WAS JESUS SENT TO THE LOST SHEEP OF ISRAEL ONLY?

BY

Allama Barakat Ullah, M.A.

“मैं दुनिया को नजात देने आया हूँ।” क़ौल-उल-मसीह

(यूहन्ना 12:47)

इस्राईल का नबी

या

जहान का मुनज्जी

मुसन्निफ़

अल्लामा बरकतुल्लाह एम॰ ए॰

ع1938 ई॰

1891-1972

ALLAMA BARAKAT ULLAH, M.A.F.R.A.S

Fellow of the Royal Asiatic Socieity London

शुमाली हिन्दुस्तान की कलीसिया

के

मायानाज़ मुसन्निफ़, आलिम बेबदल

ज़बदतु-लमुतकल्लमीन, इमाम-अल-मुफ़स्सरीन,

सुल्तान-उल-मुनाज़रीन

जनाब मौलाना पादरी सुल्तान मुहम्मद

पाल साहब

प्रोफ़ैसर अरबी, मिशन कॉलेज, लाहौर

की ख़िदमत बाबरकत में

ये हदिया

पेश करता हूँ

गर क़ुबूल अफ़तदज़ है इज़ो शर्फ़

अल्लामा बरकत-उल्लाह

मुक़दमा अल-किताब

चंद साल हुए मरहूम ख़्वाजा कमाल-उद्दीन क़ादियानी ने मसीहीय्यत की आलमगीरी और बेनज़ीरी पर एक ऐसे नुक्ता निगाह से हमला किया था जिसको अगरचे उलमा-ए-मग़रिब ने बोसीदा और मर्दूद क़रार दे दिया हुआ था लेकिन वो पंजाब के सादा-लौह तबक़े के मुसलमानों के लिए एक नया नज़रिया था। मरहूम ने अपनी किताब में बज़अमे-ख़ुद पादरी डाक्टर टसडल साहब की बेअदील (बेनज़ीर) किताब “यनाबीअ्-अल-इस्लाम” (ینابیع الاسلام) का इल्ज़ामी जवाब देने की कोशिश की थी कि अगर इस्लाम मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब से मुरक्कब है तो मसीहीय्यत के अक़ाइद व रसूम भी रूमी यूनानी मज़ाहिबे बातिला से माख़ूज़ हैं।

इस दौर में मेय और है जाम और है हुजम और

साक़ी ने बिना की रविश लुत्फ़ व सितम और

मुद्दत हुई जर्मनी और दीगर ममालिक मग़रिब के मसीही और ग़ैर-मसीही उलमा ने इस नज़रिये को बातिल और बे-बुनियाद साबित करके इस की धज्जियाँ उड़ा दी थीं चुनान्चे इस हक़ीक़त को हमने अपनी किताब “नूर-उल-हुदा” (نور الہدیٰ) के दोनों हिस्सों में वाज़ेह कर दिया था और यह साबित कर दिया था कि मसीहीय्यत के अक़ाइद और रसूम मज़्हब इस्लाम की तरह हरगिज़ असातीर-उला-अव्वलीन (اساطیر الاولین यानी पहले लोगों की कहानियाँ) नहीं हैं, क्योंकि मुशरिकाना मज़ाहिब बातिला के एतिक़ादात और रस्मियात में और मसीहीय्यत के एतिक़ादात और रस्मियात में ज़मीन आस्मान का फ़र्क़ है और वह एक दूसरे के ऐन ज़िद (खिलाफ़) हैं। यही वजह है कि दोनों में तसादुम और जंग वाक़ेअ हुई जिसका नतीजा ये हुआ कि कुल जहान ने मसीहीय्यत की बेनज़ीरी और आलम गीरी का लोहा मान लिया और कामयाबी का सहरा मसीहीय्यत के सर पर रहा।

ع اے تاج دولت برسرت ازابتداتا انتہا

ऐ ताज दौलत बर सरत अज़-इब्तिदा-ता-इंतिहा

हमने अपने रिसाले “सेहत कुतुब मुक़द्दसा” में ये साबित कर दिया है कि बाइबल शरीफ़ की सेहत जिसमें मसीहीय्यत की ताअलीम दर्ज है, ऐसी बेनज़ीर और आला पाया की है, जो कभी दुनिया के किसी दूसरे मज़्हब की किताब को नसीब नहीं हुई। फिर हमने अपने रिसाले “कलिमतुल्लाह की ताअलीम” में ये साबित कर दिया है कि ये ताअलीम जिसकी सेहत का पाया इस क़द्र लाजवाब, आला और अर्फ़ा है, आलमगीर उसूलों पर मुश्तमिल है और दुनिया के किसी मज़्हब की ताअलीम इस के उसूल की बुलंदी को नहीं पहुंच सकती। हमने अपने रिसाले “दीन फ़ित्रत इस्लाम या मसीहीय्यत” में ये साबित कर दिया है कि सिर्फ मसीहीय्यत की ताअलीम ही इन्सानी फ़ित्रत के तमाम तक़ाज़ाओं को पूरा कर सकती है और करती है। फिर हमने अपने रिसाले “मसीहीय्यत की आलमगीरी” में ये साबित कर दिया है कि सिर्फ मसीहीय्यत के उसूल और इब्ने-अल्लाह की शख़्सियत ही जामेअ और आलमगीर (यानी पूरी दुनिया के लिए) है।

मसीहीय्यत की बे-नज़ीरी की वाज़ेह हक़ीक़त के बावजूद बाअज़ ग़ैर-मसीही बिरादरान ये दाअ्वा करते हैं कि, सय्यदना मसीह का मिशन आलमगीर (पूरी दुनिया के लिए) ना था और इस इन्कार के सबूत में वो बिलउमूम दो इन्जीली आयात को पेश किया करते हैं, जिनमें मुनज्जी कौनैन (दुनिया को नजात देने वाले मसीह) के दो अक़्वाल मुन्दरज हैं और वो आयात हस्बे-ज़ेल हैं :-

(1) मुक़द्दस मत्ती की इन्जील में ख़ुदावंद का ये क़ौल है, “मैं इस्राईल के घराने की खोई हुई भेड़ों के सिवा किसी और के पास नहीं भेजा गया।” (मत्ती 15 बाब आयत 24)

(2) कलिमतुल्लाह (मसीह) का एक क़ौल इसी इन्जील में है, “यसूअ ने इन बारह को भेजा और उन को हुक्म देकर कहा कि, ग़ैर-क़ौमों की तरफ़ ना जाना और सामरियों के किसी शहर में दाख़िल ना होना, बल्कि इस्राईल के घराने की खोई हुई भेड़ों के पास जाना और चलते-चलते ये मुनादी करना कि आस्मान की बादशाहत नज़्दीक आ गई है।” (मत्ती 10 बाब आयत 5 ता 7)

मज़्कूरा बाला आयात के बिना पर बाअज़ मोअतरज़ीन (एतराज़ करने वाले) कहते हैं कि, जनाबे मसीह मुर्सल मिनल्लाह (यानी अल्लाह की तरफ से रसूल مرسل من الله) तो थे, लेकिन मुनज्जी आलमीन (दुनिया के लिए नजातदहिंदा) ना थे। आपकी रिसालत सिर्फ़ अहले-यहूद (यहूदियों) तक ही महदूद थी, लिहाज़ा आपका पैग़ाम आलमगीर (पूरी दुनिया के लिए) ना था।

इस मुख़्तसर रिसाले में हम कलिमतुल्लाह (کلمتہ الله) के मज़्कूरा बाला कलिमात-ए-तय्यिबात पर ग़ौर करेंगे, ताकि मालूम करें कि, आया मुख़ालिफ़ीन के एतराज़ात सही और हक़-बजानिब हैं कि नहीं। हम अहले-यहूद के नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) और तारीख़ पर अम्बिया-ए-इस्राईल की कुतुब और ख़ुद सय्यदना मसीह के अक़्वाल व मोअ्जिज़ात और आप के अहकाम, पैग़ाम और प्रोग्राम और तर्ज़-ए-अमल पर कलिमतुल्लाह के हवारियेन और मुबल्लग़ीन (तब्लीग़ करने वाले शागिर्दों) के अक़्वाल व अफ़आल व हिदायात पर और कलीसिया-ए-जामा के लाएहा अमल और कारनामों पर एक मुख़्तसर नज़र डाल कर मुंदरजा बाला एतराज़ की सेहत को जांचेंगे और उन की रोशनी में इब्ने-अल्लाह के हर दो अक़्वाल की सही तफ़्सीर को समझने की कोशिश करेंगे, ताकि वो मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाले) जो सिदक़ (सच्चे) दिल से इन आयात की बिना पर मसीहीय्यत की आलमगीरी को नहीं मानते, अपने नज़रिये की नज़र-ए-सानी करके मुनज्जी आलमीन पर ईमान ला कर हयात-ए-अबदी हासिल करें। وَما َتوفیقی الا بالله

होली ट्रिनिटी चर्च, लाहौर

यक्म जुलाई 1938 ई॰

अल्लामा बरकतुल्लाह

फ़स्ल अव़्वल

उसूल-ए-तफ़्सीर

इस से पहले कि हम उन आयात पर ग़ौर करें जिनका ज़िक्र मुक़दमा अल-किताब में किया गया है, ये मुनासिब मालूम होता है कि हम नाज़रीन को किताब-ए-मुक़द्दस की तफ़्सीर के सही उसूल से जो मुख़ालिफ़ व मवालिफ़ दोनों के नज़्दीक मुसल्लम हैं तआरुफ़ करा दें, ताकि इनको मालूम करके नाज़रीन ख़ुद आयात-ए-मज़्कूरा बाला की सही तफ़्सीर को जांच सकें। अगर एतराज़ात की बिना (बुनियाद) सही उसूल तफ़्सीर के ख़िलाफ़ साबित हो जाएगी, तो इन एतराज़ात के ग़लत होने में किसी क़िस्म के शक शुब्हा की गुंजाइश नहीं होगी। लेकिन अगर ये एतराज़ात सही उसूल के मुताबिक़ होंगे तो इन के हक़-बजानिब होने में किसी को कलाम ना होगा।

तफ़्सीर का सही अस्ल ये है कि किसी क़ौल की सिर्फ वही तफ़्सीर सही हो सकती है जो क़ाइल या कहने वाले के असली मफ़्हूम और हक़ीक़ी मंशा को ज़ाहिर करे। पस अगर किसी क़ौल की तावील ऐसे तरीक़े से की जाये जो कहने वाले के असली मंशा के ख़िलाफ़ हो तो वो तावील बातिल और गुमराह कुन होगी। इस क़िस्म की तफ़्सीर मह्ज़ मन घड़त होगी और अरबाब-ए-दानिश (अक़्लमंदों) के नज़्दीक उस की वक़अत और क़द्र सिफ़र (ज़ीरो) से ज़्यादा ना होगी।

पस लाज़िम है कि जब हम किसी शख़्स के क़ौल की तावील या तफ़्सीर करें, तो इस बात का लिहाज़ रखें कि वो तफ़्सीर कहने वाले के ख़यालात के मुताबिक़ हो। उस के जज़्बात की सही तर्जुमानी करे और उस के अफ़आल और तर्ज़े अमल से इस तावील पर रोशनी पड़े, ताकि वो क़ाइल के ख़यालात, जज़्बात और अफ़आल का मज़हर हो। सही तफ़्सीर के लिए लाज़िम है कि वो इबारत के सियाक़ व सबाक (सहीह मफ्हुम) का लिहाज़ रखे और किताब-ए-मुक़द्दस के अल्फ़ाज़ व मुहावरात से इस तफ़्सीर की ताईद होती हो। जो तफ़्सीर इस उसूल के ख़िलाफ़ होगी वो तफ़्सीर القول بما لا یرضی بہ قائلہ मुतसव्वर होगी। यानी वो ऐसी तावील होगी जो क़ौल के कहने वाले के मतलब व मंशा के ख़िलाफ़ होगी। लिहाज़ा वो तफ़्सीर बातिल और नाक़ाबिल एतिमाद होगी। इस क़िस्म की तावील को जो ख़िलाफ़ सियाक़ कलाम हो और ख़िलाफ़ अल्फ़ाज़ इन्जील जलील हो, कोई सही-उल-अक़्ल (दाना, दानिशमंद) शख़्स क़ुबूल नहीं कर सकता और अगर कोई शख़्स इस क़िस्म की तफ़्सीर करने पर इसरार करे, तो वो सही तफ़्सीर नहीं बल्कि फ़ुज़ूल बह्स और मुक़ाबरा (शेख़ी, घमंड) होगा जिसके ख़िलाफ़ हमको इन्जील शरीफ़ में मुतनब्बाह (आगाह किया) किया गया है। (1 तीमुथियुस 6:4 वग़ैरह)

पस अगर कोई शख़्स इन्जील जलील की किसी आयत की या सय्यदना मसीह के किसी क़ौल की इस तौर पर तफ़्सीर करे, जो सय्यदना मसीह के हक़ीक़ी मंशा के ख़िलाफ़ हो और आपके कलिमात-ए-तय्यिबात, अहकाम व हिदायात और पैग़ाम व प्रोग्राम और तर्ज़-ए-अमल के मुताबिक़ ना हो, तो इस तफ़्सीर के ग़लत होने में किसी को कलाम नहीं हो सकता। जो तफ़्सीर कलिमतुल्लाह के ख़यालात, अल्फ़ाज़ और जज़्बात की सही तर्जुमानी ना करे, बल्कि ऐसे मअनी बयान करे जो सय्यदना मसीह के मतलब व मक़सद (इरादे) के ऐन नक़ीज़ (मुख़ालिफ़) हों, तो वो तावील (शरह, ज़ाहिरी मतलब से किसी बात को फेर देना) यक़ीनन सही तावील कहलाने की मुस्तहिक़ नहीं हो सकती।

इलावा अज़ीं अगर ऐसी तावील ना सिर्फ कलिमतुल्लाह के ख़यालात व जज़्बात हिदायात व अहकाम व अफ़आल के ख़िलाफ़ हो, बल्कि ऐसी हो जो कि आपके हवारइन (शागिर्दों) के ख़यालात व जज़्बात व अहकाम और तर्ज़-ए-अमल के भी ख़िलाफ़ हो, तो ऐसी तफ़्सीर के ग़लत होने में शक की गुंजाइश नहीं रह सकती।

मज़ीद बरआँ अगर ये तावील ऐसी हो जो ना सिर्फ मुनज्जी-ए-आलमीन और आप के हवारइन (शागिर्दों) के ख़यालात व जज़्बात व अहकाम और पैग़ाम, हिदायात, प्रोग्राम और तर्ज़-ए-अमल के ख़िलाफ़ हो, बल्कि जम्हूर कलीसिया-ए-जामा की हिदायात और तर्ज़-ए-अमल के भी ख़िलाफ़ हो, तो इस तावील के मर्दूद होने में किसी शख़्स को कलाम नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसी तावील वो मअनी बयान करती है जो ना कलिमतुल्लाह (मसीह) समझे ना आपके हवारइन (शागिर्द) ना आइम्मा और आबा-ए-कलीसिया जामा और ना आम्मा (आम) मसीही। ऐसी तफ़्सीर इन्जील जलील की आयात के वो मअनी बतलाएगी जो ना इबारत के अल्फ़ाज़ से निकलते हैं ना सियाक़ कलाम के मुताबिक़ हैं, बल्कि वो तावील ऐसी होंगी जो कलिमतुल्लाह (सय्यदना मसीह) के मंशा और इन्जील के मक़्सूद और हवारइन और आबा-ए-कलीसिया की हिदायात की जो असली ग़र्ज़ है, इन सब के ख़िलाफ़ होगी। पस इस क़िस्म की तावील सरीह और साफ़ तौर पर ग़लत और नाक़ाबिल क़ुबूल होगी।

बाअज़ ग़ैर-मसीही अस्हाब इस क़िस्म की ग़लत तावील को काम में ला कर दो इंजीली आयात की इस तौर से तफ़्सीर करते हैं जिस तरह ना तो ख़ुद कलिमतुल्लाह (मसीह) ने समझा था ना आपके हवारइन (शागिर्दों) ने, ना आबा-ए-कलीसिया ने, ना कलीसिया-ए-जामा और ना जम्हूर मसीहीयों ने, बल्कि ये तावील इस क़िस्म की है कि जिससे इन्जील का अस्ल-ए-मक़्सूद ही फ़ौत हो जाता है। ये तफ़्सीर कलिमतुल्लाह के ख़यालात, इन्जील के अल्फ़ाज़ और सबाक़ इबारत और उस की आम मंशा से कुछ मुनासिब और मुताबिक़त नहीं रखती। ये अस्हाब इन्जील की आयात को इस तरह माओल (उल्टा) कर देते हैं कि वो तावील ऐसे दर्जे पर पहुंच जाती है, कि इस पर तावील का लफ़्ज़ भी सादिक़ नहीं हो सकता। मशहूर है कि :-

बरअक्स नहंद नाम ज़ंगी काफ़ूर

इस क़िस्म की तावील के ज़रीये ये अस्हाब साबित करना चाहते हैं कि सय्यदना मसीह का मिशन आलमगीर ना था और आप मुनज्जी-ए-आलमीन (जहान के नजातदहिंदा) ना थे। इस इन्कार के सबूत में वो बिल-उमूम दो आयात की तफ़्सीर व तावील पेश करते हैं, जिनमें मुनज्जी-ए-कौनैन (मसीह) के दो अक़्वाल मुन्दरज हैं। चुनान्चे वो कहते हैं कि मुक़द्दस मत्ती की इन्जील में वारिद हुआ है कि “मैं इस्राईल के घराने की खोई हुई भेड़ों के सिवा किसी और के पास नहीं भेजा गया।” (मत्ती 15:24) और आपने शागिर्दों को हुक्म दिया कि “इस्राईल के घराने की खोई हुई भेड़ों के पास जाना, ग़ैर-क़ौमों की तरफ़ ना जाना।” (मत्ती 10:5)

मज़्कूर बाला आयात की तावील ये की जाती है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) को ये एहसास था कि आप मुर्सल मिनल्लाह (अल्लाह की तरफ से रसूल) हो कर सिर्फ क़ौम-ए-यहूद के लिए आए थे और आप का पैग़ाम सिर्फ़ अहले-यहूद के लिए ही था, ना कि दीगर अक़्वाम-ए-आलम (दुनिया की क़ोमों) के लिए। आपकी हम्दर्दी का हलक़ा क़ौम इस्राईल से ज़्यादा वसीअ ना था और आपके ख्व़ाब व ख़्याल में भी ये बात ना आई थी कि आपका पैग़ाम इस्राईल के इलावा किसी और क़ौम के लिए है। चह जायके (चाहे) वो कुल बनी-नूअ इन्सान के लिए हो।

अगर ये साबित हो जाए कि मज़्कूर बाला तावील कलिमतुल्लाह (मसीह) के ख़यालात व कलमात व जज़्बात व हिदायात, पैग़ाम व अहकाम और आप के लाएहि अमल और तर्ज़-ए-अमल के मुताबिक़ है, तो उस के सही मानने में किसी साहिबे अक़्ल को कलाम ना होगा। लेकिन अगर ये साबित हो जाए कि ये तफ़्सीर और तावील सय्यदना मसीह के ख़यालात व कलमात व जज़्बात व हिदायात व अहकाम और आपके लाएहि अमल और तर्ज़-ए-अमल के ऐन ख़िलाफ़ है और इन अल्फ़ाज़ से आपके हवारइन (शागिर्द) वो मतलब ना समझे, जो ये तावील हमको समझाना चाहत्ता है बल्कि इन हवारइन (शाग्रिर्दों) के ख़यालात, कलिमात, हिदायात, अहकाम और तर्ज़-ए-अमल इस तावील के ऐन ज़िद (मुखालिफ़) थे। मज़ीद बरआँ कलीसिया-ए-जामा और जम्हूर मसीहीयों का अक़ीदा और तर्ज़-ए-अमल इब्तिदा से दौरे हाज़रा तक इस तावील के बरअक्स रहा है, तो ये ज़ाहिर है कि ये तावील बिल्कुल ग़लत और नाक़ाबिल क़ुबूल साबित हो जाएगी और उन आयात-ए-शरीफा की सही तफ़्सीर वो होगी जो कलिमतुल्लाह (मसीह) और आप के हवारइन (शागिर्द) और कलीसिया-ए-जामा के हक़ीक़ी मंशा और मक़्सूद के मुवाफ़िक़ होगी। इंशा-अल्लाह हम माबाअ्द की फस्लों में ये बात वाज़ेह करके उन आयात की तावील सही उसूल तफ़्सीर के मुताबिक़ करेंगे।

फ़स्ल दोम

अम्बिया-ए-इस्राईल की रिसालत का मतमाअ नज़र और अहले-यहूद का नस्ब-उल-ऐन

इस से पहले कि हम उन आयात व मकामात का मुफ़स्सिल मुतालआ करें जिन पर मोअतरज़ीन के एतराज़ात मबनी हैं, ये मुनासिब मालूम होता है कि हम इस अम्र को दर्याफ़्त करें कि जिस क़ौम में कलिमतुल्लाह (मसीह) ने परवरिश पाई, उस का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) क्या था और जिन अम्बिया-ए-उज़्ज़ाम (बुज़ुर्ग) की कुतुब के गहवारे में आप ने अपने अय्याम-ए-तुफुलिय्यत (बचपन) और आलम-ए-शबाब (जवानी) के रुहानी मदारिज को हासिल किया। उनके पैग़ाम का मतमअ नज़र क्या था। क्या अहले-यहूद और इस्राईल की नज़र सिर्फ़ क़ौम इस्राईल के अफ़राद की नजात तक ही महदूद थी या उनका ख़्याल था कि ग़ैर-यहूद भी नजात हासिल करेंगे? क्या इनके ख़्याल में उनका ख़ुदा मह्ज़ यहूद का ही ख़ुदा था या तमाम आलम का ख़ुदा था? अगर ये साबित हो जाये कि अहले-यहूद की नज़र इस बाब में वसीअ थी और इनका ये ईमान था कि ख़ुदा रब-उल-आलमीन है और अक़्वाम-ए-आलम उस की नजात से बहरावर (फ़ायदा उठाने वाली) होंगी और अगर ये साबित हो जाए कि अम्बिया-ए-इस्राईल की रिसालत का मतमाअ नज़र (असली मक़्सद) ही ये था कि बनी-इस्राईल ग़ैर-यहूद को ख़ुदा के पास लाने का ज़रीया और वसीला होंगे, तो ये मानना एक ना-मुम्किन अम्र हो जाएगा कि कलिमतुल्लाह (मसीह) अपने ज़माने के हम-अस्रों और अम्बिया-ए-साबिक़ा और उन के मुक़ल्लिदों (मुरीदों) की निस्बत ज़्यादा तंग-नज़र थे, क्योंकि अगर इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ज़हनी नशो व नुमा और रुहानी तरक़्क़ी के माहौल वसीअ थे, तो आपके ख़यालात इनसे ज़्यादा तंग नहीं हो सकते, क्योंकि एक रोशन हक़ीक़त है कि कलिमतुल्लाह के ख़यालात अपने हम-अस्रों से कहीं ज़्यादा बुलंद व बाला और वसीअ थे। आपके आने की ग़ायत (ग़र्ज़, मतलब) ही ये थी। आप तौरेत और सहफ़ अम्बिया को पूरा करें और एक कामिल शराअ और अकमल नमूना दें। (मत्ती 5:18, 11:29, यूहन्ना 13:15, रोमीयों 10:4, 13:8, ग़लतीयों 3:24, इफ़िसियों 4:20 व फिलीप्पियों 2:5 वग़ैरह-वग़ैरह)

सच्च तो ये है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ने एक ऐसे घराने में परवरिश पाई थी जो अपनी नज़ीर आप ही था। मुक़द्दसा मर्यम पर बअल्फ़ाज़ इन्जील “ख़ुदा की तरफ़ से फ़ज़्ल हुआ था” और ख़ुदा तआला की क़ुदरत ने इस पर साया डाला था। बअल्फ़ाज़ क़ुरआन अल्लाह ने आप को पसंद किया और पाक किया और तमाम जहान की औरतों से बर्गुज़ीदा किया।” इन्जील जलील इस बात की गवाह है कि मुक़द्दसा मर्यम ने आपको सहफ़-ए-अम्बिया इस्राईल की ताअलीम दी थी। इन सहफ़ के हिसस के हिसस ख़ुदावंद को ज़बानी याद थे। यहूदीयत की दुआएं बपचन ही से आपको हिफ़्ज़ कराई गई थीं। (मत्ती 4 बाब, 5 बाब, मर्क़ुस 12 बाब, 15 बाब, लूक़ा 2 बाब, लूक़ा 23:46 वग़ैरह)

हत्ता कि आपके लड़कपन की निस्बत इन्जील शरीफ़ में वारिद हुआ है कि आप इस ज़माने में बढ़ते और क़ुव्वत पाते और हिक्मत से मामूर होते हो गए और ख़ुदा का फ़ज़्ल आपके साथ मुदाम (हमेशा) रहा। (लूक़ा 2:40) बअल्फ़ाज़-ए-क़ुरआन आप ऐसे “नेक-बख़्त” वाक़ेअ हुए थे कि आप रूह-उल्लाह और कलिमतुल्लाह وجیھاً فی الدنیا َ الاخرہ और منَ المربین थे।

पस जब कलिमतुल्लाह (मसीह) ने ऐसे हालात में अपनी ज़हनी और रुहानी परवरिश पाई हो तो मोअतरिज़ का ये क़ौल ना सिर्फ लगू और बे-बुनियाद बल्कि मज़हकाख़ेज़ है कि अहले-यहूद तो इस बात को मानते थे और उन के अम्बिया सदीयों से उन पर ये जतलाते चले आए थे कि उनका काम ये है कि अक़्वाम-ए-आलम में ख़ुदा की नजात का पैग़ाम दें। लेकिन कलिमतुल्लाह ऐसे तंग-नज़र वाक़ेअ हुए थे कि अपने हम-अस्र यहूद के नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) और अम्बिया-ए-इस्राईल के मतमाअ नज़र को जिससे वो बचपन ही से वाक़िफ़ थे, दीदा दानिस्ता पस-ए-पुश्त फेंक कर ये मानते थे कि ख़ुदा की नजात सिर्फ़ अहले-यहूद तक ही महदूद है और अपने हवारियों को ये ताअलीम देते थे कि दीगर अक़्वाम-ए-आलम इस नजात से बहरा-अंदोज़ नहीं हो सकतीं।

अहले-यहूद का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद)

यहूदी अम्बिया की रिसालत का मक़्सद ये था कि वो अपनी उम्मत यानी क़ौम बनी-इस्राईल पर ये सदाक़त ज़ाहिर कर दें कि उस की ज़िंदगी का मुतम्मह नज़र और नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) ये है कि वो अक़्वाम-ए-आलम को ख़ुदा की मार्फ़त और नजात का पैग़ाम देने का वसीला है, ताकि जुम्ला अक़्वाम आलम, अहले-यहूद की मार्फ़त एक हक़ीक़ी वाहिद ख़ुदा के इल्म को हासिल करें।

ये हक़ीक़त अह्दे-अतीक़ की पहली किताब यानी पैदाइश से लेकर आख़िरी किताब यानी मलाकी नबी की किताब में पाई जाती है। चुनान्चे कुतुब मुक़द्दसा की पहली किताब यानी पैदाइश की किताब में जो सय्यदना मसीह से सदीयों पहले लिखी गई थी ये मुन्दरज है कि ख़ुदा ने हज़रत इब्राहिम से वाअदा फ़रमाया कि “दुनिया के सब घराने तुझसे बरकत पाएँगे।” (पैदाइश 12:3) इब्राहिम यक़ीनन एक बड़ी और बुज़ुर्ग क़ौम होगा और ज़मीन की सब कौमें उस से बरकत पाएँगी। (पैदाइश 18:18) “ऐ इब्राहिम तेरी नस्ल से ज़मीन की सब कौमें बरकत पाएँगी क्योंकि तूने मेरे हुक्म की तामील की।” (पैदाइश 22:18 नीज़ देखो आमाल 3:25, ग़लतीयों 8:3, 18 वग़ैरह) फिर ख़ुदा ने हज़रत इज़्हाक़ को भी यही फ़रमाया। (पैदाइश 26:4) इस के बाद ख़ुदा ने हज़रत याक़ूब को रोया (कश्फ़) के ज़रीये बतलाया कि, “तेरी नस्ल ऐसी होगी जैसी ज़मीन की गर्द और तू पच्छिम पूरब उत्तर और दक्षिण को फुट निकलेगा और ज़मीन के तमाम घराने तुझसे और तेरी नस्ल से बरकत पाएँगे।” ( पैदाइश 28:14)

पस इब्तदाए ज़माने से ख़ुदा का ये इरादा था कि अहले इस्राईल को अक़्वाम आलम (साडी दुनियां की क़ोमों) के दर्मियान अपनी मार्फ़त और बरकत बख़्शने का वसीला बनाए। अम्बिया-ए-इस्राईल ने इस हक़ीक़त को बार-बार अहले-यहूद के गोश गुज़ार करने में कोई दक़ीक़ा फ़िरोगुज़ाश्त ना रखा। (कसर ना छोड़ना, सख़्त कोशिश करना, सब कुछ कह देना) चुनान्चे अगर हम अम्बिया-ए-असग़र को नज़र-अंदाज करके सिर्फ़ चंद अम्बिया-ए-उज़्ज़ाम (बुज़ुर्ग को बतौर मुश्ते नमूना अज़-ख़रवारे (यानी ढेर में से मुट्ठी भर, थोड़े से नमूने से कुल चीज़ की असलीयत मालूम हो जाती है) लें तो ये हक़ीक़त हम पर महर-नीम-रोज़ (दोपहर की तरह रोशन) हो जाती है, मसलन :-

(1) सय्यदना मसीह से (760) साल पहले हज़रत आमोस ने इस्राईल को ये सबक़ सिखलाया कि जिस तरह ख़ुदा अहले-यहूद की हिफ़ाज़त करता है उसी तरह वो अहले हब्श की भी हिफ़ाज़त करता है। जिस तरह ख़ुदा इस्राईल को मिस्र से निकाल लाया, उसी तरह वो फ़िलिस्तीयों को कफ़तूर से और अरामियों को क़ीर से निकाल लाया था। चुनान्चे नबी कहता है कि, “जो आस्मान पर अपने बाला ख़ानों को बनाता है और ज़मीन पर अपने गर्दूं (रथ, गाड़ी) की महराब को क़ायम करता है। वो जो समुंद्रों के पानियों को बुलाता है और इन को रूए ज़मीन की सतह पर उंडेलता है, उस का नाम ख़ुदावंद है, वह फ़रमाता है, ऐ बनी-इस्राईल क्या तुम लोग मेरे हुज़ूर कूष की औलाद की तरह नहीं हो? ख़ुदावंद फ़रमाता है, कि क्या जिस तरह मैं इस्राईल को मिस्र की सर-ज़मीन से निकाल लाया हूँ, फ़िलिस्तीयों को कफ़तूर से और अरामियों को क़ीर से नहीं निकाल लाया हूँ?” (आमोस 9:7)

(2) हज़रत यसअयाह नबी जो 760 क़ब्ल अज़ मसीह पैदा हुए फ़रमाते हैं “सारी अक़्वाम ख़ुदावंद के घर की तरफ़ रवाना होंगी और कहेंगी, आओ हम ख़ुदावंद के पहाड़ पर चढ़ें और याक़ूब के ख़ुदा के घर में, कि वो अपनी राहें हमको बतलाएंगा और हम उस के रस्तों पर चलेंगे क्योंकि शरीअत सीहोन से और ख़ुदावंद का कलाम यरूशलेम से निकलेगा।” (यसअयाह 2:2) रब-उल-अफ़वाज इस पहाड़ पर तमाम अक़्वाम के लिए फ़र्बा चीज़ों से एक ज़ियाफ़त करेगा और ख़ुदावंद ख़ुदा सब के चेहरों से आँसू पोंछ डालेगा और उस रोज़ ये कहा जाएगा कि देखो ये हमारा ख़ुदा है, हम उस की राह तकते थे और उसने हमको बचाया। ये ख़ुदावंद है जिसके इंतिज़ार में हम थे, अब हम उस की नजात से ख़ुश व खुर्रम होंगे। (यसअयाह 25 बाब नीज़ देखो 9:2, 11:1 ता 10, 18:7, 24:16, 27:13 35:1, 40:5 वग़ैरह-वग़ैरह) उस रोज़ मिस्र से असूर तक एक शाहराह होगी और मिस्री असूरियों के साथ इबादत करेंगे और उस रोज़ इस्राईल ज़मीन के दर्मियान बरकत का बाइस ठहरेगा और रब-उल-अफ़वाज उस को बरकत बख़्शेगा और फ़रमाएगा कि मुबारक हो मिस्र मेरी उम्मत, असूर मेरे हाथ की सनअत और इस्राईल मेरी मीरास। (19:23 वग़ैरह-वग़ैरह)

(3) मीकाह नबी की किताब (700) ईस्वी से क़ब्ल लिखी गई, उसने भी ये हक़ीक़त जतलाई है। (मीकाह बाब 4, 5 वग़ैरह-वग़ैरह)

(4) हज़रत यर्मियाह नबी सय्यदना मसीह से साढ़े छः सौ (650) साल पहले पैदा हुआ और वह बार-बार अपनी नबुव्वतों में जो उसने ख़ुद लिखवाईं, इस बात का ज़िक्र करता है और कहता है कि “ऐ ख़ुदावंद, दुनिया के किनारों से अक़्वाम तेरे पास आकर कहेंगी कि फ़िल-हक़ीक़त हमारे बाप-दादा ने मह्ज़ बतालत की मीरास हासिल की।” (यर्मियाह 16:19, 4:2 वग़ैरह-वग़ैरह)

(5) सफ़नियाह नबी की किताब सय्यदना मसीह से सवा छः सौ (625) साल पहले लिखी गई, इस में मर्क़ूम है कि “मैं उस वक़्त लोगों के होंट पाक कर दूँगा ताकि सब के सब ख़ुदावंद का नाम लें और एक दिल हो कर उस की इबादत करें। कूश की नहरों के पार से मेरे आबिद हदिया लाएँगे।” (सफ़नियाह 3:9 वग़ैरह)

(6) हिज़्क़ीएल नबी सय्यदना मसीह से छः सौ बाईस (622) साल पेशतर पैदा हुआ। वो मुतअद्दिद दफ़ाअ इस बात का ज़िक्र करता है। (हिज़्क़ीएल बाब 34, 37, 47 वग़ैरह)

(7) हज़रत ज़करीया ने सय्यदना मसीह से छः सौ बाईस (622) साल पहले नबुव्वत करनी शुरू की। वो भी इस नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) का ज़िक्र करके कहता है कि “बहुत अक़्वाम और ज़ोर-आवर उम्मतें रब-उल-अफ़वाज को ढ़ूढ़ने को और ख़ुदावंद के चेहरे को देखने को यरूशलेम में आयेंगी। रब-उल-अफ़वाज यूं फ़रमाता है कि उन दिनों में ऐसा होगा कि क़ौमों के दस आदमी जिनको अलग-अलग नेअमत दी जाएगी, हाथ बढ़ाएंगे। वो एक यहूदी शख़्स के दामन को पकड़ेंगे और कहेंगे कि हम तुम्हारे साथ जाऐंगे क्योंकि हमने सुना है कि ख़ुदा तुम्हारे साथ है।” (ज़करीयाह 8:22-23, 2:10, 6:15, 9:1 और 14 बाब वग़ैरह)

(8) अहले-यहूद की जिलावतनी के दौरान में अम्बिया-ए-इस्राईल ने इस नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को बार-बार अपनी उम्मत के सामने रखा। चुनान्चे (यसअयाह की किताब के अबवाब 40 ता 66) जो (546 ता 539) क़ब्ल अज़ मसीह लिखे गए, इस नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) से पुर हैं। मिसाल के तौर पर ज़ेल की आयात मुलाहिज़ा हों :-

ऐ बनी-इस्राईल, मैं ख़ुदावंद ने तुझको सदाक़त के लिए बुलाया है, मैं तेरा हाथ पकड़ूंगा और तेरी हिफ़ाज़त करूँगा और लोगों के अहद और क़ौमों के नूर के लिए तुझे दूँगा तू अँधों की आँखें खोले और क़ैदीयों को ज़िंदाँ (क़ैद) से निकाले और उन को जो अंधेरे में बैठे हैं क़ैदख़ाने से छुड़ाले।” (यसअयाह 42:6) “ऐ जज़ीरों मेरी सुनो। ऐ लोगो जो दूर व नज़्दीक के हो कान लगाओ। ख़ुदावंद ने मुझसे कहा कि तू मेरा बंदा है, तुझमें ऐ इस्राईल मैं अपना जलाल ज़ाहिर करूंगा। वो फ़रमाता है कि ये तो कम है कि तू याक़ूब के फ़िर्क़ों के बरपा करने और इस्राईल के बचे हुओं के फिर लाने के लिए मेरा बंदा हो, बल्कि मैंने तुझको अक़्वाम-ए-आलम के लिए नूर बख्शा ताकि तुझसे मेरी नजात ज़मीन के किनारों तक पहुंचे। देख ये दूर से और देख ये उत्तर से और पच्छिम से और ये सीनीम (سینیم) के मुल्क से आएँगे। (यसअयाह 49:1-13)

