TRIAL AND DEATH OF
JESUS CHRIST
By
Allama James Stalker
सय्यदना मसीह की गिरफ़्तारी और

मौत

मुसन्निफ़

डाक्टर जेम्स स्टाकर साहब

पंजाब रिलीजियस बुक सोसाइटी

अनार कली, लाहौर

1905 ई॰


येसू मसीह की गिरफ़्तारी और मौत

पहला बाब
गिरफ़्तारी

       हम इस किताब में अपने ख़ुदावन्द की ज़मीनी ज़िंदगी के आख़िरी हालात का मुतालआ उस वक़्त से शुरू करते हैं, जब कि वो अदालत के प्यादों के हाथ में गिरफ़्तार हो गया। ये गिरफ़्तारी आधी रात के वक़्त बाग-ए-गतसमनी में वक़ूअ आई।

       यरूशलेम की मशरिक़ी जानिब को ज़मीन क़दरून के नाले तक ढलती चली जाती है। और इस नाले के दूसरी जानिब कोह ज़ैतून वाक़ेअ है। पहाड़ी की ढलवान सतह पर शहर के बाशिंदों ने बहुत से बाग़ और बाग़ीचे लगा रखे थे। और ये गतसमनी का बाग़ भी उन्हीं में से एक था। हम पुख़्ता तौर पर नहीं कह सकते, कि वो अहाता जो आजकल पहाड़ी के दामन में हाजियों को बताया जाता है। दर-हक़ीक़त वो वही मुक़ाम है। ना ये कि वो छः पुराने ज़ैतून के दरख़्त जो इस बाग़ में खड़े हैं वही दरख़्त हैं जिनके साये में हमारे मुंजी (नाजात-दहिंदा) पर वो जांकनी (मौत के क़रीब) की हालत तारी हुई। मगर इस में कुछ शक नहीं कि वो मुक़ाम इस मुक़ाम से बहुत दूर नहीं होगा। और ये भी मुम्किन है कि जिस मुक़ाम का पता रिवायत से मिलता है। वही हक़ीक़ी मक़ाम हो।

       जांकनी (मौत के क़रीब) की हालत में अभी कुछ तख़फ़ीफ़ (कमी) हुई थी कि (जैसा कि मुक़द्दस मत्ती लिखता है) देखो यहूदा जो बारह में से एक था आया और उस के साथ एक बड़ी भीड़। वो शहर के मशरिक़ी दरवाज़े के रास्ते से आए थे। और अब बाग़ के फाटक पर पहुंच गए थे। चांद की चौधवीं थी। और लोगों की धुँदली सूरतें गर्द-आलूद सड़क पर आती हुई साफ़ नज़र थीं।

       मसीह की गिरफ़्तारी अदालत के दो तीन प्यादों के ज़रीये वक़ूअ में नहीं आई थी। वो एक “बड़ी भीड़” थी। गो इस से ये नहीं समझना चाहिए, कि ये लोगों का एक बे-तर्तीब अज़दहाम (भीड़, मजमा) था। चूँकि ये गिरफ़्तारी मज़्हबी जमाअत की तहरीक से वक़ूअ में आई थी। इसलिए उन के ख़ादिम, यानी लावियों की पौलूस जो हैकल की हिफ़ाज़त पर मुतअय्यन (मुक़र्रर) थी। सबसे आगे थी। लेकिन चूँकि उस वक़्त येसू के साथ कम से कम ग्यारह जाँबाज़ आदमी मौजूद थे। और ये भी ख़ौफ़ था कि शहर को वापसी के वक़्त शायद उस के पैरौओं की बेशुमार जमाअत उस की हिमायत पर उठ खड़ी हो। ये मुनासिब समझा गया था, कि रोमी गवर्नर से दरख़्वास्त कर के सिपाहियों की एक कंपनी भी बहम पहुंचा ली जाये। जो ईदे फ़सह के मौक़े पर इंतिज़ामी जरूरतों के ख़याल से क़िला एंटोनिया में जो हैकल के सर पर वाक़ेअ था। मुक़ीम थे उन के इलावा सदर-ए-मज्लिस के बाअज़ मेम्बर भी बज़ात-ए-ख़ुद हमराह चले आए थे। ताकि इस कार्रवाई में किसी क़िस्म का ख़लल वाक़ेअ ना होने पाए। ये मख़लूत (मिलीजुली) जमाअत तलवारों और लाठियों से मुसल्लह (लड़ने को तैयार) थी। या ग़ालिबन यूं कहना चाहिए, कि तलवारें रोमी सिपाहियों के पास थीं और लाठीयां हैकल की पौलूस के पास। और उन के पास लालटेनें और मशअलें भी थीं। जो वो ग़ालिबन इस ख़याल से साथ ले आए थे, कि शायद येसू और उ के पैरौओं की बाग़ के कुंज-ए-तन्हाई में तलाश करने की ज़रूरत पड़ जाये। अल-ग़र्ज़ ये एक ख़ौफ़नाक जमाअत थी जो हर तरह से इस मुहिम को कामयाबी के साथ सरअंजाम देने पर कमर-बस्ता (तैयार) मालूम होती थी।

(1)

       इस जमाअत का रहनुमा यहूदाह था। इस शख़्स की आम ख़सलत (फ़ित्रत, आदत) और इस के जुर्म की माहियत (असलियत) की निस्बत आइन्दा बहुत कुछ ज़िक्र होगा। लेकिन यहां हम फ़क़त इस क़द्र कहना चाहते हैं कि इस तरीक़ में जो उस ने अपने मक़्सद को पूरा करने में इख़्तियार किया। कई एक पहलू थे जो ख़ासकर क़ाबिल-ए-नफ़रत मालूम होते हैं।

       उस ने फ़सह की बे-हुरमती की। किसी ने ख़ूब कहा है, कि छे दिन में अच्छा काम करना चाहिए। लेकिन अगर काम बुरा हो तो एक मुक़द्दस रोज़ में करने से इस की बुराई और भी बदतर हो जाती है। ईद-ए-फ़सह साल भर में निहायत मुक़द्दस मौक़ा समझा जाता था। और फ़सह के हफ़्ते में ख़ासकर ये शाम निहायत मुक़द्दस थी। ये ऐसा ही है जैसे कि एक मसीही मुल्क में कोई शख़्स ख़ास क्रिसमिस यानी ईदे तवल्लुद (पैदाइश की ईद) के रोज़ किसी ऐसे जुर्म का इर्तिकाब करे।

       उस ने अपने आक़ा पर उस के कुंज उज़लत (तन्हाई में वक़्त गुज़ारने की जगह) में जहां वो ज़िक्र व फ़िक्र और इबादत के लिए जाया करता था। हमला किया। गतसमनी का बाग़ येसू को बहुत ही मर्ग़ूब (पसंद) था। और यहूदाह को ख़ूब मालूम था कि वो वहां किस मतलब के लिए जाया करता है। मगर उस ने इस अम्र का कुछ भी लिहाज़ ना किया। बल्कि बरख़िलाफ़ इस के उस ने अपने आक़ा की इस आदत से फ़ायदा उठाया।

       मगर सबसे बुरी बात जिसकी वजह से बनी इन्सान उसे कभी माफ़ नहीं करेंगे। वो निशान था, जिसके ज़रीये से उस ने ये ठहराया था। कि वो येसू को उस के दुश्मनों पर ज़ाहिर कर देगा। अग़्लब (मुम्किन) है कि वो इस भीड़ से आगे-आगे कुछ फ़ासिले पर जा रहा था। गोया ये दिखाने को कि वो उन के साथ शरीक नहीं है। और उन से पहले भाग कर इस ग़र्ज़ से आया है कि उस को इस के ख़तर से ख़बरदार कर दे। और इस मुसीबत की हालत में उस के साथ अपनी हम्दर्दी ज़ाहिर करे। और उस ने उस के गले में बाहें डाल कर और धाड़ें मार कर कहना शुरू किया, “ख़ुदावन्द, ख़ुदावन्द” और ना सिर्फ उसे बोसा ही दिया बल्कि बड़ी गर्म-जोशी से और कई बार। जैसा कि इन्जील के यूनानी लफ़्ज़ से ज़ाहिर होता है। जब तक दुनिया में सच्ची और ख़ालिस मुहब्बत का वजूद है। हर एक शख़्स जिसने कभी इस मुहब्बत के निशान यानी बोसे को इस्तिमाल किया है। इस फ़ेअल को सख़्त नफ़रत की नज़र से देखेगा। ये एक ऐसा गुनाह है जो दिल इन्सानी और उस की तमाम मोहब्बतों के ख़िलाफ़ सरज़द हुआ है। मगर कोई शख़्स इस की ख़ौफ़नाक सूरत को महसूस करने की ऐसी क़ाबिलियत नहीं रखता जैसे कि येसू। यक़ीनन येसू के दिल पर इस से सख़्त चोट लगी होगी। उस रात को और दूसरे दिन उस के चेहरे पर क़िस्म-क़िस्म के धब्बे नज़र आते थे। उस पर ख़ून के पसीने की लकीरें हुवैदा (ज़ाहिर) थीं। तमांचों के गहरे निशान थे। वो थूक से आलूदा हो रहा था। कांटों के ताज से लहू-लुहान था। मगर इनमें से किसी चीज़ ने उस के दिल को ऐसा ना छेदा होगा। जैसा उस बोसे ने। एक और शख़्स, जिसके साथ कुछ-कुछ ऐसा ही सुलूक हुआ होगा।




1  जो यूनानी लफ़्ज़ यहां इस्तिमाल हुआ वो वही है। जो उस गुनहगार औरत के क़िस्से में इस्तिमाल हुआ है। जो ख़ुदावन्द के क़दमों को तेल मलकर बोसा देती थी।

कहता है, दुश्मन तो नहीं था जो मुझे मलामत करता। नहीं तो मैं इस की बर्दाश्त करता। ना ये कीना रखने वाला था। जो मुझ पर बाला-ए-दस्ती (किसी पर इख्तियार रखना) करता था। तब मैं उस से छिप जाता। बल्कि तू मेरा हम-रुत्बा आदमी। मेरा उल्फ़ती बंदा और मेरा जान पहचान था। कि हम मिल के ख़ुश इख़तलाती (मेल मीलाप, प्यार मुहब्बत) करते थे। और गिरोह के साथ ख़ुदा के घर में जाया करते थे। ज़बूर 55:12-14) पेस्तर इस के कि उसने बोसा दिया, येसू ने उसे उसी पुराने लक़ब यानी दोस्त के नाम से याद किया। लेकिन जब वो बोसा दे चुका तो वो ये कँपा देने वाला सवाल करने से बाज़ ना रह सका, कि “ऐ यहूदाह क्या तू बोसा लेकर इब्ने-आदम को पकड़वाता है?”

       बोसा शागिर्दी का निशान था। मशरिक़ी ममालिक में शागिर्द अपने रब्बियों यानी उस्तादों को बोसा दिया करते थे। और ग़ालिबान येसू और हिफ़ाज़त से ले जाना।

       सच्च तो ये है कि बजाए उस के पकड़ने के वो ख़ुद पकड़े गए वो एक कमीना और पुर दग़ा काम में मशग़ूल थे। उन्होंने एक नमक-हराम शख़्स को अपना रहनुमा बनाया था। और उम्मीद करते थे, कि मसीह को या तो सोते में या चुप-चाप और चोरी-चोरी जा पकड़ेंगे और अगर वो जागता होगा तो ग़ालिबन वो भाग खड़ा होगा। और आख़िरकार वो उस का तआक़ुब (पीछा) कर के उसे किसी कुंज-ए-तन्हाई (वीरान जगह) में लज़रां व तरसां (डरना काँपना) हालत में जा पकड़ेंगे। वो उसे बे-ख़बर जा पकड़ना चाहते थे। लेकिन जब वो ख़ुद बिला धड़क उन के सामने आ खड़ा हुआ। और उन से ख़ुद पूछपाछ करने लगा तो वो मुतहय्यर (हक्का-बक्का) हो गए। और उन्हें अपना ढंग बदलना पड़ा। जिसके लिए वो बिल्कुल तैयार नहीं थे। इस तौर से गोया उस ने उन सबको वहां खड़ा कर के गोया शर्म व ख़जालत (शर्मिंदगी) का तख़्ता मश्क़ (किसी मक़्सद के लिए किसी को बार-बार इस्तिमाल करना) बना दिया।

      अब उन की तमाम तैयारियां कैसी बेहूदा मालूम होने लगी होंगी। ये सिपाही और तलवारें और लाठीयां, मशअलें और लालटेनें जो अब चांद की चांदनी में फीकी मालूम हो रही थीं। भला किस मसरूफ (काम) की थीं? येसू ने उन्हें ये बात अच्छी तरह महसूस करा दी। और उन्हें गोया मनवा दिया कि वो किस रूह व मिज़ाज के आदमी हैं। और वो उस की मिज़ाज और रूह से किस क़द्र ना-आश्ना (नावाक़िफ़) हैं। “तुम किसे ढूंडते हो?” उस ने दुबारा उन से यही सवाल किया ताकि वो इस अम्र को अच्छी तरह मालूम करलें, कि उन्होंने उसे नहीं पकड़ा बल्कि वो ख़ुद अपने को उन के हवाले कर रहा है। ये मौक़ा बिल्कुल उसी के हाथ में था। उस ने फिर ख़ासकर सदर-उल-मज्लिस को मुख़ातिब कर के जो ग़ालिबन इस वक़्त पसे-पुश्त (पीछे) रहना ज़्यादा पसंद करते। और उन की उन तमाम तैयारियों की तरफ़ इशारा कर के उन से सवाल किया कि “क्या तुम डाकू जान के तलवारें और लाठीयां लेकर मुझे पकड़ने को निकले हो? मैं हर रोज़ तुम्हारे पास हैकल में तालीम देता था। और तुमने मुझे नहीं पकड़ा”। वो तन-ए-तन्हा था और अगरचे जानता था कि किस क़द्र लोग उस के मुक़ाबले में हैं। तो भी हरगिज़ ना डरा। वो हर रोज़ हैकल में तालीम देता रहा। यानी सबसे ज़्यादा आम जगह में। और ऐसे औक़ात में जब सब लोग उसे देख सकते थे। लेकिन वो जो ऐसे ताक़तवर और बेशुमार थे। तो भी उस से डरते रहे। और इसलिए उन्होंने इस शरारत के लिए आधी रात का वक़्त पसंद किया है। और फिर फ़रमाया, ये तुम्हारी घड़ी और ज़ुल्मत (तारीकी) का इख़्तियार है। ये आधी रात का वक़्त तुम्हारा है क्योंकि तुम ज़ुल्मत के फ़र्ज़न्द हो। और जो ताक़त तुम्हें मेरे ख़िलाफ़ हासिल है वो भी ज़ुल्मत की ताक़त है।

      इस सबत (यहूदी क़ौम) “यहूदाह के शेर” ने इस मौक़े पर ये अल्फ़ाज़ फ़रमाए, मगर याद रखो कि ऐसे ही अल्फ़ाज़ वो उस दिन भी कहेगा जब कि उस के दुश्मन उस के पांव के नीचे किए जाऐंगे। “बेटे को चूमो। ताना हो कि वो बे-ज़ार हो और तुम राह में हलाक हो जाओ। जब उस का क़हर यका-य़क भड़के मुबारक वो सब जिनका तवक्कुल उस पर है।” (ज़बूर 2:12)

(3)

      इस अम्र को बार-बार याद दिलाना मुनासिब नहीं कि ये वही फ़त्ह थी। जो मसीह ने बाग़ के अंदर हासिल की थी। जो इस फ़त्ह याबी का जो उस ने बाग़ के दरवाज़े पर हासिल की बाइस थी। वो क़ुव्वत और दबदबा (रोअब) जो उस ने इस मौक़े पर ज़ाहिर किया दुआ और बेदारी से हासिल हुआ था।

      ये अम्र उन लोगों की हालत के साथ मुक़ाबला करने से जिन्हों ने दुआ बेदारी से काम नहीं लिया था, और भी ज़्यादा वाज़ेह और बय्यन (साफ़) हो जाता है। उन के लिए हर एक चीज़ बतौर नागहानी आफ़त के वारिद (ज़ाहिर) हुई। जिससे वो अंधे और हैरत-ज़दा हो गए। वो गहरी नींद से जगाए गए। और आँखें मलते हुए और डगमगाते हुए आगे बढ़े। जब येसू पर लोगों ने हाथ डाला तो उन में से एक बोला। क्या हम तल्वार चलाएं? और जवाब का इंतिज़ार किए बग़ैर वार कर बैठा। लेकिन कैसी बेहूदा ज़र्ब (वार)! नीम खफ्त (जो नींद से मुकम्मल बेदार ना हो) आदमी से और क्या उम्मीद हो सकती है। सर के बजाए उस ने सिर्फ कान काट डाला। और इस ज़र्ब का उसे सख़्त ख़मयाज़ा (सज़ा) भी उठाना पड़ता। अगर येसू कामिल इत्मीनान के साथ पतरस और उन तलवारों के दर्मियान जो उस के मारने के लिए उठी होंगी ना आ जाता। उस ने फ़रमाया, कि यही बस है। इस तरह से सिपाहियों को रोक रखा। और उस आदमी का कान छू कर उसे भला-चंगा कर दिया। इस तौर से अपने बेचारे शागिर्द की जान बचाई।

      यक़ीनन येसू ज़रूर मुतबस्सिम (मुस्कुराना) हुआ होगा। जब उस ने पतरस से फ़रमाया कि “अपनी तल्वार मियान में रख। क्योंकि जो तल्वार खींचते हैं। वो सब तल्वार से हलाक किए जाऐंगे।” तल्वार की जगह मियान के अंदर है, ना बाहर। इस का खींचना इस मुआमले में बेमहल (बे-मौक़ा) है। और जो लोग किसी माक़ूल वजह के या बइख़्तयार हाकिम के हुक्म के बग़ैर तल्वार खींचते हैं। उन्हें जान के बदले जान देनी पड़ेगी।

      लेकिन इस से बढ़कर उस ने इस आला दर्जे की फ़साहत (ख़ुश्कलामी) के ज़रीये जिससे उस ने अपने दुश्मनों से कलाम किया। पतरस पर ये साबित कर दिया कि उस का फ़ेअल इस मौक़े पर कैसा बेमहल (ग़ैर-मुनासिब) था। ये फ़ेअल उस के उस्ताद के रुत्बे के ज़ेबा ना था। क्योंकि मैं अपने बाप से मिन्नत कर सकता हूँ और वो फ़रिश्तों के बारह तुमन से ज़्यादा मेरे पास अभी मौजूद कर देगा। और ऐसे बड़े लश्कर के मुक़ाबले में ये छोटी सी जमाअत जो मुश्किल से सौ दो सौ आदमी के क़रीब होगी। क्या हक़ीक़त रखती है? इस के इलावा ये फ़ेअल नविश्तों के भी ख़िलाफ़ है।

      वो नविश्ते का यूँही होना ज़रूर है। क्योंकर पूरे होंगे। और ये उस की अपनी मंशा (मर्ज़ी) और उस के बाप की मर्ज़ी के भी ख़िलाफ़ है। जो पियाला बाप ने मुझको दिया क्या मैं उसे ना पियूँ?

      बेचारा पतरस इस मौक़े पर जो कुछ उस से हुआ। वो ठीक उस की तबीयत के तक़ाज़े के मुताबिक़ था। उस के फ़ेअल में एक क़िस्म की रास्ती और शराफ़त तो थी। मगर वो फ़ेअल ही बे मौक़ा था। काश वो गतसमनी के अंदर भी ऐसी ही आमादगी ज़ाहिर करता और जो कुछ उसे कहा गया था। उस पर अमल करता। जैसा कि वो गतसमनी के बाहर जो कुछ उसे नहीं कहा गया था करने को तैयार था इस से कहीं बेहतर होता अगर वो बाग़ के अंदर रुहानी तल्वार खींचता और उस कान को काट डालता जो एक लौंडी के धमकी से उसे गुमराह करने का वसीला बना पतरस के चलन ने इस मौक़े पर भी दूसरे मौक़ों की तरह साबित कर दिया कि मह्ज़ गर्म जोशी जब वो मसीह की रूह व मिज़ाज पर मबनी ना हो हमारी रहनुमा बनने की हरगिज़ लायक़ नहीं है।

(4)

      शायद पतरस को उस अहदो इक़रार ने जब उस ने सख़्त क़सम खा कर ये कहा था, कि ख़्वाह उसे मरना ही क्यों ना पड़े वो मसीह से चिमटा रहेगा। इस अम्र पर आमादा किया कि अपने आक़ा के वास्ते कुछ ना कुछ कर बैठे। मगर औरों ने भी तो वही बात कही थी। क्या वो अब उन्हें याद थी? मुझे अंदेशा है कि वो सब उसे भूल गए थे जान के ख़तरे के सामने वो सब कुछ भूल गए। और हर एक को अपनी-अपनी पड़ गई। बाज़ औक़ात बीमारी की हालत में ख़ुसूसुन जब कोई दिमाग़ी बीमारी हो, तो इस क़िस्म के अजीब असरात देखे जाते हैं। वो चेहरा जिस पर साल-हा-साल की तादीब व तर्बियत ने शाइस्तगी और वजाहत की मुहर सब्त की हुई थी। दफ़अतन (अचानक) सब कुछ खो बैठता है। और इस की जगह फिर वही असली गँवारपन ऊद कर आता है। इसी तरह अपने आक़ा की गिरफ़्तारी के ख़ौफ़ ने जो उन शागिर्दों पर जिन्हों ने दुआ के ज़रीये अपने को तैयार नहीं किया था। दफ़अतन आन पड़ा। कुछ अर्से के लिए साल-हा-साल की अक़ीदत को ज़ाए कर दिया। और वो फिर गलील के निरे मछवे के मछुवे ही रह गए। और मसीह की गिरफ़्तारी के वक़्त से लेकर उस के जी उठने तक उनकी यही हालत रही।

      इस मुआमले में भी उनका चलन उन के आक़ा के चलन से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ है। जैसे कि चिड़िया जब उस के घोंसले पर कोई दुश्मन हमला-आवर होता है उस के मुक़ाबले को निकलती है। या गडरिया ख़तरे के वक़्त अपने गल्ले के आगे-आगे होता है। इसी तरह येसू ने भी, जब उस के गिरफ़्तार करने वाले नज़्दीक आए। अपने को उन लोगों और अपने शागिर्दों के बीच में डाल दिया। और किसी हद तक इसी ग़र्ज़ से था। कि वो दिलेराना आगे बढ़ा। और ये कह कर उन की सारी तवज्जोह को अपनी ही तरफ़ लगा लिया कि तुम किसे ढूंडते हो? जब उन्होंने जवाब दिया, येसू नासरी को। तो उस ने फ़रमाया मैं ही हूँ। इसलिए अगर तुम मुझे ढूंडते हो तो उन्हें जाने दो। इस से जो ख़ौफ़ व दहश्त उन पर तारी हुई वो उस के पकड़ने की फ़िक्र में उस के शागिर्दों को बिल्कुल भूल गए।

      और यही उस का मक़्सद भी था। मुक़द्दस यूहन्ना इस का ज़िक्र करते हुए इस बयान में एक अजीब फ़िक़्रह ज़्यादा करता है, कि ये उस ने इसलिए किया कि उस का ये क़ौल पूरा हो कि जिन्हें तू ने मुझे दिया। मैंने उन में से किसी को भी ना खोया। ये क़ौल इसी सिफ़ारशी दुआ में है। जो उस ने सबसे पहली शराकत अक़्दस की मेज़ पर की। मगर इस मौक़े पर इस के ज़ाहिरन ये मअनी मालूम होते हैं कि उस ने रुहानी तौर पर उन में से किसी को नहीं खोया। लेकिन यहां उस की तल्वार या सलीब के ज़रीये नहीं खोया। जो पकड़े जाने की सूरत में उनका हिस्सा होता। ताहम इस के इन ज़ाहिरी माअनों में भी एक गहरा नुक्ता है। मुक़द्दस यूहन्ना ये जताना चाहता है कि अगर इन में से कोई उस वक़्त उस के साथ गिरफ़्तार हो जाता तो ज़न-ए-ग़ालिब (मज़्बूत राय) ये है कि वो इस मौक़े पर पूरा ना उतरता। वो उस का इन्कार कर बैठते। और इसलिए ज़्यादा अफ़्सोस नाक माअनों में दर-हक़ीक़त खोए जाते।

      येसू ने ख़ूब जान कर कि इन की ये हालत है। उन के लिए मनफ़र का रास्ता खोल दिया। और वो सब उसे छोड़कर भाग गए। शायद ये उन के क़ियास में बेहतर था। क्योंकि अगर उस के साथ रहते। तो शायद इस से भी कुछ बदतर काम कर बैठते। लेकिन ये अम्र उन के असली क़ौल व क़रार के किस क़द्र बरअक्स था कि अगर तेरे साथ मुझे मरना ज़रूर हो, तो भी तेरा इन्कार हरगिज़ ना करूँगा। मुझे बाअज़ वक़्त ऐसा ख़याल आया करता है, कि मसीही दीन के लिए ये कैसी बड़ी इज़्ज़त का बाइस होता और फ़ित्रत इंसानी की तारीख़ी में कैसी सुनहरी यादगार होती। अगर उन में से एक दो ही। मसलन यह दोनों भाई याक़ूब और यूहन्ना उस के साथ क़ैदख़ाने या मौत तक जाने के लिए हौसला करते। इस सूरत में ये तो सच्च है, कि हम मुक़द्दस यूहन्ना की तस्नीफात से महरूम रहते। और उस की मुकाशफ़ात की किताब और इन्जील और ख़ुतूत हमको हासिल ना होते। मगर ये कैसा अच्छा मुकाशफ़ा होता। कैसी अच्छी इन्जील होती। और कैसा उम्दा ख़त होता।

      मगर ऐसा नहीं होना था। येसू को बे-यार मददगार जाना था। मैंने तने तन्हा अंगूरों को कोलहू में कूचा और लोगों में से मेरे साथ कोई ना था। सो वो “उसे बांध कर ले गए।”

दूसरा बाब
दीनी अदालत के सामने

      ये जमाअत येसू को अपने दर्मियान में लिए हुए कदरोन नाले से पार उतरी और वहां से शहर की तरफ़ ऊपर चढ़ती हुई और फिर दरवाज़े में से गुज़र कर शहर की गलीयों में जा पहुंची। आधी रात का वक़्त था कहीं-कहीं कोई इक्का-दुक्का चलता फिर ताम्मुल जाता था। तो इस जमाअत को देखकर इस्तिफ़सार (पूछगुछ) की ग़र्ज़ से पास आता था और क़ैदी की सूरत पर ग़ौर से नज़र कर के अपने घर का रास्ता ना लेता वो येसू को सरदार काहिन के महल पर ले गए जहां उस की तहक़ीक़ात शुरू हुई।

      येसू को दो अदालतों के सामने पेश होना था। एक तो दीनी अदालत के सामने दूसरा मुल्की अदालत के। एक काइफ़ा सरदार काहिन के सामने। दूसरे पन्तिस पीलातुस रोमी गवर्नर के सामने।



2  येसू मसीह की मौत और गिरफ़्तारी। ग़ालिबन वो छोटा सा वाक़िया जो मुक़द्दस मरकुस ने लिखा है, इसी क़बील का था। “मगर एक जवान अपने नंगे बदन पर महीन चादर ओढ़े हुए उस के पीछे हो लिया था। उसे लोगों ने पकड़ा। मगर वो महीन चादर छोड़कर नंगा भाग गया। (मरकुस 14:51) मैंने इस वाक़िये को शामिल नहीं किया क्योंकि दर-हक़ीक़त मैं नहीं जानता कि इस की निसबत क्या कहूं। ग़ालिबन इस के बयान से इंजील नवीस को ये जताना मक़सूद था, कि इस मौक़े पर सिपाहियों का बर्ताव कैसा वहशयाना था और कि अगर येसू के शागिर्दों में से कोई उन के हाथ लग जाता तो उस का क्या हाल होता। बाअज़ का ख़्याल है कि ये मुक़द्दस मरकुस ही था और जैसे मुसव्विर तस्वीर के किसी गोशे में अपना दस्तख़त सब्त कर देता है। उसी तरह ये गोया इंजील के गोशे में मरकुस का दस्तख़त है।

      इस का सबब ये था कि उस ज़माने में यहूदिया रोमी सल्तनत के ताबे था और सूबा सीरिया या शाम का एक हिस्सा समझा जाता था। और एक रोमी हाकिम उस पर हुकूमत करता था जो क़ैसरिया के नए और शानदार बंदरगाह में जो यरूशलेम से पचास मील के फ़ासिले पर था सुकूनत रखता था। मगर यरूशलेम में भी उस का महल था। जहां वो वक़्तन-फ़-वक़्तन सुकूनत पज़ीर हुआ करता था।

      सल्तनत रूमा की ये पालिसी ना थी, कि जो जो ममालिक उस के ज़ेर फ़र्मान आते थे। उन से हर क़िस्म की हुकूमत व इख़्तियार छीन ले। वो उनका दिल लुभाने के लिए कम से कम बरा-ए-नाम सेल्फ़ गर्वनमैंट का निशान उन के हाथों में रहने देती थी। और जहां तक उस के आला इख़्तियार व हुकूमत के उसूल इजाज़त देते वो मुल्क के अंदरूनी मुआमलात का नज़्म व नसक़ (इंतिज़ाम) उन्हीं लोगों के हाथ में सपुर्द कर देती थी। ख़ासकर वो मज़्हबी मुआमलात का बहुत कुछ लिहाज़ रखती थी। और उन में हत्त-उल-इम्कान दस्त अंदाज़ी नहीं करती थी। इसलिए यहूदियों की क़दीमी मज़्हबी अदालत जो सनेडरन यानी सदर अदालत के नाम से मशहूर थी। अब भी ये इख़्तियार रखती थी, कि मज़्हबी मुआमलात की तफ़्तीश व तहक़ीक़ात करे और मुजरिमों को सज़ा दे। अलबत्ता अगर कोई इस क़िस्म का जुर्म होता, जिसमें सज़ा-ए-मौत का फ़त्वा दिया जाना मुनासिब था। तो इस सूरत में मुक़द्दमा गवर्नर के सामने पेश होता। लेकिन अगर वहां भी सज़ा-ए-मौत बहाल रहती तो इस सज़ा का अमल दर-आमद भी गवर्नर के हाथ में था।

      येसू दीनी हुक्काम के हुक्म से गिरफ़्तार किया गया था। और उन्होंने उस पर मौत का फ़त्वा दिया। लेकिन इस फ़त्वे की तामील का उन्हें इख़्तियार हासिल ना था। इसलिए ज़रूर था कि उसे पीलातुस के सामने हाज़िर करें जो इत्तिफ़ाक़ से शहर ही में मौजूद था। और उस ने इस मुक़द्दमे की अज-सर-ए-नौ तहक़ीक़ात की। और ये लोग गोया उस के सामने बतौर मुस्तग़ीस या मुद्दई (दावा करने वाले) के थे।

      ना सिर्फ दो क़िस्म की तहक़ीक़ातें थीं। बल्कि तहक़ीक़ात में तीन-तीन अलैहदा मदारिज (दर्जे) थे। यानी दीनी तहक़ीक़ात में येसू पहले हन्ना के सामने पेश हुआ। फिर काइफ़ा और सदर मज्लिस के सामने रात के वक़्त। और फिर उसे अदालत के सामने दुबारा सुबह के वक़्त। और दूसरी यानी मुल्की अदालत में भी वो पहले पीलातुस के सामने पेश हुआ जिसने यहूदियों के फ़त्वे को बहाल रखने से इन्कार किया। तब अपना पीछा छुड़ाने के लिए उस ने उसे हेरोदेस हाकिमें गलील के पास भेज दिया। जो उस वक़्त यरूशलेम में मुक़ीम था। मगर मुक़द्दमा फिर रोमी गवर्नर के पास वापिस आ गया। और उस ने अपने ज़मीर के ख़िलाफ़ सज़ाए मौत के फ़तवे को बहाल रखा।

      लेकिन अब मैं ज़रा अल-फ़सील के साथ मुकदमें के इन तीन मदारिज जो दीनी अदालत के सामने पेश आए बयान करूँगा।

      मुक़द्दस यूहन्ना बयान करता है कि येसू को पहले हन्ना के पास लिए गए। ये शख़्स एक सत्तर साल का बूढ्ढा था। जो इस से बीस साल पहले सरदार काहिन रह चुका था। इस के बाद उस के पाँच बेटे यके बाद दीगरे सरदार काहिन हुए। क्योंकि उस ज़माने में ये ओहदा उम्र भर के लिए नहीं होता था। बल्कि हर एक शख़्स सिर्फ़ थोड़े-थोड़े अर्से के लिए सरदार काहिन रहता था। उस वक़्त काइफ़ा जो सरदार काहिन था वो उस का दामाद था। हन्ना उस वक़्त भी बड़ा ज़ी इख़्तियार आदमी था। और एक तरह से सब दीनी मुआमलात में दर-हक़ीक़त वही मुख़्तार समझा जाता था। अगरचे बरा-ए-नाम ओहदा काइफ़ा के नाम था। वो दरअस्ल हेरोदेस आज़म के बुलाने पर सिकंदरिया से आया था। और उस के ख़ानदान में सब के सब लायक़ फ़ाइक़ मगर बहुत ही पुर हवस और मग़रूर लोग थे। जूँ जूँ उन की तादाद बढ़ती गई। वो हुकूमत और इख़्तियार में भी बढ़ते गए। और रफ़्ता-रफ़्ता सब क़िस्म के बड़े-बड़े ओहदों पर क़ाबिज़ हो गए। वो सदूक़ी फ़िर्क़े से ताल्लुक़ रखते थे। और उन्हें इस फ़िर्क़े का कामिल नमूना समझना चाहिए। क्योंकि वो बड़े सर्द महर मग़रूर और दुनिया परस्त थे। अहले मुल्क के दर्मियान वो हरगिज़ हर दिल-अजीज़ ना थे। लेकिन जितना लोग उन से नफ़रत रखते थे। उतना ही उन से डरते भी थे। वो बड़े हरीस और लालची थे। और इसलिए जहाँ तक उनका दाओ चलता था, मज़्हबी रीत व रसूम के ज़रीये से लोगों को लूटते रहते थे।

      बयान किया जाता है कि हैकल के सेहन में जो कारोबार-ए-तिजारत जारी था। जिस पर येसू ने इस से चंद रोज़ पहले ऐसा सख़्त फ़त्वा जारी किया था। वो ना सिर्फ उन की इजाज़त से होता था। बल्कि इस में उन की बड़ी माली मुनफ़अत (फ़ायदा, मुनाफ़ा) थी। अगर ये सच्च है तो ज़ाहिर है कि येसू की इस हरकत ने सरदार काहिन के ख़ानदान के दिल में उस की निस्बत किस क़द्र ग़ेय्ज़ (गुस्सा) व ग़ज़ब (सख़्त गु़स्सा) पैदा कर दिया होगा।

      ग़ालिबन ये सख़्त नफ़रत व अदावत ही थी, जिसने हन्ना को येसू के सपुर्द अदालत करने पर आमादा किया। अग़्लब (मुम्किन) है कि इस मक्कार सदूक़ी ने यहूदाह के साथ सौदा करने और येसू की गिरफ़्तारी के लिए सिपाही भेजने में बहुत कुछ हिस्सा लिया होगा। इसलिए वो अपनी तमाम कारस्तानियों का नतीजा देखने के लिए रात को जागता रहा होगा। और इस वजह से वो लोग भी येसू को गिरफ़्तार कर के पहले हन्ना के पास ही ले गए। लेकिन जो कुछ पूछ-पाछ हन्ना ने उस वक़्त की होगी वो बाज़ाब्ता ना थी।

      मगर सदर मज्लिस के मैंबरान को जमा करने के लिए वक़्त चाहिए। आधी रात के वक़्त ही मैंबरों के जमा करने के लिए शहर में चारों तरफ़ क़ासिद दौड़ाए गए। क्योंकि मुक़द्दमा ज़रूरी था। और उस में देर की गुंजाइश ना थी। कोई नहीं कह सकता कि सुबह सवेरे उठ कर जब लोग अपने हर-दिल-अजीज़ मुअल्लिम (तालीम देने वाला) को इन नफ़रत-अंगेज़ दुश्मनों के हाथ में देखेंगे। तो क्या कुछ ना कर गुज़रेंगे। लेकिन अगर तहक़ीक़ात दिन निकलने से पहले ही ख़त्म हो जाये। और येसू रोमियों के मज़्बूत और ताक़तवर हाथों तक पहुंच जाये पेश्तर इस के कि लोगों को इस वाक़िये की ख़बर हो। तो फिर कुछ ख़ौफ़ नहीं इसलिए सदर मज्लिस रात की तारीकी में जमा हुई। और तमाम कार्रवाई काइफ़ा के महल में जहां अब येसू को ले गए थे। पौ फटने से पहले ही वक़ूअ में आई।

      ये कार्रवाई बिल्कुल बाज़ाब्ता तो ना थी। क्योंकि शरीअत के अल्फ़ाज़ में इस मज्लिस के रात को मुनअक़िद करने की इजाज़त दर्ज ना थी। इस सबब से अगरचे तमाम कार्रवाई मुकम्मल हो चुकी थी। और रात ही के वक़्त फ़त्वा मौत पर सब का इत्तिफ़ाक़ हो चुका था। तो भी ये ज़रूरी समझा गया कि दिन निकलने के बाद अदालत का फिर एक इजलास हो। ये येसू की तहक़ीक़ात का तीसरा दर्जा था।

      मगर इसे गुज़श्ता कार्रवाही की एक मुख़्तसर तकरार (बह्स) ही समझना चाहिए। जो मह्ज़ ज़ाब्ते को पूरा करने के लिए अमल में लाया गया था। इसलिए हम इस कार्रवाई की तरफ़ ग़ौर करते हैं जो रात के वक़्त वक़ूअ में आई। क्योंकि वही इस सारे मुआमले की जान है।

      अब अपने ज़हन में एक बड़े दालान का तसव्वुर बाँधो जो घर के सेहन की एक तरफ़ को है। और जिससे उसे फ़क़त पीलपाओं की एक क़तार जुदा करती है। इसलिए जो कुछ अंदर रोशनी में वाक़ेअ हो रहा है वो सेहन में बैठने वालों को साफ़-साफ़ नज़र आएगा। ये कमरा निस्फ़ दायरे की शक्ल में है। इस दायरे की क़ौस में पचास या इस से ज़्यादा मैंबरान मज्लिस फ़र्श पर बैठे हैं काइफ़ा बहैसियत मीर-ए-मज्लिस उस की तरफ़ मुँह किए खड़ा है। और सिपाही उस की एक तरफ़ और गवाह दूसरी तरफ़ खड़े हैं। मगर तहक़ीक़ात किस तरह शुरू होनी चाहिए? यक़ीनन इस तरह कि पहले साफ़ तौर पर इस अम्र का बयान किया जाये, कि इल्ज़ाम क्या हैं जो मुल्ज़िम पर लगाए गए हैं। और इनका क्या सबूत मौजूद है मगर बजाए इस तौर पर शुरू करने के “सरदार काहिन ने येसू से उस के शागिर्दों और उस की तालीम की बाबत पूछा।”

      ख़याल ये था कि वो किसी ख़ुफ़िया मक़्सद के लिए शागिर्द जमा कर रहा है। और उन्हें किसी ख़ुफ़िया मसअले की तालीम देता है। जिसको किसी ना किसी तरह तोड़-मरोड़ कर इन्क़िलाब-ए-सल्तनत की तदबीर साबित कर दिया जाये। येसू जो अभी इस बे-हुरमती के लिए बेताब हो रहा था, कि उन्होंने उसे रात की तारीकी में गिरफ़्तार किया गोया कि वो भागने की फ़िक्र में था। और उस की गिरफ़्तारी के लिए इतनी बड़ी जमाअत भेजी। गोया कि वो किसी बाग़ी जमाअत का सरग़ना था। उस ने बड़ी तमकिनत (ज़ोर, इख़्तियार) से जवाब दिया, तू मुझसे क्यों पूछता है। सुनने वालों से पूछ कि मैंने उन से क्या कहा। अगर अब तक उन्हें ये मालूम नहीं कि वो क्या कहता और करता रहा है। तो उन्होंने उसे पकड़ा ही क्यों है? वो उसे एक ख़ुफिया साज़िश करने वाला साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। मगर वो ख़ुद जैसा कि ख़ुफ़िया तौर पर उसे गिरफ़्तार करने और आधी रात के वक़्त उस की तहक़ीक़ात करने से ज़ाहिर है। हाँ वो ख़ुद तारीकी के फ़र्ज़न्द हैं।

      ऐसे सादा और दिलेराना अल्फ़ाज़ उस मुक़ाम के सज़ावार ना थे। क्योंकि वो तो हाजत मंदों की गड़-गड़ाहट। दरबारियों की चापलूसी और वकीलों की मोदबाना तक़रीरें सुनने के आदी थे। और एक सिपाही ने शायद सरदार काहिन की तीखी चितून (तेवरी, गु़स्सा) को ताड़ कर येसू के मुँह पर तमांचा मारा और बोला, तू सरदार काहिन को ऐसा जवाब देता है? बेचारा नौकर उस के हक़ में अच्छा होता कि उस का हाथ सूख जाता। पेश्तर इस के कि उसे ये ज़र्ब लगाने का मौक़ा मिलता। क़रीबन ऐसा ही वाक़िया और इसी मुक़ाम में मुक़द्दस पौलूस को भी पेश आया। और वो ग़ज़बनाक हो कर एक चुभता हुआ जवाब देने से बाज़ ना रह सका। मगर येसू ने अपने मिज़ाज को हाथ से ना जाने दिया। मगर ऐसी अदालत और वो भी दीनी अदालत का क्या कहना जो खुली अदालत में अपने एक नौकर के हाथ से एक ऐसे मुल्ज़िम के साथ जिस पर भी जुर्म साबित नहीं हुआ ऐसा सुलूक गवारा करे।

      मगर सरदार काहिन अपने मक़्सद में नाकाम रहा और अब उस ने मजबूरन वो तरीक़ इख़्तियार किया जो उसे पहले ही करना चाहिए था। यानी गवाहों को बुलवाया। मगर इस में भी अफ़्सोस-नाक नाकामी हुई। उन्हें इस अम्र की मोहलत ही नहीं मिली थी, कि बाक़ायदा तौर पर इल्ज़ाम तैयार करते और इस के लिए गवाह बहम पहुंचाते। लेकिन अब वक़्त भी नहीं रहा था। गवाही जूं तूं पेश करनी ज़रूर थी। और ग़ालिबन ये दरबार के शागिर्द पेशा और अदालत के गवाही पेशा लोगों में से थे। जो टके टके पर झूट बोला करते हैं। मुक़द्दस मत्ती ने साफ़ लिखा है कि “वो येसू को मार डालने के वास्ते उस के ख़िलाफ़ झूटी गवाही ढ़ूढ़ने लगे।” ये उस का मार डालना था जो उन्होंने पहले ही से अपने दिल में ठान लिया था। और वो उस के लिए सिर्फ एक क़ानूनी हीला (बहाना) ढूंढ रहे थे। और इस अम्र की उन्हें कुछ परवा ना थी, कि ये हीला क्या होना चाहिए। मगर उन की ये कोशिश भी कामयाब ना हुई। गवाहों की गवाही बाहम मुत्तफ़िक़ ना थी। बहुतों को आज़माया गया। मगर मुआमला बद से बदतर होता गया।

      आख़िरकार दो गवाह मिले जो एक बात में जो उन्होंने उस की ज़बानी सुनी थी। बाहम मुत्तफ़िक़ थे। और ये उम्मीद की जाती थी, कि उन की शहादत की बिना पर फ़र्द जुर्म क़ायम की जाएगी। उन्होंने उसे ये कहते सुना था, कि मैं इस मुक़द्दस को जो हाथ से बनी है ढाऊँगा। और तीन दिन में दूसरी बनाऊँगा जो हाथ से ना बनी हो। ये एक फ़िक़्रह था। जो उस ने अपनी रिसालत के इब्तिदा में कहा था। जो आला दर्जे की फ़साहत बलाग़त पर दलालत करता था। मगर वो उसे अपने रोज़ मर्रा के मुहावरे में बयान कर रहे थे। अगरचे ज़ाहिरी माअनों के लिहाज़ से भी ये मालूम करना मुश्किल मालूम होता है कि वो इस में क्या नुक़्स पकड़ सकते थे। क्योंकि अगर इस के पहले हिस्से के ये मअनी थे, कि वो हैकल को ढाएगा। तो दूसरे हिस्से में साफ़ वाअदा है कि वो उसे फिर बना खड़ा करेगा। सरदार काहिन ख़ूब जानता था कि इस से कुछ मतलब-बरारी (मक़्सद पूरा होना) ना होगी। और वो उठ खड़ा हुआ और आगे बढ़कर उस ने येसू से दर्याफ़्त किया तू कुछ जवाब नहीं देता? ये तेरे ख़िलाफ़ क्या गवाही देते हैं? उसने ज़ाहिरन ये दिखाने की कोशिश की कि गोया उस के नज़्दीक इस क़ौल में कोई बड़ी सख़्त कुफ़्र आमेज़ बात छिपी है। लेकिन इस सारे इज़तिराब (बेचैनी) का अस्ल बाइस ये था कि वो जानता था कि ये अम्र बिल्कुल ने बुनियाद है।

      जब गवाह एक दूसरे की गवाही के बख़िये उधेड़ रहे थे। येसू चुप-चाप सुना किया। और ना उसने सरदार काहिन के इस सवाल का कुछ जवाब दिया। उसे बोलने की हाजत ही क्या थी। क्योंकि उस की ये ख़ामोशी बुलंद आवाज़ से भी बढ़कर साफ़-साफ़ पुकार रही थी। इस से जजों को ख़ुद अपनी हालत की शर्मनाकी और बेहूदगी का यक़ीन हो गया। और जब वो ख़ामोश और पुर-इत्मीनान सूरत उन की इस कार्रवाई पर बड़ी तमकिनत (इख़्तियार) के साथ नज़र कर रही थी। तो उनका पत्थर सा ज़मीर भी ख़ुद बख़ुद बेचैन होने लग गया। और ये उस की इस बे-इत्मीनानी और बेचैनी की वजह से था कि सरदार काहिन को अपनी आवाज़ बुलंद करने और चिल्लाने की ज़रूरत पड़ी।

      क़िस्सा मुख़्तसर इस दूसरे तरीक़ से भी जो उस ने इख़्तियार किया था उसे ऐसी ही ज़क (शर्मिंदगी, शिकस्त) नसीब हुई। जैसी पहली तरीक़ में। मगर अभी उस के पास ताश का एक और पता बाक़ी था। और वो उसे भी खेल बैठा। वो अपनी चौकी पर जा कर बैठ गया। और येसू की तरफ़ मुतवज्जोह हो कर बड़ी मगर बनावटी संजीदगी से पूछने लगा कि मैं तुझे ज़िंदा ख़ुदा की क़सम देता हूँ, कि अगर तू ख़ुदा का बेटा मसीह है तो हमसे कह दे। या दूसरे लफ़्ज़ों में गोया उस ने उस से हल्फ़ीया इक़रार मांगा कि जो कुछ वो अपनी निस्बत दावा करता है, सो बता दे। क्योंकि यहूदियों के दर्मियान क़ैदी नहीं क़सम खाता था। बल्कि जज क़सम देता था।

      ये मौक़ा येसू की ज़िंदगी में एक बड़ा अहम मौक़ा था। ज़ाहिर है कि उस ने इस अम्र को तस्लीम किया कि सरदार काहिन को क़सम देने का हक़ है। या कम से कम उस ने ये समझा कि अगर अब ख़ामोश रहूं तो ये समझा जाएगा, कि मैं अपने दावा से बाज़ आ गया हूँ। वो दर-हक़ीक़त जानता था कि ये सवाल उसे मुजरिम साबित करने की ग़र्ज़ से पूछा गया है। और इस का जवाब देना गोया अपने लिए मौत ख़रीदना है। मगर जिसने उन लोगों को जिन्हों ने मसीह का ख़िताब ज़बरदस्ती उस पर थोपना चाहा था ताकि उसे अपना बादशाह बना लें दम-ब-ख़ुद कर दिया था। उस ने अब उसी ख़िताब को क़ुबूल कर लिया। जब कि ऐसा करना गोया सज़ा-ए-मौत का सज़ावार बनना था। और उस ने बड़ी संजीदगी के साथ और बड़े वसूक़ (यक़ीन) से जवाब दिया। हाँ मैं हूँ। और फिर गोया कि इस मौक़े से उस की ख़ुद आगाही और भी ज़ोर में आ गई और वो बोला, कि आगे को तुम इब्ने-आदम को क़ादिरे मुतलक़ की दाहिनी तरफ़ बैठे, और आस्मान के बादलों के साथ आते देखोगे। नीज़ देखो ज़बूर 110:1

      और दानीएल 7:13 इस वक़्त तो वो उस के जज बने बैठे हैं लेकिन एक दिन आने वाला है जब वो उनका जज होगा। वो सिर्फ उस की ज़मीनी ज़िंदगी पर इख़्तियार रखते हैं। लेकिन वो उन की अबदी ज़िंदगी का फ़ैसला करेगा।

      लोग अक्सर कहा करते हैं कि मसीही लोग येसू की निस्बत ऐसी-ऐसी बातों के दावेदार हैं जिनका उस ने ख़ुद कभी दावा नहीं किया। वो ये कहते सुने जाते हैं, कि उसने तो कभी इन्सान से बढ़कर और कुछ होने का दावा नहीं किया। मगर ये उसे ख़ुदा बनाए देते हैं। लेकिन ये अज़ीम हल्फ़ीया इक़रार सुनकर हर एक हक़-पसंद को मसीहियों के इस एतिक़ाद की दुरुस्ती का इक़रार करना पड़ेगा। उस के अल्फ़ाज़ को उन के असली माअनों से ख़ाली करने और उन की क़ीमत को घटाने की हर तरह से कोशिश की गई है। मसलन ये दलील पेश की जाती है कि जब सरदार काहिन ने सवाल किया कि क्या वो इब्ने-अल्लाह है। तो इस का फ़क़त यही मतलब था कि क्या वो मसीह है। लेकिन इस के जवाब में जो कुछ मसीह ने अपने हक़ में कहा उसे क्या करें कि वो क़ादिर-ए-मुतलक़ के दहने बैठेगा और आस्मान के बादलों पर आएगा? क्या वो जो इन्सान का क़ाज़ी होने को है। और जो उन के दिलों की तह तक छानबीन करेगा। और उन के आमाल का अंदाज़ा लगाएगा। और इस अंदाज़े के मुताबिक़ उन के अबदी मुक़ाम और दर्जा तअय्युन करेगा। क्या वो मह्ज़ इन्सान हो सकता है? सबसे अज़ीम और अक़ील इन्सान भी ख़ूब जानते हैं कि हर एक इन्सान की तारीख़ में बल्कि एक नन्हे बच्चे के दिल में भी ऐसे-ऐसे इसरार और राज़ मख़्फ़ी (छुपे) हैं। जिनकी तह को वो कभी नहीं पहुंच सकते। मह्ज़ इन्सान एक दूसरे इन्सान की ख़सलत का सही अंदाज़ा नहीं लगा सकता। नहीं बल्कि वो ख़ुद अपने आपको भी ठीक-ठीक नहीं जांच सकता।

      मगर ये अज़ीमुश्शान इक़रार किस नज़ारे के पाये को किस क़द्र बुलंद कर देता है। हम अब उन छोटे-छोटे आदमियों और उन की कमीना कार्रवाइयों को नहीं देखते। बल्कि वहां एक इब्ने-आदम तमाम आलम के सामने अपने हक़ में शहादत देता हुआ नज़र आता है हमें अब इस की क्या परवाह है कि वो यहूदी उस के हक़ क्या कहेंगे। ये अज़ीम इक़रार उस वक़्त से लेकर सब ज़मानों में बराबर गूँजता चला आया है। और एक आलिम भर का दिल जब उसे उस की ज़बान से सुनता है तो ख़्वाह-मख़्वाह आमीन पुकार उठता है। आख़िरकार सरदार काहिन का मतलब निकल आया कुफ़्र के कलमात सुनने पर जैसा कि सरदार काहिन को लाज़िम था। उस ने अपने कपड़े फाड़े। और अपने रफीक़ों (साथीयों) की तरफ़ मुतवज्जोह हो कर बोला। अब हमें गवाहों की क्या हाजत रही? तुमने ये कुफ़्र सुना। और उन सबने इत्तिफ़ाक़ राय ज़ाहिर किया कि येसू मुजरिम है। और सज़ा-ए-मौत का सज़ावार है।

      बाज़ औक़ात एक नेक-दिल आदमी को बाइबल में इन वाक़िआत का मुतालआ करते हुए ये ख़याल सताया करता है, कि येसू के जजों ने जो कुछ किया अपने ज़मीर के फ़तवे की पैरवी में किया। क्या ये उनका फ़र्ज़ ना था, कि जब कोई मसीह होने का दावेदार हो कर उन के सामने आए तो इस बात की तहक़ीक़ात करें कि आया उस का ये दावा सच्चा है या झूटा? और क्या वो सच्चे दिल से ये यक़ीन ना रखते थे। कि येसू जिस अम्र का दावेदार है वो दर-हक़ीक़त नहीं है? इस में शक नहीं कि वो सच्चे दिल से ऐसा यक़ीन रखते थे। मगर हमें इस से पहले ज़माने के हालात पर ग़ौर करना चाहिए पेश्तर इस के कि हम उन के चाल-चलन पर सही तौर से हुक्म लगा सकें। उन की गुमराही उस वक़्त से शुरू हुई, जब कि पहले-पहल येसू के दावे उन के सामने पेश किए गए। उसे जैसा कि वो था। फ़क़त उम्मीद-वार और मुंतज़िर पाक-दिल ही क़ुबूल करने की क़ाबिलियत रखते थे। मगर यहूदिया के दीनी हाकिम उस वक़्त दिल की इस हालत से कोसों दूर थे। वो उस की हक़ीक़त को समझने की हरगिज़ क़ाबिलियत नहीं रखते थे। और उस में उन्हें कोई ऐसी ख़ूबसूरती नज़र नहीं आती थी, कि वो उस के ख़्वाहिशमंद होते। जैसा कि वो ख़ुद भी उन्हें कहा करता था, कि जिस हालत में वो हैं, उस हालत में वो हरगिज़ उस पर ईमान नहीं ला सकते। क़सूर इस क़द्र इस अम्र में नहीं था, कि उन्होंने क्या किया। बल्कि इस में कि उन की अपनी हालत कैसी बुरी थी। चूँकि उन्होंने गुमराही का रास्ता इख़्तियार कर लिया था। इसलिए वो आख़िर तक उसी रास्ता पर चलते गए। अलबत्ता ये कहा जा सकता है, कि जिस क़द्र रोशनी उन्हें मिली थी। वो उसी के मुताबिक़ चले। मगर रोशनी जो उन में थी, वो हक़ीक़त तारीकी थी। मगर उन के इस मौक़े की कार्रवाई को देखकर जो शख़्स इस पर तवज्जोह से गौर व फ़िक्र करेगा। उस का दिल हरगिज़ उन की तरफ़ नरम ना होगा। उन की इस वक़्त की कारवाई में हरगिज़ अदल व इन्साफ़ की बू भी नहीं पाई जाती। क्योंकि उस वक़्त ना तो उस पर कोई बाक़ायदा इल्ज़ाम लगाया गया। ना बाक़ायदा गवाही पेश की गई। और ना उन्हें इस बात का ही ख़याल आया कि मुल्ज़िम को भी अपनी सफ़ाई की शहादत पेश करने का मौक़ा दिया जाये। वो ख़ुद ही मुद्दई थे। और ख़ुद ही जज। फ़त्वा पहले ही से मुक़र्रर हो चुका था। और इस सारी कार्रवाई को एक तरह का जाल कहना चाहिए। जो इस ग़र्ज़ से बिछाया गया था, कि किसी ना किसी तरह से मुल्ज़िम के मुँह से कोई ऐसी बात कहलवाएं जिससे वो ख़ुद फंस जाये। और उन्हें उस पर फ़त्वा लगाने की हुज्जत (मौक़ा) मिल जाये।

      लेकिन जो कुछ उन्होंने फ़त्वा लगाने के बाद किया, उस की वजह से वो आइन्दा नसलों के फ़य्याज़ और इंसाफ़ पसंद लोगों की हम्दर्दी से हमेशा के लिए महरूम हो गए। अदालत गाह में तमकिनत (इख्तियार) और इज़्ज़त का लिहाज़ होना चाहिए। जब किसी बड़े मुकदमें की तहक़ीक़ात होती हो और एक संगीन फ़त्वा दिया जाये, तो इस की जजों के मिज़ाज पर भी तासीर होनी चाहिए। बल्कि मुजरिम पर भी जब कि उस पर मौत का फ़त्वा दिया जाये एक क़िस्म के रोअब दाब का ग़लबा होना चाहिए। मगर वो ज़र्ब जो एक अदना मुलाज़िम ने तहक़ीक़ात के शुरू ही में मुल्ज़िम के चेहरे पर लगाई। और उस से किसी ने उस की बाज़पुर्स ना की। यही बात उन लोगों के दिल की उस वक़्त की हालत को बख़ूबी आशकारा करती है।

      उन के दिल में हरगिज़ किसी क़िस्म की संजीदगी या तमकिनत का ज़र्रा भी मौजूद ना था। जो कुछ वो अपने अंदर महसूस करते थे। सो फ़क़त इंतिज़ाम और कीने का जज़्बा था जिसके पूरा करने के लिए वो अपने मुख़ालिफ़ को जिसने उन को नुक़्सान पहुंचाया था मादूम (ख़त्म) करता चाहते थे। इस क़िस्म की हस्सात का समुंद्र अर्से से उन के दिलों में उमड़ रहा था। और अब जूंही उस ने मौक़ा पाया, वो फूट निकला। उन्होंने उसे लकड़ीयों से मारा। उस के मुँह पर थूका। और उस के सर पर कपड़ा डाल कर और ठोकरें लगा कर पूछना शुरू किया कि “मसीह नबुव्वत से बता कि तुझे किस ने मारा।” काश कि ये फ़क़त अदना दर्जे के कमीने लोग ही होते, जिन्हों ने ऐसा बर्ताव किया होता। मगर इंजीली बयानात से साफ़ ज़ाहिर है कि पहले आक़ाओं ने ऐसा किया। और उन के नौकरों ने उन की तक़्लीद (पैरवी) की।

3  चुनांचे ख़ुद जूस्ट नामी एक यहूदी मुअर्रिख़ उस को ख़ून के नाम से पुकारता है। मगर वो यक़ीन नहीं करता, कि इस मौक़े पर कोई बाकायदगी तहक़ीक़ात की गई थी और एडरशाईम साहब भी इस अम्र में उस से मुताल्लिक़ हैं।

      आदमी के अंदर ख़ौफ़नाक बातें भरी पड़ी हैं। उस की फ़ित्रत में बाअज़ ऐसे गहराओ हैं, जिनमें नज़र करने से ख़ौफ़ आता है। ये मसीह की कामिलियत थी, जिसके सबब से उस के दुश्मनों की गहरी से गहरी शरारत बाहर निकल आई। मिल्टन की मशहूर नज़्म मुताल्लिक़ा नुक़्सान फ़िर्दोस में एक फ़िक़्रह है। जिसमें ये ज़िक्र है, कि फ़रिश्तों की एक जमाअत फ़िर्दोस में शैतान की तलाश में जो वहां छिपा हुआ था। भेजी गई। उन्होंने उसे एक मेंढ़क की शक्ल में हव्वा के कान के पास बैठे हुए पाया। उसे देखकर एक फ़रिश्ते ने जो उस जमाअत में से था। उसे अपनी बिरछी से छुवा। जिस पर वो दफअतन (फ़ौरन) मुतनब्बा (ख़बरदार) हो गया। और फ़ौरन अपनी असली शक्ल इख़्तियार कर ली क्योंकि :-

रूहानियों के सामने झूट अपनी आब व ताब
खो बैठता है और उलट देता है निक़ाब



4  इस सबब से कि उस ने मसीह और नबी होने का दावा किया था। बरख़िलाफ़ इस के रोमियों ने उसे बादशाह कह कर उस की तज़हीक (मज़ाक उड़ाना) की।

      मगर कामिल के मुसम्मास से अक्सर उल्टा असर पैदा होता है। ये फ़रिश्ते को मैंडक की सूरत में तब्दील कर देती है। जो बदी की असली सूरत है।

      मसीह अब अपने दुश्मन से बिल्कुल रूबरू था। जिस पर ग़ालिब आने के लिए वो इस दुनिया में आया था। और जब आख़िरी कुश्ती के लिए उस ने मसीह पर हाथ डाला तो अपनी तमाम बदसूरती और भयानक-पन को ज़ाहिर कर दिया और अपना सारा ज़हर उस पर उगल दिया। अज़दहे का पंजा उस के गोश्त में गड़ा था। और उस के बदबूदार सांस उस के मुँह पर थे। हम उस बेइज़्ज़ती और बे-हुरमती का जो उस वक़्त मसीह की शाहाना तबीयत ने बर्दाश्त की। पूरा तसव्वुर नहीं बांध सकते। लेकिन उस ने अपने दिल को मज़्बूत कर लिया कि सब कुछ बर्दाश्त करे। मगर हिम्मत ना हारे। क्योंकि वो इसलिए आया था कि गुनाह के हक़ में मौत साबित हो। और इसी गुनाह के लिए मौत बनने से दुनिया की नजात थी।

तीसरा बाब
पतरस का इन्कार


      हमारे ख़ुदावन्द के दीनी अदालत के सामने पेश होने के मुताल्लिक़ एक और ज़मीमा (ज़ाइद पर्चा) सा है जिस पर थोड़ी देर के लिए ग़ौर करना मुनासिब मालूम होता है। ठीक उसी वक़्त जब कि सरदार काहिन के घर के दालान में येसू अपना अज़ीमुश्शान इक़रार कर रहा था। उस का एक शागिर्द इसी मकान के सेहन में इन्कार पर इन्कार कर रहा था।

(1)


      जब येसू को गतसमनी में बांध कर यरूशलेम में ले गए। तो उस के तमाम शागिर्द उसे छोड़कर भाग गए मालूम होता है, कि वो बाग़ के दरख़्तों और झाड़ीयों में जा छिपे थे। और वहां से इर्दगिर्द के गांव में या जहां कहीं जिसके सींग समाय भाग गए।

      मगर बारे में से दो यानी मुक़द्दस पतरस और यूहन्ना जो ये क़िस्सा बयान करता है बहुत जल्द पहली घबराहट के असर से निकल कर कुछ फ़ासिले पर उस जमाअत के पीछे-पीछे जो उन के ख़ुदावन्द को पकड़े हुए ले जा रही थी। चले गए कभी तो दरख़्तों के साये में। और कभी घरों के साये में पनाह लेते हुए वो बराबर उस जमाअत के पीछे-पीछे लगे रहे। आख़िरकार जब वो मंज़िल-ए-मक़्सूद पर जा पहुंचे यानी सरदार काहिन के महल पर तो फ़ील-फ़ौर बज़िद वही तमाम आगे बढ़े। और मुक़द्दस यूहन्ना जमाअत के हमराह मकान के अंदर दाख़िल हो गया। मगर किसी वजह से, शायद इस वजह से कि उसे हौसले ने जवाब दे दिया। मुक़द्दस पतरस बाहर गली में खड़ा रह गया। और दरवाज़ा बंद हो गया।

      जो कुछ बाद में वाक़ेअ हुआ, उस के समझने के लिए एक ऐसे महल की, जैसा कि सरदार काहिन का था। इमारत के नक्शे का समझना ज़रूरी है बाहर गली में एक बड़ा मेहराबदार दरवाज़ा था। जिसमें बड़े-बड़े फाटक लगे हुए थे। जब दरवाज़ा खुलता है, तो अंदर एक चौड़ा मुसक़्क़फ़ (छतदार) रास्ता दिखाई देता है। जो सामने की इमारत तक चला गया है। और वहां एक सेहन में दाख़िल होता है। जो ऊपर से बिल्कुल खुला है। और जिसके चारों तरफ़ मकानात बने हुए हैं। और उन सब के दरवाज़े और खिड़कियाँ अंदर की तरफ़ उसी सेहन में खुलते हैं। इस के इलावा ये भी याद रखना चाहिए, कि मज़्कूर बाला रास्ते में बैरूनी दरवाज़े के अंदर एक तरफ़ को एक या ज़्यादा छोटे-छोटे कमरे बने हैं। जिनमें दरबान रहता है जिसका काम दरवाज़े को खोलना और बंद करना है। और इस बड़े फाटक में एक और छोटा सा दरवाज़ा है, जिसमें से लोग आते-जाते हैं।

      जब ये बड़ी जमाअत येसू को लिए हुए महल के सामने पहुंची तो बिला-शुब्हा दरबान ने उन लोगों के दाख़िल करने के लिए दरवाज़ा खोल दिया और फिर बंद कर दिया गया होगा। वो मेहराबी रास्ता से होते हुए सेहन में जा पहुंचे और उस में से गुज़र कर एक दालान में जा दाख़िल हुए। मगर पौलूस और दीगर मुलाज़िम जो इस गिरफ़्तारी में शरीक थे। उनका काम अब हो चुका था। इसलिए वो बाहर सेहन में ही खड़े रहे। और चूँकि अब आधी रात का वक़्त था। और सर्दी पड़ी रही थी। उन्होंने वहीं बाहर आग जलाई। और उस के गिर्दागिर्द जमा हो कर तापने लगे।

      जैसा कि पहले ज़िक्र हो चुका है। यूहन्ना जमाअत के हमराह अन्दर चला गया। मगर पतरस बाहर ही खड़ा रह गया। यूहन्ना जो बाक़ी बारह रसूलों में से ज़्यादा साहिबे इज्ज़त व सर्वत मालूम होता है। सरदार काहिन से वाक़िफ़ था। और इसलिए ग़ालिबन महल में आमद व रफ़्त होने के सबब नौकर चाकर उसे पहचानते थे। और जब उसने देखा कि पतरस बाहर रह गया है, तो वो दरबान के पास गया। और उसे कह कर पतरस को खिड़की के रास्ते अंदर बुला लिया।

      उस ने तो अपनी तरफ़ से दोस्ती का हक़ अदा किया। लेकिन जैसा कि बाद के वाक़िआत से साबित हुआ। ये पतरस के हक़ में अच्छा साबित ना हुआ। यूहन्ना ने एक तरह पतरस को आज़माईश के चंगुल में गिरफ़्तार करा दिया। उम्दा से उम्दा दोस्त भी बाज़ औक़ात ऐसे फ़ेअल का वसीला बन सकते हैं। क्योंकि एक मौक़ा जहां एक शख़्स बिला ख़ौफ़ व ख़तर जा सकता है। मुम्किन है कि दूसरे के हक़ में निहायत ख़तरनाक साबित हो। एक आदमी एक क़िस्म के लोगों से बिला-तकल्लुफ़ मेल मिलाप रखे। और नुक़्सान ना उठाए। लेकिन दूसरे के लिए उसी जमाअत की रिफ़ाक़त ज़हर-ए-क़ातिल का काम दे। ऐसे अशग़ाल-ए-तफ़रीह भी हैं। जिनमें एक मसीही बिला ख़ौफ़ शामिल हो सकता है। लेकिन दूसरा अगर उसे छू जाये, तो बर्बाद हो जाये। एक पुख़्ताकार और तर्बियत याफ्ता आदमी एक क़िस्म की किताबों को बिला ख़ौफ़ व ज़रूर मुतालआ कर सकता है। जो दूसरे आदमी में जो उस से कम तजुर्बेकार है, दोज़ख़ की आग फूंक देती हैं। हमेशा हर एक आज़माईश दो चीज़ों से मुरक्कब होती है। एक तरफ़ तो ख़ास क़िस्म के हालात होते हैं, जिनसे आदमी को साबिक़ा पड़ता है। और दूसरी तरफ़ उस शख़्स की, जो इस हालत में दाख़िल होता है। ख़ास ख़सलत व मिज़ाज और गुज़श्ता ज़िंदगी की तारीख़ होती है। अगर हम अपने को या किसी दूसरे को किसी आज़माईश से बचाना चाहते हैं तो हमें ये दोनों बातें याद रखनी चाहिऐं।

(2)

      यूहन्ना बिलाशुब्हा पतरस को दरवाज़े के अंदर दाख़िल कर के फ़ील-फ़ौर उस दालान की तरफ़ जहां येसू था चला गया ताकि देखे कि वहां क्या कार्रवाई हो रही है। मगर पतरस ने ऐसा ना किया। वो उस मुक़ाम से ऐसा वाक़िफ़ ना था, जैसा कि यूहन्ना। और वो ग़ालिबन ऐसे बड़े महल के अन्दरुना को देखकर कुछ हक्का-बक्का सा रह गया जैसे कि देहाती लोग उम्र में पहली दफ़ाअ किसी अज़ीमुश्शान शहर में जा कर हैरत-ज़दा से हो जाया करते हैं। इस के इलावा उस के दिल में ये ख़ौफ़ भी था, कि कहीं लोग उसे पहचान कर कि वो भी येसू के पैरौओं (मानने वालों) में से है गिरफ़्तार ना कर लें। नीज़ अब उस कम-बख़्त ज़र्ब ने जो वो गतसमनी के दरवाज़े पर मुल्कूस के लगा बैठा था। उस की दिक़्क़त को और भी बढ़ा दिया होगा। क्योंकि इस के सबब उस के पहचाने जाने का ख़दशा और भी ज़्यादा हो गया।

      इसलिए वो फ़क़त फाटक के अंदर ही से और उसी मेहराबी रास्ते की तारीकी में खड़ा हुआ देखा किया कि अंदर क्या कुछ हो रहा है। मगर उसे ख़बर ना थी, कि दरबान औरत अपनी चौकी पर बैठी उसे ताड़ रही है। उस की तबीयत बेचैन हो रही थी। क्योंकि नहीं जानता था कि क्या करे। यूहन्ना की तरह उसे हौसला ना था, कि बड़े दालान के अंदर चला जाये। शायद उस का दिल कुछ-कुछ इस अम्र का ख़्वाहिशमंद भी था कि अच्छा होता कि फिर गली में निकल जाता। क्योंकि वो अपने को ऐसा महसूस करता था कि गोया दाम में जा फंसा है।

      आख़िरकार वो आगे बढ़कर उस जमाअत में जो आग के गिर्दागिर्द झुरमुट किए हुए थी। जा बैठा और आग तापने लगा। इस जमाअत में मुख़्तलिफ़ क़िस्म के अश्ख़ास शामिल थे। और इसलिए किसी ने इस का कुछ ख़याल ना किया। और वो भी उन में ऐसा जा मिला गोया उन्हीं में से था।

      मगर ये एक दूसरे मअनी में जिसका उसे ख़याल भी नहीं था। एक ख़ौफ़नाक हालत थी। उसे तो अपने बदन का ख़ौफ़ हो रहा था। मगर उसे ये मालूम ना था, कि उस की रूह माअरिज़े खतर में है। हालाँकि ये ख़तरा उस के क़रीब ही मंडला रहा था। ये बात हमेशा ख़तरनाक होती है, जब कि येसू का शागिर्द येसू के दुश्मनों के दर्मियान जा बैठा है। मगर उन्हें बताता नहीं कि वो कौन है। मुबारक वो आदमी है जो शरीरों की सलाह पर नहीं चलता। और ख़ताकारों की राह पर खड़ा नहीं रहता और ठट्ठा करने वालों की मज्लिस में नहीं बैठता। ये अग़्लब (मुम्किन) है कि जब पतरस उन लोगों के दर्मियान जा कर बैठा तो तमाम मकान येसू के ख़िलाफ़ ठट्ठे और तम्सख़र से गूंज रहा था। मगर उस ने उन्हें ना रोका। वो बिल्कुल ख़ामोश रहा। बल्कि ज़ाहिरन जहां तक मुम्किन था। उन ठट्ठा करने वालों की सी सूरत बनाने की कोशिश की होगी। मगर मसीह का इक़रार ना करना उस से इन्कार करने का पहला क़दम है।

      आज़माईश जैसा कि उस का क़ायदा (तरीक़ा) है। बिल्कुल अचानक और एक ऐसी जानिब से आई। जहां से आने की हरगिज़ उस को उम्मीद ना थी। जैसा कि हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं जब कि वो मेहराबी रास्ते के नीचे छिप रहा था। उस की हरकात को दरबान औरत ख़ूब ताड़ रही थी। उनसे ख़्वाह-मख़्वाह देखने वाले के दिल में शुब्हा पैदा होता था। और वह अपनी ज़नाना सूझ के साथ फ़ील-फ़ौर उस के राज़ को ताड़ गई। इसलिए जब वो अपने पहरे से छूटी। तो उस ने ना सिर्फ दूसरी दरबान औरत को इशारे से उसे बता दिया। बल्कि जो कुछ उस के दिल में इस की निस्बत ख़याल था, वो भी जता दिया। और जब अपने कमरे को जाने लगी। तो वो आग की तरफ़ जहां सिपाही बैठे थे, बढ़ी। और पतरस से आँखें दो-चार कर के बड़ी कीनावरी से कहने लगी। ये भी नासरी के पैरओं (मानने वालों) में से है। पतरस ये सुन कर बिल्कुल हैरान व शश्दर (हक्का बक्का, परेशान) रह गया। क्योंकि वो इस के लिए हरगिज़ तैयार ना था। उसे ऐसा मालूम हुआ कि गोया उस के चेहरे पर से एक निक़ाब उतार दिया गया है। दफ़अतन (अचानक) ख़ौफ़ व हिरास इस पर ऐसा ग़ालिब आया कि और सब कुछ भूल गया। शायद इस अम्र से भी उसे कुछ शर्म आई होगी, कि अपने-अपने को उस शख़्स का शागिर्द ज़ाहिर करे, जिसकी सब लोग हंसी उड़ा रहे थे। इस में एक और शर्म की बात भी थी। भला वो अब किस तरह अपने को उस शख़्स का शागिर्द ज़ाहिर कर सकता था, जिसकी हतक और तहक़ीर को वो चुप-चाप सुनता रहा। और उस की हिमायत में अब तक मुँह ना खोला। वो पहले अपने फ़ेअल से अपने आक़ा का इन्कार कर चुका था। पेश्तर उस के कि उसने ज़बान से ऐसा किया बल्कि उस के फ़ेअल ने इन अल्फ़ाज़ को एक तरह से लाज़िमी ठहरा दिया। और अब वो चनें बजबीं हो कर बोला, मैं नहीं जानता तू क्या कहती है। और इस औरत ने हंसते हुए, गोया इस तौर से अपना काम सरअंजाम कर के अपनी राह ली।

      इस के बाद किसी ने भी इस बात का ज़िक्र ना किया। मगर पतरस बेचैन हो रहा था। और जिस क़द्र जल्द हो सका, आग के पास से उठ कर चल दिया। वो फिर उसी मेहराबी रास्ते में जा दुबका। और ज़ाहिरन उस का ये मंशा मालूम होता था कि अगर हो सके, तो वहां से निकल जाये। मगर यहां दाम का दरवाज़ा बंद हो रहा था। और दूसरी औरत जिसे उस के रफ़ीक़ (साथी) ने पतरस के हाल से आगाह कर दिया था। और जो ग़ालिबन दूर ही से अपने रफ़ीक़ की चोट पर हँसती रही होगी। दो तीन आदमियों के हमराह अपने पहरे पर खड़ी थी। और जब वो उस की तरफ़ बढ़ा, तो इशारा कर के कहने लगी, ये भी नासरी के पैरओं (मानने वालों) में से है।

      बेचारा पतरस एक औरत के हाथ ने फिर उसे ज़मीन पर पिछाड़ दिया। लेकिन कितनी दफ़ाअ ऐसा होता है कि एक औरत की कतरनी ज़बान और तम्सख़र आमेज़ क़हक़हा आदमी को आला और मुक़द्दस बातों की तरफ़ से शर्मा देता है। पतरस ने ग़ुस्से से क़सम खाई। और उलटे पांव लौट कर फिर आग की तरफ़ चला गया।

      अब वो बिल्कुल हवास बाख़ता हो रहा था। और ख़ुददारी को खो बैठा था। उस के दिल में मुख़्तलिफ़ जज़्बात जोश मार रहे थे। और अमन चैन से बैठना उस के लिए ना-मुम्किन था। ऐसी सूरत बना कर जिससे दिलेरी और बेपर्वाई ज़ाहिर होती थी। वो बातचीत में शरीक हो गया। और सबसे बढ़ बढ़कर बुर्राने लगा। ताकि कोई शख़्स उस पर शक व शुब्हा ना करे। मगर ऐसा करने से उल्टा उस ने अपने असली मुद्आ को खो दिया। क्योंकि इस से सबकी आँखें उसी की तरफ़ फिर गईं। और जिस क़द्र वो ज़्यादा जोश में आता गया। उसी क़द्र वो ज़्यादा ग़ौर से उसे घूरने लगे। मालकोस जिसका कान उस ने उड़ा दिया था। उस के एक रिश्तेदार ने उसे पहचान लिया। उस की बुलंद गंवारे आवाज़ और गलील के ख़ास लहजे ने दूसरों के दिल में भी शक पैदा कर दिया। रात के वक़्त बेकार बैठे-बैठे उन्हें एक अच्छा शुग़्ल हाथ लग गया कि आओ इसे फांसने की कोशिश करें। और सब के सब मिलकर अब शिकार के पीछे हो लिए।

      पतरस अब बिल्कुल अपने को खो बैठा था, जैसा कि सांड को तमाशा-गाह में हर तरफ़ से हमला कर के बर्छियों की ज़र्बें लगाते हैं। वो ग़ज़ब ग़ुस्से और ख़ौफ़ व शर्म के मारे दीवाना सा हो गया। और इन्कार पर इन्कार करना शुरू किया। और साथ ही अपने मुख़ालिफ़ों को बुरा भला कहने लगा।

      आख़िर-उल-ज़िक्र आदत गोया उस की क़दीम माहीगीरी की ज़िंदगी का इआदा (दोहराना) था। जो अर्से से मर कर दफ़न हो चुकी थी। पतरस के से मिज़ाज वाले आदमी से हम उम्मीद कर सकते हैं, कि वो अपनी जवानी के ज़माने में ज़रूर गाली ग्लोच और बद-ज़ुबानी का आदी होगा। वो ज़रूर शोर हसर आदमी होगा। और मुँह में जो आता होगा बक देता होगा। ये ऐसा गुनाह है कि जिसकी क़ुद्रत उमूमन दिल की तब्दीली के वक़्त के क़लम टूट जाया करती है। अगरचे दूसरे गुनाह हैं। जो साल-हा-साल तक पीछे लगे रहते हैं। और उन की बोटी-बोटी को अलैहदा-अलैहदा सलीब पर खींचना पड़ता है। लेकिन ये बद-ज़ुबानी अक्सर आनन फ़ानन में मर जाया करती है। मगर इस सूरत में भी गुज़श्ता ज़िंदगी की बुराईयों से कामिल छुटकारा मुश्किल है। पतरस में ज़ाहिरन ये गुनाह उस के दिल की तब्दीली के वक़्त मुर्दा मालूम होता होगा। साल-हा-साल तक ये बिल्कुल मुर्दा और मद्फुन (दफ़न) रहा। लेकिन जब मुनासिब मौक़ा हाथ लगा, तो देखो वो अपने पूरी ज़ोर व ताक़त में नुमायां हो गया। गुनाह की पुरानी आदतों को क़त्ल करना मुश्किल काम है। कभी-कभी आसान मालूम होता है, कि गोया हमने उन्हें मार कर हरा दिया है। लेकिन कभी-कभी हमको ज़मीन के नीचे से खटखटाने की आवाज़ नहीं आया करती? क्या कभी-कभी ऐसा महसूस नहीं होता कि गोया मुर्दा अपने ताबूत में करवट ले रहा है। और उस की क़ब्र के ऊपर की मिट्टी हिल रही है। जो दिन हमने जिस्मानी और नफ़्सानी ख़्वाहिशों के पूरा करने में ख़र्च किए हैं, उन की यही सज़ा है जो आदमी कभी शराबी या ज़ानी, दरोग़ गो या बद-ज़बान रह चुका है। उसे मरते दम तक बड़ी होशयारी से अपनी ख़बरदारी करनी ज़रूर है। और उस क़ब्र पर जहां उस की गुज़श्ता ज़िंदगी मदफ़ून है। पहरा देना चाहिए।

      मगर उस की ये दीवानगी भी उस के काम आ गई। जब वो ये साबित करना चाहता था, कि वो मसीह का नहीं है। तो इस बदज़ुबानी से बढ़कर उसे शायद बेहतर ईलाज ना मिलता है। जब उस ने नहीं यक़ीन दिलाना चाहा कि वो उस्ताद से कोई वास्ता नहीं रखता तो उन्होंने उस का यक़ीन ना किया। लेकिन जब उस ने इस तरह की बद-ज़बानी इख़्तियार की तो उन्हें उस की बात पर शुब्हा ना रहा। वो जानते थे, कि मसीह का कोई पैरौ (मानने वाला) इस क़िस्म की बातें ना करेगा, जैसी कि पतरस कर रहा था। ये मसीह के हक़ में एक निहायत उम्दा शहादत है कि जो उस पर ईमान नहीं रखते, वो भी उस के शागिर्दों से नेक गोई और नेक चलनी की उम्मीद रखते हैं। और अगर उन में से जो उस के नाम से कहलाते हैं, कोई शख़्स ऐसे काम कर बैठे, तो उन्हें बड़ा ताज्जुब होता है। जो अगर वो दूसरों को ऐसा करते देखे तो एक मामूली बात समझ कर उस की कुछ परवाह ना करते।

(4)

      जब पतरस इस इन्कार व बदज़ुबानी की दहशत में गिरफ़्तार था। तो दफअतन (फ़ौरन) उस ने देखा कि उस के सताने वालों की आँखें उस की तरफ़ से हट कर किसी और चीज़ की तरफ़ लग गई हैं। यह येसू था, जिस पर उस के दुश्मनों ने अदालत में फ़त्वा लगा दिया था। और अब उसे गालियां देते और ज़दू कोब करते हुए सेहन में से होते हुए हवालात की तरफ़ ले जा रहे थे। जहां उसे दो तीन घड़ी तक ज़ेरे निगरानी रखना ज़रूर था। पेश्तर इस के कि वो दुबारा अदालत के रूबरू पेश किया जाये। जब येसू दालान से निकल कर सेहन में दाख़िल हुआ, तो उस के कानों में उस के शागिर्द की आवाज़ पहुंची। और एक नाक़ाबिल-ए-बयान ज़र्ब (चोट) से मजरूह (ज़ख़्मी) हो कर वो फ़ील-फ़ौर उधर को जिधर से आवाज़ आई थी। मुतवज्जोह हुआ ठीक उसी वक़्त पतरस भी लौट कर देखने लगा। उन की आँखें मिल गईं। और रूह ने रूह को देख लिया।



5  यहां पतरस की बेदारी का जो हाल दर्ज है। इस के लिए हम मुक़द्दस लूका के ममनून हैं। मगर वो भी मुर्ग़ के बाँग देने का ज़िक्र करता है। जो दूसरे इंजील नवीसों के नज़दीक उस के अज़-सर-मुतनब्बा होने का बाइस था। इस अम्र पर यक़ीन करने में कुछ मुश्किल नहीं क्योंकि हो सकता है कि इस किस्म की दिली तबदीली के वाक़ेअ होने में वो मुख़्तलिफ़ बातों ने मदद दी हो।

      कौन कह सकता है कि येसू की इस नज़र में क्या था। एक निगाह में एक आलम की समाई है। और बाज़ औक़ात तो जिस क़द्र सफ़ाई से निगाह एक बात को अदा करती है। वो बेशुमार अल्फ़ाज़ से भी नामुम्किन होती है। वो ऐसी-ऐसी बातें सूझा देती है, जो शायद लबों से कभी ना निकल सकतीं। रूह रूह के साथ आँखों ही के ज़रीये से बात करती है। एक निगाह में ये ताक़त है कि चाहे तो बहिश्त का चैन बख़्श दे चाहे मायूसी के जहन्नम में डाल दे।

      येसू की निगाह ने उस वक़्त एक अफ़्सून (जादू) का काम दिया। जिसने उस जादू की ज़ंजीर को जिसमें पतरस जकड़ा हुआ था, पाश-पाश कर दिया। गुनाह को हमेशा एक आरिज़ी दीवानगी समझना चाहिए। और मौजूदा सूरत में तो ये अम्र साफ़ ज़ाहिर है। पतरस ख़ौफ़ ग़ज़ब और बर आशुफ़्तगी से ऐसा वहशी और दीवाना हो रहा था, कि उसे सुदबुद ना थी, कि क्या कर रहा हूँ। लेकिन येसू की निगाह ने उस के हवास बजा कर दिए। और वो फ़ील-फ़ौर आदमी बन गया। वो फ़ील-फ़ौर सर पर पांव रखकर दरवाज़े की तरफ़ भागा। और अब कोई चीज़ उस की सद्द-ए-राह ना हुई। वो बग़ैर किसी पस व पेश, के दरबान औरत और उस के हम-राहियों के पास से गुज़र गया। क्योंकि अगर सच्च पूछो तो आज़माईश का दाम दर-हक़ीक़त एक ख़्याली चीज़ है। एक मुस्तक़िल मिज़ाज आदमी के लिए वो कोई रोक पैदा नहीं कर सकती।

      मगर इ के इलावा येसू की निगाह बतौर आईने के थी। जिसमें पतरस ने अपने आपको देख लिया। उस ने देख लिया कि येसू के दिल में उस की निस्बत क्या ख़याल है। गुज़श्ता ज़माने की बातें उसे फ़ील-फ़ौर याद आ गईं। वही था, जिसने एक अज़ीमुश्शान ना-क़ाबिले फरामोश मौक़े पर मसीह का इक़रार किया था। और उस से शाबाश ली थी। वही था जिसने भी चंद ही गड़ियाँ गुज़रीं। सबसे बढ़कर ये दावा किया था, कि वो अपने उस्ताद का कभी इन्कार ना करेगा। और अब उस ने उसे तर्क कर दिया। नहीं बल्कि उस के दिल को ऐसी बुरी बिनी के मौक़े पर ज़ख़्मी कर दिया। उस ने अपने को उस के दुश्मनों के गिरोह में शामिल कर दिया। और क़समों और लानतों के साथ उस के मुक़द्दस नाम को पामाल किया। वो शागिर्दी के रुतबे को छोड़कर फिर एक दफ़ाअ अपनी बेदीन जवानी की हालत को ऊद (लौट) कर गया।

      वो अब अहद-शिकन और नमक-हराम आदमी था। ये सब बातें उसे मसीह की उस एक निगाह में नज़र आ गईं। मगर उस निगाह में इस से भी बढ़कर कुछ था। वो बचाने वाली नज़र थी। अगर कोई शख़्स उस वक़्त पतरस को मिलता। जब कि वो उस मुक़ाम से भागा हुआ जा रहा था। तो वो ज़रूर उस की सलामती के लिए ख़ौफ़ज़दा हो जाता। भला वो कहाँ भागा हुआ जा रहा है? क्या उस कड़ाड़े की तरफ़ जहां से चंद घंटे बाद यहूदाह ने अपने को गिरा कर हलाक कर दिया? पतरस भी इस से बहुत दूर ना था। अगर उस वक़्त जब कि उन की आँखें दो-चार हुईं। येसू की निगाह ग़ज़ब-आलूद नज़र आती। तो ग़ालिबन उस का भी यही हश्र होता।

