1891-1972

Venerable Archdeacon

Rev.Barkat Ullah

M.A.F.R.A.S

Fellow of the Royal Asiatic Society London

توضیح العقائد

قسیس معظم آرچ ڈیکن علامہ برکت اللہ

ایم۔اے۔آر۔اے۔ایس

तौज़ीह-उल-अक़ाईद

क़िस्सीस मुअज़्ज़म आर्च डेक्कन अल्लामा बरकत-उल्लाह

एम॰ ए॰ आर॰ ए॰ ऐस॰

ने ये किताब लिख कर मुहक़्क़िक़ीन पर एक ज़बरदस्त एहसान किया है

चूँकि मुख़ालिफ़ीन इंजील ने मसीही अक़ाईद पर लातादाद बेमाअनी एतराज़ात किए हैं।

लिहाज़ा इस किताब को पढ़ने से मुख़ालिफ़ीन के एतराज़ात और औहाम के माक़ूल व मुस्तनद जवाबात हासिल होते हैं।

ये किताब मुबश्शिरिन व मुनाज़रीन और अवाम व ख़वास के लिए एक ज़बरदस्त हथियार है।

दीबाचा

इस रिसाले के मज़ामीन गुज़श्ता पाँच साल के दौरान में मुख़्तलिफ़ मसीही रसाइल में (जिनके नाम फे़हरिस्त मज़ामीन में दर्ज हैं) शाएअ हो चुके हैं और अब अहबाब की फ़र्माइश पर किताबी सूरत में शाएअ किए जाते हैं। मेरी दुआ है कि ख़ुदा इस किताब को अपने जलाल के लिए और कलीसिया की तरक़्क़ी के लिए इस्तिमाल करे।

बरकत अल्लाह

15 सितंबर 1951 ई॰

अनार कली बटाला

“मैं ईमान रखता हूँ”

1. मसीहीय्यत और कलीसियाई

अक़ाईद नामे

(1)

मरहूम मौलवी सना-उल्लाह साहब ये ख़्याल करते हैं कि मसीहीय्यत में कलीसियाई अक़ाईद नामों को वही बुनियादी जगह हासिल है जो इस्लाम में कलमा لااِلٰہاِلَّا اللّٰہُ مُحَمّد الرَّسُولُ اللّٰہ (मुहम्मदूर्रसूल्लुल्लाह) को हासिल है। पस वो अक़ाईद नामों के अल्फ़ाज़ पर बह्स करके ये साबित करने की बेसूद कोशिश करते हैं कि अक़्ल उनको ग़लत जान कर मर्दूद क़रार देती है।” (इस्लाम और मसीहीय्यत, सफ़ा 61) लिहाज़ा मसीहीय्यत बातिल है।

इस मज़्मून में हम मौलवी साहब के तर्ज़-ए-इस्तिदलाल और मंतक़ी क़ज़ाया (झगड़े) मुबाहिसे को फ़लसफ़ियाना महक (कसौटी) पर नहीं परखना चाहते, बल्कि उनको ये बताना चाहते हैं कि मसीहीय्यत में मुख़्तलिफ़ अक़ाईद नामों को जो मुख़्तलिफ़ अवक़ात (अलग अलग वक्तों) में वज़ा किए गए हैं, किसी क़िस्म की बुनियादी जगह हासिल नहीं। मसीहीय्यत ना तो उनके अल्फ़ाज़ को इल्हामी क़रार देती है और ना उनको ख़ता से मुनज़्ज़ह (पाक, मुबर्रा) मानती है और ना जम्हूर कलीसिया-ए-जामा उन पर ईमान रखती है। पस उन पर बह्स करना सई लाहासिल है और उन पर इस्तिदलाल की इमारत खड़ी करना तज़ीयअ अवक़ात (वक़्त ज़ाए करना) है। अगर मौलाना अमृतसरी चाहते हैं कि उनकी बह्स फ़ाइदामंद हो तो उनको चाहिए कि इंजील जलील के अल्फ़ाज़ की बुनियाद पर अपना इस्तिदलाल क़ायम करें और फिर साबित करें कि “अक़्ल उनको मर्दूद कर देती है।” लेकिन आप ये वतीरा (वतीरा : ط से ग़लत है) इख़्तियार नहीं करते क्योंकि आप ताक़यामत इंजील जलील के अल्फ़ाज़ से इंजीली अक़ाईद को “मर्दूद” साबित नहीं कर सकते।

فَإِن لَّمْ تَفْعَلُوا وَلَن تَفْعَلُوا فَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِي وَقُودُهَا النَّاسُ وَالْحِجَارَةُ أُعِدَّتْ لِلْكَافِرِينَ

तर्जुमा: “लेकिन अगर (ऐसा) ना कर सको और हरगिज़ नहीं कर सकोगे तो उस आग से डरो जिसका ईंधन आदमी और पत्थर होंगे। (और जो) काफ़िरों के लिए तैयार की गई है।” (सुरह बक़रा आयत 24)

(2)

मौलवी साहब को ये मालूम होना चाहिए कि तारीख़ कलीसिया के दौरान में बीसियों अक़ाईद नामे वज़ा किए गए हैं। चुनान्चे हांस (1) (Hahn) की किताब में तक़रीबन अढ़ाई सौ अक़ाईद नामे यकजा जमा किए गए हैं। इन अक़ाईद नामों में से तीन अक़ाईद नामे ज़्यादा मशहूर हैं। इनको बिल-तर्तीब आम तौर पर “रसूलों का अक़ीदा”, “निक़ायाह का अक़ीदा” और “अस्नासीस का अक़ीदा” कहा जाता है। ये नाम अवाम ने मशहूर कर रखे हैं, वर्ना “रसूलों का अक़ीदा” जनाब मसीह के मुबारक रसूलों ने वज़अ नहीं किया था और ना “निक़ायाह का अक़ीदा” निक़ायाह की कौंसल ने जो 325 ई॰ में मुनअक़िद हुई थी, वज़ाअ किया था। आप अपने हाथों अपनी लाइल्मी का पर्दा चाक करते हैं। जब आप फ़रमाते हैं कि “अस्नासीस का अक़ीदा कौंसल में मंज़ूर किया गया।” (सफ़ा 57) अस्नासीस का अक़ीदा ना तो मुक़द्दस अस्नासीस ने वज़अ किया और ना वो निक़ायाह की कौंसल में मंज़ूर हुआ था। रसूलों का अक़ीदा जो मग़रिबी कलीसिया की किताब अल-सलवात (کتاب الصلوٰاۃ) में है मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) के मुक़द्दस हवारियों का बनाया हुआ नहीं है, बल्कि वो इब्तिदाई सदीयों में रूमी कलीसिया बुतपरस्त लोगों को बपतिस्मा देने से पहले मसीही उसूल-ए-दीन की ताअलीम से वाक़िफ़ कराने के लिए इस्तिमाल करती थी।

निक़ायाह (نقایاہ) का अक़ीदा जो मग़रिबी कलीसिया की किताब अल-सलवात (الصلوٰۃ) में पाया जाता है, निक़ायाह (نقایاہ) की कौंसल मुनअक़िदह 325 ई॰ में मंज़ूर नहीं हुआ था। बल्कि क़ुस्तुनतुनिया की कौंसल ने 381 ई॰ में मंज़ूर किया था और ख़ल्कीदोन (Chalcedon) की कौंसल ने 451 ई॰ में इस को अज़सर नौ मंज़ूर किया था। बाअज़ उलमा(2) का ख़्याल है कि ये अक़ीदा इब्तिदाई सदीयों में यरूशलेम की कलीसिया में नौ मुरीदों को बपतिस्मे से पहले मसीही उसूल की ताअलीम देने के लिए इस्तिमाल किया जाता था। ये अक़ीदा ग़ालिबन चौथी सदी में वज़अ किया गया था और अभी तक ये मालूम नहीं हो सका कि इसने 381 ई॰ में उस अक़ीदे की जगह किस तरह ले ली जो 325 ई॰ में निक़ायाह (نقایاہ) की कौंसल में मंज़ूर किया गया था।(3) “अस्नासीस का अक़ीदा” जो मग़रिबी कलीसिया की किताब-उल-सलवात (کتاب الصلوٰۃ) में है, मुक़द्दस अस्नासीस के साथ किसी क़िस्म का ताल्लुक़ नहीं रखता। क्योंकि ये बुज़ुर्ग मशरिक़ी कलीसिया के थे और यूनानी ज़बान में लिखा करते थे, लेकिन अक़ीदा जो उन के नाम से मशहूर है, मग़रिबी कलीसिया की दर-हक़ीक़त एक नज़्म है जो किसी शायर ने लातीनी ज़बान में लिखी है और पांचवीं सदी के अवाइल की है। इस का पाया मरहूम हाली के मुसद्दस का सा है। इसी तरह की एक और नज़्म किताब अल-सलवात में सुबह की नमाज़ के उन्वान के तहत है, जिसको “अलहम्द” ((الحمد) )(Te Deum) कहते हैं। “मुक़द्दस अस्नासीस का अक़ीदा” दरहक़ीक़त एक गीत है, जिसको इस अक़ाईद नामे के शुरू की हिदायत के बमूजब मग़रिबी कलीसिया ख़ास ईदों और तहवारों के मौक़े पर “अलहम्द” (الحمد) की तरह इबादत के दौरान में गाया करती थी। आठवीं सदी में इस गीत को मुक़द्दस अस्नासीस की तरफ़ मंसूब किया गया। लेकिन इस का असली नाम “Quicunque” है जो इस का पहला लातीनी लफ़्ज़ है। ये गीत मशरिक़ी कलीसिया की किताब अल-सलवात का हिस्सा नहीं है।

(1) Hahn’s Bibliotheca der symbol (2) e.g. Dr. Hort, Burns, Bethune, Baker etc. (3) Hort’s Two Dissertations.

पस गोया अक़ाईद नामे मग़रिबी कलीसिया की किताब अल-सलवात में पाए जाते हैं और उन कलीसियाओं में ख़ास अवक़ात पर पढ़े और गाय जाते हैं, लेकिन इस से ये साबित नहीं होता कि मशरिक़ व मग़रीब की जम्हूर कलीसिया-ए-जामा उनके अल्फ़ाज़ को ऐसा बुनियादी तसव्वुर करती है कि वो मसीहीय्यत की जान और रूह-ए-रवाँ ख़्याल किए जाएं। क्या किसी शायर की नज़्म के अल्फ़ाज़ (ख़्वाह वो कैसा ही मुत्तक़ी और फ़ाज़िल क्यों ना हो) को इस काबिल ख़्याल किया जा सकता है कि उन पर मुंतक़ीयाना इस्तिदलाल क़ायम किया जाये? ख़ुद मौलवी सना-उल्लाह साहब आए दिन मुसलमान शोअरा (شعراء) की मज़हबी नज़्मों पर अख़्बार अहले हदीस में ले दे करते रहते हैं। क्योंकि इन शोअरा (شعراء) के अल्फ़ाज़ उनके ज़ोअम (गुमान, ज़न (गुमान) में इस्लामी हदूद से तजावुज़ कर जाते हैं। फिर नामालूम वो “अस्नासीस के अक़ीदा” की नज़्म के अल्फ़ाज़ को किस मंतिक़ की रु से फ़लसफ़ियाना इस्तिदलाल की बिना क़ायम करके अपनी किताब के सफ़े काले कर गए हैं।

جو چاہے آپ کا حسن کرشمہ سازکرے

जो चाहे आपका हुस्न करिश्मा साज़ करे

हक़ तो ये है कि मसीही सिवाए कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के कलिमात-ए-तय्यबात के जो अनाजील अर्बा में पाए जाते हैं, किसी शैय को ख़ता से मुबर्रा नहीं मानते। पस वो ना तो कलीसिया को और ना कलीसियाई अक़ाईद नामों को ख़ता से बरी मान सकते हैं। तावक़्ते के ये साबित ना किया जाये कि वो अल्फ़ाज़ मुनज्जी आलमीन (मसीह) के मुक़द्दस अक़्वाल से साबित हो सकते हैं। मग़रिबी कलीसिया की किताब अल-सलवात तक में ये बात ग़ैर मुबहम अल्फ़ाज़ में वाज़ेह भी कर दी गई है। (मसाइल दीन, नंबर 8) लेकिन अमृतसर के मौलवी फ़ाज़िल साहब को तहक़ीक़ हक़ से ग़रज़ होती तो वो इन बातों को मालूम करने की ज़हमत गवारा करते। उन को क्या मालूम कि तमाम मशरिक़ी कलीसिया की किताब सरफ़ अस्नासीस के अक़ीदे की क़ाइल नहीं, बल्कि वो निक़ायाह (نقایاہ) के अक़ीदे को भी इस सूरत में नहीं मानती जो मग़रिबी कलीसिया की किताब अल-सलवात में दर्ज है। क्योंकि उस के ख़्याल में इस के बाअज़ अल्फ़ाज़ जनाब मसीह के कलिमात-ए-तय्यबात से साबित नहीं होते। मौलवी साहब को तो ये भी पता नहीं कि मसीहीय्यत के दायरे में बीसियों कलीसियाएं ऐसी हैं जो इन अक़ाईद नामों के नाम तक से नाआशना हैं।

(3)

मोअतरिज़ ये सवाल कर सकता है कि इन अक़ाईद नामों का वजूद कैसे हुआ? जवाबन अर्ज़ है कि कलीसिया को इन अक़ाईद नामों के वज़ाअ करने की ज़रूरत तब लाहक़ हुई जब कलीसिया में मुख़्तलिफ़ ममालिक के उलमा और मुख़्तलिफ़ अक़्वाम के फुज़ला और फिलासफर एक बड़ी तादाद में शामिल हुए। क़ुदरती तौर पर उन्हों ने अपने अपने इल्म और फ़ल्सफ़ा के ख़यालात के मुताबिक़ इंजील जलील के उसूल को समझना चाहा और बाअज़ शख्सों ने मसीहीय्यत के समझने में ग़लती की और इस कजफ़हमी की बदौलत कलीसिया में बिद्दतें नमूदार (ज़ाहिर) हो गईं। पस कलीसिया-ए-जामा ने मुख़्तलिफ़ ज़मानों में कौंसिलों के ज़रीये इन बिद्दतीयों के अक़ाईद को दुरुस्त किया और लोगों को सहीह अक़ीदा बताया, जो उन के ख़्याल में जनाब मसीह और इंजील जलील के अल्फ़ाज़ पर मबनी था।

जब कोई नई बिद्दत ज़हूर पज़ीर हुई कलीसिया-ए-जामा ने इस बिद्दत का उस ज़माने के इल्म और फ़लसफ़ियाना इस्लाहात के ज़रीये एक अक़ाईद नामा वज़ा करके इस बिद्दत का सद-ए-बाब (दरवाज़ा बंद) कर दिया। मसलन जब नास्तिक बिद्दत पैदा हुई तो अक़ाईद नामे में अल्फ़ाज़ “मैं ईमान रखता हूँ एक ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ बाप पर जो आस्मान व ज़मीन और सब मुरई (दिखाई देने वाली चीजें) और ग़ैर मुरई (दिखाई ना देने वाली) चीज़ों का सानेअ (पैदा करने वाला) है।” ईज़राद (ईज़ाद ग़लत-उल-अवाम है, सहीह इज़दियाद (ازدیاد) बमाअनी ज़्यादा होना) किए गए। जब एरियस की बिद्दत रूनुमा (ज़ाहिर) हुई तो अल्फ़ाज़ “कुल ज़मानों से पेशतर मौलूद, ख़ुदा से ख़ुदा, नूर से नूर, ख़ुदा-ए-बरहक़ से ख़ुदा-ए-बरहक़, मसनूअ (مصنوع) नहीं बल्कि मौलूद (مولود) उस का और बाप का एक ही जोहर है।”, वज़अ किए गए। अला हज़ा-उल-क़यास (इसी क़ियास पर) अक़ाईद नामे मुख़्तलिफ़ बिद्दतों के साथ जंग करने के लिए वज़ाअ किए गए थे और वो इन जंगों की तारीख़ी यादगारें हैं और बस। यही वजह है कि ये अक़ाईद नामे ना तो जामाअ हैं और ना मानेअ हैं, यानी हम ये नहीं कह सकते कि इन अक़ाईद नामों में वो तमाम बातें मौजूद हैं जो मसीही ईमान के लिए लाज़िमी और लाबुदी (ज़रूरी) हैं और कोई ऐसी बात उनमें से नहीं रह गई जो नजात के लिए ज़रूरी हो और जिसका उनमें ज़िक्र ना हो। इन अक़ाईद नामों का वाहिद मक़्सद सिर्फ उन चंद बिद्दतों का सद-ए-बाब (दरवाज़ा बंद) करना था।, जिन्हों ने पहली तीन सदीयों में कलीसिया में सर निकाला था।

(4)

चूँकि इन अक़ाईद नामों का मक़्सद बिद्दती फ़लसफ़ियाना ख़यालात का सिद्दे-बाब करना था। लिहाज़ा उस ज़माने की कलीसिया-ए-जामा ने इंजील जलील के अल्फ़ाज़ की रोशनी में उस वक़्त के इल्म और फ़ल्सफ़ा की इस्तिलाहात के ज़रीये इन बिद्दतों के फ़लसफ़ियाना और सौ फ़सताई (4) (سو فسطائی) ख़यालात की बतालत को तश्त अज़बाम (ज़ाहिर,रुस्वा) किया। लेकिन हर साहिबे-अक़्ल पर ये हक़ीक़त रोशन है कि हर ज़िंदा ज़बान बदलती रहती है और फ़लसफ़ियाना इस्तिलाहात का मफ़्हूम सदीयों बाद वो नहीं रहता जो किसी ज़माने में इन इस्तिलाहात से मुताल्लिक़ था। यही हाल इन अक़ाईद नामों की फ़लसफ़ियाना इस्तिलाहात के मफ़्हूम का है। इन अक़ाईद नामों की फ़लसफ़ियाना इस्तिलाहात बीसवीं सदी में वो मअनी नहीं रखतीं जो पहली तीन सदीयों में उनसे अख़ज़ किया जाता था। बल्कि बाअज़ इस्तिलाहात तो ऐसी हैं जिनके मतलब से मौजूदा ज़माने के हिन्दुस्तानी मुख़ालिफ़ीन-ए-मसीहीय्यत बे-बहरा हैं। चह जाए कि आम्मा-तुन्नास (عامتہ الناس) इनके सहीह माअनों से वाक़िफ़ हों। यही वजह है कि जम्हूर कलीसिया-ए-जामा हर ज़माने में इन ख़ास इस्तिलाहात से इस्तिदलाल नहीं करती रही। बल्कि सिर्फ़ जनाब मसीह के अल्फ़ाज़ को ही तमाम ज़मानों के लिए काबिल-ए-इस्तिनाद समझती रही, मसलन अल्फ़ाज़ “जोहर”, “ज़ात”, “उक़नूम” “शख़्सियत” वग़ैरह जब ख़ुदा की तरफ़ मंसूब किए जाते हैं। इन इस्तिलाहात के मुतालिब जो चौथी सदी के फ़ल्सफ़ा में मुरव्वज थे। वो उनके इस मफ़्हूम से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ हैं जो इन अल्फ़ाज़ से बीसवीं सदी में समझा जाता है। चुनान्चे मरहूम विलियम टम्पल आर्च बिशप आफ़ कंट्टरबरी फ़रमाते हैं :-

“बीसवीं सदी के लोगों को इन इस्तिलाहात के समझने में दिक़्क़त पेश आती है। क्योंकि चौथी सदी के ख़यालात बीसवीं सदी के ख़यालात से कुल्लियतन मुख़्तलिफ़ हैं, मसलन अंग्रेज़ी लफ़्ज़ (5)(Person) का वो मफ़्हूम नहीं जो इस के लातीनी असल (Persona) का है और यूनानी लफ़्ज़ (Hypostasis) का मफ़्हूम इस अंग्रेज़ी लफ़्ज़ से कुल्लियतन मुख़्तलिफ़ है। अगर हम इन दोनों लफ़्ज़ों को हम-मअनी ख़्याल करेंगे तो सख़्त गुमराही के गढ़े में गिरेंगे.....बज़ाहिर ये यूनानी लफ़्ज़ लातीनी लफ़्ज़ (Substantia) का मुतरादिफ़ है। जिसका तर्जुमा ग़लती से (Substance) किया जाता है।……हक़ तो ये है कि बीसवीं सदी के लोग इस शैय को मानते ही नहीं जिसको (Hypostasis) का लफ़्ज़ अदा करता था। इन इस्तिलाहात की बह्स को उन लोगों के लिए छोड़ देना चाहिए जो आसार-ए-क़दीमा और बाक़ियात- ए-सलफ़ में दिलचस्पी रखते हैं। (6)

हक़ तो ये है कि किसी इल्म और फ़ल्सफ़े की इस्तिलाह कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के मुबारक अल्फ़ाज़ के मफ़्हूम की रिफ़अत और वुसअत को कमा-हक़्क़ा बयान नहीं कर सकती, क्योंकि वो बयान से बालातर और बरतर है। चुनान्चे आन्ताकिया की कौंसल में (268 ई॰) में अल्फ़ाज़ “उस का और बाप का एक ही जोहर है।” काबिल ए मुवाख़िज़ा और मौरिद ए इल्ज़ाम समझे गए थे। इब्तिदाई कलीसिया के इसाकिफ़ और बुज़ुर्ग मसीही हक़ायक़ को ऐसे अल्फ़ाज़ और इस्तिलाहात में पेश करने के ख़िलाफ़ थे जो इंजील के अल्फ़ाज़ नहीं थे। क्योंकि इंजील जलील के अल्फ़ाज़ तमाम ज़मानों के लिए मुस्तनद हैं। लेकिन इल्मी और फ़लसफ़ियाना इस्तिलाहात सिर्फ एक ख़ास ज़माने के लिए ही मुफ़ीद रहबर (राहबर) साबित हो सकती हैं और इन्सानी ज़बान अबदी हक़ीक़तों को ज़ाहिर करने में क़ासिर रहती है। इस बात को अक़ाईद नामों के हामी ख़ुद मानते थे। अगरचे उन्हों ने इन अक़ाईद के अल्फ़ाज़ की ख़ातिर सरबक़फ़ हो कर बे शुमार अज़ीयतों को बर्दाश्त किया। मसलन मुक़द्दस हिलेरी (St. Hilary of Peitiers) जो 350 ई॰ में उस्क़ुफ़ के ओहदे पर मुम्ताज़ हुए फ़रमाते हैं(7) :-

“ईमानदार लोग ख़ुदा के कलाम को काफ़ी ख़्याल करते हैं। जिसमें ये हुक्म है कि जाओ और तमाम क़ौमों को बाप, बेटे और रूहुल-क़ुद्दुस के नाम से बपतिस्मा दो। लेकिन हमारे बिद्दती मुख़ालिफ़ीन का नाजायज़ रवैय्या हमको मज्बूर करता है कि हम ऐसी ऊंचाईयां चढ़े, जो रसाई से बाहर हैं और उन बातों को अल्फ़ाज़ की सूरत में पेश करें जो अल्फ़ाज़ में बयान नहीं की जा सकतीं और इस क़िस्म की जसारत की जुर्आत करें। हक़ तो ये है कि हम पर सिर्फ ये वाजिब है कि हम ईमान ही के वसीले से बाप की परस्तिश करें, बेटे की इज़्ज़त करें और रूह से मामूर हो जाएं। लेकिन अब ये बिद्दती उलमा हम को मज्बूर करते हैं कि हम इन्सानी लुग़त जैसी बेबस शैय के ज़रीया ऐसी बातों का ज़िक्र करें जो इस की हद से बाहर हैं और ऐसे उमूर् को जिन का ताल्लुक़ मज़हबी मुराक़बा के साथ है (फ़लसफ़ियाना) अल्फ़ाज़ के ख़तरे और जोखम में डालें।(8)

(4) हुक्मा का एक गिरोह जिस के उसूलों की बुनियाद वहम पर है और जो हक़ाईक़ से मुन्कर है। (5) इन अंग्रेजी, यूनानी, और लातीनी अल्फाज़ का तर्जुमा उर्दू में जोहर, ज़ात, अक़्नुम, शख्स वगैरह किया जाता है। (6) Christus Veritas pp.136.137

मौजूदा ज़माने के मसीही मुतकल्लिमीन ये कोशिश करते हैं कि इन क़दीम इस्तिलाहात के मफ़्हूम को दौर-ए-हाज़रा के ख़यालात और फ़ल्सफ़ा की इस्तिलाहात और अल्फ़ाज़ में पेश करें, ताकि हमारे ग़ैर मसीही बिरादरान इन अबदी सच्चाइयों को समझ सकें जो इन क़दीम व जदीद इस्तिलाहात में मुज़म्मिर हैं। वो इब्तिदाई मसीही सदीयों के ख़यालात और फ़ल्सफ़े से ना-बलद हैं। लिहाज़ा उन को चाहिए कि वो अपने एतराज़ात को अक़ाईद नामों के क़दीम फ़लसफ़ियाना अल्फ़ाज़ पर क़ायम ना क्या करें, बल्कि उन पर वाजिब है कि उन इस्तिलाहात के सर चश्मे यानी इंजील जलील की आयात पर अपने एतराज़ात को क़ायम क्या करें। क्योंकि सिर्फ जनाब मसीह के कलिमात-ए-तय्यबात ही हर मसीही के लिए हुज्जत (दलील, बुरहान) हैं जिनके सामने हर मसीही का सर-ए-तस्लीम ख़म है।

(7) Ibid.Page.128 note. (8) De Trin.ii.1,2.
“यसूअ मसीह पर जो ख़ुदा का इकलौता बेटा और हमारा ख़ुदावंद है वो रूहुल-क़ुद्दुस की क़ुदरत से पेट में पड़ा। कुँवारी मर्यम से पैदा हुआ।”

2. ख़ुदावंद मसीह की पैदाइश की ख़ुसूसीयत

(1)

मसीहीय्यत का इब्तिदा ही से ये अक़ीदा है कि जनाब मसीह ख़ुदा का बेअदील मज़हर और “दुनिया का मुंजी” (दुनिया को निजात देने वाला) है। मसीहीय्यत ने अपनी तारीख़ के किसी ज़माने में भी आँख़ुदावंद को दीगर अम्बिया, औलिया, मुस्लिहीन (मुजद्दिद) या मुर्सलीन (रसूलों) की क़तार में शुमार ना किया। उस के कभी वहम व गुमान में भी ना आया कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को मह्ज़ एक रसूल क़रार दे, जिसकी ज़िंदगी दीगर अम्बिया की ज़िंदगीयों से बेहतर थी और जो इन्सानी कमज़ोरीयों में दीगर इन्सानों से कम मुब्तला था। जिसका काम दीगर अक़्वाम के अम्बिया और मुस्लिहीन (रसूलों) की तरह यहूदी क़ौम और मज़्हब की मह्ज़ इस्लाह करना था। चुनान्चे मुअर्रिख़ लेकि (Lecky) कहता है :-

“मसीहीय्यत ने असबीयत (ताक़त, मज़बूती) के ज़ोर से अपने निज़ाम को जिस क़द्र मज़बूत और मुस्तहकम बना लिया था। ये बात किसी और मज़्हब को नसीब ना थी। मसीहीय्यत के से इंज़िबात (नज़्म व ज़ब्त, ज़ाब्ता) व अस्बीयत से इस के हरीफ़ यकसर मुअर्रा थे। उस ने आते ही साफ़ साफ़ कह दिया कि उस के सिवा दुनिया के तमाम मज़ाहिब बातिल हैं। नजात सिर्फ उस के पैरौओं (मानने वालों) के लिए है और बदनसीब हैं वो जो उस के हलक़े (जमाअत) से बाहर हैं।

इंजील जलील में कहीं इस बात का इशारा तक नहीं पाया जाता कि तमाम मज़ाहिब यकसाँ हैं और कि मसीहीय्यत दीगर मज़ाहिब में से एक मज़्हब है, जिसका बानी दीगर मज़ाहिब के बानीयों में से एक है। इसके बरअक्स इंजील का एक एक सफ़ा इस बात का गवाह है कि मसीहीय्यत और दीगर मज़ाहिब के दर्मियान बाद-उल-मुशरक़ीन का फ़र्क़ है।

(2)

इंजील जलील का पहला वर्क़ (सफहा) ही हमको बताता है कि जनाब मसीह की पैदाइश और दीगर मज़ाहिब-ए-आलम के बानीयों की पैदाइश में फ़र्क़ है। जब से इन्सान ख़ल्क़ किया गया, उस वक़्त से लेकर दौर-ए-हाज़रा तक कोई शख़्स ख़्वाह वो कितना ही अज़ीमुश्शान हुआ हो, जनाब मसीह की तरह बाकिरा (कुँवारी) के बतन अतहर से “ख़ुदा तआला की क़ुदरत” से पैदा नहीं हुआ। (मत्ती 1:20, लूक़ा 1:34 ता 35) और ताक़यामत पैदा ना होगा। इस क़िस्म की पैदाइश सिर्फ़ कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की ज़ात से ही मख़्सूस है और ये ख़ुसूसीयत ऐसी है जिसको मुवालिफ़ व मुख़ालिफ़ दोनों तस्लीम करते हैं। चुनान्चे क़ुरआन मजीद निहायत शद-ओ-मद के साथ इस हक़ीक़त का इक़रार करता है। (सुरह आले इमरान आयात 40 ता 42, सुरह माइदा आयत 109, सुरह मर्यम 16 ता 32 वग़ैरह) क़ुरआन ख़वारिक़-ए-आदत (ख़िलाफ़ आदत पैदाइश) की वजह से मसीह को कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और रूहुल्लाह (روح اللہ) (यानी अल्लाह का कलिमा और अल्लाह की रूह) कहता है और यह एक ऐसी बात है जो क़ुरआन के मुताबिक़ ख़ास मसीह की ज़ात से ही मुताल्लिक़ है और किसी दूसरे शख़्स पर इस लफ़्ज़ का इतलाक़ नहीं हो सकता। चुनान्चे शेख़-उल-इस्लाम इब्ने क़य्यूम जोज़ी “ख़ुदा की तरफ़ रूह की इज़ाफ़त” पर बह्स करते हुए लिखते हैं :-

“अब दो अम्र बाक़ी रह गए। अव़्वल ये कि अगर कोई शख़्स ये कहे कि अगर फ़रिश्ते ने मर्यम में नफ़्ख़ किया था, जिस तरह दीगर इन्सानों में नफ़्ख़ करता है तो मसीह को रूहुल्लाह (روح اللہ) क्यों कहा गया? जब तमाम अर्वाह (रूहें) इसी फ़रिश्ते के नफ़्ख़ से हादिस होती हैं तो मसीह की इस में क्या ख़ुसूसीयत रही? दोम ये कि क्या हज़रत आदम में भी इसी फ़रिश्ते ने रूह फूंकी थी या ख़ुद ख़ुदा ने जिस तरह आदम को अपने हाथों से बनाया था, इसी तरह उसमें रूह भी फूंकी थी? हक़ीक़त में ये दोनों सवाल क़ाबिले ग़ौर हैं। अम्र अव़्वल का जवाब ये है कि “जिस रूह को मर्यम की तरफ़ नफ़्ख़ किया गया, ये वही रूह है जो ख़ुदा की तरफ़ मुज़ाफ़ (मंसूब, पैवस्ता) है और जिस को ख़ुदा ने अपने नफ़्स के लिए मख़्सूस किया है और ये तमाम अर्वाह (रूहों) में एक ख़ास रूह है। ये रूह वो फ़रिश्ता नहीं है जो ख़ुदा की तरफ़ से माँ के पेट में मोमिन और काफ़िर के बच्चों में रूह फूँकता है। बल्कि ये रूह जो मर्यम में नफ़्ख़ की गई, वो ख़ास रूह है जिसको ख़ुदा ने अपनी ज़ात के लिए मख़्सूस किया है।” (किताब अल-रूह, मत्बूआ दायरा अल-मआरूफ़, सफ़ा 227) (کتاب الروح ،مطبوعہ دائرہ المعارف ،صفحہ ۲۲۷)

؎ कुलाहे ख़ुसरवी व ताज शाही बहर किस के रसद हाशाद व कला
بہر کس کے رسد حاشا وکلا ؎ کُلاہِ خُسروی وتاجِ شاہی

पस कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की बेनज़ीर पैदाइश आपकी ही ख़ुसूसीयत है और ये रू-ए-ज़मीन के किसी दूसरे इन्सान को नसीब नहीं। रेनान जैसा आज़ाद ख़्याल और अक़्ल परस्त ये कहने पर मज्बूर हो जाता है कि :-

“मसीह की ज़ात नौअ़ इन्सानी की हक़ीक़ी फ़लाह (कामयाबी) की मज़बूत पुश्त व पनाह है। अगर इस दुनिया से मसीह का नाम मिट जाये तो दुनिया की बुनियादें खोखली हो जाएं। वो ऐसी बे नज़ीर हस्ती है जिसके हाथ में दुनिया की बागडोर है और जिस के ज़रीये इन्सान ख़ुदा के पास पहुंच सकता है। नौअ़ इन्सानी (इंसानियत) के लिए उस की ज़िंदगी एक ज़बरदस्त नमूना है। अगर वो हमारे सीनों में मस्कन गज़ीन नहीं होता तो हम को हक़ीक़ी रास्तबाज़ी और पाकीज़गी हासिल नहीं हो सकती।”

कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की शख़्सियत ही एक ऐसी वाहिद शख़्सियत है जिसकी ताअलीम और नमूने को हर ज़माना, मलिक और क़ौम के करोड़ों अफ़राद अपना नस्ब- उल-ऐन बनाए हुए हैं। मशरिक़ और मग़रिब, शुमाल और जुनूब सब का सर आप की ज़ात के सामने झुका हुआ है। जनाब मसीह अकेला वाहिद मशरिक़ी शख़्स है, जिसके सामने अहले मग़रिब और अहले मशरिक़ सब के सब सरबसजूद हैं। इब्ने-अल्लाह की ज़ात कामिल है। आपकी सिफ़ात जामा हैं और आप का नमूना कुल बनी नौ इन्सान के लिए कामिल और अकमल है। बक़ौल मौलाना रूम :-

؎ दर्बशर् रूपोश कर्दा अस्त आफ़ताब फ़हम कुन अल्लाह आलम बिलसवाब
सुर तश बरखाक वजां बिरलइम्कान लामकाने फ़ौक़ वहम सालकां
فہم کُن اللہ اعلم بالصواب ؎ دربشر رُوپوش کردہ است آفتاب
لامکانے فوق وہم سالکاں صورتش برخاک وجاں برلامکان

3. कुँवारी मर्यम से पैदा हुआ।

(1)

मुक़द्दस लूक़ा इंजील नवीस फ़रमाते हैं कि जो बातें आपने अपनी इंजील में लिखी हैं “उन सब का सिलसिला शुरू से ठीक ठीक दर्याफ़्त कर के” तर्तीबवार उन को तहरीर किया है। पस आपने जनाब मसीह की मोअजज़ाना पैदाइश का वाक़िया जो इंजील मरक़ुस में ना था “ठीक ठीक दर्याफ़्त करके” लिखा है। आपके दीबाचे के अल्फ़ाज़ इस बात की गारंटी हैं कि आप गवाहों की शहादत की छानबीन और जांच पड़ताल करने की अहलीयत रखते थे। आपके नज़्दीक हर शैय की तह को पहुंचना बड़ी एहमीय्यत रखता था। आप ये निहायत ज़रूरी अम्र समझते थे कि हर अम्र शुरू से दर्याफ़्त किया जाये और उस की सेहत मालूम की जाये ताकि किसी क़िस्म के शुब्हा व शक की गुंजाइश ना रहे।(حرف عطف) “और” से पैवस्ता हैं। ये तर्ज़ तहरीर मुक़द्दस लूक़ा का नहीं है, बल्कि इस से मालूम होता है कि इंजील नवीस मज़्कूर किसी इब्रानी माख़ज़ का यूनानी ज़बान में तर्जुमा कर रहे हैं। इस से साबित होता है कि फ़रिश्ते का मुक़द्दस बीबी मर्यम बुतोला को “बशारत” देने का वाक़िया इंजील लूक़ा की तालीफ़ से बहुत पहले इब्रानी ज़बान में बशक्ल तहरीर कलीसिया में मौजूद और मुरव्वज था। हम इस तहरीरी माख़ज़ के अहाता तहरीर में आने का ठीक वक़्त यक़ीनी तौर पर मुतय्यन नहीं कर सकते। हाँ हम ये ज़रूर कह सकते हैं कि इन दो इब्तिदाई अबवाब के नफ़्स-ए-मज़मून का मुतालआ ये ज़ाहिर कर देता है कि ये बयानात अपनी मौजूदा शक्ल में मुनज्जी जहान के मस्लूब होने के बाद नहीं लिखे जा सकते थे। क्योंकि इन अबवाब में इस्राईल के बहाल होने, और ख़ुदा के वादों के पूरा होने का जिन अल्फ़ाज़ में ज़िक्र किया गया है, वो इस सूरत में पूरे नहीं हुए थे जिसकी यहूद को तमन्ना थी। इन तमन्नाओं और उम्मीदों पर कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की ताअलीम और रवैय्ये से पानी फिर गया और उन्हीं वजूह के बाइस सलीब का वाक़िया रूनुमा (ज़ाहिर) हुआ। अगर ये बात वाक़िया सलीब के बाद लिखी जाती तो हम को इन अबवाब में यहूदी तमन्नाओं, उमंगों और आर्ज़ूओं की ख़ुशी की झलक ना मिलती, जो अब इन अबवाब में झलकती नज़र आती है।

(2)

इन अबवाब के सरसरी मुतालए (पढ़ने) से ज़ाहिर है कि मुनज्जी आलमीन (मसीह) की पैदाइश का वाक़िया मुक़द्दसा मर्यम के नुक़्ता निगाह से लिखा गया है। सिद्दीक़ा के इलावा कोई दूसरा शख़्स इस का बताने वाला नहीं हो सकता। पहले पहले हज़रत बीबी साहिबा ने “ये सब बातें अपने दिल में रखीं” (लूक़ा 2:51) लेकिन मालूम होता है कि मुनज्जी जहान की सलीबी मौत के जां काह (तक्लीफ़-दह) वाक़िये ने सिद्दीक़ा की “जान को ऐसा छेदा” (लूक़ा 2:35) कि वो जांबर (जाँ-बर: महफ़ूज़, सहीह सलामत) ना हो सकीं और थोड़े अर्से के बाद इस दार-ए-फ़ानी से कूच कर गईं। क्योंकि रूहुल-क़ुद्दुस के नुज़ूल के बाद आपके मुबारक नाम का इंजीली मजमूए में ज़िक्र नहीं आता। अपनी हीने-हयात (जीते जी) में मुक़द्दसा “इन सब बातों को अपने दिल में रख कर उन पर ग़ौर किया करती थीं।” (लूक़ा 2:19) इन मअनी ख़ेज़ वाक़ियात की एहमीय्यत को पेश-ए-नज़र रख कर आपने आँख़ुदावंद की वफ़ात से पहले उनका ज़िक्र उन औरतों से किया होगा जो आप की हमराज़ और आप के बेटे की ग़मगुसार थीं। (लूक़ा 1:39, 8:3 आमाल 1:15 वग़ैरह) यूं ये राज़ अहाता तहरीर में आ गया होगा ताकि रूहुल-क़ुद्दुस की ज़ेर-हिदायत कलीसिया इन अहम वाक़ियात के गहरे मफ़्हूम को समझ सके।

(3)

