तआरुफ़
मैंने अपने मुसलमान भाईयों की सोहबत में काफ़ी वक़्त गुज़ारा है, जिनमें से ज़्यादातर उलमा हैं। जब भी हमने मज़्हब के बारे में दोस्ताना और मुख़लिसाना अंदाज़ में गुफ़्तगु की तो हर पहलू का जायज़ा लिया और हर दरवाज़ा खटखटाया, इसलिए मैंने मुनासिब जाना कि इस तमाम बातचीत को एक किताब की सूरह दूं। इस का नतीजा ये निकला कि ये काविश आपकी हाथों में है जो बेतास्सुबी के तालिब हैं, जिन्हों ने सच्चाई को अपना मतमा नज़र बनाया है, और ये उम्मीद रखते हैं कि ये बेतास्सुबी उन के फ़ायदे का बाइस बनेगी और राह-ए-हक़ की तरफ़ उन की राहनुमाई करेगी। जब सच्चाई आप पर वाज़ेह हो जाएगी तो उम्मीद है कि आप उसे क़ुबूल कर लेंगे, और उसे पाने के लिए अपना सब कुछ बेच देंगे। ऐसे लोग बरकत पाएँगे और बारवर (फ़ल देने वाला) होंगे।
मैंने इस तमाम बातचीत में एक ऐसे तरीक़े को अपनाया है जो किसी भी साहिबे अक़्ल मुसलमान के लिए मुनासिब हो, और कोई भी फ़ाज़िल मुतलाशी इसे रद्द ना करे। इसलिए जहां तक मुम्किन हो सका क़ुर्आन व हदीस और इस के साथ तारीख़ से सबूत पेश किए गए हैं, क्योंकि ये एक मुसलमान के नफ़्स के लिए ज़्यादा पुर वज़न हैं जिन पर किसी क़िस्म का कोई एतराज़ नहीं। ग़र्ज़, हम इस मुआमले के नतीजे तक पहुंच जाऐंगे। बेशक, उलमा की तारीफों के मुताबिक़ सच्चाई का तहक़ीक़ के साथ चोली दामन का साथ है। सच्चाई का तालिब उसे पाने के लिए गुफ़्त व शनीद के मैदान में उतरने के ख़िलाफ़ नहीं होता, और जिसके पास पहले ही ये सच्चाई है, वो गुफ़्त व शनीद से बाज़ नहीं आता क्योंकि ये उसे और भी ज़्यादा इस्तिहकाम बख़्शती है। इसलिए, मेरे मुसलमान भाई, तक़्वे की रूह में बातचीत करने की मेरी दावत से परेशान ना हों, क्योंकि ऐसा करने से या तो आप दूसरे को फ़ायदा पहुंचाएंगे या फिर ख़ुद मुस्तफ़ेद होंगे, दोनों सूरतों में आप इस मैदान में से एक फ़ातिह की सूरह में निकल कर बाहर आएँगे। मेरे क़ुर्आन और हदीस से इक़्तिबास करने का मतलब ये नहीं है कि मैंने उन की सेहत का एतराफ़ कर लिया है। मन्तिक़ी बह्स के क़वानीन और मुआशरती उसूल मुझे इस तरीके- कार की इजाज़त देते हैं। क्योंकि मुसलमान भाई सबसे पहले मेरी मुक़द्दस किताब (तौरात और इन्जील शरीफ़) की सेहत को क़ुबूल नहीं करता। वगरना मैं इस तहरीर में तमाम बातों की सदाक़त को बयान करने के लिए इस में से बहुत से सबूत का इक़्तिबास करता, और यूं उस के दिल में से हर तरह की बेयक़ीनी दूर करता और शक की जगह यक़ीन पैदा करता।
मेरे मुसलमान भाइयो, क्या आपका और हमारा, दीन में यकसाँ मक़्सद नहीं है कि ख़ालिक़-ए-कायनात की इबादत करें और मौत के बाद अबदी आराम की जगह में दाख़िला पाएं? सो, इस मक़्सद के हुसूल के लिए आप एक ख़ास तरीके-कार की पैरवी करते हैं और हम एक दूसरे तरीके-कार की पैरवी करते हैं। और अगर हम इस मौज़ू पर हलीमी, तक़्वा और ग़ैर-जानिबदारी की रूह में जामेअ तरीक़े से बह्स करते हैं तो ऐसी बह्स कैसे हमें नुक़्सान पहुंचा सकती है? क्योंकि सच्चाई एक और ग़ैर-मुनक़सिम है, इसलिए आईए हम सुलह व आश्ती (सलामती) से इखट्टे चलें, और यूं अपने ख़ालिक़ की रज़ा को हासिल करें ताकि आख़िरकार बाग-ए-अदन की सी अबदी बरकत से फ़ैज़याब हों। ये सिर्फ़ ख़ालिस मुहब्बत है जिसने हमें ये पैग़ाम और दीगर पैग़ामात के लिखने में राहनुमाई बख़्शी है। हम चाहते हैं कि आप हमारे साथ-साथ चलें, और हमारे साथ उस नजात में शरीक हो जाएं जो हमें मसीह में मिली है, और हमारे साथ हयात-ए-अबदी पाएं। अगर हम आप के लिए ख़ुशी, शादमानी और नजात की ख़्वाहिश करते हैं तो फिर आपसे नफ़रत नहीं कर सकते, बल्कि हम आपके मुख़लिस दोस्त हैं जो आपसे मुहब्बत करते हैं। इसलिए हमारे ताल्लुक़ से बद-गुमानी का शिकार ना हों। ख़ुदा तआला आपको सिरात-ए-मुस्तकीम (हक़ राह) पर चलने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए।
गुफ़्तगु में एक फ़र्द को खोखली मिलनसारी से अहितराज़ बरतना चाहिए, सो अगर मेरे कुछ अल्फ़ाज़ मेरे मुसलमान भाई को नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त लगें तो में उस से माफ़ी का तलबगार होऊँगा, क्योंकि ये मेरा इरादा नहीं कि मैं उस के अक़ाइद को बदनाम करूँ। लेकिन इस के साथ में कुछ सच्चाइयों तक भी पहुंचना चाहता हूँ, और ये बात मुझे इजाज़त नहीं देती कि मैं अपने मुसलमान भाई को ख़ुश करने के लिए अपनी क़ाइलियतों को एक तरफ़ छोड़ दूं। इसी तरह मैं इस बात की तवक़्क़ो नहीं करता कि वो अपनी क़ाइलियतों को एक तरफ़ छोड़ दे। आख़िर को ये बह्स का एक मौक़ा है। ताहम, मैं अपने मुहतरम क़ारी से वाअदा करूँगा कि मैं किसी भी इश्तिआल अंगेज़ गुफ़्तगु, तम्सख़र और हिक़ारत से अहितराज़ बरतूँगा। मैं यहां पर ये भी बताना चाहता हूँ कि इस किताब के लिखने में कई साबिक़ा तहरीरों का इस्तिमाल किया गया है। ख़ुदा तआला से मेरी दुआ है कि ये तहरीर फ़ाइदेमंद साबित हो और इत्तिफ़ाक़ राय का बाइस बने। वो जो सिदक़ दिल अफ़राद की दुआ का जवाब देता है, वही मेरे लिए काफ़ी है और मेरी तमाम मदद का ज़रीया भी है।
2. बाब अव़्वल : मसलूबियत की वजूहात
हिस्सा अव़्वल : तौरात और इन्जील शरीफ़ की सेहत
हमारा ये ईमान है कि किताब-ए-मुक़द्दस (तौरात और इन्जील शरीफ़) मसीही दीन के तमाम अक़ाइद का अहम हिस्सा और असास (बुनियाद) है, और अपनी मुश्किलात के हल के लिए मसीही इस की तरफ़ रुजू करते हैं। ये उस आदिल मुंसिफ़ की मानिंद है जो मुख़ालिफ़त से नहीं घबराता बल्कि सच्चाई को सब के सामने लाता है और झूट को अयाँ करता है और शरई मुआमलात में शाहिद-उल-अमीन यानी दयानतदार गवाह है।
इसलिए मैंने इसे तहरीर में सबसे पहले रखा है ताकि इस की सेहत को क़ाइल करने वाली दलील और मन्तिक़ी सबूत की रोशनी में पेश किया जाये। यूं हम इखट्ठे हर मुआमले में इस के अहकाम को क़ुबूल करते हुए और इस की हिदायत से मुनव्वर होते हुए इसे देख सकते हैं, और हर इख़्तिलाफ़ के दौरान इस से रुजू कर सकते हैं। बेशक, ये नूर है और तमाम बनी नूअ इन्सान के लिए हक़ीक़ी हिदायत है।
1. क़ुर्आन में सूरह आले-इमरान 3:2 में हम ये अल्फ़ाज़ पढ़ते हैं “उसी ने तौरात और इन्जील नाज़िल की थी।” यानी ख़ुदा तआला ने इन्सानियत की हिदायत के लिए तौरात और इन्जील शरीफ़ को नाज़िल किया।
2. सूरह अल-माइदा 5:68 में लिखा है “ऐ अहले-किताब जब तक तुम तौरात और इन्जील को और जो और किताबें तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से तुम लोगों पर नाज़िल हुईं उन को क़ायम ना रखोगे किसी भी राह पर नहीं हो सकते।” इस आयत से तौरात और इन्जील शरीफ़ की सेहत साबित है, वगरना मुहम्मद साहब इस की तस्दीक़ ना करते।
3. और फिर सूरह अल-माइदा 5:47 में भी लिखा है “अहले-इन्जील को चाहिए कि जो अहकाम अल्लाह ने उस में नाज़िल फ़रमाए हैं उस के मुताबिक़ हुक्म दिया करें। इस का मतलब ये हुआ कि इन्जील शरीफ़ ख़ुदा तआला की तरफ़ से नाज़िल हुई और मुहम्मद साहब ने इस के अहकाम को तस्लीम किया।
4. सूरह अल-निसा 4:136 में लिखा है “मोमिनो, अल्लाह पर और उस के रसूल पर और जो किताब उस ने अपने इस पैग़म्बर पर नाज़िल की है और जो किताबें इस से पहले नाज़िल की थीं सब पर ईमान रखो। और जो शख़्स अल्लाह और उस के फ़रिश्तों और उस की किताबों और उस के पैग़म्बरों और रोज़े क़ियामत से कुफ़्र (इन्कार) करे वो रास्ते से भटक कर दूर जा पड़ा।” इन अल्फ़ाज़ में उस मुसलमान के शुक़ूक़ पर वाज़ेह हुक्म मौजूद है जो तौरात और इन्जील शरीफ़ पर वैसे ईमान नहीं रखता जैसे वो क़ुर्आन पर ईमान रखता है।
5. सूरह सबह 34:31 में लिखा है “और जो काफ़िर हैं वो कहते हैं कि हम ना तो इस क़ुर्आन को मानेंगे और ना उन किताबों को जो इस से पहले की हैं।” यूं मालूम होता है कि अहले-मक्का तौरात और इन्जील शरीफ़ के बारे में वैसे ही जानते थे जैसे वो क़ुर्आन को जानते थे।
6. सूरह अल-क़िसस 28:49 में लिखा है “कह दो कि अगर सच्चे हो तो तुम अल्लाह के पास से कोई और किताब ले आओ जो इन दोनों किताबों (क़ुर्आन और किताब-ए-मुक़द्दस) से बढ़कर हिदायत करने वाली हो। यहां वाज़ेह तौर से मुहम्मद साहब ने तौरात और इन्जील शरीफ़ की सेहत का इक़रार किया है और क़ुर्आन के साथ उस के मुसावी (हम-पल्ला, बराबर) होने का ज़िक्र किया है।
7. सूरह अल-माइदा 5:43 में लिखा है “और ये तुमसे अपने मुक़द्दमात क्यूँ-कर फ़ैसल करायेंगे? जब कि ख़ुद उन के पास तौरात मौजूद है जिसमें अल्लाह का हुक्म लिखा हुआ है।” यहां हमारे सामने एक सरीह इक़रार मौजूद है कि तौरात शरीफ़ सही है, इस में ख़ुदा तआला के अहकाम मौजूद हैं, और जो कोई इस की पैरवी करता है उसे किसी और मुंसिफ़ (हाकिम) की ज़रूरत नहीं।
इन बयान कर्दा क़ुर्आनी आयात का माअना बड़ा वाज़ेह है, और इसके लिए किसी तावील या तफ़्सीर की नहीं।
इन आयात का ख़ुलासा ये है कि किताब-ए-मुक़द्दस (तौरात और इन्जील शरीफ़) ख़ुदा-ए-बुज़ुर्ग व बरतर हकीम व अलीम ने तमाम दुनिया के लिए नूर व हिदायत के तौर पर नाज़िल कीं। इस के अहकाम को मान कर उन पर अमल किया जाना चाहिए। अगर कोई मुसलमान इस पर ईमान नहीं रखता तो उस का दीन नाक़िस है और वो दूर भटक जाएगा। मज़ीद बरआँ, अहले-मक्का किताब-ए-मुक़द्दस (तौरेत,ज़बूर, इन्जील) से वैसे ही वाक़िफ़ थे जैसे क़ुर्आन से थे।
मेरे मुसलमान भाई, क्या आप इन वाज़ेह आयात के बावजूद इस किताब पर ईमान लाने से बाज़ रहेंगे और इसे अपने लिए ग़ैर-मुताल्लिक़ा (गैर-ज़रूरी) समझेंगे? यौम हश्र (आखिरत) में जब किताबें खुलेंगी तो आप ख़ुदा तआला के अहकाम की ना-फ़र्मानी करने के बारे में क्या उज़्र (बहाना) पेश करेंगे? मेरी आप के लिए ये नसीहत है कि इस किताब (तौरात और इंजील शरीफ़) का मुतालआ करें, इस पर ईमान लाएं और इस के अहकाम पर अमल करें। ऐसा करने के नतीजे में आप उस वाहिद राह को जान पाएँगे जहां ख़ुदावन्द तआला का अदल और रहमत आपस में इखट्ठे मिलते हैं। और आप येसू मसीह के वसीले से जो दुनिया और आख़िरत में अहम तरीन शख़्सियत है, गुनाहों से धुल कर अबदी ख़ुशी (पाक जन्नत) पाएँगे।
हो सकता है कि कोई मुसलमान भाई ये एतराज़ करे “जिन आयात का आपने ज़िक्र किया है वो सच्ची हैं और आपके नताइज भी दुरुस्त है। ताहम, जिस तौरात और इन्जील पर आप मुझे ईमान लाने के लिए कह रहे हैं और जिसकी क़ुर्आन ने तस्दीक़ की है उस में तगय्युर व तबद्दुल (बदलाव) हो चुका है, क्योंकि तहरीफ़ कर दी गई है। आज आप जिसे तौरात और इन्जील कहते हैं वो उस से बहुत मुख़्तलिफ़ है जिसकी सेहत की गवाही क़ुर्आन ने दी है। इसी वजह से मुसलमान इस से अहितराज़ (परहेज़) बरतते हैं और इस के अहकाम को रद्द करते हैं। बेशक, आप उन्हें इस बात पर मौरिद-ए-इल्ज़ाम नहीं ठहराएँगे मैं ऐसे मोअतरिज़ और इस जैसे दीगर अफ़राद से कहूँगा कि वो मेरे जवाब पर ध्यान से ग़ौर करें और खुले दिल के साथ उस का जायज़ा लें।
बयान कर्दा क़ुर्आनी आयात से आपने जान लिया है कि किताब-ए-मुक़द्दस (तौरात और इन्जील शरीफ़) मुहम्मद साहब के अय्याम (ज़िन्दगी) में अपनी अस्ल हालत में मौजूद थी और क़ाबिले भरोसा थी। वगरना मुहम्मद साहब इस की तस्दीक़ ना करते और लोगों से ये ना कहते कि इस के अहकाम की पैरवी करें। आपको ये मानना पड़ेगा कि ये उस वक़्त दुरुस्त दुरुस्त हालत में मौजूद थी और किसी भी तरह के तगय्युर व तबद्दुल (तहरीफ़) से पाक थी।
मैं अब आपसे चाहूँगा कि कुछ और आयात-ए-क़ुर्आनी का मुतालआ करें और ख़ुद से देखें कि क्या किताब-ए-मुक़द्दस (तौरात, ज़बूर, इन्जील) में तगय्युर व तबद्दुल (तहरीफ़) वाक़ेअ होना मुम्किन था, और क्या इंसान इसे तब्दील कर सकते थे?
“और अपने परवरदिगार की किताब को जो तुम्हारे पास भेजी जाती है पढ़ते रहा करो। उस की बातों को कोई बदलने वाला नहीं।” (सूरह अल-कहफ़ 18:27)
“और अल्लाह की बातों को कोई भी बदलने वाला नहीं।” (सूरह अल-अन्आम 6:34)
“उस की बातों को कोई बदलने वाला नहीं।” (सूरह अल-अन्आम 6:115)
“अल्लाह की बातें बदलती नहीं।” (सूरह यूनुस 10:64)
“और तुम अल्लाह की आदत में कभी तब्दीली ना पाओगे।” (सूरह अल-फतह 48:23)
“ये तो एक आला रुत्बा किताब है। इस में झूट का दख़ल ना आगे से हो सकता है ना पीछे से।” (सूरह फुस्सिलत 41:42, 43)
“बेशक ये किताब-ए-नसीहत हम ही ने उतारी है और यक़ीनन हम इस के निगहबान हैं।” (सूरह अल-हिज्र 15:9)
आप इन हवालेजात से वाज़ेह तौर पर देख सकते हैं कि कोई भी ख़ुदा तआला के अल्फ़ाज़ (कलाम) को बदल नहीं सकता, क्योंकि ख़ुदा तआला ने ये किताब नाज़िल की और इस की हिफ़ाज़त का वाअदा किया है। हो सकता है कि आप कहें कि यहां जिस किताब की निगहबानी की बात हो रही है वो तो क़ुर्आन है, तो मैं जवाब दूँगा कि इस का मतलब तौरात और इन्जील शरीफ़ भी है। मसलन दलील के तौर पर ये क़ुर्आनी आयत देखिए, “अगर तुम नहीं जानते तो जो याद रखते हैं (तौरात और इन्जील) उन से पूछ लो (सूरह अल-अम्बिया 21:7) दर-हक़ीक़त तौरात का वैसे ही ज़िक्र किया गया है जैसे क़ुर्आन का, और इसके लिए देखिए आयत, “और हमने मूसा और हारून को हिदायत और गुमराही में फ़र्क़ कर देने वाली और सरतापा रोशनी और नसीहत की किताब अता की यानी परहेज़गारों के लिए।” (सूरह अल-अम्बिया 21:49)
आप कहते हैं कि इन आयात का इतलाक़ सिर्फ क़ुर्आन पर होता है, जबकि मैं कहता हूँ कि वो सब जिसका इतलाक़ क़ुर्आन पर होता है वो तौरात और इन्जील शरीफ़ पर भी होता है। क्योंकि तौरात और इन्जील शरीफ़ ख़ुदा तआला का कलाम हैं, और आपके एतिक़ाद के मुताबिक़ क़ुर्आन अल्लाह का कलाम है। अगर आप एतिक़ाद रखते हैं कि अल्लाह तआला ने क़ुर्आन में कहा है कि उस का कलाम बदल नहीं सकता, उस में कोई बिगाड़, कमी बेशी नहीं आ सकती (जैसा कि अल-जलालैन में मज़्कूर है), तो इस सब के तनाज़ुर में आप कैसे कह सकते हैं कि तौरात और इन्जील शरीफ़ में तब्दीली (तहरीफ़) हो गई है?
अगर आप इस इम्कान को तस्लीम करते हैं तो फिर क़ुर्आन में तग़य्युर (तहरीफ़) के इम्कान को भी तस्लीम करना होगा, क्योंकि जो अम्र तौरात और इन्जील के लिए क़ाबिल-ए-क़बूल है वो क़ुर्आन के लिए भी क़ाबिल-ए-क़बूल है। अगर लोग ख़ुदा तआला के कलाम तौरात और इन्जील शरीफ़ को बदलने के क़ाबिल हैं तो ला-मुहाला यही नतीजा निकलता है कि वो क़ुर्आन को भी तब्दील कर सकते हैं जैसा कि इमाम अल-राज़ी ने बयान किया है। और आप ये अम्र तस्लीम नहीं करते कि क़ुर्आन में तग़य्युर व तबद्दुल हुआ है। तो यूं आप पर ये तस्लीम करना वाजिब हो जाता है कि तौरात और इन्जील शरीफ़ में कोई तग़य्युर व तबद्दुल नहीं हुआ। अब लाज़िम है कि आप इस की सेहत का इक़रार करें, इस के अहकाम पर अमल करें और मसीह की जानिब रुश्द व हिदायत के लिए उन्हें अपनाऐँ जो अल-तरीक, उल-हक़ और अल-हयात है। जहां तक तहरीफ़ का कुछ इशारा क़ुर्आन की मदनी सूरतों में है, तो इस का ताल्लुक़ फ़क़त बाअज़ यहूद से है। इन्जील शरीफ़ पर ऐसा कोई इल्ज़ाम नहीं। जिस तहरीफ़ का यहां पर ज़िक्र है इस का ताल्लुक़ चंद आयात के मआनी से था जैसे उन की तफ़्सीर की जा रही थी, क्योंकि यहूदी उन की तफ़्सीर मुहम्मद साहब की राय के ख़िलाफ़ कर रहे थे। इमाम अल-राज़ी और अल-बेज़ावी ने आयात की तहरीफ़ की तफ़्सीर में इस अम्र को साबित किया है। बसूरत-ए-दीगर मदनी सूरतों में क़ुर्आनी कलाम मक्की सूरतों के कलाम से मुतनाक़िज़ (इख्तिलाफी) ठहरता है।
हिस्सा दोवम : तौरात और इन्जील शरीफ़ की सेहत के अक़्ली सबूत
हर आक़िल शख़्स जानता है कि ख़ुदा तआला जिसने अपनी अज़ली कुदरत के कलाम से कायनात बनाई, आस्मान व ज़मीन और तमाम मख़्लूक़ात को ख़ल्क़ किया, क़ादिर-ए-मुतलक़ हस्ती है। मज़ीद बरआँ, उस के हाथों की कारीगरी, आफ़ाक़ी क़वानीन की दुरुस्ती और हज़ारों साल के अर्से में किसी तग़य्युर (बदलाव) के ना होने से ज़ाहिर होता है कि ख़ुदा तआला हिक्मत वाला है। चूँकि ख़ुदा तआला क़ादिर व हकीम है, इसलिए अक़्ल रखने वाली अपनी इंसानी मख़्लूक़ के लिए लाज़िम हुआ कि वो उन के लिए एक दस्तूर वज़ाअ करे, उन्हें शरीअत देता कि वो अपने ख़ालिक़ के साथ अपने ताल्लुक़ को पहचान सकें और एक दूसरे की निस्बत अपने फ़राइज़ को भी जानने के क़ाबिल बन सकें। उन्हें इंसानों के मुक़द्दर के बारे में पता होने की ज़रूरत थी कि नाफ़रमानों के लिए सज़ा है और ईमानदार और फ़रमांबर्दार के लिए अज्र है। बसूरत-ए-दीगर बग़ैर किसी हदूद व क़ुयूद के बदनज़मी व बर्बादी होती जैसे बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को खा जाती हैं। आख़िरकार इंसान अपने ही तरह के दीगर इंसानों को ख़त्म कर देता, जैसा कि वहशी क़बाइल ने किया जो ख़त्म हो गए। तब नेकी भी बुराई ही की तरह होती, और हक़ीक़त में उन के दर्मियान कोई इम्तियाज़ (फर्क) ना रहता। क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा के नज़्दीक जो हिक्मत वाली हस्ती है ऐसी सूरत-ए-हाल नाक़ाबिल-ए-क़बूल है।
अगर ये दस्तूर व शरीअत तौरात और इन्जील शरीफ़ नहीं तो फिर मुझे बताईए क्या है? क्या कोई क़दीम मुक़द्दस किताब है जो तौरात और इन्जील की तरह इस ज़रूरत को पूरा करती हो? बिल्कुल भी नहीं है।
बेशक, ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ हिक्मत वाला जिसने इंसानियत के लिए किताब नाज़िल की कि उन के लिए दस्तूर व हिदायत हो, इस बात को यक़ीनी बनाता कि उसे किसी तब्दीली, कमी बेशी या नुक़्सान से महफ़ूज़ रखा जाये। अगर ऐसा ना होता तो ये हर हमला-आवर का निशाना होती। बहुत सी किताबें होतीं, मुख़्तलिफ़ आरा होतीं, और सच्चाई इंतिशार में खो गई होती। लेकिन ऐसा करना ख़ुदा से बईद है। क्योंकि उस ने सदियों से अपनी किताबों तौरात और इन्जील शरीफ़ को किसी तग़य्युर व तबद्दुल (तहरीफ़ व तब्दीली) से महफ़ूज़ रखा है। उस ने इन्हें खोए हुओं के लिए नूर व हिदायत के तौर पर महफ़ूज़ रखा है।
किताब-ए-मुक़द्दस (तौरात और इन्जील शरीफ़) में तग़य्युर व तबद्दुल (तहरीफ़, व बदलाओ) करने के मंसूबे के लिए एक होना नामुम्किन है। सबसे पहली बात, मसीही दीन और यहूदियत पहले ही मशरिक़ और मग़रिब में फैल चुके थे, जिसमें शाम, तुर्की, मिस्र, एथोपिया, हिन्दुस्तान और यूरोप शामिल हैं। बाइबल मुक़द्दस खासतौर पर इन्जील शरीफ़ अस्ल इब्रानी और यूनानी ज़ुबान से दुनिया की ज़ुबानों में तर्जुमा की जा चुकी थी, मसलन अरबी, आर्मीनी, हब्शी, क़ुबती और लातीनी ज़ुबानें। क्या ये तसव्वुर करना माक़ूल है कि ये सब कौमें अपनी किताब में तहरीफ़ करने के लिए एक जगह जमा हुईं, जब कि उन में ज़ुबानों और अक़ीदे के लिहाज़ से इख़्तिलाफ़ था, और फिर खासतौर पर मसीहियों की बहुत सी मुख़्तलिफ़ जमाअतें मौजूद थीं जिनमें से हर एक रासिख़-उल-एतक़ादी के एतबार से दूसरों के मुक़ाबिल थीं?
