नज़र तक रखता था। उसने मुझे इस जानवर पर सवार कराया और बाद अज़ां वो मुझे लेकर रवाना हुआ। लेकिन इस तरह से कि ना वो मुझसे आगे बढ़ता है, ना मैं उस से आगे चलता हूँ।...जब मैं इस (जानवर) के पास सवार होने के लिए पहुंचा तो वो चिराग़ पा हो गया। पस जिब्रईल ने अपना हाथ उस के अयाल (घोड़े या जानवर) की गर्दन के लंबे बाल पर रखा और कहा “ऐ बुराक़ तुझे शर्म नहीं आती कि तू क्या कर रहा है? वल्लाह ऐ बुराक़ तुझ पर मुहम्मदﷺ से पहले कोई बंदा ए ख़ुदा ऐसा सवार नहीं हुआ जिसकी इज़्ज़त-ओ-एहतिराम अल्लाह के नज़्दीक मुहम्मदﷺ से ज़्यादा हो।” ये सुनकर बुराक़ इस क़द्र शर्मिंदा हुआ कि मारे शर्म के अर्क़ अर्क़ हो गया। पस वो साकित-ओ-साकिन खड़ा हो गया हत्ता कि मैं इस पर सवार हुआ।”

अल-हसन से हदीस मर्वी है कि :-

“रसूल अल्लाह तशरीफ़ ले गए और जिब्रईल भी उनके साथ गया, हत्ता कि वो उनके साथ बैतुल-मुक़द्दस (यरूशलेम) पहुंचा। वहां उन्होंने अम्बिया के एक गिरोह में इब्राहिम और मूसा और ईसा को देखा। पस रसूल अल्लाह ने उनके साथ नमाज़ पढ़ी और जमाअत की इमामत की। इस पर जिब्रईल दो ज़र्फ़ लाया। एक बर्तन में शराब और दूसरे बर्तन में दूध था। पस रसूल अल्लाह ने दूध का बर्तन लेकर इस में से पिया और शराब का बर्तन छोड़ दिया। पस जिब्रईल ने रसूल अल्लाह से कहा कि “ऐ मुहम्मदﷺ तेरी रहनुमाई फ़ित्रत की तरफ़ से हुई और तेरी उम्मत की रहनुमाई भी फ़ित्रत की तरफ़ से हुई। और शराब तुम्हारे लिए ममनू क़रार दी गई।” पस रसूल अल्लाह रुख़स्त हुए और जब सुबह हुई तो वो क़ुरैश के पास गए और उनको जा कर ये तमाम हाल सुनाया। ये सुनकर बहुत से आदमीयों ने कहा कि “वल्लाह मक्का से मुल्क-ए-शाम तक पहुंचने में कारवां को एक महीना लगता है और एक महीना वापिस होने में लगता है। क्या शख़्स मुहम्मदﷺ एक ही रात में वहां पहुंच कर मक्का को वापिस आ सकता है।”

मुंदरिजा-बाला बयान से ये ज़ाहिर होता है कि मुहम्मदﷺ मक्का से यरूशलेम गए और वहां से फिर मक्का को एक ही रात में वापिस आ गए। इस के बाद की रिवायत में इस वाक़िये की तफ़सीलात बहुत तवील दी गई हैं। मगर सब में ये बयान गया है कि ये ख़ुद मुहम्मदﷺ ने अपनी ज़बान से बयान किए थे। किताब “मिशकात-उल-मसाबेह” में मुसलसल रावियों के हवाले से हस्ब-ज़ैल हदीस बयान की गई है :-

“रसूल अल्लाह ने फ़रमाया।...कि जिस वक़्त में सो रहा था।...एक आने वाला मेरे पास आया। फिर उसने खोला जो कुछ उस के और इस के दर्मियान था।...और उसने मेरा दिल बाहर निकाल लिया। तब मेरे पास ईमान से लबरेज़ एक पियाला लाया गया। मेरा दिल धोया गया और उसे फिर उस की जगह रख दिया गया। फिर मैं होश में आ गया।...फिर मेरे पास एक जानवर लाया गया जो ख़च्चर से छोटा और गधे से बड़ा था और रंग उस का सफ़ैद था। इस को बुराक कहते हैं और वो अपना अगला पांव हद-ए-नज़र से भी आगे रखता है। फिर मुझे इस जानवर पर बिठाया गया और जिब्रईल मुझे ले गया हत्ता कि मैं सबसे नीचे वाले आस्मान तक पहुंचा। यहां पहुंच कर उसने आस्मान पर दाख़िल होना चाहा, तो दर्याफ़्त किया गया कि तू कौन? उसने कहा कि मैं जिब्रईल हूँ। फिर पूछा गया कि तेरे साथ कौन है? उसने जवाब कि महमुदﷺ है। फिर पूछा गया कि उसे तलब किया गया था? उसने कहा कि हाँ। इस पर कहा गया कि “अहलेन सहलन मर्हबा, ख़ुश-आमदीद।” तब एक ने दरवाज़ा खोला। पस जब मैं अंदर दाख़िल हुआ तो क्या देखता हूँ कि वहां हज़रत आदम मौजूद हैं। जिब्रईल ने कहा कि ये तेरे बाप आदम हैं पस तुम उन्हें सलाम करो। पस मैंने उस को सलाम किया। तब उसने कहा कि “ख़ुश-आमदीद ऐ मेरे अच्छे बेटे और अच्छे नबी।”

अल-ग़र्ज़ ये क़िस्सा यूंही बहुत कुछ तक्लीफ़-देह तवातर के साथ चला जाता है, जिसमें बयान किया गया कि किस तरह जिब्रईल मुहम्मदﷺ को एक आस्मान से दूसरे आस्मान पर ले गया और हर जगह वही सवाल व जवाब हुए जो पहले आस्मान में दाख़िल होने के वक़्त हुए थे। दूसरे पर मुहम्मदﷺ की मुलाक़ात यहया और ईसा से कराई गई। तीसरे आस्मान पर यूसुफ़ से, चौथे आस्मान पर इदरीस से, पांचवे आस्मान पर हारून से और छटे पर मूसा, मूसा मुहम्मदﷺ को देखकर रो दिए और जब इस रोने का सबब दर्याफ़्त किया गया तो उन्होंने फ़रमाया कि मैं जानता हूँ कि मेरी उम्मत के मुक़ाबले में मुहम्मदﷺ की उम्मत के ज़्यादा लोग जन्नत में दाख़िल होंगे। सातवे पर मुहम्मदﷺ की मुलाक़ात इब्राहिम से हुई और वहां भी हस्ब-ए-साबिक़ साहब सलामत हुई। इस के बाद मुझे उठा कर “सदर-उल-मुंतिहा।” तक पहुंचाया गया। क्या देखता हूँ कि उस के फल इस क़द्र बड़े थे जैसी की किसी कुम्हार की हांडियां और उस के पत्ते इस क़द्र चौड़े थे जैसे कि हाथी के कान। उसने कहा कि “ये सदर-उल-मुंतिहा है।” फिर क्या देखता हूँ कि चार दरिया बह रहे हैं जिनमें दो अंदरूनी और दो बैरूनी हैं। मैंने जिब्रईल से दर्याफ़्त किया कि ये दो दरिया कौन से हैं? उसने जवाब दिया कि दो अंदरूनी दरिया जन्नत के हैं और दो बैरूनी दरिया रूद-ए-नील और नहर-ए-फ़ुरात हैं।” इसी तरह इस हदीस में बहुत से हालात सफ़र बयान किए गए हैं। मिनजुम्ला उनके आदम का हँसना और रोना भी जिसका ज़िक्र हम इस से क़ब्ल कर चुके हैं। जब जिब्रईल सदर तक पहुंचा। जिससे आगे बढ़ने की वो जुर्आत नहीं कर सकता था तो इस्राफ़ील फ़रिश्ता आकर मुहम्मदﷺ को अपने साथ ले लिया और उन्हें अपने हदूद इख़्तियार के अंदर सैर कराई। जहां से रसूल अल्लाह आगे बढ़कर अल्लाह तआला के अर्श तक पहुंचे। फिर चंद तफ़सीलात के बाद बयान किया जाता कि मुहम्मदﷺ पर्दा के अंदर दाख़िल हो गए और ख़ुदा ने उनसे कहा “या नबी अस्सलामु अलैकुम व रहमतु अल्लाहे व बर्कातुहू” वग़ैरह वग़ैरह।

अब हम देखते हैं कि मेअराज के हालात कहाँ से लिए गए हैं। मुम्किन है कि सबसे पहले जो हालात ख़ुद मुहम्मदﷺ ने मेअराज के बयान किए होंगे उनकी बुनियाद ख्व़ाब पर होगी। और ग़ालिबन इस में आसमानों पर जाने का कोई ज़िक्र ना होगा, बशर्ते के सूरह अल-नज्म की आयात 12-17 को बाद की वह्यी समझा जाये। मगर हमें तो इस बयान से बह्स है जो अहादीस में दर्ज है और जिनमें मेअराज का हाल निहायत तफ़्सील के साथ दिया गया है। हम ये दिखाएँगे दूसरी बातों की तरह ये रिवायत भी सिर्फ ये ज़ाहिर करने के लिए ईजाद की गई कि मुहम्मदﷺ को बमुक़ाबला दीगर अम्बिया के ख़ुदा के दरबार में बहुत ज़्यादा रसाई हासिल थी और वो दीगर अम्बिया के मुक़ाबले में अल्लाह के ज़्यादा महबूब थे। ये भी मुम्किन कि मुख़्तलिफ़ रिवायत से काण्ट छांट कर के इस्लामी रिवायत गढ़ ली गई हो। मगर इस का माख़ज़ ज़्यादा-तर अर्दावीराफ़ पारसी की मेअराज के हालात मालूम होते हैं जो पहलवी (पुरानी सासानी अह्द की फ़ारसी ज़बान) ज़बान की एक किताब “अर्दावीराफ़ नामक” (Ardaviraf Namak ) में दर्ज हैं। ये किताब मुहम्मदﷺ से तक़रीबन चार सौ बरस क़ब्ल ज़बान पहलवी में बाद इर्द शेर बाबकान शाह ईरान लिखी गई थी।

किताब “अर्दावीराफ़ नामक” में लिखा है कि जब मुक़तिदायान दीन ज़रदुश्त ने ये देखा कि सल्तनत ईरान के लोगों के दिलों से दीन ज़रदुश्त का असर बहुत कुछ ज़ाइल हो गया है तो मजूसी उलमाए दीन ने ये फ़ैसला किया कि जिस मज़्हब को उर्दशीर् बाबकान के जोश मज़हबी ने अज सर-ए-नौ फैलाना चाहा था, इस में ताज़ा शहादतों के ज़रीये फिर जान डालना चाहीए। लिहाज़ा उन्होंने एक निहायत मुत्तक़ी व परहेज़गार और जवान आलिम मज़्हब को मुंतख़ब किया जिसकी तमाम ज़िंदगी निहायत पाक बाज़ाना और ज़ाहिदाना मुर्ताज़ की तरह गुज़री थी। और पाकीज़गी व तहारत के मुताल्लिक़ बहुत सी रस्में अदा करने के बाद उन्होंने इस नौजवान को आस्मान पर जाने के लिए तैयार किया ताकि वो वहां जा कर देखे कि वहां क्या है। और वापिस आकर इत्तिला दे कि जो कुछ उसने वहां देखा वो मजूसियों की मज़हबी कुतुब के मुताबिक़ है या नहीं। बयान किया जाता है कि जब इस नौजवान मुसम्मा अर्दावीराफ़ पर आलम बे-ख़ुदी तारी हुई तो उस की रूह एक मुक़र्रब फ़रिश्ते सरोश की रहनुमाई में आसमानों पर पहुंची। एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल तक गुज़रती चली गई। और रफ़्ता-रफ़्ता इसी तरह उसे मेअराज हासिल होती रही हत्ता कि वो ख़ुद हर मुज़द की जनाब में पहुंची। जब अर्दावीराफ़ आसमानों की तमाम चीज़ें देख चुका और ये भी देख चुका कि साकिनान अफ़्लाक की ज़िंदगी निहायत ऐश-ओ-मसर्रत के साथ गुज़रती है, तो हर मुज़द ने उस को हुक्म दिया कि अब वो उस के रसूल की हैसियत से ज़मीन पर जाये और जो कुछ उसने देखा है वो सब हाल पैरौउन ज़रदुश्त से बयान करे। अल-ग़र्ज़ जो कुछ उसने देखा था वो हालात “अर्दावीराफ़ नामक” मैं दर्ज हैं। तमाम बातें लिखना तो ग़ैर ज़रूरी मालूम होता है मगर बाअज़ इक़तिबासात के देखने से ये बख़ूबी रोशन हो जाएगा कि मेअराज की रिवायत गढ़ने में इस से कितना काम लिया गया। किताब' अर्दावीराफ़ नामक” बाब 7 पैरा 1-4 में लिखा कि :-

