Was Muhammad Prophesied in the
Torah of Moses?
We have found the one Moses wrote about in the Law, and about whom the prophets also wrote--Jesus of Nazareth, (John 1:45)
BY
The Venerable Archdeacon Barakat Ullah. M.A
“जिसका ज़िक्र मूसा ने तौरात में किया है वो हमको मिल गया है वो यसूअ नासरी है।” (यूहन्ना 1:45)
तौरेत मूसवी और मुहम्मद-ए-अरबी
मुसन्निफ़
अल्लामा बरकतुल्लाह एम॰ ए॰
1951 ई॰
1891-1972
ALLAMA BARAKAT
ULLAH, M.A.F.R.A.S
Fellow of the Royal Asiatic Socieity London
दीबाचा
मुद्दत-ए-मदीद से मुस्लिम उलमा नबुव्वत मुहम्मदिया को तौरात शरीफ़ के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात से साबित करने की कोशिश करते चले आए हैं और मसीही फुज़ला- (फ़ाज़िल की जमा, उलमा) उनका जवाब देते रहे हैं। चुनान्चे ममालिक-ए-इस्लामीया में मुनाज़रे की कोई मशहूर किताब ऐसी नहीं है जिसमें मुसलमानों और मसीहीयों ने इस मज़्मून पर बह्स नहीं की। बल्कि तरफ़ैन के बाअज़ उलमा ने तो इस मौज़ू पर मुस्तक़िल रिसाले भी लिखे हैं। पंजाब में इन रिसालों में आँजहानी मौलवी ग़ुलाम नबी साहब की किताब “तहक़ीक़-उल-इस्लाम” खासतौर पर क़ाबिल-ए-ग़ौर है, क्योंकि इस में तौरेत की कुतुब के बिना पर मौलवी साहब ने इस्लामी नुक़्ते-नज़र के मुख़्तलिफ़ पहलूओं को यकजा करके एक जामा रिसाला तैयार किया था। इमाम-उल-मुनाज़िरीन हज़रत अकबर मसीह मरहूम ने 1893 ई॰ में इस किताब का जवाब रिसाला “अद्दआ-ए-इस्माईल” में दिया। इसी मौज़ू पर जनाब पादरी टॉमस हाइल साहब मरहूम ने एक रिसाला “बाइबल में मुहम्मद” लिखा जिसमें उन्होंने सर सय्यद अहमद मरहूम के दलाईल का जवाब-ए-बासवाब दिया। इस सिलसिले में पादरी गोल्ड सेक साहब का रिसाला किताब-ए-मुक़द्दस और हज़रत मुहम्मद भी पढ़ने के क़ाबिल है।
ये बह्स वाक़ई दिलचस्प है जिसको अज़ सर-ए-नव छेड़ने के लिए माअज़िरत की ज़रूरत नहीं। क्योंकि इस बह्स से बहुत से मुतनाज़ाअ़ उमूर जिनके हल करने लिए मुस्लिम उलमा मुद्दत से अपने दिमाग़ लड़ा रहे हैं ख़ुद बख़ुद हल हो जाते हैं। ख़ुसूसुन वो पेचीदा वसीअ मैदान जिसमें नबुव्वत मुहम्मदियाह के लिए अहद-ए-अतीक़ की पेश गोइयों की राह ली जाती है, बावजूद वुसअत के तेय हो सकता है। क्योंकि इस का दारो- मदार इस एक मफ़रूज़ा अम्र पर है कि बनी-इस्माईल से कोई जलील-उल-क़द्र नबी बरपा होने वाला था जिसकी ख़बर अम्बिया-ए-साबक़ीन ने ज़रूर बालज़रूरी होगी। इस मफ़रूज़ा की वजह से कुतुब-ए-अह्दे-अतीक़ की अबस वर्क़ गरदानी की जाती है और आयात की बिला-लिहाज़ सियाक़-ए-इबारत तावील की जाती है। लेकिन अगर ये साबित हो जाए कि ख़ुदा ने हज़रत इस्माईल से बरकत-ए-नबुव्वत का कोई वाअदा नहीं किया था और बनी-इस्माईल से कोई नबी मबऊस होने वाला नहीं था, तो फिर इन तमाम मुक़ामात की जिनका इतलाक़ हज़रत मुहम्मद पर किया जाता है एक ऐसी किलीद (चाबी) हाथ लग जाती है जो तरफ़ैन के लिए उक़्दा-कुशाई (मुश्किल आसान करना, मसअला हल करना) का मूजिब हो सकती है।
तहक़ीक़ का मैदान मंज़िल-ए-हफ़्तख़वां (कीकावस की रिहाई के वास्ते माज़ंदरान तक रुस्तम ने जो रास्ता सात दिन में तै किया उसे हफ़्त ख़वान रुस्तम कहते हैं।, किनाएतन इस का मतलब है निहायत कठिन और मुश्किल काम) से कम व शवारगुज़ार नहीं है। हमारे मुल्क के मुनाज़िरीन इस पर ख़ार-ए-राह (कांटों से भभरा रास्ते) से दामन-कशाँ (पहलू बचा कर) गुज़र जाते हैं क्योंकि वो अपने उमूर ईमानिया को पहले सच्च मान लेते हैं और फिर उनको साबित करने के लिए ऐसी दलाईल ढूंडते हैं जिनसे ये ज़ाहिर हो सके कि उनके मफ़रूज़ात बरहक़ हैं। सच्च तो ये है कि इस क़िस्म का शख़्स,
ना मुहक़्क़िक़ बूद ना दानिशमंद
चार पाए बरू किताबे चंद
मुहक़्क़िक़ (जांच करने वाले) के लिए पहली शर्त ये है कि वो किसी क़ज़ीया (इबारत के टुकड़े) को अपना जुज़्व ईमान ना बनाए तावक़्त ये कि वो पहले अज़-रूए-अक़्ल साबित ना हो जाए। पस इस मौज़ू पर बह्स करने से पहले ये लाज़िम था कि तरफ़ैन अपने अपने मफ़रूज़ा की बख़ूबी छानबीन करते। लेकिन मुस्लिम मुनाज़िरीन ने इस के बरअक्स ये वतीरा (रवैय्या, तरीका-ए-कार) इख़्तियार किया कि अपने दिमाग़ पर ज़ोर लगा कर ये फ़र्ज़ कर लिया कि मुद्दई नबुव्वत में फ़ुलां-फ़ुलां शर्त होनी चाहिए। और फिर उस मफ़रूज़ा के मुताबिक़ तौरात व इन्जील में से इधर उधर से ऐसे सबूत मुहय्या किए जो इन के ज़ोअम में इन शर्तों को हज़रत मुहम्मद की ज़ात में पूरा कर सकते थे। वाजिब तो ये था कि वो अपने दिमाग़ों की इख़्तिरा (नई बात) निकालने की बजाय किताब-उल्लाह के औराक़ को पहले पलटते और अम्बिया-ए-साबक़ीन के हालात व पैग़ामात पर ग़ौर व ख़ोज़ करके मालूम करते कि किताब-उल्लाह नबुव्वत के मफ़्हूम को किस तरह मुतय्यन करती है और फिर इस मफ़्हूम की रोशनी में अपने ख़यालात और मोअ़्तक़िदात (एतिक़ाद) की सीक़ली (सफ़ाई) करके देखते कि अम्बिया-ए-साबक़ीन की किताबें उनके मफ़रूज़ात की ताईद व तस्दीक़ करती हैं या उनके मज़ऊमात (मज़ऊम की जमा, गुमान किया हुआ) की तर्दीद करके उनको ग़लत और बातिल क़रार देती हैं।
हमने इस किताब के शुरू में इन्ही असासी उमूर पर बह्स करके नबुव्वत के सही मफ़्हूम को मुतय्यन करने की कोशिश की है ताकि इस सही मफ़्हूम की रोशनी में तरफ़ैन अम्बिया-अल्लाह के मबऊस होने की असली ग़ायत (अंजाम) और हक़ीक़ी मक़्सद को बख़ूबी समझ सकें और ऐसे इस्तिदलाल (दलील) से क़तई परहेज़ करें जो ईलाही मक़्सद और नबुव्वत के हक़ीक़ी मंशा के मुनाफ़ी (खिलाफ) हो। लिहाज़ा इस रिसाले में ये बह्स एक नए ज़ावीया से की गई है और इस लिहाज़ से ये रिसाला बिल्कुल नया है गो बह्स का मौज़ू पुराना है। उम्मीद है कि मुस्लिम मुनाज़िरीन ठंडे दिल से ग़ौर से काम लेकर इस किताब का मुतालआ करके हक़ को इख़्तियार करेंगे।
मुसलमान मुनाज़िरीन अपने मफ़रूज़ात को मद्दे-नज़र रख कर तौरात शरीफ़ की किताब इस्तिस्ना की मशहूर आयात (18:15 ता 18) को दाअ्व-ए-नबुव्वत मुहम्मदिया के हक़ में एक बड़ी मज़्बूत और ज़बरदस्त दलील समझते चले आए हैं। चुनान्चे आँजहानी मौलवी साहब मज़्कूर के रिसाले का मोअ्तदिबा हिस्र (क़ाबिले एतिमाद अहाता) इन्ही आयात की बह्स पर मुश्तमिल है। पस हमने भी अपनी किताब के बेशतर हिस्से में इन्ही आयात पर बह्स की है। इस किताब के लिखने से पहले हमने कोशिश करके मुसलमान और अहमदी मुनाज़िरीन की मुख़्तलिफ़ किताबों को जो उन्होंने गुज़श्ता निस्फ़ सदी के दौरान में इस मज़्मून पर लिखी हैं, ब-ईं ख़याल पढ़ा कि शायद किसी ने इस बह्स में कोई नया पहलू निकाला हो। लेकिन सब बेसूद (बेफ़ाइदा) तमाम ने इस पुरानी बह्स की फ़र्सूदा (पुराना, ख़स्ता-हाल) दलाईल ही रट सुनाई हैं। बक़ौल शख़्से,
आँचा उस्ताद-ए-अज़ल गुफ़्त हमाँ मेय गोयम
क़रीबन पैतालीस (45) साल हुए इस किताब की बाअज़ दलाईल मुझे दायरा इस्लाम से मुनज्जी जहान अल-मसीह के क़दमों में लाएं। पस मुद्दत से आरज़ू थी कि ये किताब लिखूँ। अल्हम्दुलिल्लाह कि आज ये आरज़ू पूरी हो गई। मैंने इस किताब की तालीफ़ में दीगर कुतुब मुनाज़रा और बिलख़ुसूस हज़रत इमाम-उल-मुनाज़रीन अकबर मसीह मरहूम के रिसाले “अद्दा-ए-इस्माईल” से इस्तिफ़ादा हासिल किया है।
मेरी दुआ है कि ख़ुदा इस रिसाले के ज़रीये मुत्लाश्यान-ए-हक़ पर अपनी नजात का नूर चमकाए ताकि वो भी मेरी तरह मुनज्जी आलमीन (मसीह) के क़दमों में आकर नजात-ए-अबदी से बहरा-अंदोज़ हों।
15 सितंबर 1951 ई॰
बाब अव़्वल
नबुव्वत का सही मफ़्हूम
ज़रूरत तन्क़ीह
हमारे मुस्लिम बिरादरान का ये ख़याल है कि नबुव्वत और पेश गोई मुतरादिफ़ अल्फ़ाज़ हैं। नबी वो है जो ग़ैब की ख़बरें देता है और जो ग़ैब की ख़बरें नहीं देता वो नबी नहीं हो सकता। मसलन क़ादियानी फ़िर्क़े के बानी मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद आँजहानी कहते हैं :-
“हम ख़ुदा के इन कलिमात को जो नबुव्वत यानी पेशगोई पर मुश्तमिल हों नबुव्वत के इस्म से मौसूम करते हैं और ऐसा शख़्स जिसको बकस्रत ऐसी पेश गोईयां बज़रीया वही दी जाती हैं उस का नाम नबी रखते हैं।”
(चशमा माअ्र्फ़त सफ़ा 180)
“ख़ुदा तआला की तरफ़ से एक कलाम पाकर जो ग़ैब पर मुश्तमिल ज़बरदस्त पेशगोईयां हों, मख़्लूक़ को पहुंचाने वाला इस्लामी इस्तिलाह में नबी कहलाता है।”
(हुज्जत-उल्लाह सफ़ा 2)
“जिस शख़्स को बकस्रत मुकालमा व मुख़ातबा से मुशर्रफ़ किया जाये और बकस्रत उमूर-ए-ग़ैबीया उस पर ज़ाहिर किए जाएं वो नबी कहलाता है।”
(हक़ीक़त-उल-वही सफ़ा 390)
"जबकि वो मुकालमा और मुख़ातबा अपनी कैफ़ीयत और कमीयत (मिक़्दार) की रु से कमाल दर्जे तक पहुंच जाये और खुले तौर पर उमूर ग़ैबीया पर मुश्तमिल हो तो वही दूसरे लफ़्ज़ों में नबुव्वत के नाम से मौसूम होता है, जिस पर तमाम नबियों का इत्तिफ़ाक़ है।”
(अल-वसीय्यत सफ़ा 11)
स्वर्गीय मिर्ज़ा जी एक और जगह लिखते हैं :-
“मेरे नज़्दीक नबी उस को कहते हैं जिस पर ख़ुदा का कलाम यक़ीनी यानी क़तई बकस्रत नाज़िल हो जो ग़ैब पर मुश्तमिल हो। इसलिए ख़ुदा ने मेरा नाम नबी रखा मगर बग़ैर शरीअत के।”
(तजल्लियात-ए-इलाहिया सफ़ा 26)
यूं मिर्ज़ा जी नबी और नबुव्वत के माअनों की तख़्सीस (महफ़ूज़ करना, ख़ुसूसीयत) व तारीफ़ करके ऐलान करते हैं :-
“हमारा सिदक़ व कज़ब (सच्च और झूट) जांचने के लिए हमारी पेशगोई से बढ़कर कोई इम्तिहान नहीं हो सकता।”
(दाफ़ेअ-उल-वसावस सफ़ा 288)
मिर्ज़ा साहब के मुसलमान मुख़ालिफ़ीन ने भी आपके पेश कर्दा मफ़्हूम नबुव्वत को तस्लीम करके बीसियों किताबें तस्नीफ़ करके आपकी पेश गोइयों के एक-एक लफ़्ज़ को ग़लत साबित कर दिया और आप पर कज़्ज़ाब (झूटा) होने का फ़त्वा सादिर कर दिया।
सुतूर बाला से ज़ाहिर हो गया होगा कि मुसलमान उलमा और फ़िर्क़ा क़ादियानी के फुज़ला (फ़ाज़िल) सब के सब इस एक बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि इस्लामी इस्तिलाह में ख़ुदा के इन कलिमात को जो नबुव्वत यानी पेश गोइयों पर मुश्तमिल हों नबुव्वत के इस्म से मौसूम किया जाता है।
उसूल तन्क़ीह व तन्क़ीद
इस अम्र को जांचने के लिए हमें अम्बिया-ए-साबक़ीन (गुज़रे नबियों) की ज़िंदगी के वाक़ियात पैग़ामात और कलमात की जांच पड़ताल करनी होगी। ये बातें किताब-ए-मुक़द्दस यानी इब्रानी कुतुब-ए-मुक़द्दसा और इन्जील जलील के मजमूए में मज़्कूर हैं। पस लाज़िम है कि हम नबुव्वत की मज़्कूर बाला तारीफ़ को मद-ए-नज़र रखकर अम्बिया-ए-इस्राईल के बयानात और सवानिह हयात का ग़ौर व तदब्बुर से मुतालआ करें ताकि अस्ल हक़ीक़त की तह को पहुंच सकें। ये तरीका-ए-कार उसूल-ए-तन्क़ीद के मुताबिक़ है जिस पर अमल दरआमद करके हम हर क़िस्म के सो-ज़न (वहम) से बच कर नबुव्वत के हक़ीक़ी मफ़्हूम को दर्याफ़्त कर सकते हैं।
किताब-ए-मुक़द्दस और नबुव्वत
किताब-ए-मुक़द्दस में नबी के लिए चंद ख़िताबात मुस्तअमल होते हैं जिन पर ग़ौर करने से हम नबुव्वत के मफ़्हूम को सही तौर पर समझ सकते हैं।
इब्रानी कुतुब-ए-मुक़द्दसा में नबी को मर्द-ए-ख़ुदा का ख़िताब दिया गया है। (1 समुएल 9:6 वग़ैरह) वो ख़ुदा का ख़ादिम है। (यसअयाह 42:19 वग़ैरह) वो “ख़ुदा का रसूल है जो ख़ुदा के आगे राह दुरुस्त करने वाला है।” (मलाकी 2:1) वो ख़ुदा की तरफ़ से तफ़्सीर करने वाला है। (यसअयाह 43:27) वो अपनी दीदगाह पर खड़ा हो कर और बुरुज पर चढ़ कर इंतिज़ार करने वाला है। (हबक़्क़ूक़ 2:1) गो वो ख़ुदा और इन्सान के बीच एक दर्मियानी की हैसियत रखता है। वो ख़ुदा का “मुँह” है जो ख़ुदा का पैग़ाम अपनी क़ौम के लोगों तक पहुँचाता है। (ख़ुरूज 4:16, 7:1, यर्मियाह 15:19 वग़ैरह) नबी ख़ुदा के नाम से कलाम करता है और ईलाही इख़्तियार से लोगों को पैग़ाम देता है और उस के पैग़ाम का ताल्लुक़ बिल-ख़ुसूस उस के अपने ज़माने के साथ होता है। लेकिन ज़माना-ए-माज़ी के गुज़श्ता वाक़ियात से वो मिसालें देकर अपने पैग़ाम को मज़्बूत करता है और अपने क़रीब के ज़माना-ए-मुस्तक़बिल की निस्बत अपने लोगों को आगाह और ख़बरदार करता है।
अम्बिया के फ़राइज़ मन्सबी
(1) अम्बिया-अल्लाह ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात के बयान करने वाले थे। ख़ुदा ने उनकी मार्फ़त तरह बह तरह और हिस्सा बह हिस्सा कलाम करके (इब्रानियों 1:1) बनी-इस्राईल को ये ताअलीम दी कि वो सिर्फ़ बनी-इस्राईल का ही माअ्बूद नहीं बल्कि अकेला, वाहिद और लाशरीक, हक़ीक़ी माअबूद और ज़िंदा ख़ुदा है जो तमाम कायनात का ख़ालिक़ व मालिक और एक ऐसी क़ुद्दूस रहमान व रहीम हस्ती है, जिसकी रज़ा ये है कि उस के परस्तार उस की मानिंद पाक और रहम दिल हों।
हर नबी का पैग़ाम उस के अपने हालात-ए-ज़माना और दौर की ज़रूरीयात से ताल्लुक़ रखता था। अम्बिया अपने ज़माने के वाइज़ थे जिनका फ़र्ज़-ए-मन्सबी ये था कि वो बनी-इस्राईल को हर वक़्त और हर जगह ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात बतला कर रज़ा-ए-ईलाही को उन पर ज़ाहिर करें। और उन ईलाही अहकाम को वाज़ेह करें जो ज़रूरत-ए-ज़माने के मुताबिक़ ख़ुदा की तरफ़ से उन पर वाजिब थे।
(2) अम्बिया ज़माना-ए-माज़ी के दुनियावी तारीख़ी वाक़ियात पर नज़र डाल कर उनकी तावील व तफ़्सीर ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात की रोशनी में किया करते थे। इसी लिए किताब-ए-मुक़द्दस के मजमूए में तवारीख़ी किताबें भी शामिल हैं जिनके मुसन्निफ़ अम्बिया-अल्लाह थे। इन किताबों की तालीफ़ की ग़र्ज़ ये थी कि क़ौम इस्राईल जान ले कि ख़ुदा की परवरदिगारी का हाथ इस दुनिया के वाक़ियात और क़ौम इस्राईल की तारीख़ में मौजूद है और कि ख़ुदा का मक़्सद दुनिया में और बिल-ख़ुसूस क़ौम इस्राईल में ज़ाहिर है। (ज़बूर 78 आमोस 2:10 ता 12, 3:1, 9:7 होसेअ 9:10-12, 9 ता 13, 13:4 वग़ैरह जो ज़माना-ए-मुस्तक़बिल में पूरा हो कर रहेगा।
(3) अम्बिया-अल्लाह अपनी क़ौम की तवज्जोह नज़्दीक के ज़माना-ए-मुस्तक़बिल की जानिब भी मुनअतिफ़ (मोड़ने वाला, मुतवज्जोह होने वाला) किया करते थे ताकि उन को आने वाले ईलाही ग़ज़ब से आगाह करें या उनको उम्मीद दिला कर उनकी ढारस बांधे और तसल्ली देकर उनका हौसला बुलंद करें। वो अपने लोगों को कहते थे कि अगर वो रास्ती और इन्साफ़ को मद्दे-नज़र रखेंगे तो ख़ुदा की बादशाहत तमाम दुनिया में क़ायम हो जाएगी, लेकिन अगर वो अपने गुनाहों से तौबा ना करेंगे तो ख़ुदा उनको फ़त्ह अमन और सलामती नहीं बख़्शेगा बल्कि उनको सज़ा देगा। (आमोस 5:18, यर्मियाह 19 बाब वग़ैरह) वो कहते थे कि गो ख़ुदा क़ौम इस्राईल को उन के गुनाहों की सज़ा देगा ताहम ये सज़ा वाजिबी होगी और सज़ा के ज़माना इख़्तताम के बाद क़ौम की हालत रूबा इस्लाह हो जाएगी।
मसलन जब आख़ज़ जैसा बदकार शख़्स यहूदाह का बादशाह था इस तारीक ज़माने में हज़रत यसअयाह ने क़ौम को कहा कि मौजूदा हालात के बावजूद ख़ुदा सुलह और रास्ती की सल्तनत क़ायम करेगा। (यसअयाह 9:2 ता 7) यहूदाह की बादशाहत के ज़वाल के शुरू में हज़रत यर्मियाह एक ऐसे बादशाह की आमद की ख़बर देता है जो नेक लोगों पर ख़ुदा-ए-बरहक़ के अहकाम के मुताबिक़ हुक्मरानी करेगा। (यसअयाह 33:5 ता 6) जब क़ौम इस्राईल के हालात निहायत हौसला-शिकन और मायूस-कुन थे, उस ज़माने में भी नबी क़ौम की ढारस बांध कर बशारत देकर कहता है कि सिय्यून अक़्वाम-ए-आलम की इबारत का मर्कज़ होगा। (यसअयाह 40 बाब वग़ैरह)
“पस अम्बिया-अल्लाह ख़ुदा का मुँह” थे जो क़ौमी और मिल्ली ज़िंदगी के हर पहलू को ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात की रोशनी में देखकर और ख़ुदा की रज़ा का क़ौम व मिल्लत के हर शोअ्बे पर इतलाक़ पर अहकाम-ए-ईलाही को लोगों पर ज़ाहिर करने वाले थे। उनका पैग़ाम लोगों के लिए चराग़-ए-राह होता था। यही वजह है कि मुक़द्दस पतरस फ़रमाता है, हमारे पास नबियों का वो कलाम है जो ज़्यादा मोअतबर ठहरा और तुम अच्छा करते हो, जो ये समझ कर इस पर ग़ौर करते हो कि वो एक चिराग़ है जो अँधेरी जगह में रोशनी बख़्शता है। (जब तक पौ ना फटे और सुबह का सितारा तुम्हारे दिलों में ना चमके।” (1 पतरस 1:19)
हमने निहायत मुख़्तसर तौर पर अम्बिया-अल्लाह के काम व पैग़ाम पर तब्सिरा किया है ताकि उस की रोशनी में हम अपने मुसलमान भाईयों की तारीफ़ नबुव्वत को जांच सकें। इस तब्सिरा से ज़ाहिर है कि अम्बिया के फ़राइज़ मन्सबी का ताल्लुक़ ख़ास तौर पर सिर्फ उनके अपने ज़माने और दूर से ही होता था और कि उनके पैग़ाम का अहम तरीन अन्सर रुहानी और अख़्लाक़ी पहलूओं से ही मुताल्लिक़ था।
पेशगोई की हक़ीक़त
इस में कुछ शक नहीं कि जैसा हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं अम्बिया अपने क़रीब के ज़माना मुस्तक़बिल की निस्बत पेशगोई करते थे। लेकिन उनकी नबुव्वतों का मुतालआ ये अम्र ज़ाहिर कर देता है कि उनका ख़ास काम पेश गोईयां करना ना था और ना उनकी पेश ख़बरीयाँ उनकी नबुव्वत का अहम तरीन जुज़्व होती थीं। इन पेश ख़बरियों की बुनियाद अम्बिया-अल्लाह का यह ईमान था कि ख़ुदा अपने मक़्सद को अपने फ़रमांबर्दार ख़ादिम अम्बिया पर ज़ाहिर फ़रमाता है। (आमोस 3:7) और वो अपने इस मक़्सद के मुताबिक़ दुनिया का कारोबार चलाता है कि ज़माना-ए-माज़ी और दौर-ए-हाज़रा की तरह ज़माना-ए-मुस्तक़बिल में भी ख़ुदा की परवरदिगारी का हाथ मौजूद रहेगा।
पस अम्बिया-अल्लाह की नबुव्वत में मुक़द्दम अम्र रज़ा-ए-ईलाही का मुकाशफ़ा होता है और नबी के पैग़ाम का अस्ल मर्कज़ ख़ुदा की मर्ज़ी को क़ौम व मिल्लत पर ज़ाहिर करना है। अगरचे इस मुकाशफ़े में बाअ्ज़ औक़ात मुस्तक़बिल का जुज़्व होता है। लेकिन इस जुज़्व का होना नबुव्वत के लिए लाज़िमी और लाबदी (ज़रूरी) नहीं है। बिल-उमूम नबी के मुकाशफ़े का हम-हिस्सा ये होता है कि वो अपने दौर और ज़माने के वाक़ियात पर ईलाही नुक़्ता-ए-नज़र से निगाह डालता है। मसलन टिड्डियों का आना। (यूएल नबी की किताब) या किसी फ़ातेह का सज़ा व जज़ा के लिए बरपा होना। (यर्मियाह 25:9 यसअयाह 45:1 वग़ैरह)
पेशगोई का पूरा होना नबुव्वत के सिदक़ का मेयार नहीं हो सकता
सुतूर बाला से ज़ाहिर हो गया कि सच्चे नबी का हक़ीक़ी मेयार ये है कि नबी का पैग़ाम ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस व बरतर की रज़ा को इन्सान पर ज़ाहिर करता है और क्या ये पैग़ाम क़ौम के लिए चराग़-ए-राह है इस पैग़ाम का पेश ख़बरियों के साथ कोई लाज़िमी रिश्ता नहीं है। नबी के सिदक़ (सच) व कज़ब (झूठ) को जांचने और उस की पेशगोई के पूरा होने में कोई बाहमी वास्ता या ताल्लुक़ नहीं है। किताब-ए-मुक़द्दस का मुतालआ हम पर ज़ाहिर कर देता है कि अम्बिया की पेश गोइयों के अल्फ़ाज़ का बा-तफ़्सील पूरा होना उनके पैग़ाम की सच्चाई का मेयार और उन के बरहक़ होने की कसौटी नहीं है। चुनान्चे इस में कलाम नहीं हो सकता कि बाअज़ पेश-गोइयों के अल्फ़ाज़ बजिन्सा (हूबहू) पूरे नहीं हुए। मसलन अगरचे दमिशक़ को शिकस्त नसीब हुई लेकिन ये अल्फ़ाज़ पूरे ना हुए कि वो शहर ना रहेगा बल्कि खन्डर होगा।” (यसअयाह 17:1) इसी तरह अगरचे बाबूल को शिकस्त मिली लेकिन नबी के तफ़्सील वार पूरे ना हुए। (यसअयाह 13:15 ता 18)
हक़ तो ये है कि ख़ुद अम्बिया को ये एहसास था कि अगर ख़ुदा के फ़ज़्ल व करम से क़ौम अपने गुनाहों से तौबा करके ख़ुदा की जानिब रुजू करेगी और हालात बदल जाऐंगे तो उनकी पेश ख़बरीयाँ भी पूरी ना होंगी। (यिर्मियाह 18:7 ता 10)
नाज़रीन को याद होगा कि हज़रत यूनाह नबी को ख़ुदा से ये शिकायत थी कि खुदा ने उस को नज़ीर बना कर और तबाही का पैग़ाम देकर भेजा। लेकिन उसने अपने रहम को काम में लाकर नैनवा के लोगों की तौबा क़ुबूल की फ़रमाई और उस की पेशगोई को पूरा ना होने ना दिया। (3:4 ता 10, 4:1)
पस अम्बिया-अल्लाह के पैग़ाम का वो हिस्सा जिसका ताल्लुक़ ज़माना-ए-मुस्तक़बिल से था हमेशा मशरूअत (शर्तों के साथ) होता था। अगर इन्सान तौबा करके ख़ुदा की तरफ़ रुजू करे तो नबी की पेश ख़बरी के अल्फ़ाज़ पूरे नहीं हो सकते क्योंकि ख़ुदा रहीम व करीम है और अपने लोगों के गुनाह माफ़ फ़रमाता है। (यर्मियाह 18:1 ता 12, 26:12 ता 19 वग़ैरह) हम इस बात को एक आम मिसाल से वाज़ेह कर देते हैं। किसी पेश गोई में और उस के पूरा होने में बईना वही ताल्लुक़ है जो बीज और दरख़्त में होता है। हर पेश ख़बरी ख़ुदा की रास्तबाज़ी और क़ुद्दुसियत के उसूल अपने अंदर रखती है जो तुख़्म की तरह है। जिस तरह साज़गार हालात में तुख़्म नशव व नुमा पाता है और रफ़्ता-रफ़्ता तनावर दरख़्त हो जाता है, इसी तरह ख़ुदा की रास्तबाज़ी के अटल उसूल की वजह से पेश ख़बरी मुवाफ़िक़ माहौल में नशव व नुमा पा कर ज़बरदस्त वाक़िये की सूरत इख़्तियार कर लेती है और ये वाक़िया क़ौम की तरक़्क़ी या तनज़्ज़ुल का बाइस होता है। किसी पेशगोई की तक्मील और इस अज़मी और अटल कानून-ए-फ़ित्रत पर मुन्हसिर है कि जो शख़्स या क़ौम ख़ुदा के अहकाम से बर्गशतगी इख़्तियार कर लेती है उस का अंजाम तबाही है। बरअक्स इस के जब कोई शख़्स या क़ौम रज़ा-ए-ईलाही के मुताबिक़ अपनी ज़िंदगी को ढालती है इस का क़ुदरती नतीजा इन्फ़िरादी फ़लाह बहबूदी और क़ौमी तरक़्क़ी है। अम्बिया-ए-साबक़ीन की कुतुब का मुतालआ ये साबित कर देता है कि अम्बिया सिर्फ़ अनुमानों में ही आइन्दा वाक़ियात की ख़बरें दिया करते थे और सिर्फ उन्ही माअनों में पेशगोई नबुव्वत का जुज़्व हो सकती है। लेकिन अगर पेशगोई और नबुव्वत से ये मुराद हो कि अम्बिया किराम ने ऐसे वाक़ियात की ख़बर दी है जो उनके मरने के सदीयों बाद ज़हूर में आए और उन के अल्फ़ाज़ लफ़्ज़ ब लफ़्ज़ और हर्फ़ ब हर्फ़ पूरे हुए तो किताब मुक़द्दस से इस क़िस्म के नज़रिये को कोई सहारा नहीं मिलता।
मिसाल के तौर पर सय्यदना मसीह की पेशगोई को लें। आपने यरूशलेम की तबाही और क़ौम यहूद की बर्बादी की ख़बर दी। (मर्क़ुस 10 बाब, लूक़ा 21 बाब, मत्ती 23 बाब 29 ता 36 वग़ैरह) आँख़ुदावंद की इन पेश ख़बरियों से (जिनका ताल्लुक़ नज़्दीक के मुस्तक़बिल से ही था) ये वाज़ेह हो जाता है कि अम्बिया अल्लाह किन माअनों में मुस्तक़बिल की ख़बरें दिया करते थे। आँख़ुदावंद अपनी क़ौम को तौबा की दावत देते रहे ताकि ख़ुदा की बादशाहत और उस की रास्तबाज़ी दुनिया में क़ायम हो जाए। लेकिन रऊसाए (रईस की जमा) क़ौम यहूद शैतानी तहरीकात पर चल कर ख़ुदा के पाक क़वानीन की ख़िलाफ़वर्ज़ी करते रहे। पस आँख़ुदावंद ने उनको ख़बरदार किया और फ़रमाया कि ख़ुदा के रुहानी क़वानीन अटल हैं जिनको तोड़ने का नतीजा क़ौमी बर्बादी होगी। बिल-आख़िर 70 ई॰ में बनी-इस्राईल को वो दिन देखना पड़ा क्योंकि उन्होंने तौबा ना की और आँख़ुदावंद की ये पेशगोई पूरी हुई क्योंकि ख़ुदा के अज़ली क़ानून-ए-फ़ित्रत के मुताबिक़ उस की तक्मील लाज़िमी थी।
काज़िब (झूठे) नबी की शनाख़्त
किताब मुक़द्दस का मुतालआ ये ज़ाहिर कर देता है कि झूटे नबी की शनाख़्त ये नहीं है कि उस की पेश गोईयां पूरी नहीं होतीं। हक़ीक़त ये है कि झूटे नबी मुख़्तलिफ़ क़िस्म के हुआ करते थे और क़ौम के सामने मुख़्तलिफ़ रंगों में आया करते थे। वो गिरगिट की तरह क़ौम के मज़्हबी और सियासी हालात और पार्टीयों की ताक़त के मुताबिक़ अपना रंग बदल लिया करते थे। जब बादशाह-ए-वक़्त बुत-परस्ती की जानिब माइल होता तो वो बुत-परस्ती के हामी हो जाते। कभी वो किसी सियासी पार्टी के लीडरों से मिलकर उनके प्रोग्राम के मुताबिक़ उनकी सी बातें करते और क़ौम को कहते कि ये ख़ुदा का पैग़ाम है। (यर्मियाह 14:14, 23:16 ता 26 वग़ैरह) कभी वो अपना पेट पालने के लिए उमरा और रऊसा-ए-मुल्क को ख़ुश करने की ख़ातिर उनकी तरफ़दारी करके अपने कलाम को ख़ुदा की जानिब मन्सूब कर देते थे। (हिज़्क़ीएल 13:2 ता 7, मीकाह 3:11 रोमीयों 16:18, 2_पतरस 2:3)
चुनान्चे हज़रत यर्मियाह कहता है “नबियों की बाबत मेरा दिल टूट गया। मेरी हड्डियां थरथराती हैं। नबी और काहिन दोनों नापाक हैं। उन्होंने बाअल के नाम से नबुव्वत की और मेरी क़ौम इस्राईल को गुमराह किया। नबी ज़िनाकार, झूट के पैरू और बदकारों के हामी हैं। उनकी वजह से तमाम मुल्क में बेदीनी फैली है। वो बतालत की ताअलीम देते हैं। वो अपने दिलों के इल्हाम बयान करते हैं ना कि ख़ुदावंद के मुँह की बातें। मैं (ख़ुदा) ने इन नबियों को नहीं भेजा पर ये दौड़ते फिरते। मैंने उनसे कलाम नहीं किया पर उन्होंने नबुव्वत की, लेकिन अगर वो मेरी मज्लिस में शामिल होते तो मेरी बातें मेरे लोगों को सुनाते और उन को उनकी बुरी राह से और उन के बुरे कामों की बुराई से बाज़ रखते। कब तक ये नबियों के दिल में रहेगा कि झूटी नबुव्वत करें। वो अपने दिल की फ़रेब-कारी के नबी हैं। ख़ुदावंद फ़रमाता है, मैं उन नबियों का मुख़ालिफ़ हूँ जो अपनी ज़बान को इस्तिमाल करते हैं और कहते हैं कि ख़ुदा फ़रमाता है।” (यर्मियाह 23 बाब 6:13 वग़ैरह)
सय्यदना मसीह ने भी झूटे नबियों का यही मेयार मुक़र्रर फ़रमाया है “झूटों नबियों से ख़बरदार रहो जो तुम्हारे पास भेड़ों के भेस में आते हैं। लेकिन बातिन में फाड़ने वाले भेड़िए हैं। उनके फलों से तुम उनको पहचान लोगे। क्या झाड़ीयों से अंगूर या ऊंट कटारों से इंजीर तोड़ते हैं? पस उनके फलों से तुम उनको पहचान लोगे।” (मत्ती 7:15 ता 20)
किताब मुक़द्दस में चंद झूटे नबियों का अहवाल और उन की इबरतनाक सज़ा का ज़िक्र भी आया है। (इस्तिस्ना 13:1 ता 3, 1 सलातीन 12:18, 22:6 ता 12, 2 तवारीख़ 18:5, यर्मियाह 14:20, 23, 28, 29 बाब, नोहा 2:14, ज़करीया 13:3 वग़ैरह) मुक़द्दस पौलुस रसूल ऐसे ही लोगों की निस्बत फ़रमाता है कि, “उनका ख़ुदा पेट है और वह दुनिया की चीज़ों के ख़याल में रहते हैं। वो ख़ुदा की नहीं बल्कि अपने पेट की ख़िदमत करते हैं और चिकनी चुपड़ी बातों से सादा लौहों को बहकाते हैं।” (फिलिप्पियों 3:19 रोमीयों 16:18)
लेकिन ये ज़ाहिर है कि ख़ुदा उस क़ुमाश के लोगों की मार्फ़त कलाम नहीं करता क्योंकि उनके ज़हन ईलाही इर्फ़ान के नूर से मुनव्वर नहीं होते। सच्ची नबुव्वत का ताल्लुक़ हक़ीक़ी दीनदारी से है जिसका अव्वलीन उसूल ये है कि जो अहद ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस बरहक़ ने क़ौम इस्राईल से बाँधा था उस पर अमल दर-आमद हुआ और यही बात सच्चे और झूटे नबी के दर्मियान माया अल-इम्तियाज़ है। ख़ुदा के अहद के उसूलों को फ़रामोश करके पस-ए-पुश्त फेंक देना ही नबुव्वत की रूह को गुम कर देने के बराबर है। सच्चे नबी और हक़ीक़ी दीनदारी के हक़ायक़ और उसूल बयान करने वाले और अपने-अपने दौर और ज़माने के हालात में अपनी क़ौम को उनके उसूलों पर चलाने वाले इन्सान थे। उनके कलाम का ताल्लुक़ बराह-ए-रास्त और ख़ास तौर पर उनके अपने ज़माने और उन के अपने हम-अस्रों के साथ होता था जिनको वो राह-ए-हिदायत पर चलाना अपना फ़र्ज़ मन्सबी समझते थे।
इब्रानी लफ़्ज़ “नाबि” (نابی) का मफ़्हूम
इब्रानी ज़बान में लफ़्ज़ नाबि (نابی) के सरफी और लुगवी मअनी में पेश ख़बरी का मफ़्हूम मौजूद नहीं।1 मसलन जब हज़रत अब्राहाम को नबी कहा गया। (पैदाइश 20:7) या दीगर बुज़ुर्गान इस्राईल को नबी का ख़िताब दिया गया है। (ज़बूर 105:15) तो इस से ये मुराद नहीं कि वो पेश गोईयां करने वाले थे, बल्कि इस लफ़्ज़ से मुराद ये थी कि इन बुज़ुर्गान क़ौम को ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) हासिल थी और वो रज़ा-ए-ईलाही को लोगों पर ज़ाहिर करने वाले क़ौमी पेशवा थे। बअल्फ़ाज़-ए-क़ुरआन वो “इमाम” और “रहनुमा” थे। अला-हाज़ा-उल-क़यास (इसी तरह) हज़रत मूसा को नबी इस वास्ते कहा गया है कि वो उस पुराने अहद के ऐलान करने वाले थे जो ख़ुदा ने बनी-इस्राईल से बाँधा था। वो ख़ुदा की मर्ज़ी को अपनी क़ौम पर ज़ाहिर किया करते थे, लेकिन उनका कलाम पेशगोई करना ना था बल्कि उस का फ़र्ज़ मन्सबी ये था कि वो क़ौम के हादी और राहनुमा हों। इसी वास्ते तौरात शरीफ़ में हज़रत मूसा में और पेश गोईयां करने वालों में तमीज़ की गई है। (गिनती 12:6 ता 7) जिस तरह हज़रत हारून, हज़रत मूसा के पयाम्बर थे इसी तरह हज़रत मूसा ख़ुदा के नबी और पयाम्बर थे। (ख़ुरूज 7:1) अला-हज़ा-उल-क़यास (इसी तरह) हज़रत समुएल ख़ुदा के नबी इसलिए नहीं थे कि वो पेश गोईयां किया करते थे बल्कि वो ख़ुदा के नबी थे क्योंकि वो अपनी क़ौम के हादी थे। उन्होंने अम्बिया ज़ादों के मदरसे क़ायम किए। (1 समुएल 10:5, 19:19, 2 सलातीन 2:3 ता 5:4-38, 6:1 वग़ैरह) ताकि इनमें तौरात शरीफ़ का मुतालआ किया जाये।
पस हक़ीक़त ये है कि इब्रानी में लफ़्ज़ “नबी” के मफ़्हूम में पेश ख़बरी के अन्सर को कोई ख़ास जगह हासिल नहीं है। बल्कि लफ़्ज़ “नबी” के मअनी ये हैं कि ख़ुदा अपने पयाम्बर की पुश्त पर है और अपनी रब्बानी तहरीक से उस को अपने ज़माने और क़ौम के लोगों से बोलने पर मज्बूर करता है। नबी को ये पैग़ाम ख़ुदा की तरफ़ से मिलता था और उसे पैग़ाम दिए बग़ैर चैन ना आता था। (1 समुएल 9:15, यर्मियाह 1:6, हिज़्क़ीएल 3:14, आमोस 3:8 वग़ैरह) ख़्वाह नबी पैग़ाम पहुंचाना ना भी चाहे ताहम वो इस को पहुंचाए बग़ैर ना रह सकता था। (ख़ुरूज 4:10 ता 13 वग़ैरह) बक़ौल शख्से :-
मुराद रदीसत अन्दर दिल अगर गोयम ज़बां सोज़द
वगर दम दर कुशम तर्सम् कि मग़्ज़ उस्तुख़्वाँ सोज़द
مراد ردیست اندردل اگر گوئم زباں سوزد
وگردم درکشم ترسم کہ مغز استخواں سوزد
1 Smith’s Dictionary of the Bible .vol.2.p.929
नबुव्वत और फ़ल्सफ़ा तारीख़
नाज़रीन पर अब ज़ाहिर हो गया होगा कि अम्बिया साबक़ीन की ज़िंदगी के वाक़ियात, पैग़ामात और कलिमात इस नज़रिये के सरासर ख़िलाफ़ हैं कि नबुव्वत और पेशगोई मुतरादिफ़ अल्फ़ाज़ हैं। ख़ुदा अपने अम्बिया को इस मक़्सद के लिए बरपा नहीं करता कि वो बनी-नूअ इन्सान पर दूर व नज़्दीक के मुस्तक़बिल के हालात ज़ाहिर करे। किताब-ए-मुक़द्दस का मुतालआ इस क़िस्म के क़ियास को बातिल साबित करता है कि अम्बिया को नबुव्वतें गोया मअकूस तारीख़ (Inverted History) होती हैं। ऐसा कि अगर दुनिया के तवारीख़ी वाक़ियात की तर्तीब को शुरू से आख़िर तक उलट दिया जाये तो वो अम्बिया-अल्लाह की नबुव्वतें बन जाती हैं और अगर इन नबुव्वतों को ज़माना-ए-मुस्तक़बिल में फैला दिया जाये तो वो क़ियामत तक के तारीख़ी वाक़ियात बन जाती हैं। लेकिन नबुव्वत कोई मअकूस तारीख़ नहीं है। इस के बरअक्स नबुव्वत का फ़ल्सफ़ा तारीख़ है जिसमें दौर-ए-हाज़रा के वाक़ियात पर ख़ुदा-ए-बरतर व क़ुद्दूस की ज़ात व सिफ़ात की रोशनी में तब्सिरा किया जाता है। और ये बताया जाता है कि अगर अफ़राद या क़ौम ने ख़ुदा के अहकाम की ख़िलाफ़वर्ज़ी की तो मुस्तक़बिल में उनका क्या हश्र होगा। नबी दुनियावी तारीख़ी वाक़ियात के अंदरूनी मुतालिब, पिन्हानी मक़ासिद और पोशीदा मआनी को क़ौम पर ज़ाहिर करता है। यही वो फ़र्ज़ था जो ख़ुदा तआला ने अपने ख़िदमतगुज़ार नबियों के सपुर्द किया था। अम्बिया किराम का ये काम नहीं था कि उन लोगों और वाक़्यों को ख़बरें जो हज़ारों साल बाद होने वाले थे। वो फ़ालगीर और नजूमी या रुमाल और जोतशी नहीं थे बल्कि ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस के फ़रमांबर्दार पयाम्बर और बर्गुज़ीदा थे।
नबुव्वत का मफ़्हूम और इन्जील
पस अहद-ए-अतीक़ की कुतुब का मुतालआ हम पर साबित कर देता है कि अम्बिया-ए-किराम का अव्वलीन फ़र्ज़ ये था कि क़ौम इस्राईल को हिदायत की राह पर चलाएं। इन्जील जलील का मुतालआ भी ये ज़ाहिर कर देता है कि ख़ुदा के नबी का ये फ़र्ज़ था कि लोगों को आने वाले ग़ज़ब की इत्तिला दे। (लूक़ा 3:7 ता 20) और मुनादी करे कि तौबा करो और तौबा के मुवाफ़िक़ फल लाओ।” (मत्ती 3:2, 8) हज़रत इब्ने अल्लाह (मसीह) ने भी अपनी नबुव्वत का ज़माना इसी तरह शुरू किया। (मत्ती 4:17) और इसी तरह ख़त्म किया। (मत्ती 23 बाब) ख़ुदावंद का रसूल मुक़द्दस पौलुस मुख़्तलिफ़ नेअमतों के तज़्किरे के दौरान में फ़रमाता है कि तुम मुहब्बत के तालिब हो और रुहानी नेअमतों की भी आरज़ू रखो ख़ुसूसुन इस की कि नबुव्वत करो।” और नबुव्वत का मफ़्हूम इन अल्फ़ाज़ में बतलाता है कि “जो नबुव्वत करता है वो कलीसिया की तरक़्क़ी करता है। पस मैं ज़्यादातर यही चाहता हूँ कि तुम नबुव्वत करो।” (1 कुरिन्थियों 14:1 ता 5) रसूल मक़्बूल अम्बिया-ए-साबक़ीन की नबुव्वतों की निस्बत फ़रमाता है। जितनी बातें पहले लिखी गईं वह हमारी ताअलीम के लिए लिखी गईं ताकि सब्र से और किताब-ए-मुक़द्दस की तसल्ली से उम्मीद रखें। (रोमीयों 15:4) वो अपनी नबुव्वत की निस्बत फ़रमाता है कि “वो झूटे नबियों की बातों की मानिंद नहीं है बल्कि ख़ुदा को हाज़िर व नाज़िर जान कर कहता है कि हमारी नसीहत ना तो गुमराही से है, ना नापाकी से ना फ़रेब के साथ बल्कि जैसे ख़ुदा ने हमको मक़्बूल करके इन्जील हमारे सपुर्द की वैसे ही हम बयान करते हैं। आदमीयों को नहीं बल्कि ख़ुदा को ख़ुश करने के लिए जो हमारे दिलों को आज़माता है। ना कभी हमारे कलाम में ख़ुशामद पाई गई और ना वो लालच का पर्दा बना ख़ुदा इस का गवाह है।” (1 थिस्सलुनीकियों 2:3 ता 5)
पस तौरात मुक़द्दस, अम्बिया-ए-साबक़ीन की किताबें, अहले-यहूद की कुतुब तवारीख़ और इन्जील जलील की तमाम किताबें सबकी सब इस बात पर गवाह हैं कि नबी का पहला और अव्वलीन फ़र्ज़ ये था कि ख़ुदा के पैग़ाम को अपनी क़ौम के लोगों तक पहुंचा दे ताकि वो ख़ुदा के अहकाम नसीहत और तसल्ली के कलिमात सुनकर सिराते मुस्तक़ीम (सीधी राह) पर क़ायम रहें। नबी का ये काम ना था कि दुनिया को हज़ारों बरस के बाद होने वाले वाक़ियात या आने वाले पैग़म्बरों की इत्तिला दे बल्कि उस का फ़र्ज़ मन्सबी ये था कि वो नज़ीर और बशीर हो कर मख़्लूक़-ए-ख़ुदा को राह़-ए-हिदायत पर चलाए।
नबी किस के हक़ में कहता है
मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाला) ये सवाल कर सकता है कि अगर नबुव्वत का मफ़्हूम यही है और अम्बिया का ये काम नहीं था कि सदीयों बाद के किसी आने वाले पैग़म्बर या वाक़िये की ख़बर दें तो सय्यदना मसीह के रसूल और इन्जील नवीस क्यों कहते हैं “जो ख़ुदावंद ने नबी की मार्फ़त कहा था वो पूरा हुआ?” (मत्ती 1:22 वग़ैरह) जवाबन अर्ज़ है :-
सय्यदना मसीह ने ख़ुद फ़रमाया और आप के रसूल और मुबल्लिग़ भी यही समझे कि आपकी आमद की इल्लत-ए-ग़ाई (नतीजा) यही थी कि आपके मिशन से तौरात और अम्बिया की हस्ती का अस्ल मक़्सद तक्मील पाया जाये। (मत्ती 5:17, रोमीयों 13:8 ता 10, ग़लतीयों 3:24 वग़ैरह) वो ये भी समझते थे कि अम्बिया-ए-साबक़ीन की कुतुब आँख़ुदावंद के काम और पैग़ाम की रोशनी में माअनी-ख़ेज़ हो जाती हैं। (लूक़ा 4:18 ता 22:24-27, यूहन्ना 1:45, 5:39, आमाल 8:35 वग़ैरह) वो मुनज्जी आलमीन की मुबारक ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ मराहिल व मनाज़िल पर बारीक निगाह करके अम्बिया-ए-साबक़ीन की कुतुब मुक़द्दसा के अल्फ़ाज़ को उन पर चस्पाँ करके तफ़्सील वार ये बतलाएं कि आपके सवानिह हयात, मोअजज़ात बय्यिनात और कलिमात-ए-तय्यिबात में और उनकी किताबों की पेश ख़बरियों में हर पहलू से मुताबिक़त मौजूद है। हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने कभी अपनी मुक़द्दस ज़िंदगी के ख़फ़ीफ़ वाक़ियात में और अम्बिया-ए-साबक़ीन की किताबों के अल्फ़ाज़ में मुताबिक़त दिखला कर अहले-यहूद से ना फ़रमाया कि पेश गोइयों के अल्फ़ाज़ (जो सदीयों पहले के हैं) हू-ब-हू वाज़ेह और साफ़ तौर पर एक-एक करके मेरे लिए और सिर्फ मेरे लिए ही लिखे गए हैं। और उनका ताल्लुक़ अम्बिया साबक़ीन के ज़माने से या उन के नज़्दीक के मुस्तक़बिल से ना था। जब हज़रत कलिमतुल्लाह अम्बिया-ए-साबक़ीन का ज़िक्र करते हैं। तो इन मुक़ामात का सतही मुतालआ भी ये ज़ाहिर कर देता है कि आपके ज़हन मुबारक में ताकीद लफ़्ज़ी का ख़याल तक मौजूद नहीं है बल्कि आपका ज़ोर बयान इन किताबों के रुहानी मफ़्हूम की जानिब से उन अम्बिया के पैग़ाम का माहसल था। आप बताकीद फ़र्माते हैं कि बनी-इस्राईल के शारअ सलातीन, अम्बिया सब के सब इस रुहानी मक़्सद के हुसूल और तक्मील के देखने के ख़्वाहिशमंद थे जो आपकी मुबारक आमद से कामिल हुआ। (मत्ती 13:17, लूक़ा 10:23 ता 24, 17:22, यूहन्ना 8:57, इब्रानियों 13:13, 29, 40, 1 पतरस 1:1 ता 12)
हाँ ये एक क़ुदरती बात थी कि जब आँख़ुदावंद के रसूल इन्जील नवीसों और मुबल्लिगों ने मुनज्जी आलमीन की ज़फ़रयाब क़ियामत के बाद आप के सवानिह हयात, सलीबी मौत और क़ियामत की रोशनी में अम्बिया-ए-साबक़ीन की कुतुब-ए-मुक़द्दसा का मुतालआ किया तो उनको जगह-जगह ऐसे मुक़ामात नज़र आए जो हुज़ूर की ज़िंदगी मौत और क़ियामत पर ऐन बईन सादिक़ आते थे।
मसलन जब हम अम्बिया-अल्लाह की कुतुब का मुतालआ करते हैं तो हम पर ज़ाहिर हो जाता है कि क़ौम इस्राईल के नबी ख़ुदा की सल्तनत के क़ायम करने में सदा कोशां रहते थे। लेकिन जब उन्होंने देखा कि शाहाँ-ए-इस्राईल उनके लायेहा-ए-अमल पर नहीं चलते बल्कि मुतअद्दिद नालायक़ बादशाह ख़ुदा की बादशाहत के क़वानीन की सरीह ख़िलाफ़वर्ज़ी करके क़ौम इस्राईल के ज़वाल का बाइस बन रहे हैं। (2 तवारीख़ 18 बाब ता आख़िर) तो वो एक सादिक़ बादशाह और रास्तबाज़ हुक्मरान की नबुव्वत करते जो अर्ज़-ए-मुक़द्दस पर सदाक़त से सल्तनत करेगा और ख़ुदा की बादशाहत ज़मीन पर क़ायम करेगा ऐसा कि एक नई ज़मीन और नया आस्मान माअरज़-ए-वजूद में आ जाएगा। मिसाल के तौर पर यसअयाह नबी की नबुव्वत मुलाहिज़ा फ़रमाएं :-