“मेरी सुन ऐ मेरी उम्मत, ऐ मेरी गिरोह मेरी तरफ़ कान धर कि एक शरीअत मुझसे राइज होगी और मैं अपनी शराअ (शरीअत) को अक़्वाम की रोशनी के लिए क़ायम करूँगा। मेरी नजात चल निकली है, बहरी ममलकतें मेरा इंतिज़ार करेंगी और मेरे बाज़ू पर इनका का तवक्कुल होगा।” (यसअयाह 51:4) “बेगाने की औलाद भी जिन्हों ने अपने आपको ख़ुदावंद से पैवस्ता किया है, उस की बंदगी करें और ख़ुदावंद के नाम को अज़ीज़ रखें और उस के बंदे हों। मैं उनको भी अपनी इबादत-गाह में शादमान करूँगा क्योंकि मेरा घर सब अक़्वाम की इबादत-गाह कहलाएगा। (यसअयाह 56:6) उठ रोशन हो, कि तेरी रोशनी आई और ख़ुदावंद के जलाल ने तुझ पर तुलूअ किया है। ख़ुदावंद तुझ पर तालए होगा और उस का जलाल तुझ पर नमूदार होगा, अक़्वाम तेरी रोशनी में और शाहाँ तेरे तुलूअ की तजल्ली में चलेंगे। (60:1 ता 3 वग़ैरह-वग़ैरह)

ये तमाम अबवाब इन दो बातों पर ज़ोर देते हैं कि ख़ुदा यहूद और ग़ैर-यहूद दोनों से मुहब्बत रखता है और उस की तमन्ना यही है कि अक़्वाम-ए-आलम (दुनियां की कौमे) अहले-इस्राईल के ज़रीये उस का इर्फ़ान हासिल करें। ख़ुदा ने बनी-इस्राईल की तरफ़ अपने अम्बिया भेजे और अब ख़ुदा इस्राईल से ये चाहता है कि उस के अफ़राद अम्बिया ज़ादे बन कर अक़्वाम आलम (दुनिया की क़ौमों) में जाएं और उन को ख़ुदा-ए-वाहिद की तरफ़ लाएं। इन तमाम अबवाब में बार-बार इस अम्र पर ज़ोर दिया गया है कि इस्राईल ख़ुदा का बंदा और ख़ादिम है, जिसको ख़ुदा ने इस मक़्सद की ख़ातिर चुना है कि वो अक़्वाम-ए-आलम को ख़ुदा की शरीअत और अहकाम का इल्म दे और रज़ा-ए-ईलाही की तल्क़ीन करे। (यसअयाह 42:1 ता 4, 45:8, 49:1 ता 6, 50:4 ता 9, 52:13 ता 53 12:55:5, 56:3:61 बाब, 65 1-66:12 वग़ैरह-वग़ैरह) और जिस तरह ख़ुदा ने इस्राईल को मिस्र की गु़लामी से नजात दी, उसी तरह क़ौम इस्राईल अक़्वाम-ए-आलम को शैतान की गु़लामी से निकाले। (यसअयाह 45:1 ता 6)

(9) ज़बूर नवीस जो सय्यदना मसीह से सदीयों पहले वक़्तन-फ़-वक़्तन मुख़्तलिफ़ औक़ात (वक्तों) और ज़मानों में मज़मूर् लिखते रहे, बार-बार इसी एक हक़ीक़त पर ज़ोर देते हैं और ज़बूर की किताब का कोई सफ़ा ऐसा नहीं जिसमें बनी-इस्राईल पर इस सदाक़त को बज़ाहिर नहीं किया गया। मुश्ते नमूना अज़ खरवारे (ढेर में से मुट्ठी भर, थोड़े से नमूने से चीज़ की एहमीय्यत मालूम हो जाती है) “ऐ ख़ुदा तवज्जो दुआ का सुनने वाला है, सारे बशर तुझ पास आएँगे। ऐ हमारे नजात देने वाले ख़ुदा, तू ज़मीन के सारे किनारों का और उन का भी जो दूर दरिया के बीच में हैं, भरोसा है।” (ज़बूर 65) “(ऐ इस्राईल) मैं कौमें तेरी मीरास में दूँगा और अक़सा-ए-आलम (اقصائے عالم) तेरे पास होंगे। (ज़बूर 2) सारे जहान के लोग सरासर ख़ुदावंद की तरफ़ रुजू लाएँगे और सब क़ौमों के घराने तेरे आगे (ऐ ख़ुदा) सज्दा करेंगे क्योंकि सल्तनत ख़ुदावंद की है और अक़्वाम आलम के दर्मियान वही हाकिम है।” (ज़बूर 22) “तुम जानो कि मैं ख़ुदा हूँ अक़्वाम आलम में बुलंद हूँगा।” (ज़बूर 46) “ऐ तू जो दुआ का सुनने वाला है, सारे बशर (इन्सान) तुझ पास आएँगे।” (ज़बूर 65) “सारी ज़मीन तुझको सज्दा करेगी और तेरी मदह-ख़्वाँ होगी, वो तेरे नाम के गीत गाएँगे।” (ज़बूर 66) “अम्रा मिस्र से आएँगे, कूश के बाशिंदे अपने हाथ ख़ुदा की तरफ़ बढ़ाएंगे। ऐ ज़मीन की ममलकतो, ख़ुदा के गीत गाओ।” (ज़बूर 68) समुंद्र से दूसरे समुंद्र तक और बहर से इंतिहा ज़मीन तक ख़ुदा का हुक्म-जारी होगा। वो जो ब्याबान के बाशिंदे हैं, उस के हुज़ूर झुकेंगे सारी गिरोहें और क़बाइल उस की इबादत करेंगी। जब तक आफ़्ताब रहेगा उस के नाम का रिवाज होगा। तमाम अक़्वाम ख़ुदा को मुबारक कहेंगी। तमाम जहान उस के जलाल से मामूर है।” (ज़बूर 72) अक़्वाम आलम (क़ौमें) ख़ुदा के नाम से डरेंगी, ख़ुदावंद का नाम सीहोन में बुलंद किया जाएगा जब कि उम्मतें और ममलकतें ख़ुदावंद की इबादत के लिए एक साथ जमा हों।” (ज़बूर 102) “ख़ुदा हम पर रहम करे और हम को बरकत दे। अपने चेहरे को हम पर जलवागर फ़रमाए, ताकि तेरी राह सारी ज़मीन में जानी जाये और तेरी नजात सब अक़्वाम (क़ौमों) में। उम्मतें ख़ुश हों कि तू ज़मीन पर की उम्मतों की हिदायत करेगा। ख़ुदा हमको बरकत देगा और ज़मीन के सारे किनारे उस का ख़ौफ़ मानेंगे।” (ज़बूर 67) “ऐ ख़ुदावंद सारी अक़्वाम जिनको तूने ख़ल्क़ किया आयेंगी और तेरे हुज़ूर सज्दा करेंगी और तेरे नाम की बुजु़र्गी करेंगी कि तूही वाहिद ख़ुदा है।” (ज़बूर 86) “ख़ुदावंद के लिए गाओ, उस के नाम को मुबारक कहो, रोज़ बरोज़ उस की नजात की बशारत दो, दुनिया की उम्मतों के दर्मियान उस के जलाल को तमाम अक़्वाम के दर्मियान उस की अजाइब क़ुदरतों को बयान करो, क्योंकि ख़ुदावंद बुज़ुर्ग और निहायत सताइश के लायक़ है। दुनिया की उम्मतों के माअ्बूद हीच हैं पर आसमानों का बनाने वाला ख़ुदावंद है। ऐ क़ौमों के घरानों ख़ुदावंद की हशमत व क़ुदरत को जानो। उस की बुजु़र्गी करो, उस की बारगाहों में आओ। ख़ुदावंद को हसनू तक़द्दुस के साथ सज्दा करो। ऐ सारी ज़मीन, अक़्वाम आलम के दर्मियान ऐलान करो कि ख़ुदावंद सल्तनत करता है।” (ज़बूर 96 वग़ैरह-वग़ैरह)

(10) इस सदाक़त पर कि इस्राईल का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) ये है कि अक़्वाम आलम को ख़ुदावंद का इर्फ़ान बख़्शे। ज़ोर देने के लिए अह्दे-अतीक़ की कुतुब के मजमूए में रूत की किताब और यूनाह की किताब का वजूद ख़ुद एक ज़बरदस्त दलील है। रुत की किताब की हीरोइन एक मूआबी औरत है जो ग़ैर-यहूद थी। लेकिन उस का वजूद ये साबित करता है कि अहले-इस्राईल को अपना नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) याद था कि उस की हस्ती का वाहिद मक़्सद यही है कि ग़ैर-यहूद को ख़ुदावंद का इल्म बख़्शे।

(11) यूनाह की किताब सय्यदना मसीह से सदीयों पेशतर लिखी गई है। इस का वाहिद सबक़ यही है कि ख़ुदा की नजात और उस का रहम तमाम अक़्वाम (क़ौमों) पर हावी है ख़्वाह वो यहूद हों या ग़ैर-यहूद। इस किताब में यूनाह दर-हक़ीक़त बनी-इस्राईल की एक मिसाल है। ख़ुदा ने बनी-इस्राईल के सपुर्द ये ख़िदमत की थी कि अक़्वाम आलम (क़ौमों) में उस के इर्फ़ान को फैलाने का और उस की नजात की इशाअत का ज़रीया हो। लेकिन यूनाह की तरह बनी-इस्राईल ने इस ज़िम्मेवारी से इन्कार कर दिया। जिसका नतीजा ये हुआ कि जिस तरह मछली ने यूनाह को निगल लिया, उसी तरह बाबुल ने बनी-इस्राईल को तबाह कर दिया। लेकिन जिस तरह मछली ने यूनाह को ज़िंदा उगल दिया, उसी तरह बनी-इस्राईल बाबुल की क़ैद से वापिस यरूशलेम आ गए। तब फिर ख़ुदा ने एक और मौक़ा बनी-इस्राईल को दिया, कि वो ख़ुदा-ए-वाहिद की नजात को ग़ैर-यहूद और अक़्वाम आलम तक पहुंचाए, लेकिन यूनाह की तरह बनी-इस्राईल ने भी अपना दिल सख़्त कर लिया और इस की बजाय कि वो अपनी ज़िम्मेदारी को महसूस करे, वो अपने दीन और मज़्हब के साये में बैठ गए। जिस तरह यूनाह कद्दू की बेल के साये में बैठ गया और इस बात के मुंतज़िर होने लगे कि ख़ुदा ग़ैर-यहूद को तबाह और बर्बाद करे। लेकिन ख़ुदा के दिल पर इस्राईल की ये हालत देखकर चोट लगी, क्योंकि वो चाहता था कि बनी-इस्राईल के दिल में तब्दीली देखे और बनी इस्राईल अपनी ज़िंदगी के वाहिद मक़्सद को सर-अंजाम दें और अक़्वाम आलम (क़ौमों) को ख़ुदा की नजात की बशारत देने का ज़रीया हों।

(12) अहदे-अतीक़ की कुतुब के मजमूए की किताब मलाकी नबी में जो सय्यदना मसीह से क़रीबन पाँच सौ (500) साल पहले लिखी गई, इस सदाक़त की एक झलक हमको दिखाती है और इस में परज़ोर अल्फ़ाज़ में लिखा है, “रब-उल-अफ़वाज फ़रमाता है कि आफ़्ताब के तुलूअ से उस के ग़ुरूब तक मेरा नाम अक़्वाम आलम (क़ौमों) के दर्मियान बुज़ुर्ग होगा।” (मलाकी 1:11)

हम कहाँ तक इक़्तिबास करते जाएं और किस-किस किताब में से इक़्तिबास करते जाएं, हमने बख़ोफ़-ए-तवालत हज़रत हज्जी का (520) क़ब्ल मसीह, योएल नबी, होसेअ नबी (740) क़ब्ल मसीह, दानीएल वग़ैरह की कुतुब का ज़िक्र नहीं किया। लेकिन अह्दे-अतीक़ की कुतुब शुरू से लेकर आख़िर तक ये ज़ाहिर करती हैं कि बनी-इस्राईल के अम्बिया मुर्सल (रसूल) और ज़बूर नवीस सब के सब इस बात की तल्क़ीन करते हैं कि अहले-यहूद को ख़ुदा ने सिर्फ इस मक़्सद की ख़ातिर अक़्वाम आलम में से चुन लिया है कि उनके ज़रीये ख़ुदा का इल्म अकनाफ़ (कन्फ़ کنف की जमा, किनारे, सिम्तें) व एतराफ़ और अक़साए (बहुत दूर) आलम में फैल जाये ताकि तमाम रुए-ज़मीन की अक़्वाम (क़ौमें) ख़ुदा की नजात के नूर से मुनव्वर हो जाएं।

(2)

बनी-इस्राईल ने सय्यदना मसीह से दो सौ पचास (250) साल से ले कर एक सौ पचास (150) साल पेशतर तक अपनी इल्हामी कुतुब का तर्जुमा यूनानी ज़बान में किया ताकि इस नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) और अपनी भारी ज़िम्मेदारी को पूरा करे। यूनानी ज़बान उन दिनों में तमाम मुहज़्ज़ब ममालिक और अक़्वाम की ज़बान थी। पस इस तर्जुमे के ज़रीये जो सपटवाजनट (سپٹواجنٹ) कहलाता है, अहले-यहूद ने कोशिश की कि अपने इस फ़र्ज़ से जिसका बार (बोझ) खु़दा तआला की तरफ़ से उनके कंधों पर डाला गया था सबकदोश हो (फ़ारिग़ हो) जाएं और ख़ुदा की नजात का इल्म उन सब पर ज़ाहिर हो जाए जो यूनानी ज़बान समझ सकते या लिख पढ़ सकते थे।

तारीख़ इस बात की शाहिद (गवाह) है कि ये तर्जुमा ग़ैर-यहूद को ख़ुदा के पास लाने में इस क़द्र मोअस्सर साबित हुआ कि इस को इल्हामी तर्जुमा क़रार दे दिया गया और सय्यदना मसीह के ज़माने में ये तर्जुमा इस क़द्र मक़्बूल आम था कि आपके हवारइन (शागिर्द) इस को इस्तिमाल किया करते थे। इस तर्जुमे का वजूद इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी है कि अहले-यहूद और उन के अम्बिया की नज़र तंग ना थी, बल्कि वो अपने मज़्हब को कुल दुनिया के लिए नूर और बरकत का बाइस ख़्याल करते थे।

(3)

रसूल-ए-अरब हज़रत मुहम्मद जैसे नुक्ता शनास शख़्स ने भी इस हक़ीक़त को बख़ूबी समझ लिया, अगरचे उनके पैरूं (मानने वाले) इस नुक्ते को समझने की कोशिश नहीं करते। चुनान्चे क़ुरआन में आया है कि “मूसा की किताब इमाम और रहमत है।” (सूरह हूद आयत 20) “हमने तौरात नाज़िल की जिसमें हिदायत और नूर है।” (माइदा आयत 48) “हमने मूसा को किताब दी जो लोगों को राह समझाने वाली और हिदायात और रहमत थी। तू कह अगर तुम सच्चे हो तो तुम अल्लाह की तरफ़ से कोई ऐसी किताब लाओ जो हिदायत में इन दोनो (यानी तौरात और क़ुरआन) से बढ़कर हो, तो मैं (मुहम्मद) इसी पर चलने लगूँगा।” (क़िसस आयात 43, 49) मज़्कूर आयात और दीगर क़ुरआनी आयात से (जिनका इक़्तिबास करने से हम परहेज़ करते हैं) हमको मालूम होता है कि रसूल अरबी अहले-यहूद के साथ इस बात पर मुत्तफ़िक़ थे कि यहूदी कुतुब मुक़द्दसा कुल दुनिया की पेशवा, रहमत, हिदायत और नूर हैं, जो लोगों को राह समझाने वाली हैं और आँहज़रत इसी वास्ते इन पर अमल पैरा भी थे।

(4)

सय्यदना मसीह की पैदाइश से दो सदीयां पहले बनी-इस्राईल की तारीख़ में एक ज़माना आया जब यूनानी अहले-यहूद पर हुक्मरान थे। इस ज़माने में यूनानी हुक्मरानों ने सर तोड़ कोशिश की, कि यूनानी तहज़ीब और कल्चर यहूदीयत पर ग़ालिब आ जाए। मुआमलात ने यहां तक तूल पकड़ा कि यहूदीयत और यहूदी मज़्हब की जान ख़तरे में पड़ गई। क्योंकि अहले-यहूद में बहुत से लोग ऐसे थे जो यूनानी तहज़ीब व ख़यालात से मुतास्सिर हो चुके थे। जिस तरह फ़ी ज़माना हिन्दुस्तान के हिंदूओं और मुसलमानों में बहुत से ऐसे हैं जो मग़रिब के आशिक़ और मग़रिबी ख़यालात के गरवीदा और मग़रिबी रसूमात के शैदाई हैं। बईना इसी तरह अहले-यहूद में से बहुत लोग ऐसे थे जो फ़ातेह हुक्मरान यूनानियों के ख़यालात और रसूमात वग़ैरह से इस क़द्र मानूस हो गए थे कि वो अपने मज़्हब और दीन हलक़ा के उसूल को अमलन ख़ैर बाद कह चुके थे। पस हालात जिस तरह दौरे हाज़रा के कट्टर हिंदू या कट्टर मुसलमान अपने दीन व मज़्हब की हिफ़ाज़त की ख़ातिर और मग़िरब-ज़दा हिंदूओं और मुसलमानों को अपने हलक़े के अंदर रखने की ख़ातिर मग़रिब से बेज़ारी और नफ़रत रखते हैं। बईना इसी तरह मसीह से दो सदीयां पहले अहले-यहूद अपने मज़्हब की हिफ़ाज़त की ख़ातिर और अपने दीन के उसूलों को बरक़रार रखने के लिए तमाम ग़ैर-यहूदी अक़्वाम से बेज़ारी हिक़ारत, कीना और दुश्मनी रखने लग गए। मिसाल के तौर पर हम यहां एक मज़मून “मुसलमान की ज़हनीयत” का जो अहले-हदीस मौरख़ा 7 अक्तूबर 1932 ई॰ में शाएअ हुआ था मलहज़ देते हैं, ऐसे मज़ामीन हर रोज़ हिंदू मुसलमान अख़बारों में शाएअ होते हैं, जो कनआन के उन यहूदीयों की ज़हनीयत को हम पर आश्कारा कर सकते हैं।

“मुसलमानों की हालत इस हद तक पहुंच चुकी है कि जिस क़द्र उनमें मग़रिबी ताअलीम तरक़्क़ी पज़ीर होती जाती है उसी क़द्र उनमें मज़्हबी एहसास तनज़्ज़ुल पज़ीर होता जाता है। ऐसा मालूम होता है कि उनका मतमाअ नज़र (मक़सद) मह्ज़ ताअलीम इस्लाम की तरमीम और तंसीख़ करना है और बस जब कोई अम्र शरई नुक़्ता निगाह से उनके सामने पेश किया जाता है तो उस को अपनी मन्ज़ूरे नज़र मग़रिबी तहज़ीब के ख़िलाफ़ पाकर निहायत हिक़ारत आमेज़ लहजे से रद्द कर देने से उनको मुतलक़ बाक नहीं होता। वो इस्लाम को आबा व अजदाद (बाप दादों) की रसूम पारीना (पुराना) से ज़्यादा वक़अत नहीं देते। ये रोशन ख़्याल मुसलमान शरीअत इस्लाम की पाबंदी को मद्द-ए-नज़र रखे बग़ैर मुस्लिम क़ौम पर नया रंग चढ़ाने और उन में मग़रिबी तहज़ीब की नई झलक पैदा करने की कोशिश में सरगर्म नज़र आते हैं। ये ख़यालात मुसलमानों की किस क़द्र ख़तरनाक ज़हनीयत का इज़्हार करते हैं कि बावजूद मुसलमान कहलाने के, अल्लाह और उस के रसूल के नाम से इस क़द्र नफ़रत पैदा हो। इस से अहले-मशरिक़ मुतास्सिर हो रहे हैं कि मुआलिम शरीअत और शआइर (क़ुर्बानियां, निशानीयां, रसूम, फ़राइज़) इस्लाम उनके दिलों से महव (गुम) होते जाते हैं। आज ख़ुद मुसलमान इस्लाम के तर्ज़े तमद्दुन पर, इस की ताअलीम पर, इस के तख़य्युल पर इस के उसूल व फ़रोग़ पर नुक्ता-चीनी कर रहे हैं। ख़ुदा-न-ख़्वास्ता अगर यही हालत और रही तो मुसलमान सफ़ा हस्ती से मिट जाऐंगे। अल्लाह ने साफ़ फ़रमाया था कि मुसलमानो तुम अपने इन दोस्त नुमा दुश्मनों से क़तअन दोस्ती पैदा ना करो, मगर ये इन्ही में जज़्ब होते चले जाते हैं। मुसलमानो तुम इस्लाम के सच्चे और पक्के परस्तार बन जाओ और अपना दस्तूर-उल-अमल मह्ज़ कलाम-उल्लाह और हदीस रसूल अल्लाह को बना लो।”

बईना इसी तरह कनआन के अहले-यहूद को ये ख़ौफ़ लाहक़ हो गया था कि मबादा उनके बच्चे रूमी यूनानी तहज़ीब से मुतास्सिर हो कर अपनी जुदागाना हस्ती को खो बैठें और मुशरिक कुफ़्फ़ार में जज़्ब ना हो जाएं और उन की “मुहज़्ज़ब” सोसाइटी और तर्ज़ मुआशरत और तरीक़ तमद्दुन को इख़्तियार करके मूसवी शरीअत से रुगिरदानी (दुरी) इख़्तियार ना कर लें। पस वो हर बात से जिससे यूनानियत की बू आती थी ना सिर्फ गुरेज़ करते थे और दूसरों को इस से दूर रहने की ताअलीम देते थे, बल्कि इस से नफ़रत और अदावत रखते थे। नौबत यहां तक पहुंची कि यहूद और ग़ैर-यहूद के दर्मियान एक ख़लीज (दिवार, रुकावट) क़ायम हो गई जो इमत्तीदाद ज़माने से ज़्यादा वसीअ होती गई। ये ख़लीज (रुकावट) हमको ख़ुदावंद के ज़माने में इन्जील के वर्क़ों के ज़रीये दिखाई देती है।

पस इन बैरूनी हालात और तासीरात की वजह से अर्ज़-ए-मुक़द्दस कनआन में रहने वाले यहूदी पहली सदी क़ब्ल अज़ मसीह अपने क़ौम के हक़ीक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को फ़रामोश कर चुके थे। बनी-इस्राईल के वो शुरका जो यहूदिया और यरूशलेम में रहते थे, ग़ैर-अक़्वाम से दुश्मनी और अदावत रखते थे और यह अदावत इस दर्जे तक पहुंच चुकी थी कि वो ग़ैर-यहूद के साथ ख़्वाह वो यूनानी थे या सामरी किसी क़िस्म का ताल्लुक़ नहीं रखते थे। इस का नतीजा ये हुआ कि यहूदिया और यरूशलेम के रहने वाले यहूदी अपने क़ौमी तअस्सुबात से इस क़द्र भर गए कि उन्होंने अपनी कुतुब मुक़द्दसा के अहकाम से रुगिरदानी (दुरी) इख़्तियार कर ली। और ग़ैर-यहूद में तब्लीग़ का काम छोड़ दिया। उन्होंने अपने अम्बिया के पैग़ाम को पस-ए-पुश्त (पीठ पीछे) फेंक दिया और अपने नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) से बे-तअल्लुक़ी इख़्तियार कर ली। चुनान्चे दौरे हाज़रा का यहूदी फ़ाज़िल डाक्टर मोंटी फ़ेअरी कहता है कि :-

“रब्बियों के ज़माने की यहूदीयत ग़ैर-अक़्वाम की तरफ़ से बेपर्वा थी। इस ज़माने के यहूदी उनको नफ़रत और हिक़ारत की निगाहों से देखते थे और ग़ैर-यहूद कुफ़्फ़ार को परले दर्जे के जहन्नुमी ख़्याल करते थे।”

(Judaism and Paul p.56)

एक और जगह यही आलिम हमको बतलाता है कि :-

“अगरचे बाअ्ज़ औक़ात रब्बी कहने को तो कहे देते थे कि जिस तरह बनी-इस्राईल इब्राहिम की औलाद हैं उसी तरह ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) में से जो यहूदी मज़्हब क़ुबूल करते हैं, वो भी इब्राहिम की औलाद हैं। लेकिन अमली तौर पर ग़ैर-अक़्वाम को यहूदीयत के हल्क़ा-बगोश होने में सख़्त और बे-शुमार मुश्किलात का सामना करना पड़ता था।”

(Hibbert Journal, July 1912.p 767 to 773)

यहूद के सरदार काहिनों ने ख़ुदा की हैकल (बैतुल्लाह) के उस हिस्से को जो ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) की इबादत के लिए मख़्सूस था, तिजारत करने वालों को दे रखा था (मर्क़ुस 11:15) जहां तक उनका बस चलता वो किसी क़ौम को वहां फटकने नहीं देते थे। एक दफ़ाअ मुक़द्दस पौलुस अपने साथ एक ग़ैर-यहूदी “ट्रोफी मस” (ٹروفی مس) को जो इफ़िसुस का रहने वाला था ग़ैर-अक़्वाम की जाये मख़्सूस में ले गया था तो अहले-यहूद उस पर टूट पड़े थे। (आमाल 21:29) यूं अहले-यहूद के क़ाइदीन आज़म ने ख़ुदा की हैकल की बुनियाद को अपने तब्लीग़ी फ़र्ज़ के इन्कार पर क़ायम कर रखा था। “हैकल के अंदर इस्राईली अहाता और ग़ैर-अक़्वाम के अहाते के दर्मियान पत्थर की एक दीवार हद-ए-फ़ासिल (फ़ासले को क़ायम रखने वाली हद) क़ायम थी। जिस पर यूनानी और लातीनी ज़बानों में ये कुतबा लिखा था, किसी ग़ैर-यहूद को अंदर दाख़िल होने की इजाज़त नहीं। अगर कोई इस क़ानून को तोड़ कर हद से तजावुज़ करेगा तो उस को सज़ा-ए-मौत दी जाएगी, जिसके लिए उस शख़्स के सिवाए कोई और ज़िम्मेदार गिरदाना नहीं जाएगा।

हाँ वो यहूदी जो अर्ज़-ए-मुक़द्दस कनआन के बाहर रहते थे और जिन का साबिक़ा रात-दिन ग़ैर-यहूद से पड़ता था और जो यूनानी रूमी तहज़ीब से क़दरे मुतास्सिर हो चुके थे वो तंग-नज़र ना थे, वो क़ुदरती तौर पर वसीअ-उल-ख़याल वाक़ेअ हुए थे। क़ौमी तअस्सुबात ने उनके दिल से उनकी हस्ती के हक़ीक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को मिटा नहीं दिया था और वो अपनी कुतुब मुक़द्दसा के अहकाम को फ़रामोश नहीं करते थे और ग़ैर-अक़्वाम में ख़ुदावंद की मार्फ़त का इल्म फैलाने में कोशां रहते थे। पस अर्ज़-ए-मुक़द्दस की हदूद के बाहर यहूदी हलक़े में ऐसे ख़ुदा-तरस लोग मौजूद थे जो अहले-यहूद के वजूद के मक़्सद और नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को पेश-ए-नज़र रखते थे। वो इस बात को फ़रामोश नहीं करते थे कि अहले-यहूद का सदीयों से ये नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) रहा था कि उनका वजूद दुनिया के लिए मूजिब-ए-बरकत व नजात है। पस अगरचे सय्यदना मसीह के ज़माने में कनआन के अहले-यहूद ग़ैर-अक़्वाम को उन की बुत परस्ती और दीगर क़बीह (शर्मनाक, मअयूब, एब वाली) रसूम की वजह से नफ़रत और हिक़ारत से देखते थे। ताहम इस गए गुज़रे ज़माने में भी कनआन के बाहर यहूद का तब्लीग़ी काम दीगर अक़्वाम के दर्मियान निहायत वसीअ पैमाने पर जारी था। (मत्ती 23:15) यहूदी मुअर्रिख़ यूसीफ़स की तस्नीफ़ात से भी ये ज़ाहिर होता है कि :-

अहले-यहूद मुरीद करने के लिए ख़ुशकी और तरी, ज़मीन और समुंद्र का सफ़र किया करते थे। उनके दर्मियान कुतुब मुबाहिसा व मुनाज़रा राइज थीं, जिनके ज़रीये वो दीगर अक़्वाम पर उनके माअ्बूदों की बतालत (रद्द करना) और बुत-परस्ती की ख़िदमत और यहूदीयत की सदाक़त को साबित किया करते थे।

इबादत ख़ानों में “बेगानों” को जाने की इजाज़त थी और यहूदी मज़्हब के तब्लीग़ी काम के लिए इबादत ख़ानों का इस्तिमाल वसीअ पैमाने पर किया जाता था। जिस पर इन्जील जलील भी नातिक़ (बोलने वाली) है, चुनान्चे लिखा है कि “क़दीम ज़माने में हर शहर में जो मूसा की तौरेत की मुनादी करने वाले होते चले आए हैं और वो सबत को इबादत ख़ानों में सुनाई जाती है, ताकि बाक़ी आदमी यानी सब दीगर कौमें जो मेरे नाम की कहलाती है, ख़ुदावंद को तलाश करें। (आमाल 15:17, 21)

प्रोफ़ैसर ऐडवर्ड मेयर (Edward Meyer) का अंदाज़ा है कि :-

असूरी और बाबुल की असीरियों से पहले बनी-इस्राईल के दो ज़ादा क़बाइल की कुल तादाद साढ़े सात लाख थी। लेकिन इन वाक़ियात के छः सदीयां बाद जब बनी-इस्राईल सल़्तनत-ए-रुम के मातहत थे, अहले-यहूद की तादाद चालीस और सत्तर लाख के दरमियाँ थी। रूमी सल्तनत के आदाद व शुमार से पता चलता है कि इस सल्तनत की आबादी में एक हज़ार शख़्स में से सत्तर अश्ख़ास यहूदी थे।

(Legacy of Israel p.29)

इस आदाद व शुमार से हम कुछ अंदाज़ा लगा सकते हैं अहले-यहूद ने इन छः सदीयों में ग़ैर-अक़्वाम में से कितने लाख अश्ख़ास को यहूदीयत का हल्क़ा-ब-गोश कर लिया था।

ये एक तारीख़ी हक़ीक़त है कि पहली सदी क़ब्ल-अज़-मसीह और पहली सदी ईस्वी में यूनानी रूमी दुनिया में इन यहूदी मुबल्लग़ीन ने अर्ज़-ए-मुक़द्दस के बाहर तब्लीग़ का सिलसिला ऐसे वसीअ पैमाने पर जारी कर रखा था कि जब मसीही मुबल्लग़ीन मसीहीय्यत की मुनादी के लिए एशया-ए-कोचक और यूनान के शहरों में गए तो वहां उनको ग़ैर-अक़्वाम में से यहूदी नव-मुरीदों के गिरोह मिले जिन्हों ने अपने मज़ाहिब बातिला को ख़ैर बाद कह रखा था और वह इस्राईल के वाहिद ख़ुदा पर ईमान ले आए थे। यूं मसीही मुबल्लग़ीन को एक तैयार ज़मीन मिली जिसमें उन्होंने इन्जील का बीज बोया जिसका नतीजा ये हुआ कि यूनानी रूमी दुनिया की ग़ैर-अक़्वाम मवह्हिद गिरोह यहूदीयत को छोड़कर मुशर्रफ़ ब-मसीहीय्यत हो गए।

(5)

पस जब अहले-यहूद की तारीख़ पर नज़र करते हैं तो हम देखते हैं कि मुनज्जी आलमीन (मसीह दुनिया का नजातदहिंदा) और आप के हवारइन (शागिर्दों) के ज़माने तक अहले-यहूद सदीयों से ये मानते चले आए थे कि उनकी क़ौम को ख़ुदा ने रुए-ज़मीन की अक़्वाम (क़ौमों) में से चुन लिया है ताकि वो अपने रुहानी पैग़ाम के ज़रीये तमाम दुनिया के बरकत पाने का वसीला हों। उनका ये अक़ीदा था कि आस्मान की बादशाहत के क़ायम होने से ये बरकत अक़्वाम आलम (दुनिया की हर एक क़ौम) को मिलेगी और कि इस बादशाहत को क़ायम करने वाला एक फ़ौक़-उल-फ़ित्रत शख़्स होगा, जो यहूदी नस्ल में से होगा। उनकी कुतुब मुक़द्दसा उस शख़्स की आमद की मुंतज़िर थीं। बअल्फ़ाज़े दीगर यहूदी क़ौम की कुतुब मुक़द्दसा में इस बात का इंतिज़ार पाया जाता है कि यहूदी मज़्हब में से एक मज़्हब निकलेगा जो आलमगीर होगा और जिस का क़ियाम मसीह मौऊद की ज़ात और शख़्सियत के साथ वाबस्ता होगा।

(6)

अब सवाल ये पैदा होता है कि क्या ये मुम्किन है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) तौरात मुक़द्दस और सहाइफ़ अम्बिया का मुतालआ करके और उन के मुतम्माअ नज़र से वाक़िफ़ हो कर और यहूदी मज़्हब के नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) को मद्द-ए-नज़र रखकर और अहले-यहूद की सर तोड़ तब्लीग़ी मसाई से वाक़िफ़ हो कर और अपने आपको मसीह मौऊद जान कर जिसकी ज़ात के साथ अक़्वाम आलम (दुनिया की तमाम क़ोमों) की नजात वाबस्ता थी खुद अपनी रिसालत के दायरे को जान-बूझ कर तंग कर देते और ऐसे कोताह बीन होते कि अपने मिशन को सिर्फ इस्राईल के घराने की खोई हुई भेड़ों के लिए ही महदूद मुहाल करते? क्या कोई सहीह-उल-अक़्ल शख़्स ऐसी बात तस्लीम कर सकता है? अगर ख़ुदावंद का ऐसा ख़्याल होता तो वो अपने हम-अस्र यहूद से भी ज़्यादा तंग-ख़याल तंग-दिल और कोताह बीन होते। लेकिन क्या ये हक़ है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) अपने ज़माने के यहूद से भी ज़्यादा तंग-दिल और कोताह बीन वाक़ेअ हुए होते? जिस शख़्स ने क़ुरआन शरीफ़ और इन्जील जलील का सरसरी मुतालआ भी किया है वो फ़ौरन इस सवाल का जवाब नफ़ी (इन्कार) में देगा। इन्जील का सतही मुतालआ भी इस बात को ज़ाहिर कर देता है कि कलिमतुल्लाह के दिल और दिमाग़ पर इस ख़्याल का तसल्लुत था कि आप ही वो मसीह मौऊद (वाअ्दा किये हुए मसीह) हैं जिसके वसीले दुनिया की कुल अक़्वाम (क़ौमें) बरकत पाएँगी जो शख़्स कनफ़ूशीयस से वाक़िफ़ है वो उस को चीन का नबी कहेगा। महात्मा बुद्ध की ज़ात हिन्दुस्तान से मख़्सूस है। हज़रत मुहम्मद साहब को मुहम्मद अरबी है कहा जाता है। लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) को कोई शख़्स गलीली नबी नहीं कहता है। आपको इब्न-ए-आदम ही कहा जाता है जिससे ज़ाहिर है कि आपका पैग़ाम तमाम दुनिया की तमाम अक़्वाम के तमाम आदमीयों के लिए नजात और इन्जील यानी “ख़ुशख़बरी” का पैग़ाम था।

(7)

इन्जील जलील के मुतालए से ये मालूम हो जाता है कि सय्यदना मसीह के हम-अस्र अहले-यहूद में से जो लोग मसीह-ए-मौऊद के मुंतज़िर थे, उनका भी यही ख़्याल था। मसीह मौऊद का वजूद अहले-यहूद और दीगर अक़्वाम के लिए नूर और बरकत का मूजिब होगा। उनका ये अक़ीदा था कि ख़ुदावंद क़ुद्दूस कुल दुनिया का ख़ालिक़ है। और ख़ुदा की वहदानीयत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि ख़ुदा कुल अक़्वाम आलम (दुनियां की क़ौमों) का वाहिद परवरदिगार हो। लिहाज़ा वो इस बात के क़ाइल थे कि मसीह की बादशाहत में हर क़ौम और मुल्क के रास्तबाज़ शरीक होंगे। पस जो “ख़ुदातरस मसीह मौऊद के मुंतज़िर थे, उनका ये ईमान था कि वो अपनी “आँखों” से ख़ुदा की “नजात” को देखेंगे, जो ख़ुदा ने मसीह मौऊद के वसीले “सब उम्मतों” के रूबरू तैयार की, ताकि वो अक़्वाम आलम को रोशनी देने वाला नूर और इस्राईल का जलाल बने।” (लूक़ा 2:32) ये सब रास्तबाज़ मुंतज़िर इस उम्मीद में थे कि मसीह मौऊद के ज़रीये ज़बूलोन का इलाक़ा और नफ़ताली का इलाक़ा, दरिया की राह, यर्दन के पारग़ीर, यहूद अक़्वाम की गलील में जो लोग अंधेरे में बैठे होंगे “वो बड़ी रोशनी” देखेंगे और जो “मौत” के मुल्क और साया में बैठे” होंगे उन पर रोशनी चमकेगी।” (यसअयाह 9:1 ता 2, मत्ती 4:15)

