ये साफ़ शहादत (गवाही) ख़ुदावन्द यसूअ के कफ़्फ़ारा गुनाहाँ (गुनाह की जमा) बनी-आदम होने की निस्बत एक ऐसी बर्गुज़ीदा व मक़्बूल रसूल की है, जिसकी रिसालत यहूदीयों, मसीहों, और मुहम्मदियों के नज़्दीक बिल-इत्तिफ़ाक़ वाजिब
Lamb of God
खुदा का बर्रा
By
One Disciple
एक शागिर्द
Published in Nur-i-Afshan April 27, 1894
नूर-अफ्शाँ मत्बूआ 27 अप्रैल 1894 ई॰
“दूसरे दिन यसूअ को अपने पास आते देखा। और कहा, देखो ख़ुदा का बर्रा, जो जहान का गुनाह उठा ले जाता है।”
ये साफ़ शहादत (गवाही) ख़ुदावन्द यसूअ के कफ़्फ़ारा गुनाहाँ (गुनाह की जमा) बनी-आदम होने की निस्बत एक ऐसी बर्गुज़ीदा व मक़्बूल रसूल की है, जिसकी रिसालत यहूदीयों, मसीहों, और मुहम्मदियों के नज़्दीक बिल-इत्तिफ़ाक़ वाजिब-उल-तस्लीम है। और जब उस की रिसालत बला इख़्तिलाफ़ वाजिब-उल-तस्लीम (मानने के लायक़) है, तो ज़रूर उस की शहादत (गवाही) भी जो उस ने मसीह के हक़ में दी वाजिब-उल-तस्लीम ठहरेगी। यूहन्ना ने (जिसको क़ुरआन में यहया कहा गया है) उस वक़्त मसीह को अपने पास आते देखकर, ख़ुदा का बेटा, या इस्राईल का बादशाह ना कहा। जैसा कि नथानएल ने उस की आलिम-उल-गैबी (ग़ैब का इल्म जानना) का क़ाइल व मुअतक़िद (एतिक़ाद रखना) हो कर कहा था। लेकिन ये नाम दिया “ख़ुदा का बर्रा” और उस के नाम से उस ने इब्न-अल्लाह (मसीह) के मुजस्सम हो कर, अपने को कफ़्फ़ारे में गुज़राँने, और ईमानदारों के लिए राह-ए-नजात खोलने के मक़ासिद पर साफ़ गवाही दे दी। ये यूहन्ना ही की मुजर्रिद (तन्हा) गवाही ना थी, बल्कि उस से सात सौ (700) बरस पेश्तर यसअयाह नबी ने अपने सहीफ़े के 53 वें बाब में निहायत वज़ाहत के साथ मसीह के हक़ में यूं पशेंगोई की थी, कि “वो जैसे बर्रा जिसे ज़ब्ह करने ले जाते और जैसे भेड़ अपने बाल कतरने वालों के आगे बेज़बान है उसी तरह उस ने अपना मुंह ना खोला।”
अब वो लोग जो मसीह की कफ़्फ़ारा आमेज़ मौत के मुन्किर (इंकारी) हैं, और नहीं चाहते कि वो ख़ुदा का बर्रा जो जहान के गुनाह उठा ले जाता है उन के गुनाहों को भी उठा ले जाये यसअयाह और यहया जैसे बुज़ुर्ग और मक़्बूल नबियों की शहादतों से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) (मुख़ालिफ़त) करके अपने अक़्ली दलाईल से ताअलीम-ए-कफ़्फ़ारा, और मसीह की मौत की तर्दीद (रद्द करना) से ना-हक़ औराक़ स्याह कर रहे हैं। और नहीं जानते कि तालिबाने हक़ के लिए ऐसी इल्हामी शहादतों के मुक़ाबले में उन की तमाम तहरीरो तक़रीर रेग (रेत) या संग (पत्थर) से ज़्यादा वक़अत (क़द्र) नहीं रखती। क्या ये मुम्किन है कि किसी ग़ैर-मुलहम (इल्हाम किया हुआ) शख़्स की बातों को मुलहम् अश्ख़ास की साफ़ व सरीह (वाज़ेह) शहादतों पर फ़ौक़ियत (बरतरी) दी जाये, और सही तवारीख़ी माजरों के ख़िलाफ़ सुनी सुनाई रिवायतों पर अमल व यक़ीन किया जाये? शायद वो आदमी जो गुनाह की मोहलिक बीमारी के नताइज से नावाक़िफ़ हो, और अपनी ग़ैर-फ़ानी रूह की क़द्र व मन्ज़िलत का शनासा (जानता) ना हो ऐसे मोअतबर अश्ख़ास की रास्त और मुस्तक़ीम (दुरुस्त) शहादतों से इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी) कर के ग़ैरों की बेअस्ल तक़रीर व तहरीर से धोके में पड़ जाये। लेकिन दौलत नजात और अबदी हयात का तालिब कलाम-ए-ख़ुदा और शहादत-ए-अम्बिया के मुताबिक़ यक़ीन करके कि मसीह यसूअ ख़ुदा का बर्रा गुनाहों को उठा ले जाने वाला है, अपनी दिली फ़र्हत व तमानत (सुकून व इत्मीनान) हासिल करेगा ब-सदक़े (सच्चे) दिल उस पर ईमान ला कर मोतरिफ़ होगा कि “ये ख़लासी जो मैंने पाई उन बेहूदा वस्वसों (वहमों) से जो हमारे बाप दादा की तरफ़ से चले आए थे, फ़ानी चीज़ों यानी सोने रूपये के सबब से नहीं। बल्कि मसीह के बेशक़ीमत लहू के सबब से हुई जो बेदाग़ और बेऐब बर्रे की मानिंद है।