बाअज़ आयात क़ुरआन पर सरसरी रिमार्क्स

साल गुज़श्ता यानी 94 ई॰ के दर्मियानी चंद हफ़्तों के पर्चे अख़्बार नूर-अफ़्शां में एक मज़्मून ब उन्वान “बाअज़ ख़यालात-ए-मुहम्मदी” पर सरसरी रिमार्क्स (राय, क़ौल) दर्ज हुआ। जिसमें मुहम्मदी साहिबान के बाअज़ ख़यालात दीनिया व रूहानिया का ख़ुलासा, जिनको वो अपने तईं अहले-किताब समझ कर क़ुरआन व हदीस के मुवाफ़िक़

Minor Remarks on some verses of Quran

बाअज़ आयात क़ुरआन पर सरसरी रिमार्क्स

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sep 27, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 27 सितंबर 1895 ई॰

साल गुज़श्ता यानी 94 ई॰ के दर्मियानी चंद हफ़्तों के पर्चे अख़्बार नूर-अफ़्शां में एक मज़्मून ब उन्वान “बाअज़ ख़यालात-ए-मुहम्मदी” पर सरसरी रिमार्क्स (राय, क़ौल) दर्ज हुआ। जिसमें मुहम्मदी साहिबान के बाअज़ ख़यालात दीनिया व रूहानिया का ख़ुलासा, जिनको वो अपने तईं अहले-किताब समझ कर क़ुरआन व हदीस के मुवाफ़िक़ अपने मज़्हबी फ़राइज़ अमल में लाने के लिए ज़रूरी और मूजिब-ए-सवाब ख़याल करते हैं मुक़ाबले के तौर पर तहरीर किया गया। और जिसका नतीजा सिर्फ यही हासिल हुआ, कि उनके वो मज़्कूर कुल ख़यालात अहले किताब मसीहियों की ताअलीम के मह्ज़ ख़िलाफ़ है। मगर हाँ बहुत कुछ ताअलीम हनूद (हिंदू की जमा) के मुवाफ़िक़ साबित व ज़ाहिर हुए। जो अज़रूए क़ुरआन मुश्रिक क़रार दीए जाते हैं। और जो अम्र निहायत गौर-तलब है और जिसके लिए अदबन मुकर्रर (दुबारा अदब से) इल्तिमास भी किया गया था। कि अगर उनकी कोई दूसरी हक़ीक़त हो तो कोई साहब बराए मेहरबानी उस को ज़ाहिर कर के राक़िम मज़्मून को ममनून व मशकूर (एहसानमंद व शुक्रगुज़ार) फ़रमाएं। मगर हनूज़ (अभी तक) जिसको क़रीब एक साल का अर्सा गुज़रता है किसी साहब ने ख़ाकसार को ममनून ना[1] किया।

पस अब दूसरा मज़्मून उन्वान बाला से दर्ज अखबार-ए-हाज़ा किया जाता है। जिसमें क़ुरआन साहब के उन अल्फ़ाज़ पर ग़ौर करना कमाल (निहायत) ज़रूरी है। जिनके ज़रीये बाअज़ मुहम्मदी साहिबान हम मसीहियों पर बाअज़ दफ़ाअ हट धर्मी (ज़िद, ढीट पन) या बे-मुंसफ़ी (ना इंसाफ़ी) का इल्ज़ाम लगाया करते हैं, कि “क़ुरआन तो़ इन्जील और दीगर अम्बिया की तस्दीक़ करता है। मगर मसीही क़ुरआन और मुहम्मद साहब को क़ुबूल व तस्लीम नहीं करते वग़ैरह, वग़ैरह।” चुनान्चे इन आयात-ए-क़ुरआनी में से जिनमें वो कुतब-ए-साबिक़ा यानी तौरेत व इन्जील वगैरह के मुसद्दिक़ (तस्दीक़ गया) होने का इक़रार करता एक ये है, यानी “क़ुरआन बनावट की बात नहीं है। मगर वो तस्दीक़ है अगली किताब की और तफ़्सील है हर चीज़ की और हिदायात व रहमत है इस क़ौम के लिए जो ईमान लाते हैं।” (सूरह यूसुफ़ आयत 111)

अलबत्ता इन अल्फ़ाज़-ए-क़ुरआनी के ज़रीये मसीहियों को मुनासिब ही नहीं। बल्कि निहायत ज़रूरी होता, कि वो अगरचे क़ुरआन को मिन्जानिब अल्लाह और मुहम्मद साहब को नबी बरहक़ तो हरगिज़ ना मान सकते थे। क्योंकि नबी और नबुव्वत की ज़रूरत, ज़रूरत पर मौक़ूफ़ (ठहराया गया) है। जिनका ख़ातिमा किताब-ए-मुकाशफ़ा पर हो चुका। और अब ना कोई और किताब की ज़रूरत और ना किसी दीगर नबी के ज़हूर की कुछ हाजत (ज़रूरत) बाक़ी रही। जिसकी बह्स बदलाईल किताब अदम ज़रूरत क़ुरआन के सफ़ा 3 से 15 तक बग़ौर मुतालआ करना चाहिए। ताहम वो उनकी इज़्ज़त व ताज़ीम दीगर बुज़ुर्गों के मानिंद ज़रूर ही करते। जिसके लिए उन्हें आम तौर पर हुक्म दिया गया है कि “अगर तुम फ़क़त अपने भाईयों को सलाम करो तो क्या ज़्यादा किया? क्या महसूल लेने वाले भी ऐसा नहीं करते? (मत्ती 5:47) और जिनकी ख़ासियत का क़ुरआन में भी यूं मज़्कूर (ज़िक्र करना) है, “और दोस्ती के बारे में मुसलमानों के तू उन को ज़्यादा क़रीब पाएगा, जो कहते हैं कि हम नसारा हैं। इसलिए कि इनमें क़िस्सीस (दीन-ए-नसारा का आलिम) और रहबान (राहिब की जमा) हैं। और ये लोग तकब्बुर (ग़ुरूर) नहीं करते। (सूरह अल-मायदा आयत 85)

मगर ताज्जुब (हैरत) का मुक़ाम है कि वही क़ुरआन अपने इन अल्फ़ाज़ की आड़ में दीगर कुतब-ए-साबिक़ा और ख़ुसूसुन इन्जील-ए-मुक़द्दस को रद्द करने का इरादा कर के सिर्फ अपनी ही ज़रूरत को पेश करना चाहता है।

जो कलाम-अल्लाह बाइबल मुक़द्दस के मह्ज़ ख़िलाफ़ और नामुम्किन अम्र है। तो भला अब क्योंकर हो सके। मगर हाँ कोई बेजा या नामुनासिब लफ़्ज़ उन के या किसी के ख़िलाफ़ अपनी ज़बान या क़लम से मसीहियों का निकालना उन के उसूल-ए-ईमानिया के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। लेकिन रास्ती और हक़ को ज़ाहिर करना भी उनका ख़ास व ज़रूरी फ़र्ज़ है। जो बेशक अक्सरों को बुरा मालूम हो सकता अम्र मज्बूरी है। चुनान्चे क़ुरआन की उन बाअज़ आयतों में से जो ताअलीम बाइबल के ख़िलाफ़ हैं। बाअज़ का मुख़्तसरन यहां ज़िक्र किया जाता है, कि जिनके ज़रीये क़ुरआन ख़ुसूसुन इन्जील-ए-मुक़द्दस पर अपना हमला ज़ाहिर कर के उस की ख़ास ताअलीम को रद्द करने की बदर्जहा कोशिश करता है। जिनमें से अव़्वल उन आयतों[2] पर ग़ौर करे जिनका ज़िक्र इन्जील-ए-मुक़द्दस में मुतलक़ (बिल्कुल) पाया नहीं जाता और ना हो सकता है। मगर क़ुरआन उनके ज़रीये अपना दावा उस पर साबित करता है।

अव़्वल : वो आयातए-क़ुरआनी जिनका ज़िक्र इन्जील में मुतलक़ पाया नहीं जाता

1. सूरह अल-मायदा आयत 116, 117, (116) ‘‘और जब ख़ुदा ने कहा ऐ ईसा मर्यम के बेटे क्या तू ने लोगों से कहा था कि मुझे और मेरी माँ को अल्लाह से अलग दो ख़ुदा मानो। ईसा बोला तू पाक है मुझसे क्योंकर हो कि वो बात कहूं जो मेरा हक़ नहीं। अगर मैं कहता तो मुझे मालूम होता तू मेरे दिल की जानता है और मैं तेरे दिल की नहीं जानता तू तो छिपी बातें जानता है। (117) मैंने उन्हें वही बात कही है जिसका तू ने मुझे हुक्म दिया था कि तुम अल्लाह की इबादत करो। जो मेरा और तुम्हारा रब है। और जब तक मैं इन में रहा उनका निगहबान रहा और जब तू ने मुझे वफ़ात दी तू इनका निगहबान हो गया और तू हर शैय पर गवाह है।