“यस्सी के तने से एक कोन्पल निकलेगी और उस की जड़ों से एक बारावर शाख़ पैदा होगी और ख़ुदावंद की रूह उस पर ठहरेगी। हिक्मत और ख़िर्द की रूह मस्लिहत और क़ुदरत की रूह, मार्फ़त और ख़ुदावंद के ख़ौफ़ की रूह, वो रास्ती से मिस्कीनों का इन्साफ़ करेगा। वो अपने लबों के दम से शरीरों को फ़ना कर डालेगा। उस की कमर का पटका रास्तबाज़ी होगी और उस के पहलू पर वफ़ादारी का पटका होगा। पस भेड़िया बर्रे के साथ रहेगा और चीता बकरी के बच्चे के साथ बैठेगा और बछड़ा और शेर बच्चा और पला हुआ बैल मिल-जुल कर रहेंगे। दूध पीता बच्चा साँप के बिल के पास खेलेगा। जिस तरह समुंद्र पानी से भरा है उसी तरह ज़मीन ख़ुदावंद के इर्फ़ान से मामूर होगी। लोग यस्सी की इस जड़ के तालिब होंगे जो लोगों के लिए एक निशान है और उस की आरामगाह जलाल होगी।” (यसअयाह 11:1 ता 11, 4:5, 9:6, यर्मियाह 23:5 वग़ैरह)
इसी तरह जब अम्बिया-अल्लाह ने क़ौम इस्राईल की ज़बून हाली और अबतर हालत का मुलाहिज़ा किया तो वो दस्त-ए-तास्सुफ़ (अफ़्सोस) मिलकर बार-बार अपनी क़ौम को वो अहद याद दिलाते थे जो उन्हों ने ख़ुदा से किया था और जिस को क़ौम ने अपनी बर्गुज़ीदगी को फ़रामोश करके पसे-पुश्त फेंक दिया था। इन अम्बिया ने उनको जतला दिया कि ख़ुदा के लोग कामिल होंगे जब ख़ुदा ख़ुद उनके दर्मियान सुकूनत करेगा। (यसअयाह 9 बाब, सफ़नियाह 3:16-40, बाब ज़बूर 102 वग़ैरह)
लेकिन अहले-यहूद के अम्बिया में इस क़द्र वुसअत नज़री ना थी कि वो मज़्कूर बाला दोनों तसव्वुरात को यानी एक कामिल सुल्तान और एक कामिल क़ुद्दूस हस्ती के तसव्वुरात को किसी एक शख़्सियत में यकजा कर के कहते कि ख़ुदा की बादशाहत का बादशाह यानी ख़ुद ख़ुदा लोगों के दर्मियान सुकूनत करेगा। लेकिन जब सय्यदना मसीह मबऊस हुए तो आपके रसूलों और मुबल्लिगों ने देखा कि ये दोनों तसव्वुरात आपकी पाक और कामिल ज़ात में बवजह अह्सन पाए जाते हैं। यही वजह है कि अनाजील अरबा में यसअयाह के चालीसवे (40) बाब का इतलाक़ आँख़ुदावंद पर किया गया है और इब्रानियों के ख़त का मुसन्निफ़ ज़बूर 102 को मसीह मौऊद की जानिब मन्सूब करता है। अला हाज़ा-उल-क़यास सय्यदना मसीह के रसूलों ने आपकी ज़िंदगी में ख़ुदा को देखा (यूहन्ना 14:8 ता 10) और उनको अम्बिया-ए-साबक़ीन की कुतुब मुक़द्दसा के वो मुक़ामात याद आ गए जिनमें लिखा था कि ख़ुदा ख़ुद अपनी क़ौम के दर्मियान सुकूनत करेगा। (हिज़्क़ीएल 37:26 ता 28)
लेकिन जब अम्बिया-ए-साबक़ीन ने ये नबुव्वतें की थीं तो उन के अल्फ़ाज़ का हरगिज़ ये मक़्सद ना था कि उनके काम करने के सदीयों बाद उन के अल्फ़ाज़ का इतलाक़ किसी ख़ास मसीह मौऊद पर होगा। इन कुतुब मुक़द्दसा के मसीही नाज़रीन इन अम्बिया के कलाम की सदाक़त को सय्यदना मसीह की ज़बान-ए-हक़ीक़त तर्जुमान की ताअलीम, मोअजिज़ात-ए-बय्यिनात, वाक़ियात ज़िंदगी, ज़फ़र-याब क़ियामत और सऊद आस्मानी में पाते थे। पस वो तबअन इन किताबों के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात को जो मुनज्जी जहान के सवानिह हयात की रोशनी में माअनी-ख़ेज़ हो जाते थे आँख़ुदावंद की जानिब मन्सूब करते थे। ये मसीही नाज़रीन अम्बिया-ए-साबक़ीन के कलाम को आँख़ुदावंद की ज़ात-ए-बाबरकात पर चस्पाँ करके अपने हम-अस्र यहूद पर साबित करते थे कि सय्यदना मसीह सरवर अम्बिया है जिसकी ज़ात में इस्तिस्ना (18:15) के अल्फ़ाज़ बदर्जा अहसन पूरे होते हैं। (आमाल 3:14 ता आख़िर, 7 बाब वग़ैरह) वो नए अहद के दर्मियानी हैं और आस्मान की बादशाहत के हक़ीक़ी फ़र्मांरवा हैं। (मत्ती 25:31 ता 34, लूक़ा 19:38, मुकाशफ़ा 17:14, 19:16 वग़ैरह)
इस सिलसिले में एक और अम्र क़ाबिल-ए-ज़िक्र है। अम्बिया-ए-अकबर में से हज़रत यसअयाह नबी की किताब में ख़ादिम यहोवा का आली मक़ाम तसव्वुर मौजूद है (अबवाब 40 ता आख़िर) मसलन लिखा है कि ख़ुदावंद फ़रमाता है :-
“मेरा ख़ादिम बहुत सी क़ौमों को पाक करेगा। वो आदमीयों में हक़ीर मर्द-ए-ग़मनाक और रंज का आश्ना था। उस की तहक़ीर की गई और हमने उस की कुछ क़द्र ना जानी तो भी उसने हमारी मशक़्क़तें उठा लीं और हमारे ग़मों को बर्दाश्त किया पर हम ने उसे ख़ुदा का मारा कुटा और सताया हुआ समझा। हालाँकि वो हमारी ख़ताओं के सबब से घायल किया गया और हमारी बदकिर्दारी के बाइस कुचला गया। हमारी ही सलामती के लिए उस पर सियासत हुई ताकि उस के मार खाने से हम शिफ़ा पाएं। हम सब भेड़ों की मानिंद भटक गए। हम में से हर एक अपनी राह को फिरा पर ख़ुदा ने हम सबकी बदकिर्दारी उस पर लादी। वो सताया गया तो भी उसने बर्दाश्त की और मुँह ना खोला। जिस तरह बर्रा जिसे ज़ब्ह करने को ले जाते हैं और जिस तरह भेड़ अपने बाल कतरने वालों के सामने बेज़बान है, उसी तरह वो ख़ामोश रहा। वो ज़ुल्म करके और फ़तवा लगा कर उसे ले गए पर उस के ज़माने के लोगों में से किस ने ख़याल किया कि वो ज़िंदों की ज़मीन से काट डाला या गया? मेरे लोगों की ख़ताओं के सबब से उस पर मार पड़ी हालाँकि उसने किसी तरह का ज़ुल्म ना किया और उस के मुँह में हरगिज़ छल ना था।” (53:3 ता 9)
यसअयाह नबी की किताब के आख़िरी 26 बाब के मुक़ामात और बिलख़ुसूस मज़्कूर बाला मुक़ाम का एक-एक फ़िक़्रह मुनज्जी आलमीन की ज़िंदगी और सलीबी मौत की रोशनी में माअनी-ख़ेज़ हो जाता है। क्या ये जाये ताज्जुब है कि ख़ुद सय्यदना मसीह ने और आप के रसूलों और मुबल्लिगों ने इन अबवाब के मुक़ामात का इतलाक़ आपकी मुबारक ज़ात पर किया? (लूक़ा 4:18, 24:25, 22:22, आमाल 2:23, 8:32 ता 38 वग़ैरह)
इस मसअले पर एक और पहलू से निगाह कीजिए। अम्बिया-अल्लाह की कुतुब में काहिनों के मुताल्लिक़ ऐसे मुक़ामात वारिद हुए हैं, जिनको सय्यदना मसीह के रसूलों ने अपने मुनज्जी की ज़िंदगी और मौत की रोशनी में पढ़ कर आपकी ज़ात-ए-पाक पर चस्पाँ किए क्योंकि वो आपके सवानिह हयात की रोशनी में पुर-माअनी हो जाते हैं (ज़करीयाह 4:8, 6:12, ज़बूर 110 वग़ैरह) यहूदी मसीही मुबल्लग़ीन ने इन मुक़ामात के ज़रीये अपने हम-अस्र अहले-यहूद को समझाया कि आला तरीन कहानत का बेहतरीन मफ़्हूम सय्यदना मसीह और सय्यदना मसीह की कहानत में ही कामिल तौर पर ज़हूर पज़ीर हुआ। (इब्रानियों 4:14, 10:25) अला हाज़ा-उल-क़यास (इसी तरह) ज़बूर की किताब में जाबजा एक क़ुद्दूस हस्ती का ज़िक्र आता है (ज़बूर 16:40 वग़ैरह) मसीही मुबल्लग़ीन ने हज़रत रूह-उल्लाह के सवानिह हयात की रोशनी में इन मुक़ामात का जब मुतालआ किया तो उन पर इन मुक़ामात का सही मफ़्हूम रोशन हो गया।
पस अम्बिया-ए-साबक़ीन के वो अल्फ़ाज़ जिनका ज़िक्र इन्जील जलील में आता है दरअस्ल सदीयों बाद के किसी आने वाले शख़्स के लिए खासतौर पर पेश गोइयों के तौर पर नहीं लिखे गए थे। अस्ल हक़ीक़त ये है कि इन अल्फ़ाज़ का ताल्लुक़ उन अम्बिया के ज़माने या उस ज़माने के नज़्दीक के मुस्तक़बिल के किसी तवारीख़ी वाक़िये या शख़्स के साथ था। मसलन यसअयाह नबी की ये इबारत मुलाहिज़ा हो :-
“ख़ुदावंद ने आख़ज़ बादशाह से फ़रमाया, ख़ुदावंद अपने ख़ुदा से कोई निशान तलब कर लेकिन आख़ज़ ने कहा, मैं तलब नहीं करुंगा और ख़ुदावंद को नहीं आज़माऊँगा तब उसने कहा, ऐ दाऊद के ख़ानदान अब सुनो। क्या तुम्हारा इन्सान को बेज़ार करना कोई हल्की बात है कि मेरे ख़ुदा को भी बेज़ार करोगे? लेकिन ख़ुदावंद आप तुमको एक निशान बख़्शेगा। देखो एक कुँवारी हामिला होगी और बेटा पैदा होगा और वो उस का नाम इम्मानुएल रखेगी। पर इस से पेशतर कि ये लड़का नेकी और बदी के रद्द व क़ुबूल के क़ाबिल हो ये मुल़्क जिस के दोनों बादशाहों से तुझको नफ़रत है वीरान हो जाएगा। (यसअयाह 7:10 ता 16) ज़ाहिर है कि इस नबुव्वत का ताल्लुक़ नज़्दीक के मुस्तक़बिल के साथ है। लेकिन इन्जील नवीस की नज़रों में आयत 14 के अल्फ़ाज़ हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की पैदाइश की रोशनी में निहायत माअनी-ख़ेज़ हो गए और उस को ऐसा दिखाई दिया कि गोया ये आँख़ुदावंद की पैदाइश का हू-ब-हू नक़्शा है। (मत्ती 1:22 ता 23) इसी तरह जब मुख़्तलिफ़ ज़माने के अम्बिया यहूदी क़ौम और अफ़राद के अख़्लाक़ी अहया की ज़रूरत जतलाते हैं या बेहतरीन बादशाह का तसव्वुर पेश करते हैं या ख़ुदा के इस ख़ादिम का ज़िक्र करते हैं जिस पर क़ौम के गुनाहों की ख़ातिर सियासत हुई ताकि क़ौम को ख़लासी हासिल हो तो अगरचे वो अपने ही दौर के ख़ास हालात और तारीख़ी वाक़ियात को मद्द-ए-नज़र रखकर ख़ुदा का पैग़ाम अपनी क़ौम और नस्ल को पहुंचाते हैं ताहम कुतुब-ए-मुक़द्दसा के मसीही नाज़रीन के दिलों में वो पैग़ाम ऐसे ख़यालात क़ुदरतन पैदा कर देते हैं जिनकी तक्मील इन्जील जलील के औराक़ में नज़र आती है। क्योंकि तमाम अम्बिया-अल्लाह की नबुव्वत का मुन्तहा ख़ुदा का वो मक़्सद है जो सय्यदना मसीह में कामिल और अकमल तौर पर पूरा हुआ।
हक़ तो ये है कि जब आँख़ुदावंद आए और रूहुल-क़ुद्दुस ने आपके रसूलों के ज़हन खोले तो उन पर ज़ाहिर हो गया कि हज़रत कलिमतुल्लाह की ज़िंदगी, मौत और क़ियामत के माअनी ख़ेज़ वाक़ियात और उनके पिन्हानी मुतालिब अम्बिया-ए-साबक़ीन के तसव्वुरात से कहीं ज़्यादा बढ़ चढ़ कर थे। ये अम्बिया सय्यदना मसीह जैसे मसीह की सदीयों पहले तवक़्क़ो ही ना रखते थे क्योंकि उन के ख्वाब व ख़्याल में भी इस क़िस्म की हक़ीक़ी हस्ती नहीं आ सकती थी जिसमें वो तमाम सिफ़ात मौजूद हों जो मुख़्तलिफ़ अम्बिया मुख़्तलिफ़ ज़मानों में अपनी क़ौम में देखना चाहते थे। अम्बिया-ए-यहूद की पेश ख़बरीयाँ मुंतशिर थीं और उन का ताल्लुक़ मुख़्तलिफ़ ज़मानों की मुख़्तलिफ़ हस्तीयों के साथ था। अगर एक नबी किसी मेयारी (Ideal) बादशाह की नबुव्वत करता है तो दूसरा किसी मेयारी काहिन की ख़बर देता है। तीसरा एक मेयारी “ख़ादिम यहोवा” की ख़बर देता है जो अपनी जान दूसरों की ख़ातिर फ़िद्ये के तौर पर निसार कर देता है। चौथा एक क़ुद्दूस हस्ती की नबुव्वत करता है जिसकी ज़िंदगी आलम व आलमियान के लिए एक मेयार होगी वग़ैरह-वग़ैरह। ये मुख़्तलिफ़ क़िस्म की पेश गोईयां किसी एक ज़ात और शख़्स से मन्सूब नहीं थीं। ये बात किसी शख़्स के ख्व़ाब व ख़्याल में भी ना आई थी और ना आ सकती थी कि मुख़्तलिफ़ ज़मानों और मुख़्तलिफ़ किस्मों की ये पेश गोईयां किसी एक ज़ात में मजमाअ (जमा) हो सकती हैं। लेकिन जब रसूलों ने आँख़ुदावंद की ज़िंदगी, मौत और क़ियामत की रोशनी में उन पर नज़र की तो उनके हाथ एक ऐसी किलीद (चाबी) आ गई जो अम्बिया-अल्लाह की तमाम पेश ख़बरियों का वाहिद हल थी। चुनान्चे हज़रत मूसा, नातन नबी (2 समुएल 7 बाब) हज़रत आमोस, हज़रत होसेअ, हज़रत यसअयाह, हज़रत यर्मियाह, हज़रत मीकाह, मलाकी नबी, हज़रत दानीएल, (ज़बूर 2, 16, 22, 40, 69, 102, 110) के लिखने वालों की पेश ख़बरीयाँ और दीगर मुल्हम अम्बिया की माअनी-ख़ेज़ पेश गोईयां हर पहलू से एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ हैं लेकिन ईसा नासरी की ज़ात-ए-क़ुदसी सिफ़ात पर वो सबकी सब बदर्जा अहसन कामिल व अकमल तौर पर सादिक़ आती हैं। हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) बादशाह है लेकिन सच्चाई की सल्तनत का बादशाह है। (यूहन्ना 18:37) वो ताजदार है लेकिन उस का ताज कांटों का है। (मत्ती 27:29 ता 38, लूक़ा 23:42) वो मसीह है लेकिन मसीह मस्लूब भी है। (मत्ती 16:21 ता 26, मर्क़ुस 10:32 ता 33 वग़ैरह) वो ख़ादिम यहोवा है जो हमारी ख़ातिर दुख उठाता है और अपनी जान बहतरों के बदले में फ़िद्या देता है। (मत्ती 20:28) वो ख़ुदा है जो हमारे दर्मियान सुकूनत करता है। (यूहन्ना 1:14, 14:9, 12:45 वग़ैरह) वो काहिन है जो मलिक-सिदक़ के तरीक़े का सरदार काहिन है। (इब्रानियों 7 ता 10 बाब) ग़रज़ कि इन्जील जलील में एक मसीह का नक़्शा मौजूद है जिसमें वो तमाम सिफ़ात एक जगह जमा हैं जो बनी-इस्राईल के मुख़्तलिफ़ अम्बिया मुख़्तलिफ़ ज़मानों और हालतों में अपने अपने मेयारी अश्ख़ास में देखना चाहते थे। (लूक़ा 10:24, इब्रानियों 11:13, 1 पतरस 1: 10 ता 12 वग़ैरह)
हज़रत सादी अलैहि रहमा का मिसरा :-
हसनत जमी ख़साला
सय्यदना मसीह और सिर्फ सय्यदना मसीह की ज़ात-ए-पाक पर चस्पाँ हो सकता है।
पस हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के रसूल, मुबल्लिग़ और इन्जील नवीस इस वाज़ेह हक़ीक़त से आँख़ुदावंद की मसीहाई की सदाक़त साबित करते हैं और अपने यहूदी हम-अस्रों के अलल-उल-ऐलान (खुले आम) कहते हैं “जो ख़ुदावंद ने नबी की मार्फ़त कहा था पूरा हुआ।” (मत्ती 1:22 वग़ैरह) समुएल नबी से लेकर पिछलों तक जितने नबियों ने कलाम किया उन सबने इन दिनों की ख़बर दी है। तुम नबियों की औलाद और उस अहद के शरीक हो जो ख़ुदा ने तुम्हारे बाप दादा से बाँधा जब अब्राहाम से कहा कि तेरी औलाद से दुनिया के सब घराने बरकत पाएँगे। ख़ुदा ने अपने ख़ादिम ईसा को उठाकर पहले तुम्हारे पास भेजा ताकि तुम में से हर एक को उस की बदियों से फेर कर बरकत दे।” (आमाल 3:24 ता 26) जो नबुव्वत का अस्ल मक़्सद और हक़ीक़ी मफ़्हूम है।
नबुव्वत का मफ़्हूम और क़ुरआन
गो स्वर्गीय मिर्ज़ा जी कह गए हैं (और मुस्लिम उलमा बिल-उमूम उनसे मुत्तफ़िक़ हैं) कि “नबुव्वत” और “पेशगोई” मुतरादिफ़ अल्फ़ाज़ हैं और कि इस्लामी इस्तिलाह में सिर्फ वही शख़्स नबी कहलाने का मुस्तहिक़ है जिस पर “खुले तौर पर” और “बकस्रत” उमूर ग़ैबीया ज़ाहिर किए जाएं। लेकिन जैसा हम देख चुके हैं कि किताब-ए-मुक़द्दस का मुतालआ मिर्ज़ा जी की इस तारीफ़ को बातिल क़रार देता है और आप के इस दाअ्वे की तक़्ज़ीब करता है कि नबुव्वत के इस मफ़्हूम पर तमाम नबियों का इत्तिफ़ाक़ है। हम दिखला चुके हैं कि हक़ीक़त इस के बिल्कुल बरअक्स है। हक़ तो ये है कि तमाम नबियों को छोड़ कोई एक शख़्स भी मह्ज़ पेश गोईयां करने की ख़ातिर और सिर्फ पेशगोई की बिना पर कभी इस जलील-उल-क़द्र मन्सब पर सर्फ़राज़ नहीं किया गया।
क़ुरआन दानी के दो दर्जे हैं। एक दर्जा तिलावत का है जिसकी निस्बत क़ुरआन में आया है “यतलून किताब अल्लाह।” (یتلون کتاب الله) लेकिन इस से ऊपर का दर्जा क़ुरआन को ग़ौर और तदब्बुर के साथ पढ़ने का है (प 26, रुकू 17) अगर हमारे मुसलमान भाई मुन्दरिजा बाला नज़रिया क़ायम करने से पहले क़ुरआन शरीफ़ का ग़ौर व तदब्बुर से मुतालआ कर लेते तो अपने ग़लत रवैय्ये को इख़्तियार ना करते। क़ुरआन के मुताबिक़ सिर्फ अल्लाह ही आलिमुल-गै़ब है। (सूरह हुजरात रुकू 2 आयत 16 वग़ैरह) तमाम क़ुरआन को छान मारो इस सिफ़त में तुमको अल्लाह का कोई शरीक नहीं मिलेगा चह जायके वो मह्ज़ इन्सान ज़ईफ़-उल-बयान (आदम) हो।
क़ुरआन मजीद साफ़ कहता है कि आँहज़रत भी उन्ही माअनों में नबी हैं जिन माअनों में अम्बिया-ए-साबक़ीन नबी थे। चुनान्चे मुश्ते नमूना अज़-ख़रवार (ढेर में से मिट्टी भर, चंद) है ज़ेल की चंद आयात मुलाहिज़ा हों। अरबी की इबारत को बख़ोफ़ तवालत छोड़ दिया गया है।
“ऐ मुहम्मद हमने तेरी तरफ़ ऐसी वही भेजी है जैसी हमने नूह और इस के बाद और नबियों और इब्राहिम और इस्माईल और इस्हाक़ और याक़ूब और उस की औलाद और ईसा और अय्यूब और यूनुस और हारून और सुलेमान की तरफ़ भेजी थी और दाऊद को हमने ज़बूर की किताब दी। इनके इलावा कई रसूल हैं जिनका अहवाल हमने तुझे पहले सुनाया और कई रसूल हैं जिनका अहवाल हमने तुझे नहीं सुनाया। ख़ुदा ने मूसा से बातें की थीं। बहुत दीगर रसूल आ चुके हैं जो बशारत देने वाले और डराने वाले थे ताकि उन रसूलों के बाद लोगों को ख़ुदा पर इल्ज़ाम लगाने का मौक़ा ना रहे।” (सूरह निसा रुकू 23, आयत 161)
“ऐ मुहम्मद ! तुझसे भी वही कहा जाता है जो पहले रसूलों से कहा गया था। बेशक तेरे रब के मग़फ़िरत है और दर्दनाक अज़ाब भी है।” (सूरह हामीम सज्दा रुकू 5 आयत 42) क़ुरआन आँहज़रत की बिअसत (रिसालत का ज़माना, रिसालत) के मक़्सद को निहायत वज़ाहत के साथ बतला कर कहता है।
क़ुरआन आँहज़रत की बिअसत (रिसालत का ज़माना, रिसालत) के मक़्सद को निहायत वज़ाहत के साथ बतला कर कहता है।
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ إِنَّا أَرْسَلْنَاكَ شَاهِدًا وَمُبَشِّرًا وَنَذِيرًا
“ऐ नबी ! हमने तुझे गवाह और बशारत देने वाला और डराने वाला बना कर भेजा है और ख़ुदा की तरफ़ उस के हुक्म से बुलाने वाला है और रोशन चिराग़ है।” (सूरह अह्ज़ाब रुकूअ 6, आयत 44)
पस क़ुरआन शरीफ़ भी किताब मुक़द्दस के हम ज़बान हो कर कहता है कि नबी का काम पेश गोईयां करना नहीं है बल्कि आम्मतुन्नास (लोगों) को राह-ए-हिदायत की तरफ़ दावत देना है। लिहाज़ा ये इस्लामी इस्तिलाह बातिल है क्योंकि क़ुरआन के ख़िलाफ़ है। इलावा अज़ीं जब हम देखते हैं कि क़ुरआन बार-बार आँहज़रत की बाबत कहता है कि आप उमूर ग़ैबीया से नावाक़िफ़ हैं तो ये बात अहले-बसीरत पर रोशन हो जाती है कि ये इस्तिलाह “इस्लामी” हो तो हो लेकिन “क़ुरआनी” और “मुहम्मदी” इस्तिलाह हरगिज़ नहीं हो सकती। चुनान्चे चंद आयात मुलाहिज़ा हों :-
قُل لَّا أَقُولُ لَكُمْ عِندِي خَزَائِنُ اللَّهِ وَلَا أَعْلَمُ الْغَيْبَ وَلَا أَقُولُ لَكُمْ إِنِّي مَلَكٌ
“तू (ऐ मुहम्मद) कह, कि मैं तुमसे नहीं कहता कि मेरे पास ख़ुदा के खज़ाने हैं। मैं ये भी नहीं कहता कि मैं ग़ैब दान हूँ। और मैं ये नहीं कहता कि मैं फ़रिश्ता हूँ।” (सूरह अनआम रुकूअ 5 आयत 50)
फिर ताकीद व तकरार फ़रमाया :-
وَلَا أَقُولُ لَكُمْ عِندِي خَزَائِنُ اللَّهِ وَلَا أَعْلَمُ الْغَيْبَ وَلَا أَقُولُ إِنِّي مَلَكٌ وَلَا أَقُولُ لِلَّذِينَ تَزْدَرِي أَعْيُنُكُمْ لَن يُؤْتِيَهُمُ اللَّهُ خَيْرًا اللَّهُ أَعْلَمُ بِمَا فِي أَنفُسِهِمْ إِنِّي إِذًا لَّمِنَ الظَّالِمِينَ
“मैं तुमसे ये नहीं कहता कि ख़ुदा के खज़ाने मेरे पास हैं। मैं नहीं कहता कि मैं ग़ैब दान हूँ और मैं नहीं कहता कि मैं फ़रिश्ता हूँ और मैं उनके हक़ में (जिन) को तुम्हारी आँखें हिक़ारत से देखती हैं नहीं कहता कि ख़ुदा उनको कुछ भलाई देगा। जो कुछ उनके दिलों में है ख़ुदा ख़ूब जानता है। लेकिन अगर मैं ऐसा कहूं तो बेशक ज़ालिमों में हूँगा।” (हूद आयत 31 नीज़ देखो आराफ़ रुकूअ 23 वग़ैरह)
قُلْ مَا كُنتُ بِدْعًا مِّنَ الرُّسُلِ وَمَا أَدْرِي مَا يُفْعَلُ بِي وَلَا بِكُمْ إِنْ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰ إِلَيَّ وَمَا أَنَا إِلَّا نَذِيرٌ مُّبِينٌ
“तू (ऐ मुहम्मद) कह कि मैं कुछ नया रसूल नहीं हूँ। मैं नहीं जानता कि मेरे साथ क्या होगा और नहीं जानता कि तुम्हारे साथ क्या होगा। मैं तो सिर्फ खोल कर डर सुनाने वाला हूँ।” (सूरह अह्क़ाफ़ आयत 8)
मुहम्मद अरबी की पेश ख़बरीयाँ
मुन्दरिजा बाला साफ़ सरीह और वाज़ेह आयात-ए-क़ुरआनी की ऐन ज़द में मुफ़स्सिरों, रावियों और अर्बाब सैर ने हज़रत मुहम्मद की तरफ़ मुतअद्दिद पेश गोईयां मन्सूब की हैं और ये साबित करना चाहा है कि चूँकि ये पेश गोईयां पूरी हुईं इस वास्ते आँहज़रत सादिक़ नबी थे लेकिन बअल्फ़ाज़ सर सय्यद मरहूम :-
“अहले सैर (सीरत लिखने वालों) ने सैर (सीरत) की किताबें तस्नीफ़ करते वक़्त रावियों के मोअतबर या ग़ैर-मोअतबर होने का कुछ ख़याल नहीं किया। जिस किसी ने जो क़िस्सा उनसे बयान किया उन्होंने उस को निहायत इश्तियाक़ से सुना। लेकिन उस क़िस्से की अस्लियत और रावी के चाल चलन की निस्बत ज़रा भी तफ़्तीश नहीं की और उस क़िस्से को अपनी किताब में लिख लिया।”
(ख़ुत्बात अहमदिया सफ़ा 320)
पस ये तमाम क़िस्से मुतलक़ क़ाबिल-ए-इल्तिफ़ात नहीं हैं और उनकी वक़अत सिफ़र से भी कम है क्योंकि वो सरीह क़ुरआनी आयात के ख़िलाफ़ हैं। हैरत तो ये है कि मौजूदा ज़माने के बाअज़ मुसलमान मुसन्निफ़ जो अपनी तहक़ीक़ पर नाज़ाँ हैं ऐसे बेसरोपा (बेमाअनी, बे-बुनियाद) क़िसस को अपनी कुतुब में बे सोचे समझे जगह दे देते हैं। मसलन सीरत-उन्नबी मुसन्निफ़ा सय्यद सुलेमान मुजल्लद सोम वग़ैरह।
मुहम्मद अरबी की निस्बत किताब-ए-मुक़द्दस में पेश गोईयां
चूँकि मुसलमान मुसन्निफ़ीन के दिमाग़ों में ये ख़बत (जुनून) समाया हुआ है कि,
“किसी पैग़म्बर का दाअ्वा नबुव्वत उस वक़्त तक मुसल्लम नहीं जब तक ये साबित ना हो जाए कि पहले पैग़म्बरों ने इस की आमद की पेशगोई की है।”
(सीरत-उन्नबी मुजल्लद सोम सफ़ा 534)
लिहाज़ा उनको अम्बिया-ए-साबक़ीन की कुतुब के औराक़ पलटने पड़े ताकि आँहज़रत की नबुव्वत साबित कर सकें। पस उन्होंने तौरात व इन्जील और यहूदी रिवायत में तलाश-ए-बसियार (बहुत ज़्यादा तलाश) के बाद वो मुक़ाम ढूंढ निकाले जहां उन के ज़ोअम (ख्याल) में मुहम्मद अरबी के मबऊस होने की बशारतें मौजूद हैं। इन मुक़ामात को बनज़र-ए-तहक़ीक़ देखकर मरहूम सय्यद लिखते हैं :-
“अगरचे मैं इन बुज़ुर्ग आलिमों की कोशिश और मेहनत की निहायत क़द्र करता हूँ मगर इन सब का ज़िक्र करना ज़रूर नहीं समझता क्योंकि जो कुछ इन आलिमों ने अपनी अन थक मेहनत से निकाला है वो कैसा ही मुफ़ीद हो, अलअ-नुक़्स (मगर कोताही) से ख़ाली नहीं।”
सय्यद मरहूम इनमें से अक्सर मुक़ामात को रद्द करने के छः (6) सबब बतलाते हैं (सफ़ा 583) और जिन को वो मक़्बूल करते हैं उनकी निस्बत भी लिखते हैं।
“तौरेत व इन्जील में आने वाले पैग़म्बरों की बशारतें ऐसी मुहमल (बेमाअ्नी, लायाअ्नी, फ़िज़ूल) और मुजमल तौर पर बयान हुई हैं कि पहेली और मुअम्मे की मानिंद हो गई हैं और जब तक उनकी तशरीह ना की जाये और उन का हल ना बतलाया जाये उनका मतलब हर एक की समझ में नहीं आ सकता।”
(सफ़ा 585)
बाअज़ बशारतें जिनको सर सय्यद क़ुबूल करते हैं ऐसी मज़हकाख़ेज़ हैं कि हमें यक़ीन है कि अगर सय्यद मरहूम जैसे मुहक़्क़िक़ इब्रानी ज़बान से ख़ुद वाक़िफ़ होते तो इनको बेताम्मुल रद्द कर देते। इनका जवाब मरहूम पादरी टॉमस हाइल साहब ने रिसाला “बाइबल में मुहम्मद” में दिया है। इस मुआमले में सय्यद मरहूम ने “जनाब मौलाना बाफ़ज़्ल अव्वलिना जनाब मौलवी इनायत रसूल साहब चिड़िया कोटी” की कोराना तक़्लीद की है क्योंकि मरहूम के ख़याल में ये मौलवी साहब :-
“इब्रानी ज़बान और तौरेत मुक़द्दस के बहुत बड़े आलिम थे।”
(सफ़ा 605)
हालाँकि ये साहब (जैसा हम इंशा-अल्लाह आगे चल कर दिखला देंगे) इब्रानी से मह्ज़ कोरे थे। सर सय्यद मरहूम के बाद के मुसलमान मुसन्निफ़ीन ने सर सय्यद की अंधा धुंद पैरवी की है। और क़ादियानी मुनाज़िर तो कासालेसी (ख़ुशामदी, लालची) के लिए चारदांग (चारों तरफ़) आलम में मशहूर हैं।
क़ुरआन के सूरह आराफ़ में है :-
الَّذِينَ يَتَّبِعُونَ الرَّسُولَ النَّبِيَّ الْأُمِّيَّ الَّذِي يَجِدُونَهُ مَكْتُوبًا عِندَهُمْ فِي التَّوْرَاةِ وَالْإِنجِيلِ
“जो लोग इस रसूल नबी उम्मी के ताबे होते हैं जिसको वो अपने यहां तौरेत और इन्जील में लिखा हुआ पाते हैं।” (रुकूअ 19, आयत 156)
सूरह सफ़ में है :-
“जब ईसा इब्ने-ए-मरियम ने कहा, ऐ बनी-इस्राईल मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का रसूल हो कर आया हूँ, मैं इस तौरेत का जो मुझ से आगे है मुसद्दिक़ हूँ और एक रसूल की बशारत देता हूँ जो मेरे बाद आएगा। उस का नाम अहमद होगा।” (आयत 6)
इन दो आयात की बिना पर अहले इस्लाम (जैसा हम ऊपर कह चुके हैं) शुरू ही से तौरात व इन्जील की अबस (फ़िज़ूल) वर्क़ गरदानी करते रहे ताकि किसी ना किसी तरह उन मुक़ामात का पता लगाऐं जहां मुहम्मद अरबी की बशारत है। उनमें से मुतअद्दिद मुक़ामात को सर सय्यद जैसे मुहक़्क़िक़ ने मुख़्तलिफ़ वजूह के बाइस रद्द कर दिया है। इन मुसलमान उलमा को क़ुरआन में ये तो मिला कि किसी आने वाले अहमद का ज़िक्र तौरेत व इन्जील में है। लेकिन क़ुरआन से उन को ये पता ना चला कि “नबी उम्मी” और “अहमद” का ज़िक्र इन किताबों के किन मुक़ामों में पाया जाता है।
इन्जील की आयत
बिल-आख़िर मुसलमान मुनाज़िरीन के हाथ दो मुक़ाम आए जिनकी निस्बत उनको यक़ीन है कि वो ऐसी साफ़-साफ़ बशारतें हैं जिनमें कुछ शुब्हा नहीं हो सकता। चुनान्चे पहला मुक़ाम इन्जील यूहन्ना के चौधवें (14) बाब की 25 वीं और 26 वीं आयात में है जहां यूनानी लफ़्ज़ “पेरा कली तूस” (پیراکلی توس) आया है जिसके मअनी हैं “तसल्ली देने वाला।” ये मुस्लिम उलमा यूनानी ज़बान से नावाक़िफ़ थे। उन्होंने सुन लिया कि एक यूनानी लफ़्ज़ है “पेरी कलू तूस” (پیری کلوتوس) जिसके मअनी “मशहूर या मारूफ़” हैं। लेकिन बखियाली एशां इस का तर्जुमा अरबी ज़बान में ठीक ठीक लफ़्ज़ “अहमद” है। (सफ़ा 639) और उन के ज़ोअम (ख्याल) में बिलाशुब्हा इस बात का सबूत है कि इन्जील में अस्ल लफ़्ज़ “पेरा कली तूस” (پیراکلی توس) नहीं था बल्कि “पेरी कलू तूस” (پیری کلوتوس) था। मसीही मुसन्निफ़ीन ने हज़ार समझाया कि दोनों लफ़्ज़ों में और उन के माअनों में बाअद उल-मशरक़ीन (بعدالمشرقین) है जिनका “नबी उम्मी” और “अहमद” से किसी क़िस्म का ताल्लुक़ नहीं। चह जायके वो मुहम्मद की बशारत हो लेकिन :-
दीवाना राहूए बस अस्त
دیوانہ راہوئے بس است۔
सर सय्यद बजा कह गए हैं कि :-
“तौरेत व इन्जील में आने वाले पैग़म्बर की बशारतें ऐसी मुहमल (बेमाअ्नी, लायाअ्नी, फ़िज़ूल) और मुजमल तौर से बयान हुई हैं कि पहेली और मुअम्मे की मानिंद हो गई हैं।”
हक़ बात तो ये है कि हमारे मुस्लिम उलमा पहले तो मैदान मुनाज़रे की राह ख़ाक छानकर फ़िज़ा को अपने मफ़रूज़ा क़ज़ाया से ग़ुबार आलूद कर देते हैं और फिर ख़ुद ही शिकायत करते हैं कि उनको कुछ सुझाई नहीं देता। लेकिन अस्ल हक़ीक़त यही है कि इस मुक़ाम में किसी आने वाले नबी की बशारत सिरे से मौजूद ही नहीं।
क़ुरआनी आयत की क़ादियानी तावील
मुस्लिम मुनाज़िरीन की ये पेश कर्दा बशारत ऐसी “पहेली और मुअम्मा” है कि एक तरफ़ तो बहवाला तिर्मिज़ी फ़त्ह-उल-बारी ये दाअ्वा किया जाता है कि हज़रत रसूल अरबी इस आयत के मिस्दाक़ हैं और दूसरी तरफ़ आँजहानी मिर्ज़ा-ए-क़ादियानी और उन के हवारी ये दाअ्वा करते हैं कि “अस्माहु अहमद” (اسمہ احمد) की पेशगोई मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद और सिर्फ मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद के हक़ में है और कि वो किसी दूसरे (यानी बानी इस्लाम) के हक़ में हरगिज़ नहीं, चुनान्चे स्वर्गीय मिर्ज़ा जी हक़ीक़त (अन्नबुव्वह सफ़ा 265, 266) में कहते हैं “ख़ुदा ने आज से बीस (20) बरस पहले “बराहीन अहमदिया” में मेरा नाम मोहम्मद और अहमद रखा है आपका ये शेअर भी मशहूर है :-
मनम मसीह ज़माँ व मनम कलीम ख़ुदा
मुनज्जम मुहम्मद व अहमद के मुज्तबा बाशद
منم مسیح زماں ومنم کلیم خدا
منجم محمد واحمد کے مجتبیٰ باشد
(तिरयाक़-उल-क़ुलूब सफ़ा 3)
और सुनिए :-
“इश्तिहार “एक ग़लती का इज़ाला” में है कि :-
محمد الرسول الله والذین معہ اشداء علی الکفار رحماء بینھمہ
“के इल्हाम में मुहम्मद रसूलुल्लाह से मुराद मैं हूँ और मुहम्मद रसूलुल्लाह ख़ुदा ने मुझे कहा है।”
अब इस इल्हाम में से दो बातें साबित होती हैं :-
(1) ये कि आप मुहम्मद हैं और आप का मुहम्मद होना बलिहाज़ रसूलुल्लाह होने के है ना किसी और लिहाज़ से (2) आपके सहाबा आपकी हैसियत से मुहम्मद रसूलुल्लाह के ही सहाबा हैं जो अशद अलल-कुफ्फर (اشد علی الکفار) और रहिमा-बयनहुमा (رحماء بینھم) की सिफ़त के मिस्दाक़ हैं।
(अल-फ़ज़्ल क़ादियान जिल्द 2 जिल्द नम्बर 10, 15 जुलाई 1915 ई॰)
मिर्ज़ा जी मरहूम के ख़लीफ़ा मियां महमूद अहमद साफ़-साफ़ अल्फ़ाज़ में कहते हैं,
“अब यहां सवाल ये पैदा होता है कि वो कौन रसूल है जो हज़रत ईसा के बाद आया और जिस का नाम “अहमद” है। मेरा अपना दाअ्वा है और मैंने ये दाअ्वा यूंही नहीं कर दिया। बल्कि हज़रत मसीह मौऊद की किताबों में इसी तरह लिखा हुआ है और हज़रत ख़लीफ़-तुल-मसीह अव़्वल ने भी ये ही फ़रमाया है कि मिर्ज़ा साहब अहमद हैं। चुनान्चे उनके दर्सों के नोटों में भी छपा हुआ है और मेरा ईमान है कि इस आयत “अस्महु अहमद” (اسمہ احمد) के मिस्दाक़ हज़रत मसीह मौऊद ही हैं।”
(अनवार-ए-ख़िलाफ़त सफ़ा 21)
“जब इस आयत “अस्महु अहमद” (اسمہ احمد) में एक रसूल का जिसका अहम ज़ात अहमद है ज़िक्र है दो का नहीं और इस शख़्स का यक़ीन हम हज़रत मसीह मौऊद पर करते हैं तो इस से ख़ुद नतीजा निकल आया कि कोई दूसरा इस का मिस्दाक़ नहीं। और जब हम ये साबित कर दें कि हज़रत मसीह मौऊद इस पेश गोई के मिस्दाक़ हैं तो ये भी साबित हो गया कि दूसरा कोई शख़्स (यानी मुहम्मद अरबी) इस का मिस्दाक़ नहीं है।”
(अख़्बार अल-फ़ज़्ल क़ादियान 2, 5 दिसंबर 1916 ई॰)
जिस तरह मसीही उलमा मुस्लिम मुनाज़िरीन को ये कहते हैं कि आँहज़रत का नाम तो “मुहम्मद” था लेकिन यहां बक़ौल शमा-कसी “अहमद” की पेशगोई है। इसी तरह जब किसी भले मानुस मुसलमान ने क़ादियानीयों से ये सवाल किया कि मिर्ज़ा जी का नाम तो ग़ुलाम अहमद था लेकिन क़ुरआन में अहमद है तो इस सवाल का ये इल्हामी जवाब मिलता है :-
“आपका ये सवाल है कि “अस्महु अहमद” (اسمہ احمد) में बशारत तो अहमद की है और मिर्ज़ा साहब ग़ुलाम अहमद हैं। जवाबन अर्ज़ है कि मुतलक़ (नाम) ग़ुलाम अहमद ना अरबी है क्योंकि इस हालत में ग़लामु अहमद होता और ना ये नाम फ़ारसी बन सकता है क्योंकि गुलाम-ए-अहमद होता और यह नाम उर्दू हो सकता है कि क्योंकि इस सूरत में अहमद का ग़ुलाम होना चाहिए था। अस्ल बात ये है कि चूँकि हज़रत साहब के ख़ानदान में ग़ुलाम का लफ़्ज़ अस्ल नाम के साथ इज़ाफ़े के तौर पर इस मुल्क के रिवाज के मुताबिक़ चला आता था इस वास्ते आपके नाम के साथ भी लगा दिया गया। अहादीस में आया है कि मसीह जवान होगा और ग़ुलाम के मअनी जवान के हैं जिससे ये बताया गया कि उस के काम जवानों के से हैं।”
(अल-फ़ज़्ल क़ादियान जिल्द 3 नम्बर 107, मौरख़ा 28 अप्रैल 1916 ई॰)
इन लग़वयात से अरबाब-ए-दानिश (अक़्लमंदों) की नज़रों में सर सय्यद अहमद का मक़ूला बिल्कुल दुरुस्त साबित होता है कि :-
“तौरेत व इन्जील में आने वाले पैग़म्बर की बशारतें मुहमल (बेमाअ्नी, लायाअ्नी, फ़िज़ूल) और मुजम्मल हैं और पहेली और मुअम्मे की मानिंद हैं।” इस का असली और हक़ीक़ी सबब सिर्फ ये है कि वो सिरे से इस क़िस्म की बशारतें हैं ही नहीं।
तौरात की आयत
दूसरी बशारत जिसको सर सय्यद मरहूम साफ़ और मुस्तहकम कहते हैं कि, (इस्तिस्ना 18:15) से पेश की जाती है। इस पर हम अगले अबवाब में मुफ़स्सिल बह्स करके इंशा-अल्लाह साबित कर देंगे कि इस में भी किसी एक ख़ास आने वाले शख़्स की पेशगोई मौजूद नहीं है।
दुनिया भर के मुस्लिम उलमा की गुज़श्ता चौदह (14) सदीयों की काविश के बावजूद उनको तमाम किताब मुक़द्दस में से कोई ऐसा “साफ़ और मुस्तहकम” मुक़ाम ना मिल सका जो पहेली और मुअम्मे की मानिंद मुहमल (बेमाअ्नी, लायाअ्नी, फ़िज़ूल) ना हो और जिस में सदीयों बाद के किसी आने वाले शख़्स की वाज़ेह तौर पर पेशगोई की गई हो। क्या ये अम्र इन के इस मफ़रूज़े को बातिल साबित करने के लिए काफ़ी नहीं है कि :-
2 “मुल्क के रिवाज़” की भी खूब कही। इस तावील की बतालत बहरहाल मिर्ज़ा जी के शजरे नसब से साबित है (देखो अल-बुर्रियत सफा 134 हाशिया) तोहफा शहज़ादा दिल्ज़ सफा 29, दाफे-उल-बला, सफा 13, रिव्यू ऑफ़ रिलिजियन्स बाबत जून 1906 ई॰, सफा हाशिया वगैरह। बरकतुल्लाह।
“किसी पैग़म्बर का दावा-ए-नबूवत उस वक़्त तक मुसल्लम नहीं जब तक ये साबित ना हो जाए कि पहले पैग़म्बरों ने उस की आमद की पेशगोई की है।”
(सीरत-उन्नबी मुजल्लद सोम सफ़ा 534)
और कि :-
“ख़ुदा तआला की तरफ़ से एक कलाम पाकर जो ग़ैब पर मुश्तमिल ज़बरदस्त पेश गोईयां मख़्लूक़ को पहुंचाने वाला (हो) इस्लामी इस्तिलाह में नबी कहलाता है।”
(हुज्जत-उल्लाह सफ़ा 2)
हम दिखला चुके हैं कि ख़ुद क़ुरआनी आयात इस मफ़्हूम को बातिल और मर्दूद (गलत) क़रार देती हैं।
रोशन ख़याल मुसलमान और मफ़्हूम नबुव्वत
मौजूदा ज़माने के रोशन ख़याल ताअलीम-याफ़्ता मुसलमान इस क़िस्म के ग़ैर-क़ुरआनी ख़यालात के मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) नहीं। चुनान्चे चौधरी ग़ुलाम अहमद साहब परवेज़ इस तबक़े के ख़यालात की यूं तर्जुमानी करते हैं :-
“आजकल के माक़ूलीयत पसंदों की जमाअत के नज़्दीक रसूल का तसव्वुर ये है कि वो एक सियासी लीडर और मुस्लेह क़ौम होता है जो अपनी क़ौम की नकीत (बदहाली, इफ़्लास, ग़रीबी) और ज़बून हाल से मुतास्सिर हो कर उनको अफ़लाह वबहबूद की तरफ़ बुलाता है और थोड़े ही दिनों में उनके अंदर इंज़िबात (मज़बूती, ढंग) व ईसार की रूह फूंक कर ज़मीन के बेहतरीन खित्तों का उनको मालिक बना देता है। उस की हक़ीक़त क़ौम के एक अमीर क़िस्म के होती है, जिनके हर हुक्म का इत्तिबा (इताअत, पैरवी) लाज़िमी होता है क्योंकि इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी, इन्कार) से क़ौम की इज्तिमाई क़ुव्वत में इंतिशार पैदा हो जाने का ख़तरा होता है। उस का हुस्न-ए-तद्बीर, अक़्ल, हिक्मत, ज़हन इन्सान के इर्तकाओ की बेहतरीन कड़ी होता है। लेकिन उस की हक़ीक़त दुनियावी मुस्लिहीन और बदतरीन से बिल्कुल जुदागाना होती है जो अपने माहौल की पैदावार होते हैं उनका फ़ल्सफ़ा-ए-इस्लाह व बहबूद उनके अपने परवाज़-ए-फ़िक्र का नतीजा होता है। जो कभी सही और कभी ग़लत होता है। बरअक्स इस के अम्बिया इकराम मामूर मिन-अल्लाह होते हैं और उनका सिलसिला इस दुनिया में ख़ास मशीयत बारी तआला के मातहत चलता है। उनका इंतिख़ाब ममलकत एज़दी से होता है और उनका सरचश्मा उलूम व हिदायत बारी तआला से होता है। दुनियावी सियासत वह तफ्क्कुर सिफ़त है जो इकतिसाबन हासिल होती है और मश्क़ व महारत से ये मुल्क बढ़ता है। लेकिन नबुव्वत एक मोहिब्बत (बख़्शिश, पेशकश) रब्बानी और अता-ए-यज़्दानी है जिसमें कसब और मश्क़ को दखल नहीं। क़ौम व उम्मत की तरक़्क़ी उनके भी पेश-ए-नज़र होती है। लेकिन सबसे मुक़द्दम अख़्लाक़ इन्सानी की इस्लाह मक़्सूद होती है। उस का पैग़ाम ज़मान व मकान की क़ुयूद से बालातर होता है। उस की इताअत में ख़ुदा की इताअत और उस की मअ्सियत ख़ुदा की मअ्सियत है। उनको ख़ुदा का पैग़ाम मिलता है जो अगरचे आलम अम्र से मुताल्लिक़ होने की वजह से सरहद इदराक इन्सानी से बालातर है लेकिन उस का वजूद मह्ज़ इन्सान की मलकूती (फ़रिश्तों) जैसी क़ुव्वतें नहीं होतीं।”
(माख़ूज़ अज़ मुक़द्दमा बहावलपुर सफ़ा 77 ता 79)
नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि ये ख़यालात गो इस्लामी इस्तिलाह से कोसों दूर हैं लेकिन वो किताब-ए-मुक़द्दस और क़ुरआन शरीफ़ के तसव्वुर-ए-नबुव्वत के ज़्यादा नज़्दीक हैं। नबुव्वत का ये मफ़्हूम कठ मुल्लानों के क़ियास और ज़न (ख़याल) पर मबनी नहीं है बल्कि हक़ीक़त और अम्र वाक़िया और अम्बिया-ए-किराम के हालात व पैग़ामात और मन्सबी फ़राइज़ की मुहक्कम बुनियादों पर क़ायम है।
नतीजा
अब जो ये साबित हो गया कि अम्बिया-अल्लाह का काम सिर्फ ये था कि वो अपनी क़ौम के लोगों को ख़ुदा की तरफ़ दावत दें और कि सदीयों बाद के आने वाले अश्ख़ास और वाक़ियात की निस्बत पेश गोईयां करना उनके फ़राइज़ मन्सबी में दाख़िल ना था। हमको उम्मीद है कि हर साहिबे-अक़्ल पर ये रोशन हो गया होगा कि कोई ऐसी दलील क़ाबिल-ए-क़ुबूल नहीं हो सकती जिसका मक़्सद ये साबित करना हो कि फ़ुलां नबी ने बज़रीये इल्हाम वही एक ऐसे शख़्स या वाक़िये की ख़बर दी है जो उस के सदीयों बाद ज़हूर पज़ीर हुआ। इस क़िस्म की दलील बातिल होगी क्योंकि अव्वलन वो मक़सद-ए-नबुव्वत के सरासर ख़िलाफ़ है और सानियन वो नबुव्वत के अल्फ़ाज़ की ऐसी मन घड़त और नाक़ाबिल क़ुबूल तावील पर मबनी होगी जो सही उसूल तफ़्सीर के मुनाफ़ी (खिलाफ) और क़ाइल के अस्ल मंशा और मतलब के ख़िलाफ़ है।
इंशा-अल्लाह अगले बाब में हम साबित कर देंगे कि जो मुसलमान बिरादरान (इस्तिस्ना 18:15) को हज़रत मुहम्मद अरबी की नबुव्वत के सबूत में पेश करते हैं वो ना सिर्फ नबुव्वत के अस्ल मफ़्हूम और मक़्सद के ख़िलाफ़ दलील पेश करते हैं बल्कि इस आया शरीफा पर जबर करके उस से वो कहलवाना चाहते हैं जो हज़रत मूसा के ख्व़ाब व ख़याल में भी ना था। उनकी ग़ैर-फ़ित्रती तावील में सियाक़ व सबाक इबारत का पास-ए-लिहाज़ नहीं और उन की तफ़्सीर किताब मुक़द्दस के अल्फ़ाज़ व मुहावरात के सरीह ख़िलाफ़ होने के इलावा आयत के अस्ल मंशा के कुल्लियतन मुनाफ़ी (खिलाफ) है और नबुव्वत के सही मफ़्हूम कि एन ज़िद है।
बाब दोम
“बशारत-ए-मूसवी” की हक़ीक़त
मुसलमानों का दाअ्वा
मौलवी ग़ुलाम नबी साहब तौरात शरीफ़ की किताब इस्तिस्ना के 18 वें बाब की 15 वीं और 18 वीं आयत को नक़्ल करके कहते हैं :-
“अब सिवाए इस के जो बराहे तास्सुब इस साफ़ और रोशन बशारत से आँख बंद करले कौन कह सकता है कि ये बशारत हज़रत मुहम्मद के हक़ में नहीं।”
(सफ़ा 14)
सर सय्यद मरहूम भी कहते हैं :-
“इन आयतों में मुहम्मद रसूल ﷺ के मबऊस होने की ऐसी साफ़ और मुस्तहकम बशारत है जिससे कोई भी इन्कार नहीं कर सकता।”
(सफ़ा 599)
सय्यद सुलेमान नदवी भी फ़र्माते हैं कि :-
“इन आयतों में वो मौऊदा नबी आँहज़रत ﷺ ही थे।”
(सीरत-उन्नबी जिल्द सोम सफ़ा 562)
जमाअत अहमदिया के मुफ़्ती मुहम्मद सादिक़ साहब भी कहते हैं :-
“ये पेशगोई हर पहलू से मुहम्मद ﷺ पर पूरी हुई और आप के सिवा किसी दूसरे शख़्स के हक़ में इस का पूरा होना साबित नहीं हो सकता।”
(बाइबल की बशारत सफ़ा 7)
तन्क़ीह तलब उमूर
हम नाज़रीन की ख़ातिर किताब इस्तिस्ना के 18 वें बाब की मुताल्लिक़ा आयात का इक़्तिबास कर देते हैं ताकि नाज़रीन इबारत के सियाक़ व सबाक को देखकर और इस का मफ़्हूम बख़ूबी समझ कर मालूम कर सकें कि :-
(1) आया इन आयात में कोई बशारत मौजूद है?
