اِنَّ اللہَ عَلٰی کُلِّ شَیۡءٍ قَدِیۡر

मोअजज़ात हक़ व बातिल

Truth and False Miracles

Hinduism, Christianity, Judaism, and Islam
1876
(मैथोडिस्ट पब्लिशिंग हाऊस लखनऊ)

दीबाचा

मुसन्निफ़ ने ये दर्स डिस्ट्रिक्ट कान्फ़र्स लोकल प्रिचरान अमरीकन मेथ्यूडस्ट एप्सिकोपल चर्च हिंद के रूबरू पढ़ा सब जमाअत ने अला-उला-इत्तिफाक़ ये दरख़्वास्त की कि तबाअ कराया जाये। बाअज़ अक़्वाल और तोज़ेहात (वाज़ेह करना) इन दर्सों में ऐसे हैं कि सब मुसन्निफ़ के ईजाद नहीं हैं और बाअज़ दलाईल मुख़्तलिफ़ अंगेज़ी किताबों से लिए गए हैं। अगर पहले से मुसन्निफ़ (लिखने वाला) का इरादा इनके तबाअ (पब्लिश) कराने का होता तो इस मज़्मून को मुख़्तलिफ़ तौर पर और ज़्यादा उम्दगी और वुसअत से लिखता। दोस्तों की दरख़्वास्त के बाद भी मेरा इरादा यही है कि ब-वक़्त फ़ुर्सत इस को दर तौर पर तर्तीब दूंगा मगर कस्रतकार ने की इतनी मोहलत (वक़्त) ना दी कि इरादा पूरा होता लहज़ा-ब-मज्बूरी हस्ब दरख़्वास्त अपने हिन्दुस्तानी भाईयों और दोस्तों के इसी ग़ैर-मुकम्मल हालत में इन दर्सों के लिए तबाअ (पब्लिश) कराने के लिए भेजता हूँ मगर बा अनेहमा मुझे उम्मीद है कि अगर कोई बग़ौर देखेगा तो मतलब बख़ूबी समझेगा और नफ़ा (फ़ायदा) उठाएगा।

मुसन्निफ़ की दिली आरज़ू और क़ादिर-ए-मुतलक़ हकीम व रहीम ख़ुदा तआला से ये इल्तिजा है कि इन दोनों दर्सों के दलाईल और तश्रीहात मसीही भाईयों की ईमानदारी को तक़वियत दीन और हिंदू और मुसलमान भाईयों को ऐसी तौफ़ीक़ हो कि ख़ुदा के बेटे येसू मसीह पर ईमान लाएं। आमीन

डी॰ डब्लू॰ टी॰

बरेली

यकम जनवरी 1876

दर्स-ए-अव़्वल

किताब-ए-मुक़द्दस के मोअजज़ात पर

जानना चाहिए कि इब्तदा-ए-ज़माने से जितने मज़ाहिब दुनिया में गुज़र गए कैसे ही झूटे क्यों ना सही और कैसा ही खिलाफ-ए-बाहमी उनके मसाइल में क्यों ना हो मगर दावा सब मज़्हब वालों का यही रहा है कि हमारा मज़्हब ख़ुदा की तरफ़ से है आज कल के ज़माने में जितने मज़्हब बुत-परस्तों के जहां-जहां कि पाए जाते हैं सब यही कहते हैं कि हमारा मज़्हब हक़ और इल्हामी है। अलबत्ता एक फ़िर्क़ा ऐसा भी पाया जाता है जो अपने मज़्हब को इल्हामी नहीं बल्कि अक़्ली कहता है सो इस पर इतलाक़ (लागू) मज़्हब का नहीं हो सकता। वो तो चंद उसूली बातें हैं जिनको अक्सर बड़े उलमा ने ज़ात इन्सानी के लिए ऐसा ज़रुरियात से समझा है जैसे फेफड़े के लिए हवा का होना। पस मज़्हब अक़्ली सिर्फ उन्हीं लोगों का तरीक़ (तरीका-ए-कार) है जो इल्हामी मज़्हब से मुतलक (आज़ाद) मुन्कर (इन्कार किया गया) हो कर ये कहते हैं कि इन्सान की अक़्ल ही उस का मज़्हब है और दावा करते हैं कि जो कुछ उस की अक़्ल हिदायत करे अगर उसी पर व हामिल करे और दिल से बजा लाए तो वही उस के लिए काफ़ी है। इस फ़िर्क़े के बाअज़ आलिमों का ये भी दावा है कि ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात और बनी-आदम का ग़ैर-फ़ानी (कभी ना मरने वाला) और आज़ाद और अपने अफ़आल का जवाबदेह होना और कुल ताल्लुक़ात जो आदमजा़द को दुनिया से पाए जाते हैं। सब आदमी ही की ज़ात पर ग़ौर व पर्दाख़्त करने से मालूम हो जाते हैं। उनकी तालीम के मुवाफ़िक़ ये उम्दा (आला) तासीरात आफ़्ताब (सूरज की तासीर या असर) की यानी उस की रोशनी और गर्मी और बार बार इन रहमत का नाज़िल होना और ख़ुश्क ज़मीन का सेराब करना रात-दिन का नौबत ब नौबत होना। मौसम का तग़ुय्यर (बदलना) फसलों का बदलता रहना अय्याम (दिनों) की गर्दिश ये सब बातें ख़ुदा के रहम व फ़ज़्ल को ज़ाहिर करती हैं बख़िलाफ़ इस के ज़लज़ले का आना आंधी और तूफ़ान का उठना और आतिश फ़िशाँ पहाड़ों के शोले ये सब उस की अदालत और इन्साफ़ के निशान हैं जंगलों का हमेशा सरसब्ज़ व शादाब (हरा-भरा) रहना बक़ा के लिए रूह का ख़्वाशि करना ये इन्सान के ग़ैर-फ़ानी (कभी ना मरने वाला) होने की दलील है। नबातात का सूखना क़िस्म की बातें इस फ़िर्क़े के लोगों में पाई जाती हैं मगर बा अनेहमा हक़ीक़ी परस्तिश जो बातिन से ताल्लुक़ रखती है इस के लिए उन के यहां कोई क़ायदा कुल्लिया नहीं पाया जाता है। कुतुब सैर से मालूम होता है कि इन बातों ने जो इन्सान ने अक़्ल से ठहराई हैं जिनको उन फ़लसफ़ों और उनके पैरों (मानने वालों) ने इन्सान के लिए ज़रुरियात से जाना है। कभी आज तक वो तासीर जो हक़ीक़ी मज़्हब की होती है नहीं बख़्शी ना उस में इतनी क़ुद्रत है कि आदमजा़द को गुनाह से बचा ले सो इल्हामी मज़्हब के या उस मज़्हब के जो इल्हाम का मुद्दई है या इल्हामी कहलाता है और कोई मज़्हब ऐसा नहीं है जिसमें कभी इबादत के तरीक़े मुईन (मुक़र्रर) और तालीम ख़ास पाई जाये मालूम होता है कि क़रीब तमाम बनी-आदम के इस अम्र के क़ाइल हैं कि मज़्हब ज़रूर एक इल्हाम है और सब उसी पर कारबंद है जिससे ये उम्दा नतीजा निकला कि हक़ मज़्हब ज़रूर इल्हामी होगा और मज़्हबी ख़्वाहिश सिर्फ़ इल्हामी मज़्हब से तस्कीन पा सकती है।

पस नज़रिया बयान बाला ये सवाल करना मुनासिब मालूम होता है कि हक़ और इल्हामी मज़्हब की क्या शनाख़्त और सबूत है।

बाअज़ लोग नादानी से कहते हैं कि मज़्हब ईस्वी अगर हक़ है तो इस का सबूत ज़रूर मुवाफ़िक़ चंद मुक़र्ररी क़ाईदों के जैसे रियाज़ी के हैं होना चाहिए हालाँकि ये उनकी सरासर नादानी है। मज़्हब ईस्वी कोई शक्ल मुरब्बा या मुसल्लस (चकोर या तकव्वुन) नहीं है जो हिसाब या जबर व मुक़ाबले के उसूल पर मबनी हो। रियाज़ी का ताल्लुक़ अज्साम से है यानी जो चीज़ें दाख़िल-उल-इआद-ए-सलासा (तीन) हैं इन पर इस का अमल हो सकता है लेकिन मज़्हब का ताल्लुक़ रूह से है इसलिए इस का सबूत क़वाइद रियाज़ी से नहीं हो सकता है। भला हम पूछते हैं कहीं किसी लड़के को गिनती सिखाने से अलिफ़, बे, आ जाती है या जंगल में भेज देने से वो शहर की आदतें सीख सकता है। हरगिज़ नहीं पस हर इल्म जुदा है और हर शैय के जानने के लिए तरीक़े मख़्सूस हैं लेकिन आदमी के दिल का हाल ये है कि हनूज़ (अभी तक) क़वाइद मख़सूसा को जाना नहीं कि इस शैय की अस्लियत को ढूंढता है ये सच्च है कि इन्जील की सब तालीम तस्लीम (क़ुबूल करने के) लायक़ है और कभी-कभी ऐसा हुआ है कि जो लोग हक़ मज़्हब (सच्चे मज़्हब) के मुतलाशी (तलाश करने वाले) और नेक और इस्लाह पज़ीर थे उनके दिल मसीह की तालीम की पढ़ने या सुनने से फिर गए और दिल से यक़ीन जानने लगे कि ये मज़्हब ख़ुदा की तरफ़ से है लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। चूँकि इन्सान का दिल बा-तबेअ ऐसा ख़राब है कि इन्जील की तालीम को कि रुहानी है क़ुबूल करना नहीं चाहता है इसलिए उम्दा से उम्दा दलाईल इन किताबों के इल्हामी होने के उस के दिल पर दफ़अतन ही असर करते हैं। पस इस सूरत में ये मुआमला क्योंकर तय हो सकेगा कि फ़ुलां किताब इल्हामी है या नहीं। सो इस का जवाब ये है कि इस वक़्त में ज़रूर है कि ख़ुदा ख़ुद बताता है। अगर वाक़ई में वजूद-ए-इल्हाम का ख़ुदा की तरफ़ से है और येसू मसीह उस का बेटा है तो ज़रूर था कि ख़ुदा दुबारा इस कैफ़ीयत से बनी-आदम को मुत्लाअ (इत्तिला) करता सो उसने मोअजज़ात के ज़रीये हक़ीक़त में ऐसा किया। इल्हाम ख़ुद दरअस्ल एक मोअजिज़ा है मगर उन्हीं के लिए जो उसे क़ुबूल करें और जो मुन्किर हैं उनके लिए ज़रुरियात इस बात की हुई कि कोई और मोअजिज़ा ज़ाहिरी इस की तस्दीक़ में दिखाया जाये क्योंकि बनी-आदम की तस्कीन-ए-दिली और यक़ीन कुल्ली के लिए और क्या तरीक़ा हो सकता है पस मज़्हब ईस्वी एक मोअजज़ाना सरगुज़िश्त है और येसू और उस के हवारी इन मोअजज़ात को अपनी रिसालत और इल्हाम पाए जाने की तस्दीक़ के लिए बतौर सबूत पेश किया करते हैं।

अब बाद बयान मज़्कूर के अव़्वल ये ख़याल करना चाहिए कि असली मअनी मोअजिज़ा के क्या है।

जानना चाहिए कि लफ़्ज़ “मोअजिज़ा” के असली मअनी वही हैं जो अजीब के हैं। लेकिन ये कुछ ज़रूर नहीं है कि जो फ़ेअल अजीब हो मोअजिज़ा कहलाए। मुम्किन है कि एक चीज़ अजीब व ग़रीब हो और मोअजज़ाना ना कहलाए बल्कि फ़ित्रत के क़वानीन मुक़र्ररी के मुताबिक़ हो और हमको ब-वजह अदम वाक़फ़ियत इन क़वानीन के अजीब व ग़रीब मालूम होती हो। पस मोअजिज़ा नाम उस फ़ेअल का है जो ताक़त इन्सानी से बाहर और फ़ित्रत के क़वानीन मुक़र्रर से मुख़्तलिफ़ हो जिसको ख़ुद ख़ुदा ने अपने किसी हुक्म या पैग़म्बर या रसूल की तस्दीक़ के लिए ज़ाहिर किया है। और मुम्किन है कि इस मोअजिज़े से क़वानीन फ़ित्रत में जिन पर क़वाम दुनिया का मौक़ूफ़ है किसी तरह की मुदाख़िलत ज़ाहिरी पाई जाये लेकिन मुख़िल क़वानीन फ़ित्रत या ख़िलाफ़ क़वानीन इल्लत (नतीजा, हासिल) मालूम के ना हो बल्कि निज़ाम ख़लक़ी के मुक़र्ररी और मख़्सूस क़ाएदे (उसूल) से हो। पस इस में फ़र्क़ इतना है कि जो मालूमात निज़ाम ख़लक़ी के क़वाइद आम्मा के मुवाफ़िक़ होते हैं उनको हम फ़ित्रत कहते हैं और जो ग़ैब-ए-आम से जुदा हों उनको मोअजिज़ा कहते हैं मसलन रात व दिन का होना और तग़य्युर अय्याम और पत्तों का मुरझाना और गिर पड़ना नदियों और दरियाओं का बहना, बुख़ारात का उठना बैठना ये सब बातें फ़ित्रत के मुक़र्ररी क़वाइद के मुवाफ़िक़ होती रहती हैं यानी नज़्म व नसक़ इनका बराबर एक ही तर्तीब से जारी है जिससे ख़ुदा की क़ुद्रत कि वो जहान का मुहाफ़िज़ और नाज़िम है ज़ाहिर होती है। बख़िलाफ़ इस के मसीह का मुर्दों को जिलाना और पाँच जो की रोटियों और थोड़ी सी मछलियों को इस क़द्र बढ़ा देना कि पाँच हज़ार आदमी खालें और फिर बारह टोकरी बची रहें ये सब काम तजुर्बे के ख़िलाफ़ और ताक़त बशरी (इंसानी ताक़त) से बाहर हैं। पस वो ख़ुदा की क़ुद्रत का ग़ैर-मामूली अमल हो इसीलिए मोअजज़ात कहलाए। बावजूद ये कि मोअजज़ात ख़ल्क़त की आम तर्तीब से मुताबिक़त नहीं रखते हैं मगर कभी ऐसा भी होता है कि ख़ल्क़त की आम तर्तीब से भी मोअजज़ात मिले होते हैं यानी ख़ुदा को इख़्तियार है वो चाहे तो उन्हीं चीज़ों से जो मुवाफ़िक़ मुक़र्ररी क़ाईदों के मामूली नताइज पैदा करती हैं दफ़अतन कोई ऐसे नताइज ज़ाहिर हों कि मामूली से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ हों मसलन मूसा ने दरिया पर हाथ बढ़ाया और ख़ुदावंद ने बसबब बड़ी पूरबी आंधी के तमाम रात में दरिया को चलाया और दरिया को सुखा दिया और पानी को दो हिस्से किया देखिए कि पानी की क़ुदरती कशिश जो सतह अस्फ़ल की तरफ़ है इस वक़्त में शिद्दत तूफ़ान इस कशिश की मानेअ (रोकने वाला, मना करना) पस हों कहना चाहिए कि ख़ल्क़त के एक क़ाएदे पर दूसरा क़ायदा दफअतन (फ़ौरन) ग़ालिब आ गया ना ये कि कोई अम्र ख़िलाफ़ क़ायदा फ़ित्रत हुआ। बा अनेहमा इस के मोअजिज़ा होने में कुछ कलाम नहीं। वो ऐसा सरीह (आशकार, ज़ाहिर) और हक़ीक़ी हुआ कि गोया ख़ुदा ने बाला-ए-इलाक़ा क़वानीन फ़ित्रत यानी उन क़ाईदों को तोड़ कर वो मोअजिज़ा दिखाया पस बिला शक हम नहीं कर सकते कि वो अम्र ख़िलाफ़ क़वाइद फ़ित्रत हुआ। शायद वो फ़ेअल किसी और क़ायदा ना मालूमा के मुताबिक़ जिसको हम आदमी ना जानते हों वक़ूअ में आया हो। अल-ग़र्ज़ मोअजिज़ों के माअनों की तसरीह (आशकार, ज़ाहिर) बने इस मुक़ाम पर इस से की है कि ख़ास एतराज़ मोअजिज़ों पर सही माअनों के ना जानने से है। मसलन बाअज़ ये एतराज़ करते हैं कि जब क़वानीन फ़ित्रत ख़ुदा के बनाए हुए क़वानीन ठहरे तो फिर इस में तग़य्युर व तबद्दुल या किसी तरह की इस्लाह क्योंकर मुम्किन है यानी ख़ुदा अपने क़ानून को आप नहीं तोड़ता पस मोअजिज़ा होना ग़ैर मुम्किन है। इस का जवाब ये है कि वाक़ेअ में ख़ल्क़त के वास्ते कुछ क़ाएदे मुक़र्ररी पाए जाते हैं जिनको हम तो क़वाइद-ए-फ़ित्रत कहते हैं और वो बेशक ख़ुदा ही के मुकर्र किए हुए हैं लेकिन नफ़्स क़वाइद पर जो ग़ौर किया जाये तो मालूम होता है कि बिलज़ात कुछ क़ुद्रत नहीं रखते कि किसी नतीजे को पैदा कर सकें वो तो सिर्फ नाम है उस तरीक़ा आम का जो ख़ुदा ने अपने जहान की मुहाफ़िज़त के और तरह-तरह के तग़य्युरात के लिए मुक़र्रर किया है। पस ये दावे कि वक़ूअ मोअजिज़े का ग़ैर मुम्किन है इसलिए कि क़वानीन फ़ित्रत मन्सूख़ नहीं हो सकते ग़लत बिना पर है मोअजिज़ा किस तरह मुख़ल्लिल (ख़लल डालने वाला) क़ानून नहीं है। हाँ इस को हम ख़ुद तस्लीम करते हैं कि जिन मोअजज़ात का ज़िक्र कुतुब-ए-मुक़द्दसा में पाया जाता है उनके वक़ूअ से क़वानीन आम्मा फ़ित्रत में किस क़द्र रोक हो गई। जिससे ख़ुदा की क़ुद्रत और भी ज़्यादा सफ़ाई से ज़ाहिर हुई और मज़्हब-ए-ईस्वी की हक़ीक़त की दलील ठहरी लेकिन फ़ित्रत की तर्तीब में ज़रा सा फ़र्क़ पड़ जाना या सिर्फ ऐसा इख़्तिलाफ़ कि फ़ित्रत के आम क़वाइद से ख़ास हो नस्ख़ क़वानीन फ़ित्रत किसी तरह नहीं कहा जा सकता। मसलन मुर्ग़ी के बच्चों को देखो कि आम क़ायदा उनके पैदा होने का ये है कि अंडे मुर्ग़ी के तले रखे जाते हैं। वो चंद हफ़्तों मुअय्यना (मुक़र्रर) तक उनको सेती है यहां तक कि बच्चा निकल आते हैं। लेकिन आजकल यानी बग़ैर मुर्ग़ी के तनूर में अंडों को दफ़अतन व मुअय्यना की गर्मी पहुंचा के बच्चे निकाले जाते हैं। तो ये तरीक़ा जदीद ख़ल्क़त के आम क़ायदे से बेशक मुख़्तलिफ़ हुआ। लेकिन कौन कह सकता है कि ख़िलाफ़ क़ाएदे के हुआ या नस्ख़ (मंसूख़ी) क़वानीन फ़ित्रत लाज़िम आया। इसी तरह गर्म मुल्कों में गर्मी के मौसम में पानी का जमना फ़ित्रत के आम क़ाएदे के ख़िलाफ़ मालूम होता है। ताहम आदमियों ने ऐसी कलीन निकाली हैं जिनसे बज़रीया चंद मसालों के गर्मी के मौसम में बर्फ़ जमाया जाता है। अब इस को कौन कह सकता है कि खिलाफ क़ायदा हुआ। इस तश्रीह से मेरा ये मतलब नहीं है कि जो फ़ेअल इन्सान से हो मोअजिज़ा है यानी गर्मी पहुंचा कर अंडों से बच्चे निकालना या गर्मी में बर्फ़ जमाना ये भी मोअजिज़ा हुआ ना ये मतलब है कि ये मिसालें मसीह और उस के हवारियों के मोअजिज़ों से मुशाबहत कुल्ली रखती हैं। ख़ुदा जो तमाम ख़ल्क़त का ख़ालिक़ और तमाम क़वानीन का वाज़ेअ है उस को अपने सब क़वानीन और अफ़आल का इख़्तियार कुल्ली (तमाम चीज़ों का इख़्तियार) है और इसी सबब से वो ऐसी अजीब बातें जो ताक़त इन्सानी से बाहर हो दिखा सकता है और ऐसे अजीब अफ़आल को हम अपनी इस्लाह में मोअजज़ात कहते हैं पस हमारा मतलब ऊपर की तश्रीह से सिर्फ इसी क़द्र है कि जब कि आदमी गर्मी पहुंचा कर बच्चे निकालने और गर्मी में बर्फ़ जमाने से फ़ित्रत की आम तर्तीब में तग़य्युर करता है तो मसीह ने जो ख़ुदा है अगर अपनी क़ुद्रत को फ़ित्रत की आम तर्तीब के मुवाफ़िक़ ना इस्तिमाल किया बल्कि किसी ख़ास व अजीब तौर से यानी मोअजज़ाना तौर पर ज़ाहिर किया तो क्या इस्तिहाला (हालत तब्दील हो जाना) लाज़िम आता है। अगर आदमी मुक़र्रा तरीक़े के बदलने से क़वानीन फ़ित्रत का तोड़ने वाला नहीं ठहरता बल्कि और इस की अक़्लमंदी ज़ाहिर होती है तो ख़ालिक़ भी अपनी आम तर्तीब के बदलने से तोड़ने वाला नहीं हो सकता। बल्कि उस की दानाई ज़ाहिर होती है और जैसा कि आदमी के लिए कुछ ज़रूर नहीं कि जो फ़ेअल इस से सरज़द हो बईना इसी क़ायदे फ़ित्रत के मुवाफ़िक़ हो किसी तरह का फ़र्क़ ना पड़े सदहा अफ़आल इन्सान से ऐसे वक़ूअ में आते हैं जो आम क़ायदे से बहुत मुख़्तलिफ़ होते हैं तो इसी तरह ख़ुदा जो वाज़ेअ हक़ीक़ी इन सब क़वानीन का है इस के लिए तो बतरीक़ ऊला कुछ ज़रूर ना होगा कि सब काम बईना एसी आम क़ाएदे के मुताबिक़ करे। पस मतलब ये है कि ख़ुदा जो सब का मालिक है गो कैसी ही ग़ैर महदूद व क़ुद्रत रखता है और गो कैसी ही दानाई और पाकी उस के मोअजज़ात से ज़ाहिर होती है और तरीक़ा क़ुद्रत में तग़य्युर हो जाता है लेकिन क़ानून वो ही रहता है वो किसी तरह नें टूटता है जैसे आदमी अपनी क़ुद्रत ख़ल्क़त में क़वानीन मुक़र्ररा से मुख़्तलिफ़ तौर पर ज़ाहिर करता है और फिर भी नस्ख़ क़ानून नहीं कहलाता इसी तरह मुम्किन है कि ख़ुदा भी अपनी क़ुद्रत कामला किसी और तौर पर यानी क़वाइद आम्मा जिनसे अब नज़्म व नसक़ जारी है उनके सिवा और किसी सूरत से ज़ाहिर करे। अब हमें इस बह्स पर कुतुब मुक़द्दसा के मोअजज़ात को मुताबिक़त देना चाहिए जिस हालत में कि अंगूरों से मय बनती है मसीह अपनी क़ुद्रत ख़ालिक़ा और तौर पर काम में लाया यानी पानी से शराब बना दी तो ये आम तरीक़े से ज़रा जुदा हुआ इसी तरह पाँच रोटियों से कई हज़ार आदमियों को खिला देना ये भी क़ुद्रत खालिक़ा से नए तौर पर किया यानी इन दोनों सूरतों में उसने दफअतन (फ़ौरन) उसी काम को कर दिया जो मुवाफ़िक़ क़ायदा आम बहुत आहिस्ता वक़ूअ आता।

जिस तरह ये अर्क़ अंगूरों में पहुंचता और फिर इससे अंगूर मुरत्तिब होते और फिर इस से शराब बनती उसने दफअतन (फ़ौरन) ऐसा कर दिया कि पानी की शराब हो गई। अला-हाज़ा-उल-क़यास रोटी को समझ लो। पस पैदा करने वाली क़ुद्रत को इस नए तौर की क़ुद्रत से वो ही निस्बत है जो बड़े को छोटे से या कुल को जुज़्व से होती है। क़ुद्रत का क़ानून कि मुराद इस से सिर्फ यही है कि इस पैदा करने वाली क़ुद्रत को अपनी बे-इंतिहा दानाई और उलूहियत के मुताबिक़ ताहिर करना ख़्वाह आम तरीक़े पर या किसी ख़ास तरीक़े से हो टूटता नहीं। पस ख़ुदा की क़ानून की निस्बत ये गुमान करना कि सिवाए इन आम क़ायदों के और कोई सूरत उस के तासीर (असर) की नहीं है ये तो ऐसा होगा जैसे कोई तालिबे इल्म अपने उस्ताद से सिर्फ एक दो सबक़ पढ़के उसे आज़माऐ या शेख़ी मारे कि मुझे उस के सब हुनर आ गए हैं।

अगर साबित हो जाये कि फ़ित्रत चंद पोशीदा और महदूद इल्लतों (वजह) और मअलूलात (इल्लत किया गया, वो शैय जिस का कोई बाइस या सबब हो) की जो हमेशा तक एक रहेगी पाबंदी है तो लाज़िम आएगा कि मज़्हब बल्कि शान-ए-रज़्ज़ाक़ी (रिज़्क़ देने वाली ज़ात) ख़ुदा की भी बातिल है और हक़ूक़-ए-इंसानी मह्ज़ धोका और ख़ुदा की बंदगी और नमाज़ हमाक़त है। लेकिन ये ख़याल ख़िलाफ़ जम्हूर है इसको कोई भी सही ना कहेगा। पस इम्कान-ए-मोअजज़ात का इन्कार सख़्त अल-हाद (बेदीन, मुल्हिद, दीन-ए-हक़ से फिर जाना) है ख़ुदा की ज़ात हर तरह अपनी ख़ल्क़त से आला और औला है और जैसी उस की ज़ात आला है वैसे ही उस की क़ुद्रत भी ज़रूर है कि आला हो और जैसी उस की क़ुद्रत क़ुद्रत-ए-इन्सानी से बरतर है वैसे ही उस के अफ़आल भी बरतर होना चाहिए। पस उस की कुद्रत का इन्कार करना यानी ये कहना कि वो तर्तीब क़वानीन फ़ित्रत नहीं बदल सकता है उस को इन्सान के दर्जे से भी गिरा देना है। इसलिए कि इन्सान हर वक़्त में ये क़ुद्रत रखता है कि क़वाइद-ए-फ़ित्रत में मुदाख़िलत करे और चाहे तो इस के नताइज बदल दे। मैं कहता हूँ कि एक ज़रा से बच्चे में ये क़ुद्रत है कि क़वाइद-ए-फ़ित्रत की तर्तीब में फ़र्क़ डाल कर मुख़्तलिफ़ नताइज पैदा करे। मसलन फ़र्ज़ करें कोई लड़का बाग़ में खेलते हुए कोई अच्छा फूल देखे और उसको तोड़ के थोड़ी देर इसकी ख़ूबी व बहार को देखे फिर फेंक दे तो वो फूल शाख़ से जुदा होने के सबब जल्द आफ़्ताब की गर्मी से मुरझा जाएगा और अहले-गीरों की पामाली से जल्द सारी उस की बहारी जाती रहेगी। अगर तोड़ा ना जाता तो यक़ीनन कानून-ए-फ़ित्रत के मुवाफ़िक़ ज़्यादा दिनों तक उस की तरो-ताज़गी और ख़ुशबू क़ायम रहती लेकिन देखिए एक बच्चे में ये क़ुद्रत थी कि मुख़्तलिफ़ नतीजा पैदाकर दिया। पस जब कि कानून-ए-फ़ित्रत ऐसा मुईनी ना ठहरा बल्कि एक बच्चे में ये क़ुद्रत है कि उस की तर्तीब बदल सकता है तो कौन कह सकता है कि ख़ुदा जो सबसे आला और अर्फा है नहीं बदल सकता या नहीं बदलता है। ख़ुदा तर्तीब, क़ानून-ए-फ़ित्रत बदल सकता है और बदलता है।

इल्म व तजुर्बे से दर्याफ़्त होता है कि ख़ुदा ने तर्तीब ख़ल्क़त ज़रूर बदली है। ख़ुद कुर्रा ज़मीन से ये बात ज़ाहिर है कि वो दफअतन (फ़ौरन) इसी एक सूरत में नहीं पैदा हुआ बल्कि रफ़्ता-रफ़्ता मुख़्तलिफ़ तर्तीबों से हालते मौजूदा को पहुंचा है। चुनान्चे यही इल्म-ए-जमादात से मालूम होता है। एक नूअ की चीज़ों का नापैद (दुनिया से बिल्कुल ख़त्म हो जाना) फिर इस से नए नए तरह की मख़्लूक़ का होना और इस नई मख़्लूक़ की तबीअतों के मुनासिब आब व हवा का बदल जाना चूँकि ये सब बातें ऐसी हैं कि मुक़र्ररी क़वाइद के नताइज नहीं ठहर सकते हैं ख़िलाफ़ तर्तीब मुक़र्ररी हैं इसलिए ये सब गोया कि इतने बहुत से नूअ बनूअ् के मोअजज़ात हुए।

तब्क़ा ज़मीन की चट्टानें जो नौबत नबुव्वत बनी हैं हक़ीक़त में तमाम मोअजज़ात हैं जो कुतुब मुक़द्दसा के मोअजज़ात से भी ज़्यादा हैं अम्बिया और हवारियों ने जिस क़द्र मोअजज़ात बयान किए हैं वो कुछ उन वाक़ियात से जो ज़मीन की मअदनियात में गुज़रे हैं ज़्यादा नहीं हैं। इल्म-ए-जमादात से ये भी मालूम होता है, कि आबो हवा में और इस आबो हवा की वजह से जानवरों के हालात में बड़ा तगय्युर (तब्दीली) वाक़ेअ हुआ है। गर्म मुल्कों के जानवरों के बाक़ियात सर्द मुल्कों में पाए जाते हैं। ख़ल्क़त में बहुत सी ऐसी चीज़ें हज़ार-हा बरस क़ब्ल इस से क़ानून मुक़र्ररी के बमूजब उस वक़्त के मुनासिब पैदा हुई होंगी कि अगर वो चीज़ें दफअतन (फ़ौरन) हमारे सामने ज़ाहिर हों तो हम उनको ज़रूर मोअजिज़ा कहें। क़त-ए-नज़र इस के मुम्किन है कि बहुतेरी और दुनियाएँ हों जिनमें क़वानीन फ़ित्रत बईना (छिपी हुई) वो ही हों जो इस दुनिया में मोअजज़ात कहलाते हैं पस अगर ख़ुदा उन दुनिया में अपनी क़ुद्रत इस तौर पर ज़ाहिर करे जैसे इस दुनिया में तो अलबत्ता वहां के रहने वाले मुतहय्यर हो जाये। और इस को मोअजिज़ा कहें क्योंकि उनके नज़्दीक वो बिल्कुल नए और अजीब मालूम हो फिर जिन बातों को हम मोअजज़ात कहते हैं कि वो क़वाइद हों और ख़ुदा ने अपनी दीनी हुकूमत के ख़ास मस्लहतों (नेक इस्लाह) के लिए मुक़र्रर किए हों जो मुद्दतों बाद ब-वक़्त ज़रूरत वक़ूअ में आते हों। लड़ाई के क़वानीन से हमारे इस बयान की अच्छी तरह तश्बीह हो सकती है। मसलन जब मुल्क में सुलह और अमन व आमान होती है तो हर काम मुवाफ़िक़ क़वाइदा मुक़र्ररा के होता है और जब कोई हंगामा बरपा हो तो सुलह के क़वानीन जाते रहते हैं और मुख़्तलिफ़ क़ाएदे और नई-नई ज़वाबत मुक़र्रर किए जाते हैं। जिस पर यही नफ़्स क़वाइद जैसे सुलह में थे वैसे ही इस वक़्त में कुछ ना कुछ ज़रूर होते हैं। सिर्फ इतना है कि हेय्य्त (सबब, बाइस) क़ाएदे के वक़्त के मुनासिब बदल दी जाती है। लेकिन ये भी याद रहे कि ख़ुदा का क़ानून मह्ज़ जिस्मानी ही नहीं है यानी हैवानात और नबातात के तरीक़ा तमद्दुन ही पर नहीं मौक़ूफ़ है बल्कि इस से उम्दा और आला क़ानून है और जैसे क़वानीन ख़ल्क़त तमाम दुनिया के लिए हैं ये आला क़वानीन तमाम बनी-आदम के लिए हैं यानी मतलब ये है कि जैसे जिस्म के लिए कुछ क़ायदा मुईन (मुक़र्रर) हैं वैसे ही अक़्ल और अख़्लाक़ के लिए भी कुछ क़ायदे पाए जाते हैं जिन सब का एक नाम अल-हयात मुक़र्रर किया है। लेकिन इन सब क़वानीन रुहानी और जिस्मानी की निस्बत अगर ख़याल किया जाये तो मालूम होता है कि कुल यही नहीं हैं बल्कि ये तो इस कुल का सिर्फ जुज़्व (हिस्से) हैं। ख़ुदा के क़ाएदे और मख़्लूक़ात इस क़द्र बेशुमार हैं कि हमारी नाक़िस अक़्ल अंदाज़ा नहीं कर सकती है और अगर ये भी फ़र्ज़ कर लिया जाये कि इस के सब क़ाएदे जहां तक हमको मालूम हैं एक ही हैं और इस वक़्त में भी ये तो ज़ाहिर है कि दर्जे उनके मुख़्तलिफ़ हैं मसलन जो अक़्ल व अख़्लाक़ से इलाक़ा (ताल्लुक़) रखते हैं वो क़वाइद अज्साम के मुख़्तलिफ़ हैं यानी आला हैं। मगर रूह ज़हन से अफ़्ज़ल है इसलिए जो रुहानी क़ाएदे हैं यानी सफ़ाई क़ल्ब (दिल) से इलाक़ा रखते हैं ज़रूर है कि ज़हन व अक़्ल के क़ाईदों से बढ़कर हों। अब सोचीए कि अगर आला के जारी करने के लिए अदना की कुछ सूरत बदल दी जाये तो क्या क़बाहत (बुराई, ख़राबी, नुक़्स) होगी और इस को कौन नस्ख़ क़वानीन फ़ित्रत कहेगा। क्या यही लफ़्ज़ अदना का नहीं ज़ाहिर करता कि वो अपने आला का ताबे व ख़ादिम है जैसा कि तर्बियत इलाहिया से ज़ाहिर है। आदमियों को ही देख लो कि जिस्मी नफ़ा का जो किसी तरह ना-रवा भी हैं होता। रुहानी नफ़ा के लिए कुछ ख़याल नहीं करती हैं। मसलन देखो आम तालीम की ख़ातिर तमाम शहरों से ख़र्च मदरिसा का लिया जाता है इस सूरत में अक़्ल दौलत की हाकिम ठहरती है या फ़र्ज़ करो कि हम अपने लड़के को किसी जगह मदरिसा में भेजना चाहें और देखें कि वहां दो मदरसे तालीम के लिए मुक़र्रर हैं जिनमें से एक मदरिसा में बहुत अच्छी तरह से इल्म व अदब और कुछ थोड़ी सी दीनयात नाक़िस तौर पर सिखाई जाये और दूसरे में ख़ालिस दीनयात गो कि और उलूम का बंदो बस्त अच्छा ना हो सिखाई जाती हो तो ज़ाहिर है कि दीनयात के मदरिसा को तर्जीह देंगे और अव्वल को इस के सामने मह्कूम (हुक्म किया गया) समझेगे। इसी तरह ख़याल करें कि क़ानून मुल्की ये है कि रियाया के माल व अस्बाब की मुहाफ़िज़त (हिफ़ाज़त) की जाये कि जिस तरह रियाया (अवाम) चाहे इस से नफ़ा उठाए लेकिन जब सरकार को किसी आम फ़ायदे के लिए ज़रूरत रुपये की पड़े तो उस उस वक़्त में मालिक माल की रजामंदी का कुछ ख़याल नहीं किया जाता। अगर वो बखु़शी ना दे तो तक्बीर (बड़ाई) का इज़्हार लिया जाता है। नूई फ़ाइदों का कुछ लिहाज़ नहीं किया जाता इसलिए कि कुल मुल्क का नफ़ा (फ़ायदा) एक शख़्स के नफ़ा पर मुक़द्दम (आमद) है। पस माल के नफ़ा पर अक़्ल का नफ़ा मुक़द्दम (पहले, बड़ा) समझा जाता है या अक़्ल व ज़हन के हुक़ूक़ ज़मीर के हुक़ूक़ के मुक़ाबिल मल्हूज़ (लिहाज़ किया गया, ख़याल किया गया) नहीं होते हैं या शख़्सी नफ़ा का नूई के सामने ख़याल नहीं किया जाता है तो इस को कौन ख़िलाफ़ क़ायदा कहेगा कि आला के सामने अदना ताबे होते हैं पस गोया अदना आला में मिल जाते हैं या यूं कहना चाहे कि नफ़ा आम में ख़ास भी ज़िमनन आ जाता है और ये अम्र अगर वसीअ तौर से लिहाज़ किया जाये तो ऐन मंशा क़ानूनी के मुवाफ़िक़ है और जैसा जब ये क़ानून था वैसा ही अब भी है। जैसे ज़रूर है कि शख़्स ताबे मुल्क और जिस्म ताबे अक़्ल और अक़्ल ताबे अख़्लाक़ की हुए अला-हज़ा-उल-क़यास ख़ुदा के और क़वानीन का हाल है कि अदना आला के ताबे हैं। जमादात ताबे हैवान के और हैवान ताबे इन्सान के और अग़राज़ दुनियावी मह्कूम (हुक्म किया गया) दीनी की हैं। पस दर हाल ये कि येसू जो सब का ख़ुदा है इस इम्तियाज़ को यानी अदना आला के ज़ाहिर करे और शरीअत क़ौमी को इन्सान ग़ैर-फ़ानी (कभी ना मरने वाला) की रुहानी ज़िंदगी के लिए बातिनी शरीअत से बदले तो ये तोड़ना नहीं बल्कि ऐन क़ायम रहना क़ानून का हुआ। जब कि येसू ने मुर्दों को जिलाया अँधों लूलों अपाहिजों को सेहत बख़्शी तो इस से सिर्फ इतना हुआ कि इसी क़ुद्रत इलाहिया की मामूली सूरत को जवादनी में पाई जाती थी आदमियों की आला ज़िंदगी के लिए बदल दिया उसने अपने क़ानून की आला सूरतों को बढ़ाया और अदना की फ़याज़ाना (सख़ी और खुले दिल से) और जायज़ इस्तिमाल से गोया अपनी क़ानून को इज़्ज़त बख़्शी। मालूम ऐसा हुआ कि क़ानून मोअजिज़ा से टूट गया ताकि रूह का आला क़ानून क़ायम रहे। लेकिन ये ज़ाहिरी नस्ख़ इस की हक़ीक़ी हिफ़ाज़त के लिए निहायत ज़रुरियात से था। इसलिए कोई ना समझे कि हमें क़वानीन मुक़र्ररा फ़ित्रत से इनकार है।

हमारी तालीम फ़क़त ये है कि अदना दर्जे की क़ानून की ज़ाहिरी सूरत को अटली से बदल देना क़वानीन-ए-फ़ित्री के ऐन मुवाफ़िक़ है। हमारा इक़रार है कि ऐसे क़वाइद का मुक़र्रर होना हयात-ए-इन्सानी के लिए ज़रुरियात से था। अगर तुलूअ और ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब का कोई वक़्त मुक़र्रर होता जैसा अब है और मौसम व फ़स्ल की कुछ क़ैद ना होती और बीजों का अपने अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्म) के फल लाना ज़रूरी व यक़ीनी ना होता तो कैसी मुसीबत की हालत में हम बनी-आदम होते। इसी मुक़र्ररी तरीक़े के सबब हम अपनी ज़िंदगी के हालात का हिसाब कर सकते हैं और ठीक वक़्त पर काम करते और आराम उठाते और खाना खाते हैं। अगर कोई ज़ाबता या क़ानून ऐसा ना होता जिसके मुताबिक़ दुनिया का नज़्म व नसक़ जारी होता तो बेशक मोअजिज़े का भी वजूद ना होता। हर अम्र बेक़ाइदा होता जिसकी वजह से कोई मज़्हब भी ना होता इसलिए कि वजूद ईमान का वजूद उस वक़्त में ग़ैर-मुम्किन होता। अगर आदमी पहले से फ़ित्रत के क़वाइद मुक़र्ररी की अदना सूरतों पर कारबन्द (तामील करने वाला) ना होता, तो किसी चीज़ पर उस का एतिक़ाद और भरोसा ना हो सकता बल्कि उस वक़्त में तमाम मज़्हबी बातें और ज़हनी नताइज और तमाम अजीब-अजीब काम जो ख़ुदा दिखाता है सब के सब इत्तिफ़ाक़ी समझे जाते यानी लोग ये समझते कि इत्तिफ़ाक़ से हो गए हैं फिर किसी नहीं वक़ूअ में आएगे ना कोई ख़ास ग़र्ज़ उन से है।