“में “हुमत” (Humat) मंज़िल कवाकिब में पहला क़दम बढ़ाता हूँ।....और मैं उन मुक़द्दस लोगों की रूहें देखता हूँ जिनसे नूर इस तरह निकल कर फैलता है जैसे किसी दरख़शां सितारे से। और वहां एक तख़्त है, एक नशिस्तगाह, बहुत दरख़शां और बुलंद और रफ़ी-उल-मनज़िलत (رفیع المنزلت) तब मैंने पाक सरोश और आज़र फ़रिश्ते से दर्याफ़्त किया कि “ये कौन सा मुक़ाम है और ये कौन लोग हैं।”

इबारत मुंदरजा बाला की तसरीह करते हुए ये बयान कर देना ज़रूरी मालूम होता है कि “मंज़िल कवाकिब” यही मुक़ाम है जो दीन ज़रदुश्त में ज़ीरीं या अव्वलीन तबक-ए-बहिश्त कहलाता है। आज़र फ़रिश्ता “मुवक्किल आतिश” है। सरोश “इताअत का फ़रिश्ता” है और वो “मुक़द्दीसिन अज़िल्ली” यानी “Eternal Holy Ones” (अमीषा सपनता या अमिशा सिपंद) दीन ज़रदुश्त के मलाइका मुक़र्रबीन में दाख़िल है। जिस तरह जिब्रईल ने मुहम्मद को सैर कराई उसी तरह सरोश ने भी अर्द्वीराफ़ को मुख़्तलिफ़ आसमानों की सैर कराई।

इस के बाद क़िस्से का सिलसिला इस तरह जारी होता है कि किस तरह अर्दावीराफ़ पहले मंज़िल-ए-क़मर यानी दूसरे आस्मान पर और बादअज़ां मंज़िल शम्स में पहुंचा जो क़सूर आस्मानी में तीसरा क़सर है। इसी तरह वो बतदरीज हर आस्मान पर ले जाया गया हत्ता कि वो हर मुज़द के हुज़ूर में पहुंचा दिया गया। जहां उस की हर मुज़द से इस तरह गुफ़्तगु हुई जो किताब “अर्दावीराफ़ नामक” के बाब 11 में बईं अल्फ़ाज़ दर्ज है :-

“और आख़िर में अपने तख़्त पर से जिस पर सोना चढ़ा हुआ था सरदार फ़रिश्ता बहमन उठा और उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे हुमत (Humat) और हुख़त (Hukhat) और होरास्त (Hurast) में ले गया जहां हर मुज़द और मलाइका मुक़र्रबीन और दीगर मुक़द्दीसीन और ज़रदुश्त पाक बातिन की रूह....और दीगर ईमानदारान व सरदारान दीन ज़रदुश्त मौजूद थे जिनसे बेहतर उदर नूरानी तरीन मैंने कोई चीज़ नहीं देखी। और बहमन ने कहा “ये हर मुज़द है।” और मैंने उस को सलाम करना चाहा और उसने मुझसे फ़रमाया “सलाम तुझ पर ओ, अर्दावीराफ़ ख़ुश आमदी वसफ़ा आवर दी! तू इस दुनिया-ए-फ़ानी से इस पाक और नूरानी मुक़ाम में आया है।” फिर उसने पाक सरोश और फ़रिश्ता आज़र को हुक्म दिया।” अर्दावीराफ़ को ले जाओ और उसे अर्श दिखाओ और दिखाओ कि पाक-बाज़ों को क्या जज़ा और बदकारों को क्या सज़ा मिलती है।” बिलआख़िर पाक सरोश और फ़रिश्ता आज़र ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे एक जगह से दूसरी जगह ले गए और मैंने उन मलाइका मुक़र्रबीन और दीगर फ़रिश्तों को देखा।”

इस के बाद तवील तफ़सीलात के साथ बयान किया गया है कि अर्दावीराफ़ ने बहिश्त व दोज़ख़ की किस तरह सैर की और वहां उसने क्या-क्या देखा। दोज़ख़ का हाल बयान करने के क़िस्से का सिलसिला इस तरह शुरू होता है :-

“बिलआख़िर पाक सरोश और फ़रिश्ता आज़र ने मेरा हाथ पकड़ा और वो मुझे इस ज़ुल्मत-कदा, ख़ौफ़नाक और दहश्त अंगेज़ मुक़ाम से निकाल लाए। और मुझे मुक़ाम नूरानी और हर मज़दू मलाइका, मुक़र्रबीन की मजलिस में ले गए। तब मैंने हर मुज़द की ख़िदमत में सलाम अर्ज़ करना चाहा और वो बहुत मेहरबान हुआ। और उसने कहा कि “ऐ वफ़ादार बंदे मुक़द्दस अर्दावीराफ़, परस्तारान हुर्मुज़्द के पैग़म्बर, अब तू माद्दी दुनिया में जा और वहां की मख़्लूक़ से सच्च सच्च बयान कर जो कुछ तू ने यहां देखा है और जो कुछ मालूम किया है क्योंकि मैं जो हर मुज़्द हूँ, यहां मौजूद हूँ। जो शख़्स सच्च सच्च और सही बोलता है, वो मैं सुनता और जानता हूँ। पस तू भी दानिश मंदों के सामने तमाम हाल बयान कर।” और जब हर मुज़द ने इस तरह से किया तो मैं हैरान-ओ-शश्द रह गया क्योंकि मैंने सिर्फ एक नूर देखा और किसी शख़्स को नहीं देखा। और मैंने एक आवाज़ सुनी और मैं जानता था कि वो हर मुज़द है।”

इस बयान सुनने के बाद ये कहने की ज़रूरत नहीं कि अर्दावीराफ़ के बयान और मेअराज मुहम्मदी के हालात में किस क़द्र मुताबिक़त मौजूद है। किताब “ज़रदुश्त नामा” में जो ग़ालिबन तेरहवीं सदी ईस्वी में लिखी गई थी, एक रिवायत बयान की गई है कि अर्दावीराफ़ से भी सदीयों पेशतर ख़ुद ज़रदुश्त आस्मान पर गया और बाद में उसे दोज़ख़ की सैर करने की भी इजाज़त मिल गई। वहां उस ने अहरमन को देखा जो क़ुरआन के इब्लीस से बहुत ज़्यादा है।

इस क़िस्म की रिवायत आर्या दुनिया में सिर्फ ईरान तक महदूद हैं। संस्कृत ज़बान में भी इस क़िस्म के क़िसस मौजूद हैं जिनमें एक क़िस्सा “इंद्र लोक गमानम” (Indralok Gamanum) यानी “इंद्र की दुनिया का सफ़र” है। इंद्र फ़िज़ा या आलम बाला का देवता है। इस क़िस्से में बयान किया गया है कि मशहूर-ओ-मारूफ़ सूरमा अर्जुन आसमानों पर गया जहां उसने राजा इंद्र का बहिश्ती महल “वाओंती” (Vaivanti) देखा जो “नन्दम बाग़” (Nandam) में बना हुआ है। हिंदू किताबों में लिखा हुआ है कि इस ख़ूबसूरत मुक़ाम में जिस क़द्र हरे-भरे पौदे पैदा होते हैं उन्हें हमेशा जारी रहने वाले आब-ए-रवाँ के चश्मे सेराब करते हैं। और इस मुक़ाम के दर्मियान में एक दरख़्त लगा हुआ है जिसको “पक्ष जती” (Pakshjati) कहते हैं। इस दरख़्त पर “अमृत फल” या “सुमर-तुल-हयात” (ثمرۃ الحیاۃ) लगता है। इसी को शुअरा-ए-यूनान क़दीम ने अपने यहां “αμβροοδα” लिखा है। ख़वास इस फल के ये हैं कि जो कोई उसे खा लेता है वो कभी नहीं मरता। इस दरख़्त पर गोना गों ख़ूबसूरत फूल लगे हुए हैं और जो शख़्स इस दरख़्त के ज़ेर-ए-साया आराम करता है उस के दिल की हर ख़्वाहिश पूरी हो जाती है। पार्सियों के यहां भी एक अजीब-ओ-ग़रीब दरख़्त का वजूह पाया जाता है। जिसका नाम ओस्ता में “होवाप्पा” पहलवी में हुमाया है। दोनों सूरतों में इस के मअनी “अच्छे पानी वाला” और “शादाब” हैं। वंदीदाद (Vendidad) में इस का हाल बिलअल्फ़ाज़ जे़ल लिखा है :-

“पाकीज़गी और सफ़ाई के साथ “पोई टीका” (Puitica) के समुंद्र से “वाओरुक्षा” (Vauruksha) के समुंद्र में और वहां से दरख़्त “होवप्पा” तक पानी बहते हैं। तमाम पौदे और हर क़िस्म के पौदे वहां पैदा होते हैं।”

होवप्पा और “पक्ष जती” दोनों मुसलमानों की बहिश्त के दरख़्त तूबा हैं। जिसका हाल बयान करने की चंदाँ ज़रूरत नहीं। लफ़्ज़ तूबा के मअनी “नेकी का दरख़्त” हैं। यहां ये वाज़ेह कर देना भी बेमहल ना होगा कि इसी क़िस्म की रिवायत बाअज़ मशकूक-उल-सेहत ईसाई कुतुब में भी पाई जाती हैं ख़ुसूसुन “वेज़ीव पाली” (Visio Pauli) और “सहीफ़-ए-इब्राहीमी।” मोख्ख़र-उल-ज़िक्र किताब का हवाला हम कई जगह दे चुके हैं। “वेज़ यू पाली” में लिखा है कि पोलोलस (पौलस) आसमानों पर गया और उसने बहिश्त के चार दरिया देखे और “सहीफ़-ए-इब्राहीमी” में लिखा है कि इब्राहिम ने आसमानों के अजाइबात देखे। और जिस तरह और मुहम्मद ﷺ ने दुनिया में आकर वहां के हालात बयान किये इसी तरह इन दोनों ने भी वहां के हालात बयान किए थे। इब्राहिम की निस्बत लिखा है कि :-

“मीकाईल फ़रिश्ता आस्मान से उतरा और इब्राहिम को एक करूबी मुरक्कब (Cherubia Chariot) में सवार कर के आस्मान पर ले गया। और उसने उसे आस्मान एत्तर (Ether) में उठा लिया और उसे और साठ फ़रिश्तों को अब्र पर लाया और इब्राहिम एक सवारी में बैठा हुआ तमाम आबाद ज़मीन पर बैठा हुआ था।”

जिस सवारी को यहां “मुरक्कब करूबी” लिखा है इस की मुस्लिम रिवायत में दूसरी सूरत है। क्योंकि मुसलमानों के यहां लिखा है कि मुहम्मदﷺ ने बुराक़ नामी जानवर पर सवारी की थी। ये भी याद रहे कि शहसवारी अरबों के नज़्दीक ज़्यादा मर्ग़ूब चीज़ थी। लफ़्ज़ बुराक़ ग़ालिबन इब्रानी लफ़्ज़ “बाराक” (Baraq) से मुश्तक़ है जिसके मअनी “बिजली” हैं और अरबी ज़बान में “बिजली” को “बर्क़” कहते हैं। और ये भी मुम्किन है कि लफ़्ज़ बुराक़ पहलवी ज़बान से मुश्तक़ हो। ये भी वाज़ेह हो कि किताब “सहीफ़-ए-इदरीस” में भी ज़मीन, आस्मान और दोज़ख़ के बहुत अजीब-ओ-ग़रीब हालात दर्ज हैं जो उसने अपने रोया में देखे थे। और ग़ालिबन “रोयाए पोलोलस” (Visio Pauli) और सहीफ़-ए-इब्राहीमी पर इसी किताब का असर पड़ा था। और गोया इस तरह बिलवास्ता इस्लामी रिवायत पर असर पड़ा। लेकिन ये ख़्याल हमारे दिल में हरगिज़ नहीं आ सकता कि इस का असर “अर्दावीराफ़ नामक” पर भी पड़ा था।

जन्नत-ए-अदन में शजर-तुल-हयात के मुताल्लिक़ भी यहूदीयों के यहां बहुत सी अजीब-ओ-ग़रीब रिवायत मौजूद हैं। जो ग़ालिबन अकदियन (Accadian) रिवायत दरबारा “मुक़द्दस दरख़्त अरीतो” (مقدس درخت اریطو) से ली गई होंगी। ये क़दीम रिवायत मुक़ाम “नेपोर” (Nippour) के क़दीम तरीन कुतबों में दर्ज हैं। जिन का इन्किशाफ़ डाक्टर हिलप्रेख़त (Hilprechat) ने किया था। आसमानी बहिश्त के मुताल्लिक़ मुसलमानों के यहां जो रिवायात हैं उन पर यहूदी रिवायात का ज़रूर असर पड़ता था क्योंकि मुस्लमानों का अक़ीदा ये है कि जन्नत-ए-अदन आसमान पर है। लिहाज़ा जो कुछ यहूदीयों ने अर्ज़ी जन्नत (ज़मीनी जन्नत) के मुताल्लिक़ बयान किया था इस को मुसलमानों ने बहुत कुछ आसमानी जन्नत की तरफ़ मुंतक़िल कर दिया। इस बारे में मुसलमानों को ग़ालिबन नसारा की मशकूक-उल-सेहत मज़हबी कुतुब से धोका हुआ क्योंकि चार दरियाओं का ज़िक्र ज़रूर “पौलूस” से लिया गया है। और ये बयान करने की कुछ ज़रूरत नहीं कि इन मशकूक-उल-सेहत कुतुब को नसारा के किसी फ़िर्क़े ने कभी काबिल-ए-एतिमाद नहीं समझा। अगरचे किसी ज़माने में वो जोहला के दरमयान बहुत ज़्यादा राइज थीं। बहर-ए-हाल मुसलमानों ने शजर तूबा का बयान ख़्वाह ज़रदुशतियों से लिया हो या यहूदीयों या दोनों से, मगर जो चार दरिया पर मुहम्मदﷺ ने देखे थे वो ज़रूर “रोयाए पौलूस” में से लिए गए हैं और इस में ये बयान किताब पैदाइश के बाग़-ए-अदन से लिया गया है।