आयाते क़ुरआनी मज़्कूर बाला से दो बातें मुतशरह हैं :-

अव़्वल, ये कि ख़ुदावन्द येसू मसीह के इक़रार की आड़ में बुज़ुर्गान-दीन यानी रसूलों, हवारियों (शागिर्दों) और दीगर बुज़ुर्गों ने मर्यम को एक माबूद (ख़ुदा) समझा, सिवाए अल्लाह के।

दोम, ये कि ख़ुदावन्द येसू मसीह की उलूहियत (ख़ुदाई) का इक़रार किया बरख़िलाफ़ उस के इन्कार के। जिसने मिस्ल मुहम्मद साहब की, कि बंदगी करो अल्लाह की वग़ैरह वग़ैरह मगर इन बातों का ज़िक्र इन्जील-ए-मुक़द्दस में मुतलक़ (बिल्कुल) पाया नहीं जाता है। और ना किसी दीनदार मसीही की रिवायत से आज तक इनकी कोई तस्दीक़ हुई लेकिन ताज्जुब (हैरानगी) है कि छः सौ बरस बाद मुहम्मद साहब को बज़रीये वही ये हिदायत पहुंची। अब इन बातों पर ग़ौर करीए।

अव़्वल, मर्यम इन्सान थी। जिसको कभी किसी ईसाई ने आज तक माबूद (ख़ुदा) इक़रार नहीं दिया। जिस हाल कि कलामे ख़ुदा इंसान को इन्सान पर सिर्फ भरोसा रखने पर लानत का फ़त्वा ज़ाहिर करता है। (यर्मियाह 17:5) तो उस को ख़ुदा समझने का किस क़द्र होलनाक नतीजा। जिसकी वजह सिर्फ ये है, कि मुहम्मद साहब ने रोमन कैथोलिक ईसाईयों को ग़लती से मर्यम की ज़्यादा ताज़ीम करते हुए देखकर उस को पाक तस्लीस का उक़नूमे सालिस ख़याल कर लिया। और ईसाईयों के सर पर ये इल्ज़ाम थोप दिया जिसको वो ख़ुद कुफ़्र समझते हैं।

दोम, ख़ुदावन्द येसू मसीह की उलूहियत के सबूत पर इन्जील-ए-मुक़द्दस में बकस्रत शहादतें व सदाक़तें (गवाहियाँ व सच्चाईयां) मौजूद हैं। जिनको आँखें खोल कर देखना चाहिए। मगर इनका ज़िक्र बसबब तवालत (लंबा होने की वजह से) क़त-ए-नज़र (नज़र-अंदाज करना) कर के यहां पर सिर्फ ख़ुदावन्द येसू मसीह के चंद अक़्वाल जो इस अम्र के सबूत पर इस में बरमला दावा के साथ मज़्कूर हुए मुन्दरज किए जाते हैं।

चुनान्चे उसने फ़रमाया मैं बाप की गोद से आया हूँ कि मैंने ख़ुदा को देखा और मैं ही उस को ज़ाहिर करता हूँ। (यूहन्ना 1:18) कि “मैं और बाप एक हैं।” (यूहन्ना 10:30) कि मैं अदालत व क़ियामत के दिन मुर्दों का इन्साफ़ करूँगा। (यूहन्ना 5:22) कि “जिसने मुझे देखा उसने बाप को देखा।” (यूहन्ना 14:9) कि “आस्मान व ज़मीन का सारा इख़्तियार मुझे दिया गया है।” (मत्ती 28:18) कि “मैं ज़माने के आख़िर तक हर रोज़ तुम्हारे साथ हूँ।” (28:20) वग़ैरह-वग़ैरह। पस इस क़द्र इक़रारों और दाअवों के सामने क़ुरआन के इस मस्नूई (खुद-साख्ता) इन्कार की जो मह्ज़ ग़र्ज़ से किया गया। जिसका ज़िक्र आइन्दा भी किया जाएगा। वक़अत (इज़्ज़त) हो सकती है?

2. सूरह अल-निसा आयत 169 “और ऐ अहले-किताब अपने दीन में मुबालग़ा (किसी बात को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बयान करना) ना करो और ख़ुदा की निस्बत सिर्फ हक़ बात बोलो। मसीह ईसा इब्ने मर्यम अल्लाह का रसूल और स का कलिमा है जिसे उसने मर्यम की तरफ़ डाला था और रूह[3] है। इस में से (यानी ख़ुदा में से) पस तुम अल्लाह पर और स के रसूलों पर ईमान लाओ और तीन ना कहो बाज़ आओ तुम्हारा भला होगा।” अलीख

अलबत्ता इस आयते क़ुरआनी के दर्मियानी अल्फ़ाज़ जिन पर ख़त खींचा गया अजीब और निहायत रास्त और इन्जील के मुवाफ़िक़ अल्फ़ाज़ में (देखो यूहन्ना 1:1, 5, लूक़ा 1:35) जो इस में इत्तिफ़ाक़ीया दर्ज हो गए। मगर ताज्जुब (हैरत) का मुक़ाम है कि बहुत से मुहम्मदी साहिबान इन पर बहुत कम ख़याल करते हैं। क्या ये अजीब ख़िताब किसी दीगर नबी की तरफ़ भी क़ुरआन में मन्सूब (क़ायम) हुए? हरगिज़ नहीं। मगर इस के आख़िरी अल्फ़ाज़ यानी “तीन ना कहो बाज़ आओ तुम्हारा भला होगा।” बेशक गौर तलब हैं क्योंकि ईसाईयों के अक़ीदे में तीन ख़ुदा कहना या मानना मह्ज़ कुफ़्र है। बल्कि वो सिर्फ एक वाहिद ख़ुदा के क़ाइल हैं। (इस्तिस्ना 6:4, रोमीयों 16:27, 1 तीमुथियुस 1:17, यहूदाह 1:25) मगर एक वाहिद ख़ुदा में अक़ानीम सलासा यानी बाप, इब्न (बेटा) और रूहउल-क़ुद्स के अलबत्ता क़ाइल हैं। जिनसे तीन ख़ुदा हरगिज़ लाज़िम नहीं आते। बल्कि तीन उसूल जो फ़िल-हक़ीक़त शख़्सियत में अलग अलग, मगर ज़ात व सिफ़ात और जलाल में वाहिद। (मत्ती 28:19, 2 कुरिन्थियों 13:14) उस इलाही अज़ली व हक़ीक़ी वहदानियत में जो इलाही है कलाम अल्लाह के मुवाफ़िक़ क़ुबूल करना मुनाफ़ी (खिलाफ) इस वहदत के नहीं जो अल्लाह की वहदत है। मगर वहदत-ए-मुजर्रिद (अकेला, तन्हा) या उस वहदत के ज़रूर ख़िलाफ़ है, जो अक़्ली वहदत है क्योंकि अल्लाह की वहदत में अक़्ली वहदत का क़ाइल होना कुफ़्र है जिसके सिर्फ़ ईमान और इक़रार से मुतलक़ कोई फ़ायदा नहीं है। (याक़ूब 2:19) क्योंकि ख़ुदा की वहदत वो वहदत है जो क़ियास (ख़याल) व गुमान इन्सानी से बालातर है। उस में ना वहदत वजूदी ना वहदत अक़्ली और ना वहदत अददी है। बल्कि वो ग़ैर-मुद्रिक (समझ में ना आने वाली) है जो मुतशाबहात (जिनके मअनी ख़ुदा के सिवा कोई नहीं जानता इनके एक से ज़ाइद मअनी हो सकते हैं) जिसका मतलब आज तक ना कोई समझ सका। और ना इन्सान की ताक़त है कि इस को समझ सके।