      मगर येसू की नज़र में गुस्से का नाम निशान ना था। बिला-शुब्हा वो दर्द-नाक तो थी। और उस से बहुत कुछ मायूसी ज़ाहिर होती थी। मगर उनसे भी गहरी। हाँ उन के नीचे से निकल कर और उन पर ग़लबा पाती हुई। उस की जान बख़्श ख़्वाहिश थी। वही ख़्वाहिश जिसने एक वक़्त हाथ बढ़ा कर पतरस को पकड़ लिया था। जब कि वो समुंद्र में डूबा जा रहा था। इसी ख़्वाहिश के साथ उस ने उस वक़्त भी उसे पकड़ लिया।

      इस निगाह में पतरस ने माफ़ी और नाक़ाबिल-ए-बयान मुहब्बत देखी। अगर उस ने इस में अपने को देखा तो उस से भी बढ़कर उस ने अपने मुंजी को भी देख लिया और उस पर येसू के दिल का वो गहरा भेद खुल गया। जो शायद पहले कभी उसे मालूम ना हुआ था। अब उस ने देख लिया कि मैंने कैसे आक़ा का इन्कार किया है। और इस से उस का दिल पारा-पारा हो गया। यही बात है जो हमेशा दिल को तोड़ दिया करती है। ये हमारा गुनाह नहीं जो हमें रुला दिया करता है। बल्कि जब हम ये देखते हैं कि हम ने कैसे अच्छे मुंजी के ख़िलाफ़ गुनाह किया है। तो हम अपने आँसूओं को नहीं रोक सकते। वो फूट-फूट कर रोया। ना इसलिए कि अपने गुनाह को धो डाले। बल्कि इसलिए कि वो जानता था कि वो पहले ही धोया गया है। अव़्वल-उल-ज़िक्र ऐसी है। जैसे बड़े-बड़े क़तरे वाली बारिश। मगर दूसरी क़िस्म की बारिश है जैसे झड़ी लग जाती है। और हर एक क़तरा अंदर घुसा चला जाता है। और रूह के पौदों को उन की जड़ों तक सेराब कर देती है।

      दर-हक़ीक़त यही उस नेकी का आग़ाज़ था। जो पतरस के ज़रीये दुनिया को पहुँचनी थी। लेकिन हम उस का यहां ज़िक्र नहीं करेंगे। हमें इस वक़्त अपने दिल में उस शख़्स के ख़याल को जगह देनी चाहिए, जिसने अपने दुख और तक्लीफ़ की सख़्ती में भी जब ये देखा कि उस के नाम से ना सिर्फ इन्कार ही किया जाता है। बल्कि उस पर क़समों और लानतों की बोछाड़ भी पड़ रही है। एक लम्हे के लिए भी कीना या इंतिक़ाम के ख़याल को, जो इस क़िस्म की नमक हरामी से पैदा हो जाया करता है। अपने दिल में जगह ना दी बल्कि बर-ख़िलाफ़ इस के अपने रंज व ग़म को भी भूल गया। और नजात बख़्शने की ख़्वाहिश रग़बत से भर कर अपनी निगाह को ऐसी मेहरबानी और मुहब्बत से मामूर कर के उस की तरफ़ फेंका कि एक लम्हे में उस उफ़्तादा (मुसीबत) में गिरफ़्तार शागिर्द को गढ़े से निकाल लिया। और उठ कर एक चट्टान पर खड़ा कर दिया। जहां वो बाद अज़ां हमेशा खड़ा रहा। बल्कि अपने ईमान की मज़बूती और अपनी शहादत की ताक़त के लिहाज़ से ख़ुद एक चट्टान बन गया।

चौथा बाब
मुल्की अदालत

      दूसरे बाब में हम ज़िक्र कर चुके हैं कि सदर-ए-मज्लिस ने येसू पर मौत का फ़त्वा दे दिया। वो बड़ी ख़ुशी से यहूदी क़ायदे के मुताबिक़ यानी संगसार करने से इस फ़तवे पर अमल-दर-आमद करते। लेकिन जैसा ऊपर ज़िक्र हो चुका, ये अम्र उन के इख़्तियार में ना था। रोमी हुकूमत ने अगरचे देसी अदालतों को ये इख़्तियार दे रखा था, कि ख़फ़ीफ़ (मामूली) जराइम की तहक़ीक़ात करें और सज़ा दें। मगर ज़िंदगी मौत के इख़्तियार को उस ने अपने क़ब्ज़े में रखा था। और ऐसा मुक़द्दमा जिसमें संगीन सज़ा का फ़त्वा यहूदी अदालत में दिया जाता। मुल्क के रोमी हाकिम के सामने पेश किया जाता था। जो अज सर-ए-नौ तहक़ीक़ात करने के बाद उस फ़तवे को बहाल या रद्द कर देता था। इसलिए येसू पर फ़त्वा देने के बाद सदरे मज्लिस के मैंबरान के लिए ज़रूर हुआ कि उसे गवर्नर की अदालत में ले जाएं।

(1)

      उस वक़्त रोमी हाकिम जो फ़िलिस्तीन पर मुतअय्यन (मुक़र्रर) था। उस का नाम पुन्तियुस पीलातुस था। ओहदे के लिहाज़ से उसे हिन्दुस्तान के एक कमिशनर या लिफ़टेंट गवर्नर के बराबर समझना चाहिए। सिर्फ इस क़द्र फ़र्क़ के साथ कि वो एक बुत-परस्त हुकूमत है। और इसलिए क़दीम रूमा की, ना ज़माना-ए-हाल की इंग्लिस्तान की रूह। उस के उसूल हुकूमत की मुहर्रिक (तहरीक देने वाली) थी। और इस रूह का जिसे दुनिया परस्ती हिक्मत-ए-अमली। इब्ने अल-वक़्ती की रूह कहना चाहिए। वो एक उम्दना नमूना था। और हम देखेंगे कि वो इस अज़ीमुश्शान रोज़ में अपने इस उसूल का कैसा पक्का पाबंद निकला।

      पीलातुस इस ओहदे पर बहुत सालों से मुतअय्यन था। मगर न तो वो अपनी रिआया को पसंद करता था। ना उस की रियाया उसे पसंद करती थी। यहूदी अहले-रुम की तमाम महरूसा (मातहत) रियासतों में सबसे ज़्यादा सख़्त मिज़ाज और शोरा पुश्त (सरकश, नाफ़र्मान) थे। वो अपने क़दीम ज़माने के शानो शौकत को याद कर के। और आइन्दा ज़माने में एक आलमगीर सल्तनत की उम्मीद पर इस बैरूनी हुकूमत के जोए को बहुत ही गिरां (सख़्त) समझते थे। और उन्हें हमेशा अपने हाकिमों के रवैय्ये में ऐसी ऐसी बातें दिखाई दिया करती थीं। जिन्हें वो अपने इक़्तिदार के ख़िलाफ़ या अपने मज़्हब की बे-हुर्मती समझते थे। वो भारी टैक्सों की शिकायत किया करते थे। और अपने हाकिमों को अर्ज़ीयां दे कर हमेशा दिक़ करते रहते थे। पीलातुस की उनके मुक़ाबले में बिल्कुल ओहदा बराई ना हुई। और ना उन के दर्मियान बाहम किसी क़िस्म की हम्दर्दी पाई जाती थी। वो उनके मज़्हबी जोश व सरगर्मी से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाला) था। और जब कभी उन के साथ कोई तनाज़ा पेश आता। और ऐसे तनाज़े अक्सर होते रहते थे। तो वो बिला तकल्लुफ़ ख़ूँरेज़ी पर कारबंद हुआ करता था। और बरख़िलाफ़ इस के वो उसे रिश्वत सतानी। बेरहमी, लूट मार और बद अमली का मुल्ज़िम ठहराते थे।

      गवर्नर का मुक़ामे रिहाइश यरूशलेम ना था। भला ऐसा शख़्स जो रूमा के ऐश व इशरत उस के थियटरों, हमामों, खेल तमाशों, लिट्रेचर और सोसाइटी का गरवीदा (आशिक़) हो। ऐसी जगह रहने का कब ख़्वाहां हो सकता था। उस का सदर मुक़ाम क़ैसरिया था। जो साहिल बहर पर वाक़ेअ था। ये शहर अपनी शानो शौकत और सामान ऐश व इशरत के लिहाज़ से ऐन बईन एक रूमाए-ए-नोरिद की मानिंद था। लेकिन वक़्तन-फ़-वक़्तन कारोबार के लिए गवर्नर को सदर मुक़ाम (यरूशलेम) में जाना पड़ता था। और उमूमन जैसा कि इस वक़्त भी वो ईद-ए-फ़सह के मौक़े पर वहां ज़रूर जाता था।

      यरूशलेम में वो हमेशा उस शाही महल में जो यहूदिया के क़दीम बादशाहों की जाये रिहाइश था। फ़िरोकश (ठहरना) हुआ करता था। उसे हेरोदेस-ए-आज़म ने तामीर किया था। जिसे शाहजहाँ की तरह बड़ी-बड़ी इमारतें बनाने का अज़हद शौक़ था। ये महल उसी पहाड़ी के जुनूब मग़रिबी गोशा पर जिस पर हैकल वाक़ेअ थी, बना हुआ था। ये एक बड़ा आलीशान महल था। और अपनी ख़ूबसूरती में हैकल का हम-पल्ला था। और इस क़द्र अज़ीम था कि इस में एक छोटी सी फ़ौज की रिहाइश की गुंजाइश थी। इस के दो बड़े-बड़े बाज़ू थे। जो इमारत के दोनों तरफ़ को निकले हुए थे। और बीच में एक और इमारत थी। जिससे ये दोनों तरफ़ को निकले हुए थे। जिससे ये दोनों बाहम मुल्हिक़ (जोड़ना) किए गए थे। इस दर्मियानी इमारत के मुक़ाबिल एक बड़ा मैदान था। और यहां खुली जगह में एक बुलंद चबूतरा था। जहां मसीह के मुकदमे की तहक़ीक़ात हुई। इस की वजह ये थी, कि यहूदी इस इमारत के अंदर दाख़िल होना पसंद नहीं करते थे। क्योंकि वो उन के नज़्दीक नापाक थी। पीलातुस को उन के इस मज़्हबी वसवास का लिहाज़ रखना पड़ता था। अगरचे वो अपने दिल में उन पर हँसता रहता था। लेकिन इलावा इस के रोमियों के लिए खुली जगह में अदालत करना भी एक मामूली बात थी। महल के सामने के हिस्से में बड़े-बड़े सुतून लगे थे। और इस के गर्दा गर्द एक वसीअ पार्क सैरगाह था। जो रविशों, दरख़्तों और तलाबों से आरास्ता था। और जिस में फ़व्वारे हर वक़्त छूटते रहते थे। और ख़ूबसूरत जानवर अपनी रागनियाँ गाते रहते थे। ग़रज़ कि हर तरह से ये निहायत दिलकश और पुर फ़िज़ा मुक़ाम था।

      अल-ग़र्ज़ अलस्सबाह (सुब्ह-सवेरे) यहूदियों के सरदार क़ैदीय दर्मियान में लिए हुए इस महल के अज़ीमुश्शान फाटक के अंदर दाख़िल हुए। पीलातुस भी उन की मुलाक़ात के लिए बाहर निकल आया और अपनी अदालत की कुर्सी पर बैठ गया। उस के सैक्रेटरी उस के आस-पास थे। और उस की पस-ए-पुश्त क़वी हैकल रोमी सिपाहियों की एक जमाअत भाले लिए हुए सरो-क़द हुक्म की मुंतज़िर खड़ी थी। मुल्ज़िम को चबूतरे के ऊपर खड़ा किया गया। और इस के मुक़ाबिल काइफ़ा की सरकर्दगी में उस के इल्ज़ाम लगाने वालों की जमाअत खड़ी थी। कैसा अजीब नज़ारा यहूदी क़ौम के सरदार अपने ही मसीह को ज़ंजीरों में जकड़ कर एक बुत-परस्त हाकिम के हवाले करने को लाए हैं। और उस से ये इल्तिजा करते हैं, कि उसे क़त्ल किया जाये। ऐ बहादुर रब्बियों की रूहों ! तुम जो इस क़ौम से दिली मुहब्बत रखते थे। और उस पर फ़ख़्र करते। और उस की आइन्दा शान व शौक़त और अज़मत व जलाल की पैशन गोई किया करते थे। आख़िरकार वो घड़ी आ पहुंची है। मगर उस का नतीजा ये हुआ।

      ये फ़ेअल ऐसा था कि गोया क़ौम ने उस के ज़रीये अपने हाथों अपने आपको हलाक कर दिया। मगर क्या इस से भी बढ़कर कुछ ना था। क्या ख़ुदा की तदबीर व अहद भी इस से शिकस्ता व परागंदा नहीं हो गए? यक़ीनन ज़ाहिरा तो ऐसा ही मालूम होता था। मगर ख़ुदा ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता। इन्सान के गुनाहों के बावजूद बल्कि उन के ज़रीये भी इस का मक़्सद व मंशा तक्मील को पहुंचता रहता है। यहूदियों ने इब्ने-अल्लाह को पीलातुस की कुर्सी के सामने पेश किया ताकि यहूदिया और ग़ैर क़ौम दोनों मिलकर उस पर सज़ा का हुक्म लगाऐं। क्योंकि ये नजातदिहंदा के काम का एक जुज़ था, कि वो इन्सानी गुनाह का परवा फाड़दे। और यहां शरारत ही तमाम व कमाल बदी के साथ जलवागर हुई। जब कि बनी इन्सान का हाथ अपने ख़ालिक़ के ख़िलाफ़ उठा हुआ था। और ताहम वो मौत बनी इन्सान की ज़िंदगी का बाइस होने को थी। और येसू यहूदी और ग़ैर क़ौम के दर्मियान खड़ा हुआ और दोनों को एक मुशतर्का नजात की रिफ़ाक़त के बंदों में जोड़ने को था। वाह ख़ुदा की दौलत और हिक्मत और इल्म क्या ही वसीअ है उस की तज्वीज़ें किस क़द्र इदराक (समझ) से परे और उस की राहें क्या ही बे-निशान हैं।
(2)

      पीलातुस ने अल-फ़ौर दर्याफ़्त किया कि वो कौनसा इल्ज़ाम है जिसके लिए तुम क़ैदी को मेरे सामने लाए हो।

      जो जवाब उन्होंने दिया, इस से उन की तबीयत व मिज़ाज का इज़्हार होता है। अगर ये बदकार ना होता तो हम उसे तेरे हवाले ना करते। ये गवर्नर के लिए एक साफ़-साफ़ इशारा था कि उसे चाहिए कि अपने अज़ सर-ए-नौ तहक़ीक़ात करने के इस्तिहक़ाक़ (जांच पड़ताल) को छोड़कर उन्हीं की तहक़ीक़ात को काफ़ी समझे। और फ़क़त अपने इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) के दूसरे हिस्से को यानी सज़ा-ए-मौत के जारी करने को ही काम में लाए। बाज़ औक़ात सूबों के हाकिम ऐसा कर दिया करते थे। ख़्वाह तो अपनी सुस्ती व काहिली की वजह से या वैसे हुक्काम को ख़ुश करने के लिए और ख़ासकर एक मज़्हबी मुक़द्दमे में जिसकी माहियत (असलियत) को समझने की एक अजनबी हाकिम से हरगिज़ उम्मीद नहीं की जा सकती थी। इस क़िस्म के लिहाज़ की उम्मीद करना कोई ना मुनासिब दरख़्वास्त ना थी।

      मगर पीलातुस इस वक़्त दबने या मानने वाली लहर में ना था। और बोला, तो इसे ले जा कर तुम अपनी शरीअत के मुताबिक़ इस का फ़ैसला करो। जिसका मतलब दूसरे लफ़्ज़ों में ये था कि अगर मैं मुक़द्दमें को नहीं सुन सकता, तो मैं इस पर फ़त्वा भी नहीं देता और ना सज़ा को जारी करूँगा। अगर तुम इस पर इसरार करते हो, कि ये मुक़द्दमा सिर्फ तुम्हारी ही दीनी अदालत के सुनने के लायक़ है। तो अपने पास ही रखो। और अगर तुम रखोगे तो तुम्हें उसे ऐसी ही सज़ा देनी होगी, जिसके तुम मजाज़ हो।

      लेकिन ये बात उन के लिए ज़हर थी। वो तो मसीह के ख़ून के प्यासे थे। और वो ख़ूब जानते थे, कि उन्हें क़ैद या कोड़े लगाने से बढ़कर कोई इख़्तियार नहीं। वो सर्द-मेहर और तेज़ नज़र रोमी जो उन्हीं की तरह मग़रूर व मुतकब्बिर था उन्हें जताना चाहता था, कि रोम का पांव उन की गर्दन पर कितना भारी है। और उन्हीं के मुँह से ये बात कहलवाने में उसे एक क़िस्म का मज़ा आता था कि हम मजाज़ नहीं कि किसी को जान से मारें। अपनी मर्ज़ी और उम्मीद के ख़िलाफ़ एक बाक़ायदा इल्ज़ाम पेश करने पर मज्बूर हो कर उन्होंने बड़े ग़ुस्से में आकर इल्ज़ाम लगाने शुरू किए, जिनमें से आख़िरकार तीन इल्ज़ाम ज़्यादा सफ़ाई के साथ नज़र आने लगे। अव़्वल, वो क़ौम को बिगाड़ रहा है। दोम, वो सरकारी ख़राज अदा करने से मना करता है। सोम, वो अपने को बादशाह ज़ाहिर करता है।

      ये बात ग़ौर के क़ाबिल है कि उन्होंने कहीं भी उस जुर्म का ज़िक्र नहीं किया, जिसकी बिना पर उन्होंने उस पर ख़ुद मौत का फ़त्वा लगाया था। उन्होंने इन तीनों बातों में से किसी के लिए भी उस पर फ़त्वा नहीं लगाया। बल्कि सिर्फ़ कुफ़्र बकने के लिए। मगर वो ख़ूब जानते थे, कि अगर वो इस मुक़ाम पर इस क़िस्म के इल्ज़ाम का ज़िक्र करेंगे। तो अग़्लब (मुम्किन) है कि अदालत उस को हक़ीर समझ कर रद्द करेंगी। ये याद रखना चाहिए कि पौलूस रसूल पर भी रोमी गवर्नर ने इस क़िस्म के इल्ज़ाम पेश होने पर क्या कहा था। गिल्यु ने यहूदियों से कहा, ऐ यहूदियों अगर कुछ ज़ुल्म या बड़ी शरारत की बात होती, तो वाजिब था कि मैं सब्र कर के तुम्हारी सुनता लेकिन जब ये ऐसे सवाल हैं जो लफ़्ज़ों और नामों और तुम्हारी शरीअत से इलाक़ा (ताल्लुक़) रखते हैं। तो तुम ही जानो। मैं ऐसी बातों का मुंसिफ़ बनना नहीं चाहता। और उस ने उन्हें अदालत से निकलवा दिया। (आमाल 18:14-16) और अगरचे पीलातुस ऐसी बात के लिए जिसे वो यहूदियों का तोहम बातिल समझता था। वैसे ही हिक़ारत और नफ़रत ज़ाहिर ना करता तो भी वो ख़ूब जानते थे, कि दिल से ऐसा ही समझता है। मगर हक़ीक़ी इल्ज़ाम को पेश ना कर सकने की वजह से उन्होंने अपने को ऐसी नाज़ुक और ग़ैर वाक़ई हालत में रख दिया। जिसके ख़तरात से वो बच ना सके। उन को ख़्वाह-मख़्वाह जुर्म घड़ने पड़ने। और इस बात में उन्होंने अपने ज़मीर व ईमान की कुछ पर्वा ना की।

      उनका पहला इल्ज़ाम कि येसू क़ौम को बिगाड़ रहा है। बिल्कुल मुबहम (ग़ैर वाज़ेह) और बोदा (कमज़ोर) था। मगर हम दूसरे इल्ज़ाम के हक़ में क्या कहें कि वो सरकारी महसूल अदा करने से मना करता है? जब हम इस के जवाब को जो उस ने इसी हफ्ते में उन के सवाल पर दिया था, कि जो क़ैसर का है क़ैसर को दो और जो ख़ुदा का है ख़ुदा को दो। तो ये इल्ज़ाम एक सफ़ैद झूट मालूम देता है। मगर इनके तीसरे इल्ज़ाम में कि वो अपने को मसीह बादशाह ज़ाहिर करता है। कुछ सच्चाई की आमेज़िश ज़रूर थी। क्योंकि उस ने उन की अदालत के सामने संजीदगी से अपने मसीह होने का इक़रार किया था। मगर इस सूरत में भी वो ख़ूब जानते थे, कि एक रोमी के कान में मसीह का ये दावा कि वो एक बादशाह है मुख़्तलिफ़ मअनी रखता है। बनिस्बत उन माअनों के जो मसीह होने का दावा उन के नज़्दीक रखता है। दर-हक़ीक़त जो एतराज़ उन को मसीह के हक़ में था। उस की तह में ये बात थी, कि वो उन्हें रोमी माअनों के मुताबिक़ बादशाह बनने के लिए काफ़ी तौर पर तैयार नहीं है। वो बड़े इश्तियाक़ से एक बादशाह के मुंतज़िर थे। जो बड़ा शानदार और जंगी आदमी होगा। ताकि वो रोमियों का जुओ (बोझ) तोड़ कर येरूशलेम को एक आलमगीर सल्तनत का दार-उल-सल्तनत बनाए। और चूँकि येसू की रूह और मक़ासिद ऐसी हिर्स व हवा (ख्वाहिश) के मुख़ालिफ़ थे। इसलिए वो उसे हक़ीर जानते और उस से नफ़रत करते थे। पीलातुस उन लोगों के मिज़ाज व ख़ू (तौर तरीक़ा) से ख़ूब वाक़िफ़ था। जो सरगर्मी वो उस वक़्त क़ैसर के मुताल्लिक़ दिखा रहे थे। उसे देखकर वह दिल ही दिल में हँसता होगा। एक इन्जील नवीस लिखता है कि वो जानता था कि हसद के बाइस उन्होंने उस के हवाले किया है हम नहीं कह सकते कि उस वक़्त वो येसू के हालात से कहाँ तक वाक़िफ़ था वो इस तहरीक के सारे ज़माने में जो यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने शुरू की और येसू ने जारी रखी बराबर गवर्नर रहा था। और मुम्किन नहीं कि वो इन बातों से बिल्कुल जाहिल व नावाक़िफ़ रहा हो। उस की बीवी का ख्व़ाब जिसका हम आगे चल कर ज़िक्र करेंगे। इस बात को साबित करता हुआ मालूम देता है, कि इस से पहले भी महल में येसू का ज़िक्र होता रहा होगा। और ग़ालिबन इस यरूशलेम की रिहाइश की बेमज़गी को रफ़ा करने के लिए मशग़ला के तौर पर गवर्नर और उस की बीवी, इस नौजवान जोशीले आदमी की जो इन कट मुल्ला काहिनों की ख़बर ले रहा था, कहानियां सुना करते होंगे। पीलातुस इस सारी तहक़ीक़ात के असनाह में येसू का बराबर लिहाज़ और अदब करता रहा। बिला-शुब्हा इस की वजह ज़्यादातर वह रवैय्या होगा। जो मसीह ने उस की अदालत में बरता। लेकिन उस का कुछ हिस्सा उन बातों की वजह से भी होगा, जो वो उस की निस्बत सुनता रहा था। ख़ैर-ख़्वाह कुछ ही हो। मगर इस में कुछ शुब्हा नहीं कि जो इल्ज़ाम उस के सामने येसू पर लगाया गया था। उस ने उसे बिल्कुल ख़फ़ीफ़ (मामूली) समझा पहले दो इल्ज़ामों को तो मालूम होता है वो ख़याल में भी ना लाया। मगर तीसरा इल्ज़ाम कि वो अपने को बादशाह ज़ाहिर करता है। और शायद क़ैसर का एक और रक़ीब (हरीफ़) खड़ा हो जाये। ऐसा ना था कि वो इस से क़त-ए-नज़र (नज़र चुराना) करता।

      पीलातुस ये इल्ज़ाम सुनकर येसू को अलग महल के अंदर ले गया। ताकि उस की जुस्तजू करे ग़ालिबन ये उस ने इसलिए किया कि इस तौर से उस के इल्ज़ाम लगाने वालों के सख़्त इसरार से पीछा छुड़ाए। और येसू ने उनकी तरह महल के अंदर जाने में भी कुछ पस व पेश ना किया। क्या हम इस से ये मतलब समझें कि चूँकि यहूदियों ने उसे रद्द कर दिया था। इसलिए वो ग़ैर क़ौमों की तरफ़ मुतवज्जोह होने लगा था। और तफ़र्रुक़ा की दीवार गिर पड़ी थी और वह अब उस के खन्डरात को पामाल कर रहा था।

      अब इस अंदरूनी कमरे की ख़ामोशी व तन्हाई में पीलातुस और येसू एक दूसरे के मुक़ाबिल हुए। एक तो क़ैदी की अदना हैसियत में। दूसरा साहिबे इख़्तियार हाकिम की हैसियत में। लेकिन जब हम पीछे को नज़र मारते हैं तो कैसे अजीब तौर से दोनों का मुक़ाम बदला हुआ नज़र आता है। ये पीलातुस है जो अदालत के सामने है हाँ पीलातुस और रोमा जिसका वो क़ाइम मक़ाम था। उस सुबह तो पीलातुस पर बराबर हुक्म लगाया जा रहा था। और उस के ऐब आशकारा हो रहे थे। और उस वक़्त से वो बराबर तारीख़ के चबूतरे पर बतौर एक मुजरिम के खड़ा रहा है। और हर सदी के लोग उस पर नज़र मारते रहे हैं। पुराने आली दिमाग़ मुसव्विरों की जो तस्वरीरें हम तक पहुंची हैं। उन्होंने मसीह के बचपन की तस्वीरों में उस के चेहरे के गिर्दागिर्द रोशनी का एक हाला बनाया है। जिससे उस के इर्दगिर्द की चीज़ों पर चुंधिया देने वाली रोशनी पड़ती है और यह सच्च है कि सब पर जो उस वक़्त जब वह दुनिया में था मसीह के क़रीब आते थे। एक क़िस्म की रोशनी पड़ती थी। जिसमें अच्छे बुरे दोनों आशकारा (ज़ाहिर) हो जाते थे। ये ऐसी रोशनी थी जिससे हर एक तंग व तारिक गोशह और हर एक चैन व शिकन रोशन हो जाता था। आदमी जूंही उस के पास आते थे। उन पर हुक्म लग जाता था। और क्या अब भी ऐसा ही नहीं है हम ऐसे कामिल तौर पर अपने अंदरूनी हालात को ज़ाहिर नहीं कर देते। जैसे उस वक़्त जब कि हम उस के क़रीब आते हैं और देखा जाता है, कि हम पर मसीह का कैसा असर पड़ता है। और हम उसे किस तरह क़ुबूल करते हैं। और जैसा हम उस से सुलूक करते हैं उस से गोया हम अपने पर फ़त्वा लगाते और अबदियत के लिए अपने हक़ में हुक्म चढ़ाते हैं।

      पीलातुस ने उस से दर्याफ़्त किया क्या तू यहूदियों का बादशाह है? जो तीसरा इल्ज़ाम था जो उस के ख़िलाफ़ लगाया गया था। येसू जो जवाब दिया, उस में बड़ी एहतियात पाई जाती है। और उस ने जवाब देने से पहले एक दूसरा सवाल पूछा क्या तू ये बात आपसे कहता है या औरों ने मेरे हक़ में तुझसे कही? वो ये मालूम करना चाहता था, कि इस सवाल के क्या मअनी हैं। आया वो रोमियों के महल नज़र से पूछता है। या यहूदियों के महल नज़र से। क्योंकि इस सवाल का जवाब कि क्या वो बादशाह है। इन माअनों के लिहाज़ से जो रोमी लोग इस लफ़्ज़ के समझते थे, बिल्कुल मुख़्तलिफ़ होता, बनिस्बत उन माअनों के लिहाज़ के जो यहूदी समझते थे।

      मगर इस जवाब से पीलातुस कुछ हिचकिचा सा गया। क्योंकि इस से ये पाया जाता कि शायद उस को इस अम्र में ज़्यादा दिलचस्पी है। बनिस्बत इस के कि वो इस का इज़्हार करना ना पसंद करता है। और उस ने ग़ुस्सा से जवाब दिया, क्या मैं यहूदी हूँ? तेरी क़ौम और सरदार काहिनों ने तुझको मेरे हवाले किया। अगर इस से उस के ग़र्ज़ चुभती हुई तंज़ थी, तो उस का तीर ऐन निशाने पर लगा। अफ़्सोस ये एक बड़ी शर्मनाक और तक्लीफ़-देह बात थी। उस की अपनी ही क़ौम हाँ उस की महबूब क़ौम जिसकी ख़िदमत में उस ने अपनी ज़िंदगी ख़र्च कर दी। उसी ने उसे ग़ैर क़ौम के हवाले कर दिया। उस ने इस अजनबी शख़्स के सामने ऐसी शर्मसारी महसूस की जैसे कि कोई शख़्स जिसे उस के माँ बाप गु़लामी में बेच दें। अपने ख़ानदान के लिए महसूस करता है। ताहम येसू ने फ़ील-फ़ौर पीलातूस को इस सवाल का जवाब दोनों पहलूओं से दे दिया। यानी रोमियों के पोलिटिकल पहलू से। और नीज़ यहूदियों के मज़्हबी पहलू से भी।

      पहले उस ने इस के मन्फ़ी (बारीक) पहलू को ज़ाहिर किया। मेरी बादशाहत दुनिया की नहीं। वो रोमी शाहंशाहों का रक़ीब नहीं। अगर ऐसा होता, तो सब से पहले वो एक फ़ौज जमा करता ताकि मुल्क को रोमियों के क़ब्ज़े से ख़लासी बख़्शे और इस फ़ौज कासिब से पहला फ़र्ज़ ये होता कि अपने बादशाह की ज़ात की हिफ़ाज़त करती लेकिन ये बात साबित हो सकती है कि उस की गिरफ़्तारी के वक़्त उस की हिमायत में कोई लड़ाई नहीं हुई। और उस के एक पैरौ (मानने वाले) ने जब तल्वार निकाली। तो उसे फिर मियान में करने का हुक्म दिया गया उस की बादशाहत जिसे वो क़ायम करना चाहता है लश्करों और अस्लाह (हथियार) और दुनियावी शान व शौकत की बादशाहत नहीं है।

      लेकिन इस इन्कार के वक़्त भी येसू ने अल्फ़ाज़ मेरी बादशाहत इस्तिमाल किए थे। जिस पर पीलातुस बोल उठा, पस क्या तू बादशाह है? येसू ने जवाब दिया, हाँ मैं इसी लिए पैदा हुआ। और इसी वास्ते दुनिया में आया हूँ कि हक़ की गवाही दूँ। यही मुल्क-ए-हक़ व रास्ती उस की ममलकत है। और यह क़ैसर की सल्तनत से बहुत ही मुख़्तलिफ़ है। क़ैसर की हुकूमत इन्सानों के जिस्मों पर है। मगर उस की उन दिलों पर मुसल्लत (क़ाबिज़) है। क़ैसर की ममलकत और क़ुव्वत का मदार उस की फ़ौजों हथियारों, क़िलओं और जहाज़ों पर है। मगर इस बादशाहत की क़ुव्वत उस के उसूलों, ख़यालों, और हिस्सों पर मुन्हसिर है। जो फ़ायदा क़ैसर अपनी रियाया को पहुंचा सकता है। वो फ़क़त उन के जिस्म और माल की हिफ़ाज़त है। मगर मसीह की बादशाहत की बरकतें ज़मीर का इत्मीनान और रूह-उल-क़ुद्स की शादमानी है। क़ैसर की सल्तनत बावजूद अपनी वुसअत के महदूद है। मसीह की सल्तनत की कोई हद नहीं और वह आख़िरकार हर एक मुल्क में क़ायम होने वाली है। क़ैसर की सल्तनत दूसरी ज़मीनी सल्तनतों की तरह अपने अच्छे दिन देखकर आख़िरकार बिल्कुल नाबूद हो गई। मगर हक़ विरासती की सल्तनत अबद-उल-आबाद तक क़ायम रहेगी।

      बाअज़ का ख़याल है कि मसीह के इस अज़ीम क़ौम में एक मशरिक़ी नहीं….। बल्कि मग़रिबी ख़याल की बू आती है एक शरीफ़ दिल यहूदी को सबसे बढ़कर ये ख़्वाहिश थी कि वो रास्तबाज़ी को हासिल करे। मगर एक शरीफ़ दिल यूनानी हक़ विरासती का ख़्वाहां था। इस ज़माने में भी कई एक ऐसी रूहें थीं बल्कि ग़ैर-यहूदी अक़्वाम में भी। जिनके सामने अगर सच्चाई की बादशाहत का ज़िक्र किया जाता तो उन के दिल उछल पड़ते। येसू इस बात को ताक रहा था, कि आया इस आदमी की रूह में भी इस क़िस्म की पुर ज़ोर ख़्वाहिश मौजूद है।

      और जब वो ये अल्फ़ाज़ कहने लगा कि, जो कोई हक़ का है वो मेरी आवाज़ सुनता है। तो उस के ज़रा और भी क़रीब हो गया होगा। क्योंकि इस में भी एक इशारा था कि अगर वो सच्चाई का मुश्ताक़ है। तो उसे भी उस पर ईमान लाना चाहिए। येसू ने अपने जज को भी मुनादी की। जैसे कि पौलूस क़ैदी ने अपने जज फेलिक्स को काँपा दिया। और उस का जज अगरप्पा चिल्ला उठा कि तू तो थोड़ी ही सी नसीहत करके मुझे मसीही कर लेना चाहता है। वैसे ही उस वक़्त येसू भी एक वाइज़ और नजात-दहिंदा की हैसियत में पीलातुस के ज़मीर को टटोल रहा था। जो शख़्स रूहों के लिए बंसी डालता है उसे बहुत क़िस्म की बंसियों की ज़रूरत होती है। और इस मौक़े पर येसू ने एक ख़ास क़िस्म की बंसी इस्तिमाल की।

      हमेशा ऐसे आदमी पाए जाते हैं जिन्हें आम क़िस्म की दावतों का कुछ असर नहीं होता। लेकिन इस क़िस्म की बारीक दावत से खिंचे चले आते हैं। क्या सच्चाई तुझ पर अफ़्सून की तरह काम करती है? क्या तू हिक्मत का प्यासा है? ऐसे लोग भी हैं जिनकी नज़र में वो क़ीमती चीज़ें जिनकी जुस्तजू में अवामुन्नास रहते हैं ख़ाक के बराबर हैं माली दौलत के लिए दौड़ धूप, ज़िंदगी का फ़ख़्र, सोसाइटी की नज़रों में इज़्ज़त हासिल करना, जो लोग इन बातों की तलाश में हैं शायद उन पर हंसते और उन्हें क़ाबिल-ए-रहम समझते हो। मगर एक हर-दिल-अज़ीज़ शायर का सुनहरी सफ़ा, एक सच्चे साहिबे ख्याल का नया मशुक़ूक़ और गर्मा गर्म ख़याल एक पुर मज़्मून फ़क़त जो तुम्हारे ख़याल को अबदियत की हदों तक पहुँचाता है। एक रोशन मसअला जो सितारे की मानिंद तुम्हारे अक़्ल व फ़हम के उफ़क (आस्मान) पर तुलूअ होता है ये चीज़ें तुम्हारी दौलत हैं। दुनिया की तारीकी से तुम्हारे दिल पर चोट लगती है। और सैंकड़ों दकी़क़ (मुश्किल) मसाइल तुम्हें सताते हैं। ऐ हिक्मत के फ़र्ज़न्द और आशिक़ क्या तू शाह रास्ती से वाक़िफ़ है? यही वो है जो तेरी नूर व रोशनी की आरज़ू को पूरा कर सकता है। और ख़याल और ग़लतियों के जाल से रिहाई दे सकता है।

      लेकिन क्या उस का ये क़ौल जो वो यहां फ़रमाता है सच्च है कि हर एक जो हक़ का है, उस की आवाज़ सुनता है? क्या इस वक़्त दुनिया ऐसे मर्दो औरतों से भरी हुई नहीं है, जो सच्चाई की तलाश में हैं। लेकिन फिर भी मसीह के पास से गुज़र जाते हैं हाँ वो और भी बड़े पुर-ज़ोर अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करता है कि वो जो हक़ से पैदा हुए। क्या तुम भी दर-हक़ीक़त कभी हक़ की गोद में बैठे हो। उस की गर्दन से लिपटे हो। उस का दूध पिया है? बहुत ऐसे लोग हैं जो मह्ज़ अपने धन व अक़्ल से सच्चाई की तलाश करते हैं मगर ये नहीं चाहते कि वो उन के चाल चलन पर हुकूमत करे। और उन के दिलों को पाक-साफ़ कर दे। मगर सिर्फ वही लोग जो अपनी सारी जान से सच्चाई की तलाश करते हैं। उस के सच्चे फ़र्ज़न्द कहलाने के मुस्तहिक़ हैं। और इन्हीं लोगों को मसीह की आवाज़ जब एक दफ़ाअ सुनाई दी जाती है। तो ऐसा मालूम होता है कि गोया सूरज निकल आया या मौसम-ए-बहार आ गया।

      मगर अफ़्सोस पीलातुस ऐसा आदमी ना था। वो रुहानी उमंगों से बे-बहरा (महरूम) था वो ज़मीन से ज़मीनी था। वो किसी ऐसी चीज़ की तलाश में ना था। जो आँख देख नहीं सकती और ना हाथ छू सकता है उस के लिए सच्चाई की बादशाहत और सच्चाई का बादशाह मह्ज़ ख़्याली अल्फ़ाज़ थे। उस ने पूछा कि हक़ क्या है? मगर ये सवाल करते ही वो अपने पांव पर फिरा। और जवाब का इंतिज़ार ना किया। उस का सवाल ऐसा ही था जैसे कोई बदकार पूछ बैठे, कि नेकी क्या है? या कोई ज़ालिम कि आज़ादी क्या है?

      मगर उसे कामिल यक़ीन हो गया कि येसू बेगुनाह है उस ने उसे फ़क़त एक नेक मिज़ाज मज़्हबी, जोशीला आदमी ख़याल किया, जिसके हाथों सल्तनत-ए-रोम को कुछ ख़ौफ़ ना था। पस वो बाहर गया। और जाते ही उस की बरीयत का फ़त्वा दे दिया। मैं इस में कोई क़सूर नहीं पाता।

पांचवां बाब
येसू और हेरोदेस

      पीलातुस ने येसू की तहक़ीक़ात की और उसे बेगुनाह पाया। और उस ने सदर मज्लिस के मैंबरों को भी साफ़-साफ़ कह दिया। इस तौर से उस ने गोया उन के फ़तवे को रद्द कर दिया। अब इस का नतीजा क्या होना चाहिए था? अलबत्ता यही कि येसू को फ़ील-फ़ौर रिहा कर दिया जाये। और अगर ज़रूरत हो, तो उसी की हिफ़ाज़त की जाये। ताकि यहूदी उसे किसी तरह का नुक़्सान ना पहुंचाएं।

      मगर ऐसा क्यों ना हुआ? एक और वाक़िया जो पीलातुस की ज़िंदगी में गुज़रा और जो एक मोअर्रिख ने बयान किया है इस अम्र को वाज़ेह कर देगा। येसू की पेशी के चंद साल पहले पीलातुस ने जो थोड़ा अर्सा पहले नया नया यहूदिया का गवर्नर मुक़र्रर हुआ था। ये इरादा किया, कि फ़ौज की छावनी क़ैसरिया से उठा कर यरूशलेम में क़ायम की जाये। और सिपाही अपने झंडे लिए हुए जिस पर शाहंशाह की तस्वीर बनी थी। मुक़द्दस शहर में दाख़िल हुए। यहूदियों के नज़्दीक ये तस्वीरें बुत परस्ती थीं। और उनका यरूशलेम में दाख़िल होना सख़्त बे-अदबी और नापाकी का बाइस समझा जाता था। शहर के लोग जोक दर जोक (ग़ोल की सूरत में) केसरिया को जहां पीलातुस मुक़ीम था जाने लगे। और उस की मिन्नत समाजत की कि इन झंडों को निकाल दे। मगर उस ने इन्कार किया और पाँच दिन तक बराबर बह्स जारी रही। आख़िरकार वो ऐसा ग़ुस्से में आया कि उस ने सिपाहियों को हुक्म दिया, कि उन्हें घेर लें और धमकी दी कि अगर वो चुप-चाप अपने-अपने घर का रास्ता ना लेंगे, तो क़त्ल किए जाऐंगे। मगर वो इस बात से हरगिज़ ना डरे। और सब ने ज़मीन पर गिरकर अपनी गर्दनें ब्रहना कर दीं। और चिल्लाए कि हम जान देने को तैयार हैं। मगर अपने शहर की बे-हुरमती गवारा नहीं कर सकते। इस का नतीजा ये हुआ कि पीलातुस को उन की बात मान कर अपनी फ़ौज को यरूशलेम से बुला लेना पड़ा। यूसीफ़स 18-3:1

      ये गवर्नर था। और यह लोग थे। जिनके साथ उसे से साबिक़ा पड़ा। जब उन के दिल किसी बात पर जम जाते और उनका मज़्हबी जोश भड़क उठता तो वो उन से किसी तरह ओहदा बुरा नहीं हो सकता था। इस मौक़े पर वो उस से उसी तरह पेश आए। जैसा गुज़श्ता मौक़े पर पेश आए थे। उस ने येसू को बेगुनाह ठहराया। और इस बात पर सारे मुकदमें का ख़ातिमा हो जाना चाहिए था। मगर उन्होंने ग़ज़बनाक हो कर शोर व ग़ौग़ा मचाना शुरू किया। या जैसा कि मुक़द्दस लूक़ा ने लिखा है कि वो और भी तुंद होने लगे। और उन्हों ने क़ैदी के ख़िलाफ़ और भी ज़ोर शोर से इल्ज़ाम लगाने शुरू किए।

      पीलातुस को उन के मुक़ाबले की ताब ना थी। वो इस कमज़ोरी की हालत में ख़ुद येसू की तरफ़ फिरा और कहने लगा, क्या तू सुनता है, कि लोग तेरे ख़िलाफ़ क्या गवाही देते हैं? मगर येसू कुछ ना बोला। वो नहीं चाहता था कि एक लफ़्ज़ बोल कर भी इस कार्रवाई को और तूल दे। यहां तक कि गवर्नर ताज्जुब करने लगा। वो ख़ुद ऐसा बे-ठिकाने और हैरान व शश्दर हो रहा था कि वो उस के इस पुर इस्तिक़लाल इत्मीनान की हक़ीक़त को समझ ना सकता था। इस सारे मुकदमें में येसू को अपनी जान के लाले पड़ रहे थे। मगर बावजूद इस के इस सारी जमाअत में वही शख़्स था। जो बिल्कुल मुत्मइन और पुर सुकून मालूम होता था।

      मगर दफअतन (अचानक) इस सारी घबराहट के दर्मियान पीलातुस को अपने इस सारे उलझन से बच निकलने की एक तर्कीब सूझ गई। वो चिल्ला रहे थे, कि ये सारे यहूदिया में, बल्कि गलील से लेकर यहां तक लोगों को सिखा-सिखा कर उभारता है। गलील का नाम लेने से उन की ग़र्ज़ ये थी, कि पीलातुस के दिल में येसू के ख़िलाफ़ बदज़नी पैदा कर दें। क्योंकि गलील हमेशा बग़ावत व सरकशी का घर समझा जाता था। मगर इस से पीलातुस के दिल में कुछ और ही ख़याल पैदा हो गया। और उस ने बड़ी फ़िक्रमंदी से पूछा। क्या वो गलीली है? दफअतन (फ़ौरन) उस के दिल में ये बात आ गई कि हेरोदेस हाकिम गलील इस वक़्त ईद फ़सह मनाने के लिए यहीं शहर में मौजूद है। और चूँकि रोमी क़ानून के ज़ाबते में दाख़िल था कि एक क़ैदी को उसी जगह जहां का वो दरअस्ल रहने वाला होता था तहक़ीक़ात के लिए भेज देते थे। उस को ये बात सूझ गई कि बेहतर होगा कि येसू को उस सूबे के हाकिम के पास जहां का वो बाशिंदा है। भेज दिया जाये और इस तरह से अपना पीछा छुड़ाए। उस ने फ़ील-फ़ौर इस ख़याल पर अमल किया और अपने सिपाहियों की ज़ेर निगरानी येसू और उस के मुद्दियों को मक्काबियों के क़दीमी महल में जहां हेरोदेस फ़िरोकश (ठहरना) हुआ करता था। भेज दिया।

      इस तरह येसू इस शर्मनाक रोज़-गेंद की तरह इधर-उधर फेंका गया। हन्ना से काइफ़ा के पास। काइफ़ा से पीलातुस के पास। और पीलातुस से हेरोदेस के पास। और अभी यहीं बस नहीं। और यह आमद व रफ़्त ऐसी हालत में हुई, जब कि वो ज़ंजीरों से जकड़ा हुआ और प्यादों के ज़ेरे हिफ़ाज़त था। और उस के इल्ज़ाम लगाने वाले उसे चारों तरफ़ से घेरे हुए थे। हाँ उस के दुखों की फ़ेहरिस्त में इन बातों को हरगिज़ फ़रामोश नहीं करना चाहिए।

(1)

      अहदे जदीद के सहीफ़ों में हेरोदेस नाम के कई एक अश्ख़ास का ज़िक्र आया है। इसलिए इस बात को साफ़ कर देना चाहिए कि ये उन में से कौन सा था। सब से अव़्वल तो वो हेरोदेस था जिसने बैत-लहम के बच्चों को क़त्ल कराया था। जब कि येसू को उस के वालदैन मिस्र में ले गए थे। उसे हेरोदेस आज़म कहते थे। वो तमाम मुल्क पर हुक्मरान था। अगरचे वो भी रोमियों का मुतीअ था। उस की वफ़ात पर उस का मुल्क उस के बेटों में तक़्सीम किया गया। और इस तरह से रोमियों का क़ब्ज़ा मुल्क पर और भी मज़्बूत हो गया। क्योंकि जिस क़द्र महरूसा (मातहत) रियासतें छोटी-छोटी हों। इसी क़द्र सर-परस्त सल्तनत का इख़्तियार ज़्यादा मज़्बूत होगा। यहूदिया अर-ख़लाउस को दिया गया। मगर थोड़े ही अर्से बाद उस से ले लिया गया। और अब रोमी हाकिम उस पर हुक्मरानी करते थे। जिनमें से पीलातुस एक था। गलील और पेरिया हेरोदेस के दूसरे बेटे अंतीपास को दिया गया। और इस के शुमाल का इलाक़ा फ़ेलबोस (फिलिप) के हिस्से में आया। ये हेरोदेस जिसका हम यहां ज़िक्र करते हैं। अंतीपास है।

      ये एक साहिब-ए-लियाक़त आदमी था। और अपनी सल्तनत के शुरू में उस ने ज़ाहिर किया कि वो उम्दा तौर से हुकूमत करेगा। अपने बाप की तरह उसे भी तामीर व इमारत का बहुत शौक़ था। और उसी ने शहर तिबरियास में एक बड़ा आलीशान मकान तामीर किया था जो आज कल भी ज़माना-ए-हाल के मिशन के साथ ताल्लुक़ रखने के सबब ख़ास शौहरत रखता है। मगर उस ने एक हरकत की। जिसने उस की सारी लियाक़त पर पानी फेर दिया। और वह ये थी कि वो अपने भाई फिलिप की जोरु हेरोदियास से मिल बैठा। वो अपने ख़ावंद को छोड़ कर उस के पास चली आई। और उसने भी अपनी जोरू को घर से निकाल दिया। जो अरितास शाह अरब की बेटी थी। हेरोदियास उस के मिज़ाज पर बड़ा ग़लबा रखती थी। और वो उम्र-भर एक चुड़ैल की तरह उस के पीछे लगी रही। इस उफ़्ताद (मुसीबत) से भी उस की आली उमंगें उस के अंदर बिल्कुल मुर्दा नहीं हो गई थीं। जब यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने मुल्क में अपनी वाअज़ व नसीहत से आग लगानी शुरू की तो वो भी उस की वाअज़ को बहुत दिलचस्पी से सुना करता था। उस ने उसे अपने महल में बुलवाया। और उस की बहुत कुछ इज़्ज़त व मदारात की। उस वक़्त तक कि यूहन्ना बोल उठा, कि तेरे लिए इस (हेरोदियास) का रखना जायज़ नहीं। इसी बात के लिए ये अज़ीमुश्शान वआज़ क़ैदख़ाने में डाला गया था। लेकिन फिर भी हेरोदेस अक्सर उसे बुला भेजा करता था। ज़ाहिरन ऐसा मालूम होता था कि उस पर उस के वाअज़ की तासीर हो गई है। और वो यूहन्ना की ख़सलत और तालीम का मद्दाह था। और लिखा है कि यूहन्ना के कहने के मुताबिक़ उस ने बहुत सी बातें कीं। मगर एक ज़रूरी बात थी। जो वो ना कर सका और ना की। उस ने हेरोदियास को अपने महल से ना निकाला। ये तबई बात थी, कि वो इस मर्द ख़ुदा से डरती थी। और उस से दुश्मनी रखती थी। क्योंकि वो उसे घर से निकालना चाहता था। और उस ने बड़ी सख़्त कीनावरी से उस के ख़िलाफ़ साज़िश शुरू की। वो अपनी लड़की के ज़रीये इस अम्र में कामयाब भी हो गई। ये लड़की अंतीपास से नहीं, बल्कि उस के पहले ख़ावंद से थी। बादशाह की सालगिरा के जलसे में सलोमी हेरोदेस की मज्लिस में आकर नाची और अपने हुनर व फ़न और हुस्न व ख़ूबी से बादशाह को ऐसा महु व गरवीदा कर लिया कि वो एक जोश की हालत में वाअदा कर बैठा। जिससे इस आदमी की ख़सलत का अंदाज़ा हो सकता है, कि वो जो कुछ वो लड़की मांगेगी, उसे देगा ख़्वाह उस की आधी सल्तनत ही क्यों ना हो। और जब इस अफ़्सूँगर (जादूगर) ने जिसे उस की माँ ने इस जहन्नुमी फ़न में ख़ूब पक्का कर छोड़ा था। इस मर्द-ए-ख़ुदा का सर मांगा। तो उस ने इन्कार ना किया।

      इस ख़ौफ़नाक गुनाह से उस की रियाया हक्का-बक्का सा रह गई। और जब इस के थोड़े अर्से बाद उस के ख़ुसर शाह अरेतास ने अपनी लड़की का बदला लेने के लिए उसे शिकस्त-ए-फ़ाश देकर उस के मुल्क को ताख़त व ताराज (तबाह करना) किया तो उमूमन ये ख़याल किया जाता था कि ये ख़ुदा की तरफ़ से उस के किए की सज़ा मिली है। उस का दिल भी इस गुनाह की पशेमानी से आज़ुर्दा रहता था। जैसा कि इस अम्र से वाज़ेह होता है कि जब उस ने येसू की मुनादी का हाल सुना तो सब से पहले उसे यही ख़याल गुज़रा, कि यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला मुर्दों में से जी उठा है। अब वो दिन-ब-दिन बराबर बिगड़ता चला गया। अपनी रियाया की नफ़रत मालूम कर के वो ज़्यादा-ज़्यादा अजनबी रस्म व दस्तूर को इख़्तियार करने लगा। उस का दरबार हर बात में रोमियों की नक़्ल करने के लिए मशहूर था। वो हर तरह की ऐश व इशरत में मशग़ूल रहता था। गाने बजाने और नाचने वाले और भांडा जवान छोटी-छोटी रियासतों में दौरा करते रहते थे। तिबरियास में उन की ख़ूब आओ-भगत होती रहती थी। उस की ख़सलत व तबीयत दिन-ब-दिन कमज़ोर होती गई। और आख़िरकार ये नौबत पहुंच गई कि वो बिल्कुल मोम की नाक बन गया। और कोई बात देर तक उस पर अपना असर ना डाल सकती थी। हर साल वो ईद-ए-फ़सह के मौक़े पर यरूशलेम को आता था। मगर इस में भी उस की ग़र्ज़ दीनी इबादत नहीं होती थी बल्कि फ़क़त सैरो तफ़रीह ऐसे बड़े मजमे में और नहीं तो मुख़्तलिफ़ लोगों से मुलाक़ातें होंगी। और तरह-तरह की ख़बरें सुनने में आएगी। और कौन कह सकता है, कि वहां क्या-क्या मज़ेदार और पुर लुत्फ़ तमाशे देखने में ना आएँगे।

      जिस तौर से उस ने येसू की आओ-भगत की वो भी ठीक उस के मिज़ाज का ख़ास्सा था। अगर उस के अंदर एक शरीर आदमी का सा ज़मीर भी होता तो उसे ज़रूर बपतिस्मा देने वाले के दोस्त की मुलाक़ात करते शर्म दामनगीर होती। एक ज़माने में तो वह मह्ज़ येसू की अफ़वाही ख़बरें सुनकर ख़ौफ़-ज़दा हो गया था मगर वो ज़माना गुज़र गया था। इस क़िस्म के जज़्बात की जगह अब और बातें दख़ल पा गई थीं। और इसलिए अव़्वल-उल-ज़िक्र फ़रामोश हो गई थी। और इस क़िस्म का आदमी हमेशा अपना दिल बहलाने के लिए इस क़िस्म की तहरीकियों की तलाश में रहता है। दोम ये गोया रोमी हुकूमत की तरफ़ से एक क़िस्म का सुलह का पयाम था। क्योंकि लिखा है कि उस में और पीलातुस में इस से पहले शकर-रंजी (अन-बन) थी। मगर इस बात से वो फिर दोस्त हो गए मगर उस की ख़ुशी ज़्यादा तर इस सबब से थी, कि उसे उम्मीद थी कि येसू उसे कोई करामात दिखाएगा। उस का इलाक़ा दो तीन साल तक बराबर उन करामातों की शौहरत से गूंजता रहा था। मगर हेरोदेस को अब तक उस की ज़ियारत नसीब ना हुई थी। अब उसे अच्छा मौक़ा हाथ लगा। और बिला-शुब्हा उस के ज़हन में भी था, कि येसू ज़रूर उस के इस इश्तियाक़ को पूरा करेगा। बल्कि ये कि वो अपने हुनर व फ़न का उस के रूबरू इज़्हार करना अपना फ़ख़्र समझेगा।

      हेरोदेस के दिल में येसू की निस्बत इस क़िस्म के ख़याल जागज़ीन थे। उस ने उसे गोया मामूली गाने बजाने और नाचने वालों के बराबर समझा। और उस ने उस के मोअजिज़ों को एक मदारी के खेल व तमाशे की मानिंद ख़याल किया। और उस ने उस से इसी क़िस्म की सैरो तफ़रीह की उम्मीद की जैसे कि वो किसी मामूली शोबदे बाज़ (करतब दिखाने वाले) से कर सकता।

      उस ने फ़ील-फ़ौर उस से दोस्ताना तौर पर गुफ़्तगु शुरू की। और उस से बहुत सी बातें दर्याफ़्त कीं। ज़ाहिरन ऐसा मालूम होता है, कि वो उस मुद्दआ को जिस के लिए पीलातुस ने उसे उस के पास भेजा था बिल्कुल भूल गया। उस ने उस के मुँह से जवाब का भी इंतिज़ार ना किया। बल्कि बकता चला गया। उस ने मज़्हबी बातों पर बहुत कुछ सोच बिचार की थी। और वो येसू के सामने ये ज़ाहिर करना चाहता था, कि उसे इन मुआमलात के मुताल्लिक़ किस क़द्र वाक़फ़ियत हासिल है। उस के ज़हन में बड़े-बड़े गहरे सवाल पेच व ताब खा रहे थे। और बहुत अक़दे (मुश्किल बात) हल तलब थे। एक ऐसा आदमी भी जिसका कुछ दीन व ईमान ना हो, दीनी उमूर् की बाबत बहुत कुछ बातचीत कर सकता है। और बहुत से आदमी हैं जो बजाए दूसरे आदमियों की गुफ़्तगु सुनने के ख़्वाह वो उन से कितने ही बढ़कर दाना क्यों ना हों अपनी ही शीरीं आवाज़ को सुनना ज़्यादा पसंद करते हैं। शायद ही किसी शख़्स की ज़बान एक बेउसूल और बद-चलन आदमी के बराबर तेज़ चलती होगी। हेरोदेस आख़िरकार बातें करते-करते थक गया। और अब येसू के लब खोलने का इंतिज़ार करने लगा। मगर येसू के मुँह से एक लफ़्ज़ भी ना निकला। वो बराबर ख़ामोश खड़ा रहा। यहां तक कि ख़ामोशी दुभर मालूम देने लगी। हेरोदेस भी मारे ग़ुस्से के लाल पीला होने लगा। मगर येसू के मुँह से एक हर्फ़ ना निकला।

      अव़्वल तो ये बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि ये सारी कार्रवाई बिल्कुल ग़ैर-मुताल्लिक़ थी। येसू हेरोदेस के पास तहक़ीक़ात के लिए भेजा गया था। मगर इस अम्र की तरफ़ उसने तवज्जोह भी ना की। अगर येसू की ये ख़्वाहिश होती कि जिस तरह हो सके, अपने आपको दुश्मनों के पंजे से छुड़ाले। तो यक़ीनन ये एक निहायत उम्दा मौक़ा था। क्योंकि अगर वह फ़क़त हेरोदेस की ख़्वाहिश के मुवाफ़िक़ करता। और उस की तफ़रीह के लिए एक मोअजिज़ा दिखा देता। तो इस में कुछ शुब्हा नहीं कि वो उसे ना सिर्फ फ़ौरन रिहा कर देता बल्कि तरह-तरह के इनाम व इकराम से माला-माल कर देता। मगर हम यक़ीन नहीं कर सकते, कि इस क़िस्म का ख़याल तक भी येसू के दिल में आया होगा। उस ने अपनी ज़ाती ग़र्ज़ के लिए आज तक कभी मोअजिज़े से काम नहीं लिया था। और ये कभी ख़याल में नहीं आ सकता कि इस वक़्त वो अपने को ऐसा ज़लील कर देता कि हेरोदेस के उस ख़याल को जो इस ने उस की निस्बत बांध रखा था। सही साबित करने के लिए एक मोअजिज़ा दिखा देता। येसू हेरोदेस की रिआया तो था। मगर उस के लिए ये हरगिज़ मुम्किन ना था, कि ऐसे शख़्स को अदब व इज़्ज़त की निगाह से देखता। भला ऐसे शख़्स के लिए सिवाए हिक़ारत के और क्या ख़याल दिल में आ सकता था। जिसने येसू के साथ ऐसा कीनादार सुलूक किया और एसे अज़ीमुश्शान और अहम मौक़े पर ऐसे हल्के-पन को काम में लाया। एक ऐसे शख़्स को जो हेरोदेस की गुज़श्ता ज़िंदगी से वाक़िफ़ था। उस को मज़्हबी उमूर् पर गुफ़्तगु करते सुनना कैसा ना-गवार मालूम हुआ होगा। इस शख़्स में मर्दुमी या सिदक़ दिली का नाम व निशान तक ना था। मज़्हब इसके लिए मह्ज़ एक खेल था।

      ऐसे आदमी के सामने मसीह हमेशा ख़ामोश रहता है। हेरोदेस उन अश्ख़ास का क़ाइम मक़ाम है, जिनके नज़्दीक ज़िंदगी में कोई संजीदगी नहीं है। और जो फ़क़त ऐश व इशरत के लिए जीते हैं। ऐसे लोग कस्रत से पाए जाते हैं। वो ना सिर्फ मज़्हब में और उस की आला और संजीदा सूरत में कोई कशिश अपने लिए नहीं पाते। बल्कि वो हर एक बात से जिस में गहरे ग़ौर व फ़िक्र या संजीदगी या सरगर्मी की ज़रूरत हो पर हीज़ करते हैं। जूंही वो अपने ज़ाती कारोबार से फ़ारिग़ होते हैं ऐश व इशरत और सैरो तफ़रीह की तरफ़ दौड़ते हैं। और एक चीज़ जिससे वो अज़-हद ख़ौफ़-ज़दा हैं। सो तन्हाई है क्योंकि वो नहीं चाहते कि कहीं अपने आपसे दो-चार ना हो जाएं। सोसाइटी के बाअज़ फ़िर्क़ों में जहां रोटी कमाने के लिए मेहनत करने की हाजत नहीं। ये मिज़ाज व तबीयत हुकूमत कर रही है। ज़िंदगी एक खेल है। एक तफ़रीह के बाद दूसरी। और ये सिलसिला बराबर जारी रहता है। और इस अम्र का ख़ूब एहतिमाम किया जाता है, कि कोई ऐसी फ़राग़त की घड़ी ना मिले। जिसमें ख़्वाह-मख़्वाह संजीदा बातों पर ग़ौर व फ़िक्र करने की नौबत आए।

      इस आवारगी में मज़्हब को भी जगह मिल सकती है। मुम्किन कि लोग गिरजे को भी इसी नीयत व मुद्दआ से जाएं। जैसे किसी थियेटर या तमाशागाह को जाया करते हैं। इस उम्मीद से कि वहां भी कोई मशग़ला हाथ आ जाये और दिल बहलाने का कुछ सामान मिल जाये। जिससे ज़िंदगी की एक घड़ी का बोझ सर से उतर जाये। हमें शर्म से इस अम्र का इक़रार करना पड़ता है, कि इस क़िस्म के बहुतेरे गिरजे और इस क़िस्म के बहुतेरे वाइज़ हैं जो इस क़िस्म की जरूरतों और ख़्वाहिशों के पूरा करने के लिए तैयार हैं। फ़साहत व बलाग़त (ख़ुश-कलामी) की आतिशबाज़ी और मौसीक़ी की अफ़सोंगरी (जादूगरी) या रीत व रस्म की शान व शौकत से इलाही इबादत को दिल बहलाने का एक निहायत उम्दा मशग़ला बना दिया जाता है। और जमाअत जब इबादत के बाद घरों को रुख़्सत होती है तो उन के दिल में क़रीबन वैसे ही ख़याल भरे होते हैं जैसे, कॉन्सर्ट (महफ़िल राग) के देखने के बाद होते हैं। ग़ालिबन वो लोग इस अम्र को एक बड़ी कामयाबी ख़याल करते हैं। मगर ये याद रहे कि वहां मसीह ने कलाम नहीं किया। वो ऐसे लोगों के सामने जो मज़्हब की इस रूह व मिज़ाज में पैरवी करते हैं। हरगिज़-हरगिज़ अपने होंट नहीं खौलता।

      बाज़ औक़ात यही मिज़ाज एक पहलू में अपना रंग दिखाता है। वो मज़्हबी बातों पर ख़याल के घोड़े दौड़ाने लगता। और उस के मसाइल पर तरह-तरह के शक व शुब्हा पैदा करने लगता है। और हेरोदेस की तरह बहुतेरे बातें पूछने लगता है। जब कभी मैं बाअज़ लोगों को मज़्हबी अक़ीदों पर बातचीत और बह्स करने सुनता हूँ। तो अक्सर मुझे ये जवाब बन आया करता है, कि भला कैसे हो सकता है कि तुम मसीह पर ईमान ला सको? तुमने कौन सा ऐसा काम किया है जिससे तुम इस क़िस्म के इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) के सज़ावार ठहरो? तुम तो दिल में ये समझ रहे हो कि गोया हम ईमान ला कर मसीह पर कुछ एहसान करते हैं। दर-हक़ीक़त उस पर और उस के कलाम पर ईमान लाने की क़ुद्रत व क़ाबिलियत रखना एक बड़ा इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) और इज़्ज़त है जिसके हासिल करने के लिए ग़ौर व फ़िक्र, अजुज़ व फिरोतनी और ख़ुद इंकारी की ज़रूरत है।

      हमें ये ज़रूर नहीं कि हर एक शख़्स के एतराज़ात का जो वो हमारे दीन पर करता है, जवाब दें। मज़्हब दर-हक़ीक़त एक ऐसा मज़्मून है जिस पर गुफ़्तगु करना हर एक शख़्स अपना हक़ समझता है। निहायत ना पाक ख़याल और बद-चलन आदमी भी इस की निस्बत बातचीत करते और क़लम लेकर लिखने बैठ जाते हैं। गोया कि उन्हें इस में किसी क़िस्म का शक व शुब्हा नहीं। मगर दर-हक़ीक़त ये एक ऐसा मज़्मून है जिस पर बहुत थोड़ों को गुफ़्तगु करने का हक़ हासिल है। हम बहुतों के ख़यालात को पहले ही से उन के चाल-चलन से मालूम कर सकते हैं।

      और समझ सकते हैं कि उन की क्या वक़अत व हक़ीक़त है।

      बाअज़ शायद ये कहें कि येसू को चाहिए था कि हेरोदेस को जवाब देता और ऐसा ना करने से उस ने एक एक उम्दा मौक़ा खो दिया। क्या ये मुनासिब था वो इस अम्र में उस के ज़मीर को शायद लाता। और जिस तरह हो सकता, उसे गुनाह से मुतनब्बाह (आगाह) करने की कोशिश करता? उन लोगों को मेरा जवाब ये है कि उस की ख़ामोशी ही बजाए बोलने के एक बड़ी साफ़ अपील थी। उस में ज़र्रा भर भी ज़मीर ज़िंदा होता तो वो आँखें जो उस को देख रही थीं। और वह इलाही इख़्तियार व इक़्तिदार जो उस का अंदाज़ा व मिक़्यास था ज़रूर उस के गुनाहों को क़ब्र में से निकाल कर उस के सामने लाता और उसे परेशान हाल कर देता। येसू ख़ुदावन्द ख़ामोश था। ताकि मुर्दा बपतिस्मा देने आवाज़ सफ़ाई से सुनाई दे…..।

      अगर हम इस का मतलब समझ सकते तो हमें मालूम होगा कि यक़ीनन मसीह की ख़ामोशी उस वक़्त निहायत मोअस्सर तक़रीर से भी कहीं बढ़कर थी। क्या तुम्हें वो वक़्त याद है जब तुम उस की आवाज़ सुना करते थे जब कि किताबे मुक़द्दस और वाइज़ गिरजे में तुम्हारे दिल के अंदर तहरीक पैदा किया करते थे। गीतों को सुनकर तुम्हारे दिल में तरह-तरह की आला उमंगें उठतीं। जब सबत का रोज़ तुम्हारे नज़्दीक निहायत एक मुक़द्दस दिन था। जब ख़ुदा की रूह अंदर जद्दो-जहद करती थी। और क्या ये सब गुज़र गया या गुज़र रहा है? क्या वो तुमसे गुफ़्तगु नहीं करता? अगर कोई आदमी बीमार पड़ा हो उस के इर्दगिर्द के सब लोग उसकी हालत देख कर दिन बदिन छिप जाते हैं। बीवी कलाम से परहेज़ करती है। मुलाक़ाती धीमी आवाज़ में हैं। आने जानेवाले आहिस्ता-आहिस्ता क़दम रखते हैं। और दरवाज़े इस तरह बंद करते हैं, कि आहट ना हो। तो वो जान लेता है, कि उस का मर्ज़ ख़ौफ़नाक दर्जे को पहुंच गया है। जब एक मुसाफ़िर बर्फ़ानी तूफ़ान से जंग करता हुआ आख़िरकार आराम के लिए लेट जाता है। और सर्दी और दर्द और बेक़रारी महसूस करने लगता है। और अगर उस वक़्त उसे मीठी नींद आने लगे। तब वक़्त है कि उसे जगाया जाये कि वो उठ कर फिर चलने और तूफ़ान से लड़ने में मशग़ूल हो। वर्ना उसे क़ियामत तक कभी दुबारा खड़ा होना नसीब ना होगा। रूहानी ज़िंदगी में भी इसी क़िस्म की हालत तारी हो जाया करती है। इस के ये मअनी होते हैं कि रूह ने जद्दो-जहद करना छोड़ दिया है। और मसीह ने बुलाना तर्क कर दिया है। अगर इस क़ुम की नींद तुम पर ग़लबा पाती चली आती है। तो तुम्हें ज़रूर फ़िक्रमंद होना चाहिए। क्योंकि उस वक़्त तुम्हारी जान माअरिज़-ए-ख़तर है।

(4)

      हम नहीं कह सकते कि हेरोदेस ने कहाँ तक येसू की ख़ामोशी का मतलब समझ लिया। अग़्लब (मुम्किन) अम्र ये है कि उसने समझना ना चाहा। बहर-कैफ़ उस की हरकात से मालूम होता था कि उस ने कुछ भी नहीं समझा। उसने इसे हमाक़त समझा। उस ने ख़याल किया कि येसू के मोअजिज़ा ना दिखाने की वजह ये है, कि वो इस पर क़ादिर ही नहीं है। जो लोग इस क़िस्म के झूटे दावेदार होते हैं। जब वो पुलिस के हाथों पड़ जाते हैं। तो उन की सारी क़ुद्रत उन्हें जवाब दे जाया करती है। उस ने भी यही समझा। कि येसू का पोल खुल गया। उस का मसीहिय्यत का दावा बातिल (झूट) साबित हुआ। और अब उस के पैरू (मानने वाले) भी अपनी ग़लती से ख़बरदार हो गए होंगे।

      यही उस का ख़याल था और ऐसा ही उस ने ज़ाहिर भी किया। और उस के तख़्त के इर्द-गिर्द खड़े होने वालों ने भी उस के इस ख़याल की ताईद की। क्योंकि मुश्किल से कोई और मक़ाम होगा, जहां एक बड़े आदमी के अल्फ़ाज़ की ऐसी तोते की तरह नक़्ल उतारी जाती है। जैसे कि ऐसी छोटी-छोटी रियासतों में। और जब हेरोदेस ने येसू को पीलातुस के पास वापिस भेजने से पहले ये हुक्म दिया कि इस के कंधों पर एक तिलादार लिबास डाला जाये। तो यक़ीनन उन्होंने इस को एक ऐसा मज़ाक़ समझा होगा, जो बड़ी तहसीन व आफ़रीन (तारीफ़) के क़ाबिल है। ग़ालिबन ये उस लिबास की नक़्ल के तौर पर था। जो रोम में किसी ओहदे के उम्मीद-वार पहना करते थे। इस से गोया ये जताना मक़्सूद था, कि येसू गोया मुल्क के ताज व तख़्त का उम्मीद-वार है। मगर वो ऐसा ज़लील व क़ाबिले तमस्सखर है कि उसे हिक़ारत के सिवा किसी और सुलूक का सज़ावार समझना सख़्त ग़लती होगी। इस तरह क़हक़हे के नारों के दर्मियान येसू उस के हुज़ूर से धकेल कर ले जाया गया।

छटा बाब
पीलातुस के वापिस आना

      येसू को हेरोदेस के पास भेजने से जो पीलातुस का मंशा (मक़्सद) था पूरा ना हुआ इसलिए क़ैदी फिर शाही महल में वापिस लाया गया। हेरोदेस ने तो अपनी तरफ़ से येसू की बहुत तहक़ीर व तज़हीक (बेइज़्ज़ती) की मगर हक़ीक़त में जैसा कि हम अब जानते हैं। वो इस वक़्त ख़ुद क़ाबिल-ए-सज़ा ठहरा और उस ने अपने ही को रुस्वा किया। और अब येसू पीलातुस के पास वापिस आया ताकि ज़ाहिर कर दे कि वो यानी पीलातुस भी इस क़िस्म का आदमी है। अगरचे उस वक़्त पीलातुस मुतलक़न इस अम्र से बे-ख़बर था कि क्या कुछ होने को है। उसे इस वक़्त सिर्फ इस अम्र का रंज था कि मुक़द्दमा जिससे वो अपना पीछा छुड़ाना चाहता था। आख़िर उसी के गले पड़ गया। उसे ख़्वाह न ख़्वाह उसे करना पड़ा। और आख़िर उस ने फ़ैसला कर के ही छोड़ा। मगर पेश्तर इस के कि इस मुक़द्दमे का ख़ातिमा हुआ उस की अपनी ख़सलत व मिज़ाज उस की तह की तह तक तक मसीह की रोशनी में मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना) हो गया।

      हेरोदेस के मिज़ाज में तो हाकाईन और दुनिया-परस्ती समाई हुई थी। ऐसी दुनिया परस्ती जो सारी ज़िंदगी को एक खेल और मसखरी समझती है। मगर पीलातुस की दुनिया-परस्ती एक और ढंग की थी यानी इस क़िस्म की जो मैं को अपना मक़्सद व मुद्दआ ठहराती है और सब कुछ उसी के हुसूल के ताबे कर देती है। इन दोनों में से शायद इस आख़िरी क़िस्म की दुनिया परस्ती ज़्यादा आम है। और इसलिए इस राज़ खोल देने वाली रोशनी में जो मसीह से दरख़शां (रोशन) होती है। उस को दर्जा बदर्जा अपनी असली सूरत को ज़ाहिर करते देखना दिलचस्पी और फ़ायदे से ख़ाली ना होगा।

(1)

      पीलातुस शायद इस अम्र में बिल्कुल हक़-बजानिब होता। अगर वो येसू की रिहाई को उस के हेरोदेस के पास से वापिस आने तक मुल्तवी कर देता क्योंकि अगरचे उस ने ख़ुद उस में कुछ क़सूर ना पाया। तो भी यहूदियों की शरीअत और रसूम की ना-वाक़फ़ियत के सबब वो इस मुक़द्दमे में फ़त्वा लगाने में ताम्मुल करता और मुक़द्दमे का फ़ैसला करने से पहले एक माहिर की राय को मालूम करने का ख़्वाहिशमंद होता। लेकिन जब उस ने ये मालूम कर लिया कि हेरोदेस की राय भी उस के साथ मुत्तफ़िक़ है। तो अब इस अम्र में ज़्यादा ढील करने की कोई वजह बाक़ी ना रही। इसलिए उस ने यहूदियों से साफ़-साफ़ कह दिया कि उसने ख़ुद क़ैदी का इम्तिहान किया और इस में कुछ क़सूर ना पाया। उस ने उसे हेरोदेस के पास भेजा और वहां भी यही बात साबित हुई। इसलिए……… मगर क्या? शायद तुम ये सुनने के उम्मीदवार थे, कि इसलिए मैं उसे बिल्कुल बरी करता हूँ और अगर ज़रूरत हो तो उस की हिफ़ाज़त करूँगा ताकि कोई उसे ज़रर (नुक़्सान) ना पहुंचाए। मन्तिक़ और अदल के लिहाज़ से तो उसे यही अल्फ़ाज़ कहने मुनासिब थे। मगर पीलातुस के मुँह से जो अल्फ़ाज़ निकले वो ज़्यादा ताज्जुब-अंगेज़ थे। इसलिए मैं उसे पिटवा कर छोड़ देता हूँ। या यूं कहो कि वो इस बात पर आमादा (राज़ी) था, कि मह्ज़ उन के ग़ुस्से को दूर करने के लिए उसे कोड़ों की सख़्त सज़ा देगा। और फिर इन्साफ़ के मुताबिक़ उसे रिहा करूँगा।

      ये निहायत ही बे-इंसाफ़ी की बात थी। लेकिन इस से इस शख़्स की तबीयत और उस इंतज़ाम-ए-हुकूमत की जिसका वो क़ाइम मक़ाम था। रूह का हाल बख़ूबी आशकारा (ज़ाहिर) होता है। सल़्तनत-ए-रोमा की रूह ये थी, कि हस्बे-ज़रूरत और हस्बे मौक़ा जिस तरह से काम निकले कुछ दे दिला कर और छोड़ छुड़ा कर भी मतलब निकाल लेना चाहिए। जैसा कि ना सिर्फ दूसरी सल्तनतों में बल्कि कलीसिया के इंतिज़ाम में भी अक्सर औक़ात देखा गया है। पीलातुस ने बीसियों मुकदमात इसी उसूल के मुताबिक़ फ़ैसला किए होंगे। और बीसियों हाकिम रोम की वसीअ सल्तनत में उस वक़्त इसी उसूल के मुताबिक़ अमल-दर-आमद कर रहे थे। सिर्फ पीलातुस के हिस्से में ये आया कि इस कमीने उसूल को एक ऐसे मुक़द्दमे में अमल में लाए जहां उस की ये हालत तारीख़ की रोशनी की निगरानी में आ गई।

      लेकिन क्या हमें ये यक़ीन नहीं करना चाहिए कि दूसरे तमाम मुक़द्दमात में ख़्वाह मज़्लूम कैसा ही गुमनाम शख़्स क्यों ना हो ये रूह जो पीलातुस से ज़ाहिर हुई। ख़ुदा के नज़्दीक वैसी ही नामक़्बूल थी? हमारे ख़ुदावन्द ने जो आख़िरी रोज़ अदालत की तस्वीर खींची है। उस में एक बात ऐसी है जिस पर सबको ख़ुदावन्द के फ़तवे पर ताज्जुब (हैरानगी) पैदा होता है। और वो जो दाहिनी तरफ़ खड़े हैं उन से कहा जाता है कि उन्होंने मसीह को जब वो भूका था खाना खिलाया। जब प्यासा था पानी पिलाया वग़ैरह-वग़ैरह। और वह हैरत से सवाल करते हैं कि ऐ ख़ुदावन्द हम ने कब तुझे भूका देखा और खाना खिलाया कब प्यासा देखा और पानी पिलाया? इसी तरह वो जो बाएं तरफ़ खड़े हैं उन पर ये इल्ज़ाम लगाया जाता है, कि उन्होंने मसीह को भूका देखकर खाना ना खिलाया। प्यासा देखकर पानी ना पिलाया वग़ैरह। ये भी पूछते हैं, ख़ुदावन्द, हमने कब तुझे भूका और पियासा देखा और तेरी ख़िदमत ना की। शायद तुम ये ख़याल करो कि वो अपने गुनाह छुपाने के लिए जिनसे वो ख़ूब वाक़िफ़ हैं इस क़िस्म के कलमात कहते हैं हरगिज़ नहीं। वो सच-मुच आलिमे हैरत में डूबे हुए हैं। वो सोचते हैं कि शायद कहने वाले ने उन की निस्बत ग़लती खाई है। और अब उन्हें ऐसे गुनाहों के लिए सज़ा दी जाती है, जो उन से कभी सरज़द नहीं हुई। वो सिर्फ ये जानते हैं कि उन्होंने फ़क़त चंद बच्चों और बुढ़िया औरतों की तरफ़ से बेपर्वाई की थी। मगर ये किस हिसाब में हैं। लेकिन मसीह फ़रमाता है ये सब मेरे जाबजे थे। और अगर तुम ने उन की तरफ़ से ग़फ़लत की या उन्हें नुक़्सान पहुंचाया। तो ये तुम ने मेरे ही साथ किया। इस तौर से हर एक जान आख़िरकार ऐसी आला पाया और क़ाबिल लिहाज़ साबित होगी, कि हम इस वक़्त उस का तसव्वुर भी नहीं बांध सकते। ख़बरदार रहो कि तुम अपने भाई से कैसा सुलूक करते हो मुम्किन है कि तुम उस वक़्त ख़ुद ख़ुदा की आँख की पुतली को छू रहे हो। ख़बरदार रहो कि तुम एक बच्चे से भी किस तरह बेइंसाफ़ी से पेश आते हो शायद तुम आख़िरकार ये दर्याफ़्त करो कि दर-हक़ीक़त तुमने ख़ुद मसीह पर हमला किया था।

(2)


      पीलातुस ने दर-हक़ीक़त अपने उसूल को बालाए ताक़ (पर्वा ना करना) रख दिया था। जब कि उस ने ज़ाहिर तो ये किया कि मसीह बेगुनाह है। मगर साथ ही उसे कोड़े लगाने का हुक्म दिया। मगर उसे ये ख़याल था कि आख़िरकार वो इस तरीक़ से अपने असली मुद्दआ को हासिल कर लेगा। मगर हम देखेंगे, कि वो किस तरह इस अम्र में क़ासिर रहा। और उस ने आख़िरकार बिल्कुल मुँह की खाई। जब वो इस तहक़ीक़ात में मशग़ूल था। तो उसी की तरफ़ कई हाथ बढ़े हुए थे। बाअज़ तो उसी के बचाने के लिए। और बाअज़ उस के ख़िलाफ़। मगर उस ने तो बिस्मिल्लाह (शुरुआत) ही ग़लत की थी। और इसलिए वो आख़िरकार उसी ग़लती के रु में बहता हुआ चला गया और हलाक हुआ पहला हाथ जो उस की तरफ़ बढ़ा हुआ था। वो मुहब्बत और इमदाद का हाथ था वो ख़ुद उस की अपनी बीवी का हाथ था। उस ने उसे कहला भेजा कि उस ने उस क़ैदी के मुताल्लिक़ एक ख्व़ाब देखा है। और इसलिए चाहिए कि तू इस नेक मर्द से कुछ वास्ता ना रखे। इस अम्र में बाअज़ लोग मुश्किलात पैदा करते हैं, कि भला उसे येसू की किस तरह ख़बर मिल गई। मगर इस में मुश्किल कौन सी है। ग़ालिबन जब येसू हेरोदेस के पास भेजा गया था। तो पीलातुस ने महल में जाकर अपनी बीवी से इस अजीब मुक़द्दमे का सब हाल बयान कर दिया। और साथ ही ये भी जता दिया होगा, कि उस के दिल पर येसू की सूरत देखकर क्या-क्या असरात पैदा हुए। जब वो चला आया तो वो सो गई। और उसी का ख्व़ाब देखा क्योंकि अगरचे हमारे तर्जुमे में लिखा है कि आज रात मैंने उस की निस्बत ख्व़ाब देखा है मगर लफ़्ज़ी तर्जुमा है, “आज के रोज़” और कई एक सामान ऐसे पेश आ सकते हैं कि एक मुअज़्ज़िज़ ख़ातून दिन के वक़्त सो जाये। उस का ख्व़ाब ऐसा था कि उस से वो कुछ ख़ौफ़-ज़दा सी हो गई। और इसलिए उस ने अपने ख़ावंद को कहला भेजा।

      इस वाक़िये ने मसीहियों की क़ुव्वत वहमा (सोचने की क़ुव्वत) पर बहुत कुछ असर पैदा किया है। जिससे तरह तरह की कहानियां बन गईं एक रिवायत कहती है कि पीलातुस की बीवी का नाम क्लॉडिया परवुकला था और कि उस ने यहूदी मज़्हब इख़्तियार कर लिया था। जैसा कि इस ज़माने में अक्सर हुआ करता था कि मुअज़्ज़िज़ ख़वातीन जो अहद-ए-अतीक़ की किताबों से वाक़िफ़ हो जाती थीं तो इस मज़्हब को इख़्तियार कर लेती थीं। यूनानी कलीसिया ने तो ये ख़याल कर के वो ज़रूर मसीही हो गई। उसे विलावत का दर्जा दे दिया है। शाइरों और मुसव्वरों ने उस के ख्व़ाब की तस्वीर खींचने की कोशिश की है। डोरे जैसे मशहूर मुसव्वर की तस्वीर अब भी लंदन के बड़े तस्वीर-ख़ाने में मौजूद है। इस तस्वीर में ये दिखाया है कि गोया ये औरत ख्व़ाब की हालत में एक बाला-ख़ाने पर खड़ी है और एक ढलवान वादी की तरफ़ जिस पर बहुत से लोग खड़े हैं देख रही है। यही सालों और सदीयों की वादी है। और वह लोग मसीही कलीसिया के आइन्दा नसलें हैं जो बाद को आने वाली हैं। दफअतन (फ़ौरन) ख़ुद मुंजी उस के सामने आ खड़ा होता है। उस के कंधे पर सलीब है। उस के पीछे और गर्दा-गर्द (आसपास) बारह रसूल और मुरीदों की जमाअत है। उनके बाद इब्तिदाई सदीयों की कलीसिया है। जिनमें मशहूर बुज़ुर्गान-दीन, मिस्ल पोलीकार्प, तरतोलीन, अथनासिस, ग्रेगरी, करसिस्टम और अगस्तीन के शामिल हैं। इनके बाद क़ुरूने वुस्ता की कलीसिया है। जिनमें सलीबी जंग के बहादुरों की क़दआवर और ज़िरह पोश सूरतें नज़र आती हैं। इनके बाद ज़माना-ए-हाल की कलीसिया मए अपने जवाँमर्द फ़रज़न्दों के है। फिर गिरोहों की गिरोह में और जमाअतों की जमाअतें क़तारें बाँधी चली आती हैं। जिन्हें कोई शख़्स गिन नहीं सकता। यहां तक कि ऊपर सफ़ैद और मुनव्वर आस्मान में तह दर तह और दायरा बर दायरा ख़ुदा के फ़रिश्तों की जमाअतें उन के ऊपर और दाएं बाएं उन्हें घेरती हुई नज़र आती हैं। और इन सब के दर्मियान वो सलीब जो ज़ाहिर सूरत में वो शख़्स एक मुसीबतनाक हालत में उठाए चला जाता है। एक रोशन सितारे की तरह चमकती हुई दिखाई है।

      ख़ैर ये तो सब वहमी और ख़्याली बातें हैं। इस औरत की इस फ़िक्रमंदी में कि एक बेगुनाह आदमी को कुछ गज़ंद (नुक़्सान) ना पहुंचे। हम उस क़दीमी रोमी अदल व इन्साफ़ के आसार पाते हैं। जो उस वक़्त भी बाअज़ शरीफ़-उल-नसब ख़वातीन के दिल में देखे जाते थे। चुनान्चे वलमीना और कोरनीलिया के नाम अब भी सफ़ा-ए-तारीख़ को रौनक दे रहे हैं। और उस का अपने ख़ावंद को गुनाह के फ़ेअल से बचाने की कोशिश करना उस के नाम को उन शरीफ़ औरतों की फ़ेहरिस्त में दाख़िल करता है जो मुहाफ़िज़ फ़रिश्तों की मानिंद अपने खाविंदों के पहलू में जो दुनिया के कारोबार में ग़र्क़ और उस की ग़लाज़तों में आलूदा होने के ख़तरे में हैं। उन्हें बराबर आला क़वानीन और ग़ैर-मुरई (अनदेखी) क़ुदरतों को याद दिलाती रहती हैं। इस में कोई शुब्हा नहीं कि ये ख्व़ाब ख़ुदा की तरफ़ से भेजा गया था। और ये गोया बतौर हाथ के था। जो पीलातुस को इस हलाकत से जिसमें वो करने को था। बचाने के लिए फैलाया गया था।

(3)

      उस वक़्त एक और हाथ भी उस की तरफ़ फैलाया गया था। और उस ने उसे फ़ील-फ़ौर पकड़ लिया। इस ख़याल से कि वो उसे बचा लेगा। मगर उस हाथ ने दफअतन (अचानक) उसे पाताल की तरफ़ धकेल दिया। ये यरूशलेम के लोगों की भीड़ का हाथ था। उस वक़्त तक जो अश्ख़ास येसू के मुक़द्दमे की स्टेज पर खड़े थे, वो चंद एक ही थे। यहूदी हुक्काम की दिली-ख़्वाहिश ये थी, कि जहां तक हो सके जल्दी-जल्दी इस मुक़द्दमे का तस्फ़ीया (फ़ैसला) कर लें। पेश्तर इस के कि शहर के अवामुन्नास को और ईद-ए-फ़सह के ज़ाएरों (ज़ियारत करने वालों) को जो शहर में आए हुए थे। इस मुआमले की ख़बर पहुंचे। इसलिए इस की कार्रवाई रात भर होती रही। और इस वक़्त भी अभी सुबह सवेरा था। जब येसू को गलीयों में से हेरोदेस के पास ले गए और फिर वापिस



6   वलमीना रोम के मशहूर जनरल कोरियुलांस की माँ थी। जब उस का बेटा जिलावतन हुआ। और वह मुख़ालिफ़ों की बड़ी फ़ौज लेकर रोम पर चढ़ आया। और उन से सख़्त मुतालिबा करने लगा। तो उस की माँ और बीवी ने मिन्नत समाजत कर के उसे अपनी ज़ाद बूम को ग़ारत रखने से बाज़ रखा। गो इस अम्र के लिए वो अपने हम-राहियों के हाथ से मारा गया।
7   कोरनिलिया एक निहायत शरीफ़ और मुअज़्ज़िज़ रोमी लेडी थी। उस की निस्बत रिवायत है कि जब उस की सहेली ने अपने जे़वरात दिखा कर उस से दर्याफ़्त किया कि उस के जे़वरात कहाँ हैं? तो उस ने अपने दोनों बेटों को पेश कर के कहा कि मेरे ज़ेवर ये हैं। उस के लड़के बड़े हो कर बड़े नामी आदमी हुए।

लाए। और इस के साथ शहर के सरबर आवरदह (बुज़ुर्ग, मुअज़्ज़िज़) लोगोँ की बड़ी जमाअत भी थी। इसलिए उनको देख कर यक़ीनन बहुत सी भीड़ जमा हो गई होगी। मगर अब एक और वजह से भी बहुत से लोग जमा हो गए। रोमी गवर्नर का ये दस्तूर था कि ईद-ए-फ़सह की सुबह को लोगों की ख़ातिर एक क़ैदी रिहा कर दिया जाता था। चूँकि उमूमन बहुत से पोलिटिकल क़ैदी क़ैदख़ाने में होते थे। जिनमें ऐसे बाग़ी भी थे, जिन्हों ने कभी ना कभी रोमियों के जुए (गुलामी) को उतार फेंकने के लिए अलम-ए-बग़ावत (सरकशी) का झंडा बुलंद किया था। और इस सबब से लोगों को बहुत अज़ीज़ थे। इसलिए इस इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) को एक मामूली बात नहीं समझा जाता था। और जब कि येसू के मुक़द्दमे की पेशी खुली जगह में हो रही थी। तो शहर के लोग जोक दर जोक (ग़ोल की सूरत में) महल के दरवाज़े के अंदर आ गए और इस सालाना तोहफ़े के लिए चिल्लाना शुरू किया।

      इस मौक़े पर पीलातुस को इनकी दरख़्वास्त बहुत ही दिल पसंद मालूम हुई। क्योंकि उस ने ख़याल किया कि इस ज़रीये से मैं इस मुश्किल से छूट जाऊँगा। वो उन के सामने येसू को पेश करेगा। जो इस से चंद रोज़ पहले लोगों में इस क़द्र हर दिल अज़ीज़ था कि उन्होंने बड़े जोश व ख़ुरोश से उस का इस्तिक़बाल किया था। इस के इलावा चूँकि मसीह होने का दावेदार है। इसलिए लोग और भी ख़ुशी से उस की ख़लासी के लिए ख़्वाहिशमंद होंगे।

      ये बात खिलाफ-ए-इन्साफ़ थी। अव़्वल तो इसलिए कि वो येसू के साथ ऐसा सुलूक कर रहा था, कि गोया वो मुजरिम है और उस पर सज़ा का हुक्म सादिर हो चुका है। हालाँकि वो ख़ुद इस से चंद मिनट पहले उस के बेगुनाह होने का फ़त्वा दे चुका था। दूसरे इस तौर से एक बेगुनाह आदमी की जान को एक फ़र्ज़ी बात पर जिसका नतीजा मुम्किन है कहा उलट पड़े एक आम शहरी जमाअत के हवाले कर रहा था। मगर इस में शुब्हा नहीं कि पीलातुस ने इस अम्र को उस के हक़ में बेहतर समझा। क्योंकि उसे लोगों के मिज़ाज की निस्बत यक़ीन था। और बहर-हाल अपना पीछा छुड़ाने का ये एक अच्छा मौक़ा उस के हाथ लग गया था। जिसे वो खोना नहीं चाहता था।

      मगर ये बहुत जल्द मालूम हो गया कि लोगों के दिल अपने ही एक और पसंदीदा शख़्स पर जमे हुए हैं। ये अजीब इत्तिफ़ाक़ है कि उस शख़्स का नाम भी येसू था। मुक़द्दस मत्ती के बाअज़ नुस्ख़ों में उस का नाम येसू बरअबास लिखा है। वो एक मशहूर शख़्स था। जो शहर में ऐसी बग़ावत फैलाने का मुजरिम साबित हुआ था। जिसमें बहुत लोग मारे गए थे। और क़ैदख़ाने में अपने पैरओं (मानने वालों) की जमाअत के साथ महबूस (क़ैद में रखना) था। ऐसे क़ज़्ज़ाक़ (डाकू) जो नीम लुटेरे और नीम बाग़ी व सरकश हों। अवामुन्नास के नज़्दीक अक्सर बहुत नामक़्बूल होते हैं। लेकिन जब पीलातुस ने येसू का नाम पेश किया। तो उन्हों ने कुछ ताम्मुल किया मालूम होता है कि पीलातुस ने दूसरे क़ैदी को भी वहीं बुला भेजा था। ताकि वो दोनों को पास-पास खड़े देखकर मुक़ाबला कर सकें। क्योंकि उसे यक़ीन था, कि अगर वो दोनों को देखेंगे तो वो बिला-ताम्मुल मसीह के हक़ में फ़ैसला कर देंगे।

      मगर इस मुख़्तसर वक़्त को सदर मज्लिस के मैंबरों ने ग़नीमत समझा और उन्होंने लोगों को तर्ग़ीब देनी शुरू की। ये बात याद रखनी चाहिए कि क्या ये गलीली लोग नहीं थे। जो इस क़द्र धूम-धाम के साथ येसू को इस से चंद रोज़ पहले शहर में लाए थे। बल्कि यरूशलेम के अवामुन्नास जिन पर मज़्हबी पेशवाओं को बड़ा असर व इख़्तियार हासिल था। काहिन और फ़क़ीह अब इनके दर्मियान गए और हर तरह के मक्रो फ़रेब से उन्हें अपने ढंग पर लाना शुरू किया। ग़ालिबन सबसे मज़्बूत दलील ये पेश की होगी, कि ज़ाहिर है कि पीलातुस येसू को चाहता है। और इसलिए उन्हें उस के हक़ में राय नहीं देनी चाहिए।

      अगर दर-हक़ीक़त पीलातुस ने दोनों येसूओं को पहलू-ब-पहलू इस चबूतरे पर खड़ा किया। तो ये कैसा अजीब नज़ारा होगा। एक तो सरकश और फ़सादी शख़्स था। जिसके हाथ ख़ून से रंगे थे। दूसरा लोगों को शिफ़ा बख़्शने वाला और राह हक़ की तालीम देने वाला जो बराबर लोगों की भलाई में मशग़ूल था। जो इब्ने आदम और इब्ने-अल्लाह था। अब बताओ तुम इन दोनों में से किसे क़ुबूल करोगे? येसू को या बरअबास को? और दस हज़ार गल्लों (भीड़) से ये सदा आई। बरअबास को। येसू पर इस का क्या असर हुआ होगा? यही वो यरूशलेम के रहने वाले हैं जिनके लिए उस की ये ख़्वाहिश थी कि जैसे मुर्ग़ी अपने बच्चों को परों के नीचे छिपा लेती है। उन्हें अपने ज़ेर-ए-साया जमा कर ले। यही उस के कलाम को सुना करते थे। उन्हीं पर उस ने अपने मोअजिज़े दिखाए थे। यही उस के मजबूब थे। और यही लोग एक ख़ूनी और लुटेरे को उस पर तर्जीह दे रहे हैं। इसी नज़ारे को अक्सर इस अम्र के सबूत में पेश किया जाता है कि जम्हूर की राय का कुछ एतबार नहीं। अगरचे लोगों के ख़ुशामदी ये कहा करते हैं :-

कि ज़बान-ए-ख़ल्क़ को नक़्क़ारा ख़ुदा समझो

      मगर सामने निगाह करो। जब उन्हें येसू और बरअबास में से एक को चुनना पड़ता है तो वो हमेशा बरअबास ही को चुनते हैं। लेकिन अगर ये बात सच्च है तो इस मुक़द्दमें ने उमरा की जमाअत का भी फ़ैसला कर छोड़ा है क्या काहिन व फ़कीह और शरिफा अवामुन्नास से बेहतर हैं? अवाम-उन्नास ने तो उन्हीं की सलाह पर अमल किया था।

      मगर दोनों में से किसी को भी एक दूसरे को लानत मलामत करना या एक दूसरे पर तअन व तशनी (बुरा भला कहना) के पत्थर फेंकना हरगिज़ नहीं सजता। ये बहुत बेहतर होगा, कि इस क़िस्म के नज़ारे से हम अपने लिए अपनी जमाअत और अपने मुल्क के लिए ख़ौफ़ खाना सीखें। हमें किस का मद्दाह होना चाहिए? किस की पैरवी करनी चाहिए किस में नजात ढूंढनी चाहिए। जम्हूर के फ़ैसले के लिए बड़े-बड़े सवाल पड़े हैं। वो किस को चुनेंगे। इन्क़िलाब-ए-अज़ीम पैदा करने वाले को? या अज सर-ए-नौ पैदा करने वाले को? और वो किस पर एतिमाद करेंगे? चालाक आदमी पर या नेक तबीयत आदमी पर? वो कौनसा मिज़ाज इख़्तियार करेंगे? दस्त-दराज़ी का या मुहब्बत का? वो कौन से वसाइल काम में लाएँगे? जो बाहर बातिन की तरफ़ जाते हैं। या जो बातिन से बाहर की तरफ़? वो किस मुद्दआ को ढूँडेंगे? खाने पीने की बादशाहत को या उस बादशाहत को जो रूह-क़ुद्स में रास्तबाज़ी और इत्मीनान व सलामती और ख़ुशी है? मगर ये सवालात फ़क़त जम्हूर के वास्ते ही नहीं हैं। तमाम जमाअतों, तमाम फ़िर्क़ों, हर एक नस्ल और हर एक मुल्क को वक़्तन-फ़-वक़्तन इन से साबिक़ा पड़ता रहता है। और इसी एक एक फ़र्द-ए-वाहिद को भी मगर ज़िंदगी के सबसे बड़े इंतिख़ाबात आख़िरकार सिर्फ इस बात में खप जाते हैं, कि किस को इंतिख़ाब (पसंद) करोगे? येसू को या बरअबास को?