यहां ये सवाल पैदा हो सकता है कि इदरीस, इल्यास और ईसा के आस्मान पर चढ़ जाने का हाल जो बाइबल में दिया गया है या उस शख़्स को पकड़ कर तीसरे आस्मान पर उठा लेने का जो हाल दर्ज है जिसको बाअज़ लोग पौलुस ख़्याल करते हैं, क्या इन्ही हालात से मुंदरजा बाला रिवायत माख़ूज़ नहीं हैं? इस्लामी और यहूदी रिवायत की निस्बत तो ये ख़्याल ज़रूर पैदा हो सकता है, मगर ईरानी और हिन्दुस्तानी रिवायत की निस्बत ऐसा ख़्याल करना बिल्कुल फ़ुज़ूल है। बहर-ए-हाल अगर ऐसा है तो दीगर इस्लामी रिवायत की तरह मेअराज मुहम्मदी की रिवायत भी अर्दावीराफ़ की मेअराज के नमूने पर मुसलमानों ने इस ग़रज़ से ईजाद की अगरचे मुहम्मदﷺ बाअज़ सूरतों में ईसा और दीगर अम्बिया ए बनी इस्राईल की मानिंद थे मगर बाअज़ सूरतों में वो अम्बिया ए साबिक़ पर बहुत कुछ फ़ौक़ियत रखते थे।

जन्नत और हूरें

जन्नत और हूरों के साथ जिन्नात, मलक-उल-मौत और ज़र्रात-उल-क़ाइनात को भी शामिल किया जा सकता है। क़ुरआन की जिन आयात में जन्नत के हालात बयान किए गए हैं उनका मफ़्हूम है :-

“यानी उस के लिए जो अपने रब के सामने (अदालत में खड़ा होता डरता है, दो बाग़ हैं, जिनमें मुख़्तलिफ़ किस्में हैं। उनमें से हर एक में दो चश्मे जारी हैं और उनमें से हर एक फल की दो दो किस्में हैं। लेटे हुए हैं पलंगों पर जिनकी चादरें रेशमी कशीदाकारी की हैं और दोनों बाग़ों के मेवे दस्तरस के अंदर होंगे। उनके अंदर वो होंगी जो कनखियों से देखती हैं, जिनको उनसे क़ब्ल ना इन्सान ने ना जिन्नों ने छूआ होगा। गोया वो याक़ूत और मोती हैं। क्या एहसान का बदला एहसान के सिवाए और कुछ है? और उनके इलावा दो बाग़ और हैं, गहरे सब्ज़। उनमें से हर एक में दो चश्मे हैं जिनका पानी ज़ोर से उबल कर बहता है। इनमें से हर एक में मेवे हैं और खजूरें और अनार। हर एक में अच्छी अच्छी हसीन व जमील हूरें हैं जो ख़ेमों के अंदर हैं जिन्हें इनसे क़ब्ल किसी इन्सान या जिन्न ने नहीं छुवा। वो लेटे हैं सबज़ तकीयों और ख़ूबसूरत ग़ालीचों पर” (सूरह रहमान)

इलावा अज़ीं क़ुरआन की सूरह वाक़िया आयात 11-38 में अस्हाब अस्हाब-उल-यमीन اصحاب المیمنتہ (दाहने हाथ के अस्हाब) के लिए जन्नत की नेअमतों और मसर्रतों की तस्वीर भी इस तरह खींची गई है। (अस्हाब-उल-यमीन) से मुराद वो लोग हैं जो हश्र के रोज़ जन्नती क़रार पाएँगे क़ुरआन में लिखा है कि :-

“ये वो लोग हैं जो क़रीब लाए गए हैं (अल्लाह के) पर अज़ मसर्रत जन्नतों में।.....जवाहर निगार तख़्तों पर..लेटे हुए हैं उन पर एक दूसरे की तरफ़ मुँह किए हुए। इन के गर्द घूमते हैं नौखीज़ लड़के (ग़िल्मान) जिनकी उमरें नहीं बदलतीं। उनके हाथों में प्याले और जाम और एक पियाला चश्म-ए-शराब का होगा। उनके पीने से उनके ना सर में दर्द होगा, ना उन पर बद मस्ती ग़ालिब होगी। और मेवे जैसे वो पसंद करेंगे और परिंदों का गोश्त जैसा वो चाहेंगे। और पाक ख़ूबसूरत बड़ी बड़ी आँखों वाली हूरें जो छिपे हुई मोती की तरह होंगी। ये उनके आमाल की जज़ा होगी और वो इस में किसी क़िस्म की बेहूदा बातें ना सुनेंगे और ना गुनेहगारों की बातें सुनेंगे, सिवाए अल्फ़ाज़ “सलाम-सलाम” के। और अस्हाब अलीमीन तुम जानते हो कि ये कौन हैं? सिदरा के बेख़ार दरख़्तों में और फूलों से लदे हुए बबूलों में और फैले हुए साये में और आब-ए-रवाँ में। और कस्रत मेवा-जात में जो ना रोके गए हैं ना ममनू हैं और रफ़ी-ओ-बुलंद पलंगों पर। यक़ीनन हमने उनको (हूरों) को एक खासतौर पर मख़्लूक़ किया है। पस हमने उनको बाकिरा (कुँवारी) बनाया जो अपने हम-अस्रों से मुहब्बत करती हैं। अस्हाब-उल-यमीन की ख़ातिर।”

आप देखेंगे मुसलमानों की जन्नत का ये दिलचस्प हाल बहुत कुछ ईरानी और हिंदू ख़यालात से माख़ूज़ है। हूरों का ख़्याल क़दीम ईरानी रिवायत दरबारा पैराकास (Pairakas) से लिया गया है जिन्हें फ़ीज़मानिना अहले ईरान “परियाँ” कहते हैं। पैरवान ज़रदुश्त के नज़्दीक ये मुअन्नस अर्वाह या देवियाँ हैं जो हवा में रहती हैं और नूर और सितारों से उनका बहुत गहिरा ताल्लुक़ है। वो इस क़द्र हसीन-ओ-जमील हैं कि उनको देखते ही इन्सान का दिल फ़रेफ़्ता हो जाता है। लफ़्ज़ हूर जो क़ुरआन में इन हसीन व जमील दोशेज़गान जन्नत के लिए इस्तिमाल हुआ है, इस की निस्बत से आम तौर से ये ख़्याल किया जाता है कि वो अरबी मुसद्दिर से मुश्तक़ है और “स्याह चशम” मअनी रखता है। मुम्किन है ऐसा हो। मगर हमारे ख़्याल में ये लफ़्ज़ ग़ालिबन फ़ारसी मुसद्दिर से मुश्तक़ है और उस लफ़्ज़ से निकला है जिसे ओस्ता में “होरा” (Hvra) लिखा है, इसी को पहलवी ज़बान में “होर” और मौजूदा फ़ारसी में “हूर” लिखते हैं जिसके मअनी दरअस्ल नूर या रोशनी या धूप और मजाज़न आफ़्ताब के हैं।

जब अरबों ने अहले ईरान से उन दरख़शां और नूरानी बाकिरा (कुँवारी) औरतों का ख़्याल लिया तो ग़ालिबन उन्होंने अपनी ज़बान में वो फ़ारसी लफ़्ज़ भी ले लिया जिससे इन नाज़नीनों का सही मफ़्हूम ज़ाहिर होता था। ख़ुद लफ़्ज़ फ़िर्दोस (Paradise) फ़ारसी लफ़्ज़ है, और इसी तरह क़ुरआन में बहुत से अल्फ़ाज़ फ़ारसी और ग़ैर ज़बानों के आए हैं। लफ़्ज़ “हूर” से जिस क़िस्म की मख़्लूक़ का ख़्याल ज़ाहिर किया जाता है, वो दरअस्ल आर्या माख़ज़ से लिया गया है और यही हाल “ग़िल्मान” (कम उम्र लड़के) का है। हिंदूओं में दोनों क़िस्म की मख़्लूक़ का अक़ीदा मौजूद है। हूरें संस्कृत ज़बान में “अप्सराएं” और “ग़िल्मान” संस्कृत ज़बान में “गन्धरब” कहलाते हैं। इन की निस्बत ये ख़्याल है कि वो आस्मान में रहते हैं अगरचे अक्सर ज़मीन की सैर करने भी आ जाते हैं।

मुसलमान मौअर्रखीन ने बहुत से क़िस्से बयान किए हैं जिनमें ये ज़ाहिर किया गया है कि जन्नत में हूरों से हम-आग़ोश होने के शौक़ में बहुत से नौजवान मुस्लिम मुजाहिदीन मैदान-ए-जंग में दिलेराना कूद पड़े और शहीद हो गए। ये ख़्याल क़दीम आर्या ख़्याल से मिलता-जुलता है जो ये था कि जो शख़्स मैदान-ए-जंग में इस तरह मरता है कि तमाम ज़ख़्म उस के जिस्म पर सामने की तरफ़ हों तो वो देवताओं के हाथों इनाम पाता है। मनु जी महाराज ने धर्म शास्त्र में तहरीर फ़रमाया कि :-

“जब दुनिया के राजा मैदान-ए-जंग में लड़ते हैं, इस शौक़ में कि एक दूसरे को क़त्ल करें और हरगिज़ सामने से मुँह नहीं हटाते, वो अपनी शुजाअत की वजह से बहिश्त में जाते हैं।”

इसी तरह “निलू पुखया नम” Nalopakhyanam) इंद्र बहादुर नल से कहता है :-

“ज़मीन के आदिल मुहाफ़िज़ राजा वो जंगआज़मा जिन्हों ने जान (की उम्मीद) छोड़ दी है, जो मुँह मोड़े बग़ैर हाथ में हथियार लेकर फ़ना हो जाते हैं, उनके लिए ला-फ़ानी दुनिया मौजूद है यानी अंदर की सोग।”

इस क़िस्म के ख़यालात सिर्फ़ हिन्दुस्तान ही तक महदूद ना थे बल्कि बुत-परस्ती के ज़माने में शुमाली यूरोप के बाशिंदे भी इस क़िस्म का अक़ीदा रखते थे कि आस्मान के “वालकायरी” (Valkyries) यानी “मुर्दों के मुंतख़ब करने वाले” मैदान-ए-जंग में आते हैं और वहां से “औधीन” (Odhin) की बहिश्त वालकायरी (Valhalka) या “ऐवान शोहदा” में इन बहादुर जंग आज़माऊं की रूहों को ले जाते हैं जो जंग में काम आए, जिनके मुताल्लिक़ मुसलमानों का अक़ीदा है कि वो एक क़िस्म की ख़बीस और मूज़ी रुहानी मख़्लूक़ है जिसको बहुत बड़ी ताक़त हासिल होती है। दुनिया-ए-इस्लाम के बहुत से इलाक़ों में लोग उनसे बहुत डरते हैं। इस से क़ब्ल हम ये दिखा चुके हैं कि वो सुलेमान के ताबे थे और क़ुरआन में उनका ज़िक्र बहुत आता है। जहां ये बताया गया है कि फ़रिश्तों और शयातीन की तरह जिन्न भी एक आतिशी मख़्लूक़ है। लफ़्ज़ जिन्न भी फ़ारसी का लफ़्ज़ मालूम होता है “ओस्ता जेनी” (Jaini) के मअनी शरीर मुअन्नस रूह के हैं।

मुस्लिम रिवायत दरबारा “मीज़ान” पर बह्स करते हुए हमने ये दिखाया था कि मेराज मुहम्मदी के मुताल्लिक़ जो रिवायत है उस में बयान किया गया है कि मुहम्मदﷺ ने आस्मान पर आदम को देखा कि वो रोता है, जबकि वो इन स्याह सूरतों को देखता है जो उस के बाएं हाथ की तरफ़ हैं। और हँसता है जब वो इन सूरतों को देखता है जो उस के दाहने हाथ की तरफ़ हैं। ये स्याह सूरतें (अलअसूदा) आदम के वो अख़्लाफ़ (बाद की नसल) हैं जो हनूज़ पैदा नहीं हुए। इन को आम तौर पर “ज़र्रात-उल-काइनात” कहा जाता है। सहीफ़-ए-इब्राहीमी में जिस मख़्लूक़ का ज़िक्र किया गया है, उनसे ये “ज़र्रात-उल-काइनात” इस बात में मुख़्तलिफ़ हैं कि सहीफ़-ए-इब्राहीमी में इबराहीम ने अपने इन अख़्लाफ़ की अर्वाह को देखा था जो मर चुके थे। मगर मुसलमानों की रिवायत में आदम उन लोगों की अर्वाह (रूहें) को देखता है जो हनूज़ पैदा भी नहीं हुए हैं यानी बसूरत “ज़र्रात-उल-काइनात” इस्लामी रिवायत में इस मख़लूक़ का जो नाम है वो यक़ीनन ख़ालिस अरबी है। मगर ये ख़्याल पार्सियों की रिवायात से माख़ूज़ मालूम होता है जिनके यहां इस मख़्लूक़ को “फ़रोशी” (Fravashi) बयान किया गया है। ये ओस्ता का लफ़्ज़ है, पहलवी ज़बान में उनको “फ़िरौ हर” (Feruhar) कहते हैं। बाअज़ लोगों का ख़्याल है कि ईरानियों ने ये ख़्याल क़दीम मिस्रियों से लिया था। मगर ये क़रीन-ए-क़ियास नहीं है। बहर-ए-हाल ऐसा हो या ना हो मगर मुसलमान इस अक़ीदे में कि लोगों की रूहें पहले से पैदा शूदा मौजूद रहती हैं, मजूसियों के रहीन मिन्नत हैं।