मुक़द्दस मत्ती रसूल ने भी अपनी इंजील के आग़ाज़ में मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) की एजाज़ी पैदाइश का वाक़िया बयान किया है। दोनों इंजील नवीस इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि आँख़ुदावंद की पैदाइश एक पाक कुँवारी के बतन से हुई। इन दोनों के बयान में तफ़ावुत और फ़र्क़ है, लेकिन तज़ाद नहीं। ये तफ़ावुत क़ुदरती है, क्योंकि मुक़द्दस लूक़ा मुक़द्दसा मर्यम सिद्दीक़ा के नुक़्ता निगाह को पेश करते हैं। लेकिन मुक़द्दस मत्ती के बयान का सतही मुतालआ ये ज़ाहिर कर देता है कि वो हज़रत यूसुफ़ के नुक़्ते निगाह से लिखा गया है और इस दुनिया में सिर्फ यही दो शख़्स हो सकते थे जिनको आँख़ुदावंद की एजाज़ी पैदाइश का हक़ीक़ी इल्म हो सकता था। इंजील अव़्वल में हज़रत यूसुफ़ का बयान है। हज़रत की परेशानी और तज़बज़ब की हालत और तलाक़ देने वग़ैरह का ख़्याल, ये सब ज़ाहिर करते हैं कि ये हैरानकुन उमूर् हज़रत यूसुफ़ के ज़हन में थे। क़राइन (क़रीना की जमा, क़ियास, अंदाज़ा) से मालूम होता है कि हज़रत यूसुफ़ आँख़ुदावंद की जवानी के अय्याम में वफ़ात पा चुके थे। पस आपने वफ़ात से पहले किसी राज़दार दोस्त को बताया होगा जिससे ये हाल मुक़द्दस मत्ती ने हासिल किया।

(4)

जब हम मुक़द्दस लूक़ा और मुक़द्दस मत्ती के बयानात पर बनज़र तअमीक़ निगाह करते हैं तो हम देखते हैं कि मुक़द्दस लूक़ा के बयान का मुक़द्दस मत्ती के बयान पर किसी क़िस्म का असर नहीं और ना इंजील अव़्वल का बयान इंजील सोम (तीसरी) के बयान पर असर अंदाज़ है। दोनों बयानात एक दूसरे से ग़ैर मुताल्लिक़ हैं। दोनों की हैसियत उन गवाहों की सी है जो आज़ाद हैं और जिन्हों ने मिलकर कोई अफ़साना या मन घड़त बात नहीं बनाई। पस दोनों की मुत्तफ़िक़ा शहादत आँख़ुदावंद की मोअजज़ाना पैदाइश की निहायत मज़बूत और ज़बरदस्त दलील है।

(5)

मुक़द्दस मरक़ुस की इंजील में मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) की पैदाइश का ज़िक्र नहीं पाया जाता, लेकिन इस से ये साबित नहीं होता कि आप आँख़ुदावंद की एजाज़ी पैदाइश के क़ाइल ना थे। इंजील मरक़ुस के लिखने का मक़्सद “सब बातों का सिलसिला शुरू से” मुरत्तिब करना ना था, बल्कि मुक़द्दस मरक़ुस का मक़्सद ये था कि मसीही नौ मुरीदों (नए ईमान वालों) के हाथों में एक ऐसी मुख़्तसर किताब हो जिस में हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के चंद मोअजज़ात और बिलख़सूस मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) की ज़िंदगी के आख़िरी हफ़्ते का तफ़्सीली ज़िक्र हो। यही वजह है कि आप आँख़ुदावंद की सह साला ख़िदमत का ज़िक्र बीस सफ़्हों में करते हैं। लेकिन आख़िरी हफ़्ते का ज़िक्र सोलाह सफ़्हों में ऐसी बारीक तफ़्सील से करते हैं कि वो डायरी या रोज़नामचा मालूम होता है। इसी लिए बाअज़ उलमा कहते हैं कि ये इंजील दरहक़ीक़त सलीबी वाक़िये का बयान है, जिसमें पहले बीस सफ़्हों का एक तवील दीबाचा है।

चूँकि इस इंजील का शुरू आँख़ुदावंद के बपतिस्मे से होता है, लिहाज़ा इस में आपकी पैदाइश का ज़िक्र नहीं पाया जाता। पस मरक़ुस की इंजील की ख़ामोशी से हम ये नतीजा अख़ज़ नहीं कर सकते कि इंजील नवीस को मुनज्जी जहान की एजाज़ी पैदाइश का इल्म ना था या वो उस के क़ाइल ना थे। इस के बरअक्स ये एक माअनी-ख़ेज़ नुक्ता है कि जहां मुक़द्दस मत्ती लिखते हैं “क्या ये बढ़ई का बेटा नहीं?” (मत्ती 13:55) वहां मुक़द्दस मरक़ुस हज़रत यूसुफ़ की तरफ़ अपनी तमाम इंजील में इशारा तक नहीं करते और इस मुक़ाम पर लिखते हैं “क्या ये वही बढ़ई नहीं जो मर्यम का बेटा है?” (मरक़ुस 6:3)

(6)

मुक़द्दस युहन्ना की इंजील मुक़द्दस मत्ती रसूल की इंजील के बाद लिखी गई। जब हम इंजील चहारुम (चौथी इंजील युहन्ना) का पहली तीन अनाजील से मुक़ाबला करते हैं तो हम देखते हैं कि मुक़द्दस युहन्ना बाअज़ जगह उनकी तर्तीब की इस्लाह करते हैं। मसलन मरक़ुस 14:12, मत्ती 26:17, लूक़ा 22:7 की तर्तीब की इस्लाह अपनी इंजील के ज़रीये करते हैं (युहन्ना 13:1) अगर मुक़द्दस युहन्ना इंजील अव्वल या इंजील सोम के बयान या दोनों बयानों को ग़लत ख़्याल फ़रमाते तो ज़रूर आप इस बयान की भी इस्लाह करते। लिहाज़ा आप की माअनी-ख़ेज़ ख़ामोशी इन बयानात पर मुहर तस्दीक़ सब्त करती है और उस से साबित होता है कि आपां ख़ुदावंद की माफ़ौक़-उल-आदत पैदाइश के यक़ीनन क़ाइल थे।

ع خموشی معنیٔدارد کہ درگفتن نمی آید۔

ع ख़मोशी मअनइद इर्द कि दरगुफ़्तन नमी आयेद

इस सिलसिले में एक और नुक्ता भी काबिल-ए-ग़ौर है। इंजील चहारुम (चौथी इंजील युहन्ना) का मक़्सद मसलह तजस्सुम (مسئلہ تجسم) को साबित करना था और आँ ख़ुदावंद की मोअजज़ाना पैदाइश इस अहम और वसीअ मौज़ू की एक शाख़ थी। जो लोग आँख़ुदावंद के तजस्सुम के क़ाइल थे, वो आपकी माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत (आम फितरत से हट कर) पैदाइश के भी क़ाइल थे और तजस्सुम के मुन्किर मोअजज़ाना पैदाइश के भी मुन्किर थे। पस जब इंजील नवीस फ़रमाता है कि “कलाम मुजस्सम हुआ और फ़ज़्ल और सच्चाई से मामूर हो कर हमारे दर्मियान रहा और हम ने उस का ऐसा जलाल देखा जैसा बाप के इकलौते का जलाल।” (युहन्ना 1:14) तो ज़ाहिर है कि तजस्सुम के इक़रार में एजाज़ी पैदाइश का इक़रार भी शामिल है। क्योंकि ये दोनों लाज़िम-ओ-मलज़ूम (لازم وملزوم) समझे जाते थे।

मुक़द्दस युहन्ना अपनी इंजील के दीबाचे में फ़रमाते हैं “वो ना ख़ून से, ना जिस्म की ख़्वाहिश से, ना इन्सान के इरादे से बल्कि ख़ुदा से पैदा हुए।” (युहन्ना 1: 13) इस आयत की एक और क़िरआत (قرأت) है, जिसको योस्तीन शहीद (Justin Martyr) बिशप इरेनीस (Irenaeus), तर्तलियाँन (Tertullian) और हपयालीत (Hippolytus) इस्तिमाल करते हैं और जिस में फे़अल (فعل) बजाय जमाअ (جمع बहुवचन) होने के वाहिद (واحد एक-वचन) है। जिसका मतलब ये हुआ कि इस आयह शरीफ़ा में इशारा मोमिनीन और मोमिनात की तरफ़ नहीं, बल्कि आँख़ुदावंद (मसीह) की तरफ़ है। आयत यूं है :-

“वो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ना ख़ून से, ना जिस्म की ख़्वाहिश से, ना इन्सान के इरादे से बल्कि ख़ुदा से पैदा हुआ।”

अगर ये क़िरआत (قرأت) सहीह है तो मुक़द्दस युहन्ना मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) के मुक़द्दसा मर्यम कुँवारी के बतन से पैदा होने का ज़िक्र निहायत वाज़ेह अल्फ़ाज़ में करते हैं।

लेकिन अगर ये क़िरआत (قرأت) सहीह ना भी माअनी जाये तो भी ये सवाल पैदा होता है कि इंजील नवीस अल्फ़ाज़ “ना इन्सान के इरादे से” इस्तिमाल करके क्यों उन को ख़ुदा के फ़रज़न्दों की पैदाइश का नमूना क़रार देता है? चूँकि वो इन अल्फ़ाज़ से मोमिनीन की रुहानी पैदाइश को (जो क़वानीन फ़ित्रत की वजह से हासिल नहीं हुई) एक नमूना क़रार देता है। लिहाज़ा ये ज़ाहिर है कि उस के ज़हन में हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की मोअजज़ाना पैदाइश का तसव्वुर मौजूद है और इंजील नवीस का मतलब ये है कि जिस तरह मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) इस दुनिया में माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत तौर पर पैदा हुए, इसी तरह मोमिनीन और मोमिनात जो ख़ुदा के फ़र्ज़ंद हैं, एक माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत (आम फित्रत से हट कर) आलम में रुहानी तौर पर पैदा होते हैं।

पस अनाजील अरबा (चारो अनाजील) सराहतन और किनायतन (صراحتاًیاکنایتہً) मुनज्जी जहान (जनाबे ईसा) की एजाज़ी पैदाइश का इक़रार करती हैं और इस को एक तारीख़ी वाक़िया तस्लीम करती हैं जो फ़ी-उल-हक़ीक़त साढे़ उन्नीस सौ साल हुए ज़मान व मकान की क़ुयूद के अंदर इस दुनिया में रूनुमा (ज़ाहिर) हुआ। इंजीली बयान की अंदरूनी शहादत साबित करती है कि ये बयान किसी इन्सान की क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला (قوتِ متخیلہ) का मरहून एहसास नहीं है, बल्कि उस की बुनियाद हक़ीक़त की चट्टान पर क़ायम है। यही वजह है कि गो इस इमारत पर सदीयों से मुख़ालिफ़ीन की तन्क़ीद की आंधीयां चलीं और कुफ़्र के सेलाब की बाड़ें आईं, लेकिन ये घर ना गिरा। क्योंकि इस की बुनियाद तारीख़ की मुहकम चट्टान पर है।

“उस ने पनतीस पीलातुस के अह्द में दुख उठाया, मस्लूब हुआ, मर गया और दफ़न हुआ।”

4. क्या ख़ुदा मस्लूब किया गया था?

मिर्ज़ा साहब क़ादियानी (ग़फुर अल्लाह ज़ुनुबा) बार-बार अपनी किताबों में लिखते हैं कि “ईसाईयों का ख़ुदा मुर्दा है।” मौलवी सना-उल्लाह मरहूम भी आं जहानी मिर्ज़ा जी के इस किज़्ब व इफ़्तरा (झूट और बोहतान) के मुसद्दिक़ हैं और ख़्याल फ़रमाते हैं कि “मसीहीय्यत के मुताबिक़ ख़ुदा (नऊज़-बिल्लाह) मस्लूब किया गया था।” (इस्लाम और मसीहीय्यत, सफ़ा 66 और सफ़ा 110 वग़ैरह) लेकिन ना तो हमारे स्वदेशी (अपने देस का) मुल्की नबी के इल्हाम और टीची टीची फ़रिश्ते ने और ना उनके अमृतसरी मौलवी फ़ाज़िल मुसद्दिक़ के मफ़रूज़ा इल्म व फ़ज़ल ने उनको इस बात की इजाज़त दी कि वो इस क़िस्म की लग़वयात को लिखने से पहले मसीही अक़ाईद से कम अज़ कम सतही वाक़फ़ीयत ही हासिल कर लें। इन बेचारों को क्या मालूम कि इंजील जलील और जम्हूर कलीसिया-ए-जामा ने इस क़िस्म की लग़वयात जो इन की किताबों की ज़ीनत हैं, सदीयों से बिद्दत क़रार दे रखा है।

अमृतसरी मौलवी साहब को “मुक़द्दस अस्नासीस का अक़ीदा” बहुत मर्ग़ूब (पसंद) है। अगरचे वो ये नहीं जानते कि इस को किस ने और कब मुरत्तिब किया था। (सफ़ा 57) अगर वो इसी अक़ीदे का बग़ौर मुतालआ कर लेते तो वो इस लग़्ज़िश से बच जाते। चुनान्चे इस में लिखा है “अक़ीदा जामा`अ ये है कि हम तस्लीस में ख़ुदा-ए-वाहिद की और तौहीद में तस्लीस की परस्तिश करें, ना अक़ानीम को मख़लूत करें और ना जोहर ज़ात को तक़्सीम करें। क्योंकि बाप की इकनुमीयत (اقنومیت) और है, इब्न की और है और रूहुल-क़ुद्दुस की और है।” पस मसीही अक़ीदा तीनों अक़ानीम में तमीज़ करके बाप और बेटे में फ़र्क़ करता है और एक उक़नूम (اقنوم) को दूसरे से जुदा करता है, क्योंकि बाप का रूप और है बेटे का रूप और। लेकिन आं जहानी मर्ज़-ए-क़ादियानी और उन के मुसद्दिक़ मौलाना-ए-अमृतसर “अक़ानीम को मख़लूत” करके कहते हैं कि ख़ुदा मस्लूब किया गया, जो मसीही ताअलीम नहीं और जिस को मसीहीय्यत हमेशा कुफ़्र क़रार देती चली आई है। मौलवी सना-उल्लाह अक़ानीम को मख़लूत करते हैं, क्योंकि वो लफ़्ज़ “उक़नूम” (اقنوم) का मफ़्हूम ही नहीं जानते। चुनान्चे कभी वो उक़नूम से मतलब “रुकन” (رکن) लेते हैं। (सफ़ा 62) और कभी इस मुराद “जुज़्व” (جزو) लेते हैं। (सफ़ा 63) और यह नहीं जानते कि इंजील जलील और मसीही अक़ाईद के मुताबिक़ ये मअनी ना सिर्फ नाजायज़ हैं, बल्कि मर्दूद हैं।

मौलवी सना-उल्लाह साहब इस मकरूह हरकत का इर्तिकाब इसलिए करते हैं कि वो बज़इम ख़वेश अपनी पेश कर्दा क़ुरआनी आयात की ताईद करें। (सफ़ा 63), जिनमें लिखा है :-

لَقَدۡ کَفَرَ الَّذِیۡنَ قَالُوۡۤا اِنَّ اللّٰہَ ہُوَ الۡمَسِیۡحُ ابۡنُ مَرۡیَمَ

“बेशक वो लोग हक़ से मुन्किर हो चुके जिन्हों ने ये कहा कि अल्लाह ऐन मसीह इब्ने मरियम है। (सुरह माइदा आयत 72)

لَقَد کَفَرَ الَّذِیۡنَ قَالُوۡۤا اِنَّ اللّٰہَ ثَالِثُ ثَلٰثَۃٍ

“बिलाशुब्हा वो लोग भी काफ़िर हैं जो कहते हैं कि अल्लाह तीन में से एक है।” (सुरह माइदा आयत 73) लेकिन जनाब मौलवी साहब को ये सुझाई नहीं देता कि ये आयात सहीह मसीही अक़ाईद, उलुहियत-ए-मसीह और तस्लीस के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि उन बिद्दती काफ़िरों के ख़िलाफ़ हैं जिन पर जम्हूर कलीसिया ने नुज़ूल क़ुरआन से सदीयों पहले कुफ़्र का फ़त्वा लगाया हुआ था। क्योंकि वो हज़रत मौलाना की तरह “अक़ानीम को मख़्लूत” करते और “जोहर ज़ात को तक़्सीम” करते थे। यही वजह है कि क़ुरआन इन बिद्दती ईसाईयों को (और मौलवी सना-उल्लाह साहब को भी) पिछली और अगली आयात में तंबीयह करके कहता है। “अहले-किताब तुम कुछ राह पर नहीं हो, जब तक कि तुम तौरेत और इंजील पर क़ायम ना हो जाओ.....सिवाए एक माअ्बूद के और कोई माअ्बूद नहीं है। तुम अपने दीन में नारवा ज़्यादती ना करो और उन लोगों के ख़यालात को ना मानो जो गुमराह हो गए और बहुतों को बहका गए और आप सीधी राह से भटक गए।” (सुरह माइदा 14) एन सुतूर से हमारा ये मतलब नहीं है कि क़ुरआन तौहीद-फ़ील-तस्लीस की ताअलीम देता है, बल्कि वो इन आयात में लोगों को चंद बिद्दतों के ख़िलाफ़ आगाह करता है। गो वह ख़ुद एक और क़िस्म की ग़लती में पड़ गया है। क्योंकि उलूहियत-ए-मसीह और तस्लीस के बारे में क़ुरआनी ताअलीम बईना आरयूस (Arius) की ताअलीम देता है, जिसको कलीसिया-ए-जामा`अ ने बिद्दत क़रार दे दिया था।

जमहूर कलीसिया-ए-जामा`अ का सहीह अक़ीदा ये है “मैं ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ बाप पर ईमान रखता हूँ....और यसूअ मसीह पर जो उस का इब्ने वहीद और हमारा ख़ुदावंद है। वो मुजस्सम हुआ और इन्सान बना, मस्लूब हुआ, मर गया, तीसरे दिन जी उठा।” (रसूलों का अक़ीदा और निक़ायाह (نقایاہ) का अक़ीदा) इन अक़ाईद नामों में बाप और बेटे में तफ़रीक़ व तमीज़ की गई है। “ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ बाप” मस्लूब नहीं हुआ, बल्कि “यसूअ मसीह जो उस का इब्न वहीद है मस्लूब हुआ।” बाप बेटा नहीं और बेटा बाप नहीं है। दोनों अक़ानीम में इम्तियाज़ किया गया है। “अक़ानीम मख़लूत” नहीं किए गए और ना जोहर ज़ात को तक़्सीम किया गया है। बाप का रूप जुदा है, बेटे का रूप अलग है। पस सहीह मसीही ईमान के मुताबिक़ ख़ुदा बाप मस्लूब नहीं हुआ, बल्कि इब्न वहीद यसूअ मसीह जो इन्सान बना, वो मस्लूब हुआ। जैसा कि हम ज़िक्र कर चुके हैं तारीख़ कलीसया में ऐसे नादान लोग पैदा हुए जो अक़ानीम को मख़लूत करके ये ताअलीम देते थे कि ख़ुदा क़ादिर मुतलक़ बाप हमारे गुनाहों की ख़ातिर मस्लूब हुआ। ऐसे लोगों की ताअलीम को जम्हूर कलीसिया-ए-जामा`अ ने कुफ़्र क़रार दिया। इस कुफ़्र आमेज़ ताअलीम को लातीनी में “पाटरीपेशन” (9) और यूनानी में “थियुपिसकीशेईन” कहते हैं। इस ताअलीम का बानी परेक्सीअस था।

इंजील जलील की हर किताब में ख़ुदा बाप और बेटे में हर जगह तमीज़ व तफ़रीक़ की गई है। चुनान्चे मुक़द्दस पौलुस रसूल फ़रमाता है “अगरचे आस्मान व ज़मीन में बहुत से ख़ुदा कहलाते हैं, लेकिन हमारे नज़्दीक तो एक ही ख़ुदा है यानी बाप और एक ही ख़ुदावंद है यानी यसूअ मसीह” (1 कुरंथियो 8:5-6) यही वजह है कि इंजील जलील में “ख़ुदा बाप” के लिए लफ़्ज़ “हो थीयुस”(10) (बमाअनी ख़ुदा) आया है, लेकिन “इब्ने-अल्लाह के लिए लफ़्ज़ “क्यूरीउस” (बमाअनी आक़ा या ख़ुदावंद) आया है। जनाब मसीह के लिए सिफ़त के तौर पर एक जगह “थीयुस” (बमाअनी ईलाही) आया है। (युहन्ना 1:1) लेकिन वहां भी “हो थीयुस” नहीं आया, क्योंकि ये लफ़्ज़ सिर्फ़ ख़ुदा बाप के लिए मख़्सूस है। चुनान्चे बिशप वेस्टिकट साहब अपनी तफ़्सीर में फ़रमाते हैं कि :-

“अगर हम कहें कि कलाम “हो थीयुस” था तो हम सबलेन (Sabellian) बिद्दत के मुर्तक़िब होते हैं। क़ुरआन भी इसी बिद्दत की तरफ़ इशारा करता है। जब वो ये कहता है “बेशक वो लोग हक़ से मुन्किर हो चुके हैं, जो यह कहते हैं कि अल्लाह ऐन मसीह इब्ने मर्यम है।” (सुरह माइदा आयत 72)

उम्मीद है कि हमारे ग़ैर मसीही बिरादरान अब समझ गए होंगे कि हम कट्टर मवाहिद हैं। हम अब्ब (اب) और “इब्न” (ابن) में तमीज़ करके ये नहीं कहते कि ख़ुदा मस्लूब किया गया है। ना हम किसी मस्लूब ख़ुदा पर ईमान रखते हैं और ना हमारा ख़ुदा मुर्दा है। बल्कि हम ईमान रखते हैं “एक क़ादिर-ए-मुतलक़ बाप पर और एक ख़ुदावंद यसूअ मसीह पर जो ख़ुदा का इकलौता बेटा है। वो हम आदमीयों के लिए और हमारी नजात के वास्ते आस्मान पर से उतर आया और पन्तीस पीलातुस के अह्द में हमारे लिए मस्लूब हुआ। वो मारा गया और दफ़न हुआ और तीसरे रोज़ पाक नविश्तों के बमूजब जी उठा।”

5. ख़ुदा का बर्रह

“देखो ये ख़ुदा का बर्रह है जो दुनिया का गुनाह उठा ले जाता है।”

(युहन्ना 1:29)

(9) Patripassian Theopaschilian Prexeas (10) ’

बाअज़ मुख़ालिफ़ीन इंजील ये एतराज़ करते हैं कि मुंदरजा बाला अल्फ़ाज़ मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी की ज़बान से नहीं निकल सकते, क्योंकि आपकी मुनादी के अल्फ़ाज़ जो इंजील अव्वल के तीसरे बाब में तफ़्सील के साथ मुंदरज हैं मुंदरजा बाला फ़िक़्रे के अल्फ़ाज़ के साथ मुंतबिक़ नहीं हो सकते। मज़ीद बरआँ इस फ़िक़्रह के अल्फ़ाज़ जनाब मसीह के कफ़्फ़ारे की तरफ़ इशारा करते हैं, लेकिन बारह रसूलों की समझ में कफ़्फ़ारे की ताअलीम इब्ने-अल्लाह की ज़फ़रयाब क़ियामत (जी उठने) के बाद आई थी। (लूक़ा 24:21,26) लेकिन ये एतराज़ दरहक़ीक़त बे-बुनियाद है। जब हम अनाजील सलासा (मत्ती, मरकुस, लूक़ा) में मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी की मुनादी के अल्फ़ाज़ को ग़ौर और तदब्बुर के साथ पढ़ते हैं तो हम पर वाज़ेह हो जाता है कि इंजील चहारुम (युहन्ना की इंजील) की मुनादी के अल्फ़ाज़ और बिलख़सूस ये आयत शरीफ़ इस मुनादी के बसीरत अफ़रोज़ मज़्मून के ऐन मुताबिक़ है।

(1)

सब मुख़ालिफ़ व मवालिफ़ इस अम्र को तस्लीम करते हैं कि इस आयत शरीफ़ के अल्फ़ाज़ का हवाला यसअयाह नबी के सहीफ़े के 53 बाब की तरफ़ है, जिसमें ख़ुदा के ख़ादिम के मिशन की हक़ीक़त, उस की आमद की इल्लत-ए-ग़ाई (वजह) और मक़्सद का ज़िक्र है। यसअयाह नबी की किताब के दूसरे हिस्से (अज़बाब 40 ता 55) में इस मक़्सद के मौज़ू पर तफ़्सीली बह्स की गई है और इस मौज़ू का 61 बाब में भी ज़िक्र है, जिसकी इब्तिदाई आयात का इतलाक़ हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने अपने ऊपर किया था। (लूक़ा 4:16 ता-आखिर) क्योंकि इन आयात में ख़ुदा के ख़ादिम का हक़ीक़ी मतमअ (مطمع) नज़र वाज़ेह किया गया है। चारों अनाजील इस बात की शाहिद (गवाह) हैं कि मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी ने सहीफ़े यसअयाह के दूसरे हिस्से की आयात का इतलाक़ अपने ऊपर किया था। (यसअयाह 40:3, मत्ती 3:3, मरक़ुस 1:2, लूक़ा 3:4, युहन्ना 1:23) उस के ख़्याल में उस की आमद का हक़ीक़ी मक़्सद यसअयाह 40:3 में मुज़म्मिर था। पस ज़ाहिर है कि उस ने यसअयाह के सहीफ़े के दूसरे हिस्से का बनज़र ग़ाइर मुतालआ किया था और उस के मौज़ू से कमा-हक़्क़ा वाक़िफ़ था, जो “ख़ुदा के ख़ादिम” के तसव्वुर से मुताल्लिक़ है।

चारों इंजीलों का इस अम्र पर भी इत्तिफ़ाक़ है कि मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी अपने आपको एक ऐसे “आने वाले” का पेशरु समझता था, जो “मुझसे ज़ोर-आवर है। मैं उस की जूतीयां उठाने के लायक़ नहीं। वो रूहुल-क़ुद्दुस और आग से बपतिस्मा देगा।” उस की मुनादी के अल्फ़ाज़ से ये भी ज़ाहिर है कि उस के ख़्याल में “वो शख़्स जो मेरे बाद आता है और जो मुझ से मुक़द्दम ठहरा।”, दरहक़ीक़त वही “ख़ुदा का ख़ादिम” है जिस का ज़िक्र सहीफ़े यसअयाह में आता है। इस एक बात पर हज़रत इब्ने-अल्लाह और मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी दोनों मुत्तफ़िक़ हैं। चुनान्चे आँ ख़ुदावंद मुक़द्दस युहन्ना की निस्बत फ़रमाते हैं कि “ये वही है जिसकी बाबत लिखा है कि देख में अपना पैग़म्बर तेरे आगे भेजता हूँ। जो तेरी राह तेरे आगे तैयार करेगा।” (मत्ती 11:10) हज़रत इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) और मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी दोनों इस अम्र से कमा-हक़्क़ा वाक़िफ़ थे कि आँ ख़ुदावंद ही दरहक़ीक़त “वो ख़ुदा का ख़ादिम” हैं, जिसका ज़िक्र सहीफ़े यसअयाह में है। यही वजह है कि जब मुक़द्दस युहन्ना ने “पुछवा भेजा कि आने वाला तूही है या हम दूसरे की राह देखें” तो आपने जवाब दिया “जो कुछ तुम सुनते और देखते हो जाकर युहन्ना से बयान कर दो कि अंधे देखते और लंगड़े चलते फिरते हैं। कौड़ी पाक साफ़ किए जाते हैं। और बहरे सुनते हैं और मुर्दें ज़िंदा किए जाते हैं। और ग़रीबों को ख़ुशख़बरी सुनाई जाती है और मुबारक वो है जो मेरे सबब से ठोकर ना खाए” (मत्ती 11:2 ता 6) और इस को साबित करने के लिए आपने इसी घड़ी बहुतों को बीमारीयों और आफ़तों और बुरी रूहों से नजात बख़्शी और बहुत से अँधों को बीनाई अता की।” (लूक़ा 7:21) ताकि आप मुक़द्दस युहन्ना को (जो बीम विर्जा (ख़ौफ़ और उम्मीद) और तज़बज़ब की हालत में क़ैदख़ाना में पड़ा था) “ख़ुदा के ख़ादिम” का असली मिशन व मक़सद (इरादा) दुबारा याद दिलाएं जो सहीफ़े मज़्कूर में मौजूद है कि “तू अँधों की आँखें खोले” (42:7) “उस ने मुझे ग़रीबों को ख़ुशख़बरी देने के लिए भेजा कि अँधों को बीनाई पाने की ख़ुशख़बरी सुनाऊँ। कुचले हुओं को आज़ाद करूँ।” (यसअयाह 61:1, लूक़ा 4:18) “तब लंगड़े हिरन की मानिंद चौकड़ीयां भरेंगे और गूँगे की ज़बान गाएगी।” (यसअयाह 35:6) और बीमारों को शिफ़ा बख़्श कर आपने मुक़द्दस युहन्ना को कहलवा भेजा “मुबारक वो है जो मेरे सबब से ठोकर ना खाए।” इस इशारा से दरहक़ीक़त आपका मंशा ये था कि मुक़द्दस इस्तिबाग़ी हज़रत यसअयाह 52:14 और 53:3 पर दुबारा ग़ौर करें। पस ज़ाहिर है कि गो जनाब मसीह के शागिर्द मौला के मिशन को कमा-हक़्क़ा आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत के बाद ही समझे थे। लेकिन इस से ये साबित नहीं होता कि ये राज़ मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी से भी पोशीदा था। रसूल आपकी तरह मसीह मौऊद के पेशरू नहीं थे और ना उन्हों ने अभी तक सहीफ़-ए-अम्बिया के मुतालिबा को इस तरह समझा था जिस तरह कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और युहन्ना इस्तिबाग़ी ने इन को समझा था। (लूक़ा 24:25 ता 26) मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी अपनी ज़िंदगी का मक़्सद ही ये समझता था कि सहीफ़े यसअयाह में जिस “ख़ुदा के ख़ादिम” का ज़िक्र है, इस के पेशरू होने का फ़ख़्र उस को हासिल है। पस वो ना सिर्फ अपनी ज़िंदगी बल्कि “ख़ुदा के ख़ादिम” की ज़िंदगी की इल्लत-ए-ग़ाई (वजूहात) पर भी सोच बिचार कर चुका था। वो बख़ूबी जानता था कि यसअयाह के सहीफ़े के 53 वें बाब के मज़्मून का इतलाक़ आँ ख़ुदावंद पर होता है और ये मज़्मून आपकी ज़िंदगी और मौत के कफ़्फ़ारा से ताल्लुक़ रखता है। इन्दरियन हालात ये जा-ए-हैरत नहीं हो सकती कि उस ने आँ ख़ुदावंद को देख कर अपने शागिर्दों से कहा “देखो ये ख़ुदा का बर्रह है जो दुनिया के गुनाह उठा ले जाता है।” हक़ तो ये है कि अगर वो इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ को मुँह से ना निकालता तो हम को हैरत होती और उस की ख़ामोशी निहायत माअनी-ख़ेज़ होती।

(2)

ये अम्र काबिल-ए-ग़ौर है कि मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी आँ ख़ुदावंद को “मसीह मौऊद” के नाम से नहीं पुकारता बल्कि आपका ज़िक्र यूं करता है “जो मेरे बाद आता है।” (मत्ती 3:11) “मेरे बाद का आने वाला” (युहन्ना 1:27) या सिर्फ़ “आने वाला” (मत्ती 11:3, लूक़ा 7:20) इस की क्या वजह है? इस का सबब ये है कि यहूदी अवामुन्नास यसअयाह के सहीफ़े के अबवाब (अज़ 40 ता 55) को मसीह मौऊद की ज़ात और मिशन से मुताल्लिक़ (ख़्याल) नहीं करते थे। क्योंकि वो एक ऐसे पोलेटिकल मसीह की आमद के मुंतज़िर थे जो आकर सियासियात का तख़्ता उलट देगा। पस मुक़द्दस युहन्ना ने ऐसी इस्तिलाह का नाम तक ना लिया जिससे अवामुन्नास (लोगों) के दिलों में “मसीह मौऊद” के मिशन के मुताल्लिक़ ज़बरदस्त और ख़तरनाक ग़लतफ़हमी का ख़दशा था और यही वजह थी कि ख़ुद आँ ख़ुदावंद ने भी अपनी ज़िंदगी के आख़िरी अय्याम में ही इस इस्तिलाह को अपने शागिर्दों पर ज़ाहिर किया था, क्योंकि अवामुन्नास (आम लोगों) की तरह आपके रसूल भी एक पोलेटिकल मसीह की आमद के मुंतज़िर थे। (मरक़ुस 10:37, आमाल 1:6, मत्ती 12:11, लूक़ा 19:11 वग़ैरह) इसी सबब से जब इब्ने-अल्लाह ने “ख़ुदा के ख़ादिम” के तसव्वुर को “मसीह मौऊद” के तसव्वुर से मुताल्लिक़ करके अपने शागिर्दों पर ये राज़ मुनकशिफ़ फ़रमाया। (मत्ती 16:13 ता 26) तो मुक़द्दस पतरस आप को मलामत करने लगे। हक़ तो ये है कि इस ज़माने में कोई आदमी भी “ख़ुदा के ख़ादिम” के तसव्वुर को और “मसीह मौऊद” के तसव्वुर को बाहम इकट्ठा करके एक दूसरे से मुताल्लिक़ नहीं करता था। चुनान्चे मुक़द्दस लूक़ा हमको बताता है कि मुक़द्दस शमाउन “रास्तबाज़, ख़ुदातरस और इस्राईल की तसल्ली का मुंतज़िर था।” (लूक़ा 2:25) यानी मुक़द्दस शमाउन सहीफ़े यसअयाह के “ख़ुदा के ख़ादिम” का मुंतज़िर था। क्योंकि उस के दूसरे और तीसरे हिस्से में तसल्ली देने पर बार-बार ज़ोर दिया गया है। “तसल्ली दो तुम मेरे लोगों को तसल्ली दो, अलीख” (40:1, 49:13, 51:3, 57:18, 61:2, 66:11 ता 13) जब मुक़द्दस शमाउन ने आँ ख़ुदावंद को गोद में ले कर कहा “मेरी आँखों ने तेरी नजात देख ली है। जो तू ने सब उम्मतों के रूबरू तैयार की है। ताकि ग़ैर क़ौमों को रोशनी देने वाला नूर और तेरी उम्मत इस्राईल का जलाल बने।” (लूक़ा 2:30 ता 32) तो उस की नज़रों में इस सहीफ़े के वो लफ़्ज़ थे जिनमें लिखा है “मैं तुझ को ग़ैर क़ौमों के लिए नूर बनाऊँगा कि तुझसे मेरी नजात ज़मीन के किनारों तक पहुंचे।” (यसअयाह 49:6) “मैं सियोन को नजात और इस्राईल को जलाल बख़़शुंगा” (यसअयाह 46:13) जब शमाउन, मुक़द्दसा मर्यम को मुख़ातब कर के कहता है कि “ये इस्राईल में बहुतों के गिरने और उठने के लिए और ऐसा निशान होने के लिए मुक़र्रर हुआ है जिसकी मुख़ालिफ़त की जाएगी। बल्कि ख़ुद तेरी जान भी तल्वार से छिद जाएगी। ताकि बहुत लोगों के दिलों के ख़्याल खुल जाएं।” (लूक़ा 2:34 ता 35 तो उसी का इशारा सहीफ़े यसअयाह के उन मुक़ामात की तरफ़ है जिनमें लिखा है कि “ख़ुदा का ख़ादिम” को मुख़ालिफ़त, ईज़ा और मौत बर्दाश्त करनी होगी। (50:4 ता 7, 52:13 53:12 वग़ैरह।) लेकिन वो इन मुक़ामात को “मसीह मौऊद” के तसव्वुर से मुताल्लिक़ नहीं करता। इन मिसालों से ज़ाहिर है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की बअसत के वक़्त मुतअद्दिद लोग मुक़द्दस नविश्तों पर ग़ौर व फ़िक्र करके “इस्राईल की तसल्ली” के मुंतज़िर थे। उम्मीद है कि नाज़रीन किराम पर अब साबित हो गया होगा कि आयह ज़ेर-ए-बहस माबाअ्द के ज़माने की बनाई हुई बात नहीं है, बल्कि एक हक़ीक़ी वाक़िया है जिस पर तारीख़ की मुहर सब्त है।

(3)

मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी जनाब मसीह के लिए दो और अल्क़ाब इस्तिमाल करता है यानी “ख़ुदा का बर्रह” (युहन्ना 1:30,36) और “ख़ुदा का बेटा” (युहन्ना 1:34) आपका इन अल्फ़ाज़ से क्या मतलब था? अल्फ़ाज़ “ख़ुदा का बर्रह” यसअयाह नबी के 53 वें बाब में नहीं पाए जाते। वहां “ख़ुदा के ख़ादिम” को “बर्रह” के साथ सिर्फ तश्बीह दी जाती है। “जिस तरह बर्रह जिसे ज़ब्ह करने के लिए ले जाते हैं। बेज़बान है।” गो हर इंजील ख़वाँ जानता है कि इन अल्फ़ाज़ का इतलाक़ इब्तिदा ही से ख़ुदावंद येसूअ मसीह की ज़ात-ए-पाक पर किया गया। (आमाल 8:26 ता 36) यरमियाह नबी ने भी अपने आपको बर्रह के साथ तश्बीह दी थी। “मैं इस पालतू बर्रह की मानिंद था जिसे ज़ब्ह करने को ले जाते हैं।” (11:19) लेकिन यहां भी अल्फ़ाज़ “ख़ुदा का बर्रह” नहीं पाए जाते। अल्फ़ाज़ “ख़ुदा का बर्रह” से मुराद वो “बर्रह” है जिसे ख़ुदा ख़ुद मुहय्या करता है और इस का इशारा पैदाइश 22:8,13 की तरफ़ है, जहां ख़ुदा ने इज़्हाक़ की क़ुर्बानी के वक़्त अब्रहाम के लिए मेंढा मुहय्या किया था। “बर्रह” के लफ़्ज़ ने क़ुदरतन मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी के दिल में अहले यहूद की क़ुर्बानी का ख़्याल डाला क्योंकि ईद फ़सह नज़्दीक थी। (युहन्ना 2:12 ता 13) और पास ही सड़क पर बर्रेंह के गिरोह ज़ब्ह होने के लिए यरूशलेम की जानिब जा रहे थे। पस ईद-ए-फ़िस्ह की क़ुर्बानी के बर्रेह का ख़्याल युहन्ना इस्तिबाग़ी के ज़हन में आया। यही वजह है कि माबाअ्द के ज़माने में जनाब मसीह को क़ुर्बानी का बर्रह कहा गया है। (युहन्ना 19:36, 1 पतरस 1:19 इब्रानियों 9:14 वग़ैरह) जब हम इस अम्र को याद करते हैं कि युहन्ना इस्तिबाग़ी काहिनों के फ़िर्क़े में से था तो इस ख़्याल को और भी तक़्वियत मिलती है।

मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी के पास मुख़्तलिफ़ तबक़ों के लोग जोक़-दर-जोक़ आते थे और अपने गुनाहों का इक़रार करके बपतिस्मा पाते थे। (मत्ती 3:6) और वो आँ ख़ुदावंद की पाक और मुक़द्दस ज़िंदगी से भी कमा-हक़्क़ा वाक़िफ़ था। (मत्ती 3:14) और वो महसूस करता था कि क़ौम यहूद को कफ़्फ़ारे की किस क़द्र ज़रूरत है। उसने यसअयाह 53 वें बाब पर पैदाइश 22:8 की रोशनी में ग़ौर व तदब्बुर करके ये नतीजा निकाला था कि “ख़ुदा का ख़ादिम” सताया गया तो भी उसने बर्दाश्त की और मुँह ना खोला। जिस तरह बर्रह जिसको ज़ब्ह करने को ले जाते हैं, बेज़बान है। इसी तरह ये बर्रह जिसको ख़ुदा ने ख़ुद मुहय्या किया वह ख़ामोश होगा। वो अपनी जान का दुख उठाकर उन की बद-किर्दारी को ख़ुद उठाएगा। ख़ुदावंद को पसंद आया कि इस बर्रेह को मुहय्या करे ताकि वो कुचला जाये। उस की जान गुनाह की क़ुर्बानी के लिए गुज़रानी जाये। उस ने अपनी जान मौत के लिए उंडेल दी। उस ने बहुतों के गुनाह उठा लिए। इन्दरियन हालात ये कोई ताज्जुब की बात नहीं कि उस ने “इब्ने-अल्लाह” (ابن اللہ) को आते देखकर अपने शागिर्दों से कहा कि “देखो ये ख़ुदा का बर्रह है। जो दुनिया का गुनाह उठा ले जाता है।”