(4)

      पीलातुस को ये बात कि उन्होंने बरअबास को इंतिख़ाब (पसंद) किया बड़ी हैरतनाक मालूम हुई होगी। और इस से उसे सख़्त सदमा भी पहुंचा होगा। और वो पूछने लगा, तो मैं येसू को क्या करूँ? ग़ालिबन उसे इस जवाब की उम्मीद थी कि उसे भी हमें दे डाल। और इस में कुछ शुब्हा नहीं कि वो बड़ी ख़ुशी से इस क़िस्म की दरख़्वास्त को क़ुबूल करता है। मगर बजाए इस के गूंज की तरह ये जवाब सुनाई दिया। उसे सलीब दे और ये एक दरख़्वास्त नहीं बल्कि एक हुक्म के तौर पर मालूम होता था।

      अब उसे ये सूझा कि जिस बात को वो बच निकलने का सुराख़ समझा था वो दर-हक़ीक़त एक फांसी साबित हुई जिसमें उस ने ख़्वाह-मख़्वाह अपना गला फंसा दिया। वो उन से कह सकता था, कि इस ने उन्हें फ़क़त ये इख़्तियार दिया था, कि दो जानों में से एक को बचा लें। ना ये कि इन में से किसी को ज़ाए करें। लेकिन एक तरह से उस ने दोनों क़ैदियों को उन की राय पर छोड़ दिया था। बहर-सूरत लोगों ने इस का यही मतलब समझा। और उस ने भी उन के ख़याल की तर्दीद करने की जुर्रत ना की।

      मगर तो भी इस से उस पर बहुत ही असर हुआ। और अब उस ने एक बिल्कुल ग़ैर-मामूली हरकत की। इस वक़्त उस ने एक बर्तन में पानी मंगवाया और सब के सामने अपने हाथ धो कर कहने लगा कि, मैं इस रास्तबाज़ आदमी के ख़ून से पाक हूँ। तो जानो ये एक बड़ा संजीदा काम था। मगर उस की संजीदगी सारी दिखावे की थी। उस ने अपने हाथ धोए। हालाँकि उसे उन हाथों से काम लेना चाहिए था। और ख़ून ऐसी आसानी से धोए नहीं धुलता। वो अपनी ज़िम्मेदारी से पहलूतिही कर के उसे दूसरे के कंधे पर नहीं डाल सकता था। गर्वनमैंट के आला ओहदेदार और बाइख़्तियार आदमी अक्सर ये समझते हैं कि वो ऐसा कर सकते हैं। वो कहते हैं कि हम आम राय के सामने अपनी गर्दन झुकाते हैं। मगर हम बज़ात-ए-ख़ुद इस से अपने हाथ धोते हैं। लेकिन अगर उनका ओहदा पीलातुस की तरह इस अम्र का मुतकज़ी (तक़ाज़ा करना) है कि उन्हें इस अम्र का अपने ख़याल के मुताबिक़ फ़ैसला करना चाहिए। नतीजा ख़्वाह उन के हक़ में कुछ ही क्यों ना हो। तो ऐसे गुनाहों का जुर्म उन के साथ बराबर लगा रहेगा। और किसी सूरत में उन से जुदा ना होगा। ये सारा नज़ारा मजिस्ट्रेटों के लिए बतौर एक आईने के है। जिसमें वो देख सकते हैं, कि अगर वो अपने को मह्ज़ अवाम की राय का औज़ार बना देंगे। तो उन्हें कैसे कैसे गहरी और तारीक कुवें झाँकने पड़ेंगे। पीलातुस को चाहिए था कि कुछ ही क्यों ना हो। अवाम की राय की मुख़ालिफ़त करता और ऐसे काम को करने से जिसे वो दुरुस्त नहीं समझता था इन्कार कर देता। मगर ऐसा करने से उसे नुक़्सान होने का अंदेशा (डर) था। और इसी वजह से उस ने ऐसा ना किया।

      लोगों ने अपनी कामयाबी को मालूम कर लिया। और जब उस ने येसू की मौत के बारे में अपनी सफ़ाई ज़ाहिर की तो उन्होंने गुस्ताख़ाना जवाब दिया। इस का ख़ून हमारी और हमारी औलाद की गर्दन पर। पीलातुस को तो इस जुर्म को अपने सर लेते ख़ौफ़ आया। मगर उन्हें नहीं। क्या अजब कि उन के ये अल्फ़ाज़ सुनकर उनके सर पर आस्मान तारीक हो जाता। और उन के पांव के नीचे ज़मीन काँप उठती इस से बढ़ कर नापाक अल्फ़ाज़ शायद ही कभी बोले गए होंगे। मगर वो मारे ग़ज़ब के दीवाने हो रहे थे। और सिवाए इस के कि उन्हें इस मुआमले में फ़त्ह हासिल हो। और किसी बात की मुतलक़ (बिल्कुल) परवाह ना थी। मगर उन के ये अल्फ़ाज़ उस अदालत में जिसके सामने पेश किए गए थे, फ़रामोश ना हुए। और अभी बहुत अर्सा ना गुज़रा था कि वो लानत जो उन्हों ने अपने सर ली थी। उन के शहर और उन की क़ौम पर पड़ गई। मगर उस वक़्त तो वो अपने मक़्सद में कामयाब हुए और पीलातुस की मर्ज़ी उन के कामिल इसरार के सामने शिकस्ता हो रही थी।

सातवाँ बाब
कांटों का ताज

      पीलातुस अपनी सारी कोशिशों में जो उस ने येसू को उस के ईज़ा (तक्लीफ़) देने वालों के हाथ से छुड़ाने के लिए कीं नाकाम रहा। बल्कि जिस क़द्र वो ज़्यादा कोशिश करता था, उसी क़द्र उनका ग़ुस्सा और बढ़ता जाता था। और अब उसे सिवाए इस के कोई चारा ना था, कि येसू को जल्लादों के हवाले कर दे। कम से कम उन अक़ूबतों (तक़्लीफों) और ज़दर-कोब (मार-पीट) करने के लिए जो सलीब दीए जाने से पहले मुजरिमों पर रवा रखी जाती थीं।

      ये बात ज़माना हाल के मसीही ख़याल के मुताबिक़ नहीं कि मसीह की उन जिस्मानी तकालीफ़ का बहुत कुछ ज़िक्र किया जाये। किसी ज़माने में लोगों का ख़याल इस बारे में मुख़्तलिफ़ था। मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) शलटाओलर के इन तकालीफ़ के हर पहलू को बहुत कुछ मुबालग़ा से बयान किया करते थे। यहां तक कि सफ़ा तहरीर ख़ून से भरा मालूम होता और मारे ख़ौफ़ व दहश्त के पढ़ने वाले का कलेजा मुँह को आने लगता था। मगर हमारे ज़माने में ज्यादातर मीलान (रुझान) इस तरफ़ है कि इन ख़ौफ़नाक नज़ारों पर पर्दा डाल दिया जाये। और अगर ये पर्दा उठाना रवा भी रखते हैं। तो सिर्फ इस क़द्र कि जिससे उस के दिल की हालत को बख़ूबी समझ सकें। क्योंकि हमारे नज़्दीक उस के तमाम तकालीफ़ दर-हक़ीक़त उस के दिल के साथ ही वाबस्ता थीं।

      हमारे ख़ुदावन्द के मुक़द्दस जिस्म को बहुत से सदमे और बीर हमिया झेलनी पढ़ीं। पेश्तर इस के कि वो सलीब की ख़ौफ़नाक और मुरक्कब तकालीफ़ की नज़र किया गया। अव़्वल उस की वो जानकनी थी जो बाग़ में उस पर तारी हुई। फिर उन ज़ंजीरों का जिनमें वो गिरफ़्तार होने पर जकड़ा गया। ज़िक्र छोड़कर भी। वो ज़र्ब थी जो सरदार काहिन के नौकर ने उस के मुँह पर लगाई। जब रात के वक़्त दीनी हुक्काम उस पर फ़त्वा लगा चुके। तो लिखा है कि उन्होंने उस के मुँह पर थूका। और उस के मुक्के मारे। और और लोग उस के गालों पर तमांचे मार कर कहते थे, कि ऐ मसीह नबुव्वत से हमें बता तुझे किस ने मारा। इसलिए ये चौथा मौक़ा है, कि उसे जिस्मानी तक्लीफ़ उठानी पड़ी।

      पहले उन्होंने उस के कोड़े लगाए। ये रोमी सिपाहियों के हाथ से उन के आक़ा के हुक्म से हुआ। अगरचे ज़न-ए-ग़ालिब (यक़ीनी इम्कान) है कि गवर्नर ख़ुद उस वक़्त वहां से चला गया था। ऐसा मालूम होता है कि ये उसी चबूतरे पर जहां मुक़द्दमा हो रहा था। और सब के रूबरू वक़ूअ में आया। मसीह के कपड़े उतार कर उसे एक सुतून से बाँधा गया। या उस के हाथ पसे पुश्त बांध कर एक खंबे पर झुका दिया गया। ताकि किसी तरह अपने को बचा ना सके। कोड़े की शक्ल ये थी, कि एक लकड़ी के साथ कई एक तस्मे बंधे होते थे। जिनके सरों पर लोहे या हड्डी के टुकड़े लगे थे। इन कोड़ों की ज़र्बों से ना सिर्फ चमड़ा पाश-पाश हो जाता और ख़ून निकल आता था। बल्कि अक्सर औक़ात आदमी कोड़े खाते खाते जांबहक़ हो जाया करते थे। बाअज़ का ये ख़याल है कि पीलातुस ने येसू का कुछ लिहाज़ कर के इन कोड़ों की तादाद या सख़्ती को हल्का कर दिया होगा। मगर बर-ख़िलाफ़ इस के ये वाज़ेह रहे कि उस की इस तदबीर का जो वो अपने ज़अम (गुमान) में उस की रिहाई के लिए कर रहा था। अस्ल मुद्दआ ये था, कि यहूदियों पर ये ज़ाहिर करे कि वो आगे ही बहुत कुछ दुख उठा चुका है। येसू का अपनी सलीब उठा कर ले जाने के नाक़ाबिल होना ग़ालिबन इसी तकान और दुख के सबब से था। जो कोड़ों के सबब से उस पर वाक़ेअ हुआ। और एक मह्ज़ फ़र्ज़ी ख़याल के मुक़ाबले में जिसका हमने ऊपर ज़िक्र किया। ये अम्र इस सज़ा की सख़्ती को पूरे तौर पर साबित कर रहा है।

      कोड़े लगाने के बाद सिपाही उसे महल में अपनी रिहाइश-गाह में ले गए। और सारी रजमैंट को इस तमाशे का लुत्फ़ उठाने के लिए जमा किया। ज़ाहिरन वो ये समझते कि उस पर सलीब का हुक्म सादिर हो चुका है। और हर एक आदमी जिस पर ये फ़त्वा लग जाता था। कोड़े लगाने के बाद सिपाहियों के हवाले कर दिया जाता था। कि जिस तरह चाहें उस के साथ सुलूक करें जैसे जंगल में शिकार को पकड़ लेते हैं। तो उसे कुत्तों के आगे डाल दिया करते हैं। और ये मिसाल बिल्कुल बर-महल (मौक़े के मुताबिक़) भी है। क्योंकि जैसा कि लूथर ने लिखा है उन दिनों में आदमियों के साथ ऐसा ही सुलूक हुआ करता था। जैसा आजकल हैवानों के साथ होता है। हमारे लिए इस का समझना मुश्किल मालूम होता है कि क्यों सारी रजमैंट को मह्ज़ इसलिए जमा किया गया कि अपने एक हम-जिंस के दुखों और मुसीबतों को देखकर अपनी आँखें ठंडी करें और उस की दर्द तक्लीफ़ पर मज़्हके (हंसी) उड़ाएं। मगर यही उनका मक़्सद था। और वो उस वक़्त ऐसा ही लुत्फ़ उठा रहे थे। जैसे स्कूल के लड़के ज़ख़्मी हैवान को मरते देखकर। ये याद रखना चाहिए कि ये वह लोग थे जो मैदान-ए-जंग में ख़ून देखने के बिल्कुल आदी हो रहे थे। और जब कभी रोम में होते थे, तो तमाशागाह के खेल तमाशों में और मेलों त्योहारों के मौक़ों पर तल्वार बाज़ों को एक दूसरे को घायल करते देखना उनका पसंद मशगला था।

      इस तम्सख़र को उन्होंने एक ताजपोशी की रस्म में बदल दिया। उन्होंने तहक़ीक़ात के असना में ये मालूम कर लिया था, कि येसू पर ये इल्ज़ाम लगाया गया है, कि वो बादशाह होने का दावेदार है। और ऐसे आदमी की तरफ़ से जो बिल्कुल हक़ीर और ग़रीब हो इस क़िस्म के आला दावे का इज़्हार ख़्वाह-मख़्वाह उसे याराँ इशातर का तख़्ता-ए-मश्क़ (किसी मक़्सद के लिए किसी को बार-बार इस्तिमाल करना) बना देता है। इस के इलावा उन के दिल में इस ख़याल पर कि एक यहूदी क़ैसर से बढ़कर बादशाह बनने का मुद्दई हो एक क़िस्म की नफ़रत व हिक़ारत भी पैदा हो रही थी। अजनबी सिपाही जो फ़िलिस्तीन में मुतअय्यन थे। यहूदियों को जो उन से इस क़द्र दुश्मनी रखते थे। भला कब पसंद करते थे। और इस वजह से एक यहूदी मुद्दई सल्तनत के हक़ में उन की तहक़ीर और भी तेज़ हो गई होगी। अब उन्होंने उस के साथ ऐसा बर्ताव करना शुरू किया कि गोया वो सच-मुच बादशाह है। बादशाह को अर्ग़वानी पोशाक पहननी चाहिए और इसलिए वो किसी अफ़्सर का इस रंग का एक पुराना कोट ले आए और उस के कंधों पर डाल दिया। फिर बादशाह के सर पर ताज होना चाहिए। इसलिए उन में से एक बाग़ में दौड़ा गया और चंद टहनियां किसी दरख़्त या झाड़ी की तोड़ लाया। ये टहनियां कांटेदार थीं मगर उन्हें उनकी क्या पर्वा थी। बल्कि ये और भी अच्छा हुआ। अब उन्होंने उन्हें तोड़-मरोड़ कर एक ताज की शक्ल में बना दिया। और फिर उस के सर पर रख के ऊपर से दबा दिया। अब सारा सामान पूरा करने के लिए बादशाह के पास असाए शाही भी होना लाज़िम है। और इस के मुहय्या करने में उन्हें कुछ दिक़्क़त पेश ना आई। एक सरकंडा जिसे ग़ालिबन कोई शख़्स बतौर लाठी के इस्तिमाल करता था। पास ही था। सो वो उस के दहने हाथ में पकड़ा दिया गया। अब बादशाह सज-सजा कर बिल्कुल तैयार हो गया। और तब जैसा ख़ास-ख़ास मौक़ों पर उन्होंने रियाया को शहनशाह के सामने घुटने टेकते देखा था। उन्होंने भी बारी-बारी आगे बढ़कर और घुटने टेक कर कहना शुरू किया। ऐ यहूदियों के बादशाह सलाम। लेकिन ऐसा करने के बाद हर एक उन में क़हक़हा लगाता हुआ पीछे लौटता। और उसे एक ज़र्ब लगा जाता। और इस ग़र्ज़ के लिए उसी असाए शाही यानी सरकंडे को इस्तिमाल करता था, जो उस के हाथ से गिर पड़ा था। और अगरचे मुझे इस बात के बताने में शर्म आती है। उन्होंने उस के मुँह को थूकों भर से दिया।

      कैसा अजब नज़ारा ज़ाहिर में तो ये उम्मीद होती थी, कि वो लोग जो ख़ुद ग़रीब और रज़ील (पाजी, हक़ीर) थे। और इसलिए ताक़तवर लोगों के हाथों ज़ुल्म सहते रहते थे। अपने दर्जे के एक आदमी के हक़ में जो ज़ुल्म के पांव तले कुचला जा रहा था। हम्दर्दी और रहम को महसूस करेंगे। मगर अदना नौकरों की बेरहमी के बराबर शायद ही कोई और बेरहमी होगी। सब आदमियों में एक छिपी ख़्वाहिश है जो दूसरों को अपने से अदना हालत में देखकर ख़ुश होती है। और ख़ासकर ऐसे आदमी के लिए जिस ने बड़ा बनने की कोशिश की हो मगर ज़िल्लत में पड़ जाये। उस की उफ़्ताद में एक क़िस्म की ज़ाती ख़ुशी हासिल होती है। इस क़िस्म की कमीने जज़्बात हर इन्सान के दिल की तह में भरी पड़ी हैं। और इस मौक़े पर इन्सान के कमीने जज़्बात की तह की तह और उस की बड़ी ख़्वाहिशों की ग़लाज़त की ग़लाज़त आश्कारा हो गई।

      मगर येसू पर इस क़िस्म का नज़ारा देखना कैसा शाक़ व सख़्त गुज़रा होगा। ये सब बातें उस की आँखों के सामने पेश की गईं। नहीं बल्कि ख़ुद उस की ज़ात पर वारिद की गईं। और ऐसे तौर पर कि वो अपना पीछा छुड़ा कर उन से दूर नहीं जा सकता था। उस के नाज़ुक और लतीफ़ जिस्म और उस के सरीअ-उल-हिस्स दिल (नर्म दिल) के लिए ऐसे वहशी और बेरहम आदमियों के हाथों में पड़ना क्या कुछ ना होगा। ताहम ये बात ज़रूरी थी। ताकि उस काम को जिसके सर अंजाम करने के लिए वो इस दुनिया में आया था। तक्मील को पहुंचाए। वो बनी इन्सान को नजात देने के लिए आया था। ताकि गहरी से गहरी और अदना से अदना हालत तक ग़ोता लगाए और खोए हुओं को ढ़ूंढ़े और बचाए। और इसलिए उसे ज़रूर था, कि फ़ित्रत इन्सानी के बड़े से बड़े नमूनों और ज़लील से ज़लील ख़राबियों से पूरी वाक़फ़ियत पैदा करे। वह तमाम गुनेहगारों हाँ ऐसे ख़राब और ज़लील आदमियों का भी जैसे कि ये सिपाही थे, नजात देने वाला था। और इसलिए उसे ज़रूर था कि उन से मिले और देखे कि वो कैसे हैं।

      इस तौर से मैंने हत्त-उल-मकान जहां तक हो सके निहायत सहूलत के साथ उस के दुखों को तफ़्सीली तौर पर बयान किया है। और मुझे यक़ीन है कि इस किताब के पढ़ने वाले इस से ज़्यादा तफ़्सील के ख़्वाहां ना होंगे। मगर इस मौक़े पर थोड़ी देर और ठहरना फ़ायदे से ख़ाली ना होगा। ताकि जो सबक़ इस नज़ारे से हासिल होते हैं। उन को हासिल करें।

      अव़्वल येसू के ईज़ा देने वालों के चाल-चलन में इस अम्र को देखो कि उन्होंने ख़ुदा की बख़्शिशों का कैसा बुरा इस्तिमाल किया। रोमी सिपाहियों के चलन में अव़्वल से आख़िर तक ख़ासकर ये बात नज़र आती है, कि किस तरह वो हर एक मौक़े पर अपने मन्सबी काम को मसखरी और तमाशे में बदल डालते थे। अब देखो हंसी ख़ुदा की एक बख़्शिश है। ये बतौर मसालेह के है जो ख़ुदा-ए-तआला ने इसलिए अता किया है, कि रोज़ मर्राह ज़िंदगी के बेमज़ा तआम (खाने) के साथ बतौर चाशनी के इस्तिमाल किया जाये। ये एक बे-लुत्फ़ नज़ारे के लिए बतौर सूरज की रोशनी की झलकों के है। अश्या ज़िंदगी में उन के ख़ंदा अंगेज़ पहलू को देखने की क़ाबिलियत ज़िंदगी के बोझ को बहुत ही हल्का कर देती है। और वो शख़्स जो लोगों को हंसा सकता और उन में ज़िंदा-दिली पैदा कर सकता है। बनी इन्सान का एक सच्चा मुरब्बी (परवरिश करने वाला) और फ़ैज़-रसाँ (फ़ायदा पहुंचाने वाला) है।

      लेकिन अगरचे हंसी और मज़ा ख़ुदा की बख़्शिश है। शायद ही ख़ुदा की कोई और बख़्शिश होगी, जिसका ऐसा बुरा इस्तिमाल किया जाता होगा। यहां तक कि वो बजाए बरकत के लानत का बाइस ठहरती है। जब कि लोग मुक़द्दस अश्या और पाक अश्ख़ास की हंसी उड़ाते हैं। जब वो उस के ज़रीये से बड़ी और क़ाबिल-ए-इज़्ज़त अश्या की तौहीन व तज़लील करते हैं। जब वो कमज़ोरों की ईज़ा रसानी और बे-गुनाहों की तसहीक व तम्सख़र का आला बनाई जाती है। तब हंसी बजाए साग़र महफ़िल की उबलती हुई झाग होने के सिम-ए-क़ातिल का काम देती है। इस वक़्त इन सिपाहियों के बेरहमाना अफ़आल में हंसी ही उन की रहनुमाई कर रही है। वो उन के अफ़आल की अस्ल सूरत को उन से छुपाए हुए है। और इस के ज़रीये से मसीह के दिल पर पीलातुस के कोड़ों से भी ज़्यादा गहरे ज़ख़्म लगे होंगे।

      दूसरी बात क़ाबिले गौर ये है, कि इस मौक़े पर मुंजी के ओहदा शाही के ख़िलाफ़ इन लोगों की मुख़ालिफ़त ज़ाहिर हो रही थी। दीनी अदालत के फ़तवे के बाद जो उस की बे-हुरमती हुई वो कुछ और क़िस्म की थी। उस वक़्त उस के ओहदे नबुव्वत की हंसी उड़ाई गई थी। चुनान्चे लिखा है, कि वो उस का मुँह ढांपने और उस के मुक्के मारने और उस से कहने लगे, नबुव्वत से बता कि तुझे किस ने मारा। लेकिन बरख़िलाफ़ इस के यहां तमाम तम्सख़र इस अम्र पर हो रहा था, कि उस ने बादशाह होने का दावा किया था। सिपाहियों के नज़्दीक ये एक बेहूदा और क़ाबिल-ए-तम्सख़र बात मालूम होती थी, कि एक शख़्स जो ऐसा ज़लील और बे-यार व मददगार और कमज़ोर हो इस क़िस्म का दावा करने का हौसला करे।

      उस ज़माने से आज तक बहुत दफ़ा मसीह के इसी दावा-ए-शाही की इसी तरह हंसी उड़ाई जाती है। वो क़ौमों का बादशाह है। मगर ज़मीनी बादशाह और हाकिम इस ख़याल की हंसी उड़ाते रहे हैं, कि उस की रज़ा और उस की शरीअत उन की तदबीर और हिर्स व हवा (ख्वाहिश) पर हावी होने का हौसला रखती है। बल्कि जहां कहीं उस के इख़्तियार को बरा-ए-नाम माना भी जाता है। ख़्वाह वो सल्तनत जमहूरी हो या शाही। वो भी इस अम्र के तस्लीम करने में सुस्ती ज़ाहिर करते हैं कि उन के क़वानीन और उन की रस्म व दस्तूर उसी के कलाम के मुताबिक़ वज़ा और क़ायम होने चाहिए। वो कलीसिया का बादशाह है। एंड्रयो मिलोल ने जेम्स शाह इंग्लिस्तान को कहा था, कि स्कॉटलैंड में



8   एंड्रयो मिलोल 1545 ई॰ में पैदा हुआ और 1622 ई॰ में मर गया। वो स्कॉटलैंड का रहने वाला था। और अपने इल्म व फ़ज़ल के लिए अपने ज़माने में निहायत मशहूर था। वो इलावा आलिम इल्मे-इलाही होने के मशरिक़ी ज़बानों में भी कामिल महारत रखता था। वो फ़्रांस, जनवा और गिलासको और सेंटऐंड रेवज़ की यूनीवर्सिटियों में मुख़्तलिफ़ औक़ात में प्रोफ़ैसर के ओहदे पर रहा। उस की ज़िंदगी के आख़िरी साल शाह

दो बादशाह और वो बादशाहतें हैं एक तो शाह जेम्स है जो अपनी ममलकत का हाकिम है। दूसरा मसीह येसू है जिसकी रियाया ख़ुद शाह जेम्स शश्म है और वो उस की सल्तनत में ना बादशाह है ना अमीर, ना सरदार, बल्कि एक मामूली फ़र्द का रुत्बा रखता है। और स्कॉटलैंड की कलीसिया की सारी तवारीख़ को मह्ज़ इसी सच्चाई के क़ायम रखने के लिए जद्दो-जहद की तारीख़ कहें तो बजा है। और इस जद्दो-जहद को भी क़रीबन ऐसी मुख़ालिफ़त होती रही, जैसे कि ख़ुद येसू की पीलातुस के महल में हुई थी। सबसे ज़्यादा ज़रूरी बात ये है, कि अफ़राद इन्सानी की ममलकत में मसीह की बादशाहत को तस्लीम कर लिया जाये। मगर यहीं ज़्यादातर उस की मर्ज़ी का मुक़ाबला किया जाना है। हम बातों बातों में तो उस की इताअत को तैयार हैं। लेकिन हम में से कौन ऐसा है जो ये कि इसलिए कि वो अपने नफ़्स पर ऐसी कामिल फ़त्ह हासिल कर चुका है जिससे ये ज़ाहिर हो कि उस ने मसीह के दावे को कामिल तौर पर तस्लीम कर लिया है, कि वही हमारे कारोबार और फ़ुर्सत के घंटों का इंतिज़ाम करे। और वही हमें बताए कि हमारे वक़्त और वसाइल और ख़िदमात से क्या काम लिया जाना चाहिए।

      तीसरा सबक़ ये है, कि जो कुछ येसू ने उस वक़्त बर्दाश्त किया वो सब हमारे लिए बर्दाश्त कर रहा था।

      इस नज़ारे की तमाम बातों में से जिस बात ने मसीहियों के ख़याल पर बड़ा असर किया है। वो कांटों का ताज है। ये एक ग़ैर मामूली चीज़ थी। और बेरहमी की क़ुव्वत-ए-ईजाद और शरारत पर शाहिद (गवाह) थी। इस के इलावा चूँकि कांटे की चोट को क़रीबन हर एक शख़्स कभी ना कभी महसूस करता है। इसलिए इस से हम मुंजी की तक्लीफ़ का बनिस्बत किसी और चीज़ के ज़्यादा आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हैं। मगर इस की तासीर का असर ज़्यादातर इस वजह से है, कि वो एक आला ख़याल की अलामत है। जब आदम और हव्वा बाग-ए-अदन से निकाले गए और उन्हें एक ख़ुश्क और पुर मेहनत दुनिया में ज़िंदगी बसर करनी पड़ी तो उन को ये हुक्म सुनाया गया था, कि ज़मीन उन



जेम्स के मुक़ाबले में कलीसियाए स्कॉटलैंड के हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त के लिए लड़ने झगड़ने में ख़र्च हुए। सख़्त कलामी की वजह से वो चार साल क़ैद रहा और बाद अज़ां अपने मुल्क को वापिस जाने की इजाज़त ना मिलने के सबब वो फ़्रांस में चला गया और वहीं मर गया।

के लिए कांटे और ऊंट कटारे पैदा करेगी। कांटा लानत का निशान था। या यूं कहो कि ख़ुदा की हुज़ूरी से रद्द किए जाने का और उन तमाम अफ़्सोसनाक और दर्द अंगेज़ नताइज का जो इस से पैदा होते हैं। और क्या ये कांटा भी जब कि मौसम सुरमा में ब्रहना शाख़ पर से अपनी बड़ी सूरत के साथ डराता हुआ नज़र आता है। और मौसम सुरमा में पत्तों या फूलों में छिपा हुआ हाथ को चुभता है। और मुसाफ़िर के कपड़ों और जिस्म को जो झाड़ी में से अपनी राह निकालने की कोशिश करता है फाड़ता और घायल करता है। और जहां कहीं जिस्म में लगता है जलन सी पैदा करता है। हाँ क्या ये कांटा, ज़िंदगी के इस पहलू की जो गुनाह से वाबस्ता है। एक मुनासिब अलामत नहीं है। वो ज़िंदगी जो अफ़्क़ार (फिक्रें) और इज़तिराब, दुख और मायूसी, बीमारी और मौत से भरी पड़ी है। अल-क़िस्सा वो लानत का एक मुनासिब निशान है। मगर मसीह इसलिए आया था कि इस लानत को बर्दाश्त करे। और जब कि उस ने उसे अपने सर पर उठा लिया तो उस ने उसे दुनिया के सर पर से उठा दिया। उसने हमारे गुनाह उठा लिए और हमारे ग़म बर्दाश्त किए।

      मगर इस का सबब क्या है कि हम अब जब कभी कांटों के ताज का ज़िक्र करते हैं तो इस से हमारे दिल में फ़क़त तरस और दहश्त के ख़याल ही पैदा नहीं होते बल्कि इस के साथ ही एक क़िस्म की शादमानी भी हासिल होती है। जिसे हम दबा नहीं सकते। इस की वजह ये है, कि गो सिपाहियों की मसखरी सख़्त बेरहमी पर मबनी थी। मगर उन के इस फ़ेअल में भी एक इलाही कारसाज़ी समझनी चाहिए। इलाही हिक्मत उन के गुनाह के ज़रीये भी अपने मक़्सद व मंशा को पूरा कर रही थी। बाअज़ अश्ख़ास ऐसे ख़ूबसूरत वाक़ेअ हुए हैं कि अगर उन्हें ख़राब से ख़राब कपड़े भी पहना दिए जाएं जो अगर दूसरों के जिस्म पर हों तो उन्हें देखकर ख़्वाह-मख़्वाह हंसी आए या नफ़रत पैदा हो। मगर उन पर बिल्कुल सज जाते हैं। और टूटे-फूटे ज़ेवर जो उन पर बिला इम्तियाज़ लगा दिए जाएं ऐसे दिलकश मालूम देते हैं, कि औरों की निहायत पर तकल्लुफ़ पोशाक और ज़ेब व ज़ीनत भी उन के सामने हीच (कमतर) मालूम होती है। इसी तरह मसीह में एक ऐसी बात है, कि जिससे वो चीज़ें भी जो उस की बे-अदबी व बे-हुरमती की नज़र से उस पर फेंकी जाती थीं। उस के लिए ज़ेवर का काम देती हैं। जब लोगों ने उसे महसूल लेने वालों और गुनेहगारों का दोस्त कहा। तो अगरचे ये नाम उन्होंने बराह तम्सख़र उसे दिया था। लेकिन आख़िरकार यह लक़ब ऐसा दिलकश साबित हुआ कि इस के सबब से सैंकड़ों नसलें बराबर उस की मुहब्बत का दम भर्ती चली आई हैं। और इसी तरह जब उन्होंने उस के सर पर कांटों का ताज रखा तो वो अनजाने उस के सर पर शराफ़त का सेहरा बांध रहे थे। जो आज तक किसी को नसीब ना हुआ होगा। इन ज़मानों के इतराओ में येसू बराबर वही कांटों का ताज पहने चला आता है। और उस के आशिक़ और पैरौ (मानने वाले) उस के लिए किसी और ताज के ख़्वाहां नहीं हैं।

      चहारुम : इस नज़ारे से हम सबक़ सीखते हैं कि दुख और दर्द के वक़्त तहम्मुल और बर्दाश्त को किस तरह काम में लाना चाहिए।

      मैं एक मुक़द्दस ख़ातून से वाक़िफ़ हूँ जिसकी वाक़फ़ियत की इज़्ज़त मुझे अपने ख़ादिमें दीन के इब्तिदाई ज़माने में हासिल हुई। अगरचे वो ग़रीब और ना तालीम याफ्ता थी। मगर उस की ख़ुदादाद ज़हानत व क़ाबिलियत क़ाबिल-ए-तारीफ़ थी। उस के ख़यालात अजीब व ग़रीब और तबाअ ज़ाद और उस की गुफ़्तगु ऐसी पसंदीदह थी, कि सुनने वालों का दिल ख़ुद बख़ुद खिंचा जाता था। अगरचे वो बहुत उम्र रसीदा ना थी। मगर वो जानते थे, कि उस की मौत का दिन बहुत दूर नहीं है। और जिस मर्ज़ में वो मुब्तला थी। वो तमाम अमराज़ में से जो इन्सान को लाहक़ होती हैं। निहायत दर्दनाक था मुझे याद है कि वो अक्सर मुझसे कहा करती थी, कि जब उस की तक्लीफ़ व जानकनी हद को पहुंच जाती थी। तो वो चुपके लेटे लेटे मुंजी के दुख और तकालीफ़ पर ग़ौर किया करती थी। और अपने दिल में कहा करती थी, कि ये चीजें ऐसी बड़ी नहीं हैं। जैसे कांटों के ताज की सोलें थीं।

      मसीह के दुखों को देखकर हमें अपनी ऐश-परस्ती और आराम तलबी क़ाबिल-ए-मलामत मालूम होती है। ज़िंदगी की आसाइशों और ऐश व आराम से हज़ (लुत्फ़) उठाने में कुछ बुराई तो नहीं है। ख़ुदा ही हमें ये सब कुछ अता करता है। और अगर हम उन्हें शुक्रगुज़ारी के साथ क़ुबूल करें तो मुम्किन है, कि ये चीज़ें हमें उठा कर उस के ज़्यादा ज़्यादा क़रीब ले जाएं। मगर मुश्किल तो ये है कि हमें उन की जुदाई का ख़याल करने से भी दहश्त दामगीर हो जाती है। और दर्द और इफ़्लास (भूक) का ज़िक्र करते भी डर मालूम देता है। ख़ासकर मसीह के दुखों से हमें हौसला होना चाहिए कि ख़्वाह किसी क़िस्म की तक्लीफ़ हमें पेश आए या लानत मलामत हमें झेलनी पड़े। हम सब कुछ उन की ख़ातिर से बर्दाश्त करने को तैयार रहें। बहुत आदमी हैं जो मसीही बनने के ख़्वाहां तो हैं। मगर इस ख़ौफ़ से कि अलानिया इक़रार करने से हम पर हमारे लंगोटे यार हँसेंगे, या दुनियावी इज़्ज़त व बहबूदी में नुक़्सान उठाना पड़ेगा। इस से बाज़ रहते हैं। मगर मुंजी के दुखों पर नज़र कर के हमको ऐसी बुज़दिली और ख़ौफ़ से शर्म आनी चाहिए। अगर कांटों का ताज इस वक़्त भी मसीह के सर पर ऐसा सुहाना मालूम होता है, कि आदमी और फ़रिश्ते भी इस पर फ़ख़्र करते और उस का गीत गाते हैं। तो यक़ीन जानिए कि उस ताज की शाख़ों का कोई टुकड़ा जो हमें पहनना पड़ जाएगा। वो किसी ना किसी दिन हमारे निहायत ख़ुशनुमा ज़ेवरात में से शुमार किया जाएगा।

आठवां
पीलातुस की बर्बादी

      हम पीलातुस के तख्त-ए-अदालत के सामने बहुत देर तक ठहरे रहे हैं। पीलातुस ने हमें बहुत ही देर तक ठहराए रखा है। वो ख़ूब जानता था बल्कि मुकदमे पर सरसरी नज़र डालते ही उसे मालूम हो गया था, कि इस बारे में अपने फ़र्ज़ की बजा आवरी में उसे क्या करना चाहिए। मगर बजाए इसके कि फ़ील-फ़ौर अपने यक़ीन के मुताबिक़ अमल करता, वो उसे माअरिज़े अल-तुवा (देर करना) में डालता रहा। इस क़िस्म की देर व तसाहुल (सुस्ती) से उमूमन फ़ायदा नहीं निकला करता। पीलातुस ने आज़माईश को मौक़ा दिया, कि उस पर हमला करे। उस ने उस का मुक़ाबला तो किया। वो देर तक बड़ी सख़्ती से उस से लड़ता रहा। मगर उसे सिरे ही से उसे हमला करने का मौक़ा ही नहीं देना चाहिए था। और आख़िरकार वो निहायत ज़िल्लत के साथ उस का शिकार हो गया।

(1)

      जब पीलातुस ने येसू को कोड़े मारने के लिए हवाले कर दिया। तो ऐसा मालूम होता था, कि गोया उस ने दर-हक़ीक़त उसे सलीब दिए जाने को हवाले कर दिया है…..। और ग़ालिब मालूम होता है कि यहूदियों ने भी ऐसा ही समझा। क्योंकि कोड़े लगाना सलीब दिए जाने का शुरू हुआ करता था। ताहम उस ने अभी येसू को बचाने की उम्मीद को बिल्कुल हाथ से ना दिया था। वो अब भी उसी तज्वीज़ को जो उस ने पेश की थी। मद्द-ए-नज़र रखे हुए था कि उसे कोड़े लगवा कर छोड़ दे। शायद जब कोड़े लगाए जाने के वक़्त वो महल में चला गया होगा। तो उस की बीवी ने ज़रूर उसे तर्ग़ीब दी होगी, कि इस रास्तबाज़ आदमी को बचाने के लिए और भी कोशिश करे।

      बहर-सूरत वो फिर बाहर उस चबूतरे पर आ बैठा जिसके इर्द-गिर्द यहूदी ठट (हुजूम, गिरोह) बांध से खड़े थे। और इन्हें मुत्लाअ (इत्तिला देना) किया कि मुक़द्दमे का अभी ख़ातिमा नहीं हुआ। और जब कि येसू जिसका पीटना अभी ख़त्म हुआ था, सामने आया। तो वो फिर और उस की तरफ़ इशारा कर के बड़े इज़तिराब (बेचैनी) से पुकारा, इस आदमी को देखो। ख़्वाह-मख़्वाह उस की ज़बान से ये रहम-अंगेज़ कलमात निकल गए और इस में गोया यहूदियों से ये दरख़्वास्त की गई थी, कि वो आख़िरकार इस अम्र को पहचान लें कि इस मुक़द्दमें में और ज़्यादा कुछ करना बिल्कुल ना माक़ूल बात होगी। क्योंकि ज़ाहिर है कि येसू हरगिज़ उन लोगों में से नहीं मालूम होता, जैसा कि वो उसे समझे बैठे हैं। बहर-सूरत उसे काफ़ी दुख और सज़ा मिल गई है।

      मगर मसीही ज़हन हर ज़माने में इन अल्फ़ाज़ से और भी ज़्यादा गहरे मअनी निकालता रहा है। जैसे कि काइफ़ा भी एक बड़ी सच्चाई को बयान कर रहा था। गो वो ख़ुद उसे ना समझता था। जब उस ने ये कहा था, कि ज़रूर है कि एक आदमी सब के लिए मरे। इसी तरह इन अल्फ़ाज़ में रोमी गवर्नर ने भी बिला जाने एक नबुव्वत कर दी। वाइज़ीन हर ज़माने में इन्ही अल्फ़ाज़ का इस्तिमाल करते रहे हैं और येसू की तरफ़ इशारा करके कहते हैं, इस आदमी को देखो। मुसव्विरों ने भी इस मौक़े को इंतिख़ाब कर के, जब कि येसू कोड़ों के मारे ख़ून से लिथड़ा हुआ और अर्ग़वानी लिबास और कांटों का ताज पहने हुए बाहर आया। इस मर्द ग़मनाक की तस्वीरें खींची हैं। और बहुत बेशक़ीमत सफ़ा तस्वीर पर अल्फ़ाज़ अकसी हो मूयअनी। इस आदमी को देखो। सब देखे जाते हैं।

      पीलातुस की ज़बान से दो लफ़्ज़ निकले जिन्हें दुनिया कभी ना भूलेगी। अव़्वल तो ये सवाल कि “हक़ क्या है?” और दूसरे ये अल्फ़ाज़, “इस आदमी को देखो।” एक को गोया दूसरे का जवाब समझना चाहिए। जब कि ये सवाल सच्चे दिल से पूछा जाता है तो इस का मतलब सिवाए इस के और क्या होता है कि कौन शख़्स हमें ख़ुदा की मार्फ़त अता करेगा? कौन शख़्स ज़िंदगी के राज़ को खोलेगा? कौन शख़्स आदमी को उस की हक़ीक़त और अंजाम से मुत्लाअ करेगा? और इन सवालों का सिवाए इस के और क्या कोई जवाब हो सकता है, कि इस आदमी को देखो उस ने अबना-ए-आदम को दिखा दिया है कि इन्सान को क्या बनना चाहिए। ख़ुद उसी की वो कामिल ज़िंदगी है। जिसके मुताबिक़ हर एक शख़्स को अपनी ज़िंदगी ढालनी चाहिए। उसी ने ग़ैर-फ़ानी ज़िंदगी के दरवाज़े खोल दिए। और दूसरे आलम के भेद ज़ाहिर कर दिए। और इनसे भी बढ़कर एक अज़ीम बात ये है, कि उस ने ना सिर्फ हमें ये बता दिया है, कि हमारी ज़िंदगी इस जहान में और इस जहान में कैसी होनी चाहिए। बल्कि ये भी कि हम किस तरह इस मेअराज (बुलंदी) को हासिल कर सकते हैं। वो फ़क़त कमालियत की तस्वीर ही नहीं है। बल्कि गुनाह से नजातदिहंदा भी है। इसलिए हम दुनिया को उस की तरफ़ मुतवज्जोह करते और कहते हैं, कि देखो इस आदमी को।

(2)

      पीलातुस को ये उम्मीद थी कि येसू के दुख और तक्लीफ़ को देखकर उस के ईज़ा देने वालों के दिल भी उस के अपने दिल की तरह पिघल जाऐंगे। मगर वहां उसे फ़क़त ये जवाब मिला कि, उसे सलीब दे। मगर इस अम्र को यहां याद रखना चाहिए, कि ये अल्फ़ाज़ अब सरदार काहिनों और हाकिमों ने कहे थे। ऐसा मालूम होता है, कि अवामुन्नास के दिल मुतास्सिर हो गए थे। और अगर उन के सर गिरोह उन्हें इजाज़त देते, तो वो ज़रूर अपनी हट से बाज़ आ जाते। मगर इन संग-दिलों पर कुछ भी असर ना हुआ। बल्कि ख़ून को देखकर उनका जोश और भी भड़क उठा। और उन्हें यक़ीन हो गया, कि अगर वो अपनी बात पर जमे रहेंगे, तो पीलातुस को आख़िरकार उन की बात माननी ही पड़ेंगी।

      अब उस का बिल्कुल क़ाफ़िया तंग हो गया। और वो ग़ुस्से से बोला, तो तुम उसे लो और सलीब दो क्योंकि मैं इस में कुछ क़सूर नहीं पाता। जिससे ग़ालिबन उस का ये मतलब था, कि वो क़ैदी को उन के हवाले कर देगा। बशर्ते के वो उस के सलीब देने की ज़िम्मेदारी को अपने सर ले लें। अगर दर-हक़ीक़त उस के दिल में मज़्कूर-बाला अल्फ़ाज़ के कुछ मअनी थे। और वो उन अल्फ़ाज़ में मह्ज़ अपने ग़ुस्से का इज़्हार नहीं कर रहा था। तो उन के यही मअनी हो सकते हैं।

      उन्होंने देख लिया कि अब वो नाज़ुक मौक़ा आ पहुंचा और आख़िरकार उन्होंने उस के क़त्ल करने की असली वजह बयान कर दी और कहने लगे, हम अहले-शरीअत हैं और शरीअत के मुवाफ़िक़ वो क़त्ल के लायक़ है। क्योंकि उस ने अपने आपको ख़ुदा का बेटा ठहराया।

      तो ये बुनियाद थी जिस पर उन्होंने उस पर क़त्ल का फ़त्वा लगाया था। अगरचे उस वक़्त तक उन्होंने उसे बराबर छुपाए रखा। उन्होंने इस का ज़िक्र तक भी नहीं किया। क्योंकि वो समझते थे, कि पीलातुस उस बात की मसखरी उड़ा रहा है। मगर अब पीलातुस पर इस बात ने उल्टा असर पैदा किया। वो उस दिन सारे वक़्त कुछ बेचैनी सी महसूस करता रहा था। और जिस क़द्र ज़्यादा वो येसू के रवैय्ये पर नज़र करता था, उसी क़द्र वो इस मुकदमें में अपने उलझाओ को ना पसंद करता था। और अब जब उन्होंने ज़िक्र किया कि वो इब्ने-अल्लाह होने का दावेदार है। तो वो मारे ख़ौफ़ के काँप उठा। उस को दफअतन (अचानक) वो सारी कहानियां याद आ गईं। जिनसे ख़ुद उस का अपना मज़्हब भरा पड़ा था। कि किस तरह बाज़ औक़ात देवता या देवताओं के बेटे भेस बदल कर ज़मीन पर ज़ाहिर हुए। उन के साथ मुआमला पड़ना ख़ौफ़नाक बात है। क्योंकि अगर उन्हें कुछ ज़रर (नुक़्सान) पहुंच जाये। गो अनजाने में ही क्यों ना हो। तो उस का सख़्त ख़मयाज़ा (नुक़्सान) उठाना पड़ेगा। उस ने पहले ही ख़ुद येसू में भी कोई चीज़ ऐसी पुर राज़ और नाक़ाबिल बयान मालूम करली थी। अगर वो सच-मुच यहोवा का बेटा हो, जिसे वो यरूशलेम का मुहाफ़िज़ देवता ख़याल करता था। जैसे कि कास्टर और पोलिक्स, जो पीटर यानी मुशतरी देवता के बेटे थे। तो फिर क्या होगा? और क्या ख़ुद यहोवा, अगर उसे नुक़्सान पहुंचाया जाये। आदमी को अपनी लानत से बर्बाद ना करेगा। अब इस क़िस्म का ख़ौफ़ व दहश्त उस के दिल में पैदा हो गया। और येसू को फिर महल के अंदर ले जा कर और दहश्त और शौक़ जुस्तजू से भरे हुए दिल के साथ पूछने लगा, “तू कहाँ का है?”

      मगर येसू ने उसे कुछ जवाब ना दिया। और फिर वही ख़ामोशी इख़्तियार कर ली जो हम इस तहक़ीक़ात के तीन मौक़ों पर पहले ही देख चुके हैं। मसीह ने अपने दुख उठाने के असनाए में जो रवैय्या इख़्तियार किया। उस में ये ख़ामोशियाँ बहुत ही अजीब व गरीब और अज़ीम मालूम होती हैं। लेकिन हर एक मौक़े पर उस के दिल की हालत का जिसके सबब से उस ने ये ख़ामोशी इख़्तियार की अंदाज़ा लगाना आसान बात नहीं।



9  देखो यूनानियों का इल्म-उल-अस्नाम

इस मौक़े पर येसू ख़ामोश क्यों रहा? बाअज़ का ख़याल है कि इस की वजह ये थी, कि इस सवाल का जवाब देना ना-मुम्किन था। वो उस के जवाब में हाँ या नहीं, नहीं कह सकता था। क्योंकि अगर वह कहता कि ख़ुदा उस का बाप है। तो पीलातुस उस के वही सादे और फ़ुहश मअनी समझता जैसा कि उस का मज़्हब उसे तालीम देता था। तो भी इस बात से पहलूतिही करने के लिए वो ये भी नहीं कह सकता था, कि वो इब्ने-अल्लाह नहीं है इसलिए यही बेहतर था कि कुछ भी ना कहे।

      मगर इस अम्र की सच्ची तश्रीह ज़्यादा सादा है। येसू ने अपने इब्ने-अल्लाह होने या ना होने की निस्बत कुछ कहना मुनासिब ना समझा क्योंकि वो इस अम्र की बिना पर रिहा किया जाना नहीं चाहता था। इब्ने-अल्लाह की हैसियत से नहीं बल्कि एक बेगुनाह आदमी की हैसियत से। जिसका पीलातुस भी बार-बार इक़रार कर चुका था। वो रिहाई का ख़्वास्तगार था। और उस की ख़ामोशी पीलातुस से इसी अम्र की तलबगार थी।

      जज को अब और भी ताज्जुब (हैरानी) हुआ। और इस बात पर वो कुछ खिसयाना सा भी हो गया। और बोला, तू मुझ से बोलता नहीं? क्या तू नहीं जानता कि मुझे तेरे छोड़ देने का भी इख़्तियार है और सलीब देने का भी? बेचारा पीलातुस। ये तो अभी चंद मिनट में ही ज़ाहिर होने वाला था, कि इस का इख़्तियार क्या कुछ है। और क़ुद्रत जिसका उसे फ़ख़्र था, क्या थी? उस की बात से मालूम होता था, कि गोया वो जो कुछ चाहे बिला रोक-टोक कर सकता है। कोई आदिल हाकिम इस क़िस्म का दावा नहीं कर सकता। क्योंकि अदल व इन्साफ हर क़िस्म के ऐसे मीलान (रुझान) को जो ख़िलाफ़े इन्साफ हो उस से दूर करने का इख़्तियार रखता है। और अब जब कि येसू ने बड़े इक़्तिदार के साथ उस के जवाब के लिए मुँह खोला तो उस ने उसे इसी अम्र को याद दिलाया। अगर तुझे ऊपर से ना दिया जाता तो फिर मुझ पर कुछ इख़्तियार ना होता। वो उसे याद दिलाता है कि जो क़ुद्रत उसे हासिल है वो उसे ख़ुदा की तरफ़ से मिली है। इसलिए उसे उस को अपनी ख़्वाहिश या हवस के मुवाफ़िक़ इस्तिमाल नहीं करना चाहिए बल्कि अदल के तकाज़े के मुवाफ़िक़। मगर साथ ही उस ने ये भी फ़रमाया। इसलिए जिसने मुझे तेरे हवाला किया उस का गुनाह ज़्यादा है उस ने इस अम्र को तस्लीम किया



10  इस के अगले फ़िक़रे में जो लफ़्ज़ “इस लिए” वाक़ेअ हुआ है। इस से हमें ख़्वाह-मख़ाह ये वहम गुज़रता है कि लफ़्ज़ “ऊपर से” का इशारा यहूदी अदालत की तरफ़ है।

कि पीलातुस ऐसी हालत में है कि उसे मज्बूरन इस मुकदमें की तहक़ीक़ात करनी पड़ी है। उस ने यहूदियों के हाकिमों की तरह अपने आप उसे हाथ में नहीं ले लिया।

      इस तौर से येसू ने अपने जज की तमाम मुश्किलात का इक़बाल (मानना) कर लिया। और वो उस के लिए हर एक मुनासिब माअज़िरत करने को तैयार था। ये वही शख़्स था जिसे पीलातुस ने चंद मिनट हुए पिटवाने और अज़ाब देने के लिए हवाले कर दिया था। भला ऐसी अज़ीमुश्शान और ना-ख़ुद-गर्ज़ाना रहमत भी कभी देखने में आई है? क्या कीना और ग़ुस्से पर इस से भी बढ़ कर कोई फ़त्हयाबी हो सकती है? अगर येसू की ख़ामोशी आलीशान थी, तो उस के अल्फ़ाज़ भी जब उस ने बोलना गवारा किया, उस से कुछ कम आलीशान ना थे।
(3)

      पीलातुस ने अपने क़ैदी की अज़मत व बुजु़र्गी और आला हौसले को फ़ौरन मालूम कर लिया। और यह अज़म बांध कर बाहर निकला कि ख़्वाह कुछ ही हो मैं उसे ज़रूर रिहा करूँगा। यहूदियों ने उस के चेहरे से इस बात को जान लिया। और आख़िरकार उन्होंने वो आख़िरी हथियार निकाला जो उन्होंने अब तक महफ़ूज़ रखा था। और जिसका पीलातुस को बराबर ख़ौफ़ लगा रहा था। उन्होंने ये धमकी दी कि वो शाहंशाह के पास उस की शिकायत करेंगे। क्योंकि उन के इन अल्फ़ाज़ का यही मतलब था। अगर तू इस को छोड़े देता है तो तू क़ैसर का ख़ैर-ख़्वाह नहीं। जो कोई अपने आपको बादशाह बनाता है वो क़ैसर का मुखालिफ़ है।

      रोमी सूबा के हाकिम के लिए कोई चीज़ इस से ज़्यादा होलनाक ना थी, कि क़ैसर के हुज़ूर में उस के ख़िलाफ़ शिकायत की जाये। और पीलातुस के हक़ में इस क़िस्म की शिकायत कई वजूहात से निहायत ख़ौफ़नाक होती। इस वक़्त शाही तख़्त पर एक ऐसा शख़्स बैठा था। जो बड़ा ही शक्की आदमी था। इलावा बरीं ख़ास इस ज़माने में वो बहुत ही ख़ौफ़नाक हो गया था। उस की जिस्मानी बीमारी के सबब जो अर्सा-दराज़ के ऐश व इशरत का नतीजा थी। उस का दिल बिल्कुल तारीक और वहशयाना हो रहा था। दर-हक़ीक़त उस की हालत दीवानगी से कुछ ही बेहतर होगी। उस का मिज़ाज बिल्कुल सड़ा हुआ था। और वो शक व शुब्हा और इंतिक़ाम और ज़रर-रसानी पर आमादा था। और उस की ग़ज़ब की आग भड़काने के लिए शायद इस इल्ज़ाम से बढ़कर और कोई दूसरा इल्ज़ाम ऐसा बर-महल (मुनासिब) ना था। रोम में ये बात अच्छी तरह मालूम थी, कि सारे मशरिक़ी ममालिक में एक आने वाले मसीह की इंतिज़ारी लगी हुई है। और अगर किसी सूबा के हाकिम की निस्बत ये शुब्हा पैदा हो कि वो किसी इस क़िस्म के दावेदार की हिमायत करता या उस दावों से चश्मपोशी करता है तो उस का हुकूमत से अलेहदा (अलग) होना यक़ीनी था। और इस के बाद ग़ालिबन जिलावतनी या क़त्ल हुदा मकान से ख़ारिज ना था। क़ैसर का ख़ैर-ख़्वाह या दोस्त एक ऐसा ख़िताब था। जिसके हासिल करने के लिए पीलातुस की हैसियत वाले लोग सख़्त ख़्वाहिशमंद थे। और कोई ऐसा फ़ेअल करना जिससे क़ैसर की ख़ैर ख़्वाही ज़ाहिर ना हो। सब ख़तरों से ज़्यादा था।

      मगर इस के इलावा और बातें भी थीं। जिनसे यहूदियों की इस धमकी की धार और भी तेज़ हो गई। पीलातुस जानता था कि उस के अहद-ए-हुकूमत में बहुत सी ऐसी बातें वाक़ेअ हुई हैं। जिनका इस तफ़्तीश व तहकीकात के नीचे आना, जिसका होना इस क़िस्म की शिकायत के बाद ज़रूरी था किसी तरह से मुनासिब नहीं। ये एक अजीब बात है कि उस ज़माने का एक दूसरा मुअर्रिख़ (तारीख़ लिखने वाला) भी एक और मौक़े का ज़िक्र लिखता है। जब कि पीलातुस को इसी क़िस्म की धमकी दी गई थी। और वो इस के साथ ही ये भी तहरीर करता है, कि उसे ख़ौफ़ था कि अगर यहूदियों की सिफ़ारत (सफ़ीर भेजना) रोमा को भेजी गई तो मुम्किन है कि वो उस की अहद-ए-हुकूमत की बहुत सी बे ज़ाब्तगियों, सख़्त-गीरियों, रिश्वतों, बेइंसाफ़ियों, और बेरहमियों की भी तहक़ीक़ात करें। पीलातुस की गुज़श्ता ज़िंदगी इस क़िस्म की थी। और अब जब कि वो एक ऐसा काम करना चाहता था। जो इन्साफ़ और इन्सानियत के तक़ाज़े के मुवाफ़िक़ था। तो उस की पिछली बदकारियाँ उस की सिद्द-ए-राह (रुकावट) हुईं। अच्छे इरादों और शरीफ़ाना कशिशों के रास्ते में कोई चीज़ ऐसी सख़्त रुकावट का बाइस नहीं होती जैसे कि गुज़श्ता गुनाहों का बोझ। जो लोग इन्सान की ज़िंदगी के ख़ुफ़िया और नाक़ाबिल बयान हिस्सों से वाक़िफ़ होते हैं। वो इस वाक़फ़ियत के ज़ोर पर उस को मज्बूर कर सकते हैं, कि वो हरगिज़ उस नेक काम को जिसे वो करना चाहता है। ना कर ले। या वो उस बदी व शरारत या शर्मनाक हरकत को अमल में लाए। जिसका वो उसे हुक्म देते हैं। ऐसी सोहबतें होती हैं। जिनमें एक आदमी ऐसे आला और उम्दा फ़िक़्रे इस्तिमाल नहीं कर सकता जो वो और लोगों के सामने किया करता है। क्योंकि वहां ऐसे अश्ख़ास मौजूद होते हैं। जो जानते हैं कि उस की ज़िंदगी इन अल्फ़ाज़ के मुख़ालिफ़ है। वो कौन सी बात है जो हमारे दिलों में आला ख़यालात को उठते ही दबा देती है। जो हमारे होंटों पर शरीफ़ाना कलमात को रोक देती है। जो हमारे अफ़आल की ताक़त को जज़्ब कर लेती है? क्या ये वो अंदरूनी धीमी आवाज़ नहीं जो कहती है कि याद कर कि पहले तू फ़ुलां अम्र में किस तरह क़ासिर रहा? यही गुज़श्ता गुनाहों की लानत है। यही हमें वो नेकी जो हम करना चाहते हैं नहीं करने देती।

      लेकिन अगर किसी शख़्स ने गुज़श्ता बदअतवार ज़िंदगी के सबब अपने को इस हालत में गिरफ़्तार कर दिया है। तो उसे क्या करना चाहिए? भला पीलातुस को क्या करना चाहिए था? इस का सिर्फ एक ही ईलाज है। ये कि इन्सानियत की सारी हिम्मत व इस्तिक़लाल को इकट्ठा कर के और नताइज की तरफ़ से बेपर्वा हो कर। ख़्वाह कुछ ही क्यों ना हो हक़ और सच्चाई के मुताबिक़ अमल करो। अगर अपनी ज़मीर की पैरवी में एक क़दम भी उठाओगे। और अगर इक़रार गुनाह में एक कलमा भी कहोगे। तो देखोगे कि एक लम्हे में इस ज़ालिम की क़ुद्रत का बंद टूट जाएगा। और अफ़्सूँ ज़दा आदमी गुज़श्ता ज़माने की बदकारियों की क़ैद को तोड़ कर बाहर की आज़ादी में निकल आएगा।

      मगर अफ़्सोस ! पीलातुस इस क़िस्म की जद्दो-जहद के लिए तैयार ना था। सदाक़त की ख़ातिर। और इस दिलकश और बेगुनाह मगर गुमनाम और बे-यार व मददगार गलीली आदमी की ख़ातिर। और इस बात के लिए तैयार ना था, कि उस की शिकायत क़ैसर के सामने की जाये। और वो जिला-वतनी और इफ़्लास (ग़रीबी) में मारा मारा फिरे। भला ऐसे दुनिया परस्त से इस से बढ़कर और क्या उम्मीद हो सकती है। वो दुनिया का था। और उसी के फ़ैशन और इज़्ज़त का गरवीदा (आशिक़) था। उसी के ऐश व इशरत और आराम व आसाइश गोया उस की जान थे। और जब उस ने अपनी रियाया की ये धमकी सुनी तो खुले बंदों अपने को उन के हवाले कर दिया।

      इस तौर से यहूदियों का जोश व ख़ुरोश-वार इसरार और हट आख़िरकार कामयाब हुआ। पीलातुस भी देर तक अपनी बात पर जमा रहा। मगर आख़िरकार उसे मज्बूरन क़दम-बा-क़दम पिसपा (शिकस्त खाना) होना पड़ा। वो हक़ के मुताबिक़ अमल करना चाहता था। वो येसू का गरवीदा (चाहने वाला) हो गया था। और उसे अपने ज़मीर के ख़िलाफ़ करना दूभर मालूम होता था। मगर उस की रियाया ने उसे उन की शरारत के मुताबिक़ अमल करने पर मज्बूर कर दिया। मगर उस की नाकामी की असली बुनियाद ख़ुद उस के अंदर ही थी। हाँ ख़ुद उस की दुनिया परस्ती और बेउसूल ज़िंदगी में। जो इस मौक़े पर उस की जड़ों तक आश्कारा हो गई।

(4)

      अब बहुत थोड़ा करना बाक़ी रह गया था। पीलातुस के सर में वहशत समा रही थी। और उस का दिल जल रहा था। उस को उस वक़्त सख़्त ज़क उठानी पड़ी थी। और अगर मौक़ा मिलता तो वो बहुत ही ख़ुश होता कि अपने मुख़ालिफ़ों को भी किसी ना किसी तरह ज़लील कर सके। अब वो तख़्त अदालत पर जा बैठा। जो चबूतरा या इब्रानी ज़बान में गिप्ता कहलाता था। ग़ालिबन उस का ये फ़ेअल ऐसा ही था। जैसा कि अंग्रेज़ी जज मौत का फ़त्वा सादिर करने से पहले काली टोपी सर पर पहन लेते हैं। और फिर येसू की तरफ़ इशारा कर के कहने लगा कि “अपने बादशाह को देखो” जिससे उस का ये मतलब था कि वो इस शख़्स को, हाँ इस बेचारे ख़ून-आलूदा और ज़ुल्म रसीदा शख़्स को दर-हक़ीक़त उन का मसीह समझता है। वो उन्हें तअन व शनीअ की बरछी से घायल करना चाहता था। और इस अम्र में वो कामयाब भी हुआ। क्योंकि वो मारे दुख के चिल्ला उठे कि “ले जा। ले जा। उसे सलीब दे।” और वो बोला, “क्या मैं तुम्हारे बादशाह को सलीब दूँ?” और निहायत ग़ज़बनाक हो कर वो चिल्ला उठे कि “क़ैसर के सिवा हमारा कोई बादशाह नहीं” ऐसी क़ौम के क़ायम मुक़ामों के मुँह से जिन्हें लेपालक होने का हक़ और जलाल और चंद अहद और शरीअत और इबादत और वाअदे, हासिल थे इस क़िस्म के कलमात निकलना जाये ताज्जुब है। ये गोया अपने हक़ विलादत को छोड़ना और अपनी तक़्दीर को तर्क कर देना था। पीलातुस ख़ूब जानता था, कि इस तौर पर अपने आबा व अज्दाद की उम्मीदों को दे डालने और अपने फ़ातिहों के हक़ को तस्लीम करने में उन के मग़रूर दिलों को क्या कुछ बर्दाश्त करना पड़ा होगा। मगर उन्हें इस क़िस्म की तल्ख़-कलामी पर मज्बूर करने में भी उस को उस मज्बूरी व अजुज़ का बदला मिल



11  ये एक अजीब तारीख़ी वाक़िया है कि पीलातूस आख़िरकार उसी मुसीबत में गिरफ़्तार हो गया जिससे बचने के लिए उस ने येसू पर जोर सितम रवा रखा था। येसू के मस्लूब होने के थोड़े अर्से बाद उस की रियाया ने रोम में उस के ख़िलाफ़ अर्ज़ी भेजी। वो वापिस बुला लिया गया। और फिर कभी वापिस ना आया। आख़िरकार लिखा है कि उस ने अपनी मुसीबतनाक ज़िंदगी का अपने ही हाथ से ख़ातमा कर दिया। उस के मुताल्लिक़ बहुत सी कहानियाँ बयान की जाती हैं। और कई एक मुक़ाम बताए जाते हैं। जहां उस की बेचैन रूह भटकती फिरती है और लोगों को डराती है।

गया। जिसका वो ख़ुद शिकार हो रहा था। और उस ने उन के इस इक़रार को मान लिया।

नवां बाब
यहूदाह इस्क्रियोती

      ख़ुदावन्द की इस रूबकारी (पेशी) का भी एक अफ़्सोस नाक ज़मीमा (ज़ाइद पर्चा) है। जैसा हम मज़्हबी अदालत की रूबकारी के मुताल्लिक़ एक और ज़मीमे का ज़िक्र कर चुके हैं। सरदार काहिन की अदालत में जब मसीह ने एक अज़ीमुश्शान इक़रार किया। तो उसी के साथ ही मुक़ाम अदालत के बाहर अज़ीम इन्कार पतरस की ज़बानी हो रहा था। और उसी पीलातुस की अदालत की कार्रवाई के साथ यहूदाह की दग़ाबाज़ी का आख़िरी फ़ेअल वक़ूअ में आया। सिर्फ फ़र्क़ ये है कि इस आख़िरी सूरत में हम बड़ी सेहत के साथ उस के वक़ूआ का वक़्त और मुक़ाम सही सही नहीं बता सकते।

(1)

      यहूदाह तारीख़ इन्सानी में एक……… लाएख़ल है। डाँटी शायर अपनी मशहूर नज़्म…… की रिवायत में इस आलम रदा रंज के तमाम तबक़ों में से जहां हर एक शरारत अलैहदा-अलैहदा क़िस्म की सज़ा अभगत ही है। आख़िरकार अपने रहनुमा के हमराह तब्क़ा ज़ेरीन में पहुंचता है, जो क़ारे जहन्नम है। और जहां सख़्त तरीन गुनेहगार सज़ा पा रहे हैं। ये एक झील है। आग की नहीं। बल्कि बर्फ़ की। जिसकी शफ़्फ़ाफ़ सतह के नीचे ख़ौफ़नाक हालतों में उन लोगों की यख़-बस्ता सूरतें नज़र आती हैं, जिन्हों ने अपने आक़ाओं से बेवफाई की थी। क्योंकि डाँटी की नज़र में ये गुनाह सब गुनाहों से ज़्यादा क़बीह व करियह (बुरा, शर्मनाक) है। इन सब के दर्मियान अपने ख़ौफ़नाक और गिरां डील डोल में वो “शाहंशाह जो इस दर्द तक्लीफ़ की ममलकत का हाकिम है” यानी ख़ुद इब्लीस खड़ा हुआ नज़र आता है। क्योंकि इसी गुनाह की वजह से वो फ़िर्दोस से निकाला गया था। और उस के साथ दूसरी सूरत यहूदाह इस्क्रियोती की है। वो शैतान के मुँह में है। जिसे वो अपने दाँतों में काटता और चबाता रहता है।

      कुरून-ए-वुस्ता में इस शख़्स का और उस के गुनाह का ये ख़याल लोगों के दर्मियान मुरव्वज (रिवाज) था। मगर ज़माना हाल में ये ख़याल दो मुतज़ाफ़ नुक़्तों के दर्मियान घूम रहा है। हमारा ज़माना एतिदाल और मज़्हबी तहम्मुल और बर्दाश्त का ज़माना है। और बाअज़ अश्ख़ास का दिल पसंद मशग़ला ये है कि ज़माना गुज़श्ता में जो आदमी बदकिर्दारी में मशहूर थे। जहां तक हो सकता है उन के नेक-नामी को बहाल करने की कोशिश करते हैं। मर्द व औरत जो सफ़ा तारीख़ पर मुजरिमों के चबूतरे पर खड़े नज़र आते हैं। इन्हें वहां से उतारने की कोशिश की जा रही है। उन के मुक़द्दमात की दुबारा तहक़ीक़ात की जाती है। और उन्हें क़ाबिल तारीफ़ व तकरीम साबित किया जाता है। बाज़ औक़ात ये अम्र क़रीन-ए-इंसाफ़ होता है। मगर और सूरतों में इस को बेहूदगी की हद तक पहुंचाया जाता है। वो ये साबित करना चाहते हैं, कि दर-हक़ीक़त दुनिया में कोई भी शख़्स नहीं। जो निहायत शरीर हो। सख़्त बदकार और बदमाश भी ऐसे हैं, जिनके असली मुद्आ को लोगों ने ग़लत समझा है। और उन लोगों में से जिन पर से तारीख़ के फ़ैसले को दूर करने की कोशिश की गई है। यहूदाह इस्क्रियोती भी है। उन्नीस सदीयां इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि वो बनी-आदम में सबसे कमीना इन्सान था। मगर हमारी सदी में ये दिखाने की कोशिश की जा रही है कि वो एक क़िस्म का उलूल-अजम (मजबूत इरादे वाला) मर्द था। ये ख़याल अहले जोमन की ईजाद है। मगर अंग्रेज़ी क़ौम के सामने पहले डी कोंज़ी ने इस ख़याल को अपनी तमाम फ़साहत व बलाग़त (ख़ुश-बयानी) से रंगीन और दिलकश बना कर पेश था।

      ये बयान किया जाता है कि यहूदाह का असली मंशा मसीह की गिरफ़्तारी में इस अम्र से जो अब तक समझा जाता रहा है, बिल्कुल मुख़्तलिफ़ था। उस ने रुपये के लालच से मसीह को गिरफ़्तार नहीं कराया था। वो हक़ीर सी रक़म जो आज के हिसाब से पचास साठ रुपये से ज़्यादा ना होगी। जिसके लिए उस ने अपने उस्ताद को बेच डाला। साबित करती है कि उस का असली मुद्आ कुछ और ही था। रिवायत के ज़रीये जो ख़याल हम तक पहुंचा है। वो इस के अम्र के साथ मसीह ने उसे मुंतख़ब कर के अपने बारह शागिर्दों के ज़मुरे में दाख़िल किया बिल्कुल जोड़ नहीं खाता। और ना इस वाक़िये से मेल खाता है, कि बादअज़ां उस ने पछता कर किस तरह अपने आपको ज़ाए कर दिया। बिला-शुब्हा जो कुछ तसव्वुर उस ने मसीह के काम की निस्बत बाँधा था। वोह मह्ज़ दुनियावी और माद्दी क़िस्म का था। उसे ये उम्मीद थी कि मसीह बादशाह होगा। और वो भी उस के दरबार में आला ओहदे पर मामूर होगा। मगर दूसरे शागिर्दों के भी तो ऐसे ही ख़याल थे। और वो भी आख़िरी दम तक इसी अम्र के मुंतज़िर रहे कि मसीह अब भी अपने अजज़ व फ़िरोतनी का बहरूप उतार कर अनान-ए-सल्तनत (सल्तनत की भाग दौड़) को हाथ में ले लेगा। सिर्फ इतना फ़र्क़ था, कि उन्होंने इस अम्र के मुताल्लिक़ वक़्त और मकान का फ़ैसला मसीह ही के हाथों में छोड़ दिया था। और उस की कार्रवाई पर नुक्ता-चीनी नहीं करते थे। मगर यहूदाह ऐसा साबिर ना था। वो चुस्त व चालाक आदमी था और उसे ये ख़याल पैदा हो गया, कि मसीह की ख़सलत (आदत) में एक क़िस्म की कोताही है। वो बहुत ही रूहानी आदमी है। और दुनिया-परस्ती से कोसों दूर है। इसलिए वो उस काम को, जिसके लिए वो आया है। सरअंजाम करने में ढील करता है। उस का सारा वक़्त तो मरीज़ों के शिफ़ा बख़्शते। वाअज़ व नसीहत करने और ग़ौर व फ़िक्र में ख़र्च होता है। ये सब कुछ अच्छा तो है। मगर पहले सल्तनत का क़ायम हो जाना लाज़िमी है। मगर इस तरह तो वो अपना मौक़ा खो रहा है। इस की इस ढील ने उमरा व शुरफ़ा को उस के ख़िलाफ़ बर-अंगेख्ता (तैश में भरा हुआ) कर दिया है। एक बड़ी ताक़त व क़ुद्रत यानी अवामुन्नास की अक़ीदत। अब भी उस की जानिब है। मगर वो इस से कुछ भी काम लेता हुआ नज़र नहीं आता। जब खजूर के इतवार के दिन एक बड़ी जमाअत, जो मसीह मौऊद की मुंतज़िर थी। बड़े जोश व ख़रोश के नारे लगाती हुई उसे यरूशलेम में ले गई। तो यहूदाह को ख़याल गुज़रा कि अब उस की ज़िंदगी का असली मक़्सद पूरा होने को है। मगर मसीह ने अब भी कुछ ना किया। और जमाअत मायूस व ना उम्मीद हो कर मुंतशिर हो गई। यहूदाह के नज़्दीक जो कुछ अब येसू के लिए ज़रूरी था। सो ये था कि उसे एक ऐसी हालत में फंसा दिया जाये। जिसमें उसे मज्बूरन कुछ ना कुछ करना पड़े। उस में चुस्ती और क़ुव्वत-ए-फ़ैसले की कमी मालूम होती है। लेकिन अगर वो हुक्काम के हाथों में पड़ जाये, जो उस की जान लेने की फ़िक्र में हैं, तो वो इस तसाहुल (सुस्ती) को छोड़ देगा। जब वो उसे पकड़ने की कोशिश करेंगे, तो यक़ीनन वो उन के हाथों से निकल जाएगा। और उस की मोअजज़ाना क़ुद्रत अपने सारे ज़ोर व क़ुव्वत में ज़ाहिर होगी। जिससे सब लोगों में एक आलमगीर जोश व ख़रोश पैदा हो जाएगा। इस तौर से उस की सल्तनत शान व शौकत के साथ क़ायम हो जाएगी। और यक़ीनन वो उसी शागिर्द को सबसे बढ़कर इज़्ज़त व इक़्तिदार बख़्शेगा। जिसकी मुआमला फहमी और दिलेराना कार्रवाई से ये सब काम अंजाम को पहुंचा।

(2)

      लेकिन अगर मज़्कूर-बाला बयान को यहूदाह की सच्ची तारीख़ भी समझें तो भी उस का चाल चलन इल्ज़ाम से ऐसा बरी नहीं हो सकता। जैसा कि ज़ाहिर में नज़र आता है। हमारा ख़ुदावन्द अपनी ज़िंदगी के अस्ना में अक्सर औक़ात ऐसे अश्ख़ास से दो-चार होता रहा जो गो नेक ग़र्ज़ से ही क्यों ना हो उस के इरादों और तजावीज़ में मुदाख़लत करने की कोशिश करते रहते थे। और ये चाहते थे, कि या तो पेश अज़ वक़्त उसे किसी काम के करने पर मज्बूर करें। या जब वक़्त आता था, तो उसे किसी काम से रोके रखें। लेकिन वो इस क़िस्म की ख़लल-अंदाज़ी और दख़ल और माक़ूलात पर हमेशा सख़्त नाराज़गी और ग़ुस्सा ज़ाहिर करता था। ख़ुद उस की माँ भी जब उस ने ऐसा करने की कोशिश की तो उसकी नाराज़गी से ना बची। और उस की ज़िंदगी का अस्ल उसूल यही मालूम होता था कि वो ठीक ठीक, ना तो इफ़रात के साथ, ना तफ़रीत के साथ ना आगे और ना पीछे। ख़ुदा की मर्ज़ी को जैसी कि वो है, बजा लाए। और जब कोई इस में दस्त अंदाज़ी करता था तो वो उसे शैतान की आज़माईश समझता था।

      मगर ये नया मसअला जिसका ऊपर बयान हुआ कसौटी पर ठीक नहीं उतरता। पाक नविश्तों में इस का कहीं भी इशारा तक नहीं मिलता। बल्कि उन में जहां कहीं यहूदाह का ज़िक्र होता है। तो इस में एक क़िस्म की नफ़रत और हिक़ारत पाई जाती है। इस के इलावा वो उस के इस फ़ेअल को एक बिल्कुल मुख़्तलिफ़ ग़र्ज़ पर महमूल करते हैं। वहां साफ़ लिखा था, कि यहूदाह चोर था। और वो थैली में से जिसमें से येसू ग़रीबों को दिया करता और अपनी ज़रूरियात को भी पूरा करता था, चुरा लिया करता था। और ये ऐसी बदज़ाती थी कि ग़ालिबन अक्सर चोर भी इस क़िस्म के काम से नफ़रत करते। और वो अल्फ़ाज़ जो उस ने सदर मज्लिस के सामने कहे। वो भी ठीक इस ख़याल से मुताबिक़त खाते हैं, कि तुम मुझे क्या दोगे। ये अम्र कि वो बिल्कुल थोड़े पर राज़ी हो गया साबित करता है, कि उस की तबीयत पर लालच और तमअ (लालच) किस क़द्र ग़ालिब हो रहा था।

      ये बिल्कुल नामुम्किन मालूम होता है, कि इस क़िस्म की तबीयत में इस क़िस्म की गर्म-जोशी जैसा कि नए ख़याल वाले उस की तरफ़ मन्सूब करते हैं। गो कि ग़लत ख़याल ही पर मबनी क्यों ना हो, जगह पाई। बल्कि बरख़िलाफ़ इस के ये मुम्किन है कि मसीही सल्तनत की उम्मीदों की मायूसी ने इस लालच और तमअ (लालच) की आग को और भी भड़का दिया हो। और डी कोंज़ी की तहरीर उल्टा इस ख़याल को पुख़्ता करने के लिए और उस की ज़िंदगी का भेद खोलने के लिए बहुत सी दलाईल और इशारात के मुहय्या करने का ज़रीया ठहरती है।

      इस में कुछ शक नहीं कि एक ज़माने में यहूदाह की ज़िंदगी बिल्कुल होनहार बरोह के चिकने चिकने पात की मिस्दाक़ मालूम होती थी। येसू जो अपने पैरओं के इंतिख़ाब में बड़ा मुहतात था। उस को कभी इंतिख़ाब कर के रसूलों के दायरे में दाख़िल ना करता। अगर उस में अपनी ज़ात और काम के लिए वो अक़ीदत और सरगर्मी ना पाता। अलबत्ता ये तो वो ख़ूब जानता था, कि उस के अग़राज़ में ख़ुदगर्ज़ी की आमेज़श है। मगर उस के सारे पैरओं में से कोई इस से ख़ाली ना था। और ये मेल उस की सोहबत की आग में साफ़ हो जाता।