बिलाशक व शुब्हा एक मुसलमान का ये दाअवा कि किताब-ए-मुक़द्दस में तग़य्युर व तबद्दुल (तहरीफ़, बदलाओ) हो चुका है, बग़ैर सबूत के एक इल्ज़ाम है। वगरना वो अस्ल मतून (इबारत) कहाँ हैं जिनमें तब्दीली कर दी गई है? वो कौन सी आयात हैं, और अस्ल में वो क्या थीं, और उन के बदलने का क्या मक़्सद था? अगर इन सवालात का कोई जवाब नहीं, और ये वाज़ेह है कि ऐसा ही है तो मैं उन के सामने सवाल रखता हूँ “कोई ऐसा इल्ज़ाम लगाने की जुर्रत कैसे कर सकता है? कोई अक़्लमंद आलिम अपने इल्ज़ाम की ताईद में सबूत के बग़ैर बात नहीं करता। इन्जील शरीफ़, इस्लाम के ज़हूर से पहले अरबी ज़ुबान में तर्जुमा हो चुकी थी, ताकि मसीही होने वाले अरब क़बाइल इस से मुस्तफ़ीद हो सकें जिनमें हमीर, ग़स्सान, रबीया, अहले-नजरान, हीरत और दूसरे लोग शामिल थे। वो इस के बग़ैर मसीहिय्यत को कैसे समझ सकते थे? इन हक़ाइक़ की ताईद हमें किताब “अलाग़ानी” में मिलती है, जिसमें ज़िक्र है कि वर्क़ा बिन नवाफिल (मुहम्मद साहब के वक़्तों का मशहूर तरीन अरब लिखारी) ने इस किताब को तहरीर किया, और जो कुछ वो चाहता था उस ने इन्जील के अरबी तर्जुमे से उस में नक़्ल किया। अब अगर इन्जील बाद में बदल दी गई थी तो मुसलमान अस्ल इन्जील को सँभाल कर रखते ताकि उसे अपने दाअवे के सबूत में पेश कर सकते।
जहां तक यहूदियों की बात है अपनी किताब को महफ़ूज़ रखने के लिए उनका जोश व ख़ुरोश मिसाली है। वो इस में पाए जाने वाले अल्फ़ाज़ और हुरूफ़ की तादाद से वाक़िफ़ हैं, यूं किताबे मुक़द्दस मुकम्मल तौर पर किसी तग़य्युर (तब्दीली) से पाक है और इस में कोई तब्दीली वाक़ेअनहीं होगी, जैसा कि इस अम्र की शहादत हमें मतन की तारीख़ी नक़ूल और अक़्ल से मिलती है।
जब किताबों की तादाद में इज़ाफ़ा होता है तो सच्चाई छिपी नहीं रह सकती। आप इस अम्र की तहक़ीक़ कर के मुवाज़ना कर सकते हैं। तब आप हक़ाइक़ तक पहुंच जाऐंगे। क्योंकि जो किताब शहवतों और खुदगर्ज़ मिलानात से मना करती है, इंसानों के बुरे दिलों को बदल देती है, ख़ुदा तआला की नेक खूबियों के मुवाफ़िक़ बनाती है, सालिह मुआशरा तशकील देती है, दुश्मनों से मुहब्बत रखने का हुक्म देती है, जिसमें बदी का जवाब बदी से देना नापसंदीदा अम्र है और तमाम बनी-आदम को भाई समझने का दर्स देती है, बेशक वो किताब है जो ख़ालिक़ कायनात वाजिब-उल-वजूद हस्ती ने अता की है ताकि तमाम रुए-ज़मीन पर उस के बंदे इस पर करें।
हिस्सा सोवम : किताब-ए-मुक़द्दस की सेहत का तारीख़ी सबूत
किताब-ए-मुक़द्दस (तौरात और इन्जील शरीफ़) की क़दामत और सेहत नाक़ाबिल-ए-तर्दीद हक़ीक़त है। दुनिया की कोई और किताब ऐसी नहीं जिसकी सेहत के इतने सबूत मौजूद हैं। चूँकि तारीख़ आदिल गवाह और सादिक़ दलील है, इसलिए मैंने इसे इस तमाम बह्स में इस्तिमाल करने का फ़ैसला किया है ताकि हक़ीक़त को वाज़ेह तौर पर बयान कर सकूँ।
ये एक वाज़ेह हक़ीक़त है कि किताब-ए-मुक़द्दस में बहुत सी नबुव्वतें मौजूद हैं, जिनमें से ज़्यादातर पूरी हो चुकी हैं। जबकि बाक़ी नबुव्वतें अपने वक़्त पर पूरी होंगी। ख़ुदा तआला ने अपने अम्बिया किराम के मुंह से बहुत से वाक़ियात के होने के बारे में पहले से बताया जैसे कुछ बादशाहों के बरपा होने और दूसरों के ज़वाल की ख़बर दी गई, कुछ अज़ीम शहरों और मुतकब्बर क़ौमों की तबाही के बारे में बताया गया जिन्हों ने अपनी आने वाली तबाही के बारे में सोचा भी ना था।
मसलन, नाहूम नबी ने बड़ी सराहत से असूरियों के दार-उल-हकूमत नैनवा की तबाही के बारे में नबुव्वत की। ये एक बड़ा शहर था जिसकी दीवारें सौ फुट बुलंद थीं, और मुहीत साठ मील के क़रीब था। इस शहर में तक़रीबन पंद्रह सौ बुर्ज थे जो अपनी शान व शौकत के एतबार से दो सौ फुट तक बुलंद थे। ये नबुव्वत हर्फ़ ब हर्फ़ पूरी हुई।
यसअयाह और यर्मियाह नबी ने कलदानियों के दार-उल-हकूमत बाबिल की तबाही की उस वक़्त नबुव्वत की जब ये अपनी अज़मत और ख़ुशहाली के बुलंदियों पर था। इन अम्बिया किराम की नबुव्वतों के एक सौ साठ साल के अंदर बाबिल अज़ीम की तबाही वाक़ेअ हो गई। मुअर्रिख़ीन हेरोदोतस और ज़नफ़ून ने इस शहर की तबाही की तफ़सीलात बयान की हैं जो हैरत-अंगेज़ तौर पर नबियों के बयान के मुताबिक़ हैं।
किताब-ए-मुक़द्दस की दीगर नबुव्वतों में सूर शहर की बाबत हिज़्क़ीएल नबी की नबुव्वत भी है, जिसके हक़ाइक़ का सबूत और शहादत हमें तारीख़ में मिलती है।
हिज़्क़ीएल 26:8 में हम पढ़ते हैं कि नबूकदनज़र सूर के शहर को तबाह कर देगा। तीसरी आयत में नबी कहता है कि बहुत सी कौमें उस के ख़िलाफ़ चढ़ाई करेंगी, चौथी आयत में बयान है कि वो साफ़ चट्टान बन जाएगा, जबकि पांचवीं आयत में ज़िक्र है कि वो समुंद्र में जाल फैलाने की जगह होगा। बारहवीं आयत में बयान है कि उस की बाक़ियात समुंद्र में डाली जाएँगी। चौदहवीं आयत के मुताबिक़ ये फिर तामीर ना होगा और इक्कीसवीं आयत बयान करती है कि इस की नाबूदगी यक़ीनी है।
हिज़्क़ीएल की नबुव्वत के तीन बरस बाद शाह-ए-बाबिल ने सूर का तेराह बरस (573-585 क॰ म॰) तक मुहासिरा किया जब तक कि सूर ने उस की शराइत के मुताबिक़ शिकस्त क़ुबूल ना कर ली। जब उस ने आख़िरकार शहर पर हमला किया तो उसे पता चला कि शहर के रिहायशी निस्फ़ मील के फ़ासिले पर एक नए जज़ीरे में भाग गए हैं। तब उस ने शहर का निशान मिटा कर उसे मैदान बना दिया जैसा कि हिज़्क़ीएल नबी ने अपनी किताब के छब्बीसवें बाब की आठवीं आयत में नबुव्वत थी।
फिर सिकंदर आज़म आया जिसने बाग़ी नए शहर का मुहासिरा किया, क़दीम शहर की बाक़ियात को दलदली इलाक़े में साठ मीटर कुशादा रास्ता बनाने के लिए इस्तिमाल किया। उस ने इस शहर को वैसे ही फ़त्ह किया जैसे हिज़्क़ीएल 26:3, 12 में नबुव्वत की गई थी, और फिर चौथी और पांचवीं आयत के ऐन मुताबिक़ ये फिर साफ़ चट्टान बन गया।
अगरचे सूर की तारीख़ सिकंदर आज़म के ख़ौफ़नाक हमले के बाद ख़त्म ना हुई, ताहम बाद में अंतीख़ोस (314 क़॰ म॰) और फिर उस के बाद पतलमेस फ़िलादलफ़ूस (285-247 क़॰ म॰) के हमलों से उस की तिजारत और बतौर बहरी ताक़त के इस की एहमीय्यत ख़त्म हो गई। बादअज़ां, 321 ई॰ में मुसलमानों ने इस शहर पर क़ब्ज़ा कर के इसे मुकम्मल तौर पर तबाह कर दिया। मशहूर अरब सय्याह इब्ने-बतूता के अल्फ़ाज़ के मुताबिक़ “जो एक मिसाल था…………अब मुकम्मल तौर पर खन्डर बन चुका है। यूं बिल्कुल वैसे ही हुआ जैसे हिज़्क़ीएल 26:14 में बयान किया गया था।
अपने अय्याम में हिज़्क़ीएल नबी ने जब सूर पर निगाह डाली तो एक अज़ीम शहर देखा जो अज़मत के एतबार से उरूज पर था, सो जिन्हों ने इस नबुव्वत को सुना और ताक़तवर शहर की दौलत और हश्मत देखी तो उन्हें ये नबुव्वत हज़यान महसूस हुई। इंसानी हिक्मत के मुताबिक़ किसी इत्तिफ़ाक़ की बिना पर हिज़्क़ीएल नबी की नबुव्वतों का सात साल के अंदर पूरा होने का इम्कान करोड़ों में से एक था। लेकिन उस की तमाम नबुव्वतें मुकम्मल तौर पर पूरी हुईं।
“इसलिए ख़ुदावन्द ख़ुदा यूं फ़रमाता है कि देख ऐ सूर मैं तेरा मुख़ालिफ़ हूँ और बहुत सी क़ौमों को तुझ पर चढ़ा लाऊँगा जिस तरह समुंद्र अपनी मौजों को चढ़ाता है। और वो सूर की शहर-ए-पनाह को तोड़ डालेंगे और उस के बुरजों को ढा देंगे और मैं उस की मिट्टी तक खुरच फेंकूँगा और उसे साफ़ चट्टान बना दूँगा।” (हिज़्क़ीएल 26:3, 4)
हिस्सा चहारुम : किताब-ए-मुक़द्दस के बारे में आसारे-ए-क़दीमा की गवाही
अगर तारीख़ को अपनी गवाही के मुक़ाबले में सवालात और शुक़ूक़ का सामना हो सकता है, मगर इल्म-ए-आसार-ए-क़दीमा की शहादत को झुटलाया नहीं जा सकता।
नक़्क़ादों की जानिब से सहाइफ़-ए-मुक़द्दसा को पहले भी निशाना बनाया जाता रहा है और अब भी ऐसा हो रहा है, और ये मुलहिदों के हमलों का शिकार है। ये उन की शहवानी ख़्वाहिशात, कम फ़ह्मी पर मबनी आरा और तबाहकुन फ़लसफ़ों के बरअक्स है। इसलिए, उन में से बहुतसों ने फ़िलिस्तीन, बाबिल, असूर और मिस्र में मौजूद आसार-ए-क़दीमा की राह ली और उन्हें उम्मीद थी कि यूं वो इल्हामी सहाइफ़ को ग़ैर-मोअतबर साबित कर सकेंगे। वो दुनिया पर साबित करना चाहते थे कि किताब-ए-मुक़द्दस बिगड़ी हुई बातों और रिवायतों का मजमूआ है। लेकिन ख़ुदा तआला ने उन की तमाम काविशों को नाकाम बना दिया, उन के तीर निशाने पर ना लगे और उन की उम्मीदों पर पानी फिर गया। अगरचे आसार-ए-क़दीमा पर तहक़ीक़ व तहरीर करने वाले ये अफ़राद लामज़्हब थे मगर आसार-ए-क़दीमा पर उन की तहक़ीक़ की गवाही सहाइफ़-ए-मुक़द्दसा के साथ मुकम्मल तौर पर मुताबिक़त थी।
जब हमारे मुसलमान भाईयों ने देखा कि तौरात और इन्जील शरीफ़ बुनियादी तौर पर क़ुर्आनी ताअलीमात के बरअक्स हैं, तो उन्हों ने इन पर तहरीफ़ का इल्ज़ाम लगा दिया और इन की अदम-ए-सेहत का दावा किया। मगर उन के दाअवे में हक़ीक़ी बुरहान (दलील) मफ़्क़ूद (गायब) था। चूँकि आसार-ए-क़दीमा की गवाही ने बहुत से मुलहिद तहक़ीक़कारों को क़ाइल किया है इसलिए मैंने इस उम्मीद पर इन आसार में से कुछ का ज़िक्र करने का फ़ैसला किया है कि जैसे इस से पहले के लोगों को मदद मिली वैसे ही हमारे मुसलमान भाई भी इस से पाएं।
किताब-ए-मुक़द्दस पर बेदीनों की तन्क़ीद और उन की बे-एतिक़ादी को दो एतबार से देखा जा सकता है। इस की अव्वलीन वजह ये ख़याल था कि किताब-ए-मुक़द्दस की तहरीर बाबिली असीरी (तक़रीबन 540 क़॰ म॰) से कुछ पहले फ़िलिस्तीन में या तो नामालूम थी या फिर बहुत कम इस्तिमाल हुई है। इसलिए वो सोचते हैं कि मूसा और दीगर का उस वक़्त तहरीर करना तो बईद अज़ क़ियास (सोच के बाहर) है। सानियन, उनका ख़याल था कि हम-अस्र मोअर्रिखों की निस्बत तौरात ने शिर्क-ए-क़दीम की तहज़ीब के बयान में बहुत ज़्यादा मुबालग़ा आराई से काम लिया था। मगर हालिया इन्किशाफ़ात ने, जिसमें उन्हों ने मिस्र, बाबिल और असूर की तरक़्क़ी याफ्ताह तहज़ीबों की वाज़ेह अक्कासी की है, किताब-ए-मुक़द्दस के अक़्वाल की सेहत की तस्दीक़ की है। उस ज़माने की तवारीख़ ने हमारे सामने उस वक़्त की सक़ाफत और सेनहीरब, तिगलत पलनासर और नबूकदनज़र की जंगों की तस्वीरकुशी की है। अब हम ख़ुद उन रस्म-उल-हरूफ़ को देख सकते हैं जो यसअयाह, यर्मियाह और मूसा नबी ने अपनी तहरीरों में इस्तिमाल किए थे। ग़र्ज़, ख़ुदा तआला के कलाम की गवाही में पत्थर भी चिल्ला उठे हैं। इन आसार से ये हक़ीक़त साबित हुई है कि फ़न-ए-तहरीर हिज़्क़ीएल, मूसा और अब्रहाम नबी के वक़्त में यहां तक कि 2234 क़॰ म॰ में वैसे ही मिसाली था जैसे आज हमारे पास है।
मैं अब उन अहम मौज़ूआत और बड़े वाक़ियात का ज़िक्र करने की तरफ़ बढ़ूँगा जो तौरात शरीफ़ में मज़्कूर हैं और आप देखेंगे कि इन की तस्दीक़ (सच्चा होना) आसारे-ए-क़दीमा से है।
ब्रिटिश म्यूज़ीयम में मौजूद अस्ल असूरी तख़्तियाँ ख़ल्क़-ए-कायनात के वाक़िये की (जो तौरात शरीफ़ के शुरू में बयान किया गया है) हैरत-अंगेज़ तौर पर बड़ी तफ़्सील से तस्दीक़ करती हैं। अगर मैंने इख़्तिसार से काम ना लिया होता तो क़ारी के लिए उनका तर्जुमा ज़रूर करता। अगरचे इस तहरीर में अफ़सानवी अनासिर मौजूद हैं, मगर हक़ीक़त वाज़ेह तौर पर दिखाई देती है। इस तहरीर में पहले इंसानी जोड़े के वजूद की तस्दीक़ मिलती है, इस में लिखा है “कि दोहूँ जिन्हें रब ज़ूल-वजह-उल-शरीफ ने ख़ल्क़ किया।” कोई भी फ़र्द इसी म्यूज़ीयम में एक क़दीम बाबिली सुतून पर एक तस्वीर देख सकता है जिसमें इंसानों के अव्वलीन वालदैन आदम और हव्वा दिखाए गए हैं, जो दरख़्तों के दर्मियान मौजूद हैं और साँप हव्वा के पीछे है। ये तौरात शरीफ़ के पहले बाब में इंसानी सुकूत के बयान के ऐन मुताबिक़ है।
पहले-पहल, ग़ैर-ईमानदार उलमा तूफान-ए-नूह के बाइबली वाक़िये को मह्ज़ एक क़िस्सा समझते थे कि ये क़दीम दास्तानों में से एक दास्तान है। उनका ख़याल था कि ये उलमा के बराहीन (दलीलों) का मुक़ाबला नहीं कर सकता, और सख़्त तहक़ीक़ उसे जालसाज़ी साबित कर देगी। ताहम, तवील तहक़ीक़ात के बाद उन की सोच उस वक़्त ग़लत साबित हुई जब आसार-ए-क़दीमा की दर्याफ्तों ने उन पर हक़ीक़त वाज़ेह कर दी। उन्हों ने तूफान-ए-नूह होने का यक़ीन किया और इस हक़ीक़त को माना। उन में क़ाबिल-ए-ज़िक्र माहिर अर्ज़ियात थे, क्योंकि असूर से दर्याफ़्त होने वाली चीज़ों में तख़्तियाँ भी थीं जो अब ब्रिटिश म्यूज़ीयम में मौजूद हैं, जिनमें तूफान-ए-नूह की तमाम तफ़्सील मौजूद है, क्योंकि लिखा मौजूद है कि कैसे कश्ती को तामीर किया गया, कैसे इंसान और तमाम अन्वा के हैवानात महफ़ूज़ किए गए, कैसे बारिश ने ज़मीन (जो जानदारों से बसी हुई थी) के चेहरे को छुपा लिया और तमाम इंसान और हैवान हलाक हुए।
दुनिया के हर बर्र-ए-आज़म में बड़ी मिक़दार में समुंद्री बाक़ियात दर्याफ़्त हुई हैं जो पहाड़ों और गहरी वादियों में ज़मीन की परतों में इखट्ठी या बिखरी हुई हालत में मौजूद हैं। उन में से बाअज़ मख़्सूस समुंद्रों तक महदूद हैं। पहाड़ी परतों में मछलियों और समुंद्री नबातात की बाक़ियात जमी हुई हैं। तहक़ीक़ का मुतमन्नी कोई भी फ़र्द इन का जायज़ा ले सकता है क्योंकि ये ज़्यादातर अजाइब-घरों में मौजूद हैं। इस सबसे तूफान-ए-नूह के बाइबली वाक़िये की सेहत की तस्दीक़ होती है। वगरना सीपियों वाले जानदारों, मछलियों और नबातात की बाक़ियात ऐसी दूर की जगहों पर कैसे पहुँचें जो उनका वतन नहीं था?
स्मिथ नाम के एक मुहक़्क़ीक़ ने नैनवा के खन्डरात में एक तख़्ती दर्याफ़्त की, जो अब बर्तानवी अजाइब घर में मौजूद है, जिस पर बाबिल के बुर्ज बनाने और ज़ुबानों के इख़्तिलाफ़ का बयान मिलता है। (पैदाईश 11 बाब) इसी मज़्कूर शख़्स ने असूर के खन्डरात से भी एक तख़्ती दर्याफ़्त की जो आग और गंधक से सदोम और अमोरह की तबाही से मुताल्लिक़ है जिसका ज़िक्र पैदाईश 19:24 में मौजूद है। ये दरयाफ्तें कनआन पर ईलाम के बादशाह कदरुलअम्र और उस के हलीफ़ों के हमले की तस्दीक़ करती हैं। इन में सुनार और जुनूबी बाबिल का बादशाह अमराफिल भी शामिल था जिसका ज़िक्र पैदाईश 14 बाब में है।
मुअर्रिख़ीन प्लोटॉर्क और हीरोडेट्स ने मूसा नबी की तहरीरों के वक़्त में मिस्र में शराब की मौजूदगी और इस्तिमाल का इन्कार किया। ताहम, मिस्री आसार-ए-क़दीमा की दर्याफ्तों से अब हम जानते हैं कि ये मोअर्रिख अपने मफ़रुज़े में ग़लत थे और मूसा नबी का बयान दुरुस्त था जिसकी मार्फ़त ख़ुदा तआला ने शरीअत दी थी। कई मिस्री क़ब्रों में ऐसी तस्वीरें मौजूद हैं जिनमें शराब बनाने के अमल को अंगूरों को इखठ्ठा करने से लेकर उन्हें कुचलने, उनका रस कुशीद करने और बर्तनों में महफ़ूज़ करने तक दिखाया गया है। कुछ बोतलें भी दर्याफ़्त हुई हैं जिन पर अरब लिखा है जिसका मतलब शराब है। आसार यूसुफ़ नबी के ज़माने में एक क़हत का सबूत भी फ़राहम करते हैं जिसका बयान तौरात में पैदाईश 41:30 में मौजूद है।
मिस्री तहरीरों ने ज़ाहिर किया कि रामसीस आज़म ने दो शहरों पतोम और रामसीस की तामीर के लिए ग़ैर-मुल्कियों को काम पर लगाया। ये ज़िक्र ख़ुरूज 1:11 के मुताबिक़ है, और माहिरीन इल्म-ए-आसार-ए-क़दीमा ने थीबस में एक क़ब्र में इस्राईलियों और उन की गु़लामी और अवामी कामों में जबरी भर्ती का ज़िक्र दर्याफ़्त किया है।
किताब-ए-मुक़द्दस की सेहत पर एक ख़ामोश शहादत संगमरमर के एक टुकड़े की है, जिसे उलमा आसार-ए-क़दीमा में मूआबी पत्थर के नाम से जाना जाता है। इसे आगस्तस कलीन नामी एक पादरी ने दर्याफ़्त किया था। वो जर्मनी का रहने वाला था और एक अर्से से फ़िलिस्तीन में रहता था, और उस ने क़ाहिरा में इंग्लिश चर्च मिशन के सेक्रेटरी के तौर पर बीस बरस ख़िदमत की। वो एक मशहूर आलिम था और कई ज़ुबानें जानता था। ये दर्याफ़्त शिर्क-ए-अर्दन के इलाक़े में हुई जो क़दीम मूआब का इलाक़ा था और इस का ताल्लुक़ 890 क़॰ म॰ से बनता है। ये पत्थर इस वक़्त पैरिस में लोग़ अजाइब घर में मौजूद है। इस पत्थर पर फ़ीनीकी रस्म-उल-ख़त में तीस सतरों पर मुश्तमिल एक इबारत कुंदा है जो मूआब के बादशाह मीसा, शाह-ए-इस्राईल उम्री और अदूमियों के दर्मियान जंगों के बारे में बताती है, इस का ज़िक्र हमें 2 सलातीन 3:4-27 में मिलता है। ये कुछ मज़ीद तफ़सीलात का भी दुरुस्त तौर पर ज़िक्र करती है जो किताब-ए-मुक़द्दस के बयान के मुताबिक़ हैं, लेकिन जगह की कमी की बिना पर उनका ज़िक्र करना मुहाल है।
मज़ीद बरआँ, यरूशलेम में शलोम की तहरीरों की दर्याफ़्त ने इन वाक़ियात की तस्दीक़ की है जो हम 2 सलातीन 20:20, 2 तवारीख़ 32:30 और यसअयाह 22:9, 11 में पढ़ते हैं, और फिर इस बात का भी ज़िक्र मिलता है कि हिज़क़ियाह ने जेहूँ के पानी के ऊपर के सोते को बंद कराया और उसे दाऊद के शहर के मग़रिब की तरफ़ सीधा पहुंचाया।
इसी तरह नैनवा के खन्डरात से एक इस्तिवान मिला जिस पर 722 क़॰ म॰ में शाह-ए-असूर सर्जून और शाह-ए-अशदोद अशोर के दर्मियान हिज़क़ियाह के दौर-ए-सल्तनत के दौरान जंग का इंदिराज किया गया है। (यसअयाह 2:1) ये इस्तिवान अब लंदन में मौजूद है।
एक और इस्तिवान जो मिला वो मुसद्दस नुमा है जिस पर यरूशलेम के उस मुहासिरे का बयान मौजूद है जो शाह-ए-असूर सेनहीरब ने 705 क़॰ म॰ में किया था जिसका ज़िक्र 2 सलातीन 18:13-16 में मौजूद है। ये भी लंदन में है।
किताब-ए-मुक़द्दस के बेशुमार क़दीम नुस्खेजात
हमारे पास किताब-ए-मुक़द्दस के बेशुमार क़दीम नुस्खेजात मौजूद हैं जो इस की सेहत की नाक़ाबिल-ए-तर्दीद गवाही है। ये यूरोप की मुम्ताज़ लाइब्रेरीयों और अजाइब-घरों में मौजूद हैं। ये चमड़े के बने बड़े टुकड़ों तूमारों पर इन्जील शरीफ़ की अस्ल यूनानी ज़ुबान और दीगर बहुत सी ज़ुबानों में लिखे हुए हैं। इन में से कुछ मुकम्मल तौर पर तौरात और इन्जील शरीफ़ पर मुश्तमिल हैं। जबकि कुछ किताब-ए-मुक़द्दस की मख़्सूस किताबों पर मुश्तमिल हैं। यहां पर इन में से बाअज़ का ज़िक्र किया जा रहा है :-
1. नुस्ख़ा-ए-वीटीकन : ये आपको वीटीकन रुम में मिलेगा। ये हिज्री कैलेंडर से तक़रीबन 250 साल पहले लिखा गया था।
2. नुस्ख़ा-ए-सीना : इसे कोहे सीना की मुनासबत से नाम दिया गया जहां से ये दर्याफ़्त हुआ था। अब ये लंदन में बर्तानवी अजाइब घर में मौजूद है और तौरात और इन्जील शरीफ़ पर मुश्तमिल है। ये हिज्री कैलेंडर से तक़रीबन 200 साल पहले तहरीर किया गया।
3. नुस्ख़ा-ए-सिकंदरीया : ये नुस्ख़ा लंदन में बर्तानवी अजाइब घर के क़ीमती खज़ाने में मौजूद है। ये भी हिज्री कैलेंडर से तक़रीबन 200 साल पहले लिखा गया, और तौरात और इन्जील शरीफ़ पर मुश्तमिल है।
4. नुस्ख़ा-ए-एफ्राएमी : ये अब पैरिस में है और हिज्री कैलेंडर से तक़रीबन 150 साल पहले लिखा गया और इन्जील शरीफ़ पर मुश्तमिल है।
मज़ीद बरआँ, 1948 ई॰ में एक वाक़िया अख़बारों की ज़ीनत बना जिसे तारीख़ में एक अज़ीम लम्हा समझा गया। ताअमर्राह से ताल्लुक़ रखने वाला एक अरब मुहम्मद अल-दीब बदवी बहीरा मुर्दार के नज़्दीक अपनी भेड़ें चरा रहा था। जब एक भेड़ एक पहाड़ पर चढ़ गई तो उस ने उस की तरफ़ एक पत्थर फेंका। बर्तन के टूटने की आवाज़ सुन कर उस ने एक और पत्थर फेंका। तब वो पहाड़ पर चढ़ा और एक सुराख़ से बड़े मुहतात अंदाज़ में एक ग़ार में दाख़िल हुआ और उस ने सोचा कि उसे कोई ख़ज़ाना मिलेगा। और हक़ीक़त में उसे ख़ज़ाना ही मिला, ये सिर्फ़ उसके लिए या उस के क़बीले के लिए नहीं था बल्कि तमाम दुनिया के लिए एक ख़ज़ाना था।
ये दर्याफ़्त किताब-ए-मुक़द्दस की तहरीरों के एक मजमूए पर मुश्तमिल है, जिसमें यसअयाह नबी की किताब भी मौजूद है। यसअयाह नबी का सहीफ़ा मसीह से तक़रीबन 700 बरस पहले के ज़माने से ताल्लुक़ रखता है। ये किताब-ए-मुक़द्दस की सदाक़त की ज़बरदस्त शहादत (गवाही) साबित हुई क्योंकि आज मौजूद नुस्ख़े इस के मुताबिक़ हैं। ग़र्ज़, इस से किताब-ए-मुक़द्दस में तहरीफ़ कर देने के इल्ज़ामात बातिल ठहरे, और उनका ग़लत होना साबित हो गया। ये तूमार अब “क़ुमरान” या “बहीरा मुर्दार” के तूमार कहलाते हैं।