मुसलमान भी मलक-उल-मौत का हाल क़रीब क़रीब इसी तरह बयान करते हैं जैसे यहूद, फ़र्क़ सिर्फ इस क़द्र है कि यहूदीयों में इस फ़रिश्ते का नाम “समाईल” (Sammael) है और मुसलमानों में “इज़राईल” (Azrail) मगर इस्लामी नाम इस फ़रिश्ता का अरबी नहीं बल्कि इब्रानी है जिससे ज़ाहिर होता है कि इब्तिदाई इस्लाम पर यहूदीयों का किस क़द्र ग़ालिब असर था। चूँकि इस फ़रिश्ते का नाम बाइबल में कहीं नहीं लिखा है, इसलिए साफ़ ज़ाहिर है कि जो कुछ भी यहूदी और मुसलमान इस फ़रिश्ते के बारे में कहते हैं, वो ज़रूर-बिल-ज़रूर किसी दीगर ज़राए से माख़ूज़ है। ये ज़रीया ईरानी है क्योंकि ओस्ता में एक फ़रिश्ता बयान किया गया है जिस का नाम “अस्तिव विधोतुश” या “विधोतुश” (Astovidhotus or Vidhatus) है जिसके मअनी हैं “तक़्सीम करने वाला” यानी जिस्म व रूह को जुदा करने वाला। अगर कोई शख़्स आग में जल कर या पानी में डूब कर मर जाता था तो ज़रदुश्तयों के नज़्दीक उस की मौत का बाइस आग या पानी नहीं समझा जाता था क्योंकि उनके नज़्दीक ये अनासिर अच्छे हैं, इन्सान को नुक़्सान पहुंचाने वाले नहीं हैं। ये काम दरअस्ल मलक-उल-मौत “वैधातुश” का है।

अज़ाज़ील का दोज़ख़ से आस्मान पर जाना

मुसलमानों की रिवायत की रू से शैतान या इब्लीस का असली नाम अज़ाज़ील था। ये नाम इब्रानी ज़बान का है और किताब अहबार 16:8, 10-26 में आया है। मगर इस की असलीयत यहूदी नहीं बल्कि एक हद तक ज़रदुश्ती मालूम होती है। क़िसस-उल-अम्बिया में लिखा है कि :-

“अल्लाह तआला ने अज़ाज़ील को पैदा किया। अज़ाज़ील ने एक हज़ार बरस तक सुजैन (दोज़ख़ की एक घाटी) में अल्लाह तआला की इबादत की। इस के बाद वो ज़मीन पर आया। यहां भी उसने हर तबक़े पर एक हज़ार साल तक अल्लाह तआला की इबादत की हत्ता कि वो सतह पर आ गया (यानी सबसे ऊपर का तबक़ा जहां आदमी रहते हैं।) तब अल्लाह तआला ने उसे ज़मुर्रद के दो बाज़ू दिए जिनके ज़रीये से उड़ कर वो आस्मान अव्वल पर पहुंचा। यहां उसने हज़ार साल तक इबादत की और इस तरह आस्मान दोम तक पहुंचा और इसी तरह हर मंज़िल पर एक हज़ार साल तक इबादत करता हुआ चढ़ता चला गया। और हर तबक़े के मलाइका ने इस को अलेहदा (अलग) अलेहदा (अलग) नाम दिया। पांचवें आस्मान पर वो सबसे पहले अज़ाज़ील कहलाया। इसी तरह वो छटे और सातवें आस्मान पर पहुंचा। और उसने इस क़द्र इबादत की थी कि तमाम आसमानों और ज़मीन में हथेली भर ज़मीन भी ऐसी ना बची थी जहां उसने सज्दा ना किया हो। इस के बाद रिवायत में बयान किया गया है कि इब्लीस आदम को सज्दा ना करने के गुनाह में बहिश्त से निकाल गया।”

किताब “अराईस-उल-मजालिस” में लिखा है कि इस वक़्त उस का नाम इब्लीस हुआ और वो दर-ए-जन्नत पर एक हज़ार बरस तक इस उम्मीद में पड़ा रहा कि किसी तरह आदम व हव्वा को कोई नुक़्सान पहुंचाए, क्योंकि उन दोनों की तरफ़ से इस का दिल बुग़ज़-व-हसद से भरा हुआ था। अब हम देखते हैं कि मजूसियों की किताब “बंदा हशीनही” (Bindhiohnih) जो बज़बान पहलवी लिखी हुई है और जिसके नाम के मअनी “आफ़रीनश” हैं, इसी बारे में क्या कहती है। वाज़ेह हो कि पहलवी ज़बान में “रूह ख़बीस” या शैतान को अहरमन कहते हैं। जो लफ़्ज़ “ऑनर विमीनयुस” (Anro mainyus) से मुश्तक़ है। ओस्ता में शैतान के लिए यही लफ़्ज़ इस्तिमाल होआ है और इस के मअनी “तबाह करने वाला दिल” हैं। किताब “बंदा हशीनही” के बाब अव्वल व दोम में लिखा है कि :-

“अहरमन था, और है ज़ुल्मत में और इल्म माज़ी, ख़्वाहिश ज़रर रसानी और हाविया (Abyss) में....और वो ज़रर रसानी और वो तारीकी भी एक मुक़ाम हैं जिसे वो तब्क-ए-ज़ुलमात कहते हैं। हर मुज़द चूँकि आलम बिकुल्ली शई् (بکل شئیٍ) है, इसलिए वो जानता था कि अहरमन का वजूद है क्योंकि वो (अहरमन) ख़ुद को हैजान में लाता है और दम-ए-आख़िर तक ख़ुद को जज़्ब-ए-बुग़्ज़ व हसद में शामिल कर देता है....वो (हुर्मुज़्द व हरमन) तीन हज़ार बरस तक रूह में रहे यानी उनमें कोई नक़्ल-ए-हरकत नहीं थी...मूज़ी रूह, बाव्जाह अपने इल्म माज़ी के, हर मुज़द के वजूद से आगाह ना थी। बिलआख़िर वो इस ग़ार तारीक या हाविया से उठता है और आलमे नूर में आता है और जब उसने हर मुज़द के दरख़शां नूर को देखा तो...अपने जज़्ब-ए-ज़रर रसानी की वजह से और अपनी हासिदाना तबीयत के बाइस वो तख़रीब व तबाहकारी में मसरूफ़ हो गया।”

सुनवीत (ثنویت) परस्त मजूसियों और तौहीद परस्त मुसलमानों की रिवायत में कुछ ना कुछ फ़र्क़ होना लाज़िमी था। यही बाइस है कि मजूसियों की रिवायत में “मब्दा-ए-शर” (Evil Principle) हर मुज़द की मख़्लूक़ नहीं है और वो पहले हर मुज़द के वजूद से आगाह नहीं है। मगर इस्लामी रिवायत में वो अल्लाह तआला की मख़्लूक़ है। इस्लामी रिवायत में वो अपने ज़ोहद-ओ-तक़्वा और इबादत-ओ-रियाज़त के ज़रीये से बतदरीज उरूज हासिल करता है। और मजूसी रिवायत में रियाज़त व इबादत का कोई ताल्लुक़ नहीं है। मगर दोनों रिवायतें इस बारे में मुत्तफ़िक़ हैं कि वो “रूह शरीर” तारीकी और जहालत में रहती थी और फिर आलम नूर में आई और दोनों सूरतों में वो बाव्जाह बाग़्ज़-ओ-हसद मख़्लूक़-ए-ख़ुदा की तबाही व हलाकत में मसरूफ़ हो गई। मजूसियों की रिवायत के बमूजब उस “रूह शरीर” के जो बारह हज़ार साल मुसलसल जंग माबय्यन ख़ैर शर में गुज़रे उनको तीन तीन हज़ार साल के चार अदवार में तक़्सीम किया गया है। इस्लामी रिवायत में भी अज़ाज़ील (या इब्लीस ने तीन हज़ार साल का एक दौर दौर वाज़ह-ए-बहिश्त के बाहर पड़े पड़े गुज़ारता कि आदम की तख़रीब व तबाही का कोई मौक़ा मिले।

क़ब्लअज़ीं कि हम इस मज़्मून को ख़त्म करें, ये ज़ाहिर कर देना मुनासिब मालूम होता है कि इस्लामी और मजूसी दोनों रिवायत में ताऊस का रूह शरीर से कुछ ताल्लुक़ ज़रूर है। क़िसस-उल-अम्बिया में बयान किया गया है कि जब इब्लीस बहिश्त के दरवाज़े पर ताक लगाए बैठा था कि अंदर दाख़िल हो कर आदम व हवा को किसी तरह वरग़ला कर उनसे गुनाह कराने का मौक़ा मिले, तो उस ज़माने में ताऊस फ़सील पर बैठा हुआ था जिसने इब्लीस को निहायत ख़ुज़ू व ख़ुशू के साथ इस्म-ए-आज़म पढ़ते देखा। इस क़द्र ज़ोहद-ओ-इत्तिक़ा इब्लीस का देखकर ताऊस का दिल बहुत मुतास्सिर हुआ और उसने ये मालूम करना चाहा कि ये ज़ाहिद मुर्ताज़ कौन है। इब्लीस ने जवाब दिया कि “मैं अल्लाह तआला के फ़रिश्तों में से एक हूँ।” ताऊस ने दर्याफ़्त किया कि “तुम यहां क्यों बैठे हो?” इब्लीस ने कहा कि मैं बहिश्त की तरफ़ देख रहा हूँ और अंदर दाख़िल होना चाहता हूँ।” चूँकि ताऊस फ़सील जन्नत पर बतौर पासबान तैनात था इसलिए उसने जवाब दिया “मुझे हुक्म नहीं है कि जब तक आदमी बहिश्त के अंदर है उस वक़्त तक किसी को अंदर दाख़िल ना होने दूं।” मगर इब्लीस ने उसे वरग़लाया और कहा कि अगर उसने उसे बहिश्त में दाख़िल होने दिया तो वो इस को एक ऐसी दुआ सिखा देगा जिसको पढ़ने से वो कभी बूढ़ा ना होगा, ना कभी ख़ुदा की ना-फ़रमानी करेगा और ना कभी बहिश्त से निकाला जाएगा। ये सुनकर ताऊस फ़सील पर से उड़ कर नीचे पहुंचा और जो कुछ उसने सुना था वो सब हाल साँप से बयान किया। इस तरह गोया हव्वा को और बादअज़ां आदम को वरग़लाया गया जो उन के हुबूत (जन्नत से निकलने) का बाइस हुआ। पस जब अल्लाह तआला ने आदम, हव्वा, इब्लीस और साँप को बहिश्त से मर्दूद किया तो उनके साथ ताऊस को भी ज़मीन पर फेंक दिया गया। ये अम्र क़ाबिल-ए-ज़िक्र है कि मजूसियों के अक़ीदा में भी अहरमन और साँप के दर्मियान कुछ ताल्लुक़ था। अर्मनी अज़नीक (Ezniq) लिखता है कि उस के ज़माने में मजूसी लोग ये कहते थे कि अहरमन ने कहा “ये नहीं कि मैं कोई उम्दा चीज़ नहीं बना सकता मगर मैं बनाना नहीं चाहता और अपने क़ौल का सबूत देने के लिए उसने ताऊस को बनाया।” अगर मजूसी रिवायत में ताऊस, अहरमन की पैदा-कर्दा मख़्लूक़ है तो फिर क्या ताज्जुब है कि उसने इस्लामी रिवायत में इब्लीस की मदद की और उस के साथ ख़ुद भी जन्नत से निकाला गया।

नूर मुहम्मदी

अगरचे क़ुरआन में नूरे मुहम्मदी का कोई ज़िक्र मौजूद नहीं है मगर रिवायत व अहादीस में इस नूर का बहुत कुछ ज़िक्र है जो कि मुहम्मदﷺ की पेशानी पर चमकता था और जो उन के वजूद से क़ब्ल पैदा कर दिया गया था। “रोज़तुल-अहबाब” जैसी कुतुब में नूरे मुहम्मदी की रिवायत पर सफ़े के सफ़े भरे पड़े हैं। चुनान्चे किताब मज़्कूर में लिखा है कि :-