      दूसरे रसूलों में तो ये सफ़ाई वाक़ेअ हो गई। वो उस की रिफ़ाक़त व सोहबत में पाक साफ़ हो गए। उन की दुनिया परस्ती तो दर-हक़ीक़त उस की ज़मीनी ज़िंदगी के ख़ातिमे तक उन से लगी रही। मगर वो दिन-ब-दिन कम होती जाती थी। और दूसरे रिश्ते जो उन की ज़मीनी शान व शौकत की उम्मीद से भी ज़्यादा मज़्बूत और सख़्त थे। उन्हें यक़ीनी तौर पर उस के मुआमले के साथ वाबस्ता करते जाते थे। मगर बरख़िलाफ़ इस के यहूदाह के ऊपर पर बिल्कुल इस के बरअक्स असर हुआ। जो नेकी उस में थी वो दिन-ब-दिन कम से कमतर होती गई। और आख़िरकार उस का सारा ताल्लुक़ मसीह के साथ फ़क़त यही रह गया कि वो इस मुआमले से क्या कुछ कमा सकता था।

      जब पहले उस के दिल पर ये शुब्हा वारिद हुआ कि जो मसीही सल्तनत की उम्मीद वो पका रहा था कभी पूरी होने वाली वाली नहीं। तो मालूम होता है कि यहूदाह की बातिनी ज़िंदगी में एक बड़ी तब्दीली वाक़ेअ हो गई। मगर ये बात ख़ातिमे से कोई एक साल पहले वाक़ेअ हुई जब कि येसू ने अपने पैरओं की इस कोशिश को जो उसे बजोर पकड़ कर बादशाह बनाना चाहते थे, मुख़ालिफ़त की। जब कि बहुत से शागिर्द उसे छोड़ गए और फिर कभी उस के हमराह ना हुए। उस वक़्त येसू ने यहूदाह को उस बुरी रूह से जो उस के दिल पर क़ाबू पाती जाती थी। ख़बरदार किया और फ़रमाया कि क्या मैंने तुम बारहों को नहीं चुना और तुम में से एक शैतान है। मगर शागिर्द ने इस तम्बीह पर तवज्जोह ना की। शायद इस वक़्त से उस ने थैली में से जो उस के सुपुर्द थी चोरी करनी शुरू की। शायद उस ने ये सोचा कि येसू की पैरवी में मुझे और नहीं कुछ तो फ़ायदा हासिल होना चाहिए। और ग़ालिबन वो अपनी इस चोरी को इस ख़याल से जायज़ ठहराता होगा, कि जो कुछ वो इस वक़्त ले रहा है। इस रक़म से जिसकी उसे उम्मीद दिलाई गई थी, बहुत ही कम है। और वो अपने को ऐसा शख़्स समझने लगा होगा, कि गोया उस के साथ सख़्त बदसुलूकी हुई है।

      इस ख़ुफ़िया गुनाह के मुतवात्तिर इर्तिकाब से मुम्किन ना था, कि उस की ख़सलत बिगड़ने और तनज़्ज़ुल (ज़वाल आना) करने से बची रहती। येसू कभी-कभी तम्बीह के चंद कलमात इशारतन कह दिया करता था। मगर उस पर उन अल्फ़ाज़ का उल्टा असर पड़ता था। यहूदाह को मालूम था कि येसू इस बात को जानता है। और इसलिए उस के दिल में उस की तरफ़ से नफ़रत और अदावत और भी बढ़ती गई। ये अलामत बहुत ही रद्दी थी। दूसरे शागिर्द तो दिन-ब-दिन ज़्यादा-ज़्यादा अपने उस्ताद के गिरिवेद (आशिक़) होते जाते थे। क्योंकि वो जानते थे, कि उस ने उन पर किस क़द्र एहसान किए हैं। बरख़िलाफ़ इस के यहूदाह का ये ख़याल दिन-ब-दिन बढ़ता जाता था, कि उस ने धोका खाया है। इसलिए वो भी उल्टा उसे धोका देकर अपना बदला क्यों ना उतारे शायद मसीह को इस थोड़ी सी रक़म के एवज़ बेच डालने में एक क़िस्म की तहक़ीर भी मक़्सूद हो कि वो उसे बिल्कुल ख़फ़ीफ़ (मामूली) समझता है।

      एक से ज़्यादा इन्जील नवीसों ने उस की इस दग़ाबाज़ी को इस वाक़िये के साथ वाबस्ता किया है, जब कि मर्यम ने बेशक़ीमत इत्र ख़ुदावन्द येसू के पांव पर मला। ऐसा मालूम होता है, कि इस दिलकश और मुहब्बत आमेज़ हरकत ने उस के दिल की सारी बदी को तहरीक देकर इस अम्र पर आमादा किया कि अब जो कुछ करना है कर गुज़रे। उस ने अपने ग़ुस्से का इज़्हार तो इन अल्फ़ाज़ में किया ये रुपया ग़रीबों को दिया जाना चाहिए था। मगर अस्ल मक़्सद और ही था। ये एक बड़ी रक़म थी। और अगर वो उस की थैली में पड़ते तो इस का एक बड़ा हिस्सा उस के हाथ लगता। लेकिन ग़ालिबन इस वक़्त और भी बातें थीं। जिनसे उस का ग़ुस्सा और भी भड़क उठा होगा। उस को ये ज़ियाफ़तें और इत्र मिलना ऐसे वक़्त में जब कि मसीह की क़िस्मत का फ़ैसला नज़्दीक था। मह्ज़ एक हमाक़त मालूम होती होगी। और वो इस अम्र को अपने नज़्दीक क़ाबिले हिकारत समझता होगा। उस पर ये ज़ाहिर था, कि मुआमला ख़त्म हो चुका। एक सरकर्दा आदमी जो ऐसे मौक़े पर इस तौर से आवारा व सर-गर्दान पड़ा फिरता और बेपर्वाई जताता है। उस के दिन पूरे हो चुके। अब ऐसे डूबते बेड़े में से निकल खड़े होना ही बेहतर है। मगर निकलें भी तो इस तौर से कि इंतिक़ाम भी मिल जाये और रुपया भी हाथ लगे।

      इस तौर से उस के जज़्बात जोश मारते और ज़ोर-आवर होते गए। लेकिन दर-हक़ीक़त हिर्स व तमअ (लालच) बजा-ए-ख़ुद भी एक निहायत पुर ज़ोर चीज़ है। मिंब्बरों (पुलपिट) पर से शायद उस के मुताल्लिक़ बहुत कम वाअज़ सुनाई देते हैं। लेकिन पाक नविश्तों और तारीख़-ए-आलम में उसे एक बड़ी बुलंद जगह दी गई है। कौन कह सकता है, कि जितनी ख़राबियां और बर्बादियां दुनिया में वाक़ेअ होती हैं। उन में इस हिर्स व तमअ (लालच) से बढ़कर किसी और चीज़ को भी दख़ल है। तमअ (लालच) सारे अहकाम को तोड़ता है। क़ातिल के हाथ में अक्सर ये तमअ (लालच) तल्वार देता है। इस तमअ (लालच) ने दुनिया के हर ज़माने और हर मुल्क की मंडी और तिजारत के कारोबार को एक झूट और फ़रेब का बाज़ार बना रखा था। मर्दों के जिस्म और औरतों के दिल इसी चांदी सोने के एवज़ बिकते हैं। इस की क्या वजह है, कि बड़ी-बड़ी शरारतें ज़माना बाद जमाना जारी रहती हैं। और ऐसे ऐसे फ़ेअल जिनकी ताईद में कुछ भी नहीं कहा जा सकता सोसाइटी की मंज़ूरी से बराबर जारी रहते हैं? सिर्फ इसलिए कि उन में रुपये को दख़ल है। तमअ (लालच) शैतानी ताक़त रखता है। लेकिन इस बात को याद कर के कि यही गुनाह था। जिसने यहूदाह का बीड़ा डुबोया। मुम्किन है कि हम उसे अपने दिलों से बाहर रखने में कामयाब हों।

(3)

      बाअज़ लोग यहूदाह की तौबा को उस की रूह की अज़मत का सबूत क़रार देते हैं। यक़ीनन ये उस नेकी व ख़ूबी का सबूत तो ज़रूर है, जो किसी ज़माने में उसे हासिल थी। क्योंकि गुनाह की तारीकी को महसूस करने के लिए नेकी की चिंगारी का होना लाज़िम है। और जिस क़द्र ज़मीर को ज़्यादा रोशनी मिली होगी। उसी क़द्र ज़मीर के ख़िलाफ़ करने के बाद आदमी को सख़्त दर्द व तक्लीफ़ महसूस होगी। जो लोग किसी दर्जे तक मसीह की सोहबत में रह चुके हैं। वो कभी फिर उस हालत को जो उस की सोहबत से पैदा होती है भूल नहीं सकते। और मज़्हब अगर इन्सान को बचाने में कामयाब नहीं होता तो रूह की बर्बादी की हालत में निहायत बेरहम दुख देने वाला साबित होता है।

      ये ठीक तौर पर नहीं कहा जा सकता कि यहूदाह के दिल में ये मअकूस (टेढ़ी) तब्दीली किस ज़िल्लत से शुरू हुई। येसू की तहक़ीक़ात में कई एक बातें वाक़ेअ हुईं जिनसे उस के ख़यालात पर बहुत कुछ असर पैदा हुआ होगा। मगर आख़िरकार ज़मीर की वो बदला लेने वाली ताक़तें बिल्कुल जाग उठीं। जिनके बयान से तमाम अफ़्सोस नाक नाटक और तारीख़ी क़िस्से कहानियां भरी पड़ी हैं। और जिसका उम्दा नमूना बाइबल में क़ाइन है। जो अपने भाई के ख़ून की चीख़ों के आगे-आगे भागता फिरता है। जिसका नमूना यूनानी लिट्रेचर में ख़ौफ़नाक योमीनांडस हैं। जिनकी शक्ल भयानक और आँखें ख़ूनआलूदा हैं और बेरहिमाना अपने शिकार के पीछे-पीछे लगे रहते हैं। जिसकी तस्वीर शेक्सपियर के मशहूर ड्रामों मेकबथ और रिचर्ड सोम में निहायत मोअस्सर तौर पर खींची गई है। अब उस के दिल में ज़बरदस्त ख़्वाहिश पैदा हुई कि काश किसी तरह वो सब जो उस के हाथों हुआ है ना हुआ होता। रुपया जिस पर उस का दिल लगा हुआ था। अब उस की क़ुव्वत वहमा के सामने साँप और बिच्छू नज़र आने लगा। और हर एक सिक्का एक आँख की तरह दिखाई देने लगा जिसमें से अबदी इन्साफ़ उस के जुर्म पर नज़र करता मालूम होता था। और ज़बान हाल से इंतिक़ाम के लिए पुकारता था। जैसे कि क़ातिल एक पोशीदा कशिश के बाइस फिर उसी मुक़ाम की तरफ़ खिंचा जाता है। जहां उस का मक़्तूल एक पोशीदा कशिश के बाइस फिर उसी मुक़ाम की तरफ़ खिंचा जाता है।… जहां उस का मक़्तूल पड़ा होता है। इसी तरह वो भी मुक़ाम को वापिस गया जहां उस की नमक हरामी का फ़ेअल अमल में आया था। और उन लोगों से रूबरु हो कर जिन्हों ने उसे इस काम के लिए इस्तिमाल किया था। उस ने रुपया उन को वापिस दे दिया और साथ ही बड़े जोश से ये इक़रार भी किया, कि मैंने बेक़सूर को क़त्ल के लिए पकड़वाया। मगर वो बहुत बड़े तसल्ली देने वालों के पास आया था। और वो बड़े हिक़ारत आमेज़ लहजा बोले, “हमें क्या? तू जान” जब वो पहले आया था तो उन्होंने उस की बड़ी ख़ातिर व तवाजे की थी। लेकिन अब वो अपना काम उस से निकाल चुके थे। इसलिए उसे हिक़ारत के साथ अलग डाल दिया। अब वो कम्बख़्त आदमी अपने गुनाह के शुरका के सामने से भाग निकला। लेकिन वो इस रुपये को और ज़्यादा अर्से तक अपने पास नहीं रख सकता था। क्योंकि वो उस के हाथ में दहकते अँगारे की मानिंद मालूम होता था। और इसलिए वहां से निकलने के पेश्तर उस ने वो रुपया उन के सामने फेंक दिया। बयान किया जाता है, कि ये वाक़िया हैकल के उस हिस्से में वाक़ेअ हुआ। जहां सिर्फ काहिन लोग जा सकते थे। इसलिए या तो वो दौड़ कर ममनू दरवाज़े में से आगे निकल गया होगा। या उस ने खुले दरवाज़े में से बाहर ही से रुपया फेंक दिया होगा। वो सिर्फ उस रुपया से पीछा छुड़ाने का ही ख़्वाहिशमंद ना था। बल्कि उस के दिल में पुर ज़ोर ख़्वाहिश ये थी, कि काहिनों के पास भी उन के गुनाह का हिस्सा छोड़ जाये।

      तब वो भाग कर हैकल से बाहर निकल गया मगर वो कहाँ जा रहा था? काश कि उस के अंदर कोई चीज़ होती जो उसे मसीह के पास भाग जाने की तहरीक करती। काश कि वो सब रुकावटों और क़ाईदों पर पानी फेर कर उसी के पास जहां कहीं वो मिल सकता था जाता और अपने को उस के पांव पर डाल देता ऐसा करने में अगर सिपाही उस के टुकड़े भी कर डालते तो भी क्या पर्वा थी? तब तो वो शहीद तौबा समझा जाता। और उसी दिन मसीह के साथ फ़िर्दोस में होता। यहूदाह अपने गुनाह से ताइब तो हुआ। उस का इक़रार भी किया। बदकिर्दारी की उज्रत भी अपने से दूर फेंक दी। मगर उस की तौबा में उस अंसर या जुज़ की कमी थी। जो सबसे ज़्यादा ज़रूरी थी। वो ख़ुदा की तरफ़ ना फिरा। सच्ची तौबा फ़क़त इस का नाम नहीं कि ज़मीर ख़ौफ़-ज़दा हो कर अपने गुनाह से डरे और मुज़्तरिब व परेशान हो जाये। बल्कि सच्ची तौबा बदी को छोड़ देना है। इसलिए कि मसीह ने ग़लबा हासिल कर लिया है। वो ना सिर्फ गुनाह से फेरता बल्कि ख़ुदा की तरफ़ फेरता भी है। इस में ना सिर्फ ख़ौफ़ बल्कि ईमान भी दाख़िल है।

(4)

      यहूदाह के अंजाम को भी बाअज़ लोग उस के हक़ में अच्छा ख़याल रखने के लिए दलील के तौर पर पेश किया करते हैं। ख़ुदकुशी के फ़ेअल को अक्सर औक़ात एक क़िस्म की उलूल-अजमी (मुस्तक़िल मिज़ाजी) के साथ वाबस्ता किया जाता है। और इस रोमी तरीक़ से ज़िंदगी से बाहर क़दम रखने को बाअज़ मसीही भी, बावजूद ये कि ये मज़्हबी तौर पर गुनाह है। एक ग़ैर मामूली आला हौसलगी और मुस्तक़िल मिज़ाजी का सबूत समझते हैं। लेकिन अगर ग़ौर किया जाये तो मालूम होगा, कि दर-हक़ीक़त ख़ुदकुशी को बिल्कुल इस के बरअक्स समझना चाहिए। सिवाए उन अश्ख़ास के जिनकी अक़्ल व दानिश को मिराक़ (जुनून) और अफ़्सरदह दिली ने खो दिया है। इस फ़ेअल को इन्सान के तमाम बुरे अफ़आल में से निहायत ही क़ाबिल-ए-तहक़ीर समझना चाहिए। इस के ज़रीये से इन्सान गोया ज़िंदगी के बोझ और ज़िम्मेदारियों से ख़लासी ढूंढता है। और ये बोझ और ज़िम्मेदारियाँ ना सिर्फ दूसरों के सर पर छोड़ जाता है। बल्कि उन के साथ ही शर्म व बेइज़्ज़ती की नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त विरासत भी उस के पस मांदों के हिस्से में आती है। मज़्हबी पहलू से तो ख़ुदकुशी और भी ख़राब और नाज़ेबा मालूम होती है। ग़ैर-मसीही मुसन्निफ़ों की राय में भी ख़ुदकुशी करने वाला ना सिर्फ उस जगह को जहां तक़्दीर ने उसे मुतअय्यन किया था। छोड़कर भाग जाता है। बल्कि एक तरह से वो ख़ुदा की सिफ़ात और उस की हस्ती का भी इन्कार करता है। वो उस की सिफ़ात से इन्कार करता है। क्योंकि अगर वह सच-मुच उस की रहमत व मुहब्बत पर यक़ीन रखता तो वो ज़रूर उस की तरफ़ भागता। ना उस से दूर। वो उस की हस्ती का मुन्किर है। क्योंकि जो शख़्स यक़ीन रखता है कि उसे इस पर्दा-ए-हयात की दूसरी तरफ़ ज़रूर ख़ुदा के रूबरू हाज़िर होना होगा। वो अपने को इस नावाजिब तरीक़ से उस की हुज़ूरी में हरगिज़ ना फेंकता।

      यहूदाह की ख़ुदकुशी का तरीक़ भी बिल्कुल कमीना था। फांसी यहूदियों के दर्मियान हरगिज़ मौत का मामूली तरीक़ मालूम नहीं होता। सारे अहद-ए-अतीक़ में इस क़िस्म का सिर्फ एक ही वाक़िया बयान हुआ है। और अजीब बात ये है, कि ये भी उस शख़्स के मुताल्लिक़ जिसे उस की ज़िंदगी के बुरे फ़ेअल के लिहाज़ से बिल्कुल यहूदाह का नमूना ही समझना चाहिए। अख़ीतोफ़ुल ने जो हज़रत दाऊद का दोस्त और सलाहकार था। अपने आक़ा से नमकहरामी की। ठीक वैसे ही जैसे यहूदाह ने मसीह से। और उस का अंजाम भी वैसा ही बुरा हुआ।

      इलावा बरीं ये मालूम होता है, कि यहूदाह की फांसी के साथ और भी ग़ैर-मामूली दहशतनाक बात वाक़ेअ हुई। जिसका किताब आमाल के शुरू में ज़िक्र है। वहां जो अल्फ़ाज़ इस्तिमाल किए हैं। उन से ठीक-ठीक मतलब नहीं खुलता। मगर ग़ालिबन वो ये ज़ाहिर करते हैं, कि इस ख़ुदकुशी के साथ एक और हादसा भी वाक़ेअ हुआ। जिसके सबब उस का जिस्म जो एक घाटी के ऊपर लटका हुआ था। दफ़अतन (अचानक) रस्सी के टूट जाने से नीचे गिरकर ऐसा कुचला गया, कि जो कोई उस पर नज़र करता था। उसे देखकर ख़ौफ़ व हैबत दामनगीर होती थी।

      और उस के अंजाम बद का ख़याल क़दीम मसीहियों के ज़हन में इस अम्र से और भी मज़्बूत हो गया, कि वो रुपया जिसके एवज़ उस ने मसीह को बेच डाला था आख़िरकार एक क़ब्रिस्तान के ख़रीदने में ख़र्च किया गया। जिसमें अजनबी और मुसाफ़िर लोग गाड़े जाते थे। काहिनों ने अगरचे रुपया फ़र्श पर से, जहां यहूदाह उसे फेंक गया था। उठा लिया। मगर उन की पाबंदी शराअ ने उन्हें ये इजाज़त ना दी कि उसे फिर हैकल के पाक ख़ज़ाने में दाख़िल किया जाए। इसलिए इस रुपये को इस इस मक़्सद के लिए ख़र्च कर डाला लोगों ने ये हाल सुन कर इस जगह का नाम ख़ून का खेत रख दिया और इस तौर से ये क़ब्रिस्तान गोया उस नमक-हराम की यादगार के तौर पर हो गया। जिसमें सबसे पहले वो ख़ुद ही गाढ़ा गया।

      सारी दुनिया इस अम्र पर इत्तिफ़ाक़ करती है कि यहूदाह सबसे बड़ा गुनेहगार था। लेकिन उस पर ये फ़त्वा लगाने में वो अपने इख़्तियार से आगे निकल गए हैं। इन्सान अपने भाई के क़ाज़ी बनने का हक़ नहीं रखता। यहूदाह ने जिस बड़े जज़बे के ताबे हो कर ये फ़ेअल किया वो निहायत कमीना था। डाँटे का ये ख़याल भी सही हो तो हो कि नमक हरामी निहायत ही सख़्त गुनाह है। और मसीह की आला और बेमिसाल अज़मत के सबब उस के नुक़्सान पहुंचाने वाले पर भी एक बेमिस्ल दाग़ लग गया है। मगर उस के फ़ेअल का मंशा (मक़्सद) हमसे मख़्फ़ी (छिपा हुआ) है। और हर एक फ़ेअल की तारीख़ ऐसी पेच दर पेच होती है, कि हम रास्ती के साथ ये हरगिज़ नहीं कर सकते कि कौन शख़्स सबसे बढ़कर स्याहकार है। कोई नहीं कह सकता कि जिनको लोग औलिया-अल्लाह और नेक तरीन बंदगान-ए-ख़ुदा समझते हैं वो आख़िरी दिन को जब कि हर एक शख़्स को उस के आमाल का बदला मिलेगा। इसी आला पाये के मुस्तहिक़ समझे जाऐंगे। और इसी तरह कोई नहीं कह सकता कि गुनेहगारों के हक़ में भी आम राय का फ़त्वा आख़िरकार बिल्कुल सही साबित होगा। यहूदाह के मुताल्लिक़ दो बातों को मद्द-ए-नज़र रखना हमारा फ़र्ज़ है। अव़्वल तो ये कि उस के गुनाह को ऐसा खफिफ (मामूली) साबित करने की कोशिश ना करें जिससे वो तबई और सही नफ़रत जो उस गुनाह के ख़िलाफ़ हमारे दिलों में पैदा होनी चाहिए, कमज़ोर हो जाये। दूसरे उसे ऐसा गुनेहगार ना समझें कि वो इस गुनेहगारी में बिल्कुल यकता व बेमिस्ल साबित हो या ये कि उस के गुनाह की माहियत (असलियत) कोई ऐसी मुख़्तलिफ़ और ख़ास क़िस्म की है, जिसके सबब से वो हमारे लिए मिसाल नहीं ठहर सकता। बाक़ी के लिए हम सिर्फ उस फ़तवे को दोहरा सकते हैं, जो बिल्कुल बजा और बरमहल (मुनासिब) है। और जिसमें किसी को एतराज़ नहीं हो सकता। और वो पतरस के इन अल्फ़ाज़ में है कि वो “अपनी जगह गया।”

दसवाँ बाब
राहे गम

      हम अब अपनी किताब का पहला हिस्सा ख़त्म कर चुके। हमने येसू की तहक़ीक़ात और मुकदमे का कुल हाल बयान कर दिया। और अब हम दूसरे हिस्से की तरफ़ जो ज़्यादा दर्दनाक है। यानी उस की मौत की तरफ़ मुतवज्जोह होते हैं। तहक़ीक़ात की निस्बत सिवाए इस के और क्या कह सकते हैं, कि वो अदल व इन्साफ़ की मसखरी थी। दीनी अदालत तो मुक़द्दमा पेश होने से पहले ही उस पर हुक्म लगा चुकी थी। मगर हाकिम फ़ौजदारी ने सिरे ही से अदल व इन्साफ़ का ख़ून कर दिया। क्योंकि उस ने मह्ज़ अपनी ख़ुदगर्ज़ी और पालिसी का लिहाज़ कर के एक शख़्स को जिसकी बेगुनाही का वो ख़ुद मुकर (इक़रार करने वाला) था क़त्ल के लिए हवाले कर दिया। लेकिन ख़ैर इस सारी तहक़ीक़ात का ख़ातिमा हो गया। और अब सिर्फ इस ज़ालिमाना फ़त्वे का अमल-दर-आमद बाक़ी रह गया। अब पीलातुस की अदालत दिन भर के लिए बंद हो गई। लोग उस के महल की नवाही से चले गए। और मौत का जलूस तैयार होने लगा।

(1)

      जिन लोगों पर आजकल सज़ा-ए-मौत का फ़त्वा सादिर होता है उन्हें अबदियत के लिए तैयारी करने के लिए चंद रोज़ की मोहलत दी जाया करती है। मगर येसू को उसी रोज़ जब कि उस पर फ़त्वा लगाया गया सलीब पर खिंचा गया। रोम में भी उस वक़्त एक रहीमाना क़ानून जारी था। जिसकी रू से सज़ा-ए-मौत और उस के अमल दर-आमद के माबैन दस दिन का वक़्फ़ा दिया जाता था। लेकिन या तो इस क़ानून का बैरूनी सूबा जात में रिवाज ना था या ये कि येसू को इस क़ानून की हदूद से बाहर समझा गया था। इसलिए कि वो बादशाह होने का दावेदार था। बहर-सूरत उसे फ़ील-फ़ौर अदालतगाह से सीधे क़त्लगाह को ले गए। और उसे तैयारी या दोस्तों को अलविदा कहने का भी मौक़ा ना दिया।

      इस फ़त्वे के जारी करने वाले पीलातुस के सिपाही थे। मुक़द्दस यूहन्ना की तर्ज़ तहरीर से मालूम होता है, कि गोया पीलातुस ने उसे यहूदियों के हवाले कर दिया था। और उन्होंने सज़ा-ए-मौत का अमल दर-आमद किया। मगर उस के कलाम का सिर्फ ये मतलब है कि इस मुआमले की अख़्लाक़ी ज़िम्मेदारी यहूदियों के सर पर थी। उन्होंने हर तौर से ये ज़ाहिर किया कि ये सब कुछ जो हुआ है उन्हीं के हाथों हुआ है। वो येसू की मौत पर ऐसे तुले हुए थे, कि उन्होंने इस काम को उन लोगों के हाथों में भी ना छोड़ा जिनका ये मन्सबी फ़र्ज़ था। बल्कि वो जल्लादों के हमराह गए। और देखते रहे कि वो अपने फ़राइज़ मन्सबी को मुनासिब तौर पर अदा करते हैं। मगर अस्ल काम दर-हक़ीक़त रोमी सिपाहियों ने एक सूबेदार की निगरानी में सरअंजाम दिया।

      इस मुल्क में अब फांसी वग़ैरह की सज़ा बिल्कुल अलैहदा जगह में उमूमन क़ैदख़ाने की दीवारों के अंदर ही अमल में आती है। लेकिन अभी बहुत साल का अर्सा नहीं गुज़रा जब कि अवामुन्नास के सामने फांसी दी जाया करती थी। और इस से भी पहले ये दस्तूर था, कि जब कभी किसी को फांसी होती थी। तो पहले उसे शहर के सारे गली कुचों में फ़िराते थे। ताकि जहां तक मुम्किन हो सब लोग उसे देखें और उस पर नफ़रीन (लानत मलामत) भेजें। येसू को भी इसी तौर से मक़त्ल (क़त्लगाह) की तरफ़ ले गए। रोमियों और नीज़ यहूदियों के दर्मियान भी सज़ाए क़त्ल शहर के दरवाज़े के बाहर अमल में आती थी। क़दीम रिवायत के मुताबिक़ जो मुक़ाम येसू के क़त्ल का बयान किया जाता है। और जिस पर अब मज़ार मुक़द्दस की कलीसिया तामीर है। शहर की मौजूदा फ़सील के अंदर वाक़ेअ है। लेकिन जो लोग इस रिवायत को सही मानते हैं वो ये कहते हैं कि उस ज़माने में ये मुक़ाम शहर के बाहर वाक़ेअ था। मगर ये रिवायत मुश्तबा (जिस पर शक हो) है। और ये बात भी तहक़ीक़ के साथ मालूम नहीं कि ये मुत्तसिल (मिला हुआ, नज़दीक) कौन से दरवाज़े के बाहर वाक़ेअ था। कल्वरी या गलगता के नामों से ज़ाहिर है, कि ये मुक़ाम ग़ालिबन खोपड़ी की शक्ल था। मगर इस ख़याल के लिए कि वो मुक़ाम इस क़द्र बुलंद था, कि उसे कल्वरी की पहाड़ी कहना दुरुस्त हो। कोई माक़ूल वजह नहीं है। दर-हक़ीक़त इस शक्ल व जसामत की कोई पहाड़ी यरूशलेम के गिर्द व नवाह में नहीं पाई जाती, जिसका तसव्वुर अवामुन्नास ने बांध रखा है। ज़माना-ए-हाल के यरूशलेम में एक कूचा है। जो वायाडूलूरूसा यानी राह़-ए-ग़म से मशहूर है। जिसमें से मक़त्ल को जाते हुए मसीह का गुज़रना बयान किया जाता है। मगर ये अम्र भी मुश्तबा है। क़दीम रोमत-उल-कुबरा की तरह क़दीम यरूशलेम भी सदहा साल की मिट्टी के नीचे दबा पड़ा है। जिस मुक़ाम पर मुकदमे की तहक़ीक़ात हुई। वहां से क़त्लगाह कोई एक मील के फ़ासिले पर है। और ये मुम्किन मालूम होता है, कि येसू को इस क़द्र या इस से ज़्यादा फ़ासिले पर जाना पड़ा होगा। और रास्ते में लोग जलूस को देखकर जोक दर जोक जमा होते गए होंगे।

      एक और बेइज़्ज़ती जो सलीबी मौत के साथ वाबस्ता थी ये थी कि मुजरिम को वो सलीब जिस पर वो लटकने को था अपनी पीठ पर उठा कर जाये क़त्ल तक ले जानी पड़ती थी। तस्वीरों में येसू की सलीब इतनी बड़ी बनाई जाती है, जिसके उठा कर ले जाने के लिए कई एक आदमियों की ज़रूरत पड़ती। मगर अस्ल में वो इस से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ शक्ल की होगी उस की लंबाई ग़ालिबन उस के जिस्म की लंबाई से कुछ ही ज़्यादा होगी। और उस में उतनी ही लकड़ी लगी होगी जो एक आदमी के जिस्म को उठाने के लिए काफ़ी हो। लेकिन तो भी वो बड़ी बोझल होगी। और उस पीठ पर जहां पहले ही इतने कोड़े लग चुके थे। उसे उठाना निहायत ही दुशवार और बाइस दर्द व तक्लीफ़ होगा।

      और अगर उस के सर पर कांटों का ताज अब भी धरा था। तो वो भी सख़्त तक्लीफ़ का बाइस होगा। लिखा है कि पेश्तर इस के कि उसे क़त्लगाह को ले गए। अर्ग़वानी पोशाक जो मसखरी के तौर पहनाई गई थी। उतार कर उस के अपने कपड़े उसे पहनाए गए थे। मगर ये नहीं लिखा कि कांटों का ताज भी उठा दिया गया था। मगर सबसे सख़्त और नाक़ाबिले बर्दाश्त शर्म व बेइज़्ज़ती थी। आदमी से उस की मौत का आला उठवाने में एक क़िस्म का सख़्त वहशीपन था। और हम क़दीम लिट्रेचर में मुसन्निफ़ीन को इस क़िस्म के तरीक़ सज़ा पर बार-बार वहशयाना तम्सख़र (हंसीं, ठठ्टा) करते और मज़हका उड़ाते देखते हैं।

      अनाजील से इस बात का काफ़ी सबूत मिलता है, कि येसू की क़ुव्वत वहमा (सोचने की ताक़त) पहले ही से इस क़िस्म की मौत का तसव्वुर बांधती रही थी। ख़ातिमे से बहुत पहले उस ने पैशनगोई की थी, कि उसे किस क़िस्म की मौत से मरना होगा। मगर इस क़िस्म की पैशन गोइयों से भी पहले वो उन क़ुर्बानियों को जो उस के पैरौ (मानने वाले) होने के लिए करनी ज़रूरी होंगी। सलीब उठाने से तश्बीह दे चुका था। गोया कि ये सज़ा हर एक क़िस्म के के दुख और तक्लीफ़ और बे-हुरमती की आख़िरी हद थी। क्या उस ने इन लफ़्ज़ों को मह्ज़ इस सबब से इस्तिमाल किया कि जहां तक उसे दुनिया की बातों का इल्म था, वोह समझता था कि ये सज़ा इन्सानी ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा शर्मनाक है? या क्या इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ के इस्तिमाल की वजह वो इल्म-ए-ग़ैब था। जिसके ज़रीये से उसे मालूम था, कि एक दिन यही सज़ा ख़ुद उस पर वारिद होने वाली है? कुछ शुब्हा नहीं कि आख़िरी वजह दुरुस्त है। अब वो घड़ी जिस का पहले से तसव्वुर बाँधा रखा था। आ पहुंची और कमज़ोरी और लाचारी की हालत में हज़ारों आदमियों के सामने जो उस पर नफ़रीन (लानत मलामत) कर रहे थे। उसे ये सलीब उठानी पड़ी। एक शरीफ़ मिज़ाज आदमी के लिए शर्म से बढ़कर कोई सख़्त मुसीबत नहीं। उस के लिए हंसी व तम्सख़र का तख़्ता मश्क़ बनाया जाना निहायत शाक़ (मुश्किल, दुशवार) होता है। येसू में वो अज़मत व सलाहियत थी, जिसकी वजह से किसी के आगे सर झुकाने या दब निकलने की ज़रूरत का मुहताज ना था। वो लोगों से जिस क़द्र मोहब्बत रखता और उन की इज़्ज़त करता था, कि मुम्किन ना था, कि उन से मुहब्बत व इज़्ज़त का तालिब ना हो। वो अच्छे दिन देख चुका था। जब कि सब लोग उस की इज़्ज़त करते और उसे अज़ीज़ रखते थे। लेकिन अब उस की जान लोगों की मलामत व तहक़ीर से मामूर हो रही थी। और वो ज़बूर के इन अल्फ़ाज़ को अपने हक़ में लगा सकता था, कि “मैं तो एक कीड़ा हूँ ना इन्सान आदमियों का नंग हूँ और क़ौम की आर।”

      अब मसीह की आर व नंग (शर्मिंदगी) सब जलाल में बदल गई है। और इस बात का मुतहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करना) निहायत मुश्किल मालूम होता है, कि वो दरअस्ल किस क़द्र गहरी ज़िल्लत थी। जो उसे बर्दाश्त करनी पड़ी। इस से बढ़कर और क्या ज़िल्लत का सबूत होगा, कि दो चोरों को भी उस के हमराह सलीब पर खींचने के लिए भेजा गया। बाअज़ का ख़याल है कि ये बात पीलातुस ने ख़ासकर यहूदियों को ज़लील करने की कोशिश की थी। जिससे ये दिखलाना मक़्सूद था कि वो उस शख़्स को जो उस के नज़्दीक उन के बादशाह होने का दावेदार था। कैसी हिक़ारत से देखता है। मगर मेरे नज़्दीक ज़्यादा अग़्लब (मुम्किन) बात ये है कि रोमी हुक्काम की नज़र में मसीह की उन क़ैदियों की निस्बत जो आए दिन उन सिपाइयों के हाथ से सज़ायाब होते रहते थे। कुछ बड़ी इज़्ज़त ना थी। इस में कुछ शक नहीं कि पीलातुस को इस मुआमले में कुछ ज़्यादा दिलचस्पी तो थी। और वो इस मुक़द्दमे के फ़ैसला करने में किसी क़द्र उलझाओ में भी पड़ा रहा। लेकिन फिर भी येसू एक मामूली यहूदी था। जिसकी मानिंद सैंकड़ों उस के हाथों में से निकलते रहे थे। और उस का सलीब दिया जाना भी दूसरे मुजरिमों के मुकदमे से कुछ बढ़कर वक़अत (हैसियत) नहीं रखता था। इस तौर से तीनों क़ैदी अपनी अपनी सलीबें उठाए हुए इकट्ठे महल के दरवाज़े से निकले और राहे गम पर रवाना हुए।

(2)

      लेकिन अगरचे वो पीलातुस के महल में से अपनी सलीब उठाए हुए निकला। मगर वो उसे बहुत दूर तक ना ले जा सका। या तो वो उस के बोझ के मारे दब कर ज़मीन पर बैठ गया। या वो ऐसी सुस्त क़दमी से चल रहा था, कि सिपाहियों ने देरी के ख़याल से ये मुनासिब समझा कि बोझ उस के कंधे पर से उठा लिया जाये। इस क़िस्म की नक़ाहत और मांदगी के लिए कोड़ों की सख़्ती ही काफ़ी थी। लेकिन इस के इलावा हमें सारी रात की बे-ख़्वाबी और फ़िक्र और बद सुलूकी को भी नहीं भूलना चाहिए। और इस से पहले गतसमनी की जांकनी भी वाक़ेअ हुई थी। इसलिए जाये ताज्जुब (हैरानगी) नहीं कि उस की कमज़ोरी इस दर्जे को पहुंच गई थी, कि ऐसा बोझ उठाए हुए आगे बढ़ना उस के लिए नामुम्किन हो गया था। एक या दो सिपाही उसे इस बोझ से ख़लासी दे सकते थे। मगर शरारत और तम्सख़र अब भी उन पर सवार था। और उन्होंने एक आदमी को जो इत्तिफ़ाक़न इस राह से गुज़र रहा था। बेगारी पकड़ कर उस ख़िदमत में लगा दिया। वो उन्हें बाहर से शहर के फाटक के अंदर आता हुआ मिला। और इस अम्र में वो एक जंगी क़ानून या रस्म के मुताबिक़ अमल कर थे।

      इस आदमी को तो ये बात निहायत तक्लीफ़देह और शर्मनाक मालूम दी होगी। ग़ालिबन वो किसी ज़रूरी काम पर जा रहा था जो इस वजह मुल्तवी करना पड़ा। उस के बाल बच्चे और दोस्त आश्ना उस के मुंतज़िर बैठे होंगे। मगर वो रास्ते में रोक लिया गया। इस मौत के आला को छूना उस के लिए ऐसी ही क़ाबिल-ए-नफ़रत बात होगी। जैसे हम फांसी की रस्सी को छूते झिजकते हैं। शायद उस वक़्त उस को ये बात और भी बुरी मालूम हुई होगी। क्योंकि ये ईदे फ़साह का वक़्त था। और इस के छूने से वो नापाक हो गया। मगर वो उस वक़्त सिपाहियों की ज़र्राफ़त (मज़ाक़) का तख़्ता-ए-मश्क़ (किसी को अपने मक़्सद के लिए इस्तिमाल करना) बन रहा था। जब वो चोरों के साथ-साथ चलता होगा तो मालूम होता होगा कि गोया उसे भी सलीब पर खींचने को ले जा रहे हैं।

      ये उस सलीब उठाने की जिसके लिए मसीह के पैरओं (मानने वालों) को बुलाया गया है। एक उम्दा तस्वीर मालूम होती है। हम जब कभी किसी क़िस्म की तक्लीफ़ का ज़िक्र करते हैं। तो उसे सलीब के नाम से पुकारा करते हैं। और बिला-शुब्हा तक्लीफ़ ख़्वाह किसी क़िस्म की क्यों ना हो मसीह के नाम से उस का उठाना ऐसा दूभर नहीं मालूम होता। मगर सही तौर पर वही दुख या तक्लीफ़ मसीह की सलीब कहलाने की मुस्तहिक़ है जो उस का इक़रार करने या उस की ख़िदमत की बजा आवरी में बर्दाश्त करनी पड़ी। जब कोई शख़्स किसी मसीही उसूल की बिना पर किसी बात पर जम कर खड़ा हो जाता है। और उस से जो कुछ ज़िल्लत और शर्मिंदगी उस पर वारिद हो उस की कुछ पर्वा नहीं करता तो उसे मसीह की सलीब उठाना कह सकते हैं। जो तक्लीफ़ तुम्हें मसीह के नाम से किसी के साथ कलाम करने में महसूस हो। या मसीह की ख़िदमत में जो वक़्त या आसाइश तुम्हें क़ुर्बान करनी पड़े। या अपने माल व दौलत को मसीह की सल्तनत के लिए अपने वतन और दूसरे ममालिक में फैलने के लिए दे डालने से जो ख़ुद इंकारी करनी पड़े। या जो लानत मलामत तुम्हें ऐसे मुआमलात में हिस्सा लेने या अश्ख़ास के साथ शरीक होने में जिन्हें तुम मसीह के तरफ़दार समझते हो उठानी पड़े। इन सब बातों को मसीह की सलीब के नाम से पुकार सकते हैं। इस में तक्लीफ़ बे आरामी और क़ुर्बानी तो ज़रूर है। इस की बर्दाश्त करने में शायद शमऊन की तरह कुड़हना पड़े या ख़ुद मसीह की तरह उस के बोझ से गिर जाएं। वो बहुत दर्द-नाक, भयानक और शर्मनाक तो होगी। मगर मसीह का कोई सच्चा शागिर्द इस से ख़ाली नहीं रह सकता। हमारा आक़ा फ़रमाता है, कि जो शख़्स अपनी सलीब उठा कर मेरी पैरवी नहीं करता मेरे लायक़ नहीं।

(3)

      जो बात शमऊन को सलीब उठाने का ना-कामिल नमूना ठहराती है। सो ये है कि हमें तहक़ीक़ नहीं कि आया इस ने उसे बरज़ा व रग़बत उठाया या मज्बूरी से। ये तो सच्च है कि कि रोमी सिपाहियों ने उसे जबरन इस काम के लिए पकड़ा था। मगर क्या इस में मह्ज़ जब्र ही जब्र था। और कुछ नहीं।

      बाअज़ का ख़याल है कि वो मसीह के पैरओं (मानने वालो) में से था। लेकिन ये अम्र अग़्लब (यक़ीनी) नहीं मालूम होता कि ठीक उस वक़्त जब कि सिपाहियों को इस मक़्सद के लिए एक शख़्स की ज़रूरत पड़ी तो येसू ही के पैरओं (मानने वालो) में से एक उन के हाथ लग गया। तर्ज़ बयान से ऐसा मालूम होता है कि वो मह्ज़ इत्तिफ़ाक़ी तौर पर वहां आ निकला था। और सिर्फ उसी वक़्त और अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ वो भी इस ड्रामे में शरीक किया गया।

      इन्जील नवीस उसे कुरीनी का बाशिंदा लिखता है जो शुमाली अफ़्रीक़ा का एक शहर है। इस शहर के रहने वालों का भी उस फ़ेहरिस्त में ज़िक्र हुआ है। जहां ईद पंतीकोस्त के रोज़ जब कि रूह-उल-क़ुद्दुस आतिशी ज़बानों की सूरत में कलीसिया पर नाज़िल हुआ। उन लोगों का बयान किया गया है। (जो बैरूनी तिजारत से ईद के मौक़े पर आए हुए थे) और अग़्लब (मुम्किन) ये मालूम होता है कि शमऊन भी इसी तरह अपने दूर दराज़ मकान से ईद-ए-फ़सह के मौक़े पर यरूशलेम में आया हुआ था।

      वो ग़ालिबन वहां हज व ज़ियारत के लिए आया था। शायद वो उन दीनदारों में से था। जो इस्राईल की तसल्ली के मुंतज़िर थे। वो अपने दूर दराज़ घर वाक़ेअ कुरैनी में मसीह की आमद के लिए दुआएं मांगता रहा होगा। और सफ़र पर रवाना होने से पहले ख़ुदा की बरकत व रहमत का तालिब हुआ होगा। ख़ुदा ने उस की दुआ सुनी और अब पाया क़ुबूल को पहुंचाई। मगर ऐसे मुख़्तलिफ़ तौर पर कि उस को पहले उस का शान व गुमान भी ना था।

      क्योंकि मालूम होता है कि मसीह से इस तौर पर साबिक़ा (वास्ता) पड़ना उस की अपनी और उस के ख़ानदान की नजात का बाइस हुआ। इन्जील नवीस उसे “सिकंदर और रोफुस” का बाप बताता है। और ऐसे तौर से ज़िक्र करता है कि गोया वो उस से ख़ूब वाक़िफ़ था। ज़ाहिर है कि उस के इन बेटों से वो लोग जिनके लिए मुक़द्दस मर्क़ुस अपनी इन्जील को तहरीर कर रहा था। ख़ूब वाक़िफ़ होंगे। या दूसरे लफ़्ज़ों में यूं कहो कि वो कलीसिया के शुरका में से होंगे। और इस में कुछ शुब्हा नहीं कि उस के ख़ानदान का ताल्लुक़ कलीसिया से उन के बाप की ज़िंदगी के इस वाक़िये के साथ वाबस्ता था। मुक़द्दस मर्क़ुस ने अपनी इन्जील रोम के मसीहियों के लिए तैयार की थी। और रोमियों के नाम के ख़त में एक रोफुस का ज़िक्र है। जो अपनी माँ के हमराह रोम में मुक़ीम था। मुम्किन है कि यही शख़्स शमऊन का बेटा था। और आमाल 1:13 में एक और शमऊन का ज़िक्र है। जो लौकीस कुरेनवी के हमराह अन्ताकिया के सर-बर-आवुर्दा (मुअज़्ज़िज़, बुज़ुर्ग) ईसाइयों में से था। उस के नाम के साथ लफ़्ज़ नीग्रो यानी स्याह-फ़ाम भी इस्तिमाल हुआ है जो उस की रंगत का जो अफ़्रीक़ा के गर्म सूरज का नतीजा थी निशान देता है। अहदे-जदीद में और भी कई सिकंदरों का ज़िक्र हुआ है। मगर ये नाम आम था और इसी लिए इनमें से किसी एक को शमऊन का बेटा ठहराना नामुम्किन है। मगर इन



12   बहुत से यहूदी जो किसी ज़माने में कुरैनी के बाशिंदे थे। अब यरूशलेम में आकर आबाद हो गए थे। ग़ालिबन उन में ज़्यादा-तर वो ज़ईफ़-उल-उम्र लोग थे। जो पाक ज़मीन में दफ़न होने की ग़रज़ से वहां आ रहे थे। क्योंकि आमाल की किताब से मालूम होता है कि यरूशलेम में उन की अपनी इबादत-गाह थी। और मुम्किन है कि शमाउन भी इन्हीं में से था। मगर दूसरी बात ज़्यादा क़रीन-ए-क़ियास मालूम है।

तफ़्सीली बातों को छोड़ कर हमारे पास इस अम्र की साफ़ शहादतें मौजूद हैं। जिनसे ज़ाहिर होता है, कि शमऊन इसी हादसा की वजह से मसीही हो गया।

      क्या ये एक पुर-माअनी बात नहीं मालूम होती, जिससे इस अम्र का सबूत मिलता है कि दुनिया में कोई बात इत्तिफ़ाक़ी तौर पर वाक़ेअ नहीं होती? अगर शमऊन इस से एक घंटा पहले या एक घंटा पीछे शहर में दाख़िल होता तो उस की ज़िंदगी के बाद की तारीख़ मुख़्तलिफ़ होती। बाज़ औक़ात निहायत ही छोटे-छोटे वाक़िआत से बड़े-बड़े नतीजे निकलते हैं। एक इत्तिफ़ाक़ी मुलाक़ात किसी शख़्स की ज़िंदगी-भर की ख़ुशी या ग़मी का फ़ैसला कर देती है। बिला-शुब्हा शमऊन को उस वक़्त ये इत्तिफ़ाक़ी वाक़िया निहायत ही ख़राब और मकरूह मालूम हुआ होगा। क्योंकि इस के सबब से ना सिर्फ वो अपने काम से रुक गया होगा। बल्कि सख़्त बेइज़्ज़ती और शर्मिंदगी भी उठानी पड़ी। लेकिन आख़िरकार वो उस के लिए गोया हयाते अबदी का दरवाज़ा साबित हुआ। इसी तरह इलाही बरकात बाज़ औक़ात एक दूसरे भेस में आया करती हैं। और एक भूत की सूरत में से जिसे देखकर हम मारे ख़ौफ़ के चिल्ला उठीं। दफअतन (फ़ौरन) इब्ने आदम की सूरत दिखाई दी जाती है। मगर इस वाक़िये से शमऊन को फ़क़त अपनी ही नजात हासिल नहीं हुई। बल्कि इस में सारा कुम्बा शरीक हुआ। इस से मालूम होता है कि जब मसीह किसी एक शख़्स पर जलवा गर हो तो इस से क्या कुछ उम्मीद नहीं हो सकती। इस एक शख़्स के ईमान लाने में उस के बच्चों और बच्चों के बच्चों की जो अभी तक पैदा भी नहीं हुए थे। नजात व बहबूदी भी शामिल थी।

      लेकिन सोचो तो कि अगरचे शमऊन को उस वक़्त मसीह की सलीब उठाना तल्ख़ मालूम हुआ लेकिन बाद की ज़िंदगी में वो उस के लिए ख़ुदा का किस क़द्र शुक्र करता होगा। बिलाशुब्हा वो उसे अपनी ज़िंदगी का एक अजीब माजरा ख़याल करता होगा। और आज के दिन तक कौन है जो इस अम्र के लिए उस पर रश्क ना खाता हो कि उस शख़्स को ये नसीब हुआ कि उस ने ग़श खाते हुए मुंजी का हाथ बटाया। और उस की ख़ूनआलूद और दर्द-नाक पीठ पर से उस का बोझ उठा कर अपने सर ले लिया? इसी तरह सबकी ज़िंदगी में एक ना एक दिन आता है जब कि हर एक ख़िदमत जो वो मसीह के लिए बजा ला सकते हैं एक ऐसी उम्दा यादगार होती है, जिसके लिए वो बाक़ी उम्र-भर सबसे ज़्यादातर किया करते हैं। ज़िंदगी के ख़ातिमे पर जब हम अपने सारे कारनामों पर नज़र करेंगे। तो वो इनामात जो हमने हासिल किए। या वो ऐश व इशरत जिससे महफ़ूज़ हुए। या वो तक्लीफ़ व मसाइब जिनसे हम बच गए। उन की याद हमें इतना ख़ुश व ख़ुर्रम नहीं करेगी। लेकिन अगर हम ने कभी ख़ुद इंकारी कर के मसीह की सलीब उठाई है। तो उस की याद हमारे बिस्तर-ए-मर्ग पर हमारे सर के नीचे मुलायम तकिये का काम देगी। उस वक़्त हमारे दिल में ये ख़्वाहिश होगी कि काश वो मिनट जो हमने मसीह की ख़िदमत में सर्फ किए। साल होते और वो पैसे अशर्फ़ियां होतीं। और उस वक़्त ठंडे पानी का हर एक पियाला और हर एक तसल्ली आमेज़ कलमा और हर एक ख़ुद इंकारी का काम ऐसा ख़ुशनुमा मालूम होगा, कि हमारे दिल में ये ख़्वाहिश पैदा होगी, कि काश वो उस से जो हैं हज़ार गुनाह ज़्यादा होते।

ग्यारहवां बाब
यरूशलेम की बेटियां

      ख़ुदावन्द की ज़िंदगी के इस हिस्से के मुताल्लिक़ बहुत सी हिकायतें की जाती हैं।

      मसलन ये बयान करते हैं, कि जब वो सलीब उठाए हुए आहिस्ता-आहिस्ता जा रहा था तो रास्ते में सुस्ताने के लिए वो एक घर के दरवाज़े से तकिया लगा कर खड़ा हो गया। मगर घर के मालिक ने उसे एक मुक्का मार कर हटा दिया और कहा कि चलो अपना रास्ता लो। इस पर ख़ुदावन्द अपने मारने वाले की तरफ़ मुतवज्जोह हुआ और कहने लगा, तू चलता ही जाएगा और कभी ठहरेगा। जब तक कि मैं फिर ना आऊँ। और आज के दिन तक ना उस शख़्स को आराम मिलता है। ना मौत आती है। बल्कि ये कम्बख़्त बराबर ज़मीन पर सफ़र करता रहता है। और ख़ुदावन्द की आमद सानी तक ऐसा ही करता रहेगा। यही आवारागर्द यहूदी की हिकायत है। जिस पर मुख़्तलिफ़ सूरतों में ज़माना गुज़श्ता में और नीज़ आजकल भी बहुत कुछ लिखा गया है। मेरे नज़्दीक ये एक ख़्याली तस्वीर है। जिसमें एक आदमी की मिसाल में यहूदी क़ौम की उस दर्द-नाक क़िस्मत का ख़ाका खींचा गया है। जो उस दिन से जब कि उन्होंने ख़ुदावन्द पर हाथ डाले। सारी दुनिया में मारी-मारी फिरती है। और जिसके पांव को तख़्ता-ए-ज़मीन पर कहीं भी क़रार व आराम नसीब नहीं होता।

      एक और कहानी है जिसको मुसव्वरी में वही जगह दी गई है। जो आवारागर्द यहूदी को लिट्रेचर में हासिल है। वीर वनीका यरूशलेम की एक मुअज़्ज़िज़ ख़ातून मसीह को अपने मकान के पास से गुज़रते और बोझ के नीचे दबे देखकर घर से बाहर निकल आई और एक रूमाल के ज़रीये उस के चेहरे पर से ख़ून और पसीना पोंछ दिया। और देखो जब उस ने उस रूमाल पर जिससे उस ने मसीह का मुँह पोंछा था नज़र की तो क्या देखती है कि उस पर उस मर्द ग़मनाक की शबिया ऐन यईन नक़्श है। बाअज़ मशहूर और आली क़द्र मुसव्वरों ने इस नज़ारे की तस्वीर खींची है। और मेरे नज़्दीक इस से ये सबक़ मिलता है कि इस ज़िंदगी की मामूली बातें भी जब रहमत के कामों के लिए इस्तिमाल की जाती हैं। तो उन पर मसीह की सूरत का नक़्श हो जाता है।

      रोमन कैथोलिक गिरजाओं में उमूमन दीवारों पर क़रीबन एक दर्जन तस्वीरों का सिलसिला देखा जाता है। जो ख़ुदावन्द की ज़िंदगी के इस हिस्से को ज़ाहिर करती हैं। इन तस्वीरों का नाम मनाज़िले सलीब है। क्योंकि लोग इबादत के वक़्त एक से शुरू कर के बराबर आख़िर तक घूम जाते हैं। और एक एक तस्वीर के सामने थोड़ी थोड़ी देर तक ठहर कर और उस पर नज़र करके ख़ुदावन्द मसीह के दुखों और मुसीबतों पर गौर व फ़िक्र करते हैं। बाअज़ ममालिक में जहां कैथलिक मज़्हब ज़ोरों पर है। इसी ख़याल को एक और तरह से भी ज़ाहिर किया जाता है। जो ज़्यादा मोअस्सर होता है। शहर के क़रीब एक पहाड़ी के सिरे पर तीन सलीबें नसब की जाती हैं। और शहर की एक गली जिसका नाम राहे कलवरी होता है। उस में कुछ-कुछ फ़ासिले पर ख़ुदावन्द के इस सफ़र के मुख़्तलिफ़ नज़ारों को ज़ाहिर करने के लिए बड़ी-बड़ी तस्वीरें या मुनक़्क़श पत्थरों की सिलें नसब की जाती हैं।

      मगर इस राहे गम के सिर्फ दो वाक़िआत हैं। जिनका यक़ीनी इल्म हमें हासिल है। एक तो शमऊन कुरैनी का ख़ुदावन्द की सलीब को उठाना। दूसरे यरूशलेम की बेटियों की हम्दर्दी का इज़्हार जिसका ज़िक्र हम अब करना चाहते हैं।

(1)

      जो शख़्स ख़ुदावन्द की ज़िंदगी की आख़िरी घड़ियों का हाल पढ़ता है। उसे हर क़दम पर सख़्त दहश्त नाक नज़ारों से दो चार होना पड़ता है। बाअज़ नज़ारे जिनमें से हम अभी-अभी गुज़रते आए हैं। ऐसा मालूम होता है, कि उन में हम आदमियों से नहीं बल्कि अफ्रितों (भूतों) और शैतानों से मुलाक़ाती हुए हैं। और दिल उन को देख देखकर ऐसा दिक़ आ जाता है, कि वो इस अम्र का आर्ज़ूमंद होता है कि काश कोई और चीज़ नज़र आए जिससे दम भर के लिए मज़्हबी तास्सुब (मज़्हब) की बेजा हिमायत और ख़ूँख़ारी के दर्द-नाक नज़ारों से ख़लासी मिले। इसलिए वो नज़ारा बहुत ही फ़हर्त बख्श और दिलकश मालूम होता है। जिसमें इस शबे गम पर रोशनी की कुछ किरनें पड़ती हुई नज़र आती हैं। और ये ख़याल पैदा होता है कि हमें दिल इन्सानी से बिल्कुल नाउम्मीद ना हो जाना चाहिए। बल्कि उस में अभी कुछ-कुछ जान बाक़ी है।

      ये फ़िल-हक़ीक़त एक ख़िलाफ़े उम्मीद और हैरत में डालने वाला नज़ारा था। अगर इस वक़्त उस का ऐसा बय्यन (वाज़ेह) इज़्हार ना हुआ होता तो ये यक़ीन करना मुश्किल होता कि येसू को यरूशलम के बाशिंदों के किसी हिस्से के दिल में भी ऐसी गहरी जगह हासिल थी। यहूदियों के सदर मुक़ाम में हमेशा उसे मुख़ालिफ़त से साबिक़ा पड़ता रहा था। और उन में उस की तालीम की क़बूलियत का माद्दह बहुत कम दिखाई पड़ता था। यरूशलेम में रब्बियों और काहिनों का ज़ोर था। जो अपने इल्म और ओहदे पर बड़े नाज़ाँ थे। यही फ़रीसियों और सदूक़ियों की जोला निगाह था। और अवामुन्नास इन्हीं की राय पर चलते थे। और यहां अव़्वल से आख़िर तक उस के सिर्फ चंद ही आदमी पैरौ (मानने वाले) बने थे। वो सिर्फ़ बैरूनी इलाक़े और ख़ासकर गलील में कामयाब हुआ था। वहां लोग उस की बड़ी क़द्र व इज्ज़त करते थे। ये गलीली हाजी थे। जो ईद फ़सह के मौक़े पर आए हुए थे। जो होशाना के नारे लगाते हुए उसे दार-उल-ख़िलाफ़ा के अंदर ले गए थे। मगर शहर के बाशिंदे उस की तरफ़ से बेपर्वा थे। और यही लोग थे, जो पीलातुस की अदालत के सामने चिल्ला रहे थे। उसे सलीब दे। उसे दे।

      लेकिन इस वाक़िये से ये ज़ाहिर होता है, कि कम से कम यरूशलेम की आबादी के एक हिस्से के दिल में उस ने कुछ असर पैदा कर लिया था। चुनान्चे लिखा है कि लोगों की बड़ी भीड़ और बहुत सी औरतें जो उस के वास्ते रोती पीटती थीं। उस के पीछे पीछे चलीं। बाअज़ को ये अम्र ऐसा अजीब व ग़रीब मालूम हुआ है कि उनका ख़याल है कि ये गलीली औरतें होंगी। मगर येसू ने उन्हें “यरूशलेम की बेटियों” कह कर ख़िताब किया। अहले-गलील में से जो उस की फ़त्ह व कामयाबी के घड़ी में उसे इस तरह घेरे हुए थे। अब उस की मुसीबत के खड़ी में एक भी नज़र नहीं आता था। मगर यरूशलेम की औरतों ने मर्दों की इस मिसाल की पैरवी ना की। बल्कि एलानिया उस की जवानी, नेक-चलनी और मसाइब पर आँसू बहाए। बयान करते हैं, कि यहूदियों में एक क़ानून था, जिसके मुताबिक़ सज़ा-याफ़्ता आदमी के साथ किसी क़िस्म के इज़्हार-ए-हम्दर्दी करने की सख़्त मुमानिअत थी। अगर ये सच्च है तो इस इज़्हार हम्दर्दी के लिए ये लोग और भी ज़्यादा तारीफ़ के मुस्तहिक़ (हक़दार) हैं। उन के जज़्बात का बहाव इस क़द्र ज़ोरों पर था। कि क़ानून व दस्तूर के बंद उस को ना रोक सके।

      कहा गया है कि अनाजील में कोई भी ऐसी नज़ीर (मिसाल) नहीं पाई जाती जिसमें किसी औरत का ज़िक्र हो जो येसू की दुश्मन थी। किसी औरत की निस्बत ये नहीं कहा गया कि वो उसे छोड़कर भाग गई या उस ने उसे पकड़ा दिया। या उसे किसी क़िस्म का दुख दिया या उस की मुख़ालिफ़त की बल्कि औरतें उस की पैरवी करती थीं। अपने माल व दौलत से उस की ख़िदमत करती थीं। उस के पांव आँसूओं से धोती थीं। ख़ुशबूऐं उस के सर पर मलती थीं। और अब जब कि उन के ख़ावंद और भाई मौत तक उस का तआक़ुब कर रहे थे। वो रोती, चिल्लाती और नोहा ज़ारी करती हुई उस के मुस्तक़िल तक उस के पीछे-पीछे जा रही थीं।

      ये वाक़िया एक तरफ़ तो मसीह की ख़सलत (आदत) की ख़ूबी के लिए एक बड़ी भारी शहादत है। और दूसरी तरफ़ औरतों की ख़सलत के लिए। औरत की अक़्ल व तमीज़ ने उसे समझा दिया। गो वो अभी तक इस सच्चाई को साफ़ तौर पर ना भी समझी हों कि यही शख़्स उस का रिहाई देने वाला है। क्योंकि अगरचे मसीह सब का नजात देने वाला है। लेकिन वो औरत का नजातदिहंदा ख़ास माअनों में है। उस की आमद के ज़माने में चूँकि उस की ज़िल्लत और बेचारगी मर्दों की निस्बत कहीं ज़्यादा थी इसलिए वही उस की ज़्यादा हाजतमंद थी। और उस वक़्त से जहां कहीं इन्जील पहुंची है उस के लिए गोया रिहाई और आज़ादी का पैग़ाम लेकर गई है। उस की हुज़ूरी में वो तमाम मुलायम और ख़ूबसूरत औसाफ़ जो उस की ख़सलत जो उस के बातिन में पिनहां (छुपे) हैं। अयाँ (ज़ाहिर) हो जाते हैं। और उस के असर से उस की ख़सलत व मिज़ाज में एक अजीब क़िस्म की तब्दीली वाक़ेअ होती है।

      बाअज़ ये एतराज़ करते हैं, कि यरूशलेम की बेटियों का ये जज़्बा कुछ बहुत गहरा ना था। और इस से इन्कार करना भी ज़रूरी नहीं। उनका ये जज़्बा और ये आँसू बहाना ईमान व तौबा का पुरजोश इज़्हार ना था। जिससे अजीब व ग़रीब नताइज और तब्दीलियां वाक़ेअ हो जाया करती हैं। ये फ़क़त एक तबई जोश का इज़्हार था जो हर एक दर्द-नाक नज़ारे को देखकर हो जाया करता है। ये उसी क़िस्म के आँसू थे, जो आजकल भी मसीह के दुखों और मुसीबतों का हाल सुनकर नर्म-दिल लोगों की आँखों से निकल आया करते हैं। और हम जानते हैं कि इस क़िस्म के जज़्बात देरपा नहीं होते। हमारी तबीयत व मिज़ाज में कई एक तहें हैं। और ग़ालिबन इस क़िस्म के जज़्बात इन सब के ऊपर के हिस्सों में वाक़ेअ हैं। इसलिए यही काफ़ी नहीं कि मज़्हब इन ऊपर की तहों में काम करे। बल्कि उसे इन ऊपर की तहों में से हो कर नीचे उतर जाना चाहिए और गहरी-गहरी तहों में मसलन ज़मीर और क़ुव्वत-ए-इरादी में उतर जाना चाहिए। और इन पर क़ब्ज़ा कर के अपनी आग को रोशन करना चाहिए। तब हम कह सकते हैं कि अब मज़्हब ने इन्सान की कुल हस्ती पर क़ब्ज़ा कर लिया है। और उस में गोया रच गया है।

      मगर औरतों का मसीह की बाबत इस तौर से रंज व ग़म ज़ाहिर करना मह्ज़ एक इब्तिदाई बात थी। और इसी में इस की ख़ूबी मुन्हसिर है। उस के लिए ये गोया उस आला और गहरी अक़ीदत का जो दुनिया की औरतें आइन्दा ज़माने में उस की निस्बत रखने को थीं एक पेश-ख़ेमा था। उस मुसीबत और तन्हाई के गढ़े में वो उस के लिए ऐसी ही ख़ुश आइन्दा साबित हुई हो गई जैसे सहराए लक़-दक़ (वीरान व सुनसान जंगल) में घास की एक पत्ती का नज़ारा प्यासे राहगीर के लिए होता है इस हम्दर्दी की आवाज़ों ने उस की रूह पर वैसा ही काम किया होगा जैसे मर्यम के मुहब्बत आमेज़ तोहफ़े ने उस के हवास पर किया था। जब कि घर इत्र की ख़ुशबू से महक गया था।

      इस तौर से राह-ए-ग़म पर येसू को अपनी मुसीबत और दुख में दो दफ़ाअ तसल्ली व तस्कीन नसीब हुई। एक आदमी की क़ुव्वते बाज़ू से उस के जिस्म को सलीब के बोझ से नजात मिली। और औरतों की हम्दर्दी से उस की रूह के दुख को तस्कीन मिली। क्या ये वाक़िया इस अम्र की तम्सील के तौर पर नहीं है, कि अब भी मर्दो औरत उस के लिए क्या कुछ कर सकते हैं। मसीह को मर्दों की क़ुव्वत-ए-बाज़ू की ज़रूरत है। हाँ ऐसे मज़्बूत और जफ़ाकश कंधों की जो उस की ख़िदमत का बोझ उठा सकें। उस को ऐसे ज़हनों और अक़्लों की ज़रूरत है, जो उस की बादशाहत के फैलाने के लिए ज़रूरी तजावीज़ सोच सकें। उसे उन के मुस्तक़िल इरादों की ज़रूरत है। जो बावजूद मुख़ालिफ़तों और रुकावटों के इस्तिक़लाल के साथ उस की सल्तनत की हदूद को फैलाते जाएं। उसे ऐसे फ़य्याज़ हाथों की ज़रूरत है, जो खुले दिल से उस के मुकदमे की कामयाबी और तरक़्क़ी के लिए अपने माल व दौलत को निसार (क़ुर्बान) कर दें। औरतों से वो हम्दर्दी और आँसूओं का तालिब है। वो उस हिस्स व मुलायम को दे सकती हैं। जो दुनिया के दिल को पत्थर होने से महफ़ूज़ रखती है वो उन से उस ख़ुफ़िया इल्म का तालिब है जिसके ज़रीये से औरतें फ़ौरन दर्याफ़्त कर लेती हैं कि कौन शख़्स रहम व हम्दर्दी का हाजतमंद है। और उस की हाजतों को मालूम कर के उन को पूरा कर सकती हैं। वो उस सरगर्मी का ख़्वाहां है, जो मज़्हबी कारोबार के दिल में आग की तरह जलते रहते हैं। और उसे ज़िंदा रखती है। औरत का असर बहुत ही पोशीदा और दूराज़ कार मालूम होता है। मगर ख़ास इसी वजह से वो निहायत ताक़तवर है। क्योंकि वो इन्सानी ज़िंदगी के दरियाओं के मंबा पर बैठी उन के बहाव का रुख क़ायम करती रहती हैं। जहां एक ज़रा सी तब्दीली से इस की रु का रुख से कहीं से कहीं बदल जाता है।

(2)

      हर ज़माने में ये दस्तूर रहा है, कि जिन लोगों पर सज़ा-ए-मौत का फ़त्वा सादिर होता था। उन्हें मरने से पहले ये इजाज़त दी जाती थी कि लोगों से जो तमाशा देखने को जमा होते थे, जो कुछ चाहें कहें। और इस मुल्क में भी जब सज़ा-ए-मौत आम तौर पर लोगों के सामने दी जाती थी। मरते दम की स्पीच सारी कार्रवाई का लवाज़मा (ज़रूरी चीज़) समझा जाता था। बल्कि उन ज़मानों में भी जब कलीसिया पर ज़ुल्म व सितम रवा रखा जाता था। शहीदों को उमूमन दार पर चढ़ने से पहले लोगों के सामने तक़रीर करने की इजाज़त दी जाती थी। और इस क़िस्म की मरते दम की शहादतें जिनमें से अक्सर बहुत ही पुर ज़ोर और मोअस्सर होती थीं अब तक मज़्हबी दुनिया में महफ़ूज़ चली आती हैं। इसलिए ये कोई जाये ताज्जुब नहीं कि येसू को भी अपने तमाशाइयों से गुफ़्तगु करने की इजाज़त दी गई। या कम से कम उसे इस से रोका नहीं गया। इस में कुछ शक नहीं कि वो उस वक़्त निहायत ही ज़ईफ़ व दरमांदा (कमज़ोर, मुसीबतज़दा) हो रहा था। लेकिन जब सलीब के बोझ से उसे छुटकारा मिला तो उस की कुछ जान में जान आ गई और वो तक़रीर करने के क़ाबिल हो गया। इस लम्हे सड़क पर ज़रा ठहर कर और पीछे फिर कर वो उन औरतों से जिनके रोने चिल्लाने की आवाज़ उस के कानों में गूंज रही थी। यूं मुख़ातिब हुआ।

      उस के अल्फ़ाज़ से अव़्वल तो ख़ुद उस के मिज़ाज की कैफ़ीयत ज़ाहिर होती है। उन से ज़ाहिर होता है। जैसा कि हम मस्लूब होने के ज़माने में और मौक़ों पर भी बार-बार इस का सबूत पाते हैं, कि वो किस तरह क़तई तौर पर दूसरों के फ़िक्र व अंदेशा में अपने दुख और तक्लीफ़ को बिल्कुल भूल जाता था। उस के दर्द तकालीफ़ पहले ही हदूद की थीं। उस की रूह बेइंसाफ़ी और लानत मलामत से सैर हो चुकी थी। और ऐन उस वक़्त भी उस की बोटी बोटी मारे दर्द के काँप रही थी। और उस का ज़हन आने वाली सख़्त दर्दों के ख़याल से तारीक हो रहा था। लेकिन जब उस ने अपने पीछे यरूशलेम की बेटियों की आहों की सदा सुनी उस की रूह पर रहमत की एक लहर फिर गई। जिसके सबब लम्हा भर के लिए उसे अपने तमाम दुख और तकलीफ़ें फ़रामोश हो गईं।

      हम उस के कलाम में हुब्ब-उल-वतनी की गहराई और जोश भी दर्याफ़्त करते हैं। जब उस ने औरतों के आँसू बहते देखे। तो इस से उस की आँखों के सामने एक और समां फिर गया और उसे याद आया कि किस तरह उस शहर पर जिसकी वो लड़कीयां हैं एक सख़्त आफ़त व मुसीबत की तल्वार झूम रही है जैसा कि पहले बयान हो चुका है यरूशलेम ने कभी भी उस की क़बूलियत के लिए अपने बाज़ू नहीं फैलाए थे। उस ने उस के साथ माओं का सा सुलूक नहीं किया था। मगर बावजूद इस के अब भी इस के दिल में उस की निस्बत फ़र्ज़न्दाना मुहब्बत बाक़ी थी। उस ने इस से चंद रोज़ पहले भी उस का सबूत दिया था। जब कि ऐन फ़त्ह और कामयाबी की घड़ी में वोह कोह ज़ैतून की एक चोटी पर जहां से सारा शहर बख़ूबी नज़र आता था। ठहर गया और ज़ार-ज़ार रोते हुए वो शीरीं अल्फ़ाज़ ज़बान से फ़रमाए जो शायद ही किसी और शहर के हक़ में सुने गए होंगे। इस के बाद जब वो अपने शागिर्दों के हमराह हैकल के मुक़ाबिल बैठा था। तो उस ने ज़ाहिर किया कि वो उस आफ़त से जो उस के वतन के सदर मुक़ाम पर आने वाली है कैसी अच्छी तरह वाक़िफ़ है। और उस को याद कर के उस के दिल में कैसी चोटी लगती है। शहर की बर्बादी नज़्दीक थी। इस बर्बादी में पचास से भी थोड़े साल बाक़ी थे। और ये बर्बादी ऐसी सख़्त थी कि जिसकी नज़ीर (मिसाल) मुश्किल से मिलती है। एक और यहूदी मुअर्रिख़ इस बर्बादी का ज़िक्र करते हुए लिखता है। दुनिया में शायद ही कोई क़ौम हुई होगी। और शायद ही आइन्दा होगी जिसके मसाइब का यरूशलेम के उन मसाइब से जो मुहासिरे के दिनों में उस पर वाक़ेअ हुए। मुक़ाबला करना मुम्किन हो। इसी मुसीबत को नबियाना निगाह से देखकर येसू के मुँह से ये कलमात निकले, “ऐ यरूशलेम की बेटियों मेरे लिए मत रोओ। बल्कि अपने लिए और अपने बच्चों के लिए रोओ।”

      इलावा बरीं उस के अल्फ़ाज़ से ये भी ज़ाहिर होता है कि उसे औरतों और बच्चों की किस क़द्र फ़िक्र थी। औरतों के आँसूओं से ये ज़ाहिर हुआ कि उन के दिल में उस की तरफ़ से मुहब्बत व हम्दर्दी का मुस्तहिक़ भी था। क्योंकि उस के अल्फ़ाज़ से मालूम होता है, कि किस तरह वो औरतों के मिज़ाज से वाक़िफ़ और उनका हम्दर्द था। और ऐसे कामिल तौर पर कि इस की नज़ीर दुनिया में नहीं मिलती क़ुव्वत-ए-वहमा के और दिल की हम्दर्दी की बिना पर उस ने ख़ूब तहक़ीक़ कर लिया कि किस तरह आने वाले मुहासिरे में मुसीबत का सबसे भारी बोझ शहर की मस्तूरात (औरतों) के हिस्से में आएगा। और किस तरह औरतें अपने बच्चों की तकालीफ़ के सबब दुख उठाएंगी। इस मुल्क में जहां बच्चे औरत का ताज और बुजु़र्गी समझे जाते थे। भूक और दर्द के मारे तबई जज़्बात ऐसे उलट जाऐंगे, कि बाँझ होना ख़ुश-क़िस्मती ख़याल किया जाएगा। और ऐसे मुल्क में जहां उम्र की दराज़ी आला से आला बरकत समझी जाती थे वो इस बात की आर्ज़ूमंद होंगी, कि काश हमें अचानक और पेश अज़ वक़्त मौत जाये।

      और ऐसा ही फ़िल-हक़ीक़त वाक़ेअ हुआ। मोअर्रिख (तारीख़-दान) के बयान के मुवाफ़िक़ यरूशलेम के मुहासिरे में एक बड़ी बात ये थी, कि उस में औरतों और बच्चों पर बड़ी सख़्त मुसीबतें नाज़िल हुईं। जंग के दूसरे वसाइल के इलावा रोमियों ने उन को भूका मारना शुरू किया और लोगों को भूक के मारे निहायत सख़्त तक्लीफ़ बर्दाश्त करनी पड़ी। लोग इस से आख़िरकार ऐसे वहशी हो गए, कि दूसरों को खाना खाते देखना, एक मुसीबत हो गया और वो औरतों और बच्चों के मुँह से लुक़्मे छीन-छीन कर खाने लगे। इस अम्र के मुताल्लिक़ यूसीफ़स के कई एक किस्सों के बयान करने को जी चाहता है। मगर वो ऐसे दर्दनाक और दहश्त अंगेज़ हैं कि उनका बयान करना हरगिज़ मुनासिब नहीं।

      येसू की ज़ोद फ़हम हम्दर्दी ने ये सब बातें महसूस कीं। और उस के रहम का चशमा उन के हक़ में जिन पर ये सब कुछ वारिद होने वाला था। उबल पड़ा औरतें और बच्चे ! मगर सफ़ा-ए-तारीख़ पर नज़र करो तो मालूम होगा, कि उन की कैसी तहक़ीर व तज़लील होती रही। और कैसी बेरहमी से उन के साथ सुलूक होता रहा है मगर हमेशा नूअ इन्सान का सबसे बड़ा हिस्सा रहे हैं। उसी की हम्द व तारीफ़ हो जिसने उन को इस ज़िल्लत और बदसुलूकी के गढ़े से उठाया और उठा रहा है। और जिसने उन के हक़ में अदल व रहम को काम में लाने की तालीम दी है। फिर इन अल्फ़ाज़ में जो उस ने यरूशलेम की बेटियों से कहे तौबा व इस्तिग़फ़ार की तर्ग़ीब व तहरीस भी पाई जाती है। जब येसू ने फ़रमाया कि अपने और अपने बच्चों के लिए रोओ। तो वो सिर्फ उन आने वाली मुसीबतों ही का ज़िक्र नहीं कर रहा था। बल्कि उन की गुनेहगारी का भी। और ये बात ख़ासकर उस की तक़रीर के बाक़ी अल्फ़ाज़ से ज़्यादातर अयाँ (ज़ाहिर) होती है। क्योंकि जब हरे दरख़्त के साथ ऐसा करते हैं। तो सूखे के साथ क्या ना किया जाएगा।

      वो अपने को “हरा दरख़्त” कह सकता था। वो नौजवान और बेगुनाह था। और इस अम्र की उन औरतों के आँसू भी शहादत दे रहे थे। कोई वजह नहीं थे कि वो उस वक़्त मारा जाये मगर ख़ुदा ने ये सब कुछ उस पर वाक़ेअ होने दिया। यहूदी क़ौम को भी हरे दरख़्त की मानिंद होना चाहिए था। ख़ुदा ने उसे लगाया था। और उस की रखवाली करता रहा था। हर एक ज़रूरी चीज़ उस के लिए मुहय्या करता था। लेकिन जब वो फल ढ़ूढ़ने के लिए आया तो कुछ ना पाया वह कुमला रहा था। नेकी और रास्ती का रस उस में बिल्कुल सूख गया था। अब वो बिल्कुल ख़ुश्क और जलाने के क़ाबिल था। और जब दुश्मन आग लगाने को आएगा। तो ख़ुदा कब उस को इस बात से रोकेगा? इस तौर से येसू ने फिर एक दफ़ाअ उन्हें तौबा पर आमादा करने कोशिश की। उस ने चाहा कि यरूशलेम के दिल में गहरी बातों का ख़याल पैदा हो। उन्होंने उस के लिए आँसू तो बहाए थे। मगर वो चाहता था, कि इस से बढ़ कर वो तौबा के आँसू भी बहाएँ। क्योंकि मज़्हबी उमूर् में जब तक ज़मीर तक असर नहीं पहुंच जाता तब तक किसी बेहतरी की उम्मीद करना ला-हासिल है।

      हम नहीं कह सकते कि आया उन में से किसी के दिल पर उस के इस क़ौल ने कुछ असर पैदा किया या नहीं। शायद अगर हुआ भी हो, तो चंद एक ही पर हुआ होगा। ना हम ये कह सकते हैं, कि तौबा करने से यहूदी सल्तनत की तबाही ज़रूर रुक जाती। बहर-सूरत हमले की आग उन ख़ुश्क पत्तों पर पड़ी और सब जल कर ख़ाक-ए-सियाह हो गए। और उस ज़माने से लेकर वो लोग जो सज़ा का पहाड़ करने से पहले अपने गुनाहों पर गिरया ज़ारी (मातम, रोना) करना पसंद नहीं करते थे। आज तक बराबर रोते चले आते हैं। जो लोग आजकल यरूशलेम की सैर को जाते हैं उन्हें एक मुक़ाम दिखाया जाता है। जो मुक़ाम गिर्या व बुका कहलाता है। जहां हर जुमे को इस क़ौम के लोग अपने शहर और हैकल की बर्बादी के लिए गिर्ये व ज़ारी करने को आते हैं। और ये बात सदीयों से चली आई है। और ये उस हैरत के पियाले का जो उन के लिए लबा-लब भरा गया मह्ज़ एक निशान है जिससे सदहा साल से बनी-इस्राईल के होंट आशना (वाक़िफ़) रहे हैं।

      गुनाह के लिए रोना ज़रूरी है। जो सज़ा के वाक़ेअ होने से पहले नहीं रोता। उसे बाद में रोना पड़ता है। जो इस दुनिया में नहीं रोता, वो आइन्दा जहान में रोएगा। और ये सबक़ सब के लिए है। और क्या येसू के आख़िरी अल्फ़ाज़ उन लोगों को निस्बत जिनसे वो कहे गए थे। ज़्यादा गहरे मअनी नहीं रखते कि जब हरे दरख़्त के साथ ऐसा करते हैं। तो सूखे के साथ क्या ना किया जाएगा? अगर ग़म और जांकनी से ख़ुद इब्ने-अल्लाह भी ना छूटा। जब वो दुनिया के गुनाहों को उठा रहा था। तो उन लोगों का हिस्सा क्या होगा। जो ख़ुद अपने ही गुनाह उठा रहे हैं।

बारहवां बाब
कल्वरी

      जो शख़्स ख़ुदावन्द की ज़िंदगी पर लिखने बैठता है। वो ज़रूर बहुत जगह क़लम को अपने हाथ से रखकर सोचने लगता है कि “ये तो आसमानों के बराबर बुलंद है मैं क्या कर सकता हूँ? पाताल से ज़्यादा गहरी है मैं क्या जान सकता हूँ?” लेकिन हम अब ऐसे नुक्ते पर पहुंचे हैं। जहां इस क़िस्म की नाक़ाबिलियत का ख़याल बड़े ज़ोर के साथ दिल में पैदा होता है। आज हम मसीह को मस्लूब होते देखने को हैं। मगर कौन इस लायक़ है कि इस नज़ारे को देखने के लिए आँख उठाए? किस में ताक़त है कि उस का बयान करे? ऐसा इल्म मेरे लिए निहायत अजीब है। ये तो बुलंद है। मैं उस तक नहीं पहुंच सकता। इस मज़्मून के सामने आदमी अपने को एक छोटे से कीड़े के बराबर समझने लगता है। जो समुंद्र की तह में पड़ा हो। उस का उस भेद के समझने का दावेदार होना ऐसा है। जैसा घोंगे का अपनी सीपी के ज़रीये से समुंद्र को ख़ाली कर देने की कोशिश करना। ये मुक़ाम जहां हम अब खड़े हैं, सब का मर्कज़ है। यहां अज़ल व अबद का मिलाप है क़दीम तारीख़ के नाले यहीं आ कर मिल जाते हैं। और ज़माना हाल की तारीख़ का दरिया यहीं से शुरू है।

      बुज़ुर्गों और नबियों की आँखें इसी कल्वरी को ढूंढती थीं। और अब तमाम क़ौमों और तमाम नसलों की आँखें पीछे फिर कर उसी पर लगी हुई हैं। यही तमाम सड़कों का अंजाम है। सच्चाई का तालिब जब इल्म की तमाम मुमल्कतों को खोज चुकता है, तो कल्वरी के पास आता है। और मालूम करता है, कि आख़िरकार वो मर्कज़ पर पहुंच गया। आदमी का थका हारा दिल जिसने मुहब्बत और हम्दर्दी की तलाश में सारी दुनिया छान मारी। आख़िरकार यहीं पहुंच कर आराम पाता है। ख़याल तो करो कि किस क़द्र बेशुमार रूहें हर इतवार को गिरजों और इबादत ख़ानों में जमा हो कर गलगता की याद करती हैं। और बिस्तर बीमारी और मर्ग पर से किस क़द्र बेशुमार आँखें इसी मुक़ाम की तरफ़ उठती हैं। “ख़ुदावन्द हम किस के पास जाएं? अबदी ज़िंदगी का कलाम तो तेरे ही पास है।”

      इसलिए अगरचे ये मज़्मून हमारी हैसियत से बुलंद व बाला है। तो भी हम आगे बढ़ने की जुर्आत करते हैं। वो अक़्ल इंसानी से कहीं ऊँचा है। मगर और कहीं अक़्ल को इस क़द्र उलूम और शराफ़त नसीब नहीं होती जिस क़द्र इस मज़्मून पर ग़ौर करते हुए। कल्वरी पर शायरों ने अपने मीठे से मीठे गीत गाये हैं। मुसव्विरों ने अपनी आला से आला रोया देखी हैं। हुकमा ने अपने आला से आला तसव्वुरात बाँधे हैं। घोंगा समुंद्र की तह में पड़ा रहता है। और एक पानी का आलम उस के ऊपर से गुज़रता रहता है। वो अपने छोटे-छोटे सीपों में इस शफ़्फ़ाफ़ लहराने वाली चीज़ के काले कवों का अंदाज़ा नहीं लगा सकता। तो भी समुंद्र का पानी ही उस की सीपी को भी भरता है। और उस के छोटे से जिस्म को कामिल ख़ुशी से मामूर करता है। और इसी तरह अगरचे हम भी इस नज़ारे के जिसके सामने हम खड़े हैं। तमाम मुतालिब व माफ़ी को नहीं समझ सकते। ताहम अपने ज़हन और अक़्ल को इस से लबालब भर सकते हैं। और जब उस के ज़रीये हमारे अंदर इलाही ज़िंदगी की तहरीकें पैदा होती हैं। तो हम ख़ुशी से इक़रार करते हैं, कि उस की चौड़ाई और लंबाई ऊंचाई और गहराई हमारी फ़हम से बाहर है।

(1)

      वो तवील सफ़र जो उसे गलीयों में से हो कर क़त्लगाह तक करना पड़ा। आख़िरकार इख़्तताम को पहुंचा। और इस के साथ ही उस ईज़ा रसीदा के तक्लीफ़देह सफ़रों का भी ख़ातिमा हुआ। सिपाहियों ने अब आख़िरी काम की तैयारीयां शुरू कर दीं। लेकिन इसी असना में एक छोटी सी बात वक़ूअ में आई। जिससे मसीह के चाल-चलन पर एक और रोशनी पड़ती है।

      यरूशलेम की मालदार ख़वातीन में एक रस्म थी कि जिन लोगों पर सलीब की ख़ौफ़नाक सज़ा का फ़त्वा सादिर होता था। वो उन के लिए एक क़िस्म की शराब जिसमें कोई मुंशी (नशा आवर) चीज़ मिस्ल पित्त या मुर के मिली होती थी मुहय्या करती थीं। ताकि उन के हवास मख़बूज़ (मदहोश) हो जाने से वो दर्द को महसूस ना कर सकें। ये एक अच्छी रस्म थी। जिससे उन की हम्दर्दी और नेक दिली ज़ाहिर होती थी। और ये पियाला सब मुजरिमों को बिला लिहाज़ उन के जुर्म के दिया जाता था। ये पियाला ऐन उस वक़्त जब कि मेख़ें ठोकी जाने को होती थीं पिलाया जाता था। जब वो गलगता पर पहुंचा, तो येसू को भी ये पियाला दिया गया। वो मारे तकान के बेताब हो रहा था। और प्यास की शिद्दत से जल रहा था। वो इस पियाले को लेकर बिला-ताम्मुल मुँह की तरफ़ ले गया मगर जूँही उस ने उस का मज़ा चखा और बेहोश करने वाली दवाई की बू सूंघी। उस ने उसे नीचे रख दिया। और पीने से इन्कार कर दिया।

      ये बात तो मामूली सी थी। मगर इस में बड़ी दिलेरी पाई जाती थी। उसे उस वक़्त ऐसी सख़्त प्यास लग रही थी, जब कि आदमी जो कुछ मिलता है बे-तहाशा चढ़ा जाता है। और वो अब निहायत ईज़ा व तक्लीफ़ से दो चार हो रहा था। उस के बाद के ज़मानों में उस के वफ़ादार शहीद जब वो क़त्लगाह की तरफ़ जाते थे। ख़ुशी से इस क़िस्म की अश्या का इस्तिमाल कर लेते थे। मगर उस ने ना चाहा कि मरते वक़्त उस के ज़हनी क़वा (قویٰ) (क़ुव्वत की जमा) पर बादल छा जाए उस की इताअत व फ़रमांबर्दारी अभी तक्मील को नहीं पहुंची थी। उस की तजावीज़ अभी पूरे तौर पर सरअंजाम नहीं हुई थीं। वो मौत का ज़ायक़ा अच्छी तरह चखना चाहता था। मैंने एक औरत का ज़िक्र सुना है जो एक निहायत दर्द-नाक मर्ज़ से मरने को थी। कि जब उस के दुख और तक्लीफ़ को देखकर उस ने ये कह कर इन्कार कर दिया कि “नहीं मैं होश में मरना चाहत्ता हूँ।” मेरे नज़्दीक उस औरत ने मसीह के मिज़ाज को पा लिया था।