(2) अगर कोई बशारत मौजूद है तो क्या वो किसी ख़ास एक नबी के लिए है जो हज़ारों बरस बाद आने वाला था?
(3) अगर इस बशारत का ताल्लुक़ किसी एक नबी के साथ है तो क्या वो मौऊद नबी हज़रत मुहम्मद है?
फ़स्ल अव़्वल
सियाक़-ए-इबारत
आयात की नक़्ल
इस ज़ेर-ए-बहस मुक़ाम में जो हज़रत मूसा बनी-इस्राईल को ख़िताब करके अपनी वसीयत के दौरान (अबवाब 5 ता 31) में फ़र्माते हैं, (इस्तिस्ना 18 बाब आयात 9 ता 19)
“जब तू (ऐ क़ौम बनी-इस्राईल) इस मुल्क (कनआन) में जो खुदावंद तेरा ख़ुदा तुझको देता है, दाख़िल हो तो वहां की क़ौमों के से मकरूह काम करने ना सीखना।” यानी जब ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे सामने से उन क़ौमों को इस जगह जहां तू उनका वारिस होने के लिए जा रहा है काट डाले और तू इन का वारिस हो कर उनके मुल्क में बस जाये तो तू ख़बरदार रहना ता एसा ना हो कि जब वो तेरे आगे से नाबूद हो जाएं तो तू इस फंदे में फंस जाये कि उनकी पैरवी करे और उन के देवताओं के बारे में ये दर्याफ़्त करके कि ये कौमें किस तरह अपने देवताओं की पूजा करती हैं मैं भी वैसा ही करुंगा।”
(इस्तिस्ना 12:29, 30 आयत)
“तुझमें (ऐ बनी-इस्राईल) हरगिज़ कोई ऐसा ना हो जो अपने बेटे या बेटी को आग में जलवाए।” यानी तू अपनी औलाद में से किसी को मौलिक (देवता) की ख़ातिर आग में से गुज़ारने के लिए ना देना और (यूं) अपने ख़ुदा के नाम को नापाक ना ठहराना।” (अहबार 18:21 नीज़ देखो 2 सलातीन 16:3, 21:6, 23:10, यर्मियाह 32:35, हिज़्क़ीएल 20 26 ता 31, 23:37 वग़ैरह)
“तुझमें हरगिज़ कोई शख़्स ऐसा ना हो जो फ़ालगीर या शुगून निकालने वाला या अफ़्सून गिरिया जादूगर या मंत्र पढ़ने वाला या जिन्नात का आश्ना या रुमाल या अर्वाह (रूहों) का तसख़ीर करने वाला हो। (देखो 2 सलातीन 17:17, अहबार 19:26 ता 31, ख़ुरूज 22:18, 1 समुएल 28:7) क्योंकि वो सब जो ऐसे काम करते हैं ख़ुदावंद के नज़्दीक मकरूह हैं और इन्ही मकरूहात के सबब से ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा उनको तेरे सामने से निकालता है। तू ख़ुदावंद अपने ख़ुदा के हुज़ूर कामिल हो। वो कौमें जिनका तू वारिस होगा शगून निकालने वालों और फ़ालगीरों की सुनती हैं पर तुझको (ऐ बनी-इस्राईल) ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा ने ऐसा करने की इजाज़त नहीं दी बल्कि ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद नबी बरपा करता रहेगा तुम उस की सुनना।”
“(ऐ बनी-इस्राईल) मैं (ख़ुदावंद) ये बात तेरी इस दरख़्वास्त के मुताबिक़ करुंगा जो तू ने ख़ुदावंद अपने ख़ुदा से मजमे के दिन होरेब में की थी। (देखो 9:10) कि मुझको ना तो ख़ुदावंद अपने ख़ुदा की आवाज़ फिर सुननी पड़े और ना ऐसी बड़ी आग ही का नज़ारा हो कि मर ना जाऊं। (देखो ख़ुरूज 20:18 ता 19) और ख़ुदावंद ने मुझ (मूसा) से कहा कि वो जो कुछ कहते हैं सो ठीक कहते हैं। पस मैं (ख़ुदावंद) इनके लिए इन ही के भाईयों में से (ऐ मूसा) तेरी मानिंद नबी बरपा करता रहूँगा और अपना कलाम उस के मुँह में डाला करुंगा (देखो यर्मियाह 1:9) और जो कुछ में उस (नबी) को हुक्म दूँगा वही वो उनसे कहेगा और जो कोई मेरी उन बातों को जिन को वो मेरा नाम ले कर कहेगा ना सुने तो मैं उस से हिसाब लूँगा।” (देखो यर्मियाह 29:19)
“लेकिन जो नबी गुस्ताख बन कर कोई ऐसी बात मेरे नाम से कहे, जिसके कहने का मैंने उस को हुक्म नहीं दिया और माअ्बूदों (देवताओं) के नाम से कुछ कहे तो वो क़त्ल किया जाये, क्योंकि उसने तुमको ख़ुदावंद तुम्हारे ख़ुदा से बग़ावत करने की तर्ग़ीब दी ताकि तुझको इस राह से जिस पर ख़ुदावंद तेरे ख़ुदा ने तुझको चलने का हुक्म दिया है बहकाए। यूं तू अपने बीच में से ऐसी बदी को दूर कर देना।” (इस्तिस्ना 13:5)
हमने मुन्दरिजा बाला आयात (इस्तिस्ना 18:9 ता 20) में इस मुक़ाम पर बह्स की तमाम इबारत को नक़्ल करके किताब-ए-मुक़द्दस के दीगर मुक़ामात के हवाले और इक़तिबासात लिख दीए हैं ताकि इन के ज़रीये नाज़रीन पर इस इबारत की तमाम आयात का अस्ल मतलब सियाक़ व सबाक की रोशनी में ज़ाहिर हो जाए।
आयात की तफ़्सीर
इस तमाम इबारत में आयात 13 ता 15 में वो बुनियादी नुक्ता पाया जाता है जो इस मुक़ाम के समझने की अस्ल कुंजी है, जिसमें मुश्रिक फ़ालगीरों और ख़ुदा के नबियों का ज़िक्र है।
अहले-यहूद की हमसाया अक़्वाम (क़ौमें) मुश्रिक और बुत-परस्त अक़्वाम (क़ौमें) थीं। उन्ही के साथ बनी-इस्राईल का रोज़ाना साबिक़ा पड़ता था। जब कभी ये अक़्वाम अपने देवताओं की मर्ज़ी मालूम करना चाहती थीं वो नुजूमियों, ग़ैब बीनों, फ़ालगीरों वग़ैरह की तरफ़ रुजू क्या करती थीं। मसलन बाबुल की क़ौम में ग़ैब दानी का इल्म उरूज पर था और ऐसा ग़ालिब था कि उनकी क़ौमी ज़िंदगी के हर शोअ्बे पर हावी हो गया था। चुनान्चे शुगूनों की ताबीर फ़ुनून-ए-लतीफ़ा में शुमार किया जाता था। हर क़िस्म के जादू और सहर (जादू) का रिवाज आम हो गया था और ग़ैब बीन हर जगह नज़र आते थे। तमाम मशरिक़ी ममालिक के कोने-कोने में कलदी नस्ल के ज्योतिषी, रुमाल, और फ़ालगीर मशहूर थे जिनका पेशा शुगूनों की तावील करना था।
इन मुश्रिकाना मज़ाहिब के अक़ाइद बातिला के बरअक्स बनी-इस्राईल का माअबूद एक वाहिद ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस था जो अपने परस्तारों (इबादत गुज़ारों) से पाकीज़गी, हक़, इन्साफ़ और रहम वग़ैरह का मुतालिबा करता था। मुश्रिक अक़्वाम (क़ौमों) के देवी देवताओं में ना तो ये सिफ़ात पाई जाती थीं और ना वो अपने परस्तारों से इस क़िस्म के औसाफ़-ए-हमीदा का मुतालिबा करते थे।
मज़्कूर बाला आयात में बनी-इस्राईल को ख़ुदा की मर्ज़ी मालूम करने के लिए ऐसे लोगों की जानिब रुजू करने की क़तई मुमानिअत की गई है जो ग़ैर-अल्लाह के परस्तार और मुश्रिकाना मज़ाहिब से ताल्लुक़ रखकर पेशावर फ़ालगीर, रुमाल, शुगूनों की ताबीर करने वाले, जादूगर, मंत्र पढ़ने वाले, जिन्नात के आश्ना या अर्वाह (रूहों) के तसख़ीर करने वाले थे। इस मुक़ाम में इस मुश्रिकाना ताइफ़ा की सबकी सब नौ अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्मों) का ज़िक्र किया गया है और इन्फ़िरादी और इज्तिमाई तौर पर हर क़िस्म की क़तई मुमानिअत कर दी गई है। इस मुमानिअत में कोई पहलू नहीं छोड़ा गया ताकि किसी क़िस्म के गुरेज़ की गुंजाइश ना रहे। ख़ुदा हज़रत मूसा की मार्फ़त बनी-इस्राईल को हुक्म देता है कि “ऐ बनी-इस्राईल तू इस क़िस्म के मकरूह काम ना सीखना। तुझमें कोई शख़्स अपने बेटे या बेटी को मुश्रिक बुत परस्तों की तरह आग में क़ुर्बान ना करे और ना तेरी क़ौम फ़ालगीरों और शुगून निकालने वालों के पास मुस्तक़बिल को मालूम करने के लिए जाये। ऐ बनी-इस्राईल ऐसे लोगों की तरफ़ रुजू करने के बजाय तुम अपने ख़ुदा की मर्ज़ी मालूम करने के लिए मेरे अम्बिया की तरफ़ रुजू किया करना। जिनको मैं तुम्हारी दरख़्वास्त के मुताबिक़ तुम्हारे लिए तुम्हारे ही दर्मियान से हर ज़माने में हस्ब-ए-ज़रूरत वक़्तन-फ़-वक़्तन बरपा करता रहूँगा जिस तरह मैंने मूसा को बरपा किया है। तुम्हारी अर्ज़ के मुताबिक़ अब मैं तुमसे सीधा बराह-ए-रस्त मुख़ातब ना हुआ करुंगा, बल्कि मैं अपना कलाम अपने अम्बिया के मुँह में डालूँगा और अपनी मर्ज़ी और अहकाम को उनकी मार्फ़त तुम तक पहुंचाया करूँगा। तुम्हारा ये फ़र्ज़ होगा कि तुम मुश्रिक फ़ालगीरों वग़ैरह के बजाय उन मामूर-मिनल्लाह (अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर किये हुए) नबियों की सुनो और अगर कोई इन अहकाम की ख़िलाफ़वर्ज़ी करेगा तो उस से मुवाख़िज़ा (जवाबतलबी) होगा। बनी-इस्राईल के अम्बिया का भी ये फ़र्ज़ होगा कि वो क़ौम को सिर्फ वही बात पहुंचाएं जिसका मैंने हुक्म दिया है। लेकिन अगर कोई शख़्स मामूर मिन-अल्लाह नबी होने का दाअ्वा करे और क़ौम को ऐसे अहकाम पहुंचाए जो ख़ुदावंद तुम्हारे ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात के मुनाफ़ी (खिलाफ) हों, जिससे तुम सिरात मुस्तक़ीम (सीधे रास्ते) से बहक कर अपने ख़ुदा-ए-वहिदा लाशरीक को तर्क कर दो तो जान लो कि वो शख़्स झूटा नबी है। लिहाज़ा वो वाजिब-उल-क़त्ल है, क्योंकि वो मेरी बर्गुज़ीदा क़ौम को मुझसे बग़ावत इख़्तियार करने की तर्ग़ीब देता है।
इन आयात में अम्बिया-अल्लाह के इख़्तियार, सनद, मन्सब, ओहदा और इक़तिदार का ज़िक्र है। इस मुक़ाम में जो मन्सब नबी को मिला है वो क़ाबिल-ए-ग़ौर है। यहां बनी-इस्राईल में नबी को वही दर्जा हासिल है जो मुश्रिकाना अक़्वाम में फ़ालगीरों, अफ़्सून गिरों वग़ैरह को हासिल था। इन्सान की फ़ित्रत में तबअन ये ख़्वाहिश मौजूद है कि ज़माना-ए-मुस्तक़बिल के पस-ए-पर्दा राज़ों से वाक़िफ़ हो। बिल-ख़ुसूस मुसीबत के अय्याम में ये ख़्वाहिश एक निहायत ज़बरदस्त तक़ाज़े की सूरत इख़्तियार कर लेती है (मसलन देखो 1 समुएल 28 बाब) इस तिब्बी तक़ाज़े को पूरा करने के लिए मुश्रिकाना अक़्वाम में रयाल, नजूमी और फ़ालगीर वग़ैरह का ताइफ़ा मौजूद था लेकिन ख़ुदा ने बनी-इस्राईल को क़तई मुमानिअत करके ये हुक्म दिया कि इस मुश्रिक और बुत-परस्त ताइफ़ा (गिरोह, क़ौम) से किसी क़िस्म का ताल्लुक़ ना रखें क्योंकि ख़ुदा इस ताइफ़ा की बजाय उनकी क़ौम में नबियों का सिलसिला बरपा करता रहेगा जिस तरह उस ने हज़रत मूसा को बरपा किया था। नबी हर ज़माने में हस्ब-ए-ज़रूरत ख़ुदा की मर्ज़ी ज़ाहिर किया करेगा। और मुसीबत के ज़माने में क़ौम का राहनुमा हुआ करेगा। ख़ुदा ख़ुद बनी-इस्राईल के इस फ़ित्रती और तिब्बी तक़ाज़े को बेहतरीन, मौज़ूं तरीन और आला तरीन रुहानी मसाइल से पूरा करेगा। (गिनती 23:22, 23) क्योंकि वो अपना कलाम नबी के मुँह में डालेगा।
पस इन आयात से ज़ाहिर है कि बनी-इस्राईल में नबुव्वत का सिलसिला इस मक़्सद के लिए क़ायम हुआ ताकि बनी-इस्राईल में मुश्रिकाना रसूम वग़ैरह की क़तई तौर पर रोक-थाम हो जाए और ख़ुदा की ये बर्गुज़ीदा क़ौम हमेशा के लिए बुत-परस्त अक़्वाम से हर अम्र में अलग-थलग रहे।
क्या इन आयात में बशारत मौजूद है
हमने शरह व बस्त (वज़ाहत) के साथ किताब-ए-मुक़द्दस की आयात की रोशनी में ज़ेरे-बहस मुक़ाम की तफ़्सीर कर दी है। नाज़रीन पर अब ज़ाहिर हो गया होगा कि तौरात शरीफ़ के इस मुक़ाम में ख़ुदा की तरफ़ से ना तो कोई बशारत मौजूद है और ना हज़रत मूसा के हज़ारों बरस बाद आने वाले किसी ख़ास एक नबी की पेशगोई मौजूद है। बल्कि इन आयात में ख़ुदा का एक इमत्तीनाई (रोकने वाला) हुक्म है कि क़ौम बनी-इस्राईल मुश्रिकाना मकरूहात से क़तई परहेज़ करे। और यह हुक्म है वो मुश्रिक फ़ालगीरों की बजाय मामूर मिनल्लाह अम्बिया की तरफ़ रुजू किया करे जिनको वो बरपा किया करेगा जिस तरह उसने हज़रत मूसा को बरपा किया था। ये अम्बिया बुत-परस्त फ़ालगीरों के से तरीक़े इख़्तियार नहीं करेंगे बल्कि ख़ुदा-ए-बरहक़ के पयाम्बर होंगे। इस के साथ ही क़ौम इस्राईल और अम्बिया दोनों के लिए ताज़ीब (दुख देना) है कि अगर वो अपने-अपने फ़राइज़ से ग़ाफ़िल हो जाएंगे तो सज़ा पाएँगे। बनी-इस्राईल सर-ज़मीन-ए-कनआन से जो उनका मौऊदा मुल्क है, (आयत 9) जिलावतन हो कर दर-बदर मारे फिरेंगे। (यर्मियाह 16:10 ता 13, 19 बाब वग़ैरह) और काज़िब नबी क़त्ल किए जाऐंगे।
क़ुरआन मजीद मज़्कूर बाला आयात का मफ़्हूम ब-ईं इस अल्फ़ाज़ अदा करता है,
“मूसा ने अपनी क़ौम से कहा, कि ऐ क़ौम ख़ुदा की वो नेअमत जो तुम पर है याद करो। उसने तुम में नबी पैदा किए और तुम को बादशाह बनाया और तुम को वो कुछ दिया जो जहान में किसी को ना दिया था।” (सूरह माइदा आयत 23)
फिर कहता है :-
“ख़ुदा ने बनी-इस्राईल से अहद लिया और उन में बारह (12) सरदार बरपा किए और अल्लाह ने कहा कि मैं तुम्हारे साथ हूँ अगर तुम नमाज़ें पढ़ते और ज़कात देते और हमारे नबियों पर ईमान लाते रहो और उनकी मदद करते रहो और ख़ुदा को क़र्ज़-ए-हसना देते रहो तो मैं तुमसे तुम्हारी बदीयाँ दूर कर दूंगा। इस के बाद तुम में से जो कोई इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) करेगा वो बेशक सीधी राह से भटक गया। सो इन की अहद शिकनी (वादे खिलाफी) के सबब हमने उनको फटकार दिया और उन के दिल स्याह कर दिए।” (माइदा 3)
तौरात शरीफ़ की आयात का सतही मुतालआ भी ज़ाहिर कर देता है कि इस मुक़ाम में किसी एक नबी की आमद का ना तो ज़िक्र मक़्सूद हो सकता है और ना ऐसी आमद की तरफ़ इशारा ही मौजूद है। यहां ख़ुदा तआला ज़माना-ए-मुस्तक़बिल (आने वाले ज़माने) में क़ौम इस्राईल के लिए अम्बिया का एक सिलसिला क़ायम करने का वाअदा फ़रमाता है जिसके ज़रीये वो अपनी मर्ज़ी बनी-इस्राईल पर ज़ाहिर किया करेगा जिस तरह उसने अपनी मर्ज़ी हज़रत मूसा के ज़रीये ज़ाहिर की थी। तारीख़ इस अम्र पर गवाह है कि अम्बिया किराम हज़रत मूसा के काम को मुतवातिर और मुसलसल तौर पर मुख़्तलिफ़ ज़मानों में मुदाम (मुतवातिर) बरक़रार और पैहम (लगातार) जारी रखते रहे। हज़रत मूसा बनी-इस्राईल में नबुव्वत का संग-ए-बुनियादी रखने वाले थे और बाद के अम्बिया इस बुनियाद पर एक निहायत ज़बरदस्त और आलीशान इमारत के खड़ा करने वाले थे। ये अम्बिया-अल्लाह उस अहद को जो हज़रत मूसा की मार्फ़त ख़ुदा और बनी इस्राईल में बाँधा गया बतरज़ अह्सन समझने वाले और अपने-अपने ज़माने में इस अहद के उसूलों पर अमल दरआमद करने और कराने वाले थे। वो हर ज़माने में हज़रत मूसा के जांनशीन रहे। (मत्ती 25:2) वो हुकूमत इलाहिया के अलमबरदार थे और उन्हों ने मरना क़ुबूल किया लेकिन मुख़ालिफ़ हालात में भी अपने पर्चम को सर-निगूँ होने ना दिया। (2 तवारीख़ 24:21, मत्ती 14:1 ता 12, 23:35 ता 37 वग़ैरह)
ताइफ़ा (गिरोह) अम्बिया
ये अम्बिया किराम क़ौम-ए-इस्राईल के मुख़्तलिफ़ तबक़ों और हिस्सों से बरपा किए गए। बनी-इस्राईल के जिस फ़िर्क़े और तबक़े से ख़ुदा को ऐसा शख़्स मिला जो उस का पैग़ाम पहुंचाने की सलाहीयत रखता था ख़ुदा उस को मामूर फ़रमाता था। पस अम्बिया किसी ख़ास क़बीले या तबक़े के नहीं होते थे बल्कि क़ौम के मुख़्तलिफ़ क़बाइल में से (तेरे ही भाईयों में से) मुख़्तलिफ़ ज़मानों में मुंतख़ब किए जाते थे। मसलन हज़रत समुएल, हज़रत यर्मियाह, हज़रत हिज़्क़ीएल काहिनों के तबक़े से मुताल्लिक़ थे। हज़रत यसअयाह यरूशलेम के अराकीन दरबार में से थे। हज़रत मीकाह और हज़रत उरियाह (यर्मियाह 26:20) क़स्बात के रहने वाले थे। हज़रत आमोस गल्लाबान और चरवाहे थे। (7:1, 7:10 ता 17) औरतें भी नबुव्वत किया करती थीं। मसलन हज़रत मर्यम, बीबी दबूरा, बीबी ख़ुलदा (2 सलातीन 22:14, लूक़ा 2:36 वग़ैरह) अहले-यहूद फ़ख्रिया कहा करते थे कि इस्राईल के मुल्क में कोई ऐसा शहर नहीं जिसमें से नबी बरपा नहीं हुआ रब्बी एलीअज़र का मक़ौला मशहूर है कि :-
“इस्राईल के क़बाइल में से तुमको कोई ऐसा क़बीला ना मिलेगा जिसमें से कोई नबी मबऊस ना हुआ हो।”3
ये अम्बिया ख़ुदा का पैग़ाम क़ौम को पहुंचाया करते थे अगर मुख़ालिफ़ हालात की वजह से या किसी और वजह से किसी नबी को अहद नबुव्वत के क़ुबूल करने में पसोपेश होता तो ख़ुदा उस की बुलाहट के एहसास को बेश अज़-पेश तेज़ कर देता ऐसा कि उस को चार व नाचार ख़ुदा के बुलावे को क़ुबूल करना पड़ता। (यर्मियाह 1:5 ता 6, आमोस 3:8, गिनती 22:38 वग़ैरह) नबी अंदरूनी जबर और बातिनी दबाओ के मातहत ख़ुदा का कलाम बोलते थे। (यर्मियाह 20:9) उनमें ख़ुदा का रूह मुहर्रिक होता था और वो तहरीक रब्बानी से मज्बूर हो कर ख़ुदा का पैग़ाम क़ौम को देते थे। (मीकाह 3:8) इस पैग़ाम का नफ़्स-ए-मज़मून ख़ुद नबी की सदाक़त का ज़ामिन होता और सिर्फ यही तस्दीक़ सादिक़ (सच्चे) व काज़िब (झूटे) नबी की कसौटी (परखने का आला) थी। जिससे क़ौम मालूम कर सकती थी कि ये कलाम ख़ुदा की तरफ़ से है या नहीं।
ये बात ज़िक्र करने के क़ाबिल है कि किसी नबी की अनानीयत और इन्फ़िरादी शख़्सियत नबुव्वत की वजह से फ़ना नहीं हो जाती। हर नबी के पैग़ाम का तरीक़ा और मज़्मून ख़ुसूसी होता था जो सिर्फ उसी से मख़्सूस था। मसलन हज़रत मूसा, हज़रत यसअयाह, हज़रत यर्मियाह, हज़रत हिज़्क़ीएल वग़ैरह सब ख़ुदा के नबी थे, लेकिन हर एक की नबुव्वत का तरीक़ और तर्ज़ बयान जुदागाना था। हर नबी अपने ख़ुसूसी नुक्ता निगाह से अपनी क़ौम तक ख़ुदा का पैग़ाम पहुँचाता था। (यर्मियाह 36:4, 10) ऐसा कि कुतुब-ए-मुक़द्दसा का पढ़ने वाला जानता है कि हज़रत हिज़िकीएल का तरीक़ा हज़रत मूसा का सा ना था और हज़रत यर्मियाह का तरीक़ा हज़रत यसअयाह का सा ना था। इब्रानियों के ख़त के मुसन्निफ़ के अल्फ़ाज़ में ख़ुदा ने हिस्सा बह हिस्सा और तरह बह तरह नबियों की मार्फ़त कलाम किया (इब्रानियों 1:1) हर नबी की लियाक़त, लताफ़त, इस्तिदाद (सलाहियत), ज़हनी नशव व नुमा, मौक़ा बीनी, क़ियाफ़ा (क़ियास, अक़्ल), फ़िरासत (दानाई), मार्फ़त, रिफ़अत ख़याल, वुसअत नज़र, पाकीज़गी क़ल्ब (दिल) और इल्म व अक़्ल वग़ैरह में इख़्तिलाफ़ था और इस इख़्तिलाफ़ की बिना पर बाअज़ अम्बिया-अल्लाह अम्बिया-ए-असग़र (छोटे नबी) और बाअज़ अम्बिया-ए-अकबर (बड़े नबी) हुए।
3 Hoskyns,the fourth Gospel vol.2.p371
ज़माना इबतिला और नबी की आमद
तारीख़ शाहिद (गवाह) है कि मुक़ाम ज़ेर-ए-बहस के मुताबिक़ क़ौम-ए-इस्राईल के लोग हर ज़माने में और बिल-ख़ुसूस क़ौम की ख़स्ता-हाली और ज़वाल के दिनों में हमेशा किसी ना किसी की आमद के मुंतज़िर और मामूर मिनल्लाह (ख़ुदा की तरफ से) शख़्स की राह देखा करते थे। मसलन बनी-इस्राईल की असीरी (क़ैद) के ज़माने में वो हज़रत हिज़्क़ीएल से ख़ुदा की मर्ज़ी दर्याफ़्त करने को जाते थे। (हिज़्क़ीएल 8:1, 14:1, 20:1 वग़ैरह) और जब मुसीबत के ज़माने में उनको ख़ुदा का कोई नबी ना मिलता तो वो वावेला मचाया करते थे। (1 समुएल 3:1, नोहा 2:9 वग़ैरह) चुनान्चे एक ज़बूर नवीस लिखता है। “ऐ ख़ुदा तूने हमको हमेशा के लिए तर्क कर दिया। तू कोह-ए-सिय्यून को याद कर और उन सब ख़राबियों की तरफ़ नज़र कर जो दुश्मन ने तेरे मुक़द्दस में की हैं। उन्होंने तेरे मुक़द्दस को नापाक किया है और ख़ुदा के सब इबादत ख़ानों को जला दिया है। हमारे निशान तक नज़र नहीं आते और कोई नबी नहीं रहा और हम में कोई नहीं जानता कि ये हाल कब तक रहेगा। ऐ ख़ुदा अपने वाअदे का ख़याल फ़र्मा।” (ज़बूर 74, नीज़ देखो ज़बूर 22, 44, 60, 79, 89 वगैरह) ऐसे तारीक ज़मानों में ख़ुदा अपने उस वाअदे का जो ज़ेर-ए-बहस मुक़ाम मैं मौजूद है। ख़याल फ़रमाकर क़ौम बनी-इस्राईल की सही रहनुमाई के लिए नबी बरपा कर देता। (1 समुएल 3:20 ता 21 वग़ैरह) ताकि वो क़ौम को ख़ुदा का पैग़ाम पहुंचाए। ख़ुदा क़ौम पर रहम फ़रमाता और क़ौम की हालत सुधर जाती। (यर्मियाह 29:10 ता 14)
नतीजा
पस साबित हो गया कि तौरेत शरीफ़ की किताब इस्तिस्ना की मुन्दरिजा बाला आयात में कोई बशारत मौजूद नहीं चह जायके वो किसी ख़ास एक नबी की बशारत हो जो हज़रत मूसा के हज़ारों साल बाद आने वाला था। बल्कि मुक़ाम-ए-ज़ेर-ए-बहस में ख़ुदा की तरफ़ से मुमानिअत के अहकाम और सिलसिला नबुव्वत के क़ियाम और ताअज़ीब (दुख देना) के वाअदे मौजूद हैं। ये भी साबित हो गया कि इन आयात में कोई ख़ास नबी मुराद नहीं बल्कि इनमें ऐसे हर नबी का ज़िक्र है जो बनी-इस्राईल की हिदायत के लिए मबऊस हो कर क़ौम यहूद की तरफ़ भेजा गया और हज़रत मूसा से लेकर हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) तक हर वो नबी जो अम्बिया-अल्लाह की सफ़ में खड़ा है इस वाअदा ईलाही की तक्मील का जीता जागता सबूत है जिस तरह बनी-इस्राईल की बर्बादी के ज़माने वाअदा ताअज़ीब के तारीख़ी सबूत हैं।
फ़स्ल दोम
किताब-ए-इस्तिस्ना की आयात और सय्यदना ईसा नासरी
क़ौम यहूद की तारीख़ और आयात-ए-ज़ेर-ए-बहस
गुज़श्ता फ़स्ल से नाज़रीन पर वाज़ेह हो गया होगा कि आयात ज़ेर-ए-बहस के सियाक़-ए-इबारत से ज़ाहिर है कि इनमें ना तो किसी ख़ास नबी का ज़िक्र है और ना किसी एक नबी की बशारत मौजूद है। इन आयात में ख़ुदावंद करीम का वाअदा है कि जब कभी ज़रूरत लाहक़ होगी वो हस्ब-ए-मौक़ा क़ौम यहूद में नबी पैदा कर देगा जो उस वक़्त और ज़माने के लिए हज़रत मूसा का जांनशीन हो कर उस के से फ़राइज़ अदा करेगा। हम ज़िक्र कर चुके हैं कि बनी-इस्राईल की तारीख़ में ये ज़रूरत बार-बार मुख़्तलिफ़ ज़मानों में पेश आई जिसको ख़ुदा अपने करम व फ़ज़्ल से पूरा करता रहा। पस इस मुक़ाम में कोई ख़ास नबी मुराद नहीं बल्कि एक मुस्तक़िल ख़ुदावंदी दस्तूर और ईलाही रिवाज का ज़िक्र है।
इस ईलाही मामूल की हक़ीक़त को क़ौमे इस्राईल की तारीख़ वाज़ेह तौर पर साबित कर देती है। चुनान्चे हज़रत मूसा के बाद जब बनी-इस्राईल बग़ैर किसी लीडर के रह गई तो ख़ुदा ने हज़रत यशूअ को बरपा किया और फ़रमाया जैसे मैं मूसा के साथ था वैसे ही तेरे साथ रहूँगा। तू हौसला रख, ख़ौफ़ ना खा और बे दिल ना हो।” (यशूअ 1:5 ता 10) जब यशूअ के बाद बनी-इस्राईल ने ख़ुदावंद को छोड़ दिया और बाअल और अस्तारात (बुतों) की परस्तिश करने लगे तो वो जहां जाते अज़ीयत पाते ऐसा कि वो निहायत तंग आ गए। “तब ख़ुदा ने उनके लिए नबी बरपा किए जो क़ाज़ी भी थे।” (कज़ा 2:11 ता 18, 3:9) इस के बाद ख़ुदा ने यरबअल, बदान, अफ़ताह और समुएल नबी को बरपा किया। (कज़ा 12:11) और ख़ुदा ने हज़रत समुएल की मार्फ़त अम्बिया का तबक़ा मुस्तक़िल तौर पर क़ायम कर दिया। (1 समुएल 19:20)
पस अम्बिया-ए-यहूद की तारीख़ की किताबें भी जो यहूदी कुतुब-ए-मुक़द्दसा के मजमूए में मौजूद हैं साबित करती हैं कि ख़ुदा हर ज़माने में क़ौम-ए-इस्राईल की हिदायत के लिए नबी पैदा कर देता था। बिल-ख़ुसूस जब ये क़ौम किसी मुसीबत में गिरफ़्तार होती तो वो ख़ुदावंदी इर्शाद को याद करके अपने ख़ुदा के हुज़ूर नाला व फ़रियाद करती और किताब-ए-मुक़द्दस की कुतुब-ए-तारीख़ से और कुतुब-ए-अम्बिया-ए-असग़र व अकबर से ज़ाहिर है कि ख़ुदा उनकी आह ज़ारी सुनकर उनके लिए नबी बरपा कर देता जो उनके लिए शम्मा हिदायत होते थे।
चुनान्चे एक मज़मूर् नवीस बनी-इस्राईल की तारीख़ पर नज़र करके लिखता है, ख़ुदावंद की हम्द करो, ख़ुदावंद का शुक्र करो कि वो भला है और उस की शफ़क़त अबदी है। हमने और हमारे बाप दादा ने गुनाह किया। उन्होंने मिस्र में तेरे अजाइब ना समझे बल्कि बहर-ए-कुल्जुम पर बाग़ी हुए तो भी उसने उनको अपने नाम की ख़ातिर बचाया। फिर वो जल्द उस के कामों को भूल गए और सहरा में ख़ुदा को आज़माया। उन्हों ने जवाब में एक बछड़ा बना लिया और ढाली हुई मूर्त को सज्दा किया वो अपने मुनज्जी ख़ुदा को भूल गए तब उसने उनके ख़िलाफ़ क़सम खाई कि मैं उनकी नस्ल को क़ौमों के दर्मियान गिरा दूंगा। वो बुतों की क़ुर्बानियां खाने लगे और अपने आमाल से उस को ग़ज़बनाक किया और वबा उनमें फूट निकली। तब फ़ीनहास उठा और बीच में आया और वबा रुक गई। उन्होंने ख़ुदा को मरीबा के चशमे पर भी ग़ज़बनाक किया। वो ग़ैर-अक़्वाम के साथ मिलकर उनके से काम सीख गए और उन के बुतों की परस्तिश करने लगे जो उनके लिए फंदा बन गए। बल्कि उन्होंने अपने बेटे बेटीयों को शयातीन के लिए क़ुर्बान किया। यूं वो अपने ही कामों से आलूदा हो कर अपने फेअलों से ख़ुदा से बेवफ़ा हो गए। इसलिए ख़ुदा का क़हर अपने लोगों पर भड़का और उस ने उनको क़ौमों के क़ब्ज़े में कर दिया और उन के दुश्मन उन पर हुक्मरान हो गए। उसने तो बार-बार उनको नजात दी लेकिन उनका मश्वरा बाग़ियाना ही रहा। तो भी जब उसने उनकी फ़र्याद सुनी तो उनके दुखों पर नज़र की और उस ने उनके हक़ में अपने अहद को याद फ़रमाया और अपनी शफ़क़त की कस्रत के मुताबिक़ तरस खाया। (ज़बूर 106, नीज़ देखो ज़बूर 81 वग़ैरह)
सय्यदना ईसा मसीह की बिअसत का ज़माना
तारीख़ हमको बतलाती है कि सय्यदना ईसा की बिअसत का ज़माना बनी-इस्राईल की नकबत (बदहाली) और इंतिहाई ज़बूनी का ज़माना था। ख़ुदा की इस बर्गुज़ीदा क़ौम पर बुत-परस्त कयासिरा रुम (रुम के शहनशाह) हुक्मरान थे। अहले-यहूद का क़ाफ़िया (पीछे चलने वाला) ऐसा तंग हो गया था कि वो बार-बार अपने हुक्मरानों के ख़िलाफ़ सर उठाते थे और हर बार उनकी सरकूबी की जाती थी। (आमाल 5:36 ता 37) जिस तरह फ़राइना (फ़िरऔन की जमा, बादशाह) मिस्र के ज़माने में बनी-इस्राईल पर अर्सा हयात तंग हो गया था इसी तरह वो कियासिरा रुम (रूम के बादशाह) के जोए तले नालां थे और कहते थे कि ये ये ग़ैर-अक़्वाम का ज़माना है। (लूक़ा 21:24) और इस इंतिज़ार में थे कि कब कोई मूसा सानी बरपा हो और उनको गु़लामी से नजात दिलाए। बनी-इस्राईल के मुतअद्दिद दीनदार मर्द और औरतों के गिरोह ख़ुदा के वाअदे की तरफ़ आँख उठाए इस्राईल की तसल्ली और ख़ुदा की बादशाहत के क़ियाम के मुंतज़िर थे। (लूक़ा 2:25 ता 37, 24:21 वग़ैरह) इस गिरोह में बड़े और छोटे, आलिम और जाहिल, शहरों और गांव के रहने वाले थे। इनमें काहिन भी थे, फ़रीसी भी थे लावी भी थे, सदर मज्लिस के अरकान भी थे, अवाम भी थे। ग़र्ज़ ये कि इस गिरोह में खूर्दो कलां सभी शामिल थे। (मर्क़ुस 15:43, यूहन्ना 1:19, मत्ती 3:5, लूक़ा 24:21 वग़ैरह) बनी-इस्राईल ज़बून हाली में “अंधेरे और मौत के मुल्क और साये में बैठे थे।” (मत्ती 4:16) और इस इंतिज़ार में थे कि ख़ुदा अपने वाअदे को जो ज़ेर-ए-बहस आयात में है याद फ़रमाएगा और जिस तरह उसने हज़रत मूसा और दीगर अम्बिया की मार्फ़त क़ौम इस्राईल को पहले ज़मानों में छुटकारा दिया था, (ज़बूर 44, 78 वग़ैरह) इसी तरह अब भी “हमारे ख़ुदा की ऐन रहमत से आलम-ए-बाला का आफ़्ताब हम पर तुलूअ करेगा ताकि उनको जो अंधेरे और मौत के साये में बैठे हैं, रोशनी बख़्शे और हमारे क़दमों को सलामती की राह पर डाले। (लूक़ा 1:78 ता 79) ये सब के सब “इस्राईल के छुटकारे के मुंतज़िर थे।” (लूक़ा 2:38, 1:68, आमाल 28:20 वग़ैरह) ऐसा कि यहूदी रब्बी “इस्राईल की तसल्ली से मुराद” ख़ुदा का ममसूह नबी लेते थे। (यसअयाह 40:1, 49:13, 51:3, 61:2, 66:13, लूक़ा 2:25) नबी मौऊद के लिए इंतिज़ार इस शिद्दत का था और खूर्दो कलां में इस क़द्र आम था कि क़सम खाते वक़्त वो कहते थे मुझे “इस्राईल की तसल्ली की क़सम” या “इस्राईल की तसल्ली ना देखूं” अगर मैं खिलाफ-ए-वाक़िया बयान दूं।5
पस जिस ज़माने में सय्यदना मसीह मबऊस हुए क़ौम इस्राईल इस ख़ुदावंदी वाअदा के पूरा होने की इंतिज़ार में आँखें लगाए बैठी थी जिसका ज़िक्र किताब-ए-इस्तिस्ना की आयात ज़ेर-ए-बहस में मौजूद है कि, “ऐ क़ौम-ए-इस्राईल मैं ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से नबी बरपा करूँगा जिस तरह मैंने मूसा को बरपा किया था।” लिहाज़ा जब कोई शख़्स ख़ुदावंद की तरफ़ से आने का दावा करता तो सब कह दमा उस के पास दौड़े जाते और उस से पूछते क्या तू वो नबी है? (मत्ती 3:5 ता 7, यूहन्ना 1:21) या “सब अपने-अपने दिल में सोचते कि आया वो मसीह है या नहीं।” (लूक़ा 3:15) क्योंकि उनका ये ईमान था कि ख़ुदा बनी-इस्राईल की गिर्ये वज़ारी को सुनकर हस्बे वादा उनमें नबी बरपा करेगा जो क़ौम को छुटकारा दिलाएगा।
4 Gore, Commentary on N.T.p.214 b. 5 World Studies in N.T.by Vincent vol.i.p.273
सय्यदना मसीह की आमद और आयात ज़ेरे बहस
जब इंतिज़ार करने वालों के गिरोहे कसीर ने सय्यदना ईसा मसीह के काम और कलाम को देखा तो उनको क़ुदरत वाला पाया। (लूक़ा 24:19) और उन में से बहुतेरे ईमान ले आए। (यूहन्ना 7:31 वग़ैरह) उन ईमानदारों ने दूसरों को भी आपकी ख़बर देकर कहा, “जिसका ज़िक्र मूसा ने तौरेत में किया वो हमको मिल गया है। वो यूसुफ़ का बेटा ईसा नासरी है।” (यूहन्ना 1:40 ता 45) हज़रत कलिमतुल्लाह के सामईन में से जिसने भी सय्यदना मसीह के कलाम-ए-मोअजिज़ा निज़ाम को सुना उस ने कहा, “बेशक ये वो नबी है।” (यूहन्ना 7:40) दूसरे अश्ख़ास आपके मोअजज़ात बय्यिनात को देख कर बोल उठे जो नबी दुनिया में आने वाला था फ़िल-हक़ीक़त यही है। (यूहन्ना 6:14, 7:31 वग़ैरह अवामुन्नास भी आपको नबी मानते और जानते थे। (मत्ती 21:46) “और वो सब लोग ख़ुदा की तम्जीद करके कहने लगे कि एक बड़ा नबी हम में बरपा हुआ है और ख़ुदा ने अपनी उम्मत पर तवज्जोह की है।” (लूक़ा 7:16)
सय्यदना ईसा मसीह को भी ये एहसास था कि आप ज़ेर-ए-बहस मुक़ाम के वाअदा ईलाही के मुताबिक़ बनी-इस्राईल के घराने की खोई हुई भेड़ों के लिए ख़ुदा की तरफ़ से फ़रिस्तादा नबी हैं। (मत्ती 10:6, 15:24, यूहन्ना 4:25 ता 26, 5:46, 9:37, 5:39, लूक़ा 7:16, 24:19 ता 27 वग़ैरह) आप ये जानते थे कि आप मसीह मौऊद इब्ने-अल्लाह हैं। (मत्ती 16:16 ता 17, लूक़ा 21:44 वग़ैरह) आपको ये एहसास था कि हज़रत यसअयाह ने अपने ज़माने के “ख़ादिम यहोवा” के जो कमालात बतलाए हैं वो हालात-ए-ज़माने की मुताबिक़त की वजह से आपकी ज़ाते क़ुद्दुसी सिफ़ात में पाए जाते हैं। (लूक़ा 4:16 ता 23, 18:31, मत्ती 9:12, मर्क़ुस 14:21, यसअयाह 52:13, 53:12 वग़ैरह) आप देखते थे कि क़ौम यहूद सरीहन राह़-ए-हक़ से भटक गई है और ख़ुदा ने आपको सच्चाई की सल्तनत का सुल्तान मुक़र्रर फ़र्मा कर उनकी जानिब भेजा है। (यूहन्ना 18:34 ता 38) ताकि उनके लिए राह-ए-हक़ और ज़िंदगी साबित हों और उनको ख़ुदा के पास वापिस फेर लाएं। (यूहन्ना 14:6) आपके इस एहसास की वजह से आपके दिल में क़ौम के लिए एक दर्द था। (मत्ती 23:37, लूक़ा 13:34) जो आपको चेन लेने नहीं देता था। क़ौम की ख़स्ता-हाली और बर्गशतगी को देखकर आप तड़प जाते थे। और इस के हश्र और अंजाम का ख़याल आपको हर वक़्त और बिल-ख़ुसूस ज़िंदगी के आख़िरी ज़माने में रह-रह कर सताता था। (मत्ती 20:32, 21:28 ता 32, 22 ता 24 अबवाब वग़ैरह) आख़िरी दिनों में आप मिल्लत की हालत को देख कर रो दिए। (लूक़ा 19:41 ता 44, लूक़ा 23:27 ता 31) और आप ने क़ाइदीन मिल्लत को वो ईलाही वाअदा ताअज़ीब भी याद दिलाया जो आयात ज़ेर-ए-बहस में है। (इस्तिस्ना 18:19, मर्क़ुस 13:1 ता 2, लूक़ा 19:41 ता 44 वग़ैरह) बिल-आख़िर आपने अपनी नबुव्वत पर अपने ख़ून से मुहर सब्त की। ख़ुदा ने अपने वाअदे ताअज़ीब के मुताबिक़ बनी-इस्राईल को ऐसी इबरतनाक सज़ा दी कि वो दुनिया के चारों कोनों में परागंदा हो कर तबाह व बर्बाद हो गए क्योंकि उन्हों ने उस के मसीह की ना सुनी।
हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) क़ौम इस्राईल को फ़र्माते थे “तुम किताब-ए-मुक़द्दस को बग़ौर पढ़ो, वो मेरी गवाही देती है।” (यूहन्ना 5:39) क्योंकि इर्शाद-ए-ख़ुदावंदी है कि वो हर ज़माने में हस्ब-ए-ज़रूरत और बिल-ख़ुसूस इबतिला और मुसीबत के ज़माने में बनी-इस्राईल की राहनुमाई के लिए नबी बरपा करेगा जिस तरह उसने फ़िरऔन मिस्र के ज़माने में हज़रत मूसा को बरपा किया था दौर-ए-हाज़रा में ख़ुदा-ए-बरतर व तआला ने तुम्हारी हिदायत के लिए मुझे मबऊस फ़रमाया है।
सय्यदना मसीह के रसूल भी इसी इर्शाद-ए-ख़ुदावंदी का ज़िक्र करके (आमाल 3 बाब) अहले-यहूद को कहते थे अब समुएल से लेकर पिछलों तक जितने नबियों ने कलाम किया उन सबने इन दिनों की ख़बर दी है। ख़ुदा ने (अपने वाअदे के मुताबिक़) अपने ख़ादिम (ईसा) को बरपा करके पहले तुम्हारे पास भेजा ताकि तुम में से हर एक को उस की बदियों से फेर कर बरकत दे। ऐ गर्दन कशो और कान के ना-मख्तुनों तुम हर वक़्त रूहुल-क़ुद्दुस की मुख़ालिफ़त करते हो। नबियों में से किस को तुम्हारे बाप दादा ने नहीं सताया? और अब तुम इस रास्तबाज़ (ईसा) के पकड़ने वाले और क़ातिल हुए।” (आमाल 3 24, 7:51 ता 52) सय्यदना ईसा के रसूल मुन्दरिजा बाला आयात में क़ौम इस्राईल को बार-बार इर्शाद-ए-ख़ुदावंदी याद दिलाकर कहते हैं कि, “ख़ुदा ने अपने क़दीम वाअदे (मुन्दरिजा दर किताब इस्तिस्ना) को हमारे ज़माने में भी पूरा फ़रमाया है और तुम्हारे लिए उसने अपने ख़ादिम ईसा को बरपा किया है। (आयत 13) जो अब्राहाम की हक़ीक़ी नस्ल “तुम्हारे भाईयों में” से है। जिस तरह ख़ुदा ने क़दीम ज़माने में हज़रत मूसा को बरपा किया था जो ख़ुदा और इस्राईल के दर्मियान पुराने अहद का बानी था इसी तरह अब उसने ईसा को बरपा किया है जो मूसा की मानिंद ख़ुदा और इन्सान के दर्मियान नए अहद का बानी है। (इब्रानियों 3:1 ता 6, 9:18 ता 20, 12:24, यूहन्ना 1:17, मुकाशफ़ा 15:2 ता 3 वग़ैरह)
नतीजा
अब नाज़रीन पर आफ़्ताब निस्फ़-उन्नहार (दोपहर की तरह रोशन) हो गया होगा कि ज़ेर-ए-बहस आयात में किसी ख़ास नबी की बाबत पेशगोई नहीं की गई बल्कि बनी-इस्राईल के तमाम अम्बिया हज़रत मूसा से लेकर सय्यदना ईसा तक, सब के सब उस वाअदे में शामिल हैं जो ख़ुदा ने अपनी बर्गुज़ीदा क़ौम से किया था कि वक़्त मुनासिब पर ख़ुदा इस में नबी बरपा करता रहेगा, जो मुख़्तलिफ़ ज़मानों में उस के लिए मशअल हिदायत होंगे।
चुनान्चे हज़रत होसेअ की मार्फ़त ख़ुदा बनी-इस्राईल को याद दिलाता है कि मैंने अम्बिया की मार्फ़त कलाम किया और रोया (कश्फ़) पर रोया (कश्फ़) दिखलाई। एक नबी (मूसा) के ज़रीये ख़ुदावंद इस्राईल को मिस्र से निकाल लाया और नबी ही के वसीले यानी नबियों के सिलसिले के वसीले वो महफ़ूज़ रहा। (होसेअ 12:10 ता 13) फिर लिखा है ख़ुदावंद सब नबियों और ग़ैब बीनों (1 समुएल 9:9) की मार्फ़त इस्राईल और यहूदाह को आगाह करता रहा कि तुम अपनी बुरी राहों से बाज़ आओ। (2 सलातीन 17:13, नहमियाह 9:30, ज़करीया 1:4 वग़ैरह)
इस वाअदा ईलाही में सय्यदना मसीह भी ना सिर्फ शामिल हैं बल्कि इस वाअदे की आख़िरी तक्मील भी हैं क्योंकि आप अहले-यहूद के लिए हुज्जतुल्लाह हो कर आए थे ताकि उन पर इत्माम-ए-हुज्जत हो जाए। (यूहन्ना 8:24, 16:9) इसी लिए सय्यदना मसीह ख़ुद (लूक़ा 24:27, यूहन्ना 5:39 वग़ैरह) और सय्यदना ईसा के हवारी (यूहन्ना 1:45 वग़ैरह) और इन्जील नवीस (यूहन्ना 20:31) और सय्यदना ईसा के मुबल्लिग़ (आमाल 3:22, 7:37 वग़ैरह) सब के सब आयात-ए-ज़ेर-ए-बहस के वाअदे को आँख़ुदावंद की मसीहाई के सबूत में पेश करके साबित करते हैं कि आप ही मसीह मौऊद थे जो वाअदे-ए-ख़ुदावंदी के मुताबिक़ बरपा हुए। (आमाल 9:22, 17:3 वग़ैरह)
फ़स्ल सोम
किताब इस्तिस्ना की आयात और मुहम्मद अरबी
इस बाब की गुज़श्ता फसलों के मुतालए से नाज़रीन किराम पर रोशन हो गया होगा कि सही उसूल-ए-तफ़्सीर के मुताबिक़ :-
(1) आयात-ए-ज़ेर-ए-बहस में किसी बशारत का ज़िक्र नहीं बल्कि उनमें ख़ुदावंद करीम का ये हुक्म है कि वो बुत-परस्त अक़्वाम के मुश्रिक फ़ालगीरों की बजाय अम्बिया-ए-किराम की तरफ़ रुजू करें जिनका सिलसिला वो अपने जो दो करम से क़ायम करेगा।
(2) सिलसिला अम्बिया के क़ियाम का वाअदा बनी-इस्राईल से किया गया था और सिर्फ बनी-इस्राईल ही इस वाअदे के मुख़ातब थे।
(3) ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि ये अम्बिया क़ौम इस्राईल के अफ़राद थे और कि वो सब के सब इब्रानी-उल-नस्ल थे और बनी-इस्राईल के मुख़्तलिफ़ क़बाइल से मबऊस हुए थे।
(4) ये अम्बिया फ़क़त बनी-इस्राईल की क़ौम की हिदायत के लिए बरपा किए गए थे।
(5) जब क़ौम-ए-इस्राईल ने इन अम्बिया का हुक्म माना वो तरक़्क़ी की शाहराह पर गामज़न हो गई लेकिन जब अपनी सरकशी के सबब उसने उनके अहकाम की शनवाई ना की तो उस से मुवाख़िज़ा किया गया और ख़ुदावंदी वाअदा ताअज़ीब के मुताबिक़ उस को सज़ा मिली।
(6) सय्यदना ईसा अहद-ए-अतीक़ के इस सिलसिले अम्बिया की आख़िरी तक्मील थे। नबुव्वत के कमाल का जलाल आपके हर मसीहाई दम से ऐसा ज़ाहिर था कि आप “ख़ुदा के जलाल का पुरतो और उस की ज़ात का नक़्श” थे। (इब्रानियों 1:3, 2 पतरस 1:17 यूहन्ना 1:14 मत्ती 17:1 ता 6 वग़ैरह)
मुन्दरिजा बाला तवारीख़ी हक़ायक़ और सही तफ़्सीर को मद्द-ए-नज़र रखकर कौन मुंसिफ़ मिज़ाज शख़्स कह सकता है कि :-
(1) इन आयात में कोई “बशारत” मौजूद है। चह जायके वो कोई “साफ़ और रोशन बशारत” हो।
(2) कौन इंसाफ़ पसंद शख़्स ये कह सकता है कि “इन आयतों में मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ के मबऊस होने की ऐसी साफ़ और मुस्तहकम (मज़्बूत) बशारत है जिससे कोई भी इन्कार नहीं कर सकता?” सिर्फ क़ादियान की चार-दीवारी ही से (जहां अक़्ल व नक़्ल को दख़ल नहीं) ये आवाज़ निकल सकती है कि ये “पेशगोई हर पहलू से मुहम्मद ﷺ पर पूरी हुई और आपके सिवा किसी दूसरे शख़्स के हक़ में इस का पूरा होना साबित नहीं हो सकता।”
(2)
बफ़र्ज़-ए-मुहाल अगर हम तस्लीम भी कर लें कि नबुव्वत का अस्ल मक़्सद पेश गोईयां करना ही है और कि आयात-ए-ज़ेर-ए-बहस में किसी एक ख़ास नबी की पेश ख़बरी दी गई है तब भी ये किस तरह साबित हो सकता है कि ये बशारत सिर्फ़ हज़रत मुहम्मद अरबी के हक़ में ही है जब कि :-
(1) इन आयात में अहले-अरब को मुख़ातब ही नहीं किया गया।
(2) इन तमाम आयात में अहले-अरब के लिए ख़ुदा का कोई वाअदा मौजूद नहीं है।
(3) मुहम्मद अरबी क़बाइल बनी-इस्राईल से नहीं थे बल्कि अरब के क़बीले क़ुरैश से थे।
(4) क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ आप अरब की हिदायत के लिए ही मबऊस हुए थे।
इंशा-अल्लाह अगले बाब में ज़ेर-ए-बहस आयत के तमाम अल्फ़ाज़ पर मुफ़स्सिल बह्स करके ये साबित कर देंगे कि सिवाए उस शख़्स के जो बराह-ए-तास्सुब आँख बंद करे “कोई सही-उल-अक़्ल शख़्स ये नहीं कह सकता कि किताब इस्तिस्ना की ये आयत हज़रत मुहम्मद के हक़ में है।”
बाब सोम
“बशारत मूसवी” के अल्फ़ाज़
आयात का तहत अल-लफ़्ज़ी तर्जुमा
मुत्लाश्यान-ए-हक़ (हक़ की तलाश करने वालों) की ख़ातिर हम आयात-ए-ज़ेर-ए-बहस के इब्रानी अल्फ़ाज़ को उर्दू रस्म-उल-ख़त में लिख कर हर लफ़्ज़ के नीचे उस का उर्दू तर्जुमा कर देते हैं ताकि हक़-शनास अस्ल हक़ीक़त से वाक़िफ़ हो सकें।6
6 सर सय्यद मरहूम इब्रानी ज़बान से नावाक़िफ़ लिहाज़ा इन आयात के इब्रानी अलफ़ाज़ को अरबी रस्मुल ख़त में नक़्ल करते वक़्त उनसे गलतियाँ हो गई हैं। (खुतबात सफहा 598) क्योंकि उनकी इब्रानी ज़बान के माखज़ कोई “मौलवी इनायत रसूल चिड़ियाकोटी” थे। (सफहा 163,608) जिन की इब्रानी दानी का अंदाजा इस से हो सकता है कि वह तौरात शरीफ की आयात को सहीह तौर पर लिख पड़ भी नहीं सकते थे। (बरकतुल्लाह)
आयत 15 :-
כָּמֹ֔נִי יָקִ֥ים לְךָ֖ יְהוָ֣ה אֱלֹהֶ֑יךָ אֵלָ֖יו תִּשְׁמָעֽוּן׃
नाबि मक़बरक में अख़ीक कामूनी या क़ीम लक यहोए इलोहीक अलाव तश्मऊन
نابی مقبرک مے اخیک کامونی یاقیم لک یہوے الوہیک الاؤ تشمعون
नबी तेरे दर्मियान से मैं से तेरे भाईयों मेरी मानिंद खड़ा करता रहेगा तेरे लिए ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा उस की तुम सुनना।
נָבִ֨יא אָקִ֥ים לָהֶ֛ם מִקֶּ֥רֶבאֲחֵיהֶ֖ם כָּמ֑וֹךָוְנָתַתִּ֤ידְבָרַי֙ בְּפִ֔יווְדִבֶּ֣ר
نابی آقیم لھم مقرب اخی ھم کاموک و ناتاتی دبرئی بفیو و دبر الھیم اِت کل اشر اصونو
नाबि आ क़ियम लहम् मुक़र्रब अख़ी हम कामोक व नाताती दबरई बफ़ीवू दबर अलहीम इत कल अशर असूनो
नबी मैं बरपा करता रहूँगा उनके लिए दर्मियान से उनके भाईयों तेरी मानिंद और मैं डालूँगा अपना कलाम उस के मुँह में और वो कहेगा उनसे वही कुछ जो मैं उसे हुक्म दूँगा।
पस ज़ेरे बह्स आयात का सलीस उर्दू तर्जुमा ये हुआ :-
“ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे दर्मियान से तेरे भाईयों में से मेरी मानिंद नबी बरपा करता रहेगा। तुम उस की सुनना।..... मैं उनके लिए उनके भाईयों के दर्मियान से तेरी मानिंद नबी बरपा करता रहूँगा और अपना कलाम उस के मुँह में डालूँगा और जो हुक्म मैं उस को दूँगा वो वही कुछ उनसे कहेगा।”
आयत 15 में हज़रत मूसा क़ौम इस्राईल को मुख़ातब करता है और अठारवीं (18) आयत में ख़ुदा हज़रत मूसा को मुख़ातब करता है। दोनों आयतों का मफ़्हूम और मतलब यकसाँ है।
फ़स्ल अव़्वल
लफ़्ज़ “अख़ी” (اخی) के मफ़्हूम का तअय्युन
किताब-ए-मुक़द्दस के किसी लफ़्ज़ के सही मअनी और अस्ल मतलब को जानने के लिए लाज़िम है कि हम उस को उन माअनों में समझें जिनमें वो इस्तिमाल किया गया है। ये ज़रूरी है कि हम किताब-ए-मुक़द्दस की वर्क़ गरदानी करके उन तमाम मुक़ामात को यकजा करें जहां वो लफ़्ज़ वारिद हुआ है ताकि उस का हक़ीक़ी मतलब जो मुलहम (इल्हाम याफ्ता) लिखने वालों के ज़हन में था हम पर ज़ाहिर हो जाए। ये तरीकेकार सही उसूल तफ़्सीर के मुताबिक़ है। जिस पर अमल करके हम तफ़्सीर-बिल-राए के गढ़े से बच सकते हैं। ये तरीक़ा हम पर ज़ाहिर कर देता है कि जो मतलब हम किसी लफ़्ज़ का लेते हैं वो क़ाइल के मंशा के मुताबिक़ है या नहीं। अगर वो मतलब किताब मुक़द्दस के मफ़्हूम के मुताबिक़ नहीं तो ईमानदारी का ये तक़ाज़ा है कि हम अपने ख़ुद-साख़्ता मफ़्हूम को छोड़कर उस माअ्नी को इख़्तियार करें जो किताब-ए-मुक़द्दस का है।
लफ़्ज़ अख़ी (اخی) और किताब-ए-मुक़द्दस
जब हम इस उसूल-ए-तफ़्सीर पर चल कर तौरात शरीफ़ के औराक़ पलटते हैं तो हम पर वाज़ेह हो जाता है कि :-
- लफ़्ज़ अख़ी (اخی) बमाअनी भाई एक आम और मशहूर इस्तिलाह और मुहावरा है जो तौरात शरीफ़ में अक्सर जगह वारिद हुआ है।
- मुजर्रिद इस्तिलाह भाई और “भाईयों” से हमेशा और हर मुक़ाम में मुराद बनी-इस्राईल है। और
- तमाम की तमाम तौरात में ये इस्तिलाह किसी ग़ैर-बनी-इस्राईल के हक़ में किसी एक मुक़ाम में भी कहीं पाई नहीं जाती।
ये सवाल क़ुदरतन पैदा होता है कि क्यों ये इस्तिलाही जुम्ले “उनके भाई” “तुम्हारे भाई” “अपने भाई” “हमारे भाई” “उस के भाई” वग़ैरह सिर्फ़ क़ौम बनी-इस्राईल के लिए मख़्सूस हैं? तौरात शरीफ़ ये जवाब देती है कि क़ौम यहूद, हज़रत याक़ूब (जिनका दूसरा नाम “इस्राईल” था) के बारह (12) बेटों की औलाद थी और बारह (12) फ़िर्क़ों में मुनक़सिम (बटी) थी। क़ुरआन मजीद भी हमको ये बतलाता है। चुनान्चे लिखा है :-
“हमने इस्राईल की नस्ल को बारह (12) क़बीलों में तक़्सीम किया जो बड़ी-बड़ी जमाअतें थीं।” (आराफ़ रुकूअ 20)
इन बारह (12) बेटों की औलाद आपस में भाई कहलाए ताकि मुतफ़र्रिक़ क़बीलों की तक़्सीम से बाहम मुग़ाइरत (ग़ैर, बेगानगी) पैदा ना हो और इस्राईल की तमाम नस्ल में बिरादरी और उखुव्वत (भाई चारे) का रिश्ता और सुलूक हमेशा क़ायम और उस्तिवार रहे। इस ग़र्ज़ से बारह (12) के बारह (12 फ़िर्क़ों के लोग अपने मोरिस ए (वारिस करने वाला आला) इस्राईल के फ़र्ज़न्द या बनी-इस्राईल कहलाए और उन की निस्बत इर्शाद हुआ कि “इस्राईल के सब घरानों के लोग तुम्हारे भाई हैं।” (अहबार 10:6) यानी अज़रूए शरीअत सिर्फ इस्राईल के सब घरानों के लोग आपस में “भाई” कहला कर एक क़ौमी बिरादरी में शरीक हुए जिससे हर ग़ैर-इस्राईली शख़्स ख़ारिज हो कर शरअन अजनबी कहलाया। (इस्तिस्ना 17:15, 23:19 ता 20 वग़ैरह) जिसमें से किसी काहिन या बादशाह का मुक़र्रर होना क़तई तौर पर शरीअत में ममनू किया गया। (इस्तिस्ना 17:15)
तौरात शरीफ़ के इलावा किताब-ए-मुक़द्दस की दीगर कुतुब में भी ये मुहावरा “तुम्हारे भाई” “मेरे भाई” “उनके भाई” वग़ैरह बईना इन्ही माअनों में बनी-इस्राईल के लिए जा-ब-जा इस्तिमाल किया गया है। मिसाल के तौर पर देखो यशूअ 22:4, 8, 14:8, 23:7, 1_सलातीन 12:24 वग़ैरह)
मौलवी साहब ग़लत फ़र्माते हैं कि और तौरात शरीफ़ उनके इस दाअ्वे की तर्दीद करती है कि “तौरेत मुक़द्दस में जहां लफ़्ज़ “भाई” बनी-इस्राईल के हक़ में बोला गया है वहां उस के साथ लफ़्ज़ “बनी-इस्राईल” की भी क़ैद आई है।”
हमने सुतूर बाला में हक़ीक़त-ए-हाल अर्ज़ कर दी है कि तमाम तौरात में जुम्ला “अपने या उनके या तुम्हारे या तेरे भाई या भाईयों” अपनी इस क़तई और ग़ैर-महदूद सूरत में किसी एक मुक़ाम में भी ग़ैर-इस्राईली के लिए कहीं इस्तिमाल नहीं हुआ और ना हो सकता है। क्योंकि ये इस्तिलाह बतौर माअदूद-ए-ज़हनी के बनी-इस्राईल और सिर्फ बनी-इस्राईल के लिए इस्तिमाल हुई है। मिसाल के तौर पर मुलाहिज़ा हो :-
- वो जो अपने भाईयों में सरदार काहिन है। (अहबार 21:20) कोई ग़ैर-इस्राईली काहिन या सरदार काहिन नहीं हो सकता।
- एक इस्राईली आया और अपने भाईयों के पास एक मिदयानी औरत लाया। (गिनती 25:6)
- मैंने तुम्हारे क़ाज़ीयों से ताकीद की तुम्हारे भाईयों में जो मुक़द्दमा हो उसे सुनो। (इस्तिस्ना 1:16)
- हमारे भाईयों ने तो हमको बे-दिल कर दिया। (इस्तिस्ना 1:28)
- तुम सब जंगी मर्द मुसल्लह हो कर अपने भाईयों बनी-इस्राईल के आगे आगे पार चलो......जब तक ख़ुदावंद तुम्हारे भाईयों को चेन बख़्शे। (इस्तिस्ना 3:18 ता 20)
- लावी का हिस्सा और मीरास उस के भाईयों के साथ नहीं। (इस्तिस्ना 10:9)
- उस का दिल उस के भाईयों पर घमंड ना करे। (इस्तिस्ना 17:20)
- उनकी मीरास उनके भाईयों के साथ ना होगी। (इस्तिस्ना 18:3)
- तू अपने भाईयों में से किसी को अपने ऊपर बादशाह मुक़र्रर करना और किसी अजनबी को जो तेरा भाई नहीं अपने ऊपर बादशाह क़ायम ना करना। उस के दिल में ग़ुरूर ना हो कि वो अपने भाईयों को हक़ीर जाने। (इस्तिस्ना 17:15 ता 20)
- अगर तुम्हारे दर्मियान तुम्हारे भाईयों में से कोई मुफ़्लिस हो। (इस्तिस्ना 15:7) बजिन्सा (ऐसे ही) यही अल्फ़ाज़ आयात-ए-ज़ेर-ए-बहस में वारिद हुए हैं, पस इन दोनों मुक़ामात की सही उसूल-ए-तफ़्सीर के मुताबिक़ तावील भी एक ही होनी चाहिए।
आयत नम्बर 9 के अल्फ़ाज़ क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं। इस आयत में वज़ाहत के साथ तमाम दुनिया के लोगों की दो हिस्सों में तफ़रीक़ की गई है। यानी “भाई” और “अजनबी” बनी-इस्राईल “भाई” हैं और कुल ग़ैर-इस्राईली “अजनबी” हैं। कोई “अजनबी” यानी ग़ैर-इस्राईली क़ौम, इस्राईल पर हुक्मरान नहीं हो सकता और ना उनका काहिन या सरदार काहिन हो सकता है। “भाई” और “अजनबी” की ये तफ़रीक़ तौरात शरीफ़ के दीगर मुक़ामात में भी मौजूद है। मसलन तू अपने भाईयों को सूद पर क़र्ज़ ना देना तू अजनबी को सूदी क़र्ज़ा दे सकता है।” (इस्तिस्ना 23:19 ता 20 नीज़ देखो 24:14, अहबार 20:1 वग़ैरह)
अगर जुम्ला अपने भाईयों से मुराद बनी-इस्माईल हैं तो हमारे मुख़ातब ही बतला दें कि कब बनी-इस्राईल ने बनी-इस्माईल के किसी शख़्स को अपना बादशाह बनाया? और कब ख़ुदा ने बनी-इस्माईल में से किसी को उन पर बादशाह मुक़र्रर किया? या कब बनी-इस्राईल ने किसी बनी-इस्माईली को अपना काहिन या सरदार काहिन बनाया? या बनी-इस्राईल के क़ाज़ीयों ने बनी-इस्माईलियों के मुक़द्दमात की समाअत (सुनवाई) की? या कब बनी-इस्राईल मुसल्लह (हथियार के साथ) हो कर चले ताकि बनी-इस्माईल को चेन नसीब हो? वग़ैरह-वग़ैरह। मज़्कूर बाला आयात नम्बर 9 के हुक्म के मुताबिक़ हज़रत समुएल नबी ने पहला बादशाह जब ममसूह (मसह) किया तो वो ना तो बनी-इस्माईल से था और ना बनी अदूम में से था और ना किसी ऐसी क़ौम में से था जिसके आबा व अजदाद (बाप दादाओं) का और इस्राईल के आबा व अजदाद का क़दीम ज़माने में ख़ूनी रिश्ता रह चुका था। बल्कि बनी-इस्राईल का पहला बादशाह बिनियामीन के क़बीले से शाऊल बिन क़ैस था। (1 समुएल 10:20 ता 24)
क़ुरआन में भी यही लफ़्ज़ “अख़ी” (اخی) बमाअनी “भाई” ख़ास इसी क़ौम के माअनों में वारिद हुआ है। चुनान्चे (सूरह आराफ़) में आया है :-
وَإِلَى مَدْيَنَ أَخَاهُمْ شُعَيْبًا قَالَ يَا قَوْمِ
“यानी मिद्यान की तरफ़ भेजा उनके भाई शुऐब (को) जिसने कहा ऐ मेरी क़ौम”
इस आयत में शुऐब अपने क़बीले को “ऐ मेरी क़ौम” कह कर मुख़ातब करता है पस क़ुरआनी लफ़्ज़ “अखाहुम” (اخاھم) “उनका भाई” तौरात के लफ़्ज़ “अख़ीहुम” (اخی ھم) की तफ़्सीर है और तौरात के मुहावरे और इस्तिलाह की मुसद्दिक़ है।
मौलवी साहब का दाअ्वा कि “तौरेत मुक़द्दस में जहां लफ़्ज़ “भाई” बनी-इस्राईल के हक़ में बोला या गया है वहां उस के साथ लफ़्ज़ “बनी-इस्राईल” की भी क़ैद आई है।” तौरात शरीफ़ और क़ुरआन मजीद दोनों की रु से ग़लत है। हाँ, तौरात शरीफ़ के बाअज़ मुक़ामात में लफ़्ज़ “भाईयों” के साथ “बनी-इस्राईल” का लफ़्ज़ तौज़ीह और ताकीद की ख़ातिर ईज़ाद कर दिया गया है, मसलन मज़्कूर-बाला आयात में नम्बर 5 आयत या अहबार की किताब की आयत “लेकिन बनी-इस्राईल जो तुम्हारे भाई हैं उनमें से किसी पर तुम सख़्ती से हुक्मरानी ना करना।” (25:46) इन और तमाम दीगर आयात में सिर्फ ताकीद और वज़ाहत की ख़ातिर लफ़्ज़ “बनी-इस्राईल” ईज़ाद किया गया है।
तौरात शरीफ़ का मुतालआ ये अम्र भी वाज़ेह कर देता है कि अगर किसी मुक़ाम पर आबाई नस्ल के लिहाज़ से कभी किसी ग़ैर-इस्राईली को भाई कहने की ज़रूरत लाहक़ हुई तो फ़ौरन इस ख़ास क़ौम का नाम भी साथ ही लिख दिया ताकि इस आम इस्तिलाह और मशहूर मुहावरे में सिरे से ग़लतफ़हमी का इम्कान और एहतिमाल मिट जाये। मसलन मुलाहिज़ा हो :-
- तू किसी अदूमी से नफ़रत ना रखना क्योंकि वो तेरा भाई है। (इस्तिस्ना 23:7, देखो पैदाइश 25:24 ता 26)
- तुमको बनी-एसू तुम्हारे भाई जो शईर में रहते हैं उनकी सरहद के पास से हो कर जाना है। (इस्तिस्ना 2:4)
- हम अपने भाईयों बनी-एसू के पास जो शईर में रहते हैं गुज़र गए। (इस्तिस्ना 2:8) वग़ैरह
पस किताब-ए-मुक़द्दस का मुतालआ ये साबित कर देता है कि मुजर्रिद (तन्हा) इस्तिलाह “भाई” “भाईयों” वग़ैरह से मुराद क़ौम बनी-इस्राईल के क़बाइल मुराद हैं और कि ये इस्तिलाह बनी-इस्राईल और सिर्फ बनी-इस्राईल के लिए ही मख़्सूस (ख़ास) है।
क्या बनी-इस्राईल और बनी-इस्माईल भाई हैं?
हम एक और अम्र अपने मुख़ातब के गोश गुज़ार करना मुनासिब समझते हैं। तमाम तौरात को छान मारो, तुमको किसी एक मुक़ाम में भी लफ़्ज़ “भाई” और बनी-इस्माईल एक जगह नहीं मिलेंगे जिस तरह ऊपर की आयात में लफ़्ज़ “भाई” अदूमी और बनी-एसू के साथ आबाई नस्ल के लिहाज़ से एक जा वारिद हुआ है। क्या ये अम्र हैरत का मूजिब नहीं कि तौरात छोड़ तमाम इब्रानी कुतुब मुक़द्दसा के मजमूए में किसी एक जगह भी बनी-इस्माईल को बनी-इस्राईल का भाई नहीं कहा गया? और यह एक वाज़ेह और मुसल्लिमा हक़ीक़त है कि बनी-इस्राईल आज तक बनी-इस्माईल को ग़ैर-क़ौम ही जानते और गिरादंते चले आए हैं।
अंदरें हालात किस सही उसूल-ए-तफ़्सीर के मुताबिक़ हमारे मुख़ातब लफ़्ज़ “भाईयों” का इतलाक़ बनी -स्माईल पर कर सकते हैं?
अगर बफ़र्ज़-ए-मुहाल हम एक लम्हे के लिए ये तस्लीम भी कर लें कि लफ़्ज़ “भाईयों” से ग़ैर-इस्राईली मुराद हो सकते हैं तो उन इस्लामी मुनाज़िरीन की तफ़्सीर के मुताबिक़ इस लफ़्ज़ का इतलाक़ क़ौम बनी-आदम पर होगा लेकिन क़ौम बनी-इस्माईल पर नहीं होगा। क्योंकि हज़रत इस्माईल हज़रत इस्राईल (याक़ूब) के भाई नहीं थे बल्कि सौतेले चचा थे। लेकिन हज़रत एसू हज़रत इस्राईल के हक़ीक़ी भाई थे। (पैदाइश 25:24 ता 26) पस उन मुनाज़िरीन की मन घड़त तावील के मुताबिक़ नबी मौऊद को बनी-इस्माईल से नहीं बल्कि बनी-अदूम से होना चाहिए !
हमारे मुख़ातब को ये बात हरगिज़ फ़रामोश नहीं करनी चाहिए कि अगर बफ़र्ज़ मुहाल बनी-इस्माईल किसी मअनी में बनी-इस्राईल के भाई कहलाए जा सकते हैं तो बनी-इस्राईल के बारह (12) क़बीले बवजह-ए-अह्सन एक दूसरे के भाई कहलाए जाने के मुस्तहिक़ हैं और यही वजह है कि जैसा कि हम सुतूर बाला में बतला चुके हैं। ये इस्तिलाह बनी-इस्राईल के बारह क़बाइल से मख़्सूस थी। हम इस नुक्ते को एक आम मिसाल से वाज़ेह कर देते हैं। फ़र्ज़ करो कि कोई हाकिम किसी शख़्स को कहे कि मैं फ़ुलां मुलाज़मत “तुम्हारे भाईयों में से” किसी को देना चाहता हूँ कि तो कौन शोरीदा-सर ये समझेगा कि इस के अपने भाई तो हाकिम के हुक्म से ख़ारिज हैं और मुलाज़मत उस के अपने भाईयों में से किसी को नहीं दी जाएगी, बल्कि उस के सौतेले चचा की औलाद में से किसी को मिलेगी। लेकिन हमारे मुख़ातब की मज़हकाख़ेज़ दलील का यही तक़ाज़ा है कि नबुव्वत का ओहदा बनी-इस्राईल के क़बाइल को छोड़कर बनी-इस्माईल के किसी क़बीले की औलाद के किसी फ़र्द को मिले। लेकिन ना सिर्फ अक़्ल-ए-सलीम हमारे मुख़ातब के ख़िलाफ़ है बल्कि जैसा हम साबित कर चुके हैं नक़्ल भी इस के ख़िलाफ़ है और ख़ुद क़ुरआन (आराफ़ आयत 83) इस की तावील के ख़िलाफ़ फ़त्वा देता है।
पस तौरात शरीफ़, क़ुरआन मजीद और अक़्ले सलीम सब के सब हमारी तावील की मुसद्दिक़ व मआविन हैं क्योंकि वो सहफ़-ए-समावी के सही उसूल-ए-तफ़्सीर पर मबनी है।
हज़रत मुहम्मद क नसब नामा
हम बाब दोम में साबित कर चुके हैं कि ज़ेर-ए-बहस आयात में किसी ख़ास शख़्स की आमद की पेश ख़बरी मौजूद नहीं है लेकिन अगर हम अपने मुख़ातब की पास-ए-ख़ातिर बफ़र्ज़-ए-मुहाल एक लम्हा के लिए ये मान भी लें कि इस मुक़ाम में किसी ख़ास नबी की आमद की बशारत दी गई है और मौलवी साहब की दलील को एक मिनट के लिए सच्च फ़र्ज़ कर लें कि ये पेशगोई बनी-इस्माईल के हक़ में है ताहम मौलवी साहब का दाअ्वा नुबूव्वत-ए-मुहम्मदियाह बातिल ठहरता है क्योंकि मौलवी साहब की मफ़रूज़ा दलील सिर्फ इस हालत में इन आयात से नबुव्वत-ए-मुहम्मदिया साबित कर सकती है जब कि वो पहले मुहम्मद अरबी को ऐसी यक़ीनी और मज़्बूत तारीख़ी शहादत (गवाही) से बनी-इस्माईल साबित कर दें जिसको उनके मुख़ालिफ़ भी चार व नाचार तस्लीम कर लें। लेकिन अगर वो आँहज़रत का नसब नामा हज़रत इस्माईल तक ना पहुंचा सकें तो इन आयात से हज़रत मुहम्मद साहब की नबुव्वत साबित नहीं हो सकती क्योंकि इस दलील का तमाम दारो मदार आँहज़रत के सही नसब नामे पर है ना किसी और बात पर। कोई शख़्स चाहे वो कैसा ही बड़ा नबी क्यों ना हो इस “पेशगोई” का मिस्दाक़ नहीं हो सकता। तावक़्ते के ये साबित ना हो जाए कि वो बनी-इस्राईल के “भाईयों में से” है।
हमारे मुख़ातब ख़ूब जानते हैं कि ईसाई हज़रत मुहम्मद अरबी को हज़रत इस्माईल की औलाद नहीं जानते। मौलवी साहब इस अम्र को साबित करने से गुरेज़ करने के लिए इल्ज़ामी हथियार (जो मैदान-ए-तहक़ीक़ में मह्ज़ बेकार है) काम में लाते हैं। चुनान्चे आप फ़र्माते हैं कि :-
“बाअज़ ईसाईयों ने अपनी तस्नीफ़ में नसब नामा के बारे में एतराज़ किए हैं कि मुसलमानोंको हज़रत मुहम्मद का नसब नामा हज़रत इस्माईल ज़रूर साबित करना चाहिए। इसलिए में उनके जवाब में लिखता हूँ कि अगर नसब नामे का होना दलील बिर्रिसालत है तो पहले ईसाईयों को हज़रत मर्यम का सिलसिला नस्ल दाऊद तक तो साबित करना चाहिए।”
(सफ़ा 46)
भला ये क्या जवाब है? इस जवाब से हज़रत मुहम्मद अरबी का नसब नामा हज़रत इस्माईल तक तो साबित ना हो गया ! और ये किस ने और कब और कहाँ कहा है कि “नसब नामे का होना दलील-बिर्रिसालत है?” हम तो सिर्फ ये अर्ज़ करते हैं कि इस मफ़रूज़ा पेशगोई के मिस्दाक़ होने के लिए आँहज़रत के सही नसब नामे की ज़रूरत है। जो नबी आपकी पेश कर्दा आयात का मिस्दाक़ है उस का नसब नामा ज़रूर उस इंतिहा तक होना चाहिए जिससे वो “बनी-इस्राईल” के भाईयों में शामिल हो सके। आप ईसाईयों को नाहक़ इल्ज़ाम देते हैं और इल्ज़ाम भी बे-ठिकाने। भला मसीह के इस आयत के मिस्दाक़ होने के लिए क्या ज़रूर है कि बीबी मर्यम सिद्दीक़ा को हम अज़ नस्ल-ए-दाऊद साबित करें? क्या हमारे मुख़ातब नहीं जानते कि ईसाईयों और यहुदीयों दोनों का इस अम्र पर इत्तिफ़ाक़ है कि अल्फ़ाज़ “उनके भाईयों” से मुराद बनी-इस्राईल हैं। और क्या सही-उल-अक़्ल शख़्स ने कभी इन्कार किया है कि हज़रत ईसा नासरी बनी-इस्राईल से थे?
पस अगर बफ़र्ज़-ए-मुहाल हम मान भी लें कि अल्फ़ाज़ “तेरे भाईयों” से मुराद बनी-इस्माईल ही हैं तो भी आँहज़रत इन आयात के मिस्दाक़ नहीं हो सकते क्योंकि मुहम्मद अरबी का नसब नामा आपको औलाद-ए-इस्माईल साबित ही नहीं कर सकता। हमारे मुख़ातब इस एतराज़ का जवाब नहीं दे सकते। आँहज़रत का कोई सही नसब नामा मौजूद नहीं है।
सही बुख़ारी (बाब मबअस-उन्नबी) में सिलसिला नसब यूं दिया गया है :-
“मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब बिन हाशिम बिन अब्द मनाफ़ बिन अबा बिन किलाब बिन मुर्र बिन कअब बिन लोई बिन ग़ालिब बिन फहर बिन मालिक बिन नफ़र बिन कनाना बिन ख़ुज़ैमा बिन मुदीरक बिन इल्यास बिन मुफ़िर नज़ार बिन मुइद बिन अदनान।”
लेकिन अव्वलन इन नामों की सेहत और शिजरा के अस्ल होने की क्या दलील है?
दोम : अगर हम मौलवी साहब की पास-ए-ख़ातिर इस नसब नामे को सही मान भी लें तो इस बात का क्या ईलाज कि आँहज़रत ने ख़ुद निहायत साफ़ अल्फ़ाज़ में फ़र्मा दिया कि کذب النسا بون الیٰ مافوق عدنان (वाक़िदी) यानी अदनान से आगे मेरा नसब बयान करने वाले झूटे हैं। चुनान्चे मसऊदी भी कहता है कि :-
"नबी ने मना कर दिया कि कोई मेरे सिलसिला नसब को मुइद बिन अदनान से आगे बयान ना करे।”
बैहक़ी अपने पीर अबू अब्दुल्लाह का क़ोल बयान करता है कि :-
“उसने कहा कि रसूलुल्लाह का नसब नामा अदनान तक तो मोअतबर है मगर इस के आगे कोई सही सनद नहीं मिलती।”
सर सय्यद अहमद भी लिखते हैं कि :-
“आँहज़रत के नसब नामे की निस्बत कोई सही हदीस मौजूद नहीं, तमाम रिवायतें मह्ज़ ग़लत और बे-सनद हैं और ज़र भी एतबार के लायक़ नहीं।”
(ख़ुत्बा नह्म सफ़ा 557, 559)
पस अगर रिआयतन इस नसब नामे को सही मान भी लिया जाये तो हमको सिर्फ़ इक्कीस (21) नाम मिलते हैं। अगर इस सिलसिले में फ़र्ज़न्द की पैदाइश के वक़्त हर बुज़ुर्ग की औसत उम्र तीस (30) साल हो तो अदनान तक सिर्फ छः सौ तीस (630) साल हुए। हज़रत मुहम्मद (570 ई॰) में पैदा हुए। अदनान का ज़माना क़ब्ल मसीह पहली सदी हुआ। हज़रत इब्राहिम मसीह से दो हज़ार साल से भी पहले थे पस इस हिसाब से कम अज़ कम दो हज़ार (2000) साल तक आँहज़रत का सही नसब नामा मफ़्क़ूद है। चुनान्चे सर सय्यद मरहूम को इक़बाल है कि :-
“मौअर्रखीन को नसब नामे की तहक़ीक़ में मज्बूरी हुई तो उन्होंने अपनी किताबों को रौनक देने के लिए झूटी रिवायतें ख़ुद घड़ लीं या अफ़ोहन सुनी सुनाई अपने मतलब के मुवाफ़िक़ समझ कर बिला (बगैर) तहक़ीक़ मुन्दरज कर लीं। अव्वल तो नसब नामों को इस्माईल तक समझना ग़लती है। दूसरे ये नसब नामे ख़ुद भी ग़लत हैं।”
(ख़ुत्बा नह्म)
सर सय्यद के मुताबिक़ दोनों विलादतों में चौबीस सौ छियोत्तर (2476) बरस का फ़ासिला है और इस्माईल से सत्तर (70) पुश्तें गुज़रती हैं।
(ख़ुत्बात सफ़ा 563)
हम हैरान हैं कि हमारे मुसलमान भाई किस तरह बिला (बगैर) दलील हज़रत मुहम्मद को फ़र्ज़ंद-ए-इस्माईल गर्दान सकते हैं? और अगर वो ख़ुद बिला-दलील इस मफ़रूज़ा को मान लें लेकिन तौरात व इन्जील वालों के रूबरू तौरात शरीफ़ की बिना पर वो आपको किस तरह बनी-इस्माईल साबित कर सकते हैं? और अगर ये साबित कर भी सकें तो वो किस दलील से मुहम्मद अरबी को आयात ज़ेर-ए-बहस के तहत लाकर आपकी नबुव्वत साबित कर सकते हैं? क्योंकि जहान में चाहे कोई नबी तौरात शरीफ़ की इन आयात का मिस्दाक़ हो लेकिन हज़रत मुहम्मद अरबी उनके मिस्दाक़ नहीं हो सकते।
फ़स्ल दोम
अल्फ़ाज़ “तेरे ही दर्मियान” से का मफ़्हूम
आयात ज़ेर-ए-बहस में आया है “ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे भाईयों में से मेरी मानिंद नबी बरपा करता रहेगा तुम उस की सुनना।” (इस्तिस्ना 18:15)
अल्फ़ाज़ तौज़ीही हैं
गुज़श्ता फ़स्ल में हम बतला चुके हैं कि अल्फ़ाज़ “तेरे भाईयों में से” (जो इस आयात ज़ेर-ए-बहस में वारिद हुए हैं) का मतलब क़बाइल बनी-इस्राईल है जिससे ख़ुदा अपने करम व फ़ज़्ल से क़ौम की हिदायत के लिए नबी बरपा करता रहेगा। इस आया शरीफा में मज़ीद ताकीद और तौज़ीह के अल्फ़ाज़ “तेरे ही दर्मियान से” इस्तिमाल हुए हैं ताकि बनी-इस्राईल के हर किदमा पर ज़ाहिर हो जाए कि ये मामूर-मिनल्लाह अम्बिया मुश्रिकाना अक़्वाम में से नहीं होंगे जिनसे फ़ालगीर और शुगून निकालने वाले, अफ़्सून गीर, जादू गीर, मंत्र पढ़ने वाले, जिन्नात के आश्ना, रुमाल (जोतशी, नजूमी) और अर्वाह के तसख़ीर करने वाले पैदा होते थे। (आयत 14, यसअयाह 2:6 वग़ैरह) बल्कि ख़ुदा के ये फ़रिस्तादे अम्बिया-अल्लाह होंगे जो बनी-इस्राईल के क़बाइल में से और ख़ास क़ौम यहूद के दर्मियान से ही पैदा होंगे।
अगर अल्फ़ाज़ “तेरे ही दर्मियान से” मतन में ना भी होते (जिस तरह वो आयत 18 में वारिद नहीं हुए) तो इस्तिलाह “तेरे भाईयों में से” के आम रिवाज की वजह से तईन मतलब व मफ्हूम में एक ज़र्रा भर फ़र्क़ ना पड़ता। पस जुम्ला “तेरे ही दर्मियान से” मह्ज़ ताकीदिया है इस का होना “तेरे भाईयों” पर ज़्यादा ज़ोर देता है गो इस का ना होना इस्तिलाह के अस्ल माअनों को कोई वुसअत नहीं देता। दोनों जुम्ले “तेरे भाईयों में से” और “तेरे ही दर्मियान से” बिल्कुल हम-मअनी और मुतरादिफ़ हैं। चुनान्चे जैसा हम गुज़श्ता फ़स्ल में ज़िक्र कर आए हैं। बजिन्सा ये मुहावरा इस माअनी में इसी किताब (इस्तिस्ना 15:7) में आया है “अगर तुम्हारे दर्मियान तुम्हारे भाईयों में से कोई मुफ़्लिस हो।”
अल्फ़ाज़ की सेहत और अस्लियत
आया ज़ेर-ए-बहस में जुम्ला “तेरे ही दर्मियान से” इस तौर पर वारिद हुआ है कि कोई नावाक़िफ़ शख़्स भी जो इस्तिलाह तौरात को ना जानता हो “तेरे भाईयों” को किसी ग़ैर-इस्राईली पर चस्पाँ करने से क़तई रुक जाता है। इसलिए मौलवी साहब जुम्ला “तेरे ही दर्मियान से” की अस्लियत पर शुब्हा करके अपनी ख़ुद-साख़्ता तावील को चंद क़दम चलाने के वास्ते इन अल्फ़ाज़ को मतन से ख़ारिज करना चाहते हैं मगर हम दिखला चुके हैं कि ये जुम्ला मतन में होया ना हो जुम्ला “तुम्हारे भाईयों में से” का मफ़्हूम किसी तरह मुतनाज़ा हो कर किसी ग़ैर-इस्राईली पर चस्पाँ नहीं हो सकता।
लेकिन अल्फ़ाज़ “तेरे ही दर्मियान से” की सेहत व अस्लियत की निस्बत भी हम मौलवी साहब का इत्मीनान कर देना चाहते हैं। मौलवी साहब (इस्तिस्ना 18:15 ता 18) की इबारत की निस्बत फ़र्माते हैं :-
“हज़रत मूसा और ख़ुदावंद तआला के कलाम में दो इख़्तिलाफ़ पाए जाते हैं। ख़ुदा के कलाम में ज़मीर जमा ग़ायब है और मूसा के कलाम में ज़मीर वाहिद मुख़ातब। ख़ुदा के कलाम में “तेरे दर्मियान” का जुम्ला नहीं है। मूसा के कलाम में “तेरे दर्मियान” का जुम्ला है।”
जवाबन अर्ज़ है कि हज़रत मूसा ख़ुदा के कलाम के मुलहम मुफ़स्सिर थे। (इस्तिस्ना 18:15) में उन्होंने इस तौर से ख़ुदा का कलाम बनी-इस्राईल से बयान किया जिस तौर के ख़ुदा ने उनसे बनी-इस्राईल की निस्बत फ़रमाया था और फिर उन्होंने बनी-इस्राईल को इस तौर से समझाया जिस तौर वो ख़ुद उस को समझे और मौलवी साहब को भी इसी तरह समझना चाहिए जिस तरह कि हज़रत मूसा ख़ुद समझते थे।
अगर मौलवी साहब को सिर्फ लफ़्ज़ की निस्बत इसरार है तो वो इस रिसाले के वर्क़ पलट कर बाब सोम के शुरू में इब्रानी इबारत को मुलाहिज़ा करके अपनी तसल्ली कर सकते हैं कि लफ़्ज़ “मुक़र्रब” दोनों जगह वारिद हुआ है जिसके मअनी “दर्मियान” के हैं। (इस्तिस्ना 18:18) में इबारत का तर्जुमा है “उनके भाईयों के दर्मियान से” और आयत 15 में चूँकि इब्रानी लफ़्ज़ “मैं” बमाअनी से मौजूद है लिहाज़ा इबारत का तर्जुमा तेरे भाईयों में से “तेरे दर्मियान से” हुआ। पस लफ़्ज़ “दर्मियान” दोनों जगह मौजूद है।
लेकिन मौलवी साहब कहते हैं कि “हमको इस जुम्ला “तेरे दर्मियान से” पर कलाम है कि सही है या नहीं। इस के ग़लत होने के बारे में तीन (3) दलाईल ज़ेल में लिखे जाते हैं :-
- पतरस हवारी ने इस मूसा वाले फ़िक़्रे को अपनी तस्नीफ़ में नक़्ल किया है। इस में भी ये जुम्ला “तेरे दर्मियान” नहीं है। (आमाल 3:22) में है “मूसा ने कहा ख़ुदावंद ख़ुदा तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए मुझसा नबी पैदा करेगा तुम उस की सुनना।”
- इस्तिफ़नुस हवारी ने भी मूसा वाले फ़िक़्रे को अपनी तस्नीफ़ में नक़्ल किया है। इस में भी ये जुम्ला “तेरे दर्मियान” का नहीं है। (आमाल 7:27)
- तौरेत मुक़द्दस का सबसे पुराना तर्जुमा यूनानी सपट्वाजनट (سپٹواجنٹ) कहलाता है इस में भी पंद्रहवीं आयत के तर्जुमे में ये जुम्ला “तेरे दर्मियान” का नहीं है। अब ख़याल करना चाहिए कि यूनानी तर्जुमा एक पुराना और मोअतबर तर्जुमा है। इस से साफ़ साबित है कि मसीह से तक़रीबन तीन सौ (300) बरस पेशतर तक ये फ़िक़्रह तौरेत में दाख़िल नहीं हुआ था। इस तर्जुमे की मुख़्तसर कैफ़ीयत इम्तियाज़ व सेहत की ये है कि दो सौ छयासी (286) बरस क़ब्ल मसीह के सिकंदरिया में यहूदी रब्बियों की सदर जमाअत के सत्तर (70) आदमीयों की शिर्कत व एहतमाम से ये तर्जुमा हुआ था और मुद्दत तक अहले-किताब की ये राय थी कि ये तर्जुमा इल्हाम से हुआ है। हवारियों ने अपनी तस्नीफ़ात में अक्सर इसी तर्जुमे से नक़्ल और इक़्तिबास किया है बल्कि अस्ल इबरी की मुख़ालिफ़त करके इस को तर्जीह दी है।
(सफ़ा 908)
जवाबन अर्ज़ है कि :-
जनाब मौलवी साहब की ये तीन (3) दलीलें दरअस्ल एक ही दलील है ना कि तीन (3) जिसका मक़्सद सिर्फ ये है कि सपटवाजनट (سپٹواجنٹ) यूनानी तर्जुमे में अल्फ़ाज़ “तेरे दर्मियान से” नहीं हैं। पहली दो (2) दलीलें यानी मुक़द्दस पतरस और मुक़द्दस इस्तिफ़नुस के इक़तिबासात जुदा दलीलें इसलिए मुतसव्वर नहीं हो सकतीं क्योंकि वो इक़तिबासात, इब्रानी तौरात के अलग-अलग तर्जुमों के नहीं हैं बल्कि दोनों इक़तिबासात यूनानी तर्जुमा “सपटवाजनट” (سپٹواجنٹ) के ही हैं जो ज़बानी तक़रीरों में (ना कि अलग तस्नीफ़ात में !) हाफ़िज़े से किए गए थे। आँख़ुदावंद के रसूलों को यूनानी में लिखना पड़ा था और चूँकि यूनानी तर्जुमा मक़्बूल अहले-यहूद यही “सपटवाजनट” (سپٹواجنٹ) था। पस उन्हों ने यहूद के मुक़ाबिल यूनानी का वही तर्जुमा पेश किया जिसके वो ख़ुद मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) थे। पस यही वजह है कि हवारियों ने अपनी तस्नीफ़ात में अक्सर इस तर्जुमे से नक़्ल और इक़्तिबास किया है हवारियों को यूनानी में कोई नया तर्जुमा पेश करने की ज़रूरत ही ना थी।
सपटवाजनट (سپٹواجنٹ) की हक़ीक़त
मौलवी साहब की दलील में बड़ा सक़्म (ख़राबी, बीमारी) ये है कि उन्हों ने ये फ़र्ज़ कर लिया है कि यूनानी तर्जुमा ना सिर्फ सही है बल्कि ये भी कि वो लफ़्ज़ी तर्जुमा है। हत्ता कि अगर किसी इब्रानी लफ़्ज़ के लिए यूनानी लफ़्ज़ तर्जुमे में ना हो तो ये गुमान करना चाहिए कि वो लफ़्ज़ अस्ल इब्रानी में था ही नहीं। मगर ये मफ़्रूज़े बिल्कुल बातिल है। हम नाज़रीन की तवज्जोह अपने रिसाले सेहत-ए-कुतुब मुक़द्दसा की तरफ़ मबज़ूल करते हैं। जहां इस तर्जुमे की अस्ल अहमीय्यत का बयान किया है जिससे ज़ाहिर हो जाता है कि ये यूनानी तर्जुमा ना तो इस सेहत व पाये का है और ना वो लफ़्ज़ी तर्जुमा है, ऐसा कि हर इब्रानी लफ़्ज़ के लिए यूनानी लफ़्ज़ इस्तिमाल हुआ हो। हक़ीक़त में ये तर्जुमा मुरादी नफ़्स-ए-मज़मून को अदा करता है और इस के यूनानी तर्जुमे में अक्सर मुक़ामात पर अस्ल इब्रानी मतन को तौज़ीह और तशरीह की ख़ातिर अल्फ़ाज़ और फ़िक़्रे ज़ाइद किए गए हैं और बहुत से अल्फ़ाज़ जो बतौर मुतरादिफ़ मह्ज़ हुस्न-ए-इबारत-ए-इब्रानी के आए हैं। लेकिन मज़्मून फ़हमी में मुमिद व मुआविन नहीं हैं वो बिल्कुल यूनानी तर्जुमे में छोड़ दीए गए हैं। यानी यूनानी तर्जुमा क़ुरआन के बाअज़ उर्दू तर्जुमों की मानिंद इफ़रात-ए-तफ़रीत (कस्रत और कमी) से ख़ाली नहीं। ख़ुद मौलवी साहब के इस जुम्ले से कि हवारियों ने अक्सर इबरी से मुख़ालिफ़त करके इस तर्जुमे को तर्जीह दी है यही मुस्तंबित (अख़ज़) किया गया होता है कि ये तर्जुमा बाअज़ मुक़ामात में अस्ल इबरी के ख़िलाफ़ है। पस इस के एतबार पर इब्रानी मतन पर शुब्हा नहीं हो सकता बिल-ख़ुसूस इस जगह क्योंकि इस की अस्ल शक्ल में जुम्ला “तेरे ही दर्मियान से” को यूनानी तर्जुमे में लफ़्ज़ी नहीं, मह्ज़ इस ग़र्ज़ से तर्क कर दिया है कि वो जुम्ला मुतरादिफ़ “तेरे ही भाईयों में से” का था। ख़ुद मुतर्जिम के नज़्दीक तर्जुमे के अग़राज़ के लिए ज़रूरी नहीं था।
अब रही वो रिवायती ताज़ीम जो इस पुराने तर्जुमे की होती आई थी। वो भी कोई मुस्तहकम बुनियाद नहीं रखती। इस ताज़ीम की अस्ल वजह ये थी कि यूनानी यानी आम ज़बान में वो सबसे पहला तर्जुमा था जिस तरह हज़रत शाह अब्दुल क़ादिर का तर्जुमा क़ुरआन उर्दू का पहला तर्जुमा था जो 1790 ई॰ में किया गया था। इस यूनानी तर्जुमे के मुक़ाबिल और कोई तर्जुमा मौजूद नहीं था। लोगों में जो इब्रानी से उमूमन नावाक़िफ़ थे इस का रिवाज हुआ और इस रिवाज ने इस की ताज़ीम बढ़ा दी। और माबाअ्द इस ताज़ीम में इज़ाफ़ा हुआ और फिर मुबालग़ा हुआ हत्ता कि इस के लिए क़िस्से घड़े गए। चुनान्चे ये रिवायत कि सत्तर (70) जय्यद उलमा ने सत्तर रोज़ में इल्हाम से इस का तर्जुमा किया मह्ज़ ख़ाम-ख़याली है और ख़ुश एतिक़ादी की मह्ज़ एक मिसाल है। क्योंकि हमारे मुख़ातब भी मुतर्ज़मीन के इल्हाम के क़ाइल नहीं होंगे। ऐसी रिवायतें इस की निस्बत मुबालग़ा ज़ाहिर करती हैं। चुनान्चे जब तहक़ीक़ की गई तो ख़ाम-ख़याली ख़त्म हो गई और अस्लियत से आगाही हुई और तर्जुमे की अस्ल हक़ीक़त और अहमीय्यत सब पर वाज़ेह हो गई।
पस मौलवी साहब की तीन दलीलों वाली दलील दरअस्ल उनके दाअ्वे के लिए कोई दलील नहीं है। इस से इब्रानी मतन के इस फ़िक़्रह की ज़ेर-ए-बहस की सेहत और अस्लियत पर कोई शुब्हा नहीं पड़ सकता।
हम मोअतरिज़ से पूछते हैं कि अगर बिलफ़र्ज़-ए-मुहाल ये फ़िक़्रह तेरे ही दर्मियान से अस्ल इब्रानी में मौजूद ना था तो बाद में कैसे आया? क्योंकि कोई इब्रानी नुस्ख़ा ऐसा नहीं जिसमें ये जुम्ला आयत 15 में ना हो जिससे ज़ाहिर है कि ये फ़िक़्रह वहां हमेशा मौजूद था। हाँ अगर हमारे मुख़ातब इस का पता बता दें कि बाद ज़हूर हज़रत मुहम्मद साहब ये फ़िक़्रह तौरेत शरीफ़ में बढ़ गया लेकिन क़ब्ल ज़हूर ना था तो इस क़िस्म की मज़हकाख़ेज़ बात उनके जाहिल हम-ख़याल मान लेने को तैयार हो जाएंगे कि यहूदीयों और ईसाईयों ने एका करके आँहज़रत को इब्राहीमी तरका नबुव्वत से महरूम करने की ग़र्ज़ से ऐसा किया होगा। लेकिन फिर वो इस बात का क्या जवाब देंगे कि हज़रत मुहम्मद की पैदाइश से सदीयों पहले सब नुस्ख़ा जात इब्रानी में ये फ़िक्रे “तेरे ही दर्मियान से” पाया जाता है। इलावा इसके जैसा हम साबित कर चुके हैं कि मुजर्रिदन जुम्ला “तुम्हारे भाईयों में से” बिलाशिर्कत जुम्ला “तेरे ही दर्मियान से” नबी मौऊद को इस्राईली साबित करता है।
दीगर क़दीम तर्जुमों में इन अल्फ़ाज़ की मौजूदगी
जैसा हम ऊपर बतला चुके हैं कि हर क़दीम इब्रानी नुस्खे में जुम्ला “तेरे ही दर्मियान” का मौजूद होना इस की सेहत और अस्लियत को साबित कर रहा है क्योंकि अस्ल मतन इब्रानी है जिस पर किसी क़दीम या जदीद तर्जुमे का इख़्तिलाफ़ शुब्हा नहीं डाल सकता। लेकिन अपने मुख़ातब की तश्फ़ी की ये जुम्ला अस्ल इब्रानी के मुताबिक़ बल्कि लफ़्जन मुताबिक़ हैं जिनमें ये जुम्ला मौजूद है। ये सब तर्जुमे आँहज़रत के ज़हूर से सदीयों पेशतर के हैं। चुनान्चे हम मौलवी साहब की तीन दलीलों की रिआयत में (जो एक ही यूनानी तर्जुमा सपटवाजनट पर मबनी हैं) अपनी तीन दलीलें तीन मुख़्तलिफ़ तर्जुमों से और मुख़्तलिफ़ किस्मों के तर्जुमों से और मुख़्तलिफ़ ज़मानों और मुख़्तलिफ़ ज़बानों के तर्जुमों से पेश करते हैं।
कलदी तारगम इन्कलोस
पहली क़िस्म का तर्जुमा मशहूर कलदी तारगम इन्कलोस सय्यदना मसीह के ज़माने में राइज था। तौरात शरीफ़ का ये तर्जुमा मुस्तनद और सही लफ़्ज़ी तर्जुमा है जो यहूद में ऐसी ताज़ीम से देखा जाता था कि सोलहवीं (16) सदी तक बराबर इब्रानी मतन के साथ-साथ यहूदी इबादत-गाहों में पढ़ा जाता था। इस तर्जुमे में ये आयत लफ़्ज़ बलफ़्ज़ इब्रानी मतन के मुताबिक़ है और जुम्ला “तेरे ही दर्मियान से” इस में मौजूद है और ज़ाहिर कर रहा है कि इब्रानी मतन में ये अल्फ़ाज़ माबाअ्द दाख़िल नहीं हुए बल्कि हमेशा इब्रानी मतन का हिस्सा थे।
सपटवाजनट की ताज़ीम इस तारग़म के बराबर कभी भी नहीं की गई। दर-हक़ीक़त अहले-यहूद में इब्रानी तौरात के बाद इसी का रुत्बा सबसे बड़ा माना गया है।
तर्जुमा पशीतो
दूसरा तर्जुमा सुर्यानी ज़बान का मशहूर व मारूफ़ क़दीम तर्जुमा पशीतो (बमाअनी लफ़्ज़ी, सादा या मुअर्रा) है जो दूसरी सदी मसीही के अवाइल में किया गया। इस में भी इस्तिस्ना की किताब की ज़ेरे बह्स आयात लफ़्ज़ बलफ़्ज़ इब्रानी मतन के मुताबिक़ हैं और जुम्ला “तेरे ही दर्मियान से” इस में मौजूद है।
तर्जुमा विलगेट
तीसरा तर्जुमा लातीनी ज़बान का तर्जुमा विलगेट है जिसको चौथी (4) सदी ईस्वी में मुक़द्दस जेरोम ने क़दीम तरीन लातीनी तर्जुमों की नज़र-ए-सानी करके मुरत्तिब किया। इस में भी जुम्ला “तेरे ही दर्मियान से” लातीनी ज़बान में मौजूद है। अब इस से बढ़कर मौलवी साहब जुम्ला “तेरे ही दर्मियान से” की अस्लियत की और क्या दलील चाहते हैं? यहां तीन मुख़्तलिफ़ तर्जुमे बाहम लफ़्ज़न इब्रानी मतन से मुताबिक़त रखते हैं।
हम अपनी दलीलों की सेहत की ताईद में सर सय्यद अहमद मरहूम जैसे मुहक़्क़िक़ को भी पेश कर देते हैं। उन्हों ने अपनी मशहूर तस्नीफ़ ख़ुतबात-ए-अहमदिया के इस हिस्से में जिसमें उन्होंने नबुव्वत-ए-मुहम्मदिया पर पेश गोइयों से इस्तिदलाल किया है और (जहां से हमारे मुख़ातब ने भी अपनी बह्स के बाअज़ ख़यालात अख़ज़ किए हैं) इस आयत ज़ेर-ए-बहस के दौरान में जुम्ला “तेरे ही दर्मियान से” की सेहत और अस्लियत पर कोई शुब्हा नहीं डाला। हालाँकि वो इस बारे में एक अहले-ग़र्ज़ थे। ये क्यों? मह्ज़ इसलिए कि वो इन तमाम पहलूओं से पूरी तरह वाक़िफ़ थे और जानते थे कि इस जुम्ले की सेहत और अस्लियत पर शुब्हा नहीं पड़ सकता।
पस ज़ाहिर है कि नबी मौऊद की तलाश में बनी-इस्राईल के ख़ानदानी दायरे से बाहर जाना सरासर नादानी है। हज़रत मूसा ने पिछले लोगों को नबी और नबुव्वत के मफ़्हूम की निस्बत शशोपंज में नहीं छोड़ा बल्कि ऐसे वाज़ेह अल्फ़ाज़ इस्तिमाल किए जिनकी निस्बत धोका होना मुहाल है।
इलावा अज़ीं अम्बिया-ए-अकबर व असग़र (छोटे बड़े नबियों) की तमाम किताबें मौलवी साहब के मफ़रूज़ा को बातिल क़रार देती हैं। अगर हमारे मुख़ातब किताब-ए-मुक़द्दस का सतही मुतालआ भी करते तो उन पर ये अम्र अज़हर-मिन-अश्शम्स (रोज़-ए-रौशन की तरह अयाँ) हो जाता है कि अगर मामूर मिनल्लाह (अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर किए हुए) अम्बिया का सिलसिला बनी-इस्राईल के दायरे के बाहर होता तो उन कुतुब-ए-मुक़द्दसा का अस्ल व मुदआ और मंशा ही फ़ौत हो जाता है। पस हमारी दलाईल दरअस्ल किसी एक आयत या आयत के हिस्से पर या किसी आयत की तावील व तफ़्सीर पर मबनी नहीं हैं बल्कि इनकी बुनियाद किताब-ए-मुक़द्दस के अस्ल मक़्सूद और इल्लत-ए-ग़ाई की मुहकम चट्टान पर क़ायम है।
फ़स्ल सोम
ज़ेरे बह्स आयत के दीगर अल्फ़ाज़
लफ़्ज़ “नाबी” (نابی) का मतलब
हम बाब दोम में बतला चुके हैं कि इस आया शरीफा में लफ़्ज़ नबी से कोई ख़ास नबी मुराद नहीं जो हज़रत मूसा के हज़ारों बरस बाद आने वाला हो। इस आयत में लफ़्ज़ नबी इस्म-ए-मारिफ़ा नहीं है और ना ये लफ़्ज़ इस्म-ए-मारिफ़ा की मुख़्तलिफ़ अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्मों) में से है। ये लफ़्ज़ इस्म-ए-नकिरा है और एक आम नाम है जिसका इतलाक़ उन तमाम अम्बिया-अल्लाह पर होता है जो मुख़्तलिफ़ ज़मानों में ख़ुदा के फ़रिस्तादा मुर्सल (रसूल) बन कर क़ौम-इस्राईल की हिदायत की ख़ातिर मबऊस हुए थे।
इब्रानी लफ़्ज़ “नाबी” (نابی) का सही उर्दू तर्जुमा एक नबी नहीं है बल्कि सिर्फ़ नबी है। उर्दू तर्जुमा “एक नबी” से ये एहतिमाल रहता है कि शायद इस लफ़्ज़ से मुराद कोई ख़ास एक नबी हो। लेकिन फ़ारसी और अरबी तर्जुमे इस एहतिमाल को मिटा देते हैं। चुनान्चे इन तर्जुमों में सिर्फ लफ़्ज़ “नबी” आया है जो इस्म-ए-आम है, अगर ये इस्म-ए-ख़ास होता और किसी ख़ास नबी के लिए आता तो इब्रानी तर्जुमे में इस लफ़्ज़ से पहले अल (ال) होता जो इस इस्म-ए-आम को इस्म-ए-ख़ास कर देता। इब्रानी मतन में भी अगर किसी ख़ास नबी का ज़िक्र होता तो लफ़्ज़ “नाबि” (نابی) से पहले इब्रानी लफ़्ज़ अहद वारिद होता है जिस तरह (1_सलातीन 20:13) में आया है। जिससे ज़ाहिर है कि यहां लफ़्ज़ “नबी” इस्म-ए-नकिरा है जो उन तमाम अम्बिया-अल्लाह के लिए आया है जो हज़रत मूसा के बाद के ज़माने से लेकर हज़रत इब्ने-अल्लाह (मसीह) के ज़माने तक अहले-यहूद में बरपा हुए।
पस सियाक़-ए-इबारत और इब्रानी ज़बान की लुग़त हमारी तावील की मुआविन है। किताब-ए-मुक़द्दस के दीगर मुक़ामात से भी ये साबित है कि लफ़्ज़ “नबी” से यहां मुराद सिलसिला अम्बिया है क्योंकि किताब-ए-मुक़द्दस में उमूमन सीग़ा वाहिद, सीग़ा जमा के लिए इस्तिमाल हुआ है। मसलन इसी किताब (इस्तिस्ना 17:15) में “बादशाह” से मुराद कोई ख़ास बादशाह नहीं है बल्कि इस्म-ए-नकिरा का इतलाक़ शाहाँ-ए-यहूदाह और शाहाँ-ए-इस्राईल के सिलसिले के तमाम बादशाहों पर होता है जो क़ौम यहूद की तारीख़ में हुक्मरान रहे। किताब-ए-मुक़द्दस का ये एक आम मुहावरा है चुनान्चे यही लफ़्ज़ “नबी” सिलसिला अम्बिया के लिए और मुक़ामात में भी वारिद हुआ है। मसलन हज़रत होसेअ फ़रमाता है “एक नबी (हज़रत मूसा) के वसीलर से ख़ुदावंद इस्राईल को मिस्र से निकाल लाया और नबी ही के वसीले से (यानी सिलसिला अम्बिया के वसीले) से वो (यानी बनी-इस्राईल) महफ़ूज़ रहा।” (होसेअ 12:13) ख़ुद मुक़ाम ज़ेरे बहस की (इस्तिस्ना 18:20 और 22 आयात) में यही लफ़्ज़ नबी किसी एक झूटे नबी के लिए इस्तिमाल नहीं हुआ बल्कि वो इस्म-ए-नकिरा या इस्म-ए-आम है जिसका इतलाक़ काज़िब (झूटे) नबियों के तमाम तबक़े पर हुआ है। चूँकि इस तमाम मुक़ाम में सच्चे और झूटे नबियों में मुक़ाबला और इम्तियाज़ मक़्सूद है पस ज़ाहिर है कि अगर (इस्तिस्ना 18:20 और 22) आयात में लफ़्ज़ “नबी” एक क़िस्म के गिरोह अम्बिया के लिए आया है। फ़र्क़ सिर्फ ये है कि एक आयत में झूटे अम्बिया के गिरोह का ज़िक्र है और दूसरी आयत में सच्चे अम्बिया के तबक़े का ज़िक्र है।
मुक़द्दस पतरस रसूल भी अपनी तक़रीर में इस लफ़्ज़ “नबी” से मुराद सिलसिला अम्बिया लेकर वाज़ेह अल्फ़ाज़ में फ़र्माते हैं कि, “समुएल से लेकर पिछलों तक जितने नबियों ने कलाम किया।” (आमाल 3:24)
मशहूर मस्लेह (इस्लाह करने वाला) केल्विन (Calvin) भी कहता है कि यहां लफ़्ज़ “नबी” से मुराद सिलसिला अम्बिया है। 7
7 Quoted by Perowne in Zechariah (Century Bible)p.09
यही वजह है कि ज़माना-ए-हाल के तमाम क़ाबिल मुतर्जिम मसलन डाक्टर माफ़ट (Moffat) इस का यूं तर्जुमा करते हैं :-
“Will raise up prophet after prophet”.