“जब आदम को पैदा किया गया तो अल्लाह तआला ने वो नूर उस की पेशानी में रखा और फ़रमाया “ऐ आदम ये नूर जो मैं ने तेरी पेशानी में रखा है, ये तेरे शरफ़ और अफ़्ज़ल बेटे का नूर है। और ये उन तमाम अम्बिया के जो ज़मीन पर मबऊस किए जाऐंगे, सरदार का नूर है।”

इस के बाद इस रिवायत का सिलसिला इस तरह जारी होता है कि वो नूरे मुहम्मदी आदम से शीत (सियत) को और शीत से उनके शरीफ़ तरीन बेटे को नस्लन बाद नस्ल (पुश्त दर पुश्त) मुंतक़िल होता रहा हत्ता कि वो अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब तक पहुंचा। अब्दुल्लाह से वो नूर आमना को मुंतक़िल हुआ जब वो हामिला हुईं। मुम्किन है कि नूरे मुहम्मदी की रिवायत बनाने से मुसलमानों का ये मंशा हो कि जो कुछ ईसा की इंजील युहन्ना 1:4,5 में बयान किया गया है इस से भी ज़्यादा वो अपने नबी की शान में बयान करें और मुम्किन है उन्होंने अपनी रिवायत की बुनियाद किताब पैदाइश 1:3 पर रखी हो। इसी के साथ नाज़रीन को ये भी मालूम हो जाएगा कि मजूसी कुतुब से जो इक़तिबासात हम जे़ल में दर्ज करते हैं उन्हीं से इस्लामी रिवायत की तफ़सीलात ली गई हैं :-

पहलवी ज़बान की किताब “मीनू ख़िरद” में जो ईरान में सासानी ख़ान्दान के इब्तिदाई बादशाहों के ज़माने में लिखी गई थी, ये लिखा है कि हर मुज़द ने इस दुनिया, मलाइका मुक़र्रबीन, अक़्ल आस्मानी को “ज़रवान-ए-इक़रान” की तारीफ़ के साथ ख़ास अपने नूर से पैदा किया। लेकिन इस से भी ज़्यादा एक क़दीम किताब से मालूम होता है कि इस किताब की हिकायत या रिवायत ईरान में मौजूद थी। यानी पार्सियों की मज़हबी किताब ओस्ता में भी बसिलसिला हालात “यम खुशीत” (Yima Khshaet) या “यम नूरानी” जिसे बाद के ज़माने में “जमशेद” कहा गया है, इसी क़िस्म की रिवायत लिखी है। ईरान का “जमशेद” या “जम” वही है जो संस्कृत ज़बान का “यम” या “जम” है। रिग वेद में इस को सबसे पहला आदमी बयान किया गया है और लिखा है कि इस की बहन “यमी” ने उस को गुनाह करने की बे-नतीजा तर्ग़ीब दी। अब यम की हुकूमत “पाताल” या “आलम रफ़्तगाँ” पर है। मगर ईरानी रिवायत में “यम” और “जम” तमद्दुन ईरानी का बानी है। उस के बाप का नाम “वाओ नहूत” (Vivanhvat) था और ये वही है जो हिन्दुस्तानी रिवायत में “वैवस्वत” (Vivasvat) यानी सूरज है। और ये “यम” का बाप है। यम की पेशानी पर “क़वीम होवेरेणू” (Kavaem Hvareno) यानी “शाही नूर” चमकता था जो गोया “पर्तो यज़्दानी” था। मगर जब यम गुनाह का मुर्तक़िब हुआ तो वो नूर ज़ाइल हो गया। ओस्ता में ये क़िस्सा इस तरह दिया है :-

“अरसा दारज़ तक एक ज़बरदस्त शाही नूर जमशेद, आला दर्जा के गिरोह मवाशी के मालिक के साथ रहा जबकि वो दुनिया की हफ़्त किशवर पर सल्तनत करता था यानी देवियों, इन्सानों, साहिरों, परीयों, काहिनों और जादूगरों और अर्वाह ख़बीसा पर हुकूमत करता था....मगर जब उस के दिल में वो लगू और बातिल लफ़्ज़ आया तो वो नूर जो नज़र आता था उस के पास से एक चिड़िया बन कर उड़ गया....वो जो जमशेद है, आला दर्जे के गिरोह मवाशी का मालिक, जम, जब इस नूर को दरख़शां नहीं देखता तो रंजीदा होता है और उसने परेशान हो कर ज़मीन पर अदावत व जंग करना शुरू कर दी। पहली मर्तबा वो नूर रुख़स्त हुआ। वो नूर जमशेद से रुख़स्त हुआ, वो नूर जम पसरवाओ नहूत एक फड़फड़ाते हुए परिंदा की तरह रुख़स्त हुआ...मित्रा ने वो नूर लिया। जब दूसरी मर्तबा वो नूर जमशेद से रुख़स्त हुआ, वो नूर जम पसरवाओ नहूत से रुख़स्त हुआ तो वो एक फड़फड़ाते हुए परिंद की तरह उड़ गया। फरीदूं ने जो क़बीला-ए-बहादुर क़बीला अनसुयानी की नस्ल से है, वो नूर ले लिया क्योंकि वो तमाम फ़त्हमंद आदमीयों में सबसे ज़बरदस्त फ़ातिह था....जब तीसरी मर्तबा वो नूर जमशेद से रुख़स्त हुआ, तो वो नूर जम पसरवाओ नहूत से रुख़स्त हुआ मानिंद एक चिड़िया के तो कुरेसा सप ने वो नूर ले लिया क्योंकि वो ज़बरदस्त आदमीयों में सबसे ज़बरदस्त था।”

रिवायत मुंदरिजा-बाला में हम देखते हैं कि इस्लामी रिवायत में जिस तरह वो नूर नस्लन बाद नस्ल सबसे ज़्यादा क़ाबिल और शानदार आदमी की तरफ़ मुंतक़िल होता चला गया था, इसी तरह मजूसी रिवायत में मुंतक़िल होता चला गया। चूँकि मजूसी रिवायत में वो लोग सूरज की औलाद या बक़ौल संस्कृत “सूरज बंसी” थे इसलिए क़ुदरती बात थी कि वो नूर नस्लन बाद नस्ल मुंतक़िल होता चला जाता। इलावा वो नूर अलामत बादशाही था। मगर इस्लामी रिवायत में आदम से लेकर मुहम्मद तक नूर का नस्लन बाद नस्ल मुंतक़िल होता चला आना कोई मअनी नहीं रखता। सिवाए इस के कि जिस तरह क़दीम ईरानी रिवायत में पुराने ईरानी बहादुरों की शान बढ़ाई गई थी, इसी तरह मुसलमानों ने अपने नबी की शान को चार चांद लगाए। इलावा बरीं मजूसी रिवायत में हम देखते हैं कि जमशेद “देवों, इन्सानों, साहिरों, परीयों, अर्वाह ख़बीसा, काहिनों और जादूगरों पर हुकूमत किया करता था।” बिल्कुल इसी तरह से जैसे कि क़दीम यहूदी और इस्लामी रिवायत में सुलेमान के मुताल्लिक़ मज़्कूर है। यक़ीनन यहूदीयों ने ये रिवायत मजूसियों से ली थी और यहूदीयों से चल कर वो मुसलमानों में आ गई। इस्लामी रिवायत में जो ये बात बयान की गई है कि नूरे मुहम्मदी को चार हिस्सों में तक़्सीम कर दिया गया था जिनसे दुनिया की तमाम मुख़्तलिफ़ चीज़ें पैदा हुईं, इसी क़िस्म का एक क़िस्सा मजूसियों की एक किताब मौसूम बह “दसातीर आस्मानी” में ज़रदुश्त की निस्बत बयान किया गया है और ग़ालिबन मुसलमानों में ये ख़्याल इसी रिवायत से लिया गया है। ख़ुसूसुन जबकि वही ख़्याल और ज़्यादा क़दीम किताब “मुनयो ख़िरद” में है।

सिरात

“अल-सिरात” (الصراط) रास्ते को कहते हैं। इस अजीबो-गरीब रास्ते के बारे में बहुत सी तफ़सीलात बयान की गई हैं। कहते हैं कि ये रास्ता बाल से ज़्यादा बारीक और तल्वार से ज़्यादा तेज़ है। ये रास्ता बराह-ए-रास्त क़अर (बड़ा गढ़ा, गहराई) जहन्नम पर क़ायम है और हर शख़्स को ज़मीन से आस्मान पर जाते हुए बरोज़ क़ियामत इसी पर से गुज़रना पड़ेगा। सबको हुक्म होगा कि वो इस को उबूर (पार) करें। नेक मुसलमान बिलादिक़्क़त फ़रिश्तों की रहनुमाई में गुज़र जाऐंगे, लेकिन कुफ़्फ़ार उबूर (पार) नहीं कर सकेंगे और आतिशी-ए-जहन्नम में गिर पड़ेंगे। अगरचे क़ुरआन में लफ़्ज़ सिरात बमाअनी राह इस्तआरतन (मिजाज़न, मिसालन) इस्तिमाल किया गया है जैसा कि “सिरात-अल-मुस्तक़ीम” (राह-ए-रास्त) में। मगर गुमान ग़ालिब ये है कि ये लफ़्ज़ क़तई अरबी नहीं है। इस लफ़्ज़ के अश्तिक़ाक़ से साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि असली माख़ज़ क्या है। लफ़्ज़ “सिरात” किसी अरबी या दीगर समातीकी ज़बान के माद्दे से मुश्तक़ नहीं है बल्कि ये दरअस्ल अरबी हुरूफ़ में फ़ारसी “चिनौत” (چنوت) (Chinuat) है। चूँकि अरबी में हर्फ़ “चे” (چ) नहीं है इसलिए अहले अरब किसी “चे” (چ) वाले हर्फ़ को मुअर्रब करते हुए हर्फ़ “चे” (چ) को “स” (ص) से बदल देते हैं। जैसे “सिरात।” फ़ारसी ज़बान में लफ़्ज़ “चिनौत” (چنوت) के मअनी “जमा करने वाला” या “हिसाब लेने वाला” हैं। पस अरबी लफ़्ज़ “सिरात” (صراط) मुख़फ़्फ़फ़ है फ़ारसी लफ़्ज़ “चिनौत” (چنوت) का और “चिनौत” (چنوت) मुख़फ़्फ़फ़ है ओस्ता की इस्तिलाह “चुनवतो प्रत्युष” (Chinvatu Peritus) का जिसके मअनी हैं “आमाल नेक व बद शुमार करने वाले कापिल।” ईरानियों के अक़ीदे में ये पुल कोह अलबुर्ज़ से चल कर दोज़ख़ पर से गुज़रता हो मक़ाम “चकात देइतीक” (Chakat Daitik) तक पहुंचता है। जब मुर्दा की रसूम तजहीज़-ओ-तकफ़ीन ख़त्म हो चुकती हैं तो उस की रूह पुल पर पहुँचती है और बहिश्त में दाख़िल होने के लिए उसे पुल उबूर (पार) करना पड़ता है। जब वो रूह पुल उबूर (पार) कर चुकती है तो उस के नेक-आमाल का हिसाब मित्रा, रश्नो और सरोश करते हैं। अगर इस शख़्स के नेक आमाल ज़्यादा हैं तो उस के लिए बहिश्त के दरवाज़े खोल दिए जाते हैं। अगर उस के बदआमाल ज़्यादा होते हैं तो उसे दोज़ख़ में डाल दिया जाता है। लेकिन अगर उस के नेक व बदआमाल बदर्जा मुसावी (बराबर) हैं तो उसे आख़िरी फ़ैसला “वेदायती” (Vidaiti) तक ठहरना पड़ेगा। जो हुर्मुज़्द व अहरमन के दर्मियान आख़िरी फ़ैसला जंग के बाद शुरू होगा।

ना सिर्फ अरबी लफ़्ज़ “सिरात” (صراط) बल्कि इस बारे में तमाम इस्लामी अक़ीदे का माख़ज़ दिखाने के लिए इस क़द्र काफ़ी होगा कि जे़ल में पहलवी ज़बान की किताब अल-मौसुम-बह “दीनकार्त” (Dinkart) की एक मुख़्तसर इबारत का तर्जुमा दर्ज कर दिया जाये :-

“मैं ज़्यादा गुनाह से भागता हूँ और मैं अपने शश क़वाए हयात यानी फे़अल, क़ौल, फ़िक्र, फ़हम, ज़हन और अक़्ल को, तेरी मशीयत से और नेक आमाल की तौफ़ीक़ देने वाले, पाक रखकर अपने चाल चलन को पाक रखता हूँ। सच्च तो ये है कि मैं तेरी इबादत नेक ख़्याल, नेक क़ौल और नेक अमल के साथ करता हूँ ताकि मैं रोशनी के रास्ते में रहूं जो निगहतों से मुअत्तर, मसर्रतों से क़तई मामूर और हमेशा पुर-नूर रहता है।”

ओस्ता में भी इसी क़िस्म के ख़यालात मौजूद हैं। मिनजुम्ला दीगर मुक़ामात के मुन्दरिजा इबारत मुलाहिज़ा हो जिसमें नेक औरतों और मर्दों की निस्बत कहा गया है कि :-

उन्हें भी मैं तुम जैसे आदमीयों की दुआओं के ज़रीये से ले जाऊँगा और तमाम बरकतों के साथ पुल चुनौत तक उनकी रहनुमाई करूँगा।”

