उम्महात-उल-मोमिनीन

यानी मोमिनीन की माएं
मुहम्मद साहब के किरदार का एक जायज़ा
उन की अज़्वाज (बीवीयों) के साथ
अल्लामा अहमद शाह साहब शाइक़
1897


Ummahat-ul-Mominin

The Mothers of the Faithful

A Review of the Character of Muhammad as Shown in his Dealings with His Wives.

By

Rev Allama Ahmad Shah Shaiq



Rev Allama Ahmad Shah Shaiq

अल्लामा अहमद शाह साहब शाइक़



ऐलान मुश्तहिर

मौलवी अबू सईद मुहम्मद हुसैन साहब बटालवी ऐडीटर इशाअत अल-सुन्नाह ने अपने मज़्मून “इस्मते अम्बिया” (रिसाला मज़्कूर नंबर 4 जिल्द 17 सफ़ा 123-125) में उन्होंने रईस-उल-मुतकल्लिमीन इमाम-उल-मुनाज़रीन मिस्टर अक्बर मसीह के दलाईल बनाम इस्मते मुहम्मद ﷺ का जवाब लिखना चाहा है (कि जिसका जवाब-उल-जवाब रिसाला कहावत क़ुरआन बर कलिमा रहमानी में अदा हो चुका है) तमाम ईसाईयों के रूबरू उमूमन मिस्टर मौसूफ़ ने ख़सूसुन एक बे-बाकाना तहद्दी (चैलेन्ज) (लल्कारना मुक़ाबले की दावत देना) पेश की है जिसको वो इन अल्फ़ाज़ में तहरीर फ़रमाते हैं :-

“अगर मिस्टर अक्बर मसीह दिल से आँहज़रत ﷺ को एक मुक़द्दस मुस्लेह नहीं जानते और वो हज़रतﷺ को अयाज़-बिल्लाह (ख़ुदा की पनाह) सरीह गुनाहों का मुर्तक़िब ख़्याल करते हैं, तो वो मर्द मैदान हैं तो आँहज़रत ﷺ का कम से कम एक गुनाह (जिसमें आपने क़ुरआन-ए-मजीद और अपनी शरीअत का इन्कार किया और आंहज़रतﷺ की तरफ़ से मुसलमानों ने इस का काफ़ी उज़्र ना किया और शाफ़ी जवाब ना दिया हो) साबित करें और इस का इस ख़ाकसार से एक हज़ार रुपया इनाम लें।”

इस ख़ास तहद्दी (चैलेन्ज) पर जो मिस्टर अक्बर मसीह को दी गई थी मौलवी साहब ने माबाअ्द आम कर दिया है कि जिस से इलावा मिस्टर मौसूफ़ और लोग भी एक हज़ार रूपये के बल्कि दो हज़ार रूपये के उम्मीदवार हो सकते हैं। चुनान्चे आपने अपने रिसाला में (जिसको रूबरू व हाज़िरीन) “जल्सा आज़म मज़ाहिब” मुनाक़िदा लाहौर माह दिसंबर 1896 पढ़हा था और जिसको अब आप ने रिसाला इशाअत अल-सुन्नाह में शाएअ किया है, बड़ी बेबाकी से अपने इश्तिहार पर ताकीद की है और फ़रमाते हैं (पर्चा नंबर 10 जिल्द 17, सफ़ा 304)

“मैंने आजकल अपने रिसाले इशाअत अल-सुन्नाह में एक मज़्मून “इस्मते अम्बिया” दर्ज किया है.....इस में मैंने इस मज़्मून का इश्तिहार दिया है कि अगर कोई शख़्स....आंहज़रत ﷺ का एक गुनाह साबित करे तो मैं इस को एक हज़ार रुपया इनाम दूंगा। इस मुक़ाम में इस लफ़्ज़ “गुनाह” के साथ “ख़ता” भी ज़्यादा करता हूँ और यह कहता हूँ कि अगर कोई शख़्स आंहज़रत ﷺ की एक ऐसी ख़ता साबित करे जिस पर मिंजानिब अल्लाह इत्तिला हो कर इस की इस्लाह ना की गई हो तो वो भी हमसे एक हज़ार रुपया इनाम ले।”

हमको नहीं मालूम कि हाज़िरीन जल्सा ने इस इश्तिहार को सुन कर बरवक़्त क्या ख़्याल किया होगा, मगर इस क़द्र तो मौलवी साहब ने समझ ही लिया है कि बू जोह चंद दर चंद मुहज़्ज़ब अश्ख़ास मौलवी साहब की तहद्दी (चैलेन्ज) को अपने तर्ज़ मुजव्वज़ा के मुवाफ़िक़ क़ुबूल करने से इज्तिनाब करेंगे। चुनान्चे अपने मुख़ातब अक्बर मसीह से बाद तहद्दी (चैलेन्ज) वो ये फ़र्माइश करते हैं कि :-

“अगर आप को अपना अंदाज़ ज़ाहिरी तहज़ीब व तर्ज़ मुलाइमत इस सबूत से बालिग़ हो तो आप उन ईसाईयों में से जो इस्लाम से मुर्तद हो कर क्रिस्चन हुए हैं और उनका मक़्सूद इस तब्दील मज़्हब से सिर्फ टुकड़ा कमा खाना है, किसी को पेश करें और वो भी यही इनाम लें।”

ये तहद्दी (चैलेन्ज) भी बड़ी मज़े की है। अक्बर मसीह को तो मौलवी साहब ने तहद्दी (चैलेन्ज) क़ुबूल करने से बेवजाह उन के “अंदाज़ ज़ाहिरी तहज़ीब व तर्ज़ मुलाइमत” के क़ासिर समझा और दूसरा दरवाज़ा अपनी शराअइत ना-काबिल तामील से बंद कर दिया क्योंकि बेचारा अक्बर मसीह ऐसा कोई ईसाई कहाँ पाए जो इस्लाम से मुर्तद हो कर क्रिस्चन सिर्फ़ टुकड़ा कमा खाने के लिए हो गया हो।” ईसाईयों में तो स्पोलिया के से मुसलमान दीन फ़रोश दुनिया तलब तो हैं नहीं जिनकी जान को कोई मुस्तफ़ा ख़लील आफ़ंदी दमिश़्की रावी (देखो पैसा अख़्बार 6 मार्च 1897 ई०)

अफ़्सोस ! मौलवी साहब अपने जोश हिमायत इस्लाम में ऐसे अज़ख़ूद-रफ़्तह (आपे से बाहर, दीवाने) हो गए और बिल्कुल भूल गए कि इस अखाड़े में जिसको आपने ललकारा है एक नहीं बीसियों मर्द मैदान मौजूद हैं और अगर दरअसल कहीं आप उन को बह सबूत फ़ी गुनाह एक एक हज़ार रुपया देने लगें तो ख़ज़ाईन सलातीन इस्लामीया एक आन में ख़ाली हो जाएं। मुझको इन इश्तिहारों की वक़अत मालूम है और आप को भी मालूम है। इस दीनदार शेख़ चिल्ली के जिसको आप झल्लाकर “कज़्ज़ाब (निहायत झूटा) व अय्यार लासानी दज्जाल क़ादयानी” कहा करते हैं। हज़ारों रूपये के इनामों के सैंकड़ों इश्तिहार देख, सुनकर जो वो रोज़ अपने इबातील के रद्द करने वालों को दोनों हाथों से देने का वाअदा किया करता है, मैं आसूदा हो गया हूँ और अफ़्सोस करता हूँ कि आज तक उन में से कोई इनाम जनाब को नहीं मिला। उन इश्तिहारों की बाबत ऐ जनाब मौलाना आप ही ने ये फ़रमाया है और ख़ूब फ़रमाया कि :-

“क़ादयानी ने बार-बार लोगों को अपने मुक़ाबले के लिए इश्तिहार दिए हैं और इन इश्तिहारों में अलादा ज़ादिरा के साल-बह तक दो सौ रुपये माहवार तनख़्वाह (ये तो आपके हज़ार पर भी 14 सौ ज़ाइद हुए जाते हैं) देने के वाअदे किए हैं, मगर अक्सर लोगों ने इस को फ़रेबी व पागल समझ कर उस के इश्तिहारों का जवाब तक भी ना दिया। बाअज़ ने इस का जवाब ये दिया कि हमने तेरे इश्तिहार को आग में डाल दिया। बाअज़ ने ऐसा ही कुछ और सुनाया। इसलिए इस (मिर्ज़ा) ने बेधड़क ये इश्तिहार जल्सा तहक़ीक़ मज़ाहिब जारी कर दिया जिससे वो मुक़ाबला मुख़ालिफ़ीन से तो बेफ़िक्र है और....समझता है कि हमारे मुख़ालिफ़ मौलवी हज़ार बार आम लोगों को हमारे फ़रेबों पर आगाह करें मगर जहान अहमक़ों से ख़ाली नहीं है, ना कभी हुआ, ना आइन्दा होगा। शैख़-चिल्ली मर गया, तो क्या हुआ उस के ज़ुर्रियात (ज़ुर्रियत की जमा-औलाद, तुख़्म) का तो इख़्तताम नहीं हुआ” (इशाअत अल-सुन्नाह नंबर 12 जिल्द 16 सफ़ा 378, 377)

पस आपको मालूम हो कि हम आप के इस इश्तिहार को मिरज़ाई इश्तिहारों से कुछ ज़्यादा वक़अत की निगाह से नहीं देखते, मगर हमको जहान के अहमक़ों का खुसूसन पंजाब के शेख़ चिल्लियों का डर है, क्योंकि गो आप को भी मालूम है कि ईसाई पादरी बार बार महमुद ﷺ को गुनाहगार ख़ुद उनके अपने मुँह से इक़्बाल करा के साबित कर चुके हैं और उन की तारीख़ ज़िंदगी के आमाल-नामा को रोशनी दिखा चुके मगर आपकी ये बाद हवाई तहद्दी (चैलेन्ज) जो आपने दी है अबला फ़रेबी (दग़ा, बेवकूफ बनाना) का काम ज़रूर करेगी। लिहाज़ा हमारा फ़र्ज़ हुआ कि हम ख़ालिस नीयत से मह्ज़ बग़रज़ एहक़ाक़ हक़ आपकी इस तहद्दी (चैलेन्ज) वाले हज़ारी इनाम के जादू को तोड़ दें और दिखादें कि आंहज़रतﷺ के एक या दो ख़ता का ज़िक्र कौन करे। वो सरापा ख़ता थे और आप सैंकड़ों गुनाहों से जो क़ौली भी हैं, फ़अली भी हैं और ख़्याली भी और जो क़ुरआनी भी हैं, अख़्लाक़ी भी हैं और रस्मी भी हैं लदे हुए थे जिसके लिए मुसलमानों ने गो तरह तरह के हीले तराशे और उज़्र किए, मगर ईसाईयों ने उनको रद्द कर दिया और इन पर से मौलवियों की हर माअज़िरत ले जाने को झाड़ फेंका। लो ! तुम भी क्या कहोगे तुम्हारे तहद्दी (चैलेन्ज) को हम यूं क़ुबूल किए लेते हैं कि एक ईसाई से जो ना किसी शौहरत का ख्वास्तगार है और ना अपने पराये से किसी का, मुहम्मदﷺ को बर्बनाए वाक़ियात तारीख़ इस्लामी गुनाहगार साबित करके इस तहरीर को जिसकी मुंशियाना इबारत, मुहक़्क़िक़ाना रोशन व ज़रीफ़ाना मज़ाक़ पर आप भी लोट जाएं शाएअ करते हैं और आप के एक हज़ार रुपये इनाम की रिआयत से अल-किताब की एक हज़ार जिल्दें मुफ़्त मक़बसीगा डाक पीडा एक हज़ार मुसलमानों के नज़र करते हैं कि वो घर बैठे आपकी तहद्दी (चैलेन्ज) भी सुन लें और इस का जवाब भी।

लाकलाम हम हज़रत ﷺ को उन के इब्तिदाई अक़ाइद और दीनी तालीमात की वजह से जिसमें वो मुसद्दिक़ कुतुब समावी ज़रूर थे, अरब का एक बड़ा मुस्लेह मानते हैं और इस सबब से उनकी वाजिबी इज़्ज़त व तुक़ीर भी करना चाहते हैं और अपनी तरफ़ से सिर्फ इस अम्र हक़ पर इक्तिफ़ा करने को तैयार थे कि इन की निस्बत अदम इस्मत का इक़रार जो हर फ़र्दो बशर को आरिज़ है, आप लोगों से भी करा दें ताकि आप उनमें और इब्ने मर्यम में हक़ीक़ी व वाक़ई इम्तियाज़ करने की क़ाबिलीयत हासिल करें। हमको क्या ज़रूरत कि हम उन की ख़ताओं और गुनाहों का जिनके वो ख़ुद मुक़िर (इक़रार करने वाले) थे शुमार कर के एक नागवार बह्स में उलझें, मगर जब देखते हैं कि आप लोग अपनी सख़्त नाफ़हमी व तास्सुब की वजह से इस को हमारे अजुज़ पर महमूल करते हैं और हमको तहद्दी (चैलेन्ज) करते हैं और इस बदीही व लाज़मी बात से आँहज़रत ﷺ भी मिस्ल दीगर बनी-आदम के बार इस्याँ (गफ़लत से) लदे हुए थे। इन्कार करके सच्चों को झूटा बना कर नादानों की गुमराही का बाइस होते हैं, तो ऐसे वक़्त में असली कैफ़ीयत से चश्मपोशी करना और लोगों को मुग़ालते में रहने देना बहुक्म।

अगर बेनम कि ना बनियाह चाह अस्त अगर ख़ामोश बह नशीनम गुनाह अस्त

हमारे लिए हरगिज़ ज़ेबा नहीं। ये किताब दरअसल एक पहाड़ है जो आप लोगों के सरों पर अचानक टूट पड़ा है। इस का जवाब बजुज़ इस के कि “सर पर गिरे पहाड़ तो फ़र्याद क्या करें” कुछ नहीं हो सकता। हम को कोई मन्सब ना था कि हम इस किताब के मज़्मून या इबारत में कोई दख़ल दें और वाजिबी तौर से हम दख़ल दे भी नहीं सकते। हमारा काम सिर्फ ये है कि हम इस को बजिंसियाह (हुबहू, जूं का तू) आप लोगों के रूबरू ले आएं जिसके लिए हम यक़ीनन माज़ूर हैं और हम बाअदब इल्तिजा करते हैं कि आप ग़ौर करें और इन्साफ़ को काम में लाएं।

सुनने समझने को बात हक़ ने दीए गोश व होश हक़ बतरफ़ जिसके हो आज न रहियो ख़मोश

मुश्तहीर : (डाक्टर) अहमद शाह शाइक़ साबिक़ मैडीकल अफ़्सरलिया लद्दाख मुल्क तिब्बत ख़ुर्दसाकिन हाल ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लैंड।

फ़ेहरिस्त मज़ामीन रिसाला उम्महात-उल-मोमिनीन

दीबाचा मुसन्निफ़

इब्ताल (गलत साबित करना, बातिल करना, झूटा करना) नबुव्वत मुहम्मद ﷺ में अहले-किताब की मुहकम दलील हमेशा से ये रही है कि हज़रत मुहम्मद ﷺ साहब का चलन शायान शान-ए-पैग़म्बरी व नबुव्वत हरगिज़ ना था। वो सफ़ा तारीख़ को उल्टा उल्टा कर मुदाम दिखाते रहे हैं कि शहवत परस्ती और ख़ूँरेज़ी मुहम्मदﷺ मदनी की सवानेह उम्री के जुज़्व-ए-आज़म हैं। हत्ता कि कोई किताब उनकी सीरत पर लिखी नहीं जा सकती जिसमें इन उमूर की बाबत सुकूत हो सके। मुतक़द्दिमीन (मुतक़द्दिम की जमाअ, अगले ज़माने के) इस्लामी मौअर्रखीन की निगाह में तो ये कोई ऐब ना था, इसलिए वो ख़साइस नब्वी समझ कर बिलाताम्मुल उन को क़लम-बंद कर गए, मगर जब मुसलमानों को अहले-किताब ख़ुसूसुन ईसाईयों से मुनाज़िरे दर पेश आया तो अपने नबी की ज़ात को बचाने की ग़रज़ से उन को वक़्तन-फ़-वक़्तन तरह तरह के उज़्र तराशने और मुख़्तलिफ़ पहलू बदलने पड़े। इब्तिदा में तो उन्होंने इस अय्याशी और ख़ूँरेज़ी की, कस्रत अज़वाजी और जिहाद की मुतबर्रिक इस्तलाहों से ताबीर कर के हिमायत की और अपने मुक़ाबले में अक़्ल व शऊर और अख़्लाक़ और तहज़ीब को जिनकी उन को हुब्ब मुक़्तज़ाए (मुक़्तज़ा - तक़ाज़ा किया गया) ज़माना चंदा परवाह ना हो सकती थी। मगर जब ज़माने ने तरक्क़ी की और निरे दक़यानूसी मुल्लानों को दम बख़ुद होना पड़ा, तब नई और ज़्यादा तालीम याफ़्तह नस्ल ने ऐसे गिरामी दुश्मनों से ताब मुक़ावमत (मुक़ाबला – बराबरी) ना लाकर आला तहज़ीब के नाम से दियानत व हक़गोई से नादानिस्ता अदावत पैदा की और कभी तो शारेअ इस्लाम के (जो अपनी नज़ीर आप है) अत्वार की नज़ीर तलाश करने में अम्बिया सलफ़ की तारीख़ की अबस वर्क़ गरदानी की, कभी उनको इस ज़माना-ए-जाहिलीयत के अख़्लाक़ का नतीजा बताकर उन के लिए माअज़िरत की और जब ये भी काफ़ी ना हुआ (और क्योंकर काफ़ी हो सकता था) तो उन के मद्द-ए-मुक़ाबिल में मोअतरज़ीन के बुज़ुर्गों के सिवा अख़्लाक़ी दीखाकर गोया ये क़ुबूल करके सस्ते छूटना चाहा कि हाँ मेरा बाप का ना था, तेरा भी था और जब इस इल्ज़ाम से भी शर्मिंदा हो ना पड़ा और कोई चारा बाक़ी ना रहा और रोशनी के ज़माने ने हर बाक़िरयंह माअज़िरत का दरवाज़ा बंद कर दिया तो हामी इस्लाम ने अपने पैग़म्बर के लिए सिर्फ इसी में मफ़र (जाये फ़रार) देखा कि एक दफ़्अ उन को बंद कर के तारीख़ी वाक़ियात से इन्कार कर दिया जाये और इस इन्कार और दरोग को सिर्फ अपने नाम और नई रोशनी की फ़हरिस्त और अंग्रेज़ी ज़बान की तहरीर और हिमायत इस्लाम के जोश और इज़्हार तास्सुब और पादरीयों को बुरा भला कहने से नावाक़िफ़ों के रूबरू फ़रोग़ देकर कुछ मुद्दत के लिए सुर्ख़रु बनें।

सय्यद अमीर अली साहब जिनकी किताब के एक जुज़्व का तफ़्सीली जवाब लिखने के लिए हमने क़लम उठा या है, हम अफ़्सोस से कहते हैं, इसी आख़िरी गिरोह से हमको मालूम होते हैं। पुराने फ़ैशन के मुल्लाने जो शाइस्तगी और तहज़ीब में सिर्फ बदवी (ख़ाना-ब-दोश, सहराओं में रहने वाला) आवारा गर्द वहशी अरबों को अपना मुक़तिदा (पेशवा - पैरवी किया गया) बनाते थे और इस्लाम की हिमायत में सिर्फ शमशीर उठाना जानते थे। जब उन को क़लम उठाना पड़ा तो अजब नहीं कि बहुत सी नाग़ुफ़्तनी बातें लिख डालें। हमको उन की शिकायत मुतलक़ ज़ेबा नहीं क्योंकि वो इसी के लायक़ थी और ये उन के। मगर सय्यद सा तमीज़दार जिसके दिमाग़ को मगरीबी शाइस्तगी ने मुनव्वर किया जब वो इस्लाम की हिमायत में हक़ को बातिल और बातिल को हक़ कहने के लिए तारीख़ से इन्कार और सच्च बोलने से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) करने पर आमादा हो जाता है तो हमको ना सिर्फ अफ़्सोस बल्कि तरस आता है। उन की अंग्रेज़ी किताब जिस का तर्जुमा उर्दू “तन्क़ीद-उल-कलाम फ़ी अहवाल शारेअ-उल-इस्लाम” हमारी ज़ेर निगाह है। ये दरअसल एक ऐसी तालीफ़ है कि जैसी किसी आम शख़्स की तालीफ़ होनी चाहीए। हमने सिर्फ उस के चौदहवें बाब का जवाब लिखा है जिस में सय्यद साहब ने तादाद अज़वाजी से बह्स कर के ख़ासकर हज़रत की कस्रत मुनाकहत (बाहम निकाह करना) के लिए बे-बुनियाद व फ़र्ज़ी अग़राज़ दिखा कर उन के लिए माअज़िरत चाही है। हमारे जवाब से मालूम हो जाएगा कि शारेअ इस्लाम के अख़्लाक़ औरात के बाब में अपने असल में कैसे नफ़रत अंगेज़ थे और इस्लाम पर उनका असर क्या हो सकता है और इनके इज़्हार के वास्ते किस क़िस्म के कलिमात नागुज़ीर हैं। और फ़िलहाल अस्बाब पर अपनी बह्स को महदूद करने की वजह एक ये भी है कि हज़रत मुहम्मदﷺ की मासूमियत के मुदईयान को हम उनकी ज़िंदगी के एक पहलू का यह कच्चा चिठ्ठा सुना कर उम्मीद रखते हैं कि आइन्दा वो अपने दावों को ज़्यादा मोतदिल बनाना सीखेंगे। बह बाब सय्यद साहब की कुल किताब के लिए गोया मुश्ते नमूना अज़ ख़िरवारे है। नाज़रीन को अंदाज़ा हो जाएगा कि और और उमूर में हमारे मुख़ातब ने तारीख़ की क्या कुछ दुर्गत बनाई होगी और मुझे ये कहने में ताम्मुल नहीं कि इसने शाज़ (इत्तिफ़ाक़न) ही कहीं सच्च बोला है और अगर बोला भी तो अधूरा। और जिस बेबाकी से वो तारीख़ी वाक़ियात का इन्कार करता है, उस की मिस्ल हमको ज़माना-ए-हाल की मग़रिबी तस्नीफ़ात में तो हरगिज़ नहीं मिल सकती, गो मशरिकी जाहिल उलमा की तहरिरात में मिलना दुशवार ना हो।

हामियान इस्लाम (इस्लाम कि हिमायत करने वाले) भी एक तरह से मज्बूर हैं। ईसाईयों ने अपने मुनाज़रे को उनके मुक़ाबले में वो जला लादी है कि उलमा ए मुहम्मदी-अनान सब्र व क़रार हाथ से खो चुके हैं। इस किताब का मुतर्जिम दर्द से कहता है कि :-

“बाअज़ मुत्आसबीन अहले-किताब ने हज़रत सय्यद-उल-अम्बिया और दीने ख़ुदा और शरीयते रसूल अल्लाह पर ऐसा तअन व मज़हका किया है कि इन की तस्नीफ़ात को देख कर मुसलमान का दिल काँपने लगता है और इस की आँखों में ख़ून उतर आता है और अगरचे वो अपने दिल को इस ख़्याल से तस्कीन दे लेता है कि मुनाज़िरीन इस्लाम मिस्ल मुल्ला जो ओसाबाती और मौलवी आल हसन मोहानी और डाक्टर वज़ीर ख़ान अकबराबादी के पादरीयों के एतराज़ात का दंदान शिकन जवाब लिख चुके हैं, मगर फिर जो ज़्यादा ग़ौर करता है तो ये तसव्वुर ज़रूर होता है कि जो लोग अहले हल व अक़्द (निकाह) (खोलना और बांधना) में दाख़िल हैं और अहले ख़िरदवार बाब बसीरत समझे जाते हैं। वो तो ऐसे जवाबात को हरगिज़ तस्लीम ना करेंगे, तावक्तिया के उनके शुब्हात उन्हीं के मज़ाक़ में ना दफ़्अ किए जाएं। बह सिफ़त इसी किताब से मख़्सूस है कि जिन मसाइल शरईया पर मुत्आसबीन नसारा ने बहुत सख़्त तअन व तशनीअ की है, मिस्ल ताअदाद अज़्वाज व बर्दह फ़रोशी और जिहाद और जन्नत व नार (जहन्नम) को जिस्मानियत व माद्दीयात से ताबीर करना। इस को इस ख़ूबी से दिफ़ा किया है कि यूरोप का माक़ूल पसंद फ़िर्क़ा जिस के तअन व मज़हका को दिफ़ा करने के लिए ये किताब तस्नीफ़ हुई है, अब इस को क़ील व क़ाल (बह्स व मुबाहिसा, बातचीत) की जाल नहीं बाक़ी रही। (इल्तिमास मुतर्जिम) सच्च है वाक़ई ईसाई उलमा ने शारेअ इस्लाम पर ऐसा जरह (ज़ख़्मों की चीर फाड़ करने वाला) किया है जिसके लिए कोई मरहम इस्लामी दुनिया में नहीं और इस तरफ़ के हमलात ने इस्लाम को ऐसे ज़लज़ला में डाला है कि “हामीयाँ इस्लाम का दिल काँपने लगता है” और “इनकी आँखों में ख़ून उतर आता है” बवजह ग़ुस्सा व नदामत व बेचार्गी के और गो वह हज़ार जान से मुनाज़िरीन इस्लाम की तहरीरात को “पादरीयों के एतराज़ के दंदान शिकन जवाबात” मानना चाहते हैं। फिर भी ज़्यादा ग़ौर करने पर उन को आप मालूम हो जाता है कि पादरीयों के मुक़ाबिल लड़ना गोया जंग उहद में शहीद होना है। अहले ख़िरद और अर्बाब-ए-बसीरत ऐसे जवाबात को हरगिज़ ना तस्लीम करेंगे।”

इसलिए हम भी इस बुरहान क़ाते की हक़ीक़त दिखाना चाहते हैं जिस का मूजिद “अल-जामे-उल-उलूम अल-क़दीमतुल-जदीदा” हमारा मुख़ातब है ताकि अहले इस्लाम को मालूम हो जाए कि उन की तरफ़ बईं-हमा हनूज़ रोज़-ए-अव्वल है और शारेअ इस्लाम पर जो कुछ तअन व मज़हका किया गया, इस में कुछ भी तअन व मज़हका नहीं बल्कि वो निरी हक़ीक़त है जिसका दफ़्अ करना ना उलूम क़दीमा के इम्कान में है, ना जदीदह के और जिस पर हमारी ये किताब शाहिद है। हमारे मुख़ातब मुसन्निफ़ की ग़रज़ हरगिज़ शारेअ इस्लाम की सवानिह उम्रीया के सच्चे वाक़िआत बयान करना नहीं था, बल्कि उस को मंज़ूर है कि “पैग़म्बर इस्लाम की सवानिह उम्री और उन के मवाइज़ व नसाइह में जो उम्दा औसाफ़ हैं उनको एक आम पसंद तर्ज़ से बयान करे और अक्सर नाज़रीन के दिल से ज़नून फ़ासिदह (ज़न गुमान, फ़ासिद, गुमान-ए-बद, बदज़नी) व तास्सुबात बेजा को दफ़्अ करे” हमारी ग़रज़ है कि हम दिखा दें कि इस मुसन्निफ़ ने हज़रत ﷺ की झूटी तस्वीर पेश करके लोगों को मुग़ालते में डालना चाहा है। पस हम ने हज़रत ﷺ की ज़िंदगी के एक पहलू पर बित्तफ़्सील नज़र डाल कर बतौर नमूना मुसन्निफ़ को जवाब दिया है ताकि मालूम हो जाए कि मुसन्निफ़ ने अपने हीरो की ज़िंदगी के हर पहलू के साथ यही सुलूक किया है। बरदाफ़रोशी के बारे में भी, जिहाद के बारे में भी और जन्नत और नार (जहन्नम) के बारे में भी। ग़रज़ कि वो किताब जिस को हम जवाब कहते हैं एक अज़ीमुश्शान दरोग़ है जिसमें बड़ा अजूबा सिर्फ ये है कि वो एक ऐसी सिम्त से पैदा हुआ जिधर से इस की पैदाईश का अंदेशा मामूली तजुर्बे से नहीं हो सकता था। उलमाए यूरोप जो तारीख़ इस्लाम के माहिर हैं और अवामुन्नास भी जिनकी मालूमात सर विलियम म्यूर साहब वगैरह ने अपनी आलिमाना और मुहक़्क़िक़ाना तहरीरात से बढ़ा दी है, इस पर हंसते हैं। गो जोहलाए हिंद जिनको तहक़ीक़ से चंदा सरोकार नहीं, उस को पादरीयों के मुक़ाबले में तिरयाक़ अक्बर ही समझ लें। इसी लिए तो इस का तर्जुमा करके उर्दू खवानों के दर्मियान शाएअ किया गया है। पस हम उनके ख़यालात की इस्लाह के लिए ज़बान उर्दू में ये मुख़्तसर रिसाला तैयार करके अहले इस्लाम को पेश करते हैं।

हमारा ये रिसाला पेशतर आँहज़रत मुहम्मद के अज़्वाज (बीवीयों) के हालात पर मुश्तमिल है, इसलिए इस का नाम “उम्महात-उल-मोमिनीन” (मोमिनों की माँए) रखा। जिस मुअज़्ज़िज़ इस्तिलाही लक़ब से वो मशहूर हैं, हमने अपनी इस बह्स को हर जानिब से पूरा करने की ख़ातिर साथ ही साथ इलावा और छोटे मोटे मौलवियों के जिनका नाम तुमन है। मौलवी मुहम्मद अली कानपुरी और मौलवी हकीम नूर उद्दीन भैरवी और मौलवी फ़िरोज़ उद्दीन फ़ीरोज़ डस्कवी और मौलवी अबू सईद मुहम्मद हुसैन बटालवी को जो मुसलमानों के दर्मियान सरआवर मुनाज़िरीन अस्र से समझे जाते हैं और ख़ुद भी इस बह्स में क़लम उठा चुके हैं, जाबजा जहां तक उनके ख़यालात सय्यद अमीर अली की कमी को पूरा करने की वजह से हमारी इस बह्स में मुताल्लिक़ थे जवाब दिया है ताकि इस रिसाला के बाद फिर किसी साहब को ये उज़्र बाक़ी ना रह जाये कि फ़ुलाने मुंशी साहब या फ़ुलाने मौलवी साहब या फ़ुलाने सय्यद साहब ने जो फ़ुलां जवाब दिया था और इस की रिआयत नहीं रखी गई। पस हमको दावा है कि आज तक इस बह्स पर जो कुछ लिखा गया और जो उज़्र पेश किया गया, हमने उस का जवाब हद्या नाज़रीन कर दिया है। इस जिहत से ये रिसाला बिल्कुल नया रिसाला है।

हम अफ़्सोस करते हैं कि इस बाब में हज़रत ﷺ के हालात तहज़ीब के पाया और अख़्लाक़ के मर्तबा से ऐसे गिरे हुए हैं कि इन के तज़्किरे के लिए ऐसे ख़यालात और ऐसे कलिमात लाज़िमी हैं जिनका मज़्कूर और मवाक़े पर कोई शख़्स बिला माअज़िरत नहीं कर सकता। मगर वो तारीख़ ही ऐसी है जिसके नज़्दीक आकर कोई शख़्स अपनी ज़बान व ख़्याल को कुछ देर आलूदा किए बग़ैर बच नहीं सकता। बहर कैफ़ नाज़रीन को ये मालूम हो जाएगा कि जिस अम्र का बयान भी तहज़ीब से हट जाता है, वो अम्र फ़ीनफ्सिही तहज़ीब का किस क़द्र दुश्मन होगा। हज़रतﷺ की सच्ची तारीख़ को हाथ लगाने से हम ज़रूर इज्तिनाब करते, मगर हमारा मन्सब हमको मज्बूर करता है। मुनाज़िरीन माज़ूर हैं। इस किताब की तालीफ़ में एक अम्र यह भी मल्हूज़ रखा गया है कि अवामुन्नास जिनके मुग़ालते के लिए सय्यद अमीर अली साहब की अंग्रेज़ी किताब का उर्दू तर्जुमा तैयार किया गया, वो इन वाक़ियात पर अपनी तहक़ीक़ी राय ख़ुद क़ायम कर सकें। इसलिए बड़ी बड़ी अरबी किताबों के नामों से जो ना सिर्फ़ अवाम की रसाई से बाहर बल्कि जिनके मज़ामीन और इनके इल्म से भी नावाक़िफ़ हैं, उन को डराया नहीं गया बल्कि उन किताबों से इस्तिदलाल किया गया है जिनको इन्हीं किताबों से बड़े बड़े जय्यद और दीनदार उलमा इस्लाम ने जिनके मुक़ाबिल इस वक़्त कोई एक आलिम भी सारे हिन्दुस्तान में मौजूद नहीं, अवामुन्नास के फ़ायदे के लिए बड़ी तहक़ीक़ व तफ़्तीश से तालीफ़ किया है ताकि मुहम्मदﷺ के हालात को वो बड़ी शरह व बस्त (वज़ाहत व तफ़्सील) से बयान करें।

वो किताबें रोज़तुल-अहबाब (روضۃ الاحباب), मदारिजु-न्नबी (مدارج النبوۃ) व हयातुल-क़ुलूब (حیاۃالقلوب) हैं। इन अख़ीर दोनों किताबों का जिनमें अव्वल बेशतर रोज़तुल-अहबाब पर मबनी है उर्दू तर्जुमा हो गया है और हर कहीं हर शख़्स को जो उर्दू भी पढ़ सकता है, मयस्सर आ सकता है। मैंने रोज़तुल-अहबाब मत्बूआ लखनऊ 1297 ही० और मदारिजु-न्नबी उर्दू तर्जुमा नौ लकशोरी जिसका नाम मिन्हाजुन्नबी (منہاج النبوۃ), इस्तिमाल किया है। इसी तरह तारीख़ वाक़दी (تاریخ واقدی) और तारीख़ अबूलफ़िदा (تاریخ ابوالفدا) का हवाला भी उन के उर्दू तर्जुमों से दिया गया है।

हयात-उल-क़ुलूब मुल्ला बाक़र मज्लिसी जिसकी जिल्द दोम नोलकशोरी इस रिसाले के काम में आई, शीयों की एक बड़ी मोअतबर तारीख़ है और रोज़तुल-अहबाब और मदारिजुन्नबी की बाबत शाह अब्दुल अज़ीज़ साहब जो गोया मुस्लिमानाँ हिंद के आख़िरी इमाम हुए, अपने रिसाले इजाला ना फ़हमी (عجالہ نافعمیں) में (इस का भी उर्दू तर्जुमा हो गया) ये फ़रमाते हैं :-

“احادیث تاریخ وسیر راو و قسم کردہ اندانچہ متعلق بوجود باجو د پیغمبر ماعلے اللہ علیہ وسلم وصحابہ کرام و آل عظا م او ست ازابتدائی تولد آنجناب تاغایت وفات آنراسیرت نامسندسیرۃ ابن اسحٰق وسیرۃابن ہشام وسیرت ملّاعمر و دیگر کتب بسیاردرین باب مصنف شدہ بالفصل نسخہ روضتہ الاحباب میر جمال الدین محدث حسینی اگر بہم رسد کہ خالہ ازالحاق وتحریف باشد بہتر ازہمہ تصانیف این باب است ومدارج والنبوۃ شیخ عبد الحق محدثوسیرت سید شاسیہ سوہب مدینہ مبسوط ترین سیر تھا اند‘‘ ۔

पस हमने उस किताब से जो “बेहतर अज़ हुमा तसानीफ़ एन बाब-अल-सुन्नत” और इस किताब से जो उस से माख़ूज़ है और ख़ुद “मबसूत-तरीन सैर था” है, जिसकी ख़ूबी व एतबार पर शाह अब्दुल अज़ीज़ सा आलिम अजल शाहिद है और जो हर शख़्स को हर कहीं उस की ज़बान में मयस्सर आ सकती है। इस रिसाले में सनद पकड़ी है व विर्द खाया है आँहज़रत ﷺ पर ईमान लाने वाले अहादीस के कमाहक़्क़ा पहुंचाने वाले, नरम गर्म रवायात में तमीज़ करने वाले, हज़रत के महामिद (ताअरीफें) (मह्मदत की जमा - अच्छाईयां) बयान करने वाले और ज़माना-ए-हाल के नीम-नर मौलवियों के उस्तादों के पढ़ाने वाले, इल्म हदीस के इमाम कहलाने वाले हज़रत के हालात हमको कैसे सुनाते हैं ताकि अवाम को ना फिर ये कहने की गुंजाइश रहे कि इन किताबों तक हम पहुंच नहीं सकते और ना ये कहने की गुंजाइश रहे कि हमने अपनी तरफ़ से हज़रत के हालात में तसर्रुफ़ किया है, बल्कि अगर आरी हो कर कहना चाहें तो सिर्फ ये कह कर लोगों को अपने ऊपर हंसवाएं कि मीर जमाल उद्दीन, मुहद्दिस हुसैनी और शेख़ अब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी और, मुल्ला बाक़िर मजलिसी झूटे या दरोग गोया कम इल्म या जाहिल या दुश्मन इस्लाम थे। मगर हम ये भी उन्ही से सुनना चाहेंगे जिनको उन बुज़ुर्ग उलमा ए इस्लाम से बुज़ुर्ग तर होने का दावा हो और नीज़ उन के अक़्वाल के ग़लत होने पर कोई दलील लाने का यारा। हमको ख़ूब मालूम है कि जो दलाईल हमने अपने दावों के सबूत या अपने मुख़ातबीन की तर्दीद में बयान किए हैं, वो बिल्कुल हमारे नाम व शौहरत या शख़्सियत से ग़ैर मुताल्लिक़ हैं। लिहाज़ा हम अपनी इस किताब को मज्र दो तन्हा तमाम मुसलमानों के रूबरू पेश कर के उनकी ना कि अपनी ताईद या तर्दीद के ख़्वाहिशमंद हैं और उम्मीद करते हैं कि नाज़रीन हज़रत अली के इस गिराँ-बहा मक़ूला पर कारबंद होंगे لاتنظرواالی من قال وانظرواالی ماقال (तर्जुमा) “मत देखो किस ने कहा देखो क्या कहा”

फ़स्ल अव्वल

ताअद्दुद अज़्वाज

(बीवीयों कि तादाद)

तमाम ईसाई क़ाइल हैं कि अह्द क़दीम में कस्रत अज़वाजी (ज्यादा निकाह करना) उस ज़माना की तहज़ीब के अंदाज़े से हलाल व मशरुअ थी। बनी-इस्राईल ने इस रस्म को अपने पेशीनों (पेशीन - क़दीम ज़माने का, अगला) की तक़्लीद में जारी रखा। उनके अम्बिया व सालिहा ने उस के जवाज़ को तस्लीम किया, मगर अह्द जदीद में जो मसीह मौऊद की बिअसत से शुरू हुआ और जिसने बनी-आदम की तरक़्क़ी तहज़ीब का नया रास्ता जारी किया। वो रस्म जो तलाक़ के साथ हमेशा तवाम रही है, उठ गई। उस के और इस के जवाज़ की सच्ची फ़ल्सफ़ी को सय्यदना मसीह ने एक ही जगह इस तरह बयान कर दिया कि अब कस्रत अज़वाजी (एक से ज्यादा निकाह करना) के हराम होना शरूअ होने में किसी ईसाई को शक की गुंजाइश नहीं रह सकती।''.....मूसा ने तुम्हारी सख़्त दिली के सबब से तुमको अपनी बीवीयों को छोड़ देने (तलाक़) की इजाज़त दी मगर इब्तिदा से ऐसा ना था'' (मत्ती 8:19) इस बयान में मर्दो औरत के ताल्लुक़ात की बिना (बुनियाद) इब्तिदाई मंशा ख़ालिक़ बताया गया। शुरू में एक मर्द था, एक औरत। इनकी मज़ूई जुदाई की जिसको तलाक़ से ताबीर करते हैं कोई रिआयत फ़ित्रत ने नहीं रखी। इन्सानी सख़्त दिली ने जोरुओं (बीवीयों) की तादाद बढ़ाई और अक़ला ने उस की बुराईयों को तलाक़ से कम किया। कस्रत अज़वाजी को उठा दो, तलाक़ जो इसका लाज़िम मल्ज़ूम है उठ जाएगा। दीन ईसाई की हक़ीक़ी मंशा के कस्रत अज़वाजी इस क़द्र ख़िलाफ़ है कि पुराने ख़यालात से लदे हुए उलमाए ईस्वी भी इस को मसीह की तालीम की ज़िद (खिलाफ) समझते हैं। जिसका नतीजा ये हुआ आप तस्लीम करते हैं कि ममालिक ईसाई यानी यूरोप के लोग तअद्दुद अज़वाजी (बहुत सी बीवीयां) को फ़ीनफ्सिही एक फे़अल क़ुब्ह (नुक़्स – ऐब) समझते हैं और इस को सिर्फ क़ानूनन नाजायज़ नहीं जानते कि अय्याशी व फिस्क़ व फ़जूर का नतीजा समझते हैं (सफ़ा 217) और हक़ भी यही है, क्योंकि अय्याशी व फ़िस्क़ व फ़जूर सब सरीह सख़्त दिली के सुमरह (फल) हैं। पस रुए ज़मीन पर बजुज़ ईसाईयों के कोई मिल्लत नहीं जो इस रस्म के ख़िलाफ़ शरअन व क़ानूनन ताकीद करे। मसीही दीन ही ने इन्सानी अख़्लाक़ की हक़ीक़ी इस्लाह का ज़िम्मा लेकर सोसाइटी की इस “क़ुब्ह अज़ीम” (बहुत बड़े एब) की बेख़कुनी (तर्दीद) की है। बर-ख़िलाफ़ इस के इस्लाम ने कस्रत अज़वाजी (एक से ज्यादा निकाह) को जो ग़ैर मुहज़्ज़ब या नीम मुहज़्ज़ब व सख़्त दिल क़ौमों के दरम्यान सोसाइटी की ज़रूरीयात से मुतसव्वर हो चुकी थी और जिस का फ़ायदा अहले मुक़द्दरत (क़ुदरत - बिसात) अपनी अय्याशी के वसाइल की वुसअत के मुवाफ़िक़ बाआसानी उठाते थे। ना सिर्फ बेऐब बता कर रवा ही रखा बल्कि शारेअ इस्लाम और अलुह-सहाबह अलमकादबीन बादा ये ने अपने अमल व सुन्नत से इस की तक़्दीस कर दी, मगर फिर भी इन्सानियत व उसूल शाइस्तगी व फ़लाह क़ौमी व ख़ानदानी के इस क़द्र यह रस्म ख़िलाफ़ है कि तहज़ीब की तरक़्क़ी इस को ख़ूद मस्दूर करती जाती है और वही लोग जिनकी शराअ ने इस को जायज़ और जिनके नबी ने इस को मुक़द्दस क़रार दिया है बावजूद हुसूल तमाम वसाइल के इस से फ़ायदा उठाने को राज़ी नहीं और फ़ी नफ़्सही इस को अपने आराम व आसाइश के ऐसा ख़िलाफ़ देखते हैं कि अमली तौर से इस से बेज़ार व दस्त-बर्दार हो कर अपनी बेटीयों को उस के मसाइब से महफ़ूज़ रखने की बड़ी बड़ी कोशिशें करते हैं और वो लोग जिनके ज़हन “नई रोशनी” से मुनव्वर हो गए हैं बावजूद हिमायत इस्लाम के इस मर्दूद रस्म को ना सिर्फ एक क़ुब्ह अज़ीम (बड़ी बुराई) जानने लगे हैं बल्कि बिला-ताम्मुल ज़िनाकारी का ताल्लुक़ कह रहे हैं।

तहज़ीब व शाईस्तगी पर ईस्वीयत ने इस बारे में क्या असर पैदा किया इस से मालूम हो सकता है कि मुस्लिमानाँ हिंद ने सबसे पहले ज़िल्ले-सुब्हानी हुकूमत नसरानी के साया आतिफ़त (मेहरबानी का साया) में तरह बह तरह इस रस्म को इन्सानी तरक़्क़ी की ज़िद (ख़िलाफ़) क़रार दिया है और वो इन इस्लामी ममालिक के मुसलमानों से किस दर्जे मुम्ताज़ हो गए हैं, जिन पर इस तालीम का असर नहीं पड़ने पाया और जो सरासर उन्हें उलमा ए इस्लाम की रहबरी क़ुबूल किए हुए हैं जिनको ख़यालात कुह्ना (पुराने ख़यालात) के बार से सबकदोश होने का मौक़ा बिल्कुल नहीं मिला। अभी हरगिज़ रोम, अरब, ईरान और अफ़्ग़ानिस्तान जो ख़ास इस्लाम को लिए हुए हैं, अपने हिन्दी मुसलमानों की नेक तालीम को सुनने के लायक़ नहीं। उर्दू ख़्वाँ क़िस्सा मबसला (मुहसिनात : मुह्सिना की जमा - नेक बीवीयां) हाफ़िज़ नज़ीर अहमद साहब से दर्स ले चुकी हैं और कस्रत अज़वाजी (एक से ज़्यादा बीवीयां रखने) की ख़राबियों को देख चुके हैं और अगर कोई साहब ख़ुद मुहम्मदﷺ की अज़्वाज (बीवीयों) के हालात में दूसरी महज़ात क़लम-बंद करें तो ये सबसे ज़्यादा इबरत बख़्श हो। मगर हमारे मुख़ातब सय्यद अमीर अली साहब बहुत दुरुस्त फ़रमाते हैं और जो कुछ फ़रमाते हैं ऐन दीन ईस्वी की तालीम की फ़ल्सफ़ी के मुताबिक़ है कि :-

“इब्तिदाई ख़ल्क़त इन्सान में यानी तमद्दुन के इब्तिदाई ज़माने में जबकि इस क़ुव्वत-ए-मासिका की तक्मील नहीं हुई थी। जो तरक़्क़ी अक़्ल व तहज़ीब नफ़्स के ज़माने में निज़ाम तमद्दुनी के अजज़ा को यकजा रखती है और मुतफ़र्रिक़ नहीं होने देती, इस ज़माने के लिए ताअदाद-ए-अज़्वाज (ज़्यादा बीवीयाँ रखना) एक अस्लुल-उसूल तहफ़्फ़ुज़ नफ़्स का था जिसको इस तरक़्क़ी व तहज़ीब के ज़माने में एक क़ुब्ह अज़ीम (बहुत बुरा) तसव्वुर करना चाहिए” (सफ़ा 197) कि रस्म तअद्दुद (बहुत सी) अज़्वाज “आख़िर ज़माने में जो अक़्ल व अख्लाक में तरक़्क़ी हुई, इस के सरासर ख़िलाफ़ है।” (सफ़ा 218 हाशिया)

ईसाईयों ने अपने क़वानीन में इस ताअदाद-ए-अज़्वाज (बीवीयाँ रखने की तादाद) को सिर्फ एक “क़ुब्ह अज़ीम” (बड़ी बुराई) नहीं बल्कि साफ़ साफ़ ज़िना ठहराया है और हमारे सय्यद साहब को इनकी राय पर साद कर देने में ज़र्रा ताम्मुल नहीं। चुनान्चे वो अपनी अंग्रेज़ी किताब में इस मज़्मून के आख़िर में फ़रमाते हैं कि :-

मैं अफ़्सोस करता हूँ कि मेरे इन वाक़ियात की फ़ल्सफ़ियाना तन्क़ीद से जो ज़माना-ए-सलफ़ में कस्रत अज़्वाज (बहुत सी बीवीयां) के मुमिद हुए पादरी जी० डी० बेट्स साहब ईलाहबादी ने अपनी किताब “क्लेम्स आफ़ इस्माईल” में ये अख़ज़ किया है कि गोया मैं कस्रत अज़्वाज की हिमायत करता हूँ, मैं कस्रत इज़्दवाज (बहुत सी बीवीयों) को इस ज़माने में एक हरामकारी का ताल्लुक़ और मंशा इस्लाम के ख़िलाफ़ समझता हूँ जिस राय में एक जमाअत अक्सर अहले इस्लाम की मेरे शरीक है (सफ़ा 365) कि फ़हमीदा अज़हान ने इस्लामी तालीम कस्रत अज़्वाज और तलाक़ पर क्या फ़त्वा कुफ़्र लगा दिया है और इस फ़त्वे का क्या कुछ असर ज़हूर में आ चुका है।

मौलवी मुहम्मद हुसैन की इस बाँग बेहंगाम (बे मौक़ा) से रोशन है :-

“हम इन एतराज़ात की कुछ परवाह ना करते और ना उनके जवाबात के दरपे होते, अगर ये एतराज़ात हमारे नव जवान इस्लामी इख़्वान अंग्रेज़ी खवानों पर साहिराना तासीर ना कर जाते और वह उनकी तासीर से मत्रदूद व मतोहष हो कर असल इस्लाम में मुज़बज़ब ना हो जाते” (मसाइल निकाह सफ़ा 136)

मौलवियों तुम्हारे जवाबात की परवाह कौन करता है कहीं मौज-ए-दरिया तुम्हारे रोके रुक सकती है, कहीं ये “इस्लामी इख़्वान” तुम्हारे क़ाबू में आ सकते हैं। सुनो मोअल्लिफ यह क़ौल आब-ज़र से लिखने के काबिल है कि “ऐसा फ़तवा जब ही दिया जायेगा कि जब उलमा ए इस्लाम ख़यालात कुह्ना (पराने खयालात) के बारे सबकदोश हों और वाक़ियात को अच्छी तरह समझ लें और रसूल अल्लाह के अहकाम को कमा-हक़्क़ा समझ सकें। अब इस नई रोशनी से आंहज़रतﷺ के अहकाम देखे जाते हैं। लिहाज़ा उम्मीद है कि तादाद अज़्वाज (ज़्यादा तादाद में बीवीयाँ रखने) की रस्म बिल्कुल मौक़ूफ़ (ख़त्म) हो जाएगी (सफ़ा 316 हाशिया 2) या दूसरे अल्फ़ाज़ में यूं कहें कि रसूल अल्लाह के अहकाम को उलमा ए इस्लाम कमा-हक़्क़ा नहीं समझ सकते जब तक कि अंग्रेज़ी यूनीवर्सिटी में तालीम ना पाएं और यूरोप की सैर ना करें और उनकी आँखें नई रोशनी से मुनव्वर ना हों। या आम फ़हम और मुख़्तसर तौर पर हम कह दें कि रसूल अल्लाह के अहकाम को कमा-हक़्क़ा समझने के लिए ज़रूरी है कि मौलवी साहिबान नेचरी बन जाएं या ईसाई इस्तिलाह में इस को हम यूं ज़ाहिर करें कि “नई मै को पुरानी मश्कों में भरी” पस ख़तरा है तो ये है कि इस्लाम की बिना (बुनियाद) पर कस्रत अज़वाजी (ज्यादा बीवीयां रखने) को मर्दूद ठहराया जाता है और अख़्लाक़ की ग़लत बुनियाद डाली जाती है। हमको ख़ौफ़ है कि हमारे फ़ख्र मुसावात गो अख़्लाक़ व तहज़ीब, तक़ाज़ा नई रोशनी को तो बख़ूबी समझे मगर इस्लाम को नहीं समझते, वो भूल चूक की ईस्वीयत है। क्या उम्मीद की जाती है कि ईमानदार मुसलमान ख़ालिस इस्लाम के पैरवा अपने नबी की सुन्नत मुअक्कदा से दस्त-बरदार हो जाएंगे और क्या वो ये रोग़नी जुम्ला कह कर कि “इस तरक़्क़ी व तहज़ीब के ज़माने में कस्रत अज़वाजी (एक से ज्यादा बीवीयां रखने) को एक क़ुब्ह अज़ीम (बड़ी बुराई) तसव्वुर करना चाहिए” जो इस आख़िरी ज़माने में अक़्ल व अख़्लाक़ में तरक़्क़ी हुई इस के सरासर ख़िलाफ़ है।” ये मान लेना कि इनके नबी को अपने ज़माने में जब रूह-उल-अमीन इन पर वह्यी लेकर नाज़िल हुआ करते थे और जिनको शब मेअराज ख़ुदा से आमना सामना हुआ था, इस कदर भी तरक़्क़ी व तहज़ीब, अक़्ल व अख्लाक मयस्सर ना थे जितना आज किसी नई रोशनी वाले को हासिल है कि उनको कस्रत अज़वाजी (ज्यादा बीवीयां रखने) से रोक सकें। और आप याद रखें कि आप के यह चिकने चिकने तहज़ीब के अल्फ़ाज़ सुन्नत नबी पर फ़िदा होने वालों के दिल पर कितना असर पैदा करेंगे जबकि आप ख़ुद तस्लीम कर रहे हैं कि “जब बादशाह-ए-वक़्त इस रस्म (ताअदाद-अज़्वाज) को अमल में लाता था और बादशाह हर मुल्क में ज़िल- अल्लाह (अल्लाह का साया) समझा जाता था तो रियाया भी इस रस्म को मुक़द्दस समझती थी।” (सफ़ा19) फे़अल (अमल) का असर हमेशा क़ौल (कहने) से ज़्यादा होता है, लिहाज़ा जब बादशाहों के मुतअद्द महलात हुए तो रियाया उन की तक़्लीद से कब चूकती थी। “शायद आप भूल गए कि नबी और इस के उम्मत्ती के ताल्लुक़ात बादशाह और इस की रियाया से कई दर्जा बढ़कर होते हैं।” हसनत जमीअ हिसार हज़रत की शान में कोई बेफ़िक्र रख गया है बेफ़िक्र कह किया।“

फ़स्ल दोम

सुन्नत नबी

मगर नहीं, अभी हम ही भूले हुए हैं, आप कुछ और फ़रमाया चाहते हैं। सबसे बड़ी ख़ता और सबसे ज़्यादा लायक़ इल्ज़ाम और क़सूर मौअर्रखीन ईसाई ने ये किया है कि ये फ़र्ज़ कर लिया है कि शारेअ इस्लाम ने तअदाद अज़वाजी (ज्यादा बीवीयां) को इख़्तियार क्या या जायज़ कर दिया है। ये क़ौल कि :-

“आँहज़रतﷺ ने इस रस्म को इख़्तियार किया और इस को शुरू कर दिया, अक्सर अवाम का लाअनआम (अवाम मिस्ल चौपाओं के) में बल्कि बाअज़ ख़बरत नसारा के नज़्दीक भी अब तक मुसल्लम व मोअतबर है। इस से काज़िब तर कोई क़ौल नहीं है”

हम इस के जवाब में बजुज़ इस के और कुछ नहीं कह सकते “इस से काज़िब तर कोई क़ौल नहीं।” क्या हम से ये कहा जाता है कि शारेअ इस्लाम ने अपनी ज़ात के लिए ताअदाद-ए-अज़्वाज को जायज़ नहीं रखा? फिर आगे चल कर हमको हज़रत ﷺ की मुत्अदद अज़्वाज (बहुत सी बीवीयों) का हाल आप क्या सुनाते हैं। जब इन्होंने इस रस्म को इख़्तियार ही नहीं किया फिर इनके लिए इस वजह से आपकी माअज़िरत क्या मअनी रखती हज़रतﷺ ने ज़रूर इस रस्म को इख़्तियार क्या, कोई शख़्स जिसको अपनी सदाक़त का लिहाज़ हो इन्कार नहीं कर सकता।

चुनान्चे रोज़तुल-अहबाब (رو ضتہ الاحباب) वाला कहता है कि हज़रत की ग्यारह (11) औरतों से किसी अहले तहक़ीक़ को इन्कार नहीं हुआ। (सफ़ा 599) मगर वो आपसे क़ब्ल गुज़रा है और मदारिजुन्नबी (مدارج النبوۃ) में मर्क़ूम है :-

“मुत्तफ़िक़ अलैह यानी सब मुत्तफ़िक़ हैं इस बात पर बे ख़िलाफ़ कि रसूल-ए-ख़ूदा के ग्यारह क़बीले हैं। छः क़ुरैश से (इनके नाम) चार अरबिया हैं ग़ैर क़ुरैश से (उन के नाम) और एक ग़ैर अरबिया है, बनी-इस्राईल से” (जिल्द 2 सफ़ा 847)

ये ग्यारह मस्तूरात (औरतें) थीं कि हज़रत ने उनकी ख़ासतगारी (निस्बत की दरख़्वास्त - शादी का पैग़ाम) की है और उनसे ज़िफाफ (हमबिस्तरी) फ़रमाया है और एक जमाअत निसा (औरतें) और हैं, बीस या ज़्यादा (रोजतुल-अहबाब (رو ضتہ الاحباب) वाला कहता है “سی زن دیگر بودند” सफ़ा 599) कि बाअज़ के तईं हज़रत ने तज़्वीज (निकाह, शादी) फ़रमाया ज़िफाफ (हमबिस्तरी) नहीं किया और पेश अज़ दखुल मुफ़ारिक़त (जुदाई) की है और बाअज़ के तईं ख़ुत्बा किया है और ख़्वास्तगारी (ख्वाहिश) की है, लेकिन तज़्वीज (निकाह) नहीं किया और बाअज़ के तईं उनसे तज़्वीज (निकाह) किया। तख़य्युर के वक़्त जिस वक़्त आयत नाज़िल हुई हिबाला (रिश्ता) निकाह से इस जनाब के बाहर गईं (सफ़ा 100) और हज़रत ﷺ की चार लौंडियों के नाम भी बताए हैं, जिनका शुमार उन ग्यारह औरात (औरतों) के सिवा है (सफ़ा 882) और अबूलफ़िदा लिखता है कि :-

“रसूल अल्लाह का निकाह पंद्रह (15) बीवीयों से हुआ था और 13 औरतों से मुहब्बत की और बाक़ी दो से नहीं की” (सफ़ा 368)

और हयात-उल-क़ुलूब (حیات القلوب) वाला (जिल्द 2 सफ़ा 565) में हज़रत की अज़्वाज (बीवीयों) का शुमार 15 बताता है :-

’’ابن بابو یہ پسند میسراز حضرت صادق روایت کر دہ است کہ حضرت رسول پانژ دہ زن تزویج کر دوبہ سبزدہ نفراز ایشان مقاربت نمود‘‘

और दूसरी रिवायत से कुल शुमार उन बीवीयों का जिनसे हज़रत ने तज़्वीज (निकाह) की इक्कीस (21) बयान करता है (सफ़ा 568) जिन में वो भी दाख़िल हैं जिनके साथ सोहबत (हमबिस्तरी) करना मुहम्मदﷺ का लोगों में मशहूर नहीं है ’’موافق این روایت انجناب بست ویک زن تزویج کردہ‘‘ मगर सय्यद अमीर अली किस बेबाकी से फ़रमाते हैं और हाशा इस बेबाकी की “नई रोशनी” जवाबदेह नहीं है कि ये क़ौल कि “आँहज़रत ﷺ ने इस रस्म को इख़्तियार और इस को मशरूअ कर दिया। अक्सर अवाम का अल-अन्आम में बल्कि बाअज़ अहले ख़िब्रत (मुहक़्क़ीक़) नसारा के नज़्दीक मुसल्लम व मोअतबर है। इस से काज़िब तर कोई क़ौल नहीं है।”

फ़स्ल सोम

क़ुरआन व तअद्दुद अज़्वाज

(क़ुरआन और बीवीयां रखने की तादाद)