      ये मौक़ा इस अम्र की बह्स के लिए कि आया क़ुद्रत की उन पैदावारों का जिनसे नशा या बेहोशी पैदा होती है इस्तिमाल करना जायज़ है या नहीं। कुछ बहुत मौज़ूं नहीं मालूम होता। इस ख़ासियत वाली जड़ें या रस हमेशा से दुनिया की मुख़्तलिफ़ क़ौमों को ख़्वाह वो वहशी हों या शाइस्ता मालूम हैं। और इन्सानी ज़िंदगी के मुआमलात में इन चीज़ों को बहुत कुछ दख़ल रहा है। इनकी तारीख़ निहायत अजीब व ग़रीब है। झूटे मज़ाहिब की पुर-इसरार मजलिसों में उनका इस्तिमाल होता था। और ग़ैर-अक़्वाम की नबुव्वत और जादूगरी के साथ भी उनका बहुत कुछ ताल्लुक़ पाया जाता है। हवास के ज़रीये से वो ज़हन पर ऐसा असर करती हैं कि उस आलम-ए-इसरार के दरवाज़े खुल जाते हैं। जिनकी दहशत व हैबत से इन्सान मामूली हालत में बिल्कुल बे-ख़बर होता है। तबीब भी उनका बहुत इस्तिमाल करते रहे हैं। और ज़माना-ए-हाल में भी अफ़यून और दीगर मुंशी अश्या (नशा-आवर चीजें) की सूरत में इनके सबब से बहुत से सख़्त अख़्लाक़ी मसाइल पैदा हो गए हैं। जिनका हल करना ज़रूरियात से समझा जाता है।

      इस सवाल पर कि आया इस क़िस्म की अश्या को तफ़रीह व ताज़गी के लिए इस्तिमाल करना चाहिए या नहीं। हम इस वक़्त बह्स करना नहीं चाहते। इस वक़्त सिर्फ इस अम्र पर ग़ौर करेंगे, कि आया होश व आगाही को कम करने के लिए उनका इस्तिमाल मुनासिब है या नहीं। हमारे ही ज़माने में एक अंग्रेज़ ने क्लोराफ़ार्म की ख़ासियत को दर्याफ़्त कर के बनी इन्सान पर एक निहायत ही बड़ा एहसान किया है। जब कि इस तौर पर बे-होशी पैदा कर के सर्जन एक अमल जर्राही को कर सकता है। जो दूसरी सूरत में नामुम्किन होता। या जब बुख़ार की आख़िरी नौबत पर ख़्वाब-आवर दवाई के ज़रीये बीमार के थके हारे जिस्म को बीमारी के मुक़ाबले के लिए मदद मिल जाती है। और इस तौर से उस की जान बच जाती है। तो हम ख़ुदा का शुक्र करते हैं, कि आजकल के इल्म व फ़न को इस क़िस्म के मुफ़ीद सामान हासिल हो गए हैं।

      बरख़िलाफ़ इस के इन फ़वाइद के साथ कई एक सख़्त नुक़्सानात भी मिले हुए हैं। लाखों मर्द व औरत इन अश्या को इस्तिमाल करने लग गए हैं। ताकि अपनी नसों की हिस्स को कमज़ोर कर दें। और दर्द व ग़म की हालत में जो ख़ुदा ने इसलिए भेजे हैं कि होश व हवास बजा होने की हालत में दिलेरी के साथ इस का मुक़ाबला करें। जैसा कि येसू ने सलीब पर किया। वो अपने दिमाग़ी क़वा (क़ुव्वत) को धुंदला कर देते हैं। तबाबत (डाकटरी) पेशा लोगों पर इस अम्र की ज़िम्मेदारी का मदार है कि वो उस सामान को जो ख़ुदा ने उन के हाथों में एक अच्छी ग़र्ज़ के लिए रखा है। ज़िंदगी के उन संजीदा और दर्द-नाक मौक़ों के ज़ाए करने में इस्तिमाल ना करें। ये बात एक अबदी सच्चाई है कि दर्द व रंज रूह की तर्बियत के लिए होते हैं। लेकिन ऐसी हालतों में से नशे से बदमसत हो कर गुज़र जाना, रुहानी व अख़्लाक़ी नश्वो नुमा के निहायत उम्दा मौक़ों को खो देना है। मर्दो औरत दुख व तक्लीफ़ के वसीले से कामिल किए जाते हैं। लेकिन दुख जब ही अपना काम करेगा, जब उसे महसूस किया जाए। इस बढ़कर और क्या बद-क़िस्मती होगी कि ख़ुदा की ज़र्बों और सदमों को सहने के लिए आसानी ढूंडी जाये। मसलन ख़ुदा हमारे किसी अज़ीज़ को अपने पास बुला लेता है। ताकि इस ज़रीये से हमारे घर को पाक करे मगर मुम्किन है कि ख़ुदा का ये मक़्सद पूरा ना हो। सिर्फ इस वजह से कि घर के लोग सख़्त मशग़ूलियत की हालत में हैं। या इसलिए कि बहुत से लोग आ जा रहे हैं। या ज़बानों के शोर व ग़ौग़ा से जो अपने नज़्दीक तसल्ली और ग़मख़ारी के काम में मशग़ूल हैं। ख़ुदा के पैग़ाम्बर बाहर निकाले जाते हैं। ये तो एक तबई बात है कि तबीब और दोस्त-अक़्रिबा (रिश्तेदार) हर तरह से कोशिश करते हैं, कि किस तरह ग़मनाक का ग़म हल्का हो जाये। लेकिन हो सकता है कि वो इस बारे में हद से बढ़ कर कामयाबी हासिल करें। अगरचे यरूशलेम की ख़वातीन का ये दस्तूर बहुत अच्छा था। मगर उन के रहम दिल हाथों का ये तोहफ़ा हमारे ख़ुदावन्द को आज़माईश का पियाला मालूम हुआ। और उस ने उसे अपने से परे कर दिया।

(2)

      अब सब कुछ तैयार था और सिपाहियों ने अपना ख़ौफ़नाक काम शुरू किया। मैं नहीं चाहता कि सलीब के तमाम दुखों को तफ़्सीलवार बयान कर के ख़्वाह-मख़्वाह अपने नाज़रीन के ख़यालात और हस्सात को सदमा पहुंचाऊं। अगर मैं चाहता भी, तो ऐसा करना बिल्कुल आसान होता। क्योंकि सलीबी मौत एक निहायत ही ख़ौफ़नाक क़िस्म की मौत थी। रोमी हकीम (सैरो) जो इस से ख़ूब वाक़िफ़ था। लिखता है कि “ये सब सज़ाओं से ज़्यादा बेरहमाना और शर्मनाक सज़ा थी।” वो फिर लिखता है कि “ये सज़ा एक रोमी के जिस्म पर कभी ना दी जाये। नहीं बल्कि उस के ख़यालों या आँखों या कानों के पास भी ना फटकने पाए।” ये सज़ा सिर्फ़ ग़ुलामों या बाग़ीयों को दी जाती थी। जिससे ये मक़्सूद होता था, कि उन की मौत लोगों के लिए ख़ासकर इबरत का बाइस हो।

      सलीब की ग़ालिबन वही शक्ल थी। जो उमूमन बनाई जाती है। एक सीधी लकड़ी जिसकी चोटी के क़रीब एक और लकड़ी उस पर आड़ी लगी होती है। इस के सिवा दो और शक्लें भी होती थीं। एक तो अंग्रेज़ी हर्फ़ T की मानिंद और दूसरी हर्फ़ X की मानिंद। मगर चूँकि लिखा है, कि येसू का जुर्मनामा उस के सर के ऊपर लगा था। इसलिए ज़रूर है कि उस के सर के ऊपर लकड़ी कुछ उभरी हुई हो। हाथ ग़ालिबन दोनों जानिब लकड़ी से बाँधे गए होंगे। क्योंकि अगर ऐसा ना किया जाता तो मारे बोझ के हाथ के ज़ख़्म बिल्कुल चिर जाते। इसी ग़र्ज़ से खड़े हुए खंबे के नीचे की तरफ़ भी लकड़ी का एक टुकड़ा जिस्म को सहारा देने के लिए लगा होगा। पांव या तो इकट्ठा मेख़ों के साथ इस लकड़ी पर जड़े गए थे, या अलैहदा-अलैहदा। ये नहीं कह सकते कि आया जिस्म सलीब की लकड़ी के खड़े किए जाने और ज़मीन में गाड़े जाने से पहले उस पर जोड़ा गया था, या पीछे। सर लकड़ी से बंधा हुआ ना था। और इसलिए लटकने वाला उन लोगों को जो सलीब के आस-पास खड़े थे देख सकता और उन से बातचीत कर सकता था।

      आजकल जहां तक मुम्किन हो मौत के दर्दों को कम करने की कोशिश की जाती है। और ये इंतिज़ाम किया जाता है, कि मौत फ़ील-फ़ौर वाक़ेअ हो। और अगर किसी वजह से जानकनी की तक्लीफ़ ज़्यादा देर तक रहे तो इस से लोग बहुत नाराज़ होते हैं। लेकिन सलीब की मौत में सबसे ख़ौफ़नाक बात ये थी, कि जान-बूझ कर इस जानकनी की हालत को तूल दिया जाता था। आदमी उमूमन दिन भर जीता लटका रहता था। और बाअज़ वक़्त दो दो तीन तीन दिन तक उस के होश व हवास बजा रहते थे। और इस अस्ना में हाथों और पांव के ज़ख़्मों की जलन लटकते जिस्म की बेचैनी व बेकरारी नसों का फूल जाना। और सबसे बढ़कर नाक़ाबिले बर्दाश्त प्यास की शिद्दत दम-ब-दम बढ़ती जाती थी। येसू ने बहुत देर तक तक्लीफ़ ना उठाई। ताहम चार पाँच घंटे लटके रह कर जान दी।

      मगर अब मैं इस दर्द-नाक और हैबतनाक नज़ारे के मुताल्लिक़ और तफ्सीलें बयान नहीं करना चाहता। ये बताना मुश्किल है कि किस हद तक ये तमाम तकलीफ़ें उस की ईज़ा के पियाले का ज़रूरी हिस्सा थीं क्या ये अम्र ग़ैर-लाज़िमी था, कि वो किस मौत से मरे? क्या अगर वो फांसी दिया जाता या उस का सर क़लम किया जाता तो ये भी ऐसा ही काम दे जाता। हम इस बारे में कुछ नहीं कह सकते। फ़क़त उस वक़्त जब हमको ये राज़ मालूम हो कि उस की रूह को क्या तक्लीफ़ हुई। उस वक़्त हम कह सकेंगे, कि उस की जिस्मानी मौत के लिए ऐसी शर्मनाक और दर्द-अंगेज़ क़िस्म की मौत कहाँ तक मुनासबत रखती थी।

      मगर मसीह की हक़ीक़ी तकालीफ़ जिस्मानी नहीं बल्कि बातिनी थीं। उस की सूरत पर नज़र करने से हमें किसी और ग़म का साया नज़र आता है। जो ज़ाहिरी जलते हुए ज़ख़्मों और ना बुझने वाली प्यास और तड़पते हुए जिस्म से कहीं गहरा था। ये उस रद्द शूदा मुहब्बत का रंज था। ये उस दिल की नाउम्मीदी थी, जो मुहब्बत व रिफ़ाक़त की तलाश में था। मगर उस के एवज़ उसे तहक़ीर व नफ़रत से साबिक़ा पड़ता था। ये उन बदियों और बेइज़्ज़तियों का रंज व ग़म था। हाँ ये वो नाक़ाबिले बयान रंज था। जो वो उन लोगों के लिए खींच रहा था, जिन्हें वो बचाना चाहता था। मगर वो नहीं मानते थे। मगर यही सबसे गहरा साया नहीं था। उस वक़्त नजातदिहंदा के दिल में एक ऐसा गहरा रंज व ग़म था। जिसके बयान करने के लिए इन्सानी ज़बान में लफ़्ज़ नहीं था। वो आलम के गुनाहों के लिए जान दे रहा था। उस ने बनी-आदम का गुनाह अपने ऊपर उठा लिया था। और अब वो उस आख़िरी जद्दो-जहद में मशग़ूल था। ताकि उसे दूर कर के नाबूद कर दे। उस वक़्त सलीब पर सिर्फ इन्सान येसू मसीह का जिस्म व ख़ून ही नहीं लटक रहा था। बल्कि उस का जिस्म ख़फ़ी भी। यानी वो जिस्म जिसका वो ख़ुद सर है और उस के लोग उस के आज़ा हैं। उस जिस्म में भी मेख़ें गाड़ी गई थीं। और उस पर भी मौत ने अपना इंतिक़ाम लिया। उस के लोग भी उस के साथ जिस्म की निस्बत मर गए। ताकि वो हमेशा के लिए ज़िंदा रहें।

      ये एक राज़ है। मगर यही बात उस नज़ारे की अज़मत भी ज़ाहिर करती है जब तक कि वो उस पर नहीं लटका था। सलीब गु़लामी और शरारत का निशान समझी जाती थी। मगर उस ने उसे बहादुरी, ख़ुद इन्कारी और नजात के निशान में बदला डाला। ये मह्ज़ लकड़ी की ख़ून-आलूदा बल्लियों का एक ढांचा था। जिसे छूना भी शर्म की बात समझी जाती थी। मगर उस वक़्त से एक दुनिया उस पर फ़ख़्र करती रही है। वो हर तरह की ख़ूबसूरती के साथ हर बेशक़ीमत चीज़ पर खोदी जाती है। वो क़ौमों के झंडों पर नज़र आती है। और बादशाहों के ताजों और असाए सल्तनत पर मुनक़्क़श देखी जाती है। जो सलीब गलगता पर नसब की गई थी। वो तो एक मामूली ख़ुश्क लकड़ी थी। मगर देखो वो असाए हारून की तरह फूट निकली है। उस ने अपनी जड़ें दुनिया के दिल के अंदर गुहर जमादी हैं। और अपनी टहनियां ऊपर आस्मान की तरफ़ फैला दी हैं। यहां तक कि आज सारे तख़्ता ज़मीन को घेरे हुए है। और कौमें उस के साये में आराम करती और उस के पुर मज़ा मेवों को खाती हैं।

(3)

      आख़िरकार ये ख़ौफ़नाक तैयारियाँ ख़त्म हो गईं। और नजातदिहंदा को यहूदियों की नफ़रत भरी आँखों के सामने जो शिकारी कुत्तों की तरह उस के पीछे लगे हुए थे। बुलंद कर दिया गया। लेकिन जब काहिनों, फ़रीसियों और अवामुन्नास ने अपनी कामयाबी से भरी हुई नज़रों के साथ उस पर नज़र की। तो उन के दिल सर-निगूँ (झुक) हो गए। क्योंकि उस मज़्लूम के ऐन सर पर उन को कुछ नज़र आया। जिससे उन के दिल पाश-पाश हो गए।

      आला क़त्ल के साथ मुजरिम के जराइम का हाल लिख कर चस्पाँ करने का अक्सर मुल्कों में आजकल भी रिवाज पाया जाता है। पादरी गिलमोर साहब की सवानिह उम्री में जो अर्सा तक मंगोलिया में मिशनरी रहे थे। चीन में किसी मुजरिम को सज़ा ए क़त्ल दिए जाने का ज़िक्र दर्ज है। वो लिखते हैं, कि उस गाड़ी पर जिसमें उस को क़त्लगाह की तरफ़ ले गए एक तख़्ती लगी थी। जिस पर उस की सारी बदआमालियों का ज़िक्र दर्ज था। रोमियों में ये रस्म थी। और उमूमन एक अफ़्सर आगे-आगे जाया करता था और मुजरिम के जराइम का ऐलान करता जाता था। अनाजील में इस क़िस्म के किसी अफ़्सर का ज़िक्र नहीं पाया जाता। और ना वो कुतबा भी पेश्तर इस के कि सलीब पर नसब किया हुआ दिखाई दिया किसी ने देखा था। ये सलीब की सीधी लकड़ी की चोटी पर लगा था। और पीलातुस ने इस तौर से यहूदियों से उस सारे दुख व रंज का इंतिक़ाम लिया था। जो उन के हाथों से उसे पहुंचा था। वो ग़ुस्से की हालत में उनसे जुदा हुआ था। क्योंकि उन्होंने उसे ख़ूब ज़लील किया था। मगर उस ने उन के पीछे-पीछे एक ऐसी चीज़ भेजी। जिसने इस कामयाबी के घड़ी में भी उन के ख़ुशी के प्याले में ज़हर के क़तरों का काम दिया। जब कि वो उस की कुर्सी अदालत के सामने खड़े थे। तो उसी की आख़िरी चोट जो उस ने उन पर की ये थी, कि उस ने दिखावे के तौर पर ये ज़ाहिर किया कि वो दर-हक़ीक़त येसू को उन का बादशाह समझता है। इसी ज़रब को अब उस ने और भी ज़ोर से लगाया और कुतबे पर ये अल्फ़ाज़ लिख दिए, “ये येसू यहूदियों का बादशाह है।” दूसरे लफ़्ज़ों में ये जताना मक़्सूद है कि “जो यहूदियों का बादशाह हो उस का ये हाल होगा। रोमी उस के साथ ये सुलूक करेंगे। उस क़ौम का बादशाह एक ग़ुलाम और मस्लूब मुजरिम है। और जब कि बादशाह का ये हाल है तो जिस क़ौम का वो बादशाह है उस का क्या हाल होगा।”

      ये देखकर यहूदियों को ऐसा गु़स्सा आया कि उन्होंने फ़ील-फ़ौर गवर्नर के पास कुछ लोगों को भेज कर उस की मिन्नत की कि इन अल्फ़ाज़ को बदल दे।

      बिला-शुब्हा वो इन्हें देखकर बहुत ही ख़ुश हुआ होगा। क्योंकि उन के आने से उस पर साबित हो गया, कि उस के अल्फ़ाज़ ने कैसा गहरा ज़ख़्म लगाया है। मगर उन की अर्ज़ को सुन कर उस ने फ़क़त हंस दिया। और बड़ी तमकिनत और इक़्तिदार के लहजे में जो रोमी हाकिमों ही का हिस्सा था। ये कह कर उन्हें हँका दिया कि “जो कुछ मैं लिख चुका सो लिख चुका।”

      इस वक़्त तो उस का ये रवैय्या आज़ादी और ख़सलत (आदत) की मज़बूती का इज़्हार मालूम होता था। मगर दरअस्ल ये उस की कमज़ोरी के छिपाने के लिए बतौर एक पर्दे के था। उस ने कुतबे की बाबत तो अपनी मर्ज़ी को पूरा कर लिया जो एक अदना सी बात थी। मगर वो उस के हाथों सलीब का हुक्म लिखवाने में कामयाब हो चुके थे। वो उन्हें चढ़ाने या खजाने में तो मज़्बूत था मगर उस में इतनी हिम्मत ना थी, कि उन की मर्ज़ी को रद्द कर सकता।

      लेकिन अगरचे पीलातुस के ज़हन में ये कुतबा मह्ज़ एक तम्सख़र था। जो उस ने यहूदियों से इंतिक़ाम लेने के लिए लिखा था। मगर इस से भी इलाही मंशा (ख़ुदा की मर्ज़ी) पूरा हो रहा था। उस ने कहा कि मैंने जो कुछ लिख दिया सो लिख दिया। लेकिन अगर वो अस्ल हक़ीक़त से वाक़िफ़ होता तो वो यूं कहता कि “जो कुछ मैंने लिखा है सो ख़ुदा ने लिखा है।” बाज़ औक़ात में और बाअज़ मुक़ामात में सारी हवा इलाही हुज़ूरी की कहरबाई क़ुव्वत से ऐसी भर जाती है, कि वहां की हर एक चीज़ मुसद्दिर व मौरिद इल्हाम वही ठहर जाती है। और ये बात इस सलीब के मौक़े पर ब-वजह ऊला सादिक़ (सच्ची) आती है। पीलातुस पहले ही अनजाने नबियों की सी बातें कर चुका था। जब उस ने येसू की तरफ़ इशारा करके कहा था, कि “इस आदमी को देखो” और ये ऐसे अल्फ़ाज़ थे। जो बराबर सदीयों में गूँजते चले आए हैं। और अब ज़बानी नबुव्वत करने के इलावा उस ने गोया तहरीरी नबुव्वत भी की। क्योंकि कोई बालाई क़ुद्रत व ताक़त उस के क़लम से ये अल्फ़ाज़ लिखवा रही थी, कि “ये येसू यहूदियों का बादशाह है।”

      ये अम्र उस कुतबे को और भी पुर मअनी बना देता है, कि ये तीन ज़बानों यानी इब्रानी, यूनानी और लातीनी में लिखा था। पीलातुस के ऐसा करने से ये ग़र्ज़ थी, कि अपने तंज़िया अल्फ़ाज़ में ज़ोर पैदा कर दे। उस की ये ख़्वाहिश थी, कि तमाम अजनबी लोग जो उस वक़्त यरूशलेम में ईद के मौक़े पर आए थे। उस कुतबे को पढ़ सकें। क्योंकि उन में से सब के सब जो पढ़ने के क़ाबिल थे। इन तीनों ज़बानों में से एक ना एक से ज़रूर वाक़िफ़ होंगे। मगर तक़्दीर का मंशा इस बात से कुछ और ही था। क़दीमी दुनिया की यही तीन बड़ी ज़बानें थीं। जिन्हें गोया सारी ज़बानों का क़ाइम मक़ाम समझना चाहिए। इब्रानी वही व मज़्हब की ज़बान है। यूनानी तहज़ीब व शाइस्तगी की। लातीनी क़ानून और हुकूमत की। और मसीह को इन तीनों ज़बानों में बादशाह मशहूर किया गया। उस के सर पर बहुत से ताज हैं। वो दीन व मज़्हब का बादशाह है क्योंकि वो नजात, तक़द्दुस और मुहब्बत का शाहज़ादा है। वो तहज़ीब व शाइस्तगी का भी बादशाह है। और फ़नून शरीफा, मौसीक़ी, इल्म-ए-अदब व फ़ल्सफ़े के खज़ाने सब उसी की मिल्कियत हैं। और सब एक ना एक दिन उसी के क़दमों पर रखे जाऐंगे। वो सियासती दुनिया का भी हाकिम है। क्योंकि वो बादशाहों का बादशाह और ख़ुदावन्दों का ख़ुदावन्द है। और बदनी ताल्लुक़ात, तिजारत व हिर्फ़त ग़रज़ कि इन्सान के तमाम कारोबार पर हुक्मरान है। हमने अल-हक़ीक़त इस वक़्त सब चीज़ों को उसी की तहत में नहीं देखते। मगर हम रोज़ बरोज़ देखते रहते हैं, कि वो रफ़्ता-रफ़्ता उस के पांव के नीचे आती चली जाती हैं। येसू का नाम हर जगह सफ़ा ज़मीन पर फैलता जाता है। हज़ारों आदमी उस नाम को लेना सीखते जाते हैं। लाखों उस नाम के लिए जान देने को तैयार हैं। और यही पीलातुस की अंजानी नबुव्वत है। जो बराबर पूरी होती चली है।

तेरहवां बाब
सलीब के गिर्दागिर्द के मजमे

      गुज़श्ता बाब में हम ये देख चुके हैं कि किस तरह इब्ने-आदम को इस लानती दरख़्त के साथ मेख़ों से जड़ दिया गया। यहां वो घंटों तक इस बेचारगी और दर मांदगी (लाचारी, तक्लीफ़) की हालत में सबकी नज़रों के सामने बराबर लटका रहा। वो सारे वक़्त बराबर होश में था। और आख़िरी दम तक बराबर उन लोगों की सूरतों को जो वहां जमा थे। देख सकता था। हमारे मुल्क में भी जब लोग आम तौर पर फांसी पर चढ़ाए जाते थे। इस तमाशे को देखने के लिए बहुत से लोग जमा होते थे। इस वक़्त यरूशलेम में भी ऐसा ही हुआ होगा। जब येसू सलीब दिया गया तो वो ईद-ए-फ़सह का मौक़ा था। और शहर में बेशुमार लोगों का जो दूर दराज़ मुक़ामात से आए हुए थे। बड़ा मजमा था। अवामुन्नास के लिए इस क़िस्म के मौक़े बहुत ग़नीमत हुआ करते हैं। इस के इलावा येसू के मुकदमे ने ना सिर्फ दार-उल-सल्तनत बल्कि सारे मुल्क को हिला दिया था।

      जो गिरोह उस वक़्त इस नज़ारे को देखने के लिए जमा हुई थी। अब हम जानते हैं। इतनी बड़ी तादाद शायद इसी क़िस्म के मौक़े पर दुनिया भर में कभी इकट्ठी ना हुई होगी। फ़रिश्ते और मुक़र्रब फ़रिश्ते इस में महव हो रहे थे। करोड़हा मर्दो औरत इस वक़्त बल्कि हर रोज़ उस पर नज़र कर रहे हैं। लेकिन उन लोगों के दिल पर जिन्हों ने उस रोज़ उसे मुलाहिजा किया, क्या तासीर हुई थी? इस अम्र को मालूम करने के लिए आओ हम तीन मुख़्तलिफ़ जमाअतों पर जो सलीब के क़रीब खड़ी थीं, नज़र करें। जिसके ख़यालात में उन के इर्द-गिर्द के बहुत से लोग शरीक थे।

(1)

      पहले उस जमाअत पर नज़र करो। जो सलीब के बहुत ही क़रीब खड़ी है ये रोमी सिपाही हैं।

      मालूम होता है कि रोमी फ़ौज में ये क़ायदा था कि जब सिपाही किसी को सज़ा-ए-मौत देते थे। तो मुजरिम के कपड़े और ममलूकात (मुजरिम की चीज़ें) इन सिपाहियों के हिस्से में आते थे। अगरचे वहां बहुत से सिपाही मौजूद थे। मगर खंबों का खड़ा करना, हथौड़े और मेख़ों का इस्तिमाल, सलीब को खड़ा करना वग़ैरह सिर्फ चार आदमियों के हाथ से सरअंजाम हुआ होगा। इसलिए उस के अस्बाब के सिर्फ यही चार सिपाही हक़दार थे। और अब वो फ़ील-फ़ौर अपने माल-ए-ग़नीमत को तक़्सीम करने की फ़िक्र में लगे। क्योंकि सलीब दीए जाने के वक़्त मुजरिम के सब कपड़े उतार लिए जाते थे। जो एक बड़ी शर्मनाक बात थी। एक लंबा चौड़ा जुब्बा जो सबसे ऊपर पहना जाता था। शायद एक अमामा एक कमरबंद और नालैन (जूते) का एक जोड़ा, और नीज़ एक कुर्ता जैसा कि उमूमन गलील के दहक़ान (मज़दूर) पहनते थे। जो काट कर सिया हुआ नहीं। बल्कि सरासर एक टुकड़ा होता था। और उस की माँ ने अपनी मुहब्बत भरी उंगलीयों से उस के लिए बुना होगा। ये सब कपड़े सिपाहियों के हिस्से में आए होंगे। यही येसू की सारी जायदाद थी, जो उस ने पीछे छोड़ी। और ये चार सिपाही गोया उस के वारिस थे। लेकिन ये वो शख़्स था, जिसने ऐसा बड़ा विरसा अपनी वसीयत में छोड़ा। जिसके बराबर आज तक किसी आदमी ने छोड़ा होगा। हाँ ऐसा विरसा जो गोया सारे आलम पर हावी था। अलबत्ता ये एक रुहानी विरासत थी, यानी हिक्मत। तासीर और उम्दा नमूना विरासत।



13  चूँकि बिलकुल ब्रहना करना यहूदीयों के नज़दीक क़ाबिले एतराज़ था। इस लिए और शीम साहब इस अमर पर बेहस कर के ये साबित करना चाहते हैं, कि कोई ना कोई कपड़ा अफ़्सर और ख़ुदावन्द के जिस्म पर छोड़ा गया होगा। अगरचे वो भी इस अम्र को कामिल तौर पर पाया सबूत को नहीं पहुंचा सके।

      सिपाही अपने ख़ौफ़नाक काम से फ़ारिग़ हो कर सलीब के नीचे माल-ए-ग़नीमत तक़्सीम करने को बैठ गए। इस से ना सिर्फ उन्हें कुछ हाथ लगा बल्कि मुफ़्त में एक क़िस्म का शुगल भी मिल गया। क्योंकि दूसरी अश्या को जिस तरह हो सका तक़्सीम भी मिल गया। क्योंकि दूसरी अश्या को जिस तरह हो सका तक़्सीम कर के अब उन्होंने क़मीस पर जिसे वो टुकड़े-टुकड़े नहीं कर सकते थे। चिट्ठियां डालनी शुरू कीं। उन में से एक ने अपनी जेब में से पाँसे का एक दाना निकाला। क्योंकि जुआ खेलना रोमी सिपाहियों का आम मशग़ला था। और इस तौर से उन्होंने इस मुश्किल को हल किया। देखो। वो कैसे हंसी ठट्ठा करते और कहके लगा रहे हैं। और उन के पास ही मुश्किल से एक गज़ के फ़ासले पर वो सूरत उन की तरफ़ देख रही है। और कैसी सूरत ! इब्ने-अल्लाह दुनिया के गुनाहों का कफ़्फ़ारा दे रहा है। और जब कि फ़रिश्ते और मुक़द्दस अर्वाह आस्मानी शहर की दीवारों पर से इस नज़ारे को देख रहे हैं। उस के पाक जिस्म से सिर्फ एक गज़ के फ़ासिले पर सिपाही बेपर्वाई के साथ उस के नाचीज़ कपड़ों के टुकड़ों पर जुआ खेल रहे हैं। इन लोगों को हालाँकि उस से इस क़द्र क़रीब थे। इस अज़ीमुश्शान ड्रामे का फ़क़त इसी क़द्र रुख नज़र आया। क्योंकि गहरा असर करने के लिए जिस क़द्र एक बड़े अज़ीम नज़ारे की ज़रूरत है। उसी क़द्र देखने वाली आँख का होना भी ज़रूर है। ऐसे लोग हैं, जिनकी नज़र में ये ज़मीन निहायत मुक़द्दस है। सिर्फ इसलिए कि येसू ने अपने क़ौमों से उसे छुआ। आस्मान भी मुक़द्दस है। क्योंकि ये उस पर शामियाना किए था। तारीख़ मुक़द्दस है क्योंकि उस का नाम उस के सफ़्हों पर सब्त था। ज़िंदगी के रोज़मर्रा के तमाम कारोबार मुक़द्दस हैं। क्योंकि ये सब उस के नाम से किए जाते हैं। मगर क्या ख़ुद मसीही ममालिक में भी ऐसे अश्ख़ास नहीं पाए जाते जो इस तौर से ज़िंदगी बसर करते हैं। गोया उन के नज़्दीक मसीह कभी इस दुनिया में नहीं आया। और जिनके दिल में कभी ये ख़याल पैदा नहीं हुआ कि इस अम्र से कि येसू इस दुनिया में जिसमें हम बूदो-बाश रखते हैं। आकर रहा हमारे लिए किया कुछ फ़र्क़ वाक़ेअ हो गया है?

(2)

      अब दूसरी जमाअत पर नज़र करो। जो मज़्कूर बाला जमाअत से कहीं ज़्यादा है। और जिसमें सदर मज्लिस के मैंबर शरीक हैं।

      अपनी अदालत में उस पर फ़तवा लगा कर वो उसे गवर्नर की अदालत में ले गए। और उस की तहक़ीक़ात के हर दर्जे पर उस के हमराह रहे। और आख़िरकार पीलातुस से उस के क़त्ल का फ़त्वा लेने में कामयाब हुए। जब आख़िरकार वो जल्लादों के हवाले किया गया। तो ये ख़याल हो सकता था, कि अब वो इस तमाम लंबी चौड़ी कार्रवाई अदालत से मांदा हो कर ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर का रास्ता लेंगे। मगर उनका जोश व ग़ज़ब अब भी भड़क रहा था। और उन के इंतिक़ाम की प्यास ऐसी सख़्त थी, कि वो सिपाहियों को अपना काम करने के लिए अकेला नहीं छोड़ना चाहते थे। बल्कि अपनी इज़्ज़त व मर्तबे को भूल कर वह अवामुन्नास के हमराह क़त्लगाह में जा मौजूद हुए। और मज़्लूम के दर्द व दुख को देखकर अपनी आँखें ठंडी करते रहे। जब वो ऊपर सलीब पर बुलंद कर दिया गया था। तब भी उन की ज़बानों को आराम ना आया। और मरते दम तक उसे तन्हा ना छोड़ा। बल्कि इन्सानियत और मुनासबत सब कुछ बालाए ताक़ रखकर उन्होंने मुँह बनाना और आवाज़े करना शुरू किया। अवामुन्नास ने भी तबई तौर पर उन की नक़्ल करनी शुरू की। यहां तक कि ना सिर्फ सिपाही बल्कि चोर भी जो उस के साथ सलीब पर लटके हुए थे। इस में शरीक हो गए। इसलिए उस की आँखों के सामने ऐसा मालूम होता था, कि गोया ये सारी जमाअत लानत मलामत का समुंद्र है जिसकी ग़ज़बनाक लहरें सलीब के साथ टकरा रही थीं।

      वो अब सब बड़े-बड़े नाम जो उस ने अपनी तरफ़ मन्सूब किए थे। या जिनसे लोग उसे पुकारते थे उसे याद दिलाते थे। और उस की मौजूदा हालत से उस का मुक़ाबला करते थे। “ख़ुदा का बेटा”, “ख़ुदा का बर्गुज़ीदा”, “इस्राईल का बादशाह”, “मसीह”, “यहूदियों का बादशाह”, “तू जो हैकल को ढाने और तीन दिन में बनाने वाला है।” इन नामों से पुकार पुकार कर वो उस का मज़हका उड़ाते थे। वो उसे ललकारते थे। कि अब सलीब पर से उतर आ तो हम तुझ पर ईमान लाएँगे। इस बात को वो बार-बार दुहराते थे। कि उस ने दूसरों को बचाया मगर अपने को नहीं बचा सकता। वो हमेशा से ये कहते थे कि वो शैतान की क़ुद्रत से अपने मोअजिज़े करता था। मगर इन बदरूहों से किसी क़िस्म का ताल्लुक़ रखना निहायत ख़ौफ़नाक बात है। हो सकता है कि वो कुछ अर्से के लिए किसी को अपनी क़ुव्वत मुस्तआर (उधार) दें। लेकिन आख़िर वो उस से अपनी मुँह माँगी क़ीमत तलब करते हैं। और नाज़ुक वक़्त में वो अपने पैरओं को छोड़ जाते हैं। और उन के नज़्दीक येसू के साथ भी ऐसा ही हुआ। अब आख़िरी दम उस का जादू का असा टूट गया। और उस की सारी जादूगरी की ताक़त ज़ाइल (ख़त्म) हो गई।

      जब वो इस तरह से अपने दिल का ज़हर उगल रहे थे। जो मुद्दत से उन के दिलों में जमा हो रहा था। तो उन को इस बात का ख़याल ना आया कि वो दर-हक़ीक़त वही अल्फ़ाज़ इस्तिमाल कर रहे हैं। जो ज़बूर 22 में किसी मज़्लूम के मुख़ालिफ़ उस के हक़ में इस्तिमाल करते हैं। “उस ने ख़ुदा पर भरोसा किया। वो अब उसे छुड़ाए। अगर वह उसे पसंद करता है। क्योंकि वो कहता था, कि मैं ख़ुदा का बेटा हूँ।” सर्द-मिज़ाज मोअर्रिखों (तारीख़दान) ने इस अम्र में शक ज़ाहिर किया है कि आया मुम्किन था कि वो इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ कहते और उनका मतलब नहीं समझते। लेकिन अजीब बात ये है, कि ज़माना हाल ही में एक बात वाक़ेअ हुई है। जो बिल्कुल उसी के मुताबिक़ है जब सोटररलैंड के मुस्लिहीन-ए-दीन (दीन की इस्लाह करने वाले) में से एक शख़्स पोप की अदालत के सामने जवाबदेही कर रहा था। तो सदर-ए-अदालत ने ठीक इन्हीं अल्फ़ाज़ में जो काइफ़ा ने सदर मज्लिस के मैंबरों को कहे थे। उसे टोका। “इस ने कुफ़्र बका। हमें और गवाहों की क्या ज़रूरत है तुम्हारा क्या ख़याल है?।” और उन सबने जवाब दिया कि “वो क़त्ल के लायक़ है।” और जब तक ख़ुद उस शख़्स ने उसे याद दिलाया उन को हरगिज़ मालूम ना हुआ कि वो इन्जील के फ़िक्रात को नक़्ल कर रहे हैं।

      येसू अगर चाहता तो अपने दुश्मनों की इन बातों का जवाब दे सकता था। क्योंकि सलीब पर लटकने वाले के लिए ना सिर्फ सुनना और देखना बल्कि गुफ़्तगु करना भी मुम्किन था। मगर वो एक लफ़्ज़ भी ना बोला। वो गाली खा कर गाली ना देता था। जैसे भेड़ अपने बाल कतरने वालों के आगे बेज़बान है। उसी तरह उसने अपना मुँह ना खोला। मगर उस की ये वजह ना थी, कि वो इन बातों को महसूस ना करता था। उन मेख़ों की निस्बत जो उस के जिस्म में गड़ी हुई थीं। ये अदावत के तीर ज़्यादा तेज़ी के साथ उस के दिल में चुभते थे। दिल-ए-इन्सान ने अपनी निहायत कमीना और तारीक गहराइयाँ उस की आँखों के ऐन सामने खोल कर रख दीं। और उस की तमाम गंदगी उस पर फेंकी गई।

      ये देखकर ताज्जुब (हैरानगी) होता है, कि जब हर तरफ़ से उसे ये कहा जाता था, कि सलीब पर से उतर आ तो क्या ये भी उस के लिए एक क़िस्म की आज़माईश थी? ये कुछ-कुछ उसी क़िस्म की आज़माईश थी जो उस की रिसालत के शुरू ही में उसे पेश आई थी। जब कि शैतान ने उसे हैकल के कंकरे पर ले जा कर कहा था कि यहां से अपने को नीचे गिरा दे। यही आज़माईश मुख़्तलिफ़ सूरतों में उम्र भर उस के पीछे लगी रही। और अब उस की उम्र के आख़िर वक़्तों में फिर उस पर हमला करती है। वो ये ख़याल करते थे, कि उस का सब्र कमज़ोरी की अलामत है। और उस की ख़ामोशी से साबित है कि वो अब हार मान गया है। वो क्यों उस वक़्त अपना जलाल सारे आब व ताब से ज़ाहिर कर के उनका मुँह बंद नहीं कर देता? ऐसा करना उस के लिए कैसा आसान था ! लेकिन नहीं। वो हरगिज़ ऐसा ना कर सकता था। जब उन्होंने ये कलमात इस्तिमाल किए। तो बिल्कुल सच्च कहते थे, कि “उस ने औरों को बचाया। मगर अपने को नहीं बचा सकता।” अगर वह अपने को बचा लेता तो नजात दहिंदा कब होता? लेकिन वो क़ुद्रत जिसने उसे सलीब पर क़ायम और उस से जो सलीब पर से उतर आने के लिए ज़रूरी होती कहीं क़वी (मज़्बूत) तर थी। उसे वो मेख़ें जो उस के हाथों या पांव में जुड़ी थीं। वहां पकड़े हुए ना थीं। और ना वो रस्सियाँ जिनसे उस के बाज़ू बंधे थे। ना वो सिपाही जो नीचे खड़े पहरा दे रहे थे। हरगिज़ नहीं। बल्कि वो ग़ैर मुरई (अनदेखी) पट्टियों, हाँ नजात देने वाली मुहब्बत और इलाही मशीयत (ख़ुदा की मर्ज़ी) की रस्सियों से जकड़ा हुआ था।

      मगर इस बात को उस के दुश्मन कब समझ सकते थे। वो उसे एक निहायत अदना मिक़्यास (पैमाना) से तौल रहे थे। उन के ज़हन में क़ुद्रत का जो ख़याल जागज़ीन (बसा हुआ) था। वो मह्ज़ माद्दी चीज़ों के मुताल्लिक़ था। और जलाल और शान व शौकत उन के नज़्दीक ख़ुदगर्ज़ी का नाम था। उन के ज़हन में जो नजातदिहंदा का ख़याल था, कि वो उन्हें ग़ैर क़ौम की हुकूमत से आज़ाद करेगा। ना ये कि वो गुनाह से रिहाई बख़्शेगा। और आज के दिन भी मसीह कई एतराफ़ से यही पुकार सुनता है, कि “सलीब पर से उतर आ, और हम तुझ पर ईमान लाएँगे।” वो लोग जो रूहानी बातों में बहुत कम समझ रखते हैं। और अपनी नालायक़ी और क़ुद्दूस ख़ुदा की अज़मत और हुक़ूक़ से नावाक़िफ़ हैं। इस क़िस्म की बातें कह उठते हैं। वो गुनाह और सज़ा। कफ़्फ़ारा और नजात के माअनों को नहीं समझते। और वो ये चाहते हैं कि उस की मौत के गहरे माअनों को मसीही मज़्हब में से ख़ारिज कर दिया जाये। तब वो उस पर ईमान ला सकेंगे। वो लोग भी जो अख़्लाक़ी लिहाज़ से बुज़दिल और दुनिया परस्त हैं इसी क़िस्म की बातें कहते हैं। और वो भी ऐसे दीन के ख़्वाहां हैं जिसमें सलीब का नामोनिशान ना हो। अगर मसीही दीन फ़क़त एक अक़ाइद नामा होता जिसे मान छोड़ते। या एक तरीक़ इबादत होता जिसके अदा करने में इन्सान की नज़ाकत व लताफ़त पसंद क़वा (नरम व मुलायम तबइयत) को हज़ (लुत्फ़) हासिल होता। या कोई ऐसी पोशीदा राह होती, जिससे आदमी किसी के देखे बूझे बग़ैर चुप-चाप आस्मान तक जा पहुंचता। तो वो ख़ुशी से ऐसे दीन को क़ुबूल कर लेते। लेकिन चूँकि इस में मसीह का इक़रार करना और उस के लिए मलामत को सहना। उस के हक़ीर व ज़लील लोगों से मिलना-जुलना और उस के मक़्सद के फैलाने में इमदाद करना भी शामिल हैं। इसलिए वो इस से कुछ ग़र्ज़ व वास्ता रखना नहीं चाहते। कोई शख़्स जिसने गुनाह की ज़िल्लत को महसूस कर के ख़ाकसारी और फ़िरोतनी के भेद को मालूम नहीं कर लिया। मसीह की सलीब की कभी इज़्ज़त व तौक़ीर नहीं कर सकता।

(3)

      अब हम एक तीसरी जमाअत की तरफ़ मुतवज्जोह होते हैं। मगर ये जमाअत भी बिल्कुल मुख़्तसर सी है।

      जब मसीह की आँख उन सूरतों के समुंद्र पर, जो उस की तरफ़ उठी हुई थे और जिन पर हर तरह की तहक़ीर व अदावत के आसार नज़र आते थे। इधर-उधर पड़ती रही। तो क्या उसे उन के दर्मियान कोई भी ऐसा नुक़्ता नज़र ना आया, जिससे उस की कुछ तस्कीन होती? हाँ इन तमाम कांटों में भी एक सोसन थी। इस जमाअत से अलग बाहर की तरफ़ उस के जान पहुचानों और उन औरतों की। जो उस के पीछे-पीछे गलील से चली आई थीं। और उस की ख़िदमत करती थीं। एक छोटी सी जमाअत खड़ी थी जहां तक मालूम हो सकता है। उन के क़ाबिल इज्ज़त अस्मा (नाम) ये हैं। मर्यम मग्दलीनी, मर्यम, याक़ूब और यूसीस की माँ, और ज़बदी के बेटों की माँ।

      उन के फ़ासिले पर खड़े होने से ये ज़ाहिर होता है, कि वो ख़ौफ़ की हालत में थीं। अपने को ऐसे शख़्स का रफ़ीक़ (दोस्त) ज़ाहिर करना जिसके ख़िलाफ़ हुक्काम को इस क़द्र नफ़रत और कीना हो। ऐसे मौक़े पर ख़तरे से ख़ाली ना था। और ऐसे वक़्त में उनका अलग-थलग खड़े रहना मुनासिब भी था। जो कुछ उनको दुश्मनों की तरफ़ से ख़ौफ़ था सो तो था। इस के इलावा ख़ुद उन के अपने दिल सख़्त ग़म व अंदोह (दुख, फ़िक्र) से भर रहे थे। अभी तक वो पाक नविश्तों को नहीं समझती थीं। कि ज़रूर है कि वो मुर्दों में से जी उठे। और सारे मुआमले को इस तौर पर ज़ाए होते देखकर जिसमें उन्होंने अपना सब कुछ इस जहान और उस जहान के लिए दे डाला था। उन की हालत दिगर गौं (उलट-पुलट) हो रही थी। उन्हें ये एतिमाद था कि ये वही है, जो इस्राईल को रिहाई बख़्शेगा। और वो इस रिहाई याफ्ता क़ौम पर हमेशा के लिए सल्तनत करेगा। और वही शख़्स यहां उन की आँखों के सामने इस शर्म व बेइज़्ज़ती की हालत में मर रहा था। इस सूरत में भला उन के इस यक़ीन व एतिमाद का क्या ठिकाना था। या यूं कहो कि जो कुछ अब बाक़ी रह गया था। वो फ़क़त उल्फ़त व मुहब्बत थी। जो उन को उस की ज़ात से थी। अगरचे उन के ख़यालात बिल्कुल मुज़्तरिब (बेचैन) और परेशान हो रहे। मगर उन के दिल में उस को अब भी वही जगह हासिल थी। वो उस की दिलदादा (आशिक़) थीं। उस के दुख से उन्हें दुख था। और अगर मुम्किन होता तो वो उस के लिए अपनी जान तक देने में दरेग़ ना करतीं।

      तो क्या ऐसा यक़ीन करना ख़िलाफ़ अक़्ल है कि येसू की आँखें जब तक उन में बीनाई बाक़ी थी उन वहशी सिपाहियों की तरफ़ से जो सलीब के नीचे बैठे थे। और उन बिगड़ी हुई सूरतों के समुंद्र की तरफ़ से हट कर बार-बार उसी जमाअत की तरफ़ फिरती होंगी। एक तरह से तो उन पर नज़र करना दुश्मनों के नफ़रत-अंगेज़ चेहरों की निस्बत उस के लिए ज़्यादा दर्द का बाइस होता होगा। क्योंकि अक्सर देखा गया है, कि हम्दर्दी ऐसे शख़्स के दिल को जो मुख़ालिफ़ों के सामने पत्थर बना रहता है। पाश-पाश (टुकड़े-टुकड़े) कर दिया करती है। मगर तो भी ये हमसायाना हम्दर्दी और ज़नाना मुहब्बत उस के लिए निहायत गहरी तसल्ली और दिलदेही का बाइस साबित होती होगी। इस दुख दर्द की हालत में उसे इस ख़याल से बहुत कुछ तस्कीन मिलती होगी, कि उन तक़्लीफों से किस क़द्र बेशुमार लोग फ़ायदा हासिल करेंगे। मगर यहां उस की आँखों के सामने उस के इस इनाम का बैयाना (पहली क़िस्त) मौजूद था। जिसमें उस ने अपनी जान के दुख का नतीजा देखा और सैर हुआ।

(4)


      इन तीन जमाअतों में हमें मुख़्तलिफ़ क़िस्म की ज़हनी हालतें नज़र आती हैं सिपाहियों में नादर्दी। सदर मज्लिस वालों में बेदर्दी। और गलील वालों में हम्दर्दी। क्या आपके दिल में भी कभी इस क़िस्म का सवाल पैदा हुआ है, कि अगर तुम वहां होते तो इन तीनों में से किस गिरोह में शामिल होते? ये एक बड़ा नाज़ुक सवाल है। अलबत्ता इस वक़्त तो ये बता देना बिल्कुल आसान है, कि उन में से कौन हक़ पर था। और कौन नाहक़ पर। गुज़श्ता ज़माने के उलव-अजम (साबित-क़दम) लोगों को और जो मुआमलात उन्हें पेश आए। तारीफ़ व तहसीन की नज़र से देखना आसान है। मगर इस के साथ ये भी मुम्किन है, कि हम इन बातों को तो पसंद करें। मगर ख़ुद हमारे ज़माने में जो उसी क़िस्म के उमूर वाक़ेअ हो रहे हैं। उन की तरफ़ से बिल्कुल बेपरवा या उन के मुख़ालिफ़ हों। वो रोमी सिपाही भी जो सलीब के नीचे बैठे थे। ज़रूर रोमिलस (बानी रुम) या बुरोटस क़ातिल जुलियस क़ैसर के अज़-हद सना-ख़्वाँ (तारीफ़ करना) होंगे। लेकिन उस शख़्स के लिए जो बिल्कुल उन के पास था। और इन सबसे बड़ा था। उन के दिल में कुछ भी कशिश ना थी। यहूदी जो मसीह की हंसी उड़ा रहे थे। मूसा और समुएल और यसअयाह के बड़े मद्दाह (पसंद करने वाले) थे। मसीह अब भी अपनी सलीब उठाए हुए दुनिया की गली कूचों में से गुज़र रहा है। और लोगों की नज़रों के सामने लटका हुआ उन की हिक़ारत और बदसुलूकी बर्दाश्त कर रहा है। इसलिए कि मुम्किन है, कि हम बाइबल के मसीह के तो मद्दाह व सना-ख़्वाँ हों। लेकिन अपनी सदी के मसीह के मुख़ालिफ़ और दुख देने वाले हों। इस सदी के मसीह से मुराद है मसीह की सच्चाई। उस के उसूल और उस का मुआमला और वो मर्द औरत जिनमें ये बातें मुजस्सम हो रही हैं। हम या तो उन तहरीकों की जिन पर मसीह का दिल लगा हुआ था। मदद कर रहे हैं। या उन्हें रोक रहे हैं। अक्सर औक़ात ऐसा होता है कि लोग इस अम्र को जानने के बग़ैर एक एक जानिब अपने लिए चुन लेते हैं। और वो बराबर तजावीज़ को अमल में लाते या गुफ़्तगु करते या उन पर अमल करते हैं जो या तो मसीह की तरफ़दारी में होती हैं। या उस की मुख़ालिफ़त में। यही हमारे ज़माने में मसीह का दुख उठाना है। और यही हमारे शहर का गलगता है।

      मगर वो इस से भी ज़्यादा हमारे क़रीब है। ज़िंदा मसीह बज़ात ख़ास इस वक़्त भी इस दुनिया में है। वो हर एक दरवाज़े पर आता है। उस की रूह हर एक आदमी की रूह के साथ कश्मकश करती है। और अब भी उस के साथ इन्हीं तीन अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) का सुलूक होता है। यानी नादिर दी। बेदर्दी या हम्दर्दी का। जैसे कि मक़नातीस। जब एक ढेर पर से गुज़रता है, तो उन अश्या को जो उस की कशिश को क़ुबूल करती हैं। इसी तरह ये नजात बख़्श मुहब्बत जो मसीह में ज़ाहिर हुई है। हर सदी में बनी-आदम की सतह पर से गुज़रती रहती है। और इन्सानी दिलों को उन की तहों तक हरकत देने और उन की अंदर ख़ुदा की हम्द और नेकी की ख़्वाहिश पैदा करने की ताक़त रखती है। और वो ख़ुद बख़ुद उस की तरफ़ खिंचे जा कर उस से पैवस्ता (जुड़ना) हो जाते हैं। इस खिंचे जाने का नाम ईमान या मुहब्बत या रूहानियत या जो चाहो रख लो। लेकिन यही अबदियत का मिक़्यास (पैमाना) और कसौटी (नापने का आला) है क्योंकि यही मर्द व औरत को दूसरों में से चुन लेता। और उन्हें हमेशा के लिए ख़ुदा की हयात और मुहब्बत के साथ मुतहद्दिद (इकट्ठा) करता जाता है।

चौधवां बाब
मसीह का पहला कलमा सलीब पर से

      गुज़श्ता बाब में हम इस अम्र पर ग़ौर कर चुके हैं कि मुख़्तलिफ़ जमाअतों पर जो सलीब के पास खड़ी थीं। मसीह के मस्लूब होने से क्या असर पैदा हुआ। उन सिपाहियों पर जिन्हों ने उसे सलीब पर खिंचा कुछ भी असर ना हुआ। वो उस नज़ारे की अज़मत और शान की तरफ़ से जिसमें वो ख़ुद हिस्सा ले रहे थे, बिल्कुल अंधे थे। सदर मज्लिस के शुरका और उन के दीगर रफ़ीक़ों पर एक अजीब व ग़रीब क़िस्म का उल्टा असर हुआ। नेकी और रुहानी हुस्न व ख़ूबसूरती के कामिल मुकाशफ़े ने उल्टा इनके दिल में ग़ज़ब व ग़ुस्सा और मुख़ालिफ़त की तहरीक पैदा की। बल्कि येसू के दोस्तों की जमाअत ने भी जो फ़ासिले पर खड़ी थी। उस नज़ारे की हक़ीक़त को जो उन की आँखों के सामने था। बहुत ही थोड़ा समझा। उन के आक़ा का गुनाह और मौत और दुनिया पर इस तौर पर फ़त्ह हासिल करना उन की नज़र में एक अफ़्सोस नाक शिकस्त से बढ़कर ना था। इसलिए जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूँ। ये बिल्कुल सच्च है, कि जब कोई अज़ीमुश्शान वाक़ेअ ज़हूर में आ रहा हो। तो उस के लिए देखने वाली आँख का होना भी निहायत ज़रूरी है। आईने में जो अक्स पड़ता है। उस की उम्दगी के लिए ना सिर्फ एक चीज़ की ज़रूरत है, जिसका अक्स पड़े। बल्कि साथ ही आईने की जिला (चमक) और सफ़ाई का होना भी एक लाज़िमी है।



14  ऐ बाप उन्हें माफ़ कर दे क्योंकि वो नहीं जानते कि क्या करते हैं।

      मगर हम चाहते हैं, कि उस नज़ारे को जो कल्वरी पर वाक़ेअ हुआ। उस असली सूरत में मुलाहिजा करें। मगर ये कहाँ दिखाई देगी? वहां एक दिल था। जिसमें उस का अक्स निहायत सफ़ाई से पड़ रहा था। अगर हम सलीब के अक्स को ख़ुद येसू मसीह के दिल में देखने की कोशिश करें। तो उस के हक़ीक़ी मअनी समझने मुम्किन हैं।

      लेकिन हम इस अम्र को किस तरह मालूम कर सकते हैं, कि जब वो सलीब पर लटक रहा था। तो ये नज़ारा उसे किस तरह दिखाई देता था? इस का जवाब ये है कि ये उन अल्फ़ाज़ व फ़िक्रात से मालूम हो सकता है। जो उस ने लटकते हुए अपने मरने से पहले फ़रमाए। ये बतौर खिड़कियों के हैं। जिनके ज़रीये हम देख सकते हैं, कि उस के ख़ाना दिल में उस वक़्त क्या गुज़र रहा था। ये तो सच्च है कि ये मह्ज़ छोटे-छोटे टुकड़े हैं। मगर वो निहायत गहरे माफ़ी से मामूर हैं। अल्फ़ाज़ हमेशा अक्सी तस्वीरों का काम देते हैं। जो कम व बेश सफ़ाई के साथ उस शख़्स के दिल की हालत को जिससे वो निकलते हैं, ज़ाहिर करते हैं। उस के अल्फ़ाज़ निहायत सच्चे और रास्त थे। और उन पर इनके बोलने वाले की तस्वीर सब्त थी।

      ये कलमात सात हैं। और इसलिए अगर हम उन पर अलैहदा-अलैहदा ग़ौर व फ़िक्र करें तो हमारे लिए फ़ायदे से ख़ाली ना होगा। बिस्तर-ए-मर्ग पर जो अल्फ़ाज़ कहे जाते हैं। वो सुनने वालों के लिए हमेशा क़ीमती और पर तासीर होते हैं। हमारे वालिद या किसी ख़ास रफ़ीक़ ने बिस्तर-ए-मर्ग पर जो अल्फ़ाज़ हमसे कहे हों। हम उन्हें कभी नहीं भूलते। और मशहूर व माअरूफ़ के आख़िरी अल्फ़ाज़ बड़ी कोशिश से महफ़ूज़ रखे जाते हैं। पाक नविश्तों में हम याक़ूब, यूसुफ़, मूसा और दीगर बुज़ुर्गान की निस्बत पढ़ते हैं, कि इन्होंने अपने बिस्तर-ए-मर्ग पर अपनी मामूली हालत से भी बढ़कर आला ख़यालात ज़ाहिर किए और इनके अल्फ़ाज़ ऐसे मालूम होते थे, कि गोया आलम-ए-बाला से आ रहे हैं। और क़ौमों में मरते दम के अल्फ़ाज़ को एक क़िस्म की नबुव्वत समझा जाता है। अब जो मसीह के मरते दम के कलमात हैं। और जैसे कि उस का तमाम कलाम औरों के मुक़ाबले में सोना और चांदी समझा जाता है। वैसे ही ये कलमात उस के दूसरे कलमात के मुक़ाबले में लअल व जवाहर का रुत्बा रखते हैं।

      पहले कलमे में ये तीन बातें क़ाबिले गौर हैं। अव़्वल ख़िताब, दोम दरख़्वास्त, सोइम दलील।

(1)

      मस्लूब आदमी के लिए सलीब पर से गुफ़्तगु करना कोई ग़ैर-मामूली बात ना थी। मगर उन के अल्फ़ाज़ में उमूमन तो दर्द व तक्लीफ़ का इज़्हार होता था। या रिहाई के लिए बेफ़ाइदा इल्तिजा व दरख़्वास्त होती थी। या वो ख़ुदा पर और उन लोगों पर जिन्हों ने उन्हें इस मुसीबत में डाला लानतें भेजते थे। मगर जोंही येसू को उस बेहोश कर देने वाले सदमे से जो उस के हाथों और पांव में मेख़ें ठोकने से उसे हुआ था। कुछ इफ़ाक़ा हुआ उस के पहले अल्फ़ाज़ एक दुआ की सूरत में थे। और पहला लफ़्ज़ जो उस की ज़बान से निकला, ये था, “ऐ बाप”

      क्या यही लफ़्ज़ उन लोगों के नावाजिब सुलूक पर जिन्हों ने उसे वहां लटकाया था। एक क़िस्म का फ़त्वा नहीं था उन्होंने ये सारी कार्रवाई मज़्हब और ख़ुदा के नाम से की थी।…. मगर उन में से कौन ऐसा था। जिस पर मज़्हब ने ऐसी गहरी तासीर की हो? उन में से कौन था जो दावा कर सके कि उसे ख़ुदा के साथ गहरी और दाइमी रिफ़ाक़त हासिल है? इस से ज़ाहिर है कि दुआ माँगना येसू के लिए ऐसा तबई अम्र हो गया था, कि आदतन उस वक़्त भी उस की ज़बान से वही अल्फ़ाज़ ख़ुद बख़ुद निकल पड़े। जब कभी किसी मुक़द्दमे में, ख़ासकर मज़्हबी मुक़द्दमों में, अगर सज़ा याफ्ता आदमी अपने जजों की निस्बत बेहतर क़िस्म का आदमी हो तो उस मुकदमे की कारवाही में ख़्वाह-म-ख़्वाह शुब्हा पैदा होता है।

      लफ़्ज़ “बाप” से ये भी साबित होता था, कि उस के ईमान व एतिक़ाद में उन सब बातों के सबब जिनमें से वो गुज़र रहा था। और उन तमाम तकालीफ़ के बावजूद वो इस वक़्त भुगत रहा था। हरगिज़ जुंबिश ना हुई थी। जब रास्ती व सदाक़त पांव के नीचे कुचली जाती है। और शरारत व ज़ुल्म की फ़त्ह होती है। तो ईमानदार के दिल में ख़्वाह-म-ख़्वाह ये सवाल पैदा होता है कि आया सच-मुच कोई पुर मुहब्बत और दाना ख़ुदा है जो इस आलम के तख्त-ए-हुकूमत पर बैठा है। या बरख़िलाफ़ इस के क्या ये सब आलम मह्ज़ इत्तिफ़ाक़ व हवादिस (हादिसा की जमा) के ज़ेर हुकूमत है? जब आसूदगी व दफ़अतन बदबख्ती में तब्दील हो जाती है। और ज़िंदगी की तमाम उम्मीदें और तदबीरें चूर-चूर हो कर ज़मीन पर गिर जाती हैं। तो ख़ुदा का फ़र्ज़न्द भी ख़्वाह-म-ख़्वाह इलाही तक़्दीर के ख़िलाफ़ लातें मारना शुरू करता है। बड़े-बड़े औलिया-अल्लाह दर्द और मायूसी की हालत में ख़ुदा की सदाक़त पर ऐसे ऐसे अल्फ़ाज़ में गिला शिकवा करने लगे हैं। जिनका दुहराना मुनासिब नहीं मालूम होता। लेकिन जब येसू की हालत निहायत ही ख़राब हो रही थी। जब गर्गनुमा (भेड़िया) आदमी उस का तआक्कुब (पीछा) कर रहे थे। जब वो दर्द व हलाकत के अथाह समुंद्र (गहरा समुंद्र) में ग़र्क़ (डूबना) हो रहा था। तो उस वक़्त भी उस की ज़बान से यही निकला कि “ऐ बाप”

      ये ईमान का गोया आला उरूज (बुलंदी) था। और हमेशा के लिए एक मिसाल व नमूना ठहरेगा। क्योंकि इस वक़्त ईमान का बड़ी अज़मत के साथ बोल-बाला हुआ अगर कभी ज़ाहिरन ऐसा मालूम हुआ कि गोया ख़ालिक़ ने कश्ती-ए-आलम के पतवार पर से अपना हाथ उठा लिया है। और इन्सानी कारोबार घबराहट व परेशानी की तरफ़ बसरात (तेज़ी से) जा रहे हैं। तो ऐसा ख़याल करना इस वक़्त बर-महल (मुनासिब) था। जब कि वो शख़्स जो अख़्लाक़ी हुस्न व ख़ूबी का मुजस्सम नमूना था। एक चोर और बदकिर्दार की शर्मनाक मौत सह रहा था। क्या नेकी ज़ुल्म व शरारत के ऐसे गहरे गढ़े से कभी निकल सकती है? मगर सारी दुनिया की नजात इस में से निकली वहां सफ़ा-ए-तारीख़ पर जो बात सबसे ज़्यादा शरीफ़ व नजीब (बुज़ुर्ग) समझी जाती है। वो इसी गढ़े में से बरामद हुई। ख़ुदा के फ़रज़न्दों के लिए एक निहायत उम्दा सबक़ है कि ख़्वाह कुछ ही हो। उन्हें हरगिज़ मायूस नहीं चाहिए। हर तरफ़ तारीकी क्यों ना छा जाये। सब मुआमला तबाह बर्बाद होता हुआ क्यों ना नज़र आए। ख़ुदा के तख़्त पर बदी का तसल्लुत (क़ब्ज़ा) क्यों ना मालूम हो। तो भी यक़ीन जानो कि ख़ुदा मौजूद है। वो ज़माना-ए-हाल के फ़साद व ग़ौग़ा (शोर) से बुलंद व बाला तख़्त नशीन है। और तारीकी के पेट में से जाँफ़िज़ा (ताज़गी देने वाली) सुब्ह-ए-सादिक़ को ज़रूर तुलूअ करेगा।

(2)

      दुआ जो इस ख़िताब के बाद निकली वो और भी ज़्यादा अजीब है। इस दुआ में वो अपने दुश्मनों के लिए माफ़ी का ख़्वास्तगार हुआ।

      गुज़श्ता अबवाब में हम देख चुके हैं, कि वो अपनी गिरफ़्तारी के वक़्त से लेकर उन के हाथों किस-किस ईज़ा व बदसुलूकी का मौरिद (निशाना) बना रहा। किस तरह शागिर्द पेशा लोगों ने उसे मारा और उस की बेइज़्ज़ती की। किस तरह सरदार काहिनों ने उस के फँसाने के लिए कानून को तोड़ा मरोड़ा। किस तरह हेरोदेस ने उस की बे-हुरमती की। किस तरह पीलातुस उस के मुआमले में पस व पेश करता रहा। किस तरह अवामुन्नास उस पर आवाज़े कसते रहे। जब यके बाद दीगरे हम एक कमीनगी व बद-अतवारी के नीचे दूसरी ज़ाहिर होते देखते हैं तो हमारे दिल गु़स्से से भर जाते हैं। और हम बड़ी मुश्किल से उन से उन के हक़ में सख़्त-ज़बानी इस्तिमाल करने से अपनी तबीयत को रोकते हैं। मगर इन सब बातों पर येसू के मुँह से जो कलमा निकला वो यही था कि “ऐ बाप उन्हें माफ़ कर”

      अलबत्ता वो इस से बहुत अर्से पहले लोगों को ये तालीम दे चुका था कि “अपने दुश्मनों से मुहब्बत रखो। जो तुमसे अदावत रखें उनका भला करो जो तुम पर लानत करें उन के लिए बरकत चाहो। जो तुम्हारी बेइज़्ज़ती करें। और तुम्हें सताएं उन के लिए दुआ माँगो।” मगर ये अख़्लाक़ी तालीम जो उस ने अपने पहाड़ी वाअज़ में दी। उस वक़्त अहले-दुनिया के नज़्दीक एक दिल पसंद ख्व़ाब व ख़याल से बढ़कर रुत्बा नहीं रखती थी। और अब भी लोग ऐसा ही ख़याल करते हैं। ऐसे बहुत से मुअल्लिम गुज़रे हैं। जो इसी क़िस्म की बातें कह गए हैं। मगर तालीम देने और उस पर अमल करने में किस क़द्र बड़ा फ़र्क़ है जब तुम्हें किसी मुसन्निफ़ के ख़यालात बहुत ही उम्दा और शीरीं मालूम हों। तो अक्सर सूरतों में बेहतर होगा, कि तुमको उस शख़्स की निस्बत और ज़्यादा हालात मालूम ना हों। क्योंकि अगर तुम उस की ज़िंदगी के हालात से वाक़िफ़ होगे। तो तुम्हें निहायत अफ़्सोस होगा। क्या ख़ुद हमारे ज़माना-ए-हाल के इल्म व अदब के मुतालआ करने वाले हमारे इंशा प्रदाज़ों की ज़िंदगी के हालात का मुतालआ करने से ख़ाइफ़ (परेशान) नहीं हैं। ताकि ऐसा ना हो कि जो ख़ूबसूरत और दिल-फ़रेब ख़यालात के सिलसिले उन की तहरीरों में से चुन-चुन कर जमा किए गए हैं। ख़ुद उन की ज़िंदगी की ख़राबियों के मुतालए से बेमज़ा ना मालूम होने लगें? मगर येसू जो तालीम देता था, उस के मुताबिक़ अमल भी करता था। सारे बनी आदमी में वही एक ऐसा मुअल्लिम है। जिसके ख़याल और फ़ेअल में कामिल इत्तिफ़ाक़ है। उस की तालीम निहायत ही आला और बुलंद पाया है। ऐसी कि बाअज़ औक़ात ये समझा जाता है, कि वो इस दुनिया के लोगों के लिए हद से ज़्यादा बुलंद है। लेकिन जब हम उस के आमाल को देखते हैं। तो वो तालीम कैसी अमली मालूम होती है। जब उस ने सलीब पर से ये दुआ मांगी कि “ऐ बाप! उन्हें माफ़ कर दे” तो उस ने साबित कर दिया कि उस का अमल-दर-आमद इस ज़मीन पर बिल्कुल अहाता इम्कान (जिस पर अमल करना मुम्किन हो) में है।

      शायद हम में से चंद ही लोग इस अम्र से वाक़िफ़ होंगे, कि माफ़ करना क्या है। हमारे साथ बहुत कम कोई शख़्स ऐसी सख़्त बदसुलूकी करता है। ग़ालिबन हम में से कई ऐसे होंगे। जिनका दुनिया-भर में एक भी दुश्मन ना हो। मगर जिनके दुश्मन हैं। वही ख़ूब जानते हैं, कि उन को माफ़ करना कैसा सख़्त मुश्किल है। शायद उन के नज़्दीक इस से बढ़कर कोई चीज़ मुश्किल ना होगी। तबई तौर पर दिल-ए-इन्सान को इंतिक़ाम लेना निहायत मीठा मालूम होता है। क़दीम दुनिया का कम से कम अमल के लिहाज़ से ये क़ानून था कि “अपने हम-साए से मुहब्बत रखो। और अपने दुश्मन से अदावत” अहदे-अतीक़ के मुक़द्दस लोगों की बाबत हम यही पढ़ते हैं कि वो अपने दुश्मनों पर जिन्हों ने उन्हें ईज़ा (तक्लीफ़) पहुंचाई। निहायत सख़्त अल्फ़ाज़ में लानत भेजते हैं। अगर येसू भी इन्हीं लोगों के नमूने पर चलता। और सलीब पर जब उस की ज़बान में गोयाई की ताक़त आई। तो अपने आस्मानी बाप से ऐसे तौर पर गिला करता। जिसमें अपने दुश्मनों का ऐसे अल्फ़ाज़ में जिनके वो मुस्तहिक़ थे ज़िक्र करता। तो कौन उस की इस बात में नुक़्स निकालने का हौसला करता? ये भी ख़ुदा के मुकाशफ़े के मुताबिक़ ठहरता। क्योंकि इलाही ज़ात में गुनाह के ख़िलाफ़ ग़ज़ब की आग बराबर भड़क रही है। मगर ये मुकाशफ़ा उस मुकाशफ़े के मुक़ाबले में जो उस ने अब हमें दिया है। कैसा अदना और नाचीज़ होता। वो अपनी ज़िंदगी-भर ख़ुदा का मुकाशफ़ा हमें देता रहा। लेकिन अब इस का वक़्त तंग था। और अब वो उसे जो ख़ुदा का आला से आला मुकाशफ़ा था। हम पर ज़ाहिर करने को था।

      इस कलमे में मसीह ने अपने आपको भी ज़ाहिर कर दिया। मगर साथ ही उस ने अपने बाप को भी ज़ाहिर किया। उस की सारी ज़िंदगी-भर बाप उस में था। मगर सलीब पर इलाही ज़िंदगी और ख़सलत (फ़ित्रत, आदत) उस की इन्सानी फ़ित्रत में से ऐसी दरख़शां (रोशन) हुई जैसे आग जलती हुई झाड़ी में नुमायां हुई थी। उस ने इन अल्फ़ाज़ में कि “ऐ बाप उन्हें माफ़ कर।” अपने को ज़ाहिर कर दिया। मगर इस क़ौल के क्या मअनी थे? यही कि ख़ुदा मुहब्बत है।

(3)

      मरते हुए मुंजी (नजात दहिंदा) ने अपनी दुआ व मुनाजात के साथ अपने दुश्मनों की माफ़ी के लिए एक सबब या वजह भी बयान की। “क्योंकि वो नहीं जानते कि क्या करते हैं।”

      इस फ़िक़्रह से हमको इलाही मुहब्बत की गहराइयाँ और भी ज़्यादा सफ़ाई से नज़र आती हैं। मज़्लूम व ईज़ा रसीदा लोग मुकदमे के एक ही पहलू को देखा करते हैं। जो उन के हस्बे- मतलब होता है। और वो फ़क़त उन्हीं वाक़िआत पर नज़र करते हैं। जिनसे उन के ईज़ा देने वालों का चाल-चलन निहायत क़ाबिले नफ़रीन (मज़म्मत, लानत) मालूम हो। मगर बरख़िलाफ़ उन के येसू ठीक उस वक़्त जब कि उस का दुख दर्द निहायत ज़ोरों पर था। वो अपने दुश्मनों की बद-अतवारी के लिए माअज़िरत कर रहा था।

      मगर यहां ये सवाल पैदा होता है कि किस हद तक ये माअज़िरत उन लोगों के हक़ में सादिक़ आती थी। क्या उन सब के हक़ में ये कहना दुरुस्त हो सकता है कि वो नहीं जानते थे, कि वो क्या कर रहे थे? क्या यहूदा नहीं जानता था? क्या सरदार काहिन नहीं जानते थे? क्या हेरोदेस नहीं जानता था? ज़ाहिरन ऐसा मालूम होता है कि उन सिपाहियों के हक़ में जिन्हों ने उसे सलीब पर खिंचा, येसू के ये अल्फ़ाज़ कहे गए थे। क्योंकि ये उन के इस काम के सरअंजाम करने के मौक़े पर जैसा कि मुक़द्दस लूक़ा के बयान से वाज़ेह होता है कहे गए थे। वो जाहिल और नीम-वहशी सिपाही जो मह्ज़ सरकारी हुक्म की तामील कर रहे थे। येसू के सारे हमला-आवरों में से कम गुनेहगार थे। शायद इनसे दूसरे दर्जे पर पीलातुस था। और इस के बाद हेरोदेस और सदर मज्लिस से लेकर यहूदाह की कमीना कार्रवाई तक गुनाह के मुख़्तलिफ़ मदारिज थे। मगर मुक़द्दस पतरस ने अपनी तक़रीर में जो आमाल की किताब के शुरू में दर्ज है। इस जहालत व नावाक़फ़ी के उज़्र में सदर मज्लिस वालों तक को शामिल कर लिया। और ऐ भाइयो! मैं जानता हूँ कि तुमने ये काम नादानी से किया। और ऐसा ही तुम्हारे सरदारोँ ने भी। और कौन इस बात को मानेगा, कि नजातदिहंदा का दिल अपने शागिर्द की निस्बत कम वुसअत (गहराई) रखता था।

      हमें नहीं चाहिए कि इलाही रहमत के लिए हदें मुक़र्रर कर दें। हर एक गुनेहगार के हक़ में किसी हद तक यही कहा जा सकता है कि वो नहीं जानता कि क्या करता है। और सच्चे ताइब के लिए जब वो तख्त-ए-रहमत के क़रीब आता है। इस अम्र का यक़ीन बड़ी तसल्ली का बाइस होता है, कि उस का ये उज़्र क़ुबूल किया जाएगा। ताइब पौलूस को इस से बड़ी तसल्ली हासिल हुई। क्योंकि वो लिखता है कि “मुझ पर रहम हुआ। इसलिए कि मैंने बेईमानी की हालत में नादानी से ये काम किए थे।” ख़ुदा हमारी सारी कमज़ोरियों और अंधेपन से वाक़िफ़ है। आदमी तो इन बातों से क़त-ए-नज़र नहीं करेंगे और ना इन्हें समझने की कोशिश करेंगे। मगर वो इन सब बातों को समझ लेगा। अगर हम गुनाह के बाद अपना सर उस की गोद में जा छुपाएंगे।

      अलबत्ता ये मुम्किन है कि इस मुबारक सच्चाई को एक ना-ताइब (तौबा ना करने वाला) शख़्स इस क़द्र उल्टा दे कि उसे अपने लिए नुक़्सान का बाइस ठहराए। ये फ्रांसीसी कहावत बिल्कुल ग़लती पर मबनी है। जो कहती है कि “सब बातों को समझ लेना सब बातों को माफ़ कर देना है।” क्योंकि इस का मतलब ये है कि आदमी बैरूनी हालात के पंजे में गिरफ़्तार है और वो अपने अफ़आल के लिए ज़िम्मेदार नहीं। मगर हमारे ख़ुदावन्द के ज़हन से इस क़िस्म के ख़यालात कोसों दूर थे। जैसा कि उस के इस क़ौल से ज़ाहिर है कि “उन्हें माफ़ कर दे।” वो जानता था कि वो अफू (माफ़ी) के हाजतमंद हैं। जिसका मतलब ये है कि वो पहले मुजरिम थे। फ़िल-हक़ीक़त ये उन की ख़तरनाक हालत का इल्म था। जिसमें वो बासबब अपने जुर्म के गिरफ़्तार थे। जिसके सबब वो उस वक़्त अपने तमाम दर्द व तक्लीफ़ को भूल गया। और अपने को उन के और उन की सज़ा के दर्मियान डाल दिया।

      ये सवाल किया जाता है कि “क्या ये दुआ क़ुबूल हुई” क्या उस के सलीब देने वाले माफ़ किए गए? इस का जवाब ये है कि मग़्फिरत (माफ़ी) की दुआ की क़बूलियत के लिए उन लोगों की शमूलियत भी ज़रूरी है। जिनके हक़ में वो दुआ की जाये अगर वो सच्ची तवज्जोह कर के अपने गुनाहों के लिए ख़ुद माफ़ी के ख़्वास्तगार ना हों। तो ख़ुदा किस तरह उन्हें अफ़ू (माफ़) कर सकता है? इसलिए येसू की दुआ का ये मतलब था, कि उन्हें तौबा की मोहलत दी जाये। और तक़्दीर इलाही और वाअज़ व नसीहत उन पर अपना काम कर के उन की ज़मीरों को जगा दे। ऐसे बड़े ख़ौफ़नाक जुर्म की सज़ा देने के लिए जैसा कि इब्ने-अल्लाह को मस्लूब करना है। ख़ुदा अगर चाहता तो उसी वक़्त ज़मीन को हुक्म देता कि अपना मुँह खोल कर उन्हें निगल ले। मगर इस क़िस्म की कोई बात वाक़ेअ ना हुई। जैसा कि येसू ने पैशन गोई की थी। यरूशलेम बाहाल ख़स्ता व ख़राब बर्बाद हो गई। मगर ये बात भी उस की वफ़ात के चालीस साल पीछे वाक़ेअ हुई। और इस असना (अर्से) में पंतीकोस्त के मौक़े पर रूह-उल-क़ुद्स का नुज़ूल हुआ। रसूलों ने आस्मानी बादशाहत के क़ायम होने की मुनादी यरूशलेम में कर के बड़े इसरार से क़ौम को तौबा की तर्ग़ीब व तहरीस दी। और उन की मेहनत भी बेफ़ाइदा ना गई। … क्योंकि हज़ारों लोग ईमान लाए। बल्कि पेश्तर इस के कि सलीब का वाक़ेअ ख़त्म हुआ। दोनों चोरों में से जो मसीह के साथ मस्लूब हुए थे। एक चोर जो पहले मसीह को गालियाँ देने में शरीक था ईमान ले आया। और सूबेदार ने जो सलीब देने पर मुतअय्यीन (मुक़र्रर) था। इस अम्र का इक़रार किया कि वो दर-हक़ीक़त इब्ने-अल्लाह है। जब सब कुछ ख़त्म हो चुका। तो लोग जो तमाशा देखने को आए थे। छाती पीटते हुए अपने घर को वापिस गए। इसलिए हमारे पास इस अम्र में शुब्हा करने की कोई वजह नहीं कि इन मअनों में भी उस की दुआ दर-हक़ीक़त पाया क़ुबूल को पहुंची।

      मगर ये इस क़िस्म की दुआ थी जिसकी क़बूलियत दूसरे तौर पर हो सकती है। इलावा इस अम्र के कि दुआ के ज़रीये ख़ास ख़ास हाजतें जिनके लिए दुआ की जाती है, पूरी हों। वो दुआ करने वाले की अपनी रूह पर भी एक ख़ास असर पैदा करती है। यानी उसे तसल्ली व तस्कीन बख़्शती और रुहानी क़ुव्वत अता करती है। अगरचे बाअज़ ग़लती से ये ख़याल कर बैठते हैं कि दुआ से फ़क़त इसी क़द्र नफ़ा हासिल होता है। और इस तौर से इस अम्र के मुन्किर (इन्कार करने वाले) हैं कि ख़ुदा हमारी दरख़्वास्तों पर भी लिहाज़ करता है। ताहम हमें जो ये यक़ीन करते हैं कि दुआ से बहुत कुछ काम निकलता है। इस अम्र को नज़र अंदाज़ नहीं करना चाहिए। ये दुआ मांगने से कि इस के दुश्मन माफ़ किए जाएं। येसू ने ग़ुस्से और इंतिक़ाम की रूह को अपने से दूर हटा दिया। जो उस वक़्त इस के दिल में घुसी चली आती होगी। और अपने रूह के इत्मीनान व चैन को बरक़रार रखा। ख़ुदा से उन की मआनी के लिए दुआ करना गोया अपने दिल से उन्हें माफ़ कर देने की कोशिशों की तक्मील थी। जो शख़्स दूसरों को माफ़ करता है अपने दिल में एक क़िस्म की रिहाई और इत्मीनान को महसूस करता है। हमारे नज़्दीक इस दुआ की मक़बूलियत किसी क़द्र इस अम्र से भी साबित होती है, कि ज़माने बाद ज़माना मज़्लूम और रुस्तम रसीदा आदमी इसी दुआ को दोहराते रहे हैं। सबसे पहले मुक़द्दस स्तफ़नस ने जब वो मरने के क़रीब था। तो अपने उस्ताद की मानिंद ये अल्फ़ाज़ कहे कि “ख़ुदावन्द ! ये गुनाह उन के हिसाब में ना लिखना” और उस के बाद और सैंकड़ों आदमियों ने भी ऐसा ही किया है। और दिन-ब-दिन यही दुआ इस दुनिया में उस तल्ख़ी की मिक़दार को घटाती जाती है। और उस की जगह मुहब्बत की मिक़दार को तरक़्क़ी देती जाती है।

पंद्रहवां बाब
दूसरा कलमा सलीब पर से

      ये नहीं बताया गया कि ये किस का इंतिज़ाम था कि येसू को दो चोरों के दर्मियान सलीब पर लटकाया गया। मुम्किन है कि ये पीलातुस का हुक्म था। जो इस तौर से उस तज़हीक व तहक़ीर को बढ़ाना चाहता था। जो कुतबे की तर्ज़ तहरीर से जो सलीब पर लिखा गया था। उस का मक़्सूद मालूम होता है। या शायद इस अम्र के ज़िम्मेदार यहूदी हुक्काम थे। जो गलगता तक बराबर हमराह चले आए थे। उन्होंने सिपाहियों को कह कहा कर उसे ज़्यादा ज़लील करने की ग़र्ज़ से इस तौर पर सलीब देने की तर्ग़ीब दी होगी। या सिपाहियों ने ख़ुद बख़ुद ऐसा कर दिया हो। सिर्फ इस ख़याल से कि वो तीनों क़ैदियों में से ज़्यादा क़ाबिल लिहाज़ मालूम होता था। अग़्लब (मुम्किन) (यक़ीनी) ये है कि इस में किसी ना किसी की शरारत ज़रूर थी। मगर इन्सान के ग़ज़ब के अक़ब (पीछे) में एक इलाही मक़्सद था। ख़ुदावन्द की ज़मीनी ज़िंदगी की इन आख़िरी घड़ियों में बार-बार ये अम्र सामने आता है कि किस तरह हर एक लफ़्ज़ या काम जो येसू को ईज़ा देने या बेइज़्ज़त करने के लिए कहा या किया गया। बजाए इस के हमारी नज़रों में जब हम पीछे लौट कर देखते हैं। बिल्कुल इज़्ज़त व ख़ूबी में बदला हुआ मालूम होता है। और उस पर एक सितारे की मानिंद चमकता हुआ नज़र आता है। जैसे कि आग कोइले के एक बद-नुमा ढेले को या कूड़े क्रकट के ढेर को जो इस में फेंका जाता है लेकर एक बुक़अ नूर (वो मकान जिसमें बहुत ज़्यादा रोशनी हो) में तब्दील कर देती है। इसी तरह इस वक़्त मसीह के अंदर कोई ऐसी बात थी। जिससे हर एक गाली या ताना जो उस की बेइज़्ज़ती के लिए दिया जाता था। उस के लिए इज़्ज़त का बाइस बन जाता था। बल्कि इस बात ने उस के सलीब दिए जाने के छोटे छोटे वाक़िआत को भी गहरे माअनों से भर दिया। कांटों का ताज, अर्ग़वानी लिबास, पीलातुस का ये कहना कि “देखो इस आदमी को” कुतबा का मज़्मून जो सलीब पर लगाया गया। तमाशाइयों की आवाज़े। और दूसरे इसी क़िस्म के वाक़िआत जो उस वक़्त शरारत व बदी से पुर नज़र आते थे। अब ये सब उस के आशिक़ों के हाफ़िज़े में क़ीमती जवाहरात की तरह महफ़ूज़ हैं।



15  तू आज मेरे साथ फ़िर्दोस में होगा।

      पस उस का चोरों के दर्मियान लटकाया जाना। आदमी और ख़ुदा दोनों की तरफ़ से ठहराया हुआ था। और यही उस का सही मुक़ाम था। लोग इस से बहुत अर्सा पहले उसे “महसूल लेने वालों और गुनेहगारों का दोस्त” पुकारा करते थे। और अब उसे दो चोरों के दर्मियान सलीब देकर उन्होंने इसी ख़याल को अमली सूरत में दिखा दिया। लेकिन जैसे कि ये नाम जो तम्सख़र के तौर पर उस की तरफ़ मन्सूब किया गया था। उस के लिए अबदी इज़्ज़त का बाइस ठहरा है। इसी तरह ये काम भी। येसू इस दुनिया में आया ताकि अपने को गुनेहगारों के साथ एक कर दे। उनका मुकदमा उस का मुकदमा था। और उस ने उन की क़िस्मत को अपना बना लिया। उस ने उन के दर्मियान ज़िंदगी बसर की। और अब ये मुनासिब था कि वो उन्हीं के दर्मियान जान भी दे। आज के दिन तक वो उन्हीं के दर्मियान है। और उन दोनों चोरों का जिनके दर्मियान वो लटका हुआ था। अजीब सुलूक इस अम्र का निशान देता है, कि उस से लेकर आज तक हर रोज़ क्या होता है। बाअज़ गुनेहगार उस पर ईमान ला कर नजात पा गए। मगर और हैं जो उस पर ईमान नहीं लाते। एक के लिए उस की इन्जील जीने के लिए ज़िंदगी की बू है। दूसरे के वास्ते मरने के लिए मौत की बू है। और आख़िर तक यही हाल रहेगा। और उस अज़ीमुश्शान रोज़ को जब कि इस दुनिया की सारी तारीख़ का आख़िरी वर्क़ उल्टा जाएगा। वो उस वक़्त भी हमारे दर्मियान में होगा। और तौबा करने वाला उस की एक जानिब होगा। और ना तौबा करने वाला उस की दूसरी जानिब।

      लेकिन ये सिर्फ़ इसी तौर पर नहीं था, कि इलाही हिक्मत ने इन पर पुर अज़ तौहीन वाक़िआत को कि येसू ख़ताकारों में शुमार किया गया। किसी आला मक़्सद के लिए इस्तिमाल किया। इस से उसे ये मौक़ा मिला कि इस आख़िरी वक़्त में भी वो अपने दिल की फ़य्याज़ हौसलगी और अपनी रिसालत के असली मुदआ (मक़्सद) को ज़ाहिर कर सके। और एक ऐसे वक़्त में जब कि वो इस का बहुत ही हाजतमंद (ज़रूरतमंद) था। उस के लिए एक ऐसा पियाला मुहय्या कर दिया। जो ज़िंदगी-भर उस के लिए निहायत ही फ़हर्त बख्श था। और ये पियाला लोगों के साथ नेकी करने की ख़ुशी का पियाला था। जैसे कि मुस्रिफ़ बेटे की तम्सील मसीह के सारे वाअज़ व तालीम का लुब्ब-ए-लुबाब है। इसी तरह सलीब पर एक चोर को नजात बख़्शना मसीह की सारी ज़िंदगी का ख़ुलासा है।

(2)