3. सूरह अल-तौबा आयत 112 मुसलमानों की जानें और माल अल्लाह ने बओज़ बहिश्त ख़रीद की हैं, कि वो अल्लाह की राह में लड़ें क़त्ल करें और क़त्ल हों ये लाज़िमी वाअदा है अल्लाह पर। तौरेत में और इन्जील व क़ुरआन और अल्लाह से ज़्यादा वादा-वफ़ा कौन है सो इस बैअ (फ़रोख़्त) पर जो तुमने उस से की ख़ुशी करो और ये बड़ी मुराद याबी है।

ख़ुदा के पाक कलाम तौरेत व इन्जील में ना कहें कि राह में लड़ने मरने का हुक्म हुआ और ना इस के लिए कोई अज्र ठहराया गया। और ना ऐसे फ़ेअल पर किसी तरह की बैअ क़रार पाई। बल्कि बरअक्स इस के क़सदन ऐसा करने वाले पर अल्लाह का इताब (क़हर) है। अलबत्ता बाअज़ मुख़ालिफ़ीन बनी-इस्राईल की उन लड़ाईयों को जो कनआनियों के साथ हुईं। अल्लाह की राह पर लड़ना। मरना ख़याल करते हैं। मगर ये उनकी ग़लत-फ़हमी है। उन लड़ाईयों की निस्बत बनी-इस्राईल को कहीं ख़ुदा की तरफ़ से ये वाअदा नहीं हुआ कि जो इन लड़ाईयों में क़त्ल करेंगे, या क़त्ल किए जाऐंगे। वो बहिश्त में दाख़िल होंगे। जिनमें से बहुतों को ख़ुद ख़ुदा ने उनकी सरकशी व ना-फ़र्मानी के सबब बाअज़ दफ़ाअ हलाक कर दिया। देखो ख़ुरूज 32:28 गिनती 11:33, 21:6 वग़ैरह वग़ैरह। यहां तक कि सिवाए बच्चों वग़ैरह के उन छः लाख जंगी मर्द बनी-इस्राईल में से जो मिस्र से निकले (ख़ुरूज 12:37) सिर्फ दो यानी कालिब और यशूअ है इस वाअदे के मुल्क कनआन में भी दाख़िल हो सके। और बाक़ी सब उस जंगल ब्याबान में मर गए। (गिनती 26:65) और ना कहीं ये हुक्म सादिर हुआ कि जो कनआनी अल्लाह की राह पर ईमान लाएं और इस को क़ुबूल करें, उन्हें छोड़ दो। क्योंकि वो उस ख़ुदा-ए-आदिल व मुंसिफ़ की आलिमुल गैबी के मुवाफ़िक़ उनकी सख़्त बुराईयों के सबब उन पर एक क़हर था। जैसा ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस का बर्ताव उस के ऐन अदल (इन्साफ़) के मुवाफ़िक़ बाइबल मुक़द्दस के दूसरे मुक़ामों से भी बख़ूबी ज़ाहिर है। चुनान्चे दुनिया की बुराई के सबब उस को तूफ़ान से ग़ारत (तबाह व बर्बाद) कर देना। सदोम व अमोरह की शरारत और नापाकी के बाइस उनको गंधक और आग से भस्म कर डालना। फ़िरऔन को उस की सख़्त दिली के सबब मए उस की फ़ौज बहर-ए-क़ुलज़ुम में डूबा मारना। वग़ैरह वग़ैरह मगर दीनदार और अपने परस्तारों को महफ़ूज़ रखना।

इन्जील मुक़द्दस में भी ख़ुदा की राह में लड़ने व मरने का कहीं मुतलक़ (बिल्कुल) ज़िक्र नहीं है। बल्कि अल्लाह की राह ज़ाहिर करने की बाबत इस में यूं लिखा है, क़ौल ख़ुदावन्द येसू मसीह देखो मैं तुम्हें भेड़ों की मानिंद भेड़ीयों के बीच में भेजता हूँ। पस तुम साँपों की तरह होशियार और कबूतरों की मानिंद बे आज़ाद बनो। (मत्ती 10:16) और उनसे बर्ताव की बाबत जो ख़ुदा के कलाम से बर्गश्ता (गुमराह) हो जाते हैं, यूं मर्क़ूम है, “मुनासिब नहीं कि ख़ुदावन्द का बंदा झगड़ा करे बल्कि सबसे नर्मी करे। और सिखलाने पर मुतअद और दुखों का सहने वाला होए। और मुख़ालिफ़ों की फ़िरोतनी से तादीब (तंबीया) करे, कि शायद ख़ुदा उन्हें तौबा बख़्शे ताकि वो सच्चाई को पहचानें। और वो जिन्हें शैतान ने जीता (शिकार किया) है बेदार (जागना) हो कर उस के फंदे से छूटें। ताकि ख़ुदा की मर्ज़ी को बजा लाएं। (2 तीमुथियुस 2:22, 26)

पस कलाम-ए-ख़ुदा बाइबल मुक़द्दस के मुवाफ़िक़ अल्लाह की राह में लड़ने मरने या उस के लिए किसी तरह की सख़्ती करने की क़तई मुमानिअत (मना) है। और ना अक़्ल गवारा कर सकती है, कि इस तरह किसी इंसान की दिली तब्दीली हो सके। मगर हाँ नर्मी मुलाइमियत और बुर्दबारी (सब्र तहम्मुल) से मुम्किन है जो मसीहियों की इन्जील-ए-मुक़द्दस के ज़रीये दिली ख़ासियत है और जिसकी ताईद (हिमायत) क़ुरआन भी यूं ज़ाहिर करता है, “जो लोग ईसा के ताबे हुए हमने उनके दिलों में शफ़क़त और मेहरबानी डाली” अलीख। सूरह अल-हदीद आयत 27

4. सूरह सफ़, आयत 6, “और जब ईसा इब्ने मर्यम ने कहा ऐ बनी-इस्राईल मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का रसूल हूँ मुझ आगे जो तौरेत है मैं उस का मुसद्दिक़ (तस्दीक़ करने वाला) हूँ और एक रसूल की बशारत (ख़ुशख़बरी) देता हूँ जो मेरे बाद आएगा। उस का नाम अहमद होगा। अलीख।

मगर इन्जील-ए-मुक़द्दस में ना किसी नबी के ज़हूर की अब कुछ ज़रूरत और ना किसी की आमद का कुछ इशारा है। बल्कि ख़िलाफ़ इस के ख़ुदावन्द येसू मसीह ने ऐसे लोगों से जो उस के बाद नबुव्वत का दावा करें होशियार रहने की बाबत ताकीदन यूं फ़रमाया है, “तब अगर कोई तुमसे कहे कि देखो मसीह यहां या वहां है तो उसे ना मानना। क्योंकि झूठे मसीह और झूटे नबी उठेंगे। और ऐसे बड़े निशान और करामातें (मोअजिज़े) दिखाएँगे, कि अगर हो सकता तो वो बर्गज़ीदों (चुने हुए) को भी गुमराह करते। देखो मैं तुम्हें आगे ही कह चुका। पस अगर वो तुम्हें कहें कि देखो वो ब्याबान में है तो बाहर ना जाऐ कि देखो वो कोठरी में है, तो ना मानो। मत्ती 24:23 से 26 क्योंकि अहकामात तौरेत मुक़द्दस में जो कुछ तक्मील तलब थे। और जिनकी तक्मील के लिए एक तक्मील कनिंदा “मसीह” की बाबत सब नबियों ने हम-ज़बाँ हो कर गवाही दी। (यूहन्ना 5:39) वो आ चुका और सब कुछ पूरा कर चुका। (मत्ती 5:17, 18) जिसके सबूत के लिए कुल इन्जील को जो तक्मील का ज़ख़ीरा है बग़ौर मुतालआ करें और देखें। तो अब किसी दूसरे की क्या ज़रूरत बाक़ी रही।

ताहम बाअज़ मुहम्मदी साहिबान ने इस आयत क़ुरआनी के मुवाफ़िक़ इन्जील में निहायत जद्दो-जहद (कोशिश) से छानबीन की। मगर जब कहीं इस का पता ना पाया। तो लाचार (मज्बूर) बाअज़ ने लफ़्ज़ “वो नबी” को मुहम्मद साहब की तरफ़ मन्सूब (क़ायम) करने की कोशिश की। मगर इस का इशारा सिर्फ़ ख़ुदावन्द येसू मसीह की तरफ़ है। (यूहन्ना 7:40, 41) जिसकी बह्स किताब अदमे ज़रूरत क़ुरआन मुसन्निफ़ा पादरी ठाकुर दास साहब सफ़ा 115 से 122 में ये दलाईल मुन्दरज है मुतालआ करें। फिर बाअज़ ने लफ़्ज़ “तसल्ली देने वाला” को उनकी तरफ़ ख़याल कर लिया।