हज़रत यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने जो मसीह मौऊद का पेशरू था, अपने हम-अस्रों को ये जतला दिया था कि “तौबा के मुवाफ़िक़ फल लाओ और अपने दिलों में ये कहना शुरू ना करो, कि इब्राहिम हमारा बाप है क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ कि ख़ुदा इन पत्थरों से इब्राहिम के लिए औलाद पैदा कर सकता है।” (लूक़ा 3:8) इस का मतलब ये था कि हर क़ौम का आदमी जो सालेह (नेक) आमाल करेगा नजात पाएगा और वही मसीह मौऊद का हक़ीक़ी पैरु (मानने वाला) होगा, ना कि वो अपने आपको आल-ए-इब्राहिम कहेगा और अहले-इस्राईल के ज़मुरा में शुमार होगा।

यहां वही सवाल फिर पैदा होता है कि क्या कलिमतुल्लाह (मसीह) अपने इंतिज़ार करने वालों और अपने पेशरू हज़रत यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले से भी ज़्यादा तंग-ख़याल और कोताह नज़र थे, कि वो अपनी रिसालत को सिर्फ अहले-यहूद तक ही महदूद ख़्याल करते? आपके पेशरू का ये क़ौल था कि “जो मुझसे ज़ोर-आवर है वो आने वाला है, मैं उस की जूती का तस्मा खोलने के लायक़ नहीं।” (लूक़ा 3:16) इन्जील जलील का हर नाज़िर (मुतालआ करने वाला) यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के क़ौल की तस्दीक़ करके कहेगा कि यक़ीनन कलिमतुल्लाह (मसीह) अपने हम-अस्र यहूद से अपने इंतिज़ार करने वालों से और अपने पेशरू से कहीं ज़्यादा फ़राख़-दिली और दोरुबीन वाक़ेअ हुए थे। (मत्ती 9:14, 11:2, लूक़ा 11:31, 32, मर्क़ुस 7 बाब, मत्ती 15:12) अहले-यहूद के हक़ीक़ी नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) के इल्म में इब्ने-अल्लाह (मसीह) अपने हम-अस्रों से बहुत दूर निकल गए थे और इस का हज़रत यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले को ख़ुद इक़रार है। (यूहन्ना 1:30, मत्ती 11:11) कलिमतुल्लाह (मसीह) की नजात का पैग़ाम इस क़द्र वसीअ था कि वो कुल बनी-आदम पर और हर ज़माने और हर मुल्क और हर क़ौम के हर फ़र्द बशर (इंसान) पर हावी था। (यूहन्ना 3:16) वग़ैरह।

फ़स्ल सोम

सय्यदना मसीह के कलिमात-ए-तय्यिबात और

आपका तर्ज़-ए-अमल

इस सवाल के जवाब में कि आया मसीहीय्यत आलमगीर (पूरी दुनिया के लिए) मज़्हब है याकि नहीं मुनज्जी-ए-जहान (नजातदहिंदा मसीह) के अक़्वाल और अहकाम आपकी हिदायात और आप का लाएहा अमल और तर्ज़-ए-अमल ही फ़ैसलाकुन उमूर हो सकते हैं। अगर कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलिमात-ए-तय्यिबात, पैग़ामात-ए-हिदायात और तर्ज़-ए-अमल से ये साबित हो जाए कि आपके ख़्याल में आपकी रिसालत सिर्फ़ अहले-यहूद तक ही महदूद थी, तो मुख़ालिफ़ीन के एतराज़ात हक़ बजानिब (सही) होंगे और हम को इस बात का इक़रार करना पड़ेगा कि कलिमतुल्लाह (मसीह) सिर्फ एक यहूदी मुसलेह (सुधारक) थे और दीगर अम्बिया और मुर्सलीन (रसूलों) की मानिंद सिर्फ एक नबी और मुर्सल मिन-अल्लाह थे। लेकिन अगर यह इब्ने-अल्लाह (मसीह) के अक़्वाल व अहकाम व प्रोग्राम, पैग़ाम और तर्ज़-ए-अमल से ये साबित हो जाए कि आपके अपने ख़्याल में आपकी रिसालत अहले-यहूद और दीगर अक़्वाम दोनों के लिए थी, तो सही उसूल तफ़्सीर के मुताबिक़ जिनका ज़िक्र फ़स्ल अव्वल में किया गया है, मसीहीय्यत का दाअ्वा हक़-बजानिब (सही) होगा, कि इस का बानी फ़िल-हक़ीक़त दुनिया का मुनज्जी है। (यूहन्ना 4:42) और एक ऐसी लासानी और यकता हस्ती है जिसकी नज़ीर रुए-ज़मीन पर नहीं मिलती और अगर ये नतीजा दुरुस्त है, तो ख़ुदावंद के उन अक़्वाल का जो उन आयात में दर्ज हैं जिनकी बिना पर एतराज़ किया गया है, वो मतलब हरगिज़ नहीं जो मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाले) ने लिया है। बल्कि उन अक़्वाल के मुतालिब व माअनी और ग़र्ज़ व ग़ाएत कुछ और ही होगी।

सय्यदना मसीह और अह्दे-अतीक़ की कुतुब

गुज़शता फ़स्ल में हम ज़िक्र कर चुके हैं कि कलिमतुल्लाह (सय्यदना मसीह) ने अह्दे-अतीक़ की कुतुब के गहवारे में परवरिश पाई। सय्यदना मसीह ने अपनी कुतुब मुक़द्दसा का बचपन ही से मुतालआ किया और ख़ुदा के इरादे और मक़्सद और रज़ा-ए-ईलाही की निस्बत मुस्तफ़्सिर (मुहक़्क़िक़, तहक़ीक़ करने वाले) रहे। (लूक़ा 2:40 ता आख़िर) आपने इन कुतुब के मुतालए को हमेशा हिर्ज़-ए-जाँ बनाया (बहुत अज़ीज़ समझना, बेहद एहतियात से रखना) और दुख मुसीबत और तक्लीफ़ में यही कुतुब आपकी तसल्ली का बाइस थीं। (ज़बूर 43:5, व मत्ती 26:28, ज़बूर 6:4, 42:6 व युहन्ना 12:27, ज़बूर 22:2 व मत्ती 27:46, ज़बूर 31:5 व लूक़ा 23:46 वग़ैरह) आपका इल्म इस क़द्र वसीअ था कि आप इन कुतुब की एक-एक बात से वाक़िफ़ थे और अपनी ताअलीम में बीसों (20) दफ़ाअ आपने इन कुतुब के वाक़ियात व अश्खास का ज़िक्र किया। (यसअयाह 51:17, यूहन्ना 18:11, मत्ती 26:39, हबक़्क़ूक़ 2:11, व लूक़ा 19:40, ज़बूर 6:8 व मत्ती 7:23, ज़बूर 147:9, लूक़ा 12:24, यर्मियाह 22:5, व मत्ती 23:38, ज़बूर 118:26, व मत्ती 23:39, होसेअ 10:8, लूक़ा 23:30, ज़बूर 91:13, व लूक़ा 10:19, यसअयाह 6:9, लूक़ा 8:10, यसअयाह 14:13, व लूक़ा 10:15, मीकाह 7:6, व लूक़ा 12:53, यसअयाह 19:2, व लूक़ा 21:10, मत्ती 6:29, 12 बाब आयात 3, 40, 42, 23:35, लूक़ा 4 बाब, 27, 17 26, 29, यूहन्ना 8:40 वग़ैरह-वग़ैरह)

मज़्कूर बाला हवालेजात इस बात को ज़ाहिर करने के लिए काफ़ी हैं कि सय्यदना मसीह कुतुब अह्दे-अतीक़ और सहफ़-ए-अम्बिया से कमा-हक़्क़ा वाक़िफ़ थे। आप इन कुतुब को उन निगाहों से नहीं पढ़ते थे जिनसे आपके हम-अस्र इनका मुतालआ करते थे। कनआन के यहूद के लिए ये कुतुब शराअ (शरीअत) और ईलाही अहकाम का फ़क़त एक मजमूआ थीं। जिनकी शरह और तफ़्सीर करना रब्बियों और फ़क़हियों का काम था। सिकंदरिया के यहूद के नज़्दीक ये कुतुब पोशीदा और मख़्फ़ी (छिपी) राज़ों का एक मजमूआ थीं। जिनको वो अपने फ़लसफ़ियाना नज़रियों के मुताबिक़ समझना और लोगों को समझाना चाहते थे। लेकिन कलिमतुल्लाह (सय्यदना मसीह) की नज़र में ये कुतुब ख़ुदा के साथ रिफ़ाक़त रखने का ज़रीया थीं। फुक़हा इनमें इल्म-ए-फ़िक़्हा के नुक्ते ढूंडते थे। फिलासफर इनमें अपने फ़ल्सफ़ा का सहारा पाते थे, लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) इन कुतुब में ख़ुदा के अज़ली इरादों की तलाश करते थे।

ख़िर्द की गुथ्थिया सुलझा चुके सब

मेरे मौला मुझे साहिबे जुनून कर।

ईलाही मक़ासिद से वाक़िफ़ हो कर कलिमतुल्लाह (सय्यदना मसीह) रज़ा-ए-ईलाही को पूरा करना अपना फ़र्ज़ अव्वलीन समझते थे। (मर्क़ुस 12:24 ता आख़िर, मत्ती 19:8 वग़ैरह)

पस कलिमतुल्लाह (सय्यदना मसीह) इस बात से कमा-हक़्क़ा वाक़िफ़ थे कि ख़ुदा ने क़ौम इस्राईल को चुना है ताकि अक़्वाम आलम (क़ौमों) में ख़ुदा की मार्फ़त का इल्म अकनाफ़े (کنف कनफ़ की जमा, अतराफ़) आलम (दुनिया) तक पहुंचाए। आपको ये एहसास था कि आप शरीअते मूसा और सहाइफ़-ए-अम्बिया का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) हैं। (लूक़ा 4:21) आपने अपनी ख़िदमत की इब्तिदा में अलल-ऐलान (गवाहों के रूबरू, बे रोक-टोक) यहूदी इबादत ख़ाने में फ़रमाया कि सहाइफ़-ए-अम्बिया आपकी ज़ात में पूरी हुईं। आपने आम्मतुन्नास (लोगों) को सरीह (साफ़) अल्फ़ाज़ में बतला दिया कि आप शरीअत और सहाइफ़ अम्बिया को कामिल करने की ग़र्ज़ से इस दुनिया में आए हैं और फ़रमाया कि आस्मान व ज़मीन टल जाएं लेकिन कुतुब मुक़द्दसा का आपकी ज़ाते मुबारका में कामिल होना लाज़िमी और ला-अबदी अम्र है। (मत्ती 5:17) चुनान्चे अपनी ज़िंदगी के आख़िरी लम्हों में आपने सलीब पर से ये ऐलान फ़रमाया कि आपने सब कुछ कामिल कर दिया। (यूहन्ना 19:30) आपने ख़ुदा के अज़ली इरादे और मक़्सद को पूरा करने के लिए यहूदी कुतुब मुक़द्दसा में उन तमाम उमूर को यकसर ख़ारिज कर दिया जो ग़ैर-यहूद को ख़ुदा के पास आने की राह में हाइल थे, ताकि यहूद और ग़ैर-यहूद और कुल बनी-नूअ इन्सान ख़ुदा की नजात से बहरावर होकर ख़ुदा की आलमगीर बादशाहत के वारिस हो जाएं।

सय्यदना मसीह की ताअलीम की बुनियाद

सय्यदना मसीह की ताअलीम की असास (बुनियाद) ये हैं कि ख़ुदा कुल बनी-नूअ इन्सान का बाप है और कुल जहान के इन्सान एक दूसरे के भाई हैं। चुनान्चे आपने इस हक़ीक़त पर निहायत ज़ोर दिया। (मत्ती 7:21 वग़ैरह) सिर्फ पहाड़ी वाअ्ज़ में आपने ख़ुदा को 7 दफ़ाअ “बाप” के नाम से मौसूम किया है। आपने ये ताअलीम दी कि ख़ुदा जो हमारा बाप है वो रब-उल-आलमीन और दुनिया का परवरदिगार है उस की ज़ात मुहब्बत है और उस की लाज़वाल मुहब्बत ये गवारा नहीं करती कि दुनिया का कोई फ़र्द बशर (इन्सान) भी ख़्वाह वो किसी क़ौम या नस्ल का हो नजात से महरूम रह जाये। (यूहन्ना 3:16 वग़ैरह) पस कलिमतुल्लाह की ताअलीम के मुताबिक़ ख़ुदा की मुहब्बत और अब्बुयत परवरदिगारी और नजात किसी ख़ास क़ौम, मुल्क, तबक़ा, नस्ल, क़बीला, मिल्लत या फ़र्द तक ही महदूद नहीं बल्कि वो तमाम दुनिया पर बिला किसी इम्तियाज़ के हावी है। (मत्ती 5 बाब 44 आयत ता आख़िर वगैरा) पस जब आँख़ुदावंद की ताअलीम की बुनियाद ही ऐसी है तो सही उसूल-ए-तफ़्सीर के मुताबिक़ कोई शख़्स ये नहीं कह सकता कि सय्यदना मसीह की निगाह सिर्फ़ अहले-यहूद तक ही महदूद थी क्योंकि ये आलमगीर ताअलीम इन्जील की किसी एक आयत पर ही मबनी नहीं, बल्कि इन्जील के रग व रेशे में और हर सफ़हे में पाई जाती है और इस के बग़ैर इन्जील की ताअलीम का तारो पोद (तानाबाना) बिखर जाता है।

कलिमतुल्लाह (सय्यदना मसीह) ने हमको ये सिखलाया है कि ख़ुदा दुनिया के हर फ़र्द बशर (इन्सान) से लाज़वाल मुहब्बत करता है। आपने फ़रमाया कि तुम “अपने दुश्मनों से मुहब्बत रखो ताकि तुम अपने आस्मानी बाप के बेटे ठहरो क्योंकि वो अपने आफ़्ताब (सूरज) को बदों (बुरों) और नेकों दोनों पर चमकाता है और रास्तबाज़ों और नारास्तों दोनों पर मेह (पानी) बरसाता है। लाज़िम है कि तुम भी सब बनी-नूअ इन्सान से कामिल मुहब्बत रखो जिस तरह तुम्हारे आस्मानी बाप की मुहब्बत कामिल है। (मत्ती 5 बाब) ख़ुदा की मुहब्बत हर तरह की फ़िर्काबंदी और हर क़िस्म के इम्तियाज़ से बुलंद व बाला है, जिस तरह ख़ुदा एक है, इसी तरह बनी-आदम एक हैं और एक दूसरे के आज़ा (हिस्सा) हैं। (रोमीयों 12 बाब वग़ैरह) अगर ख़ुदा एक है तो वो सब का सुल्तान और सब के साथ यकसाँ मुहब्बत रखने वाला है। कलिमतुल्लाह (सय्यदना मसीह) की ये मुहय्यिरुल-उक़ूल (अक़्लों को हैरान करने वाली) ताअलीम दुनिया की काया पलट देने वाली ताअलीम है। (रोमीयों 5:6, 8) हर फ़र्द बशर (इन्सान) क़ाबिल-ए-क़दर और वक़अत हस्ती है। (मत्ती 5 बाब वग़ैरह) इस ताअलीम के मुताबिक़ अहले-यहूद को ग़ैर-यहूद पर फ़ौक़ियत हासिल नहीं और ना मख़्तून को ग़ैर-मख़्तून पर किसी क़िस्म की फ़ज़ीलत हासिल है। ग़ुलाम और आज़ाद की तमीज़ उठ गई। (कुलस्सियों 3:11, रोमीयों 10:12, 1 कुरिन्थियों 12:13, ग़लतीयों 5:6 वग़ैरह) क्योंकि “वही सब का ख़ुदावंद है और जो कोई ख़ुदावंद का नाम लेगा नजात पाएगा।” (रोमीयों 10:12) उसूल उखुव्वत व मसावात (भाईचारा और बराबरी) मसीहीय्यत की रूह-रवाँ में कुल बनी-नूअ इन्सान ख़्वाह वो किसी मुल्क और क़ौम और नसल के हों, एक ख़ुदा के एक ख़ानदान के अफ़राद हैं जो ख़ुदा को बाप कहते हैं। (मर्क़ुस 14:36, रोमीयों 8:15, ग़लतीयों 4:6 वग़ैरह)

पस जब मुनज्जी-आलमीन (मसीह नजात-दहिंदा) की ताअलीम के बुनियादी उसूल आलमगीर (पूरी दुनिया के लिए) हैं तो सही उसूल-ए-तफ़्सीर के मुताबिक़ जिसका ज़िक्र फ़स्ल अव्वल में किया गया है लाज़िम है कि उन आयात की जो एतराज़ की बिना (बुनियाद) हैं इस तौर पर तफ़्सीर की जाये जो कलिमतुल्लाह की ताअलीम के मुताबिक़ हो, क्योंकि ये ताअलीम किसी एक आयत या दस बीस पचास आयात पर मुन्हसिर नहीं, बल्कि आपकी ताअलीम के उसूल ही आलमगीर थे। कलिमतुल्लाह के मज़्हब की आलमगीरी इन्जील के रग व रेशे में पाई जाती है। मसलन पहाड़ी वाअ्ज़ में क्या शैय है जो यहूदी मज़्हब या किसी दूसरी क़ौम के साथ मुख़तस हो। “ख़ुदावंद की दुआ” तमाम बनी-नूअ इन्सान की ज़रूरीयात का ख़ुलासा है “बरकात” (मत्ती 5 1 ता 9) कुल नूअ इन्सान पर हावी हैं। ख़ुदा और इन्सान के साथ मुहब्बत रखना, इलाही अबुयित, इन्सानी उखुव्वत व मसावात (भाईचारा व बराबरी) के उसूल हैं बैन-उल-अक़वामी उसूल हैं जो कुल आदमजा़द पर हावी हैं। कलिमतुल्लाह (मसीह) ने जिस उसूल की भी तल्क़ीन फ़रमाई उस पर सतही निगाह भी डालो तो कोई बात ऐसी ना पाओगे जो किसी एक क़ौम के लिए और दूसरी अक़्वाम (क़ौम) पर इस का इतलाक़ ना होता हो।

पस जब ये अम्र मुसल्लमा है कि कलिमतुल्लाह की ताअलीम के उसूल किसी ख़ास मुल्क या क़ौम या ज़माने के साथ मुख़तस नहीं तो ये दरहक़ीक़त इस अम्र का एतराफ़ है कि आपकी ताअलीम आलमगीर (पूरी दुनिया के लिए) है। क्योंकि जिस उसूल का ताल्लुक़ तमाम बनी-नूअ इन्सानी के साथ हो, उस में किसी एक क़ौम को दूसरी अक़्वाम पर तर्जीह नहीं हो सकती, बल्कि तमाम अक़्वाम (क़ोमें) इस में यकसाँ तौर पर शामिल होती हैं और वो उसूल तमाम ममालिक वाज़मिना और अक़्वाम के वास्ते होते हैं।

हमने ऊपर लिखा है कि मसीहीय्यत की आलमगीरी इन्जील मुक़द्दस की किसी एक आयत या मुंतशिर आयात पर मबनी नहीं। अगर हम इस आलमगीरी के सबूत में आयात को दर्ज करने लगें तो हम को बेशुमार आयात दर्ज करनी होंगी और हमारी किताब के सफ़े के सफ़हे भर जाऐंगे। अगर नाज़रीन में से किसी को शक हो तो वो ख़ुद इस नुक्ता-ए-नज़र से इन्जील शरीफ़ की आयात को नक़्ल करके हमारी बात की तस्दीक़ कर सकता है।

सफ़ीना चाहिए इस बहर-ए-बे-कराँ के लिए

हक़ीक़त तो ये है कि मसीहीय्यत की आलमगीरी इन्जील के तारो पोद में पाई जाती है। सलीब पर का कुतबा यूनानी, लातीनी और इब्रानी ज़बानों में लिखा गया था। (लूक़ा 23:38) ये एक तम्सील है जिससे हम मालूम कर सकते हैं कि सलीब तमाम क़ौमों के लिए नजात की राह है। पहली तीनों इंजीलें उन तीनों अक़्वाम के लिए लिखी गई हैं जिनकी ज़बानों में सलीब पर का कुतबा था। मुक़द्दस मत्ती की इन्जील इब्रानियों की ख़ातिर लिखी गई ताकि उन पर ये साबित हो जाए कि सय्यदना ईसा ही उनका मसीह मौऊद है। जिसकी इब्रानी क़ौम मुद्दत से मुंतज़िर थी। मुक़द्दस मर्क़ुस की इन्जील रुम में लातीनी नस्ल के अक़्वाम के लिए लिखी गई जिसमें आँख़ुदावंद की वो तस्वीर मौजूद है जो बिलआख़िर सल्तनत-ए-रूम को सय्यदना मसीह के क़दमों में ले आई। मुक़द्दस लूक़ा की इन्जील यूनानियों के लिए लिखी गई और इस का मुसन्निफ़ ख़ुद ग़ैर-अक़्वाम में से मुशर्रफ़ बह मसीहीय्यत हुआ था और उस की तस्नीफ़ात ज़ाहिर करती हैं कि सय्यदना मसीह ना सिर्फ क़ौम यहूद के मसीह मौऊद थे, बल्कि दुनिया के मुनज्जी (नजातदहिंदा) थे। मुक़द्दस यूहन्ना की इन्जील में जो कलिमतुल्लाह (मसीह) की ताअलीम दर्ज है उस का किसी एक क़ौम और बिलख़ुसूस क़ौम यहूद से कोई ख़ास वास्ता नहीं। इस इन्जील के पहले बाब में दर्ज है कि मसीह ख़ुदा का कलाम है और उस की शख़्सियत तमाम कायनात और ख़लफ़त का मब्दा, मर्कज़ और इंतिहा है। इस इन्जील में साफ़ तौर पर वाज़ेह कर दिया गया है कि मसीहीय्यत का पैग़ाम आलमगीर (पूरी दुनिया के लिए) पैग़ाम है और सय्यदना मसीह की शख़्सियत कुल नूअ इन्सान की पनाह-गाह। आब व दाना, रोशनी और ज़िंदगी है वो कुल आलम की नजात का दरवाज़ा है। (यूहन्ना 10:9) वो दुनिया का नूर है। (यूहन्ना 8 12, 1:9, व यसअयाह 49:6, यूहन्ना 9:5, 12:46) वो ज़िंदगी की रोटी है। (यूहन्ना 6:35, 6:51) वो आब-ए-हयात है। (यूहन्ना 4:10, 7:27) वो ज़िंदगी का सरचश्मा है। (यूहन्ना 1:4, 11:25, 14:6) वो तमाम अक़्वाम-ए-आलम के उन लोगों को दावत देता है जो शैतान की गु़लामी में तारीकी और ज़ुल्मत में पड़े भूके और प्यासे मर रहे हैं। (यूहन्ना 6 53, 7:37 वग़ैरह)

आफ़्ताब आमद दलील आफ़ताब

गर्दलीलियात बाईदअज़वे रू मताब

सय्यदना मसीह का लाएहा अमल

जब हम इन्जील शरीफ़ को पढ़ते हैं तो हम पर ये वाज़ेह हो जाता है कि इब्तिदा ही से सय्यदना मसीह की ये दिली-ख़्वाहिश थी कि दुनिया की तमाम अक़्वाम ख़ुदा की बादशाहत में शामिल हो जाएं। चुनान्चे इन्जील में वारिद है कि शैतान ने सय्यदना मसीह की इस ख़्वाहिश को मद्द-ए-नज़र रख कर आपके सामने ये आज़माईश पेश की और कहा, तू चाहता है कि तू दुनिया की अक़्वाम (क़ौमों) को ख़ुदा के लिए हासिल करे। आ. मैं तुझको इस मक़्सद को हासिल करने का तरीक़ा बतलाऊं। अगर तू उन वसाइल और ज़राए को इस्तिमाल करे जो मैं तुझे बताऊँगा तो अक़्वामे आलम (दुनियां की क़ौमें) तुझ पर ईमान ले आयेंगी। लेकिन ख़ुदावंद ने शैतानी तरीक़ों और वसीलों को इस्तिमाल करने से इन्कार कर दिया। (मत्ती 4:8 ता 10) आप दुनिया की कुल अक़्वाम (क़ौमों) को ख़ुदा के वास्ते हासिल करना चाहते थे। आपके दिल में ये ज़बरदस्त ख़्वाहिश मौजूद थी कि अक़्वाम-ए-आलम ख़ुदा की बादशाहत में शरीक हो जाएं, लेकिन आप इस आला तरीन मक़्सद को हासिल करने के लिए शैतानी ज़राए इस्तिमाल नहीं करना चाहते थे। बल्कि सिर्फ़ आला तरीन वसाइल के ज़रीये ख़ुदा की बादशाहत को अक़्वाम आलम (दुनियां की क़ौमों में) में क़ायम करना चाहते थे। पस आपने सलीब का रास्ता इख़्तियार फ़रमाया और अलल-ऐलान कहा कि, इब्न-ए-आदम इसलिए नहीं आया कि ख़िदमत ले, बल्कि ख़िदमत करे और अपनी जान बहुतेरों के बदले में फ़िदिये में दे।” (मत्ती 20:28)

(2)

सय्यदना मसीह ने अपनी ख़िदमत की इब्तिदा ही में अपना लाएहा अमल यहूदी और दीगर अक़्वाम (क़ौमों) के सामईन (सुनने वालों) के सामने अह्दे-अतीक के उन अल्फ़ाज़ में पेश किया, जहां मसीह मौऊद की निस्बत लिखा है कि, वो अहले-यहूद और दीगर अक़्वाम (क़ौमों) के लिए रसूल होगा। यहूदी कुतुब-ए-मुक़द्दसा में मसीह मौऊद की रिसालत के लिए फे़अल मुस्तक़बिल (आइन्दा आगे आने वाले वक़्त के तौर पे) इस्तिमाल किया गया था, क्योंकि ये कुतुब आँख़ुदावंद की आमद की मुंतज़िर थीं। लेकिन ख़ुदावन्द-ए-आलमीन इन अल्फ़ाज़ का इक़्तिबास करते वक़्त मुस्तक़बिल फे़अल की बजाए फे़अल हाल (मौजूदा वक़्त के तौर पर) इस्तिमाल करते हैं। चुनान्चे नासरत के इबादत ख़ाने में इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया, ख़ुदावंद की रूह मुझ पर है इसलिए कि उसने मुझे ग़रीबों को ख़ुशख़बरी देने के लिए मसह किया है। उसने मुझे भेजा कि क़ैदीयों को रिहाई और अँधों को बीनाई पाने की ख़बर सुनाऊँ। कुचले हुओं को आज़ाद कर दूँ और ख़ुदावंद के साल मक़्बूल की मुनादी करूँ। ख़ुदावंद (मसीह) ने अहद-ए-अतीक़ की किताब के इन अल्फ़ाज़ का इक़्तिबास करके फ़रमाया कि, “आज ये नविश्ता तुम्हारे सामने पूरा हो गया है।” (लूक़ा 4:18 ता 21) दौरान तक़रीर में कलिमतुल्लाह (मसीह) ने उन ग़ैर-यहूद मर्दों और औरतों का ज़िक्र किया, जिन्हों ने बनी-इस्राईल के अम्बिया के ज़रीये बरकत पाई थी। आपने फ़रमाया, “एलियाह के दिनों में बहुत सी बेवा औरतें इस्राईल में थीं, लेकिन एलियाह (इल्यास) उनमें से किसी के पास ना भेजा गया (मगर ग़ैर-यहूद) मुल्क सैदा के शहर सारपत में एक (ग़ैर-इस्राईली) बेवा औरत के पास। इलीशा नबी के वक़्त में इस्राईल के दर्मियान बहुत से कौड़ी थे, लेकिन उनमें से कोई पाक-साफ़ ना किया गया। “सिवाए नोमान के जो सूर्यानी था।” (लूक़ा 4:26 ता 27) कलिमतुल्लाह (मसीह) के सामईन (सुनने वाले) इन माअनी-ख़ेज़ मताइन (तम्बीह) को सुनते ही ग़ुस्से से भर गए और उन्हों ने उठकर उस को शहर से बाहर निकाल दिया।” (लूक़ा 28:4)

मुनज्जी आलमीन का तर्ज़-ए-अमल

जब अहले-यहूद ने इब्ने-अल्लाह (मसीह) को शहर-बद्र कर दिया तो आप ने किसी यहूदी शहर में रिहाइश इख़्तियार ना की, बल्कि “आपने ग़ैर-क़ौमों की गलील” को अपना वतन बनाया (मत्ती 4:15) इसी गलील में (जहां ग़ैर-यहूद कस्रत से आबाद थे) कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपनी सह साला ख़िदमत का ज़्यादा हिस्सा सर्फ किया। कफ़र्नहूम में ख़ुदावंद ने एक रूमी सूबेदार के ख़ादिम को शिफ़ा बख़्शी। (मत्ती 8:5-13)

वहां से ख़ुदावंद (मसीह) “सूर और सैदा” की सरहदों में तशरीफ़ ले गए। (मर्क़ुस 7:24) जहां आपने आयात ज़ेर-ए-बहस के मुताबिक़ एक सूर फ़ीनीकी औरत की लड़की को शिफ़ा इनायत फ़रमाई। (मत्ती 15:28) इस जगह कलिमतुल्लाह (मसीह) ने कई माह सर्फ किए। आपने कम अज़ कम मौसमे गर्मा के सब महीने यहां ख़िदमत की, क्योंकि सिर्फ इसी मौसम में इस जगह सफ़र किया जा सकता था। इस इलाक़े के जितने बाशिंदे आपके पास आए उनको मुनज्जी-ए-आलम (दुनिया के नजात-दहिंदा) ने ताअलीम दी और उन के मरीज़ों (बीमारों) को तंदुरुस्त किया।

इन तमाम महीनों के बाद “वो सूर की सरहदों से निकल कर सैदा की राह से दिकपौलस की सरहदों में होता हुआ गलील की झील पर पहुंचा।” (मर्क़ुस 7:30) जो लोग ग़ैर-यहूदी इलाक़े दिकपौलस से आपके पीछे हुए वो भी आपकी ताअलीम से बहरावर हुए। (मत्ती 4:25) आपने इस इलाक़े के ग़ैर-यहूदी बीमारों को भी शिफ़ा बख़्शी। (मर्क़ुस 5:1 ता 21)

इसी तरह अदूमिया से और यर्दन के पार सूर और सैदा के ग़ैर-यहूद इलाक़े के आस पास से एक भीड़ ये सुन कर कहने लगी की, वो कैसे बड़े काम करता है उस के पास आई। पस उसने अपने शागिर्दों से कहा, भीड़ की वजह से एक छोटी कश्ती मेरे वास्ते तैयार रहे, ताकि वो मुझे दबा ना डालें। क्योंकि उसने बहुत लोगों को अच्छा किया था। चुनान्चे जितने लोग सख़्त बीमारीयों में गिरफ़्तार थे उस पर गिरे पड़ते थे कि उसे छूलें।” (मर्क़ुस 3:8 ता 9)

इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने ना सिर्फ अदूमिया और यर्दन पार के ग़ैर-यहूद इलाक़ों में ख़िदमत की, बल्कि आप सामरिया में भी गए। (लूक़ा 9:52) और वहां के बाशिंदों को अपनी नजात के पैग़ाम से सर्फ़राज़ फ़रमाया। (यूहन्ना 4:4) और बहुत से सामरी उस पर ईमान ले आए। वो उस के पास आए और दरख़्वास्त करने लगे कि हमारे पास रह। चुनान्चे वो दो रोज़ वहां रहा और उस के कलाम के सबब और भी बहुतेरे उस पर ईमान लाए “और इक़रार किया कि, ये फ़िल-हक़ीक़त दुनिया का मुनज्जी (नजात देने वाला) है।” (यूहन्ना 4:39-42)

यक-दम अज़ बहर-ए-ख़ुदा दरबर मा बह नशीनी

दिलग़म दीदा बदीदार तो गुलशन दारैम

एक और दफ़ाअ जब ख़ुदावंद ने दस (10) कौड़ी अच्छे किए तो उनमें से एक ये देखकर कि मैं शिफ़ा पा गया, बुलंद आवाज़ से ख़ुदा की बड़ाई करता हुआ लौटा और मुँह के बल यसूअ (ईसा) के पांव पर गिर कर उस का शुक्र करने लगा और वो सामरी था। यसूअ ने जवाब में कहा, क्या दसों (10) पाक साफ़ ना हुए थे, फिर वो नो (9) कहाँ हैं? क्या सिवा इस परदेसी के और ना निकले जो लौट कर ख़ुदा की तम्जीद करते। फिर उसने उस से कहा, “उठकर चला जा तेरे ईमान ने तुझे अच्छा किया है।” (लूक़ा 17:15) मुनज्जी-आलमीन (नजा-दहिंदा मसीह) ने इस सामरी की तारीफ़ की और उन नौ (9) यहूदी कोढ़ीयों की नाशुक्री पर इज़्हार इतासफ़ (अफ़्सोस) फ़रमाया।

पस जब हम इब्ने-अल्लाह (मसीह) के तर्ज़-ए-अमल पर ग़ौर करते हैं तो हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि अगर आपने अपनी तब्लीग़ी मसाई (कोशिशों) को एक हद तक अहले-यहूद तक महदूद रखा, तो ये किसी ख़ास मक़्सद को निगाह रखकर किया। हम आगे चल कर देखेंगे कि वो मक़्सद क्या था। लेकिन इस मक़्सद का ताल्लुक़ यहूदी क़ौमी तअस्सुबात से हरगिज़ ना था। साथ ही आपने किसी ग़ैर-क़ौम के शख़्स को अपना जाँ-फ़ज़ाँ (दिल ख़ुश करने वाला) पैग़ाम पहुंचाने से दरेग़ ना किया। (मत्ती 8:13, 15:28 वग़ैरह) बल्कि हक़ तो ये है कि जहां आपने ख़ुदा की बादशाहत को फैलाने का मौक़ा पाया आपने वहीं काम शुरू कर दिया। ग़ैर-अक़्वाम में काम और ख़िदमत करने का ख़्याल आपके ज़हन में शुरू ही से था। (मत्ती 10:18, यूहन्ना 10:16, 12:23 व 32 वग़ैरह) आपने अपने शागिर्दों को वाज़ेह अल्फ़ाज़ में बतला दिया कि उनकी तब्लीग़ी मुहिमें उस की अपनी मसाई (कोशिशों) से बहुत ज़्यादा वसीअ होंगी। (यूहन्ना 4:38, 14:12) और साथ ही आपने इस का सबब भी उन पर ज़ाहिर कर दिया और फ़रमाया कि ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) में तब काम वसीअ पैमाने पर होगा, जब आप इस मुख़्तसर ज़िंदगी को ख़त्म करके ज़मान व मकान की क़ुयूद (क़ैद) से आज़ाद हो कर उन के साथ रहेंगे। (यूहन्ना 12:24) ग़ैर-अक़्वाम में इस मुक़द्दस ख़िदमत को सरअंजाम देने के लिए आपने अपने शागिर्द ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) में रवाना भी किए। (मत्ती 28:19, मर्क़ुस 16:15, लूक़ा 24:47 ता आख़िर, यूहन्ना 20:21 आमाल 1:8 वग़ैरह) क्योंकि आपको इस बात का एहसास था कि आपकी रिसालत सिर्फ़ यहूद के लिए ही नहीं। (मत्ती 8:12, 11:20, 12:39, 21:41, 22:7, 23:34, 24:2, लूक़ा 13:28 वग़ैरह)

अब सवाल ये पैदा होता है कि अगर सय्यदना मसीह का ये ख़्याल था कि आपकी रिसालत अहले-यहूद तक ही महदूद है तो आपने क्यों ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) के इलाक़ों के रहने वालों और सामरिया के बाशिंदों को क्यों ताअलीम दी, उनके बीमारों को क्यों शिफ़ा बख़्शी और क्यों उनकी ख़ातिर मौत के मुँह गए? जो अस्हाब अहले-यहूद के ख़यालात से वाक़िफ़ हैं, वो जानते हैं कि अम्बिया-ए-इस्राईल के पैग़ामात के बावजूद कनआन के यहूद ग़ैर-अक़्वाम को निहायत नफ़रत की निगाह से देखते थे। चुनान्चे टीसीटीस (Tacitus) कहता है कि :-