दफ़्अ अव्वल

नई तावील अदल की दिल-लगी

एक नई तावील क़ुरआनी हुक्म कस्रत मुनाकहत (ज़्यादा निकाह करने) की सय्यद साहब करते हैं और वो तावील “नई रोशनी” का हिस्सा है। उलमा ए इस्लाम इस की तादाद नहीं दे सकते हैं। सूरह निसा की आयत 3 में है :-

وَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تُقْسِطُوا فِي الْيَتَامَىٰ فَانكِحُوا مَا طَابَ لَكُم مِّنَ النِّسَاءِ مَثْنَىٰ وَثُلَاثَ وَرُبَاعَ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تَعْدِلُوا فَوَاحِدَةً أَوْ مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ ذَٰلِكَ أَدْنَىٰ أَلَّا تَعُولُوا

तर्जुमा : “निकाह करो जो तुमको ख़ुश (पसंद) आएं औरतें दो दो, तीन तीन, चार चार, फिर अगर डरो कि बराबर (इन्साफ) ना रखोगे तो एक ही या जो अपने हाथ का माल है (लौंडी) और फरुअ में है। “तुम हरगिज़ ना रख सकोगे औरतों को बराबर (इन्साफ से) अगरचे उस का शौक़ करो, सो ना रहे फिर भी ना जाओ कि डाल रखू एक को जैसी आवहड़ में लटकती।”

सय्यद साहब फ़रमाते हैं कि :-

“शारेअ इस्लाम ने अज़्वाज (बीवीयों) की एक तादाद मुक़र्रर कर दी और अज़्वाज (बीवीयों) के मवाजिब व हुक़ुक़ उन के शौहरों पर मुईन कर दिए और शौहर पर फ़र्ज़ ऐन कर दिया कि सब अज़्वाज से मन जमी अलवजूह (من جمیع الوجوہ) बराबर बर्ताव रखे। तअद्दुद अज़्वाज (बहुत सी बीवीयों) में एक क़ैद ऐसी लगा दी है जिससे ये फे़अल सिर्फ़ महदूद ही नहीं हो गया है बल्कि जिस आयत से इज़्न (हुक्म, इजाज़त) मफ़्हूम होता है, इस आयत के मअनी ये होते हैं कि कोई शख़्स एक से ज़्यादा ज़ौजा (बीवी) (बीवीयां) ना करे, अगर वो चारों अज़्वाज (बीवीयों) के साथ बराबर और मुंसिफ़ाना बर्ताव ना कर सके।”

जैसा मौलवी सय्यद अहमद ख़ान साहब ने फ़रमाया है कि तादाद अज़्वाज (बीवीयों कि तादाद) में बहुत से शदीद क़्यूद (कैदें) दिए गए हैं और बहुत से सख़्त क़वाइद मुक़र्रर कर दिए गए हैं, जैसा चारों अज़्वाज (बीवीयों) के मवाजिब व हुक़ूक़ में मुसावात कुल्ली (एक सा बर्ताव यानी इन्साफ) रखना और चारों से बराबर उल्फ़त और मुहब्बत रखना वग़ैरा वग़ैरा। पस बहर कैफ़ हुक्म तअद्दुद अज़्वाज (बहुत सी बीवीयां रखने) को अज़क़बील नवाही (नाजायज़, गैर-शरई) समझना चाहिए, ना अज़ क़बील अवामिर (अहकामे इलाही, शरई हुक्म) (सफ़ा 205, 204) सब पर ज़ाहिर है कि क़ुरआन मजीद चार औरतों को बशर्त अदल जायज़ बताता है और ये भी कहता है कि “तुम हरगिज़ अदल (इन्साफ) ना कर सकोगे औरतों में अगरचे उस का शौक़ करो।” पस यातो यहां बक़ौल सय्यद साहब “بمفااذفات الشرط فات مشروط” तादाद अज़्वाज हराम हुआ और ताअदाद-ए-अज़्वाज को अज़क़बील नवाही (नाजायज़, गैर-शरई) समझना चाहीए, क्योंकि अदल नामुम्किन है। जैसा क़ुरआन मजीद कहता है और सय्यद साहब ख़ुद तस्लीम करते हैं कि “ऐसा अदल करना इन्सान के इम्कान से बाहर है” (हाशिया सफ़ा 219)। तो अब मानना पड़ा कि या तो हर मुसलमान मुहम्मदﷺ से ले कर इमाम हसन और माबाअ्द के ईमानदारों तक जिसने कभी तादद अज़्वाजी को अपने लिए जायज़ रखा, मुवाफ़िक़ शरीअत इस्लाम हरामकारी और नवाही (नाजायज़, गैर-शरई) का मुर्तक़िब हुआ या ये क़ौल कि “तुम हरगिज़ अदल ना कर सकोगे औरतों में” बातिल है। और अगर ये दोनों क़ौल दुरुस्त हैं तो मालूम हुआ कि अदल (इन्साफ) से मुराद कुछ और है जिस का करना दुशवार नहीं और तादाद अज़्वाज के लिए “सब अज़्वाज (बीवीयों) से मन जमी अलवजूह (من جمیع الوجوہ) बराबर ताव रखना या उन के मवाजिब व हुक़ुक़ में मुसावात कुल्ली (एक जैसा बर्ताव) रखना और चारों से बराबर उल्फ़त व मुहब्बत रखना वग़ैरा वग़ैरा” हरगिज़ फ़र्ज़ नहीं। और हम ये भी दिखा देंगे कि इन शराअइत को ना तो ख़ुद मुहम्मदﷺ ने कभी पूरा किया और ना अपने ऊपर इनका पूरा करना वाजिब जाना और ना किसी ईमानदार मुसलमान ने ऐसा समझा और ये क्योंकि मुम्किन था कि जो फे़अल ख़ुद मुहम्मद ﷺ की ज़ात के लिए नामुम्किन था, किसी मोमिन उम्मती के लिए मुम्किन हो सकता।

क़ुरआन-ए-मजीद ने हुक्म दिया था कि बशर्त अदल चार बीवीयां रख सकते हो, मगर फ़ौरन कह दिया कि “तुम हरगिज़ अदल ना कर सकोगे औरतों में अगरचे तुम उस का शौक़ करो” चाहे कितना ही चाहो अदल (इन्साफ) करना नामुम्किन है। “ये साफ़ साफ़ कह दिया गया कि अदल का लिहाज़ रखना इन्सानी क़ुदरत से बाहर है” (सफ़ा 349 अंग्रेज़ी) और मुहम्मदﷺ को ज़ाती तजुर्बा है, वो ज़्यादा औरतें रख के देख चुके। पस वो अब अदल की कोई शर्त मुक़र्रर नहीं करते बल्कि बजाय अदल के जो नामुम्किन था एक मन्फ़ी हुक्म हल्का सा देते हैं जो किसी के लिए मुहाल क्या मुश्किल भी नहीं और वो शर्त सिर्फ ये है “सो ना रहे फिर भी ना जाओ कि डाल रखू एक को जैसी आवहड़ में लटकती” सिर्फ यही एक शर्त है। जब एक से ज़्यादा औरतें कर लूँ तो उनमें से किसी एक को बिल्कुल बेवा (जिसका शोहर मर गया हो) की तरह डाल ना रखू ना ये ज़रूर है कि “मन जमी अलवजूह (من جمیع الوجوہ) बराबर बर्ताव करे” “ना अज़्वाज के मवाजिब और हुक़ूक़ में मुसावात (इन्साफ के साथ बराबरी) रखे” “और ना” चारों (बीवीयों) से उल्फ़त और मुहब्बत रखे। और मह्ज़ इस एक तरह से अगले और पिछले मुसलमानों की कस्रत अज़वाजी (एक से ज़्यादा बीवीयां रखना) शरीअत इस्लाम के मुताबिक़ हो सकती है, वर्ना सब हराम करते रहे, जिसका हासिल ये हुआ कि जनाब बजाय कस्रत अज़वाजी के शर्त अदल को “अज़क़बील नवाही (नाजायज़, गैर-शरई) समझे ना अज़क़बील अवामिर (अहकामे इलाही शरई हुक्म)” (इमाम हुसैन बटालवी के इस्लामी अख़्लाक़ के मुवाफ़िक़ “उस वक़्त के दोनों ऑनरेबल रीफ़ारमरों” की राय शर्त अदल का बड़े ज़ोर शोर से इब्ताल (गलत साबित करना) किया है और उसको गोया बहुत जोरूओं (बीवीयों) के शौहर पर ज़ुल्म समझा है (देखो उनका रिसाला सफ़ा 157 - 158)।

दफ़्अ दोम

शर्त अदल व सुन्नत नब्वी ﷺ

मुहम्मद हुसैन साहब फ़रमाते हैं कि अदल को (जो फ़ी-उल-हक़ीक़त ज़ुल्म है) क़ायम रखने के लिए शरीअत इस्लाम ने चार से ज़्यादा जोरूओं (बीवीयों) की इजाज़त नहीं दी।

“हर एक पर यह ज़न (गुमान) तो उमूमन हो सकता है कि कस्रत अज़्वाज की हालत में वो औरतों की हक़ तल्फी करेगा और उनमें अदल ना कर सकेगा और आँहज़रत ﷺ चूँकि उन ज़नों (गुमानों) और बुरे गुमानों से पाक और मुबर्रा थे और अपना हाल वो यक़ीनन जानते थे और बेएतिदाली के ख़ौफ़ से मुत्मइन थे। लिहाज़ा आपके लिए वो तहदीद (हदबन्दी) (जो सिर्फ मफ़लना पर थी) ज़रूरी ना थी”

इसलिए आपको चार से ज़ायद जोरूओं (बीवीयों) की रुख़स्त खुदा ने दी फिर फ़रमाते हैं “मगर ये जवाब इन ही लोगों के लिए तमाअनीयत (इत्मीनान) बख़्श है जो आंहज़रतﷺ को नबी बरहक़ मानते और उन ज़नों (गुमानों) से बरी जानते हैं। आँहज़रत ﷺ के मुख़ालिफ़ और दीन इस्लाम से मुन्किर इस जवाब को तस्लीम ना करेंगे।” (सफ़ा 168,167)

मैं दिखाए देता हूँ कि इस फ़र्ज़ी अदल वाले क़ानून को हज़रत ने ख़ुद कैसे बरता और आप किस दर्जे और किस मअनी में “बेएतिदाली के ख़ौफ़ से मुत्मइन थे” ''ताकि मुख़ालिफ़ व मुवालिफ़ दोनों की आँखें खुल जाएं। सुरह अह्ज़ाब रुकूअ छः (6) आयत 51 में है :-

تُرْجِىْ مَنْ تَشَآءُ مِنْهُنَّ وَتُؤْوِىٓ اِلَيْكَ مَنْ تَشَآءُ ۖ وَمَنِ ابْتَغَيْتَ مِمَّنْ عَزَلْتَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكَ ۚ ذٰلِكَ اَدْنٰٓى اَنْ تَقَرَّ اَعْيُنُهُنَّ وَلَا يَحْزَنَّ وَيَرْضَيْنَ بِمَآ اٰتَيْتَهُنَّ كُلُّهُنَّ ۚ وَاللّـٰهُ يَعْلَمُ مَا فِىْ قُلُوْبِكُمْ ۚ وَكَانَ اللّـٰهُ عَلِيْمًا حَلِيْمًا

“पीछे रख दे तू जिसको चाहे उनमें और जगह दे अपने पास जिसको चाहे और जिसको जी चाहे तेरा उन में से जो किनारे कर दी थीं तो कुछ गुनाह नहीं तुझ पर।”

इस की सहीह तफ़्सीर में हुसैनी लिखता है :-

’’دروسیط اور وہ کہ جوب قسم بدین آیت ازحضرت صلعم ساقط شدہ ‘‘

“लो हज़रत के ऊपर किसी क़िस्म का अदल व इन्साफ इस आयत से वाजिब ना रहा। आम तौर से समझना है कि मुसलमानों पर वाजिब है कि दर्मियान औरात (औरतों) के किसी क़िस्म की मुसावात (गो वह मुसावात (बराबरी) वो हरगिज़ नहीं जिसके सय्यद अहमद या सय्यद अमीर अली मुद्दई (दावेदार) हैं) की रिआयात रखें, मगर मुहम्मद साहब आज़ाद कर दिए गए चाहे किसी औरत से मिलें चाहे ना मिलें, छोड़ रखें चाहे छोड़ी हुई को फिर बग़ल में बुला लें और चाहें तो डाल रखें किसी एक को ओहड़ में लटकती जैसा सौदहؓ के बयान में हम दिखा देंगे। चुनान्चे हज़रत ﷺ की औरात (औरतों) में नाइंसाफ़ी ज़ुल्म से नालां हुई थीं। ’’درروایت دیگر زینب گفت تو عدل نمی کنی میا ن مابآنکہ پیغمبر خدائی‘‘ (हयातुल कुलूब सफ़ा 573) मगर हज़रत पर इन्साफ़ ही फ़र्ज़ नहीं। शायद इस वक़्त हमारे सय्यद साहब को वो सच्चा सुख़न (कहा) याद ना होगा कि “फे़अल का असर हमेशा क़ौल से ज़्यादा होता है। लिहाज़ा जब बादशाहों के मुतअद्दिद महलात हुई तब रियाया उन की तक़्लीद से कब चूकती थी।” “सो अब तो मुहम्मदﷺ का क़ौल भी मौजूद है और फे़अल भी मौजूद है” और फे़अल का असर हमेशा क़ौल से ज़्यादा होता है।“ कौन है जो मुसलमानों को उनके नबी की सुन्नत मुअक्कदा के असर से महरूम कर सकता है, क्या किसी नई रोशनी वाले का क़ौल (सफ़ा 4)

दफ़्अ सोम

हद तअद्दुद (बहुत सी बीवीयां रखने कि हद) नुमाइशी (दिखावटी), ना हक़ीक़ी

सय्यद साहब का क़ौल कि “शारेअ इस्लाम ने अज़्वाज (बीवीयों) की एक तादाद मुक़र्रर कर दी “ग़लत” है। इतना तो सच्च है कि कोई मुसलमान एक साथ चार से ज़्यादा मन्कूहा औरतें नहीं रख सकता, मगर आगे इसी आयत में है “जो अपने हाथ का माल (लौंडी) है।” और सुरह अह्ज़ाब रुकू 6 आयत 52 में है :-

إِلَّا مَا مَلَكَتْ يَمِينُكَ وَكَانَ اللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ رَّقِيبًا

“हमको मालूम है जो ठहरा दिया हमने उन पर उन की औरतों में और उन के हाथ के माल में (लौंडी)।” और सुरह मोमिनून आयत 5 :-

وَالَّـذِيْنَ هُـمْ لِفُرُوْجِهِـمْ حَافِظُوْنَ اِلَّا عَلٰٓى اَزْوَاجِهِـمْ اَوْ مَا مَلَكَتْ اَيْمَانُـهُـمْ فَاِنَّـهُـمْ غَيْـرُ مَلُوْمِيْنَ

और जो अपनी शहवत की जगह थामते हैं मगर अपनी औरतों पर या अपने हाथ के माल (लौंडियों) पर सो इन पर नहीं उलाहना (गिला, बुराई)” ये “हाथ का माल” जिन पर शहवत ज़नी मुबाह (हलाल) है, लोंडियां हैं उनकी कोई हद नहीं। अगर किसी मुसलमान के हाथ हज़ार लौंडियां लग जाएं तो वो उन को अपनी मदख़ूला बना कर और अपनी चार जोरूओं (बीवीयों) पर इज़ाफ़ा करके शरीअत इस्लाम से बाहर नहीं जाता। पस लौंडियों की कोई तादाद नहीं, मगर लौंडियां जो मन्कूहा ना हों और बे निकाह तसर्रुफ़ में आएं, औरतें ज़रूर हैं। पेश रखना ऐन हक़ है कि इस्लाम की रू से मर्द को इख़्तियार है, चाहे जिस क़द्र औरतें अपने हज़ (मज़ा) नफ़्स के लिए जमा करे। उन में अदल वग़ैरा किसी क़िस्म की क़ैद और हज़रतﷺ पास भी बावजूद एक दर्जन से ज़्यादा मन्कूहा औरतों के चार लौंडियां भी थीं जिनमें से मारिया, क़िब्तिया और रिहाना बहुत मशहूर हैं।

दफ़्अ चहारुम

लौंडियां हलाल

लौंडी हलाल है, मगर हमारे मुख़ातब ने ग़ज़ब ढाया है, वो इन्कार करने पर आ गए हैं और हर हक़ीक़त और वाक़िया का जवाब उनके पास इन्कार मह्ज़ है। हम अभी क़ुरआन-ए-मजीद की आयात पेश कर चुके कि लोंडियां मुसलमानों को हलाल हैं और उनकी कोई तादाद महदूद नहीं। सय्यद साहब फ़रमाते है :-

“ये भी कहा है कि आँहज़रत ने अपनी उम्मत को इलावा चार निकाहों के इजाज़त दी है कि जितनी लौंडियां चाहो करो.....ये क़ौल सच्चे अहकाम शराअ के किस क़द्र ख़िलाफ़ है। इस बात में हुक्म शराअ ये है जो शख़्स तुम में से इतना मक़्दूर (ताक़त) ना रखता हो कि एक आज़ाद मुस्लिमा से अक़्द (निकाह) कर सके तो इस को चाहीए कि इन लोंडियों से निकाह करे जिनको जिहाद में गिरफ़्तार किया हो। इस की इजाज़त उस शख़्स को दी जाती है जो इर्तिकाब मासियत का अंदेशा रखता हो, लेकिन अगर तुम परहेज़ करो तो तुम्हारे हक़ में बेहतर होगा” (सफ़ा नंबर 218)

हमारे दोस्त ना समझे कि यहां इस की इजाज़त है कि अगर किसी शख़्स के पास लौंडी ना हो और आज़ाद औरत निकाह में लाने का मक़्दूर (ताक़त) भी ना हो और जोरू (बीवी) चाहता हो तो और किसी शख़्स को लौंडी से आसान शराअइत पर निकाह करे। सुरह निसा रुकू 4 देखिए यहां बेमक़्दूर शख़्स का ज़िक्र है और हम आपसे उस शख़्स के बारे में बह्स करते हैं जिसको इलावा चार जोरूओं (बीवीयों) के लौंडियां रखने का मक़्दूर (ताक़त) है। अफ़्सोस आप इतना भी ना समझे कि क्या दार-उल-इस्लाम की लाखों लौंडियां सिर्फ़ बेमक़्दूर लोगों के निकाह के वास्ते हो सकती हैं। अफ़्सोस आप मोमिनीन की हक़ तल्फ़ी करते हैं। पहले तो उन के चार जोरूएं (बीवीयां) रखने के हक़ से मुन्किर हुए जाते थे, अब उन की लौंडियां भी ख़िलाफ़ शराअ दीन ए मुहम्मदी उन से जुदा करने का क़स्द (इरादा) करते हैं और सुन्नत नब्वी का मुतलक़ ख़्याल नहीं करते। आप को कोई मन्सब नहीं कि आप ज़बान दराज़ी से उलमा ए इस्लाम को जो क़ुरआन मजीद और सुन्नत पर इस अम्र में चल रहे हैं “ख़यालात कुह्ना (पुराने ख़यालात) के बड़े” इल्ज़ाम दें और उल्टा कहें कि वो “रसूल अल्लाह के अहकाम को कमा-हक़्क़ा नहीं समझ सकते।” ये इल्ज़ाम आप पर आइद होता है मगर ताज्जुब है कि आप क़ुरआन-ए-मजीद की नस (इबारत) का ख़्याल ना करके बिलाताम्मुल फ़रमाते कि “हमारे फुक़हा ने लौंडियां रखने को जायज़ क़रार दिया है। हालाँकि ये फे़अल आँहज़रत के असल मंशा के ख़िलाफ़ है” (सफ़ा 218)। अफ़्सोस असल मंशा की कैसी ख़राबी की है। अगर असल मंशा यही था तो मुहम्मदﷺ ने अपने ऊपर लौंडियां कैसे हलाल कर लीं और इमाम निसाई जिसकी किताब सहाह सत्ता में दाख़िल है, चार जोरूओं (बीवीयों) के साथ बहुतेरी लौंडियां सोहबत में क्यों रखता था? ऐसे हज़रत उलमा ए इस्लाम जिन ख़यालात कुह्ना (पुराने खयालात) के बार (वज़न) से लदे हुए हैं वो बार (वज़न) उन को मिस्ल हदीस मुत्तसिल व सहीह के हज़रत ﷺ से पहुंचा है। हज़रत मुहम्मदﷺ इस “नई रोशनी” के इस्लाम से वाक़िफ़ ना थे

दफ़्अ पंजुम

मुत्उन्निसा (थोड़े वक़्त के लिए औरत से तयशुदा निकाह करना)

हम दिखला चुके कि इस्लाम में ना सिर्फ चार जोरूएं निकाही हलाल की गई हैं बल्कि लातादाद लौंडियां भी जिनकी हद सिर्फ़ अय्याशी की क़ुदरती इंतिहा है, मुबाह ठहरी हैं, नहीं बल्कि उन से भी बढ़कर आम रंडी बाज़ी जिसको शरई इस्तिलाह में मुत्आ (थोड़े वक़्त के लिए तयशुदा निकाह) कहते हैं, हलाल व मशरूअ है जिसके तमाम शीए क़ाइल हैं। सुन्नियों ने इस मसले से अफ़ाईत व ज़ईफ़ व वसवासी शहादत की बिना पर इन्कार किया है और वजह इस इन्कार की बजिन्सा वही है जिससे फ़ी ज़माना नई रोशनी वाले मुहज़्ज़ब मुसलमान इस्लाम में ज़बरदस्ती कस्रत अज़वाजी को हराम साबित करने की कोशिश करते हैं। फ़स्ल दहुम में हम इस नापाक मसअले का शरीअत इस्लाम के साथ ताल्लुक़ साबित करेंगे।

फ़स्ल चहारुम

तंज़िया अलमताइन

अब मुसन्निफ़ साहब हज़रत पर से इस तअन के दफ़्अ करने की कोशिश करने में कि “आँहज़रत ﷺ ने मुत्अदद अज़्वाज (बहुत सी बीवीयां) करके अपने नफ़्स से वो रिआयत की जिसके मुस्तहिक़ आप शराअ शरीफ़ के बमूजब ना थे” (सफ़ा 21) हक़ तो यूं है कि औरतों के बारे में हज़रत ने ना हुक्म का लिहाज़ किया, ना क़ानून-ए-क़ुदरत का, ना क़ुरआन-ए-मजीद का, ना इस्लाम का, ना रस्मो-रिवाज, ना अरब का। हर उसूल हया व शर्म व अख्लाक व तहज़ीब का ख़ून किया है। मुसन्निफ़ साहब ने इन मताइन (ताअने, तकलीफदेह एतराज़) के तज़किरे में कोताही की है। हम पहले उन की तफ़्सील बयान करते हैं ताकि बाद में देखें उन में से किन किन का जवाब हमको मिलता है।

तअन अव्वल : हज़रत ﷺ का तजावुज़ शरई (शरीअत से बाहर जाना)

जो तादाद क़ुरआन-ए-मजीद यानी शरीअत इस्लाम ने अज़्वाज (बीवीयों) की मुक़र्रर की हज़रतﷺ ने उस से बदर्जा इंतिहा तजावुज़ (खिलाफवर्ज़ी) फ़रमाया। कोई मुसलमान एक साथ चार से ज़्यादा निकाह नहीं कर सकता। हज़रत ने चहार चंद (चौगुना) चहार पर भी इक्तिफ़ा ना की।

तअन दोम : हिबा नफ़्स (किसी औरत का अपनी मर्ज़ी से अपने आपको हुज़ूर ﷺ को सौपना)

कोई मुसलमान शरीअत इस्लाम के मुताबिक़ बेमेहर निकाह नहीं कर सकता। हज़रत ﷺ ने बे-महर निकाह किया यानी अपने तईं निकाह की हक़ीक़ी ज़िम्मेदारी से सबकदोश कर दिया। इस को हिबा नफ़्स (किसी औरत का अपनी मर्ज़ी से अपने आपको हुज़ूर ﷺ को सौपना) कहते हैं जो मुसलमान के लिए हराम है। इस हिबा नफ़्स का हुक्म हज़रत ﷺ की ज़ात से मख़्सूस है, चुनान्चे क़ुरआन-ए-मजीद में वारिद हुआ :-

يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ إِنَّا أَحْلَلْنَا لَكَ أَزْوَاجَكَ اللَّاتِي آتَيْتَ أُجُورَهُنَّ وَمَا مَلَكَتْ يَمِينُكَ مِمَّا أَفَاءَ اللَّهُ عَلَيْكَ وَبَنَاتِ عَمِّكَ وَبَنَاتِ عَمَّاتِكَ وَبَنَاتِ خَالِكَ وَبَنَاتِ خَالَاتِكَ اللَّاتِي هَاجَرْنَ مَعَكَ وَامْرَأَةً مُّؤْمِنَةً إِن وَهَبَتْ نَفْسَهَا لِلنَّبِيِّ إِنْ أَرَادَ النَّبِيُّ أَن يَسْتَنكِحَهَا خَالِصَةً لَّكَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ قَدْ عَلِمْنَا مَا فَرَضْنَا عَلَيْهِمْ فِي أَزْوَاجِهِمْ وَمَا مَلَكَتْ أَيْمَانُهُمْ لِكَيْلَا يَكُونَ عَلَيْكَ حَرَجٌ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا

“ऐ पैग़म्बर हमने तुम्हारे लिए तुम्हारी बीवीयां जिनको तुमने उनके महर दे दिए हैं हलाल कर दी हैं और तुम्हारी लौंडियां जो ख़ुदा ने तुमको (कुफ़्फ़ार से बतौर माल-ए-ग़नीमत) दिलवाई हैं और तुम्हारे चचा की बेटियां और तुम्हारी फूफियों की बेटियां और तुम्हारे मामूओं की बेटियां और तुम्हारी ख़ालाओं की बेटियां जो तुम्हारे साथ वतन छोड़कर आई हैं (सब हलाल हैं) और जो कोई औरत मुसलमान अगर बख़्शे अपनी जान नबी को अगर नबी चाहे कि इस को निकाह में ले सिर्फ़ तुझे को सिवाए सब मुसलमानों के ता ना रहे तुझ पर तंगी” (अह्ज़ाब रुकू 6 आयत 50)

मौलवी डिस्कोवी बड़ी सर्दमहरी से कहते हैं कि :-

“महर की अगर औरत दावेदार ना होतो सोहबत निकाह के लिए वो कब मानेअ है” (सफ़ा 36)

और नहीं समझते कि महर का दावा ना करना और ही बात है और बेमेहर औरत को जोरू (बीवी) बनाना और। चुनान्चे क़ुरआन-ए-मजीद में सरीह आया है।ان تبتغواباموالکم “औरतों को तलब करो अपने माल के बदले।” (निसा रुकू 4) पस जो मुसलमान बिलामहर औरत को जोरू (बीवी) बनाए ज़ानी है, इसी लिए तो बग़ैर महर जोरू (बीवी) बनाने के बारे में मुहम्मदﷺ ने अपने हक़ में फ़र्मा लिया कि :-

“ये सिर्फ़ तेरे लिए ख़ास हुक्म है और मोमिनों के सिवा” (सफ़ा 36)

पस कहो ये ख़ुसूसीयत कैसी थी। यहां महर शुरू ही से गधे के सर पर सींग हो रहा है। पस औरत दावेदार कैसे हो और अगर औरत शरअन अपना महर शुरू से छोड़ सकती तो फिर और मोमिनीन इस इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) से महरूम कैसे रह गए, नहीं हज़रत। आंहज़रतﷺ अपने नफ़्स (ख्वाहिश) की रिआयत चाहते हैं, औरतों के हुक़ूक़ अपनी निस्बत करताह कर रहे हैं। यहां तंगी और फ़राख़ी की बातें हैं” जायज़ है तुझ पर तंगी “हज़रत की इन अलबेली बातों ने हामीयाँ इस्लाम को कैसे ज़ैक़ (तंगी, दुशवारी) में डाला है।

तअन सोम : वजूब क़िस्म की ख़राबी

मुसलमानों को बहरहाल अपनी मुतअद्द औरतों के साथ किसी ना किसी क़िस्म की मुसावात व रिआयात फ़र्ज़ है, मगर मुहम्मदﷺ हर तरह की रिआयत से सबकदोश हैं। बिल्कुल उनकी मर्ज़ी पर मुनहसिर है, जैसा चाहें अपनी औरात (औरतों) से सुलूक करें। चुनान्चे नस (इबारत) क़ुरआन-ए-मजीद हम पेश कर चुके हैं।

तअन चहारुम : बेवा व मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा) की हक़-तल्फी

हर मुसलमान मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा) औरत को इख़्तियार है कि दूसरे शौहर से मिले, यानी शौहर अगर बदसुलूकी करे और वो इस से राज़ी ना हो तो वो शौहर से तलाक़ हासिल कर ले। हज़रत ﷺ ने अपनी औरात (औरतों) से ये इस्तिहक़ाक़ (कानूनी हक़) छीन लिया बावजूद इसके कि अपने ऊपर मामूली मुसावात (बराबरी) भी शरअन फ़र्ज़ ना रखे। उधर तो फ़रमाया :-

وَأَزْوَاجُهُ أُمَّهَاتُهُمْ (अह्ज़ाब रुकू 1) जोरूएं (बीवीयां) उस (मुहम्मद ﷺ) की मुसलमानों की माएं हैं और माँ की हुर्मत हमेशा वाजिब है।

और इधर ये लिख दिया :-

“तुमको नहीं पहुंचता कि तक्लीफ़ दो अल्लाह के रसूल को और ना ये कि निकाह करो उस की औरतों को इस के पीछे, अलबत्ता ये बात तुम्हारे अल्लाह के यहां बड़ा गुनाह है” (अह्ज़ाब रुकू 7)

पस वो झूठी और ज़ालिमाना ग़ैरत जिसको ख़ुदा की शरीअत रवा नहीं रख सकती, मुहम्मद ﷺ साहब ने अपने लिए रवा रखी। और मुसलमानों को भी ये अम्र बहुत शान गुज़रता था कि वो देखते थे कि हमारी आँखों के सामने मुहम्मद ﷺ मारी औरतें ले लेते हैं और अपनी औरतों को हमारी माँ बना कर हम पर हराम कर देते हैं। चुनान्चे हयात-उल-क़ुलूब (सफ़ा 570) में है कि ये सुनकर कि मुहम्मद ﷺ साहब की जोरूएं मुसलमानों की माएं हैं। ’’ طلحہ بغضب امدو گفت محمدﷺ زنان خودرا ابر ماحرام میگر واندوخودزنان ماراتز ویج می نمایداگر خدا محمدﷺ را بمیراندہر آئینہ مابکینم بازنان اوا نچہ اوبازنان مامیکرو‘‘ और तल्हा वग़ैरा की बाबत इस क़िस्म की रिवायत का हवाला इस आयत की शान नुज़ूल में अक्सर तफ़ासीर में आया है। देखो हुसैनी अह्ज़ाब रुकू 7 और नीज़ रोज़तुल-अहबाब (ر وضۃ الاحباب) सफ़ा 614 पस यूं अपने ऊपर वो रवा रखा जिस का मुस्तहिक़ शरीअत मुहम्मदी ﷺ का ताबे शरअन नहीं हो सकता और अपनी औरतों पर वो ज़ुल्म किया जिस ज़ुल्म की मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) कोई औरत मुसलमान शरअन नहीं हो सकती है। हमने ये चार मताइन (ताअने, तकलीफदेह एतराज़) इन चार जोरूओं (बीवीयों) की रिआयत से गिनवाएं हैं जिन के जवाब में सय्यद अमीर अली साहब दो वाक़ियात तारीख़ी को बिला-तास्सुब व नफ्सानियत दिखाकर ये साबित करने का वाअदा करते हैं कि हमारे मताइन (ताअने, तकलीफदेह एतराज़) “साफ़ बातिनी और ईमानदारी और ईसाई नेक नहादी से बिल्कुल मुअर्रा (पाक।साफ़) हैं।” (सफ़ा 206) आया हमारे मताइन (ताअने, तकलीफदेह एतराज़) या सय्यद साहब के जवाबात इस सिफ़त से ज़्यादा मुंसिफ़ होने के सज़ावार हैं। नाज़रीन तुम ही इन्साफ़ कर देना।

फ़स्ल पंजुम

उम्महात-उल-मोमिनीन

(मोमिनीन की माँए)

1 - हालात बीवी खदीजाؓ

“जब आंहज़रत ﷺ का सन् (उम्र) शरीफ़ 25 बरस का था यानी ऐन उन्फुवान-ए-शबाब (जवानी) में जबकि क़वाए अक़्ली व क़वाए बदनी बिल्कुल सहीह थे, उस वक़्त आपने हज़रत खदीजा ؓ से अक़्द (निकाह) किया जो आप से सन (उम्र) में बहुत बड़ी थीं। 25 बरस तक आपने ख़दीजा ؓ के साथ कमाल वफ़ादारी और राहत से बसर फ़रमाई” (सफ़ा 207) सय्यद साहब ने इन वाक़ियात को कुछ रिक़्क़त के साथ बयान किया है हज़रत मुहम्मद ﷺ ने अपनी उम्र से बड़ी औरत के साथ शादी करके कोई हक़ीक़ी ख़ुद इंकारी की थी, क्योंकि वो बड़ी बेबाकी से अपनी अंग्रेज़ी किताब में एक फ़िक़रा ये भी इज़ाफ़ा फ़रमाते हैं कि :-

“आँहज़रत ﷺ ने इफ़्लास (ग़रीबी) और तंग-दस्ती की हालत में एक बुढ़ी औरत की परवरिश के बार (भार) का ज़िम्मा उठाया, जिसमें दरअसल वो एक ख़ुद इंकारी बरत रहे थे, जो कुछ हल्की क़िस्म की ना थी” (सफ़ा 331)

मैं बीवी खदीजा ؓ के कुछ सहीह हालात सुनाता हूँ।

दफ़्अ अव्वल

तमव्वुल (मालदारी) व हुस्न व जमाले ख़दीजा ؓ

आप ख़ुद तस्लीम करते है कि “ख़दीजा ؓ एक मुतव्वल (दौलतमन्द) बीवी क़ुरैश की क़ौम से थीं” (सफ़ा 31)। “हज़रत ख़दीजा ؓ ख़ुवैलद बिन असद बिन अब्दुल उज्ज़ा बिन क़स्बे बिन किलाब की बेटी है। ये सौदहगर बच्ची इज़्ज़त वाली और बड़ी मालदार क़ौम क़ुरैश में थी” (अबुल-फ़िदा, सफ़ा 370) ये उस का नसब है। क़स्से मुहम्मदﷺ साहब के दादा अब्दुल मुत्तलिब का पर दादा था। नसब की तरफ़ से ये औरत अशराफ़ क़ुरैश से थी। ’’خدیجہؓ درہر ناحیہ فلامان و حیوانات بے پایان دہشت تاآنکہ بعضے گفتہ اند کہ زیادہ ازہشتاوہزار شترواشت کہ متفرق بودو درہرناحیہ وہر مکان ملازمان ودکلائے او بتجارت مشغول بودند مانند مصر وشام وحبش وغیر آن ‘‘ (हयात-उल-क़ुलूब, सफ़ा 86) अब हम आपको एक मुतअस्सिब हामी इस्लाम की सुनाएँ। सीरत इब्ने हिशाम में लिखा है कि :-

“ख़दीजा ؓ एक औरत ताजिर और शरीफ़ और माल वाली थीं। इस वक़्त में ख़दीजा ؓ नसब की रू से तो औसत मर्तबे की थीं और बा-एतिबार शराफ़त के बहुत बड़ी थीं और ब-एतबार माल के सब क़ुरैश से ज़्यादा थीं....लिहाज़ा उस वक़्त के लिहाज़ से आँहज़रत ﷺ इतने बड़े अमीरों में हो गए थे कि क़ुरैश में दूसरा आपका मुक़ाबिल ना था” तलबीसात मौलवी मुहम्मद अली कानपुरी, (सफ़ा 26-27)

अब उन के हुस्न व जमाल की सुनिए ’’ اندر مکہ ہیچکس بمال و جمال مثل خدیجہؓ نبود‘‘ (तबरी जिल्द चहारुम, सफ़ा 374) और इस माल व जमाल के साथ अक़्ल व फ़ज़्ल का भी इज़ाफ़ा था। इस ज़माना में तो ये अमरलना दर कालमअदूम (बहुत कम दस्तयाब होने वाली चीज़, ना होने के बराबर) का हुक्म रखता था।” ’’ تھیحضرت خدیجہؓ عورت فاضلہ عاقلہجازمہ‘‘ (मिन्हाज जिल्द 2, सफ़ा 480) और इस नसब पर एक बात और थी कि ये बाईमान थी। इस का भाई वर्क़ा बिन नवाफिल क़ुरैश से निकल कर क़ब्ल ज़माना इस्लाम ईसाई हो गया था और कुतुब मुक़द्दसा का पढ़ने वाला था। ख़दीजा ؓ इस से रुजू किया करती थीं (बुख़ारी पारा अव्वल बाब अल-वह्यी) और अपने भाई के दीन की मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) भी थीं। पस ये तो अज़हर (रोशन) है कि ये औरत नसब में शरीफ़, माल में बेअदील और हुस्न व जमाल में आप अपनी नज़ीर थी और उन सब पर अक़्ल व फ़ज़्ल से मुम्ताज़ और ईमान से मुज़य्यन। जिस औरत में उनमें की कोई एक सिफ़त भी हो (चह जो कि वो तमाम सिफ़ात से मुत्तसिफ़ हो) उम्मीदवारान शौहर क्यों उस के गर्द परवानावार जमा ना हों। चुनान्चे बुख़ारी व मुस्लिम में अबू हुरैरा से रिवायत है कि हज़रत ने फ़रमाया कि :-

“निकाह किया जाता है औरत का चार सबब से इस के माल के सबब से और इस के हसब व नसब के सबब से और इस के जमाल के सबब से और इस के दीन के सबब से” (मशारिक़ अल-अनवार हदीस नंबर 2638)

देखो ख़दीजा ؓ में ये कुल सिफ़ात हैं। हज़रत ﷺ बड़े ख़ुशनसीब थे। दुनिया में जोरू (बीवी) अगर चिराग़ लेकर ढूंढते तो ख़दीजा ؓ से बढ़कर उन्हें कौन मिलती मालदार ऐसी कि हज़रत को इस के ग़ुलामों में शुमार होना बाइस-ए-फ़ख़र। हसब व नसब में हज़रत के हम सर-ए-जमाल ऐसा कि दयार अमसार (मिस्र की जमा - बहुत से शहर) में शहरा, दें ऐसा कि हज़रत से कहे वज्द काफ़ ज़ालन फ़हदी। मगर हाँ एक नुक़्स बताया जाता है कि “वो सन (उम्र) में बहुत बड़ी थीं।” हम देखते हैं आया सनादीद (सरदार – बुज़ुर्ग) क़ुरैश और रईसान अरब की आँखों में भी ये कोई नुक़्स नज़र आता था, जबकि इस औरत में ऐसी बड़ी बड़ी खूबियां मौजूद थीं जिससे ज़्यादा की तमन्ना हदीस में भी नहीं की गई है। ’’خدیجہؓزنےبود باعقل وجمال ورای بزرگان مکہ ہمہ در آرزوی دی بودند واوقبول نمیکرو‘‘ (तबरी 375) عقیقہ بن ابی معیط وصلت بن ابی شہاب اوراخواستگاری کردنددہریک چہارصد غلام وکنیز واشتند و ابو جہل وسفیان نیز اور اخواستگاری کردندو خدیجہ ہمہ راحجاب کر دانید‘‘ (हयात-उल-क़ुलूब सफ़ा 87) “हज़रत ख़दीजा ؓ औरत फाज़िला आक़िला आज़मा (क़सद करने वाली) थी। जाहिलियत में उसे ताहिरा कहते थे। लक़ब और नसब आली और माल व अफ़र रखती थी। सनादीद (बुज़ुर्ग) क़ुरैश अहाला या अतीक़ के बाद चाहते थे कि उसे तज़्वीज (निकाह) करें और इस ने क़ुबूल ना किया था” (मिन्हाज नबुव्वत जिल्द 2, सफ़ा 848) जिस औरत के ख़्वास्तगार रईसान मक्का व सनादीद क़ुरैश हों और जो इतनी सिफ़ात हसब व नसब व माल व जमाल, अक़्ल व फ़हम से मुत्तसिफ़ हो तो सन् (उम्र) में बड़ा होना जिस का मुतलक़ ख़्याल रईसान व अशराफ क़ुरैश भी ना करते थे, अगर मुहम्मदﷺ से गदाबीनूने ना किया तो क्या हुआ, अगर कोई ख़दीजा ؓ का हुमैला भी इस का ख़्याल करके इस औरत से महरूम रखता तो हम क्या तमाम अरब मअ जो तालिब के इस को दीवाना और पागल कहते। मकर डोक्टर तनीज़ एक योरपी हामी इस्लाम बीवी ख़दीजाؓ की तरफ़ इशारा करके फ़रमाते हैं कि “अरब की चहल (चालीस) साला औरत यूरोप की पंजाह (50) साला औरत के बराबर ख़्याल की जाती है।” (तर्जुमा लैक्चर मुतर्जिम मुहम्मद करामत अली, सफ़ा 12)

ये कोई कुल्लिया नहीं बुढ़ापा और जवानी बरसों का शुमार नहीं, रंज व ग़म, तंगी-ए-मआश ऐन शबाब में बुढ़ापे को बुला लेती हैं और ऐश व आराम, फ़ारिगुलबाली बुड्ढों को जवान बनाए रखती हैं। ख़दीजाؓ ने ज़िंदगी बड़े चेन से काटी थी और बड़ी बेफ़िक्री से बसर की थी। सब तरह की नेअमतें उस को मयस्सर थीं। उम्र के बरसों ने इस के जिस्मानी क़वा (ताक़त) के ऊपर कोई असर ना पैदा किया था बल्कि वो बमिस्दाक़ अंग्रेज़ी मिस्ल fair fat & forty…(हसीन मोटी चालीस साल) थी। इस के हुस्न व जमाल में कोई तग़य्युर ना आया था। अब भी लोग इस को देखकर गरवीदा होते थे। सनादीद क़ुरैश व रईसान मक्का उस के ख़्वास्तगार थे, जिससे मालूम होता है कि गो सन (उम्र) पैदाइश के हिसाब से इस का सन (उम्र) चालीस बरस का हो, मगर अभी वो बिल्कुल जवान नज़र आती थी। अपनी उम्र से और मुहम्मदﷺ के लिए अच्छा जोड़ था। चुनान्चे इस औरत की उम्र का अंदाज़ा और इस के क़वाए (ताक़त) जिस्मानी की कैफ़ीयत इस एक बात से अयाँ है कि मुहम्मदﷺ साहब से इस औरत के चार बेटे पैदा हुए और चार बेटियां (मसाइल निकाह मुहम्मदﷺ हुसैन, सफ़ा 191) और नीज़ इस बात से भी ये अम्र रोशन है जिसको मुहम्मद हुसैन साहब लबंद बुख़ारी बयान करते हैं कि :-

“आप ﷺ की क़ुव्वत का ये आलम था कि इस पीराना-साली में एक ही साअत में रात या दिन के सभी अज़्वाज (बीवीयों) से हम-बिस्तर होते। आप के सोहबती (साथी) जो आपकी आदत से वाक़िफ़ थे ये कहा करते थे कि आप में तीस मर्द की क़ुव्वत (ताक़त) है। बाअज़ का ख़्याल ये था कि चालीस की है” (सफ़ा 194)

पस जो औरत अपने पीराना-साली में ऐसे जवान की मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हो सके और इस से आठ बच्चे भी जन (पैदा कर) चुके उस को बूढी कहना और इस पर तरस खाना आप लोगों का कैसा बेमहल है मौलवी मुहम्मद फ़िरोज़-उद्दीन अपनी तारीख़ मुहम्मदी हिस्सा अव्वल सफ़ा 55-56 में कुल हालात ख़दीजा ؓ ؓ और मुहम्मदﷺ पर नज़र करके फ़रमाते हैं कि :-

“ख़दीजा ؓ ؓ बिंत ख़ुवैलद मलिका अरब जो उस वक़्त बड़ी शरीफ़ और बख़ैब और बाएतबार इज़्ज़त व माल सब में क़ुरैश से बढ़कर थीं, उन्होंने हज़रत से निकाह की ख़्वास्तगारी की और हर-चंद क़ौम क़ुरैश के बड़े बड़े मुअज़्ज़िज़ और नामी सरदार उन के हुस्न व जमाल और शराफ़त के सबब से उन के निकाह के ख़्वाहां (ख्वाहिशमंद) थे, मगर उन्होंने इस उम्मी (अनपढ़) यतीम व बेकस को सब पर तर्जीह दी.....उम्र हज़रत ख़दीजा ؓ ؓ की 40 बरस की थी, मगर वो बहुत साहब-ए-जमाल थीं।”

फिर ये क्या बेहूदा गोईआं और झाझखाईयां (बकवास, बेहूदागोईआं) हैं जो हम सुनते हैं कि मुहम्मद ﷺ ने एक बूढी औरत की परवरिश का बार (बोझ) उठाया, औरत पर रहम किया, बड़ा अहसान किया जो निकाह कर लिया।

दफ़्अ दोम

इफ़्लास (ग़रीबी) व तंगदस्ती ए मुहम्मदﷺ

ये कुछ हालात तो हमने बीवी ख़दीजा ؓ के सुनाए, अब उस के मुक़ाबिल में मुहम्मदﷺ की कैफ़ीयत ये है कि बजुज़ अपने नसब के जो किसी तरह ख़दीजा ؓ के नसब से अफ़्ज़ल ना था, आप के पास कुछ नहीं मगर तक़्दीर के धनी हैं कि ख़दीजा ؓ सी औरत उन को मिल गई और बेड़ा पार हो गया। चुनान्चे हयात-उल-क़ुलूब वाला लिखता है :-

’’روز ے حضرت رسول بہ نز دابو طالب گفت ای و اورغمگین یا فت فرمود کہ اے عم سبب اندوہ شماچیست ابوطالب گفت ای فرزند بر اور سیش آنست کہ مانےندارم وزمانہ بسیار برمن تنگ شدہ است و پیرو تنگدست شدہ ام و قائم نزدیک شدہ است وآرزووارم کہ ترازنے بودہ بات کہ من بآن شاہ گروم رضروریات آن میسر نیست‘‘

तंग-दस्ती व फ़क्र व फाका (ग़ुरबत व भूख) से हज़रत ﷺ और उनके चचा दोनों तंग आए हुए थे। अबू तालिब को आरज़ू थी कि अपने भतीजे की शादी अपने जीते जी कर के ज़िंदगी में बहू को देखे, मगर सरमाया शादी का मौजूद ना था, कोई औरत ना मिलती थी। हत्ता कि एक लड़की उम्म हानि जो अबू तालिब की थी और जिसकी ख़्वास्तगारी हज़रत ने इस नौ उम्री में की भी हज़रतﷺ को नहीं मिली। अबू तालिब ने और (दुसरे) शख़्स से इस का निकाह कर दिया, बावजूद यह कि हज़रत ने बड़े इल्हाह (मिन्नत, गरज़) से इस को तलब किया और माबाअ्द अपनी नाउम्मीदी और यास बतौर शिकायत के अबू तालिब पर ज़ाहिर की (इस का ज़िक्र आगे आएगा)। पस नूर उद्दीन साहब का यह फ़रमाना कि अगर हज़रत चाहते तो “जवानी में कई ब्याह कर लेते” (फ़स्लुल-ख़िताब, सफ़ा 29) कितना लगू है। ऐसा ही मुहम्मद हुसैन साहब फ़रमाते हैं :-

“आप अपनी क़ौम में साहब हसब व नसब थे और मकारिम अख़्लाक़ में मशहूर व मुम्ताज़....अगर आप नफ़्सानी अग़राज़ रखते और उन अग़राज़ से ऐश चाहते तो आलम-ए-शबाब में रस्मो-रिवाज क़ौम के मुताबिक़ बहुत सी औरतें निकाह में ला सकते थे। सूबही जवान व बाकिरह (कुंवारी) जो नफ़्सानी अग़राज़ का असली महल हैं। और अगर मुख़ालिफ़ीन ये एतराज़ करें कि जवानी के वक़्त आप तंग-दस्त थे, इसलिए उस वक़्त और निकाह नहीं कर सकते तो इस का जवाब ये है एक दो जवान औरतों के निकाह पर कौन सा माल कसीर सर्फ़ (खर्चा) होता था जिस के आप मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाले) ना थे और अगर आप ऐसे ही होते तो यतीम व बेवा औरतों की पुररूश करने से उन के मुरब्बी व कफ़ील क्योंकर कहलाते।” (सफ़ा 171,172)

जनाब बंदा इस का जवाब ये है कि इस वक़्त नसब व हसब को शहद लगा कर चाटने वाला कोई ना था। ख़ुदﷺ के चचा इस के क़द्रदान ना हुए और शादी के मुआमले में वो ग़ैरों को आप पर तर्जीह देते थे और हज़रत की इस तंग-दस्ती की वजह से एक घड़े की मछली यानी चचा की बेटी भी आपके हाथ से फिसल गई और आप रोते रह गए। ये ज़माना वो हज़रत ﷺ को अपना पेट पालना दुशवार था, एक दो जवान औरतों का ज़िक्र किया। और यतीम और बेवाओं की परवरिश करना ये इस ज़माने के ख्व़ाब नहीं हैं। इस का वक़्त वो था जबकि एक बेवा का माल हज़रत के हाथ लगा। पस हक़ यही है कि अगर हज़रत चाहते तो एक ब्याह भी ना कर सकते और चाहा और ना कर सके। इफ़्लास (ग़रीबी) ऐसा था ज़र नेस्त इश्क़ टें टें (मुफ़लिसी में इश्क़ नहीं हो सकता) इसी को कहते हैं। चुनान्चे जिस ज़माने में ख़दीजा ؓ से शादी हुई उस ज़माने में भी आपकी यही कैफ़ीयत थी ’’ نفیسہ گو نزدآنحضرت رفتم وگفتم یا محمد چہ چیز مانع میشودترا از کد خدائی در جواب فرمود’’ उब्हुत (बमाअनी साज़ व सामान) नदारम “और जब उस ने ख़दीजा ؓ का नाम लिया हज़रत की बाछें खुल गईं फ़रमाया’’ چون کنم تااودر آیددرین امرگفتم بعہدہ من کہ اور ادرین مہم راغب گر وانم‘‘ रोज़तुल-अह्बाब, सफ़ा 105)। पस ऐसी बे सरमाईगी और तंग-दस्ती में ये लोग ख़दीजा ؓ ही के दस्त-ए-निगर थे, चाहते थे कि इस के खादिमों और चाकरों में मिलकर कुछ नफ़ा दुनिया का हासिल करें। चुनान्चे मुल्ला बाक़र मज्लिसी आगे लिखते हैं :-

’’ابو طالب فرموداے فرزند برادر خدیجہؓ دخترخویلدمال بسیا ردار دو اکثر اہل مکہ ازمال او منتفع شدہ اندآیا راضی ہستی کہ از برائے تو مامے بگیرم کہ بہ تجارت بروی شاید خدا نفع کرامت فرماید کہ مطالب وآرز وہائے سن بآن میسر گردو حضرت فرمود کہ بسیا ر خوب است ‘‘

(सफ़ा 87) यूं हज़रत ने इस मालदार औरत की मुलाज़मत में कुछ वजह कफ़ाफ़ (रोजमर्रा का खर्चा) हासिल किया और रफ़्ता-रफ़्ता बक़ौल شخصے شاہان چہ عجبگرنبوام گدارا ने मुहम्मदﷺ की ख़िदमात की क़द्र की, अच्छा कारिंदा (मुंशी) पाया, होनहार जवान, “सूरत में शक्ल और अत्वार में रसीला” (तारीख़ मुहम्मदी फ़िरोज़ उद्दीन, हिस्सा अव्वल, सफ़ा 55) जी को भा गया। पस दरराह इश्क़ फ़र्क़ ग़नी व फ़कीह नेस्त तरफ़ता उल-ऐन में बकरी चराने वाले , कम्बल ओढ़ने वाले, फ़ाकामस्त ख़ादिम को इतने बड़े अमीरों में कर दिया कि क़ुरैश में दूसरा जिसका मुक़ाबिल ना था। चुनान्चे बाद में हज़रत ﷺ अक्सर आयशा ؓ से कहा करते थे “दिया ख़दीजा ؓ ने मुझे अपना माल इस हंगाम में कि महरूम गिरदाना मुझे लोगों ने।” (मिन्हाज, सफ़ा 849) अब्बास व अबू तालिब तो ख़दीजा ؓ के साथ मुहम्मदﷺ के निकाह की तज्वीज़ सुन कर बे-अंदाज़ा ख़ुश हुए और तक़रीब शादी के बाद ये मलार (बरसात के गीत गाना, ख़ुशी मनाना) गाते हुए अपने क़बीले में आए :-

؎ हम किसी ज़ुल्फ़-ए-परेशान की तरह ए तक़्दीर

ख़ूब बिगड़े थे मगर ख़ूब सँवारा हमको

मगर ख़दीजा ؓ का बाप खुवैलद इस में ज़रूर ताम्मुल करता था क्योंकि नफ़ा सिर्फ मुहम्मद ﷺ की तरफ़ था (हयातुल कुलूब, सफ़ा 97) पस ख़दीजा ؓ का मुहम्मदﷺ के साथ शादी कर लेना कुछ इसी क़िस्म का था, जैसा रज़ीया बेगम का अपने एक ग़ुलाम की तरफ़ तवज्जोह करना। मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब दूसरे इस्लामी मुनाज़िरीन से इस ख़ास अम्र को ज़्यादा समझ सकते हैं, मगर अफ़्सोस हमारा मुख़ातब सफ़ा तारीख़ को बदलता है और निहायत बेबाकी से कहता है कि “आँहज़रत ने इस बुढ़ी औरत की परवरिश के बार (बोझ) का ज़िम्मा उठाया जिससे दरअसल वो एक ख़ुद इंकारी बरत रहे थे जो कुछ हल्की क़िस्म की ना थी।” ख़ुद इन्कारी बरतने वाली ख़दीजा ؓ थी जिसने एक मुफ़्लिस क़ल्लाश (मुफ़्लिस, ग़रीब) कि परवरिश पर्दाख़्त का ज़िम्मा उठाया था। आप क्या अंधेर करते हैं क्या अभी आप ख़ुद नहीं फ़रमाते थे कि “इस अक़्द (निकाह) से आँहज़रत की वक़अत अपने अह्ले वतन में ज़्यादा हो गई।” (सफ़ा 31) और सिर्फ उस की बदौलत जब आपने अफ़्क़ार (फिक्रें) दुनिया से नजात पाई तो मुराक़बा और याद इलाही में मसरूफ हो गए (सफ़ा 32) और ना आप परागंदा रोज़ी परागंदा दिल (फ़ारसी मक़ूला (कहावत) - बेकार और मुफ़्लिस हमेशा परेशान रहता है) थे। मगर मुहम्मदﷺ के हामीयों ने तो क़सम खाई है कि सच्च ना बोलेंगे और झूट बोलने हैं एक पर एक सबक़त ले जाऐंगे। सय्यद अमीर अली साहब तो वो हाँक रहे हैं, अपनी क़ुरआन दानी और उलूम इस्लामीया पर हावी होने का नाज़ है और जिनके हर दावे पर अहले इस्लाम साद करने को तैयार हैं अंधेर मचाते हैं “ख़दीजा ؓ से अक़्द (निकाह) आप ने इस ख़्याल से किया कि वो बीवी आपकी मुहसिना थीं और आपकी नबुव्वत पर ईमान ला चुकी थीं।” (मुतर्जिम सफ़ा 12) डाक्टर साहब की मालूमात की दाद मौलवी साहिबान दें। हम आपको बताएं, मुहम्मदﷺ ने ख़दीजा ؓ से निकाह पहले किया था और निकाह के पंद्रह बरस बाद इन मियां ने अपनी नबुव्वत का दावा किया “और फिर वह बीवी आपकी नबुव्वत पर ईमान लाई” पस ईमान ख़दीजा ؓ बाइस निकाह ना हुआ बल्कि निकाह बाइस ईमान हुआ। मगर हमको तो यही मालूम होता है कि आँहज़रत ﷺ ख़दीजा ؓ पर ईमान लाए और आलमगीर अव्वल के क़ौल की अमली तर्दीद फ़रमाई जानान जान दादहाम ईमान नदावह।

दफ़्अ सोम

ख़दीजा ؓ पर सौत (सौतन) क्यों नहीं?