(4)

मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी आँ ख़ुदावंद के लिए एक और लक़ब इस्तिमाल करता है “ख़ुदा का बेटा” (युहन्ना 1:34) इस मुक़ाम पर ये बात याद रखने के काबिल है कि इब्रानी ज़बान में लफ़्ज़ “बर्रह” के लिए लफ़्ज़ “ताली” (طالی) आया है और अरामी ज़बान में लफ़्ज़ “तली” (طلی) के मअनी हैं “बेटा, लड़का, जवान, ख़ादिम।” चुनान्चे यही लफ़्ज़ बसूरत-ए-तानीस मुक़द्दस मरक़ुस की इंजील में जनाब मसीह के अरामी अल्फ़ाज़ में आया है “तल्यता क़ौमी” (طلیتا قومی) जिसका तर्जुमा ये है कि “ऐ लड़की मैं तुझ से कहता हूँ उठ !” (5:41) इंजील अव़्वल (मत्ती) में यही लफ़्ज़ आख़िरी मअनी यानी “ख़ादिम” के माअनों में इस्तिमाल हुआ है। (8:6,13) पस जब मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी ये लक़ब “ख़ुदा का बेटा” इस्तिमाल करता है तो इस का मतलब “ख़ुदा का ख़ादिम” है, जो यसअयाह 53:11 ता 12 के मुताबिक़ बहुतों के गुनाह उठा ले जाता है। चूँकि लफ़्ज़ ''ताली' (طالی) और “तुली” (طلی) दोनों हम-आवाज़ और मुशाबेह हैं, मुक़द्दस युहन्ना इन अल्फ़ाज़ की मुशाबहत और हम-आहंगी से फ़ायदा उठा कर कहता है कि “ख़ुदा का बेटा” उस बर्रेह की मानिंद है जो ख़ुदा के ख़ादिम की तरह बेदाग़ है और यही बात इब्तिदाई कलीसिया में मुक़द्दस पतरस और दीगर रसूलों की ज़बान पर थी। (आमाल 3:13, 4:27 ता 30 वग़ैरह।)

(5)

मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी फ़रमाता है “मैं तो उसे पहचानता ना था। मगर जिसने मुझे पानी से बपतिस्मा देने को भेजा। उस ने मुझ से कहा कि जिस पर तू रूह को उतरते और ठहरते देखे वही रूहुल-क़ुद्दुस से बपतिस्मा देने वाला है। चुनान्चे मैंने देखा और गवाही दी है कि ये “ख़ुदा का बेटा है।” (युहन्ना 1:33 ता 34) सहीफ़े यसअयाह के नाज़िर से पोशीदा नहीं है कि इस निशानी का ज़िक्र इस किताब के 42:1 और 61:1 में है। चूँकि मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी और इब्ने-अल्लाह (ابن اللہ) दोनों क़रीबी रिश्तेदार और हम उम्र थे। (लूक़ा 1:26 ता 36) और दोनों ने हज़रत यसअयाह के सहीफ़े पर तदब्बुर और ग़ौर व फ़िक्र करके अपने-अपने मिशन और ज़िंदगी के मक़्सद की निस्बत फ़ैसला कर लिया था। ये ज़ाहिर है कि दोनों ने अक्सर अवक़ात इस मौज़ू पर बाहम गुफ़्तगु और तबादला ख़यालात किया था। जिसका नतीजा ये हुआ कि जूंही मुक़द्दस युहन्ना ने इस ख़ास इम्तियाज़ी निशान को देखा उस ने फ़ौरन पहचान लिया कि इस का क़रीबी रिश्तेदार रास्तबाज़ ख़ुदावंद यसूअ ही ख़ुदा का वो ख़ादिम है, जिसका ज़िक्र यसअयाह नबी के सहीफ़े में आया है। पस मुक़द्दस युहन्ना इस्तिबाग़ी ये जानता था कि ख़ुदा ने उसे “ख़ुदा के ख़ादिम” का पेशरू मुक़र्रर किया है ताकि उस के आगे उस की राह तैयार करे, ताकि “ख़ुदा का ख़ादिम” ख़ुदावंद यसूअ मसीह ख़ुदा का बर्रह बन कर दुनिया का गुनाह नेस्त व नाबूद करके रूहुल-क़ुद्दुस का बपतिस्मा दे।

“पन्तीस पीलातुस की हुकूमत में दुख उठाया, मस्लूब हुआ”

6. पन्तीस पीलातुस

(1)

तारीख़ हमको पन्तीस पीलातुस की गवर्नरी के वाक़ियात के इलावा कुछ नहीं बताती। इस शख़्स के नाम के गर्द मुतअद्दिद रिवायत जमा हो गई हैं, लेकिन वो सबकी सब उस की मौत के सदीयों बाद की हैं। लिहाज़ा वो काबिल-ए-एतबार नहीं। पीलातुस और उस की बीवी क्लॉडिया के मुताल्लिक़ जो कुछ हमें मालूम है, वो दो या तीन क़दीम मुसन्निफ़ों के तुफ़ैल है जो उन के क़रीबन हम-असर थे। इन में से एक सिकंदरिया का फिलासफर फ़ायलो जनाब मसीह से दस बीस साल पहले पैदा हुआ था। पस वो पीलातुस का हम-उम्र था। यहूदी मुअर्रिख़ यूसीफ़स भी अपनी किताबों में पीलातुस का ज़िक्र करता है। चारों इंजील नवीस भी हमको उस की ज़िंदगी के चंद घंटों की झलक दिखाते हैं।

(2)

क़ैसर तबरेस (Tiberius) (11) ने 26 ई॰ में पीलातुस को यहूदियह का गवर्नर मुक़र्रर किया। केसरिया उस का दार-उल-सल्तनत था। उस ज़माने में रुम से केसरिया तक सफ़र करने में दो माह का अरसा दरकार था। क़ियास यही चाहता है कि केसरिया आने से पहले रास्ते में पीलातुस ने सिकंदरिया में चंद यौम गुज़ार कर अपने पेशरू साबिक़ गवर्नर वलीरएस ग्रेटस (Valerius Gratus)(12) से मुलाक़ात करके यहूदियह के हालात की निस्बत पूछ-गुछ की होगी। केसरिया उस ज़माने में बड़ा ज़बरदस्त शहर था और बाअज़ बातों में यरूशलेम से भी ज़्यादा अहम शुमार होता था। हेरोदेस आज़म ने इस शहर की बुनियाद डाल कर उस का नाम “केसरिया” रखा था। इस शहर में क़ैसर का मंदिर था। जिसमें उस का एक बड़ा कद्दावर बुत नसब था। ये शहर अज़ीमुश्शान इमारतों से मुज़य्यन था और गवर्नर का महल भी यहीं वाक़ेअ था।

(11) Tiberius (12) Valerius Gratus

(3)

पीलातुस ने 26 ई॰ में केसरिया में अपना क़दम रखते ही रियाया से बिगाड़ ली। चुनान्चे मुअर्रिख़ यूसीफ़स लिखता है :-

“पीलातुस ने रात के वक़्त यरूशलेम में पर्चम भेजे जिन पर क़ैसर की मूर्त थी। जब सुबह हुई और यहूद की नज़र उन पर पड़ी तो हर जगह ग़म-ओ-ग़ुस्सा की लहर दौड़ गई। क्योंकि इस इक़दाम से उनकी शरीअत पांव तले रौंदी गई थी।...यहूद जोश में आकर क़ैसरियह आए और पीलातुस की मिन्नत करने लगे कि वो इन झंडों को यरूशलेम से बाहर ले जाये। जब उस ने साफ़ इन्कार कर दिया तो वो ज़मीन पर लेट गए और पाँच दिन रात वहीं पड़े रहे।....पीलातुस ने फ़ौज को उनका घेरा डालने का हुक्म दिया और यहूद को कहा कि अगर वो अपनी हठ से बाज़ ना आए तो वो तह-ए-तेग़ कर दिए जाऐंगे। इस पर उन्हों ने अपनी गर्दनें नंगी कर दीं और चिल्ला कर कहने लगे कि हमें मौत मंज़ूर है, लेकिन शराअ (शरीअत) की बेहुरमती मंज़ूर नहीं। इस पर पीलातुस दंग रह गया और उस ने हुक्म दिया कि पर्चम यरूशलेम से बाहर निकाल ले जाएं।” (13)

ये वाक़िया मौसम-ए-ख़ज़ाँ 26 ई॰ में हुआ। जब पीलातुस ने मौसम-ए-गर्मा में पहली बार यरूशलेम जाने से पहले अपनी फ़ौज को भेजा था। इस से पहले गवर्नर मूर्त वाले पर्चम लेकर यरूशलेम में दाख़िल नहीं हुआ करते थे। पीलातुस इस बात से ज़रूर वाक़िफ़ था, लेकिन उस ने अहले यहूद पर शुरू ही में “गिरबा कशतन रोज़ेअव्वल” (फ़ारसी मिस्ल: रोब पहले ही दिन बैठता है।) के मिस्दाक़ अपना रोब जमाने की ख़ातिर इस क़दम को उठाया था। लेकिन पीलातुस को ख़िफ़्फ़त (नदामत) उठानी पड़ी और यूं इस पहले मुक़ाबला में अहले यहूद की जीत हो गई। ये अम्र काबिल-ए-ग़ौर है कि ऐसे आड़े वक़्त और नाज़ुक मौक़े पर यहूद के सरदार काहिन काइफ़ा ने इस तहरीक में खुल्लम खुल्ला कोई हिस्सा ना लिया। वो निहायत दूर-अँदेश और मर्दुमशनास शख़्स था, जो हमेशा मौक़े की ताड़ में रहता था। वो अपने आलीशान महल में बैठा चुपके से देख रहा था कि ऊंट किस करवट बैठता है। वलेरीयस ग्रेटस साबिक़ गवर्नर ने अपनी ग्यारह साला हुकूमत के दौरान में चार दफ़ाअ सरदार काहिन बदले थे और चौथी दफ़ाअ उसने काइफ़ा को नामज़द किया था। काइफ़ा अपनी गद्दी छोड़ना नहीं चाहता था और वो जानता था कि ये बात पीलातुस के इख़्तियार में थी कि वो इस को गद्दी पर बरक़रार रखे या बरतरफ़ कर दे। अगर पीलातुस की सिकंदरिया में वलीरएस से मुलाक़ात हुई होगी तो क़ियास यही चाहता है कि उस ने पीलातुस को फ़रीसयों और सदूकयों के हालात बता कर यही सलाह दी होगी कि वो सरदार काहिन काइफ़ा को गद्दी पर बरक़रार रहने दे, क्योंकि वो काम का आदमी साबित होगा। लेकिन यहूद और उन के सरदार काहिन को अपने कब्ज़-ए-इक़्तिदार में रखे। पस पीलातुस ने यहूदी अवाम पर रुअब जमाने की ख़ातिर और सरदार काहिन काइफ़ा पर अपनी ताक़त का मुज़ाहरा करने की ख़ातिर यरूशलेम में ऐसे पर्चम भेजे, जिन पर क़ैसर की मूरत थी। लेकिन इस का नतीजा उस के हक़ में उल्टा साबित हुआ और काइफ़ा ने कुछ कहे या किए बग़ैर अहले-यहूद के मज़हबी जुनून से फ़ायदा उठाकर पीलातुस को नीचा दिखा दिया।

(13) (Whiston’s Josephus: Jewish Wars Book 2.Ch.9, Page 601).

(4)

जब पीलातुस यहूदियह का गवर्नर मुक़र्रर हुआ तो यरूशलेम में पानी की सख़्त क़िल्लत थी। चूँकि ये शहर ऊंची पहाड़ीयों पर आबाद था। लिहाज़ा इब्तिदा ही से इस के बाशिंदे पानी की क़िल्लत को हमेशा महसूस करते रहे थे। मुहासिरे के अय्याम में दुश्मन निहायत आसानी से पानी की रसद काट सकते थे। (2 तवारीख़ 32: 1 ता 5) पस मुख़्तलिफ़ सदीयों में मुख़्तलिफ़ यहूदी बादशाहों ने पानी की रसद की दिक़्क़त को रफ़ा करने की बेसूद कोशिशें की थीं। ग़ालिबन सुलेमान बादशाह ने यरूशलेम से भी ऊंची घाटियों से तीन तलाबों के ज़रीये (जिनको सुलैमानी तलाब कहते हैं) यरूशलेम में पानी लाने का इंतिज़ाम किया था। सुलेमान के बाद पीलातुस पहला शख़्स था जिसने पानी की क़िल्लत की दिक़्क़त को हल किया था। उसने क़रीबन पच्चीस मील के पक्के नाले (Aqueducts) बनवाकर यरूशलेम की हैकल में पानी पहुंचा दिया था, जो अंजीनरी का कमाल था। ये ज़ाहिर है कि इस क़िस्म का काम (जिसमें हैकल की इमारत के बाअज़ हिस्सों में शिकस्त और रेख़्त की उलझन का सवाल था) बाइख़्तियार अकाबिर यहूद की सलाह और मंज़ूरी के बग़ैर पाया तक्मील को नहीं पहुंच सकता था। ये भी नामुम्किन है कि अख़राजात के ज़र कसीर का सवाल उठाए बग़ैर ये तज्वीज़ मुकम्मल कर दी गई हो। रूमी क़ायदे के मुताबिक़ पब्लिक वर्कर्स के अख़राजात की पब्लिक ख़ुद मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) होती थी। लेकिन यरूशलेम के हालात कुछ ख़ास हालात थे, क्योंकि हर बालिग़ से नियम मिस्क़ाल का नुक़रई सिक्का जबरीया वसूल करके हैकल के ख़ज़ाना में जमा किया जाता था। इस के इलावा सदक़ा, ख़ैरात और नज़रें भी इस ख़ज़ाने में जमा की जाती थीं। इन ज़राए से हैकल की सालाना आमदनी साढे़ ग्यारह लाख रुपये के लगभग थी। क़ुदरती तौर पर पीलातुस चाहता था कि पानी के इंतिज़ाम के अख़राजात हैकल के ख़ज़ाने से अदा किए जाएं, जो पब्लिक का रुपया था। सदुकी और सरदार काहिन इस क़द्र ज़र ख़तीर देना नहीं चाहते होंगे, लेकिन सरदार काहिन काइफ़ा ने इस रक़म की अदायगी का वाअदा ज़रूर कर दिया होगा। वर्ना पीलातुस उस को बरतरफ़ कर देता। जिस तरह साबिक़ गवर्नर ने हन्ना सरदार काहिन को उस की दौलत वस्रुत के बावजूद बरतरफ़ कर दिया था। हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं कि पीलातुस के आने से पहले काइफ़ा सरदार काहिन था और वो पीलातुस की दस साला गवर्नरी के दौरान अपनी होशयारी, चालबाज़ी और मौक़ा शनासी की वजह से इस गद्दी पर मुतमक्किन रहा। पस जब हैकल के ख़ज़ाने से पानी के अख़राजात अदा किए गए तो काइफ़ा सरदार काहिन तुहन व कराहन, (طوعاً وکرہاً ) इस की अदायगी पर राज़ी था। यहूदी मुअर्रिख़ यूसीफ़स लिखता है :-

“इस के बाद पीलातुस ने एक और फ़ित्ना खड़ा कर दिया। उस ने नज़राने के पाक रुपये से पानी के नाले पक्के बनवाए जिनके ज़रीये उस ने चार सद फ़र्लांग पानी बहम पहुंचाया। इस पर यहूदी अवामुन्नास भड़क उठे और जब पीलातुस यरूशलेम आया तो हज़ारों की भीड़ ने उस के दरबार के पास जमा हो कर ग़ौग़ा (शोर) मचाया। इस बात की पीलातुस को पहले ही से ख़बर लग गई थी कि फ़साद होने वाला है। पस उस ने हुजूम में मुसल्लह सिपाही ग़ैर फ़ौजी लिबास में भेजे और उन को हुक्म दिया कि मुफसिदों को नरगा में घेर कर उन पर लाठी चार्ज कर दें। बहुत से यहूदी मारे गए और ज़ख़्मी हो गए। जब भागड़ मची तो बहुत लोग दूसरों के पांव तले रौंदे गए। यूं ये फ़साद फ़िरौ कर दिया गया।” (14)

यहां सवाल पैदा होता है कि पीलातुस को इस होने वाले फ़साद की ख़बर पहले से किस ने दी थी? अग़्लब यही मालूम होता है कि काइफ़ा ने उस को खु़फ़ीया तौर पर आगाह कर दिया था। पस यूं चालबाज़ी से काम लेकर उस ने अहले यहूद और पीलातुस दोनों का साथ दिया था। इस वाक़िया ने अहले यहूद को पीलातुस से बर्गशता कर दिया। सरदार काहिन काइफ़ा भी मौक़े की ताड़ में रहा, जिससे वो पीलातुस को नीचा दिखा कर हैकल के ख़ज़ाना पर हाथ डालने का बदला ले सके।

(14) Whiston’s Josephus Antiquities, Book 18, Ch. P.474,Jewishwars, B.k.2,Ch.9.P.601, Published by Ward Lock Co. London

(5)

29 ई॰ में ख़ुदावंद यसूअ मसीह के मुक़द्दमे ने उस के हाथ में ये ज़रीन मौक़ा दे दिया। काइफ़ा ने यहूदी शरीअत का ख़ून करके और तमाम शरई पाबंदीयों को पांव तले रौंद कर ख़ुदावंद मसीह पर रात के वक़्त मौत का फ़त्वा सादिर कर दिया। जुमे के दिन अला-उल-सुबहह उसने जनाब मसीह को कशां कशां (ज़बरदस्ती, खींचते हुए) गवर्नर की अदालत में हाज़िर कर दिया ताकि वो उस के फ़त्वे पर अमल करके आपको मस्लूब करने का हुक्म सादिर करे। जब पीलातुस ने रूमी सल्तनत के क़ानून की रू से आपको बरी क़रार दे दिया तो सरदार काहिन को वो मौक़ा मिल गया जिसकी वो इतनी मुद्दत से ताड़ में था। उस ने गवर्नर को कहा कि “अगर तू इस को छोड़ देगा तो तू क़ैसर का ख़ैर-ख़्वाह नहीं।” इस धमकी का मतलब ये था कि यहूदियह के गवर्नर पीलातुस की शिकायत शाम के वाइसरे विटेलेयस (Vitellius) (15)से की जाएगी। ग़द्दारी का इल्ज़ाम सुनते ही पीलातुस काँप उठा। उस ने बहुतेरे हाथ पांव मारे के काइफ़ा को किसी ना किसी तरह ख़ुश करे, लेकिन उस की एक ना चली। कभी इस ने चालबाज़ी से काम लेकर जनाब मसीह को हिरोदेस के पास भेजा दिया। कभी इस ने जनाब मसीह को पिटवाकर काइफ़ा की आतिश इंतिक़ाम को फ़िरौ करने की तदबीर की। कभी इस ने यहूद के क़ौमी जज़्बात को अपील करके जनाब मसीह को छोड़ना चाहा। लेकिन इस की कोई तदबीर कारगर ना हुई। सरदार काहिन काइफ़ा अपनी बात पर अड़ा रहा और ग़द्दारी के इल्ज़ाम की तल्वार को पीलातुस की आँखों के सामने चमकाता रहा। हत्ता के पीलातुस पर ये ज़ाहिर हो गया कि इस मुक़द्दमे में उस की अपनी मौत और ज़िंदगी का सवाल दरपेश है और कि जनाब मसीह और पीलातुस में से एक शख़्स का मरना ज़रूरी है। पीलातुस को अच्छी तरह मालूम था कि उस ने सूबा भर में अपने ज़ुल्म और तअद्दी (नाइंसाफ़ी) की वजह से बदनज़मी फैला रखी थी। चुनान्चे सिकंदरिया का यहूदी फिलासफर फ़ायलो कहता है कि :-

“पीलातुस रिश्वतखोर था। उस ने सूबा भर में लूट मार मचा रखी थी। वो हर एक से मुतकब्बराना पेश आता था और रियाया पर सख़्त मज़ालिम (ज़ुल्म) ढाता था। लोगों को अदालत में लाए बग़ैर और उन का जुर्म साबित किए बग़ैर वो उन को मरवा डालता था। उस की इन्सानियत सोज़ बदकिरदारीयाँ एक सिलसिला-ए-लामतनाही (बेइन्तहा, जिसकी इन्तहा ना हो) थीं।

मुक़द्दस लुक़ा इंजील नवीस भी हमको बताता है कि पीलातुस ने गलीली लोगों का ख़ून उन के ज़बीहों के साथ मिला दिया था (13:1) अब सरदार काहिन इस पर उसे क़ैसर से ग़द्दारी का इल्ज़ाम लगाने की धमकी दे रहा था। पस अपनी जान बचा ने की ख़ातिर वो काइफ़ा के आगे झुक गया। अनाजील के आख़िरी सीन के अल्फ़ाज़ निहायत वाज़ेह तौर पर इस ज़ालिम बुज़दिल गवर्नर के कैरेक्टर को ज़ाहिर करते हैं। “जब पीलातुस ने देखा कि कुछ बन नहीं पड़ता तो पानी लेकर लोगों के रूबरू अपने हाथ धोए और कहा मैं इस रास्तबाज़ के ख़ून से बरी हूँ, तुम जानो। सब लोगों ने जवाब देकर कहा इस का ख़ून हमारी और हमारी औलाद की गर्दन पर। इस पर उस ने यसूअ को कोड़े लगवाकर उन के हवाले किया ताकि सलीब दी जाये।” (मत्ती 27:24 ता 26)

(15) Vitellius

(6)

पीलातुस का आख़िरी कारनामा सामरियों से ताल्लुक़ रखता है। यूसीफ़स लिखता है :-

“सामरियों की क़ौम के एक शख़्स ने सामरियों को कहा कि ग्रेज़ीम पहाड़ पर (जो उन की नज़रों में मुक़द्दस तरीन पहाड़ है। युहन्ना 4:20) हज़रत मूसा ने जो मुक़द्दस ज़रूफ़ रखे थे, वो उन को दिखाएगा। पस सामरी मुसल्लह हो कर बड़ी तादाद में वहां जाने लगे। लेकिन पीलातुस ने सवार और पियादा फ़ौज भेज कर तमाम रास्तों को मस्दूद करके नाका बंदी कर दी। फ़ौज ने लोगों पर हमला करके बहुतों को क़त्ल कर दिया और क़ैदीयों को मौत के घाट उतार दिया। जब फ़साद फ़िरौ हो गया तो सामरियों ने वटेलेयस के पास जो शाम (Syria) का वाइसरे था। गवर्नर पीलातुस की शिकायत की और उस पर नाहक़ ख़ून बहाने का इल्ज़ाम लगाया। इस पर वटेलेयस ने मारसीलस (Marcellus) को यहूदियह का इंतिज़ाम करने के लिए भेजा और पीलातुस को हुक्म दिया कि रोम जाकर अहले यहूद के आइद कर्दा इल्ज़ामात का जवाब दे।” (16)

पस दस साल की हुकूमत के बाद 36 ई॰ में पीलातुस वापिस क़ैसर के हुज़ूर जवाबदेही के लिए रोम की जानिब वापिस रवाना हो गया। हम अंदाज़ा कर सकते हैं कि वापसी के वक़्त राह में उस का कैसा हाल हुआ होगा। दिन को मौत का ख़्याल और रात को डरावने ख्व़ाब उस के साथी थे। जब वो दारुल-सल्तनत रोम में पहुंचा तो जिस क़ैसर के लर्ज़ा ख़ेज़ हुक्म की वजह से वो रोम हाज़िर हुआ था, उस को ख़ुद मौत के फ़रिश्ते ने आला तरीन मुंसिफ़ की अदालत में हाज़िर हो कर अपने आमाल के जवाब देने का पैग़ाम पहुंचा दिया था।

(7)

पीलातुस का क्या हश्र हुआ? उस के अंजाम के मुताल्लिक़ कलीसियाई रिवायत कस्रत से हैं, लेकिन तवारीख़ी लिहाज़ से उनकी क़ीमत सिफ़र से भी कम है। ग़ालिबन मसीही मुअर्रिख़ केसरिया के बिशप का क़ौल दुरुस्त है कि “पीलातुस को हुक्म दिया गया था कि वो अपनी जान का अपने हाथों ख़ातिमा कर दे।” (17)

पीलातुस के शरीक-ए-जुर्म सरदार काहिन काइफ़ा का ज़िक्र इंजीली मजमूए में फिर एक दफ़ाअ आता है। जब वो “सरदार काहिन हन्ना और युहन्ना और सिकन्दर और सरदार काहिन के घराने के लोगों के साथ मुक़द्दस पतरस और मुक़द्दस युहन्ना रसूल से बाज़पुर्स करके उन को धमकाता है।” (आमाल 4:6-22) इस के बाद भी सरदार काहिन का ज़िक्र आता है, जो कलीसिया को ईज़ाएं पहुंचाने पर तुला हुआ था। ग़ालिबन ये सरदार काहिन काइफ़ा ही था। (आमाल 5:17, 21, 27 7:1,19 वग़ैरह।) 36 ई॰ में पीलातुस के यहूदियह से रुख़स्त होने के बाद काइफ़ा भी सरदार काहिन की गद्दी से उतार दिया गया। इसी साल यानी 36 ई॰ के मौसम गरमा में मुक़द्दस पौलुस रसूल सहराए अरब से वापिस यरूशलेम को लौटे और पंद्रह रोज़ रसूलों की सोहबत से फ़ैज़याब हुए। इस के बाद आपने इंजील जलील की नजात का जाँ-फ़ज़ाँ पैग़ाम अक़साए आलम तक पहुंचा दिया।

(16) Whiston’s Josephus Antiquities, Book 18, Ch.4.P.476 (17) Ecclesiastical History.2,6,7

7. इब्न-ए-अल्लाह (ابنِ اللہ) की सलीबी मौत और यहूदी क़ानून

ख़ुदावंद यसूअ मसीह के मुक़द्दमे की समाअत (सुनवाई) दो अदालतों में हुई और दोनों अदालतों में आप पर मौत का फ़त्वा सादिर हुआ। पहली बार आपको अहले यहूद की अदालत में पेश किया गया, जहां सरदार काहिन ने जज की हैसियत से आप पर फ़त्वा लगाया। फिर वही जज रूमी अदालत में मुद्दई बन गया और रूमी गवर्नर ने आपको मस्लूब करने का हुक्म दिया। इस मज़्मून में हम इब्ने-अल्लाह के मुक़द्दमे की रुवेदाद पर यहूदी क़ानून के नुक़्ता-ए-नज़र से बह्स करेंगे, ताकि ये मालूम हो सके कि आया हज़रत इब्ने-अल्लाह के साथ क़ानूनी पहलू के मुताबिक़ वाक़ई इन्साफ़ किया गया था या आप के जज सरदार काहिन काइफ़ा ने आपको मुस्तूजिब क़त्ल क़रार दे कर यहूदी क़ानून का ख़ून किया था।

(1)

जब हम अनाजील अरबा के सलीबी बयान का बनज़र-ए-ग़ाइर मुतालआ करते हैं तो हम पर वाज़ेह हो जाता है कि इस बयान की सेहत में किसी क़िस्म के शक की गुंजाइश नहीं। चुनान्चे लार्ड शाइर कहते हैं :-

“हर शख़्स और बिलख़सूस हर जज पर (जिसका वास्ता शहादत और गवाही से पड़ता है) ये बात फ़ौरन ज़ाहिर हो जाती है कि अगरचे सलीबी बयान की तफ़ासील में फ़र्क़ है और हर इंजील नवीस के बयान करने का तरीक़ा निराला है और चारों अनाजील के बयान करने वालों की समझ के मुताबिक़ बयान के मुख़्तलिफ़ पहलूओं पर ज़ोर दिया गया है। ताहम सलीबी मौत का बयान वज़न रखता है और बयान कर्दा वाक़ियात की सेहत में किसी को कलाम नहीं हो सकता।” (18)

इब्ने-अल्लाह (जनाबे ईसा) के मुक़द्दमे का बयान निहायत सादा अल्फ़ाज़ में लिखा गया है, जिसमें मुबालग़ा और रंग आमेज़ी कूद खुल नहीं। वो इफ़रात और तफ़रीत (ज़्यादती और कमी) दोनों से ख़ाली है और यही वजह है कि वो जाज़िब-ए-तवज्जा है और इन्सानी दिमाग़ पर एक नाक़ाबिल-ए-फ़रामोश नक़्श क़ायम कर देता है। ये सीधे साधे अल्फ़ाज़ आँखों के सामने ऐसा समां बांध देते हैं कि इन्सान बे-इख़्तियार मुतास्सिर हो जाता है।

(18) The Trial of Jesus Christ by the Rt. Honorable Lord Shaw of Dunfermline,k,c.L.L.D Lord of appeal pp9-101

(2)

अहले यहूद का क़ानून रूमी सल्तनत के क़ानून से ज़्यादा क़दीम और सख़्त-गीर था। बिलख़सूस मुल्ज़िम की मौत और ज़िंदगी के सवाल के मौके पर यहूदी क़ानून ने ऐसी क़ुयूद और पाबंदीयां लगा रखी थीं जिनसे हर शख़्स पर ये वाज़ेह हो जाता था कि ये मुक़द्दमा निहायत संजीदा है। इस क़ानून के मुताबिक़ हर मुम्किन तौर पर ये ख़ास एहतियात की जाती थी कि मुल्ज़िम के साथ किसी क़िस्म की बे-इंसाफ़ी होने ना पाए और मुक़द्दमे के दौरान में कोई नाजायज़ बात या ग़लती सरज़द ना हो, जो मुल्ज़िम के ख़िलाफ़ जाये। इस से ज़ाहिर है कि यहूदी क़ानून इन्सानी ज़िंदगी को निहायत वाजिब-उल-एहतराम शैय ख़्याल करके हर मुम्किन कोशिश करता था कि मुक़द्दमे के वक़्त हर क़िस्म की एहतियात काम में लाई जाये। यहूदी क़ानून के मुताबिक़ जब किसी को मौत की सज़ा दी जाती थी तो मुजरिम को उमूमन संगसार किया जाता था। बाज़-अवक़ात मुजरिम को ग़र्क़ आब (पानी में डुबोना) कर दिया जाता था या उस को फांसी दी जाती थी या उस का सर तन से जुदा कर दिया जाता था। लेकिन किसी मुजरिम को सलीब नहीं दी जाती थी। मुजरिम को अदालत से दूर फ़ासिले पर सज़ा दी जाती थी। यहूद की इस्तिलाह में इस जगह को “ख़ेमा से बाहर” कहा जाता था। लेकिन मौत की सज़ा देते वक़्त भी मुल्ज़िम की जान बचाने की तद्बीर की जाती थी। चुनान्चे मिशनाह में लिखा है :-

“चाहिए कि एक शख़्स अदालत के कमरे के दरवाज़े के बाहर रूमाल हाथ में लिए खड़ा रहे और दूसरा घोड़े पर सवार हो कर इतनी दूर खड़ा रहे कि वो रूमाल को हिलता देख सके। अगर मुल्ज़िम के आख़िरी लम्हों में भी कोई शख़्स ये साबित करने के लिए तैयार हो कि मुल्ज़िम बेगुनाह है तो जो शख़्स अदालत के दरवाज़े पर खड़ा हो वोह रूमाल को हिलाए और जोहीं सवार इस रूमाल को हिलता देखे वो घोड़े को दौड़ाकर मक़त्ल पर पहुंचे और मुल्ज़िम को वापिस ले आए ताकि उस के मुक़द्दमा की दुबारा समाअत (सुनवाई) हो।”

(3)

इस में शक नहीं कि Sanhedrin (जिसको इंजील में “सदर-ए-अदालत” कहा गया है) को ये इख़्तियार हासिल था कि इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) को गतसमनी (Gethsemane) के बाग़ में गिरफ़्तार कर ले। ये मजलिस अहले यहूद की जनरल कौंसल थी और इकहत्तर (71) अश्ख़ास पर मुश्तमिल थी। इस जनरल कौंसल की एक आला इंतिज़ामीया कमेटी थी, जिसके तेईस (23) रुकन थे। अगरचे यहूदियह का मुल्क एक रूमी सूबा था, ताहम क़ैसर ने दानिशमंदी को काम में लाकर उस को दीनी उमूर् में स्वराज्य (हुकूमत ख़ुद इख़तियारी) का हक़ अता कर दिया था। जनरल कौंसल का सदर सरदार काहिन काइफ़ा था और कौंसल में फ़रीसी और सदुक़ी लीडर दोनों शामिल थे। इस के फ़ैसले यहूदी शरीअत और यहूदी क़ानून के मुताबिक़ होते थे। यहूदी शरीअत-ए-कुतुब अहद-ए-अतीक़ में मौजूद थी और यहूदी क़ानून तल्मूद में जमा किया गया था। तल्मूद के मर्कज़ी हिस्से को “मिशनाह” कहते हैं जिसमें से हमने सुतूर-ए-बाला में एक क़ानून नक़्ल किया है। ये अम्र सब के नज़्दीक मुसल्लम है कि जनाब मसीह की ज़िंदगी में मिशनाह के यहूदी क़वानीन पर अमल दरआमद किया जाता था।

(4)

इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) के एक हवारी यहूदाह इस्क्रियुती की ग़द्दारी की वजह से आप बाआसानी गिरफ़्तार हो गए। इस साज़िश में जनरल कौंसल के अरकान भी शामिल थे, लेकिन उन्ही लोगों ने आपके मुक़द्दमा की समाअत (सुनवाई) भी करना थी। पस जनरल कौंसल के मैंबरों ने इस साज़िश में हिस्सा लेकर यहूदी क़ानून की ख़िलाफ़वर्ज़ी की। इलावा बरीं इन मैंबरों ने ना सिर्फ साज़िश में हिस्सा लिया बल्कि वो तीस रुपये की रिश्वत देने से भी ना झीजके। पस सरीहन वो ईलाही शरीअत और यहूदी क़ानून को तोड़ने के मुर्तक़िब हुए। अगर इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) के ख़िलाफ़ फ़ैसले की अपील की जा सकती तो ये ज़ाहिर है कि आप रिहा कर दिए जाते। लेकिन जनरल कौंसल कोई मातहत अदालत नहीं थी, जिसके फ़ैसले की किसी आला अदालत में अपील हो सकती। वो ख़ुद आला-तरीन अदालत थी जिसके फ़ैसलों के ख़िलाफ़ अपील दायर नहीं हो सकती थी।

चूँकि जनाब मसीह का मुक़द्दमा ज़िंदगी और मौत का मुक़द्दमा था। लिहाज़ा ये ज़रूरी अम्र था कि इन तमाम क़ुयूद का लिहाज़ रखा जाता जो ईलाही शरीअत और यहूदी क़ानून ने इस मुआमला में पेशबंदी के तौर पर लगा रखी थीं। जहां तक इब्ने-अल्लाह के मुक़द्दमे का ताल्लुक़ है, अदालत-ए-आला का उन पाबंदीयों को मल्हूज़ रखना और भी ज़्यादा ज़रूरी था, क्योंकि आपके तमाम हवारी और पैंरो (मानने वाले) अपनी जानों के ख़ौफ़ के मारे आप को अकेला छोड़कर भाग गए थे और आप के ख़िलाफ़ ना सिर्फ आला तरीन तबक़ा के रउसा परे बाँधे थे, बल्कि आम्मतुन्नास (आम लोगों) के जज़्बात की आग भी भड़क रही थी। इन्दरियन हालात अदालत-ए-आला का फ़र्ज़ था कि क़ानून के मुताबिक़ और क़ानून के अंदर आपके जायज़ हुक़ूक़ की ख़ुद हिफ़ाज़त करती।

(5)

हज़रत इब्ने-अल्लाह (जनाबे ईसा) के मुक़द्दमे में जनरल कौंसल ने शुरू से लेकर आख़िर तक ईलाही शरीअत और यहूदी क़ानून की तमाम पाबंदीयों की बाड़ को उखाड़ फेंका। इस कौंसल के अरकान सब उमूर को फ़ौरी तौर पर ख़त्म करना चाहते थे। पस उन्हों ने जल्दी की और इस जल्दी के सबब यहूदी क़ानून के एहतियाती उमूर् और तदाबीर को पसे-पुश्त फेंक दिया। उन्हों ने रात के वक़्त इस मुक़द्दमे की समाअत (सुनवाई) शुरू की और इसी रात फ़ैसला भी कर दिया। ये दोनों बातें यहूदी क़ानून के सरासर ख़िलाफ़ थीं। इस क़ानून के मुताबिक़ कोई ऐसा मुक़द्दमा रात के वक़्त शुरू नहीं किया जा सकता था। चह जायकी रात के वक़्त उस की पैरवी भी की जाये और फ़ैसला भी सुना दिया जाये। अगर किसी मुक़द्दमे की दिन के वक़्त समाअत (सुनवाई) शुरू होती और दौरान-ए-समाअत (सुनवाई के दौरान) रात पड़ जाती तो यहूदी क़ानून के मुताबिक़ लाज़िम था कि मुक़द्दमे अगले दिन पर मुल्तवी किया जाये। चुनान्चे मिशनाह में ख़ास तौर पर हिदायत की गई है कि :-

“दीवानी मुक़द्दमात सिर्फ दिन के वक़्त शुरू किए जाएं और उनका फ़ैसला ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब (सूरज डूबने) के बाद भी हो सकता है। लेकिन जिन मुक़द्दमात का ताल्लुक़ मुल्ज़िम की ज़िंदगी और मौत के साथ है। वो सिर्फ़ रोज़ रोशन में ही शुरू किए जाएं और दिन की रोशनी में ही फ़ैसला पाएं। अगर फ़ैसले की रू से मुल्ज़िम रिहा हो जाए तो वो उसी रोज़ रिहा किया जाये, लेकिन अगर वो मौत का मुस्तूजिब गिरदाना जाये तो लाज़िम है कि मुक़द्दमा दूसरे दिन पर मुल्तवी कर दिया जाये और रात का वक़्फ़ा दर्मियान में पड़े।”

हज़रत इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) के मुक़द्दमे में जनरल कौंसल के जजों ने ऐसी ताजील (जल्दी) की, जिसकी नज़ीर यहूदी तारीख़ में नहीं मिलती। उन्हों ने तमाम पाबंदीयों को जो यहूदी क़ानून ने एहतियात की ख़ातिर लगा रखी थीं जड़ से उखाड़ फेंका। उन्हों ने आपको जुमेरात के रोज़ रात के वक़्त गिरफ़्तार किया। रात के वक़्त ही जनरल कौंसल का इज्लास मुनअक़िद किया। रात के वक़्त ही मुक़द्दमे की समाअत (सुनवाई) शुरू की और उसी रात आपको मुस्तूजिब-ए-क़त्ल क़रार दे दिया। पस जहां तक यहूदी क़ानून का ताल्लुक़ है, इस अदालत ने इब्ने-अल्लाह का ख़ून ना किया, बल्कि अपने क़ानून का ख़ून किया और दरहक़ीक़त इब्ने-अल्लाह (जनाबे ईसा) मुजरिम नहीं थे बल्कि आपके जज मुजरिम थे। यहां ये सवाल पैदा होता है कि जनरल कौंसल के अरकान को जल्दी क्या पड़ी थी कि वो शुरू से आख़िर तक क़ानून-शिकनी से ज़रा ना झजके? इस की वजह हमें बजुज़ इस के और कोई नज़र नहीं आती कि अवाम-उन्नास और हुजूम का मिज़ाज पारे की तरह ऊपर नीचे होता रहता है। चंद रोज़ पेशतर ये लोग हज़रत इब्ने-अल्लाह के आगे आगे “हो शाना” के फ़लक शिगाफ़ नारे बुलंद कर रहे थे और अब यही आपके ख़ून के प्यासे हो गए थे। आपके जजों को ये ख़ौफ़ दामनगीर था कि मबादा हुजूम को आपकी नेकी, हम्दर्दी और मुहब्बत के काम, आपके मोअजज़ात बय्यनात और कलमात-ए-तय्यबा याद आ जाएं और पशेमानी से उनके जज़्बात पल्टा खा कर आपसे हम्दर्दाना रविष इख़्तियार ना कर लें और यूं उन की मेहनत अकारत जाये। पस उन्हों ने अपनी ख़ैर इसी में देखी कि सब काम जल्दी से सरअंजाम पा जाएं। ख़्वाह उस ताजील (जल्दी) की वजह से उन को यहूदी क़ानून और ईलाही शरीअत की “अलिफ़” से लेकर “य” तक ख़िलाफ़वर्ज़ी क्यों ना करनी पड़े।