पस नज़र बवजह बाला दावा हमारा कि बा-वस्फ़ मुक़र्रर होने क़वानीन-ए-फ़ित्रत की वक़ूअ मोअजिज़ा का मुम्किन है बल्कि यही क़वानीन मुक़र्ररा इम्कान मोअजिज़ा की दलील है यानी शायद ख़ासकर इन्हीं मोअजिज़ों के मुम्किन होने के लिए क़वानीन फ़ित्रत मुक़र्रर किए हैं निहायत सही होगा। इन्सान का दीनी और अबदी नफ़ा दुनिया के हर काम पर कि चंद रोज़ा है बेशक मुक़द्दम है। हयात-ए-अबदी के मुक़ाबले में दुनिया की तमाम नेअमतें और बरकतें कुछ भी हक़ीक़त नहीं रखती हैं। और दर हाल ये कि ये सारे नज़्म व नसक़ फ़ित्री हमारी दुनियावी हयात के लिए कार-आमद हैं तो ज़ाहिर है कि दीन के लिए तो बतरीक़ ऊला मुफ़ीद होंगे। इसी सबब से मोअजिज़ा का होना अगरचे फ़ित्रत का बंदो बस्त मुक़र्ररी मुम्किन है। बल्कि इम्कान मोअजिज़े का इसी लिए हुआ कि फ़ित्रत के क़वाइद मुक़र्ररी हैं। पस मज़्हब आदमी के लिए उम्दा चीज़ है तो क्या ये ज़रूर नहीं कि वो और चीज़ों की निस्बत ज़्यादा मुक़र्ररी हो। ज़ाहिर है कि तमाम अदना दर्जे की मख़्लूक़ आला मख़्लूक़ इन्सान के ताबे हैं।

2. ग़र्ज़ मोअतरिज़ों (एतराज़ करने वालों) का पहला एतराज़ जो है कि फ़ित्रत के क़वानीन मुक़र्ररी हैं इस वजह से वक़ूअ मोअजिज़ा का ग़ैर-मुम्किन है क्योंकि ख़ुदा जो क़दीम व ग़ैर-मुतग़य्यर (ना बदलने वाला) है अपने क़वानीन को आप नहीं बदल सकता और इस का जवाब जैसा कि ऊप………… देकर और ये साबित कर के कि मोअजिज़ा नस्ख़ क़ानून नहीं बल्कि उसी क़ानून फ़ित्री के अदना सूरतों को आला सूरतों की हेय्यत (सबब, बाइस) में कर देना मोअजिज़ा कहलाता है जिससे नफ़्स क़ानून की ख़ूबी और बढ़ जाती है और ये साबित कर के कि वक़ूअ मोअजिज़े का जिस बिना पर ग़ैर-मुम्किन समझा गया था उसी बिना पर मुम्किन है यानी अगर ख़ल्क़त के लिए कुछ क़ाएदे मुक़र्रर ना होते तो मोअजिज़ा क्योंकर होता अब हम दूसरे एतराज़ का यानी ये कि “मोअजिज़ा यक़ीनी नहीं इसलिए लायक़ एतबार नहीं का” जवाब देते हैं।

मालूम होता है कि ये दूसरा एतराज़ पहले ही पहल एक बुरे मशहूर मुल्हिद होम साहब ने किया है इस के बाद बहुत औरों ने इस की तक़्लीद (पैरवी करना) की है ग़र्ज़ ख़ास वजह इस एतराज़ की जो हैं उनमें पहली वजह ये है कि मोअजिज़ा मस्तानम नस्ख़ क़वानीन फ़ित्री है और दूसरी वजह ये है कि चूँकि वो ख़िलाफ़ तजुर्बा है सिर्फ गवाही से इस का सबूत नहीं हो सकता है बल्कि इस सूरत में मोअजिज़े के यक़ीनी जानने की बनिस्बत गवाही का बातिल समझना ज़्यादा यक़ीनी है इस एतराज़ का जवाब जहां तक नस्ख़ क़वानीन से ताल्लुक़ रखता है हमने पहले ही कह दिया है कि ये दावा ही से सिरे से ग़लत है हमने ख़ूब साबित कर दिया है कि जिसको लोग ग़लती से मन्सूख़ (नासिख़ से निकला है जिसके मअनी है ख़त्म होना) होना कहते हैं वो दर-हक़ीक़त मन्सूख़ होना नहीं है बल्कि वो सिर्फ़ तग़य्युर हेय्यत (सबब, बाइस) अदना का आला की तरफ़ है क्योंकि जिस हालत में मोअजिज़ा क़वानीन मुक़र्ररा को बलिहाज़ तोड़ने के और ज़्यादा क़ायम करता है और तक़वियत (तरक़्क़ी करना, आगे बढ़ना) देता है तो ये एतराज़ कि वो नस्ख़ क़वानीन फ़ित्रत है ख़ुद बख़ुद बातिल हो जाता है रहा ये अम्र कि मोअजिज़े के यक़ीनी जानने से गवाही का बातिल समझना आसान तर है सिवा इस के जवाब में ये ज़रूर समझना चाहिए कि मोअजज़ात किसी आम शहादत से नहीं साबित हुए हैं बल्कि ख़ास तरह की शहादत से। हम ख़ुद कहते हैं कि मुम्किन है कि बाअज़ गवाही ग़लत हो लेकिन ये नहीं हो सकता कि हर तरह की गवाही यक़लम ग़लत हो क्योंकि बाअज़ क़िस्म की गवाहियाँ ऐसी भी हैं कि ग़लती व फ़रेब से बिल्कुल ख़ाली हैं यहां तक कि हम कह सकते हैं कि ये अम्र इन में मुम्किन नहीं। और इसी बाअज़ क़िस्म की गवाहियाँ यानी जिनमें इम्कान ग़लती का नहीं मोअजिज़े के सबूत में पाई जाती हैं। चुनान्चे मुख़्तसर तौर पर हम आज़माएंगे कि आया जो गवाहियाँ इस्बात मोअजज़ात करती हैं वाक़ई ऐसी हैं कि उनकी सेहत में कलाम नहीं हो सकता और चूँकि हमारी इल्लत (माहसल) इस का कुल बयान से इस्बात (सबूत की जमा) मज़्हब ईस्वी है इसलिए अह्दे-अतीक़ (पुराने अहदनामे) के मोअजज़ात पर हम बह्स ना करेंगे क्योंकि अह्दे-जदीद को जो अतीक़ का तकमिला है अगर मान लें तो वो ही सब का मानना कहलाएगा। इसलिए मसीह के मोअजज़ात की शहादत (गवाही) के लिए पहले हम उस के हवारियों (शागिर्दों) मत्ती, मर्क़ुस, लूक़ा, यूहन्ना का जो मसीह के गवाह थे और जिनकी गवाहियाँ मसीह के मोअजज़ात के बारे में इन्जील में क़लमबंद हैं ज़िक्र करते हैं कि वो किस क़िस्म के आदमी थे।

1. पहले यह जानना चाहिए कि वो अक़्ल-ए-सलीम रखते थे जैसा कि उनके नविश्तों (लिखा हुआ, तहरीरी सनद) से ज़ाहिर है क्योंकि किसी ज़ईफ़-उल-अक़्ल (बेवक़ूफ) का ये काम नहीं कि बयानात को लिखा सकता। पस जब कि वो अक़्ल-ए-सलीम रखते थे तो ज़ाहिर है कि उनकी गवाही भी इन वाक़ियात में जो उन्होंने देखे या सुने क़ाबिल-ए-एतिबार होगी।

2. दूसरे ये कि जिस मुल्क में और जिस जगह और जिस वक़्त मोअजज़ात दिखाए गए ये गवाह मौजूद थे उन्होंने बचश्म (अपनी आँखों) से ख़ुद देखा।

3. तीसरे वो मोअजज़ात इस तौर से और ऐसे मौक़े पर वाक़ेअ हुए कि इस में इम्कान दग़ा (धोका और फ़रेब) का हो ही नहीं सकता। मादर-ज़ाद अंधे को दफअतन (फ़ौरन) बीनाई (नज़र आना) बख़्शना। चार दिन के मुर्दे को जिला देना। ये ऐसा काम ना था कि चुपके से हो जाता। सर ए इस के मसीह के जी उठने की सारी कैफ़ीयत जो उस के तमाम मोअजज़ात में सबसे ज़्यादा मशहूर वाक़िया है इस को ख़याल कर लीजिए। वो सारी कैफ़ीयत ऐसे तो पर गुज़री जिसमें ज़रा भी शुब्हा का दख़ल नहीं हो सकता। मसलन अव्वल ये कि वो वाक़ई में मुआ (मरा) और दफ़न किया गया। (इस में किसी को कलाम नहीं) और फिर इस ख़याल से कि मबादा (ख़ुदा ना करे) उस के शागिर्द ख़ुफ़िया लाश निकाल ले जाएं और मशहूर करें कि जी उठा सरकारी पहरा क़ब्र पर मुतय्यन (मुक़र्रर) हुआ और इस अंदेशे से कि पहरे के सिपाही भी कहीं साज़िश ना कर लें क़ब्र पर सरकारी मुहर लगाई गई।

दूसरे क़ब्र से लाश के निकल जाने की सिर्फ तीन सूरतें ख़याल में आ सकती हैं या तो दुश्मन निकालते या दोस्त या वो ख़ुद निकल आता जैसा कि मत्ती 27 बाब, 63 आयत और यूहन्ना 10 बाब 17, 18 आयात में लिखा है। लेकिन दुश्मनों से ऐसा होना मुम्किन ना था क्योंकि उनका इख़्तियार होता तो शागिर्दों के हराने और मसीह की फ़रेबदेही साबित करने को उस की लाश और पैदा कर देते ना कि निकाल लेते और जो ये किया जाये कि उस के दोस्तों ने निकाला तो इस की भी कोई सूरत नहीं हो सकती दोस्तों ने ख़ुद अपनी मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अपनी ज़मीन में गाढ़ा था उनको क्या ग़र्ज़ पड़ी थी कि निकाल लेते मुम्किन ना था कि दोस्त उस की लाश चोरी से ले जाते साठ सिपाहियों का पहरा खड़ा था। और ये भी नहीं हो सकता था कि सब पहरे वाले सो गए हों जिस हालत में हुक्म सरकारी ऐसा नातिक़ (सख्त) था कि अगर कोई सिपाही पहरे पर सो जाये तो क़त्ल किया जाये। और बफ़र्ज़ इन सब सूरतों में वो दोस्त उस की लाश निकाल भी ले जाते तो जी उठना क्योंकर कहलाता बल्कि ये तो और उलटी दलील उनके ख़िलाफ़ पड़ती पस ज़ाहिर है कि बजुज़ इस के कि आप अपनी क़ुद्रत इलाहिया से निकल गया हो और कोई सूरत नहीं हो सकती।

सिवाए वो जो मज़्कूर बाला (ऊपर ज़िक्र किए गए) के और भी उम्दा तर दलाईल हमारे पास हैं मसलन अव्वल ये कि बाद दफ़न होने के बारह मुख़्तलिफ़ सूरतों में उस का दिखाई देना पाँच सूरतों में जिस रोज़ जी उठा उसी रोज़ दिखाई दिया और पाँच सूरतों में क़ब्ल अज़ सऊद (ख़ुदावंद येसू मसीह के आस्मान पर ज़िंदा उठाए जाने से पहले) और एक मुरत्तिब साऊल को जब वो ईमान लाया और एक मर्तबा यूहन्ना कोपतमस के टापू पर (पहाड़ी पर) ज़ाहिर हुआ। 1 कुरिन्थियों 15 बाब 5, 9 आयत, आमाल 11 बाब 5 आयत, मुकाशफ़ात 1 बाब 9-18, आयत और ये आख़िर के दो ज़हूर एक ही दिन के मुख़्तलिफ़ वक़्त और मुख़्तलिफ़ जगहों में हुए बल्कि इस में एक दफ़ाअ तो ऐसे ज़ाहिर हुआ कि पाँच सौ से ज़्यादा ने देखा।

दूसरे ये कि इस का ज़हूर ख़ामोशी के साथ नहीं हुआ बल्कि लोगों से बातचीत की और खाना खाया और अपने हाथ पांव दिखाए और जहां-जहां (सलीब की अज़ियतों से) ज़ख़्म हो गए थे। उनसे कहा कि उंगलियां लगा कर देखो और बहुत देर तक उनसे बातें करते रहा और आख़िरकार उनकी नज़र के सामने आस्मान पर चढ़ गया।

तीसरे उस के मरने और जी उठने की याददाश्त के लिए इशा-ए-रब्बानी मुक़र्रर हुआ और सबुत के एवज़ ख़ुदावंद का दिन यानी हफ़्ते का पहला रोज़ क़रार पाया। ये दोनों रसूम उसी वक़्त जारी हुए हैं जब से मसीह मुआ (मरा) और जी उठा है और आज तक तमाम रुए-ज़मीन में जहां-जहां ईसाई हैं ये रस्म यही से बराबर चली आती है यक़ीन है कि किसी अक़्लमंद को इस अम्र में इन्कार ना होगा कि बयान मज़्कूर से गवाही की सेहत व हक़ीक़त का सबूत यानी ये कि गवाही क़ाबिल-ए-तस्लीम है बख़ूबी हो गया और इसी सबब से ये साबित हुआ कि मोअजज़ात यही वक़ूअ में आए थे।

चौथे ये जानना चाहिए कि जिन लोगों में मसीह ने वो मोअजज़ात दिखाए थे उन लोगों में से किसी को उनके मोअजिज़ा होने में कलाम ना हुआ हालाँकि मोअजिज़े के देखने वालों में बाअज़ तो बड़े-बड़े होशियार और बात के परखने वाले थे ऐसे अहमक़ (बेवक़ूफ) ना थे कि गूंगों का बोलना अँधों का देखना मुर्दों का जी उठना कुछ समझते है ना हों। मसीह के मोअजिज़ों में कोई मोअजिज़ा ऐसा ना हो जिसमें कोई सूरत धोके की निकलती हो। देखने वालों को उनके आज़माने का ख़ूब मौक़ा था बल्कि याद रखना चाहिए कि देखने वालों ने जिन्हें इल्हाम से इन्कार था इन मोअजज़ात का इक़रार किया। जब मसीह ने अंधे फ़क़ीर को बीनाई बख़्शी तो यहूदियों ने इस अंधे को बुला कर पूछा कि किस ने तुझे अच्छा किया तो उसने जवाब दिया कि एक आदमी ने जिसे येसू कहते हैं मुझे चंगा किया है। इस पर फ़रीसियों ने जो येसू के मोअजज़ात का इक़रार करना नहीं चाहते थे इस आदमी से कहा कि येसू का नाम मत ले ख़ुदा की बुजु़र्गी कर वग़ैरह यूहन्ना 9 बाब 24 आयत इसी तरह जब मसीह ने लाज़र को ज़िंदा किया। तो काहिनों और फ़रीसियों ने सदर मज्लिस जमा की और कहने लगे कि हम क्या कर रहे हैं ये मर्द बहुत मोअजिज़ा दिखाता है। यूहन्ना 11 बाब 47 आयत।

पांचवें अब रहा ये अम्र कि रसूल जो ख़ास गवाह इन मोअजज़ात के हैं उनकी गवाही क्योंकर मोअतबर समझी जाये सो इस का जवाब भी बहुत से दलाईल (बह्स) क़तई ही देंगे।

1. ये जानना चाहिए कि तादाद गवाहों की भी काफ़ी है यानी चार अलैहदा-अलैहदा आदमियों की तहरीरी गवाही मौजूद है।

2. ये कि वो चार दिन गवाह मुत्तफ़िक़ बयान करते हैं जैसा कि ईमानदार गवाहों का बयान होना चाहिए और जिस क़िस्म की शहादत (गवाह) अदालतों में हमेशा से क़ाबिल-ए-समाअत समझी जाती है। फ़र्ज़ करें चार आक़िल ईमानदार आदमी कुछ वाक़ियात जो उनकी नज़र से गुज़रे हैं बयान करें तो उनकी तर्तीब बयान में इख़्तिलाफ़ होगा। कोई किसी बात को ख़ूब बयान करेगा और कोई किसी बात को लेकिन अस्ल मतलब सब का एक ही रहेगा गो ज़ाहिरी तर्तीब में कुछ फ़र्क़ हो पस इसी क़िस्म का इत्तिफ़ाक़ इन्जील नवीसों की गवाहियों में भी पाया जाता है।

3. तीसरे इन रसूलों की निस्बत कोई शुब्हा इस क़िस्म का नहीं हो सकता कि उन्होंने झूट बयान किया हो या धोका दिया हो क्योंकि ऐसा जाअल बनाने या झूट गढ़ाने से कोई इज़्ज़त या दौलत या क़ुद्रत पाने की उम्मीद ना थी बल्कि ख़ासकर इसी गवाही की बदौलत यानी जब उन्होंने मसीह के सबसे बड़े मोअजिज़ा का कि वो जी उठा है दावा किया तो तरह-तरह की तकालीफ़ और ज़िल्लतें और मुसीबतें उठाई यहां तक कि ज़िंदगी से भी हाथ धोए अगर वो मसीह के जी उठने और मोअजज़ात की निस्बत गवाही ना देते तो इन सब ख़राबियों और मुसीबतों से महफ़ूज़ रहते और चैन व आराम से ज़िंदगी बसर करते बल्कि मैं कहता हूँ कि अगर वही मसीह के ख़िलाफ़ गवाही देते यानी उसे अय्यार व मक्कार (फ़रेबी, चालबाज़) बताते तो ज़रूर लोगों में बहुत कुछ उनकी इज़्ज़त और आबरू बढ़ जाती और इनाम पाते लेकिन नहीं वो सादा ईमानदार आदमी जिनके तक़द्दुस (पाकीज़गी, इज़्ज़त, शौहरत) पर कोई दाग़ नहीं लगा सकता ता दम-ए-मर्ग (मौत तक) अपनी बात पर क़ायम रहे और वो ही एक गवाही कि मसीह ने मोअजज़ात दिखाए थे दीए गए बल्कि इस पर भी इक्तिफ़ा (किफ़ायत करना) ना कर के तमाम गिर्द नवाह (आसपास के जगहों) में मसीह के हालात की मुनादी करते फिरे और कमाल फ़िरोतनी और तक़द्दुस से ज़िंदगी बसर की और लोगों को फ़ायदा पहुंचाया हालाँकि ख़ूब जानते थे कि ऐसा करने से लोगों के बुग्ज़ और अदावत की आग बहुत भड़केगी और तरह-तरह के ख़ौफ़ व ख़तर पेश आएगे और ज़िंदगी से भी हाथ धोना पड़ेगा। पस ज़ाहिर है कि सिवाए ऐसे शख़्स के जिसको गवाही से मुतलक़ इन्कार हो और आदमियत से ख़ारिज हुआ। और कोई मुन्सिफ रसूलों की गवाही में कुछ कलाम ना करेगा। भला ये हो सकता था कि ऐसे सच्चे रसूलों ने ख़िलाफ़ वाक़ेअ के दर हाल ये कि ख़तरा जान का इस से हो वो बयान किया हो और सब के सब ऐसे (राज़ी) हो गए हों कि जो बात देखी ना हो उस को अपना मुशाहिदा बताएं हरगिज़ नहीं। इस को अक़्ल कभी बावर (यक़ीन, भरोसा) ना करेगी। और ये भी याद रखना चाहिए कि इन रसूलों ने मसीह के अजीब कामों को सिर्फ ज़बानी ही नहीं बयान किया बल्कि सब हालात को क़लमबंद कर के दोस्तों और दुश्मनों के हाथों में दिया कि इस को ग़ौर से आज़माऐं। और दुश्मन भी ऐसे कि कुछ नादान नहीं बल्कि बड़े-बड़े आलिम और ज़ी इख़्तियार और बात के परखने वाले हमेशा ऐस फ़िक्र में लगे होने कि कोई ज़रा भी ऐसी ग़लती निकले जिससे वो नविश्ते पाया एतबार से गिर जाएं। मगर किसी से ना हो सका कि इन्कार करता। बल्कि उन्हीं यहूदी मुख़ालिफ़ों ने इक़रार किया। हज़ारों देखने वाले तो इसी सबब से और भी मसीह के दुश्मन हो गए कि उसने वो मोअजज़ात दर-पर्दा नहीं दिखाए बल्कि अलल-ऐलान (खुलेआम सबके सामने) शहरों और दिहात और क़स्बात और शहरों और बाज़ारों में जमाअत के सामने हैकल में जा कर दिन को हज़ारों आदमियों के बीच में दिखाए। एक मर्तबा पाँच हज़ार से आदमी ज़्यादा जमा थे और एक दफ़ाअ चार हज़ार से ज़्यादा थे जब मसीह ने मोअजिज़ा दिखाया। पस ये अम्र कि मसीह ने अजीब-अजीब काम किए और मोअजज़ात दिखाए यहूदियों की किताब तल्मूद में भी मज़्कूर है और बड़े-बड़े यहूदी उलमा और ग़ैर-क़ौम के मुसन्निफ़ और मसीह की क़दीम कलीसिया की गवाहियों से साबित है। इन लोगों में बाअज़ तो ज़माना मोअजज़ात में मौजूद थे और बाअज़ उस के क़रीब ज़माने में थे। तलदाथ फ़र्स की तल्मूद में ऐसी बातें मसलन मुर्दों को जिलाना, अँधों, लूलों को चंगा करना मसीह की निस्बत बयान की हैं। इस में ये भी लिखा है कि बहुत से आदमी मसीह की निस्बत ये बयान करते हैं। इस में ये लिखा है कि बहुत से आदमी मसीह को सज्दा करते और पुकार पुकार के कहते कि (हक़ीक़त में तू ख़ुदा का बेटा है) पंतुस पिलातूस ने अपनी तारीख़ अल्टापुलिटा में यहूदियों के मुआमलात के साथ मसीह के मरने और जी उठने का भी ज़िक्र किया है। यूसेफ़स जो बड़ा मुअर्रिख़ (तारीख़ निगार) यहूदियों में गुज़रा है जो 37 ई॰ ईस्वी में पैदा हुआ जिसने 75 ई॰ की यहूदियों की लड़ाईयों का ज़िक्र किया है वो भी अक्सर बातों में अह्दे-जदीद की सदाक़त की गवाही देता है। सलियास और फ़ारफ़्री और जूलियन जो ग़ैर क़ौमों के दर्मियान बड़े मशहूर मुअर्रिख़ (तारीख़ निगार) गुज़रे हैं उन्होंने भी मसीह के मोअजज़ात का इक़रार किया है। अरेनियस और पालीकार्बजो पहली सदी में पैदा हुआ था। ये दोनों आदमी रसूलों के हम-अस्र और साथी थे और गिनातीस और पेयस और यूसीयस और जस्टिन शहीद और बहुत से और क़दीम ईसाई मोअर्रिखों ने इन्जील के नविश्तों की तस्दीक़ की है और लिखा है कि जो जो ख़ास बातें इन्जील की हैं उन सबकी तस्दीक़ हमारे हम-अस्रों यहूदियों और ग़ैर-क़ौमों के मोअर्रिखों (तारीख़ निगार) ने भी की है। मसलन योसियस सब बातों का ज़िक्र कर के लिखता है कि मेरे मुनज्जी (नजात-दहिंदा) के जी उठने की बाबत फिलिस्तीन में बहुत कुछ चर्चा है या जैसे पिलातूस ने शहनशाह को इस माजरे की ख़बर दी है। इसी तरह जस्टिन शहीद ने और बहुत औरों ने अपनी किताबों में लिखा है कि यहूदी मोअर्रिखों (तारीख़ निगार) ने फ़क़त ये इक़रार ही नहीं किया कि इन्जील के नविश्ते हवारियों के लिखे हैं बल्कि अपनी तफ़ासीर और रूमी सल्तनत की तवारीख़ में भी इस का ज़िक्र किया है। पस मैं दावा करता हूँ कि कोई मक्कार हो कर ऐसा नहीं कर सकता कि इन्जील की सी बातें मह्ज़ अपने दिल से बना कर और गढ़ कर तमाम (लोगों) में उनको शाएअ करे और उसकी तालीम व तल्क़ीन करे। क्योंकि इन अय्यारों (ठग, फ़रेबी) ने सिर्फ ये ही नहीं किया कि इन अजीब बातों को दिल से गढ़ कर और जाअल गाँठ कर अपनी किताबों में लिख कर छोड़ दिया हो बल्कि उनके साथ तरह-तरह के काम यादगारियाँ छोड़ें बल्कि इस से ज़्यादा ये कि बराबर लोगों को समझाते और रग़बत देते रहे कि तुम्हारे बाप दादे मसीह की फ़ुलां फ़ुलां बातों को आज तक मानते चले आए हैं तुम भी मानो। अगर ये बातें उनकी झूटी होतीं तो कोई मर्द औरत और लड़का भी ना मानता। सब के सब आमादा मुख़ालिफ़त हो जाते और ये कभी नहीं हुआ। इसलिए मगर मेरा दावा ये है कि मोअजज़ात बेशक हुए और ये कि इनके सबूत में किसी तरह का कलाम नहीं।

अल-हासिल मोअत्रज़ीन (एतराज़ करने वाले) के आम एतराज़ात जो मोअजज़ात पर होते हैं उनका इस तरह जवाब देकर और ये साबित कर के कि इनका वक़ूअ हक़ीक़तन हो अब हम उन दलाईल पर जो इन्हीं मोअजज़ात से वास्ता इस्बात (सबूत की जमा) हक़ीक़त दीन-ए-ईस्वी पेश किए जात हैं लिहाज़ करेंगे यानी उन मोअजज़ात से ये साबित कर दिखाएगे कि मज़्हब-ए-ईसा ख़ुदा की तरफ़ से है।

हम सब ईस्वी ख़ुदा की तरफ़ से हैं

1. ये समझना चाहिए कि बयान मज़्कूर से हमारा मतलब ये नहीं कि दीन-ए-ईस्वी का सबूत सिर्फ़ मोअजज़ात पर मौक़ूफ़ है बहुत और बातें इस के सबूत के लिए हैं। मसलन कफ़्फ़ारा और सफ़ाई क़ल्ब (दिल) जिसको नया दिल कहते हैं और मसीह और उस के हवारियों के आदात वग़ैरह मसाइल इस दीन की हक़ीक़त साबित करते हैं। पस इसलिए अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि मज़्हब के बहुतेरे (बहुत सारे) सबूतों में से एक सबूत मोअजज़ात भी हैं। सिवा इस के मज़्हबे ईस्वी अपनी सदाक़त का ख़ुद भी गवाह है। इस के कुल उसूलों बाहमागिर इत्तिफ़ाक़ रखते और एक दूसरे को तक़वियत (तरक़्क़ी देना, आगे बढ़ना) देते हैं मगर इन्हीं उसूल के साथ ये मोअजज़ात भी ऐसे वास्ता हैं कि इन्जील की तमाम ताअलीमात में अव्वल से आख़िर तक उनको भी दाख़िल समझना चाहिए पस मोअजिज़े कुछ ज़ाहिरी मुहर नहीं हैं बल्कि वो ऐसे मज़ामीन हैं कि बान से ताल्लुक़ रखते हैं। येसू ने सिवा मोअजज़ात के बहुत और काम भी किए हैं और जिस क़द्र अफ़आल उस से सरज़द हुए उन पर ख़याल करने से मआबन ख़याल पैदा होता है कि वो कैसी ज़ात पाक था जिससे ऐसे ऐसे कार नुमायां हुए।

पस मसीह के कुल मोअजज़ात गोया एक रस्सी है जिससे तमाम कलीसिया के एतिक़ाद मसीह की ज़ात-ए-पाक में वाबस्ता हैं और बावजूद ये कि मज़्हब ईस्वी के सबूत के लिए फ़क़त ये मोअजज़ात नहीं हैं जिस पर भी ऐसे ज़रूरी हैं कि ईसाई मज़्हब के यक़ीन जानने की इनको बुनियाद कहना चाहिए।

इन्सान की ख़्वाहिश मोअजज़ात और करामात के लिए

2. हम ये पहले इशारा कर चुके हैं कि आदमी के दिल में ये ख़्वाहिश है कि वो मोअजज़ात और करामात पर यक़ीन लाना चाहता है। हर ज़माने और हर क़ौम के लोग इस बात को मानते चले आए हैं। दुनिया के बड़े से बड़े ग़ैर-क़ौम के लोग इस बात को मानते चले आए हैं। दुनिया के बड़े से बड़े ग़ैर-क़ौम के काफ़िर और ईसाई फ़लसफ़ों ने अपनी तबीअतों की ख़्वाहिशों से ये साबित किया है कि आदमी की तबइयत में ज़रूर ये बात है कि वो मोअजिज़े और करामात को ढूंढता है और इसी सबसे जिस मज़्हब में कोई हक़ीक़ी मोअजिज़ा नहीं पाया जाता था तो उस मज़्हब के लोगों ने अपनी तरफ़ से बनाए ताकि उनका मज़्हब सच्चा ठहरे। मगर जब सच्चा मज़्हब आया तो इस में ना सिर्फ हक़ व रहम और दानाई भलाई की बातें बल्कि मोअजज़ात भी ज़ाहिर हुए क्योंकि आदमी की तबीयत का मुक़्तज़ाद (तक़ाज़ा किया गया, मजाज़न) ये है कि बग़ैर मोअजज़ात के तस्कीन नहीं पाता। इस बात को हम तस्लीम करते हैं कि नेक व ईमानदार मुतलाशी के लिए कुतुब-ए-मुक़द्दसा ख़ुद एक मज़्बूत गवाह हैं मगर फ़क़त इसी सबब से नहीं कि उनके नसाएह (नसीहत की जमा, नसीहतें) और मसाइल और ताअलीमात अच्छी हैं बल्कि इस सबब से भी कि इनमें ख़ास-ख़ास मोअजज़ात का ज़िक्र है। फ़र्ज़ करो अगर मोअजज़ात निकाल लिए जाएं तो कुतुब-ए-मुक़द्दसा के वाअदे वग़ैरह मिस्ले आम बातों के रह जाये कुछ ख़ुसूसियत न रहे और सब मसाइल सिर्फ दावा ही दावा रह जाये। और इस वक़्त में यानी बग़ैर मोअजिज़े के गो कि आदमी इस बात को मानें कि कुतुब-ए-मुक़द्दसा की ताअलीमात बहुत अच्छी हैं। और इनमें बहुत अच्छी-अच्छी बातों का ज़िक्र है मगर ये साबित करना कि वो इल्हामी किताबें हैं निहायत मुश्किल हो जाये अगर कहा जाये कि इस में तासीर ही ऐसी है जिससे इस का इल्हामी होना साबित हो जाएगा तो मैं कहता हूँ कि वो तासीर भी जब तक कि मोअजज़ात से तस्दीक़ ना पहुंचे असर नहीं करती है। पस बाइबल के इल्हामी होने की बड़ी और मुस्तहकम सनद यही है कि ख़ुदा ख़ुद इस को किसी खासतौर से ज़ाहिर कर दे और वो खास तौर (तरीक़ा) इस के ज़ाहिर करने का फ़क़त मोअजिज़े हैं। मसीह की उलूहियत (रब्बानियत) की बड़ी पहचान इस के मोअजज़ात थे। जैसे कोई इल्म-ए-फ़ल्सफ़ा का मुअल्लिम (उस्ताद) अपनी इज़्ज़त बढ़ाने को या इसलिए कि बहुत से लोग मेरे शागिर्द हो जाएं तरह-तरह के तजुर्बे इल्म-ए-कीमिया या फ़ल्सफ़ा के दिखाता है इसी तरह मसीह ने अपने पैरौओं (मानने वालों) को अपनी तरफ़ मुतवज्जोह और पुख़्ता करने को मोअजज़ात दिखाए। इसलिए चूँकि रूह-ए-इन्सानी बग़ैर मोअजज़ात के तस्कीन नहीं पाती ख़ुदा ने हमारे मज़्हब की सदाक़त के लिए मोअजज़ात को दलील गिरदाना (तर्तीब के मुताबिक़ दुहराना)

यहूदियों का एतिक़ाद कि तस्दीक़-ए-रिसालत के लिए मोअजिज़ा ज़रूर है

3. मोअजज़ात का होना इसलिए भी ज़रूरी था कि अहद-ए-अतीक़ में जो कुछ वाअदे और पेशनगोईयाँ मसीह की निस्बत हैं वो सब पूरी हों। मसलन ख़ुदा ने मूसा से वाअदा किया था कि इस्राईलियों के लिए एक बड़ा नबी पैदा करूंगा। और जब वो ज़ाहिर हुआ तो उस की शनाख़्त ये होगी कि वो बड़े-बड़े मोअजिज़े दिखाएगा।

यसअयाह नबी ने उस के हक़ में इस तरह पेशिनगोई की है। (उस वक़्त अँधों की आँखें और बहरों के के कान खोले जायेगे तब लंगड़े हिरन की मानिंद चौकड़ीयां भरेंगे और गूँगे की ज़बान गाएगी। यसअयाह 35:5-6 आयत) और फिर एक और जगह मसीह की निस्बत इसी तरह लिखा है कि लोगों के अहद और क़ौमों के नूर के लिए तुझे दूंगा तू अँधों की आँखें खोले और बंदूओं को क़ैद से निकाले और उनको जो अंधेरे में बैठे हैं क़ैद ख़ाने से छुड़ाए। (यसअयाह 42 बाब 7, 6) मूसा ने यही अपनी तस्दीक़ रिसालत के मोअजज़ात दिखाए थे और इसी लिए यहूदियों को चूँकि अपने मज़्हब की तस्दीक़ मोअजिज़ों से हो चुकी थी और पुराने अहदनामें की पेशिनगोइयों पर यक़ीन कामिल रखते थे ज़रूर उम्मीद थी कि जब मसीह ज़ाहिर होगा तो तरह-तरह के मोअजज़ात दिखाएगा पस यहूदियों की तालीम व एतिक़ाद के मुवाफ़िक़ अगर मसीह मोअजिज़े ना दिखाता तो वो हरगिज़ उस पर ईमान ना लाते। उनका एतिक़ाद यही था कि जो कोई नबी होने का दावा करे उस को ज़रूर है कि अपनी रिसालत की तस्दीक़ के लिए कोई ज़ाहिरी निशान यानी मोअजिज़ा दिखाए। जैसा कि मूसा और एलिया और एलीसा ने किया था। पस अशद ज़रूरत थी कि यहूदियों को मज़्हब-ए-ईस्वी की सदाक़त (सच्चाई) ज़ाहिर करने के लिए मोअजिज़े दिखाए जाते नबियों ने भी यही ख़बर दी थी कि मसीह मौऊद (जिसका वाअदा किया गया) की पहचान मोअजिज़ों से होगी इसलिए एक पुख़्ता गवाही उस की हक़ीक़त की मोअजज़ात भी थे।

4. मसीह के पैदा होने का हाल और मौत के वाक़ियात जो कुछ गुज़रने को थे। क़ब्र से जी उठा और आस्मान पर चढ़ जाना इन सब बातों की ख़बर उनकी किताबों में थी और ये सब बड़े-बड़े मोअजज़ात थे। फ़र्ज़ करो अगर ये मोअजिज़ा कि वो कुँवारी के पेट से पैदा होगा ना वक़ूअ में आता ना मसीह ना मसीह का मज़्हब होता मसीह की मौत के वक़्त पर्दे का फटना ज़लज़ले का आना, तारीकी का छाना, क़ब्रों का खुलना ये सब बातें इसी तस्दीक़ के लिए थीं कि वो ख़ुदा का बेटा है। लेकिन क़ब्र से जी उठना और आस्मान पर चढ़ना सबसे बड़ा मोअजिज़ा हुआ। अगर ये वाक़ियात ना गुज़रते तो लोगों को उस के मसीह होने में शक होता मगर नहीं जिस तरह सदहा बरस पेश्तर (पहले ही से) ख़बर दी गई थी वैसे ही सब बातें वक़ूअ में आईं और पेशनगोई पूरी हुई और उस का मसीह होना बख़ूबी पाया सबूत को पहुंचा और मालूम हुआ कि वो ना फ़क़त नबी है बल्कि दुनिया का नजातदिहंदा और मसीहा मौऊद (वादा किया गया) है।

5. ये अम्र कि मज़्हब ईस्वी की सदाक़त का पुख़्ता सबूत मोअजज़ात हैं सो इस को हम साबित करेंगे कि मसीह ने अपनी रिसालत की तस्दीक़ के लिए मोअजज़ात को बड़ी दलील गिरदाना (बार बार दोहराया) है। और उस के शागिर्दों ने हमेशा यही इशारा किया है कि हमारे ईमान की जड़ मोअजज़ात हैं।

1. तब यहूदियों ने जवाब में उस से कहा क्या निशान तू हमें दिखाता है जो ये काम करता है येसू ने अपनी मौत की तरफ़ इशारा कर के जवाब दिया कि मैं इसे तीन दिन में खड़ा कर दूंगा इसलिए जब वो मुर्दों में से जी उठा तो उस के शागिर्दों को याद आया कि उसने ये उनसे कहा था और वो किताब और येसू के कलाम पर ईमान लाए। (यूहन्ना 2 बाब 18, 19, और 22 आयत) इन आयात से दो बातें ज़ाहिर होती हैं। अव्वल ये कि मसीह ने अपने जी उठने के मोअजिज़े को यहूदियों के सामने अपने क़ुद्रत इलाहिया रखने का निशान ठहराया जो ऐसा कहा। दूसरे ये कि उस मोअजिज़े के देखने से बहुतेरे उस की किताब और कलाम पर ईमान लाए।

2. मसीह ने यूहन्ना 15, बाब 24, आयत में फ़रमाया है कि अगर मैंने उन के बीच में ये काम जो किसी दूसरे ने नहीं किए ना किए होते तो उनका गुनाह ना होता पर अब तो उन्होंने देखा और मुझसे और मेरे बाप से दुश्मनी की। इस से साफ है कि अगर मसीह ये काम यानी मोअजज़ात ना दिखाता तो लोग उस को अच्छी तरह ना जानते कि वो ख़ुदा का भेजा हुआ है और ये गुनाह कि उस को जान-बूझ कर इन्कार करते हैं ना होता लेकिन अब वह उसके कामों को देखकर वाक़िफ़ हो गए कि वो ख़ुदा है या ये कि ख़ुदा उस में है।

3. फिर मसीह ने ये फ़रमाया कि मेरी बात का यक़ीन करो कि मैं बाप में हूँ और बाप मुझमें है और नहीं तो उन कामों के सबब मुझ पर ईमान लाओ। (यूहन्ना 14 बाब 11 आयत)

4. एक दफ़ाअ का ज़िक्र है कि जब येसू ने एक पैदाइश के अंधे को बीना कर दिया तो यहूदियों ने कहा कि हम जानते हैं कि ख़ुदा ने मूसा के साथ कलाम किया पर हम नहीं जानते कि ये कहाँ का है। इस शख़्स (यानी जिसे) बीना किया था उस ने जवाब में उन्हें कहा इस में ताज्जुब (हैरानी) है कि तुम नहीं जानते कि ये कहाँ का है और उसने मेरी आँखें खोली हैं। दुनिया के शुरू से सुनने में नहीं आया कि किस ने जन्म के अंधे की आँखें खोली हों। (यूहन्ना 9 बाब 29, 30, 32 आयात) वाक़िये में इस शख़्स ने बड़ा माक़ूल (मुनासिब) जवाब दिया क्योंकि अगरचे ऐसा है कि बाअज़ होशियार तबीब (डाक्टर या हकीम) आँख की चंद बीमारियों को रफ़ा कर सकते हैं ताहम कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी ने जन्म के अंधे को अच्छा किया हो और इसी सबब से मसीह का इस मादर-ज़ाद अंधे को अच्छा कर देना वाक़ई बड़े ताज्जुब की बात थी यानी पुख़्ता दलील इस बात की थी कि मसीह ख़ुदा ही की तरफ़ से है।

5. मसीह ने इस अम्र के साबित करने को कि मुझे इख़्तियार व क़ुद्रत गुनाह के माफ़ करने का है इन्हीं मोअजिज़ों की तरफ़ इशारा किया है जैसा कि मर्क़ुस 2 बाब 10, 11 आयत से ज़ाहिर है।

6. पतरस ने ईदे फ़सह के रोज़ यहूदियों के सामने मसीह की रिसालत और उलूहियत का बयान कर के फ़रमाया कि येसू नासरी एक मर्द था जिसका ख़ुदा की तरफ़ से होना तुम पर साबित हुआ उन मोअजिज़ों और निशानियों से जो ख़ुदा ने उस की मार्फ़त तुम्हारे बीच में दिखाए जैसा तुम आप भी जानते हो आमाल 2 बाब 22 आयत अब देखिए रसूल ख़ुद कहता है कि उस का ख़ुदा की तरफ़ से होना मोअजिज़ों से साबित हुआ पस साफ़ ज़ाहिर है कि लोगों ने मोअजिज़ों ही के सबब मसीह को ख़ुदा या कम से कम ख़ुदा की तरफ़ से जाना।