क्यों ख़दीजा ؓ के अह्द में हज़रत ﷺ ने दूसरी जौरू (बीवी) नहीं की? फिर आप फ़रमाते हैं :-

“आपके मुख़ालिफ़ीन इस का इन्कार नहीं कर सकते बल्कि तौहन व कराहन (जबरन – ख़्वामख़्वाह) इस को तस्लीम करते हैं कि इस तमाम अरसे दराज़ में आपके अत्वार (तौर तरीका) आदात में एक भी अख़्लाक़ी ऐब नहीं दिखाई दिया जब तक हज़रत ख़दीजा ؓ ज़िंदा रहीं, आप ने दूसरा अक़्द (निकाह) नहीं किया, हालाँकि अगर आप ऐसा करते तो उन की क़ौम के नज़्दीक ऐसा करना जायज़ व मुबाह था।”

अजब रंगी हुई बात है। ग़ालिबन ये तो हमारे मुसन्निफ़ नहीं मानते होंगे कि किसी शौहर का अपनी एक बीवी के साथ 25 बरस तक ख़ुश गुज़रां करना मुतअज़्ज़िर (मुश्किल) है क्योंकि इस वक़्त भी आप फ़रमाते हैं कि “ममालिक मग़रिबी व शुमाली हैं ताअदाद-ए-अज़्वाज (बीवीयों कि तादाद) मुसलमानों में माएलिना दर का मअदुम का हुक्म रखता है” (सफ़ा 321)। और ग़ालिबन इन एक जोरू (बीवी) वाले शौहरों के अख़्लाक़ पर आप दाग़ भी लगाना नहीं चाहते, जब ये लोग एक ही औरत के साथ तमाम उम्र काट डालते अगर मुहम्मदﷺ ने ऐसा किया और नेक अख़्लाक़ी के साथ ख़दीजा ؓ के साथ बसर की तो कोई रुस्तम का काम तो नहीं किया, ख़ुसूसुन जबकि हम देखते हैं कि ख़दीजा ؓ उनकी मुहसिना थी। मुहम्मद साहब उस के मकान में अदना चाकर के बाज़याब होए थे। उस की दौलत से उनकी फ़ाक़ाकशी मिटी थी।

“बीवी ख़दीजा ؓ ही के माल से आंहज़रतﷺ ग़नी हो गए थे और ऐसे बड़े अमीरों में हो गए थे कि क़ुरैश में दूसरा उनका मुक़ाबिल ना” (तलबीसात, सफ़ा 27,26)

और फिर “उस की बदौलत आपने अफ़्क़ार (फिक्रें) दुनिया से नजात पाई और मुराक़बा और याद ईलाही में हमा-तन मसरूफ़ हुए।” अगर कोई ख़राब से ख़राब आदमी भी जिसको ख्वारी व ज़िल्लत की हालत में किसी दौलतमंद औरत ने अपना शौहर बना कर ख़ाक से उठा तख़्त पर बिठा दिया हो अपनी सरपरस्त मुहसिना के साथ ये बदसुलूकी करता कि इस के माल से मोटा हो कर इस पर एक सौत लाता और इसकी आँखों के सामने इस से इलाक़ा पैदा करता तो दुनिया उस को क्या मुह्सिनकुश व दग़ा बाज़ इब्लीस ना कहतीं? ख़यालात मुहम्मदﷺ की बाबत ऐसे बुरे तो नहीं कि हम ऐसा ख़्याल कर सकें कि वो भी मुहसिनकुशी करने की जुर्रात अलानिया करते या ख़दीजा ؓ पर सौत बिठाने में कामयाब हो जाते। अगर वो ऐसा करने की कोशिश भी करते तो भी सख़्त नाकाम रहते। सय्यद साहब आप हिन्दुस्तान की रस्म को ख़ुद बयान करते हैं कि :-

“जिस औरत से निकाह करना मंज़ूर होता है इस के अअइज़ा (अज़ीज़ की जमा- रिश्तेदार) ये तदबीर निहायत मूसिर करते हैं कि दुल्हे से पहले ही ये अह्द ले लेते हैं कि किसी और औरत से कभी अक़्द (निकाह) ना करेगा जो उस के मक़्दूर (ताक़त) से बाहर होता है। पस इस वजह से वो दूसरी बीवी नहीं कर सकता।” (सफ़ा 221)

और ये शरीअत व क़ानून इस्लाम में राइज है, औरत को हक़ है कि क़ब्ल निकाह के इस क़िस्म का शर्तिया अह्द ले कि वो उस की हैन-हयात (जीते जी) कभी दूसरी ज़ौजा (बीवी) ना करेगा। पस क्या गुमान किया जाता है कि एक मुफ़्लिस क़ल्लाश (कंगाल) के साथ एक क़ुरैशी शहज़ादी निकाह करते वक़्त अपनी हुर्मत व रश्क का इस क़द्र भी पास ना करती कि शौहर से कोई अह्द ज़बानी या क़सम इस अम्र का लेती कि वो कभी इस पर सौत ना बिठाए, खुसूसन खदीजा ؓ सी ज़ने बाअक़्ल व माल व राए।” क्या वो ऐसी मामूली दूर अंदेशी भी ना कर सकती थी जबकि ख़ुवैलद व वर्का से पीरान तरीक़त उस के अअज़ा में से थे जो ममालिक मग़रिबी व शुमाली की मामूली औरात और उन के अअज़ा किया करते हैं। और अगर ऐसा कोई अह्द ना भी होता तो मजाल किस को थी कि ख़दीजा ؓ का मुक़ाबला करता। इस के एक सुख़न ने मुहम्मद साहब की क़ौमी और माली हैसियत के अदम को वजूद दिखाया था। इस का एक सुख़न उनको तह व बाला कर देता, अगर वो सौत के नाम पर सिर्फ ये सुना देता जो किसी वक़्त हज़रत साअदी ने औरत के मुँह से सुना था तो تو آن نیستی کہ پدرم بصد دینا तराज़ क़ैद-ए-फिरंग रहा करो और बक़ौल जनाब “इस तर्ज़ को कुछ औरतें ही ख़ूब जानती हैं” (सफ़ा 319)। किस की मजाल थी कि एक दम को अपनी हैसियत भूल जाता और दूसरी औरत का ख़्याल ख़दीजा ؓ के हीने-हयात (जीते जी) कर सकता।

پس عصمت بی بی ست از بے چادری

हाँ हम ये भी बताए देते हैं कि वर्क़ा ईसाई (मसीही) था और खदीजा ؓ उस की बहन थी। अरब की जहालत और इस की रस्में उन के मकान में जगह कम पाती थीं। ज़रूर ख़दीजा ؓ व वर्क़ा दोनों ईसाई (मसीही) क़वाइद एक ज़ौजा (बीवी) के मानने वाले थे। वो अरब के बुत परस्तों की तक़्लीद करने वाले ना थे और ना इस्लाम की शरीअत अभी सफ़ा रोज़गार पर आई थी। हज़रत मुहम्मदﷺ वर्क़ा और ख़दीजा ؓ के मक्तब में तालिब-इल्म थे। शादी ऐसी हालत में हुई और ज़रूर ख़दीजा ؓ के हीने-हयात (जीते जी) में मुहम्मदﷺ के ख़यालात भी इसी क़िस्म के थे जो आपके हैं। ख़दीजा ؓ का असर उन के शहवानी ख़यालात के अमल में आने का पूरी तरह मानेअ था। ख़दीजा ؓ कोई मामूली औरत ना थी हज़रत ﷺ इब्तिदा से इस के चाकर और अब उस के एहसानात के हल्क़ा-ब-गोश थे।

؎ ज़ाहिद नदाश्त ताब विसाल परी रखान केंजे गिरिफ़्त व तरस खुदरा बहाना साख़त

दफ़्अ चहारुम

अय्याश-उल-तबाअ

हज़रत बा-तबेअ (फ़ित्री तौर पर) अय्याश मिज़ाज थे। ज़रा सब्र करो और ये असर मौत को उठाने दो और हम दिखा देंगे कि हज़रत ﷺ कैसे खेल खेलते हैं। अभी ख़दीजा ؓ को मरे हुए दो माह नहीं गुज़़रेंगे कि हज़रत ﷺ औरत के ऊपर औरत, लौंडी पर लौंडी करके हिबा नफ़्स का मसअला जारी करके गोकुल में कन्हेया बन जाऐंगे। और हमको हज़रत आईशा ؓ का ये सुख़न (कहा) याद आएगा जो कभी उन्होंने हंसी में बतौर ताअने के मुहम्मदﷺ को सुनाया था कि अगर आज मैं मर जाती तो मुझको दफ़न कफ़न करके “घर में आकर बिल्कुल भूल जाते और किसी बीवी से दिल लगा लेते फिर कुछ भी याद ना रहता।” (अबुल फ़िदा, सफ़ा 361) पस आप का यह फ़रमाना बिल्कुल बेमहल कि “आपके मुख़ालिफ़ीन इस का इन्कार नहीं कर सकते कि इस तमाम अरसा दराज़ में आपके अत्वार (रहन सहन) व आदात में एक भी अख़्लाक़ी ऐब नहीं दिखाई देता।” अव्वल तो ये ज़माना इस्लाम के क़ब्ल का है, इस वक़्त का कोई शख़्स हमको हज़रत की सहीह तवारीख़ सुनाने वाला मौजूद नहीं कि हज़रत क्या कुछ करते रहे। सब अदम में पोशीदा है।

चुनान्चे मुहम्मद फ़िरोज़ उद्दीन की तारीख़ मुहम्मदी हिस्सा अव्वल सफ़ा 58 में मर्क़ूम है कि निकाह ख़दीजा ؓ के वक़्त से दावा नबुव्वत तक “इस नबी के पंद्रह बरस के हालात बिल्कुल मालूम नहीं हुए।” पर जहां से सहीह हालात मालूम होने लगे हैं, वहां आप देखें और शर्माएं कि क्या वो शख़्स जो एन दावा-ए-नुबूव्वत के उरूज में हफ़्सा सी “आतिश मिज़ाज” (सफ़ा 208) औरत की आँख बचाकर ऐन उस के मकान में उस के बिस्तर पर और उस की बारी में मारिया लौंडी से एक दम में सोहबत (हमबिस्तरी) करने लगता और जो अपने फ़र्ज़ंद मुतबन्ना (गोद लिए बेटे) की जोरू (बीवी) को बरहना देखते ही अनान सब्रो क़रार हाथ से दे बैठता और पर्दाह नंग व नामूस एक दम में चाक कर डालता था क्या वो शख़्स ऐसे वक़्त में जबकि उस के हालात के निगरान लोग ना थे ख़दीजा ؓ सी नेक मिज़ाज औरत को धोका देकर औरतों या लौंडियों से शहवत ज़नी करने से बाज़ रह सकता था? मगर हम कुछ नहीं कहते आपकी ख़ातिर क़ुबूल कर लेते कि हज़रतﷺ ने ख़दीजा ؓ के अह्द में इन अस्बाब की वजह से जिनका ज़िक्र हमने ऊपर क्या या ख़ालिस मुहब्बत व वफ़ादारी ही की वजह से जो मुहम्मदﷺ पर बलिहाज़ उस के ख़दीजा ؓ उन की मुहसिना परस्त मरबेह थी फ़र्ज़ थी। “कैसे कैसे मसाइब व आलम में सिर्फ एक ख़दीजा ؓ ने आप का साथ दिया था।” (सफ़ा 53) मुहम्मदﷺ ने ख़दीजा ؓ के अह्द में कोई और ताल्लुक़ पैदा नहीं किया, तो इस से क्या यही नहीं कि मुहम्मदﷺ शरीफ़ आदमी थे। धोका फ़रेब मुहसिन कुशी और बेवफ़ाई ख़दीजा ؓ की छत के नीचे नहीं करते थे और ये तो वही काम हैं जो आप भी नहीं करते और ममालिक मग़रिबी व शुमाली के वो हज़ारों मुसलमान भी जो “सौ में पिचानवे एक ही ज़ौजा (बीवी) पर हिस्र करते हैं।” (सफ़ा 221) अपनी शरीअत व तहज़ीब के ख़िलाफ़ समझते हैं। हमने ये मान लिया कि मुहम्मदﷺ तवअन व क़रहन एक शरीफ़ आदमी थे जब तक ख़दीजा ؓ के हाथ में रहे, पर अगर कोई ना माने तो आप उस की शिकायत भी ना करें क्योंकि क़रीना (बहमी ताल्लुक़) और तारीख़ी वाक़ियात हज़रत की पाक दामनी के हर ज़माने में ख़िलाफ़ हैं। हमको मालूम है कि इस नव उम्री की हालत में भी जब वो अभी ख़दीजा ؓ से निकाह करने नहीं चले थे आपने इश्क़-बाज़ी शुरू कर दी थी और अपने घर ही में तबा आज़माइयाँ करने लगे थे। गो इस इब्तिदाई ज़माने के हालात हम तक नहीं पहुंचे और ख़दीजा ؓ ने उनकी उठती हुई उमंगें अपने ज़ोर आवर असर से तोड़ दीं या और तरफ़ फेर दीं या कुछ ज़माने के लिए मुअत्तल (छोड़ना) कर दीं थीं और माबाअ्द या उस से क़ब्ल क्या क्या गुज़रता रहा लोगों के कान तक नहीं पहुंचा या पहुंचा भी हो तो इस तूफ़ान बदतमीज़ी में इस का ख़्याल लोगों ने नहीं किया, ना हम तक पहुंचा। पस इस इब्तिदाई ज़माने का एक हाल और वह भी इस वजह से कि इस का हज़रत ﷺ के उरूज के वक़्त फिर हुआ था, मोअर्रिखों ने हम तक पहुंचा दिया है जिससे हज़रतﷺ की तबीयत का रुख मालूम होता है कि इस फ़ाका मस्ती (ग़ुरबत में भी मगन) में भी हज़रत को दूर की सूझती थी और कि वो कौन बंदहान था जो ख़दीजा ؓ की मौत के बाद इस ज़ोर शोर से फूटा था।

अबू तालिब हज़रत के चचा की एक बेटी थी उमहानी जिसको फ़ाख़ता कहते थे।” अह्द जाहिलियत में हज़रत ﷺ ने ख़्वास्तगारी (ख्वाहिश की) की उसे और हुबैरा बिन वह्ब मख़्ज़ूमी ने पस तज़्वीज (निकाह) किया अबू तालिब ने उस के तईं हुबैरा से, पस फ़रमाया हज़रत ﷺ ने अबी तालिब से ऐ चचा मेरे तू ने बेटी अपनी हुबैरा को दी और मुझे ना दी।” फ़त्ह मक्का में ये औरत मुसलमान हो गई और शौहर से जुदाई वाक़ेअ हुई। “पस ख़ुत्बा किया रसूल खुदा ने उस को, पस कहा उमहानी ने वल्लाह कि मैं दोस्त रखती थी तुमको जाहिलियत में पस क्यों दोस्त ना रखूं तुमको इस्लाम में” जिस से मालूम हुआ कि गो अबू तालिब ने मस्लिहतन इस औरत और मुहम्मदﷺ में जुदाई डाली थी, मगर दोनों जवानी के ज़माने में इश्क़ का तजुर्बा कर चुके थे। औरत ने इस का इज़्हार इस वक़्त भी किया मगर मुहम्मद ﷺ साहब ने उसी वक़्त अपने चचा से अपनी पुरदर्द शिकायत में ज़ाहिर कर दिया था।

؎ लुत्फ़ बचपन के खो रहा है शबाब साथ खेले हुए बिझड़ते हैं

इस औरत ने इस वक़्त अब्बा किया निकाह मंज़ूर ना किया शायद इस वजह से अब तो हज़रत सात सकही के पी बने हुए थे। जवानी के इश्क़ का इस चमघटे में निबाह कैसे होता, मगर उसने ये बहाना किया या “इक अदा ये भी थी उल्फ़त आज़माने के लिए।”

“मैं एक औरत हूँ कि यतीम लड़के कई रखती हूँ, डरती हूँ कि अगर मैं रिआयत हाल में इनके मशग़ूल हूँ, हक़ ख़िदमत आप का बजा ना ला सकूँ, शर्म रखती हूँ कि अगर आप मेरे बिस्तर पर आएं और किसी तिफ़्ल (बच्चे) को देखें लेटा हुआ और दूसरा दूध पीता हो।” (मिन्हाज-न्नबी, सफ़ा 882, 881)

हज़रत ﷺ ने इस का उज़्र क़ुबूल किया, ये नहीं कहा कि कुछ मज़ाइक़ा नहीं। अब तो तुम्हारी ख़बर-गीरी और तुम्हारे बच्चों की हम पर और ज़्यादा वाजिब है। तुम्हारे बच्चे हमारे बच्चे हैं। हम यतीमों की परवरिश करेंगे। उन्हें भी क्या कि चौदहवीं सदी में कोई सय्यद साहब उनकी हरमसरा (लोंडियों और बीवीयों के रहने कि जगह) को बेवा ख़ाना और यतीम ख़ाना साबित करेंगे। ग़रज़ कि सुनकर चुप इल्ज़ाम दिया हो कि उन्होंने अपनी बीवी ख़दीजा ؓ की वफ़ात के बाद सौदहؓ से निकाह किया। एतराज़ात और और बातों पर हैं, मगर यहां एतराज़ आपके सुख़न (कहने) पर है। आप गोया हमसे ये कहना चाहते कि हज़रतﷺ ने सौदहؓ से उन अग़राज़ के लिए निकाह नहीं किया जिन के लिए मर्द तबअन औरत का ख़्वास्तगार होता है, बल्कि निकाह इसने किया कि सौदहؓ बे-वाली वारिस हो गई थी, कहीं उस का ठिकाना ना था (हालाँकि ये बिल्कुल ग़लत है क्योंकि उस की क़राबतदारी बनी अब्द शम्स में थी और इस का भाई अब्द बिन ज़िम्मअ मौजूद था। (मसाइल निकाह, सफ़ा 174) हज़रत ﷺ ने उस के शौहर की रूह पर एहसान करने को उसी से निकाह किया कि इस को कोई जाए-अमन दुनिया में मिल जाये। गोया किसी बेवा बेवा को जाए-अमन देने के लिए इस को जोरू (बीवी) बना लेना भी ज़रूरीयात से है। ये दस्त-गीरी हमने कभी नहीं सुनी।

आप ये कहते हुए क्यों शर्माते हैं कि ग़रज़ मुहम्मदﷺ की निकाह करना था और निकाह की अग़राज़ से मुस्तफ़ीद होना। ये हरगिज़ कोई ऐब का काम ना था। अगर कोई इसलिए उन को इल्ज़ाम दे तो बुरा करता है। गो एक अम्र ज़रूर खटकता है कि अभी ख़दीजा ؓ को जिसके बक़ौल जनाब मुहम्मद ﷺ आशिक़-ए-ज़ार थे” (सफ़ा 31) और जिसके साथ 25 बरस गुज़ारे थे, जिसने आपको अफ़्क़ार (फिक्रें) दुनिया से नजात दी थी। और कैसे कैसे मसाइब व आलाम में सिर्फ इसी ने आपका साथ दिया था” अभी इस मुहसिना को मरे हुए सेमाही (तीन महीने) भी ना बीती थी। हाँ अभी उस का कफ़न भी मेला ना हुआ था कि हज़रत जामा-ज़ेब तन करके दूल्हा बनने को चले। गोया ख़दीजा ؓ की मौत पर अपने इफ़्लास (ग़रीबी) में ओहार खाए बैठे थे, अब ख़दीजा ؓ को मरे दो माह गुज़र चुके थे कि हज़रत को ज़ौजा (बीवी) की अशद ज़रूरत थी। खड़े घाट औरत का मिलना तो आसान ना था, ख़ुसूसुन इस हाल में हो रहे। शायद ये हाल उन को पहले से मालूम ना था माना कि ऐश में फ़र्क़ आएगा और ग़रज़ फ़ौत होगी। बक़ोल शायर :-

؎ मासूक बच्चा कश से यार व ख़ुदा बचाए क्या इंतिशार होता है बुलबुल को देखकर के

यहां से ये मालूम होता है कि हज़रत किस क़िस्म की औरात (औरतों) के तलबगार रहा करते थे और इस की तशरीह आगे भी आएगी। हम हज़रतﷺ के इब्तिदाई उस इश्क़ से हज़रत पर हर्फ़ नहीं लाते हैं बल्कि सिर्फ ये कहना चाहते हैं कि हज़रत शुरू से रसिया रहे हैं, इस का पूरा पूरा अंदाज़ा माबाअ्द हुआ। और डाक्टर लेटनर तो अपनी नादानी ज़ाहिर करते हैं जब आप फ़रमाते हैं “आपने 25 बरस की उम्र तक किसी औरत को आँख उठा कर ना देखा।” (लेक्चर मुतर्जिम, सफ़ा 12) आपको मालूम नहीं कि ये उमहानी कौन थी जिस पर हज़रत अपना दीदा-ए-दिल निसार कर चुके थे।

2 - हालात बीवी सईदा यानी सौदहؓؓ

हज़रत ख़दीजा ؓ के इंतिक़ाल के चंद महीने बाद जब ताइफ से बेकस व नाचार और मज़्लूम व सितमदीदा (सताया हुआ, मज़्लूम) फिरे तो आपने सईदा से अक़्द (निकाह) किया जो एक शख़्स मक़रान नामी की ज़न बेवा थी जिस ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया था और मुशरिकीन के ज़ुल्मो सितम से मुल्क हब्श में चला गया था। मक़रान ग़रीब-उल-वतन हुआ था और उस की ज़ौजा (बीवी) बे वाली वारिस हो गई थी, गो उस के दो तीन अज़ीज़ ज़िंदा थे। पस हर एक उसूल फ़य्याज़ी दहरत का मुक़्तज़ा (तक़ाज़ा करने वाला) यही था कि आप इस नेक-बख़्त से अक़्द (निकाह) कर लें। कोई अख़्लाक़ी क़ायदा या क़ानून इस अक़दे (निकाह के) मानेअ (रुकावट) ना था और इस बेचारी बेवा का कोई घरबार नहीं था जहां वो बेचारी जाती ख़ुद आंहज़रतﷺ का ये हाल था कि नान-शबीना के मुहताज थे। इस आलम में आपने सईदा से अक़्द (निकाह) किया” (सफ़ा 607)। हमें याद नहीं कि कभी किसी ईसाई या ग़ैर ईसाई मुअर्रिख़ ने हज़रत को इस बारे में कि आप “नान-शबीना को मुहताज थे।” इस उज्लत (जल्दबाजी) में औरत आए कहाँ से? क़ुरैश में नविश्ता व अह्द पैमान हो चुका था कि कोई अपनी बेटी मुसलमान को ना दे (अबुल-फ़िदा, सफ़ा 282) मुसलमान गिने गए थे और औरतें उनमें वही थीं जो अपने अपने शौहरों के साथ मुसलमान हो गईं थीं और औरतों की क़िल्लत (कमी) भी ऐसी कि हिज्रत हब्शा में 83 मर्दों के दरमियान 18 थीं (अबुल-फ़िदा, सफ़ा 282)। उनमें कोई फ़ालतू औरत नहीं। पस मुहम्मदﷺ को किसी ऐसी ही औरत का मिल जाना मुम्किन था जो किसी मुसलमान की बेवा हो और हज़रत की चेली थी।“ ’’ نقل است کہ خولہ بنت حکیم نزدآنحضرت آمد بعد از وفات خدیجہ وگفت چرازن نمی خواہی فرمودکرازن کنم خولہ گفت گر میخواہی کر ہت واگر ثیب میخواہی ہست کر عائشہؓ دختر دوست تو و ثیب سودہ بنت زمعہ کہ ایمان بتو آور وہ حضرت فرمود کہ ہر دور امجہبت من خواستگاری خالی (रोजतुल-अहबाब, सफ़ा 150)। पस इस बेसब्री व उज्लत (जल्दबाजी) की हालत में ऐसी औरत सौदहؓ ही हो सकती थी। फ़ौरन इस से निकाह कर लिया बक़ौल शख़से तुझे और नहीं मुझे ठोर नहीं। हज़रत 51 बरस के रंडवे (उर्दू में रंडवा उसे कहते है जिसकी बीवी मर चुकी हो) थे और ये बेवा आप से सन (उम्र) में छोटी, अच्छा ख़ास्सा जोड़ा था। मौलवी साहिबान नाहक़ को ग़म करते हैं।

मगर कोई कलाम नहीं हज़रतﷺ ने उस से अपनी ज़रूरत नफ़्सी में निकाह किया था, कुछ सौदह को पनाह देने का आपको सौदा ना हुआ था। ये औरत हज़रत ﷺ के साथ 8 हिज्री यानी पूरे ग्यारह बरस तक रही। अब हज़रत ﷺ के पास एक हरमसरा (हमसारा मतलब जिसमे लोंडीयां और बीवीयां रहा करती है) था, जोरुओं (बीवीयों), लौंडियों की कमी ना थी बल्कि ज़रूरत से ज़्यादा इफ़रात और हज़रत को औरतें और ख़ुशबू अज़हद मर्ग़ूब (पसंद) थीं। चुनान्चे “सौदहؓ को जब किबरसिन (बुढ़ापे) ने पाया यानी बूढ़ी हुई साल हश्तम (आठवें) में हिज्रत से, उसे तलाक़ दी “कोई क़सूर इस औरत का नहीं था, सिर्फ किबरसिन (बुढ़ापे) को पहुंची थी। ख़त नफ़्स बमुक़ाबला सा कनान हरमसरा से हासिल ना था, गो अगर वक़्त निकाह ये लावारिस थी और कहीं उस का ठिकाना ना था। अब ग्यारह बरस बाद इस पर और ताकीद होना चाहीए। मगर नहीं, हज़रत को इस के ठिकाने या बे-ठिकाने होने से ग़रज़ ना थी। वो तो अपना ठिकाना ढूंडते थे। सो वो बुढ़ी समझी जाती है इसलिए तलाक़ दिया जाता है। मुसीबतज़दा औरत कहाँ जाएगी, अब उस का कोई ठिकाना नहीं। गिरयावज़ारी करती हुई हज़रत ﷺ के पास आती है। अमान चाहती है, पर क्या हो सकता है। आख़िर “एक रात सर-ए-राह पर इस जनाब के सौदहؓ बैठी जिस वक़्त आईशाؓ सिद्दीक़ा के घर तशरीफ़ थे (ये तो दर-ब-दर रोती फिरे और राह की ख़ाक छाने और हज़रत नई दुल्हन के यहां आराम फ़रमाएं।)

؎यामन ख़स्ता जिगर आह चह कर दी ज़ालिम यामन ख़ाक-बसर आह चह कर दी ज़ालिम

अर्ज़ की कि या रसूल अल्लाह ﷺ मैं तुझसे कुछ तमअ (लालच) नहीं रखती, आरज़ू शहवत की मुझे नहीं रही, लेकिन चाहती हूँ कि क़ियामत के रोज़ आपकी अज़्वाज में मेरा हश्र हो और नौबत (वक़्त) बारी अपनी आईशाؓ सिद्दीक़ा को बख़्शी। पस हज़रत उस की तलाक़ के क़स्द (इरादा) से गुज़रे बारजअत (वापसी, औरत को तलाक़ देने के बाद फिर अपनी ज़ौजीयत (निकाह) में लाना) की” भी किया। (मिन्हाजुन्नबी, सफ़ा 851) ये तो हश्र में दामन-गीर होगी। क्यों साहब ! क्या “हर एक उसूल फ़य्याज़ी और मुरव्वत का मुक़्तज़ा (तक़ाज़ा करने वाला) यही था।” क्या मक़रान ग़रीब-उल-वतन जिसने दीन पर अपनी जान तस्दीक़ की थी, उस की ख़िदमात का सिला यही था? पस ऐसे वक़्त में हमको सौदहؓ के इस ख्व़ाब की ताबीर मिलती है जो उसने क़ब्ल निकाह देखना बयान किया था कि :-

“सो वो जब हब्श से मक्का में आई ख्व़ाब देखा कि पैग़म्बर उस की तरफ़ आए और उस की गर्दन पर पैर रखा और उस ने अपने शौहर को इस वाक़िये से ख़बरदार गिरदाना किया। शौहर ने कहा अगर सच्च कहतीं है तो अनक़रीब मैं मरूँगा और पैग़म्बर तुझे ख़्वाहिश फ़रमाएँगे” (मिन्हाज ,सफ़ा 850)

देखो सौदहؓ की गर्दन पर “बमुक़्तज़ाए उसूल फ़य्याज़ी व मुरव्वत” यूं पैर रखते हैं। فَاعتَبِرُویااُولی ِالاَبصار (पस समझ वालो ! इबरत हासिल करो)। और क्या, इस बेचारी बेवा के किबरसिन (बुढ़ापे) के साथ यही सुलूक रवा था? पर मुहम्मदﷺ के लिए आप की निगाह में “हर एक उसूल फ़य्याज़ी और मुरव्वत का मुक़्तज़ा (तक़ाज़ा करने वाला) यही था।”

लतीफ़ा मुहम्मद हुसैन साहब फ़रमाते हैं कि :-

“आँहज़रत जवान औरतों के मुक़ाबले में बुढ़ी औरतों को तर्जीह देते हैं, इसलिए अय्याश मिज़ाज नहीं हो सकते” और ये नादिर मिसाल हवाला क़लम करते हैं), “ये अक़्ली और तिब्बी क़ायदा है कि जिस औरत का जमाल व शबाब किसी मर्द का मर्ग़ूब व माशूक़ होता है। वो इस के होते दूसरी औरत का जो जमाल और शबाब में इस से कमतर हो हरगिज़ तालिब नहीं होता। पुलाव का तालिब पुलाव के होते जो कि सूखी रोटी कभी नहीं खाता” (सफ़ा 187)

इस वक़्त वो औरतें सौदहؓ और आईशाؓ हज़रत के पास हैं। एक बुढ़ी, दूसरी साहब-ए-जमाल व शबाब हज़रत ने बुढ़ी को बिल्कुल तर्क कर दिया और जवान से ऐश उड़ाने लगे। पुलाव और जौ कि रोटी की भी मौलवी साहब ने ख़ूब कही। हज़रत ने आईशा ؓको पुलाव भी कहा था। चुनान्चे فضل عایشۃ علےالنساکفضل الثرید علےسانر الطعام मशहूर हदीस है यानी औरतों में आईशाؓ को वो फ़ज़ीलत है जो खाने में सरीद (एक किस्म का ख़ास खाने) को। चुनान्चे हज़रत ने जो कि सूखी रोटी बिल्कुल छोड़ दी और हमेशा सरीद (ख़ास खाना) नोश जान फ़रमाते रहे और बाद आईशाؓ के दूसरी जवान औरत मारिया थी। हज़रत इस पर भी फ़िदा थे, आगे दिखाएँगे। फ़िल-हक़ीक़त जवानों के मुक़ाबले हज़रत बुढ़ी औरत के बक़ौल सादी ए सेज तिरानाँ जोबन ख़ुश ना शायद तलबगार कभी नहीं रहे। ज़बान का ज़ायक़ा बदलने की नौबत ज़रूर आती थी।

3 आईशाؓ का हाल

“अबू बक्र एक सहाबी जान-निसार आँहज़रत ﷺ के थे। उनकी एक छोटी सी बेटी थीं, जिन का नाम आईशाؓ था। इन के वालिद माजिद को हमेशा से ये आरज़ू थी कि अपनी दुख़्तर को आपके हिबाला (रिश्ता) अक़्द (निकाह) में देकर इस रिश्ते मुहब्बत को मज़बूत करें......इस लड़की का सन (उम्र) कुल सात बरस का था। मगर उस मालिक के दस्तूर के मुवाफ़िक़ इस उम्र की लड़की से शादी करना जायज़ था। अज़्वाज नबी में पाकीज़ा सिर्फ यही थीं। इस वजह से उन के वालिद की कुनिय्यत अबू बक्र थी” (सफ़ा 218)। हमको हमेशा आरज़ू रही कि हमारा मुखातब कभी तो भूले से वाक़ियात तारीख़ी को सच्चे तौर से बयान करता। अबू बक्र को कभी आरज़ू ना थी कि वो अपनी नन्ही सी जाई को अधेड़ हज़रत की जोरू (बीवी) बनाता और जूं ही इस को मालूम हुआ हज़रत ﷺ आईशाؓ को ताड़ते (ताड़ना उर्दू लफ्ज़ है जिसका मतलब देखना है) हैं, उस ने अपनी बेटी के बचाने को हर तरह का उज़्र व हिला किया।

जिस्मानी व तबई उज़्र : पहला उज़्र जिस्मानी व तिब्बी था। जब हज़रत ﷺ ने अबू बक्र से कहा तेरी बेटी को अल्लाह ने आस्मान पर मेरी जोरू (बीवी) बना दिया तू ज़मीन पर इस को मेरी जोरू (बीवी) बना। उसने निहायत लजाजत (मिन्नत समाजत) से अर्ज़ की कि हज़रत वो तो बहुत छोटी है। देखो किताब नज़हस्तुस-ज़ालिस मुन्तखबुल-नफ़ाइस अल्लामा अब्दुर्रहमान अलसफुरी अल-शाफ़ई जिल्द 2 सफ़ा 267 (मिस्री) इस अरबी किताब के बाब मनाक़िब उम्महात उल-मोमिनीन में हज़रत की अज़्वाज का हाल मिस्ल रोजतुल-अहबाब (رو ضتہ الاحباب) व मदारिजुन्नबी के बड़ी शरह व बस्त से लिखा हुआ है। हज़रत ﷺ ने ये उज़्र अबू बक्र का क़ुबूल ना किया।

रस्मी उज़्र : तब उस ने दूसरा उज़्र रस्मी पेश किया यानी ये कि शरिफा अपनी ज़बान का पास करते हैं। जिसको बेटी कहते हैं, उस के साथ बेटी का और जिस को बहन कहते हैं उस के साथ बहन का बर्ताव करते हैं। इस तरह अबू बक्र ने हज़रत से कहा कि आईशाؓ तो आपकी भतीजी लगती है, आप पर हराम है। चुनान्चे तोहफा-तुल-अख्बार मशारिक़-उल-अनवार में हदीस 2016 में वारिद हुआ है कि :-

सहीह बुख़ारी - जिल्द सोम - निकाह का बयान - हदीस 7

रावी : अब्दुल्लाह बिन यूसुफ़, लैस, यज़ीद , इराक़, उर्वा

حَدَّثَنَا عَبْدُ اللَّهِ بْنُ يُوسُفَ حَدَّثَنَا اللَّيْثُ عَنْ يَزِيدَ عَنْ عِرَاکٍ عَنْ عُرْوَةَ أَنَّ النَّبِيَّ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ خَطَبَ عَائِشَةَ إِلَی أَبِي بَکْرٍ فَقَالَ لَهُ أَبُو بَکْرٍ إِنَّمَا أَنَا أَخُوکَ فَقَالَ أَنْتَ أَخِي فِي دِينِ اللَّهِ وَکِتَابِهِ وَهِيَ لِي حَلَالٌ

अब्दुल्लाह बिन यूसुफ़, लैस, यज़ीद, इराक़, उर्वा से रिवायत है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम ने आईशाؓ के निकाह का पैग़ाम अबू बक्र को भेजा, हज़रत अबू बक्र रज़ीयल्लाह तआला अन्हो ने अर्ज़ क्या मैं तो आपका भाई हूँ, आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने जवाब दिया तू मेरा भाई अल्लाह के दीन और इस की किताब की रू से है (इसलिए) आईशाؓ मुझ पर हलाल है।

(मुतर्जिम फ़ायदा में बयान करता है कि) “अबू बक्र सिद्दीक़ ने हज़रत आईशा ؓ की मंगनी के वक़्त ये उज़्र किया कि हज़रत मुझको भाई फ़रमाया करते हैं। सो भाई की बेटी से निकाह क्यों कर दुरुस्त होगा। हज़रत ने जवाब दिया कि हमारी और तेरी दीनी बिरादरी है, इस से हुर्मत नहीं साबित होती, हुर्मत का सबब तो नसबी बिरादरी है।” देखो पीरे कि दम ज़-इश्क़ ज़ंद बस ग़नीमत अस्त। हज़रत ﷺ आईशा ؓ को लेने के लिए कैसी कैसी बातें बनाते हैं। अबू बक्र हैरान है।

अख़्लाक़ी उज़्र : तीसरा उज़्र अख़्लाक़ी यानी वाअदे की वफ़ा का उस के पास और है, और अगर देखा जाये तो ये बहुत बड़ा उज़्र था। मगर हज़रत की निगाह में हीच था। चुनान्चे ’’در خاطر صدیق خدشہ پیداشدچہ مطعم بن عدی عائشہؓ براے پسر خود خطبہ نمودہ بود و ابو بکر قبول کروہ دباوے وعدہ درمیان داشت وہر گز خلف وعدہ نکر دہ بود‘‘ रोजतुल-अहबाब, सफ़ा 151)। देखो सच्चे वाक़ियात ये हैं जिससे मालूम होता है कि आपका ये सुख़न (कहना) कि अबू बक्र को आरज़ू थी कि अपनी दुख़्तर को हज़रत के हिबाला (रिश्ता) अक़्द (निकाह) में दे इंतिहाई लग़ु है। अबू बक्र को आरज़ू थी कि किसी तरह वो अपनी छोकरी को इस के पंजे से रिहा कराए। निकाह के वक़्त आईशाؓ की उम्र 7 साल की थी। अभी तो फ़ित्ना हैं, कुछ दिन में क़ियामत होंगी। दो बरस बाद 9 बरस की उम्र में हज़रत ने इस से सोहबत (हमबिस्तरी) की। ये अम्र काबिल-ए-ग़ौर ज़रूर है कि हज़रत ने दो बरस अपने अज़्मबिल् जज़म (पक्का इरादा) को मुल्तवी करके क्योंकर सब्र किया। इन वाक़ियात पर नज़र डालने से सहीह क़ियास सिर्फ यही पैदा होता है कि अबू बक्र ने ये गवारा ना किया और इस बात पर मुस्र (अड़ना) हुआ कि कम से कम दो बरस हज़रत आईशाؓ को माफ़ करें और उन्होंने इस वाअदे पर फ़ौरन निकाह चाहा और उज्लत (जल्दबाजी) की वजह शायद ये थी कि हज़रत को ख़ौफ़ था, मबादा अबू बक्र की राय फिर जाये या कोई और अम्र हो।

कम उम्र नौखीज़ बाकिरा (नई ताज़ा कुँवारी) सिर्फ़ हज़रत को यही नज़र पड़ती थी। अबू बक्र हज़ार बचता था, हज़रत एक ना मानते थे। क़हर दरवेश बरजान दरवेश अबू बक्र को मज्बूर होना पड़ा। हज़रत ﷺ की उम्र 53 बरस की थी जब 9 बरस की लड़की से सोहबत (हमबिस्तरी) करने चले थे। बीवी ख़दीजा ؓ की उम्र हज़रत से कोई 15 बरस बड़ी थी और हज़रत का उन के साथ निबाह करना मुसन्निफ़ की आँखों में कुछ ग़ैरमामूली सा नज़र आया हालाँकि ऐसी मिसालें हज़ारों मौजूद हैं। ख़ुद ज़ैद अबू उसामा ने उम्म एमन से निकाह किया था जो उस की उम्र के लिहाज़ से दो चंद से ज़्यादा उम्र वाली थी। मगर 53 बरस के बुड्ढे का 9 बरस की लौंडिया ब्याहना कोई आम मुसलमान भी जायज़ ना रखेगा। मगर हाँ बंगाल के कलीन बर हमनोन की बात दूसरी है। हिन्दुस्तान में हाल के क़ानून के मुवाफ़िक़ बारह बरस से कम औरत के साथ मुक़ारबत (आपस में मिलना) करना जुर्म क़रार पाया है। अरब हिन्दुस्तान से कुछ बहुत मुख़्तलिफ़ नहीं। पस ये ग़लत मह्ज़ है कि “इस मुल्क के दस्तूर के मुवाफ़िक़ इस उम्र की लड़की के साथ शादी करना जायज़ था।” अगर जायज़ होता तो अबू बक्र कम्सिनी (छोटी उम्र) का उज़्र क्यों करता, शरिफा ए अरब में इस क़िस्म की कोई और नज़ीरें आप हमको बताएं।

मगर यहां असल एतराज़ शादी करने पर नहीं है बल्कि सोहबत करने पर है। क़ुरआन-ए-मजीद में सन बलूग़ (बालिग़ होने कि उम्र) का भी जिसमें निकाह करना चाहिए ज़िक्र है। सुरह निसा (रुकूअ1) जलालेन में इस की तफ़्सीर में सन बलूग़ (उम्र बालिग़) मुवाफ़िक़ इमाम शाफ़ई के 15 बरस है। बैज़ावी ने भी 10 बरस को एक हदीस की बिना पर सन बलूग़ (उम्र बालिग) तज्वीज़ किया है। मगर इमाम अबू ख़लीफ़ा 18 बरस को सन बलूग़ (उम्र बालिग) तज्वीज़ फ़रमाते हैं। चुनान्चे हज़रत ﷺ ने अपनी साहबज़ादी फ़ातिमा का निकाह अली के साथ इसी दस्तूर की रिआयत में 18 बरस की उम्र में किया था रोज़तुल-अह्बाब, सफ़ा 212)। 53 बरस के बुड्ढे का 9 बरस की छोकरी से सोहबत करना, हम इस ताल्लुक़ को बजुज़ अय्याशी के और कुछ नहीं कह सकते। चुनान्चे फ़िरोज़ डिस्कवरी फ़रमाते हैं कि :-

“शहवत-परस्त लोग कुँवारी के साथ निकाह करना अफ़्ज़ल वाइला ख़्याल करते हैं” (दफ़्अ तअन, सफ़ा 21)।

दरअसल ऐसी कमसिन (कम उम्र) से मुबाशरत करना शहवत परस्तों की ख़सुसीआत से मशहूर है। ऐ फ़ारस, अरब और हिंद के मुसलमानों कौन तुम में से 9 बरस की लड़की को सोहबत (हमबिस्तरी) के लिए 53 बरस के बुड्ढे को सपुर्द कर के हज़रतﷺ के फे़अल की हिमायत करेगा? हमको अबू बक्र पर तो अफ़्सोस आता है और हज़रत के चलन पर नफ़रीन (मज़म्मत) करने के लिए और हमारे पास काफ़ी अल्फ़ाज़ नहीं हैं। हम और कुछ ना कहेंगे बजुज़ इस के कि हक़ीक़त में ख़दीजा ؓ की वफ़ात के बाद मुहम्मदﷺ का चलन औरतों के बारे में अज़बस गंदा हो गया था। और बहुत कुछ वो “मर्द चों पीर शुद, हिर्स जवां मीगर्दद” (’’مرد چوُں پِیر شوَد ،حرص جو اں میگردد‘‘) (फ़ारसी मिस्ल - बुढ़ापे में खाने पीने, औरत या पैसे की हिर्स बढ़ जाती है के मिस्दाक़ हो गए थे।) कुछ अजीब नहीं कि ऐसे ऐसे हालत देखकर यहूद मुहम्मदﷺ से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) व बेज़ार हो कर साफ़ कहते थे कि ’’سمت این مرد ہمہ بامرنکاح مصروف است ہموار ہ بازواج وا متزاج بازنان مشفوف ‘‘ हुसैनी तफ़्सीर रअद, रुकूअ 2 और इस के जवाब में हर कि तंग आमद बजंग आमद हज़रत के हाथ में सिवाए तल्वार के कुछ ना था।

आईशा ؓ पर इल्ज़ाम ज़िना

हम बीवी आईशा ؓ की सिर्फ इस क़द्र हालात पर इक्तिफ़ा कर देते मगर बाअज़ कोताह अंदेश मुसलमानों ने बड़ी बड़ी मुँह ज़ोरियां की हैं। कभी आईशा ؓ को मुक़द्दसा मर्यम के मुक़ाबले में पेश किया है और ना देखा “चह निस्बत ख़ाक राबा आलिम पाक” (फ़ारसी मिस्ल - छोटे का बड़े से किया मुक़ाबला) कभी आईशा ؓ के इल्ज़ाम ज़िना पर मुक़द्दसा को मुत्तहिम (बदनाम) (तोहमत लगाने वाली) ठहराया है और इस इत्तिहाम (तोहमत - इल्ज़ाम) से ईसाईयों को इल्ज़ाम दिया है। हकीम नूर उद्दीन साहब ख़्वाह-मख़्वाह हमको छेड़ कर कुछ सुनना चाहते हैं, वो फ़रमाते हैं :-

“आईशा ؓ का इत्तिहाम (इल्ज़ाम) सिर्फ़ इत्तिहाम (इल्ज़ाम) है जिसका कोई सबूत नहीं। अपने घर में देखिए एक कुँवारी के रहम में से लड़का पैदा हुआ। एक मुत्तहिम (बदनाम) (जिस पर तोहमत लगाई गई हो) हुई और इत्तिहाम (इल्ज़ाम) लगाने वाले वजूद इत्तिहाम के बयान से आजिज़ आए और दूसरे मूत्हम (तशवीश में मुब्तला) हुए और कुँवारे पन में बक़ौल ईसाईयों के लड़का जन चुकी, फिर बदनामी से बच गई और रूहुल-क़ुद्दुस से हामिला कहलाई।” (फ़स्लुल-ख़िताब, अव्वल, सफ़ा 163)

इसके जवाब में मुख़्तसरन गुज़ारिश है कि सुरह नूर (24:11) में वारिद हुआ है إِنَّ الَّذِينَ جَاءُوا بِالْإِفْكِ عُصْبَةٌ مِّنكُمْ “लोग लाए हैं ये तूफ़ान तुम्हीं में एक जमाअत हैं।” इस से अज़हर (रोशन) है कि आईशा ؓ पर इल्ज़ाम लगाने वाले “तुम्हीं में एक जमाअत हैं” यानी मुसलमान बड़े बड़े रीश मुकता (तराशी हुई डाढ़ी) वाले ईमानदार, ख़ुलफ़ाए राशिदीन के रिश्तेदार, उम्महात-उल-मोमिनीन के सगे, हाल के मुल्लानों के बड़े, हज़रत के सहाबियों में तबक़ा उला वाले और वो भी एक दो नहीं बल्कि एक जमाअत की जमाअत। तफ़्सीर हुसैनी वाला उन में से पाँच के नाम भी बताता है।” ’’عبداللہ بن ابی کہ پیشوائے منا فقان است‘‘ “अच्छा साहब हम इस को छोड़े देते हैं, ये मुनाफ़िक़ है। ज़ैद बिन रफ़ाइह व हिस्सान बिन साबित, शायर व मस्तह बिन उसामा पिस्र ख़ाला अबू बक्र सिद्दीक़, हम्ना बिंत जहश ख्वाहराम-उल-मोमिनीन ज़ैनब” ये कौन हैं हम आगे बताएँगे।

क़िस्सा इस का हुसैनी व मदारिज में यूं लिखा है कि :-

“ग़ज़वा मरेसन में आईशा ؓ हज़रत के साथ थीं। जब ग़ज़वा (जंग) से फ़ारिग़ हो कर लोटे एक मंज़िल पर आईशाؓ क़ज़ा-ए-हाजत (पाख़ाने) के लिए गईं। लौटें तो मालूम हुवा कि एक हार उनका गुम हो गया। पस वो इसके ढ़ूढ़ने को फिरें, इस अस्ना में लश्कर हज़रत का कूच कर गया। आईशाؓ के हूदज (ऊंट का कजावा) को लोगों ने शुत्र (ऊंट) पर रखा। उनको ख़्याल था कि आईशाؓ अंदर बैठी हैं, मगर आईशाؓ बिल्कुल तन्हा रह गईं। लिहाज़ा इस मंज़िल पर रात बसर की, दूसरे रोज़ एक सिपाही लश्करी नौजवान सफ़वान बिन मुअत्तल के हमराह लश्कर मुहम्मदﷺ में पहुंचें।”

रात-भर हज़रत मुहम्मदﷺ की महबूबा आईशा ؓ का ग़म में रहना और एक नौजवान के साथ सुबह के वक़्त लश्कर के अक़ब में पहुंचना और क़ज़ा ए हाजत और गुमशुदगी, इकद की वजह से लश्कर से छुट जाना और किसी को ख़बर ना होना और फिर लोगों का ख़ाली और पुरहूद्ज में तमीज़ ना करना, हज़रत की किबरसिनी (बुढ़ापे) और जोरू (बीवी) का 12 बरस की उम्र का होना। ये सब ऐसे क़रीने थे कि लोगों को जो आईशाؓ के हालात, उस की तबीयत और मिज़ाज से इब्तिदा से वाक़िफ़ थे, बावजूद हुस्न ज़न (गुमान) व ख़्याल करना पड़ा कि आईशा ؓ सफ़वान बिन मुअत्तल के साथ मुर्तक़िब ज़िना हुई। मुसलमानों की एक जमाअत की जमाअत का आईशाؓ की निस्बत इस तरह का ख़्याल होना, तमाम क़रीने इस क़िस्म के थे कि ख़ुद हज़रत ﷺ भी बावजूद इस के कि इन के कुल अग़राज़ इख़्फ़ा-ए-राज़ के थे इंतिहा दर्जा अपनी प्यारी बीवी से बदज़न (गुमान) हुए और कामिल एक माह तक बोल-चाल ना कर के फ़िक्र तलाक़ आईशाؓ में रहे। और हज़रत अली करम अल्लाह वजहु इस मुआमला में उन के सलाहकार थे। चुनान्चे आईशाؓ ख़ुद बयान करती हैं :-

“जब मैं मदीना में पहुंची बीमार हुई और एक महीना तक बीमार थी, लेकिन मिज़ाज हज़रत का अपनी इस बीमारी में अपनी तरफ़ मुतग़य्यर (बदला हुआ) पाया था। वो लुत्फ़ व इनायत ना देखती थी जो और बीमारीयों में देखती थी। इतना था कि घर में तशरीफ़ लाते थे और पूछते थे कि किस तरह है, वो और फिर जाते और मेरे नज़्दीक ना आते और ना बैठते मेरे पास। यहां तक कि बीमारी मेरी नक़ाहत (बिमारी कि कमज़ोरी) यानी नातवानी को पहुंची। तलब फ़रमाया उस जनाब ने अली बिन अबू तालिब और उसामा बिन ज़ैद को कि मश्वरत करें। अली बिन अबू तालिब ने कहा या रसूल अल्लाह तंग नहीं किया है हक़ तआला ने वास्ते तेरे औरतों को और सिवाए आईशाؓ के बहुत औरतें हैं।” (मिन्हाज,सफ़ा 241-343)

हज़रत अली ने ज़मिनन हज़रत ﷺ को यही सलाह दी कि आप पर औरतें तंग नहीं हैं। सैकड़ों औरतें हैं। आप आईशाؓ को तलाक़ दीजिए और इस की जगह और निकाह कीजिए। चुनान्चे (تحضۃ الاخیار والا بضمن) तह्ज़त-उल-अख्यार व इला-अबज़मन हदीस नंबर 1025 क़िस्सा अफ़क में आईशाؓ से रिवायत मन्क़ूल करता है कि हज़रत ने अली और उसामा को बुलाया और “मेरे छोड़ देने में सलाह व मश्वरा पूछा” तब अली ने वोह जवाब दिया। अब ज़िना का ऐब लगाने वालों की हैसियत पर अब्दुल हक़ साहब फ़रमाते हैं :-

“ताज्जुब ये है कि अहले इस्लाम से भी कई शख़्स अहले अफ़क के साथ शरीक हुए मसलन हस्सान बिन साबित और मुसत्तह उसामा जो अबू बक्र सिद्दीक़ की ख़ाला की बेटी का बेटा था। हम्ना बिंत जहश ज़ैनब बिंत जहश की हमशीरा और बाअज़ और लोग भी जिनके नाम मज़्कूर नहीं” (सफ़ा 340 देखिए)

ये सब मुसलमान हैं। हस्सान बिन साबित मुहम्मदﷺ का हमज़ुल्फ़ उन की प्यारी मारिया रशक आईशाؓ की बहन शीरीन का शौहर (मिन्हाज, सफ़ा 464) बड़े जय्यद सहाबा में है। इस्लाम का शायर जिसने मुनाफ़क़ीन और कुफ़्फ़ार के हुजूम में बड़े बड़े क़सीदे कहे हत्ता कि मुहम्मद साहब ने इस की बाबत फ़रमाया था कि ’’ان اللّٰہ یوئد حسان بروح القدس ‘‘ ख़ुदा हस्सान की ताईद करता है रूहुल-क़ुद्दुस से। मुसत्तह अबू बक्र की ख़ाला की बेटी का बेटा था यानी रिश्ते में आईशाؓ का फुफ़ी ज़ाद भाई। ये शख़्स मुहाजिरीन से भी था और अहले बद्र से भी जिनके फ़ज़ाइल से किसी मुसलमान को इन्कार नहीं और आईशा ؓ का भाई और इस के बाप अबू बक्र का अपना। हम्ना बिंत जहश हज़रत मुहम्मदﷺ की सगी साली थी। इनकी बीवी की बहन जिनका निकाह आस्मान पर हज़रत जिब्राईल ने पढ़ा। हज़रत अली जिन्हों ने सुकूत सुख़न-शिनास किया और आईशाؓ की तलाक़ की सलाह दी।

फिर वो तमाम हालात भी ऐसे क़रीना (बहमी ताल्लुक़) के थे कि हज़रत को बजुज़ सच्च मानने के कोई चारा ना था। चुनान्चे उन्होंने इस को एक माह तक सच्च माना और एक माह कामिल बीमारी और नातवानाई (कमज़ोरी) की हालत में भी वो आईशाؓ से ना बोले बल्कि उस को छोड़ देने की मश्वरत अली के साथ करते रहे और अली ने उनके गुमान की ताईद की और आईशाؓ की सफ़ाई में ख़ुद ज़बान ना हिलाई और हज़रत को इस इल्ज़ाम का यक़ीन भी ऐसा पक्का हो गया था कि उन्हों ने आईशा ؓ को मुख़ातब करके यूं कहा :-

“अगर तू उतरी हुई है तरफ़ गुनाह के और सादिर हुआ है गुनाह तुझे तो तलब आमिर्ज़श कर ख़ुदा से और तौबा कर और रुजू कर तरफ़ ख़ुदा के” (मिन्हाज, सफ़ा 345)।

और आईशाؓ भी इस के मअनी ख़ूब समझी। चुनान्चे इस ने सुन कर यही जवाब दिया कि :-

“मुझको मालूम है कि आपको इस बात की ख़बर पहुंची है और आपके दिल में जड़ गई है। सो अगर मैं यूं कहूं कि मैं इस ऐब से पाक हूँ तो हज़रत यक़ीन काहे को करेंगे और अगर नाकर्दा का इक़रार करूँ तो हज़रत इसे सच्च मानेंगे” (तह्ज्तुल अख्यार, फ़ायदा, हदीस नंबर 1025)

देखना चाहीए कि मुहम्मदﷺ बावजूद मुहब्बत, वाक़ियात पर नज़र डाल कर किसी क़रीना हक़ीक़ी से अपनी जोरू (बीवी) की तस्दीक़ नहीं कर सकते और ना जोरू (बीवी) के पास कोई सफ़ाई है कि जिसकी बिना पर वो अपने तईं शौहर के सामने बरी कर सके। और हज़रत अलीؓ तो इस कुल मुआमले को ना-गुफ़्ता बह समझ कर तलाक़ की सलाह दे रहे हैं और इल्ज़ाम ज़िना की तस्दीक़ फ़रमाते हैं जिसकी वजह से आईशाؓ को अलीؓ के साथ दुश्मनी हुई, हत्ता कि बाद वफ़ात हज़रत ﷺ वो हज़रत अली से लड़ने को निकलीं। अब इस सबूत के मुक़ाबिल पार लोग सफ़ाई में ये फ़रमाते हैं :-

“एक साहब उमर खत्ताब हज़रत को समझाते हैं। या रसूल अल्लाह मक्खी आपके बदन मुबारक पर नहीं बैठती इस वास्ते कि नजासत पर गिरती है और पांव उस के आलूदा इस से होते हैं। हक़ तआला आपके मुतह्हर (पाक) बदन को इस से बरी रखता है और जो शख़्स कि बदतरीन चीज़ों से आलूदा हो किस तरह से निगाह रखे” यानी आलूदा मक्खी तो आपके जिस्म मुबारक पर बैठती नहीं, पस आईशाؓ क्योंकर बदी कर सकती है? आमन्ना व सद्दक़ना। दूसरे साहब “उस्मान बिन अफ्फान ने ये कहा या रसूल अल्लाह आपकी परछाई ज़मीन पर नहीं पड़ती कि मबादा नजिस ज़मीन पर पड़े, पस किस तरह नाशाइस्तगी से आपकी हरम मुहतरम को ना बचाएगा।” (सफ़ा 343)

ये सफ़ाई की दलीलें ख़ुलफ़ाए राशिदीन ही का हिस्सा थीं और उन से इत्मीनान करना हज़रत मुहम्मद ﷺ साहब का काम था। मगर अफ़्सोस एक माह तक ये दलाईल हज़रत के ज़हन नशीन ना हुए। आख़िर आप आलूदा मक्खी और परछाई की शहादत से मुत्मइन हो गए बल्कि किया “नक्ल कुफ्र कुफ्र नबाशद” (कुफ़र की नक़्ल करने से नाक़िल काफ़िर नहीं हो जाता) ख़ुदा को भी इत्मीनान इस के बाद हुआ। बक़ौल चंद दिन मुद्दत ख़ुदा ने कर दी थी झट आस्मान से से आयत नाज़िल की कि आईशाؓ पाक है और मुसलमान झूटे। ख़ैर हम भी इस फ़ैसले में कलाम नहीं करते क्योंकि ये सहाबा किराम के अख़्लाक़ हैं। पर अगर उन को शिकायत हो तो उन को समझाए देते हैं हज़रत ﷺ भी मज्बूर थे, ऐसे वाक़ियात पर इसी तरह ख़ाक डाली जाती है। ज़ुलेख़ा मुर्तक़िब ख़ता हुई हज़रत यूसुफ़ बेगुनाह थे। शहर में शोशा उड़ा कि औरत अज़ीज़ की ख़्वाहिश करती है, अपने ग़ुलाम पर फ़रेफ़्ता हो गई है। इस की मुहब्बत में अज़ीज़ की आबरू रैज़ी होती है। इस वाक़िया को छुपाता है और बावजूद के औरत की बदकारी और यूसुफ़ की बेगुनाही जानता है, अपनी जोरू (बीवी) को पाकदामन साबित करने के वास्ते यूसुफ़ को क़ैद में डालता है, देखो सुरह यूसुफ़ (रुकूअ 103)। मगर हम हकीम साहब की दाद देते हैं जब फ़रमाते हैं कि “इत्तिहाम (बोहतान) का कोई सबूत नहीं, इत्तिहाम (बोहतान) उगाने वाले वजूह इल्ज़ाम के बयान से आजिज़ आए।” इत्तिहाम (इल्ज़ाम) का ऐसा सबूत था और वजूह इल्ज़ाम का बयान ऐसा मुस्कित (ख़ामोश कराने वाला) कि एक माह तक हज़रत के लब पर मुहर लगी रही और अलीؓ ने सुकूत किया और मुहम्मद ﷺ आईशाؓ से तौबा के मुस्तदई (इस्तिदा करने वाला मुल्तजी) थे। इस से बड़ कर सबूत हम आपको क्या दें।

अफ़्सोस इस नापाक क़िस्से के बाद सिद्दीक़ा मर्यम का तज़्किरा कर के जो आप ने अपना इस्लाम रोशन किया है और मुक़द्दसा मर्यम बुतुला के इत्तिहाम (बोहतान) की ताईद फ़रमाई है और कुँवारेपन में लड़का जनने पर मज़हका (मज़ाक) उड़ाया है और इस में हम को हमारा घर दिखाया है। इस की दाद तो आपके हम-ईमान देंगे और अगर आप दरअसल क़ुरआन-ए-मजीद पर ईमान लाते हैं तो इस का जवाब आपको अरसा मह्शर में मिलेगा। अगर आपने ज़ूदतर तौबा ना कर ली। मगर हम आपको यहां भी सुनाए देते हैं कि मुक़द्दसा मर्यम वो हैं कि ’’قَالَتْ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي غُلَامٌ وَلَمْ يَمْسَسْنِي بَشَرٌ وَلَمْ أَكُ بَغِيًّا‘‘ जब मर्यम ने कहा कि मेरे हाँ लड़का क्योंकर होगा मुझे किसी बशर ने छुवा तक नहीं और मैं बदकार भी नहीं हूँ।” (सुरह मर्यम 19:20) तो फ़रिश्ते भी सर-ए-तस्लीम ख़म करते हैं और आपको मालूम है। ’’قولہم علی مریم بہتاناً عظیماً‘‘ मर्यम पर बड़ा तूफ़ान बाँधने पर मुत्तहिम (इल्ज़ाम) करने वालों का क्या हाल हुआ था (सुरह निसा, रुकूअ 24) आप क्या बकते हैं और किस की निस्बत? फ़रिश्तों से तो शर्माओ, वो क्या लानत करते हैं। ’’وَإِذْ قَالَتِ الْمَلَائِكَةُ يَا مَرْيَمُ إِنَّ اللَّهَ اصْطَفَاكِ وَطَهَّرَكِ وَاصْطَفَاكِ عَلَىٰ نِسَاءِ الْعَالَمِينَ‘‘ जब फ़रिश्ते बोले ऐ मर्यम अल्लाह ने तुझको पसंद किया और सुथरा बनाया और पसंद किया तुझको सब जहां की औरतों से (सुरह आल-ए-इमरान 3:42)। आपकी ज़बान बंद नहीं हो गई जब आप इस मुक़द्दसा की निस्बत वो कह रहे थे, जो कहा, वो कुछ बक़ौल ऐसा ईसाइयां नहीं था बल्कि बक़ौल क़ुरआनियाँ व इस्लामियाँ वो हमारा घर ना था जिसको आप ढा रहे थे। वो आपका ऐवान (मकामे) क़ुरआन-ए-मजीद था। शायद आपने अपना घर ना देखा था। क्या आपका हश्र भी मर्यम मुक़द्दसा पर इल्ज़ाम लगाने वालों के साथ होगा? कहाँ आईशा ؓ, और कहाँ वो जिसकी शान में परवरदिगार आलम के اصْطَفَاكِ عَلَىٰ نِسَاءِ الْعَالَمِينَ क्यों साहब क्या यही आपके इल्ज़ामी जवाब हैं जिन पर आपको नाज़ है। आप ईसाईयों को इल्ज़ाम क्या देते हैं। पराया शुगून बिगाड़ने को अपनी नाक काटते हैं, बल्कि अपनी आक़िबत बिगाड़ते और मुसलमानों का ईमान बर्बाद करते हैं। कुछ कलाम नहीं आपकी शिकायत बजा है कि “मैंने इल्ज़ामी जवाबात भी इस किताब में ज़रूर दीए हैं जिन पर मेरे नौजवान मुहसिन मौलवी अब्दुल करीम किसी क़द्र ख़ुश नहीं।” बहर-हाल इस इल्ज़ामी जवाब से तो शैतान रिजीम ही ख़ुश हुए होंगे। मौलवी अब्दुल करीम तो ख़ुश नहीं हो सकते थे। हम आईशा ؓ का ये क़िस्सा हरगिज़ ज़िक्र ना करते मगर हमको हकीम साहब ने मज्बूर किया, ज़रूर हुआ कि हम उनको आगाह कर दें ताकि आइन्दा को वो ज़्यादा एहतियात सीखें। ऐ काश कि ये मौलवी बीवी आईशा ؓ की हिमायत में अपना क़लम रोक रखें और उन की फ़रयाद सुनें।

और कोई तलब अब्नाए ज़माना से नहीं मुझ पर एहसान जो ना करते तो ये एहसान करते

4 हफ़्साؓ के हालात

“हफ़्साؓ का शौहर ग़ज़वा बद्र में मारा गया था और आप अपने बाप की तरह ऐसी आतिश मिज़ाज थीं कि उनके ख़्वास्तगारों को उन से अक़्द (निकाह) करने की जुर्रात ना होती थी। उन के वालिद उन के इतनी मुद्दत बेवा रहने से आजिज़ आ गए थे और पहले हज़रत अबू बक्रؓ बाद अज़ां में हज़रत उस्मानؓ को पयाम अक़्द (निकाह का पैगाम) भेजा। मगर दोनों साहिबों ने ना क़ुबूल किया। उस वक़्त हज़रत उमरؓ को ऐसा तैश आया कि तमाम मुसलमानों को बाहमी जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) का अंदेशा हुआ, जब ये नौबत पहुंची उस वक़्त आँहज़रत ने पिदर हफ़्सा के ग़ेय्ज़ (गुस्सा) को फ़िरू करने के लिए उन से अक़्द (निकाह) किया।” (सफ़ा 208) मुहम्मदﷺ मदनी के वकील को इस तरह सरासीमा होना ज़रूर है। इस तक़रीर पर बच्चे और औरतें भी बग़ैर हँसे नहीं रह सकतीं। हमको ताज्जुब आता है आया इब्तिदाई मुसलमान जो हज़रत की मुहब्बत से मुस्तफ़ीज़ हो चुके ख़ुलफ़ाए राशिदीन ऐसे ही अख़्लाक़ वाले थे कि अपनी बेटीयों को लोगों के गले पड़ते फिरते और अगर कोई इन्कार करे तो मारने मरने पर मुस्तइद होते हत्ता कि “बाहमी जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) का अंदेशा होता।” और ग़ेय्ज़ (गुस्सा) फ़िरौ (दूर) करने के लिए।” हज़रत को तौअन व करहन (जबरन फ़रहन) किसी बाप का दामाद बनना पड़ता। किया इस्लामी निकाह इसी उसूल से होना चाहीए?