“अहले-यहूद अपने सिवा बाक़ी तमाम दुनिया को अपना जानी दुश्मन ख़्याल करते थे।”

यहूदी आलिम डाक्टर मोंटी फ़ेअरी कहता है कि :-

“ख़ुदावंद के ज़माने के अहले-यहूद ग़ैर-यहूद को नफ़रत, हिक़ारत और इनाद की नज़रों से देखते थे और उन का ये ख़्याल था कि ग़ैर-यहूद काफ़िर जहन्नम में डाले जाऐंगे, जहां तारीकी और अंधेरा होगा।”

“हर यहूदी को ग़ैर-क़ौम वाले से मुहब्बत रखनी और उस के यहाँ जाना जायज़ ना था।” (आमाल 10:28) इलावा अज़ीं “यहूद सामरियों से किसी तरह का बर्ताव नहीं रखते थे।” (यूहन्ना 4:10) दोनो अक़्वाम (क़ौमें) एक दूसरे की जानी दुश्मन थीं। (लूक़ा 9:51 ता 56) किसी शख़्स को सामरी कहना एक नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त गाली थी। (यूहन्ना 8:48) यहूदी रब्बियों का क़ौल था कि :-

“जो सामरियों की रोटी खाता है वो सूअर का गोश्त खाता है।”

“सामरी क़ियामत के रोज़ मुर्दों में से कभी ज़िंदा ना होंगे।”

लेकिन मुनज्जी-आलमीन (मसीह नजात-दहिंदा) ने ना सिर्फ उनको ताअलीम दी बल्कि उनके हाँ गए। उनके साथ रहे। उनके बीमारों को शिफ़ा बख़्शी और उन में से बहुतेरे आप पर ईमान भी लाए। ख़ुदावंद ने अपनी ख़िदमत को यहूद, ग़ैर-अक़्वाम और सामरियों तक ही महुददद ना रखा, बल्कि आपने बुत-परस्त रोमीयों में भी काम किया। चुनान्चे आपने रूमी फ़ौज के सूबेदार के मफ़लूज ख़ादिम को मोअजज़ाना तौर पर शिफ़ा बख़्शी। हर शख़्स जिसको तारीख़ से ज़रा भी मस (महारत) है जानता है कि रूमी फ़ातहीन और यहूदी मफ़्तूहीन के बाहमी ताल्लुक़ात किस क़द्र कशीदा थे। लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने उनमें भी ईलाही मुहब्बत के ज़हूर को दिखाया। आपने रोमीयों, यूनानियों, सामरियों, यहूदीयों वग़ैरह के दरम्यान ख़िदमत की और उनको ख़ुदा की निस्बत ताअलीम दी। मुनज्जी-ए-कौनैन (मसीह) को यहूदी तअस्सुबात से ज़रा भी हम्दर्दी और वास्ता ना था। इब्ने-अल्लाह की वसीअ नज़र में दुनिया यहूद और ग़ैर-यहूद पर मुश्तमिल ना थी, बल्कि नेक और बद अफ़राद पर मुश्तमिल थी। ख़्वाह वो अफ़राद किसी क़ौम से मुताल्लिक़ हों। (मत्ती 5:45) यही वजह थी कि आपने फ़रीसयों और फ़क़िहियों को मुख़ातब करके फ़रमाया, “मैं रास्तबाज़ों को नहीं बल्कि गुनाहगारों को बुलाने आया हूँ।” (मर्क़ुस 2:17) अगर इब्ने-अल्लाह अपनी रिसालत को सिर्फ अहले-यहूद तक ही महदूद ख़्याल फ़रमाते, तो ग़ैर-यहूद के पास हरगिज़ ना जाते और ना उनको मुरीद बनाते। लेकिन आप का तर्ज़ अमल इस बात को साबित करता है कि आप अपनी रिसालत को तमाम दुनिया के लिए ख़्याल करते थे और हर क़ौम और गिरोह के शुरका से मिलते और उन को ताअलीम देकर उन्हें ख़ुदा के क़दमों में लाते थे। मुनज्जी-आलमीन (मसीह) की नज़र निहायत वसीअ थी। यही वजह है कि आपने जो नाम अपने लिए तज्वीज़ फ़रमाया वो “इब्न-ए-आदम” था। ये नाम साफ़ ज़ाहिर करता है कि आपको इस बात का पूरा एहसास था कि आपका पैग़ाम किसी ख़ास ज़माने, मुल्क, क़ौम या क़बीले के लिए नहीं था, बल्कि कुल बनी-आदम (तमाम इंसानों) के लिए है।

(3)

सय्यदना मसीह की मौत और बनी-आदम की नजात

कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपनी ख़िदमत के आख़िर में एक ऐसी बात की जिससे सब यहूद पर और बिलख़ुसूस उलमा और रऊसा-ए-यहूद पर ये ज़ाहिर हो गया कि आप यहूद और ग़ैर-यहूद दोनो को एक आँख से देखते थे। इस एक वाक़िये ने कलिमतुल्लाह (मसीह) की क़िस्मत का फ़ैसला कर दिया और आप को एक हफ़्ते के अंदर अंदर मस्लूब कर दिया गया। चुनान्चे लिखा है कि आप अपनी ज़िंदगी के आख़िरी हफ़्ते में यरूशलेम तशरीफ़ ले गए “और हैकल में दाख़िल हो कर उन को जो हैकल (बैत-उल्लाह) में ख़रीदो फ़रोख़्त कर रहे थे बाहर निकालने लगा और सर्राफों के तख़्ते और कबूतर फ़रोशों की चौकियां उलट दीं और ताअलीम में उनसे कहा कि, क्या ये नहीं लिखा है कि मेरा घर सब क़ौमों के लिए दुआ का घर कहलाएगा? लेकिन तुमने उसे डाकूओं की खोह बना दिया है और सरदार काहिन और फ़क़ीह ये सुनकर उस के हलाक करने का मौक़ा ढ़ूढ़ने लगेइ” (मर्क़ुस 11:15) ये जगह जहां ख़रीद व फ़रोख़्त होती थी हैकल का वो हिस्सा था जो ग़ैर-क़ौमों की इबादत के लिए मख़्सूस था :-

“ख़ुदावंद के ज़माने के सरदार काहिनों और रऊसा-ए-यहूद ने ये हिस्सा जो ग़ैर-यहूद की इबादत के लिए वक़्फ़ था, सौदागरों को देकर ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) से इबादत और परस्तिश करने का हक़ छीन लिया था। ख़ुदावंद ने फ़रमाया कि हैकल का ये हिस्सा ग़ैर-यहूद की इबादत के लिए मख़्सूस था लेकिन तुमने उनके जायज़ हुक़ूक़ पर डाका ज़नी की है।”

ख़ुदा की हैकल सब क़ौमों के लिए यहूद हों या ग़ैर-यहूद इबादत का घर है। ख़ुदावंद ने हैकल को सौदागरों के माल से साफ़ किया ताकि ग़ैर-यहूद वहां इबादत करें। ख़ुदावंद के इस तर्ज़-ए-अमल से रऊसा-ए-यहूद को इस बात का पूरे तौर पर एहसास हो गया कि इस शख़्स की ज़िंदगी क़ौम यहूद की हस्ती के लिए ख़तरनाक है और उन्होंने फ़ैसला कर लिया कि एक आदमी का मरना इस से बेहतर है कि सारी क़ौम हलाक हो। (यूहन्ना 11:50) और उन्हों ने मुनज्जी-आलमीन (नजात देने वाले मसीह) को इस वाक़िये के चार दिन के अंदर अंदर मस्लूब कर दिया। पस ख़ुदावंद ने अपने ख़ून से इस बात पर मुहर कर दी कि आप यहूद और ग़ैर-यहूद दोनों के नजातदिहंदा थे।

(4)

जब ख़ुदावंद आख़िरी दफ़ाअ यरूशलेम में ईद फ़सह के मौक़े पर तशरीफ़ ले गए तो चंद “यूनानी” आपके शागिर्द फिलिप्पुस के पास आए और उन्होंने दरख़्वास्त की कि, “जनाब हम यसूअ को देखना चाहते हैं।”

“ये अश्ख़ास अपने हम-वतन शह्रे आफ़ाक़ हुकमा-ए-सुक़रात और अफ़लातून की हक़ीक़ी औलाद थे। जिनके तहरीरी और ज़बानी अक़्वाल नूर और हक़ यानी रब्बना सय्यदना मसीह की तलाश और दीदार के शाहिद (गवाह) थे।”

चूँकि फिलिप्पुस एक यहूदी शख़्स था और यहूदी तअस्सुबात से मुतास्सिर था और यह अश्ख़ास ग़ैर-अक़्वाम में से थे। फिलिप्पुस उनको सय्यदना मसीह के पास ले जाने से हिचकिचाया और उस ने एक और शागिर्द इन्द्रियास से इस मुआमले में सलाह और मश्वरा किया लेकिन कलिमतुल्लाह (मसीह) ने इन ग़ैर-अक़्वाम को मुलाक़ात का शरफ़ बख़्शा और शागिर्दों को फ़रमाया कि आप की सलीब और ज़फ़रयाब क़ियामत के ज़रीये ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) में इन्जील जलील की इशाअत के लिए रास्ता साफ़ हो जाएगा। (यूहन्ना 12:23) और ख़ुदा सैदा की कि इन यूनानियों के ज़रीये भी तू अपने मुक़द्दस नाम को जलाल दे ताकि दुनिया पर ज़ाहिर हो जाए कि मेरी मौत से तेरा पाक मक़्सद पूरा होगा और दुनिया और बनी-नूअ इन्सान की नजात होगी। (आयत 27, 28) दौरान-ए-मुलाक़ात में आपकी रुहानी आँखों ने इन्जील की बशारत और दुनिया भर में इस की इशाअत का नज़ारा देखा और अपनी ज़बान मुबारक से फ़रमाया, “वो वक़्त आ गया है कि इब्न-ए-आदम जलाल पाए।” (आयत 23) मुनज्जी-आलमीन (दुनिया के नजातदहिंदा मसीह) ने अपनी हयात और मौत के ज़रीये अहले-यहूद और ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौम) दोनों को एक कर लिया और जुदाई की दीवार को जो बीच में थी, ढा दिया (इफ़िसियों 2:14) सय्यदना मसीह के ज़माने में इन्सान और इन्सान के दर्मियान बेशुमार जुदाई की दीवारें थीं। आपने अपने उसूल मुहब्बत, उखुव्वत और मुसावात (भाईचारे और बराबरी के उसूल) के ज़रीये और सब से ज़्यादा अपनी सलीबी मौत के ज़रीये इन तमाम दीवारों को बिल्कुल मुनहदिम (ख़राब, बर्बाद, वीरान) और मिस्मार कर दिया। इन तमाम दीवारों में सबसे मज़्बूत और पाएदार दीवार वो थी जो यहूद और ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) के दर्मियान हाइल थी। लेकिन ये दीवार इब्तिदा ही में टूट गई। (आमाल 15 बाब) यहूद और ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौम) मुनज्जी जहान (दुनिया के नजात देने वाले मसीह) की सलीब के सामने एक हो गए। कलिमतुल्लाह (मसीह) की सलीबी मौत ने ख़ुदा की बादशाहत के दरवाज़े को तमाम जहान के गुनेहगारों के लिए खोल दिया। ख़्वाह वो गुनाहगार क़ौम के यहूद थे ख़्वाह ग़ैर-यहूद (मर्क़ुस 14:24, मत्ती 20:28, यूहन्ना 10:15) चुनान्चे यूहन्ना रसूल साफ़ और सरीह अल्फ़ाज़ में बतलाता है कि, “यसूअ इस क़ौम यहूद के लिए मरेगा और ना सिर्फ इस क़ौम के वास्ते बल्कि इस वास्ते भी कि ख़ुदा के तमाम परागंदा फ़रज़न्दों को जमा करके एक कर दे।” (यूहन्ना 11:52, 1:29 4:42 12:32 वग़ैरह) “वो ना सिर्फ अहले-यहूद के गुनाहों का बल्कि तमाम दुनिया के गुनाहों का कफ़्फ़ारा है।” (1 यूहन्ना 2:2 रोमीयों 4:25 ग़लतीयों 1:4 2:20, 1 तीमुथियुस 2:6 फिलिप्पियों 2:14 1 पतरस 1:18 वग़ैरह-वग़ैरह)

मुनज्जी आलमीन के कलिमात-ए-तय्यिबात

जब हम कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलिमात-ए-तय्यिबात पर नज़र करते हैं तो ये हक़ीक़त हम पर और भी वाज़ेह हो जाती है, क्योंकि आपके ज़रीं अक़्वाल आपके लाएह अमल और तर्ज़-ए-अमल पर रोशनी डालते हैं।

मुनज्जी-आलमीन (मसीह) ने अपने शागिर्दों को मुख़ातब करके फ़रमाया, तुम ज़मीन के नमक हो। तुम दुनिया के नूर हो। (मत्ती 5:13) आपने रूमी सूबेदार के ईमान की तारीफ़ में फ़रमाया, “मैं तुमसे, सच्च कहता हूँ कि मैंने इस्राईल के किसी शख़्स में भी ऐसा ईमान नहीं पाया। और मैं तुमसे कहता हूँ कि बहुतेरे (ग़ैर-इस्राईली) पूरब और पच्छिम से आकर इब्राहिम और इज़्हाक़ और याक़ूब के साथ आस्मान की बादशाहत में शरीक होंगे। मगर बादशाहत के बेटे यानी यहूदी अंधेरे में डाले जाऐंगे।” (मत्ती 8:11) कलिमतुल्लाह (मसीह) ने एक ग़ैर-क़ौम को जिसमें बहुत सी बदरूहें निकाली थीं हुक्म देकर फ़रमाया, “अपने लोगों के पास अपने घर जा और उन्हें ख़बर दे कि ख़ुदावंद ने तेरे लिए कैसे बड़े काम किए और तुझ पर रहम किया।” (मर्क़ुस 5:19) आपने नजात हासिल करने की शर्त बयान करके फ़रमाया, “देखो बाअज़ आख़िर (यानी ग़ैर-यहूद) ऐसे हैं जो अव्वल (यानी पसंदीदा क़ौम) होंगे (लूक़ा 13:2) जब आपके सर मुबारक पर इत्र डाला गया तो आपने फ़रमाया, “(तमाम में) जहां कहीं इन्जील मुनादी की जाएगी ये भी यादगारी में किया जाएगा।” (मत्ती 26:13) इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने अपने रसूलों को आने वाली तक़्लीफों से आगाह करते वक़्त फ़रमाया कि “तुम मेरे सबब हाकिमों और बादशाहों के सामने हाज़िर किए जाओगे ताकि उनके और दीगर अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) के लिए गवाही हो।” (मत्ती 10:18) आपने यरूशलेम की बर्बादी और यहूदीयत की तबाही की निस्बत फ़रमाया कि इस हैकल में “किसी पत्थर पर पत्थर बाक़ी ना रहगा जो गिराया ना जाएगा।” (मर्क़ुस 13:2) और इन्जील की इशाअत की निस्बत फ़रमाया कि “ज़रूर है कि सब क़ौमों में इन्जील की मुनादी की जाये।” (मर्क़ुस 13:10) आपने अक़्वाम आलम (दुनिया की क़ौमों) की तरफ़ इशारा करके फ़रमाया, “अच्छा चरवाहा मैं हूँ, मैं अपनी भेड़ों के लिए जान देता हूँ, (अक़्वाम आलम में) मेरी और भी भेड़ें हैं जो इस (यहूदीयत) के भेड़ ख़ाने की नहीं, मुझे उनका लाना भी ज़रूर है और वह मेरी आवाज़ सुनेंगी। फिर एक ही गल्ला और एक ही चरवाहा होगा।” (यूहन्ना 10:16) आपने अपनी मौत की तरफ़ इशारा करके फ़रमाया, “जब मैं ज़मीन पर से ऊंचे पर चढ़ाया जाऊँगा तो मैं सबको अपने पास खींचूँगा।” (यूहन्ना12:32) कलिमतुल्लाह (मसीह) ने पुकार कर फ़रमाया, “मैं दुनिया को मुजरिम ठहराने नहीं बल्कि दुनिया को नजात देने आया हूँ।” ख़ुदावंद ने इस दुनिया से रुख़्सत होते वक़्त फ़रमाया, “मेरे बाप के घर में बहुत से मकान हैं, मैं जाता हूँ ताकि तुम्हारे लिए जगह तैयार करूँ।” जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि आस्मान में ना सिर्फ अहले-यहूद के लिए मकान हैं बल्कि अक़्वाम आलम (दुनिया की क़ौमों) के मकीनों (रहने वालों) के लिए जगह होगी। इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ये आख़िरी गुफ़्तगु (यूहन्ना 14 ता 17 अबवाब) में है और इस के एक-एक लफ़्ज़ से यही मुतरश्शेह (तशरीह करने वाला, टपकने वाला) होता है कि मुनज्जी-आलमीन (मसीह) का यही ख़्याल था कि आप कुल बनी-नूअ इन्सान की नजात के लिए मबऊस हो कर इस दुनिया में आए हैं। आपने फ़रमाया, “मैं नूर हो कर दुनिया में आया हूँ ताकि जो कोई मुझ पर ईमान लाए अंधेरे में ना रहे।” (यूहन्ना 12:46) और फिर फ़रमाया दुनिया का नूर मैं हूँ, जो मेरी पैरवी करेगा वो अंधेरे में ना चलेगा बल्कि ज़िंदगी का नूर पाएगा।” (यूहन्ना 8:13) जब इब्ने-अल्लाह ने लाज़र को दुबारा ज़िंदा किया तो आपने फ़रमाया, “क़ियामत और ज़िंदगी मैं हूँ, जो मुझ पर ईमान लाता है गो वो मर जाये तो भी वो ज़िंदा रहेगा और जो कोई ज़िंदा है और मुझ पर ईमान लाता है वो अबद तक कभी ना मरेगा।” (यूहन्ना 11:25) आपने निशान तलब करने वालों के जवाब में ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) को अहले-यहूद पर तर्जीह दी और फ़रमाया नैनवा के ग़ैर-यहूद लोग इस ज़माने के यहूदी लोगों के साथ अदालत के दिन खड़े हो कर उनको मुजरिम ठहराएँगे क्योंकि उन्होंने यूनुस की मुनादी पर तौबा करली और देखो यहां वो है जो यूनुस से भी बड़ा है। दक्षिण की ग़ैर-यहूद मलिका इस ज़माना के यहूदी लोगों के साथ अदालत के दिन उठकर उनको मुजरिम ठहराएगी।” (मत्ती 12:41) ख़ुदावंद ने अपने पेशरू यूहन्ना इस्तिबाग़ी के हम-आवाज़ हो कर अहले-यहूद को जतला दिया कि वो आले इब्राहिम होने पर नाज़ाँ ना हों (फ़ख़्र ना करें) और फ़रमाया कि इब्राहिम के फ़र्ज़न्द कहलाने के मुस्तहिक़ सिर्फ वही लोग हैं जो इब्राहिम का सा ईमान रखते हैं, ख़्वाह वो किसी नस्ल के हों। (यूहन्ना 8:40)

(2)

कलिमतुल्लाह (मसीह) ने जिन तम्सिलों के ज़रीये ताअलीम दी उनसे ये ज़ाहिर है कि आपको ये हस्सास (एहसास) था कि आपका पैग़ाम कुल दुनिया के लिए है। एक दफ़ाअ का ज़िक्र है कि लोग सय्यदना मसीह से निशान तलब करने लगे। आपने जवाब में इर्शाद फ़रमाया कि, “यूनाह (यूनुस) के निशान के सिवा कोई और निशान उनको ना दिया जाएगा।” आप का मतलब ये था कि जिस तरह एक यहूदी नबी यूनाह के ज़रीये नैनवा मुल्क के ग़ैर-अक़्वाम बाशिंदों ने नजात हासिल की थी, उसी तरह आपके और आपके यहूदी शागिर्दों की मुनादी के ज़रीये ग़ैर-अक़्वाम नजात हासिल करेंगी। चुनान्चे आपने इस मतलब को यूं ज़ाहिर किया “क्योंकि जिस तरह यूनाह (युनुस) नैनवा के लोगों के लिए निशान ठहरा, उसी तरह इब्न-ए-आदम (मसीह) भी इस ज़माने के लोगों के लिए निशान ठहरेगा। दक्षिण की मलिका इस ज़माने के आदमीयों के साथ अदालत के दिन उठकर उनको मुजरिम ठहराएगी।.... नैनवा के लोग इस ज़माने के लोगों के साथ अदालत के दिन खड़े हो कर इनको मुजरिम ठहराएँगे, क्योंकि उन्होंने यूनाह की मुनादी पर तौबा कर ली।” (लूक़ा 11 बाब)

ख़मीर की तम्सील (मत्ती 13:33) से ज़ाहिर है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) का ये ख़्याल था कि आप का पैग़ाम ख़मीर की तरह तमाम आलम में सरायत कर जायेगा। जब आपकी ज़बान हक़ायक़ तर्जुमान ने कड़वे दानों की तम्सील की तावील की तो फ़रमाया कि, “अच्छे बीज का बोने वाला इब्न-ए-आदम है और खेत दुनिया है।” (मत्ती 13:38) याद रहे कि ये तम्सील ख़ुदावंद ने अपनी ख़िदमत की इब्तिदा में फ़रमाई थी जिससे ज़ाहिर है कि सय्यदना मसीह शुरू ही से जानते और महसूस करते थे कि उनका “खेत दुनिया है।” कलिमतुल्लाह को इब्तिदा ही से इस बात का इल्म था कि आपके उसूल और यहूदीयत के उसूल में मुग़ाइरत (ना मुवाफ़िक़त, अजनबीयत) और तज़ाद का रिश्ता है। चुनान्चे आपने सामईन (सुनने वालों) को फ़रमाया कि “कोई शख़्स पुराने कपड़े में नए की पैवंद नहीं लगाता और ना नई मेय पुरानी मश्कों में भरी जाती है। क्योंकि पुरानी मश्कें फट जाती हैं और मेय ज़ाए हो जाती है।” यहूदी आलिम डाक्टर मोंटी फ़ेअरी अपनी तफ़्सीर इन्जील में कहता है कि :-

“यहां पुरानी मश्कों से यहूदीयत और नई मेय से मसीही उसूल मुराद हैं।”

कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपनी ख़िदमत के आख़िर में अंगूरी बाग़ के ठेकेदारों की तम्सील सुना कर फ़रमाया, “ख़ुदा की बादशाहत तुमसे (यहूद से) ले ली जाएगी और उस क़ौम को जो उस के फल लाए दे दी जाएगी।” (मत्ती 21:43) जिससे मालूम होता है कि इब्तिदा से लेकर आख़िर तक मुनज्जी-ए-आलमीन (दुनिया के नजात देने वाले मसीह) का मतमाअ नज़र और नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) यही था कि इन्जील जलील की बशारत (प्रचार) तमाम क़ौमों में हो। भेड़ों और बकरीयों की तम्सील में आपने फ़रमाया, “जब इब्न-ए-आदम जलाल में आएगा तो सब कौमें उस के सामने जमा की जाएँगी।” (मत्ती 25:32) रहम-दिल सामरी की तम्सील में कलिमतुल्लाह (मसीह) ने यहूदी काहिनों और यहूदीयों को रहम और मुहब्बत का नमूना ना बतलाया बल्कि एक सामरी को रहम और तरस का नमूना बनाया। (लूक़ा 10:33) यहूदीयत के मुताबिक़ लफ़्ज़ “पड़ोसी” का मतलब “क़ौम के फ़रज़न्दों से था।” (अहबार 19:18) लेकिन कलिमतुल्लाह ने उस माअनी को मर्दूद (रद्द) क़रार दे दिया और इस में तम्सील के ज़रीये ये ताअलीम दी कि लफ़्ज़ पड़ोसी से मुराद नूअ इन्सानी के हर फ़र्द से है। ख़्वाह वो किसी जमाअत, क़बीला, क़ौम या नस्ल का हो। (लूक़ा 10:25 ता 37)

कोई कहाँ तक कलिमतुल्लाह के अक़्वाल को नक़्ल करे। जिस शख़्स ने आपकी ताअलीम का सरसरी मुतालआ भी किया है वो जानता है कि इस ताअलीम का यहूदी क़ौमीयत के साथ ज़र्रा भर ताल्लुक़ नहीं। कलिमतुल्लाह की ताअलीम का एक मुख़तस (मख़्सूस किया गया) नहीं, बल्कि नूअ इन्सान के लिए है। जब आपने ये ताअलीम दी कि ख़ुदा कुल बनी-नूअ इन्सान का बाप है और उस की लाज़वाल मुहब्बत अज़ल से यहूद और ग़ैर-यहूद सब पर यकसाँ तौर पर हावी है। (मत्ती 5:43 ता 48) तो आपने सामईन (सुनने वालों) के सामने ऐसे उसूल बयान किए जिनसे उनके कान ना-आश्ना थे। ये उसूल अपनी तर्ज़ में दर-हक़ीक़त बिल्कुल नए उसूल थे। यही वजह है कि आपके यहूदी सामईन (सुनने वाले) उनको सुनकर ग़ज़ब में आ जाया करते थे। (लूक़ा 4:16 ता 30 वग़ैरह) यहूदी रब्बियों की तंग-नज़री का ये हाल था कि :-

“वो कहते थे कि ख़ुदा ने कहा है, मैं आइन्दा जहान में तुम्हारे लिए एक बड़ी मेज़ तैयार करूँगा। ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमें) देखेंगी और हसद के मारे जल भुन कर रह जाएँगी।”

(Original Jesus p.376)

एक और आलिम प्रोफ़ैसर बरकट (Burkitt) लिखता है :-

“यरूशलेम की तबाही से पहले कनआन के यहूदीयों में चंद एक बातें ऐसी थीं जिन्हों ने यहूदीयत को एक क़ौमी मज़्हब बना रखा था। हालाँकि ये इस मज़्हब की ताअलीम ना थी और ना इस क़ौम का हक़ीक़ी मतमाअ नज़र था। इस की ताअलीम तो ये थी कि ख़ुदा एक है, जो अक़्वाम-ए-आलम (दुनिया की क़ौमों) का रब-उल-आलमीन है, लेकिन अमली तौर पर कनआन में यहूदीयत एक क़ौमी मज़्हब था जिसका मर्कज़ यरूशलेम था।”

(Legacy of Israel p.75)

कलिमतुल्लाह (मसीह) की आलमगीर ताअलीम की नई मेय उन पुरानी बोसीदा मश्कों में भरी नहीं जा सकती थी। अगर आपकी ताअलीम यहूदी ख़यालात के हलक़ा (गिरोह) के अंदर महदूद की जा सकती तो आपकी उलमा-ए-यहूद के साथ कश्मकश और जंग ना होती और इस तसादुम का नतीजा सलीब ना होता।

गुल अस्त साअदी व दर्द चश्म दुश्मनां ख़ारास्त

डाक्टर मोंटी फ़ेअरी कहता है कि :-

कलिमतुल्लाह ने यहूदीयत के बुनियादी अक़ाइद के ख़िलाफ़ अपनी ताअलीम के उसूल को आलमगीर (पूरी दुनिया के लिए) बना दिया। अगरचे बाअज़ आला तरीन यहूदी रब्बी इस बात को मानने को तैयार थे कि ना सिर्फ पैदाइशी यहूद आले-इब्राहिम हैं बल्कि दीगर अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) के नव-मुरीद भी इस ज़मुरा में शामिल हैं। लेकिन ये सिर्फ़ ज़बानी जमा ख़र्च था। नफ़्स-उल-अम्र (दर-हक़ीक़त, अस्ल बात) इस ख़्याल के आगे मुश्किलात के पहाड़ सद्द-ए-राह (हाइल होना) थे। यसूअ का कमाल इस में है कि उसने अपनी ताअलीम और शख़्सियत से उन शरई और क़ौमी रुकावटों को दूर कर दिया।”

ख़ुदावंद की ताअलीम के बुनियादी उसूल ये थे कि ख़ुदा मुहब्बत है वो बनी-नूअ इन्सान का बाप है। और कुल अक़्वाम आलम के अफ़राद आपस में भाई भाई हैं। ये उसूल-ए-मुहब्बत व उखुव्वत व मसावात (भाईचारा और बराबरी) आलमगीर हैं। आपका पैग़ाम आलमगीर (पूरी दुनिया के लिए) है, जिसको इन्जील नवीस ने इन ग़ैर-फ़ानी अल्फ़ाज़ में अदा किया है कि “ख़ुदा ने दुनिया से ऐसी मुहब्बत रखी कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया, ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो, बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (यूहन्ना 3:16) सय्यदना मसीह ने ख़ुद अपनी ज़बाने मुबारक से फ़रमाया, “ऐ सब मेहनत उठाने वालो और बड़े बोझ से दबे हुए लोगो, सब मेरे पास आओ, मैं तुमको आराम दूँगा।” (मत्ती 11:28)

हस्त मैकदा व दअवत-ए-आम अस्त हैं जा

सय्यदना मसीह के अहकाम

जिस तरह सय्यदना मसीह के लाएहा अमल, तर्ज़-ए-अमल और कलिमात-ए-तय्यिबात से ये मुतरश्शेह (ज़ाहिर) होता है कि आँख़ुदावंद अपने आपको मुनज्जी-ए-आलम ख़याल फ़रमाते थे और अपने पैग़ाम को कुल बनी-नूअ इन्सान के लिए तसव्वुर फ़रमाते थे। इसी तरह ख़ुदावंद के अहकाम से भी यही साबित होता है कि मुनज्जी-आलमीन की रिसालत तमाम मुल्कों क़ौमों और ज़मानों के लिए है। सय्यदना मसीह ने शागिर्दों को जो मछलियाँ पकड़ने वाले थे बुलाते वक़्त फ़रमाया था कि “मेरे पीछे चले आओ मैं तुम्हें आदमीयों का पकड़ने वाला बनाऊँगा।” (मर्क़ुस 1:17) मुक़द्दस लूक़ा हमको बतलाता है कि ख़ुदावंद ने इन्जील की इशाअत के लिए सत्तर (70) शागिर्दों को भेजा। (लूक़ा 10:17) जिस तरह कलिमतुल्लाह (मसीह) ने बारह (12) शागिर्द चुने ताकि ये तादाद बनी-इस्राईल के दो ज़ादा क़बीलों के बराबर हो। इसी तरह उन बारह के इलावा अब “ख़ुदावंद ने सत्तर (70) आदमी मुक़र्रर किए।” (लूक़ा 10:1) और इस तादाद के इंतिख़ाब की वजह ये थी कि ये ख़्याल किया जाता था कि कुल दुनिया में सत्तर (70) नसलें और क़ौमें आबाद थीं। इन मुबल्लग़ीन को मुबश्शिर मुक़र्रर करके ख़ुदावंद ने कुल जहान पर ये साबित कर दिया कि जिस तरह आपने बारह शागिर्दों को बनी-इस्राईल के दो ज़ादा (12) क़बीलों के ख़्याल से चुना था। इसी तरह आपने सत्तर (70) मुबल्लग़ीन को अक़्वाम आलम (दुनिया की क़ौमों) की तादाद के ख़्याल से चुना था, ताकि सब ज़ाहिर हो जाए कि आप यहूद और ग़ैर-यहूद दोनों के मुनज्जी (नजातदहिंदा) हैं।

“ये सत्तर (70) मुबल्लग़ीन सामरिया और कपल्स के ग़ैर-यहूद इलाक़े के बुत-परस्त शहरों में जो सूबा पियरिया के शुमाल मशरिक़ी इलाक़े में वाक़ेअ है, जहां ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमें) कस्रत से बस्ते थे बशारत के लिए गए।”

(The Mission and Message of Jesus p.279)

सय्यदना मसीह ने आप ग़ैर-अक़्वाम यूनानियों, सामरियों, दिकपौलस, अदूमियाह वग़ैरह-वग़ैरह, यहूदी बुत-परस्त इलाक़ों में ख़िदमत की थी, चुनान्चे आपने इन सत्तर (70) को वहां भेजा और उनकी तब्लीग़ी कोशिशें इस क़द्र कामयाब हुईं कि लिखा है कि वो “सत्तर (70 शागिर्द) ख़ुश हो कर फिर आए और कहने लगे, “ऐ ख़ुदावंद तेरे नाम से बद-रूहें भी हमारे ताबे हैं।.... इसी घड़ी वो रूहुल-क़ुद्दुस से ख़ुशी में भर गया और कहा ऐ बाप आस्मान और ज़मीन के ख़ुदावंद, मैं तेरी हम्द करता हूँ कि तूने ये बातें दानाओं और अक़्लमंदों से छुपाइं और बच्चों पर ज़ाहिर कीं।”.... और शागिर्दों की तरफ़ मुतवज्जोह हो कर ख़ास उन्हीं से कहा, “मुबारक हैं वो आँखें जो ये बातें (यानी ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) में बशारत के शानदार नताइज) देखती हैं, जिनको तुम देखते हो, क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ कि बहुत से नबियों और बादशाहों ने चाहा कि जो बातें तुम देखते हो (यानी ग़ैर-अक़्वाम का ख़ुदा का इल्म हासिल करना) देखें मगर ना देखीं और जो बातें तुम सुनते हो सुने लेकिन ना सुनीं।” (लूक़ा 10:17 ता 24)

अग़्लब (मुम्किन) यही मालूम होता है कि इन तब्लीग़ी मसाई (कोशिशों) के शानदार नताइज देखकर ख़ुदावंद ने इनके इलावा कई दफ़ाअ और शागिर्दों को बशारत (प्रचार, तब्लिग़) के लिए रवाना किया था, क्योंकि मुक़द्दस मर्क़ुस के अल्फ़ाज़ कि, “उन्हें दो-दो कर के भेजना शुरू किया।” (मर्क़ुस 6:7) से ये नतीजा मुस्तंबित (अख़ज़ किया गया, छांटा गया) हो सकता है। यही नतीजा हम इस इन्जील की मर्क़ुस 1:37 ता 38 से अख़ज़ करते हैं, जहां मुनज्जी-ए-आलम (दुनिया के नजात-दहिंदा मसीह) अपने शागिर्दों को फ़रमाते हैं, “आओ हम कहीं आस-पास के शहरों में चलें, ताकि मैं वहां भी मुनादी करूँ, क्योंकि मैं इसी लिए निकला हूँ।” इन मुख़्तलिफ़ तब्लीग़ी मसाई (कोशिशों) के वक़्त ख़ुदावंद ने शागिर्दों को यहूद और ग़ैर-यहूद दोनों की तरफ़ भेजा, ताकि इस काम को जो आपने ग़ैर-यहूदी इलाक़ों में किया था, मुस्तहकम और मज़्बूत करें और उन ग़ैर-यहूद को जो आप पर ईमान लाए थे ताअलीम दें।

ग़ैर-यहूद में तब्लीग़ की मुमानिअत का सवाल

(1)

एक दफ़ाअ का ज़िक्र है कि ख़ुदावंद यसूअ सब शहरों और गांव में फिरता रहा और (गलील में यहूद) के इबादत ख़ानों में ताअलीम देता और बादशाहत की ख़ुशख़बरी की मुनादी करता और हर तरह की बीमारी और हर तरह की कमज़ोरी दूर करता रहा और जब उसने (अहले-यहूद) की भीड़ को देखा तो उस को लोगों पर तरस आया, क्योंकि वो उन भेड़ों की मानिंद जिनका चरवाहा ना हो ख़स्ता-हाल और परागंदा थे। तब उसने अपने शागिर्दों से कहा कि, “फ़स्ल तो बहुत है लेकिन मज़दूर थोड़े हैं। पस फ़स्ल के मालिक की मिन्नत करो कि वो अपनी फ़स्ल काटने के लिए मज़दूर भेजे। और उसने उन बारह (शागिर्दों) को पास बुला कर उनको नापाक “रूहों पर इख़्तियार बख़्शा कि उनको निकालें और उन को क़ुदरत बख़्शी कि हर तरह की बीमारी और हर तरह की कमज़ोरी को दूर करें और उन को ख़ुदा की बादशाही की मुनादी करने और बीमारों को अच्छा करने के लिए भेजा और उन को हुक्म देकर कहा, कि ग़ैर-क़ौमों की तरफ़ ना जाना और सामरियों के किसी शहर में दाख़िल ना होना बल्कि इस्राईल के घराने की खोई हुई भेड़ों के पास जाना और चलते चलते ये मुनादी करना कि आस्मान की बादशाहत नज़्दीक आ गई है। बीमारों को अच्छा करना, मुर्दों को जिलाना, कोढ़ीयों को पाक साफ़ करना, बदरूहों को निकालना, तुमने मुफ़्त पाया मुफ़्त देना। ना सोना अपने कमरबंद में रखना और ना चांदी और ना पैसे रास्ते के लिए ना झोली लेना और ना दो दो कुरते, ना जूतीयां ना लाठी, क्योंकि मज़दूर अपनी ख़ुराक का हक़दार है और जहां तुम किसी घर में दाख़िल हो वहीं रहना, जब तक वहां से रवाना ना हो और जिस किसी शहर के लोग तुमको क़ुबूल ना करें उस शहर से बाहर निकलते वक़्त अपने पांव की गर्द झाड़ दो। मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि अदालत के दिन इस शहर की निस्बत सदोम और अमोरह के इलाक़े का हाल ज़्यादा बर्दाश्त के लायक़ होगा। देखो मैं तुमको भेजता हूँ गोया भेड़ों को भेड़ीयों के बीच में, पस साँपों की मानिंद होशियार और कबूतरों की मानिंद भोले बनो।” (इन्जील मत्ती 9 व 10 बाब, मर्क़ुस 6 बाब व लूक़ा 9 बाब)