अब कुछ ज़रूरत मोअजज़ात दिखाने की नहीं है

7. ये जानना चाहिए कि फ़क़त मसीह ने या उस के रसूलों ही ने कुछ मोअजज़ात को येसू के ख़ुदा होने की दलील नहीं ठहराया है बल्कि यहूदियों के हाकिम निकोदीमस ने जब मसीह से गुफ़्तगु करने आया था तो ये कहा कि ऐ रब्बी हम जानते हैं कि तो ख़ुदा की तरफ़ से उस्ताद हो कर आया क्योंकि कोई ये मोअजिज़ा जो तू दिखाता है जब तक कि ख़ुदा उस के साथ ना हो नहीं दिखा सकता है। यूहन्ना 3, 2 आयत

देखिए निकोदीमस एक आलिम आदमी था। वो साफ़ इक़बाल करता है कि ख़ालिस गवाही मसीह के रसूल और ख़ुदा होने की यही उस के मोअजज़ात हैं। अब इन चंद आयतों से हर एक रोशन ज़मीर पर साफ़ ज़ाहिर हो जाएगा कि मसीह पर ईमान की बड़ी बुनियाद उस के मोअजिज़े थे। इन्हीं मोअजिज़ों से लोगों ने जाना कि वो हक़ीक़ी मसीहा है यही काम पयाम और मर्ज़ी इलाही ज़ाहिर करने के उम्दा वसीले हुए। पस ना इस सबब से कि मसीह ने इन मोअजज़ात को अपनी पाक उलूहियत (रब्बानियत) की गवाही ठहराया है बल्कि फ़क़त इतना है कि मसीह की ज़ात-ए-पाक से इस का ज़हूर हुआ है जैसा कि हम साबित कर चुके हैं मोअजज़ात की अज़मत व ज़रूरत दीन-ए-ईस्वी की सदाक़त के लिए साबित करने को काफ़ी है। क्योंकि हम ऐसा गुमान नहीं कर सकते कि उसने ये काम बेफ़ाइदा किए हों। अगर मोअजज़ात ज़रूरी ना होते तो किस लिए करता।

अब ग़ौर के लायक़ है कि ये जो लोग एतराज़ अक्सर करते हैं कि अगर मोअजज़ात मसीह के वक़्त में ज़रूरी थे तो चाहिए कि इस वक़्त में भी अलल-ख़ुसूस ग़ैर क़ौम के लोगों के लिए ज़रूरी हों। इस का जवाब ये है कि अव्वल तो जिस ग़र्ज़ से मोअजज़ात दिखाए गए थे अब वो ग़र्ज़ ही नहीं रही इसलिए अब उनकी ज़रूरत भी नहीं रही और वो ग़र्ज़ ये थी कि ख़ुदा की तरफ़ से जो कश्फ़ व इल्हाम होते थे उनकी पुख़्तगी मोअजज़ात से हो जाया करती थी। सो जब तक कश्फ़ व इल्हाम जारी रहा मोअजज़ात भी होते रहे। अब वो सिलसिला ख़त्म हो गया इसलिए मोअजज़ात भी बंद हो गए। ख़ुदा की मर्ज़ी बाइबल से अब साफ़ ज़ाहिर होती है और जो कुछ हमको जानना या मानना ज़रूर है वो सब इस पाक किताब में मौजूद है इसलिए कश्फ़ व इल्हाम की कुछ ज़रूरत नहीं है ना निशानियों और अचंभों के दिखाने का मौक़ा रहा। दूसरे ग़ालिब है कि अगर मोअजिज़े बराबर होते रहते तो कुछ फ़ायदा ना होता क्योंकि जो लोग इन मोअजज़ात के जो इन्जील में लिखे हैं क़ाइल नहीं हैं वो नए मोअजिज़ों के कब क़ाइल होते हालाँकि क़तई सबूत इस का मौजूद है कि मोअजिज़े ज़रूर एक वक़्त में दिखाए गए थे मगर बाअज़ लोग अपने तास्सुब और बेईमानी और जोश-ए-तबीअत से इस बात को नहीं क़ुबूल करते हैं इसी तरह अब भी अगर कोई मोअजिज़ा या निशान दिखाया जाये तो उसी तास्सुब और बेईमानी के सबब से लोग ना मानें तीसरे ये बात है कि अगर मोअजिज़े पुश्त दर पुश्त बराबर होते रहते तो ये इम्तियाज़ (फ़र्क़) उठ जाता कोई उन्हें मोअजिज़ा ना कहता ना किसी तरह का असर उनमें रहता। क्योंकि फिर तो वो ऐसे हो जाते जैसे और वाक़ियात रोज़मर्रा गुज़रा करते हैं ख़्वाहाँ हम समझते हों या ना समझते हों। मोअजिज़ा आम क़ायदे से बाहर है ये नहीं कि वो क़ायदा जिसकी रू से मोअजिज़ा होता है यानी ख़ास और अचंभे (हैरत, ताज्जुब) की बात है हमारा दिल भी इस की तरफ़ तवज्जोह करता है। अगर रोज़मर्रा हुआ करते तो कोई ख़याल भी ना करता। चौथी ये बात है कि हमारे ज़माने में बनिस्बत ज़माना मसीह रोशनी ज़्यादा फैल गई है और पहले से अब ईमान लाना आसान तर है और इसी सबब से बनिस्बत अगलों की बहुत बातों में हम ख़ुदा की ख़ास रहमत पाते हैं। अठारह सौ बरस से ज़्यादा इस मज़्हब को फैले हुए हो चुके और 26 करोड़ से ज़्यादा आदमी हैं जो मसीह के नाम को ख़ूब जानते हैं। पस ये बात इतने अर्सा-ए-दराज़ से और इतने बहुत से आदमी दुनिया के इस को मानते हैं माक़ूल (मुनासिब) गवाही इस बात की है कि उसने अपने ज़माने में मोअजज़ात दिखाए। जैसे एक यरीहू के अंधे ने आँख की रोशनी पाई थी यहां करोड़ों ने रुहानी रोशनी पाई। ये मसीह के हक़ में एक पुख़्ता गवाही है। फिर इन्सानी रूहों का जी उठना ये भी ऐसी ही गवाही है कि लाज़र के जी उठने से मुतलक़ कम नहीं है मोअजज़ात अब भी होते रहते हैं लेकिन जिस्मानी नहीं बल्कि रुहानी होते हैं। अब दिल का हाल किसी ज़ाहिरी निशान से नहीं बल्कि रूह-उल-क़ुद्स की तासीर से बदलता है और ये अम्र कि बदज़ात गुनेहगार लोग गुनाहों को छोड़कर पाक हो जाते हैं और नापाकी ईमान से बदल जाती है क़ुद्रत इलाही का अजीब सबूत है और बहुत बड़ा मोअजिज़ा है। ऐसे मोअजिज़े अब भी दुनिया में जा-ब-जा बराबर होते रहते हैं। मोअजज़ात इस अम्र की तस्दीक़ के लिए थे कि मसीह गुनाहों के बख़्शने की क़ुद्रत रखता है। अब वो तस्दीक़ हो गई और कुल उस का मज़्मून क़लमबंद हो कर याददाश्त के लिए हमारे पास छोड़ा गया। और सिवा इस के करोड़ों सच्चे आदमियों ने भी गवाही दी और देते हैं कि हाँ हमने मसीह के वसीले गुनाहों से नजात पाई पस अब कुछ ज़रूरत मोअजज़ात दिखाने की ना रही। जिन सबबों से ख़ुदा अब मोअजिज़ा नहीं दिखाता वही सबब सब आदमी करते हैं कि दुनियावी मुआमलात में भी पाए जाते हैं मसलन फ़र्ज़ करो किसी सरकारी इंजीनियर ने एक इमारत का अंदाज़ा या किसी कुल की क़ुव्वत दर्याफ़्त की और अपने महकमे की किसी किताब में इस का सब हाल क़लमबंद कर के छोड़ मरा तो अब जो कोई उस का जांनशीन होगा उस को पहले हाल के आज़माने या दर्याफ़्त करने की कुछ ज़रूरत ना होगी क्योंकि सब लिखा हुआ है।

यही हाल मोअजज़ात ईस्वी (मसीहियत) का है। मसीह की ज़ात व सिफ़ात व क़ुद्रत की बहुत से मुख़्तलिफ़ मोअजज़ात से एक दफ़ाअ बख़ूबी तमाम तस्दीक़ हो चुकी और वो सब हालात बहिफ़ाज़त तमाम लिखे हुए मौजूद हैं। फिर अज़ सर नव (नए सिरे से) इस की तस्दीक़ (जांच पड़ताल) के मुतवक़्क़े होना बड़ी हमाक़त (बेवक़ूफ़ी) है। अब मैं इस दर्स को तमाम किया चाहता हूँ उम्मीद है कि जिस क़द्र बातें मैंने लिखी हैं इस से बख़ूबी ज़ाहिर हुआ होगा कि मोअजज़ात दीन-ए-ईस्वी की सच्चाई की बहुत पुख़्ता दलील हैं।

1. ये बयान किया गया है कि मोअजिज़ा एक ऐसा फ़ेअल है कि ताक़त इन्सानी से बाहर है। सिवा ख़ुदा के या उस शख़्स के जिसको ख़ुदा ने क़ुद्रत बख़्शी हो और कोई नहीं मोअजिज़ा दिखा सकता।

2. ये साबित किया है कि मसीह ने हक़ीक़त में मोअजिज़े दिखाए जिससे ये नतीजा निकलता है कि वो ज़रूर ख़ुदा था क्योंकि उसने ये मोअजज़ात इसलिए दिखाए थे कि लोग जानें कि उस में क़ुद्रत गुनाहों के बख़्शने और रूहों को नजात देने की है। और चूँकि सिवा ख़ुदा के और कोई गुनाह माफ़ नहीं कर सकता तो नतीजा ये निकला कि मसीह ख़ुदा है। रसूलों को मोअजिज़ा करने की ताक़त ख़ुदा से इसलिए मिली थी कि लोग वाक़िफ़ हो जाएं कि ख़ुदा उनके साथ है और इसी सबब से मसीह के हक़ में उनकी गवाही और ताअलीमात ज़रूर सच्ची हैं। अगर वो झूटे और अय्यार (मक्कार) होते तो ख़ुदा ये इख़्तियार कभी ना देता।

3. ये लिखा है कि मोअजज़ात से मज़्हब ईस्वी की हक़ीक़त साबित होती है। इस को कई वजहों से साबित किया है।

1. ये वजह है कि जो पेशनगोईयाँ सदहा बरस पेश्तर से मसीह की पैदाइश और उस के कामों और मौत के वाक़ियात यानी जी उठने और आस्मान पर चढ़ने के बारे में हुई थी उनकी तक्मील इन्हीं मोअजज़ात पर मौक़ूफ़ थी इन पेश-ख़बरियों को यहूदी मानते थे। इसलिए अगर वो ना पूरी होती यानी मोअजज़ात ना ज़हूर में आते तो कोई ना मान सकता कि ये मसीह वही शख़्स है जिसकी बाबत ऐसी ऐसी पेशनगोईयाँ हुई थीं।

2. ये ज़िक्र किया है कि मसीह ने और उस के रसूलों ने मसीह की उलूहियत और रिसालत की तस्दीक़ के लिए उन्हीं मोअजज़ात को पेश किया। अगर मोअजिज़े ज़रूरी ना होते या लोगों के यक़ीन दिलाने को काफ़ी ना समझे जाते तो मसीह या उस के रसूल इस तरह क्यों पेश करते।

3. इस दफ़ाअ का ये मज़्मून है कि लोगों ने भी उस के काम देखकर यक़ीन कर लिया था कि वो ख़ुदा है। चुनान्चे एक यहूदी हाकिम निकोदीमस नाम का आलिम भी था जो कुछ कहा है यूहन्ना बाब 3 आयत 1 वग़ैरह में मज़्कूर है उसने देखा कि जो अचंभे (हैरत, ताज्जुब) के काम मसीह ने किए हैं कोई आदमी नहीं कर सकता और इसी सबब से उस को ख़ूब यक़ीन हो गया था कि मसीह ख़ुदा की तरफ़ से है यानी क़ुद्रत इलाहिया रखता है।

4. जो लोग मुंसिफ़ मिज़ाज (इन्साफ़ करने वाले) हैं ज़रूर जानें कि ख़ुदा के मज़्हब की तस्दीक़ इन मोअजज़ात से बख़ूबी अजीब तौर से होती है। मोअजिज़ा ख़ुदा के लायक़ फ़ेअल था मुनासिब ना था कि क़ादिर-ए-मुत्लक़ ख़ुदा फ़ल्सफियाना कलाम या बह्स करता।

इस के मुनासिब यही था कि मालिकाना तस्फ़ीया कर देता। सो इसी सबब से उसने अपने मज़्हब को दलाईल से नहीं बल्कि अपनी क़ुद्रत कुल्ली (सब चीज़ों पर क़ादिर) के अफ़आल से सच्चा ज़ाहिर किया। ख़ुदा का काम बरहक़ है उस का मानना इन्सान पर फ़र्ज़ है। ख़ुदा की शान के मुनासिब यही है कि हमको ऐसे अफ़आल दिखाए जिससे तस्दीक़ हो जाये कि तमाम मख़्लूक़ उस की मुतीअ व फर्माबरदार है ताकि हम भी उस की बंदगी पर कमर चुस्त बांधें सो ये मोअजज़ात ख़ुदा ने इसी लिए मुक़र्रर किए थे कि उस की इताअत पर हम सब क़ायम हो और शुक़ूक़ रफ़ा हो जाएं और किसी आदमी को किसी हाल में गुंजाइश एतराज़ की ना रहे। इस क़िस्म की शहादत कश्फ़ व इल्हाम (पैग़ाम-ए-ख़ुदावंदी) से पर्दा उठाने की सादगी और उमूमियत को ज़ाहिर करती है और दिल पर सही असर इस बात का पहुंचाती है कि वो ख़ुदा की तरफ़ से है। बिला-शुब्हा मोअजज़ात गोया कि मुहर है कि ख़ुदा ने ख़ुद मुक़र्रर की है ताकि लोगों पर ज़ाहिर हो कि ईसा मसीह नजातदिहंदा है। ख़ुदा करे कि हम सब मसीह के अजीब कामों पर सिदक़ दिल से (सच्चे दिल से) ग़ौर करें और जैसी उस की क़ुद्रत व मुहब्बत उस के सब कामों में दिखती हैं वैसा ही ख़ुदा करे कि हमारे ईमान-ए-कामिल हो। आमीन।

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दर्स-ए-दुवम

झूटे मोअजज़ात के बयान में

इसलिए कि मज़्मून इस दर्स का बख़ूबी और सही तौर पर समझ में आ जाए अव्वल सही मअनी ईस्वी मोअजज़ात बाइबल शरीफ़ के लिखा है इस में साबित किया है कि वो अजीब काम ऐसे थे कि ख़ुद ख़ुदा ने या उस के ख़ास लोगों ने उस के हुक्म व क़ुद्रत से दिखाए थे। पहले दर्स में ये भी ज़िक्र आ चुका है कि हर हक़ीक़ी मोअजिज़े के लिए ये भी ज़रूर है कि उस का सबब अव्वल सिर्फ़ मर्ज़ी व क़ुद्रत इलाही हो। ये दो उसूल मन्तज (नतीजा) और हावी और मूज़ेह कुल (वाज़ेह करने वाला) मुतालिब के हैं। मसलन दुनिया के पैदा करने का सबब अव़्वल सिर्फ यही था कि उस की मर्ज़ी व क़ुद्रत का तक़ाज़ा हुआ कि दुनिया ख़ुदा के क़वानीन मुक़र्ररा की रु से नहीं पैदा हुई थी क्योंकि उस वक़्त तक कोई चीज़ ना थी जिस पर किसी क़ायदे का असर होता। ना ख़ुदा के किसी नायब (ख़लीफ़ा) ने इसे पैदा किया क्योंकि उस वक़्त तक सिवा ख़ुदा के और कोई ना था। बजुज़ इस के कि ख़ुद ख़ुदा ही ख़ालिक़ दुनिया का और कोई सूरत मुम्किन नहीं। उसी ने अपनी क़ुद्रत मुतल्लक़ा (अज़ादाना) से तमाम जहान की तासीरात को नेस्त (अदम) से हस्त (ज़िंदगी) किया। और पहला बड़ा मोअजिज़ा कुतुब मुक़द्दस का है और मर्ज़ी व क़ुद्रत इलाही तमाम मोअजज़ात मुन्दरिजा बाइबल का ज़रूरी सबब है सिवाए ख़ुदा के और किसी उस के मातहत ने अपनी मर्ज़ी व क़ुद्रत से कोई मोअजिज़ा नहीं किया ना फ़ित्रत के क़वानीन मुकर्रा से हुआ। अगर बरअक्स इस के ज़हूर में आता तो वो हक़ीक़तन मोअजिज़ा नहीं कहता। पस इसलिए कि और मज़्हब के लोगों के अजीब कामों और मोअजज़ात कुतुब मुक़द्दसा में फ़र्क़ हो जाए। कुतुब मुक़द्दसा के मोअजज़ात को मोअजज़ात इलाहिया कहना इस मुक़ाम पर मुनासिब मालूम होता है क्योंकि वो मोअजज़ात ख़ुदा की मर्ज़ी क़ुद्रत के नताइज थे और इस लिए थे कि मालूम हो जाये कि जिसने उन्हें दिखाया वो ख़ुदा है और वो मोअजिज़ा जो नबियों और रसूलों ने किया सो वो ख़ुदा की तरफ़ से उस की शरीअत के मुशहतर करने या उस की मर्ज़ी ज़ाहिर करने को किया है जैसे कोई सफ़ीर (एलची, क़ासिद) किसी अदालत मुल्क ग़ैर में अपने ओहदे की तस्दीक़ के लिए अस्नाद पेश करे जिस से ज़ाहिर हो कि उस को इस सरकार की तरफ़ से मर्ज़ी ज़ाहिर करने का इख़्तियार है जिसकी तरफ़ से भेजा गया है। मसीहियों के नज़्दीक सच्चे मोअजिज़े और अजीब काम जिस क़द्र नविश्तों से मालूम होते हैं या जिस क़द्र सुनने में आए हैं उनके हक़ीक़ी मअनी यही हैं। ता वक़्त ये कि बख़ूबी साबित ना हो जाये कि खुदा की ख़ास क़ुद्रत वग़ैरह से हुआ। उसे मोअजिज़ा नहीं कहेंगे। चाहे वो कैसा ही बड़ा और अजीब काम क्यों ना हो मगर बमूजब ठीक मअनी के उसे मोअजिज़ा नहीं कहा जाएगा। मसलन सूरज का बिल्कुल गहन हो जाना अजीब है और नावाक़िफ़ लोग इस का सबब ना जानने से उसे मोअजिज़ा ख़याल करते हैं लेकिन हक़ीक़तन वो मोअजिज़ा नहीं है वो तो सिर्फ ज़मीन और आफ़्ताब के दर्मियान किसी सय्यारे के हाइल होने से होता है ख़ुदा की किसी मर्ज़ी ख़ास से ये हुक्म से नहीं होता। उमूर फ़ित्री गो आलिमों के नज़्दीक वो कैसे ही सहल और सीधे साधे हों मगर जहां उस को मोअजिज़ा समझते हैं मसलन जब कोलंबस के जहाज़ पहले-पहल अमरीका में पहुंचे तो वहां के असली वहशी बाशिंदों ने ये जाना कि ये कोई निहायत बड़े आस्मानी परिंदे हैं। ये वहशी बेचारे बेशक बड़े ख़ौफ़-ज़दा हुए और कुछ बईद (छुपा) नहीं जो उन्होंने समझा हो कि ये परिंदे जो आलमे रूहानी से आए हैं हमें ऐसे ही हलाक कर देंगे जैसे उक़ाब छोटे जानवरों को हलाक कर देता है। अवाइल ज़माने में (पहले के ज़माने में) जब लोग क़वानीन फ़ित्री से वाक़िफ़ ना थे तो हर नई बात या नए इल्मी क़ाईदों को मोअजिज़ा जान लिया करते थे कि……….. आदमी ये समझते हैं कि शहाब का गिरना और ख़ौफ़नाक तूफ़ान और आग के पहाड़ जिनको आतिश फ़िशां कहते हैं इस का फटना और जादूगरी वग़ैरह अज़ क़िस्म मोअजज़ात हैं। लेकिन इल्म की तरक़्क़ी ने इस लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) एतिक़ाद को दुनिया से दूर कर दिया है सिर्फ जाहिल कुफ़्फ़ार ऐसी बातों पर एतक़ाद (भरोसा) रखते हैं। ये सही है कि अनक़रीब (नज़्दीक) तमाम ग़ैर क़ौमों की पूजा की रस्में वही आदमियों के इस एतिक़ाद पर मबनी हैं कि शहाब साक़िब और सूरज गहन वग़ैरह बातेँ अज़ क़िस्म मोअजिज़ा हैं और आम बीमारियां और दुनियावी तकालीफ़ बदरूहों की वजह से होती हैं। बहुतेरे हिंदू जो तालीम याफ्ताह नहीं हैं ये समझते हैं कि ब्रहमन अपने देवताओं के मदद से कुसूफ़ व ख़ुसूफ़ (सूरज और चांद) का ग्रहन के औक़ात और चांद के तग़य्युरात (तब्दीली) बता देते हैं।

हिन्दू मोजज़ात

एक मर्तबा हिंदूओं के गंगा नहाने के बड़े मेले में मेरा इत्तिफ़ाक़ भी जाने का हुआ मैंने पीतल की चंद मूरतें वहां खरीदीं और बहुत सी भीड़ जो मेरे आस-पास खड़ी थी उस से मैंने पूछा कि क्या सबब है कि इस कस्रत से लोग बेवकूफ़ाना ऐसी बे-जान कर्दा के सामने सर झुकाते हैं। एक जवान आदमी ने जो उस वक़्त मौजूद था बड़ी जुर्आत और सर-गर्मी से ये जवाब दिया कि मूरतें हमारे देवता हैं और वो अजीब-अजीब काम करते हैं। मसलन हमारे पंडितों को ये देवते सारा हाल चांद और सूरज के गहन का और वो घड़ी तक जिस वक़्त चांद पूरा होता है बता देते हैं मगर आप पादरी साहिबान ऐसी बातें अपने ख़ुदा की तरफ़ से नहीं बता सकते। एक हिंदू जवान बरेली कॉलेज का तालीम- याफ़्ता इत्तिफ़ाक़ से आ गया था वो अपने हिंदू भाई की बातें सुनकर बहुत हँसा और उस से कहने लगा कि ठीक वक़्त चांद और सूरज के गहन का बताना तो एक तरफ़ रहा ये लोग सोने को पानी और पानी को सोना कर देते हैं और सैंकड़ों हज़ारों ऐसे-ऐसे अजीब काम जानते हैं कि पंडितों ने कभी ख्व़ाब में भी नहीं देखे होंगे बेचारा जाहिल हिंदू अपने भाई से हम लोगों की बहुत सी अजीब बातें सुनकर मूतअज्जुब (हैरान) हुआ और फिर कुछ ना बोला। इस एक मिसाल से ज़ाहिर है कि वहमी और जाहिल लोग फ़रेबी पंडितों के दाम में आकर दुनिया की आम व सादा बातों को भी मोअजज़ात समझने लगते हैं तमाम शागिर्द और बाज़ीगर वग़ैरह जो अपने हाथों की चालाकी से नए-नए स्वाँग (खेल, तमाशे) दिखाते हैं लोग कैसी आसानी से उनके धोके में आ जाते हैं चूँकि अवामुन्नास जाहिलों की समझ में बाज़ीगरों वग़ैरह की बातें नहीं आतीं वो उनको मोअजिज़ा या करामात समझने लगते हैं। सिवाए उन लोगों के जो बाइबल के मोअजज़ात को मानते हैं दुनिया के सब मज़्हब वालों ने दावे मोअजिज़ा दिखाने के किए हैं। मूसा और हारून ही के वक़्त में मिस्र में ये कैफ़ीयत थी कि जादूगर दावा करते थे कि हमको भी नबियों के बराबर जो ख़ुदा की मदद से मोअजिज़ा दिखाती हैं मोअजिज़ा करने की क़ुद्रत है। (ख़ुरूज 7 बाब 11, 22 बाब 7 ता 8) बाइबल की बहुत और जगहों में जादूगरों वग़ैरह का इस तरह ज़िक्र आया है कि दुनिया की तवारीख़ से मालूम होता है कि क़दीम ज़मानों में बातिल माबूदों के पूजने वालों ने दावे किए हैं कि हमको मोअजिज़ा दिखाने की क़ुद्रत है। बहुतेरी पुरानी क़ौमों की तारीख़ों में सैंकड़ों हज़ारों अजीब बातें ऐसी हैं जिनको उस वक़्त के लोग मोअजिज़ा जानते थे। मसलन फ़ीसा ग़ौरस की तारीख़ जिसको फ़ार फ़्री और अलीख़ौस ने लिखा है और लेवी की तारीख़ के वाक़ियात और ज़माना बहादुरी के झूटे किस्से और तमाम यूनानियों और रोमियों के अजीब-अजीब बनावट के किस्से और तमाम अफ़्रीक़ा और चीन और जापान और हिन्दुस्तान के लोग और तमाम दुनिया की बुत-परस्त कौमें जो आजकल पाई जाती हैं सब क़ुद्रत मोअजज़ात का दावा करती और एतक़ाद रखती हैं। बेशुमार अजीब काम जिनका ज़िक्र ऊपर आ चुका है और जिनकी निस्बत लोगों का दावा है कि देवताओं की मदद से और रूहों और भूतों के वसीले से हुए इनमें से चंद का ज़िक्र इस मुक़ाम पर बतरीक़ मुश्ते नमूना अज़ खरवारे (ढेर में से मुट्ठी भर) किया जाता है।

अव्वल : ज़हल और उस की बीवी आपस के बेटे मुशतरी (ख़रीदार, मोल लेने वाला) को पुराने बुत-परस्त बहुत बड़ा देवता जानते थे और ऐसा समझते थे कि वो जज़ीरा किरीट यानी कैनडा में पैदा हुआ था और वहां ही तर्तीब पाई। उस की निस्बत लिखा है कि उसने बड़ी लड़ाई लड़ के सरकश देवओं की एक फ़ौज को जिसने उस पर पहाड़ की चट्टानें फेंक मारी थीं और आस्मान की राह बंद करने को पहाड़ खड़े कर दीए थे शिकस्त-ए-फ़ाश दी। कहते हैं कि उस के दिमाग़ से एक लड़की मनरदा नाम पैदा हुई थी और वो लड़की मुशतरी के सर से पूरी उम्र के और हथियारबंद (हथियार लगाए हुए) पैदा हुई थी।

दुवम : ये मनरदा देवता थी और तमाम दुनिया उसे पूजा करती थी एक दफ़ाअ उस के बाप ने कहा कि बनी आदम के लिए जो सबसे उम्दा चीज़ पैदा करे वो इनाम पाएगा। इस पर मनरदा और नैपचोन में बह्स हुई कहते हैं कि नैपचोन ने अपना त्रिशूल एक तरह का डंडा जो चलाया तो घोड़ा पैदा हो गया और मनरदा ने अपनी क़ुद्रत से ज़ैतून पैदा कर दिया और मनरदा ने इनाम हासिल किया।

सोइम : मुशतरी (एक सितारे का नाम जो छटे आस्मान पर है और सअद-ए-अकबर समझा जाता है) के बेटे अतारिद की निस्बत लिखा है कि अपनी पैदाइश के दूसरे रोज़ ही उसने ओमेयस के गल्ले चुराए उसी ने देवता नैपचोन का त्रिशूल और वीनस के बेटे मिर्रीख़ की तल्वार और अपने बाप मुश्तरी का असा (लाठी) छीन लिया इसी सबब से उसे चोरों और तमाम बेईमानों का ख़ुदा कहते हैं जिन्हों ने उसे बड़ी-बड़ी नज़रें चढ़ाई थीं ताकि अपने बुरे कामों में उस से मदद हासिल करें। यूनानियों और रोमियों के मोअजज़ात का बयान करने के बाद अब चंद इसी क़िस्म के मोअजज़ात हिंदूओं की किताबों से यहां लिखे जाते हैं। कहते हैं कि इंद्र ने जिसकी निस्बत पुराणों में लिखा है कि बहिश्त का मालिक और तमाम माबूदों का बादशाह था सागर नामी से वो घोड़ा जिसे वो 99 दफ़ाअ क़ुर्बानी कर चुका था और चाहता था कि फिर उसी की क़ुर्बानी करे चुरा लिया। एक रोज़ अंदर गौतम के मकान के पास हो कर जो गुज़रा और देखा कि वो उस वक़्त घर में नहीं है तो उस का भेस बदल कर मकान के अंदर गया और उस की बीवी अबला को धोका देकर कि मैं गौतम हूँ ज़िना किया। इस क़सूर के एवज़ गौतम ने और सज़ाओं के इलावा बदनामी के एक हज़ार दाग़ अंदर के लगाए। लेकिन उसे ये अम्र नागवार गुज़रा इसलिए उसने उन एक हज़ार दाग़ों की एक हज़ार आँख अपने लिए बना ली।

रावण ने गदागर ब्राहमण का भेस बना कर सीता से दरख़्वास्त की कि मेरे साथ हो मगर जब उसने नामंज़ूर किया तो उस अपनी अस्ल सूरत पर हो के उसे लंका उड़ा ले गया।

तीसरे कहते हैं कि जब एक बड़े देवता अगस्त पर अलवाल ने इसलिए चढ़ाई की कि उसने उस के भाई व तापी को खा लिया था तो इस देवते ने ऐसा किया कि अलवाल की आँखों से आग के शोले निकलने लगे जिससे वो फ़ौरन जल कर मर गया। कहते हैं कि अगस्त तीन घूँट में सारा समुंद्र का पानी जो शीरीं (मीठा) था पी गया और फिर जो उसे उगला तो आब-ए-शोर (खारा पानी, समुंद्र का नम्कीन पानी) था। कहते हैं कि ये अजीब देवता बहिश्त के मालिक नाहोश पर बहुत गुस्सा हुआ क्योंकि इस ने उस की एक काकुल खोल डाली थी और एक आन में उस को साँप बना दिया।

चौथे, देवते असविन जो सुबह के वक़्त आसमानों को रोशनी पहुंचाते और बद-रूहों को दूर करते हैं उनकी पूजा हिंदूओं में बड़ी सरगर्मी से होती है कहते हैं कि वो जवान और क़दीम (पुरानी) और ख़ूबसूरत और शहद के से रंग और शोलों और रोशनी और नूर के मालिक ख़याल के रूबरू जवान बाज़ की तरह सुबक (हल्का, कम वज़न) रफ़्तार तरह ब तरह की सूरत वाले कंवल के फूलों के हार पहने हुए मज़्बूत क़ुव्वत वाले ख़ौफ़नाक अजीब कुव्वतों के मालिक और बड़े दक़ीक़ा (कोई बहुत छोटी चीज़, मामूली बात) रस अक़्लमंद हैं। ऋगवेद में लिखा है कि जब छपावन देवता बहुत बूढ़ा हो गया और उसकी मौत का वक़्त क़रीब आया तो उन दिनों उस के जिस्म को ताक़त दी और उम्र बढ़ा दी और दुबारा जवानी बख़्शी। इसी तरह काली को भी उन्होंने दुबारा जवानी दी। और विसपाल की टांग परिंदे के बाज़ू की तरह बिल्कुल टूट पड़ी तो उन्होंने लोहे की टांग मोअजिज़े से बना दी कहते हैं कि उन्होंने एक अंधी और लंगड़े पर अज्र बदमुआश को बसारत (नज़र) और चलने की क़ुद्रत दी थी। ये भी मशहूर है कि उन्होंने भेड़ीए के मुँह से एक परिंदे को जिसने उन्हें मदद के लिए पुकारा था छुड़ा लिया। कहते हैं कि जिसका रथ मैदान-ए-जंग में ले जाएं उसे कोई बला नहीं सताती या किसी तरह का नुक़्सान नहीं हो सकता।

पांचवें, सुधान के बेटों यानी बर्हियों ने अपनी कारीगरी से ख़ुदा के हाँ से मर्तबा और बक़ा पाई। लिखा है कि उन्होंने क़ुर्बानी के एक पियाले के चार पियाले बराबर मिक़दार व वज़न के बना दीए थे। इस काम से और नीज़ इस सबब से कि उन्होंने अंदर का रथ और घोड़े बनाए और अपने वालदैन को जवान कर दिया था वो देवता हो गए।

छटे, दया के अवतार हनूमान यानी बंदरों के बादशाह सुग्रीव के (चीफ़ जनरल ख़ास) की निस्बत इस तरह रिवायत है कि वो आपको इस क़द्र फैला सकता था कि पहाड़ के बराबर हो जाता था और इस क़द्र घटा सकता था कि आदमी के अँगूठी के बराबर रह जाता था। जब रावण राम की बीवी सीता को लंका चुरा ले गया और राम को ख़बर हुई तो उसने एक जस्त (दलील, बह्स) में कई सो कोस (कई मीलों) की मुसाफ़हत (दूरी) को कि हिन्दुस्तान के किनारे से जज़ीरे तक से तै कर के सीता के लिए रावण से लड़ाई शुरू की और जब लड़ाई के हंगामे में राम के ख़ास-ख़ास सरदार। उनके बेटे की साहिराना (जादूगरी की मानिंद) हथियारों से सख़्त ज़ख़्मी हुए तो हनुमान फ़ौरन हिमालया पहाड़ों पर दवा के चार पेड़ों के लिए जिन से मर्दों का जैसा और ज़ख़्मीयों का अच्छा होना यक़ीनी था पहुंचा। पेड़ों ने जब देखा कि हनूमान आता है तो फ़ौरन ग़ायब हो गए। इस पर हनूमान ऐसा गु़स्सा हुआ कि एक आन में उसने सारा पहाड़ फाड़ डाला और सब दरख़्त और जो जो चीज़ें उस पर थीं राम के लश्कर में ले गया और जितने मुर्दे और ज़ख़्मी थे उन पेड़ों की ख़ुशबू पाकर फ़ौरन भले चंगे गए।

एक और क़िस्सा इस की निस्बत इस तरह लिखी है कि जब लक्ष्मी शिद्दत से बीमार हुई तो उस की दवा के लिए महेव शादी के पेड़ जो गंदा मैदान पहाड़ होते थे ढ़ूढ़ने गया असनाए राह में काल नियम से बीवियों की तरफ़ से इस के क़त्ल को निकला था बड़ा मुक़ाबला हुआ और उसे और तीस हज़ार गंद हुई देवताओं को जो इस पर हमला-आवर हुए थे मार कर पहाड़ पर पहुंचा लेकिन जब वो दरख़्त ना पाया तो फ़ौरन सारे पहाड़ को मय पत्थरों और मादनियात और जंगलों और शेरों और हाथियों और भेड़ीयों के यानी जो कुछ पहाड़ पर था सबको शोषीना हकीम के रूबरू ला कर के हाज़िर किया। हकीम ने फ़ौरन दरख़्त को पहचान कर लक्ष्मी को इस से अच्छा कर दिया इस मुक़ाम पर और ज़्यादा ऐसे ऐसे मोअजज़ात के बया करने की ज़रूरत नहीं है। हज़ारों मोअजज़ात मुन्दरिजा कुतुब हनूद (हिंदू की जमा) में अनक़रीब सब ऐसे ही वहशयाना और लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) बातों से भरे हैं। जिस क़द्र यहां बयान हुए इनसे कुल बातिन मोअजज़ात हनूद को क़ियास (जांच लगाना, अंदाज़ा) कर लेना चाहिए। बाअज़ मोअजज़ात हिंदूओं की किताबों में से ऐसे भी इस जगह लिख सकता था कि चंदाँ में लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) ना होते मगर उनके मुक़ाबले में बाअज़ ऐसे भी हैं कि मज़्कूर मोअजिज़ों से भी ज़्यादा लगू हैं।

मुहम्मदी मोजज़ात

अब मैं इस मुक़ाम पर चंद ऐसे मोअजज़ात जिनकी निस्बत मुहम्मदियों का दावा है कि हमारे मज़्हब के बानी ने दिखाए थे बतरीक़ इख़्तिसार (कोताही, कमी) लिखता हूँ। बमुक़ाबला हिंदूओं के अजीब क़िस्सों के जो क़ब्ल-अज़ीं मज़्कूर हुए और अजीब कामों के जो उनकी किताबों में लिखी हैं मुसलमानों की किताबों में से वैसे बयानात बहुत थोड़े हैं। अगरचे मुसलमानों ने यहां की बाअज़ मोअजज़ात हिंदूओं ही की तरह नामाक़ूल हैं। मसलन हदीसों में मुहम्मद साहब की निस्बत लिखा है कि उनको ख़ुदा से इस क़द्र क़ुर्बत (नज़दिकी) हासिल थी कि दुनिया की सब चीज़ें पत्थर और दरख़्त और पहाड़ और वहशी जानवर उन्हें सज्दा किया करते थे। वही ये भी दावा करते हैं कि फ़रिश्ते बहिश्त से उस के लिए लज़ीज़ खाने और फल लाते थे और ख़ुदा की रहमत आप पर इस क़द्र थी कि अब्र (बादल, घटा) आप पर साया किए रहता था।

अगर पाँचवें इमाम इब्ने जाफ़र के मोअजज़ात लिखे जाएं तो बहुत बड़ी किताब हो जाये उनके ख़लीफों ने भी कुछ उनसे कम अचंभे (हैरत, ताज्जुब) नहीं किए कहते हैं कि नौवें इमाम एक रात में सीरिया से मक्का तक गए और लौट आए और जब लोगों ने जान कर क़ैद किया तो क़ैद-ख़ाने से बावजूद ये कि सिपाहियों का पहरा था ग़ायब हो गए। ये भी कहते हैं कि बारहवें यानी आख़िरी इमाम 11 बरस की उम्र से ग़ायब हैं और अब तक किसी पोशीदा (छिपी हुई) जगह में हैं जहां से ज़रूरत के वक़्त यानी जब कभी किसी चीज़ की एहतियाज (ज़रूरत, ख़्वाहिश) होती है तो अपने एलची मोमिनीन के पास भेज देते हैं। वक़्त मुक़र्ररा पर फिर उनका ज़हूर होगा ताकि अपने दीन को क़ायम और कफ़्फ़ारे को ग़ारत (तबाह) करें लेकिन चूँकि बहुत से मुसलमान हदीसों को मशुक़ूक़ (शक करना) जानते हैं इसलिए इनको छोड़ के उन मोअजज़ात का बयान करूंगा जिनकी निस्बत बाअज़ मुसन्निफ़ीन का दावा है कि ख़ुद क़िराँ (नज़दिकी) में पाई जाती हैं ऐसे मोअजिज़े सिर्फ़…… हैं।

पहला मोअजिज़ा : सूरह बक़रह में है। इस में दावा किया है अगर तुम सच्चे हो तो दिखाओ। ان کنتم فی ری مماتر لناعلے عبدنافا تو بسورۃ من مثلہً यानी अगर तुम शक में हो इस चीज़ से कि नाज़िल की हमने अपने बंदे पर तो एक सूरह ही इस की मानिंद बना लाओ। फिर सूरत बनी-इस्राईल में है ……… अरबी………. यानी अगर आदमी और जिन्न जमा हो कर एक दूसरे की मदद करें तो भी इस क़ुरआन की बराबर ना बना सके।

दूसरा मोअजिज़ा : सूरह शक़-उल-क़मर में है …………. यानी क़ियामत क़रीब है और चांद फट गया।

तीसरा मोअजिज़ा : सूरह बनी-इस्राईल में है ……………….. यानी पाक है वो ख़ुदा जो अपने बंदे को मक्का से बैतुल-मुक़द्दस यानी यरूशलम तक ले गया।

चौथा मोअजिज़ा : सूरह अह्ज़ाब में है ………………… यानी याद करो ख़ुदा की नेअमत जब कि आया तुम्हारे पास लश्कर भेज दिए हमने हवा और ऐसा लश्कर कि तुमने उस को नहीं देखा।

पांचवां मोअजिज़ा : सूरह अन्फ़ाल में है ……………… यानी तू ने नहीं फेंकी (यानी ख़ाक) जब फेंकी मगर ख़ुदा ने फेंकी (जिससे काफ़िर अंधे हो गए)

तमाम मज़ाहिब जिनमें लोग भूतों की पूजा करते हैं बाअज़ ऐसे भी हैं जो भूतों के वसीले से मोअजिज़ा दिखाने का दावा करते और उस को हक़ीक़ी मोअजिज़ा समझते हैं लेकिन इस में कोई इन्कार नहीं कर सकता कि बुत-परस्तों में जितनों ने मोअजिज़ा करने का बहाना किया है वो सब मज़्हबी जोश से दीवानों की मानिंद थे। वही मक्कार (फ़रेबी और धोका बाज़) थे।