सय्यद साहब ने एक ऐब छिपाने के लिए ऐसे एब और लगाए और कई आदमीयों के पर्दे फ़ाश किए। इधर तो हज़रत उमर की ख़बर ली उन को कोई बेहमियत (बेशरम) मजनूं बनाया। उधर हज़रत ﷺ हफ़्साؓ को खतरायन दीश्रियो साबित करना चाहा कि जिनसे अक़्द (निकाह) करने की जुर्आत किसी अरब दिलावर को भी ना हो सकती थी और हज़रत मुहम्मदﷺ को पड़ोसियो बनाया। ये तो कुछ शीया का असर सा मालूम होता है। अब सहीह हालात सुनीए। उस्मान हज़रत मुहम्मद ﷺ के दामाद थे। अभी उनकी औरत का इंतिक़ाल हो चुका था। मुहम्मद ﷺ की एक और बेटी थी, उम्मे कुलसूम। उस्मानؓ इस के उम्मीदवार थे। भला वो हफ़्सा के साथ ये कैसे निकाह कर लेते जब ख़ुद रसूल की बेटी से निकाह करने वाले थे और ये मुम्किन ना था कि दोनों को निकाह में लाएं क्योंकि हज़रत ने ये कभी एक दम को भी गवारा नहीं किया कि इन की अपनी बेटी पर सौत (सौतन) आए। चुनान्चे अपने प्यारे दामाद को निहायत सख़्त अल्फ़ाज़ में फ़ातिमा पर सौत (सौतन) बिठाने से रोका था और कहा था कि अगर वो दूसरा निकाह करे तो फ़ातिमा को तलाक़ दे। (हदीस बुख़ारी और मुस्लिम मशारिक़-उल-नूर हदीस नब्वी 1404) पस इस वजह से उस्मान ने बाद ताम्मुल हफ़्साؓ से निकाह करने से इन्कार किया और उम्मे कुलसूम दुख़्तर रसूल से निकाह कर लिया। (मिन्हाज, सफ़ा 861) वो कुछ हफ़्सा की आतिश मिज़ाजी से ख़ाइफ़ ना थे। वो ख़ुद क्या कम आतिश मिज़ाज थे जिन्होंने इमरान को जलवा दिया था और ना हफ़्सा ही ऐसी आतिश मिज़ाज थी क्योंकि आख़िर एक और शौहर से भी तो निकाह कर चुकी थी। अब हम बताएं कि अबू बक्र ने क्यों हफ़्सा से निकाह मंज़ूर ना किया। आतिश मिज़ाजी इसका बाइस ना था। वो हफ़्सा से बदल निकाह कर लेते मगर मुहम्मदﷺ हफ़्सा को पहले से ताड़ (नज़र में रख) चुके थे, क्योंकि ये औरत चौदह बरस क़ब्ल दावा-ए-नुबूव्वत पैदा हुई थी। (रोजतुल-अहबाब, सफ़ा 583) आज 17 बरस की जवान थी और अबू बक्र को मालूम था कि मुहम्मदﷺ इस से शादी करना चाहते हैं। पस बपास अदब इस ने अपने नबी और दामाद का रक़ीब ना बनना चाहा। चुनान्चे जब मुहम्मदﷺ ने ऐन इन अय्याम में हफ़्साؓ से निकाह की तज्वीज़ कर ली तो अबू बक्र ने उमरؓ से से माअज़िरत की। चुनान्चे उमरؓ कहते हैं :-

“मुलाक़ात की अबू बक्रؓ ने मुझसे की और कहा शायद तू ख़िशमगी (ग़ुस्से में भरा हुआ) हुआ मुझ पर जिस वक़्त अर्ज़ किया तू ने हफ़्सा को मुझ पर और जवाब ना दिया मैंने, कहा मैंने हाँ ख़िशमगी (ग़ुस्से में भरा हुआ) हुआ मैं, कहा सिद्दीक़ؓ ने मना ना क्या मेरे तईं जवाब से तेरे उस चीज़ में जो कुछ ज़ाहिर किया तूने मुझ पर, मगर इस बात ने कि जानता था मैं कि रसूल-ए-ख़ूदा ने याद किया है उस के तेईं (मालूम होता है कि तख़लिया (तन्हाई) में यारों के दरम्यान जवान औरतों के तज़किरे छेड़े रहा करते थे) यानी हफ़्सा को और फ़ाश ना किया मैंने रसूल-ए-ख़ूदा के सत्तर को और अगर क़ुबूल ना किया हो रसूल खुदा ने तो इस को, तो क़ुबूल करता हूँ मैं।” (मिन्हाज, सफ़ा 861)

6,5 उम्मे सलमा ؓ - उम्मे हबीबा ؓ के हालात

हिंद मुलक़्क़ब बह उम्मे सलमा, उम्मे हबीबा और ज़ैनब मुलक़्क़ब बह उम्मुल-मसाकीन इन तीन अज़्वाज से जो बेवाऐं थीं। आपने इस वजह से निकाह किया था कि मुशरिकीन की अदावत से उनका कोई वाली वारिस ना बाक़ी रहा था और उन के एअज़ा उनका तकफ़्फ़ुल ना कर सकते थे।” (सफ़ा 318) ये वाक़ई मुहम्मदﷺ की ईजाद है (अगर ये सच्च हो) कि हज़रत औरतों से सिर्फ इस ग़रज़ से निकाह करते थे कि इन की परवरिश करें क्योंकि दुनिया में कोई और बेहतर तरीक़ा परवरिश करने से कि ग़ैरत दूर हो जाए?

7 – उम्मुल-मसाकीनؓ

इस औरत का हाल सिर्फ इस क़द्र है कि ये हज़रत ﷺ के साथ 3 या 4 माह रह कर मर गई। इस की निस्बत से मशहूर है कि इसने अपना नफ़्स (अपने आपको) हज़रत ﷺ को यूँ ही फ़ी सबीलील्लाह (अल्लाह की राह में) बख़्श दिया था और बेमेहर (बगैर महर के) हज़रत ﷺ ने इस से निकाह कर लिया था। (तफ़्सीर हुसैनी आयत हिबा नफ़्स, अह्ज़ाब रुकूअ 6) पस इस के साथ हज़रत ﷺ को कोई मौक़ा सुलूक करने का ना मिला, बजुज़ इस के कि इस को अपनी जोरू (बीवी) बनाने का शरफ़ हासिल करा के जन्नत में पहुंचा दिया।

हक़ मग़फ़िरत करे अजब आज़ाद मर्द था

8 – ज़ैनब ؓ बिंत जहश

अबू मुहम्मद अब्दुल हक़ देहलवी साहब तफ़्सीर हक़्क़ानी ने फ़रमाया है कि “शहवत एक देव है, ख़ुदा की पनाह जब ये ख़बीस किसी के सर चढ़ता है तो फिर हया व शर्म, नंग व नामुस कैसा। इस की पाक ज़िंदगी पर बड़े बड़े धब्बे लगा देता है, जिन पर दुनिया में रुस्वाई और आख़िरत में अज़ाब अलीम (सख़्त अज़ाब) का मुस्तहिक़ बनता है। फिर थोड़ी सी निशात के बाद दुनिया ही में जो कड़वे और कुसैले (बद-मज़ा, तुर्श) फल खाने में आए हैं। उनका मज़ा भी ताज़ीस्त नहीं भूलता।” (तक़रीर- जल्सा सोम, नद्वतुल-उलमा,सफ़ा 80)

इस फ़स्ल में हम जो हालात आँहज़रत ﷺ के लिखेंगे। वो इस मक़ूला (कहावत) की एक ज़िंदा व इबरत बख़्श नज़ीर हैं। सय्यद साहब फ़रमाते हैं कि “आँहज़रत ﷺ ने अपने जांबाज़ जानिसार दोस्त और अतीक़ ज़ैद का अक़्द (निकाह) एक निहायत आली ख़ानदान औरत ज़ैनब के साथ कर दिया था।” हम बताते हैं कि ज़ैद कौन था।

दफ़्अ अव्वल

ज़ैद बिन मुहम्मद ﷺ

“ज़ैद बिन हारिसा बिन शिरामेल बिन कअब तिब्बी अबू उसामा और नसब इनका उमरू बिन सबाह बिन शख़ेत बिन मुअर्रब बिन कहतान तक मुन्हत्ता होता है और माँ उनकी सादी बिन सअलबा बनी मग्न बिन ती में से थीं।” (मिन्हाज, जिल्द 2, सफ़ा 909) जिस से मालूम होता है कि ये अशराफ़ क़बाइल अरब से थे।

“एक रोज़ उन की माँ अपनी क़ौम को देखने के लिए बाहर निकलती थीं....एक गिरोह ने एक क़ौम को लूट लिया था.....इस गिरोह का गुज़र बनी मग्न के घरों पर हुआ जो ज़ैद की माँ की क़ौम थी और ज़ैद को उठा ले गई” (ईज़न)।

इस तरह ये शरीफ़ कोम वाला बदक़िस्मती से गु़लामी में मुब्तला हो गया। ये शख़्स पढ़ा लिखा था क्योंकि “आँहज़रत ﷺ के वास्ते कुछ लिखा करता था।” (सफ़ा 910) होते होते ये ख़दीजा ؓ के हाथ आया इस ने ग़ुलाम मुहम्मदﷺ को दिया” जब उन की ख़बर इनकी क़ौम को पहुंची तो बाप उन के हादिसा और चचा उन के कअब हाज़िर हुए और उनका फ़िद्या लेते आए ताकि उनकी ख़लासी कराईं।” ज़ैद ने ख़दीजा ؓ के मकान से जाना पसंद ना किया और गए। मुहम्मद ﷺ साहब उन को प्यार करते थे। उन्हों ने बरस्म अरब काअबा में जाकर हजरे असवद के पास बाज़ाब्ता ज़ैद को अपना बेटा बना लिया और हुक़ूक़ फ़र्जन्दी इनके क़ायम किए। ऐसा मयूर साहब ने जिल्द 2, सफ़ा 49 में साबित किया है। अरब लोग मिस्ल हिंदूओं के तब्नेयत (गोद लेना) करते थे और फ़र्ज़ंद मुतबन्ना (गोद लिया हुआ बेटे) के कुल हुक़ूक़ मिस्ल हक़ीक़ी बेटे के हो जाते थे (देखो फ़स्लुल-ख़िताब अव्वल, सफ़ा 170 और मिन्हाज, सफ़ा 865) चुनान्चे मुहम्मदﷺ ने भी इस रस्म तबनेत (गोद लेना) के लिहाज़ से ऐसा ही किया।

“आँहज़रत ﷺ ज़ैद को बाहर लोगों में लाए और फ़रमाया कि ऐ लोगो गवाह हो मैंने ज़ैद को अपना बेटा बनाया और वो मेरा बेटा है और मेरा वारिस वो हुआ और मैं इस का वारिस हुआ। और ज़ैद इस्लाम के दौर आने तक और क़ौल सुब्हाना तआला के नुज़ूल तक बिन मुहम्मदﷺ पुकारे जाते थे” (मिन्हाज, सफ़ा 910)।

जो लोग हिंदूओं की रस्म तबनेत (गोद लेने) से वाक़िफ़ हैं, वो हज़रत की इस कार्रवाई तबनेत (गोद लेना) ज़ैद के माअनी ख़ूब समझ लेंगे। पस ज़ैद क़रीब 32 बरस तक इब्ने मुहम्मदﷺ कहलाए क्योंकि निकाह ख़दीजा ؓ के बाद ही तबनेत ज़ैद (ज़ैद के गोद लेने की रस्म) अमल में आई जब मुहम्मदﷺ की उम्र 25 बरस की थी। और ज़ैनब ज़ौजा (बीवी) ज़ैद (ज़ैद कि बीवी) का निकाह हज़रत ﷺ से 5 हिज्री में हुआ। ये उन के वारिस थे और वो उन के वारिस और तमाम लोग गवाह हैं। हजरे अस्वद पर कसमा कसमी हुई मगर मौलवियों का दरोग़ बे फ़रोग़ भी जिसका जवाब हम साथ साथ देते हैं काबिल दाद है। फ़िरोज़ डिस्कवी दफ़्अ तअन निकाह ज़ैनब में फ़रमाते हैं (सफ़ा 50-51) “ज़ैद हज़रत का ले-पालक (गोद लिया बेटा) नहीं था यानी हज़रत ख़दीजा ؓ ने उन्हें गोद में लेकर नहीं पाला था (गोया गोद में लेकर पालना भी शर्त तबनेत थी।) जो इन की और जोरू (बीवी) के मर जाने पर क्या तबनेत नहीं होती? वो ख़दीजा ؓ के मुतबन्ना (गोद लिया बेटा) ना थे बल्कि मुहम्मदﷺ के मुतबन्ना (गोद लिया बेटा) थे। आँहज़रत मुहम्मद ﷺ का आज़ाद किया हुआ ग़ुलाम था। जिसे सिर्फ शफ़क़त और अख़्लाक़ की राह से इब्न (बेटा) कह कर पुकारते थे (ये बात ही और है अगर ये था तो फिर माबाअ्द इब्ने (बेटा) कह कर पुकारने की मुमानअत क्यों हो गई?) ना कि लेपालक ठहरा कर। मुतबन्ना (गोद लिया बेटा) मिस्ल इब्ने के वारिस समझा जाता है। (आलान जन्नत बिलहक़) यही तो बात है। अब्दुल हक़ कह रहे कि मुहम्मद ﷺ ख़ल्क़-उल्लाह को गवाह करके कहा “ज़ैद मेरा बेटा है। मेरा वारिस वो हुआ और मैं इसका वारिस” कहो अब भी तबनेत (गोद लिए हुए बेटे) में शक है? और रसूल ﷺ फ़रमाते हैं हम गिरोह अम्बिया हैं ना हम किसी के वारिस ना हमारा कोई वारिस अव्वल तो तबनेत क़ब्ल दावा-ए-नुबूव्वत के अमल में आई जबकि हज़रत की हवस ने गिरोह अम्बिया में आने का ख्व़ाब भी ना देखा था। इस वक़्त ये क़ौल वजूद में ना था। दोम ये क़ौल मौज़ू है, शीयों से मुँह बनवा आए तब उस को ज़बान पर लाए। सोम अगर ना माने तो याद रखीए जब इब्ने मुहम्मद ﷺ कहलाया हज़रत ये कलिमा ज़बान पर नहीं लाए। जब ज़ैद को बाद निकाह ज़ैनब तबनेत (बेटे होने) से ख़ारिज कर दिया और ज़ैद इब्ने मुहम्मदﷺ (मुहम्मद ﷺ के बेटे) ना रहे तब जो चाहें हज़रत फ़र्मा दें)।

लोगों ने ज़ैद को आंहज़रत ﷺ का मुतबन्ना (गोद लिया बेटा) समझा, (ना कि हक़ीक़त में आँहज़रत का मुतबन्ना था। (इन लोगों ने समझा जिनसे कहा था “ऐ लोगो गवाह रहो मैंने ज़ैद को अपना बेटा बनाया।” ज़ैद ख़ुद भी समझा, मुहम्मदﷺ साहब भी यही समझे, हजरे अस्वद भी यही समझा। और अगर हजरे अस्वद का क़ियामत में गवाही देना सच्च हो तो ज़ैद की तबनेत (गोद लिए बेटे) पर वो भी गवाही देगा। मगर अफ़्सोस मौलवी फिर भी नहीं समझते, उन की अक़्ल पर पत्थर पड़े हैं, झूट से नहीं डरते, इस्लाम के अंदर मुतबन्ना (गोद लेने का दस्तूर के) करने का कोई दस्तूर नहीं (जैसे ज़ैद की जोरू (बीवी) छीनी, वर्ना ज़रूर था। ज़ैद की तबनेत (गोद लिया होना बेटा) साबित है)। दुनियावी दस्तूर के मुताबिक़ भी ज़ैद अगर आँहज़रत का मुतबन्ना होता तो वारिस क़रार दिया जाता (हज़रत ने वारिस ख़ुद क़रार दिया था), हालाँकि दुनिया में कोई शख़्स ज़ैद को आँहज़रत मुहम्मद ﷺ का वारिस क़रार नहीं देता। सिर्फ इस ख़ौफ़ से कि कहीं ज़ैनब हज़रत की बहू ना कही जाये, वर्ना हज़रत ﷺ ने इस को अपना वारिस क़रार दिया था। (मगर जब जोरू (बीवी) उस की ले ली तो तबनेत (गोद लिए बेटे के रिश्ते) से शर्माए और विरासत से महरूम किया) ये कुछ फ़िरोज़ डिस्कवी साहब फ़रमाते हैं। मगर उन के उस्ताद मुकर्रम हज़रत मौलाना व सय्यदना मौलवी उल्फ़त हुसैन फ़रमाते हैं कि “ना ज़ैद को आँहज़रत ﷺ ने कभी किसी क़ाइदा या रस्म व रीयत से मुतबन्ना किया था।” (सफ़ा 55) रस्म व रियत भी हम देखा चुके, क़ायदा भी बता चुके। आप ग़लत फ़रमाते हैं कि “हुक्म आम था कि ग़ुलामों को अब्द ना कहो पिसर (बेटा) यानी इब्ने कहो।” इस को तबनेत नहीं कहते हैं, ना इसके लिए काअबा को जाते हैं, ना हजरे अस्वद पर हाथ रखते हैं, ना वारिस ठहराते हैं, ना लोगों को गवाह करते हैं, ना वो ग़ुलाम मालिक का इब्ने मशहूर होता है। अगर यही बात होती तो फिर ज़ैद इब्ने मुहम्मद ﷺ ना कहने पर माबाअ्द क़ुरआन-ए-मजीद में ज़ोर क्यों दिया। आपकी अक़्ल कहाँ है? तबनेत (गोद लिया बेटा) और बात है और शफ़कतन (प्यार से) बेटा कहना और बात और हम ज़ैद की तबनेत साबित कर रहे हैं। पस आपका ये फ़रमाना कि अल्लाह तआला सुरह अह्ज़ाब में फरमाता है “मुहम्मदﷺ तुम्हारे मर्द व ज़न में से किसी का बाप नहीं।” (सफ़ा 19) आपकी जहालत पर दाल (दलालत) है। ये आयत उस वक़्त सुनाई गई जब ज़ैद की जोरू (बीवी) हज़रत छीन चुके थे। तबनेत (गोद लेकर बेटा बनाने कि रस्म) 33 बरस क़ब्ल अमल में आई और ऐसा ही आपका ये क़ौल भी कि “क़ुरआन-ए-मजीद में अल्लाह तआला साफ़ फ़रमाता وحلایل انبیاء کم الذین من اصلا بکم तुम्हारे बेटों की बीवीयां तुम पर हराम हैं जो तुम्हारे सुल्बी यानी नुत्फे से हों। (सफ़ा 51) फ़िक़रा الذین من اصلا بکم जो तुम्हारे नुत्फे से हों, निकाह ज़ैनब के बाद मुल्हिक़ किया गया है। चुनान्चे हुसैनी में है ’’ چون حضرت رسالت پناہ زینب زابعد ازان کہ زید بن حارث کہ پسر خواندہ ءآنحضرتﷺ بود طلاق دادو حضرت بعقد نکاح درآور دومشر کان عرب آغاز سر زنش کردند کہ زن پسر خودر اخواستہ ابن آیت فرود آمد‘‘ पस जिस वक़्त तक ये फ़िक़रा नहीं आया ज़रूर ज़न पिसर ख़वांदा हराम थी और मुतबन्ना (गोद लिए बेटे) पर लफ़्ज़ इब्ने (बेटे) का हक़ीक़ी मअनी में आना हज़रत ﷺने इस आयत से क़ब्ल तबनेत (गोद लेने कि रस्म अदा) की और इस से क़ब्ल ही ज़ैनब को ले लिया। पस रस्म अरब और अपनी शरीअत के मुवाफ़िक़ भी वो मुल्ज़िम ठहरे। पस “ज़ैद को आँहज़रत ﷺ का बेटा (ना) कहना और निकाह को बहू से निकाह कर लेने पर महमूल (ना) करना सरासर ज़िद व तास्सुब की वजह से है।” (तअन ज़ैनब, सफ़ा 17) लारीब (कोई शक नहीं) मुहम्मद साहब ने अपनी बहू को बे निकाह बिठा लिया गो शर्म छुपाने को बाद में ज़ैद के बाप बनने से मुन्किर हुए।

दफ़्अ दोम

ज़ैद व ज़ैनब की नाचाक़ी (खराबी)

फिर आप फ़रमाते हैं कि :-

“ये बीबी नजीब अलतरफ़ैन (ख़ानदानी – असील) थीं और अपनी आली ख़ानदानी व हुस्न व जमाल का ख़्याल करके उन को इस बात का बड़ा रंज था कि मेरी शादी एक आज़ाद कर्दा ग़ुलाम के साथ कर दी। अल-ग़र्ज़ दोनों में बाहम मलाल इतना बढ़ा कि एक को दूसरे से नफ़रत हो गई।”

ये ग़लत है क्योंकि जो कुछ ताम्मुल ज़ैनब को था तज्वीज़ निकाह के वक़्त था। जब कुल पहलू इस के दिखाए गए और इस को ये भी मालूम हुआ कि “ज़ैद इब्ने मुहम्मद” (ज़ैद मुहम्मद के बेटे) है, मुहम्मदﷺ का वारिस है, मैं अब मुहम्मदﷺ की बहू बनूँगी तो इस सब इज़्ज़त व तौक़ीर का लिहाज़ कर के यक़ीनन इस जाबुलाना नफ़रत का ख़्याल उस के दिल से महव हो गया और किस हुस्न-ए-अक़ीदत व ख़ुशी के साथ माबाअ्द ज़ैनब ने ज़ैद को क़ुबूल किया। चौधरी मौला बख़्श अपने मुरासलात मज़हबी (हिस्सा दोम, सफ़ा 140) में लिखते हैं :-

“जब हुक्म-ए-ख़ुदा तआला का ज़ैनब ने सुना तो हज़रत से आकर कहा कि मुझे इन्कार उसी वक़्त था जब तक कि आप मश्वरतन ये बात फ़रमाते थे और जब ख़ुदाए तआला की ऐसी ही मर्ज़ी है तो मुझे इन्कार नहीं ग़रज़ ज़ैद का निकाह ज़ैनब से हो गया।”

फ़िरोज़ डिस्कवी भी यही फ़रमाते थे (सफ़ा 5) पस कितनी बे इंसाफ़ी है कि ज़ैनब को बावजूद इस फ़रमांबर्दारी रसूल के ये मुसलमान बाग़ी बताएं। हज़रत ﷺने इस से कहा ज़ैद को शौहर बनाओ वो राज़ी है। हज़रत ﷺ इस से कहते हैं हमारी जोरू (बीवी) बनो वो राज़ी है। ऐसे ही ज़ैनब का भाई भी राज़ी था। चुनान्चे शाह अब्दुल हक़ लिखते हैं “ज़ैनब ने और इस के भाई दोनों ने कहा राज़ी हुए हम।” (मिन्हाज 2, सफ़ा 864) “एक साल या ज़्यादा ज़ैनब ज़ैद के साथ थी।” (एज़न) और ना कोई मलाल दर्मियान वाक़ेअ हुआ, ना कोई नफ़रत की बात, ना कशीदगी (मलाल) ता वक्ते कि आँहज़रत ﷺ की आँख ज़ैनब से लड़ी और अब दर्मियान की कशीदगी (दुरी) लाज़िमी थी। हकीम साहब फ़रमाते हैं :-

“बाद निकाह ज़ैद व ज़ैनब के कुछ मुद्दत तवज्जों तूं कर के बसर हुए आख़िर ज़ैद ने इस के फ़ाली तंज़ व तारीज़ से तंग आकर उसे छोड़ देने का इरादा ज़ाहिर किया।” (फ़स्ल-उल-खिताब, सफ़ा 196)

नाहक़ ज़ैनब को मतऊन (बदनाम) करते हो, झूट लगाते हो, ज़ैनब ने ज़ैद को हरगिज़ दिक़ (ज़ह्नी दुःख) ना किया। तुम ज़ैद से तो पहले पूछ लो सय्यद अमीर अली साहब लिखते हैं कि :-

“ज़ैद ने आँहज़रत ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ किया कि मैं ज़ैनब को तलाक़ देना चाहता हूँ। आप ने फ़रमाया क्यों इस से किया क़सूर हुआ ज़ैद ने अर्ज़ की या रसूल अल्लाह इस से कोई क़सूर तो नहीं हुआ, मगर अब मेरा निबाह इस से ना होगा।” (सफ़ा 209)

ज़ैद ख़ुद कह रहा है “ज़ैनब से कोई क़सूर नहीं हुआ” और दरअसल इस से कोई क़सूर नहीं हुआ था जो क़सूर था वो हज़रतﷺ का था। इस से इश्क़ लगाया था, इस को चाहते थे। ज़ैद ज़ैनब को हज़रत की मक़्बूल-ए-नज़र समझ कर उस को अपनी माँ के बराबर जानने लगा और चाहा कि उसे उन की नज़र कर दे ’’زید گمان کرو کہ حضرت این سخن را براے این گفت کہ حسن زینب حضرت راخوش آمدہ ‘‘ आप नाहक़ ज़ैनब पर इल्ज़ाम लगाते हैं। आप मर्द मुसलमान हैं, ज़ैनब आपकी माँ हैं। माँ का ख़्याल चाहिए “इस से कोई क़सूर नहीं हुआ।” ज़ैद सिर्फ यही कहता है कि “अब मेरा निबाह इस से ना होगा” और ये सच्च है अब निबाह होता कैसे? ज़ौजा (बीवी) आपकी तो आपके बाप (अभी तक ये लक़ब ज़ैद के बाप मुहम्मद ﷺ बहाल है) के दिल में बसी हुई थी। सय्यद साहब फ़रमाते हैं :-

“शायद ज़ैद की नफ़रत का बाइस ज़्यादातर यह हुआ था कि ज़ैनब ने चंद कलिमात को जो आँहज़रत की ज़बान मुबारक पर उस वक़्त जारी हुए थे जब आपकी नज़रे इन पर इत्ताफाक़न पड़ गई थी। ऐसे तर्ज़ से मुकर्रर (बार-ए-दीगर) व मुतवातिर कहा कि इस तर्ज़ को कुछ औरतें ही ख़ूब जानती हैं। तफ़्सील इस की ये है कि एक मर्तबा आँहज़रत किसी ज़रूरत से ज़ैद के मकान पर तशरीफ़ ले गए थे और ज़ैनब के चेहरे को बे-नक़ाब देखकर वो कलिमात फ़रमाए थे जो फ़ी ज़माना हर एक मुसलमान किसी ख़ूबसूरत तस्वीर या सोहबत को देख कर बे- इख़्तियार कहने लगता है फ़तबारक अल्लाह अहसनुल-ख़ालीक़ीन (فتبارک اللہ احسن الخالقین) न तो ये कलिमात सिर्फ़ तारीफ़ की राह से थे। मगर ज़ैनब को ग़रूर ऐसा दामन-गीर हुआ कि इस आयत को उन्हों ने मुतवातिर अपने शौहर के सामने पढ़ा ताकि मालूम हो कि हम ऐसे हसीन हैं कि ख़ुद पैग़बर ख़ुदा ने हमारी तारीफ़ की है। इस से ज़ैद को ख़्वाह-मख़्वाह और ज़्यादा मलाल हुआ। आख़िरुल-अम्र ज़ैद ने अपने दिल में ठान लिया कि अब इस औरत के साथ हरगिज़ ना रहूँगा।” (सफ़ा 209)

अगर ये सच्च है तो ज़ैद ग़ज़ब का नादान व अहमक बल्कि इब्ने हबंकता (हबन्नक़ : अहमक़, बावला) था। कोई शौहर नहीं जो अपनी ज़ौजा (बीवी) के हसीन होने की वजह से या इस वजह से कि इस की ज़ौजा (बीवी) अपने हुस्न से आगाह है या इस वजह से कि कोई बड़ा बूढ़ा या बाप अपनी बहू के हसीन होने का मुद्दई (दावेदार) है और ज़ौजा (बीवी) उस की उस से कहतीं कि मेरे अब्बा या सुसर मुझको बड़ा हसीन जानते हैं, अपने दिल में मलाल करे और ज़ौजा (बीवी) को छोड़ देने का क़सद एक लम्हा के लिए करे, बल्कि हक़ ये है कि जो शख़्स इस क़िस्म के वाक़िये का मुद्दई हो हम उस को बहुत ही अहमक़ (बेवकूफ़) कहेंगे।

इस में एक भेद था। मुहम्मदﷺ ने वह सुख़न (कलिमात) इस तर्ज़ से कहा था कि ज़ैनब को पूरा यक़ीन हो गया था कि हज़रत मुझ पर फ़रेफ़्ता (आशिक़) हो गए हैं और ज़ैद को भी पूरी तरह मालूम हो गया था कि असल वाक़िया ये है। इसलिए इस ने अपनी जोरू (बीवी) को तलाक़ दे दी कि मुहम्मदﷺ का दिल ठंडा हो। और ज़ैनब को अज़्वाज रसूल अल्लाह (रसूल कि बीवीयों) में दाख़िल होने का शर्फ़ हासिल हो। हत्ता कि वो उम्मुल मोमनीन हो कर ज़ैद की भी माँ बन जाएं। ना हज़रत की “नज़र ज़ैनब पर इत्त्फाक़न पड़ गई थी।” और ना हज़रत ने कोई ऐसे बेलाग कलिमात ज़बान से निकाले थे, जो फ़ी ज़माना” हर एक मुसलमान बे-इख़्तियार कहने लगता है। हज़ूसा जब हर एक मुसलमान देख चुका कि इन कलिमात ने एक घर बिगाड़ दिया, ज़ौजा (बीवी) शौहर में निफ़ाक़ (रिश्ते में दरार) पैदा किया और मुहम्मद साहब की नबुव्वत पर दाग़ लगाया जो धुल नहीं सकता।

दफ़्अ सोम

हज़रतﷺ व इश्क़ ज़ैनब

’’ ابن بابو یہ و دیگر ان بسندہائےمعتبر از حضرت امام رضا روایت کردہ اندکہ حضرت رسول روزے برائے کارے بخانہ زید بن حارثہ رفت وچون داخل خانہ زید شد زینب زن اور ادیدکہ غسل میکندپس حضرت فرمود کہ سبحان اللہ الذی خلقک ۔۔۔ چون زید بخانہ برگشت زنش خبردار کہ رسول خدا آمد وچنین سخنے گفت و سفت زید گمان کر د کہ حضرت این سخن را برائے این گفتہ است کہ حسن اور حضرت راخوش آمدہ‘‘ (हयात-उल-क़ुलूब ,सफ़ा 573)

पस हज़रत ने ज़ैनब को ग़ुस्ल करते हुए तन्हाई में बरहना देखा था और वो कुछ बे-इख़्तियार ज़बान से निकल गया। बक़ोल हाली :-

؎ तुमको हज़ार शर्म सहीह मुझको लाख ज़ब्त उल्फ़त वो राज़ है कि छुपाया ना जाएगा

और हमारे हीरो ज़ैद इस का मतलब आप से कहीं ज़्यादा समझे। वो जान गए कि जोरू (बीवी) उन की रसूल बक़ौल की मक़्बूल-ए-नज़र हो गई और इसलिए ये कलिमात हज़रत की ज़बान पर जारी हुए। आप ज़ैद से बेहतर इस मुआमला में सुझ नहीं रखते। वो अहले-ज़बान हैं और हज़रत के सहाबी इशारों किनाइयों के माहिर। पस हकीम नूर-उद्दीन साहब का ये फ़रमाना कि “मोअतरज़ीन ने इश्क़ का कोई सबूत नहीं दिया।” (सफ़ा 167) मह्ज़ हीला (बहाना) है। हम हज़रत को मजनूं या फ़र्हाद नहीं बताते, इश्क़ सत्तर से नहीं होता। हम सिर्फ ये कहते हैं कि ज़ैनब हज़रत के दिल में बस गई, आँख लड़ गई और ज़ैनब भी समझ गई और ज़ैद भी। मगर फ़िरोज़ डिस्कवी की तस्कीन नहीं होती वो फ़रमाते हैं कि :-

“आँहज़रत ﷺ किसी दिन ज़ैद के घर गए और बीवी ज़ैनब को देखकर उन के हुस्न व जमाल पर फ़रेफ़्ता (आशिक़) हो गए और बे-इख़्तियार हो कर पढ़ा (فتبارک اللّٰہ احسن الخالقین) फ़तबारक-अल्लाह अहसन-उल-ख़ालीक़ीन। वो ये ख़्याल नहीं करते कि बीबी ज़ैनब कोई अजनबी औरत ना थीं जिनका हुस्न व जमाल हज़रत ने पेशतर कही ना देखा हो।” (सफ़ा 30)

मुहम्मद हुसैन भी यही फ़रमाते हैं। (सफ़ा 183) ज़ैनब का “निहायत ख़ूबसूरत व ख़ुश-जमाल” होना तो डिस्कवी साहब को भी तस्लीम है। (सफ़ा 4,3) वो हज़रत इमाम रज़ा का क़ौल भूल जाते हैं कि आज हज़रत’’چون داخل خانہ زید شدزینب زن اور اس کہ غسل میکند ‘‘ तन्हाई की हालत में हज़रत ने उस माहपारा को कभी ना देखा था और इस के हुस्न व जमाल ने इस से क़ब्ल उन को कभी ऐसा घायल ना किया था। ऐसी हालत में मुहम्मदﷺ का ज़ैनब को बे-सतर (बरहना) देखना क्या कुछ असर कर गया, इस कलिमा ताज्जुब व तहसीन से अयाँ है जो उन के मुँह से इस वक़्त बे-इख़्तियार निकल गया। बताओ तो क्या कभी पहले भी हज़रत ने ज़ैनब को ग़ुस्ल करते हुए तन्हा देखा था? और देखकर ये कलिमात निकालते थे? आख़िर पेशतर भी तो उसी को देखा था। पस आज इस ख़ास तहसीन व आफ़रीन का क्या सबब है? इस नई बे-अख़्तियारी का कोई नया सबब है। हाँ वही जो हम बतातें हैं। ’’ رموز عاشقاں عاشق ہدانند‘‘ (हम-पेशा और हम-मशरब ही बात को ख़ूब समझते हैं) ज़ैनब हज़रत के चेहरे की रंगत, आँखों की जुंबिश, लबों की हरकत और आवाज़ की लोच से फ़ौरन पहचान गई कि (بردلش زد) बुरद लश् ज़द। इस गुफ़्त व शनीद का तज़्किरा शौहर से किया वो भी समझ गया कि ’’ حضرت این سخن را برائے آن گفتہ است کہ حسن او حضرت راخوش آمدہ‘‘ पर मौलवी नहीं समझते या समझते हैं पर नासमझी करते हैं। ये क़िस्सा जो हमने भी सुनाया बल्कि हमने नहीं इमाम रज़ा ने, सय्यद साहब भी इस की तस्दीक़ करते हैं और मौलवी डिस्कवी को भी मजाल इन्कार नहीं। इलावा उस के मुफ़स्सिरीन ने भी बड़ी तफ़्सील व तशरीह से इस को बयान किया है और मुहम्मद हुसैन दर्द से फ़रमाते हैं :-

“अफ़्सोस इन मुफ़स्सिरीन ने इन बातों को ना सोचा इस क़िस्से को तफ़ासीर में नक़्ल कर के मुख़ालिफ़ीन इस्लाम को आँहज़रत पर हुस्न परस्ती और ताश्शुक़ (इश्क़ करने) का इल्ज़ाम व इत्तिहाम क़ायम करने का मौक़ा दिया।” (सफ़ा 184)

अफ़्सोस ये लोग मौलवी साहब की ज़रूरीयात मुनाज़रा को ना सोचे। अब इन पर तब्बत यदा (तबाह हो जाए हाथ) पढ़ने से किया हो सकता है। मौलवी साहब फ़रमाते हैं :-

“जो आम्मा तफ़ासीर में लिखा है कि आँहज़रत की एक दिन इत्तिफ़ाक़ीया ज़ैनब पर निगाह पड़ी तो आपको इस की शक्ल पसंद आ गई और आपके मुँह से इस की तारीफ़ निकल गई। ज़ैद को ख़बर हुई तो उसने बिपास खातिर आँहज़रत ﷺ इस को तलाक़ देनी चाही जिस पर आँहज़रत ने इस को ज़बान से तो तलाक़ देने से रोका मगर दिल में आपके ख़्याल था कि ये फिर तलाक़ दे तो आप इस को निकाह में लाएं, ये मह्ज़ वाही (बेहूदा) क़िस्सा है।” (सफ़ा 183)

कुछ दिन बाद तो आप ज़ैनब के वजूद से भी इन्कार कर जाएंगे जैसे नूर-उद्दीन ने मारिया के वजूद से इन्कार किया। हज़रत ये क़िस्सा ईसाईयों ने नहीं गढ़ा है। अहले-बैत से इमाम रज़ा इस के रावी हैं और आपसे ज़्यादा हामी इस्लाम (इस्लाम की हिमायत करने वाले) सय्यद अमीर अली भी इस से इन्कार नहीं कर सकते। कहीं वाही (बेहूदा) कह देने से कोई वाक़िया तारीख़ वाही (बेहूदा) हो सकता है? वाज़ेह हो कि इस वाक़िये से क़ब्ल ज़ौजा (बीवी) शौहर में ख़ूब बनी थी। चुनान्चे :-

“एक साल या ज़्यादा ज़ैनब ज़ैद के साथ थी और बाद उस के हक़ तआला ने ऐलान फ़रमाया कि हमारे इल्म क़दीम में ऐसा जारी हुआ है कि ज़ैनब रसूल-ए-ख़ूदा की अज़्वाज (बीवीयों) में दाख़िल हो। पस दर्मियान ज़ैद व ज़ैनब के नासाज़गारी पैदा हुई।” (मिन्हाज, सफ़ा 864)

जब खुदा ने मुहम्मदﷺ को बता दिया कि ज़ैनब तुम्हारी जो अज़ल (पहले से मुक़र्रर) में हो चुकी है, मगर दर्मियान में ज़ैद की जोरू (बीवी) किसी अज़ली ग़लती से हो गई कि हज़रत पर दाग़ लग गया और ज़ैनब को बरहना हज़रत देखकर वो कलिमात इज़तिराब दिल से निकाल चुके और ज़ैनब को मालूम हुआ कि क्या मअनी हज़रत के हैं और ज़ैद को भी यक़ीन हो गया। तब ज़ैद ने तलाक़ की ठानी, पहले नहीं और अब ज़ैद हर तरह मज्बूर था बग़ैर जोरू (बीवी) से हाथ धोए गुज़ारा ना था, वर्ना सच्चे इस्लाम यानी मुहम्मदियत में फ़र्क़ आता था। ऐ हिन्दी मौलवियों, डिस्कवीयों, कानपुरियों और भैरवियों, बटालवियों ! अल्लामा अबदुर्रहमान अलसफ़ोरी अलशाफ़ी के नुज़हत अलमजालिस ख़बर सानी (सफ़ा 307) मनाक़िब उम्महात-उल-मोमिनीन तज़्किरा ज़ैनब पढ़ो। इस में लिखा है :-

کانت بیضاء جمیلتہ سمینتہ فابضر ہا البنی صلی اللہ علیہ وسلم بعدحین عندزید فاعجبتہ فقال سبحان اللہ مقلب القلوب وکان من خصایصہ ﷺ اذاراے امر اۃ ووعجبتہ حرمت علی زوجھا و حرم علی زو جہا امسا کہا وکانت تا یمتہ فسمعت البتسیح فاخبرت زوجھا زید ایذ الک فقال یا رسول اللہ ۔۔۔فی طلاقہا فقال امسک علیک زوجک ۔۔اللہ الخ

यानी ज़ैनब रंग की गौरी हसीन व जसीम थी। पस उस को नबी ﷺ ने देख पाया कुछ दिनों बाद ज़ैद के घर में। पस हज़रत को वो भली लगी, पस कहा सुब्हान अल्लाह मुक़ल्लिब-उल-कुलूब (سبحان اللّٰہ مقلب القلوب) और ये अम्र आँहज़रत सलअम के ख़साइस से था कि जब किसी औरत को देख पाते और वो आपको भली लग जाती तो वो हराम हो जाती अपने शौहर पर और हराम हो जाता शौहर पर इस औरत का रखना। ज़ैनब सोती थी और वो तस्बीह सुन पाई पस अपने शौहर को ख़बर दी इस बात की। पस उसने कहा या रसूल अल्लाह मुझको इजाज़त दो तो मैं औरत को तलाक़ दे दूं। हज़रत ने फ़रमाया अपनी औरत को अपने पास रख और डर अल्लाह से। अलीख नाज़रीन इन ख़साइस नब्वी पर ख़ूब ग़ौर करो जिस शख़्स की औरत हज़रत को भा जाती वो शौहर को हराम हो जाती थी। हज़रत ने कलिमात तहसीन ज़बान से निकाले, औरत समझी कि मैं हज़रत को भा गई, मोमिना थी, शौहर को ख़बर कर दी। शौहर भी मोमिन था दोनों समझे कि अब इलाक़ा ज़न व शौहरी (शोहर बीवी का रिश्ता) का क़ायम नहीं रह सकता इस वजह से तलाक़ हुई। ना ज़ौजा (बीवी) का क़सूर है, ना शौहर का। क़सूर इन ख़साइस नब्वी का है अगर हसनत जमी ख़साला कहने वाले भी लें।

दफ़्अ चहारुम

इख़्फ़ाए इश्क़ (इश्क़ को छिपाना)

“आख़िरुलअम्र ज़ैद ने अपने दिल में ठान लिया कि अब में इस औरत के साथ ना रहूंगा और उन्होंने आँहज़रत ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ किया कि मैं ज़ैनब को तलाक़ देना चाहता हूँ। आपने फ़रमाया “क्यों इस से किया क़सूर हुआ?” ज़ैद ने अर्ज़ किया “या रसूल अल्लाह इस से कोई क़सूर तो नहीं हुआ मगर अब मेरा निबाह इस से ना होगा।” आँहज़रत ने तब बताकीद फ़रमाया कि “जा और अपनी ज़ौजा (बीवी) की हिफ़ाज़त कर और इस से अच्छी तरह पेश आ”......मगर ज़ैद अपने इरादा तलाक़ से ना बाज़ आया और बावजूद ये कि आँहज़रत ने ऐसा हुक्म दिया था, लेकिन इस ने ज़ैनब को तलाक़ दे दी। आँहज़रत को ज़ैद के इस फे़अल (अमल) से ख़ासकर और ज़्यादा रंज हुआ।” (सफ़ा 9-10) “आपने ज़ैद को बहुत रोका और तल्ख़ी मुआशरत पर सब्र करने को बहुत नसीहत व हिदायत की और सख़्त इल्हाह (मिन्नत) व इसरार किया।” (फ़स्लुल-ख़िताब, सफ़ा 169) हज़रत के इश्क़ ने ज़ौजा (बीवी) व शौहर को अलग किया मह्ज़ इस वजह से ज़ैद ज़ैनब को तलाक़ देना चाहता था। और हज़रत मह्ज़ ज़बान से कहते कि तलाक़ मत दे हालाँकि वो ऐसा चाहते थे कि तलाक़ हो जाए और तलाक़ से बड़े ख़ुश थे। ये क़ुरआन-ए-मजीद की नस (इबारत) से भी साबित है :-

وَاِذْ تَقُوْلُ لِلَّذِيْٓ اَنْعَمَ اللّٰهُ عَلَيْهِ وَاَنْعَمْتَ عَلَيْهِ اَمْسِكْ عَلَيْكَ زَوْجَكَ وَاتَّقِ اللّٰهَ وَتُخْــفِيْ فِيْ نَفْسِكَ مَا اللّٰهُ مُبْدِيْهِ وَتَخْشَى النَّاسَ ۚ وَاللّٰهُ اَحَقُّ اَنْ تَخْشٰـىهُ ۭ فَلَمَّا قَضٰى زَيْدٌ مِّنْهَا وَطَرًا زَوَّجْنٰكَهَا لِكَيْ لَا يَكُوْنَ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ حَرَجٌ فِيْٓ اَزْوَاجِ اَدْعِيَاۗىِٕهِمْ اِذَا قَضَوْا مِنْهُنَّ وَطَرًا ۭ وَكَانَ اَمْرُ اللّٰهِ مَفْعُوْلًا

“जब तू कहने लगा उस शख़्स को जिस पर अल्लाह ने एहसान किया और तूने एहसान किया, रहने दे अपने पास अपनी जोरू (बीवी) को और डर अल्लाह से और तू छुपाता था अपने दिल में एक चीज़ अल्लाह उस को खोलना चाहता है और डरता था लोगों से।” (अह्ज़ाब रुकूअ 5 आयत 37)

मुफ़स्सिरीन ने इस आख़िरी फ़िक़रा व تخفی فی نفسک مااللّٰہ مبد یہ के मअनी इश्क़ ज़ैनब बताए हैं। चुनान्चे जलालेन में है ’’ مجتہاوان لو فار قہازید تز وجتہا‘‘ जिससे यह अज़्हर (रोशन) है कि जो हज़रत ज़बान से कहते थे, इस कि एन ख़िलाफ़ दिल में था। मगर हकीम साहब ईसाईयों की शोख़ी व जुर्आत सख़्त काबिल-ए-अफ़्सोस बताते हैं, जो वो कहते हैं कि “आँहज़रत ने ऊपरे दिल से ज़ैद को मना किया था।” (सफ़ा 170) जनाब बंदा आप शाह अब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी की शोख़ी व जुर्आत को देखें वो मदारिजुन्नबी (مدارج النبوۃ) में फ़रमाते हैं :-

“हज़रत ने फ़रमाया निगाह रख ऊपर अपने अपनी ज़न के तईं और ख़ुदा से डर, लेकिन ख़ातिर अनवर उस जनाब की चाहती थी कि ज़ैद उसे तलाक़ दे। लेकिन शर्म रखते थे कि उसे अम्र (हुक्म) करें ज़ैनब की तलाक़ पर और इस बात से भी अंदेशा फ़रमाते थे कि लोग कहेंगे कि अपने फ़र्ज़ंद (बेटे) की अहलिया (बीवी) चाहता है और अहले जाहिलियत जिस औरत को अपने फ़र्ज़ंद ख़ास्ता मंसूब करते थे। हराम जानते थे जिस तरह अपने सुल्बी बेटे की जोरू (बीवी) को।” (सफ़ा 865)

रोजतुल-अहबाब (رو ضتہ الاحباب) में बजिन्सा यही है। देखो ये मअनी हज़रत के “बहुत नसीहत व हिदायत व सख़्त इल्हाह (मिन्नत) व इसरार” के हैं, मगर हाँ “दर ख़ातिर अनवर उस जनाब की चाहती थी” कुछ और। और हज़रत ने ज़माना-ए-जाहिलीयत कि रस्म के मुवाफ़िक़ ज़ैद की तबनेत (बेटा गोद लेने कि रस्म अदा) की थी। इस को अपना वारिस ठहरा कर लोगों को गवाह ठहराया था और ज़ैद को नाम इब्ने मुहम्मद (मुहम्मद ﷺ का बेटे) का दिया था। क्योंकि “अरब में हिंदूओं की तरह मुँह बोला बेटा सुल्बी बेटे (सगे बेटे) की मानिंद समझा जाता था।” (फ़स्लुल-ख़िताब, सफ़ा 90) हज़रत ने भी रस्म अदा की थी। पस हकीम साहब का फ़रमाना कि “अगर ले-पालक की जोरू (बीवी) से शादी मना है तो इस का सबूत तौरेत या इंजील या शराअ मुहम्मदी या क़ुरआन से या दलाईल अक़्लीया से दिया होता।” (सफ़ा 168) बिल्कुल बातिल है। क्योंकि दरअसल शराअ (शरीअत) मुहम्मदी ने शराअ अरब तबनेत (बेटा गोद लेने कि रस्म) को तस्लीम करके ज़ैद को मुहम्मदﷺ का बेटा बना दिया था और कुल हुक़ूक़ उस को विरासत वग़ैरा के हसब क़वाइद मुल्क अरब दिलाए थे। इस क़ायदा की रू से, इस शरीअत की रू से जिसमें हज़रत ने कभी कोई मुज़र्रत (ज़रर - नुक़्सान) मक्की या अख़्लाक़ी नहीं देखी थी बल्कि जिसके हुस्न के क़ाइल हो कर ख़ुद उस को बखु़शी बरता था। इसी शरीअत की रू से ज़ैनब मुहम्मदﷺ पर हराम थी। अब आज ज़ैनब से इश्क़ करके हज़रत इसी शराअ (शरीअत) मुहम्मदी को अपने फ़ायदे और हज़ नफ़्स (नफ़्स के मज़े) के वास्ते मंसूख़ कर के फ़रमाते हैं “मैं किसी का बाप नहीं और तबनेत (बेटे गोद लेने कि रस्म) नाजायज़ है।” ये मसमूअ (सुना गया, क़ुबूल किया गया) नहीं, इस वजह से हज़रत ख़ुदा की चोरी करते थे। ज़बान से झूट बोलते थे क्योंकि लोगों से डरते थे। बदनाम होने का ख़ौफ़ था। बदनामी को यूं मिटाया कि आस्मान से आयत बुलाई।

दफ़्अ पंजुम

तलाक़ ज़ैनब

जब तलाक़ ज़ैनब को ज़ैद ने दे दिया। हमारे मुसन्निफ़ फ़रमाते हैं :-

“इस वाक़िये के चंद मुद्दत-बाद ज़ैनब ने आँहज़रत को कहला भेजा कि ज़ैद ने तो मुझ को तलाक़ दे दिया है, अब मेरी परवरिश आप ही पर मौक़ूफ़ है। पस इस वजह से आँहज़रत ने इस से अक़्द (निकाह) कर लिया।”

ये भी सरीह ख़िलाफ़ वाक़िया है। यारों की मन घड़त जिसके लिए मुसन्निफ़ कोई सनद नहीं दे सकता। असल यूं है कि :-

“जब इद्दत ज़ैनब की तमाम हुई। हज़रत ने ज़ैद को फ़रमाया जा ज़ैनब को वास्ते मेरे ख़्वास्तगारी (निकाह का पैगाम) कर और हिक्मत तख़्सीस करने में ज़ैद के वास्ते इस काम के, ये कहते हैं कि लोग गुमान ना करें। कहर राह से वाक़ेअ हुआ है। बदन व रज़ामंदी ज़ैद के।” (सफ़ा 865)

सच्च तो ये है कि ये ग़ैरत व इताअत किसी सहाबीؓ ही के दिल में हो सकती थी कि ज़ैद ही की जोरू (बीवी) ले जाये और ज़ैद ही से कहा जाये कि जाओ बेटा ज़ैनब को हमारा पैग़ाम दे आओ। सद आफ़रीन आए ज़ैद तुम्हारे दिल पर तुम जहालत से अपने हुक़ूक़ फ़र्ज़ंदाना (बेटे के हुक़ुक़) यही समझे थे। गु़लामी ने और बद सोहबत ने तुम्हारी आदमियत (इंसानियत) को खो दिया था। डिस्कवी साहब ने एक और हीला (बहाना) तज्वीज़ किया है। आप फ़रमाते कि :-

“आंहज़रत को ख़ासकर ये फ़िक्र थी कि अगर ज़ैद ने ज़ैनब को छोड़ ही दिया तो में उस की तलाफ़ी (भरपाई) और हज़रत ज़ैनब और इन के लवाहीक़ (क़रीबी रिश्तेदारी) को जो इस मुआमला के सरअंजाम होने से एक गोना सदमा लाहक़ हो गया था। इस की तलाफ़ी (भरपाई) के ख़याल से आंहज़रतﷺ का इरादा हुआ कि ज़ैनब से ख़ुद निकाह कर लें।” (सफ़ा 7,8)

देखो क़ाज़ी जी शहर के अंदेशा से दुबले हैं, कोई अपनी जोरू (बीवी) को तलाक़ दे आपको फ़िक्र दामनगीर है कि इस से निकाह कौन करेगा हालाँकि ज़ैनब के हक़ में ऐसी फ़िक्र भी बेसूद थी। वो हसीना माहरूप रीवश जिस पर ख़ुद हज़रत सौ जान से क़ुर्बान हो गए थे। इस को शौहरों की क्या कमी थी। और अगर बक़ौल आपके “उस मुआमले के सरअंजाम होने से एक गोना सदमा” ज़ैनब और उस के लवाहीक़ (क़रीबी रिश्तेदारी) को लाहक़ हो गया था तो इस की जवाबदेही भी हज़रत के सर पर ना थी। अगर आपका ये सुख़न (कहना) दुरुस्त है कि “हज़रत ज़ैनब को जब अपने हुस्न व जमाल और शरीफ़-उल-क़ौम होने का ख़्याल आता तो उस से सब्र ना हो सकता, आख़िर ज़ैद इस की आँखों में बहुत हक़ीर लगता। रंजिश शुरू होते होते लड़ाई तक नौबत पहुंची और ज़ैद बहुत तंग हो जाता।” (सफ़ा 1) कहो ऐसी औरत जो अपने शौहर का दम नाक में करती थी और शौहर को मिस्ल कुत्ते के हक़ीर जानती थी और लड़ने और मारने को मुस्तइद (तैयार) रहती थी, वो किस रिआयत की मुस्तहिक़ हो सकती थी? क्या उन्हें बद-अतवारियों (बुरे बर्ताव) की शाबाशी में हज़रतﷺ ने ज़ैनब को इस के मज़्लूम शौहर ज़ैद की माँ बना कर अपनी जोरू (बीवी) बनाया था? मौलवियों तुम्हारी अक़्ल कहाँ है? पस अगर शौहर में और उस में बवजह उस की अपनी बदअख़्लाकी व बद-अतवारी (बुरा बर्ताव) के जुदाई हो गई थी तो कौन शख़्स हज़रत को इस जुदाई का इल्ज़ाम दे सकता? जुदाई इश्क़ नाजायज़ ने कराई। मौलवियों ऐसे हियलों (बहानों) से क्या होता है। हक़ बात सिर्फ ये है कि ज़ैनब हज़रत के दिल में बस गई थी। वो इस को किसी ना किसी बहाने से लेना चाहते थे। बिल्ली अल्लाह के नाम पर चूहे नहीं मारती है।

“अल-क़िस्सा ज़ैद बमूजब फ़रमान अज़सर सिदक़ व इख़्लास रवाँ हुआ।” ज़ैद कहता है कि जब ज़ैनब के घर आया मैं, मेरी आँखों में ऐसी बुज़ुर्ग मालूम हुई कि मैं इस की तरफ़ निगाह ना कर सका।” (मिन्हाजुन्नबी) आफ़रीन है तेरे अदब पर अभी तक ज़ैद “इब्ने मुहम्मद” (मुहम्मद ﷺ का बेटा) कहलाता है। ये हमेशा मुहम्मदﷺ को अपना बाप समझता था। अब भी समझता है। ज़ैद की जोरू (बीवी) अब मुहम्मदﷺ की जोरू (बीवी) होने वाली है। बिलाशक उस की आँख में “ऐसी बुज़ुर्ग मालूम हुई” क्योंकि माँ थी। हत्ता कि इस की तरफ़ निगाह ना कर सका। ऐ काश ज़ैनब मुहम्मदﷺ को ऐसी बात ख़ुद मालूम हुई होती जैसी बुज़ुर्गी अब वो ज़ैद की आँखों में थी कि वो उस की तरफ़ निगाह ना कर सकते। पस ना ज़ैनब ने परवरिश की दरख़्वास्त की, ना पैग़ाम निकाह में सबक़त (पहल) की, ना ज़ैद से तलाक़ पाने पर उसे या इस के लवाहक (करीबी रिश्तेदार) को सदमा पहुंचा और ना ये हुआ और ना वह हुआ। ये सब बेसब्री थी हज़रत की जो उन के इश्क़ ने इन से कराई। ज़ैनब को कोई ज़रूरत परवरिश की ना थी। ना उस को निकाह की उज्लत (जल्दबाजी) थी। वो हज़रत की बेसब्री और इज़तिराबी (उनकी निस्बत बैचेनी) से वाक़िफ़ थी। चुनान्चे लिखा कि मुहम्मदﷺ ने ज़ैनब से निकाह भी ना किया, ना कोई शाहिद हुआ। ज़ैनब को मालूम भी ना था कि यकायक (अचानक) उस के घर में आ घुसे और इस से मुक़ारबत (आपस में मेल-मिलाप) कर ली जिससे उस को अज़हद ताज्जुब हुआ। चुनान्चे मर्वी है कि :-

ولا شھادۃ فقال اللہ المزوج و جبریل الشاھد “۔

“हज़रत ज़ैनब के घर तशरीफ़ ले गए दरहालेका वो सर-बरहना थी (जैनब ने) अर्ज़ की बेगवाह (बगैर गवाह के) या रसूल अल्लाह फ़रमाया अल्लाह अल्मज़ुज (अल्लाह निकाह करने वाला) व जिब्रईल शाहिद। (गवाह है)” (सफ़ा 866)

(हुज़ूर ﷺ) अल्लाह और जिब्रईल से भी ना शर्माए। एक अम्र यहां गोश गुज़ार करना मंज़ूर है कि ज़ैनब ने जो कहा “बेगवाह या रसूल-अल्लाह” तो ये ऐन शरीअत इस्लाम थी और मुहम्मद साहब ने ज़ैनब से बेगवाह सोहबत (हमबिस्तरी) करके शरीअत से क़तई इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) किया क्योंकि जामेअ तिर्मिज़ी किताब-उन-निकाह में है कि :-

“नबीﷺ ने फ़रमाया कि ज़िना करने वाली हैं वो औरतें कि निकाह करती हैं अपना बग़ैर शाहिदों (गवाहों) के।”

चुनान्चे इस सरीही ज़िनाकारी से बचने के लिए उसने हज़रत से कहा और वो ख़ुद हज़रत की शरीअत के मुताबिक़ थी कि “बेगवाह (बगैर गवाह के) या रसूल अल्लाह” मगर हज़रत ﷺ जोश में थे और ना शर्माए, फ़रमाया अल्लाह व जिब्रईल गवाह है। अल्लाह तू गवाह है और जिब्राईल भी कौन सी चीज़ उन आँखों से पोशीदा है। मगर रोज़-ए-हिसाब उन की शहादत का हाल खुलेगा। पस हज़रत ने बे निकाह व बे गवाह ज़ैनब से सोहबत (हमबिस्तरी) की और इस क़िस्म की सोहबत शराअ (शरीअत) इस्लाम के मुताबिक़ ज़िना है जिस की तारीख़ी नज़ीर सिर्फ़ मुस्लिमा व सजाह का इज्द्वाज बे वक़ूअ निकाह हो सकता है। मगर इस में मअसियत कम थी। पादरी मौलवी डाक्टर इमाद-उद्दीन साहब ने इस आस्मानी निकाह के जवाज़ पर उम्दा रेमार्क किया है जिसको डिस्कवी साहब उड़ा गए।

“मैं कहता हूँ कि आस्मान पर ही जाकर जोरू ख़सम (मियाँ बीवी) कहलाओ। दुनिया में जो ख़िलाफ़-ए-दस्तूर काम है जोरू ख़सम (मियाँ बीवी) नहीं कहला सकते बल्कि गुनाह का मेल (मिलाप) है।” (तारीख़ मुहम्मदी, सफ़ा 273)

पस डिस्कवी साहब का ख़सम के मुक़ाबला में ये फ़र्माना कि “जिस अम्र बी शारेअ को ख़ुद अल्लाह तआला ख़बर दे दे इस में चोन व चरा करने वाला कौन?” (सफ़ा 24) हमको ताज्जुब में लाता है। ऐ हज़रत इसी इल्हाम व वह्य पर तो हम को एतराज़ है। आप उस को सनदन (बतौरे सबूत) पेश करते हैं। हम भी कहते कि मुहम्मदﷺ ने ख़ुदा पर बोहतान बाँधा, ज़िना किया और इस को हुक्म ख़ुदा बताया।

दफ़्अ शश्म

ज़ैद बिन हारिसा

रोजतुल-अहबाब में लिखा है कि ’’چون آن سرور زینب رابخواست منافقان مدینہ زبان طعن کشووند وگفتند کہ محمدﷺ زن پسر خود راخواست آیت آمد۔ ماکان محمدﷺ ابا احد رجا الکم (यानी मुहम्मदﷺ तुम में से किसी का बाप नहीं है।) واین آیت نیز نازل شد ۔ او عوہم لاباہم ہو ا قسط عنداللہ (यानी पुकारो लेपालकों (गोद लिए बेटे) को उन के बाप का कह कर ये ज़्यादा भला है, ख़ुदा के आगे। (सफ़ा 589) चुनान्चे हुसैनी भी पहली आयत की तफ़्सीर में यही शरह करता है (जिल्द 2 सफ़ा 202) इस सूरत में जिसमें ज़ैद व ज़ैनब का (ज़िक्र) मज़्कूर है। (रुकूअ 6) हज़रत ने अपनी जोरूओं (बीवीयों) को मुसलमानों पर हराम ठहराया है और क़ुरआन-ए-मजीद में ये आयत भी नाज़िल की गई है। ازواجہ امہاتہم (सुरह अह्ज़ाब रुकूअ 1) मुहम्मदﷺ की जोरुओं (बीवीयां) मुसलमानों की माएं हैं। और इस से दलील हुर्मत यूं आश्कारा हुई ’’ازواج اومادران اندومادر بر فرزند حرام است ‘‘ (हुसैनी) देखो ये मंतिक़ अपनी जोरूओं (बीवीयों) को मुसलमानों पर हराम करने के लिए मुसलमानों की माएं बनाते हैं और अभी तक ज़ैद को अपना बेटा बनाए रहे और आप उस के बाप बने रहे। मगर अब हैं “मुहम्मदﷺ बाप नहीं किसी का तुम्हारे मर्दों में” सुरह अह्ज़ाब रुकूअ 5 ताकि अब्बा कहने वालों की जोरूएं (बीवीयाँ) हराम ना हो जाएं। मगर मुहम्मदﷺ की जोरूएं (बीवीयाँ) ईमानदारों की माएं” बदस्तूर हैं यानी अज़्वाज हज़रत (हुज़ूर की बीवीयां) तो ईमानदारों की अम्मां हैं मगर हज़रत उनके अब्बा नहीं। ये क्या ईमानदारी है?