(2)

आयात मज़्कूर बाला से अयाँ है कि मुनज्जी-ए-आलमीन (मसीह) ने अहले-यहूद की भीड़ की परागंदा और ख़स्ता हालत को मुलाहिज़ा फ़र्मा कर उन पर तरस खाया और अपने दो ज़ादा (12) शागिर्दों को इस ख़ास मौक़े पर सिर्फ अहले-यहूद में अपने दायरे तब्लीग़ को महदूद रखने और उन ही में मुक़ीम रहने के अहकाम सादिर फ़रमाए, ताकि अहले-यहूद की बर्गशता क़ौम पर इतमाम (तक्मील हुज्जत) हो जाए। यहां ये बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि मुमानिअत सिर्फ एक दफ़ाअ के लिए थी और वो भी सिर्फ बारह शागिर्दों को ख़ास मौक़े की हिदायत को आम हुक्म तसव्वुर कर लिया जाये। ये सही है कि सय्यदना मसीह ने अपने बारह शागिर्दों को एक ख़ास मौक़े पर एक ख़ास तब्लीग़ी मुहिम के वक़्त ये हुक्म दिया था कि, ग़ैर-यहूद की तरफ़ ना जाना, लेकिन इस से ये साबित नहीं होता कि, आपने उनको ये हुक्म दिया था कि हमेशा के लिए ग़ैर-यहूद के पास ना जाना और ना ये साबित होता है कि मुनज्जी-आलमीन (मसीह) ने अपने हर शागिर्द को हमेशा के लिए मना फ़रमाया कि ग़ैर-यहूद के पास अबद तक ना जाना औए ना उनके नज़्दीक फटकना। इस क़िस्म की दलील एक ऐसा मन्तक़ी मुग़ालता है जिसकी हमें किसी सही-उल-अक़्ल शख़्स से तवक़्क़ो नहीं हो सकती।

(3)

ख़ुद मुमानिअत के अल्फ़ाज़ इस एतराज़ को रफ़ा करने के लिए काफ़ी हैं। ख़ुदावंद ने शागिर्दों को हिदायत फ़रमाई, “ग़ैर-क़ौमों की तरफ़ ना जाना और सामरियों के किसी शहर में दाख़िल ना होना।” हम ये पूछते हैं कि अगर शागिर्दों ने ख़ुदावंद से ग़ैर-क़ौमों की तरफ़ जाने और सामरियों के शहरों में दाख़िल होना नहीं सीखा था, तो उनको कैसे ख़्याल आ गया कि वो ग़ैर-क़ौमों और सामरियों की तरफ़ जिस पर ख़ुदावंद ने उनको फ़रमाया, कि इस दफ़ाअ ग़ैर-क़ौमों की तरफ़ ना जाना और सामरियों के किसी शहर में दाख़िल ना होना? अगर शागिर्दों के दिलों में ये ख़्वाहिश नहीं थी तो ख़ुदावंद का हुक्म फ़ुज़ूल था और अगर ये उमंग मौजूद थी, तो ख़ुदावंद के सिवाए और किस ने उनको ये सबक़ सिखलाया था कि ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौम) और सामरी भी अहले-यहूद की तरह ख़ुदा की बादशाहत में दाख़िल हो सकते हैं? ख़ुदावंद के यहूदी शागिर्दों ने अपने रब्बियों से यही सीखा था कि ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमें) ख़ुदा की बादशाहत से ख़ारिज हैं। चुनान्चे यहूदी क़ौमी तअस्सुबात की तंग-नज़री इस एक फ़िक़्रे से अयाँ है, जो सिदरास की दूसरी किताब में है। “ऐ ख़ुदा तू ने फ़रमाया है कि तूने दुनिया को हमारी ख़ातिर ख़ल्क़ किया है और ग़ैर-अक़्वाम मह्ज़ नेस्त हैं और थूक की तरह हैं।” (2 सिदरास 6:55) मुअर्रिख़ टीसी टस कहता है कि :-

“यहूद एक दूसरे की मदद करने को हर वक़्त तैयार होते हैं, लेकिन दुनिया के बाक़ी बाशिंदों को अपना दुश्मन समझ कर नफ़रत की निगाह से देखते हैं।”

(Hist V.5)

सामरियों के साथ नफ़रत रखना यहूद को उनकी माँ की गोद में सिखलाया जाता था। सामरी उन असूरयों की औलाद थे जो असीरी (क़ैद) के ज़माने में अर्ज़-ए-मुक़द्दस में आ बसे थे और उन्हों ने इस्राईली औरतों से शादी करली थी। (2 सलातीन 17:24) और मूसा की शरीअत के पैरोकार थे। जब यहूदी असीरी (क़ैद) से वापिस आए तो सामरियों ने यरूशलेम की हैकल को दुबारा तामीर करने में उनका हाथ बटाना चाहा, लेकिन यहूद ने एज़्राह (तरीक़ा से) तहक़ीर उनको रद्द कर दिया। पस यहूदीयों और सामरियों में दुश्मनी पैदा हो गई जो सदीयों तक रही और आए दिन दोनों अक़्वाम (क़ौमों) में कुश्त व ख़ून होता रहता था। हम ज़िक्र कर चुके हैं कि :-

“यहूदी रब्बी कहते थे कि जो शख़्स सामरी की रोटी खाता है वो सूअर का गोश्त खाता है।”

(Mishnah Shebiith V111.10)

और कि :-

“कोई सामरी कभी यहूदीयत के ज़मुरा में शामिल ना किया जाये। वो मुर्दों की क़ियामत में शरीक ना होंगे।”

(Pirke Elieser.38)

किसी को सामरी कहना, गाली देने के बराबर था। (यूहन्ना 8:48) जब यहूदी ज़ाइरीन हर साल हज के मौक़े पर यरूशलेम जाते तो मीलों चक्कर लगाते, ताकि सामरियों के शहरों में से उनको गुज़रना ना पड़े। एक दफ़ाअ सामरियों ने शागिर्दों को अपने गांव में टिकने ना दिया था क्योंकि उनका रुख यरूशलेम की तरफ़ था। इस सुलूक से सय्यदना मसीह के शागिर्द इस कदर ग़ज़ब में आ गए, कि वो चाहते थे कि आस्मान से आग नाज़िल हो कर उनको भस्म कर डाले।” (लूक़ा 9 बाब)

जब सूरत-ए-हालात ये थी तो ये ग़बी (कमअक़्ल, कुंद ज़हन से) शख़्स पर ज़ाहिर है कि शागिर्दों ने सामरियों और ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) में तब्लीग़ी फ़राइज़ को सरअंजाम देने का काम ख़ुद सय्यदना मसीह की ताअलीम और नमूने से सीखा था।

इश्क़ की एक जस्त ने तै कर दिया क़िस्सा तमाम

इस ज़मीन व आस्मां को बेकरां समझा था मैं

(4)

मुमानिअत के अल्फ़ाज़ क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं। ऐसा मालूम होता है कि आँख़ुदावंद इस मौक़े पर अहले-यहूद पर इतमाम-ए-हुज्जत (तकरार की तक्मील) की ख़ातिर एक ख़ास तब्लीग़ी कोशिश करना चाहते थे। आपने क़ौम यहूद की बर्गशता और तबाह व ख़स्ता और परागंदा हालत को देखकर हुक्म दिया कि यहूद की तरफ़ जाओ और “चलते-चलते ये मुनादी करना कि आस्मान की बादशाहत नज़्दीक आ गई। ना सोना अपने कमरबंद में रखना ना चांदी ना पैसे, जिस घर में दाख़िल हो उसे दुआ-ए-ख़ैर दो। अगर कोई तुमको क़ुबूल ना करे और तुम्हारी बातें ना सुने, तो उस घर या शहर से बाहर निकलते वक़्त अपने पांव की गर्द झाड़ दो। मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि अदालत के दिन इस शहर की निस्बत सदोम और अमोरह के इलाक़े का हाल ज़्यादा बर्दाश्त के लायक़ होगा।” (मत्ती 10:5 ता 15) हुक्म के अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है कि ख़ुदावंद अहले-यहूद पर इतमाम-ए-हुज्जत करना चाहते थे। लिहाज़ा इस ख़ास तब्लीग़ी मुहिम को सिर्फ अहले-यहूद तक महदूद रखना चाहते थे, लेकिन ख़ुदावंद के रसूल बशारत (तब्लिग़) के जोश में भरे थे और चाहते थे कि यहूद को बशारत देते वक़्त दौर में ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) की तरफ़ भी चक्कर लगा आएं और चूँकि सामरिया भी रास्ते में पड़ता था वो चाहते थे कि सामरियों के गांव में से भी होते चलें। लेकिन ख़ुदावंद ने उनको इस बात से मना किया और फ़रमाया कि अब की दफ़ाअ ये तब्लीग़ी मसाई (कोशिश) ख़ास अहले-यहूद पर इतमाम-ए-हुज्जत के लिए हैं। इधर-उधर जाकर अपने वक़्त और कोशिश को सर्फ ना करना “ग़ैर क़ौमों की तरफ़ ना जाना और ना सामरियों के किसी शहर में दाख़िल होना बल्कि इस्राईल की खोई हुई भेड़ों के पास जाना और चलते चलते ये मुनादी करना कि आस्मान की बादशाहत नज़्दीक आ गई है और अगर कोई तुमको क़ुबूल ना करे और तुम्हारी बातें ना सुने तो इस घर से या शहर से बाहर निकलते वक़्त अपने पांव की गर्द झाड़ दो। मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि अदालत के रोज़ इस शहर की निस्बत सदोम और अमोरह के इलाक़े का हाल ज़्यादा बर्दाश्त के लायक़ होगा।”

हमने सय्यदना मसीह के अपने तर्ज़-ए-अमल से, ताअलीम से, अक़्वाल से ये साबित कर दिया है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) अपने आपको मुनज्जी-आलमीन (दुनिया को नजात देने वाले) ख़्याल फ़रमाते थे। क्या कोई दानिशमंद शख़्स ये ख़्याल कर सकता है कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) आप तो ग़ैर-यहूद, रोमीयों, सामरियों में काम करें। मोअजज़े दिखाएं और उन में से बाअज़ के ईमान को अहले-यहूद के ईमान से बेहतर क़रार दें। उनमें से बहुतेरों को मुरीद बना लें, लेकिन अपने हर एक शागिर्द को हमेशा के लिए क़तई तौर पर ये हतमी हुक्म दे जाएं कि ग़ैर-यहूद की तरफ़ ना जाना और ना कभी किसी सामरी शहर में क़दम रखना? इस के ख़िलाफ़ हम सय्यदना मसीह का आख़िरी हुक्म पेश कर देते हैं ताकि किसी मुख़ालिफ़ को सही उसूल तफ़्सीर के मुताबिक़ जिसका ज़िक्र फ़स्ल अव्वल में किया गया है एतराज़ करने की या शक शुब्हा की गुंजाइश ना रहे। मुनज्जी-आलमीन (मसीह) ने इस जहान से अलविदा होते वक़्त अपनी ज़बान मुबारक से रसूलों और दूसरे शागिर्दों को हुक्म दिया कि “आस्मान और ज़मीन का कुल इख़्तयार मुझे दिया गया है, पस तुम दुनिया में जाकर सारी ख़ल्क़ (क़ौमों) के सामने इन्जील की मुनादी करो और जा कर सब क़ौमों को शागिर्द बनाओ और उनको ये ताअलीम दो कि उन सब बातों पर अमल करें जिनका मैंने हुक्म दिया है कि देखो मैं दुनिया के आख़िर तक हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।” (मत्ती 28:19, मर्क़ुस 16:15) फिर फ़रमाया, “जब रूहुल-क़ुद्दुस तुम पर नाज़िल होगा तो तुम क़ुव्वत पाओगे और यरूशलेम और तमाम यहूदिया और सामरिया में, बल्कि ज़मीन की इंतिहा तक मेरे गवाह होगे।” (आमाल 1:18)

सूर फ़ीनीकी लड़की को शिफ़ा बख़्शना

अब हम सय्यदना मसीह के अक़्वाल में से उस क़ौल पर ग़ौर करेंगे जिसकी बिना पर कहा जाता है कि आपको इस बात का एहसास था कि आपका मिशन सिर्फ़ अहले-यहूद तक ही महदूद है। इन्जील में वारिद है कि “ख़ुदावंद यसूअ वहां से निकल कर सूर और सैदा के (ग़ैर-यहूद) इलाक़े को रवाना हुआ और सूर और सैदा की सरहदों में गया और एक घर में दाख़िल हुआ और नहीं चाहता था कि कोई जाने, मगर पोशीदा ना रह सका बल्कि एक कनआनी औरत जिसकी छोटी बेटी में नापाक रूह थी उस की ख़बर सुनकर उन सरहदों से निकली और आई और उस के क़दमों पर गिर पड़ी। ये औरत यूनानी थी और क़ौम सूर फ़ीनीकी की थी। उसने उस (मसीह) से दरख़्वास्त की और पुकार कर कहा, कि ऐ ख़ुदावंद इब्ने दाऊद मुझ पर रहम कर। एक बदरुह मेरी बेटी को बुरी तरह सताती है। उस बदरुह को मेरी बेटी से निकाल। मगर उसने कुछ जवाब उसे ना दिया। उस के शागिर्दों ने पास आकर उस से अर्ज़ की कि, उसे रुख़्सत कर दे, क्योंकि वो हमारे पीछे चिल्लाती है, उसने जवाब में कहा कि, मैं इस्राईल के घराने की खोई हुई भेड़ों के सिवा किसी और के पास नहीं भेजा गया। मगर उस ने आकर उसे सज्दा किया और कहा, ऐ ख़ुदावंद मेरी मदद कर, उसने जवाब में उस से कहा कि, पहले लड़कों को सैर होने दे। क्योंकि लड़कों की रोटी लेकर कुत्तों को डाल देनी अच्छा नहीं। उसने जवाब में कहा, हाँ ख़ुदावंद कुत्ते भी मेज़ के तले की रोटी के टुकड़ों में से खाते हैं, जो उनकी मालिकों की मेज़ पर से गिरते हैं। इस पर यसूअ ने जवाब में उस (औरत) से कहा, ऐ औरत तेरा ईमान बहुत बड़ा है, इस कलाम के सबब से जा जैसा चाहती है तेरे लिए वैसा ही हो, बदरुह तेरी बेटी से निकल गई है और उस की बेटी ने उसी घड़ी शिफ़ा पाई और उस ने अपने घर में जाकर देखा कि लड़की पलंग पर पड़ी है और बदरुह निकल गई है।” (मर्क़ुस 7 बाब 24 ता 30 आयात, मत्ती 15 बाब 21 ता 28 आयात)

(1)

इन आयात की तावील करके मोअतरज़ीन ये साबित करना चाहते हैं कि सय्यदना मसीह सिर्फ एक यहूदी मुसल्लेह (सुधारक, मुजद्दिद) हो गुज़रे हैं और आपके कभी वहम व गुमान में भी ना आया था कि आपकी रिसालत यहूद तक महदूद ना रहेगी। लेकिन हम सुतूर बाला में साबित कर आए हैं कि सही उसूल तफ़्सीर के मुताबिक़ मोअतरिज़ की ये तावील बातिल है। मुनज्जी-आलमीन (नजात-दहिंदा मसीह) का तर्ज़-ए-अमल साफ़ ज़ाहिर करता है कि आँख़ुदावंद ने ग़ैर-यहूद में ख़िदमत की और उन को ताअलीम भी दी। आयत ज़ेर-ए-बहस ख़ुद इस बात की गवाह है कि मुनज्जी-ए-जहान (दुनिया का नजात-दहिंदा) के मोअजज़ात का फैज आम था और आपने उस औरत की लड़की को शिफ़ा बख़्शी। (मत्ती 15:28) हम ये भी देख चुके हैं कि ख़ुदावंद के कलिमात-ए-तय्यिबात भी इस अम्र के गवाह हैं कि आपकी इन्जील सारी ख़ल्क़ के लिए थी और आप का हुक्म “सब क़ौमों को शागिर्द बनाने का था।” हम नाज़रीन को याद दिलाते हैं कि सही उसूल तफ़्सीर तावील-उल-कलामा बिमायर्ज़ा बह क़ाइला (تفسیر تاویل الکلامہ بما یرضیٰ بہ قائلہ) बातिल है। यानी क़ौल के कहने वाले की तावील वही सही हो सकती है जो उस की मंशा, इरादे और ख़यालात के मुताबिक़ हो। पस हम ज़ेर-ए-बहस की सिर्फ इस तर्ज़ पर ही तावील व तफ़्सीर कर सकते हैं जो सय्यदना मसीह के लाएहा-ए-अमल, तर्ज़-ए-अमल, कलिमात, हिदायात और अहकाम के मुताबिक़ हो। हम एक शख़्स के किसी ख़ास क़ौल को उस के दीगर अक़्वाल और हालात-ए-ज़िंदगी की रोशनी में ही समझ सकते हैं। इंशा-(अल्लाह) इस सही उसूल तफ़्सीर को मद्द-ए-नज़र रखकर हम मोअतरज़ीन पर ये साबित कर देंगे कि जो नतीजा वो इस आया शरीफा से अख़ज़ करते हैं वो सरासर ग़लत है।

कीं राह कि तू मेर्वी बतुरकस्तान अस्त

(2)

ये अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि ये औरत अहले-यहूद से ना थी। मुक़द्दस मत्ती इस को “कनआनी औरत” कहता है। मुक़द्दस मर्क़ुस कहता है कि “ये औरत यूनानी और क़ौम की सूर फ़ीनीकी थी।” (मर्क़ुस 7:26) “कनआन” और “सूर फ़ीनीका” एक ही सूबा के दो नाम थे, जिस तरह इंग्लिस्तान को भी “इंगलैंड” और कभी “बर्तानिया” कहा जाता है। इस क़ौम के लोग मुल्क कनआन के असली बाशिंदे थे, जिसकी निस्बत अहले-यहूद को हुक्म हुआ था कि उनको सफ़ा हस्ती से नेस्त व नाबूद (ख़त्म) कर दिया जाये। (इस्तिस्ना 31:3 ता 5 वग़ैरह) इस बात से नाज़रीन पर वाज़ेह हो गया होगा कि यहूदी क़ौम और इस औरत की क़ौम में हद दर्जे की बाहमी मुख़ासमत (दुश्मनी और मुनाफ़िरत, नफ़रत, घिन) थी। लेकिन आयत ज़ेर-ए-बहस से ज़ाहिर है कि मुनज्जी-आलमीन (मसीह नजात-दहिंदा) का मुहब्बत भरा दिल इस नफ़रत और तास्सुब से कुल्लियतन (कुल्ली तौर पर, मुकम्मल तौर पर) पाक था और कलिमतुल्लाह ने इस क़ौम की दुख्तर को और दीगर अफ़राद को शिफ़ा बख़्श कर इस हक़ीक़त पर मुहर-ए-सदाक़त लगा दी।

(3)

“ये औरत जिसका नाम रिवायत के मुताबिक़ जस्टा (Justa) था और इस की दुख़तर (बेटी) जिसका नाम रिवायत के मुताबिक़ बर्नेस (Bernice) था, ना सिर्फ ग़ैर-क़ौम में से थी बल्कि वो “यूनानी” थी और यूनानी मज़्हब रखती थी। वो देवी देवताओं की परस्तार थी। चुनान्चे पुराने शामी तर्जुमे की क़िरात है “वो औरत बुत-परस्त थी।” (मर्क़ुस 7:26) इस इलाक़े में एक बुत जिसका नाम “सूर” था पूजा जाता था। जिसकी वजह से इलाक़े का नाम भी सूर पड़ गया था।”

लेकिन ये बुत-परस्त औरत एक यहूदी “इब्ने दाऊद” पर भरोसा रख कर आई। पस सय्यदना मसीह ने उस के ईमान की तारीफ़ करके फ़रमाया “तेरा बड़ा ही ईमान है।” (मत्ती 15:28) जब हम उस के ईमान की तरफ़ नज़र करते हैं तो हम मुतअज्जिब हो जाते हैं। क्योंकि ये औरत उस क़ौम में से थी जो अहले-यहूद के साथ अदावत और नफ़रत रखती थी। लेकिन ताहम वो यहूदी यसूअ नासरी से मदद की ख़्वाहां हुई। आँख़ुदावंद इस दफ़ाअ अलैहदगी, उज़लत और गोशा-नशीनी की ख़ातिर इस इलाक़े में तशरीफ़ ले गए थे। (मर्क़ुस 7:24) लेकिन जूंही उस औरत ने आपकी आमद की ख़बर सुनी वो भागी आई और आपके मुबारक क़दमों पर गिर पड़ी और उस ने चिल्ला कर कहा, “ऐ ख़ुदावंद इब्ने दाऊद मुझ पर रहम कर” उस की हाजतमंदी ने उस के दिल से क़ौमी तास्सुब बुग़्ज़ और इनाद को दूर कर दिया और वो अपनी दुश्मन क़ौम यहूद के मसीह मौऊद के पास दरख़्वास्त करने पर इसरार करती है। उस का ईमान है कि गोया इब्ने दाऊद मसीह मौऊद क़ौम का यहूदी है, ताहम वो दीगर यहूद की तरह उस का दुश्मन नहीं है। वो ज़रूर उस की बेटी को शिफ़ा अता करेगा। माँ की ममता उस को मज्बूर करती है कि यहूदी मसीह मौऊद के पीछे-पीछे चिल्लाती जाये। सय्यदना मसीह के शागिर्द इस इनाद, नफ़रत और तास्सुब से ख़ाली ना थे। उन्होंने उस को ख़ुदावंद तक पहुंचने में कोई दिलेरी ना दी थी और वो तंग आकर ख़ुदावंद से दरख़्वास्त करते हैं कि “उसे रुख़्सत कर दे, क्योंकि हमारे पीछे चलाती है।”

(4)

हमको ये बात फ़रामोश नहीं करनी चाहिए कि सही उसूल तफ़्सीर के मुताबिक़ जिसका ज़िक्र फ़स्ल अव्वल में किया गया है, इस आया शरीफा की तफ़्सीर करते वक़्त हमको मौक़ा और महल और इन्जीली इबारत के सबाक को ज़रूर मद्द-ए-नज़र रखना चाहिए। इस मौक़े पर सय्यदना मसीह की गुफ़्तगु का मक़्सद हरगिज़ ये नहीं था कि आप कनआनी औरत से अपनी ज़िंदगी के नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) का ज़िक्र करें। सय्यदना मसीह और इस औरत के दर्मियान सय्यदना मसीह के मिशन के मतमाअ नज़र पर बह्स और मुकालमा नहीं हो रहा था। अगर बह्स का मौज़ू सय्यदना मसीह के मिशन का मक़्सद होता और कोई शख़्स निकुदीमस की तरह आपके पास आता और ये दर्याफ़्त करता कि, क्या आपका पैग़ाम सिर्फ़ क़ौम यहूद तक ही महदूद है या आप ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमो) को नजात देने के लिए भी दुनिया में आए हैं और कलिमतुल्लाह (मसीह) जवाब में अपने नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) की तशरीह व तु तोज़िया करके फ़रमाते कि मैं इस्राईल की खोई हुई भेड़ों के सिवा किसी और के पास नहीं भेजा गया और आप अपने प्रोग्राम, पैग़ाम, तर्ज़-ए-अमल, वग़ैरह को इस जवाब की ताईद में पेश फ़रमाते तो मोअतरिज़ की तावील हक़-बजानिब होती। लेकिन इस मौक़े पर सवाल जो दर्मियान में था, वो आँख़ुदावंद की ज़िंदगी के नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) और आपके मिशन के असली मक़्सद से मुताल्लिक़ नहीं था। बल्कि उस औरत की लड़की की बीमारी और शिफ़ा याबी का सवाल था। पस सय्यदना मसीह का जवाब लड़की की शिफ़ायाबी के मुताल्लिक़ था और आपके मिशन के नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) से इस का कुछ वास्ता ना था। ये याद रहे कि ज़ेर-ए-बहस फ़िक़्रह औरत से नहीं बल्कि शागिर्दों से कहा गया था। पस सही उसूल तफ़्सीर के मुताबिक़ लाज़िम है कि हम ख़ुदावंद के जवाब को जो आपने औरत से नहीं, बल्कि शागिर्दों से मुख़ातब हो कर फ़रमाया था, इस के मौक़े और महल के मुताबिक़ समझने की कोशिश करें और इस की तावील ख़ारिजी उमूर की रोशनी में ना करें। इंजीली इबारत का सियाक़ (मफ्हुम) साफ़ बतलाता है कि इस मौक़े और महल में ग़ैर-अक़्वाम की रुहानी नजात का सवाल एक ऐसा अम्र है, जो ख़ारिज-अज़-बहस है। पस सही तावील में हम ख़ारिज अज़ बह्स उमूर को ना दर्मियान में ला सकते हैं और ना इनकी रोशनी में इस आया शरीफा की तफ़्सीर कर सकते हैं। ये एक मज़हकाख़ेज़ अम्र होगा कि औरत तो कहे कि, ऐ ख़ुदावंद मेरी लड़की को शिफ़ा अता कर और ख़ुदावंद जवाब में क़ौम यहूद की रुहानी हालत-ए-ज़ार पर बह्स करें। ये ऐसा ही है जैसा एक बुत-परस्त हिंदू किसी मवह्हिद मुसलमान तबीब के पास अपनी लड़की के ईलाज का सवाल करे और तबीब उस के जवाब में बर्गशता मुसलमानों की ख़स्ता-हाली का रोना रोए और उनकी दाइमी रुहानी नजात पर बह्स करे। इंजीली इबारत का सियाक़ हमको बतलाता है कि कनआनी औरत ने एक शिफ़ा दहिंदा की ख़बर सुनी और वो उस के क़दमों में आकर इल्तिजा करने लगी कि मेरी लड़की को शिफ़ा बख़्श। इस सवाल का जवाब सिर्फ एक ही हो सकता था यानी या इस्बात में या नफ़ी में। ख़ुदावंद ने उस की इल्तिजा को क़ुबूल फ़रमाया और लड़की को शिफ़ा अता की।

(5)

पस इंजीली इबारत के सियाक़ पर नज़र करके हम कह सकते हैं कि दर-हक़ीक़त इस कनआनी औरत की चीख़ व पुकार ने ख़ुदावंद (मसीह) के दिल में ख़यालात का सिलसिला शुरू कर दिया। आप अपने दिल ही दिल में एक तरफ़ तो ग़म-गश्ता यहूद की परागंदा हालत-ए-ज़ार पर ग़ौर फ़र्मा रहे थे और दूसरी तरफ़ बुत-परस्त ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) की ख़स्ता हालत की सदा उस औरत के नाले (गम के साथ चिल्लाने) की सूरत में आपके कानों में आ रही थी। इंजीली इबारत से ऐसा मालूम होता है कि सय्यदना मसीह अपने हवारइन के आगे-आगे आहिस्ता-आहिस्ता चल रहे थे और अपने ख़यालात में ग़र्क़ थे और यह औरत शागिर्दों के पीछे चिल्लाती आ रही थी। कलिमतुल्लाह (मसीह) चलते चलते इस गहरी सोच में पड़े हुए थे और अपने ख़यालात में इस क़द्र मुनहमिक (किसी काम में बहुत मसरूफ़) हो गए थे कि आप ने “इस औरत को कुछ जवाब ना दिया” एक तरफ़ तो आप अपने दिल में बनी-इस्राईल के उन गुमराह लोगों का ख़्याल करके उन पर तरस खा रहे थे जो “उन भेड़ों की मानिंद जिनका कोई चरवाहा ना हो ख़स्ता-हाल और परागंदा थे।” (मत्ती 9:36) उनकी तरफ़ नज़र करके कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपने हवारियों (शागिर्दों) को चंद रोज़ पहले फ़रमाया था कि, “फ़सल तो बहुत है लेकिन मज़दूर थोड़े हैं। पस फ़स्ल के मालिक की मिन्नत करो कि वो अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूर भेज दे।” (मत्ती 9:37) दूसरी तरफ़ कलिमतुल्लाह (मसीह) के कान में एक बुत-परस्त औरत की चीख़ पुकार आ रही थी कि “ऐ ख़ुदावंद इब्ने दाऊद मुझ पर रहम कर।” इस चीख़ पुकार ने आपके ज़हन में उन तमाम बुत-परस्त ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) का तसव्वुर बांध दिया जो नजात और “रहम” की तलबगार थीं। मुनज्जी-आलमीन (दुनिया के नजात देनें वाले मसीह) क़ौम बनी-इस्राईल की खोई हुई भेड़ों की तरफ़ नज़र करते हैं तो उन को परागंदा और ख़स्ता-हाल देखकर कहते हैं कि “फ़सल बहुत है।” ग़ैर-यहूद बुत-परस्त अक़्वाम की जानिब नज़र करते हैं तो उनकी सनम-परस्ती और परागंदगी को मुलाहिज़ा करके कहते हैं कि “फ़सल बहुत है” काम हर तरफ़ है। मैं अकेला हूँ, मेरी ज़िंदगी के सिर्फ चंद माह बाक़ी हैं कहाँ-कहाँ काम करूँ। अहले-यहूद गो परागंदा ख़स्ता-हाल और ग़म-गश्ता हैं ताहम वो बुत-परस्त ग़ैर-यहूद की निस्बत ख़ुदा का इल्म ज़्यादा रखते हैं और बुत-परस्तों से ज़्यादा तैयार हैं कि मेरे पैग़ाम को क़ुबूल कर लें। बेहतर यही है कि मैं अपनी ज़िंदगी के चंद माह जो बाक़ी रह गए हैं क़ौम यहूद की खोई भेड़ों में ख़िदमत करके काटूँ और अपने बाक़ीमांदा क़ीमती वक़्त और कोशिश को ग़ैर-यहूद बुत-परस्तों में सर्फ ना करूँ और अहले-यहूद के गुमराह और मुर्तद गिरोहों की तरफ़ जो ख़ुदा से बर्गशता हो गए हैं खासतौर पर मुतवज्जोह हों। पस आलम इन्हिमाक (मस्रूफ़ियत) में कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपने ख़यालात का इज़्हार करके अपने शागिर्दों को मुख़ातब करके अपनी ज़बान मुबारक से फ़रमाया “मैं बनी-इस्राईल की बर्गशता गिरोह के सिवा और किसी के पास नहीं भेजा गया।” यूनानी औरत की आँखें आपके मुबारक चेहरे पर लगी हुई थीं। उसने आपके लबों की जुंबिश को देखा और इस फ़िक़्रह को सुन लिया। उस का ईमान ज़बरदस्त था, वो आगे बढ़ी और उसने कहा, “ऐ ख़ुदावंद मेरी मदद कर।” इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने अपने ख़यालात का जिनको वो सोच रहे थे इज़्हार करके फ़रमाया कि “पहले लड़कों को सैर होने दे।” मेरा अव्वलीन फ़र्ज़ ये है कि मैं पहले बनी-इस्राईल के मुर्तद लोगों को उनके ख़ुदा के पास फेर लाऊँ, बाद में ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमें) भी आ जाऐंगी लड़कों की रोटी लेकर कुत्तों को डाल देनी अच्छा नहीं।” मैं पहले अपना पैग़ाम अहले-यहूद को सुना लूँ। ये वाजिब नहीं कि अब अपने बाक़ीमांदा वक़्त और कोशिश को अहले-यहूद की तरफ़ से जो मेरा पैग़ाम समझ सकते हैं, हटा कर ग़ैर-यहूद की तरफ़ लगाऊँ जो हक़ीक़ी ख़ुदा की हस्ती और इल्म से बे-बहरा और नबुव्वत और किताब से नाआशना हैं। औरत ने जवाब दिया “हाँ ऐ ख़ुदावंद लेकिन कुत्ते भी मेज़ के तले लड़कों की रोटी के टुकड़ों में से खाते हैं।” यानी ग़ैर-यहूद बुत-परस्तों में से मेरे जैसे जो इब्ने दाऊद और मसीह मौऊद से रहम और मदद के मुल्तजी हैं वो भी अहले-यहूद के ख़यालात से मुतास्सिर हो कर ही तेरे पास आते हैं। इस पर मुनज्जी-आलम (मसीह) ने फ़रमाया, “ऐ औरत तेरा बड़ा ही ईमान है, जैसा चाहती है तेरे लिए वैसा ही हो और उस की बेटी ने उसी घड़ी शिफ़ा पाई।” (मत्ती 15:28)

(6)

मज़्कूर बाला आयात में दो अल्फ़ाज़ खासतौर पर क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं यानी “लड़के” और “कतोरे” (कुत्ते) बाअज़ ख़्याल करते हैं कि लफ़्ज़ “कतोरे” (कुत्ते) से हिक़ारत टपकती है। लेकिन सही उसूल तफ़्सीर के मुताबिक़ हमें ज़बान के मुहावरे का लिहाज़ तावील करते वक़्त रखना चाहिए। अगर हम इस उसूल को मद्द-ए-नज़र रखें तो हम देखेंगे कि,

ख़ुदावंद (मसीह) ने जो अल्फ़ाज़ “लड़के” और “कतोरे” (कुत्ते) अपनी ज़बान मुबारक से फ़रमाए तो आपने इस वक़्त दर-हक़ीक़त ख़ास उन अल्फ़ाज़ को इस्तिमाल किया जो बनी-इस्राईल और ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमें) ख़ुद अपने-अपने बच्चों के लिए प्यार के तौर पर इस्तिमाल करते थे। बनी-इस्राईल अपने बच्चों को प्यार के तौर पर “लड़का” बुलाते थे। (मत्ती 8:12 वग़ैरह) लेकिन ग़ैर-अक़्वाम अपने बच्चों को “कतूरा” (कुत्ता) बुलाया करते थे।”

हमारे अपने पंजाब देस के बाअज़ अज़ला और पहाड़ी मुक़ामात में भी वालदैन अपने बच्चों को प्यार के तौर पर “कतूरा”, (कुत्ता) डबो वग़ैरह बुलाते हैं जिस तरह अंग्रेज़ अपने बच्चों को “कडीज़” यानी “लेले” पुकारते हैं।

जाये ग़ौर है कि जिस यूनानी लफ़्ज़ का उर्दू तर्जुमा “कुत्ते” किया गया है और हम ने “कतोरे” किया है। इन्जील शरीफ़ में ये लफ़्ज़ किसी और जगह वारिद नहीं हुआ वहां लफ़्ज़ “कुत्ते” के लिए दूसरा लफ़्ज़ इस्तिमाल किया गया है। पस सही उसूल-ए-तफ़्सीर के मुताबिक़ जब आँख़ुदावंद (मसीह) ने लफ़्ज़ कतूरा (कुत्ता) इस्तिमाल फ़रमाया, तो किसी हिक़ारत या नफ़रत की वजह से नहीं किया। बल्कि एक ऐसा लफ़्ज़ इस्तिमाल किया जिसको ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमें) ख़ुद प्यार से अपने बच्चों के लिए इस्तिमाल किया करती थीं। इस लफ़्ज़ से आपका माअनी-उल-ज़मीर भी अदा हो गया। औरत को मादरी मुहब्बत और माँ की ममता ने अक़्ल दी और उस ने भी इन दोनों अल्फ़ाज़ के ज़ू मअनी मुतालिब से फ़ायदा उठा कर जवाब दिया कि, हाँ “ऐ ख़ुदावंद मेरे छोटे मुन्ने कतोरे (कुत्ते) की भी मदद कर और उस को शिफ़ा बख़्श।”

सुख़न-शिनास नई दल्बरा, ख़ताएं जासत

(7)

जिस आया शरीफा की बिना पर मोअतरज़ीन आँख़ुदावंद के मिशन को अहले-यहूद तक महदूद ख़्याल करते हैं वही आयत दर-हक़ीक़त उनके एतराज़ के रद्द में पेश की जा सकती है। मुक़द्दस मर्क़ुस हमको बतलाता है कि, ख़ुदावंद (मसीह) ने औरत से फ़रमाया “पहले लड़कों को सैर होने दे।” (मर्कूस 7:27) लफ़्ज़ “पहले” से साफ़ ज़ाहिर है कि मुनज्जी-आलमीन (मसीह) की नज़र कोताह ना थी और ना आप अपने दायरे रिसालत को महदूद ख़्याल फ़रमाते थे, बल्कि आप पहले अहले-यहूद पर इतमाम-ए-हुज्जत (तक्मील तकरार व दलील) करनी चाहते थे और ग़ैर-यहूद को अपने नजात बख़्श पैग़ाम से महरूम रखना नहीं चाहते थे।

(8)

अगर हम इस आया शरीफा की वो क़िरात क़ुबूल करें जो पुराने शामी तर्जुमे में मौजूद है तो इस एतराज़ की सिरे से गुंजाइश ही नहीं रहती। वो क़िरात ये है :-

“उसने जवाब में उनको (शागिर्दों) कहा, मैं नहीं भेजा गया मगर उन भेड़ों की तरफ़ जो इस्राईल के घराने से भटकी हुई हैं।” (मत्ती 15:24)

इस क़िरात के मुवाफ़िक़ आयत ज़ेर-ए-बहस का ये मतलब हुआ कि ख़ुदा ने मुझे उन तमाम अक़्वाम की ख़ातिर भेजा है जो इस्राईल के घराने में शामिल नहीं हैं। यानी ख़ुदा ने मुझको ग़ैर-यहूद की जानिब भेजा है। ये तर्जुमा दूसरी सदी में शामी ज़बान में किया गया था। मुल्क-ए-शाम अर्ज़-ए-मुक़द्दस कनआन के साथ मुल्हिक़ है और शामी ज़बान अरामी से मुताल्लिक़ है, जो हमारे मुबारक ख़ुदावंद की ज़बान थी। अह्दे-जदीद की कुतुब का सबसे पहले इसी शामी ज़बान में तर्जुमा हुआ। पस मुल्क और ज़बान के ताल्लुक़ और तर्जुमे की क़दामत के लिहाज़ से बहुत मुम्किन है कि यही क़िरात सही भी हो। यही क़िरात पशीतो तर्जुमा (پشیتو ترجمہ आम और सादा) की है। जो शामी कलीसिया का इसी तरह मुस्तनद तर्जुमा है, जिस तरह विलगेट रूमी कलीसिया का मुस्तनद तर्जुमा है।

अक़्वाम-ए-आलम की नजात और अहले-यहूद का नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद)

मोअतरज़ीन ये सवाल कर सकते हैं, क्यों नजात के मुआमला में अहले-यहूद को ग़ैर-यहूद पर तर्जीह दी गई है? अगर इब्ने-अल्लाह (मसीह) यहूद और ग़ैर-यहूद दोनों की ख़ातिर इस जहान में आए थे, तो आप क्यों अहले-यहूद को अपना पैग़ाम पहले पहुंचाना चाहते थे? (मर्क़ुस 7:27) नजात के मुआमले में अहले-यहूद को क्यों मुक़द्दम (पहले) समझा गया?