उन्होंने जाहिलों और बेवक़ूफ़ों को झूठे मोअजिज़ों से धोखा दिया। 2 थिस्सलुकियों 2 बाब 9, आयत मत्ती 24 बाब 24 आयत, क्योंकि झूटे मसीह और झूटे नबी उठ खड़े होंगे और ऐसे बड़े निशान और अजीब काम दिखाएंगे कि अगर मुम्किन हो तो बर्गुज़ीदों को भी गुमराह लें।

झूटे मसीही मोअजज़ात

और बहुतेरे मसीही मोअजज़ात के साथ झूठी निशानियां ऐसी मिला दी हैं कि मसीह के हक़ीक़ी मोअजिज़ों की उनके सामने कुछ हक़ीक़त नहीं है। ये शरीर मक्कार वहम परस्त लोग ना सिर्फ बुत-परस्तों में गुज़रे हैं। बल्कि मसीहियों में ख़ासकर रोमन कैथोलिक में गुज़रे हैं। अय्यार (फ़रेबी) लोग कमज़ोर नादान मसीहियों को ऐसे-ऐसे अजीब काम दिखाते थे जो उनकी समझ में नहीं आते थे जिससे वो धोके में आकर उनको बड़ा बुज़ुर्ग और वाजिब-उल-इताअत जानने लगते थे।

1. क़दीम कलीसिया की तवारीख़ में लिखा है कि बुज़ुर्ग इस्टफ़न साहब जो बहुत मुद्दत क़ब्ल इस वाक़िये के यहूदियों के हाथ से संगसार हो चुका था उस की लाश ने बहुत लोगों के आरिज़ा दूर किए। पुरानी कलीसिया के बहुत बड़े क़ाबिल और परहेज़गार बुज़ुर्ग अगस्टिन साहब ने ये बयान किया है कि मेरे ज़िला हिपो में बुज़ुर्ग मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की जाये) की लाश ने क़रीब सत्तर मोअजज़ात कर के दिखाए और सूबा कलार में जहां उस का जिस्म मुबारक था उस के मोअजज़ात सत्तर से बहुत ज़्यादा थे।

2. मुसन्निफ़ मज़्कूर ने बहुत और मोअजिज़ों का बयान किया है जो प्रोटेस्टेंट शहीदों ने किए थे जिनकी लाशें अम्बर वसाने क़रीब मिलान के पाई थीं। मुसन्निफ़ मज़्कूर लिखते हैं कि उसने अपने रूमाल के मस करने से एक नाबीना को बीनाई दी साहब मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की जाये) ने एक फ़ेहरिस्त इन वाक़ियात की जिनको वो मोअजज़ात समझती हैं। लिखी है और कहते हैं कि मैंने इतनी किताबों से ये मोअजज़ात अख़ज़ किए हैं अगर उन सब का नाम लिखा जाये तो बहुत किताबें बन जाएं।

3. रोमन कलीसिया के बहुत से मोअजज़ात में से एक मोअजिज़ा कर्नल डी॰ रिटर साहब ने इस तरह लिखा है कि एक शख़्स की टांग बिल्कुल कट गई थी। मैंने उस को सार गोरसा की कलीसिया वाक़ेअ मुल्क स्पेन में देखा कि पाक तेल इस ठोंट पर लगाने से उस की टांग जैसी की तैसी हो गई।

4. इस की कलीसिया के मोअजज़ात में एक मोअजिज़ा ई॰ डी॰ पैरिस एक मालदार और सरगर्म फ़्रांसीसी जॉन्सनी की क़ब्र की निस्बत लिखा है कहते हैं कि ये मालदार आदमी तमाम अपनी आमदनी ग़रीबों को देता और आ के फटे कपड़े पहनता था। ज़मीन पर सोता छोटे अनाज की रूखी रोटी और उबली तरकारी खाता और पानी पीता और नफ़्स कुशी और लाग़री जिस्म के लिए तरह-तरह की तकलीफ़ें उठाता। जब मई 1727 ई॰ को उसने इंतिक़ाल किया उस के तरफ़दारों ने उसे पीर बनाया और कहा कि उस की क़ब्र पर बहुत से मोअजज़ात हुए। और सैंकड़ों हज़ारों बीमारों में से जो वहां गए कई ने शिफ़ा पाई। रोमन कैथोलिक की कलीसिया का ये दावा है कि आज तक मोअजज़ात होते हैं। वो कहते हैं कि बहुत जगहों में मोअजिज़ों के निशान अब तक हैं।

लिखा है कि बुज़ुर्ग जनवरीस का ख़ून बोतलों में शहर नेप्लस के एक गिरजाघर में रखा रहता है। जब कि ख़ास मौक़ों पर वो ख़ून बुज़ुर्ग मौसूफ़ के सर के क़रीब लाया जाता है तो पिघलने लगता है। इन लोगों की रिवायत से मालूम होता है कि बुज़ुर्ग जनवरीस जो मुक़ाम बनेवनिटू का बिशप था 305 ई॰ में मक़्तूल हुआ। और एक दीनदार औरत ने मक़त्ल से इस का ख़ून दो बोतलों में जमा कर के शहर नेप्लस के बिशप को दे दिया। इस मुक़ाम पर साल में तीन मैले होते हैं जिनमें बड़ा मेला 19 सितंबर को बुज़ुर्ग मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की जाये) की शहादत के रोज़ होता है। जब कोई मुसीबत या ख़तरा वहां के लोगों को पेश आता है मसलन ज़लज़ला वग़ैरह तो लोग जमा हो कर ख़ून की बोतलें और गिरजे की बड़ी क़ुर्बानगाह को ले जाते हैं और वहां नमाज़ पढ़ के ख़ून की बोतलें सर के पास ला के रखते हैं तो ख़ून पतला हो जाता है। फिर वो लोगों को दिखाया जाता है ताकि उनका एतिक़ाद व मज़्हब रोमन कैथोलिक और उस के पादरियों पर बड़हे कभी ऐसा भी होता है कि बहुत देर तक ख़ून नहीं पिघलता बल्कि बाज़ औक़ात बिल्कुल नहीं पिघलता है ख़ून का ना पिघलना लोग बुरी अलामत जानते हैं और जब कभी इस बातिल मोअजिज़े के होने में वक़्त मामूली से देर होती है तो तमाम जमाअत में हलचल पड़ जाती है। क्योंकि वो लोग ऐसा समझते हैं कि देर का होना शहर और शहरियों के लिए शुगून बद (कुछ ग़लत होने की अलामत) है। साल में कई मर्तबा ख़ून की बोतलें बाहर निकाली जाती हैं ख़ुसूसुन माह मई के पहले इतवार को या जब कभी कोई मुसीबत पेश आए।

अमल-ए-मिस्मेजरिम का ज़िक्र और इस की तारीफ़

बुत-परस्तों और मुहम्मदियों और रोमन कैथोलिकों के मोअजज़ात बातिला के बयान के बाद चंद और अफ़आल अजीबा का ज़िक्र मसलन मिस्मेरिजम और इस पर टिस्म यानी वो काम जिसको लोग बताते हैं कि मुर्दों की रूहों की मदद से होता है जो आजकल अमरीका और यूरोप वग़ैरह के लोग किया करते हैं इस मुक़ाम पर ख़ाली अज़ फ़ायदा ना होगा।

अव्वल : मिस्मेरिज़्म एक फ़र्ज़ी तासीर यानी एक अमल है जिससे एक शख़्स बज़रीया हरकात अजीबा दूसरे के जिस्म पर कुछ असर पहुँचाकर उस के ख़यालात और उस के अफ़आल पर क़ादिर हो जाता है। कहते हैं कि इस फ़र्ज़ी तासीर को क़ुव्वत मक़नातीसी से जो पत्थर और लोहे में होती है कुछ मुनासबत है इसी लिहाज़ से इस को अक्सर मक़नातीस हैवानी भी कहते हैं। मिस्मेरिज़्म की वजह तस्मीया (नाम रखने की वजह) ये है कि मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) इस का एंथनी मिस्मर नामे था। ये शख़्स मुल्क ऑस्ट्रिया में 1733 ई॰ में पैदा हुआ था और 1766 ई॰ में शहर दुनिया की दार-उल-तालीम में तबीबों में भर्ती हो गया। और 1773 ई॰ में जब मुआलिज क़ुव्वतें मक़नातीसी दर्याफ़्त करता था तो उस को ये मालूम हुआ कि क़ुव्वत मक़नातीसी की तरह एक क़ुव्वत हैवानी भी है जो जिस्म इन्सानी पर अजीब तासीर से अमल करती है। चुनान्चे 1775 ई॰ में उसने ये इख़्तिरा (नई बात निकालना, ईजाद करना) और इस के फ़ायदे की सारी कैफ़ीयत कि डाक्टरों के बहुत कार-आमद है मुश्तहिर (शौहरत दिया गया, मशहूर) की कहते हैं कि उसने शहर पैरिस में इसी अमल से सदहा बीमारियों को अच्छा किया और अब बड़ा दौलतमंद हो गया। मिस्मर साहब ये काम चंद औज़ार से किया करता था लेकिन जब से उसने इस काम को छोड़ा तब से लोग और तरीक़ (तरीका-ए-कार) अमल करने लगे। वो तरीक़ ये है कि आमिल अपने हाथ मअमूल के सर से नीचे तक उतार कर अपना असर पहुँचाता है या आमिल की निगाह से मअमूल अपनी निगाह लड़ाता है तो असर पहुंचता है। लेकिन मअमूल इस का यही है कि आमिल व मअमूल दोनों मुक़ाबिल बैठते हैं और आमिल अपने हाथों से मअमूल के दोनों हाथ पकड़ लेता है इस तरह कि अंगूठे बराबर रहते हैं इसी हाल में दस पाँच मिनट बराबर या जब तक कुछ असर पैदा हो ख़ामोश बैठते रहते हैं। फिर आमिल अपने हाथ खींच लेता है और हाथ खोल कर और उंगलियां फैला कर सर से पांव तक आहिस्ता-आहिस्ता अपने हाथों को उतारता है और जब नीचे से ऊपर तक हाथ ले जाता है तो उनको दूर रखता है ऊपर से नीचे को हाथ लाता है तो उंगलियों के सिरे मरीज़ के जिस्म से कोई एक इंच जुदा रहते हैं। इस तरह दस बारह मर्तबा चढ़ाओ उतार करने से मअमूल हाल ग़नूदगी (नीम, होश में होना) में आ जाता है। लेकिन याद रखना चाहिए कि आमिल अपना ख़याल असनाए अमल में हमा-तन मरीज़ की तरफ़ मुतवज्जोह रखता है और आहिस्ता-आहिस्ता अमल करता रहता है यहां तक कि मअमूल निशा की कैफ़ीयत या नींद सी तारी हो जाती है। मरीज़ को ज़रूर है कि असनाए अमल में ख़ामोश और बेहिस व हरकत (बिना हरकत किए) रहे और बा-तबेअ इस अमल को क़ुबूल करना चाहिए। इस तरीक़ से बाअज़ अश्ख़ास आमिल के क़ब्ज़े क़ुद्रत में पाँच लम्हे में और बाअज़ इस से भी कम अर्से में इस क़द्र आ जाते हैं कि वही तसव्वुर बाँधते और वही बातें कहते और वही फ़ेअल करते जो आमिल चाहता है। बाअज़ की तबीयत ऐसी भी होती है कि कई दिन तक घंटों उन पर अमल किया जाता है। तो मुतास्सिर होते हैं। मगर जिस पर एक दफ़ाअ अमल हो जाता है फिर दूसरी मर्तबा उस पर सहल (आसान) हो जाता है हर मर्तबा आमिल की क़ुव्वत आमिला और मअमूल की क़ुव्वत मामूली बढ़ती है। यहां तक कि जो मअमूल इब्तिदा में घंटों में ज़ेर हो पाते हैं वो आख़िर में चंद लम्हों में मुतास्सिर हो सकते हैं और वो भी आमिल के सिर्फ हाथ फैलाने या निगाह करने या सिर्फ इरादे ही से।

उनका दावा ये है कि आमिल के ज़ह में ये क़ुव्वत है कि मअमूल पर क़ादिर हो जाता है जैसे बड़ा टुकड़ा मक़नातीस को छोटे को अपनी तरफ़ खींचता है। बाज़ औक़ात इस तरह अमल किया जाता है कि मअमूल के हाथों में रुपया दे दिया जाता है जिस पर वो ग़ौर से कुछ देर तक नज़र डालता है तो नींद आ जाती है इस मक़नातीस हैवानी की तासीर से जो जो कैफियात तारी होती हैं ऐसे मुख़्तलिफ़ हैं। जैसे उनके अमल के तरीक़े जुदा-जुदा हैं।

हालत ख़्वाब-ए-बेदारी में मरीज़ कैफ़ीयत ज़हनी बता देता है

मिस्मेरिज़्म वालों का दावा है कि एक तरीक़ा अमल का जिसे ख्व़ाब बेदारी कहते हैं ऐसा है कि इस के ज़रीये से जब आमिल मअमूल के सर को जिसे बाअज़ अजज़ा-ए-ज़हनी का मर्कज़ क़रार देते हैं ज़रा छूए या सिर्फ उंगली से इशारा करे तो मरीज़ अपनी सारी ज़हनी कैफ़ीयत बता देता है और वो बातें करता है कि जिनका वक़ूअ उन अजज़ा से अजीब मालूम होता है। मसलन जब जेब को छूए तो मरीज़ बातें करने लगता है और एक जगह ऐसी है कि उस के छूने से ख़ंदा (हंसी) करना और एक जगह ऐसी है कि उस के छूने से बड़ा मेहरबान हो जाता है अला हाज़ा-उल-क़यास।

नींद में चलना फिरना वग़ैरह

दूसरी कैफ़ीयत इस की नींद में चलना फिरना वग़ैरह है।

कहते हैं कि मरीज़ को हालत-ए-ख्व़ाब में वो बातें मालूम होती हैं कि आदमी जागते में नहीं जान सकता और ऐसी नई और अजीब मालूम होती हैं कि यक़ीन भी नहीं आता। मसलन जिस पर ये अजीब हालत तारी होती है वो आँखें बंद किए भी देख सकता है बल्कि इस से भी बढ़कर ये कि चलने फिरने वाला आदमी खुली आँखों से इस क़द्र नहीं देख सकता जो इस को बैठे-बैठे बंद आँखों से दिखाई देता है। बंद चिठ्ठी का मज़्मून पढ़ लेता है। कपड़े के अंदर का हाल और दिहात और लकड़ी के संदूक़ के अंदर की चीज़ें बता देता है। ईंटों और पत्थरों की दीवारों के अंदर का हाल बंद मकानों के अंदर जो हो रहा हो सब देख सकता है। जब दूसरी कैफ़ीयत कामिल होती है तो सैंकड़ों मील का हाल और लोगों के दिल की बातें जानने लगता और वाक़ियात आइन्दा जिनकी कुछ ख़बर ना हो उनकी ख़बर देता है और नीज़ रूहों से ख़ुसूसुन अर्वाह मुर्दगाँ से बातचीत कर सकता है। ना सिर्फ अपने जिस्म के बाहर की चीज़ों को बल्कि उस के अंदर की चीज़ों को भी देखता है। सारा हाल अपनी जिस्मी और ज़हनी हालत का बता देता है बल्कि जो कुछ बीमारी उस के जिस्म में हो या होने को हो उसका सही ईलाज सब बता देता है। फेफड़ा, कलेजा, दिल और कुल अंदरूनी हरकात उस को ऐसी साफ़ मालूम होती हैं जैसे शीशे के अंदर की चीज़ और उन के जिस्म के अंदर का हाल भी दर हाल ये कि इस पर भी उस के साथ अमल किया गया हो बता देता है। जो अजाइबात मिस्मेरिज़्म वाले बयान करते हैं उनमें से चंद का यहां बयान है जिनको बड़े-बड़े आलिम आदमियों ने जो पहले इनके इम्कान भी कलाम करते बचश्म (अपनी आँखों से) ख़ुद देखा है।

अमल-ए-अर्वाह जिसके ज़रीये मुर्दों की रूहों से बातचीत होती है

2. दूसरा बड़ा और अजीब अमल मुरव्वजा ज़माना-ए-हाल जिसे अंग्रेज़ी में इस-पर्टस्म और उर्दू में अमल अर्वाह कहते हैं। हक़ीक़तन मिस्मेरिज़्म की दूसरी सूरत या शाख़ है जो लोग इस अमल पर यक़ीन कर इक़रार करते हैं उनका दावा ये है कि इस अमल के ज़रीये अर्वाह मुर्दगाँ से बख़ूबी बातचीत कर सकते और तरह-तरह की कश्फ़ व करामात और क़ुदरतें वगैरह इस से हासिल होती हैं। ज़माना-ए-हाल में ख़ुसूसुन अर्सा 1848 ई॰ से इस अमल ने जब सूरत पकड़ी है। हर चंद कि इस ज़माने तक इस अमल की कैफ़ीयत रूही ने अच्छी तरह सूरत सफ़ाई नहीं हासिल की थी जिसके बाइस इस की आम शौहरत हुई। मगर लोग दावा करते हैं कि इस की बहुत सी अजीब बातें लोगों को मुद्दत से मालूम थीं और वाक़ई में ये अमल कम अज़ कम सौ बरस के अर्से में इस नौबत मौजूदा को पहुंचा है। बाअज़ साहिबान का क़ौल है कि इब्तिदा इस इल्म की तालीम की स्वीडन बर्ग साहब से है कि जिसको सौ बरस से ज़्यादा हुए।

कहते हैं कि साहब मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की जाये) को आलम-ए-अर्वाह से कमाल मवाफ़क़क़त थी और हर रूहों और फ़रिश्तों से ऐसी बातें किया करते थे जैसे आदमी आदमी से करता है साहब-ए-मौसूफ़ अपनी एक किताब में लिखते हैं कि जिस आदमी की तबीयत का मर्तबा रुहानी, वसीअ और कुशादा (खुला) है वो अपने तमाम हवास-ए-जिस्मानी को साकित कर के ऊपर से अपने दिल की रूहानियत की तरफ़ तवज्जोह करने से अक़्ल मल्की के मर्तबे पर पहुंच सकता है मालूम होता है कि इस अमल की ईजाद क्लियर वीनस यानी हालत-ए-ख्व़ाब के तारी करने का अमल बहुत….. हुआ। और मशहूर मुसन्निफ़ जंग एस्टलिंग साहब ने पहले-पहल इस की ख़बर दी और इस को मुश्तहिर (शौहरत दिया गया, मशहूर) किया कि जिन लोगों पर हालत ख्व़ाब के तारी करने से अमल किया जाता है उन्होंने इस हालत में साफ़ ऐसा इक़रार किया जिससे मुझको इत्मीनान-ए-कामिल इस अम्र का हो गया कि वो मअमूल ग़ैर महसूस रूह से बातचीत करते हैं। यही क़ायदा डाक्टर कानर जर्मनी का था और ऐसा ही उन्होंने मशहूर किया।

साहब मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की जाये) कहते हैं कि मेरे मरीज़ों में से एक शख़्स आख़िर उम्र के सात बरस बसा औक़ात हालत-ए-मक़नातीस हैवानी में रहा और जब कभी इस हालत में होता तो उनके नाम बताता और उनकी सी बोली बोलता जिनको वो कहता कि वो अर्वाह मेरे ऊपर आई हैं। और जब वो बातचीत करता तो उस के साथ नई तरह की आवाज़ें भी ज़ोर से होतीं इस तरह की बहुत सूरतें यानी ये कि मअमूल हालत ख्वाब में ग़ी महसूस मख़्लूक़ से बातचीत करता है। ना सिर्फ मुल्क जर्मन या और अतराफ़ यूरोप में बल्कि अमरीका में भी वाक़ेअ हुईं। 1846 ई॰ में एक जवान आदमी मुसम्मा एंड्रयू जैक्स डेविस ने जब कि यका-य़क (अचानक) हालत मक़नातीसी इस पर तारी हो गई थी ये इक़रार किया कि मैं इस वक़्त रूहों से बातचीत करता हूँ और इसी हालत में उस ने एक बड़ी किताब फ़ित्रत और कश्फ़ व इल्हाम के बारे में लिखवाई। उसने ये दावा किया कि मैंने ये किताब रूहों की मदद से लिखवाई है या यूं कहना चाहिए कि इस का दावा ये था कि मुर्दों की रूहों ने मेरी वसातत (वसीला, ज़रीया) से ये किताब लिखी। वाक़िया मज़्कूर के बाद से फिर बहुत और लोगों ने अजीब व ग़रीब कैफ़ीयतों के अपने ऊपर गुज़रने का इक़रार किया। अमल के वक़्त मअमूल पर बेहोशी सी तारी होती है और इसी हालत में मअमूल कहता है कि मुझ पर फ़ुलां क़ौम के लोगों की रूहें हैं और वो लोग फ़ुलां ज़माने में ज़िंदा थे और वो रूहें मामूलों के जिस्मों पर क़ाबिज़ हो कर तरह-तरह की आवाज़ों से बोलती हैं।

रूह का खटखटाना

इब्तिदा इस वाक़्ये की जिसे रूह का खटखटाना कहते हैं। 1848 ई॰ में हुई कहते हैं कि सूबा न्यू यार्क वाक़ेअ अमरीका में चंद आदमी किसी घर में रहते थे। इत्तिफ़ाक़न एक रोज़ उनके घर के दरवाज़े पर कुछ अजीब आवाज़ में सुनने में आईं। हर चंद उन्होंने इस माजरे की दर्याफ़्त करने में बहुत कोशिशें कीं मगर कुछ पता नहीं चला। इसी घर में एक रात दो लड़कीयां सो रही थीं कि उनके बिस्तर पास वही आज़ावें सुनाई दीं। छोटी लड़की जिसका क़रीब दस बरस के सन (उम्र) था इन आवाज़ों के साथ चुटकियां बजाने लगी। जिस वक़्त और जितनी चुटकियां वो बजाती थी उस वक़्त उतनी ही आवाज़ें खट-खट होती थीं। तब एक और लड़की इस से बोली कि अच्छा मेरी तरह 1, 2, 3, 4, 5, 6, तक गिनती गिनो और गिनती पर ताली बजाते जाओ तो देखें ये आवाज़ें भी ऐसा ही करेगी। चुनान्चे उसी क़द्र देर के बाद और उतनी ही आवाज़ें भी सुनाई दीं। इस पर लड़कीयों की माँ उनसे बोली कि अच्छा दस की गिनती गिनो। जब उन्होंने दस की गिनती गिनी तो उतनी ही आवाज़ें साफ़-साफ़ हुईं। और जब 15 बोलीं तो उस के बाद आवाज़ें भी 15 हुईं। तब माँ ने इस आवाज़ से कहा कि अच्छा हमारी छोटी लड़की की उम्र तो बताओ यानी जितने बरस की लड़की है उतनी दफ़ाअ खटखटाओ तो हम जानेगे कि ठीक कहते हो या नहीं। उस आवाज़ ने सही उम्र बता दी। ये कैफ़ीयत देखकर वो औरत बहुत घबराई और कहने लगी कि अगर तुम अज़ क़िस्म आदमजा़द हो तो बताओ। इस के जवाब में कोई आवाज़ नहीं आई। औरत ने फिर पूछा कि अगर तुम कोई रूह हो तो दो दफ़ाअ साफ़-साफ़ खट-खट करो ताकि हम जान लें कि तुम रूह हो इस पर दो हरकतें हुईं। ये हाल देखते है कि घर के तमाम लोग बिस्तर से उठे और पेश्तर की तरह सारा घर ढूंढा लेकिन ऐसी कोई चीज़ ना पाई जिससे कुछ हाल इस भेद का दर्याफ़्त होता। बाद औरत ने चंद और सवाल किए और वैसे ही उनके जवाब बज़रीया हरकात के हुए तो इस औरत ने अपने पड़ोसीयों को बुलाया ताकि दर्याफ़्त करें कि इस वाक़िये का सबब क्या है। लेकिन उनसे भी कुछ ना हो सका और जब सबने कहा कि हम बिल्कुल हैरान हैं। मुद्दत तक इस गाँव का अजीब हाल रहा। लोग कस्रत से इस घर को देखने आते और आवाज़ें सुनते और सवाल करते लेकिन सिवाए इस दावे के जो आवाज़ का था यानी कि वो एक रूह है और कुछ नहीं मालूम होता था चंद मुद्दत बाद इस वाक़िये के इन घर वालों ने किसी और शहर में बूद व बाश (सुकूनत, क़ियाम) इख़्तियार की। मगर वहां भी वो वही वाक़ियात पेश आए और बतौर मज़्कूर बाला हरकात से बहिसाब हरूफ़-ए-तहज्जी ये ज़ाहिर हुआ कि कुल अर्वाह मज़्कूर इसी तौर से बातचीत करती हैं और क़िस्सा मुख़्तसर है कि जो कोई चाहे इन्हीं दो लड़कीयों के सामने आकर अपने मुर्दा दोस्तों की रूहों से इस तरह बातचीत कर ले कि साइल (सवाल करने वाला) को भी इत्मीनान हो जाये कि हाँ ये मेरे दोस्त ही की रूह है। चंद ही मुद्दत बाद इस तरीक़ के एक और तरीक़ा मेज़ के और वज़नी चीज़ों के हरकत करने का बिला मदद किसी ज़ाहिरी फ़ेअल के निकला। बड़ी-बड़ी मेज़ें और कुर्सियां बग़ैर आदमी के सहारे या किसी अमल जर्र-ए-सक़ील के हरकत करती थीं। और आजकल लोग कहते हैं कि अर्वाह मुर्दगान की मदद से बड़ी-बड़ी मेज़ें और कुर्सियां जिनमें आदमी बैठे हों। बड़े ऊंचे कमरों में नीचे ज़मीन से ऊपर छत तक लोगों के सामने उठ जाती हैं। और जिन लोगों की वसातत (ज़रीये) से अमल अर्वाह के ज़ाहिर होते हैं उनमें कुछ ख़ुसूसियत नहीं। हर दर्जा और हर हालत के आदमी मुज़क्कर या मुअन्नस, आला या कमतर, अमीर या ग़रीब, आलिम या जाहिल और नीज़ बाअज़ सूरतों में लड़की लड़कों के वसातत (वसीला, ज़रीया) से एसी हरकत का ज़हूर होता है।

आमिलों के दावे कि उंगली के सहारे से मेज़ का घूमना वग़ैरह

जिस क़िस्म के अजीब वाक़ियात का दावा आमिलों को है कि रूहों से वाक़ेअ होती हैं। उनमें से चंद का ज़ेल में ज़िक्र किया जाता है उंगली के ज़रा से सहारे से बड़ी मेज़ का हरकत करना और घूमना। वज़नी चीज़ों का हरकत करना बग़ैर हरकत देने किसी आदमी के या किसी जर्र-ए-सक़ील के। अँधेरी जगहों में बिजली से रोशनी का पैदा होना। लोगों से उनकी क़ुद्रत से ज़्यादा बाजे बजवा देना बल्कि अक्सर ऐसे लोगों से जो इल्म-ए-मौसीक़ी से मह्ज़ नावाक़िफ़ हों बिला इरादा लिखवा देना। बीमारों को अच्छा कर देना लोगों से रंग ब-रंग के नक़्शे और तस्वीरें जिनको उस शख़्स ने जिसकी विसात से अमल मज़्कूर किया जाये कभी देखा भी ना हो बनवा देना हज़ारों कोस दूर के आदमियों की सूरत या हालत देखना और बयान कर देना ऐसे शख़्स के ज़रीये से जिसने कभी देखा ना हो हज़ारों कोस दूर के जहाज़ को तबाही का हाल उसी वक़्त कह देना जबकि जहाज़ तबाह होता हो मह्ज़ अजनबी ज़बानों में जो कभी ना सीखी हों तक़रीर व तहरीर करना बल्कि आमिलों का दावा यहां तक है कि तरह-तरह की तहरीरें सैंकड़ों आदमियों के सामने बग़ैर महसूस हाथ और बिला मदद किसी आदमी के अपनी तरफ़ से रूहें बना सकती हैं और ये भी कहते हैं कि जैसे परिंद बाज़ुओं से हवा पर क़ायम रहते हैं ऐसे ही अर्वाह (रूहों) में क़ुद्रत है कि आदमियों को बग़ैर सहारे किसी महसूस चीज़ के क़ायम रखते हैं।

बहुतेरे होशियार मोअतबर शख्सों ने बयान किया कि हमने अपनी आँखों से लोगों को ज़मीन से कई फ़ीट ऊंचाई पर बग़ैर किसी क़िस्म के लगाओ या सहारे के कई मिनट तक ठहरे देखा और इस के साथ ये भी है कि मिस्ल मुर्दा बेजान के बेहिस्स व हरकत हो जाते हैं। बाअज़ लोग ये भी मशहूर करते हैं कि हमने मुर्दा दोस्तों की रूहों को देखा। उनके बयान से मालूम हुआ कि हक़ीक़तन उन्हीं दोस्तों की रूहें हैं और जिस क़िस्म की बातें ज़िंदगी में होती थीं इसी क़िस्म की बातें कीं गो कि वो बातें सिवाए मअमूल के और किसी के सुनने में नहीं आएं। ऐसी ऐसी सख़्त बीमारियां जिनके मुआलिजे (इलाज़) से बड़े-बड़े उत्बा (तबीब की जमा, डाक्टर) आजिज़ आ गए थे। मअमूल के बहालत अमल मरीज़ पर ज़रा हाथ रख देने से जाती रहीं। बहुत और अजीब काम हैं जिन के बारे में लोगों का दावा है कि अर्वाह मुर्दगान (मुर्दों की रूहों) की मदद से होते हैं। मगर मैं जानता हूँ कि पढ़ने वाला मेरे इस क़द्र बयान से बख़ूबी समझ लेगा कि इस क़िस्म के लोगों की क्या तालीम है और वो किस क़िस्म के एतिक़ाद का इक़रार करते हैं। मुल्क अमरीका में बहुतेरे इल्म वाले फ़ैलसूफ़ ऐसी बातों को मानते हैं। इंग्लिस्तान में बहुतेरे रईस और लार्ड और औसत दर्जे के लोग भी ऐसी बातों को मानते और कहते हैं कि हम अपने दोस्तों और रिश्तेदारों मुतवफ़्फ़ी (मरा हुआ) से बज़रीया इस अमल के बातचीत कर सकते हैं। फ्रांसिस में इस क़िस्म के लोग और भी ज़्यादा हैं। क़िस्सा-ए-मुख़्तसर ये है कि क़रीब-क़रीब यूरोप की हर क़ौम में इस अमल के मानने वाले पाए जाते हैं। क़रीब पचास लाख आदमियों के थोड़ा बहुत इस अमल को मानते हैं और क़रीब एक हज़ार के बड़ी छोटी किताबें इस फ़न में तस्नीफ़ हो चुकी हैं। और क़रीब एक सौ अख़्बार के छापे जाते हैं जिनको करोड़ों आदमी तमाम रुए-ज़मीन के पढ़ते हैं। दुनिया के बहुत से आलिमों की जमाअतों ने इस काम की तहक़ीक़ की और बहुत आज़माया मगर की दुनियावी फ़ेअल से इस का इलाक़ा (ताल्लुक़) उन्हें नहीं मालूम हुआ। हर चंद कि आमिल ये भी कहते हैं कि अक्सर बातें धोके से भी अमल के साथ होती हैं। मगर उन को ये भी दावा है कि बहुत सूरतें ऐसी भी हैं जिनमें किसी तरह फ़रेब नहीं चल सकता।

मुक़ाबला अचम्भों मज़्कूर बाला का मुतग़य्युरात से

बाद-अन-फिराग बयान इज्माली इन अजीब कामों यानी अचंभों के जिनको बहुतेरे मोअजज़ात कहते हैं कुतुब मुक़द्दसा के मोअजज़ात से उनका मुक़ाबला कर के दोनों में फ़र्क़ बताएँगे। कुफ़्फ़ार मसीहियों के मोअजज़ात पर ये एतराज़ करते हैं कि वो मज़्हब ईस्वी और बाइबल शरीफ़ की सदाक़त की शहादत (गवाही) नहीं हो सकते क्योंकि बातिल मज़्हब वालों की किताबों में भी मोअजज़ात पाए जाते हैं। और ये कि जो लोग मज़्हबी ईस्वी के क़ाइल ना थे उन्होंने भी बहुतेरे मोअजज़ात दिखाने का दावा किया है। क़ब्ल अज़ इन कि किसी ख़ास मोअजिज़ा बातिला मज़्कूर का बाइबल शरीफ़ के सच्चे मोअजज़ात से मुक़ाबला किया जाये हम उन आम बातों की तरफ़ मुतवज्जोह होते हैं जिनमें मोअजज़ात बातिला बाइबल शरीफ़ के मोअजज़ात से मुख़्तलिफ़ हैं यानी अव्वल कि कोई मोअजिज़ा मज़्कूर बाला नए मज़्हब के जारी करने के लिए नहीं अमल में आया कुफ़्फ़ार के कुल मोअजज़ात बातिल अदयान (झूटे दीन) मौजूदा की तक़वियत और इस्तिहकाम के लिए दिखाए गए थे और जिन लोगों के सामने उनके दिखाने का दावा किया जाता है वो पहले ही से उनको मानते थे। हमारे पहले दर्स में ये ज़िक्र आ चुका है कि मोअजज़ात ईस्वी इस ग़र्ज़ से दिखाए गए थे कि दुनिया में उनका इफ़शा ज़ाहिर हो और नए मज़्हब की तस्दीक़ करें यानी ये कि ख़ुदा की तरफ़ से है और ये अम्र ज़रूरतन मसाइल व क़वाइद में तमाम मिलल (मिल्लत की जमा, मज़ाहिब) मौजूदा के ख़िलाफ़ था। जैसा कि हम ऊपर बयान कर चुके हैं कि सिवाए मज़्हब ईस्वी (और शरीअत मूसवी के) कि वो ईसाई मज़्हब की इब्तिदाई सूरत है किसी मज़्हब का ये दावा नहीं कि वो मबनी हर मोअजज़ात है। ये सिर्फ़ ईस्वी मज़्हब है जिसकी अस्ल मोअजज़ात तारीख़ यानी मसीह की पैदाईश की मोअजज़ाना सरगुज़िश्त (माजरा, वारदात) और उस के मोअजज़ात और जी उठने का हाल है और इसी तरह ये मज़्हब दुश्मनों के दर्मियान जारी भी हुआ है। वसपाशीन का मोअजिज़ा जिसे बेदीन अक्सर पेश किया करते थे कुफ़्फ़ार के माबूद सुरानीस के कहने से इसलिए हुआ था कि लोग उस की पूजा किया करें और उन्हीं लोगों में हुआ जो इस माबूद को मानते थे। लावे के अचंभे (हैरत, ताज्जुब) और रोमियों के मोअजज़ात (अगर हुए दिन) तो उन्हें बातों की मज़बूती के लिए हुए थे जिनको पहले से लोग मानते थे। पस और मोअजिज़े हुए हों या ना हुए हों ऐसा किसी आदमी ने दावे नहीं किया कि कोई मोअजिज़ा सिवाए कुतुब-ए-मुक़द्दसा की मोअजज़ात के नया मज़्हब क़ायम करने को दिखाया गया और वो मज़्हब दुश्मनों के बीच में राइज हुआ। ख़ास बात इस दलील में यही है। दर-हक़ीक़त इन अचंभों में कोई सूरत मुमासिल मोअजज़ात-ए-हक़्क़ा (सच्चे मोअजज़ात) बमुक़ाबला ईस्वी नहीं नज़र आती। लोग अक्सर बहुतेरे लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) क़िस्सों और तुहमात को जैसे भूत पलीद और तम्सख़र (मज़ाक़ उड़ाना) की बातें वग़ैरह ऐसे कामों को जिनका ज़िक्र लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) हिकायतों में पाया जाता है सिर्फ इस वजह से मान लेते हैं कि उनकी तबीयत अजाइब पसंद होती है। वो अजब लापरवाई और ग़फ़लत से बिला तहक़ीक़ इस अम्र के कि इन बातों का कुछ वजूद है या नहीं बग़ैर सोचे समझे यक़ीन कर लेते हैं मगर ऐसे मुस्तक़िल नहीं होते कि कोई इन बातों की ख़ातिर किसी तरह की तक्लीफ़ पहुंचाए और वो सह लें क्योंकि कोई अम्र इन बातों के हक़ व बातिल होने पर मौक़ूफ़ नहीं होता सिर्फ़ अजाइब पसंदी तबीयत की इस की वजह होती है। ऐसा अक़ीदा मसीह और उस के रसूलों के मोअजज़ात से कुछ मुनासबत नहीं रखता है। इन मोअजज़ात से बहुत उम्दा बातें ख़ैर अंदेशा अक़्ल इंसानी पहुंच सकता है तै हो गईं मसीह की ताअलीमात ने इन्सान की तबीयतें ऐसे उमूर में दुरुस्त कर दीं जो उनकी नजात के लिए थे। ऐसी सूरत में आदमियों का बेपर्वाई करना मुम्किन ना था। मसीह की ताअलीमात और उस की मोअजज़ाना पैदाइश और जी उठने का हाल वग़ैरह यहूदियों के दिल पसंद बंदो बस्त और मर्ग़ूब हदीसों में ख़लल (रुकावट) अंदाज़ था। और नीज़ ग़ैर क़ौमों के मुख़ालिफ़ तबा (तबीयत, फ़ित्रत, मिज़ाज) इस वजह से थे कि उन की बुत-परस्ती और कस्रत माबूद पर दाग़ लगता था। जिन जिनने मसीह के मोअजज़ात को माना उनको बजुज़ इस के कोई चारा ना था कि अपनी पुरानी बातों को जो मुद्दत से उनके दिलों में जागज़ीन हो रही थीं और इस मज़्हब को जिस पर उनके बाप दादे मरते दम तक चले रहे यक-बख़्त छोड़ देते। ये क़ियास (जांच लगाना, अंदाज़ा) में नहीं आता कि कोई बग़ैर सोचे समझे और तहक़ीक़ के उस का इत्मीनान कामिल ना हो लिया हो या इस की सदाक़त का यक़ीन ना हो गया हो मह्ज़ सुन सुना कर ईमान ले आया हो। जिन्हों ने मसीह के मोअजज़ात को यक़ीन किया उनका मह्ज़ अक़ीदा ही ना था कि वो सच्चे मोअजिज़े हैं बल्कि वो जिनके यक़ीन करने का इक़रार करते थे उस पर अमल भी करते थे। बहुतेरों ने तो फ़ील-फ़ौर ना सिर्फ अपना चाल-चलन बदल कर नए क़ाएदे और ज़ाबता और रवैय्ये इख़्तियार किए बल्कि अपना वतन और माल व अस्बाब और अज़ीज़ व अका़रिब सबको छोड़कर नए दीन की तशहीर (तब्लीग) में उम्रें सर्फ़ (ख़र्च) कर दीं। बड़ी-बड़ी मुसीबतें झेलीं और जान देने में दरेग़ ना किया। भला अगर मसीह के मोअजज़ात मह्ज़ अफ़साना थे तो फिर उन लोगों ने क्योंकर अपने ऐश व आराम और जान व माल को फ़िदा कर दिया। देखिए काफ़िरों के मोअजज़ात बातिला से ये बातें कैसी मुख़्तलिफ़ हैं।

इल्म व तहज़ीब की तरक़्क़ी तोहमात को दूर करती है

दूसरे इल्म व तहज़ीब की तरक़्क़ी से अब ये सूरत है, कि बहुत बातें जो किसी ज़माने में हीत क़ुद्रत इंसानी से बाहर और अज़ क़िस्म मोअजज़ात वग़ैरह समझी जाती थीं क़रीब तमामी के मौक़ूफ़ हो गई हैं। बरअक्स इस के ईस्वी मोअजज़ात पर इल्म की तरक़्क़ी से अक़ीदा और पुख़्ता होता जाता है। बहुत बातें जो एक ज़माने में सही तारीख़ का माद्दा थीं। अब वो मह्ज़ अफ़साना और झूटे क़िस्से हो गए हैं। यूनानियों और रोमियों की तारीखें और वो कौमें जो किसी वक़्तों में मुहज़्ज़ब कहलाती थीं उनके हालात पढ़ने से अक़्ल पर ये अम्र बख़ूबी ज़ाहिर हो जाएगा। बहुतेरे अजीब काम जिनका ज़िक्र काफ़िरों की किताबों में है और जो एक ज़माने में ताकत-ए-बशरी (इन्सानी ताक़त) से बरतर मुतसव्वर (तसव्वुर या ख़याल में होना) थे।