(6)

इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) की गिरफ़्तारी के बाद सदर मजलिस और अरकान-ए-अदालत जमा हुए। रात के वक़्त मुक़द्दमे की समाअत (सुनवाई) शुरू हुई। लेकिन मुक़द्दमे की समाअत की पहली मंज़िल में ये मुश्किल आन पड़ी कि हज़रत इब्ने-अल्लाह पर किस इल्ज़ाम के बिना पर मुक़द्दमा चलाया जाये। इस में रत्तीभर शक नहीं कि यहूदी क़ानून के मुताबिक़ ये लाज़िम था कि दो गवाह अदालत को पहले यक़ीन दिलाएँ कि किसी शख़्स पर मुक़द्दमा चल सकता है। गवाहों का बयान हर मुक़द्दमे की रुवेदाद का शुरू होता था और जब तक ये बयान अलानिया तौर पर अदालत में पहले पेश ना किया जाता और अदालत को ये यक़ीन ना हो जाता कि मुक़द्दमा चलाना चाहिए, तब तक मुक़द्दमा शुरू नहीं हो सकता था और क़ानून की निगाह में शख़्स मज़्कूर ना सिर्फ बेगुनाह समझा जाता, बल्कि वो बे-इल्ज़ाम तसव्वुर किया जाता था। अदालत ने गवाह बुलाए और उन को जे़ल के निहायत संजीदा अल्फ़ाज़ में मुख़ातब किया गया :-

“ऐ गवाह याद रख कि ज़िंदगी और मौत के इस मुक़द्दमा में अगर तू गुनाह कर रहा है, तो मुल्ज़िम का ख़ून और उस की औलाद का ख़ून हमेशा के लिए तेरी गर्दन पर होगा। आदम इसी लिए अकेला पैदा किया गया था कि तू जान जाये कि अगर कोई गवाह इस्राईल में किसी एक जान को तबाह करता है तो किताब मुक़द्दस के मुताबिक़ वो दुनिया को बर्बाद करता है और अगर वो इस्राईल में किसी एक की जान बचाता है तो वो दुनिया को बचाता है।”

यहूदी क़ानून के मुताबिक़ किसी शख़्स पर इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता, तावक़्ते कि दो गवाहों का हल्फ़ीया बयान मुत्तफ़िक़ा तौर पर पेश हो कर जज को यक़ीन ना दिलाए। लेकिन इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) के मुक़द्दमे में ये मुश्किल दरपेश हुई कि गवाहों के बयानों में तज़ाद और इख़्तिलाफ़ था और उन के बयानों में कोई ऐसी मुत्तफ़िक़ अलैह बात ना थी, जिसके बिना पर ज़िंदगी और मौत का मुक़द्दमा चलाया जा सकता। बड़ी से बड़ी बात जो गवाहों ने कही ये थी कि इब्ने-अल्लाह ने कहा था कि “मैं हैकल को गिरा सकता हूँ और इस को तीन दिन में खड़ा कर सकता हूँ।” लेकिन इस बयान की बिना पर आप पर सिर्फ नुक़्स अमन का मुक़द्दमा चल सकता था, ना कि ऐसा मुक़द्दमा जिसकी सज़ा मौत हो। पस क़ानून की रू से हज़रत इब्ने-अल्लाह शुरू ही से ना सिर्फ बेगुनाह थे, बल्कि बे-इल्ज़ाम भी थे।

(7)

जब सरदार काहिन काइफ़ा और अदालत के जजों ने देखा कि काम बिगड़ता है और बात बनाए नहीं बनती, तो उन्हों ने यहूदी क़ानून की दूसरी पाबंदीयों की बाड़ को उखाड़ फेंका और क़ानून की एक और ख़िलाफ़वर्ज़ी का इर्तिकाब किया ताकि किसी ना किसी तरह इब्ने-अल्लाह (जनाबे ईसा) पर मुक़द्दमा चल सके। काइफ़ा ने हज़रत इब्ने-अल्लाह (जनाबे ईसा) से सवाल पूछने शुरू किए ताकि आपके जवाबात तोड़-मरोड़ कर आपके ख़िलाफ़ किसी ऐसे इल्ज़ाम की बिना (बुनियाद) तलाश की जा सके, जिसकी सज़ा क़त्ल हो और ये इक़दाम यहूदी क़ानून के सरीहन ख़िलाफ़ था। यहूदी क़ानून की रू से आपके ख़िलाफ़ मुक़द्दमे की बिना सिर्फ गवाहों के बयान ही से शुरू हो सकती थी, और यह बना अदालत को नहीं मिलती थी। लेकिन अदालत के जज इस बात पर तुले हुए थे कि “उम्मत की ख़ातिर इस आदमी का मरना बेहतर है।” (युहन्ना 18:15) पस उन्हों ने ख़ुद इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) से सवाल पूछने शुरू किए। (युहन्ना 18:19) ताकि आपके बयान पर ही मुक़द्दमा किसी ना किसी तरह शुरू तो हो सके। लेकिन हज़रत इब्ने-अल्लाह उन की चाल को ताड़ गए। वो बख़ूबी वाक़िफ़ थे कि आपके जज क़ानून की ख़िलाफ़वर्ज़ी अपने वतीरा से कर रहे हैं।

पस आपने ख़ामोशी इख़्तियार कर ली। (मरक़ुस 14:60-61 वग़ैरह) लेकिन आपके दुश्मन जजों ने आपका पीछा ना छोड़ा और वो आपसे सवाल पर सवाल करते गए। (युहन्ना 18:19) तब इब्ने-अल्लाह (जनाबे ईसा) ने मोहर-ए-सुकूत (ख़ामोशी) तोड़ी और आपने जो कुछ फ़रमाया वो ना सिर्फ इन्साफ़ पर मबनी था, बल्कि यहूदी क़ानून के तक़ाज़ाओं के मुताबिक़ था। चुनान्चे आपने जवाब दिया “….मैंने दुनिया से अलानिया बातें की हैं। मैंने हमेशा इबादत ख़ानों और हैकल में जहां सब यहूदी जमा होते हैं ताअलीम दी और पोशीदा कुछ नहीं कहा। तू मुझ से क्यों पूछता है? सुनने वालों से पूछ कि मैंने उन से क्या कहा? देख उन को मालूम है कि मैंने क्या-क्या कहा। (युहन्ना 18:20-21) हज़रत इब्ने-अल्लाह ने इन अल्फ़ाज़ में यहूदी कानून-ए-इन्साफ़ की जानिब अपील की थी। इस पर आज जज बरफ़रोख़्ता हो गए और यहूदी तिलमिला उठे और आप को अदालत के कमरे में जजों के सामने तमांचा मारा गया, जो सरासर क़ानून के ख़िलाफ़ था। इस हमले के जवाब में आपने फिर यहूदी क़ानून की पनाह ढुंडी और दुबारा इन्साफ़ के ख़्वाहां हुए और फ़रमाया “…..अगर मैंने बुरा कहा है तो इस बुराई पर गवाही दे और अगर अच्छा कहा है तो मुझे क्यों मारता है?” (युहन्ना 18:23)

(8)

जब अदालत ने देखा कि कुछ बनता नज़र नहीं आता और मुक़द्दमे का आग़ाज़ भी नहीं हो सकता तो सदर-ए-अदालत और सरदार काहिन एक और चाल चला और यह चाल भी यहूदी क़ानून के सरासर ख़िलाफ़ थी। अहले यहूद अपने क़ानून पर नाज़ाँ हो कर फ़ख़्रिया कहा करते थे :-

“हमारा क़ानून किसी शख़्स को उस के अपने इक़बाल पर मौत की सज़ा नहीं देता।”

यहूदी क़ानून के ये अल्फ़ाज़ भी निहायत वाज़ेह थे :-

“हमारा बुनियादी उसूल ये है कि अगर मुक़द्दमे के दौरान में किसी शख़्स के मुँह से कोई बात निकल जाये तो वो बात उस के ख़िलाफ़ इस्तिमाल नहीं की जा सकती।”

लेकिन सरदार काहिन ने अब ये कोशिश की कि ख़ुद हज़रत इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) के मुँह से कोई ऐसी बात निकलवाये जिसके बिना पर ना सिर्फ आप पर मुक़द्दमा चल सके, बल्कि आपको क़त्ल की सज़ा भी मिल सके। इस ग़रज़ को मद्दे-नज़र रखकर अदालत के सदर ने आपसे ऐसे सवाल पूछने शुरू किए जिनका जवाब इब्ने-अल्लाह को दीए बग़ैर चारा ना था। चुनान्चे सरदार काहिन ने यहूदी क़ानून के बुनियादी उसूल को बाला-ए-ताक़ रखकर आपसे पूछा “क्या तू इस सतूदा का बेटा मसीह है? अगर तू मसीह है तो हमसे कह दे।” (मरक़ुस 14:61) ये सवाल ऐसा था कि इस का जवाब इब्ने-अल्लाह को ज़रूर देना था। अगर वो इस का जवाब ना देते तो अपने मिशन का इन्कार करते। पस आपने जवाब में फ़रमाया “हाँ मैं हूँ और तुम इब्ने आदम को क़ादिर-ए-मुतलक़ की दहनी तरफ़ बैठे और आस्मान के बादिलों के साथ आते देखोगे।” (मरक़ुस 14:62) जब सरदार काहिन ने देखा कि उस की चाल कारगर हो गई है तो “सरदार काहिन ने अपने कपड़े फाड़ कर कहा अब हमें गवाही की क्या हाजत रही। तुमने ये कुफ़्र सुना। तुम्हारी क्या राय है?” (मरक़ुस 14:63) सदर अदालत के तमाम अरकान यहूदी क़ानून के बुनियादी उसूल को भूल गए कि “अगर मुक़द्दमे के दौरान में किसी शख़्स के मुँह से कोई बात निकल जाये जो उस के ख़िलाफ़ हो तो वो बात उस के ख़िलाफ़ मुतसव्वर नहीं की जा सकती।” “हमारा क़ानून किसी शख़्स को उस के अपने इक़बाल पर मौत की सज़ा नहीं देता।” सरदार काहिन के सवाल के जवाब में उन्हों ने कहा “अब हमें गवाहों की क्या हाजत रही? हमने ख़ुद उस के मुँह से सुन लिया है।” इन सबने फ़त्वा दिया कि हज़रत इब्ने-अल्लाह (जनाबे ईसा) क़त्ल के लायक़ है। क्योंकि यहूदी क़ानून के मुताबिक़ कुफ़्र की सज़ा मौत है।

8. ख़ुदावंद मसीह की सलीबी मौत और

रूमी क़ानून

(1)

सरदार काहिन काइफ़ा यहूदी था जो मसीह मौऊद की आमद की मुंतज़िर था। पस उस का एक दूसरे यहूदी (इब्ने-अल्लाह) से ये सवाल करना “क्या तू ख़ुदा का बेटा मसीह है?” ज़ाहिर करता है कि वो इब्ने-अल्लाह (जनाबे ईसा) पर ये इल्ज़ाम नहीं लगाता कि आपने मसीह मौऊद की आमद के मुताल्लिक़ कोई अनोखी या नई ताअलीम या बिद्दत शुरू की है, बल्कि उस के सवाल का मतलब ये है, “क्या तू ही वो मसीह है जिसकी हमारी क़ौम मुंतज़िर है और जिस की पेशख़बरी (पिशनगोई) हमारे अम्बिया ने दी है?” आपने जवाब में फ़रमाया “हाँ मैं हूँ।” सदर अदालत वाले अब इस इंतिज़ार में थे कि आप उनको अपना प्रोग्राम बताएं, जिसके मुताबिक़ आप रूमी सल्तनत को बर्बाद करके यहूदी हुकूमत को अज सर-ए-नौ (नए सिरे से) क़ायम करेंगे। क्योंकि उन के ख़्याल में मसीह मौऊद का बस यही एक काम था। लेकिन सदर अदालत के सामने आपकी ज़बान मुबारक से एक लफ़्ज़ भी ऐसा ना निकला जिसमें आपने दुनियावी बादशाहत का दावा किया हो। या तल्वार के ज़रीये रूमी सल्तनत को मग़्लूब करने के ख़्याल का हामिल हो। इस के बरअक्स आपने रुहानी दुनिया और ईलाही क़ुर्बत (नज़दिकी) का उनके सामने ज़िक्र छेड़ा। लेकिन अगर आप ने बाग़ियाना ख़यालात का ज़रा भी इज़्हार फ़रमाया होता तो आप पर ना तो कुफ़्र का फ़त्वा सादिर होता और ना सलीबी मौत की नौबत आती, बल्कि सरदार काहिन और सदर अदालत के अरकान आपको अपने सयासी अग़राज़ का आलाकार बना लेते ताकि आपके असर-ओ-रसूख़ और एजाज़ी कुवा (ताक़त) के ज़रीये यहूदी सल्तनत को अज़ सर-ए-नौ (नए सिरे से) क़ायम करें।

इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) के जवाब से और आप की माअनी-ख़ेज़ ख़ामोशी को देख कर सदर-ए-अदालत वाले मायूस हो गए। क्योंकि आपने उन की तमाम उम्मीदों पर जो वो मसीह मौऊद की ज़ात के साथ वाबस्ता करते थे, पानी फेर दिया। उनके दिलो-दिमाग में अहयाए क़ौम का ख़्याल समाया हुआ था और अगर कोई अम्र इस के हुसूल की राह में मानेअ् होता तो उस रुकावट को पांव तले बेदिरेग़ रौंदने में उन को ज़रा बाक ना था। जब उन्हों ने देखा कि इब्ने-अल्लाह का वतीरा उन के ज़ोअम के मुताबिक़ क़ौम के मुफ़ाद के ख़िलाफ़ है तो उन्हों ने तहय्या कर लिया कि बकाए क़ौम की ख़ातिर उस को क़त्ल करना ही बेहतर है। (युहन्ना 11:50) सदर अदालत के फ़त्वे के मुताबिक़ इब्ने-अल्लाह ने “कुफ़्र बका”, लेकिन क्या आपका जवाब सहाइफ़ अम्बिया की कुतुब और बिलख़सूस हज़रत यसअयाह नबी की किताब के दूसरे हिस्से (अबवाब 40 ता 66) के मुताबिक़ ना था? ये दुरुस्त है कि आपका इर्शाद सरदार काहिन और सदर-ए-अदालत वालों के ख़यालात व जज़्बात के मुनाफ़ी (खिलाफ) था, लेकिन क्या मह्ज़ इस बिना पर वो “कुफ़्र” क़रार दिया जा सकता था? अदालत के किसी रुकन ने इन बातों की तफ़्तीश करने की ज़हमत गवारा ना कि और कताबे मुक़द्दस और यहूदी क़ानून की एक और ख़िलाफ़वर्ज़ी करके आप को वाजिब-उल-क़त्ल क़रार देकर रूमी सल्तनत के गवर्नर पीलातुस के सामने पेश कर दिया।

(2)

सरदार काहिन काइफ़ा, गवर्नर पीलातुस के अगले पिछले हालात से वाक़िफ़ था और उस को ख़ूब पहचानता था। पीलातुस भी काइफ़ा के हथकंडों को जानता था और उस की चालबाज़ तबीयत से वाक़िफ़ था। पीलातुस का पिछ्ला रिकार्ड ख़राब था। वो क़ैसर तबरीस का गवर्नर और वायसराए था और अर्ज़-ए-मुक़द्दस में ठीक उसी तरह हुकूमत के इख़्तयारात रखता था जिस तरह बर्तानिया के बादशाह का वायसराए हमारे मुल्क में रखता था। लेकिन उस ने अपनी हुकूमत के दौरान में चंद बातें ऐसी की थीं जो उस के ख़िलाफ़ थीं। मसलन मुश्ते नमूना अज़-खरवारे वो यहूदीयत को नफ़रत की निगाहों से देखता था और यहूदी इदारों का जानी दुश्मन था। यहूदी मुअर्रिख़ यूसीफ़स हमको बताता है कि वो यहूदी शरीअत को मिटाने की ख़ातिर फ़ौज को क़ैसरयह से यरूशलेम ले आया था। शहर यरूशलेम में हर क़िस्म की मूर्त का दाख़िला मूसवी शरीअत के दूसरे हुक्म के मुताबिक़ ममनू था। लेकिन वो रूमी पर्चम को उस के अंदर ले गया, जिस पर क़ैसर रुम की मूर्त थी। इस पर तमाम शहर में गम व गुस्से की लहर दौड़ गई। पीलातुस ने सिपाहीयों को हुक्म दिया कि हुजूम को चारों तरफ़ से घेर लें। अहले यहूद की भीड़ों की भीड़ें (हुजूम के हुजूम) ज़मीन पर लेट गईं और उन्हों ने कहा कि हमें मौत क़ुबूल है, लेकिन हम रूमी झंडे की मूर्त से अपने शहर को नापाक होने ना देंगे। इस पर पीलातुस झुक गया। सरदार काहिन को ये मौक़ा ख़ूब याद था। वो जानता था कि पीलातुस को हुजूम की राय आम्मा के ज़रीये झुकाया जा सकता है और वो इस मौक़े पर भी यही चाल चला। चुनान्चे मुक़द्दस मरक़ुस लिखते हैं :-

“मगर सरदार काहिनों ने भीड़ को उभारा ताकि पीलातुस उन की ख़ातिर बरब्बा ही को छोड़ दे। पीलातुस ने दुबारा उन से कहा फिर जिसे तुम यहूदीयों का बादशाह कहते हो इस से मैं क्या करूँ? वो फिर चिल्लाए कि वो मस्लूब हो। और पीलातुस ने उन से कहा क्यों इस ने क्या बुराई की है? वो और भी चिल्लाए कि वो मस्लूब हो। पीलातुस ने लोगों को ख़ूश करने के इरादे से उन के लिए बरब्बा को छोड़ दिया और यिसूअ को कोड़े लगवा कर हवाले किया कि मस्लूब हो।” (मरक़ुस 15:11-15)

और मुक़द्दस लूक़ा लिखते हैं :-

“वो चिल्ला चिल्ला कर सर होते रहे कि उसे सलीब दी जाये और उन का चिल्लाना कारगर हुआ।” (लूक़ा 23:23)

एक और मौक़े पर लोकल सेल्फ गर्वनमैंट के सवाल पर अहले यहूद और पीलातुस में झगड़ा बरपा हुआ था। उस ने यरूशलेम के शहर में पानी की आमद का ऐसा अच्छा इंतिज़ाम किया था कि बादशाह सुलेमान के बाद बावजूद हज़ार कोशिशों के कोई ना कर सका था। इस इंतिज़ाम के अख़राजात को पूरा करने की ख़ातिर उस ने हैकल के ख़ज़ाने पर हाथ डाला। इस मौक़े पर तमाम शहर में फ़साद मच गया। पीलातुस ने रूमी फ़ौज के सिपाहीयों को हुक्म दिया कि यहूदीयों का सा लिबास पहन कर बलवाइयों में रुल मिल जाएं और उन को ख़ंजरों से मौत के घाट उतार दें। यूं इस ने क़त्ले आम और ख़ूँरेज़ी के ज़रीये फ़साद फ़िरौ कर दिया।

इन और दीगर उमूर् की वजह से यहूदी पीलातुस से सख़्त शाकी थे। पीलातुस भी बातिन में अपने पिछले कारनामों की वजह से उनसे ख़ाइफ़-ओ-हिरासाँ रहता था। उस के ख़ौफ़ की वजह ये थी कि उस ज़माने में रूमी क़ानून की रू से रूमी क़ैसर सल्तनत के हर शोअबा का ख़ुद-मुख़्तार सर था। सयासी, मज़हबी, फ़ौजी और रियासती उमूर सब के सब उस के हाथ में थे और वो जो चाहता मुतलक़-उल-अनान होने की वजह से कर सकता था। अगर क़ैसर चाहता तो हर छोटे बड़े शख़्स को मामूली से मामूली क़सूर के एवज़ या सूबा की बद-इंतिज़ामी की वजह से उम्र क़ैद या मौत की सज़ा दे देता था। अगर कहीं क़ैसर को ये अंदेशा हो जाता कि फ़ुलां शख़्स मेरा “ख़ैर-ख़्वाह” नहीं है तो ऐसी ख़तरनाक ग़द्दारी की सज़ा बदतरीन और सख़्त तरीन मौत होती थी। सरदार काहिन काइफ़ा इस अम्र से भी बख़ूबी वाक़िफ़ था। पस उस ने निहायत चालाकी से इस हथियार को भी पीलातुस के ख़िलाफ़ इस्तिमाल किया। चुनान्चे मुक़द्दस युहन्ना लिखते हैं :-

“यहूदीयों ने चिल्ला कर कहा। अगर तू इस को छोड़ देता है तो क़ैसर का ख़ैर-ख़्वाह नहीं।” (युहन्ना 19:12)

सुतूर-ए-बाला से नाज़रीन पर ज़ाहिर हो गया होगा कि सरदार काहिन काइफ़ा और गवर्नर पीलातुस किस क़ुमाश के इन्सान थे। दोनों का शेवा चालबाज़ी था। दोनों हुसूल-ए-मक़्सद और मतलब बरारी की ख़ातिर हर क़िस्म की चाल चल लेते थे। आमियाना (जाहिलों की) ज़बान में दोनों “चार सौ बीस खेलने” में मश्शाक़ थे। लेकिन दोनों में से काइफ़ा ज़्यादा होशयार और चालाक था। हर होशयार शख़्स काइफ़ा की सी ख़ूबी के साथ इन शतरंजी चालों को ना चल सकता।

(3)

अब मुक़दमा यहूदी अदालत से रूमी अदालत में मुंतक़िल हो गया। यहूदी सदर-ए-अदालत (Sanhedrin) का प्रैज़ीडैंट सरदार काहिन काइफ़ा था। रूमी अदालत का सदर गवर्नर पीलातुस था। जो प्रेटूरयम (Pretorium) में बहैसीयत क़ैसर तबरेस (जो रूमी मज़्हब का सरदार काहिन था) के वायसराए होने के तख़्त अदालत पर मुतमक्किन था। यहां ये सवाल पैदा होता है कि क़ानून की नज़र में दोनों अदालतों की क्या हैसियत थी और उन का बाहमी ताल्लुक़ किया था? क़ैसर रुम की हुकूमत से पहले अदालत-ए-आलिया (Sanhedrin) को ये इख़्तियार हासिल था कि वो मौत का फ़त्वा सादिर करने के बाद ख़ुद ही मौत की सज़ा भी दे दे। लेकिन जब मुल़्क क़ैसर रुम के मातहत हो गया तो अदालत-ए-आलिया (Sanhedrin) से मौत की सज़ा देने का इख़्तियार छीन लिया गया। क्योंकि हर यहूदी मुल्ज़िम क़ैसर रोम की रईयत था। पस उस को बहैसीयत रियाया होने के ये हक़ हासिल हो गया था कि क़ैसर के नुमाइंदे और रोमी क़ानून की पनाह में हो। यहूदी अदालत में मुक़द्दमे की समाअत (सुनवाई) जो की गई थी वो मौत के फ़त्वे सादिर होने तक अदालत-ए-आलिया (Sanhedrin) के इख़्तियार में थी, लेकिन ये समाअत (सुनवाई) फ़त्वे के साथ ही ख़त्म हो गई थी। मौत की सज़ा देना क़ैसर रुम के नुमाइंदे के हाथ में था। (युहन्ना 18:31)

हम को याद रखना चाहिए कि जब मुक़द्दमा पीलातुस के सामने आया तो वो अदालत-ए-आलिया (Sanhedrin) के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील के तौर पर नहीं आया था। रूमी अदालत कोई कोर्ट आफ़ अपील (Court of Appeal) ना थी और ना जनाब मसीह ने अदालत-ए-आलिया (Sanhedrin) के फ़ैसले के ख़िलाफ़ रूमी अदालत में कोई अपील दायर की थी। लेकिन इस के साथ ही पीलातुस की हैसियत किसी ऐगज़ैक्टिव ऑफीसर की सी ना थी। जिसका काम ये हो कि अदालत-ए-आलिया (Sanhedrin) के फ़ैसले को बे चूं व चरा पूरा करके मुल्ज़िम को मरवा डाले।

पीलातुस के इख़्तियार में था कि वो मुक़द्दमे की रुइदाद (روئیداد) की देख-भाल करे। रूमी क़ानून की रू से उस पर मुक़द्दमे की निगरानी करना लाज़िम था। इन दोनों अदालतों के बाहमी ताल्लुक़ात की नज़ीर मौजूदा ज़माने में ग़ालिबन हिन्दुस्तान की हाईकोर्ट और प्रिवी कौंसल की जोडेशनल कमेटी (Judicial Committee of the Privy Council) के बाहमी ताल्लुक़ात में पाई जाती है। ये कमेटी बार-बार इस बात पर इसरार करती थी कि वो कोर्ट आफ़ क्रीमिनल अपील (Court of Criminal Appeal) नहीं है। ताहम उस को ये इख़्तियार हासिल था कि वो इस अम्र का ख़्याल रखे कि किसी वजह से इन्साफ़ का ख़ून ना होने पाए।

बईना यही इख़्तियार पीलातुस को भी हासिल था। इस के इलावा उस को दीगर इख़्तयारात भी हासिल थे। मुक़द्दमे में वो ना सिर्फ तरफ़ैन के बयान सुन सकता था, बल्कि वो ख़ुद मुल्ज़िम से सवालात करके असल हक़ीक़त को मालूम करने का इख़्तियार रखता था। उस को ये इख़्तियार भी हासिल था कि वो ख़ुद गवाहों को बुलवाकर मुआमले की तह तक पहुंचे। वो यहूदी सदर अदालत (Sanhedrin) के फ़ैसले को भी बरतरफ़ कर सकता था और सज़ा-ए-मौत को बरतरफ़ करके सज़ा में तख़्फ़ीफ़ कर सकता था या मुल्ज़िम को बरी क़रार देकर उस को आज़ाद कर सकता था।

हमको ये अम्र भी मलहूज़ ख़ातिर (याद) रखना चाहिए कि पीलातुस चीफ़ जज होने के इलावा गवर्नर और हाकिम भी था और सूबा के अमन आम्मा के तहफ़्फ़ुज़ का ज़िम्मेदार था। उस का ना सिर्फ ये काम था कि अदालत की कुर्सी पर बैठ कर इन्साफ़ करे, बल्कि उस का ये भी फ़र्ज़ था कि सूबा का बेहतरीन तौर पर इंतिज़ाम करे। वो ना सिर्फ चीफ़ जस्टिस था, बल्कि ला और आर्डर (Law & Order) का हैड था। मौजूदा ज़माने में इस की मिसाल किसी ज़िले के डिप्टी कमिशनर की सी है, जो ना सिर्फ डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट होता है बल्कि ज़िला का ऐगज़ैक्टिव अफ़्सर भी होता है। पीलातुस की ज़ात में जुडेशरी और ऐगज़ैक्टिव (Judiciary & Executive) इख़्तयारात दोनों जमा थे। पस उस का ये काम था कि वो ना सिर्फ मुल्ज़िम के साथ इन्साफ़ करे, बल्कि अगर वो मुक़द्दमे में किसी क़िस्म की ख़ामी देखे तो उसी को या बरी कर दे या सज़ा में तख़्फ़ीफ़ कर दे और अमन आम्मा को सामने रखकर मुल्ज़िम की हिफ़ाज़त की तदाबीर को अमल में लाए ताकि वो मुक़ामी मुफसिदों से रूमी क़ानून की पनाह में रहे। लेकिन इन हिफ़ाज़ती तदाबीर से पहले ज़रूरी था कि पीलातुस मुक़द्दमे की तह तक पहुंच कर दर्याफ़्त करे कि आया मुल्ज़िम बेगुनाह है या नहीं और अगर ये साबित हो जाए कि वो बेकसूर है तो उस को बरी कर दे, वर्ना उस की मौत रूमी सल्तनत के इन्साफ़ के दामन पर ना मिटने वाले ख़ून का धब्बा होगी।

(4)

इलावा अज़ीं मुक़द्दमे की समाअत (सुनवाई) के दौरान में उस को मालूम हो गया कि अदालत-ए-आलिया (Sanhedrin(19) ) ने यहूदी शरीअत व कानून की सब पाबंदीयों को बे दरेग़ तोड़ा है। पस उस ने तहय्या कर लिया कि वो असल मुआमले को मालूम करके इन्साफ़ करेगा। अनाजील के बयान के मुताबिक़ मुक़द्दमे के दौरान में उस ने हर तरह से कोशिश की कि वो इन्साफ़ को मद्द-ए-नज़र रखकर अपना फ़ैसला दे। उस को बहैसीयत जज और गवर्नर होने के ना सिर्फ अपने फ़राइज़ का एहसास था, बल्कि वो ये भी जानता था कि वो क़ैसर रुम के पास अपनी ज़िम्मेदारीयों की अदायगी का जवाबदेह है। पीलातुस के ज़हनी फ़ैसले को उस नज़ारे से भी तक़्वियत मिली जो उस की आँखों के सामने था। एक तरफ़ यहूदी हुजूम का बेपनाह जोशो-ख़रोश और सरदार काहिन जैसी मुक़तदिर हस्ती का होना और दूसरी तरफ़ एक बेकस व लाचार और बे-यार तन्हे तन्हा मुल्ज़िम जिसका ना कोई दोस्त था और ना सफ़ाई का गवाह जो इस आड़े वक़्त में उस के काम आता। लेकिन पीलातुस ये भी देखता था कि मुल्ज़िम पर यहूदी हुजूम के जोश का कोई असर नज़र नहीं आता था और ना उस के चेहरे पर हवाईयां उड़ती थीं। वो निहायत इत्मीनान और शांति के साथ खड़ा था। भीड़ के लोग उस पर आवाज़े कसते थे, लेकिन वो सुकून से सब दिलख़राश बातें सुनता था और सब्र और मुहब्बत से बर्दाश्त किए जाता था। इन हालात में ये नामुम्किन और ग़ैर फ़ित्रती बात होती अगर जज की हम्दर्दी मुल्ज़िम के साथ ना होती। पीलातुस ने मुसम्मम इरादा कर लिया कि वो मुल्ज़िम के साथ इन्साफ़ बरतेगा।

(19) Sanhedrin

(5)

गवर्नर पीलातुस सरदार काहिन काइफ़ा के हथकंडों से वाक़िफ़ था। उस ने भाँप लिया कि वो हुजूम को इस ग़रज़ से अपने हमराह लाया है कि पहले की तरह उस को मरऊब कर ले। पस उस ने सरदार काहिन को तुर्शी से मुख़ातब करके पूछा “तुम इस पर क्या इल्ज़ाम लगाते हो?” सरदार काहिन ने गुस्ताख़ाना जवाब दिया। “अगर ये क़सूरवार ना होता तो हमको क्या ज़रूरत पड़ी थी कि उसको आज के दिन तेरे पास लाते?” (युहन्ना, 18:29-30) सरदार काहिन के जवाब से (जो दरहक़ीक़त ना कोई सबूत था और ना कोई इल्ज़ाम था) पीलातुस को मालूम हो गया कि मुल्ज़िम के ख़िलाफ़ दरहक़ीक़त कोई इल्ज़ाम नहीं है। इंजीली बयान से मालूम होता है कि सरदार काहिन को पीलातुस की अदालत में भी वही मुश्किल दरपेश आई जो उस को अपनी अदालत में पेश आई थी। यानी “इब्ने-अल्लाह” (जनाबे ईसा) के ख़िलाफ़ कोई ख़ास इल्ज़ाम नहीं लगा था जो किसी अदालत में मुक़द्दमे की बिना हो सकता हो। पस सरदार काहिन एक नई चाल चला। उस ने इब्ने-अल्लाह पर तीन इल्ज़ाम लगा दीए जिनका उस की अपनी अदालत में ज़िक्र तक ना हुआ था और ना उनके बिना पर आप पर मौत का फ़त्वा लगाया गया था। उस ने किज़्ब बयानी (झूठा बयान) करके गवर्नर को कहा कि हमारी अदालत ने तीन उमूर् के बिना पर इस को वाजिब-उल-क़त्ल क़रार दिया। :-

(1) ये शख़्स क़ौम यहूद को बहकाता है। वो तमाम यहूदियह में बल्कि गलील से लेकर यरूशलेम तक लोगों को सिखा सिखा कर उभारता है।

(2) वो क़ैसर को ख़राज (टेक्स) देने से मना करता है।

(3) वो अपने आपको यहूदीयों का बादशाह मसीह कहता है। (लूक़ा 23:2-5)

जब सरदार काहिन इब्ने-अल्लाह (जनाबे ईसा) पर इल्ज़ाम लगा चुका तो पीलातुस ने मुक़द्दमे की तफ़्तीश शुरू कर दी। सरदार काहिन ने गवाह पेश किए, लेकिन मुल्ज़िम ने ना तो गवाहों की जरह की और ना उन की गवाही से मरऊब हो कर हिरासाँ हुआ। बल्कि रुअब आमेज़ ख़ामोशी से चिपका उन के इल्ज़ाम और बयानात सुनता रहा। जज के देखने में ऐसी बात कभी ना आई थी। वो इब्ने-अल्लाह के वतीरा से हैरान और शश्दर रह गया। (मत्ती 27:14) मुक़द्दमे की समाअत (सुनवाई) के दौरान में गवाहों की शहादत ने पीलातुस पर यह ज़ाहिर कर दिया कि इब्ने-अल्लाह के ख़िलाफ़ दरहक़ीक़त कोई ठोस इल्ज़ाम नहीं है, जिसकी बिना पर उस पर मुक़द्दमा चल सके। क्योंकि पहला इल्ज़ाम कि इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) क़ौम को गुमराह करते रहे हैं, सरीहन मज़्हब के साथ ताल्लुक़ रखता था जिसका ना तो सियास्यात के साथ कोई वास्ता था और ना उस की सज़ा क़त्ल थी। दूसरा इल्ज़ाम कि “इब्ने-अल्लाह” (ابن اللہ) क़ैसर को ख़राज (टेक्स) देने से मना करते थे, बेसरोपा था। क्योंकि गवाहों की शहादत (गवाही) साबित करती थी कि इस क़िस्म का इल्ज़ाम आपकी ताअलीम और अम दोनों के ख़िलाफ़ है।

पीलातुस ये भी जानता था कि अगर इस इल्ज़ाम में कुछ सदाक़त होती तो सरदार काहिन “इब्ने-अल्लाह” (ابن اللہ) को मौरिद-ए-इल्ज़ाम ना गर्दानता और ना आपको रूमी अदालत में पेश करता और ये बात सच्च भी थी। क्योंकि अगर “इब्ने-अल्लाह” फ़िल-हक़ीक़त बाग़ी होते तो जैसा हम कह चुके हैं रऊसा यहूद आपको अपने सयासी अग़राज़ का आलाकार बना लेते। आपसे अगर उन को कोई शिकायत थी तो ये थी कि आप रूमी सल्तनत से बग़ावत की तल्क़ीन नहीं करते थे। सरदार काहिन ने अपने हुसूल-ए-मतलब के लिए आप पर यह इल्ज़ाम तो लगा दिया कि आप बाग़ी ख़यालात के इन्सान हैं, लेकिन दरहक़ीक़त उन की शिकायत ये थी कि आप बाग़ी नहीं। पीलातुस भी इस रम्ज़ को भाँप गया। पस उस ने ये फ़ैसला दिया कि ये दूसरा इल्ज़ाम भी साबित नहीं। तीसरा इल्ज़ाम निहायत संगीन था कि आपने बादशाह होने का दावा किया है। चारों अनाजील इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि पीलातुस ने इस संगीन इल्ज़ाम की अच्छी तरह तफ़्तीश की। उस ने इब्ने-अल्लाह (जनाबे ईसा) से पूछा “क्या तू यहूदीयों का बादशाह है?” आपने जवाब में फ़रमाया “तू ख़ुद कहता है।”, जिसका यहूदी क़ानून के मुताबिक़ ये मतलब था कि “तू अपने क़ौल को साबित कर”, गवाहों को तलब कर और तस्दीक़ कर ले। चूँकि मुआमला संगीन था, पीलातुस पर लाज़िम हुआ कि वो इस बात की तह को पहुंचे। पस वो आपको अंदर प्रीटूरीयम में ले गया ताकि ख़ल्वत (तन्हाई) में असल हालात को दर्याफ़्त करे। ईद फ़िस्ह की सुबह होने की वजह से सरदार काहिन और यहूद नापाक हो जाने के ख़दशे (डर) से अंदर ना गए। वहां क़िले के अंदर ख़ल्वत (तन्हाई) में जज और मुल्ज़िम के दर्मियान जो गुफ़्तगु हुई, वो दुनिया के मशहूर मुक़द्दमात में अपनी नज़ीर नहीं रखती। चुनान्चे मुक़द्दस युहन्ना लिखते हैं कि पीलातुस ने पूछा कि क्या तू यहूदीयों का बादशाह है? यसूअ ने जवाब दिया मेरी बादशाहत दुनिया की नहीं। इस का सबूत ये है कि अगर मेरी बादशाहत दुनिया की होती तो मेरे ख़ादिम लड़ते। पीलातुस ने उस से कहा क्या तू बादशाह है? जनाबे ईसा ने जवाब दिया मैं इस लिए पैदा हुआ हूँ और इस लिए दुनिया में आया हूँ कि हक़ की गवाही दूं। जो कोई सच्चाई का है वो मेरी आवाज़ सुनता है। पीलातुस ने उस से कहा सच्चाई किया है? (युहन्ना 18:33-38) इंजील के अल्फ़ाज़ ज़ाहिर करते हैं कि इस ख़लवती (तन्हाई) की मुलाक़ात में गवर्नर ने अपनी हुकूमत और इख़्तियार को बरतरफ़ करके “इब्ने-अल्लाह” से सवाल किए और आप ने उस को अक़ील व फ़हीम रूमी और फ़राख़ नज़र इन्सान ख़्याल करके जवाब दीए। आपने उस को आलमबाला की एक नई दुनिया का नज़ारा दिखाया जो अब तक उस की नज़रों से ओझल रहा था।

आपने फ़रमाया हाँ मैं बादशाह हूँ।, लेकिन इस दुनिया की बादशाही का दावेदार नहीं हूँ। एक और दुनिया है जो दुनिया-ए-हक़ है। मैं उस का ताजदार हूँ और जो हक़ की पैरवी करता है, वो मेरा ग़ुलाम है और मैं उस का आक़ा हूँ। इस जवाब से पीलातुस पर ये बात अयाँ हो गई कि इब्ने-अल्लाह क़ैसर रुम के रक़ीब या हरीफ़ नहीं हैं और दुनियवी सल्तनत का ख़्याल भी आपके दिल में कभी नहीं आया। क्योंकि अगर आप बाग़ी होते तो ज़ाहिर है कि आपके पैरौ (मानने वाले) आपकी ख़ातिर जंग और ख़ूँरेज़ी करते और आप इस बेसर-ओ-सामानी की हालत में ना होते। उसने सोचा कि मुल्ज़िम सच्च कहता है और उस ने ये कहा भी है कि “मैं सच्च की गवाही देता हूँ और जो कोई सच्चाई का है वो मेरी पैरवी करता है।” इन अल्फ़ाज़ ने जज को मुतास्सिर कर दिया। पीलातुस के ख़यालात ने ऐसी फ़िज़ा में परवरिश पाई थी जो क़ैसर तबरीस के दरबार की थी। जहां कोई शख़्स रूमी मज़्हब के बुतों का क़ाइल ना था जो उमराए दरबार की नज़र में बे-हक़ीक़त थे।