जिससे सिर्फ़ रूह-उल-क़ूदस मुराद है। (यूहन्ना 14:16, 17) और जिसको ख़ुदावन्द ने अपने शागिर्दों पर नाज़िल करने का वाअदा फ़रमाया कि जो उस के लिए गवाही देगा। उस की बुजु़र्गी करेगा। और उस की बातें (ताअलीम) उनको याद दिलाएगा। वग़ैरह-वग़ैरह (यूहन्ना 14:26 15:26 16:14) और जिसका नुज़ूल भी उस के वाअदे के मुवाफ़िक़। उस के सऊदे आस्मान (आस्मान पर जाने) के दस दिन बाद उस के शागिर्दों पर बरमला ज़ाहिर हो गया। (आमाल 2:2, 3) मगर मुहम्मद साहब की ताअलीम गौर-तलब है। पस जब उन्होंने इस में भी कामयाबी ना देखी तो आख़िरकार बाअज़ ने लफ़्ज़ “सरदार जहान” का हज़रत पर क़ायम करने की कोशिश की, कि जिसको हम मसीही भी उनकी या किसी की तरफ़ हरगिज़ मन्सूब नहीं कर सकते। क्योंकि उस की मुराद सिर्फ शैतान से है। और जिसकी निस्बत ये भी लिखा है कि इस जहान के सरदार पर हुक्म किया गया, कि अब इस दुनिया का सरदार निकाल दिया जाएगा। वग़ैरह-वग़ैरह (यूहन्ना 12:31 16:11) पस इन आख़िरी दो आयतों की हक़ीक़त मालूम करने के लिए रिसाला “सक़ाल” मुसन्निफ़ पादरी इमाम मसीह साहब, सफ़ा 12 से 34 तक बग़ौर मुतालआ करें और तसल्ली पाएं।

बाक़ी आइन्दा

 राक़िम

 एक वाइज़ इन्जील जलील

दुवम : बाअज़ आयात तालीमी क़ुरआन व इन्जील मुक़ाबला

1. इन्कार उलूहियत (ख़ुदाई) ख़ुदावन्द येसू मसीह। सूरह अल-मायदा 19, “वो काफ़िर हैं जो मसीह इब्ने मर्यम को अल्लाह कहते हैं। तू कह अगर अल्लाह मसीह बिन मर्यम को उस की माँ को और सबको जो ज़मीन में हैं हलाक करना चाहे तो कौन उस के इरादे को रोक सकेगा।”

2. सूरह ईज़न (अल-मायदा) आयत 79, मसीह और कुछ नहीं मगर एक रसूल इस से पहले बहुत रसूल गुज़र चुके। और उस की माँ और कुछ नहीं मगर सिद्दीक़ा। दोनों खाना खाया करते थे। देखो हम इनके लिए कैसी निशानीयां बयान करते हैं फिर देख वो कहाँ उलटे जाते हैं। तू कह क्या तुम ख़ुदा के सिवाए पूजते हो कि तुम्हें नफ़ा नुक़्सान नहीं पहुंचा सकता।”

3. सूरह अल-तौबा आयत 30 “यहूद ने कहा उज़ैर (यानी एज्रा काहिन) ख़ुदा का बेटा है और नसारा ने कहा कि मसीह ख़ुदा का बेटा है। ये उन के मुँह की बातें हैं अगले काफ़िरों की बात के मुशाबेह इन्हें ख़ुदा की मार कहाँ उलटे जाते हैं।”

4. सूरह अल-निसा आयत 169 का आख़िर हिस्सा। अल्लाह एक है इस बात से पाक है कि उस के कोई बेटा हो। अलीख और देखो सूरह मर्यम भी।

पस क़ुरआन में यही चार ख़ास आयतें हैं। जो उलूहियत ख़ुदावन्द मसीह के ख़िलाफ़ ज़ोर शोर से बयान हुईं। जिनमें से अव़्वल, में ये बतलाया गया है कि वो सिर्फ़ मख़्लूक़ है और दूसरे की मानिंद हलाक हो सकता है। दोम, में उस की इन्सानियत का सबूत और कि वो इन्सान को ना कुछ नफ़ा या नुक़्सान पहुंचा सकता है। सोम, में ये कि ख़ुदा पाक है उस से जो मसीही उस की तरफ़ निस्बत करते हैं। चहारुम, में बड़ी सफ़ाई से ये कहा गया है कि वो ख़ुदा का बेटा नहीं हो सकता।

पस इस से ज़्यादा उलूहियत-ए-मसीह का और क्या इन्कार हो सकता था। जो क़ुरआन का ख़ास मुद्दआ (मक़्सद) है। और बेशक अगर मसीही ख़्वाह-मख़्वाह बिला दलाईल सुबूती उस को (मसीह को) अल्लाह कह कर उस की उलूहियत के क़ाइल हैं तो उनसे बढ़कर कौन काफ़िर हो सकता है। मगर यहां मुआमला दिगर-गूँ (उलट पुलट) नज़र आता है। क्योंकि जैसे मसीहियों के पास उस की इन्सानियत के दलाईल हैं कि वो इन्सान बन कर इब्ने आदम और मसीह कहलाया। और स लिए ख़साइस-ए-इन्सानी यानी खाना, पीना, थकना और सोना वग़ैरह भी उस को लाज़िमी हुए और जिन बातों पर मुहम्मद साहब ने ज़्यादा बल्कि बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया। ताकि उस की उलूहियत व ख़ुसूसीयत को ज़ाइल (ख़त्म) कर के सिर्फ क़ुरआन की ज़रूरत को पेश करें। मगर चूँकि वो कामिल (मुकम्मल) इन्सान था। इसलिए वो गुनाह की ख़ासियत से भी मुतल्लिक़ (बिल्कुल) पाक व मुबर्रा रहा। और जिस अम्र की क़ुरआन भी पूरी शहादत (गवाही) ज़ाहिर करता। पस ये ही ख़ुसूसीयत उस की हम गुनाह आलूदा इन्सानों का शफ़ी (शफ़ाअत करने वाला) होने की है। मगर उस की इन्सानियत से कहीं बढ़कर क़वी (ताक़तवर) दलाईल उस की उलूहियत के भी उनके पास मौजूद हैं। जो इलाही है कि वो मसीह ख़ुदा बसूरत इन्सान दुनिया में ज़ाहिर हुआ। (फिलिप्पियों 2:5-11) कि जिसकी क़वी शहादतें व सदाक़तें कलाम-ए-रब्बानी में मौजूद हैं। और जिनका मुफ़स्सिल बयान इस जगह बख़ोफ़ तवालत दुशवार (मुश्किल) है। मगर ख़ुलासे के तौर पर बाअज़ ये हैं :-

अव़्वल : दलाईल उलूहियते मसीह

(1) नबियों की गवाही। यसअयाह 9:6, यर्मियाह 23:6, मीकाह 5:2

(2) रूह-उल-क़ुद्स की गवाही बमवाजिब कौल-ए-मसीह। यूहन्ना 16:13, 14 व क़ौल रसूल, 1 कुरिन्थियों 12:3

(3) यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की गवाही। यूहन्ना 1:15 से 27

(4) रसूलों की गवाही। यूहन्ना 1:15 और रोमीयों 1:3 से 4

(5) ख़ुद मसीह के अक़्वाल जिनका ज़िक्र पीछे हो चुका।

(6) और उस के ज़िंदा होने का सबूत। मत्ती 28:5-8

दुवम : लफ़्ज़ बेटे का सबूत

(1) नबी का कलाम। ज़बूर 2:12

(2) जिब्राईल फ़रिश्ते की गवाही, कि “वो ख़ुदा तआला का बेटा कहलाएगा।” लूक़ा 1:35

(3) ख़ुदा बाप की गवाही, कि “ये मेरा प्यारा बेटा है, कि तुम उस की सुनो।” मत्ती 3:17, 17:5

(4) ख़ुद मसीह का इक़रार कि “मैं वही हूँ।” मर्क़ुस 16, 14, इलावा बरीं और यही चंद बातें ख़ुलासे के तौर पर किताब हिदायत-तुल-मुस्लिमीन, मुसन्निफ़ पादरी इमाद-उद्दीन साहब, डी॰ डी॰ के सफ़ा 383, 384 से नक़्ल करना ज़रूरी मालूम होती हैं। यानी