बुत-परस्ती के ख़यालात मादूम होते जाते हैं

अब उनको जानते हैं कि क़वानीन मुक़र्ररा फ़ित्री के अमल से होती हैं। जैसा कि ऊपर बयान हो चुका है कि अलामत बद मसलन दुमदार सितारे और कुसूफ़ ख़ुसूफ़ (सूरज और चांद गरहन) और शहाब और बहुतेरे आरिज़ा एक ज़माने में हीता ताक़त बशरी से बाहर और देवतों या भूतों की क़ुद्रत ख़ास से उनका वक़ूअ समझा जाता था लेकिन अब वो सब क़वाइद इल्म फ़ित्री में दाख़िल हैं और बजाए इस के कि लोग उनसे ख़ौफ़ करें और दग़ाबाज़ फ़ैलसूफ़, काफ़िर, गिर्द-ए-जाहिलों पर ग़लबा पाएं या यूं कहीए कि जिनसे अदयान बातिला (झूटे दीन) की गलतीयां और फ़रेब गुरूओं और पंडितों की अय्यारियों (धोका बाज़) से दुनिया में क़ायम थे अब वो दाखिल-ए-तालीम मदारिस हैं। ऐसे ख़यालात अब सिर्फ चंद काफिर और निस्फ़ तहज़ीब याफ्ता मुल्कों के ग़ैर-मुहज़्ज़ब और निरे जाहिल लोगों में रह गए हैं। अब दुनिया के रोशन ज़मीर मुल्कों का ये अक़ीदा नहीं कि अनाज की फसलों का मालिक सिरीज़ देवता है और नैपचोन समुंद्र पर हुक्मरान है और हवा का मालिक है और वरीद और फ़ौरनस बाग़ों की निगहबानी करते हैं और दवाओं में सेहत की तासीर इस्कलापीस देवता की तरफ़ से है। सीरियस और नैपचोन और बेकस और इस्कलापीस के मंदिर जो किसी ज़माने में पूजारियों से घिरे रहते थे आज वीराँ पड़े हैं और जो औक़ात बातिल माबूदों की परस्तिश वग़ैरह में सर्फ होते थे। अब निहायत इस्तिहकाम से तहसील इल्म में आलिमों की ख़िदमत में सर्फ होते हैं जिन्हों ने ऐसे क़ाएदे दर्याफ़्त किए हैं जिनसे हालात मज़्कूर मालूम होते हैं। जैसी इल्म की तरक़्क़ी दुनिया में होती जाती है वैसे ही लोगों के ख़यालत व अहमा बदलते जाते हैं और दुनिया तोहमात के फंदों से छूट कर सच्चे मज़्हब की तरफ़ मुतवज्जोह होती जाती है यानी कम से कम तोहमात और बुत-परस्ती मौक़ूफ़ होती जाती है। यूनानियों के झूटे क़िस्सों को कोई नहीं पूछता। रोमियों का पंनथें मंदिर फिर नहीं बनेगा। अब माबूदान बातिल (झूटे खुदाओं) की पूजा इस मंदिर में फिर ना होगी। आसार क़वी से साफ़ ज़ाहिर होता है कि जैसे इल्म व तहज़ीब की तरक़्क़ी ने जहान से जादूगी और ज़ुल्म और शोबदे-बाज़ी और सिफ़लिआत वग़ैरह और कुसूफ़ व ख़ुसूफ़ (सूरज और चाँद गरहन) और तूफ़ान और ज़लज़ले की निस्बत ख़यालात व ओहमा को दूर कर दिया है। ऐसे ही यक़ीनन मिस्मेरिज़्म और अमल अर्वाह और मेज़ के तिलस्मात और शोबदे-बाज़ी (जादू से मुताल्लिक़ हुनर या खेल) वग़ैरह की नई सूरतें थी दूर कर देगा अमल मिस्मेरिज़्म तो अभी से मतरूक (तर्क किया गया, छोड़ा गया) है। और इस्परटिज़्म (अमल अर्वाह) ने इस की जगह रिवाज पाया है। लेकिन जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं कैफ़यात अमल अर्वाह क़वानीन ज़हनी व जिस्मी के नताइज हैं। शायद कोई कहे कि इल्म तहज़ीब से अक़ीदा वक़ूअ मोअजज़ात बल्कि बहुतेरे तम्सख़र अंगेज़ (मज़ाक़ उड़ाना, तंज़ करना) अफ़आल जिनके मोअजिज़ा होने का दावा किया जाता है उनका अक़ीदा भी नहीं दूर हो सकता। हम तस्लीम करते हैं कि इस ज़माने में भी हालाँकि निहायत तहज़ीब व रोशनी का ज़माना समझा जाता है अमल अर्वाह की कस्रत है और ये अक़ीदा फ़क़त उन्हीं लोगों में महदूद नहीं है जिनको दावा तहज़हब नहीं या जो अवामुन्नास कहलाते हैं। बल्कि उलमा और फुज़ला और हुक्काम और तबीब और मुक़न्निन और फ़ैलसूफ़ बहुतेरे इस के मानने वाले पाए जाते हैं बल्कि ये अक़ीदा दुनिया के निहायत रोशन मुल्क के एक निहायत मुहज़्ज़ब शहर से निकला है। हक़ीक़तन-उल-अम्र ये है कि अव्वल तो इल्म व तहज़ीब अजाइबात के जुबली (फ़ित्रती) शौक़ को जो तमाम आलिमों और जाहिलों के दिलों में पाया जाता है दूर नहीं कर सकते।

लोग इस लगू अमल को क्यों मानते हैं

दूसरे इसी जिबल्ली (फ़ित्रती) शौक़ की जिहत (सिम्त, जानिब) से आलिम व मुहज़्ज़ब आदमियों ने उज्लत (जल्दबाजी) से इन अफ़आल (कामों) को मोअजिज़ा समझ लिया क्योंकि अस्बाब इल्म को वो दफअतन (फ़ौरन) तो दर्याफ़्त ही नहीं कर सकते थे और इन अफ़आल को फ़ौरन मोअजिज़ा तसव्वुर ही कर चुके थे तो अब उन्होंने इस की ग़ैर-मुताअस्सुबाना तहक़ीक़ भी छोड़ दी।

तीसरे इस में शक नहीं कि मिस्मेरिज़्म के बहुतेरे करतब धोके बाज़ी से भी होते हैं। इल्म व तहज़ीब से बदज़ात शरीर आदमियों के दिल नहीं बदलते बल्कि कभी ऐसा होता है कि फ़रेबी इल्म सीख कर और पुख़्तगी से लोगों को फ़रेब देते हैं। दग़ाबाज़ व फ़रेबी ज़माना तहज़ीब और रोशनी में भी मादूम ना होंगे। लेकिन इस से भी इन्कार नहीं हो सकता कि तहज़ीब की तरक़्क़ी ने इन लग़वयात (बेहूदा, नामाक़ूल) का अर्सा बहुत तंग कर दिया है और ये कि इल्म व तहज़ीब ने जहां कहीं तरक़्क़ी पाई इन लग़वयात (बेहूदा, नामाक़ूल) को ख़ुसूसुन तक्लीफ़ देने और ज़लील करने वाले तुहमात और हरकात इन्सानी को हक़ीक़तन निकाल फेंका है। ये लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) अजीब बातें कुछ तो इस वजह से दूर हुईं कि इल्म व तहज़ीब से इनके सबब असली मालूम हो गए और कुछ इस अम्र के दर्याफ़्त होने से कि इनमें धोके बाज़ी और चालाकी होती है। लेकिन चूँकि बयान मज़ुकूर-उल-सदर दरबाब दुनिया के रोशन ज़मीर मुल्कों के तग़य्युर अक़ाइद (एक अक़ीदा होने का ख़याल) की निस्बत अफ़आल अजीबा के सही है और वो वजूद जिनसे तग़य्युर वाक़ेअ हुआ है वही हैं (जो ऊपर मज़्कूर हुए) तो अब ये सवाल लाज़िम आया कि मोअजज़ात मुन्दरिजा बाइबल इन्ही सबबों (वजह) से हो सकते हैं और क्या वो मोअजज़ात इसी तरीक़ मज़्कूर से क़दीम ज़माने की दग़ा-बाज़ी व फरेब में नहीं दाख़िल हो सकते हैं। ये ज़ाहिर है कि अगर मोअजिज़ात-ए-बाइबल बतरीक़ (तरीके-कार) मज़्कूर (ज़िक्र किया गया) मालूम हो सकते हैं और कोई पुख़्ता तारीख़ी शहादत (गवाही) इनके लिए इस से ज़्यादा नहीं है जो उन उमूर के लिए थी जिनका मज़्कूर हुआ तो वो भी इन्सान की नज़र में वैसे ही रह जाएगी और यह अक़ीदा कि वो मोअजज़ात हैं क़तअन लोगों के दिलों से उठ जाएगा। बिल-फ़अल यही अम्र क़ाबिल-ए-लिहाज़ है कि इनके अस्बाब असली बतरीक़ मज़्कूर मालूम हो सकते हैं या नहीं अगर नहीं मालूम हो सकते तो वो शहादत जो उमूमन इन मोअजज़ात के लिए मोअतबर समझी गई है यानी जिसके भरोसे पर हम इन मोअजज़ात को मानते हैं ऐसे तग़य्युरात से जो और उमूर में वाक़ेअ हुए हैं ग़ैर-मुतास्सिर रहेगी। और मुसद्दिक़ (तस्दीक़ शूदा) वाक़ियात तारीख़ी ज़माना गुज़श्ता के लिए भी कमाल पुख़्ता व काफ़ी शहादत मुतसव्वर होगी।

अव्वलन : हम ये कहते हैं कि मसीह के मोअजज़ात क़वानीन फ़ित्री के अमल से नहीं हो सकते यानी वो मोअजज़ात क़वानीन फ़ित्री के पाबंद नहीं हैं। मेरा मतलब इस से ये है कि अगर वक़ूअ मोअजज़ात मज़्कूर का तस्लीम कर लिया जाये तो फ़ित्रत की ऐसी कोई क़ुद्रत या उस का ऐसा अमल आदमी नहीं जानता जिससे वो इन मोअजज़ात को मालूम करे यानी उनको उलूम तबई या अक़्ली व जिस्मी में से किसी में दाख़िल नहीं कर सकते। अगर लाज़रस क़ब्र से उठाया गया और मसीह मुर्दों में से जी उठा। अगर अंधों ने एक बात कहने या ज़रा मस करने से बीनाई पाई तो कोई फ़ाइदे इल्म-ए-कीमिया या हिक्मत या क़ुव्वत-ए-बरक़ी या मक़नातीसी के ऐसे नहीं पाए जाते जिनसे ये बातें मालूम हो सकें। कोई क़ुव्वत इन उलूम में नहीं जो ऐसे नताइज अब पैदा कर सकें कोई ऐसे उसूल इन उलूम से ना निकले जिनसे वो बातें मालूम हों। इस मुक़ाम पर एक मशहूर आलिम डाक्टर बारिनस साहब की तक़रीर लिखी जाती है। साहब मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की जाये) कहते हैं कि इल्म इस हद को नहीं पहुंचा है कि इस के किसी उसूल मालूमा से अह्दे-जदीद के मोअजज़ात की तश्रीह हो सके जैसा कि मोअजज़ात बातिला का हाल इनसे मालूम हो अलबत्ता जहां तक इल्म की पहुंच हुई उस से यही मालूम हुआ कि बाइबल के मोअजज़ात किसी उसूल मालूमा से नहीं मालूम हो सकते ना ग़ालिब है कि कभी कोई इल्म सक़ल या कशिश या बर्क़ (बादल, आस्मानी, बिजली) का या मुआलिज खासियतें नबातात या मादनियात की उसे मालूम कर सकें। कीमिया अगर अंधे की आँख मस करने से नहीं खोल सकता या बीमार को एक बात से अच्छा नहीं कर सकता। मुर्दा को धौकनी से या बर्क़ (बिजली) से नहीं जिला सकता। बक़ौल एक और आलिम एनील साहब के इल्म की तरक़्क़ी हमारे अक़ाइद को मोअजिज़ात-ए-ईस्वी की निस्बत और तक़वियत (आगे बढ़ना, तरक़्क़ी करना) देती है ना कि ज़ईफ़ करती है। हमारा तजुर्बा अस्बाब-ए-इल्मी की निस्बत चाहे जैसा महदूद और और तादाद अस्बाब नामालूमा की जैसी बड़ी हो वैसा हमार यक़ीन भी होगा यानी ये कि किसी ऐसे सबब से जो हमें मालूम नहीँ किसी नामालूम तौर से अजाइबात मज़्कूर को पैदा कर दिया है लेकिन जब किसी नव मालूम सबबों से ज़ाहिर हो जाता है कि वो इन फ़र्ज़ी नताइज को नहीं पैदा कर सकते या नामालूम सबब जिनकी निस्बत इन नताइज के पैदा करने का एहतिमाल हो कम हो जाते हैं तो वैसा ही हमारा यक़ीन भी घटता जाता है।

जब तहक़ीक़ बेरोक तरक़्क़ी ज़माना-ए-हाल के आदमियों को इस लायक़ कर दे कि अंधे मस (छूने) करने से बीना हो जाएं। तूफ़ान आंधीयां एक बात से थम जाएं मुर्दे जी उठें आपको मार कर फिर जिलाएं जैसा कि मसीह ने किया था तो उस वक़्त हम मानेंगे कि वही सबब दस हज़ार बरस पहले उस से भी किसी बड़े आदमी के वसीले से मोअस्सर हुए होंगे।

लेकिन जब तक ऐसा ना हो उस वक़्त तक और अजाइबात का हाल मालूम हो जाता है ऐन दलील इस अम्र की है कि मसीह और उस के रसूलों के मोअजज़ात ख़ुदा के दस्त-ए-क़ुद्रत से थे और ये कि ना किसी इल्म या क़ुद्रत की रसाई उस तक हुई और ना हो सके लेकिन जिस क़द्र इल्म बनिस्बत अगले ज़माने के तरक़्क़ी पकड़ता जाता है उसी क़द्र ये यक़ीन घटता जाता है कि किसी आदमी ने गुज़श्ता ज़माने में वसाइल-ए-फ़ित्री से वो काम किए थे जो आज बावजूद इस क़द्र तरक़्क़ी इल्म के किसी की समझ में भी नहीं आते। लेकिन बाइबल के मुसन्निफ़ों को इन उलूम में जो ज़माना-ए-हाल में तरक़्क़ी पर हैं कुछ दावा ना था वो ऐसे मुल्क के रहने वाले ना थे जो इल्म में मुम्ताज़ हो। कोई इल्मी तालीम उन्होंने नहीं पाई थी। जो सामान इल्म के आजकल हैं वो उन्हें मयस्सर ना थे। कुल हालात से यही पाया जाता है कि वो सीधे-साधे बेपढ़े लोग थे। किसी बात से जो उन्होंने कभी कही या लिखी या की ऐसा ज़ाहिर नहीं होता कि उन्हें उलूम इब्तिदाई के मसाइल भी मालूम हों।

उसूल इल्मी से बाइबल के मोअजज़ात नहीं मालूम हो सकते

दूसरे इल्म के उसूल से बाइबल के मोअजज़ात का हाल नहीं मालूम हो सकता ना इनकी रसाई (पहुंच) वहां तक होती है। ये बात ख़ासकर मुर्दे के जी उठने के बाब में है और ख़ास बात यही है। एक मशाल दुबारा जलाने की कुल बह्स को तै कर देती है यानी अगर मुर्दा फिर ज़िंदा किया गया तो मज़्हब ईस्वी ख़ुदा की तरफ़ से है।

जब तक कि ऐसा ना हो उस वक़्त तक यही मुतसव्वर होगा कि ये अम्र तै हो गया कि अह्दे-जदीद के मोअजज़ात को उसूल इल्मी नहीं खोल सकते और जो कोई नादानी से ऐसे अम्र के इम्कान के दावे करे तो हम उस से एक मर्तबा इतना ज़रूर ही कहेंगे कि वही काम किसी आलिम को करते हुए हमें दिखाए क्योंकि यक़ीनन ऐसा कोई दावा नहीं कर सकता कि इस ज़माने के आलिमों से वाक़फ़ियत इल्मी में रसूल कुछ बढ़े हुए थे। क़ब्ल इस से कि मोअजज़ात कुतुब मुक़द्दसा की हक़ीक़त का तस्फ़ीया हो जाये जैसे जादूगरी और तिलस्मात और मिस्मेरिज़्म और स्प्रिटिज़्म का हाल उसूल इल्मी से मालूम हो गया हमारा हक़ है कि ये सवाल करें कि आया भी किसी अमल से जब कि वक़ूअ मौत का हक़ीक़तन हो मुर्दा जिलाया गया जैसा कि लाज़र और येसू मसीह के बाब में हुआ और इसलिए कि पूरी मुनासबत भी हो जाये ये भी ज़रूर है कि आलिम की किसी बात हुक्म ही से मुर्दा क़ब्र से जी उठे। चूँकि ये अम्र यक़ीनी है इसलिए सब तस्लीम करते हैं कि इन्सान से कभी ऐसा नहीं हुआ और ये भी यक़ीन है कि ज़माना-ए-हाल या इस्तिक़बाल के उलमा इस अम्र के तरफ़ कोशिश तक भी ना करेगे इसलिए समझना चाहिए कि ये अम्र तै हो गया कि मोअजज़ात अहद-ए-जदीद के किसी उसूल इल्मी से नहीं मालूम हो सकते ना सिल्क-ए-क़वानीन फ़ित्री से मुंसलिक हो सकते हैं। अगर कुतुब मुक़द्दसा में कोई ऐसे मोअजज़ात हों कि उनको तिलस्म और मिस्मेरिज़्म और स्प्रिटिज़्म के मुशाबेह (बराबर) तसव्वुर करें और इसी वजह से दाख़िल क़वानीन फ़ित्री किए जाएं। ताहम वो ऐसे मोअजिज़ों से वाबस्ता और मुवाफ़िक़ हैं जिन पर इन मुस्तसनियात में से कोई भी हावी नहीं है। और इसी सबब से कोई इल्मी या फ़ित्री सबब इनकी निस्बत नहीं मुक़र्रर हो सकता। पस ये मुवाफ़िक़त इनके एतबार को तमाम मुंसिफ़ (इन्साफ़ करने वाले) मिज़ाजों के दिलों में क़ायम रखेगी।

झूटे मोअजिज़ों का मंशा और उनकी अस्लियत मसीही मोअजज़ात से बहुत कमतर है

तीसरे बुत-परस्तों के तरह-तरह के मोअजज़ात और हाल के अचंभे (हैरत, ताज्जुब) कुतुब मुक़द्दसा के मोअजज़ात से बाएतिबार अस्लियत और ग़र्ज़ के भी बहुत ही कमतर हैं। बहुतेरे अचंभे (हैरत, ताज्जुब) मुन्दरिजा कुतुब मज़ाहिब ग़ैर जिनकी निस्बत मोअजिज़े होने का दावे किया जाता है इस क़िस्म के हैं कि उनकी निस्बत ऐसा अक़ीदा रखना भी मुश्किल है कि वो कभी वक़ूअ में आए थे और बहुतेरे ऐसी अजीब क़िस्म के हैं कि अगर हम मान भी लें कि उनका वक़ूअ हुआ था ताहम उन्हें मोअजज़ात क़रार देना ग़ैर मुम्किन मालूम होता है। इन मोअजज़ात की निस्बत वो क़ियास (जांच लगाना, अंदाज़ा) नहीं हो सकता जो पानी के शराब हो जाये और चंद रोटियों से पाँच हज़ार आदमियों के खा लेने या मसीह के जी उठने की निस्बत है। जितने मोअजज़ात इस क़िस्म के हैं सब कुतुब-ए-मुक़द्दसा के मोअजिज़ों से बहुत कमतर हैं और उनकी अस्लियत से हमको बमजबूरी ये कहना पड़ता है कि लोगों ने यूँही अज़-राह तोहम या जोश ख़याल के उन्हें मोअजिज़े ठहरा लिया है। वो ऐसी बनावट के और तम्सख़र अंगेज़ (तंज़, मज़ाक़ उड़ाना) हैं कि हर ग़ैर मुतअस्सिब इनके मोअजिज़े होने में ज़रूर शक करेगा इनसे हमारे दीनी ख़यालात में जो ख़ुदा की शान ख़ालक़ीयत की निस्बत हैं फ़र्क़ आता है।

मोअजिज़े ख़ुदा की तरफ़ से आला मक़ासिद दीनी के लिए होते हैं इसलिए ज़रूर है कि इनसे मुनासिब अलामात अज़मत और माक़ूलियत के ज़ाहिर हों जो कुछ ख़ुदा आदमी से ख़िताब करे ज़रूर है कि उस की शान अज़ीम और ज़ात सुबहानी के मुवाफ़िक़ हो और इसी सबब से ग़र्ज़ मोअजज़ात की आला और उम्दा होगी। अगर अक़्ल ये तसव्वुर करती है कि मोअजिज़े ख़ुदा की तरफ़ से होते हैं तो ज़रूर ख़ुदा किसी उम्दा नतीजे के लिए ऐसा करता है। मह्ज़ अचंभे (हैरत, ताज्जुब) की बात जिसे इन्सान की बेहतरी से कुछ ताल्लुक़ ना हो आदमी के दिल पर असर नहीं करती। जब हम और मोअजिज़ों के मंशा और अस्लियत को आज़माते हैं तो उनसे बेदीनी पाई जाती है और ऐसे नताइज निकलते हैं जो हक़ीक़त मालूमा के ख़िलाफ़ हैं और ये कि इनसे ना फ़क़त बेदीनी और लग़्वियत (बेहूदा, नामाक़ूल) ज़ाहिर होती है बल्कि ऐसा पाया जाता है कि आदमी की नामवरी के लिए दिखाए गए थे ताकि बे-पढ़े लोग दाम में आकर (फ़रेब खाना, धोखा खाना) ताबेदारी और इज़्ज़त करें और रुपया पैसा दीन और बाअज़ दफ़ाअ ऐसे दफ़ाअ ऐसे धोके किसी बेजा तालीम के रिवाज देने या किसी चीज़ या अज़मत वग़ैरह के बढ़ाने की ग़र्ज़ से दीए जाते हैं। इस मुक़ाम पर रास्ती की राह से हम ये भी कहते हैं कि जिन्हों ने मोअजिज़े करने का दावा किया है उनमें बहुतेरों का चलन रवैय्या भी ऐसा ख़राब था कि यक़ीन नहीं आता कि ख़ुदा-ए-पाक ऐसे ख़राब आदमियों के मदद करे लेकिन बाइबल के मोअजिज़ों पर ऐसे एतराज़ नहीं वारिद हो सकते।

मज़्हब ईस्वी जिसकी बुनियाद इन मोअजज़ात पर है हाल के और ज़रूरी मतलब की बड़ी हक़ीक़त है। इस मज़्हब ने बनी-आदम की तहज़ीब अख़्लाक़ और दीनदारी पर बड़ा असर किया है। और पहले उलूम व फ़नून और क़वानीन और अदब में बड़ा फ़र्क़ कर दिया है और सिर्फ यही मज़्हब आज के दिन तक बड़े ज़ोर शोर से तरक़्क़ी पज़ीर है यही हालात हैं जिनसे इस मज़्हब की ताअलीमात का फ़ायदा मालूम होता है। और जो ख़ुद बख़ुद हमारे दिलों पर असर करते हैं। और चूँकि मज़्हब ईस्वी की बुनियाद मोअजिज़ों पर है तो हक़ीक़ी नताइज की मिक़दार हमारे दावे की तस्दीक़ करती है या कम से कम इतना ज़रूर है कि ग़ैर मुतअक़्क़िद (बंधा हुआ, मजबूत किया हुआ) को उज़्र की गुंजाइश नहीं है। अगर वो हमारे इस दावे की तस्दीक़ हर तरह के वसाइल से ना करे।

पस जिस मज़्हब का ये हाल हो कि ज़ाहिर ज़हूर ऐसी तासीर करे जैसा कि हम बता सकते हैं और जिससे बनी-आदम के दर्मियान रोशनी फैले इस मज़्हब को अगर कोई ना माने और बेपर्वाई करे तो उसे सिवाए बेदीनी के और क्या नसीब होगा। कुतुब मुक़द्दसा के मोअजज़ात का हाल सिर्फ यही नहीं कि वो लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) नहीं हैं बल्कि बड़ी ग़र्ज़ उनकी ये है कि इस इल्हाम की तस्दीक़ करें जिससे इन्सान की मौजूदा हालत के इसरार खुलते हैं और ये मालूम होता है कि आइन्दा को उस का क्या हाल होगा और जहान के क़ालिब में नई रूह डाले और वो आदमियत बताए जो बड़े-बड़े फ़लसफ़ों और अक़्लमंदों से ना हासिल होती। ईस्वी मोअजज़ात की अज़मत इस तग़य्युर की वुसअत पर क़ियास (जांच लगाना, अंदाज़ा) कर लेना चाहिए जो ईस्वी मज़्हब के जारी होने से हुआ है। मसीहियों का अमल मसीही तालीम पर और तालीम की सेहत बाइबल के मोअजज़ात पर मौक़ूफ़ है और जैसा कि मज़्कूर हुआ है कि कुल मोअजज़ात ख़ुदा के लायक़ और ब-एतबार अस्लियत और ग़र्ज़ के उस की आला और पाक ज़ात के मुवाफ़िक़ हैं ये मोअजिज़े उन्हीं लोगों ने किए हैं जो पाक-बाज़ और हवाख़्वाह ख़लाइक़ थे और इसी ग़र्ज़ से किए थे कि मुस्तहकम के तौर से ज़ाहिर हो जाये कि ये पैग़ाम ख़ुदा का, आदमी के बहुत बड़े फ़ायदे के लिए है और उस की ज़ात और एहतियाज (हाजत, ख़्वाहिश) के मुनासिब है ऐसे मोअजज़ात जो ऐसे आदमी करें बेशक ख़ुदा की मुहर है जो उसने अपने पैग़ाम की तस्दीक़ के लिए मुक़र्रर की है।

नुक़्स-ए-शहादत

चौथे : मोअजज़ात अदयान बातिला और मिस्मेरिज़्म और स्प्रिटिज़्म के बहुतेरे मशहूर अचंभों की जो शहादत पेश की जाती है वो नाक़िस है। हम ये नहीं कहते कि कोई शहादत इस क़िस्म की नहीं पाई जाती जिससे इनका वक़ूअ ज़ाहिर हो ना हमें इस से इन्कार है कि जिस तौर से इनका वक़ूअ मशहूर हुआ है। इसी तौर से हुए हों। हमें यक़ीन है कि सब मज़्हबों के लोगों ने बल्कि शरीर बदज़ात आदमियों ने भी बहुतेरे अचंभे किए होंगे लेकिन हम ये भी कहते हैं कि अगर वाक़ई में इनका वक़ूअ हुआ है। तो ज़रूर क़वानीन फ़ित्री से होगा और जो शहादत इनके मोअजिज़ा होने की निस्बत पेश की जाएगी ज़रूर नाक़िस होगी बहुतेरे अफ़आल अजीबा जिन्हों ने शौहरत (मुश्तहिर) पाई और किताबों में उनका ज़िक्र है कभी वक़ूअ ही में नहीं आए थे बल्कि शरीरों की दग़ाबाज़ी और बनावट से अचंभे (हैरत, ताज्जुब) मशहूर हो गए। और जो सूरतें बतौर नताइज क़वानीन फ़ित्री ज़हूर में आएं उनकी निस्बत शहादत जो है वो अपने हालात के साथ है जो उसे ज़ईफ़ कर देते हैं। तमाम मोअजिज़ों में एक भी ऐसा नहीं जिसकी शहादत मसीही मोअजज़ात के बराबर पाई जाती है। चंद नुक़्स शहादत मोअजज़ात अदयान बातिला के इस मुक़ाम पर बयान किए जाते हैं।

नुक़्स शहादत की क्या सूरतें हैं?

अव्वल : ये कि उस वक़्त की शहादत ना हो जिस वक़्त कि वो फ़ेअल वाक़ेअ हुआ।

दूसरे : जिस मुक़ाम पर फ़ेअल वाक़ेअ हुआ उस से किसी दूर जगह की शहादत हो।

तीसरे : शहादत उन गवाहों की जो ग़ालिब फ़िर्क़े के शरीक हों और इस शहादत के देने का उन्हें कुछ अंदेशा भी ना हो।

चौथे : बनावट के अलामात और दग़ाबाज़ी का मतलब पाया जाये। जो वाक़ियात दुनिया में होते रहते हैं मुम्किन है कि समाई (सुना हुआ, रिवायती) शहादत पर यक़ीन कर लिए जाएं क्योंकि ऐसी चीज़ के वक़ूअ पर पहले ही से कुछ एतराज़ नहीं लेकिन मोअजिज़े ऐसे वाक़ियात हैं कि तजुर्बे के ख़िलाफ़ हैं।

इसलिए उनकी शहादत भी चश्मदीद होना चाहिए और चूँकि इसी शहादत की बिना पर हम मोअजज़ात का यक़ीन कर सकते हैं इसलिए ज़रूर है कि वो शहादत क़ाबिल एतराज़ ना हो झूटे मज़्हबों के बहुत से मोअजिज़ों और हाल के अचंभों में गुंजाइश शक की होती है यानी जो नुक़्स शहादत के मज़्कूर हुए उनमें से एक दो ज़रूर ही पाए जाते हैं या तो ये कि रावी चश्मदीद (आँखों देखा) नहीं बयान करते या मौक़े पर नहीं मुश्तहिर (शौहरत दिया गया, मशहूर) हुए थे या अगर ऐसा हुआ तो बरसों बाद वक़ूअ के हुआ या जैसा कि अक्सर हुआ है गवाहों ने अपने नफ़े के लिए शहादत (गवाही) दी हो या किसी दोस्त के बातिल दावों को क़ुबूल कर के उस की शौहरत के लिए शहादत दी हो और किसी ने इस शहादत की आज़माईश इस तौर से ना की हो कि गवाहों पर सख़्ती और मुसीबत उस की ख़ातिर पहुंची हो। ईस्वी मोअजज़ात की निस्बत साफ़ ज़ाहिर हो चुका है कि उनकी शहादत (गवाही) में इस क़िस्म का कोई नुक़्स नहीं पाया जाता जो बयान मुश्तहिर (शौहरत दिया गया, मशहूर) हुए वो ऐसे ज़माने क़रीब के थे कि याद आदमी की बाआसानी क़ायम रह सकती थी। और ऐसे मुक़ाम पर मुश्तहिर (शौहरत दिया गया, मशहूर) हुए जहां कि ज़ाती तास्सुब और दुनियावी नफ़ा रावियों के उस के बर-ख़िलाफ़ थे। किसी सख़्त से सख़्त दुश्मन मज़्हब ईस्वी ने इन मोअजज़ात का इन्कार नहीं किया। इस कुल तहक़ीक़ से जो दरबार अस्लियत और ग़र्ज़ और शहादत अदयान बातिला की हमने की हम सोचते हैं कि हर मुंसिफ़ दिल (इंसाफ़ पसंद दिल) ज़रूर तस्लीम करेगा कि बाइबल के मोअजज़ात ऐसे आला हैं कि कोई और मोअजिज़ा इनकी बराबर नहीं हो सकता इस में शक नहीं कि ये अज़मत और बरतरी इनमें इसी ग़र्ज़ से रखी गई है, कि हम इल्हाम के आला मर्तबे को जो ऐसे मुस्तहकम और क़वी निशानियों से दुनिया में पहुंचा है पहुंचाएं। अब हम अक़्वाल मज़्कूर बाला की अस्लियत दर्याफ़्त करने के लिए और मज़्हबों के बाअज़ मज़्कूर अचंभों का बाइबल के मोअजज़ात से मुक़ाबला करेंगे यानी इनका फ़र्क़ बताएगे। बहुतेरे अचंभे बुत-परस्तों की किताबों में ऐसे तसख़ीर अंगेज़ (ताबे होना) और लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) हैं कि ज़िक्र के लायक़ भी नहीं और बाइबल के पाक और नाफ़े मोअजज़ात से इनके मुक़ाबले का नाम लेना भी फ़रेब कुफ़्र है और बहुतेरे इस वजह से कि उनसे मुख़ालिफ़त और नस्ख़ क़वानीन फ़ित्री लाज़िम आता है ख़ुद बख़ुद बातिल हो जाते हैं। इसलिए मैं यूनानियों के कई एक बातिल मोअजिज़े जो उनकी झूटी रिवायतों से मालूम होते हैं जिनका इस दर्स के शुरू में ज़िक्र आ चुका है इस जगह छोड़ दूंगा। अब साफ़ मालूम होता है कि जो क़ाएदे मोअजिज़ों की अस्लियत और ग़र्ज़ और शहादत के दर्याफ़्त करने के लिए ठहराए गए हैं जिनका मज़्कूर (ज़िक्र) हुआ वो कामिल सबूत इस अम्र का हैं कि वो बातिल मोअजिज़े मोअजिज़े नहीं हो सकते यानी हस्बे-मफ़्हूम सही लफ़्ज़ मोअजिज़े के उन्हें मोअजिज़ा नहीं कह सकते। अब मैं ग़ैर-क़ौम के चंद ऐसे मोअजज़ात का ज़िक्र करूंगा जिनकी निस्बत कुफ्फार (इनकार करने वालों) का दावा है कि वो बाइबल के मोअजिज़ों के बराबर मोअतबर हैं।

मिस्री मजूसियों के कामों का बाइबल के मोअजज़ात से फ़र्क़

अव्वल : वो अचंभे (हैरानी) जो मिस्री मजूसियों ने फ़िरऔन के सामने किए थे जिनका ज़िक्र ख़ुरूज 7, 8 में है। काफिर कहते हैं कि वो हक़ीक़त में ऐसे ही मोअजिज़े थे जो मूसा और हारून और ख़ुदा के और बंदों ने किए थे। अब हमें शहादत वग़ैरह को आज़माना चाहिए। कहते हैं कि हारून के हाथ उठाने के बाद जादूगरों ने भी अपने जादू से ऐसा ही किया। ख़ुरूज 7, 8 इस आयत को अस्ल किताब में जो देखा जाये तो मालूम होता है कि इस का मतलब ये नहीं है कि जादूगरों ने हक़ीक़त में इस सर-ज़मीन पर मेंढ़क चढ़ाने का इरादा किया था जैसा हारून ने किया था। बल्कि इस बात से कि जादूगरों ने भी अपने जादू से ऐसा ही किया मतलब ये है कि उन्होंने अपने जादू से हाथ बढ़ाए इसलिए नहीं मेंढ़कों को पैदा करें क्योंकि इनसे तो वो बहुत तक्लीफ़ में थे बल्कि जैसे हारून ने मेंढ़क बढ़ाने के लिए हाथ बढ़ाए ऐसे ही जादूगरों ने अपने जादू के असाओं से मेंढ़क दूर करने के लिए हाथ बढ़ाए मगर बजाए इसके कि दूर करते उन्होंने इस वबा को चढ़ाया और तरक्की दी।

दूसरे अगर ऊपर के माअनों को सही तसव्वुर करूँ तो बरज़ामंदी तस्लीम करूंगा कि जादूगरों ने अपने जादू के असा इसी लिए बढ़ाए जिस लिए मूसा और हारून ने बढ़ाए थे यानी मेंढ़कों को इस सर ज़मीन पर चढ़ा ने को मगर इस से ये नतीजा निकलता है कि उन्होंने ये काम ख़ुदा की मदद से किया। ग़ालिबन मेंढ़क दरिया में हमेशा रहते ही थे ख़ुदा की क़ुद्रत से वो निकल पड़े। मजूसियों ने अपने जादू के असा बढ़ाए तो भी वो निकले। अगर वो नहीं बढ़ाते तो भी ऐसा ही होता। मतलब इस से ये है कि लोगों को ऐसा मालूम हुआ कि ये काम जादूगरों ने किया है। हक़ीक़त में वो उनका फ़ेअल ना था।

तीसरी वास्ते सबूत इस अम्र के कि जादूगरों ने ये काम ख़ुदा की मदद से कि मोअजिज़े के लिए शर्त ही नहीं किया। इसी क़द्र कहना काफ़ी है कि अगर उन्होंने वाक़ई में हाथ के इशारे या शैतानी क़ुद्रत से मेंढ़क बढ़ा भी दीए हों तो भी यक़ीनन दूर नहीं कर सके क्योंकि फ़िरऔन ने मूसा की मिन्नत की कि ख़ुदा से दुआ करे कि किस तरह मेंढ़क दफ़ाअ हो जाएं। अगर जादूगर या उनके बातिल माबूद जिन की वो पूजा करते थे ऐसा कर सकते तो फ़िरऔन मूसा से क्यों दुआ करता है। फिर बाद इस के मूसा और हारून ने और मोअजिज़े किए जो जादूगरों ने बहुत ही कोशिश की और नहीं कर सके। और जादूगरों ने भी चाहा कि अपने जादूओं से जुएँ निकालें पर निकाल ना सके और इन्सान और हैवान को जुएँ लिपट रही थीं। तब जादूगरों ने फ़िरऔन से कहा कि ये ख़ुदा की क़ुद्रत है पर फ़िरऔन का दिल सख़्त हो गया और जैसा ख़ुदावंद ने कहा था उसने उनकी ना सुनी। ख़ुरूज 8 बाब 18, 19 आयत यहां पर उन्होंने साफ़ इक़रार किया कि हम से ये सच्चे मोअजिज़े नहीं हो सकते और बाब 9 आयत 11 में लिखा है कि जादूगर फोड़ों के सबब मूसा के आगे खड़े ना रह सके कि जादूगरों और सारे मिस्रियों पर फोड़े थे ख़ुदा के नबियों की करामात बढ़ी हुई थीं। यहां तक कि सब बुत-परस्त नबी के क़ाइल हो कर बैठ रहे और कुछ ना हो सका पस सब झूटे मज़्हबों का बाइबल पाक के मुक़ाबले में ऐसा ही हाल है। यही हाल शमऊन जादूगर का हुआ जिस का ज़िक्र आमाल 8 बाब आयत 8, 25 तक हुआ है। ये शख़्स अगरचे बज़ाहिर इसी क़िस्म के आदमियों में से था जो मजूसी या अक़्लमंद कहलाते हैं लेकिन ज़ाहिर ज़हूर अपने इल्म को ग़र्ज़ बे-जा में सर्फ (ख़र्च) करता था जैसा कि इन दिनों बहुतेरे (बहुत से) लोग किया करते हैं। वो तो जादूगरों बाज़ीगरों और फ़ाल-गीरियों में से था जो शैतान की मदद के ख़्वाहां होते और मुर्दों से बातचीत करने का दावा करते हैं। वो आवाज़ों से और मक़नातीस हैवानी से अगरचे उस ज़माने में ये नाम ना था काम लिया करते थे। इस का दावा ये था कि कुद्रत इलाही मुझमें मुजस्सम (जिस्मदार होना) हुई वो बड़ा शातिर (चालाक) फ़रेबी (धोके बाज़) था। अंबोह कसीर जिसमें आला व अदना सब तरह के लोग थे उसके अचंभों से दंग हो कर उस के पीछे-पीछे फिरता था। मरने से क़ब्ल उसने दावा किया कि मैं क़ादिर-ए-मुतलक़ हूँ। मगर मसीह की क़ुद्रत शमऊन की ताक़त से बदर्जा आला साबित हुई और भीड़ शमऊन को छोड़कर फिलीबोस के पीछे हो ली और शमऊन भी भीड़ के साथ हो लिया। (आमाल 8 बाब 4 ता 10)

और जब उसने पतरस और यूहन्ना के इलाही मोअजज़ात देखे तो जान लिया कि उनकी सी क़ुद्रत मुझमें नहीं है और इन क़ुदरतों के भेद वही जानते हैं और वो ऐसी जमाअत के शरीक हैं जिसमें मेरी क़ुद्रत से आला और अफ़्ज़ल क़ुद्रत है। उसने उन्हें रुपया दुनिया भी दिया कि किस तरह मुझे भी ये क़ुद्रत मिल जाये मगर ये ना समझा कि वो क़ुद्रत सिर्फ़ ख़ुदा की तरफ़ से थी। सिर्फ यही बात कि शमऊन वो काम ना कर सका जो रसूलों ने मसीह के नाम से किए इस अम्र को तै कर देती है कि उसके अचंभे (हैरत, ताज्जुब) मोअजज़ात ना थे। क्योंकि अगर वो ख़ुदा के हुक्म व क़ुद्रत से काम करता था ऐसी लाचारी ना ज़ाहिर करता। लेकिन देखे उस के अचंभे रसूलों के अचंभों के सामने बे-हक़ीक़त थे।