सही उसूल तफ़्सीर के मुताबिक़ लाज़िम है कि हम किसी क़ाइल के क़ौल को उस के दीगर अक़्वाल की रोशनी में समझें। चुनान्चे मौलाना रुम कहे गए हैं कि :-

मअनी क़ुरआँ ज़ क़ुरआँ पुरुस व बस

इसी तरह अगर हम कलिमतुल्लाह (मसीह) के किसी क़ौल की तफ़्सीर करना चाहते हैं तो लाज़िम है कि हम इस क़ौल की तावील ख़ुदावंद के दीगर अक़्वाल की रोशनी में करें। इस सवाल का जवाब कि नजात के मुआमले में अहले-यहूद को क्यों तक़दीम (तर्जीह) हासिल है। हमको ख़ुदावंद के दीगर अक़्वाल में मिलता है। एक दफ़ाअ आँख़ुदावंद (मसीह) ने सामरी औरत से असना-ए-गुफ़्तगु में फ़रमाया था कि, “नजात यहूदीयों में से है।” (यूहन्ना 4:22) आँख़ुदावंद (मसीह) को मालूम था कि नजात का इल्म ख़ुदा ने अहले-यहूद में वदीअत (अमानत, सुपुर्दगी) फ़रमाया है, पस ख़ुदावंद ने अपनी हयात में अपने काम और पैग़ाम को एक हद तक अहले-यहूद में महदूद रखा। अहले-यहूद को दीगर अक़्वाम (क़ौमों) की निस्बत ख़ुदा-ए-वाहिद और बरहक़ का ज़्यादा इल्म था। हमने अपनी “किताब नूर-उल-हुदा” में बतलाया है कि ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमें) सनम-परस्ती (बुत-परस्ती) और शिर्क में और रसूम बद में मुब्तला थीं। वो बुत-कदों में लाखों देवताओं के आगे सर-निगूँ होती थीं, लेकिन अहले-यहूद सिर्फ एक वाहिद ख़ुदा की परस्तिश (इबादत) करते थे। पस मुनज्जी-ए-कौनैन (मसीह) ने अहले-यहूद की ग़म-गश्ता गिरोहों को जगाने की और उन पर ख़ुदा का इल्म ज़ाहिर करने की सर तोड़ कोशिश की ताकि पहले वो ख़ुद कलाम सुनें और फिर दीगर अक़्वाम (क़ौमों) तक इस ख़ुशख़बरी के पैग़ाम को पहुंचाने वाले बनें। मुनज्जी-आलमीन को इस बात का इल्म था कि दुनिया पर आपकी उम्र के दिन थोड़े हैं लेकिन आपको तारीकी हर तरफ़ छाई हुई नज़र आती थी। इस तारीकी में आपको एक शमा टिमटिमाती नज़र आती थी, यानी यहूदी क़ौम पस आपने दुनिया की तारीकी को दूर करने की ग़र्ज़ से इस एक टिमटिमाती शमा की तरफ़ ख़ास तवज्जोह की। अहले-यहूद ख़ुदा की पहचान में बुत-परस्त फ़िलासफ़ा से भी गोया सबक़त ले गए हुए थे। जब हम यहूदी ताअलीम का यूनानी फ़ल्सफ़ा और अख़लाक़ीयात से मुक़ाबला करते हैं तो हम पर वाज़ेह हो जाता है कि सुक़रात, अफ़लातून और अरस्तू जैसे अज़ीमुश्शान फिलासफर इस ताअलीम का मुक़ाबला नहीं कर सकते। चुनान्चे इंग्लिस्तान का मशहूर फिलासफर मरहूम डाक्टर रीशडाल इस मौज़ू पर मुफ़स्सिल तबस्सरा करके इस नतीजे पर पहुंचता है कि :-

“मज़्हब और अख़्लाक़ के मुआमले में अरस्तू के हम-अस्र यूनानी अहले-यहूद के मुक़ाबले में कल के बच्चे थे।”

पस जब ख़ुदावंद ने अपना काम और पैग़ाम एक हद तक अहले-यहूद में महदूद रखा तो इस की वजह आपकी तंग-नज़री और कोताहबीनी ना थी, बल्कि इस की अस्ल वजह आपकी मुआमला-फहमी, दूर अंदेशी, और हिक्मते अमली थी, जिसके मुताबिक़ आपने अपने लाएहा-ए-अमल को ढाला था।

अगर मोअतरिज़ हमसे ये सवाल करे कि आँख़ुदावंद ने क्यों फ़रमाया था कि “नजात यहूदीयों में से है?” क्या कोई और क़ौम नजात नहीं पाएगी? तो हम इस का जवाब ये देंगे कि, सय्यदना मसीह ने ये नहीं फ़रमाया था कि नजात यहूदीयों तक ही महदूद है। अगर आपने ये फ़रमाया होता तो मोअतरिज़ का एतराज़ दुरुस्त हो सकता था। लेकिन आपने फ़रमाया था कि “नजात यहूदीयों में से है।” यानी नजात का इल्म यहूद में से निकल कर दुनिया में फैलेगा। अहले-यहूद दुनिया में नजात फैलाने का वसीला हैं। ख़ुदा ने बनी-इस्राईल को इसलिए मुंतख़ब नहीं किया था कि सिर्फ वही नजात पाएं बल्कि खुदा ने यहूद के सपुर्द ये ख़िदमत की थी कि वो नजात का इल्म दुनिया की अक़्वाम (क़ौमों) में फैलाईं। इस रिसाले की फ़स्ल दोम में हम ये साबित कर आए हैं कि ख़ुदा ने अपनी तौहीद के इल्म को फैलाने के लिए बनी-इस्राईल को ख़ादिम के तौर पर चुना था, ना कि मंज़ूर-ए-नज़र के तौर पर चुना था। उनकी सहफ़ अम्बिया (नबियों के सहिफे) इस अम्र की शाहिद (गवाह) हैं कि “उम्मत इस्राईल ग़ैर-क़ौमों को रोशनी देने वाला नूर” मुक़र्रर की गई थी। (लूक़ा 2:32) मसलन, “ऐ बनी-इस्राईल तुम मेरे गवाह हो और मेरा ख़ादिम भी जिसे मैंने बर्गुज़ीदा किया। मैं ही ख़ुदा हूँ सो तुम मेरे गवाह होगे। मैं तुझे अक़्वाम (क़ौमों) के लिए नूर करूँगा और ज़मीन की इंतिहा तक तुम मेरी नजात के पैग़ाम्बर होगे।” ग़र्ज़ ये कि जिस तरह जर्मन नक़्क़ाद वेलहाससेन Wellhasusen) कहता है कि :-

“बनी-इस्राईल का ये अक़ीदा था कि, ला-इलाहा इल्लल्लाह इस्राईल रसूलुल्लाह। (यानी यहोवा ख़ुदा के सिवा कोई ख़ुदा नहीं और इस्राइल उसका रसूल है।) अहले-यहूद की रोज़ाना दुआ में ये फ़िक़्रह है।”

“ऐ ख़ुदावंद हमारे ख़ुदा कुल कायनात के बादशाह, तू मुबारक है कि तूने हमको अक़्वाम आलम (दुनिया की क़ौमों) में से चुन लिया है।”

(2)

अगर कोई ये सवाल करे कि क्यों ख़ुदा ने ख़ास क़ौम यहूद को दुनिया में नजात का पैग़ाम देने के लिए मुंतख़ब किया और दूसरी क़ौमों को इस के ज़रीये अपने इल्म का नूर बख़्शा? तो इस का जवाब ये है कि :-

हर किसे राबहर कार्य साख़तन्द

ہرکسے رابہر کارے ساختند

ईलाही इंतिज़ाम ही ऐसा है कि क़ुदरत ने मुख़्तलिफ़ नेअमतें मुख़्तलिफ़ अफ़राद और अक़्वाम (क़ौमों) को अता फ़रमाई हैं और यह इंतिज़ाम हमको दुनिया की छोटी बड़ी शैय में दिखाई देता है। मसलन हमारे बदन के मुख़्तलिफ़ आज़ा के सपुर्द मुख़्तलिफ़ काम किए गए हैं और तमाम आज़ा मिलकर बदन का सारा काम सर-अंजाम देते हैं। ख़ुदा ने हाथ के सपुर्द एक काम किया है। आँख को दूसरा काम दिया है। कान को तीसरा अला हाज़ा-उल-क़यास (इसी तरह) हर एक उज़ू के सपुर्द एक ख़ास काम है जो सिर्फ वही उज़ू बेहतरीन तौर पर कर सकता है और कोई दूसरा उज़ू इस ख़ास काम को सर-अंजाम नहीं दे सकता। इसी तरह इन्सान की तमद्दुनी ज़िंदगी में एक उस्ताद है तो दूसरा लोहार है। एक सुनारर है तो दूसरा तबीब (डाक्टर, हकिम) है। अला हाज़ा-उल-क़यास (इसी तरह सोचते जाए) हर शख़्स के सपुर्द क़ुदरत ने एक ख़ास काम किया है और इस ख़ास काम करने के वास्ते उस को पैदा किया है। वो काम सिर्फ वही बेहतरीन तौर पर कर सकता है और दूसरा शख़्स इस काम को वैसी ख़ुश-उस्लूबी के साथ अंजाम नहीं दे सकता। लेकिन तमाम अफ़राद मिलकर सोसाइटी के काम को चला रहे हैं। इसी तरह क़ौमों के सपुर्द क़ुदरत ने मुख़्तलिफ़ नेअमतें की हैं। अगर हिन्दुस्तान को फ़ल्सफ़ा अता किया है तो रुम को क़ानून साज़ी की नेअमत अता की है। अगर जर्मनी को बाल की खाल निकालने की नेअमत अता की है, तो इंग्लिस्तान को तिजारत करने की नेअमत अता की है। अगर यूनान को इल्म व फ़ज़ल से माला-माल किया है तो यहूद को ख़ुदा ने अपनी नजात का इल्म बख़्शा है। ग़र्ज़ ये कि क़ुदरत ने हर क़ौम और मुल्क को मुख़्तलिफ़ काम सपुर्द किए हैं और तमाम अक़्वाम (क़ौमें) और ममालिक मिलकर निज़ाम-ए-आलम को चला रहे हैं। जिस तरह क़ुदरत ने यूनान के ज़रीये तमाम दुनिया में इल्म और फ़ल्सफ़ा की इशाअत की है और उस के सपुर्द ये ख़िदमत की कि दुनिया-भर में इल्म और फ़ल्सफ़ा को फैलाएं। इसी तरह रुम के सपुर्द ये ख़िदमत की कि दुनिया को क़ानून साज़ी का इल्म सिखाए। इसी तरह क़ुदरत ने अहले-यहूद के सपुर्द ये ख़िदमत की कि दुनिया में ख़ुदा-ए-वाहिद की हस्ती का और उस की ज़ात व सिफ़ात और नजात का इल्म फैलाएं जिस तरह ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि तमाम दुनिया इल्म और फ़ल्सफ़ा के लिए यूनान की ममनून है और क़ानून साज़ी के लिए रुम की मर्हूने मिन्नत है। इसी तरह ये भी एक हक़ीक़त है कि कुल दुनिया ख़ुदा-ए-वाहिद बरहक़ और लाज़वाल के इल्म और उस की नजात के नूर के लिए अहले-यहूद की शर्मिंदा एहसान है।

(3)

जब हम अहले-यहूद की तारीख़ पर निगाह करते हैं तो हम देखते हैं कि इस क़ौम में जिसकी इब्तिदा सहरा से हुई और दीगर शामी अक़्वाम मसलन इस़्माईली, अदूमी, मूआबी, अम्मोनी वग़ैरह अक़्वाम (क़ौमों) में (जिन के साथ इब्तिदा में यहूदी क़ौम का ख़ूनी रिश्ता था) ज़मीन व आसमान का फ़र्क़ है। दीगर अक़्वाम जिस सतह पर पहले थीं वहीं रहीं और उन्हों ने इस से आगे एक क़दम भी ना बढ़ाया। बल्कि उनको ऐसा ज़वाल आया कि दौर-ए-हाज़रा में कोई इन अक़्वाम के नाम से भी वाक़िफ़ नहीं। लेकिन क़ौम बनी-इस्राईल ने सहरा-ए-फ़िज़ा से निकल कर हैरत-अंगेज़ तरक़्क़ी की। वो मिस्र में गए लेकिन मिस्र की ज़बरदस्त तहज़ीब उनको जज़्ब ना कर सकी। हालाँकि वो इस मुल्क में गु़लामी की हालत में रहे। जब उन्होंने कनआन में बदोबाश इख़्तियार की तो वो अपने इर्द-गिर्द की कनआनी, फ़लस्ती और दीगर बुत-परस्त हमसाया अक़्वाम की मुशरिकाना राह पर ना चले। माबाअ्द के ज़माने में इस क़ौम का साबिक़ा अराम, असीरिया, बाबुल, मिस्र और ईरान व युनान व रोम के साथ पड़ा और उनमें से बाअज़ ममालिक इस पर हुक्मरान भी रहे, लेकिन उनमें से कोई भी इस्राईल की हस्ती को मिटा ना सके। एक ज़माने में इस का साबिक़ा फ़ीनेश्या (Phoenicia) के साथ पड़ा जो ऐसी ज़बरदस्त बहरी (समुंद्री) ताक़त थी कि दुनिया को अपने क़ब्ज़े में लाने के लिए सल्तनत-ए-रूम का मुक़ाबला करती थी। लेकिन क़ौम यहूद के सामने उस की एक ना चली। बहीरा मुतवस्सित के मशरिक़ी साहिल के इर्द-गिर्द के ममालिक में सिकंदर-ए-आज़म की फ़ुतूहात की वजह से यूनानी तहज़ीब हुक्मरान रही और जब रुम ने इन ममालिक को फ़त्ह क्या उस ज़माने में भी यूनानी इल्म-ए-अदब और तहज़ीब का दौर दौरा था और साथ ही रूमी तहज़ीब का सिक्का भी जम गया। इस यूनानी रूमी तहज़ीब के ग़लबे ने बहीरा मुतवस्सित के ममालिक की तहज़ीब का ख़ातिमा कर दिया और मुआमला यहां तक पहुंचा कि मिस्र की ज़बरदस्त तहज़ीब के पांव भी उखड़ गए और वो भी ताब मुक़ाबला ना ला सकी, लेकिन ये यूनानी रूमी तहज़ीब अपनी तमाम ताक़त के बावजूद क़ौम इस्राईल के मज़्हब की बुलंदी और रिफ़अत को क़ुबूल किए बग़ैर कोई चारा ना देखा। बनी-इस्राईल ने इब्तिदा से लेकर आख़िर तक अपनी अनानीयत (ख़ुदी, ग़ुरूर, ख़ुद-सताई) को हाथ से ना खोया। रुए-ज़मीन की तारीख़ में क़ौम इस्राईल की जुदागाना हस्ती एक ऐसा मोअजिज़ा है जिससे किसी मुअर्रिख़ को मजाल इन्कार नहीं। ये क़ौम फ़ख़्रिया कह सकती है कि :-

यूनान व मिस्र व रोम सब मिट गए जहां से

मिटता नहीं है लेकिन नामोनिशां हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

सदीयों रहा है दुश्मन दौर-ए-फ़लक हमारा

हमको ये फ़रामोश नहीं करना चाहिए कि फ़ी ज़माना जब हम यूनान और रोम की तहज़ीब का ज़िक्र करते हैं तो वो यूनान और रोम जिनकी तहज़ीब का ज़िक्र किया जाता है, सफ़ा हस्ती से हमेशा के लिए मफ़्क़ूद (गायब) हो चुके हैं। गोया ममालिक आजकल दुनिया के नफ़िशा पर मौजूद हैं और यूनान में बस्ते हैं और रोम एक बड़ी ताक़त है, लेकिन दौर-ए-हाज़रा के यूनान और रोम का क़दीम यूनान और रोम की तहज़ीब से रत्ती भर ताल्लुक़ नहीं। वो तहज़ीब मिट चुकी है और हर्फ़-ए-ग़लत की तरह महव (गायब) हो चुकी है। लेकिन बनी-इस्राईल का ये हाल नहीं, उनकी तहज़ीब मुर्दा नहीं। अगरचे वो अर्ज़-ए-मुक़द्दस में मन-हैस-उल-क़ौम (काहिनों की ममलकत من حیث القوم) नहीं बस्ते।

आख़िर कोई वजह तो ज़रूर है कि ये क़ौम जिसकी सियासी और दुनियावी नुक़्ता निगाह से कुछ हैसियत नहीं ज़िंदा है। इस की वजह सिवाए इस के और कुछ नहीं कि रब-उल-आलमीन ने अपनी परवरदिगारी में इस हक़ीर क़ौम को खासतौर पर चुन लिया था, ताकि अक़्वाम आलम (दुनियां की क़ौमों) को ख़ुदा का सबक़ सिखलाए। क़ौम यहूद को भी अपने मिशन का एहसास था, इसी लिए उसने अपने आपको किसी मुशरिकाना बुत-परस्त क़ौम कुफ़्फ़ार में जज़्ब होने ना दिया। उनकी तारीख़ इस पेशगोई को साबित करती है जो बलआम ने इन की निस्बत की थी कि, “ये लोग अकेले सुकूनत करेंगे और क़ौमों के दर्मियान शुमार ना किए जाऐंगे।” (गिनती 23:9) उनको बख़ूबी मालूम था कि, “ख़ुदावंद ने याक़ूब को अपने वास्ते चुन लिया और इस्राईल को अपने ख़ास घराने के वास्ते चुना।” (ज़बूर 135:4) इस इंतिख़ाब का मतलब ये नहीं था कि बनी-इस्राईल की क़ौम ख़ुदा की मंज़ूर-ए-नज़र है या वो जो चाहें सो करें ख़ुदा हर हाल में उनका मददगार होगा। बल्कि ख़ुदा ने साफ़ तौर पर उनको बतला दिया था कि इस ख़ास ताल्लुक़ की वजह से उन पर चंद एक ज़िम्मेदारियाँ आइद होती हैं, क्योंकि ये एक कानून-ए-फ़ित्रत है कि “जिसको ज़्यादा दिया जाता है, उस से ज़्यादा तलब किया जाता है।” चुनान्चे ख़ुदावंद ने हज़रत आमोस के ज़रीये उनको ख़बरदार कर दिया था और फ़रमाया था, “अक़्वाम-ए-आलम (दुनिया की क़ौमों) में से मैंने सिर्फ तुम को जाना है, इसलिए मैं तुमको तुम्हारी सारी बदकारियों के लिए सज़ा दूँगा।” (आमोस 3:2) पस इंतिख़ाब (चुनने) का मतलब ये ना था कि बनी-इस्राईल की ज़ात को फ़ायदा पहुंचे, बल्कि ख़ुदा का ये अज़ली इरादा था कि बनी-इस्राईल ख़ुदा की मार्फ़त के लिए एक तब्लीग़ी क़ौम हो। ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) के दर्मियान वो चमकने वाला नूर होता कि सय्यदना मसीह की नजात का इल्म फैलाने के लिए वो अक़्वाम आलम (दुनिया की क़ौमों) को तैयार करे। और मुनज्जी-आलमीन (मसीह) के पैग़ाम की पेशरू हो। पस बनी-इस्राईल का ये मिशन था कि ये क़ौम ख़ुदा के इल्म को क़ौमे-ए-आलम में पहुंचाने की ख़िदमत को पूरा करे और इस क़ौम को ये एहसास था कि उनकी क़ौम फ़ना नहीं हो सकती तावक़्ते के वो अपने मिशन को पूरा ना करे। (हिज़्क़ीएल 37:20 ता 28) ये एक तवारीख़ी हक़ीक़त है कि इस नुक्ता निगाह से कुल अक़्वाम आलम (दुनिया की सारी क़ौमों) में कोई दूसरी क़ौम बनी-इस्राईल की हमपल्ला (बराबरी की) नहीं हुई।

इब्तिदा ही से बनी-इस्राईल अपने ख़ुदा में वहदानीयत, क़ुद्दुसियत, पाकीज़गी और रहम की सिफ़ात के क़ाइल थे। ये सिफ़ात ना तो उनकी हमसाया अक़्वाम (क़ौमों) के माबूदों में और ना दुनिया की किसी क़ौम के माबूदों में पाई गईं। ना तो उन माबूदों के परस्तारों (इबादत गुज़ारों) ने अपने देवी-देवताओं में ये सिफ़ात पाइं और ना ये माबूद अपने परस्तारों से पाकीज़गी के तालिब हुए।

दुनिया की तमाम दीगर अक़्वाम (क़ौमों) की तारीख़ में एक ऐसा ज़माना आया, जब इनकी अख़्लाक़ी नशव व नुमा इस क़द्र तरक़्क़ी कर गई कि वो अपने देवी देवताओं और माबूदों की सिफ़ात व आदात की नुक्ता-चीनी करने लगे। मसलन कि वो चोरी या ज़िनाकारी के मुर्तक़िब थे, बल्कि ज़िनाकारी बाअज़ अक़्वाम (क़ौमों) की परस्तिश (इबादत) का हिस्सा थी। जिस तरह अहले-हुनुद के बाअज़ देवी देवताओं की परस्तिश का हिस्सा है। लेकिन क़ौम इस्राईल की तारीख़ में ऐसा वक़्त कभी ना आया। इस्राईल का ख़ुदा ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस और तमाम सिफ़ात-ए-हसना का जामा था, जो अपने परस्तारों (इबादत गुज़ारों) से पाकीज़गी का तालिब था। तारीख़ गवाह है कि ख़ुदा ने सिर्फ बनी-इस्राईल के ज़रीये अक़्वाम-ए-आलम को ये ताअलीम दी कि ख़ुदा की ज़ात ना सिर्फ हर तरह की बदी से मुनज़्ज़ह और मुबर्रा है, बल्कि वो एक ऐसी वाहिद अकबर और क़ुद्दूस हस्ती है, जिसका मतलब ये है कि “तुम पाक हो क्योंकि मैं पाक हूँ।” (अहबार 11:44)

यही वजह थी कि सय्यदना मसीह ने अहले-यहूद के दर्मियान अपनी ख़िदमत को एक हद तक महदूद रखना मुनासिब ख़्याल फ़रमाया और हमेशा अह्दे-अतीक़ की कुतुब का ही इस्तिमाल फ़रमाया। आपकी ताअलीम में अहले-यहूद की लिट्रेचर के इलावा किसी और क़ौम के इल्म-ए-अदब का ज़िक्र नहीं पाया जाता। हालाँकि अगर आप चाहते तो क़दीम यूनान के फ़लसफ़ियाना ख़यालात और ईरान व हिन्दोस्तान के मज़ाहिब की कुतुब का ज़िक्र कर सकते थे, लेकिन आपने ऐसा ना किया, क्योंकि अहले-यहूद ने क़ुदरत में मज़्हबी मिज़ाज और ईलाही रग़बत व दीअत कर रखी थी।

(4)

अहले-यहूद सामी नस्ल के थे और दुनिया के बेहतरीन अम्बिया और तमाम मज़ाहिब के अज़ीमुश्शान अश्ख़ास इसी नस्ल से पैदा हुए हैं। हज़रत इब्राहिम ख़लील-उल्लाह (अल्लाह के दोस्त) से लेकर रसूल-ए-अरबी तक जितने अम्बिया और मुस्लिहीन (सुधारक) पैदा हुए हैं, सब इसी नस्ल के थे। अहले-यहूद ने ही ख़ुदा का इल्म दुनिया के एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैला दिया। आज दुनिया के अज़ीमुश्शान मज़ाहिब ने सिर्फ यहूदीयत से ही तौहीद का इल्म पाया। मसीही कुतुब मुक़द्दसा में यहूदी कुतुब मुक़द्दसा शामिल हैं और इस्लाम की किताब क़ुरआन मजीद बबांगे दहल (नक़ारे की चोट पर) पुकार कर यहूदी कुतुब मुक़द्दसा को बनी-नूअ इन्सान के लिए हिदायत, नूर कामिल, नेअमत, रहमत, रहनुमा वग़ैरह क़रार देती है और उन को इमाम-उल-कुतब वन्नास (यानी किताबे मुक़द्दस को इन्सानों और किताबो की इमाम) बतलाती है और बानी इस्लाम और अहले इस्लाम को हिदायत करती है कि इन कुतुब मुक़द्दसा के अहकाम पर चलें।

(5)

अहले-यहूद की कुतुब मुक़द्दसा से हम को मालूम होता है कि किस तरह खुदा ने क़ौम-इस्राईल को अपना पैग़ाम तमाम दुनिया को पहुंचाने की ख़िदमत अता फ़रमाई और बनी-इस्राईल की तारीख़ से मालूम होता है कि, किस तरह ख़ुदा ने इस क़ौम की तारीख़ की मुख़्तलिफ़ मनाज़िल में इस को इस मुबारक ख़िदमत को सरअंजाम देने के लिए तैयार भी किया। पस मुनज्जी-ए-कौनैन (मसीह) ने इस क़ौम में काम किया जिसमें ख़ुदा ने ख़ास तौर पर अपना इल्म वदीअत कर रखा था और जिस के सपुर्द ये ख़िदमत की गई थी और जो इस ख़िदमत के लिए ईलाही इंतिज़ाम के मुताबिक़ तैयार भी की गई थी। आपने अपने काम और पैग़ाम को इसी क़ौम में हद तक महदूद रखा ताकि इस को मुबारक ख़िदमत के लिए ज़्यादा तैयार करें। कलिमतुल्लाह (मसीह) इस दुनिया में नूर हो कर आए और तमाम दुनिया भर की अक़्वाम (क़ौमों) में सिर्फ अहले-यहूद ही ऐसे थे जिनको ख़ुदा ने अपनी नजात का इल्म फैलाने के लिए तैयार रखा था। वो ख़ुदा-ए-वाहिद क़ुद्दूस के क़ाइल थे और मानते थे कि हय्युल-क़य्यूम ख़ुदा इस कायनात का ख़ालिक़ और परवरदिगार है। जिसने दुनिया को एक ख़ास मक़्सद की ख़ातिर पैदा किया है। और वाक़ियात-ए-आलम में से कोई वाक़िया भी उस के इल्म और इरादे के बग़ैर वक़ूअ पज़ीर नहीं होता। इनके पास मुक़द्दस किताबें थीं। इनके पास अम्बिया आए थे जो मसीह मौऊद की आमद, सिफ़ात, ख़सुसीयात आपकी सलीबी मौत और क़ियामत की पेश गोईयां कर चुके थे। अहले-यहूद इस मसीह मौऊद की आमद के इंतिज़ार में बेक़रार थे। पस इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने अपनी दूर-अंदेशी और हिक्मत-ए-अमली और नुक्ता रस (तेज़ फ़हम) तबीयत की वजह से इस तैयार ज़मीन में अपनी ताअलीम का बीज बोया (मत्ती 13:2 ता 9) सय्यदना मसीह ने बनी-इस्राईल में ईमान देखा और उन में वसीअ पैमाने पर अपना काम किया। ख़ुदावंद (मसीह) ईमान की तलाश में थे और जहां कहीं आपने ज़रा भी ईमान देखा वहां आपने काम किया ख़्वाह वो ईमान अहले-यहूद में देखा ख़्वाह ग़ैर-यहूद में। (मर्क़ुस 5: 19 वगैरह) जहां सय्यदना मसीह ने तैयार ज़मीन देखी वहां आपने अपनी ताअलीम का बीज बो दिया। (मत्ती 13:38 ता 39) चूँकि सबसे ज़्यादा तैयार ज़मीन आपको अहले-यहूद में ही मिली लिहाज़ा आपने तीन साल के मुख़्तसर अर्से में अपने काम और पैग़ाम को एक हद तक अहले-यहूद में महदूद रखा। क्योंकि ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमें) ख़ुदा से नावाक़िफ़ और बुत-परस्त थीं। ना वो ख़ुदा पर ईमान रखती थीं, ना सहफ़ मुक़द्दसा उनके पास थीं और ना वो मसीह मौऊद की मुंतज़िर थीं। उनके समझाने के लिए एक अर्सा-ए-दराज़ और मुबल्लग़ीन की कसीर (बड़ी) तादाद की ज़रूरत थी और यहां सय्यदना मसीह के पास सिर्फ आपकी ज़िंदगी के चंद माह और मादूद-ए-चंद (गिनती के, बहुत थोड़ी तादाद में) हवारइन (शागिर्द) थे जो आपकी ज़िंदगी के आख़िर तक आपके पैग़ाम की तह को ना पा सके। (लूक़ा 22:24, मत्ती 20:25, लूक़ा 24 44, आमाल 1:6 वग़ैरह) पस सय्यदना मसीह ने अपनी दूर-अंदेशी और हिक्मत-ए-अमली को काम में लाकर अपनी ख़िदमत का अक्सर हिस्सा अहले-यहूद में सर्फ किया, ताकि वो इस बर्गशता क़ौम को दुबारा ख़ुदा-ए-वाहिद के क़दमों में ला कर उनको अपना वो नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) याद दिलाएँ जो उनकी कुतुब-ए-मुक़द्दसा में बार-बार बतलाया गया था और उन के अम्बिया ने जो कई सदीयों से ख़ुदा की तरफ़ से मामूर हो कर उनकी तरफ़ आए थे उनको बार-बार बतलाया था, कि वो अक़्वाम आलम (दुनिया की क़ौमों) में ख़ुदा की नजात की इशाअत का वसीला बनने के लिए अपने आपको तैयार करें।

(6)

दौर-ए-हाज़रा में हम हिन्दुस्तान के मुसलमानों और हिंदुओं की मिसाल देकर अपने मतलब को वाज़ेह कर देते हैं। अगर कोई शख़्स मुसलमानों में से मसीहीय्यत का हल्क़ा-ब-गोश हो जाए और वो अपने ख़ुदावंद और मुनज्जी (नजात-दहिंदा) के पैग़ाम को अपने हम-वतनों पर ज़ाहिर करना चाहे तो वो हिंदू और मुस्लिम जमाअतों में से किस जमाअत में पहले अपनी तब्लीग़ी कोशिशों को शुरू करेगा? अगर उस को ये इल्म हो कि उस की ज़िंदगी के चंद माह बाक़ी हैं और उस के मादूद-ए-चंद शागिर्द उस के कलाम को कमा-हक़्क़ा नहीं समझते और अगर वह ख़ुद हिंदू-मज़्हब के अक़ाइद व रसूम और ज़बान वग़ैरह से ना-बलद (नाआशना, नावाक़िफ़) हो, लेकिन मुस्लिम अक़ाइद रसूम और अरबी फ़ारसी ज़बान से वाक़िफ़ हो, तो ये ज़ाहिर है कि वो अपनी ख़िदमत का अक्सर हिस्सा मुस्लिम हलक़ों में सर्फ करेगा। क्योंकि मुसलमान ख़ुदा पर, ख़ुदा की किताबों, रसूलों पर, नबुव्वत पर, क़ियामत पर, हश्र व नश्र पर ईमान रखते हैं। वो कलिमतुल्लाह (मसीह) से ना सिर्फ वाक़िफ़ हैं बल्कि आप पर ईमान रखते हैं। क़ुरआन व हदीस में आपकी बाबत बकस्रत तसरीहात (तसरीह की जमा, तशरीह, साफ़ तौर पर बयान करना) मौजूद हैं और अहले-इस्लाम आपकी आमद सानी के मुंतज़िर और बेक़रार हैं। इस के बरख़िलाफ़ अहले-हनूद मसीह से मह्ज़ ना-बलद (नावाकिफ़) हैं। ना उनके वेदों में आँख़ुदावंद का ज़िक्र है ना उनकी की कुतुब में आपका नाम और निशान है। यही वजह है कि मसीही कलीसिया अहले-इस्लाम में ज़्यादा सहूलत के साथ काम कर सकती है।

(7)

तारीख़ इस अम्र की गवाह है कि मुनज्जी आलमीन (मसीह) के यहूदी नज़ाद (हसब, नसब) शागिर्दों ने ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) में मुनज्जी-आलमीन (मसीह) के पैग़ाम को फैलाया। आपके रसूल सब यहूदी क़ौम के थे और वही ग़ैर-अक़्वाम के रसूल भी हुए। हम फस्ल-ए-चहारुम व पंजुम में इस बात का मुफ़स्सिल ज़िक्र करेंगे कि ग़ैर-यहूद अक़्वाम की कलीसियाएं इन्ही यहूदी नस्ल के रसूलों की वसातत से मुनज्जी-आलमीन के क़दमों में आईं। पस ये ज़ेरे बह्स सय्यदना मसीह की दोरुबीन (दुरे से देखने वाली) निगाहों और हिक्मत-ए-अमली और दूर-अन्देशी और मुआमला फ़हमी पर दलालत करती है, ना कि आपके मिशन के महुददूद होने पर दलील है।

मसीही नजात की आलमगीरी

पस कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलिमात तय्यिबात, अहकाम, हिदायात, पैग़ाम, लाएहा-ए-अमल और तर्ज़-ए-अमल से हर मुंसिफ़ मिज़ाज शख़्स यही नतीजा अख़ज़ करेगा कि आपकी नज़र तमाम दुनिया की कुल अक़्वाम (सारी क़ौमों) पर थी। दौर-ए-हाज़रा में डाक्टर मोंटी फ़ेअरी से ज़्यादा क़ाबिल शख़्स यहूदीयत में नहीं है। हम उस के अल्फ़ाज़ ज़ेल में दर्ज करते हैं ताकि मोअतरज़ीन (एतराज़ करने वाले) उन पर ग़ौर करके अपने ख़यालात की सेक़ली (साफ़, चमक) कर सकें। ये यहूदी आलिम सवाल करता है कि :-

“क्या मसीह की बादशाहत आलमगीर है? क्या इस नई बादशाहत में क़ौमीयत की इम्तियाज़ नहीं है? क्या यहूद और ग़ैर-यहूद मसीही ख़ुदा के सामने बराबर हैं? इन सवालात के जवाब में कहता है कि, ये मानने के लिए काफ़ी दलाईल मौजूद हैं कि दीगर यहूदी अम्बिया की तरह सय्यदना मसीह का भी ख़्याल था कि उस की नई बादशाहत में ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) के ईमानदार ख़ारिज शूदा यहूदी गुनेहगारों की जगह ले लेंगे। मशरिक़ और मग़रिब शुमाल और जुनूब से ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमें) आयेंगी और आस्मानी ज़ियाफ़त (दावत) में इब्राहिम की हक़ीक़ी औलाद बनी-इस्राईल के साथ बराबरी का दर्जा हासिल करेंगी। एक और अम्र में जनाब-ए-मसीह के ख़यालात अपने हम-अस्रों (हम-जमानों) के ख़यालात से बुलंद व बाला थे। उसने अहले-यहूद की क़ौमी तंग-नज़री को बिल्कुल नज़र-अंदाज कर दिया, जहां तक उन ग़ैर-मुकम्मल मुतअस्सिब और एक तरफ़ा इंजीली बयानात से पता चल सकता है, हमको मानना पड़ता है कि सय्यदना मसीह अपनी बादशाहत को कोई यहूदी सल्तनत ख़्याल नहीं करता था। उस की बादशाहत में यहूद को ग़ैर-यहूद पर कोई फ़ज़ीलत हासिल नहीं। उस बादशाहत में ना कोई हाकिम है ना कोई मुहकम और ना कोई बाजगिज़ार है। अगर बादशाहत में कोई दर्जा बंदी है तो वो ख़िदमत के लिहाज़ से है। इस में सबसे बड़ा वो है जो सब का ख़ादिम है।”