      मालूम होता है कि सदर मज्लिस वालों के नमूने की पैरवी कर के दोनों चोरों ने उसे बुरा भला कहना शुरू किया था। मगर इस अम्र में कई अश्ख़ास को शुब्हा वाक़ेअ हुआ है। बल्कि बहुतों ने तो इस मुश्किल की बिना पर इस अम्र से इन्कार कर दिया है, कि किस तरह मुम्किन है कि दफअतन (फ़ौरन) इस क़द्र इन्क़िलाब वाक़ेअ हो। और ऐसे चोर का दिल ऐसे थोड़े से वक़्त में तब्दील हो जाये। दो इन्जील नवीसों ने लिखा है, कि वो जो उस के साथ सलीब पर खींचे गए थे, उसे बुरा भला कहते थे। लेकिन सिर्फ नहव (ग्रामर) के क़ायदादे (उसूल) के मुवाफ़िक़ इस की इस तौर पर तश्रीह करना भी जायज़ है, कि इस से सिर्फ एक ही शख़्स मुराद हो। क्योंकि बाज़ औक़ात एक काम सारी जमाअत की तरफ़ मन्सूब किया जाता है। हालाँकि उस से मुराद उस जमाअत का सिर्फ एक शख़्स होता है। ताहम ज़ाहिरी अल्फ़ाज़ से साफ़ ये मतलब निकलता है कि दोनों ने ऐसा किया। अग़्लब (मुम्किन) ये मालूम होता है कि उस ने जो ताइब ना हुआ। इस बात को छेड़ा होगा। और दूसरा भी इस में उस के साथ शामिल हो गया। मह्ज़ अपनी ख़्वाहिश से नहीं। बल्कि फ़क़त अपने बदतीनत रफ़ीक़ (बुरी फ़ित्रत वाला साथी) के बुरे नमूने के सबब। ग़ालिबन ये पहला मौक़ा नहीं था कि वो इस तौर से गुनाह करने पर राग़िब हुआ। शायद उस का रफ़ीक़ ही उस का बिगाड़ने वाला था। जिसने उसे तबाह बर्बाद कर के इस नौबत को पहुंचाया था।

      मगर इस से बढ़ कर शरारत और बदमाशी की हद क्या होगी कि एक आदमी मरते वक़्त भी अपनी आख़िरी घड़ियों को अपने हमरा ही मरने वाले के हक़ में बुरी भली बातें कहने में सर्फ करे। अलबत्ता ये तो ज़ाहिर है कि दर्द की सख़्ती ने इन मस्लूबों को इस अम्र से बिल्कुल बेपर्वा बना दिया, कि वो मुँह से क्या बकते हैं। और इस तौर से किसी काम में। ख़ासकर जब वो इस क़िस्म का दुरुश्ती आमेज़ (बेरहमी) काम हो। अपने को मशग़ूल करना गोया किसी हद तक उस जानकनी के अज़ाब से ख़लासी पाना था। कुछ पर्वा नहीं कि वो कौन सी चीज़ है जिस पर हमला किया जाये। क्योंकि उन की हालत हैवानों की सी हो रही थी। जो सख़्त दर्द की हालत में जो कुछ सामने आए। उसे काट बैठते हैं। इस ग़ैर-ताइब चोर की यही हालत थी। मगर दूसरा चोर ख़ौफ़-ज़दा हो कर अपने हम-राही का साथ छोड़ गया। उस के गुनाह के हद से बढ़ जाने ने उसे उस की तरफ़ से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले, बदज़न) कर दिया। और शायद अपनी सारी उम्र में पहली दफ़ाअ उस ने देख लिया कि वो कैसा कमीना और कम्बख़्त है। और ये बात येसू के तहम्मुल और इत्मीनान तबा (फ़ित्रत) को देखकर और भी ज़्यादा उस पर नुमायां हो गई। अब तक तो वो अपने वहशी दोस्त को अपना नमूना ठहराता रहा था। लेकिन अब उस ने देख लिया कि उस की वहशयाना दिलेरी मसीह के पर इत्मीनान तहम्मुल व बुर्दबारी के मुक़ाबले में कैसी हीच (कमतर) है।

      इस फ़ौरी इन्क़िलाब व तब्दीली की माक़ूल वजह ढ़ूढ़ने में लोगों ने इस अम्र के इम्कान को फ़र्ज़ करने की कोशिश की है कि इस से पहले भी मसीह और चोर में कई मुलाक़ातें हुई होंगी। मगर ये ज़्यादा क़रीन-ए-क़ियास है, कि हम उस चाल चलन का मुफ़स्सिल तौर से ज़िक्र करें। जो सलीब दिए जाने के वक़्त से जब कि वो एक दूसरे से मलाकी (मुलाक़ात होना) हुए। उस चोर ने मसीह के रवैय्ये में क्या मुलाहिज़ा किया होगा। उस ने उसे अपने दुश्मनों के हक़ में दुआ करते सुना था। जब वो कल्वरी की तरफ़ जा रहे थे। तो उस ने उन अल्फ़ाज़ को जो उस ने यरूशलेम की बेटियों से मुख़ातिब हो कर फ़रमाए थे, सुना था। उस के दुश्मनों ने सलीब के पास खड़े हो कर जो बातें कहीं। जब उन नामों को याद दिला कर जिनका वो दावेदार था। या लोगों ने उस की तरफ़ मन्सूब किए थे। वो उसे लानत मलामत कर रहे थे। इन्हीं बातों से उसे मालूम हो गया होगा, कि येसू के दआवे (दावा की जमा) क्या थे। शायद पीलातुस के रूबरू जो माजरा गुज़रा। उस ने वो सब भी देखा होगा। मगर जब इन मुआमलात से भी परे जाने की कोशिश करते हैं। तो हमें इस अम्र के मुताल्लिक़ कोई मोअतबर शहादत नहीं मिलती। क्या उस ने कभी येसू की वाअज़ व नसीहत सुनी थी? क्या उस ने कभी उस के मोअजिज़े देखे थे? भला वो उस बादशाहत की माहियत (असलियत) से जिसका वो ज़िक्र किया करता था, कहाँ तक वाक़िफ़ था? इन सवालों के जवाब में लोगों ने बहुतेरे ख़याल के घोड़े दौड़ाए हैं। मगर उनका कोई भी सबूत नहीं है। मगर मैं ज़्यादा वसूक़ (यक़ीन) के साथ इस से भी परे जाने पर आमादा (राज़ी) हूँ। मुम्किन है कि उस के वालदैन दीनदार लोग थे। और वो मुस्रिफ़ बेटे की तरफ़ बुरी सोहबत में पड़ कर आवारा हो गया था। शायद यही आदमी जिसके साथ वो सलीब पर खींचा हुआ था। उस की ख़राबी का ज़रीया था। जैसे कि येसू की सलीब के नीचे एक माँ रो रही थी। मुम्किन है कि उस की सलीब के नीचे भी एक माँ खड़ी हो जिसकी दुआएं ऐसे तौर पर पाया क़बूलियत को पहुँचें जिनका उसे शान व गुमान भी ना था।

      फ़ौरी इन्क़िलाब या दिल की तब्दीली के मसअले पर दोनों जानिब से ऐसे जोश व ख़ुरोश से बह्स व मुबाहिसा होता रहा है कि लोग अस्ल वाक़िआत को नज़र-अंदाज कर देते हैं। एक मअनी में तो हमारे दर्मियान इस क़िस्म की बात का वाक़ेअ होना क़रीबन नामुम्किन हो गया है। फ़र्ज़ करो कि एक शख़्स इसी किताब का मुतालआ करते हुए इस अम्र को महसूस करे कि उस ने अभी तक सारे दिल व जान से अपने को ख़ुदा के हवाले नहीं कर दिया और दूसरा वर्क़ उलटने से पहले अपने को ख़ुदा के हवाले कर दे। तो क्या इसे फ़ौरी तब्दीली कहना जायज़ होगा? क्योंकर नहीं? इसलिए कि इस क़िस्म की तब्दीली उस के दिल में साल-हा-साल से जारी रही है। वो सारी मज़्हबी तालीम जो बचपन से तुम्हें मिलती रही है। जो दुआएं तुम्हारे हक़ में मांगी गई हैं। जो पंदो नसीहत (हिदायतें) तुम्हें की गई हैं। और ख़ुदा की रूह जो तुम्हारे बातिन में जद्दो-जहद करती रही है। ये सब बातें इसी ग़र्ज़ को हासिल करने के लिए थीं। अगर तुम्हारी दिली तब्दीली इसी लम्हे में वाक़ेअ हो। तो भी वो लम्हा उस लंबे सिलसिले का जो सालों से तुम्हारे अन्दर जारी रहा, आख़िरी नक़त समझा जाएगा। लेकिन एक दूसरे माअनों में उसे फ़ौरी या दफअतन (फ़ौरन) कह सकते हैं। और ऐसा क्यों ना हो? तुम्हारे पास क्या माक़ूल वजह है। जिसकी बिना पर तुम अपना ख़ुदा की तरफ़ फिरना मुल्तवी कर सकते हो? मज़्हब में दो क़िस्म के तजुर्बात होते हैं। जिन्हें एक दूसरे से इम्तियाज़ (फ़र्क़) करना चाहिए। एक तो दूसरों के ज़रीये बाहर से हमारे दिल पर मज़्हबी बातों का असर होता है। और ये असर तालीम, नमूना, पन्दो नसीहत, और इसी क़िस्म की दूसरी बातों के ज़रीये होता है। दूसरे बात ख़ुद हमारे दिल में मज़्हबी बातों का ख़याल पैदा होता है। जब कि हम इन तमाम असरात की तरफ़ मुतवज्जोह हो कर इन्हें अपना बना लेते हैं। अव़्वल-उल-ज़िक्र तजुर्बा बहुत तवील अर्सा लेता है। और बहुत आहिस्ता-आहिस्ता पैदा होता है। मोअख्ख़र-उल-ज़िक्र दफअतन (अचानक) वाक़ेअ होना मुम्किन है। और बाअ्ज़ औक़ात एक निहायत छोटी सी बात से पैदा हो जाता है।

      इस तब्दीली की अज़मत को घटाने के लिए एक दूसरा तरीक़ लोगों ने ये इख़्तियार किया है, कि वो उस आदमी के जुर्म की बाबत सवाल करते हैं। जब हम उसे चोर के नाम से पुकारते हैं। तो इस से हमारे ज़हन में एक ऐसे आम शख़्स का तसव्वुर गुज़रता है, जो एक बहुत ही बद-चलन मुजरिम हो। लेकिन उन के नज़्दीक इस लफ़्ज़ का तर्जुमा “डाकू” करना ज़्यादा मुनासिब होगा। ग़ालिबन ये शख़्स इब्तिदा में सिर्फ एक पोलिटिकल आदमी था। जो इंक़िलाब-ए-सल्तनत की तहरीक करता था। लेकिन रोमी क़ानून की मुख़ालिफ़त के सबब उसे सोसाइटी को छोड़कर जंगल में पनाह लेनी पड़ी। जहां अपने गुज़ारे के लिए उस ने मजबूरन रहज़नी (लूट कार) का पेशा इख़्तियार कर लिया। लेकिन उस मुल्क में जिस पर एक बैरूनी हुकूमत ज़ोरो जबर के साथ हुकूमत कर रही थी। ऐसे लोग थे, जिन्हों ने अलम बग़ावत (सरकशी) बुलंद किया था। और अगरचे वो शरीफ़ मिज़ाज थे। मगर अपनी हालत से मज्बूर हो कर ज़बरदस्ती और लूट खसूट कर बैठते थे। इस बात में किसी क़द्र सच्चाई है। और मुम्किन है कि ये ताइब चोर और लोगों से बढ़कर शरीर व गुनेहगार ना हो। मगर उस के अपने अल्फ़ाज़ जो उस ने अपने हम-राही को कहे कि “हम तो अपने किए की सज़ा भुगत रहे हैं” बिल्कुल दूसरे अम्र की तस्दीक़ करते हैं। उस के हाफ़िज़े में ऐसे कामों की याद मौजूद थी जिसकी वजह से वो इस बात का मुक़र (इक़रार करना) था कि मौत उन की वाजिबी सज़ा है। क़िस्सा मुख़्तसर इस अम्र में शुब्हा करने की कोई माक़ूल वजह नहीं कि वो एक बड़ा गुनेहगार था। और उस के दिल में दफअतन (फ़ौरन) ऐसी बड़ी तब्दीली वाक़ेअ हो गई। और इसलिए उस के मिसाल हमेशा बड़े से बड़े गुनेहगार के लिए जब वो तौबा करे हौसला-अफ़ज़ाई और तसल्ली का बाइस होगी। उमूमन ये देखा जाता है, कि ताइब (तौबा करने वाले) लोग ख़ुदा के हुज़ूर में आने से डरते हैं। क्योंकि वो समझते हैं कि उन के गुनाह ऐसे भारी हैं कि उन की माफ़ी की उम्मीद नहीं। मगर वो जो इन्हें इस अम्र की तहरीक कर रहे हैं। उन के सामने ऐसे शख्सों के नाम जैसे कि मनस्सी और मर्यम मग्दलीनी या जैसे कि ये चोर है, पेश कर सकते हैं। और यक़ीन दिला सकते हैं, कि वो इलाही रहमत जिसने उनको बख़्श दिया। सब के लिए काफ़ी व वाफ़ी है। “येसू मसीह, ख़ुदा के बेटे का ख़ून सारे गुनाह से पाक करता है।”

      जो लोग इस अजीब व ग़रीब तब्दीली के ज़ोर को कम करना चाहते हैं। उन के दिल में ये ख़ौफ़ है कि मबादा अगर इस बात को माना जाये कि बुरे से बुरे आदमी में भी एक लम्हे भर में जब कि वो लब गुरू (क़ब्र के मुँह पर) हुआ इस क़िस्म की तब्दीली वाक़ेअ हो सकती है। तो लोग इस उम्मीद पर कि मरते वक़्त तौबा कर लेंगे। अपनी नजात की तरफ़ से बेपर्वा हो जाऐंगे। ये ख़ौफ़ तो बजा है। और ये भी देखा गया है, कि बाज़ औक़ात ख़ुदा के फ़ज़्ल का नाजायज़ इस्तिमाल किया गया है। मगर ये एक दूसरी बात है। जो लोग अपने को इस क़िस्म के दलाईल से धोका देते हैं। वो ये समझते हैं कि हम जब चाहें ईमान और उम्मीद को अपने दिल में पैदा कर सकते हैं। और जब कभी वो चाहेंगे तमाम मज़्हबी हस्सात को अपने अंदर पैदा कर लेंगे। लेकिन क्या तजुर्बा इस अम्र की ताईद करता है। बरख़िलाफ़ इस के क्या इस क़िस्म के मौक़े शाज़ व नादिर नहीं देखे जाते जब कि मज़्हब एक ला मज़्हब आदमी पर सचमुच कुछ असर पैदा करता है?

      और ये भी हर हालत में नहीं देखा जाता कि मौत की क़ुर्बत (नज़दिकी) हर एक आदमी में मज़्हबी बातों की निस्बत फ़िक्रमंदी पैदा कर देती है। दूसरा चोर इस बात का उम्दा नमूना है। अगरचे उस वक़्त मौत से दो-चार हो रहा था। और येसू के इस क़द्र क़रीब था। तो भी उस का दिल और भी ज़्यादा सख़्त हो गया। और उस शख़्स का भी जो जान-बूझ कर रूह को बुझा देता है। इस उम्मीद पर कि वो बिस्तर-ए-मर्ग पर तौबा कर लेगा। अग़्लब (मुम्किन) है कि यही हाल होगा।

      मगर इस ख़याल के डर से कि इस सच्चाई का नाजायज़ इस्तिमाल मुम्किन है। हम ख़ुदा के फ़ज़्ल की शहादत को जो इस वाक़िये में पाई जाती है, हरगिज़ हाथ से ना देंगे। कि “हमें नजातदिहंदा की इस दावत को किसी तरह से महदूद नहीं करना चाहिए कि “वो जो मेरे पास आता है। मैं उसे किसी सूरत से निकाल ना दूंगा।” गुनेहगार ख़्वाह कैसी ही देर से क्यों ना आए। और आते वक़्त उस के पास ख़्वाह कितना ही थोड़ा वक़्त क्यों ना हो। अगर वह फ़क़त आही जाये। तो यक़ीनन वो निकाल नहीं दिया जाएगा। किसी सिलसिले इल्म इलाही और उस के मुअल्लिमों की तालीम की सच्चाई की इस से बढ़कर और कोई कसौटी (पैमाना) नहीं कि वो एक लब-ए-मर्ग आदमी के लिए, जिसके गुनाह माफ़ नहीं हुए। क्या पैग़ाममें तसल्ली रखते हैं? अगर नजात जो एक वाइज़ लोगों के सामने पेश करता है। मह्ज़ अख़्लाक़ी तरक़्क़ी के बतद्रीज वाक़ेअ होने की तालीम का नाम है। तो वो ऐसे मौक़े पर क्या कहेगा? हमको यक़ीन करना चाहिए कि हमारी इन्जील (ख़ुशख़बरी) उस शख़्स की इन्जील नहीं है। जिसने एक ताइब चोर को भी तसल्ली दी। जब तक कि हम लब-ए-गुर (मरने के क़रीब) गुनेहगार को भी ऐसी नजात की ख़ुशख़बरी नहीं दे सकती। जो फ़ील-फ़ौर हासिल हो जाती और कामिल ख़ुशी व ख़ुर्रमी अता कर सकती है।

      ये बात कि इस चोर में किस क़द्र कामिल तब्दीली वाक़ेअ हो गई थी। ख़ुद उस के अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है। मुक़द्दस पौलूस एक मुक़ाम पर मसीही दीन को दो बातों में बयान कर देता है। ख़ुदा की हुज़ूर ताइब होना। और येसू मसीह पर ईमान लाना। और ये दोनों बातें हमें इस ताइब चोर के कलाम में नज़र आती हैं। उस की तौबा उन अल्फ़ाज़ में ज़ाहिर होती है। जो उस ने अपने हम-राही चोर से कही। वो उसे कहता है “क्या तू ख़ुदा से नहीं डरता।” इस में शुब्हा नहीं कि वो ख़ुद भी ख़ुदा को भुला बैठा था। और गुज़श्ता उम्र में उस का ख़याल हरगिज़ पास नहीं आने दिया था। लेकिन अब उसे ख़ुदा क़रीब मालूम होता था। और उस के नूर में उस ने अपनी गुनेहगारी को देख लिया। और उस ने इस का इक़रार किया। फ़क़त अपने दिल में पोशीदा तौर पर नहीं बल्कि एलानिया तौर पर। इस तौर से उस ने अपने को गुनाह से बल्कि अपने साथी से भी जो उस की गुमराही का बाइस था, अलैहदा कर दिया। जब कि उस ने उस की मानिंद तौबा करने से इन्कार किया। और ऐसी ही सफ़ाई के साथ उस के अल्फ़ाज़ से उस का येसू मसीह पर ईमान लाना ज़ाहिर होता है। वो बिल्कुल सादा अल्फ़ाज़ हैं और उन से अजुज़ व इन्किसार टपकता है। उस ने सिर्फ ये दरख़्वास्त की कि जब मसीह अपनी बादशाहत में आए। तो उसे याद रखे। मगर इन अल्फ़ाज़ से मालूम होता था, कि वो मसीह के जलाल व बुजु़र्गी का क़ाइल है। और उस पर कामिल एतिमाद रखता है। ऐसे वक़्त में जब कि क़ौम के मज़्हबी पेशवा ये समझ रहे थे, कि उन्होंने हमेशा के लिए मसीह के दाअवों पर पानी फेर दिया। और जब कि ख़ुद उस के अपने शागिर्द उसे छोड़कर भाग गए थे। उस वक़्त ये बे चारह लब-ए-गुर गुनेहगार उस पर ईमान ले आया। कालोन साहब लिखते हैं कि उन आँखों की नज़र कैसी साफ़ होगी, जो मौत में ज़िंदगी को। बर्बादी में अज़मत को। शर्म व बेइज़्ज़ती में जलाल को। शिकस्त में फ़त्ह को। और गु़लामी में बादशाही को देखने पर क़ादिर थीं। मैं पूछता हूँ कि आया दुनिया के आग़ाज़ से कभी भी ऐसा ईमान सुनने में आया है। लूथर भी कुछ कम सना-ख़्वाँ नहीं है और लिखता कि “मसीह के लिए ये भी उसी क़िस्म की तस्कीन व तसल्ली थी जैसे कि फ़रिश्ते ने बाग़ में दी होगी। भला ख़ुदा किस तरह देख सकता था, कि उस का बेटा ताबईन (पैरवी करने वाले) से ख़ाली रहे। और उस वक़्त उस की कलीसिया गोया उस आदमी में ज़िंदा मौजूद थी। जहां मुक़द्दस पतरस का ईमान ज़ाइल हो गया। वहां एक चोर का ईमान शुरू हुआ।” और एक और साहब पूछते हैं कि “क्या कभी ऐसा हुआ है कि ऐसी नई पैदाइश ऐसे अजीब गहवारे (झूले) मैं वाक़ेअ हो?”

(3)

      ये बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि येसू ने उस शख़्स को अल्फ़ाज़ के ज़रीये मोमिन नहीं बनाया। उस ने हरगिज़ उस चोर से एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा पेश्तर इस के कि वो ख़ुद उस से हम-कलाम हुआ। उस की तौबा व पशेमानी मसीह के बोलने से पहले ही शुरू हो चुकी थी। लेकिन ये भी ख़ुद उसी का काम था। मगर उस ने ये किस तरह किया? जैसे कि मुक़द्दस पतरस ने दीनदार औरतों को नसीहत की थी। कि वो अपने बेदीन खाविंदों



16  थोलक साहब जो जर्मनी में एक निहायत आलिम फ़ाज़िल शख़्स गुज़रे हैं।

के ईमान लाने का ज़रीया बनें। और यूं लिखा था कि “ऐ बीवियों! तुम भी अपने अपने शौहरों के ताबे रहो। कि अगर बाअज़ उन में से कलाम को ना भी मानते हों। तो भी तुम्हारे पाकीज़ा चाल-चलन और ख़ौफ़ को देखकर बग़ैर कलाम के अपनी अपनी बीवियों के चाल चलन से ख़ुदा की तरफ़ खिंच जाएं।” ये उस के सब्र व तहम्मुल उस की बेगुनाही उस के इत्मीनान-ए-क़ल्ब (दिल) और उस की आली हौसलगी का ज़रीया था कि येसू इस आदमी के दिल को तब्दील करने में कामयाब हुआ। और इस अम्र में भी वो हमारे लिए एक नमूना छोड़ गया है कि हम भी उस के नक़्शे क़दम पर चलें।

      लेकिन उस के कलाम ने भी जब वो उस से मुख़ातिब हुआ इस असर को और भी गहरा कर दिया। उस के अल्फ़ाज़ थोड़े से थे। मगर इनमें से हर एक उस के नजातदिहंदा होने का सबूत था।

      ये चोर तो किसी आने वाले दिन का मुंतज़िर था। जब कि मसीह उस की सिफ़ारिश करेगा। मगर मसीह फ़रमाता है “आज” ये इस अम्र की नबुव्वत भी थी, कि वो उसी रोज़ मर जाएगा। और जैसा कि उमूमन मस्लूबों का हाल होता था। बहुत दिनों तक वहां सलीब पर नहीं लटका रहेगा। और ये बात पूरी हो गई। मगर इस के इलावा ये इस अम्र का वाअदा भी था, कि जैसा लिखा है मौत उसे इस दुनिया में से ले कर अबदियत में दाख़िल कर देगी। मसीह वहां उस के इस्तिक़बाल को खड़ा होगा “आज तू मेरे साथ होगा” आस्मान की सारी ख़ुशी और शान व शौकत इन्हीं दो लफ़्ज़ों में भरी है। हमारे नज़्दीक आस्मान और क्या है। और हम वहां और किस चीज़ के ख़्वाहिशमंद हैं सिवाए इस के कि वहां हम “मसीह के साथ” होंगे। मगर इस के इलावा एक और लफ़्ज़ भी उस ने कहा यानी “फ़िर्दोस में” बाअज़ का ख़याल है कि इस आम लफ़्ज़ के इस्तिमाल करने में मसीह गोया इस ताइब चोर के ख़याल का लिहाज़ कर रहा था। क्योंकि आम तौर पर जब दूसरे जहान में किसी ख़ूबसूरत और पुर आराम मुक़ाम का ज़िक्र करते हैं, तो उस का तसव्वुर इसी लफ़्ज़ से अदा करते हैं। कम से कम इस लफ़्ज़ के इस्तिमाल से जिसके असली मअनी “बाग़ या गुलशन” के हैं और जो उस मुक़ाम की निस्बत बोला जाता था। जहां हमारे पहले वालदैन यानी आदम व हव्वा रखे गए थे। ख़ुद बख़ुद लब-ए-मर्ग आदमी के ख़याल में एक ऐसी जगह का तसव्वुर पैदा करता है जहां हुस्न व ख़ूबी, बेगुनाही और अमन की हुकूमत है और जहां वो गुज़श्ता ग़लतियों और नुक़्सों की ग़लाज़त से पाक साफ़ हो कर एक नई मख़्लूक़ की मानिंद ज़िंदगी बसर करना शुरू करेगा। बाअज़ मसीहियों का भी ऐसा ख़याल है, कि ऐसी रूह जैसी कि चोर की थी। कम से कम शुरू शुरू में, जो कुछ आइन्दा जहान में मिलने की उम्मीद कर सकती है। सो-पर-गतटोरी यानी आमेम आराफ़ या बर्ज़ख़ की आग है। जिसमें ये ख़याल किया जाता है, कि अर्वाह गुनाहों से साफ़ किए जाते हैं। मगर मसीह का फ़ज़्ल इस से किसी मुख़्तलिफ़ चीज़ का वाअदा करता है। उस का काम अज़ीम और कामिल है और इसलिए वो हमें कामिल नजात अता है।

      इस दूसरे कलमे से जो मसीह ने सलीब से फ़रमाया ख़ास तौर पर हमें नजातदिहंदा की अज़मत का पता मिलता है। और अगरचे वो साफ़-साफ़ नहीं बयान हुआ। तो भी इस वजह से और भी बहुत दिल नशीन मालूम होता है चोर ने उस वक़्त उसे ऐसे तौर से मुख़ातिब किया गोया कि वो बादशाह है। और उस से इस तौर पर दुआ व इल्तिजा की गोया कि वो ख़ुदा से करता है। और उस ने किस तौर पर उसे जवाब दिया? क्या उस ने उसे ये कहा कि “मुझसे दुआ ना कर। मैं तो तेरे ही जैसा इन्सान हूँ। और मैं उस आलम से जिसमें हम दोनों दाख़िल होने को हैं। ऐसा ही बे-ख़बर हूँ। जैसा तू? अगर वो मह्ज़ इन्सान ही होता। जैसा कि बाअज़ लोग उसे साबित करना चाहते हैं। तो उसे यक़ीनन इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करना मुनासिब था। मगर उस ने अपने फ़र्यादी की इस अक़ीदत को क़ुबूल कर लिया। और दूसरे आलम का ऐसे तौर से ज़िक्र किया। गोया कि वो उस का अपना वतन है। और वो उस से ख़ूब वाक़िफ़ है। उस ने उस को ये यक़ीन करने का मौक़ा दिया कि उस आलम में उस को उसी क़द्र इख़्तियार व क़ुद्रत हासिल है। जैसे कि वो उस की तरफ़ मन्सूब करता है। इस बड़े गुनेहगार ने अपनी जान और गुनाह और अपनी अबदियत का बोझ मसीह पर रख दिया। और मसीह ने इस के इस बोझ को बखु़शी क़ुबूल कर लिया।

सोलहवां बाब
तीसरा कलमा सलीब पर से

      हमारे ख़ुदावन्द की ज़िंदगी शुरू से आख़िर तक एक अजीब क़िस्म का माजून (मुरक्कब) मालूम होती है। जिसमें आला से आला और अदना सी अदना बातें बाहम मिली हुई पाई जाती हैं। जब कि उस के इलाही मर्तबे की एक शुआ अपनी चमक दमक से हमारी आँखों को चौंधिया देती है। तो हमेशा उस के साथ ही कोई ऐसी बात भी वाक़ेअ हो जाती है। जो हमें याद दिलाती है कि वो हमारी हड्डी में से हड्डी और गोश्त में से गोश्त है। और बरअक्स इस के जब वो कोई ऐसा काम करता है। जिससे उस की इन्सानी ज़ात का ख़याल हमारी आँखों के सामने आ जाता है। तो उस के साथ ही कोई ऐसी बात भी वाक़ेअ हो जाती है। जिससे हमको ये यक़ीन होता है, कि वह मह्ज़ इब्ने-आदम ही नहीं, बल्कि इस से बढ़कर था। चुनान्चे हम देखते हैं, कि अपनी विलादत के वक़्त वो चरनी में रखा गया। लेकिन बाहर बैत-लहम के चरागाहों में फ़रिश्ते उस की हम्द व सना का गीत गा रहे थे। इस से बहुत अर्से बाद हम ये देखते हैं कि वो कश्ती में सो रहा था। और तकान से ऐसा मांदा हो रहा था कि ऐसे ख़तरे की हालत में भी वो जगाने से जागा। लेकिन जागते ही उस ने हवा और लहरों को मलामत की और फ़ौरन तूफ़ान बिल्कुल थम गया। जब उस ने मार्था, और मर्यम का रंज व ग़म देखा तो लिखा कि “कि येसू रोया” लेकिन इस से चंद ही मिनट बाद वो बोला “लाज़र बाहर निकल आ।” और वो क़ब्र से बाहर निकल आया। और इस की ज़िंदगी के आख़िरी दम तक ऐसा ही होता रहा। उस के दूसरे कलमे पर ग़ौर करते वक़्त हमने देखा कि उस ने ताइब चोर के लिए फ़िरदौस-ए-बरीं के दर खोल दिए। आज हम तीसरे कलमे पर ग़ौर करते हैं। जिसमें वो हम पर एक औरत का बेटा होने की हैसियत में ज़ाहिर होगा। जो मरते दम अपनी माँ की जिस्मानी परवरिश के लिए फ़िक्रमंद हो

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17  ऐ औरत देख तेरा बेटा………देख तेरी माँ

      येसू की आँख उस मख़लूत (मिले जुले) गिरोह पर नज़र करती हुई जिसका ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं। आख़िर अपनी माँ पर आकर ठहरी। जो सलीब के नीचे खड़ी थी। ज़माना वुस्ता के एक अज़ीमुश्शान और पुर ज़ोर गीत में जिसके लिए बड़े-बड़े साहब कमाल मौसीक़ी दानों ने राग तैयार किए हैं। इस की हालत को निहायत दर्द-नाक अल्फ़ाज़ में बयान किया है। जब वो जवानी के आलम में अपने पहलौठे को हैकल में लाई तो शमऊन ने उसी वक़्त पैशन गोई की थी। कि तल्वार तेरी जान में से गुज़र जाएगी। शायद वो ख़ुशी व ख़ुर्रमी के अय्याम में अक्सर इस बात को याद करके ताज्जुब करती होगी, कि इस मख़्फ़ी (छिपी) व पुर-इसरार (पोशीदा अजीब) पैशन गोई का क्या मतलब है। लेकिन अब वो इस का मतलब समझ गई होगी। क्योंकि अब तल्वार वार पर वार कर के उस के दिल को छेद रही थी।

      माँ के लिए अपने बेटे को मरते देखना निहायत ही सख़्त सदमा जानका (जान-लेवा) होता है। वो तबअन ये उम्मीद करती है कि उस का बेटा उस का सर गुर (क़ब्र) में रखेगा। ख़ासकर इस सूरत में जब कि वो उस का इकलौता और उस की क़ुव्वत का फ़र्ज़न्द था। येसू की उम्र उस वक़्त सिर्फ 33 साल की थी। और उस की माँ उस उम्र को पहुंच गई थी, जब कि मज़्बूत और पुर मुहब्बत फ़र्ज़न्द उस के बुढ़ापे का सहारा होता है।

      मगर जिस मौत वो मर रहा था। वो और भी इस बिस्तर-ए-मर्ग को ज़्यादा दर्द-नाक बना रही थी। एक मुजरिम की मौत। बहुत सी माओं को अपने बेटों की मौत की ज़ाहिरी सूरत से सख़्त सदमा पहुंचा होगा। मसलन जब कि सख़्त दर्द की हालत में या ऐसे ही किसी और दर्द-नाक तौर पर उन के प्राण (जान निकलना) निकलें। मगर मुक़द्दस मर्यम के मुक़ाबले में दूसरी माओं की तकलीफ़ें और दुख क्या हक़ीक़त रखते थे? यहां उस का लड़का सामने उस की आँखों के रूबरू लटक रहा है। मगर वो उस की कुछ भी मदद नहीं कर सकती। उस के ज़ख़्मों से ख़ून जारी है। मगर वो उन्हें पोंछ नहीं सकती। उस का मुँह सूख रहा है। मगर वो उसे तर नहीं कर सकती। इन हाथों से जवाब सलीब फैले हुए हैं। वो अपनी माँ से बग़लगीर(गले मिलना हुआ करता था। वो इन हाथों और पांव को नाज़ से चूमा करती थी। हाँ! ये मेख़ें। सिर्फ उस के हाथों में से ही नहीं, बल्कि मर्यम के दिल में से भी पार हो गई होंगी। उस के सर के कांटों का ताज उस के दिल को आग के शोलों की तरह जलाता होगा और जो ताने महने उस को दिए जाते थे। वो उस के दिल में तीर की तरह लगते थे।

      मगर मुआमला इस से भी बदतर था। इस तल्वार का ज़ख़्म और भी गहरा था। क्या फ़रिश्ते ने उस की विलादत से पहले ही नहीं कहा था कि “वो बुज़ुर्ग होगा। और ख़ुदा तआला का बेटा कहलाएगा। और ख़ुदावन्द ख़ुदा उस के बाप दाऊद का तख़्त उसे देगा। और वो याक़ूब के घराने पर अबद तक बादशाही करेगा। और उस की बादशाही का आख़िर ना होगा?” ये अज़मत व बुजु़र्गी। ये तख़्त व ताज। ये बादशाही। ये सब क्या हो गईं। एक ज़माने में वो यक़ीन करती थी, कि वो दर-हक़ीक़त जैसा कि फ़रिश्ते ने उसे कहा था “तमाम औरतों में से मुबारक” है। जब कि वो उसे बचपन के हुस्न व ख़ूबी के साथ अपनी गोद में लेटा हुआ देखती थी। जब गड़रिए और मजूसी उस की परस्तिश के लिए आए। शमऊन और हन्ना ने उसे देखकर उस के मसीह होने का इक़रार किया। इस के बाद वो तवील ज़माना आया जो उस ने गुमनामी की हालत में नासरत में बसर किया। वो एक मामूली गांव का बढ़ई था। मगर वो हरगिज़ दरमांदा (बेचारी) ना हुई। क्योंकि वो उस के साथ घर में रहता था। और उसे यक़ीन था कि ये बुजु़र्गी और ताज व तख़्त मुक़र्ररा वक़्त पर ज़रूर उसे मिल के रहेगा। आख़िर उस की घड़ी आ पहुंची। और अपने हथियार और औज़ार रखकर और उसे अलविदा कह कर वो उस छोटी सी वादी से निकल कर जिस में उस का घर वाक़ेअ था। इस बड़ी दुनिया में चला गया। इस वक़्त उस ने अपने दिल में कहा होगा कि अब ये सब बातें पूरी होंगी। मख्सूसियत ही के दिनों में उसे ख़बर मिली कि वो कैसी तौफ़ीक़ व क़ुद्रत इलाही से भरी हुई बातें लोगों को सुनाता है। और लोगों की जमाअतें उस के पीछे चली आती हैं। क़ौम जागती जाती है। और अंधे और लुंजे और बीमार और मातम ज़दा लोग उस के हाथों और शिफ़ा तसल्ली पा कर उसे और उस की माँ को मुबारक कहते हैं। ये सुन कर उसने कहा होगा कि अब सब कुछ पूरा होगा। लेकिन जब उस के ख़िलाफ़ ख़बरें पहुंची होंगी कि लोग उसे दिक़ करते और ईज़ा देते हैं तो उस का दिल डूब गया होगा। ये सुनकर वो अपने घर में आराम ना कर सकी। और नासरत से रवाना हो कर ख़ौफ़ से काँपती हुई आई कि देखूं अब वो कैसा है। और अब वो सलीब के दामन में खड़ी है। वो मर रहा है। और उस की अज़मत और जलाल और बादशाहत सब क्या हुईं?

      इस के क्या मअनी हैं? क्या फ़रिश्ते ने उसे धोका दिया। या ख़ुदा का कलाम झूट था। और जो अजाइबात उस के बचपन में नज़र आए थे। सब ख्व़ाब व ख़याल थे। हम अब इन सारी बातों का मतलब समझते हैं। येसू उस तख़्त की निस्बत जो मर्यम के ख़याल में था। और भी ज़्यादा बलंद पाया तख़्त पर चढ़ने को था। और ये सल्ब फ़क़त उस का एक ज़ीना (सीढ़ी) थी। इस से चंद ही हफ़्ते बाद मर्यम ने भी इस का मतलब समझ लिया। मगर इस वक़्त तो हर तरफ़ मिस्र के जैसी गहरी तारीकी छाई हुई थी। और उस के दिल का ग़म मौत की जांकनी से कुछ कम ना होगा। तल्वार फ़िल-हक़ीक़त उस के दिल में से पार हो गई थी।

(2)

      मर्यम के साथ सलीब के दामन में और भी कई एक औरतें खड़ी थीं। जिनमें से दो का नाम भी मर्यम था। जैसा कि एक क़दीमी मुसन्निफ़ लिखता है। इस वक़्त कमज़ोर औरत ज़ात मर्दों से ज़्यादा मज़्बूत बहादुर निकली। जब रसूल अपने आक़ा को छोड़कर भाग गए। तो भी ये औरतें आख़िरी दम तक वफ़ादार साबित हुईं। शायद औरत ज़ात होने के सबब किसी ने उन से ताअरुज़ (बात करना) ना किया। औरतें बाअज़ जगहों में बिला तहाशा जा सकती हैं। जहां आदमी को जाने का कभी हौसला नहीं होता। और इस क़ाबिलियत को बहुत सी औरतें ने अपने मालिक की ख़िदमत के लिए इस्तिमाल किया है। जिसे आदमी कभी सर-अंजाम ना कर सकते। मगर वहां एक और शख़्स भी मौजूद था। जो औरतों की तरह महफ़ूज़ नहीं था। और वो ज़रूर अपनी जान को हथेली पर रखकर वहां तक गया होगा।

      यूहन्ना भी मालूम होता है। रसूलों के इस ज़मुरे में शामिल था। जिनकी बाबत लिखा था, कि सब अपने आक़ा को छोड़कर भाग गए थे। लेकिन अगर ये बात सच्च है, तो उस का ख़ौफ़ बहुत देर तक नहीं रहा होगा। हम देखते हैं कि वो तहक़ीक़ात-ए-मुकदमा में शुरू ही से वहां मौजूद था। और यहां भी इस आख़िरी घड़ी में बारहों में से वही अकेला अपने आक़ा के पास मौजूद है। शायद सरदार काहिन की वाक़फ़ियत जिसकी बिना पर वो तहकीकात-ए-मुक़द्दमा के वक़्त महल में दाख़िल हो सका इस वक़्त भी उस के काम आई। मगर सबसे बढ़कर उस की आला अक़ीदत और मुहब्बत थी। जो वो अपने आक़ा से रखता था। जो उसे खींच कर उस के पास ले आई। वो जो अपने आक़ा के सीने पर लेटा करता था। भला वो किस तरह उस से दूर रह सकता था। और उसे इस का अज्र भी मिल गया। वो येसू की जानकनी की हालत में उसकी एक आख़िरी ख़िदमत बजा ला सका। और उस से उस की उल्फ़त व मुहब्बत व एतिमाद का ऐसा निशान हासिल किया जिसे उस के दिल ने एक आला दर्जे की इज़्ज़त व इस्तिहक़ाक़ (हक़) समझा होगा।



18  ये यक़ीनी तौर पर नहीं कह सकते कि आया यूहना 19:25 में दो औरतों का ज़िक्र है या चार का क्या दूसरी सलोमी यूहना की माँ थी?
(3)


      मगर सबसे बढ़कर हमें इस अम्र पर ग़ौर करना चाहते हैं कि इस वाक़िये से ख़ुद येसू पर क्या असर हुआ। उस ने अपनी माँ की तरफ़ नज़र की। मगर ऐसी नज़र जो और सब तरफ़ से हटी हुई थी। वो उस वक़्त ऐसे सख़्त दर्द से बे-ताब हो रहा था। जो मुम्किन था कि उसे अपने सिवा और सबकी तरफ़ से बे-ख़बर कर देती। या अगर उसे सोचने की फ़ुर्सत या ताक़त भी होती, तो मरते हुए आदमी के पास अपने ही दिल में और बहुत सी बातें सोचने के लिए होती हैं। हम जानते हैं कि मसीह के पास दुनिया भर की बातें सोचने के लिए थीं। क्योंकि वो इस वक़्त उस अक़्दह (मुश्किल काम) के हल करने में जिस पर उस की सारी ज़िंदगी सर्फ़ (ख़र्च) हुई। आख़िरी जद्दो-जहद में मशग़ूल था। उस का अपने दुश्मनों के हक़ में दुआ करना हमें इस क़द्र हैरत में नहीं डालता। क्योंकि उस की निस्बत ये कहा जा सकता है, कि ये उस के गुनेहगारों की शफ़ाअत के काम का एक जुज़ (हिस्सा) था। ना ताइब चोर से हम-कलाम होना। क्योंकि ये भी उस के नजात के काम से ताल्लुक़ रखता था। मगर हमें ताज्जुब इस अम्र पर आता है, कि ऐसी घड़ी में उसे मामूली ज़िंदगी के कारोबार सर-अंजाम देने की फ़ुर्सत मिली। जो लोग इन्सानी हम्दर्दी या इस्लाह व दुरुस्ती की तजावीज़ में मशग़ूल होते हैं। अक्सर देखा गया है, कि वो अपने ख़ानगी (घरेलू) मुआमलात की तरफ़ से ग़ाफ़िल (लापरवा) हो जाते हैं। और वो इस बिना पर अपने को माज़ूर समझते हैं। या दूसरे उन की तरफ़ से माअज़िरत करते हैं, कि अवामुन्नास की भलाई की फ़िक्र उन के ख़ानदानी ताल्लुक़ात पर ग़ालिब थी। कभी-कभी येसू के मुँह से भी इसी क़िस्म के कलमात निकलते थे। जिनसे मालूम होता है, कि वो भी इसी ख़याल पर कारबन्द था। वो हरगिज़ नहीं गवारा करता था, कि उस की तदाबीर में उस की माँ किसी तरह से मुख़िल (ख़लल) डालना हो। लेकिन इस वक़्त उस ने साबित कर दिया कि अगरचे वो अपनी माँ की ना वाजिब दस्त अंदाज़ी को रोकने पर मज्बूर था। मगर वो एक दम के लिए उस के जायज़ हुक़ूक़ को नहीं भुला था। बावजूद अपनी अज़मत और कस्रत कारोबार के वो अब भी मर्यम का फ़र्ज़न्द था। और उस से वैसी ही लाज़वाल फ़र्ज़न्दाना उल्फ़त व मुहब्बत रखता था।

      अलबत्ता उस के कलमात तो चंद एक ही थे। मगर उन अल्फ़ाज़ से जो कुछ उस के लिए कहना ज़रूरी था, कामिल तौर पर अदा हो गया। इस हालत में हर एक लफ़्ज़ जो उस के मुँह से निकलता होगा। उस से उसे सख़्त तक्लीफ़ होती होगी। इसलिए वो बहुत कुछ ना कह सका। इस के इलावा उन अल्फ़ाज़ के चंद एक होने से उन्हें एक तरह का क़ानूनी रूत्बा हासिल हो गया। जैसा कि कहा गया है कि ये गोया उस का आख़िरी वसीयत नामा था। उस ने अपनी माँ से मुख़ातिब हो कर फ़रमाया, “ऐ औरत! देखो तेरा बेटा” और साथ ही अपनी आँख से यूहन्ना की तरफ़ इशारा किया। और अपने शागिर्द से उस ने सिर्फ यही फ़िक़्रह कहा “देख तेरी माँ” अल्फ़ाज़ तो सादा थे। मगर उन से उस का मतलब पूरे तौर पर अदा हो गया। ये अल्फ़ाज़ ना सिर्फ साफ़ बल्कि क़ानूनी मुक़र्ररा अल्फ़ाज़ की मानिंद थे। लेकिन ताहम वो मर्यम और यूहन्ना दोनों के लिए मुहब्बत से मामूर थे।

      ख़याल किया जाता है, कि यूसुफ़ मर्यम का ख़ावंद ख़ुदावन्द की पब्लिक रिसालत के शुरू होने के ज़माने से पहले ही मर चुका था। और नासरत में घर का सारा बोझ येसू के कंधों पर पड़ा था। इस में शक नहीं कि अपनी तालीम व वाअज़ के ज़माने में भी वो अपनी माँ की फ़िक्र रखता था। लेकिन अब वो भी उसे छोड़ चला। और अब ये बेवा बेयार व मददगार रह गई। और इसलिए उस ने उस की परवरिश का बंदो बस्त कर दिया।

      उस के पास ज़रो माल ना था। जो उस के वास्ते छोड़ जाता। उस की सारी जायदाद वो कपड़े थे। जो वो सलीब दिए जाने के वक़्त पहने हुए था। और ये सिपाहियों ने बांट लिए थे। मगर उन लोगों का जुआ गरचे ख़ुद बहुत ही ग़रीब व तंगदस्त होते हैं। मगर दूसरों को बेशक़ीमत रूहानी तोहफ़ों से माला-माल कर देते हैं। ये हक़ होता है, कि उन को ऐसे दोस्त मिल जाते हैं। जो उन के या उन के मुताल्लिक़ीन की इमदाद व ख़िदमत में अपना फ़ख़्र समझते हैं। जब उस ने अपनी माँ को मुक़द्दस यूहन्ना के सपुर्द किया। तो येसू जानता था, कि ऐसा करने में वो अपने शागिर्द को एक तोहफ़ा अता कर रहा है, ना कि उस पर बोझ रख रहा है।

      हम इस की वजह नहीं बता सकते कि वो अपने दूसरे बेटों में से किसी के घर में क्यों ना चली गई। वो उस वक़्त मोमिनीन की जमाअत में शामिल ना थे। अगरचे इस के बहुत जल्द बाद वो भी उस पर ईमान ले आए। लेकिन शायद और भी वजूहात हों जो हमें इस वक़्त मालूम नहीं हैं।

      बहर-सूरत हम ये अम्र बाआसानी देख सकते हैं, कि मुक़द्दस यूहन्ना को इस ख़िदमत के लिए चुनना कैसा बर-महल (मुनासिब) था। अनाजील के बयानात से मालूम होता है, कि मुक़द्दस यूहन्ना औरों से ज़्यादा मालदार था या कम से कम दूसरों की निस्बत ज़्यादा ख़ुश-हाल था। और शायद इस अम्र का भी येसू ने ख़याल किया होगा। वो अपनी माँ को हरगिज़ ऐसी जगह भेजना पसंद ना करता। जहां वो उन पर बोझ होती। ये अम्र अग़्लब (मुम्किन) है कि मुक़द्दस यूहन्ना की शादी नहीं हुई थी। मगर इस से गहरी वजूहात भी थीं। इस शख़्स के बाज़ू के सिवा जो उस के सीने पर लेटा करता था, दूसरा कोई बाज़ू ना था। जिस पर वो ऐसे एतिमाद के साथ तकिया करती। मुक़द्दस पतरस जो ऐसा गर्म=मिज़ाज था। और मछोओं की उखड़ आदतें रखता था। इस अम्र के लिए ऐसी मुनासबत ना रखता था। यूहन्ना और मर्यम दोनों एक सा मिज़ाज रखते थे। ख़ासकर उस गहरी मुहब्बत के लिहाज़ से भी जो दोनों येसू की निस्बत रखते थे। वो मुत्तहिद थे। वो उस की निस्बत बाहम बातचीत करने से कभी तंग ना आते। उस ने उन को एक दूसरे के सपुर्द करने से दोनों को एक दूसरे की नज़र में इज़्ज़त बख़्श दी। अगर उस ने मर्यम को यूहन्ना बतौर फ़र्ज़न्द के अता करने से उसे एक बड़ी नेअमत बख़्शी। तो यूहन्ना के लिए भी मर्यम का बतौर माँ के मिलना कुछ कम नेअमत ना था। क्योंकि मर्यम की मौजूदगी से उस के घर की रौनक व इज़्ज़त दो बाला हो गई। इलावा बरीं क्या उस ने मुक़द्दस यूहन्ना को भी एक ख़ास माअनों में अपना भाई ना बना लिया। जब उसे अपनी जगह मर्यम का फ़र्ज़न्द बना दिया।

      इन्जील नवीस लिखता है, कि उसी घड़ी यूहन्ना उसे अपने घर ले गया। अक्सर इस फ़िक़्रे का ये मतलब समझते हैं कि वो मुलाइमत के साथ उसे इस जगह से ले गया, ताकि अपने बेटे की जांकनी की तकालीफ़ को देखकर उसे और सदमा ना पहुंचे। अगरचे वो आप फिर कल्वरी को वापिस चला आया। एक रिवायत से मालूम होता है, कि वो दोनों बारह साल तक यकजा यरूशलेम में रहे। और जब तक मर्यम ज़िंदा रही। उस ने इन्जील की मुनादी की ग़र्ज़ से भी शहर ना छोड़ा। और इफ़िसुस और उस के गर्दो नवाह (आसपास) में काम करता रहा। और इसी मुक़ाम के साथ उस के बाद की ज़िंदगी वाबस्ता रही।

(4)

      इस पुर तासीर नज़ारे के रूहानी सबकों को मालूम करना मुश्किल नहीं है। इस वक़्त अपनी सलीब के मिंबर (पुलपिट) पर से येसू ने तमाम ज़मानों के लिए पांचवें हुक्म पर एक वाअज़ सुनाया।

      येसू की माँ का दिल उस की तकालीफ़ को देखकर गोया तल्वार से छिद गया था। ये बड़ा तेज़ आला था। मगर मर्यम के पास एक चीज़ थी। जिस पर वो अपनी रूह को सहारा दे सकती थी। वो ये जानती थी कि वो बिल्कुल बेगुनाह मासूम है। और इस बात ने उस के ग़म की सख़्त व तारीक घड़ियों में भी उसे तसल्ली दी होगी। वो हमेशा से पाक दिल, शरीफ़ मिज़ाज और नेक तीनत (आदत) लड़का था। और वो उस के सलीब दिए जाने के वक़्त भी इस अम्र पर फ़ख़्र कर सकती थी। बहुत सी माओं का दिल अपने फ़रज़न्दों की बीमारी या बदक़िस्मती या पेश अज़ दिक़्क़त मौत से ज़ख़्मी होता है। मगर वो इसे बर्दाश्त कर सकती हैं। बशर्ते के ये ज़ख़्म ज़हर-आलूद तल्वार से ना लगा हो। मगर वो तल्वार क्या है? वो ये है कि उसे अपने बेटे की ख़ातिर शर्मसार होना पड़े जब कि उस का बेटा अपनी ही बदकिर्दारियों के हाथों इस दर्जे को पहुंचे। तो ये ग़म मौत से भी ज़्यादा ना क़ाबिल-ए-बर्दाश्त होता है।

      किसी माँ को अपने बेटे की कामयाबी और नेक-नामी को बतौर ज़ेवर के पहने हुए देखना कैसा ख़ुशनुमा नज़ारा है। ऐ पढ़ने वाले अगर इस वक़्त तेरी माँ और बाप ज़िंदा हैं, तो चाहिए कि ये बात तेरे लिए मेहमेज़ (घोड़े को एड़ लगा कर चलाना) का काम दे। और आज़माईश के वक़्त तेरी सिपर हो। बाज़ों को ये अच्छा मौक़ा भी मिलता है, कि बुढ़ापे के वक़्त अपने वालदैन की परवरिश करें। और यक़ीनन उम्र भर में दुनिया में इस से बेहतर कौन सी अच्छी याद होगी। रसूल लिखता है कि “अगर बेवा के बेटे या पोते हों तो वो पहले अपने ही घराने के साथ दीनदारी का बर्ताव करना सीखें। और माँ बाप का हक़ अदा करें क्योंकि ये ख़ुदा के नज़्दीक पसंदीदा है।….. अगर कोई अपनों और ख़ासकर अपने घराने की ख़बरगीरी ना करे। तो दीन का मुन्किर और बेईमान से बदतर है।”1 तिमोथियुस 5:4,8

      मगर ये वाअज़ जो सलीब के मिंबर पर से दिया गया और भी वसीअ मतलब रखता है। ये हमें सिखाता है कि येसू को ना सिर्फ हमारे अबदी या रुहानी बल्कि आरिज़ी या दुनियावी उमूर से भी इलाक़ा (ताल्लुक़) है। ख़ुद सलीब पर से भी जहां वो एक आलम के गुनाहों का कफ़्फ़ारा दे रहा था। उसे अपनी बेवा माँ के आराम व आसाइश की भी फ़िक्र थी। मुहताज और मतरूक (तर्क हुए) अश्ख़ास इस से सबक़ व तसल्ली हासिल करें। और अपनी तमाम फ़िक्र को उसी पर डाल दें। क्योंकि उसे हमारी फ़िक्र है। ये देखकर अक्सर हैरत होती है, कि किस तरह बेवा औरतें अपना निभाओ करती हैं। जब वो अकेली या शायद कई एक बच्चों के हमराह छोड़ी जाती हैं। तो समझ में नहीं आता कि वो किस तरह अपना गुज़ारा करती हैं। लेकिन बहुत दफ़ाअ देखा जाता है, कि उनका ख़ानदान, औरों के निस्बत जहां बाप ज़िंदा हो। बेहतर हालत में होता है। शायद इस की एक वजह ये हो कि बच्चे पहले ही से ये महसूस करते हैं, कि हमें माँ की इस ज़िम्मेदारी में हिस्सा लेना चाहिए। इसलिए वो इस बात को सोच कर बच्चे नहीं रहते। बल्कि पूरे मर्द और औरत बन जाते हैं। लेकिन बिला-शुब्हा बड़ी वजह ये है कि उन्हें वो ख़ुदावन्द फ़रामोश नहीं करता। जिसने कि अपनी जांकनी की हालत में भी मर्यम को याद रखा।

सत्रहवां बाब
चौथा कलमा सलीब पर से

      सात कलमे जो ख़ुदावन्द येसू मसीह ने सलीब पर से फ़रमाए। दो हिस्सों पर तक़्सीम हो सकते हैं। पहले तीन कलमात में। यानी सलीब देने वालों के हक़ में दुआ-ए-ख़ैर, ताइब चोर से ख़िताब और अपनी माँ के मुताल्लिक़ हिदायात। ख़ुदावन्द ने दूसरे अश्ख़ास के मुताल्लिक़ा मुआमलात का ज़िक्र किया। लेकिन आख़िरी चार कलमे जिनका अब हम ज़िक्र करेंगे। उन में वो फ़क़त उन उमूर का ज़िक्र करता है। जो ख़ुद उसकी ज़ात से मुताल्लिक़ थे। ये तक़्सीम बिल्कुल तबई मालूम होती है। बहुत से क़रीब-उल-मर्ग आदमी जब वो अपने दुनियावी मुआमलात का इंतिज़ाम कर चुकते। और अपने दोस्त रिश्तेदारों को अलविदा कह चुकते हैं। तो अपना मुँह दीवार की तरफ़ फेर लेते हैं। ताकि तन्हा मौत से दो चार हों। और अकेले ख़ुदा के साथ हों। इसलिए ये बिल्कुल येसू की शान के मुताबिक़ था कि वो पहले दूसरों के मुआमलात का फ़ैसला कर ले। पेश्तर इस के कि वो अपने ज़ाती मुआमलात की तरफ़ मुतवज्जोह हो।

      इन कलमात के दोनों हिस्सों के दर्मियान मालूम होता है, कि कुछ वक़्फ़ा वाक़ेअ हुआ होगा। छः घंटे से नौवें घंटे तक येसू ख़ामोश रहा। और इस असना में तारीकी तमाम मुल्क पर छा गई। इस तारीकी का क्या बाइस था? इस वक़्त तहक़ीक़ के साथ नहीं कहा जा सकता। लेकिन तीनों इन्जील नवीस जो इस का ज़िक्र करते हैं। ज़ाहिरन ये ख़याल करते मालूम होते हैं, कि ये एक तरह से उस हम्दर्दी का इज़्हार था। जो नेचर को ख़ुदावन्द से थी। ऐसा मालूम होता था कि गोया आफ़्ताब ने ऐसे शर्मनाक वाक़िये से मुँह छिपा लिया है। ये क़रीन-ए-क़ियास है कि इस क़िस्म के ख़ौफ़नाक ज़हूर फ़ित्रत के सबब जो शोर व ग़ौग़ा सलीब के इर्द-गिर्द हो रहा था कम हो गया होगा। आख़िरकार ख़ुद मसीह ने इस ख़ामोशी की मुहर तोड़ी। और बड़ी बुलंद आवाज़ से चौथा कलमा फ़रमाया। ये कलमा हैरत और जांकनी से पुर था। मगर साथ ही इस के उस से फ़त्हमंदी भी नुमायां थी।



19  ऐ मेरे ख़ुदा ! ऐ मेरे ख़ुदा ! तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया।

(1)

      भला इस तीन घंटे की ख़ामोशी में ख़ुदावन्द के दिल में किसी क़िस्म के ख़याल गुज़रते रहे होंगे? क्या वो इस अर्से में अपने आस्मानी बाप के साथ एक मजज़ूबाना (ख़ुदा की मुहब्बत में ग़र्क़) रिफ़ाक़त में मशग़ूल रहा? औलिया-अल्लाह के साथ अक्सर मौत के वक़्त ऐसा ही होता रहा है। और इसके ज़रीये वो अक्सर जिस्मानी तकालीफ़ पर क़ादिर होते हैं। शहीदों की हालत बाज़ औक़ात ऐसी बुलंद व मुर्तफ़े (ऊंचा) हो गई है, कि वो आग के शोलों के दर्मियान भी ख़ुदा की हम्द के गीत गाते सुने गए हैं। लेकिन जब हम ये देखते हैं कि येसू के दिल की हालत इस से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ थी। तो हम पर एक क़िस्म की हैबत और हैरत छा जाती है। जो अल्फ़ाज़ कि इस ख़ामोशी के बाद उस के मुँह से निकले उन से ये अंदाज़ा लगाना मुम्किन है कि इस से पहले घंटों में उस के दिल में क्या गुज़र रहा था। और इस आवाज़ से निहायत ही गहरी मायूसी आश्कारा होती है। फ़िल-हक़ीक़त ऐसी दर्द-नाक आवाज़ मुश्किल से कभी ज़मीन पर सुनने में आई होगी।

      अगरचे हम इन अल्फ़ाज़ से बिल्कुल मायूस हो गए हैं। मगर अब भी जब कभी कोई सरीअ-उल-हिस्स (नर्म-दिल) आदमी उसे पहली दफ़ाअ सुनता है। तो मारे ख़ौफ़ के काँप उठता है सारी बाइबल में शायद ही कोई और फ़िक़्रह होगा। जिसकी तफ़्सीर व तश्रीह ऐसी मुश्किल है। वाइज़ जब इस फ़िक़्रह पर पहुंचता है। तो सबसे पहले उस के दिल में ये ख़्वाहिश पैदा होती है कि कोई ना कोई उज़्र (बहाना) कर के इस पर से उबूर (आगे चला जाये) कर जाये। और जब वो उसे बयान करने भी लगता है। तो जब सब कुछ कह चुकता है। तो आख़िर में इक़रार करता है, कि उस का असली मतलब बयान करना उस की ताक़त से बाहर है। लेकिन जो शख़्स ऐसे मुश्किल फ़िक़्रों के हल करने में जद्दो-जहद करेगा। वो अपना इनाम हासिल किए बग़ैर ना रहेगा। क्योंकि कोई सच्चाई हम पर ऐसा गहरा असर नहीं करती। जैसे कि उस वक़्त जब कि हम ये महसूस करने लगते हैं कि जहां तक हम उस की तह को पहुंचने की क़ुद्रत रखते हैं। वो क़ुद्रत सिर्फ़ हमें उस के साहिल तक पहुंचाने में कामयाब हुई है। और सच्चाई का नापैदा किनारा-ए-समुंद्र तो उस से भी परे फैला हुआ है।

      ख़ुद मसीह के दिल में इन फ़िक्रात के मुँह से निकालते वक़्त जो ख़याल सबसे ऊपर सतह पर था। वो हैरत व ताज्जुब का ख़याल था। गतसमनी की हालत के बयान में लिखा है कि “वो निहायत हैरान होने लगा” और इस क़ौल का ढंग भी ज़ाहिरन वही मालूम होता है। हमें ऐसा ख़याल गुज़रता है कि इस क़ौल में लफ़्ज़ “तो” पर ज़ोर दिया गया है। येसू का अपनी ज़िंदगी-भर यही तजुर्बा रहा कि लोग उसे छोड़ जाते थे। और वो उस का बिल्कुल आदी हो रहा था। सबसे पहले ख़ुद उस के अपने घर के लोगों ने उसे रद्द कर दिया। और ऐसा ही उस के हम शहरियों नासरत के बाशिंदों ने। और आख़िरकार सारी क़ौम ने भी ऐसा ही किया। वो गिरोहें जो एक वक़्त जहां कहीं वो जाता था। उस के पीछे-पीछे जाती थीं। आख़िरकार किसी ना किसी बात पर नाराज़ हो कर उसे छोड़ जाती थीं। आख़िरकार जब उस की ज़िंदगी का आख़िरी वक़्त आ पहुंचा। तो उसी के सबसे क़रीबी शागिर्दों में से एक ने उसे गिरफ़्तार करा दिया। और बाक़ी उसे छोड़कर भाग गए। मगर इन मायूसियों के दर्मियान, अगरचे ये भी उस के दिल में गहरे ज़ख़्म करती थीं। उस को एक बात हमेशा तसल्ली देती रहती थी। और जब लोग उसे छोड़ जाते थे। तो वो हमेशा उन की तरफ़ से मुँह फेर कर एतिमाद के साथ अपने को ख़ुदा के सीने पर डाल दिया करता था। जिस क़द्र इन्सानी उल्फ़त में उसे मायूसी होती थी। उसी क़द्र ज़्यादा वो इलाही मुहब्बत के प्याले ज़्यादा शौक़ से पिया करता था। वो हमेशा इस अम्र से वाक़िफ़ था, कि जो कुछ वो कर रहा है। या जो कुछ उस पर बीत रहा है। वो सब कुछ रज़ा-ए-इलाही के मुवाफ़िक़ है। इस की हिस्सात (हिस्स की जमा) हमेशा ख़ुदा के दिल की हरकतों के साथ मुताबिक़त रखती थीं। ख़ुदा के ख़याल उस के ख़याल थे। और वो साफ़-साफ़ देख सकता था, कि किस तरह इलाही मशीयत व इरादा (ख़ुदा की मर्ज़ी और इरादा) उस की ज़िंदगी के तमाम मुख़्तलिफ़ वाक़िआत में एक आला क़िस्म का नतीजा पैदा कर रहा है। इसलिए वो बड़े इत्मीनान के साथ आख़िरी इशा के वक़्त भी, जब उस ने बारह शागिर्दों के थोड़े अर्से में उसे छोड़कर भाग जाने का ज़िक्र किया। कह सकता था “देखो वो घड़ी आती है। बल्कि आ पहुंची है कि तुम सब परागंदा हो कर अपने-अपने घर की राह लोगे। और मुझे अकेला छोड़ जाओगे तो भी मैं अकेला नहीं रहूंगा क्योंकि बाप मेरे साथ है।” लेकिन अब वक़्त आ पहुंचा था क्या ये उम्मीद पूरी हुई? वो परागंदा हो गए। जैसा कि उस ने पहले ही कह दिया था। और वह अब बिल्कुल अकेला रह गया था। लेकिन क्या वो अकेला नहीं था? क्या अब भी बाप उस के साथ था? उस के अपने ही कलाम से इस बात का जवाब मिलता है, “ऐ मेरे ख़ुदा। ऐ मेरे ख़ुदा तूने मुझे क्यों छोड़ दिया।”

(2)

      अगरचे इस मौक़े हमारे ख़ुदावन्द की दिली हालत उस हालत से जो हम जानते हैं कि उस के लिए एक मामूली आदत हो रही थी। बिल्कुल मुख़्तलिफ़ मालूम होती है। ताहम उस की ज़िंदगी की तारीख़ में ऐसा मौक़ा एक ही पेश नहीं आया। हम कम से कम दो और तजुर्बात से वाक़िफ़ हैं जो कुछ-कुछ उसी की मानिंद थे। और उन से शायद हमको इस के समझने में मदद मिले। पहला मौक़ा वो था, जब कि उस की ज़िंदगी के आख़िर हफ़्ते के शुरू में चंद यूनानी लोग उस से मिलने को आए। वो उस की मुलाक़ात के ख़्वाहां थे। और जब इन्द्रियास और फ़ेलबोस ने उन्हें उस की ख़िदमत में हाज़िर किया। तो बजाए इस के कि येसू ख़ुश हो जैसा कि उम्मीद की जाती थी। वो उल्टा दर्द व ग़म में पड़ गया और एक आह भर कर कहने लगा, आओ अब मेरी जान घबराती है। पस मैं क्या कहूं? ऐ बाप ! मुझे इस घड़ी से बचा। इन मुलाक़ातों को देखकर उसे याद आ गया कि ग़ैर अक़्वाम के लिए एक आलमगीर मिशन क़ायम करना कैसा अज़ीमुश्शान और उस के लिए निहायत दिलपसंद काम होता। ऐसा मिशन जो वो बड़ी ख़ुशी से क़ायम करता। बशर्ते के उस की ज़िंदगी उसे मौक़ा देती। लेकिन ये बात उस वक़्त नामुम्किन थी। क्योंकि ऐन-ए-आलम शबाब में उस के लिए मरना ज़रूरी था। दूसरा मौक़ा गतसमनी की जांकनी का मौक़ा था। अगर हम इस वाक़िये पर बड़े अदब व तवज्जोह से ग़ौर करेंगे। तो मालूम होगा, कि इस मौक़े पर किस तरह मसीह की मर्ज़ी बतद्रीज तरक़्क़ी करके अपने बाप की मर्ज़ी के साथ कामिल तौर पर मुत्तहिद हो गई। इन्सानी फ़ित्रत में ये अम्र दाख़िल है कि वो दर्जा बदर्जा व मंज़िल-ब-मंज़िल।

अठारहवां बाब
पांचवां कलमा सलीब पर से

      चौथा कलमा जो मसीह ने सलीब पर से फ़रमाया। ऐसा मालूम होता है, कि गोया वो उस कश्मकश के जो ख़ामोशी और तारीकी के तीन घंटों के असना में (जो उस के बोले जाने से पहले गुज़रे) ना सिर्फ आख़िरी हमले का, बल्कि उस कश्मकश से उस के दिल के ख़लासी पाने का इज़्हार भी करता है। इस ख़याल की मुक़द्दस यूहन्ना के तरीक़ बयान से भी तस्दीक़ होती है। जो इस पांचवें कलमे का इस तौर पर ज़िक्र करता है, कि “जब येसू ने जान लिया कि अब सब बातें तमाम हुईं ताकि नविश्ता पूरा हो तो कहा कि मैं प्यासा हूँ।”

      ये फ़िक़्रह “ताकि नविश्ता पूरा हो” उमूमन अल्फ़ाज़ “मैं प्यासा हूँ” के साथ मुल्हिक़ (जोड़ा) किया जाता है। गोया कि इस का ये मतलब था कि ये अल्फ़ाज़ कि “मैं प्यासा हूँ” उस ने किसी इस मज़्मून की पैशन गोई के पूरा होने के लिए कहे थे। और इस ग़र्ज़ के लिए लोगों ने सारा अहद-ए-अतीक़ छान मारा है।

      मगर इन अल्फ़ाज़ का जिनकी तरफ़ यहां इशारा पाया जाता है। कुछ पता नहीं चला। मगर मेरे नज़्दीक इस फ़िक़्रह को इस से पहली इबारत आईना ज़हन में पैदा होते हैं। उन की सूरत बिगड़ जाती है।

      मुम्किन है कि ख़ुदा की सूरत भी ऐसे आईने में अक्स अंगन हो कर जिस्मानी दर्द के ग़ुब्बारों की वजह से बिल्कुल ख़ौफ़नाक नज़र आने लग जाये।

      येसू के लिए इस मोहलिक दर्द की दहश्त शायद औरों की निस्बत ज़्यादा सख़्त होगी। क्योंकि उस का माद्दी जिस्म भी ज़्यादा नाज़ुक और सरीअ-उल-हिस्स (नर्म) था।



20  मैं प्यासा हूँ।
21  असल यूनानी में ये वही लफ़्ज़ है। जो ख़ुदावनद ने बाद अजां इस्तिमाल किया कि “पूरा हुआ।” जो मुम्किन है कि चौथा कलिमा हुआ।

उस का जिस्म गुनाह की वजह से कभी कसीफ़ (गाढ़ा, गंदा) होने ना पाया था। और इसलिए मौत उस के लिए एक अजनबी और ना-आश्ना चीज़ थी। तबई ज़िंदगी का रु जो ख़ुदा की एक बेशक़ीमत बख़्शिश है। उस के जिस्म में इफ़रात व पाकीज़गी के साथ बहता रहा था। लेकिन अब वो खींचा जा रहा था। और उल्टा बहने लगा था। एक कामिल फ़ित्रत की यगानगत में सख़्त ख़लल बरपा हो रहा था। और वो महसूस करने लगा कि अब वो इस ज़िंदा दुनिया से, जो उस की नज़रों में ख़ुदा की हुज़ूरी और नेकी से मामूर थी। दूर हटता जाता है। और फ़ना की सर दो ज़र्द ममल्कत के क़रीब होता जाता है वह मौत की मिल्कियत ना था। मगर इस वक़्त मौत के पंजे में गिरफ़्तार हो रहा था। कोई फ़रिश्ता उसे छुड़ाने के लिए ना आया। और वो अपनी हालत पर छोड़ा गया था।

      मगर ये बाआसानी नज़र आ सकता है कि इस जांकनी में जिससे एसी हैबतनाक चीख़ निकली। जिस्मानी दर्द से भी बढ़कर कोई बात थी। अगर गतसमनी में हम येसू की क़ुव्वत-ए-इरादी की जद्दो-जहद को देखते हैं कि किस तरह बतद्रीज उस ने बाप की मर्ज़ी के साथ कामिल इत्तिहाद हासिल किया। तो इस जगह हम उस की अक़्ली क़वा की जद्दो-जहद को मुलाहिज़ा करते हैं, कि किस तरह सलीब की घबराहट और मुख़ालिफ़त के दर्मियान वो आख़िरकार हिक्मत-ए-इलाही के साथ बिल्कुल मुत्तहिद हो गईं। उस की दर्द-नाक आवाज़ में जो अक़्ली अंसर शामिल था। वो लफ़्ज़ “क्यों” से बख़ूबी आश्कारा होता है। अब कभी अपने ख़ालिक़ से लफ़्ज़ “क्यों” कह कर ख़िताब करना पड़ता है, तो ये निहायत दर्द-नाक मौक़ा होता है। हम यक़ीन रखते हैं, कि वो इस दुनिया का शाहंशाह और हमारी क़िस्मत का मालिक है। और वो सारी दुनिया का इंतिज़ाम अपनी ला-महदूद हिक्मत और मुहब्बत के ज़रीये से करता है। लेकिन अगरचे अक़्ल-ए-इंसानी के लिए इस क़िस्म का एतिक़ाद रखना एक मुनासिब और सही हालत का निशान देता है। ख़ासकर उन लोगों में जो सच्चे पाबंद मज़्हब हैं। मगर जब आलम सग़ीर और आलम कबीर दोनों को कभी-कभी ऐसे नाज़ुक वक़्तों का सामना होता है। जब कि ईमान जवाब दे जाता है। दुनिया बे-तर्तीब हो रही है। मालूम होता है कि दुनिया का सारा इंतिज़ाम बिगड़ रहा है। ख़ुदा के हाथ से बागें छूट गई हैं। और निज़ामे आलम की गाड़ी बेबस हुई जाती है। क्योंकि ज़ाहिरन ऐसा मालूम होता है, कि दुनिया की रफ़्तार किसी अक़्ल व हिक्मत की



22  बाअज़ बंदगान मुसन्निफ़ का ख़्याल था कि इस वक़्त गोया इलाही और इन्सानी फ़ित्रत में जुदाई होने लगी थी।

पाबंद नहीं है। बल्कि अंधी और बेशऊर या बेरहम क़िस्मत के हाथ में है। ऐसे वक़्त में बेचारा इन्सानी ज़हन चिल्ला उठता है कि “क्यों?” अय्यूब की सारी किताब इसी सवाल व पुकार से भरी है। यर्मियाह नबी ने भी निहायत हैरत बख़्श दिलेरी के साथ ख़ुदा को भी “क्यों” कह कर पुकारा। मोहलक दर्द और जान्काह मायूसी और ऐसी जुदाइयों में जब कि दुनिया और रूह बिल्कुल ख़ाली और तारीक नज़र आने लगती हैं लाखों आदमी हर ज़माने में यही “क्यों” कह कर फ़र्याद करते रहे हैं। इस लफ़्ज़ से ज़ाहिरन बिल्कुल बेदीनी टपकती है। जब यर्मियाह नबी पुकार उठता है, कि “तू ने मुझे फ़रेब दिया। और मैंने फ़रेब खाया” या अय्यूब ये सवाल करता है कि “मैं माँ के रहम में ही क्यों ना मर गया? जब मैं पेट से निकला तो उसी वक़्त मेरी जान क्यों ना निकल गई?” तो ये किसी कुफ़्र बकने वाले की आवाज़ मालूम होती है। मगर फ़िल-हक़ीक़त ये गर्म-जोशी और लतीफ़ मिज़ाज रूहें ही हैं। जिनमें इस क़िस्म की मायूसी को घुसने का ज़्यादा मौक़ा मिलता है। जाहिल और ओछे, और इब्न-उल-वक़्त (वक़्त के बेटे) इस क़िस्म की हालत से बिल्कुल महफ़ूज़ हैं। क्योंकि वो दुनिया के मामूली रवैय्या और हालत से बिल्कुल मानूस और उस के दिल-दादा हैं। सख़्त दिल वाले बग़ैर किसी क़िस्म की तहक़ीक़ व तफ़्तीश के दुनिया की हालत पर क़ानेअ (क़नाअत, जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) करना रहते हैं। मगर जिस क़द्र सच्ची दीनदारी ज़्यादा हो। उसी क़द्र आदमी ख़ुदा के जलाल और अदल के लिए ज़्यादा ग़ैर तमंदि होता जाता है। अगर दुनिया की हुकूमत व इंतिज़ाम में कोई अम्र ख़िलाफ़ अक़्ल व हिक्मत नज़र आए, तो उसे शाक़ (मुश्किल) गुज़रता है। दुनिया के इंतिज़ाम में ख़ुदा की रहमत व हिफ़ाज़त के निशान-ए-क़दम देखने उस की ज़िंदगी के लिए ज़रूरी हैं। और इसलिए जब इस क़िस्म की शहादतें पोशीदा हो जाती हैं। तो उसे सख़्त दुख होता है। अब आलम की तमाम बे एतिदालियाँ और इख़्तिलाफ़ात गलगता में मुत्जमाअ (इखट्टे) हो रहे थे। बेइंसाफ़ी की फ़त्ह थी। बेगुनाही से अदावत थी। और वो पामाल हो रही थी। हर एक चीज़ जो कुछ कि उसे होना मुनासिब था। बिल्कुल उस के उलट नज़र आती थी। और “कहा “क्यों” जो सितम-रसीदा दिलों से। जो ख़ुदा की इज़्ज़त के लिए ग़ैर-तमंदि मगर उस की तक़्दीर के भेदों से नावाक़िफ़ थे, निकलते रहे हैं। वो सब मसीह के इस “क्यों” में जमा हो रहे थे।

      मसीह हमसे किस क़द्र क़रीबतर है। शायद अपनी ज़िंदगी-भर वो कभी अपने बेचारे इन्सानी भाईयों से इस क़द्र क़रीब और मुत्तहिद ना था। जैसा कि इस वक़्त जब कि हम दर्द या मुसीबत, जुदाई या मौत से रूबरू होते हैं। बल्कि जब ऐसा दुख उठा रहे हों, जो सब दुखों से परे है। और ऐसा हैबतनाक है, कि उस की मौजूदगी में दिमाग़ चकरा जाता है। और ईमान व उम्मीद जो ज़िंदगी की आँखें हैं, अंधी हो जाती हैं। हाँ वो हैबतनाक मौक़ा जब कि आलम ख़ुदा से ख़ाली नज़र आता है। और ऐसा मालूम होता है, कि गोया वो एक डरावना और बर्बाद होने वाला और माद्दा का एक बे-तर्तीब ढेला है। जिसकी ना तो कोई अक़्ल रहनुमाई करती है। और ना कोई मुहब्बत उसे सहारा देने है।

      क्या हम इस राज़िली तारीकी में एक और क़दम आगे उठा सकते हैं? सबसे गहरा सवाल ये है कि आया मसीह का इस तौर से छोड़ा जाना ज़ाहिरी था या बातिनी या यूं कहो कि क्या मह्ज़ जिस्मानी कमज़ोरी और चश्म-ए-बसीरत के आरिज़ी तौर पर धुँदला जाने की वजह से उसे ऐसा महसूस होने लगा कि गोया वो छोड़ा गया है। या क्या इन अल्फ़ाज़ के हक़ीक़ी माअनों में ख़ुदा ने सच-मुच उसे छोड़ गया है। अलबत्ता हम इस अम्र से ख़ूब वाक़िफ़ हैं कि ख़ुदा उस से अज़-हद राज़ी व ख़ुश था। और शायद ऐसा कभी नहीं होगा। जैसा उस वक़्त जब कि वो अपने को दूसरों के लिए क़ुर्बान कर रहा था। लेकिन क्या उस के साथ ही इलाही ज़ात के दूसरे पहलू ने भी उसे चमकारा दिखा दिया। या यूं कहो कि इलाही ग़ज़ब की बिजली उस पर चमकी। कल्वरी पर दिल-ए-इन्सानी का एक निहायत ख़ौफ़नाक इज़्हार हुआ। जिसकी अदावत ने ख़ुदा की मुहब्बत के कामिल मुकाशफ़े को जैसा कि मसीह में हुआ। अपना निशाना बनाया था। वहां इन्सान का गुनाह अपनी हद को पहुंच गया। और जो कुछ बदी उस से होनी मुम्किन थी कर गुज़रा। जो कुछ इस महल (मौक़ा) पर मसीह के ख़िलाफ़ और ख़ुदा के ख़िलाफ़ जो मसीह में था, हुआ। वो गोया सारे आलम के गुनाह का मजमूआ और उस का लुब्ब-ए-लुबाब (ख़ुलासा) था। और बिला-शुब्हा ये बात थी, जो इस वक़्त येसू को दबा रही थी। “यही उस की जान का दुख था। वो अब क़रीब से गुनाह की बदसूरती पर नज़र कर रहा था। उस के एहसास से उसे घिन आती थी। वो उस की वहशत व ज़बरदस्ती से पामाल। हाँ मौत तक पामाल हो रहा था। मगर ये इन्सानी फ़ित्रत उस की अपनी थी। वो उस के साथ एक हो गया था। वो उस की हड्डी, और गोश्त में का गोश्त था। और जैसे कि एक बद-अतवार ख़ानदान में सारे ख़ानदान के कर्ज़ों और शर्मनाक कारवाइयों का बोझ एक बहन के सिर पर जो शाइस्ता और लतीफ़ ख़ल्क़त हो, पड़ता है। इसी तरह उस ने भी उस क़ौम की नालायक़ी और नाउम्मीदी को महसूस किया। गोया कि उस की अपनी ही थी। और उस चलावए (बर्रे) की तरह जिनके सर पर क़दीमी शरीअत के मुताबिक़ जमाअत से लोगों के गुनाह रखे जाते थे। वो भी फ़रामोशी की ज़मीन में निकल गया।

      यहां तक हम जान सकते हैं। और महसूस करते हैं, कि हमारे पांव के नीचे खड़े होने को पुख़्ता ज़मीन है। मगर बहुत लोग इस से भी आगे चले गए हैं। ख़ुद लूथर और कोलोन भी ये लिख गए हैं, कि उन घंटों में जो इस से पहले गुज़रे। हमारे ख़ुदावन्द ने वो अज़ाब और ईज़ाएं सहीं, जो रांदा-ए-दरगाह इलाही (ख़ुदा की हुज़ूरी से निकला हुआ) का हिस्सा हैं। और अम्बाख़ नामी एक और आलिम ने जिसके तफ़क्कुरात बर-सऊबात मसीह (तकलीफ़ें) सैंकड़ों बरस तक जर्मनी के दीनदारों की ख़ुराक रही हैं। लिखा है कि “ख़ुदा उस वक़्त उस के साथ ऐसा बर्ताव नहीं कर रहा था, जैसा कि रहीम बाप अपने बच्चे के साथ करता है। बल्कि ऐसा जैसा कि एक नाराज़ शूदा रास्तबाज़ क़ाज़ी एक बद-किर्दार के साथ करता है। आस्मानी बाप इस वक़्त अपने बेटे को सबसे बड़ा गुनेहगार जो सूरज के नीचे मिलना मुम्किन हो समझता है। और अपने सारे ग़ज़ब को उस पर उंडेल देता है।” लेकिन अगर हम इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ का इस्तिमाल करें, तो हम अपनी हद से आगे बढ़ रहे हैं। पाक नविश्तों की और बंगल साहब की सादा तश्रीह ज़्यादा क़ाबिल-ए-तर्जीह है। “इस चौथे कलमे में हमारा नजातदिहंदा ना सिर्फ ये फ़रमाता है कि वो आदमियों के हाथों में सपुर्द कर दिया गया बल्कि ये भी कि उस ने ख़ुदा के हाथों भी कोई नाक़ाबिल-ए-बयान तक्लीफ़ उठाई है। यक़ीनन यहां कोई ऐसी बात है जो बिल्कुल नाक़ाबिल-ए-बयान है।” हमने जहां तक हमारी बिसात में था। इस राज़ मख़्फ़ी (छिपी) (छिपे) की तह तक पहुंचने की कोशिश की है। लेकिन हम जानते हैं, कि हम अभी तक इस नापैद अकनार-ए-समुंद्र के साहिल पर फिर रहे हैं। और ये गहरा और नामालूम समुंद्र हमारे सामने फैला हुआ है।

(3)

      इस फ़र्याद को किसी माअनों में एक फ़त्ह का नारा ठहराना शायद बाअज़ अश्ख़ास को एक बनावटी बात मालूम हो। लेकिन अगर जो कुछ हम ऊपर लिख चुके हैं, सच्च है। तो ये मौक़ा जो सबसे सख़्त दुख और दर्द की घड़ी थी। इस घड़ी में एक कारनुमायां भी सरअंजाम पा गया। जैसे कि फूल को कुचल कर इस में से इत्र निकालते हैं इसी तरह वो भी दुनिया के गुनाहों को अपने दिल में लेकर दुनिया के लिए नजात ख़रीदने का ज़रीया हुआ।

      और अगर सच पूछो तो सारी तारीख़ इस अम्र की शाहिद (गवाह) है कि ये इसी घड़ी में था कि मसीह ने बनी-आदम का दिल फ़त्ह कर लिया। इस से बहुत दिन पहले वो फ़र्मा चुका था कि “मैं अगर ज़मीन से ऊपर उठाया जाऊं। तो सारे आदमियों को अपनी तरफ़ खीचूँगा” और इस क़ौल की सदाक़त सफ़ा-ए-तारीख़ से आश्कारा (ज़ाहिर) है। सलीब पर लटकता हुआ मसीह उस घड़ी से लेकर हमेशा इन्सान के दिल को अपना फ़रेफ़्ता और गरवीदा (आशिक़ व दिलदादा) करता रहा है। बनी-आदम के दिल व दिमाग़ हमेशा उस की तरफ़ खींचे जाते हैं। और इस का मुतालआ करते-करते कभी नहीं थकते। और इस फ़र्याद की पुकार वह आला नुक़्ता है, जिसकी तरफ़ तमाम सोचने वाले दिल ख़ास कर मुतवज्जोह होते हैं। थियालोजी यानी इल्म-ए-इलाही का मर्कज़ भी सलीब ही है। अलबत्ता बाअज़ वक़्त वो ज़रा इस से पहलूतही करती रही है। और इसे छोड़ कर और और मज़ामीन में भटकती फिरी है। मगर जूंही वो गहरी बातों में दिल लगाने और अजुज़ व फ़िरोतनी का वतीरा (तरीक़ा) इख़्तियार करती है। वो हमेशा इसी मज़्मून की तरफ़ लौटती है।

      हाँ जब वो आजिज़ व फ़रोतन होती है। ताइब (तौबा करने वाली) रूहें सलीब की तरफ़ खींची जाती हैं। और जिस क़द्र उन की तौबा ज़्यादा गहरी हो उसी क़द्र उनका दिल उस में ज़्यादा लगता है। वो मरते हुए नजातदिहंदा के पास आकर खड़े होते हैं और कहते हैं, ये मसाइब सब हम पर वाक़ेअ होने चाहिए थे। हमारी ज़िंदगी पर हमारे जराइम के सबब मौत का फ़त्वा लग चुका था। इस तौर पर हमारा ख़ून बहना चाहिए था। और अगर हम हमेशा के लिए इस जिलावतनी के दश्त (सहरा) में डाले जाते तो ऐन इन्साफ़ होता। लेकिन जब वो इस तौर पर इक़रार करते हैं। तो उन की वारफ़्ता ज़िंदगी उन्हें मसीह की ख़ातिर से वापिस मिल जाती है। और ख़ुदा का इत्मीनान उन के दिलों पर नाज़िल होता है। और मुहब्बत और ख़िदमत की नई ज़िंदगी शुरू हो जाती है। सबसे आला मसीही रस्म भी हमें इसी मुक़ाम पर लाती और ऐन उसी मौक़े की याद दिलाती है। “ये मेरा नए अहद का ख़ून है। जो बहुतों के गुनाहों की माफ़ी के लिए बहाया गया।''

      मगर सिर्फ इन्हीं गहरे माअनों के लिहाज़ से ही मसीह का चौथा कलमा फ़त्ह व नुस्रत (जीत) का नारा ना था। बल्कि इन माअनों में भी कि उस के ज़रीये से उसे दिल के ग़म व ग़ुस्से और बोझ से नजात मिल गई।