तूमारों की इस क़ीमती दर्याफ़्त के वक़्त से ये बड़ा वाज़ेह हो गया कि ख़ुदा तआला की मुक़द्दस किताब की नक़्ल और तरसील मसीह की कलीसिया जो ख़ुदा तआला के भेदों के ख़ज़ाने पर मुश्तमिल है की ज़िंदगी में रूह-उल-क़ुद्स की राहनुमाई का जीता जागता सबूत है। मसीहियों के पास कसीर तादाद में कई और नुस्खे जात भी मौजूद हैं जिनमें से बाअज़ इस्लाम से पहले लिखे गए और बाअज़ इस्लाम के हम-अस्र हैं। हमने इख़्तिसार के पेश-ए-ख़ातिर उनका यहां ज़िक्र नहीं किया। अगर हम आज यहूदियों और मसीहियों के हाथों में मौजूद किताब-ए-मुक़द्दस की तीन सौ ज़ुबानों से ज़्यादा की नक़ूल का क़दीम नुस्खेजात के साथ मुवाज़ना करें तो हमें उन के दर्मियान बड़ी मुताबिक़त नज़र आएगी। वो नुस्ख़े मौजूद हैं और कोई भी उनका जायज़ा ले सकता है।
3. दूसरी बह्स क्या क़ुर्आन ने तौरात और इन्जील को मन्सूख़ कर दिया है
जब मुसलमान मुनाज़रे के मैदान में शिकस्त खाता है, किसी बुरहान व दलील को नहीं पाता, और उस के सामने ये तस्लीम किए बगैरह चारा नहीं रहता कि तौरात और इन्जील शरीफ़ में तहरीफ़ व तब्दीली नहीं हुई और ये ख़ुदा-ए-हकीम ने तमाम इंसानों की हिदायत और नूर के लिए नाज़िल कीं तो वो इस दाअवे का सहारा लेता है कि क़ुर्आन ने तौरात और इन्जील को मन्सूख़ कर दिया है। ताहम, ये ऐसा इल्ज़ाम है जिसका कोई सबूत नहीं और ये बड़ा बोहतान है क्योंकि क़ुर्आन ख़ुद इस बात का दाअवा नहीं करता। बल्कि इस के बरअक्स, उस ने वाज़ेह अरबी में हर फ़र्द पर वाज़ेह किया कि ये नाज़िल किया गया है कि तौरात और इन्जील की तस्दीक़ करे और इसे उन पर निगहबान ठहराया गया है। आप इन आयात में इस बात का जायज़ा ले सकते हैं :-
“ऐ बनी-इस्राईल, मेरे वो एहसान याद करो जो मैंने तुम पर किए थे और उस इक़रार को पूरा करो जो तुमने मुझ से किया था, मैं उस इक़रार को पूरा करूँगा जो मैंने तुमसे किया था और मुझी से डरते रहो। और जो किताब मैंने नाज़िल की है जो तुम्हारी किताब को सच्चा कहती है उस पर ईमान लाओ।” (सूरह अल-बक़रह 2:40, 41)
“जो पहली किताबों की तस्दीक़ करती है।” (सूरह अल-बक़रह 2:97)
“फिर तुम्हारे पास कोई पैग़म्बर आए जो तुम्हारी किताब की तस्दीक़ करे।” (सूरह आले-इमरान 3:81)
“इस ने तुम पर सच्चाई के साथ किताब नाज़िल की जो पहली किताबों की तस्दीक़ करती है।” (सूरह आले-इमरान 3:3)
“ऐ किताब वालो, हमारी नाज़िल फ़रमाई हुई किताब पर जो तुम्हारी किताब की भी तस्दीक़ करती है ईमान ले आओ।” (सूरह अल-निसा 4:48)
“और ये क़ुर्आन ऐसा नहीं कि अल्लाह के सिवा कोई इस को अपनी तरफ़ से बना लाए। हाँ ये अल्लाह का कलाम है जो किताबें इस से पहले की हैं। उन की तस्दीक़ करता है।” (सूरह यूनुस 10:37)
“और ऐ पैग़म्बर हमने तुम पर सच्ची किताब नाज़िल की है जो अपने से पहली किताबों की तस्दीक़ करती है और उन सब पर निगहबान है।” (सूरह अल-माइदा 5:48)
“ऐ अहले-किताब जब तक तुम तौरात और इन्जील को और जो और किताबें तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से तुम लोगों पर नाज़िल हुईं उन को क़ायम ना रखोगे किसी भी राह पर नहीं हो सकते।” (सूरह अल-माइदा 5:68)
साहिब-ए-फ़हम अपने दाअवे को उस वक़्त तक नहीं पेश करेगा जब तक उसे इस बात का यक़ीन ना हो कि वो हज़ारों दलाईल से अपनी बात का सबूत देने के क़ाबिल है। हमारे बाअज़ मुसलमान भाई इस मुआमले में बग़ैर किसी समझ से काम लेते हैं। जब हम उन्हें कहते हैं कि “अगर आप सच्चे हैं तो अपना सबूत पेश करें” तब वो हमारे सामने खोखली और नातवां वजूहात पेश करते हैं जैसा कि “बाद की किताब ने पिछली किताबों को मन्सूख़ कर दिया है।” बा अल्फ़ाज़-ए-दीगर, चूँकि क़ुर्आन तौरात और इन्जील के बाद आया है इसलिए उस ने उन्हें मन्सूख़ कर दिया है। जबकि बाअज़ ये कहते हैं कि चूँकि क़ुर्आन में तौरात और इन्जील मौजूद है, इसलिए हमें उन की ज़रूरत नहीं। मैं निहायत ही अदब से अपने क़ारी से कहूँगा कि मेरा नहीं ख़याल कि मुझे “नातवां” सबूतों को चैलेंज करने की ज़रूरत है, खासतौर पर जब कि क़ुर्आन ने बज़ात-ए-ख़ुद मुझे इस कोशिश से बचाया है। बयान कर्दा सात आयात और बहुत सी क़ुर्आनी आयात की तरह वाज़ेह तौर पर ज़ाहिर करती हैं कि क़ुर्आन तौरात और इन्जील शरीफ़ की सदाक़त की गवाही देता है, उन की तस्दीक़ करता है और उन पर निगहबान है। उस ने कभी ये दाअवा नहीं किया कि उस ने उन के अहकाम को मन्सूख़ कर दिया और क़ुर्आन में ऐसे किसी भी दाअवे का कोई ज़िक्र नहीं है, और इस के बरअक्स ही बात समझ आती है क्योंकि इन की तस्दीक़ व गवाही देने के साथ ये यहूद व नसारा को ऐलानिया ये कहते हुए है, “ऐ अहले-किताब जब तक तुम तौरात और इन्जील को और जो और किताबें तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से तुम लोगों पर नाज़िल हुईं उन को क़ायम ना रखोगे किसी भी राह पर नहीं हो सकते।”
अगर नस्ख़ (मन्सुखियत) का तसव्वुर दुरुस्त होता तो हमें जनाब मुहम्मद यहूद व नसारा को तौरात और इन्जील शरीफ़ के अहकाम पर अमल करने का हुक्म देते ना नज़र आते। और ना ही वो मुसलमानों को उन पर ईमान लाने के लिए कहते। क़ुर्आन में कहीं पर भी इस बात का ज़िक्र नहीं मिलता कि इस में तौरात और इन्जील मौजूद हैं ताकि एक मुसलमान ये कह सके कि उसे इन की ज़रूरत नहीं है। दर-हक़ीक़त, क़ुर्आन इस के बरअक्स बयान करता है, जैसा कि सूरह अल-शूअरा 26:193-196 में एक फ़र्द देख सकता है “इस को रूह-उल-अमीन लेकर उतरा है। यानी उस ने तुम्हारे दिल पर उस का इलक़ा किया है ताकि लोगों को ख़बरदार करते रहो। और इलक़ा भी फ़सीह व बलीग़ अरबी में किया है। और यक़ीनन ये पहलों के सहीफ़ों में भी मौजूद है।”
सो, ये आख़िरी इक़्तिबास तस्दीक़ करता है कि तौरात और इन्जील में क़ुर्आन मौजूद है, “ये पहलों के सहीफ़ों में भी मौजूद है।” अब ये किस क़द्र हैरत की बात है कि हमारे मुसलमान दोस्त कोई सबूत दिए बग़ैर ये दावा करते हैं कि ये क़ुर्आन में मौजूद हैं।
अब अगर कोई फ़र्द ये तसव्वुर करता है कि क़ुर्आन तौरात और इन्जील की तस्दीक़ करने में नाकाम हुआ है, तो ऐसा फ़र्द इस ताल्लुक़ से मौजूद ख़ामोशी के होते हुए ये इस्तिदलाल पेश नहीं कर सकता कि उस ने उन्हें मन्सूख़ कर दिया है और अब उन की ज़रूरत नहीं है। क़ुर्आन में तो अल्लाह ने अपने कलाम को उन के इख़्तियार पर क़ायम करने की कोशिश की और ये कहते हुए उसे तौरात और इन्जील के रखा “कह दो कि अगर सच्चे हो तो तुम अल्लाह के पास से कोई और किताब ले आओ जो इन दोनों किताबों से बढ़कर हिदायत करने वाली हो।” (सूरह अल-क़िसस 28:49) और बहुत मर्तबा क़ुर्आन ने अरबों को किताब-ए-मुक़द्दस के पैग़ाम की सच्चाई और इस पैग़ाम की उन के लिए ज़रूरत के बारे में क़ाइल करने की कोशिश ये ज़िक्र करने से की कि तौरात और इन्जील अजनबी ज़बानों में अजनबी क़ौम को दी गईं “और हर एक क़ौम के लिए राहनुमा हुआ करता है।” (सूरह अल-राद 13:8) और चूँकि अरब उन ज़बानों को समझ नहीं सकते थे, क़ुर्आन ये कहता है कि अल्लाह ने तुम्हारी ज़बान में वाज़ेह अरबी में क़ुर्आन नाज़िल किया (जैसे तौरात और इन्जील नाज़िल हुईं) “और इस से पहले मूसा की किताब थी लोगों के लिए राहनुमा और रहमत। और ये किताब अरबी ज़बान में है इस की तस्दीक़ करने वाली ताकि ज़ालिमों को ख़बरदार करे। और नेकोकारों को ख़ुशख़बरी सुनाए।” (सूरह अल-अहक़ाफ़ 46:12)
4. तीसरी बह्स सबने बशमूल अम्बिया ख़ता की
ख़ुदा तआला ने इंसान को ताहिर (पाक) ख़ल्क़ किया, और उसके लिए बाग-ए-अदन में रहने की ख़ुशी भरी जगह मुहय्या की। वहां कोई भी ऐसी शैय नहीं थी जो उस की इबादत में इंतिशार का बाइस बनती। ताहम, वो ममनूआ फल खाने से अपने रब के हुक्म का नाफ़र्मान हुआ। तब वो सब कुछ खो बैठा। आदम अपनी तमाम नस्ल का नुमाइंदा था, और अपनी बग़ावत से उस ने उस अहद को तोड़ दिया जो ख़ुदा तआला ने उस के साथ बाँधा था। नस्ल-ए-आदम ने तब से इस तर्जुमानी पर इस के असरात की वजह से अफ़्सोस किया है। आदम आज़माइश का शिकार हुआ और गुनाह में गिर गया। चूँकि हम इंसान उस की नस्ल से हैं इसलिए हमने ये कमज़ोरी मीरास (विरासत) में पाई है और विरासत के क़ानून के मुताबिक़ वैसे ही रुझानात में पैदा हुए हैं। मगर, हम इस के गुनाह की वजह से सज़ावार नहीं हैं, क्योंकि ख़ुदा तआला की नामंज़ूरी को जानने के बावजूद हम भी नाफ़र्मान हुए हैं। बिल्कुल आदम की तरह हमने भी हक़ीक़ी गुनाहों का इर्तिकाब किया है। ये बयान इस अम्र की तस्दीक़ है, “आदम गुनाह में गिर गया, सो उस की नस्ल भी गुनाह में गिर गई। आदम निस्यान (نسیان) का शिकार हुआ और दरख़्त का फल खा लिया, और उस की नस्ल भी निस्यान का शिकार हुई। आदम ने ख़ता की और उस की नस्ल ने भी की।” ये क़ौल तिर्मिज़ी और चंद दीगर अफ़राद से मन्सूब है, और ये मुनासिब और सही बयान है। ख़ुलासा ये है कि जनाब आदम की अपनी नस्ल की नुमाइंदगी करना मुसलमान उलमा में एक नाक़ाबिल-ए-तर्दीद हक़ीक़त है। शेख़ मुही-उद्दीन इब्ने अल-अरबी ने अपनी किताब के 305 बाब में इस मौज़ू पर एक मक़ाला तहरीर किया है।
अगर आदम ने जिसे ख़ुदा तआला ने ताहिर (पाक) ख़ल्क़ किया, अपने रब के अहकाम की ना-फ़र्मानी की, तो उस की कमज़ोर नस्ल के बारे में कितना ज़्यादा कहा जा सकता है?” तब हम देखते हैं कि सबने गुनाह किया और ख़ुदा तआला के जलाल से महरूम हुए।
तारीख़ और तजुर्बा दोनों हमें सिखाते हैं कि इंसानी दिल शरीर है और हमारे दिल हमें कहते हैं कि “नफ़्स-ए-अम्मारा इंसान को बुराई ही सिखाता रहता है।” (सूरह यूसुफ़ 12:53)
जब कभी ये अपनी शहवतों को पूरा करने की राह देखता है, ये उन की पैरवी करता है जब तक कि ख़ालिक़-ए-कायनात की तरफ़ से कोई सद-ए-राह ना हो। अगरचे हम जानते हैं कि ख़ता और बदी ममनू है, लेकिन हम अपने ज़मीर के ख़िलाफ़ जाते हैं, अपनी बिगड़ी फ़ित्रत के ताबे हो जाते हैं, और फ़ासिद कामों को सरअंजाम देते हैं। क्या आपने नहीं देखा कि शराबी अगरचे जानता है कि शराब पीने की आदत उस की सेहत, अंदाज़-ए-ज़िंदगी और दीन को कितना ज़्यादा नुक़्सान पहुंचाती है मगर इस के बावजूद वो ऐसा करता है? वो दाख़िली अवामिल की वजह से ऐसा करता है, इसी तरह ज़िनाकार, चोर और बद-गोई करने वाला फ़र्द है।
हमारा शख़्सी तजुर्बा हमें सिखाता है कि हमारे अंदर ऐसे रुझानात और जज़्बात हैं जो क़ाबिल-ए-इल्ज़ाम हैं। ये इंसानी फ़ित्रत के बिगाड़ का नतीजा हैं, जो हमारे ज़मीर से जंग करते और हमारे सालेह इरादों की मुख़ालिफ़त करते हैं। यूं हम अपने आपको गुनाह की क़ैद में गिरफ़्तार देखते हैं, और अपने ख़ालिक़ ख़ुदा की मर्ज़ी के बरअक्स अमल करते हैं।
हम सिवाए येसू के, ऐब से पाक किसी भी शख़्स को नहीं जानते। सिवाए येसू के किसी ने भी कभी मुकम्मल तौर पर पाक होने का दाअवा नहीं किया। हम बादअज़ां इस किताब में इस पर बात करेंगे।
सब इंसानों के बिगाड़ की हक़ीक़त के बारे में एक क़ुर्आनी आयत यूं निशानदेही करती है कि “नफ़्स-ए-अम्मारा इंसान को बुराई ही सिखाता है।” (सूरह यूसुफ़ 12:53) अल-राज़ी ने इस ताल्लुक़ से यूं कहा “नफ़्स-ए-अम्मारा इंसान को बुराई ही सिखाता रहता है बा-अल्फ़ाज़-ए-दीगर ये कबिहात की तरफ़ झुकाओ रखता है, बग़ावत का मुश्ताकि रहता है, और ऐसी फ़ित्रत का हामिल है जो लज़्ज़तों की आर्ज़ूमंद है। चूँकि माद्दी दुनिया की जानिब जाज़िबियत ग़ालिब है, और आलम-ए-बाला के लिए रुझान शाज़ व नादिर है, इसलिए बदी की जानिब उभारने पर इस की अदालत होती है। यहां पर ये भी वाज़ेह है कि लफ़्ज़ अल-नफ़्स में अल नूअ़ इंसानी की तरफ़ इशारा करता है। इसलिए, हम कह सकते हैं कि ये हर इंसान को बुराई ही सिखाता रहता है। अरबी का लफ़्ज़ “لَاَمَّارَۃ” एक ताकीदी सूरत है। यूं ये यक़ीनी है कि हर इंसान का नफ़्स उसे बदी करने पर उभारता है और उस में ना-फ़र्मानी करने की शदीद रग़बत पाई जाती है।
सब के ख़ता करने का एक और सबूत इस आयत में मौजूद है “और तुम में से कोई शख़्स नहीं मगर उसे उस पर गुज़रना होगा। ये तुम्हारे परवरदिगार पर लाज़िम है और मुक़र्रर है। फिर हम परहेज़गारों को नजात देंगे। और ज़ालिमों को उस में घुटनों के बल पड़ा हुआ छोड़ देंगे।” (सूरह मर्यम 19:71, 72) अल-राज़ी ने कहा, “और एक फ़र्द का ये कहना रवा नहीं कि “तब हम बच जाऐंगे जब तक कि सब उस (आग) में से ना गुज़रें। इस मौज़ू पर मालूमात इसी सिम्त की तरफ़ इशारा करती हैं। जब जाबिर से इस आयत के बारे में दर्याफ़्त किया गया तो आपने जवाब दिया “मैंने रसूल-अल्लाह को ये कहते सुना है “अल-वरूद” इस में से गुज़रने का मतलब दाख़िल होना है, और हर कोई बग़ैर किसी इस्तिस्ना (छुटकारे के) कि चाहे वो अच्छा है या बुरा इस में दाख़िल होगा जलाल उद्दीन ने लफ़्ज़ “واردھا” (उस पर गुज़रना होगा) की तश्रीह यूं की है कि इस का मतलब दाख़िल होना और जलना है। अल-राज़ी ने आयत “तो जिन लोगों की तौलें भारी होंगी।” (सूरह अल-आराफ़ 7:8) की तश्रीह में इस बात की तस्दीक़ की है, “मगर मोमिनों के गुनाह माफ़ किए जाऐंगे।”
क्या इस से ये बात वाज़ेह नहीं होती कि हर कोई गुनाह करता है, कुछ थोड़ी देर के लिए अज़ाब पाएँगे जबकि कुछ हमेशा के लिए आग में रहेंगे? सब के गुनाह करने का एक और सबूत इस आयत में है, “और जो कोई रहमान की याद से आँखें बंद कर ले यानी तग़ाफ़ुल करे हम उस पर एक शैतान मुक़र्रर कर देते हैं तो वो उस का साथी हो है।” (सूरह अल-ज़ुखरूफ 43:35) चूँकि हमेशा अल्लाह का ज़िक्र करना बशरी ताक़त से बाहर है, इसलिए ये हैरानकुन अम्र नहीं कि शैतान हर इंसान के साथ मुसलसल जंग में है। जब मुहम्मद साहब से पूछा गया कि अफ़्ज़ल जिहाद कौन सा है? तो आपने जवाब दिया, “अपनी ख़्वाहिशों के ख़िलाफ़ जिहाद।” इसे जिहाद-ए-अकबर का नाम भी दिया गया है। ये भी कहा गया है कि “तुम्हारा बदतरीन दुश्मन तुम्हारा नफ़्स है जो तुम्हारे अंदर है।” इस से एक फ़र्द फ़ित्रत के फ़साद और शर को देखता है जो दिल में घात लगा कर बैठा है और बड़े और छोटे तमाम अफ़आल में गुनाह की तरफ़ मीलान नज़र आता है।
अब हक़ीक़त ये है कि इंसान फ़ासिद और ख़ताकार है, और ख़ुदा तआला के फ़ज़्ल और रहमत के बग़ैर कोई भी फ़र्द पाक नहीं ठहरता। मुसलमानों के नज़्दीक इंसान का अपने आपको ख़ुदा तआला के ग़ज़ब से महफ़ूज़ समझना एक बहुत बड़ा गुनाह है। हमारा नाक़ाबिल-ए-तर्दीद सबूतों के साथ अख़ज़ कर्दा नतीजा ये है कि सबने गुनाह किया है। इसलिए उन्हें अपने गुनाहों के कफ़्फ़ारे के लिए मसीह की क़ुर्बानी की ज़रूरत है। बसूरत-ए-दीगर वो इलाही अदल की तसल्ली की ख़ातिर जहन्नम में भेज दिए जाऐंगे। और चूँकि उन में विरासती तौर पर ज़ोफ़ और गुनाह की तरफ़ रुझान है जो उन्हें अपने बाप आदम से मिला है, इसलिए उन्हें रूह-उल-क़ुद्स यानी रूह-ए-ख़ुदा की भी ज़रूरत है कि उन की दिलों की तक़्दीस करे। इस की ज़रूरत इसलिए भी है कि बुरे रुझानात बतद्रीज ख़त्म किए जाएं और बातिल अफ़्क़ार (फिक्रें) और फ़ासिद जज़्बात बदल जाएं, और इसे किताब-ए-मुक़द्दस में नई पैदाईश या दूसरी पैदाईश कहा है।
सबने गुनाह किया
मसीही ईमान रखते हैं कि किताब-ए-मुक़द्दस के मुताबिक़ सबने गुनाह किया है, और तमाम नस्ल-ए-इंसानी इस बिगाड़ का शिकार हुई है। चूँकि अम्बिया बशर हैं, इसलिए वो भी ख़ताकार हैं। वो ये भी ईमान रखते हैं कि ये अम्बिया और रसूल जिन्हें ख़ुदा ने इंसानों को मुतनब्बाह (आगाह किया) करने और अपना पैग़ाम पहुंचाने के लिए चुना, और चाहे वो पैग़ाम लफ़्ज़ी या तहरीरी था इस ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए वो ख़ता से महफ़ूज़ किए गए। यूं ख़ुदा तआला ने उन्हें निस्यान (نسیان) और ग़लती से महफ़ूज़ रखा, उन की कोशिशों में अपने रूह-उल-क़ुद्स से राहनुमाई अता की और इंसानों तक अपना पैग़ाम पहुंचाने में उन्हें तहरीक बख़्शी। ताहम, वो (अम्बिया और रसूल) अपने आमाल और उमूमी रवय्ये में गुनाह से महफ़ूज़ ना थे, जो इंसानी तबीयत में मौरूसी (विरासतन) कमज़ोरी की निशानदेही करता है और इस हक़ीक़त को अयाँ करता है कि सिर्फ ख़ुदा तआला की ज़ात ही गुनाह से मुबर्रा (पाक) और कामिल है जिसे क़ुद्रत और जलाल हासिल है।
मज़ीद बरआँ, गुनाह छोटा हो या बड़ा, ख़ुदा तआला के ग़ज़ब और जहन्नम की आग का मुस्तहिक़ है। अगरचे क़त्ल, चोरी या लान-तान से मुख़्तलिफ़ है, मगर सब जुर्म ख़ुदा तआला की तरफ़ से एक ही सज़ा के मुस्तहिक़ हैं, क्योंकि हर गुनाह ख़ुदा तआला की मुख़ालिफ़त और ना-फ़र्मानी है। इस हक़ीक़त की ताईद तौरात और इन्जील शरीफ़ की बहुत सी आयात से होती है, मसलन “सब गुमराह हैं, सब के सब निकम्मे बन गए। कोई भलाई करने वाला नहीं। एक भी नहीं।” (रोमियों 3:12), “इसलिए कि सबने गुनाह किया और ख़ुदा के जलाल से महरूम हैं” (रोमियों 3:23) हम हदीस में भी इस बात की तस्दीक़ पाते हैं, लिखा है, “जो आदमी किसी का हक़ क़सम खा कर मार लेगा तो अल्लाह तआला उसके लिए जहन्नम वाजिब कर देगा और जन्नत उस पर हराम कर देगा। एक शख़्स ने आपसे कहा अगरचे वो मामूली सी चीज़ हो? अल्लाह के रसूल। आपने फ़रमाया गरचे वो पीलू की एक डाली हो।”
आईए अब हम अम्बिया की ख़ताओं की तरफ़ आएं। अहले-इस्लाम में अम्बिया (नबियों) की बेगुनाही के ताल्लुक़ से इख़्तिलाफ़ पाया जाता है। कुछ ने कहा है कि वो मुकम्मल तौर पर बेगुनाह थे। कुछ और ने कहा है कि उन्हों ने बचपन में तो गुनाह किया मगर जब सन्-ए-बलूग़ (जवानी) में पहुंचने तो लाख़ता (बेगुनाह) थे। इसी तरह कुछ का ये कहना है कि उन की बेगुनाही इलाही पैग़ाम पहुंचाने में उन की ख़िदमत तक महदूद थी और उन्हों ने एतराफ़ किया है कि वो दूसरी बातों में गुनाह का इर्तिकाब कर सकते थे। मर्हूम शेख़ मुहम्मद अब्द इस आख़िरी राय को मानते थे। क़ुर्आन वाज़ेह तौर पर निशानदेही करता है कि ज़्यादातर अम्बिया (नबियों) ने गुनाह का इर्तिकाब किया, जो सिर्फ छोटे नहीं बल्कि बड़े गुनाह भी थे, और आप देख लेंगे कि उन्हों ने ख़ुद उन ख़ताओं का इक़रार किया।
कबीरा गुनाह
मुसलमान उलमा के नज़्दीक ये ख़ताएँ दो तरह की थीं, कबीरा और सगीरा। अल्लाह सगीरा (छोटे) गुनाह तो माफ़ करता है लेकिन कबीरा गुनाह (बड़े) नहीं। उन के नज़्दीक सत्रह (17) गुनाह कबीरा हैं :-
- कुफ्र
- सगीरा (छोटे) गुनाहों का मुसलसल इर्तिकाब करते रहना
- अल्लाह की रहमत से मायूसी
- अपने आपको इलाही ग़ज़ब से महफ़ूज़ समझना
- झूटी गवाही
- किसी मुसलमान की तौहीन करना
- झूटी गवाही देना
- जादू
- शराब पीना
- यतीमों का माल ग़ज़ब करना
- सूदखोरी
- ज़िना
- लवातत
- चोरी
- क़त्ल
- जंग के दौरान काफ़िर के मुक़ाबले में भाग जाना
- वालदैन की ना-फ़र्मानी
उन के एतिक़ाद के मुताबिक़ हर मोमिन जिसने इन में से किसी कबीरा गुनाह का इर्तिकाब किया और फिर तौबा नहीं की वो जहन्नम की आग में सज़ा पाएगा। इन कबीरा गुनाहों के इलावा बाक़ी गुनाह सगीरा (छोटे गुनाह) हैं।
नबियों की ख़ता
सूरह ताहां 20:121 से एक फ़र्द नतीजा निकाल सकता है कि आदम ने ख़ता की “और आदम ने अपने परवरदिगार के हुक्म के ख़िलाफ़ किया तो वो अपने मक़्सद से बेराह हो गए। मुफ़स्सरीन का कहना है कि आदम ने दरख़्त का फल खाने से अपने रब के हुक्म की ना-फ़र्मानी की, “लेकिन इस दरख़्त के पास ना जाना नहीं तो ज़ालिमों में हो जाओगे।” (सूरह अल-बक़रह 2:35) बैज़ावी ने कहा, “जो कुछ उस से मतलूब था वो उस से भटक गया और अबदियत (हमेश्गी) पाने के लिए दरख़्त का फल खाने से ख़ता का मुर्तक़िब ठहरा, या जिसका उसे हुक्म दिया गया था या सीधे रस्ते से दुश्मन से धोका खा गया। अल-राज़ी ने एतराफ़ किया है कि आदम ने ख़ता की, मगर साथ ये भी कहा कि ऐसा उन की नबुव्वत से पहले हुआ। आपने मज़ीद कहा कि आदम की ना-फ़र्मानी और ख़ता सिर्फ़ दरख़्त का फल खाने के ताल्लुक़ से थी। चूँकि आदम ने इस से तौबा कर ली थी, इसलिए ये ख़ता आपके ज़मा ना रही। ताहम, अल-राज़ी ने हमारे लिए इस बात की तस्दीक़ नहीं की कि ये ख़ता नबुव्वत से क़ब्ल थी, बल्कि सिर्फ ये कहा है कि आपको तौबा की बिना पर माफ़ किया गया। हम इस आख़िरी बात में अल-राज़ी से इत्तिफ़ाक़ करते हैं, मगर इस से इस बात की नफ़ी नहीं होती कि आदम ने ना-फ़र्मानी की और राह से भटक गया।