1. शामोन के भी मह्ज़ अफ़आल अजीबा थे।

2. उनसे किसी का भला नहीं होता।

3. रुपया कमाने के लिए करता था। आयत 8

4. अपनी आबरू बढ़ाने के लिए करता था।

5. नतीजा उनका ये था कि लोग मुतहय्यर हो कर उस की इज़्ज़त करने लगें।

यानी उसने लोगों को ऐसे ताज्जुब और धोके में डाल दिया कि लोग उस के बुरे कामों को बाआसानी मानने लगे। ये नहीं लिखा है कि किस क़िस्म के मोअजिज़े उसने दिखाए यानी वो उसी क़िस्म के लोगों में से था जो अमलीयात जानने का दावा किया करते हैं। उस की तालीम छोटे इसरार थे उस का दावा ये था कि अर्वाह मुर्दगान की मदद से काम करता और सितारों का हामिल जानता हूँ। ज़माना आइन्दा की ख़बर दे सकता हूँ। ज़िंदगी व मौत सेहत व तंदरुस्ती का हाल बता देता हूँ और ग़ैर महसूस ताक़तों से मेरी रस्म व राह है। इस में शक नहीं कि बाअज़ अचंभे (ताज्जुब) उसने वाक़ई में किए मगर वो ज़हन व जिस्म के उन्हीं उसूल नामालूमा की रु से वक़ूअ में आए। मगर बहुतेरे काम उसने मह्ज़ जोय और फ़रेब से किए और उनमें बाअज़ ऐसी बेजा हरकात भी थीं जिनका नतीजा है कि जहन्नम की राह दिखाती है। हमने ज़रा भी ऐसी कोई बात नहीं पाई कि शमऊन के अचंभे लोगों के हक़ में कोई बरकत समझे जाएं बल्कि बख़िलाफ़ इस के बहुतेरे अपने कारोबार भी छोड़ बैठे और उस के धोके की बातों को मानने लगे। कुल हालात से यही पाया जाता है कि वो शरीर व ख़राब था लेकिन फिलबोस की तालीम व मोअजज़ात को देखे कि उनसे कैसे मुख़्तलिफ़ थे कि तमाम शहर में बड़ी ख़ुशी हुई आमाल 8 बाब 8 सिर्फ इसी सबब से ख़ुशी ना थी कि बीमार मुर्द और औरतों ने ख़ौफ़नाक अमराज़ से शिफ़ा पाई। बल्कि इस सबब से भी कि उनके गुनाह माफ़ हो गए और पाक-बाज़ अज़ ज़िंदगी बसर करने की ताक़त आ गई। ख़राब आदमी नेक हो गए। नापाक रूहें बहुतों से ख़बर पढ़ी थीं बड़ी आवाज़ से चिल्ला के उतर गईं वग़ैरह आमाल 8 बाब 7, उन्हें गुनाह व शैतान की गु़लामी से नजात पाने की ख़ुशी हुई कि ज़्यादा से ज़्यादा ख़ुशी जो इन्सान को हासिल हो सकती है वो यही है।

एक झूटा क़िस्सा जो इन्जील शरीफ़ के मोअजज़ात के मुक़ाबले में पेश किया जाता है

तीसरे : जो मिसाल कुफ़्फ़ार (इन्कार करने वालों) के बड़े आलिमों ने अहद-ए-जदीद के मोअजज़ात के मुक़ाबले पर सोची है। वो ये है कि एक अंधे और एक लूले आदमी को शहनशाह व शपाशीन ने अच्छा कर दिया। इस का ज़िक्र एक और रूमी मुअर्रिख़ (तारीख़ निगार) तुसीतिस ने किया है। बुत-परस्तों के मोअजज़ात की ये एक बड़ी मिसाल तसव्वुर की गई है और इसका हाल लोगों ने इस तरह बयान किया है कि :-

सिकंदरिया के अवामुन्नास में से एक शख़्स बारज़ा चश्म हो गया था। सराफस माबूद जिसको बुत-परस्त सब देवतों से ज़्यादा मानते थे उस के कहने से वो शख़्स शहनशाह दशपाशीन के सामने जा के गिर पड़ा और बहुत मिन्नत की कि मेरे अंधेपन का ईलाज कीजिए आप मेरे रुख़्सारों (गाल) पर और आँख के अंदर लुआब-ए-दहन (थूक) डाल दीजिए।

एक और शख़्स ने जिसका एक हाथ बेकार था उसी देवता के कहने से शहनशाह से अर्ज़ की कि आप क़दम मेरे हाथ पर लगा दीजिए। दशपाशीन ने पहले तो इस दरख़्वास्त को सुनकर ठट्ठा किया और लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) जाना मगर बाद को कभी तो उसे शेख़ी व ग़ुरूर के इल्ज़ाम का कभी मरीज़ों की मिन्नतों का और अपने ख़ुशामदी लोगों के रग़बत दिलाने का ख़ौफ़ आता था। आख़िर-उल-अम्र उसने हुक्म दिया कि हकीमों से दर्याफ़्त किया जाये कि ये आरिज़ा ईलाज इन्सानी से दूर होने के लायक़ है या नहीं। हकीमों ने इस की इत्तिला ख़ूब मुफ़स्सिल कैफ़ीयत के साथ दी कि अंधा जो है इस की क़ुव्वत बीनाई नहीं सल्ब (जाने या मिटाने का अमल, जज़्ब करना) हुई है अगर इस का नुक़्स दूर कर दिया जाये तो देखने लगेगा।

इस क़िस्से के लगू के वजूह

दूसरा शख़्स जो है उस के जोड़ों में नुक़्स है अगर मुआलिजा से क़ुव्वत पहुंचाई जाये तो कुछ बईद (दूर, फ़ासले पर) नहीं कि अच्छा हो जाये और ये कि देवताओं को भी शायद आपसे ये काम करना मंज़ूर है और आपको देवतों ने इस काम के लिए पसंद किया है। और आख़िर में ये लिखा था कि अगर ये काम हो गया तो शहनशाह का बड़ा नाम होगा। अगर ना हुआ तो शर्मिंदगी आरिज़ा वालों पर होगी। विशपासीन ने ये समझ के कि हर बात मेरे क़ब्ज़े में है और कोई अम्र क़ाबिल तशवीश नहीं है जैसा कि वो चाहते थे क्या इस वक़्त बहुत सी भीड़ देखने के शावक पास खड़ी थी और उनके चेहरों से ख़ुशी के आसार नुमाया थे ग़र्ज़ शहनशाह के क़दम लगाते ही हाथ काम का हो गया और थूक लगाते ही अंधे की आँखें खुल गईं जो लोग उस वक़्त मौजूद थे उस वक़्त में भी कि झूट बोलने से कोई नफ़ा नहीं है। इन दोनों वाक़्यों का ज़िक्र किया करते हैं। अब मैं कहता हूँ कि हस्ब क़ौल डाक्टर पीली साहब के ये शहादत नाक़िस है। तुसीतिस ने 27 बरस के बाद इस माजरे को लिखा और सिकंदरिया में ये माजरा गुज़रा और लिखा रोम में बैठ कर और वह भी सुन सुना कर ना दोहर चंद के इस के लिखने से ये नहीं ज़ाहिर होता कि उसने इस की तहक़ीक़ की या इसे उस की वक़ूअ का यक़ीन था मगर लोगों ने ख़्वाह-मख़्वाह शहनशाह और सराफस देवता की (तालीम के लिए) उसे मोअजिज़ा समझ लिया। और इस का वक़ूअ (अगर फ़र्ज़ किया जाये) तो शहनशाह के ख़ुशामदियो और ताबईन के दर्मियान हुआ और ऐसे शहर में जहां कि लोग पहले ही से बादशाह की नामवरी और देवता की परस्तिश पर फ़रेफ़्ता थे। अगर ज़रा भी इस ईलाज की शौहरत में मुख़ालिफ़त करते या इस में कोई नुक़्स ज़ाहिर करते तो दाख़िल सरकशी और कुफ्र समझा जाता था और बड़े ग़ौर के लायक़ बात तबीबों की मुफ़स्सिल (तफ़्सील) कैफ़ीयत में ये थी कि इस से ऐसी भी सूरत निकलती है कि कोई ज़ाहिरी निशान बीमारी का ना था इसलिए मुम्किन था कि फ़रेब हुआ हो क्योंकि एक शख़्स की क़ुव्वत बीनाई नहीं सल्ब हुई थीं। दूसरे के हाथ के जोड़ों में कुछ ज़ुअफ़ (कमज़ोरी) था और ये अम्र कि बाअज़ तुसीतिस की इस तहरीर को कि जो लोग इस कैफ़ीयत के देखने वाले थे वो उसे ऐसे वक़्त में भी मशहूर करते रहे कि जिस वक़्त में ऐसा झूट बोलने से उन्हें उम्मीद नफ़ा की भी नहीं थी लायक़ एतबार समझेंगे हमारे नज़्दीक कुछ भी मोअतबर नहीं। इस के बयान से सिर्फ इतना मालूम होता है कि जिन्हों ने इस किस्से को बयान किया वो बहुत बरसों तक इस पर इसरार करते रहे। उन लोगों से ये पूछना चाहिए कि अगर झूट बोलने से उन्हें कुछ नफ़ा ना था तो नुक़्सान ही क्या था। और इस क़िस्म के बयान करने से कौनसी तक्लीफ़ व मुसीबत उन्हें पेश आई। ऐसी गवाही देने से अगर किसी में पड़ते या नुक़्सान उठाते या सख़्त ईज़ा (तक्लीफ़) पहुँचती या बुरी ज़िल्लतों से मौत का सामना होता तो क्या वो गवारा करते। अब हम मोअजज़ात अदयान बातिला (झूटे दीन) और बाइबल के हक़ मोअजिज़ों का फ़र्क़ बताने के लिए ये कहते हैं कि दोनों वाक़िये अगर दुश्मनों के सामने हुए होते या जो लोग उस वक़्त मौजूद थे उनकी तबीअतों में पहले से ऐसी बातों का एतिक़ाद ना होता और जो लोग जलते थे वो उसे देखकर मुतअज्जिब (हैरान) होते और उस वक़्त या बाद को उन्हें इस से कुछ नफ़ा ना होता और जहां तक मुम्किन होता लोग इन वाक़्यों को बिगाड़ते और जिन्हों ने आपको उन वाक़ियात का गवाह क़रार दिया था और अपने मुशाहिदे के भरोसे पर उसे मुश्तहिर (शौहरत दिया गया, मशहूर) करते फिरते थे उनकी…… की आरज़ूऐं जाती रहतीं और तरीक़ा ज़िंदगी को बिल्कुल बदल देते और अपने पुराने मन्सूबों और दस्तूरों और ख़यालों को जिनमें उन्होंने तर्बियत पाई थी एक लखत छोड़ देते और अपनी आबरू और आराम को खो देते और शहादत ही की वजह से तरह-तरह की आज़माइशों में पड़ते और सख़्त से सख़्त तक़्लीफों को सब्र से बर्दाश्त करते मरना भी गवारा करते पर गवाही से ना फिरते और ऐसे मज़्हब पर यक़ीन लाने से दुनिया के रस्म व दस्तूर और मज़्हब बदल जाते और अठारह सौ बरस से बराबर वो तग़य्युरात होते चले आते यहां तक कि दुनिया को पहली हालत से बिल्कुल बदल दिया और रसूम और दस्तूर को दुरुस्त कर दिया होता तो उस वक़्त ये कहना ज़ेब देता कि विसपाशीन के मोअजज़ात अह्दे-जदीद के मोअजज़ात के ख़िलाफ़ पर एक दलील हैं।

हिंदू मज़्हब के अचंभों का कुतुब मुक़द्दसा के मोअजज़ात से मुक़ाबला

अब हम इख़्तिसार (मुख़्तसर) के साथ हिंदू मज़्हब के अचंभों का कुतुब मुक़द्दसा के मोअजज़ात से मुक़ाबला करते हैं। हिंदूओं के अचंभे (हैरत, ताज्जुब) यूनानियों और रोमियों के झूटे क़िस्सों की तरह सरासर लगू (नामाक़ूल) बल्कि ख़राब हैं और बाइबल शरीफ़ के पाक मोअजज़ात के सामने इन लगू व ख़राब अचंभों को मान लेना भी मुझे कुफ़्र मालूम होता है। वो हरगिज़ लाइक-ए-ज़िक्र नहीं (जो इस क़ाबिल ना हो कि इस के बारे में बात की जाये) हैं। (सफ़ा 57 ता 60) पर मैंने तम्सीलन हिंदूओं के बाअज़ मोअजज़ात का जो ज़िक्र किया है उनको पढ़ने वाले एज़्राह महरानी आज़मा लें और कुतुब मुक़द्दसा के जिस मोअजिज़ा से चाहें उस का मुक़ाबला कर देखें हिंदूओं के कुल मोअजज़ात की हमाक़त (बेवक़ूफ़ी) ज़ाहिर करने को सिर्फ एक ही मिसाल बंदर देवता यानी हनूमान की काफ़ी होगी। कहते हैं कि हनूमान सूरज को बग़ल में मार करके दुनिया की किसी पोशीदा जगह में ले गया। सब अक़्लमंद जानते हैं कि सूरज कुर्रा-ए-ज़मीन से 1300000 दर्जे बड़ा है यानी हमारी ज़मीन की मानिंद तेराह लाख जहान एक आफ़्ताब से छिप सकते हैं। जिस पर भी हिंदू मशहूर करते हैं कि बंदर देवता सूरज को बग़ल में दबा कर ले गया और राम के लश्कर में रख दिया ताकि सुबह होने से पहले कुछ पेड़ जमा कर ले। ज़ेल के बयान से हिन्दुओं के मज़्हब की बे-एतबारी और फ़रेब का हाल ज़ाहिर होता है।

1. ये कि इनका मीलान कुफ़्र व बेदीनी की तरफ़ है। हिंदूओं के बहुतेरे माबूद निहायत बदकार और बानी बेरहमी और तरह तरह की हरकात के थे और उनकी ताअलीमात हिंदूओं को निहायत ही बेदीन कर देती हैं। चोरी करना, झूटी क़सम खाना, झूट बोलना बल्कि ख़ून करना भी उनके शास्त्रों से जायज़ है मसलन ग्रन्थ 8, 104 में लिखा है कि चारों ज़ातों में से अगर किसी की जान सच्च बोलने से जाती हो तो झूट बोलना रवा बल्कि सच्च से बेहतर है। फिर ग्रन्थ 8, 12 ता 10 में इस तरह आया है कि औरतों को जब कि शादी के लिए दरख़्वास्त की जाये या जब कि गाय घास या फल खा जाये या लकड़ी क़ुर्बानी के लिए चुराई जाये या ब्रहमन की जान बचाने का वाअदा किया जाये तो झूटी क़सम का खाना गुनाह नहीं। बिलाशुब्हा हिंदूओं की किताबों से साफ़ ज़ाहिर है कि ख़ुद उनके देवता चोर और ज़ानी और क़ातिल थे तो फिर उनके पैरौ उन से क्या बेहतर होंगे। हम बग़ैर ख़तरे सही एतराज़ के ये कहते हैं कि हिंदूओं के मोअजज़ात या उनके मज़्हब में ऐसी कोई बात नहीं मालूम होती जिससे आदमी के दिल को ज़रा भी सफ़ाई हासिल हो सके। परेशान गुनेहगार माफ़ी व सफ़ाई क़ल्ब (दिल) को ख़्वाहाँ किसी सूरत या सहारा नजात का उनके झूटे मोअजिज़ों में नहीं पाता बल्कि बावजूद नजात की उम्दा कोशिश करने के गुनाह की ग़ुलामी में और भी गिरफ़्तार हो जाता है देखिए मसीह के मोअजज़ात और पाक ताअलीमात हिंदूओं की तालीम से कैसी मुख़्तलिफ़ हैं।

2. शहादत मोअजज़ात हुनूद (हिंदू की जमा) नाक़िस और ग़ैर-मोअतबर है। अगरचे हम तस्लीम करते हैं कि कुछ बईद (दूर) नहीं कि हिंदूओं के पंडितों और फ़क़ीरों ने अपने हाथ की चालाकी या इन्सान के ज़हनी व जिस्मी उसूल या मख़्फ़ी (छिपी) कुव्वतों के इस्तिमाल से कुछ अचंभे किए हों ताहम इनकी तस्दीक़ के लिए जो शहादत पेश की जाती है अगर उस पर बग़ौर लिहाज़ किया जाये तो साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि इस से किसी तरह नहीं साबित होता कि मज़्कूर अचंभों का कभी वक़ूअ हुआ था। सब जानते हैं कि हिंदू हमेशा से सरीअ-उल-एतक़ाद हैं। उनकी आदत है कि जिस काम का सबब दफअतन (फ़ौरन) उनकी समझ में नहीं आता उस को वो मोअजिज़ा समझते गए हैं। इसी आदत के सबब से चालाक दग़ाबाज़ आदमी ब-आसानी इनके दर्मियान मोअजिज़ा दिखाने वाले बन जाते हैं। और ये भी याद रहे कि हिंदूओं के मोअजिज़े नया मज़्हब निकालने के लिए नहीं थे बल्कि बर-ख़िलाफ़ इस के उन किताबों की तस्दीक़ के लिए थे जिनको पहले से लोग मानते थे और इसलिए कि लोग उनकी और ब्रह्मणों की ताज़ीम करें। उनका मुद्दआ ये था कि हमारा मज़्हब सच्चा साबित हो जाये क्योंकि इस में ऐश व इशरत और ख़्वाहिशात नफ़्सानी के पूरा करने की इजाज़त थी। और ये मशहूर बात है कि जिस चीज़ को आदमी का दिल चाहता है उस की शहादत भी चाहे कैसी हो फ़ौरन क़ुबूल कर लेता है और ख़ासकर जो लोग सरीअ-उल-एतक़ाद (जल्दी भरोसा करने वाला) और अजाइब पसंद हों जैसे हिंदू हैं उनका तो कुछ पूछना ही नहीं। लेकिन कोई नहीं तस्लीम करेगा कि ये मशहूर अचंभे (हैरत, ताज्जुब) कभी भी वक़ूअ में आए थे क्योंकि जिन किताबों में इनका ज़िक्र है उन्हीं का एतबार नहीं कि किस ज़माने में और कहाँ और किस तरह लिखी गई थीं।

1. बहुतेरी बातें मुन्दरिजा पुराण इस ज़माने की तारीख़ों से मुवाफ़िक़त नहीं रखती हैं बल्कि बदर्जा गायत मुख़ालिफ़त रिवायत पर मबनी हैं। मसलन चीनियों के तारीख़ी हालात जो बुदधा मज़्हब के सय्याहों ने हिन्दुस्तान के सफ़र में लिखे हैं या यूनानियों की तारीख़ी हालात जो सिकंदर-ए-आज़म के हिन्दुस्तान पर हमला करने की निस्बत या जो यूनानी मुल्क बक्तरिया की मुत्तसिल (मिला हुआ, नज़दीक) हिंद की निस्बत पाए जाते हैं। और मुसलमान मुअर्रिख़ (तारीख़ दान, तारीख़ लिखने वाला) जो एक हज़ार साल से ज़्यादा अर्सा हाल ब-वजह क़ुर्ब (नज़दीकी) के जानते हैं। वो भी हिंदूओं की मुक़द्दस किताबों से ना सिर्फ ना-मुवाफ़िक़ बल्कि कमाल ही मुख़ालिफ़ हैं और उनकी तारीख़ों की सेहत का सबूत हिंदूओं की तारीख़ों से बेहतर है।

2, पुराण भी आपस में मुख़ालिफ़ हैं किसी में कुछ लिखा है और किसी में कुछ और ये मुख़ालिफ़त ना फ़क़त क़िस्सों में बल्कि नामों में और तादाद में और तर्तीब में आला-उल-ख़ुसूस बादशाहों की निस्बत कमाल मुख़ालिफ़त है। सिर्फ यही नुक़्सान के बयानात की बे-एतबारी के लिए काफ़ी है क्योंकि जब दो बयान एक दूसरे के मुख़ालिफ़ हों तो दोनों सही नहीं रहेगे और बफ़र्ज़ अगर एक भी बातिल साबित किया जाये तो भी एतिक़ाद कुल की तरफ़ से जाता रहेगा।

डाक्टर मचल साहब अपनी एक किताब (ख़ुतूत बनाम जवानान हिंद) में इस तरह लिखते हैं कि बहुत से कुंदा पत्थर हिन्दुस्तान की चट्टानों से और मूरतें ग़ारों से और बहुत से इन वक़्तों से हिन्दुस्तान और नीज़ इस के क़ुर्ब व जवार के मुल्कों में निकलते हैं इनसे भी पुराणों के बयानात का मुताबिक़ होना ग़ैर मुम्किन है यानी पत्थरों और मूरतों और सिक्कों पर जो इबारतें कुंदा हैं दूसरा से मुख़ालिफ़ मज़ामीन पुराण हैं। और इस से हर एक साफ़ दिल समझ लेगा कि हिंदूओं के पुराणों की बातें झूटी हैं जब हिंदूओं की किताबें ऐसी झूटी और लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) हैं तो उन मोअजिज़ों पर यक़ीन लाना जो उनकी झूटी किताबों में लिखे हैं सिवाए इसके कि बातिनी मोअजिज़ा कहा जाये और कुछ नहीं हो सकता। एक और बड़ी दलील हनूद (हिंदू की जमा) के बुतलान शहादत की ये है कि उनके मोअजज़ात हक़ाइक़ इल्मी के अला-उल-ख़ुसूस जुग़राफ़िया ज़मीनी और नुजूम आस्मानी के सरासर मुख़ालिफ़ हैं। मसलन पुराण की तालीम ये है कि ज़मीन गेंद की मानिंद गोल नहीं है बल्कि बर्तन की तरह चपटी है और 14 अरब मील इस का मुहीत (अहाता करने वाला) है हालाँकि हाल के उलूम से यही साबित होता है कि ज़मीन गेंद की तरह गोल है और सिर्फ 25 हज़ार मील इस का मुहीत (अहाता करने वाला) है फिर शास्त्र में लिखा है कि तमाम जहान में मए सूरज के सिर्फ नौ सय्यारे हैं और सूरज बनिस्बत चांद के ज़मीन से क़रीब है वग़ैरह-वग़ैरह। हालाँकि इल्म हेय्यत के आलिमों ने उम्दा दूरबीनों से बख़ूबी साबित कर दिखाया कि तमाम जहान में कम से कम दस करोड़ सितारे तो ऐसे हैं कि दूरबीन में से दिखाई दे सकते हैं और एक हज़ार सितारे हम अपनी आँखों से यानी बग़ैर दूरबीन के देख सकते हैं और चूँकि सब सितारे दरअस्ल सूरज में उनके मुताल्लिक़ यानी उनके ताबे सय्यारे व इकमार भी हैं यानी हमारे आफ़्ताब की तरह हर आफ़्ताब मर्कज़ अपने ताबे सय्यारों का है तो इस से ये नतीजा निकलता है कि एक अरब बत्तीस कड़ोड़ और कुर्रे हमारी ज़मीन की मानिंद आँख से मालूम हो सकते हैं। और सूरज बजाए इस के कि ज़मीन से बनिस्बत चांद के क़रीब हो कर दर चालीस लाख मील दूर है पस जो अक़्लमंद आदमी जुग़राफ़िया के सही इल्म से वाक़िफ़ होगा वो हरगिज़ हिंदूओं की किताबों पर एतबार नहीं करेगा। इस से और नीज़ दीगर हालात से जो हनूद (हिंदू की जमा) के मोअजज़ात के बारे में हैं हम यक़ीन करते हैं कि इस का तस्लीम करना ज़रूर पड़ेगा कि हनूद (हिंदू की जमा) के मोअजज़ात को बाइबल शरीफ़ के पाक मोअजज़ात से कुछ भी मुनासबत नहीं। जो नुक़्स ऊपर बयान किए उनमें से मोअजज़ात ईस्वी पर एक भी सादिक़ नहीं आता।

मुहम्मदी मोअजिज़ों का ईसाइयों के मोअजिज़ों से फ़र्क़

अब मुहम्मदी मज़्हब के मोअजज़ात को आज़मा के ये देखेंगे कि उनमें और ईस्वी मज़्हब में क्या निस्बत है। निहायत बड़े मुसन्निफ़ इस मज़्मून की किताबों के जो हैं उनकी किताबों से मैंने कामिल तहक़ीक़ कर के ये नतीजा निकाला है कि मुहम्मदी मोअजज़ात इस कस्रत से लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) और तम्सख़र आमेज़ और माइल बेदीनी नहीं हैं जैसे हनूद (हिंदू की जमा) के हैं ताहम बहुतेरे इन में कम से कम निहायत नाकारा (फ़ुज़ूल) हैं और ब एतबार आला व उम्दा मक़्सद के ऐसे नाक़िस हैं कि उन्हें पाक और कामिल ख़ुदा का काम बल्कि ऐसे शख़्स का काम भी समझना नहीं मुम्किन है जिसे ख़ुदा से मदद मिली हो। और अगर इन मोअजज़ात की अस्लियत और ग़र्ज़ और शहादत पर नज़र की जाये तो बहुत कुछ वही नुक़्सान पर भी आइद होते हैं जो हनूद के मोअजज़ात पर हैं।

1. वो बेकार और ख़िलाफ़-ए-क़ियास (जांच लगाना, अंदाज़ा) हैं। मसलन मुहम्मदी मुसन्निफ़ों ने लिखा है कि खाना और मेवाजात मुहम्मद साहब के लिए बहिश्त से आते थे और जानवर और पहाड़ और दरख़्त और पत्थर उनकी ताज़ीम करते थे।

2. इस क़िस्म के जितने मोअजज़ात हैं इनकी हक़ीक़त की निस्बत जो शहादत पेश की जाती है वो निहायत ही ग़ैर-मोअतबर है। मुहम्मदियों के अक्सर मोअजज़ात हदीसों में जो मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ों ने बनाए हैं पाए जाते हैं और इस को ख़ुद मुहम्मदी आलिम भी तस्लीम करते हैं कि कोई हदीस की किताब ऐसी नहीं कि मुहम्मद साहब की वफ़ात से एक सौ बरस के अर्से में लिखी गई हो। सब एक सदी बाद की हैं। और इस क़िस्म की हदीसें जिनका सिलसिला चार सौ बरस से आगे नहीं पहुंचता बहुत कस्रत से हैं। ख़ूब जान लेना चाहिए कि ज़बानी रिवायत निहायत बे-एतिबार और ग़ैर यक़ीनी शहादत है। ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब के बाद एक सौ बरस के अर्से में बहुत बड़ा फ़र्क़ इन हदीसों में हुआ होगा। बल्कि हम देखते हैं कि ख़ुद मुहम्मदी उलमा की राइयों में दरबाब हदीसों के बड़ा इख़्तिलाफ़ है। बाअज़ कहते हैं कि एक लाख हदीस सही है और बाअज़ कहते हैं कि पाँच हज़ार दो सौ पैसठ सही है और बाअज़ के नज़्दीक हर हदीस की सेहत में शक है। इस से ज़ाहिर है कि अक़ल मर्तबा हदीसों की शहादत में बड़ा तफ़र्रुक़ा है हत्ता कि बनजर ऐसे आदमी के जो निहायत ही सरीअ-उल-एतक़ाद (जल्दी भरोसा करने वाला) हो और कोई इन हदीसों की बातों का एतबार नहीं करेगा।

3. दुबारा इनके मोअजज़ात के जिनकी निस्बत मुसलमानों का दावा है कि क़ुरआन में मज़्कूर हैं हम ये कहते हैं कि अगर फ़िल-हक़ीक़त मुहम्मद साहब ने ये तालीम की भी हो कि मैं मोअजिज़ा दिखा सकता हूँ तो उस वक़्त में भी बेहतर है नुक़्स जो हिंदूओं के मोअजिज़ों पर आइद होते हैं मोअजज़ात क़ुरआनी पर भी वारिद होंगे।

1. मुहम्मद साहब और उनकी ताअलीमात की बेदीनी की ख़ासियत मोअजज़ात को ग़ैर-मोअतबर कर देती है। ताअलीमात क़ुरआनी बजाए इस के कि आदमी बुरी ख़्वाहिशों को रोकें और भी तक़वियत देती हैं और अय्याशी को सवाब ठहराती हैं। इसमें ख़ैर ख़्वाही और नेकी की तरफ़ ज़रा मीलान नहीं बुराई और ख़ूनरेज़ी उस की तालीम है। क़ुर्आन की ताअलीमात मुहब्बत और रहम के कामों से नहीं फैलीं बल्कि ख़ूँरेज़ी लोगों की मोहलिक तलवारों के ज़ोर से फैलीं। इस में दिल के बिगड़ने और जुदा होने का बहुत कम ज़िक्र है। अलबत्ता सिर्फ एक अम्र यानी शराब खोरी की मुमानिअत है सो वो भी ऐसी कि बहिश्त में इसके मिलने का वाअदा है कस्रत अज़्वाज (ज्यादा बीवी रखना) जिसका क़ुर्आन से जवाज़ है हर मुसन्निफ़ दिल के लिए नक़लन अक़लन ब एतबार इन्सान की वज़ा फ़ित्री के भी काफ़ी दलील क़ुर्आन की बेदीनी की ताअलीमात की है। कौन नहीं जानेगा कि कस्रत अज़्वाज (ज्यादा बीवियां) बड़ी बुराई का चशमा और हर तरह से मुफ़िर (भागने) की जगह और ना सिर्फ दीनदारी के ख़िलाफ़ बल्कि तहज़ीब व तर्बियत के भी ख़िलाफ़ है ताहम एक मुहम्मदी आलिम इस्माईल इब्ने अली का क़ौल है कि मुहम्मद साहब ने ख़ुद फ़रमाया कि मुझे औरतों और ख़ुशबू से शौक़ है। फ़िल-हक़ीक़त ऐसा मालूम होता है कि आख़िरी उम्र में मुहम्मद साहब को अय्याशी का शौक़ हो गया था। उनकी पंद्रह बीवियां और बर-वक़्त वफ़ात के नौ मौजूद थीं। सर विलियम म्यूर साहब लिखते हैं कि बिला-शुब्हा मुहम्मद साहब का चलन रवैय्या ख़िलाफ़-ए-तहज़ीब था उनका दिल कीना और ख़ूनरेज़ी और शहवत और ग़ुस्सा से ख़ाली ना था कोई इन्कार नहीं कर सकता कि ऐसी बातें उनसे वक़ूअ में आई थीं। कौन यक़ीन ला सकता है कि ख़ुदा जो निहायत पाक व रहीम है ऐसे कामों को पसंद करेगा ऐसे आदमी को जैसे मुहम्मद साहब थे मोअजिज़ा दिखाने की ताक़त देगा। लेकिन येसू मसीह के हालात और उस का मज़्हब जो मोअजिज़ों से क़ायम हुआ मुहम्मद साहब के हालात से कैसा मुख़्तलिफ़ है। उसकी ताअलीमात बजा है इस के कि दुनियादारों की तबीअतों के मुनासिब होतीं निहायत मुख़ालिफ़ थीं ना सिर्फ अवामुन्नास की मर्ज़ी और ख़्वाहिश और आदत के बल्कि शरीर पर बेरहम हुक्काम के ग़ुरूर और ज़ुल्म के भी ख़िलाफ़ थीं। इन्जील में बादशाहों को भी इजाज़त नहीं है, कि सख़्ती या बेरहमी करें बल्कि उस का हुक्म ये है कि रहम व माफ़ी और अदालत और ख़ैर ख़्वाही को हाथ से ना दें और यही तालीम है कि पाक दिल और पाक बाज़ ज़हना आदमी के लिए निहायत ज़रूर है।

2. क़ुर्आन की ताअलीमात उसूल इल्मी के ख़िलाफ़ हैं मसलन सूरह 15 में है, कि शहात साक़िब शोले हैं जो शैतान पर फेंके जाते हैं क्योंकि वो चोरी से आस्मान की बातें सुनते जाते हैं और ये कि बुर्ज आस्मानी पर शैतान रहते हैं जिनको पत्थर मार कर निकाल दिया है। सूरह 31, 16 में लिखा है कि ज़मीन बेहरकत है यानी वो अपने महवर पर नहीं घूमती और पहाड़ इस पर इसलिए जमाए गए हैं कि हिलने ना पाए और सूरह 18 में है कि सूरज स्याह दलदल के चश्मे में डूब जाता है। मुसलमानों का दावा है कि ज़ुलक़ुरनैन यानी सिकंदर-ए-आज़म ने इस माजरे को यानी इस जगह और इस चीज़ को जिसमें सूरज डूबता है ख़ूब दर्याफ़्त किया और वहां तक पहुंचा जहां सूरज तुलूअ होता है। अब कहीए कि जो शख़्स ज़मीन की कलाई और हरकत के मसाइल मुसल्लिमा से वाक़िफ़ होगा वो क्योंकर क़ुर्आन के मज़ामीन को मानेगा।

3. क़ुर्आन में ऐसे भी क़ौल हैं जो एक दूसरे के मुख़ालिफ़। मुहम्मदी उलमा को भी इस का इक़रार है कि क़ुर्आन में दो क़िस्म के आयात हैं एक नासिख़ और एक मन्सूख़। लेकिन ये एक अजीब हंसी की बात और हमारी अक़्ल के ख़िलाफ़ है कि बाअज़ आयात जो पहले नाज़िल हुईं बाद के आयात से मन्सूख़ हो जाएं। मसलन सूरह 16 में है कि, शराब ख़ुदा की दानाई और मेहरबानी का सबूत है तुम ताड़ के दरख़्तों और अंगूरों से नशेदार अर्क़ और अच्छी परवरिश पाते हो। लेकिन दूसरे सूरह में ये लिखा है कि वो शराब और जुए की बाबत तुझसे सवाल करेंगे तू उनसे कह कि दोनों फ़ेअल बड़े गुनाह हैं। इन आयात में हम देखते हैं कि सरीह (आश्कारा, ज़ाहिर) मुख़ालिफ़त है और यह मुख़ालिफ़त ऐन दलील इस अम्र की है कि क़ुर्आन ख़ुदा का कलाम नहीं।

हम ख़ुद तस्लीम करते हैं कि कोई ख़ास अम्र एक ज़माने के लिए मुक़र्रर हो। ये हो सकता है कि ख़ुदा एक काम के करने को एक दिन हुक्म करे और दूसरे दिन उस को मना कर दे। लेकिन ये नहीं हो सकता कि उसूल-ए-दीनी को ख़ुदा एक वक़्त में सही ठहरा दे और दूसरे वक़्त में ग़लत कर दे क्योंकि ना सिर्फ ख़ुदा ही अपनी ज़ात में ग़ैर मुतग़य्यर (कभी ना तब्दील होने वाला) है बल्कि ज़ात इन्सानी की दीनी तबीयत भी हमेशा एक ही रहेगी। दूसरे ये कि अगरचे मुहम्मद साहब ने तस्लीम किया कि बाइबल कलाम-ए-रब्बानी है और तमाम उस की ताअलीमात सच्ची और पाक हैं लेकिन इस में भी शक नहीं कि क़ुर्आन की बहुत बातें और ताअलीमात बाइबल शरीफ़ की ताअलीमात के सरीह (साफ़) मुख़ालिफ़ हैं। मसलन क़ुर्आन में लिखा है कि नूह का एक बेटा तूफान में डूब गया और फ़िरऔन के बीवी ने मूसा को बचाया हालाँकि बाइबल में लिखा है कि नूह का सारा घराना बच गया और फ़िरऔन की लड़की ने मूसा को बचाया। क़ुर्आन में ये लिखा है कि येसू की माँ मर्यम इमरान की लड़की और हारून की बहन थी। (सूरह 14) और मसीह मस्लूब नहीं हुआ बल्कि जीता आस्मान पर उठाया गया। (सूरह 4) और येसू ख़ुदा का बेटा ना था। ये सब बातें अह्दे-जदीद के मज़ामीन के बिल्कुल ख़िलाफ़ हैं। हम बहुत और मिसालें जो बाइबल के ख़िलाफ़ हों क़ुर्आन से ला सकते हैं लेकिन अगर मुहम्मद साहब ने सच्च कहा है कि बाइबल इल्हामी या ख़ुदा का कलाम है। तो क़ुर्आन के बातिल साबित करने को एक ही ख़िलाफ़ काफ़ी है क्योंकि ये तो मुम्किन ही नहीं कि क़ुर्आन व बाइबल जो बाहम सरीह (साफ़ साफ़) मुख़ालिफ़त रखते हैं दोनों सही ठहर सकें यानी इज्तिमा ज़िददेन मुम्किन नहीं। और इस का मुहम्मद साहब ने ख़ुद इक़बाल किया है, कि बाइबल शरीफ़ सही है तो नतीजा ये निकला कि क़ुर्आन बरहक़ (सच्चा) नहीं हो सकता और जब क़ुर्आन हक़ नहीं तो मज़ामीन दरबार मोअजज़ात इस में मुन्दरज हैं वो भी एतबार के लायक़ नहीं रहेगे।

4. दरबाब इस दावे के मुहम्मद साहब को मोअजिज़ा दिखाने की क़ुद्रत थी। अगरचे ये सच्च है कि मोअजिज़ों का ज़िक्र इशारतन क़ुर्आन में अक्सर जगह आया है मगर किसी आयत में साफ़ नहीं लिखा है कि मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए। ऐसी बहुत आयात हैं जिनमें मुहम्मद साहब ने साफ़ कहा है कि मैं मोअजिज़े दिखाने को नहीं भेजा गया हूँ। मसलन सूरत 13 में है कि ऐ मुहम्मद काफ़िर कहते हैं कि जब तक कोई निशानी ख़ुदा की तरफ़ से तुझ पास ना आए उस वक़्त तक हम यक़ीन नहीं करेंगे तू ख़ुदा की तरफ़ सिर्फ़ वाअज़ व नसीहत के लिए मुक़र्रर है ना कि मोअजिज़े दिखाने के लिए। सूरह 17 में है किसी बात ने हमको मोअजिज़ों के साथ भी भेजने से नहीं रोका बजुज़ इस के कि अगली क़ौमों ने उसे फ़रेब और जादू जाना। लेकिन हमें इस बाब में ज़्यादा बह्स की ज़रूरत नहीं जो मज़्कूर बातें डाक्टर मचल की किताब, ख़ुतूत बनाम जवानान हिंद के मुताबिक़ हैं उनसे हर मुसन्निफ़ का दिल मान लेगा कि ये दावा मुहम्मद साहब ने हक़ीक़त में मोअजज़ात दिखाए ग़ैर-मोअतबर है और इस बयान से भी बख़ूबी ज़ाहिर होगा कि मुहम्मद साहब ने कभी मोअजज़ात नहीं किए और वो ऐसे तम्सख़र अंगेज़ और मुहम्मल (बेमाअ्नी, लायाअ्नी, फ़िज़ूल, बेमतलब) हैं कि कोई मुंसिफ़ दिल इनका ख़ुदा की तरफ़ से होना यक़ीन नहीं करेगा मगर चूँकि मुसलमान वक़ूअ मोअजज़ात पर अला-उल-ख़ुसूस मोअजज़ात क़ुरआनी पर बहुत ही इसरार करते हैं इसलिए हम उन्हें बाइबल शरीफ़ के मोअजज़ात से मुक़ाबला कर के देखेगे। इस मुक़ाम पर डाक्टर मचल साहब की किताब से चार मोअजिज़ों का ज़िक्र किया जाता है।

मोअजिज़ा शक़-उल-क़मर

1. मोअजिज़ा शक़-उल-क़मर : (चाँद के दो टुकड़े करना) चंद मोअजज़ात का जिनकी निस्बत मुफ़स्सिरीन का दावा ये है कि क़ुर्आन में मज़्कूर हैं यहां ज़िक्र किया जाता है उनमें निहायत मशहूर मोअजिज़ा शक़-उल-क़मर (चाँद के दो टुकड़े करना) है। अब हम देखते हैं कि क़ुर्आन इस बारे में क्या कहता है। सूरह 24 में है कि अदालत की घड़ी क़रीब है या लफ़्ज़ी तर्जुमा किया जाये तो ये होगा कि क़रीब आई है। और फट गया चांद और अगर वो देखें। (यानी देखेंगे निशानी तो फिर जाएंगे) ये कह कर ये सरीह (आश्कारा, ज़ाहिर) जादू है।

इस आयत के माअनों पर मुहम्मदी ख़ुद मुत्तफ़िक़ नहीं हैं। बाअज़ समझते हैं कि मुहम्मद साहब ने शाएराना ज़माना इस्तिक़बाल (भविष्य) का माज़ी (भूतकाल) में ज़िक्र किया है और ऐसा इब्रानी और अरबी में अक्सर हुआ है। इस सूरत में चांद का फटना एक ऐसी निशानी ठहरेगी जिसका वक़ूअ क़ियामत के दिन होगा। और आयात माबाअ्द का मतलब हमारे इस तर्जुमें के मुअय्यिद (ताईद करना) है। मुहम्मद साहब ने ये नहीं कहा कि बे-एतिक़ाद बावजूद निशानी देखने के फिर जाते हैं बल्कि ये कहा कि अगर वो देखें यक़ीनन अगर मुहम्मद साहब का मतलब ये होता कि इस मोअजिज़े का वक़ूअ हक़ीक़त में हुआ तो वो अक्सर कुफ़्फ़ार के शर्मिंदा करने को इस का ज़िक्र किया करते।

दूसरे ये कि मुहम्मद साहब ये नहीं कहते हैं कि मैंने चांद फाड़ा अगर ये अजीब बात हुई भी हो तो इस से सिर्फ ख़ुदा की क़ुद्रत साबित होगी। इस से मुहम्मद साहब के दावों की ज़रा भी ताईद नहीं पाई जाती तीसरे ये ज़ाहिर है कि इस मुक़ाम पर चांद का शक़ (टुकड़े) होना क़ियामत की अलामत क़रार दी गई है। पस अगर मुहम्मद साहब के वक़्तों में यानी जिसे तेराह सौ बरस हुए ये वाक़िया हुआ भी हो तो निशानी क़ियामत की कैसी हो सकती है। क़ियामत तो अभी तक नहीं आई।