रउसा-ए-सल्तनत का असल मज़्हब हुब्ब-उल-वतनी (वतन से मुहब्बत) और इम्पैरियलइज़्म (Imperialism) की परस्तिश था। क़ैसर रुम जो सल्तनत की अज़मत का ज़िंदा निशान था, हक़ीक़ी देवता था, जिसकी सब छोटे बड़े परस्तिश करते थे। जो शख़्स क़ैसर परस्ती नहीं करता था वो सल्तनत का दुश्मन और ग़द्दार तसव्वुर किया जाता था। लेकिन इस क़िस्म की परस्तिश इन्सान की रूह को ऊपर नहीं उठा सकती और ना उस के रुहानी तक़ाज़ाओं की प्यास को बुझा सकती है। इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) ने पीलातुस को फ़रमाया था कि मेरा पैदाइशी हक़ है कि मैं हक़ और सच्चाई की सल्तनत का ताजदार हूँ और मेरी आमद का मक़्सद ही ये है कि दुनिया को हक़ की तरफ़ दावत दूं। पीलातुस दिल में सोचता था कि आख़िर ये हक़ क्या चीज़ है? सच्चाई किस को कहते हैं? जिसकी उस शख़्स के मुताबिक़ पैरवी करनी हर इन्सान पर लाज़िम है, ताकि उस की रूह इस माद्दी दुनिया से बालातर हो सके। ये नई ताअलीम क्या है जो ये शख़्स देता है? अगर इस नई ताअलीम में सच्चाई है तो वो सब पुराने ख़यालात जिनमें मेरी परवरिश हुई है, बातिल हैं।

बहरहाल इस नई ताअलीम का बग़ावत के साथ किसी क़िस्म का ताल्लुक़ नहीं और ना ये ताअलीम रूमी सल्तनत के क़ानून के ख़िलाफ़ है। मुल्ज़िम मह्ज़ एक ख्व़ाब बीन है जिसने हक़ के उसूल को अपनी अमली ज़िंदगी की रोशनी बना रखा है। वो अपने हक़ के उसूल की ख़ातिर जान देने को भी तैयार है। ऐसे शख़्स का ख़ून करना अदल और इन्साफ़ का ख़ून करना है और यह एक ऐसी भयानक बात है कि मैं इस का हरगिज़ मुर्तक़िब ना हूँगा। “पस पीलातुस यहूदीयों के पास फिर बाहर गया और उन से कहा कि मैं इस का कुछ जुर्म नहीं पाता।” (युहन्ना 18:38 वग़ैरह) रूमी अदालत में मुक़द्दमा ख़त्म हो गया। चीफ़ जस्टिस ने हुक्म सुना दिया। “मैं इस का कुछ जुर्म नहीं पाता।” रूमी सल्तनत के क़वानीन के मुताबिक़ “इब्ने-अल्लाह” बरी क़रार पाए।

9. मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) की सलीबी मौत मसअला तक़्दीर

एक साहब लिखते हैं: “आपने अपनी किताब (दीन फ़ित्रत इस्लाम या मसीहीय्यत?) में लिखा है कि क़ुरआनी आयात में निहायत वाज़ेह तौर पर क़िस्मत और तक़्दीर को माना गया है, लेकिन इंजील तक़्दीर की क़ाइल नहीं। अगर ये दुरुस्त है तो मसीह के इस क़ौल का क्या मतलब है कि “इब्ने-आदम तो जैसा उस के हक़ में लिखा है, जाता ही है, लेकिन उस आदमी पर अफ़्सोस जिसके वसीले से इब्ने-आदम (मसीह) पकड़वाया जाता है। अगर वो आदमी पैदा ना होता तो उसके लिए अच्छा होता।” (मत्ती 26:24)

जवाबन अर्ज़ है कि :-

इस दुनिया में दो क़िस्म के इन्सान होते हैं। एक क़िस्म के आदमी वो सईद इन्सान हैं जो हर हालत में मशिय्यत-ए-एज़दी और नेकी की पैरवी करना चाहते हैं। दूसरी क़िस्म के आदमी कजरौ, बदकार, बदमाश और सितम-शिआर (जिसे ज़ुल्म करने की आदत हो) होते हैं, जिनमें बदी और शरारत फ़ितरत-ए-सानी बन चुकी है। पहली क़िस्म के इन्सान निहायत हौसलामंदी और इस्तिक़लाल से अपनी ज़िंदगी के हर शोअबे में सिर्फ उन उमूर् को सरअंजाम देना चाहते हैं जो रज़ा-ए-ईलाही के मुताबिक़ होते हैं। उन को इस बात की मुतलक़ परवाह नहीं होती कि ख़ुदा की मर्ज़ी को पूरा करने में उन को बदी की ताक़तों से नासाज़गार हालात से और ग़ैर मुवाफ़िक़ माहौल से जान तोड़ मुक़ाबला करना पड़ेगा। वो कहते हैं कि “हरचेबादाबाद” (ہرچہ باداباد) (जो हो सो हो) कुछ ही क्यों ना हो हम ख़ुदा से तौफ़ीक़ हासिल करके हर क़िस्म की रुकावट पर ग़ालिब आएँगे। उन को इस बात की रत्ती भर परवाह नहीं होती कि अवामुन्नास उनके ख़िलाफ़ हैं या हुकूमत और बादशाह उनके ख़िलाफ़ परे बाँधे हैं। उन को अपने अंजाम का भी मुतलक़ ख़्याल नहीं होता। ऐसे मुस्तक़िल मिज़ाज सईद इन्सान रोज़ाना देखने में नहीं आते, बल्कि करोड़ों आदमीयों में कभी-कभार नज़र आते हैं और यही इन्सान दरहक़ीक़त ज़मीन का नमक और दुनिया का नूर होते हैं।

जब इस क़िस्म के इन्सान बेधड़क हो कर नेकी की राह पर चलते हैं तो उन का कजरो बदकिर्दारों के साथ तसादुम हो जाना एक क़ुदरती, लाज़िमी और अटल बात हो जाती है और हर शख़्स जिसमें ज़रा भी सूझ-बूझ है बेताम्मुल कह देता है कि सईद और सालिह इन्सान की ज़िंदगी दुख और मुसीबत का एक लामतनाही (बेइन्तहा, जिसकी इन्तहा ना हो) सिलसिला रहेगी। अगर उसने बदी की ताक़तों से रवादारी इख़्तियार ना कर ली तो उसी के हक़ में अच्छा ना होगा, बल्कि उस का अंजाम बर्बादी और मौत होगा। इस क़ौल से उस का मतलब ये नहीं होता कि सालिह (नेक) आदमी की क़िस्मत और तक़्दीर में ये लिखा है कि उस का अंजाम मौत है, बल्कि उस का मतलब ये होता है कि दुनिया के मौजूदा हालात में जब नेकी और बदी की ताक़तों की आपस में टक्कर हो जाती है तो नेक इन्सान को अपने उसूलों पर डट कर मुक़ाबला करने की वजह से मुख़ालिफ़त, बदसुलूकी, अज़ीयत, मुसीबत और मौत का सामना करना पड़ता है।

(2)

इस क़िस्म के सालिह (नेक) इन्सानों की मिसाल हमको अम्बिया-ए-उज़्ज़ाम की ज़िंदगीयों में नज़र आती है। चुनान्चे हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) का इर्शाद है “कोई नबी अपने वतन में इज़्ज़त नहीं पाता।” (लूक़ा 4:24) “लोगों ने नबियों को सताया” (मत्ती 5:12) “तुम नबियों के क़ातिलों के फ़र्ज़ंद हो।” (मत्ती 23:32) ”ऐ यरूशलेम तू नबियों को क़त्ल करती है। और जो तेरे पास भेजे गए उन को संगसार करती है।” (मत्ती 23:37) इब्ने-अल्लाह ने अम्बिया-ए-यहूद की ज़िंदगीयों से ये सबक़ सीखा था कि जो शख़्स रज़ा-ए-ईलाही को अपना खाना और पीना समझता है और बे-ख़ौफ़ व हिरास ख़ुदा की मर्ज़ी को उस के बंदगान पर कमा-हक़्क़ा ज़ाहिर करता है। उस की ज़िंदगी फूलों की सेज होने की बजाय एक पुर ख़तर राह होती है, जो कांटों से बिछी होती है और मौत और क़त्ल उस का अंजाम होता है। इंजील जलील का मुतालआ हम पर ज़ाहिर कर देता है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने यसअयाह नबी के दूसरे हिस्से (अबवाब) चालीस (40) ता आख़िर का बख़ूबी ग़ौर और तदब्बुर के साथ मुतालआ किया था। आप उन तमाम मुक़ामात का इतलाक़ अपने ऊपर करते थे जिनमें “ख़ुदा के रास्तबाज़ ख़ादिम” का ज़िक्र आता है। आपको बख़ूबी इल्म था कि आपका उस रास्तबाज़ ख़ादिम का हश्र होगा यानी उस बर्रह का सा होगा, “जिसे ज़ब्ह करने को ले जाते हैं।” और आप को “अपनी जान मौत के लिए उंडेल” देनी पड़ेगी।

हज़रत युहन्ना बपतिस्मा देने वाले का नमूना आपकी नज़रों के सामने था, जिसको रास्तबाज़ी पर अमल करने की ख़ातिर अपनी जान से हाथ धोने पड़े थे। (मत्ती 14 बाब) आपने अपनी सहि साला तब्लीग़ी ख़िदमत के दौरान में इस टक्कर का नतीजा ख़ुद देख लिया था और फ़रीसयों, फ़क़ीहों, रब्बियों, काहिनों और सरदार काहिनों बल्कि बादशाह हेरोदेस से भी मुख़ालिफ़त सीहड़ली थी।( लूक़ा 13:31-32, मरक़ुस 2:6, 16:18, 24, 3:6, 30, 7:1-13, 8:11,15 वगैरा)

आपको दूर ही से मौत और सलीब नज़र आ रही थी। नौबत (वक़्त) यहां तक पहुंची कि सरदार काहिन ने सदर अदालत के लोगों को जमा करके कहा “तुम्हारे लिए यही बेहतर है कि वो मारा जाये।....और वो उसी रोज़ से उसे क़त्ल करने का मश्वरा करने लगे।” (युहन्ना 11 बाब) दरें हालात आपने बार-बार अपने हवारियों से कहा “ज़रूर है कि इब्ने-आदम बहुत दुख उठाए और बुज़ुर्ग और सरदार काहिन और फ़क़ीह उसे रद्द करें और वो क़त्ल किया जाये।” और सबसे कहा “अगर कोई मेरे पीछे आना चाहे तो अपनी ख़ुदी से इन्कार करे और हर रोज़ अपनी सलीब उठा कर मेरे पीछे होले क्योंकि जो कोई अपनी जान बचाना चाहे वो उसे खोएगा और जो कोई मेरी ख़ातिर अपनी जान खोए वही उसे बचाएगा। आदमी अगर सारी दुनिया को हासिल कर ले और अपनी जान को खोदे या उस का नुक़्सान उठाए तो उसे क्या फ़ायदा होगा?” (लूक़ा 9:22)

इन इर्शादात में हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने एक अटल अख़्लाक़ी क़ानून और रुहानी हक़ीक़त का बयान किया है कि हर शख़्स को जो रज़ा-ए-ईलाही को पूरा करना चाहता है आफ़ात व मसाइब और बिलआख़िर मौत का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। (मरक़ुस 13:9 वग़ैरह) जिस तरह बैरूनी कायनात और निज़ाम-ए-शम्सी के लातब्दील क़ानून होते हैं, इसी तरह ये भी अख़्लाक़ी दुनिया का एक अटल क़ानून है। इसी वास्ते मुक़द्दस नविश्तों में ये लिखा भी है और मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) इसी क़ानून की तरफ़ इशारा करके फ़रमाते हैं कि “जिस तरह मुक़द्दस नविश्तों में लिखा है “इब्ने-आदम तो जाता ही है।” इस मसअले का तक़्दीर से दूर का वास्ता भी नहीं है, क्योंकि हर शख़्स की मर्ज़ी पर मुन्हसिर है कि वो रज़ा-ए-ईलाही की पैरवी करे। इस में कोई जबर व अक्राह नहीं। लेकिन अगर वो रज़ा-ए-ईलाही की पैरवी करने का फ़ैसला करेगा तो अख़्लाक़ी दुनिया के क़ानून के मुताबिक़ उस का नतीजा मौत और क़त्ल होगा। अगर वो शैतान की पैरवी करेगा तो इसी अख़्लाक़ी दुनिया के अटल क़ानून के मुताबिक़ इसका नतीजा रुहानी मौत और ख़ुदा से दूरी होगा।

पस अख़्लाक़ी दुनिया के इन क़वानीन के मातहत ख़ुदावंद ने फ़रमाया “हम यरूशलेम को जाते हैं। इब्ने आदम सरदार काहिनों और फ़क़ीहों के हवाला किया जाएगा और वो उस के क़त्ल का हुक्म देंगे और उसे ग़ैर क़ौमों के हवाले करेंगे और वो उसे ठट्ठों (हंसी) में उड़ाएंगे और उस पर थूकेंगे। उसे कोड़े मारेंगे और क़त्ल करेंगे।” (मरक़ुस 10:33) एक और जगह यूं मर्क़ूम है “वो अपने शागिर्दों को ताअलीम देता था कि इब्ने आदम आदमीयों के हवाले किया जाएगा और वो उस को क़त्ल करेंगे।” (मरक़ुस 9:31) और फिर ताकीद करके आप ने फ़रमाया “तुम्हारे कानों में ये बातें पड़ी रहें क्योंकि इब्ने आदम आदमीयों के हाथ में हवाले किए जाने को है। लेकिन वो इस बात को ना समझते थे।” (लूक़ा 9:44) पर इब्ने-अल्लाह चाहते थे कि आपके रसूल इस अख़्लाक़ी क़ानून और रुहानी हक़ीक़त को अच्छी तरह समझ जाएं, क्योंकि उन को भी इन्ही मुज़ाहमतों से वास्ता पड़ने वाला था। (मत्ती 24:8 ता 13 वग़ैरह) लिहाज़ा अपनी ज़फ़रयाब क़ियामत (जी उठने) के बाद भी आपने अपने शागिर्दों से फ़रमाया “ऐ नादानो और नबियों की सब बातों के मानने में सुस्त एतक़ादो। क्या मसीह को यह दुख उठा कर अपने जलाल में दाख़िल होना ज़रूर ना था?” (लूक़ा 24:26) आया-ए-शरीफा में जे़रे बह्स है ख़ुदावंद फ़रमाते हैं कि “इब्ने आदम तो जाता ही है।” यहां जैसा हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं क़िस्मत और तक़्दीर का सवाल ही पैदा नहीं होता। जब हम इन अल्फ़ाज़ का असली मतलब मालूम करते हैं तो ये बात और भी वाज़ेह हो जाती है। मुक़द्दस युहन्ना इंजील चहारुम में इन अल्फ़ाज़ का मतलब हमको बड़ी तफ़्सील के साथ समझाते हैं। (7:33+8:14, 21+13:3, 33,36+14:4-8, 28+16:5,10, 16-22 वगैरा) इन आयात बय्यनात की रोशनी में हमको पता चलता है कि इब्ने-अल्लाह को अपने “जाने” का ग़म या अफ़्सोस ना था। आपने फ़रमाया “मैं भेड़ों के लिए अपनी जान देता हूँ। बाप मुझसे इस लिए मुहब्बत रखता है कि मैं अपनी जान देता हूँ। कोई उसे मुझसे नहीं छीनता बल्कि मैं उसे आप ही देता हूँ। मुझे उस के देने का भी इख़्तियार है और उसे फिर लेने का भी इख़्तियार है।” (युहन्ना 10:15 ता 18) पस यहां तक़्दीर और मज्बूरी के लिए कोई जगह नहीं। बल्कि मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) फ़ाईल ख़ुद-मुख़्तार होने की हैसियत से ब-रज़ा व रग़बत-ए-ख़ुद मौत के पियाले को पीते हैं। (युहन्ना 18:11) बल्कि आप फ़रमाते हैं कि आप निहायत ज़ौक़ व शोक से मौत के मुंतज़िर हैं मुझे एक बपतिस्मा लेना है और जब तक वो ना होले मैं क्या ही तंग रहूँगा।” (लूक़ा 12:50, मत्ती 20:28, फिलिप्पियों 2:8 वग़ैरह) मैं इसी मक़्सद के लिए आया हूँ कि अपनी जान बहुतेरों के बदले फ़िद्या में दूं।”

(3)

ये ज़ाहिर है कि अख़्लाक़ी दुनिया के क़ानून और मज़्कूर बाला रुहानी हक़ीक़त के मुताबिक़ इब्ने-अल्लाह की तब्लीग़ी मसाई (مساعی) और ज़िंदगी का अंजाम सलीब और मौत थी तो उन अस्बाब को फ़राहम करने के लिए किसी ना किसी वसीले का होना भी लाज़िमी अम्र था। ये वसाइल क्या थे? ये वही दूसरी क़िस्म के कजरौ, बदकिर्दार इन्सान थे जो अपनी हवा व होस् (ہوا وہوس) और ख़ुद गर्ज़ाना उमूर् को पूरा करने की ख़ातिर नेकी की ताक़त से टक्कर लेते हैं। वो अहले यहूद के बुज़ुर्ग, फ़रीसी और फ़क़ीह थे। उन के काहिन और सरदार काहिन भी उन के साथ शामिल थे। गवर्नर पीलातुस भी उनका शरीक था। यहूदी अवाम भी इस जमाअत में शामिल थी जो गवर्नर के सामने चिल्ला चिल्ला कर कहते थे।” उसे सलीब दे सलीब ! उस का ख़ून हम पर और हमारी औलाद की गर्दन पर हो।” इस तमाम जमाअत का आला-ए-कार यहुदाह ग़द्दार था। (मरक़ुस 14, 15 बाब) लेकिन ये ज़ाहिर है कि अगर जनाब मसीह को रुहानी दुनिया के क़ानून के मुताबिक़ शहीद होना ही था तो किसी ना किसी शख़्स को आलाकार ज़रूर होना था। अगर यहूदाह इस्क्रियुती ना होता तो वो किसी और आलाकार की तलाश कर लेते। ये मह्ज़ सूए इत्तिफ़ाक़ था कि यहूदाह ने जो आपके बारह हवारियों में से था इस फे़अल बद को अपने ज़िम्मे ले लिया। ये उस की क़िस्मत में नहीं लिखा था कि वो आपको पकड़वाएगा और ना ये बात इब्ने-अल्लाह की तक़्दीर में लिखी थी कि आप अपने एक हवारी के हाथों पकड़वाए जाऐंगे। बल्कि हालात ही ऐसे पैदा हो गए थे कि यहूदाह आपका पकड़वाने वाला बना।

आप यहूदाह पर अफ़्सोस करके फ़रमाते हैं “मेरा पकड़वाने वाला मेरे साथ तबाक़ में हाथ डाले है। उस शख़्स पर अफ़्सोस है क्योंकि उस के वसीले इब्ने-आदम पकड़वाया जा रहा है।” अगर आप को अफ़्सोस था तो अपने हवारी की बेवफ़ाई पर जिसने आपकी मुहब्बत और गुज़श्ता ख़िदमत को पीठ पीछे फेंक कर फ़रामोश कर दिया था और अब मुनाफ़िक़ाना रवैय्या इख़्तियार करके आपके साथ एक ही तबाक़ (दस्तरख्वान) में खाना खा रहा था और मशरिक़ी वज़ादारी को भी बाला-ए-ताक़ रखकर ग़द्दारी के ख़यालात को अपने दिल में पाल रहा था। जनाब मसीह फ़रमाते हैं “अगर वो पैदा ना होता तो उसी के लिए अच्छा होता” क्योंकि उस ने नेकी और बदी की जंग में नेकी का साथ छोड़कर बदी को ब-रज़ा व रग़बत ख़ुद इख्तियार करके अपने लिए रुहानी मौत हासिल कर ली। जनाब मसीह उस से आख़िर तक मुहब्बत करते हैं। (युहन्ना 13:1) और मुहब्बत के मारे उस को एक आख़िरी मौका देते हैं कि वो सँभल जाये। वाजिब तो ये था कि यहूदाह जनाब मसीह के इस क़ौल से मुतनब्बा (ख़बरदार) हो कर पछताता और तौबा करके अपने बद इरादे से बाज़ रहता। जनाब मसीह का मक़्सद ये था कि वो अपने रिसालत के ओहदे को जिस पर आप ने उस को मुम्ताज़ किया था याद रख कर बदी की ताक़तों का आलाकार ना बने। लेकिन उस ने जान-बूझ कर फ़ाईल ख़ुद-मुख़्तार होने की हैसियत से ऐसा ना किया। जाये ग़ौर है कि दीगर इन्सानों की तरह मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) उस को बददुआ नहीं देते। ना आप उस पर लानत भेजते हैं। ना आप पतरस जैसे जल्दबाज़ शख़्स को उसे पकड़ लेने का हुक्म देते हैं, बल्कि उस के अंजाम पर इज़्हार-ए-तास्सुफ़ करके फ़रमाते हैं “अगर वो पैदा ना होता तो उसी के लिए अच्छा होता।” ज़िंदगी ख़ुदा का अतीया है, लेकिन यहूदाह इस अतीया को ख़ुदा के जलाल और दुनिया को बेहतर बनाने की ख़ातिर इस्तिमाल करने की बजाय दुनिया को तारीक बनाने और ज़ुल्मत की ताक़तों की मदद करने के लिए इस्तिमाल कर रहा था। उस ने पैदाइश की बरकत को ज़िंदगी की लानत में ब-रज़ा व रग़बत ख़ुद बग़ैर किसी तरह के जबर के तब्दील कर दिया। उस की रुहानी हालत लर्ज़ा-बर-अनदाम (لرزہ براندام) कर देने वाली और उस का अंजाम निहायत होलनाक था। उसके लिए ये बेहतर होता कि वो पैदा ना होता और ऐसे भारी गुनाह का बोझ उस की रूह पर ना पड़ता। आपने उस को पहले भी तंबीह देकर फ़रमाया था “ठोकरों के सबब दुनिया पर अफ़्सोस है क्योंकि ठोकरों का लगना ज़रूर है, लेकिन उस आदमी पर अफ़्सोस है जिसके बाइस से ठोकर लगे।” (मत्ती 18:7)

(4)

हम इस नुक्ते को एक मिसाल से वाज़ेह कर देते हैं जो हमारी आँखों के सामने वाक़ेअ हुई है। महात्मा गांधी उन चंद चीदा अफ़राद में से थे जिन्हों ने अपनी समझ के मुताबिक़ बदी की ताक़तों के साथ सर धड़ की बाज़ी लगादी थी। जहां तक मुम्किन था आप ने अपनी समझ के मुवाफ़िक़ अपने उसूलों पर बेधड़क चलने की कोशिश की और अंजाम की परवाह ना की। बसा-अवक़ात आपकी टक्कर दुनिया की सबसे ज़बरदस्त सल्तनत के साथ हुई। आपने सत्य आगरा (हुकूमत के ख़िलाफ़ पुर-अमन तहरीक सच्चा अह्द) और अहिंसा (अदम तशद्दुद, सलामती) के हथियारों से बदी की ताक़तों का दिलेराना मुक़ाबला किया। इस सिलसिले में आप पर मुक़द्दमात चलाए गए। आपको ज़िंदान (जेल) में डाला गया। आपने फ़ाक़े किए। मरण बरत (वो रोज़ा (फ़ाक़ा) जिसे करते करते इन्सान मर जाये) रखे।

दरें हालात बीसियों दफ़ाअ लोगों की ज़बान से बे-इख़्तियार ये कलिमा निकल जाता था कि महात्मा जी जान दे देंगे। बिल-आख़िर आप क़त्ल भी कर दिए गए, लेकिन कोई सहीह-उल-अक़्ल शख़्स ये नहीं कहेगा कि क़त्ल हो जाना उनकी क़िस्मत में लिखा था और कि क़ातिल की तक़्दीर में ये लिखा था कि वो गांधी जी जैसे महापुरुष को जो सदीयों के बाद जाकर कहीं पैदा होता है, क़त्ल कर देगा। हक़ीक़त ये है कि अख़्लाक़ी दुनिया के अटल क़ानून के मुताबिक़ ज़िंदगी की जो रविष महात्माजी ने इख़्तियार कर ली थी, उस का लाज़िमी नतीजा मौत था। ये मह्ज़ इत्तिफ़ाक़ था कि ना वो ज़िंदान में फ़ौत हुए और ना मरण बरत के वक़्त उन्हों ने अपनी जान दी, बल्कि उन के अपने लोगों में से एक ने आपको क़त्ल कर दिया। अगर उस के हाथों आपकी मौत वाक़ेअ ना होती तो किसी दूसरी तरह वाक़ेअ हो जाती। कोई दूसरा शख़्स बदी की ताक़तों का आलाकार हो जाता। लेकिन क़ातिल के हक़ में दुनिया यही कहती है कि उस आदमी पर अफ़्सोस जिसके हाथों महात्माजी क़त्ल हो गए। अगर वो आदमी पैदा ना होता तो उसी के लिए अच्छा होता।

ये मिसाल हमने इस वास्ते दी है क्योंकि ये ताज़ा वाक़िया हमारी आँखों के सामने गुज़रा है और अख़्लाक़ी दुनिया के इस लातब्दील क़ानून को समझने में हमारी मदद कर सकता है जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर आए हैं। लेकिन इस मिसाल से कोई शख़्स ये ख़्याल ना करे कि हम महात्मा जी के क़त्ल को और मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) के मस्लूब होने को यकसाँ दर्जा देते हैं। इब्ने-अल्लाह ने दीगर नेक इन्सानों की तरह ना सिर्फ अपनी ज़िंदगी और मौत से रास्तबाज़ी की बादशाहत के क़वानीन पर अमल करके यसअयाह नबी के “ख़ुदावंद के ख़ादिम” के मुतम्मा नज़र (असली मक़्सद) को कामिल तौर पर साबित कर दिखाया, बल्कि आपकी रास्तबाज़ी इस कामिल ईसार और अज़ली मुहब्बत की क़ुर्बानी का एक ऐसा नमूना थी जो बेअदील और बेनज़ीर है। जिसको देखकर शक़ी-उल-क़ल्ब आदमीयों की शक़ावत सआदत (बुराई, भलाई) से बदल जाती है और वो अपने गुनाहों की माफ़ी हासिल करके अज़-सर-ए-नौ पैदा हो कर ख़ुदा के फ़र्ज़ंद बन जाते हैं। आपकी रास्तबाज़ी ने बदी की ताक़तों पर ऐसा ग़लबा पा लिया कि “मौत फ़त्ह का लुक़मा हो गई।” पस हर नजात याफ्ताह ईमानदार पुकार उठता है “ऐ मौत तेरा डंक कहाँ रहा? ख़ुदा का शुक्र है जो हमारे ख़ुदावंद यसूअ मसीह के वसीले हमको फ़त्ह बख़्शता है और हम को सब हालतों में फ़त्ह से भी बढ़कर ग़लबा हासिल होता है।”

“वो तीसरे रोज़ मुर्दों में से जी उठा”

10. ज़िंदा फ़ातिह मसीह

मुबारक जुमे के रोज़ यहूदी सरदार काहिनों ने जो कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के ख़ून के प्यासे थे। अपने नाजायज़ असर-ओ-रसूख़ (दबदबे) से रूमी गवर्नर के हाथों आपको मस्लूब करवा दिया। वो अपने ज़ाम-ए-बातिल में यही समझते थे कि जो कांटा उन की राह में मुद्दत से खटक रहा था, वो हमेशा के लिए निकल गया है। फ़रीसी अपनी जगह ख़ुश थे कि अब “गुनाहगारों का यार” अवामुन्नास को ख़ुदा की लाज़वाल मग़फ़िरत और अबदी मुहब्बत का पैग़ाम सुना सुना कर उन को बहका ना सकेगा। फ़क़ीह ठट्ठे से कहते थे “उस ने औरों को बचाया। लेकिन अपने आपको ना बचा सका।” ज़ीलोतीस समझते थे कि अब यहूदी क़ौम की क़िस्मत फिर जाग उट्ठेगी और वो रूमी क़यासिर के ख़िलाफ़ अलम बग़ावत दुबारा बुलंद कर सकेंगे। क्योंकि वो शख़्स जो मुहब्बत के उसूल का वाइज़ और उस पर आख़िरी लम्हा तक कारबन्द रहा था आग़ोश-ए-लहद में सो गया है। रसूल बेकस व लाचार, ख़ाइफ़ व हरासां हो कर ना उम्मीदी और यास की हालत में इधर उधर भागे फिर रहे थे। वो वफ़ूरे (ज़्यादती, कस्रत) ग़म से ब-सद हसरत कहते “यसूअ नासरी मस्लूब किया गया। लेकिन हमको उम्मीद थी कि वही इस्राईल को मख़लिसी देगा।” (लूक़ा 24:20)

ये सब बातें जुमा के रोज़ हुईं। लेकिन दो दिन के बाद इतवार के रोज़ इब्ने-अल्लाह की ज़फ़रयाब क़ियामत (फत्हमंद जी उठने) ने अहले यहूद के तमाम हलक़ों में क़यामत-ए-सुग़रा बरपा कर दी। हर तबक़े में एक तहलका मच गया। उस रोज़ यरूशलेम की दुनिया का नक़्शा बदल गया। वो जो पहले ख़ुश व खुर्रम फिरते थे, अब दुबारा फिर हिरासाँ नज़र आने लगे। वो जो पहले भागे फिरते थे, अब उन के चेहरों पर फुरत-ए-इंबिसात से फ़त्हमंदी के आसार हर शख़्स को नज़र आने लगे। साहिबे इक़्तिदार और बारसूख रऊसा-ए-क़ौम ने हर मुम्किन तौर पर उन फ़तहमंद भगोड़ों को दबाने की कोशिश की। लेकिन उन की कोई तदबीर कारगर ना हुई। सोशल बाईकॉट, ज़जर-ओ-तौबीख़, क़ैद और ईज़ा, तल्वार और मौत, ग़रज़ कि हर मुम्किन हर्बा उनके ख़िलाफ़ इस्तिमाल किया गया, लेकिन सब बेसूद। वो जो अपनी कमज़ोरी की वजह से “थाली का बैंगन” और “लोटा” बने हुए थे और मामूली लौंडी के एक ही सवाल से तरसाँ-ओ-लर्ज़ां थे, अब शेर दिल हो गए और सरदार काहिनों को (जिनके हाथ में उन की ज़िंदगी और मौत थी) बरमला मलामत करके कहते थे “तुमने ज़िंदगी के मालिक को मरवा दिया था। तुम ही इन्साफ़ करो। आया ख़ुदा के नज़्दीक ये वाजिब है कि हम ख़ुदा की बात से तुम्हारी बात ज़्यादा सुनें क्योंकि मुम्किन नहीं कि जो हमने देखा और सुना है वो ना कहें।” (आमाल 4 बाब)

इस ज़बरदस्त तब्दीली की क्या वजह थी? उन को इस बात का यक़ीन हो गया था कि उनका ख़ुदावंद मुर्दों में से जी उठा है। ऐसी बात तो पहले ना कभी देखी और ना सुनी गई थी। यही सबब था कि शुरू में “ये बातें उन्हें कहानी सी मालूम हुईं और उन्हों ने उनका यक़ीन ना किया।” (लूक़ा 24:19) लेकिन जब उन्हों ने ज़िंदगी के मालिक ज़िंदा मसीह को “अपने कानों से सुना और अपनी आँखों से देखा बल्कि ग़ौर से देखा और अपने हाथों से छुवा।” (1 युहन्ना 1:1) “जब वो बारह को दिखाई दिया। फिर पाँच सौ से ज़्यादा भाईयों को एक साथ दिखाई दिया। फिर याक़ूब को दिखाई दिया। फिर सारे रसूलों को (1 कुरंथियो 15:15) जब उस ने उन से कहा “ऐ नादानो और नबियों की सारी बातें मानने में सुस्त एतिक़ादो क्या मसीह को यह दुख उठा कर अपने जलाल में दाख़िल होना ज़रूर ना था? “तब उन की आँखें खुलीं। उन के दिलजोश से भर गए और वो बे-इख़्तियार एक दूसरे को ये ख़ुशी की ख़बर देते थे। “ख़ुदावंद बे-शक जी उठा है।” (लूक़ा 24 बाब) फ़िलवाक़ेअ मुर्दों में से जी उठा है।” (1 कुरंथियो 15:20) ये बात ऐनुलयक़ीन की हद तक साबित हो चुकी थी और वो सर्व फ़रोशान इस हक़ीक़त की ख़ातिर जो उनका जुज़्व ईमान बन चुकी थी, मरने और मौत के घाट उतरने को तैयार थे। मसीहीय्यत का तुग़रा-ए-इम्तियाज़ (तिगरा: निशानी, अलामत) यही क़ियामत मसीह का अक़ीदा था। “अगर मसीह जी नहीं उठा तो तुम्हारा ईमान बेफ़ाइदा है।” (1 कुरंथियो 15:17) अगर वो ज़िंदा नहीं हुआ और दीगर अम्बिया की तरह ज़र-ए-ज़मीन दफ़न है तो हज़रत “ख़लील-उल्लाह” “मूसा कलीम-उल्लाह जैसे अम्बिया-ए-अल्लाह में और “इब्ने-अल्लाह” में कोई हक़ीक़ी फ़र्क़ ना रहा। वो मह्ज़ नबियों की क़तार में ही शुमार किया जा सकता है। बड़ी से बड़ी बात जो उस के हक़ में कही जा सकती है, वो ये है कि वो एक उलुल-अज़्म (बुलंद इरादे वाला) और जलील-उल-क़द्र नबी था और बस। लेकिन अगर वो मुर्दों में से जी उठा है तो वो मौत पर ग़ालिब आया है और सब पर रोज़ रोशन की तरह अयाँ हो गया है कि “इब्ने-अल्लाह” (जनाबे ईसा अल-मसीह) में और दीगर अम्बिया में बाद बअद-मशरिकेन् (बहुत ज़्यादा फ़र्क़, पूरब पच्छिम की दूरी) है। पस वो नबियों की सफ़ में खड़ा नहीं किया जा सकता। दीगर अम्बिया का ताल्लुक़ ज़माना माज़ी से था। उस का ताल्लुक़ दौर-ए-हाज़रा और ज़माना-ए-मुस्तक़बिल से है। दीगर अम्बिया मह्ज़ तवारीख़ी अश्ख़ास थे जो सफ़ा-ए-हस्ती पर आकर अपनी यादगार छोड़ गए। लेकिन इब्ने-अल्लाह (जनाबे मसीह) ने ख़ुद तारीख़ को दो हिस्सों में मुन्क़सिम (तक्सीम) कर दिया। एक ज़माना क़ब्ल-अज़-मसीह (B.C.) और दूसरा ज़माना बाद-अज़-मसीह। दूसरे ज़माने का ताल्लुक़ दौर-ए-हाज़रा और ज़माना-ए-मुस्तक़बिल से है। ये ज़माना क़ियामत तक जारी रहेगा, क्योंकि मसीह अब भी ज़िंदा है और अबद-उल-आबाद ज़िंदा रहेगा।

इस नुक्ता को मिर्ज़ा ए क़ादियानी ख़ूब समझे। यही वजह थी कि इस ग़रीब ने उम्र गिरांमाया (नफ़ीस, क़ीमती) इसी बेसूद कोशिश में ज़ाए कर दी कि मसीह मुर्दों में से नहीं जी उठा और वो दूसरे नबियों की मानिंद मर गया है। उसने एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया, लेकिन दम-ए-वापसीं (हालत-ए-नज़ा) हसरत के साथ अपनी ज़िंदगी का मिशन पूरा किए बग़ैर नाकाम और ना-मुराद चल बसा और ख़ुद क़ब्र में हमेशा के लिए सो गया। उस की नाकाम मसाई हर जगह ज़बान-ए-हाल से पुकार पुकार कर इब्ने-अल्लाह की ज़फ़रयाब क़ियामत की गवाह हैं और इस हक़ीक़त को आलम व अलमियान (आलमी इन्सान, लोग) पर रोशन कर देती हैं कि मसीह फ़िलवाक़ेअ मुर्दों में से जी उठा है और मुर्दों में से जी उठने के सबब क़ुदरत के साथ ख़ुदा का बेटा ठहरा।

11. सय्यदना मसीह की ज़फ़रयाब क़ियामत के सबूत

(यानी मसीह के तीसरे दिन फत्हमंद ज़िंदा होने के सबूत)

(1)

मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) की ज़फ़रयाब क़ियामत मसीहीय्यत की इमारत के कोने का पत्थर है। यही वजह है कि मुक़द्दस पौलुस रसूल फ़रमाते हैं कि :-

“अगर मसीह नहीं जी उठा तो तुम्हारा ईमान बेफ़ाइदा है। तुम अब तक अपने गुनाहों में गिरफ़्तार हो। अगर हम सिर्फ उसी ज़िंदगी में मसीह में उम्मीद रखते हैं तो सब आदमीयों से ज़्यादा बदनसीब हैं।” (1 कुरंथियो 15:17 ता 18)

अगर आंख़ुदावंद मुर्दों में से नहीं जी उठे तो आप में और बाक़ी अम्बिया में सिवाए आपकी मासूमियत के कोई फ़र्क़ नहीं रहता। इसी सबब से कलीसिया इब्तिदा ही से इस वाक़िये पर ज़ोर देती चली आई है और नजात का तमाम दार-ओ-मदार मुंजी (नजात देने वाले मसीह) की ज़फ़रयाब क़ियामत पर रखकर ये ख़ुशी की ख़बर देती है कि आँ ख़ुदावंद ने गुनाह, शैतान, मौत और क़ब्र पर फ़त्ह पाई है। पस वो हम गुनाहगारों को गुनाह की बदतरीन क़ैद से नजात देने पर क़ादिर है। मुख़ालिफ़ीन मसीहीय्यत भी इस नुक्ते को जानते और समझते हैं। चुनांचे मिर्ज़ा-ए-क़ादियानी अपने मुक़ल्लिदीन को मरते दम यही वसीयत कर गए कि मसीहीय्यत को ख़त्म करने का एक ही तरीक़ा है कि वो ये साबित कर दें कि मौत ने दीगर अम्बिया की तरह जनाब-ए-मसीह को भी निगल लिया है। पस वो श्रीनगर के मुहल्ला ख़ान यार की क़ब्र का ढोंग रचाते हैं और अहमक़ों को दाम-ए-तज़वीर (फ़रेब का फंदे) में फंसाते हैं।

(2)

इंजील जलील के मजमूए की हर किताब और इस का हर मुसन्निफ़ इस एक बात पर मुत्तफ़िक़ है कि मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) मुबारक जुमे के रोज़ मस्लूब किए गए और मदफ़ून हुए और इतवार के रोज़ अला-उल-सुबाह (सुबह-सुबह) मुर्दों में से जी उठे। मसीहीय्यत की इब्तिदाई मंज़िल उस के आक़ा और मौला की ज़फ़रयाब क़ियामत (मौत पर फत्हमंद जी उठने) का वाक़िया है और आमाल की किताब साफ़ ज़ाहिर करती है कि ये वाक़िया दवाज़दाह (12) रसूलों की इब्तिदाई मुनादी का मर्कज़ था और वो इस वाक़िये के चशमदीद (आँखों देखे) गवाह थे। (1 कुरंथियो 15:3)

(3)