मज़ीद बरआँ, ना-फ़र्मानी तो कबीरा गुनाहों में से है, जिसका इज़्हार हम इस आयत में पाते हैं, “और जो शख़्स अल्लाह और उस के पैग़म्बर की ना-फ़र्मानी करेगा तो ऐसों के लिए जहन्नम की आग है।” (सूरह अल-जिन्न 72:23) और फिर इस क़ौल से कि “उन पर मेहरबानी से तवज्जोह फ़रमाई और सीधी राह बताई।” (सूरह ताहा 20:122), ये ज़ाहिर होता है कि आदम ने गुनाह किया और फिर बादअज़ां तौबा की। तौबा का मतलब अपने गुनाह पर नदामत का इज़्हार करना, उस का इक़रार करना और फिर से उसे ना करने का अज़म (इरादा) ज़ाहिर करना है। और तौबा ना-फ़र्मानी के बिना तो नहीं हो सकती, और आदम ने अपनी ना-फ़र्मानी से तौबा की जिसका इज़्हार इन अल्फ़ाज़ से है, “दोनों अर्ज़ करने लगे कि परवरदिगार हमने अपनी जानों पर ज़ुल्म किया और अगर तू हमें नहीं बख़्शेगा और हम पर रहम नहीं करेगा तो हम तबाह हो जाऐंगे।” (सूरह अल-आराफ़ 7:23)
यहां जनाब आदम की बात हो रही है जो अम्बिया में से अव़्वल तरीन थे, उन्हों ने शैतान की इताअत की, उस की सुनी, अपने ख़ुदावन्द तआला पर शक किया और अबदियत (हमेशगी) का लालच किया। ऐसा कर के उन्हों ने ख़ता की और ये ख़ता कबीरा (बड़े) गुनाहों में शुमार होती है।
जनाब नूह ने भी ख़ता की, जैसा कि एक फ़र्द सूरह नूह 71:24-29 में देख सकता है “और तू उन ज़ालिमों को और ज़्यादा गुमराह कर दे।” इस के बाद नूह ने कहा, “मेरे परवरदिगार इन काफ़िरों में से किसी को ज़मीन पर बसता ना रहने दे।” और जब वाज़ेह हो गया कि उन्हों ने गुनाह किया था तो नूह ने कहा, “ऐ मेरे परवरदिगार मुझे माफ़ फ़र्मा। सो गुनाह कबीरा (बड़े गुनाह) के इर्तिकाब के शऊर के नतीजे में इस्तिग़फ़ार की दुआ की गई। ताहम, मुफ़स्सरीन इस आयत को नरम अंदाज़ में बयान करने की कोशिश करते हैं, लेकिन इस का मतलब सिर्फ वही हो सकता है जो हम बयान कर चुके हैं।
जनाब अब्रहाम ने भी ख़ता की जिसका ज़िक्र हम सूरह अल-अन्आम 6:76-77 में पढ़ते हैं “यानी जब रात ने उन को पर्दा तारीकी से ढाँप लिया तो आस्मान में एक सितारा नज़र पड़ा कहने लगे ये मेरा परवरदिगार है। जब वो ग़ायब हो गया तो कहने लगे कि मुझे ग़ायब हो जानेवाले तो पसंद नहीं। फिर जब चांद देखा कि चमक रहा है तो कहने लगे ये मेरा परवरदिगार है। लेकिन जब वो भी छिप गया तो बोल उठे कि अगर मेरा परवरदिगार मुझे सीधा रस्ता नहीं दिखाएगा तो मैं उन लोगों में हो जाऊँगा जो भटक रहे हैं।” ऐसा तब हुआ जब आपने सूरज देखा। अगर आपने ये एतिक़ाद रखकर ये कहा तो फिर शिर्क के मुर्तक़िब हुए, बसूरत-ए-दीगर आप झूट बोल रहे थे। दोनों ही तरह, ये गुनाह है।
सो, हम सूरह इब्राहिम 14:41 में पढ़ते हैं “ऐ परवरदिगार हिसाब किताब के दिन मेरी और मेरे माँ बाप की और मोमिनों की मग़्फिरत कीजियो।” यहां इब्राहीम ने सरीहन (साफ़-साफ़) अपने लिए, अपने वालदैन और मोमिनों के लिए मग़्फिरत तलब की। और फिर सूरह अल-बक़रह 2:260 में भी हम पढ़ते हैं “और जब इब्राहिम ने अल्लाह से अर्ज़ किया कि ऐ परवरदिगार मुझे दिखा कि तू मुर्दों को क्योंकर ज़िंदा करेगा। अल्लाह ने फ़रमाया क्या तुमने इस बात का यक़ीन नहीं किया। उन्हों ने कहा क्यों नहीं लेकिन मैं देखना इसलिए चाहता हूँ कि मेरा दिल इत्मीनान-ए-कामिल हासिल कर ले।
यहां हम देखते हैं कि इब्राहिम ने ख़ुदा तआला की क़ुद्रत पर शक किया, और ऐसा शक तो गुनाह-ए-कबीरा है। हदीस में हम पढ़ते हैं कि “हम शक के हक़दार बनिस्बत इब्राहिम के ज़्यादा हैं।”
और सूरह अल-अम्बिया 21:63 में हम पढ़ते हैं कि इब्राहिम ने कहा “ये इनके इन बड़े बुत ने किया होगा” बुत जनाब इब्राहिम ने तोड़े थे, और पूछने पर ये कहते हुए झूट कहा कि बड़े बुत ने छोटों को तोड़ दिया होगा। अबू हरीर के मुताबिक़ रसूल-अल्लाह ने फ़रमाया कि इब्राहिम ने तीन मर्तबा झूट बोला था। दो उन में से अल्लाह के ताल्लुक़ से थे। एक तो उनका फ़रमाना कि “मैं बीमार हूँ” और दूसरा ये कहना कि “ये काम तो उनके बड़े (बुत) ने किया है”, और तीसरा ये कि “सारा मेरी बहन है” जब ज़ालिम बादशाह ने सारा को बुलवाया। (बुख़ारी और मुस्लिम में मज़्कूर हदीस)
जनाब मूसा ने भी गुनाह किया जिसका ज़िक्र हम सूरह अल-क़िसस 28:15 17 में पढ़ते हैं, “और वो ऐसे वक़्त शहर में दाख़िल हुए कि वहां के बाशिंदे बेख़बर हो रहे थे तो देखा कि वहां दो शख़्स लड़ रहे थे एक तो मूसा की क़ौम का है और दूसरा उन के दुश्मनों में से तो जो शख़्स उन की क़ौम में से था उस ने दूसरे शख़्स के मुक़ाबले में जो मूसा के दुश्मनों में से था मदद तलब की तो मूसा ने उस को मुक्का मारा और उस का काम तमाम कर दिया, कहने लगे कि ये तो शैतानी काम हुआ बेशक वो इन्सान का दुश्मन है खुला बहकाने वाला है। बोले कि ऐ परवरदिगार मैंने अपने आप पर ज़ुल्म किया, सो तू मुझे बख़्श दे तो अल्लाह ने उन को बख़्श दिया। बेशक वो बख़्शने वाला है मेहरबान है।”
सूरह अल-शूअरा 26:20 में भी लिखा है, “मूसा ने कहा कि हाँ वो हरकत मुझी से नागहां सरज़द हुई थी और मैं ख़ताकारों में था।” और सूरह अल-आराफ़ 7:150-151 में लिखा है कि “और जब मूसा अपनी क़ौम में निहायत ग़ुस्से और अफ़्सोस की हालत में वापिस आए तो कहने लगे कि तुमने मेरे बाद बहुत ही बुरा काम किया क्या तुमने अपने परवरदिगार का हुक्म जल्द चाहा ये कहा और शिद्दत ग़ज़ब से तौरात की तख़्तियाँ डाल दीं और अपने भाई का सर पकड़ कर अपनी तरफ़ खींचने लगे। उन्हों ने कहा कि भाई जान लोग तो मुझे कमज़ोर समझते थे और क़रीब था कि क़त्ल कर दें। तो ऐसा काम ना कीजिए कि दुश्मन मुझ पर हँसें और मुझे ज़ालिम लोगों में शामिल ना समझिए। उन्हों ने दुआ की ऐ परवरदिगार मुझे और मेरे भाई को माफ़ कर दे और हमें अपनी रहमत में दाख़िल कर, तू सबसे बढ़कर रहम करने वाला है।”
इन आयात से ज़ाहिर होता है कि मूसा ने क़त्ल का इर्तिकाब किया और फिर इस बात का एहसास करते हुए कि बड़ी ख़ता सरज़द हो गई अपनी ख़ता का एतराफ़ किया और मग़्फिरत के तालिब हुए। इसी तरह उस वक़्त भी ख़ता की जब ग़ुस्से हो कर पत्थर की लौहें तोड़ डालीं और अपने भाई को बुरा भला कहा। और जब अपनी ख़ता का एहसास हुआ तो अपने और अपने भाई के लिए मग़्फिरत तलब की। जहां तक हारून की ख़ता की बात है तो वो ये थी कि हारून ने बनी-इस्राईल के लिए सोने का बछड़ा बनाया जिसकी उन्हों ने परस्तिश की।
जनाब यूसुफ़ ने भी ख़ता की जिसका ज़िक्र हम सूरह यूसुफ़ 12:24 में पढ़ते हैं, जब फ़िरऔन के लश्कर के सरदार फ़ौतीफ़ार की बीवी ने उन के साथ बदी करना चाही “और उस औरत ने उनका क़सद किया और उन्हों ने उस का क़सद किया, अगर वो अपने परवरदिगार की निशानी ना देखते तो जो होता सो होता। यूं इसलिए किया गया कि हम उन से बुराई और बेहयाई को रोक दें। बेशक वो हमारे चुने हुए बंदों में से थे।”
दाऊद नबी की ख़ता के बारे में हम सूरह साद 38:24, 25 में पढ़ते हैं, “और दाऊद ने ख़याल किया कि इस वाक़्ये से हमने उन को आज़माया है तो उन्हों ने अपने परवरदिगार से मग़्फिरत मांगी और झुक कर सज्दे में गिर पड़े और अल्लाह की तरफ़ रुजू किया। तो हमने उन को बख़्श दिया। और बेशक उन के लिए हमारे हाँ कुर्ब और उम्दा मुक़ाम है।” दाऊद ने क़त्ल और ज़िना का इर्तिकाब करने से ख़ता की जिसका ज़िक्र अह्दे-अतीक़ के सहीफ़ा 2 समुएल ग्यारह (11) और बारह (12) बाब में है। ताहम, जब ये एहसास हुआ कि जुर्म सरज़द हुआ है तो अपने रब से मग़्फिरत तलब की और माफ़ी पाई। ये सब वाज़ेह तौर पर किताब-ए-मुक़द्दस में मर्क़ूम है, जिसका देखना आपको मुफ़स्सरीन के तवील और मुतज़ाद अक़्वाल के पढ़ने से बचा लेगा। मुतअद्दिद अहादीस से ये बात साबित होती है कि दाऊद ख़ता के मुर्तक़िब हुए, और फिर बड़े ग़म के साथ उन की तौबा और मिलने वाली माफ़ी भी अयाँ है, जिसका ज़िक्र अनस बिन मालिक, इब्ने अब्बास, वह्ब बिन मंबा और दीगर ने किया है।
जनाब सुलेमान से भी ख़ता सरज़द हुई जिसका ज़िक्र सूरह साद 38:31-33 में है, “जब उन के सामने शाम को असील घोड़े पेश किए गए। तो कहने लगे कि मैंने अपने परवरदिगार की याद से ग़ाफ़िल हो कर माल की मुहब्बत इख़्तियार की। यहां तक कि आफ़्ताब पर्दे में छिप गया। बोले कि उनको मेरे पास वापिस लाओ। फिर उन की टांगों और गर्दनों पर हाथ फेरने लगे। और हमने सुलेमान की आज़माइश की और उन के तख़्त पर एक धड़ सा डाल दिया फिर उन्हों ने अल्लाह की तरफ़ रुजू किया। और दुआ की कि ए परवरदिगार मुझे माफ़ फ़र्मा और मुझको ऐसी बादशाही अता फ़र्मा कि मेरे बाद किसी को शायां ना हो। बेशक तू सब कुछ अता फ़रमाने वाला है।” अल-कश्शाफ़, अल-राज़ी और कुछ दीगर मुफ़स्सरीन ने इन आयात की तफ़्सीर मुख़्तलिफ़ अंदाज़ से की है, और अपनी राय को साबित करने के लिए मुख़्तलिफ़ वाक़ियात का इक़्तिबास किया है। ताहम, ख़ुलासा ये है कि घोड़ों ने सुलेमान को ज़िक्र-ए-इलाही और दुआ से दूर कर दिया था। उन्हों ने यहां तक कहा है कि सुलेमान ने उन्हें ज़ब्ह कर दिया था।
सूरह साद की आयत 34 और 35 अयाँ करती है कि सुलेमान ने वाक़्यतन ख़ता की। बसूरत-ए-दीगर अगर उन्हें अपनी ख़ता का एहसास ना होता तो फिर मग़्फिरत क्यों तलब करते?
यूनाह (यूनुस) नबी ने भी ख़ता की जिसका ज़िक्र सूरह अल-साफ़्फ़ात 37:139-144 में है, “और यूनुस भी पैग़म्बरों में से थे। जब वो भाग कर भरी हुई कश्ती में पहुंचे। फिर उन्हों ने क़ुरआ डलवाया तो ठहरे फेंके जाने वाले। फिर मछली ने उन को निगल लिया जबकि वो अपने आपको मलामत करने वाले थे। फिर अगर वो अल्लाह की पाकी बयान ना कर रहे होते, तो उस रोज़ तक कि लोग दुबारा ज़िंदा किए जाऐंगे उसी के पेट में रहते।” फ़ेअल “रहते” निशानदेही करता है कि यूनुस ने अपने रब के ख़िलाफ़ गुनाह किया और अजीब बात ये है कि वो “पैग़म्बरों में से थे” और इस के बावजूद ना-फ़र्मानी की। अल्फ़ाज़ “वो अपने आपको मलामत करने वाले थे” से भी ये बात साबित होती है। हमें इस अम्र की मज़ीद तस्दीक़ इन अल्फ़ाज़ में मिलती है कि इस ना-फ़र्मानी के लिए वो व्हेल मछली के पेट में “उस रोज़ तक कि लोग दुबारा ज़िंदा किए जाएं” रहने के मुस्तहिक़ थे, “अगर वो अल्लाह की पाकी बयान ना कर रहे होते” (यानी वो उन में थे जिन्हों ने मग़्फिरत तलब की) वगरना इस मुक़ाम पर अल्लाह की पाकी बयान करने की क्या एहमीय्यत होती?
जनाब मुहम्मद ने भी ख़ता की, जैसा कि सूरह अल-फतह 48:2 से नतीजा निकाला जा सकता है, “ताकि अल्लाह तुम्हारी अगली और पिछली कोताहियों को बख़्श दे और तुम पर अपनी नेअमत पूरी कर दे और तुमको सीधे रस्ते चलाता रहे।” इसी तरह सूरह मुहम्मद 47:19 से भी ये नतीजा निकलता है, “और अपने क़सूर की माफ़ी माँगो और मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों के लिए भी।” और सूरह अल-मोमिन 40:55 में लिखा है, “और अपनी कोताही के लिए माफ़ी माँगो।” इसी तरह सूरह अल-निसा 4:105-106 में लिखा है, “ऐ पैग़म्बर हमने तुम पर सच्ची किताब नाज़िल की है ताकि अल्लाह की हिदायात के मुताबिक़ लोगों के मुक़द्दमात फ़ैसल करो और देखो दग़ाबाज़ों की हिमायत में कभी बह्स ना करना। और अल्लाह से बख़्शिश मांगते रहो। बेशक अल्लाह बख़्शने वाला है बड़ा मेहरबान है।”
पहली आयत ज़ाहिर करती है कि जनाब मुहम्मद ने इस आयत से पहले गुनाह किया और ये कि वो बाद में भी गुनाह करेंगे। अगर अल-राज़ी, अल-कश्शाफ़ और दूसरों की तरह कोई ये कहे कि वो तो अपने लोगों के लिए मग़्फिरत तलब कर रहे हैं तो फिर दूसरी आयत इस बात की नफ़ी करती है और ज़ाहिर करती है कि सबसे पहले आपसे ये मतलूब था कि अपने गुनाहों की माफ़ी मांगें, फिर मोमिन मर्दों और औरतों दोनों के लिए माफ़ी तलब करें।
बाअज़ मुसलमान उलमा ने कहा है कि नेक लोगों के नेक-आमाल अपने क़रीब वालों की बुराईयों को मिटा देते हैं, और अगर मुतक़्क़ी शख़्स छोटे मुआमलात में ख़ुदा की ना-फ़र्मानी करता है तो ख़ुदा उसे कबीरा गुनाहों में शुमार करेगा। अक्सर वो जिसे गुनाह नहीं समझता वो उस के ख़िलाफ़ गुनाह शुमार किया जाता है जब तक कि वो उसके लिए माफ़ी ना मांगे। वो कहते हैं कि यही जनाब मुहम्मद के साथ हुआ। लेकिन वो ये बात भूल जाते हैं कि इस आयत में मुतकल्लिम ख़ुदा तआला है, “और (मुहम्मद) अपने क़सूर की माफ़ी माँगो और मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों के लिए भी।” अब जो गुनाह नहीं, किया ख़ुदा उसे गुनाह तसव्वुर कर रहा है, और चाहता है कि इस बात के लिए मग़्फिरत तलब की जाये?
और सूरह अल-अहज़ाब 33:37 में लिखा है, “और जब तुम उस शख़्स से जिस पर अल्लाह ने एहसान किया था और तुमने भी एहसान किया था ये कहते थे कि अपनी बीवी को अपने पास रहने दे और अल्लाह से डर और तुम अपने दिल में वो बात छिपा रहे थे जिसको अल्लाह ज़ाहिर करने वाला था और तुम लोगों से डरते थे हालाँकि अल्लाह ही इस का ज़्यादा मुस्तहिक़ है कि उस से डरो। फिर जब ज़ैद ने उस से ताल्लुक़ ख़त्म कर लिया यानी उस को तलाक़ दे दी तो हमने उसे तुम्हारी ज़ौजीयत (निकाह) में दे दिया ताकि मोमिनों पर उन के मुँह बोले बेटों की बीवियों के साथ निकाह करने के बारे में जब वो बेटे उन से अपना ताल्लुक़ ख़त्म कर लें यानी तलाक़ दे दें कुछ तंगी ना रहे। और अल्लाह का हुक्म ठहर चुका था।”
वाक़िया ये है कि मुहम्मद साहब ने अपने ग़ुलाम ज़ैद को उस वक़्त जब वो ईमान लाए आज़ाद कर के अपना मुँह बोला बेटा बना लिया, और एक मुअज़्ज़िज़ ख़ातून ज़ैनब से उन की शादी कराई। लेकिन कुछ अर्से बाद आपने उन पर अपने मीलान को इन अल्फ़ाज़ में ज़ाहिर किया, “अल्लाह तआला पाक है जो दिलों और नज़रों को फेरने वाला है।” तब ज़ैनब ने अपने शौहर से इस बात का बयान किया। वो मुहम्मद साहब के इरादे को जान गए। तब ज़ैद ख़ुद से आपके पास आए और कहा “मैं उन को तलाक़ दे दूँगा।” मुहम्मद साहब ने बज़ाहिर उन्हें नज़र-अंदाज किया और पूछा “क्या वजह हुई? क्या उन की किसी बात ने आपको ग़ैर मुत्मइन कर दिया है?” उन्हों ने जवाब दिया “वो अपने हसब व नसब की बरतरी में मुब्तला हैं और मुझसे उनका रवैय्या सख़्त है।” तब आपने ज़ैद से कहा, “अपनी बीवी अपने साथ रखो।” (इस आयत की बाबत अल-कश्शाफ़ की तफ़्सीर में देखिए जिल्द दोम, सफ़ा 213 और जो कुछ बैज़ावी ने कहा है वो भी देखिए)
यहां आप उस बात को छुपाते नज़र आ रहे हैं जिसे अल्लाह ज़ाहिर कर रहा था। आपने लोगों के सामने ये बात ज़ाहिर करने की कोशिश की कि आपने सिवाए अल्लाह के हुक्म की इताअत के ज़ैद की बीवी से शादी किसी और वजह से नहीं की थी। इन आयात से आप देख सकते हैं कि मुहम्मद साहब ने ज़ैनब के लिए अपने मीलान को छिपाने और जो उन के दिल में नहीं था उसे ज़ाहिर करने से ख़ता की। इसलिए आपको इन अल्फ़ाज़ में झड़का गया, “तुम अपने दिल में वो बात छिपा रहे थे जिसको अल्लाह ज़ाहिर करने वाला था।”
अल-राज़ी ने इस आयत की तफ़्सीर में कहा है, “कि तुम ज़ैनब को अपनी ज़ौजीयत (निकाह) में लेना चाहते हो।” लेकिन अल-राज़ी ने ये कह कर इस क़ौल का दिफ़ाअ किया है, “आप अल्लाह से डरे और इंसानों से डरे जिस पर अल्लाह ने आपको झिड़का” और कहा “अल्लाह ही इस का ज़्यादा मुस्तहिक़ है कि उस से डरो।” इसलिऐ मुहम्मद साहब ने इस तरह ख़ता की और उस बात से डरे जिससे आपको डरना नहीं चाहिए था।
हम सूरह इस्रा (बनी-इस्राइल) 17:74 में पढ़ते हैं, “और अगर हम तुमको साबित-क़दम ना रहने देते तो तुम किसी क़द्र उन की तरफ़ माइल होने ही लगे थे।” अल-ज़जाज के बाद अल-राज़ी ने कहा “अगर हम तुमको साबित-क़दम ना रहने देते, मतलब ये है कि सच्चाई में, अपनी हिफ़ाज़त से साबित-क़दम ना रहने देते तो तुम उन की तरफ़ माइल होने ही लगे थे, जो थोड़ी सी माइलियत है। क़तादा ने कहा है कि जब ये आयत नाज़िल हुई तो नबी ने कहा “ऐ अल्लाह तू मुझे मेरे नफ़्स पर (एक भी लम्हा या आँख की एक झपकी लिए) ना छोड़।” क्या ये आयत ज़ाहिर नहीं करती कि मुहम्मद साहब ने ख़ता की, और कम अज़ कम आप गुनाह से आज़ाद ना थे, क्योंकि आपने कहा “तू मुझे मेरे नफ़्स पर (एक भी लम्हा या आँख की एक झपकी लिए) ना छोड़।”
मुस्लिम और बुख़ारी ने अहादीस की अपनी किताबों में मुहम्मद साहब का क़ौल बयान किया है “बग़ैर अल्लाह की रहमत के कोई भी इन्सान जन्नत में नहीं जा सकेगा।” एक शख़्स ने कहा “आप भी नहीं, ऐ अल्लाह के नबी?” आपने जवाब दिया “मैं भी सिवाए अल्लाह की रहमत के नहीं बच सकता।” अबू हुरैरा ने बयान किया है कि “मैंने रसूल को ये कहते सुना “मैं एक दिन में सत्तर (70) मर्तबा अल्लाह से तौबा और इस्तिग़फ़ार करता हूँ।” और कुछ रिवायत में सत्तर (70) से ज़्यादा मर्तबे का ज़िक्र है। इब्ने-ख़ालिद और अबू हुरैरा से रिवायत है, “रसूल ये कहा करते थे “ऐ अल्लाह मैं तेरी पनाह मांगता हूँ क़ब्र के अज़ाब से और दोज़ख़ के अज़ाब से।” (सही बुख़ारी, हिस्सा अव़्वल)
मज़्कूर हवालों से साहिब-ए-नज़र फ़र्द पर ये वाज़ेह है कि हमारे जद्दे-ए-अमजद जनाब आदम गुनाह में गिर गए, और उन के दिल के ख़यालात में बिगाड़ पैदा हो गया, और बदी की तरफ़ रुझान रखने लगे। और फिर हमने जो उन की नस्ल हैं फ़ित्री तौर पर ये बिगाड़ और गुनाह की तरफ़ रुझान विरसे में पाया है, और ये हमारे शख़्सी तजुर्बे से भी साबित है।
हमने देखा है कि अज़ीम अम्बिया ने गुनाह का इर्तिकाब किया, यहां तक कि मुसलमानों के नबी मुहम्मद साहब से भी ख़ता हुई। सो तमाम इन्सानों को इस बात की एहतियाज (ज़रूरत) है कि एक नजातदिहंदा उन्हें इस अज़ाब से मख़लिसी (छुटकारा) बख़्शे जो उन सब के लिए तैयार किया गया है जो ख़ुदा तआला की शरीअत को तोड़ते और गुनाह के मुर्तक़िब होते हैं। उन्हें अपनी जानों के कफ़्फ़ारे व मख़लिसी (छुटकारे) के लिए एक बेऐब नजातदहिंदे की ज़रूरत है जो ख़ुदा तआला के इन्साफ़ व रहम को ज़ाहिर करे। ऐसा सिर्फ येसू मसीह की मसलूबियत, तमाम इन्सानों के लिए बतौर कफ़्फ़ारा आपकी मौत की बदौलत ही मुम्किन है ताकि जो कोई आप पर ईमान लाए ख़ुदा तआला से अपने गुनाहों की माफ़ी पाए और उस के रूह-उल-क़ुद्स से पाक किया जाये। यूं वो हयात-ए-अबदी (हमेशा की ज़िन्दगी) और दाइमी सआदत पाएगा।
मुझे समझ नहीं आती कि क्यों हमारे मुसलमान भाई हर उस किताब के बरअक्स जिसे वो नाज़िल की गई किताब समझते हैं, अम्बिया को बेख़ता ठहराने की कोशिश करते हैं। जबकि किसी भी नबी ने कभी ये दाअवा नहीं किया कि वो बेगुनाह है बल्कि इस बात का एतराफ़ किया है कि वो कमज़ोर और ख़ताकार थे। सच-मुच ख़ुदा तआला ने अपनी किताबें नाज़िल कीं और उन में अपनी बड़ी हिक्मत अता की। वो अपने कामों में बड़ी हिक्मत वाला है और इंसानों की इहितयाजों (ज़रूरतों) को पूरी तरह से जानता है।
5. चौथी बह्स
अ. तआरुफ़
इस्लामी शरीअत और शहरी क़वानीन दोनों ये तज्वीज़ करते हैं कि ख़ता या जुर्म का इर्तिकाब जिसके ख़िलाफ़ किया गया हो उस तनासुब से सज़ा ज़्यादा या कम हो सकती है। मसलन, अगर स्कूल में कोई तालिबे इल्म अपने साथी तालिबे इल्म की बेईज़्ज़ती करे तो उसे कम सज़ा मिलती है, लेकिन अगर वो अपने उस्ताद की बेईज़्ज़ती करता है तो उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा। अगर क़ानूनी मुआमले में कोई अपने मुख़ालिफ़ की तौहीन करे तो उसे जुर्म समझा जाता है, लेकिन अगर वो मुंसिफ़ की तौहीन करे तो उस की सज़ा ज़्यादा होगी। और अगर वो बादशाह की तौहीन का मुर्तक़िब हो तो उस की सज़ा और ज़्यादा होगी। लेकिन अगर वो ख़ुदा तआला के ख़िलाफ़ गुनाह करता है जो अज़मत और पाकीज़गी के एतबार से सबसे बरतर है तो उसे कितनी ज़्यादा सज़ा मिलेगी। बेशक, उसे कभी ना ख़त्म होने वाले अज़ीम अज़ाब की सज़ा मिलेगी।
ख़ुदा रास्त मुंसिफ़ है, सो वो मामूली सी खता को भी नज़र-अंदाज नहीं करता। हम पर ये तस्लीम करना वाजिब है कि ख़ुदा तआला के हुज़ूर सब ख़ताकार हैं, “इसलिए कि सबने गुनाह किया और ख़ुदा के जलाल से महरूम हैं।” (रोमियों 3:23), और अपने गुनाहों की सज़ा के तौर पर अबदी (हमेशा की) सज़ा के मुस्तहिक़ हैं। ऐसे होने पर ख़ुदा तआला की रहमत कहाँ पर है? और अगर अल्लाह ऐसे ख़ता कारों पर रहम करता है, उन के गुनाह माफ़ कर के उन्हें सज़ा नहीं देता तो उस का अदल (इन्साफ) कहाँ पर है? इस वजह से उस ने अपने अदल (इन्साफ) और रहम को पूरा करने के लिए एक वसीले का इंतिज़ाम किया।
ब. हिस्सा अव़्वल : मस्लूबियत में ख़ुदा तआला का मक़्सद ये सुलह-सफ़ाई कैसे मुम्किन हुई?