      बयान किया जाता है, कि जब यूनानियों से मुलाक़ात के वक़्त उस ने आह भर कर कहा कि “बाप मुझे इस घड़ी से बचा।” तो उस ने फ़ील-फ़ौर अपने को रोक लिया। और फ़रमाया “बाप अपने नाम को जलाल बख़्श” इसी तरह गतसमनी में जब उस ने दुआ की कि “अगर ये मुम्किन हो। तो ये पियाला मुझसे दूर हो जाये” तो फ़ील-फ़ौर ये फ़रमाया कि “तो भी मेरी मर्ज़ी नहीं। बल्कि तेरी मर्ज़ी पूरी हो” मगर इस मौक़े पर इस मायूसी की फ़र्याद के साथ उस ने कोई लफ़्ज़ ना फ़रमाया। जिससे तवक्कुल व तस्लीम ज़ाहिर हो। लेकिन ये समझना सख़्त ग़लती है। ख़ुद इस आवाज़ा से है। अगर ये वो मायूसी की फ़र्याद मालूम होती थी। उस के ईमान की मज़बूती अयाँ (ज़ाहिर) है। देखो वो किस तरह अपने दोनों हाथों से अबदियत का दामन पकड़ता है। “ऐ मेरे ख़ुदा। ऐ मेरे ख़ुदा” ये एक दुआ है। तहक़ीक़ात व आज़माईश के दिनों में उस ने हज़ार-हा दफ़ाअ इस तसल्ली व क़ुव्वत के वसीले को इस्तिमाल किया होगा। और वो इस दुख की सख़्त घड़ी में ऐसा ही करता है। ऐसा करने से मायूसी जाती रहती है। जो शख़्स ये कह कर दुआ मांग सकता है, कि “ऐ मेरे ख़ुदा” वो कभी नहीं छोड़ा जाता। जैसे कि एक आदमी गहरे पानी में हो। और तह में उस के पांव ना लगें। तो वो मायूसी की हालत में आगे को एक छलांग लगाता है। और ज़मीन पर जा पहुंचता है। इसी तरह मसीह ने इस मायूसी की फ़र्याद करते हुए उस पर ग़लबा हासिल कर लिया। ये महसूस कर के ख़ुदा ने उसे तर्क कर दिया है। वो ख़ुदा ही की गोद की तरफ़ दौड़ा। और ख़ुदा के हाथों ने पिदराना मुहब्बत के साथ उसे अपनी गोद में छिपा लिया। चुनान्चे जब वो तारीकी जो ज़मीन पर छा गई थी। नौवीं घंटे के क़रीब दूर हो गई। उसी वक़्त उस का ज़हन भी इस तारीकी से जिसने उसे धुँदला दिया था, साफ़ हो गया। और उस के आख़िरी कलमात मामूली इत्मीनान और सलामती की हालत में कहे गए।

अठारहवां बाब
पांचवां कलमा सलीब पर से

      चौथा कलमा जो मसीह ने सलीब पर से फ़रमाया। ऐसा मालूम होता है गोया वो इस कश्मकश के (जो ख़ामोशी और तारीकी के तीन घंटों के असना में जो उस के बोले जाने से पहले गुज़रे) ना सिर्फ आख़िरी हमले का बल्कि उस कश्मकश से उस के दिल के ख़लासी पाने का इज़्हार था। इस ख़याल की मुक़द्दस यूहन्ना के तरीक़-ए-बयान से भी तस्दीक़ होती है। जो इस पांचवें कलमे का इस तौर से ज़िक्र करता है कि “जब येसू ने जान लिया कि अब सब बातें तमाम हुईं ताकि नविश्ता पूरा हो तो कहा कि मैं प्यासा हूँ।” ये फ़िक़्रह “ताकि नविश्ता पूरा हो” उमूमन अल्फ़ाज़ “मैं प्यासा हूँ” के साथ मुंसलिक किया जाता है। गोया इस का ये मतलब था कि ये अल्फ़ाज़ कि “मैं प्यासा हूँ” उसने किसी इस मज़्मून की पेशीनगोई के पूरा होने के लिए कहे थे। और इस ग़र्ज़ के लिए लोगों ने पूरे अहद-ए-अतीक़ को छान मारा है। मगर इन अल्फ़ाज़ का जिनकी तरफ़ यहां इशारा पाया जाता है कुछ पता नहीं चला।

      मेरे नज़्दीक इस फ़िक़्रह को इस से पहली इबारत के साथ मुल्हिक़ (जोड़ना) करना बेहतर होगा कि “येसू ने ये जान कर कि अब सब बातें पूरी हुईं” यानी जब उस का काम जो ख़ुदा ने मुक़र्रर किया था। और जिसकी पाक नविश्तों में हिदायत थी इख़्तताम को पहुंच चुका। तो उसे अपनी जिस्मानी ज़रूरियात का ख़याल आया। और वो बोला “मैं प्यासा हूँ।” जब कभी कोई आदमी किसी ख़याल में ग़र्क़ होता है तो वो उमूमन अपनी जिस्मानी ज़रूरियात से ग़ाफ़िल हो जाया करता है। बल्कि यहां तक कि किसी दिलचस्प किताब को पढ़ते हुए नींद और ख़ुराक का घंटों ख़याल तक भी नहीं आता। और जब आदमी इस महवियत के आलम से निकलता है तो उसे मालूम होता है, कि वो कैसा दरमांदा (निढाल) हो रहा है। ब्याबान में जब मसीह आज़माया गया। तो उस वक़्त भी वो ऐसा महव हो रहा था, कि उसे जिस्मानी ज़रूरियात की कुछ फ़िक्र ना थी। लेकिन जब ये रुहानी तवग्गुल (एक काम में बहुत लगे रहना) दूर हो गया। तो “उस के बाद उसे भूक लगी।”

      मौजूदा हालत में जब वो इस रुहानी ग़शी से बरामद (निकलना) हुआ। तो उसे प्यास लगी। मुझे एक दफ़ाअ एक जर्मन तालिबे इल्म से जो इस जंग में जो फ़्रांस और परशिया के माबैन (दर्मियान) वाक़ेअ हुई शामिल था। गुफ़्तगु का इत्तिफ़ाक़ हुआ। वो एक लड़ाई में जो पैरिस के क़रीब वाक़ेअ हुई थी। ज़ख़्मी हो गया। और मैदान में पड़ा रह गया। क्योंकि हिल-जुल नहीं सकता था। उसे ठीक ठीक मालूम ना था, कि उस का ज़ख़्म



23  मैं प्यासा हूँ।
24  असल यूनानी में वही लफ़्ज़ है। जो ख़ुदावनद ने बादअज़ां इस्तिमाल किया “कि पूरा हुआ” जो मुम्किन है कि चौथा कलमा हो।

किस क़िस्म का है मगर उसे ये ख़याल गुज़रा कि शायद वो मर रहा है। दर्द बशिद्दत हो रही थी। और उस इर्द-गिर्द ज़ख़्मी और क़रीब-उल-मर्ग आदमी आह नाला कर रहे थे। लड़ाई अभी ज़ोरों पर थी। और गोले हर तरफ़ गिरते और ज़मीन को शक़ (फाड़ना) किए दिए थे। लेकिन थोड़ी देर के बाद एक और क़िस्म की दर्द सब दुखों पर हावी हो गई। और वो बहुत जल्द अपने ज़ख़्म और ख़ौफ़ व दहश्त बल्कि अपने हमसाइयों को भी भूल गया। ये प्यास की शिद्दत थी। वो उस वक़्त दुनिया भर को एक क़तरा पानी के लिए दे डालता। सलीब के वक़्त भी सबसे ज़्यादा तक्लीफ़ इसी से होती थी। इस ख़ौफ़नाक तरीक़ सज़ा की ईज़ाएं निहायत मुख़्तलिफ़ और सख़्त क़िस्म की हुई थीं। मगर थोड़ी देर के बाद वो सब इसी एक मर्कज़ यानी शिद्दत की प्यास में ऐसी जमा हो जाती थीं, कि फिर सिवाए इस के और किसी दर्द का ख़याल तक ना रहता था। और इसी तक्लीफ़ के बाइस ख़ुदावन्द का पांचवां कलमा उस के मुँह से निकला।

(1)

      जिस्मानी दर्द के मुताल्लिक़ सिर्फ यही एक क़ौल था। जो ख़ुदावन्द ने सलीब पर से फ़रमाया। जैसा हम पहले लिख चुके हैं। मस्लूब आदमी के वास्ते ये एक मामूली बात हुआ करती थी, कि जब उसे मेख़ों से सलीब पर जोड़ने लगते थे। तो वो या तो जल्लादों



25  उसे इस वक़्त चार या इस से ज़्यादा घंटे सलीब पर लटके हो चुके थे। वो आधी रात के क़रीब गिरफ़्तार हुआ था। मज़हबी अदालत क़रीब तुलू-ए-आफ़्ताब ख़त्म हुई। पीलातुस की अदालत में वो छः से नौ बजे तक या इस से ज़्यादा अरसा रहा होगा। वो दोपहर के क़रीब सलीब पर खींचा गया। और दोपहर से तीन बजे तक तारीकी छाई रही। और इस वक़्त और शाम के दर्मियान मौत और तदफ़ीन वाक़ेअ हुईं। देखो मत्ती 27:1 मर्कुस 15:25, 33, 24, 42 मुक़द्दस यूहन्ना के बयान से वक़्त की बाबत 19:14 एक मुश्किल पैदा होती है। वो किसी और तरीक़ से वक़्त का शुमार करता है। देखो एंड्यूज़ साहब की हयात मसीह सफ़ा 545 इसी आयत में मुक़द्दस यूहना बयान करता है कि “वो फ़सह की तैयारी थी।” क्या इस के मअनी हैं ईद के शुरू होने से पहले का दिन। या फ़सह के हफ्ते के शुरू होने का सबत ? और भी ऐसे इशारात हैं। जिनसे ये ख़्याल किया जाता है कि मुक़द्दस यूहन्ना के नज़दीक सलीब फ़सह के शुरू होने के माक़ब्ल रोज़ में वाक़ेअ हुई। हालाँकि पहली तीन अनाजील इसे इस के बाद ठहराती हैं। ख़ासकर देखो यूहन्ना 18:28 सवाल ये है कि आया फ़सह के मअनी फ़सह का बर्रा है या गलीलर या उर्फ़ जो उस दावत का जो दूसरे दिन वाक़ेअ होती थी एक हिस्सा था इस मसअले…..बहुत कुछ कहा गया है।

की बेफ़ाइदा मिन्नत समाजत करने लगता था, कि उसे इस मुसीबत से छुड़ा दें। या उल्टा उन्हें गाली गलोच देने लगता था। मगर उस वक़्त येसू ने एक कलमा भी नहीं कहा। इस के बाद भी बावजूद ये कि हर घड़ी उस का दर्द बढ़ता जाता था। उस ने बराबर अपनी तबीयत पर क़ाबू रखा और इस अर्से में वो या तो दूसरों की ख़बरगीरी में या ख़ुदा से दुआ मांगने में मशग़ूल रहा।

      ये सब्र व तहम्मुल की एक निहायत अज़ीमुश्शान मिसाल है। और इस से हमारी नज़ाकत पसंदी, और दर्द व तक्लीफ़ से पहलूतिही करने की आदत पर सख़्त मलामत होती है। हम कैसे ज़रा ज़रा सी बात पर चिल्लाने लगते हैं। और अगर हमें ज़रा सी भी तक्लीफ़ या ज़रर (नुक़्सान) पहुंचे। तो हम कैसे चिड़ चिड़े और बदमिज़ाज बन जाते हैं। और सर हो या दर्द दंदान (सर या दाँत) का दर्द ज़ुकाम हो, या कोई और शिकायत। बस मिज़ाज पर क़ाबू छोड़ने के लिए काफ़ी बहाना मिल गया। और सारा घर भर है कि आपके सबब से बेचैन हो रहा है इसी लिए मुसीबत से जो फ़ायदा हमें पहुंचना चाहिए। हम उस से महरूम रहते हैं। इस से बाअज़ तबीयतें तो बिल्कुल तुर्श और खुदगर्ज़ हो जाती हैं। अक्सर मरीज़ इसी गुनाह में गिरफ़्तार हैं। वो अपनी दर्द व तक्लीफ़ में ऐसे महव हो जाते हैं, कि सारा घर उन के मिज़ाज-दारी का ग़ुलाम बन जाता है। मगर बहुत ऐसे भी शरीफ़ मिज़ाज हैं कि वो इस आज़माईश पर ग़ालिब आ जाते हैं। और इस अम्र में वो अपने नजातदिहंदा के नमूने पर चलते हैं। ऐसी बीमारी के कमरे भी हैं। जहां जाना इन्सान की रूह को तक़वियत बख़्शता है। हम जानते हैं। कि इस जगह एक शख़्स निहायत शिद्दत की दर्द से जान बल्ब (मर रहा है) हो रहा है। मगर जब तकिये पर नज़र करो। तो एक शीरीं और मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) सूरत नज़र आती है। उस की आवाज़ से बशाशत (ख़ुशी) और शुक्र गुज़ारी टपकती है। और बजाए इस के कि अपने आप में महव हो जाये। वो दूसरे के लिए फ़िक्रमंद हो रहा है। मुझे इस वक़्त एक ऐसी ही बीमार का हाल याद आता है। जिसका ज़िक्र एक दोस्त ने मुझे सुनाया था। इस के कमरे में हर तरफ़ बशाशत (ख़ुशी) और कारोबार का दौर दौरा नज़र आता था। साल के एक हिस्से में वहां सूज़न कारी और और छोटी छोटी चीज़ों की जो वो हिन्दुस्तान के मिशन स्कूलों के लिए तैयार किया करती थी। एक ख़ास नुमाइश-गाह लगा करती थी। इस दूर दराज़ मुल्क के लड़कों की जरूरतों का ख़याल करने से ये मरीज़ा ना सिर्फ अपनी तकालीफ़ का मुक़ाबला दिलेरी से कर सकती थी। बल्कि ख़ुदा के काम और ख़ुदा के बंदों के साथ एक दिल पसंद ताल्लुक़ क़ायम रखती थी। लेकिन उस की हालत ऐसी थी कि अगर वो चाहती तो कुछ भी काम काज ना करती। और उस को कोई भी क़ाबिल इल्ज़ाम ना समझता। और बजाए इस के वो अपने घर के लोगों को दिक़ करती और उन के लिए तक्लीफ़ दबे आरामी का बाइस होती।

      लेकिन मसीह के इस कलमे में बर्दाश्त से भी बढ़कर एक और बड़ा सबक़ निकलता है। उस ने जिस्मानी तक्लीफ़ के इज़्हार में गो सिर्फ एक ही कलमा बोला। मगर बोला तो सही। उस की खोद-ए-ज़बती में किसी क़िस्म की बे-एतिनाई या ग़ुरूर ना था। तक्लीफ़ के वक़्त बाअज़ आदमी फ़क़त अपनी तक्लीफ़ को ज़ोर से दबा कर ख़ामोश रहते हैं।

      जब कि अपनी हिम्मत को इस अम्र (काम) पर आमादा (राज़ी) कर के ये ठान लेते हैं कि ख़्वाह कुछ ही क्यों ना हो। किसी को उन के मुँह से उफ़ सुनने का मौक़ा ना मिले। वो अपनी ख़ामोशी को बरक़रार रखने में, तो कामयाब होते हैं। मगर इस में कुछ लुत्फ़ नहीं। उन के दिल में तो कोई मुहब्बत या सब्र व तहम्मूल का ख़याल नहीं। मगर फ़क़त क़ुव्वत-ए-इरादी का ज़ोर दिखाई देता है। इस क़िस्म की आज़माईश ख़ासकर उस वक़्त वारिद होती है। जब कोई शख़्स हमें नुक़्सान पहुंचाए। और हम नहीं चाहते कि उस पर ज़ाहिर हो कि हमको इस से किस क़द्र दुख पहुंचा है। ताकि उसे हमारी तकालीफ़ देखकर ख़ुश होने का मौक़ा ना मिले। येसू ऐसे आदमियों से घिरा हुआ था। जिन्हों ने उस पर सख़्त ज़ुल्म व सितम किया था। ना सिर्फ उस को जिस्मानी तक्लीफ़ पहुंचाई थी। बल्कि उस की तक्लीफ़ पर हंसते और फपतियां (मज़ाक़ करना) उड़ाते रहे थे। अगर वो चाहता तो ये इरादा कर लेता। कि अपनी तकालीफ़ को उन पर ज़ाहिर ना करे। या कम से कम ये कि उन से किसी क़िस्म की मेहरबानी का तलबगार ना हो। बाज़ औक़ात किसी से मेहरबानी का तलबगार होना बनिस्बत दूसरे पर मेहरबानी करने के ज़्यादा मुश्किल मालूम होता है। क्योंकि इस के लिए ज़्यादातर ऐसे मिज़ाज की ज़रूरत पड़ती है, जो दूसरों की तक़सीरों (गुनाहों) के माफ़ करने पर आमादा हो। मगर येसू ने दूसरों से मेहरबानी की दरख़्वास्त ही ना की बल्कि उस के हासिल होने का भी उम्मीदवार था। अगरचे उन लोगों ने जिनसे वो उस का ख़्वाहां (ख़्वाहिशमंद) हुआ। उस के साथ निहायत शर्मनाक सुलूक किया था। तो भी उसे यक़ीन था कि उन के दिल की तह में अब भी शायद कोई ना कोई नेकी का ख़याल बाक़ी हो। वो ज़िंदगी-भर इस अम्र का आदी रहा था, कि जिन लोगों की निस्बत ये ख़याल किया जाता था, कि उन में नेकी का ज़र्रा भी बाक़ी ना होगा। वो उन लोगों में कोई ना कोई नेकी दर्याफ़्त कर लिया करता था। और आख़िर दम तक वो अपने इस यक़ीन पर क़ायम रहा। दुनिया का ये मक़ूला है कि सब आदमियों को बदमाश समझो। जब तक कि उस के ख़िलाफ़ सबूत ना मिले। ख़ासकर जब किसी का कोई दुश्मन होता है। वो उस की निस्बत बहुत ही बुरा ख़याल रखता है। और जहां तक मुम्किन हो। उस के चाल चलन की निहायत ही स्याह तस्वीर जिसमें सफ़ेदी को दख़ल तक ना हो खींचता है। जिनसे हम इख़्तिलाफ़ रखते हैं। हम हमेशा कमीनगी और अदना मक़ासिद को उन की तरफ़ मन्सूब किया करते हैं। और अगर कोई उन के हक़ में कलमा ख़ैर कहे तो यक़ीन नहीं करते। मगर मसीह का ये तरीक़ ना था। वो यक़ीन करता था। कि इन संगदिल रोमी सिपाहियों में भी इन्सानी मुहब्बत व मेहरबानी का कोई ना कोई क़तरा ज़रूर बाक़ी होगा। और वो इस अम्र में मायूस ना हुआ।

(2)

      इस फ़र्याद को सुनकर जिससे इस क़द्र बेचारगी और अजुज़ ज़ाहिर होता है। ख़्वाह-मख़्वाह ख़ुदावन्द के दूसरे अल्फ़ाज़ जो इस के बिल-मुक़ाबिल मालूम होते हैं। याद आ जाते हैं। क्या मुम्किन है कि ये वही शख़्स है। जो इस से थोड़े ही रोज़ पहले यरूशलेम में खड़ा पुकार रहा था, कि “अगर कोई आदमी प्यासा है तो मेरे पास आए और पिए?” क्या ये वही है। जो याक़ूब के कुवें पर खड़ा सामरी औरत से इस चशमे की तरफ़ इशारा कर के कह रहा था, “जो कोई इस पानी में से पीएगा, फिर पियासा होगा। मगर जो कोई वो पानी जो मैं दूंगा पिएगा कभी प्यासा ना होगा। बल्कि वो पानी जो मैं दूंगा। उस के अंदर पानी का चशमा बन जाएगा। जो अबदी ज़िंदगी तक उबलता रहेगा?” क्या ये शख़्स वही है। जो इस तौर पर सारी दुनिया की प्यास बुझाने का दावेदार था। और अब सख़्त दरमांदगी की हालत में फुसफुसा रहा है कि “मैं प्यासा हूँ।”

      हाँ ये वही है। और ये इख़्तिलाफ़ व तक़ाबुल ख़ुदावन्द की सारी ज़िंदगी-भर उस की बातिनी दौलत-मंदी और बैरूनी इफ़्लास (ग़रीबी) में बराबर नज़र आता है। वो सारी दुनिया को दौलतमंद बनाने की क़ुद्रत रखता था। मगर ख़ुद उस की ज़ाती ज़रूरियात उन औरतों की इमदाद से जो उस की पैरौ (मानने वाली) थीं। पूरी होती थीं। वो ये कह सकता था। कि “मैं ज़िंदगी की रोटी हूँ” लेकिन बाअज़ औक़ात वो रोटी के ना मिलने से फ़ाक़ा करने पर मज्बूर था। वो अपने ईमानदारों से तख़्तों और बहुतेरे महलों का वाअदा कर सकता था। लेकिन वो अपनी निस्बत कहता था, कि “लोमड़ियों की मांदें हैं। और हवा के परिंदों के लिए घोंसले। मगर इब्ने-आदम के पास इतनी जगह नहीं। जहां अपना सर रखे।”

      इस दुनिया परस्त ज़माने में जब कि आदमी की हैसियत का उस के माल व दौलत से अंदाज़ा किया जाता है। और जब कि खाने पीने और पहनने की चीज़ों की फ़िक्र हर-दम लोगों के सर पर सवार रहती है। इस बात को हर वक़्त याद रखना फ़ायदे से ख़ाली ना होगा। बनी इन्सान के शरीफ़ अस्हाब बहुत कम ऐसे गुज़रे हैं। जिन्हें ऐश व इशरत में बसर करने का मौक़ा मिला हो। और वो आदमी जिन्हों ने अक़्ली व ज़हनी माल व दौलत से बनी इन्सान को दौलतमंद बना दिया। वो अक्सर टुकड़े-टुकड़े के मुहताज फिरा करते थे। अक्सर लोगों ने हावनी का नाम सुना होगा। जिसका नाम उलूम इकदीमा की इशाअत के साथ वाबस्ता हो रहा है जब ये साहब तालिबे इल्म थे। बल्कि उस वक़्त भी जब वो उलमाए क़दीम की बेशक़ीमत तस्नीफ़ात के नए नए एडीशन छापकर मुल्क जर्मनी के लिट्रेचर को माला-माल कर रहे थे। तो वो बेचारा भूकों मरा करता था। और बाअज़ औक़ात फलों के छिलकों, या और ऐसी चीज़ों पर जो गलियों में से बटोर लाता था, गुज़ारा किया करता था। डाक्टर समुएल जॉनसन जिसने पहले-पहल अंग्रेज़ी ज़बान की लुगात और इस के इलावा और उम्दा उम्दा किताबें तस्नीफ़ कीं। और जिस की सारी दुनिया मक़रूज़ (क़र्ज़दार) है। जब वो इन आला तसानीफ़ात में मशग़ूल था। तो उस के पास जूती तक ना थी। जिसे पहन कर बाहर निकले। और अक्सर औक़ात ये नहीं जानता था, कि शाम का खाना क्योंकर नसीब होगा। तारीख़ इस क़िस्म के लोगों के नामों से भरी पड़ी है। जो अगरचे ख़ुद निहायत मुफ़्लिस व लाचार थे। मगर अपनी मेहनतों से दुनिया को माला-माल कर गए।

      इस से ये नतीजा हरगिज़ नहीं निकालना चाहिए, कि बातिनी दौलत के हुसूल के लिए ज़ाहिरन मुफ़्लिस व नादार होना ज़रूरी है। जो लोग ज़ाहिरन मुफ़्लिस हैं। वो हमेशा रुहानी दौलत से माला-माल नहीं होते। बल्कि अफ़्सोस से इक़रार करना पड़ता है, कि उन में से लाखों ऐसे हैं, कि जैसे जिस्मानी लिहाज़ से मुफ़्लिस हैं। वैसे ही बल्कि इस से भी बढ़कर ज़हनी और अख़्लाक़ी लिहाज़ से भी निकम्मे हैं। बल्कि ये भी कहा जा सकता है, कि बतौर क़ायदा कुल्लिया के जो लोग बातिनी दौलत रखते हैं। इस ज़िंदगी की अच्छी चीज़ों में से भी कुछ ना कुछ उन्हें हासिल है। क्योंकि दानाई और समझ और नेक-चलनी बाज़ार में भी अच्छे दामों बिकती है। इस के इलावा रुपये पैसे को भी रूह की आला बातों के हुसूल के लिए इस्तिमाल में ला सकते हैं मगर सबसे ज़्यादा याद रखने के लायक़ ये बात है कि बातिनी दौलत ही हक़ीक़ी दौलत है। और हमें उसी को ढूंढना और हासिल करना चाहिए। ख़्वाह उस के लिए हमें बैरूनी अश्या को तर्क ही क्यों ना करना पड़े। अगर हर ज़माने में कोई ना कोई शख़्स बैरूनी दौलत पर अंदरूनी दौलत को तर्जीह नहीं देगा। तो यक़ीनन दुनिया बिल्कुल मुफ़्लिस और माद्दी अश्या की ग़ुलाम हो जाएगी। और कोई शख़्स फुनूने लतीफ़ा या इल्म-ए-अदब या मज़्हब का सच्चा ख़ादिम नहीं बन सकता। अगर वो इन सबको दुनियावी माल व दौलत पर तर्जीह देने पर आमादा (राज़ी)



26  इन साहब की सवानिह उम्री तरक़्क़ी जिल्द 2 में छप चुकी है।

नहीं है। हम दानाई फ़य्याज़ी और रूहानी क़ुव्वत के ज़रीये से ही इन्सानियत के आला दर्जों को हासिल करते हैं। और सबसे आला सिफ़त जो मसीह की मानिंद है सो ये है, कि हम में इस अम्र की ख़्वाहिश और इरादा पैदा हो कि हम ऐसे काम कर सकें और ऐसी तासीर डाल सकें। जिससे दूसरों की ज़िंदगियों में मिठास पैदा हो और वो आला बातों के लिए ज़्यादा फ़िक्रमंद होना सीखें।

(3)

      ये मालूम होता है, कि उस वक़्त सलीब के पास ऐसे लोग भी खड़े थे। जो येसू की इस दरख़्वास्त को रद्द करने पर माइल थे। इन्होंने मसीह के चौथे कलमे का मतलब सही नहीं समझा था। और ये ख़याल करते थे, कि वो इल्यास को बुला रहा है। और उन्होंने ये तज्वीज़ किया कि उसे पानी का क़तरा भी ना दें। ताकि देखें कि इल्यास उस की इमदाद को आता है, या नहीं। लेकिन एक आदमी में इन्सानियत का ग़लबा था। और उस ने येसू को जो कुछ उस ने मांगा था दे दिया। हमारे दिल में ख़्वाह-मख़्वाह इस शख़्स के लिए मुहब्बत पैदा होती है। और दिल चाहता है, कि काश मैं उस की जगह होता।

      मगर नजातदिहंदा अब भी पुकार रहा है, कि मैं प्यासा हूँ “किस तरह और कहाँ? सुनो “मैं प्यासा था तुमने मुझे पीने को दिया” “ख़ुदावन्द हमने तुझे कब प्यासा देखा। और तुझे पीने को दिया” चूँकि तुमने मेरे इन सबसे छोटे भाईयों में से किसी एक के साथ ये किया तो मेरे ही साथ किया” जहां कहीं येसू के बहन भाई दुख उठा रहे हैं। और तंग व तारीक कोठरियों में बैठे इस अम्र के मुंतज़िर हैं कि कोई उन्हें देखने आए। या बिस्तर-ए-मर्ज़ पर लेटे इस अम्र के हाजतमंद हैं कि कोई आकर उन की तीमारदारी करे। या उन के ख़ुश्क होंटों को पानी से तर करे। तो वहां ख़ुद मसीह ही ये कह रहा है कि “मैं प्यासा हूँ।”

      शायद वो ऐसा कह रहा है। मगर कोई उस की मदद को नहीं पहुंचता। बहुत से ऐसे हैं जो ज़बान से मसीही होने का इक़रार करते हैं। मगर उन्होंने साल भर में एक दफ़ाअ भी किसी ग़रीब की इमदाद नहीं की। वो ख़ुदा के गुमनाम बंदों की तलाश में तंग



27  यानी एली, एली, लिमा शबकतनी

व तारीक कूचों में जाने या ग़लीज़ सीढियों पर चढ़ने की कभी तक्लीफ़ गवारा नहीं करते। उन्होंने एक ग़मज़दा घर को एक फूल या ख़ुश-आवाज़ रूहानी गीत से एक वक़्त का खाना देकर ख़ुशहाल करने का हुनर अभी तक नहीं सीखा। और ना उन्हें मुसीबत ज़दों के साथ हम्दर्दी करनी या उन्हें ज़रा हंस बोल कर तसल्ली देनी आती है। अगर वो इस क़िस्म की अदना ख़िदमात को बजा लाना सीख लें। तो यक़ीनन बहुतों की मसीहिय्यत कुछ की कुछ बन जाएगी। अब उस में एक तरह की जान पड़ जाएगी। और ख़ुद उन के अपने दिल एक क़िस्म की ख़ुशी और मसर्रत से भर जाऐंगे। जो पहले कभी उन को नसीब ना हुई थी। क्योंकि मसीह इस अम्र का ज़िम्मेदार है कि कोई शख़्स जो उस की ख़िदमत करता है। अपना इनाम ना खोए। मेरे एक दोस्त ने जो अमरीका का रहने वाला है। मुझसे एक दफ़ाअ ज़िक्र किया कि जब वो यूरोप की सैर कर रहा था। तो उसे एक जहाज़ पर उस का एक हम-वतन मिल गया। वो एक दूसरे से हम-कलाम हुए। और बहुत जल्द उस को मालूम हो गया कि इस का हमकलाम कहाँ का रहने वाला और कौन है। वो कई दिन तक इकट्ठे सफ़र करते रहे। और मेरे दोस्त पर उस दोस्त शख़्स ने इस क़द्र इनायत व मेहरबानी करनी शुरू की कि आख़िरकार वो उस से इस की वजह पूछने से बाज़ रह सका। दूसरे ने जवाब दिया कि “सुनो जब हमारे मुल्क में ख़ाना-जंगी हो रही थी। तो मैं तुम्हारी रियासत में ख़िदमत पर मामूर था। और एक दिन हम कूच करते हुए उस शहर में से गुज़रे। जो आपकी जाये विलादत है उस दिन हमने लंबा कूच किया था। और गर्मी बहुत सख़्त पड़ती रही थी। मैं बिल्कुल मांदा हो रहा था। और मारे प्यास के जान बल्ब (मरने) के क़रीब था। उस वक़्त एक औरत वहीं एक घर से निकली। और उस ने बड़ी मेहरबानी से मुझे ठंडे पानी का एक पियाला दिया और मैं इस वक़्त तुम्हारे ज़रीये से जो उस के हम शहरी हो। उस की मेहरबानी का किसी क़द्र बदला उतारने की कोशिश कर रहा हूँ।” क्या इस कहानी से हमें इब्ने-अल्लाह के वो अज़ीमुश्शान अल्फ़ाज़ याद नहीं आ जाते, कि “जो कोई इन छोटों में से किसी को शागिर्द के नाम पर सिर्फ एक पियाला ठंडा पानी ही पिलाएगा। मैं तुमसे सच्च कहता हूँ। कि वो अपना अज्र हरगिज़ नहीं खोएगा।”

      लेकिन क्या यही बस है? क्या कोई शख़्स मसीह से इस क़द्र क़ुर्बत (नज़दिकी) हासिल करना चाहता है कि उस के आज़ा (यानी अहले कलीसिया) के ज़रीये से ही नहीं। बल्कि ख़ुद उस की लबों को ठंडे पानी से सेराब करे? हाँ ये भी मुम्किन है येसू अब भी फ़रमाता है, कि “मैं प्यासा हूँ।” वो मुहब्बत का प्यासा है। वो दुआ का प्यासा है। वो इज़्ज़त का प्यासा है। वो तक़द्दुस का प्यासा है जब कभी किसी आदमी का दिल सच्ची तौबा या मुहब्बत या तक़द्दुस के ये ख़याल से उस की तरफ़ फिरता है। तो नजातदिहंदा उस में अपनी जान के दर्द को देखता और तसल्ली पाता है।

उन्नीसवां बाब
छटा कलमा सलीब पर से

      पांचवें कलमे की तरह छटा कलमा भी यूनानी ज़बान में फ़क़त एक ही लफ़्ज़ है। और ये कहा गया है, कि ये अकेला लफ़्ज़ ऐसे सब अकेले अल्फ़ाज़ से जो कभी किसी की ज़बान से निकले हूँ अज़ीमुश्शान है। हम कह सकते हैं कि ये लफ़्ज़ तमाम दुनिया की नजात पर हावी है। और हज़ारहा आदमियों ने गुनाह की बेक़रारी के वक़्त या दम-ए-मर्ग इन अल्फ़ाज़ से ऐसा ही सहारा पाया है। जैसे कि डूबता हुआ मल्लाह समुंद्र में तरीरी का सहारा लेता है।

      बाअज़ औक़ात इस से ये मतलब भी समझा गया है कि ये फ़क़त ज़िंदगी के आख़िरी दम निकलने का निशान था। और इस सूरत में इस के मअनी ये होंगे, कि सब हो चुका। ये जान का दर्द कमज़ोरी आख़िरकार ख़त्म हुए मगर येसू के आख़िर य अल्फ़ाज़ इस लहजे में नहीं कहे गए थे। हम साफ़ पढ़ते हैं, कि पांचवां कलमा बुलंद आवाज़ से कहा गया था। और ऐसे ही सातवाँ भी। और अगरचे छटे कलमे की निस्बत ये बात साफ़ तौर पर नहीं लिखी गई। तो भी ज़न-ए-ग़ालिब (यक़ीनी इम्कान) ये है, कि इस अम्र में भी वो दूसरे दोनों कलिमों के मुवाफ़िक़ होगा। ये शिकस्त की फ़र्याद ना थी। बल्कि फ़त्ह व नुस्रत (जीत) की।

      इस वक़्त हमारे ख़ुदावन्द के दुख और तक्लीफ़ और उस के साथ ही उस के काम का भी ख़ातिमा हो गया। और ये समझना बिल्कुल तबई बात है, कि इस कलमे में दोनों की तरफ़ इशारा था दुख और काम हर एक ज़िंदगी के दो पहलू हैं। मगर बाअज़ में एक ज़्यादा होता है। बाअज़ में दूसरा। येसू के तजुर्बे में दोनों ज़ोर पर थे। उस के पास एक भारी काम करने को था। और उस के करने में उस ने सख़्त दर्द व दुख भी बर्दाश्त किए। लेकिन अब दोनों कामयाबी के साथ इख़्तताम को पहुंचे। और यही बात है जो छटे कलमे



28  पूरा हुआ।

से ज़ाहिर होती है इसलिए ये अव़्वल तो काम करने वाले की कामयाबी का नारा है। और दूसरे दुख उठाने वाले के दर्द से फ़राग़त पाने की ठंडी सांस है।

(1)

      मसीह के पास ज़मीन पर एक बड़ा भारी काम करने को था। जो अब पूरा हुआ। ये दमे मर्ग (मौत के क़रीब) का कलाम हमें उस की ज़िंदगी के पहले कलाम को जो हम तक पहुंचा है याद दिलाता है क्या तुमको मालूम ना था, कि मुझे अपने बाप का काम करना ज़रूर है। बारह बरस की उम्र में भी उसे मालूम था, कि उस के आस्मानी बाप ने उसे एक काम सपुर्द किया है। जिस पर उस के तमाम ख़यालात लगे रहने चाहिऐं। शायद हम नहीं कह सकते कि उस वक़्त वो इस काम का मतलब उस के वसीअ माअनों के लिहाज़ से पूरे तौर समझे हुए था। जूं जूं वो उम्र में तरक़्क़ी करता गया। दूँ दूँ वो उस की हक़ीक़त को ज़्यादा ज़्यादा मालूम करता गया। जब वो तन-ए-तन्हा नासरत के खेतों और चरागाहों में ग़ौर व फ़िक्र के लिए अलग चला जाया करता था। उस वक़्त ये काम उस के दिल पर हावी और क़ाबिज़ रहता था। जब वो दुआ नमाज़ में ज़्यादा ज़्यादा मशग़ूल होने लगा। तो उस का अज़म व इस्तिक़लाल (मज़्बूत इरादा) भी ज़्यादा ज़्यादा मज़्बूत होता गया। जिस क़द्र वो इन्सानी फ़ित्रत से और अपने ज़माने की हालत और ज़रूरियात से ज़्यादा वाक़िफ़ होता गया। उसी क़द्र ज़्यादा सफ़ाई से उस का काम उस पर ज़ाहिर होता गया। जब वो अहदे-अतीक़ के पाक नविश्तों को सुनता या ख़ुद उनका मुतालआ करता था। तो वो तौरेत और अम्बिया की किताबों में रसूम व दस्तुरात और अलामतों में उस का निशान पाता था। वहां वो देखता था कि उस की ज़िंदगी का प्रोग्राम पहले ही से साफ़ साफ़ तहरीर है। और शायद जब उस के ज़बान से ये निकला कि “पूरा हुआ” तो जो ख़याल सबसे ज़्यादा उस वक़्त उस के दिल पर हावी था। सो ये था कि क़दीमी पाक नविश्तों में जो कुछ उस के हक़ में पैशन गोई हुई थी। वो सब पूरी हो गई।

      और जब उस की पब्लिक ज़िंदगी शुरू हुई तो ये ख़याल कि उस को एक काम सपुर्द हुआ है। जो उसे सर-अंजाम करना है। उस की ज़िंदगी पर बिल्कुल हावी हो रहा था। ये उस के चेहरे पर बल्कि उस की हर एक हरकत और रवैय्ये पर मुनक़्क़श मालूम होता था। कि वो अपने काम से जो उसे दुनिया में सरअंजाम करना है, ख़ूब वाक़िफ़ है। और इसलिए वो बड़े इस्तिक़लाल और साबित क़दमी के साथ उसे सरअंजाम करने को है। वो कहा करता था, कि “मुझे एक बपतिस्मा लेना है। और जब तक वो हो ना ले मैं क्या ही तंग रहूँगा।” एक आलम महवियत में जब वो सो ख़ार के कुवें पर सामरी औरत से बातचीत कर चुका था। और उस के शागिर्दों ने खाना हाज़िर किया। तो उस ने ये कह कर उसे हटा दिया कि “मेरे पास खाने के लिए ऐसा खाना है जिसे तुम नहीं जानते” और फिर कहने लगा “मेरा खाना ये है कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अमल करूँ और उस का काम पूरा करूँ।” जब वो आख़िरी बार यरूशलेम को जा रहा था। तो अपने शागिर्दों के आगे आगे जाता था। और वो हैरान हो गए। और जब वो पीछे पीछे चलते थे। तो डरने लगे। उस का मुदआ-ए-ज़िंदगी उस पर हावी हो रहा था। और वो अपने जिस्म और जान और रूह समेत उस में ग़र्क़ था। उस ने अपनी क़ुव्वत का हर एक ज़र्रा और अपने वक़्त का हर एक लम्हा उस पर ख़र्च कर डाला। अब ज़िंदगी के ख़ातिमे पर जब वो पीछे को नज़र दौड़ाता है तो उस के दिल में किसी क़िस्म का अफ़्सोस पैदा नहीं होता कि हर एक क़ाबिलियत जो उसे मिली थी। उस ने उस का बुरा इस्तिमाल किया है। या उसे इस्तिमाल किए बग़ैर छोड़ दिया है। वो सब एक ही मुद्दआ के लिए मुरत्तिब की गई थीं। और उसी एक ही काम पर ख़र्च कर दी गई थीं। मगर मसीह का ये काम क्या था? किन अल्फ़ाज़ में हम उसे बयान करें? बहर-सूरत वो काम उन सब कामों से जो किसी इब्ने-आदम के सपुर्द हुआ हो बुज़ुर्गतर था। आदमी बहुत कुछ कर गुज़रे हैं। और बाअज़ ने तो अपने दिल पसंद काम के सरअंजाम करने में सारा ज़ोर और कोशिश ख़र्च कर दी है। फ़ातिह ने दुनिया को अपने ज़ेर-ए-नगीं (क़ब्ज़ा करना) करने में अपने को मशग़ूल कर दिया। बही ख़्वाह क़ौम ने अपनी क़ौम को आज़ाद करने में। फिलासफर ने मुल्क इल्म को वुसअत देने में। मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) अपनी अनथक मेहनत नेचर के राज़ों को खोजने में ख़र्च कर रहा है। एक दूसरा आदमी ग़ैर मालूम बर्रे अज़मों की तहक़ीक़ात करने के लिए अपनी जान हथेली पर रखकर जाता है। और आख़िरकार अपनी जान इसी कोशिश में गवां देता है। मगर इनमें से किसी का काम भी ऐसा अहम और अज़ीमुश्शान ना था। जिसे येसू के काम के मुक़ाबिल में रख सकें।

      ये एक काम था ख़ुदा के लिए आदमियों के साथ। और आदमियों के लिए ख़ुदा के साथ।

      ये ख़याल कि ये एक ख़ुदा का काम है। जो ख़ुदा ने उस के सपुर्द किया है। अक्सर मसीह के लबों पर रहता था। और ये आगाही उस के इल्हाम व हिम्मत के बड़े बड़े वसाइल में से थी। वो कहा करता था। मुझे उस का काम जिसने मुझे भेजा है। दिन ही दिन में करना ज़रूर है। “या” इसलिए मेरा बाप मुझसे मुहब्बत रखता है। क्योंकि मैं हमेशा वही काम करता हूँ। जो उसे ख़ुश आते हैं “और अपनी ज़िंदगी के काम के ख़ातिमे पर उस ने इसी क़िस्म के अल्फ़ाज़ इस्तिमाल किए।” मैंने ज़मीन पर तेरा जलाल ज़ाहिर किया। मैंने वो काम जो तू ने मुझे करने को दिया था। पूरा कर दिया।” यही उस का काम था। यानी ज़मीन पर ख़ुदा का जलाल ज़ाहिर करना। बाप को बनी-आदम पर ज़ाहिर कर देना।

      मगर ऐसा ही ये भी ज़ाहिर है, कि उस का काम आदमियों की तरफ़ से ख़ुदा के साथ भी था। ये बात उस के तमाम अक़्वाल और उस की ज़िंदगी के सारे तौर व तरीक़ से ज़ाहिर होती है। वो आदमियों को ख़ुदा के पास वापिस ला रहा था। और उसे उन रुकावटों को जो सद्द-ए-राह (रुकावट बनना) हो रही थीं दूर करना था। उसे उस क़ब्र पर से जिसमें बनी-आदम मदफ़ून हो रहे थे। पत्थर उठाना था। और मुर्दों को फिर ज़िंदा करके बाहर निकालना था। उसे अपना सारा ज़ोर इन्सानी जुर्म के आहनी दरवाज़े पर लगा कर उसे वा (खोलना) करना था। और उस ने ऐसा ही किया। और जब कि उस ने फ़रमाया कि “पूरा हुआ” तो वो उस वक़्त सारे बनी-आदम से भी यूं फ़र्मा रहा था। कि “देखो मैंने तुम्हारे सामने एक दरवाज़ा खोल दिया है। और कोई शख़्स उसे बंद नहीं कर सकता।”

      जिस क़द्र कोई काम ज़्यादा तवील और मुश्किल होता है। उसी क़द्र उस के ख़त्म होने पर ज़्यादा तस्कीन और फ़र्हत हासिल होती है। हर एक शख़्स जानता है कि किसी काम के ख़त्म करने पर जिस पर बहुत सी मेहनत ख़र्च हुई और जिस पर बहुत वक़्त लगा। कैसा एक बोझ सा दिल पर से उठ जाता है। और वो ख़ुद बख़ुद बोल उठता है। “लो। आख़िरकार ये भी निपट गया।” इन्सानी अक़्ल व फ़िरासत और क़ुव्वत के आला क़िस्म के कामों की अंजामदेही से एक इस क़िस्म की तसल्ली व तस्कीन हासिल होती है, कि उसे देखने और सुनने वालों में सदहा साल के बाद भी एक क़िस्म की हम्दर्दी और जोश पैदा हो जाता है। शायर को इस से किस क़द्र लुत्फ़ हासिल हुआ होगा। जब कि ज़िंदगी-भर की मेहनतों से इल्म के ख़ज़ाना इकट्ठे करते और ज़बान के इस्तिमाल में कामिल महारत हासिल करने के बाद उस ने अपनी नज़्म “दोज़ख़ व बहिश्त का हाल” 'या “नुक़्सान फ़िर्दोस” पर साल-हा-साल तक मेहनत की होगी। और आख़िरकार बहज़ार दुश्वारी और जानकाही उसे इख़्तताम को पहुंचा कर और अपना क़लम किया कर। ख़ातिमे पर ख़त्म बा लख़ैर लिख दिया होगा? कोलंबस को किस क़द्र मज़ा आया होगा। जब कि उस ने पहले अपनी सारी ज़िंदगी लोगों से इमदाद मांगने में ख़र्च कर के। और आख़िरकार बहुत सी मुश्किलों और सऊबतों और अपने जहाज़ के लोगों की बग़ावतों का मुक़ाबला करने के बाद उस की नज़र डराएँ की चोटी पर पड़ी होगी। जिससे उस पर साबित हो गया। कि उस की कोशिशें मह्ज़ ख्व़ाब व ख़याल ना थीं। बल्कि आख़िरकार तक्मील को पहुंचीं? जब हम पढ़ते हैं कि किस तरह विलियम व लबर्फ़ोर्स ने जिसकी सारी उम्र ग़ुलामों की आज़ादी की कोशिशों में गुज़री। अपने बिस्तर-ए-मर्ग पर ये ख़बर सुनी कि आख़िर अंग्रेज़ी पार्लीमैंट ने तमाम ख़र्च की रक़म जो उस अम्र की तक्मील के लिए ज़रूरी थी। जिस पर उसने अपनी ज़िंदगी क़ुर्बान कर दी। मंज़ूर कर ली है तो कौनसा दिल ऐसा है। जो उस के साथ ख़ुशी व हम्दर्दी में शरीक ना हो। ये ख़याल कर के कि किस तरह उस वक़्त उस के कानों में लाखों आज़ाद शूदा ग़ुलामों के ख़ुशी के नारे गूंज रहे होंगे। ये सब बातें इस आला फ़त्हमंदी के बड़े हल्के से नमूने हैं। जो मसीह को हासिल हुई होंगी जब उस ने अपना ज़िंदगी का सारा काम ख़त्म होता हुआ देखा और नारा मारा, कि “पूरा हुआ।”

(2)

      अगर मसीह के हाथों में एक ऐसा अज़ीमुश्शान काम था। जिसे उस ने सलीब पर तक्मील को पहुंचते देखा। तो ये भी याद रखना चाहिए कि वो ऐसे ही ख़ास तौर से दुख उठाने वाला भी था। इसलिए उस ने उसे सलीब पर से अपने दुख दर्द की निस्बत भी कहा कि “पूरा हुआ।”

      दुख तक्लीफ़ काम का दूसरा पहलू है जैसे कि आदमी का साया उस के पीछे लगा रहता है। इसी तरह इस दुख तक्लीफ़ को काम का साया कहना चाहिए। ये उस के आला की रोक-टोक है। जिसके ज़रीये से उस का रुक्न को अपना काम सरअंजाम करना पड़ता है।

      येसू की ज़िंदगी दुख तक्लीफ़ से मामूर थी। क्योंकि उसे अपना काम एक ऐसे आले के ज़रीये सरअंजाम करना था। जो उस का बहुत ही सद्द-ए-राह (रुकावट) था। उस का मुद्दआ (मक़्सद) ऐसा फ़ैज़-रसाँ (फ़ायदा पहुँचाने वाला) था। और वो दुनिया की बेहतरी के लिए ऐसा सर-गर्म था, कि ज़ाहिरन ये उम्मीद होती है, कि उस को ऐसे काम में हर तरह की हौसला बढ़ाने वाली इमदाद मिलनी चाहिए थी। वो ऐसा दीनदार था, कि चाहिए था कि तमाम मज़्हबी क़ुव्वतें उस की मददगार होतीं। और उस काम में उस का हाथ बटातीं। वो ऐसा मुहिब्ब-ए-क़ौम (क़ौम से मुहब्बत रखने वाला) था, कि तबई तौर पर ये उम्मीद की जा सकती थी, कि लोग हाथ फैला कर उसे क़ुबूल करते। वो ऐसा बही ख़्वाह इन्सान था, कि चाहिए था कि लोग उसे सरों पर उठा लेते। लेकिन हर क़दम पर उस की मुख़ालिफ़त हुई। उस के मुल्क और ज़माने के सब साहब सर्वत व इज़्ज़त लोग उस की मुख़ालिफ़त पर डट गए। और ये मुख़ालिफ़त दिन-ब-दिन बढ़ती गई हत्ता कि कल्वरी पर वो अपनी हद को पहुंच गई। जब कि ज़मीन और दोज़ख़ की तमाम क़ुव्वतें जमा हो कर उसे पामाल और फ़ना करने के लिए जुट गईं। और वो कामयाब भी हुईं।

      लेकिन अगर हम कहें कि तक्लीफ़ फ़क़त काम के काम करने वाले पर उलट कर आ पड़ने का नाम है। तो हमने इस राज़ को पूरे तौर पर हल नहीं कर दिया। जब कि काम वो है, जो एक आदमी अपने सारे इरादा की क़ुव्वत से करता है। तो तक्लीफ़ उस चीज़ का नाम है, जो कारिंदा (काम करने वाला) पर उस के इरादे के ख़िलाफ़ वाक़ेअ होती है। हो सकता है कि ये उस के मुख़ालिफ़ों और दुश्मनों के इरादे से वाक़ेअ होती है। मगर यही कह देना काफ़ी नहीं है। इस इरादा से भी ऊपर। जो मुम्किन है कि बिल्कुल बद हो। एक और इरादा काम कर रहा है। जो नेक है। और हमारी तकालीफ़ से हमारे लिए फ़क़त नेकी ही चाहता है।

      तक्लीफ़ ख़ुदा के इरादे से है। ये उस का बड़ा औज़ार है। जिसके वसीले वो अपनी मुकर्ररा तदबीर के मुताबिक़ अपनी मख़्लूक़ात को ढाल रहा है। जब कि अपने काम के ज़रीये से हमको चाहिए कि जैसा वो चाहता है हम दुनिया को वैसे ही तराश्ते जाएं। तक्लीफ़ के ज़रीये से वो हमें अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ तराश तराश कर बनाता जाता है। वो तकालीफ़ के ज़रीये से हमारा रास्ता कभी इधर से कभी उधर से बंद कर देता है। ता कि हम उस रास्ते में जो उस ने हमारे लिए मुक़र्रर किया है चलें। वो हमारी ख़्वाहिशों और हवसों को छांटता है। वो हमें ज़लील करता है। ताकि हम हलीम और फ़र्माबरदार हों। और अपने काम से हम दुनिया के इंतिज़ाम व दुरुस्ती में मदद देते हैं। मगर हमारी तकालीफ़ से वो हमें दुरुस्त और पाक करता है। और उस की नज़र में ये बात ज़्यादा अज़ीम है।

      शायद हमारी ज़िंदगी का ये निस्फ़ हिस्सा क़ाबू में रखना ज़्यादा मुश्किल है। अगरचे ज़िंदगी के काम को तक्मील तक पहुंचाना भी कुछ आसान बात नहीं। मगर तकालीफ़ को बर्दाश्त करना और उन से फ़ायदा उठाना इस से कहीं मुश्किल-तर है। क्या तुमने कभी ऐसा आदमी देखा है। जिसे नेचर ने बड़ी-बड़ी क़ाबिलियतें और तौफ़ीक़ इलाही ने बड़ी-बड़ी खूबियां अता की हैं। जिन्हें देखकर ये ख़याल पैदा होता था, कि इस ख़ूबी व क़ाबिलियत का आदमी क्या कुछ ना कर गुज़रेगा। और जिस काम को हाथ लगाएगा। ज़रूर कामयाब होगा। अगर वह मिशनरी बनेगा तो तारीक बर्र-ए-आज़मों में इन्जील और तहज़ीब व शाइस्तगी की रोशनी फैला देगा। अगर पार्लीमैंट में दाख़िल हुआ। तो अपनी फ़साहत व बलाग़त (ख़ुश-बयानी) से लोगों के दिल क़ाबू में करेगा। और अपनी अक़्ल व हिक्मत से क़ौम को तरक़्क़ी को आला ज़ीना तक पहुंचाएगा। और अगर तस्नीफ़ व तालीफ़ पर तवज्जोह की। तो ज़िंदगी के गहरे गहरे अक़दे हल कर डालेगा। और जहां जाएगा। नूर का बीज बोता जाएगा। और अपने लिए एक ऐसी यादगार छोड़ जाएगा। जो कभी ज़ाइल (ख़त्म होना) ना होगी। मगर हम क्या देखते हैं, कि या तो उसे कोई ऐसी बीमारी लग जाती है, जो जान लेकर छोड़ती है। या कोई हादिसा उसे कुचल डालता है। जिससे उस की सारी तदबीरें ख़ाक में मिल जाती हैं। और उस की ज़िंदगी का सारा मक़्सद अपनी सेहत की ख़बरदारी और मौत से बचने की तजावीज़ में जो बहुत अर्से तक उस को छुट्टी ना देगी, महदूद हो जाता है। और क्या जब तुम उस पर नज़र करते हो। तो तुम्हें ये ख़याल नहीं गुज़रता कि उस के लिए इस हालत में सर-ए-तस्लीम झुकाना और राज़ी बरज़ा होना ज़्यादा मुश्किल है। बनिस्बत उस मेहनत व तक्लीफ़ के जो उसे अपनी मन भाती तजावीज़ के सरअंजाम करने में उठानी पड़ती? बेकार हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना अक्सर औक़ात बड़े बड़े मुश्किल काम करने से भी ज़्यादा मुश्किल होता है। और इताअत में सर झुकाने के लिए कोई कार-ए-नुमायां कर गुज़रने की निस्बत ज़्यादा ईमान की हाजत (ज़रूरत) होती है।

      मसीह की ज़िंदगी भी हर तरफ़ से इसी तरह घिरी और दबी हुई थी। ज़ाहिरन तो ये सब बदकिर्दार आदमियों का काम मालूम होता था। मगर वो इन सब के पसेपुश्त मर्ज़ी इलाही को देखता था। उसे जलाल की जगह एक शर्मनाक ज़िंदगी इख़्तियार करनी पड़ी। एक वसीअ कार-ए-ख़ैर की जगह एक मुख़्तसर और महदूद काम में मशग़ूल रहना पड़ा। और बजाए, आलमगीर और अबदी सल्तनत क़ायम करने के उसे पेश अज़ वक़्त और हैबतनाक मौत से मरना पड़ा। मगर उस ने कभी शिकवा ना किया। क़ुर्बानी अगरचे कई वजह से तल्ख़ मालूम देती थी। मगर वो ये ख़याल कर के कि मेरे बाप की यही मर्ज़ी है। उसे अपने लिए शर्बत का पियाला समझता था। और जब ये हालत बदतर से बदतरीन हो गई। और उस के मुँह से इस क़िस्म के कलमात निकले। कि “अगर ये मुम्किन हो तो ये पियाला मुझसे हट जाये” तो फ़ील-फ़ौर उस ने ये भी कहा कि “तो भी मेरी मर्ज़ी नहीं बल्कि तेरी मर्ज़ी पूरी हो।” और इस तरह सीढ़ी के हर एक ज़ीने पर उस के ख़याल उस के बाप के ख़यालों के साथ। और उस का इरादा उस के बाप के इरादे के साथ बाहम मुत्तहिद व मुताबिक़ था।

      और आख़िरकार वो पियाला जिसे वो बार-बार ज़िंदगी भर पीता रहा था। आख़िरी बार पर उस के हाथ में दिया गया। इस दफ़ाअ वो पहले की निस्बत ज़्यादा लबालब और सियाह और तल्ख़ था। मगर उस ने मुँह ना मोड़ा। और सब का सब पी गया। और जब उस ने उसे नोश-ए-जान (ख़ुशी के साथ पीना) कर लिया। तो उस के अपने कमाल के दायरे की आख़िरी क़ौस (कमान का टुकड़ा) मुकम्मल हो गया। और जब उस ने आख़िरी घूँट पी कर पियाले को फेंक दिया तो वो पुकारा कि “पूरा हुआ” और उस वक़्त उन लोगों की तरफ़ से भी जो हैरत और उबूदियत (इताअत) की निगाहों से इस ख़सलत के कामिल दायरे पर नज़र कर रहे थे। गूंज की तरह ये आवाज़ आई कि “पूरा हुआ।”

(4)

      अगरचे मसीह की ज़िंदगी के ये दोनों पहलू ख़याल में जुदा-जुदा किए जा सकते हैं। मगर ये याद रखना चाहिए कि ये दोनों एक ही ज़िंदगी का ज़हूर हैं। जो काम वो सरअंजाम करने को आया था। तक्लीफ़ और दुख भी उस का एक हिस्सा था। और उस ने उसे बर्दाश्त कर के उसे एक तरह का रुतबा और सर्फ़राज़ी बख़्शी। इस के इलावा दुख और तक्लीफ़ के ज़रीये कारिंदा (काम करने वाला) अपने कमाल को पहुंचा। और इस तरह से उस के काम को भी उस से अज़मत हासिल हुई। दुनिया के गुनाह के लिए कफ़्फ़ारा देने में जो उस का सबसे आला काम था। उस ने तक्लीफ़-ज़दा आदमी की हैसियत में ख़ुदा की मर्ज़ी को पूरा किया। और अब दोनों काम पूरे हो गए और उस वक़्त से दुनिया को एक नई चीज़ हासिल हो गई। उसे पहले कई एक कमाल याफ्ता चीज़ें हासिल थीं। मगर ना तो उस से पहले और ना उस के बाद उसे एक कामिल ज़िंदगी नसीब हुई।

बीसवां बाब
सातवाँ कलमा सलीब पर से

      अगरचे मरने वालों की सारी बातें अज़ीज़ों के नज़्दीक ख़ास दिलचस्पी रखती हैं। ताहम आख़िरी कलमे को सबसे ज़्यादा अज़मत दी जाती है। ख़ुदावन्द का ये आख़िरी कलमा है। और इस वजह से और नीज़ दीगर वजूहात के बाइस वो हमारी ख़ास तवज्जोह के लायक़ है।

      बयान किया जाता है, कि एक मशहूर व माअरूफ़ अंग्रेज़ ने अपने बिस्तरे मर्ग पर अपने भतीजे से कहा था, कि “पास आ और देख कि किस तरह एक मसीही मर सकता है।” हम नहीं कह सकते कि आया उस का ये क़ौल दानाई पर मबनी था या नहीं। मगर यक़ीनन ये मालूम कर लेना कि मरना कैसे चाहिए। हम फ़ानी आदमियों के लिए निहायत ही ज़रूरी इल्म है। और इसे हम ऐसे उम्दा तौर से और कहीं नहीं सीख सकते। जैसा कि मसीह की मौत पर गौर व फ़िक्र करने से। यक़ीनन इस आख़िरी कलमे से हमें तालीम मिलती है कि मरना किस तरह चाहिए। लेकिन हम इस से और भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। बशर्ते के हमारे पास उस के समझने के लिए शऊर हो। इस से हम ना सिर्फ मौत का हुनर बल्कि ज़िंदगी का हुनर भी सीख सकते हैं। मरते हुए नजातदिहंदा के आख़िरी अल्फ़ाज़ एक दुआ की सूरत में थे।

      सलीब पर से जो कलमात उस ने फ़रमाए वो सब के सब दुआएं ना थे। एक कलमा उस ने ताइब चोर से फ़र्माया था। दूसरा अपनी माँ और प्यारे शागिर्द से तीसरा



29  ऐ बाप। मैं अपनी रूह तेरे हाथों में सौंपता हूँ।

उन सिपाहियों के हक़ में था। जो उसे सलीब पर खींच रहे थे। मगर दुआ उस की आख़िरी घड़ियों की ज़बान थी। ये एक इत्तिफ़ाक़ी बात ना थी, कि उस के आख़िरी अल्फ़ाज़ दुआईयां थे। क्योंकि उस के अंदर के सारे रो (धारे) हमेशा ख़ुदा की तरफ़ ही बहते रहते थे।

      अगरचे दुआ हर वक़्त और हर हालत के शायां हैं। लेकिन बाअज़ ऐसे ऐसे मौक़े हैं। जिनके साथ वो ख़ास मुनासबत रखती है। दिन के ख़ातिमे पर जब हम ख़्वाब के लिए जो मौत की तस्वीर समझनी चाहिए। तैयार होते हैं। तो दुआ हमारे दिल की ख़ास हालत होनी चाहिए। जब कोई सख़्त ख़ौफ़ व अंदेशा दामनगीर हो। जैसे कि तख़्ता जहाज़ पर जब कि दफ़अतन (अचानक) मौत सामने आ जाती है। तो लोग ख़ुद बख़ुद दुआ के लिए घुटने टेक देते हैं। इशा रब्बानी की मेज़ पर जब एक ख़ामोशी के आलम में रोटी और मै तक़्सीम हो रही होती। है। तो हर एक सोच समझ वाला आदमी दुआ में मशग़ूल होता है। मगर और हालतों की निस्बत बिस्तर-ए-मर्ग पर खासतौर पर वो बरमहल (मौक़े के मुताबिक़) होती है। इस वक़्त हम ख्वाह हे नख़्वाहे सब दुनियावी अश्या से जुदा हो रहे होते हैं। दोस्त और रिश्तेदार, माल व दौलत, घर की आसाइश और ज़मीन की सूरत। सब हमसे रुख़्सत होते हैं। ऐसी हालत में उस की तरफ़ दिल लगाना जो अकेला हमारे साथ रहेगा। बिल्कुल तबई बात है। और ये बात दुआ से हासिल होती है। क्योंकि वही ख़ुदा का दामन पकडती है।

      उस वक़्त दुआ माँगना ऐसी तबई बात होती है, कि ये कहना बेजा ना होगा। कि दुआ को आख़िरी घड़ी का एक ज़रूरी जुज़ (हिस्सा) समझना चाहिए। मगर हमेशा ऐसा नहीं होता। बिस्तर-ए-मर्ग ख़ुदा के बग़ैर एक निहायत ख़ौफ़नाक नज़ारा है। मगर ऐसा अक्सर देखने में आया है कि दिल के तमाम ख़यालात का ज़मीन की तरफ़ ऐसा पुर-ज़ोर मीलान (रुझान) होता है, कि उस वक़्त भी उन्हें इधर से हटाना मुम्किन नहीं होता। ऐसे बिस्तर-ए-मर्ग भी हैं। जहां ख़ुदा का ख़याल करने से भी दहश्त दामनगीर होती है। और इसलिए मरने वाला हत्त-उल-इम्कान उसे अपने से दूर रखना चाहता है। और बाअज़ वक़्त उस के दोस्त भी इस अम्र में उस की मदद करते हैं। और किसी आदमी को ना तो मिलने देते हैं। और ना कोई ऐसा कलमा ज़बान से निकालते हैं। जिससे ख़्वाह-मख़्वाह उसे ख़ुदा याद आ जाए। दुआ अगरचे तबई अम्र है। मगर ये फ़क़त उन्ही लोगों के लिए जिन्हें इस से पहले इस की आदत हो रही थी। येसू के वास्ते तो ये उस की रोज़मर्रा की ज़बान थी। वो हमेशा बिला-तवक़्कुफ़ दुआ मांगता रहता था। पहाड़ की चोटी पर हो। या लोगों के मजमागाहों में। अकेला हो। या दूसरों की सोहबत में। और दम मर्ग अगर वो ख़ुदा की तरफ़ मुतवज्जोह हुआ तो ये उस की ज़िंदगी-भर की आदत उसे खींच रही थी।

      अगर हम भी चाहते हैं, कि हमारे आख़िरी अल्फ़ाज़ दुआ पर मबनी हों। तो हमें अभी से दुआ की आदत डालनी चाहिए। अगर हम चाहते हैं, कि बिस्तर-ए-मर्ग पर ख़ुदा का चेहरा हम पर मुनव्वर हो तो हमें अभी उस के साथ सुलह वो वाक़्फियत पैदा करनी चाहिए। अगर हम मरते हुए मसीह या मरते हुए औलिया-अल्लाह पर नज़र कर के ये ख़्वाहिश ज़ाहिर करते हैं, कि “काश मैं भी रास्तबाज़ों की मौत मरूँ और मेरा अंजाम भी वैसा ही हो” तो हमें अभी से चाहिए कि रास्तबाज़ों की ज़िंदगी इख़्तियार करें। और उन्हीं के नमूने पर चलें।

(2)

      मरते हुए नजातदिहंदा का आख़िरी कलमा पाक नविश्तों में से लिया गया था।

      ये पहली मर्तबा ना था कि हमारे ख़ुदावन्द ने सलीब पर नविश्तों की इबारत नक़्ल की। “ऐ मेरे ख़ुदा, ऐ मेरे ख़ुदा, तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया।” का बड़ा नारा भी अहदे-अतीक़ के अल्फ़ाज़ में था। और उस के दूसरे कलमात में भी कुतुब-ए-मुक़द्दसा की आयात का इशारा पाया जा सकता है।

      अगर दुआ दम-ए-मर्ग एक तबई अम्र है तो वैसे ही पाक नविश्ता भी है। मुख़्तलिफ़ हालात और मुख़्तलिफ़ ज़रूरियात के लिए मुख़्तलिफ़ ज़बानें और मुख़्तलिफ़ क़िस्म के लिट्रेचर ख़ास ख़ास मुनासबत रखते हैं। मसलन लातीनी क़ानून और इल्म की ज़बान है। जर्मन फ़ल्सफ़े की। फ़्रांसीसी गुफ़्तगु और दरबार की। अंग्रेज़ी तिजारत की। मगर ज़िंदगी के निहायत पाक औक़ात और कारोबार के लिए कोई ज़बान बाइबल से बढ़कर मुनासिब नहीं। ख़ासकर मौत के मुताल्लिक़ हर अम्र के लिए वो बहुत ही मुनासबत रखती है। मसलन लौह-ए-क़ब्र (क़ब्र का कुतबा) के लिए किसी और जगह से फ़िक़्रे नक़्ल करना कैसा बे-मौक़ा (ग़ैर-मुनासिब) मालूम होता है। मगर पाक नविश्तों की आयतें कैसी बर-महल (मौक़े के मुताबिक़) होती हैं। और बिस्तर-ए-मर्ग पर भी और कोई ऐसे अल्फ़ाज़ नहीं। जो मरने वाले की ज़बान पर ऐसे बर-महल हों।

      ये बात मुफ़स्सला-ए-ज़ैल इस्तिंबात (नतीजा) से जो एक शख़्स के पराईयोट रोज़ नामचा डायरी में से लिए गए हैं। बख़ूबी रोशन होती है। “मुझे याद है कि जब मैं तालिबे इल्म था एक शख़्स को बिस्तर-ए-मर्ग था देखने गया वो यूनीवर्सिटी में मेरा रफ़ीक़ (साथी) था। मगर मुझसे चंद साल आगे था। और जब वो कॉलेज की तालीम बड़ी तारीफ़ के साथ ख़त्म कर चुका। तो वो किसी नव-आबादी की यूनीवर्सिटी में प्रोफ़ैसर फ़ल्सफ़ा मुक़र्रर हो गया। मगर चंद ही साल के बाद उस की सेहत बिगड़ गई और वो स्कॉट लैंड को जहां उस का घर था। अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिन काटने को चला गया। और ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ कि मैं उसे हवाख़ोरी के लिए बाहर ले गया। अगरचे पहले उस के भारी जिस्म को उठा कर गाड़ी में बिठाने के वक़्त कुछ तक्लीफ़ हुई। मगर वो बड़े आराम के साथ गाड़ी में तकिया लगा कर बैठ गया। और ताज़ा हवा का लुत्फ़ उठाने लगा। उस दिन दो और दोस्त भी उस के हमराह थे। और वो भी पुराने कॉलेज के रफ़ीक़ थे। जो उस की मुलाक़ात को शहर से आए थे। रास्ते में वापसी के वक़्त वो हमसे पीछे रह गए। और सिर्फ मैं ही उस के हमराह था। उस वक़्त उस ने उन के दोस्ताना सुलूक और मेहरबानी का ज़िक्र शुरू कर दिया। और मुझसे कहने लगा कि “क्या तुम्हें मालूम है कि वो सारा दिन क्या करते रहे हैं?” मैंने कहा में नहीं जानता। वो बोला वो मुझे एक किताब पढ़ कर सुनाते रहे हैं। मगर आह। मैं इस से बिल्कुल दिक़ आ गया। तब वो अपनी बड़ी-बड़ी आँखें मेरी तरफ़ फेर कर बोला। ये ईमान की बात और हर तरह से मानने के लायक़ है, कि मसीह येसू गुनेहगारों को नजात देने के लिए दुनिया में आया। जिनमें सबसे बड़ा मैं हूँ। और फिर कहने लगा। मेरे लिए अब और कोई चीज़ किसी काम की नहीं। मैंने ख़ुद इस अम्र का तज़्किरा नहीं छेड़ा था। शायद मैं ऐसे शख़्स से जो मुझ पर इस क़द्र फ़ोक़ (रुत्बा) रखता था। इस क़िस्म की गुफ़्तगु करने से ख़ाइफ़ (बे-ज़ार) था। मगर मेरे ये कहने की हाजत नहीं कि मुझे इस अम्र से कैसी ख़ुशी हुई कि मुझे ऐसे बुज़ुर्ग और नेक दिल आदमी के दिल का भेद मालूम करने का मौक़ा मिल गया। वो किताब जिसका उस ने ज़िक्र किया एक निहायत ही उम्दा किताब है। बहुत थोड़ी किताबें हैं जो इस पाये की हैं। मगर ज़िंदगी में ऐसे मवाक़े हैं। और ख़ासकर वो जो मौत से पहले होते हैं। जब कि ऐसी किताब बिल्कुल बेमहल मालूम होती है। और फ़िल-हक़ीक़त और कोई किताब उस वक़्त से ऐसी मुनासबत नहीं रखती। जैसी कि वो जिसमें अबदी ज़िंदगी की बातें दर्ज हैं।

      ये बात भी क़ाबिले लिहाज़ है कि ये कलमात जिन्हों ने उस की ज़िंदगी की आख़िरी घड़ियों में उसे सहारा दिया अहद-ए-अतीक़ के कौन से हिस्से में से लिए गए थे। ये इबारत इक़त्तिस्वें ज़बूर में है। दूसरा बड़ा कलमा भी जिसकी तरफ़ मैंने इशारा किया है। ज़बूर की किताब में से यानी बाईस्वें ज़बूर में से लिया गया था। बिला-शुब्हा अहद-ए-अतीक़ के तमाम सहीफ़ों में से ये सहीफ़ा निहायत ही क़ीमती है। ऐसा मालूम होता है कि गोया ये किताब मुसन्निफ़ के ख़ून से लिखी गई है। इस में इन्सान के गहरे से गहरे रंज व ग़म और आला से आला उमंगों और वलवलों का हाल है। इस में रुहानी तजुर्बात को निहायत सफ़ाई और पुख़्तगी के साथ बयान किया गया है। ये सब औलिया-अल्लाह का हमेशा से दस्तूर-उल-अमल और विर्द रही है। और इस को पढ़ना और इस से उल्फ़त रखना रूहानी ज़िंदगी की सबसे उम्दा अलामात में से है।

      येसू ख़ूब जानता था, कि उस की ज़िंदगी की मुख़्तलिफ़ ज़रूरियात के लिए किताब-ए-मुक़द्दस का कौन सा हिस्सा मुनासबत रखता है। क्योंकि वो उम्र-भर बड़े शौक़ व मेहनत से किताबे मुक़द्दस का मुतालआ करता रहा था। उस के कान बचपन से उस से बराबर मानूस थे। इबादतखाने में वो उसे सुनता रहा था। ग़ालिबन वो इबादतखाने के तूमार लेकर अलैहदगी में भी इस का मुतालआ किया करता होगा। इसलिए जब उस ने वाअज़ व नसीहत शुरू की। तो उस की ज़बान में उसी का चसका पाया जाता था। और बह्स मुबाहिसे के वक़्त भी वो ऐसी आयत मौक़े पर नक़्ल कर दिया करता था। कि उस के मुख़ालिफ़ों का जिन्हें अपनी इल्मियत पर बहुत घमंड था। मुँह बंद हो जाता था। मगर वो अपने ज़ाती कामों में भी हर ज़रूरत के वक़्त उस का इस्तिमाल करता था। जब वो ब्याबान में था। तो इसी के ज़रीये उस ने दुश्मन का मुक़ाबला किया। और उस पर फ़त्ह हासिल की। और अब दम मर्ग भी उस ने उस का अच्छा साथ दिया। उन लोगों के लिए जिन्हों ने कलाम इलाही को अपने दिलों में छिपा रखा है। उन की हर ज़रूरत के वक़्त वो उनका मददगार होता है। अगर हम भी चाहते हैं, कि वो मरते वक़्त हमारा सहारा हो। तो हमें चाहिए कि हम ज़िंदगी-भर उसे अपना मुशीर व सलाह-कार बनाए रखें।

      ये अम्र भी क़ाबिल-ए-लिहाज़ है, कि येसू ने ज़बूर में से ये आयत किस तरह नक़्ल की। उस ने कुछ इस के शुरू में ज़्यादा किया। और आख़िर से कुछ घटा दिया। शुरू में उस ने लफ़्ज़ “बाप” बढ़ा दिया। ये लफ़्ज़ इस ज़बूर में नहीं है। और ना हो सकता था। अहद-ए-अतीक़ में अफ़राद इन्सानी ने अभी तक ख़ुदा को अपना बाप कहना नहीं सीखा था। अगरचे ख़ुदा को चंद मुक़ामात में सारी क़ौम का मजमूई तौर पर बाप लिखा गया है। ख़ुदा के साथ नया ताल्लुक़ जो इस लफ़्ज़ से ज़ाहिर होता है। वो मसीह ही की ईजाद है। और इस आयत में ईज़ाद (इज़ाफ़ा) करने से उस ने उस पर कुछ और ही रंग चढ़ा दिया। पर हम भी अहद-ए-अतीक़ के साथ ऐसा ही कर सकते हैं। हम भी अह्दे-जदीद के मआनी व मुतालिब को उस में दाख़िल कर सकते हैं। फ़िल-हक़ीक़त इसी आयत के मुताल्लिक़ हमें इसी क़िस्म के सुलूक का एक और बड़ा सबूत मिलता है। स्तिफ़नुस जो मसीही दीन का पहला शहीद गुज़रा है। बहुत सी बातों में अपने उस्ताद की मानिंद था। और उस ने अपनी शहादत में भी उसी की नक़्ल की। चुनान्चे मौत के मैदान में उस ने भी अपने दुश्मनों के लिए दुआ की। ऐ ख़ुदावन्द ये गुनाह उनके हिसाब में ना लिखना। इसी तरह उस ने मरते वक़्त यही अल्फ़ाज़ नक़्ल किए। मगर एक दूसरी सूरत में “ऐ ख़ुदावन्द येसू। मेरी रूह को क़ुबूल कर” यानी उस ने आख़िरी दुआ मसीह से की। जैसे कि ख़ुद मसीह ने बाप से की थी।

      दूसरी तब्दीली जो येसू ने इस आयत में की। वो आख़िरी अल्फ़ाज़ का उड़ा देना था। जो ये थे, कि क्योंकि तू ने मुझे ख़लासी बख़्शी। उस के लिए इन अल्फ़ाज़ का इस्तिमाल करना मुनासिब ना था। मगर हमें इन अल्फ़ाज़ को छोड़ना नहीं चाहिए। और अगर स्तिफ़नुस की मानिंद हम भी ये दुआ मसीह से करें। तो हमारे लिए ये अल्फ़ाज़ कैसे बेशक़ीमत और रिक़्क़त अंगेज़ (रुलाने वाले) होंगे। उस शख़्स से भी बढ़कर जिसने पहले-पहल उन्हें क़लमबंद किया था।



30  कलाम-उल्लाह के मुफ़स्सिर का सबसे पहला काम ये है कि दर्याफ़्त करे कि हर एक आयत और लफ़्ज़ के इस वक़्त जब कि वो लिखा गया असल में क्या मअनी व मुराद।….. और इस असली इस्तिमाल के दर्याफ़्त करने में बहुत फ़ायदा होगा। लेकिन अगरचे शारेह का काम यहां शुरू होता है। मगर यहीं पर ख़त्म नहीं हो जाता। बाइबल एक ऐसी किताब है जो हर ज़माने और क़ौम के वास्ते है और उस पैग़ाम को दर्याफ़्त करना जो वो ज़माना हाल के लिए रखती है। ये भी शारेह का एक ज़रूरी फ़र्ज़ है। ऐसे शारेह भी आजकल पाए जाते हैं। जो अपने क़ाएदे को सही ठहराते हैं। और जिसके रु से पाक नविश्तों का बाग़ महज़ सूखी हुई नबाबात के नमूनों का मजमूआ साबित होता है। मगर ये दरुस्त नहीं। पाक नविश्तों से ऐसा सुलूक करना चाहिए। जैसे कि एक ज़माना कलाम से किया जाता है।
(3)


      मरते हुए नजातदिहंदा ने ये दुआ अपनी रूह की बाबत की थी।

      अक्सर अश्ख़ास मरते वक़्त अपने जिस्म के लिए बहुत फ़िक्रमंद हुआ करते हैं। ये शायद उन के जिस्मानी दुख और तक्लीफ़ की वजह से हो। और डाक्टर की दवाएं भी शायद उन की तवज्जोह को अपनी तरफ़ लगाए रखती हैं। बाअज़ लोग अपने जिस्म के लिए इस क़िस्म की फ़िक्र भी ज़ाहिर करने लगते हैं, कि मरने के बाद उस से से क्या किया जाये। और इस अम्र के लिए अपनी तकफ़ीन व तदफ़ीन के लिए मुफ़स्सिल हिदायात करने लगते हैं। और अक्सर औक़ात ऐसा भी होता है, कि मरने वाले का दिल दम-ए-मर्ग तक दुनियावी कारोबार में उलझा रहता है। वो अपनी जायदाद के बंदो बस्त के मुताल्लिक़ हिदायात करते हैं। और अपने ख़ानदान के लोगों की फ़िक्र उन्हें लगी रहती है। येसू के नमूने से ज़ाहिर है, कि इस क़िस्म के मुआमलात की तरफ़ बिस्तर-ए-मर्ग पर तवज्जोह करना मुनासिब बात नहीं है। क्योंकि उस का पांचवां कलमा कि “मैं प्यासा हूँ” उस की जिस्मानी ज़रूरियात को ज़ाहिर करता है। और नीज़ जब वो सलीब पर लटक रहा था। तो उस ने अपनी माँ के आइन्दा आराम व आसाइश का बंदो बस्त किया। मगर सबसे बड़ी फ़िक्र उसे अपनी रूह के मुताल्लिक़ थी। और उस ने अपनी आख़िरी दुआ में उसी की फिक्र की।

      रूह क्या चीज़ है? वो हमारी हस्ती का सबसे लतीफ़ और आला और पाक हिस्सा है। उमूमन रोज़मर्रा की ज़बान में तो हम जान के लफ़्ज़ से उसे याद किया करते हैं। जैसा कि इन्सान का ज़िक्र करते हुए हम कह दिया करते हैं, कि वो जिस्म व जान से मुरक्कब है। मगर पाक नविश्तों की ज़बान में रूह को जान से भी तमीज़ कर के उसे बातिनी इन्सान का सबसे आला और लतीफ़ हिस्सा ज़ाहिर किया है। उस को हमारी फ़ित्रत के बाक़ी हिस्सों से वही निस्बत है। जो फूल को पेड़ से या मोती को सीपी से है। वो हमारे बातिन की उस चीज़ का नाम है। जो ख़ुसूसियत के साथ ख़ुदा और अबदियत से मुत्तहिद और मिली हुई है। मगर साथ ही ये भी याद रहे कि यही चीज़ है। जिसे गुनाह बिगाड़ना चाहता है। और जिसे हमारे रूहानी दुश्मन बर्बाद करना चाहते हैं। तो क्या ताज्जुब है कि वो आख़िरी घड़ी में और भी ज़्यादा कोशिश दिखाते हैं। क्योंकि ये उनका आख़िरी मौक़ा होता है। और वो बहुत चाहते हैं, कि रूह को जिस्म से निकलते ही गिरफ़्तार कर लें। और उसे उस के असली रुत्बे से नीचे गिराकर ज़िल्लत की तरफ़ ले जाएं। येसू जानता था कि अब वो अबदियत में दाख़िल होने को है। और अपनी रूह को इन दुश्मनों के हाथों से छीन कर जो इस पर क़ाबू हासिल करने को आमादा (तैयार) खड़े थे। उस ने उसे ख़ुदा के हाथों में सौंप दिया। और वहां वो बिल्कुल सलामत था। क्योंकि उस अबदी व अज़ली ज़ात के हाथ मज़्बूत और मुहाफ़िज़ हैं। मगर साथ ही वो मुलायम और पुर मुहब्बत भी हैं। कैसी मुहब्बत व उल्फ़त के साथ इन हाथों ने येसू की रूह को क़ुबूल किया होगा। ख़ुदा यक क़दीमी नबुव्वत के सहीफे में अपने एक ख़ादिम को मुख़ातिब कर के फ़रमाता है, “मैंने तुझे अपने हाथों के साये में ढाँप लिया है” और अब येसू अपने सारे मुरई और ग़ैर मुरई (देखे व अनदेखे) दुश्मनों से रिहाई पा कर जो उसे घेरे हुए थे। इस नबुव्वत की तक्मील अपने हक़ में ढूंढता है।

      ये मौत का फ़न है। मगर क्या यही ज़िंदगी का फ़न भी नहीं? हर एक इब्ने-आदम की रूह मरते वक़्त तरह तरह के ख़तरात से घिरी होती है। मगर ज़िंदगी-भर भी यही ख़तरात उसे घेरे रहते हैं। जैसा कि किसी का क़ौल है कि ये रूह हमारा फूल और हमारा मोती है। मगर हो सकता है कि मौत के वक़्त से बहुत पहले ये फूल कुचला जाये। और ये मोती खो बैठें। “जिस्म रूह के ख़िलाफ़ ख़्वाहिश करता है।” और ऐसे ही दुनिया की आज़माईशें उस पर हमला करती हैं। गुनाह उसे नापाक करता है। इसलिए ज़िंदा आदमी के लिए इस से बढ़कर और कोई उम्दा दुआ नहीं कि वो हर सुबह उठ कर अपने मुंजी की ये दुआ मांगा करे। वो आदमी बड़ा ही ख़ुश-क़िस्मत है जो अपनी रूह की निस्बत ये कह सकता है, कि “मैं उसे जानता हूँ जिस पर ईमान लाया हूँ। और मुझे यक़ीन है कि वो मेरी अमानत की उस दिन तक हिफ़ाज़त कर सकता है।”

(4)

      हमारे नजातदिहंदा के आख़िरी कलमे से ये भी ज़ाहिर होता है कि वो मौत की निस्बत क्या ख़याल रखता था।

      वो लफ़्ज़ जो येसू ने अपनी रूह बाप को सौंपने में इस्तिमाल किया उस से ये भी मुराद है कि वो अपनी रूह उसे इस उम्मीद से दे रहा था कि वो फिर उसे वापिस मिल जाएगी। वो गोया एक महफ़ूज़ जगह में अपना ख़ज़ाना जमा कर रहा था। जहां वो मौत के बाद जा कर उसे फिर हासिल कर लेगा। इस यूनानी लफ़्ज़ का ये मतलब है। जैसा कि मुक़द्दस पौलूस के मज़्कूर बाला क़ौल से बाआसानी मालूम हो सकता है। जिसमें वो कहता है कि वो जाता है कि ख़ुदा उस अमानत को जो वो उस के सपुर्द करता है। (यहां वो वही यूनानी लफ़्ज़ इस्तिमाल किस दिन तक? ज़ाहिर है कि वो कोई वक़्त ज़माना-ए-मुस्तक़बिल में है। जब कि वो जाके ख़ुदा से उस चीज़ का जो उस ने उस के सपुर्द की है। दावेदार होगा। उस वक़्त मसीह की नज़र में भी कोई ऐसी ही घड़ी थी। जब उस ने फ़रमाया कि, “ऐ बाप मैं अपनी रूह तेरे सपुर्द करता हूँ।” मौत से वो तमाम अजज़ा जिनसे फ़ित्रत इन्सानी मुरक्कब है। जुदा जुदा हो जाते हैं। एक जुज़ यानी रूह ख़ुदा के पास जा रही थी। दूसरी जुज़ आदमियों के हाथ में थी। जो उस पर अपनी सारी शरारत का ज़ोर ख़र्च कर रहे थे। और वो उस घर को जहां सबने एक ना एक दिन जाना है जा रही थी। मगर येसू इन मुतफ़र्रिक़ अजज़ा के दुबारा इकट्ठे आने का उम्मीदवार था। जब कि वो एक दूसरे को फिर पाएँगे। और उस की शख़्सियत का इत्तिहाद फिर बहाल हो जाएगा।

      सबसे अहम सवाल जो एक करीब-उल-मर्ग आदमी को पूछना चाहिए और जो एक ज़िंदा आदमी मौत पर नज़र करके पूछ सकता है। ये है कि “अगर आदमी मर जाये तो क्या वो फिर ज़िंदा होगा? क्या वो सब का सब मर जाता है? और क्या वो हमेशा के लिए मर जाता है? आदमी के दिल में इस क़िस्म का सख़्त ख़ौफ़ व अंदेशा तो है कि शायद ऐसा ही है। और ऐसे मुअल्लिम भी हमेशा पाए जाते हैं। जो इस शुब्हे को हमेशा एक मुसल्लिमा और साबित शूदा मसअले में तब्दील कर देते हैं। वो ये तालीम देते हैं, कि नफ़्स-ए-नातिक़ा फ़क़त माद्दा एक ताक़त का नाम है। और इसलिए जब जिस्म के अजज़ा परागंदा हो जाते हैं। तो आदमी तहलील हो कर माद्दी दुनिया में ख़लत-मलत हो जाता है। और लोग हैं। जो अगरचे माद्दा और नफ़्स-ए-नातिक़ा (इन्सानी रूह) के दर्मियान इम्तियाज़ (फ़र्क़) करते हैं। तो भी ये तालीम देते हैं कि जब जिस्म मिट्टी में मिल जाता है। तो नफ़्स-ए-नातिक़ा भी बहर-ए-हस्ती में जा मिलता है। जहां उस की शख़्सियत ज़ाइल हो जाती है। और ऐसा हो जाता है, जैसा एक क़तरा समुंद्र में जा पड़ता है। और फिर इन दोनों में कोई मिलाप मुम्किन नहीं है। मगर हमारे बातिन में एक आला और पाक चीज़ है। जो इस क़िस्म के मसाइल को क़ुबूल करना गवारा नहीं करती। और बनी इन्सान के बेहतरीन मुअल्लिम हमेशा हमें हौसला दिलाते रहे हैं, कि हम इस से बहुत किसी चीज़ की उम्मीद कर सकते हैं। मगर जो यक़ीन वो हमें दिलाते हैं। उस की बिना किसी पुख़्ता बात पर नहीं रखते। और इसलिए वो भी इस में कुछ हिचकिचाते नज़र आते हैं। और उनका अपना यक़ीन भी कुछ धुँदला सा है। मगर इस अम्र के लिए हम मसीह के पास जाते हैं। क्योंकि हमेशा की ज़िंदगी की बातेँ उसी के पास हैं। वो इस मज़्मून पर बग़ैर किसी पस व पेश के बड़ी सफ़ाई के साथ कलाम करता है। और उस के आख़िरी कलमात साबित करते हैं, कि जो कुछ वो औरों को तालीम देता था। आप भी उस पर कामिल यक़ीन रखता था। मगर उस ने अपनी तालीम से फ़क़त हयात और अबदियत को ही आशकारा (ज़ाहिर) नहीं किया। बल्कि वो ख़ुद अपनी ज़ात में इस मसअले की सदाक़त का सबूत व दलील है। क्योंकि वो ख़ुद हमारी ग़ैर-फ़ानी ज़िंदगी है। चूँकि हम उस के साथ मुत्तहिद हैं। हम यक़ीन करते हैं कि हम हरगिज़ हलाक व फ़ना ना होंगे। कोई चीज़ बल्कि मौत भी हमें उस की मुहब्बत से जुदा नहीं कर सकती। क्योंकि उस ने फ़रमाया है, कि “चूँकि मैं जीता हूँ। तुम भी जिओगे।”