साईंस और फ़ल्सफ़े का ये एक अदना उसूल है कि हर वाक़िये का कोई ना कोई सबब ज़रूर होता है। ये एक अम्र वाक़ेअ है जिसको आमाल के इब्तिदाई अबवाब का मुतालआ वाज़ेह कर देता है कि मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) की सलीबी मौत के बाद जनाबे मसीह के रसूलों की ज़हनीयत, उन के रंग ढंग और नज़रिया-एज़िंदगी में ज़मीन आस्मान का फ़र्क़ पैदा हो गया था। वो जो पहले ख़ौफ़ के मारे किवाड़ बंद करके छुपते फिरते थे। (युहन्ना 20:19) अब अलानिया मुनादी करते और बेधड़क हो कर सब के सामने आते हैं। (आमाल 4:1) पहले यहूदी बुज़ुर्गों और सरदार काहिन के ख़्याल ही से उन के बदनों पर रअशा तारी हो जाता था, लेकिन अब वही क़ाइदीन क़ौम और सरदार काहिन इन दहक़ानों से ख़ाइफ़ व त्रसाँ हैं। (आमाल 4:13-20, 5:25-30 वग़ैरह) लाज़िम है कि इस क़द्र हैरत-अंगेज़ तब्दीली का कोई ज़बरदस्त सबब भी हो। मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) की सलीबी मौत के बाद आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत के अज़ीमुश्शान वाक़िये के इलावा कोई और वाक़िया रूनुमा (ज़ाहिर) नहीं हुआ था जो ख़ातिर-ख़्वाह तौर पर इस ज़बरदस्त नतीजे का हामिल हो सके। जो लोग क़यामत-ए-मसीह के वाक़िया के मुन्किर हैं उन पर यह लाज़िम हो जाता है कि रसूलों की ज़हनीयत की अज़ीम तब्दीली का सबब बताएं, वर्ना ईमानदारी को काम में लाकर मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) की क़ियामत के वाक़िये का इक़बाल कर लें।

(4)

मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) को किसी ग़ैर-मारूफ़ और दूर इफ़्तादा मुक़ाम में सलीब नहीं दी गई थी। अर्ज़-ए-मुक़द्दस के यहूद मुबारक जुमे के दिन यरूशलेम के मुक़द्दस शहर में ईद मनाने के लिए जमा थे और गवर्नर पीलातुस ने सरदार काहिन के ईमा और यहूदी हुजूम के हुल्लड़ मचाने पर आपको दीगर मुजरिमों के साथ अलानिया मस्लूब कराया था। पस तमाम अहले यहूद, क्या रऊसा और क्या अवाम सब के सब आपकी सलीबी मौत से वाक़िफ़ थे और सब पर ये अम्र रोशन हो चुका था कि आप सलीब पर मर गए थे। अब इन्ही यहूदी रऊसा, अमाय-दीने-क़ोम और अवाम के सामने दो ज़ादाह (बारह) रसूल बार-बार गवाही देते हैं कि मुनज्जी जहां (दुनिया को नजात देने वाले मसीह) मुर्दों में से जी उठे हैं। (आमाल 3:13 ता 15) वग़ैरह और उन की मुनादी का नतीजा ये होता है कि यही यहूद जिन्हों ने अपनी आँखों से आप को मरते देखा था हज़ारों की तादाद में आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत (फत्हमंद जी उठने) पर ईमान ले आते हैं। (आमाल 2:4, 4:2, 6:7, वग़ैरह) अगर जनाब मसीह फ़िलवाक़ेअ मुर्दों में से नहीं जी उठे थे तो उन लोगों ने (जो आप की मौत के चशमदीद (आँखों देखे) गवाह थे) हज़ारों की तादाद में ये खिलाफ-ए-अक़्ल बात किस तरह मान ली? और वो भी ऐसे ना-मुवाफ़िक़ हालात में जो हौसला शिकन और कमर तोड़ थे। क्योंकि सरदार काहिन और क़ाइदीन यहूद ईज़ा देने और मुख़ालिफ़त करने पर तुले हुए थे। (आमाल 4:1-29, 5:33, 6:12, 8:1 वग़ैरह)

(5)

जब यरूशलेम की मसीही कलीसिया को अहले यहूद की मुतवातिर (लगातार) मुख़ालिफ़त और पे दर पे की ईज़ा रसानियों ने परागंदा कर दिया तो जनाब मसीह के रसूल और दीगर ईमानदार अर्ज़-ए-मुक़द्दस के दीगर मुक़ामात की जानिब हुक्म ख़ुदावंदी के मुताबिक़ हिज्रत कर गए और बाअज़ शाम, आख्या और ममालिक यूरोप की जानिब बढ़े। लेकिन जहां भी वो गए वो मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) की ज़फ़रयाब क़ियामत की ख़ुशख़बरी का ऐलान करते गए। तारीख़ इस अम्र पर गवाह है कि पहली सदी में हर मुल्क और हर मुक़ाम के यहूद व ग़ैर यहूद मसीही जिनमें लाखों लिखे पढ़े और हज़ारों आलिम थे, इस बात पर सिद्क़-ए-दिल से ईमान रखते थे और हर मुक़ामी कलीसिया के विर्द-ए-ज़बान (ज़बान पर चढ़ा हुआ, अज़बर) यही अक़ीदा था कि “मसीह पन्तीस पीलातुस की हुकूमत में मस्लूब हुआ, मर गया, दफ़न हुआ और तीसरे रोज़ मुर्दों में से जी उठा। यही अक़ीदा दो हज़ार साल से कलीसिया के विर्द-ए-ज़बान रहा है और आज भी हर मुल़्क, क़ौम और नस्ल की कलीसिया का यही अक़ीदा है।

(6)

आमाल की किताब का मुतालआ इस अम्र को रोशन कर देता है कि रसूलों की मुनादी का मर्कज़ क़यामत-ए-मसीह का वाक़िया और उस के हक़ीक़ी मआनी को ज़ाहिर करना था। (2:36, 10:40-42 वगैरह, मुक़ाबला करो रोमीयों 1:4) रसूलों के मुक्तूबात (ख़ुतूत) साबित करते हैं कि इस वाक़िये के मुतालिब व मआनी ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात के समझने में निहायत मुमिद और मुआविन साबित हुए। (थिस्सलुनीकियों 1:10 आमाल 5:29 अलीख, इफ़िसियों 1:19, 1 पतरस 1:21 वग़ैरह) इसी एक वाक़िये की रोशनी में रसूल ना सिर्फ ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात के तसव्वुर को वाज़ेह करते थे, बल्कि दीगर मसाइल को भी समझाते थे। मसलन रूहुल-क़ुद्दुस का मसअला (रोमीयों 8:10-11) कफ़्फ़ारे का मसअला (रोमीयों 4:25) अख़्लाक़ी रुहानी ज़िंदगी का मसअला (2 कुरंथियो 5:15, इफ़िसियों 2:5, कुलसियों 2:13, 1 कुरंथियो 15:17) फ़ना और बक़ा का मसअला (1 कुरंथियो बाब 15, 2 तीमुथियुस 1:10) वग़ैरह वग़ैरह। ग़रज़ कि इस एक वाक़िया ने इन्सानी ज़िंदगी पर नए सिरे से रोशनी डाल कर उस के मुख़्तलिफ़ पहलूओं के मतलब, मफ़्हूम और मक़्सद को कुल्लियतन बदल दिया और अब हक़ीक़ी मसीही ज़िंदगी का मतलब ही ये समझा गया कि वो सिर्फ़ मौत ही से निकलती हैं।

अगर क़यामत-ए-मसीह एक अम्र वाक़िया ना था तो ये तमाम उमूर् एक ज़बरदस्त मुअम्मा का लामतनाही (बेइन्तहा, जिसकी इन्तहा ना हो) सिलसिला बन जाते हैं, जिनका कोई दूसरा हल सुझाई नहीं देता। अगर बारह रसूल क़यामत-ए-मसीह के मानने और उस का प्रचार करने में मह्ज़ एक ज़हनी धोका, सराब (फ़रेब), वहम और मुग़ालते का शिकार थे तो सवाल ये पैदा होता है कि क्या मह्ज़ वहम और वस्वसे में इस क़द्र ताक़त, क़ुव्वत और ज़िंदगी हो सकती है कि ख़ुदा और मज़्हब के बुनियादी तसव्वुरात एक माक़ूल निज़ाम में मरबूत हो कर दुनिया की काया पलट दें? हर शख़्स जिसके सर में दिमाग़ और दिमाग़ में अक़्ल है, इस क़िस्म के मज़हकाख़ेज़ नज़रिये को रद्द करने में ज़रा भी ताम्मुल ना करेगा। पस साबित हुआ कि इस क़द्र अज़ीमुश्शान तब्दीली का सिर्फ एक ही वाहिद और मुकतफ़ी सबब हो सकता है और वो क़यामत-ए-मसीह (मसीह का तीसरे दीन जी उठने) का अज़ीम वाक़िया है।

12. अस्सलामु अलैकुम (السلام علیکم)

(तुम्हारी सलामती हो)

मरहूम सना-उल्लाह साहब ने इस नाम का एक 16 सफ़ा का रिसाला लिखा था “जिसमें इस्लामी सलाम (السلام) के अहकाम और दीगर मज़ाहिब के सलामों से मुक़ाबला किया गया है।” आप फ़रमाते हैं कि सलाम करने का इस्लामी हुक्म “अस्सलामु अलैकुम” (السلام وعلیکم) है। आप क़ुरआन को कामिल और अकमल किताब मानने के बावजूद कोई क़ुरआनी आयत पेश नहीं करते, जिसमें इस “इस्लामी सलाम के अहकाम” दर्ज हो और सिर्फ़ चंद अहादीस की जानिब रुजू करते हैं और यह रोना रोते हैं कि “मुसलमानों” में “अस्सलामु अलैकुम” कहना ही बे-अदबी और खिलाफ-ए-तहज़ीब समझा गया है। बजाय इस के हाथ खड़ा करना और आदाब अर्ज़ कहना तो अक्सर गाहे तस्लीमात अर्ज़ हो रहा है और साथ ही इस के झुकने में इस क़द्र इफ़रात है कि क़रीब क़रीब रुकूअ के हो जाता है।” (सफ़ा 1) और आप का फ़त्वा ये है कि “ये मज़हबी तरीक़ नहीं।” (सफ़ा 9)

रिसाले के बाब दोम में आप फ़रमाते हैं “ईसाईयों में मुख़्तलिफ़ तरीक़ पाए जाते हैं। एक तो ये कि मिलते वक़्त टोपी उतार लेते हैं और ज़बान से कुछ नहीं कहते। ये रिवाज अक्सर अंग्रेज़ों में है। दूसरा, हाथ उठाकर इशारा करते हैं और तक्मील इस की मुसाफ़े (हाथ मिलाने) से होती है। तीसरा तरीक़ ये है कि “गुडमार्नींग” कहते हैं जिसका तर्जुमा ये है “सुबह अच्छी” जिससे ग़ालिबन एक तफ़ाउल (फ़ाल निकालना) होता है कि ज़माना मुवाफ़िक़ रहे। अजब नहीं कि यही तरीक़ ईसाईयों का मज़हबी हो।” (सफ़ा 6)

मौलवी साहब ये दावा करते कभी नहीं थकते कि आपको मसीही कुतुब मुक़द्दसा की कामिल वाक़फ़ीयत हासिल है। (इस्लाम और मसीहीय्यत, सफ़ा 38 वग़ैर) लेकिन आपकी इल्मी बे-बज़ाअती और इंजील दानी की बे सरो-सामानी का ये हाल है कि आपने इंजील जलील खोल कर ये मालूम करने की कोशिश नहीं की कि जनाब मसीह ने इस बारे में क्या हुक्म दिया है और ख़ुद हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) का क्या तरीका-ए-कार था और आँखुदावन्द के रसूलों का क्या रवैय्या था। आपके मुंदरजा बाला अल्फ़ाज़ से आपके नाज़रीन तो ग़ालिबन यही समझेंगे कि हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) मिलते वक़्त टोपी उतारते और ज़बान से कुछ नहीं कहते थे या हुज़ूर “हाथ उठा कर इशारा करते और मुसाफ़ा (हाथ मिलाया) करते थे।” और या “गुडमार्नींग” कहते थे, क्योंकि बज़अम जनाब “यही तरीक़ ईसाईयों का मज़हबी” तरीक़ है।

बेचारे मौलवी फ़ाज़िल साहब को क्या पता कि “सलाम अलैकुम” (سلام علیکم) ख़ालिस इब्रानी ज़बान के अल्फ़ाज़ हैं और जनाब-ए-मसीह से सदीयों पेशतर बनी-इस्राईल में मुलाक़ात के वक़्त और रुख़स्त के मौक़े पर इस्तिमाल किए जाते थे। मिसाल के तौर पर हज़रत यूसुफ़ ने मिस्र में अपने भाईयों से मुलाक़ात करते वक़्त यही अल्फ़ाज़ इस्तिमाल किए थे (पैदाइश 43:23) अहले यहूद के अम्बिया, बादशाह और अवामुन्नास यही मज़हबी तरीक़ इस्तिमाल करते थे। (1 समुएल 17:1-2, 2 समुएल 15:1, ज़बूर 122 आयत 7 ता 9 वग़ैरह) ख़ुदा ने हज़रत मूसा के ज़रीये हुक्म दिया था कि हज़रत हारून और काहिन बनी-इस्राईल को इसी तरह बरकत दिया करें। (गिनती 6:22-27)

इंजील जलील से पता चलता है कि जब मुनज्जी आलमीन (जनाबे मसीह) किसी से मुलाक़ात करते थे तो यही कलिमा (अस्सलामु अलैकुम) आपकी ज़बान मुबारक पर होता था। (युहन्ना 20:19, 26) लूक़ा 24:36) जब आप रुख़स्त होते तो आप यही अल्फ़ाज़ (सलाम) दोहराते थे। (युहन्ना 20: 21) जब इब्ने-अल्लाह (ابنِ اللہ) किसी को बरकत देते तो यही अल्फ़ाज़ (सलाम) फ़रमाते थे। (मरक़ुस 5:34, लूक़ा 7:50, युहन्ना 8:48, युहन्ना 14:27 वग़ैरह) जब आपकी ज़बान-ए-मोअज्जज़ बयान से ये कलिमा (अस्सलामु अलैकुम) निकलता तो इस की वजह से किसी रस्मी “मज़हबी तरीक़” की पाबंदी ना थी। इस कलिमे के अल्फ़ाज़ किसी रिवाजी ज़ाहिरदारी के निशान नहीं होते थे। (युहन्ना 14:27) बल्कि ये कलिमा लोगों के लिए इस बात की गारंटी था कि ख़ुदा तआला के मसीह मौऊद की बरकत और सलामती उन के शामिल-ए-हाल है। बनी-इस्राईल का ये ईमान था कि मसीह मौऊद का अह्द सलामती का अह्द होगा। (यसअयाह 54:10, हज़िकीएल 34:25, 37;26, अहबार 26:6 मलाकी 2:5-6 वग़ैरह) क्योंकि वो ख़ुद सलामती का शहज़ादा होगा। (यसअयाह 9:6 मुक़ाबला करो मीकाह 5:5, ज़करीयाह 6:13, ज़बूर 72 3,7, ज़बूर 29:11 126:7, यसअयाह 55:12 वग़ैरह) और इस के वसीले ख़ुदा अक़्वाम आलम को सलामती बख़्शेगा। (ज़करीयाह 9:10 वग़ैरह) जब हज़रत इब्ने-अल्लाह ने रसूलों को फ़रमाया “मैं सलाम (سلام) तुम लोगों के लिए छोड़ जाता हूँ। अपनी सलामती मैं तुमको देता हूँ” (20)(युहन्ना 14:27) आपने अपनी ज़ात के बुनियादी उसूल को उन पर ज़ाहिर कर दिया, क्योंकि ये सलामती उस क़ुर्बत (नज़दिकी), रिफ़ाक़त और यगानगत का नतीजा थी जो ख़्याल, क़ौल और फे़अल में इब्ने-अल्लाह को बाप के साथ हासिल थी। (यसअयाह 26:3, युहन्ना 14:11, 20:31 वग़ैरह) यही वजह थी कि परेशान और मुज़्तरिब इन्सान हज़ारों की तादाद में जौक़-दर-जोक़ आते और आपसे सलामती, इत्मीनान-ए-क़ल्ब (दिल) और आराम-ए-जान हासिल करते थे, जो उनको और कहीं नसीब ना होता था। (मत्ती 11:28)

आँ जहानी मौलवी सना-उल्लाह साहब ने इंजील जलील के वर्क़ पलटने की भी ज़हमत कभी गवारा नहीं फ़रमाई। अगर आप ज़रा सी तक्लीफ़ उठा लेते तो आप पर ज़ाहिर हो जाता कि मसीहीयों का “मज़हबी तरीक़” ना “टोपी उठाना” है, ना” मुसाफ़ा करना” है और ना “गुडमार्निग” कहना है। क्योंकि हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने जमाअत (के) मोमिनीन को हुक्म दिया था कि जब वो किसी के घर में दाख़िल हों तो घर वालों को “सलाम अलैकुम” (سلام علیکم) कहें। (मत्ती10:12, लूक़ा 10:5 वग़ैरह) अगर मौलवी साहब सिर्फ मुक़द्दस पौलुस रसूल के मुख़्तलिफ़ ख़ुतूत की इब्तिदाई आयात पर ही सतही नज़र डालते तो आप को मालूम हो जाता कि मुक्तूबात में मुख़ातबों को सलाम अलैकुम” (سلام علیکم) कहा गया है। (रोमीयों 1:7, 1 कुरंथियो 1:3, 2 कुरंथियो 1:2, ग़लतीयों 1:3) जो ख़त हज़रत कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के भाई मुक़द्दस याक़ूब ने बारह फ़िर्क़ों (क़बीलों) को लिखे है, वो भी “सलाम” (سلام) ही से शुरू किया गया है। (1:1) लेकिन मौलवी साहब तहक़ीक़ हक़ की तरफ़ से बेनियाज़ (बेपर्वाह) हैं। यहां तक कि उन की शान बेनियाज़ी ने उनको क़ुरआनी इर्शादात की तरफ़ से भी बेपरवाह कर दिया है, क्योंकि आप क़ुरआनी इर्शाद के ऐन ख़िलाफ़ मसीहीयों को “काफ़िर” (کافر) शुमार करके “हिंदूओं” के साथ एक ही ज़मुरे में शामिल करते हैं। (सफ़ा 14) लेकिन क़ुरआन ने ऐसे ईमान पर خَتَمَہ اللّٰہ علیٰ قلو بھم (ख़तमअल्लाह अला क़ुलुबिहुम) की मुहर सब्त कर दी है।

मौलवी साहब फ़रमाते हैं “अस्सलामु अलैकुम के मअनी हैं तुम पर हर तरह से सलामती और आसाइश हमेशा है।” जिससे उनकी मुराद जिस्मानी सेहत और दुश्मन से सलामती है। (सफ़ा 11) लेकिन इंजील जलील के मुताबिक़ “सलाम अलैकुम” (سلام علیکم) से मुराद ना सिर्फ जिस्मानी सेहत और दुनियावी सलामती है, बल्कि रुहानी सलामती, इत्मीनान और शांति है। यही वजह है कि ख़ुदा को “सलामती का ख़ुदा” कहा गया है। (रोमीयों 15:33 2 कुरंथियो 13:11, फिलिप्पियों 4:9, इब्रानियों 13:20 वग़ैरह) और इंजील शरीफ़ में ना सिर्फ “ख़ुदा की सलामती” का ही ज़िक्र है, बल्कि “ख़ुदावंद मसीह की सलामती” का भी ज़िक्र है। (रोमीयों 1:7) सलामती हर मसीही की मौजूदा मिल्कियत और मक़बूज़ा शैय है। (युहन्ना 14:27, रोमीयों 15:13, 2 थिस्सलुनीकियों 3:16) जो हमारे दिलों पर हुकूमत करती है। (कुलसियों 3:15) क़ल्ब (दिल) की उस कैफ़ीयत का नाम है जिसमें ना इज़तिराब है और ना तमूज (तलातुम, लहरें उठना) वो रूह की तमानीयत और सुकून पर दलालत करती है, क्योंकि उस को हतमी तौर पर वासिक़ यक़ीन है कि उस का ख़ुदा के साथ मेल मिलाप हो गया है और वो नजात याफ्ताह है (इफ़िसियों 2:16-17, रोमीयों 5:1) इस हालत-ए-क़ल्ब (दिल) का नतीजा क़ुदरतन इन्सानी एहसास और शऊर पर पड़ता है, क्योंकि ख़ुदा से मेल मिलाप का नतीजा ये होता है कि इन्सान को “ख़ुदा का इत्मीनान हासिल होता है जो फ़हम से भी परे है और हमारे दिलों और ख़यालों की निगहबानी करता है।” (फिलिप्पियों 4:7) ये अंदरूनी सलामती रूहुल-क़ुद्दुस का फल है। (ग़लतीयों 5:22) और उस ख़ुशी का जुज़्व ला एनफ़क (جزو لائینفک ) है जो ईमान के बाइस हम को हासिल होती है। (रोमीयों 15:13)

अरब जाहिलियत “अस्सलामु अलैकुम” (السلام علیکم) नहीं कहते थे, बल्कि वक़्त के मुताबिक़ सलाम की जगह اَنَعمہ صَبَا حاً انِعمہ مَسَاءً اوراَنعِمہ ظَلَاما कहते थे जो अंग्रेज़ों के मुरव्वजा “गुडमार्निग”, “गुड इवनिंग” और “गुड नाइट” के हम-मअनी हैं। लेकिन चूँकि अरब में मुहम्मद अरबी के ज़माने में अहले-किताब बकस्रत आबाद थे। (ख़ुत्बात अहमदिया ख़ुत्बा सोम) जो मुलाक़ात के वक़्त और रुख़स्त के मौक़े पर एक दूसरे को “सलाम अलैकुम” (سلام علیکم) कहा करते थे। आंहज़रत को ये कलिमा अरब जाहिलियत के कलिमे से ज़्यादा पसंद आया। पस आपने उस को तर्जीह दी और उस उम्मी (अनपढ़) क़ौम अरब को मज़्हब और तहज़ीब का सबक़ सिखा कर उन को हुक्म दिया कि ईसाईयों की तक़्लीद में “अस्सलाम अलैकुम” (اسلام علیکم) कहा करें। मौलवी साहब अंजान बन कर भूल गए कि ईसाई इस मुआमले में मुसलमानों के उस्ताद हैं और उल्टा ईसाईयों को सबक़ देने चले। सच्च है :-

؎ کس نیا موخت علم تیر ازمن کہ عاقبت مرانشانہ فکرد

؎ किस नया मोख़त इल्म तीराज़ मन कि आक़िबत मरानशाना फ़कर्द

उम्मीद है कि मौलवी सना-उल्लाह साहब के मुक़ल्लिदीन अब समझ गए होंगे कि ईसाईयों का सलाम (سلام) क्या है और उन का मज़हबी तरीक़ क्या है, और ईसाईयों के सलाम (سلام) का मफ़्हूम किस क़द्र गहिरा और रुहानी है। رب السلام نفسہ یعطیکم السلام دائماً من کل وجہ “अब ख़ुदावंद जो इत्मीनान का चशमा है आप ही तुमको हमेशा और हर तरह से इत्मीनान बख़्शे। ख़ुदावंद तुम सब के साथ रहे।” (2 थिस्सलुनीकियों 3:16)

“वो ज़िंदों और मुर्दों की अदालत के लिए आने वाला है।”

13. अदालत-ए-ख़ुदावंदी

(1)

मसीहीय्यत का असल-उल-उसूल ये है कि ख़ुदा की ज़ात मुहब्बत है। (1 युहन्ना 4:16,18, कुरंथियो 13:11) ख़ुदा की तमाम सिफ़ात उस की ज़ात यानी मुहब्बत की सिफ़ात हैं। ख़ुदा की ज़ात और सिफ़ात इन्सानी हदूद और ज़मान व मकान की क़ुयूद के अंदर रब्बना-उल-मसीह की ज़िंदगी, मौत और ज़फ़रयाब क़ियामत में बदर्जा-ए-अहसुन ज़हूर पज़ीर हुईं। ईलाही सिफ़ात में से एक सिफ़त “ख़ुदा की क़ुद्दुसियत” है, जो दीगर ईलाही सिफ़ात की तरह ख़ुदा की ज़ात यानी ईलाही मुहब्बत से मुताल्लिक़ है। ख़ुदा की मुहब्बत क़ुद्दूस और पाक मुहब्बत है। बअल्फ़ाज़-ए-दीगर ख़ुदा की मुहब्बत तमाम रुहानी ख़ूबीयों और अख़्लाक़ी नेकियों का सरचश्मा है। गुनाह और बदी का उस से बिल्कुल ताल्लुक़ नहीं। इस्लाम और क़ुरआन के मुताबिक़ ख़ुदा नेकी और बदी दोनों का सरचश्मा है, लेकिन इंजील जलील की ताअलीम इस के ऐन ख़िलाफ़ है। “ख़ुदा नूर है और उस में ज़रा भी तारीकी नहीं।” (1 युहन्ना 1:5) पस ख़ुदा की क़ुद्दूस मुहब्बत हर क़िस्म की ख़ूबी और नेकी का सरचश्मा और मंबा है और हर क़िस्म की बदी के ऐन नक़ीज़ है।

इस दुनिया में ख़ुदा की क़ुद्दुसियत (पाकीज़गी) ज़मान व मकान की हदूद के अंदर हम को नज़र आती है। ख़ुदा ने इस दुनिया का निज़ाम ऐसा क़ायम किया है कि उस के अटल क़वानीन उस की क़ुद्दुसियत के मज़हर हैं। (ज़बूर 119:89-90, 1 पतरस 1:25, मत्ती 24:35) क़वानीन फ़ित्रत का मुतालआ ख़ुदा की क़ुद्दूस ज़ात को बनी-नौ इन्सान पर ज़ाहिर कर देता है। अक़्वाम-ए-आलम की तारीख़ हम पर ये बात रोशन कर देती है कि जो अक़्वाम ख़ुदा की मुहब्बत और पाक मर्ज़ी पर अमल करती हैं, वो ज़िंदा रहती हैं और शाहराह तरक़्क़ी पर क़दम मारती हैं। लेकिन जो अफ़राद इस पर अमल नहीं करते वो नेस्त व नाबूद हो जाते हैं। चुनान्चे कलाम मुक़द्दस की रोशनी में कह सकते हैं कि बदकारी और नापाकी का अंजाम मौत है। लेकिन पाकीज़गी का अंजाम हमेशा की ज़िंदगी है। (रोमीयों 6:21-22)

ये ईलाही क़ानून अटल है, क्योंकि वो ख़ुदा-ए-लाईज़ाल (बेज़वाल, हमेशा रहने वाले) की ज़ात का मज़हर है। गुनाह के सबब मौत आई और मौत सब आदमीयों में फैल गई। क्योंकि सबने गुनाह किया है।” (रोमीयों 5:12) वो ख़ुदा हर एक को उस के कामों के मुवाफ़िक़ बदला देगा। जो नेकोकारी में साबित-क़दम रह कर जलाल और इज़्ज़त और बक़ा के तालिब होते हैं, उन को हमेशा की ज़िंदगी देगा। मगर जो तफ़र्क़ा अंदाज़ और हक़ के ना मानने वाले बल्कि नारास्ती के मानने वाले हैं उन पर ग़ज़ब और क़हर होगा और मुसीबत और तंगी हर एक बदकार की जान पर आएगी।….क्योंकि ख़ुदा के हाँ किसी की तरफ़दारी नहीं। (रोमीयों 2:6 ता 11) चुनान्चे कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) फ़रमाते हैं “अगर तुम ईमान नहीं लाओगे तो अपने गुनाहों में मरोगे।” (युहन्ना 8: 24) फिर इस अटल ईलाही क़ानून को एक मिसाल से वाज़ेह करके फ़रमाते हैं “क्या झाड़ीयों से अंगूर और ऊंट कटारों से इंजीर तोड़ते हैं? इसी तरह हर एक अच्छा दरख़्त अच्छा फल लाता है और बुरा दरख़्त बुरा फल लाता है। अच्छा दरख़्त बुरा फल नहीं ला सकता और ना बुरा दरख़्त अच्छा फल ला सकता है।...पस उन के फलों से तुम उन को पहचान लोगे।” (मत्ती 7:16-20, लूक़ा 6:43)

पस ख़ुदा की मुहब्बत की क़ुद्दुसियत (पाकीज़गी) ख़ुदा की अदालत में ज़ाहिर होती है और अदालत का मेयार अक़्वाम और अफ़राद के लिए एक ही है। बदकारी और नापाकी का अंजाम मौत है। लेकिन पाकीज़गी का अंजाम हमेशा की ज़िंदगी है। (रोमीयों 6:21-22) “जो दरख़्त अच्छा फल नहीं लाता वो काटा और आग में डाला जाता है।” (मत्ती 7:19) अक़्वाम-ए-आलम (दुनिया की क़ोमों) की तारीख़ इस एक अटल ईलाही क़ानून की ज़िंदा मिसालों से भरी पड़ी है, जिससे बनी-नौ इन्सान इबरत हासिल कर सकते हैं। अहद-ए-अतीक़ की कुतुब का मुतालआ इसी एक हक़ीक़त को ज़ाहिर करता है कि जब बनी-इस्राईल ख़ुदा की मर्ज़ी और अहकाम के ताबे रहे, उन की क़ौम तरक़्क़ी करती रही। लेकिन जब उन्हों ने ईलाही अहकाम को पसेपुश्त फेंक दिया तो वो क़ार (गहराई, बड़ा गढ़ा) ज़िल्लत में गिरफ़्तार हो गए। ग़ज़ब ईलाही इसी क़ानून-ए-क़ुदरत का दूसरा नाम है। परवरदिगार-ए-आलम ने ऐसा इंतिज़ाम कर रखा है कि जो अक़्वाम या अफ़राद ईलाही अहकाम का उदूल करके ईलाही मुहब्बत से मुँह मोड़ते हैं, वो अपने किए की सज़ा पाते हैं।

“ख़ुदावंद एक दीवार पर जो साहौल से बनाई गई थी खड़ा है और साहौल उस के हाथ में है।” (आमोस 7:17) ख़ुदा एक ही साहौल और मेयार से दुनिया की अक़्वाम और ममालिक को जाँचता है। हर इन्सानी, सयासी, मुआशरती और इक़तिसादी निज़ाम इसी एक मेयार से परखा जाता है और जिस तरह वो दीवार जो साहौल से ना बनाई जाये टेढ़ी हो जाती है और जब कज दीवार एक ख़ास अंदाज़े से बढ़ जाती है तो अपने वज़न से ख़ुद ही गिर जाती है। इसी तरह हर एक इन्सानी अम्र जो ईलाही मुहब्बत के क़वानीन के मुताबिक़ नहीं बनता, वो क़ुदरती तौर पर ख़ुद बख़ुद फ़ना हो जाता है। क्योंकि किर्दगार (ख़ालिक़) ने आलम का इंतिज़ाम ही इस क़िस्म का कर रखा है। इस ईलाही ग़ज़ब से हम हरगिज़ नहीं बच सकते।

“क्योंकि ख़ुदा का ग़ज़ब उन आदमीयों की तमाम बेदीनी और नारास्ती पर आस्मान से ज़ाहिर होता है जो हक़ को नारास्ती से दबाए रखते हैं।...ऐ इन्सान तू जो ऐसे काम करने वालों पर इल्ज़ाम लगाता है और ख़ुद वही काम करता है क्या ये समझता है कि तू ख़ुदा की अदालत से बच जाएगा। या तू उस की मेहरबानी और तहम और सब्र की दौलत को नाचीज़ जानता है और नहीं समझता कि ख़ुदा की मेहरबानी तुझको तौबा की तरफ़ माइल करती है। बल्कि तू अपनी सख़्ती और ग़ैर ताइब दिल के मुताबिक़ उस क़हर के दिन के लिए अपने वास्ते ग़ज़ब कमा रहा है जिसमें ख़ुदा की सच्ची अदालत ज़ाहिर होगी। वो हर एक को उस के कामों के मुवाफ़िक़ बदला देगा।” (रोमीयों 1:18-6:2)

लिहाज़ा रसूल मक़्बूल अपने मसीहीयों को कहता है “अज़ीज़ फ़रज़न्दों की तरह ख़ुदा की मानिंद बनो और मुहब्बत से चलो और जैसा कि मुक़द्दसों को मुनासिब है। तुम में हरामकारी और किसी तरह की नापाकी का ज़िक्र तक ना हो। कोई तुमको बेफ़ाइदा बातों से धोका ना दे। क्योंकि इन्ही गुनाहों के सबब से ना-फ़रमानी के फ़रज़न्दों पर ख़ुदा का ग़ज़ब नाज़िल होता है।” (इफ़िसियों 5 बाब) पस मसीहीय्यत के मुताबिक़ ईलाही ग़ज़ब किसी बरतर हस्ती के इंतिक़ाम पर मुश्तमिल नहीं। क्योंकि इंतिक़ाम का जज़्बा ख़ुदा की मुहब्बत के मुनाफ़ी (खिलाफ) है, बल्कि वो ख़ुदा की मुहब्बत की क़ुद्दुसियत और पाकीज़गी का फ़ित्रती और क़ुदरती नतीजा है। क्योंकि “पाकीज़गी” का अंजाम हमेशा की “ज़िंदगी” है, लेकिन गुनाह की मज़दूरी मौत है।” ये अटल कानून-ए-क़ुदरत है।

(2)

यहां हम ये अर्ज़ कर देना मुनासिब समझते हैं कि जब हम ये कहते हैं कि ईलाही ग़ज़ब फ़ित्रत का अटल क़ानून है तो हम इन क़वानीन को एक ग़ैर शख़्स बाला और बरतर हस्ती क़रार नहीं देते जिनकी रू से किसी इन्सान को क़रार नहीं हो सकता। हम अहले हनूद की तरह कर्म की ताअलीम के क़ाइल नहीं। हम दुनियावी और माद्दी अस्बाब व अलल को वो जगह और रुत्बा नहीं देते जो सिर्फ मुसब्बिब-उल-अस्बाब (مسبّب الاسباب) को ही शायां है। हम किसी तक़्दीर मुबर्रम और अकीद-ए-जब्र के क़ाइल नहीं। बल्कि उस वाहिद हस्ती के क़ाइल हैं जिस की ज़ात मुहब्बत है और जिस की सिफ़ात माद्दी अस्बाब व अलल में हम को नज़र आती हैं। “आस्मान ख़ुदा का जलाल बयान करते हैं और फ़िज़ा उस की दस्तकारी दिखाती है।” (ज़बूर 1:19) ख़ुदा की मुहब्बत की पाकीज़गी और क़ुद्दुसियत ज़ाहिर करती है कि ख़ुदावंद की अदालतें सच्ची और तमाम व कमाल सीधी हैं और इन को अबद तक पाएदारी हासिल है। (ज़बूर 19:9)

(3)

हम इस मज़्मून के शुरू में कह चुके हैं कि मसीहीय्यत इस बात की क़ाइल है कि ख़ुदा की ज़ात और सिफ़ात ज़मान व मकान की क़ुयूद के मातहत इन्सानी हदूद के अंदर रब्बना-उल-मसीह की मुबारक ज़िंदगी, मौत और क़ियामत में ज़ाहिर हुई हैं। जब हम इंजील जलील में इब्ने-अल्लाह की मुहब्बत भरी ज़िंदगी को देखते हैं तो हम ख़ुदा की मुहब्बत का तसव्वुर बांध सकते हैं। जब हम चारों इंजीलों में उस की क़ुद्दूस ज़िंदगी पर नज़र करते हैं तो हम पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि ख़ुदा को गुनाह और बदी से नफ़रत है, क्योंकि वो नेकी का सरचश्मा है। जनाब मसीह की ज़िंदगी एक नूर है जिसकी रोशनी में आजिज़ इन्सान हक़ीक़ी नेकी के मफ़्हूम को कमा-हक़्क़ा समझ सकता है। कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) ने अलल-ऐलान फ़रमाया “दुनिया का नूर मैं हूँ, जो मेरी पैरवी करेगा वो अंधेरे में ना चलेगा, बल्कि ज़िंदगी का नूर पाएगा।” (युहन्ना 8:12) मुक़द्दस युहन्ना इंजील नवीस फ़रमाता है “उस में ज़िंदगी थी और वो ज़िंदगी आदमीयों का नूर थी। नूर तारीकी में चमकता है।” (युहन्ना 1:4-5)

कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के मुबारक अक़्वाल व अफ़्आल “अक़्वाम आलम को रोशनी देने वाले नूर हैं।” जो हर एक शख़्स की ज़िंदगी की अदालत करते हैं। जनाब मसीह के ख़यालात, कलिमात, जज़्बात और अफ़्आल की रोशनी में हर शख़्स अपने ख़यालात और ज़िंदगी को परख सकता है और मालूम कर सकता है कि आया मुझमें तारीकी है या नहीं? क्योंकि “जो ख़ुदा से होता है वो ख़ुदा की बातें सुनता है।” (युहन्ना 8:47) चुनान्चे इब्ने-अल्लाह ने रूमी गवर्नर पीलातुस तक को फ़रमाया “मैं इसलिए पैदा हुआ और इस वास्ते दुनिया में आया हूँ कि हक़ की गवाही दूं। जो कोई सच्चाई का है वो मेरी आवाज़ सुनता है।” (युहन्ना 18:37) फिर अहले यहूद को मुख़ातब करके फ़रमाया “जब तक नूर तुम्हारे साथ है, चले चलो। ऐसा ना हो कि तारीकी तुमको आ पकड़े।” (युहन्ना 12:35) मुक़द्दस युहन्ना इंजील नवीस फ़रमाता है कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की मुबारक ज़िंदगी “आदमीयों का नूर थी और नूर तारीकी में चमकता है और तारीकी ने उसे क़ुबूल ना किया।” (युहन्ना 1:5) फिर फ़रमाता है कि जो लोग “दुनिया से हैं वो दुनिया की सी कहते हैं और दुनिया उन की सुनती है। हम ख़ुदा से हैं। जो ख़ुदा को जानता है वो हमारी सुनता है। जो ख़ुदा से नहीं वो हमारी नहीं सुनता। इसी से हम हक़ की रूह और गुमराही की रूह को पहचान लेते हैं।” (1 युहन्ना 4:5 ता 7) पस कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की ज़िंदगी एक ऐसी कसौटी है जो नेक व बद के परखने में कभी ख़ता नहीं करती। आपके ख़यालात और जज़्बात, कलिमात तय्य्बात और जलाल अफ़्आल बनी-नौ इन्सान के जज़्बात, अक़्वाल और अफ़्आल की अदालत करते हैं। चुनान्चे आप ने फ़रमाया “मैं दुनिया में अदालत के लिए आया हूँ।” (युहन्ना 9: 39) “बाप किसी की अदालत नहीं करता, बल्कि उस ने अदालत का सारा काम बेटे के सपुर्द किया है। उस ने उस को अदालत करने का इख़्तियार बख़्शा है क्योंकि वो इब्ने आदम (इंसान-ए-कामिल) है।” (युहन्ना 5:22-27) मुक़द्दस पतरस जिसने इब्ने-अल्लाह की ज़िंदगी का अच्छी तरह मुतालआ किया था फ़रमाता है “यसूअ मसीह वही है जो ख़ुदा की तरफ़ से ज़िंदों और मुर्दों का मुंसिफ़ मुक़र्रर किया गया है।” (आमाल 10:42) मुक़द्दस पौलुस भी फ़रमाता है ख़ुदा रास्ती से दुनिया की अदालत यसूअ मसीह की मार्फ़त करेगा। (आमाल 17:31) ज़रूर है कि मसीह के तख्त-ए-अदालत के सामने जाकर हम सब का हाल ज़ाहिर किया जाये।” (2 कुरंथियो 15:10) ये उन लोगों की गवाही है जिन्हों ने कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) को ख़ुद सुना और अपनी आँखों से देखा, बल्कि ग़ौर से देखा और अपने हाथों से छुवा।” (1 युहन्ना 1:1) उन्हों ने तीन साल का एक एक लम्हा इब्ने-अल्लाह की सोहबत में काटा था और जब वो अपनी ज़िंदगी को आपकी क़ुद्दूस ज़िंदगी के आईने में देखते थे तो वो बे-इख़्तियार कहते थे “ऐ ख़ुदावंद में गुनाहगार आदमी हूँ।” (लूक़ा 5:8) ये बात सच्च और हर तरह से क़ुबूल करने के लायक़ है कि मसीह यसूअ गुनाहगारों को नजात देने के लिए दुनिया में आया। जिनमें सबसे बड़ा मैं हूँ।” (1 तिमुथीयस 1:15)