चूँकि हम बाब दोम में इस लफ़्ज़ पर दीगर पहलूओं से रोशनी डाल चुके हैं। लिहाज़ा हम इस बह्स को यहां तूल नहीं देते। बहर-हाल इंसाफ़ पसंद नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि इस आया शरीफा में लफ़्ज़ नबी का इतलाक़ किसी सूरत में भी हज़रत मुहम्मद पर नहीं हो सकता।
लफ़्ज़ याक़ीम (یاقیم) का मतलब
आया ज़ेर-ए-बहस में इब्रानी लफ़्ज़ याक़ीम (یاقیم) आया है जो एक ऐसा फ़ेअल है जिसका ताल्लुक़ ज़माना इस्तिमरारी (हमेशा का बंदो बस्त) या ज़माना तमाम से है। पस इस लफ़्ज़ का सही उर्दू तर्जुमा ये है खड़ा या बरपा करता रहेगा। “इब्रानी ज़बान मरहूम प्रोफ़ैसर ड्राईवर (Driver) अपनी मशहूर आलम तस्नीफ़ में निहायत वाज़ेह तौर पर इस नुकते पर मबसूत (कुशादा, फ़राख़) बह्स करते हैं। 8
प्रोफ़ैसर लेक (Kirsop Lake) ने भी इन अल्फ़ाज़ पर निहायत आलिमाना बह्स की है। 9 और यह भी हमारे तर्जुमे की ताईद करती है।
इस सही उर्दू तर्जुमे में इस अम्र की गुंजाइश ही नहीं रहती कि फ़ाअ याक़ीम (فع یاقیم) का ज़माना मुस्तक़बिल के किसी ख़ास दोर से ताल्लुक़ हो। चह जायकि इस का तअय्युन ज़माना मूसवी के दो हज़ार (2000) साल बाद के अर्से से किया जाये। इस के बरअक्स इस फ़ेअल का ज़माना हज़रत मूसा की वफ़ात के बाद ही शुरू हो जाता है और बनी-इस्राईल की तारीख़ के हर दौर और ज़माने से मुताल्लिक़ है। चुनान्चे हज़रत आमोस नबी की किताब में आया है, “मैं (ख़ुदा) ने तुम्हारे बेटों में से नबी और तुम्हारे जवानों में से नज़ीर बरपा किए। ऐ बनी-इस्राईल क्या ये सच्च नहीं?” (आमोस 2:11) यहां भी बईना यही फ़ेअल और मुहावरा आया है फिर (2_तवारीख़) का मुसन्निफ़ कहता है कि, “ख़ुदावंद उन के बाप दादा के ख़ुदा ने अपने पैग़म्बरों को इन (बनी-इस्राईल) के पास बरवक़्त भेज भेज कर पैग़ाम भेजा क्योंकि उसे अपने लोगों और मस्कन पर तरस आता था। लेकिन उन्हों ने ख़ुदा के पैग़म्बरों को ठट्ठों में उड़ाया और उस की बातों को नाचीज़ जाना और उस के नबियों की हंसी उड़ाई यहां तक कि ख़ुदावंद का ग़ज़ब उन पर ऐसा भड़का कि कोई चारा ना रहा।” (36:15 नीज़ देखो यर्मियाह 7:13 ता 25, 11:7, 25:3 ता 4, 26:5, 29:19, 32:23, 35:15, 44:4 वग़ैरह) इन और दीगर मुक़ामात में ख़ुदा के इस इर्शाद की तक्मील की जानिब इशारा है जो (इस्तिस्ना 18:15) में है कि ख़ुदा बनी-इस्राईल की हिदायत के लिए नबी बरपा करता रहेगा।
ज़ाहिर है कि ये इब्रानी फ़ेअल इस आयत का हज़रत मुहम्मद पर इतलाक़ करने के क़तई ख़िलाफ़ है।
8 Deuteronomy (International Critical Commentary)
9 The Beginnings of Christianity vol.i.pp.404.408.
आयत का अस्ल मतलब
इस आया शरीफा के मुताबिक़ ख़ुदा अपने अम्बिया को “तेरे लिए” यानी ख़ास बनी-इस्राईल की क़ौम के लिए जो हज़रत मूसा के मुख़ातब थे मबऊस करेगा। अब नाज़रीन ग़ौर फ़रमाएं कि हज़रत रसूल अरबी ने ये दाअ्वा कहीं नहीं किया कि आप ख़ास बनी-इस्राईल के लिए मबऊस हुए थे। इस के बरअक्स उन्हों ने अपने आपको नबी मख़्सूस बराए अहले-अरब यानी (ग़ैर-इस्राईली) गिरदाना। चुनान्चे जब कुफ़्फ़ार ने एतराज़ किया कि अम्बिया-ए-साबक़ीन इब्रानी बोलते थे और उन का कलाम इब्रानी में होता था कि आप एक ग़ैर-इब्रानी अरबी ज़बान बोलते हैं। पस आपका दाअ्वा-ए-नुबूव्वत बातिल है तो आपने जवाब दिया :-
“हम (ख़ुदा) ने कोई रसूल नहीं भेजा मगर बोली बोलता अपनी क़ौम की ताकि उनके आगे खोल सुनाए।” (इब्राहिम रुकूअ 1)
यानी अम्बिया-ए-बनी-इस्राईल इब्रानी बोलते थे। क्योंकि वो इब्रानियों के लिए नबी थे। मैं ग़ैर-इब्रानी यानी अरब के लिए नबी हूँ। पस अरबी ज़बान बोलता हूँ। फिर ख़ुदा वाज़ेह तौर पर आँहज़रत को क़ुरआन में हुक्म देता है :-
“तू डर सुनावे एक क़ौम को (ना कि तमाम अक़्वाम (क़ौमों) को) जिनके पास कोई डर सुनाने वाला नहीं आया। (यानी अहले-अरब जिनके पास कोई नबी कभी नहीं आया बरख़िलाफ़ बनी-इस्राईल के जिन में कुल अम्बिया मबऊस हुए) तुझसे पहले। शायद वो याद रखें।” (क़िसस रुकूअ 5)
चुनान्चे इसी के मुताबिक़ क़ुरआन की निस्बत ये दाअ्वा है :-
“ये किताब एक बरकत है जो हमने उतारी, सो ऐ (अहले-अरब) इस पर चलो इस वास्ते कि कभी कहो, कि किताब जो उतरी थी सो दो ही फ़िर्क़ों (यानी यहूद व नसारा) पर हम से पहले और हम को उन के पढ़ने पढ़ाने की ख़बर ना थी।” (अन्आम रुकूअ 20)
फिर लिखा है कि :
“(ऐ मुहम्मद) हमने तुझ पर अरबी ज़बान का क़ुरआन उतारा ताकि तो बड़े गांव (मक्का) को डर सुनाए और इस के आस-पास वालों को।” (शूरा रुकूअ 1)
आयात-ए-ज़ेरे-बहस में ना सिर्फ पंद्रहवीं आयत के अल्फ़ाज़ “तेरे लिए” से ज़ाहिर है कि यहां मुख़ातब बनी-इस्राईल में बल्कि आयत 18 के अल्फ़ाज़ “वो नबी उनसे कहेगा” से भी यही ज़ाहिर है कि इन अम्बिया-अल्लाह के मुख़ातब बनी-इस्राईल होंगे ना कि कोई दूसरी क़ौम। हज़रत मुहम्मद अरबी की तारीख़ और दाअ्वा इस आया शरीफा के मंशा के मुताबिक़ नहीं हैं। चुनान्चे क़ुरआन में आया है :-
“अल्लाह ने उठाया उम्मियों से एक रसूल जो उन्हीं में से है जो उनके पास इस (क़ुरआन) की आयात पढ़ता है।” (जुमा रुकूअ 1)
ये क़ुरआनी मुहावरा “उम्मी” (اُمی) उन लोगों के लिए मख़्सूस है जो अहले-किताब नहीं हैं और क़ुरआन ने इस लफ़्ज़ का इतलाक़ अहले-अरब पर किया है क्योंकि वो अहले-किताब नहीं थे और कुतुब समावी (आस्मानी किताबे) नहीं रखते थे और इस क़ुरआनी आयत के मुताबिक़ उम्मी रसूल (मुहम्मद) उम्मियों (ग़ैर-यहूद) के लिए भेजा गया जिसके मुख़ातब उम्मी (अहले-अरब) होंगे।
पस ज़ाहिर है कि हज़रत मुहम्मद अरबी में आया ज़ेर-ए-बहस की ये शर्त भी फ़ौत होती है क्योंकि आप इस आया शरीफा के मुताबिक़ ना तो इस्राईली थे, ना इस्राईलियों के दर्मियान से थे। ना इस्राईलियों के वास्ते मबऊस हुए थे और ना इस्राईली आपके मुख़ातब थे। इस के बरअक्स आप उम्मी थे उम्मीयों में से थे। उम्मीयों के वास्ते मबऊस हुए थे। और उम्मीयों ही से मुख़ातब हुए थे। हक़-पसंद नाज़रीन ख़ुद ही इन्साफ़ करें कि जब तौरात शरीफ़ की आयत की हर शर्त एक-एक करके आँहज़रत की ज़ात में फ़ौत होती है तो इस आयत का इतलाक़ आपकी ज़ात पर किस तरह हो सकता है?
अल्फ़ाज़ “मेरी मानिंद” का मतलब
चूँकि हम इस बह्स को जामेअ बनाना चाहते हैं हम लगे हाथों इस्लामी मुनाज़िरीन की उन तमाम दलाईल की भी तन्क़ीद किए देते हैं जिनको मौलवी साहब ने अपने रिसाले में पेश नहीं किया ताकि किसी को ये कहने का मौक़ा ना रहे फ़ुलां मौलवी साहब के फ़ुलां नुक्ते का जवाब ईसाईयों की तरफ़ से नहीं दिया गया।
बाअज़ इस्लामी मुनाज़िरीन अल्फ़ाज़ “मेरी मानिंद” का ग़लत मफ़्हूम समझ कि उनका इतलाक़ हज़रत मुहम्मद पर करके कहते हैं कि हज़रत मूसा और हज़रत मुहम्मद में मुमासिलत है क्योंकि दोनों बुत-परस्तों में ज़ाहिर हुए, दोनों के रिश्तेदारों ने पहले उनको रद्द किया और फिर क़ुबूल किया। दोनों शादी-शुदा थे। दोनों के हाँ औलाद पैदा हुई। दोनों अपने दुश्मनों से भागे एक ने मिद्यान को और दूसरे ने मदीना को हिज्रत की। दोनों ने कुफ़्फ़ार से जंग की। दोनों के पैरौ (मानने वाले) उन की मौत के बाद अर्ज़-ए-मुक़द्दस में दाख़िल हुए। दोनों ने ख़ून किए। दोनों ने एक से ज़्यादा औरतों से शादी की। दोनों के नाम हर्फ़ मीम से शुरू होते हैं। दोनों साहब ग़ज़ब, हुक्मरान, फ़ातिह और कुफ़्फ़ार से इंतिक़ाम लेने वाले मुजाहिद और साहिब-ए-शरीअत थे। (सीरत-उन्नबी ख़ुत्बात वग़ैरह)
मुमासिलत की हक़ीक़त
इल्म-ए-मन्तिक़ व फ़ल्सफ़ा का अबतदी भी इन मज़हका ख़ेज़ दलाईल पर हँसेगा। मज़्कूर बाला तमाम बातें मह्ज़ आरिज़ी, वक़्ती और सतही हैं जो तम्सीली इस्तिदलाल और इस्तिक़रा (पैरवी करने) की बुनियाद नहीं हो सकतीं। इस क़िस्म की पेश कर्दा मुशाबहत से हम कोई नतीजा अख़ज़ नहीं कर सकते। अगर मुशाबहत का यही मतलब है तो इस क़िस्म की बातें मुसलेमा कज़्ज़ाब (निहायत झूटा, झूटों का बादशाह) और बाक़ी झूटे नबियों को भी सादिक़ साबित करने में बड़े काम की हैं। लेकिन मज़्कूर बाला निकात मौज़ू ज़ेर-ए-बहस को साबित नहीं कर सकते। इस क़िस्म के इस्तिदलाल के लिए मुमासिलत का होना उन बातों में लाज़िमी है जो ऐसी मुम्ताज़ हों कि जज़ूलाएनफ़क (جزولاینفک वो हिस्सा जो अलैहदा ना हो सके) हों और जिनसे लाज़िमी तौर पर सही नतीजा निकल सके।
इस्लामी मुनाज़िरीन ताहाल इस क़िस्म की मन्तिक़ी मुशाबहत और मुमासिलत दिखलाने से क़ासिर रहे हैं जिससे लाज़िमी तौर पर ये नतीजा अख़ज़ हो सके कि हज़रत मूसा और हज़रत मुहम्मद एक दूसरे की मानिंद हैं। अगर ये दोनों हज़रात एक दूसरे की मानिंद होते तो क़ुरआन जो हर बात को मुफ़स्सिल बयान करने का मुद्दई (दाअ्वेदार) है ये मुशाबहत ज़रूर बयान कर देता। लेकिन क़ुरआन के किसी एक मुक़ाम में भी हज़रत मुहम्मद को हज़रत मूसा से तश्बीह नहीं दी गई। बल्कि तमाम क़ुरआन को छान मारो तुमको किसी जगह भी ये नहीं मिलेगा कि इन मुनाज़िर यन को पेश कर्दा आयत की एक पेशगोई है जो आँहज़रत के हक़ में है। अगर ये आया ज़ेर-ए-बहस मुहम्मद अरबी की पेशगोई होती तो क़ुरआन में इस का ज़िक्र क्यों ना आता? ये माअनी-ख़ेज़ ख़ामोशी मौलवी साहिबान के दाअ्वे की ज़बान-ए-हाल से तर्दीद कर रही है और सय्यद मरहूम के अल्फ़ाज़ को हीच साबित कर रही है कि मौलवी साहिबान ने इस क़िस्म की सीधी आयात को “पहेली और मुअम्मे” बना दिया है।
अगर मौलवी साहिबान जैसी पेश कर्दा मुमासिलत की आरिज़ी बातें ही अल्फ़ाज़ “मेरी मानिंद” को हज़रत मुहम्मद पर चस्पाँ कर सकती हैं तो वो इस बात का क्या जवाब देंगे कि हज़रत मूसा की पैदाइश के वक़्त फ़िरऔन ने बच्चों को मरवा डाला लेकिन आँहज़रत की पैदाइश के वक़्त ऐसा कोई सानिहा वाक़ेया ना हुआ? वो इन बातों का क्या जवाब देंगे जो मह्ज़ सतही नहीं बल्कि उनके पेश कर्दा निकात से ज़्यादा गहिरी और नबुव्वत के कमालात से मुताल्लिक़ हैं? मसलन ये कि हज़रत मूसा ने रूबरू (आमने सामने) ख़ुदा से कलाम किया जिसकी वजह से आपका नाम कलीम-उल्लाह हुआ। (सूरह मर्यम आयत 52) लेकिन ख़ुदा ने आँहज़रत पर हज़रत जिब्राईल की वसातत (जरिये) से क़ुरआन नाज़िल किया। हज़रत मूसा से मोअजज़ात सादिर हुए (सूरह आराफ़ आयत 101 ता 116, 160 वग़ैरह) लेकिन आँहज़रत ने मोअजज़ात नहीं किए हालाँकि अहले-अरब आपसे बराबर दरख़्वास्त करते रहे। (बनी-इस्राईल 61, 93 ता 96, अन्कबूत 49, 50, रअद 8, 30, अन्आम 37, 57, 109, बक़रह 112, यूनुस 21, आराफ़ 202 वग़ैरह) हज़रत मूसा अहद क़दीम के दर्मियानी थे जो ख़ुदा और इस्राईल के दर्मियान इताअत का अहद था। (सूरह माइदा 15) लेकिन हज़रत मुहम्मद के सपुर्द दर्मियानी की ख़िदमत तफ़वीज़ (सपुर्द) ना की गई। हज़रत मूसा अपनी क़ौम की शफ़ाअत करते थे। लेकिन क़ुरआन आँहज़रत के शफ़ी होने से साफ़ इन्कार करता है (अन्आम रुकूअ 6, बक़रह रुकूअ 6) हज़रत मूसा बनी-इस्राईल को फ़िरऔन-ए-मिस्र की गु़लामी से बग़ैर तल्वार चलाए आज़ाद करके मुल्क मिस्र से निकाल कर कनआन में ले गए, लेकिन मौलवी साहिबान ही बतलाएं कि हज़रत मुहम्मद बग़ैर तल्वार चलाए किस क़ौम को कहाँ से निकाल कर कहाँ ले गए। हज़रत मूसा ने बनी-इस्राईल को चालीस (40) साल तक आस्मानी रोटी खिलाई। इस बारे में आँहज़रत किस तरह से उन से मुशाबहत रखते हैं? हज़रत मूसा अहले मिस्र की दानिश में माहिर थे। (आमाल 7:23) लेकिन आँहज़रत मह्ज़ उम्मी थे (आराफ़ 156, 158) अब हमारे मुख़ातब ही जवाब दें कि आँहज़रत में हज़रत मूसा के फ़ज़ाइल कहाँ पाए जाते हैं? हक़ तो ये है कि मौलवी साहब ने इस मुआमले में उल्टी राह इख़्तियार की है। वाजिब तो ये था कि सबसे पहले आप ये साबित करते कि आँहज़रत फ़िल-हक़ीक़त नबी थे उस के बाद आपको ये हक़ हासिल हो सकता था कि आप उनको मसील-ए-मूसा साबित करने की कोशिश करते। इस के बरअक्स आप मुमासिलत से नबुव्वत करने चले। आपने उनको मिसल-ए-मूसा साबित करना चाहा जो आप ना कर सके और आप ने अपने अस्ल क़ज़ीया (बह्स व तकरार) यानी नबुव्वत-ए-मुहम्मदियाह को भी साबित ना किया।
तौरात और आयत की तावील
मौलवी साहब किताब इस्तिस्ना के आख़िरी बाब की दसवीं आयत को पेश करके कहते हैं तौरेत में ये पेशगोई फ़ैसला पा चुकी है कि बनी-इस्राईल के हक़ में नहीं हो सकती क्योंकि वहां लिखा है कि “अब तक बनी-इस्राईल में कोई नबी मूसा की मानिंद जिससे ख़ुदावंद ने रूबरू बातें कीं नहीं उठा।”
लेकिन ये आयत ख़ुद फ़ैसला कर रही है कि नबी क़ौम बनी-इस्राईल ही से होगा और इस में दो बातें ज़माने को मुक़य्यद करती हैं। यानी (1) लफ़्ज़ “अब तक” और (2) फ़िक़्रह “जिससे ख़ुदावंद ने रूबरू बातें कीं।”
- लफ़्ज़ “अब तक” जिससे साफ़ अयाँ है कि आइन्दा ज़माने में “बनी-इस्राईल” में कोई ऐसा नबी ज़ाहिर होगा “जिससे ख़ुदावंद रूबरू बातें करेगा” लेकिन ये आयत इस अम्र को बिल्कुल साफ़ और वाज़ेह कर देती है कि ये नबी क़ौम इस्राईल ही से होगा वर्ना बनी-इस्राईल की क़ैद इस मुक़ाम में क्यों आती? लफ़्ज़ “अब तक” की क़ैद भी इस बात को ज़ाहिर कर देती है कि जिस ज़माने में ये आयत लिखी गई थी उस वक़्त तक कोई ऐसा नबी नहीं उठा था जिससे ख़ुदावंद ने मूसा की तरह रूबरू बातें की हों।
- आयत में एक दूसरी क़ैद ये लगा दी गई है जिससे मुसन्निफ़ का माअनी-उल-ज़मीर ज़ाहिर हो जाता है कि हज़रत मूसा और नबी में क्या मुमासिलत और मुशाबहत हुई। यानी वो किस क़िस्म का नबी होगा। ऐसा नबी जिससे “ख़ुदावंद ने रूबरू बातें कीं।”
इस क़ैद के अल्फ़ाज़ वाज़ेह तौर पर बतला देते हैं कि इस ख़ास मुक़ाम में सिर्फ एक ख़ास मुशाबहत का ज़िक्र है जो हुक्म आम नहीं रखता। लिहाज़ा ये आयत अल्फ़ाज़ “मेरी मानिंद” के कुल मफ़्हूम को समझने में मदद नहीं देती क्योंकि इल्म-ए-मन्तिक़ के रु से हम किसी एक जुज़्व से क़ज़ीया कुल्लिया पर नहीं पहुंच सकते।
बहरहाल क़ैद के ये अल्फ़ाज़ जिससे ख़ुदा ने रूबरू बातें कीं इस आयत को हज़रत मुहम्मद पर चस्पाँ करने की कुल्ली मुख़ालिफ़ हैं। क़ुरआन में कहीं नहीं आया कि अल्लाह तआला ने आँहज़रत से “रूबरू बातें कीं।”
इस आयत से एक और बड़े काम का नतीजा हाथ लगता है कि हज़रत मूसा के वक़्त से लेकर तमाम यहूद ये आया ज़ेर-ए-बहस को इस्राईली नज़ाद (अस्ल, नसब) नबी की निस्बत ही समझते रहे क्योंकि इस आयत में लिखा है कि “बनी-इस्राईल में अब तक……. नबी नहीं उठा।” इन तमाम ज़मानों में किसी यहूदी के ख्व़ाब व ख़्याल में भी ना आया कि आया ज़ेर-ए-बहस के “नबी” से ग़ैर-इस्राईली या कोई अरब नज़ाद नबी मुराद लें।
मन्सब-ए-नबुव्वत
बाब अव़्वल में नबुव्वत के मफ़्हूम पर बह्स करते वक़्त हम ये साबित कर आए हैं कि अम्बिया-अल्लाह का ये काम था कि वो क़ौम-ए-इस्राईल को ख़ुदा तआला के पैग़ाम पहुंचाएं। ख़ुदा उनको हर ज़माने में इस ग़र्ज़ के लिए खड़ा करता था ताकि वो क़ौम इस्राईल पर ख़ुदा की मर्ज़ी को ज़ाहिर करें। यही उनका फ़र्ज़ मन्सबी था और इसी मक़्सद को पूरा करने की ख़ातिर वो मन्सब-ए-नबुव्वत पर सर्फ़राज़ किए जाते थे। पस अल्फ़ाज़ “मेरी मानिंद” नबुव्वत के मन्सब, ओहदेदार हैसियत की मुशाबहत मक़्सूद है ना किसी और अम्र की मुमासिलत। इन अल्फ़ाज़ का मतलब सिर्फ ये है कि हज़रत मूसा के बाद आने वाले अम्बिया हज़रत मूसा की तरह ख़ुदा के मुक़र्रर कर्दा फ़रिस्तादे (क़ासिद) होंगे जो ख़ुदा के नाम से काहिनों, बादशाहों और अवामुन्नास (लोगों) को ताअलीम देने वाले, और उन पर उन के गुनाह जतलाने वाले होंगे। बनी-इस्राईल की तारीख़ ये साबित कर देती है कि ये अम्बिया-अल्लाह बादशाहों को ख़ुदा के फ़रमांबर्दार ख़ादिम बनाने वाले, काहिनों को सिरात मुस्तक़ीम दिखलाने वाले और लोगों के पास ईलाही पैग़ामात के पहुंचाने वाले थे। (2 समुएल 12 बाब, यर्मियाह 4 बाब, आमोस 7 बाब वग़ैरह) बअल्फ़ाज़-ए-दीगर वो ख़ुदा के “अमानतदार” रसूल थे। (गिनती 12:7)
बाब अव़्वल में नबुव्वत के मफ़्हूम पर बह्स करते वक़्त हम ये साबित कर आए हैं कि अम्बिया-अल्लाह का ये काम था कि वो क़ौम-ए-इस्राईल को ख़ुदा तआला के पैग़ाम पहुंचाएं। ख़ुदा उनको हर ज़माने में इस ग़र्ज़ के लिए खड़ा करता था ताकि वो क़ौम इस्राईल पर ख़ुदा की मर्ज़ी को ज़ाहिर करें। यही उनका फ़र्ज़ मन्सबी था और इसी मक़्सद को पूरा करने की ख़ातिर वो मन्सब-ए-नबुव्वत पर सर्फ़राज़ किए जाते थे। पस अल्फ़ाज़ “मेरी मानिंद” नबुव्वत के मन्सब, ओहदेदार हैसियत की मुशाबहत मक़्सूद है ना किसी और अम्र की मुमासिलत। इन अल्फ़ाज़ का मतलब सिर्फ ये है कि हज़रत मूसा के बाद आने वाले अम्बिया हज़रत मूसा की तरह ख़ुदा के मुक़र्रर कर्दा फ़रिस्तादे (क़ासिद) होंगे जो ख़ुदा के नाम से काहिनों, बादशाहों और अवामुन्नास (लोगों) को ताअलीम देने वाले, और उन पर उन के गुनाह जतलाने वाले होंगे। बनी-इस्राईल की तारीख़ ये साबित कर देती है कि ये अम्बिया-अल्लाह बादशाहों को ख़ुदा के फ़रमांबर्दार ख़ादिम बनाने वाले, काहिनों को सिरात मुस्तक़ीम दिखलाने वाले और लोगों के पास ईलाही पैग़ामात के पहुंचाने वाले थे। (2 समुएल 12 बाब, यर्मियाह 4 बाब, आमोस 7 बाब वग़ैरह) बअल्फ़ाज़-ए-दीगर वो ख़ुदा के “अमानतदार” रसूल थे। (गिनती 12:7)
क़ुरआन शरीफ़ इस नुक्ते को ब-ईं अल्फ़ाज़ अदा करता है :-
قُولُواْ آمَنَّا بِاللّهِ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيْنَا وَمَا أُنزِلَ إِلَى إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَقَ وَيَعْقُوبَ وَالأسْبَاطِ وَمَا أُوتِيَ مُوسَى وَعِيسَى وَمَا أُوتِيَ النَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمْ لاَ نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِّنْهُمْ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ
यानी “तुम कहो कि हम अल्लाह पर ईमान रखते हैं और उस पर जो इब्राहिम और इस्माईल और इस्हाक़ और याक़ूब और औलाद-ए-याक़ूब पर उतरा और जो मूसा और ईसा को मिला जो कुछ तमाम नबियों को उनके ख़ुदा की तरफ़ से मिला। हम इन नबियों में से किसी एक में भी फ़र्क़ नहीं करते और हम उसी ख़ुदा के फ़रमांबर्दार हैं।”
(बक़रह आयत 136)
इस क़ुरआनी आयत का मतलब साफ़ है कि जहां तक मन्सब-ए-नबुव्वत का ताल्लुक़ है इस लिहाज़ से कुल अम्बिया यकसाँ हैं और उनमें कोई फ़र्क़ नहीं है।
ज़ेरे बह्स आयत में अल्फ़ाज़ “मेरी मानिंद” का बईना यही मफ़्हूम है। हज़रत मूसा से फ़रमाता है कि जिस तरह ख़ुदा ने मुझे फ़िरऔन-ए-मिस्र के ज़माने में बनी-इस्राईल की हिदायत और राहनुमाई के लिए बर्पा किया था इसी तरह ख़ुदा बनी-इस्राईल की तारीख़ में हस्ब-ए-ज़रूरत हर ज़माने में क़बाइल इस्राईल में से लोगों को ओहदा नबुव्वत अता करके बर्पा करता रहेगा ताकि वो अपने-अपने दौर और ज़माने में क़ौम यहूद को होलनाक गुनाहों से आगाह करके सिरात-ए-मुस्तक़ीम (सीधी राह) पर चलाएं। पस ऐ बनी-इस्राईल जब कभी ख़ुदा अपना फ़रिस्तादा नबी भेजे तुम उस की सुनना क्योंकि ख़ुदा ख़ुद अपना कलाम उस के मुँह में डालेगा और जो अहकाम नबी को मिला करेंगे वो उन्ही को तुम तक पहुंचा दिया करेगा। इस तरह तुम ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम बने रहोगे लेकिन अगर तुम नबी की बातों को जिनको वो ख़ुदा की तरफ़ से तुम तक पहुंचाया करेगा ना सुनोगे तो ख़ुदा तुमसे उस का हिसाब लेगा और वो तुमसे मुवाख़िज़ा किया जाएगा।
पस इस मुक़ाम में वजह मुशाबहत सिर्फ़ मन्सब-ए-नबुव्वत है और बस। इस का मतलब फ़क़त ये है कि जिस तरह ख़ुदा ने हज़रत मूसा को बरपा किया था इसी तरह वो हर ज़माने में नबी बरपा करता रहेगा। हमारी ये तफ़्सीर सही है क्यों कि ना सिर्फ क़ौम यहूद की तारीख़ उस की मुअय्यिद (ताईद करने वाला) है बल्कि ख़ुदा का कलाम भी इस पर शाहिद (गवाह) है। चुनान्चे जब ख़ुदा ने हज़रत मूसा के बाद हज़रत युशूआ को मुक़र्रर किया तो फ़रमाया “जैसे मैं मूसा के साथ था वैसे ही तेरे साथ रहूँगा।” “जैसे मैं मूसा के साथ था वैसे ही तेरे साथ रहूँगा।”
“जैसे हम सब उमूर में मूसा की बात सुनते थे वैसे ही तेरी सुनेंगे। फ़क़त इतना हो कि ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा जिस तरह मूसा के साथ रहता तेरे साथ भी रहे।” (यशूअ 1:17) किताब आमाल-उल-रसूल में जहां आया ज़ेर-ए-बहस का इक़्तिबास किया गया है। अंग्रेज़ी रेवाइज़्ड तर्जुमे के हाशिये में इस हिस्से का यूं तर्जुमा किया गया है, (3:23, 7:37) “As He raised up me” यानी जिस तरह उसने मुझे बरपा किया। रेवाइज़्ड स्टैंडर्ड तर्जुमे में आमाल के दोनों मुक़ामात में यही तर्जुमा मतन में किया गया है। पस इन मुतर्जिमीन10 के मुताबिक़ (जिनकी फ़ज़ीलत में किसी को इन्कार की मजाल नहीं) किताब आमाल-अल-रसल में मुक़द्दस पतरस और मुक़द्दस स्तिफ़नुस आया ज़ेर-ए-बहस का यूं इक़्तिबास करते हैं, “ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा तुम्हारे भाईयों में से नबी बरपा करता रहेगा जिस तरह उसने मुझे बरपा किया। जो कुछ वो तुमसे कहे उस की सुनना।” अब तो हमारे मुख़ातब की भी तसल्ली हो जानी चाहिए क्योंकि वो आमाल के इस मुक़ाम का और पतरस हवारी और स्तिफ़नुस हवारी का सहारा लिए बैठे थे।
10 See also New Testament in modern speech Godspeeds Translation of N.T. Twentieth Century N.T. and “The Book of Books of Translation of N.T. etc.
अल्फ़ाज़ “अपना कलाम”
हमने सुतूर बाला में जो तफ़्सीर पंद्रहवीं आयत कि की है इस की ताईद अठारहवीं आयत के अल्फ़ाज़ भी करते हैं। चुनान्चे इस आयत में ख़ुदा फ़रमाता है, “मैं अपना कलाम उस के मुँह में डालूँगा और जो कुछ मैं उसे हुक्म दूँगा वही वो उनसे कहेगा।” अम्बिया-ए-यहूद की किताबें इस बात की गवाह हैं कि बनी-इस्राईल के मुख़्तलिफ़ अम्बिया जो हर दौर में बरपा होते रहे यही दाअ्वा करते थे, कि उनका पैग़ाम ख़ुदा का कलाम है जो वो चार व नाचार अपने ज़माने के लोगों तक मन व अन (वैसा का वैसा) पहुंचाते हैं। मसलन हज़रत यर्मियाह कहते हैं कि, “ख़ुदावंद का कलाम मुझ पर नाज़िल हुआ। उसने फ़रमाया मैंने तुझे क़ौमों के लिए नबी ठहराया, तब मैंने कहा ख़ुदावंद ख़ुदा देख में बोल नहीं सकता, लेकिन ख़ुदावंद ने मुझे फ़रमाया यूं ना कह, जो कुछ मैं तुझे फ़र्माऊंगा वो कहेगा, मैंने अपना कलाम तेरे मुँह में डाल दिया है।” (पहला बाब, नीज़ देखो 23:28 ता आख़िर वग़ैरह, हिज़्क़ीएल 3:4, 10 वग़ैरह, गिनती 22:38, 23:5 यसअयाह 51:16, 59:21, ख़ुरूज 4:15, 2 समुएल 14:3 ता 9, एज़्राह 7:18 वग़ैरह-वग़ैरह।)
“तुम उस की सुनना”
ज़ाहिर है कि इन अल्फ़ाज़ में हज़रत मूसा ने क़ौम बनी-इस्राईल को मुख़ातब किया है ना कि बनी-इस्माईल को या किसी और ग़ैर-इस्राईली क़ौम को। इस जुम्ले में अस्ल इब्रानी ज़बान में लफ़्ज़ “उस” पर ज़ोर दिया गया है। पस इन अल्फ़ाज़ में ख़ुदा का हुक्म है कि, “ऐ क़ौम इस्राईल तुम अपने गिर्द व पेश की मुश्रिकाना अक़्वाम की सी करतूतें (हरकात) ना करना और ना उनके फ़ालगीरों, शुगून निकालने वालों, अफ़्सूँ गिरों, जादूगरों, मंत्र पढ़ने वालों, जिन्नात के आश्नाओं, रुमालों, साहिरों वग़ैरह की सुनना। इस के बरअक्स जिस नबी को मैं तुम्हारी हिदायत के लिए वक़्तन-फ़-वक़्तन बरपा करता रहूँगा तुम फ़क़त उसी की सुनना और सिर्फ उसी की तरफ़ कान लगाना। जो मन्सब-ए-नबुव्वत पर सर्फ़राज़ हो कर हज़रत मूसा के काम को मुतवातिर और मुसलसल तौर पर अपने ज़माने में बरक़रार और पहीम जारी रखेगा।
माबाअ्द की आयात (20, 22) में ख़ुदा ने एक मेयार भी क़ायम फ़र्मा दिया ताकि क़ौम इस्राईल इस कसौटी पर नबी के दाअ्वे को परख कर सादिक़ (सच्चे) और काज़िब (झूटे) नबी में तमीज़ कर सके। इन आयात की तफ़्सीर व तावील के लिए देखो, (यर्मियाह 14:14, 15:16, 21 ता 27, 30 ता 23 आयात, 27:9 ता 16, 28:15 ता 17, 29:8, 21 ता 23, 1 सलातीन 22:11 ता 22, हिज़्क़ीएल 12:24, 13:1 ता 23, नोहा 2:14, यसअयाह 30:10, मीकाह 2:11, 3:11 वग़ैरह) और दीगर मुक़ामात में सादिक़ (सच्चे) और काज़िब (झूटे) नबियों की मिसालें भी मौजूद हैं।
हक़ीक़त तो ये है कि क़दीम ज़माने की मुश्रिकाना अक़्वाम (क़ौमें) और क़ौम बनी इस्राईल में यही एक बात माबा-अल-इम्तियाज़ थी कि बनी-इस्राईल के दर्मियान हर ज़माने में एक मुस्तक़बिल तबक़ा अम्बिया मौजूद रहा। (1 समुएल 19:20) ताकि क़ौम यहूद ख़ुदा के नबियों की ज़ेरे हिदायत रज़ा-ए-ईलाही से वाक़िफ़ हो सके। ख़ुदावंदी इर्शाद है कि जब बनी-इस्राईल को ज़रूरत दरपेश होगी तो ख़ुदा इस मुस्तक़बिल तबक़ा अम्बिया में से उनकी हिदायत के लिए नबी बरपा किया करेगा ताकि क़ौम इस्राईल उस की सुने। तारीख़ इस अम्र की गवाह है कि बाक़ी मुश्रिकाना अक़्वाम मसलन बनी-इस्माईल बनी-अदूम वग़ैरह जिनके साथ बनी-इस्राईल का ख़ूनी रिश्ता था बुत-परस्त ही रहें और इन में ख़ुदा-ए-वाहिद के अम्बिया बरपा ना हुए।
इस बाब की फस्लों में हमने ज़ेर-ए-बहस आयात के मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ पर मुफ़स्सिल बह्स करके अरबाब-ए-दानिश पर इनका सही मफ़्हूम ज़ाहिर कर दिया है। अब इंसाफ़ पसंद नाज़रीन ख़ुद फ़ैसला कर सकते हैं कि सर सय्यद मरहूम के इन अल्फ़ाज़ में कितनी सदाक़त है कि :-
“इन आयतों में मुहम्मद रसूल ﷺ के मबऊस होने की ऐसी साफ़ और मुस्तहकम बशारत है जिससे कोई भी इन्कार नहीं कर सकता।” (ख़ुत्बात 599)
हमने साबित कर दिया है कि इन आयात में किसी ख़ास नबी की आमद की कोई बशारत मौजूद नहीं चह जायके वो साफ़ और मुस्तहकम हो और कि कोई साहिब-ए-अक़्ल इन अल्फ़ाज़ का इतलाक़ हज़रत मुहम्मद अरबी पर नहीं कर सकता।
फ़स्ल चहारुम
आया ज़ेरे बह्स और मुक़द्दस पतरस रसूल की तक़रीर
हम बाब दोम की फ़स्ल दोम में बतला चुके हैं कि सय्यदना ईसा मसीह की बिअसत का ज़माना बनी-इस्राईल की ज़बूनी का ज़माना था। बनी-इस्राईल का एक कसीर गिरोह (जिसमें हर क़िस्म, हर दर्जे और हर तबक़े के ख़ुदा-परस्त और दीनदार मर्द व ज़न शामिल थे) आस्मान की तरफ़ नज़र उठाए एक नबी की आमद का मुंतज़िर था जो इर्शाद-ए-ख़ुदावंदी के मुताबिक़ बरपा हो कर क़ौम की मुसीबत के ज़माने में इस की रहनुमाई करे। जब आँख़ुदावंद का ज़हूर-ए-क़ुद्सी हुआ तो सब लोग “ख़ुदा की तम्जीद करके कहने लगे कि एक बड़ा नबी हम में बरपा हुआ है और ख़ुदा ने अपनी उम्मत पर तवज्जोह फ़रमाई है।” (लूक़ा 7:16)
मुनज्जी आलमीन (मसीह) के सऊद-ए-आस्मानी के बाद जब रसूलों पर रूहुल-क़ुद्दुस नाज़िल हुआ तो मुक़द्दस पतरस रसूल ने बनी-इस्राईल को मुख़ातब करके कहा, “(ऐ इस्राईलियों) तौबा करो और रुजू लाओ ताकि तुम्हारे गुनाह मिटाए जाएं और इस तरह ख़ुदावंद के हुज़ूर से ताज़गी के अय्याम आएं और वो उस मसीह को जो तुम्हारे वास्ते मुक़र्रर हुआ है यानी ईसा मसीह को भेजे। ज़रूर है कि आस्मान में उस वक़्त तक रहे जब तक कि वो सब चीज़ें बहाल ना की जाएं जिनका ज़िक्र ख़ुदा ने अपने पाक नबियों की ज़बानी किया है, जो शुरू से होते आए हैं। चुनान्चे मूसा ने कहा, कि ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए नबी बरपा करता रहेगा जिस तरह उसने मुझे बरपा किया, जो कुछ वो तुमसे कहे उस की सुनना और यूं होगा कि जो शख़्स इस नबी की ना सुनेगा वो उम्मत से नेस्त व नाबूद कर दिया जाएगा। बल्कि समुएल से लेकर पिछलों तक जितने नबियों ने कलाम किया उन सब ने इन दिनों की ख़बर दी है। तुम (ऐ इस्राईलियों) नबियों की औलाद और उस अहद के शरीक हो जो ख़ुदा ने तुम्हारे बाप दादा से बाँधा जब अब्राहाम से कहा, कि तेरी औलाद से दुनिया के सब घराने बरकत पाएँगे। ख़ुदा ने अपने ख़ादिम (ईसा) को बरपा करके पहले तुम्हारे पास भेजा ताकि तुम में से हर एक को उस की बदियों से फेर कर बरकत दे।” (आमाल 3:19 ता आख़िर)
मौलवी साहब की दलील और जवाब
इस मुक़ाम में मुक़द्दस पतरस फ़र्माते हैं कि ख़ुदा ने अहले-यहूद की ज़बूनी को मिटाने की ख़ातिर आया ज़ेर-ए-बहस के वाअदे के मुताबिक़ सय्यदना ईसा मसीह को बरपा करके नबी मौऊद बना कर भेजा है ताकि बनी-इस्राईल तौबा करके ख़ुदा की तरफ़ मुतवज्जह हों और उस के बर्गुज़ीदा मसीह पर ईमान लाकर नजात हासिल करें।
लेकिन हमारी हैरानी की हद ना रही जब हमने पढ़ा कि मौलवी साहब ने मुक़द्दस पतरस को मुन्दरिजा बाला आयात की बिना पर मुहम्मद अरबी का मुबश्शिर बनाना चाहा है। उनके ज़ोअम में मुक़द्दस रसूल मक़्बूल आया ज़ेर-ए-बहस को अपनी तक़रीर में हज़रत मुहम्मद अरबी से मन्सूब कर रहे हैं !!
بسوخت عقل زحیرت کہ ایں چہ بوالعجبی ست
बसूख़त अक़्ल ज़हीरत कि एं चह बवाल अजबी सत
चुनान्चे मौलवी साहब फ़र्माते हैं :-
“इस पेशगोई को हज़रत पतरस हज़रत मुहम्मद पर जमाते हैं। ऊपर की आयात पर नाज़रीन को दो उमूर पर ग़ौर करना चाहिए।” (सफ़ा 16 ता 17)
वो दो उमूर मए जवाब ये हैं :-
अव्वल ये कि, “ज़रूर है कि वो यानी ईसा आस्मान में उस वक़्त तक रहे जब वो नबी मिस्ल मूसा आ जाए।” नहीं साहब बल्कि उस वक़्त तक कि वो सब चीज़ें बहाल ना की जाएं जिनका ज़िक्र ख़ुदा ने अपने पाक नबियों की ज़बानी किया है। देखिए आपने कैसी बरजस्ता (बरवक़्त) ग़लती की है।
मुक़द्दस पतरस दूसरे बाब की 33, 34 आयात में बतला चुके हैं कि क्यों “ज़रूर है कि वो मसीह, आस्मान में रहे” यानी इस वास्ते ताकि वो रूहुल-क़ुद्दुस को नाज़िल करे। इस बख़्शिश से मसीह की (जो आस्मान में है) सल्तनत ज़मीन पर शुरू हो गई क्योंकि सब चीज़ों की बहाली से पहले ज़रूर है कि गुनाहगार इन्सान बहाल हो जाए। पस रसूल मक़्बूल फ़रमाता है कि “ऐ इस्राईलियों तौबा करो और रुजू लाओ।” “जब मुनज्जी आलमीन (मसीह) बहाल करते हैं तो इस बहाली में इन्सान और दीगर तमाम मख़्लूक़ात की बहाली शामिल है। (रोमीयों 8:19 ता 22, यसअयाह 65:18, 2_पतरस 3:13, मुकाशफ़ा 21:21 वग़ैरह)
दोम : “ये कि सय्यदना ईसा पहले आया। ये बात भी इस पर दलालत करती है कि मसीह मुबश्शिर मुहम्मद हैं।” “गोया पहले आना किसी की बशारत देने को लाज़िमी ठहरा देता है ख़ुसूसुन हज़रत मुहम्मद को ! हक़ीक़त तो ये है कि सय्यदना मसीह ने किसी दूसरे नबी की बशारत नहीं दी। ये मुस्लिम मुनाज़िरीन का मह्ज़ वहम है। हम ये भी बतला चुके हैं कि ये लाज़िम नहीं कि हर नबी की आमद के लिए पेश ख़बरी मौजूद हो। मौलवी साहब आया शरीफा का मतलब नहीं समझे। गो आयत साफ़ और वाज़ेह है। “ख़ुदा ने अपने ख़ादिम ईसा को बरपा करके पहले तुम्हारे पास भेजा और यह बात हज़रत कलिमतुल्लाह के कलाम के मुताबिक़ है,11 कि “ग़ैर-क़ौमों की तरफ़ ना जाना बल्कि पहले इस्राईल के घराने की खोई हुई भेड़ों के पास जाना।” (मत्ती 10:5, 6, मर्क़ुस 7:27)
मुन्दरिजा बाला आयात में मुक़द्दस पतरस का मतलब साफ़ है, आप फ़र्माते हैं :-
अव़्वल, जिन बातों का ज़िक्र ख़ुदा ने अपने पाक नबियों की ज़बानी किया है वो सब बातें सय्यदना मसीह की ज़ात-ए-क़ुदसी सिफ़ात अमीं बदर्जा अह्सन पाई जाती हैं।
दोम, गुनाहों के मिटाए जाने और ताज़गी के अय्याम के आने का जो ज़िक्र आयत 19 में शुरू हुआ है उनका सय्यदना मसीह के साथ अंजाम बख़ैर होता है। चुनान्चे मुक़द्दस पतरस फ़र्माते हैं कि “ख़ुदा ने अपने ख़ादिम ईसा को बरपा करके पहले तुम्हारे पास भेजा ताकि तुम में से हर एक को उस की बदियों से फेर कर बरकत दे।” (आयत 26)
11 इस आयत की सहीह तफ़्सीर के लिए मेरा रिसाला मुलाहिज़ा करें “इस्राईल का नबी या जहाँ का मुनज्जी” बरकतुल्लाह
सोम, मुक़द्दस रसूल मुनज्जी आलमीन (मसीह) की रिसालत का ज़िक्र करते हुए फ़र्माते हैं, “वो इस मसीह को जो तुम्हारे वास्ते मुक़र्रर हुआ है यानी ईसा को भेजे।” भला तक़र्रुरी तो ईसा मसीह की हो और आजाऐं मुहम्मद ये क्या ख़याल मुहाल है?
चहारुम, (इस्तिस्ना की किताब के 18 बाब की 15 आयत) को मुक़द्दस पतरस ने इब्राहीमी वाअदे के साथ कि तेरी औलाद से दुनिया के सब घराने बरकत पाएँगे वाबस्ता किया है। ये इब्राहीमी वाअदा जैसा हम इंशा-अल्लाह अगले बाब में साबित कर देंगे बनी-इस्माईल को नहीं पहुंचा बल्कि बनी-इस्राईल को मिला। चुनान्चे तौरात शरीफ़ की किताब पैदाइश में ख़ुदा फ़रमाता है, “मैं इज़्हाक़ से और इस के बाद उस की औलाद से अपना अहद जो अबदी है बाँधूंगा। इस्माईल के हक़ में भी मैंने तेरी दुआ सुनी, देख मैं उसे बरकत दूँगा और उसे बरूमंद करूँगा लेकिन मैं अपना अहद इज़्हाक़ से बाँधूंगा।” (पैदाइश 17:19 ता 21) इस मुक़ाम में निहायत वाज़ेह और साफ़ अल्फ़ाज़ में ख़ुदा ने हज़रत इस्माईल को अहद से ख़ारिज करके अपना अहद हज़रत इज़्हाक़ से बाँधा है। किताब इस्तिस्ना की आया ज़ेर-ए-बहस उसी अहद के ज़ेल में है।
पंजुम, मुक़द्दस पतरस ने अपनी तमाम तक़रीर और इस्तिदलाल का नतीजा ख़ुद ही फ़रमाया दिया कि “ख़ुदा ने अपने ख़ादिम ईसा को बरपा करके पहले तुम्हारे पास भेजा।” इस आयत से ऐसे शख़्स के लिए जो इन्जील जलील से इस्तिदलाल करना चाहता हो तामिल (सब्र व तहम्मुल) की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती।
शश्म, मुक़द्दस पतरस रसूल तारीख़ यहूद के उस दौर का ज़िक्र करके जिसमें वो आप रहते थे फ़र्माते हैं, “सब नबियों ने “इन दिनों” की ख़बर दी है।” भला फ़रमाईए कि इन दिनों को छः (6) सदीयां बाद के मुहम्मद अरबी के ज़माने से क्या मुनासबत है?