      मगर हो सकता है, कि इस कलमे के मुतालआ करने में हमने लफ़्ज़ी तौर पर मरने के फ़न को सीख लिया है। काश कि हमारे आख़िरी अल्फ़ाज़ भी यही हों। बहुत से लोगों के यही आख़िरी अल्फ़ाज़ थे। जब जान हिस्स को क़त्लगाह की तरफ़ ले जा रहे थे। तो उस के सर पर एक काग़ज़ लगा था। जिस पर शैतानों की तसावीर खींची हुई थीं। गोया कि उस के दुश्मनों ने अपने ज़ोअम (ख़याल) में उस की रूह को उन्हीं के सपुर्द किया था। मगर वो बार-बार चिल्लाता था “ऐ बाप मैं तेरे हाथों में अपनी रूह को सौंपता हूँ।” पोलीकार्प और जेरोम, लूथर और मेलानकथन और और बहुत से अस्हाब के आख़िरी अल्फ़ाज़ ये थे। अपनी रूह के लिए ख़ुदा के हुज़ूर जाने को इस से बेहतर सवारी कौन ढूंढ सकता है? लेकिन ख़्वाह हम मौत के वक़्त इस दुआ का इस्तिमाल कर सकें या नहीं। मगर हमें चाहिए कि बड़ी कोशिश के साथ ज़िंदगी-भर इस का इस्तिमाल करने से बाज़ ना रहें। उम्मीद है कि आप भी इस किताब को बंद करने से पहले यही दुआ करेंगे, कि “ऐ बाप मैं अपनी रूह तेरे हाथों में सौंपता हूँ।”

इक्कीसवां बाब
निशानात और अलामातें

      ये पर्दा पाँच हाथ लंबा और सोला हाथ चौड़ा था। और बाबिल की साख़त था। इस में नीलगूं सफ़ैद, सुर्ख और अर्ग़वानी रंग अजीब तौर से आमेज़ (मिलाना) किए गए थे। जो आलम के चार अंसरों का निशान थे। यानी सुर्ख़ रंग आग का। नीलगूं रंग-ए-हवा का। सफ़ैद कतान ज़मीन का। इसलिए वो कि वो ज़मीन की पैदावार है। और अर्ग़वान समुंद्र का। इसलिए कि वो समुंद्र की एक क़िस्म की मछली से निकलता है।

      ये बात कि ये पर्दा ऊपर से नीचे तक फाड़ा गया है। ज़ाहिर करती है, कि ये ख़ुदा की उंगली से फाड़ा गया। लेकिन ये बात कि आया इस में किसी ज़ाहिरी वसीले को भी दख़ल था या नहीं। हम इस की निस्बत कुछ नहीं कर सकते। बाअज़ का ख़याल है कि भूंचाल जो उस वक़्त वाक़ेअ हुआ। वो उस का वसीला था। इस तौर से कि उस से ऊपर का शहतीर हिल गया। या और कोई इसी क़िस्म की बात वाक़ेअ हुई। जिससे पर्दा फट गया।

      तारीख़ में ऐसे अज़ीम वाक़िआत के मौक़ों पर जब कि लोगों के दिलों में अजीब क़िस्म का इज़तिराब व तशवीश (बेचैनी और फ़िक्रमंदी) पैदा हो रही होती है। ज़रा ज़रा सी बातें भी पुर मअनी समझी जानी लगती हैं। ऐसे हादिसात अफ़राद इंसानी की ज़िंदगियों के अजीब व ग़रीब इन्क़िलाबात के मौक़ों पर भी होते रहते हैं। उनका मदार और असर ज़्यादातर उन जज़्बात पर मौक़ूफ़ होता है। जो उस वक़्त देखने वाले के दिल पर मुसल्लत होते हैं। बिला-शुब्हा बाअज़ लोगों को तो ये पर्दे का फट जाना एक मामूली सी बात मालूम हुई होगी। मगर दूसरों के दिलों में इस से सैंकड़ों तरह के ख़यालात पैदा हो गए। मगर हमारे नज़्दीक बिला-शुब्हा ये वाक़िया एक आला रुतबा रखता है। और इलाही हाथों का करिश्मा मालूम होता है। बादल और आग के सुतून की तरफ़ जो ब्याबान में बनी-इस्राईल के हमराह रहता था। इस के भी दो पहलू थे। एक अदालत का। दूसरा रहमत का। ये इस अम्र का निशान था, कि ये हैकल नापाक हो गई। और इलाही हुज़ूरी उस में से निकल गई है। और उस का महल (मौक़ा) और फ़ायदा अब बिल्कुल जाता रहा। और ये एक अजीब बात है, कि उस वक़्त ना सिर्फ ईसाइयों ही के दिल इस क़िस्म के ख़यालात से भरे हुए थे। बल्कि यहूदियों के भी। यूसीफ़स यहूदियों की एक रिवायत बयान करता है। जिसकी तरफ़ रोमी मुअर्रिख़ टाकेटस भी इशारा करता है, कि इस वाक़िये से चंद साल बाद ईद-ए-फ़सह के मौक़े पर हैकल के अंदरूनी सेहन का मशरिक़ी दरवाज़ा जो ऐसा भारी था कि उस के खोलने के लिए बीस आदमी दरकार होते थे। और इलावा बरीं उस वक़्त मुक़फ़्फ़ल (तला लगा हुआ) हो रहा था। दफअतन (अचानक) आधी रात के वक़्त खुल गया। और उस के बाद की ईद पंतीकोस्त के मौक़े पर काहिन ने जिसका काम रात के वक़्त सेहन की ख़बरदारी करना था। पहले तो एक शोर सुना। जैसे कि पांव की आहट से पैदा होता है। और फिर एक बुलंद आवाज़ सुनाई दी। गोया कि बहुत सी आवाज़ें कह रही हैं, कि “आओ। यहां से चल दें।” लेकिन फ़क़त फ़िलिस्तीन ही में ये ख़याल जागज़ीन ना था। कि तारीख़ में एक इन्क़िलाब वाक़ेअ होने वाला है। और क़दीम दुनिया का ख़ातिमा हो चला है। बल्कि पिलोतारिक भी एक रिवायत बयान करता है। जो उस ने एक शख़्स से सुनी थी। कि एक दफ़ाअ एक शख़्स किसी जहाज़ पर सफ़र कर रहा था। जो हवा थम जाने के सबब एक टापू के पास ठहर गया। जब वो वहां ठहरा हुआ था। तो अचानक साहिल पर से एक बुलंद और साफ़ आवाज़ सुनाई दी। जो जहाज़ के नाख़ुदा (मल्लाह) का नाम लेकर पुकार रही थी। दुबारा तो वो ख़ामोश रहा। मगर जब तीसरी दफ़ाअ वही आवाज़ आई। तो उसने जवाब दिया। इस पर वो और भी बुलंद आवाज़ कहने लगी, कि जब तुम घर को जाओ तो कह दो पान (PAN) मर गई। पान क़दीम इल्म अल-असनाम में नेचर यानी फ़ित्रत के देवता का नाम था। इसलिए जिस किसी ने ये आवाज़ सुनी। निहायत ख़ौफ़-ज़दा हो गया। और उन्होंने आपस में मश्वरा करना शुरू किया कि आया इस हुक्म की इताअत की जाये या नहीं। आख़िरकार ये क़रार पाया कि अगर वापसी के वक़्त तूफ़ानी हवा चलती हो। तो इस हुक्म की इताअत ना की जाये। और अगर हवा थमी हुई हो। तो की जाये। ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ कि जब वो वहां पहुंचे तो हवा बिल्कुल थमी हुई थी। और इसलिए नाख़ुदा ने जहाज़ के पतवार पर खड़े हो कर बुलंद आवाज़ से वही अल्फ़ाज़ कहे। जिस पर ना सिर्फ उस की आवाज़ की गूंज उठी। बल्कि हवा बहुत से लोगों की चीख़ों और रोने चिल्लाने से भर गई। ये नाख़ुदा क़ैसर तिबरियास के हुज़ूर में तलब किया गया था। जिसने बड़ी एहतियात से इस वाक़िये की सेहत (दुरुस्ती) की तहक़ीक़ात की।

      इस वाक़िये के तारीक पहलू से तो इस पर्दे के फटने से ये मतलब था। इस से ज़ाहिर होता था, कि देवताओं की सल्तनत का ख़ातिमा हो गया। और यरूशलेम अब आइन्दा को बैत-उल-क़ूदस नहीं रहा। जहां लोग इबादत को जाया करें। मगर साथ ही इस का एक रोशन पहलू भी था। और इसी पहलू की वजह से येसू के रफ़ीक़ों (साथियों) ने इस वाक़िये को अपने दिलों में बड़ी एहतियात से महफ़ूज़ रखा। जैसा कि मुक़द्दस पौलूस लिखता है। इस का ये मतलब था, कि वो दीवार जो यहूदियों और ग़ैर क़ौमों के दर्मियान हाइल थी। अब शिकस्ता हो गई। और जैसा कि इब्रानियों के नाम के ख़त में मुफ़स्सिल तौर पर बह्स की गई है। इस से ये मुराद थी, कि अब रस्म व दस्तूर और दर्मियानियों का सिलसिला जिसके मुताबिक़ अहद-ए-अतीक़ के रु से ख़ुदा परस्त ख़ुदा तक पहुंचने की कोशिश करते थे। मगर फिर भी उस से फ़ासिले पर रहते थे। बीच में से उठा दिया गया। ख़ुदा का दिल अब सब पर आशकारा (ज़ाहिर) हो गया। और ये दिल मुहब्बत से मामूर है। और इस के साथ ही इन्सान का दिल मसीह की क़ुर्बानी के वसीले गुनाह आलूद ज़मीर से रिहाई पाकर जो वो बैलों और बकरों की क़ुर्बानी से कभी हासिल ना कर सकता अब ख़ुश व ख़ुर्रम ख़ुदा के हुज़ूर में हाज़िर हो सकता और एक फ़र्ज़न्द की आज़ादी और बे-तकल्लुफ़ी के साथ वहां आ जा सकता है “पस ऐ भाइयो चूँकि हमें येसू के ख़ून के सबब उस नई और ज़िंदा राह से पाक मकान में दाख़िल होने की दिलेरी है। जो उस ने पर्दे यानी अपने जिस्म को फाड़ कर हमारे वास्ते मख़्सूस की है। और चूँकि हमारा ऐसा बड़ा काहिन है। जो ख़ुदा के घर का मुख़्तार है। तो आओ। हम सच्चे दिल और पूरे ईमान के साथ ….. ख़ुदा के पास चलें।” (इब्रानियों 10:19, 22)

(2)

      दूसरी अलामत बाअज़ मुर्दों की क़ियामत थी। “और क़ब्रें खुल गईं। और बहुत से जिस्म उन मुक़द्दसों के जो सो गए थे। जी उठे और उस के जी उठने के बाद क़ब्रों से निकल कर मुक़द्दस शहर में गए और बहुतों को दिखाई दिए।”

      ख़्वाह हैकल के पर्दे का फटना भूंचाल के बाइस हो या ना हो। मगर इस में शक नहीं कि ये दूसरा निशान ज़रूर उस से ताल्लुक़ रखता था। फ़िलिस्तीन में क़ब्रें पहाड़ों की ग़ारों में होती थीं। जिनके मुँह पर बड़े बड़े पत्थर अपनी जगह से हिल गए होंगे। और अज्साम जो या तो तख़्तों पर धरे थे। या ताक़ों या मेहराबों में खड़े किए हुए थे। इस सबब से हिल जुल गए होंगे। मगर बाअज़ में और भी हिल जुल वाक़ेअ हुई। यानी इलावा बैरूनी जुंबिश के उन के अंदर भी ख़ुदा के ज़िंदगी बख़्श दम ने हरकत पैदा कर दी होगी।

      बहुत से दीनदार उलमा के दिल में मुख़्तलिफ़ वजूहात से इस मोअजिज़े ने तरह तरह के शुक़ूक़ पैदा कर दिए हैं। वो कहते हैं कि ये पाक नविश्तों के दूसरे बयानात के ख़िलाफ़ है। जिनके मुताबिक़ मसीह उनका जो सोते हैं। पहला फल था। अगर ये मुर्दा अज्साम इस भूंचाल के मौक़े पर फिर ज़िंदा हो गए। तो वो नहीं। बल्कि ये पहले फल ठहरे। इस का ये जवाब है कि मुक़द्दस मत्ती ने इस बारे में एहतियात की है। क्योंकि वो लिखता है, कि वो अपनी अपनी क़ब्रों में से “उस के जी उठने के बाद” निकले।

      इसलिए मुक़द्दस मत्ती इस अम्र में भी मुक़द्दस पौलूस के साथ मुत्तफ़िक़ है। और मसीह ही को सबसे पहले जी उठने वाला ठहराता है। मगर फिर ये सवाल पैदा होता है, कि ज़िंदगी हासिल करने और जी उठने के दर्मियानी अर्से में उन की क्या हालत थी? इन्जील नवीस के बयान से ऐसा मालूम होता है, कि वो भूंचाल के वक़्त ज़िंदा हो गए। मगर इस के बाद तीसरे दिन तक क़ब्र से ना निकले। जब तक कि मसीह ना जी उठा क्या ये बात क़ाबिल-ए-यक़ीन है? या क्या ये भी कोई ऐसी ही रिवायत है। जैसी ग़ैर मुस्तनद अनाजील में पाई जाती हैं। जो किसी ना किसी तरह इन्जील मत्ती में घुस आई है? दूसरे इन्जील नवीस जब कि मुक़द्दस मत्ती के साथ पर्दा के फटने के मुआमले में इत्तिफ़ाक़ करते हैं। इस अम्र का कुछ भी ज़िक्र नहीं करते। और फिर उन की राय में इस सारे बयान में इस एहतियात और मतानत (संजीदगी) का कहीं पता नहीं मिलता। जो मुसल्लिमा अनाजील के तस्दीक़ शूदा मोअजज़ात में पाई जाती हैं। और नीज़ वो ज़माना बाद के कलीसिया के मशहूर मोअजिज़ों से मुशाबेह है। जो अक्सर मह्ज़ बच्चों का खेल मालूम दिया करते हैं।

      इस के बरख़िलाफ़ ये कह सकते हैं कि क़दीम से क़दीम नुस्ख़े जो मुक़द्दस मत्ती की इन्जील के पाए जाते हैं। उन में से किसी से भी ये नहीं पाया जाता कि ये फ़िक्रात बाद में किसी शख़्स ने ईज़ाद (इज़ाफ़ा) कर दीए हैं। और बहुत से बारीक बीन उन की निस्बत ये राय रखते हैं कि ये फ़िक्रात दर-हक़ीक़त इस किताब ही का जुज़ और अपनी जगह में बिल्कुल बर-महल (मुनासिब) मालूम होते हैं। वो ये दलील पेश करते हैं, कि अगर वो शख़्स जिसने उस वक़्त सलीब पर जान दी। फ़िल-हक़ीक़त वही था। जो वो अपनी निस्बत दावा करता था। और हम यक़ीन करते हैं कि वो वही था। तो ज़रूर है कि उस की मौत से मुर्दों की सर ज़मीन में भी बहुत कुछ तहरीक और हल चल पैदा हो। दुनिया के ज़िंदा मर्द व औरत इस वाक़िये की हक़ीक़त से जो उन की आँखों के सामने वाक़ेअ हो रहा था। मह्ज़ बे-ख़बर मालूम होते थे। मगर ग़ैर मुरई (अनदेखी) दुनिया में इस से इस क़द्र तहलका मच गया कि ना ऐसा पहले कभी हुआ होगा। ना फिर कभी होगा। ये कोई ग़ैर तबई बात ना थी। बल्कि ऐन तबई अम्र मालूम होता है, कि बाअज़ मुर्दगाँ इस जोश और शौक़ की हालत में उस आलम की हदूद को तोड़ कर इस दुनिया में आ जाऐं। ताकि वो भी वहीं रहें जहां मसीह था। और ये सवाल कि ज़िंदा होने। और बाहर निकल आने के दर्मियानी अर्से में वो क्या करते रहे। एक एसी हल्की सी बात है कि बहुत गौर व फ़िक्र के लायक़ नहीं है। बहर-सूरत वो अपने ख़ुदावन्द के बाद जी उठे। और क्या ये एक मुनासिब अम्र ना था, कि चालीस दिन के बाद जब वो फ़रिश्तों और मुक़र्रब फ़रिश्तों के नारा हाय ख़ुशी के दरम्यान आस्मान पर चढ़ गया। तो ना सिर्फ वो ख़ुद ही जिस्म में ज़ाहिर हो। बल्कि उस के साथ ऐसे नमूना भी पाए जाएं। जो इस अम्र का सबूत हों, कि उस की क़ियामत का नतीजा आख़िरकार उस के मोमिनीन के हक़ में क्या कुछ होगा। अगर कोई ये सवाल करे कि ये मुबारक मुक़द्दसीन कौन थे। जिनको ये फ़ौक़ियत और इम्तियाज़ बख़्शा गया। तो हम इस के जवाब में कहेंगे, कि हमें मालूम नहीं। ताहम ये कह सकते हैं कि उन लोगों की ख़ाक जिन्हें ख़ुदावन्द इस क़िस्म की इज़्ज़त बख़्शने से ख़ुश होता। वहां से बहुत दूर ना थी। मसलन बुज़ुर्गान मिस्ल इब्राहिम के। शाहाँ (बादशाह) मानिंद दाऊद के। अम्बिया मिस्ल यसअया के।

      मगर इस निशान की हक़ीक़ी मुराद इस क़िस्म के ख़यालात पर मुन्हसिर नहीं है। अगर कभी ये दर्याफ़्त भी हो जाये कि ये फ़िक्रात मुक़द्दस मत्ती की इन्जील में बाद अज़ां बढ़ाए गए हैं। और हमको ये मानना पड़े कि ये इब्तिदाई ज़माने के मसीहियों की क़ुव्वत-ए-वाहिमा (सोचने की क़ुव्वत) है। तो भी हमारे दिल में ये सवाल ज़रूर पैदा होगा, कि इन लोगों ने एक ऐसी बात क्यों ईजाद की। और इस का जवाब सिर्फ यही होगा, कि इस का बाइस वो मज़्बूत यक़ीन था, जो उन के दिल में शोला-ज़न था कि मसीह की मौत और क़ियामत ने मौत के दरवाज़े तमाम मुक़द्दसीन के लिए खोल दिए हैं। यही वो बुज़ुर्ग और जलाली ईमान था जो उन नाक़ाबिल-ए-फ़रामोश दिनों के तजुर्बों ने ईमानदारों के दिलों में पैदा कर दिया था। ख़्वाह इस ईमान के पैदा करने में इन जी उठे मुक़द्दसों के नज़ारे ने हिस्सा लिया हो या ना लिया हो। और यही इस वक़्त भी कलीसिया और तमाम ईमानदारों का ईमान है।

      अगर इस वाक़िये को भी एक दूसरे पर्दे का फटना कहें तो बिल्कुल बजा होगा। दुनिया में ख़ुदा के चेहरे पर एक पर्दा पड़ा हुआ था। तो वैसे ही अबदियत का चेहरा भी एक पर्दे से ढंप रहा था। उन के ख़यालात व अक़ाइद इस की निस्बत बिल्कुल धुँदले से थे। वो बिल्कुल इस अम्र का यक़ीन नहीं कर सकते थे कि हम मह्ज़ मिट्टी के हैं। मगर मसीह से अलग हो कर सबसे बड़े दानाओं के ख़यालात भी दूसरे जहान के मुताल्लिक़ किसी तरह से सही या यक़ीनी कहलाने के लायक़ नहीं हैं। और ना उन को इस से बढ़कर कुछ हैसियत हासिल है। जैसे दो बच्चे अपनी माँ के पेट में इस दुनिया के हालात के मुताल्लिक़ बह्स करें। बरख़िलाफ़ इस के मसीह इस ग़ैर मुरई (अनदेखी) दुनिया का ज़िक्र हमेशा ऐसी आज़ादी और यक़ीन के साथ किया करता था। कि गोया वो वहां का रहने वाला है। और उस के ज़र्रे ज़र्रे से वाक़िफ़ है। और उस की क़ियामत और आस्मान पर चला जाना उस आलम ग़ैर-फ़ानी का निहायत सही और यक़ीनी नज़ारा है। जो मुश्किल से कभी इस दुनिया को हासिल हुआ होगा।

      अलबत्ता इस निशान में उस की सेहत (दुरुस्ती) का ताल्लुक़ उस की मौत के साथ है। ना उस की क़ियामत के साथ। मगर मसीह की क़ियामत उस की मौत के साथ निहायत ही गहरा ताल्लुक़ रखती है। ये आम तौर पर गोया उस की रास्तबाज़ी का ऐलान था। इसलिए चूँकि वो फ़क़त अपने ही लिए नहीं मरा बल्कि एक पब्लिक यानी ओहदेदार आदमी की हैसियत से। उस का सारा जिस्म (यानी कलीसिया) क़ियामत का वैसा ही हक़दार है। और वक़्त मुक़र्ररा पर ये ज़ाहिर हो जाएगा, कि चूँकि उस ने उन की जानिब से हर एक दावा पूरा कर दिया है इसलिए मौत को उन के रोक रखने पर कोई इख़्तियार नहीं है।

(3)

      पहला निशान इस माद्दी या तबई दुनिया में वाक़ेअ हुआ। दूसरा मुर्दों के पाताल में। मगर तीसरा निशान आम इन्सानी दुनिया में वाक़ेअ हुआ। और ये उस सूबेदार के मुँह से जो उस के सलीब देने पर मामूर था। मसीह का इक़रार था।

      हम ये नहीं कह सकते कि आया इस निशान का ताल्लुक़ भी किसी क़द्र भूंचाल से था या नहीं। ग़ालिबन ये भी भूंचाल के सबब से हुआ। भूंचाल से जो हालत पैदा होती है। ग़ालिबन दुनिया की किसी और चीज़ से ना होती होगी। और एक मामूली सीधे सादे आदमी पर जो असर उस का पैदा होता है, वो ये है कि वो ख़्वाह-मख़्वाह ये समझने लगता है कि ख़ुदा क़रीब है। इसलिए ज़न-ए-ग़ालिब (यक़ीनी) है कि सूबेदार ने इस भूंचाल को गोया अपने ख़यालात के लिए जो उस के दिल में पैदा हो रहे थे। एक क़िस्म की ताईद एज़दी (ख़ुदा की हिमायत) समझा। और उस ने फ़ील-फ़ौर सब के सामने उस का इक़रार भी कर दिया।

      ताहम उस का ये इक़रार उन बातों का नतीजा था। जो वो मसीह के चाल-चलन में अदालत में पेश होने के वक़्त से ले कर आख़िरी दम तक देखता रहा था। और इस से हमारे ख़ुदावन्द के चाल-चलन की ख़ूबसूरती पर एक निहायत उम्दा शहादत मिलती है। मुम्किन है कि वो मसीह की गिरफ़्तारी से लेकर आख़िरी दम तक उस के साथ रहा हो। इन लासानी घड़ियों में उस ने उस के दुश्मनों के ग़ज़ब और बेइंसाफ़ी को मुलाहिज़ा किया होगा। और साथ ही ये भी देखा होगा कि उन के मुक़ाबले में वो कैसा साबिर, बुर्दबार, हलीम, और आली हौसला था। उस ने उसे अपने सलीब देने वालों के हक़ में दुआ करते, चोर को तसल्ली देते, अपनी माँ के गुज़ारे का बंदो बस्त करते, और ख़ुदा की तरफ़ लो लगाते सुना होगा। इस से उस के दिल में उस की तरफ़ ज़्यादा ज़्यादा कशिश पैदा होती गई होगी। और उस का दिल उस पर फ़रेफ्ता (आशिक़) होता गया होगा। यहां तक कि वो सलीब के रूबरू खड़े हो कर बड़े ग़ौर से उस की तमाम बातों को सुनता और हरकात को निगाह में रखता होगा। और जब उस की आख़िरी दुआ उस के मुँह से निकली भूंचाल ने गोया उस का जवाब दिया। तो उस का यक़ीन फूट निकला। और वो अपनी शहादत को हरगिज़ रोक ना सका।

      मुक़द्दस लूक़ा उस की ज़बानी सिर्फ ये अल्फ़ाज़ लिखता है कि “ये एक रास्तबाज़ आदमी था” मगर दूसरे इन्जील नवीस लिखते हैं कि “ये ख़ुदा का बेटा था” हम कह सकते हैं, कि मुक़द्दस लूक़ा के बयान में दूसरों का बयान भी शामिल है क्योंकि अगर सूबेदार के क़ौल का ये मतलब था कि येसू का दावा हक़ था। तो बताइए उस के दावे क्या थे? पीलातुस की अदालत के सामने उस ने ये बयान सुना था कि येसू इब्ने-अल्लाह होने का दावेदार था। और शायद उस ने पीलातुस के सामने उस के सवाल के जवाब में ख़ुद मसीह को भी इस अम्र का दावा करते हुए सुना हो। और वो बराबर सुनता रहा था। कि जो लोग सलीब के पास खड़े थे। वो बराबर ये नाम और नाम ले ले कर उसे बुरा भला कहते थे।

      लेकिन जब उस ने इस क़िस्म का इक़रार किया। तो उस का मतलब इस इक़रार से क्या था? ये ख़याल किया जाता है, है कि जो कुछ उस की मुराद इन अल्फ़ाज़ से बहैसियत एक बुत परस्त होने के हो सकती है, सो ये होगी, कि येसू भी किसी ख़ुदा या देवता का बेटा है। इन्हें माअनों में जिनमें रोमी और यूनानी मर्ग हर्कियुलिज़, कॉस्टर और और ऐसे ऐसे बहादुरों को देवताओं के बेटे समझा करते थे। ये बात क़रीन-ए-अक़्ल (वो बात जिसे अक़्ल क़ुबूल करे) मालूम होती है। मगर उस की रूह में तहरीक पैदा हो गई थी। और उस का ज़हन खुल गया था। और जब कि एक दफ़ाअ उस का दिल इस रास्ते पर चल निकला, तो उस का बादअज़ां मसीह की मार्फ़त (पहचान) में तरक़्क़ी करना आसान था। एक रिवायत की रु से उस का नाम लूनगीनीस बयान किया जाता है। और कि वो बादअज़ां कपदोकियाह का बिशप हो गया। और मसीह के नाम पर शहीद हुआ।

      क्या यहां हम तीसरे पर्दे का फटना नहीं देखते? ख़ुदा के चेहरे पर एक पर्दा पड़ा है। जो दूर किया जाना चाहिए। अबदियत के चेहरे पर पड़ा है जो दूर किया जाना चाहिए। मगर सबसे ज़्यादा मोहलिक और ख़ौफ़नाक वो पर्दा है जो आदमी के दिल पर पड़ा है। और जो उसे मसीह का जलाल देखने से रोकता है। ये पर्दा उस दिन क़रीबन इस सारी गिरोह के दिलों पर था। जो सलीब के गिर्द जमा थी। ये उन बेचारे सिपाहियों के चेहरों पर था। जो मरने वाले नजातदिहंदा से चंद ही क़दम के फ़ासिले पर बैठे जुआ खेल रहे थे। इनका पर्दा बेपर्वाई का पर्दा था। उन मज़्हबी लोगों और अवामुन्नास पर भी पर्दा पड़ा था। मगर ये तास्सुब का पर्दा था। और एक अज़ीमुश्शान नज़ारा जिससे बढ़कर दुनिया को कभी देखना नसीब नहीं हुआ। उन की आँखों के सामने था। मगर उन की आँखें बिल्कुल अंधी थीं।

      अब इन्सान की ज़िंदगी-भर उस के गहवारे (पँगोड़े) से लेकर क़ब्र तक जो सबसे बड़ा नज़ारा उस को नसीब हो सकता है। सो मसीह के जलाल का नज़ारा है और ये अब भी हम से एसा ही क़रीब है। जैसा कल्वरी के मजमे के क़रीब था। बाअज़ उसे देखते हैं। क्योंकि उन के चेहरे पर से पर्दा फट गया है। और वो इस नज़ारे के सबब महूव-हैरत हो कर कुछ और के और ही बन गए हैं। मगर और हैं जो इस से अंधे हो जाते हैं। हो सकता है, कि एक आदमी येसू से बिल्कुल क़रीब हो। उस के मुआमले में शरीक हो। उस की ज़िंदगी और तालीम से भी ख़ूब वाक़िफ़ हो। मगर तो भी उस के जाह जलाल को जो उस को मुंजी होने की हैसियत से हासिल है। ज़ाती तौर पर देखना नसीब ना हो।

      बयान किया जाता है कि ये मुम्किन है कि एक आदमी क़ुद्रत के एक निहायत ही आलीशान और ख़ूबसूरत मंज़र में अपनी ज़िंदगी बसर कर दे। मगर उस के हुस्न व ख़ूबी की उसे ख़बर तक भी ना हो। मगर वहां एक शायर या मुसव्विर कहीं से आ निकलता है। और वो इस हुस्न की शराब के जाम पर जाम लुटाता है। यहां तक कि उस से सरमस्त हो कर उस की ऐसी उम्दा तस्वीर खींचता है। जो एक गीत की तरह हमेशा के लिए लोगों के दिलों को लुभाती रहती है। इसी तरह से हम में से बाअज़ को ऐसा वक़्त याद होगा, जब कि एक मअनी में तो वो येसू से ख़ूब वाक़िफ़ थे। मगर इस से बढ़कर वो उन के लिए कुछ भी ना था। लेकिन एक मौक़े पर पहुंच कर ऐसा मालूम हुआ कि गोया एक पर्दा फट गया है। और एक अजीब तब्दीली वाक़ेअ हो गई है। और उस वक़्त से वो जिधर देखते हैं। उधर ही इन्हें नज़र आता है। वो सितारों और फूलों पर भी उसी का नाम लिखा पाते हैं। जब सुबह को उठते हैं तो उसी के ख़याल में उठते हैं। और जब सोते हैं। तो उसी के ख़याल में सोते हैं। घर में भी वही है। और बाहर भी वही। और वही उनका सब में सब है।

      इस पर्दे का फटना सब से बड़ा अहम वाक़िया है। क्योंकि जब ये वाक़िया होता है, तो दूसरी बातें ख़ुद बख़ुद उस के पीछे पीछे आ जाती हैं। जब मसीह के जलाल पर नज़र करने के लिए हमारी आँखें खुल जाती हैं। तो हम बहुत जल्द बाप को भी देख लेते हैं। और अबदियत के चेहरे पर से तारीकी उठ जाती है। क्योंकि अबदियत हमारे लिए हमेशा ख़ुदावन्द के साथ रहने का नाम है।

बाईसवां बाब
मुर्दा मसीह

      उमूमन मौत के बाद लाशें फ़ील-फ़ौर सलीब पर से उतारी नहीं जाती थीं। वो वहीं सलीब पर लटकती रहती थीं। यहां तक कि वो सड़ गल कर और टुकड़े टुकड़े हो कर गिर जाती थीं। या परिंदे और जंगली जानवर उन्हें चीर फाड़ कर खा जाते थे। और आख़िरकार शायद सलीब के नीचे लकड़ियाँ रखकर आग लगा दी जाती थी। जिससे सब कुछ जल कर ख़ाक हो जाता था। ये तो रोमियों का दस्तूर था। मगर यहूदी इस अम्र में बहुत मुहतात थे। उन की शरीअत में ये हुक्म था कि “अगर किसी ने कुछ ऐसा गुनाह किया हो। जिससे उस का क़त्ल वाजिब हो। और वो मारा जाये। और तो उसे दरख़्त में लटकावे तो उस की लाश रात भर दरख़्त पर लटकी ना रहे। बल्कि तू उसी दिन उसे गाड़ दे। (क्योंकि वो जो फांसी दिया जाता है ख़ुदा का मलऊन है) इसलिए चाहिए कि तेरी ज़मीन जिसका वारिस ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तुझको करता है। नापाक ना की जाये।” (इस्तिस्ना 21:22, 23) हम नहीं कह सकते कि यहूदी हमेशा जब कभी उन के रोमी हाकिम इस क़िस्म की सज़ा देते थे। तो वो शरीअत के इस हुक्म की तामील कराने की कोशिश करते थे। मगर ये तबई बात थी, कि वो ऐसी सूरतों में जब कि क़त्ल मुक़द्दस शहर के क़रीब वाक़ेअ हो। या ईद फ़साह के मौक़े पर हो तो वो इस की तामील कराने की कोशिश करें। मौजूदा सूरत में एक और वजह भी थी। क्योंकि दूसरा दिन एक एक बड़ा सबत था। यानी ईद फ़साह का सबत था। जिसे एक तरह से दोहरा सबत कहना चाहिए। जिसकी इस क़िस्म की नापाक चीज़ों से, मसलन लाश बे-कफ़न व दफ़न पड़े रहने से नापाकी और बे-हुरमती होती। यहूदी इन बातों के लिए बड़े ग़ैरत मंद थे। अगर वो कभी किसी मय्यत को छू बैठते, तो अपने को नापाक समझते थे। और इस के लिए उन्हें बहुत कुछ लंबी चौड़ी तहारत (पाकीज़गी) करनी पड़ती थी। तब कहीं जा कर वो इस नापाकी से पाक होते थे। लेकिन एक फ़सह के सबत के मौक़े पर अगर कोई मुर्दा चीज़ उन की आँखों के सामने आ जाती। या उन के शहर की ज़मीन पर खुली पड़ी रहती। तो वो उसे और भी ज़्यादा सख़्त नापाकी समझते थे। इसलिए उन के पेशवाओं ने रोमी हाकिम के पास जा कर ये इल्तिजा की कि तीनों मस्लूबों को लाठियों से हलाक कर दिया जाये और सबत के शुरू होने से पहले उन की लाशें गाड़ दी जाएं।

      बाअज़ का ख़याल है, कि इस ज़ाहिरी पाकीज़गी के ख़याल के पसे पुश्त उन की असली ख़्वाहिश ये थी। कि इस तौर से येसू को और भी दुख दें और उस की बे-हुरमती कराएं। जिस्म की हड्डीयों का तोड़ना और उन्हें लाठियों से चिकना चूर कर देना एक निहायत ख़ौफ़नाक क़िस्म की सज़ा थी और रोमी बाज़ औक़ात इसे अमल में लाया करते थे। वो क़रीबन ऐसे ही बेरहमाना और बे-हुरमत करने वाली भी समझी जाती थी। जैसे सलीब। मगर ये बजाए ख़ुद एक अलैहदा क़िस्म की सज़ा थी। जो सलीब के साथ शामिल नहीं की जाती थी। लेकिन यहूदियों ने इस सूरत में दोनों सज़ाओं को यकजा करने की कोशिश की ताकि येसू इलावा सलीब दिए जाने के गोया इस तौर से भी एक दूसरी मौत मरे। ताहम इन्जील नवीस कहीं उन की इस क़िस्म की मंशा की तरफ़ इशारा नहीं करता। बल्कि साफ़ यही लिखता है, कि उन के ग़र्ज़ इस से सबत को बे-हुरमती से बचाना थी। और अगरचे उन की अदावत से ये उम्मीद हो सकती है कि उन्होंने मह्ज़ कीना की रु से उस को जल्द मार डालने के लिए हड्डी तोड़ने की सलाह दी हो। तो भी इस अम्र से इन्कार करने की ज़रूरत नहीं कि इस बारे में उनका मज़्हबी पाकीज़गी का ख़याल मह्ज़ बनावटी ना था ये एक बड़ी अजीब मिसाल इस अम्र की है कि किस तरह आदमी का ज़मीर उसे धोके में डाल देता है। इन लोगों को देखो जो अभी एक निहायत ख़ौफ़नाक जुर्म के मुर्तक़िब हो चुके थे। और उन के हाथ अभी एक बेगुनाह के ख़ून से तर हो रहे थे। और उन के ज़मीर पर इस का तो कुछ असर ना हुआ। मगर वो इस अम्र के लिए इस क़द्र फ़िक्रमंद हैं, कि वो सबत को लायक़ तौर पर मना सकें। और उन की ज़मीन रस्मी नापाकी से महफ़ूज़ रहे। ये एक बहुत बड़ी मिसाल इस अम्र की है कि इन्सान दीन की ज़ाहिरी बातों के लिए तो ऐसा ग़ैरत मंद हो। मगर दीन की रूह व हक़ीक़त की उस में बू भी पाई ना जाये।

      इस से हमें एक इबरत हासिल करनी चाहिए। और इस बात का ख़याल रखना चाहिए कि जब हम-मज़्हब के मुताल्लिक़ किसी बैरूनी रस्म व दस्तूर को अदा कर रहे हों। तो उस के साथ ही हमारा दिल भी ख़ुदा की तरफ़ लगा हो। और नीज़ ये सबक़ भी हासिल करें कि अगर हम अपने भाई को जिसे हमने देखा है, मुहब्बत नहीं करते। तो ख़ुदा से भी जिसे हमने नहीं देखा। मुहब्बत नहीं कर सकेंगे।

      पीलातुस ने यहूदियों की दरख़्वास्त मंज़ूर कर ली। और इसी के मुताबिक़ सिपाहियों को हुक्म दिया गया। अब ये ख़ौफ़नाक काम शुरू हुआ। उन्होंने पहले उस आदमी की जो मसीह की एक जानिब था। दोनों टांगें तोड़ीं। और फिर दूसरे की। ताइब चोर भी इस सज़ा से ना बचा। मगर उस की तौबा ने उस के हक़ में किस क़द्र फ़र्क़ पैदा कर दिया। उस के हम-राही के लिए ये अम्र फ़क़त उस की सज़ा और बे-हुरमती में एक और ईज़ाद (इज़ाफ़ा) थी। मगर इस चोर के लिए इन टांगों का तोड़ा जाना ऐसा था जैसे गोया उस की बेड़ियाँ कट गईं। और उस की रूह को आज़ादी मिल गई कि वो परवाज़ कर के बहिश्त को जाये। जहां मसीह उस के मिलने के लिए खड़ा था।

      अब येसू की बारी आई। लेकिन जब सिपाहियों ने उस की तरफ़ नज़र की तो मालूम कर लिया कि उस का काम तमाम हो चुका है। मौत उन से पहले ही उस की मुलाक़ात कर चुकी थी। और उस के झुके हुए सर और मुरझाए जिस्म से ज़ाहिर था कि वो मर चुका है मगर इस बात को और भी यक़ीनी तौर पर मालूम करने के लिए उन में से एक ने अपनी बरछी उस के जिस्म में घुसेड़ दी। और ऐसा बड़ा ज़ख़्म लगाया कि जब मसीह जी उठा तो वो शक करने वाले तोमा रसूल से कह सकता था, कि वो अपना हाथ उन में डाल दे। और जब ये हथियार बाहर निकाला गया। तो लहू और पानी उस में से बह निकला।

      मुक़द्दस यूहन्ना जो वहां मौजूद था और जिसने ये सब कुछ वाक़ेअ होता देखा। उस ने इस वाक़िये को ग़ैर-मामूली अज़मत की नज़र से देखा क्योंकि वो अपने बयान के साथ ही इन अलफ़ाज़ में उस की तस्दीक़ करता है। गोया कि वो एक सरकारी काग़ज़ पर अपनी मुहर सब्त कर रहा है कि “जिसने ये देखा है। उसी ने गवाही दी है। और उस की गवाही सच्ची है। और वो जानता है कि सच्च कहता हूँ ताकि तुम भी ईमान लाओ।” भला क्या वजह है कि वो अपनी कहानी का सिलसिला तोड़ कर जुम्ला मोअतरिज़ा (क़ाबिल-ए-एतराज़) के तौर पर इस अम्र का यक़ीन दिलाने को ठहर जाता है।

      बाअज़ का ये ख़याल है कि उस ने ऐसा इसलिए किया कि वो एक बिद्अत की तर्दीद करना चाहता था। जो क़दीम कलीसिया में रिवाज पा गई थी। कि मसीह फ़िल-वाक़ेअ इन्सान ना था। और वो ये कहते थे, कि उस की मौत ज़ाहिर ही में ऐसी मालूम होती थी। इस ख़याल की तर्दीद में यूहन्ना रसूल इन तफ़्सीली बातों का ज़िक्र करता है। जिनसे यक़ीनी तौर पर साबित होता है कि वो हक़ीक़ी इन्सान था। और कि उस की मौत वाक़ई मौत थी। अलबत्ता ये क़दीम बिद्अत अर्सा हुआ कि मर चुकी है। और इस वक़्त मुश्किल से कोई ऐसा होगा। जो येसू की हक़ीक़ी इन्सानियत से मुन्किर (इन्कार करने वाला) हो। लेकिन ये एक अजीब बात है, कि इस मीलान-ए-तबा (फ़ित्रत का रुझान) का कि उस की ज़िंदगी के वाक़िआत को किसी ना किसी तरह से उड़ा दिया जाये। इस का ज़हूर हमेशा वक़्तन-फ़-वक़्तन होता रहता है। ज़माना हाल में मुक़तदिर (ताक़तवर) मसीही मुअल्लिम यूरोप में ऐसे मौजूद हैं। जो मसीह की क़ियामत के साथ इसी क़िस्म का सुलूक करते हैं। जो ये लोग उस की मौत के वाक़िये से करते थे। वो कहते हैं कि ये मह्ज़ इस्तिआरे के तौर पर है। और उसे लफ़्ज़ी तौर पर सही नहीं समझना चाहिए। इनके मुक़ाबले में कलीसिया उस की क़ियामत के वाक़िआत को पेश करती है। जैसे कि मक़ुद स यूहन्ना ने हमारे नजातदिहंदा की मौत के वाक़िआत को पेश किया था। हमारे ज़माने में हर क़िस्म के मुअल्लिम पाए जाते हैं। जो अपनी तालीम में मसीह से सनद (सबूत, इख़्तियार) लेते हैं। और उसी को इल्मे इलाही का मर्कज़ ठहराते हैं। मगर हम उन से सवाल करते हैं, कि ये कौनसा मसीह है? क्या ये वो मसीह है। जिसका ज़िक्र पाक नविश्तों में है। वो मसीह जो इब्तिदा में ख़ुदा के साथ था। जो मुजस्सम हुआ। जो जहाँ के गुनाहों के लिए मर गया। मुर्दों में से जी उठा। और हमेशा के लिए सल्तनत करता है? हमें मह्ज़ लफ़्ज़ों से अपने को धोका नहीं देना चाहिए फ़क़त वही मसीह जिसका ज़िक्र पाक नविश्तों में है। हमें वो नजात जो पाक नविश्तों में लिखी है। अता कर सकता है।

      बाअज़ का ये ख़याल है कि इस वाक़िये से जो ताज्जुब व हैरत मुक़द्दस यूहन्ना के दिल में पैदा हुई। उस का बाइस अहद-ए-अतीक़ की दो आयतों का पूरा होना था। जिन्हें वो नक़्ल करता है। ज़ाहिरन ये मह्ज़ एक इत्तिफ़ाक़ी बात मालूम होती थी, कि सिपाही यहूदियों की मंशा के ख़िलाफ़ येसू की हड्डियां तोड़ने से बाज़ रहे। मगर पाक कलाम में जिसकी उन्हें कुछ भी ख़बर नहीं थी। इस से सैंकड़ों साल पहले लिखा जा चुका था कि उस की हड्डी तोड़ी ना जाएगी। ये भी एक इत्तिफ़ाक़ी अम्र मालूम होता था कि एक सिपाही ने येसू के पहलू में बरछी घोब दी। मगर एक क़दीमी पैशन गोई जिससे वो मह्ज़ ना-बलद (नावाक़िफ़) था कह चुकी थी कि “वो उस पर जिसे उन्होंने छेदा नज़र करेंगे।” इस तरह से ख़ुदा के मुक़र्ररा इरादे के मुताबिक़ ये सिपाही अपनी वहशियाना हरकात से भी पाक नविश्तों के बयानात को पूरा कर रहे थे। और जिन्हों ने इस अम्र को देखा और नीज़ पाक नविश्तों से भी वाक़िफ़ थे। उन्होंने जान लिया कि इलाही उंगली येसू को साफ़-साफ़ ख़ुदा का भेजा हुआ बता रही है।

      पहली आयत की निस्बत ख़याल किया जाता है कि ये ख़ुरूज की किताब में से ली गई है। जहां फ़सह की रस्म का हाल दर्ज है। और दरअस्ल व फ़सह के बर्रे की तरफ़ इशारा करती है। जिसकी बाबत ये हुक्म था कि वो साबुत खाया जाये और उस की हड्डी ना तोड़ी जाये। मुक़द्दस यूहन्ना का ये ख़याल मालूम होता है, कि येसू अहद-ए-जदीद का बर्रा है। और इसलिए इंतज़ाम-ए-इलाही ये था, कि उस की कोई हड्डी ना तोड़ी जाये ताकि अस्ल नमूने के साथ मुशाबहत में फ़र्क़ ना आए। और हड्डी तोड़ने की सूरत में ये मुशाबहत क़ायम ना रहती यहूदी तारीख़ के तमाम ज़मानों में ईद-ए-फ़सह एक अज़ीमुश्शान ईद समझी जाती थी। इस से ग़र्ज़ ये थी, कि उसी की याद आवरी से लोग इस अजीब व ग़रीब ज़माने को याद रखें। जब ख़ुदा ने अपने फ़ज़्ल व क़ुद्रत से उन को एक मुस्तक़िल क़ौम बना दिया। और अपने दस्त-ए-क़ुद्रत (ज़ोर-आवर) हाथ से मिस्रियों की गु़लामी से रिहा कर के मिस्र से बाहर निकाल लाया। और इस ईद की ख़ास रस्म फ़सह के बर्रे का ज़ब्ह करना और खाना था। इस से वो याद करते थे, कि किस तरह मिस्र में इस बर्रे के ख़ून के सबब जो उन के घरों के दरवाज़ों पर छिड़का गया था। वो फ़ना करने वाले फ़रिश्ते के हाथ से जो मुल्क में से गुज़र रहा था महफ़ूज़ रहे। और किस तरह इस बर्रे का गोश्त ऐसी हालत में जब उन की कमरें कसी हुई थीं। और लाठियां उन के हाथ में थीं। खाया गया था। और इस के गोश्त से इन्हें इस ख़ौफ़नाक सफ़र के लिए क़ुव्वत हासिल हुई। इस तरह तमाम ज़मानों में इस रस्म से दो बातें उन के ज़हन नशीन की जाती थीं। अव़्वल ये कि गुज़श्ता गुनाहों की माफ़ी मिलनी चाहिए। और दूसरी कि आइन्दा साल के लिए जो इस नई फ़सह के बाद शुरू होता था। इन्हें आलम-ए-बाला से ज़ोर व क़ुव्वत अता होनी चाहिए। इसी तरह अहद-ए-जदीद में हमारे दिल हमेशा ख़ुदा के फ़ज़्ल और क़ुद्रत के इस अजीब व ग़रीब मुकाशफ़े की तरफ़ लगाए जाते हैं। जिससे मसीही दीन पैदा हुआ। और यहां भी एन वसती (दर्मियानी) जगह इस ज़ब्ह शूदा बर्रे को हासिल है जो हमारे गुज़श्ता गुनाहों का कफ़्फ़ारा है। और जिससे आइन्दा जद्दो जहद और सफ़र-ए-दुनिया के लिए ज़रूरी ताक़त अता होती है। अगर हम नूर में चलें। जिस तरह कि वो नूर में है। तो हमारी आपस में शराकत है। और उस के बेटे येसू का ख़ून हमें तमाम गुनाह से पाक करता है।

      दूसरी पैशन गोई जो मुक़द्दस यूहन्ना के नज़्दीक इस वाक़िये से पूरी हुई ये थी, कि वो उस पर जिसे उन्होंने छेदा नज़र करेंगे। ये आयत ज़करिया नबी के सहीफ़े में दर्ज है। और जो ऐसी अजीब व ग़रीब है कि उसे तमाम व कमाल यहां नक़्ल करना मुनासिब मालूम होता है। और मैं दाऊद के घराने पर और यरूशलेम के बाशिंदों पर फ़ज़्ल और मुनाजात की रूह बरसाऊँगा। और वो मुझसे जिसे उन्होंने छेदा है। नज़र करेंगे और वो उस के लिए मातम करेंगे। जैसा कोई अपने इकलौते के लिए मातम करता है। और वो उस के लिए तल्ख़ काम होंगे। जिस तरह से कोई अपने पहलौठे के लिए तल्ख़-कामी में पड़ता है।

      यहोवा उस मुख़ालिफ़त को जो उस के और उस के खादिमों के दर्मियान वाक़ेअ हुई। इस्तिआरे के तौर पर अपने छेदने और दुख देने से ताबीर करता है। जैसा कि हम भी जब कोई हमारी बेइज़्ज़ती करे। कहा करते हैं कि उस ने मेरा दिल छेद दिया। मगर मसीह की मौत में ये इस्तिआरा एक हक़ीक़त में तब्दील हो गया। इब्ने-अल्लाह के जिस्म पाक पर बरछी का वार किया गया और उसे छेदा गया। ज़ाहिरन ऐसा मालूम होता है कि मुक़द्दस यूहन्ना उसे रोमी सिपाहियों की तरफ़ नहीं। बल्कि यहूदी क़ौम की तरफ़ मन्सूब करता है। मगर नबुव्वत में ना सिर्फ लोगों के ख़ुदा को छेदने का, बल्कि अपने इस काम पर शर्मसारी और अश्कबारी के साथ नज़र करने का भी ज़िक्र है। ये बात ईद पंतीकोस्त पर पूरी होनी शुरू हुई। और उस वक़्त से लेकर हर ज़माने में यहूदी क़ौम में ऐसे आदमी पाए गए हैं। जो इस कार्रवाई के मुताल्लिक़ अपने जुर्म का इक़रार करते रहे हैं। लेकिन पूरा इक़रार अभी तक माअरज़-अल-तवा (रुका हुआ) में है। मगर ख़ुदा की ये क़दीम उम्मत जब कभी रुजू लाएगी। तो इस का आग़ाज़ उसी गिरये व फ़र्याद से होना चाहिए। दर-हक़ीक़त हर एक इन्सान जब उस को अपने हक़ीक़ी रिश्ते की जो वो मसीह से रखता है, ख़बर होती है। तो वो भी यही इक़रार करता है। ये फ़क़त चंद रोमी सिपाही या एक ख़ास क़ौम के सर-बराह (बुज़ुर्ग) वो लोग ही नहीं थे। जिन्हों ने मसीह की तरफ़ से अपने दिल को सख़्त कर लिया था। जिसने उसे सलीब पर चढ़ाया। और उस का ख़ून बहाया। इसलिए हर एक गुनेहगार को ये महसूस करना चाहिए। कि वो भी इस में शरीक था। और सिर्फ उसी वक़्त जब हम अपने गुनाह की निस्बत ये महसूस करने लगते हैं, कि वो गोया ख़ुदा के बेटे की ज़ात में ख़ुद ज़ाते इलाही पर हमला करता है। तो हम उस की हक़ीक़त और बड़ाई को समझ सकेंगे। बहुत से और लोग हैं। जो यूहन्ना की हैरत व ताज्जुब का बाइस इस अम्र को समझते हैं, कि उस ने मसीह के पहलू से ख़ून और पानी बहता देखा।

      एक लाश को अगर छेदा जाये। कम से कम अगर उसे मरे कुछ वक़्त हो गया हो। तो उमूमन उस में से कुछ नहीं बहा करता। जिस बात ने उसे फ़रेफ़्ता (आशिक़) कर लिया। वो ये थी कि नजातदहंदा का जिस्म गोया छेदने से एक चशमा बन गया। जिसमें से ये दो क़िस्म की रतूबत ख़ारिज हुई जब ब्याबान में मूसा ने अपना असा चट्टान पर मारा। तो उस में से पानी बह निकला। जिससे हलाक होती हुई जमाअत को ज़िंदगी मिल गई। मगर ये दो चीज़ें जो येसू के पहलू से बह निकलीं। वो यूहन्ना की नज़र में गोया इस से भी कहीं बेहतर थीं। क्योंकि उस के नज़्दीक ख़ून गोया सुलह व कफ़्फ़ारे की अलामत था। और पानी मसीह की रूह की। और इन दोनों बातों पर सारी नजात का मदार है। इसी के मुताबिक़ हम अपने एक मशहूर गीत में गाया करते हैं।

आब व खूं जो बहेते तेरे पहलू से

वो गुनाह की दवा हो दोज़ख़ से बचाने को

      अगरचे मुक़द्दस यूहन्ना ने शायद इस अम्र पर ग़ौर नहीं किया कि मसीह के ज़ख़्मी पहलू से उन दो चीज़ों के ये निकलने की क्या वजह थी। मगर और लोगों ने इस अम्र की तरफ़ तवज्जोह की है।

      बाअज़ ने तो इस बात को एक बिल्कुल ग़ैर-तबई वाक़िया समझा है। और उन्हों ने इस को इस अम्र पर महमूल किया है कि हमारे ख़ुदावन्द की इन्सानियत एक ख़ास तक़्सीम की थी। अगरचे वो मर गया। मगर और इन्सानों की तरह उस का जिस्म सड़ा नहीं। उस का जिस्म सड़ा नहीं। उस का जिस्म चंद ही घंटे बाद मुबद्दल और जलाली हो कर मौत के पंजे से निकल गया। ये तब्दीली का सिलसिला जो आख़िरकार उस की क़ियामत पर ख़त्म हुआ। उस की मौत ही के वक़्त से शुरू हो गया था। और इस बरछी के ज़ख़्म ने जो गोया इस तब्दीली के असना में लगाया गया जिस्म की बिल्कुल ग़ैर मामूली बनावट को ज़ाहिर कर दिया।

      दूसरों ने मुसल्लिमा वाक़िये ही पर लिहाज़ करके इस अम्र के लिए इस से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ मगर निहायत ही दिलचस्प वजह ठहराई है। इन्होंने मसीह की मौत के दफअतन (फ़ौरन) वाक़ेअ होने पर ख़ास तौर पर तवज्जोह की है। जो लोग सलीब दिए जाते थे। वो उमूमन कई कई दिन तक उस पर जीते लटके रहते थे। मगर वो छः घंटे से भी ज़्यादा ना जिया। मगर मौत के ऐन पेश्तर वो बार-बार बुलंद आवाज़ से चिल्लाता रहा। गोया कि उस की जिस्मानी क़ुव्वत हरगिज़ ज़ाइल नहीं हो गई थी। लेकिन दफअतन (फ़ौरन) एक बुलंद चीख़ के साथ ही उस की ज़िंदगी का ख़ातिमा हो गया। इस का क्या बाइस हो सकता है। बयान किया जाता है, कि बाअज़ औक़ात जिस्मानी और ज़हनी दबाओ की सख़्ती की वजह से दिल फट जाया करता है। और मरीज़ चिल्लाता है। और मौत नागहां वाक़ेअ हो जाती है। हम उमूमन कहा करते हैं, कि फ़ुलां आदमी तो दिल के टूटने से मर गया। लेकिन ये बात मह्ज़ इस्तिआरे के तौर पर होती है। मगर बाअज़ औक़ात ये अम्र लफ़्ज़ी तौर पर भी सही होता है। दिल सच-मुच ग़म के मारे शिकस्ता हो जाता है। और ये भी कहा जाता है, कि जब मौत इस तौर से वाक़ेअ होती है। तो ख़ून जो दिल में भरा होता है। एक और थैली में जो दिल को घेरे रहती है। बह जाता है। और यहां वो दो अजज़ा में तहलील हो जाता है। एक तो फटकीदार चीज़ जो ख़ून के रंग की होती है। और दूसरी शफ़्फ़ाफ़ बेरंग चीज़ जो पानी की मानिंद होती है। और इस हालत में अगर इस थैली को बरछी या किसी और चीज़ से छेदा जाये तो इन दोनों अश्या की एक बड़ी मिक़दार बह निकलेगी जिसे एक मामूली देखने वाला जो इल्मी इस्तिलाह से वाक़िफ़ नहीं। ख़ून और पानी समझेगा।

      ये मसअला पचास साल हुए एक अंग्रेज़ डाक्टर स्टरवुड साहब ने साबित किया था। और उस वक़्त के बाद बहुत से दूसरे डाक्टरों ने भी जो इल्म व हिक्मत में उस से किसी तरह कम नहीं हैं। उस के साथ इत्तिफ़ाक़ राय ज़ाहिर किया है। मसलन प्रोफ़ैसर बेगबी मर्हूम और सर जेम्स सिम्पसन साहिबान। मोअख्ख़र-उल-ज़िक्र डाक्टर साहब अपनी एक किताब में नजातदिहंदा की मौत का हाल निहायत दर्द-नाक और मोअस्सर अल्फ़ाज़ में बयान करते हैं। कम से कम मुझे बहैसियत डाक्टर होने के हमेशा ये ख़याल गुज़रता है, कि वो तरीक़ जिससे मसीह की जिस्मानी मौत वक़ूअ में आई। हमारे ख़यालात और तसव्वुरात को इस बारे में बहुत ही गहरा कर देता है कि वो कितनी बड़ी क़ुर्बानी होगी। जो उस ने सलीब पर हमारे गुनेहगार अब्नाए जिंस के लिए गुज़रानी। इस से बढ़कर और अजीब व ग़रीब क्या बात होगी। कि किस तरह हमारी ख़ातिर एक निहायत बेचारगी के आलम में ख़ुदा ने इन्सान बन कर अपने इन्सानी जिस्म को सलीब के दुखों और अज़ाबों के हवाले कर दिया। लेकिन इस क़ुर्बानी की अज़मत की निस्बत हमारा ताज्जुब और भी तरक़्क़ी कर जाता है। जब हम इस अम्र पर ग़ौर करते हैं, कि जब वो इस तरह हमारे गुनाहों के लिए निहायत सख़्त बेरहमाना तक्लीफ़ वो जिस्मानी का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हो रहा था। तो वो आख़िरकार अपनी जिस्मानी तक़ालीफ़ की सख़्ती के सबब से नहीं हलाक हुआ। बल्कि अपने दिल के दुख के सबब जो इस से भी कहीं ज़्यादा था। उस के दिल की गोश्तीन दीवारें जो उस की जिस्मानी हैकल के पर्दे की तौर पर थीं। फट गईं जब कि उस ने हमारे लिए अपनी जान को मौत में लुंढा दिया। और इस तौर से उस की जान का दुख इस घड़ी में एक नाक़ाबिल बयान तल्ख़ी से मामूर और उस के जिस्म के दुखों से कहीं ज़्यादा दर्द-नाक था।

      हम इस बाब में ज़्यादातर ख़यालात और मफ़रूज़ात के आलम में फिरते रहे हैं। और हम मुस्तक़िल तौर पर ये तहक़ीक़ नहीं कर सके कि कौनसी बात क़ाबिल-ए-तस्लीम है। और कौनसी नहीं। ये एक पुर इसरार मौक़ा है। और जिस तरफ़ हम मुँह करते हैं। धुंदे मगर दिलकश मआनी पर्दे के पीछे से झाँकती हुई मालूम होती है। हमने इस नज़ारे का नाम मुर्दा मसीह रखा है। लेकिन कौन नहीं जानता कि मुर्दा मसीह ऐसा अजीब और दिलचस्प इसी वजह से है, कि वो ज़िंदा मसीह भी है? वो ज़िंदा है। वो यहां मौजूद है। वो इस वक़्त हमारे पास है। मगर इस का बरअक्स भी सही है। ज़िंदा मसीह हमारे लिए ऐसा अजीब और क़ाबिल परस्तिश मालूम होता है। इस वजह से कि वो मुर्दा मसीह भी है। ये बात कि वो ज़िंदा है हम में उम्मीद और क़ुव्वत पैदा करती है। मगर ये उस की मौत की यादगार है। जिसके लिहाज़ से वो हमारे बोझ से लदे हुए ज़मीर और हमारे दर्दमंद दिलों की मुहब्बत का सहारा है।

तेईसवां बाब
तदफ़ीन

      सिर्फ सख़्त दिल और तंग-ख़याल लोग ही मौत के बाद जिस्म इन्सानी को बेपर्वाई की नज़र से देखते हैं। और तकफ़ीन व तदफ़ीन के मुताल्लिक़ हर क़िस्म की रसूम व दस्तुरात को हक़ीर और ग़ैर-ज़रूरी समझते हैं। मगर बनी-आदम की फ़ित्रती



31  ये इबारत हन्ना साहब की किताब मौसूमा “ख़ुदावनद के दुखों का आख़िरी दिन” से नक़ल की गई है।

ख़्वाहिश इन लोगों की निस्बत ज़्यादा दाना है। क़दीम ज़माने में मुनासिब तौर से दफ़न ना किया जाना निहायत बद-क़िस्मती की बात समझा जाता था। और अगरचे इस ख़याल के साथ बहुत से बातिल तोहमात भी मिले हुए थे। मगर तो भी उस की तह में एक सही इन्सानी जज़्बा था। जिस्म को भी रूह की तरह एक क़िस्म का रुत्बा व इज़्ज़त हासिल है। ख़ासकर जब कि उसे रूह-उल-क़ुद्स की हैकल माना जाये। और मौत में भी एक अज़मत का ख़याल है। जिसकी तरफ़ से बेपर्वाई करने में ज़िंदों का सख़्त नुक़्सान मुतसव्वर है। और जब हम किसी जनाज़े की बाबत देखते हैं कि उस की तैयारी में जल्दी और बेपर्वाई से काम लिया गया है। तो हमें बुरा मालूम होता है। और ऐसा ख़याल गुज़रता है कि गोया फ़ित्रत इन्सानी की बे-हुरमती की कई है। बरख़िलाफ़ इस के हमें एक तरह की तस्कीन हासिल होती है। जब हम किसी जनाज़े को बड़ी संजीदगी और तहम्मुल के साथ ले जाते देखते हैं। और जब कोई ऐसा शख़्स गुज़र जाता है। जिसकी ज़िंदगी का कार हायनुमा और फ़य्याज़ी, व आली हौसलगी से भरी थी। और जिसने अपनी क़ौम की बहबूदी और बनी इन्सान के फ़ायदे के लिए उम्दा-उम्दा काम सरअंजाम दिए थे। तो जब उस की लाश एक आलम के नोहे और मातम के दर्मियान दफ़न की तरफ़ ले जाते हैं। और घंटे बजते हैं। और तोमें दाग़ी जाती हैं। और गलियों में दो रवय्ये लोगों का हुजूम नज़र आता है। और उलमा व शरिफा उस की क़ब्र के गिर्दा गिर्द खड़े होते हैं। तो जिस शख़्स के दिल पर इस दिलकश नज़ारे का कुछ भी असर ना हो। हम कहेंगे, कि उस का दिल किसी मर्ज़ में गिरफ़्तार है। या वो अभी तक बिल्कुल कुंदा ना-तराशीदा है।

      अज़ीम और दाना और नेकोकार लोगों की तदफ़ीन इसी तौर से होनी चाहिए। तो आओ। हम देखें कि वो जिसके सबब से ज़्यादा अज़ीम और दाना और नेकोकार होने का सब कोई क़ाइल है। किस तौर से दफ़न किया गया।

(1)

      शाम के क़रीब तीनों लाशें सलीब पर से उतार ली गईं। पेश्तर इस के कि यहूदियों का सबत, जो ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब के वक़्त से शुरू होता था, आवे। ग़ालिबन दोनों चोर इसी



32  मुख़्तसर सवाल व जवाब की किताब में इस ख़्याल को निहायत ख़ूबसूरती से ज़ाहिर किया है। “और उन के अजसाम जवाब भी मसीह से मुत्तहिद हैं। क़ियामत के दिन तक क़ब्रों में आराम करते हैं।”

मुक़ाम पर मए सलीब लकड़ी और दूसरी चीज़ों के दफ़न कर दिए गए होंगे। या उन की लाशें उठा कर किसी गुमनाम गोशा या ख़ंदक़ में जहां मुजरिमों की लाशों को ज़मीन में गढ़े खोद कर डाल दिया करते थे, ले गए होंगे।

      येसू की लाश के साथ भी यही सुलूक होता। अगर एक शख़्स जिसके आने की हरगिज़ किसी को पहले तावक़्क़ो ना थी, आकर मुदाख़िलत ना करता। रोमियों के दर्मियान ये एक अच्छी रस्म थी कि मुजरिमों की लाशें उन के दोस्तों को अगर वो दरख़्वास्त करें तो दे दी जाया करती थीं। और इस वक़्त येसू की लाश के लिए भी एक शख़्स दावेदार हुआ। जिसे पीलातुस ने बिला-ताम्मुल लाश हवाले कर दी।

      ये पहला मौक़ा है कि हम इन्जील की तारीख़ में यूसुफ़ अर्मितिया का नाम पढ़ते हैं। और उस के माक़ब्ल की ज़िंदगी का हमें कुछ हाल मालूम नहीं है। बल्कि वो शहर जिस के नाम से वो कहलाता है। उस का भी सही तौर पर अभी पता नहीं चला। इस बात से कि यरूशलेम के नवाही में एक बाग़ और मकान उस की मिल्कियत था। ये अम्र साबित नहीं होता कि वो वहीं का बाशिंदा था। क्योंकि हर एक दीनदार यहूदी के दिल में बड़ी ख़्वाहिश थी, कि बैतुल-मुक़द्दस के गिर्दो नवाह में मदफ़ून हों। और अब भी अगर देखा जाये। तो शहर का गिर्द नवाह क़ब्रों और मक़बरों से भरा पड़ा है।

      यूसुफ़ एक दौलत मंद आदमी था और इस से पीलातुस के नज़्दीक उस की दरख़्वास्त के मक़्बूल होने में भी मदद मिली होगी। जिन लोगों के पास माल दौलत या मर्तबा या लियाक़त है। वो कई तरह से मसीह की ख़िदमत बजा ला सकते हैं। जो ग़रीब और नादार लोगों की बिसात से बाहर होती है। मगर पेश्तर इस के कि ये ख़िदमात मसीह के नज़्दीक मक़्बूल हों। ये ज़रूर है कि वो लोग जिन्हें ये क़ाबिलियतें हासिल हैं। उस की ख़ातिर से इन्हें नुक़्सान और कूड़ा समझें।

      यूसुफ़ एक मुशीर था। बाअज़ का ख़याल है कि वो अर्मितिया की कौंसल का मुशीर था। मगर इस बयान में कि “उस ने उन की सलाह और काम को मंज़ूर ना किया था।” ज़ाहिरन सदर मज्लिस की तरफ़ इशारा पाया जाता है। मालूम होता है, कि वो ग़ालिबन इसी मज्लिस का मुशीर था। बिला-शुब्हा वो जान-बूझ कर उस इजलास से जिसमें येसू पर फ़त्वा लगाया गया। ग़ैर हाज़िर रहा होगा। क्योंकि वो पहले ही से जानता था। कि ये सारी कार्रवाई दर्द-नाक और नफ़रतअंगेज़ होगी। क्योंकि “वो एक नेक और रास्तबाज़ आदमी था।”

      लेकिन उस की निस्बत हमें इस से भी ज़्यादा कुछ बताया गया है कि “वो ख़ुदा की बादशाहत का मुंतज़िर था” यही फ़िक़्रह एक और मौक़े पर अहद-ए-जदीद में उस के फ़िलिस्तीन के दीनदार लोगों के हक़ में भी इस्तिमाल किया गया है। और इस से एक अजीब तौर पर उन की दीनदार की ख़ुसूसियत भी आशकारा होती है। वो ज़माना रुहानी तौर पर मुर्दा था। मज़्हबी जमाअत में या तो फ़रीसियों की तरह अहकाम शराअ की ज़ाहिरी पाबंदी नज़र आती थी या सदूक़ियों की तरह वो बिल्कुल बेएतिक़ाद थे। इबादत ख़ानों में लोग रोटी के उम्मीदवार हो कर जाते थे। मगर वहां उन्हें पत्थर मिलते थे। फ़क़ीह लोग बजाए इस के कि बाइबल की सच्चाइयों के ख़ालिस और शफ़्फ़ाफ़ दरिया को मुल्क में बहने दें। उसे अपनी बे-जान तफ़्सीरों और शरहों की रेत से अट रहे थे। मगर बुरे से बुरे ज़मानों में भी नेक लोग पाए जाते हैं। और इस वक़्त फ़िलिस्तीन में भी सच्चे दीनदार कहीं कहीं मौजूद थे। वो उन रौशनियों की मानिंद थे। जो तारीकी में कहीं-कहीं टिमटिमाती नज़र करती हैं। ये लोग ज़रूर अपने दिल में महसूस करते होंगे, कि वो अपने मुल्क और अपने ज़माने में मह्ज़ अजनबी और मुसाफ़िर के तौर पर हैं। और वो गोया ज़माना-ए-माज़ी और मुस्तक़बिल में ज़िंदगी बसर करते थे। अम्बिया जिनका कलाम उन की रूहों की ख़ुराक था एक ऐसे अच्छे आने वाले ज़माने की पेशीनगोई करते थे। जब कि उन लोगों पर जो तारीकी में बैठे हैं। बड़ा नूर चमकेगा। और वो इसी बेहतर ज़माने की इंतिज़ार में थे। वो इस बात के मुंतज़िर थे, कि नबुव्वत की आवाज़ को फिर एक बार मुल्क में गूँजता हुआ सुनें। जो लोगों को उन की रूहानी नींद से जगाए। और सबसे बढ़कर वो एक मसीह के मुंतज़िर थे। और इस बात के उम्मीद-वार थे कि काश वो हमारे ही ज़माने में जलवागर हो।

      ऐसे ही लोग थे। जिनके दर्मियान यूहन्ना और येसू दोनों को अपने शागिर्द मिले। ऐसे लोगों ने बपतिस्मा देने वाले और उस के जांनशीन को बड़ी ख़ुशी से क़ुबूल किया होगा। कम से कम उन्हें उन नबियों में से समझा होगा, जो उन के ज़माने की बुराईयों के दफ़ईया (दफ़ाअ करना) के लिए मबऊस (नबी बरपा होना) हुए हों। लेकिन इस बारे में कि आया येसू ही वो है, जो आने वाला था। या उन्हें और की राह तकनी चाहिए। वो भी शुब्हा में थे। यूसुफ़ भी शायद उन लोगों में से होगा। उस की बाबत ये लिखा है, कि वो येसू के शागिर्दों में से था। मगर यहूदियों के ख़ौफ़ से इस बात को पोशीदा रखता था। उस के पास ईमान तो था। मगर ये ईमान ऐसा काफ़ी नहीं था, कि वो येसू का आम तौर पर इक़रार कर सके। और उस से जो कुछ मुसीबत उस पर पड़े। उस के उठाने को आमादा (राज़ी) हो। येसू की तहक़ीक़ात के वक़्त भी उस ने अपनी ज़मीर की तलाफ़ी के लिए यही काफ़ी समझा होगा, कि सदर-ए-मज्लिस से ग़ैर हाज़िर रहे। बजाए इस के कि अपनी जगह पर हाज़िर हो और एलानिया अपने यक़ीन व अक़ीदा का इज़्हार करे।

      उस वक़्त तो वो जैसी हालत में रहा। लेकिन अब बावजूद ख़ौफ़ ख़तरे के उस ने अपने को येसू के पैरओं में से ज़ाहिर कर दिया। इस अम्र पर ग़ौर करना दिलचस्पी से ख़ाली ना होगा, कि वो क्या बात थी। जिसने उसे इस बात पर आमादा किया होगा। कि अब ज़्यादा ताम्मुल (देर) करना मुनासिब नहीं बाज़ औक़ात मज़्हबी उमूर् में कामिल तौर पर फ़ैसला करने के लिए इसी क़िस्म के वाक़िआत मुमिद (मददगार) होते हैं। मसलन एक शख़्स जो दौराइयों के दर्मियान में ठहरा हुआ होता है। या उसे अपने यक़ीन का आम तौर पर इक़रार करने की कभी जुर्आत नहीं होती। एक दिन जब कि वो अपने हम-मशरब (मज़हब, मिजाज़) लोगों में बैठा हुआ होता है। तो मज़्हबी उमूर् पर बातचीत छिड़ जाती है। और बाअज़ लोग उस की मसखरी उड़ाते और मसीह के बंदों पर हँसने लगते हैं। उस की तालीम व मसाइल पर ठट्ठा करते और उस के नाम पर कुफ़्र बकते हैं। लेकिन आख़िरकार वो इस अम्र में हद से बढ़ने लगते हैं। तब ये ख़ामोश और नीम एतिक़ाद शागिर्द अपने को ज़ब्त (क़ाबू) नहीं कर सकता। वो ग़ज़बनाक हो कर बोल उठता है। और इस तरह से उस का मसीही होना तश्त-अज़-बाम (मशहूर होना) हो जाता है। यूसुफ़ के दिल में किसी ऐसे ही तौर से ये तब्दीली पैदा हुई होगी। उसे सारे सदर मज्लिस की मुख़ालिफ़त करनी पड़ी। और ख़ुद उस की जान भी माअरिज़-ए-ख़तर में थी। मगर अब वो बाज़ ना रह सका। और सब ख़ौफ़ को पसे पुश्त डाल कर वो बज़ात ख़ुद पीलातुस के पास गया। और येसू की लाश मांगी।

(2)

मसीह का दिलेरी से एलानिया इक़रार करने से दो नतीजे पैदा हुआ करते हैं।

      एक तरफ़ तो इस से मुख़ालिफ़ दब जाते हैं। ये नहीं लिखा कि इस मौक़े पर ऐसा करने से यूसुफ़ को कुछ नुक़्सान पहुंचा। या ये कि सदरे मज्लिस वालों ने फ़ील-फ़ौर उस के सताने और ईज़ा देने पर कमर बाँधी वो दर-हक़ीक़त बड़े जोश व ग़ज़ब से भरे हुए थे। और उस के मुक़ाबले में सत्तर और एक की निस्बत रखते थे। मगर बाअज़ औक़ात ऐसा होता है कि एक अकेला दिलेर आदमी इस से भी ज़्यादा मज़्बूत मुख़ालिफ़त को नीचा दिखा देता है। ये तो यक़ीनी बात है, कि उन में से बहुतों के ज़मीर उन्हें इस काम के लिए नफ़रीन (मलामत) कर रहे थे। और वो इस अम्र के लिए तैयार ना थे। कि ऐसे मुस्तक़िल मिज़ाज और माक़ूल आदमी से जिसके मिज़ाज से वो ख़ूब वाक़िफ़ थे। ख़्वाह-मख़्वाह इस मुकदमे में बह्स मुबाहिसा करने पर आमादा हों। जो लोग मसीह के इक़रार पर कमर बांध लेते हैं। उन्हें एक बड़ा फ़ायदा ये हासिल है, कि उन के मुख़ालिफ़ों का ज़मीर भी एक तरह से इन्हें का तरफ़दार होता है।

      मसीह का दिलेरी से इक़रार करने का दूसरा नतीजा ये होता है, कि और लोग भी जिनके सीने में इतनी गर्मी व हरारत नहीं होती कि वो ख़ुद बख़ुद ऐसा करने की जुर्आत करें। इस की मिसाल व नमूने को देखकर इस अम्र के लिए आमादा हो जाते हैं। ये साफ़ मालूम होता है, कि इस सूरत में भी यूसुफ़ के नमूने से निकुदेमस को भी अपनी वफ़ादारी दिखलाने की जुर्आत हुई।

      निकुदेमस भी वही ओहदा रखता था। जो यूसुफ़ का था। क्योंकि वो भी सदर-ए-मज्लिस का मैंबर था। और वो भी खु़फिया तौर पर मसीह का शागिर्द था। वो इंजीली तारीख़ के सफ़े पर इस वक़्त पहली दफ़ाअ ही ज़ाहिर नहीं होता। क्योंकि हम पढ़ते हैं कि वो येसू के आग़ाज़ रिसालत ही में उस की तरफ़ खिंचा गया था। यहां तक कि ख़ुफ़िया तौर पर उस से मुलाक़ात भी कर आया था। जिसका तज़्किरा इन्जील-ए-यूहन्ना का एक क़ीमती जुज़्व है। और जिसको पढ़ कर ना तरफ़ हज़ार-हा हज़ार आदमी येसू पर ईमान लाए होंगे। बल्कि उस के गवाह भी बन गए होंगे। लेकिन ऐसा मालूम होता है, कि इस कलाम से उस शख़्स को जिससे मुख़ातिब हो कर दरअस्ल मसीह ने वो कलाम किया था। इस क़द्र फ़ायदा हासिल ना हुआ। जैसा कि होना चाहिए था। निकुदेमस को मसीह के सबसे पहले शागिर्दों के ज़मुरे में शामिल होना चाहिए था। और उस के मर्तबे और मुक़ाम से रसूलों की जमाअत को बहुत ही तक़वियत पहुँचती। मगर वो शश व पंज में था। और इसलिए ख़ुफ़िया तौर पर शागिर्द बना रहा। एक मौक़े पर वो ज़रूर बोल उठा। यानी उस वक़्त जब कि एक निहायत नावाजिब बात सदर-ए-मज्लिस के सामने मसीह के हक़ में कही गई थी। तो लिखा है कि उस ने ये सवाल किया कि “क्या हमारी शरीअत किसी शख़्स को मुजरिम ठहराती है। जब तक पहले उस की सुन कर जान ना ले कि वो क्या करता है'?” लेकिन जब उन्होंने गु़स्सा से ये जवाब दिया कि “क्या तो भी गलीली है?” तो वो दब गया और बिल्कुल ख़ामोश हो रहा। बिला-शुब्हा यूसुफ़ की तरह वो भी इस जलसे से जिसमें येसू पर फ़त्वा लगाया गया गैर-हाज़िर रहा होगा। मगर सदरे मज्लिस की बेइंसाफ़ी ऐसी सख़्त दर्जे की थी। कि वो आम तौर पर उस के ख़िलाफ़ कहने को आमादा था। लेकिन शायद वो अपने यक़ीन के मुताबिक़ कभी अमल ना करता। अगर यूसुफ़ उस की इस तरफ़ रहनुमाई ना करता।

      मगर निकुदेमस में ये अम्र क़ाबिल-ए-तारीफ़ है कि वो एक तरक़्क़ी करने वाला आदमी था। अगरचे वो कुछ अर्से के लिए रुका रहा। लेकिन आख़िरकार वह निकल ही आया। और देर से आना ना आने से हज़ार दर्जा बेहतर है। जब वो यूसुफ़ से मलाकी (मुलाक़ात होना) हुआ। तो उस के लिए ये बड़ी ख़ुश-क़िस्मती की घड़ी समझनी चाहिए। बहुत से दोस्तों के मजमे ऐसे है जिनमें सब के सब तह-ए-दिल से सच्चाई पर यक़ीन रखते और उसी की तरफ़ माइल हैं। और अगर उन में से एक भी दिलेरी कर के निकल आता है। तो बाक़ी बड़ी ख़ुशी से उस की पैरवी करते हैं। यूसुफ़ और निकुदेमस के हाथ मुंजी की लाश पर एक दूसरे से मिल गए। जब उन्होंने मिलकर उसे उठाया। और कोई ऐसी मुहब्बत या दोस्ती मज़्बूत या गहरी नहीं होगी। जैसी कि वो जिसका मदार मसीह के रिश्ते और ताल्लुक़ पर हो।

(3)

      मुसव्वरों ने ख़ुदावन्द की तदफ़ीन का नक़्शा बड़ी तफ़्सील के साथ खींचा है। मगर वो ज़्यादातर क़ुव्वत वहमा (सोचने की क़ुव्वत) पर मबनी है। उन्होंने उसे मुख़्तलिफ़ सीनों पर तक़्सीम किया है।

      पहले सलीब पर से उतारा जाना है। जिसमें इलावा यूसुफ़ और निकुदेमस के कम से कम मुक़द्दस यूहन्ना और बाअज़ औक़ात और लोग भी दिखाए जाते हैं। जो मेख़ें निकालते और लाश को नीचे उतारते हैं। और सलीब के नीचे मुक़द्दस औरतें, जिनमें मुक़द्दस कुँवारी मर्यम और मर्यम मग्दलीनी ख़ास तौर पर दिखाई जाती हैं। जो नीचे से इस क़ीमती बोझ को पकड़ती हैं।

      एक और तस्वीर में औरतों के लाश पर मातम करने का नज़ारा दिखाया जाता है। इस में मुक़द्दस माँ उमूमन अपने बेटे का सर गोद में लिए होती है। और दूसरी औरतें हाथों को पकड़े होती हैं। फिर सब मिलकर उसे क़ब्र की तरफ़ ले जाते हैं। और आख़िरकार उसे दफ़न करते हैं। जिसकी तस्वीर मुख़्तलिफ़ तौर पर खींची जाती है।

      इन नज़ारों के खींचने पर मशहूर व मसरूफ़ मुसव्विरों ने अपनी सारी हिक्मत और सनअत ख़र्च की है। मगर अनाजील का बयान बिल्कुल मुख़्तसर और सादा है। इस में मुक़द्दस कुँवारी का नाम भी नहीं लिया। और अगरचे दूसरी मुक़द्दस औरतों का वहां मौजूद होना लिखा है। मगर इस का कहीं इशारा भी नहीं किया कि इन्होंने उस की तदफ़ीन में किसी क़िस्म की इमदाद की। बल्कि सिर्फ ये कि वो लाश के पीछे गईं। और जहां वो दफ़न हुआ था। उस मुक़ाम को देखा। फ़क़त यूसुफ़ और निकुदेमस का ख़ास तौर पर ज़िक्र पाया जाता है। अगरचे ये फ़र्ज़ कर लेना भी क़रीन-ए-क़ियास (वो बात जिसे अक़्ल क़ुबूल करे) है, कि उन के नौकरों ने इस काम में उन की मदद की होगी। और सिपाहियों ने लाश के उतारने में हाथ बटाया होगा।

      ख़ुदावन्द की लाश एक नई क़ब्र में जो एक चट्टान में से तराशी गई थी। और यूसुफ़ ने बाद मुर्दन अपने दफ़न किए जाने के लिए तैयार करवाई थी। रखी गई। वहां पहले कभी कोई लाश नहीं रखी गई थी। एक ख़ारिज शूदा और मस्लूब आदमी के लिए ये एक बड़ा एहसान समझना चाहिए। और ये बहुत मुनासिब तोहफ़ा भी था। क्योंकि ये वाजिब था कि पाक और बेगुनाह आदमी की लाश जो सब चीज़ों को नए सर से बनाने आया था। और अगरचे मुर्दा थी। मगर सड़ने वाली नहीं थी। एक ऐसी ही पाक क़ब्र में रखी जाये। ऐसे ही नया कत्तानी कपड़ा भी जो यूसुफ़ उस की लाश को लपेटने के लिए लाया था। बिल्कुल बरमहल और मुनासिब मौक़ा था। मगर निकुदेमस भी इज़्हार-ए-मोहब्बत व अक़ीदत में पीछे ना रहा। “वो मुर और लोबान का मुरक्कब लाया। जिसका वज़न क़रीबन पचास सैर था।” ये मिक़दार बहुत ही ज़्यादा मालूम होती है। मगर उस ज़माने में मसालों की ऐसी ही बड़ी-बड़ी मिक़दारें इस्तिमाल करने का रिवाज था। मसलन लिखा है कि हेरोदेस के जनाज़े पर जो मसाले इस्तिमाल किए गए। वो पाँच सौ आदमी उठा कर लाए थे।

      ये क़ब्र एक बाग़ में थी। और इस से भी एक मुनासबत और ख़ूबसूरती ज़ाहिर होती है। मालूम होता है कि वो जगह सलीब के मुक़ाम से बहुत दूर ना थी। लेकिन इस अम्र पर शुब्हा हो सकता है, कि वो इस क़द्र क़रीब थी। जैसी कि वो जगह है। जो रिवायत के मुताबिक़ ठहराई गई है। मर क़द मुक़द्दस का गिरजा जो इस वक़्त यरूशलेम में मौजूद है इस के अहाते में ना सिर्फ क़ब्र की जगह बल्कि वो सुराख़ भी जिसमें सलीब की लकड़ी गड़ी थी। पाया जाता है। और दोनों एक दूसरे से फ़क़त तीस गज़ के फ़ासिले पर हैं। मगर इस अम्र में शुब्हा है कि आया इन दोनों मुक़ामों का सही तौर पर दर्याफ़्त होना मुम्किन है। ताहम ज़मीन का ये टुकड़ा दुनिया भर निहायत ही मशहूर मुक़ाम है। मसीही दुनिया ने इस रिवायत को जो शहनशाह किस्तनतीन के ज़माने से चली आती है। सही मान लिया है। और उस वक़्त से ले कर हाजी लोग बराबर उस मुक़ाम की ज़ियारत को जाते रहे हैं। इसी मुक़ाम पर क़ब्ज़ा करने की ग़र्ज़ से मशहूर व माअरूफ़ सलीबी जंग वाक़ेअ हुए थे। और आज के दिन भी मसीहियों की मुख़्तलिफ़ कलीसियाएं वहां फुट फुट भर जगह हासिल करने के लिए एक दूसरे से लड़ती हैं।

      अगरचे हमें इन हाजियों और जजों के साथ कुछ भी हम्दर्दी ना हो। और इन पाक मुक़ामों के असली मौक़े को दर्याफ़्त करने में कुछ भी दिलचस्पी ना हो। मगर मर्क़द अक़्दस की तरफ़ ख़्वाह-मख़्वाह ईमानदार का दिल खींचा जाता है। गुज़श्ता ज़मानों में दीनदार लोग क़ब्रिस्तान में जा कर गौर व फ़िक्र किया करते थे। मगर ज़माना-ए-हाल के दीनदार ज़्यादा ख़ुशनुमा मुक़ामात को इस ग़र्ज़ के लिए इंतिख़ाब करना पसंद करते हैं। और हम उम्मीद करते हैं, कि वो इस तौर से भी रुहानी फ़ायदा हासिल करते हैं। लेकिन हर एक आदमी जिसके दिल में तबई मुहब्बत जागज़ीन है। वो ज़रूर अपने महबूब और रिश्तेदार की क़ब्र के पास ठहरना दोस्त रखता है। और हर एक संजीदा मिज़ाज आदमी को कभी-कभी अपनी क़ब्र का ज़रूर ख़याल आता होगा। और ऐसे मौक़ों पर इस से बढ़कर और कौन सी चीज़ से मदद मिल सकती है, कि हम आलम-ए-ख़याल में उस शख़्स की क़ब्र का हज किया करें। जिसने ये फ़रमाया था कि “क़ियामत और ज़िंदगी मैं ही हूँ।”

      दुनिया के बड़े-बड़े आदमियों के मुक़ाबले में येसू का जनाज़ा एक मामूली ग़रीब आदमी का जनाज़ा था। लेकिन उन लोगों की हैसियत के लिहाज़ से जिनको उस के आख़िरी कफ़न व दफ़न की इज़्ज़त मिली। कोई इस से बढ़कर ना कर सकता। और जो कुछ उन्होंने किया दिली मुहब्बत व उल्फ़त से किया। गो ज़ाहिरन धूम धाम का वहां कुछ नाम व निशान ना था। इस तौर से आख़िरकार वो उस नई क़ब्र में। जिसमें पहले कोई नहीं रखा गया था। ख़ुशबूदार मसालों के अंबार में। और महके हुए फूलों के बाग़ के दर्मियान रखा गया। उस का जिस्म सफ़ैद कतान में लिपटा हुआ था। और उस के सर पर रूमाल बंधा था। जो उस के सर के कांटों के ज़ख़्मों को छुपाए हुए था। और क़ब्र के दरवाज़े पर एक बड़ा पत्थर रखा था। और ये उस की आरामगाह थी। शाम का वक़्त था। और सबत शुरू हो चुका था। उस का काम तमाम हो चुका था ईज़ा और दुश्मनी अब उस का पीछा नहीं कर सकती थी। वो उस जगह पहुंच गया था। जहां शरीर दुख देना छोड़ देते हैं। और थके-माँदे आराम करते हैं।