क़दीम ज़माने में इसी तरह हज़रत यसअयाह पुकार उठे थे, जब उन्हों ने ईलाही क़ुद्दुसियत का जलाल देखा था। “तब मैं चिल्लाया, हाय मुझ पर मैं तो बर्बाद हुआ। क्योंकि नापाक होंटों वाला आदमी हूँ। (बाब 6) कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) की जलाली और क़ुद्दूस ज़िंदगी ने हर शख़्स की जो आपके पास आया, अदालत की (मत्ती 9:2,12, 12:34, 16:4, 21:4, 40 बाब 23:25, 27:4, लूक़ा 7:38, 11:39 ता 12:7, 15 बाब 16:15, 19:8-10, युहन्ना 3:1-21, 4:29, 5:14, 8:1-10, 44, 46 9:41, मरक़ुस 14:72 वगैरह) हर शख़्स अपनी घिनौनी ज़िंदगी पर नज़र करके तौबा करता और अपने गुनाहों से नजात पाने का जाँ-फ़ज़ाँ मुज़्दा सुनकर ख़ुदा की बादशाहत का वारिस हो जाता था। लेकिन जो लोग अपने दिलों को सख़्त करके दीदा-ओ-दानिस्ता तौबा नहीं करते थे। उन को भी अपनी ज़िंदगीयां नफ़रत-अंगेज़ नज़र आती थीं। (युहन्ना 8:1-10) ख़ुदावंद फ़रमाते थे कि उन की अदालत ज़्यादा सख़्त होगी। (मत्ती 11:20-24,12:41-45, लूक़ा 13:1 ता 5, 20:16 ता 18)

इब्ने-अल्लाह उन के दिल की सख़्ती पर बार-बार ताज्जुब करते और इज़हार-ए-अफ़्सोस करते थे और उन के आमाल की पादाश (सिला, बदले) पर रोते थे। “जब उस ने नज़्दीक आकर यरूशलेम को देखा तो रोया और कहा काश कि तू अपने इसी दिन में सलामती की बातें जानता। मगर अब वो तेरी आँखों से छिप गई हैं। क्योंकि वो दिन तुझ पर आएँगे कि तेरे दुश्मन तेरे गर्द मोर्चा बांध कर तुझे घेर लेंगे और हर तरफ़ से तंग करेंगे और तुझको और तेरे बच्चों को ज़मीन पर दे पटकेंगे और तुझ में किसी पत्थर पर पत्थर बाक़ी ना छोड़ेंगे। इसलिए कि तूने इस वक़्त को ना पहचाना। जब तुझ पर निगाह की गई। देखो तुम्हारा घर तुम्हारे लिए वीरान छोड़ा जाता है। जब तक ना कहोगे कि मुबारक है वह जो ख़ुदावंद के नाम पर आता है।” (लूक़ा 19:41-44 मत्ती 33:37-39) तारीख़ हमको बताती है कि यरूशलेम और क़ौम यहूद के साथ ऐसा ही हुआ। उन के मसाइब व आलाम जनाब मसीह की वफ़ात के बाद शुरू हो गए और ताहाल उनका ख़ातिमा नज़र नहीं आता। इनकी वजह ये नहीं कि ख़ुदा ज़वाल इंतिकाम है और वो बदला लेता है। इस क़िस्म की दलील लाने वाले ख़ुदा को अपना सा इन्सान समझते हैं। ऐसे लोगों को ख़ुदावंद फ़रमाता है “तू ने ये किया, तू ने गुमान किया कि मैं तुझी सा हूँ।” (ज़बूर 50:21) कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) के अल्फ़ाज़ में “वो ख़ुदा की बातों का नहीं बल्कि आदमीयों की बातों का ख़्याल रखते हैं।” (मत्ती 16:23) क्योंकि जो जिस्मानी हैं वो जिस्मानी बातों के ख़्याल में रहते हैं।” (रोमीयों 8:5) यरूशलेम और क़ौम यहूद की तबाही ख़ुदा की मुहब्बत की क़ुद्दुसियत के क़वानीन की ख़िलाफ़वर्ज़ी की एक बय्यन मिसाल है। ज़बूर नवीस ऐसे ही हालात में इक़रार करता है “ऐ ख़ुदावंद मैं जानता हूँ कि तेरी अदालतें रास्त हैं और कि तूने वफ़ादारी से मुझ पर तबाही भेजी।” (ज़बूर 119:75) आमाल की मुकाफ़ात (सज़ा, बदला) मह्ज़ सज़ा देने की ख़ातिर नहीं, बल्कि इस्लाह की ख़ातिर तंबीह है। चुनान्चे इम्साल का मुसन्निफ़ नसीहत करता है “ऐ मेरे बेटे ख़ुदावंद की तंबीह को हक़ीर मत जान और उस की तादीब से बेदिल मत हो। क्योंकि जिससे ख़ुदावंद मुहब्बत रखता है, उसे तंबीह भी करता है। जिस तरह बाप उस बेटे को जिससे वो ख़ुश है।” (13:11-12) और इब्रानियों का मुसन्निफ़ कहता है “हर क़िस्म की तंबीह ख़ुशी का नहीं, बल्कि ग़म का बाइस मालूम होती है। मगर जो उस के सहते सहते पुख़्ता हो गए हैं, उन को बाद में चेन के साथ रास्तबाज़ी का फल बख़्शती है।”(12:11)

(4)

पस जो गुनाहगार अपने आमाल के नताइज को देखकर ख़ुलूस-ए-दिल से तौबा करते हैं। ख़ुदा की मुहब्बत उन को अपने फ़ज़्ल व करम से गुनाह के बंद और क़ैद की गु़लामी से नजात बख़्शती है और उस को इस काबिल बना देती है कि उस की मुर्दा रूह में ज़िंदगी पैदा हो। यही वजह है कि कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) फ़रमाते हैं “मैं तुमसे सच्च सच्च कहता हूँ कि जो मेरा कलाम सुनता और मेरे भेजने वाले का यक़ीन करता है, हमेशा की ज़िंदगी उसी की है और उस पर सज़ा का हुक्म नहीं होता। बल्कि वो मौत से निकल कर ज़िंदगी में दाख़िल हो गया है। मुर्दे, ख़ुदा के बेटे की आवाज़ सुनेंगे और जो सुनेंगे वो ज़िंदा हो जाएंगे।” (युहन्ना 5:24-25) आपने फ़रमाया कि “क़ियामत और ज़िंदगी तो मैं हूँ, जो मुझ पर ईमान लाता है गो वो मर जाये तो भी ज़िंदा रहेगा और जो कोई ज़िंदा है और मुझ पर ईमान लाता है वो अबद तक कभी ना मरेगा।” (युहन्ना 11:26-25) हर शख़्स को जो अपने गुनाहों के हाथों मज्बूर है, ये तजुर्बा है कि :-

“मैं जिस्मानी और गुनाह के हाथ बिका हुआ हूँ और जो मैं करता हूँ उस को नहीं जानता क्योंकि जिस का मैं इरादा करता हूँ वो नहीं करता बल्कि जिस से मुझको नफ़रत है वुही करता हूँ।.....मैं जानता हूँ कि मुझ में यानी मेरे जिस्म में कोई नेकी बसी हुई नहीं अलबत्ता इरादा तो मुझमें मौजूद है मगर नेक काम मुझसे बन नहीं पड़ते। चुनांचा जिस नेकी का इरादा करता हूँ वो तो नहीं करता मगर जिस बदी का इरादा नहीं करता उसे कर लेता हूँ। पस अगर मैं वो करता हूँ जिस का इरादा नहीं करता तो उस का करने वाला मैं ना रहा बल्कि गुनाह है जो मुझमें बसा हुआ है। ग़रज़ मैं ऐसी शरीअत पाता हूँ कि जब नेकी का इरादा करता हूँ तो बदी मेरे पास आ मौजूद होती है। क्योंकि बातिनी इन्सानियत की रू से तो मैं ख़ुदा की शरीअत को बहुत पसंद करता हूँ। मगर मुझे अपने आज़ा में एक और तरह की शरीअत नज़र आती है जो मेरी अक़्ल की शरीअत से लड़ कर मुझे उस गुनाह की शरीअत की कैद में ले आती है जो मेरे आज़ा में मौजूद है। हाय में कैसा कम्बख़्त आदमी हूँ इस मौत के बदन से मुझे कौन छुड़ाएगा। (रोमीयों 14:7-24)

ऐसी हालत में जनाब मसीह का फ़ज़्ल गुनहगार के शामिल-ए-हाल होता है और उस को इस ख़ौफ़नाक गु़लामी से छुड़ाता है। क्योंकि “गुनाह” की मज़दूरी मौत है। मगर ख़ुदा की बख़्शिश हमारे जनाब यसूअ मसीह में हमेशा की ज़िंदगी है।” (रोमीयों 6 23)

14. ख़ुदा का ग़ज़ब

(1)

इंजील जलील की ताअलीम का मर्कज़ी उसूल ये है कि “ख़ुदा मुहब्बत है।” (1 युहन्ना 4:8) मसीहीय्यत का तमाम दार-ओ-मदार इसी एक उसूल पर है कि ख़ुदा-ए- वाहिद की ज़ात मुहब्बत है और मसीही अक़ाईद को समझने की यही एक कुंजी है। अगर कोई शख़्स इस अस्लुल-उसूल को नज़र-अंदाज करके किसी मसीही मसअले पर बह्स करता है तो मुम्किन है कि वो अपनी ख़ुदादाद अक़्ल के जोहर से लोगों को मरऊब कर दे। लेकिन वो इस मसअले को इंजील जलील के पैग़ाम के मुताबिक़ हल करने से क़ासिर रह जाता है।

(2)

मुक़द्दस युहन्ना और मुक़द्दस पौलुस दोनों अपनी तहरीरात में इस असल के ज़रीये मसीहीय्यत के पैग़ाम की तशरीह करते हैं। लेकिन इस के साथ ही वो “ख़ुदा के ग़ज़ब” का भी ज़िक्र करते हैं। (रोमीयों 1:18, युहन्ना 3:36) पस सवाल ये पैदा होता है कि अगर ख़ुदा मुहब्बत है तो ख़ुदा के ग़ज़ब का क्या मतलब है? हमारे ज़हन ये क़ुबूल नहीं करते कि एक ही हस्ती में मुहब्बत और ग़ज़ब दोनों मौजूद हों, क्योंकि हम ये फ़र्ज़ कर लेते हैं कि मुहब्बत और ग़ज़ब दो मुतज़ाद (एक दुसरे के खिलाफ अलग अलग) सिफ़ात हैं जो एक ही हस्ती में मौजूद नहीं हो सकती हैं। इस की वजह ये है कि हम ईलाही ग़ज़ब को इन्सानी ग़ज़ब के मुताबिक़ तसव्वुर कर लेते हैं। हम ये फ़रामोश कर देते हैं कि इन्सानी ग़ज़ब में गुनाह का अंसर होता है। क्योंकि उस में इंतिक़ाम का जज़्बा उमूमन मौजूद होता है। जिस ग़ज़ब से हम वाक़िफ़ हैं उस में बदला लेने की ख़्वाहिश और मुंतक़िमाना सज़ा देने का ख़्याल तक़रीबन हमेशा होता है। बल्कि हक़ तो ये है कि इन्सानी ग़ज़ब हर क़िस्म के जोर व ज़ुल्म, तुंद मिज़ाजी, कीना, बुग़्ज़ और हसद, नफ़रत और जंगजोई वग़ैरह का सरचश्मा है। इस की नश-ओ-नुमा और तरक़्क़ी भी इन्ही जज़्बात पर मुन्हसिर है। पस किताब मुक़द्दस में बार-बार ग़ुस्से, ग़ेय्ज़ (गुस्सा) और ग़ज़ब के ख़िलाफ़ ताकीदन तंबीह की गई है। चुनान्चे हज़रत दाऊद फ़रमाते हैं “ग़ुस्सा करने से बाज़ आ और ग़ज़ब को तर्क कर।” (ज़बूर 27:8) हज़रत सुलेमान कहते हैं “ग़ज़ब सख़्त बेरहमी है और कहर एक सेलाब है।” (इम्साल 27:4) मुक़द्दस पौलुस इस को “जिस्म के कामों” में शुमार करते हैं जिनकी निस्बत वो फ़रमाते हैं कि “ऐसे काम करने वाले ख़ुदा की बादशाहत के वारिस ना होंगे।” (ग़लतीयों बाब 5) फिर ताकीद करके फ़रमाते हैं कि “ग़ुस्सा और क़हर वग़ैरह के सबब ख़ुदा का ग़ज़ब ना-फ़रमानी के फ़रज़न्दों पर नाज़िल होता है।” (कुलसियों 3:6 ता 8) इस में कुछ शक नहीं कि ग़ज़ब की एक क़िस्म ऐसी भी है जो सालिह है और जिस को उमूमन रास्तबाज़ाना ग़ुस्सा कहा जाता है, जो जायज़ है। लेकिन ये सवाबकारी (सवाब: नेकी, दुरुस्त अमल) का ग़ज़ब शाज़ोनादर ही इन्सानी तजुर्बे में आता है। इसी क़िस्म के ग़ज़ब की बाबत हज़रत दाऊद फ़रमाता है “इन्सान का ग़ज़ब ख़ुदा की सताइश करेगा।” (ज़बूर 76:10) इस क़िस्म के ग़ज़ब की आला तरीन मिसाल हमको इब्ने-अल्लाह की मुबारक ज़िंदगी में मिलती है। यूं बयान हुआ है कि आप एक दफ़ाअ ख़ुदा की हैकल में तशरीफ़ ले गए। वहां जाकर क्या देखते हैं कि जो जगहग़ीर यहूद की इबादत के लिए मख़्सूस थी। उस को सरदार काहिनों ने तिजारत का ज़रीया और मुनफ़अत (नफे) का वसीला बना रखा है और नमाज़ियों की बजाय वहां बेल और भेड़ें, कबूतर और सर्राफ़ वग़ैरह हैं। इब्ने-अल्लाह की ग़ैरत जोश ज़न हुई। आपके हाथ में एक रस्सी थी। आपने उसको कोड़े के तौर पर इस्तिमाल करके भेड़ों, बैलों वग़ैरह सबको निकाल दिया और ज़बान मोअज्जज़ बयान से फ़रमाया “इनको यहां से ले जाओ मेरे बाप के घर को तिजारत का घर ना बनाओ। ख़ुदावंद फ़रमाता है कि मेरा घर अक़्वाम-ए-आलम (तमाम कौमों) के लिए दुआ का घर होगा। लेकिन तुम उसे डाकूओं की खोह बनाते हो।” (मत्ती बाब 21, युहन्ना बाब 2)

अक्सर अवक़ात जब हम ग़ज़बनाक होते हैं तो अपने ग़ुस्से को हक़ बजानिब साबित करना चाहते हैं और अपने आपको फ़रेब देकर ये ख़्याल करते हैं कि हमारा ग़ुस्सा सवाबकारी और रास्ती का ग़ुस्सा है। लेकिन जब हम हक़ के आईने में इस जज़्बे को देखते हैं तो हम पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि हमारे जज़्बे में ख़ुदी का अंसर मौजूद है और हमारे ग़ज़ब का असली सबब ये है कि हमारी ख़ुदी और ख़ुदनुमाई को किसी ना किसी तरह से ठेस लगी है। जिससे हमारे दिल में इंतिक़ाम लेने की ख़्वाहिश पैदा होती है और जिस चीज़ को हम ग़ैरत ईलाही की तरफ़ मंसूब करते थे वो दरहक़ीक़त ईलाही बातों से कोसों दूर होती है और कि हमारा ग़ुस्सा ख़ुदा की तरफ़ से नहीं, बल्कि शैतानी वस्वसे का नतीजा है। चूँकि इन्सानी तजुर्बे में रास्तबाज़ी का ग़ुस्सा کالنادرفے المعدوم (मक़ूला: बहुत कम दस्तयाब होने वाली चीज़ ना होने के बराबर) का हुक्म रखता है। इसलिए हम ईलाही ग़ज़ब के सहीह मफ़्हूम को समझने से क़ासिर रह जाते हैं और ये ख़्याल करते हैं कि ख़ुदा जिसकी ज़ात मुहब्बत है, उस की सिफ़त ग़ज़ब नहीं हो सकती।

(3)

एक और सबब है जिसकी वजह से हम ये ख़्याल करते हैं कि मुहब्बत और ग़ज़ब के जज़्बे एक जगह जमा नहीं हो सकते। ग़ैर मसीही मज़ाहिब और बिलख़सूस इस्लाम ने जो क़हर ईलाही का तसव्वुर हमारे सामने पेश किया है। उस के ख़्याल ही से इन्सान पर दहश्त छा जाती है और बदन के रौंगटे खड़े हो जाते हैं। अज़रू-ए-क़ुरआन ख़ुदा एक क़ह्हार हस्ती है और इन्सान मक़हूर है। ख़ुदा ज़रर पहुंचाने वाला और गुनाहगारों को फ़ना कर देने वाला हाकिम है। जिसने जहन्नम सज़ा देने की ग़रज़ से पैदा कर रखा है। क़ुरआन में सज़ा का बयान पढ़ने से जिस्म पर रअशा तारी हो जाता है। ये ज़ाहिर है कि इस क़िस्म का ग़ज़ब ख़ुदा की मुहब्बत के मुनाफ़ी (खिलाफ) है और जब इंजील जलील में ख़ुदा के ग़ज़ब का ज़िक्र आता है तो उन अल्फ़ाज़ का वो मतलब हरगिज़ नहीं होता जो इस्लाम और क़ुरआन का मतलब होता है। इस क़िस्म के ग़ज़ब में इंतिक़ाम का अंसर ग़ालिब है और सज़ा का वाहिद मक़्सद बदला लेना होता है, जो मुहब्बत के मुनाफ़ी (खिलाफ) है। मुहिब-ए-सादिक़ अपने महबूब से इंतिक़ाम नहीं लिया करता।

(4)

हम इस हक़ीक़त को एक दुनियावी मिसाल से वाज़ेह करते हैं। जब किसी बाप का बच्चा आवारा हो कर शैतानी अफ़्आल (कामों) का मुर्तक़िब होता है तो बाप इस मुहब्बत की वजह से जो वो उस के साथ करता है, उस से ग़ुस्सा होता है। पस बाप का ग़ज़ब दरहक़ीक़त उस की मुहब्बत की आग की चिंगारी है और अगर वो अपने बेटे को सज़ा देता है तो उस का मक़्सद इंतिक़ाम और बदला लेना नहीं होता, बल्कि उस का वाहिद मक़्सद ये होता है कि बेटे की ज़िंदगी की इस्लाह हो जाए और उस की आदतें सँवर जाएं और वो राह़-ए-रास्त पर चले। बाप की मुहब्बत और उस का ग़ज़ब दो मुतज़ाद (एक दुसरे के खिलाफ़ अलग अलग) बातें नहीं होतीं। इस के बरअक्स बाप का ग़ज़ब उस की मुहब्बत का ज़हूर है, जिसका मक़्सद बेटे की इस्लाह है। पस बाप की मुहब्बत और बाप का ग़ज़ब दरहक़ीक़त एक ही तस्वीर के दो रुख़ हैं। अगर एक ज़ावीयह निगाह से देखा जाये तो वो बाप की मुहब्बत है। लेकिन दूसरे ज़ावीयह निगाह से वही चीज़ बाप का ग़ज़ब है।

ये दुनियावी मिसाल जो हर रोज़ हमारे तजुर्बे में आती है हम को ईलाही मुहब्बत और ईलाही ग़ज़ब का सहीह मफ़्हूम समझने में मदद देती है। ख़ुदा मुहब्बत है। लेकिन जब उस का गुनाहगार फ़र्ज़ंद उस की राह को तर्क करके शैतान के पीछे चलता है तो ईलाही मुहब्बत की आग की चिन्गारियां ईलाही ग़ज़ब की शक्ल में ज़ाहिर होती हैं। पस ख़ुदा की मुहब्बत और ख़ुदा का ग़ज़ब दो मुतज़ाद (एक दुसरे के खिलाफ़ अलग अलग) चीज़ें नहीं हैं, बल्कि ग़ज़ब मुहब्बत का ज़हूर है और यह ग़ज़ब मुंतक़िमाना (منتقمانہ) नहीं होता। बल्कि इस की ग़ायत गुनाहगार इन्सान की इस्लाह है। इसी वास्ते इंजील जलील में ईलाही ग़ज़ब का नाम “बर्रे का ग़ज़ब” रखा है। (मुकाशफ़ा 6:16) इस ग़ज़ब का मक़्सद गुनाहगार इन्सान को फ़ना करना नहीं होता। क्योंकि ख़ुदा हर गुनाहगार से मुहब्बत रखता है। (युहन्ना 3:16) और चाहता है कि “शरीर (बेदीन) अपनी शरारत से बाज़ आए और ज़िंदा रहे।”

पस सहीह माअनों में ग़ज़ब और मुहब्बत में तज़ाद (आपस में टकराव) नहीं है। मुहब्बत का तज़ाद ग़ज़ब नहीं बल्कि बे-एतिनाई, बेतवज्जुही और बेपरवाई है। अगर ईलाही मुहब्बत का ज़हूर ग़ज़ब में नहीं होता तो इस का मतलब ये है कि ख़ुदा गुनाह के मुआमले में बेपरवाह है और अगर उस का कोई फ़र्ज़ंद गुमराह हो कर बदी करता है तो उस को बिल्कुल परवाह ही नहीं होती। जिस तरह सौतेले बाप को परवाह नहीं होती। जब उस का सौतेला बेटा शैतानी अफ़्आल (कामों) का मुर्तक़िब हो जाता है। सौतेला बाप इस मुआमले में बे-एतिनाई और बेतवज्जुही इख़्तियार कर लेता है, क्योंकि वो मुहब्बत नहीं करता। लेकिन वो अपने सगे बेटे की तरफ़ से बेपरवाह नहीं होता। चूँकि उस से मुहब्बत करता है। वो उस से नाराज़ होता है ताकि बेटे की इस्लाह हो जाएगी।

पस ईलाही मुहब्बत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि उस का ज़हूर ग़ज़ब में हो। इस दुनिया में नेकी और बदी की ताक़तों में जंग हो रही है और कोई सहीह-उल-अक़्ल शख़्स ये नहीं मान सकता कि इस जंग में ख़ुदा ग़ैर जानिबदार हो कर बे-एतिनाई इख़्तियार कर लेता है। उस को ये परवाही नहीं कि इन्सान इस जंग में उस की कमान के मातहत है या शैतान के झंडे तले लड़ रहा है। इंजील जलील की ये ताअलीम है कि ख़ुदा जो नेकी का सरचश्मा है, बदी से अदावत रखता है। लिहाज़ा वो नेकी और बदी की ज़बरदस्त जंग में बेतवज्जुही और बे-एतिनाई इख़्तियार कर ही नहीं सकता। ईलाही ग़ज़ब इस जानिबदारी का लाज़िमी नतीजा है। लेकिन जैसा हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं इस ईलाही ग़ज़ब में बदला और इंतिक़ाम का रत्ती भर अंसर भी नहीं है, क्योंकि ख़ुदा मुहब्बत है।

“बदन की क़ियामत और अबदी ज़िंदगी”

15. जब ये फ़ानी जिस्म बक़ा का जामा पहन चुकेगा

(1)

क़रीबन उन्नीस सौ साल हुए मुक़द्दस पौलुस ने लिखा था “कोई ये सवाल करेगा कि मुर्दे किस तरह जी उठते हैं और कैसे जिस्म के साथ आते हैं?” (1 कुरंथियो 15: 35) आज भी अक्सर लोग यही सवाल करते हैं। (जिसका हल सदीयों से इंजील जलील में पाया जाता है।) कि क्या जो जिस्म जी उठेगा बईना वही होगा जो सदीयों से तह-ए-ज़मीन में दफ़न हो चुका है? या सपुर्द आतिश किया गया है? या मर्दुम ख़ुद हैवानों और इन्सानों ने ख़ा लिया है। क्योंकि वो तो उन के अपने जिस्मों का हिस्सा हो चुका है।

इंजील जलील का जवाब साफ़ है कि ये जिस्म जो ख़ून, गोश्त और हड्डीयों पर मुश्तमिल है, वो बदन नहीं जो जी उठता है। चुनान्चे हमारे आक़ा व मौला की ज़बाने सदाक़त ने बयान फ़रमाया है “जो लोग इस लायक़ ठहरेंगे कि उस जहान को हासिल करें और मुर्दों में से जी उठें उन में ब्याह शादी ना होगी। क्योंकि वो फिर मरने के भी नहीं। इसलिए कि वो फ़रिश्तों के बराबर होंगे और क़ियामत के फ़र्ज़ंद हो कर ख़ुदा के भी फ़र्ज़ंद वो होंगे।” (लूक़ा 20:34) मुक़द्दस पौलुस निहायत वाज़ेह अल्फ़ाज़ में फ़रमाता है “गोश्त और ख़ून ख़ुदा की बादशाही का वारिस नहीं हो सकता और ना फ़ना बक़ा की वारिस हो सकती है।” (1 कुरंथियो 15:50)

मुक़द्दस पौलुस का मतलब ये है कि जो मोअतरिज़ जी उठने वाले बदन की बाबत ख़्याल करते हैं कि वो बईना वही जिस्म होगा जो सपुर्द-ए-ख़ाक किया जाता है, वो सख़्त ग़लती में मुब्तला हैं। वो ज़रा क़ुदरत के नज़ारों पर ग़ौर करें। हर मौसम-ए-बहार में हमारी आँखों के सामने ऐसी तब्दीलीयां वक़ूअ पज़ीर होती हैं जो जी उठने वाले बदन से कम अजीब नहीं हैं। “ऐ नादान तू ख़ुद जो कुछ बोता है। जब तक वो मर ना जाये ज़िंदा नहीं किया जाता।” गेहूँ के खेत में या आमों के बाग़ में पहले मौत नज़र आती है और फिर ज़िंदगी रूनुमा होती है। अनाज का दाना ज़मीन में दफ़न किया जाता है। वो पहले मर जाता है। तुख़्म के बाहर का पर्दा तहलील हो जाता है। वो ज़मीन के अंदर पड़ा रह जाता है और वहीं गल के सड़ जाता है। उस का सिर्फ असल रह जाता है। जिसमें नया जिस्म बनने की सलाहीयत होती है। बाक़ी सब फ़ना हो जाता है और उस में से नया पौदा निकलता है। लेकिन ये मुशाबहत और मुनासबत यहीं ख़त्म नहीं हो जाती।

मुक़द्दस पौलुस रसूल फ़रमाता है “जो तू बोता है ये वो जिस्म नहीं जो पैदा होने वाला है।” तू ये उम्मीद नहीं करता कि जो दाना तू ने बोया है वो उसी दाने की सूरत में फिर दुबारा उग पड़ेगा। क्योंकि जब वो उगता है तो वो ऐसी सूरत इख़्तियार कर लेता है जो बोए हुए दाने से क़तई मुख़्तलिफ़ होती है। ऐसा कि मदफ़ून (दफ़न किये हुए) दाने में और उगे हुए पौदे में किसी क़िस्म की मुमासिलत नहीं होती। उस की सूरत और शक्ल, रंग व बू वग़ैरह सब में ऐसी तब्दीली वाक़ेअ हो जाती है कि किसी के क़ियास में भी ये नहीं आ सकता कि ये वही दाना है जो सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया था। इस उगी हुई शैय का रंग शोख़ सबज़ होता है। वो ज़िंदा होती है और रोज़ बरोज़ बढ़ती ही चली जाती है। आमों का बाग़ आमों की गुठलियों के ढेर से किस क़द्र मुख़्तलिफ़ होता है। ख़ुदा नई ज़िंदगी रखने वाली शैय को ऐसी सूरत अता फ़रमाता है कि इन्सानी अक़्ल दंग रह जाती है। वो इस क़ानून के मुताबिक़ बढ़ती और तरक़्क़ी करती चली जाती है जो ख़ालिक़ ने इसके लिए मुक़र्रर कर रखा है। “ख़ुदा ने जैसा इरादा कर लिया वैसा ही उस को जिस्म देता है और हर एक बीज को उस का ख़ास जिस्म” (आयत 38) चुनान्चे गेहूँ का पौदा रोज़ बरोज़ बढ़ता चला जाता है। फिर इस में बालें आती हैं और वो साठ गुना और सौ गुना फल लाता है। यही हाल मुर्दों की क़ियामत है जो जिस्म सुपुर्द-ए-ख़ाक या नज़र-ए-आतिश किया जाता है, वो गल सड़ जाता है। लेकिन मुक़र्ररा वक़्त पर एक ऐसा बदन जी उठेगा जिसकी सूरत और शक्ल और ज़िंदगी के तौर तरीक़ मदफ़ून जिस्म से कुल्लियतन मुख़्तलिफ़ होंगे। अगर हम ने गेहूँ के सरसब्ज़ और लहलहाते खेत ना देखे होते तो हमारी क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला के कभी वहम व गुमान में भी ना आ सकता कि ये उन दानों का अंजाम है जो हम ने ज़ेर-ए-ज़मीन फेंके थे। इसी तरह हमारी क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला उठने वाले बदन की साख़त और सूरत वग़ैरह का क़ियास भी नहीं कर सकती और जब दुनिया के खेत में ख़ुदावंद की आमद के वक़्त मौसम-ए-बहार आएगा और ख़ुदा हर जिस्म को नई सूरत बख़्शेगा तो हम अपने और अपने अज़ीज़-ओ-अक़ारिब के नए बदनों को देख कर हैरान और दन्ग रह जाऐंगे।

(2)

“नफ़्सानी जिस्म बोया जाता है और रुहानी जिस्म जी उठता है। जब नफ़्सानी जिस्म है तो रुहानी जिस्म भी है।” (1 कुरंथियो 15:44) जो जिस्म सुपुर्द-ए-ख़ाक किया जाता है, वो “नफ़्सानी” है यानी वो हवास-ए-ख़मसा, ख़्वाहिशात और रुजहानात-ए-कसीफ़ वग़ैरह का इज़्हार है और बिलउमूम हमारी बहीमी (हैवानी फ़ित्रत) का आलाकार है। ऐसा जिस्म सुपुर्द-ए-ख़ाक किया जाता है और इस की जगह “रुहानी” बदन जी उठता है यानी ऐसा बदन जो रुहानी उमूर् और आला बातों का ज़रीया इज़्हार हो और हमारी रुहानी ज़िंदगी की नश्व-नुमा और तरक़्क़ी का आलाकार हो। वो हमारे रुहानी मक़ासिद व अगराज़ के हासिल करने में मुमिद व मआवन (ممدومعاون) हो। ऐसा कि “गो अभी तक ये ज़ाहिर नहीं हुआ कि हम क्या कुछ होंगे। इतना हम जानते हैं कि जब वो (मसीह) ज़ाहिर होगा तो हम भी उसकी मानिंद होंगे।” (1 युहन्ना 3:2) उस तरक़्क़ी का आग़ाज़ इसी मौजूदा जिस्म के साथ होता है। लेकिन इस का अंजाम जिस्म के बदल जाने और रुहानी बदन इख़्तियार करने से होता है। क्योंकि ये फ़ानी जिस्म बहीमी अंसर की वजह से रुहानी तरक़्क़ी का ज़रीया-ए-इज़्हार नहीं हो सकता।” हमारा वतन आस्मान पर है और हम एक मुंजी (निजात देने वाले) यानी ख़ुदावंद यसूअ मसीह के वहां से आने के इंतिज़ार में हैं। वो अपनी क़ुव्वत की तासीर के मुवाफ़िक़ जिससे सब चीज़ें अपने ताबे कर सकता है हमारी पस्त हाली के बदन की शक्ल बदल कर अपने जलाल के बदन की सूरत पर बनाएगा।” (फिलिप्पियों 3:20) पस आख़िरकार और अंजामकार हमारा “रुहानी” बदन हमारे मुबारक ख़ुदावंद के जलाली बदन की मानिंद होगा। जिसका नज़ारा मुक़द्दस स्तफ़नस ने देखा था। (आमाल 7:55) और जिस का जलाल मुक़द्दस पौलुस पर दमिशक़ की राह पर चमका था। (आमाल 9:3)

(3)

हमने ऊपर के फ़िक़्रे में लफ़्ज़ “अंजाम-कार” दीदा व दानिस्ता (जानबूझ कर) इस्तिमाल किया है, क्योंकि ये बदन मुंतहाए कमाल होगा। हमारे मौजूदा फ़ानी जिस्म और उस जलाली बदन के बीच में मुतअद्दिद दरमयानी मनाज़िल हैं जो हमारी रुहानी तरक़्क़ी की मुख़्तलिफ़ मंज़िलों के मुताबिक़ हैं। जिस रुहानी तरक़्क़ी की मंज़िल पर हम पहुंचते हैं उसी के मुताबिक़ हमको बदन भी दिया जाता है। पस दरमयानी मंज़िलों का एक बदन दूसरे बदन से मुख़्तलिफ़ है। क्योंकि “सब गोश्त” यकसाँ गोश्त नहीं, बल्कि आदमीयों का गोश्त और है और चौपायों का और। परिंदों का गोश्त और है मछलीयों का गोश्त और। आस्मानी भी जिस्म हैं और ज़मीनी भी। मगर आसमानियों का जलाल और है ज़मीनियों का और। आफ़्ताब (सूरज) का जलाल और है महताब (चाँद) का और। सितारों का जलाल और क्योंकि सितारे, सितारे के जलाल में भी फ़र्क़ है।” (1 कुरंथियो 15:39-41) रूह की तरक़्क़ी की मंज़िल के मुताबिक़ “ख़ुदावंद ने जैसा इरादा कर लिया वैसा ही इस को जिस्म देता है। और हर एक बीज को इस का ख़ास जिस्म।” (1 कुरंथियो 15:38)

जनाब मसीह के मुबारक बदन की मिसाल इस हक़ीक़त को वाज़ेह कर देती है। अनाजील अरबा (यानी चारो इंजील) का मुतालआ जनाब मसीह की मनाज़िल तरक़्क़ी को हम पर ज़ाहिर कर देता है। ख़ुदावंद मसीह लड़कपन में ही रुहानी तरक़्क़ी की ऐसी मंज़िलों पर पहुंच गए थे कि आप “हिक्मत और क़द-ओ-क़ामत में ख़ुदा की और इन्सान की मक़बूलियत में तरक़्क़ी करते गए।” (लूक़ा 2:52) हत्ता कि जवानी के अय्याम (दिनों) में आपकी आज़माईशें भी इस क़िस्म की थीं जो ना तो जिन्सी ताल्लुक़ात से मुताल्लिक़ थीं और ना इन्सानी फ़ित्रत के बहीमी अनासिर से उनका कुछ लगाओ था। (मत्ती 4:1-11) जिसका नतीजा ये हुआ कि ख़ुदा ने आपको ऐसा जिस्म और चेहरा अता किया जिसमें मक़नातीसी (مقناطیسی) कशिश थी। आपके बुशरा (चेहरे) से ऐसा जलाल टपकता था कि जो भी आप को देखता माँ बाप, बीवी बच्चे, घर-बार, माल जायदाद सब भूल जाता और आप के पीछे हो लेता। (मत्ती 4:22, 8:22, 9:9) बिलअल्फ़ाज़-ए-मुक़द्दस युहन्ना आपके चेहरे मुबारक पर “ऐसा जलाल था जो सिर्फ बाप के इकलौते बेटे ही की शायाँ-ए-शान” हो सकता था। (1:14) जब आप तीस साल के हुए तो आप ने आलम-ए-रूहानियत की मनाज़िल में इस क़द्र तरक़्क़ी कर ली कि आपका पुर-जलाल “चेहरा सूरज की मानिंद” चमकता था। (मत्ती 17:2)

जब आपने क़ब्र पर फ़त्ह पाई तो आप की जलाली सूरत इस क़द्र बदल गई कि जो लोग आपकी सोहबत से दिन रात फ़ैज़याब होते थे, आपको ना पहचान सके। (लूक़ा 24:18, 27 युहन्ना 20:15) लेकिन अभी तक इन चालीस दिनों में भी जनाब मसीह का बदन अतहर कामिल-तौर पर “रुहानी” ना था। (युहन्ना 20:17) आपके पाकीज़ा और लतीफ़ बदन में अभी तक गोश्त और हड्डियां थीं। आप को लोग छू सकते थे। आप खा पी सकते थे। “ख़ुदा ने जैसा इरादा किया” वैसा ही उस ने आपको बदन अता किया ताकि आपके शागिर्दों को आपकी ज़फ़रयाब क़ियामत (फत्ह के साथ जी उठने) का ऐनी और यक़ीनी इल्म हो जाए। लेकिन जब ये चालीस दिन ख़त्म हो गए तो हुज़ूर के साअद-ए-आस्मानी (आस्मान पर जिस्म के साथ उठाए जाने) के मौक़े पर आपका बदन अतहर कामिल और मुकम्मल तौर पर “रुहानी” हो गया था। (लूक़ा 24:51) इसी इंतिहाई कमाल के वास्ते 49 वीं आयत में पौलुस रसूल लफ़्ज़ “आस्मानी” इस्तिमाल करते हैं।

हम अपने “रुहानी” बदन को भी इस पर क़ियास कर सकते हैं। हमारी रुहानी ज़िंदगी की मनाज़िल में जिस निस्बत से हमारा जिस्म बहीमी अनासिर का आलाकार नहीं होगा बल्कि आला तरीन अग़राज़ व मकासिद का ज़रीया-ए-इज़्हार होगा। इसी निस्बत से “जैसा ख़ुदा ने इरादा कर लिया”, वैसा ही हमारी रुहानी तरक़्क़ी के मुताबिक़ हमको रुहानी बदन अता करेगा। जूँ-जूँ हम जनाबे मसीह के फ़ज़्ल से मामूर हो कर ख़ुदा के इर्फ़ान और मुहब्बत में तरक़्क़ी करते जाऐंगे, तूं तूं हमारे बदनों की सूरत इन दरमयानी मनाज़िल में बदलती जाएगी। “जब तक हम सब के सब ख़ुदा के बेटे के ईमान और उस की पहचान में एक ना हो जाएं और कामिल इन्सान ना बनें यानी मसीह के पूरे क़द के अंदाज़े तक ना पहुंच जाएं।” (इफ़िसियों 4:13)

16. मसअला बक़ा और साईंस

(1)

इस से पहले कि हम माद्दी जिस्म और रुहानी बदन और उनके बाहमी ताल्लुक़ात पर ग़ौर करें ये मुनासिब मालूम होता है कि हम माद्दे और रूह की हक़ीक़त को जानें। हम ये नहीं कह सकते कि रूह क्या है? लेकिन इतना हम जानते हैं कि जब हम कहते हैं कि हम में रूह है तो हमारा ये मतलब होता है कि हम एक ख़ुद शऊर हस्ती हैं और हम में अपने नफ़्स पर नज़र डालने की सलाहीयत मौजूद है। इस के इलावा हमारा ये भी मतलब होता है कि हमारी रूह में तख़्लीक़ी क़ुव्वत मौजूद है जो अमल की बिना (बुनियाद) डालती है, माद्दे को क़ाबू में रखती है और उस को अपने अग़राज़ व मकासिद के लिए इस्तिमाल करती है। रूह क़ुव्वत-ए-इरादी को अमल में लाने की सिफ़त से मुत्तसिफ़ है और उसकी हक़ीक़त आज़ादी के तसव्वुर के ज़रीये ही कामिल तौर पर बयान में आ सकती है। माद्दा और रूह दोनों में से रूह को अफ़्ज़लीयत और फ़ौक़ियत हासिल है। क्योंकि माद्दा सिर्फ एक ज़रीया है जिसके वसीले रूह अपनी असली और ज़ाती फ़ाइलीयत का इज़्हार कर सकती है। क्योंकि रूह का ये ख़ास्सा है कि वो अपना इज़्हार करे। साईंस की तारीख़ दरहक़ीक़त माद्दे पर क़ाबू हासिल करने की तारीख़ है और इस की तरक़्क़ी का इन्हिसार इसी पर है कि माद्दे पर ज़्यादा से ज़्यादा क़ाबू पाए। अगर रूह कामिल तौर पर क़ाबू हासिल कर ले (जिस तरह हमारा ईमान है कि हमारे मुबारक ख़ुदावंद को हासिल था।) तो हम जान जाएंगे कि माद्दे में ये सलाहीयत मौजूद है कि रूह जिस तरह चाहे उस को अपने इरादे के मुताबिक़ ढाल ले।