सय्यद साहब का ये फ़रमाना बहुत बे जा है कि “इस पर मुशरिकीन क़ुरैश ने बड़ा ग़ुल मचाया हालाँकि ख़ुद उनका ये हाल था कि अपनी माओं और ख़ुश दामनों (सासों) से शादी कर लेते थे।” और डाक्टर लटीज़ भी वही आवाज़ बाज़गश्त सुनाते हैं:

“अरब के जाहिल बुत-परस्त अपने मुतवफ़्फ़ी (मरे हुए) बाप की औरतों को बजुज़ अपनी हक़ीक़ी माँ के अपनी हरम (निकाह) में दाख़िल कर लेते थे।” (लैक्चर मुतर्जिम, सफ़ा 13)

ये भी झूट है और बोहतान। शरिफा अहले अरब का मुहम्मद साहब पर इल्ज़ाम लगाना हरगिज़ बेजा नहीं क्योंकि दरअसल उनके अख़्लाक़ इस बारे में बहुत अच्छे थे। वो अपनी माओं से या बहुओं से शादी को हराम समझते थे। चुनान्चे अबुल-फ़िदा में अहले अरब क़ब्ल इस्लाम के बयान में मज़्कूर है कि :-

“वो लोग माँ और बेटी से निकाह ना करते थे और दो बहनों को जमा करना उन के नज़्दीक बहुत बुरा था। और जो शख़्स अपने बाप की जोरू (बीवी) को अपने घर में डाल लेता उस को बुरा जानते थे। इस को मादर.... कहते थे।” (सफ़ा 330)

ये लोग ऐसे बेहया ना थे। बहर कैफ़ इस में शुब्हा नहीं हो सकता कि ज़ैद को अपनी जोरू (बीवी) छिन जाने का इतना रंज ना हुआ होगा जितना इस ख़िताब ज़ैद बिन मुहम्मदﷺ (मुहम्मद के बेटे) के छिन जाने का। इन पर सितम हुआ। अफ़्सोस ज़ैद लुट गए ! अब तक हज़रत उन को अपना बेटा बनाए रहे, मगर अब नया सुलूक किया जाता है। ठेठ हिन्दी में इस को चचा बनाना कहते हैं।

दफ़्अ हफ़्तुम

ज़ैद की वफ़ादारी

सय्यद अमीर अली साहब ने अपनी अंग्रेज़ी किताब के हाशिये (सफ़ा 336) में एक नई बात ये भी तहरीर फ़रमाई है कि “सबसे बड़ी मेयार नबी की पाकबाज़ी की ये थी कि ज़ैद ने अपने आका के साथ जाँबाज़ी में कभी कोताही ना की।” और हकीम साहब रक़म तराज़ हैं कि “अगर इस अक़्द (निकाह) में कोई अम्र मअयूब (एब वाला) और कावह नबुव्वत होता तो यक़ीनन अव्वल मुन्किर ज़ैद होता।” (फ़स्लुल-ख़िताब अव्वल, सफ़ा 171) हम कहते हैं कि मुन्किर हो कर किसी क़ाज़ी के पास फ़र्याद करता और अगर इन्कार व बेवफ़ाई नहीं की तो ये ज़ैद की तारीफ़ की बात है और मुहम्मदﷺ का जुर्म और बदतर होता है। पर अगर ज़ैद की जाँबाज़ी का क़िस्सा दुरुस्त हो तो हम इस का आपसे ज़्यादा काबिल इत्मीनान सबब बताए देते हैं। आख़िर ज़ैद ग़ुलाम रह चुका था। गु़लामी इन्सान के दिल पर बुरा असर पैदा करती है। तिब्बी आज़ादी, हमीय्यत वग़ैरत इस से बिल्कुल दूर हो जाती है। अगर आक़ा अपने ग़ुलाम की जोरूएं (बीवीयां) ले या उस के बच्चों को इस से जुदा कर दे तो वो सब्र करता है। हालत मज्बूरी में ये हादिसात उस के दिल पर कोई ग़ैर-मामूली असर नहीं पैदा करते। जब ज़ैनब बावजूद इस वाक़िये के ज़ैद को “एसी बुज़ुर्ग मालूम हुई” और इस को उसे अपनी माँ बनाते हुए कोई मलाल ना हुआ तो ज़ैद को मुहम्मदﷺ की वो हरकत जो चाहे कैसी ही ज़िश्त व ज़बूं (बुरी) क्यों न थी? क्यूँ कर बुरी मालूम हो सकती जब ख़ुद क़ुरआन-ए-मजीद में इसी मुआमला की बाबत वारिद हुआ “काम नहीं किसी ईमानदार मर्द का, ना औरत का जब ठहरा दे अल्लाह और उस का रसूल कुछ काम कि इन को रहे इख़्तियार अपने काम का और जो कोई बे-हुक्म चला अल्लाह के और उस के रसूल के सो राह भुला सरीह चूक कर।” (अह्ज़ाब रुकूअ 4) जहां ख़ुदा के इल्म क़दीम में ये ठहर चुका था कि ज़ैनब मुहम्मदﷺ की जोरू (बीवी) होगी, वहां ये भी ठहर चुका था कि बेचारे ज़ैद की जोरू (बीवी) मुहम्मदﷺ ले लेंगे। अब अल्लाह ने मुहम्मद साहब का निकाह ज़ैनब से कर दिया। जिब्राईल शाहिद है। ये क़िस्मत की बदी थी। रज़ा-ब-क़ज़ा (जो ख़ुदा की मर्ज़ी है इस पर राज़ी हैं)। इस्लाम के मअनी ही हैं “गर्दन नहादन”

दफ़्अ हश्तम

ग़ैरत सहाबा किराम

हकीम साहब तअल्ली (बुलंदी, शेख़ी) की लेते हैं और फ़रमाते हैं “बड़े बड़े ग़यूर जरी सहाबा जो यक़ीनन मच्छों और बाजगीरों से बढ़कर वक़अत व ग़ैरत में थे जो इस्लाम के रुक्न थे। बहुत जल्द, हाँ इसी दम टूट-फूट जाते अगर मुहम्मदﷺ का ये फे़अल मअयूब (एब वाला) व क़ादह नबुव्वत होता। (सफ़ा,171-172) अब हमको मजबूरन दिखाना पड़ा कि हज़रत मुहम्मदﷺ के सहाबा के दिल में ग़ैरत को बहुत बड़ी गुंजाइश ना थी। चुनान्चे मदीना में जो अब्दुर्रहमान बिन औफ़ और सअद बिन अल-रबीअ में हज़रत ने बिरादरी क़ायम की थी, एक दिन सअद ने अब्दुल रहमान से कहा “ऐ भाई मेरे पास दौलत बहुत है मैं एक हिस्से में तेरे साथ शरीक हूँगा। और देख मेरी दो जोरूएं (बीवीयां) हैं उनमें से जिसको तू चाहे पसंद कर ले और मैं इस को तलाक़ दे दूंगा कि तू उसे जोरू (बीवी) बना ले। चुनान्चे सअद ने तलाक़ दे दी और उन के भाई अबदुर्-रहमान ने इस से निकाह कर लिया और सअद के साथ रहा किए।

इस को म्यूर साहब ने बहवाला कातिब अल-वअक़दी अपनी जिल्द दोम, सफ़ा 272-273 में लिखा है और मुफ़स्सिर अबूल-ऊद अपनी तफ़्सीर जिल्द हफ़्तुम, सफ़ा 184 में अंसार और मुहाजिरीन की रस्म जोरू (बीवी) बदलुल (बीवी बदलुल) के सदर-उल-इस्लाम में जवाज़ (जायज़ होने) का ज़िक्र करता है और इस को हज़रत दाऊद की सुन्नत क़रार देता है। हमारे ज़माना के मौलवी साहिबान ज़्यादा बागै़रत हैं। वो इस क़िस्म की बिरादरी मिस्ल सहाबा किराम के निबाहने के लिए राज़ी ना होंगे। इसी तरह रोज़तुल-अहबाब जिल्द अव्वल आख़िर के क़रीब दरबाब जवाज़ मज़ाह हक़ व ज़राईफ़ व लताएफ़ (सफ़ा 679) में मर्क़ूम है कि :-

’’مرویست کہ ضحاک ابن سفیان کلابی مروے بود بغابت قبیح الوجہ آمد باپیغمبر صلعم مبایعہ کردو عائشہؓ پیش حضرت نشستہ بودپیش نزول آیت حجاب انگہ گفت پیش من دوزن ہشند احسن ازین حمیرا یعنی عائشہؓ یکے را ترک کنم تانو اور ابخواہی‘‘

ज़ैद किसी तरह ज़ह्हाक या सअद से ना ग़ैरत में ज़्यादा थे और ना वफ़ादारी मुहम्मदﷺ में कम। पस मुल्ला बाक़र मजलिसी का ये क़ौल बहुत है कि ’’زید گمان کرد کہ حسن زینب حضرت را خوش آمدہ است ‘‘ और उस ने तलाक़ दे दी, बल्कि अपनी जोरू (बीवी) ख़ुद मुहम्मदﷺ को सौंप दी। इस ज़माने में ऐसी बातें हुआ करती थीं। ताज्जुब नहीं अब ये बातें देवती कही जाती हैं। इस से मुसलमान भी ताम्मुल करते हैं। हमने तो किसी मछुवे (माही-गीर) और बाजगीर (महसूल लेने वाले) की ऐसी बेग़ैरती नहीं सुनी। ये सहाबा का हिस्सा था। मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब ने अपने ख़ुत्बे में हुर्मत के ख़िंज़ीर (सूअर के हराम होने) के बाब में फ़रमाया था कि :-

“मिनजुम्ला नर हैवानात के एक यही बड़ा बेगैरत है और हैवानात अपने मतलूब माद्दा पर दूसरे हैवानात का मुक़ाबला और ग़ैरत करते हैं, इस ग़ैरत से ख़ाली है तो सिर्फ यही एक हैवान है। यही वजह है कि जो लोग इस जानवर का गोश्त खाने के आदी हैं उनमें वो ग़ैरत नहीं होती। एक की जोरू (बीवी) को दूसरा हाथ में हाथ डाल कर ख़ल्वत (तन्हाई) में ले जाए तो वो ग़ैरत (शर्म) नहीं करता।” (इशाअत अलसुन्नाह नंबर 11, जिल्द 17, सफ़ा 325)

मौलवी साहब को शायद मालूम ना था कि सहाबा किराम एक दूसरे को अपनी जोरू (बीवी) का हाथ ख़ुद पकड़ कर ख़ल्वत (तन्हाई) में भेज देते थे। शायद हुक्म हुर्मत खिंजीर से क़ब्ल का ये वाक़िया हो।

दफ़्अ नह्म

इज़ाल-तुल-शुकूक (शक को दूर करना)

1. मौलवी फ़िरोज़ उद्दीन साहब फ़रमाते हैं :-

“रसूल-ए-ख़ूदा पहले ही कुँवारेपन में ज़ैनब को बिला-मुज़ाहमत (बगैर रुकावट) अपने निकाह में ला सकते थे। अगर हज़रत ज़ैनब के हुस्न के ख़ास्त गार (ख्वाहिशमंद) होते। (सफ़ा 50)

इस का जवाब हम इस फ़स्ल की दफ़्अ सोम में दे चुके हैं और यहां फिर दोहराते हैं कि इल्ज़ाम सिर्फ ये है कि हज़रतﷺ शहवत परस्ती के लिहाज़ से अपने नफ़्स पर क़ादिर ना थे। जिस वक़्त कोई औरत उन के दिल में बस गई फ़ौरन चाहे कुछ ही क्यों ना हो इस से मिल बैठते। ज़ैनब अगर उस वक़्त उन के दिल में बस जाती तो आज ये नौबत (वक़्त) ना आती। उस वक़्त उनके दिल में अपने वास्ते उस के लिए जगह ना थी। शफ़क़त पिदराना से अपने अज़ीज़ फ़र्ज़ंद ज़ैद को देकर उस को अपनी बहू बनाना और ज़ैद का मर्तबा बढ़ाना मंज़ूर था। मगर इत्तिफ़ाक़न जो इस को ग़ुस्ल करते एक नज़र देख पाया, आतिश शहवत अफ़्रोख़्ता हुई और ताब सब्र बाक़ी ना रही और वो किया जो किया। इस तरह ज़ैनब को देखने का आपको इत्तिफ़ाक़ पहले कभी ना पड़ा था। पस पहले निकाह ना करने का सबब भी मौजूद था और माबाअ्द निकाह करने की इज़तिराबी भी।

2. हकीम साहब ने एक उज्र यह बयान किया है कि :-

“क़ौम और मुल्क और रसूम के मुख़ालिफ़ हज़रत को दो अज़ीम मुश्किलों का सामना पड़ा एक तो ख़ुदा के क़ौल व फ़अल के मुताबिक़ तबनेत (बेटे गोद लेने कि रस्म) का तोड़ना और दूसरा एक मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा) औरत से शादी करना। अरब जाहिलियत में सख़्त क़ाबिल मलामत व नफ़रत और ज़िल्लत तसव्वुर करते थे निकाह करना। मगर चूँकि अक़्लन व समन व शरअन ये अफ़आल (आमाल) मअयूब (एब वाले) ना थे और ज़रूर था कि मुस्लेह व हादी ख़ुद नज़ीर बने ताकि ताबईन को तहरीक व तर्गीब हो।” (फ़स्लुल-ख़िताब, सफ़ा 157)

(अव्वल) रस्म तबनेत (बेटे को गोद लेने की रस्म) का तोड़ना

हज़रत ने इस रस्म को ख़ुद इख़्तियार किया था। ज़ैद को अपना बेटा बनाया था। इस को अपना वारिस गिरदाना था। जैसा बताया गया, ज़ैनब का निकाह 5 हिज्री में हुआ इस से क़ब्ल 18 साल तक आप इस रस्म को अपने ज़माना नबुव्वत में भी बरतते रहे और इस में कोई रस्मी या अक़्ली या शरई ऐब ना देखा। अगर ये “ख़ुदा के क़ौल व फ़अल के मुताबिक़” ना था तो 18 साल ज़माना नबुव्वत में हज़रत क्या करते रहे थे और क्यों इस गुमराही में मुब्तला रहे। फिर अगर यकायक मालूम हो गया कि वो रस्म मअयूब (एब वाली) है तो क्या सिर्फ ये कह देना कि ख़ुदा हुक्म करता है कि मुतबन्ना (गोद लिए) बेटे असली बेटे नहीं और तबनेत (गोद लेकर बेटा बना लेना) इस्लाम में शरअन नाजायज़ है, इस रस्म को मिटाने के लिए काफ़ी ना थी। क्या ज़रूर था कि तबनेत (बेटे गोद लेने कि रस्म) को नाजायज़ साबित करने के लिए मुतबन्ना (लेपालक बेटे) की जोरू (बीवी) छीनी जाये? देखो शराब इस्लाम में एक मुद्दत तक हलाल रही माबाअ्द हुर्मत शराब का हुक्म हुआ, शराब हराम हो गई। डिस्कवी साहब फ़रमाते हैं :-

“आँहज़रत सलअम का ये फे़अल (अमल) लोगों के लिए अमली नमूना और नज़ीर ठहर कर अरब और तमाम दुनियाए इस्लाम से ये वाही (बुरी) रस्म हमेशा के लिए उठ गई।” (सफ़ा 11-12)

और फिर ये भी कहते हैं कि :-

“अरबों में ये रस्म फैल रही थी कि जो शख़्स अपनी औरत को माँ कह बैठता वो उस के हक़ में बमंज़िला हक़ीक़ी माँ के हो जाती और हमेशा के लिए इस से जुदा हो जाती। अल्लाह तआला ने उन दोनों रस्मों को (ज़िहार और हुर्मत मुतबन्ना) तोड़ डाला।” (सफ़ा 8-9)

अब सोचो तो कि ज़िहार (फ़िक़्ह की इस्तिलाह में मर्द का अपनी बीवी को माँ या बहन या उन औरतों से तशबीया देना जो शरअन इस पर हराम हैं) से क़दीम रस्म जिससे वो ज़ौजा (बीवी) जिसको माँ कहा जाता था और वो शौहर पर हराम हो जाती थी किसी “अमली नमूना और नज़ीर” के टूट गई। कोई ज़रूरत ना हुई कि हज़रत अपनी जोरूओं (बीवीयों) में से किसी को पहले अम्मां कहें और फिर उस को अपने ऊपर हलाल गर्दान कर नमूना बनें। हालाँकि ख़दीजा ؓ को जो आपको “नूर-दीदाह” कहा करती थीं (हयात-उल-क़ुलूब, सफ़ा 95) बाआसानी तमाम आप ऐसा कह सकते थे, क्योंकि उम्र एतबार से आप ﷺ लोगों की इंदिया (राय) में हज़रत उन बड़ी बी के रूबरू बिल्कुल साहबज़ादे थे। तो फिर अगर हज़रत अपने मुतबन्ना (गोद लिए बेटे) की जोरू (बीवी) लिए बग़ैर इस रस्म को मिस्ल ज़िहार के तूड़वा डालते तो क्या ख़राबी बरपा होती। मौलवियों ज़रा होश की बातें करो। हकीमों अपने दिमाग़ का ईलाज करो नई रोशनी व अक़्ल के नाख़ुन लो। इस वाक़िए से क़ब्ल जब आप चाहते तबनेत (बेटा गोद लेने कि रस्म) को नाजायज़ क़रार देते, मगर नहीं। आज नाजायज़ क़रार देते हैं जब मुतबन्ना (गोद लिए बेटे) की जोरू (बीवी) पर आशिक़ हुए उसे बे-सतर देखा।

(दोम) मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा) औरत से निकाह करना

अरब जाहिलियत में इस को हराम समझते थे। आप साबित करें कि यहूद में भी ये फे़अल नाजायज़ ना था और ज़ैनब के निकाह से क़ब्ल मुसलमान मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा) औरतों से निकाह किया करते थे। चुनान्चे दफ़्अ हश्तम में हमने दिखा दिया कि मुहाजिरीन और अंसार उमूमन इस वाक़िये से 5 बरस क़ब्ल भी मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा) औरतों से बड़ी आरज़ू के साथ निकाह कर लिया करते थे और हज़रत की ज़ौजा (बीवी) मैमूना के एक शौहर का नाम मस्ऊद बिन उमर था। इस से तलाक़ पाकर इस ने दूसरा शौहर किया था जिसकी वफ़ात पर वो हज़रत की जोरू (बीवी) बनी थी। (रोज़तुल-अहबाब, सफ़ा 598) और हज़रत ﷺ की एक और जोरू (बीवी) लैला बिंत हज़ीम का ज़िक्र है कि इस ने हज़रत से तलब फ़स्ख़ (तर्क) निकाह किया और हज़रत ने इस के निकाह को फ़स्ख़ (मंसूख) किया। उसने जाकर दूसरा शौहर किया और बच्चे जने। (मिन्हाज जिल्द दूसरी, सफ़ा 880) इसी तरह हज़रत की जोरू (बीवी) ज़ैनब उम्मूल-मसाकीन ने अपने एक शौहर तुफ़ैल से तलाक़ पा कर दूसरे शौहर उबैदा से निकाह किया था। पस इस की भी मुतलक़ ज़रूरत ना थी कि आप नज़ीर (मिसाल) बनें। आप से पहले लोग उस की नज़ीर (मिसाल) बने हुए थे। ज़रूरत सिर्फ इस की थी कि हज़रत मुतबन्ना (गोद लिए बेटे) की जोरू (बीवी) से इश्क़ लगाऐं और इस को तलाक़ दिलवाकर जोरू (बीवी) बनाएँ और ख़ुदा पर बोहतान बांधें और बंदों को गुमराह करें और अपने हामी मौलवियों को नादिम (शर्मिंदा) कराएं। मौलवी साहब हमको बताएं तो कि हज़रत की इस सुन्नत के बाद कितने लोगों ने अपने मुतबन्ना फ़रज़न्दों (गोद लिए बेटों) की जोरूओं (बीवीयों) से निकाह किया और अरब को फ़ायदा पहुंचाया? डिस्कवी साहब के उस्ताद हज़रत की सफ़ाई में ये भी फ़रमाते हैं और ये उन्हीं के हिस्से का कि :-

“अगरचे कुछ दाल में काला मआज़ अल्लाह होता तो ये हाल आपकी किताब क़ुरआन-ए-मजीद में क्यों मज़्कूर किया जाता। कोई भी ऐसी खु़फ़ीया बात को यूं इश्तिहार दिया करता है। दुश्मनों के मज़ाक़ पर पोशीदा या बग़ैर तस्रीह ही कार्रवाई मआज़-अल्लाह हो सकती थी। क़ुरआन शरीफ़ में बहर नमत (वज़अ-क़ता) इस के ज़िक्र से कुछ फ़ायदा ना था। फिर कौन इस क़िस्से को हमेशा याद रखता, चंद रोज़ में सूरत क़िस्से की बदल जाती।” (सफ़ा 56)

अजी हज़रत ऊंट की चोरी नहोरे नहोरे (नहूरा : ख़ुशआमदद : एहसान रखना) ज़ैद मुहम्मदﷺ का 32 बरस का फ़र्ज़ंद (बेटा) इब्ने मुहम्मदﷺ इस की जोरू (बीवी) पर य तिम्साल पर ग़ुस्ल की बेसतरी में आपका आशिक़ होना, ज़ैद का तलाक़ और मुहम्मद साहब का जोरू (बीवी) बनाना (نہان کئے ماند آن رازےکروسازند محفلہا) ये दाल में काला नहीं बल्कि दाल में भैंसा था। क्या हज़रत के इम्कान क़ुदरत में था कि इस पर राख डाल देते इस मुआमले का “दुश्मनों के मज़ाक़ पर पोशीदा या बग़ैर तसरीह रहना” यारों की कोशिश से बाहर था और ईवान नबुव्वत मिस्मार हुआ जाता था। बजुज़ इस के कोई चारा ना था कि हज़रत ﷺ ख़ुदा पर बोहतान बांधें और अपनी बरीयत क़ुरआन-ए-मजीद से चाहें और जाहिल गँवारों की मत मारें। पस क़ुरआन-ए-मजीद में ये मुआमला आया और उस वक़्त हज़रत की नबुव्वत की क़लई ना खुली। पस क़ुरआन शरीफ़ में बहर-नमत उस के ज़िक्र से यह कुछ फ़ायदा था। अगर क़ुरआन-ए-मजीद में ये क़िस्सा यूं ना आता तो ये तो सच्च कि “कौन इस क़िस्से को हमेशा याद रखता” मगर फिर ये भी सच्च है कि हज़रत की नबुव्वत ताक़ निस्यान (भूल) में रखी हुई मिलती और आज मौलवी साहिबान का वजूद ना होता। इस क़िस्से की मिसाल यूं है कि आप इश्क़ ज़ैनब को बहम नबुव्वत पर एक दुंबल तस्वीर फ़रमाएं। क़ुरआन-ए-मजीद में इस का वजूद एक नशतर (फोड़े को चीरने का औज़ार) है जिसने मवाद ख़ारिज करके एक दवामी (हमेशा का) दाग़ लगा दिया। अगर नशतर (फोड़े चीरने का औज़ार) ना लगता तो मरीज़ मुद्दत का मर चुकता, इस दाग़ ने बचा लिया। मगर दीदह्-ए-बसीरत चाहे मौलवी साहब बताएं तो, कि बजुज़ इस के “कौनसी कार्रवाई हो सकती थी?” क्या ये कि हज़रत ज़ैनब को छिपे छिपे अपने पास रखते और वो हमेशा ज़ैद की जोरो (बीवी) कहलाती और किसी को खु़फ़ीया कार्रवाई की ख़बर ना होती? हाँ हम मानते हैं कि ये मुम्किन था कि हज़रत ज़ैद को राज़ी कर लेते, उस का राज़ी होना दुशवार ना था। मगर आईशाؓ और हफ़्सा से कैसे बच सकते जिन्हों ने एक दम में मारिया लौंडी का हाल जो आगे आएगा फ़ाश कर दिया था। वो इस ताल्लुक़ को बिलाताम्मुल मुश्तहिर कर देतीं और हज़रत की दिक्कतें और बढ़ जातीं। हज़रत ने जो तज्वीज़ सोची वो तमाम तज्वीजों से बेहतर थी और इस की मस्लिहत हम ने दिखा दी। अब तो मौलवी भी हमारी दाद देंगे।

दफ़्अ दहुम

मताइन (ताअने, तकलीफदेह एतराज़)

इस निकाह से हज़रत पर ये इल्ज़ामात लगते हैं :-

1. उन्हों ने जिस रस्म को मान कर ज़ैद को अपना बेटा बनाया था और जिस रस्म को एक मुद्दत तक मानते रहे थे और जिस में कोई ख़राबी ना थी, उस को मह्ज़ अपनी ग़रज़ नफ़सानीया (ख्वाहिश) की वजह से तोड़ा ताकि उन पर से इल्ज़ाम दफ़्अ हो। हालाँकि इस का एक जुज़ (हिस्सा) अपनी ग़रज़ के लिए हमेशा माना किए (मानते रहे) यानी उन की जोरू (बीवी) इन मुसलमानों की माँ हैं पर यहां डिस्कवी साहब के मुंह में ज़बान नहीं कि फ़रमाएं। “सिर्फ मुंह से कह देना बाहमी नाते रिश्ते में कोई कावह अम्र नहीं हो सकता। बाहमी रिश्ते नाते के वक़्त नसब और हक़ीक़त का एतबार होगा और अक़्ल भी यही चाहती है।” (सफ़ा 53) जब मुहम्मदﷺ फ़रमाते हैं अज़वाज उम्म्हात ताहम ना मालूम उस वक़्त आपकी अक़्ल कहाँ चरने चली जाती है?

2. एक औरत शौहरदार जिसका शौहर मिस्ल फ़र्ज़ंद के आप से इलाक़ा मुहब्बत रखता था, इस से हज़रत ने इश्क़ लगाया।

3. हज़रत चाहते थे कि ज़ैद ज़ैनब को तलाक़ दे मगर दिल के ख़िलाफ़ दिखाने को ज़बान से मना करते थे।

4. ज़ैद वफ़ादार की सादा-लौही और नासमझी से ना वाजिब फ़ायदा उठाया और इस से वो कराया जो कोई ना करता।

5. इन तमाम बातों को हज़रत ने ख़ुदा के हुक्म से मंसूब किया और ख़ुदा पर इल्ज़ाम लगाया कि उस ने उनको हुक्म दिया कि ज़ैनब से इस तरह निकाह कर लें और ख़ुद निकाह ख़ुदा ने कर दिया। ऐसी नापाक बातों को ख़ुदा से मंसूब करके सख़्त कुफ़्र किया।

9 - जुवेरिया के हालात

’’ एक ज़ौजा (बीवी) आपकी जुवेरिया बिंत हारिस थीं। जुवेरिया को एक मुसलमान ने लड़ाई बनी मुस्तलक़ में गिरफ़्तार कर लिया था। इस से इस ने क़रार कर लिया था कि कुछ रुपया लेकर मुझे आज़ाद कर देना। जुवेरिया ने आँहज़रत से इतना रुपया तलब किया। आपने उस को मर्हमत (रहम) फ़रमाया इस इनायत का मुआवज़ा और अपने रिहा हो जाने का शुक्रिया जुवेरिया ने ये अदा किया कि आप से अक़्द (निकाह) कर लिया। जूंही मुसलमानों ने इस अक़्द (निकाह) का हाल सुना कहने लगे। अब बनी मुस्तलक़ पैग़म्बर-ए-खुदा के एअज़ा में दाख़िल हैं पस उन से इसी तरह पेश आना चाहिए......चुनान्चे क़रीब सवासेरों के मअ-अयाल (ख़ानदान) व इत्फ़ाल (बाल-बच्चे) रिहा कर दिए।” (सफ़ा 310) इस के हालात सय्यद साहब ने बड़े तसर्रुफ़ के साथ बयान किए हैं जिसमें सिर्फ हज़रत की फ़य्याज़ी और करम दिखाना मंज़ूर है, मगर हज़रत उस को आज़ाद कराने से क़ब्ल इस पर आशिक़ हो चुके थे और इसी उम्मीद से आज़ाद किया था कि जोरू (बीवी) बनाएं क्योंकि “ये औरत निहायत शीरीं और मलीह और साहिबे हुस्न व जमाल इस दर्जे में थी कि जो उसे देखता फ़रेफ़्ता (दीवाना) होता। उम्र इस की 20 साल थी।” (मिन्हाज, सफ़ा 869-870) इस को देखकर हज़रत ज़ब्त (क़ाबू) कैसे कर सकते वो भी फ़रेफ़्ता हो गए। चुनान्चे ख़ुद हज़रत की प्यारी बीबी आईशाؓ से मन्क़ूल है कि :-

“रसूल-ए-ख़ूदा एक चश्मा आब पर मेरे साथ बैठे हुए थे कि यकायक जुवेरिया पैदा हुई, आतिश ग़ैरत मेरे दर्मियान पड़ी कि मबादा हज़रत तरफ़ उस के रग़बत करें और मुंसलिक अज़्वाज में अपने इसे लाएं।” (एज़न)

ये औरत भी सुन चुकी होगी कि इस के मुत्आ-ए-हुस्न व जमाल का ख़रीदार इस बाज़ार में कौन है और कौन सबसे ज़्यादा क़द्र करेगा। चुनान्चे वो हज़रत के पास आई और बयान किया कि मैं असीर (क़ैदी) हूँ और जिस तरह बिल्ली ख़ुदा के लिए चूहे नहीं मारती, हज़रत भी नाम अल्लाह के लिए औरत रिहा नहीं करते। आपकी ग़रज़ और है, इश्क़ में मुब्तला हो चुके थे और अपने दिल को आज़ाद करते हैं फ़रमाया “तेरी मुराद हासिल करता हूँ।....और तुझे अपने हिबाला (रिश्ता) निकाह लाऊँ।” (सफ़ा 870) मगर एक बात याद रखना चाहीए कि ये औरत हारिस सिपहसालार की बनी मुस्तलक़ की दुख़्तर (बेटी) थी। इस का बाप इस का फ़िद्या देने वाला था। चुनान्चे वअक़दी में लिखा है कि :-

“वो वास्ते फ़िद्या देने अपनी लड़की के आया था और निकाह करना हज़रत का जुवेरिया से नागवार हुआ, मगर उस के क़राबत दारों (रिश्तेदारों) में से एक ने अक़्द (निकाह) तज़वीह जुवेरिया का हज़रत अलैहिस्सलाम से कर दिया था। तब हारिस ने इस बात पर इस शख़्स को सख़्त मलामत की।” (वअक़दी, सफ़ा 302)

मालूम होता है कि हज़रत को भी हारिस के आने का अंदेशा था कि वो निकाह से मानेअ (रुकावट) होगा। फ़िद्या देकर छुड़ा ले जाएगा। इस वजह से हज़रत ने जल्दी की झट से निकाह को ठहराया और जुवेरिया के रिश्तेदारों को असीरी (क़ैद) से रिहाई का वाअदा बशर्त निकाह देकर उन को निकाह कर देने पर राज़ी कर लिया जिसको हारिस ने नफ़रत की निगाह से देखा। यहां से जुवेरिया के लोगों की रिहाई का सबब अयाँ है। पस बनी मुस्तलक़ के असीरों (क़ैदियों) का रिहा होना ये कोई बड़ी फ़य्याज़ी ना थी।

अव्वल तो ये उनकी ख़िदमात का सिला था या ना सही। हज़रत ने अपनी माशूक़ा का दिल ख़ुश करने को ये किया होगा और इस में भी अपनी गाँठ से किया खोया, माल-ए-मुफ़्त दिल बेरहम। मुसलमानों ने अपने सिपहसालार मुहम्मदﷺ की ख़ुशनुदी के लिए ये किया और ऐसा होता ही है। मगर नहीं इस में भी बड़ा भेद था। हज़रतﷺ का सरासर फ़ायदा था क्योंकि जुवेरिया का सिदाक यानी काबीन (महर) आज़ादी बनी मुस्तलक़ के असीरों (क़ैदियों) को गिरदाना। वाक़दी भी लिखता है कि :-

“रसूल ख़ुदा इस्लाम ने जुवेरिया बिंत हारिस से निकाह किया और महर इस का ये मुक़र्रर किया कि बाअज़ जो क़ौम जुवेरिया से असीर (क़ैदी) थे उनको रिहा कर दिया और ये अम्र बाद आने हारिस के हुआ।” (सफ़ा 304)

और ये शर्त-ए-अव्वल इस वजह से हुई कि रिश्तेदार उस के निकाह में उज़्र ना करें, वर्ना बाप जुवेरिया का सख़्त मुख़ालिफ़त पर था। दोम, महर के तावान से नजात पाएं। सोम, औरत का दिल ख़ुश करके इस से अपना जी ठंडा रहा करें। बहरहाल निकाह तो क्या ही था कुछ महर भी चाहीए। ऐसी शीरीं व तबअ हसीन व जमील नौ उरूस (नई दुल्हन) सिपहसालार बनी मुस्तलक़ की बेटी का कुछ महर होना वो आज़ादी असीरां था। तारीफ़ इस में जुवेरिया की है कि इस ने अपना महर ऐसा क़ुबूल किया जिसमें सौ जानें छूट गईं और इस को इस से कुछ हासिल ना हुआ। मुहम्मदﷺ ने किया क्या? जोरू (बीवी) बना लिया और बस। यही उन की फ़य्याज़ी है, यही उनकी हात्मी।

10 – सफ़ीयाؓ के हालात

“मुजाहिदीन में से एक साहब ने जंगे ख़ैबर में एक यहूदिया सफिया नामी को भी गिरफ़्तार कर लिया था। इस को भी आँहज़रत ने अपनी जोरू (बीवी) करम को काम फ़र्मा कर रिहा कर दिया और ख़ुद इस की ख़्वाहिश से और इस की रज़ा व रग़बत से इस के साथ निकाह करके उस को शर्फ़ ज़ौजीयत (बीवी होने का शर्फ) बख़्शा।” (सफ़ा 211) “इस की ख़्वाहिश से और इस की रज़ा व रग़बत से “इस की क्या ज़रूरत थी जो आप ताकीद करते हैं। हमको शुब्हा होता है शायद वो जबरन जोरू (बीवी) बनाई गई। कुल क़रीना (बहमी बातों का ताल्लुक़) इसी का है, तारीख़ हमारे साथ पढ़ीए।

दफ़्अ अव्वल

सफिया का बेवा होना

असल हाल ये है कि “सफिया बिंत हय्यी बिन अख़्तब “बेवा” पिसर (बेटी) अबी अतीक़ थी जिनका नाम कनाना था। वो हज़रतﷺ के हुजू (बुराई) में अशआर कहता था और वो लोगों में बड़ा शायर मशहूर था। चुनान्चे हज़रत ने उस पर चंद अश्ख़ास को मुक़र्रर करके भेजा था कि इन्हों ने इस को क़त्ल किया था।” (वाक़दी 314-315)

दफ़्अ दोम

बाप की जवाँमर्दी, बतल (बहादुरी) व तक्ज़ीब मुहम्मद ﷺ (हुज़ूर को झुठलाना)

इस के बाप हय्यी बिन अख़्तब को किसी हज़रत ने ग़ज़वा (जंग) बनी क़ुरैज़ा के असेरों (क़ैदियों) के साथ क़त्ल किया था। वो वाक़िया यूं है कि “जिस वक़्त हय्यी अख़्तब हाज़िर किया गया था तो इस से रसूल अल्लाह सलअम ने फ़रमाया ऐ हय्यी क्या तुझ को ख़ुदा ने ख़्वार नहीं किया।” ये क़सावत क़ल्बी (संग-दिली) थी, मक़त्ल पर जिला दियों ताना जिगर रेश सुनाता है। इस ने कहा बड़ी दिलेरी व तहो्वुर (इंतिहाई दिलेरी) से जो ऐसे वक़्त में काबिल ए दाद है हर ज़ी-रूह ज़ाइफ़ा मौत का पाने वाला है और मेरे लिए भी एक वक़्त मुईन था कि मैं इस से तजावीज़ नहीं कर सकता।” रज़ा-ब-क़ज़ा इस को कहते हैं। हक़ीक़ी इस्लाम इस का नाम है। “और तुम्हारी ज़िद व अदावत पर मैं अपने नफ़्स को मलामत नहीं करता।” ये यहूदी था। मुहम्मदﷺ की बद अख़्लाक़ियों और ख़ून रेज़ियों से उन को दुश्मन ख़ुदा और दुश्मन ख़ल्क़-ए-ख़ुदा जानता था। पस ज़िद व अदावत पर मुस्तइद था। और “मैं आज वक़्त फ़िराक़ दुनिया की गवाही देता हूँ इस बात पर कि तुम काज़िब हो।” शाबाश ऐ हय्यी शाबाश ऐ शहीद राह ख़ुदा शाबाश ऐ इस्राईल के पुत ! दम-ए-वापसीं (नज़ाअ का वक़्त) की शहादत है। इस शहादत पर हय्यी अपने ख़ून से मुहर लगाता है। अगर चाहता कलिमा कह कर अस्हाब मुहम्मदﷺ में दाख़िल हो जाता, मगर नहीं ज़बान उस के दल के मुताबिक़ है। “और बे-शुबह मैं तुम्हारा दुश्मन हूँ। पस हज़रत अलैहिस्सलाम ने हुक्म उस के क़त्ल का किया।” कुछ इबरत ना हासिल की, ऐसे सादिक़ नासेह (नसीहत करने वाले) का ख़ून बहाया। ताआनका वो क़रीब अहजारूलज़ीयत के जो मदीना में बाज़ार की जगह है मारा गया।” (वाक़दी, सफ़ा 295)

؎ बरमज़ारे मा ग़रीबां ने चराग़े न ने पर-ए-परवाना बाशद ना शोर-ए-बुलबुले

सफिया के शौहर को तो हज़रत इस तरह क़त्ल करा चुके थे, उस के बाप को हज़रत यूं संग-दिली से आँखों के सामने क़त्ल कराते हैं। हय्यी का ख़ून तुमको ऐ मुहम्मदﷺ ज़मीन से पुकारता है।

दफ़्अ सोम

इस्लाम सफ़ीहؓ

सफिया को ये हालात मालूम हैं। ये दलाईल नबुव्वत व आसार पैग़म्बरी हज़रत के मुशाहिदा कर चुकी है। चुनान्चे मुअर्रिख़ लिखता है कि जब हज़रत के पास पहुंची “हक़ तआला ने सफिया के दिल पर रूश्द व हिदायत इल्क़ा किया” हैफ़ (अफ़्सोस) है। “तब उन्होंने अर्ज़ की या रसूल अल्लाह वल्लाह जब मैं मदीना ही में थी तो ख़्वाहिश इस्लाम रखती थी और इस्लाम मुझको ख़ुश आता था। बादअज़ां मुझको इस्लाम में रग़बत होती रही।” हमको ये सब यक़ीन करना चाहीए क्यों कि वल्लाह (अल्लाह कि क़सम) के साथ है” और यहूदीयों में मेरा कौन है, ना उनमें मेरा बाप है, ना भाई है कि आपने मेरे बाप और मेरी चचा की बेटे और मेरे भाई सबको क़त्ल किया मगर मुहम्मदﷺ को इबरत नहीं होती। यही बातें तो सफिया की रूश्द व हिदायत का बाइस होती हैं। “'पस अब तो अल्लाह और रसूल और इस्लाम मुझको महबूब तर हैं” (सफ़ा 315)

؎ एक आफ़त से तो मर मर के हुआ था जीना पड़ गई और ये कैसी मेरे अल्लाह नई

पुरानी रोशनी के लोग इस बात की हक़ीक़त से ज़्यादा आगाह थे। चुनान्चे जब अबू अय्यूब अंसारी हुज़ूर (सामने) में नबी ﷺ के आए थे तो उन से हाल सफिया का और उन के अहले का जिनको क़त्ल किया था आप ने ज़िक्र किया। पस अबू अय्यूब को सफियाؓ से हज़रत की निस्बत अंदेशा हुआ कि वो सोते में इन को क़त्ल करेगी। तब अबू अय्यूब हज़रत की निगहबानी के लिए सारी रात दर-ए-ख़ेमा पर शब-बाश (रातभर पहरा देते) रहे। सुबह को हज़रत ने अबू अय्यूब से दर्याफ़्त किया। “उन्होंने अर्ज़ की कि मुझको आप पर सफिया की जानिब से ख़ौफ़ आया कि मबादा वो आपको अपने बाप के एवज़ सोते में क़त्ल करे, इसलिए मैंने निगहबानी में यहीं शब बसर (रात गुज़ारी) की। आँजनाब अलैहिस्लाम ने उन की तारीफ़ व तहसीन फ़रमाई। (सफ़ा 5)

दफ़्अ चहारुम

सफ़ीहؓ का हुस्न व जमाल व हज़रत का इश्क़

ये औरत बड़ी हसीना नौ उरूस (नई दुल्हन) 17 बरस की थी। “जब सफिया मदीना में पहुंची अंसार की निसाओं (औरतों) ने आवाज़ा (चर्चा) इस के हुस्न व जमाल का सुना था, वास्ते तफ़र्रुज (दीदार) के इस के पास गईं।” और आईशाؓ भी छुप कर अपनी सौत (सौतन) को देखने को गई थी। (मिन्हाज सफ़ा 874) चुनान्चे लिखा है :-

“सफिया ख़ैबर के असीरों (क़ैदियों) में से थी और नौ अरूस (नई शादीशुदा) 17 बरस की। पस ज़िक्र किया उस के हुस्न व जमाल का रसूल-ए-ख़ूदा के हुज़ूर (सामने), पस पसंद किया इस जनाब ने इस को अपने वास्ते।.....सफिया असीरों (क़ैदियों) में थी और दहिय कलबी के सहम में आएं और अर्ज़ की लोगों ने हज़रत से कि या रसूल अल्लाह वो निहायत जमीला (खुबसूरत) है और सरदार-ए-क़बीला और यहूद के शाहों से एक बादशाह की बेटी है। हारून पैग़म्बर की औलाद में से, मुनासिब ये है कि वो मख़्सूस आपसे हों और अस्हाब (सहाबा) के दरम्यान मानिंद दहिय के बहुत हैं और ग़नीमत में सफिया की मानिंद कम याब।....बाअज़ रिवायतों में आया है कि दहिय को हज़रत ने सफिया के चचा की बेटी दी एवज़ (बदले) में सफिया के, और एक रिवायत में यूं आया है कि ख़रीद फ़रमाया सफिया को दहिय से सात जारीया (लोंडियां) देकर।” (मिन्हाज, सफ़ा 502)

और सफिया का ये वाक़िया तो सहीह मुस्लिम में है, पारा दोम :-

सहीह मुस्लिम - जिल्द दोम - निकाह का बयान - हदीस 1004

रावी ज़हीर बिन हर्ब इस्माईल इब्ने अलैहि अब्दुल अज़ीज़ अनस

حَدَّثَنِي زُهَيْرُ بْنُ حَرْبٍ حَدَّثَنَا إِسْمَعِيلُ يَعْنِي ابْنَ عُلَيَّةَ عَنْ عَبْدِ الْعَزِيزِ عَنْ أَنَسٍ أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ غَزَا خَيْبَرَ قَالَ فَصَلَّيْنَا عِنْدَهَا صَلَاةَ الْغَدَاةِ بِغَلَسٍ فَرَکِبَ نَبِيُّ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ وَرَکِبَ أَبُو طَلْحَةَ وَأَنَا رَدِيفُ أَبِي طَلْحَةَ فَأَجْرَی نَبِيُّ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فِي زُقَاقِ خَيْبَرَ وَإِنَّ رُکْبَتِي لَتَمَسُّ فَخِذَ نَبِيِّ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ وَانْحَسَرَ الْإِزَارُ عَنْ فَخِذِ نَبِيِّ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَإِنِّي لَأَرَی بَيَاضَ فَخِذِ نَبِيِّ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَلَمَّا دَخَلَ الْقَرْيَةَ قَالَ اللَّهُ أَکْبَرُ خَرِبَتْ خَيْبَرُ إِنَّا إِذَا نَزَلْنَا بِسَاحَةِ قَوْمٍ فَسَائَ صَبَاحُ الْمُنْذَرِينَ قَالَهَا ثَلَاثَ مَرَّاتٍ قَالَ وَقَدْ خَرَجَ الْقَوْمُ إِلَی أَعْمَالِهِمْ فَقَالُوا مُحَمَّدٌ وَاللَّهِ قَالَ عَبْدُ الْعَزِيزِ وَقَالَ بَعْضُ أَصْحَابِنَا مُحَمَّدٌ وَالْخَمِيسُ قَالَ وَأَصَبْنَاهَا عَنْوَةً وَجُمِعَ السَّبْيُ فَجَائَهُ دِحْيَةُ فَقَالَ يَا رَسُولَ اللَّهِ أَعْطِنِي جَارِيَةً مِنْ السَّبْيِ فَقَالَ اذْهَبْ فَخُذْ جَارِيَةً فَأَخَذَ صَفِيَّةَ بِنْتَ حُيَيٍّ فَجَائَ رَجُلٌ إِلَی نَبِيِّ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَقَالَ يَا نَبِيَّ اللَّهِ أَعْطَيْتَ دِحْيَةَ صَفِيَّةَ بِنْتَ حُيَيٍّ سَيِّدِ قُرَيْظَةَ وَالنَّضِيرِ مَا تَصْلُحُ إِلَّا لَکَ قَالَ ادْعُوهُ بِهَا قَالَ فَجَائَ بِهَا فَلَمَّا نَظَرَ إِلَيْهَا النَّبِيُّ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ خُذْ جَارِيَةً مِنْ السَّبْيِ غَيْرَهَا قَالَ وَأَعْتَقَهَا وَتَزَوَّجَهَا فَقَالَ لَهُ ثَابِتٌ يَا أَبَا حَمْزَةَ مَا أَصْدَقَهَا قَالَ نَفْسَهَا أَعْتَقَهَا وَتَزَوَّجَهَا حَتَّی إِذَا کَانَ بِالطَّرِيقِ جَهَّزَتْهَا لَهُ أُمُّ سُلَيْمٍ فَأَهْدَتْهَا لَهُ مِنْ اللَّيْلِ فَأَصْبَحَ النَّبِيُّ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ عَرُوسًا فَقَالَ مَنْ کَانَ عِنْدَهُ شَيْئٌ فَلْيَجِئْ بِهِ قَالَ وَبَسَطَ نِطَعًا قَالَ فَجَعَلَ الرَّجُلُ يَجِيئُ بِالْأَقِطِ وَجَعَلَ الرَّجُلُ يَجِيئُ بِالتَّمْرِ وَجَعَلَ الرَّجُلُ يَجِيئُ بِالسَّمْنِ فَحَاسُوا حَيْسًا فَکَانَتْ وَلِيمَةَ رَسُولِ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ

तर्जुमा :-

’’ ज़हीर बिन हर्ब, इस्माईल, इब्ने अलैहि, अब्दुल अज़ीज़, हज़रत अनस रज़ीयल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने ख़ैबर का ग़ज़वा (जंग) लड़ा हमने इस ख़बीर के पास ही सुबह की नमाज़ अंधेरे में अदा की तो अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम सवार हुए और अबू तल्हा भी सवार हुए और मैं अबू तल्हा के पीछे बैठा नबी करीम सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने ख़ैबर के कूचों में दौड़ लगाना शुरू की और मेरा घुटना अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम की रान (जांघ) से लग जाता था और नबी करीम सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम का इज़ार (पजामा) भी आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम की रान (जांघ) से खिसक गया था और मैं अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम की रान (जांघ) की सफ़ेदी देखता था जब आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम बस्ती में पहुंचे तो फ़रमाया अल्लाहु अकबर اَللَّهُ أَکْبَرُ ख़ैबर वीरान हो गया बे-शक हम जब किसी मैदान में उतरते हैं तो इस क़ौम की सुबह बरी हो जाती है जिनको डराया जाता है इन अल्फ़ाज़ को आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने तीन मर्तबा फ़रमाया और लोग अपने अपने कामों की तरफ़ निकल चुके थे उन्होंने कहा मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) आ चुके हैं अब्दुल अज़ीज़ ने कहा कि हमारे बाअज़ साथीयों ने ये भी कहा कि लश्कर भी आ चुका रावी कहते हैं हमने ख़ैबर को जबरन फ़त्ह कर लिया और क़ैदी जमा किए गए और आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम के पास दहिय हाज़िर हुए और अर्ज़ किया ऐ अल्लाह के नबी मुझे क़ैदीयों में से बांदी अता कर दें आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने फ़रमाया जाओ और एक बांदी ले लो उन्होंने सफिया रज़ीयल्लाहु तआला अन्हा बिंत हय्यी को ले लिया तो अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम के पास एक आदमी ने आकर कहा ऐ अल्लाह के नबी आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने दहिय को सफिया बिन हय्यी बनू-क़ुरेज़ा व बनू-नज़ीर की सरदार अता कर दी वो आपके इलावा किसी के शायान-ए-शान नहीं आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने फ़रमाया दहियह को बांदी के हमराह (साथ) बुलाओ चुनान्चे वो इसे लेकर हाज़िर हुए जब नबी करीम सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने उसे देखा फ़रमाया कि तू इस के इलावा क़ैदीयों में से कोई बांदी ले-ले और आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने उन्हें आज़ाद किया और उनसे शादी की साबित रावी ने कहा ऐ अबू हमज़ा इस का महर किया था? फ़रमाया उनको आज़ाद करना और शादी करना ही महर था जब आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम रास्ते में पहुंचे तो उसे उम्म सलीम ने तैयार कर के रात के वक़्त आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम की ख़िदमत में भेज दिया और नबी करीम सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने बहालत उरूसी (दूल्हा) सुबह की। आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने फ़रमाया जिसके पास जो कुछ हो वो ले आए और एक चमड़े का दस्तरख्वान बिछवा दिया चुनान्चे बाअज़ आदमी पनीर और बाअज़ खजूरें और बाअज़ घी लेकर हाज़िर हुए फिर उन्होंने इस सबको मिला कर मलीदा हलवा तैयार कर लिया और यही रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम का वलीमा था।”

फिर लिखा है कि आज़ादी इस का महर था। देखो इस 17 बरस की हसीना व जमीला (सीरत व सूरत कि खुबसूरत) शहज़ादी को एक हरीफ़ उड़ाए लिए जाता था। हज़रत ने ताड़ा (उर्दू में ताड़ना घूरने को कहते हैं) और दहियह के हाथों से बक़ौल जनाब “अपने जोरू (बीवी) करम को काम फ़र्मा कर रिहा कर दिया।” वाह-रे जोरू (बीवी) करम वाह हातिम की गुर पर लात मारना इसी को कहते हैं।

बक़ौल सादी शीराज़ी :-

شنیدم گو سپندے رابزرگی رہا نید ازدہان ودست گرگے

شبان گاہ کارو بر خلقش بمالید روان گو سپندازوی بنالید

کہ از چنگال گر گم درر بودی چو و یدم عاقبت گرگم تو بودی

शनेदम गो सिपन्दे राबुज़रगी रहा नीद अज़दहान वदस्त गर्गे शबान गाह कारव बर ख़लकश बमालीद रवाँ गो सपनदाज़वी बुना लीद कि अज़ चुंगल गिर गुम दरर बोदी चूविदम आक़िबत गर्गम तो बोदी

अबुलफिदा में है कि “सफिया से रसूल मक़्बूल ने अपना निकाह किया और आज़ाद कर देना इसका महर मुक़र्रर फ़रमाया।” (सफ़ा 331) बहर-ए-हाल उस को जोरू (बीवी) बनाया और इस के सिले में जो कुछ इस से किया, सुलूक या बद सुलूक इसके लिए हम मुहम्मदﷺ की नबुव्वत के मशकूर हैं। हमको ये आज़ादी बिल्कुल जुवेरिया की आज़ादी मालूम होती है।

दफ़्अ पंजुम

सफ़ीहؓ से जबरन सोहबत

मगर आपके सुख़न (कहने) में है कि हज़रत ﷺ ने ख़ुद इस की ख़्वाहिश से और इस की रज़ा व रग़बत से इस के साथ निकाह किया। इस में कलाम ही क़रीना (वाक्यात का ताल्लुक़) इस के ख़िलाफ़ है क्योंकि रोज़तुल-अहबाब जिल्द अव्वल सफ़ा 595 में है :-

’’ چوں بمنز لےرسید ند کہ انراتبا رمیگفتذ واز انجاتاخیبر شش میل راہ است خواست کہ بادے زفاف کند صفیہ راضی نشد امتناع نمو د چنانچہ حضرت ازوی درغضب رفت و چوں بمنز ل صبہارسید ند باام سلیم مادر اِنس گفت کار سازی دے بکسنید کہ امشب بادی زنان خوہم کردرام سلیم بموجب فرمودہ اور انجیمہ بردوموے سردے شانہ کردو اوراخوش بوے ساخت ام سلیم گوید صفیہ زنے بود بغایت جوان چنانچہ درانوقت ھنوز ہفتد ہ مصالہ بود وزینت و زیورویرامی برازید باوگفتم چون پیغمبر صلم پیش تو آید بر خیز ی واقبال نمائی بروے وامتناع نہ نمائی صفیہ قبول نمودہ دران منزل حضرت باوے زفاف نمود‘‘۔

ये अच्छी उम्म सलीम थी। जो इन जवान औरतों को इस औरतें और ख़ुशबू पसंद करने वाले नबी से बना कर सिंगार करा कर मिलाया करती थी। ऐसी औरतों को कुटनी (दलाला) कहते हैं। मगर बटाला के मौलवी की ज़बरदस्ती भी क़ाबिल-दाद है। आप फ़रमाते हैं “हज़रत सलअम ने हज़रत सफिया के जमाल बा-कमाल के शौक़ से इनसे निकाह नहीं किया बल्कि सिर्फ उन की दरख़्वास्त से।” (सफ़ा 187) ये होता तो उनके होते इसी साल दो बूढ़िया औरतों (उम्म हबीबहؓ व मैमूनाؓ ) से आप का निकाह हरगिज़ ना होता, कि किस दर्जा हज़रत सफिया पर शैदा (फ़िदा) थे और कैसी कैसी बेसब्री करते थे उम्मे सलीम की मदद लेते थे और मुतलक़ ना ख़्याल करते थे कि ये औरत जिसके अज़ीज़ रिश्तेदारों का ख़ून अभी ज़मीन पर सूखा भी नहीं ज़रा दम लेने पाए। कुछ तो हम दिखा चुके और कुछ और आगे दिखाएँगे। उम्म हबीबाؓ और मैमूनाؓ का हाल आइन्दा आएगा कि किस ग़रज़ से उन से निकाह था।

देखो पहली मंज़िल तक तो ये सफिया हज़रत से राज़ी ना हुई और कह चुकी थी “आप ने मेरे बाप और चचा के बेटे और मेरे भाई सबको क़त्ल किया।” बेचारी अपने बाप, भाई और शौहर के क़ातिल से राज़ी होती कैसे? और जब हज़रत ख़ेमा में इस के साथ रात बसर करते हैं तो अबू अय्यूब पहरा लगाते हैं, मबादा वो हज़रत को अपने बाप के एवज़ (बदले) सोते में क़त्ल कर डाले और इसी को जनाब फ़रमाते हैं “ख़ुद सफिया की ख़्वाहिश से और उस की रज़ा व रग़बत से उस के साथ निकाह किया।” शायद रज़ा व रग़बत की तारीफ़ हाई कोर्ट कलकत्ता में आप भी करते हैं। इस को ज़िना बिलजब्र (ज़बरदस्ती से किया गया ज़िना) कहते हैं। मगर आप इस को “जोदो करम को काम फ़रमाना” कहते जाएं या कुछ और कहें ज़बान आपकी है।

11 - मैमूनाؓ का हाल

“मैमूना जिनसे आप ने मक्का में अक़्द (निकाह) किया था, आपकी अज़ीज़ थीं और पच्चास बरस से ज़्यादा उनका सन (उम्र) हो चुका था। उनका निकाह जो आपके साथ हुवा तो एक फ़ायदा तो इस से ये हुआ कि एक ग़रीब रिश्तेदार की गुज़ारन (गुज़ारा) की सूरत निकल आई, दूसरा फ़ायदा ये हुआ कि मशहूर व माअरूफ़ शख़्स इस्लाम के शरीक हो गई यानी अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास और ख़ालिद बिन वलीद।” (सफ़ा 311)

दफ़्अ अव्वल

मैमूना के रिश्तेदार

निकाह मैमूनाؓ सन सात हिज्री में हुआ। अगर दरअसल मैमूना की उम्र 50 बरस की थी तो हज़रत उस वक़्त अच्छे ख़ासे साठे सोपाहटी थे, क्या बुरा जोड़ा था। हज़रत की जोरूओं (बीवीयों) में इनसे ज़्यादा उम्र वाली कोई ना थी। मगर बुढ़ी ये भी ना थीं। इनके हुस्न व जमाल और काठी और तबीयत का हाल हज़रत के सुख़न (फरमान) से अयाँ है। चुनान्चे मुहम्मद हुसैन साहब अपने ख़ुत्बा में (सफ़ा 330) नक़्ल करते हैं :-

“आप ने अपनी अजवाज-ए-मुतह्हरात (पाक बीवीयां) उम्मे सलमा और मैमूना को एक नाबीना से पर्दा ना करने और ये उज़्र करने पर कि वो अंधा है ये फ़रमाया कि क्या तुम भी अंधीयाँ हो?, क्या तुम इस को नहीं देखतीं?”