पस उस की (मसीह की) उलूहियत के ये दलाईल हैं, कि अव़्वल बाअज़ फ़िक्रात अह्दे-अतीक़ (पुराना अहदनामा) बयान करते हैं, कि ख़ुदा आप मुजस्सम हो के दुनिया में आएगा और ऐसे ऐसे काम करेगा। और ये बातें मसीह में साफ़ पूरी हुई नज़र हैं।

दुवम, आंका (यह कि) ज़रूर मसीह ने ख़ुद उलूहियत का दावा किया और इस का सबूत भी दिया और यहूदी उस के इसलिए भी दुश्मन हुए कि उसने अपने आपको ख़ुदा बतलाया।

सोइम, उस से जो क़ुद्रत ज़ाहिर हुई वो साफ़ अल्लाह की क़ुद्रत थी और उसने उसे अपनी क़ुद्रत बतलाया।

चहारुम, उसने जो पाकीज़गी और खूबियां दिखलाईं वो सब अल्लाह की ज़ात के ख़ास्से थे और कोई बशर कभी ऐसा पाक ज़ाहिर नहीं हुआ है।

पंजुम, उस की सारी ताअलीम का इन्हिसार (मुन्हसिर होना) इसी बात पर है कि वो अल्लाह है।

शश्म, वो अपनी ख़ुदाई का सबूत अपने तसर्रुफ़ात (इख़्तियार) से हमारे ज़हनों में अब तक करता है ऐसा कि ना-मुम्किन है कि उस की उलूहियत का हम इन्कार करें।

पस अब नाज़रीन ख़ुद इंसाफ़न फ़ैसला कर लें। कि उलूहियत ख़ुदावन्द पर मसीह के इन कस्रत दलाईल के नज़्दीक जो कलामे रब्बानी में मुन्दरज हैं।

क़ुरआन साहब की वो चार आयतें जो उस की मह्ज़ इन्सानियत पर दलालत (निशान, अलामत) करती। किस तरह कामयाब हो सकती हैं।

(2) क़त्ल-ए-मसीह के यहूदी क़रारी। मगर मुहम्मद साहब इंकारी सूरह अल-निसा आयत 156, “और इस क़ौल के सबब कि हमने ईसा इब्ने मर्यम रसूल अल्लाह को क़त्ल किया है। हालाँकि ना उसे क़त्ल किया ना उसे सलीब दी लेकिन वो उनके लिए शुब्हा में डाला गया। और वो जो उस के बारे में इख़्तिलाफ़ रखते हैं। उस की निस्बत मुतशक्की (शक करने वाले) हैं। उन्हें इल्म हासिल नहीं लेकिन वो गुमान की पैरवी करते हैं। और ब यक़ीन उस को क़त्ल नहीं किया बल्कि उसे ख़ुदा ने अपनी तरफ़ उठा लिया और अल्लाह ग़ालिब पुख़्ताकार है।

जब कि क़ुरआन ख़ुदावन्द येसू मसीह की उलूहियत का इंकारी है। जिसके खुले सबूत ऊपर मज़्कूर हो चुके तो ज़रूर है, कि वो उस के फ़िद्या (ख़ून बहा) का भी इंकारी हो। जो उस की कामिल (मुकम्मल) क़ुर्बानी में उस के मारे जाने के ज़रीये कामिल हुआ। और जिसका ज़िक्र उस के वाक़ेअ होने से पहले ख़ुदावन्द मसीह ने अपने शागिर्दों पर बरमला ज़ाहिर कर दिया था, कि सब जो नबियों की मार्फ़त इब्ने-आदम के हक़ में लिखा है पूरा होगा। क्योंकि वो ग़ैर क़ौम वालों के हवाले किया जाएगा और वो उस को ठट्ठे में उड़ा देंगे और बेइज़्ज़त करेंगे और उस पर थूकेंगे और उस को कोड़े मार के क़त्ल करेंगे। और वो तीसरे दिन जी उठेगा। लूक़ा 18:32, 33

चुनान्चे उस के दुख व तक्लीफ़ सहने और मारे जाने की बाबत पैशन गोईयाँ बाअज़ नबियों की किताबों में पाई जाती हैं। ख़ुसूसुन यसअयाह नबी की किताब 53 बाब में जो क़रीबन सात सौ बरस पहले इस वाक़िये से कमाल सफ़ाई के साथ बयान हुईं। कि वो यानी मसीह हमारे गुनाहों और बदकारियों के लिए घायल (ज़ख़्मी) किया और मारा जाएगा। और कि उस के मार खाने से हम चंगे हुए। वग़ैरह-वग़ैरह। कि जिनके वक़ूअ की वाक़ई तक्मील ख़ुद चश्मदीद गवाहों ख़ुसूसुन ख़ुदावन्द के हवारियों (शागिर्दों) से इन्जील-ए-मुक़द्दस में कलमबंद की गई। जिनका ख़ुलासा दर्ज ज़ैल है :-

पैशन गोईयाँ म तक्मीलए-इन्जील

1. वो बेचा और पकड़वाया जाएगा। ज़बूर 41:9 ज़करीयाह 11:13

तक्मील मत्ती, 26:14 ता 16 और 23 ता 5 आयत

2. वो तन्हा अकेला छोड़ा जाएगा। ज़करीयाह 13:7

तक्मील मत्ती, 26:56, मर्क़ुस 14:5, 52

3. वो हक़ीर और ज़लील किया जाएगा। यसअयाह 53:3 ज़बूर 7:22 ता 9

तक्मील लूक़ा 9:58, यूहन्ना 19:15, मत्ती 27:39 ता 42

4. उस के दुख और तक्लीफ़ सहने की बाबत। ज़बूर 22:14 ता 17, ज़करीयाह 12:10, यसअयाह 53:4, 5, 6

तक्मील यूहन्ना 19:1-3, मत्ती 27:30, 31

5. उस के कपड़ों की तक़्सीम की बाबत। ज़बूर 22:18

तक्मील मत्ती 27:35

6. उस की मौत की जांकनी की बाबत। ज़बूर 22:1, यसअयाह 53:4, 5

तक्मील मत्ती 27:46, लूक़ा 22:44

7. उस की क़ब्र या दफ़न होने की बाबत। यसअयाह 53:9

8. उस के तीन दिन क़ब्र में रहने की बाबत। (कौल-ए-मसीह)

मत्ती 12:40, तक्मील मत्ती 28:1, 6, 1 कुरिन्थियों 15:4

पस अब मुक़ाम-ए-ग़ौर है, कि नबियों की इस क़द्र शहादतें उस के दुख तक्लीफ़ उठाने और मारे जाने पर कलाम-ए-रब्बानी में मौजूद और जिनकी पूरी तक्मील चश्मदीद गवाहों से इन्जील में साबित। यहूदी अपने जुर्म के ख़ुद इक़रारी। नीज़ रूमी हाकिम और उस वक़्त के बुत-परस्त मुअर्रिख़ इस वाक़िये के गवाह। मगर निहायत ताज्जुब है कि मुहम्मद साहब जो इस वाक़िये के छः सौ बरस बाद पैदा हुए। इन सब शहादतों और सदाक़तों को रद्द करने पर मुस्तइद (आमादा) भला इस अनोखे ख़याल का भी कोई ठिकाना है। जो सिर्फ इस तरह का ख़याल है, कि अगर कोई इस वक़्त अपनी तस्नीफ़ में सिकंदर-ए-आज़म मक़िदूनिया के बादशाह को हिन्दुस्तान में आने का इन्कार कर के ये कहे, कि वो सब झूठे हैं। जो उस का पंजाब तक आना तस्लीम करते हैं। वग़ैरह,वग़ैरह। तो भला ऐसे शख़्स को तवारीख़ दान क्या कहेंगे।

बाअज़ आयात क़ुरआन पर सरसरी रिमार्क्स

सोम : बाअज़ आयात क़ुरआन गौरतलब

सूरह अल-मायदा आयत 50, 51 यानी और पीछे हमने इन रसूलों के क़दमों पर मर्यम के बेटे ईसा को भेजा जो अगली (किताब) तौरात की तस्दीक़ करता। और उस को हमने इन्जील दी जिसमें नूर और हिदायत है और अगली (किताब) तौरात की तस्दीक़ करती है और जो हिदायत और नसीहत है परहेज़गारों के लिए। और चाहिए कि जिन्हों ने इन्जील पाई है, हुक्म करें और उस का जो अल्लाह ने इस में नाज़िल किया है और जो कोई हुक्म ना करे उस का जो ख़ुदा ने नाज़िल किया है तो वही लोग बदकार हैं।