इस सवाल का जवाब ये है कि आदम ने अपने रब की ना-फ़र्मानी की (जो उस का गुनाह था जिसके नतीजे में उसे बाग-ए-अदन से निकाल दिया गया। (पैदाईश 3 बाब) इस की बाज़गश्त हमें सूरह बक़रह 2:34 में भी सुनाई देती है “फिर शैतान ने दोनों को इस तरफ़ के बारे में फुसला दिया और जिस ऐश व निशात में थे उस से उन को निकलवा दिया।” इसलिए वो अबदी मौत का मुस्तहिक़ है। शहवानी ख़्वाहिशात उस में पैदा हुईं, और गुनाह को सरअंजाम देने का रुझान उस के दिल में जड़ पकड़ गया। उस की नस्ल ने इन रुझानात को विरसे में पाया और वो अपने जद्द-ए-अमजद के नक़्श-ए-क़दम पर चले। ज़मीन बदी (बुराई) से भर गई, और इंसान की तबाही नागुज़ीर हो गई ताकि ख़ुदा तआला के अदल (इन्साफ) की तसल्ली हो सके, और इस की वजह ये थी कि वो इस्लाह की कोई राह ना पा सके और अपनी अस्ल हालत की जानिब ना लौट सके जो पाकीज़गी की राह है और फ़िर्दोस के मौज़ूं है, जहां सिर्फ पाक ही दाख़िल हो सकते हैं। मज़ीद बरआँ, ख़ुदा तआला अपने ही क़वानीन से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) नहीं कर सकता, क्योंकि उस का इंसाफ़ ख़ताकार की मौत का तक़ाज़ा करता है “जो जान गुनाह करती है वही मरेगी। बेटा बाप के गुनाह का बोझ ना उठाएगा और ना बाप बेटे के गुनाह का बोझ। सादिक़ की सदाक़त उसी के लिए होगी और शरीर (बेदीन) की शरारत शरीर के लिए।” (हिज़्क़ीएल 18:20) अगर क़ानूनसाज़ अपने ही क़वानीन का निफ़ाज़ नहीं करता तो फिर इंसाफ़ मुम्किन नहीं।
ख़ुदा तआला अपनी ज़ात में आदिल (इन्साफ करने वाला) और रहीम दोनों है। अदल (इन्साफ) व रहमत उस की लाज़िमी सिफ़ात हैं, और इन का उस की ज़ात से हट कर किसी और में इज्तिमा नज़र नहीं आता। सलीब पर मसीह के फ़िद्ये व मख़लिसी से हट कर कुछ और इन के ख़ुदा की ज़ात में इज्तिमा को वाज़ेह नहीं करता। लुगवी एतबार से अदल (इन्साफ) बेइंसाफी के बरअक्स है और इस का मतलब इंसाफ़ पसंदी, इस्लाह और बदला देना है। और रहमत का लुगवी तौर पर मतलब दिल की नर्मी, मेहरबानी, एहसान और माफ़ी है। कुछ के नज़्दीक इस का मतलब सज़ा के मुस्तहिक़ फ़र्द को उस की सज़ा देने से दस्तबरदार हो जाना है। चूँकि ख़ुदा तआला मेहरबान है, इसलिए वो (अदल (इन्साफ) को नजरअंदाज़ किए बग़ैर) इंसान पर अपनी रहमत नाज़िल करना और उसे अज़ाब की आग से बचाना चाहता था। इसलिए, उस ने अज़ल से मख़लिसी (छुटकारे) के काम को मुक़र्रर किया है। इस का आग़ाज़ पहले उन क़ुर्बानियों से हुआ जिनमें ख़ून बहाया जाता था जो मूसवी शरीअत में बहुत अहम थीं। आदम के बेटों ने तो तहरीरी शरीअत के दिए जाने से पहले क़ुर्बानियां पेश कीं। उन के बाद आने वालों ने भी ऐसा ही किया, जब तक कि ख़ुदा ने अपने नुमाइंदे मूसा को शरीअत ना दी जिसमें हमें इस अम्र की तफ़्सील मिलती है। इस में हम देखते हैं कि किस तरह ख़ुदा तआला ने इन्सानों को गुनाह की बदसूरती और उस के तक्लीफ़-देह नताइज को अयाँ करने के लिए उन्हें फ़र्ज़न्द जान की तालीम दी। उस ने जानवरों को पाक और नापाक में तक़्सीम किया और उन्हें ये उसूल सिखाया कि शरीअत का तक़ाज़ा है कि हर चीज़ को ख़ून से पाक किया जाये, और बग़ैर ख़ून बहाए माफ़ी नहीं होती। (इब्रानियों 9:22) चुनांचे उस ने गुनेहगार की राहनुमाई की कि वो अपने गुनाह के लिए एक पाक जानवर की क़ुर्बानी दे जो बेऐब हो। उसे इस जानवर को ज़ब्ह करने के बाद आग पर रखना था जो इस बात की याददहानी थी कि गुनेहगार मारे जाने का मुस्तहिक़ था। ताहम, वो ऊज़ी क़ुर्बानी के ज़रीये माफ़ी हासिल कर सकता था। ये सब क़ुर्बानियां मसीह की अज़ीम क़ुर्बानी की तरफ़ इशारा करती थीं, क्योंकि ये अपनी ज़ात में कमतर होने की वजह से एक फ़र्द को कभी भी छुड़ा नहीं सकती थीं।
जब वक़्त पूरा हो गया तो ख़ुदा तआला ने अपना कलमा, मसीह भेजा जिसने इंसानी सूरह इख़्तियार की और हमारी तरह इन्सान बन गया। उस ने बहुत सी चीज़ों में हमारे साथ शिर्कत की, लेकिन उस ने कभी गुनाह ना किया और ना ही उस के मुंह से कोई मक्र की बात निकली। (इस किताब की पांचवीं गुफ़्तगु में मसीह की बेगुनाही के बारे में बह्स देखिए) इस कलाम यानी मसीह ने इन्सानी जानों के फ़िद्ये के तौर पर अपने आप को सलीब पर क़ुर्बान होने के लिए पेश कर दिया। इस तरह से इलाही अदल (इन्साफ) की तसल्ली हुई क्योंकि ख़ुदा ने सब जानों के लिए इस क़ुर्बानी को क़ुबूल कर लिया। उस ने ख़ुदा के अदल और उस की रहमत के तक़ाज़े को बाहम पूरा किया, और दाऊद नबी के इस क़ौल को पूरा किया कि “शफ़क़त और रास्ती बाहम मिल गई हैं। सदाक़त और सलामती ने एक दूसरे का बोसा लिया है।” (ज़बूर 85:10) मसीह की सलीबी मौत पर ईमान रखने वाले तमाम अफ़राद इस नजात को हासिल करते हैं, और जो इस पर ईमान लाएँगे वो भी नजात पाएँगे, बशर्ते के वो अहकाम-ए-ख़ुदावंदी के मुताबिक़ ज़िंदगी बसर करें। ग़र्ज़, मसीह एक इन्सान के तौर पर मस्लूब हुआ, ना कि ख़ुदा के तौर पर, जैसे हमारे कुछ मुसलमान भाई समझते हैं, और इस मुआमले में हक़ीक़ी मसीही एतिक़ाद को समझने से पहले बड़े एतराज़ात उठाते हैं।
मेरा नहीं ख़याल कि यहां मुझे दूसरे मज़ाहिब की तरह इस्लाम में क़ुर्बानियों को दिए गए मुक़ाम की तफ़्सील देने की ज़रूरत है जिसमें ये गुनाहों की माफ़ी और ख़ुदा के हुज़ूर क़बूलियत हासिल करने का एक तरीक़ा है। तमाम मुसलमान जानते हैं कि ईद-उल-अज़हा के मौक़े पर जानवरों को ज़ब्ह करना खाने के लिए नहीं होता, बल्कि वो उसे ख़ुदा के करम और बरकात के हुसूल के लिए एक कफ़्फ़ारा समझते हैं। इसी तरह जो मेंढा अबराहाम ने क़ुर्बान किया वो उन के बेटे का ऊज़ी (बदल) था “और हमने एक बड़ी क़ुर्बानी से उनका फ़िद्या दिया।” (सूरह साफ़्फ़ात 37:107) ग़र्ज़, हर क़ुर्बानी को पेश करने वाले का मुतबादिल और माफ़ी हासिल करने का ज़रीया समझा जाता है। यहां तक कि मुहम्मद साहब ने ख़ुद क़ुर्बानियों के ख़ून को गुनाहों के लिए कफ़्फ़ारा और मग़्फिरत हासिल करने का ज़रीया समझा, जैसा कि हम इस हदीस में देख सकते हैं, “ऐ फ़ातिमा तुम खड़ी हो और अपनी क़ुर्बानी (के जानवर) का मुशाहिदा करो क्योंकि इस के ख़ून का पहला क़तरा गिरने से तुम्हारे गुनाह जो तुमने किए हैं माफ़ हो जाऐंगे।” और मुहम्मद साहब से मन्सूब एक और हदीस की बुनियाद पर मुसलमान समझते हैं कि यौमे हिसाब (आखिरत) को वो उन जानवरों पर बैठ कर जन्नत की तरफ़ लेकर जाने वाले पुल सिरात को पार करेंगे जिन्हें उन्हों ने अपनी ज़िंदगी में क़ुर्बान किया होगा। ये क़ुर्बानियां उन रूहों के मुसावी (बराबर) नहीं हैं जिन के लिए उन्हें पेश किया गया था। दर-हक़ीक़त क़ुर्बान किए गए तमाम जानवर किसी एक इन्सान के मुसावी (बराबर) नहीं हैं। वो गुनाह का कफ़्फ़ारा देने के लिए काफ़ी नहीं हैं, बल्कि सिर्फ़ मसीह की अज़ीमतरीन क़ुर्बानी की अलामत हैं जिसकी तरफ़ तौरात शरीफ़ में इशारा दिया गया है और जिसकी तक्मील हम इन्जील मुक़द्दस में सलीब पर देखते हैं। ये वो क़ुर्बानी है जिसे ख़ुदा तमाम नस्ल-ए-इन्सानी की जानों के बराबर समझता है, “क्योंकि ख़ुदा ने दुनिया से ऐसी मुहब्बत रखी कि अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (यूहन्ना 3:16)
ज. हिस्सा दोवम : सिर्फ मसीह इस काम के लायक़ था
जी हाँ, सिर्फ़ मसीह ही इन वजूहात की बिना पर इस कार-ए-अज़ीम को सरअंजाम देने के क़ाबिल था।
- क़ुर्बानी को पाक और बेऐब होना चाहिए था।
- क़ुर्बानी को इस क़द्र क़ीमती होना चाहिए था कि इस की क़द्र छुड़ाई जाने वाली जानों के मुसावी (बराबर) होती।
- उसे इंसान जैसा ही होना चाहिए था।
- उसे ख़ुदा के सामने खड़े होने के क़ाबिल होना चाहिए था ताकि ये ख़ुदा और इंसान के दर्मियान राब्ते का काम कर सकती।
अगर एक फ़र्द इंसानों में इन तमाम खूबियों को ढ़ूंढ़े तो उसे सिवाए मसीह के कोई और इन शराइत को पूरा करता हुआ नहीं मिलेगा। इस की वजह ये है कि सबने यहां तक कि अम्बिया ने भी गुनाह किया है और उन्हें अपने छुड़ाए जाने के लिए किसी की मदद की ज़रूरत है। ख़ुदा को मतलूब ये क़ीमत सिवाए ख़ुदा के कलमा मसीह के सिवा किसी के पास नहीं है।
रूह मेरी मेरे तबीब, तबाह व बदहाल है
बवसीला-ए-सलीब, तेरे हाथ में शिफ़ा है
ऐ सुलह के दर्मियानी, तेरी सलीब पनाह है
बाप के हुज़ूर पेश कर, मेरी ये दुआ है
द. हिस्सा सोवम : क्या मसीह ने ब-रज़ा व रग़बत मस्लूबियत को क़ुबूल किया?
अगर आप किसी मुसलमान से पूछें कि वो इस बात पर क्यों ईमान नहीं रखता कि मसीह को वाक़ई मस्लूब किया गया था, तो वो जवाब देगा चूँकि वो मुम्ताज़ तरीन अम्बिया में से थे इसलिए ये ख़ुदा के नज़्दीक नामुम्किन था कि वो अपने नबी करीम को शरीर यहूदियों के हाथों में दे देता कि वो उसे ख़ौफ़नाक अंदाज़ में सलीब पर मार डालते। ऐसा फ़र्द अपने क़ुर्आन की इस आयत को भूल जाता है जिसके मुताबिक़ ख़ुदा ने ऐसा होने की इजाज़त दी थी, जैसा कि सूरह निसा 4:155 में यहूदियों के “अहद को तोड़ देने और अल्लाह की आयतों से कुफ़्र करने और अम्बिया को नाहक़ मार डालने” का ज़िक्र मौजूद है।
इसी तरह सूरह अल-बक़रह 2:87 में लिखा है “तो जब कोई पैग़म्बर तुम्हारे पास ऐसी बातें लेकर आए जिनको तुम्हारा जी नहीं चाहता था तो तुम सरकश हो जाते रहे और एक गिरोह (अम्बिया) को तो तुम झुटलाते रहे और एक गिरोह को क़त्ल करते रहे। हत्ता कि मुहम्मद साहब ने ख़ुद ये इक़रार किया कि एक यहूदी ख़ातून ने उन्हें धोके से ज़हर दिया था जिससे बादअज़ां उन की वफ़ात हुई (जिसका ज़िक्र हमें तारीख़ अल-मग़ाज़ी, सीरत इब्ने इस्हाक़ और अहादीस में मिलता है) इस के इलावा तौरात शरीफ़, ज़बूर और इन्जील शरीफ़ ने ऐलान किया है कि मसीह की मस्लूबियत रज़ाकाराना थी, जैसा कि ख़ुदा ने इब्तिदा ही से मुक़र्रर किया था। मसीह ने ख़ुद वाज़ेह तौर पर कहा कि उस के आने का मक़्सद मख़लिसी (नजात) के काम को पूरा करना था, यानी अपने आपको सलीब पर क़ुर्बानी के तौर पर पेश करना। जब येसू के शागिर्दों में से एक ने आपसे कहा, “ऐ ख़ुदावन्द ख़ुदा ना करे। ये तुझ पर हरगिज़ नहीं आने का येसू ने उसे झिड़कते हुए कहा “ऐ शैतान मेरे सामने से दूर हो। तू मेरे लिए ठोकर का बाइस है क्योंकि तू ख़ुदा की बातों का नहीं बल्कि आदमियों की बातों का ख़याल रखता है।” (मत्ती 16:23) नीज़ जब आपके शागिर्दों में से एक ने आपको उन यहूदियों से बचाने की कोशिश की जो आपको गिरफ़्तार करने आए थे तो येसू ने कहा, “अपनी तल्वार को मियान में कर ले क्योंकि जो तल्वार खींचते हैं वो सब तल्वार से हलाक किए जाऐंगे। क्या तू नहीं समझता कि मैं अपने बाप से मिन्नत कर सकता हूँ और वो फ़रिश्तों के बारह तुमन (फ़ौज) से ज़्यादा मेरे पास अभी मौजूद कर देगा? मगर वो नविश्ते कि यूंही पूरा होना ज़रूर है क्योंकर पूरे होंगे?”
हमारे कुछ मुसलमान भाई कहते हैं कि कैसे ख़ुदा दूसरों के गुनाहों की सज़ा के लिए मसीह को मस्लूब कर सकता था क्योंकि 2 सलातीन 14:6 में लिखा है, “पर उस ने उन ख़ूनियों के बच्चों को जान से ना मारा क्योंकि मूसा की शरीअत की किताब में जैसा ख़ुदावन्द ने फ़रमाया लिखा है कि बेटों के बदले बाप ना मारे जाएं और ना बाप के बदले बेटे मारे जाएं बल्कि हर शख़्स अपने ही गुनाह के सबब से मरे।” मैं इस का ये जवाब दूँगा कि ख़ुदा ने मसीह को दुनिया के गुनाहों के लिए मौत की सज़ा नहीं दी बल्कि मसीह ने हमसे मुहब्बत की बिना पर हमारी जगह अपने आपको रज़ाकाराना तौर पर पेश कर दिया। ये बे-इंतिहा मुहब्बत का इज़्हार ताज़ीम के लायक़ है।
जब यहूदियों ने मसीह को मस्लूब करने के लिए पकड़ा तो आपने उन से कहा, “क्या तुम तलवारें और लाठीयां लेकर मुझे डाकू की तरह पकड़ने निकले हो? मैं हर रोज़ हैकल में बैठ कर तालीम देता था और तुमने मुझे नहीं पकड़ा। मगर ये सब कुछ इसलिए हुआ है कि नबियों के नविश्ते पूरे हों। इस पर सब शागिर्द उसे छोड़कर भाग गए।” (मत्ती 26:55, 56) येसू मसीह इसलिए मस्लूब नहीं हुए थे कि आपने कोई जुर्म किया था। यहूदी ना तो आपके किरदार और ना ही आमाल में कोई ऐब पा सके, लेकिन आप हमारी क़ुर्बानी के तौर पर मस्लूब हुए, और अदालत में आपने हमारी जगह ले ली। यूं आप हमारे लिए लानती बन गए, इसलिए नहीं कि आप इस के मुस्तहिक़ थे बल्कि इसलिए कि आपने मुजरिम गुनेहगार की जगह जो लानत का मुस्तहिक़ था अपनी जान ब-रज़ा व रग़बत (अपनी राज़ी मर्ज़ी से) क़ुर्बान करने के लिए पेश कर दी। सो आप गुज़श्ता सुतूर में ये देख सकते हैं कि ख़ुदा ने आला तरीन मक़ासिद के लिए अपने अम्बिया के क़त्ल करने की इजाज़त दी, और येसू मसीह ने हमसे अपनी मुहब्बत के सबब अपनी मर्ज़ी से मौत को सहा ताकि आप हमें शरीअत की लानत से आज़ाद करें, इलाही अदल (इन्साफ) का तक़ाज़ा पूरा हो और हमें नजात और अबदी ज़िंदगी इनायत करें। इसलिए येसू मसीह से हट कर ख़ुदा एक गुनेहगार को माफ़ नहीं करता या उस पर रहम नहीं करता।
ये वो वाहिद राह है जिसे ख़ुदा तआला ने ईमानदारों की नजात के लिए मुक़र्रर किया है, जिसमें वो अपने अदल (इन्साफ) व रहमत दोनों को ज़ाहिर करता है। जहां तक इस्लामी शरीअत की बात है, ये इलाही अदल (इन्साफ) और रहमत को हम-आहंग नहीं करती और ना ही क़ुर्आन और अहादीस में हम अदालत, हिसाब और मग़्फिरत के ताल्लुक़ से कोई मोअस्सर तरीक़ा देखते हैं। इस मौज़ू के ताल्लुक़ से हमारे मुसलमान भाई इस क़ुर्आनी आयत का हवाला देते हैं, “तुम अपने दिलों की बात को ज़ाहिर करोगे और छुपाओगे तो अल्लाह तुमसे उस का हिसाब लेगा। फिर वो जिसे चाहे मग़्फिरत करे और जिसे चाहे अज़ाब दे।” (सूरह अल-बक़रह 2:284)
अगर ख़ुदा इस आयत के मुताबिक़ इन्सानों का हिसाब करे तो ये उस के अदल (इन्साफ) और रहमत दोनों के मुताबिक़ नहीं है। ये सच्च है कि वो जैसा चाहे कर सकता है, ताहम वो इस काम को नहीं करेगा जिससे उस की अपनी सिफ़ात और इलाही शरीअत का इन्कार हो। फ़र्ज़ करें कि क़ाज़ी दरगुज़र से काम लेता है और आपके भाई के क़ातिल को उस का जुर्म साबित होने के बाद माफ़ कर देता है। क्या आप उसे इंसाफ़ पसंद समझेंगे? नहीं, बिल्कुल भी नहीं। आप उसे बे-इन्साफ़ तसव्वुर करेंगे क्योंकि उस ने शरीअत की ख़िलाफ़वर्ज़ी की। ये ख़ुदा तआला के ताल्लुक़ से नाक़ाबिल तसव्वुर है क्योंकि ये उस के अहकाम के मुताबिक़ नहीं है। मज़ीद बरआँ, ये अक़्ल-ए-सलीम के भी खिलाफ है।
“और उस रोज़ आमाल का तुलना बरहक़ है। तो जिन लोगों की तौलें भारी होंगी वो तो कामयाब हैं। और जिनकी तौलें हल्की होंगी तो यही लोग हैं जिन्हों ने अपने आपको ख़सारे में डाला।” (सूरह अल-आराफ़ 7:8, 9) ये आयत तरीक़ा हिसाब को बहुत सादा सा बताती है, ये वही तरीक़ा है जिसे क़दीम मिस्री या मजूसी इस्तिमाल करते थे, जो ये है कि ख़ुदा इन्सान के नेक-आमाल तराज़ू के एक पलड़े में और उस के गुनाह दूसरे पलड़े में रखता है। अगर नेक-आमाल वाली तरफ़ भारी है तो वो नजात और ख़ुशहाली पाएगा, लेकिन अगर बुरे आमाल तराज़ू में भारी होंगे तो उस का शुमार ख़सारे वालों में होगा जो जहन्नम में अबदियत (हमेशा) गुज़ारेंगे। ये सच्च नहीं हो सकता क्योंकि जन्नत या फ़िर्दोस, जिसमें इन्सान दाख़िले की ख़्वाहिश रखता है, एक पाक जगह है जहां सिर्फ पाक और रास्तबाज़ ठहराए गए अफ़राद ही दाख़िल हो सकते हैं। ग़र्ज़ जिस किसी ने एक भी गुनाह किया हो वो ख़ताकार है और नापाक हो गया है। और ऐसी हालत में उसके लिए फ़िर्दोस में दाख़िल होना नामुम्किन है। मैं इस बात को वाज़ेह करने के लिए एक मिसाल पेश करूँगा।
फ़र्ज़ कीजिए एक मुसलमान शख़्स सफ़ैद लिबास पहने नमाज़ अदा करने के लिए जा रहा है, और इस दौरान उस के लिबास पर गंदगी का एक दाग़ पड़ जाता है। क्या उसे नापाक नहीं समझा जाएगा? अगर उस की ऐसी हालत हो तो क्या वो वापिस आकर अपने आपको पाक नहीं करेगा कि नमाज़ पढ़ने के क़ाबिल हो सके? पाकीज़गी और नजासत (नापाकी) के ताल्लुक़ से ख़ुदा की तरफ़ इन्सान की यही हालत है। इसलिए एक मोमिन के लिए मुकम्मल पाकीज़गी और तजदीद-ए-क़ल्ब (दिल) के बग़ैर फ़िर्दोस में दाख़िल होना नामुम्किन है। क्योंकि अगर वो अपने गुनाहों से पाक हो जाये और उस की ख़ताएँ माफ़ की जाएं, लेकिन उस के दिल में बदी का जरासीम मौजूद हो तो वो फिर भी शरीर (बेदीन) तसव्वुर होगा जो फ़िर्दोस (जन्नत) के लायक़ नहीं। और फिर अगर मुसलमान ये एतिक़ाद रखता है कि जहन्नम में वो अपने गुनाहों का कफ़्फ़ारा दे सकता है तो लिखा है, “और तुम में कोई शख़्स नहीं मगर उसे इस पर गुज़रना होगा। ये तुम्हारे परवरदिगार पर लाज़िम है मुक़र्रर है। फिर हम परहेज़गारों को नजात देंगे और ज़ालिमों को उस में घुटनों के बल पड़ा हुआ छोड़ देंगे।” (सूरह मर्यम 19:71, 72) यूं अगर एक इन्सान का बिगड़ा दिल और रुझानात तब्दील ना हों तो ना वो फ़िर्दोस (जन्नत) के लायक़ है और ना फ़िर्दोस (जन्नत) उस के लायक़ है। इसी तरह चोर को क़ैद की सज़ा देने या उस का हाथ काटने से और ना ही ज़ानी को कोड़े मारने से अव़्वल-उल-ज़िक्र में चोरी का रुझान और मोअख्खर-उल-ज़िक्र में ज़िना का रुझान ख़त्म हो सकता है। बल्कि हो सकता है कि सज़ा उन को भड़काए और वो और बिगड़ जाएं, जैसा कि सूरह यूसुफ़ 12:53 में लिखा है, “क्योंकि नफ़्स-ए-अम्मारा इंसान को बुराई ही सिखाता रहता है।” मसीही दीन या ये कहना ज़्यादा मुनासिब है कि बाइबल मुक़द्दस (तौरात और इन्जील) ने एक ऐसा तरीक़ा बताया है जिस पर एतराज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि इस का इंतिज़ाम ख़ुदा ने किया है, जिसमें एक मोमिन के लिए पाकीज़गी और माफ़ी का हुसूल मसीह की क़ुर्बानी के ज़रीये मुम्किन हुआ है और वो रूह-उल-क़ुद्स के ज़रीये दिल की तब्दीली हासिल कर सकता है। इस तरह से एक ईमानदार फ़िर्दोस में ख़ुशी से दाख़िल होने के क़ाबिल हो जाता है।
“अल्लाह किसी की ज़रा भर भी हक़-तल्फी नहीं करता और अगर किसी ने नेकी की होगी तो उस को कई गुना कर देगा।” (सूरह अल-निसा 4:40) इस आयत में ख़ुदा की हिमायत को तसव्वुर किया गया है, क्योंकि इस में मज़्कूर है कि वो इन्सान की नेकियों को कई गुना कर देगा, लेकिन आप ख़ुद जानते हैं कि नेकियों का बढ़ा देना अदल (इन्साफ) नहीं है।
“और हमने हर इंसान के आमाल-नामे को बसूरत-ए-किताब उस के गले में लटका दिया है और क़ियामत के रोज़ वो किताब उसे निकाल दिखाएँगे जिसे वो खुला हुआ देखेगा। कहा जाएगा कि अपनी किताब पढ़ ले। तू आज अपना आप ही हिसाब करने वाला है।” (सूरह अल-इस्रा 17:13, 14) ये आयत बताती है कि रोज़ क़ियामत हर इन्सान के लिए एक किताब खुलेगी। वो उसे पड़ेगा और अपना हिसाब करेगा। ताहम, ये वाज़ेह नहीं है कि इस किताब के लिखने का तरीक़ा क्या है, और ना ही ये कि कैसे इन्सान अपना हिसाब करेगा और किस क़ायदे के तहत करेगा।
“कुछ शक नहीं कि नेकियां गुनाहों को दूर कर देती हैं। ये उन के लिए नसीहत है जो नसीहत क़ुबूल करने वाले हैं।” (सूरह हूद 11:114) ये आयत ज़ाहिर करती है कि एक नेक काम बुरे काम को मन्सूख़ कर देता है। अगर नेकियां गुनाहों से ज़्यादा हो जाएं तो एक फ़र्द नजात पाएगा वर्ना तबाही नागुज़ीर है। मुस्लिम उलमा ने कहा है कि कोई भी ये शिकायत नहीं कर सकता कि ख़ुदा ने उसे नेक-आमाल का बदला नहीं दिया क्योंकि शरीर (बेदीन) जिसके बुरे आमाल भारी हैं ज़मीन पर अपने नेक कामों का बदला पाते हैं। ये कहा जाता है कि अगर हिसाब किताब किया जाये और हर इन्सान के आमाल को इन्साफ़ के साथ तौला जाये तो सभी अपनी ग़लतियों के बोझ तले होंगे। और हर मज़्लूम शख़्स अपने ऊपर ज़ुल्म करने वाले से इज़ाला वसूल करेगा। फ़रिश्ते ज़ालिमों की नेकियां लेकर मज़लूमों के अच्छे आमाल में शामिल कर देंगे। अगर किसी की नेकियां उस की बदियों से अनाज के एक दाने के बराबर भी ज़्यादा हो जाएं तो ख़ुदा अपनी रहमत से उन्हें दुगुना कर देगा, ताकि वो जन्नत में जा सके। अगर किसी की नेकियां मन्सूख़ हो जाती हैं और वो गुनाहों में छोड़ दिया जाता है, तो ख़ुदा उस पर उस के गुनाहों के बराबर उन मज़लूमों के गुनाहों का बोझ डालेगा जिनके ख़िलाफ़ उस ने गुनाह किया था। वो उसे उस के अपने और उन के गुनाहों की सज़ा देने के लिए जहन्नम में डाल देगा। ये सब इंसाफ़ नहीं है।
क्या आप ये नहीं देखते कि ये सब चीज़ें ग़र्ज़ मतलूब को हासिल नहीं करतीं, यानी गुनाह की आलूदगी से दिल को पाक नहीं करतीं और ना ही इस में से नापाक ख़्वाहिशात के जरासीम को जड़ से उखाड़ फेंकती हैं कि उसे पाक आस्मान में ख़ुदा की पाक हुज़ूरी के लायक़ बनाएँ?