बाब चहारुम
इज़्हाक़ी और इस्माईली बरकात
ख़ुदावंदी वाअदे
इस बाब में हम इज़्हाक़ी और इस्माईली बरकतों पर तब्सिरा करके ये मालूम करेंगे कि आया हज़रत इस्माईल और उन के ख़ानदान के लिए कोई नब्वी बरकत मौऊद (वादा) थी। मौलवी साहब ने अपने रिसाले के सफ़ा 4 पर बनी-इस्राईल और बनी-इस्माईल की बरकतों का एक शिजरा पेश किया है और तौरात शरीफ़ में जो वाअदे दोनों क़ौमों से हुए नक़्ल किए हैं। चुनान्चे हम भी इन बरकात को नाज़रीन के रूबरू पेश करके मौलवी साहब की दलील को जांचते हैं :-
बनी-इज़्हाक़
ख़ुदा ने इब्राहिम से फ़रमाया, बेशक तेरी बीवी सारा के तुझसे बेटा होगा तू उस का नाम इज़्हाक़ रखना। और मैं उस से और फिर उस की औलाद से अपना अहद जो अबदी अहद है बाँधूंगा। (पैदाइश 17:19)
ख़ुदा ने इब्राहिम से हम-कलाम हो कर फ़रमाया, देख मेरा अहद तेरे साथ है। मैं तुझे बहुत बरूमंद करूँगा। कौमें तेरी नस्ल से होंगी, मैं अपने और तेरे दर्मियान और तेरे बाद तेरी नस्ल के दर्मियान उन सबकी पुश्तों के लिए अपना जो अबदी अहद है बाँधूंगा ताकि मैं तेरा और तेरे बाद तेरी नस्ल का ख़ुदा होऊं। मैं तुझको और तेरे बाद तेरी नस्ल को कनआन का तमाम मुल्क दूँगा कि वो दाइमी मिल्कियत हो जाएगी और मैं उनका ख़ुदा हूँगा। (पैदाइश 17:3 ता 8)
ख़ुदावंद ने इब्राहिम से कहा, तू अपने वतन और अपने नातेदारों के बीच में से और अपने बाप के घर से निकल, मैं तुझे एक बड़ी क़ौम बनाऊँगा और बरकत दूँगा और तेरा नाम सर्फ़राज़ करूँगा। सो तू बाइस-ए-बरकत होगा और दुनिया की सब कौमें तेरे वसीले से बरकत पाएँगी। तब इब्राहिम मुल्क-ए-कनआन को गया और ख़ुदा ने उस को दिखाई देकर कहा कि यही मुल्क मैं तेरी नस्ल को दूंगा। (पैदाइश 12:1 ता 7)
ख़ुदावंद ने कहा इब्राहिम से, यक़ीनन एक बड़ी और ज़बरदस्त क़ौम पैदा होगी और ज़मीन की सब कौमें उस के वसीले से बरकत पाएँगी। (पैदाइश 18:18) ख़ुदावंद ने फ़रमाया मैं सारा को बरकत दूँगा और उस से भी तुझे एक बेटा बख्शुंगा। यक़ीनन मैं उसे बरकत दूँगा कि कौमें उस की नस्ल से होंगी। (पैदाइश 17:16)
ख़ुदा ने इब्राहिम से फ़रमाया, अपना अहद सिर्फ़ इज़्हाक़ ही से क़ायम करूँगा। (पैदाइश 17:21)
ख़ुदावंद ने इज़्हाक़ पर ज़ाहिर हो कर फ़रमाया, कि तू मिस्र को ना जा बल्कि इसी मुल्क में क़ियाम रख और मैं तेरे साथ रहूँगा और तुझे बरकत बख्शूंगा, क्योंकि मैं तुझे और तेरी नस्ल को ये सब मुल्क दूँगा और मैं इस क़सम को जो मैंने तेरे बाप इब्राहिम से खाई पूरा करूँगा। और मैं तेरी औलाद को बढ़ा कर आस्मान के तारों की मानिंद कर दूँगा और ज़मीन की सब कौमें तेरी नस्ल के वसीले से बरकत पाएँगी। (पैदाइश 26:2 ता 4)
खुदा ने याक़ूब से कहा, मैं ख़ुदावंद तेरे बाप इब्राहिम का ख़ुदा और इज़्हाक़ का ख़ुदा हूँ। मैं ये ज़मीन जिस पर तो लेटा है तुझे और तेरी नस्ल को दूँगा और तेरी नस्ल ज़मीन के गर्द के ज़र्रों की मानिंद होगी और ज़मीन की सब कौमें तेरे और तेरी नस्ल के वसीले से बरकत पाएँगी। (पैदाइश 28:13 ता 14)
बनी-इस्माईल
ख़ुदावंद के फ़रिश्ते ने हाजिरा से कहा, तू अपनी बीबी (सारा) के पास लौट जा। मैं तेरी औलाद को बहुत बढ़ाऊँगा यहां तक कि कस्रत के सबब उस का शुमार ना हो सकेगा। तेरे बेटा होगा उस का नाम इस्माईल रखना। वो गोरख़र की तरह आज़ाद मर्द होगा। उस का हाथ सब के ख़िलाफ़ और सब के हाथ उस के ख़िलाफ़ होंगे और वो अपने सब भाईयों के सामने बसा रहेगा। (पैदाइश 6:9 ता 12)
इब्राहिम ने ख़ुदा से कहा, कि काश इस्माईल तेरे हुज़ूर जीता रहे। तब ख़ुदावंद ने फ़रमाया, मैंने तेरी दुआ इस्माईल के हक़ में भी सुनी। देख में उसे बरकत दूँगा। और उसे बरूमंद करूँगा और उसे बहुत बढ़ाऊँगा और उस से बारह (12) सरदार पैदा होंगे और मैं उसे बड़ी क़ौम बनाऊँगा लेकिन मैं अपना अहद इज़्हाक़ से ही बाँधूंगा जो अगले साल इसी वक़्त-ए-मुईन पर सारा से पैदा होगा। (पैदाइश 17:18 ता 21)
ये नसब नामा इब्राहिम के बेटे इस्माईल का है........ये इस्माईल के बेटे हैं और उन्ही के नामों से उनकी बस्तीयां और छावनीयां नामज़द हुईं और यही बारह अपने अपने क़बीले के सरदार हुए और इस्माईल की कुल उम्र 137 की हुई तब उसने दम छोड़ दिया और वफ़ात पाई और अपने लोगों में जा मिला। और उस की औलाद हविला से शुर तक जो मिस्र के सामने इस रास्ते पर है जिससे असूर को जाते हैं आबाद थी। ये लोग अपने सब भाईयों के सामने बसे हुए थे। (पैदाइश 25:12 ता 18)
वाअ्दों की तफ़्सील और फ़र्क़
मौलवी साहब फ़र्माते हैं कि “क्या ये बात अक़्ल में आ सकती है कि ख़ुदावंद तआला दो क़ौमों से बरकत और बरूमंदी का वाअदा करे और फिर एक क़ौम को अपने वाअदे के मुवाफ़िक़ बरकत दे और दूसरी क़ौम को बख़िलाफ़-ए-वाअदा बरकत और बरूमंदी बग़ैर नबी के एक मग़ज़ूब (जिस पर ग़ुस्सा हो) और मक़हूर क़ौम की तरह तर्क कर दे हालाँकि दोनों की बरकत और वाअदा यकसाँ हो।” लेकिन मज़्कूर बाला शिजरे से नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि हक़ीक़त ये है कि ख़ुदा ने दोनों क़ौमों को अपने वाअदा बरकत व बरूमंदी के मुवाफ़िक़ बाबरकत और बरूमंद किया मगर दोनों क़ौमों के “बरकत और वाअदे यकसाँ” नहीं थे। इज़्हाक़ी वाअदे में इलावा बरकत-ए-बरूमंदी के एक और बरकत भी शामिल थी जिससे इस्माईल महरूम रहा। पस बनी-इस्माईल का बग़ैर नबी रहना हरगिज़ खिलाफ-ए-वाअदा बरकत व बरूमंदी के नहीं है और ना ये लाज़िम आता है कि जिस क़ौम में उस क़ौम का नबी बरपा ना हो वो ख़्वाह-मख़्वाह “मग़ज़ूब और मक़हूर” क़रार दी जाये।
इज़्हाक़ी वाअदे
नाज़रीन हज़रत इज़्हाक़ और बनी-इज़्हाक़ के वाअ्दों पर बग़ौर ख़याल फ़रमाएं :-
ख़ुदा ने हज़रत इज़्हाक़ की मानिंद हज़रत इस्माईल से ये वाअदा तो किया कि वो बरकत पाएगा और उस की नस्ल फ़रावाँ होगी मगर सिर्फ हज़रत इज़्हाक़ ही से ये वाअदा किया कि ज़मीन की सब कौमें तेरी नस्ल से बरकत पाएँगी। पस उनको दो बरकतें अता हुईं। एक तो ये कि वो ख़ुद मए अपनी नस्ल के साहिब-ए-बरकत हो। दूसरी ये कि उस की नस्ल तमाम जहान की क़ौमों के लिए बाइस-ए-बरकत हो कर मर्कज़ बरकत बन जाये। इस वाअदे से हज़रत इस्माईल क़तअन महरूम रहे और यही ख़ास वाअदा नबुव्वत की बरकत का वाअदा है जिसकी बदौलत इस्राईल मख़्सूस हुआ और जिस के बाइस इज़्हाक़ के ख़ानदान में बनी-इस्राईल तमाम जहान में मुम्ताज़ हुआ। (पैदाइश 28:13 ता 14) और तमाम दुनिया को इस इज़्हाक़ी बरकत से बरकत मिली।
मगर इज़्हाक़ी बरकत की ख़ास सूरतें हैं। ये बरकत इब्तिदा में हज़रत इब्राहिम को ख़ुदा ने दी और फ़रमाया, “मैंने अपनी ज़ात की क़सम खाई है” कि मैं तुझे बरकत पर बरकत दूँगा और तेरी नस्ल को बढ़ाते-बढ़ाते आस्मान के तारों और समुंद्र के किनारे की रेत की मानिंद कर दूँगा। और तेरी नस्ल के वसीले से दुनिया की सब कौमें बरकत पाएँगी।” (पैदाइश 22:16 ता 18) ख़ुदा ने अपने वाअदे को पूरा किया और नस्ल-ए-इब्राहिम को सारी दुनिया की क़ौमों की बरकत का बाइस बनाया।
लेकिन हज़रत इब्राहिम की नस्ल में बाअज़ ऐसे भी थे जो इस बरकत के मुस्तहिक़ ना हुए। आपके हाँ हज़रत इस्माईल के इलावा कई बेटे हुए। (पैदाइश 25:1 ता 6) उनमें से सिर्फ हज़रत इज़्हाक़ को ख़ुदा ने ये मख़्सूस बरकत-ए-नबुव्वत अता फ़रमाई। चुनान्चे लिखा है कि, “ख़ुदा ने इज़्हाक़ से फ़रमाया मैं इस क़सम को जो मैंने तेरे बाप इब्राहिम से खाई पूरा करूँगा। मैं तेरी औलाद को बड़ा कर आस्मान के तारों की मानिंद कर दूँगा और ज़मीन की सब क़ौमें तेरी नस्ल के वसीले से बरकत पाएँगी।” (पैदाइश 26:3 ता 4) क्योंकि ख़ुदा ने हज़रत इब्राहिम से फ़रमाया था कि “इज़्हाक़ से ही तेरी नस्ल का नाम चलेगा।” (पैदाइश 21:12)
नाज़रीन ने ये मुलाहिज़ा किया होगा कि हर मुक़ाम में जहां इस वाअदे का ज़िक्र है लफ़्ज़ “नस्ल” सीग़ा वाहिद में इस्तिमाल हुआ है। ये अम्र निहायत माअनी-ख़ेज़ है। इसी वास्ते मुक़द्दस पौलुस रसूल भी इस्तिदलाल करते वक़्त फ़र्माते हैं, “पस इब्राहिम और उस की नस्ल से वाअदे किए गए।” वो ये नहीं कहता कि नस्लों से जैसा बहुतों के वास्ते कहा जाता है, बल्कि जैसा एक के वास्ते कि तेरी नस्ल को।” (ग़लतीयों 3:16) फिर फ़रमाता है कि, “इब्राहिम की पुश्त में से होने के सबब से सब फ़र्ज़न्द ठहरे बल्कि ये लिखा है कि इज़्हाक़ ही से तेरी नस्ल कहलाएगी यानी जिस्मानी फ़र्ज़न्द ख़ुदा के फ़र्ज़न्द नहीं बल्कि वाअदे के फ़र्ज़न्द “नस्ल” शुमार किए जाते हैं।” (रोमीयों 9:7)
हज़रत इज़्हाक़ के दो बेटे थे। एक ऐसा कमज़र्फ़ निकला कि उसने अपनी रुहानी बरकत को दुनिया और जिस्म की ख़्वाहिशात के एवज़ बेच डाला। इसलिए ख़ुदा ने उस को बरकत से महरूम करके उस के छोटे भाई हज़रत याक़ूब यानी इस्राईल को ये बरकत अता कर दी। चुनान्चे ख़ुदा ने हज़रत याक़ूब से कहा, “तेरी नस्ल ज़मीन के गर्द के ज़र्रों की मानिंद होगी और दुनिया की सब क़ौमें तेरे और तेरी नस्ल के वसीले से बरकत पाएँगी।” (पैदाइश 28:14) पस ये मख़्सूस बरकत हज़रत इब्राहिम से होती हुई हज़रत इज़्हाक़ पर और हज़रत इज़्हाक़ से होती हुई हज़रत याक़ूब और उस की नस्ल पर नाज़िल हुई। इसी वास्ते लिखा है, “वही ख़ुदावंद हमारा ख़ुदा है जिसने अपने अहद को हमेशा याद रखा यानी उस कलाम को जो उसने हज़ारों पुश्तों के लिए फ़रमाया। उसी अहद को जो उसने इब्राहिम से बाँधा और उस क़सम को जो उसने इज़्हाक़ से खाई और उसी को उसने याक़ूब के लिए अबदी अहद ठहराया।” (ज़बूर 105:7 ता 10 वग़ैरह) हत्ता कि बमुक़ाबला तमाम अक़्वामे आलम के (जिनमें बनी-इस्माईल भी शामिल हैं) बनी-इस्राईल एक मख़्सूस क़ौम हुई और ख़ुदा ने इस क़ौम की बाबत फ़रमाया, “कि तू ख़ुदावंद अपने ख़ुदा के लिए एक पाक क़ौम है। ख़ुदावंद तेरे ख़ुदा ने तुझे रुए-ज़मीन की और सब क़ौमों में से चुन लिया है, ताकि उस की ख़ास उम्मत ठहरे।” (इस्तिस्ना 7:6) और इस क़ौम के ख़ुदा का नाम ही हर ज़माने में ये था। “अब्राहाम का ख़ुदा और इज़्हाक़ का ख़ुदा और याक़ूब का ख़ुदा।” (ख़ुरूज 3:6, 4:5, 1_सलातीन 18:36, मर्क़ुस 12:36, आमाल 7:32 वग़ैरह)
इस बरकत और वाअदे के मुवाफ़िक़ नबुव्वत की बरकत बग़ैर किसी इम्तियाज़ के इस्राईल की क़ौम के बारहों (12) फ़िर्क़ों में आई और कुल अम्बिया इन्ही बारह (12) फ़िर्क़ों में से बरकत-ए-इब्राहीमी के मुवाफ़िक़ मबऊस हुए और “ज़मीन की सारी क़ौमों की बरकत का बाइस बने।” हज़रत इस्माईल इस बरकत से महरूम रह गए और उन की औलाद का इस बरकत-ए-उज़्मा से ताल्लुक़ ना रहा। बनी-इस्माईल का इस बरकत में कोई हिस्सा बख़्रा नहीं। अगर अब भी बनी-इस्राईल के इलावा बनी-इस्माईल में तौरात शरीफ़ की इब्राहीमी बरकत की बिना पर किसी नबी की तलाश की जाये तो हम बजुज़ इस के और क्या कह सकते हैं कि “सिवाए उस के जो बराह-ए-तास्सुब इस साफ़ और रोशन हक़ीक़त से आँख बंद करले” कौन कह सकता है कि हज़रत मुहम्मद साहब का इब्राहीमी वाअदे और बरकत-ए-उज़्मा से ताल्लुक़ है?
इस्माईल शरअन नस्ल-ए-इब्राहिम नहीं
जो अबदी अहद ख़ुदा ने हज़रत इब्राहिम से बाँधा था वो उनके बाद सिर्फ हज़रत इज़्हाक़ से बाँधा गया। हज़रत इस्माईल इस अहद से क़तअन महरूम किए गए। उनको नस्ल की फ़रावानी तो इज़्हाक़ के साथ मिली मगर ख़ुदा ने साफ़ फ़र्मा दिया “लेकिन मैं अपना अहद इज़्हाक़ से ही बांधूंगा।” मैं इस से और इस के बाद इस की औलाद से अपना अबदी अहद बाँधूंगा।” पस इस्माईल ख़ुदा के अहद से ख़ारिज हुए। इस अहद से ख़ारिज होने की वजह से जैसा मुक़द्दस पौलुस फ़रमाता है, हज़रत इस्माईल शरअन इब्राहिम की नस्ल कहलाए जाने से भी ख़ारिज हुए। “यही वजह है कि ख़ुदा ने सिर्फ हज़रत इज़्हाक़ ही को इब्राहिम का इकलौता बेटा कहा।” (पैदाइश 22:16) हक़ीक़त भी यही है कि गो इस्माईल जिस्म के तौर पर हज़रत इब्राहिम से पैदा हुए मगर ख़ुदा ने उनको नस्ल-ए-इब्राहीमी से ख़ारिज फ़रमाया। ख़ुदा की बरकतें मुफ़्त हैं, वो जिसको चाहे दे। الله یفعل مایشیاء बक़ौल शख्से :-
क़िस्मत किया है हर एक को क़स्साम-ए-अज़ल ने
जो शख़्स कि जिस चीज़ के क़ाबिल नज़र आया
कोई अपने आपको ख़ुदा के इनामात का मुस्तहिक़ नहीं समझ सकता। इस्माईल अपनी हालत पर क़ाने (क़नाअत करने वाला, जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) रहे। उन्हों ने कभी कोई शिकायत नहीं की। शिकायत करने वाले ज़माना-ए-हाल के मौलवी साहिबान हैं और उन की शिकायत बेजा है।
इलावा मज़्कूर बाला दलाईल के, हमारे दाअ्वे की दलील कि हज़रत इस्माईल शरअन इब्राहिम नहीं ये हैं :-
ख़ुदा ने हज़रत इब्राहिम से उस वक़्त वाअ्दा किया था जब कि उस के कोई औलाद ना थी। मुल्क कनआन मैं तेरी नस्ल को दूँगा। अब देखिए कि मुल़्क अकनान किस के तर्के में पड़ा? जो कनआन के वारिस हुए वही इब्राहिम की नस्ल हुई। यही मुल्क में “तेरी नस्ल को दूंगा।” अब ज़ाहिर है कि बनी-इस्माईल कभी कनआन के वारिस ना हुए (पैदाइश 25 बाब) और जो-जो कौमें उस की वारिस ना हुईं ख़्वाह वो इब्राहिम के सल्ब से ही क्यों ना हों वो नस्ल इब्राहीमी के नाम से महरूम हैं।
(2) ख़ुदा ने साफ़ तौर पर फ़र्मा दिया कि, “ऐ इब्राहिम इज़्हाक़ से तेरी नस्ल का नाम चलेगा।” (पैदाइश 21:12) फिर क्यों उनकी नस्ल किसी और से कहलाए? पस हज़रत इज़्हाक़ के सिवा इब्राहिम के तमाम दीगर बेटे (मए इस्माईल) ख़ारिज हो गए।
(3) हज़रत इब्राहिम का दर-हक़ीक़त एक ही बेटा था यानी इज़्हाक़ (पैदाइश 22:16) कलाम-ए-ख़ुदा दूसरों को कनीज़ के ज़ादे (लौंडियों की औलाद) कहता है और हज़रत इस्माईल के हक़ में बीबी सारा के इस फ़ैसले को कि “इस लौंडी (हाजिरा) का बेटा मेरे बेटे इज़्हाक़ के साथ वारिस ना होगा।” (पैदाइश 21:10) ख़ुदा तआला ख़ुद मंज़ूर फ़रमाता है। (पैदाइश 21:12)
(4) हज़रत इब्राहिम का तमाम तर्का (विरासत) सिर्फ़ हज़रत इज़्हाक़ को ही मिला। चुनान्चे लिखा है कि, “अब्राहाम ने अपना सब कुछ इज़्हाक़ को दिया।” (पैदाइश 25:5) क्यों? अगर इस्माईल भी शरअन इब्राहिम के बेटे थे तो उनको क्यों कुछ ना मिला? हक़ीक़त में बहुक्म ख़ुदा हज़रत इब्राहिम के तमाम बेटे इज़्हाक़ के साथ वारिस ना हुए, बल्कि हज़रत ने “अपने जीते-जी उनको अपने बेटे इज़्हाक़ के पास से बहुत कुछ इनाम देकर मशरिक़ की तरफ़ भेज दिया।” (पैदाइश 25:6) और इस्माईल को “रोटी और पानी” के एक मशक देकर रुख़्सत कर दिया। (पैदाइश 21:14) पस इब्राहिम ने अमली तौर से सिर्फ इज़्हाक़ को ही अपना बेटा गिरदाना और उसी को अकेला बिला-शर्कत-ए-ग़ैर (किसी और को शामिल किये बगैर) अपना वारिस बनाया।
(5) ख़ुदा तआला ने हज़रत इस्माईल और दीगर कनीज़क ज़ादों के बावजूद इज़्हाक़ को इब्राहिम का इकलौता बेटा कहा। (पैदाइश 22:2, 16)
अब यहां से अज़हर-मिन-श्शम्स (रोज़-ए-रौशन की तरह अयाँ) है कि नबुव्वत की बरकत का वाअदा और ईलाही अहद जो हज़रत इब्राहिम से उस की नस्ल की बाबत हुआ था हज़रत इज़्हाक़ को पहुंचा, और उन के बाद हज़रत याक़ूब को पहुंचा। हज़रत इस्माईल शुरू ही से नस्ल-ए-इब्राहीमी से और वाअ्दे की फ़र्रज़िंदगी से और अहद-ए-ईलाही से ख़ारिज हुए। पस बनी-इस्माईल से किसी नबी के इस माअ्नी में बरपा होने का दाअ्वा जिस्मानी में कि बनी-इस्राईल में बरपा हुए मह्ज़ तरफ़दारी की ज़िद है जिसका इब्ताल (गलत साबित करना) तौरात शरीफ़ ख़ुद करती है।
बाब पंजुम
अदम नबुव्वत-ए-इस्माईल
फ़स्ल अव़्वल
अदम-ए-नबुव्वते इस्माईल अज़-रूए तौरात
हमने गुज़श्ता बाब में इज़्हाक़ी और इस़्माईली बरकतों पर मुफ़स्सिल बह्स करके ये साबित कर दिया है कि तौरात शरीफ़ की रु से नबुव्वत की बरकत-ए-उज़्मा हज़रत इज़्हाक़ को और उन के बाद हज़रत याक़ूब को मिली। हज़रत याक़ूब के बाद ये नेअमत आले-ए-याक़ूब यानी बनी-इस्राईल के मुख़्तलिफ़ अफ़राद को अता हुई। लेकिन हज़रत इस्माईल और आल-ए-इस्माईल के तमाम अफ़राद नबुव्वत की बरकत से ख़ारिज हुए। पस अज़-रूए तौरात ना तो इस्माईल नबी थे और ना आपकी औलाद बनी-इस्माईल से किसी नबी ने बरपा होना था।
मौलवी साहब की दलीलें और उन के जवाब
लेकिन मौलवी साहब ने ख़ुदा के रोशन वादों को ना समझने के बाइस ना सिर्फ ये फ़र्ज़ कर लिया कि बनी-इस्माईल में नबी मौऊद होने वाला था बल्कि ये भी फ़र्ज़ कर लिया कि इस्माईल भी इब्राहिम इज़्हाक़ और याक़ूब की मानिंद नबी थे। और हैरत-अंगेज़ अम्र ये है कि आपने अपने मफ़रूज़ा को तौरात शरीफ़ से साबित करना चाहते हैं। चुनान्चे आपने अपने रिसाले के आख़िर में बउनवान “इस्बात-ए-नबुव्वत-ए-हज़रत इस्माईल” (सफ़ा 47 ता 48) फ़र्माते हैं :-
“ईसाई कहते हैं कि, हज़रत इस्माईल की नबुव्वत तौरेत मुक़द्दस से साबित नहीं होती मुसलमान कहते हैं कि हज़रत इस्माईल की नबुव्वत तौरेत मुक़द्दस से ऐसी साबित होती है जैसे कि हज़रत इब्राहिम हज़रत इज़्हाक़ और हज़रत याक़ूब की।” चुनान्चे उनकी नबुव्वत के दलाईल ये हैं :-
पहली दलील : ये है कि किताब पैदाइश से ज़ाहिर होता है कि, “ख़ुदा इब्राहिम के साथ था।” उसी किताब से ज़ाहिर है कि “ख़ुदा इज़्हाक़ के साथ था।” “और कि “ख़ुदा याक़ूब के साथ था।” इसी तरह इस्माईल के हक़ में लिखा है कि “ख़ुदा उस के साथ था।” (पैदाइश 21:20)
अच्छा साहब, अगर आपकी दलील के मुवाफ़िक़ ख़ुदा का किसी के साथ होना (और ख़ुदा किस के साथ नहीं?) इस को नबी बना देता है तो हम और नबियों का भी पता आपको बता देते हैं “ख़ुदावंद ख़ुदा साथ है” इस्राईल में तमाम जंगी मर्दों के।” (इस्तिस्ना 20:1, 31:6, 2_तवारीख़ 13:14, 32:8 वग़ैरह)
“ख़ुदावंद तमाम क़ौम इस्राईल के साथ है।” (गिनती 14:9, इस्तिस्ना 20:4 वग़ैरह) “ख़ुदावंद साथ है” आसा बादशाह के और बनी यहूदाह के तीन लाख आदमीयों के और बिनियामीन के दो लाख अस्सी हज़ार आदमीयों के। (2 तवारीख़ 15:2, 14:8) अब अगर हमारे मुख़ातब चाहें तो उन लाखों जंगी मर्दों, सूरमाओं और कुल क़ौम बनी-इस्राईल को नबी मान लें। लेकिन हक़ीक़त यही है कि वो नबी ना थे।
इब्रानी मुहावरे के मुताबिक़ ख़ुदा का किसी के साथ होने से मुराद ख़ुदा की मदद और याद आवरी (मिज़ाजपुर्सी करना) का उस के शामिल-ए-हाल होना है। इस से किसी शख़्स का ओहदा नबुव्वत पर सर्फ़राज़ किया जाना मुराद नहीं हो सकता। हमें अफ़्सोस है कि मौलवी साहब ने जिस आयत को हज़रत इस्माईल की फ़ज़ीलत में पेश किया है इस को आपने पूरा नहीं पढ़ा और ना इस पर ग़ौर किया है। इस आयत में है “ख़ुदा उस लड़के इस्माईल के साथ था और वो बड़ा हुआ और ब्याबान में रहने लगा और तीर-अंदाज़ बना।” (पैदाइश 21:20) हमारे मुख़ातब को याद होगा कि ख़ुदा ने हज़रत इस्माईल से ये वाअदा फ़रमाया था कि, “वो गोरख़र की मानिंद आज़ाद मर्द होगा। उस का हाथ सब के ख़िलाफ़ और सब के हाथ उस के ख़िलाफ़ होंगे।” (पैदाइश 16:12) किताब-ए-मुक़द्दस में गोरख़र की ये सिफ़ात मज़्कूर हैं, “गोरख़र को किस ने आज़ाद किया? जंगली गधे के बंद किस ने खोले। ख़ुदा ने ब्याबान को इस का मकान बनाया। और ज़मीन-ए-शूर को इस का मस्कन। वो शहर के शोर व गुल को हीच समझता है और हाँकने वाले की डाँट को नहीं सुनता।” (अय्यूब 39:5 ता 7) यही हाल हज़रत इस्माईल का था, उनके गिर्द व पेश के हालात के मुताबिक़ ख़ुदा ने अपना वाअदा पूरा फ़रमाया। हज़रत बड़े हुए, बढ़े और ब्याबान में जा रहे और तीर-अंदाज़ हो गए। तीर-अंदाज़ी आपके काम आई क्योंकि हज़रत के हाथ सब के ख़िलाफ़ और हज़रत के ख़िलाफ़ सब के हाथ हो गए। उस ज़माने के हालात के लिहाज़ से ब्याबान में रहने वालों की अज़मत व जलाल तीर-अंदाज़ी पर ही मुन्हसिर था। आप ये कहे कि ख़ुदा इस्माईल के साथ था और वो तीर-अंदाज़ य में माहिर हो गया ना ये कि ख़ुदा इस्माईल के साथ था और ना वो नबी हो गया।
दूसरी दलील : मौलवी साहब की दूसरी दलील और भी मज़हकाख़ेज़ है। आप लिखते हैं, “इब्राहिम जांबहक़ हुआ और अपने लोगों से जा मिला। इज़्हाक़ अपने लोगों से जा मिला। याक़ूब जांबहक़ हुआ और अपने लोगों से जा मिला। इसी हज़रत इस्माईल के हक़ में लिखा है कि इस्माईल ने दम छोड़ दिया और वफ़ात पाई और अपने लोगों में जा मिला।” (पैदाइश 25:17)
मौलवी साहब ग़ज़ब करते हैं जो जुम्ला “अपने लोगों में जा मिला” से किसी शख़्स की नबुव्वत का ख़याल अख़ज़ करते हैं इब्रानी मुहावरे के मुताबिक़ ये जुम्ला वही ज़ोर रखता है जैसा हमारे मुहावरे में जन्नत नसीब होना या “ग़रीक़ मग़फ़िरत होना।” इस इब्रानी मुहावरे की बुनियाद ये है कि हर मरने वाला वहीं जाता है जहां उस के आबाओ-अज्दाद (बाप-दादा) गए हैं। अगर मौलवी साहब की दलील को मान लिया जाये और ये दुरुस्त व सहीह हो कर मरने के बाद “अपने लोगों में मिल जाने से” इस्माईल नबी हो गए तो आपके मुताबिक़ दाअ्वा-ए-नुबूव्वत की अस्लियत ये हुई कि हज़रत इस्माईल जीते-जी नबी ना हुए, (और हम भी इस से ज़्यादा और कुछ नहीं कहते !) मगर मौत के बाद वो नबी हो गए ! पर अगर कोई शख़्स मरने के बाद किसी नबी से जा मिले तो वो नबी नहीं हो जाता। नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि ईसाईयों का दाअवा कि इस्माईल की नबुव्वत तौरात शरीफ़ से साबित नहीं होती किस पाये का है और मुसलमानों का उनके दाअवे से इन्कार करना किस क़िस्म के मज़हकाख़ेज़ दलाईल पर मबनी है।
अगर हज़रत इब्राहिम, इज़्हाक़ और याक़ूब नबी थे तो ना इसलिए कि ख़ुदा उनके साथ था या वो बाद मुर्दन (मौत के) अपने बाप दादा से जा मिले क्योंकि ये उमूर ख़साइस नबुव्वत से नहीं हैं। उनकी नबुव्वत के वजूह (वजह की जमा, अस्बाब) हस्ब-ज़ैल हैं। और वाज़ेह रहे कि बजिन्सा इन्ही वजह के बाइस हज़रत इस्माईल नबी ना थे। गोहम बाब चहारुम में इस के इब्ताल (गलत साबित करने में) नबुव्वत के दलाईल बयान कर चुके हैं।
हज़रत इब्राहिम नबी इसलिए थे कि ख़ुदा उनसे हम-कलाम हुआ। (पैदाइश 12:1 वग़ैरह) और ख़ुदा का कलाम उन पर नाज़िल हुआ। (पैदाइश 15:1) ख़ुदा ने उनके साथ अपना ख़ास अहद बाँधा। (पैदाइश 17:7) और वो ख़ुदा के दोस्त ख़लील-उल्लाह थे। (याक़ूब का ख़त 2:23) हज़रत इज़्हाक़ इसलिए नबी थे कि ख़ुदा उन पर ज़ाहिर हुआ। उनसे हम-कलाम हुआ और उनसे अहद क़ायम किया। (पैदाइश 26:2 ता 5 वगैरह) हज़रत याक़ूब भी इसलिए नबी थे क्योंकि ख़ुदा उन पर भी ज़ाहिर हुआ। (पैदाइश 28, 32 बाब) अब ये ख़ास बरकतें हज़रत इस्माईल को नसीब ना हुईं। वो ख़ुदा तआला के दीदार से मुशर्रफ़ ना हुए। उनको ख़ुदा के साथ हम-कलाम होना नसीब ना हुआ और ख़ुदा ने इब्राहीमी अहद को उनके साथ ना बाँधा। इस्माईल इन सब बातों से महरूम रह गए। हक़ तो ये हैकि उनको ब्याबानी ज़िंदगी और तीर-अंदाज़ी और दुश्मनों से जंग करने ने फ़राग़त ही ना दी कि वो इन बातों की तरफ़ ध्यान करते। वहम नबुव्वत उनको ख्व़ाब में भी कभी सताने ना पाया था।
तीसरी दलील : मौलवी साहब ने तौरात की एक और आयत को ज़मनन इस सनद में पेश किया है कि बनी-इस्माईल में इनाम-ए-नबुव्वत आने वाला था। चुनान्चे आप फ़र्माते हैं, “इस्तिस्ना के 32 बाब की 21 आयत से ज़ाहिर है कि जब बनी-इस्राईल ने ख़ुदा के हुक्म की ना-फ़र्मानी की तो उस वक़्त ख़ुदा ने ग़ज़बनाक हो कर क़ौम इस्राईल से फ़रमाया, मैं उनके ज़रीये से जो कोई उम्मत नहीं उनको ग़ैरत दिलाऊँगा और एक नादान क़ौम के ज़रीये से उनको ग़ुस्सा दिलाऊँगा।” अगर नज़र-ए-इन्साफ़ और ग़ौर से देखा जाये तो साफ़ मालूम होता है कि “नादान क़ौम” की मुख़ातब ठीक बनी-इस्माईल की क़ौम है।
हम हैरत में हैं कि हमारे मुख़ातब क्या साबित करना चाहते हैं? क्या बनी-इस्माईल को नादान साबित करके वो ख़ुदा के हाथ से उनको नबुव्वत दिलाएंगे। क्या वो भूल गए हैं कि अगर नादानी किसी क़ौम को मुस्तहिक़ नबुव्वत कर दे तो बनी-इस्माईल से कहीं बढ़-चढ़ कर इस अम्र में बाअज़ और क़ौमों को फ़ज़ीलत हासिल थी? और क्या ज़माना-ए-हाल में “नादान” अक़्वाम (क़ौमों) की बेख़कुनी हो गई है। या क्या मौलवी साहब समझते हैं कि जिस क़ौम से इस्राईल ख़फ़ा हो जाए उस को नबुव्वत मिल जाया करती है ! अहले-यहूद की तारीख़ बतलाती है कि क़ौम इस्राईल बाअज़ और क़ौमों से बनी-इस्माईल से कहीं ज़्यादा ख़फ़ा हो चुकी है। क्या मौलवी साहब उन सबको ओहदा नबुव्वत दिलाएंगे “नादान क़ौम” होना और इस्राईल को “ग़ुस्सा दिलाना” दावा-ए-नुबूव्वत के लिए बहुत ही नादानी की दस्तावेज़ हो सकता है। हमारे मुख़ातब को इस क़द्र नादान तो ना बनना चाहिए।
मौलवी साहब अपनी दलील देकर कहते हैं “इनके हक़ में तौरेत मुक़द्दस में वाअदा बरकत और बरूमंदी का है।” हम इस मन्तिक़ को मुतलक़ नहीं समझे कि वाअदा बरकत व बरूमंदी के लिए नादान क़ौम हो जाना क्यों कर लाज़िम व लज़ूम है। हम ऊपर बतला चुके हैं कि वाअदा बरकत व बरूमंदी में कोई वाअदा नबुव्वत शामिल नहीं है।
आप कहते हैं, “ये क़ौम एक अर्से-दराज़ तक बग़ैर किताब और बग़ैर नबी के रही लेकिन ये क़ौम ख़ुदा की मौऊदा (वाअ्दा की हुई) क़ौम थी इस वास्ते इस क़ौम को “नादान” क़ौम कहा गया।” हम ऊपर बतला चुके हैं कि किस मअनी में ये क़ौम “ख़ुदा की मौऊदा क़ौम” थी और कि इस़्माईली वाअदे में कोई वाअदा-ए-नबुव्वत ना था। हाँ ये बात दुरुस्त है कि "बग़ैर किताब और बग़ैर नबी” रहने की वजह से इस क़ौम को नादानी का हक़ हासिल है। इसी लिए क़ुरआन ने भी इनको उम्मी (अनपढ़) कहा है, लेकिन ये हक़ ग़ैर-मुशतर्का नहीं है, क्योंकि ना सिर्फ बनी-इस्माईल बल्कि तमाम ग़ैर-इस्राईली अक़्वाम आलम बग़ैर किताब और बग़ैर नबी के रहीं। हक़ीक़त यूं है कि नादान क़ौम से मुराद ऐसी ही क़ौम है जो बग़ैर किताब और बग़ैर नबी हो। सहफ़-ए-समावी (आस्मानी सहिफ़ो) की इस्तिलाह में तमाम ग़ैर-यहूद अक़्वाम नादान हैं। ख़्वाह वो दुनिया की नज़रों में अक़्लमंद हों। क्योंकि वो बग़ैर किताब और बग़ैर नबी यानी हक़ीक़ी इरफान-ए-ईलाही के बग़ैर हैं। बनी-इस्माईल भी दीगर यहूदी अक़्वाम के साथ नादान अक़्वाम (क़ौमों) में शामिल हैं। नादान होना सिर्फ बनी-इस्माईल की ख़ुसूसीयत ही नहीं।
नाज़रीन ज़रा ग़ौर फ़रमाएं, मौलवी साहब बाब सोम की फ़स्ल अव़्वल में तो ये साबित करना चाहते थे कि लफ़्ज़ “भाईयों” से मुराद बनी-इस्माईल हैं लेकिन यहां आप बनी-इस्माईल को “नादान क़ौम” यानी ग़ैर-क़ौम तस्लीम कर रहे हैं।
अगर बनी-इस्माईल आप के माअनों में बनी-इस्राईल के भाइयों में से हैं। तो वो ग़ैर-क़ौम कैसे ठहरे? मौलवी साहब ने अपने क़ज़ीया को साबित करने के लिए ये ख़याल नहीं किया कि इजतिमा-अल-ज़िद्दीन (اجتماع الضد ین) अज़रूए मन्तिक़ मुहाल है।
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सही उसूल तफ़्सीर की रु से इस आयत में मसीहीय्यत की तरफ़ इशारा है जिसने तअस्सुबात यहूद के ख़िलाफ़ यहूद और ग़ैर-यहूद को मुसावी (बराबर) कर दिया और ग़ैर-यहूद को जो बावजाह “बग़ैर किताब” और “बग़ैर नबी” होने के “नादान” अक़्वाम थीं बनी-इस्राईल की ग़ैरत, ख़फ़गी और ग़ुस्से का बाइस हुए। चुनान्चे इस अम्र को हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمة الله) ने अंगूरिस्तान और ज़ियाफ़त की तम्सीलों (मत्ती 21:33 ता 46, 23:1 ता 11, लूक़ा 14:12 ता 24) में बयान फ़रमाया है। आपने बनी-इस्राईल को एलानिया आगाह करके फ़र्मा दिया “ख़ुदा की बादशाही तुमसे ले ली जाएगी और उस क़ौम को जो उस के फल लाए दे दी जाएगी।” (मत्ती 21:43, नीज़ देखो मत्ती 3:8 ता 10, यसअयाह 5:1 ता 7 वग़ैरह) मुक़द्दस पौलुस रसूल ने भी इसी आयत की तरफ़ इशारा करके फ़रमाया, “ज़रूर था कि ख़ुदा का कलाम पहले तुम (बनी-इस्राईल) को सुनाया जाये लेकिन चूँकि तुम इस को रद्द करते हो और अपने आप को हमेशा की ज़िंदगी के लिए नाक़ाबिल ठहराते हो तो देखो, हम ग़ैर क़ौमों की तरफ़ मुतवज्जोह करते हैं।” (आमाल 13:46) इसी मुक़ाम में लिखा है कि “यहूदी डाह (हसद, दुश्मनी) से भर गए।” (आयत 45) पस यही अम्र यानी ग़ैर-यहूद का ख़ुदा की बादशाही में दाख़िल होने का तसव्वुर यहूदीयों की ख़फ़गी और ग़ुस्से का बाइस हुआ। मौलवी साहब आयत (मत्ती 21:43) का इक़्तिबास करके कहते हैं कि, मसीह ने सिर्फ बनी-इस्माईल की जानिब इशारा किया है हालाँकि आँख़ुदावंद ने रुए-ज़मीन की तमाम अक़्वाम (क़ौमों) को जो दुनिया के चारों गोशों में बस्ती हैं, लफ़्ज़ “क़ौम” में शामिल करके उनको यहूदीयों के मुक़ाबिल पेश किया है। चुनान्चे आपने फ़रमाया पूरब और पच्छिम, उतर और दक्षिण से लोग आकर अब्राहाम और इज़्हाक़ और याक़ूब के साथ आस्मान की बादशाही की ज़ियाफ़त में शरीक होंगे मगर तुम अपने आपको बाहर निकला हुआ देखोगे वहां रोना और दाँत पीसना होगा।” (मत्ती 8:11 ता 12, लूक़ा 13:28 देखो इफ़िसियों 3:6 वग़ैरह) यही ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमें) वो लोग हैं जो “फल लाए।” और मुनज्जी आलमीन (मसीह) पर ईमान लाकर ख़ुदा की बादशाही के वारिस हुए।
लेकिन मौलवी साहब इस सही तफ़्सीर को जो कलाम-उल्लाह पर मबनी है क़ुबूल नहीं करते और लिखते हैं “ईसाई साहिबान इस आयत को यूनानियों और ग़ैर-क़ौमों पर जिन्हों ने ईसाई मज़्हब क़ुबूल किया है जमाते हैं।” मगर ये आयत इन मज़्कूर क़ौमों के हक़ में हरगिज़ नहीं हो सकती। इस बारे में हम दो दलीलें क़ायम करते हैं। अव़्वल ये कि इन क़ौमों के साथ बरकत और बरूमंदी का वाअदा नहीं किया गया, “तो फिर उस से क्या? क्या ज़रूर है कि हर बरकत व बरूमंदी सिर्फ़ वाअदे के साथ ही हो? क्या ख़ुदा वाअदा किए बग़ैर बरकत व बरूमंदी अता नहीं करता? क्या हर क़ौम के साथ जो बरूमंद हुई “वाअदा बरूमंदी” कहीं लिखा है? और तवारीख़ इस अम्र पर शाहिद है कि ग़ैर-अक़्वाम जिस्मानी और दुनियावी बरकत व बरूमंदी से महरूम नहीं रहीं। लेकिन यहां तो कोई अम्र वाअदा, बरकत व बरूमंदी पर मुन्हसिर नहीं है। यहां तो किसी और क़िस्म का वाअदा मक़्सूद है। ग़ैर-अक़्वाम का सय्यदना मसीह पर ईमान लाकर एक होने का वाअदा तो ख़ुदा की तरफ़ से पहले हो चुका था और उन ग़ैर-अक़्वाम में बनी-इस्माईल भी शामिल हैं। जो सब के साथ ईमानदार हो कर इब्राहिम के फ़र्ज़न्द हो सकते हैं। चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस फ़रमाता है, “ये जान लो कि जो ईमान वाले हैं वही अब्राहाम के फ़र्ज़न्द हैं और किताब मुक़द्दस ने पेशतर से ये जान कर कि ख़ुदा ग़ैर-क़ौमों को ईमान से रास्तबाज़ ठहराएगा पहले ही से अब्राहाम को ये ख़ुशख़बरी सुना दी कि तेरे बाइस सब कौमें बरकत पाएँगी। पस जो ईमान वाले हैं वो ईमानदार अब्राहाम के साथ बरकत पाते हैं।” (ग़लतीयों 3:7 ता 8, नीज़ देखो लूक़ा 19:9 ता 10, रोमीयों 3:29 ता 30 वग़ैरह) पस तमाम ग़ैर-यहूद का रुजू लाना वाअदा इब्राहीमी के ऐन मुवाफ़िक़ है।
मौलवी साहब की दूसरी दलील ये है कि :-
“इन यूनानियों और ग़ैर-क़ौमों को किसी दाना और अक़्लमंद शख़्स ने आज तक “नादान क़ौम” नहीं कहा, बल्कि इस यूनानी क़ौम को इन्जील मुक़द्दस में एक दाना और हिक्मत वाली क़ौम कहा गया है।” (सफ़ा 7)
लेकिन मौलवी साहब अभी चंद सतरें ऊपर “नादान क़ौम” की तारीफ़ ख़ुद ही कर चुके हैं यानी वो क़ौम जो “बग़ैर किताब” और “बग़ैर नबी” के हो और यूनानियों और ग़ैर-क़ौमों के “बग़ैर किताब” और “बग़ैर नबी” होने के मौलवी साहब भी मुन्किर नहीं हो सकते। पस आप जैसे दाना और अक़्लमंद ने यूनानियों को ख़ुद “नादान क़ौम” तस्लीम कर लिया। ये दुरुस्त है कि इल्म व फ़ल्सफ़े में यूनानियों (ना कि तमाम ग़ैर-अक़्वाम) “एक दाना और हिक्मत वाली क़ौम” थी लेकिन वो बावजूद अपने इल्म व फ़ल्सफ़े के “बग़ैर किताब” और “बग़ैर नबी” होने की वजह से “नादान क़ौम” थी और सही इर्फ़ान ईलाही से महरूम थी। चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस रसूल फ़र्माते हैं उन्होंने अगरचे ख़ुदा को जाना मगर इर्फ़ान-ए-इलाही के ना होने की वजह से उन्होंने उस की ख़ुदाई के लायक़ उस की तम्जीद और शुक्रगुज़ारी ना की, बल्कि बातिल ख़यालात में पड़ गए और उन के बे समझ दिलों पर अंधेरा छा गया।” (रोमीयों 1:21)
पस हमारे मुख़ातब की दोनों दलीलें ग़लत हैं और जो तफ़्सीर हमने मौलवी साहब की पेश कर्दा आयत (इस्तिस्ना 32:21) की बतलाई है वही सही है और किताब मुक़द्दस के मुताबिक़ है। चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस फ़रमाता है, “यहूदीयों और यूनानियों में कुछ फ़र्क़ ना रहा इसलिए कि वही सब का ख़ुदावंद है और उन सब के वास्ते जो उस का नाम लेते हैं फ़य्याज़ है।” मूसा कहता है कि “मैं उनसे तुमको ग़ैरत दिलाऊँगा जो क़ौम ही नहीं। एक नादान क़ौम से तुमको ग़ुस्सा दिलाऊँगा।” यसअयाह भी कहता है, “जिन्हों ने मुझे नहीं ढ़ूंडा उन्होंने मुझे पा लिया। जिन्हों ने मुझे नहीं पूछा उन पर मैं ज़ाहिर हो गया। लेकिन इस्राईल के हक़ में वो कहता है कि, मैं दिन-भर एक नाफ़र्मान और हुज्जती उम्मत की तरफ़ अपने हाथ बढ़ाए रहा।” (रोमीयों 10 बाब) ये आयात सय्यदना मसीह की ज़ियाफ़त वाली तम्सील की इल्हामी तफ़्सीर हैं। पौलुस रसूल बताकिद फ़र्माते हैं कि, मौलवी साहब की पेश कर्दा आयत में ग़ैर-क़ौमों के यहूदीयों के साथ मुसावी हुक़ूक़ में दाख़िल होने की ख़बर है और यह बात यहूदीयों की ग़ैरत, ख़फ़गी और ग़ुस्से का बाइस बनी (आमाल 21 बाब वग़ैरह) मुक़द्दस पौलुस ख़ुद खुल्लम खुल्ला फ़र्माते हैं, “मैं ग़ैर-क़ौमों का रसूल हो कर तुम ग़ैर-क़ौम वालों से बोलता हूँ, ताकि मैं किसी तरह अपने क़ौम वालों को ग़ैरत दिलाऊँ।” (रोमीयों 11:13 ता 14)
फ़स्ल दोम
अदम नबुव्वत-ए-इस्माईल अज़-रूए क़ुरआन
इंसाफ़ पसंद नाज़रीन पर गुज़श्ता फसलों के मुतालए से ज़ाहिर हो गया होगा कि तौरात मुक़द्दस की रु से नबुव्वत हज़रत इब्राहिम को और उनके बाद उनकी औलाद में से सिर्फ हज़रत इज़्हाक़ को अता की गई। हज़रत इज़्हाक़ की औलाद में से सिर्फ हज़रत याक़ूब को इस बरकत से सर्फ़राज़ फ़रमाया गया। ख़ुदा ने हज़रत इब्राहिम से वाअदा किया था कि तेरी नस्ल से दुनिया की तमाम कौमें बरकत पाएँगी यही वाअदा हज़रत इज़्हाक़ से उनके बाद हज़रत याक़ूब से किया गया। चुनान्चे ख़ुदा ने हज़रत इब्राहिम की मौत के बाद हज़रत इस्माईल को इस वाअदे से ख़ारिज करके हज़रत इज़्हाक़ से कहा “ज़मीन की सब कौमें तेरी नस्ल के वसीले से बरकत पाएँगी”। (पैदाइश 26:4) और फिर हज़रत इज़्हाक़ के पहलौठे बेटे हज़रत ऐसो को इस वाअदे से ख़ारिज करके हज़रत याक़ूब से फ़रमाया गया, “ज़मीन के तमाम घराने तेरे और तेरी नस्ल के वसीले से बरकत पाएँगे।” (पैदाइश 28:14) यूं हज़रत इस्माईल और उन के बाद हज़रत ऐसो नबुव्वत की बरकत-ए-उज़्मा से ख़ारिज हुए।
क़ुरआनी आयात
क़ुरआन मजीद बार-बार इस अम्र का ईलाज करता है कि वो तौरात शरीफ़ का मुसद्दिक़ है और जब हम क़ुरआन का ग़ोर व तदब्बुर के साथ मुतालआ करते हैं तो हम पर ये बात रोशन हो जाती है कि नबुव्वत-ए-इज़्हाक़ व इस्माईल के बारे में वो बईना वही बात कहता है कि जो तौरात कहती है। क़ुरआन अदम नबुव्वत-ए-इस्माईल की ताईद और तस्दीक़ करता है। चुनान्चे चंद आयात मुलाहिज़ा हों :-
- हम (खुदा) ने इस औरत (बीबी) सारा को इस्हाक़ की बशारत दी और इस्हाक़ के बाद याक़ूब की (हूद रुकू 7 आयत 74)
- हमने इब्राहिम को इस्हाक़ और याक़ूब बख़्शा और हमने सबको हिदायत दी। (सूरह अनआम ए 10 आयत 84)
- (ऐ) मुहम्मद हमारे बंदों इब्राहिम और इस्हाक़ और याक़ूब को याद करो जो हाथों और आँखों वाले (यानी साहिबे आमाल व मारूफ थे। और हम ने उनको एक ख़ास बात के लिए यानी ज़िक्र-ए-आख़िरत के लिए चुना। और बेशिकवा (सब) हमारे हाँ बर्गुज़ीदा नेक बंदों में हैं। और इस्माईल और अल-यसीअ और ज़वाकिफ़ल को भी याद करो और (इनमें से) हर एक ख़ूबी वाला था। (सूरह साद रुकू 4, आयत 45 ता 48)
- जब वो (इब्राहिम) उनसे और अल्लाह के सिवाए उनके माबूदों से जिनको वो पुकारते थे अलग हो गया तो हम ने उस को इस्हाक़ और याक़ूब बख़्शा और हर एक को हमने नबी बनाया और उन तीनों (इब्राहिम, इस्हाक़ और याक़ूब) को हमने अपनी रहमत से (सब कुछ) दिया और हमने उनके लिए आला दर्जे का ज़िक्र-ए-ख़ैर (बाक़ी) रखा। (सूरह मर्यम 3 आयत 49)
- हमने इब्राहिम को इस्हाक़ बख़्शा और याक़ूब इनाम में दिया। और सबको नेक-बख़्त किया और हमने उनको (क़ौम का) पेशवा और इमाम बनाया कि हमारे हुक्म से हिदायत करते थे। (सूरह अम्बिया रुकू 5 आयत 72 ता 73)
- “और हम ने उस (इब्राहिम) को इस्हाक़ और याक़ूब बख़्शा और उन की नस्ल में नबुव्वत और (नुज़ूल किताब) को (जारी) रखा और हम ने इस का अज्र उसे दुनिया में दे दिया और आख़िरत में वो नेकों में है।” (सूरह अन्कबूत रुकूअ 3, आयत 27)
- ऐ बनी-इस्राईल, मेरा वो एहसान याद करो जो मैंने तुम पर किया है और इस बात को भी (याद रखो) कि मैंने तुमको दुनिया जहान के लोगों पर फ़ौक़ियत बख़्शी। (सूरह बकरा 6, आयत 47)
- अलबत्ता हमने बनी-इस्राईल को किताब और हुकूमत और नबुव्वत इनायत फ़रमाई और तमाम जहान पर उनको फ़ज़ीलत और फ़ौक़ियत बख़्शी। (सूरह जासिया रूकूअ 2 आयत 16)
आयात-ए-क़ुरआनी पर तब्सिरा
जब हम इन आयात-ए-क़ुरआनी का बग़ौर तदब्बुर मुतालआ करते हैं तो हम पर ज़ाहिर हो जाता है कि :-
पहली आयत में हज़रत इब्राहिम की बीवी बीबी सारा को हज़रत इस्हाक़ की बशारत दी जाती है और हज़रत इस्हाक़ के बाद याक़ूब की बशारत दी गई है। तमाम क़ुरआन में किसी एक मुक़ाम में भी हज़रत इस्माईल की पैदाइश की बशारत का ज़िक्र मौजूद नहीं है। और ना किसी जगह हज़रत याक़ूब के बड़े भाई ऐसो का ज़िक्र है। पस क़ुरआन के मुताबिक़ दोनों इब्राहीमी वाअदे से ख़ारिज हुए। हज़रत इब्राहिम को इस्हाक़ की और इस्हाक़ के बाद याक़ूब की बशारत दी गई है और ये ऐन तौरात शरीफ़ के मुताबिक़ है।