अगर इस अम्र का मज़ीद सबूत दरकार हो कि मुसलमानों के इस अक़ीदे का माख़ज़ असली आर्या ज़राए हैं तो ये अर्ज़ कर देना बेमहल ना होगा कि ममालिक नार्वे और स्वीडन की क़दीम ख़राफ़ियात में एक चीज़ “बफर वस्त” का ज़िक्र आता है जिसे आम तौर पर “देवताओं का पुल” कहते हैं। जब देवता लोग अपने आस्मानी मुक़ाम “आसग्रोध” (Asgrodh) से ज़मीन पर नाज़िल होते हैं तो वो इसी पुल पर से गुज़रकर आते हैं। ये क़ौस-ओ-क़ुज़ह है। इस से असलीयत का पता चल सकता है जिस पर पुल की रिवायत क़ायम है, रिवायत बहुत क़दीम है, क्योंकि इन ममालिक के बाशिंदे आर्या नस्ल से हैं और वो इन अक़ाइद को अपने साथ यूरोप में लाए थे। इस तरह गोया किसी ज़माना-ए-क़दीम में ये ख़्याल नार्वे, स्वीडन और ईरान में तर्क रहा होगा। यूनान में आकर क़ौस-ए-क़ुज़ह देवताओं का क़ासिद बन गई और पुल का ख़्याल रहा।

दीगर ईरानी ख़यालात

मुंदरिजा-बाला उमूर के इलावा बहुत सी दीगर मजूसी बातें भी ऐसी हैं जिनका असर इस्लाम पर पड़ा है और जो कुछ हमने अब तक लिखा है वो हमारे मक़्सद के लिए काफ़ी है। ताहम दो बातें और सुन लीजीए। मुसलमानों का अक़ीदा है कि हर नबी ने क़ब्ल अज़ वफ़ात अपने बाद आने वाले नबी की निस्बत पेशगोई कर दी थी। बाइबल से तो इस अक़ीदे की ताईद कहीं नहीं होती। बाइबल में आइन्दा आने वाले मसीहा की निस्बत पेश गोईआं ज़रूर हैं मगर उनमें ऐसी कोई बात नहीं जिनसे ये इस्लामी अक़ीदा माख़ूज़ हो सके। मुसलमानों का ये अक़ीदा ग़ालिबन ज़रदुश्तीयों की किताब “दसातीर आस्मानी” (دساتیر آسمانی) से लिया गया है। ये किताब बहुत ही क़दीम बताई जाती है और ज़माना-ए-हाल के बहुत से पार्सियों का ये अक़ीदा है कि ये किताब “अहले बहिश्त की ज़बान में लिखी गई थी।” किताब के असली मतन के बय्यन-उलसतूर क़दीम फ़ारसी ज़बान दरी तर्जुमा दिया गया और ये किताब मिला फ़िरोज़ साकिन बंबई के ज़ेर इदारत शाएअ हुई है। किताब मज़्कूर पंद्रह रिसालों का मजमूआ है जिनकी निस्बत ये ख़्याल है कि वो बज़रीये इल्हाम पंद्रह रसूलों पर यके बाद दीगरे नाज़िल हुए थे। सबसे पहले रसूल का नाम “महाबाद” (Mahabad) और सबसे आख़िरी रसूल का नाम “सासान” (Sasan) लिखा है। ये ग़ालिबन वही सासान है जिससे ईरान के सासानी बादशाहों के ख़ानदान का सिलसिला जारी हुआ था। दरी ज़बान का जो तर्जुमा किताब मज़्कूर में बय्यन-उलसतूर दिया गया है, वो ख़ुसरो परवेज़ शाह ईरान (590 ई॰ 595 ई॰) के वक़्त का बताया जाता है। इस के मअनी ये हैं कि अस्ल किताब बहुत ज़्यादा पुरानी है। किताब के अव्वल चौदह रिसालों में ख़ातिमा के क़रीब ऐसी इबारत दर्ज है जिससे ये ज़ाहिर होता है कि ये आइन्दा आने वाले रसूल की निस्बत पेशगोई है। इस का मक़्सद साफ़ ज़ाहिर है। बहुत से पार्सियों के नज़्दीक ये किताब मोअतबर नहीं है मगर मुसलमान इस “आइंदा नबी” के ख़्याल से इस क़द्र ख़ुश हुए कि उन्होंने उसे अपने मामूली अक़ाइद में दाख़िल कर लिया। दूसरी बात क़ाबिल-ए-ग़ौर इस किताब में ये है कि हर सहीफ़े की दूसरी आयत यूं दर्ज है : ’’بنام ایزد۔بخشا نیدہ بخشا یشگر ، مہربان،دادگر‘‘۔ इन अल्फ़ाज़ से साफ़ ज़ाहिर होता है कि उनका क़ुरआन के अल्फ़ाज़ “बिसमिल्लाहिर्र-रहमानीर्रहीम” (بسم اللہ الرحمٰن الرحیم) से किस क़द्र गहरा ताल्लुक़ है। इन्ही अल्फ़ाज़ यानी “बिसमिल्लाह से क़ुरआन की हर सूरत सिवाए सूरत 9 (तौबा) के शुरू होती है। साफ़ ज़ाहिर है कि ये अल्फ़ाज़ क़ुरआन में पार्सियों की किताब से दाख़िल हुए, पार्सियों की किताब में क़ुरआन से नहीं लिए गए। पार्सियों की किताब “बंदा हष नेह” में इसी क़िस्म की इबारत है यानी “बनाम यज़्दाँ आफ्रीद गार।”

बाअज़ लोगों का ख़्याल है कि क़ुरआन के मुंदरजा बाला अल्फ़ाज़ यानी “बिसमिल्लाहिर्र-रहमानीर्रहीम” (بسم اللہ الرحمٰن الرحیم) यहूदीयों से लिए गए हैं। चुनान्चे एक रिवायत से मालूम होता है कि एक हनीफ़ (जिसका ज़िक्र हम आइन्दा बाब में करेंगे) मुसम्मा उमी्या ने जो शहर ताइफ का एक शायर था, ये कलिमा यानी “बिसमिल्लाहिर्र-रहमानीर्रहीम” (بسم اللہ الرحمٰن الرحیم) अहले क़ुरैश को सिखाया था। और उसने ख़ुद उसे अपने सफ़र हाय शाम व दीगर ममालिक में यहूदीयों और नसारा से मेल-जोल कर के सीखा था। अगर मुहम्मदﷺ ने ये कलिमा इस तरह से सुना और उसे क़ुबूल कर लिया तो यक़ीनन उन्होंने इस में किसी क़द्र तग़य्युर व तबद्दुल कर दिया होगा। लेकिन अग़्लब (यक़ीनी, मुम्किन) ख़्याल ये है कि इस कलिमा का माख़ज़ यहूदी नहीं बल्कि मजूसी है और अमय ने ये कलिमा ईरान में पार्सियों से उस वक़्त सीखा होगा जबकि वो बग़रज़ तिजारत बिलाद ईरान में गया था।

हम सफ़हात बाला में देख चुके हैं कि मुहम्मदﷺ के ज़माने में मुल्क अरब पर ईरान का किस क़द्र वसीअ असर था। लिहाज़ा जो बातें हमने दर्ज की हैं उनकी बिना पर हम बिला-दिक़्क़त इस नतीजे तक पहुंच सकते हैं कि मिनजुम्ला दीगर ज़राए के मजूसी ख़यालात और रिवायत से इस्लामी लिट्रेचर बहुत मुतास्सिर हुआ है और ख़ुद इस्लामी रिवायत से इस का इम्कान साबित होता है क्योंकि मुसलमानों की किताब “रोज़तुल-अहबाब” में लिखा है कि मुहम्मदﷺ के पास मुख़्तलिफ़ अक़्वाम के जो लोग आया करते थे वो उन्ही की ज़बान में उनसे चंद अल्फ़ाज़ बोला करते थे और चूँकि मुहम्मदﷺ ने एक दो मर्तबा अपने पास आने वालों से फ़ारसी ज़बान में भी गुफ़्तगु की थी, इस तरह अरबी ज़बान में फ़ारसी के भी चंद अल्फ़ाज़ दाख़िल हो गए। अगरचे इस बयान में रिवायत को बहुत कुछ दख़ल है मगर इस लिहाज़ से ये बहुत एहमीय्यत रखता है कि इस से इस वाक़िये का सबूत मिलता है कि मुहम्मदﷺ को फ़ारसी ज़बान का किसी क़द्र इल्म ज़रूर हासिल था ख़्वाह दीगर ज़बानों का ना हो। इलावा अज़ीं किताब “सीरत-उल-रसूल” मुसन्निफ़ इब्ने इस्हाक़ व इब्ने हिशाम से हमको ये मालूम होता है कि मुहम्मदﷺ के सहाबियों में एक शख़्स सलमान नामी था, जो ज़रूर ताअलीम याफ़्ता और क़ाबिल आदमी होगा क्योंकि जब माह फरवरी 667 ई॰ में अहले क़ुरैश और उनके ख़ुलफ़ा ने शहर मदीना का मुहासिरा किया तो इसी सलमान के मश्वरे और जंगी तजुर्बात की बिना पर शहर की हिफ़ाज़त के लिए मशहूर व मारूफ़ ख़ंदक़ खोदी गई जिससे “ग़ज़वा ख़ंदक़” मशहूर चला आता है। उस वक़्त से पेशतर मुदाफ़अत का ये तरीक़ा अरबों ने कभी इस्तिमाल नहीं किया था। ये भी बयान किया जाता है कि इसी सलमान के मश्वरे से मुहम्मद ﷺ ने 630 ई॰ में अहले ताइफ के ख़िलाफ़ मंजनीक़ से काम लिया था। बाअज़ कहते हैं अगरचे सलमान हमेशा “फ़ारसी” कहलाता था और लोग उसे उमूमन “सलमान फ़ारसी” कहते थे मगर वो दरअस्ल ईसाई था जिसे इराक़ से गिरफ़्तार कर के ले गए थे। मुम्किन है कि ये बात ग़लत हो और अगर ग़लत है तो गुमान ग़ालिब है कि ये सलमान फ़ारसी ही वो शख़्स था जिसकी निस्बत मुहम्मदﷺ के मुख़ालिफ़ीन कहा करते थे कि वो क़ुरआन के बनाने में मुहम्मदﷺ का मुआविन है। क़ुरआन की सूरह अल-नहल में इसी वाक़िया की तरफ़ इस तरह इशारा किया गया है :-

وَلَقَدْ نَعْلَمُ أَنَّهُمْ يَقُولُونَ إِنَّمَا يُعَلِّمُهُ بَشَرٌ لِّسَانُ الَّذِي يُلْحِدُونَ إِلَيْهِ أَعْجَمِيٌّ وَهَٰذَا لِسَانٌ عَرَبِيٌّ مُّبِينٌ

तर्जुमा : यानी तहक़ीक़ हम जानते हैं कि वो कहते हैं कि “उसे एक बशर (आदमी) सिखाता है।” जिस शख़्स की तरफ़ ये लोग इशारा करते हैं, उस की ज़बान अजमी है और ये (क़ुरआन) साफ़ अरबी ज़बान में है।

अगर सलमान, फ़ारस का रहने वाला नहीं था तो आयत मुंदरजा बाला के अल्फ़ाज़ से साफ़ ज़ाहिर होता है कि मुहम्मदﷺ के सहाबियों में कोई फ़ारसी ज़रूर था जिसकी निस्बत लोगों को गुमान था कि वो मुहम्मदﷺ को बाअज़ बातें “सिखाता है” जिसे क़ुरआन में शामिल कर दिया जाता है और ये हिकायात व रिवायत उस ज़माने में अरबों को इस क़द्र काफ़ी तौर पर मालूम थीं कि जब उन्हें क़ुरआन में दाख़िल किया गया तो अरबों ने फ़ौरन शनाख़्त कर लिया। इलावा अज़ीं आयत मुंदरजा बाला मुहम्मद ﷺ ने अपने इल्ज़ाम लगाने वालों को कोई क़ाबिल इत्मीनान जवाब नहीं दिया क्योंकि उन लोगों का इल्ज़ाम ये था कि वो शख़्स आयात का मज़्मून सिखाता है, ये इल्ज़ाम हरगिज़ नहीं था कि वो मुहम्मदﷺ को अरबी ज़बान सिखाता है। इल्ज़ाम क़ुरआन के मज़ामीन पर था, क़ुरआन की ज़बान पर नहीं था। इलावा अज़ीं हम साबित कर चुके हैं कि मुहम्मद ﷺ ने यहूदीयों और मुशरिकीन अरब की रिवायत से बहुत कुछ लिया फिर कोई वजह नहीं कि वो मजूसी ज़राए से भी कुछ अख़ज़ ना करते।