मेअराज

2. मेअराज : दूसरा मशहूर वाक़िया मुहम्मद साहब की मेअराज है। क़ुर्आन में इस का ज़िक्र इस तरह आया है कि, “पाक है वो जिनसे अपने बंदे (मुहम्मद) को मस्जिद-उल-हराम यानी मक्का से मस्जिद-उल-अक्सा यानी बैतुल-मुक़द्दस पहुंचाया।”

मुहम्मदी आलिमों से मालूम हुआ कि मुहम्मद साहब सातों आसमानों में होते हुए ख़ुदा की ऐन हुज़ूरी में पहुंचे और इसी रात को मक्के को लौट आए। लेकिन क़ुर्आन में एक लफ़्ज़ भी इस क़िस्म का नहीं आया है इसलिऐ मुहम्मद साहब पर इल्ज़ाम देना नहीं चाहिए ये क़सूर उनके पैरों (मानने वालों) का है। और अगर फ़र्ज़ भी किया जाये कि मुहम्मद साहब ने ये काम किया है तो भी इस में कोई मोअजिज़ा नहीं पाया जाता। हम अक्सर बोलते हैं कि ख्व़ाब में हमने ऐसा और ऐसा किया और फ़ुलानी जगह पहुंचे इसलिए अक़्लन इस का मतलब यही है। बहुतेरे मुहम्मदियों की भी यही राय है और ये भी कहते हैं कि मुहम्मद साहब की बीबी हफ़्सा ने साफ़-साफ़ कहा कि मेअराज की रात आप बिस्तर से नहीं हिले। ऐसे मुक़द्दमे में हफ़ज़ा की गवाही निहायत मोअतबर होगी। ये मुम्किन है कि मुहम्मद साहब की जोश-ए-तबीअत से ये तमीज़ ना रहा हो कि ये वाक़िया हक़ीक़त में गुज़ारा या ख्व़ाब था या उन्होंने बिला-इरादा धोकादेही के हक़ीक़ी तसव्वुर कर लिया हो इस की शहादत ख़ुद मुहम्मद साहब ही देते हैं। हम कैसे सिर्फ एक गवाह की गवाही पर जबकि वो अपनी गवाही आप दे यक़ीन कर सकते हैं।

जिन्नों का ईमान लाना

3. जिन्नों का ईमान लाना : तीसरा अजीब माजरा जिसका क़ुर्आन में ज़िक्र है और जिसको मुसलमान मोअजिज़ा क़रार देते हैं ये है कि, जिन्नों का एक गिरोह मुहम्मद साहब का क़ुर्आन पढ़ना, सुनके ईमान लाया और जाकर अपने साथीयों को दावत-ए-इस्लाम की। (देखो छयालीस व बहत्तर) कहते हैं कि जिन्न भी एक मख़्लूक़ है जो ना आदमी है ना फ़रिश्ता। एक आलिम मुसलमान का क़ौल है कि वो शैतान की ज़ियारत हैं और फ़रिश्तों से उनमें इतना फ़र्क़ है कि उनके लड़की लड़के भी होते हैं। इस मोअजिज़े पर सिवाए इस के और किसी बात के लिखने की ज़रूरत नहीं है कि हमें अव्वल जिन्नों ही के वजूद में कलाम है कि आया ऐसी कोई मख़्लूक़ है। फिर मुहम्मद साहब की शहादत इस बारे में किस काम की है। क्या बईद है कि मुहम्मद साहब ने ऐसी कोई चीज़ ख्व़ाब में देखी हो लेकिन हमें उनके ख्व़ाब से क्या काम है। हम इस मुआमले को ज़्यादा तूल देना नहीं चाहते। ग़र्ज़ ये है कि मुहम्मद साहब के दावों की सदाक़त (सच्चाई) इस से मुतलक़ (आज़ाद) नहीं होती। ईसाइयों की किताब में लिखा है कि मसीह को फ़रिश्तों ने देखा इस को कोई ईसाई मोअजिज़ा तस्दीक़ रिसालत नहीं कहता। तस्दीक़ रिसालत के लिए ज़रूर है कि मोअजज़ात साफ़ और सरीह (साफ़-साफ़ ज़ाहिर) हों कोई उनका इन्कार ना कर सके।

फ़त्ह जंग बद्र का मोअजिज़ा

4. फ़त्ह जंग बद्र मोअजिज़ा नहीं है। अम्र चहारुम मज़्कूर क़ुर्आन जिसे मुसलमान अजीब मोअजिज़ा समझे हैं जंग बद्र है जिसमें मुहम्मद साहब ने फ़त्ह पाई थी। कहते हैं कि मुहम्मद साहब के साथ सिर्फ तीन सौ उन्नीस आदमी थे और दुश्मन क़रीब हज़ार के थे। क़ुर्आन के तीसरे सूरह आयत 7 का मज़्मून ये है कि ख़ुदा ने मुसलमानों की मदद को अव्वल एक हज़ार फिर तीन हज़ार फ़रिश्ते भेजे। इस लड़ाई में 70 दुश्मन और सिर्फ 14 मुसलमान मारे गए। ये क़िस्सा अपने मज़्मून की वजह से बातिल है। क्योंकि 1000 आदमियों की शिकस्त के लिए 4000 फ़रिश्तों और 319, आदमियों की क्या ज़रूरत थी। किसी मुसलमान ने इन फ़रिश्तों को नहीं देखा। क़त-ए-नज़र इस के अगर सिर्फ 319 है मुसलमानों ने बग़ैर मदद फ़रिश्तों के 1000 आदमी को शिकस्त दी तो कोई ताज्जुब की बात ना थी। थोड़ी बरस हुईं कि सर चार्ल्स साहब ने मुल्क सिंध को हालाँकि मुख़ालिफ़ की तादाद इस से भी ज़्यादा थी फ़तेह किया।

मोअजिज़ात-ए-रोमन कैथोलिक

उम्दा मोअजज़ात मज़्कूर मुहम्मदियान यही हैं लेकिन हमने साबित कर दिखाया कि जो शहादत इनके वक़ूअ की निस्बत पेश की गई है वो ना सिर्फ नाक़िस है बल्कि ये मोअजज़ात भी बावजूद आला व उम्दा कहलाने के उम्दा व आला मक़्सद से ऐसे ख़ाली और ऐसी लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) और हक़ीर हैं कि कुतुब मुक़द्दसा के पाक मोअजज़ात के सामने इन्हें एक वहमी बीमार आदमी की तख़ैयुलात (ख़यालात) कहना चाहिए। जो मज़्हब अपनी हक़ीक़त के सबूत में ऐसी शहादत रखता हो कौन एतबार करेगा बल्कि वही मोअजिज़े जो क़ुर्आन की तस्दीक़ के लिए पेश किए जाते हैं उसे जाली साबित करते हैं। और जबकि उम्दा मोअजज़ात क़ुरआनी का ये हाल है तो हदीसें जो छोटी रिवायतें हैं वो किस गिनती की हैं। इन से कोई नीरा जाहिल ही धोका खा जाये लेकिन जो तालीम- याफ़्ता व ग़ैर-मुतअस्सिब हैं वो इन बातों को नज़र-ए-हिक़ारत और नफ़रत से देखते हैं। जैसा कि मैं हिंदूओं के मोअजज़ात की निस्बत कह आया हूँ इसी तरह मुसलमानों की मोअजिज़ों की निस्बत भी कहता हूँ कि कुतुब मुक़द्दसा के मोअजज़ात से इन के मुक़ाबले का नाम लेना भी बेजा (बे-फ़ुज़ूल) है। मुफ़्त में वक़्त का ज़ाए करना है और ब एतबार ईस्वी मोअजज़ात के आला ख़ासियत के ये कहना चाहिए कि ऐसा करना बड़ी नादानी और सरीह (साफ़-साफ़) कुफ़्र की बात होगी। अम्र को साबित कर के कि तमाम मोअजज़ात मज़्कूर दीगर अदयान बातिल (झूटे दीन) हैं यानी वो मोअजज़ात-ए-इलाहिया नहीं हो सकते और इसी सबब से ब हस्ब सही मफ़्हूम व तारीफ़ मोअजज़ात ईस्वी के इनको मोअजज़ात हक़्क़ा नहीं क़रार दे सकते और बा सबब लग़्वियत और मंशा बेदीनी और नुक़्सान शहादत (गवाही) वो इस लायक़ नहीं कि उनको मोअजिज़ा कहें। अब हम इन मोअजज़ात के दर्याफ़्त की तरफ़ मुतवज्जोह होते हैं जिनके वक़ूअ का ऐसे अश्ख़ास दावा करते हैं जो (अपने) आपको ईसाई कहते हैं। ख़ुसूसुन रोमन कैथोलिक और वो करामात जिनको रोमन कैथोलिक कहते हैं कि हमारे बुज़ुर्गों की हड्डीयों से सरज़द हुई हैं। लेकिन ये मोअजिज़े भी मिस्ल ऐसे अजाइबात कफ़्फ़ारे ऐसे लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) और बाएतिबार अपने मंशा के ऐसे पोच व लचर और ब एतबार शहादत के ऐसे नाक़िस हैं कि तमाम सच्चे रोशन ज़मीर ईसाई उनको भी बातिल जानते हैं।

एतराज़-ए-कुफ़्फ़ार

कुफ़्फ़ार रोमन कैथोलिकों के मोअजज़ात को तमाम मोअजज़ात-ए-हक़्क़ा की हक़ीक़त के मुक़ाबिल में मोतरिज़ाना (एतराज़न) पेश कर के कहते हैं कि अगर ये मोअजज़ात जिनके वक़ूअ और ज़हूर का दावा अश्ख़ास मुद्दई ईसाईयत ने किया है बातिल हैं तो मसीह और उस के रसूलों के मोअजज़ात भी बातिल मुतसव्वर होंगे। बजवाब इस के हम ये कहते हैं कि इस अम्र का ज़रूर लिहाज़ रखना चाहिए कि सच्चे मसीहियों के दर्मियान बाअज़ रियाकार भी ज़रूर होते थे। बाअज़ आदमी बल्कि बाअज़ पादरी भी ख़ुसूसुन कलीसिया-ए-रोमन कैथोलिक में ऐसे गुज़रे हैं जिन्हों ने मज़्हब-ए-ईस्वी सिर्फ इस ग़र्ज़ से इख़्तियार किया था कि हुकूमत उनकी क़द्र व मंज़िलत करें और इज़्ज़त व दौलत हासिल हो। और उनके दिल रूह-उल-क़ुद्स से मुतास्सिर ना थे। इसी सबब से हर तरह के फ़रेब और शरारत किया करते थे। लेकिन ये भी ख़ूब जान लेना चाहिए, कि किसी अक़्लमंद के नज़्दीक ऐसे आदमियों का रियाकारों की जमाअत में पाया जाना कोई दलील मज़्हब ईस्वी की हक़ीक़त या सेहत व उम्दगी के मुख़ालिफ़ नहीं। ना बातिल मोअजिज़ों से हक़ मोअजिज़ों के ख़िलाफ़ पर कुछ दलील हो सकती है।

अक़्लन कोई नहीं कह सकता कि बाअज़ जालसाज़ों ने खोटा रुपया चलाया है इसलिए ख़ास रुपया कहीं नहीं है बल्कि खोटे का होना ऐन दलील इस बात की है कि खरे (अस्ली) का वजूद है। अगर ऐसा ना होता तो खरे का इम्तियाज़ कहाँ से होता ऐसा ही हाल मज़्हब ईस्वी और उस के मोअजज़ात का क़ियास (जांच लगाना, अंदाज़ा) कर लेना चाहिए दरबार मोअजज़ात रोमन कैथोलिक ईसाइयों के विलायत अमरीका की एक जय्यद आलिम व मुअल्लिम डाक्टर हाच साहब इस तरह फ़र्माते हैं कि मुख़्तलिफ़ एतबारात से इनकी तक़्सीम हो सकती है। बाअज़ मोअजिज़े ब एतबार अस्लियत के गौरतलब और बड़े मालूम होते हैं और बाअज़ मिस्ल बाज़ी तिफ़्लाँ हीच और बाअज़ नामाक़ूल और बाअज़ मुस्तल्ज़िम कुफ़्र हैं। दूसरा तरीक़ा इनके तक़्सीम का ये है कि उनके अस्ल मंशा को दर्याफ़्त करना यानी ये कि किस लिए वो मोअजज़ात दिखाए गए थे बाअज़ मोअजिज़े अश्ख़ास या मुक़ामात या अश्या-ए-मख़सूसा के इज़हार-ए-तक़द्दुस के लिए बाअज़ किसी अजादी मसअले या बिद्अत के क़ायम करने के लिए मसलन एतिक़ाद आराफ़ और औलिया और किताब और बाकिरा (कुँवारी) मर्यम वग़ैरह की परस्तिश क़ायम करना। बाअज़ इसलिए कि लोग मानने लगें कि फ़ुलां तबर्रुकात फ़ुलाने बुज़ुर्ग के हैं। रुपया जमा करने और क़ुव्वत व शौकत बढ़ाने के लिए है ऐसी बातें लोग किया करते थे ऐसे मोअजज़ात की निस्बत हम मुन्दरिजा ज़ैल नताइज निकालते हैं।

1. बमुक़ाबला मोअजज़ात मुन्दरिजा बाइबल के दीनदारी के एतबार से वो मोअजज़ात निहायत दीनी लेकिन ज़ाहिरी शान व शौकत में आला और ऐसी ऐसी बातें उनके साथ हैं कि लोग ख़्वाह-मख़्वाह मानने लगें। बहुतेरे उनमें से ऐसे फ़ौक़-उल-ताक़त व अल-अक़्ल नहीं जैसे ख़िलाफ़ आदत व अक़्ल हैं। मसलन फलां ईसाई दरवेशों के साथ जंगली दरिंदे गेंडे, शेर दोस्ती रखते थे बातें किया करते थे। मज़्हब को मानते बुराईयों से तौबा करते और दीनदार हो जाते थे वग़ैरह।

2. वो मोअजिज़े मज़्हब ईस्वी के इस्तिहकाम के लिए नहीं बल्कि…… ज़िंदगी बसर करने और इशा-ए-रब्बानी की क़ुव्वत-ए-सहरी साबित करने और बुज़ुर्गों और उनकी तबर्रुकात की परस्तिश करने और बहुतेरे और नापाक तुहमात के रिवाज देने को दिखाए जाते थे।

3. रसूलों के ज़माने से जिस क़द्र बुअद होता गया उसी क़द्र उनकी तादाद बढ़ती गई। हालाँकि कोई वजह या ज़रूरत इनकी ना थी। उस ज़माने के बहुतेरे मुत्तहिद (इकट्ठे) ईसाई आलिम जैसे अगस्टेन नॉरटन और गिरबिगरी अव्वल गुज़रे हैं उनकी राय ये है कि छोटे तबर्रुकात मह्ज़ धोकादेही और अवामुन्नास के फ़रेब देने के लिए थे। बावजूद ये कि रोमन कैथोलिक के बहुत से मोअजज़ात लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) और झूटे हैं लेकिन हम ये नहीं कहते हैं कि ऐसे सब मोअजज़ात उम्दन (जानबूझ कर) फ़रेब से वाक़ेअ हुए। मोअजज़ात और फ़रेब के दर्मियान बहुत से दर्मियानी मुरातिब ख़ुद-फ़रेबी के हैं। मसलन ख़्वाब-ए-बेदारी, वाक़ियात और ईलाज मक़नातीसी और रूह इन्सानी के ग़ैर-मामूली हालात जिनको कामिल इसरार कहना चाहिए और जिनको हम बावस्फ़ हर रोज़ की देख-भाल के नहीं मालूम कर सकते हैं। ऐसे मुताल्लिक़ कामों के दर्याफ़्त करने में हमको निहायत दर्जे की एहतियात चाहिए। झूटी बातों और वहम के इसरार से ये याद कर के बचना चाहिए कि आस्मान व ज़मीन में बहुतेरी बातें ऐसी हैं जो हिक्मत ने भी कभी ख्व़ाब में नहीं देखीं। ताहम हक़ीक़ी मोअजज़ात का फ़र्क़ बातिल मोअजिज़ों से ब-आसानी मालूम हो जाता है। मोअजज़ात मुन्दरिजा कुतुब-ए-मुक़द्दसा में कोई ऐसा बेकार और तम्सख़र अंगेज़ नहीं जैसे रोमन कैथोलिकों के मोअजज़ात फ़ुज़ूल बातों से भरे हैं।

बुज़ुर्ग जुनौरनियस का अजीब क़िस्सा

मसलन बुज़ुर्ग जुनौरनियस का अजीब क़िस्सा कि उनका सर और ख़ून बोतलों के अंदर शहर नेपल्स में रखा है और ख़ास मौक़ों पर जब दोनों बोतलों को मिलाते हैं तो वो ख़ुश्क और सख़्त ख़ून पिघल कर मिस्ल ताज़ा ख़ून के रक़ीक़ (पतला, बारीक) हो जाता है। (देखो सफ़ा 14) जाहिल आदमी जोश-ए-मज़्हबी से अंधे हो कर ये नतीजा निकालते हैं कि ख़ुदा की क़ुद्रत से ऐसा होता है। और बुज़ुर्ग मौसूफ़ की लाश को पूजते हैं। अब देखिए कि ये जाली मोअजिज़ा कई वजह से सरीह-उल-बतलान (साफ़-साफ़ बातिल) है।

इस क़िस्से का बुतलान कई दलाईल से

1. इल्म-ए-तबीयत के उसूल से बहुतेरी चीज़ें ऐसी बन सकती हैं कि तारीक व बंद मकान में रखे रहने से सख़्त हो जाएं लेकिन जब उन्हें बाहर ला कर धूप दी जाये तो फ़ौरन रक़ीक़ (पतला, बारीक) हो जाएं। ग़ालिबन वो ख़ून भी इसी क़िस्म की चीज़ों में से होगा।

2. जिस तरीक़ से फ़रेबी और चालाक राहिब ये कैफ़ीयत दिखाते हैं इस से कुछ बईद नहीं कि दो बोतलें एक ख़ुश्क और सख़्त ख़ून की और एक ताज़ा रक़ीक़ (पतला, बारीक) ख़ून की जेब में छिपा रखते हों और हाथ की चालाकी से ताज़ा रक़ीक़ (पतला, बारीक) ख़ून की बोतल को जेब से फ़ौरन निकाल कर सरों वाली बोतल से लगा कर ये कहते होंगे कि देखो सख़्त और ख़ुश्क ख़ून सर वाली बोतल के मिलाने से रक़ीक़ (पतला, बारीक) हो गया। चालाक राहिबों को कुछ दुशवार नहीं कि तमाशाइयों से जो इस ख़ानक़ाह (किसी पीर या दरवेश का मक़बरा) में जमा होते हैं आँख बचा कर उन वाहिद (अकेले) में ऐसा कर लें। इस मुल्क में अदना भानुमती ऐसे ऐसे काम करते हैं कि इस साख्ता मोअजिज़े से भी निहायत मुश्किल और अजीब काम होते हैं लेकिन जिस ग़र्ज़ से ये अजीब कैफ़ीयत वहां के राहिब (रास्ता दिखाने वाले) दिखाते हैं वो ग़र्ज़ ऐसी ना माक़ूल है कि हरगिज़ उसे मोअजिज़ा इलाही कहना ज़ेब नहीं देता। वो लोग जाहिलों को इस ग़र्ज़ से ये कैफ़ीयत दिखाते हैं कि उनकी परस्तिश और ताज़ीम करें और जानें कि जब कि बुज़ुर्ग जुनौरनियस के सर और ख़ून में ऐसी क़ुद्रत है तो हम जो ज़िंदा हैं कैसी क़ुद्रत वाले होंगे। पस ये अजीब वाक़िया भी अदना रियाकार लोगों के बहुत से जाली मोअजिज़ों की मानिंद है और ऐसे बातिल मोअजज़े इस लायक़ नहीं कि कुतुब मुक़द्दसा के मोअजज़ात से उन्हें कुछ निस्बत दी जाये मगर दो अचंभे (हैरत, ताज्जुब) ऐसे हैं जिनकी निस्बत काफ़िर कहते हैं कि वो ऐसे ही लायक़ एतबार हैं जैसे मोअजज़ात मुन्दरिजा बाइबल और अगर वो बातिल तसव्वुर किए जाएं तो कुतब मुक़द्दसा के मोअजज़ात को भी सही नहीं जानना चाहिए। अब हम उनका भी मुख़्तसरन कुतुब मुक़द्दसा के मोअजिज़ों से मुक़ाबला करेंगे।

टांग का बतरीक़ एजाज़ बन जाना

1. ये मोअजिज़ा कि स्पेन के रोमन कैथोलिक कलीसिया में एक नौकर की टांग रोग़न पाक ठूंठ पर मलने से बनेगी। ये क़िस्सा कार्डिनल डी॰ रिटनज़ साहब की किताब से नक़्ल किया गया है बिशप साहब मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की जाये) ने लिखा है कि शहर सारगोसा की कलीसिया वाक़ेअ मुल्क स्पेन में मुझे लोगों ने एक आदमी दिखाया जो वहां लैम्प जलाने पर नौकर था और कहा कि ये शख़्स कई बरस इस फाटक पर एक टांग का रहा। मैंने (यानी डी॰ रिटनज़ साहब ने) उस की दोनों टांगें देखीं। इस बयान को बग़ौर आज़माने से साहब मौसूफ़ का मतलब साफ़ मालूम होता है। सिर्फ मस्नूई (खुदसाख्ता) टांग का लगा देना इस क़िस्से के सच्चा ठहराने को काफ़ी था। जिस जगह टांग बना कर लगाना कोई जानता ना हो और किसी ने ये हिक्मत व कारीगरी सुनी ना हो वहां मस्नूई (खुदसाख्ता) टांग किसी हिक्मत से बना कर लगा देने को भी जाहिल लोग मोअजिज़ा समझे होंगे और तमाम शौहरत हो गई होगी, कि फ़ुलाने पादरी साहब के पाक तेल ठूंठ पर मिलने से फिर वही टांग बनेगी। डी॰ रिटनज़ साहब के बयान से सिर्फ इतना पाया जाता है कि उन्होंने दोनों टांगें देखीं। वो ये नहीं कहते कि मैंने दोनों टांगों को बग़ौर आज़माया। साफ़ ज़ाहिर है कि साहब मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की जाये) ने आज़माया नहीं उन्होंने ये नहीं लिखा कि मैंने उसे चलते देखा। इस में शक नहीं की कार्डिनल साहब ने जो कुछ देखा और जिसकी शहादत दी वो सिर्फ़ मस्नूई (खुदसाख्ता) टांग पर भी सादिक़ आएगा। असली टांग की जगह टांग बना कर लगा देना कुछ ऐसी बात नहीं कि उसे मोअजिज़े कहा जाये। इस मुल्क में भी बहुतेरे ऐसे हैं जैसा डाक्टर पानी साहब लिखते। इस बात को भी याद रखना चाहिए कि इस जगह ख़ादिम-उद्दीनों ने अपनी व नामवरी के लिए इस क़िस्से को ख़ूब बनाया होगा अगर वो लोग खुद इस क़िस्से को बताते तो किसी की अख़ीर सदी के वस्त में ये जुर्आत ना थी कि इस पर कुछ बह्स करता जैसा कि ये क़िस्सा अवाम के जोश-ए-तबीअत और ख़यालात के मुनासिब था वैसा ही कलीसिया के लोगों के नफे से भी ख़ाली ना था। यहां तक कि तास्सुब और इख़्तियार दोनों ने कामिल जहालत पर मोअस्सर हो कर ऐसे मगर गाँठने में कामयाबी हासिल की। अब मोअजज़ात ईस्वी के हालात को देखिए कि इस से कैसे मुख़्तलिफ़ हैं। ये बेशक ताअजुबात से है कि मुख़ालिफ़ीन दीन-ए-ईस्वी अह्दे-जदीद के मोअजज़ात के मुक़ाबले में ऐसी लगू बातें पेश करते हैं। मादरज़ाद अँधों और बहरों और लंगड़ों को येसू मसीह ने तंदुरुस्त किया और अपने हुक्म से तिबरियास समुंद्र पर तूफ़ान को थमा दिया। दफ़न होने से चार रोज़ के बाद जब लाज़र की लाश का सड़ना शुरू हो गया था उसे क़ब्र से निकाल कर ज़िंदा कर दिया भला ऐसे मोअजिज़ों को इन लगू (बेहूदा, नामाक़ूल) बातों से क्या निस्बत है। बिला-शुब्हा डी॰ रिटनज़ साहब के बयान से साफ़ ज़ाहिर होता है कि साहब मौसूफ़ को ख़ुद इस का यक़ीन ना था लेकिन काफ़िर ये कहते हैं कि साहब मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की जाये) ने इसलिए इस का यक़ीन नहीं किया कि लोग जान लें कि सब मोअजज़ात ऐसे ही ग़ैर-मोअतबर थे। मगर ये दलील उनकी ऐसी है जैसे कोई कहे कि जमाअत में जालसाज़ी वाक़ेअ हुई थी इसलिए तमाम जमाअतों की कुल बातें धोके और फ़रेब की होती हैं। बड़े ताज्जुब (हैरानी) की बात है, कि काफ़िर ऐसे नादान हो गए कि सबब कुफ़्र को एक दलील से जो बद यही ज़ईफ़ है ख़तरे में डालते हैं।

दावे बातिल कि अबीपार्स की क़ब्र पर मरीज़ों ने शिफ़ा पाई

2. दूसरी मिसाल जिसका काफ़िर अक्सर हवाला देते हैं वो अजीब शिफ़ा है जो मरीज़ों को अबीपार्स की क़ब्र पर हासिल हुई थी। ये मशहूर हुआ था और बहुतों ने यक़ीन भी किया कि हज़ारों ने इस मशहूर आदमी की क़ब्र पर शिफ़ा पाई और बहुत मरीज़ अपने घरों ही में अबीपार्स के तबर्रुकात की बरकत से यानी इस बुज़ुर्ग की मूरतों और इस मिट्टी की बरकत से जो क़ब्र पर से लाई जाती थी अच्छे हो गए। इस बाब में और नीज़ उन दलाईल के लिए जो ऐसे मोअजज़ात बातिला की ताईद में बमुक़ाबला मोअजज़ात हक़्क़ा अह्दे-जदीद पेश किए जाते हैं बयान मुन्दरिजा ज़ैल काफ़ी होगा।

1. तादाद इन करामात शिफ़ा-ए-मरीज़ान की जिनका वक़ूअ साबित किया जाता है बहुत थोड़ी है। अस्ल तादाद इस की मोअर्रिखों (तारीख़ लिखने वाले, तारीख़ दान) ने सिर्फ नौ लिखी है।

बुतलान दावा मज़्कूर बोझ

हज़ारों लाखों मरीज़ों में से जो इस क़ब्र पर आए थे लिखा है कि कुल तो अच्छे हुए। बहुतेरे लोग आजकल ऐसे हैं कि (अपने) आपको हकीम मशहूर कर के दवाएं करते हैं और हज़ारों में बाअज़ अच्छे भी हो जाते हैं तो इस से उनके फ़रेबी और दग़ाबाज़ होने में कुछ शक आता।

मिस्मेरिज़्म और कच्ची दवाओं के इस्तिमाल से इस से भी ज़्यादा अजीब वाक़ियात वक़ूअ में आए हैं। बहुतेरे अमराज़ अजीबा इत्तिफ़ाक़ ज़माने से अच्छे हो गए हैं। बहुतेरी रगों के मुताल्लिक़ बीमारियां ऐसी हैं कि सिर्फ दवा की तासीर पर एतिक़ाद करने से दूर हो जाती हैं यानी बीमारियां ख़याल की तासीर से जाती रहती हैं। बहुतेरे झूट-मूट को बीमार बन जाते हैं और फिर कहते हैं कि हम अच्छे हो गए। लेकिन आज़माने से मालूम हो जाता है कि इब्तिदा ही से उनका फ़रेब होता है। अब देखिए इन बातों को मसीह के मोअजज़ात से क्या निस्बत है। हज़ारों मरीज़ उस के पास आए और सबने ये कि हज़ारों में फ़क़त तूने शिफ़ा पाई। मत्ती 5, 24, 13, 15, 14, 14, 17, 15 लूक़ा 51, 22 को आमाल 4, 41, 5, 10, 28, 8 से मुक़ाबला करो।

2. इस ज़माने में नुक्ता-चीनी के साथ जो बयान हुआ इस से ज़ाहिर है कि ना सिर्फ यही हुआ कि बहुत से आदमी इस क़ब्र पर आए और कुछ फ़ायदा ना उठाया बल्कि बज़ाहिर बीमार बन गए। ये ख़ुद उन्हीं के इक़रार से साबित हुआ। ये भी लिखा है कि बाअज़ बीमार एक रोज़ में अच्छे हो गए और बाअज़ हफ़्तों बल्कि महीनों में अच्छे होने पाए। और बहुतेरों ने उस वक़्त कहा कि ये माजिज़ी ग़लत हैं और जब सरकारी अक़्लमंद ओहदेदारों ने सोस के लाट पादरी से इस की बाबत पूछा तो उसने कहा 22 आदमियों को मैं जानता हूँ कि उन्होंने फ़रेब से अच्छा होना अपना मशहूर किया। आख़िर अलाम सरकार ने मुदाख़िलत करके इस फ़रेब और अय्यारी (धोकेबाज़ी) की रस्म को मौक़ूफ़ कर दिया।

3. बहुतेरे उस क़ब्र के ख़ुद और बाअज़ उन लोगों में से भी जिनका अच्छा होना मशहूर हुआ था पहले से दवा का इस्तिमाल करते थे। एक अंधा जिसने बीनाई पाई थी उस की निस्बत साफ भी हो गया कि क़ब्र पर रुजू लाने से पहले उसने शिफ़ा पाई थी और उसकी मौत से पेश्तर वो मोअजिज़ा बातिल क़रार पाया।

4. इन मोअजिज़ों में से कोई फ़ौरन क़ब्र पर नहीं वाक़ेअ हुआ। मसीह और उस के रसूलों ने जितने मोअजिज़े किए वो ऐसे थे कि अंधा फ़ौरन देखने लगा। लंगड़ा जब उसे चलने को कहा तो हिरन की तरह गलचारीन मारता था। मफ़लूज अपनी चारपाई लेकर फ़ौरन चलने लगा। नैन का जवान आदमी जो मर चुका था मअन (एक साथ, मिलकर) उठ बैठा लाज़र मसीह के हुक्म देते ही क़ब्र से निकल आया। अबीपार्स की क़ब्र पर ऐसा ना हुआ। सब पुजारी हफ़्तों और महीनों क़ब्र पर पड़े रहे और हर रोज़ इस से गिड़गिड़ाक दुआएं मांगते थे। और जिन जिनको वहां शिफ़ा हुई वो भी बतद्रीज हुई पस ऐसे वाक़ियात इत्तिफ़ाक़ी से कुफ्फारे मसीह के सच्चे मोअजज़ात के मुक़ाबले में क्या इस्तिदलाल पकड़ते हैं। भला मसीही मोअजज़ात से उनको कहा निस्बत है। मसीही मोअजिज़ों के बराबर ना कोई मोअजिज़ा आज तक हुआ और ना आइन्दा हो। माहसल इस तक़रीर का ये है कि जबकि इन अजीब किस्सों में से कोई भी अह्दे-जदीद के मोअजज़ात की शहादत पर असर नहीं कर सकता तो वो शहादत (गवाही) बेशक वैसी ही पुख़्ता और कामिल रहेगी जैसी कि थी।

मुसन्निफ़ की राय मिस्मेरिज़्म और अमल अरवाह वग़ैरह पर

मेरी राय इन सब बातों मुन्दरिजा कुतुब अक़्वाम ग़ैर और रोमन कैथोलिक के यहां के क़िसस व हिकायात की निस्बत और जिन बातों का मिस्मेरिज़्म वाले और आमिल दावा करते हैं उनकी निस्बत यही है कि अक्सर इस क़िस्म की बातें बिल्कुल दग़ाबाज़ और शरीर आदमियों की बनाई हुई हैं और बहुत बातें फ़ित्रती सबब से वाक़ेअ हुईं मगर लोगों ने तरह-तरह के झूट बनाकर मोअजिज़ा ठहरा दिया। मगर इस के साथ ही ये भी कहता हूँ कि बाअज़ अजीब बातें हक़ीक़तन इसी तरह वक़ूअ में आईं जैसा उनकी निस्बत लिखा है। लेकिन ये मेरा एतिक़ाद नहीं कि वो बातें मोअजिज़ा थीं बल्कि फ़ित्रत के क़वानीन मुक़र्ररा के मुताबिक़ (वो क़वानीन ज़हनी या जिस्मी) वक़ूअ में आएं। मिस्मेरिज़्म के बाब में बाअज़ ये दावा करते हैं कि इन्सान की रगों में निहायत रक़ीक़ माद्दा है जिसके सबब से आदमी में ये क़ुद्रत है कि दूसरे पर दूर से असर पहुँचाता है जैसे मक़नातीस लोहे को दूर से खींचता है। एक जर्मनी कीमियागर मसमेरखीन बाख कहते हैं कि मैंने फ़ित्रत में एक अजीब क़ुव्वत देखी और वो उस वक़्त कवावडली कहती हैं साहब-ए-मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की जाये) लिखते हैं कि जो लोग तबीयत के नर्म और रक़ीक़-उल-क़ल्ब होते हैं उनसे ये क़ुव्वत ज़ाहिर हो सकती है। साहब मौसूफ़ के कुल तजुर्बात इस बाब में ऐसे ही शख्सों के ज़रीया हुए। मगर सही तजुर्बे से दोनों राएं ग़लत मालूम होती हैं। एक हकीम बुरीद साहब साकिन मेंचस्टरवाका इंग्लिस्तान ने इस मुक़द्दमें में बड़ी तहक़ीक़ की है। वो कहते हैं कि ये कुछ ज़रूर नहीं कि दूसरा शख़्स हो तो मिस्मेरिज़्म असर करे। सिर्फ आदमी को ख़ामोश बिठाने और किसी चीज़ पर नज़र जमाने से मसलन रुपया या लकड़ी वग़ैरह हो। अमल का असर मअमूल पर यानी आम के देखने के ख़ूब हो जाता है। इसी वजह से साहब मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की जाये) ये नतीजा निकालते हैं कि रगों के रक़ीक़ (पतला, बारीक) माद्दा से हाथों के चढ़ाव और उतार से इस अमल को ताल्लुक़ नहीं है। वो कहते हैं कि ये सब बातें मअमूल के जिस्मी और ज़हनी हालतों पर अला-उल-ख़ुसूस हालत-ए-दिमाग़ी पर बहता सैर ख़याल और इशारे के मौक़ूफ़ हैं। दुनिया के बड़े-बड़े इल्मी तारीख़ दान और अत्बा (तारीख़ की जमा) यानी डाक्टर और उलमा तहक़ीक़ कर चुके कि ये राय यानी लोगों में किसी क़िस्म की अजीब क़ुव्वत या रक़ीक़ माद्दा (पतला, बारीक) होता है या आला मक़नातीसी में कोई क़ुव्वत है मह्ज़ धोका है। जिस मुसम्मर साहब ने अपने अजाइबात दिखाना शुरू किए तो उस के थोड़े ही अर्से के बाद फ़्रांसीसी गर्वनमैंट की तरफ़ से बड़े-बड़े आलिमों की जमाअत के लिए दर्याफ़्त इस मुआमले के मुक़र्रर हुई। जिन्हों ने ये तस्फ़ीया किया कि जो तासीरात पैदा होती रहीं वो हक़ीक़त में ख़याल और उम्मीद से जिनका मुहर्रिक उमूमन इशारा है, पैदा होती हैं। ज़हन की ये एकसी तासीर हम पर इल्म फ़ित्रत-ए-इन्सानी में से है गो कि जब मिस्मेरिज़्म की तालीम शुरू हुई थी लोग इस ज़हन व जिस्मी क़ानून को नहीं जानते थे बल्कि अब भी ऐसे थोड़े हैं जो इन बातों को समझते हैं। इसी वजह से बहुतेरे जानते हैं कि वाक़ियात मिस्मरेज़ी मोअजज़ात हैं। इल्म तर्कीब जानने वाले साल-हा-साल से जानते हैं कि इशारा इन्सान के दिमाग़ पर असर करता है। अगरचे बहुत लोग ज़हन-ए-इन्सानी के इस अजीब क़ानून से मह्ज़ नावाक़िफ़ हैं लेकिन ये क़ानून बहुत वुसअत से हमेशा इंसान पर मोअस्सर है।

इशारा ख़ारिजी किसे कहते हैं

ये तासीर क़ानून या क़ुव्वत इशारा दिमाग़ पर और इस की वजह से ज़हनी ख़वास पर जो है बहुत आम कअलों से ज़ाहिर होती है। जिसको कोई मोअजिज़ा नहीं कहता है यहां तक कि बहुतेरे अजीब काम स्प्रिटिज़्म के भी ऐसे ही मालूम होते हैं। आदाद से या और तौर पर दिल में ख़याल गड़ जाता है और वो ख़याल जागता है तो इस के साथ और ख़याल पैदा हो जाता है। इस तरह सिलसिला ख़यालात का बंध जाता है। पस ये तर्कीब कि एक ख़याल से और ख़याल पैदा हो जाते हैं और वो फ़ेअल तक पहुंचाते हैं। इशारा ज़हनी का कुल काम है। जब कोई बैरूनी असर अंदरूनी ख़यालात पर मोअस्सर हुआ और उनको बदल दे तो इसे इशारा ख़ारिजी कहते हैं। जब आदमी जागता है तो मर्ज़ी सब अंदरूनी बैरूनी इशारात को देखती भालती है और अपने क़ब्ज़े में लाती है। हालत ख्व़ाब या ख्व़ाब बेदारी में मर्ज़ी बिल्कुल बेकार मालूम होती है और इशारात ख़ारिजी से दिल मिस्ल एक कुल के होता है ये ख्व़ाब मशहूर बातें या क़ानून तर्कीब इन्सानी के मुताल्लिक़ हैं और यही हमारी राय में मिस्मेरिज़्म के अजाइबात की ख़ासियत बना है। एक और ख़ासियत ज़हन व जिस्म के क़ानून में से ध्यान जमाना है। या यूं कहे कि कोई चीज़ है इस का ख़याल आया और वो (ताक़तवर) हो गया। रगों के बिगड़ने से ऐसा ख़याल इस क़द्र क़वी हो जाता है कि महसूसात को भी मग़्लूब (आजिज़, कमज़ोर) कर देता है। इस हालत में ख़यालात अक्सर मुशाहिदे पर भी ग़लबा कर लेते हैं और ऐसे अफ़आल मर्ज़ी की क़ुद्रत से बाहर होती हैं बल्कि कभी-कभी आदमी जानता भी नहीं कि मैं क्या करता हूँ। फिर ये बात है कि उसी का ध्यान बहुत क़ुव्वत से आज़ाए जिस्मी पर असर करता है और आदमी का हाल अक्सर तो ऐसा हो जाता है कि जिस बात के देखने या सुनने का वो मुतवाक़ेअ होता है वही उसे दिखाई या सुनाई देती है। मसलन फ़र्ज़ करो कोई शख़्स किसी का मुंतज़िर घर में बैठा हो और इसी हालत इंतिज़ार में ग़ाफ़िल हो जाये यका-य़क उस के कान में आवाज़ आए तो उस को यक़ीनन ऐसा मालूम होगा कि वही शख़्स है यहां तक कि वो उठ कर दरवाज़ा खोलने जाएगा। या फ़र्ज़ करो किसी औरत का लड़का गुम हो गया है और वो उस के फ़िराक़ में बैठी है। इसी अस्ना में किसी और के लड़के का इस औरत के सामने से गुज़र हुआ तो वो उस वक़्त यही समझेगी कि मेरा लड़का आ गया। यही इल्म के उसूल-ए-ज़हनी और जिस्मी हैं। और मिस्मेरिज़्म और स्प्रिटिज़्म में इनका बड़ा काम है। इस में शक नहीं कि मिस्मेरिज़्म की नींद और ख्व़ाब बेदारी से वाक़ेअ हैं। जब आदमी इस हालत में होता है तो गोया इशारे का ग़ुलाम हो जाता है। इसी तरह आमिल अपनी मर्ज़ी से अमल करता और इसी इशारे से हालत-ए-ख्व़ाब पैदा हो जाती है। जब आदमी का ध्यान किसी बात पर निहायत क़ुव्वत से जमे तो उस वक़्त ख्व़ाब बेदारी की हालत पैदा हो जाती है।