दूसरी आयत में भी यही मज़्कूर है कि “हज़रत इब्राहिम को इस्हाक़ और याक़ूब बख़्शा गया और इन तीनों को ख़ुदा की तरफ़ से “हिदायत” दी गई।” इस आयत में भी इब्राहिम के साथ इस्माईल का ज़िक्र नहीं किया गया। जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि इस्माईल ख़ुदा की बख़्शिश में शामिल नहीं थे। वर्ना आयत के अल्फ़ाज़ यूं होते “हमने इब्राहिम को इस्माईल और इस्हाक़ और याक़ूब बख़्शा।” पस इस आयत के मुताबिक़ भी हज़रत इस्माईल वाअदा नबुव्वत की बख़्शिश से ख़ारिज (बाहर) हैं।
तीसरी आयत में भी ऊपर की दो आयात की मानिंद इब्राहिम के बाद इस्माईल का नाम नहीं आता, बल्कि इस्हाक़ और याक़ूब का नाम आता है। और उन के नामों के साथ उनके तीन औसाफ़ का ज़िक्र किया जाता है।
अव्वल, कि वो साहिबे अमलव मआरुफ़ थे।
दोम, कि वो ख़ुदा के चुने हुए बंदों में से थे।
सोम, कि ख़ुदा ने उनको किसी ख़ास मक़्सद की ख़ातिर चुना था। जिसकी वजह से बक़ौल इमाम राज़ी :-
“उन्हों ने दार-ए-आख़िरत में अपने लिए एक बुलंद और जलील (बुलंद) ज़िक्र हासिल किया।”
अगर हज़रत इस्माईल को भी यही मर्तबा हासिल होता तो वाजिब था कि उनका ज़िक्र भी हज़रत इब्राहिम के बाद और इस्हाक़ से पहले या कम अज़ कम इस्हाक़ के साथ किया जाता। लेकिन आयत से उन का नाम ऐसा ख़ारिज (बाहर) किया गया है कि वो हज़रत इब्राहिम के कुन्बे में ही ना थे। और ये तौरात की आयत के मुताबिक़ है कि “इब्राहिम की नस्ल इज़्हाक़ से कहलाएगी।” (पैदाइश 21:12, 22:2)
इलावा अज़ीं ये अम्र हैरत का मूजिब है कि ख़ुदा उस आयत में आँहज़रत को ये हुक्म तो देता है कि वो इब्राहिम और इस्हाक़ और याक़ूब का ज़िक्र करें और उन के इल्म व अमल की फ़ज़ीलत का बयान करें। लेकिन उन को अपने जद्दे-अमजद (बाप दादा) इस्माईल का ज़िक्र करने का हुक्म नहीं देता। ये भी मुक़ाम-ए-ताज्जुब है कि हज़रत इस्माईल का ज़िक्र इन ख़ास अश्ख़ास में नहीं आता जो साहिब-ए-इल्म व अमल ख़ुदा के बर्गुज़ीदा नेक बंदे थे और जिन को ख़ास मक़्सद के मातहत मश्वरत ईलाही ने चुना था।
इस क़ुरआनी आयत में एक और अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है। इस में किसी हज़रत इस्माईल का ज़िक्र किया गया है लेकिन उनका नाम आयत के आख़िर में इब्राहिम इस्हाक़ और याक़ूब से बिल्कुल अलग किया गया है। और अल-यसीअ और जुवकिफल जैसे मुक़ाबला गुमनाम और छोटे नबियों के साथ आया है, जो हज़रत इब्राहिम, इस्हाक़, और याक़ूब के सदीयों बाद पैदा हुए और जिन को मुवाफ़िक़ क़ुरआनी आयत और हमने बाअज़ रसूलों को बाअज़ पर फ़ज़ीलत दी (बक़रह रुकूअ 33) फ़क़त ख़ूबी वालों में शुमार किया गया है। इन वजूह की बिना पर बाअज़ मुफ़स्सिरीन क़ुरआन ये ख़याल करते हैं कि यहां और ऊपर की दो आयात में जिस इस्माईल का ज़िक्र आया है वो इब्राहिम और हाजिरा के बेटे नहीं थे बल्कि कोई ग़ैर-मशहूर नबी थे जिन का नाम ज़वाकिफ़ल जैसे ग़ैर मानूस नाम के साथ इकट्ठा किया गया है। इन मुफ़स्सिरीन के मुताबिक़ इस मुक़ाम में इस्माईल बिन इब्राहिम का ज़िक्र बेमहल है क्योंकि हज़रत अल-यसीअ, हज़रत इब्राहिम के क़रीबन सात (7) सदीयां बाद ज़ाहिर हुए। पस क़ुरआन ने इन इस्माईल को क़ौम आख़रीन के साथ शामिल किया है। जो इब्राहिम से सदीयों बाद दुनिया के किसी गुमनाम गोशा में ख़ुदा के मुर्सल हो कर आए थे और “ख़ूबीयों वाले” आदमी थे। लेकिन वो कोई बड़े नबी ना थे क्योंकि वो इब्राहिम और इस्हाक़ और याक़ूब की मानिंद ना तो साहिबे मआरुफ़ रुहानी थे और ना साहब-ए-क़ुव्वत थे।
मुफ़स्सिरीन-ए-क़ुरआन की इस तफ़्सीर में ये ख़ूबी है कि वो क़ुरआन को तौरात के मुताबिक़ बना देती है और क़ुरआन का दावा कि मुसद्दिक़ तौरात है, बहाल रहता है। मज़ीद बरआँ इस आयत से ये नतीजा भी मुस्तंबित होता है कि अगर इस्हाक़ व याक़ूब का इकट्ठा ज़िक्र करने से उनका ज़िक्र करना मक़्सूद था जो इब्राहिम की नस्ल से होने वाले थे, तो ज़ाहिर है कि हज़रत इस्माईल का उनके साथ इकट्ठा ज़िक्र ना करने से ये साबित होता है कि उनकी नस्ल से कोई नबी आने वाला नहीं था और ये ऐन तौरात के मुताबिक़ है।
चौथी आयत साफ़ तौर पर वाज़ेह कर देती है कि हज़रत इब्राहिम को नबुव्वत अता हुई और इस के बाद इस्हाक़ को और इस के बाद याक़ूब को मिली। इस मुक़ाम में भी हज़रत इब्राहिम और इज़्हाक़ के साथ इस्माईल क़ा ज़िक्र नहीं आता।
इस सूरत के अगले रुकूअ में किसी हज़रत इस्माईल का ज़िक्र आता है जो “वादों का सच्चा और रसूल नबी था।” लेकिन ये इस्माईल इब्ने इब्राहिम नहीं हो सकते। क्योंकि जैसा हम ऊपर कह चुके हैं कि इन इस्माईल का ज़िक्र हज़रत इब्राहिम के बाद नहीं आता बल्कि हज़रत मूसा और हारून और इदरीस के दर्मियान आता है। जो हज़रत इब्राहिम से तीन (3) सदीयां बाद मबऊस हुए थे। अगर ये इस्माईल इब्ने इब्राहिम होते और अपने बाप की मानिंद नबी होते तो क़ुदरती तक़ाज़ा यही था कि उनका नाम हज़रत इब्राहिम के बाद और हज़रत इस्हाक़ से पहले या कम अज़ कम साथ होता। लेकिन वही ने ऐसा नहीं किया जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि ये इस्माईल कोई और नबी थे जो ना तो इब्राहिम के लिए ख़ुदा की तरफ़ से अज़ीम बख़्शिश थे और ना उनसे मुताल्लिक़ थे।
हमने मुफ़स्सिरीन की ये तावील क़ुबूल करली है जिससे क़ुरआन अपना पहलू बचा सकता है और इस के मुसद्दिक़-ए-तौरात होने का दाअवा बरक़रार रह सकता है। लेकिन अगर मुस्लिम मुनाज़िरीन ब-ज़िद हो कर किसी क़ुरआनी आयत से हज़रत इस्माईल की नबुव्वत करना चाहें तो उनको ना सिर्फ इन तमाम सवालात का तसल्ली बख़्श जवाब देना होगा जो हमने इन आयात की बह्स में पूछे हैं, बल्कि इन के इलावा उनको ये भी बतलाना होगा कि क़ुरआन के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में बाहमी तज़ाद की वजह क्या है। क्योंकि बाअज़ मुक़ामात में इन मुनाज़िरीन के मुताबिक़ हज़रत इस्माईल की नबुव्वत का इक़रार होगा और बाअज़ मुक़ामात में जहां उस की नबुव्वत का ज़िक्र लाज़िमी और लाबदी था वहां ख़ामोशी इख़्तियार कर लेता है जो माअनी-ख़ेज़ हो कर इन्कार नबुव्वत के बराबर है। इलावा अज़ीं अगर क़ुरआन किसी आयत में नबुव्वत-ए-इस्माईल का मुद्दई है तो इस का मिस्दाक़-तौरात होने का दावा किस तरह सही हो सकता है? क्योंकि तौरात उस की नबुव्वत का सरीहन (साफ़) इन्कार करती है।
पांचवीं आयत इब्ने कअब, इब्ने अब्बास, क़तादा, अलख़रा, और ज़जाज कहते हैं कि, “जब हज़रत इब्राहिम ने ख़ुदा से एक बेटे के लिए सवाल किया” (ऐ ख़ुदा मुझे एक नेक बेटा बख़्श) तो ख़ुदा ने आपकी दुआ क़ुबूल की और दुआ के जवाब में इस्हाक़ बख़्शा, और याक़ूब को बतौर ज़ाइद इनाम अता किया और तीनों को नबी बनाया और जो अपनी क़ौम को ख़ुदा की तरफ़ से हिदायत का पैग़ाम पहुंचाया करते थे।
नाज़रीन ने मुलाहिज़ा किया’ होगा कि ऊपर क़ुरआनी आयत में यही आया है कि ख़ुदा ने इब्राहिम को इस्हाक़ और याक़ूब बख़्शा और इन तीनों की तफ़्सील जुदा-जुदा तरीक़ पर की गई है। सबको हिदायत दी, सबको साहिब-ए-इल्म व अमल बनाया। सबको इमाम बनाया और सबको नबुव्वत का दर्जा अता किया, क्या ये इस अम्र की दलील नहीं है कि ख़ुदा की ग़ायत हसना का ताल्लुक़ इस्माईल से नहीं था बल्कि इस्हाक़ और याक़ूब से था। क़ुरआन मजीद, जैसा हम ऊपर कह चुके हैं। इस अम्र में तौरात शरीफ़ की तस्दीक़ करता है। अगर ख़ुदा ने इस्माईल को भी मन्सब-ए-नबुव्वत पर सर्फ़राज़ फ़रमाया होता और अगर उस की ग़ायत दोनों के लिए मुसावी (बराबर) होती तो इस का ज़िक्र इस्हाक़ के ज़िक्र से अगर पहले नहीं तो कम अज़ कम साथ होता और पोते के ज़िक्र से तो लाज़िमी तौर पर पहले होना चाहिए था। इस हालत में ये आयत यूं होती, “हमने इब्राहिम को इस्माईल और इस्हाक़ बख़्शा” यूं होती, “हमने इब्राहिम को इस्हाक़ बख़्शा और इस्माईल को इनाम में दिया।” लेकिन वही ईलाही ने इस तब्ई और आदी अम्र को क़तई तौर पर नज़रअंदाज कर दिया है। आख़िर इस की कोई वजह तो होनी चाहिए? तौरात मुक़द्दस की रोशनी में इस की वजह सिर्फ यही हो सकती है कि ख़ुदा ने हज़रत इब्राहिम को इस्हाक़ और याक़ूब के इलावा कोई बेटा नहीं बख़्शा। हज़रत इब्राहिम की किसी हरम (हाजिरा, कतुरह वग़ैरह) के बेटे को इनाम के तौर पर भी “बेटे का दर्जा नहीं दिया गया। और या तौरात की नस (साफ़ और वाज़ेह, छानबीन) के मुताबिक़ है कि इज़्हाक़ से तेरी (इब्राहिम की नस्ल) का नाम चलेगा।” (पैदाइश 21:12) और कि इज़्हाक़ इब्राहिम का “इकलौता बेटा था।” (पैदाइश 22:2) इस क़ुरआनी आयत के मुताबिक़ जिस तरह इस्माईल को ये दर्जा नहीं दिया बल्कि वो अपने भाई और भतीजे के साथ ख़ुदा के अतीया में शुमार हुआ इसी तरह उस को चौथी आयत के मुताबिक़ ये दर्जा नहीं मिला कि वो उनके साथ नबुव्वत में शरीक हो।
छठी आयत क़तई तौर पर इस अम्र को साबित कर देती है कि हज़रत इस्माईल का इब्राहीमी वाअदे और बरकत-ए-उज़्मा के साथ किसी क़िस्म का ताल्लुक़ और वास्ता नहीं था। अगर इस्माईल आल-ए-इस्माईल में से किसी फ़र्द का नबुव्वत व किताब के साथ वास्ता होता तो इस आयत में ज़रूर उस का नाम उस के छोटे भाई इज़्हाक़ और भतीजे याक़ूब से पहले आता।
और अगर इस्माईल कोई ऐसे शख़्स होते जिनकी नस्ल से एक ऐसा नबी बरपा होना था जिसकी बकौल-ए-उलमाए इस्लाम ख़ुदा ने अम्बिया-ए-साबक़ीन की मार्फ़त पेश ख़बरी दी थी और जिस को सय्यद-उल-मुर्सलिन बनाकर ख़ुदा ने आलमो-आलमियान की हिदायत के वास्ते भेजना था तो इस मुक़ाम पर इस बात की वज़ाहत एक लाज़िमी और लाबदी बात थी। लेकिन वही ने ऐसा नहीं किया जिससे सिर्फ यही एक नतीजा निकल सकता है कि हज़रत इस्हाक़ और हज़रत याक़ूब ना सिर्फ ख़ुद नबी थे बल्कि अम्बिया की जड़ थे क्योंकि ख़ुदा ने उनकी नस्ल में नबुव्वत और किताब को जारी रखा। लेकिन इस के बरअक्स हज़रत इस्माईल ना तो ख़ुद नबी थे और ना किसी आने वाले नबी की जड़ थे चह जायके उनकी नस्ल से कोई ऐसा नबी बरपा हो जो रहमत-उल-आलमीन हो।
पस क़ुरआन शरीफ़ वाज़ेह तौर पर तौरात-ए-मुक़द्दस की ताईद और तस्दीक़ करके कहता है कि जब हज़रत इब्राहिम ने अपने लोगों को छोड़ा तो ख़ुदा तआला ने उस की फ़रमांबर्दारी के एवज़ उस की दुआ को क़ुबूल फ़रमाया और इज़्हाक़ अता किया और उस के बेटे और पोते को नबुव्वत के ओहदे पर मुम्ताज़ फ़रमाया। ख़ुदा ने इब्राहिम को नअम-उल-बदल (अच्छा बदले) के तौर पर इस्माईल ना बख़्शा। ख़ुदा ने ना तो इस्माईल को नबी बनाया और ना उस को किसी अज़ीम नबी की जड़ या अस्ल ठहराया और ना उस की औलाद में नबुव्वत और किताब को रखा। इस आयत के मुताबिक़ नबुव्वत और किताब की बरकत सिर्फ़ इज़्हाक़ और याक़ूब की नस्ल से बिला-शिर्कत ग़ैरे-मख़्सूस है। क़ुरआन शरीफ़ किसी एक मुक़ाम में भी वाज़ेह और सरीह तौर पर नहीं कहता कि “हमने इब्राहिम को इस्माईल बख़्शा और उस की नस्ल में नबुव्वत और नुज़ूल-ए-किताब को जारी रखा।” और यह अम्र निहायत माअनी-ख़ेज़ है।
इस क़ुरआनी आयत में एक और अम्र भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है। चूँकि वो “ज़ुर्रियत” जिसमें “नबुव्वत” रखी गई है इज़्हाक़ और याक़ूब की नस्ल में है पस लामुहाला अल्फ़ाज़ “अल-किताब” (الکتاب) से वही किताब मुराद हो सकती है जो इस ज़ुर्रियत के पास है यानी बयना यदिही (بین یدیہ), क्योंकि “अल-किताब” और “नबुव्वत” का बाहमी ताल्लुक़ हैं। पस ये सही नहीं हो सकता कि नबुव्वत तो हज़रत इस्हाक़ और हज़रत याक़ूब की ज़ुर्रियत से मख़्सूस हो लेकिन “अल-किताब” मख़्सूस ना हो जो इस से मुताल्लिक़ है। पस यहां “अल-किताब” (الکتاب) से मुराद “बाइबल शरीफ़” है। अरबी लफ़्ज़ “अल-किताब” (الکتاب) यूनानी लफ़्ज़ बाइबल (بائبل) का लफ़्ज़ी तर्जुमा है।
नाज़रीन ने मुलाहिज़ा किया होगा कि हाफ़िज़ नज़ीर अहमद मरहूम का तर्जुमा हमने उनकी नस्ल में पैग़म्बरी और (नुज़ूल) किताब को (जारी) रखा हमारी इस तफ़्सीर की ताईद करता है जो हमने बाब दोम की फ़स्ल अव़्वल में (इस्तिस्ना 18:15) की कर आए हैं, कि बनी-इस्राईल में ख़ुदा ने नबुव्वत और किताब का सिलसिला हमेशा जारी रखा। अगर मरहूम का तर्जुमा क़ुरआन की अरबी आयत के मफ़्हूम को सही तौर पर अदा करता है तो ये क़ुरआनी आयत हमारी तफ़्सीर बाला की ताईद करती है।
सातवीं आयत में अल्फ़ाज़ अनी (انی فضتتکمہ علی العالمین) वारिद हुए हैं यानी में अल्फ़ाज़ अनी (انی فضتتکمہ علی العالمین) वारिद हुए हैं यानी इन अल्फ़ाज़ के बारे में मुतकल्लिमीन का क़ौल है कि “आलमीन” (عالمین) से मुराद ख़ुदा के इलावा कुल मौजूदात है। ये क़ौल फ़ज़्ल के लिहाज़ से मुतलक़ है और हमारी मन्तिक़ में मुतलक़ बात के सच्चा होने के लिए सिर्फ सूरत-ए-वाहिद काफ़ी है, पस इस आयत से मुराद ये है कि, बनी-इस्राईल को किसी एक अम्र में तमाम दुनिया जहान पर बुजु़र्गी बख़्शी गई। क़ुरआन मजीद इस फ़ज़ीलत का ज़िक्र बार-बार करता है और इस की (सूरह अन्कबूत के रुकूअ 3) यानी ऊपर की छठी आयत में तख्सीस करके बतलाता है कि बनी-इस्राईल में “नबुव्वत और नुजूल किताब को जारी रखा गया।” पस क़ुरआन तौरात शरीफ़ की तस्दीक़ करके कहता है कि ख़ुदा ने इस वाअदे के मुताबिक़ जो उसने इब्राहिम, इज़्हाक़ और याक़ूब से किया था बनी-इस्राईल में नबुव्वत और किताब देकर उस को “मुसावी क़ौमों की बरकात का बाइस” बना दिया। किताब मुक़द्दस में बार-बार आया है कि क़ौम बनी-इस्राईल को ख़ुदा ने अक़्वाम-ए-आलम (दुनिया की क़ौमों) में चुन लिया ताकि उस के ज़रीये अपनी नजात का नूर दुनिया जहान की अक़्वाम में फैलाए। (ज़बूर 125:4, इस्तिस्ना 7:6, मलाकी 3:17 वग़ैरह) अहले-यहूद की रोज़ाना दुआ में ये फ़िक़्रह आता है, “ऐ ख़ुदावंद हमारे ख़ुदा कुल कायनात के बादशाह। तू मुबारक है कि तूने हमको अक़्वाम आलम (दुनिया की क़ौमों) में से चुन लिया है।” हम इस मौज़ू पर एक मुस्तक़िल रिसाला “इस्राईल का नबी या जहान का मुनज्जी?” लिखे चुके हैं और नाज़रीन की तवज्जोह इस की तरफ़ मबज़ूल करने पर इक्तिफ़ा करते हैं।
इस क़ुरआनी आयत में निहायत साफ़ अल्फ़ाज़ में ख़ुदा ने इस्माईल और बनी-इस्माईल को ख़ारिज करके सिर्फ बनी-इस्राईल को ही तमाम अक़्वाम आलम (जिनमें क़ौम बनी-इस्माईल भी शामिल है) पर फ़ज़ीलत बख़्शी है और सिर्फ इसी में नबुव्वत और किताब वदीअत फ़रमाई है। अगर ख़ुदा अलीम व हकीम ने (बक़ौल अहले-इस्लाम) बनी-इस्माईल को सय्यद-उल-अम्बिया और हबीब-ए-ख़ास के बरपा होने के लिए मख़्सूस किया होता तो लाज़िमी तौर पर बनी-इस्माईल, बनी-इस्राईल से अफ़्ज़ल होते और ख़ुदा ने हज़रत इस्माईल की ज़ुर्रियत में नबुव्वत और किताब देकर उस को दुनिया जहां की अक़्वाम (दुनिया की सारी क़ौमों) पर फ़ज़ीलत बख़्शी होती।
आठवीं आयत में भी वज़ाहत के साथ क़ुरआन शरीफ़ इस “फ़ज़ीलत और फ़ौक़ियत” की तख़्सीस करके कहता है, “हमने बनी-इस्राईल को किताब और हुकूमत और नबुव्वत अता फ़रमाकर उनको तमाम जहान पर फ़ज़ीलत और फ़ौक़ियत बख़्शी।” ये आयत निहायत मुहकम तौर पर साबित करती है कि मज़्कूर बाला तमाम आयात और बिल-ख़ुसूस छठी आयत में इब्राहिम की जिस नस्ल में किताब और नबुव्वत रखी गई वो बनी-इस्राईल और सिर्फ बनी-इस्राईल ही थी। हज़रत इस्माईल और बनी-इस्माईल किताब और नबुव्वत से ख़ारिज हैं। और ना उनको तमाम जहान पर फ़ज़ीलत और फ़ौक़ियत हासिल है।
नाज़रीन को याद होगा कि ख़ुदा ने हज़रत इब्राहिम से ये वाअदा किया था कि “बेशक तेरी बीवी सारा के तुझसे बेटा होगा तो उस का नाम इज़्हाक़ रखना और मैं उस से और फिर उस की औलाद से अपना अहद जो अबदी है बाँधूंगा, मैं उसे बहुत बरूमंद करूँगा। कौमें उस की नस्ल से होंगी और आलम के बादशाह इस से पैदा होंगे।” (पैदाइश 17:16 ता 19) पस ये क़ुरआनी आयत कि “बनी-इस्राईल को किताब और हुकूमत और नबुव्वत अता हुई” तौरात शरीफ़ की लफ़्ज़ बलफ़्ज़ तस्दीक़ करती है।
तारीख़ मज़ाहिब भी इस सदाक़त की ताईद करती है कि जब से बनी-इस्माईल और बनी-इस्राईल अलग हुए यानी सन हिज्री से दो हज़ार (2000) साल पहले से कोई नबी आल-ए-इस्माईल से बरपा नहीं हुआ। इस तवील अर्से में सिर्फ बनी-इस्राईल ही में अम्बिया-अल्लाह का सिलसिला क़ायम व बरकरार रहा। पस तारीख़ दुनिया भी यही बतलाती है कि किताब और नबुव्वत सिर्फ़ बनी-इस्राईल को ही दी गई और हर दो उमूर में इस क़ौम को अक़्वाम-ए-आलम (दुनिया की सारी क़ौमों) पर फ़ज़ीलत और फ़ौक़ियत (बुलंद मर्तबा) हासिल है।
हमने फ़स्ल में चंद क़ुरआनी आयात पर मुफ़स्सिल तब्सिरा किया है जिनमें हज़रत इब्राहिम, हज़रत इज़्हाक़ और हज़रत याक़ूब की नबुव्वत का ज़िक्र है। और साबित कर दिया है कि इन आयात में हज़रत इस्माईल और आल-ए-इस्माईल को इब्राहीमी वाअदे और नबुव्वत की बरकत-ए-उज़्मा से ख़ारिज (अलग) किया गया है। और वाज़ेह किया गया है कि ख़ुदा ने इब्राहिम और उन के बाद इज़्हाक़ और उन के बाद याक़ूब और बनी-याक़ूब (बनी-इस्राईल) ही में अम्बिया का सिलसिला जारी रखा गया और सिर्फ उन्ही को अल-किताब (الکتاب) दी गई जो ख़ुदा का सच्चा कलाम है। (सूरह इमरान रुकूअ 1, तौबा रुकूअ 14 वग़ैरह)
बाब शश्म
ज़बीह-उल्लाह, इज़्हाक़ या इस्माईल
तौरात व क़ुरआन के बयानात
तौरात शरीफ़ निहायत वाज़ेह अल्फ़ाज़ में हज़रत इस्हाक़ को ज़बीह-उल्लाह बतलाती है चुनान्चे लिखा है :-
इन बातों के बाद यूं हुआ कि ख़ुदा ने अब्राहाम को आज़माया और उस से कहा ऐ अब्राहाम, उसने जवाब दिया में हाज़िर हूँ। तब ख़ुदा ने कहा कि, तू अपने बेटे इज़्हाक़ को जो तेरा इकलौता है और जिसे तू प्यार करता है साथ लेकर मौरय्या के मुल्क में जा और वहां उसे पहाड़ों में से एक पहाड़ जो मैं तुझे बताऊं गा सोख़्तनी क़ुर्बानी के तौर पर चढ़ा। तब अब्राहाम ने सुब्ह-सवेरे उठकर अपने गधे पर चार जामा कसा और अपने साथ दो जवानों और अपने बेटे इज़्हाक़ को लिया और सोख़्तनी क़ुर्बानी के लिए लकड़ियाँ चीरीं और उठकर उस जगह को जो ख़ुदा ने उसे बताई थी रवाना हुए। तीसरे दिन अब्राहाम ने निगाह की और उस जगह को दूर से देखा। तब अब्राहाम ने अपने जवानों से कहा तुम यहीं गधे के पास ठहरो। मैं और यह लड़का दोनों ज़रा वहां तक जाते हैं और सज्दा करके फिर तुम्हारे पास लौट आएँगे। अब्राहाम ने सोख़्तनी क़ुर्बानी की लकड़ियाँ लेकर अपने बेटे इज़्हाक़ पर रखीं और आग और छुरी अपने हाथ में ली और दोनों इकट्ठे रवाना हुए और उस जगह पहुंचे जो ख़ुदा ने बताई थी। वहां अब्राहाम ने क़ुर्बानगाह बनाई और उस पर लकड़ियाँ चुनीं और अपने बेटे इज़्हाक़ को बाँधा और उसे क़ुर्बानगाह पर लकड़ीयों के ऊपर रखा। अब्राहाम ने हाथ बढ़ा कर छुरी ली कि अपने बेटे को ज़ब्ह करे तब ख़ुदावंद के फ़रिश्ते ने उसे आस्मान से पुकारा और कहा, कि तू अपना हाथ लड़के पर ना चला और ना इस से कुछ कर, क्योंकि मैं अब जान गया कि तू ख़ुदा से डरता है इसलिए कि तूने अपने बेटे को भी जो तेरा इकलौता है दरेग़ ना किया। चूँकि तूने ये काम किया कि अपने बेटे को भी जो तेरा इकलौता है दरेग़ ना रखा, इसलिए मैंने भी अपनी ज़ात की क़सम खाई है कि मैं तुझे बरकत पर बरकत दूँगा और तेरी नस्ल को बढ़ाते-बढ़ाते आस्मान के तारों और समुंद्र के किनारे की रेत की मानिंद कर दूँगा। और तेरी नस्ल के वसीले से ज़मीन की सब कौमें बरकत पाएँगी क्योंकि तूने मेरी बात मानी। तब अब्राहाम अपने जवानों के पास लौट गया।” (पैदाइश 22 बाब)
क़ुरआन शरीफ़ में (सूरह साफ़्फ़ात के रुकूअ 3) में क़ुर्बानी की निस्बत यूं लिखा है,
हज़रत इब्राहिम ने ख़ुदा से दुआ की “ऐ रब मुझको कोई नेक बेटा बख़्श। फिर हमने उस को एक ऐसे नेक बेटे की ख़ुशख़बरी दी जो तहम्मुल वाला होगा। जब वो इस (बाप) के साथ दौड़ने को पहुंचा तो (बाप) ने कहा, ऐ बेटे मैं ख्व़ाब में देखता हूँ कि तुझको ज़ब्ह करता हूँ, फिर देख कि तू क्या देखता है, वो बोला ऐ बाप जो तुझको हुक्म हुआ है वो कर डाल। अल्लाह ने चाहा तो मुझको सहारने वाला पाएगा। फिर जब दोनों ने हुक्म माना और उस के माथे के बल पछाड़ा, तो हमने उस को पुकार कर ये कहा, कि ऐ इब्राहिम तूने ख्व़ाब को सच्च कर दिखलाया। हम नेकी करने वालों को बदला दिया करते हैं। बेशक ये तेरी सरीह आज़माईश है। और हमने पिछले ख़ल्क़ में ये बाक़ी रखा कि सलाम है इब्राहिम पर, हम नेकी करने वालों को यूं बदला देते हैं। वो हमारे ईमानदार बंदों में है और हम ने उस की ख़ुशख़बरी दी कि इज़्हाक़ नेक बख़्तों में नबी होगा। और हम ने इब्राहिम पर बरकत दी और इज़्हाक़ पर (भी बरकत दी) और दोनों की औलाद में नेकी करने वाले हैं और अपने हक़ में सरीह बदकार भी हैं।” (आयात 98 ता 113)
नाज़रीन ने मुलाहिज़ा किया होगा कि क़ुरआन का बयान हर बात में तौरात शरीफ़ की मज़्कूर बाला आयात की तस्दीक़ करता है। लेकिन चूँकि इस बयान के शुरू में इज़्हाक़ का नाम नहीं है। लिहाज़ा बाअज़ मुस्लिम मुनाज़िरीन कहते हैं कि यहां क़ुरआन मजीद का मतलब हज़रत इस्माईल से है और ये नहीं देखते कि अगर क़ुरआनी बयान तौरेत के मुताबिक़ नहीं है तो उसी का नुक़्सान है क्योंकि तौरात शरीफ़ की तारीख़ क़ुरआन मजीद से क़दीम-तर है। पस उस के मुक़ाबिल क़ुरआन के सुख़न (कलाम, शेअर, बात) को अज़रूए क़वानीन शहादत किसी तरह भी वक़अत हासिल नहीं हो सकती।
इज़्हाक़ ज़बीह-उल्लाह अज़रूए क़ुरआन
हमारे मुख़ातबों को ये बात मद्दे-नज़र रखनी चाहिए कि क़ुरआन किसी मुक़ाम में भी हज़रत इस्माईल का नाम लेकर ये नहीं कहता कि वो क़ुर्बान होने वाले थे। अगर फ़ील-वाक़िया हज़रत इस्माईल अज़रूए क़ुरआन ज़बीह-उल्लाह होते तो क़ुरआन उनका नाम ज़रूर लेता, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इस की वजह साफ़ ज़ाहिर है, क़ुरआन ने ज़बीह-उल्लाह के नाम की तख़्सीस (महफ़ूज़ करना, ख़ुसूसीयत, हक़ मख़्सूस) इस वास्ते नहीं की क्योंकि जुम्ला यहूद व नसारा तौरात शरीफ़ की बिना पर ये जानते और मानते थे कि हज़रत इज़्हाक़ ही ज़बीह-उल्लाह हैं। इस माअहूद ज़हनी की वजह से क़ुरआन मजीद को नाम लेने की ज़रूरत ही लाहक़ ना हुई। बिलख़ुसूस जब हम ये देखते हैं कि क़ुरआन बार-बार मुसद्दिक़-ए-तौरात (तौरात के सच्चे) होने का दाअवा करता है और इस ख़ास अम्र में उस के बयान की ज़रूर बज़रूर इब्ने इब्राहिम का नाम लेकर यहूद व नसारा को कहता है कि, ऐ अहले-किताब तुमने और तुम्हारी तौरात ने ज़बीह-उल्लाह के मुआमले में ग़लती खाई है, मैं तुमको बतलाता हूँ कि तुम्हारे जद्दे-अमजद इज़्हाक़ ज़बीह-उल्लाह नहीं थे बल्कि वो मेरे फ़रिस्तादा रसूल के जद्दे-अमजद इस्माईल थे। लेकिन क़ुरआन ये नहीं कहता जिससे ज़ाहिर है कि उस को इस मुआमले में तौरात से इख़्तिलाफ़ ना था। पस चंद मुफ़स्सिरीन की राय सहफ़-ए-समावी (आस्मानी सहाइफ़) के मुत्तफ़िक़ा बयानात के मुक़ाबिल कुछ वक़अत नहीं रख सकती।
मुफ़स्सिरीन की दलील
क़ुरआन के बयान का सतही मुतालआ भी ये ज़ाहिर कर देता है कि इस में और तौरात के बयान में कोई इख़्तिलाफ़ नहीं, लेकिन ये चंद मुफ़स्सिरीन गुमान करते हैं कि इस बयान की आख़िरी आयत “और हम ने उस को इज़्हाक़ की ख़ुशख़बरी दी जो नेक बख़्तों में नबी होगा” हज़रत इज़्हाक़ की पैदाइश की ख़बर है। जो क़ुर्बानी गुज़राँने के बाद मिली। पस उन मुफ़स्सिरों की राय में क़ुर्बानी हज़रत इज़्हाक़ की विलादत से पहले वाक़ेअ हुई और इस्माईल क़ुर्बान होने वाले थे क्योंकि वो इज़्हाक़ से पहले थे।
लेकिन ये क़ियास बिल्कुल बातिल है क्योंकि अव्वल तो क़ुरआनी बयान ही से ये मालूम हो जाता है कि इस बशारत के वक़्त इज़्हाक़ मौजूद थे और दोम तौरात और क़ुरआन दोनों में साफ़ पाया जाता है कि इब्राहिम को विलादत इज़्हाक़ की ख़ुशख़बरी क़ुर्बानी के बाद नहीं मिली थी बल्कि उम्मत लूत की हलाकत के क़ब्ल मिली थी। (पैदाइश 18 बाब) क़ुरआन में भी ये क़िस्सा (सूरह हूद और हिज्र और ज़ारियात) में मर्क़ूम है कि फ़रिश्ते क़ौम लूत को हलाक करने जाते थे। असना-ए-राह में उन्होंने इब्राहिम की मेहमानी क़ुबूल की और कहा, “हम तुझको एक होशियार लड़के की ख़ुशख़बरी देते हैं।” जब उसने और उस की बीवी ने अपनी ज़ईफ़ी का ख़याल करके यक़ीन ना किया और बहुत मुतअज्जिब (हैरान) हुए तो फ़रिश्ते ने दोनों का इत्मीनान किया। (हिज्र रुकूअ 3, ज़ारियात रुकूअ 2) पस उन मुफ़स्सिरीन का ये ख़याल कि विलादत-ए-इज़्हाक़ की ख़बर क़ुर्बानी के बाद दी गई तौरात व क़ुरआन के मुत्तफ़िक़ा बयान के ख़िलाफ़ है और बातिल है। ये ख़ुशख़बरी तो उनको मुद्दतों पहले मिल चुकी थी।
क़ुरआनी बयान से इस्तिदलाल
(सूरह साफ़्फ़ात) के बयान से निहायत वाज़ेह तौर पर साबित होता है कि इज़्हाक़ ज़बीह-उल्लाह थे :-
- ज़बीह-उल्लाह वही थे जो हज़रत इब्राहिम के फ़र्ज़न्द मौऊद थे। इस फ़र्ज़न्द की तव्वुलुद (पैदाइश) की बशारत उनके दुआ के जवाब में उनको दी गई। क़ुरआन में तव्वुलुद-ए-इज़्हाक़ का वाअदा साफ़ और वाज़ेह अल्फ़ाज़ में मौजूद है। मगर क़ुरआन के किसी मुक़ाम में भी तव्वुलुद-ए-इस्माईल की कोई बशारत नहीं पाई जाती। हज़रत इब्राहिम ने इसी फ़र्ज़न्द को नज़र किया था जिसकी बशारत उनको दी गई थी। पस ये फ़र्ज़न्द हज़रत इस्माईल नहीं थे, बल्कि हज़रत इस्हाक़ थे।
- (2) जब हज़रत इब्राहिम ने दुआ की कि, “ऐ रब मुझको कोई नेक बेटा बख़्श” (जिसको बाअदा (इस के बाद) क़ुरआन के मुताबिक़ उन्होंने नज़र गुज़राना) तो वो ज़रूर अपनी हक़ीक़ी बीबी सारा के बतन से कोई बेटा चाहते थे क्योंकि यूं तो उनके कई बेटे थे। एक हाजिरा से छः (6) कतूरह से थे मगर ये सब हरमों के बतन से थे जिनको वो मर्तबा हासिल नहीं हो सकता जो इज़्हाक़ को हासिल था।
हज़रत इब्राहिम ने सारा के बतन से बेटा हासिल करने के लिए दुआ की क्योंकि यहूद में औरत के रहम का बंद होना, रुस्वाई और ख़ुदा की नाराज़गी का मूजिब समझा जाता था और जिस औरत के हाँ फ़र्ज़न्द नरीना (लड़का) ना होता वो बेतरह कुढ़हा करती थी। (1 समुएल 1:5, 6, पैदाइश 30:23, ज़बूर 113:9, लूक़ा 1:25 वग़ैरह) हज़रत इब्राहिम दिल से चाहते थे कि उनकी बीवी की ये रुस्वाई दूर हो। पस उन्होंने दुआ की जो ख़ुदा ने मंज़ूर फ़रमाई और उन को एक होशियार तहम्मुल वाले बेटे की पैदाइश की ख़ुशख़बरी दी। - जब हज़रत इब्राहिम ने अपने बेटे से अपने ख्व़ाब का ज़िक्र किया तो उसने बड़ी ख़ुशी से अपनी जान को ख़ुदा की राह में निसार करने पर मुस्तअद्दी ज़ाहिर की और कहा, “ऐ बाप जो तुझको हुक्म हुआ है कर डाल।” मुफ़स्सिरीन ने इस पर तालमूदी क़िस्सों से इज़ाफ़ा किया है कि उसने अपने बाप से ये भी कहा कि तू मेरे हाथ पैर बांध दे ऐसा ना हो कि वक़्त-ए-ज़ब्ह मेरे तड़पने से तेरे कपड़े ख़ून से भर जाएं। और तू मुझको पट गिरा दे ताकि मेरा चेहरा देखकर तुझ पर महर पिदरी (बाप की शफ़क़त) ग़ालिब ना हो। और क़ुर्बानी के बाद मेरा पैराहन मेरी माँ को दे देना ताकि उस की तश्फ़ी हो जाए। अगर ये सब क़िस्से सही और दुरुस्त हैं तो इस बयान में फ़र्ज़ंद-ए-मौऊद यानी इज़्हाक़ के औसाफ़ नुमायां हैं। क्योंकि ये सब बातें निहायत दानाई और होशियारी की बातें हैं जिससे ज़ाहिर है कि ये ज़बीह-उल्लाह ही होशियार लड़का है जिसकी विलादत की ख़बर दी गई थी।
इलावा अज़ीं एक और सिफ़त भी ज़बीह-उल्लाह की बतलाई गई है कि वो “तहम्मुल (सब्र) वाला होगा” और यही सिफ़त इज़्हाक़ में मिलती है। हज़रत इस्माईल तो गोरख़र की तरह आज़ाद मर्द थे जिनका हाथ सब के ख़िलाफ़ और सब के हाथ उनके ख़िलाफ़ थे। पस ये ज़बीह-उल्लाह इज़्हाक़ ही थे जो नेक भी थे “होशियार” भी थे “तहम्मुल वाले” भी थे और इन तमाम औसाफ़ का ब-वक़्त क़ुर्बानी इज़्हार हो गया। हज़रत इस्माईल के तहम्मुल वाले होशियार होने की ख़बर किसी मुक़ाम में भी हज़रत इब्राहिम को नहीं दी गई। - क़ुरआनी बयान में है कि, “जब वो उस के साथ दौड़ने को पहुंचा” ये आयत इस बात की मतक़ज़ी (तक़ाज़ा करने वाली) है कि ज़बीह-उल्लाह से वही इब्ने इब्राहिम मुराद हो जो उस के साथ दौड़ने की उम्र को पहुंचा। और यह वही बेटा है जो उस को मुल्क-ए-शाम में हासिल हुआ था। हज़रत इस्माईल तो इस से बहुत पहले हाजिरा के साथ घर से निकाल दीए गए थे और वो फ़ारान के ब्याबान में रहते थे। (पैदाइश 21 बाब) पस इज़्हाक़ ही नज़्र (क़ुर्बानी के लिए) गुज़राने गए थे।
- अगरचे हज़रत इब्राहिम हुक्म-ए-ख़ुदा के मुताबिक़ बेटे को नज़्र (क़ुर्बान) करने पर मुस्तइद हुए मगर उनके बेटे ने उनसे भी ज़्यादा जाँनिसारी दिखलाई कि राह-ए-ख़ुदा में ज़ब्ह होने से मुतलक़ मलाल (अफ़्सोस) ना किया। पस क़ुरआन में इन दोनों के इस बेनज़ीर काम का सिला मिलता है। इब्राहिम से तो क़ुर्बानी के बाद कहा गया “हमने पिछले ख़ल्क़ में बाक़ी रखा कि सलाम है इब्राहिम पर, हम नेकी करने वालों को यूं बदला देते हैं और वो हमारे ईमानदार बंदों में है।” ये सिला (बदला,अज्र) इब्राहिम को मिला। अब ज़बीह-उल्लाह को इस की लासानी फ़रमांबर्दारी का क्या अज्र मिला? अगर ये ज़बीह-उल्लाह इस्माईल थे तो इस को मुतलक़ कोई सिला (अज्र, बदला) नहीं मिला। इस्माईल की कोई तारीफ़ नहीं की गई बल्कि उस के नाम तक का ज़िक्र नहीं किया गया हालाँकि लिखा है कि इब्राहिम और ज़बीह-उल्लाह “दोनों ने हुक्म माना।” बल्कि हक़ तो ये है कि ज़बीह-उल्लाह ने इब्राहिम से बढ़-चढ़ कर हुक्म माना। इब्राहिम तो क़ुर्बान करने को आमादा हुए लेकिन वो बखु़शी तमाम क़ुर्बान होने का ख़्वाहिशमंद हो गया और कहा, “ऐ बाप जो तुझको हुक्म हुआ है वो कर डाल।” और आख़िरी वक़्त तक बकौल मुफ़स्सिरीन क़ुरआन बाप की तसल्ली और तश्फ़ी करता रहा। अगर ये ज़बीह-उल्लाह इस्माईल थे तो उनको किसी क़िस्म का अज्र नहीं मिला। लेकिन क़ुरआनी बयान के मुताबिक़ इब्राहिम और ज़बीह-उल्लाह दोनों को अज्र मिला। पस ये ज़बीह-उल्लाह इस्माईल नहीं थे बल्कि इज़्हाक़ थे जिनके हक़ में दूसरा अज्र लिखा मौजूद है। चुनान्चे कहा गया, “हमने उस को इज़्हाक़ की बाबत ख़ुशख़बरी दी कि वो नबी होगा नेक बख़्तों में और हम ने इब्राहिम पर और इज़्हाक़ पर बरकत दी।” पस इब्राहिम को एक इनाम मिला और इज़्हाक़ ज़बीह-उल्लाह को इनाम-ए-नबुव्वत अता हुआ और इस के इलावा इब्राहिम और इज़्हाक़ को फ़रमांबर्दारी के सिले (बदले) में बरकत मिली। और यह ऐन तौरात शरीफ़ के मुताबिक़ है जहां लिखा है, “ऐ इब्राहिम ! चूँकि तूने अपने बेटे को भी जो तेरा इकलौता है मुझसे दरेग़ ना किया मैं तुझे बरकत पर बरकत दूँगा। और तेरी नस्ल के वसीले से जो इज़्हाक़ से कहलाएगी ज़मीन की सब कौमें बरकत पाएँगी क्योंकि तूने मेरी बात मानी।” (पैदाइश 22:16 ता 17, 21:12)
- हज़रत इज़्हाक़ में ज़बीह-उल्लाह की एक और सिफ़त पाई जाती है हज़रत इब्राहिम ने ये दुआ की थी। رب ھب لی من الصلحین (ऐ रब मुझे कोई नेक बेटा अता फ़र्मा) इस दुआ के जवाब में उनको फ़र्ज़न्द अता हुआ जिसे उन्होंने बाइदें नज़्र (क़ुर्बानी) गुज़राना। क़ुर्बानी के बाद इज़्हाक़ की यही सिफ़त क़ुरआन में बयान हुई है, نبیاًمن الصلحین वो “नबी होगा नेकों में।” और ये सरीह मुताबिक़त है जिससे इज़्हाक़ का ज़बीह-उल्लाह होना पूरे तौर पर साबित है। जो इज़्हाक़ के औसाफ़ हैं वही ज़बीह-उल्लाह के औसाफ़ हैं। चुनान्चे इज़्हाक़ को होशियार और तहम्मुल वाला लड़का कहा और हम ऊपर बतला चुके हैं कि ज़बीह-उल्लाह के भी यही औसाफ़ हैं। ज़बीह-उल्लाह को من الصلحین (मिनस्सालिहीन, नेको में से) कहा। इज़्हाक़ मिनस्सा-सालिहीन (नेकों में से) है। इब्राहिम और ज़बीह-उल्लाह दोनों की बाबत लिखा है कि, “दोनों ने हुक्म माना।” और क़ुर्बानी के बाद दोनों को सिला (बदला) मिलता है और दोनों को एक साथ याद करके कहा, “हमने इब्राहिम पर और इज़्हाक़ पर बरकत दी।”
- और अम्र गौरतलब है। क़ुरआन क़ुर्बानी के बाद इब्राहिम को कहता है कि “बेशक ये तेरी सरीह आज़माईश है।” तौरात भी कहती है कि “ख़ुदा ने इब्राहिम को आज़माया।” (पैदाइश 22:1) अगर ये क़ुर्बानी इज़्हाक़ की थी तो ये “बेशक सरीह आज़माईश” थी वर्ना नहीं। क्योंकि इज़्हाक़ हज़रत इब्राहिम और बीबी सारा का “इकलौता बेटा था, जिसे वो प्यार करता था।” (पैदाइश 22:2) जब वो दोनों ज़ईफ़ हो गए थे जिस उम्र में औलाद की उम्मीद नहीं की जा सकती थी उस वक़्त नाउम्मीदी की हालत में वो पैदा हुआ था और अभी जवान भी ना होने पाया था कि उस की क़ुर्बानी का हुक्म हुआ जिसकी निस्बत खुदा ने फ़रमाया था कि “इब्राहिम की नस्ल इस से चलेगी और वो और उस की नस्ल अर्ज़-ए-मुक़द्दस के वारिस होंगे और ज़मीन की सब कौमें उस के वसीले से बरकत पाएँगी।” अब ऐसे लख़्त-ए-जिगर को अपने हाथों ज़ब्ह करना और अपने हाथों शजर-ए-उम्मीद की जड़ काटना “बेशक ये सरीह आज़माईश” थी। हरम के बेटे इस्माईल को क़ुर्बान करना जिसकी ज़ात से ना कोई वाअदा और ना कोई उम्मीद वाबस्ता थी “सरीह आज़माईश” नहीं हो सकती थी। इज़्हाक़ जैसे वाअदे के फ़र्ज़न्द को (पैदाइश 15 बाब, 17 बाब) क़ुर्बान करने के लिए तैयार हो जाने की वजह से वो ईमान की राह से रास्त बाज़ ठहरा (रोमीयों 4:13) बक़ौल मुसन्निफ़ ख़त-ए-इब्रानियों “इस तरह सब्र करके उसने वाअदा की हुई चीज़ को हासिल किया।” (इब्रानियों 6:13) “उस को कामिल एतिक़ाद था कि ख़ुदा ने जो कुछ वाअदा किया है वो उसे पूरा करने पर भी क़ादिर है।” (रोमीयों 4:21) और इस “सरीह आज़माईश” में कामयाब निकल कर वो “ईमानदारों का बाप” हुआ। (रोमीयों 4:11)
हमने क़ुरआन से साबित कर दिया है कि हज़रत इज़्हाक़ ही नज़्र (क़ुर्बानी) गुज़राने गए थे अगर कोई मौलवी साहब क़ुरआन से इस क़िस्म के दलाईल इस्माईल के ज़बीह-उल्लाह होने के पेश कर सकते हैं तो हम बखु़शी उनको सुनेंगे और उन पर ग़ौर करेंगे।
अहादीस से इस्तिदलाल
बाअज़ मुफ़स्सिरीन ने दो हदीसों से इस्तिदलाल किया है कि हज़रत इस्माईल ज़बीह-उल्लाह थे लेकिन ये ज़ाहिर है कि अगर कोई हदीस क़ुरआन के मुख़ालिफ़ हो तो वो झूटी है ख़्वाह उस का रावी कोई हो। पस अगर किसी हदीस में ये लिखा है कि हज़रत इस्माईल ज़बीह-उल्लाह थे तो इस सही उसूल के मुताबिक़ वो हदीस सिरे से ग़लत है और क़ाबिल-ए-क़ुबूल नहीं हो सकती।
ये दो हदीसें हस्बे-ज़ेल हैं, (1) एक में लिखा है कि रसूल-अल्लाह ने फ़रमाया कि मैं इब्ने-ज़बीहीन (ابن ذبیحین) हूँ। (2) दूसरी हदीस में आया है कि एक आराबी ने आँहज़रत को ये कह कर पुकारा कि, ऐ इब्ने-ज़बेहीन” (ابن ذبیحین) आप इस ख़िताब पर मुस्कुरा दीए। जब आराबी से पूछा गया तो उस ने बतलाया कि जब अब्दुल मुत्तलिब ने चाह-ए-ज़मज़म खोदा तो उसने नज़्र मानी कि अगर ये काम उस के लिए आसान हो जाए तो वो अपने एक बेटे को क़ुर्बान कर देगा। क़ुरआ अब्दुल्लाह के नाम निकला मगर उस के मामूं ने उस को इस बात से मना किया और सलाह दी कि अपने बेटे के एवज़ एक सौ (100) ऊंट क़ुर्बान कर दे। पस उसने एक सौ (100) ऊंट क़ुर्बान कर दिए। पस एक ज़बीह हज़रत इस्माईल है और दूसरा हज़रत का बाप अब्दुल्लाह है।”
ज़ाहिर है कि ये बातें अरबाब-ए-सैर (सीरत लिखने वालों) की कहानियां हैं जो अम्र वाक़िआ नहीं हैं लिहाज़ा वो एक मुहक़्क़िक़ की नज़रों में वक़अत नहीं रखतीं जभी सर सय्यद मरहूम फ़र्माते हैं :-
“इब्ने अल-ज़बीहीन की रिवायत निहायत ग़लत है। इस्माईल कभी क़ुर्बान नहीं हुए।” (ख़ुत्बात सफ़ा 55)
उलमा-ए-इस्लाम और ज़बीह-उल्लाह
रोज़तुल-अहबाब में लिखा है :-
’’اختلاف است علماء را کہ ذبیح الله اسماعیل بود یا اضحاق۔ قاضي بیضاوی در تفسیر خویش وامام نوادی درکتاب تہدیب الاسماء اللغات وغيرہما آوردہ اندکہ اکثر برآنند کہ اسماعیل بودہ ۔ وجمعے کثیر برآنند کہ اضحاق بودہ۔ دلیل ایشاں ایں است کہ حق تعالیٰ در قرآن مجید میفر مائید۔ فبشرہ ناہ بغلام حلیم فلما بلغ معہ السعی قال یا بنی انی اری فی المنام انی اذبحک فاظر ماذا اتری۔ چہ ظاہر آیہ دلالت میکند ہر آنکہ آں پسر کہ ابراہیم با اومبشر شدہ اوست کہ درخواب مامور گشتہ مذبح او۔ ودرقرآن ہیچ جانیست کہ کسے مبشر شدہ باشد بغیر از اضحاق ۔ ہچمنانکہ درسورہ ہود فبشر ناھا یا باسحاق ودرسورہ صافات میفر مائدہ وبشر ناہ باسحاق نبیاً من الصلحین ۔ وہ دیگر حدیث درزکہ نسبت یوسف وارد شدہ کہ یوسف بنی الله ابن یعقوب اسرائيل الله بن اضحاق ذبیح الله‘‘۔
नाज़रीन पर वाज़ेह हो गया होगा कि ये हदीस जिसका साहिब-ए-रोज़तुल-अहबाब ज़िक्र करता है क़ुरआन और सहफ़-ए-समावी (आस्मानी सहिफों) के मुताबिक़ है। लिहाज़ा ये हदीस सच्ची है और एक मुहक़्क़िक़ की नज़रों में मज़्कूर बाला मेयार के मुताबिक़ क़ाबिल-ए-वक़अत है। इस के बरअक्स “इब्ने ज़बीहीन” की दोनों हदीसें सहफ़-ए-समावी के ख़िलाफ़ बयान करती हैं पस वो रिवायत झूटी और मौज़ूआ (झूटी) हैं।
जो अस्हाब इन दो हदीसों की बिना पर इस्माईल को ज़बीह-उल्लाह मानते हैं उनमें इब्ने अब्बास, इब्ने उमर, सईद बिन मुसेद, हसन, शबई, मुजाहिद और कलबी शामिल हैं। अब ज़रा हज़रत इज़्हाक़ को ज़बीह-उल्लाह मानने वालों के नाम मुलाहिज़ा हों। उनमें हज़रत उमर, हज़रत अली, हज़रत अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब, हज़रत इब्ने मसऊद, हज़रत कअब, हज़रत अहबार और क़तादा और सईद बिन ख़बीर, मस्रूक़, इक्रमा, ज़हरी सदी ओ मुक़ातिल जैसे हज़रात ज़ीशान और अकाबिर इस्लाम शामिल हैं। वो ना सिर्फ आँहज़रत के मुकर्रम सहाबियों में से हैं बल्कि क़ुरआन के हाफ़िज़ और हुस्न राय, इल्म और नेकी के लिए दुनिया-ए-इस्लाम में मशहूर और मुम्ताज़ हैं। कौन ज़ी-होश शख़्स इब्ने अब्बास और इब्ने उमर की राय को हज़रत अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब और हज़रत उमर पर तर्जीह देगा? बिलख़ुसूस जब सहफ़-ए-समावी (आस्मानी सहाईफ़) इनकी ताईद करती हैं? अगर इब्ने-अल-ज़बीहीन की हदीस सही होती तो क्या इस की हक़ीक़त आँहज़रत के चचा अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब और चचाज़ाद भाई अली और आँहज़रत के ख़ुसर से पोशीदा होती?