आयात मज़्कूर बाला से चार आयतें साबित हैं जिनका क़ुरआन इक़रारी है।

अव़्वल, ये कि इन्जील तौरात की तस्दीक़ के वास्ते नाज़िल हुई जो मूसा पर उतरी थी।

दुवम, ये कि इन्जील ख़ुदा की तरफ़ से हिदायत नूर और नसीहत है।

सोइम, ये कि ख़ुदा ने इस में जो कुछ इर्शाद किया है चाहिए कि लोग इस पर अमल करें।

चहारुम, ये कि जो लोग अमल ना करेंगे इस पर जो कुछ ख़ुदा ने इस में इर्शाद किया है तो वो लोग गुनेहगार हैं।

मगर अब निहायत ताज्जुब का मुक़ाम है कि वही क़ुरआन अपने इन इक़रारों के ख़िलाफ़ इन्जील की ख़ास ताअलीम लेने उलूहियत ख़ुदावन्द येसू मसीह और उस की मौत के ज़रीये कफ़्फ़ारा आमेज़ काम से जिसकी शहादत व सदाक़त नबियों के कलाम के मुवाफ़िक़ इन्जील-ए-मुक़द्दस से बख़ूबी साबित व ज़ाहिर हुई। और जो इन्सान की हुसूल-ए-नजात के लिए अज़ल से ठहराया गया था। इफ़िसियों 3:11 जिसका ज़िक्र पीछे मज़्कूर हो चुका। बिल्कुल इंकारी, बल्कि और भी चंद बातें निहायत ग़ौर तलब हैं, कि जिनका मतलब व मंशा (मर्ज़ी) ताअलीम इन्जील के मह्ज़ ख़िलाफ़ ज़ाहिर है। जो ज़ेल में दर्ज की जाती हैं। तो अब अम्र मज्बूरी है कि क़ुरआन के कलाम को कुतब-ए-साबक़ा यानी तौरेत व इन्जील का मुसद्दिक़ (तस्दीक़ किया गया) क्योंकर समझा जाये। चुनान्चे

(5) ये क़ुरआन जहान के परवरदिगार का कलाम और उस का नाज़िल किया हुआ है। सूरह अल-हाक्क़ा की आयत 30 से 42 तक, मैं क़सम खाता हूँ। उन चीज़ों की जो देखते हो और उनकी जो नहीं देखते कि तहक़ीक़ ये (क़ुरआन) इज़्ज़त वाले रसूल का क़ौल है। वो किसी शायर का कहा हुआ नहीं तुम थोड़ा यक़ीन करते हो। और ना किसी काहिन का क़ौल है तुम थोड़ा ध्यान करते। ये जहान के परवरदिगार का नाज़िल किया हुआ है।

पीछे मज़्कूर हो चुका है कि नबी और नबुव्वत की ज़रूरत। ज़रूरत पर मौक़ूफ़ (ठहराया) गया है। जिसका ख़ातिमा किताब मुकाशफ़ा पर हो चुका। और जिसके आख़िर उस शख़्स पर जो कलाम रब्बानी में कुछ ज़्यादा करे। या इस में से कुछ कम करे ख़ुदा तआला की तरफ़ से निहायत ख़ौफ़नाक फ़तवे दर्ज हुए। यानी मैं हर एक शख़्स के लिए जो इस किताब की नबुव्वत की बातें सुनता है ये गवाही देता हूँ, कि अगर कोई इन बातों में कुछ बढ़ाए तो ख़ुदा उन आफ़तों का जो इस किताब में लिखी हैं इस पर बढ़हाएगा। और अगर कोई इस नबुव्वत की किताब की बातों में से कुछ निकाल डाले तो ख़ुदा उस का हिस्सा किताबे हयात से और शहर-ए-मुक़द्दस से और उन बातों से जो इस किताब में लिखी हैं निकाल डालेगा। मुकाशिफ़ा 22:18, 19 पस इस इलाही मुहर के सामने किसी दूसरी किताब को किताब-ए-इलाही ख़याल करना किस तरह मुम्किन हो। इलावा बरीं क़ुरआन की अदम ज़रूरत मालूम करने के लिए किताब अदमे ज़रूरते क़ुरआन मुसन्निफ़ पादरी ठाकुरदास साहब बग़ौर मुतालआ करना चाहिए तसल्ली हो जाएगी।

(6) क़ुरआन के मुवाफ़िक़ राहए-नजात सूरह अल-इमरान आयत 29, ऐ मुहम्मद तू कह दे कि अगर तुम ख़ुदा की मुहब्बत रखते हो तो मेरी पैरवी (पीछे चलना) करो कि ख़ुदा तुमसे मुहब्बत करे और तुम्हारे गुनाह बख़्श दे और ख़ुदा बख़्शने वाला और मेहरबान है। तू कह दे कि तुम अल्लाह और उस के रसूल की ताबेदारी करो फिर अगर वो बर्गश्ता हों तो बेशक ख़ुदा काफ़िरों को दोस्त नहीं रखेगा।

इन्जील-ए-मुक़द्दस में लिखा है कि गुनेहगारों के रास्त बाज़ ठहराए जाने और पाक किए जाने के लिए सिर्फ एक ही वसीला है। यानी ख़ुदावन्द येसू मसीह का कामिल कफ़्फ़ारा ठहराया गया है। जो सिदक़ दिल (सच्चे दिल) से उस पर ईमान लाते हैं वही अपने गुनाहों की माफ़ी हासिल करेंगे। चुनान्चे यूहन्ना 3:36 में लिखा है, कि वो जो बेटे पर ईमान लाता है सो हमेशा की ज़िंदगी उस की है और वो जो बेटे पर ईमान नहीं लाता सो ज़िंदगी को ना देखेगा। बल्कि ख़ुदा का ग़ज़ब उस पर रहता है। और मर्क़ुस 16:15 में लिखा है कि उसने (मसीह ने) उन्हें (हवारियों को) कहा तुम तमाम दुनिया में जा के हर मख़्लूक़ को इन्जील की मुनादी करो। जो कोई ईमान लाता और बपतिस्मा पाता है नजात पाए पर जो ईमान नहीं लाता उस पर सज़ा का फ़त्वा होगा। और किताब आमाल 4:12 में लिखा है कि किसी दूसरे से नजात नहीं क्योंकि आस्मान के तले आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया जिससे हम नजात पाए।

(7) क़ुरआन में पैरवान-ए-मसीह पर कुफ़्र का फ़त्वा सूरह अल-मायदा आयत 19, यानी वो लोग बेशक काफ़िर हैं। जो कहते हैं कि ख़ुदा वही मर्यम का बेटा मसीह है। तू कह दे कि फिर किसी का कुछ चलता है अल्लाह से अगर वो चाहे कि मसीह मर्यम के बेटे को और उस की माँ (मर्यम) को और जितने लोग ज़मीन पर हैं हलाक करे।

मगर इन्जील-ए-मुक़द्दस उन लोगों को जो मसीह की उलूहियत (ख़ुदाई) को क़ुबूल करके उस के कफ़्फ़ारे के ज़रीये रास्तबाज़ ठहरते ख़ुदा के ले-पालक (लेकर पाले हुए) फ़रज़न्दों का ख़िताब देती है। और कि वही जहां जा दवां में उस के हुज़ूर बादशाहों और इमामों के रुतबे से अबद-उल-आबाद सरदार होते हैं। चुनान्चे यूहन्ना 16:27 में लिखा है, क्योंकि बाप तो आप ही तुम्हें प्यार करता है इसलिए कि तुम ने मुझे प्यार किया और यक़ीन लाए हो कि मैं ख़ुदा से निकला हूँ मैं बाप से निकला और दुनिया में आया हूँ। पर दुनिया से रुख़्सत होता और बाप के पास जाता हूँ। और ग़लतीयों 3:26 में लिखा है। तुम सब मसीह येसू पर ईमान लाने से ख़ुदा के फ़र्ज़न्द हो। फिर किताब मुकाशफ़ा 1:4 में लिखा है, कि यूहन्ना उन सात कलसियाओं को जो एशिया में हैं। फ़ज़्ल और सलामती तुम पर हो उस की तरफ़ से जो है और जो था और जो आने वाला है। और उन सात रूहों से जो उस के तख़्त के हुज़ूर में। और येसू मसीह से जो सच्चा गवाह और मुर्दों में से पहलौठा और दुनिया के बादशाहों का सुल्तान है। उसी को जिस ने हम को प्यार किया और अपने लहू से हमें हमारे गुनाहों से धोया और हमको बादशाह और काहिन (इमाम) अपने बाप ख़ुदा के लिए बनाया उसी का जलाल और क़ुद्रत अबद-उल-आबाद है। आमीन