ये तो हर कोई जानता है कि पागल आदमी में बाज़ औक़ात हालत जुनून में दस गुना वो ताक़त आ जाती है जो असली हालत में होती है। ये अम्र ज़हन की अजीब हालत के सबब जब कि वो सिर्फ एक ख़याल या बात का मह्कूम (हुक्म किया गया) होता है वक़ूअ में आता है जिससे ज़ाहिर होता है कि मर्ज़ी या ख़याल कैसी क़ुव्वत से जिस्म इन्सानी पर असर करता है। इसी तरह मिस्मेरिज़्म और स्प्रिटिज़्म के मअमूल से बड़े-बड़े क़ुव्वत के काम ज़हूर में आते हैं। वजह इस क़ुव्वत की यही है कि आदमी के दिल पर ख़याल व उम्मीद मुसल्लत हो जाते हैं मैंने मुख़्तसर उसूल और ताल्लुक़ात ज़हन व जिस्म का हाल ऊपर लिखा है। अब मैं बतौर मज़्मून तमहीदी अपनी राय के दरबाब दजोह वाक़ियात अजीबा मिस्मेरिज़्म के ज़ेल में लिखता हूँ।

मज़्मून तमहीदी दरबारा दजोह वाक़ियात मिस्मेरिज़्म

अव्वलन, मुझे मिस्मेरिज़्म के ख्व़ाब और ख़्वाब बेदारी का यक़ीन है। यानी इन्सान की साख़त इस क़िस्म की है जिससे ये अम्र मुम्किन है।

ज़हन को जिस्म से ऐसा ताल्लुक़ है कि किसी एक ख़याल या चीज़ पर मुतवज्जोह करने से वो सब आज़ा से जुदा हो सकता है यहां तक कि इस तरीक़ से जो इस जिस्मानी ऐसे मह्कूम व मग़लूब ज़हन के हो जाते हैं कि नींद आ जाती है बल्कि मुर्दे की तरह बिल्कुल ठंडा और सख्त और बेहिस व हरकत हो सकता है और इस ज़हनी जुदाई के मुख़्तलिफ़ दर्जे हैं यहां तक कि कभी-कभी आज़ा और हवास जिस्मानी बग़ैर मामूली तरीक़े गुफ़्तगु करने या नतीजा अफ़आल सोचने के यानी मजनूनाना बोझ मह्कूमी (हुक्म किया गया) किसी ख़याल या इशारा किसी दूसरे शख़्स के मुताबअत अहकाम ज़हनी की करते हैं। इस हालत में जिस्म बल्कि ज़हन भी कुल की मिस्ल काम करता है। कभी ऐसा होता है कि हवास और आज़ाए जिस्मानी मह्ज़ बे-हिस व हरकत और बेजान से हो जाते हैं। सिर्फ इतना होता है कि दो क़ुव्वतें सामेआ और नातिक़ा बल्कि कभी सिर्फ नातिक़ा क़ायम रहती है जिससे मअमूल हालत ख़्वाब-ए-बेदारी में बातचीत करता और सवालों के जवाब देता है मगर उस वक़्त में मर्ज़ी क़रीब-क़रीब मिस्ल कुल के आमिल के इख़्तियार में होती है। मिस्मेरिज़्म वालों का दावा है कि मअमूल पर हालत-ए-ख्व़ाब आमिल के नज़र डालने और हाथों के चढ़ाओ उतार से तारी हो जाती है। हम कहते हैं मुम्किन है कि एक आदमी दूसरे को किसी तर्कीब से सुलाये या यूं कहना चाहिए कि किसी की मदद से ताल्लुक़ात जिस्मी से ज़हन को जुदा कर के नींद की तरफ़ माइल किया जाये। मालूम होता है कि क़रीब-क़रीब इसी तर्कीब से माएं अपने बच्चों को सुला देती हैं यानी थपथपा कर और गीत गा गा कर बच्चों के ख़यालों और ध्यान को यकसाँ कर के सुला देती हैं। बाइनेहुमा जैसा हम ऊपर लिख चुके हैं ये भी साबित होता है कि एक चीज़ पर टकी बांध कर देखने से मिस्मेरिज़्म की हालत तारी हो जाती है। मामूली नींद भी सिर्फ यही है कि ज़हन को हवास या आज़ाए जिस्मानी की तरफ़ से फेर लिया जाये ख़्वाह ये अम्र ब मर्तबा कमी हो या ज़्यादती। फिर कभी ऐसा भी होता है कि आदमी मुख़्तलिफ़ सबबों से ऐसा ज़ईफ़ हो जाता है कि ज़हन की ज़रा सी तब्दीलियों को फ़ौरन क़ुबूल कर लेता है। मसलन मुम्किन है कि ब-वजह कमज़ोरी के आदमी की रगें ऐसी मुतास्सिर हो जाएं कि ज़रा से ख़ौफ़ व रंज से ज़ईफ़ (कमज़ोरी) तारी हो जाया करे। ऐसी हालत मुतास्सिरा के बढ़ जाने का ख़ौफ़ होता है इसलिए लोग बड़ी-बड़ी एहतियातें करते हैं कि ऐसे आदमियों का नुक़्सान ना हो जाये मेरी राय में मिस्मेरिज़्म वालों का ये दावा कि हम अपने अमल से दूसरे पर इख़्तियार हासिल करते हैं ग़लत है। बात ये है कि ताल्लुक़ ज़हन व जिस्म के जो क़ाएदे हैं उनसे ऐसा होता है जैसा कि ऊपर मज़्कूर (ज़िक्र किया गया) हुआ।

कैफ़ीयत मुतास्सिरा मामूली तीन नोट ये नौबत पड़ती रहती है

अलबत्ता जिन लोगों की तबीयतें इस अमल से चंद मर्तबा मुतास्सिर हो चुकी हैं उनका हाल ऐसा है कि आमिल की ज़रा निगाह करने से उनका दिल मह्कूम (ताबेदार) हो जाता है यानी जो इस जिस्मानी से फिर जाता है। लेकिन इस को सब मिस्मेरिज़्म वाले क़ुबूल करते हैं कि ये हालत बग़ैर मर्ज़ी मअमूल के नहीं हो सकती और ये साबित हो चुका है कि आदमी में ऐसी क़ुद्रत है कि अपने दिलों को आज़ाए जिस्मानी की तरफ़ से फेर कर सिर्फ एक अम्र यानी नींद की तरफ़ मुतवज्जोह कर सकते हैं तो इस से ये नतीजा निकलता है कि मिस्मेरिज़्म ज़हन की एक अजीब हालत है जो ज़हन और जिस्म के क़ुदरती ताल्लुक़ से पैदा होती है। ये ख़ासियत इंसानी साख़त की पुश्तों से लोगों को मालूम है गो आमिल इन उसूल से जो कभी-कभी अजीब नताइज का मूजिब होते हैं मह्ज़ नावाक़िफ़ हों साफ़ ज़ाहिर है कि ब-वजह इसी अजीब ताल्लुक़ ज़हन इंसानी के बहुत जादूगर और तमाशागर स्वाँग (खेल) तमाशे बनाते हैं और यक़ीन-ए-कामिल है कि बड़े-बड़े अजाइब और ग़राइब जो ग़ैर क़ौम के पंडितों से ज़हूर में आते हैं वो फ़ित्रत के इसी ज़हनी क़ानून के मुताबिक़ वक़ूअ में आए गो कि इस क़ुव्वत का राज़ यानी इस के उसूल ख़ुद आलिमों को भी मालूम नहीं थे और इसी वजह से लोगों ने ब-आसानी क़ुबूल कर लिया कि ये अफ़आल अज़ क़िस्म मोअजज़ात हैं बल्कि कुछ बईद नहीं कि ख़ुद बाअज़ आलिमों ने ऐसा समझा हो कि हमारे देवतों की मदद से ऐसा वक़ूअ में आता है।

कैफ़ीयत अमल अर्वाह ज़हनी व जिस्मी क़वानीन मज़्कूर की रू से होती हैं

दूसरे जिन वाक़ियात का स्प्रिटिज़्म वाले दावे करते हैं उस के बाब में मेरी राय यही है कि वो अक्सर उन्हें ज़हनी व जिस्मी क़वानीन मज़्कूर बाला की रू से अमल में लाते हैं जिनमें से मिस्मेरिज़्म वाले अपने करतब दिखाते हैं। इस में शक नहीं कि तमाम मज़्कूर बातें जादूगरी और तिलस्म और शोबदे-बाज़ी (जादू से मुताल्लिक़ हुनर या खेल) वग़ैरह की उन्हीं फ़ित्री क़वानीन या ज़हन व जिस्म की बनावट की वजह से वक़ूअ में आती हैं। मिस्मेरिज़्म और स्प्रिटिज़्म और जादूगरी अगरचे सब एक दूसरे से थोड़ा-थोड़ा फ़र्क़ रखते हैं ताहम बाएतिबार अस्लियत के इन तीनों में शिर्कत भी इस क़िस्म की है कि सब का एक ही सबब या बुनियाद ठहराई जाये और मुनासबत बाहमी उनमें इस क़द्र है और यहां तक सब का ताल्लुक़ वाहिद चीज़ों से है कि एक ही तश्रीह इनकी अस्लियत और रिवाज के बाब में काफ़ी हो गया ये सच्च है कि मिस्मेरिज़्म वाले और बाअज़ और आमिल जिनके नाम ऊपर आए हैं।

बाइबल शरीफ़ में भूत पलीद का ज़िक्र नहीं है

और जिन्हों ने अजीब अमल दिखाए हैं ये दावा नहीं करते कि हम अर्वाह की मदद से काम करते हैं इसलिए उनको स्प्रिटिज़्म से मुख़्तलिफ़ समझना चाहिए लेकिन हक़ीक़त में सबब इन सब अमलीयात की एक ही पाए जाते हैं यानी वही अजीब क़ुव्वत मर्ज़ी की जिस्म पर और अजीब क़ुव्वत इशारे की और ख़ौफ़ पार जा के वहियान और ख़यालात की इन अमलियात के सबब हैं। मगर में ये साबित नहीं कर सकता अगरचे मेरा एतिक़ाद भी नहीं कि मुतवफ़्फ़ी (वफ़ात पाया हुआ) दोस्तों की रूहें और भूत और नेक फ़रिश्ते ये क़ुद्रत नहीं रखते हैं कि ज़िंदा आदमियों से मिलीं और नीज़ ज़िंदा आदमियों की मर्ज़ी दरख़्वास्त से उनके जिस्मों पर क़ाबिज़ हों। ये निहायत क़रीन-ए-अक़्ल और मुम्किन है कि अक्ली व रूहानी दुनिया में भी क़ानून और क़ुव्वतें और आमिल हों जिनकी हज़ारों अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्म) से हम फ़ानी (फ़ना होने वाला) आदमी मुतलक़ (आज़ाद) वाक़िफ़ ना हों। जैसा कि दूरबीन और ख़ुर्दबीन के इस्तिमाल से बहुतेरे अजाइबात और मख़्लूक़ ऐसी मालूम हुई है कि इस आला (मशीन, औजार) के ईजाद होने से पहले उनसे बिल्कुल नावाक़िफ़ थे इसी तरह मुम्किन है कि हमारे चारों तरफा हवा में ऐसी रूहें हों जिनको हम जानते ना हों इस सबब से कि हमारी आँख इस क़िस्म की नहीं कि उन्हें देख सके और ये बात कि भूत पलीद और बुरी रूहें आदमियों पर क़ाबिज़ होती और उनको सताती हैं बाइबल शरीफ़ में इस की साफ़ तालीम मौजूद है। जबकि येसू मसीह दुनिया में था तो बद रूहों का निकाना उस के मोअजिज़ों में से था जब इस पास गिर गेसों के मुल्क में पहुंचा दो शख़्स जिन पर देव चढ़ते थे कबरोन से निकल कर उसे मिले वो ऐसे तुंद थे कि कोई इस रास्ते से चल ना सकता था। और उन्होंने चिल्ला के कहा, ऐ येसू ख़ुदा के बेटे हमें तुझसे क्या काम तू यहां आया कि वक़्त से पहले हमें दुख दे और उनसे कुछ दूर सूअरों का ग़ोल चरता था सो देवों ने उस की मिन्नत कर के कहा अगर हमें तू निकालता है तो हमें इन सूअरों के गोल (झुंड) में भेज दे। अब उसने कहा जाओ और वही निकल के सूअरों के ग़ोल में गए और वो सूअरों का सारा ग़ोल करारे पर से दरिया में कूदा और पानी में डूब मरा। मत्ती 8 बाब 28, 32, मर्क़ुस 1, 5 वग़ैरह। लूक़ा 8-26 वग़ैरह की इन्जील में लिखा है कि वो जो ईमान लाएगे उनके साथ ये अलामतें होंगी कि वो मेरे नाम से देवओं को निकालेंगे। मर्क़ुस 16, 17, और नीज़ मुक़द्दस पौलुस ने ख़बर दी है कि गुनाह के भेद शैतान और उसे जो उस के मह्कूम (हुक्म किया गया) हैं दिखाए जाएंगे। उस का आना शैतान के किए के मुवाफ़िक़ सारे इक़्तिदार और झूटे निशान और अचंभों और हलाक होने वालों के दर्मियान शरारत की कमाल दग़ा-बाज़ी के साथ होगा इसलिए कि उन्होंने रास्ती की मुहब्बत को कि जिससे वो नजात पाएं इख़्यतार ना किया। पहला थिस्सलुनीकियों 11 बाब 9, 10 आयत ये यक़ीन-ए-कामिल है कि यहूदी और और लोग मसीह के ज़माने के और मसीह से मुद्दत पहले के लोग देवओं के वजूद का एतिक़ाद रखते थे। और फ़रीसी दावा करते थे कि देव आदमियों पर क़ुद्रत रखते हैं। क्योंकि जब येसू ने देव निकाले तो उन्होंने उनके वजूद का इन्कार नहीं किया और बेदलील ये इल्ज़ाम लगाया कि उसने देवों के सरदार की मदद से देव निकाले हैं।

जिस वक़्त वो बाहर निकले देखो लोग एक गूँगे को जिस पर देव चढ़ा था उस के पास लाए और जब देव निकाला गया वो गूँगा बोला और लोगों ने ताज्जुब (हैरानी) करके कहा ऐसा कभी इस्राईल में ना देखा था। पर फ़रीसियों ने कहा कि वो देवों के सरदार की मदद से देवों को निकालता है। मत्ती 9 बाब आयत 33, 34 और जब कि ये ज़ाहिर है कि बद-रूहें अंधे आदमियों के इस तौर से नहीं सताती या घसीटती हैं जैसा अगले वक़्तों में हुआ करता था तो यक़ीन-ए-कामिल है कि शैतान और उसके रफ़ीक़ बद-रूहें आजकल के बहुतेरे आदमियों पर बड़ी क़ुव्वत रखती हैं। शैतान का शीरीर दिन के बहकाने का तरीक़ा बनिस्बत पहले के अब बहुत होशयारी और फ़रेब के साथ है इसलिए कुछ बईद नहीं कि आदमी रूह व जिस्म से बमह जिहत (सिम्त, तरफ, जानिब) भूतों के ग़ुलाम बन जाएं। या आपको यहां तक उनके हवाले करें यानी उनकी तासीरों से मोअस्सर हों कि वो बद-रूहें अला-उल-ख़ुसूस शैतान उन लोगों को वो बुरी बातें जिनसे वो वाक़िफ़ ना हों और जो बग़ैर मदद शैतान के मालूम ना हो सकतीं बताएं।

जादूगर का हाल

स्प्रिटिज़्म वालों के चाल-चलन और उनके उन अफ़आल की ख़ासियत से जिनके दिखाने का वो दावे करते हैं मुझे ऐसा यक़ीन होता है कि उनके मददगार ज़रूर शयातीन हैं लेकिन हमारे पास कोई सबूत कुतब मुक़द्दसा से इस अम्र का नहीं है कि ज़िंदा आदमी अपने अहबाब मुतवफ़्फ़ी (मरा हुआ) की अर्वाह से बातचीत कर सकते हैं। इस में शक नहीं कि चंद मुक़ामात ऐसे हैं जिनसे बाअज़ ये नतीजा निकाल लें कि बाअज़ नेक आदमियों की अर्वाह ने ज़िंदों से बातचीत की है लेकिन इन मुक़ामात को बग़ौर पढ़ने से मालूम होगा कि वो सिर्फ उन उमूर से ताल्लुक़ रखते हैं जिनके देखने का जादूगर दावा करते थे। और उन लोगों को उनकी निस्बत गुमान था कि हाँ वो देखते और सुनते हैं मसलन अंदोर जादूगर और साऊल का हाल इस तरह है कि इस औरत ने समुएल वग़ैरह को देखा लेकिन हमें इस से ये नहीं समझना चाहिए कि हवारी का ये अक़ीदा था कि इस औरत ने हक़ीक़तन समुएल की रूह को देखा बल्कि इसका मतलब ये य कि वो औरत देखने का दावा करती है। ये साफ़ ऐसी सूरत है कि इन बातों से जिनका स्प्रिटिज़्म वाले दावा करते हैं बहुत मुशाबहत रखती है। और ये बख़ूबी ज़ाहिर है कि ये सब बातें नतीजा इस बड़े ख़िलाफ़ और जोश-ए-तबीअत का थीं जो साऊल के लाहक़ हो गया था जिसकी वजह से उसे ये गुमान हुआ कि ये समुएल है क्योंकि उसने फ़िलिस्तीयों की फ़ौज को ख़ौफ़-ज़दा देखकर ख़ुदा की बातें पूछीं और जब इन बातों का जवाब ना बज़रीये ख्व़ाब के, ना नबियों से पाया तो उस की तबीयत में निहायत ख़ौफ़ और जोश पैदा हुआ और इस औरत की तबीयत इस क़िस्म की थी कि उसने साऊल के दिल का हाल इशारतन और सवालात के ज़रीये से बता दिया। पस इसी क़ानून मज़्कूर-उल-सदर यानी ज़हन व जिस्म के सबब से और ख़्वाहिश और जोश-ए-तबीअत का अमल हुआ। इस औरत ने साऊल के दिल का हाल बताया और दावा ये किया होगा कि समुएल यूं कहता है। इस से हमें ये ख़याल मुतलक़ (बेक़ैद, आज़ाद) नहीं गुज़रता कि ख़ुदा का पुराना नबी और पाक-बाज़ समुएल एक ऐसी बदज़ात जादूगर औरत के हुक्म से जैसी बालकीन अंदोर की औरत थी उठा हो। रहा दरबारा मेज़ों वग़ैरह की हरकत के जिसकी निस्बत ये दावा है कि बाआनत अर्वाह होता है सो ऐसे शोबदा (जादू से मुताल्लिक़ हुनर या खेल) वो आदमी भी करते हैं जिन्हें स्प्रिटिज़्म का यक़ीन नहीं है और जिन जिन बाज़ीयों और शोबदों में फ़रेब नहीं वो सब से ये साबित हो चुका है कि फ़ित्री सबबों से होते हैं। हर चंद कि बाअज़ ऐसा मशहूर करते हैं कि एक आदमी के ज़रा उंगली लगाने से बड़ी भारी मेज़ हरकत करने लगती है ताहम ये अम्र बख़ूबी साबित नहीं है ये मामूली तरीक़ा उस के हरकत करने का ये है, कि कई आदमी हाथ मिला कर मेज़ पर रखते हैं फिर वो इरादा करते हैं कि फ़ुलानी सिम्त को मेज़ घूमे और बग़ैर इसके कि कोई कोशिश उन्हें अपनी तरफ़ से मालूम हो कि मेज़ हरकत करती है। प्रोफ़ैसर फ्रेडी साहब एक मुम्ताज़ आलिम इंगलिस्तानी ने एक बहुत उम्दा आला (मशीन, औज़ार) से दिखा दिया कि जो लोग मेज़ को घेरे होते हैं उनकी रगों का ज़ोर बनज़र पर पड़ता है। और ये कि जब सब समझ लेते हैं कि मेज़ फ़ुलानी तरफ़ घूमने के है तो वो इसी तरफ़ घूमती है लेकिन उन लोगों में से अगर कोई ये इरादा दिल में करे कि दूसरी तरफ़ को मेज़ घूमे तो मेज़ मुतलक़ (बेक़ैद, आज़ाद) हरकत नहीं करती क्योंकि उस वक़्त में ज़ोर बट जाता है इन सब सूरतों में ये साफ़ मालूम हुआ कि फ़ाइल इन अफ़आल के मह्कूम (ताबेदार) तासीर इशारा थे अगरचे ख़ुद इस से वाक़िफ़ ना थे और बग़ैर मदद आला प्रोफ़ैसर फ्रेड री साहब के बिल्कुल नावाक़िफ़ रहते वो बहालत ना वाक़ई अपना अमल करते हैं और अर्वाह ग़ैर महसूस की क़ुव्वतें मख़्फ़ी (छिपी हुई) से उसे मन्सूब करते हैं। ऊपर की तश्रीह मेज़ की हरकत के बारे में मेज़ की बातें करने और रूह के खटखटाने वग़ैरह की बेवक़ूफ़ियों की तश्रीह के लिए भी कार-आमद है। सूरत अव्वल-उल-ज़िक्र में मेज़ हमेशा ब-वक़्त सवाल थम जाती है या जब कि उन शख्सों में से कोई इरादा करे या चाहे कि मेज़ और तरफ़ को घूमे जिससे ज़ाहिर है कि वो मुहरकीन के इशारा ज़हनी का नतीजा है। पस इसी तौर पर तमाम अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्म) के सवालात मिलते हैं। रूह के खटखटाने में बवसातत एक शख़्स के अर्वाह से बातचीत होती है। मौजूदगी अर्वाह के खटकों से ज़ाहिर होती है लेकिन ये खटके बेशक वही करता है जो वसीला गिरदाना (बार-बार दुहराना) जाता है और जिससे धोखा खाए हुए सवालात करते हैं उन के जवाब वो शख़्स मुतवस्सित (दर्मियानी, बीच का, औसत दर्जे का) काम देता है जो निहायत होशयारी और एहतियात से इस तासीर को जो इस वक़्त उन लोगों पर ख़ुद उस के इशारात से होती है देखता रहता है। बहुत सूरतों में जो अवाम के सामने ज़ाहिर की जाती हैं जो लोग ऐसा ज़ाहिर करते हैं कि हम पर ख्व़ाब बेदारी है और हमें बग़ैर ज़बान दूसरे के ख़याल पहचानने और बग़ैर आँखों के किताबों के पढ़ने की क़ुद्रत है वो बड़े शातिर शोबदे बाज़ (जादू से मुताल्लिक़ हुनर या खेल खेलने वाला) हैं। वही ख़ूब जानते होते हैं और कोई सही अलामत इन ज़हनी हालतों की जिनसे ग़ैर तालीम-याफ़्ता अवाम के दिल में इस क़द्र शौक़ और ताज्जुब पैदा हो जाता है नहीं पाई जाती है।

ग़ालिबन क़ानून ताल्लुक़ ज़हन व जिस्म उन इलाजों में भी मोअस्सर है जिनकी निस्बत अक़्वाम ग़ैर मदग़ी मदद माबूदान वग़ैरह हैं 12

दरबाब इन इलाजों के जिनका दावा ग़ैर क़ौम के पंडितों और फ़कीरों को है कि हम अपने देवओं या जिन्न भूतों की मदद से करते हैं और मिस्मेरिज़्म वाले जो कहते हैं कि हम मरीज़ का दिल व जिस्म अपने अमल से क़ब्ज़े में कर के बीमारी को दूर करते हैं और स्प्रिटिज़्म वाले जो दावा करते हैं कि हम रूहों की मदद से अच्छा कर देते हैं इन सब उमूर की निस्बत ग़ालिब ये है कि इसी मज़्कूर क़ानून यानी ताल्लुक़ ज़हन व जिस्म से होते हैं। जानना चाहिए कि मरीज़ की मर्ज़ी एतिक़ाद मर्ज़ के खोने या किसी बे एतिदाली बदनी के दूर करने में उस के जिस्म पर अजीब असर और क़ुद्रत रखता है यहां तक कि बाअज़ दफ़ाअ सख़्त बीमारी इसी क़ुद्रत से दूर हो जाती है। उम्मीद का ध्यान मुतहर्रिक ख़ून पर और महवियत ज़हनी और यका-य़क तर्ग़ीब व जोश-ए-दिल का दर्द व तक्लीफ़ पर बहुत असर रखता है। सब तबीब और बहुत और लोग ख़ूब जानते हैं कि बाअज़ औक़ात बीमार आदमी में क़ुव्वत मख़फ़ी इस क़द्र होती है कि बहालत-ए-तंदरुस्ती भी उस के इख़्तियार से इसी क़द्र कभी नहीं ज़ाहिर होती। बारहा ऐसा हुआ है कि जो मरीज़ महीनों से बिस्तर से उठने की भी ताक़त नहीं रखते थे अपने दिल के बड़े जोश से यका-य़क चलने बल्कि दौड़ने लगे इस क़द्र जल्दी से कि सही व सालिम आदमी ना कर सकते। मसलन मैं ने एक मोअतबर रावी से सुना कि एक शख़्स सख़्त बुख़ार से क़रीब उल-मर्ग हो गया था और लोग हफ़्तों से गुमान करते थे कि ये बचेगा नहीं। इत्तिफ़ाक़न उस के ख़ित्ते में जो आग लगी तो वो चिल्लाया कि कोई इतना नहीं कि मेरे मवेशी निकाल ले और सीधा पलंग से उठ कर बैल पोहों को उसने खोल दिया। जिस्म को जो हरकत हुई तो इस क़द्र पसीना आया कि मअन (फ़ील-फ़ौर) अच्छा हो गया। जलते ख़ित्ते ने कुछ इसे क़ुव्वत ना दी बल्कि उस के दिल की उमंग ने इसी मख़्फ़ी क़ुव्वत (छिपी हुई ताक़त) को जो उसके जिस्म में थी उस वक़्त उभारा। एक और शख़्स यानी औरत का ज़िक्र है कि मुद्दत वो बीमार थी और सूख कर कांटा हो गई थी यहां तक कि इस क़द्र ताक़त नहीं रही थी कि अपने हाथ से पानी का बर्तन उठा कर पानी पी लेती। एक रोज़ उस के घर में जो आग लगी तो यका-य़क पलंग से उठ कर सन्दूकचा चीज़ों से भरा जिसे वो अज़ीज़ रखती थी दरवाज़े के बाहर तक लिए चली गई। ये सन्दूकचा इस क़द्र भारी था कि बहालत-ए-सेहत बिला मदद ग़ैर-मामूली कोशिश से ना उठा सकती।

ये चंद सूरतें इस मौक़े पर बयान की गईं। मैं और सूरतें इसी क़िस्म की बता सकता हूँ जिनसे साफ़ मालूम होगा कि क़ुव्वत मख़्फ़ी (छिपी ताक़त) इस से भी बाहर होती है कि मर्ज़ी की मह्कूम (ताबेदार) हो या किसी मामूली तर्ग़ीब व जोश से उभारी जाये। पागलों से जो अजीब क़ुव्वत और बर्दाश्त तक्लीफ़ ज़ाहिर होती है वो मुस्तहकम सबूत क़ुव्वत मख़्फ़ी (छिपी) का है। सिवा उस के अक्सर दिल की उमंग से वो तक्लीफ़ के बग़ैर इस उमंग के बर्दाश्त ना हो सकती मरीज़ को मुतलक़ (बेक़ैद, आज़ाद) नहीं मालूम होती है। बहुतेरे लोग दाढ़ के दर्द में हो जाता है। मैं ऐसे चंद आदमियों को जानता हूँ जिनके दाँत ऐसे धोके से निकाले गए कि उनको कुछ तक्लीफ़ नहीं हुई और बाद को मालूम हुआ कि धोका दिया गया था। मैंने एक मोअतबर रावी से सुना जो कहता था कि मैंने अपने नौकर से कहा कि मैं ऐसे सहारे से दाँत निकालना जानता हूँ कि मुतलक़ (बेक़ैद, आज़ाद) तक्लीफ़ ना हो। ग़र्ज़ उसे एक तार लेकर एक सिरा उस का नौकर के दाँत से बाँधा और दूसरा सिरा एक पेच से ज़्यादा बांध दिया और दफ़अतन नतीजा निकाल कर चिल्लाया कि ओ बदमाश मैं तेरी खोपड़ी ऊढ़ा दूंगा ये सुनते ही नौकर ख़ौफ़ खा कर ऊपर को जो उछला तो दाँत निकल आया। थोड़ी देर के बाद उसने कहा कि मैं ऐसा ख़ौफ़-ज़दा हो गया था कि मुतलक़ (बिलकुल भी) दर्द नहीं मालूम हुआ। ये मशहूर्यात है कि बाअज़ औक़ात वाइज़ और दर्स देने वाले बरवक़्त वाअज़ कहते या दर्स देने के जोश-ए-तबीअत या ख़ुद से खांसी और दर्द-ए-सर और दर्द दंदान (दाँतों के दर्द) वग़ैरह से सेहत कुल्ली हासिल कर लेते हैं। मैं एक तबीब को जानता हूँ जिन्हों ने एक औरत को देखा कि उस की गीनठिया की बीमारी जोश-ए-तबीअत और ख़ौफ़ की क़ुव्वत से बिल्कुल जाती रही। वो औरत उस मर्ज़ से बहुत तक्लीफ़ उठा चुकी थी और महीनों ये हाल रहा था कि बिस्तर से हिला नहीं जाता था। उम्मीद सख़्त की नहीं रही थी और कोई ईलाज तबीब ने करने को नहीं छोड़ा था।

बजुज़ इस के भाप पहुंचाई जाती और चूँकि कोई माक़ूल बर्तन ना था इसलिए तबीब ने बमजबूरी लोहे की नली को एक केतली भाप पहुंचने के लिए तज्वीज़ की। हकीम ने एक सिरा नुली का केतली की टोटी से लगा दिया और दूसरा मरीज़ के बिछौने तले रख के नौकर से कहा कि आधी केतली पानी से भरता कि भाप पैदा होके नल की राह से बिछौने तक पहुंच सके और आप एक जगह बैठ के कुछ पढ़ने लगा ताकि देखे क्या नतीजा इस ईलाज का होता है। नौकर ने नादानी से सारी केतली भर दी यहां तक कि जब पानी उबलने लगा तो बजाए भाप के गर्म पानी मरीज़ औरत के जिस्म तक नल की राह से पहुंचा जब कि गर्म पानी का चहका (चटका) उस औरत के जिस्म से लगा उसने चीज़ मारी और कहा कि जी आपने तो मेरा बदन ही जला दिया और पलंग से उछल कर अलग जा पड़ी। हकीम और सब लोग जो उस वक़्त घर में थे इस कैफ़ीयत को देखकर कि उस का मर्ज़ उसी वक़्त जाता रहा यहां तक कि उसने फिर कभी ऊद (लौटना, वापस आना) नहीं किया निहायत मुतअज्जिब (हैरान) हुए। इस में शक नहीं कि बहुत बीमारियां मुताल्लिक़ रगों के ऐसी हैं जिनसे बज़ाहिर कोई नुक़्स रगों की बनावट में मुतव्वुर नहीं होता और जो दिल के तग़य्युर से दूर हो जाती हैं और अक्सर बीमार को नहीं मालूम होता कि क्योंकर जाती रहीं। अक़्साम-ए-मज़्कूर की बीमारियां मिस्मेरिज़्म और स्प्रिटिज़्म वाले अच्छी करते हैं।

मर्ज़-ए-ख़फ़ीफ़ मुजर्रिद एतिक़ाद से भी जाता रहता है

ऐसी बीमारियां जैसा ऊपर मज़्कूर हुआ निरे एतिक़ाद से भी जाती रहती हैं तबीबों ने अक्सर ऐसा बयान किया है कि जिस ईलाज को मरीज़ की तबीयत नहीं क़ुबूल करती उस से कुछ फ़ायदा नहीं होता बख़िलाफ़ उस की बाज़ सीधी-साधी दवाएं बल्कि ऐसी चीज़ें कि उनमें कोई मुआलिज असर भी नहीं होता मगर मरीज़ के गुमान व एतिक़ाद में अच्छी होती है तो वो ख़ूब असर करती है। अमरीका में मेरी एक साहब से जान पहचान है जिन्हें मैं जानता हूँ कि कई क़िस्म मज़्कूर के दर्द वालों को एक काग़ज़ में रुपया लपेट कर इस जगह मस करने से जहां दर्द था अच्छा कर दिया। वो साहब कहते थे कि मैं अव्वल मरीज़ों को ये रग़बत दिलाता था कि मुझ पर भरोसा कामिल रखें कि जो कुछ मैं कहता हूँ वही होगा। दूसरे ये एतिक़ाद करें कि जो चीज़ मैं लगाऊंगा वो सही ईलाज है और इस में अजीब मुआलिज क़ुव्वत है (अगरचे हक़ीक़त में सवा चांदी के टुकड़े की और कुछ ना होता था) कई दफ़ाअ उसने एक दोस्त की दाढ़ का दर्द को काग़ज़ में लपेट कर दाढ़ पर लगाने से दूर किया और जब उसने दोस्त को इस कैफ़ीयत से मुत्लाअ (आगाह) किया कि वाक़ई में कोई दवा ना थी सिर्फ रुपया था तो फिर इस ईलाज ने जब कभी दर्द उठा कर कुछ असर नहीं किया। इसी बिना पर या यूं कहना चाहिए कि ज़हन-ए-इन्सानी की इस अजीब ख़ासियत से तबीबों का नाम हो जाता है कि बीमारों को अच्छा किया जब कि उनकी दवा असर भी नहीं करती। बल्कि वाक़ई में उस में कोई मुआलिज क़ुव्वत भी नहीं होती है। मुझे यक़ीन है कि बहुत से ग़ैर क़ौम के पण्डित और फ़क़ीह इस तरह से या क़ानून-ए-ज़हनी व जिस्मी की क़ुव्वत से बीमारों को अच्छा कर देते और झूटा दावा करते हैं कि अपने देवताओं या जिन्न भूतों की मदद से हमने अच्छा किया। यही सूरत मिस्मेरिज़्म वालों और स्प्रिटिज़्म वालों की है। जो बीमारियां मुताल्लिक़ रगों के हैं जैसे लकवा व फ़ालिज और मिर्गी वग़ैरह कि रगों की बनावट में फ़र्क़ पड़ने से पैदा हो जाती हैं उन पर मिस्मेरिज़्म का अमल ज़रा भी असर नहीं करता ना मिस्मेरिज़्म और स्प्रिटिज़्म वालों ने ऐसी बीमारियों को कभी अच्छा कर पाया। मुद्दआ इस तहरीर का ये है कि तमाम अचंभे (हैरत, ताज्जुब) जिनका फ़िल-हक़ीक़त वक़ूअ हुआ है वो या तो क़वानीन फ़ित्री से या तिलस्म से या इमदाद शयातीन वाक़ेअ हुए हैं बख़िलाफ़ मोअजज़ात मुन्दरिजा कुतब मुक़द्दसा के वो साफ़ ख़ुदा की दस्त-ए-क़ुद्रत से मालूम होते हैं और इनका सबब सिर्फ उसी क़द्र समझ में आता है कि इनकी फ़ाइल क़ुद्रत इलाही है। अगर बाइबल शरीफ़ के मोअजज़ात के इसरार क़वानीन फ़ित्री से नहीं हल हो सकते और बड़े-बड़े होशियार फ़लसफ़ों अपनी हिक्मत से भी जादूगरी और तिलस्म और मिस्मेरिज़्म वग़ैरह में उन्हें शामिल नहीं कर सकते और ना उनसे मोअजज़ात के इसरार को दर्याफ़्त कर सकते और अगर मुहम्मदियों और हनूद (हिंदू की जमा) बल्कि रोमन कैथोलिक के अचंभे (हैरत, ताज्जुब) जिनसे कुफ़्फ़ार इस्तिदलाल पकड़ते हैं मुक़ाबिल मोअजज़ात इलाहिया नहीं हो सकते तो ज़ाहिर है कि दलाईल सदाक़त मोअजज़ात बाइबल शरीफ़ में एक हज़ार आठ सौ बरस से दुनिया की क़ौमों को तस्कीन बख़्श हैं ऐसे ही मुस्तहकम हैं जैसे पहली सदी के फ़र्ज़ किए जाएं। और वो दलाईल इसी बिना पर क़ायम किए गए हैं जिस बिना पर दुनिया की तवारीख़ में वाक़ियात मुसद्दिक़ा (तस्दीक़ किए हुए) के दलाईल क़ाइल किए गए थे। मोअजज़ात ईस्वी की सदाक़त के हालात दुनिया की तवारीख़ में मौजूद हैं। वोह हरगिज़ इस से दूर नहीं हो सकते। आजकल के ज़माने पर और आइन्दा ज़माने की बेहतरी इसी सबब से होगी कि मसीह के मोअजिज़े दिखाने और क़ब्र से जी उठने का लोगों ने इक़रार किया। जैसा कि क़ब्ल-अज़ीं ज़िक्र आ चुका है मसीह के मोअजज़ात की तस्दीक़ उन्हीं लोगों ने जिन्हों ने इन पुरानी बातों को जिनकी तर्बियत पाई थी सिर्फ बदीन ख़याल छोड़ दिया कि मसीह के मोअजज़ात को ख़ुदा की तरफ़ से जानते थे। जिन्हों ने अपने पुराने तास्सुब को छोड़कर इनका यक़ीन किया। जिन्हों ने इन मोअजज़ात की तस्दीक़ की वजह से तरह-तरह की आफ़तें और ज़िल्लतें उठाईं यहां तक कि जानों से हाथ धोए। जिन्हों ने मरते दम अपनी बातों से एतराज़ नहीं किया जिन्हों ने धमकियों से डर कर या रिश्वतों की तमअ (लालच) से इन वाक़ियात की सदाक़त पर कभी एहतिमाल नहीं ज़ाहिर किया जिनमें से कभी एक ने भी ना कहा कि मुझे धोका हुआ था या जिन लोगों की सोहबत में रहता था उन्होंने दुनिया की धोका देही के लिए ये मश्वरत की थी कि निहायत होशियारी और अक़्ल के ज़माने में जहान के मर्कज़ इल्म था बड़े मुहज़्ज़ब लोगों के दर्मियान और उन शहरों में जहां दुनिया की हिक्मत और क़ुदरतें सब जमा थीं मोअजिज़ों की लोगों ने गवाही दी और उनके कहने को माना ईस्वी इन मोअजज़ात पर ईमान लाने के वसीले से फैला ये सिर्फ़ उन्हीं मोअजज़ात का नतीजा है कि दुनिया के मज़ाहिब बदल गए और 1800 बरस नया ढंग (तरीका-कार) जारी है। क़ुर्बानगाहें जाती रहीं। मंदिरों को लोगों ने तर्क कर दिया। सरदार काहिनों को अब कोई पूछता नहीं। क़वानीन बदल गए नए दस्तूर जारी हुए दुनिया के इल्म व अदब में जान ताज़ा डाली गई। लोग बदी को छोड़कर नेकी इख़्तियार करने लगे सब क़ौमों व ज़ातों के हज़ारों शहीद अमीर भी मुअज़्ज़िज़ भी ख़ुशहाल भी नाक मिज़ाज भी अपने ख़ून से उन्हीं मोअजज़ात की सदाक़त पर मुहरें कर मरे यानी जानें दे दी। बख़िलाफ़ और मज़ाहिब के मज़्कूर मोअजज़ात के कि उनसे कुछ भी ना हुआ यानी उनसे ईमान मिला, ना कोई सूरत नजात की निकली, ना दीनदारी हासिल हुई लेकिन मसीह के मोअजज़ात से ये सब उमूर ज़हूर में आए और तमाम दुनिया नई मोहज़्ज़बाना ज़िंदगी और नूर से मामूर हो गई। लाखों करोड़ों बड़े-बड़े होशियार और पाक-बाज़ आदमियों ने इक़रार किया कि इन मसीही मोअजज़ात से साफ़ मालूम होता है कि मसीह ख़ुदा था और इस से यकीन-ए-कामिल है कि आइन्दा ज़माने में भी ये अक़ीदा मुस्तहकम होता जाएगा उसी क़द्र दुनिया की क़ौमों की दीनी व दुनियावी हालतें बेहतर होती जाएगी और मुआमलात की सफ़ाई बढ़ती जाएगी। यक़ीनन किसी अक़्लमंद आदमी पर जो दुनिया के हालात को बग़ौर देखता होगा ये अम्र पोशीदा ना होगा कि मसीही मोअजज़ात की ये तासीर है। बख़िलाफ़ इस के और अचंभे (हैरत, ताज्जुब) जिनको ग़लती से मोअजिज़ों का लक़ब दिया गया है साल बसाल उनका असर कम होता जाता है यहां तक बहुतेरे बे-पढ़े भी उनको झूट जानते हैं। तमाम मोअजज़ात बातिला का वजूद या उनका मानना बमुक़ाबला मोअजज़ात इलाहिया कुतब मुक़द्दसा के ऐसा है जैसे आफ़्ताब की जान बख़्श रोशनी के सामने जलती हुई ग़लाज़त का ख़राब और मुज़िर (नुक़्सानदेह) धुआँ।

इन दर्सों के मुसन्निफ़ की तमन्नाए यही है कि इस के नाज़रीन और नीज़ जो कोई हक़ व बातिल की तमीज़ की इस्तिदाद (सलाहियत) रखता है सहर व जअल के असर ज़लालत से महफ़ूज़ रह कर नूर मार्फ़त और हिदायत को हासिल करे।

तमाम शूदा