सर सय्यद मरहूम भी तस्लीम करते हैं कि ज़ी इल्म मुसलमान आलिमों का साफ़ बयान है कि हज़रत इज़्हाक़ की निस्बत क़ुर्बानी का हुक्म हुआ था ना कि हज़रत इस्माईल की निस्बत और यही अम्र मुन्दरिजा ज़ैल हदीस में भी पाया जाता है :-
عند محمد ابن المنتشر قال ان رجلا نذر ان یخر نفسہ ۔۔۔۔۔۔ (فقال لہ مسروق لا تخر ۔۔۔ واشتر کبشا فاذبہ للمسا کین فان اسحاق خیر منک وفدی بکش
(रावी इब्ने ज़रीन मिश्कात) इस हदीस में मस्रूक़ का क़ौल साफ़ है कि “हज़रत इज़्हाक़ क़ुर्बान होने वाले थे।” (ख़ुत्बात सफ़ा 135)
पस क़ुरआन मजीद, सहीह अहादीस, सहाबा रसूल और ज़ी-इल्म मुसलमान सब के सब तौरात मुक़द्दस के बयान की ताईद और तस्दीक़ करते हैं कि हज़रत इब्राहिम ने हज़रत इस्हाक़ को ही नज़्र (क़ुर्बान) गुज़राना था।
बाब हफ़्तुम
बीबी हाजिरा कनीज़क-ए-हज़रत सारा
चूँकि मौलवी साहब ने बनी-इस्माईल को बरकत-ए-नबुव्वत का मुस्तहिक़ समझा और फिर हज़रत इस्माईल को नबी गिरदाना पस उनको ताज़ीमन इस्माईल की माँ बीबी हाजिरा के लौंडी होने से भी इन्कार करना पड़ा है। हमारे मुख़ातब को ये ख़याल ना आया कि ये अम्र ज़रूरी नहीं कि किसी नबी की माँ आज़ाद ही हो और लोंडी ना हो। यहूदीयों और मसीहीयों के नज़्दीक गो बीबी हाजिरा लौंडी थीं लेकिन वो कनीज़क होने के बावजूद बरकत वाली थीं। लौंडी ग़ुलाम होना फ़ीनफ्सिही किसी की ज़ाती तहक़ीर नहीं कर सकता। क्योंकि ये ज़ाहिरी और आरिज़ी उमूर हैं जिनका ताल्लुक़ किसी इन्सान की हक़ीक़ी रूहानियत और बातिनी शराफ़त से नहीं होता।
तौरात शरीफ़ का बयान
मगर हक़ीक़त में वाक़िया यही है कि बीबी हाजिरा हज़रत इब्राहिम की बीवी सारा की लौंडी थीं। चुनान्चे तौरात शरीफ़ में लिखा है “ख़ुदावंद का कलाम रोया (कश्फ़) में इब्राहिम पर नाज़िल हुआ और उस ने फ़रमाया, ऐ अब्राम तू मत डर में तेरी सिपर और तेरा बहुत बड़ा अज्र हूँ। अब्राम ने कहा, ऐ ख़ुदावंद ख़ुदा तू मुझे क्या देगा क्योंकि मैं तो बेऔलाद हो जाता हूँ?...... और अब्राम की बीवी सारा के कोई औलाद ना हुई। उस की एक मिस्री लौंडी थी जिस का नाम हाजिरा था और सारा ने अब्राम से कहा देख ख़ुदावंद ने मुझे तो औलाद से महरूम रखा है। सो तू मेरी लौंडी के पास जा शायद उस से मेरा घर आबाद हो। अब्राम ने सारा की बात मान ली और अब्राम को मुल्क-ए-कनआन में रहते दस (10) बरस हो गए थे जब उस की बीवी सारा ने अपनी मिस्री लौंडी उसे दी कि उस की बीवी बने और हाजिरा के पास गया और हामिला हुई। जब उसे मालूम हुआ कि वो हामिला हो गई है तो अपनी बीबी को हक़ीर जानने लगी। तब सारा ने अब्राम से कहा, जो ज़ुल्म मुझ पर हुआ वो तेरी गर्दन पर है। मैं ने अपनी लौंडी तेरी आग़ोश में दी और अब जो उसने अपने आपको हामिला देखा तो मैं इस की नज़र में हक़ीर हो गई। अब्राम ने सारा से कहा कि तेरी लौंडी तेरे हाथ में है जो तुझे भला दिखाई दे तू उस के साथ कर। तब सारा उस पर सख़्ती करने लगी और वो उस के पास से भाग गई। और वह ख़ुदावंद के फ़रिश्ते के ब्याबान में पानी के एक चशमे के पास मिली और उस ने कहा, ऐ सारा की लौंडी हाजिरा तू कहाँ से आई और किधर जाती है? उसने कहा, मैं अपनी बीबी सारा के पास से भाग आई हूँ। ख़ुदावंद के फ़रिश्ते ने उस से कहा कि तू अपनी बीबी के पास लौट जा और अपने आपको उस के क़ब्ज़े में कर दे और ख़ुदावंद के फ़रिश्ते ने उस से कहा कि तो हामिला है और तेरे बेटा होगा, उस का नाम इस्माईल रखना क्योंकि ख़ुदावंद ने तेरा दुखड़ा सुन लिया है। वो गोरख़र की तरह आज़ाद मर्द होगा। उस का हाथ सब के ख़िलाफ़ और सब के हाथ उस के ख़िलाफ़ होंगे और जब अब्राहाम से हाजिरा के इस्माईल पैदा हुआ तब अब्राम छयासी (86) बरस का था। जब वो निनान्वें (99) बरस का हुआ तब ख़ुदावंद अब्राहाम को नज़र आया और उसने फ़रमाया कि मैं सारा से तुझे एक बेटा बख्शूंगा और ख़ुदावंद ने जैसा उसने फ़रमाया था सारा पर नज़र की सारा हामिला हुई और अब्राहाम के लिए उस के बुढ़ापे में उस के बेटा हुआ और अब्राहाम ने अपने बेटे का नाम जो उस से सारा के पैदा हुआ इज़्हाक़ रखा। और जब उस का बेटा इज़्हाक़ उस से पैदा हुआ तो अब्राहाम सौ (100) बरस का था। और वो लड़का बढ़ा और उस का दूध छुड़ाया गया और इज़्हाक़ के दूध छुड़ाने के दिन अब्राहाम ने बड़ी ज़ियाफ़त की और सारा ने देखा कि हाजिरा मिस्री का बेटा ठट्ठे मारता है तब उसने अब्राहाम से कहा कि इस लौंडी को और इस के बेटे को निकाल दे क्योंकि इस लौंडी का बेटा मेरे बेटे इज़्हाक़ के साथ वारिस ना होगा। पर अब्राहाम को उस के बेटे के बाइस ये बात निहायत बुरी मालूम हुई। और ख़ुदा ने अब्राहाम से कहा तुझे उस लड़के और अपनी लौंडी के बाइस बुरा ना लगे जो कुछ सारा तुझसे कहती है तू उस की बात मान क्योंकि इज़्हाक़ से तेरी नस्ल का नाम चलेगा और इस लौंडी के बेटे से भी मैं एक क़ौम पैदा करूँगा। तब अब्राहाम ने सुब्ह-सवेरे उठकर रोटी और पानी की एक मशक ली और उसे हाजिरा को दिया बल्कि उस के कंधे पर धर दिया और लड़के को भी उस के हवाले करके उसे रुख़्सत कर दिया। सो वो चली गई और बैर सबअ के ब्याबान में आवारा फिरने लगी और जब मशक का पानी ख़त्म हो गया तो उसने लड़के को एक झाड़ी के नीचे डाल दिया और आप उस के मुक़ाबिल एक तीर के टप्पे पर दूर जा बैठी और कहने लगी कि मैं इस लड़के का मरना तो ना देखूं। सो वो उस के मुक़ाबिल बैठ गई और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगी। और ख़ुदा के फ़रिश्ते ने आस्मान से हाजिरा को पुकारा और उस से कहा, ऐ हाजिरा तुझको क्या हुआ? मत डर क्योंकि ख़ुदा ने उस जगह से जहां लड़का पड़ा है उस की आवाज़ सुन ली है। उठ और लड़के को उठा और उसे अपने हाथ से सँभाल क्योंकि मैं उस को एक बड़ी क़ौम बनाऊँगा। फिर ख़ुदा ने उस की आँखें खोलीं और उसने पानी का एक कुँआं देखा और जाकर मशक को पानी से भर लिया और लड़के को बुलाया और ख़ुदा उस लड़के के साथ था और वो बड़ा हुआ और ब्याबान में रहने लगा और तीर अंदाज़ बना और फ़ारान के ब्याबान में रहता था और उस की माँ ने मुल्क-ए-मिस्र से उस के लिए बीवी ली।” (पैदाइश बाब 15 ता 21)
तौरात शरीफ़ के मज़्कूर बाला बयान को पढ़ कर ये रोशन हो जाता है कि बीबी हाजिरा के लौंडी होने से इन्कार करना ऐसा ही मुहाल अम्र है जैसा कि उस के औरत होने से इन्कार करना। हमको ये साबित करना कि बीबी हाजिरा लौंडी थीं कोई ज़रूरी बात नहीं बल्कि इस अम्र पर बह्स करना भी हमको एक गोना नागवार भी है। मगर इज़हार-ए-हक़ीक़त के लिहाज़ से इस मौज़ू पर बादल नख़्वास्ता हम बह्स कर रहे हैं ताकि हमारे मुख़ातब ग़लती में ना रहें।
गु़लामी का रिवाज और बीबी हाजिरा
मौलवी साहब लिखते हैं कि :-
“ईसाईयों का ये कहना कि हज़रत हाजिरा लौंडी है और इस्माईल मए अपनी माँ के निकाले गए बिल्कुल बातिल है। हज़रत हाजिरा का लौंडी होना कुतुब-ए-मुक़द्दसा से पाया नहीं जाता। क्योंकि जो शराइत लौंडी होने के कुतुब-ए-मुक़द्दसा में हैं उनमें से एक भी हाजिरा में पाई नहीं जाती। अगर ईसाई ये कहें कि हज़रत हाजिरा के वक़्त शरीअत कहाँ थी? शरीअत हज़रत मूसा लाए और शराइत लौंडी, ग़ुलाम की हज़रत मूसा के वक़्त बयान हुईं तो इस का जवाब ये है कि जिस सूरत में लौंडी ग़ुलाम की शराइत हज़रत मूसा से शुरू हुईं तो हाजिरा लौंडी नहीं हो सकतीं।” (सफ़ा 17, 18)
तौरात शरीफ़ के मज़्कूर बाला बयान को पढ़ कर कोई सहीह-उल-अक़्ल शख़्स जिसको तहक़ीक़ का ज़रा भी पास हो ये दाअ्वा नहीं कर सकता कि “हज़रत हाजिरा का लौंडी होना कुतुब-ए-मुक़द्दसा से पाया नहीं जाता।” किताब मुक़द्दस के मज़्कूर बाला बयान में कम अज़ कम नो (9) दफ़ाअ बीबी हाजिरा को “लौंडी” कहा गया है और हज़रत सारा को आठ (8) मर्तबा उस की मालिका कहा गया है। बीबी सारा उस को “मेरी लौंडी” कहती है। हाजिरा उस को अपनी “मालिका” तस्लीम करती है। हज़रत इब्राहिम सारा से मुख़ातब हो कर उस को “तेरी लौंडी” कहते हैं। ख़ुदावंद का फ़रिश्ता उस को “ऐ सारा की लौंडी हाजिरा” कह कर बुलाता है। ख़ुद ख़ुदा बीबी हाजिरा को “लौंडी” और हज़रत इस्माईल को “लौंडी का बेटा” कहता है लेकिन हमारे मुख़ातब इसरार करके कहते हैं हाजिरा लौंडी नहीं हो सकतीं !”
मौलवी साहब ने ईसाईयों की बात पर ग़ौर नहीं किया और बहुत बड़ी ग़लती में मुब्तला हो गए। ईसाई ये बातिल दाअ्वा नहीं करते कि बीबी हाजिरा मूसवी शरीअत की अलम-दर-आमद के साथ लौंडी थी बल्कि ये (जो आपके दाअ्वे के लिए और ज़्यादा मुज़िर है) कि इब्राहिम के ज़माने के रिवाज-ए-गु़लामी के मुताबिक़ हाजिरा मह्ज़ एक लौंडी थीं। हमारे मुख़ातब को याद रखना चाहिए, कि शरीअत-ए-मूसवी ने गु़लामी की क़बीह रस्म को ईजाद नहीं किया था बल्कि गु़लामी के मुरव्वजा रिवाज की इस्लाह की थी। (अहबार 25 बाब, यसअयाह 56:3 ता 8 वग़ैरह) गु़लामी का रिवाज मूसवी शरीअत से सदीयों पहले का है। चुनान्चे आप ख़ुद फ़र्माते हैं कि “बनी-इस्राईल फ़िरऔन के लौंडी ग़ुलाम थे।” (सफ़ा 18) आपने बजा फ़रमाया, लेकिन फ़िरऔन मिस्र ने बनी-इस्राईल को शरीअत मूसवी के मुवाफ़िक़ तो अपना बुरदा (ग़ुलाम) नहीं बनाया था वो मुल्क-ए-मिस्र के रिवाज गु़लामी के मुवाफ़िक़ फ़िरऔन के बुर्दे (गुलाम) थे। पस आप किस तरह कह सकते हैं कि “हाजिरा लौंडी नहीं हो सकतीं।” हाँ ये कहिये की बीबी हाजिरा लौंडी तो थीं, मगर शरीअत-ए-मूसवी के मुवाफ़िक़ नहीं बल्कि ज़माना इब्राहिम के रिवाज के मुवाफ़िक़ लौंडी थीं। और यह उनकी ज़्यादा बदनसीबी थी क्योंकि अगर मूसवी शराअ के मुवाफ़िक़ उनको हज़रत सारा की लौंडी होने का फ़ख़्र हासिल होता तो उनको वो ज़िल्लत और ख्वारी नसीब ना होती जिसका बयान तौरात में है। वो अपने दिन ज़्यादा आराम से काटतीं क्योंकि शरीअत-ए-मूसवी ने गु़लामी के बदतरीन पहलूओं को रफ़ा कर दिया था।
हमारा मुख़ातब अजीब दलील पेश करके कहता है “अगर कोई ये कहे कि हज़रत सारा या ख़ुदा तआला ने उनको लौंडी पुकारा है तो इस का जवाब ये है कि अगर लौंडी या ग़ुलाम सिर्फ कह देने से ही हो सकता है तो बनी-इस्राईल से कोई लौंडी और ग़ुलाम नहीं हो सकता!” इस का हासिल ये हुआ कि मौलवी साहब ख़ुदा तआला के कलाम को भी इस मुआमले में तस्लीम करने से इन्कार करते हैं। क्या वो समझते हैं कि ख़ुदा ने बीबी हाजिरा को सिर्फ इस वास्ते “लौंडी” कहा कि वो बनी-इस्माईल को और मुसलमानों को चिढ़ाए? ख़ुदा ने हाजिरा को लौंडी कहा, क्योंकि वो लौंडी थीं। आप ईसाईयों के क़ौल की शौक़ से तक़्ज़ीब (झुटलाना, झूट बोलने का इल्ज़ाम लगाया) करें लेकिन ख़ुदारा ख़ुदा के क़ौल को तो क़ुबूल करलें।
तौरात शरीफ़ की शहादत
मौलवी साहब के इस भद्दे इन्कार ने जो तहक़ीक़ से कोसों दूर है हमको मज्बूर किया है कि बीबी हाजिरा का लौंडी होना साबित करें, वर्ना हमको बीबी साहिबा और उन के बेगुनाह बच्चों की ज़िल्लतों का जो उन्हों ने अपनी गु़लामी की हालत में उठाएं ज़िक्र करना वाक़ई तक्लीफ़-देह और नागवार है। मगर मौलवी साहब के इन्कार ने हमको उनके गिनवाने पर मज्बूर कर दिया है क्योंकि वो कहते हैं कि “ईसाईयों का ये कहना हज़रत हाजिरा लौंडी थीं और हज़रत इस्माईल मए अपनी माँ के निकाले गए बातिल है।” तौरात शरीफ़ के मुन्दरिजा बाला बयान में आया है कि :-
- सारा की एक मिस्री लौंडी थी जिसका नाम हाजिरा था, “उस ने अपनी मिस्री लौंडी इब्राहिम को दी।” (पैदाइश 16:1, 3) देखिए हज़रत मूसा जो लौंडी ग़ुलाम होने की शराइत से वाक़िफ़ थे बीबी हाजिरा को हज़रत सारा की मिस्री लौंडी कह रहे हैं। और हज़रत मूसा की मुख़ालिफ़त करने का किस को ज़ुहरा (हौसला, हिम्मत)?
- “इब्राहिम ने सारा से कहा, कि तेरी लौंडी तेरे हाथ में है। जो तुझे भला दिखलाई दे सो उस के साथ कर।” (पैदाइश 16:6) हज़रत इब्राहिम हाजिरा को सारा की लौंडी कहते हैं। दीन इब्राहीमी के दाअ्वेदारों को इब्राहिम के सुख़न (कलाम, शेअर, बात) का कुछ तो पास होना चाहिए।
- ख़ुदावंद के फ़रिश्ते ने हाजिरा से कहा, “ऐ सारा की लौंडी हाजिरा” (पैदाइश 16:8) क्या फ़रिश्ते की बात भी क़ाबिल-ए-इल्तिफ़ात नहीं?
- बीबी हाजिरा के नाम के साथ उस की सिफ़त “सारा की लौंडी” तमाम बयान में मौजूद है। किताब-ए-मुक़द्दस की यही शहादत है।
- ख़ुदा ने हाजिरा को “लौंडी” के लक़ब से नामज़द फ़रमाया। (पैदाइश 21:12) ख़ुदा से ज़्यादा कौन मोअतबर गवाह है?
- बीबी हाजिरा हज़रत सारा को ख़ुद अपनी मालिका तस्लीम करती है (पैदाइश 16:8) क्या उस का इक़बाल मोमिनीन के लिए क़ाबिल-ए-तवज्जोह नहीं? अगर वो सारा की लौंडी ना होतीं तो वो फ़रिश्ते को कहतीं, मैं तो लौंडी नहीं हूँ, मुझे मत चिढ़ाओ, मैं तो फ़िरऔन ज़ादी हूँ।
- बीबी हाजिरा पर लौंडियों की मानिंद सख़्ती हुई चुनान्चे लिखा है “सारा उस पर सख़्ती करने लगी और वो उस के पास से भाग गई।” (पैदाइश 16:6)
- हज़रत इब्राहिम ने उस पर सख़्ती करने दी। (पैदाइश 16:6) और ख़ुदा ने भी इस सख़्ती से चशमपोशी की। (पैदाइश 21:12)
- इस सख़्ती की वजह से बीबी हाजिरा अपने आक़ा के मकान से ग़ुलामों की तरह भाग गई। (पैदाइश 16:6) उसने बाद में फ़रिश्ते से कलाम करते वक़्त ये क़ुबूल कर लिया कि, “मैं अपनी बीबी सारा के पास से भाग आई हूँ।” (पैदाइश 16:8)
अब मौलवी साहब फ़रमाएं कि लौंडी होने की कौन सी शर्त है जो बीबी हाजिरा में बाक़ी रह गई है? क़ाज़ी अक़्ल को बीबी जी के लौंडी होने का फ़त्वा देने में ताम्मुल नहीं हो सकता। मौलवी साहब को ताम्मुल हो तो हो।
हमारे मुख़ातब कहते हैं कि हज़रत हाजिरा में लौंडी होने की शराइत पाई नहीं जातीं। हाँ ज़ुल्फ़ा और बल्हा (हज़रत याक़ूब की हरमों) में लौंडी होने की शराइत पाई जाती हैं।”
हक़ीक़त ये है कि (1) गो हाजिरा और ज़ुल्फ़ा और बल्हा सब शरीअत मूसवी से क़ब्ल लौंडियां थीं लेकिन मौलवी साहब ज़ुल्फ़ा और बल्हा के लौंडी होने के इतने सबूत किताब-ए-मुक़द्दस से नहीं ला सकते। जितने हमने बीबी हाजिरा के दीए हैं। (2) हज़रत याक़ूब ने भी ज़ुल्फ़ा और बल्हा के साथ ऐसा सुलूक नहीं किया जिससे उनके लौंडी होने की ज़िल्लत मालूम हो। (3) गोया दोनों इब्तिदा में लौंडियां थीं ताहम उनके बेटों को बरख़िलाफ़ हाजिरा के बेटे इस्माईल के हज़रत याक़ूब के दूसरे बेटों के साथ मुसावी हुक़ूक़ मिले और वो इस्राईल के हक़ीक़ी फ़र्ज़न्द हुए और उनका शुमार और उन के औलाद का शुमार बनी-इस्राईल में किया गया। लेकिन इस्माईल (और इब्राहिम के दूसरे लड़के जो लौंडियों से पैदा हुए) विरासते इब्राहिमी और वाअदा और नबुव्वत की बरकत-ए-उज़्मा से ख़ारिज किए गए। जैसा कि हम गुज़श्ता फस्लों में साबित कर चुके हैं। (4) मौलवी साहब ही हमको बतलाएं कि ज़ुल्फ़ा और बल्हा में लौंडी होने की कौन सी शराइत मौजूद हैं जो हाजिरा में नहीं मिलतीं? बल्कि ज़ुल्फ़ा और बल्हा पर सख़्ती ना की गई। ना वो अपने मालिक के मकान से भागीं ना वो उनकी औलाद आक़ा के घर से निकाल दी गई और ना बमुक़ाबला दीगर औलाद उनके बेटे मीरास-ए-पिदर (बाप की मीरास) और दीगर बरकतों से महरूम किए गए।
लामुहाला अगर किसी औरत की निस्बत लौंडी होने की शराइत पूरी होतीं, तो वो लौंडी है और बीबी हाजिरा लौंडी थीं और उन की निस्बत लौंडी होने की तमाम शराइत भी पूरी हो चुकीं।
बीबी हाजिरा का इख़राज
मौलवी साहब ने तौरात शरीफ़ की ऐन ज़द में इस अम्र को भी कि इस्माईल मए अपनी माँ के निकाले गए बिल्कुल बातिल ठहराया है। ना मालूम उन्होंने तौरात को ख़ुद नहीं पढ़ा या दीदा दानिस्ता (जानबूझ कर) चशमपोशी करना चाही। बहरहाल ये दोनों बातें उसूल-ए-तहक़ीक़ के ख़िलाफ़ हैं। तौरात शरीफ़ में आया है :-
“सारा ने देखा कि हाजिरा मिस्री का बेटा (इज़्हाक़ पर) ठट्ठे मारता है। तब उसने अब्राहाम से कहा, कि इस लौंडी को और इस के बेटे को निकाल दे क्योंकि इस लौंडी का बेटा मेरे बेटे इज़्हाक़ के साथ वारिस ना होगा। ख़ुदा ने अब्राहाम से कहा जो कुछ सारा तुझसे कहती है तू उस की बात मान क्योंकि इज़्हाक़ से तेरी नस्ल का नाम चलेगा। तब अब्राहाम ने सुब्ह-सवेरे उठकर रोटी और पानी की एक मशक ली और इस के हवाले करके उसे रुख़्सत कर दिया। सो हाजिरा चली गई और बैर सबअ के ब्याबान में आवारा फिरने लगी। (पैदाइश 21 बाब) आगे उन मुसीबतों का हाल है जो बीबी हाजिरा और उस के लख्ते-जिगर पर पड़ीं जिनको पढ़ कर रोना आता है क्योंकि इस बेचारी औरत और इस के तबाह-हाल लड़के के साथ बहुत सख़्त सुलूक किया गया। ख़ुदा का शुक्र है कि उस ने अपने बेटे सय्यदना ईसा मसीह को भेजा और इन्जील जलील के उसूलों ने इस ज़ालिमाना रस्म गु़लामी का सिद्द-ए-बाब किया। हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) आए ताकि क़ैदीयों और ग़ुलामों की रिहाई हो और ज़ुल्म व इस्तब्दाद की ज़ंजीरें टूट जाएं। (लूक़ा 4:21) लेकिन उस ज़माने में ग़ुलामों के साथ इस क़िस्म का बर्ताव एक आम बात थी बल्कि इस बेयार व मददगार तबक़े के साथ हाजिरा से भी ज़्यादा सख़्त सुलूक किया जाता था और इस वहशी और ज़ालिमाना सुलूक को ऐब ना समझा जाता था। अगर बीबी हाजिरा लौंडी ना होतीं तो इस क़िस्म का वहशयाना सुलूक ही उनसे ना किया जाता। लेकिन आप को घर से निकाल दिया गया और आपके लख्ते-जिगर को भी निकाल दिया गया क्योंकि आप लौंडी थीं।
फ़िरऔन ज़ादी का क़िस्सा
इस से कोई मुहक़्क़िक़ इन्कार नहीं कर सकता कि किताब मुक़द्दस और सही तारीख़ के मुताबिक़ बीबी हाजिरा हज़रत सारा की लौंडी थीं और हज़रत इस्माईल कनीज़क ज़ादा (लौंडी के बेटे) थे और वो दोनों हज़रत इब्राहिम के घर से निकाल दीए गए। मौलवी साहब बावजूद दाअ्वा “तहक़ीक़” के इन सच्चे और तवारीख़ी हक़ायक़ से इन्कार करते हैं। मगर उन्होंने ख़तरनाक राह पर क़दम मारा है। वो इतने ही पर बस नहीं करते कि हाजिरा के लौंडी होने से इन्कार करें, बल्कि वो उनको लौंडी से शाहज़ादी बनाना चाहते हैं ! ऐ काश कि बीबी हाजिरा बाद शाहज़ादी होतीं और हम को मज़्कूर बाला नागवार बातों का बयान ना करना पड़ता ! रंग आमेज़ी और मुबालग़ा को तहक़ीक़ हक़ से किसी क़िस्म का भी वास्ता नहीं हो सकता मुबालगे की राह निहायत कुशादा और फिसलनी होती है। चुनान्चे ब-सनद “अपने एक दोस्त सुलेमान यहूदी” आप फ़र्माते हैं कि,
“एक शख़्स हकीम, हुनर-मंद, ज़की-उल-तबअ था जो अक्सर उलूम व फ़नून में कमाल रखता था। इस का नाम क़य्युन (قیون) था। उसने वतन में रहना नामुनासिब समझ कर मिस्र की राह ली और रफ़्ता-रफ़्ता मिस्र का बादशाह हो गया जिसका लक़ब फ़िरऔन हुआ। जब इब्राहिम मिस्र में पहुंचे उसने सारा से शादी करना चाही जब उस को मालूम हुआ कि वो हज़रत इब्राहिम की बीवी हैं तो उसी वक़्त फ़िरऔन ने उनको हज़रत इब्राहिम के पास भेज दिया और अपनी बेटी हज़रत हाजिरा को उनके सपुर्द कर दिया। ये सही हाल हज़रत हाजिरा का है जो हमने ठीक-ठीक बयान कर दिया।” (सफ़ा 18, 19)
इसी फ़र्ज़ी दास्तान को सर सय्यद मरहूम ने मौलवी इनायत रसूल चिड़िया कोटि (जिनकी इब्रानी दानी की क़लई हम बाब सोम में खोल चुके हैं) की ज़बानी दुहराया है। (ख़ुत्बात सफ़ा 163, 170)
हमें कुछ ज़रूर नहीं कि हम इस फ़र्ज़ी क़िस्से के खोज करने में तफ़ीअ (ज़ाए करना) औक़ात करें। ताज्जुब है कि मौलवी साहब के “दोस्त सुलेमान यहूदी” बीबी हाजिरा की मर्क़ूमा-बाला दास्तान को मोअतबर तारीख़ कहे और आप उस की ताईद करें और “मुहक़्क़िक़” होने का दाअ्वा करें आपने इस यहूदी से पूछा होता क्या तुम तौरात शरीफ़ को मानते हो? और इस मुक़द्दस किताब से भी किसी ज़्यादा मोअतबर किताब के क़ाइल हो? और कुछ नहीं तो आपने यही सोचा होता कि हाजिरा का ये फ़र्ज़ी बाप कैसा “हकीम, हुनर-मंद, ज़की-उल-तबअ, उलूम व फ़नून” में कमाल रखने वाला था कि उसने अपनी बेटी को एक अजनबी औरत के सपुर्द कर दिया और उस की आइन्दा ज़िंदगी का कोई लिहाज़ ना किया? और वह कैसा “दानिशमंद बादशाह” था जिसने अपनी “इकलौती बेटी” के साथ दर्जन दो दर्जन सहेलियाँ और लौंडियां ख़िदमत के लिए ना दीं? और ना कोई माल व असबाब और ज़िरही दिया? हत्ता कि जब इब्राहिम ने इस को घर से निकाला तो फ़क़त एक मश्क पानी और रोटी का इस बेचारी को मुस्तहिक़ गिरदाना? क्या हज़रत इब्राहिम ऐसे ही नादान शख़्स थे कि वो एक आली नसब शाहज़ादी से इस क़िस्म का सुलूक रवा रखते? और ये आली ख़ानदान की शाहज़ादी कैसी थी जो घर से निकाल दीए जाने के बाद चली गई और “बैर सबअ के ब्याबान में आवारा फिरने लगी?” आपने इस यहूदी दोस्त से पूछा होता कि हाजिरा को “सारा के सपुर्द” करने का क्या मतलब है क्योंकि सारा ने तो हाजिरा को लौंडी बनाए रखा। लौंडी करके इब्राहिम को दिया। लौंडी का सुलूक किया और लौंडी की तरह घर से निकाल बाहर किया? क्या हज़रत सारा एक शाहज़ादी को लौंडी बना कर इस क़िस्म का ज़ालिमाना सुलूक कर सकती थीं?
मौलवी साहब, हैरत है कि आप तौरेत शरीफ़ की सनद के मुक़ाबले में सुलेमान या किसी और यहूदी का क़ौल पेश करते हैं और ख़ुद मुत्मइन हो जाते हैं। हक़ीक़त ये है कि इन्सान का वहम उस को अजब अजब तमाशे दिखलाता है और जो वो मानना चाहता है उसे मनवा देता है। लेकिन तहक़ीक़ हक़ और क़ुव्वत-ए-वाहिमा दोनों यकजा (एक साथ) नहीं हो सकतीं। हमको बीबी हाजिरा के फ़िरऔन ज़ादी (फ़िरऔन की बेटी) होने से इतना ताज्जुब नहीं जितना आपके इस फ़र्ज़ी क़िस्से को ईसाईयों के मुक़ाबिल सनदन पेश करने से और इस को खिलाफ-ए-तौरात हक़ समझने से अचम्भा होता है।
बाब हश्तम
हज़रत इब्राहिम और ख़ाना काअबा
क़ुरआन का बयान
क़ुरआन शरीफ़ में लिखा है :-
“हमने इब्राहिम और इस्माईल को हुक्म दिया कि मेरा घर तवाफ़ वालों के वास्ते पाक कर रखो और जब इब्राहिम इस घर की बुनियादें उठाने लगा.....अलीख।” (बक़रह रुकूअ 5)
ईसाई इन रिवायतों को हक़ नहीं जानते। पस वो उनको नहीं मानते।
मौलवी साहब की दलीलें
मौलवी साहब कहते हैं :-
“ईसाई लोग अक्सर अपनी तस्नीफ़ात में लिखते हैं कि ख़ाना काअबा हज़रत इब्राहिम ने बनाया नहीं। क्या हमें कुतुब-ए-मुक़द्दसा में देखना चाहिए कि इब्राहिम बैतुल्लाह बनाने के आदी थे या नहीं। जब हम ग़ौर से देखते हैं तो साबित होता है कि उनकी आदत बैतुल्लाह बनाने की थी। वो जिस जगह को अपनी क़ियामगाह मुक़र्रर फ़र्माते थे वहां एक क़ुर्बान गाह बनाते थे। ये उनकी आदत हो गई थी। अब नाज़रीन को यहां ख़ूब ग़ौर करना चाहिए कि हज़रत इब्राहिम जब कि ग़ैर-मुल्कों में क़ुर्बान गाह बनाते थे तो जब वो अरब में अपने अज़ीज़ बेटे के पास गए होंगे तो क़ुर्बान गाह क्यों ना बनाई होगी?” (सफ़ा 22, 23)
ये इक़्तिबास उन दलीलों का भी है जो सर सय्यद मरहूम ने “ख़ुत्बात अहमदिया” में दी हैं। (ख़ुत्बात सफ़ा 499)
तन्क़ीह तलब उमूर
हमारे मुख़ातब को याद रखना चाहिए कि अस्ल सवाल ये है कि आया ख़ाना काअबा को जो मुल़्क-ए-अरब के एक ख़ास शहर यानी मक्का में वाक़ेअ है, हज़रत इब्राहिम ने बनाया था या कि नहीं। इस सवाल का जवाब ना तो इब्राहिम की “बैतुल्लाह बनाने की आदत” से मिल सकता है और ना किसी फ़र्ज़ी मुलाक़ात से ये सवाल हल हो सकता है कि जो उन्होंने इस्माईल से की हो।
मौलवी साहब को यहां तीन बातें साबित करना चाहिए :-
अव्वल, ये कि हज़रत इस्माईल मक्का में रहते थे।
दोम, ये कि हज़रत इब्राहिम इस्माईल को मिलने की ख़ातिर मक्का तशरीफ़ लाए थे।
सोम, ये कि हज़रत इब्राहिम ने मक्का को अपनी क़ियामगाह मुक़र्रर फ़रमाया था क्योंकि आप ख़ुद कह चुके हैं कि “हज़रत इब्राहिम जिस जगह को अपनी क़ियामगाह मुक़र्रर फ़र्माते थे वहां वो एक क़ुर्बान गाह बनाते थे।”
चहारुम, ये कि हज़रत इब्राहिम ने ख़ाना काअबा की अपने हाथों बिना (बुनियाद) डाली।
क्योंकि अगर इस्माईल की जाये-सुकूनत मुल्क-ए-अरब का एक ख़ास ख़ित्ता यानी मक्का क़रार पा भी सके और ख़्वाह हज़रत इब्राहिम उनसे मिलने भी आए हों और उनके....साथ सुकूनत भी की हो और अरब में उन्होंने किसी जगह बैतुल्लाह भी बनाया हो तो भी कम अज़ कम मक्का के ख़ाना काअबा को हज़रत इब्राहिम से कोई निस्बत नहीं हो सकती। जब तक ये साबित ना किया जाये कि हज़रत ने ख़ाना काअबा को अपने हाथों उठाया था।
इस्माईल की जाये-सुकूनत
“कुतुब मुक़द्दसा से जिन पर मौलवी साहब अपने दाअवों का इन्हिसार करते हैं साफ़ साबित है कि हज़रत इस्माईल की जाये-सुकूनत ना तो मुल्क-ए-अरब में थी और ना मक्का या मक्का के क़ुर्ब व जुवार (आसपास) में थी। बल्कि उनकी जाये-सुकूनत मक्का से सैंकड़ों मील दूर वाक़ेअ थी।” चुनान्चे तौरात शरीफ़ में है :-
“ख़ुदा इस्माईल के साथ था और वो बड़ा हुआ और वो ब्याबान में रहने लगा और तीर-अंदाज़ बना और फ़ारान के ब्याबान में रहता था और उस की माँ ने मुल्क-ए-मिस्र से उस के लिए बीवी ली। और इस्माईल की कुल उम्र (137) बरस की हुई तब उसने दम छोड़ दिया और वफ़ात पाई और अपने लोगों में जा मिला। और उस की औलाद हवीला से शूर तक जो मिस्र के सामने उस रास्ते पर है जिससे अस्वद को जाते हैं आबाद थी।” (पैदाइश 21 बाब, 25 बाब)
“कुतुब-ए-मुक़द्दसा में “फ़ारान” का ब्याबान एक मशहूर जगह है और यह किताबें सिवाए एक फ़ारान के कोई दूसरा फ़ारान नहीं जानतीं। (पैदाइश 14:6, 21:21, गिनती 10:12, 12:16, 13:3 वग़ैरह) इसी फ़ारान का ज़िक्र (1_सलातीन 11:18 और हबक़्क़ूक़ 3:3 वगैरह) में आया है। ये फ़ारान का ब्याबान जज़ीरानुमा सीना में वाक़ेअ है। यही वो ब्याबान है जिसमें से हो कर बनी-इस्राईल ने अपने सफ़र के चालीस (40) बरस गुज़ारे थे और जहां उन्होंने पड़ाव भी किया था। चुनान्चे लिखा है कि, “बनी-इस्राईल दश्त-ए-सीना से कूच करके निकले और बादल दश्त-ए-सीना में ठहर गया।” (गिनती 10:12) फिर वो लोग हसीरात से रवाना हुए और “फ़ारान के ब्याबान में पहुंच कर उन्हों ने डेरे डाले।” (गिनती 12:16) ये “फ़ारान का ब्याबान” मक्का से कोई छः सौ (600) मील शुमाल की जानिब माबैन मुल्क कनआन और मिस्र के जज़ीरानुमा सीना में बहर-ए-कुल्जुम की दोनों शुमाल शाख़ों के दर्मियान वाक़ेअ है। इस मुक़ाम का जुग़राफ़िया बतला देता है कि अगर एक लकीर बहर-ए-मुर्दार से ख़लीज उक़्बा तक खींची जाये तो ये इस ब्याबान की मशरिक़ी सरहद होगी। इस मुक़ाम पर हज़रत इस्माईल ने रिहाइश इख़्तियार की और इस जगह को मक्का से वैसा ही लगाओ है जैसा श्रीनगर कश्मीर को बनारस से। बिचारे इस्माईल का गुज़र मक्का के क़ुर्ब व जुवार (आसपास) में उम्र-भर कभी नहीं हो सकता था। वो ब्याबान फ़ारान में रहा। वहीँ मुराद और उस की औलाद उस रकबा में बस्ती रही “जो हवीला से शूर तक जो मिस्र के सामने इस रास्ते पर है जिससे असुर को जाते हैं।” और यह मुल्क अरब से कई सौ कोस दूर है।
पस मालूम हुआ कि हज़रत इस्माईल की सुकूनत को मक्का से कोई मुम्किन-उल-वक़ूअ मुनासबत भी नहीं है क्योंकि उस की जाये सुकूनत मक्का से छः सौ (600) मील शुमाल में थी। अब अगर हज़रत इब्राहिम ने इस्माईल से मुलाक़ात की भी हो और इस्माईल के घर को अपनी “क़ियामगाह” बनाया भी हो और अपनी हस्बे-आदत हाँ एक छोड़, दर्जन “बैतुल्लाह” भी बनाए हों तब भी उनके हाथों से ख़ाना काअबा की बिना (बुनियाद) नहीं हो सकती थी।
इब्राहिम और इस्माईल की मुलाक़ात
अब देखें कि मौलवी साहब हज़रत इब्राहिम के इस्माईल के पास जाने का क्या सबूत देते हैं? वो कहते हैं कि :-
“इन मोअतरज़ीन का एतराज़ कि हज़रत इब्राहिम का अरब में जाना कुतुब मुक़द्दसा से साबित नहीं होता, मह्ज़ बे-बुनियाद है। बेशक हज़रत इब्राहिम अरब में हज़रत इस्माईल के पास ज़रूर गए होंगे।”
इस “गए होंगे” के साथ लफ़्ज़ “बेशक” और “ज़रूर” ना सिर्फ ग़ैर-मौज़ूं है बल्कि उसूल-ए-मन्तिक़ के ख़िलाफ़ है, क्योंकि मौलवी साहब मह्ज़ अपने हुस्न-ए-ज़न और क़ियास को यक़ीन का दर्जा देते हैं। जब मौलवी साहब ने ईसाईयों के एतराज़ को “बे-बुनियाद” कहा तो हम समझते थे कि ग़ालिबन वो कुतुब-ए-मुक़द्दसा की कोई आयत इस अम्र के सबूत में पेश करने वाले हैं कि हज़रत इब्राहिम अरब में हज़रत इस्माईल के पास फ़िल-हक़ीक़त गए थे जिससे मोअतरिज़ का एतराज़ मह्ज़ बे-बुनियाद साबित हो जाएगा।
किताब-ए-मुक़द्दस मौलवी साहब के एक लफ़्ज़ की तक़्ज़ीब करती है। क़रीना (बहमी ताल्लुक़) इस बात का मुक़तज़ी है कि “इब्राहिम अरब को हज़रत इस्माईल के पास ज़रूर वहां मिलने गए होंगे क्योंकि जब उन्होंने इस्माईल को घर से निकाला तब उनकी उम्र एक सौ पाँच (105) बरस की हो चुकी थी। वो बहुत ज़ीअफ़ थे और दूर-दराज़ सफ़र के क़ाबिल ना रहे थे। अगर वो बीबी हाजिरा को घर से निकालने के बीस (20) बरस बाद भी इस्माईल से मिलने गए हों और बफ़र्ज़-ए-मुहाल इस्माईल ने मक्का में रिहाइश इख़्तियार की हो तो कौन सहीह-उल-अक़्ल शख़्स ये कहेगा कि एक सौ पच्चीस (125) बरस का ना-तवान (कमज़ोर, बुढा) शख़्स छः सौ (600) मील की मुसाफ़त तै करके इस्माईल को मिलने गया होगा।”
दोम : इस बुढ़ापे की उम्र में हज़रत का “इकलौता बेटा” जिसको वो “प्यार करता था।” (पैदाइश 22:2) उस के पास था और इस के इलावा दीगर हरमों के बेटे भी उनकी ख़िदमत को मौजूद थे। दरीं हालात ज़ईफ़ी की उम्र में अपनी आँखों के तारे को वो किस तरह अपनी आँख से ओझल कर सकते थे? बिल-ख़ुसूस जब इज़्हाक़ वाअदे के फ़र्ज़न्द थे और इस्माईल को ख़ुदा ने ख़ारिज कर दिया था?
सोम : जब तक बीबी सारा जीती रहीं उन्होंने अपनी कनीज़क हाजिरा और उस बेटे को (जिनको उन्होंने निहायत नाराज़गी से घर से निकाल दिया था) अपने घर के नज़्दीक फटकने ना दिया। हज़रत सारा ने अपने शौहर को उन्हें देखने के लिए कैसे जाने दिया होगा? हज़रत इब्राहिम भी अपने इकलौते बेटे की माँ, अपनी बूढ़ी ज़ौजा (बीवी) को नाराज़ करके क्योंकर अपनी कनीज़क हाजिरा और उस के बेटे को देखने के लिए जा सकते थे?
चहारुम : हज़रत इब्राहिम ने इस्माईल और उन की माँ को घर से निकाल दिया था और इस्माईल की सगर सुन्नी (बुरे हालात) में भी इस की परवाह ना की थी कि भूका मरता है या ज़िंदा रहता है तो अब जब वो जवान हो कर तीर-अंदाज़ी में माहिर हो कर अपनी परवरिश आप करने लग गया था तो ये कौनसा मौक़ा इस्माईल को देखने के लिए जाने का था?
पंजुम : किताब-ए-मुक़द्दस से पाया जाता है कि ख़ुद इस्माईल अपने बाप को ज़ईफ़ी की हालत में देखने आए थे। उस वक़्त हज़रत सारा वफ़ात पा चुकी थीं और हज़रत इब्राहिम का दम निकलने वाला था। और वो हज़रत इज़्हाक़ के साथ अपने बाप की तदफ़ीन में शरीक हुए। (पैदाइश 25:9) और ये ज़्यादा मुनासिब भी था कि जवान लड़का अपने बूढ़े बाप को देखने के लिए आता, ना ये कि उल्टा बूढ्ढा इब्राहिम इस्माईल की मुलाक़ात के लिए जंगलों में “छः सौ (600) मील” मारा-मारा फिरता।
हज़रत इब्राहिम के अरब जाने और हज़रत इस्माईल से मिलने का दूसरा सबूत मौलवी साहब ये देते हैं :-
“हज़रत इब्राहिम का हज़रत इस्माईल के पास दो दफ़ाअ तशरीफ़ ले जाने का सबूत किताब-ए-हदीसे-यहूद से मिलता है जिसको तालमुद कहते हैं। ये तालमुद वो मोअतबर किताब है कि जिससे चंद मुक़ामात इन्जील में नक़्ल किए गए हैं।” (सफ़ा 241)
हक़ीक़त ये है कि किताब तलमुद सही और ग़लत अख़्बार का एक मजमूआ है जिस तरह कुतुबे अहादीस इस्लाम में झूटी और सच्ची सभी हदीसें हैं। जिस तरह उनमें बाअज़ बेसरोपा अफ़साने मर्क़ूम हैं इसी तरह यहूदी मजमूआ में भी बेसरोपा अफ़साने और क़िस्से पाए जाते हैं और जिस तरह बग़ैर परखे कोई हदीस सही साबित नहीं हो सकती इसी तरह तलमुद के बयानात को भी परख कर ही सही माना जा सकता है। जिस तरह किसी हदीस की किताब में किसी सही इस्लामी हदीस का होना उस मजमूए को मोअतबर नहीं बना सकता इसी तरह तलमुद में किसी सही ख़बर के होने से तमाम तलमुद “मोअतबर किताब” नहीं बन सकती पस तलमुद जैसी ग़ैर-मोअतबर किताब में से किसी मोअतबर वाक़िये का अख़ज़ किया जाना तमाम किताब को “मोअतबर किताब” नहीं बना सकता।
मौलवी साहब ने ये नहीं बतलाया कि तलमुद के वो कौन से “मोअतबर मुक़ामात” हैं जो इन्जील में नक़्ल किए गए हैं ताकि हम उनकी तन्क़ीद करके अस्ल बात का पता लगा सकते। बहरहाल अगर कोई मोअतबर मुक़ामात तलमुद से अख़ज़ किए गए हैं तो वो “मोअतबर” होने की वजह से ही नक़्ल किए गए हैं लेकिन इस से ये साबित नहीं होता कि “तालमुद मोअतबर किताब” है तलमुद के ऐसे बड़े एतबार का दाअ्वा जैसा कि आप करने को तैयार हैं आजकल तो कोई वाक़िफ़ कार यहूदी भी नहीं करता।
हमें अफ़्सोस है कि मौलवी साहब ने तमाम हक़ को ज़ाहिर नहीं किया इस क़द्र तो दुरुस्त है कि तलमुद में लिखा है कि हज़रत इब्राहिम दो मर्तबा इस्माईल के मकान पर फ़ारान के ब्याबान में गए। लेकिन वहां “फ़ारान का ब्याबान” ही लिखा है। अरब और मक्का का ज़िक्र ही नहीं। इलावा अज़ीं इस में ये भी लिखा है कि हज़रत की दोनों मर्तबा इस्माईल से मुलाक़ात ना हुई क्योंकि वो जंगलों में तीर-अंदाज़ी करते फिरते थे। और लुत्फ़ ये है कि वहां ये भी लिखा है कि हज़रत इब्राहिम, इस्माईल के मकान पर ठहरे भी नहीं बल्कि जिस रोज़ वहां गए उसी रोज़ उल्टे पांव वापिस लौट आए क्योंकि पहली मर्तबा इस्माईल की बीवी ने उनसे बात भी ना पूछी और दूसरी मर्तबा जब इस्माईल अपनी इस बीबी को तलाक़ देकर दूसरी कर चुका था उस की बीवी ने इब्राहिम के आगे माहज़र रखा और इब्राहिम उसे खाकर दुआ कर लौट आए और इस्माईल से मुलाक़ात ना की। जिससे ज़ाहिर है कि हज़रत इब्राहिम ने हज़रत इस्माईल के घर को अपनी क़ियामगाह ना बनाया या कि वो उनके साथ सुकूनत गज़ीं होते।
बुख़ारी में ये रिवायत तलमुद से बजिन्सा मन्क़ूल है मगर इस में ये इज़ाफ़ा कर दिया गया है कि इब्राहिम तीसरी बार फिर बहर मुलाक़ात आए और ज़मज़म के क़रीब इस्माईल से मिले और काअबे की बिना (बुनियाद) डाली। मगर तीसरी दफ़ाअ आना तो तलमुद में भी मर्क़ूम नहीं है और वह भी अरब में आना हमारे मुख़ातब को इख़्तियार है कि वो तलमुद को अपना गवाह क़रार दें लेकिन वो आपकी सी नहीं बोलता।
इब्राहिम की क़ियामगाह और बिना-ए-काअबा
हम फिर मौलवी साहब को याद दिलाते हैं कि अगर इब्राहिम और इस्माईल की बाहम मुलाक़ात हो भी जाती तो भी आपको दाअ्वा पाया सबूत को नहीं पहुंच सकता। क्योंकि मुलाक़ात अरब में और फिर मक्का में हो ही नहीं सकती और फिर आप कहते तो ये हैं कि हज़रत इब्राहिम जिस जगह को अपनी क़ियामगाह मुक़र्रर फ़र्माते थे वहां एक क़ुर्बान गाह बनाते थे मगर ये कैसे साबित हुआ कि उन्होंने इस्माईल के घर को “अपनी क़ियामगाह” बनाया और रवादारी में तामीर इमारत क्यूँ-कर मुम्किन थी? और अगर क़ियामगाह बना भी लेते तो ख़ाना काअबे की बिना (बुनियाद) और तामीर और तक़्दीस कैसे हो सकती थी दर्-आंहाल ये (इस का मतलब ये) कि इस्माईल फ़ारान के ब्याबान में थे और ख़ाना काअबा मक्का में था?
हमें अफ़्सोस है कि मुस्लिम मुनाज़िरीन को ऐसी ना-उम्मीदी से सामना पड़ता है। काअबा की तक़्दीस की आरज़ू ने मौलवी साहब के मुँह से तलमुद के मजमूए को “मोअतबर किताब” कहलवाया पर अगर हम उस में से इस्माईल की निस्बत चंद रिवायत का इक़्तिबास कर दें तो मौलवी साहब कानों पर हाथ रखें और इस मजमूए का नाम भी ना लें चह-जायकि इस को एक “मोअतबर किताब” क़रार दें। क्योंकि बाअज़ इस्लामी रिवायत की तरह ये रिवायत भी ना-गुफ़्ता बह हैं।
हक़ तो ये है कि काअबा एक क़दीम मंदिर था जिसके बुतों के आगे बुत-परस्त अहले-अरब सज्दा किया करते थे। अहले इस्लाम ने इस की ताज़ीम बढ़ाने के लिए अजीबो-गरीब रिवायत ईजाद कर लीं। वहां मुक़ाम-ए-इब्राहिम पैदा कर लिया गया। हज्र- ए-असवद को आस्मान से जिब्राईल के हाथ मंगवाया गया। लेकिन ये एक हक़ीक़त है कि जिस पर क़ुरआन शरीफ़ शाहिद है कि हज़रत मुहम्मद एक मुद्दत तक इस से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) रहे और उन्होंने बैतुल-मुक़द्दस को अपना क़िब्ला बनाया लेकिन मस्लहत-ए-वक़्त और आरज़ू तालीफ़-ए-क़ुलूब ने तक़्लीदन काअबे को क़िब्ला इस्लाम बना कर उस की पुरानी मगर बे-बुनियाद ताज़ीम को बहाल कर दिया।