इस में कोई शक नहीं कि ख़ुदा तआला ने इन्सानों की नजात के लिए तौरात और इन्जील में जो राह फ़राहम और मुक़र्रर की है वो एक मिसाली तरीक़ा है। हमें इस राह की पैरवी करनी है ताकि माफ़ी और दिल की पाकीज़गी हासिल करें और फ़िर्दोस में दाख़िल हों ताकि हमेशा वहां रहें।
ह. हिस्सा चहारुम : क़ुर्आन में मस्लूबियत
इस्लामी एतिक़ाद ये है कि मस्लूबियत वाक़ेअ हुई थी, लेकिन ये जनाब मसीह ना थे बल्कि किसी ऐसे शख़्स को मस्लूब किया गया था जिस पर मसीह होने का शुब्हा हुआ, जैसा कि सूरह अल-निसा 4:157, 158 में लिखा है कि “और उन्हों ने उसे क़त्ल नहीं किया और ना उन्हें सूली चढ़ाया, लेकिन उन लोगों को उन की सी सूरह मालूम हुई। और जो लोग उन के बारे में इख़्तिलाफ़ करते हैं वो उन के हाल से शक में पड़े हुए हैं। और गुमान के सिवा उन को इस का मुतलक़ इल्म नहीं। और उन्हों ने उन्हें यक़ीनन क़त्ल नहीं किया। बल्कि अल्लाह ने उन को अपनी तरफ़ उठा लिया।” ये क़ुर्आनी बयान ग़ैर-वाज़ेह और मुबहम (यानी छिपे हुए) है और इस बिना पर कोई नतीजा नहीं निकाला जा सकता। मेरे नज़्दीक ये ऐसा है कि गोया क़ुर्आन क़तई तौर पर मस्लूबियत की नफ़ी नहीं करता और बयान करता है कि मैंने नहीं देखा।
इस क़ुर्आनी आयत की इस अंदाज़ से तफ़्सीर करना जायज़ है कि “यक़ीनन उन्हों ने उसे क़त्ल नहीं किया” यानी ये कि वो आपकी ज़ात को नुक़्सान ना पहुंचा सके क्योंकि यहूदियों ने सोचा कि येसू को मस्लूब करने से वो आपकी याद को ख़त्म कर देंगे और लोगों के दर्मियान आपके नाम की तज़हीक करेंगे। ये आयत यहूदियों को दिखाती है कि वो ऐसा करने में नाकाम हुए। क्योंकि आपकी मौत आपके नाम को फैलाने और आपके मक़्सद को जलाल देने का ज़रीया बन गई। मज़ीद ये कि, सलीब आपको ख़त्म ना कर सकी क्योंकि जिस्मानी मौत ना मादुमियत है और ना ही तबाही। अगरचे मसीह ने मौत सही, लेकिन ख़ुदा ने आपको ज़िंदा किया और ये मौत ही आपके जी उठने का सबब थी। इस बात की वज़ाहत के लिए मैं आपके सामने एक मिसाल पेश करूँगा। फ़र्ज़ कीजिए मैं आपको लान-तान करता और हिक़ारत की नज़र से देखता हूँ, लेकिन आप नेक मिज़ाज हैं और मुझ से वैसा बर्ताव नहीं करते। क्या आप मुझे ये कहने का हक़ नहीं रखते कि “आपने अपने ओछे-पन से मेरी बेईज़्ज़ती या तौहीन नहीं की है बल्कि मेरी बर्दाश्त के बाइस मुझे लोगों की निगाह में रिफ़अत व अज़मत बख़्शी है।” हक़ीक़त तो ये है कि मस्लूबियत रोमी हाकिम पीलातुस से मन्सूब है जिसने उस का हुक्म दिया था ना कि यहूदियों से।
अब ये अल्फ़ाज़ कि “उन लोगों को….. सूरत मालूम हुई” किस तरफ़ इशारा करते हैं? ये अल्फ़ाज़ मसीह की तरफ़ इशारा नहीं हो सकते क्योंकि आपके साथ तो तश्बीह दी गई है। यूं हम देखते हैं कि ये आयत ग़ैर वाज़ेह है। अगर ख़ुदा ने मसीह को सलीब पर मरने से बचाने का इरादा किया होता तो क्या वो उसे एक वाज़ेह मोअजिज़े से सरअंजाम देता ताकि यहूदियों पर अपने नबी और रसूल को नुक़्सान पहुंचाने की अदम कुदरत को ज़ाहिर करता। ताहम, मसीह के बचाओ के लिए मुसलमान जिस मोअजिज़े को तसव्वुर करते हैं वो मतलूबा फ़ायदा हासिल नहीं कर सका, और ये धोका तो ख़ुदा की पाक ज़ात को रवा नहीं है, और उस ने यहूदियों पर ख़ुदा की क़ुद्रत और उन की अपनी कमज़ोरी को ज़ाहिर नहीं किया। अगर ख़ुदा मस्लूबियत को अपनी क़ुद्दूसियत को कमतर करने के तौर पर देखता, तो फिर क्या ये मुम्किन था कि वो एक ऐसा मोअजिज़ा करता जिससे उस की तौहीन होती? लेकिन ख़ुदा ने इस तहक़ीर से अपने आपको बचाने के लिए मसीह को अपने पास उठा लिया, जैसा कि ज़्यादातर मुसलमान मानते हैं।
हमें क़ुर्आन में ऐसी आयात मिलती हैं जिनमें अगरचे वाज़ेह तौर पर ज़िक्र नहीं मगर इशारा ज़रूर मिलता है कि मसीह ने वाक़ियतन अपनी जान दी। इन से साबिक़ा देखी गई आयत के इबहाम की वज़ाहत होती है, जैसा कि आप सूरह आले-इमरान 3:55 में देख सकते हैं “उस वक़्त अल्लाह ने फ़रमाया, ऐ ईसा बेशक मैं तुझे क़ब्ज़ कर लूँगा और तुझे अपनी तरफ़ उठा लूँगा।” बाअज़ मुफ़स्सरीन के नज़्दीक लफ़्ज़ “मुतवफ्फिक” (متوفيك) (तुझे क़ब्ज़ कर लूँगा) का माअना तुझे नींद दे दूँगा है। अब उठाने से पहले नींद दे देने में बिल्कुल भी कोई हिक्मत नज़र नहीं आती। काश कि कोई अहले इल्म इस पर रोशनी डाल सके जहां पहले के उलमा नाकाम हुए हैं।
सच्च तो ये है कि लफ़्ज़ “मुतवफ्फिक” (متوفيك) (तुझे क़ब्ज़ कर लूँगा) का माअना मौत है, और इब्ने-अब्बास और मुहम्मद बिन इस्हाक़ से यही रिवायत है। लेकिन मौत की मुद्दत पर इख़्तिलाफ़ है। वह्ब का कहना है कि मसीह तीन घंटों तक मरे रहे और फिर उठाए गए। मुहम्मद इब्ने इस्हाक़ ने कहा कि वो सात घंटे तक मरे रहे फिर ख़ुदा ने उन्हें उठा लिया। और रबी बिन अनस का कहना है कि ख़ुदा ने उन्हें उस वक़्त मौत दी जब उस ने उन्हें आस्मान की तरफ़ उठाया। जबकि इमाम बैज़ावी का एतिक़ाद था कि मसीह हक़ीक़त में तीन घंटों तक मरे रहे। लुग़त के मुताबिक़ फ़ेअल “तवफ्फा” (توفاہ) के मआनी हैं, “अल्लाह ने उसे मौत दी, उस की रूह क़ब्ज़ की, उस की रूह ले ली गई और वो मर गया।”
लफ़्ज़ “मुतवफ्फिक” (متوفيك) और इस फ़ेअल से मुश्तक़ अल्फ़ाज़ क़ुर्आन में इन माअने में तेईस मर्तबा आए हैं। सिवाए दो जगहों के बाक़ी तमाम मुक़ामात पर इस का मतलब मुतलक़ मौत है। दो जगहों पर सियाक़ व सबाक नींद के दौरान मजाज़ी मौत की तरफ़ इशारा है, “और वही तो है जो रात को सोने की हालत में तुम्हारी रूह क़ब्ज़ कर लेता है और जो कुछ तुम दिन में करते हो उस से ख़बर रखता है।” (सूरह अल-अन्आम 6:60), “अल्लाह लोगों के मरने के वक़्त उन की रूहें क़ब्ज़ कर लेता है और जो मरे नहीं उन की रूहें सोते में क़ब्ज़ कर लेता है।” (सूरह अल-ज़ुमर 39:42)
कुछ मुफ़स्सरीन का ये कहना है कि अल्फ़ाज़ “मुतवफ्फिक” (متوفيك) व “रफ़अक” (رافعك) में वाओ का इस्तिमाल ज़ौ माअना है जो क़ारी को चकरा देता है। उन के ख़याल में इस के अस्ल माअना ये हैं कि मसीह दुबारा आएगा और मरेगा। ऐ हमारे रब, हमें धोके के शर से महफ़ूज़ रख। अगर वो इन अल्फ़ाज़ को इन के हक़ीक़ी माअनों में लें तो क्या तक्लीफ़ होगी? अगर क़ुर्आन का क़सद उन के इरादे के मुताबिक़ होता, तो यक़ीनन ये बयान एक मुबहम (यानी छिपे हुए) सूरह में ना होता।
जैसा कि आप सूरह मर्यम 19:15 में देखते हैं, “और जिस दिन वो पैदा हुए और जिस दिन वफ़ात पाएँगे और जिस दिन ज़िंदा कर के उठाए जाऐंगे उन पर सलाम है।” (ये युहन्ना की तरफ़ इशारा है) और सूरह मर्यम 19:33 में लिखा है, “और जिस दिन मैं (ईसा) पैदा हुआ और जिस दिन मरूँगा और जिस दिन ज़िंदा कर के उठाया जाऊँगा मुझ पर सलाम है।”
इस बारे में कोई इख़्तिलाफ़ नहीं है कि तमाम मुसलमान ये एतिक़ाद रखते हैं कि पहली आयत यहया (युहन्ना) के पैदा होने और मरने की बात करती है। तो फिर दूसरी आयत में यही बात ईसा मसीह के ताल्लुक़ से क्यों नहीं माअनी जा सकती? क्योंकि इन दोनों आयात में अल्फ़ाज़ और उन की तर्तीब तक़रीबन एक जैसी है। दूसरी आयत के सियाक़ व सबाक में यही माअना मुराद हो सकता है। जैसा कि हम मर्यम 19:31 में देखते हैं, “और जब तक ज़िंदा हूँ मुझ को नमाज़ और ज़कात का इर्शाद फ़रमाया है।” शरई तौर पर ज़कात एक मख़्सूस रक़म है जो एक मुसलमान की जानिब से अल्लाह की राह के लिए ग़ैर हाश्मी मुसलमान को देनी होती है जो उस का ग़ुलाम ना हो। उलमा के नज़्दीक ज़कात का लफ़्ज़ क़ुर्आन में जहां कहीं आया है इस का इशारा रक़म की तरफ़ है सिवाए मर्यम 19:13 के जहां पाकीज़गी मतमा नज़र है “और अपने पास से शफ़क़त और पाकीज़गी दी थी।”
अब अगर मसीह मरे बग़ैर आस्मान पर उठा लिए गए, जैसे कि हमारे ज़्यादातर मुसलमान भाई एतिक़ाद रखते हैं, तो फिर इस हुक्म के मुताबिक़ ज़कात अदा करना मसीह पर वाजिब था। और मैं सोचता हूँ कि क्या आस्मान पर ग़रीब मुसलमान मौजूद हैं जिन्हें उन की ज़कात दी जाएगी? और अगर जनाब मसीह अब भी ज़मीन पर मौजूद हैं तो कहाँ हैं और उन की ज़कात के वसूल कुनुन्दगान कौन हैं?
जब हमें ये इल्म है कि वो इस ज़मीन पर नहीं हैं और वो ज़कात नहीं दे रहे, तो हम यक़ीनन ये जान जाते हैं कि जनाब मसीह मर गए और इसलिए उन की ज़कात अदा करने की ज़िम्मेदारी ख़त्म हो गई।
हम सूरह अल-माइदा 5:117 में पढ़ते हैं, “और जब तक मैं उन में रहा उन के हालात की ख़बर रखता रहा। फिर जब तूने मुझे दुनिया से उठा लिया तो तू उनका निगरां था।” और इस के बारे में अल-राज़ी और अल-जलालैन ने कहा “ये वो आयत है जिसे मसीह ईसा यौमे हश्र (आखिरत में) ख़ुदा के सामने कहेंगे। अगरचे अल-राज़ी ने “तुवफ्फयतनी” (توفيتني) की तफ़्सीर ये की है कि ये सऊद है, लेकिन वो भूल गया है कि उस ने पहले इस की वज़ाहत “मैं उसे नींद दूँगा” के तौर पर की थी जिसका ज़िक्र सूरह आले-इमरान 3:55 में है “ऐ ईसा बेशक मैं तुझे क़ब्ज़ कर लूँगा और तुझे अपनी तरफ़ उठा लूँगा इसलिए अगर हम अल-राज़ी और दीगर मुफ़स्सिरों के साथ इत्तिफ़ाक़ करें कि "अल-तूवफ्फी” (التوفي) से मुराद सिर्फ “रफ़ा” (رفع) है, तो फिर ये अल्फ़ाज़ आख़िर में यौम हिसाब (आखिरत) को अदा किए जाऐंगे जिसका मतलब है कि मसीह कभी नहीं मरेगा। और ये वाज़ेह तौर पर क़ुर्आनी आयात के है, “जो मख़्लूक़ ज़मीन पर है सबको फ़ना होना है। और तुम्हारे परवरदिगार ही की ज़ात जो साहिब-ए-जलाल व करम है बाक़ी रहेगी।” (सूरह अल-रहमान 55:26, 27), “उस की ज़ात-ए-पाक के सिवा हर चीज़ फ़ना होने वाली है।” (सूरह अल-क़िसस 28:88)
ये बहुत से मुसलमान उलमा के एतिक़ाद के भी ख़िलाफ़ है जो मानते हैं कि हक़ीक़त में मसीह की मौत वाक़ेअ हुई है जो उन बहुत से उलमा के बरअक्स है जो समझते हैं कि यौम हश्र (क़यामत) से पहले मसीह को इस दुनिया में मरना है। अब इस से क्या नुक़्सान पहुंचता कि अगर वो मानते कि यहां पर “अल-तूवफ्फी” (التوفي)से मुराद मौत है, और ये क़ुर्आन से पहले कहा गया है जिसकी इस आयत के आग़ाज़ से निशानदेही होती है, जहां अल्फ़ाज़ “उस वक़्त अल्लाह ने फ़रमाया” फ़ेअल माज़ी को ज़ाहिर करते हैं ना कि मुस्तक़बिल को। इस तरह से ये क़ुर्आनी आयत तौरात और इन्जील, और मसीह की मस्लूबियत और मौत के मसीही एतिक़ाद के ऐन है।
ऐ ख़ुदा, मैं तुझ से इल्तिजा करता हूँ कि तू उन लोगों पर हक़ को ज़ाहिर कर जो उस की तलाश करते हैं, और उन लोगों को नूर इनायत कर जिन्हें उस की ज़रूरत है। तू जो सब देने वालों से ज़्यादा फ़राख़ दिल है, सिर्फ तू ही पुकारे जाने के लायक़ है।
व. हिस्सा पंजुम : तारीख़ में मस्लूबियत
सलीब का वाक़िया इंसान की इख़्तिरा (बनावट) नहीं है। बसूरत-ए-दीगर मसीही कभी भी अपने क़ाइद, नबी, नजातदिहंदा और ख़ुदावन्द से इस बड़ी रुसवाई को मन्सूब करने पर राज़ी ना होते। मूसा की शरीअत ये कहती है कि “...... क्योंकि जिसे फांसी मिलती है वो ख़ुदा की तरफ़ से मलऊन है।” (इस्तिस्ना 21:23) जबकि इन्जील मुक़द्दस कहती है, “मसीह जो हमारे लिए लानती बना उस ने हमें मोल लेकर शरीअत की लानत से छुड़ाया क्योंकि लिखा है कि जो कोई लकड़ी पर लटकाया गया वो लानती है।” (ग़लतियों 3:13) ना सिर्फ मसीहियों ने मस्लूबियत की हक़ीक़त का इक़रार किया है बल्कि उन्हों ने बड़े फ़ख़्र के साथ इसे अपनी और उन सबकी भलाई और आस्मानी बरकात के मंबा और तमाम नजात के सरचश्मे के तौर पर समझा है जो मसीह मस्लूब और आपकी यादगार मौत के ज़रीये हासिल किए गए फ़िद्या व मख़लिसी (छुटकारे) पर ईमान रखते हैं। मुझे अपने मुसलमान भाईयों के साथ बातचीत करते हुए ऐसा लगता है कि मसीह की मस्लूबियत का मौज़ू कुछ लिहाज़ से एक तारीख़ी वाक़िया है। इसलिए मैं अब इस पर तारीख़ी एतबार से रोशनी डालूँगा।
क़दीम अम्बिया दाऊद, यसअयाह, दानीएल और दीगर ने मसीह की ज़िंदगी के हर पहलू, खासतौर पर मसीह की मौत और जी उठने के बारे में नबुव्वतें (पेशीनगोई) की हैं। इन नबुव्वतों (पेशीनगोईयों) का आग़ाज़ इस वाक़िये के रौनुमा होने से पंद्रह सौ साल पहले हुआ। बल्कि बाअज़ ने तो क़ुदरती निशानात का हवाला देते हुए सलीब की जगह और वक़्त का ज़िक्र तक किया जैसे सूरज का तारीक हो जाना और ज़लज़ला। कुछ निशानात तारीख़ी थे जैसे क़ुर्बानियों का हतमी ख़ातिमा, क्योंकि ये मसीह की अज़ीम-तर क़ुर्बानी की तरफ़ इशारा था।
जब येसू मसीह आए तो आपने यहूदियों के सामने वाज़ेह ऐलान किया कि आपकी मौत की बाबत जो कुछ उन की शरीअत में लिखा था पूरा होने को है और आप दुनिया के गुनाहों का कफ़्फ़ारा देने के लिए मस्लूब होने को हैं। इस के बाद रसूलों ने इस मस्लूबियत पर फ़ख़्र किया, और एक ने तो ये कहा, “क्योंकि मैंने ये इरादा कर लिया था कि तुम्हारे दर्मियान येसू मसीह बल्कि मसीह मस्लूब के सिवा और कुछ ना जानूंगा।” (1 कुरिन्थियों 2:2) येसू की मस्लूबियत के चंद दिन बाद एक और रसूल ने यहूदियों के एक बड़े हुजूम (भीड़) के सामने खड़े हो कर ये ऐलान किया, “तुमने बेशराअ लोगों के हाथ से उसे मस्लूब करवा कर मार डाला।” (आमाल 2:23) इस के वाअज़ का ये नतीजा निकला कि वहां मौजूद तीन हज़ार अफ़राद मसीह मस्लूब पर ईमान लाए।
मस्लूबियत शागिर्दों और रसूलों की मुनादी का मौज़ू, उन के तमाम वाअज़ों का महवर, और गुनाहों की माफ़ी हासिल करने का वाहिद रास्ता बन गया। मसीह मस्लूब के पैरोकार होते हुए वो कहा करते थे कि “ख़ुदा ना करे कि मैं किसी चीज़ पर फ़ख़्र करूँ सिवा अपने ख़ुदावन्द येसू मसीह की सलीब के।” तब से लेकर अब तक हर सदी की मसीही कलीसिया ने मसीह की मस्लूबियत को इब्तिदाई शागिर्दों की तरह ही लिया है। इस की वजह ये है कि तौरात और इन्जील में कुछ भी इस हक़ीक़त से ज़्यादा वाज़ेह नहीं है।
मशहूर यहूदी मोअर्रिख यूसीफ़ेस ने ये कहते हुए मसीह की मस्लूबियत का ज़िक्र किया, “पीलातुस ने हमारे दर्मियान सरदार काहिनों की दरख़्वास्त को पूरा करने के लिए मसीह को मस्लूब होने की सज़ा सुनाई, और मसीह से शुरू से मुहब्बत रखने वाले अफ़राद ने उसे छोड़ नहीं दिया और अब भी उस के पैरोकार हैं। उन्हें उस के नाम की निस्बत से मसीही कहा जाता है।” हत्ता कि आज भी यहूदी ये एतराफ़ करते हैं कि मसीह मस्लूब हुआ था और क़ुर्आन ख़ुद इस बात की गवाही देता है कि यहूदी ये मानते हैं कि उन्हों ने येसू को क़त्ल किया था, जैसा कि आप सूरह निसा 4:157 में देख सकते हैं, “और ये कहने के सबब कि हमने मर्यम के बेटे ईसा मसीह को जो अल्लाह के पैग़म्बर कहलाते थे क़त्ल कर दिया है।” मशहूर यहूदी आलिम हिलल के शागिर्द रब्बी योहनान बिन ज़का ने इब्रानी ज़बान में एक किताब तहरीर की जिसमें उस ने यहूदियों के फ़ैसले का ज़िक्र किया कि ख़ुदा का बेटा होने का दाअवा करने की वजह से उन्हों ने मसीह को सलीब की सज़ा दी और उसे बादशाह और यहूदी सरदारोँ के हुक्म के मुताबिक़ यरूशलेम से बाहर एक दरख़्त पर लटका दिया।”
तल्मूद में भी येसू मसीह की मस्लूबियत का ज़िक्र मौजूद है, और बुत-परस्त मोअर्रिख टाईसीटस ने मसीह के तक़रीबन चालीस साल बाद लिखी गई अपनी किताब के पंद्रहवें बाब में ज़िक्र किया है कि मसीह को तिबरियास के दौर-ए-हुकूमत के दौरान मुक़ामी हाकिम पैन्तुस पीलातुस के हुक्म से क़त्ल किया गया।
इस मोअर्रिख ने उन लोगों के लिए लिखा जो मसीह के ज़माने में रहते थे और मुम्किना तौर पर कुछ लोग मसीह की मौत के ऐनी शाहिद थे। उसे रोमी दस्तावेज़ात तक रसाई हासिल थी, जहां मुख़्तलिफ़ गवर्नरों की सरकारी तवारीख़ रखी थीं। उन में फ़िलिस्तीन के गवर्नरों की तवारीख़ भी शामिल थीं जहां मसीह को मस्लूब किया गया था। लिहाज़ा इस मुसन्निफ़ की तहरीरों को क़द्र की निगाह से देखा जाता था क्योंकि इन का ताल्लुक़ सरकारी वाक़ियात और अवामी मालूमात से था।
अहम हक़ीक़त ये है कि पीलातुस ने मसीह की मस्लूबियत और मौत के बारे में रोम को एक इत्तिला भेजी जिसे रोम की दस्तावेज़ात में महफ़ूज़ किया गया था जैसा कि उस ज़माने की मुहज़्ज़ब सल्तनतों में रिवाज था। टाईसीटस दीगर अवामी ज़राए के इलावा इस क़ानूनी तहरीर से अपनी मालूमात हासिल करने के क़ाबिल था। इस तहरीर का हवाला फ़ल्सफ़ी फ्लाइयस जस्टेंस ने 139 ई॰ में शहनशाह अंतोनीस पायस के नाम तहरीर में किया है, और इसी तरह आलिम तरतलियान ने 199 ई॰ में कार्थेज से अपनी तहरीर में भी इस का ज़िक्र किया है।
इस तरह से आप देखते हैं कि मसीह की मस्लूबियत का वाक़िया पहले से मुक़र्रर था और ये बुत-परस्त, यहूदी और मसीहियों में एक क़ाबिले ज़िक्र वाक़िया था जिससे ना सिर्फ आम लोग बल्कि अशराफ़िया भी 600 बरस तक बख़ूबी वाक़िफ़ थे, जब तक कि क़ुर्आन ना आया और उस ने मसीह के मस्लूब होने का इन्कार किया, अगरचे ये ग़ैर सरीह है लेकिन मुबहम (उलझे) बयानात और मुख़्तलिफ़ मतून ने मुसलमानों के लिए बेयक़ीनी की सूरत-ए-हाल पैदा की है, जिसकी वजह से कुछ उस का सख़्ती से इन्कार करते हैं और कुछ इस का यक़ीन करते हैं जैसा कि आपने गुज़श्ता हिस्से में है।
अब साहिब-ए-फ़िक्र क़ारी, एक लम्हे के लिए फ़र्ज़ करें कि पचास (50) दयानतदार अश्ख़ास ने वाज़ेह तौर पर गवाही दी कि ज़ैद ने उमर को क़त्ल किया है, और ऐनी शाहिदीन (चश्मदीद गवाह) क़ातिल और मक़्तूल दोनों को बख़ूबी जानते थे। फिर फ़र्ज़ कीजिए कि क़ातिल ने अपने बुरे काम का सब के सामने एतराफ़ किया। तक़रीबन छः सौ (600) साल तक ये आम अक़ीदा ग़ैर-मुतनाज़ा (वाजेह) हक़ीक़त है कि ज़ैद ने उमर को क़त्ल किया। लेकिन फिर इस तवील अर्से के बाद एक मुतनाज़ा (इख्तिलाफी) गवाह अपने आपको क़ाज़ी की अदालत में पेश करता है, जो ज़ाहिर है ऐनी शाहिद (चश्मदीद गवाह) नहीं है। आईए हम फ़र्ज़ करें कि वो एक ग़ैर-जानिबदार गवाह था और उस ने कहा, मैं गवाही देता हूँ कि क़त्ल हुआ था, लेकिन जो क़त्ल हुआ वो उमर नहीं बल्कि बक्र था। आप क्या सोचते हैं कि क़ाज़ी क्या फ़ैसला करेगा? क्या वो इस बात की तस्दीक़ करेगा कि उमर क़त्ल हुआ था, या फिर वो बाद की अलग-थलग गवाही की बिना पर ये फ़ैसला करेगा कि मारे जाने वाला बक्र था? इस में कोई शक नहीं कि आदिल (इन्साफ पसंद) मुंसिफ़ बहुत से गवाहों और क़ातिल के एतराफ़ की बिना पर इस अम्र की तस्दीक़ करेगा कि उमर का क़त्ल हुआ था। इस से हट कर फ़ैसला करने वाला फ़र्द शरई और दीवानी क़वानीन से अपनी लाइल्मी का मुज़ाहरा करता है, और दूसरों के सामने सिर्फ इस बात की तस्दीक़ करता है कि वो इन्साफ़ से आरी है।
मुझे आपको मुतनब्बाह (आगाह) करने की ज़रूरत नहीं है कि ये मिसाल मसीह की मस्लूबियत के मुआमले से मुताल्लिक़ है और इस का हर तरह से इस पर इतलाक़ होता है।
ऐ मुस्लिम भाई, आप जो हक़ के मुतलाशी हैं, इस के बाद आप क्या कहेंगे? मेरा आप के लिए ये मश्वरा है कि आप अपने नज़रियाती रुझान को एक तरफ़ छोड़कर और इंसाफ़ और दियानतदारी से अक़्ल के मुताबिक़ एक आज़ाद आदमी की हैसियत से इस मुआमला का फ़ैसला करें। आप देखेंगे कि मुआमला बड़ा आसान है, और इसके लिए इतनी ज़हमत आज़मा जुस्तजू की ज़रूरत नहीं है। तब आप जान लेंगे कि मसीह (ईसा) दुनिया के फ़िद्या व मख़लिसी (नजात) के लिए मस्लूब हुए। लेकिन फिर आप मरने के बाद क़ब्र में से जी उठे और फ़त्हमंदी के साथ आस्मान पर सऊद कर गए। इस के बाद मौत का आप पर कोई इख़्तियार नहीं होगा।
6. पांचवीं बह्स मसीह की बेगुनाही, उलूहियत और इब्नियत
ख़ुदा तआला ने अपनी किताब-ए-करीम में जो कुछ मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) किया है उस के मुताबिक़ हम मसीही ईमान रखते हैं कि येसू मसीह ख़ता से पाक हैं क्योंकि आप बिगड़ी हुई इंसानी फ़ित्रत के तुख़्म से नहीं हैं, जैसा कि इल्हामी कुतुब ने इस अम्र की तस्दीक़ की है। हमारे पास क़ुर्आन और हदीस में बाइबल मुक़द्दस के इल्हामी होने की बुनियाद है।
हम इन्जील मुक़द्दस में इलाही इल्हाम की रोशनी में मसीह के एक ही वक़्त में ख़ुदा और इंसान दोनों होने का यक़ीन रखते हैं। इस सच्चाई के इज़्हार के तौर पर हम कहते हैं कि ख़ुदा-ए-वाहिद इंसान येसू मसीह में अपनी उलूहियत की मामूरी के साथ ज़ाहिर हुआ, “क्योंकि उलूहियत की सारी मामूरी उसी में मुजस्सम हो कर सकूनत करती है।” (कुलुस्सीयों 2:9), “अगले ज़माने में ख़ुदा ने बाप दादा से हिस्सा ब हिस्सा और तरह ब तरह नबियों की मार्फ़त कलाम कर के इस ज़माने के आख़िर में हमसे बेटे की मार्फ़त कलाम किया जिसे उस ने सब चीज़ों का वारिस ठहराया और जिसके वसीले से उस ने आलम भी पैदा किए। वो उस के जलाल का परतौ और उस की ज़ात का नक़्श हो कर सब चीज़ों को अपनी क़ुद्रत के कलाम से सँभालता है। वो गुनाहों को धो कर आलम-ए-बाला पर किबरिया की दाहिनी तरफ़ जा बैठा।” (इब्रानियों 1:1-3) इसलिए ये कहना दुरुस्त है कि मसीह एक ही वक़्त में ख़ुदा और इंसान है। क्योंकि इंसान ख़ुदा नहीं बल्कि ख़ुदा ही ख़ुदा है और इंसान इंसान है। वो दो ख़ुदा नहीं है जैसा कि मुसलमान मसीह के बारे में तसव्वुर करते हैं। मसीह ने अपनी इलाही क़ुद्रत से मोअजज़ात और माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत काम सरअंजाम दिए जो नबियों से इस एतबार से फ़र्क़ थे कि नबियों ने मोअजिज़े ख़ुदा की क़ुद्रत से किए ना कि अपनी ताक़त से। एक इंसान के तौर पर मसीह ने खाया, पिया और दीगर इंसानों की तरह सोया। बाज़ औक़ात आपने अपने बारे में बतौर ख़ुदा के बात की और बाज़ औक़ात बतौर इंसान। जैसा कि हमने बताया कि ये इस वजह से था कि वो ख़ुदा और इंसान दोनों था। हमारे मुसलमान भाई और कुछ मसीही, इन्जील मुक़द्दस में ऐसे हवालाजात की वजह से जिनमें मसीह को इंसान के तौर पर बयान किया गया है, मसीह की उलूहियत की बाबत शुक़ूक़ व शुब्हात रखते हैं। ताहम, अगर वो निहायत बारीकबीनी के साथ इन बहुत से मतून (इबारत) का जायज़ा लें जो मसीह की उलूहियत की तरफ़ इशारा करते हैं तो शुक़ूक़ व शुब्हात के बादल जो उन की बसारत को धुंदलाते हैं छट जाऐंगे। “येसू ने उस से कहा, तू ने ख़ुद कह दिया बल्कि मैं तुमसे कहता हूँ कि इस के बाद तुम इब्ने-आदम को क़ादिर-ए-मुतलिक की दाहिनी तरफ़ बैठे और आस्मान के बादिलों पर आते देखोगे।” (मत्ती 26:64) “येसू ने उस से कहा, ऐ फ़िलप्पुस मैं इतनी मुद्दत से तुम्हारे साथ हूँ। क्या तू मुझे नहीं जानता? जिसने मुझे देखा उस ने बाप को देखा। तो क्यूँ-कर कहता है कि बाप को हमें दिखा?” (यूहन्ना 14:9)