छटा बाब

फिर्क़ा-ए-हनीफ़ और उस का असर इब्तिदाई इस्लाम पर

मुहम्मदﷺ ही पहले वो शख़्स ना थे जिन्हों ने अपने ज़माने के अरबों का आम मज़्हब देखकर उस की हमाक़तों और लग़्वियतों का एहसास किया और अपनी क़ौम के मज़्हब की इस्लाह करना चाही। क़दीम ज़माने के मुसन्निफ़ीन जिन्हों ने मुहम्मदﷺ की सवानिह उम्रयां (हालत ए ज़िन्दगी) लिखी हैं, ये बयान करते हैं कि मुहम्मदﷺ के दावा-ए-नुबूव्वत से पेशतर बहुत से आदमी मदीना, ताइफ, मक्का और ग़ालिबन दीगर मुक़ामात अरब में ऐसे नमूदार हो चुके थे जिन्हों ने आम शिर्क और बुत-परस्ती से इज़्हार बेज़ारी किया और मज़्हबे हक़ तलाश करने की कोशिश की। ख़्वाह ये तहरीक यहूदीयों की तरफ़ से पैदा हुई हो, जैसा कि गुमान ग़ालिब है या किसी और तरफ़ से, मगर जिन लोगों का हम ज़िक्र कर रहे हैं उन्होंने ये इरादा कर लिया था कि अल्लाह तआला की इबादत क़ायम की जाये और उस की जगह जो छोटे छोटे बुतों की परस्तिश ने ले ली है, उसे मौक़ूफ़ (ख़त्म) किया जाये। इलावा अज़ीं बहुत सी ऐसी मुख़र्रिब-ए-अख़्लाक़ रस्मों को भी मौक़ूफ़ (ख़त्म) किया जाये जो ना सिर्फ ज़मीर इन्सानी बल्कि ख़ुद इन्सानियत के भी ख़िलाफ़ थीं।

ख़्वाह ये लोग इस क़दीम रिवायत से मुतास्सिर हुए हों कि उनके मूरिस-ए-आअला इब्राहिम सिर्फ एक सच्चे ख़ुदा की इबादत किया करते थे या इस बारे में यहूदीयों के ख़यालात ने असर किया हो, बहर-ए-हाल इन मुस्लिहीन मज़्हब का दावा ये था कि वो “दीने इब्राहीम” के जोयाँ हैं। चूँकि यहूदी हमेशा दीगर फ़िर्क़ों से अलग-थलग रहते थे इसलिए मुम्किन है कि ग़यूर अरबों को उनकी ये नख़वत (तकब्बुर, ग़रूर) नागवार गुज़री हो और इस वजह से उन्होंने दीने मूसवी क़ुबूल करना गवारा ना किया हो। और ये भी मुम्किन है कि क़ौमी ग़ैरत और ख़ानदानी इफ़्तिख़ार उनको अग़यार व अजानिब का दीन क़ुबूल करने से माने (रुकावट) आया हो। क्योंकि यहूदी मज़्हब में हद दर्जा की लग़्वियतें और तुहमात भरे हुए हैं। दूसरी तरफ़ नसारा का इल्ज़ाम यहूद पर ये था कि उन्होंने उनके मसीहा को क़ुबूल ना किया और उसे क़त्ल कर डाला। इलावा अज़ीं नसारा ये भी कहते थे कि मस्लुबियत मसीह का ही अज़ाब यहूद पर नाज़िल हुआ है कि वो इस क़द्र ज़लील हालत में मुब्तला हो गए हैं। मुम्किन है कि इन बातों ने भी इन मुस्लिहीन को ताल्मुदी यहूदीयत क़ुबूल करने से रोका हो। बहर-ए-हाल ख़्वाह कोई भी सबब हो, ये मुस्लिहीन मह्ज़ जूयाए हक़ थे, यहूदी या ईसाई मुबल्लग़ीन की हैसियत से नहीं उठे थे। इन मुस्लिहीन में जो ज़्यादा मशहूर थे उनके नाम भी हमको मालूम हैं। यानी मदीना में अबू आमिर, ताइफ में उमेह बिन अलस्सलत, मक्का में वर्क़ा, उबैदुल्लाह, उस्मान, और ज़ैद इब्ने उम्र। इन के इलावा और भी लोग थे जो मुंदरजा बाला लोगों से हम्दर्दी रखते थे। अगरचे इन लोगों के पैरौ या मुरीद बहुत ज़्यादा ना थे।

चूँकि इन मुस्लिहीन ने हमारे लिए अपने अक़ाइद के मुताल्लिक़ कोई तहरीर नहीं छोड़ी, सिवाए एक नज़्म के इस लिए मुनासिब होगा कि जो कुछ भी हम उन लोगों के बारे में लिखें किसी सनद का हवाला दे दें। इस बारे में हमारे लिए ख़ास सनद इब्ने हिशाम की किताब है। यही शख़्स सबसे पहला मुसन्निफ़ है जिसने “सीरतु-र्रसूल” लिखी। वो पहला मुसन्निफ़ जिसने मुहम्मदﷺ की सवानिह उम्री क़लम-बंद की थी उस का नाम ज़ोहरी (Zuhri) है जिसने 124 में वफ़ात पाई। उस की तमाम मालूमात उन लोगों की रिवायत पर मबनी थी जिन्हों ने ख़ुद मुहम्मदﷺ की ज़बान से बातें सुनी थीं या जिन्हों ने मुहम्मदﷺ को देखा था। उनमें ख़ास रावी उर्वा है जो उम्मुल मोमनीन आईशा का रिश्तेदार था। इस में शक नहीं कि इस क़द्र अरसा के बाद रिवायत में गलतीयां और मुबालग़ा ज़रूर दाख़िल हो गया होगा। बईं-हमा अगर ज़ोहरी की किताब फ़ीज़मानिना मिल सकती तो वो बहुत मुफ़ीद साबित होती। मगर हाँ ये बात ज़रूर है कि ज़ोहरी के शागिर्द इब्ने इस्हाक़ ने जिसकी वफ़ात 101 में वाक़ेअ हुई, अपनी सीरतु-र्रसूल मुरत्तिब करने में इस किताब से इस्तिफ़ादा क्या होगा। बहर-ए-हाल इब्ने इस्हाक़ ने अपनी किताब में और भी बहुत सी बातें ग़लत हों या सही, दीगर ज़राए से हासिल कर के अपनी किताब में दाख़िल की होंगी। मगर अफ़्सोस है कि हम तक इब्ने इस्हाक़ की किताब भी मुकम्मल और अलेहदा (अलग) तौर पर नहीं पहुंची। अगरचे उस का बहुत बड़ा हिस्सा इन इक़तिबासात की सूरत में महफ़ूज़ है जो इब्ने हिशाम (अल-मुतवफ्फ़ी 213) ने अपनी किताब “सीरतु-र्रसूल” में बकस्रत दिए हैं। अगरचे इसी नाम की बेशुमार किताबें मौजूद हैं मगर इब्ने हिशाम की किताब सबसे ज़्यादा पुरानी है। मुहम्मदﷺ और उस के ज़माने के हालात मालूम करने के लिए ये किताब निहायत अहम है क्योंकि ये अपनी क़िस्म की दीगर किताबों के मुक़ाबले में रिवायत और हिकायात से बहुत कम मामूर है।

इब्ने इस्हाक़ और इब्ने हिशाम ने जो कुछ उन पुराने अरब मुस्लिहीन के बारे में लिखा है, वो इस वजह से और भी ज़्यादा क़ाबिल-ए-क़दर है कि इन मुसन्निफ़ीन को अपने नबी के मुक़ाबले में इन अरब मुस्लिहीन की तारीफ़ करने या उन के हालात में मुबालग़ा करने की कोई ज़रूरत ना थी। नीज़ इन मुसन्निफ़ीन को ये भी ख़्याल कभी ना आया होगा कि जो कुछ वो लिख रहे हैं इस से कभी मुख़ालिफ़ीन मुहम्मदﷺ भी काम लेंगे। पस जहां तक उनको मालूम हुआ उन्होंने सच्च सच्च बातें लिख दीं। ये बहुत मुम्किन है कि इन मुस्लिहीन साबिक़ और मुहम्मदﷺ की ताअलीमात में बहुत ज़्यादा मुताबिक़त हो मगर ये तो यक़ीनी बात है कि उनकी ताअलीम मुहम्मदﷺ की ताअलीम से हरगिज़ कम ना होगी। पस हम पूरे एतिमाद के साथ इब्ने हिशाम की तहरीर को क़ुबूल करते हैं और जो कुछ उसने उन साबिक़ मुस्लिहीन अरब की ताअलीमात के बारे में लिखा है उस का क़ुरआन से मुक़ाबला करते हैं। इस ख़्याल से कि हमारे नाज़रीन नतीजे का ख़ुद फ़ैसला कर लें हम जे़ल में इब्ने हिशाम की इबारत का तर्जुमा दर्ज करते हैं। और इब्ने हिशाम की ये इबारत ज़्यादा-तर इब्ने इस्हाक़ के बयानात पर मबनी है।

इब्ने इस्हाक़ बयान करता है कि “क़ुरैश एक रोज़ एक मेले में जमा हुए जो वो अपने एक बुत का (मेला) किया करते थे। वह इस बुत की बहुत सताइश करते थे, इस पर क़ुर्बानियां चढ़ाते थे, उस के पास रहते थे और उस के गर्द तवाफ़ किया करते थे और ये मेला साल भर में एक दिन हुआ करता था। पस चार आदमी खु़फ़ीया तौर से उनसे अलेहदा (अलग) रहे। और उन्होंने एक दूसरे से कहा “एक दूसरे के सच्चे वफ़ादार रहो और आपस का राज़ मख़्फ़ी (छिपी) रखो।” उन्होंने कहा “बहुत अच्छा।” ये लोग वर्क़ा इब्ने असद और उबैदुल्लाह इब्ने जह्श....जिसकी वालिदा का नाम उमीमा बिंत अब्दुल मुत्तलिब था और उस्मान इब्ने हवारिस....और ज़ैद इब्ने उमर थे। पस उन्होंने एक दूसरे से कहा “ख़ुदा की क़सम तुम जानते हो कि तुम्हारी क़ौम की बुनियाद किसी चीज़ पर मबनी नहीं। यक़ीनन उन लोगों ने अपने बाप इब्राहिम के दीन से गुमराही इख़्तियार की। एक पत्थर में क्या धरा है जो हम उस के गर्द तवाफ़ करें? ना ये सुनता है, ना देखता है, ना किसी को कुछ नुक़्सान पहुँचाता है, ना किसी को कुछ फ़ायदा। ऐ लोगो तुम अपने लिए (दीन की तलाश) करो क्योंकि तहक़ीक़ ख़ुदा की क़सम तुम्हारी बुनियाद किसी चीज़ पर भी नहीं।” पस वो लोग मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में गए ताकि वो वहां “दीने हनीफ़” की तलाश करें, जो इब्राहिम का मज़्हब था। पस वर्क़ा इब्ने नवाफिल तो नस्रानीयत में जज़्ब हो गया। और उसने ईसाईयों की कुतुब में “दीने हनीफ़” की तहक़ीक़ करना शुरू की हत्ता कि उसे अहले-किताब से कुछ इल्म हासिल हुआ। मगर उबैदुल्लाह की हालत मुज़बज़ब रही, हत्ता कि वो आख़िर में इस्लाम ले आया। इस के बाद वो मुसलमानों के साथ हब्शा की तरफ़ हिज्रत कर गया और उस के साथ उस की बीवी उम्म हबीबा बिंत अबू सुफ़ियान भी गई जो मुसलमान हो गई थी। मगर जब वो हब्शा में पहुंचा तो मुर्तद हो कर ईसाई हो गया और वहीं बहालत नस्रानीयत हलाक हुआ। इब्ने इस्हाक़ ने लिखा कि :-