एक और यहूदी रब्बी डाक्टर कलासंर कहता है कि :-

“जनाब-ए-मसीह ने यहूदी अम्बिया की ताअलीम से तमाम क़ौमी और सियासी उमूर को ख़ारिज करके अपनी ताअलीम को आलमगीर बना दिया। फिर एक और जगह कहता है कि ये हक़ है कि यहूदीयत से मसीहीय्यत पैदा हुई। यही वजह है कि यहूदीयत और मसीहीय्यत में मुमासिलत और मुशाबहत (यकसानियत) है लेकिन ये भी हक़ है कि यहूदीयत के साथ मसीहीय्यत ने किसी क़िस्म की मुसालहत ना की और इस ने अपने उसूल को अपनी राह पर चलाया और यही वजह है कि यहूदीयत और मसीहीय्यत में मुग़ाइरत और फ़र्क़ अज़ीम है।”

हमें उम्मीद है कि अहले-इस्लाम अहले-यहूद ही से इन्साफ़ की बात करना सीखेंगे, जिनको क़ुरआन ने गधे की तरह हामिल तौरात (सूरह जुमा आयत 4) “नाख़लफ़” (आराफ़ 168, मर्यम 60) और “स्याह दिल” (माइदा 16) के खिताबात दे रखे हैं।

फ़स्ल चहारुम

हवारइन (शागिर्दों) की तहरीरात और तरीक़ अमल

अगर कोई शख़्स इब्ने-अल्लाह (मसीह) के अहकाम के हक़ीक़ी मंशा और असली मतलब को समझ सकता था तो वो आपके हवारी (शागिर्द) थे। आपके रसूल आपकी सोहबत से हर वक़्त फ़ैज़याब होते थे। चुनान्चे उनको ये शर्फ़ हासिल था कि उन्होंने आपके कलिमात-ए-तय्यिबात को “ख़ुद अपने कानों से सुना और आपको अपनी आँखों से देखा, बल्कि ग़ौर से देखा और अपने हाथों से छुवा, हमने उस को देखा और उस की गवाही देते हैं और उसी हमेशा की ज़िंदगी की तुमको ख़बर देते हैं, जो कुछ हमने देखा और सुना है उस की तुमको ख़बर देते हैं, ताकि तुम भी हमारे शरीक हो और यह बातें हम इसलिए लिखते हैं कि हमारी ख़ुशी पूरी हो जाए।” (1 यूहन्ना पहला बाब) ये हवारइन (शागिर्द) तबा ताबईन के गिरोह में से ना थे बल्कि ये वो लोग थे जिनको आपकी रिफ़ाक़त में रहने का फ़ख़्र हर वक़्त हासिल था और आपके उठने बैठने, चलने फिरने, खाने पीने, सोने जागने, हँसने रोने, मज़ाक़ तबईत, अंदाज़-ए-गुफ्तगू, तर्ज़-ए-ज़िंदगी, ग़र्ज़ कि आपकी एक-एक अदा से वाक़िफ़ थे। वो कलिमतुल्लाह (मसीह) के साथ शुरू से आख़िर तक रहे। (यूहन्ना 15:27 आमाल 1:2 वग़ैरह) पस आपके रसूल माबाअ्द (बाद) की नसलों से ज़्यादा और गुमराह कुन मुफ़स्सिरीन से कहीं ज़्यादा अपने आक़ा और मौला के नस्ब-उल-ऐन (मक़्सद) मतमाअ नज़र और असली मक़्सद को जानते थे। जब हम इन शागिर्दों और हवारियों के लाएह-अमल, तर्ज़-ए-अमल, ताअलीम, हिदायात और अहकाम पर ग़ौर करते हैं तो हम पर ये ज़ाहिर हो जाता है कि मुनज्जी-आलमीन (मसीह) के सब शागिर्द और कुल हवारइन (शागिर्द) यही समझे कि आँख़ुदावंद सिर्फ़ अहले-यहूद के लिए मबऊस हो कर नहीं आए थे, बल्कि आप दुनिया की कुल अक़्वाम और बनी-नूअ इन्सान के मुनज्जी (नजात-दहिंदा) हो कर इस दुनिया में आए थे।

(2)

ख़ुदावंद (मसीह) की आख़िरी हिदायात के मुताबिक़ शागिर्दों ने अव्वल ही अव्वल यरूशलेम में गवाही देनी शुरू की। इब्ने-अल्लाह (मसीह) के सऊद आस्मानी के बाद मोमिनीन का गिरोह मुबल्लग़ीन की अज़ीमुश्शान जमाअत में तब्दील हो गया। उन्होंने यरूशलेम को मर्कज़ी मुक़ाम क़रार देकर आस-पास के गांव, कस्बों और शहरों में इन्जील की बशारत (तब्लिग़) की ख़िदमत शुरू कर दी। अहले-यहूद उनको तरह तरह की ईज़ाएं (सताव) देने लगे ताकि वो इस बात से बाज़ आ जाऐं। (आमाल 4:18) लेकिन

گشتگان خنجر رتسلیم را۔ ہر زماں ازغیب جانے دیگر است

ایذارسانیوں نے ان کی آتش شوق کو دوبالا کردیا ۔ع

حدیٰ راتیز ترمیخوں چومحمل راگراں بینی

गश्तगान ख़ंजर रतसलीम रा। हर ज़माँ अज़-गेब जाने दीगर अस्त

इज़ा रसानियों ने उनकी आतिश-ए-शौक़ को दो-बाला कर दिया।

हुदा रातीज़ तर मेख़ों चू महमल रागरां बीनी

फिलिप्पुस शहर सामरिया में जाकर मुनादी करने लगा और लोगों ने बाला इत्तिफ़ाक़ उस की बातों पर जी लगाया। “जब रसूलों ने जो यरूशलेम में थे सुना कि, सामरियों ने ख़ुदा का कलाम क़ुबूल कर लिया तो पतरस और यूहन्ना को उनके पास भेजा वो गवाही देकर और ख़ुदा का कलाम सुना कर यरूशलेम को वापिस हुए और सामरियों के बहुत से गांव में ख़ुशख़बरी देते गए।” (आमाल 8 बाब) जाये ग़ौर है कि वो यहूद जो सामरियों के साथ सदीयों से पुर-ख़ार (तक्लीफ़-देह) रखते थे मसीह में हो कर अपने यहूदी तअस्सुबात से कुल्लियतन (पुरे तौर से) ऐसे आज़ाद हो जाते हैं कि अपने जानी दुश्मनों को मसीही उखुव्वत (भाईचारे) की अज़ीमुश्शान बिरादरी में दाख़िल करने के लिए सरतोड़ कोशिश करते हैं। अब की दफ़ाअ जब मुक़द्दस यूहन्ना सामरिया में गया होगा तो क्या वो जिगर ख़राश (निहायत रंज-दह) वाक़िया याद ना आया होगा “जब सामरियों ने ख़ुदावंद को और आपके शागिर्दों को अपने गांव से निकाल दिया था और ऐसा बुरा सुलूक किया था कि मुक़द्दस यूहन्ना का जी चाहता था कि आग आस्मान से बरसे और उन को भस्म कर दे।” (लूक़ा 9:54) लेकिन सय्यदना मसीह की रूह ने हर तरह की कुदूरत और मलाल, बुग़्ज़ और अदावत को उस (शागिर्द, रसूल) के दिल से निकाल दिया। (लूक़ा 9:55) और वो “सामरिया के बहुत से गांव में ख़ुशख़बरी देते गए” और उन के बाशिंदों को मसीही कलीसिया की बिरादरी में शामिल करते गए।” (आमाल 8:17)

मुक़द्दस फिलिप्पुस ने एक हब्शी वज़ीर को बपतिस्मा दिया। (आमाल 8:38) मुक़द्दस पतरस ने कुर्नेलियुस को जो ग़ैर-क़ौम और इटली का सूबेदार था बपतिस्मा दिया। (आमाल 10:48) और उस के घर में ग़ैर-यहूद को इन्जील जलील की आलमगीरी पर दर्स दिया। (आमाल 10 बाब) मुनज्जी-कौनैन (मसीह) के मस्लूब होने के तीन साल के अंदर मसीहीय्यत दमिशक़ तक फैल गई। वहां उसने ऐसी जड़ पकड़ी कि यरूशलेम के सरदार काहिनों ने साऊल को ख़ुतूत दिए ताकि जिन लोगों को वो मसीहीय्यत पर पाए “ख़्वाह मर्द ख़्वाह औरत उनको बांध कर यरूशलेम में लाए।” (आमाल 9:2) मुक़द्दस स्तिफ़नुस के शहीद होने पर सय्यदना मसीह के नाम का पर चार अन्ताकिया तक चले गए और उन्हों ने यूनानियों को बशारत दी “और ख़ुदावंद का हाथ उन पर था और बहुत से लोग ईमान ला कर ख़ुदावंद की तरफ़ रुजू लाए। इन लोगों की ख़बर” यरूशलेम की कलीसिया के कानों तक पहुंची और उन्हों ने बर्नबास को अन्ताकिया तक भेज दिया। वो पहुंच कर और ख़ुदा का फ़ज़्ल देखकर ख़ुश हुआ।” (आमाल 11:21) वाक़िया सलीब के तीन साल के अंदर-अंदर शागिर्दों ने ये सब कुछ कर दिया। रऊसा-ए-यहूद ने मुनज्जी-आलमीन (मसीह) को मस्लूब करके अपने ज़ाम-ए-बातिल में आपकी रिसालत और नजात के पैग़ाम का ख़ातिमा कर दिया था। लेकिन वो अब ख़्वाब-ए-गिराँ से जागे, उन्होंने यहूदीयत को क़ायम रखने के लिए हाथ पांव मारने शुरू किए और बेगुनाह मसीहीयों को ईज़ा (सताव, तकलीफ़) देने पर कमर बांध ली, लेकिन शहीदों का ख़ून कलीसिया का बीज साबित हुआ। ख़ुदावंद के मस्लूब होने के बीस साल के अंदर अन्ताकिया जो शिर्क-ए-ज़िनाकारी और शहवत परस्ती का घर था। इन्जील जलील की बशारत का सदर मुक़ाम बन गया। इस जगह से सल्तनत रूमा के मुख़्तलिफ़ सूबे मसलन गलातियाह, मक़िदूनिया, आक्या, एशया-ए-कोचक वग़ैरह के बाद दीगरे मसीहीय्यत के हल्क़ा-ब-गोश हो गए। इसी सदर मुक़ाम से इफ़िसुस और जज़ाइर ईजीबन (جزائر ایجیبن) में बशारत (तब्लिग़) का काम अदा किया गया। इन्जील के अलमबरदार समुंद्र पार करके शहर रुम में जा पहुंचे जो उस ज़माने की मालूम दुनिया का मर्कज़ था।

सय्यदना मसीह की मौत के चालीस (40) साल बाद रूमी अफ़्वाज (फ़ौजों) ने यरूशलेम को तबाह और बर्बाद कर दिया और इस वाक़िये के बाद मसीहीय्यत और यहूदीयत के ताल्लुक़ का आख़िरी रिश्ता टूट गया और ख़ुदावंद के हवारइन (शागिर्द) और ताबईन ने पहली सदी के इख़्तताम (खात्मे) से पेशतर ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) और ग़ैर-यहूद इलाक़ों में रुम और इफ़िसुस जैसी मुख़्तलिफ़ और दूर-दराज़ जगहों में तब्लीग़ी मसाई (कोशिश) के सदर मुक़ाम बना लिए। (Harnack, Expansion of Christianity) सलीब के रसूल यूनान को भी इन्जील का फ़हर्त अफ़्ज़ा पैग़ाम सुना गए और जज़ीरानुमा अतालिया और हसपानीया ग़र्ज़ “ज़मीन की इंतिहा” तक मुज़्दा जान फ़िज़ा दे गए। ख़ुदावंद के हवारियों और रसूलों ने उस ज़माने की मालूम दुनिया के हर मुल्क और हर क़ौम को मुनज्जी-आलमीन (मसीह) की नजात का पैग़ाम दे दिया।

(3)

क़ाबिल-ए-ग़ौर बात ये है कि ये मुबल्लग़ीन जिन्हों ने इन्जील की ख़ातिर ऐसी शानदार ख़िदमात सर-अंजाम दीं, यहूदी नस्ल के लोग थे। हम गुज़शता फ़स्ल में बतला चुके हैं कि यहूद किस नफ़रत के साथ ग़ैर-यहूद से पेश आते थे, लेकिन इब्ने-अल्लाह (मसीह) की ताअलीम और नमूने ने और मसीह की रूह ने इन मुबल्लग़ीन के दिलों में से हर क़िस्म के क़ौमी और नसली इम्तियाज़ात और तअस्सुबात को निकाल दिया था। रसूलों के आमाल की किताब का मुसन्निफ़ ख़ुद ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) में से मुशर्रफ़ बह मसीहीय्यत हुआ था। लेकिन इस किताब के किसी लफ़्ज़ से भी ये ज़ाहिर नहीं होता कि मसीही कलीसिया की उखुव्वत और बिरादरी (भाईचारे) में यहूदी अंसर ने ग़ैर-यहूद को जो मसीह पर ईमान लाए थे नफ़रत और हिक़ारत की निगाह से देखा हो या ग़ैर-यहूद ने जो मसीहीय्यत के हल्क़ा-ब-गोश हो गए थे। उन लोगों को जो अहले-यहूद से कलीसिया में दाख़िल हुए थे बुग़्ज़ या अदावत की नज़र से देखा हो। तस्नीफ़ आमाल-उल-रसूल (रसूलों के आमाल) ये साबित करती है कि इस के ग़ैर-क़ौम मुसन्निफ़ को क़ौम-यहूद से किसी क़िस्म का इनाद (नफरत) ना था। पस मसीहीय्यत का ये मोअजिज़ा शुरू से ही चला आया है कि जो अश्ख़ास मुख़्तलिफ़ अक़्वाम में से इस में दाख़िल होने का शर्फ़ हासिल करते हैं, वो हर तरह के क़ौमी नसली इम्तियाज़ात, तअस्सुबात और दर्जा बंदीयों से आज़ाद हो कर मसीही मुहब्बत के बंधनों में जकड़े जाते हैं। लेकिन

गरना बींद बरोज़ शिप्रा चश्म

चश्मा आफ़्ताब राचा गुनाह

گرنہ بیند بروز شپرہ چشم

چشمہ آفتاب راچہ گناہ

मुक़द्दस पौलुस और मसीहीय्यत की आलमगीरी

मोअतरज़ीन (एतराज़ करने वाले) जो ये एतराज़ करते हैं कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की रिसालत और पैग़ाम सिर्फ़ अहले-यहूद तक ही महदूद है। अब इस मुश्किल में गिरफ़्तार हुए कि मसीहीय्यत की ग़ैर-यहूद के दर्मियान फैलने की हक़ीक़त की तावील (बचाओ की दलील) किस तरह करें। उन्होंने ये रवैय्या इख़्तियार किया कि कलिमतुल्लाह (मसीह) को तो सिर्फ एक यहूदी मुस्लेह (सुधारक) बनाया और ग़ैर-यहूद के दर्मियान इन्जील की इशाअत का सहरा मुक़द्दस पौलुस के सर पर बांध दिया और कहा कि, ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) के दर्मियान मसीहीय्यत की इशाअत का ख़्याल पौलुस रसूल के दिल में पैदा हुआ और उसी ने मसीहीय्यत को आलमगीर (पूरी दुनिया का) मज़्हब बना दिया वर्ना कलिमतुल्लाह (मसीह) ना तो किसी नए मज़्हब के बानी थे और ना ग़ैर-यहूद दुनिया में मसीहीय्यत की इशाअत आपके ख़्याल में कभी आई थी।

फ़स्ल सोम में हमने ये साबित कर दिया है कि ये ख़्याल बिल्कुल ग़लत और बातिल है। सय्यदना मसीह ने ख़ुद एक आलमगीर मज़्हब की बुनियाद रखी। कलिमतुल्लाह (मसीह) के अपने लाएहा-ए-अमल, तर्ज़-ए-अमल, ताअलीम, हिदायात और अहकाम वग़ैरह से ये ज़ाहिर है कि आपका ये ख़्याल था कि आप कुल दुनिया के मुनज्जी (नजात-दहिंदा) हो कर आए हैं। ये अस्हाब मुक़द्दस पौलुस को वो वक़अत देते हैं जिसका वो मुस्तहिक़ नहीं है। मुक़द्दस पौलुस के एक अज़ीमुश्शान इन्सान होने में किसी सही-उल-अक़्ल शख़्स को शुब्हा नहीं हो सकता, लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि “शागिर्द उस्ताद से बड़ा नहीं होता।” (यूहन्ना 13:16) मसीहीय्यत की इशाअत का ख़्याल मुनज्जी-आलमीन (मसीह) से शुरू हुआ और मुक़द्दस पौलुस के मसीही होने से पहले ख़ुदावंद के रसूलों ने ग़ैर-यहूद और सामरियों, हब्शियों वग़ैरह को मसीहीय्यत का हल्क़ा-ब-गोश कर लिया था। मसीही होने के बाद मुक़द्दस पौलुस ने भी दीगर रसूलों की तरह (1 कुरिन्थियों 15:11) अपने आक़ा और मौला की हिदायत पर अमल करके इन्जील जलील को ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) में पहुंचाया। (1 कुरिन्थियों 15:1 ता 11) उस की तक़रीरों और तहरीरों से ज़ाहिर है कि वो ख़ुदावंद की आलमगीर शख़्सियत और जामा हस्ती और आलमगीर नजात की गिरिफ्त में ऐसा जकड़ा हुआ है कि वो इन्जील का पैग़ाम सुनाए बग़ैर रह नहीं सकता, वो वारफ़्ता और “बे-ख़ुद है।” मसीह की मुहब्बत उस को मजबूर करती है।” (2 कुरिन्थियों 5:13) नजात का पैग़ाम सुनाना उस की ज़िंदगी के लवाज़मात में से है वो कहता है कि “अगर मैं इन्जील सुनाऊँ तो मेरा कुछ फ़ख़्र नहीं क्योंकि ये तो मेरे लिए ज़रूरी बात है, बल्कि मुझ पर अफ़्सोस है अगर इन्जील ना सुनाऊँ।” (1 कुरिन्थियों 9:16) इन्जील की ख़ातिर उसने अपने आपको सब का ग़ुलाम बना दिया।” (1 कुरिन्थियों 9:16 ता 19)

ए शेख़ पाक दामन माअज़ूरदार मारा

ताज्जुब ये है कि मुक़द्दस पौलुस अपने आपको ख़ुदावंद “यसूअ मसीह का अब्द (बन्दा)” (रोमीयों 1:1) कहे और अपने आपको कलिमतुल्लाह का “रसूल होने के लायक़” ना समझे। (1 कुरिन्थियों 15:9) और यह अस्हाब उस को उस के आक़ा, मौला और मुनज्जी से अफ़्ज़ल समझें याबोवालअजब (अनोखा یا بوالعجب) ! हक़ तो ये है कि जैसा पौलुस रसूल ख़ुद इस बात का इक़बाल करता है। सय्यदना मसीह ने ही उस को यहूदीयत की गु़लामी से आज़ाद किया था और इस तरह वो ख़ुद आज़ाद हो कर आलमगीर मसीहीय्यत का बानी नहीं, बल्कि आज़ाद मसीहीय्यत का एक आज़ीम उल-शान वाइज़ (नसीहत करने वाला) बना।

मन बंदा आज़ादम इश्क़ अस्त इमाम मन

इश्क़ अस्त इमाम मन अक़्ल अस्त ग़ुलाम मन

(2)

मोअतरज़ीन (एतराज़ करने वाले) अपने दाअ्वे के सबूत में रसूलों के आमाल की किताब के पंद्रहवें (15) बाब को पेश करते हैं। जब कलीसिया ने यरूशलेम में मसीहीयों के मूसवी शरीअत के ताबेअ् होने के ख़िलाफ़ फ़ैसला किया था। लेकिन ये मोअतरज़ीन इस बात को नहीं समझते कि इस कान्फ़्रैंस में मुतनाज़ा फिया अम्र ये नहीं था कि ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) को इन्जील की बशारत दी जाये या नही, बल्कि सवाल ये था कि किन शराइत पर उनको कलीसिया में शामिल किया जाये? ये उसूल तो पहले ही क़ायम हो गया था कि मसीह इब्ने-अल्लाह यहूद और ग़ैर-यहूद दोनों को नजात देने वाले हैं। लेकिन हल तलब मसअला ये था कि क्या कलीसिया में दाख़िल होने से पहले ग़ैर-मख़्तूनों का खतना करना ज़रूरी है या कि नहीं? बअल्फ़ाज़े दीगर क्या मसीही कलीसिया के गल्ले का दरवाज़ा यहूदीयत है, जिसमें से अक़्वाम आलम (दुनिया की क़ौमों) का गुज़र कर मसीहीय्यत में दाख़िल होना है।

अगर ये नहीं तो मूसा की शरीअत में से किस-किस क़ानून और शराअ (शरीअत) पर अमल करना उन लोगों पर फ़र्ज़ है जो ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौम) से मसीही हों? हम देख चुके हैं कि ख़ुद मुनज्जी-ए-आलमीन (मसीह) ने ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) के दर्मियान इन्जील की बशारत (तब्लिग़) का हुक्म दिया था और आमाल की किताब से ज़ाहिर है कि इस कान्फ़्रैंस के नअक़ाद से कई साल क़ब्ल ग़ैर-यहूद और ग़ैर-मख़्तूनों (यानी जिनका खतना नहीं हुआ यानी ग़ैर-क़ौमों) में इन्जील जलील के पैग़ाम की बशारत दी जा चुकी थी। लिहाज़ा ये अम्र ज़ेर-ए-बहस नहीं था। सय्यदना मसीह ने अपनी ज़बान मुबारक से कलीसिया में शमूलीयत की शराइत नहीं बतलाई थीं। लेकिन ख़ुदावंद ने ये वाअदा किया था कि “रूहुल-क़ुद्दुस यानी सच्चाई का रूह आएगा तो तुमको तमाम सच्चाई की राह दिखाएगा।” (यूहन्ना 16:13) यरूशलेम की कान्फ़्रैंस में इस सच्चाई के रूह ने रसूलों की मार्फ़त फ़ैसला दिया। (आमाल 15:28) कि ग़ैर-मख़्तून मसीही मूसवी शरीअत के ताबे नहीं हैं। किताब आमाल-उल-रसूल (अमाल की किताब) से ज़ाहिर है कि मुक़द्दस पतरस ग़ैर-क़ौम कुर्नेलियुस के घर इस वास्ते नहीं जाना चाहता था क्योंकि “उस को ग़ैर-क़ौम वाले से सोहबत रखनी या उस के हाँ जाना नाजायज़ था।” ना कि वहां इन्जील की बशारत ना करे। मुक़द्दस पतरस पर यरूशलेम में इल्ज़ाम लगाया गया था कि “तू ना मख़्तूनों के पास गया और उन के साथ खाना खाया।” ना कि क्यों “ग़ैर-क़ौमों ने भी ख़ुदा का कलाम क़ुबूल किया।” (आमाल 11:1 ता 2) इस के बरअक्स यहूदी मसीहीयों ने ये सुनकर ख़ुदा की बड़ाई करके कहा “बेशक ख़ुदा ने ग़ैर-क़ौमों को भी ज़िंदगी के लिए तौबा की तौफ़ीक़ दी है।” (आमाल 11:18)

(3)

मुक़द्दस पौलुस के तेज़ फ़हम ने मसीही होने से पहले ही कलिमतुल्लाह (मसीह) की ताअलीम और आपके रसूलों की ताअलीम और तर्ज़-ए-अमल से ये मालूम कर लिया था कि मसीहीय्यत आलमगीर (पूरी दुनिया की क़ौमों के लिए) है। अहले-यहूद ने अपने माअ्बूद यहोवा के साथ वफ़ादारी का अहद बाँधा हुआ था और इसी वजह से वो यहोवा की ख़ास उम्मत कहलाते थे। लेकिन मुक़द्दस पौलुस ने देखा था कि मसीही यहोवा के बजाय एक दूसरे शख़्स यसूअ नासरी के साथ वफ़ादारी, इरादत (एतिक़ाद, आरज़ू) व अक़ीदत के जज़्बात रखते हैं और यसूअ नासरी भी वो जो उस के ख़्याल में शराअ (शरीअत) की रु से काफ़िर और मुजरिम साबित हो कर मस्लूब कर दिया गया था। लिहाज़ा वो इब्तिदा ही से बअल्फ़ाज़ मरहूम कमाल-उद्दीन :-

“उनका जानी दुश्मन था उनकी ईज़ा रसानी (तकलीफ देने) में उसने कोई दक़ीक़ा (कसर) नहीं छोड़ा।”

(यनाबीअ़ सफ़ा 124)

जिस मसीहीय्यत के साथ पौलुस रसूल का साबिक़ा पड़ा था वो मह्ज़ यहूदीयत की इस्लाह ना थी। अगर वह मह्ज़ इस्लाही तहरीक होती, तो पौलुस रसूल इस तहरीक का “जानी दुश्मन” ना होता, बल्कि वो उस का ज़बरदस्त हामी होता। इब्तिदा ही से वो इस नतीजे पर पहुंच गया था कि यहूदीयत और यसूअ नासरी के उसूल एक दूसरे के नक़ीज़ (मुख़ालिफ़) हैं और इस नतीजे के साथ यहूदी रब्बी सरदार काहिन, फ़क़ीह, फ़रीसी ग़र्ज़ तमाम उलमा-ए-उम्मत-ए-यहूद मुत्तफ़िक़ थे और इसी सबब से उन शक़ी दिल उलमा ने सय्यद-उल-शोहदा ख़ुदावंद मसीह को मस्लूब करवा दिया था।

मुक़द्दस पौलुस “ग़ैर-क़ौमों का रसूल” कहलाता है। लेकिन जब हम आपकी यहूदी ताअलीम व तर्बियत और क़ौमी जज़्बात की तरफ़ नज़र करते हैं, (ग़लतीयों 1:14 वगैरह) तो हम पर अयाँ हो जाता है कि यहूद के एवज़ (बदले) ग़ैर-अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) में इन्जील की बशारत देने के लिए जाना आपके लिए कैसा मुश्किल साबित हुआ होगा। अपने लोगों को जो “वाअदे के वारिस थे तर्क करना” और बे शराअ् ना मख़्तूनों के पास जो “ना इब्राहिम से और ना उस की नस्ल” से थे जाकर ख़ुदा के फ़ज़्ल की ख़ुशख़बरी देना आप पर कितना शाक़ (दुशवार, मुश्किल) गुज़रा होगा। (आमाल 13:44 ता 47) इस से हम अंदाज़ा कर सकते हैं कि आप ग़ैर-क़ौमों के रसूल होने की ईलाही बुलाहट को (ग़लतीयों 1:16, आमाल 9:15) किस क़द्र महसूस करते थे। सिर्फ एक यहूदी ही इस बात का कमा-हक़्क़ा अंदाज़ा कर सकता है कि जब आपको अपनी बुलाहट का एहसास हुआ होगा तो ये मुआमला आप पर कितना शाक़ (मुश्किल) गुज़रा होगा। आपने “पेने की कील” पर कितनी बार “लात” चलाई होगी। लेकिन मुनज्जी-आलमीन की रूह ने मुक़द्दस पौलुस को बिल-आख़िर “ग़ैर-अक़्वाम का रसूल बना कर छोड़ा।” (ग़लतीयों 1:1 व 12)

अगर हम दौर-ए-हाज़रा से मिसाल लें तो ये ऐसा ही होगा जैसा फ़ी ज़माना जर्मनी का हिटलर अहले-यहूद को पामाल, बर्बाद, क़त्ल और ग़ारत करने की बजाय उनको और तमाम दुनिया को ये ताअलीम दे कि जर्मनी के अस्ल बाशिंदे और अहले यहूद सल्तनत जर्मनी में मुसावी (बराबर) हुक़ूक़ रखते हैं और इनमें और अस्ल जर्मन में हर तरह की दर्जा बंदी का ख़ातिमा हो गया है। अगर हमारी क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला (सोचने की क़ुव्वत) इस बात की मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाली) हो सकती है कि हिटलर ग़ारत-गर होने के बजाय इस उसूल का ज़बरदस्त मुबल्लिग़ और अज़ीमुश्शान वाइज़ हो जाए तो हम कुछ-कुछ समझ सकेंगे कि ग़ारत-गर साऊल पर ये अम्र किस क़द्र शाक़ (मुश्किल) गुज़रा होगा कि ऐसी इन्जील की मुनादी करे जो यहूद और ग़ैर-यहूद में किसी क़िस्म की तमीज़ रवा नहीं रखती थी।

हमको ये बात हरगिज़ फ़रामोश नहीं करनी चाहिए कि उस ज़माने में यहूद और ग़ैर-यहूद के दर्मियान एक ऐसी ख़लीज (रुकावट) हाइल थी जो निहायत वसीअ थी और जिस को मसीहीय्यत के सिवा कोई और शैय उबूर (पार) ना कर सकी। हिक़ारत सिर्फ़ अहले-यहूद तक ही महदूद ना थी बल्कि ग़ैर-यहूद और यूनानी भी यहूद को नफ़रत और कराहीयत की निगाह से देखते थे हत्ता कि अरस्तू जैसा फिलासफर नूअ-इन्सानी को दो हिस्सों में तक़्सीम करता है यूनानी और वहशी, और कहता है कि :-

“फ़ित्रत ने यूनानियों को हुक्मरान और दूसरों को मह्कूम (गुलाम, रिआया) होने के लिए पैदा किया है।”

(Politics, 253 b, 1263a)

इस के बरअक्स मसीहीय्यत के मुबल्लिग़ ये ताअलीम देते थे कि ख़ुदा अज़ल से यहूद व ग़ैर-यहूद को प्यार करता है और हर क़िस्म की दर्जा बन्दी क़ानून-ए-फ़ित्रत के ख़िलाफ़ है। (इफ़िसियों 3:4 ता 6, कुलिस्सियों 1:26 ता आख़िर वग़ैरह)

हवस ने टुकड़े-टुकड़े कर दिया है नूअ़ इन्सान को

उखुव्वत की ज़बां होजा मुहब्बत का बयाँ होजा

मुक़द्दस पौलुस बार-बार ज़िक्र करता है कि ख़ुदा की नज़र में यहूद और ग़ैर-यहूद में कोई तमीज़ नहीं और यहूद को ग़ैर-यहूद पर कोई तर्जीह हासिल नहीं। (रोमीयों 10:12, 16:25 वग़ैरह इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने इस दुनिया में आकर इस हक़ीक़त को महर-नीम रोज़ की तरह रोशन कर दिया। पौलुस रसूल इस हक़ीक़त पर इसरार करता है कि मसीह में यहूद और ग़ैर-यहूद ख़ुदा की बादशाहत में मुसावी (बराबर) तौर पर शरीक हैं और ग़ैर-अक़्वाम के मसीहीयों को याद दिलाता है कि “तुम जो जिस्म की रू से ग़ैर-क़ौम वाले हो अगले ज़माने में मसीह से जुदा और इस्राईल की सल्तनत से ख़ारिज और वाअदे के ओहदों से नावाक़िफ़ और ना उम्मीद और दुनिया में से ख़ुदा से दूर थे। अब मसीह के सबब से नज़्दीक हो गए हो जिसने यहूद और ग़ैर-क़ौम दोनों को एक कर लिया और जुदाई की दीवार को जो बीच में हाइल थी ढा दिया।” (इफ़िसियों 2:11) ये रसूल बार-बार अपने ख़ुतूत में मसीहीयों को जतलाता है कि वो सब ख़्वाह यहूद हों ख़्वाह ग़ैर-यहूद सय्यदना मसीह में वाअदे के शरीक और आपस में हम मीरास हैं। (1 कुरिन्थियों 12:13, इफ़िसियों 3:4 ता 6, कुलिस्सियों 1:26, रोमीयों 10:12, कुलिस्सियों 3:11 वग़ैरह) गलतिया के मसीहीयों की तरफ़ जो ख़त आपने लिखा वो इसी जज़्बे के जोश से मामूर है। (ग़लतीयों 3:28 वग़ैरह) रुम के मसीहीयों की तरफ़ जो ख़त आपने लिखा, उस में आपने इस क़ज़ीया (झगड़ा, तकरार) को मुंतक़ीयाना इस्तिदलाल (सबूत, दलील) से साबित किया है कि रुहानी उमूर में यानी गुनाह की वाज़ेह और आलमगीर हक़ीक़त और नजात की ज़रूरत में यहूदीयों, यूनानियों और दीगर अक़्वाम (ग़ैर-क़ौमों) के अफ़राद में किसी तरह का फ़र्क़ नहीं। ख़ुदावंद यसूअ मसीह कुल बनी-नूअ इन्सान का मुनज्जी है। (इफ़िसियों 2:11 ता 14)

रसूलों की तहरीरात और मसीहीय्यत की आलमगीरी

इन्जील जलील सत्ताईस (27) कुतुब और मक्तुबात पर मुश्तमिल है और यह तमाम किताबें ख़ुदावंद के मुख़्तलिफ़ रसूलों ने इसी मक़्सद के लिए लिखीं कि यहूद और ग़ैर-यहूद दोनों को नजात का इल्म हो जाए। इन्जील नवीसों ने अपनी अनाजील इस बात को ज़ाहिर करने के लिए तहरीर कीं कि मुनज्जी-ए-आलमीन कुल अक़्वाम (सारी क़ौमों) का नजातदिहंदा है और अक़्वाम आलम (सारी दुनिया की क़ौमों) को मालूम हो जाए कि “मसीह के नाम से ग़ैर-कौमें उम्मीद रखेंगी।” (मत्ती 12:21) ताकि “सब क़ौमों में इन्जील की मुनादी की जाये, ताकि उनके लिए गवाही हो।” (मर्क़ुस 10:9 ता 10) मज़ीदबराँ जिन बातों की ग़ैर-यहूद अक़्वाम ने ताअलीम पाई है उनकी पुख़्तगी उनको मालूम हो जाए।” (लूक़ा 1:4) ताकि “तुम ईमान लाओ कि यसूअ ही ख़ुदा का बेटा मसीह है और ईमान ला कर उस के नाम से ज़िंदगी पाओ।” (यूहन्ना 20:31) रसूलों के आमाल में उन तब्लीग़ी मसाई (कोशिशों) का मुफ़स्सिल ज़िक्र है, जो ख़ुदावंद मसीह की मौत के बाद ही यहूद और ग़ैर-यहूद दोनों में की गईं। पौलुस रसूल के मक्तुबात (खुतूत) एक मुबल्लिग़ मसीहीय्यत के ख़ुतूत हैं, जो आपने वक़्तन फ़वक़्तन तब्लीग़ी ज़रूरीयात के मातहत अपने नव-मुरीदों (नए शागिर्दों) को लिखे थे। इन सब का अव्वल और आख़िरी मक़्सद और इब्तिदा और इंतिहा और इल्लत-ए-ग़ाई (हासिल, सबब) अलिफ़ से लेकर य तक सिर्फ यही है कि “ये बात सच्च है और हर तरह से क़ुबूल करने के लायक़ है कि यसूअ मसीह गुनेहगारों को नजात देने के लिए दुनिया में आया।” (1 तीमुथियुस 1:15) मुक़द्दस यूहन्ना अपने मुख़ातबों को कहता है कि “हम इस ज़िंदगी के कलाम की बाबत जिसे हमने देखा तुमको ख़बर देते हैं, ताकि तुम भी हमारे शरीक हो और हमारी शराकत बाप के साथ और उस के बेटे यसूअ मसीह के साथ है और यह बातें हम इसलिए लिखते हैं कि हमारी ख़ुशी पूरी हो जाएगी।” (1 यूहन्ना पहला बाब 1 ता 4 आयत) इन्जील जलील की कुतुब के मुसन्निफ़ों के अल्फ़ाज़ इस ज़िंदगी के तजुर्बे को बयान करने से क़ासिर रहते हैं और वह हर मुम्किन तौर पर इस तजुर्बे को ज़ाहिर करने के लिए अल्फ़ाज़ और मुहावरात वज़ाअ करते हैं, ताकि कुल दुनिया पर ये हक़ीक़त रोज़ रोशन की तरह मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हो जाए कि मसीह कल, दुनिया का मुनज्जी (नजात-दहिंदा) है और जो इब्ने-अल्लाह (मसीह) के क़दमों में आ जाते हैं वो “अज़ सर-ए-नौ पैदा” हो जाते हैं। वो “तारीकी से निकल कर नूर में दाख़िल हो जाते हैं। वो नए मख़्लूक़ हैं और नजात याफ्तागान के गिरोह में शामिल” हो गए हैं। मुकाशफ़ात के मुसन्निफ़ पर पौलुस रसूल और “पोलुसी अक़ाइद” का रत्ती भर असर साबित नहीं, लेकिन वो नजात याफ्तागान की रोया (कश्फ़) देखते वक़्त ना सिर्फ अहले-यहूद को ही नजात याफ्ताह लोगों की सफ़ में देखता है, बल्कि दुनिया के ममालिक की अक़्वाम (क़ौमों) को भी वहां देखता है और लिखता है। “इन बातों के बाद जो मैंने निगाह की तो क्या देखता हूँ कि, हर एक क़ौम और क़बीले और उम्मत और अहले-ज़बान की एक ऐसी भीड़ जिसको कोई शुमार नहीं कर सकता बर्रे (सय्यदना मसीह) के आगे खड़ी है और बड़ी आवाज़ से कहती है कि, नजात हमारे ख़ुदा की तरफ़ से है।” (मुकाशफ़ा 7:9)