जिस तरह हम ये नहीं कह सकते कि रूह क्या शैय है, इसी तरह हम ये भी नहीं जानते कि माद्दा क्या चीज़ है। लेकिन मौजूदा साईंस की रोशनी हम पर ये अयाँ कर देती है कि जिस शैय को हम माद्दा कहते हैं वो दरहक़ीक़त ग़ैर माद्दी है। सच्च तो ये है कि माद्दा और क़ुव्वत (Energy) दोनों की बाबत हम बहुत कुछ नहीं जानते। लेकिन हम इतना जानते हैं कि हम पहले जो ये ख़्याल किया करते थे कि माद्दा किसी मोटी ठोस चीज़ का नाम है, वो ग़लत है। माद्दे की मुख़्तलिफ़ अश्या के इंजिमाद और भद्दे पन में दर्जों का फ़र्क़ है। मसलन लोहे की सीख़ के ज़र्रात इस क़द्र ग़नजान होते हैं कि हम इस को आसानी से तोड़ नहीं सकते, लकड़ी ज़्यादा आसानी से टूट जाती है। मक्खन के हिस्से इस से भी ज़्यादा आसानी से जुदा हो सकते हैं। हम धुएं के बादल में से बाआसानी तमाम गुज़र जाते हैं। अब हमारे पास ये मानने के लिए काफ़ी वजूह हैं कि माद्दा मुख़्तलिफ़ अक़्साम (मुख्तलिफ़ किस्मों) का दरहक़ीक़त एक ही असल है जो मुख़्तलिफ़ सूरतों और शक्लें इख़्तियार करके मुख़्तलिफ़ मुरक्कबात में हमको नज़र आता है। ऐसा मालूम होता है कि माद्दे की हक़ीक़त का असल ही ये है कि वो एक तग़य्युर-पज़ीर बदलने वाली लचकदार शैय है। जिसमें ये सलाहीयत मौजूद है कि हर क़िस्म की सूरत और शक्ल इख़्तियार करे।

हम उमूमन ये ख़्याल करते हैं कि माद्दी शैय ज़मान व मकान की क़ुयूद से महदूद होती है और कि वो मुख़्तलिफ़ सिफ़तों का मजमूआ होती है। लेकिन ये सिफ़तें दरहक़ीक़त मुख़्तलिफ़ आमिल क़ुव्वतें हैं जो कारकुन हैं और जो अपने असरात से जानी जाती हैं। मसलन गर्मी, रोशनी और हरकत आमिल क़ुव्वतें हैं और यही हाल दीगर सुनअतों का है। यही वजह है कि अश्या में तब्दीलीयां वाक़ेअ होती हैं और यह तब्दीली ना सिर्फ बैरूनी हालत और ख़ारिजी वज़ा की तब्दीली होती है, बल्कि अंदरूनी तब्दीली भी होती है। मसलन एक ज़िंदा बदन हमेशा तमाम वक़्त बदलता रहता है। लेकिन इन तमाम तब्दीलीयों के बावजूद वो वही बदन रहता है। अब सवाल ये है कि वो क्या चीज़ है जो तमाम तब्दीलीयों के दर्मियान यकसाँ रहती है। बाअज़ इस का जवाब ये देते हैं कि वो इस शैय का जोहर और ज़ात है। लेकिन जोहर का तसव्वुर मह्ज़ एक मुजर्रिद ज़हनी तसव्वुर है जिसकी तजरीद (एक चीज़ को दूसरी से जुदा करना, तन्हाई) एक ख़्याली अम्र है।

पस कोई शैय मुख़्तलिफ़ आमिल कुव्वतों के मजमूए का नाम है। माद्दे की सिफ़त ही ये है कि वो हमेशा मैदान-ए-अमल बना रहे। लेकिन जैसा हम ऊपर कह चुके हैं अमल दरहक़ीक़त रूह का इम्तीयाज़ी निशान है। इन हक़ायक़ को पेश-ए-नज़र रख कर हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि रूह और माद्दे में दरहक़ीक़त कोई ऐसा नुमायां फ़र्क़ नहीं कि वो एक दूसरे के मुतज़ाद (ख़िलाफ़) समझे जाएं। इन दोनों के दर्मियान फ़िल-हक़ीक़त कोई ख़लीज हाइल नहीं है। मसलन जब हम रोटी खाते हैं तो हमारे जिस्म इस को हज़म करते हैं, जिस माद्दे की वो बनी हुई होती है। वो हमारे अंदर जाकर अपनी सूरत तब्दील कर लेता है। निवाला हमारे ख़ून में जाकर हमारे ज़िंदा निज़ाम का हिस्सा बन जाता है और इस के असर की हदबंदी नहीं कर सकते। अगर वो हमारी हड्डीयों और पट्ठों के बनने और उन की नशो-नुमा में मुमिद व मआवन हो सकता है, तो क्या वो हमारे ख़यालात, जज़्बात वग़ैरह के बनने और नशो-नुमा पाने में में मुमिद व मआवन नहीं हो सकता? क्या एक भूके फ़ाक़ों के मारे इन्सान का दिमाग़ नशो-नुमा पा सकता है? और उस के ज़हन का अमल तरक़्क़ी की आला मनाज़िल कुव्वते कर सकता है? हरगिज़ नहीं। पस रोटी का निवाला दरहक़ीक़त एक हमेशा तब्दील होने वाली शैय है जो मुख़्तलिफ़ सूरतें पकड़ती है और जिस के अमल की एक सूरत दूसरी में और दूसरी सूरत तीसरी में तब्दील होती जाती है और यूं अला-हाज़-उल-क़यास वो एक लामतनाही (बेइन्तहा, जिसकी इन्तहा ना हो) सिलसिला बन जाता है। पस अगर जिस शैय (चीज़) को हम माद्दी कहते हैं वो ऐसी सूरतों इख़्तियार कर लेती है जिसको हम “रुहानी” कहते हैं, तो क्या माद्दी और रुहानी शैय में फ़र्क़ और इम्तियाज़ बाक़ी रह जाता है?

(2)

मज़्कूर बाला उमूर को पेश-ए-नज़र रखकर अब जिस्म की तरफ़ आईए। हमारा जिस्म एक तग़य्युर-पज़ीर शैय है, जिसमें हर वक़्त तब्दीली वक़ूअ में आती रहती है। इस के जो ज़र्रात घिस पिस जाते हैं, उन की जगह नए ज़र्रात ले लेते हैं। चंद सालों के बाद (जिनको उर्फ-ए-आम में सात साल कहा जाता है) जिस्म के तमाम ज़र्रात कुल्लियतन (पुरे तौर पर) तब्दील हो जाते हैं। ऐसा कि पुराना जिस्म नेस्त हो जाता है और उस की जगह एक नया जिस्म ले लेता है। सात साल के बाद ये नया जिस्म भी पुराना हो जाता है और एक तीसरा नया जिस्म उस की जगह ले लेता है। अब सवाल ये पैदा होता है कि वो क्या शैय है जो जिस्म की इन तमाम तब्दीलीयों में हमारी इन्फ़िरादियत को बरक़रार और क़ायम रखती है? एक और मिसाल ले लीजिए। दरिया का पानी हमेशा बहता रहता है, लेकिन इस की जुग़राफ़ियाई सूरत क़ायम रहती है। क्या इसी तरह हमारे जिस्म की तब्दीलीयों के दर्मियान हमारी इन्फ़िरादियत की कोई सूरत क़ायम रहती है? अगर रहती है तो क्या मौत के बाद भी वो तब्दीली के दर्मियान क़ायम रहेगी?

मौजूदा जिस्म की तब्दीलीयां इस क़द्र अज़ीम होती हैं कि अगर किसी शख़्स ने किसी बच्चे को बचपन की हालत में देखा हो तो वो इस को बीस पच्चीस साल के बाद कभी पहचान नहीं सकेगा। अगरचे बच्चा वही होता है जो बचपन से लड़कपन और जवानी की मुख़्तलिफ़ मनाज़िल को तेय करता रहता है। पस सवाल ये है कि वो क्या शैय है जो हमारे जिस्म की इन्फ़िरादियत को क़ायम रखती है? इस का जवाब ये है कि ये शैय हमारी ज़िंदगी की असल है जो तब्दीलीयों के दर्मियान जिस्म की तमाम कुव्वतों को तंज़ीमी तर्तीब देकर बाक़ायदा तौर पर उनको ऐसा मज़बूत करती है कि इस जिस्म की इन्फ़िरादियत क़ायम रहती है। पस इन्सानी जिस्म मह्ज़ ज़र्रात का मजमूआ नहीं होता, बल्कि हर जिस्म की तर्कीब और साख़त जुदागाना होती है जिससे हम एक जिस्म को दूसरे से पहचान लेते हैं। हर जिस्म के ज़र्रात ख़ास ख़ास तरकीबों से मुरक्कब होते हैं और हर जिस्म के ज़र्रात इस क़ानून के तहत हैं जिससे उस की ज़िंदगी की असल उनको बाक़ायदा तौर पर मुरत्तिब करती है और इस में हस्ब-ए-ज़रूरत तर्मीम व तादील करती रहती है। ऐसा कि हमारे जिस्म हमारी ज़हनी और रुहानी हालत का अक्स हो जाते हैं। मसलन बाअज़ लोगों की आदतें ऐसी मकरूह होती हैं कि उनके चेहरे और जिस्म घिनौने हो जाते हैं, मसलन ग़ुस्सावर शख़्स का माथा और चेहरे के शिकन मुहब्बत भरे शख़्स के चेहरे से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ हो जाते हैं। मिस्ल मशहूर है कि पच्चीस बरस की उम्र के बाद हर शख़्स अपने चेहरे का आप ज़िम्मेदार होता है। नेक सीरत शख़्स का जिस्म एक क़िस्म हो जाता है, लेकिन बदकार आदमी का जिस्म दूसरी क़िस्म का हो जाता है। बहर-सूरत ज़िंदगी का असल हमारे अंदर हर वक़्त काम करता रहता है। क्या ये बात ना-मुम्किनात में से है कि यही ज़िंदगी की असल मौत के बाद भी कारफ़रमा रहे? और जो बदन भी हमको मिले वो हमारी शख़्सियत के ऐन मुनासिब और हमारी रुहानी हालत के ऐन मुताबिक़ हो? क्या ये मुम्किन नहीं कि जिस तरह तब्दीलीयों के बावजूद हम किसी शख़्स के जिस्म को पहचान कर कह सकते हैं कि ये वही है, इसी तरह हमारे इस जिस्म और मौत के बाद के बदन में तब्दीली के बावजूद इन्फ़िरादियत क़ायम रहे? हम ऊपर कह चुके हैं कि हमारी ज़ाहिरी सूरत की ये इन्फ़िरादियत ज़िंदगी की असल की तंज़ीमी तर्तीब की वजह से है। लेकिन हक़ीक़त ये है कि जिस्मानी इन्फ़िरादियत मह्ज़ एक सतही शैय है। हमारी शख़्सियत यकसानियत मह्ज़ जिस्मानी इन्फ़िरादियत से बहुत ज़्यादा गहरी है। हमें याद रखना चाहिए कि शख़्सियत के लिए जे़ल के अनासिर ज़रूरी हैं :-

(1) ख़ुद शऊरी

(2) क़ुव्वत-ए-इरादी

(3) क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा

(4) मख़्सूस जज़्बाती अमल जो हर जुदागाना शख़्सियत के लिए जुदा होता है।

चुनान्चे जब हम किसी शख़्स की हयात-ए-जावेदानी का या उस की शख़्सियत की बक़ा का ज़िक्र करते हैं तो हमारा मतलब ये होता है कि उस में मज़्कूर बाला चारों अनासिर का क़ायम और बरक़रार रहना लाज़िमी है। शायद कोई ये ख़्याल करे कि आख़री अंसर यानी जज़्बात के बरक़रार रहने की ज़रूरत नहीं है? लेकिन जज़्बात के पे हम तवातर और तसलसुल का जारी रहना हद दर्जा लाज़िमी है। क्योंकि ये पहलू हमारी ज़िंदगी के हर शोअबे पर हावी होता है और हर ज़िंदा-नफ़्स की ज़िंदगी को ख़ुसूसी अंदाज़ से ज़ाहिर करता है। मसलन मुहब्बत आला तरीन जज़्बा है और आस्मानी ज़िंदगी दरहक़ीक़त मुहब्बत की ही ज़िंदगी है।

(3)

जब हम रसूलों के अक़ीदे में इक़रार करते हैं कि “मैं बदन की क़ियामत (जी उठने) पर ईमान रखता हूँ।” तो हमारा मतलब ये नहीं होता कि जिस लाश को हम सुपुर्द-ए-ख़ाक करते हैं या जला देते हैं, वही क़ियामत के रोज़ क़ब्र से दुबारा उठ खड़ी होगी। क्योंकि ये एक नामुम्किन और अन्होनी बात है। वो तो ख़ाक का हिस्सा हो जाती है। जिसके ज़र्रात ख़ाक के दूसरे ज़र्रात से मिलकर नए मुरक्कबात बन जाते हैं, जो पौदों, हैवानों और इन्सानों के जिस्मों की तर्कीब में शामिल हो कर उन के जिस्मों का हिस्सा बन जाते हैं। हमें ये भी याद रखना चाहिए कि जैसा हम ऊपर कह चुके हैं, हर सात साल के बाद हम को एक नया जिस्म मिल जाता है। पस क्या ज़रूरी है कि हम ख़्वाह-मख़्वाह ये फ़र्ज़ कर लें कि हमारा इस दुनिया का आख़िरी जिस्म (जिसको हम दफ़न करते हैं) हमारी असली शख़्सियत का हक़ीक़ी आईनेदार था और उस के पहले के जिस्म हमारी शख़्सियत के असली नुमाइंदे ना थे? सच्च तो ये है कि हमारे बुढ़ापे का जिस्म इन्हितात और ज़ईफ़ी (कमज़ोरी) के ज़माने का होता है। जब हमारी शख़्सियत के क़वाअ (ताक़त) एक एक करके सब जवाब देने लग जाते हैं और वो जिस्म हमारी शख़्सियत की कामलीयत और शक्ति, ज़हनी क़ुव्वत और रुहानी ताक़त का कमा-हक़्क़ा इज़्हार नहीं कर सकते। यही वजह है कि मुक़द्दस पौलुस ने फ़रमाया है कि “ख़ुदा ने जैसा इरादा कर लिया वैसा ही उस को जिस्म देता है।” बक़ा के लिए लाज़िम है कि हमारी शख़्सियत का तवातर और तसलसुल (लगातार होना) क़ायम रहे और तब्दीलीयों के दर्मियान शख़्सियत के मज़्कूर बाला अनासिर हमेशा बरकरारर हैं। शख़्सियत की बक़ा का मतलब ही ये है कि हमारी मुस्तक़बिल की ज़िंदगी में ये इस्तिमरार (दवाम), तवातर और तसलसुल हमेशा क़ायम रहे। हक़ तो ये है कि तब्दीली के मफ़्हूम में ही ये बात दाख़िल है कि जो शैय तब्दील हो वह तब्दीली से पहले और तब्दीली के बाद वही शैय रहे।

अगर कोई ये सवाल पूछे कि हमारा जिस्म मौत के बाद किस क़िस्म का होगा? तो हम इस सवाल का कोई यक़ीनी जवाब नहीं दे सकते। हम फ़क़त ये कह सकते हैं कि लाज़िम है कि मौत के बाद जो बदन भी हमको मिले वो हमारी शख़्सियत (जिसमें मज़्कूर बाला अनासिर शामिल हों।) का बेहतरीन तौर पर इज़्हार कर सके। इस सवाल का जवाब हम देने से क़ासिर हैं। क्योंकि मौत की तब्दीली के बाद का बदन हमारे हवास-ए-ख़म्सा के तजुर्बे में नहीं आया। इस सवाल का जवाब मह्ज़ ज़न (गुमान) और क़ियास के साथ ही ताल्लुक़ रखता है।

चुनान्चे बाअज़ ये ख़्याल करते हैं कि हम इसी दुनिया में मौत से पहले अपने मौजूदा कसीफ़ जिस्म के साथ साथ एक और अंदरूनी, बातिनी और ग़ैर मुरई (दिखाई ना देने वाली चीजें) बदन भी बनाते जाते हैं, जो निहायत लतीफ़ ज़र्रात से बना होता है और ये नज़रिया ग़ैर मुम्किन नहीं। क्योंकि ये नज़रिया इस्तिमरार और इन्फ़िरादियत को बरक़रार रखता है। इस के मुताबिक़ रूह ग़ैर मुरई (दिखाई ना देने वाली चीजें) दुनिया में बग़ैर किसी बदन के दाख़िल नहीं होता और उसे नए सिरे से कोई ऐसा बदन बनाना नहीं पड़ता जो उसके मुनासिब-ए-हाल हो। बल्कि वो अपने साथ इस जहान से कूच करते वक़्त बना बनाया बदन ले जाती है। इस नज़रिये से हम में मौजूदा ज़िंदगी की संजीदगी का एहसास भी पैदा हो जाता है। क्योंकि हम ये जान जाते हैं कि हमारे मौजूदा ख़यालात, आदात, जज़्बात और अफ़्आल ना सिर्फ हमारे मौजूदा जिस्म को ही ढालते हैं, बल्कि हमारे मुस्तक़बिल के बदन का भी ताना-बाना हैं। जो नादीदा (अनदेखे) जहान में हमारी रूह का ज़रीया-ए-इज़्हार और आलाकार होगा। बहरहाल ये मह्ज़ क़ियास आराई है, जो यक़ीनी नहीं हो सकती।

(4)

साईंस ने हयात बाद-अज़-ममात (मौत के बाद ज़िन्दगी) की तहक़ीक़ व तफ़्तीश की है। 1882 ई॰ में इस मक़्सद के लिए एक बाक़ायदा सोसाइटी बनाई गई जिसका नाम “सोसाइटी फ़ार साएकीकल रिसर्च” (Society for Psychical Research) है। गुज़श्ता सत्तर साल से मग़रिबी ममालिक और अमरीका के माहिरीन नफ़्सियात, उलमा और साईंसदान साईंस के उसूलों के मुताबिक़ इन लातादाद हक़ायक़ और मुशाहदात की खोज लगाते रहे हैं जिनका ताल्लुक़ कब्र के बाद की ज़िंदगी से है। उन की अन-थक कोशिशों का नतीजा ये है कि आज इस मज़्मून पर एक बड़े हुजम और ज़ख़ामत का वसीअ लिट्रेचर मौजूद हो गया है। जिसके मुतालए के लिए सालहा साल दरकार हैं। अब ये साईंसदान मानते हैं कि मौजूदा ज़िंदगी का अंजाम मौत नहीं है, बल्कि ज़िंदगी ग़ैर मुन्क़ते और मुसलसल है, जिसमें मौत भी हाइल हो कर ख़लल नहीं डाल सकती। क्योंकि मौत इस तवातर में रोज़ाना नींद की तरह मह्ज़ एक ज़मनी वाक़िया होती है जिसमें से हर इन्सान गुज़रता है। जिस्म रूह का आलाकार और ज़रीया-ए-इज़्हार है, जिसको रूह ने इस मौजूदा ज़िंदगी के बरसों में आहिस्ता-आहिस्ता तर्कीब व तर्तीब देकर मुनज़्ज़म किया है। लेकिन जब रूह इस मौजूदा जिस्म की क़ैद से आज़ाद हो जाती है, तो वो एक ऐसी ज़िंदगी शुरू करती है जिसके मैदान-ए-अमल में मौजूदा दुनिया की सी रुकावटें हाइल नहीं होतीं। वो ज़िंदगी ज़्यादा हक़ीक़ी और उम्मीद अफ़्ज़ा हालात की ज़िंदगी होती है। रूह का नया बदन ज़्यादा लतीफ़ होता है जो रुहानी मक़ासिद और अग़राज़ के हुसूल के लिए ज़्यादा मौज़ूं होता है।

“मुक़द्दसों की रिफ़ाक़त”

17. मुक़द्दसों की रिफ़ाक़त और मुर्दों के लिए दुआ मांगने का दस्तूर

गुज़श्ता मज़ामीन में हमने ये साबित करने की कोशिश की है कि जब हम इस दार-ए-फ़ानी से कूच कर जाते हैं तो हम फ़ना नहीं हो जाते, बल्कि इसके बरअक्स हमारी शख़्सियत क़ायम और बरक़रार रहती है और मौत से पहले की शख़्सियत में और मौत के बाद की शख़्सियत में तवातर और तसलसुल बईना इसी तरह क़ायम रहता है जिस तरह रोज़ाना रात को नींद से पहले और सुबह जाग उठने के बाद हमारी शख़्सियत में किसी क़िस्म का फ़र्क़ नहीं होता। हमने इन मज़ामीन में ये बताया है कि मौत के बाद की ज़िंदगी ग़शी और बेहोशी की ज़िंदगी नहीं होती, बल्कि हमारी हालत शऊर की हालत होती है। जिसका लाज़िमी नतीजा ये होता है कि हमको ना सिर्फ अपनी हालत का इल्म होता है, बल्कि दूसरों की शख़्सियत का भी इल्म होता है। क़ब्र की परली तरफ़ के रहने वाले को ना सिर्फ ये पता होता है कि मैं वही क़ब्ल अज़ मर्ग वाला “मैं” हूँ, बल्कि उस को इस के क़ब्ल अज़ मर्ग के रिश्ते और ताल्लुक़ात सब याद होते हैं। क्योंकि उस की क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा, उस के ख़यालात, जज़्बात, मुहब्बत व अदावत, ख़सलत, कैरेक्टर (किरदार) वग़ैरह सब उस के साथ जाते हैं जो उस की शख़्सियत के अजज़ा-ए-लाअनफ़क होते हैं। पस मौत के बाद हर शख़्स अपनी क़ब्ल अज़ मर्ग ज़िंदगी के ख़ानदानी और दीगर ताल्लुक़ात से बख़ूबी वाक़िफ़ होता है और उन को याद रखता है। क्योंकि उस के ख़यालात, जज़्बात, रुहानी हालात, आदात और कैरेक्टर सब वही होते हैं जो मौत से पहले थे। फ़र्क़ सिर्फ बैरूनी और ख़ारिजी हालात में ही वाक़ेअ होता है। इस मौजूदा ख़ारिजी दुनिया के एवज़ वो एक ऐसी दुनिया में ज़िंदगी बसर करना शुरू करता है जो “मसीह के साथ” होती है। वो ख़ुदावंद की क़ुर्बत (नज़दीकी) में होता है और उसका माहौल इस दुनिया से बद्रजहा बेहतर होता है। जहां वो अपनी सिफ्ली और बहीमी ज़िंदगी और गंदे ख़यालात, ग़लीज़ जज़्बात और बेहूदा आदात पर ज़्यादा आसानी से ग़ालिब आ सकता है। इस की ग़ैर मुकम्मल ज़िंदगी की ख़ामियाँ एक एक करके रुख़स्त हो सकती हैं, हत्ता कि वो इस काबिल हो जाता है कि ख़ुदा के जलाल को रूबरू देख सके। (1 कुरंथियो 13:12) इन्सान अपनी मौत के बाद राही मुल्क-ए-अदम नहीं होता, बल्कि राही मुल्क इंतिज़ार होता है। इस मुल्क इंतिज़ार में उस की रूह रफ़्ता-रफ़्ता इस काबिल हो जाती है कि “मसीह के कद के पूरे अंदाज़े” तक पहुंच सके।

(1)

पस सवाल ये है कि अगर हमारे अज़ीज़ जो इस जहान से कूच कर जाते हैं अपने साथ वही ख़यालात, आदात, जज़्बात, क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा और ख़साइल वग़ैरह ले जाते हैं और पार की दुनिया में भी वो हम को याद रखते हैं तो हमारे और उन के बाहमी ताल्लुक़ात किस क़िस्म के हो सकते हैं? क्या उन में और हम में किसी क़िस्म की बाहमी रिफ़ाक़त क़ायम रह सकती है? क्या वो बदस्तूर साबिक़ हमारी परवाह करते हैं और हम से मुहब्बत रखते हैं? क्या वो हमारे लिए इसी तरह दुआएं करते हैं जिस तरह वो क़ब्ल अज़ मर्ग इस दुनिया में दुआएं मांगते थे? क्या हमारे और उन के बाहमी ताल्लुक़ात इसी क़िस्म के होते हैं जो ऐसे रिश्तेदारों में होते हैं जो मुख़्तलिफ़ ममालिक में रहने की वजह से एक दूसरे की निगाहों से ओझल होते हैं? इंजील जलील इन सवालात का जवाब इस्बात (सबूत) में देती है और कलीसिया-ए-जामा इस बात पर ईमान रखती है कि क़ब्र के आर-पार के रहने वाले एक दूसरे के साथ रिफ़ाक़त रखते हैं और जिस्म की मौत इस रिफ़ाक़त में हरगिज़ ख़लल-अंदाज़ नहीं होती। चुनान्चे हम “रसूलों के अक़ीदे” में इक़रार करते हैं “मैं ईमान रखता हूँ रूहुल-क़ुद्दुस पर। पाक कलीसिया-ए-जामा पर। मुक़द्दसों की रिफ़ाक़त पर।.....” मुक़द्दसों की रिफ़ाक़त का मतलब ही ये है कि वो तमाम मसीही जो इस दुनिया में बक़ैद-ए-हयात हैं और वो तमाम मसीही जो इस दुनिया से कूच करके “मुल्क-ए-इंतिज़ार” में हैं और वो तमाम मसीही जो अपने बुरे ख़साइल पर कामिल फ़त्ह हासिल करके जलाली मुल्क में ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) में रहते हैं। सब के सब एक दूसरे से रिफ़ाक़त रखते हैं और हर मअनी में एक दूसरे के रफ़ीक़ और साथी हैं। कलीसिया के वो शुरका जो इस दुनिया-ए-फ़ानी में रुहानी जंग कर रहे हैं और कलीसिया के वो शुरका जो उस जहान के मुल्क-ए-इंतिज़ार में फ़त्ह पर फ़त्ह पा रहे हैं और कलीसिया के वो शुरका जो कामिल फ़त्ह हासिल करके अपने मुंजी (निजात देने वाले) की मुहब्बत में सरशार और उस के नूर में रहते हैं। सब के सब एक दूसरे के साथ रिफ़ाक़त, दुआ, हमदर्दी और मुहब्बत के बंधनों में जकड़े हुए हैं और सब के सब “मसीह यसूअ में एक” हैं। क्योंकि उन सबकी बाहमी रिफ़ाक़त की असल जनाब मसीह है, जिसको वो वहां और हम यहां प्यार करते हैं। जिसकी वो और हम तारीफ़ करते, इबादत और परस्तिश करते हैं और जिस की क़ुर्बत (नज़दिकी) में हम सब “एक” हैं। जनाब मसीह की हुज़ूरी इस दुनिया में हमारे साथ वैसी है, जैसी मुल्क-ए-इंतिज़ार में रहने वालों के साथ है। वही “अंगूर का हक़ीक़ी दरख़्त” है और हम सब उस की डालियां हैं। ख़्वाह हम इस दुनिया में रहें, ख़्वाह क़ब्र के पार की दुनिया में रहें। इसी एक दरख़्त के तने से सब टहनियों को ज़िंदगी मिलती है। ख़्वाह वो टहनियां दीवार के इस तरफ़ हों जो नज़र आती हैं, ख़्वाह वो दीवार की परली तरफ़ हों जो नज़र नहीं आतीं, लेकिन जिन पर सूरज की रोशनी हरदम और हर लम्हा रहती है। (मुकाशफ़ा 21:23) जिस तरह हमारी नाकामियों, ख़ामीयों और गुनाहों के बावजूद मसीह हमारी ज़िंदगी है, इसी तरह (बल्कि इस से भी ज़्यादा) वो हमारे उन अज़ीज़ों की ज़िंदगी है जो मुल़्क-ए-इंतिज़ार में हैं। जिस तरह हम इस दुनिया में अपने अज़ीज़ों के लिए दुआएं मांगते हैं, उसी तरह वो अपने अज़ीज़ों के लिए जिनको वो इस दार-ए-फ़ानी में छोड़ गए हैं, दुआएं करते हैं। जिस तरह हम ख़ुदा की हम्दो तारीफ़ और सताइश करते हैं, उसी तरह वो भी रब-उल-इज्ज़त की सताइश और ताज़ीम में लगे रहते हैं। यही वजह है कि कलीसिया-ए-हिंद व पाकिस्तान की दाये अमीम की किताब में पाक रिफ़ाक़त की नमाज़ में हम ख़ुदा की तारीफ़ करते वक़्त कहते हैं :-

“इस लिए फ़रिश्तों, मुक़र्रब फ़रिश्तों और कुल आस्मानी फ़ौज के साथ हम तेरे नाम की हम्दो ताज़ीम करते हैं और कहते हैं क़ुद्दूस, क़ुद्दूस, क़ुद्दूस ख़ुदावंद रब-उल-अफ़्वाज। आस्मान और ज़मीन तेरे जलाल से मामूर हैं, अलीख।”

बाज़-अवक़ात ये सवाल किया जाता है कि हमारे अज़ीज़ जो इस दार-ए-फ़ानी से कूच कर गए हैं, हमारे लिए किस तरह दुआ कर सकते हैं? लेकिन जब हम ये मानते हैं कि वो “मसीह के साथ” हैं तो ये सवाल फ़ुज़ूल और मुहमल (बेमतलब, बेमाअ्नी, लायाअ्नी, फ़िज़ूल) सा हो जाता है, क्योंकि जहां मसीह है वहां की आबो हवा और फ़िज़ा दुआ की फ़िज़ा है। चुनान्चे मुक़द्दस युहन्ना आरिफ़ फ़रमाता है, “हर एक के हाथ में बरबत और ऊद से भरे हुए सोने के प्याले थे। ये मुक़द्दसों की दुआएं हैं।” (मुकाशफ़ा 5:8, 8:4) जब मुल्क-ए-इंतिज़ार की फ़िज़ा ही दुआ की फ़िज़ा है तो क्या हमारे वहम व गुमान में ये आ सकता है कि हमारी माएं और हमारे अज़ीज़ जो इस दुनिया में हर वक़्त हमारे वास्ते सरबसजूद थे, उस पार की दुनिया में हमें ऐसा फ़रामोश कर दें कि वो हमारे लिए दुआ भी ना करें? वो ग़शी और बेहोशी की हालत में नहीं रहते, बल्कि हालत-ए-शऊर में हैं। उनकी क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा और शख़्सियत वैसी ही बरक़रार है। इन्दरियन हालात वो हमारी हालत से बख़ूबी वाक़िफ़ होते हैं और हमारे नेक व बद् किरदार और अफ़आल को नादीदनी निगाहों से ग़ैर मुरई (दिखाई ना देने वाली चीजें) दुनिया से देख रहे हैं। हमको आज़माईशों पर फ़त्ह पाते या उन पर गिरते देखते हैं। क्या ये मुम्किन हो सकता है कि वो इन बातों को देखते हुए हमारे लिए बारगाह-ए-एज़दी से दुआ ना करते हों? वो “मसीह के साथ” हैं। गोहम को “धुँदला” सा दिखाई देता है। लेकिन वो सब उमूर को “पूरे तौर पर पहचानते” हैं और “रूबरू” देखते हैं। (1 कुरंथियो 13:12) पस वो अपने ग़म-गश्ता अज़ीज़ो अका़रिब के लिए आहें भर कर और कराह कर दुआएं करते हैं ताकि वो मसीह के रफ़ीक़ हो कर इस दुनिया में ऐसी ज़िंदगी बसर करें कि वो मुक़द्दसों की रिफ़ाक़त में क़ायम रहीं।

(2)

पस जब हम इस दार-ए-फ़ानी में हैं और हमारे अज़ीज़ जो उस पार मुल्क-ए-इंतिज़ार में रहते हैं, मसीह की रिफ़ाक़त में क़ायम हैं तो ये वाजिब और लाज़िम है कि जिस तरह वो हमारी आज़माईशों के वक़्त हमारे लिए दुआ करते हैं हम भी उन के लिए दुआ क्या करें, ताकि वो मुल्क-ए-इंतिज़ार से गुज़र कर उस जलाली नूर में दाख़िल हों जहां आफताब-ए-सदाक़त (सच्चाई का सूरज) अपनी पूरी दरख़शानी के साथ चमकता है। (मुकाशफ़ा 21 23) लफ़्ज़ “रिफ़ाक़त” का मतलब ही ये है कि हम दोनों में बाहमी ताल्लुक़ात क़ायम हैं, वर्ना ये लफ़्ज़ बेमाअनी रह जाता है। “रफ़ीक़” के लफ़्ज़ का इतलाक़ उन पर किया जाता है जो एक दूसरे के साथी हों, जो एक दूसरे को याद रखें और एक दूसरे से मुहब्बत करें और एक दूसरे का सहारा हो कर आड़े वक़्त में मदद करें। पस लाज़िम है कि जिस तरह उस पार मुल्क-ए-इंतिज़ार और मुल्क-ए-नूर के रहने वाले हमारे लिए दुआएं और मुनाजातें करते हैं, हम भी उन के लिए दुआएं और मुनाजातें करें ताकि वो रोज़ाना ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) और मुहब्बत में बढ़ते जाएं और अपनी ख़ामीयों से (जो वो इस दुनिया से अपने साथ ले जाते हैं,) ज़्यादा कामिल तौर पर रिहाई हासिल करके फ़ज़्ल और पाकीज़गी से मामूर हो जाएं। पस जिस तरह हम उन की दुआओं के मुहताज हैं, वो भी हमारी दुआओं के मुहताज हैं। जिस तरह उन की दुआएं हमारी रुहानी ज़िंदगी में मदद कर सकती हैं, उसी तरह हमारी दुआएं भी उन की रुहानी तरक़्क़ी में मुमिद व मआवन (ممدومعاون) हो सकती हैं।

(3)

तारीख़ इस बात की गवाह है कि कलीसिया-ए-जामा पहली पंद्रह सदीयों तक अपने अज़ीज़ों के लिए दुआएं करती चली आई जिस तरह वो इब्तिदा से हर ज़माने में करती चली आई है। पस कलीसिया-ए-हिन्दुस्तान व पाकिस्तान के शुरका पर लाज़िम है कि वो इस क़दीम रिवायत को क़ायम रखकर अपने उन अज़ीज़ों के लिए जो उस पार मुल्क-ए-इंतिज़ार में रहते हैं, ख़ुदा के फ़ज़्ल के तख़्त के हुज़ूर हमेशा दुआएं किया करें। ये अफ़्सोस की बात है कि गुज़श्ता चार सदीयों से यूरोपीयन ममालिक की “इस्लाह याफ्ताह” कलीसियाओं ने इस दिलकश रिवायत और क़दीम दस्तूर को बंद कर दिया है। इस की वजह रूमी कलीसिया की बाअज़ बद-उन्वानियाँ थीं, जिनकी वजह से आशिक़ान-ए-मसीह उस कलीसिया से बेज़ार हो गए थे। कलीसिया-ए-रुम ने मुर्दों के लिए दुआएं करना तिजारत का ज़रीया बना रखा था जिससे उस की आमदनी में बड़ा भारी इज़ाफ़ा हो गया था। लेकिन यूरोप के मुस्लिहीन ने इस ख़राबी की इस्लाह करने की बजाय उस को कुल्लियतन बंद कर दिया। वाजिब तो ये था कि मुस्लिहीन इस बात पर ज़ोर देते कि दुआओं को आमदनी का ज़रीया ना बनाया जाये और इस का नाजायज़ इस्तिमाल ना किया जाये। इस की बजाय उन्हों ने इस के जायज़ इस्तिमाल को भी हुक्मन बंद कर दिया और रफ़्ता-रफ़्ता इन इस्लाह याफ्ताह कलीसियाओं में ये ख़्याल पैदा हो गया कि मुर्दों के लिए दुआ माँगना एक क़बीह बात है। चूँकि पंजाब के मसीही किसी ना किसी “इस्लाह याफ्ताह कलीसिया” के मैंबर हैं, वो भी इस ग़लत ख़्याल में मुब्तला हो गए कि मुर्दों के लिए दुआ माँगना एक बिद्दती अक़ीदा है। हालाँकि ये तमाम रासिख़-उल-एतक़ाद कलीसियाओं का अक़ीदा है और कलीसिया-ए-जामा अपने अज़ीज़ों के लिए दुआएं करती चली आई है। हक़ तो ये है कि उन के लिए दुआ ना करना, बिद्दत है।

यूरोपीयन ममालिक की कलीसियाओं की तारीख़ हमको बताती है कि सोलहवीं सदी में यूरोप में कलीसिया-ए-रुम और इस्लाह याफ्ताह कलीसियाओं में बाहमी मुख़ासमत इस क़द्र बढ़ गई थी कि इस्लाह याफ्ताह कलीसियाएं, कलीसिया-ए-जामा के उन तमाम दस्तुरात और रसूमात को तर्क कर देती थीं जिनका रूमी कलीसिया में रिवाज था। मसलन रूमी कलीसिया के ख़ादिमान-ए-दीन नमाज़ पढ़ते वक़्त इबादत अमीम की किताबों का इस्तिमाल करते हैं। पस इस्लाह याफ्ताह कलीसियाओं ने तहरीरी किताबी दुआओं का इस्तिमाल तर्क करके ज़बानी दुआओं का रिवाज शुरू कर दिया। कलीसिया-ए-रुम के ख़ादिमान-ए-दीन इबादत के वक़्त ख़ास लिबास ज़ेब-ए-तन करते हैं। पस इन कलीसियाओं ने इस को भी ख़ैरबाद कह दिया। रूमी कलीसिया इस बात पर ज़ोर देती है कि इबादत के दौरान में दुआ करने के वक़्त घुटने टेके जाएं। पस उन कलीसियाओं ने घुटने टेकने की बजाय दुआ के वक़्त बैठने की रस्म शुरू कर दी। हत्ता कि एक वक़्त ऐसा भी था जब पीवरीटन (Puritan) अपने मुर्दों को नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़े बग़ैर गाड़ देते थे, क्योंकि रूमी कलीसिया जनाज़े की नमाज़ पढ़ती थी। (21)

इसी क़िस्म के जज़्बात के मातहत इस्लाह याफ्ताह कलीसियाओं ने अपने मुर्दा अज़ीज़ो अका़रिब के लिए दुआ करने के क़दीम दस्तूर को भी ख़ैरबाद कह दिया और नमाज़ जनाज़ा के बाद जमाअती और ख़ानदानी दुआओं में मुर्दों का नाम लेना भी गुनाह मुतसव्वर हो गया। इसी बात की ताअलीम हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की मुख़्तलिफ़ कलीसियाओं को दी गई है, जिस का नतीजा ये है कि फ़िर्दोस के रहने वाले हमारी नज़रों से बिल्कुल ओझल हो गए हैं और मौत के बाद उन की याद भी हर्फ़-ए-ग़लत की तरह मिट जाती है। कलीसिया-ए-हिंद व पाकिस्तान के शुरका पर वाजिब है कि वो भी कलीसिया-ए-जामा के दस्तूर-ए-क़दीम को पेश-ए-नज़र रखकर अपने उन अज़ीज़-ओ-अक़ारिब को इसी तरह ख़ुदा के फ़ज़्ल के तख़्त के हुज़ूर याद क्या करें जिस तरह वो उन को उस ज़माने में याद करते थे। जब वो इस दार-ए-फ़ानी में मौजूद थे ताकि ग़ैर मुरई (दिखाई ना देने वाली) दुनिया हमारे लिए एक हक़ीक़त हो जाए।

(21) The Prayer Book (Church manslenny Series) by Rev.Percy Dearmer
ख़त्म शुद्