(8) क़ुरआन में इंतिक़ाम लेना जायज़ है सूरह हज आयत 40, 59, उन लोगों को जो मुक़ाबला करते हैं। हुक्म दिया गया है इस वास्ते कि उन पर ज़ुल्म हुआ है। और ख़ुदा उनकी मदद करने पर क़ादिर (क़ुदरत वाला) है। वो जिनको निकाला उनके घरों से नाहक़। हो उस के कि वो कहते हैं कि हमारा रब अल्लाह है फिर जो कोई तक्लीफ़ पहुंचाए जैसे उस को तक्लीफ़ पहुंचाई गई थी फिर दुश्मन ज़्यादती करे उस पर तो ज़रूर ख़ुदा उस की मदद करेगा। क्योंकि ख़ुदा गुज़र करने वाला और बख़्शने वाला है।

मगर इन्जील-ए-मुक़द्दस इंतिक़ाम लेने की बाबत क़तई मना कर के मसीही ईमानदारों को हुक्म देती है, कि वो नुक़्सान और तक्लीफ़ उठा कर सिर्फ सब्र ही ना करें, बल्कि सताने वालों के लिए नेक दुआ करें। चुनान्चे मत्ती 5:42, 45 में यूं लिखा है कि तुम सुन चुके हो कि कहा गया अपने पड़ोसी से दोस्ती रख और अपने दुश्मन से अदावत। पर मैं तुम्हें कहता हूँ, कि अपने दुश्मनों को प्यार करो जो तुम पर लानत करें उनके लिए बरकत चाहो। जो तुमसे कीना (दुश्मनी) रखें उनका भला करो और जो तुम्हें दुख दें और सताएं उनके लिए दुआ माँगो, ताकि अपने बाप के जो आस्मान पर है फ़र्ज़न्द हो।

क्योंकि वो अपने सूरज को बदों और नेकों पर तुलूअ करता और रास्तों व नारास्तों पर मेह बरसाता है। फिर रोमीयों 12:19, 21 में लिखा है, ऐ अज़ीज़ो अपना इंतिक़ाम मत लो बल्कि ग़ुस्से की राह छोड़ो क्योंकि लिखा है कि इंतिक़ाम लेना मेरा काम है। मैं ही बदला लूँगा। ख़ुदावन्द फ़रमाता है, पस अगर तेरा दुश्मन भूका हो उस को खिला अगर पियासा हो उसे पानी पिला क्योंकि ये कर के उस के सर पर आग के अंगारों का ढेर लगाएगा। बदी का मग़्लूब (हारा हुआ) ना हो बल्कि बदी पर नेकी से ग़ालिब (जीतने वाला) हो।

(9) क़ुरआन में लौंडियां हलाल हैं सूरह मोमिन आयत 1 ता 6, ईमानदार कामयाब हुए जो अपनी नमाज़ में आजिज़ी करते। और बेहूदा बात से मुँह मोड़ते और ज़कात अदा किया करते। और अपनी शर्म गाहों की हिफ़ाज़त करते हैं। मगर अपनी औरतों और बांदियों पर नहीं वो बे मलामत हैं।

मगर इन्जील मुक़द्दस एक निकाही बीवी के सिवा किसी हालत में किसी दूसरी औरत से ताल्लुक़ रखना हरामकारी ठहराती है। चुनान्चे ख़ुदावन्द येसू मसीह ने फ़रमाया क्या तुमने नहीं पढ़ा कि ख़ालिक़ ने शुरू में उन्हें एक ही मर्द और एक ही औरत बनाया और फ़रमाया कि इसलिए मर्द अपने माँ बाप को छोड़ेगा। और अपनी जोरू से मिला रहेगा और वो दोनों एक तन होंगे। इसलिए अब वो दो नहीं बल्कि एक तन हैं। (मत्ती 19:4, 9) और फिर फ़रमाया, कि मैं तुम्हें कहता हूँ कि जो कोई शहवत से किसी दूसरी औरत पर निगाह करे वो अपने दिल में उस के साथ ज़िना कर चुका। 5:2-3 पस ऐसे कामों से जो इन्जील के मुवाफ़िक़ हरामकारी व ज़िनाकारी में दाख़िल हैं बचने और एहतियात रखने के लिए यूं मज़्कूर है कि हरामकारी और हर तरह की नापाकी और लालच का तुम में ज़िक्र तक ना हो जैसा मुक़द्दसों को मुनासिब है। (इफ़िसियों 5:3) फिर हरामकारी से भागो। जो जो गुनाह आदमी करता है सो बदन के बाहर है जो हरामकारी करता है अपने बदन का गुनेहगार है। (1 कुरिन्थियों 6:18)

(10) क़ुरआन में तलाक़ दी हुई औरत भी हलाल है सूरह अह्ज़ाब आयत 37, 38, और जब तू ऐ मुहम्मद (ज़ैद) से जिस पर तू ने और ख़ुदा ने फ़ज़्ल किया कहता था कि तू अपनी औरत को थाम रख और ख़ुदा से डर और तू अपने दिल में इस बात को छुपाता था (यानी ज़ैनब के इश्क़ को) और अल्लाह उसे ज़ाहिर किया चाहता था और तू आदमीयों से डरता था। हालाँकि तुझे अल्लाह से ज़्यादा डरना चाहिए था। पस जब ज़ैद ने अपना मतलब उस (जैनब) से पूरा कर लिया। हमने ऐ मुहम्मद तेरा निकाह उस औरत से कर दिया। ताकि ईमानदारों पर अपने मुँह बोले बेटों की औरतों में तंगी न रहे और अल्लाह का काम पहले से किया हुआ था जो अल्लाह ने नबी के लिए हलाल कर दिया इस में नबी पर कुछ तंगी नहीं। अलीख।

मगर इन्जील-ए-मुक़द्दस अव़्वल, तो औरतों को तलाक़ देने की बाबत सिवाए हरामकारी की हालत के और किसी हालत में रवा नहीं रखती।

दोम, तलाक़ दी हुई औरत से निकाह करना मुतलक़ (बिल्कुल) नाजायज़ ठहराती है

चुनान्चे मत्ती 5:31, 32 में लिखा है ये भी कहा गया कि जो कोई अपनी जोरु को छोड़े वह उसे तलाक़ नामा लिख दे पर मैं (मसीह) तुम्हें कहता हूँ, कि जो कोई अपनी जोरू को हरामकारी के सिवा किसी और सबब से छोड़ दे। उस से ज़िना करवाता है। और जो कोई इस छोड़ी हुई से ब्याह करे ज़िना करता है। फिर 19:7-9 में लिखा है, उन्होंने (फ़रीसियों ने) उस से कहा फिर मूसा ने क्यों तलाक़ नामा देने और उसे छोड़ने का हुक्म दिया। उसने (मसीह ने) उन्हें कहा मूसा ने तुम्हारी सख़्त दिली के सबब तुम्हें अपनी जौरओं को छोड़ देने की इजाज़त दी है। पर शुरू से ऐसा ना था और मैं तुम्हें कहता हूँ, कि जो कोई अपनी जोरू को सिवा हरामकारी के सबब के छोड़ दे। और दूसरी से ब्याह करे ज़िना करता है। और जो कोई छोड़ी हुई औरत को ब्याहे ज़िना करता है।

बाअज़ आयात क़ुरआन पर सरसरी रिमार्क्स

(3) मसीह का जी उठना सूरह मर्यम आयत 15, और सलाम है उस पर जिस दिन वो पैदा हुआ। और जिस दिन वो मरेगा और जिस दिन जी के उठ खड़ा होगा। अगर आयत मज़्कूर अल-सदर के साथ सूरह अल-मायदा की आयत 117 के अल्फ़ाज़ पर भी ग़ौर यानी करें (क़ौल मसीह बमूजब क़ुरआन) मैंने उन्हें वही बात कही है जिसका तू ने मुझे हुक्म दिया था कि तुम अल्लाह की इबादत करो जो मेरा और तुम्हारा रब है और जब तक मैं इन में रहा। उनका निगहबान रहा और जब तू ने मुझे वफ़ात दी (या जब क़ब्ज़ किया) तू ने मुझको अलीख।