मज़ीद बरआँ, मसीह बहैसियत इंसान ज़मीन पर कुछ अर्सा रहे, मस्लूब हुए, मर गए और फिर जी उठे, लेकिन ये माद्दा जिस्म था जो मस्लूब हुआ और मरा।
जहां तक मसीह की उलूहियत का ताल्लुक़ है, तो ये तौरात शरीफ़ और इन्जील मुक़द्दस में, नबुव्वतों, मसीह के अल्फ़ाज़ और रसूलों की ताअलीमात से बड़ी वाज़ेह है। ये सूरह आले-इमरान 3:45 से भी वाज़ेह है, “ऐ मर्यम, अल्लाह तुमको अपनी तरफ़ से एक कलमा की बशारत देता है जिसका नाम मसीह ईसा इब्ने मर्यम होगा और जो दुनिया और आख़िरत में आबरू मंद और मुक़र्रबीन में से होगा।” अगर मुफ़स्सरीन दावा करें कि दीगर मतून (इबारत) में “कलमा” के माअना फ़ेअल “हो जा” (कुन) या गुफ़्तगु के हैं तो कोई ऐसी राह नहीं कि वो दावा कर सकें कि इस मिसाल में यही माअना है। अल्फ़ाज़ “एक कलमा…… जिसका नाम मसीह ईसा इब्ने मर्यम होगा” ज़ाहिर करते हैं कि यहां पर कलमा एक शख़्सियत है ना कि बोलने का अमल या हुक्म, जो थोड़ा सा ध्यान देने से वाज़ेह हो जाएगा। इस से तक़रीबन ये मुराद है कि “उस की तरफ़ से एक वजूद।” मुलाहिज़ा कीजिए कि अरबी “इस्म” (اسمہ) (उस का नाम) मुज़क्कर (masculine, पुंल्लिग) है जो कलमा की तरफ़ इशारा करता है जो सूती एतबार से मुअन्नस (feminine, स्त्रीलिंग) है लेकिन माअने के एतबार से मुज़क्कर (masculine, पुंल्लिग) है, बसूरत-ए-दीगर ये जायज़ नहीं होगा।
मुसलमान उलमा ने बयान किया है कि ख़ुदा की तमाम मख़्लूक़ात को ख़ुदा के कलमात कहा जा सकता है क्योंकि वो एक कलमे के ज़रीये से ख़ल्क़ की गई थीं। मैं ये कहूँगा कि ये ग़लत है क्योंकि बसूरत-ए-दीगर कोई एक फ़र्द इल्लत को मालूल कह सकता है, एक किताब को क़लम कह सकता है क्योंकि क़लम वो ज़रीया है जिसने किताब तहरीर की ना कि किताब ने ख़ुद किताब तहरीर की। अगर ख़ुदा ने ईसा मसीह को हिकमह कलमा कुन (حکمیہ کلمہ کُن) कहने से ख़ल्क़ किया जैसा कि वो दाअवा करते हैं, तो वो कलमा नहीं कहला सकता क्योंकि वो कलमा नहीं बल्कि कलमे का असर है। अगर मैं अपने ज़हन से एक किताब लिखता हूँ, तो इस किताब को ज़हन (या मेरा ज़हन) नहीं कहा जाएगा बल्कि ज़हन का मफ़ऊल कहा जाएगा। बसूरत-ए-दीगर हक़ का बातिल के साथ इख्तिलात हो जाएगा, और जोहर को अलामात के साथ मिला दिया जाएगा।
दीगर आयात से जो बात वाज़ेह है वो ये है कि मसीह ख़ुदा की रूह है। इसलिए ख़ुदा का कलाम अबदी ख़ुदा है, और रूह ख़ुदा अबदी व अज़ली ख़ुदा है। ये मुक़द्दस यूहन्ना की मार्फ़त लिखी गई इन्जील की शुरू की आयात के ऐन है, ”इब्तिदा में कलाम था और कलाम ख़ुदा के साथ था और कलाम ख़ुदा था। यही इब्तिदा में ख़ुदा के साथ था। सब चीज़ें उस के वसीले से पैदा हुईं और जो कुछ पैदा हुआ है उस में से कोई चीज़ भी उस के बग़ैर पैदा नहीं हुई। उस में ज़िंदगी थी और वो ज़िंदगी आदमियों का नूर थी। और नूर तारीकी में चमकता है और तारीकी ने उसे क़ुबूल ना किया।” (यूहन्ना 1:1-5)
जहां तक मसीह के ख़ुदा का बेटा होने की बात है तो ये मुम्किन है और कुफ्र नहीं। एक हदीस के मुताबिक़ अल्लाह कहता है कि “फ़ुक़रा मेरा अयाल हैं।” ये नामुम्किन नहीं है जैसा कि सूरह अल-ज़ुमर 39:4 से वाज़ेह है, “अगर अल्लाह किसी को अपना बेटा बनाना चाहता तो अपनी मख़्लूक़ में से जिसको चाहता इंतिख़ाब कर लेता।” किताब-ए-मुक़द्दस के इस ऐलान में कोई अजीब बात नहीं है कि मसीह ख़ुदा का बेटा है, और ऐसा तरीक़ा तनासुल के ज़रीये से नहीं है जैसा कि बाअज़ मुसलमान सोचते हैं क्योंकि “बेटा” एक ऐसा इज़्हार है जो कि पैदा होने वाले नर बच्चे के लिए मख़्सूस नहीं है बल्कि मजाज़ी तौर पर भी इस्तिमाल होता है, मसलन इल्म के बेटे, समुंद्र के बेटे, इब्नुस-सबील (राह का बेटा) वग़ैरह। हम इस इज़्हार का इस्तिमाल इस्तिआरी तौर पर गोद लिए हुए बच्चे के लिए भी करते हैं कि फ़ुलां शख़्स फ़ुलां का बेटा है। ख़ुदा ने ईमानदारों को अपने फ़र्ज़न्द कहा है। ताहम, उस ने येसू को अपना “इकलौता बेटा” कहा है। बा-अल्फ़ाज़-ए-दीगर मोअख्खर-उल-ज़िक्र अव़्वल-उल-ज़िक्र से मुख़्तलिफ़ बेटा है।
हम इस फ़र्ज़न्दियत को मुकम्मल तौर पर नहीं समझ सकते क्योंकि ये इंसानी फ़हम से बालातर है। और जैसे मसीह को उस की उलूहियत की वजह से इंसानों से बालातर बताने के लिए ख़ुदा का बेटा कहा गया है, उसी तरह उस की इंसानियत के इज़्हार के लिए उसे इब्ने-आदम कहा गया है। दानीएल 7:13, 14 की नबुव्वत का यही मक़्सद है जो मसीह के ख़ुदा और इंसान होने की तरफ़ इशारा है।
“इस में कलाम नहीं कि दीनदारी का भेद बड़ा है यानी वो जो जिस्म में ज़ाहिर हुआ और रूह में रास्तबाज़ ठहरा और फ़रिश्तों को दिखाई दिया और ग़ैर-क़ौमों में उस की मुनादी हुई और दुनिया में उस पर ईमान लाए और जलाल में ऊपर उठाया गया।” (1 तीमुथियुस 3:16)
“उस ज़िंदगी के कलाम की बाबत जो इब्तिदा से था और जिसे हमने सुना और अपनी आँखों से देखा बल्कि ग़ौर से देखा और अपने हाथों से छुआ।” (1 यूहन्ना 1:1)
तौरात, ज़बूर और इन्जील शरीफ़ में अम्बिया के गुनाहों का ज़िक्र मौजूद है (और क़ुर्आन इस अम्र की तस्दीक़ करता है) तमाम नस्ल-ए-इंसानी के बिगाड़ का ज़िक्र भी मौजूद है जैसा कि आप देख चुके हैं। ताहम, इन किताबों में से कोई भी येसू मसीह के किसी गुनाह का ज़िक्र नहीं करती। लेकिन इस के बरअक्स ये सब किसी भी इंसान से बढ़कर आपकी पाकीज़गी की गवाही देती हैं और गुनाह के ताल्लुक़ से आपके लाख़ता (गुनाह से पाक) होने का ज़िक्र करती हैं। मसीह इस ताल्लुक़ से इंसानों में बेमिस्ल हैं, और आप आने वाली बह्स में मसीह की फ़ज़ीलत के बारे में देख लेंगे।
किसी भी नबी या रसूल ने चाहे वो कितना ही बड़ा क्यों ना हो अपने लिए मासूमियत (गुनाह से पाक होने) का दावा करने की जसारत (हिम्मत) नहीं की क्योंकि इंसानी मख़्लूक़ में बेगुनाही नामुम्किन है। सिर्फ ख़ुदा तआला ही की ज़ात लाख़ता (गुनाह से पाक) और कामिल है। जहां तक जनाब मसीह की बात है जो अपनी उलूहियत और इंसानियत की बिना पर सब पर फ़ोक़ियत रखते हैं अपनी बड़ी कामिलियत और पाकीज़गी की बिना पर ही ये कह सके कि “तुम में कौन मुझ पर गुनाह साबित करता है? अगर मैं सच्च बोलता हूँ तो मेरा यक़ीन क्यों नहीं करते?” (यूहन्ना 8:46) “इस के बाद मैं तुमसे बहुत सी बातें ना करूँगा क्योंकि दुनिया का सरदार आता है और मुझ में उस का कुछ नहीं।” (यूहन्ना 14:30) किताब-ए-मुक़द्दस में मौजूद मुतअद्दिद शहादतें मसीह की बेगुनाही की तस्दीक़ करती है। यहां तक कि आपके दुश्मनों को भी आपके किरदार में कोई ऐब ना मिल सका।
जब रोमी हाकिम पीलातुस ने यहूदियों के इल्ज़ामात की तहक़ीक़ की तो उस ने ऐलान किया कि उसे मसीह में कोई ऐब नहीं मिला जिसके नतीजे में मौत की सज़ा दी जाये। (यूहन्ना 18:38 और 19:4, 6) पीलातुस की बीवी ने मुक़द्दमे के दौरान अपने शौहर को पैग़ाम भेज कर मश्वरा दिया, “तू इस रास्तबाज़ से कुछ काम ना रख क्योंकि मैंने आज ख्व़ाब में इस के सबब से बहुत दुख उठाया है।” (मत्ती 27:19) इस के बाद पीलातुस ने अपने हाथ धोए और कहा, “मैं इस रास्तबाज़ के ख़ून से बरी हूँ। तुम जानो।” (मत्ती 27:24)
तब यहूदियों ने कहा, “उस का ख़ून हमारी और हमारी औलाद की गर्दन पर। और फिर मसीह को मस्लूब करने के लिए हवाले कर दिया गया। मसीह की तमाम सीरत और चाल-चलन से आपकी मुकम्मल पाकीज़गी, दियानतदारी और बेगुनाही की गवाही मिलती है जो बाक़ी तमाम इंसानों बशमूल नबियों और रसूलों के तर्ज़-ए-अमल से फ़र्क़ है जो उयूब, बेरबतियों, बेइंसाफ़ी और फ़साद-ए-क़ल्ब से भरा हुआ है।
मसीह की ये पाकीज़गी और बेगुनाही इसलिए ज़रूरी थी ताकि वो अपने आपको गुनेहगार इंसानों की रूहों के लिए एक कफ़्फ़ारा और पाक और बेऐब क़ुर्बानी के लिए पेश कर सकते।
7. छठी बह्स : क़ुर्आन में तमाम अम्बिया और बशर पर मसीह की फ़ज़ीलत
अम्बिया और रसूलों को मुख़्तलिफ़ लक़ब दिए गए हैं और उन्हों ने बहुत से काम सरअंजाम दिए हैं, लेकिन मसीह ने उन सब पर सबक़त पाई। आईए अब हम देखें कि इस मौज़ू पर क़ुर्आन के बयानात क्या हैं।
1. आप ख़ुदा का कलमा और उस की रूह थे जैसा कि हम सूरह अल-निसा 4:171 में देखते हैं, “मसीह ईसा इब्ने मर्यम सिर्फ़ अल्लाह का रसूल और उस का कलमा थे जो मर्यम की तरफ़ भेजा था और उस की तरफ़ से रूह थे।” और सूरह आले-इमरान 3:45 में लिखा है कि “ऐ मर्यम, अल्लाह तुमको अपनी तरफ़ से एक कलमे की बशारत देता है जिसका नाम मसीह ईसा इब्ने मर्यम होगा और जो दुनिया और आख़िरत में आबरू मंद और मुक़र्रबीन में से होगा।”
मेरे दोस्त, मुझे बताईए कि नबियों या इंसानों में से किस के बारे में क़ुर्आन ने कहा कि वो ख़ुदा का कलमा या रूह थे?
ख़ुदा ने बाअज़ लोगों को रसूल, बाअज़ को नबी, बाअज़ को मुतनब्बाह (आगाह) करने वाले और बाअज़ को मुनादी करने वाला कहा है। लेकिन ये सब येसू को दिए गए नाम “कलिमत-उल्लाह” या “रूह-उल्लाह” से कम हैं। इस तरह वो बिला-शुब्हा सबसे अज़ीम है, ख़ासकर जब रूह रसूल से बड़ी है क्योंकि ख़ुदा की रूह का मतलब ख़ुद ख़ुदा है जबकि रसूल तो सिर्फ एक इन्सान है।
अल-राज़ी और अल-जलालैन और दीगर मुफ़स्सरीन ने कहा है कि मसीह को ख़ुदा का कलमा इसलिए कहा गया क्योंकि वो बग़ैर बाप के एक कलमे के ज़रीये वजूद में आया था, इसलिए उसे कलमा कहा जाता है। ताहम, हम ये कहेंगे कि अगर ऐसा है तो आदम जो हुक्म के ज़रीये ख़ल्क़ हुआ, क्यों उसे ख़ुदा का कलमा और उस की रूह नहीं कहा गया?
क्या ये नाम एक मुसलमान आलिम से इस अम्र का तक़ाज़ा नहीं करते कि गुज़श्ता दो आयात में मज़्कूर अल्फ़ाज़ “कलमा” और “रूह” की तहक़ीक़ करें जिनमें मसीह की फ़ज़ीलत और उलूहियत का इशारा मिलता है।
2. आपने ख़ल्क़ किया, जैसा कि हम सूरह आले-इमरान 3:49 में पढ़ते हैं, “बेशक मैं तुम्हारे सामने मिट्टी से परिंदे की सूरत बनाता हूँ, फिर उस में फूंक मारता हूँ तो वो अल्लाह के हुक्म से परिंदा हो जाता है।
ख़ुदा तआला ने इस बात की इजाज़त दी है कि उस की मख़्लूक़ की कुछ सिफ़ात उस के साथ मुश्तर्क (शरीक) हों जैसे करम, अदल, रहमत और एहसान वग़ैरह। उस ने अपने अम्बिया को क़ुव्वत इनायत की ताकि माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत मोअजज़ात करें और मुस्तक़बिल में पेश आने वाले वाक़ियात की पेशगोई करें। ये इख़्तियार लोगों को फ़ायदा पहुंचाने और आस्मानी पैग़ाम की सदाक़त का सबूत था। लेकिन ख़ुदा ने कुछ चीज़ें अपने लिए रख छोड़ी हैं जिनमें वो किसी को शरीक नहीं करता।
सबसे पहले, हमा जा (हर जगह हाजिर नाज़िर) होना यानी हर जगह मौजूद होने का वस्फ़ (नाक़ाबिल इदराक हुज़ूरी जिसकी कोई हद नहीं) जिसकी बिना पर वो मुकम्मल तौर पर इख़्तियार रखता है और एक ही वक़्त में हर जीती जान को सुन सकता है। लेकिन मख़्लूक़ एक ही वक़्त में हर जगह मौजूद नहीं हो सकती। नतीजा ये है कि कोई भी शख़्स या बादशाह हर जगह मौजूद नहीं हो सकता, बसूरत-ए-दीगर वो तो ख़ुदा बन जाये।
दोवम, हर शैय पर कुदरत अस्ल कुदरत है ना कि इक्तिसाबी। अम्बिया ने हैरत-अंगेज़ आमाल और ज़बरदस्त मोअजज़ात अंजाम दिए जो इंसान करने से क़ासिर है, लेकिन ये उन की अपनी ताक़त से नहीं बल्कि ख़ुदा की कुदरत से थे। क्योंकि ख़ुदा ही वाहिद वजह और तमाम ताक़त का सरचश्मा है। लेकिन अगर किसी की ज़ात में अस्ल ताक़त मौजूद है तो वो ख़ुदा की तरह हो जाएगा और ये ज़ाहिर है कि बातिल है।
सोवम, ख़ल्क़ करना और रूह को वजूद में लाना। लफ़्ज़ ख़ल्क़ से ज़ाहिर होता है कि किसी चीज़ को नेस्त से बनाना या वजूद बख़्शना, और लुग़त की रु से इस की तारीफ़ ये है कि उस चीज़ को बनाना या वजूद बख़्शना जो पहले मौजूद ना हो।
ख़ुदा तआला ने नबियों और रसूलों को मुर्दे ज़िंदा करने, गूंगों को शिफ़ा देने, बहुत सी बीमारियों को ठीक करने और वाक़ियात के होने से पहले उन की पेशगोई करने की ताक़त दी। लेकिन उस ने सिवाए येसू मसीह के किसी और को ख़ल्क़ करने या रूह बख़्शने की इजाज़त नहीं दी। क्यों? सिर्फ इसलिए कि मसीह अम्बिया और रसूलों से बड़ा है और मुख़्तलिफ़ मुक़ाम पर फ़ाइज़ है। क़ुर्आन में और किस के बारे में कहा गया है कि उस ने अपने रब की इजाज़त से ख़ल्क़ किया? ये किसी और के बारे में नहीं कहा गया, क्योंकि जो कोई भी क़ुर्आन से वाक़िफ़ है इस की तस्दीक़ करेगा।
गुज़श्ता क़ुर्आनी आयत में आप देख सकते हैं कि क़ुर्आन दाअवा करता है कि मसीह बिल्कुल उसी तरह परिंदे ख़ल्क़ करता था जैसे ख़ुदा ने आदम को ख़ल्क़ किया क्योंकि उस ने उसे ज़मीन की मिट्टी से बनाया और उस में ज़िंदगी का दम फूँका और वो जीती जान हुआ।
3. आपकी मोअजज़ाना पैदाईश के बारे में हम सूरह अल-निसा 4:171 में पढ़ते हैं, “मसीह ईसा इब्ने मर्यम सिर्फ़ अल्लाह का रसूल और उस का कलमा थे जो मर्यम की तरफ़ भेजा था और उस की तरफ़ से रूह थे।” इस का मतलब ये है कि मसीह एक बाप के बग़ैर माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत तरीक़े से रूह-उल-क़ुद्स के वसीले से पैदा हुए थे। ये सच्च है कि आदम का कोई बाप नहीं था, लेकिन ऐसा होना ज़रूरी था क्योंकि आदम से पहले कोई इंसान नहीं था। लेकिन जहां तक मसीह की पैदाईश की बात है तो इस की ज़रूरत ना थी बल्कि ये ख़ुदा के मक़्सद से जहानों के लिए एक निशान था। “और उन को और उन के बेटे को अहले-आलम के लिए निशानी बना दिया।” (सूरह अल-अम्बिया 21:91) “ताकि मैं उसे लोगों के लिए एक निशानी और अपनी तरफ़ से रहमत बनाऊँ।” (सूरह मर्यम 19:21)
क्या मसीह की ग़ैर-मामूली पैदाईश एक सादिक़ मुसलमान की तवज्जोह इस हक़ीक़त की जानिब मबज़ूल नहीं करती और उसे इस एतिक़ाद की जानिब नहीं लेकर आती कि इंसानों में मसीह के मुसावी (बराबर) कोई भी नहीं है, और आप आला तरीन दर्जे पर हैं?
4. इस जहान और आने वाले जहान में मसीह की बुजु़र्गी की बाबत हम सूरह आले-इमरान 3:45 में पढ़ते हैं, “जब फ़रिश्तों ने कहा, ऐ मर्यम, अल्लाह तुमको अपनी तरफ़ से एक कलमे की बशारत देता है जिसका नाम मसीह ईसा इब्ने मर्यम होगा और जो दुनिया और आख़िरत में आबरू-मंद और मुक़र्रबीन में से होगा।”
अल-कश्शाफ़ ने कहा है कि इस दुनिया में आबरू-मंद होने का मतलब नबुव्वत और आदमियों पर फ़ोक़ियत (बरतरी) है, जबकि आख़िरत में आबरू-मंद होने का मतलब शफ़ाअत करना और जन्नत-उल-फ़िरदौस में बुलंद दर्जे का होना है। अल-राज़ी और जलाल-उद्दीन सियूती ने भी इसी तरह से इस आयत की वज़ाहत है।
मूसा की बुजु़र्गी की बाबत सूरह अल-अहज़ाब 33:49 में लिखा है, “...... और वो अल्लाह के नज़्दीक आबरू वाले थे।” अल-राज़ी ने इस की तफ़्सीर मार्फ़त के तौर पर की है। उस ने अल्फ़ाज़ “मुक़र्रबीन में” की वज़ाहत करते हुए ये भी कहा “हर आबरू मंद मुक़र्रबीन में नहीं होगा क्योंकि जन्नत में लोगों की मुख़्तलिफ़ मनाज़िल और दर्जात हैं, इसी लिए ख़ुदा ने कहा है, “और तुम तीन क़िस्म के गिरोह हो जाओगे….. सबक़त ले जाने वाले। यही लोग मुक़र्रबीन हैं।” (सूरह अल-वाक़ेअ 56:7, 10, 11)
जिस किसी ने भी क़ुर्आन का मुतालआ किया है वो जानता है कि ईसा मसीह के इलावा किसी को भी दुनिया और आख़िरत में आबरू-मंद नहीं कहा गया, और अम्बिया और रसूलों में से सिवाए मसीह के किसी को भी ये एज़ाज़ हासिल नहीं है। इस की तहक़ीक़ करें और देखें, और फिर मुझे बताएं कि ऐसा क्यों है? इस के सबब की तहक़ीक़ करें, आप हैरान हो जाऐंगे।
5. मसीह के ताल्लुक़ से किसी भी गुनाह का ज़िक्र नहीं है। (पांचवीं बह्स का जायज़ा लें)
6. ख़ुदा ने मसीह को आस्मान की जानिब उठा लिया, जैसा कि हम सूरह आले-इमरान 3:55 में पढ़ते हैं “उस वक़्त अल्लाह ने फ़रमाया, ऐ ईसा बेशक मैं तुझे क़ब्ज़ कर लूँगा और तुझे अपनी तरफ़ उठा लूँगा और तुम्हें काफ़िरों की सोहबत से पाक कर दूँगा।”
हम पहले इस सवाल पर बह्स कर चुके हैं कि लफ़्ज़ “मुतवफ्फिक” (متوفيك) (तुझे क़ब्ज़ कर लूँगा का माअना क्या है, लिहाज़ा इसे दुहराने की ज़रूरत नहीं, लेकिन हम रफ़अ (رفع) के माअने की वज़ाहत करना चाहते हैं। अल-राज़ी ने कहा है कि रफ़अ (رفع) से मुराद ये है कि ख़ुदा के जलाल के दर्जे तक लेकर जाना, और उस ने अल्फ़ाज़ “अपनी तरफ़” का इस्तिमाल ताज़ीम व तकरीम के मक़ासिद के लिए किया है। और “بمطهرك” इस्तिमाल करने से उस का मतलब है कि तुझे काफ़िरों के दर्मियान से दूर कर दूँगा। जैसे उस ने “उठा लूँगा” के अल्फ़ाज़ से उस की बड़ी अज़मत बयान की है, वैसे ही उस ने लफ़्ज़ “ततहीर” (تطہیر) से “ख़लासी” का इज़्हार किया है।
अल-कश्शाफ़ ने “तुझे अपनी तरफ़ उठा लूँगा” की वज़ाहत करते हुए कहा, मैं तुझे अपने आस्मान और अपने फ़रिश्तों की जगह पर ले जाऊँगा। क़ुर्आन में मसीह का रफ़ाअ (मुक़र्रबीन में) आपकी ताज़ीम का इज़्हार है। इन्जील-ए-जलील हमें मसीह की अज़मत की वजह से यूं आगाह करती है, “उस ने अगरचे ख़ुदा की सूरत पर था ख़ुदा के बराबर होने को क़ब्ज़े में रखने की चीज़ ना समझा। बल्कि अपने आपको ख़ाली कर दिया और ख़ादिम की सूरत इख़्तियार की और इन्सानों के मुशाबेह हो गया। और इन्सानी शक्ल में ज़ाहिर हो कर अपने आपको पस्त कर दिया और यहां तक फ़रमांबर्दार रहा कि मौत बल्कि सलीबी मौत गवारा की। इसी वास्ते ख़ुदा ने भी उसे बहुत सरबलंद किया और उसे वो नाम बख़्शा जो सब नामों से आला है। ताकि येसू के नाम पर हर एक गुठना झुके। ख़्वाह आस्मानियों का हो ख़्वाह ज़मीनियों का। ख़्वाह उनका जो ज़मीन के नीचे हैं। और ख़ुदा बाप के जलाल के लिए हर एक ज़बान इक़रार करे कि येसू खुदावंद मसीह है।” (फिलिप्पियों 2:6-11)
क्या ये मौज़ू हमें दावत नहीं देता कि इस वजह पर ग़ौर व फ़िक्र करें? ऐ मुअज़्ज़िज़ क़ारी, (किताब पढ़ने वाले) अगर आप इस वजह के बारे में मुझ से जवाब चाहते हैं तो मैं आपको इन्जील मुक़द्दस की एक ऐसी आयत के साथ जवाब दूँगा जिसने इस सच्चाई को वाज़ेह तौर पर बयान है, “क्योंकि ख़ुदा का कलाम ज़िंदा और मोअस्सर और हर एक दो धारी तल्वार से ज़्यादा तेज़ है और जान और रूह और बंद-बंद और गूदे को जुदा कर के गुज़र जाता है और दिल के ख़यालों और इरादों को जाँचता है।” (इब्रानियों 4:12)
8. सातवीं बह्स तस्लीस-फ़ील-तौहीद
अब मैं क़ारी (पढ़ने वाले) को ख़ुदा तआला की ज़ात में तस्लीस-फ़ील-तौहीद की मसीही तालीम से अच्छी तरह से आगाह करने के लिए मसीही ईमान के इस अहम तरीन अक़ीदे की तफ़्सील पेश करूँगा।
“कोई माबूद नहीं सिवाए ख़ुदा-ए-वाहिद के जो ज़िंदा, सच्चा, अज़ली व अबदी है, जो बग़ैर किसी जिस्म के है, जिसके कोई हिस्से नहीं। जिसकी कुदरत, हिक्मत और भलाई की कोई हद नहीं, जो सब देखी और अन-देखी चीज़ों का ख़ालिक़ है। इस वाहिद ख़ुदा में एक ही जोहर, एक की क़ुद्रत और एक ही अज़ली वजूद के हामिल तीन अक़ानीम हैं, जो बाप, बेटा और रूह-उल-क़ुद्स हैं।
ये अक़ीदा तौरात और इन्जील की वाज़ेह आयात से साबित है। इसलिए ये मसीहियों की ईजाद नहीं है। ताहम, ज़ेल की सुतूर में इस अम्र का जायज़ा लिया जाएगा कि क्या ये क़ाबिल-ए-इदराक (समझ के दायरे में) है या इसे मन्तिक़ी बह्स के ज़रीये समझा जा सकता है।
इसे पूरी तरह से समझा नहीं जा सका क्योंकि ये बनी-आदम की समझ से बाला है। ताहम, ये एक सच्चाई और मुसल्लिमा हक़ीक़त है, बावजूद कि मुस्लिम तहक़ीक़ करने वालों की अक्सरियत इस्लामी अक़ीदे की बुनियाद पर इसे समझने में नाकाम हुई है जिसमें कहा गया है कि “ख़ुदा की ज़ात पर बह्स कुफ़र है।” (हदीस)
मैं यहां पर किसी ऐसी तालीम की वज़ाहत करने की कोशिश नहीं करूँगा जिसकी क़दीम लोग वज़ाहत करने में नाकाम हुए, और जिसे दौर-ए-जदीद के लोग नहीं समझ सकते, क्योंकि ये तो तमाम मख़्लूक़ात के ख़ालिक़ ख़ुदा की फ़ित्रत की तहक़ीक़ है। चूँकि उलमा इस कायनात की अदना चीज़ों के भेद से भी वाक़िफ़ नहीं हैं, तो वो मूजिद)-ए-अव़्वल ख़ालिक़ (अव्वल इजाद करने वाले) की बाबत कैसे जान सकते हैं? इसलिए मैं सबसे पहले ये बताना चाहता हूँ कि अगरचे हमारे ज़हन इसे समझ नहीं पाते लेकिन हमें इस तसव्वुर को ईमान के साथ अपने दिल से क़ुबूल करना है। इस की वजह ये है कि हमें इस का तफ़्सीली ज़िक्र ख़ुदा की इल्हामी किताब यानी तौरात और इन्जील में दिया गया है जो इंसानों की हिदायत के लिए है। दोवम, मैं अपने मुसलमान भाईयों को बताना चाहता हूँ कि वो ख़ुद बहुत से ऐसे बुनियादी अक़ाइद रखते हैं जो मन्तिक़ी नहीं हैं। इन में से सबसे अहम ख़ुदा पर एतिक़ाद है। तो हमें क्यों वो साबित करने को कहते हैं जो वो ख़ुद साबित करने से क़ासिर हैं।