“पस मुहम्मद इब्ने जाफ़र इब्ने ज़ुबैर ने मुझसे ये कह कर बयान किया कि “उबैदुल्लाह इब्ने जह्श, जब ईसाई हो गया तो रसूल अल्लाह के इन सहाबियों से झगड़ा किया करता था जो उस वक़्त हब्श में थे और ये कहा करता था कि “हम साफ़ देखते हैं और तुम चिन्ध्या रहे हो।” यानी हम साफ़ बय्यन हैं मगर तुम हनूज़ (धुंधला) देखने की कोशिश कर रहे हो और अभी तक नहीं देख सके।” और ये कि जब शेर का बच्चा देखने के लिए अपनी आँखें खोलने की कोशिश करता है तो वो चिन्ध्याता है। जो लफ़्ज़ उसने इस्तिमाल किया था उस के मअनी हैं “अपनी आँखें खुली रखना।” इब्ने इस्हाक़ कहता है उबैदुल्लाह के मरने के बाद रसूल अल्लाह ने उस की बेवा उम्म हबीबा से निकाह किया जो बिंत अबू सुफ़ियान बिन हर्ब थी। इब्ने इस्हाक़ कहता है कि मुझे मुहम्मद इब्न-ए-अली इब्ने हुसैन से मालूम हुआ कि रसूल अल्लाह ने उम्म हबीबा को लाने के लिए हब्श के बादशाह नजाशी के पास उमर इब्ने अमय अलज़मरी को भेजा। पस नजाशी ने उसे बहैसीयत ज़ौज-ए-मुहम्मद उस के साथ कर दिया। पस उसने उस के साथ निकाह कर दिया और उसने रसूल अल्लाह की तरफ़ से उस का महर चार-सौ दीनार मुक़र्रर किया....इब्ने इस्हाक़ कहता है कि “उस्मान इब्ने हुवैरस क़ैसर शहनशाह बाइज़ नतिम के पास गया। जहां वो ईसाई हो गया और वो क़ैसर के पास रह कर बहुत कुछ फूला-फला...इब्ने इस्हाक़ लिखता है कि ज़ैद इब्ने उमर इब्ने नफ़ील यूँही रहा, ना उसने नस्रानीयत क़ुबूल की ना यहूदीयत। मगर उसने अपनी क़ौम का मज़्हब छोड़ दिया। पस वो बुतों से अलेहदा (अलग) रहने लगा। मुर्दार और ख़ून और बुतों पर चढ़ाई हुई क़ुर्बानीयों से परहेज़ करता था। वो लोगों को दुख़तर कुशी से मना करता था और वो कहता था “मैं ख़ुदाए इब्राहिम की इबादत करता हूँ और जिन ग़लतीयों में पड़ कर उस की क़ौम हलाक हो रही थी, उनसे वो उनको सख़्त मना करता था। इब्ने इस्हाक़ कहता है कि मुझसे हिशाम बिन उर्वा ने अपने बाप की सनद से और उस के बाप ने अपनी वालिदा अस्मा बिंत अबू बक्र की सनद से बयान किया है कि अस्मा ने कहा “मैंने ज़ैद इब्ने उमर इब्ने नफ़ील को बहुत बड़ी उम्र में काअबा से कमर लगाए झुका बैठे देखा, ये कहते हुए “ऐ क़ौम क़ुरैश कसम है उस की जिसके हाथ में ज़ैद इब्ने उमर की जान है कि तुम में से मेरे सिवाए कोई फ़र्द बशर भी दीन इब्राहिम तक नहीं पहुंचा।” इस के बाद वो कहा करता कि “या अल्लाह अगर में ये जानता होता कि तेरे नज़्दीक कौन सा तरीक़ा पसंदीदा है तो मैं तेरी इबादत उसी तरीक़े से किया करता, मगर मुझे ये बात मालूम नहीं।” फिर जिस तरह उस को सहूलत होती वो इसी तरह इबादत करता। इब्ने इस्हाक़ कहता है कि बयान किया जाता है कि उस के बेटे सईद इब्ने ज़ैद इब्ने उमर इब्ने नफ़ील और उमर इब्ने ख़ताब ने जो इस का बिरादर अम ज़ाद था, रसूल-ए-ख़ूदा से अर्ज़ किया कि “ज़ैद इब्ने उम्र के लिए दुआ ए नजात माँगिए।” रसूल अल्लाह ने फ़रमाया “हाँ क्योंकि तहक़ीक़ वो अपनी ज़ात से एक मज़हबी फ़िर्क़ा बन कर उट्ठेगा।”

इब्ने हिशाम ने निहायत एहतियात के साथ वही बातें लिखी हैं जो उस के पेशरू इब्ने इस्हाक़ ने लिखी थीं और तक़रीबन तमाम अल्फ़ाज़ भी इब्ने इस्हाक़ ही के इस्तिमाल किए हैं। पस उन साबिक़ मुस्लिहीन अरब ख़ुसूसुन ज़ैद की तारीख़ और अक़ाइद पर ग़ौर करने के लिए एक वाज़ेह और मुस्तक़िल मसाला (सामान) मौजूद है। ज़ैद के पुर असर क़िस्से और उस की नज़्म की रफ़ी-उल-ख़याली से ज़ाहिर होता है कि उसने मुहम्मदﷺ पर किस क़द्र अच्छा असर डाला होगा।

इब्ने हिशाम बसनद इब्ने इस्हाक़ बयान करता है कि अल-ख़ताब ने जो ज़ैद का चचा था, ज़ैद को इस बात पर बुरा-भला कहा कि उसने अपनी क़ौम का दीन छोड़ दिया था और उसे इस क़द्र सताया कि वो बेचारा मक्का में ना रह सका। मालूम होता है कि वो अरब के दीगर इलाक़ों में भी फिरता रहा, मगर बिलआख़िर कोह हिरा के एक ग़ार में आकर मुक़ीम हो गया। वहां वो बहुत बड़ी उम्र तक जिंदा रहा और जब वो फ़ौत हुआ तो वहीं पहाड़ की तली (पेन्दा) में दफ़न कर दिया गया। कहा जाता है कि जब मुहम्मदﷺ ने 612 ई॰ में नबुव्वत का दावा किया तो इस से सिर्फ पाँच साल क़ब्ल ज़ैद की वफ़ात हुई थी। इब्ने इस्हाक़ बयान करता है कि ज़माना-ए-जाहिलियत में क़ुरैश की रस्म थी कि वो शहर से निकल कर एक महीना तक कोह हिरा पर रहते थे। (यानी माह रमज़ान में) और वो इस तरह हर साल वहां तौबा इस्तिग़फ़ार व इबादत-ओ-रियाज़त किया करते थे। इसे “तहनस” (تحنث) कहते थे। इस से साफ़ ज़ाहिर होता है कि क़ुरैश की इसी रस्म की वजह से मुहम्मदﷺ ने बाद में तमाम माह रमज़ान को मुसलमानों के लिए खासतौर पर बग़रज़ ज़हद-ओ-इबादत मुंतख़ब किया। और चूँकि मुहम्मदﷺ के ज़माने में माह रमज़ान मौसम-ए-गर्मा में वाक़ेअ हुआ था, इसलिए मुतव्वल (दौलतमन्द) लोगों ने शहर की तंग और घुट्टी हुई गर्म गलीयों से निकल कर खुले इलाक़े की ताज़ा और साफ़ हवा में जा कर रहना ज़्यादा पसंद किया होगा। ये समझने की कोई वजह नहीं कि इन अय्याम में इन लोगों की ज़िंदगी बहुत ज़्यादा मुतकियाना और परहेज़गाराना होती थी। बहर-ए-हाल जैसा कि साफ़ तौर से बयान किया जाता है मुहम्मदﷺ हर साल माह रमज़ान के दीन रस्म के मुवाफ़िक़ कोह हिरा पर जा कर बसर किया करते थे और वो दरहक़ीक़त उसी ग़ार में मुक़ीम थे जिसमें ज़ैद रहा करता था, जबकि उन पर पहली वह्यी बज़रीया जिब्रईल फ़रिश्ता नाज़िल हुई। मुहम्मदﷺ का इस तरह कोह हिरा पर जा कर ग़ार में रहने का मतलब “तर्क-ए-दुनिया” समझना ग़लती है क्योंकि क़ुरैश की रस्म के बमूजब मुहम्मदﷺ की बीवी ख़दीजा भी उस वक़्त उनके पास उसी ग़ार में मौजूद रहती थीं।

इस से साफ़ ज़ाहिर है कि अपनी क़ौम की रस्म के मुताबिक़ मुहम्मदﷺ हर साल जाकर एक माह के लिए कोह हिरा पर रहते थे तो उन्हें वहां ज़ैद से गुफ़्तगु करने का बहुत काफ़ी मौक़ा मिलता होगा और रिवायत से साफ़ ज़ाहिर है कि मुहम्मदﷺ इस ज़ैद की किस क़द्र इज़्ज़त व तकरीम करते थे। और ये हम ज़ाहिर कर चुके हैं कि मुहम्मदﷺ ने ज़ैद के लिए दुआ करना मंज़ूर कर लिया था। और ये वाक़िया बहुत ज़्यादा क़ाबिल-ए-ग़ौर है क्योंकि बैज़ावी ने सूरह तौबा की आयत 114 की तफ़्सीर करते हुए ये लिखा कि मुहम्मदﷺ को अपनी माँ आमना के लिए दुआ मांगने से मना कर दिया गया था। हालाँकि वो अपनी वालिदा से जो उस के बचपन ही में वफ़ात पा चुकी थीं बहुत मुहब्बत किया करते थे। इलावा अज़ीं अलवक़दी ने बयान किया कि मुहम्मदﷺ ने ज़ैद को सलाम किया, हालाँकि ये एज़ाज़ सिर्फ मुसलमानों के लिए मख़्सूस है। मुहम्मदﷺ ने ज़ैद के लिए ख़ुदा से दूआ ए आमिर्ज़श की और बयान किया कि “मैंने उसे जन्नत में देखा है, इस के पीछे लोगों की क़तार है।” बक़ौल “अस्परनेजर” मुहम्मदﷺ ने खुल्लम खुल्ला ज़ैद को अपना पेशरू तस्लीम कर लिया था और ज़ैद का हर लफ़्ज़ जिसका हमको इल्म हासिल है वो क़ुरआन में मौजूद है।” मसलन सूरह आले-इमरान मेंﷺ को हुक्म दिया गया है कि वो अवाम से कहे “क्या तुम मुसलमान हो गए हो?” इब्ने इस्हाक़ ने बयान किया है कि यही अल्फ़ाज़ ज़ैद ने लोगों से क़ब्ल अज़ मुहम्मद कहे थे। ख़ास ख़ास उसूल जो ज़ैद ने क़ायम किए थे वो सब क़ुरआन में हैं, मसलन :-

(1) दुख़तर कुशी से मुमानिअत (उस ज़माने में ये ज़ालिमाना रस्म राइज थी कि वो अपनी शिरख्वार बेटीयों को ज़िंदा दफ़न कर दिया करते थे।)

(2) तौहीद बारी तआला का तस्लीम करना

(3) बुत-परस्ती, लात व उज्ज़ा और दीगर बुतों की परस्तिश से मना करना।

(4) जन्नत या फ़िर्दोस में आइन्दा ऐश व मसर्रत का वाअदा

(5) गुनाहगारों के लिए जो अज़ाब दोज़ख़ में मख़्सूस है इस से इंतिबाह

(6) काफ़िरों को ख़ुदा के क़हर व ग़ज़ब से डराना

(7) ख़ुदा के लिए अलरहमान, अलरब और अल-ग़फ़ूर के खिताबात इस्तिमाल करना

इलावा अज़ीं ज़ैद और जुम्ला दीगर मुस्लिहीन अरब, दीने इब्राहीम के लिए क़ुरआन में भी “हनीफ़” का लफ़्ज़ इस्तिमाल किया गया है और ये ख़िताब ज़ैद और उस के दोस्तों ने पसंद किया था। जिस लफ़्ज़ से “हनीफ़” मुश्तक़ है इस के मअनी इब्रानी ज़बान में “छुपाना, धोका देना, झूट बोलना, मक्र करना” हैं और ऐसे ही मअनी इस लफ़्ज़ के सुर्यानी ज़बान में हैं। अरबी में पहले इस के माअनी “लंगड़ा कर चलना” या नाहमवारी के साथ चलना” थे, मगर चूँकि हनीफ़ लोगों ने अवाम के बुतों की परस्तिश छोड़ दी थी इसलिए बाद में इस के मअनी “अल-हाद कुफ़्र” हो गए। इस माअनी में साबिक़ मुस्लिहीन अरब के लिए ये लफ़्ज़ तंज़न (बतौर ताना) इस्तिमाल किया जाता था। मगर चूँकि इब्ने हिशाम ने लिखा है कि क़ुरैश के लब-ओ-लहजे में वो लफ़्ज़ जिसके मअनी “तौबा इस्तिग़फ़ार” और “तक़्वा” के हैं उसे “हीनीफ़” से ख़लत-मलत कर दिया गया। इसलिए अपनी बुत-परस्ती से ताइब होने के बाइस हनीफ़ लोग इस ख़िताब को बखु़शी क़ुबूल करते होंगे। मगर ये अजीब बात है कि मुहम्मदﷺ ने लफ़्ज़ हनीफ़ इब्राहिम के लिए इस्तिमाल किया और लोगों को दावत दी कि वो “दीने इब्राहीम” यानी इस्लाम क़ुबूल कर के हनीफ बन जाएं। बहर-ए-हाल मुहम्मदﷺ ने लफ़्ज़ “हनीफ़” इस्तिमाल कर के ये बात साफ़ तौर पर ज़ाहिर कर दी कि वो साबिक़ मुस्लिहीन अरब के उसूल पर चल रहे थे और जब हम ये देखते हैं कि उन्होंने हनीफ़ लोगों की ताअलीमात क़ुबूल कर के उन को क़ुरआन में भी दाख़िल कर लिया तो हम बिला पस-ओ-पेश कह सकते हैं कि क़ुरआन के माख़ज़ में हनीफ़ लोगों के उसूल भी शामिल हैं।

हनीफ़ लोगों का इब्तिदाई इस्लाम पर इस क़द्र असर पड़ना बाअज़ ख़ानदानी उमूर की बिना पर भी क़ुदरती अम्र था। क्योंकि मक्का के जो मुस्लिहीन थे वो सब मुहम्मद ﷺ के रिश्तेदार थे क्योंकि वो सब एक ही मूरिस-ए-आअला यानी लिवा की औलाद में से थे। इलावा अज़ीं उबैदुल्लाह मुहम्मद ﷺ का रिश्तेदार माँ की तरफ़ से था। फिर मुहम्मद ﷺ ने उबैदुल्लाह की बेवा से निकाह भी कर लिया था। दो दीगर मुस्लिहीन यानी वर्क़ा और नवाफिल मुहम्मद ﷺ की बीवी ख़दीजा के बिरादर अम ज़ाद (चचा का बेटा) थे।