हज़रत को फ़ित्ना का अंदेशा था। मैमूना की माँ का नाम हिंद था। इस की कई बेटियां थीं, सब हुस्न व जमाल के लिए मशहूर बेटियां चार (4) थीं मगर दामाद छः (6) हुए। एक दामाद उस के अब्बास थे, एक जाफ़र बिन अबी तालिब, एक अबू-बकर थे और एक हज़रतﷺ भी इस के दामाद थे। क्योंकि उस की “एक बेटी अस्मा बिन्त अमीस जो मशहूर साहिबे हुस्न व जमाल थी।” यकेबाअद दीगरे जाफ़र, अबू बक्र और अली से ब्याही गई और वलीद बिन मुग़ीरह ख़ालिद का बाप भी इस का एक दामाद था और ख़ालिद मैमूना का सगा भांजा था। (मिन्हाज जिल्द 2, सफ़ा 275) ये हमने इसलिए लिखा मबादा हमारे सय्यद साहब कह दें कि मैमूना बे वाली वारिस दर-ब-दर मारी मारी फिरती थी और हज़रत ने “जोदो करम को काम फ़रमाया।” मौलवी मुहम्मद हुसैन कहते हैं :-

“मैमूना के निकाह से बेवा पर्वी के इलावा एक अजीब व लतीफ़ रहीमाना पोलेटिकल पालिसी मद्द-ए-नज़र थी। हज़रत मैमूना मक्का वाले और आंहज़रतﷺ के जानी दुश्मनों के अक़्रिबा (रिश्तेदार) थीं।... आंहज़रत ﷺ उमरतुल-क़ज़ा (उमराह) के लिए मक्का मुकर्रमा में पहुंचे तो आप ने मैमूना को निकाह का पयाम भेजा। हज़रत अब्बास ने आंहज़रतﷺ से उनका निकाह कर दिया। जब उमरा से फ़ारिग़ हुए और तीन रोज़ मुद्दत क़ियाम मक्का के गुज़र गए तो कुफ़्फ़ार मक्का इख़राज (बाहर निकलने) के ख़्वाहां हुए। मैमूना के रिश्तेदारﷺ के पास आकर बोले हम आपको अह्द याद दिला कर कहते हैं कि आप मक्का से निकल जाएं। अब तीन दिन अह्द के गुज़र हैं। आंहज़रतﷺ ने पोलेटिकल मस्लिहत का भरा हुआ ये कलिमा फ़रमाया कि मैं ने तुम्हारी क़ौम में से एक औरत से यहां निकाह किया है। मैं इस से ज़िफाफ (हमबिस्तरी) चाहता हूँ। इस कलाम मोअजिज़ा निज़ाम और इस पालिसी पोलेटिकल मस्लिहत की भरी हुई ने इस वक़्त लोगों पर असर ना किया।” (सफ़ा189-190)

ये तो मालूम है कि ना ये औरत मुहताज थी, ना बे-वाली वारिस (लावारिस)। जमाल के लिए ये ख़ानदान मशहूर था। उम्र के लिहाज़ से हज़रत से 10 बारह बरस कम। पोलेटिकल पालिसी भी इस निकाह से ये मंज़ूर थी कि मक्का में क़ियाम करने और नक़ज़ अह्द करने का हीला (बहाना) हाथ लगे। पस हम ख़ुरमा वहम सवाब (वो फे़अल (अमल) जिसमें लज़्ज़त भी हो और कार-ए-ख़ैर भी) का मज़्मून था और सफिया के बाद इस औरत से निकाह करना बेमहल (बेमौक़ा) ना था। और ना पुलाव क़ोरमा वाली तक़रीर आपको जे़ब देती है। मैमूना को “जौ की सूखी रोटी” कहना बजा था। हज़रत कभी कभी ये बेसनी रोग़नी रोटी भी खा लेते थे। कोई ताज्जुब का तअन नहीं। रही ये बात कि अब्दुल्लाह और ख़ालिद मुसलमान हो गए तो ये भी उम्मीद की जाती है कि मैमूना का भांजा या बहनोई हज़रत का भांजा या हमज़ुल्फ़ (साड़ू) बनने के वास्ते जो कुछ करते थोड़ा था। अब तो हज़रत अरब के बादशाह थे। सालों, सुसरों की क्या कमी थी।

दफ़्अ दोम

हिबा नफ़्स (यानी किसी औरत का अपने आपको हुज़ूर को सौप देना)

मगर इस बीबी के निकाह की कैफ़ीयत क़ाबिल शुनीद (सुनी सुनाई) है। उन्हों ने अपना नफ़्स (अपने आपको) हज़रत को बख़्श दिया था। ये नफ़्स बख़्शी (किसी औरत का अपने आपको किसी मर्द को सौपना) मुसलमानों को अब नसीब नहीं। ये ख़ास हज़रत की ज़ात की रिआयत थी। बिला-महर (बगैर महर) जिस औरत को चाहें ले सकते थे। मैमूना ने अपना नफ़्स (अपने आपको) हज़रत को यूं बख़्श दिया और आयत (सुरह अह्ज़ाब रुकूअ 7 हिबा नफ़्स (यानी किसी औरत का अपने आपको हुज़ूर को सौंपना) इस पर नाज़िल हुई थी। (मिन्हाज 2 सफ़ा 876)

हिबा नफ़्स (यानी किसी औरत का अपने आपको हुज़ूर को सौप देना) नुज़ूल आयत हिबा के लोगों को कैसा मालूम पड़ता था, हम अज्वाज मुहम्मद ﷺ की शहादत इस पर पेश करते हैं :-

’’ کلینی بسند حسن ازامام محمدﷺ باقرروایت کرذاست کہ زنے ازالضا ر بخدمت رسول آمد خود را مشالگی کر وہ جامہائے نیکو پوشیدہ ورا نوقت حضرت بخانہ حفصہ یودپس گفت یا رسول اللہ اگر ترایمن حاجت سنت نفس خود رابتومی نجشم اگر قبول کنی مراپس حضرت اور ادعائے خیر کردحفصہ ان زن راملامت کردو گفت چہ بسیار کم است حیائی تو وچہ بسیار جرات می نمائی وحرص برمردان داری ‘‘ (हयात-उल-क़ुलूब ,सफ़ा 568)।

इसी तरह कई औरतों ने अपना नफ़्स (यानी अपने आपको) रसूल को बख़्शा। ये मैमूना बीबी ऐसी ही थीं और हफ़्सा ने जो कहा लारेब (बेशक) हक़ है सुरमू ख़िलाफ़ नहीं। मगर आज किसी मुसलमान की बेटी अपना नफ़्स (अपने आपको) किसी को इस तरह बख़्शने जाये तो वो वही कहेगा जो हफ़्सा ने कहा था।

दफ़्अ सोम

अज़्वाज हज़रत ﷺ (हज़रत की बीवीयों) की बद-गुमानी

हम मारिया का हाल जिससे सय्यद साहब ने क़तई इन्कार किया है आगे लिखेंगे, मगर यहां मैमूना का हाल कुछ और लिखते हैं ताकि नाज़रीन को मालूम हो जाये कि हज़रत की औरतें कैसा उन को बे-इख़्तियार समझती थीं और किस-किस तरह की हरकतें औरतों के बारे में हज़रत से रोज़ सरज़द होती थीं कि उनका ख़्याल हज़रत की निस्बत ऐसा हो गया था :-

“मैमूना से मर्वी है कि कहा एक शब (रात) मेरी नौबत (बारी) की शबों (रातों) से रसूल अल्लाह मेरे पास से बाहर गए, उठी मैं और दरवाज़े को मैंने बंद किया। एक लख्ता के बाद फिर आए और दरवाज़े को ना खोला मैंने। हज़रत ने मुझे क़सम दी कि दरवाज़ा खोल। मैंने कहा या रसूल अल्लाह मेरी नौबत (बारी) की शब (रात) दूसरी बीवीयों के घर में जाते हो, फ़रमाया ऐसा नहीं किया मैंने व लेकिन क़ज़ा-ए-हाजत (बैतूल-खला) के वास्ते में गया था।” (मिन्हाज, सफ़ा 876)

पड़े पड़े चुपके से छुप के आप क़ज़ा-ए-हाजत के वास्ते जाते हैं और ये भी सच्च है और मैमूना का कहना भी। हज़रत ने उम्मत को भी हुक्म दे दिया है कि जोरू (बीवी) (बीवीयों) को ख़ुश करने की ग़रज़ से झूट बोलना मुबाह (जायज़) है। हमसे ख़दीजा ؓ के बाब में कहा जाता है कि हज़रत ने इस के साथ पाक-बाज़ी से एक मुद्दत गुज़ारी। हमें कैसे एतबार आए, ना मालूम किस-किस तरह और कब कब हज़रत क़ज़ा-ए-हाजत कर आए होंगे और इस बेचारी को ख़बर ना हुई और क्या अजब जो ख़बर भी हुई हो इसने बक़ौल शख़्स अज़खु़द दान ख़ताइज़ बज़ुर्गान अता टाल दिया हो?

फ़स्ल शश्म

हालात मज़ीद

हमारे सय्यद साहब ने इस क़द्र हज़रत की बीवीयां गिनवाई हैं और उनके हालात में भी वो क़ुत्आ बुरीद (यानी कांट छांट) की कि ना हज़रत की शक्ल असली पहचानी जाती है, ना उस की बीवीयों की और ख़ातिमा में आप फ़रमाते हैं “हज़रत ﷺ ने जो निकाह किए थे उनकी ये हक़ीक़त है।” हम भी अपने बयान की तरफ़ इशारा करके यही कहते हैं। मगर हज़रत ﷺ की इश्क़-बाज़ी की दास्तान तवील है और हमारे सय्यद साहब को इख़्तिसार मूजिब अफ़तसार मंज़ूर। ताहम कुछ हालात मुश्ते नमूना (मिसाल के तौर पर) और औरात (औरतों) के जिनको नीम जौरू (नाम निहाद बीवीयां) वो लौसे गलरोहीं जो हमने नहीं कहूरे कहना चाहीए मदारिजुन्नबी (مدارج النبوۃ) से नक़्ल कर के सुनाते हैं ताकि हमारे मुख़ातब की पालिसी हिमायत शारेअ इस्लाम में तश्त अज़बाम (मशहूर) हो।

हज़रत ﷺ की नीम जोरूएं (नाम-निहाद बीवीयाँ)

1. “बेटी ज़ह्हाक कलाबिया की थी जिस ने दुनिया को इख़्तियार किया।” ये हज़रत की जोरू (बीवी) हुई थी। आख़िर छोड़कर निकल गई और चूँकि हज़रत ने इस क़िस्म की औरतों की रोक के लिए कि भाग ना जाएं अपनी जोरूओं (बीवीयों) को मुसलमानों पर हराम क़रार किया था। पस उस को किसी ने ना पूछा कोई इस से निकाह ना कर सका। आख़िर इंतिहादर्जा के इफ़्लास (बहुत ही ग़रीबी) में मुब्तला हुई। ख़ुरमा की गुठलियां और ऊंट की मंगनीयां चुन-चुन कर गुज़रान (गुज़ारा करती) थी। ( मिन्हाज, सफ़ा 877)

2. “अस्मा कुन्दिया है कि इस को जोनियाह करके कहा है।” जब हज़रत ने उसे बुलाया अपने नज़्दीक इबा (इन्कार, ना-फ़रमानी) लाई वो औरत और सरकशी की। जब लाई गई जोनियाह और उतारी गई इस नख़लिस्तान (खज़ुरों के बाग़) में।....ऐ हज़रत पास उस के फ़रमाया मुहय्या कर अपनी ज़ात को वास्ते मेरे

3. (यानि अपने आपको मुझे सौंप दे) कहा इस (औरत) ने आया आमादा (सौपा) करती है मलिका अपनी ज़ात को फ़िरोमाया लोगों (बाज़ारू) के लिए।” इस औरत का बाप नोमान पेशवा और सरदार अहले कनुंदा का था। ये औरत इज़्ज़तदार और बाइस्मत मालूम होती है। हज़रत ने चाहा कि इस से सोहबत (हमबिस्तरी) करें। औरत ने अपना हसब व नसब बयान करके उनको क़ाइल करना चाहा और गोया कहा कि ऐ बुड्ढे नफ़्स परस्त क्या ज़ेबा है कि मुझ सी मलिका शरीफ़ नसब तुझे फ़िरोमाया (बाजारू) को अपनी आबरू दे डाले। हज़रत को फ़िरोमाया (बाजारू) इस (औरत) ने शायद इस क़रीना (वाक्यात के बहमी ताल्लुक़) से कहा होगा कि बावजूद दावा-ए-नुबूव्वत पराई बेटीयों और शरीफ़ ज़ादियों को ख़राब करना चाहता है। मगर हज़रत पर ये ज़ज्र (तंबीया, झड़की) कुछ असर पज़ीर हुआ बल्कि दराज़ किया (बढ़ाहाया) हज़रत ने अपने दस्त शरीफ़ (हाथों) (क्या मौज़ूअ लफ्ज़ है ! ये तो तब्बत यदा पढ़ने का महल है) के तईं ताकि पकड़ें उस के हाथ को और साकिन हुए वो शहवत से हज़रत इस वक़्त मग़्लूब हैं। इस की नसीहत नहीं सुनते, अपनी फ़िरोमायगी (कम हैसियती) नहीं देखते, ज़बरदस्ती करते हैं। वहां कोई पुलिस नहीं ताज़ीरात-ए-हिंद नहीं जो बेकसूँ का चारा है। “बोली वो आउज़ुबिल्लाह मिनका (اعوذ باللہ منک) “अल्लाह की पनाह तुझ से।” नफ़्स सरकश बे-हमीय्यत दर कि ज़लालत में भी अल्लाह के नाम से काँप जाता है। इस की पाक दामनी व इस्मत उस की ज़ज्र व तूबेख़ (डांट-फटकार और झड़कने से) और नाम-ए-ख़ुदा ने हज़रत के दिल को हिला दिया। शहवत का ग़लबा ज़ाइल हुआ। इनके और उस के नफ़्स की ख़बासत और शराफ़त की ना मुनासबत ने चौंका दिया। “हज़रत ने उसे फ़रमाया पनाह ढूंडी तूने पनाहगाह अज़ीम से” (यानी अल्लाह से), पस बाहर आए हज़रत अपना सामना लिए हुए। चंद साअत ज़मीर के डंक से ख़स्ता व पुरआशूब और औरत की आबरू रह (बच) गई।” (मिन्हाज सफ़ा, 878-877)

4. “एक और अम्रउत थी मलिका बिंत कअब।” रोजतुल-अहबाब (رو ضتہ الاحباب) में आता है कि जब हज़रत ने ख़ल्वत (तन्हाई) की उस से और जब पोशिश इस से दूर की (ये बे-हयाई के हालात हज़रत ने ख़ुद ही बयान किए होंगे) सपीदी (सपेद दाग़ पर) एक नज़र पड़ी, इस से मुतफ़र्रिक़ हुए और फ़रमाया कि लिबास पहन और तरफ़ अपने अहले (घर वालो) के मुल्हिक़ (चले जा) हो।” (मिन्हाजुन्नबी, सफ़ा 880)

5. शराफ वह्य कलबी की बहन तज़्वीज फ़रमाया हज़रत ने उसे, पस हुई वो पेश अज़दख़ोल।”

6. लैला बिंत हज़ीम तज़्वीज (निकाह) फ़रमाया इस को और थी ये औरत गय्यूर (बहुत गैरत वाली अपनी इज्जत का पास लिहाज़ रखने वाली)।” इस औरत ने हज़रत से तलाक़ ले ली थी। ग़ैरतदार औरतें हज़रत के पास नहीं रह सकती थीं। इन औरतों में जो हज़रत ने क़ुबूल कीं शायद एक शुरू में बागै़रत थी यानी उम्म सलमा, मगर हज़रत ने दुआ कर के इस की ग़ैरत ख़ुदा से दूर करा दी जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर चुके हैं। एक ये औरत भी ग़ैरतदार थी। शायद हज़रत की दुआ उस के हक़ में मुस्तजाब (क़ुबूल) नहीं हुई, इसलिए इस को तलाक़ लेनी पड़ी। इस का क़िस्सा तलाक़ यूं मर्क़ूम है कि :-

“लैला अपनी क़ौम के पास गई और उन्होंने इस को आग़ाह गिरदाना कि तू एक औरत है और मुहम्मदﷺ बहुत से क़बीले रखता है। तू ग़ैरत से जलेगी और बातें करेगी और वो क़हर में आएगा और तुझ पर बद्दुआ करेगा और दुआ उस की मुस्तजाब (क़ुबूल) है। जा तलब फ़स्ख़ निकाह कर।”

यहां से मालूम होता है कि हज़रत के अख़्लाक़ अपनी औरतों के साथ कैसे थे। चुनान्चे इस औरत ने हज़रत से तलाक़ लिया, मगर क़िस्मत बुरी ना थी उस को शौहर मिल गया। कोई ग़ैर-मुसलमान होगा जिस पर हज़रत की जोरूएं (बीवीयां) हराम ना थीं। (मिन्हाजुन्नबी, सफ़ा 880)

7. एक औरत थी मर्राह बिन औफ़ सअद। हज़रत ने इस की ख़्वास्तगारी (निकाह की ख्वाहिश) की थी मगर उस के बाप ने बहाना किया कि वो लड़की बरस (सफ़ेद दाग़) रखती है, आपके लायक़ नहीं। मुसलमान कहते हैं चूँकि लड़की बचाने के लिए बाप ने झूठ बोला। हज़रत की करामत से लड़की मबरूस (सफ़ेद दाग़ वाली) हो गई। (मिन्हाजुन्नबी 881)

8. एक औरत उम्म हानि थी जिससे ज़माना-ए-जाहिलीयत में हज़रत की आँख लड़ी थी। ये आपके चचा अबू-तालिब की साहबज़ादी थी और आप के भाई व जमाई हज़रत अली की हमशीरा। मगर हज़रत को ये ना मिली। चचा ने बेटी किसी और को दे दी। बाद मुद्दत ये फिर क़ब्ज़े में आई थी जब गोद में उस के नन्हे बच्चे थे। हज़रत से इस ने उज्र (बहाना) किया निकाह से, हज़रत ने मंज़ूर फ़रमाया। ज़िक्र इस का पहले हो चुका है। वाज़ेह हो के हमने मदारिजु- न्नबी से इन सात औरतों का ज़िक्र किया है और ये सात इलावा इन ग्यारह या पंद्रह के हैं जो अज़्वाज मुहम्मदﷺ (हुज़ूर कि बीवीयों) में दाख़िल समझी जाती हैं। और यह सात “उन बीस या एक ज़्यादा औरतों में से जिनको हज़रत ने वक़्तन-फ़वक़तन इलावा अजवाज-ए-मुतह्हरात (पाक बीवीयों) के ताड़ा था (मिन्हाज, सफ़ा 877)

फ़स्ल हफ़्तुम

हज़रत की लौंडियां

इलावा इन के हज़रत की लौंडियां हैं जिनका मुतलक़ ज़िक्र हमारे सय्यद साहब ने नहीं किया बल्कि ये भी कह दिया है कि “हमारे फुक़्हा ने लौंडियां रखने को जायज़ क़रार दिया है। हालाँकि ये फे़अल (अमल) आँहज़रत के अहकाम की असल मंशा के ख़िलाफ़ है। ताहम इस पर मुख़ालिफ़ीन इस्लाम ने निहायत सख़्त तअन किया है।” (सफ़ा 318) मगर मदारिजुन्नबी (مدارج النبوۃ) वाला नहीं मानता। वो सहीह तारीख़ जिसकी ताईद हर सीरत मुहम्मदी से बजुज़ जनाब की किताब के होती है। हज़रत की चार लोंडियां भी गिनवाता है। (सफ़ा 882) हम यहां दो के हाल तहरीर करते हैं जिनके हालात से आपने खासतौर पर इन्कार किया था।

1 – मारीयहؓ

मारिया बिंत शमाउन किब्ती ये कनीज़ सपीद (सफ़ैद पोस्त) साहब-ए-जमाल थी। मुसलमान हुई थी। हज़रत मुल्क-ए-यमीन (लौंडी) कर के उसे तसर्रुफ़ (इख्तियार) में लाए थे और इस से मुहब्बत रखते थे ऐसी कि हज़रत आईशाؓ सिद्दीक़ा इस पर रशक (हसद) करती थीं। और इब्राहिम बिन रसूल अल्लाह इस से पैदा हुआ और मदीना में भी वास्ते इस के घर तामीर किया गया। अब इस जगह को मिश्र बह उम्म इब्राहिम कहते हैं।” (मिन्हाज, सफ़ा 882) ऐसी कनीज़ मारिया जिस के इश्क़ में हज़रत इस दर्जा मुब्तला थे कि उनकी महबूबा आईशाؓ भी रशक (हसद) करती थी। हज़रत ने अज़्वाज मुहम्मदﷺ (हुज़ूर कि बीवीयों) के ज़मुरे (फेहरिस्त) में इस का ज़िक्र तक नहीं किया। और हमको दो एक औरतें ज़रूरत से ज़्यादा बुढ़ी करके दिखाईं और हज़रत के “जो दो करम” का राग अलापा। पस अब आपको कोई चारा नहीं। आप इस से इन्कार कर जाएं। आप बुरी रविश इख़्तियार किए हुए हैं। मौलाना हाली का सुख़न (फरमान) कितना रास्त आ रहा है। जिन्हें हो झूट को सच्च दिखाना, उन्हें सच्चों को झुटलाना पड़ेगा।

दफ़्अ अव्वल

तहरीम मारिया (यानी हुज़ूर का मारिया को अपने ऊपर हराम कर लेने) का क़िस्सा

सय्यद साहब अपनी अंग्रेज़ी किताब में फ़रमाते हैं कि “जो हिकायत हफ़्सा और मुहम्मदﷺ के ख़ानगी तनाज़ेअ की और बाब मारिया क़िब्तिया म्यूर सिपर नगर और ओस बर्न ने कुछ मज़ा लेकर बयान की है। अज़सरतापा झूट मह्ज़ और अज़राह बाअज़ के है। ये रिवायत जिसको तमाम मुअज़्ज़िज़ मुफ़स्सिरीन क़ुरआन बातिल ठहरा चुके हैं। फ़िल-हक़ीक़त बनी उमय्या या किसी अब्बासी अय्याश के ज़माने में बर-बनाए ज़ईफ़ तरीन सनद इजाद की गई और उन ईसाई नुक्ता-चीनों ने नबी को मुत्तहिम (बदनाम) करने की ग़रज़ से बड़ी हिर्स के साथ इस को क़ुबूल किया है। आयत क़ुरआन-ए-मजीद जो ख़्याल की गई है कि इस वाक़िया की तरफ़ इशारा करती है, दरअसल एक मुख़्तलिफ़ मुआमला से इलाक़ा है। मुहम्मदﷺ ने बचपन में जब वो अपने चचा के गल्ले चराते थे शहद का शौक़ पैदा कर लिया था जो अक्सर ज़ैनब के पास से आता था। हफ़्सा और आईशाؓ ने उनका शहद छुड़ाने की साज़िश कर ली और वो उन से क़सम लेने में कामयाब हो गईं कि फिर कभी शहद ना छूएं। मगर जब कसम खा चुके दिल में ख़्याल आया मैं मह्ज़ अपनी जोरूओं (बीवीयों) को ख़ुश करने की ग़रज़ से एक चीज़ को हराम ठहराए लेता हूँ जिसमें कोई अम्र हराम नहीं। इन के ज़मीर ने इस कमज़ोरी की बाबत उन को सख़्त मलामत की और तब ये आयत नाज़िल हुई “ऐ नबी क्यों हराम ठहराता है जिसे ख़ुदा ने हलाल ठहराया है, ख़ुशनुदी अपनी जोरूओं (बीवीयों) की।” (ज़मख़शरी सफ़ा 334)

हम को दिखाया जाता है कि कभी “ज़मीर” भी हज़रत को सख़्त मलामत करता था और वो भी शहद के तर्क पर। हम ये इन्कार नहीं करते कि हज़रत ने कभी शहद को अपने ऊपर क़समन हराम ठहरा कर क़सम नहीं तोड़ी। मगर हाँ ये भी कहते हैं कि वो क़िस्सा जो म्यूर और असपर नगर और अस-बर्न ने मारिया क़िब्तिया का बयान किया है अज़ सरतापा हक़ है और इस को झूटा कहने वाले झूटे हैं। ज़रा सब्र के साथ तारीख़ हमसे पढ़ो।

दफ़्अ दोम

क़ुरआन मजीद

रही क़ुरआन-ए-मजीद की आयत कि इस का शाने नुज़ूल क्या है। किसी ने शहद के वाक़िये को क़ियास (गुमान) किया, किसी ने मारिया क़िब्तिया को या किसी ने किसी और वाक़िया को। क्योंकि हराम को हलाल और हलाल को हराम करना हज़रत की ज़िंदगी के वाक़ियात में बकस्रत है। इसलिए मिन्हाज वाला इन तमाम क़िस्सों को नक़्ल करके कहता है “क़सम की सरवरे आलम ने और उन अक़्वाल के जमा होने में कहा है कि शायद ये तमाम उमूर अस्बाब ईला (ایلا) (किसी मर्द का क़सम खाना कि औरत के पास ना जाना) हुए हों।” (मिन्हाज जिल्द 2, सफ़ा 252)

पस बहरहाल वाक़ये सब सच्च हैं और तारीख़ मुहम्मदी मौअर्रखीन व मुस्लिमीन की लिखी हुई इस पर शाहिद (गवाह) है। आयत पर कोई झगड़ा नहीं, मगर मैं क़ुरआन-ए-मजीद की वो आयत पूरी पूरी नक़्ल किए देता हूँ क्योंकि हकीम नूर उद्दीन साहब शिकायत करते कि “पादरी लोग आयत तो नहीं सुनते सिर्फ़ एतराज़ करते हैं।” अच्छा साहब अब की आयत लें और इस के साथ उस की तफ़्सीर भी ताकि आपको मालूम हो कि मारिया क़िब्तिया की कैफ़ीयत से वो निहायत चस्पाँ है। सुरह तहरीम का शुरू है “ऐ नबी तू क्यों हराम करे जो हलाल किया अल्लाह ने तुझ पर चाहता है। रजामंदी अपनी औरतों की और अल्लाह बख़्शने वाला है, मेहरबान। ठहरा दिया अल्लाह ने तुमको खोल डालना अपनी क़समों का और अल्लाह साहब है तुम्हारा और वही है सब जानता, हिक्मत वाला और जब छुपा कर कही नबी ने अपनी किसी औरत से एक बात, फिर जब इस ने ख़बर दी इस को और अल्लाह ने जता दिया नबी को और ये जताई नबी ने इस में से कुछ और टला दी कुछ फिर जब वो जताया औरत को बोली तुझको किस ने बताया कहा मुझको बताया उस ख़बर वाले वाक़िफ़ ने और अगर तुम दोनों तौबा करती हो तो झुक पड़े हैं दिल तुम्हारे और अगर दोनों चढ़ाई करो गयां इस पर तो अल्लाह है इस का रफ़ीक़ (दोस्त) और जिब्राईल और नेक ईमान वाले और फ़रिश्ते इस के पीछे मददगार।”

अब कोई हज़रत से पूछे कि तर्क शहद पर औरतों की रजामंदी कैसी? औरतों को शहद तर्क करा देने से ग़रज़ किया? उनको क्या मिलता था? “क्यों हराम करे जो हलाल किया अल्लाह ने तुझ पर चाहता है रजामंदी अपनी औरतों की” पस ये मारिया का क़िस्सा है। औरतों को एक सौत (सौतन) से छुटकारा पाने की ग़रज़ थी। वो चाहती थीं कि हज़रत पर उसे हराम करवाएं। उन को ख़ुश करने को एक पकड़ के मौक़ा पर हज़रत ने उसे हराम कर लिया था। अब पशेमान (शर्मिंदा) हैं और हराम को हलाल करते हैं और फिर यह जो वारिद हुआ “जब छुपा के कही नबी ने अपनी किसी औरत से एक बात।” (आयत 3) भला हुर्मत शहद (शहद हराम करने) से इसको क्या मुनासबत। वो क्या राज़ था कि जिसके फ़ाश होने से भांडा फूट जाने का डर था। ये राज़ वही था कि हफ़्सा ने हज़रत को मारिया के साथ चोरी से अपनी बारी में कुछ नाकर्दनी (नाजायज़) करते पकड़ा था। हज़रत इस को छुपाते थे, मगर फ़ाश हो गया और फिर ये जो वारिद हुआ “और अगर दोनों चढ़ाई करो गयां इस पर तो अल्लाह रफ़ीक़ (दोस्त) है” इस के क्या मअनी। हुर्मत शहद (शहद हराम होने) को या इस की हालत को औरतों की चढ़ाई से किया ताल्लुक़। हज़रत चाहें मश्कों शहद पी लें जोरूओं (बीवीयों) को इस से ग़रज़ नहीं। हफ़्सा और आईशाؓ को क्या शामत थी कि अस्ल (शहद) के दुबारा हलाल कर लेने से वो हज़रत पर वो युरुश (गुस्सा) करें कि उनको सिवाए अल्लाह व जिब्राईल के कोई रफ़ीक़ (साथी) ना मिले। हज़रत ये सब कुछ वही है कि हफ़्सा व आईशा को मालूम हो गया कि हज़रत उन की बारी में छिप कर मारिया क़िब्तिया से सोहबत (हमबिस्तरी) करते थे। उन को मना कर दिया कि तुम चुप रहो, अब आज से मारिया मुझ पर हराम है मगर نہان کئے ماند آن رازی کزوسازند محفلہا औरतों के दिल में बात ना रह सकी। उन्हों ने राज़ फ़ाश कर दिया। हज़रत शर्मिंदा व ख़फ़ीफ़ (नादिम) हुए। चोरी खुल गई। उधर मारिया के इश्क़ ने भी ज़ोर किया आपने क़सम तोड़ डाली। जोरूओं (बीवीयों) ने चढ़ाई की बड़ी गति बनाई। बजुज़ इस के कोई चारा ना था कि आस्मान से आयत नाज़िल कराएं और जोरूओं (बीवीयों) को धमकाएं।

दफ़्अ सोम

मुअज़्ज़िज़ मुफ़स्सिरीन

अब हम आप को मुअज़्ज़िज़ मुफ़स्सिरीन क़ुरआन-ए-मजीद की भी सुनाए देते हैं। तफ़्सीर कबीर इमाम फ़ख़्रउद्दीन राज़ी में ये क़िस्सा मौजूद है। तफ़्सीर कश्शाफ़ अल्लामा ज़महशरी में मौजूद है। तफ़्सीर बैज़ावी में मौजूद है। तफ़्सीर मदारिक में है और फिर मशहूर व मारूफ़ तफ़्सीर जलालेन में जो निहायत ही मोअतबर और मशहूर तफ़्सीरों में शुमार की जाती है और दर्सी किताबों में शामिल है और बावजह इख़्तिसार के सहीह से सहीह रिवायत पर हावी है। सिर्फ इसी मारिया का क़िस्सा नक़्ल हुआ है और साहिबे तफ़्सीर हुसैनी शहद वाले क़िस्से को बयान कर के मारिया का क़िस्सा इस वसूक़ (यक़ीन) के साथ लिखते हैं :-

’’ در روایت شہیر آن است در روز نوبت حفصہ درخانہ دےرفتے دے با جازت آنحضرتﷺ بدیدن پدررفتہ بودماریہ قبطیہ راطلبید ہ وبخدمت خود سرفراز ساخت حفصہ بران مطلع شدہ اظہار ملال کر د حضرت فرمود کہ اے حفصہ راضی نیستی کہ اورابر خود حرام گردانم گفت ہستم یارسول اللہ فرمود کہ این سخن نزدتوامانت است باید کہ باکس نگوئی او قبول کردہ چون حضرت ازخانہ دے بیرون آمد فی الحال حفصہ این سخن رابا عائشہؓ درمیان نہا د و مثردہ دادہ کہ بارے ازقبطیہ خلاص یافتم و چون آن حضرت بخانہ عائشہؓ آمدازین حکایت بہ کنایت رمزے بازگفت واین سورہ نازل شد کہ چراحرام سیکنی انچہ خدائے تعالےٰ بر تو علال ساختہ یعنی ماریہ و سوگند میخوری‘‘۔

अब ये भी याद रहे कि हुसैनी इस रिवायत को “रिवायत अश्हर” (सबसे ज्यादा मशहूर रिवायत) कहते है और इसी की बाबत आप फ़रमाते हैं कि “तमाम मुअज़्ज़िज़ मुफ़स्सिरीन क़ुरआन-ए-मजीद बातिल ठहरा चुके हैं।” और आप तंज़ फ़रमाते हैं “ईसाई नुक्ता-चीनों ने नबी को मुत्तहिम (बदनाम) करने की ग़रज़ से बड़ी हिर्स के साथ इस को क़ुबूल कर लिया है।” खैर यह तो बेचारे ईसाईयों का क़सूर हुआ तो क्या अब आपके नाज़रीन इस से ये भी समझें कि तफ़्सीर कबीर व तफ़्सीर कश्शाफ़ व तफ़्सीर बैज़ावी व तफ़्सीर मदारिक व तफ़्सीर जलालेन व तफ़्सीर हुसैनी के मुअज़्ज़िज़ मुसन्निफ़ीन ने भी इसी ग़रज़ से इस क़िस्से को क़ुबूल करके “रिवायत अश्हर” (सबसे ज्यादा मशहूर रिवायत) ठहरा दिया है। क्या ईसाईयों ने इन बुज़ुर्गों को रिश्वत चटा दी? या ये भी कोई म्यूर साहब के आवरदे ख़्याल किए जाते हैं।

हम इस बे-बाक मुसन्निफ़ से पूछते हैं कि वो कौन से मुअज़्ज़िज़ मुफ़स्सिरीन हैं जिन्हों ने मारिया के क़िस्से को झूटा और किसी अब्बासी अय्याश की मन घड़त बनाया है? हमारे सय्यद साहब ने एक ये ग़ज़ब भी किया है कि अपने बयान के आख़िर में ज़मख़शरी का हवाला देकर गोया ये समझाया है कि साहिबे कश्शाफ़ ने इस क़िस्से को झूटा कहा है। ऐ नाज़रीन तुम इस धोके में ना आना। ज़मख़शरी सुरह तहरीम की तफ़्सीर को पहले क़िस्से मारिया ही से शुरू करता है और फिर दूसरा क़िस्सा अस्ल (शहद) का भी बयान करके दोनों क़िस्सों को सच्च और इस आयत का शाने नुज़ूल ठहरा कर यही लिखता है।” (لم تحرم ما احل اللہ لک ) من ملک لیمین اومن العسل ‘‘ (देखो कश्शाफ़ मत्बूआ कलकत्ता 1376 हि०, जिल्द सानी, सफ़ा 1499)

सय्यद साहब तुम तो चुप रहते तो अच्छा होता। हज़रत की लाईफ़ (हयात) लिख कर तुम को इस क़द्र झूट बोलना पड़ा और किस क़द्र ख़फ़ीफ़ (शर्मिंदा) होना पड़ा। देखो ज़मख़शरी भी तुमको ना उम्मीद करता है। सय्यद अमीर अली साहब ने तो कम सितम किया कि सिर्फ मुअज़्ज़िज़ मुफ़स्सिरीन का इन्कार कर के बड़े बड़े मुअज़्ज़िज़ मुफ़स्सिरीन को गोया ग़ैर मुअज़्ज़िज़ ठहराया था। मगर हकीम नूर उद्दीन साहब ख़ालिस सफ़ैद झूट और निरा-कज्ज़ब (सफ्फा-झूट) बोल कर भी नहीं शर्माए। वो मारिया व हफ़्सा के क़िस्से का इन्कार इन हकीमाना बल्कि क़ादियाना अल्फ़ाज़ में फ़रमाते हैं “ऐब गीर पादरी साहब अव्वल तो क़ुरआन-ए-मजीद से निकाल कर ये एतराज़ दिखा नहीं सकते बल्कि किसी तफ़्सीर से, रहबन् तफ़ासीर रसुल साहब वरंडवेल (ये राडोल की ख़राबी) है ने तफ़ासीर क़ुरआन-ए-मजीद लिखी हैं। फिर क्या इन तफ़ासीर के बाइस इस्लाम या क़ुरआन मजीद या साहिबे क़ुरआन महल एतराज़ हो सकता है।” (फ़स्लुल-ख़िताब, जिल्द अव्वल, सफ़ा 165-164) किसी तफ़्सीर से हकीम साहब ने शदीद क़ादियान में बैठ कर ये कुछ लिखा है। अब तो क़ुरआन से भी हम ने वो क़िस्सा दिखा दिया और तफ़ासीर से भी। और हम एक बात आपको बता दें कि सेल साहब या राडोल साहिबान ने क़ुरआन-ए-मजीद की कोई तफ़्सीर नहीं लिखी। सेल साहब ने अपने क़ुरआन मजीद के तर्जुमा पर जलालेन व बैज़ावी व याह्या वग़ैरा मुफ़स्सिरीन की इबारतें बतौर हाशिया चढ़ा कर इस आयत का शान नुज़ूल दिखाया है। और हम तो आपको सेल साहब की तरफ़ रुजू करने को नहीं कहते आप अपनी तफ़ासीर देखकर होश में आएं और झूट ना बोलें। क़ुरआन-ए-मजीद में ये भी लिखा है لَّعْنَتَ اللَّهِ عَلَى الْكَاذِبِينَ तर्जुमा : झूटों पर ख़ुदा की लानत भेजें (सुरह आल-ए-इमरान आयत 61)

लतीफ़ा हकीम साहब इस क़िस्से की तक़्ज़ीब (झुठलाने) में हज़रत की निस्बत फ़रमाते हैं “वो हमारे सच्चे और पाक, हाँ निहायत सच्चे और निहायत पाक ख़ातिम-उल-अम्बिया ख़ूब “सच्चे और निहायत सच्चे” तो आप शरई क़सम तोड़ने की वजह से हुए और “पाक और निहायत पाक” आप मारिया के साथ ज़ाहिर होने की वजह से जिस पर हफ़्सा शाहिद (गवाह) है। हकीम साहब ने बुरा ख़फ़श को भुला दिया।

दफ़्अ चहारुम

असल क़िस्सा

अब और सुनिए आप फ़रमाते हैं “फ़िल-हक़ीक़त बनी उमय्या या किसी अब्बासी अय्याश के ज़माने में बर्बनाए ज़ईफ़ तरीन सनद रिवायत ईजाद की गई है।” पस हमको ज़रूर हुआ कि हम आपके दरोग़ बे फ़रोग़ पर किसी सख़्त दुश्मन ख़ानदान उमय्याह व अब्बासिया को शाहिद (गवाह) लाए। आपने हमको अपनी अंग्रेज़ी किताब में समझा दिया कि शियाने अली (अली के मानने वाले शिया) ताबआंन अहले-बैत बनी उमय्या और ख़ानदाने अब्बासिया के दुश्मन-ए-जानी हैं। मुल्ला बाकर मजलिसी आलिम शीया हयात उल-क़ुलूब सफ़ा 577 में सूरत तहरीम की आयात मज़्कूर सदर की बाबत लिखता है :-

’’ علی بن ابراہیم بہ سند معتبر ازحضرت صادق روایت کردہ است کہ این آیات دروقتے نازل شد کہ عائشہؓ و حفصہ مطلع شد ند کو حضرت رسول باماریہ نزدیکی کردہ است و حضرت سو گند یا د کرو کہ دیگر بار ماریہ نزدیکی نکندپس حق تعالےٰ این آیات رافرستاد وامرکر د آنحضرت راکہ کفارہ قسم خودراید ہدو ترک مقاربت ماریہ ننماید‘‘

हज़रत सादिक़ यानी हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ जिनको आपने बड़ा सतहर आलिम व फ़क़ीह मुस्लिमा जम्हूर मुस्लिमीन व उस्ताद इमाम अबू हनीफा बयान फ़रमाता है (सफ़ा 508, सफ़ा 518 अंग्रेज़ी) और जिन का ज़माना दर्मियान 83-178 हि० के हुआ “बसनद मोअतबर अज़ हज़रत सादिक़” अली बिन इब्राहिम ने ये रिवायत बयान की है। और अफ़्सोस है फ़ज़ीलत व तक़्वा व वरअ इमाम सादिक़ पर अगर उन को इफ़्तिरा (बोहतान) बनी उमय्या या किसी अय्याश ख़ानदान अब्बासिया की रिवायत और सहीह रिवायत में तमीज़ ना हो सकी। तो क्या अब हम आपका सुख़न (फरमान) मान लें कि “तमाम मुअज़्ज़िज़ मुफ़स्सिरीन क़ुरआन-ए-मजीद ने इस रिवायत को बातिल ठहराया है” या हम बाक़िर मजलिसी की सुनें जो कहता है :-

شیخ طبرسی و جمع ازمفسران عامہ روایت کرد ہ اند کہ روزے حضرت رسول درخانہ حفصہ بودو حفصہ رخصت طلبید کہ بخانہ پدر خودبردووچون مرخص شد و بیرون رفت حضرت ماریہ راطلبید و باد خلوت کرد و چوں حفصہ برگشت درخانہ رابستہ دیدپس صبر کروتا حضرت درراکشو دوازروے مبارکش عرق میر بخث ’’۔ (सफ़ा 577)

और 578 मैं लिखता है :-

’’ چوں حفصہ برین امر مطلع شد غضبناک گردید و گفت یارسول اللہ ور روز نوبت من درفراش من باکنیزے مقاربت مسکینی ‘‘۔

अगर कोई शर्मदार होता तो चुल्लू भर पानी में डूब मरता। रसूल-ए-ख़ूदा को हफ़्सा अख़्लाक़ व आदाब शौहरी का सबक़ दे रही है पस आंहज़रतﷺ शर्मिंदा शुद (ग़नीमत है मगर ये शर्म जल्द दफ़्अ हो जाएगी और आप इस से ज़्यादा बेशर्मी करेंगे। अपनी क़समें तोड़ेंगे और औरत बेचारी को डाँटेंगे।)”

’’ فرمودکہ این سخن راہگذ ار کہ ماریہ رابر خود حرام گردانیدم و دیگر ہر گز با او مقاربت نخواہم کرو‘‘۔

अपना ऐब छिपाने के लिए अपने नंग ढाँकने के लिए हज़रत ने औरत को यूं टाला, क़सम खाई औरत को ठंडा किया। कहाँ हैं जस्टिस अमीर अली मुहम्मद की दादें। उस वक़्त इनके ज़मीर ने इस कमज़ोरी की बाबत कोई सख़्त मलामत “हज़रत को ना की। आख़िर इश्क़ ग़ालिब आया, शर्म दफ़्अ हुई। हज़रत ने क़सम तोड़ी और क़ुरआन-ए-मजीद भी याद न रखा “ना तोड़ क़समें पक्की किए पीछे।” (सुरह नहल रुकूअ 13) अफ़्सोस हज़रत ने ख़ुदा पर बुहतान बाँधा और इन पर वो आयत सादिक़ आई “हमने उस को दीं अपनी आयतें फिर उन को छोड़ निकला तो वो हुआ गुमराहों में।” (सुरह आराफ़ रुकूअ 22) हज़रत ने आख़िर ख़ूब सोच समझ कर अपने गुनाह को हल्का करने के वास्ते क़ुरआन-ए-मजीद में कहा था “उस से बढकर ज़ालिम कौन जो झूठ बाँधे अल्लाह पर या कहे मुझको वहीय आई और इस को वहीय कुछ नहीं आई।” (सुरह अनआम रुकू 4) हज़रत ने अपने ज़ुल्म का एतराफ़ किया, इस आक़लाना पैराए में और गुनाहगार अंदेशा नाक्साज़ ख़ुदा हो गए। मगर बक़ौल शख़्सी हम तो मुर्शिद थे, तुम वली निकले। सय्यद अमीर अली साहब ने मारिया और हफ़्सा के इस क़िस्से से इन्कार किया था, मगर नूर उद्दीन साहब ने ज़मना मारिया के वजूद से भी इन्कार कर दिया और ये ख़ूब किया। डबाही नहीं रखा मुर्ग़ा कहाँ रहेगा। चुनान्चे आप फ़रमाते हैं “बल्कि मुहक़्क़िक़ीन ने मारिया के वजूद से भी इन्कार किया है” और मुहक़्क़िक़ीन ऐसा ही होना चाहीए। बराए नवाज़िश आप हमको उन मुहक़्क़िक़ीन का नाम तो बताएं ताकि मालूम हो कि आया वो सिवाए आपके कोई और भी हैं। हमने तो आज तक बजुज़ आपके और किसी मुहक़्क़िक़ का नाम नहीं सुना। मगर आप भी पाया तहक़ीक़ से गिरे हुए मालूम होते हैं और उन मुहक़्क़िक़ीन के ज़मुरा में शामिल होने के लायक़ नहीं क्योंकि बावजूद इन्कार वजूद मारिया आपने फ़रमाया है :-

“ये मारिया वो थी जिसकी हक़ीक़ी बहन हस्सान के घर में थी। ये मारिया वो है जिसके साथ शहिबा ज़ख़चरी आए जिसे मुसलमान दलदल कहते हैं (ख्व़ाब मारिया के साथ ख़चरी की आमद यक ना शद दोशद)……मारिया हमारे ख़ातिम-उल-अम्बिया की उम्मुल वलद और सुरिय्या बीबी थीं।” (सफ़ा 152)

वाह रे महक़्क़ू किस बरते पर वजूद मारिया से इन्कार किया है? ख़ैर मारिया का ये मुख़्तसर हाल हमने बयान किया और आपके दारोग बे फ़रोग़ को चिराग़ दिखाया और साबित कर दिया कि ये क़िस्सा उमय्या या किसी अब्बासी अय्याश के ज़माना में ईजाद नहीं हुआ बल्कि फ़िल-हक़ीक़त अय्याशी के मर्द मैदान बन कर ख़ुद आपके “सच्चे और पाक हाँ निहायत सच्चे और पाक ख़ातिम-उल-अम्बिया” ने इस क़िस्से को ज़ीनत बख़्शी। अब आप दूसरी लौंडी के भी हालात सुनिए।

2 – रेहानाؓ बिंत ज़ेदؓ

बनी नज़ीर के असीरों (क़ैदियों) से या बनी क़ुरैज़ा से वती (जिमाअ करना, पामाल करना) फ़रमाते थे। “हज़रत इस से मुल्क-ए-यमीन (लौंडी) कर के.......वफ़ात पाई उस ने हज़रत की वफ़ात के आगे हुज्जत-उल-विदा से फिरते वक़्त वफात पाई और बक़ीअ के दर्मियान दफ़न की गई।” (मिन्हाज, सफ़ा 883) ये तो मालूम हो चुका कि सय्यद साहब को हज़रत की लौंडियों के वजूद से बिल्कुल इन्कार है बल्कि लौंडियों का रखना ही “आँहज़रत के अहकाम की असल मंशा के ख़िलाफ़ है।” ताहम आप एक जगह निरा झूट बोलने से चूक गए। चुनान्चे बनी क़ुरैज़ा के असीरों (क़ैदियों) की कैफ़ीयत में आप फ़रमाते हैं, “मन्क़ूल है गोया शुब्हा है कि बक़ीया-तुस्सैफ़ यहूद जब मुसलमानों में तक़्सीम किए गए तो एक ज़न यहुदियाह रिहाना नाम आँहज़रत के हिस्से में आई। बाअज़ ने लिखा है कि वो पहले ही से आपके लिए मख़्सूस कर दी गई थी।” ये तकल्लुफ़ हैं। इनकी हक़ीक़त आगे ज़ाहिर होगी। फिर आप फ़रमाते हैं कि “ईसाई मुअर्रिख़ तो हमेशा इस फ़िक्र में रहते हैं कि ज़रा सा हिला (बहाना) भी मिल जाये तो पैग़म्बर इस्लाम पर एतराज़ कर बैठें। चुनान्चे इस रिवायत पर उन्हों ने बहुत गिरिफ़्त की है।” मुझको यक़ीन कामिल है कि हरगिज़ किसी ईसाई मुअर्रिख़ ने आप सा तर्ज़ इख़्तियार ना किया होगा। मगर हाँ अपना रुपया खोटा परखने वाले को इल्ज़ाम ये आपका काम है। आप फ़रमाते हैं :-

“रिहाना का हज़रत के हिस्से में आना चूँकि इस ज़माने के दस्तुरात मसअला जंग के सरासर मुवाफ़िक़ था। लिहाज़ा मौअर्खीन नसारा के एतराज़ात इस बिना पर मह्ज़ बे-बुनियाद हैं।”

इस बात में हमने आपसे सिर्फ एक सच्ची माअज़िरत सुनी है, वो यही है। हम तैयार हैं कि आपका सुख़न (फरमान) मान लें बल्कि इस से ज़्यादा हज़रत ने जो झूट बोले, हज़रत ने जो फ़रेब दीए, हज़रत ने जो नाहक़ बेगुनाहों के ख़ून किए और हज़रत ने जो हरामकारियां कीं ये सब “इस ज़माने के दस्तुरात” के सरासर मुवाफ़िक़ था। लिहाज़ा हम इस ज़माना के हज़रत पर एतराज़ करना नहीं चाहते। मगर हज़रत ने ख़ुदा से कलाम करने का दावा किया। जिब्राईल से वहीय हासिल करने का दावा किया। अपने तमाम अफ़्आल (आमाल) का कराने वाला हज़रत ने ख़ुदा को ठहराया। ज़ैद अपने फ़र्ज़ंद मुतबन्ना की जोरू (बीवी) छीनी ख़ुदा ने छिनवाई। मारिया और हफ़्सा की बारी में चोरी से सोहबत (हमबिस्तरी) की ख़ुदा ने कराई। इस पर एतराज़ है। वर्ना दरअसल हज़रत के अख़्लाक़ उन के हमअसरों के अख़्लाक़ से कुछ बहुत अच्छे नहीं थे और ना हो सकते थे। एतराज़ आप पर है जो आप उन को इस ज़माने के कोई तालीम याफ़्ता सय्यद साहब साबित करने चले हैं। पर जिस तरह हज़रत ने थोड़ी देर के लिए अपने ऊपर मारिया को हराम कर लिया था, और माबाअ्द फिर क़सम तोड़ कर उसे हलाल कर लिया। आप ने भी थोड़ी देर नीम सच्च बोला और झट से मुकर गए और कहने लगे, “मेरे नज़्दीक रिहाना के अज़्वाज पैग़म्बर (हुज़ूर की बीवी) में दाख़िल होने की रिवायत मस्नूई (खुदसाख्ता) है। अला-उल-ख़ुसूस जब देखा जाये कि इस सानिहा (पेश आने वाला वाक़िया) के बाद फिर इस का ज़िक्र कहीं तवारीख़ में नहीं है। हालाँकि दीगर अजवाज-ए-मुतह्हरात (हुज़ूर कि बीवीयां) का अहवाल मुशर्रेह व मुफ़स्सिल तवारीख़ में लिखा है।” (सफ़ा 107) ये एक तरह बिल्कुल सच्च है और हर एक तरह बिल्कुल झूट। रिहाना हज़रत की लौंडी थी। पस इस का ज़िक्र आप अज़्वाज (बीवीयों) में क्यों ढूंडते हैं। फिर लौंडी का अगर कहीं आपको मुफ़स्सिल ज़िक्र ना मिले। बजुज़ इस के कि वो असीर (क़ैदी) थी, लौंडी हुई, हज़रत ने इस से सोहबत (हमबिस्तरी) की वो मर गई और फ़ुलां मुक़ाम पर दफ़न हुई। तो क्या ताज्जुब ये लौंडी थी। मौअर्रखीन को हज़रत की और अज़्वाज (बीवीयां) जो ज़्यादा मुअज़्ज़िज़ (इज्ज़त वाली) थीं। इनके हालात भी तो क़लम-बंद करने थे। मगर नहीं आप ये यक़ीन दिलाना चाहते हैं कि हज़रत के पास कोई औरत रिहाना नाम नहीं रही और ना उन के तसर्रुफ़ (इख्तियार) में आई। हम आपको तवारीख़ दिखा दें ताकि आप ना भागें। अबूलफ़िदा जंग बनी क़ुरैज़ा के आख़िर में लिखता कि “बादअज़ां रसूल-ए-ख़ूदा ने जितनी औरतें और लौंडियां बनी क़ुरैज़ा की गिरफ़्तार आईं थीं और जितना माल-ए-ग़नीमत वहां से आया था, सब में से पांचवां हिस्सा निकाल कर सहाबा को तक़्सीम कर दिया। और अपने वास्ते (नाज़रीन ये अल्फ़ाज़ सुनें) एक औरत मुसम्मात रिहाना बेटी उमरू की छांट कर पसंद कर ली। (शाबाश) ये औरत ता वफ़ात पैग़म्बर ख़ुदा के उनके मुल्क में रही।” शायद “छांट कर पसंद करी” से हमारा मुख़ातब को समझना चाहीए कि ये बुढ़ी थी, बेवा भी थी, मुहताज थी और कोई मुसलमान इस को क़ुबूल भी नहीं करता था। हज़रत ने इस को परवरिश करने के लिए ले लिया था। मगर हज़रत “छांट कर पसंद” पसली फड़क उठी निगाह्-ए-इंतिख्व़ाब की।

फ़स्ल हश्तम

अय्याशी और मोअजिज़ा नबुव्वत

अब हम बस करते हैं गो हज़रत की अय्याशी का आमाल-नामा कोताह नहीं। ये सब ऐसी शर्म की बातें हैं जिनको मुसलमानों ने बड़े अदब पर बड़े फ़ख़्र के साथ बयान किया है। मगर इस ज़माने में हम अपनी क़लम से ये नक़्ल कुफ़्र भी ना करते अगर ये वाक़ियात इस पेशवा दीन की ज़िंदगी के जुज़्व-ए-आज़म (बड़े हिस्से) ना होते। अगर इन वाक़ियात से इस के पैरौ (मानने वाले) मुअज़्ज़िज़ और हक़ गो मौअर्रखीन व मोअतरज़ीन (एतराज़ करने वालों) को झुटलाने और अपने नबी की ऐब-पोशी कर के इस को ज़रूरत और हक़ीक़त से ज़्यादा पाक-बाज़ ठहराने की ग़रज़ से क़तअन इन्कार ना करते। हम भी इस ना-गुफ़्ता-बह बेशर्मी के कारख़ाने को ना खोलते बल्कि इस पर मुट्ठी ख़ाक डालने को राज़ी होते। पर हम मज्बूर हैं, मुख़ालिफ़ को जवाब देना फ़र्ज़ है। हज़रत ﷺकी सीरत लिखने वाले ईमानदारों ने हज़रत की जोरूओं (बीवीयों) के हाल मुफ़स्सिल तहरीर किए हैं और इसके साथ हज़रत के वो ताल्लुक़ात भी जिनको बजुज़ ज़ौजा (बीवी) शौहर के किसी को ना जानना चाहीए। ख़ुद ज़बानी उन की अजवाज-ए-मुतह्हरात (हुज़ूर कि बीवीयों) के बयान किए हैं। मुसलमानों ने हज़रत की अय्याशी को भी बफ़क़दान दीगर मोजज़ात में से एक मोअजिज़ा नबुव्वत समझा हुआ है। और वो माज़ूर हैं क्योंकि ख़ुद हज़रत ने उनको ये धोका दिया बल्कि ये समझा दिया कि इन को आस्मान से क़ुव्वत-ए-बाह व अम्साक् (यानी हमबिस्तरी करने की ताक़त) के नुस्खे़ हाथ लगे हैं। और हज़रत के इस नमूने ने उन की उम्मत के अख़्लाक़ कहाँ तक बर्बाद कर दिए हैं। मैं बाअज़ सका दराज़ रेश मौलवियों को शाहिद (गवाह) बनाता हूँ। चुनान्चे तर्जुमा मदारिजुन्नबी (مدارج النبوۃ ) जिल्द अव्वल सफ़ा 727 में है :-