बख़ोफ़-ए-तवालत हम इन्जील जलील की कुतुब के इक़तिबासात करने से परहेज़ करते हैं, क्योंकि इस मौज़ू पर इस कस्रत से आयात हैं कि अगर हम उनको नक़्ल करने लगें तो तमाम इन्जील की इन्जील हमको नक़्ल करनी पड़ेगी।

तूही नादाँ चंद कलीयों पर क़नाअत कर गया

वर्ना गुलशन में ईलाज तंगी दामाँ भी है

जिस शख़्स ने इन्जील की कुतुब का सतही मुतालआ भी किया है, उस के लिए ये एक वाज़ेह और रोशन हक़ीक़त है कि इन्जील जलील की हर किताब का हर सफ़ा इस बात का शाहिद (गवाह) है कि सय्यदना मसीह कुल दुनिया की अक़्वाम (क़ौमों) के नजातदिहंदा हैं। मसीहीय्यत की तब्लीग़ के मुताल्लिक़ जो ताअलीम और अहकाम इन कुतुब में हैं वो सिर्फ़ चंद मुंतशिर आयात पर ही महदूद नहीं हैं, बल्कि अह्दे-जदीद के रग व रेशे में मौजूद हैं। इस में कोई सहीफ़ा ऐसा नहीं जिसमें तब्लीग़ी काम और कोशिश और तब्लीग़ी अहकाम व मसाई (कोशिश) का ज़िक्र ना हो। पस इन्जील जलील की तमाम किताबें और सहीफ़े बयेक आवाज़, हमको बतलाते हैं कि सय्यदना मसीह के हवारी (शागिर्द) और रसूल जो हर वक़्त आपके साथ रहते थे और आप के ख़यालात, जज़्बात, अहकाम व हिदायात, से कमा-हक़्क़ा वाक़िफ़ थे, यही मानते और ताअलीम देते चले आए कि सय्यदना मसीह दुनिया के तमाम गुनेहगारों का नजात देने वाला है। (1 कुरिन्थियों 15 बाब)

फ़स्ल पंजुम

मसीही कलीसिया का तर्ज़-ए-अमल

गुज़शता फ़स्ल में हमने देखा है कि इन्जील जलील की कुतुब जो मसीही कलीसिया में इब्तिदा ही से मुरव्वज थीं, तब्लीग़ के फ़र्ज़ को बार-बार हर मसीही के कंधों पर रखती हैं। ये कुतुब इस बात को साबित करती हैं कि इब्तिदा ही से मसीहीय्यत ने और मसीही कलीसिया ने तस्लीम किया है कि सय्यदना मसीह की नजात का पैग़ाम दुनिया के हर फ़र्द बशर (इंसान) के लिए है और कलीसिया का ये फ़र्ज़ है कि इस पैग़ाम को अकनाफ़ (कन्फ़ की जमा, अतराफ़, सिम्तें) आलम तक पहुंचाए।

ये अम्र निहायत माअनी-ख़ेज़ है कि बफ़र्ज़ मुहाल अगर इब्तिदाई कलीसिया में कोई ऐसी किताबें या रिसाले थे जिनमें तब्लीग़ी अहकाम और तब्लीग़ी फ़र्ज़ का ज़िक्र नहीं था तो ऐसी किताबों की कलीसिया ने पर्वाह तक ना की और वो गुर ग़फ़लत में ही गल सड़ गईं और कलीसिया ऐसी किताबों की पर्वाह करती भी कैसे, जब वो उस के मुनज्जी (मसीह) के अक़्वाल, हिदायात, अहकाम, लाएहा-ए-अमल और तर्ज़-ए-अमल के ऐन नक़ीज़ (मुख़ालिफ़) थीं और उस के रसूलों के अहकाम, अक़्वाल, तहरीरात और तरीक़-ए-अमल की भी मुख़ालिफ़ थीं। अगर बफ़र्ज़-ए-मुहाल ऐसी कुतुब कभी माअ्रज़े वजूद में आईं तो कलीसिया-ए-जामा ने ऐसी कुतुब को मुत्तफ़िक़ा आवाज़ से रद्द कर दिया और उन को अहद-ए-जदीद की कुतुब के मजमूए में शर्फ़-ए-शमूलीयत ना मिला। अहद-ए-जदीद का वजूद इस बात का ज़िंदा गवाह है कि इब्तिदाई ज़माने ही से कुल कलीसिया-ए-जामा ये मानती चली आई है कि सय्यदना मसीह कुल आलम का मुनज्जी (पूरी दुनिया को नजात देने वाला) है और मसीहीय्यत एक आलमगीर मज़्हब है। जिसके उसूल ही ऐसे हैं जो आलमगीर हैं। ख़ुदा की मुहब्बत और इन्सानी हुक़ूक़ मसीहीय्यत की इमारत के कोने के पत्थर हैं। इन्जील के मअनी ही ख़ुशख़बरी है जो हर शख़्स के लिए है। इस की नजात के दायरे से कोई मुल़्क, क़ौम, क़बीला, जमाअत या फ़र्द ख़ारिज नहीं है, बल्कि वो कुल बनी-नूअ इन्सान पर हावी है। कलीसिया-ए-जामा और अहद-ए-जदीद की ताअलीम के मुताबिक़ “ग़ैर क़ौम” होना किसी की क़ौमीयत पर मुन्हसिर नहीं क्योंकि ये क़ौमीयत का मुआमला नहीं, बल्कि रुहानी और अख़्लाक़ी मुआमला है। “ग़ैर-क़ौम” सिर्फ वही है जो दीदा दानिस्ता जान-बूझ कर अपने आपको ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस की मुहब्बत-ए-बे-कराँ से अलैहदा रखता है।

(2)

मसीहीय्यत की आलमगीरी का सबूत ना सिर्फ मुनज्जी-आलमीन (मसीह) के हवारियों ने ही अपनी ताअलीम और तर्ज़-ए-ज़िंदगी से दिया बल्कि इब्तिदा से लेकर दौर-ए-हाज़रा तक हर मुल्क और क़ौम की कलीसियाओं ने ग़ैर-मसीहीयों के पास मुबल्लग़ीन भेजे और अपने तर्ज़-ए-अमल से साबित कर दिया कि वो अपने नजातदिहंदा के लाएहा-ए-अमल और कलिमात-ए-तय्यिबात पर अमल पैरा है। मसीही कलीसिया में बीसों (20) तफ़र्क़े और बिद्अतें पैदा हुईं, लेकिन तब्लीग़ दीन और इन्जील जलील की इशाअत के फ़र्ज़ को सब कलीसियाओं ने बेयक आवाज़ तस्लीम किया। ये अम्र किसी ज़माने में भी कलीसिया की तवारीख़ में मुतनाज़ा फिया (वो चीज़ जिसकी बाबत झगड़ा हो) ना हुआ। मशरिक़ और मग़रिब की कलीसियाएं इन्जील जलील की इशाअत को मूजिबे सआदत ही ख़्याल करती रहीं। चुनान्चे 150 ई॰ के क़रीब जस्टीन शहीद लिखता है कि :-

“हम माक़ूल वजूह की बिना पर मसीह यसूअ की परस्तिश करते हैं, क्योंकि वो हक़ीक़ी ख़ुदा का बेटा है। वो उस का इकलौता बेटा और कलिमतुल्लाह (उसका कलमा) है। वो कलाम की क़ुव्वत से ख़ुदा बाप की मर्ज़ी के मुताबिक़ एक कुँवारी से पैदा हुआ। वो दानिश का कलाम है जो ख़ुद ख़ुदा है वो ख़ुदा का कलिमा और दानिश और ताक़त और जलाल है।”

कोई क़ौम और मिल्लत ऐसी नहीं ख़्वाह यूनानी हो या वहशी या किसी नस्ल की हो ख़्वाह उस का नाम और तरीक़-ए-रिहाइश कुछ ही हो। ख़्वाह वो ग़ैर-मुहज़्ज़ब हो या ज़राअत से नावाक़िफ़ हो। ख़्वाह वो आबाद बस्तीयों में रहती हो या ख़ेमा बदोश हो। ग़रज़ कि कोई क़ौम और कोई क़बीला ऐसा नहीं रहा जिसमें मसीह मस्लूब के नाम से तमाम मख़्लूक़ात के ख़ालिक़ और बाप के हुज़ूर दुआ नहीं की जाती “यही मुसन्निफ़ हमको बतलाता है कि इब्तिदाई कलीसिया में तब्लीग़ का काम सिर्फ रसूल ही नहीं करते थे, बल्कि तमाम की तमाम मसीही कलीसिया मुबल्लग़ीन की एक अज़ीमुश्शान जमाअत थी।” इब्तिदाई मसीहीय्यत को फैलाने वाले वो लोग थे जिनका पेशा तब्लीग़ करना ना था बल्कि वो अपने मुख़्तलिफ़ पेशों के ज़रीये रोटी कमाते थे, लेकिन चूँकि वो रसूली जोश से भरे हुए थे लिहाज़ा मसीहीय्यत के अज़ीमुश्शान मुबल्लिग़ थे। इन मुबल्लग़ीन की मसाई (कोशिश) की वजह से कलीसिया की अज़ीमुश्शान बिरादरी इस क़द्र वसीअ हो गई कि दूसरी सदी का एक मुसन्निफ़ लिखता है कि :-

“मसीहीयों और दूसरे इंसानों में ज़बान या रसूम या मुल्क का फ़र्क़ नहीं वो जुदागाना शहरों में नहीं बस्ते। ना तो उनकी कोई ख़ास ज़बान है और ना उनके मुआशरती ताल्लुक़ात अलैहदा (अलग) हैं। वो जिस शहर या मुल्क में पैदा होते हैं वहीं बूद व बाश रखते हैं। उनकी ख़वारिक़, लिबास और तर्ज़ रिहाइश दूसरे इन्सानों की तरह है। ताहम वो कलीसियाई बिरादरी और मसीही उखुव्वत को अजीब और निराले तौर पर अपनी ज़िंदगीयों में ज़ाहिर करते हैं। वो तमाम बातों में अपने शहरी हुक़ूक़ को काम में लाते हैं। लेकिन इस तौर पर ज़िंदगी बसर करते हैं कि इस दुनिया के हो कर नहीं रहते। वो अपने मुल्क में परदेसीयों की मानिंद बसते हैं और परदेस मुल्क को अपना मुल्क तसव्वुर करते हैं। वो अपनी ज़िंदगी को इस मुल्क में बसर करते हैं लेकिन उनका हक़ीक़ी वतन आस्मान है। यहूद उन पर हमला-आवर होते हैं। यूनानी उनको ईज़ाएं पहुंचाते हैं, लेकिन उनके दुश्मन अपनी दुश्मनी की वजह बयान करने से कासिर हैं जिस तरह रूह बदन के हर हिस्से में मौजूद है, उसी तरह मसीही भी दुनिया के हर शहर में मौजूद हैं लेकिन जिस तरह रूह बदन का हिस्सा नहीं है इसी तरह मसीही दुनिया में रहते हैं लेकिन दुनिया के हो कर नहीं रहते।”

आयरेनियस (Irenaeus) 133 ता 203 निहायत साफ़ और वाज़ेह अल्फ़ाज़ में मसीह की आलमगीरी और लासानी हस्ती की निस्बत लिखता है।

“एक ख़ुदा है जो क़ादिर-ए-मुतलक़ है और एक यसूअ मसीह जो ख़ुदा का इकलौता बेटा है जिसके ज़रीये तमाम चीज़ें बनें और जो तमाम चीज़ों का बनाने वाला है, वो हक़ीक़ी नूर है जो हर एक आदमी को रोशन करता है। अगर कोई इन हक़ बातों को नहीं मानता तो वो मुनज्जी (मसीह) की तहक़ीर करता है और अपनी नजात का आप ही दुश्मन है।”

हम इब्तिदाई मसीहीयों की तस्नीफ़ात और आबा-ए-कलीसिया की तहरीरात से बीसों (20) ऐसे इक़तिबासात पेश कर सकते हैं जो इस अम्र के शाहिद (गवाह) हैं कि इब्तिदा ही से कलीसिया ने सय्यदना मसीह की आलमगीरीयत को माना और आपको ख़ुदा का इब्ने वहीद और मुनज्जी आलमीन (यानी मसीह को पूरी दुनिया का नजात देने वाला) जाना और इस बात पर पुख़्ता ईमान रखा कि जो मुकाशफ़ा ख़ुदा ने कलिमतुल्लाह (मसीह) के ज़रीये बनी-नूअ इन्सान को अता फ़रमाया है। वो क़तई है और तमाम आलम (पूरी दुनिया) के लिए है और कि इस मुकाशफ़ा के उसूल अबदी और लातब्दील हैं। जो ज़मान व मकान की क़ुयूद से आज़ाद होने की वजह से हर क़ौम और हर मिल्लत को सिरात-ए-मुस्तक़ीम पर चलाते हैं।

(3)

कलीसिया इन बातों को मह्ज़ ज़बानी जमा ख़र्च के तौर पर तस्लीम नहीं करती थी। तारीख़ इस बात की गवाह है कि :-

“मसीहीय्यत के बेशुमार और कामयाब मुबल्लिग़ सिर्फ़ वो ना थे जो मसीहीय्यत के प्रचारक (मुबल्लिग़) और मुअल्लिम थे, बल्कि मसीही जमाअत के अफ़राद अपने ईमान की ज़बरदस्त ताक़त की वजह से, इस के निहायत कामयाब और शानदार मुबल्लिग़ थे। इस मज़्हब का ये ख़ास्सा था कि हर शख़्स जो मसीह को अपना नजातदिहंदा मानता था, दूसरे लोगों में इस का प्रचार (तब्लिग़) करता था। हर मसीही को हुक्म था कि वो अपनी रोशनी इस तरह चमकाए कि बुत-परस्त इस रोशनी को देखकर क़ुबूल करें।”

इस जर्मन आलम के अल्फ़ाज़ दर-हक़ीक़त तमाम ममालिक की कलीसियाओं पर चस्पाँ हो सकते हैं। हर ज़माने में गुम-नाम मसीहीयों ने मुख़्तलिफ़ ममालिक में मसीहीय्यत की इशाअत की, तारीख़ उनके नामों से वाक़िफ़ नहीं, लेकिन उनके काम दफ्तर-ए-हयात में लिखे हैं। इन गुम-नाम मुबल्लग़ीन ने ज़बरदस्त कलीसियाओं को क़ायम किया। मिसाल के तौर पर हम नहीं जानते कि शामी कलीसिया की बुनियाद किस ने रखी लेकिन ये हम जानते हैं कि इस कलीसिया के मुबल्लग़ीन दूर व दराज़ के ममालिक मसलन जुनूबी हिन्दुस्तान और चीन तक पहुंच गए थे। हम ये नहीं जानते कि सिकंदरिया में किस ने मसीहीय्यत की इशाअत की लेकिन ये हम जानते हैं कि ये कलीसिया इल्म व फ़ज़्ल के लिहाज़ से यगाना (अज़ीज़, रिश्तेदार) रोज़गार थी। हम नहीं जानते कि रोम में किस ने मसीहीय्यत की बुनियाद डाली, लेकिन ये हम जानते हैं कि रूमी कलीसिया इब्तिदा ही से कलीसिया-ए-जामा की ज़बरदस्त शाख़ रही है। हर मसीही मसीहीय्यत की इशाअत को अपना फ़र्ज़ अव्वलीन ख़्याल किया करता था। चुनान्चे 197 में टरटोलेन लिखता है कि :-

“हम ब-मुक़ाबला दीगर मज़ाहिब-ए-बातिला के अभी कल के बच्चे हैं लेकिन हमने शहरों, जज़ीरों, ख़ेमों और बाज़ारों को मामूर कर रखा है। हमारी कोशिशों की वजह से अब सिर्फ ख़ाली मंदिर ही तुम्हारे पास रह गए हैं।”

ग़रज़ कि दूसरी सदी के आख़िर तक मशरिक़ी कलीसिया के नामवर और गुमनाम मुबल्लग़ीन मग़रिब की इंतिहा तक हर सूबे में गए। उन्होंने अपनी जानों को हथेली पर रखा, उन सरफ़रोश सलीब के जाँ-निसारों ने सफ़र की तक़्लीफों, ज़माने की सऊबतों, बादशाहों की ईज़ा रसानियों (सताव) की पर्वाह तक ना की और आज मग़रिबी ममालिक की कलीसियाओं का वजूद मशरिक़ी कलीसियाओं की इऩ्ही मसाई (कोशशों) का नतीजा है।

बे-ख़तर कुद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़

अक़्ल थी महूवे तमाशा ए लब-ए-बाम अभी

इसी तरह दौर-ए-हाज़रा में मशरिक़ी ममालिक की कलीसियाओं का वजूद मग़रिबी कलीसियाओं की कोशिशों का नतीजा है। रासिख़-उल-एतक़ाद कलीसियाओं ने अपने मुबल्लग़ीन को दूर-दराज़ के ममालिक में भेजा जो कोह व दश्त बियाबान और संगलाख़ पहाड़ों में से गुज़र कर दुशवार गुज़ार रास्तों को तै करके दुनिया के हर मुल्क में पहुंचे और उन्हों ने हर क़ौम को कलिमतुल्लाह (मसीह) की ताअलीम और नजात के पैग़ाम के नूर से मुनव्वर कर दिया।

कि ख़ून सद-हज़ार नज्म से होती है सहर पैदा

(4)

बिद्अती कलीसियाएं भी जैसा हम ज़िक्र कर चुके हैं मसीहीय्यत की इशाअत में सरगर्म रहीं। मिसाल के तौर पर हम यहां सिर्फ एक बिद्अती कलीसिया यानी नस्तूरी कलीसिया का ज़िक्र करते हैं जिसके ज़ेर-ए-असर रसूल अरबी ने रुहानी ताअलीम और तर्बीयत पाई थी। मुअर्रिख़ नील हमको बतलाता है कि :-

“नस्तूरी मसीहीयों ने अपने खे़मे ख़ाना-ब-दोश तातारियों के ख़ेमों में जा नसब किए। तब कालामाअन (کالاماان) के मुँह की बातों से हिरासाँ था। पंजाब के चावलों के खेतों में वो इन्जील की मुनादी करते थे। बहर-ए-आराल (بحر ِ آرال ) के मछली पकड़ने वाले उनसे ताअलीम पाते थे। मंगोलिया के लुक दोक (सहरा, अस्ल तुर्की) ब्याबान में से वो अपनी जान जोखों में डाल कर गुज़र गए। मशहूर सुनगिन फ़ौके कुतबे-जात इस बात की शहादत (गवाही) देते हैं कि उन्होंने मसीहीय्यत के लिए चीन को फ़त्ह कर लिया था। हिन्दुस्तान के मलयाली राजे उनके दीनी इख़्तियार की इज़्ज़त करते थे। ग्यारवीं सदी में नस्तूरी बतरीक़ का इख़्तियार इस क़द्र वसीअ था कि उस के मातहत पच्चीस (25) सदर उस्क़ुफ़ थे जान का इख़्तियार चीन से लेकर दजला तक और झील बैकाल से लेकर रास कुमारी था।”

(5)

अगरचे दौर-ए-हाज़रा में मसीहीय्यत बीसों (20) फ़िर्क़ों पर मुश्तमिल है लेकिन इन फ़िर्क़ों में से एक फ़िर्क़ा भी आपको ऐसा ना मिलेगा जो ये तस्लीम ना करता हो कि उस की हस्ती का वाहिद मक़्सद और इल्लत-ए-ग़ाई (वजह) यही है कि दुनिया को अपने मुनज्जी (मसीह) के क़दमों में लाए। आज दुनिया का कोई मुल्क और कोई क़ौम ऐसी नहीं रही जिसमें मसीही कलीसिया तब्लीग़ के काम को सरअंजाम ना देती हो। फ़ी ज़माना मसीही कलीसिया ने बाइबल शरीफ़ का तर्जुमा एक हज़ार (1000) ज़बानों में करके सलीब के लाखों इल्म बर्दारों को दुनिया के हर मुल़्क, सूबा, शहर बल्कि गांव-गांव में भेजा है ताकि दुनिया के तमाम ममालिक और नूअ इन्सानी की कुल अक़्वाम को नजात का इल्म हो जाए और इस मुबारक मक़्सद की ख़ातिर करोड़ों बल्कि अरब हा रुपया हर साल निसार कर देती है ताकि वो किसी ना किसी तरह अपने तब्लीग़ के फ़र्ज़ को पूरा करे और हर फ़र्द बशर को मुनज्जी-ए-कौनैन (मसीह) की जाँ-फ़ज़ाँ (दिल ख़ुश करने वाली) नजात का मुज़्दा मिल जाये।

फ़स्ल शश्म

क़ुरआन और मसीहीय्यत की आलमगीरी

सुतूर बाला में हमने अहले इस्लाम और दीगर ग़ैर-मसीहीयों को मुख़ातब करके साबित कर दिया है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) की ताअलीम आलमगीर (पूरी दुनिया के लिए) है और आप मुनज्जी-आलमीन (दुनिया को नजात देने वाले) और रहमत-उल-आलमीन (पूरी दुनिया के लिए रहमत) हैं। अब हम ख़ास अहले इस्लाम से मुख़ातब हो कर इंशा-अल्लाह क़ुरआन से साबित करेंगे कि ख़ुदा ने ख़ास क़ौम यहूद को चुन लिया था ताकि उस के ज़रीये दुनिया को ख़ुदा का इल्म हासिल हो और मसीही कुतुब मुक़द्दसा तमाम जहान की हिदायत के लिए हैं और मसीहीय्यत का पैग़ाम अहले-यहूद तक ही महदूद नहीं बल्कि कुल बनी-नूअ (तमाम) इन्सान के लिए है।

इन उमूर को हमने मसीही कुतुब मुक़द्दसा से साबित किया है और चूँकि क़ुरआन मसीही कुतुब मुक़द्दसा का मुसद्दिक़ होने का दाअ्वा करता है लिहाज़ा वो हमारे मज़्कूर बाला नताइज की भी तस्दीक़ करता है।

(1)

हमने फ़स्ल दोम व सोम में इस अम्र को मनक़ूली और माअक़ूली (तहरीरी और अक़्ली) दलाईल से वाज़ेह किया है, कि ख़ुदा ने क़ौम यहूद को चुन लिया था ताकि वो तमाम दुनिया पर ख़ुदा के इल्म और तौहीद को फैलाए। इस हक़ीक़त को क़ुरआन इन अल्फ़ाज़ में बयान करता है “और बातहक़ीक़ हमने बनी-इस्राईल को किताब और हुक्म और नबुव्वत अता की। और उन को तमाम आलम पर फ़ौक़ियत दी।” (सूरह जासिया आयत 15) “ऐ बनी-इस्राईल मेरे उस फ़ज़्ल को याद करो जो मैंने तुम पर किया और यह कि सारे जहान के लोगों पर मैंने तुमको फ़ज़ीलत बख़्शी।” (बक़रह आयत 44) “हमने आले-इब्राहिम को किताब दी और इल्म बख़्शा।” (निसा आयत 52) “बातहक़ीक़ हमने नूह और इब्राहिम को भेजा और दोनों की औलाद में पैग़म्बरी रखी।” (हदीद आयत 26) “हमने इब्राहिम को इस्हाक़ और याक़ूब दिया और उस की औलाद में नबुव्वत और किताब को रखा।” (अन्कबूत आयत 27) क्या कोई शख़्स इन अल्फ़ाज़ से ज़्यादा वाज़ेह अल्फ़ाज़ में हमारे उन क़ज़ाया (क़ज़ीया की जमा, फ़िक़्रे जुम्ले) की तस्दीक़ कर सकता है कि बनी-इस्राईल को ख़ुदा ने तमाम अक़्वाम (क़ौमों) पर फ़ौक़ियत बख़्शी और उन में अपना इल्म वदीअत फ़रमाया। उनकी औलाद को रिसालत, नबुव्वत और किताब अता फ़रमाई ताकि उनके ज़रीये अक़्वाम आलम (पूरी दुनिया की क़ौमें) ख़ुदा की मार्फ़त और इल्म को हासिल करें।

(2)

हमने इस रिसाले की फ़स्ल दोम में लिखा था कि यहूदी अम्बिया का मतमाअ नज़रिया था कि उनकी कुतुब मुक़द्दसा तमाम ग़ैर-यहूद के लिए “नूर” हैं और उनके वसीले ख़ुदावंद की “नजात दुनिया के किनारों तक” पहुँचेगी (यसअयाह 49:6) और कि “इस्राईल क़ौमों के दर्मियान बरकत का बाइस ठहरेगा।” (यसअयाह 19:23 ता 25) क़ुरआन इस हक़ीक़त का एतराफ़ मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में निहायत साफ़ और वाज़ेह अल्फ़ाज़ में करता है। हम इख़्तिसार को मद्द-ए-नज़र रखकर सिर्फ़ चंद मुक़ामात का हवाला देते हैं, “बातहकीक हमने मूसा को हिदायत दी और विरासत दी। बनी-इस्राईल को किताब दी जो समझ वालों को राह दिखलाने वाली और याद दिलाने वाली है।” (मोमिन आयत 55) “फिर हमने मूसा को किताब दी जो अहसन बात पर कामिल है और हर शैय की तफ़्सील और हिदायत और रहमत है।” (इनाम आयत 155) “बातहकीक हमने उतारी तौरात जिसमें हिदायत और नूर है।”

पस क़ुरआन मुनज्जी आलमीन (दुनिया के नजात-दहिंदा मसीह) के इस क़ौल का मुसद्दिक़ है कि “नजात यहूदीयों में से है।” (यूहन्ना 4:22) क़ुरआन निहायत वाज़ेह और ग़ैर-मुबहम (यानी साफ़ साफ़) अल्फ़ाज़ में अपने पैरौओं (मानने वालों) को बतलाता है कि ख़ुदा ने आले-इब्राहिम में नबुव्वत और किताब रखी जो हिदायत है, रहमत है, नूर है। वो दुनिया जहान को राह दिखलाने वाली है ताकि उस के ज़रीये सारी मख़्लूक़ ख़ुदा का इल्म हासिल करे और उस की नजात दुनिया के किनारों तक पहुंच जाये। नाज़रीन ने ये नोट किया होगा कि क़ुरआन मजीद यहूद की कुतुब मुक़द्दसा के लिए वही अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करता है जो सहाइफ़ अम्बिया में वारिद हुए हैं यानी “नूर” और “हिदायत।”

(3)

अब हम क़ुरआन मजीद से ये साबित करेंगे कि किताब मुक़द्दस तमाम दुनिया के लिए नूर और हिदायत है और कि वो ना सिर्फ अहले-यहूद के लिए ही नूर और हिदायत है बल्कि तमाम दुनिया की अक़्वाम (तमाम क़ौमों) के लिए नूर है और कि बाइबल मुक़द्दस के अहकाम कुल बनी-नूअ इन्सान पर हावी है। “वो किताब जो मूसा लाया बनी-नूअ इन्सान के लिए नूर और हिदायत है।” (इनाम आयत 96) “हमने मूसा को किताब दी जो बनी-नूअ इन्सान के लिए बसीरत हिदायत और रहमत है शायद कि वो लोग नसीहत क़ुबूल करें।” (क़िसस आयत 43) “बातहकीक हमने मूसा और हारून को फ़र्मान दिया जो ख़ुदा परस्तों के वास्ते नूर और नसीहत है।” (अम्बिया आयत 49) और मबादा (बाद में) मुसलमान ये ख़्याल करें कि ये कुतुब समावी (आस्मानी किताबें) उनके वास्ते नहीं क़ुरआन कहता है “ऐ ईमान वालो! ईमान लाओ अल्लाह पर और उस के रसूल पर और इस किताब पर जो उस ने रसूल पर उतारी और उस किताब पर जो इस से पहले उतारी और जो कोई मुन्किर हुआ अल्लाह से उस के फ़रिश्तों से, और उस की किताबों से और उस के रसूलों से वो दूर की गुमराही में जा पड़ा।” (निसा आयत 35) “ऐ पैग़म्बर, ईमानदार वह हैं जो इस पर यक़ीन करते हैं जो तुझ पर उतरा और जो तुझसे पहले उतरा।” मसीही कुतुब मुक़द्दसा ना सिर्फ अहले-इस्लाम के लिए ही मुस्तनद हैं और उन पर ही इन किताबों के अहकाम की बजा आवरी लाज़िम है, बल्कि ख़ुद रसूल अरबी इन कुतुब मुक़द्दसा के अहकाम पर चलना मूजिब सआदत ख़्याल फ़रमाते थे। “ऐ पैग़म्बर तू कह, (ऐ मुन्किरों) अगर तुम सच्चे हो तो अल्लाह की तरफ़ से कोई ऐसी किताब लाओ जो हिदायत में इन दोनों (क़ुरआन व तौरात) से बढ़कर हो, तो मैं उसी पर चलने लगूँगा।” (क़िसस आयत 49) बल्कि क़ुरआन में अल्लाह ने आँहज़रत को हुक्म दिया है कि “अगर तू इस की तरफ़ से जो हम ने तेरी तरफ़ उतारी शक में है तो उनसे पूछ जो तुझसे पहले वाली किताब (बाइबल) पढ़ते हैं। बातहकीक तेरे पास रब से हक़ आया है, पस तो शक करने वालों में से मत हो।” (यूनुस आयत 94) क्या इस से ज़्यादा ज़बरदस्त शहादत (गवाही) मुम्किन हो सकती है? इन चंद इक़तिबासात से ज़ाहिर है कि मसीही कुतुब मुक़द्दसा ना सिर्फ अहले-यहूद के लिए बल्कि कुल बनी-नूअ इन्सान के लिए। दुनिया जहान के परहेज़गारों के लिए, अहले-इस्लाम के लिए और पैग़म्बर इस्लाम के लिए हिदायत, रहमत और नसीहत हैं जिनके अहकाम की बजा आवरी हर मोमिन मुसलमान पर फ़र्ज़ है।

हमारे बाअज़ मुस्लिम बिरादरान अपने हम मज़्हबों को क़ुरआन की मुख़ालिफ़त में किताब मुक़द्दस के मुतालआ (करने) से ये कह कर रोकते हैं कि बाइबल शरीफ़ मुहर्रिफ़ (बदल दी गई, तहरीफ़) हो गई है। लेकिन ये दाअवा सरासर बातिल और बे-बुनियाद है। हमने अपनी किताब “सेहत-ए-कुतुब मुक़द्दसा” में ये साबित कर दिया है कि किताब मुक़द्दस की सेहत लाजवाब है और इस सबूत में हमने तारीख़ी दलाईल दिए हैं। हमको उम्मीद है कि इस किताब को ग़ौर से पढ़ेंगे और देखेंगे कि किताब मुक़द्दस की सेहत के बारे में तारीख़ क़ुरआन की मुसद्दिक़ है।

(4)

अब हम क़ुरआन मजीद से साबित करेंगे कि सय्यदना मसीह का पैग़ाम अहले-यहूद तक महदूद ना था, बल्कि कुल दुनिया की अक़्वाम (पूरी दुनिया की क़ौमों) के लिए था। सूरह मोमिनीन में वारिद है, “बातहकीक हमने मूसा को किताब इस ग़र्ज़ से दी कि लोग इस से हिदायत पाएं और हम ने मर्यम के बेटे और उस की माँ को (अपनी क़ुदरत की) निशानी बनाया।” (सूरह मोमिनीन आयत 51 तर्जुमा नज़ीर अहमद) ये ज़ाहिर है कि ख़ुदा की निशानीयां सिर्फ़ अहले-यहूद तक ही महदूद नहीं हो सकतीं क्योंकि वह तमाम कायनात के लिए हैं। पस इस आया शरीफा का ये मतलब है कि इब्ने-मरियम आयत-उल्लाह (यानी अल्लाह की निशानी, आयत) हैं और कुल जहान के लिए ख़ुदा की क़ुदरत की निशानी तमाम ज़मानों के लिए हैं ताकि आपके ज़रीये ख़ुदा की क़ुदरत का ज़हूर बनी-नूअ इन्सान पर हो। तब ही क़ुरआन कहता है कि “जो लोग अल्लाह की निशानीयों से मुन्किर हुए उनके वास्ते सख़्त अज़ाब है।” (इमरान आयत 4)

मुनज्जी-जहां (दुनिया के नजात-दहिंदा मसीह) के आलमगीर मिशन के मुताल्लिक़ क़ुरआन मजीद कहता है कि “ऐ पैग़म्बर ख़ुदा ने तुम पर ये किताब बरहक़ उतारी जो उन आस्मानी किताबों की तस्दीक़ करती है जो इस से पहले नाज़िल हो चुकी हैं और उसी ने इस से पेशतर बनी-नूअ इन्सान की हिदायत के लिए तौरात और इन्जील को उतारा।” (इमरान आयत 2) “हमने ईसा को इन्जील दी जिसमें हिदायत और रोशनी है जो तस्दीक़ करती है तौरात की और परहेज़गारों के लिए हिदायत और नसीहत है।” (माइदा आयत 45) यहां वाज़ेह अल्फ़ाज़ में सराहत के साथ इस हक़ीक़त का इक़बाल किया गया है कि इन्जील जलील का पैग़ाम ना सिर्फ अहले-यहूद के लिए ही था बल्कि कुल अक़्वाम आलम (साड़ी दुनिया की क़ौमों) के परहेज़गारों के लिए है। ख़ुदा ने इस को ना सिर्फ परहेज़गारों के लिए नाज़िल किया था, बल्कि बनी-आदम के लिए नाज़िल किया था। लिहाज़ा कुल बनी-नूअ इन्सान पर फ़र्ज़ है कि इस पर ईमान रखें। यही वजह है कि क़ुरआन मुसलमानों को हिदायत करता है कि “तुम कहो कि हम ईमान रखते हैं अल्लाह पर और जो नाज़िल हुआ हम पर और इब्राहिम और इस्माईल और इस्हाक़ और याक़ूब और इस्राईली फ़िर्क़ों पर और जो मिला ईसा को और मूसा को और नबियों को।”

क्या मसीहीय्यत की किताबों और कलिमतुल्लाह के पैग़ाम के आलमगीर (पूरी दुनिया के लिए) होने की शहादत (गवाही) इस से ज़्यादा ज़बरदस्त हो सकती है कि ख़ुद सय्यदना मसीह आयत-उल्लाह, रूह-उल्लाह, कलिमतुल्लाह (यानी अल्लाह की आयत, अल्लाह की रूह, अल्लाह का कलमा آیت الله، روح الله ، کلمتہ الله) क़रार दिए जाएं। मसीही कुतुब मुक़द्दसा बनी-नूअ इन्सान के लिए उमूमन और अक़्वाम आलम (दुनिया की क़ौमों) के परहेज़गारों के लिए ख़ुसूसुन हिदायत, इमाम, रहमत, नूर और नसीहत वग़ैरह क़रार दी जाएं और मोमिनीन और मोमिनात पर उनके अहकाम की तबईत फ़र्ज़ कर दी जाये। चुनान्चे सूरह माइदा में है कि (ومن لمہ یحکمہ بما انزل الله فاولئک ھمہ الکافرون) यानी जो शख़्स ख़ुदा की नाज़िल कर्दा किताब पर अमल नहीं करता वो काफ़िर है। इमाम राज़ी इस आयत की तफ़्सीर में फ़रमाते हैं कि :-

“इस जुम्ले में लफ़्ज़ “मन” (من) शर्त की जगह पर वाक़ेअ हुआ है लिहाज़ा इस का इतलाक़ बिल-उमूम सब पर है।”

अब भी अगर कोई मोमिन मुसलमान कलिमतुल्लाह की आलमगीरी (यानी मसीह का पूरी दुनिया के लिए होने) को ना माने तो दिक़्क़त से कि वो इस नुक्ते को क़ुरआन से समझ ले, वर्ना क़ुरआन इस से समझ लेगा।

अगर अब भी ना समझो तो फिर तुमको ख़ुदा समझे।

वमा अलैना इल्लल-बलाग़

وَماَ عَلیناَ اِلالبلاَغ