तो उस के मरने और जी उठने का किसी क़द्र सबूत ज़ाहिर होता है। अगर मुफ़स्सिर क़ुरआन ने इन की और ही तरह तावील (बयान, तश्रीह) की है। जो कलाम-ए-रब्बानी के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। क्योंकि जब वो उस की कफ़्फ़ारा आमेज़ मौत के ही क़ाइल नहीं। तो उस के जी उठने की जलील सदाक़त (सच्चाई) के क्योंकर क़ाइल (तस्लीम करने वाले) हो सकते हैं। जिसकी शहादत (गवाही) और सदाक़त (सच्चाई) इन्जील से बरमला ज़ाहिर है। चुनान्चे इस के वक़ूअ से कई सौ बरस पहले ख़ुदा तआला के नबी ने यूं फ़रमाया था, कि तू अपने क़ुद्दूस को क़ब्र में सड़ने ना देगा। (ज़बूर 16:10) और जिसकी तक्मील की पूरी शहादत ख़ुद ख़ुदावन्द ने बारहा अपने शागिर्दों पर साफ़-साफ़ ज़ाहिर कर दी थी। कि मैं फिर जी उठूँगा कि जैसा यूनाह तीन रात-दिन मछली के पेट में रहा। वैसा ही इब्ने-आदम तीन रात-दिन ज़मीन के अंदर रहेगा। (मत्ती 12:40) जो नबुव्वत के ख़ास और लायक़ तरीक़े पर ज़्यादा क़ाबिल-ए-ग़ौर है। फिर पतरस को सख़्त मलामत (लान तान) करने से बख़ूबी अपनी मौत और जी उठने का इज़्हार किया। (मत्ती 16:21) फिर अपनी तब्दील सूरत के बाद उसने अपने शागिर्दों को ये हुक्म दिया कि इस रोया का किसी से ज़िक्र ना करो जब तक इब्ने आदम मुर्दों में से जी ना उठे। मत्ती 17:9 वग़ैरह-वग़ैरह।

पस ख़ुद ख़ुदावन्द की इन पैशन गोइयों और हिदायतों के मुवाफ़िक़ इन्जील-ए-मुक़द्दस से बख़ूबी ज़ाहिर है, कि वो सच-मुच जी उठा जिसकी सदाक़तों और शहादतों का मुख़्तसरन ज़िक्र आगे किया जाएगा। और ख़ुदावन्द के हवारियों (शागिर्दों) ने उस के जी उठने को एक निहायत क़ाबिल-ए-क़द्र और बड़ी ज़रूरत की बात ठहराया। जिनकी राय में उस की इलाही रिसालत और कफ़्फ़ारा आमेज़ काम की निस्बत ये एक सबसे बढ़कर दलील (सबूत) थी। अगर वो जी ना उठता तो उस की रिसालत एक धोका और उस की ताअलीम भी कुछ मुग़ालते (फ़रेब) से कम ना होती। उस की मौत अगर एक फ़रेबी की मौत ना होती। ताहम एक सादा-लौह फ़रेब ख़ूर्दा शख़्स की मौत ज़रूर समझी जाती। लेकिन क्या मुम्किन था कि वो ज़िंदगी का मालिक (मुकाशफ़ा 1:18) जिसने अपने हुक्म के मुवाफ़िक़ चार रोज़ के मुर्दे को क़ब्र से ज़िंदा कर उठाया (यूहन्ना 11:43, 44) ख़ुद क़ब्र का शिकार हो सकता? हरगिज़ नहीं। पस जब वो जी उठा तो वो ख़ुदा से ठहरा हुआ मसीहा और उस की ताअलीम ख़ुदा की अबदी सदाक़त और उस की मौत जहां के गुनाहों के लिए एक कामिल कफ़्फ़ारा थी।

पस इसलिए रसूलों को वाजिब हो कि क़ियामत मसीह को अपनी ख़िदमत का एक ज़रूरी हिस्सा जान कर उस के लिए ज़ाती शहादत दें। और इसलिए उन्होंने अपनी इब्तिदाई वाज़ में इसी आला मर्तबा सदाक़त को उसी जगह, उसी सदर-ए-मज्लिस के सामने जिसने चंद हफ़्ते पेश्तर उस पर क़त्ल का फ़त्वा दिया था। पेश करना ज़रूरी समझा। (आमाल[4] 2:23,27) और ना सिर्फ जी उठने की मुनादी का इज़्हार ही किया, बल्कि ये भी इक़रार किया कि हम सब उस के गवाह हैं। (3:15)

 


[1] लेकिन अगर किसी दूसरे अख़्बार में किसी साहब ने कुछ तहरीर किया हो तो वो राक़िम तक पहुंचा नहीं।

 

[2] जिनका जवाब मुहम्मदी साहिबान के पास सिवा इस के और कुछ नहीं कि “क़ुरआन में ऐसा ही लिखा है” सच्च है। मगर इन्जील के सामने इस का मिंजानिब अल्लाह होना ना आज तक साबित हुआ और ना आइन्दा हो सकता है। अलबत्ता क़ुरआन के ऐसे दावे साबित करने के लिए वो ये ज़रूर कहा करते हैं, कि “ये इन्जील तहरीफ़ व तब्दील हो गई। और वो असली इन्जील है ही नहीं।” वग़ैरह वग़ैरह। मगर इनके ऐसे बे-बुनियाद व बे-दलील ख़याल की क़ातेअ तर्दीद कामिल सबूतों के अक्सर मसीही उलमा की तसानीफ़ में भरी पड़ी है। जिसको कमाल ग़ौर व फ़िक्र से मुतालआ करना निहायत ज़रूरी है। और जिसका ख़ुलासा ये है कि बिलाशक व शुब्हा ये वही अस्ल कलाम-उल्लाह इन्जील मुक़द्दस है, जो ब-ज़माना हवारियान से आज तक ब-हिफ़ाज़त तमाम मसीहियों के हाथ में सही सलामत मौजूद है। कि जिसमें कुछ बदल कर बढ़ाना या घटाना किसी इन्सान का मक़्दूर (ताक़त) नहीं है। चुनान्चे क़ुरआन भी इस अम्र की पूरी, पूरी ताईद करता है, कि “अल्लाह की बातों (कलाम) को कोई बदलने वाला नहीं है।” देखो सूरह अनआम आयत 34, 115, सूरह यूनुस आयत 65 को। कि जिस निहायत ख़तरनाक मकरूह फ़ेअल से बचने के लिए ख़ुदा-ए-तआला की तरफ़ से निहायत ख़ौफ़नाक फ़तवा उस के पाक कलाम में भी दर्ज हुए। देखो।

बक़ीया, फुट नोट किताब मुकाशफ़ात 22:10, 19 को कि जिस कामिलियत का कामिल सबूत सिर्फ यही काफ़ी हो सकता है, कि इस की ताअलीम दीगर कुल मज़ाहिब की तालीमों पर ग़ालिब है। जिसकी बहुत कुछ हक़ीक़त मज़्मून बाअज़ ख़यालात।

बक़ीया फ़ुट नोट, “मुहम्मदी पर सरसरी रिमार्क्स” मैं ज़ाहिर हो चुकी या आइन्दा ज़ाहिर हो जाएगी। जो अम्र निहायत क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि बेतास्सुब आज़माया जाये।

मौलवी रहमत अल्लाह के तर्जुमा में लिखा है। पस जब क़ब्ज़ किया तू ने। ” माने दोनों के एक ही हैं। मगर यही क़ुरआन दूसरे मुक़ाम मैं ख़ुदावन्द येसू मसीह की वफ़ात का इन्कार य है। देखो सूरह अल-निसा आयत 156, 157। जिसका ज़िक्र आइन्दा किया जाएगा।

 

[3] नोट, बैज़ावी में भी लिखा कि روح منہ ذوروح صدر منہ यानी साहब रूह है निकली है अल्लाह से।

 

[4] नोट, ये शहादत उन्ही हवारियों की है, जिनका ज़िक्र क़ुरआन की सूरह यसीन आयत 12 और सूरह ** आयत में बलक़ब रसूल और मोमिनों (ईमानदारों) के मज़्कूर है। क़ुरआन उनका मद्दाह है। और मुहम्मदी साहिबान ताज़माना हाल इन्हीं हवारियों की मदह व सना अपनी बाअज़ नमाज़ में पढ़ रहे हैं।