“इब्ने सअद ने ताऊस और मुजाहिद से रिवायत किया है कि आँहज़रतﷺ को चालीस आदमीयों की क़ुव्वत जिमाअ (हमबिस्तरी की ताक़त) में दी गई थी।.....और सफ़वान बिन मुस्लिम से मर्वी है कि जिब्राईल मेरे पास एक देग (हांडी) पकी हुई लाए पस मैंने इस देग में से खाया पस चालीस मर्दों की क़ुव्वत मुझको जिमाअ (हमबिस्तरी) में दी गई।”

हज़रत जिब्राईल को बजुज़ क़ुव्वत-ए-बाह व ईमसाक (हमबिस्तरी करने कि ताक़त) की देग बनाने के और तो कोई काम रहा नहीं। शायद यही जिब्राईल हैं जिनको यहूद अपना दुश्मन कहते थे और जो हज़रत पर वहीय लाते थे। यहीं से तिब्ब नब्वी में माजून हाश्मी की ईजाद हुई। इस्लाम पर इस का असर ये हुआ कि :-

“इब्ने अब्बास रज़ीयल्लाहु अन्हो ने फ़रमाया कि निकाह करो क्योंकि बेहतर इस उम्मत में से वो शख़्स है जिसकी बीवीयां बहुत हैं।.....और बिलइत्तिफ़ाक़ अहले अरब की ख़ुशी और फ़ख़्र और फ़ज़ीलत मर्दों में जिमाअ (हमबिस्तरी) की क़ुव्वत में एक अम्र मुक़र्रर है और इस पर इस से ज़्यादा और दलील क्या होगी कि सय्यद अम्बिया सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही वसल्लम इस काम के करने वाले थे और निकाह का हुक्म कि चार औरतों के साथ तक करने का है आपको इस से ज़्यादा मुबाह (जायज़) हुआ।.... और आँहज़रत ने फ़रमाया मैं सब्र करता हूँ खाने और पीने से और नहीं करता हूँ औरतों से।....और हज़रत को जो जिमाअ (हमबिस्तरी) की क़ुव्वत थी वो भी मोअजिज़ा में दाख़िल है। क्योंकि एक शब (रात) में वो सब बीवीयों से मुबाशरत (हमबिस्तरी) फ़रमाते थे।” (सफ़ा, 727-729)

कहो हमारे मुख़ातब का कलाम कैसा सादिक़ आया “फे़अल (अमल करने) का असर हमेशा क़ौल (बोलने) से ज़्यादा होता है (और यहां क़ौल (कहने) से ज़्यादा फे़अल (अमल) दरअसल भी था।) लिहाज़ा जब बादशाहों के मुतअद्दिद महलात हुए तब रियाया उन की तक़्लीद (नक्शे क़दम पर चलने) से कब चूकती थी।” (सफ़ा 302) और यहां तक़्लीद नहीं बल्कि सुन्नते नब्वी है। इस पर इस से ज़्यादा दलील क्या होगी कि “सय्यद अम्बियाﷺ इस काम के करने वाले थे।” पस अब क़ुरआन-ए-मजीद व हदीस व सुन्नत नब्वी और कलाम अस्हाब व तफ़ासीर मोअतबरह को छोड़कर हम इस अंग्रेज़ी ख़वाँ नीम (नाम-निहाद) मग़रिबी हामी इस्लाम (इस्लाम हिमायत करने वाले) का क़ौल (कहा) कैसे मानें जो कहता है, कि बहर कैफ़ हुक्म तादाद अज़्वाज (बीवीयों की तादाद) को अज़कसम नवाही (नाजायज़, गैर-शरई) समझना चाहीए। मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब भी इस कस्रत जिमाअ (ज़्यादा हमबिस्तरी करने) के मोअजिज़ा की तरफ़ इशारा तो करते हैं, मगर इस के बयान से शर्माते हैं। आप दाऊद और सुलेमान की कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां रखने) के मज़्कूर के बाद रक़मतराज़ कि :-

“ऐसा ही आँहज़रतﷺ को समझना चाहीए। अम्बिया में ये क़ुव्वत (ताक़त) बतौर ख़रक़-ए-आदत (खास तौर पर) पाई गई है जिसका अक़्ली मरहम इस ख़ौफ़ से बयान नहीं करते कि मुख़ातबीन के मक़ूल इस के फ़हम से अपनी क़ासिर हैं।” (सफ़ा 195)

दाऊद और सुलेमान की कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां रखना) उनकी आहनी शरीअत के ख़िलाफ़ ना थी जिसका मज़्कूर आगे आएगा। हज़रत की कस्रत अज़वाजी (बहुत सी बीवीयां रखना) शराअ इस्लाम के ख़िलाफ़ थी। फिर बादशाहों का बहुत सी औरतों को फ़राहम करना ये क़दीम रिवाज के मुवाफ़िक़ था। लोग इस को शाने बादशाही समझते थे और इस्लामी सलातीन (बादशाह) अब तक समझते हैं। हम इस को मअयूब (एब वाला) जानते हैं और दाऊद और सुलेमान की हिमायत इस बारे में करते शर्माते हैं। और हमको जुर्आत नहीं कि हम इस अय्याशी को मोअजिज़ा या ख़रक़-ए-आदत (ख़ास) कहें। आगे जो आपने ये कुफ़्र बका है कि आँहज़रत ने आलम-ए-शबाब से लेकर पच्चास साल तक सिर्फ हज़रत ख़दीजा ؓ पर क़नाअत (सब्र) इख़्तियार की और हज़रत मसीह से फ़िल-जुम्ला मुशाबहत साबित की और उनकी वफ़ात के बाद मर्दाना क़ुव्वत की तरफ़ तवज्जा फ़रमाई और हज़रत दाऊद से मुशाबहत ज़ाहिर की और कि आँहज़रत औसाफ़ अम्बिया के जामा थे। (सफ़ा,195-196) इस का जवाब ये है कि आँहज़रतﷺ इब्तिदाई उम्र से ही इश्क़-बाज़ी करने लगे थे और आपने घर में शिकार खेलना शुरू कर दिया था। उम्म हानि का क़िस्सा हम आपको सुना चुके हैं और इसके बाद आप ख़दीजा ؓ की चाकरी करने लगे और बच्चे जनाना शुरू कर दिए। इन अय्याम में आपको शुब्हा हुआ कि आप काहिन (नजूमी) हो गए। इन्ही अय्याम (दिनों) में आप ख़ुदकुशी (आत्म-हत्या) के दरपे हुए और फिर आप हज़रत मसीह की मुशाबहत का दावा करते हैं। रही दाऊद की मुशाबहत, कैसी शर्म की बात है कि कोई ख़ुदा की ना-फ़रमानी करे और आदम का मिस्ल नबी क़त्ल करे और मूसा की नज़ीर बने झूट बोले और इब्राहिम का मुक़ल्लिद बने। इस माअने में हज़रत औसाफ़ अम्बिया साबक़ीन (पिछले अम्बिया) के जामेअ थे। तो ये हक़ है आप भूल गए कि क़ुरआन-ए-मजीद में हज़रत यहया के महामिद (ताअरीफें) बयान हुए हैं कि वो हसूर यानी औरतों से परहेज़ करने वाले होंगे। (आले इमरान रुकूअ 4) हज़रत उनके ओसाफ़ के जामाअ क्यों ना बन सके। मुहम्मद और मुशाबहत मसीह “चह निस्बत ख़ाक राबा आलिम पाक” (छोटे का बड़े से मुक़ाबला किया जाना)

फ़स्ल नह्म

हज़रत की कस्रत अज़वाजी की माअज़िरत

हज़रत की कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां) की माअज़िरत में लोगों ने बहुत कुछ कहा है, मगर वो कुल उज़रात (सारे बहाने) बदतर अज़-गुनाह हैं और मोअतरज़ीन (एतराज़ करने वालों) की गिरिफ़त बमिस्दाक़ जिंदा जमाह नापाक गाज़रां बरसिंग'' (ऐबदार का ऐब दूर करने के लिए सख़्ती की ज़रूरत) है।

दफ़्अ अव्वल

ख़्वाहिश औलाद व ज़ुकूर (नर, लड़का)

चुनान्चे सय्यद साहब फ़रमाते हैं “शायद बाअज़ अक़्द (निकाह) आपने औलाद ज़ुकूर (लड़के) की ख़्वाहिश से किए हों।” औलाद ज़ुकूर (लड़के) की ख़्वाहिश कोई शरई ख़्वाहिश नहीं। हज़रत हिंदू ना थे कि फ़र्ज़ंद नरीना (लड़के) का वजूद अपनी नजात उख़रूई के लिए लाज़िमी समझते। और फिर आप ये भी तस्लीम नहीं करते कि हज़रत अपने लिए कोई बादशाहत पैदा कर रहे थे, तख़्तनशीनी के वास्ते फ़र्ज़ंद चाहते थे। अगर ये होता तो इस के लिए भी फ़र्ज़ंद (बेटा) लाज़िमी (ज़रूरी) ना था। फिर क़ुरआन-ए-मजीद में कुफ़्फ़ार अरब की रस्म की मज़म्मत (बुराई) आई है कि वो लोग मिस्ल हिंदूओं के लड़कों को मुबारक और लड़कीयों को मनहूस जानते हज़रत ﷺइस वक़्त हरगिज़ बेऔलाद ना थे। आपकी बेटी फ़ातिमा ज़िंदा थी। अली आपका दामाद मौजूद था। नवासे मौजूद थे। अगर अब भी आपको फ़र्ज़ंद की हिर्स थी तो आप बिल-हवस थे। बे औलादी की हालत में शायद आपका उज़्र (बहाना) किसी दर्जे तक समूअ होता। मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब कहते हैं :-

“औलाद ख़सूसन नरीना (लड़का) जिसको पहले अम्बिया ने भी चाहा है और हर एक इन्सान बा-तबेअ (फ़ित्री तौर पर) इस की ख़्वाहिश रखता है इन निकाहों से आपको मतलूब थे।” (और आप हमको याद दिलाते हैं कि) “हज़रत ज़करियह ने अपने लिए ख़ुदा से फ़र्ज़ंद नरीना (बेटे) की दुआ की थी।” (सफ़ा 191)

हमारा एतराज़ ये है कि इन तमाम हिर्स व हुवा (तड़प व तमन्ना) को पूरा करने के लिए हज़रत ने मुवाफ़िक़ शराअ इस्लाम चार जोरूओं (बीवीयों) पर इक्तिफ़ा क्यों ना किया। कोई नेक मर्द औलाद ज़ुकूर (लड़के) की आरज़ू में मुर्तक़िब मुनहियात (मुनही की जमा - मना की गई) ना होगा। जब शरीअत चार की मौजूद थी तो चार से ज़्यादा कर के औलाद की ख़्वाहिश करने के क्या मअनी? क्या दुनिया में हरामज़ादों की कस्रत मुतसव्वर है। आप बताएं कि किस नबी ने औलाद ज़ुकूर (लड़के) की ख़्वाहिश में अपनी शरीअत का उदूल जायज़ रखा। सच्च है कि ज़करीयाह ने फ़र्ज़ंद की ख़्वाहिश की, मगर किस हालत में जबकि वो बूढ्ढा हो गया था और इस की औरत बाँझ साबित हुई। वो बिल्कुल लावलद (बे-औलाद) था। बेटी या नवासे ना रखता था। इस की ख़्वाहिश हक़ बजानिब थी। मगर इस आरज़ू को पूरा करने की तज्वीज़ ज़करीयाह ने कस्रत अज़वाजी (बहुत सी बीवीयों) के ज़रीये ना चाही। हंत-अलअम्र ख़ुदा पर शाकिर (शुक्र करने वाला) रहा और ख़ुदा ने इस की आरज़ू पूरी की। तो इस की एक ही बीवी को जो उस की जवानी की रफ़ीक़ (साथी) थी, बारवर (फ़ल देने वाली) किया और बरकत दी। अगर हज़रत मिस्ल ज़करीयाह के ख़ुदा पर शाकिर (शक्रगुज़ार) रहते और ख़ुदा से फ़र्ज़ंद (बेटा) चाहते तो बेहतर होता मगर हज़रत को इस की ज़रूरत ना थी। आप बे-औलाद ना थे, और अगर आरज़ू की थी तो अपनी शरीअत के अंदर रहते इस से तजावुज़ क्यों किया। इस का जवाब ना सय्यद साहब से बन आता है, ना मौलवी साहब से। इस का जवाब वही है कि हज़रत शहवत-परस्त थे, ऐश उड़ाते थे।

दफ़्अ दोम

सुलह व इत्तिहाद ख़ानदानी

दूसरा उज़्र सय्यद साहब यूं करते हैं “वाक़ियात को बहैसीयत कज़ाई (ज़ाहिरी तौर से) देखने से मालूम होता है कि इन निकाहों से उम्दा नताइज (अच्छे नतीज़े) पैदा हुए यानी इन्हीं की बदौलत क़बाइल अरब में बाहमी जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) मौक़ूफ़ (ख़त्म) हुआ और गोना मुवाफ़िक़त और इत्तिहाद पैदा हुआ।” (सफ़ा 311) कितना लगू सुख़न (फ़िज़ूल बात) है, सरासर ख़िलाफ़ वाक़िया। बताइए किस क़बीले से और कब और क्योंकर किसी एक निकाह की वजह से सुलह व आश्ती (सुलह व सलामती) की बुनियाद पड़ी? “बाहमी जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) मौक़ूफ़ (ख़त्म) होना।” आप किस ख्व़ाब-ए-ख़रगोश में हैं। ख़ाना जंगीयाँ (लड़ाई और जंगे) पैदा हुईं, हज़रत का नाक में दम आ गया। मोईआडाह ने तमाम अमूरता व बाला कर दिए थे। ख़ानदान को मिटा दिया। हफ़्सा व आईशाؓ ने औलाद हज़रत को तमाम हुक़ूक़ से महरूम करा दिया। जंग जमल के हालात तो ख़ुद आपने अंग्रेज़ी किताब में तस्तेर (तहरीर, क़लमबंद) फ़रमाए। हज़रत की जोरूओं (बीवीयों) की बातों ने ख़िलाफ़त को दबा कर आल ए मुहम्मदﷺ को महरूम कर के मअरका (जंगे) कर्बला की बुनियाद डाली थी और वो जंग व जदल (लड़ाई, फसाद) व शोर व शग़ब (फितना फसाद) बरपा कराया जिसकी नज़ीर सफ़ा तारीख़ जहान पर नहीं मिल सकती। बल्कि सच्च तो ये है कि इन निकाहों ने हज़रत के ऐवान (मकामे) नबुव्वत को ख़ाक में मिला दिया है और हज़रत को जोरूएं (बीवीयां) जमा करने वाला, औरतों के इश्क़ में मुब्तला, सोहबत और जिमाअ (हमबिस्तरी) से अदीम-उल-फ़ुरसत (जिसे बिल्कुल फ़ुर्सत ना हो) साबित कर दिया है। इन निकाहों की कस्रत व हकीक़त ने आईशाؓ पर से इल्ज़ाम ज़िना हटाने के लिए सुरह नूर को नाज़िल कराया। तल्हा व ज़ुबेर के हाथ में अनान हुकूमत (हुकूमत की भाग दौड़) दे दी। अली को ख़राब किया। फ़ातिमा को ग़मज़दा गुर में उतारा। हसन व हुसैन और उसकी औलाद का ख़ून बहाया और क्या-क्या किया छिपा नहीं गो आप ना देखें। अगर कोई हज़रत से पूछता तो वो आप फ़र्मा देते।, “शामत एहमाल मामूरुत नावर गिरिफ़्त।”

मगर हज़रत अपनी ज़िंदगी में अपने किए की काफ़ी पादाश (सिला, बदला) पा चुके हैं। चुनान्चे मदारिज वाला लिखता है। (सफ़ा 651) जिल्द 2 “हज़रत ने अज़्वाज (बीवीयों) से बहुत आज़ार (तक्लीफ) खींचे और मलूल (शर्मिंदा) हुए। फिर सोगंद (क़सम खाई) की कि एक महीना तक उनके (यानी बीवीयों के) पास ना जाएं और दूसरा सज़ा दें ताकि अपने किए से पशेमान (शर्मिंदा) हो। आख़िर हज़रत ख़ुद अपने किए से पशेमान (शर्मिंदा) हुए। एक माह (महीना) पूरा भी ना हुआ था कि आप जौरओं (बीवीयों) से मिलने को आए। नौजवान आईशाؓ ने इस बेसब्री पर ताना मारा है तो कहा “या रसूल अल्लाह आपने क़सम की थी कि एक माह (महीने) तक हमारे पास ना आओगे और हाल ये कि मैंने शुमार किए कि 29 रोज़ से ज़्यादा नहीं होता।” फ़रमाया ऐसा भी होता है कि महीना 29 रोज़ से ज़्यादा नहीं होता।” (मिन्हाज, सफ़ा 754) हम हज़रत की तावील की दाद देते हैं हज़रत ने सच्च फ़रमाया था मैं औरतों से सब्र नहीं कर सकता। हज़रत इस आईशाؓ की निस्बत हमेशा बदज़न रहे। उनको डर था कि कहीं आईशाؓ मुझको छोड़ ना दे। चुनान्चे जब आयत तख़य्युर सुनाई तो आपको ग़म आईशाؓ की वसलत का और फ़िराक़ दामन-गीर हाल हुआ कि आईशाؓ दुनिया को “और ज़ीनत दुनिया को इख़्तियार करे।” (मिन्हाज, सफ़ा 755) हमको उम्मीद करना चाहीए कि बहरहाल मुसलमान बेटियां ममालिक मग़रिबी व शुमाली की उम्महात-उल-मोमिनीन से ज़्यादा वफ़ादार और ताबेदार शौहर की होती हैं और इनके शौहर उन से “बहुत आज़ादर नहीं खेंचते।” शुक्र है अगर वो जैसी माँ वैसी बेटी की मिस्दाक़ नहीं और उन्होंने हज़रत की अज़्वाज (बीवीयों) के अख़्लाक़ नहीं सीखे। हम इस तूफ़ान बदतमीज़ी के अफ़साना को कहाँ तक बयान करें।

दफ़्अ सोम

बेवा पर्वरी (बेवाओं को पालना)

हमारा मुख़ातब ये भी कहता है कि हज़रत ने “ग़रीब व नादार (मुफलिसी) व बेवा ज़नों को जो कोई ज़रीया मआश ना रखती थीं।....अपने हरम मतहरम (यानी निकाह) में दाख़िल करके उनकी परवरिश और दस्त-गीरी की।” इस की तर्दीद तो साबिक़ में कमा हक़्क़ा हो चुकी मगर ये क़ौल भी ग़ज़ब का है। क़ौल क्या कुश़्त-ए-ज़ाफ़रान है और सिर्फ आप ही का हिस्सा है। “उस ज़माने और उस क़ौम के हालात के मुवाफ़िक़ सिर्फ यही तरीक़ा इन बेचारियों की परवरिश का था।” बेवा पर्वरी (देखभाल) का तरीक़ा उस ज़माने में जोरू (बीवी) बनाना था सिर्फ यही तरीक़ा था, ऐ हज़रत ! ज़ैनब बिंत जह्श की बाबत जो लिखा है कि “वो पालने वाली यतीमों और बेवा औरतों की थी।” (मिन्हाज, सफ़ा 867) तो क्या इस से हम ये समझें कि हज़रत की जोरू (बीवी) ज़ैनब बेवा, बेवाओं को अपनी जोरू (बीवी) बना लेती थी? वर्ना कोई तरीक़ा बैयन बेवा पर्वरी (पालने) का था। और अगर ना होता तो हज़रत अहले अरब से क्यों फ़रमाते हैं कि “बेवा मुहताज की परवरिश (देखभाल) में साई का सवाब मुजाहिद के सवाब के बराबर है।” (मशारिक़-उल-अनवार हदीस नंबर 1393) हमारे मौलवी बटालवी को इस बेवा पर्वरी (पालने) के उज़्र ने बहुत सताया है। चुनान्चे मुख़ालिफ़ीन का ये एतराज़ नक़्ल करते हैं :-

“अग़राज़ निकाह तो और ही हैं जिनका बयान तुम्हारे कलाम में हो चुका (यानी तस्कीन व इफ़्फ़त नफ़्स और औलाद सालिह की तलब 147) आँहज़रत को इन निकाहों से सिर्फ यतीम व बेवा पर्वरी (पालने) और दोस्त या दुश्मन नवाज़ी मंज़ूरी थी तो ये यूं भी हो सकती थी, कि इन लोगों की तनख़्वाह मुक़र्रर कर देते या और सबील (रास्ते) से एहसान करते, उन औरतों को निकाह में क्यों फंसा लिया अगर इतना ही मक़्सूद था।” (सफ़ा 191)

इस का जवाब मौलवी साहब से कुछ नहीं बन आता बजुज़ इस के कि “औलाद ख़ुसूसुन नरीना (लड़का)....इन निकाहों से आपको मतलूब थी।” पस् बेवा पर्वरी (पालने) का ख़्याल तो धरा रह गया। ये औरतें ज़रूर इस क़िस्म की होंगी जिन से औलाद की तवक़्क़ो की जा सकती थी। पस बुढ़ापे को रोना बे सूद है, और औलाद की तमन्ना के बारे में आइन्दा अर्ज़ किया जाएगा।

मगर बेवा पर्वरी (बेवा को पालने) पर हज़रत के दूसरे वकील हकीम नूर उद्दीन साहब को एक बाकिरा बुरहान सूझी है, और इन्हों ने जज साहब और नीज़ मौलवी साहब को मात (हरा) कर दिया। आप फ़रमाते हैं, “इन अय्याम (दिनों) में चंद बेवा औरतों की परवरिश (पालना) अगर बुदून (बगैर) निकाह हुज़ूर मुतकफ़्फ़िल (ज़िम्मेदार) होते तो पादरी और इल्ज़ाम पर कमर बाँधते।” (फ़स्ल-उल-ख़ताब जिल्द अव्वल, सफ़ा 29) यानी हज़रत ने पादरीयों के डर के मारे बहुत से निकाह कर लिए भई ये भी एक ही हुई। मेरा गुमान तो है कि मुहम्मदﷺ को डर किसी का नहीं था। जोरूओं (बीवीयों) के मुआमले में वो तो ख़ुदा से भी नहीं डरे। मगर हाँ उनके वकील “पादरीयों के एतराज़ात को देखकर हैरान हैं और मुज़्तरिब व परेशान।” (ईज़न, सफ़ा 2) और ये कुछ बे-होशी की हाँक रहे हैं। बहर कैफ़ सय्यद साहब को भी मालूम हो गया और हकीम साहब को भी कि बेवा पर्वरी (बेवा को पालने) का हीला कैसा बातिल था। क्योंकि अगर हज़रत को बेवा पर्वरी (बेवा को पालने) का ख़्याल होता और इस फ़य्याज़ी के आगे अरब में कोई पेचीदगी हाइल होती तो हज़रत इन रांडों (यह उर्दू लफ्ज़ है जिसका मतलब बेवा होता है) से अपनी उम्मत की बाल बच्चादार रंडवो (रंडवे वह मर्द जिसकी बीवी मर गयी हो) की दस्त-गीरी (मदद) फ़रमाना ज़्यादा मुनासिब समझते। मगर हम तो कभी ये सिलाए करम नहीं सुनते कि “बख़्शेदम अगरचे मस्लिहत नदीदम।”

दफ़्अ चहारुम

तब्लीग़ इस्लाम व तालीम-ए-निस्वाँ

बाअज़ मौलवियों ने हज़रत की कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां रखने) की माअज़िरत (तलाफी) में एक ये अम्र भी पेश किया है कि “जब इस्लाम ख़ूब फैलने लगा और बहुत से मर्द व औरतें मुसलमान हो गईं तो ज़रूर हुआ कि इस्लाम की बातें सिखाने वाले भी ज़ाइद हों। मर्दों के लिए मर्द और औरतों के लिए औरतें ताकि तब्लीग़ अहकाम इलाही अच्छी तरह अंजाम पाए। ज़ाहिर है कि जिस तरह औरत से औरत हर एक अम्र (बात) कह सकती है, और दर्याफ़्त कर सकती है, मर्द से हरगिज़ नहीं कर सकती। इस लिए ज़रूर था कि आपकी हम-सुहबत औरतें भी हो जाएं ताकि वो औरतों को अहकाम शरई पहुंचाएं। और ये अम्र मुम्किन ना था बग़ैर इस के कि आँहज़रत मुतअद्द (बहुत से) निकाह करें क्योंकि शरीअत मुहम्मदिया में ग़ैर-औरत का हम-सुहबत रहना जायज़ नहीं। अलबत्ता शरीअत ईस्वी में ग़ैर-औरतों से ख़लामला (बात करना) दुरुस्त है। और शायद इस वजह से ईसाईयों की औरतें बे-तक्लीफ़ और बे रोक-टोक ग़ैर मर्द के पास ख़ल्वत व जलवत में जाती हैं।.....मगर इस की वजह से जो कुछ फ़ित्ना मुतसव्वर है, वो ज़ाहिर है।” (मौलवी मुहम्मद अली कानपूरी के तलबीसात, सफ़ा 41-43)। ऐ काश कि इस माअज़िरत का कोई एक जुम्ला भी तो सच्च होता। हम कहते हैं क्या कोई इस्तिस्ना (आम हुक्म से अलग) किसी मुसलमान के लिए इस हुक्म शरीअत में कि चार औरात (औरात) से ज़्यादा कोई शख़्स एक वक़्त में निकाह ना करे रवा रखी गई है? चाहे कैसी ही ज़रूरत दर पेश हो।

1. कोई मुसलमान 4 से ज़्यादा निकाह नहीं कर सकता। पस अब शरीअत इस्लाम ने मुहम्मदﷺ के इस फे़अल (अमल) को (इसके लिए चाहे वो आपकी माअज़िरत वाली ज़रूरत तस्लीम ही की जाये) हराम ठहराया। पस क्या मुहम्मदﷺ तब्लीग़ ए इस्लाम से हलाल फे़अल (अमल) के लिए 4 से ज़्यादा जोरूएं (बीवीयां) रखने के हराम फे़अल (अमल) को जायज़ रखेंगे और अगर जायज़ रखें तो क्योंकर हरामकार ना कहलाएँगे?

2. औरतों की तब्लीग़ के लिए क्या मुसलमान शौहर काफ़ी ना थे। क्या वो अब काफ़ी नहीं? हम आप बल्कि मुहम्मदﷺ को एक बेहतर सलाह दें। मुहम्मदﷺ मर्दों को तब्लीग़ इस्लाम करें मर्द अपनी जोरूओं (बीवीयों) को, अपनी माओं को, अपनी बहनों को, अपनी भांजियों को, अपनी बहू बेटीयों को तब्लीग़ इस्लाम करें।

3. पर्दे की रस्म अरब में वैसी ना थी जैसी मुसलमान अब हिंद में करते हैं। औरतें मस्जिदों में मर्दों के साथ नमाज़ करती थीं। अहकाम शरई पूछने के वास्ते फ़क़ीहों के पास आती थीं। ख़ुद हज़रत की जोरू (बीवी) पर्दा करती हुई फ़ौज की सरदारी करती थी। जंग जमल में अहकाम नाफ़िज़ करती थी।

4. पर्दे की रस्म की इब्तिदा ज़माना मुहम्मदﷺ में नहीं हुई बल्कि जब हज़रत 18 बरस तक नबुव्वत का दावा कर चुके और एक उम्र तब्लिग़ इस्लाम बसर कर चुके तब हुक्म पर्दा नाफ़िज़ किया। जबकि आप एक साथ छः जोरूओं (बीवीयों) के ख़सम बन चुके थे और वो भी जबकि आप ज़ैनब को ग़ुस्ल करते हुए नंगा देखकर इस पर आशिक़ हो चुके थे। और अलअमरुयक़ीसु अला नफ़सिही المَرءُیَقِیسُ عَلیٰ نَفسِہٖ (हर शख़्स दूसरे को अपने पर क़ियास करता है।) इस डर के मारे कि शायद सब मुसलमान वैसा ही करें आपने 5 हिज्री में अपनी औरत की बाबत पर्दे की आयत उतारी। चुनान्चे जैनब के क़िस्से में मदारिज वाला कहता कि “शरीअत हिजाब भी इस क़िस्से में वाक़ेअ हुई।” (सफ़ा 266) नब्ज़-उल-बहारी वाला लिखता है कि “उम्मत की औरतों के पर्दे का हुक्म हदीस सहीह सरीह से साबित नहीं हुआ।” (सफ़ा 94, मत्बूआ लाहौर)

5. हज़रत औरतों से ऐसी शर्म की बातें बयान करके तब्लीग़ इस्लाम करते और औरतें ऐसी ऐसी बेहयाई की बातें इनसे दर्याफ़्त करती थीं। कि मुझको हैरत है कि या इनमें वो कौनसा हुक्म शरीअत इस्लाम का था कि कोई औरत बे-झिजक हज़रत से ख़ुद ना पूछ सकती थी, और जिसके बताने में हज़रत को सर-मौतामिल होता। चुनान्चे पारा अव्वल सहीह बुख़ारी में बाब उल-हया फ़ील-इल्म (باب الحیا فی العلم) में है कि “उम्म सलीम आई रसूल अल्लाह के पास, सो उसने कहा या रसूल अल्लाह मुक़र्रर ख़ुदा हक़ बात से शर्माता नहीं क्या औरत पर ग़ुस्ल वाजिब है जो.....हो पस फ़रमाया हज़रत ने अगर......देखे” (इस वक़्त तक औरत मुँह खोले हुए हज़रत से हम-कलाम थी। अब हज़रत ने एक बेशर्मी की तरफ़ इशारा किया कि औरत शर्मा गई) “पस उम्म सलीम ने अपना मुँह ढांक लिया और कहा या रसूल अल्लाह क्या औरत भी......होती है फ़रमाया “हाँ” (और शायद मुँह ढाँकने पर ख़फ़ा हुए फ़रमाया) “ख़ाक-आलूदा हो तेरा दहना हाथ” जिससे चादर मुँह पर ले आई थी) “पस किस लिए हमशक्ल होता है इस से बच्चा इस का।” हज़रत तो इस बेहिजाबी (बेपर्दे) की बातों से भी हिजाब (पर्दा) करने से ख़फ़ा होते हैं, और आप पर्दा-दारी करते हैं। (शायद इस बे-हयाई की गुफ़्तगु की नज़ीर मुसैलमा और सजाहता की गुफ़्तगु हो) ज़रा समझिए तो ये मुसलमान औरत और मुसलमानों के नबी कैसे बे-तकल्लुफ़ व बेरोक-टोक ख़ल्वत व जलवत (पर्दा बे-पर्दा) कर रहे हैं। और आप ईसाई औरतों पर तअन करते हैं? शर्म ! ये तो एक ग़ैर औरत ने हज़रत से मसअला शरई पूछा। अब मैं एक और नज़ीर इस बात की देता हूँ कि हज़रत की ज़ौजा (बीवी) एक ग़ैर-मर्द से किस तरह मसअला शरई बयान करती है। इसी पारा सहीह बुख़ारी के आख़िर में है कि “मुसलमान बिन यसार से रिवायत है कि मैंने आईशाؓ से इस.....का हाल पूछा जो कपड़े पर लग जाये, कहा मैं धोती थी.....कपड़े से नबी के पस नमाज़ को जाते और कपड़े में तिरी रहती थी।” लीजीए, मर्द औरत को वो बताता है जो औरत ही ख़ूब जानती है और औरत मर्द का हाल ऐसा बताती है कि मर्द शर्मा जाये। इसी तरह सहीह बुख़ारी पारा सानी में “आईशाؓ से रिवायत है कि जब हज़रत की जोरूओं (बीवीयों) में से किसी को हैज़ आता और हज़रत इस के साथ इसी हालत में मुबाशरत (मिलाप) करना चाहते (आगे बड़ी बशरई के अमल का मज़्कूर है। हम तर्क करते हैं।) जो चाहे किताब पढ़ ले। (फ़ैज़-उल-बारी, तर्जुमा उर्दू बुख़ारी मतबूआ लाहौर, सफ़ा 173) आख़िर कुछ बेशर्मी की इंतिहा भी है? हैज़ में मुबाशरत और उम्मुल-मोमिनीन का इस को यूं अलानिया बयान करना और इमाम बुख़ारी का इस से मसाइल अख़ज़ करना बरें-रेश-फ़िश !

और अगर इन मसाइल के सीखने के लिए औरतें ज़रूरी थीं तो ला कलाम “ज़रूर था कि हज़रत की हम-सुहबत औरतें भी हो जाएं ताकि औरतों को अहकाम शरई पहुंचाएं और यह अम्र मुम्किन ना था, बग़ैर इस के कि आँहज़रत मुत्अदद (बहुत सारे) निकाह करें।” बेशक, क्योंकि इन मसाइल बताने के लिए पूरा थीड़ होना चाहीए था। मगर अब तक हम ना समझे कि क्या सिर्फ बीबी आईशाؓ काफ़ी ना थीं कि तमाम औरतों को बता दें कि हज़रत किस तरह सोहबत (हमबिस्तरी) करते थे?, कौन कौन सी हरकात अमल में लाते थे, कपड़ा कैसे साफ़ करते थे, अय्याम हैज़ में किस तरह मुबाशरत (मिलाप) करते थे। क्या ज़रूर था कि इन गंदगी के मसाइल की तब्लीग़ के लिए चार से ज़्यादा औरतें हज़रत की हम-सोहबत हों। पस ये क्या उज़्र (बहाना) बद-तराज़ गुनाह है।

6. आपको ये भी मालूम हो कि मिस्ल मर्दों के हज़रत औरतों को भी वाअज़ सुनाया करते थे। चुनान्चे पारा अव्वल सहीह बुख़ारी में है कि “इब्ने अब्बास से रिवायत है कि तहक़ीक़ नबी बिलाल के साथ निकले और गुमान किया कि औरतों ने वाअज़ नहीं सुना। सो हज़रत ने उनको वाअज़ सुनाया।” और दूसरी हदीस उसी जगह यूं मर्क़ूम है “अबी सईद खुदरी से रिवायत है कि औरतों ने नबी से कहा कि आप के पास मर्द हम पर ग़ालिब आ गए। पस आप एक दिन ख़ास हमारे वास्ते मुक़र्रर फ़रमाएं। सो हज़रत ने औरतों से एक दिन का वाअदा किया जिसमें उन से मुलाक़ात की और वाअज़ सुनाया उन को और हुक्म दिया उन को।” पस जनाब मौलवी साहब आप तब्लीग़ इस्लाम के लिए हज़रत को मुत्अदद निकाह (बहुत से निकाह) करने पर मज्बूर ना करें। वो तब्लीग़ इस्लाम बग़ैर निकाह के कर रहे हैं और निकाह बग़ैर तब्लीग़ के।

दफ़्अ पंजुम

कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां रखना) हज़रत क़ब्ल आयत निकाह ग़लत

एक और माअज़िरत (बचाव) हमारे मुख़ातब ने हज़रत की कस्रत अज़वाजी (ज्यादा बीवीयां रखने) पर पेश की है। वो किताब अंग्रेज़ी में इस तरह मर्क़ूम है “कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां रखने) की हद की तल्क़ीन मदीना में चंद साल बाद हिज्रत के हुई।.....तमाम निकाह हज़रत के क़ब्ल नुज़ूल आयत तअद्दुद (बहुत सी) कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां रखना) अमल में आ चुके थे, और इस के साथ दूसरी आयत नाज़िल हुई जिससे तमाम हुक़ूक़ हज़रत के साक़ित हो गए। और गो कि ताबईन चार तक निकाह करने के मजाज़ थे और इख़्तियार तलाक़ की वजह से नए निकाह भी कर सकते थे। हज़रत ना तो अपनी किसी ज़ौजा (बीवी) को तलाक़ दे सकते थे, और ना किसी नई को निकाह में ला सकते थे।” (सफ़ा 343) झूट हो तो ऐसा ’’این کاوازتو آید و مردان چنین کنند‘‘۔ आयत हद निकाह सुरह निसा में वारिद हुई है और सुरह निसा को मक्की सूरत भी कहा गया है। (देखो इत्तिक़ान जिल्द अव्वल शुरू) हज़रत ने जोरूओं (बीवीयों) की भर मार मदीना में जाकर बाद हिज्रत की। पस इस बैरूनी शहादत से आयत हद निकाह (निकाह कि हद) का वजूद क़ब्ल कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां रखना) आपके पैग़म्बर के साबित है। मगर हम आपको इस की ताकीद में अंदरूनी शहादत क़ुरआन-ए-मजीद भी सुनाएँ देते हैं, क्योंकि क़ुरआन-ए-मजीद से मालूम होता है कि “कस्रत अज़वाजी हद” (ज़्यादा बीवीयां रखने कि हद) की आयत बहुत पहले से सुनाई जा चुकी थी। और जिस वक़्त हज़रत औरतों पर औरतें करते जाते थे, इस वक़्त उनको मालूम था कि शरीअत इस्लाम में सिर्फ चार औरतें हलाल हैं। चुनान्चे सुरह अह्ज़ाब में जिसमें ज़ैनब के साथ हज़रत के निकाह की कैफ़ीयत मुंदरज है हज़रत को वो औरतें गिनाई गई़ हैं जिन को वो जोरू (बीवी) बना सकते थे। यानी वो औरतें जिन को निकाह के महर दिए जाएं या लौंडियां या चचा और फूफी और मामूं और ख़ाला की बेटियां जिन्हों ने हिज्रत की या कोई औरत मुसलमान जो अपनी जान बख़्श दे निरी तुझी को सिवाए सब मुसलमानों के और इसी शरीअत के साथ कहा जाता है, “हमको मालूम है जो हमने ठहरा दिया मुसलमानों पर उनकी औरतों में और उन के हाथ के माल (लोंडीयों) में ता ना रहे तुझ पर तंगी।” (रुकूअ 7) पस जो मुसलमानों पर ठहराया कि चार जौरूं (बीवी) और लौंडियां हलाल, वो इन वाक़ियात से बहुत क़ब्ल है और फ़राख़ी (छुट) सिर्फ़ हज़रत को दी जाती है सिवाए सब मुसलमान के ता ना रहे मुहम्मदﷺ पर तंगी।”

4 हिज्री तक हज़रत 4 जौरूवान (बीवीयां) कर चुके थे। 5 हिज्री में हज़रत ने पांचवीं जोरू (बीवी) की ज़ैनब ज़ौजा (बीवी) ज़ैद। इस का क़िस्सा सुरह अह्ज़ाब में वारिद हुआ। इस क़िस्से के बयान में हज़रत को फ़राख़ी (छुट) दी गई और बताया गया कि “हमको मालूम है जो ठहरा दिया मुसलमानों पर” जिससे अज़हर (रोशन) है कि आयत हद कस्रत (बीवीयों कि ज्यादती की हद तय) इब्तिदा में हो चुकी है और हज़रत की कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां रखना) इस आयत के बाद है। चुनान्चे ज़ैनब के निकाह के बाद हज़रत ने जुवेरिया, उम्म हबीबा, हफ़्सा, मैमूना, मारियाह वग़ैरा वग़ैरा को जोरवान (बीवीयां) बनाया। पस हज़रत का जोरुवान (बीवीयां) करना क़ब्ल आयत हद के बताना झूट बोलना है। आयत हद क़ब्ल है और जोरुवान (बीवीयां) करना बाद में और इसी ग़रज़ से कि “मुहम्मद पर तंगी ना रहे।” अब वो आयत जिस पर आप इस्तिदलाल करते हैं यह है :-

لَّا يَحِلُّ لَكَ النِّسَاءُ مِن بَعْدُ وَلَا أَن تَبَدَّلَ بِهِنَّ مِنْ أَزْوَاجٍ وَلَوْ أَعْجَبَكَ حُسْنُهُنَّ إِلَّا مَا مَلَكَتْ يَمِينُكَ وَكَانَ اللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ رَّقِيبًا

(ऐ पैग़म्बर इनके सिवा और औरतें तुमको जायज़ नहीं और ना ये कि इन बीवीयों को छोड़कर और बीवीयां करो ख़्वाह इनका हुस्न तुमको कैसा ही अच्छा लगे मगर वो जो तुम्हारे हाथ का माल है (यानी लौंडियों के बारे में तुमको इख़्तियार है) और ख़ुदा हर चीज़ पर निगाह रखता है।” (अह्ज़ाब रुकूअ 6 आयत 51) “इस पीछे” अबी बिन कअब वग़ैरा ने इस के मअनी ये बताए हैं कि इस का इशारा इन चार क़िस्म की औरतों की तरफ़ है जिनका ज़िक्र ऊपर हुआ जो मुहम्मदﷺ को हलाल थीं, यानी “हलाल नहीं तुझको औरतें सिवाए इन इक़साम मज़्कूर के” (यानी इन किस्मों के जिनका ज़िक्र हुआ) और बसनद तिर्मिज़ी इब्ने अब्बास से भी यही मर्वी है। لایحل نُک من بعدالا جنا س الار بعتہ ۔ जलालेन मआ-मालेन हाशिया और फ़त्ह-उल-रहमान शाह वली उल्लाह साहब में भी यही वारिद हुआ है। पस इस से हज़रत के लिए कोई हद मुईन (हद तय) हुई, बल्कि क़िस्म औरात (औरतों कि क़िस्म) मुईन (तय) हुई है यानी इन चार किस्मों में इख़्तियार है चाहे हज़रत हज़ार कर लें या बारहसो। चुनान्चे शाह अब्दुल क़ादिर भी अपने फ़ायदे में बताते हैं “यानी जितनी कस्में कह दें इस से ज़्यादा हलाल नहीं।.... हज़रत आईशाؓ ने फ़रमाया ये मना आख़िर को मौक़ूफ़ (मन्सुख) हुआ, सब औरतें हलाल हो गईं। पस कहो हज़रत की शहवत ज़नी (औरतों कि ख्वाहिश) के लिए ये आयत कैसे रोक ठहर सकती है। इस में तो हद मुक़र्रर नहीं और जो हद अक़्साम औरात (औरतों की किस्मों की हद तय) की मुक़र्रर मालूम होती है, वो भी मौक़ूफ़ व मंसूख़ हुई या यूं कहें कि इस हद को भी हज़रत ने मिस्ल क़सम तहरीम मारिया (मरिया को अपने ऊपर हराम करने कि क़सम) के तोड़ा।

पर अगर हम आपके कयास, झूटे बहाने को कुछ देर के लिए तस्लीम कर लें कि दरअसल हज़रत अपनी 9 या 10 जोरुवान (बीवीयां) क़ब्ल आयत हद कर चुके थे, तो भी हज़रत की सफ़ाई नहीं हो सकती। क्या इस से ये लाज़िम आता है कि हज़रत वो ज़्यादा निकाह जो बक़ौल जनाब इस आयत के क़ब्ल कर चुके अपने ऊपर हलाल कर सकते हैं। अगर इस आयत की पाबंदी किसी तरह फ़र्ज़ थी तो ज़ाइद निकाहों का माबाअ्द फ़स्ख़ (मन्सूख) करना लाज़िम था, जिस तरह कि अगर कोई शख़्स क़ब्ल इस्लाम माँ से.....निकाह कर चुका होता तो इस्लाम में आने से इस पर माँ.....का रखना हराम हो जाता और निकाह फ़स्ख़ (मन्सूख) होता। और जिस तरह ये हदीस है कि अगर कोई दस जोरूओं (बीवीयों) का शौहर मुसलमान हो जाए तो इस को 6 जोरूओं (बीवीयों) को तलाक़ देना चाहीए। (जामेअ तिर्मिज़ी मुतर्जिम किताब-उन्निकाह, सफ़ा 347 नौ लकशोरी) पस हज़रत को लाज़िम था कि अगर वो शरीअत हद निकाह के क़ब्ल एक फे़अल (अमल) कर चुके थे, तो इस्लाम की शरीअत के ऐलान पर इस की पाबंदी मिस्ल हर मुसलमान के करते।

आप का यह कहना बेजा है कि इस आयत हद निकाह के साथ ही दूसरी आयत भी नाज़िल हुई जैसा हम दिखा चुके। पर थोड़ी देर के लिए हम ये भी मान लेते हैं और आप ग़ौर करें कि अगर इस आयत हद ए निकाह से तमाम मुसलमानों को उनकी ज़ाइद जोरुवान (ज़्यादा बीवीयां) जायज़ नहीं थीं, तो हज़रत ने दरअसल अपने वास्ते इस आयत के जवाज़ से वो जायज़ रखा, जिसके मुस्तहिक़ ना थे, क्योंकि अपनी जोरूओं (बीवीयों) को जुदा करना इन पर शाक़ गुज़रा। अपनी रिआयत की गो दूसरों की रिआयत ना कर सके। अब रही अपने ऊपर तलाक़ को नाजायज़ करने की सूरत तो पहले तो आप अपनी जोरूओं (बीवीयों) को मुसलमानों पर हराम कर चुके थे, और उन को डरा चुके थे कि कोई तुमसे शादी ना करेगा जो मुझको छोड़ दोगी। आख़िर एक जोरू (बीवी) निकल गई पस आपने अपने ऊपर तलाक़ ही नाजायज़ कर लिया ताकि कोई जोरू (बीवी) निकल ना जाये क्योंकि इनकी जोरुवान (बीवीयां) उन को डराया करती थीं, कि हम चाहें तो निकल जाएं :-

’’ کلینی بسند ہائے معتبر بسیا رروایت کرددبست ازامام محمد باقر وامام جعفرصادق کہ گفت بعضے از زنان محمد گمان میکند کہ اگر مارااخلاق بگوید ماکغو خودرانخوہم یافت از قوم خود کہ ماراتز ویج تماید و بروایت دیگر زینب گفت کہ تو عدالت نمی کنی میاں مابآ نکہ پیغمبر خدائی و حفصہ گفت کہ اگر مارا طلاق بگویدہمتائے خودرا اخواہم یافت ازقوم خود کہ مارا تزویج تمایدوبروایت دیگر این ہر دو سخن رازینب گفت‘‘

(हयात उल-क़ुलूब बाब 53, सफ़ा 582) बल्कि हज़रत को निकल जाने का बड़ा अंदेशा ख़ुद अपनी प्यारी बीबी आईशाؓ की निस्बत भी रहा करता था। चुनान्चे जब आपने आयत तख़य्युर सुनाई “तब हज़रत को भी ग़म आईशाؓ की वसलत का और फ़िराक़ दामन-गीर हाल हुआ कि “ऐसा ना हो आईशाؓ दुनिया को और ज़ैनब दुनिया को इख़्तियार करे” यानी मेरे पास से निकल जाये। (मिन्हाज जिल्द 2, सफ़ा 655) दूसरी बात ये है कि अगर हज़रत को कोई ज़रूरत दरपेश आती तो वो इस आयत की अस्लन परवाह ना करते बल्कि हर्फ़-ए-ग़लत की तरह मिटा देते। ये सब ख़ुदग़रज़ी पर मबनी था, क्योंकि अगर इस आयत से मुतलक़ मना तलाक़ वग़ैरा निकलता है तो उस वाक़िये के बाद मारिया के साथ पकड़े जाने पर आपने अपनी अज़्वाज (बीवीयों) को धमकाया कैसे था? “अभी अगर नबी तलाक़ दे तुम सबको उस का रब बदले में दे औरतें तुमसे बेहतर” (सुरह तहरीम रुकूअ 1) यहां तलाक़ देने का इख़्तियार भी साबित है। “अगर नबी चाहे” और दूसरी औरतें करने का इख़्तियार भी। ख़ुदा जाने ये मौलवी क़ुरआन-ए-मजीद को किस तरह पढ़ते हैं। हज़रत अपने अमल से जाबजा बार बार उसी को तोड़ते हैं, जिसको वो कलाम-ए-ख़ुदा बताते हैं। मगर ख़ैर हम मौलवियों को राज़ी किए लेते हैं, उन की ख़ातिर एक दम को माने लेते हैं कि हज़रत पर जोरूओं (बीवीयों) की तादाद महदूद हो गई थी, और ये भी कि वो किसी जोरू (बीवी) को तलाक़ ना दें तो भी आप गोश-ए-होश से सुनें कि इस आयत में मुमानियत है, तो जोरूओं (बीवीयों) की ना मुतलक़ औरतों की, क्योंकि आख़िर में “जो माल है तेरे हाथ का” (यानी लोंडियां) इस क़ैद से मुस्तसना (अलग) है। पस हज़रत ने दरअसल अपने ऊपर आसानी की कि अय्याशी भी करते जाएं। नित-नई औरतों से सोहबत (हमबिस्तरी) करें, क्योंकि ये वक़्त उरूज इस्लाम का है। हज़ारहा लौंडियां एक से एक बढ़कर हूर तिम्साल हज़रत के हाथ आती हैं, और जोरूएं (बीवीयां) करने की सिरदर्दी भी ना उठाएं। चुनान्चे मदारिक से मालूम होता है इस आयत की तफ़्सीर में कि इस आयत के बाद मारिया लौंडी से मिले। मुहम्मद अली साहब ने भी अपनी तलबीसात में इस आयत से इस्तिदलाल किया है और हज़रत की गोया मुसीबतें बयान करके रोए हैं। मगर हमने दिखाया कि कैसी कुछ आसानी हज़रत ने अपने नफ़्स पर रवा रखी है। मगर एक बात और है कि ये आयत जैसा हम कह चुके बराए बैत है, हज़रत के लिए कोई मअनी नहीं रखती। इनके आमाल इस के ख़िलाफ़ हर तरह से हैं। चुनान्चे मुल्लानों ने इस को क़ुरआन-ए-मजीद से भी मंसूख़ बताया है और हदीस से भी। मदारिक में उम्म सलमा व आईशाؓ की हदीस का हवाला है और आयत मासबक़ से भी इस की तंसीख़ होती है। ये भी मदारिक ही से ज़ाहिर है। मगर हम इस पर एक और शहादत ख़ुद हिन्दुस्तान की लाते हैं। साहब तफ़्सीर हक़्क़ानी अपने मुक़द्दमा (सफ़ा 136) बयान फ़रमाते हैं :-

आयात क़ुरआनीयाह और अहादीस नब्वीयह में भी तनासुख़ वाक़ेअ होता है या नहीं? मजहूर कहते हैं वाक़ेअ होता है और इसकी दो किस्में है اقل نسخ الکتاب بالسنتہ जैसा कि ये आयत لائیحل لک النسا الّا ये हदीस आईशाؓ से मंसूख़ है कि आँहज़रत सलअम ने उनको ख़बर दी है, कि खुदा ने उन को जिस क़द्र औरतें चाहिऐं मुबाह (जाईज़) कर दीं। रवाह अबदूर्रज़्ज़ाक़ व निसाई व अहमद तिर्मिज़ी व हाकिम। उकूल फिया नज़र किस लिए कि इस आयत की नासिख़ इस से पहली आयत है।” पस मालूम हुआ कि हमारे यार एक आयत मंसूख़ से इस्तिदलाल करके हज़रत की पर्दापोशी करते हैं। चुनान्चे साहिबे तफ़्सीर हक़्क़ानी ने इन लोगों की निस्बत ख़ूब फ़रमाया है। (हाशिया) “बाअज़ खु़फ़ीया क्रिस्चन आँहज़रत अलैहि सलाम के लिए निकाह महुदद ना होने को ऐब समझते हैं, और इस हदीस को ये पैराया ख़ैर ख़्वाही इस्लाम बिला क़ाइदा मुहद्दिसीन झूटी बताते हैं।” हम इन खु़फ़ीया क्रिस्चनों को क्या कहें जब एक डंके की चोट पर बोलने वाला मुसलमान “तफ़्सीर फ़त्ह अलहनान में उन की यूं ख़बर लेता है। पस मालूम हुआ कि इस आयत ने हज़रत को बचाया नहीं बल्कि और बिगाड़ा क्योंकि हज़रत ने ऐन इस के ख़िलाफ़ अमल किया।

दफ़्अ शश्म

सुन्नते अम्बिया व साबिकीन

एक माअज़िरत (बचाव) और बाक़ी रही जाती है। मुहम्मद अली साहब फ़रमाते हैं :-

“जब अम्बिया साबक़ीन ने मुवाफ़िक़ रज़ा ख़ुदा ए तआला के ये फे़अल (अमल) किया तो हज़रत सरवर अम्बिया मुहम्मद मुस्तफ़ा ﷺ भी इसी ज़मुरा में हैं। इन के लिए कोई नई इजाज़त की ज़रूरत नहीं है। वही अम्बिया साबक़ीन की इजाज़त काफ़ी है, जब 100 बीवीयों का करना मन्सब नबुव्वत के ख़िलाफ़ और काबिल तअन हो जाएगा।” (पैग़ाम मुहम्मदी सफ़ा 175) और मौलवी मुहम्मद हुसैन भी हज़रत को इसी बरते पर मिस्ल दाऊद, सुलेमान खींचते हैं। मुहम्मदﷺ को अम्बिया साबक़ीन के ज़मुरे (लिस्ट) में तस्लीम कौन करता है? कि आप इस तस्लीम की बिना (बुनियाद) पर इस्तिदलाल करते हैं। अम्बिया साबक़ीन के ज़मुरे में हज़रत को बिठाना ये आपकी ज़बरदस्ती है और बेबाकी मान ना मान मैं तेरा मेहमान, मगर जवाब सुनिए।

एतराज़ ये है कि किसी नबी या ग़ैर नबी को शरीअत के लिहाज़ से आसी व ख़ाती (मुज्रिम व खताकार) साबित होगा। आप ख़ुद फ़रमाते हैं कि “इस में शक नहीं कि तादद अज़वाज (बीवीयों की तादाद) को ग़ैर महदूद छोड़ देना जैसा कि शरीअत मूसवी में किया गया हद एतिदाल से ख़ारिज है।” (सफ़ा 173) पस आप को मालूम है कि शरीअत मूसवी में ताअदाद-ए-अज़्वाज (बीवीयां रखने की तादाद) को ग़ैर महदूद (हद तय किये बगैर) छोड़ दिया गया। पस अगर किसी नबी या ग़ैर नबी ने उस शरीअत की मुताबअत में ग़ैर महदूद जोरुवान (बीवीयां) कीं तो वो इस शरीअत के एतबार से पाक है, पर अगर बर- ख़िलाफ़ इस के उस शरीअत के ख़िलाफ़ कोई फे़अल (अमल) किया जाये चाहे उस शरीअत के क़ब्ल वो फे़अल (अमल) मुस्तहसिन (पसंदीदा) ही क्यों ना रहा हो करने वाला गुनाहगार है। जैसे शरीअत मूसवी के क़ब्ल दो बहनों का एक वक़्त निकाह। शरीअत मूसवी में दो बहनों का रखना हराम हुआ। पस अगर कोई शख़्स अब दो बहनें निकाह में लाए हराम करता है। ऐसा ही ग़ैर महदूद अज़्वाज (बेशुमार बीवीयों) का रखना शरीअत मूसवी में हलाल था, मगर अब फ़रमाते हैं कि “शरीअत मुहम्मदिया ने ऐसा नाफ़ेअ और उम्दा हुक्म दिया कि पहली शरीअत और इस वक़्त के रिवाज ने जो बलाहिसर व तईन जवाज़ तअद्दुद का फ़त्वा दे रखा था। अव्वल तो उसे चार में महदूद कर दिया। मगर इस जवाज़ में भी अदल की एक सख़्त क़ैद लगा दी।” (सफ़ा 173) तो अब आप बताएं कि मुहम्मदﷺ ने जिन्होंने शरीअत मूसवी के इस्लाह में दम मार कर बक़ौल जनाब “ऐसा नाफ़े और उम्दा हुक्म दिया” अपनी शरीअत के ख़िलाफ़ “ऐसे नाफ़े और उम्दा हुक्म” का क्यों उदूल (नाफ़रमानी) किया?