सबसे पहली बात ये कि ख़ुदा पर ईमान रखने वाले तमाम यहूदी, मसीही और मुसलमान ख़ुदा के बारे में कुछ नहीं जानते सिवाए उस के जो ख़ुद ख़ुदा ने अपने बारे में मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) किया है। इस से हट कर कुछ भी हो, अहले-इल्म का तखय्युल (ख़याल) या क़ियास है। ख़ौफ़-ए-ख़ुदा रखने वाले इस पर भरोसा नहीं कर सकते और ना ही इसे मुन्करीन को क़ाइल करने के लिए इस्तिमाल किया जा सकता है।
हमारी अपनी ही समझ अपने ख़ालिक़ का मुकम्मल इदराक करने के क़ाबिल नहीं है। अगर हम ऐसा कर सकते तो फिर वो ख़ुदा ना रहता। सिर्फ ख़ुदा ही ख़ुदा को समझ सकता है। ख़ुदा की हस्ती बाक़ी सबसे मुख़्तलिफ़ है क्योंकि आस्मान और ज़मीन तमाम कायनात में वो हर जगह मौजूद है और उस की लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई शुमार से बाहर है और उस का कोई आग़ाज़ नहीं। अब चूँकि वो लामहदूद है और उस का पूरे तौर पर इदराक (समझ में लाना) नहीं किया जा सकता, इसलिए वो किसी भी तश्बीह व तम्सील से बाला है। जो कुछ हमारा ज़हन तसव्वुर कर सकता है ख़ुदा उस से फ़र्क़ है। इसलिए, हम उन बातों में ना पढ़ें जिन्हें हमारे ज़हन समझने से क़ासिर हैं। आईए, इस के बरअक्स जो कुछ ख़ुदा ने अपने बारे में हम पर ज़ाहिर किया है हम उसे बग़ैर किसी बह्स के क़ुबूल करें। ये तक़्वे के क़रीब-तर है।
अहम मुआमला ये जाँचना है कि क्या किताब-ए-मुक़द्दस (तौरात और इन्जील) ख़ुदा की तरफ़ से है या नहीं? अगर हम इस का हाँ में जवाब देते हैं (और ख़ुदा का शुक्र हो कि ऐसा ही है), तो फिर हमें इस में पढ़ने वाली तमाम बातों पर ईमान रखना है चाहे ये हमारी राय से मुताबिक़त रखती हों या ना रखती हों। क्योंकि हमें ये इजाज़त नहीं है कि हम इस किताब के कुछ हिस्से पर तो ईमान रखें जिसे हम समझते हैं और बाक़ी हिस्सों को समझ के फ़ुकदान की वजह से ना मानें। क़ुर्आन में ऐसे लोगों को मौरिद-ए-इल्ज़ाम ठहराया गया है जैसा कि हम सूरह अल-बक़रह 2:85 में देखते हैं, “ये क्या बात है कि तुम किताब-उल्लाह (अल्लह की किताबों) के बाअज़ अहकाम को तो मानते हो और बाअज़ से इन्कार किए देते हो तो जो तुम में से एसी हरकत करें उन की सज़ा इस के सिवा और क्या हो सकती है कि दुनिया की ज़िंदगी में तो रुस्वाई हो और क़ियामत के दिन सख़्त से सख़्त अज़ाब में डाल दिए जाएं।
हमारे मुसलमान भाई अक्सर ये कहते हुए तौरात और इन्जील की मज़म्मत करते हैं कि इस में ख़ुदा के ताल्लुक़ से उस के बात करने, सुनने, अपनी उंगली से लिखने, ग़मगीं होने, अफ़्सोस करने और दीगर इंसानी इज़्हारात का ज़िक्र मिलता है।
उन के दिलों में से किसी क़िस्म के शुब्हात को दूर करने के लिए हम उन्हें याद दिलाते हैं कि क़ुर्आन भी इसी तरह के बयानात इस्तिमाल करता है, और उन में से कुछ ये हैं :-
“और क्या तुम्हें मूसा के हाल की ख़बर मिली है। जब उन्हों ने आग देखी तो अपने घर वालों से कहा कि तुम यहां ठहरो। मैंने आग देखी है, मैं वहां जाता हूँ शायद उस में से मैं तुम्हारे पास अँगारा लाऊँ या आग के मुक़ाम से अपना रस्ता मालूम कर सकूँ। फिर जब वहां पहुंचे तो आवाज़ आई कि ऐ मूसा। मैं तो तुम्हारा हूँ।” (सूरह ताहा 20:9-12)
“अल्लाह आसमानों और ज़मीन का नूर है। उस के नूर की मिसाल ऐसी है कि गोया एक ताक़ है जिसमें एक चिराग़ है और चिराग़ एक क़ंदील में है और क़ंदील ऐसी साफ़-शफ़्फ़ाफ़ है कि गोया मोती का सा चमकता हुआ तारा है।” (सूरह अल-नूर 24:35)
“अल्लाह का हाथ उन के हाथों पर है।” (सूरह अल-फतह 48:10)
“और (अब्रहाम) बोले कि मैं अपने परवरदिगार की तरफ़ जाने वाला हूँ, वो मुझे रस्ता दिखाएगा।” (सूरह अल-साफ़्फ़ात 37:99)
“और जो शख़्स अल्लाह और उस के रसूल की तरफ़ हिज्रत कर के घर से निकल जाये।” (सूरह अल-निसा 4:100)
“बल्कि अल्लाह ने उन को अपनी तरफ़ उठा लिया।” (सूरह अल-निसा 4:158)
“और सब कामों का रुजू अल्लाह ही की तरफ़ है।” (सूरह अल-बक़रह 2:210)
“फिर अर्श पर जल्वा-अफ़रोज़ हुआ।” (सूरह अल-आराफ़ 7:54)
“फिर आसमानों की तरफ़ मुतवज्जोह हुआ।” (सूरह अल-बक़रह 2:29)
“वही जिसने आसमानों और ज़मीन को और जो कुछ इन दोनों के दर्मियान है छः (6) दिन में पैदा किया, फिर अर्श पर जल्वा-अफ़रोज़ हुआ।” (सूरह अल-फ़ुरकान 25:59)
“बेशक मैं तुझे क़ब्ज़ कर लूँगा और तुझे अपनी तरफ़ उठा लूँगा।” (सूरह आले-इमरान 3:55)
“और तुम्हारे परवरदिगार ही का चेहरा जो साहिब-ए-जलाल व करम है बाक़ी रहेगा।” (सूरह अल-रहमान 55:27)
“उस के चेहरे के सिवा हर चीज़ फ़ना होने वाली है।” (सूरह अल-क़िसस 28:88)
“तो आज के दिन हम उन्हें भुला देंगे।” (सूरह अल-आराफ़ 7:51)
अगर आप मज़्कूर बाला आयात को जैसी हैं वैसे ही क़ुबूल करते हैं तो आपको तस्लीम करना पड़ेगा कि ख़ुदा की नुमाइंदगी आग से हुई या फिर वो उस में मौजूद था। लेकिन अगर आप कहते हैं कि वो आग नहीं था और ना ही वो उस में था बल्कि उस का मक़्सद मूसा की किसी जानिब राहनुमाई करना था, तो मैं जवाब दूँगा कि आयत का आख़िरी हिस्सा “तू अपने जूते उतार डाल, बेशक तू पाक वादी तुवा।” में है आपकी सोच से मुतसादिम (अलग) है और मुझे सही साबित करता है। अगर आप ये तस्लीम करते हैं कि ख़ुदा नूर है और ये नूर एक ताक़ की तरह है जिसमें एक चिराग़ है, तब आप ये मानने के पाबंद होंगे कि ख़ुदा का एक मुक़ाम और एक चेहरा है, और कोई मुसलमान इसे क़ुबूल नहीं करेगा।
दोवम, मेरे मुसलमान भाई आप कहते हैं कि आप अक़ीदा तस्लीस (यानी वाहिद ख़ुदा जिसमें तीन अक़ानिम हैं) को नहीं मानते, क्योंकि आप इसे समझने के क़ाबिल नहीं हैं और कोई भी इसे आपके सामने साबित नहीं कर सकता। जो बात आप भूल गए हैं वो ये है कि बतौर एक मुसलमान आप बहुत सी ऐसी बातों पर ईमान रखते हैं जो यहूदियों और मसीहियों के साथ मुश्तर्क (एक जैसी, बराबर) हैं। ताहम, अगर इल्हाम के मुन्करीन आपसे इन अक़ाइद में से किसी एक को साबित करने के लिए कहें तो आप और क़ाबिल तरीन उलमा ऐसा नहीं कर सकते और ना ही सबूत के साथ कोई जवाब पेश कर हैं।
ख़ुदा पर ईमान रखने वाला हर मोमिन ये मानता है कि उस ने आसमानों को और जो कुछ उन में है तमाम सूरज, चांद, सय्यारों और सितारों सबको ख़ल्क़ किया है। उस ने ज़मीन को और उस की तमाम नबाताती और हैवानाती ज़िंदगी को छः (6) दिनों में बनाया और अपने मुंह के कलाम से ज़िंदा अक़्ली इंसान बनाया। अब हर मोमिन ये मानता है कि अम्बिया-ए-किराम और सालेह (नेक) रसूलों ने मुर्दों को ज़िंदा करने, गूंगों और मफ़लूजों को शिफ़ा देने जैसे मोअजिज़े किए। हर मोमिन क़ियामत पर ईमान रखता है, यानी ये कि आदम से लेकर ज़मीन के आख़िरी इंसान तक हर फ़र्द को ज़िंदा किया जाएगा, जिसमें फ़ित्री मौत के शिकार अफ़राद भी शामिल हैं और वो भी जिन्हें मछलियों ने खा लिया। इसी तरह जिन्हें जानवरों ने खा लिया उन की रूहें भी उन के जिस्मों में लौट आयेंगी जो गल-सड़ कर ज़मीन, पौदों, जानवरों और माद्दे का हिस्सा बन गए हैं, और ये सब हिसाब किताब और अदालत के मक़्सद के तहत होगा।
फ़र्ज़ कीजिए एक ग़ैर-ईमानदार शख़्स इन हक़ाइक़ की बाबत आपसे मुत्तफ़िक़ नहीं बल्कि इन का इन्कार करता है। तो क्या आप अपने अक़ाइद का इल्हामी कुतुब के बग़ैर मन्तिक़ी बुरहान, मज़्बूत दलील और अक़्ली हुज्जत के साथ दिफ़ाअ करने के क़ाबिल होंगे? आप मुझ से ज़्यादा बेहतर जानते हैं कि आप मज़्कूर अक़ाइद को क़ायम करने के सबूत पेश नहीं कर सकेंगे।
आप ख़ुदा पर ईमान रखते और उस पर भरोसा करते हैं। लेकिन अगर मैं आपसे पूछूँ कि ख़ुदा क्या है, और वो कहाँ है? तो आप एक क़ाइल करने वाला जवाब देने में नाकाम रहेंगे। और आप ये भी जानते हैं कि आप एक रूह रखते हैं और आपको इस का यक़ीन है। ताहम, आप इस बात से लाइल्म हैं कि रूह क्या है और ये कहाँ है। मज़ीद बरआँ, आप ये जानते और मानते हैं कि आपके पास एक ज़हन और फ़िक्री सलाहियतें हैं लेकिन आप उन की नौईय्यत (कैफियत) को नहीं समझते। यहां तक कि आप महसूस की जाने वाली ज़्यादातर अश्या के बारे में भी फ़हम नहीं रखते। उलमा के नज़्दीक हम तो माद्दी अश्या के जोहर को भी नहीं समझते, बल्कि फ़क़त उन की सिफ़ात और ख़वास के बारे में जानते हैं। अब ग़ैर-महसूस अश्या के ताल्लुक़ से इस से कितना ज़्यादा कहा जा सकता है।
मैं और आप, यहूदी, मसीही और मुसलमान सब जानते हैं कि हम और वो तख़्लीक़, मोअजज़ात, क़ियामत, अदालत और रूह की अबदियत पर ईमान रखते हैं। हम ख़ुदा पर भी ईमान रखते हैं, इसलिए नहीं कि हम इन अक़ाइद को साबित करने के अहले हैं बल्कि इसलिए कि इन का तज़्किरा उन कुतुब में मौजूद है जिनको हम ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल शुदा और सही मानते हैं। ग़र्ज़ यहूदी अपनी किताब तौरात की फ़रमांबर्दारी पर ईमान रखते हैं, और मसीही तौरेत और इन्जील शरीफ़ के इख़्तियार पर ईमान रखते हैं और मुसलमान क़ुर्आन की इताअत पर यक़ीन हैं।
अगर इस बिना पर तस्लीस को रद्द करना जायज़ है कि हमारे पास इसे साबित करने का कोई तरीक़ा नहीं है, तो हमें दीगर तमाम अक़ाइद का भी इन्कार कर देना चाहिए, दर-हक़ीक़त उन तमाम मुकाशफ़ात को रद्द कर देना चाहिए जिन्हें हम साबित नहीं कर सकते, मसलन ख़ुदा का शख़्सी वजूद और अज़ली फ़ित्रत, उस के वजूद का हर शैय का सबब-ए-अव़्वल होना, एक ही वक़्त में हर जगह मौजूद होना और हमा दान होना यानी वो वक़्त के हर लम्हे में अज़ल से अबद तक होने वाली सभी चीज़ों से वाक़िफ़ है और उस का इल्म किसी इज़ाफ़े या घाटे की इजाज़त नहीं देता।
ख़ुदा अपने जोहर में एक, जबकि अक़ानीम में तीन है। चूँकि वो कायनात में अपनी फ़ित्रत और सिफ़ात के एतबार से लासानी है, इसलिए इस में कोई ताज्जुब की बात नहीं कि वो अपने वजूद के एतबार से बाक़ी सबसे बरतर है, यहां तक कि वो अपनी आला तरीन सिफ़ात के एतबार से भी सबसे बरतर है। ये कहा जाता है कि एक जोहर में तीन अक़ानीम का होना (नामुम्किन) है। हम कहेंगे कि ये दाअवा बग़ैर दलील के है और हमारे महदूद ज़हन इस बात का अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि क्या मुम्किन है और क्या इस के इदराक (अक़्ल, समझ) की हद से परे नहीं है। पाक तस्लीस के अक़ानीम अपने जोहर में एक हैं, और ये जिन्सी या नूई जोहर नहीं है। इसलिए तस्लीस में कस्रत जोहर को मुतास्सिर नहीं करती, और ना ही इस में जोहर की तक़्सीम होती है क्योंकि ख़ुदा का जोहर माद्दी नहीं बल्कि रूहानी है। रूह किसी भी हालत में तक़्सीम की इजाज़त नहीं देती। ग़र्ज़ बाप, बेटा और रूह-उल-क़ुद्स अपने अक़ानीम के एतबार से एक ही जोहर के हामिल हैं। इन में से हर एक तक़्सीम या अलैहदगी के बग़ैर उलूहियत के एक ही जोहर का हामिल है। हमारी ज़ुबान में उक़नूम के माअने को समझने के लिए कोई मुतरादिफ़ लफ़्ज़ नहीं है कि जिसकी मदद से पाक तस्लीस को आसानी से बयान किया जा सके।
जो कुछ मैं बयान कर चुका हूँ, क्या इस के बाद आप अब भी इसरार करेंगे कि एक मसीही का तस्लीस पर एतिक़ाद लाइल्मी है? क्या आप इन तमाम मिसालों के बाद भी इसरार करेंगे कि आप तस्लीस को क़ुबूल नहीं करते क्योंकि आपको इस की कोई अक़्ली दलील नहीं मिली? क्या आप नहीं जानते कि हर अम्र का एक ख़ास क़िस्म का सबूत होता है? मिसाल के तौर पर, तारीख़ी वाक़ियात की बात की जाये तो आप मक़िदूनिया के सिकंदर और उस की मिस्र, शाम, फ़ारस और हिन्दुस्तान और दीगर इलाक़ों में तमाम मुहिम्मात को किसी कीमीयाई, हिन्दसी या मन्तिक़ी सबूत के ज़रीये से साबित नहीं कर सकते। और ऐसा इसलिए है कि इन वाक़ियात का ताल्लुक़ तारीख़ से है ना कि किसी और चीज़ के साथ। या क्या आप किसी कीमीयाई तरीक़े से मुझे दिखा सकते हैं कि कुल जुज़ से ज़्यादा बड़ा है? अगर ये उसूल दुरुस्त है तो हम नतीजा अख़ज़ कर सकते हैं कि किसी भी शैय का इज़हार इसी नौईय्यत की शैय से होता है। इसी तरह मज़्हबी अश्या का इज़्हार मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) या इल्हामी कुतुब से होता है, रियाज़ी के मसाइल का उलूम रियाज़ी के हिसाब, अलजबरा और ज्योमैटरी से ताल्लुक़ है, और फ़लकियाती मुआमलात का ताल्लुक़ इल्म फ़लकियात से है, वग़ैरह। इसलिए, मेरे मुसलमान भाई, मज़्हबी अक़ाइद को साईंसी सबूतों के ज़रीये साबित करने की कोशिश ना करें, कहीं ऐसा ना हो कि आप गुमराह हो जाएं। और तस्लीस के मसअले पर क्यों आप मुझ से मुत्तफ़िक़ नहीं हैं? हो सकता है कि हम बुनियादी तौर पर एक ही बात कह रहे हों। क्योंकि आप कहते हैं ख़ुदा और उस का कलमा और उस की रूह तस्लीस हैं। और मैं कहता हूँ कि बाप, बेटा और रूह-उल-क़ुद्स तस्लीस हैं। “तो अल्लाह और उस के रसूलों पर ईमान लाओ। और ये ना कहो कि ख़ुदा तीन हैं, इस एतिक़ाद से बाज़ आओ कि ये तुम्हारे हक़ में बेहतर है। अल्लाह ही माबूद-ए-वाहिद है (सूरह अल-निसा 4:171) हम ये ईमान रखते हैं कि ख़ुदा का एक कलमा और रूह है, और वो अपने कलमे और रूह के साथ वाहिद है। आपके नज़्दीक जो कुछ भी ख़ुदा में है वो ख़ुदा है। इसलिए, ख़ुदा का कलाम ख़ुदा है जो इलाही वजूद और इलाही सिफ़ात का हामिल है। इसी तरह ख़ुदा का रूह ख़ुदा है और अज़ल से अबद तक इलाही ज़ात का हिस्सा है।
मैं आख़िर में ख़ुदा के हुज़ूर इल्तिजा करता हूँ जो अपने जोहर में एक है और अक़ानीम में तीन, कि वो आपको अपना रूह-उल-क़ुद्स बख़्शे और इस अक़ीदे की सच्चाई क़ुबूल करने के लिए आपके दिल को क़ाइल करे, ताकि आप इस का भी यक़ीन कर लें जैसे कि आप ईमान रखते हैं कि वो सब कुछ करने पर क़ादिर है। याद रखिए, ख़ुदा तआला इस लायक़ है कि आप उस की जानिब मुसबत रद्द-ए-अमल ज़ाहिर करें।
9. आठवीं बह्स फ़ारक़लीत (فارقلیط) और मुहम्मद
हमारे मुसलमान भाई सूरह अल-साफ्फात 61:6 के अल्फ़ाज़ की बुनियाद पर दाअवा करते हैं कि उन के नबी मुहम्मद का नाम इन्जील मुक़द्दस में मर्क़ूम है, “और जब कहा ईसा इब्ने मर्यम ने कि ऐ बनी-इस्राईल मैं तुम्हारे पास अल्लाह का भेजा हुआ आया हूँ जो किताब मुझ से पहले आ चुकी है यानी तौरात उस की तस्दीक़ करता हूँ और बशारत देता हूँ एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा जिसका नाम अहमद होगा।”
ये कहा जाता है कि इन्जील मुक़द्दस में यूनानी लफ़्ज़ फ़ारक़लीत (فارقلیط) का मतलब अहमद (हम्द किया हुआ) है, और अहमद और मुहम्मद एक ही हैं। कुछ ये इल्ज़ाम लगाते हैं कि चूँकि इन्जील को बदल दिया गया है इसलिऐ मुहम्मद साहब का ज़िक्र इन्जील में मौजूद नहीं है। इस लफ़्ज़ के ताल्लुक़ से क़ुर्आनी समझ ग़लत-फ़हमी पर मबनी है क्योंकि यूनानी ज़ुबान में ये लफ़्ज़ “पैराकलेतास है ना कि “पीरीकल्योतास” यूं इस के दुरुस्त लातीनी हिज्जे “PARACLETOS” हैं ना कि “PERICLUTOS” पहले लफ़्ज़ का मतलब है “मददगार” जबकि दूसरे लफ़्ज़ का मतलब है “मशहूर व महमूद।”
ये आयत अब भी इन्जील मुक़द्दस में मौजूद है, और साबित करती है कि इस में कोई तब्दीली नहीं हुई। आईए अब हम उन आयात का जायज़ा लें जहां लफ़्ज़ “पैराक्लितास” मौजूद है ताकि इस के माअने को समझ सकें और देखें कि क्या इन अल्फ़ाज़ को मुहम्मद साहब से मन्सूब करना दुरुस्त है जैसे हमारे मुसलमान भाईयों का दाअवा है।
1. “और मैं बाप से दरख़्वास्त करूँगा तो वो तुम्हें दूसरा मददगार बख़्शेगा कि अबद तक तुम्हारे साथ रहे। यानी रूह-ए-हक़ जिसे दुनिया हासिल नहीं कर सकती क्योंकि ना उसे देखती और ना जानती है। तुम उसे जानते हो क्योंकि वो तुम्हारे साथ रहता है और तुम्हारे अन्दर होगा।” (यूहन्ना 14:16, 17)
2. “लेकिन जब वो मददगार आएगा जिसको मैं तुम्हारे पास बाप की तरफ़ से भेजूँगा यानी रूह-ए-हक़ जो बाप से सादिर होता है तो वो मेरी गवाही देगा।” (यूहन्ना 15:26)
3. “लेकिन मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि मेरा जाना तुम्हारे लिए फ़ाइदेमंद है क्योंकि अगर मैं ना जाऊं तो वो मददगार तुम्हारे पास ना आएगा लेकिन अगर जाऊँगा तो उसे तुम्हारे पास भेज दूँगा। और वो आकर दुनिया को गुनाह और रास्तबाज़ी और अदालत के बारे में क़सूरवार ठहराएगा।” (यूहन्ना 16:7, 8)
4. “और उन से मिलकर उन को हुक्म दिया कि यरूशलेम से बाहर ना जाओ बल्कि बाप के उस वाअदे के पूरा होने के मुंतज़िर रहो जिसका ज़िक्र तुम मुझ से सुन चुके हो। क्योंकि यूहन्ना ने तो पानी से बपतिस्मा दिया मगर तुम थोड़े दिनों के बाद रूह-उल-क़ुद्स से बपतिस्मा पाओगे।” (आमाल 1:4, 5)
5. “जब ईद-ए-पनतिकुस्त का दिन आया तो वो सब एक जगह जमा थे कि यकायक आस्मान से ऐसी आवाज़ आई जैसे ज़ोर की आंधी का सन्नाटा होता है और उस से सारा घर जहां वो बैठे थे गूंज गया। और उन्हें आग के शोले की सी फटती हुई ज़बानें दिखाई दें और उन में से हर एक पर आ ठहरीं। और वो सब रूह-उल-क़ुद्स से भर गए और ग़ैर-ज़बानें बोलने लगे जिस तरह रूह ने उन्हें बोलने की ताक़त बख़्शी।” (आमाल 2:1-4)
ये वाज़ेह है कि जब मसीह अपने शागिर्दों के दर्मियान था उनका उस्ताद था। वो उन के लिए राहनुमा, मददगार और मुहाफ़िज़ था, यहां तक कि उन के दिलों में मसीह के साथ गहरा ताल्लुक़ क़ायम हो गया। वो अपने इल्म-ए-साबिक़ के मुताबिक़ जानता था कि मौत के बाद उस का रुख्सत हो जाना उन के दिलों को तोड़ देगा। उसे ये इल्म था कि उस के जाने के बाद उन्हें तक़वियत, राहनुमाई और तसल्ली के लिए आस्मानी मदद की ज़रूरत होगी। इस बिना पर उस ने उन के लिए रूह-उल-क़ुद्स भेजने का वाअदा किया कि वो उन्हें तसल्ली बख़्शे, और गुज़श्ता आयात में आपने यही है।”
इन आयात का बारीकबीनी से जायज़ा लेने के बाद ये बात हम पर वाज़ेह हो जाती है कि जिस शख़्सियत का यहां पर वाअदा किया गया था वो नबी-ए-इस्लाम मुहम्मद साहब की शख़्सियत नहीं हो सकती, क्योंकि इन आयात में हमारे सामने इस की बहुत सी वजूहात हैं।
1. जिसका वाअदा किया गया था वो जिस्मानी नहीं था बल्कि उसे “रूह-ए-हक़ कहा गया है, लिहाज़ा दुनिया उसे हासिल नहीं कर सकती क्योंकि वो उसे देख नहीं सकती। ये बयान मुहम्मद साहब के बारे में सही नहीं है क्योंकि उनका एक बदन (जिस्म) था और उन्हें उन पर ईमान लाने वालों और रद्द करने वालों दोनों ने देखा।
2. जिसका वाअदा किया गया था वो हमेशा के लिए शागिर्दों के साथ रहने के लिए आया। इस का भी मुहम्मद साहब पर इतलाक़ नहीं किया जा सकता क्योंकि वो मसीह के शागिर्दों के वक़्त में नहीं आए थे और फिर हमेशा के लिए दुनिया में नहीं रहे।
3. जिसका वाअदा किया गया वो शागिर्दों के साथ था। इस का इतलाक़ मुहम्मद साहब पर नहीं होता क्योंकि वो मसीह के शागिर्दों के साथ नहीं थे।
4. मसीह ने शागिर्दों को हिदायत की कि “यरूशलेम से बाहर ना जाओ बल्कि मददगार रूह-उल-क़ुद्स का इंतिज़ार करें।” अपने आक़ा की इताअत में (और मुसलमान ये मानते हैं कि शागिर्द फ़रमांबर्दार थे) उन्हों ने यरूशलेम में दस दिन तक इंतिज़ार किया जब तक कि मददगार ना आ गया और तब उन में से हर एक रूह-उल-क़ुद्स से भर गया। इस का भी मुहम्मद साहब पर इतलाक़ नहीं हो सकता। बसूरत-ए-दीगर ये ज़रूरी होता कि शागिर्द मुहम्मद साहब की आमद तक यरूशलेम में छः सौ (600) साल तक इंतज़ार करते। लेकिन उन की उम्र इतनी ना थी। फिर मसीह ने खासतौर पर उन से वाअदा किया था कि वो मददगार रूह को भेजेगा। वर्ना मरने के बाद उन्हें मदद व तसल्ली देने का कोई फ़ायदा ना था। इसलिए, उन की हौसला-अफ़ज़ाई करने के लिए मसीह ने उन से कहा, “क्योंकि यूहन्ना ने तो पानी से बपतिस्मा दिया मगर तुम थोड़े दिनों के बाद रूह-उल-क़ुद्स से बपतिस्मा पाओगे।” (आमाल 1:5)
मुझे नहीं लगता कि मुसलमान भाई ये मानना चाहेगा कि मसीह ही वो शख़्स थे जिन्हों ने मुहम्मद को भेजा था, क्योंकि मज़्कूर आयात से पता चलता है कि मसीह ही वो शख़्स थे जिन्हों ने मददगार रूह को भेजा। अगर ऐसा होता तो ये बिल्कुल फ़र्क़ मुआमला होगा, कि उसे भेजने वाले (मसीह) की उलूहियत पर राज़ी होना पड़ेगा, क्योंकि मुहम्मद साहब ने अल्लाह का रसूल होने का दाअवा किया था। लिहाज़ा ग़ौर करें। मैं ख़ुदा से गुज़ारिश करता हूँ कि जैसे उस ने ये रूह-उल-क़ुद्स उन शागिर्दों को दिया वो मेरे मुसलमान भाई को भी अता करे, वो उस की हक़ की जानिब राहनुमाई करे और उस के ज़हन को रोशन करे ताकि वो बेकार और क़ाबिल-ए-क़द्र में तमीज़ कर सके।
10. नतीजा
गुज़श्ता तमाम तहरीर में आपने देख लिया है कि गुनाहों की माफ़ी और दिल की पाकीज़गी हासिल करने का सिवाए मसीह के कोई और रास्ता नहीं है, और सिवाए बाइबल मुक़द्दस के कोई और ऐसी किताब नहीं है जो इस नजात की राह को दिखाती है। इसी तरह सिवाए दीने मसीहिय्यत के कोई और मज़्हब ऐसा नहीं है जिसमें ख़ुदा के इन्साफ़ और रहम का तक़ाज़ा पूरा होता हो जो हमें इंसान के लिए ख़ुदा की मुहब्बत दिखाता है। मेरे भाई, इस मौक़े से फ़ायदा उठाएं क्योंकि ये वक़्त-ए-नजात है और आज फ़ज़्ल व क़बूलियत का दिन है।
इन तमाम बहसों और इन के मुतालआ का मक़्सद हक़ तक पहुंचना और इस हक़ की पैरवी कर के ख़ुशी हासिल करना है। इख़्तताम पर मैं ख़ुदा से दुआ-गो हूँ कि मेरे मुसलमान भाई वो आपको अपना रूह-उल-क़ुद्स बख़्शे और हक़ की तलाश में आपके ज़हन को तनवीर बख़्शे। जब आप मसीह में नजात पाने और फ़िर्दोस (पाकीज़ा जन्नत) में हमेशा की ज़िंदगी हासिल करने के लिए दुआ करते हैं तो ख़ुदा आपकी सीधे रस्ते की तरफ़ राहनुमाई करे।