अम्बिया साबक़ीन ने मूसवी शरीअत पर हो कर ग़ैर महदूद तादाद अज़्वाज को जायज़ रखा। शरीअत इस्लाम ने इस को जायज़ नहीं रखा और तअद्दुद (एक से ज़्यादा) को महदूद किया हत्ता कि अगर कोई मुसलमान पाँच जोरुवान (बीवीयां) एक साथ रख ले तो वो ज़िनाकार कहलाए और अम्बिया साबक़ीन की सुन्नत या शरीअत मूसवी का जवाज़ उस की हिमायत में दम ना मार सके। हज़रत ने “ऐसा नाफ़े और उम्दा हुक्म” शरीअत मुहम्मदिया से ख़िलाफ़ कर के किस तरह 15 या 16 या 20 या ज़्यादा जोरूएं (बीवीयां) कीं? एतराज़ है सो यह है आप बहकें नहीं। या तो मुहम्मद ﷺ को तादाद अज़वाज (बीवीयां रखने कि तादाद) में शरीअत मूसवी का पाबंद बनाएँ और तअद्दुद (बीवीयों की तादाद) के महदूद करने को नाजायज़ ठहराएँ और उसे “नाफ़े और उम्दा” हुक्म ना फ़रमाएं। या मुहम्मद साहब को शरीअत इस्लाम और क़ुरआन-ए-मजीद का उदूल (नाफ़रमानी) करने वाला अय्याश और शहवत परस्त मानें और समझ जाएं कि क्यों सौ (100) बीवीयों का करना मन्सब नबुव्वत के ख़िलाफ़ नहीं हो सकता। मगर नौ बीवीयों का करना मन्सब नबुव्वत के ख़िलाफ़ है, बल्कि मन्सब मामूली शराफ़त और दीनदारी इस्लाम के ख़िलाफ़ भी। ये आपके उज़रात (बचाव) थे। सच्च है ’’ پائی چوبیس سخت بے تمکبین بود ‘‘۔

सय्यद अमीर अली साहब एतराज़ों से बचने के लिए फ़रमाते हैं कि “ग़ालिबन ये कहा जाएगा कि आँहज़रत को ना चाहीए था, कि किसी ज़रूरत से ख़्वाह कैसी ही शदीद हो ताअदाद-ए-अज़्वाज (बीवीयां रखने की तादाद) की रस्म क़बीह (बुरी रस्म) को ख़ुद अमल में लाते या उस को मुबाह (जाईज़) कर देते।” (सफ़ा 213) यक़ीनन ये हरगिज़ ना कहा जाएगा। हज़रत ने ख़ूब किया जो ताअदाद-ए-अज़्वाज (बीवीयों कि तादाद) को अमल में लाए। हम उनसे कोई बेहतर उम्मीद नहीं रखते हैं। मगर हाँ अगर इस रस्म क़बीह (बुरी रस्म) को “मुबाह” (जाईज़) किया था, तो अपने लिए सिर्फ इस क़द्र मुबाह (जायज़) रखते जो औरों के लिए मुबाह (जायज़) रखा था। उस से तजावुर ना करते पस सिर्फ ये कहा जाएगा कि “आँहज़रत को ना चाहीए था कि किसी ज़रूरत से ख़्वाह वो कैसी ही शदीद हो तादाद अज़्वाज की रम क़बीह (बुरी रस्म) को” अपने लिए इस हद से ज़्यादा रवा रखते जो उन्होंने अपनी शराअत में आप मुबाह (जायज़) क़रार दी थी। जब किसी उम्मती के लिए किसी ज़रूरत की ख़्वाह वो कैसी ही शदीद हो रिआयत ना रखी थी, तो अपने नफ़्स के लिए रिआयत रखना क्या मअनी थी? और यहीं आप صم ویکم हैं और अब मालूम हो कि “जिन मौअर्रखीन ईसाई ने आँहज़रत पर तअन किया कि आँहज़रत ने ताअदाद-ए-अज़्वाज (ज़्यादा तादाद में बीवीयां रख) कर के अपने नफ़्स से वो रिआयत की जिसके मुस्तहिक़ आप शराअ शरीफ़ के मूजब ना थे।” (सफ़ा 206) हमारे ज़ी इल्म व शहर-आफ़ाक़ मुसलमान जज ने लाख सर मारा कि इस तअन (मलामत) को उठाए मगर इस तअन का एक एक हर्फ़ हज़ार ज़ोर के साथ हज़रत पर और चस्पाँ हो गया, और इस का एक ज़र्रा भी हमारे मुख़ातब के उठाने से ना उठ सका।

फ़स्ल दहुम

मुतअतु-न्निसा

(यानी कुछ वक़्त के लिए किसी औरत से तय शुदा निकाह करना)

औरात (औरतों) की निस्बत सिर्फ इसी क़द्र कार्रवाई इस्लाम की शरीअत में नहीं अगर इतनी ही होती तो सब्र किया जाता। हज़रत की शरीअत में मुत्आ (कुछ वक़्त का तय शुदा निकाह) भी हलाल है। मुत्आ (तय-शुदा वक्त का निकाह करना) सरीह रंडी बाज़ी है। ख़र्ची देकर किसी औरत से रात दो रात ताल्लुक़ पैदा करना और चलते फिरते नज़र आना नहीं बल्कि वज़्अ-दार (सज़ीले) लोग रंडी बाज़ी में मुत्आ करने वालों से ज़्यादा वफ़ादारी व आदमिय्यत (इंसानियत) बरतते हैं। मौलवी मुहम्मद अली कहते हैं कि “मुत्आ (आरज़ी तय शुदा निकाह) को जवाज़ (जायज़ होना) तो क़ुरआन-ए-मजीद से साबित नहीं होता बल्कि किसी मुक़ाम से इस का हराम होना अज़हर मिनश्शम्स (सूरज कि तरह रोशन) है। अब अगर अहादीस से इस का सबूत होता हो तो ईसाईयों को इस पर एतराज़ करना हरगिज़ नहीं पहुंचता” और फिर ये कि “क्या मुत्आ (यानी कुछ वक़्त का निकाह करने) का सबूत क़ुरआन-ए-मजीद से होता है? हरगिज़ नहीं क्या ऐसी आयतें क़ुरआन-ए-मजीद में नहीं हैं, जिनसे साफ़ साफ़ मुत्आ की हुर्मत (हराम होना) साबित होती है, बे-शक हैं। देखो सरग़ामु-श्शयातीन वग़ैरा।” (पैग़ाम मुहम्मदी, सफ़ा 175-179) बे-शक मुत्आ (यानी कुछ वक़्त के लिए कुछ रक़म दे कर निकाह करके उसे इस्तिमाल करके उस औरत को छोड़ देने) का सबूत क़ुरआन-ए-मजीद से होता है, और ऐसी कोई आयत क़ुरआन-ए-मजीद में नहीं है जिससे साफ़ साफ़ मुत्आ (यानी कुछ वक़्त के लिए किसी औरत से तयशुदा निकाह करने) की हुर्मत (यानी हराम होना) साबित होती है। देखो ज़र्बत-हैदरिया वग़ैरा। मसअला मुत्आ (आरज़ी निकाह) के इस्बात (सबूत) में नस (इबारत) क़ुरआन मौजूद है। فمااستَمتَعتُم بہ منھن فاتُو مٰن اجورھُن فریفتہً फिर जो काम में लाए तुम इन औरतों को दे दो उन का अजुरह (मजदूरी) जो हुआ। (सुरह निसा रुकूअ 4) ज़रबत हैदरयह में निहायत क़ाते दलाईल (इन्तिहाई मज़बूत सबूत) से साबित कर दिया है कि ये आयत मुत्आ (आरज़ी तय शुदा निकाह) पर नस (इबारत) है और सुन्नी उलमा को भी इस से जैसा शीयों ने साबित किया है, इन्कार नहीं हो सकता। चुनान्चे तफ़्सीर सअलबी में मन्क़ूल है कि :-

“इमरान बिन हुसैन कहता है कि नाज़िल हुई आयत अलमुत्आ (कुछ वक़्त का निकाह) बीच किताब-उल्लाह तआला की, नहीं नाज़िल हुई बाद उस के कोई आयत जो मंसूख़ करे उस (आयत) को। (यानी मुत्आ) पस अम्र (हुक्म) किया हमको रसूल अल्लाह सलअम ने उस का मुत्आ (कुछ वक़्त के लिए निकाह) किया हमने रसूलﷺ के और वो मर गए और नहीं मना किया हमको इस से और कहा एक शख़्स ने अपनी राय से जो चाहा।”

(ये इशारा है उमर के हुक्म मना मुत्आ की तरफ़) और तबियानुल हक़ाईक़ शरह कनीज़-उल-अक़ाइक़ में किताब अल-निकाह मुहर्रमात में मज़्कूर है कि इब्ने अब्बास हिल्लत मुत्आ (यानी कुछ वक़्त के निकाह करने) में इस आयत से इस्तिदलाल (यानी दलील पेश) करते थे। और ये तो सबको मालूम है कि हिदाया में इमाम मालिक की निस्बत मंसूब किया गया कि वो मुत्आ (कुछ वक़्त के निकाह करने) के जवाज़ (जायज़ होने) का क़ाइल है। पस इस से इन्कार नहीं हो सकता कि क़ुरआन-ए-मजीद में आयत मुत्आ (यानी कुछ वक़्त के लिए निकाह करने की आयत) मौजूद है। सुन्नी नाहक़ इस को मंसूख़ बताते हैं। कोई क़रीना (वाक्यात का बहमी ताल्लुक़) उस के मंसूख़ होने का नहीं है। शीयों ने बड़े बड़े क़तई (यानी रद्द ना हो सकने वाले) दलाईल तारीख़ व हदीस से साबित कर दिया है, कि इस्लाम में बहुक्म महमुदﷺ मुत्आ हलाल था, और इस वक़्त भी हलाल है। चुनान्चे जुम्ला इमामिया इस पर कार-बंद हैं। पस आपका ये कहना कि मुत्आ (कुछ वक़्त के लिए तयशुदा निकाह) का जवाज़ (यानी जायज़ होना) क़ुरआन-ए-मजीद से नहीं साबित है “मर्दूद है।” और ये हीला (बहाना) कि चूँकि अहादीस में इस का सबूत है इसलिए ईसाईयों को इस पर एतराज़ करना हरगिज़ नहीं पहुंचता अबला फ़रेबी है। हम इस्लाम पर एतराज़ करते हैं और इस्लाम की बुनियाद तुम ख़ुद क़ुरआन मजीद और अहादीस दोनों को तस्लीम करते हो। पस अगर क़ुरआन-ए-मजीद में मसअला मुत्आ (कुछ वक़्त के लिए निकाह करने) का सबूत ना होता बल्कि सिर्फ़ हदीस में होता तो भी इस्लाम हमारे एतराज़ से महफ़ूज़ नहीं रह सकता है। मगर अब तो क़ुरआन मजीद की नस (इबारत) मौजूद है और कोई अम्र मुनाफ़ी (खिलाफ) मुत्आ क़ुरआन-ए-मजीद में नहीं और अहादीस भी मौजूद हैं जो क़तई हैं, और इस पर मुस्लिमानाँ तबक़ा ऊला व सानी के अमल भी मौजूद हैं, जिन पर तवारीख़ शाहिद है। पस मुत्आ से इन्कार करना और इस्लाम को मानना मुम्किन नहीं। सुन्नीयों ने अब मुत्आ को बावजूद तस्लीम सनद हदीस हराम ठहराया है। और कुछ उसी बिना पर जिस बिना पर हमारे सय्यद साहब कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां) से बेज़ार हैं, और इस को अब ज़िनाकारी का ताल्लुक़ फ़रमाते हैं। दरअसल मुत्आ निहायत ही बे-हयाई, बद-अख़्लाकी व अय्याशी का मसअला है। औरतों को ये ख़ुद देकर काम में लाना है। मगर क़ुरआन-ए-मजीद की आयत मज़्कूर साफ़ साफ़ इस की मवेद है। सुन्नी इस मुत्आ को ये नहीं कहते कि इस्लाम में हलाल ना था, बल्कि सिर्फ ये कि हज़रत ने आख़िर ज़माने में इस को हराम ठहरा दिया। हज़रत के वक़्त में वो हराम ना था। भई तुम्हारे हज़रत भी बड़े हज़रत थे। चुनान्चे मुतर्जिम मुवत्ता इमाम मालिक निकाह अल-मुत्आ के फ़ायदे में यूं रक़मतराज़ कि :-

“अवाइल इस्लाम में दुरुस्त था फिर......फ़त्ह मक्का के रोज़ हराम हुआ। फिर जंग व तास में दुरुस्त हुआ, फिर हराम हुआ, फिर तबूक में दुरुस्त हुआ, फिर हुज्जत-उल-विदा में हराम हुआ। इस बार-बार की हुर्मत (हराम होने) और रहलत से लोगों को शुब्हा बाक़ी रहा बाअज़ लोग मुत्आ करते थे, बाअज़ नहीं करते थे। यहां तक कि आँहज़रतﷺ की वफ़ात हुई और हज़रत अबू बक्र की ख़िलाफ़त में ऐसा ही रहा, और हज़रत उमर की अवाइल (शुरूआती) ख़िलाफ़त में भी यही हाल रहा बाद इस के हज़रत उमर ने उस की हुर्मत (हराम होने को) बरसर मिंबर बयान की। जब लोगों ने मुत्आ करना छोड़ दिया मगर बाअज़ सहाबा उस के जवाज़ (जायज़ होने) के क़ाइल रहे जैसे जाबिर बिन अब्दुल्लाह और अब्दुल्लाह बिन मसऊद और अबू सईद और मुआवीया और अस्मा बिंत अबी बिक्र और अब्दुल्लाह बिन अब्बास और उमर बिन हुवरेस और सलमा बिन अलकुअ और एक जमाअत ताबईन में से भी जवाज़ (जायज़ होने) की क़ाइल हुई है। (मुलख्ख़स जरक़ानी, कशफ़ अलअज़ा मतबूअह मतबअ मुर्तज़वी देहली 1296 हि० जिल्द सानी, सफ़ा 341)

ग़ज़वा ख़ैबर 7 हिज्री में वाक़ेअ हुआ यानी दावा-ए-नुबूव्वत के 20 बरस बाद। हज़रत इस के 3 बरस बाद मर गए। फ़त्ह मक्का 8 हिज्री में हुई। ग़ज़वा तबूक 9 हिज्री में हुआ और आख़िरी हुर्मत (हराम होना) मतदअवया हुज्जता उल-विदा में हुई जो आख़िरी साल हज़रत की उम्र का था। पस कम से कम 20 बरस नबुव्वत मुहम्मदﷺ में मुत्आ (कुछ वक़्त के लिए निकाह करने) का हलाल रहना ख़ुद मुख़ालिफ़ीन मुत्आ के अक़्वाल से साबित है। और साल सवा साल क़ब्ल वफ़ात हज़रत मुत्आ के हराम होने का शुब्हा तारीख़ी क़रीना (वाक्यात के बहमी ताल्लुक़) से बातिल है। क्योंकि सुन्नी इस से भी इन्कार नहीं करते कि हज़रत उमर ने पहला हुक्म दिया था, कि जो शख़्स मुत्आ (कुछ वक़्त के लिए निकाह) करेगा, मैं इस को रज्म (पत्थर मार कर क़त्ल) करूँगा। मगर ख़लीफ़ा अव्वल अबू बक्र के ज़माने में मुत्आ होता रहा और इस उमर के फ़ैसले को ख़ुद उस के बेटे ने ख़िलाफ़ शरह (शरीअत के खिलाफ) कहा। चुनान्चे जलाल उद्दीन सिवती तारीख़ अलख़ुलफ़ा में उमर को اول من حرم المتعہ अव्वल शख़्स जिसने मुत्आ को हराम ठहराया लिखते हैं। पस ख़लीफ़ा अव्वल अबू बक्र के ज़माने में मुत्आ हराम हुआ। अगर मुहम्मदﷺ अपनी हीने-हयात (जीते जी) मुत्आ को हराम कर गए थे, तो ख़लीफ़ा अव्वल के अह्द में हलाल कैसे हो गया था? कि हुर्मत (हराम होने का) का हुक्म उमर को देना पड़ा। हक़ीक़त यूं है कि मुत्आ हराम कभी नहीं हुआ आयत मुत्आ क़ुरआन-ए-मजीद में मौजूद है। इस का नासिख़ (मंसूख करने वाला) कोई हुक्म क़ुरआन-ए-मजीद में नहीं और अगर क़ुरआन-ए-मजीद में कोई आयत हुर्मत मुत्आ (मुत्आ के हराम होने) पर होती तो आख़िर इख़्तिलाफ़ सहाबा के लिए गुंजाइश ना थी। और अगर क़ुरआन-ए-मजीद में सरीह आयत मुत्आ वारिद होती तो अब्दुल्लाह बिन मसऊद सा क़ुरआनदां मुत्आ पर इसरार क्यूँ न कर कर सकता है। चुनान्चे सहाबा के अमल की ये कैफ़ीयत है जैसा जाबिर से ऊपर मन्क़ूल हुआ वो कहता था कि “हमने मुत्आ किया अहद रसूल अल्लाह सलअम में और अहद अबू-बक्र और निस्फ़ ख़िलाफ़त उमर में, फिर मना किया उस ने लोगों को इस से।” ये एक पुराना मसअला है जिसके तरह बह तरह के इस्बात (सबूत) शीया मुक़ाबले में सुन्नीयों के दे चुके और सुन्नीयों से कोई जवाब ना बन पड़ा जो शख़्स चाहे तरफ़ैन की कुतुब मुनाज़िरा इस बाब में देख ले।

पस अहले सुन्नत का मुत्आ (कुछ वक़्त के लिए तय किया हुआ निकाह) को हराम ठहरना क़ुरआन मजीद व सुन्नत से दरगुज़र करना है। शीए हक़ पर हैं वर्ना इस की हुर्मत ऐसी है जैसी कि कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा निकाह करने) की जिसको हमारे सय्यद साहब मुख़ालिफ़ मंशा क़ुरआन व तालीम मुहम्मदी समझ कर “ज़िनाकारी का ताल्लुक़” फ़रमाते हैं।

फ़स्ल याज़्दहुम

तक़्वीम-पारीना

हमने हज़रत की अज़्वाज (बीवीयों) के हालात मुफ़स्सिल पर तहक़ीक़ के साथ नज़र डाली और उनके साथ हज़रत की बे-हयाई के ताल्लुक़ात देखे। हम ये कहे बग़ैर नहीं रह सकते (गो वो बमिस्दाक़-उल-हक़ इनके ताबईन को कैसा ही नागवार क्यों ना मालूम हो) कि हज़रत शहवत परस्त व अय्याश परले दर्जे के थे। ख़दीजा ؓ की वफ़ात के दो माह बाद ही हज़रत ने दो औरतों से यानी सौदहؓ और आईशाؓ से निकाह कर लिया और उन की जोरूओं (बीवीयों) का रोज़नामचा जिससे मुसलमान इन्कार नहीं कर सकते हम हद्या नाज़रीन करते हैं।

अब हज़रत के जोरूएं (बीवीयां) फ़राहम करने के आगे बजुज़ मौत के कोई रोक बाक़ी ना रही थी। आख़िर हज़रत हिज्रत के दस बरस बाद मर गए और मरते-मरते निकाह कर गए। चुनान्चे हयात-उल-क़ुलूब वाला किसी शनियाह दुख़्तर ज़िलत का ज़िक्र करता है कि ’’ حضرت اور اتنرویج نمودوپیش ازان کر اور بخد مت حضرت بیادندحضرت زوارفانی رحلت نمود‘‘ (सफ़ा 568) जिससे मालूम होता है कि बिस्तर-ए-मृग ही पर जिसको वो बिस्तर-ए-मृग ना जानते थे। हज़रत ने यह निकाह किया था। मगर नौबत सोहबत (हमबिस्तरी) की ना आने पाई। ये इंतिहाई बूअलहूसी (बहुत ज़्यादा हिर्स, नफ़्सानी ख़्वाहिशात पर बहुत ज़्यादा चलना) है।

इस रोज़नामचा से जो मुकम्मल नहीं क्योंकि इस में हज़रत की चार लौंडियों में से दो का तज़्किरा नहीं किया गया साफ़ अयाँ है कि इलावा बीबी ख़दीजा ؓ के जिनका इंतिक़ाल क़ब्ल हो गया था, हज़रत के पास कम से कम कोई चौदह जोरूएं (बीवीयां) थीं, और हज़रत ने यह निकाह वग़ैरा बाद वफ़ात ख़दीजा ؓ शुरू किए थे। ख़दीजा ؓ 10 सन दावा-ए-नुबूव्वत में मरी और इस के बाद हज़रत 13 बरस और जिए। अगर आँहज़रत इस 13 बरस के ज़माने में सिर्फ 13 औरतें करते तो वो शेख़ सादी के इस लतीफ़ा के मिस्दाक़ होते ’’ زنے نو کن اسے دوست ہرنوبہار۔ کہ تقو یم پاری نباید بکار‘‘ मगर हज़रत ने इस को नाफ़िज़ कर दिया।

हमारे मुख़ातब अव्वल तो हज़रत के हरमसरा की तादाद में क़ुत्आ बुरीद (यानी कांट छांट) करते रहे फिर हज़रत की जोरूओं (बीवीयों) को बुढ़ी से बुढ़ी साबित करते है, और यही कहतें गए कि बेकस बेवाओं की परवरिश करने के लिए हज़रत जोरूएं (बीवीयां) रखते थे। गोया हरमसरा क्या एक मुहताज-ख़ाना था। मगर हमने दिखाया कि हज़रत शहवत ज़नी व अय्याशी करते थे। हर उम्र की एक औरत हज़रत रखते थे। यहां 7 से 9 बरस तक की बाकिरा (कुँवारी) भी है। 17 बरस की नौउरुस भी, दो तीन 20 साल वाली भी, 27 साल वाली भी, 30 वाली भी, 35 वाली भी, 40 वाली भी और पच्चास वाली भी ताकि हवस कम ना हो और तजुर्बा ज़्यादा हो। फ़रंगी महल, चीनी महल, हब्शी महल वालों ने हज़रत ही को अपना उस्ताद माना होगा। ये सूझ बूझ मर्हबा सय्यद मक्की मदनी व अरबी ही को थी और औरतों का इंतिख्व़ाब हज़रत यूं करते थे, जैसा हयात-उल-क़ुलूब वाले ने लिखा है ’’ کلینی بسند معتبر روایت کردہ است کہ چون حضرت رسول ارادہ خواستگار ی زنے می نمودوزنے افرستاد کہ نظر کندبسوی ادومی فرمود کہ بوکن گردنش راا گر گرونش خوش بوست ہمہ بدنش خوش بوست وغورک پایش راملاخطہ کن کہ اگر آنجاپر گوشت است ہمہ جائے تن اوپر گوشت است وجوہ ‘‘ औरतों की परख तो शायद किसी रईस ऊदा को भी ना मालूम थी। ऐ सय्यद साहब शर्म कीजीए और ऐसे बे-तुकी ना हांके। हज़रत अय्याश थे पुर-गोश्त औरतों को तलाश करा कर और जिब्राईल के लाए हुए ऐसे और हुबूब ईमसाक खा खा कर या शहद और कीकरकार्स पी पी कर जिस का पता मौलाना इमाद-उद्दीन ने दिया है। (तारीख़ मुहम्मदी, सफ़ा 232) रात-भर अय्याशी किया करते थे। जैसा ख़ुद मुहम्मद हुसैन क़ुबूल करते हैं कि “हज़रत एक ही साअत में रात या दिन के सभी अज़्वाज (बीवीयों) से हम-बिस्तर होते।” (सफ़ा 194) पस बेवा पर्वरी (बेवा का सहारा बनने) का ख़्याल तो जाने दीजीए। मुहम्मद हुसैन कहते हैं कि “मुख़ालिफ़ भी तज्वीज़ नहीं कर सकता कि आपका कस्रत तअद्दुद (बहुत सी बीवीयों से) निकाह शहवत परस्ती व नफ़्स पर्वरी की ग़रज़ से था।....आप नफ़्सानी अग़राज़ रखते और इन अग़राज़ से ऐश चाहते तो आलम-ए-शबाब में रस्मो रिवाज क़ौम के मुताबिक़ बहुत सी औरतें निकाह में ला सकते थे। वो भी जवान और बाकिरा (कुँवारी) जो नफ़्सानी अग़राज़ का असल महल हैं।” (सफ़ा,171-172) इस का जवाब हम दे चुके कि आलम-ए-शबाब में ज़र नेस्त इश्क़ टें टें था। हज़रत को एक जोरू भी ना मिल सकती थी। और जब ख़दीजा ؓ से आपने निकाह किया तो आप इस की ज़िंदगी-भर इस के हलक़ा बगोश तवअन और कराहन रहे। कान भरने का अभी कोई ज़ाहिरी मौक़ा ना था। फिर मौलवी साहब फ़रमाते हैं अगर कोई इस बात को ना माने (और कैसे) तो वो यही ख़्याल कर ले कि इस कस्रतो तादाद अज़्वाज (ज़्यादा बीवीयां रखने की तादाद) पर बाइस आपको नफ़्सानी अग़राज़ होते तो जिस वक़्त आप साहिबे सल्तनत और मुल्क अरब व यमन व शाम के मालिक व मुतसर्रिफ़ हो गए और इस तादाद निकाह के मुर्तक़िब हुए थे। इसी वक़्त आप जवान बाकिरा (कुँवारी) औरतों से निकाह करते। मौलवी साहब को नहीं मालूम कि यूँही हज़रत ने अपने आप को साहिबे सल्तनत देखा। मलक-उल-मौत ने रगे-जां को काटा। हज़रत को जीने की मोहलत ही ना मिली और कोई नई कली दिल की ना खिली। امید بستہ برآمدوے چھ فاید ہ زان ۔امید نیست کہ عمر گذشتہ باز آید ۔

मगर आप हमारी तक़वीम का मुतालआ करें और हज़रत की हरमसरा का तमाशा देखें। हफ़्सा जवान भी है, और ख़ूबसूरत, ज़ैनब हुस्न व जमाल की मोहिनी मूर्त, सफिया नौ-उरुस (नई दुल्हन) 17 साल, जुवेरिया नई उम्र परी-तिम्साल, रिहाना को हज़रत ने छांट कर पसंद कर लिया है, और आईशाؓ की कम्सिनी (छोटी उम्र) ने आप को अपना पाए-बंद। जो रविश मारिया शहरा-आफ़ाक़ है। जुदाई इस की हज़रत को शाक़ है। मगर आपको जवान और बाकिरा (कुँवारी) औरतों का पता नहीं लगता। आईशाؓ भी बाकिरा (कुँवारी) है और क्या चाहीए। दूसरी औरतें जवानी का नमूना हैं, अगर बाकिरा (कुँवारी) नहीं तो क्या मज़ाइक़ा। जहांगीर एक ग़ैर बाकिरा (गैर-कुँवारी) बेवा औरत की तलब में क्यों दीवाना था? और फिर ये हज़रत की अज़्वाज (बीवी) किस रंग-ढंग की थीं? हम बताते हैं बल्कि आपको अपना कहा याद दिलाते हैं। सुरह अह्ज़ाब रुकूअ 4 में ख़ुदा को आप कहना पड़ा ऐ नबी की बीवीयों तुम और औरतों की तरह नहीं तुम ख़ुदा से डरनेवाली हो तो अजनबी मर्द से लचक और प्यार की बात ना करो। इस से बीमार दिल वाले तमअ (लालच) करेंगे। दस्तूर के मुवाफ़िक़ बात किया करो। घर में पड़ी रहो, नादानी के ज़नाना की तरह अपनी ज़ीनत सब मर्दों को ना दिखाओ।” (ख़ुत्बा, सफ़ा 328) इन औरतों को आप बढ़िया ना हक़ कहते हैं, हुर्मत (हराम होने) को उन की जवानी का इस दर्जा अंदेशा था।

और ये जो आपने इर्शाद फ़रमाया कि “अक़्ली व तबई क़ायदा है कि जिस औरत का जमाल व शबाब किसी मर्द को मर्ग़ूब (पसंद) व मअशुक होता है, वहा इसके होते दूसरी औरत का जो जमाल व शबाब में इस से कमतर हो हरगिज़ तालिब व रागिब नहीं होता।” (सफ़ा 178) इस की तस्दीक़ भी सौदहؓ और आईशाؓ के हालात में हम दिखा चुके। जो अय्याश बहुत सी नुमाइशी औरतों को जमा कर रखते हैं वो भी किसी एक पर दिलदादा (फ़िदा) रहते हैं। हमारे हज़रत अलैहिस्सलाम भी बिंत अबू बक्र (यानी आयशा) पर गरवीदा (फ़िदा) थे क्योंकि ये भी बाकिरा (कुँवारी) थीं, और कमसिन (छोटी उम्र की) भी। बाद इनके यानी दूसरे दर्जे पर आप सफ़ैद पोस्त मारिया पर शैदा (आशिक़) थे। ये भी आईशाؓ की मसील थी। इस के बाद जुवेरिया पर फिर सफिया पर फिर हफ़्सा पर علیٰ ہٰذاالقیاس (अला-हाज़ल-क़यास) हर जवान पर सौदहؓ उम्र में बड़ी थी हज़रत ने इस को पैंशन अता फ़रमाई। मैमूना और उम्म जेबा वग़ैरा जो उम्र में कुछ ज़्यादा थीं हज़रत के दिल में कम जगह पाती थी। मगर ये औरतें भी बुढ़ी ना थीं बल्कि जिस को आप बुढ़िया समझते हैं उस पर भी जनाब का ये सुख़न (बात) चस्पाँ होता है कि “बन-ठन ज़ीनत व सिंगार से बुढ़िया भी जवान मालूम होती है और वो शिद्दत के हरीसों की महल तअ हो जाती है।” (ख़ुत्बा, सफ़ा 329) इसलिए हज़रत बीमार दिल लोगों से अंदेशा लॉक थे और इन अज़्वाज (बीवीयों) को इर्शाद था कि उनसे लचक और प्यार की बात ना करो और ना उन को अपनी ज़ीनत दिखाओ। मौलवी साहब किस-किस बात का इन्कार करोगे हज़रत अपनी करनी करतूत के काफ़ी से ज़्यादा सबूत अपनी तारीख़ में लिखा गए हैं।

फ़स्ल दवा ज़दहुम

तलाक़

हमने इब्तिदा में बयान किया कि तलाक़ व कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयाँ रखना) लाज़िम व मल्ज़ूम हैं बल्कि हमेशा हमदोश चलने वाले। एक बुराई की इस्लाह दूसरी बुराई से होती है। इसलिए शराअ ईस्वी ने कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां रखने) को हराम ठहरा कर तलाक़ को हराम ठहराया और एक हालत में यानी ज़िना की हालत में इस को जायज़ रखा। अह्दे-अतीक़ में कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां रखना) हलाल व मुबाह (जायज़) थी। तलाक़ भी हलाल व मुबाह (जायज़) थी, और ख़ुदावंद मसीह ने तलाक़ को इन्सान की सख़्त दिली का नतीजा बताया। इस्लाम में जब कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवीयां रखना) हलाल व मश्रुअ बल्कि एक मुस्तहसिन (बेहतर) अम्र ठहरा तो इस हाल में कोई इल्ज़ाम इस्लाम पर इस वजह से आइद नहीं हो सकता कि इस ने तलाक़ को क्यों जायज़ रखा। मगर ये अम्र कि दरअसल तलाक़ एक ख़राबी है और ख़ुदावंद को ना पसंद पैग़म्बर इस्लाम के ना-मुवाफ़िक़ अक़्वाल भी इस की ताईद करके ईस्वी शरीअत मना तलाक़ की तस्दीक़ करते हैं। चुनान्चे सय्यद साहब एक हदीस नक़्ल करते हैं, “आँहज़रत ने फ़रमाया ख़ुदा ने कोई चीज़ दुनिया में ऐसी नहीं पैदा की जिसको वो तलाक़ से ज़्यादा नापसंद करता हो।” (सफ़ा 216) और मौलवी मुहम्मद अली साहब भी एक हदीस सुनाते हैं कि “हलाल चीज़ों में ख़ुदा को ज़्यादा ग़ुस्से में लाने वाली तलाक़ है।” (पैग़ाम मुहम्मदी, सफ़ा 164) पस बयान से अज़हर (रोशन) है कि तलाक़ ख़ुदा को ना पसंद और उस की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ बल्कि उस को ग़ुस्से में लाने वाली है। अब ये जुर्आत इस्लाम को ही हो सकती थी कि वो ऐसे अम्र को जिसको उनका पैग़म्बर सरीह ख़ुदा के मुबाह (जायज़) क़रार देकर ख़ुदा के ग़ज़ब को भड़काए। मगर इस इस्लामी तलाक़ को इस्लाम के हामी बहुत रंग दे कर पेश करते हैं। सय्यद साहब फ़रमाते हैं :-

“आँहज़रत तलाक़ के मफ़्हूम ज़हनी को बहुत नापसंद फ़रमाते थे और इस के वजूद ख़ारिजी यानी कल को क़ाने बिनयान (यानी जो कुछ हो इसी पर क़नाअत (सब्र) करना) तमद्दुन (समाजी ज़िन्दगी) जानते थे। (शुक्र) है मगर बईं-हमा एक हकीमाना क़ानून तलाक़ मुंज़ब्त करके आपने इन जरूरतों का तदारुक कामिल फ़रमाया जो तमाम औक़ात में और सब ख़ानदानों में इस वक़्त तक ज़रूर पेश आएंगे जब तक कि इन्सान जामा बशरीयत पहने रहेगा।” (सफ़ा 215)

मुहम्मद अली साहब फ़रमाते हैं कि :-

“शरीअत मुहम्मदिया ने इस बात में ऐसे अहकाम नाफ़िज़ किए जिससे शरीअत का पाबंद बजुज़ हालते ज़रूरत और मज्बूरी के किसी तरह बीवी को अलैहदा नहीं कर सकता।” (सफ़ा 164)

और फिर बुज़ुर्ग मौलवी सफ़दर अली साहब के इस क़ौल की कि “क़ुरआन व हदीस लोगों को ये सिखाते हैं कि जब तुम्हारी ख़्वाहिश हुआ करे जोरूओं (बीवीयों) को तलाक़ दे दिया करो” तर्दीद करते हैं। पैग़ाम मुहम्मदी (सफ़ा 165) में एक अमली दलील से इस अम्र को साबित किए देता हूँ कि दरअसल क़ुरआन व हदीस का मंशा यही है जो मौलवी सफ़दर अली साहब ने बयान किया। बिला किसी वजह के भी जब चाहीए मर्द जोरू (बीवी) को तलाक़ दे दे और दूसरी जोरू (बीवी) करे। इस्लाम के इमामों ने ऐसा किया, पैग़म्बर इस्लाम के प्यारों ने ऐसा किया, वो जो बहिश्त के सरदार समझे जाते हैं उन्होंने ऐसा किया, जो पेशवाए उम्मत मुहम्मदीया हैं उन्होंने ऐसा किया, जो इस्लाम और क़ुरआन-ए-मजीद और हदीस और सुन्नते नबी के मुनाद (पैगाम फ़ैलाने वाले) हैं उन्होंने ऐसा किया, और ख़ूब ज़रूर से किया बड़े मज़े से किया, पूरी तरह शरीअत का पाबंद हो कर किया, और कोई उसूल शरीअत मुहम्मदिया उनको इस बेएतिदाली फ़ित्रती से रोकने वाला ना था और ना किसी ने उनको बेईमान मुसलमान कहा, ना शरीअत का तोड़ने वाला। सय्यद अमीर अली साहब ने बड़ी दिलेरी से फ़रमाया कि :-

“हज़रत अली और उन के साहबज़ादों ने कैसी आली हिम्मती ज़ाहिर फ़रमाई जिसका नतीजा ये हुआ कि हुर्मत निसवां का एक ग़ैर मकतूब क़ानून मुसलमानों में अलैहदा मुक़र्रर हो गया।” (सफ़ा 220)

मैं हज़रत अली के साहबजादों में से एक की नज़ीर पेश करता हूँ ताकि “हुर्मत निस्वान का ग़ैर मकतूब क़ानून” ज़ाहिर हो जाए। हज़रत इमाम हसन को मुहम्मद साहब ने जवानान बहिश्त का सरदार फ़रमाया है। “आप सीना लेकर सर तक रसूल-ए-ख़ूदा से मुशाबेह (मिलते जुलते शक्ल के) थे और जिस्मानी मुशाबहत के मुवाफ़िक़ आपको अख़्लाक़ी मुशाबहत भी थी। मिरात-उल-काइनात में है कि तमाम तवारीखों में मज़्कूर है कि हज़रत इमाम हसन बड़े कस्रत से निकाह करने वाले और तलाक़ देने वाले थे। हत्ता कि अपने वालिद के हीने-हयात (जीते जी) उन्होंने 90 या 110 निकाह किए और बावजूद-ए-हुस्न अख़्लाक़ के अदना अदना वजह पर उनमें से हर एक को तलाक़ दे दी। फ़ातिमा का निकाह हज़रत अली के साथ 2 हिज्री में हुआ और हज़रत अली 40 हिज्री में मक़्तूल हुए। पैदाइश इमाम हसन 3 हिज्री की है और अगर फ़र्ज़ किया जाये कि उन्होंने शुरू सन (उम्र) से अय्याशी करना शुरू की थी और इस सन को इब्तिदाई ज़माना 17 बरस का फ़र्ज़ करें जो 20 हिज्री में होता है, तो उन के वालिद की वफ़ात तक 20 बरस बाक़ी रहते हैं तो इस हिसाब से 20 बरस में हज़रत ने (90 या 110 का औसत क़रीब) 100 जोरूएं (बीवीयां) कीं। मगर कभी चार से ज़्यादा एक आन में नहीं रखें बपाबंदी शराअ मुहम्मद थे। पस साफ़ ज़ाहिर है कि हज़रत इमाम हसन बहिसाब 5 जोरूएं (बीवीयां) फ़ी साल तलाक़ देते थे, यानी हर ढाई माह में एक नई जोरू (बीवी) करते थे, और पुरानी को तलाक़ देते थे। बाद वफ़ात अली इमाम हसन 9 बरस और जिए क्योंकि 49 हिज्री में इन को उनकी जोरू ने ज़हर देकर मार डाला। इस 9 बरस के अरसे में 5x9 = 45 निकाह और तलाक़ हज़रत ने और और किए होंगे या ना किए हों क़ब्ल ही आसूदा हो गए हों। मगर इस में शक नहीं कि वो सवा सौ जोरूएं (बीवीयां) जिन का ज़िक्र ऊपर किया गया इलावा इन बेशुमार लौंडियों के हैं जो किसी हिसाब में नहीं आ सकती मगर नाज़रीन उनका भी ख़्याल रखें। अब आप फ़रमाएं ये इमाम अय्याश बिला किसी वजह के मह्ज़ ख़त नफ़्स की ग़रज़ से निकाह पर निकाह करता जाता है और तलाक़ पर तलाक़ देता है और आप नहीं कह सकते कि इस ने शरीअत मुहम्मदिया का उदूल (नाफ़रमानी) किया या वह इस के एतबार से गुनाहगार व अय्याश ठहरा। और अगर आज कोई मुसलमान इस इमाम की तरह निकाह व तलाक़ को रिवा (जारी) रखे तो कौन उस को बुरा कह सकता है। हज़रत अली ज़िंदा हैं, अमीर-ऊल-मोमनीन हैं। उनकी आँखों के सामने साहबज़ादा बलंद इक़बाल ये कर रहे हैं और कोई हुक्म शराअ के अमल के ख़िलाफ़ वो नहीं पाते बल्कि सहाबा भी यही कहते हैं “बेहतर इस उम्मत में से वो शख़्स है जिसकी बीवीयां बहुत हैं।” (मिन्हाज, सफ़ा 727) और बहुत जोरुवान (बीवीयां) तभी हों जब बहुत तलाक़ हों और बहुत तलाक़ वैसी ही हों जैसे इमाम हसन ने दिए। हम इस हैवानी हरकत को क्या कहें और इस के मुर्तक़िब को किस मौज़ू नाम से याद करें। अगर मुसलमान इन्साफ़ करें तो ख़ुद समझ सकते हैं। चुनान्चे मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब इस शख़्स की निस्बत जो चार जोरूओं (बीवीयों) से भी आसूदा नहीं होता और ज़्यादा औरतें चाहता है या इर्शाद फ़रमाते हैं :-

“अगर कोई ऐसा छुपा रुस्तम निकल आए जो चार क़वी और तवाना औरतों का काम तमाम करके भी खुद नाकाम रहे तो इस की हाजतरवाई के लिए पांचवीं या छठीं औरत की इजाज़त देने की निस्बत कम मुज़र्रत लो। सहल-उल-अमल ये तरकीब है कि वो पहली चार आसामीयों को पैंशन देकर यके बाद दीगरे या यक-बारगी रिटायर कर दे और उनकी जगह चार और भर्ती कर ले। उनको भी वो छुपा रुस्तम हरा दे तो उनको छोड़कर चार और कर ले व-अला-हाज़ाल-कयास ऐसे शख़्स मफ़रूज़-उल-वजूदो अल-सिफ़ात को चार की मौजूदगी में पांचवें की इजाज़त दी जाये तो इस में दीनदार बदमाशों व अय्याशों को एक हीला व बहाना हाथ आ जाएगा। वो इस बहाने से बहुत सी औरतों को घेर लेंगे और मख़्लूक़-ए-ख़ुदा की हक़-तल्फी करेंगे। दीनदार उनको उन के दावे के बमूजब कहा और हक़ीक़त में वो बदमाश हैं।” (सफ़ा 166)

मौलवी साहब को हरगिज़ नहीं याद था कि ऐसा शख़्स “मफ़रूज़-उल-वजूद अल-सिफात” नहीं है बल्कि ख़ुद इमाम हसन साहब हैं और वो ही सलाह पर कारबन्द रहे। अगर ये मालूम होता तो आप ऐसे लोगों को “दीनदार बदमआश व अय्याश” ना फ़रमाते। बहरहाल इन दीनदार बदमआशों की सरपरस्त शरीअत इस्लाम है। मगर बायनमाहैफ़ की ये मौलवी साहिबान सफ़दर अली साहब को ये नहीं कहने देते कि “क़ुरआन व हदीस लोगों को ये सिखाते हैं कि जब तुम्हारी ख़्वाहिश हुआ करे जोरूओं (बीवीयों) को तलाक़ दे दिया करो।” इन मौलवियों को इमाम हसन झुटलाएँ जो फे़अल सरदार जवानान बहिश्त और अमीर-ऊल-मोमनीन को ख़िलाफ़ शरीअत ठहरा रहे हैं और नहीं सोचते ’’چو کفراز کعبہ بر خیز دکجا ماند مسلمانی‘‘۔

फ़स्ल शेर दहुम

औरात (औरतों) की हैसियत

इस बे-बाक मुसन्निफ़ ने इस बारे में जो ग़लत बयानीयाँ और मुँह-ज़ोरीयाँ कीं हैं इस से साबित होता है कि इस ने औरात (औरतों) की हैसियत इस्लाम में यहूदीयत और ईसाइय्यत से अफ़्ज़ल ज़ाहिर करना चाही है। कोई कलाम नहीं कि इस्लाम की हिमायत ने हमारे मुख़ातब की आँखों पर पर्दा डाल दिया है, और इस की ज़बान को बेलगाम कर दिया। अब इस को सफ़ैद को स्याह और खरे को खोटा कहने में सुरमूता मिल नहीं रहा। वाय बर्बेइंसाफ़ी और हमको वो ये सुनाता है, और मुहज़्ज़ब दुनिया को अपने ऊपर हँसाता है। “दीन ए मसीही ने औरतों की शिक़ावतें और इनकी बुराईयां और उन की कीनापरवरी और कीना जोई पर बहुत कुछ लिखा था।” (सफ़ा 219) अगर इस क़ौल में हम बजाय दीन ए मसीही के इस्लाम और मुहम्मद और सहाबा दाख़िल करें तो ये लफ़्ज़न दुरुस्त होता। दीन ए मसीही ने ! हम नकार के उस से और उस के हम ख़यालों से कहते हैं। इंजील मुक़द्दस से कोई एक कलिमा तो निकाल दो जिसमें औरतों को “मलऊन (लानती) और मतऊन” किया गया है या तुम हमसे सुन लो कि क़ुरआन व हदीस औरतों को किस तरह ज़लील करते हैं। कस्रत अज़वाजी (ज़्यादा बीवी रखने) से उन के दिलों को जलाते हैं। इन की ग़ैरत को खोते, इनकी ज़िंदगी को वबाल करते हैं तलाक़ वग़ैरा से जैसा कि हज़रत इमाम हसन का अमल था। औरतों को मर्दों के लिए शहवत ज़नी का एक आला बना कर उन को दिखाते हैं कि نِسَاؤُكُمْ حَرْثٌ لَّكُمْ فَأْتُوا حَرْثَكُمْ أَنَّىٰ شِئْتُمْ औरतें तुम्हारी खेती हैं। पस जाओ अपनी खेती में जहां से चाहो। (सुरह बक़रा रुकूअ 28 आयत 253) शारेअ इस्लाम ना कोई और जिसकी शरीअत पर आप नाज़ कर रहे हैं औरत को “सूरत शैतान” फर्माते हैं।

सहीह मुस्लिम - जिल्द दोम - निकाह का बयान - हदीस 914

रावी उम्र बिन अली अब्दूल आला हिशाम बिन अबी अब्दुल्लाह अबी ज़ुबैर जाबिर

حَدَّثَنَا عَمْرُو بْنُ عَلِيٍّ حَدَّثَنَا عَبْدُ الْأَعْلَی حَدَّثَنَا هِشَامُ بْنُ أَبِي عَبْدِ اللَّهِ عَنْ أَبِي الزُّبَيْرِ عَنْ جَابِرٍ أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ رَأَی امْرَأَةً فَأَتَی امْرَأَتَهُ زَيْنَبَ وَهِيَ تَمْعَسُ مَنِيئَةً لَهَا فَقَضَی حَاجَتَهُ ثُمَّ خَرَجَ إِلَی أَصْحَابِهِ فَقَالَ إِنَّ الْمَرْأَةَ تُقْبِلُ فِي صُورَةِ شَيْطَانٍ وَتُدْبِرُ فِي صُورَةِ شَيْطَانٍ فَإِذَا أَبْصَرَ أَحَدُکُمْ امْرَأَةً فَلْيَأْتِ أَهْلَهُ فَإِنَّ ذَلِکَ يَرُدُّ مَا فِي نَفْسِهِ

उम्र बिन अली, अब्दूल आला, हिशाम बिन अबी अब्दुल्लाह, अबी ज़ुबैर, हज़रत जाबिर रज़ीयल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने एक औरत को देखा तो आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने अपनी बीवी ज़ैनब रज़ीयल्लाहु तआला अन्हा के पास आए और वो उस वक़्त खाल को रंग दे रही थीं और आप सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने अपनी हाजत (हमबिस्तरी) पूरी फ़रमाई फिर अपने सहाबा रज़ी अल्लाह तआला अन्हुम की तरफ़ तशरीफ़ ले गए तो फ़रमाया कि औरत शैतान की शक्ल में सामने आती है और शैतानी सूरत में पीठ फेरती है पस जब तुम में से कोई किसी औरत को देखे तो अपनी बीवी के पास आए।

और “इन्हें छोड़ अपने अपने बाद कोई फ़ित्ना जो ज़्यादा ज़रर (नुक्सान) पहुँचाने वाला हो मर्दों पर औरतों से फिर हज़रत औरत को” शूम “नजिस” (नापाक) फ़रमाते हैं और इस की शोमी (मनहूसियत) की घोड़ी की शोमी (मनहूसियत) में नज़ीर (मिसाल) ढूंडते। फिर फ़रमाते हैं “नमाज़ को क़ता (तोड़ा) करते हैं कुत्ता और औरत और गधा।”

सुनन इब्ने माजा - जिल्द अव्वल - इक़ामत नमाज़ और इस का तरीक़ा - हदीस 950

जिस चीज़ के सामने से गुज़रने से नमाज़ टूट जाती है :-

रावी : ज़ैद बिन एहज़म अबू-तालिब मआज़ बिन हिशाम हिशाम क़तादा ज़रार बिन औफ़ा सअद बिन हिशाम अबू हुरैरा

حَدَّثَنَا زَيْدُ بْنُ أَخْزَمَ أَبُو طَالِبٍ حَدَّثَنَا مُعَاذُ بْنُ هِشَامٍ حَدَّثَنَا أَبِي عَنْ قَتَادَةَ عَنْ زُرَارَةَ بْنِ أَوْفَی عَنْ سَعْدِ بْنِ هِشَامٍ عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ عَنْ النَّبِيِّ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ يَقْطَعُ الصَّلَاةَ الْمَرْأَةُ وَالْکَلْبُ وَالْحِمَارُ

ज़ैद बिन एहज़म अबू-तालिब, मआज़ बिन हिशाम, हिशाम, क़तादा, ज़रार बिन औफ़ा, सअद बिन हिशाम, हज़रत अबू हुरैरा रज़ीयल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि नबी करीम सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने इर्शाद फ़रमाया औरत कुत्ता और गधा नमाज़ को तोड़ देते हैं।

देखिए औरत को कुत्ते और गधे के बीच में बिठा ने से नहीं शर्माते। उनकी पलीदी को क़ाते नमाज़ (नमाज़ को तोड़ने वाली) फ़रमाते हैं और इंतिहा उस की ये है कि जब हज़रत ने दोज़ख़ और बहिश्त की सैर फ़रमाई तो दोज़ख़ियों में औरतों की कस्रत देखी।

जामेअ तिर्मिज़ी - जिल्द दोम - जहन्नम का बयान - हदीस 50

इस बारे में कि जहन्नम में औरतों की अक्सरीयत (ज़्यादा तादाद) होगी।

रावी अहमद बिन मनीअ इस्माईल बिन इब्राहिम अय्यूब अबी रजा अत्तारी दीय इब्ने अब्बास

حَدَّثَنَا أَحْمَدُ بْنُ مَنِيعٍ حَدَّثَنَا إِسْمَعِيلُ بْنُ إِبْرَاهِيمَ حَدَّثَنَا أَيُّوبُ عَنْ أَبِي رَجَائٍ الْعُطَارِدِيِّ قَال سَمِعْتُ ابْنَ عَبَّاسٍ يَقُولُ قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ اطَّلَعْتُ فِي الْجَنَّةِ فَرَأَيْتُ أَکْثَرَ أَهْلِهَا الْفُقَرَائَ وَاطَّلَعْتُ فِي النَّارِ فَرَأَيْتُ أَکْثَرَ أَهْلِهَا النِّسَائَ

अहमद बिन मनीअ इस्माईल बिन इब्राहिम अय्यूब अबी रजा अत्तारी दीय हज़रत इब्ने अब्बास रज़ी अल्लाह तआला अन्हुमा कहते हैं कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि व आले वसल्लम ने फ़रमाया मैंने जन्नत में झाँका तो इस में ग़रीबों को ज़्यादा देखा और जब दोज़ख़ में देखा तो औरतों की अक्सरीयत (सबसे ज़्यादा तादाद) थी।

और फ़रमाया कि “अलबत्ता बरा कुनैन जन्नत में औरतें सबसे कम होंगी।” बल्कि हक़ यूं है कि ना सिर्फ हज़रत ﷺ औरत को “सूरत शैतान” समझते थे बल्कि मक्कारी और फ़रेब के लिहाज़ से वो औरत को शैतान से बड़ी बल्कि शैतान की ख़ाला जानते थे। चुनान्चे सुरह निसा (रुकूअ 10 आयत 76) में आया है कि الَّذِينَ آمَنُوا يُقَاتِلُونَ فِي سَبِيلِ اللَّهِ وَالَّذِينَ كَفَرُوا يُقَاتِلُونَ فِي سَبِيلِ الطَّاغُوتِ فَقَاتِلُوا أَوْلِيَاءَ الشَّيْطَانِ إِنَّ كَيْدَ الشَّيْطَانِ كَانَ ضَعِيفًا तर्जुमा “जो मोमिन हैं वो तो ख़ुदा के लिए लड़ते हैं और जो काफ़िर हैं वो बुतों के लिए लड़ते हैं सो तुम शैतान के मददगारों से लड़ो। (और डरो मत क्योंकि शैतान का फ़रेब ज़ईफ़ है।” मगर सुरह यूसुफ़ (रुकूअ 3 आयत 28) में वारिद हुआ हैفَلَمَّا رَأَىٰ قَمِيصَهُ قُدَّ مِن دُبُرٍ قَالَ إِنَّهُ مِن كَيْدِكُنَّ إِنَّ كَيْدَكُنَّ عَظِيمٌ तर्जुमा “और जब इस का कुर्ता देखा (तो पीछे से फटा था।) तब उसने ज़ुलेख़ा से कहा कि ये तुम्हारा ही फ़रेब है। और कुछ शक नहीं कि तुम औरतों के फ़रेब बड़े (भारी) होते हैं।”

और एक फ़रेब के वाक़िये पर जिससे उनकी औरतों ने एक औरत को हज़रत ﷺ के हाथ ना लगने दिया हज़रत ने अपनी अजवाज-ए-मुतह्हरात (पाक बीवीयों) को उस का मुसद्दिक़ (तस्दीक़ करने वाला) बनाया था। (देखो मिन्हाज उन्नबी 3, सफ़ा 879) हमारा मुख़ातब अपने गिरेबान में सर नहीं डालता और बग़ैर सनद दीन ए मसीह को बदनाम करता है और बक़ौल शख़से کوہ کندن وکاہ بر آور دن قدمامین से टरटोलेन के क़ौल को नक़्ल करता है और नहीं जानता या नहीं समझता कि दीन ए मसीही की बुनियाद इंजील मुक़द्दस है ना कि अक़्वाल टरटोलेन विकरेसास्टम जिनको मुतर्जिम ग़लती से “ईमा कलीसिया” कहता है। आप फ़रमाते हैं “चुनान्चे टरटोलन ने एक रिसाला क़बायह निसवां में तस्नीफ़ किया था और करेस्टम जिसको ईसाई लोग वली समझते हैं बक़ौल लेयके साहब मुअर्रिख़ के मुतक़द्दिमीन (पुराने) उलमाए अंसारी की राय उमूमन बयान कर दी है कि औरत एक ऐसी बला है जिससे गुरेज़ मुम्किन नहीं है और एक क़ुदरती मग़्वी और एक मर्ग़ूब आफ़त और एक ख़ानगी फ़ित्ना और एक जंग सहर इद्रेक रंगीन बला है।” फिर भी ये हज़रत से कम रहे जिनको मुसलमान लोग सय्यद-उल-अम्बिया ख़ैर-उल-अन्आम और क्या कुछ नहीं समझते। ये हज़रत ही का हिस्सा था कि औरत को शूम व नजीस, कुत्ते और गधे की तरह पलीद, सबसे मुज़िर फ़ित्ना, शैतान की ख़ाला ,शैतान से बढ़कर मक्कार, शैतान की सूरत और जहन्नुमी और गोया बजाय रंगीन बला के काली फ़रमाएं। आप अपने क़ौल को नक़्ल फ़रमाकर यूं रतब-उल-लिसान हैं “सुब्हान-अल्लाह ये कलिमात औरत की शान में एक ईसाई वली ने उस ज़माने में फ़रमाए हैं जबकि मावर हज़रत मसीह की इबादत फ़राइज़ दीनी में दाख़िल समझे जाते थे।” हम कहते हैं عیاذاًبااللہ अयाज़ानबिल्लाह। वो कलिमात औरत की शान में मुसलमानों के ख़ातिम-उन्नबीयन ने इस ज़माना में फ़रमाए हैं जबकि बीबी फ़ातिमा को ख़ातून ए जन्नत बनाने की कोशिश हो रही थी। फिर भी आप कहते हैं “शारेअ इस्लाम ने औरतों की इज़्ज़त करने का हुक्म क़त्ई फ़रमाया है।” ऐ हज़रत कहाँ ग़ालिबान आप सेल साहब की ग़लती में दीदा व दानिस्ता मुब्तला होना चाहते हैं। उन्होंने सुरह निसा के पहले रुकूअ में एक जुम्ले का तर्जुमा ये कर दिया है (Respect women) “औरतों की इज़्ज़त करो।” असल मज़्मून ये है واتقواللّٰہ الذی تسا دلون یہ والا رحام जिसका बहुत दुरुस्त तर्जुमा नवाब मुहम्मद हुसैन क़ुली ख़ान साहब ने उर्दू तर्जुमा अहले तशेअह (اہل تشیعہ) में किया है। “डरो उस ख़ुदा से कि जिस के नाम से उस में मांग जांच लेते हो और क़ता रहम से।” हुसैनी में भी यही है ’’ بپرہیز یداز قطع رحم‘‘ और अब्दुल क़ादिर के तर्जुमा में है “ख़बरदार रहो नातवान (कमज़ोर)” से और इस के फ़ायदा में है “यानी बदसुलूकी मत करो आपस में।” पस हज़रत क़ुरआन-ए-मजीद में से औरतों की इज़्ज़त तो ऐसे उड़ गई जैसे गधे के सर से सींग और शारेअ इस्लाम ने जो जो औरत के फ़ज़ाइल अहादीस में बयान फ़रमाए हैं। इस से बेचारे टरटोलेन भी थर्रा गए। अब हम आप को यहां सुनाएं कि दीन ए मसीही ने यानी इंजील मुक़द्दस ने औरत की निस्बत क्या बताया है और उनकी मंजिलत किया मुक़र्रर की।

ये तो आपने भी बड़ी ख़ंदापेशानी से अपनी अंग्रेज़ी किताब में तस्लीम किया है कि “मसीह ने औरात (औरतों) के साथ इन्सानियत का सुलूक किया था। उस के पैरौओं (मानने वालों) ने इनको इन्साफ़ से ख़ारिज कर दिया।” (सफ़ा 207) ख़ैर आप इन पैरौओं (मानने वालों) को माफ़ फ़र्मा दें और पैरौओं के मुक़तिदा की सुनें यानी मसीह की। जो सुलूक उन्हों ने औरतों से किया वही सुलूक दीन ए मसीही की शराअ (शरीअत) है। मगर पैरौओं में अगर आप टरटोलेन से लोगों ने जो हमारे यहां के कोई इमाम हसन या सहाबा किराम नहीं और जिनको हमारे यहां का वली बताना गोया हमको बदनाम करना है सनद पकड़ें तो ये भी आप की ख़ामी (ग़लती) है। हक़ीक़ी पैरौ (सच्चे मानने वाले) मसीह के उस के हवारी (सहाबा) थे जिनके वसीले मसीह की तालीम हमको पहुंची, उन पर भी आप हर्फ़ नहीं ला सकते। अब आप औरतों की इज़्ज़त के बारे में इंजील का फ़रमान सुनें। “……..औरत को नाज़ुक पैदाइश समझ कर इज़्ज़त दो।” (1 पतरस 3:7) इस से ज़्यादा आप क्या चाहते हैं। “……औरत मर्द का जलाल है” (1 कुरन्थियों 11:7) आप बिल्कुल ख़िलाफ़ कहते हैं कि “इस्लाम ने औरतों को मवाजिब व हुक़ूक़ बख़्शे और उनको मर्दों का हमपाया (बराबर) कर दिया।” उनके मवाजिब व हुक़ूक़ तो हम फ़स्ल सोम क़ुरआन व तादद अज़्वाज (बीवीयां रखने की तादाद) और अदल में बयान कर चुके और मर्दों के साथ मुसावात (बराबरी) के बारे में जो हुक्म इंजील का है वो हम आपको सुनाए देते हैं। “…..ख़ुदावंद में ना औरत मर्द के बग़ैर है ना मर्द औरत के बग़ैर क्योंकि जैसे औरत मर्द से है वैसे ही मर्द भी औरत के वसीले से है मगर सब चीज़ें ख़ुदा की तरफ़ हैं।” (1 कुरन्थियो 11:11-12) शौहर जोरू (बीवी) का हक़ जैसा चाहीए अदा करे और वैसा ही जोरू (बीवी) शौहर का, जोरू (बीवी) अपने बदन की मुख़्तार नहीं बल्कि शौहर मुख़्तार है। इस तरह शौहर भी अपने बदन का मुख़्तार नहीं बल्कि जोरू (बीवी) है।” (1 कुरन्थियो 7:3-4) “मवाजिब और हुक़ूक़” इन्हें कहते हैं। आप हम को अब इसके मुक़ाबिल में कोई शरीअत इस्लामी भी सुनाएँ आख़िर आपको इस्लाम और ईस्वीयत की तालीम के असर को जिसे आप व हम अपनी आँखों से मुशाहिदा कर रहे हैं देखकर ये (असर) इतना ही पड़ा कि “जो हैसियत ईसाई औरात (औरतों) की इस वक़्त है इस्लामी औरात (औरतें) एक सदी में इस हैसियत को हासिल करेंगी।” (अंग्रेज़ी, सफ़ा 362) हनूज़ दिली दूर अस्त (ہنوز دلّی دور است) पहले इस्लामी मर्द अपनी मिल्ली व दीगर हैसियतें दुरुस्त कर लें तब ये सब्ज़-बाग़ औरात (औरतों) को दिखाएंग। हाँ अगर....एक सदी में इस्लाम ना रहे और इस पर वो असर पड़ जाये जो आप पर पड़ा है तो बे-शक है ये सुनने को भी तैयार हो जाते। इस्लाम अपनी इस्लाह इस्लाम से मुख़ालिफ़त कर के कर सकता है। बरख़िलाफ़ दीन ए ईस्वी के कि जहां तक इस की पैरवी की जाये, जहां तक इस के अहकाम को माना जाये इस्लाह होती जाती है, क्योंकि वो दीन इस्लाह का मंबाअ (जारी चश्मा) है। जो मसीह की सुनेगा वो औरत की इज़्ज़त करेगा, जो मुहम्मद की सुनेगा वो औरत को “फ़ित्ना, पलीदगी” और “सूरत शैतान” और “मक्कार” मानेगा। तो क्या एक सदी के बाद मुहम्मद साहब की कोई ना सुनेगा। हाँ अगर ऐसी उम्मीद है तो हम भी तुम्हारे साथ उम्मीद करते हैं। فا تنظر وا انیّ معکم من المنتظرین۔

तम्मत

(تَمّتَ)

ऐलान

जनाब डाक्टर अहमद शाह साहब शावक विलायत तशरीफ़ ले गए हैं। बजूह चंद दर चंद किताब की तैयारी में बराबर देर होती रही हत्ता कि इस की इशाअत उनके सामने ना हो सकी। लिहाज़ा उन्होंने हिन्दुस्तान में इस किताब की इशाअत के वास्ते मुझको अपनी तरफ़ से एजैंट मुक़र्रर कर दिया है जिस ख़िदमत को मैंने ख़ुशी से क़ुबूल किया। आइन्दा को इस किताब के मुताल्लिक़ दरख़्वास्तें और हर क़िस्म के ख़ुतूत वग़ैरा मेरे नाम इस पता पर चाहीऐ।

पण्डित पुरुषोत्तम दास, दफ़्तर क्रिस्चन ऐडवोकेट, गुजरांवाला पंजाब। किताब शहादत क़ुरआनी बजवाब रिसाला इस्मत ए अम्बिया जिसका ज़िक्र शुरू किताब में आया है अनक़रीब शाएअ होने वाली है। मुहम्मदी वाइज़ीन व मुनाज़िरीन को रिसाला उम्महात-उल-मोमिनीन (मोमिनों की माएं) अख़ीर माह अप्रैल 1898 ई० तक बिला क़ीमत मिलेगा।

अर्राक़ीम पण्डित पुरुषोत्तम दास

जनवरी 1898 ई०